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ಮಾನವ ( 4
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ವಾಯು (ಡಿಜ೩ ಹರಪ್ಪ ನೇಣು
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णमो समणस्स भगवओ महावीरस्स
श्री सौधर्मबृहत्तपागच्छीय विश्वपूज्य प्रातः स्मरणीय प्रभु श्रीमद्विजय राजेन्द्रसूरीश्वर पट्टप्रभावक चर्चाचक्रवर्ती परमपूज्य आचार्यदेव श्रीमद् विजय धनचन्द्रसूरीश्वर साहित्यविशारद विद्याभूषण श्रीमद् विजय भूपेन्द्रसूरीश्वर व्याख्यानवाचस्पति श्रीमद् विजय यतीन्द्रसूरीश्वर, शान्तमूर्ति कविरत्न श्रीमद् विजय
विद्याचन्द्रसूरीश्वर गुरुभ्यो नमः सकलागम रहस्यवेदी कलिकाल सर्वज्ञकल्प-विद्वन्मान्य प्रातःस्मरणीय
प्रभु श्रीमद् विजय राजेन्द्रसूरीश्वर निर्मित श्री अभिधान राजेन्द्र कोष 卐 चतुर्थ भागः ॥
[द्वितीय संस्करण]
:- प्रकाशक :दिल शांतमूर्ति आचार्यदेव श्रीमद्विजय विद्याचन्द्रसूरीश्वर पट्टालंकार
परमपूज्य तीर्थप्रभावक साहित्यमनीषी आचार्यदेव
श्रीमद्विजय जयन्तसेनसूरीश्वरजी महाराज एवं संयमवयःस्थविर मुनिराजश्री शान्तिविजयजी महाराज
के उपदेश से - अ. भा. श्री सौधर्मबृहत्तपोगच्छीय जैन श्वेताम्बर त्रिस्तुतिक संघ
प्रदत्त द्रव्यसहाय से - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष प्रकाशन संस्था, अहमदाबाद.
2
श्री वीर संवत २५१३ प्रति : १०५० श्री राजेन्द्रसूरि संवत ७८
ईस्वी सन १९८६ मूल्य : संपूर्ण सेट (७ भागका) २५०१
(दो हजार पांचसा एक रुपये)
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प्राप्तिस्थान
श्री अभिधान राजेन्द्रकोष प्रकाशन संस्था C/o श्री राजेन्द्रसूरि जैन ज्ञान मन्दिर, रतनपोल, श्री राजेन्द्रसूरि चोक, अहमदाबाद.
मुद्रक : पं. मफतलाल झवेरचंद गांधी
नयन नि. प्रेस, का. २-६१ गांधीरोड, ढींकवावाडी, अहमदाबाद-१
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अभिधान राजेन्द्रकोषस्य रचना तु सर्वथा अपूर्वेवाऽस्ति ।
पण्डित शितिकण्ठशास्त्री श्री अभिधान राजेन्द्रकोष!
शब्दकोशोंकी परंपरा में 'अभिधानराजेन्द्र' यथार्थमें एक विशिष्ट उपलब्धि है।
श्रीमद् की जीवनसाधनाका यह अत्यंत उदाहरण है। जब इस कोषका पहिला अक्षर लिखा गया तब वे तिरसठ वर्ष के थे । ___ सात भागों में तथा दस हजार पांचसो छियासठ पृष्ठों में प्रकाशित यह कोश वस्तुतः एक विश्वकोष के समान है। जिसमें जिनागमों तथा विभिन्न दार्शनिक ग्रन्थों के उद्धरण संकलित कर विस्तृत विवेचन किया गया हैं।
- वसंतीलाल जैन ___ अभिधानराजेन्द्र कोप जैसे अतिविशाल ग्रन्थरत्नकी रचना उनके सम्यग् ज्ञानके सर्वांगी समर्पणकी साहजिक निष्पत्ति हैं। अन्यथा असंभव सा यह कार्य उनसे होता ही नहीं । अभिधानराजेन्द्र कोष सामान्य शब्दकोष नहीं हैं । किन्तु शास्त्रवचनोंकी समीचीन अभिव्यक्ति और अर्थघटनका सर्वश्रेष्ठ सहायक माध्यम है।
- रमेश आर. जवेरी
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Jain Education Interational
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सुविहितसूरिशक्रचक्रचूडामणि-कलिकालसर्वज्ञकल्प-परमयोगिराज जगत्पूज्य-गुरूदेव-प्रभुश्रीमद्-विजयराजेन्द्रसूरीश्वरजी महाराज ।
श्रीअभिधान राजेन्द्र कोषः
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दृप्तभ्रान्तविपक्षदन्तिदमने पञ्चाननग्रामणी-राजेन्द्राभिधकोशसंप्रणयनात्सन्दीप्तजैनश्रुत : । सङ्घस्योपकृतिप्रयोगकरणे नित्यं कृती तादृशः, कोऽन्यः सूरिपदाङ्कितो विजयराजेन्द्रात्परः पुण्यवान् ? ॥ १
Education International
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प्रकाशकीय निवेदन
कलिकाल सर्वज्ञकल्प, सकलागमरहस्यवेदी, विश्वपूज्य, परमयोगीन्द्र, परमकृपालु, पूज्यपाद गुरुदेव प्रभु श्रीमद् विजय राजेन्द्रसूरीश्वरजी महाराजने अपने तप, जप, एवं ज्ञान, ध्यान की आत्मोन्नतिकारिणी प्रवृत्ति में अप्रमत्त भाव से रममाण होते हुए जिन प्रवचन में निर्दिष्ट सत्य वस्तु तत्व का जीवनभर प्रचार, प्रसार किया । साथ ही अनेक ग्रन्थों का निर्माण किया-ग्रन्थ सम्पदा का सर्जन किया । एक विशाल ग्रन्थागार सम उन की जो सर्वोत्तम, और सर्वतोमुखी रचना हैं श्री अभिधान राजेन्द्र कोश ! इस अलौकिक कृति के निर्माण द्वारा श्रीमद्ने विश्व के सभी विद्वज्जनों को युगों युगों के लिये अद्भूत प्रेरणा प्रदान की है।
बीसवीं शताब्दी के संध्याकाल में इस ग्रन्थराज की प्रथम आवृत्ति श्री सौधर्म बृहत्तपोगच्छीय श्री जैन प्रभाकर प्रिन्टींग प्रेस, रतलाम (म. प्र. ) से प्रकाशित की गई थी । प्रथमावृत्ति की प्रतियां समाप्त प्रायः हो जाने के कारण यह ग्रन्थ दुर्लभ हो गया था । विश्व इस की द्वितियावृत्ति का इन्तेजार कर रहा था और हम भी इस के पुनः प्रकाशन के लिये प्रयत्नशील थे । अ. भा. श्री सौधर्म बृहत्तपोगच्छीय त्रिस्तुतिक जैन संघ का श्रीभांडवपुर तीर्थ पर विराट अधिवेशन हुआ और उस में इस प्रन्थराज के प्रकाशन का निर्णय लिया गया । तदनुसार प्रकाशन कार्य प्रारंभ हुआ ।
इस महान कार्य में परमपूज्य शान्तमूर्ति आचार्यदेव श्रीमद् विजय विद्याचन्द्रसूरीश्वरजी महाराज के पट्टप्रभावक परमपूज्य तीर्थप्रभावक साहित्यमनिपी आचार्यदेव श्रीमद् विजय जयन्तसेनसूरीश्वरजी महाराज का श्रम साध्य सहयोग हमें प्राप्त हुआ हैं ।
वर्षो के बाद पुनः एक बार इस मन्थराज का प्रकाशन हम सब के लिये परम आनन्ददायक है । इस के पुनः प्रकाशन में परमपूज्य तीर्थ प्रभावक आचार्यदेव श्रीमद् विजय जयन्तसेनसूरीश्वरजी महाराज समयःस्थविर मुनिराज श्री शान्तिविजयजी महाराज, मुनिराज श्री पुण्यविजयजी, मुनिश्री विनयविजयजी, मुनिश्री नित्यानंद विजयजी, मुनिश्री जयरत्नविजयजी मुनिश्री जयानन्दविजयजी आदि मुनि मण्डल, एवं साध्वी- मण्डल की ओर से जो सहयोग मिला है उस के लिये हम हार्दिक आभार प्रकट करते हैं : श्री सौधर्म बृहत्तपागच्छीय त्रिस्तुतिक संघ - अहमदाबाद के ट्रस्टी मण्डल का भी इस कार्य में पूर्ण सहयोग मिला है ।
इस प्रकाशन में हमें जिन जिन ग्राम नगरों के श्री संघ एवं महानुभावों का जो अनमोल आर्थिक सहयोग प्राप्त हुआ है । नियमानुसार उनका नाम निर्देश करते हुए हमें अत्यन्त आनन्द का अनुभव हो रहा है।
उन की मंगल नामावली प्रस्तुत है इस प्रकार ।
१ प्रवर्तिनी साध्वीजी गुरुणीजी प्रेमश्रीजी की शिष्या गुरुणीजी, रायश्रीजी की शिष्या साध्वीजी शिवश्रीजी को स्मृति में विदुपी साध्वीजी श्री सुन्दरश्रीजी, विदुषी साध्वीजी श्री गंभीरश्रीजी के उपदेश से श्री मालवदेशीय त्रिस्तुतिक संबंध |
२ श्री जैन श्वेताम्बर त्रिस्तुतिक संघ, चोराउ (राज.)
३ श्री महावीर जैन श्वेताम्बर पेढी, श्री भाण्डवपुर तीर्थ (राज)
४ श्री में सवाडा सिल्क मिल्स, भीवंडी (महाराष्ट्र )
५ श्री वस्तीमलजी हेमाजी, जीवाणा (राज.)
६ शाह नेमिचन्द, देवीचन्द, फूलचन्द, शुकनराज, कान्तिलाल, राजु बेटापोता श्री लखमाजी बलदरिया, कोशेलाव (राज.)
७ श्री जैन श्वेताम्बर मूर्तिपूजक ( त्रिस्तुतिक) संघ थराद (उ. गुजरात )
८ श्री सौधर्म बृहत्तपोगच्छीय त्रिस्तुतिक संघ अने थराद जैन युवक मंडल, अहमदाबाद
९ श्री सौधर्म बृहत्तपोगच्छीय त्रिस्तुतिक संघ दाधाल
१० श्री सौधर्म बृहत्तपोगच्छीय त्रिस्तुतिक संघ-सुराणा
३
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११ श्री जैन श्वेताम्बर त्रिस्तुतिक संघ - धानेरा
१२ श्री जैन श्वेताम्बर त्रिस्तुतिक संघ थराद जैन मित्रमण्डल, बम्बई ।
१३ श्री जैन श्वेताम्बर सकल संघ नेनावा (गुजरात)
१४ श्री जैन श्वेताम्बर त्रिस्तुतिक संघ, मेंगलवा (राज.)
१५ श्री जैन श्वेताम्बर त्रिस्तुतिक संघ सियाणा (राज.)
१६ श्री जैन श्वेताम्बर त्रिस्तुतिक संघ आकेली (राज.)
१७ श्री राजेन्द्रसूरि जैन ज्ञानमन्दिर, राणीस्टेशन (राज.)
१८ श्री मांगीलाल, फुटरमल, शांतिलाल, किशोरचन्द्र बेटापोता शेषमलजी खसाजी रामाणी, गुडाबालोतान् (राज.)
१९ श्री दरजमल, उकचन्द, हस्तिमल, तगराज हीराणी, रेवतड़ा (राज.)
२० श्री चेतनकुमार अशोककुमार, कन्हैयालालजी काश्यप, रतलाम (म. प्र. )
२१ श्री चीमनलाल भीखालाल लावाणी वासणवाला, धानेरा (गुजरात )
२२ शा. जेठमल, जुहारमल, लक्ष्मणराज, पृथ्वीराज, बीरचंद, गौतमचन्द, अशोककुमार, रतनलाल, गणपतराज, बेटापाता केनाजी में गलवा, (राजस्थान)
२३ श्री अमरचन्द देशमल, तिलोकचन्द्र मीठालाल ओटमल धरमाजो पटियात (धाणसा ) २४ शाह मगराज सुखराज एन्ड कं. मद्रास
२५ शाह सरेमलजी हरखचन्दजी तिलोकचन्दजी बेटापोता हांसाजी रतनपुराबोरा, मदिरा (राज.) २६ श्री राजेन्द्रसूरीश्वरजी जैन ट्रस्ट मद्रास
२७ कुंदनमल सुरेशकुमार जगदीशकुमार बेटापोता मिश्रीमल नथाजी बागरेचा, आहेर
२८ कुलराज भूरमलजी बूटा, आहार ( राजस्थान )
२९ श्री सौधर्म बृहत्तपोगच्छीय त्रिस्तुतिक संघ वाघोडा ( राजस्थान )
३० सुकनलाल नेमिचंद ब्राइट स्टेनलेस मद्रास
३१ शान्तिलाल ज्वेलर्स नेलूर
३२ लीलाबेन गोठालालजी चौधरी रांगणाद
३३ कोठारी निर्मलाबेन धर्मपत्नी कोठारी सागरमलजी 'गलालजी छोटी सादडी
३४ श्री अखिलभारतीय त्रिस्तुतिक जैन संघ इन्दौर
३५ श्री जेठमलजी सरेमलजी भीनमाल
३६ श्री सोहनराज डुंगरजी भीनमाल
३७ श्री भांडवपुर मोहनखेडा तीर्थ छ रोपालक संघ समिति
३८ संघवी गगलदास हालचंदभाई और संघवी भीखालाल मणोलाल अहमदाबाद
इन के अतिरक्त गाँव नगरों के महानुभावाने लाभ लिया है उन के नाम हैं.
भीनमाल, जोधपुर में गलवा, सायला, सुराणा, मद्रास, नल्लौर, विजयवाडा, मांडवला, धाणसा, आहेर, सवाडा, सुरा, सियाणा, कोमता, सुराणा, दाधाल, रेवतडा, उनडी, पांथेडी, बम्बई. सुमेरपुर, सांचोर, तखतगढ कोशेलाव, थरराद, अहमदाबाद. लेोवाणा, दूधवा, आणंद, वासणा, डीसा, लाखणी, बामी, धानेरा, कलाल. झाबुआ, टांडा, पारा, रिंगणेोद, (धार)
प्रकाशन हो रहा है, यह
इस प्रकार गुरु कृपा से एवं पू. आचार्यश्री के सतत प्रयत्न से यह प्रसन्नता का विषय है, शुभम् । निवेदक
श्री राजेन्द्रसूरि जैन ज्ञानमन्दिर रतनपोल, श्री राजेन्द्रसूरि चौक पो. अहमदाबाद
२०४२ पोप सुद ७ (गुरुसप्तमी)
श्री अभिधान राजेन्द्र के प्रकाशन संस्था
अहमदाबाद
For Private
Personal Use Only
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द्वितीयावृत्ति
प्रस्तावना
अनादि से प्रवहमान है श्री वीतराग परमात्मा का परम पावन शासन ! अनादि मिध्यात्व से मुक्त हो कर आत्मा जब सम्यक्त्व गुण प्राप्त करता है, तप आत्मिक उत्कान्ति का शुभारंभ होता है । सम्यग्दर्शन की उपलब्धि के पश्चात् हो सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र का क्रम आत्मा में परिलक्षित होता है ।
मतिज्ञान एवं श्रुतज्ञान दोनों ही इन्द्रिय तथा मन से प्राह्य हैं, में होता है परन्तु अवधिज्ञान, मनः पर्यवज्ञान एवं केवलज्ञान आत्म ज्ञान में समाविष्ट हैं।
सम्यक्त्व का सूर्योदय होते ही मिध्यात्व का घना अन्धेरा दूर हो जाता है और आत्मा संपूर्णता की ओर गतिमान होता है । यही सम्यक्त्व आत्मा को परोक्ष ज्ञान से प्रत्यक्ष ज्ञान की ओर अग्रसर करता है । प्रत्यक्ष ज्ञान की उपलब्धि के लिए यह आवश्यक है कि आत्मा लौकिक भावों से अलग हो कर लेोकान्तर भावों की चिन्तनधारा में स्वयं को हवा दे । "जिन खोजा तिन पाइयाँ गहरे पानी पठा । '
अतः इनका समावेश पक्षिज्ञान अतः वे ज्ञान प्रत्यक्ष
प्राह्य है
संसार परिभ्रमण को प्रमुख कारण है आखा और बन्ध दुःख से मुक्ति के लिए इनको दूर करना आवश्यक है तथा इसके साथ ही संवर और निर्जरा भी आवश्यक है । बन्धन सहज है, पर यदि उसके कारण भाव एवं कारण स्थिति से स्वयं को अलग रखा जाये तो अवश्य ही हम निर्बन्ध अथवा अनयन्धक अवस्था को प्राप्त कर सकते हैं ।
आत्मा के साथ ही लगा रहता मिट्टी सुवर्ण की मलिनता है और
जिनागम में अध्यात्म समाया हुआ है। सहज स्थिति की कामना करनेवालों को चाहिये कि वे जिनवाणी का श्रवण, अध्ययन, चिन्तन, अनुशीलन आदि करते रहे । कर्म और आत्मा का अनादि से घना रिश्ता है; अतः कर्म है जैसे खान में रहे हुए मेने के साथ मिट्टी लगी हुई होती है कर्म आत्मा की प्रयोग के द्वारा मिट्टी सुवर्ण से अलग की जा सकती है। जब देनों अलग अलग होते हैं तब मिट्टी मिट्टी रूप में और सुवर्ण सुवर्ण के रूप में प्रकट होता है। मिट्टी को कोई सुवर्ण नहीं कहता और न ही सुवर्ण को कोई मिट्टी कहता है । ठीक उसी प्रकार सम्यग्दर्शन प्राप्त आत्मा सम्यग्ज्ञान के उज्ज्वल आलोक में सम्यक् चारित्र के प्रयोग द्वारा अपने पर से कर्म रज पूरी तरह झटक देती है और अपनी मलिनता दूर करके पता प्रकट कर देती है।
।
कर्म की आठ प्रकृतियाँ अपने अपने स्वभावानुसार सांसारिक प्रवृत्तियों में रममाण आत्मा का कर्म भुगतान के लिए प्रेरित करती रहती हैं । जिन्हें स्वयं का ख्याल नहीं है और जो असमंजस स्थिति में हैं; ऐसे संसारी जीवों का ये कर्म प्रकृतियाँ विभाव परिणमन करा लेती हैं
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ज्ञानावरणीय कर्म आँखां पर रही हुई पट्टी के समान है। नजर चाहे जितनी सूक्ष्म हो, पर यदि आंखों पर कपडे की पट्टी लगी हो, तो कुछ भी दिखाई नहीं देता; ठीक इसी प्रकार आत्मा की निर्मल ज्ञानदृष्टि को ज्ञानवरणीय कर्म आवृत्त कर लेता है । इससे ज्ञानदृष्टि पर आवरण छा जाता है। यह कर्म जीव को उल्टी चाल चलाता है।
दर्शनावरणीय कर्म राजा के पहरेनगर के समान है। जिस प्रकार पहरेदार दर्शनार्थी को गजदर्शन से वचित रखता है, उसे महल में प्रवेश करने से रोकता है; उसी प्रकार दर्शनावरणीय कर्म जीव को आत्मदर्शन से वंचित रखता है । यह जीव को प्रमत्त भाव में आकण्ठ डुबो देता है। अतः जीव अप्रमत्त भाव से सर्वथा दूर रह जाता है। यह जीव के आत्मदर्शन के राजमार्ग को अवरुद्ध कर देता है और जीव को उन्मार्गगामी बनाता है ।
मधुलिप्त असि धार के समान है वेदनीय कर्म । यह जीव को क्षणभंगुर सुख का लालची बना कर उसे अनन्त दुःख समुद्र में धकेल देता है । साता का वेदन तो यह अत्यल्प करवाता है, पर असाता का वेदन यह अत्यधिक करवाता है। शहद लगी तलवार की धार को चाटनेवाला शहद की मधुरता तो पाता है और सुख का अनुभव भी करता है; पर जीभ कट जाते ही असह्य दुःख का अनुभव भी उसे करना पड़ता है। इस प्रकार वेदनीय कर्म सुख के साथ अपार दुख का भी वेदन कराता है।
राहनीय कर्म मदिरा के समान है। मदिरा प्राशन करनेवाला मनुष्य अपने होश-हवास खा बैठता है। इसी प्रकार मोहनीय कर्म से प्रभावित जीव अपने आत्म-स्वरुप को भूल जाता है और पर पार्थो को आत्म स्वरुप मान लेता है। यही एकमेव कारण है उसके ससार परिभ्रमण का। मोह महामद पियो अनादि, भूलि आपकु भरमत बादि ।' यह जीव के सम्यग्दर्शन और सम्यक चारित्र के मार्ग में रुकावट डालता है।
जो मनुष्य इस मोहनीय कर्म के स्वरूप से अनभिज्ञ रहता है और जो इसकी स्थिति का अनुभव नहीं करता; वह अपने जीवन में आत्म विकास से वंचित रह जाता है । अहंकार और ममकार जब तक हममें विद्यमान हैं। तब तक हम मेाहनीय कर्म के बन्धन में जकडे हुए ही हैं । अहंकार और ममकार जितना जितना घटता जाता है; उतना ही मोहनीय कर्म का बन्धन शिथिल होता जाता है ।
मोहनीय कर्म समस्त कर्मसत्ता का अधिपति है और सबसे लम्बी उम्र वाला है। इस मोहराजा के निर्देशन में ही कर्म सेना आगेकूच करती है । जीव को भेदविज्ञान से वचित रखनेवाला यही कर्म है । इसने ही जीव का संसार की भूलभुलैया में अटकाये रखा है।
और बेडी के समान है आयुष्य कर्म । इसने जीव को शरीर रूपी बेडी लगा दी है; जो अनादि से आज तक चली आ रही है । एक बेडी टूटती है, तो दूमरी पुनः तुरन्त लग जाती है । सजा की अवधि यू" हुप बिना कैदी मुक्त नहीं होता; इसी प्रकार जब तक जीन को जन्म जन्म को कैद की अवधि पूरी नहीं होती; तब तक जीव मुक्ति की मौज नहीं पा सकता ।
नाम कर्म का स्वभाव है चित्रकार के समान । चित्रकार नाना प्रकार के चित्र पट पर अंकित करता है; ठीक इसी प्रकार नाम कर्म चतुर्गति में भ्रमण करने विविध जीवों को भिन्न भिन्न नाम प्रदान करता है । इसके प्रभाव से जीव इस संसार पट पर नाना प्रकार के नाम धारण करके देव, मनुष्य तिथंच और नरक गति में भ्रमण करता है।
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गोत्र कर्म का स्वभाव कुम्हार के समान है । कुम्हार अनेक प्रकार के छोटे बड़े और उन्हें विभिन्न आकार प्रदान करता है। गोत्र कर्म भी जीव को उच्च और करता है, जिससे जीव को उच्च या नीच गोत्र में जन्म धारण करना पडता हैं ।
इसी प्रकार अन्तराय कर्म है-राजा के खजांची के समान खजाने में माल तो बहुत होता है, पर कुली खजांची के हाथ में होती है अतः खजाने में से याचक कुछ भी प्राप्त नहीं कर सकता | यही कार्य अन्तराय कर्म करता हैं । इसके प्रभाव से जीव को इच्छित वस्तु उपलब्ध नहीं हो पाती । दान, लाभ, भोग, उपभोग और वीर्य ( आत्मशकि ) के विषय में अन्तराय कर्म के उदय से जोब किसी प्रकार का लाभ प्राप्त नहीं कर सकता । संक्षेप में यह है जैन दर्शन का कर्मवाद |
बर्तन बनाता है नीच गोत्र प्रदान
"
इसी प्रकार जिनागमों में आत्मवाद, अनेकान्तबाद. पदद्रव्य, नवतत्व मोक्ष मार्ग आदि अनेक ऐसे विषयों का समावेश है; जो जीव के आत्म विकास में परम सहायक हैं । द्वादशांगी जिनवाणी का विस्तार है। आत्म कल्याण की कामना करनेवालों के लिए द्वादशांगी का गहन अध्ययन अत्यन्त आवश्यक है
I
संसारस्थ प्रत्येक जीव को स्वस्वरूप अर्थात ईश्वरत्व प्राप्त करने का अधिकार केवल जैन धर्म दर्शन ही देता है, अन्य कोई नहीं । ' सर्व धर्मान् परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज ।', 'बुद्धं शरणं गच्छामि...... धम्मं सरणं गच्छामि । ' और 'केवलिपण्णत्तं धम्मं सरणं पव्वज्जामि । इन तीनों पक्षों के सूक्ष्म एवं गहन अध्ययन से यही निष्कर्ष निकलता है कि अन्तिम पक्ष जीव के लिए केवलीप्रणीत धर्म के दरवाजे खुले रखता है। इस धर्म में प्रवेश करके जीव स्वयं अनन्न ऐश्वर्यवान केवलज्ञान सम्पन्न बन जाता है । जीव जाता है। जीव अपने पुरुषार्थ के थल पर परमात्म पद प्राप्त कर सकता है। अन्य समस्त धर्म दर्शनों में जीव को परमात्मप्राप्ति के बाद भी परमात्मा से हीन माना गया है; जब कि जैनधर्मदर्शन में परमात्म पद प्राप्ति के पश्चात् जीव को परमात्म स्वरुप ही माना गया है । धर्म की अपनी अलग विशेषता है ।
यह जैन
परमज्ञानी परमात्मा की पावन वाणी जीव की इस अनुपम एवं असाधारण स्थिति का स्पष्ट बोध कराती है। प्रमाण, नय, निक्षेप, सप्तभंगी एवं स्यादवाद शैली से संवृत्त जिनवाणीमय जिनागमे। के गहन अध्ययन के लिए विभिन्न सन्दर्भ प्रन्थों का अनुशीलन अत्यन्त आवश्यक है ।
आज से सौ साल पूर्व उचित साधनों के अभाव में जिनागमों का अध्ययन अत्यन्त दुष्कर था । विश्व के विद्वान जिनागम की एक ऐसी कुञ्जी तलाश रहे थे; जो सारे रहस्य खोल दे और उनकी ज्ञानपिपासा बुझा सके ।
ऐसे समय में एक तिरसठ वर्षीय पयेोवृद्ध त्यागवृद्ध वृद्ध एवं ज्ञानवृद्ध दिव्य पुरुष ने यह काम अपने हाथ में लिया। वे दिव्य पुरुष थे उत्कृष्ट चारित्र क्रिया पालक गुरुदेवप्रभु श्रीमद् विजय राजेन्द्रसूरीश्वरजी महाराज उन्होंन जिनागम की कुञ्जी निर्माण करने का जटिल कार्य सियाणा नगरस्थ भी सुविधिनाथ जिनालय की छत्र छाया में अपने हाथ में लिया। कुजनिर्माण की यह प्रक्रिया पूरे चौदह वर्ष तक चलती रही और सूरत में कुञ्जी बन कर तैयार हो गयी। वह कुञ्जी है- 'अभिधान राजेन्द्र ' । यह कहना जरा भी अतिशयोक्तिपूर्ण नहीं होगा कि आगमों का अध्ययन करते वक्त ' अभिधान राजेन्द्र ' पास में है। तो और कोई प्रन्थ पास में रखने की कोई आवश्यकता नहीं है। जैनागमों में निर्दिष्ट
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वस्तुतत्त्व जो 'अभिधान राजेन्द्र' में है, वह अन्यत्र हो या न हो; पर जो नहीं हैं; वह कहीं नहीं है। यह महान ग्रन्थ जिज्ञासु की तमाम जिज्ञासाएँ पूर्ण करता है ।
भारतीय संस्कृति में इतिहास पूर्व काल से कोश साहित्य की परंपरा आज तक चली आ रही है । निधटु कोश में वेद की संहिताओं का अर्थ स्पष्ट करने का प्रयत्न किया गया है। 'यास्क' की रचना 'निरुक्त' में और पाणिनी के 'अष्टाध्यायी' में भी विशाल शब्दस ंग्रह दृष्टिगोचर होता है। शब्दसंग्रह ये सब काश गद्य लेखन में हैं ।
इसके पश्चात् प्रारंभ हुआ पद्य रचनाकाल । जेा केाश पद्य में रचे गये, वे दो प्रकार से रचे गये । एक प्रकार है, एकार्थक काश और दूसरा प्रकार है - अनेकार्थक काश !
कात्यायन की ' नाममाला', वाचस्पति का ' शब्दार्णव', विक्रमादित्य का ' शब्दार्णव ' भागुरी का ' त्रिकाण्ड' और धन्वन्तरी का निघण्टुः इनमें से कुछ प्राप्य हैं और कुछ अप्राप्य । उपलब्ध केशों में अमरसिह का 'अमरकोश' बहु प्रचलित है।
धनपाल का ' पाइय लच्छी नाम माला २७९ गाथात्मक है और एकार्थक शब्दों का बोध कराता है। इसमें ९९८ शब्दों के प्राकृत रूप प्रस्तुत किये गये हैं। आचार्य श्री हेमचन्द्रसूरिजीने पाइयच्छो नाम माळा' पर प्रामाणिकता की मुहर लगाई है।
"
धनजयने ' धनन्जय नाम माला' में शब्दान्तर करने की एक विशिष्ट पद्धति प्रस्तुत की है। 'घर' शब्द के योग से पृथ्वी वाचक शब्द पर्वत वाचक वन जाते हैं-जैसे भूधर, कुधर, इत्यादि । इस पद्धति से अनेक नये शब्दों निर्माण होता है।
इसी प्रकार धनञ्जयने ' अनेकार्थ नाममाला' की रचना भी की है । कलिकाल सर्वज्ञ श्री हेमचन्द्राचार्य के ' अभिधान चिन्तामणि ', 'पद' और 'देशी नाममाला आदि कोश प्रन्थ सुप्रसिद्ध है ।
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इसके अलावा 'शिलांछ कोश', नाम कोश', शब्द 'चन्द्रिका', 'सुन्दर प्रकाश शब्दार्णव', 'शब्दभेद नाममाला', 'नाम सप्रद', 'शारदीय नाममाला', 'शब्द रत्नाकर', 'अव्ययकाक्षर नाममाला', 'शेष नाममाला', 'शब्द सन्दोह संग्रह ', ' शब्द रान प्रदीप', शब्द रत्न प्रदीप', 'विश्वलेोचन कोश', 'नानार्थ कोश', 'पंचवर्ग सग्रह नाम माला', .' अपवर्ग नाम माला', 'एकाक्षरी - नानार्थ कोश', एकाक्षर नाममालिका', 'एकाक्षर कोश', एकाक्षर नाममाला', 'द्वयक्षर कोश', 'देश्य निर्देश निघण्टु', 6 पाइय समद्दण्णव, 'अर्धमागधी डिक्शनरी', 'जैनागम कोश', 'अल्पपरिचित सैद्धान्तिक कोश', जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश' इत्यादि अनेक काश पन्थ भाषा के अध्ययनार्थ रचे गये हैं ।
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अनेकार्थ संग्रह', 'निघण्टु
अलग
इनमें से कई काश ग्रन्थ 'अभिधान राजेन्द्र' के पूर्व प्रकाशित 'अभिधान राजेन्द्र के पूर्व प्रकाशित हुए हैं और कुछ पश्चात् भी । अभिधान राजेन्द्र' की अपनी विशेषता है। इसी विशेषता के कारण यह आज भी समस्त काश ग्रन्थों का सिरमौर बना हुआ है सच तो यह है कि जिस प्रकार सूर्य को दिया दिखाने की आवश्यकता नहीं होती; उसी प्रकार इस महा ग्रन्थ को प्रमाणित करने की आवश्यकता नहीं है। सूर्य स्वयमेव प्रकाशित है और यह ग्रन्थराज भी स्वयमेव प्रमाणित है। फिर भी इसकी कुछ विशेषताए प्रस्तुत
।
करना अप्रासंगिक तो नहीं होगा।
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श्रीमद्विजयराजेन्द्रसूरीश्वरपट्प्रभाकर-चर्चाचक्रवर्ति-आगमरहस्यवेदी-श्रुतस्थविरमान्य
श्रीसौधर्मबृहत्तपोगच्छीय-श्रीमद्विजयधनचन्द्रसूरिजी महाराज।
तालारमशमी विद्वच्चकोरजनमोदकरं प्रसन्न, शुभ्रव्रतं सुकविकैरवसद्विलासम् । हृद्ध्वान्तनाशकरणे प्रसरत्प्रतापं, वन्दे कलानिधिसमं धनचन्द्रसूरिम् ॥१॥
For Prvale & Personal Use Only
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'अभिधान राजेन्द्र' अर्धमागधी प्राकृत भाषा का कोश है । भगवान महावीर के समय में प्राकृत लोक भाषा थी । उन्होंने इसी भाषा में आम आदमो को धर्म का मर्म समझाया । यही कारण है कि जैन आगम को रचना अर्धमागधी प्राकृत में की गई है। इस महाकाश में श्रीमद् ने प्राकृत शब्दों का मर्म 'अ' कारादि क्रम से समझाया है; यह इस महाग्रन्थ की वैज्ञानिकता है। उन्होंने मूल प्राकृत शब्द का अथ स्पष्ट करते वक्त उसका संस्कृत रुप, लिंग, व्युत्पत्ति का ज्ञान कराया है। इसके अलावा उस शब्द के तमाम अर्थ सन्दर्भ सहित प्रस्तुत किये हैं।
वैज्ञानिकता के अलावा इसमें व्यापकता भी है जैनधर्म-दर्शन का कोई भी विषय इससे अछूता नहीं रह गया है। इसमें तथ्य प्रमाण सहित प्रस्तुत किये गये हैं। इसमें स्यादुवाद, ईश्वरवाद सप्तनय, सप्तभंगी, षड्दर्शन, नवतत्त्व, अनुयोग, तीर्थ परिचय आदि समस्त विषयों की सप्रमाण जानकारी है । सत्तानवे सन्दर्भ ग्रन्थ इसमें समाविष्ट हैं।
वैज्ञानिक और व्यापक होने के साथ साथ यह सुविशाल भी है। सात भागों में विभक्त यह विश्वकोश लगभग दस हजार रोयल पेजी पृष्ठों में विस्तारित है। इसमें धर्म-सकृति से संबधित लगभग साठ हजार शब्द सार्थ व्याख्यायित हुए हैं । उनको पुष्ट-सप्रमाण व्याख्या के लिए इसमें चार लाख से भी अधिक लोक उद्धत किये गये हैं। इसके सातों भागों को यदि कोई सामान्य मनुष्य एक साथ उठाना चाहे; तो उठाने के पहले उसे कुछ विचार अवश्य ही करना पडेगा ।
इस महाप्रन्थ के प्रारंभिक लेखन की भी अपनी अलग कहानी है । जिस जमाने में यह महा ग्रन्थ लिखा गया; उस समय लेखन साहित्य का पूर्ण विकास नहीं हुआ था । श्रीमद् गुरुदेव ने गत के समय लेखन कभी नहीं किया। कहते हैं, वे कपड़े का एक छोटा सा टुकडा स्याही से तर कर देते थे और उसमें कलम गीली करके लिखते थे । एक स्थान पर बैठ कर उन्होंने कभी नहीं लिखा । चातुर्मास काल के अलावा वे संदेव विहार-रत रहे । मालवा, मारवाड, गुजरात के प्रदेशों में उन्होंने दोघ विहार किये, प्रतिष्ठा-अंजनशलाका, उपधान. संघप्रयाण आदि अनेक धार्मिक व सामाजिक कार्य संपन्न किये; जिज्ञासुओं की शंकाओं का समाधान किया और प्रतिपक्षियों द्वारा प्रदत्त मानसिक सन्ताप भी सहन किये । साथ साथ ध्यान और तपश्चर्या भी चलती रही । एसी विषम परिस्थिति में केवल चौदह वर्ष में एक व्यक्ति द्वारा इस 'जैन विश्वकोश' का निर्माण हुआ; यह एक महान आश्चर्य है । इस महाप्रन्थ के प्रणयन ने उन्हें विश्ववपुरुष की श्रेणी में प्रतिष्ठित कर दिया है और विश्वपूज्यता प्रदान की है।
श्रीमद् विजय यशोदेवसूरिजी महाराज 'अभिधान राजेन्द्र' और इसके कर्ता के प्रति अपना भावोल्लास प्रकट करते हुए लिखते हैं-आज भी यह ( अभिधान राजेन्द्र) मेरा निकटतम सहचर है । माधनों के अभाव के जमाने में यह जो महान कार्य सम्पन्न हुआ है। इसका अवलोकन करके मेरा मन आश्चर्य के भावों से भर जाता है और मेरा मस्तक इसके कर्ता के इस भगीरथ पुण्य पुरुषार्थ के आगे झुक जाता है। मेरे मन में उनके प्रति सन्मान का भाव उत्पन्न होता है; क्योंकि इस प्रकार के (महा) कोश को रचना करने का आद्य विचार केवल उन्हें ही उत्पन्न हुआ और उस विकट समय में अपने विचार पर उन्होंने अमल भी किया । यदि कोई मुझसे यह पूछे कि जैन साहित्य के क्षेत्र में बीसवीं सदी की असाधारण घटना कौनसी है; तो मेरा संकेत इस कोश की ओर ही होगा, जो बड़ा कष्ट साध्य एवं अर्थसाध्य है।
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प्रस्तुत बृहद् विश्वकोश को पुनः प्रकाशित करने को हलचल और हमारा दक्षिण विहार दोनों एक साथ प्रारम्भ हुए। बबई चातुर्मास में हमारा अनेक मुनिजनों और विद्वानों से साक्षात्कार हुआ । जा भी मिला, उसने यही कहा कि 'अभिधान राजेन्द्र' जो कि दुर्लभ हो गया है, उसे पुनः प्रकाशित करके सर्वजन सुलभ किया जाये। हमें यह भी सुनना पड़ा कि यदि आपके समाज के पाम वर्तमान में इसके प्रकाशन की कोई योजना न हो; तो हमें इसके प्रकाशन का अधिकार दीजिये । हमने उन्हें आश्वस्त करते हुए कहा कि त्रिस्तुतिक जैन संघ इस मामले में सम्पन्न एवं समर्थ है ! — अभिधान राजेन्द्र' यथावसर शीघ्र प्रकाशित होगा।
श्रीमद् पूज्य गुरुदेव की यह महती कृपा हुई कि हम क्रमशः विहार करते हुए मद्रास पहुँच गये । तामिलनाडु राज्य की राजधानी है यह मद्रास । दक्षिण में वसे हुए दूर दूर के हजारों श्रद्धालुओं ने इस चातुर्मास में मद्रास की यात्रा की। मद्रास चातुर्मास आज भी हमारे लिए स्मरणीय है। चातुर्मास समाप्ति के पश्चात् पोष सुदी सप्तमी के दिन मद्रास में गुरु सप्तमी उत्सव मनाया गया। गुरु सप्तमो प्रातःस्मरणीय पूज्य गुरुदेव श्री राजेन्द्रसूरीश्वरजी महाराज माहब का जन्म और स्मृति दिन है । गुरु सप्तमी के पावन अवसर पर एक विद्वद् गोष्ठी का आयोजन किया गया। उपस्थित विद्वानों ने अपने प्रवचन में पूज्य गुरुदेवश्री के महान कार्यों की प्रशस्ति करते दुए उनकी समीचीनता प्रकट की और प्रशस्ति में • अभिधान राजेन्द्र' का उचित मूल्याङ्कन करते हुए इसके पुनमुद्रण की आवश्यकता पर जोर दिया।
इस ग्रन्थराज का प्रकाशन एक भगीरथ कार्य है। इस महत्त्वपूर्ण कार्य का बीड़ा उठाने का आह्वान मैने मद्रास संघ को किया । आह्वान होते ही सघ हिमाचल से गुरुभक्ति गंगा उमड़ पड़ी। इस महत्कार्य के लिए भरपूर सहयोग का हमें आश्वासन प्राप्त हुआ । ग्रन्थ की छपाई गतिमान हुई; पर 'श्रेयांसि बहुविध्नानि' की उक्ति के अनुसार हमे यह पुनीत कार्य स्थगित करना पड़ा। कोई ऐसा अवरोध इसके प्रकाशन मार्ग में उपस्थित हो गया कि उसे दूर करना आसान नहीं था। प्रकाशन की स्थगिति सबके लिए दुःखद थी; पर मैं मजबूर था। आंतरिक विरोध को जन्म दे कर कार्य करना मुझे पसन्द नहीं है।
हमारी इस मजबूरी से नाजायज लाभ उठाया-दिल्ली की प्रकाशन संस्थाओंने ...................
.......... | उन्होंने इस पुनीत ग्रन्थ को शुद्ध व्यवसायिक दृष्टि से चुपचाप प्रकाशित कर दिया । श्रीमद् ने जो भी लिखा, स्वान्तःसुखाय और सर्वजन हिताय लिखा; व्यवसायियों के लिये नहीं । यही कारण है कि इसकी प्रथम आवृत्ति में यह स्पष्ट कर दिया गया कि • इसके पुनःप्रकाशन का अधिकार त्रिस्तुतिक सकल संघ को है ।' त्रिस्तुतिक समाज की इस अनमोल धरोहर को प्रकाशित करने से पहले त्रिस्तुतिक समाज को इसके प्रकाशन से आगाह करना आवश्यक था । ऐसा न करके इसके अन्य प्रकाशकों ने एक तरह से नैतिकता का भंग ही किया है।
श्री भाण्डवपुर तीर्थ पर अखिल भारतीय श्रीसौधर्मबृहत्तपोगच्छीय श्रीजैन श्वेताम्बर त्रिस्तुतिक संघ का विराट अधिवेशन सम्पन्न हुआ। देश के कोने कोने से गुरुभक्त उस अधिवेशन के लिए अस्थित हुए। पावनपुण्यस्थल श्री भाण्डवपुर भक्तजनों के भक्तिभाव की स्वर लहरियों से गूंज उठा।
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अधिवेशन प्रारम्भ हुआ । संयमयःस्थविर मुनिप्रवर श्री शान्तिविजयजी महाराज साहब आदि मुनि मण्डल की सान्निध्यता में मैंने संघ के ममक्ष विश्व को असाधारण कृति इस 'अभिधान राजेन्द्र' के पुनःप्रकाशन का प्रस्ताव रखा । श्री संघने हार्दिक प्रसन्नता व अपूर्व भावोल्लास के साथ मेरा प्रस्ताव स्वीकार किया और उसी जाजम पर श्रीसंघ ने इसे प्रकाशित करने की घोषणा कर दी। परमकृपालु श्रीमद् गुरुदेव के प्रति श्री संघ की यह अनन्य असाधारण भक्ति सराहनीय है।
और आज अखिल भारतीय श्री सौधर्म बृहत्तपोगच्छीय श्री जैन श्वेताम्बर त्रिस्तुतिक संघ के द्वारा यह कोश पन्थ पुनमुद्रित हो कर विद्वज्जनों के समक्ष प्रस्तुत हो रहा है। यह हम सब के लिए परम आनन्द का विषय है ।
इस महाग्रन्थ के पुनर्मुद्रण हेतु एक समिति का गठन किया गया है। फिर भी इस प्रकाशन में अपना अमूल्य योगदान देनेवाले श्रेष्ठिवर्य संघवी श्री गगलभाई अध्यक्ष अ. भा. सौ. बृ. त्रिस्तुतिक संघ गुजरात विभागीय अध्यक्ष श्री हीराभाई, मत्री श्री हिम्मतभाई एवं स्थानीय समस्त कार्यकर्ताओं की सेवाओं को कभी भी भुलाया नहीं जा सकता। इनकी सेवाएं सदा स्मरणीय हैं।
इस कार्य में हमें पंडित श्री मफतलाल झवेरचन्द का स्मरणीय योगदान मिला है। प्रेसकार्य, प्रकरीडिंग एवं प्रकाशन में हमें उनसे अनमोल सहायता मिली है। हम उन्हें नहीं भूल सकते ।
त्रिस्तुतिक संघ के समस्त गुरुभक्तों ने इस प्रकाशन हेतु जो गुरुभक्ति प्रदर्शित की है, वह इतिहास में अमर हो गयी हैं। वे सब धन्यवाद के पात्र हैं, जिन्होंने इस कार्य में भाग लिया है । शुभम् ।
नेनावा (बनासकांठा) दिनांक २-१२-८५
आचार्य जयन्तसेनसूरि
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न श्री सौधर्म बृहत्तपागचीय पट्टावली.
~*easश्रीमहावीरस्वामीशासननायक | २५ श्रीनरसिंहमूरि ५. श्रीसोमसुन्दरसूरि १ श्रीसुधर्मास्वामी २६ श्रीसमुद्रसूरि
५१ श्रीमुनिसुन्दरसूरि २ श्रीजम्बूस्वामी २७ श्रीमानदेवसरि
५२ श्रीरत्नशेखरसूरि ३ श्रीप्रनवस्वामी
२८ श्रीविवुधप्रभसूरि ५३ श्रीलक्ष्मीसागरसूरि . श्रीसय्यंभवस्वामी २६ श्रीजयानन्दसूरि
५४ श्रीसुमतिसाधुसूरि ५ श्रीयशोमवसूरि ३. श्रीरविप्रनसूरि
५५ श्रीहेमविमलसूरि . श्रीसंभूतविजयजी ३१ श्रीयशोदेवसूरि श्रीनप्रबाहुस्वामी
५६ श्रीआनन्दविमलसरि ३२ श्रीप्रद्युम्नसूरि ७ श्रीस्थूलभषस्वामी
५७ श्रीविजयदानसूरि ३३ श्रीमानदेवसूरि श्रीआर्यसुहस्तीसूरि ३४ श्रीविमलचन्प्रसूरि
५८ श्रीहीरविजयसूरि ८ श्रीपार्यमहागिरि ३५ श्रीसद्योतनसूरि
५६ श्रीविजयसेनसूरि श्रीसुस्थितसरि श्रीसुप्रतिबद्धमूरि ३६ श्रीसर्वदेवसूरि
...(श्रीविजयदेवसूरि । ३७ श्रीदेवसूरि
श्रीविजयसिंहमूरि १. श्रीइन्वदिन्नसूरि ३८ श्रीसर्वदेवसूरि
६१ श्रीविजयप्रभसूरि ११ श्रीदिन्नसूरि
.. श्रीयशोभद्रसूरि ६२ श्रीविजयरत्नसूरि १२ श्रीसिंहगिरिसूरि
२ श्रीनेमिचन्मसूरि ६३ श्रीविजयक्षमासूरि १३ श्रीवज्रस्वामीजी
४. श्रीमुनिचन्मसूरि १४ श्रीवज्रसेनसूरिजी
६४ श्रीविजयदेवेन्मसूरि ४१ श्रीअजितदेवसूरि १५ श्रीचन्द्रसूरिजी
६५ श्रीविजयकल्याणसूरि ४२ श्रीविजयसिंहसूरि १६ श्रीसामन्तनमसूरि
६६ श्रीविजयप्रमोदसूरि ..श्रीसोमप्रनसूरि १७ श्रीवृद्धदेवसूरि ४३ श्रीमणिरत्नसूरि
६७ श्रीविजयराजेन्द्रसूरि १८ श्रीप्रद्योतनसूरि ४४ श्रीजगच्चन्प्रसूरि ६८. श्री विजयधनचन्द्रस्ि १६ श्रीमानदेवसरि
श्रीदेवेन्यसूरि
६६ श्री विजयभूपेन्द्ररि २० श्रीमानतुङ्गसूरि ४५ श्रीविद्यानन्दसूरि
७० श्री विजययतीन्द्रसूरि २१ श्रीवीरसूरि
४६ श्रीधर्मघोषसूरि २२ श्रीजयदेवसूरि ४७ श्रीसोमप्रभसूरि
७१ श्री विजयविद्याचन्द्रसूरि २३ श्रीदेवामन्दसूरि ४८ श्रीसोमतिबकसूरि
७२ वर्तमानाचार्य २४ श्रीविक्रमसूरि ४६ श्रीदेवसुन्दरसूरि
श्री विजयजयन्तसेनसूरि
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राजकाधक
ALLO
पशु भीमद् विजय
रायाजी महार
फीसद किंारा प्रसादसूरीश्वरजी महमान
उपाध्याय मोहनविजयजी महाराज
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श्रीमद विवासस्पेन्दkail ASHI
विजय यतीतसूरीश्वरजी महाराज
उपाध्याय मुलायजी महाराज
विजय विधातहरीral HERE
गाद् विजय जय
महाराज
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आभार प्रदर्शनम् ।
सुविदितसूरिकुल तिलकायमान- सकस जैनागमपारहश्व- श्राबालब्रह्मचा- जङ्गमयुगप्रधान - प्रातःस्मरणीय - परमयोगिराज - क्रियाशुद्ध युपकारक - श्री सौधर्म बृहत्तपोगच्छीय - सितपटाचार्य - जगत्पूज्य गुरुदेव - जट्टारक श्री १००८ प्रभु श्रीमद्विजय राजेन्द्रसूरीश्वरजी महाराजने 'श्रीश्रनिधानराजेन्द्र' प्राकृतमागधी महाकोश का सङ्कलनकार्य मरुधर देशीय श्री सियाणा नगर में संवत् १९४६ के आश्विन शुक्ल द्वितीया दिन शुभ लग्न में यारम्भ किया। इस महान् संकलन कार्य में समय समय पर कोशकर्त्ता के मुख्य पट्टधर शिष्यश्रीमद्धनचन्द्रसूरिजी महाराजने भी आपको बहुत सहायता दी। इस प्रकार करीब साढ़ चौद वर्ष के विश्रान्त परिश्रम के फलस्वरूप में यह प्राकृत बृहत्कोष संवत् २०६० चैत्र शुक्ला १३ बुधवार के दिन श्रीसूर्यपुर ( सूरत - गुजरात ) में बनकर परिपूर्ण ( तैयार ) हुआ ।
हुए
गवालियर - रियासत के राजगढ (मालवा) में गुरु निर्वाणोत्सव के दरमियान संवत् १९६३ पौष - शुक्ला १३ के दिन महातपस्त्री-मुनिश्री रूपविजयजी, मुनिश्री दीप विजयजी, मुनिश्री यतीन्द्रविजयजी, आदि सुयोग्य मुनिमहाराजाओं की अध्यक्षता में मालवदेशीय-छोटे बड़े ग्राम-नगरों के प्रतिष्ठित - सद्गृहस्थों की सामाजिक- मिटिंग में सर्वानुमत से यह प्रस्ताव पास हुआ कि - महुम- गुरुदेव के निर्माण किये 'अ निधान राजेन्द्र' प्राकृत मागधी महा-कोश का जैन और जैनेतर समानरूप से लाज प्राप्त कर सकें, इसलिये इसको अवश्य छपाना चाहिये, और इसके छपाने के लिये रतलाम (मालवा) में सेठ जसुजी चतुर्भुजजीत्-मिश्रीमलजी मथुरालालजी, रूपचंदजी रखवदासजीतू - जागीरथजी, वीसाजी जवरचंदजीत्-प्यारचंदजी और गोमाजी गंजीरचंदजीत् - निहालचंदजी, यदि प्रतिष्ठित सद्गृहस्थों की देख-रेख में श्रीनिधान राजेन्द्र- कार्यालय और 'श्रीजैन प्रजाकर प्रिन्टिगप्रेस' स्वतन्त्र खोलना चाहिये । कोष के संशोधन और कार्यालय के प्रबन्ध का
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समस्त भार महुम- गुरुदेव के सुयोग्य-शिष्य-मुनिश्री दीप विजयजी (श्रीमद्विजयभूपेन्द्रसूरिजी ) और मुनिश्री यतीन्द्रविजयजी को सौंपा जाय । बस, प्रस्ताव पास होने के बाद सं० १९६४ श्रावणसुदी ५ के दिन उक्त कोश को छपाने के लिये रतलाम में उपर्युक्त कार्यालय और प्रेस खोला गया और उक्त दोनों पूज्य मुनिराजों की देख-रेख से कोश क्रमशः छपना शुरू हुआ, जो सं० १९८१ चैत्र- वदि ५ गुरुवार के दिन संपूर्ण छप जाने की सफलता को प्राप्त हुआ ।
इस महान् कोश के मुद्रणकार्य में कुवादिमतमतंगजमदनञ्जनकेसरीकलिकाल सिद्धान्त शिरोमणी- प्रातःस्मरणीय-आचार्य श्री मद्र्धनचन्दसूरिजी महाराज, उपाध्याय- - श्रीमन्मोहन विजयजी महाराज, सच्चारित्रीमुनिश्री टीकमविजयजी महाराज, पूर्णगुरुदेव सेवादेवाक - मुनिश्रो हुकुम विज-यजी महाराज, सत्क्रियावान् -महातपस्त्री-मुनिश्रीरूपविजयजी महाराज; साहित्य विशारद - विद्याभूषण - श्रीमद्विजयनृपेन्द्रसूरिजी महाराज, व्याख्यानत्राचस्पत्युपाध्याय - मुनिश्री यतीन्द्रविजयजी महाराज, ज्ञानी ध्यानी मौनी महातपस्वी - मुनिश्री हिम्मत विजयजी, मुनिश्री - लक्ष्मी विजयजी, मुनिश्री - गुलाब विजयजी, मुनिश्री - दर्षत्रिजयजी, मुनिश्री - इंस विजयजी, मुनिश्री - अमृत विजयजी, आदि मुनिवरों ने अपने अपने विहार के दरमियान समय समय पर श्रीसंघ को उपदेश दे दे कर मन और धन से पूर्ण सहायता पहोंचाई, और स्वयं भी अनेक जाँति परिश्रम उठाया है, अतएव उक्त मुनिवरों का कार्यालय आजारी है |
तन,
जिन जिन ग्राम-नगरों के सौधर्म बृहत्तपोगच्छीय- श्रीसंघ ने इस मदान् कोपाङ्कन - कार्य में आर्थिक सहायता प्रदान की है, उनकी शुभसुवर्णाक्षरी नामावली इस प्रकार है
श्री सौधर्म बृहत्तपोगच्छीय श्रीसंघ -मालवा -
श्रीसंघ - वाँगरोद | वारोदा-बड़ा ।
श्रीसंघ - रतलाम |
जावरा ।
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श्रीसंघ - राजगढ़
झाबुवा ।
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श्रीसंघ-बड़नगर। , खाचरोद।
मन्दसोर। सीतामऊ। निम्बाहेड़ा। इन्दौर। उज्जैन। महेन्दपुर। नयागाम। नीमच-सिटी। संजीत। नारायणगढ़। बरड़ावदा।
श्रीसंघ-सरसी।
मुंजाखेड़ी। खरसोद-बड़ी। चीरोला-बड़ा। मकरावन । बरड़िया। (भाट)पचलाना। पटलावदिया। पिपलोदा। दशाई। बड़ी-कड़ोद । धामणदा। राजोद ।
भीसंघ-झकणावदा ।
कूकसी। आलीराजपुर। रींगनोद। राणापुर। पारां। टांडा। बाग। खवासा। रंभापुर। अमला। बोरी। नानपुर।
श्रीसौधर्मबृहत्तपोगच्छीयसंघ-गुजरात
श्रीसंघ-अहमदावाद। है वीरमगाम।
सूरत। साणंद । बम्बई। पालनपुर ।
श्रीसंघ-थिरपुर (थराद)। श्रीसंघ-दीमा । वाव ।
है दूधवा। भोरोल।
वात्यम। धानेरा।
वासण। धोराजी।
जामनगर। " हुवा।
खंभात।
श्रोसौधर्मबृहत्तपोगच्छीय-संघ-मारवाड़
श्रासाघमा
श्रीसंघ-जोधपुर ।
आहोर। जालोर। भेंसवाड़ा। रमणिया। मांकलेसर। देवावस। विशनगढ़। मांडवला।
श्रीसंघ-भीनमाल ।
, सांचोर । " बागरा।
धानपुर। माकोली। साथू। सियाणा। काणोदर। देवंदर ।
श्रीसंघ-शिवगंज। , कोरटा।
फतापुरा। जोगापुरा। भारुंदा। पोमावा। बीजापुर । बाली। खिमेल।
米卡李孝素未事事半孝去基本老事事害事業基苯事李孝未奉孝丰老李孝弟弟半半苦半生半害事考津津津津未来将
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श्रीसंघ-गोल। , साहेला।
बालासण । रेवतड़ा। धाणसा। बाकरा। मोदरा। थलवाड़। मेंगलवा। सूराणा। दाधाल।
श्रीसंघ-मंडवारिया । " बलदूट ।
जावाल । सिरोही। सिरोड़ी। हरजी। गुडाबालोतरा। भूति। तखतगढ। सेदरिया। रोवाडा। भावरी।
श्रीसंघ-सडिराव। " खुडाला।
राणी। खिमाड़ा। कोशीलाव। पावा। एंदला का गुड़ा। चाँणोद। इंडसी। थाँवला। जोयला। काचोली।
"
धनारी।
इनके सिवाय दूसरे भी कई गाँवो के संघों के तरफ से मदद मिली है, उम सभी का कार्यालय शुद्धान्तःकरण से पूर्ण आभारी है।
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श्रीअभिधानराजेन्द्रकार्यालय.
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रतलाम (मालवा)
未老去未来基本法,未来基本未未未未未孝丰孝孝丰未未未未未未未未未·未来丰丰)未未丰丰车半去浮
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चतुर्थनाग-घण्टापथः । ९.
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अहम् । इह हि प्रायोऽनवद्यहृद्यविद्याविद्योनितान्तःकरणानामनव- गनिसमापन्नदुर्भगजनतानिरीक्षणसमुत्पन्नकरुणरसोद्गारपुर * रताम्तःस्थमहासपत्नपगसनप्रयतानाममेध्यहेयहिंसाऽऽदिग- लोकतान्तःकरणा दगदृश्यन्ते, तद्वचनसुधासारणीसमव-lit
द्यपदार्थसार्थगहनतरगहनागमविच्छेदपर्वधिधाराधराणा-- गाहनसुखपिणः पुरोभागिभिन्नाः के वा न भवेयुः ? । यद्यपि मधरीकृतधगधरक्षमाधराणामपूर्वपूर्वभवोपार्जितशुभंयुकर्म- तृतीयभागप्रस्ताव समासेन निरूपितोऽयं विषयः प्रयत्न
परिपाकसमुखीनानामसंमुखीकृतपरायशा ऽज्ञानतिमिराणा-- | प्रयतरस्माभिस्तथापि वाचकवर्गमनःपोषाय कदाग्रहपहिल*ममितचरित्रपवित्रतान्तःकरणानां विलक्षणलक्षणानां स्खेतर
तोपाय सोहापोहं भगवतां तीर्थकृतां रागद्वेषविनमुक्तन्वमदोषदर्शनदवीयसां मनस्विमहीयसां दुरितभरितक्षीक्षितिः
वोद्घाट्यते, यत्सत्तायामेव तेषामुपादेयवचनताऽनिर्वचनीपतिप्रसादनिगदगणामहो खलु साम्प्रतं मम पलमं भाम
यतामावहति *। तथाहि-ननु तीर्थकृतां गगाऽऽदिभिः सधेयमिति मन्यमानानां द्राषिष्ठमुदकमुन्निनीषूणां विगतकुह- हाऽऽयन्तिको वियोगोऽसंभवी. प्रमाणवाधनात् । तच्च प्रनाऽऽटोपानां मुक्तिमहेलासंवरणोत्सुकानां प्रादुर्भूतविशङ्कट- मामिदम-यदनादिमद् न तद्विनाशमाविशनि, यथा 55काबोधानां किम्पचानप्रतिपन्थिनां समवगलितनवतत्त्वनिकुर
शम , अनादिमन्नश्च गगाऽऽदय इति । किश्च-रागाऽऽदयो कुरम्बानां महत्याऽऽरभटथा धर्मदेशनाश्रावणाभयविधारण- धर्माः, ते च धर्मिणो भिन्नाः, अभिन्ना वा ?। यदि भिन्ना-* नसमुत्सुकानां खलोक्निकाटवमपि मर्षणीयमिति निर्धारित
स्तहि सर्वचाविशयण चीतगगत्वप्रसङ्गः . रागेभ्यो भिन्न-2 मानसानां प्रपदनिमग्ननृपतिनिटिलकिरीटानां वरिष्ठप्रष्ठानां
त्वात् , विवक्षितपुरुपवत् । अथाभिन्नास्तर्हि तत्क्षये धर्मि-* सततमहोत्सवमासेदुषां विदुषां परमहंसानां मानसं स्व- रणोऽप्यात्मनः क्षयः, तदभिन्नत्वात् , नम्वरूपवत् , इनि कु-* च्छन्दोच्छलदच्छसंवगऽऽशयसमं सन्मतावागाहनाव- तस्तेषां वीतरागत्वम?.तस्यैवा भावादिति । अत्रोच्यत-इहा। सर मध्यमभुनिभागधेयपरिपाकस्वरूपं तत्त्वास्थितिशुभ- याप रागाऽऽदयों दोपा अनादिमन्तः, तथापि कस्यचित् : शृङ्गाटकानुकारि मिथ्यात्विदर्शनाकृपाराऽऽचान्स्यै लोपाम- स्त्रीशरीगऽऽदिषु यथाऽवस्थितवस्तुनवावगमेन तेषां रा-1* द्राधवमुद्राधरं गाधीनसांगतशासनाऽऽशयनिगूढतत्त्वं प्रा. गादीनां प्रतिपक्षभावनातः प्रतिक्षामपचयो दृश्यत, ततः लयमहीध्रवनितान्तयशोविशदमस्तोकभुक्ताफलाऊपीडवशि
संभाव्यत-विशिएकालादिमामग्रीसद्भाव भावनाप्रकर्षवि-* रसा श्लाघनीयमत्कटप्रत्यग्रप्रसृमरनीरन्ध्रसदुपदेशसुधावि
शेषभावतो निमूलमपि क्षयः । अथ यद्यपि प्रतिपक्षभावनात दुवृष्टिभिराप्याचितभव्यविकस्वान्तक्षेत्रं पठनाऽऽकर्णना
प्रतिक्षगमपचयो दृष्टस्तथापि तेषामात्यन्तिकाप क्षयः सं. भ्यां मावीक.मृद्धीकयोरप्यधरीकृतमाधुर्य जनिताऽऽमोदभू
भवतीति कथमवसेयम् ? । उच्यते-अन्यत्र तथा प्रतिवन्धनमोदयं मानसकासारमियाऽऽर्हन्मतमेधाजनं धिनोति । यत्र
हणात् । तथाहि-शीतस्पर्शसंपाद्या रोमहर्षाऽऽदयः, तेच शृङ्गग्राहिकया जीवाजीवाऽऽदिसमस्तवस्तुविवेचन विधीयते
शीतप्रतिपक्षस्य वढेमन्दतायां मन्दा उपलब्धाः, उत्कर्ष च
निरन्वयविनाशधर्माणः । ततोऽन्यत्रापि वाधकस्य मन्दतायां यत्र च सुम्रतल्पकल्पेऽनल्पनिद्रामुद्रितनयनस्य विद्रावित
बाध्यस्य मन्दतादर्शनाद चाधकान्कर्षेऽवश्यं वाध्यस्य निर-* द्वापरम्याऽऽकल्पं निद्राणस्याकुतोभयस्य जल्पाकेन साकं
न्वया विनाशा बदितव्या,अन्यथा वाधकमन्दतायां मन्दताऽ. | जल्पाऽऽयासावमग्मांप नायानि, गम्भीरगजनविद्राविताग.
पिन स्यात् । अथाऽस्ति ज्ञानस्य ज्ञानावरणीयं कर्म | गिग्रावस्य गिरिगर्भ शयानस्य पश्चाननस्येव यस्य नामश्रव
बाधक जानाऽऽघरगीयकर्ममन्दतायां च ज्ञानस्यापि मानग गमात्रा मदमलिनगराडाऽऽभोगाः पद्मिन इव कुमतावल-1
मन्दता । अथ च प्रबलझाना55-वरणीयकोदयात्कऽचिाot म्बिना गृहीनदिकाः पुनरावर्नजपि न स्पृहयान्त, यना551
ज्ञानस्य न निरन्वयो विनाशः । एवं प्रतिपक्षभावनात्कऽपि स्थानीमास्थितम्य वादकथा मंगलग्नग निकटं जयोऽवएमभ्युपति, कीक्षेयकमिव यमवलम्ब्य प्रत्यर्थिप्रवर्तितधेनानु
न रागाऽऽदीनामत्यन्ताच्छदा भविष्यतीति । तदयुक्तम् । कारिनिग्रहम्थानकन्धराकर्ननाय कुशलीभवति भव्यवर्गः,यो
द्विविधं हि वाध्यम्-सहभूतस्वभावभूतम् . सहकारिसंपाद्य-lat
स्वभावभूतं च । तत्र यत् सहभूतस्वभावभूतं, तन्न कदाचि-10 हृयपगतोपनानां निजनिघ्नानां विघ्नसलमपहस्तयने । प्राति
दपि निरन्ययविनाशमाविशति, झानं चाऽन्मनः सहभूतस्व.4 | स्थिकरूपेण निर्धारितोऽयमर्थः प्रथमभागोपोदघानेऽस्माभि
भायभूतम , आत्मा च परिगामी नित्यः, ततोऽत्यन्तप्रकर्षरित्यल प्रसक्नानुप्रसक्त्याऽकाण्डताण्डवाऽऽडम्बरेण था। कि बहुना यत्प्रवर्तका एव परार्थसंपादनसमर्पितजीविताः स्वार्थनि
वत्यपि ज्ञानाऽऽवरणीयकमांदये न निरन्वयविनाशी ज्ञानस्य. रपेक्षाः समस्तजीवजीवातुप्रदानदक्षाः सौधर्मेन्द्रादिनिर्मि
रागाऽऽदयस्तु लोभाऽऽदिकमविपाकोदयसंपादितसत्ताकाः.. नजन्माभिषकाः सुधाधारणीकल्पनजदेशनया संसारासातसं.
ततः कर्मणो निर्मूलमपगम तऽपि निर्मूलमपगच्छन्ति । नन्वा तप्तजन्तनां विहितसेका अष्टमहाप्रातिहार्यपरिकलिताश्चतु
सतां कर्मसंपाद्या रागाऽदयः,तथापि कर्मनिवृत्ती त निवर्तन्ते: स्त्रिंशदतिशयविराजिता रागद्वेषाऽद्यन्तरङ्गारिविप्रमका परा
इति नावश्यं नियमान हि दहननिवृत्तौ तत्कृता काप्ठे झारता भिसंधानाध्ययनविमुखास्तत्त्वपारावारतलस्पर्शिनः परमदु- निवर्तते । तदसत् । यत इह किश्चित् क्वचित् निवर्य-विकार
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घण्टापथः। मापादयति, यथाऽग्निः सुवर्णे द्रयताम् । तथाहि-अग्निनि- शक्यम् । नाप्यन्यो हेतुरुपलभ्यते, तस्मात्तदप्यम्यथाभवन वृत्ती तत्कृता सुवर्णे द्रवता निवर्तते । किश्चित् पुनः क्वचित् कर्महेतुकमेव्यम् । तथा च सति कमैवैकमभ्युपगम्यतां, कि अनिवयं-विकाराऽऽरम्भकम् । यथा-स एवाऽग्निः काष्ठे,न | मन्तर्गदुना तद्धेतुतया कफाऽऽदिपरिणतिविशेषाभ्युपगमेन? खलु श्यामतामात्रमपि काष्ठे दहनकृतं तन्निवृत्तौ निवर्तते । किश्च-अभ्यासजनितप्रसराः प्रायो रागाऽऽदयः। तथाहि-* कर्म चाऽऽत्मनि निवर्त्य-विकाराऽऽरम्भकम् : यदि पुनरनि- यथा यथा रागाऽऽदयःसेव्यन्ते तथा तथाऽभिवृद्धिरेव तेषा-14 वर्त्य-विकाराऽऽरम्भकं भवेत्तहिं यदपि तदपि कर्मणा कृतं मुपजायते, न प्रहाणिः । तेन समानेऽपि कफाऽदिपरिणति न कर्मनिवृत्तौ निवर्तेत, यथाऽग्निना श्यामतामात्रमपि काष्ठे विशेषे तदवस्थेऽपि च देहे यस्येह जन्मनि परत्र वा यस्मिन 24 कृतमग्निनिवृत्तौ । ततश्च यदेकदा कर्मसाऽऽपादितं मनुष्य- दोषेऽभ्यासः स तस्य प्राचुर्येण प्रवर्तते, शेषस्तु मन्दतया, त्वममरत्वं कृमिकीटत्वमझत्वं शिरोवेदनाऽऽदि, तत्सर्वकालं ततोऽभ्याससंपाद्यकर्मोपचयहेतुका एव रागाऽऽदयो,न कफा तथैवावतिष्ठत, न चैतद् दृश्यते, तस्मानिवर्त्य-विकारा ऽऽदिहेतुका इति प्रतिपत्तव्यम् । अन्यश्च-यदि कफहेतुको रम्भकं कर्म, ततः कर्मनिवृत्तौ रागाऽऽदीनामपि निवृत्तिः । रागः स्यात् , ततः कफवृद्धौ रागवृद्धिः स्यात् , पित्तप्रकर्षे अत्राऽऽहुई हिस्पत्याः-"नैते रागाऽऽदयो लोभाऽऽदिकर्मवि- तापप्रकर्षवत् ,न च भवति; तदुत्कर्षोत्थपीडाबाधिततया द्वे पाकोदयनिवन्धनाः, किन्तु कफाऽऽदिप्रकृतिहेतुकाः।" तथा. षस्यैव दर्शनात् । अथ पक्षान्तरं गृहीथाः-यदुत न कफहेतु हि-कफहेतुको रागः, पित्तहेतुको द्वेषः, बातहेतुकश्च मोहः । को रागः, किन्तु कफाऽऽदिदोषसाम्यहेतुकः । तथाहिकफाऽऽन्यश्च सदैव सन्निहिताः, शरीरस्य तदात्मकत्वात् , कफाऽऽदिदोषसाम्य विरुद्धव्याध्यभावतो रागोद्भवो दृश्यत ततो न वीतरागत्वसंभवः । तदयुक्तम् । रागाऽऽदीनां कफा| इति । तदपि न समीचीनम् । व्यभिचारदर्शनात् न हि यावत् | दिहेतुकत्वाऽऽद्ययोगात् । तथाहि-स तद्धेतुको, यो य न कफाऽऽदिदोषसाम्यं तावत् सर्वदैव रागोद्भवोऽनुभूयते, द्वे | व्यभिचरति, यथा धूमोऽग्निम् । अन्यथा प्रतिनियतकार्य- षाऽद्युद्भवस्यानुभवात् । न च यद्भावेऽपि यन्त्र भवति तत् त - *कारणभावव्यवस्थाऽनुपपत्तिः । न च रागाऽऽदयः कफा55- हेतुकं सचेतसा वक्तुं शक्यम् । अपि च-एवमभ्युपगमे ये
दीन् न व्यभिचरन्ति, व्यभिचारदर्शनात् । तथाहि-वातप्रकृ- विषमदोषास्ते रागिणो न प्राप्नुवन्ति, अथ च तेऽपि रागिणो तेपि दृश्येते रागद्वेषी, कफप्रकृतेरपि द्वेषमोहौ, पित्तप्रकृ- दृश्यन्ते, स्यादेतत् ,अल वैस्तर्यात् । तत्वं निर्वच्मि-शुक्रोपतेरपि मोहरागी, ततः कथं रागाऽऽदयः कफाऽऽदिहेतुका? यहेतुको रागो नान्यहेतुक इति । तदपि न युक्तम् । एवं ह्य-10 अथ मन्यथा:-एकैकाऽपि प्रकृतिः सर्वेषामपि दोषाणां पृथग् त्यन्तस्त्रीसेवापरतया शुक्रक्षयतः क्षरत्क्षतजानां रागिता न पृथग जनिका, तेनायमदोष इति । तदयुक्तम् । एवं सति स्यात्। अथ वा-एतेऽपि तस्यामवस्थायां निकामं रागिणोर सर्वेषामपि जन्तूनां समरागाऽऽदिदोषप्रसक्नेः, अवश्यं हि श्यन्ते। किं च-यदि शुक्रस्य रागहेतुता,तर्हि तस्य सर्वस्त्रीषु प्राणिनामेकतमया प्रकृत्या कयाचिद् भवितव्यम् । सा चा- साधारणत्वात् नैकस्त्रीनियतो रागः कस्यापि भवेत् , दृश्यते । विशेषेण रागाऽऽदिदोषाणामुत्पादिकति सर्वेषामपि समा
च कस्याप्येकनीनियतो रागः। अथोच्येत-रूपातिशयलुब्ध नरागाऽऽदितापसक्रिः । अथास्ति प्रतिपाणि पृथक् पृथगवा- स्तस्यामेव रूपवत्यामभिरज्यते, न योषिदन्तरे । उक्तं च-14 न्तरः कफाऽऽदीनां परिणतिविशेषः, तेन न सर्वेषां समरा- "रूपातिशयपाशेन,विवशीकृतमानसाः । स्वां योषितं परित्यगादिताप्रसङ्गः । तदपि न साधीयः । विकल्पयुगलानति- ज्य,रमन्ते योषिदन्तरे ॥१॥” इति । तदपि न मनोरमम् । रूपर-144 क्रमात् । तथाहि-सोऽप्यवान्तरः कफाऽऽदीनां परिणति- हितायामपि कापि रागदर्शनात् । अथ तत्रोपचारविशेषः स-It विशेषः सर्वेपामपि रागाऽऽदीनामुत्पादकः,आहोस्विदेकतम मीचीनो भविष्यति, तेन तत्राभिरज्यते । उपचारोऽपि च* स्यैव कस्यचित् ? तत्र यद्याद्यः पक्षस्तहिं यावत् स परि- रागहेतुर्न रूपमेव केवलम् ,तेनायमदोष इति । तदपि व्यभिणतिविशेषः तावदेककालं सर्वेषामपि रागाऽऽदीनामुत्पाद- चारि । द्वयेनापि विमुक्तायां क्वचिद रागदर्शनात् । तस्माद-1* प्रसङ्गः । न चैककालमुत्पाद्यमाना रागाऽऽदयः संवेद्यन्ते, भ्यासजनिसोपवयपरिपाकं कमैव विचित्र स्वभावतया तदा क्रमेण तेषां वेदनात् । न खलु रागाध्यवसायकाले द्वेषा- तदा तत्तत्कारणापेक्ष तत्र तत्र रागादिहेतुरिति कर्महेतुका ध्यवसायो, मोहाध्यवसायो वा संवेद्यते । अथ द्वितीयः प- रागाऽऽदयः। एतेन यदपि कश्चिदाह-पृथिव्यादिभूतानां धर्मा क्षः-तत्रापि यावत् स कफाऽऽदिपरिणतिविशेषस्तावदेक एते रागाऽऽदयः। तथाहि-पृथिव्यम्बुभूयस्त्वे रागः,तेजोवायु एव कश्चिद्रागाऽऽदिदोषः प्राप्नोति । अथ च तदवस्था एव
भूयस्त्वे द्वेषः,जलवायुभूयस्त्वे मोह इति । तदपि निराकृतमय-12 कफाऽडादपारणातावशष सबाप दाषाः क्रमण परावृत्त्याप- सेयम,व्यभिचारात्। तथाहि-यस्यामेवावस्थायां द्वेषो माहा*जायमाना उपलभ्यन्ते । अथादृश्यमान एच केवलकार्यविशे
पि तस्यामेव दृश्यते, तत एतदपि यत्किश्चित् । तस्मात् कर्महेपदर्शनोत्रीयमानसत्ताकस्तदा तदा तत्तद्रागाऽऽदिदोषहेतुः
तुका रागाऽदयः। ततः कर्मनिवृत्तौ निवर्तन्ते । प्रयोगश्चात्र-येकफाऽऽदिपरिणतिविशयो जायते, तेनन पूर्वोक्नदोषावकाशः।
सहकारिसंपाद्या यदुपधानादपकर्पिणस्ते तदत्यन्तवृद्धौ निर-14 ननु यदि स परिणतिविशेषः सर्वथाऽननुभूयमानस्वरूपोऽपि
न्वयविनाशधर्माणो,यथा रोमहर्षाऽऽदयो वह्निवृद्धी,भावनोपपरिकल्प्यते, तर्हि कर्मव किं नाभ्युपगम्यते । एवं हि लोक
धानादपकर्षिणश्च सहकारिकर्मसंपाद्या रागाऽऽदय इति । शास्त्रमागोऽध्याराधितो भवति । अपि च-स कफाऽऽदिपरिण
यदपि प्रागुपन्यस्तं प्रमाणम्-यदनादिमद्न तद्विनाशमातिविशेषः कुतस्तदा तदाऽन्यान्यरूपेणोपजायते?,इति वक्त
विशति, यथाऽऽकाशम् । तदप्यप्रमाणम् । हेतोरनेकान्ति-1 व्यम् । देहादिति चेत्,ननु तदवस्थेऽपि देहे भवद्भिः कार्यवि.] कत्वात-प्रागभावेन व्यभिचारात् । तथाहि-प्रागभावोशेषदर्शनतस्तस्यान्यथाभवनमिष्यते,तत्कथं तद्देहनिमित्तम्। उनादिमानपि विनाशमाविशति, अन्यथा कार्यान-1 नहि यदविशेषेऽपि यद्विक्रियते स विकारस्त तुक इति वक्ता त्पत्तेः । भावनाऽधिकारी च सम्यग्दर्शनाऽदिरत्नत्रय-* ******************************* ******************** ** *
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संपत्समन्वितो वेदितव्यः, इतरस्य तदनुरूपानुष्ठानप्रवृत्यभावेन तस्य मिथ्यारूपत्वात् । आह च-' नाणी तवम्मि निरश्रो, चारिती भावणाइजोगे 'ति । सा च रागाऽऽदिदोषनिदानस्वरूपविषयफलगोचरा यथाऽऽगममेवमय सेयाजे गो, पयइबिसुस होइ जीवस्स । एएसि भोनियाएं, बुहारा न य सुंदरं एयं ॥ १ ॥ रूवं पि संकिलेसो ऽभिस्संगा पीइमाइ लिंगो उ परमसुहपञ्चणीओ, एवं पि असोहणं चैव ॥ २ ॥ विसय भंगुरो खलु, गुणरद्विश्रो तह तहारूवो । संपत्तिनिष्फलो के वलं तु मूलं अनत्थाणं ॥ ३ ॥ जम्मजरामरवाई, फिलं संसारो तु बहुरानिधेयकरो, एसो वि तहाविहो चैव ॥ ४ ॥ " इति । अपि च सूत्रानुसारेण शानाऽऽदिषु यो नैरन्तर्येाभ्यासतपाऽपि भावना दिया तस्वा अपि रागादयतिपक्षत्वात् । न हि तत्त्ववृत्या सम्यग्ज्ञानाऽऽद्यभ्यासे व्यापृतमनस्स्थ शरीरामणीयकादिविषये येतः प्रवृत्तिमा तनोति तथाऽनुपलम्भात् । एतेन सिद्धं रागाऽऽदिविरहवत्त्वं तीर्थकृतां भगवताम् । अत एव रागद्वेषाऽऽदिशत्रून् जयन्त्यभिभवन्तीति तीर्थकृत्यस्य जिनशब्दस्य व्युत्प त्तिनिमित्तं, प्रवृत्तिनिमित्तं च भावयन्ति भावुकाः । सिद्धे च तस्मिन् रागाऽऽद्यभावेऽनृतभाषणकारणाभावात् समुपादेयवचनताऽनिर्वचनीयतामावहत्येव जिनवरस्य । उक्तं च"रागाद् वा द्वेषाद् वा, मोहाद् वा वाक्यमुच्यते ह्यनुतम् । यस्य तु नैते दोषा-स्तस्याऽनृतकारणं किं स्यात् ? ॥ १ ॥ " किञ्च - "अणुवक्रयपराणुग्गह-परायणा जं जिला जगप्पचरा | जियरागदोसमोहा, य न ऽण्णहावाइणो तेणं ॥ ५० ॥ इति सिद्धं पराभिसंधाननिय विविश्वस्तस्त्रितत्वम् । * । अस्तु तावत् तीर्थकृतां जितरागद्वेषत्वं तथापि मिथ्यादर्शनसमूहस्वाद जिनपयनस्य कथं ग्रामा एयमङ्गीकरणीयम् ? । जिनवचनस्य मिथ्यात्विदर्शनसमूहरूपत्वं तु श्रीसिदिवाकरो ऽप्यभ्युपगच्छति । तथाहि"भदं मिच्छादंसण समूहमइयस्स अमयसारस्स । जिल्वयस्स भगवश्र, संविग्गसुहाहिगम्मस्स ॥ ६६ ॥ " (सम्म० ३ काण्ड) ततश्च यन्मिथ्यादर्शनसमूहमयं तत्कथं सम्यग्रूपतामासादयति न हि विकणिकासमूहमयस्यासुतरूपता पत्तिः प्रसिद्धा । श्रत्र प्रतिविधीयते नैतद् युक्तम् । परस्परनिरपेक्षसंग्रहाऽऽनियरूपाऽऽपचसायामिथ्यादर्श
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घण्टापथः ।
नानां परस्परसव्यपेक्षता समासादितानेकान्तरूपाणां विषकशिकासमूहविशेषमवस्यामृत संदोहस्येव सः । दृश्यन्ते हि विषाssदयोऽपि भावाः परस्परसंयोगविशेषमवाप्ताः समासादितपरिणत्यन्तरा अगदरूपतामात्मसात्कुचणाः, मध्याज्यप्रभृतयस्तु विशिष्टसंयोगावाप्तद्रव्यान्तरस्वभावा मृतिप्राप्तिनिमित्तविषरूपतामासादयन्तः । न चाध्यसिद्धार्थस्य पर्यनुयोगविषयता, अन्यथाऽस्वादेरपि दाह्यदहनकृत्यादिपर्यनुयोगाऽऽपतेः । अत एव निरपेक्षा नैगमाऽऽदयो दुरीयाः, सापेक्षास्तु सुनया उच्यन्ते । अभिहितार्थसंवादि चेदं वादिवृषभस्तुति कृत्सिद्धसेनाऽऽचार्यवचनम् - " नयास्तव स्यात्पदलाच्छना इमे, रसोपविष्टा इव लोधातवः । भवन्त्यभिप्रेतफला यतस्ततो भवन्तमार्याः प्रणता हितैषिणः ॥ १ ।। इति । अथवा साङ्ख्याऽऽदेरेकान्तवादिदर्शनसमूहमयस्य चूर्णनस्व
9
भावस्य मिथ्या पुरुष समूहविघटनसमर्थस्य वा यहा मिथ्यादर्शनसमूहा नेगमादयः एकगमाऽऽदेवस्थ तविधत्वात् “एक्वेक्को विसयविहो । " इत्याद्यागमप्रामाण्यात् श्रवयवा यस्य तन्मिथ्यादर्शनसमूहमयम्, जिनवचनस्य नैगमाssदयः सापेक्षाः सप्ताऽवयवाः, तेषामध्येकैकः शतचा व्यवस्थित इत्यभिप्रायः समूहरूपायोदाहरणापेक्षा
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सप्तदशमागमतिसामान्यविशेषाम त्यात् वस्तुतस्वस्य सामाम्यस्येकत्वात् तद्विवक्षायां यदेव पटाऽऽदिव्यं स्यादेकमिति प्रथमभीतिदेव देशका लप्रयोजनमेादनात् प्रतिपद्यमानं तद्वियस्थादकमिति द्वितीयः समेकन य. दातव्यमिति तृतीयभङ्गचिपयः यदेवावकाशदाना साधारणेनेकमाकाशं तदेवायगावायगाह कावगाहन किया भेदाइनेकं भवति वस्तुत्याऽऽपतेः प्रदेशमेापेचयाऽपि च तदनेकम् अन्यथा + हिमवद्विन्ध्ययोरप्येकदेशताप्राप्तेः । तस्य च तथाविवक्षायां स्यादेकं वा चेति चतुर्भयता यदेकमाकाशं भवतः प्रसिद्धं तदेकस्मिन्नवयवे विवक्षिते एकमवयवस्यावयवान्तरा भिन्नभिन्नानां वाचकस्य शब्दस्याभावादवक्तव्यं चेति तथा विवक्षायां स्यादेकमवक्लव्यं चेति पश्चमभङ्गविषयः । तद् यदै बैंक माकाशं प्रसिद्धं भवतः, तदवगाह्याऽवगाहनक्रियाभेदादनेकम् एकानेकत्वप्रतिपादकशब्दाभावादयचेति
( ३ )
"
यः । यदेवैकमाकाशाऽऽत्मकतयाऽऽकाशं भवतः प्रसिद्धं तदेव त ये कमवगाह्यावगाहनक्रियापेक्षयाऽनेकं युगपत्प्रतिपादनापेक्ष
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यति स्यादेकमनेकचिषयः एयं स्यात् सर्वगतः स्याद्यतो घटादित्यादिका सभी पातेन मिथ्यादर्शनसमूहमा जनच नस्य, विषकणिकासमूह विशेषमय स्पामृग सारखडुपादेयत्यम विरुद्धम् । विशेषविस्तरस्तु जिस शब्दे १२०२ पृष्ठादारभ्य १५०४ पृष्ठवपश्चिदभिरयलोकनीयः ततः स्थजियो अगरसालबिधिन्नो । तय नियम कुसुमगुण्डो, सुग्मइफसबंध जय ॥ १ ॥ सव्वे वियसिद्धता, सदव्वरयणामया सतेल्लोका । जिणवयणस्स भगवओो, न तुल्लमिय तं अणग्धेयं ॥ २ ॥ " "जयति जगदेकमल-मपहतनिः शेषदुरितधनतिमिरम् । रविविम्बमिव यथास्थित वस्तुविकाशं जिनेशयः ॥१॥ “ नर-नरग तिरिय-सुरगण संसारिय सव्वदुक्खरोगाणं । जिसमेमो सहमवाहस्यं फल १ ॥ जिणवयणमोयगस्स य. रति व दिवा य खज्ज्रमाणस्स । तित्ति हो न गच्छइ, हे उसहस्सोवगूढस्स ॥ २ ॥ जीवनको सरल सरिये।
सवयहि अजियं, जिगिदवयणं महातिसयं ॥ ३ ॥ " "जन्मजरामरणभरी रमिते व्याधिवेदना प्रो जिनवरवचनादन्यत्र नास्ति शरणं कचिल्लोके ॥ १ ॥ " तस्मात् जिनवचनरुचिनाऽविप्रतिपन्नेन भव्येन भाग्यम् ।
66
यतः
सवणकरसु इच्छा, होइ रुई सद्दहाणसंजुत्ता । एई विणा कत्तो, सुद्धी सम्मत्तरयणस्स ॥ १ ॥
ततः
'जिरावय अनुरत्ता, जिणवयणं जे करिति भावेणं । ******
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(४)
घएटापथः। अमला असंकिलिट्ठा, ते हुंति परित्तसंसारी॥१॥" मालिस्तु बहुजनं ब्युद्ग्राह्य अनालोचितप्रतिकान्तः कालमासे अथवा कि बहुना
कालं कृत्वा किल्विर्षिकदेवेषूत्पन्नः । एतच चरितं विस्तरतः "करा बि सहावेणं, विसयविसवसानुगा वि होऊस । प्रज्ञापनासूत्रादवसेयम् । अथ जमालेविप्रतिपत्तिरुद्भाव्यते-- भावियजिणवयणमणा, तेल्लोकसुहावड़ा होति ॥१॥" सर्चमपि वस्तु क्रियमाणं कृतं न भवति, किन्तु कृतमेव कृतमुयतः
च्यते, ततो भगवत्यादौ यदुक्तम्-"चलमाणे चलिए, उदी" सुस्सूस धम्मरात्रो, गुरुदेवाणं जहासमाहीए। रिज्जमाणे उदीरिए, वेइजमाणे वेइए ।" इत्यादि, तत्स-12वेयावचे नियमो, सम्महिटिस्स लिंगाई॥१॥"
वें मिथ्या । किश्च-यस्य क्रियमाणं वस्तु कृतमित्यभ्यु-34 एतेन तृतीयभागप्रस्तावोपन्यस्तपराभिसंधानांवमुखत्वं भग- पगमः, तेनेह विद्यमानस्य करणरूपाः क्रिया अफ्रीवतस्तीर्थकरस्य रागद्वेषजेतृत्वेन सर्वतोभावेन समर्थितम् ।। कृताः, तथा च सति बहूनां दोषाणां प्रतिपत्तिर्मवति । त-! किञ्च-समवसरणाऽऽदिसमये देशनाऽपरपर्यायेण जिनवच- थाहि-इह क्रियमाणं कृतं न भवतीति प्रतिक्षा कृतस्य वि-at नेन योऽर्थः समर्थितस्तत्रविप्रतिपन्नस्य जमालेरिव दुर्गतिगम- द्यमानत्वादिति हेतुः, चिरन्तनघटवदिति दृष्टान्तः। अथ कृ-1 नमवश्यमेव संपद्यते।तथाहि तृतीयभागप्रस्तावे-"से नणं भंते! तमपि क्रियत इत्यभ्युपगम्यते, तर्हि नित्यमनवरतमेव क्रियचलमाणे चलिए" इत्यादि भगवत्प्ररूपितार्थवाचकं प्रश्नोत्तर- ताम् , कृतकत्वाविशेषात्, एवं च सति न कदाचिदपि कार्य-lat रूपं सूत्रमुपन्यस्तम्। तत्र विप्रतिपन्नस्य जमालेश्वरितमित्थम्- क्रियापरिसमाप्तिरिति । यदि च क्रियमाणं कृतमिष्यते, तर्हि| इहैव भरतक्षेत्रे कुण्डपुरं नामं नगरम् , तत्र भगवतः श्रीमन्म- घटाऽदिकार्यार्थ या मृन्मर्दनचक्रभ्रमणादिका क्रिया, तस्या हावीरस्य भागिनेया जमालि म राजपुत्र आसीत् , तस्य वैफल्यं प्राप्नोति, तत्काले कार्यस्य कृतत्वाभ्युपगमात् । तथाat च भार्या श्रीमन्महावीरस्य दुहिता सुदर्शना, अथ कदाचित् च प्रयोगः-इह यत्कृतं.तक्रिया विफलैच.यथा चिरनिष्पन्नघटे.IN | पञ्चशतपुरुषपरिवारो जमालिर्भगवतो महावीरम्याग्रे प्रवज्यां कृतं चाभ्युपगम्यते क्रियाकाले कार्य, ततो विफला तत्र क्रिजग्राह, सुदर्शनाऽपि सहस्रस्त्रीपरिवारा तदनु प्रव्रजिता । त- येति । किञ्च क्रियमाणकृतवादिना कृतस्य (विद्यमानस्य) तश्चैकादशस्वनेवधीतेषु जमालिना भगवान् विहारार्थमुत्क- क्रियेति प्रतिपादितं भवति, एवं च प्रत्यक्षविरोधः, यस्मादुलापितः, ततो भगवता तूष्णीमास्थाय न किञ्चित् प्रत्युत्तर
त्पत्तिकालात् पूर्वमविद्यमानमेव कार्य जायमानं दृश्यते, उमदायि, तत एवममुत्कलितोऽपि पञ्चशतसाधुपरिवृतो निर्ग- त्पत्तिकाले तस्मात् क्रियमाणमकृतमेवेति । किश्च प्रारम्भकि|तः श्रीमन्महावीरान्तिकात् , ग्रामानुग्रामं च पर्यटन गतः श्रा
यासमय एव कार्यमुत्पद्यते इति तवाभ्युपगमः। एतच्चायुक्त-2 का यस्तीनगर्याम् ,तत्र च तेन्दुकाभिधानोद्याने कोष्ठकनानि चै- म् । यस्माद् घटाऽऽदिकार्याणामुत्पद्यमानानां दीर्घ एव निर्वर्त
ये स्थितः, ततश्च तत्र तस्यान्तप्रान्ताऽऽहारैस्तीवो रोगाऽऽत- नक्रियाकालो दृश्यत इति। ननु दृश्यतां नाम दीर्घः क्रियाकालः, ङ्कः समुत्पन्नः, तेन च न शक्नोत्युपविष्टः स्थातुम् , ततो व- परं घटाऽऽदिकार्यमारम्मक्रियासमय एव, शिवकाऽऽदिकाले tite भाण धमणान्-मनिमित्तं शीघ्रमेव संस्तारकमास्तृपीत, येन वा द्रक्ष्यत इति चेत् , तदयुक्तम् । यतो नाऽऽरम्भक्रियासम-* तत्र तिष्ठामि, ततस्तैः कर्तुमारब्धोऽसौ । वादं च दाहज्वरा
य एव घटाऽऽदिकार्य भवद् दृश्यते, नाऽपि शिवकस्थासकोभिभूतेन जमालिना पृष्टम्-संस्तृतः संस्तारको,न बेति? । सा
शकुशूलाऽदिसमयेष्वपि दृश्यते, किन्तु दीर्घक्रियाकालस्यान्ते में धुभिश्च संस्तृतप्रायत्वादर्धसंस्तृतेऽपि प्रोक्तम्-संस्तृत इति ।
घटाऽऽदिकार्य भवद् दृश्यत, तस्मान क्रियाकाले कार्य युक्तं, ततोऽसी वेदनाविहलितचेता उत्थाय तत्र तिष्ठासुरर्द्धसं
तस्य तदानीमदर्शनात् । दीर्घक्रियाकालस्यान्ते तु युक्त कार्यम्, | स्तृतं तद् दृष्ट्रा क्रुद्धः-'क्रियमाणं कृतम्।' इत्यादिसिद्धा
तदानीमेव तस्य दर्शनादिति सकलजनस्य प्रत्यक्षसिद्धमेव| तवचनं स्मृत्वा मिथ्यात्वमोहनीयोदयतो वक्ष्यमाणयुक्तिभि
दम् * । तदा जमालरेवमाचक्षाणस्य अप्येके निर्ग्रन्था एनमर्थ * वितथमिति चिन्तयामास । ततः स्थविरैर्वक्ष्यमाणाभिरेव यु
श्रद्दधति, अध्येके न श्रद्दधति, तत्र ये न श्रद्दधति, ते एवमानिभिः प्रतिबोधितो यदा कथमपि न प्रतिबुद्धयते, तदा ग
हुः-भगवन् ! भवतोऽयमाशय:-" यथा घटः पटो नैव, पटो* तास्तं परित्यज्य भगवत्समीपे, अन्ये तु तत्समीपमेव स्थि- वा न घटो यथा । क्रियमाणं कृतं नैव, कृतं न क्रियमाणकम् ताः । सुदर्शनाऽपि तदा तत्रैव श्रावकढङ्ककुम्भकारगृहे श्रा- ॥१॥" प्रयोगश्च-यौ निश्चितभेदो, न तयोरैक्यम् , यथा घटसीत् । जमाल्यनुरागेण च तन्मतमेव प्रपन्ना, ढङ्कमपि तद् ग्रा- पटयोः निश्चितभेदे च कृतक्रियमाणके। अत्र चाऽसिद्धो हेतुः।
हयितुं प्रवृत्ता । ततो ढङ्कन मिथ्यात्वमुपगतेयमिति झात्वा तथाहि-कृतक्रियमाणे किमेकान्तेन निश्चितभेदे, अथ कथ-lat * प्रोक्तम्-दृशं वयं किमपि जानीमः, अन्यदा च पाकाग्निम-| ञ्चित् ? । यद्यकान्तेन, तत्कि तदैक्य सतोऽपि करणप्रसङ्गतः.
ध्ये मृदभाजनोद्वर्तनपरावर्तने कुर्वताऽभारकमेकं प्रक्षिप्य त- उत क्रियाऽनुपरमप्राप्तः, आहोस्वित् प्रथमाऽऽदिसमयेष्वपि त्रैव प्रदेश स्वाध्यायं कुर्वत्याः सुदर्शनायाः संघाट्यञ्चलो दग्धः। | कार्योपलम्भप्रसक्नेः,अथ क्रियायैफल्याऽऽपत्तितो दीर्घक्रियाततस्तया प्रोक्तम्-श्रावक! किं त्वया मदीयसंघाटी दग्धा ?।। कालदर्शनानुपपत्तेर्वा ?। तत्र न तावत् सतोपि करणप्रसङ्गन तेनोलम्-ननु ' दह्यमानमदग्धं, भवति, इति भवत्याः सि- इति युक्तम् । असत्करणे हि खपुष्पादेरेव करणमापद्यत इति द्वान्तः, ततः क केन त्वदीया साटी दग्धा ? | इत्यादि त- कथञ्चित् सत एव करणमस्माभिरभ्युपगतम् ,न चाभ्युपगता. दुक्तं पग्भिाव्य संबुद्धाऽसी सम्यक्प्रेरिताऽस्मीस्थभिधाय मि. र्थस्य प्रसञ्जनं प्रयुज्यते ॥ नाऽपि क्रियाऽनुपरमप्राप्तः, यत इह ध्यादुष्कृतं ददाति, जमालिं च गत्या प्रज्ञापयति । यदा क्रिया किमेकविषया,भिन्नविषया वा? यद्यकविषया,न दोषः। चासो कथमपि न प्रज्ञाप्यते, तदाऽसौ सपरिवारा, शेषसा- तथाहि-यदि कृतं क्रियमाणमुच्यते तदा तन्मतेन निष्पन्नमेवर घवश्वकाकिनं जमालिं मुक्त्वा भगवत्समीपं जग्मुः, ज- कृतमिति. तस्यापि क्रियमाणतायां क्रियाऽनुपरमप्राप्तिलक्ष** *** * ***** ******* **** ** ** *
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घएटापथः। णो दोषः स्यात् । न तु क्रियमाणं कृतमिति, तथोक्तौ च तत्र कि
| भेदस्य घटपटयोस्तदाश्रयेणैवमुक्त संस्तारकाऽऽदावपि योज्यम् । यावेशसमय एव कृतत्वाभिधानात् । उक्तं हि-क्रियाकाबनि
तत्प्रतिपद्यस्व नगवन् !"चलमाणे चत्रिए।" इत्यादि तीर्थकष्ठाकालयोरेक्यमिति । अथैवमपि कृतक्रियमाणयोक्ये कृतस्य
तां चात्यम्तमवितथ्यमिति । स चैवमुच्यमानोऽपि न प्रतिपत्र सवात् सतोऽपि करणे तदवस्थप्रसनः स्यात्, न तु क्रियासम
वान् * किन्तु पूर्वोक्तयुक्तिन्निः संबुझाः शेषसाधव एकाकिनं ज. कालसत्ताऽचाप्तौ । अथ भिन्नविषया किया, तदा सिद्धसाधन
मानि मुक्त्वा गता जिनसमीपम् । जमाली तु ( महावीरजिनम् । प्रतिप्तमयमन्यान्यकारणतया वस्तुनोऽभ्युपगमनेन भिन्नवि"
निह्नवरूपः)कालमासे काब कृत्वा लान्तके कल्प त्रयोदशसागरोषयक्रियाऽनुपरमस्यास्माकं सिद्धत्वात् । अथ प्रथमाऽऽदिस.
पमस्थितिकेषु किस्विषिकेषु देवेषु देवत्वेनोत्पन्नः, तस्य प. मयेम्वपि कार्योपसम्भप्रसक्तरिति पके क्रियमाणस्य हि कृत
श्चदश जवाः सन्ति । तस्मान्न जिनवचनेषु कदाचनापि स्वप्रथमाऽऽदिसमयेष्वपि सखापरलम्भः प्रसज्यत इति ।
संशायतव्यमिति चतुरस्रम् । विस्तरतो दर्शनेबुभिः ' जमालि' तदपि न । तदा हि शिवकाऽऽदीनामेव क्रियमाणता, ते चो. पलभ्यन्त एव । उक्तं च विशेषाऽऽवश्यके-"अन्नारंभे अनं,
शब्दे १४०१ पृष्ठादारज्य १४९३ पृष्ठपर्यन्तं विलोकनीयम् । . कह दोसन जद घमो प्रमाऽऽरने । सिवगादयी न कुंभी,
जमालिभवप्रसङ्गानुप्रसाद् जिज्ञासोत्पद्यते-केन प्रकारेण जन्म
जीवानां जायते ? अत्राऽऽह स्त्रीपुंसयोयेंदोदये सति पूर्वकर्मनिकिह दोसउ सो तदकाए ॥ २३१६॥" घटगताभिलाषतया च
वतिनायां योनौ मैथुनप्रत्यायिको रताभिमापोदयजनितोऽग्नि| मूढः शिवकाऽऽदिकरमोऽपि घटमहं करोमीति मन्यते । | तथा चाऽऽह-"पसमयकजकोमी निरवेक्खं घडगयाभि
कारण योररणिकाष्ठयोरिव संयोगः समुत्पद्यते, तत्संयोगे व लासोऽसि । पइसमयकज्जकालं, थूबमई! घमम्मि लापसि
तच्छुकशोणिते समुपादाय तत्रोत्पित्सवो जन्तवस्तैजसकार्म॥२३१८ ॥"नापि क्रियावैफल्याऽऽपत्तितः, यतः प्रागवाप्तस
णाभ्यां कमरज्जुसंदानितास्तत्रोत्पद्यन्ते । ते च प्रथममुभयोरपि ताकस्य करणे क्रियविफल्यं स्यात, न तु क्रियमाणकृतत्वे, तत्र
स्नेहमाचिम्बन्स्यविध्वस्तायां योनौ सन्यामिति,विध्वस्यते तु यो. हि क्रियमाणं क्रियाऽपेक्वमिति तस्याः साफल्यमेव, अनेकान्त
निः- 'पञ्चपञ्चाशिका नारी सप्तसप्ततिः पुरुष प्रति ।' तथा द्वादश वादिनां च केनचिद्रूपेण प्राक् समवेपि रूपान्तरेण करणं न दो.
महानि यावत् शुक्रशोणिते अविश्वस्तयोनिके मवता,तत कर्व पाय । दोघक्रियाकालदर्शनानुपपत्तिरित्यपि न युक्तम् । यतः
समुपगम्चत शति । तत्र जीवा उभयोरपि स्नेहमाहार्य स्वकर्म. शिवकाऽऽद्युत्तरोत्तरपरिमाणविशेषविषय एवं दीर्घक्रिया
विपाकेन यथास्वं स्त्रीपुनपुंसकभावेन समुत्पद्यन्ते, तदुसरं स्त्रीकालोपलम्नो, न तु घटक्रियाविषयः । उक्तं हि-" पइसमयउ
कुक्षी प्रक्षिप्ताः सन्तः स्त्रियाऽऽहारितस्याऽऽहारस्य निर्यासं पणाणं, परोप्परविसक्खणाण सुबहणं । दीहो किरियाकालो,
स्नेहमाददति, तदूमेदेन च तेषां जन्तूनां कर्मोपचयादानेन जइ दीसह किं च कुंभस्स ॥१३१५॥" अथ कथञ्चिनिश्चित.
क्रमेण निष्पतिरुपजायते । “सत्ताहं कललं डोड, सत्ताहं होइ भेदे कृतक्रियमाणे, तत्तीर्थकदुक्तमेव, निश्चययवहारानुगतत्वा
बुम्वुयं ।" इत्यादि । तदेवमनेन क्रमेण तदेकदेशेन वा मातुरात् तद्वचसः, तत्रच निश्चयनयाऽऽश्रयणेन कृतक्रियमाणयोर
हारमोजसा मिश्रेण बा लोममिर्वाऽऽनुपूयेणाऽऽहारपन्ति, भेदः । यदुक्तम्-"क्रियमाणं कृतं दग्ध, दह्यमानं स्थितं गतम ।
यथाक्रममानुपूज्येण वृधिमुपगताः सन्तो गर्भपरिपाकमुपपन्नाः, तिष्ठश्च गम्यमानं च, निष्ठितत्वात प्रतिकणम ॥१॥"व्यवहा
ततो मातुः कायादजिनिवर्तमानाः पृथग् भवन्तः सन्तस्तद्योरजयमते तु नानात्वमप्यनयोः, तथा च क्रियमाणं कृतमेव, कृतं
नेनिंगच्चन्ति, ते च तथाविधकर्मोदयादात्मनः स्त्री पुनपुंसकभा. तु क्रियमाणमेव स्यात्, क्रियमाणं क्रियाशसमये, क्रियोपरमे
वं जनयन्ति । तथोक्तम-"अज्ञानपांशुपिहितं, पुरातनं कर्मबीपुनरक्रियमाणमिति । नक्तं च-" तेणेह कन्जमाणं, नियमेण्ण क. | जमविनाशि । तृष्णाजलानिषिक्तं, मुञ्चति जन्माकुरं जन्तोः य कायं तु भयणिज । किश्चिदिह कन्जमाणं, नवरयकिरियं च |॥१॥” इति । 'जम्म' शब्दे विस्तरतो विवेचितमिति १४२४ होजाहि ॥ २३२०॥" किच जवतो मति:--क्रियामयसमय पृष्ठे विलोकनीयम्।* पूर्वोक्तवचनानुरोधेन निधीयतेऽयमों यत् पवाभिमतकार्यभवनंतत्रापि प्रथमसमयादारभ्य कार्यस्य किया | सुकर्म कुष्कर्मवशादेव जन्तुरनीशो जन्मजरामरणाऽऽदिक्लेशा. त्यपि निष्पत्तिरेएव्या, अन्यथा कथमकस्मादन्त्यसमये सा ननुनूय पुनरपि गडरिकाप्रवाहन्यायेन तेष्वेव निपततीति । जवेत् ।
अत एव जिनवचनाऽविश्वासरूपदुष्कृतिपरिणामतो जमालेः कि
चिविकदेवेषत्पत्तियां वर्णिता, भगवदवचसि श्रकामादधती "माद्यतन्तुप्रवेशे च, नोतं किञ्चिद् यदा पटे।
जयन्ती श्राविका तु सुगतिमुररीचकारेति निर्विवादम् । इत्थंअन्त्यतन्तप्रवेशे च, नोतं स्यान्न पटोदयः ।।१॥
च-"समस्तवस्तुधिस्तारे,ज्यासपत् तेलवजले । जीयात् श्रीशातस्माद् यदि द्वितीयाऽऽदि-तन्तुयोगात प्रतिक्षणम् । सन जैन, धीदीपोद्दीप्तिवर्धनम् ॥१॥" तस्माद जिनवचनका. किञ्चित् किश्चितं तस्य, यदुतं तदुतं हि तत् ॥ २॥" यां यतनावता भव्येन जाव्यम् । उक्तं च सैद्धान्तिकैः
इह प्रयोगः यद् यस्याः क्रियाया श्राद्यसमये न भवति, तत्त- "जयण धम्मजणण), जयणा धम्मस्म पालणी चेव । |स्था अन्त्यसमयेऽपि न नावि, यथा घटक्रिया sऽदिसमयेऽन- तवकिरी जयणा, एगंतसुढाबहा जयणा ॥१॥
वन् पटो, न भवति च कृतक्रियमाणयोदे क्रियाऽदिसमये जयणाएँ बट्टमागो, जीवो सम्मत्तनाणचरणाणं । * कार्यम, अन्यथा घटान्त्यसमयेऽपि पोत्पत्तिः स्यात् । एवं सहाबोहाऽऽसेवण नावेणाऽऽराहगो भणिो ॥२॥" च.."यथा वृक्षो धवश्चेति,न विरुद्धं मिथो द्वयम् । क्रियमाणं
किञ्चकृतं चेति, न विछर्क तथोनयम ॥२॥" प्रयोगश्च-यद् येना- “यत्नं विना धर्मविधावपीह, प्रवर्तमानोऽसुमतां विघातम । |विनानुन तदेकान्तेन भिद्यते, यथा वृक्तत्वाद् धवत्वम, कृत- करोति यक्ष्माश्च ततो विधेयो,धर्मात्मना सर्वपदेषु यत्नः ॥३॥" स्वाविनानूतं च क्रियमाणत्वमिति, सकल लोकप्रसिद्धत्वाच्च अथ (जमालिप्रसङ्गादेव) तृतीयभागस्थप्रस्तावस्य २ पृष्ट है
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घण्टापथः ।
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त्वार्येव नृतानि तवम् न तु तव्यतिरिक्तो भवान्तरानुसरणव्यस | वानां दशविधवम सूहमा पर्याप्तकपर्याप्तक बादरापर्याप्तकपर्यानवानात्मोत चार्वाकच पराकरणं विधायजीव सिकिरुपपादिता |तक द्वीन्द्रियत्रीनिकयचतुरिन्द्रियसंझ्यसंक्षिपञ्चेन्जियपयांप्तका.. इह तु जीवाजीचाऽऽदिनवतस्वनिरूपणप्रयणे श्रीमदच्छाशने | पयोप्तकत्वेन जीवानां चतुर्दशाविधत्वं च 'जीव' शब्दे १५२५ पृष्ठे तस्य जीवस्य कयश्चित्रित्यत्वं कश्चिदनित्यत्वं जमालिमनिमः |न्यकेण निरूपितमिति । *किं नाम जीव इति प्रश्नस्य यद्यपि खीकृत्य भगवानाह-"सासए जीवे जमाक्षी! जण कयाहणासि०प्रकारद्वयेन लेशतो नावितमुत्तरं तथाऽपि विशेषबबोधयिषया जाब णिच्चे । प्रसासए जीवे जमाली!जणेरप भवित्ता तिरि.
किश्चिदिह प्रतायते-उपशमौदयिकनायिकवायोपशामिकपाक्खजोणिए भवाइ, तिरिक्खजोणिए भवित्ता मगुस्से नवा, रिणामिकैर्भाः संमिश्रं व्यं जीवशब्देनोच्यते। ग्राह-औदमणुस्से नबित्ता देवे भव । " * ननु को ऽसी जीवो जीव इति यिकान् भावान् परित्यज्य किमिती होपशामिकस्य भावस्य मा. भवनिरुद्घुप्यते, यस्य वा सिद्धिरुपपादिता?, इत्यत्राह- कादुपादानम् । उच्यते-इह जीवस्य स्वरूप तदेव वक्तव्यं यद"पञ्चेजियाणि त्रिविधं बलं च, उच्चासनिश्वासमधान्यदायुः ।
साधारण स्वरूपम् । एवे हि पदार्थान्तरस्वरूपेच्यो धैविक्त्येन प्राणा दशैते भगवदनिरिणाः,तेषां वियोगीकरणं चहिसा ॥१॥" तत् प्रतिपादितं जवति,नान्यथा, औदयिकपरिणामिकौ च भा. इत्यादिवचनप्रसिहान् दशविधप्राणान् जीवति कोऽर्थो धर
बावजीवानामपि भवतः,अतस्तो साक्वानोपात्ती, कायिकोऽपि तीति शब्दार्थवशादेव जीवन्नेव जीव उच्यते। तादृशः संसार्येव
च भाब औपशमिकभावपूर्वकः, न खल्बोपशामिकभावमनासारा भवति, सिस्नु जीवशब्देन न व्यपदिश्यते । तथा च नया
कश्चिदपि क्षायिक नाबमासादयति, क्षायोपशनिकोऽपि च भा. पदेशे-" सिको न तन्मने जीवः, प्रोक्तः सरचादिसंडाप। वो नोपशमिकाद् भावादू अत्यन्त नेदी, तम इह साकादौपमहाभाष्ये च तत्वार्थ-भाप्ये धात्वर्थबाधतः ॥ ४०॥" एवं च शमिकस्य भावस्योपादानमिति । ततः कस्य प्रभवः स्वामिनो सिद्धासिद्धत्येन सेन्डियानिन्द्रियत्न सकायिकाऽकायिक-जीवाः इति प्रश्नावसरे, अात्मीयस्य रूपस्योत्तरम् । तथाहिवन सयोगायोगत्वेन सवेदकावेदकत्वेन सकपायाकपाय
कर्मविनिर्मुक्तस्वरूपा प्रात्मानो न केषामपि प्रभवः, किन्तु स्व. त्वेन सलेश्याले श्यात्वेन झान्यज्ञानित्वेन साकारोपयुक्ता
रूपस्यैव, तथास्वाभाव्यात् । यस्तु स्वस्वामिभावः संसारे, स नाकारोपयुक्तत्वेन, आहारकानाहारकत्वेन भाषकाभाषकत्वेन
कर्मोपाधिजनितत्वादोपाधिका,न पारमार्थिक इति । ननु केन नि. चरमाचरनत्वेन जीवानां द्वैविध्यम, बसस्थावरनोत्रसस्था
मिता जीघा इति प्रश्ने कृते सति समाधिः-न केचित् कृताः, वरत्वेन परीतापरतनोपरीतापरी तत्वेन स्त्रीपुरुषनपुंसकत्वेन किन्तु नभस्वद्वदकृत्रिमा एव, यथा चाकृत्रिमता जीवानां तथा सम्यग्दृष्टिमिथ्या दृष्टिमम्यगमिथ्या दृष्टिवन पर्याप्तकापयीप्तक- धर्मसंग्रहणीटी कायां संप्रपञ्चव्याख्याता,विशेषजिज्ञासुभिस्तत नोपर्यातकापर्याप्तकत्वेन सूक्ष्मवादरनोसूक्ष्मवादरत्वेन संझ्य- एवावधार्या । ननु किं जीवाः शरीरे लोके वाऽवनिष्ठन्ते ?, इति सझिनासंझ्यसंझित्वेन जवसिद्धिकाऽजयसिद्धि कनोभवसिद्धि-प्रश्नस्थोत्तरम-सामान्यचिन्तायां खोके,नालोके, अलोके स्वभाकामवसिधिकत्वेन जीवानां वैविध्यम,नरयिकतिर्ययोनिकमनु- |वत एव धर्माधर्मास्तिकाय जीवपुद्गलानामसंभवात् । निशेप्यदेवत्वेन मनोयोगिधचोयोगिकाययोग्ययोगित्वेन स्त्रीवेदकपु- चिन्तायां शरीरे, नान्यत्र, शरीरपरमा एभिरेय सह आत्मप्रदेरुषवेदकनपुंसकवेदकावेदकत्वेन चक्षुदर्शनाचक्षुर्दशनावधिदर्श- |शानां कीरनीरवदन्योन्यानुगमभावात् । नक्तं च-"अनोन्नमाणन केवल दर्शनत्वेन संयतासंयतसंयतासंयत-नोसंयतासंयतत्वे. गया, इमं च तं च त्ति विजयणमजुत्तं । जह खीरपाणियाई।" न जीवानां चातुर्विध्यम्,एकद्वित्रिचतुःपञ्चेन्द्रियस्वेन नैरयिकति. इति । सर्वकाल मेव जीवा भवन्ति,अनादिनिधनाश्च जीवा इति यंग्यानिकमनुष्यदेवसिद्धत्वेन, क्रोधमानमायानोभकपायित्वा- मुक्त्यवस्थायामपि जीवा न विनश्यन्ति, किन्तु ज्ञानाऽऽदिके कपायित्वेन जीवानां पञ्चविधत्वम, पृथिव्यप्तेजोवायुवनस्प- स्वस्वरूपेऽवतिष्ठन्ते इति श्रद्धेयम् । तेन यत् कैश्चिकम् - तित्रसकायिकत्वेन, आमिनिबोधिकाऽऽदिपश्चविधज्ञानिवन | " दीपो यथा निवृतिमभ्युपेतो, नैवानि गच्छति नान्तरिक अझानित्वेन च, एकद्वित्रिचतुःपञ्चेन्द्रियत्वेन अनिन्जयलेनम्। दिशं न काचिद विदिशं न काचिद, स्नेहायात केव. च, औदारिकक्रियका हारकतैजसकामणशरीरत्वेन अस. |अमेति शान्तिम् ॥ १॥ जीवस्तथा निर्वृतिमभ्युपेतो, नैवा. सरत्वेन च जीवानां पवित्वम्, नेरयिकतिर्यगयोनिकचन - | वनिं गच्छति नान्तरिकम् । दिर्श न काचिद् विदिशं न कातियग्मोनिकरवन च-मनुष्यमानुपीदेवदेवात्वेन, पृथिव्यप्तेजा- | चिद, स्नेहकयात केवलमेतिशान्तिम ॥ २ ॥ अहन्मरणचिवायुवनस्पतिबलकायिकाकायिकत्वेन, कृपलानीसकापोततेजःप. | तस्य, प्रतिसन्धिन विद्यते । प्रदीपस्येव निर्वाणं, विमोवास्त. द्मशुक्ल झेश्याडलेश्यात्वेन जीवानां सप्तविधयम, प्रथमाप्रथमः स्य चासतः ॥३॥” इति । तदपास्तं दृष्टयम । सतः ममयनैरयिकत्वन प्रयमाप्रथमसमयतियंग्योनिकत्वेन प्रथमा | सर्वधा विनाशायोगात्, तथादर्शनादिति कृतं प्रसङ्गेन । वि. प्रथमसमयमनुध्यत्वेन, प्रथमा प्रथम समयदेवत्वेन; नायिक-स्तरेच्नुनिः 'जीव' शब्दो वीक्ष्यः । त्रिषधिकशततिय गयोनिकमनुषयदेवसित्वेन तिर्यग् योनि कामानुपादेवा-भदा जीवानां 'जीव' शब्दे १॥३६ पृष्ठे व्याः । जिनवचनस्य स्वेन च जीवानाम विधत्वम, पृथिव्याजावायुबनस्पतिति श्रद्धास्पदत्वादेव " चंदो चंदो अभिव-विभो य चंदमभित्रिचनु पञ्चन्धियत्वेन; अथवा-एकद्वित्रिचतुरिन्जियनैरपिक-बहिश्रो चेव । पंचसहियं जुगमियां, दिलं तेवोक्कदसीहिं ॥१॥ पश्चेन्डियनियंग्यानिक-मनुष्यदेवसिद्धत्वेन, प्रथमाप्रथमसम-पढमविइयान चंदा, तश्यं अनिवयिं वियाणाहि । चंदे चेव यनयिक प्रथमाप्रथम समयनियंग्यानिकप्रथमा प्रथमसमयमनु- |च उत्थं, पंचममभिवडिय जाण ॥२॥” इति सुगवचनाऽऽदि प्यप्रथमाप्रथमसमयदेवसिद्धत्वेन जीवानां नवविधत्वम, प्रथ. I'जुग' शब्दे १५६७ पृष्ठत प्रारभ्य १५७३ पृष्ठपर्यन्तं निरीमाप्रथमसमय केन्द्रियहीन्द्रियत्रीन्द्रिय चतुरिन्द्रियपश्चेन्द्रियत्वे- कणीयम् । पूर्वोक्त कारणादेव ज्योतिषकानां पश्वविधत्यनिरूप. न. पृथिव्यप्तेजोवायुवनस्पतिवित्रिचतुःपञ्चेन्द्रिाभियत्वेन, | णानन्तरं चलवस्थिरत्वविचारः, सर्वलोके प्रतिद्वीपं प्रतिसप्रथमाप्रथम समयमै रथिकतिर्यस्पोनिकमनुधावसिकत्वेन जी-मुहं चादीनां परिमाणप्रतिपादनार्थमन्यतीथिकानां द्वा.
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दशप्रति परमान्द गरिनिरूपणम्। जम्बूद्वीपगतमनुष्यक्षेत्रस्य चन्द्रादेशः चन्द्राऽऽइयो पत्र पथ भ्रमन्ति तमित्यादि एकरूप प्रस्तावे मनुष्यलबो-ददी दीया कारवर दबा खेत्तं ॥ १ ॥ एतं माणूसवेत्तं एत्थ विचारीणि जोइसगणाणि । परतो दीवसमुद्दे, श्रवहियं जोइस जाण ॥ २ ॥ " तत्र च " चंदा सूरा य गढ़ा, नक्खत्ता तारया य पंच मे । एगे चसजोइलिया, घंटायारा थिरा श्रवरे ॥ १४७ ॥ " तथा च - "दो चंदा दो सूरा, एकखत्ता खजु हवंति उष्पष्ठा । वावत्तरं गहसतं, जंबुद्दीवे वियारीणं ॥ १ ॥ एगं च सयसहस्सं, तिची. सं खलु नवे सहस्लाई । णत्र यसता पासा, तारागणको मोडणं ॥ २ सय देि बोकनयिम | * जिनवचनमेतत् जिनाऽऽगमे-योगादेव कर्मक्यो भवतीति तस्य योगस्य माहात्म्यम्, तथा च योगमागधिकारिणः योगनिष्यस्य विद्वानि तथादि" ब लक्ष्यमारोग्यमनिष्ठुरत्वं मन्यः शुभ पुरीषमयम का न्तिः प्रसादः स्वरसौम्यता च, योगप्रवृत्तेः प्रथमं हि निङ्गम् ॥ १ ॥ " इत्यादि त्रिंशदू विषयाः "जोग" शब्दे सम्यक् प्रतिपादिताः । तथा-"गुरुमत्तो अपमत्तो, खंतो दंतो य निरुयगतो य। थरचित्तो दढसत्तो विण्यजुतो भवविरतो य ॥ १ ॥ जियो जियन हिमपि मित्थो । अप्पाहारो अप्पो-वही य दक्खो सुखिनो ॥ २ ॥ पंचसमिभीतिगुतो, तो संजमे वर्षे करणे परिसहस हो मुवि। कपसोडलीयकमे, तिवासपरिया पण कालेणं । श्रायारपकप्पाई, उद्दिसिउं कप्परे जुग्गो ॥ ४ ॥ " इत्यादि तु 'जोगविडि' शब्दे द्रष्टव्यम्। * तथा जिनोक्तं ध्यानस्वरूपं ध्यानाध्यानयोर्विवेचनं, ध्यानस्यैव भेराः प्रशस्ताप्रशस्तानि ध्यानानि, ध्यातव्य भेदाः, ध्यातुः स्वरूपं, संसारप्रतिपक्षतया मोकडे तुर्ध्यानं, ध्यानस्य फला नि चेत्यादि 'जाग' शब्दे १६६१ पृष्ठत आरज्य १६७३ पृष्ठपर्यन्तं द्रष्टव्यम् ।
常常料
घण्टापथः ।
तथा च
ध्याता ध्येयं तथा ध्यानं, त्रयं यस्यैकतां गतम् । मुनेरनन्यचित्तस्य तस्य दुःखं न विद्यते ॥ १ ॥ ध्याताऽन्तराज्यमा ध्येयस्तु परमात्मा प्रकीर्तितः । ध्यानं त्रैकाग्रसंवित्तिः, समार्पाचिस्तदेकता ॥ २ ॥ जितेन्द्रियस्य धीरस्य, प्रशान्तस्य स्थिराऽऽत्मनः । सुखाऽऽसनस्य नाश। ग्रन्यस्तनेत्रस्य योगिनः ॥ ३ ॥ रुरुबाह्यमनोवृत्ते - धरणाधारया स्यात् । प्रसन्नस्याप्रमत्तस्य चिदानन्दाहः ॥ ४ ॥ साम्राज्यमप्रतिद्वन्द्व-मन्तरे च वितन्वतः।
ध्यानिनो नोपमा लोके, सदेवमनुजेऽपि हि ॥ ५ ॥ " पानविरहितास्तु परमार्थमा नानो ऽतरस्वनाऽपि सत्स्वभावाऽऽरोपणेना म्यादध्यन्तमः कामी मोदते । तत आइ
" दृश्यं वस्तु परं न पश्यति जगत्यन्धः पुरोऽवस्थित, रागान्वस्तु यदस्ति तत् परिहरन् यन्नास्ति तत्पश्यति । कुरा
नारायाऽशुचिराशिषु प्रियतनागात्रेषु यन्मोदते ॥ १ ॥ "
(3)
तोयनमेवास्माकं जीवातुभूतं ततस्तदनुज्ञातं 'नवकार' सिम्ि
सन्त पण सत सत्त य, नव क्खरमाणपयडपंच पयं । ती सुमिरहनकारवर ॥
पंचमु
मंगला च सव्वैसि, पढमं हवइ मंगलं ॥ २ ॥ अरिहंतन मुक्कारो, जीवं मोह भवसमुद्दाओ । भावेण कीरमाणो, होइ पुणे बोहिबानाए ॥ ३ ॥” ननु सूत्रं संपविस्तरावतिक्रम्य न वर्तते तत्र संकेपवद् यथा सामायिकसूत्रम् विस्तरयद् यथा चतु
पुनर्नमस्कारसुत्रमुभयातीतं यतोऽत्र न संक्केपो, नापि विस्तरः यद्ययं संकेषः स्यात् ततस्तस्मिन् सति द्विविध एव नमस्कारो भवेत् सिद्धसाधुभ्यामिति परिनिर्वृता दादीनां सि संसारिणां तुसादेनेति संसारि णो हि चाऽऽयो त्यति
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स्तरः । तदप्ययुक्तम् । यतो विस्तरतोऽनेकविधो नमस्कारः प्राप्नोति । तथादि ऋषभाजित संभवाऽऽदिज्यो नामग्राई स वैतीर्थकरेभ्यः । तथा सिद्धेभ्यो ऽप्येकद्वित्रिचतुष्वञ्चाऽऽदिसमसियो यावदन्तमति
विशेषविशिय इत्यादि
तभेदों नमस्कारः प्राप्नोति । यतश्चैवं तस्मादसुं पश्यमश्रीकृत्य पञ्चविधोऽयं नमस्कारो न युज्यत इति ॥ * इह चेदं प्र तिविधानम्-न संक्षो नापि विस्तार इत्येतदसिरूम, संक्षेपस्त्वादस्य । किञ्च - इहाईदादयो नियमात् साधवः, तद्गुणानामपि तत्र भावात् । साघवस्तु तेष्वदादिषु विकल्पनीयाः, यतस्ते न सर्वेऽप्यदादयः, किं तर्हि, केचिदन्तः येषां ती
करनामकमयोऽस्ति के सामान्य अस्वा चार्या विशिष्टसूत्रार्थदेशकाः, अपरे तूपाध्यायाः सूत्रपावकाः, अन्ये तदविशिष्टाः सामान्य साधत्र पत्र शिक्कादयो न | पुनरईदादयः । तदेवं साधूनामर्हदादिषु व्यतित्राराद् यन्नमकरणेऽपि नादादिनमस्कार साध्यस्य विशिस्य फत्रसि द्धिः । ततश्च संज्ञेषेण द्विविधनमस्करणमयुक्तमेव, अध्याप कत्वादिति । तस्मात् संक्षेपतोऽपि पञ्चविध एव नमस्कारो, न तु द्विविधः अव्यापकत्वात् । विस्तरतस्तु नमस्कारो न विजयाद दमयत्वेऽपि प्रामाण्यमन्युपगच्छभिनय निकुरम्बोपन्यासः कृ तस्तत्र किं नाम नयत्वम् ? । उच्यते बहुधा वस्तुनः पयो याणां संभवादविवक्तिपर्यायेण यन्नयनमधिगमनं परिच्छेदोऽसौ नयो नाम । तथाहि इह हि जिनमते सर्व वस्त्वनन्तधर्माऽमकतमा संकीर्णस्वभावमिति तत्परिच्छेद केन प्रम:ऐनापि तथैव जवितव्यमित्यवकीर्णप्रतिनियत धर्ममकारकव्यवहारसिद्धये नयानामेव सामर्थ्यम् । तटुक्रम्
,
"प्रभू
वस्तूनां नियतांशकल्पनपराः सप्त सङ्गितः । श्रीदासीपराव व मयुवा
देकान्तकलङ्कपङ्कक लुत्रास्ते स्युस्तदा पुर्नयाः ॥ १ ॥ " नयोपपश्यादयस्तु 'जय' शब्दे २०५३ पृष्ठत भारज्य १६०१ पर्यन्तं विस्तरतो निपानजननमार पत्र की पावन
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老老老老老老老老老老老老老老老老老老老老老老老老老老老老老老老老老李彬彬彬彬本丰林林 (८)
घण्टापथः। यते प्राणिना ? । उच्यते-दुःसहे तीवे स्खदिरामारमहा- "माणी गिएहा माण, मुणे नाणेण कुणा किया। राशितापादनन्तगुणेऽभितापे बहुवेदनेऽपरित्यक्तविषयाग्निावला भवसंसारसमुदं नाणी नाणहिलो तरति ॥१॥" जिनवचनानादरपराः स्वकृतकर्मगुरवः पतन्ति निरयादिषु, "तम्हा न वज्झकरणं, मज्झ पमाणं न यावि चारितं । तत्र च नानारूपा घेदनाः समनुभवन्ति ।
माणं मम पमाणं, नाणे च छियं जनो तित्थं ॥१॥" तथा चोक्तम्
परन्तु ज्ञानिनाऽपि चरणवता नाव्यम्“गिद्धमुहणिद्ध उक्खि-तबंधणोम्मुक्तकंधरकबंधे ।
"जाणतो वि भ तरिउ, काश्यजोगं न जुजई जोग। दढगहियतत्तसंमा-सयग्गविसमुक्खुमियजीहे ॥१॥
सो वुड सोपणं, एवं नाणी चरणहीणो ॥१॥" तिक्खंकुसमाकडिय-कंटयरुक्खम्गजजरसरीरे।
ननु तत्र तत्र जिनवचने निगोदर्जावानां चर्चा कृताऽस्तीति के निमिसंतरं पि वह-सुक्खेऽवक्खेबदुक्खम्मि ॥२॥ ते निगोदजीवाः ?, बधयारफुग-धबंधणायारपुदरकिलेसे।
सध्यतेजिनकरचरणसंकर-रुदिरवसामुग्गमप्पवहे ॥३॥
"जह अयगोली धंतो, जाओ तत्ततवणिजसंकासो । सुक्ककंदकडाहु-कदंतमयकयंतकम्मते ।
सब्बो प्रगणिपरिणो, णिगोयजीवे तहा जाण ॥ १५॥ मूसविभिन्मुक्खित्-कदेहणितंतपब्नारे॥४॥
एमरस दोराह तिराह व,संस्खेजाणं व पासिउं सका। जंतंऽतरभिज्जंतु-चलंतसंसहभरियदिसिविवरे ।
दीसंति सरीराई, णिगोयजीचाणणंताणं ।। २०॥" मज्जंतुम्फिमियसमु-वसंतसीसहिसंघाए ।॥ ५ ॥ | यथायोगोलो ध्मातः सन तप्ततपनीयसंकाशोऽग्निपरिणतो ज. श्य भीसणम्मि निरए, पमंति जे विविहसत्तवहनिरया। | वति, तथा निगोजोवानपि जानीहि,निगोदरूपेऽप्य कैकस्मिन् सम्बजट्ठा य नरा, जयम्मि कयपावसंघाया ॥६॥" शरीरे तचरीराऽऽत्मकतया अनन्तान् जीवान् जानीहि । ननु इत्थं च बहवोऽपि विषया नरकसंबन्धिनः ‘णरग' शब्द | कथं निगोदरूपं शरीरं नियमादनन्त जीवपरिणामाऽऽविनावित विषयसूच्या १९२५ पृष्ठे विभावनीयाः। प्रत्यकपरोक्कत्वेन का- | भवतीति । उच्यते-जिनवचनात् । तदम-"गोला य असंनस्य द्वैविट्यम,केवलनोकेबनशानत्वेन प्रत्यकस्यापि द्वैविध्य- खेजा, होति निगोया असंखया गोले । पक्कझो य निगाओ, म, अवधिमनःपर्यवज्ञानत्वेन केवलज्ञानस्यापि द्वैविध्यम्, परो- | अणंतजीयो मुणेयब्बो ॥१॥" तभेदास्तु "णिगोय" शब्दे क्षमानस्य तु मानिनिबोधिकश्रुतज्ञानत्वेन द्वैविध्यम । ननु यदि | २०२५ पृष्ठे अष्टव्याः। जिनवचनादेव 'निर्ग्रन्थ' शब्दे पुलाकचचैतन्यं ज्ञानमात्मनोऽत्यन्तव्यतिरिक्तम, तदा कथमात्मनः सं- कुशकुशीलनिन्धस्नातकलेदेन पञ्चविधनिर्ग्रन्थस्वरूपनिरूबन्धि ज्ञानमिति क्यपदेशः १, यद्यात्मनो ज्ञानादब्यतिरिक्तत्व- पणानन्तरं तेषां साधकविचारः , कूजनताकर्करणताऽऽपमिष्यते, तदा दुःख जन्मप्रवृत्तिदोषमिथ्याज्ञानानामुत्तरोसरापा- ध्यानताऽदिनेदेन निर्ग्रन्थानां, निर्घन्धीनामसुखत्वाऽऽदि प्ररूये तदनन्तराभावाद् बुद्ध्यादीनां नवानामात्मविशेषगुणामामु. | प्य तदुवैपरीत्येन सुखत्वाऽऽदिनिरूपणमेवमादयो विषयाः पच्छेदावसरे आत्मनोऽप्युच्छेदः स्यात,तदव्यतिरिक्तत्वात् । अतो. चत्वारिंशदू रुष्टव्याः । निर्ग्रन्धाशब्दे निग्धीनामाचाराभिन्नानिन्नमेवाऽऽत्मनो ज्ञान यौक्तिकमिनि । प्रपञ्चितं चैतन | ऽदिनिर्देशः । णितियवास' शब्द साधुसाध्वीनां नित्य'णाण' शब्दे १६५७ पृष्ठ न्यक्केण परतीकिमतोपन्यासनिर- पास एकत्र निषिकः । तथादि-विहारपरिहारेण सर्वदै कत्र सनाच्याम्।
निवासवतां प्रासुकैषणीयषसतिलाभाभावाद् गृहस्था इवा. ज्ञानाज्ञानाच्यां यद् भवति तदाह
श्रयानावेषु मुक्तसमस्त जीवोपमर्दाऽऽदयः स्वयंप्रहकरणका"मज्जत्यकः किसाझाने, बिष्ठायामिव शकरः।
रणानुमोदनादौ प्रवर्तन्ते, ततश्चैपणायामपि जीवनिकायाना. झानी निमज्जति ज्ञाने, मराल इव मानसे ॥१॥
माकुट्यापि विराधनोत्पद्यते, ततश्च प्राणातिपातविरमसमनिर्वाणपदमध्येक, भाव्यते यद् मुहुर्मुहुः।
हाव्रतनगनिरर्थकताया अपि शिरस्तुएममुगमनाऽऽदेयर्थ्य तदेव ज्ञानमुत्कृष्ट, निर्बन्धो नास्ति भूयसा ॥२॥
| स्यात् । अन्यथैकत्र निवासे प्रतिदिनमाहाराऽऽदिदानवन्दनास्वभावलाभसंस्कार-स्मरणं कानमिष्यते ।
उऽदिप्रतिपस्योपगृहीतानां साधूनामनादिनवाभ्यासवशवर्तिनां भ्याध्यमात्रमतस्वन्यत्, तथा चोकं महात्मना ॥३॥ प्रतिबन्धाऽऽदयः संभवन्ति । उक्तं च-" पमिबंधो लहुयत्तं, वादाँश्च प्रतिवादश्चि, वदन्तोऽनिश्चितस्तथा।
न जावयारो न देसविनाण । नाणारादणमेप, दोसा तवान्तं नैव गच्छन्ति, तिलपीबकवद् गतौ ॥४॥
अविहारपक्वम्मि ॥१॥" ततश्च प्रतिबन्धात संबन्धः, संव. अस्ति चेद् ग्रधिभिद् ज्ञानं, किं चित्रैस्तन्त्रयन्त्रणैः । धात् चित्तविप्नुतिः, चित्तविप्लुतेरकार्यप्रवृत्तिरिति । यदा च प्रदीपा: कोपयुज्यन्ते, तमोहनी दृष्टिरेव चेत् ॥५॥
चित्तविप्लुत्या प्रेरितः स्त्रीसेवाऽऽदो प्रवर्तते, तदा न केवलं पीयूषमसमुनोत्थ, रसायनमनौषधम् ।
प्रथमवतभङ्गः, अपि तु पात्रानामपीति । किस्तुअनन्यापेकमश्वर्य, कानमाहुर्मनीषिणः॥६॥"
"जो होज्जड़ असमस्थो, रोगेण व पेल्लिओ झुसियदेदो। "जो विणीतं नाणं, जं नाणं सो अ वुश्चई विणओ।
सम्बमवि जहानणियं, कयान तरिज काउं जे ॥१॥ विणपण सहा नाणं, नाणेण वि जाणई विणयं ॥ ७॥" सो विय निययपरक्कम-ववसायधिइबलं अगूहेतो। "क्रियानयः क्रियां ब्रूने, कानं ज्ञानमयः पुनः।
मोत्तूण कूमचरियं, जयई जर तो अवस्स जई ॥२॥ मोकस्य कारणं तत्र, नूयस्यो युक्तयो ध्योः॥८॥
निम्मम निरहंकारा, उज्जुत्ता नाणदसणचरित्तम्मि । नित्यनैमित्तिकैरव, कुर्वाणो दुरितक्यम् ।
एगक्खेत्ते वि ग्यिा, खचेति पोराणयं कम्मं ॥ ३ ॥ ज्ञानं च विमलीकुर्व-नयासेन तु पाच येत॥॥
जियकोहमाणमाया, जियसोनपरीसहाय जे धीरा। अभ्यासात् पक्वविझाना, कैवल्यं बनते नरः॥"
वढाचासेऽवि ग्यिा, खचेति पोराणयं कम्मं ॥ ४॥
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पंचसमिया तिगुत्ता, उज्जुत्ता संजमे तवे चरणे । वासस्यं पि वसंता, मुणिलो आराहगा भणिया ॥ ५ ॥ " नित्यवासविषये संगमस्थविरचरितं तु २०७१ पृष्ठे द्रष्टव्यम् । ननु जिनयचनधावतो निर्या श्रूयते कि नाम निर्यातम तथाहि
" मन्नसि किं दीवस्स व, नासो निवासमस्त जीवस्स । दुक्खक्खयाहरूवा, किं होज्ज व से सनोवस्था ॥१६७५॥”
तद् यथा सौगताः प्राऽऽहुः
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दीगो यथा निर्वृतिमभ्युपेतो,
नैवावनिं गच्छति नान्तरिक्षम् । दिशं न काञ्चिद् विदिशं न काञ्चित्, स्नेहक्षयात् केवलमेति शान्तिम् ॥ १ ॥ जीवस्तथा निर्वृतिमभ्युपेतो,
तितान्तरिक्षम् ।
दिन काञ्चिद् विदिशं न काञ्चिद् क्लेशयात् केवलमेति शान्तिम् ॥ २ ॥ "
घण्टापथः ।
किं वा यथा जैनाः प्राऽऽहुस्तथा निर्वां भवेत् ? । तथाहि रागद्वेषमदमोहजन्मजरारोगा ऽऽदिदुः पाबिशिष्टा काचिदवस्था विद्यमानस्य जीवस्य । उक्तं च-" केवलसंधिदर्शन रूपाः सर्पातिदुः परिमुक्ताः । मोदन्ते मुनिगताः, जीवाः दीयान्तरारिमाः ॥ १॥" अथवा स्यानादित्यात् कर्मजीवयोः संयोमायोपात् संसाराभाव एव न भवेत् । जीवायोरिव ययोरनादिः संयोगः वयोर्वियोगो न भवति, अनादिश्व जीवको संयोगः ततो वियोगानुपपत्तिः, ततश्च न संसाराभावः, तथा च सति कुतो मोक्षः ? । अथाय प्रतिविधीयते यमेकान्तो यनादिसंयोगो न मिथते यतः काञ्चनधातुपाषाणयोरनादिरपि संयोगादिसंपर्क विघटत एव तद्वद् जीव कर्मसंयोगस्यापि सम्यम् ज्ञानक्रियाभ्यां वियोगो मसिडकक्त् प्रतिपद्यताम् । ननु यथा कर्मणो नाशे संसारो नश्यति तथा तत्राशे जीवत्वस्यापि नाशादू मोक्षाभावो भविष्यति । एतदभ्यसारम् । यतः कर्मजनितः संसारः, तन्नाशे संसाररूप नाशो गुज्यत एव कारणाभावे कार्याडमा वस्य सुप्रतीतत्वात् । जीवत्वं पुनरनादिकालप्रवृत्तत्वात् कर्मकृतं न भवति, अतस्तन्नाशे जीवस्य न कञ्चिद् नाशः, कारणव्यापकयोरेव कार्यव्याप्यनिवर्तकत्वात् कर्म जीवस्य न कारणं, नापि व्यापकम् । इतश्च जीवो न नश्यति - "न विमाधनुवादामा पिव विकासधम्मो सो इह नासिणो विगारो, दीसह कुंभम्स वाऽवयवा ॥ १६८१॥ कातरनासी वा घडो व्व कयगाइओ मई होजा । नो पद्धंसाभावो भुवि तद्धम्मा वि जं निचो ॥१६८२ ॥ " इति । अथ यदुक्तम्- दीपो यथा निमित्तत्रोत्रम्-"यसन्हा विशासो
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स परिणाम पयस्सेव । कुंभस्स कवालाण व तहा विगारोलमा ३९६" ततः दीप निवासो परिणाअंतरमिता जीव भए परिमियाको पत्तो लायाहपरिणामं ॥१६६९॥ " किञ्च " मुत्तस्स परं सोक्खं, णावाहओ जहा मुणियो । तम्मा पुरा विरहा-दावरणाचाहे ॥१२२॥ इत्यादि निर्वाणविषयविस्तरः शि व्वाण' शब्दे निर्वाणजिज्ञासुभिर्निपुणं निभालनीयः । तच्च नितपोऽन्तरा न लभ्यते इति प्रसङ्गतः तपःस्वरूपमुच्यते
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"ज्ञानमेव बुधाः प्राहुः कर्मणां तापनात् तपः । तदाभ्यन्तरमेवे, बाह्य तदुपदकम् ॥ १ ॥ तदेव हि तपः कार्ये, दुर्ध्यानं यत्र नो भवेत् । येन योगा न हीयन्ते, क्षीयन्ते मेन्द्रियाणि वा ॥ २॥ भूलोत्तरगुपधेखि प्राज्यसाम्राज्यसिद्धये । बाह्यमाभ्यन्तरं वेत्थं, तपः कुर्याद् मद्दामुनिः ॥३॥” “एसो वारसभेश्रो, सुत्तयो एय विसेसो उ इमो पहलगोग भवति ||४|| तित्ययरनिम्माई, खम्बगुणपसा तवो दोह या हिच नियमा, विसेसो पदमठाणी ॥२॥ जम्दा एसो लुडो, अलियाणो होइ भावियमईं । तम्हा करेह सम्मं, जह विरदो दो कम्मा || ४७||" "सो तो कायजेस मो हु मंगलं न चिंते । जेण न इंदियहाणी, जेण य जोगा न हायंति ॥ १४ ॥ " " तपश्च त्रिविधं ज्ञेय-मफलाऽऽकाङ्क्षिभिर्नरैः श्रद्धया परया तसं, सात्विकं तप उच्यते ||१|| सत्कारमान - पूजाऽर्थ वो दमेन यत् किं तदिद प्रो. राज चलमधुवम् ॥२॥ मूढग्रहेण यश्चाऽऽत्म- पीडया क्रियते तपः परस्योच्छेदनार्थ वा तत्तामसमुदाइतम् ॥ ३ ॥ " इति ।
अनेकजन्माभ्यस्ततपःप्रभावात् तीर्थकरनामकर्मणी संवअथ निर्वाणमधिरोहति जीव इति सिद्धान्तमनुस्मृत्य तीर्थकरविषयमेवावतारयामः । तथाहि तीर्थकरणशीलास्तीर्थकराः, अनित्यप्रभाचमहापुरुषसंचिततश्रामकर्मविपाकतः त स्यान्यथा वेदनायोगात् । तत्र येनेह जीवा जन्मजरामरण-
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(λ)
मध्यादर्शनाविरतिगम्भीरं महाभीषाकपायपाताल दुयमोदावरी विचित्रःखदुए श्वापदं रागपयति संयोगवियोगीबीयुक्तं प्रबलमनोरथ क वेलासारखा तरन्ति तत्तीर्थमिति पतच यथा उपस्थित सफलजीचा53दिपदार्थरूपकम् अत्यन्तानययाम्याविज्ञातचरणराधारं त्रैलोक्यमधर्म- 2 संपद्युक्रमासस्याऽऽश्रयम् अचिन्त्यशक्तिसमन्विताविसंवादिपरमधाहित्यक प्रवचनं निराधारस्य प्रवचनस्यासंभबात् सङ्घो वा ततश्चैतदुक्तं भवति -घातिकर्मक्षये ज्ञानकैवल्ययोगात् तीर्थकर नामकर्मोदय स्तत्स्वभावतया आदित्याऽऽदिप्रकाशनिदर्शनशास्त्रार्थनामुद्भवेना ssगमानुपपत्तेः, भव्यजनधर्मप्रवर्तकत्वेन परम्पराऽनुग्रहक रास्तीर्थकरा इति तीर्थकरत्वसिद्धिः । किञ्च सर्वेऽपि निरुपमधृतिसंहननाद्मस्थावस्थायां चतुर्ज्ञाना अतिशयसत्वसं- * पापात्रा जितसमस्त परीपाथ परमानवस्त्राभावेऽपि संयमविराधनाऽऽदीन् दोषान् न प्राप्नुवन्ति । 琳 तथा च वस्त्रा एव साधवश्विरं स्थास्यन्ति इत्यस्यार्थस्य * ज्ञापनार्थे गृहीतैकवस्त्राः सर्वेऽपि तीर्थकृतोऽभिनिष्क्रामन्ति, तस्मिश्च वस्त्रे कापि पतिते वस्त्ररहितास्ते भवन्ति न पुनः स र्वदा । * ननु सर्वोऽपि प्रेक्षावान् फलार्थी प्रवर्तते, अन्यथा प्रेक्षावत्ताक्षतिप्रसङ्गः । ततोऽसौ तीर्थं कुर्वन्नघश्यं फलमपेक्षते, फले चापेक्षमाणोऽस्माद व्यक्रमनीतरागः तदयुक्तम् । यतस्तीर्थकरः स एव भवति यस्तीर्थकर - नामकर्मोदयसमन्वितः । न हि सर्वेऽपि भगवन्तो वीतरागास्तीर्थप्रवर्तनाय प्रवर्तते तीर्थकरनामकर्मवती
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नफलम्। ततो भगवान् वीतरागोऽपि तीर्थकरनामकमदयतस्तीर्थप्रयर्तनस्यभावः सवितेय प्रकाशमुपका पकारापेक्षं वीर्थे वर्तयतीति न कचिद दोषः । उकं - तीर्थप्रवर्तनफलं यत्प्रोक्तं कर्म तीर्थकरनाम
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घण्टापथः। तस्योदयात् कृतार्थो-प्यहस्तीर्थ प्रवर्तयति ॥१॥ परमत्थो ॥२॥ दव्यत्ययं पि काउं, ण तरह जो अप्पचीरियतत्स्वाभाव्यादेव, प्रकाशयति भास्करो यथा लोकम् । ।
त्तेणं । परिसुद्धं भावथय, काही सो संभवो एस ॥ ३॥"* तीर्थप्रवर्तनाय, प्रवर्तते तीर्थकर एवम् ॥२॥"
एतदेव स्पष्टयति-"जो वज्झञ्चाएणं, णो इनरिअंपिरिणग्गह ननु तीर्थप्रवर्तनं नाम प्रवचनार्थप्रतिपादनं, प्रवचनार्थ चेद्
कुणइ । इह अप्पणो सयासे, सव्वच्चारण कह कुज्जा?॥५॥"lt भगवान प्रतिपादयति,तर्हि नियमादसर्वज्ञः,सर्वस्यापि वक्तुर
किश्च-प्रारम्भत्यागेन शानाऽऽदिगुणेषु वर्धमानेषु द्रव्यस्त-* सर्वज्ञतयोपलम्भात् । तथा चात्र प्रयोगः-विवक्षितः पुरुषः स
वहानिरपि न भवति कर्तुः दोषाय । विवेचनमस्य ' थय र्वज्ञो न भवति,वक़्त्वात्, रथ्यापुरुषवदिति । तदसत् । सन्दि
शब्दे २३८५ पृष्ठपर्यन्तं द्रष्टव्यं प्रज्ञावद्भिः । ग्धव्यतिरेकतया हेतोरनैकान्तिकत्वात्। तथाहि वचनं न सः। 'थविरकप्प' शब्दे २३८६ पृष्ठे स्थविरकल्पविचारः। तथाहि
वेदनेन सह विरुद्धयते,अतीन्द्रियेण सह विरोधानिश्चयात् ।। द्विविधा भवन्ति साधवः । गच्छप्रतिबद्धाः, गच्छबहिर्गताश्च ।* द्विविधो हि विरोधः-परस्परपरिहारलक्षणः, सहानवस्था- पुनरेकैकशो द्विधा जिनकल्पिकाः, स्थविरकल्पिकाश्च । एतेषां नलक्षणश्च । तत्र परस्परपरिहारलक्षणः तादात्म्यप्रतिषेधे, | स्थविरकल्पिकजिनकल्पिकानां परस्परमयं विशेषः। तथाहियथा घटपटयोः। न खलु घटः पटाऽऽत्मको भवति, नापि "थेराग नाणतं, अतरंतं अप्पिणति गच्छस्स। पटोघटाऽऽत्मको भवति, "न सत्ता सत्ताऽन्तरमुपैति।" इति गच्छे निरवजेग, करेंति सब्बं पि पडिकम्मं ॥१॥ वचनात् , ततो नानयोः परस्परपरिहारलक्षणो विरोधः । एवं एकेक्कपडिग्गहगा, सप्पाउरणा हवंति थेरा उ। सर्वेषामपि वस्तूनां भावनीयम् । अन्यथा वस्तुसार्यप्रस- जेसि उण जिनकप्पे, न य तेसिं वत्थपायाणि ॥२॥ क्नेः । यस्तु सहानवस्थानलक्षणो विरोधः, स परस्परबाध्य- निप्पडिकम्मसरीरा, अवि अच्छिमलं पि नेव अवणिति । बाधकभावसिद्धौ सिद्ध्यति, नान्यथा, यथा वह्निशीतयोः। विसहति जिणा रोगं, कारेंति कयाइ न तेगिच्छं ॥३॥ तथाहि-विवक्षिते प्रदशे मन्दमन्दमभिज्वलनवति वह्नी शीत- 'संजमकरणुजोया, णिप्फातग णाणदसणचरित्ते। स्यापि मन्दमन्दभावः । यदा पुनरत्यर्थज्वालामतिविमुञ्चति दीहाउ बुद्धवासे, वसहीदोसेहि य विमुक्का ॥४॥
वह्विस्तदा सर्वथा शीतस्याभाव इति भवत्यनयोर्विरोधः। उक्तं मोनुं जिणकप्पठिई, जा मेरा एस वन्निया हेट्ठा। *च-"अविकलकारणमेकं, तदपरभावे यदाऽऽभवन भवेत् । भ- एसा उ दुपदजुत्ता, होति ठिती थेरकप्पस्स ॥५॥" इति ।
वति विरोधः स तयोः, शीतहुताशाऽऽत्मनोईष्टः॥१॥" न चैवं ननु द्रव्यस्तवो गृहस्थैः कर्तव्य इति पूर्व यदुक्तं तत्र वचनसंवेदयोः परस्परं बाध्यबाधकभावः,न हि संवेदने तारत- " वाक्यार्थशाने पदार्थज्ञानस्य कारणता " इति म्या-12 म्यनोत्कर्षमासादयति वचखितायाः तारतम्येनापकर्ष उपल- याद् द्रव्यस्वरूपनिर्वचनं कर्तव्यम्। उच्यते-"गुणपर्याययो भ्यते, तत्कथमनयोः सहानवस्थानलक्षणो विरोधः, अथ सर्व- स्थान-मेकरूपं सदाऽपि यत् । स्वजात्या द्रव्यमाख्यातं, मध्ये | वेदी वक्ता नोपलब्ध इति विरोध उघुष्यते । तदयुक्तम् । अत्य- भेदो न तस्य वै ॥१॥" व्याख्या चैषा-गुणपाययोर्भाजन न्तपरोक्षो हि भगवान्ततः कथमनुपलम्भमात्रेण तस्याभा। कालत्रये एकरूपं द्रव्यं स्वजात्या निजत्वे एकखरूपं भवति, परं वनिश्चयः, अदृश्यविषयस्यानुपलम्भस्याभावनिश्चायकत्वा- पर्यायवद् न परावृत्तिं लभते तद्रव्यमुच्यते। यथा शानाऽऽदियोगात् । सर्वे चैते तीर्थकरसंबन्धिविषयाः 'तित्थयर' शब्दे गुणपर्यायभाजनं जीवद्रव्यम् , रूपाऽऽदिगुणपर्यायभाजनं पु२२४६ पृष्ठतः २३१२ पृष्ठपर्यन्तं विद्वदभिर्विलोकनीयाः। द्गलद्रव्यम् , सर्वरक्तत्वाऽऽदिघटत्वाऽऽदिगुणपर्यायभाजन अथ द्रव्यस्तव-भावस्तवयोः को विशेषः कुत्र च फलाधि
मृद्रव्यम् । यथा वा तन्तवः पटापेक्षया द्रव्यं, पुनस्तक्यमित्यत्राऽऽह-ननु वित्तपरित्यागाऽऽदिना द्रव्यस्तव एव
न्तवोऽवयवापेक्षया पर्यायाः । कथम् ? , यतः पटविचाले ज्यायानिति अलाबुद्धीनां शङ्कासंभवः, तत्राऽऽह-"दब्वत्थ
पटावस्थाविचाले च तन्तूनां भेदो नास्ति , तन्त्ववय-* य भाव-त्यो य दव्वत्थो बहुगुणो त्ति । बुद्धि सिया
चावस्थायामन्वयत्वरूपो भेदोऽस्ति, तस्मात् पुद्गलस्कन्धअनिउणमइ-वयणमिणं छजीवहिय।।४॥ छजीवकायसंजमो,
मध्ये द्रव्यपर्यायत्वमापेक्षिकं बोध्यम् । अथ कश्चिदेवं कथ-* दव्वथए सा विरुज्झई कसिणो । तो कसिणसंजमविऊ, पु-|
यिष्यति-द्रव्यत्वं तु स्वाभाविकं न जातम् , आपेक्षिकं जातं, प्फाईयं न इच्छंति ॥५॥" यद्येवं किमयं द्रव्यस्तव एकान्ततो
तदा तं समाधत्ते-यत् सकलवस्तूनां व्यवहारापक्षयैव जाहेय एव वर्तते, आहोस्विदुपादेयोऽप्यस्ति । उच्यते-साधूनां
यते, न तु स्वभावेनैव, तस्मादत्र न कश्चिद् दोषः । ये च सहेय एव, श्रावकाणामुपादेयोऽपि। तथाहि-"अकसिणपवत्त
मवायिकारणप्रमुखैर्द्रव्यलक्षणं मन्वते, तेषामपि अपेक्षामनु-lat याणं, विग्याविरयाण एस खलु जुत्तो । संसारपयणुकरणे,
सर्तव्यैवेति । 'गुणपर्यायवद् द्रव्यम् ।' इति तत्त्वार्थे । दबत्थएँ कृदिटुंतो ॥६॥" आह-यः प्रकृत्येवासुन्दरः स कथं
" सहभावी गुणो धर्मः, पर्यायः क्रममाव्यथ। श्रावकाणामपि युक्तः ? । उच्यते-कूपदृष्टान्तोऽत्र बोद्धव्यः ।
भिन्ना अभिन्नास्त्रिविधाः, त्रिलक्षणयुता इमे ॥१॥ यथा कोऽपि तृषा उपनोदार्थ कूप खनन । यद्यपि पूर्व तस्य
मुक्ताभ्यः श्वेतताऽऽदिभ्यो, मुक्कादाम यथा पृथक । मृत्तिकाकर्दमाऽऽदिना शरीरं मलिनीभवति, तथाऽपि तदु- गुणपर्याययोर्व्यक्ते-द्रव्यशक्तिस्तथाऽश्रिता ॥२॥" द्गतेन पानीयाऽऽदिना प्रक्षाल्यते गात्रं, ततः स अन्ये च किञ्च-'गुणाऽऽश्रयो द्रव्यम् ।' यदुक्तम्-“गुणाणमासो जनाः सुखभाजना भवन्ति । एवं द्रव्यस्तवेपि यद्यप्यसंयमस्त- दब्वं, एगदब्वस्सिया गुणा । लक्खणं पन्जवाणं तु, दुहो*
थाऽपि तत एव सा परिणामबुद्धिर्भवति, याऽसंयमवर्ज सर्व अस्सिया भवे ॥६॥” तथाहि-गुणानामाश्रयो,यत्रस्थास्ते उत्प-14 ** निरवशेष क्षपयति । किञ्च-"अप्परियस्स पढमो, सहका- द्यन्ते, उत्पद्य चावतिष्ठन्ते, प्रलीयन्ते च तद् द्रव्यम् । अने.
रिविसेसभूअश्रो सेश्रो। इयरस्स वझचाया,इयरोशिय एस | न रूपाऽऽदय एव वस्तु, न तद्व्यतिरिक्तमन्यदिति ताथाग-2 ****************** **************** *** ******* * ***
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法学学士学法学) 李丰手李幸幸苦半生半生半本牛牛牛牛牛牛体基法事半生半生半半生半学生毕业生学学生学学毕件
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****** ********************** ************* ********* ******* घण्टापथः।
(११) तमतमपास्तम् । तथाहि-यदुत्पादविनाशयोन यस्योत्पाद- 'दाणं च तत्थ तिविहं, नाणपयाणं च अभयदाणं च । विनाशी. न तनतोऽभिन्नम् , यथा घटापटः, न भवतःपर्या- धम्मोवग्गहदाणं, च नाणदाणं इमं तत्थ ॥५२॥' थोत्पादविनाशयोद्रब्यस्योत्पादविनाशौ । न चायमसिद्धो हे- "दिता य माणदाणं, भुवणे जिणसासणं समुद्धरइ। तुः, स्थासकोशकुशूलाऽऽद्यवस्थासु मृदादिद्रव्यस्याऽऽनुगा- सिरिपुंडरीयगणहर, इव पावह परमपयमतुलं ॥६५॥ मित्वेन दर्शनात् । न चास्य मिथ्यात्वं, कदाचिदन्यथाद- ता दायचं नाणं, अणुसरियव्वा सुनाणिणो मुणिणो । शनासिद्धेः । उक्तं च-" यो ह्यन्यरूपसंवेद्यः, संख्येय्येतान्य- नाणस्स सया भत्ती, कायव्वा कुसलकामेहिं ॥६६॥ था पुनः । स मिथ्या न तु तेनैव, यो नित्यमवगम्यते॥१॥' वीयं तु अभयदाणं, तं इह अभयेण सयलजीवाणं । तथैकस्मिन् स्वाऽऽधारभूने द्रव्ये आश्रिता गुणाः रूपाऽऽद- अभउ त्ति धम्ममूलं, दयाइधम्मो पसिद्धमिणं ॥१७॥ यः । एतेन च ये द्रव्यमेवेच्छन्ति, तदव्यतिरिक्ताँश्व रूपा- इक्कं चित्र अभयपया-णमित्थ दाऊण सव्यसत्ताणं । ऽऽदीन अविद्योपदर्शितानाहुः, तन्मतनिषेधः कृतः। संवि- वजाऽऽउह व्व कमसो, सिज्झति पहीणजरमरणा ॥८॥" निष्ठा हि विषयव्यवस्चितयः। न च रूपाऽऽद्युत्कलितरूपं
"धम्मोवग्गहदाणं, तइयं पुण असणवसणमाईणि । कदाचित् केनचिद् द्रव्यमवगतम् , अवगम्यते वा, अतस्त- प्रारंभनियत्ताणं, साहुणं हंति देयाणि ॥१०॥ द्विवर्त एव रूपाऽऽदयो, न तु तात्त्विकाः केचन तद्भेदेन स- तित्थयरचक्कवट्टी-बलदेवा वासुदेवमंडलिया। न्ति । नन्वेवं रूपाऽऽदिविवों द्रव्यमित्यपि किं न कल्पते ?,
जायंति जगब्भहिया, सुपत्तदाणप्पभावेणं ॥१०१॥ . अथ तथैव प्रतीतिः,एवं सति प्रतीतिरुभयत्र साधारणत्युभय
जह भयवं रिसहजिणो, घयदाणबलेण सयलजयनाहो । मुभयात्मकमस्तु* । अनेन च य एवमाहुः यदाद्यन्तयोरसत् ,
जाओ जह भरहवाई, भरहो मुणिभत्तदाणेणं ॥ १०२॥ मध्येऽपि तत्तथैव,यथा मरीचिकाऽऽदौ जलाऽऽदि । न सन्ति
दंसणमित्तेस-वि मुणि-वराण नासेइ दिणकयं पावं। च कुशूलकपालाऽऽद्यवस्थयोघंटाऽऽदिपर्यायाः, ततो द्रव्यमेवा- जो देह ताण दाणं, सेण जए किं न सुविढतं ॥ १०३ ॥" दिमध्यान्तेषु सत् . पर्यायाः पुनरसन्तः, यैराकाशकेशाss
"न तवो सुट्ट गिहीणं, विसयाऽऽसत्ताण होइ न हु सीलं। दिभिः सदशा अपि भ्रान्तः सत्यतया लक्ष्यन्ते । यथोक्तम्- सारंभाण न भावो, तो साहीणं सया दाणं ॥ १०६॥" " श्रादावन्ते च यन्नास्ति, मध्येऽपि हिन तत् तथा । वि- "ता तेसिं दायचं, सुद्धं दासं गिहीहि भत्तीए । तथैः सदृशाः सन्तोऽ-वितथा इव लक्षिताः । ॥१॥" ते अणुकंपोचियदाणं, दायव्वं निययसत्तीए ॥ १०५॥" माप्रपाकृताः। तथाहि-श्राद्यन्तयोरसत्वेन मध्येऽप्यसत्त्वं सा
अनूदितं चैतत् श्रीहेमसूरिभिःधयतामिदमाकृतम्-यत् क्वचिदसत् तत् सर्वस्मिन्नसत् इ- "प्रायः शुद्धैत्रिविधविधिना प्रासुकैरेषणीयः, ति, ततश्च मृद्दव्यैः अब्द्रव्यस्यासत्त्यात् सर्वस्मिन्नप्यस- कल्पप्रायैः स्वयमुपहितैः वस्तुभिः पानकाऽऽद्यैः। स्वप्रसङ्गः । अथेष्टमेवैतत् , सत्तामात्रस्यैव तत्त्वत इष्टत्वात् । काले प्राप्तान सदनमसमश्रद्धया साधुवर्गान् , उक्तं हि-'सर्वमेकं सदविशेषात् ।' नन्वेवमभावे भावाभा- धन्याः केचित् परमविहिताः, हन्त समानयन्ति ॥ १॥" वाद् भावस्यापि सर्वत्राभावप्रसङ्गः, तस्माद् बाधकप्रत्ययोदय तथा च दाने मनोहारिणी कृतपुण्यकथा २४६१ पृष्ठे विलो-* एवासत्त्वेऽपि निबन्धनमिति न कचिदसत्त्व तस्यावश्यंभा- कनीया । दानं प्रति विधिनिषेधविचारौ २४६६ पृष्ठ विद्भिर वः, ततो द्रव्यवत् पर्यायाणामध्यबाधितबोधविषयत्वे सत्य- रवधार्यों। जिनवचनप्रसङ्गात् साम्प्रतं ज्ञानत्रयभावाभावयोमस्तु, तथा गुणेष्वपि नवपुराणाऽऽदिपर्यायाः प्रत्यक्षप्रतीता र्दीक्षाऽधिकारित्वानधिकारित्वप्रतिपादनायाऽऽह-"अस्मिन * एके कियत्कालभाविनः , प्रतिसमयभाविनस्तु पुराणत्वा- सति दीक्षायाः, अधिकारी तत्त्वतो भवति सत्वः । इतरस्यामा उद्यन्यथाऽनुपपत्तेरनुमानतोऽवसीयन्ते । ततश्व द्रव्यगु- पुनर्दीक्षा, वसन्तनृपसन्निभा ज्ञेया ॥१॥" इत्यादि दीक्षासंणपर्यायाऽस्मकमेकं सबलमणिवत् चित्रपतङ्गाऽऽदिवद
बन्धिनं सर्व विषयं दिक्खा' शब्दे २५०६ पृष्ठतः २५०८ वा वस्त्विति स्थितम् । “दव्वं पज्जवविजुतं , दब्वविउत्ता
पृष्ठपर्यन्तं विलक्षणविचक्षणाः पश्यन्तु । य पज्जवा नऽस्थि। उप्पायट्टिइभंगा, हंदि दवियलक्खणं
दीक्षाया दुःखनिवारकत्वेन फलदत्वमुक्तम् । दुःखस्वरूपं तुम एयं ॥ १२ ॥ " अथ द्रव्यभेदा इमे-" धम्मो अधम्मो श्रा
जिनवचने-“दुःखं स्त्रीकुक्षिमध्ये प्रथममिह भवेद् गर्भवासो गासं, कालो पुग्गल-जंतवो । एस लोगो त्ति पत्तो, जि..
नराणां, बालत्वे चापि दुःखं मललुलिततनुस्त्रीपयःपानमिश्र-* णेहिं वरदसिहि ॥७॥" अनन्तरोक्नद्रव्यपटुकाऽऽत्मकत्वं
म् । तारुण्ये चापि दुःखं भवनि विरहजं वृद्धभावोऽप्यसारः, लोकस्य । उक्त हि-"धर्माऽऽदीनां वृत्ति-द्रव्याणां भवति यत्र
संसारे रे मनुष्याः !, वदत यदि सुखं स्वल्पमप्यस्ति किञ्चित् ? तत क्षेत्रम् । तद्रव्यैः सह लोकः , तविपरीतं ह्यलोका
॥१॥" तथाहि-"जाणंति अणुहबंति य, अणुजम्मजरामरणउज्यम् ॥१॥" किश्च-एतेऽपि भेदवन्तः । तथा चाऽऽह
संभवे दुक्खे । न य विसएसु विरजति, दुग्गइगमणपत्थप "धम्मो अधम्मो आगास एग दव्वं वियाहियं । अणताणि उ
जीवे ॥१॥""दुक्खमेवमवीसाम, सव्वेसिं जगजंतुणो। एग दव्याणि, कालो पोग्गल-जंतवो ॥८॥" चैशेषिकरीत्या द्रव्य
समयं तसभावे, जे सम्म अहियासियं ॥ १ ॥ " " सर्व प्रतिपादनं, तत्खण्डनं च दश्च' शब्दे २४६५ पृष्ठे द्रष्टव्यम् ।
परवशं दुःखं, सर्वमात्मवशं सुखम् । एतदुक्तं समासेन, लजिनवचनादेवाभयदानाऽऽदीनां महाफल
क्षणं सुखदुःखयोः॥१॥"पुण्यापेक्षमपि होवं, सुखं पर-1* दत्वमुक्तमस्ति । तथाहि
वशं स्थितम् । ततश्च दुःखमेवैतद्, ध्यानजं तात्विक सु-11 "दानेन महाभोगो, देहिनां सुरगतिश्च शीलेन ।
खम् ॥१॥" तथा च "मूईहिं अग्गिवन्नाहिं, संभिन्नस्स नि-2 4 भावनया च विमुक्तिः, तपसा सर्वाणि सिद्धयन्ति ॥१॥" रंतरं । जावइयं गोयमा ! दुक्खं, गन्भे अटुगुणं तो ॥१॥ Nat******* ***** ******* *********************************
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घएटापथः।
(१५)
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| गब्भाओ निप्पडंतस्स, जोणिजंतनिपीलणे । कोटीगुणं तयं | मपुनीतः कस्य चेतोनावस्कन्दति । तत्र शब्दप्रवृत्तिनिमित्तरू-* दुक्ख, कोडाकोडीगुण पि वा ॥२॥ जायमाणाण जं दु- पस्य(गौणस्य)धर्मस्य धर्मिणा सहैकान्तेन भेदेऽभ्युपगम्यमा क्वं, मरमाणाण जंतुणो । तेसा दुक्खविवागण, जाईन. | ने धर्मिणो निःस्वभावताऽऽपत्तिः, स्वभावस्य धर्मस्वात् तस्य च सरति अप्पणो ॥३॥" तथाच दुःखवर्णकः-"कालं गति ततोऽन्यत्वात्, स्वो भावः स्वभावः, तस्यैवाऽऽत्मीया सत्ता* दुक्खेहिं, मणुया पुनेहि उज्झिया। दुक्ख मणुयजाईणं, गोय- न तु तदर्थान्तरं धर्मरूपं, ततो न निःस्वभावताऽऽपत्तिरिम! जं तं निबांधत ॥१॥ जमणुसमयमणुभवंताण, सयहा उव्ये ति चेत् । म । इत्थं स्वरूपसत्ताऽभ्युपगमे तदपरसत्तासाइयाण वि। निश्विमा पि दुक्खेहि, बेरग्गं न तहा भवे ॥२॥" मान्ययोगकल्पमाया चैयर्थ्यप्रसङ्गात् । अपि च-यद्येकाम्तेन अच्छिनिमीलणमितं, नऽत्थि सुहं दुक्खमेव अणुबद्धं । नरए धर्मधर्मिणो दः ततो धर्मिणो ज्ञेयत्वाऽऽदिभिर्धमैरनमुवेनेरइयाणं, अहोनिसं पञ्चमाणाणं ॥१॥ जं निरए नेरइया, धात् तस्य सर्वथाऽनवगमप्रसङ्गः, न ह्यशेयस्वभावं ज्ञातुं श दुक्ख पार्वति गोयमा! तिक्खं । तं पुण निगोयमझे, क्यते इति । तथा च सति तदभावप्रसङ्गः, कदाचिदप्यप्रगतगुणिय मुणेयव्वं ॥१॥" इत्यादि सर्व 'दुक्ख' शब्दे वगमाभावात् , तथाऽपि तत्सवापगमेऽतिप्रसा,अन्यस्याविवृतम् ।
पि यस्य कस्यचित् कदाचिदप्यनवगतषष्ठभूताऽऽदेर्भावा| जिनवचनाऽश्रद्दधानस्य जमालेरिव 'दोकिरिय' शब्दे पत्तेः । एवं च धर्म्यभावे धर्माखामपि झेयत्वप्रमेयत्वाऽऽदीआर्यगतस्य चरितम् । तथाहि-उल्लुकातीरं नाम नगरम् , नां निराश्रयत्वादभावाऽऽपत्तिः। न हि धाधाररहिताः तत्र च महागिरिशिष्यो धनगुप्तो नाम, तस्यापि शिष्य आ- कापि धर्माः संभवन्ति, तथाऽनुपलब्धेः। अन्यश्च-परस्परमपि र्यगङ्गो नामाऽऽचार्यः। अयं च नद्याः पूर्वतटे, तदाचार्यास्त्व- | तेषां धर्माणामेकाम्तेन भेदाभ्युपगमे सत्त्वाऽद्यननुवेधात् कथा | परतटे, ततोऽन्यदा शरत्समये सूरिवन्दनार्थ गच्छन् गङ्गो भावाभ्युपगमः?,तदन्यसत्त्वाऽऽदिधर्माभ्युपगमे च धर्मित्वप्र-1
नदीमुत्तरति,सच खल्वाटः। ततस्तस्योपरिष्टाद् उष्णेन दह्यते सक्तिरमवस्था च । तन्नैकान्ताभेदपक्षे धर्मधर्मिभावः । नाप्येअखल्ली,अधस्तातुनद्याः शीतलजलेन शैत्यमुत्पद्यते। ततोऽत्रान्त. कान्तभेदपक्ष,यतस्तस्मिन् अभ्युपगम्यमाने धर्ममात्रं वा स्यारे कथमपि मिथ्यात्वमोहनीयोदयादसौ चिन्तितवान्-अहो
त्, धर्मिमानं चा? । अन्यथैकान्तभेदानुपपत्तेः, अन्यतरासिद्धान्ते किल युगपत् क्रियाद्वयानुभवो निषिद्धः, अहं त्वेक
भावाद् वा अन्यतरस्याप्यभावः, परस्परनान्तरीयकत्वात् । स्मिन् एव समये शैत्यमौष्ण्यं च वेदयामि, अनुभवविरुद्ध- धर्मनान्तरीयको हि धर्मी, धर्मिनान्तरीयकाश्च धर्माः, ततः त्वान्नेदमागमोक्तं शोभनमाभातीति विचिन्त्य गुरुभ्यो निवेद
कथमेकाभावे पररूपावस्थानमिति ? । कल्पितो धर्मधयामास । ततस्तैर्वक्ष्यमाणयुक्तिभिः प्रशापितोऽसौ यदा च
मिभावस्ततो न दूषणमिति चेत्तर्हि वस्त्वभावप्रसः । न हि स्वाग्रहग्रस्तबुद्धित्वाद् न किश्चित् प्रतिपद्यते, तदा उद्घाट्य
धर्मधर्मिस्वभावरहितं किञ्चिद् वस्त्वस्ति, धर्मधर्मिभावश्च बाह्यः कृतो विहरन् राजगृहमगरमागतः । तत्र च महातप
कल्पित इति तदभावप्रसनः। धर्मा एव कल्पिता न धर्मी, स्तीरप्रभवनाम्नि प्रश्रवणे मणिनागनानो नागस्य चैत्यमस्ति ।
तत्कथमभावप्रसङ्ग इति चेत् , न । धर्माणां कल्पनामात्रतत्समीपे च स्थितोगङ्गः पर्षत्पुरस्सरं युगपत् क्रियाद्वयवेदन भावत्वाभ्युपगमेन परमार्थतोऽसत्त्वाभ्युपगमात् , तदभावे प्ररूपयति स्म । तच्च श्रुत्वा प्रकुपितो मणिनागः तमवादीत्- च धर्मिणोऽप्यभावाऽऽपत्तिः । अथ तवेवैकं स्वलक्षणं सअरे दुष्ट शिक्षक! किमेवं प्रज्ञापयसि ?। यतोऽत्रैव प्रदेशे कलसजातीयविजातीयव्यावृत्त्येकस्वभावाः धर्मिव्यावृत्तिसमवसृतेन श्रीमद्वर्धमानस्वामिना एकस्मिन् समये एकस्या
मिबन्धनाश्च या व्यावृत्तयो भिन्ना इव विकल्पितास्ता धर्माएव क्रियाया वेदनं प्ररूपितम् । तचेह मयाऽपि श्रुतम् । तत् स्ततो न कश्चिद् दोषः । तदप्यसङ्गतम् । एवं कल्पनायां च| किं ततोऽपिलटतरःप्ररूपको भवान् ,येनैवं युगपत् क्रियाद्व. स्तुनोऽनेकान्तात्मकताप्रसक्तः । अन्यथा सकलसजातीयवि-IA *यवेदनं प्ररूपयसि ?। तत् परित्यज चैतां कूटप्ररूपणाम् , जातीयव्यावृत्त्ययोगात्, न हि येन निजस्वभावेन घटाद व्या-1 *अन्यथा नाशयिष्यामि त्वाम् । इत्यादि तदितभयवाक्यैयु- वर्तते पटस्तेनैव स्तम्भादपि, स्तम्भस्य घटरूपताप्रसक्तः । निवचनैश्च प्रबुद्धौऽसौ मिथ्यादुष्कृतं दत्त्वा गुरुमूलं गत्वा | तथाहि-घटाद् व्यावर्तते घटव्यावृत्तिस्वभावतया, स्तम्भाप्रतिक्रान्त इति । 'दाकिरिय' शब्दे २६३५ पृष्ठत प्रारभ्य दपि चेत् घटव्यावृत्तिखभावतयैव व्यावर्तते, तर्हि बलात् विलोकनीयोऽयं विषय इति विस्तरभयाद् विरम्यतेऽस्मिन् | स्तम्भस्य घटरूपताप्रसक्तिः। अन्यथा-ततः तत्स्वभावतया विषयेऽस्माभिः।
व्यावृत्त्ययोगात् । तस्माद् यतो यतो व्यावर्तते तत्तव्यावृ ननु जिनवचनश्रवणं जिनाऽऽझापालनं च जैनानां सम्य- त्तिनिमित्तभूताः स्वभावा अवश्यमभ्यपगन्तव्याः.ते चाने-IRE क्त्विनां परमो धर्म इति धर्मपदार्थसार्थनिरूपणा निरूप- कान्तेन धमिणो भिन्नाः, तदभावप्रसङ्गात् । तथा च तद-| यितव्येति तामेवाऽऽचष्टे द्विधा हि धर्मशब्दस्य प्रवृत्तिों के यस्थ एव पूर्वोक्को दोषः, तस्माद् भिन्ना अभिन्नाश्च । भेदाविलोक्यते । तथाहि-सर्वत्र वस्तुनि यद् वस्तुनः स्वभावः स भेदोऽपि धर्मधर्मिणोः कथमिति चेत् , उच्यते-इह यद्यपि धर्म उच्यते । यथा घटे घटत्वं, मनुष्ये मनुष्यत्वमित्यादि ।। तादात्म्यतो धर्मिणा धर्माः सर्वेऽपि लोलीभावेन व्याप्ताः.* तथा चोक्तम्-"धर्माः सहभाविनः, पर्यायाः क्रमभाविनः ।" तथाऽप्ययं धर्मी, एते धर्मा इति परस्परं भेदोऽप्यस्ति, अन्य'धम्मो त्ति या सभावो त्ति वा एगट्ठा।' दुर्गतौ प्रपतन्तं जीवं था तभावानुपपत्तिः। तथा च सति प्रतीतिवाधा, मिथो धारयतीति धर्मः, स च क्लेशनिवृत्तिनिर्वृतिप्राप्तिसाधनः स्व
भेदेऽपि च विशिष्ठान्योन्यानुवेधेन सर्वधर्माणां धर्मिणा, र्गमोक्षाऽऽदिप्रापको मनुष्यणेतिकर्तव्यतारूपो हृदयसंवेद्यो मा.
व्याप्तत्वादभेदोऽप्यस्ति, अन्यथा तस्य धर्मा इति प्रसङ्गानु-* तापितृसुहृत्संवेद्यः संसारगर्ताऽऽचटनिपतनप्रहाणप्रवणः पर- पपत्तेरित्यलमप्रासङ्गिकवस्तुस्वभावरूपधर्मनिरूपणेन । ******* * ******** *************** ***** *** ***** *********
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(१३)
घण्टापथः।
学生升学生荣半朱孝荣华实朱丰荣半生半丰朱朱津津半朱朱朱学费 朱朱学生学学生体学生中学生学的学生学学生学学生中学生学学生学学生学
अथ प्रकृतं निर्वृतिप्राप्तिसाधनीभूतं धर्म प्रस्तुमः- त्युच्चैन दृष्टिसंमोहः । अरुचिर्न धर्मपथ्ये, न च पापा क्रोध. "वचनादविरुद्धाद् य-दनुष्ठानं यथोदितम् । मैञ्यादिनावसं.
कण्ट्रातः॥२॥" "जीवदय सच्चवयणं, परधणपरिवजणं मिश्रृं, तमर्म इति कीर्यते ॥ ३॥ " तथाहि-यदनुष्ठानमिहलो
सुसीलं च । खंती पंचिंदियनि-ग्गहो य धम्मस्स मूलाई॥१॥" कपरलोकावपेक्ष्य हेयोपादेययोरर्थयोरिहैव शास्त्रे वक्ष्यमा
धर्मानधिकारिणस्तु-" सुत्तेण चोइओ जो, अप्पं उद्दिसिय गलकणा प्रवृत्तिरिति तरूम इति कीर्यते । “धर्मश्चित्तप्रज
तं ण पडिबजे । सो तत्तवादबको, न होइ धम्मम्मि अहिबो, बतः क्रियाऽधिकरणाश्रयं कार्यम् । मलविगमेनेतत् मारी ॥६॥" समग्रहणयोग्यस्तु-" संधिग्नस्तच्छ्रतेरेव, ज्ञात. खदु, पुष्ट्यादिमदेष विशेयः ॥२॥ रागाऽऽदयो मसान- | तस्यो गरो नमः । रढं स्वशक्त्या जातेधः, संग्रहे ऽस्य प्रवर्त. ल्वागमसयोगतो निगम एषाम् । तदनं क्रियान एव हि, पुष्टि. |ते ॥३०॥" किम्ब-यः कश्चिद् विदितसंसारस्वन्नावतया श्चित्तस्य शुद्धस्य॥॥ पुष्टिः पुण्योपचयः, शुद्धिः पापक-धर्मचरकावणमनाः पूर्व प्रवज्याऽवसरे संयमानुष्ठानो. येण निर्मलता। अनुबान्धनि द्वयस्मिन्, क्रमेण मुक्तिः परा केया स्थायी, परवाच श्रमा संवेगातया विशेषेण धर्फमानपरि. ॥४॥" अमुमेव धर्म भेदतः प्रभेदनइच वर्षयन्ति यसित. खामोनो निपाती, सिंहतया निश्कान्तः, सिंहतया विहारी च, तिपतय:-"सद्विधा स्यादनुष्ठातृ-गृहितिविवागतः । सामा-गणधगऽऽदिवत । अथवा पूर्वोत्थायी, पुनर्विचित्रत्वात कर्म न्यतो विपासा, सहिधर्मोऽध्ययं द्विधा ॥४॥" "धम्मो | परिणतेस्त धाविधभवितव्यतानियोगात पहचान्निपाती स्याबावीसविदो, अगारधम्मोऽजगारधम्मो य । पदमो व बारस- त् , नन्दिपेणाऽऽदिवत । कश्चिद् गोष्ठामाहिलवत् दर्शनतोऽपि, चिहो, दसदा पुष बीय ओ होर १२॥" व्यासार्थ बाहुः इत्यादि सबै 'धम्म' शब्दे २६७३ पृष्ठे विवृतम् । तदुद्भासूरयः-"सम्म समूख मसुनय-पणगं तिभि उगुणब्यथा होति। | बकावामी-" प्रावचनी धर्मकथी, बादी नैमित्तिकस्तपस्वी सिक्खावया चउरो, वारसहा हो। मिहिधम्मो ॥२॥' | चविद्यालिकः सपाता, कधिरपि चोद्भावकाश्वामी १॥"
तथा च-"पायो य नाश्वाएज्जा, अदिनं चि य सादए । सा-तथा च परिपक्वबुदित्वात् मध्यमवया विशेषतो धर्माहः । 2 दिसं ण मुसं तूया, एस धम्मे वुसीमो ॥ १६ ॥ अतिक्कम | यत तमाचारा-" मजिकमेणं वयसा एगे संधुऊमाणा सानि वायाए, मणसा वि न पत्थए । सम्बनी संयुमे दंते, प्रा. समुदिता सोच्चा मेधावी बयणं पंमियाणं णिसामिता स. सायाणं सुसमाहरे ॥१०॥" सम्यगभ्यस्तश्रावधर्मस्याति. मयाए धम्मे श्रायरियेदि पवेदिते ते अपवखमाणा अण
तावस्यकान्ततो भवनमणषिमुखस्य संयतातिशिवसजाभि. तिवाएमाणा अपरिगदाणा रणो परिम्गहावंति, मध्यावंति लाषाऽतिरेकस्य यतिधर्मकरणश्रकोत्पद्यते, अतस्तत्स्वरूप. |चणं योगसि णिहाय दंड पाणहिं अकुचमाणे पस मई भ. निरूपणायेदमाह-" खंती य म जब, मुत्ती तव संजमेय गंधे दियाहिए।" ततश्व-" धम्मो गुणा अहिंसा- इया उ बोधये । सच सोय आर्कि-चणं च बंनं च जाधम्मो से परममंगलपना । देवा बि लोगपुजा, पण मंति मुधम्ममिद ॥४॥" तथादि-" पशाबाहिरमणं, पञ्चेन्द्रियनिग्रहः हेक॥१॥दिदतो अरहंता, अणगारा य बहवो उ जिणसी. कषायजयः । द एमञ्चयबिरनिइचे-ति संयमः सप्तदशनेदः | सा । वत्तणवत्ते नज, जं नरवषो वि परामति ॥२॥ ॥१॥ "दुवहा उ भावधम्मा. सुयधम्मो अनु चारित्तधम्मा उवस हारो देवा, जह तह राया वि पणमइ सुधम्मं । तम्हा य । सुयधम्मे सज्झानो, रिसधम्मे समणधम्मो ॥१॥" धरमो मंगन-मुसिहमिह ब निगमणं ति ॥३॥" साम्प्रतं अथवा-"मुह हो जावधम्मो,सुबचरणे वा सुयम्मि सज्झाभो। प्रतिक्षाकिरभिधीयते-“जह जिणलासणनिरया, धम्म पाचरणम्मि समणधम्मो, खंती मुत्ती भवे दसदा ॥ १ ॥" नि मारवो महान कतिस्थिपस पर्व, दीस परिपालणो* अथवा-"रोश्यलो उत्तरिओ, दुविहो पूण होति नावधम्मो ।
वासो ॥१३॥" अत्राह स्ववपि च तन्त्रान्तरीयधर्मषु ध. सुविहो वि दुविहतिविहो, पंचविहो होति जायचो ॥१॥"मशब्दो लोके रूढः, तथा च यथातथं नेजमेव धर्म प्रशंसन्ति, तथाहि-भावधर्मों मोबागमतो द्विविधः । तद्यथा-लौकिको, ततश्च कयमेतदिति। अत्रोच्यते-ननूक्तः पूर्व सावधः कुनीलोकोत्तरश्च । तत्र लौकिको विविधः-गृहस्थानां, पास्वपिडनांकिधर्मः तीर्थकरैः, षाजीवनिकायपरिज्ञानाऽऽद्यनाबादेचेत्यच । लोकोत्तर त्रिविधः-शानदर्शनचारित्र भेदात् । तत्राप्या-त्रापि बहु वक्तव्यं तनु नोच्यते. विस्तरभयात् । तथा च-तन्त्रा. भिनिबोधिक ज्ञान पश्चधा । दर्शनमप्यौपशमिकसास्वादनका
मनरायेषु धर्मेषु धर्मशब्दो यः स उपचारेण, निश्चयेन तु योपशमिकवेदककाथिकसेदात् पञ्चविधम् । चारित्रमपि सा- जिनशासने, यथा सिंहशन्दः सिंढे प्राधान्येन व्यवस्थितः, माथिका दिनेदात् पञ्चविधम् । “दव्वं च अधिकाओ, प. उपचारेण तु माणवकाऽऽदौ । उपचारनिमित्तं च शौर्यको 5यारधम्मो य भावधम्मा ब । दबस्स पजत्रा जे, ते धम्मा त-दया. धर्म स्वहिसाऽऽभिधानाऽऽदयः। हेतुविशुद्धिस्त-"ज स्स दबस्म ॥४०॥" तथाहि-"धम्मस्थिकायधम्मो, पया. भसपाणउबगर-णवसहिसयणाऽऽसणाइसु जयति । फासुय रधम्मो य विलयधम्मो उ । सोइय कुप्पावणिओ, लोगुत्तर अकयनकारिय-अणण्मयादिभोई य || ७ ||" तदन्ये लोगिणेगविहो ॥४१॥ " अनेकविधत्वं तु-" गम्मपसुदेसर. पुन:-" अल्फामुयकयकारिय - अणुमय हिमोइणो हंदि । त. जे, पुरवरगामगणिगोहिराईणं । सावजो उ कुतिस्थिय- सथावसाप, जणा अकुसला उत्रिपंति ॥ ६८" दृष्टा. धम्मो न जिणेहि न पसत्यो ॥ ४२ ॥ " " औदार्य तविशुद्धिः-"जहा दुमस्स पुप्फेस, भमरो प्राविया रसं । दाक्किएयं, पापजुगुप्माऽथ निर्मलो बोधः । सिङ्गानि ण य पुष्फ कियामेइ, सो य पीण अप्पयं ॥२॥" अत्र चवं धर्मसिके, प्रायेण जनप्रियत्वं च ॥२॥" "आरोग्ये सति व्यवस्थिते सति कोऽपि यात्-यदिदं पाकनिर्वननं गृहभिः यद्, व्याधिविकारा भवन्ति नो पुंसाम । तद् धर्माऽऽरोग्ये, क्रियते, इदं पुण्योपादानसंकल्पेन श्रमणानां क्रियते सुवि. पापविकारा अपि केयाः ॥१॥ तन्नास्य विषयतृष्णा, प्रनव-हितानां, गृहन्ति च ते ततो भिकामित्यतः पाकोपजावन.
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RE E RRE***
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घण्टापथः।
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इति कृत्वा लिप्यन्ते प्रारम्भदोषेणाऽऽहारकरण क्रियाफलेने. |सुहिएहिँ नमरो ब्व प्रवदवित्तीटिं। साहहिं साडियो ती, माति । लौकिका अयाह:-"क्रयेण ऋायको इम्ति, उपनोगेन | उकि, मंगलं धम्मो॥ १३७॥" "पमिपएणधम्मवियल-त.
खादकः । घातको बधचित्तेन, श्त्येष त्रिविधो वधः ॥१॥" णेण इह अंतरायवियराओ । जीवा ण हुंति णियमा, तो जत्तो अत्र प्रतिविधीयते-"वासन तणस्स कप, न वणं व तत्थ कायबो ॥"लभ सुरसामितं, लग्ना पहुभत्त. कए मयकुत्राणं । न य रुक्खा सयसाहा, फुलति कर महुयरा- न संदेहो । इको नवरि न लम्भर, जिगिंदवरदेलिश्रो ध. णं ॥ १०३ ॥" पुनरपि चोदको वदति-इह यदुक्तं-वर्षति न म्मो ॥१॥धम्मो पवित्तिरूबो, लग्ना काया वि निरयदुक्त. तणार्थमित्यादि । तदसाधु । यत:-" अग्गिम्मि हवी हूयह, जया । जो नियबसुस्सहावो, सो धम्मो उहो लोए ॥२॥नि.
आरच्चो तेण पाणिो संतो। वरिसर पारिएणं, तेणोल. यवत्युसवणधम्म, दुल्लह वुतं जिगिंद आणा य । अंतप्फासणदिओ परोहंति ॥ १०४ ॥" अत्र पुनः प्रतिविधीयते-यद्येवं, किं मेग त हुंति केसिंचि धीराण।३॥ ज धम्माउ सॉदग्गंध| दुर्मिकं जायते ?, यतः तद्धविः सदा इयत एव, ततश्च का. म्मेणं हुति सयलरिकीओ। धम्मेण पवररूवं, तत्तो संविगए रणाविच्छेदेन कार्यविच्छेदोऽयुक्त एव । अथ भवेद् दु- भणियं ॥१॥"तथा च-"जहा सय किरिय, कुणंतिम नवत्र, दुर्यजनं वा?। अत्राप्युत्तरम-किं जायते सर्वत्र | णियो सिबत्थमेव सया । तं पुण लम्भ गयसय-लरागदोसे. पुर्मिकम् , नत्रस्य रिटस्य वा नियतदेशविषयत्वात्, स. ण धम्मेण ॥ १३॥" किञ्च--" धम्मेण सरागेण उ, बन्न दैव सयञ्चना नावात् ? । नक्तंच-"सदेव देवा सद्गायो, मम्गाश्यं फलं सोधि । जायह परंपराप, नियमेणं सुक्खहे उ ब्राह्मणाञ्च क्रियापराः। यतयः साधवाश्चैव, विद्यन्ते स्थिति है- ति ॥ १४॥" धर्मस्थ मोक्ककारणत्वमित्यमामनन्ति जैनप्रौतवः॥१॥"साम्प्रतं परामिप्रायः प्रदश्यते-“कस्सइ बुद्धी | ढा" जे धम्भ सुद्धमवति, पडिपुराणमलिसं । अणेएसा, वित्ती उवकप्पिया पयावश्णा । मत्ताण तेण उमा, पुष्फ. लिसस्स जं गणं, तस्स जम्मकहा को ? ॥ १५॥" तो महरिगणदा ॥ १०८॥"अत्र प्रतिविधीयते-" तं पभवा | तोता... हामीले यथा
तथोक्तम्-"दग्धे बीजे यथाऽत्यन्तं, प्रामुर्भवति नाङ्कुरः ।
नति जेण दुमा, नामागोयरस पुग्धविहि यस्स । नदयण पुष्फल, | कर्मवीजे तथा दग्धे, न रोहति भवाक्कुरः ॥१॥किचाम्यनिवत्तइंत। इमं च नं ॥ १०॥ अस्थि बह वणसंडा, भमरा त्-"को कया मेधावी, नष्पजति तहागया । तहागया जत्थ न उपात न वसात । तत्थ वि पुष्फात दुमा, पगई एसा ] अपमिपुत्रा, चक्खू लोगस्सऽशुनग।। २० ॥" केवलिप्रज्ञप्तस्य उमगणाणं ॥ ११ ॥" अत्रोच्यते-यदि प्रकृतिः किमिति पुनः धर्मस्य श्रवणताऽपि दुर्लभा सामान्य लोकस्य । यतोऽवाचि.. सर्वकालं न प्रयच्छन्ति पुष्पफल म, यनियते एव काले पुष्प
"सुलहा सुरलोयसिरी, रयणायरमेदला मही सुनहा। निम्बुफर्श ददति; अत व एषा पादणनां प्रकृतियद् ऋतुसमये ब- सुहजणियरुई, जिणवयणसुई, जए बुलढा ॥१॥" श्रुतस्य सन्ताऽऽदावागते सति वृक्कसंघाताः पुष्यन्ति, तथा फलं च का- वा श्रमानता दुर्लना। उक्तं च-" श्राहमच सवयलद्धं, स. सेन बध्नन्ति, तदर्थानज्युपगमे तु नित्यप्रसङ्गः । साम्प्रतं प्र
| कासवणतुल्लदा। सोना नेयाउंयं मगं, बहवे परिभस्सा कृते ऽप्युक्तार्ययोजनामुपन्यस्यति-"किंतु गिही रंधती, सम- ॥१॥" " भक्ष्याभक्ष्यविवेकाच्च, गम्यागम्यविवेकतः । त. णाण कारणा अहासमयेमा सम्णा भगवंतो,किसामएजा . | पोदयाविशेषाच्च, स धर्मो व्यवतिष्ठते ।।१॥" इत्यसं बहु. गाहारा ॥ ११३ ॥" अत्राऽऽह-न होते हिरण्यग्रहणाऽऽदिनाऽ. विस्तरोपन्यासेन । प्रकृतमनुसराम:स्माकमनुकम्पां कुर्वन्ति इति मत्वा भिक्कादानार्थ पार्क निर्वत. यन्न्यतः श्रमणानुकम्पानिमितं, तथा सामान्येन पुण्यनिमित्तं
६ हि दुरन्तानन्तचतुरन्तासारविसारिसंसारापारपारावारे च गृहनिवासिन एव पाकं कुर्वन्ति । नेतदेवम् । यतः कान्तारे
निमज्जता भव्यजन्तुना जिनप्रवचनप्रतीतचोलकाऽऽदिवशनिदुमिके, ज्वगऽदौ महति समुत्पन्ने रात्री श्रमणाः सर्वाऽऽहार
दर्शनदुष्पापां कथमपि प्रशस्तसमम्तमन्जजन्माऽदिसामग्रीन भुञ्जते,अथ किमिति पुनगृहस्थास्तत्रापि आदरतरेण राध्यन्ति,
मनाप्य जवजलधिसमुत्तरणप्रवणप्रवाहणस्वधर्मसद्धर्मविधाने अतः प्रकृतिरेषा गृहिणां वर्तते यद् गृहिणो ग्रामनगर
प्रयत्नो विधेयः । यदवादि-'भवकोटदुधापाम, अवाप्य नृभनिगमे राध्यन्ति आत्मनः परिजनस्यार्याय, तत्र श्रमणाः
बादिसक सामग्रीम । भवजाधियानपात्रे, धर्म यत्नः सदा तपस्विनः परार्थमारब्धं परार्थ च निष्ठितं धृतरहित.
कायः॥१॥" कामार्थयोस्तु वाधायामपि धर्मो रकणीयः, माहारमपन्ते मनोयोगाऽऽदीनां संयमयोगानां वा साधनाथम ।
धर्ममूलत्वादकामयोः । उक्तं च.." धर्मश्चत्रावसादेत, कपा| "ण दगण हगावे.दणं णा जाणइन किण न किणावेत,
सेनापि जीवतः। श्रादयोऽस्मीत्यक्गन्तव्यं, धर्मवित्ता हि साधकिणत नाणुजाण । न पयइ न पयावेइ, पयनं नाणुजाणइ।"
वः॥१॥" अथवा धावाप्ती कामार्थयोः क्षतिरत्यादरणीवा- IS पताजिय कोटिभिः परिशुद्धं, तथागमोत्पादनैषणाशुरुम..
"जावन पुक्वं पत्ता, माणसं च पाणिणो पाय । तावन ध. "वेय येवायच, इरियार य संजमट्ठाए । तद पाणवित्ति
म्म गएह-तिभावो तेयलिमय व ॥१॥ " अथवा-" नेह याप, पुण धम्मचिंताए ॥१॥” इति षटम्यानरवणार्थ
लोके सुख किञ्चि-च्छादितम्यांहसा भृशम् । मितं च जीभवान्तर प्रशस्तभावनाऽभ्यासादहिसाऽनुपालनार्य चतुते।
वितं नृपा, तेन धर्मे मतिं कुरु॥१॥" प्रक्राम्तमेव समर्थ कि-"अवि भनरम हुयरिंगणा, अविदिन्नं आवियांत कुसुम
यन्नाद-" जरा जावन पामे, बाही जावन वद । जार्षि। रस । लमणा पुरण भगवंतो, नादिन्नं भोतुमिच्छति ॥१२६॥"
दिया न दायंति, ताव धम्म समायरे ॥ ३६ ॥""ते धन्ना जे *जद कुममा उमद नग-रगणकया पयावायण महावा ।
धम्म, चरिउ जिणदेसियं पयसेणं । गिहिपासबन्धणाओ, जह भमरा तह मुगिगणो, नथरि अदत्त न भुति ॥ २३२ ॥ कु.
उम्मुक्का सम्बनायेणं ॥ १॥" तयाहिसुमे सहायफुल,आहारंनि जमरा जद तहा भत्तं सहावसि- "निर्वाणाऽऽदिसुखपदे नरभवे जैनेन्ऽधर्माबिते, भा, समणसुधिहिया गयेसंति ॥ १३३॥" 'तम्हा दयाइगुण- सब्धे स्वस्पमचारु कामजसुखं नो सेवितुं युज्यते ।
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घण्टापथः।
(१५)
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वैसूर्या दिमहोपलौघनिचित, प्राप्तेऽपि गलाकरे,
हितकाइक्विभिनसिंह-वचन नन दाविधीयम् ॥ १७ ॥" लातुं स्वल्पमाप्ति काचशकलं, किं चोचितं साम्प्रतम ॥३॥"
भनेकविद्याविशारदोऽपि धर्मशासनानभिज्ञो विकल एव। य. अपरञ्च-" बात यदीह कश्चिदनुसंततसुत्रपरिभोममालि.
"साहित्यम्य विशारदो दि पर जानाति सल्लागां, तः। प्रयत्मशतपरोऽपि विगत-व्यथमायुरबाप्तवान् नरः॥१॥ न खनु नरः सुरौघसिद्धा-सुरकिन्नरनायकोऽपि यः । सोऽपि
तके कर्कशमानमोतिविनुता यद्यस्ति सा ज्योतिषि । कृतान्तदन्तकुलि शाक्रमेण कृशितो न नश्यति ॥२॥"मृत्यु.
किश्शानेककमाल योऽपि विकाः प्राणी पर गीयते, मुखप्रतिषेधस्योगायोऽपि न कश्चिदस्तीति । उक्तं च.
यो जानाति न स्वर्गमावसुखदं धर्मानुगं शासनम् ॥१॥" " नश्यति नौति याति वितनोति करोति रसायनक्रियां
अथवा कियद् धूमःचरति गुरुवतानि विवराण्यपिविशति विशेषकानरः ।
" यत्प्रोदाममदान्धसिन्धुर घटं साम्राज्यमासाचते, तपति सपांसि स्वादति मितानि करोति च मन्त्रसाधनं,
यनिःशेषजनप्रमोदजनक संपद्यते वैभवम् । तदपि कृतान्तदन्तयन्त्रकचक्रमणेविदार्यते ॥१॥"
यत्पूर्णेन्दुसमद्युतिगुणगणः संप्राप्यते यत्परं, अथवा-"जो वाससय जीवद, सुहीनोगे य चुजद । तस्स
सौभाग्य व बिजम्नते तव खिलं धर्मस्य लालायितम् ॥१॥" वि सेविट सेओ, धम्मो य जिणदेसिनो ॥२२॥ किं पुण स. | पवार, जो नरो निच्चदुक्खिओ। सुध्या तेण कायब्बो, ध. " या प्लावयति किनि जलविधिः कोलमाझाऽऽकुलो, म्मोजिणदेसियो ॥ २३ ॥" तस्मात-" नंदमाणो चरे ध. यत् पृथ्वीमनिला धिनोति सलिनाऽऽसारेण धाराधरः ।
म्म, वरं मे लटुतरं भवे । अनंदमाणो विचरे, मा मे पावतरं यश्च द्रोप्णरुथी जगायुदयतः सर्वाधिकागच्चदे, मवे ॥ २४॥ " किञ्च-" न वि जाई कुलं वा चि, विज्ञाना- तनि शेषमपि ध्रुवं विजयते धर्मस्य विस्फूर्जितम् ॥ १॥"
नर व नाार वा, सम्म पुनहिवा] किन्तु साम्प्रतमनेकानि धर्मभिधेग्धुराधराणि मिथ्यास्वि. कई ॥२५॥ पुनदि हायमाणाह, पुरिसागारो वि हायई। मतानि प्रचलितानि सन्ति, तमो विवेका कर्तव्यः । यदुक्तमपुनहिं बहुमारि, पुरिसागारो वि व ॥ २६॥" अथवा- "तं शब्दमात्रेण बदन्ति धर्म, विश्वेऽपि लोका न विचारया " संघयणं संगं, उच्चतं श्राउयं च मणुगाणं । अणुसमय |न्ति । स शब्दसाम्येऽपि विचित्रभेद बिभिवते तीर मानाय परिदार, योसपिणिकामदोसणं ॥ १ ॥ कोहमयमाणलो. | म् ॥१॥" यथा “लक्ष्मी विधातुं सकलां समर्थ, सुदुल नं विश्व भा, प्रोस बहर य मायाणं । कमतुल कृममाणा, तेण. | जनीनमेनम् । परीक्ष्य गृण्हन्ति विचारदकाः, सुवर्णवद्धन्त न घुमाणेण सन् ति ॥२॥ विसमा अज्ज तुलाभो, चिस- भीतचित्ताः ॥१॥" अथवा-"सत्कारयशोलाभार्थिनिश मूढै. माणि य जणवएसु माणाणि । विसमा राय कुसाई, जेण उ | रिदाम्यतार्थतः । अवसादितं जगदिद, प्रियापयपथ्यान्युपदि. विसमा वासा॥३॥ विसमेसु व वासेसुं, इंति अमा- शभिः ॥१॥" किश्च-"प्रायेण हि यदपथ्य, सदेव चा. राई ओसहिवताएँ । ओसहिदुव्वल्लेण य, पाक परिहायद तुरजनप्रियं भवति। विषयाऽऽतुरम्य जगत-स्तथानुकूलाः नराण ॥४॥ एवं परिहाबमाणे, लोए चंब कालपक्ख- प्रिया विषयाः ॥१॥" अन्यच्च-"पूर्वापरविरुद्धानि, हिंसा. म्मि । जे धम्निया मणुस्सा, सुजीवियं जीवियं तेसि ।। ५॥" 55देः कारकाणि च । वचसि चित्ररूपाणि, व्याकुर्वद्भिनिबता मरतसमये." पुत्ता चयंति मित्ता, चयति जज्जा वि जेण्या ॥।॥ कुतीथिकः प्रणीतस्य, सद्गतिप्रतिपन्थिनः । णम्म चयति । तं मरणदसकाले, ण चया सुविअजिओ धर्मस्य सकल स्थापि, कथं स्वाख्यातता भवेत् ॥ ४॥ यच धम्मो ॥ २१॥ धम्मो तारखं धम्मो, सरणं धम्मो गई पछा तत्समये क्यापि, दयासत्याऽऽदिपोषणम् । दृश्यते तद् वचो. पापम्मेण सुवरिपण , गम्मद अजरामरं नाणं ॥ १३॥ पी. मात्र, बुधै।यं न नचतः॥५॥" किन्तु-"स्वाऽऽख्यातः स्व. करो बनकरो, भासकरो जसकरोरस्करो य । मभयकरो लु धर्मोऽयं, भगवनिर्जिनोत्तमैः। यं समालम्बमानो हि, निवुझकरो, परत वी अजिजनो धम्मो ॥१३॥ अमरवरेसु अ- मजेद भवसागरे॥१॥" अत:-" अर्दता कथितो ध. जोवम को भोगावभागरिकी य । विशाण नाणमेव य, लम्भ.
मः, सत्योऽयमिति जावयन् । सर्वसंपत्करे धर्मे, धीमान् रइ सुकरण धम्मेण ॥१४॥ देविंदचक्कवट्टित्तणाई रजाई
|ढतरो जयेत् ॥१॥" अत एवोक्तम्-"न श्रद्धयैव स्वपि पक्षइच्छिया भोगा । पयाई धम्म लाभो, फला, जं चाथि निवा- पातो, न द्वेषमात्रादरुचिः परेषु । यथा वदाप्तत्वपरीक्रया तु, गां ॥ १५ ॥" किम्ब--" ऽगतिप्रसृतान् जन्तून, यस्माद् स्वामेव चीरं प्रतुमाश्रयामः॥१॥" अथवा.."पञ्चैतानि पवि. पारयते ततः । धते चेतान् शुभे स्थाने, तस्माद धर्म इति स्मृ प्राणि, सर्चपां धर्मचारिणाम् । अहिंसा सत्यमस्तेयं, स्या|तः ॥१॥" तस्मात-"धम्माओ धणनाभो, त्ति जंपिबुतं | गो मेधनवर्जनम् ॥१॥" इति । |तयं पिनरजु । सम्बो विह पुरिसत्थो, धम्मानविय जत्रो ।
म्मानचिय जत्रा | हि हेयोपादेयाऽऽदिपदार्थमार्थपरिज्ञानप्रवीणस्य जभणिया॥१५॥" उक्तंच.."धनदो धनार्थिनां धर्मः,कामदः स.
मजरामरणरोगशाकाऽऽदिदुर्गदौगत्यनिपीडितस्य भव्य सव. वकामिनाम् धर्म एवापवर्गस्य, पारम्पर्येण साधकः ॥१६॥" स्य स्वर्गापवर्गाऽ ऽदिसखसंपत्पादनाबभ्यनिबन्धनं सद"धर्मोऽयं धनवव भेषु धनदः कामार्थिनां कामदः,
धर्मरानमुपादातुमुचितं, तमुपादानोपायच गुरुपदशमन्तरेगा न सौभाग्यार्थिषु तत्पदः किमथवा पुत्रार्थिनां पुत्रदः ।
सम्यक विज्ञायते, न चानुगायत्रवृत्तानाममोटार्थमिकिरिति । राज्यार्थिवपि राज्यदः किमपरं नानाविकलौनृगां, सचाऽऽऽऽदिपदार्थमार्थस्वरूपपर्याोचनेकाग्रतारूपस्य धर्मतत् किं यत्र ददानि किच तनुते स्वर्गापवगांवपि ।। ५४।" |स्य ध्यानावस्थितिरिति । नच ध्यान द्विविधम्-ययन, अध्याएवं च.." धमेश्रवणे यत्नः, सततं कायर्या बहुश्रुतसमीपे । त्मिकं च। तत्र बाह्यम्-सुत्रायफ्यालोचनम, दृढवतता, शील
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घण्टापथः ।
卡书本书本书本书本书本书者奉孝孝丰基本非孝孝养老半本书考书本书本卡林书本书本卡卡卡卡卡卡卡卡卡卡卡卡卡基苯基本老去老老老老老老老老老老
गुणानुरागो, नितकायबागव्यापाराऽऽदिरूपम । ययुक्तं दशव. | निष्ठं व्युदसिसिषु चास्तीतीष्टानिष्टप्राप्तिपरिवारोपायप्रकालि कटीकायाम-"सूत्रार्थसाधनमहाव्रतधारणेषु, बन्धप्रमो
काशनदम्पर्येण भगवाँस्तीर्थङ्करचक्रचूमामणवद्धमानो जीवाकगमना गमहतुचिन्ना। पश्चेन्द्रियव्युपरमश्च दया च भूते, जीवादिनवतावविभागप्रविभागजक्तां सर्वाभ्युदयसाधनां ना. ध्यानं तु धर्ममिति संप्रवदन्ति समाः ॥१॥" प्रात्मनः स्वसंवे. नाविधसमष्टिव्यएिफलांद्वादशाङ्गीमेकादशाङ्गी वाऽर्थतो विदध. दनाग्राह्यमन्येपामनुमेयमाध्यात्मिकं तु तवार्थसंग्रहाऽऽदी चातु. दभिदधौ तनिष्कर्ष निजनरणान्तेवासियो धारधारेवेन्यो गणविंध्यन प्रदर्शितं, संक्षपतोऽन्यत्र दशविधम् । तद यथा-"अपा- धरप्रवरेभ्यो गीतगाऽऽदिभ्यः । जग्रन्थुध सुधर्मस्वामिप्रमुखा योपायजाबाजीवविपाकविरागभवसंस्थानाशाहनुविचयानि जम्बूस्वामिप्रभृतिमुपलक्ष्यार्धमागधीभाषयाऽलोपानानि । गहचेति ।" तथाहि मनोवाक्कायव्यापारविशेषाणामपा- नातिगहनतया च तद्विषयाणां संलिप्ततराणां तेषां क्रमशो पि. यः कथमनुमानं स्यादित्येवंभूतः संकल्पपबन्धो दोषपरि. स्तारमारेभिरेऽन्ये बाचार्याः। यश्चपि चिन्न दुप्पमारप्रभावतः वर्जनस्य कुशलप्रवृत्तित्वादपायविचयम् । तेषामेव कुशलानां पुरुषाणां मन्दमतितया सरणशक्तिरीत्यतया च श्रीमाव भद्रस्वीकरणमुपायः स कथम नुमेयः स्यादिति संकल्पप्रबन्ध उ. बाहु स्वामी तत्तद्विषयमात्रश्चिकाभिनियुकिगाथाजिनियबन्ध पायविचयम् । असंख्येयप्रदेशा35म कसाकारानाकारोप. विषयान् सद्यः स्फूर्तिकराभिः,तथापिसापतकालीनवक्षवत्तरयोगमकणानादिस्वकृतकर्मफस्रोपभागित्वाऽऽदिजीवस्वरूपानु. पश्चमकालप्राज्यसाम्राज्यतो ऽउतरधिषपाबां जनावां मन:चिन्तनं जीवविच यम । धर्माधर्माऽऽकाशकाल पुद्गलानाम- सु कथाशेषतामेवागमत् तद् मसिमान्तरहस्यमिति सम्प्रधा. नन्तपर्यायाऽऽत्मकानामजीचानामनु चन्तनमजीवविचयम । म्- यैव श्रीमविजयराजेन्द्रसूरीश्वरमदानुनावा: मङ्गितमुनानबह्न लोत्तरप्रकृति भेदमित्रम्य पुद्गलाऽऽमि कस्य मधुरकटुफत्र- र्थगुम्फितं परमोपयोमिसकबाऽऽयमविषयमंग्रहात्मकं कोश| स्य कर्मणः संसान्सियविषर्यावपाकविशेषानुचिन्तनं वि- | मसु ब्यरीरनिति क्रियासमभिदारेष तत्र तत्रोपोडात प्रस्ताव पाकविनयम । कुत्सितांमदं शरीरकं शुक्रशोणितममदभूत- भूमिकाउदी निरूपितमस्माभिः। श्रीमन्तो विजयराजे-- मशुचिभृतघटोपममनित्यमपरित्राणं गदाशुचि नवनिपा- सूरीश्वराः खलु दुर्खभगुणगणमूर्तय इत्यत्र किमिव बह ऽशुचि प्राधेयाशौचं न किञ्चिदत्र कमनीयतर समस्ति, दूम: ? , किन्त्येताबबेच पर्याप्तं नाम, यदिह प्रायोऽनेक गुणग कि.म्पाकफलोपभोगोपमाः प्रमुखरसिका विपाककटवः प्रक- पभाजीऽन्ये सूरयो देशनामादिशन्तोऽपि नो स्खल प्राप्नुवन्ति स्या भङ्गराः पराधीनाः सन्तोशमृनाऽऽस्वादपरिपन्धिनः सद तथाविधं विपश्चिचिसाऽऽसेचनकवै दुध्यशालिवम । अधवामिनिन्दिना विषयाः, न दुमयं च सुख दुःख नुपति दुःख ज- किंबहुना सकललोकप्रसिद्धस्य तस्य परिचयप्रदानेन । प्र. नर्क च, नाता भोगिनां तृप्तिः, न तदात्यन्तिकमिति ना. कृतं प्रस्तुमः-पतग्रन्थपरिशोधन विषये छनाऽऽविग्रन्यानां त्रास्था विवेकेनाऽऽधालु गुति विरतिरेवान श्रेयस्कारि- केवल में कैकाऽऽदर्शपुस्तकाभात लेखकानवधानतो द्विराव पीत्यादिविरागहेतुचिन्तनं वैराग्यविषयम् । प्रेत्य स्व- त्तिपविकल्याइदिदोषाऽऽघ्रातत्वाच तेषामनेक कायतः पचन. तकर्मफलोपभोगार्थ पुनः प्रादुर्भावो भवः, स चारघघटी- | पाउनपरिपाटीविरहात् बहुषु स्थलेषु सामजस्यानाचात् यन्त्रवद् मूत्रपुरीषान्त्रतन्त्रनिबरुदुर्गन्धजठरपुरकोटसदि. | मम्मत्यादितर्क ग्रन्धानामपि जटिलातिजटिविषयेषु विझेनर. वजनमावर्तनं, न चात्र किबिद् जन्तोः स्वकृतकमफरम-लेखकलेखनमन्तुप्रभावतोऽलग्नकत्वाद् महती दुःस्यता समुद् नुजवतश्चेतनमचतनं वा सहायभूतं शरणतां प्रतिपचन इत्या- भूता, तथापि श्रेयांसि बदुविधनानि, भवन्ति महतामपि।' दिजवसंक्रान्तिदोषपालोचनं भवविचयम् । तथा च- इति स्मरणाब"प्रारभ्यते न खत्रु विश्वभयेन नाचैः, प्रारभ्य "समाराम्बुनिधौ सवाः, कोमि परिघट्टिताः । संयुज्यन्ते बिनविहता विरमन्ति मध्याः। विग्नः पुनः पुनरपि प्रतिहन्यवियुज्यन्ते, तत्र कः कस्य बान्धवः ॥१॥"तथा-"अत्यायः मानाः, प्रारब्धमुत्तमगुणा न परित्यजन्ति ॥ १॥" इत्यनुस्मरतेऽस्मिन् संसारे, भूयो जन्मनि जन्मनि । सचो वायसी णाश्च मूत्रनन्ध टीकानो, टीकाग्रन्थं च मूलतो विविध्य, निकश्चिद्, यो न बन्धुरनेकधा ॥१॥" भवनबननगमरित- शीथमहानिशीथाऽदिकेवलार्धमागधीग्रन्धानां टीकाविकसमुनरूहाऽऽदयः पृथ्वीव्यवस्थिताः, साऽपि छनोदधिघ- लानां प्राकृतब्याकृत्याऽऽदिसाहाय्यात् तत्प्रकृविषयप्रतिपाद. नवाततनुवातप्रतिष्ठा. तेऽप्याकाशप्रतियाः, तदपि स्वाऽऽरमप्र. कग्रन्थान्तरमननाच गुरुचरण सरोजमकरन्दसमास्वाइनलम्ध। नि, तबाधोमुखमन्त्रकसंस्थानं वर्णयम्त्यघोलोकमित्यादिसं. नवनवोन्मेषशामिप्रकाबभिरस्माभिर्दत्ताबधानतः संशोधिस्थानानुचिन्तन संस्थानविच यम् । अतीन्द्रियस्वाद देखदा. तोऽयं कोशग्रन्थो, विशेषतश्चायं भागः, परन्तुहरणा दिसनावेऽपि बुध्यतिशयशक्तिविकः परमोकब-| I deem no skill in acting perfect, till the leधमोवधर्माधर्मादिभाववत्यन्तपु:ख बोधेवाप्तप्रामाण्यात् | arned are satisfied; the heart of even those, thतविषयं तचनं तथैवेत्याझाविचयम् । श्रागमविष- at are deeply read, has little confidence in itseयप्रतिपसी तकानुसारिबुद्धः पुंसः स्याद्वादप्ररूपका- If. war-When delegated agents successfully उगमस्य कपच्छेदतापहाकिसगाश्रयणीयत्वगुणानुचिन्तन 2.। carry out any great undertaking, the credit of तुविचयम । पतञ्च सर्व धर्मध्यानम, श्रेयोडेतुत्वात इति success belongs to their masters fra:. Could सर्व सुस्थम । इतोऽप्यधिकविषयजिज्ञासाभः सूचमधिया ध. | dawn ever dispel darkness, bad not the thousand. मंशब्दोऽत्र निरीक्षणीयः प्रतायते नेद, विस्तरजयादिति। Irayed luminury placed her, in front of his car ?. उपसंहार:
इति निवेदयन्ति। ६ संसारे स्वभावत पब शरीरिमात्रमिष्टमभिलाषुकश्चा.
संशोधकाः।
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अर्द्धम् ।
ग्रन्थनिर्माणकारणम्
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श्री वर्धमान जिन गौतमसत्सुधर्म - जम्बूमुनीन्द्र जगदर्चितजडवादोः । यो वर्धितो निजकृपोदक से चनानिधर्म डुमो निखिलधर्मतरुप्रधानः ॥ १ ॥ काले गते बहुतिथेऽथ विलुण्ठितं तं मूलार्थविप्लवनसासमाश्रयद्भिः । मिथ्याविनिः पुनरपीह समुद्दिधीर्षुः, सूरीश्वरो जुवि दयोदधिराविरासीत् ॥ २ ॥ कामाऽऽदिवैरिनिवद्दोन्मथनात्सुहृष्टः, बाह्याऽऽन्तरो जय विचित्रचरित्रदृष्टः । कारुण्यपूर्ण रसपूरितजव्यपुण्यनीराब्धिसंगत सुधोन्मथने समर्थः ॥ ३ ॥ चेतोऽन्धकारोद्धरणे विरोचनो, राजेन्द्रसूरिर्विबुधार्चिताङ्घ्रिकः । संघोपकर्ता न च कोऽपि तादृशः, पुण्यैक मूर्तिर्जविकोधबोधदः ॥ ४ ॥ निजमतच्युति जैनमतग्रहा -
न्यतरमादवभङ्गपणं दिशन् ।
तितवादकथासमरे परानू,
व्यजयताऽजयतां प्रथयन्निजाम् ॥ ५ ॥ अथ विजित्य दिशो दश शिष्यतां,
घण्टापथः ।
गतवतः करुणावरुणाऽऽलयः ।
मुनिगणान् नववादरणाऽङ्गणे, निजधियाऽजधिया समयोजयत् ॥ ६ ॥ सूत्राएयुपास्य तडुपोलितैः स्ववाक्यै - |राख्यानकैश्च विततैर्निज देशना जिः । यो जैनसंघम खिलं कृपयोधार, सूरिः स वै विजयते स्म पवित्रकीर्तिः ॥ ७ ॥
( १७ )
इत्थं स जैनाऽऽगममत्र लोके, सम्यग् व्यवस्थाप्य न संतुतोष । कालक्रमेणास्य पुनर्विनाशमाशङ्कमानो विजितान्यमानः ॥ ८ ॥ ततोऽभ्यगात् शिष्यगणैः सुविवृतो विहारेण मरुस्थलं तु । उवास कालं चिरमात्मतत्त्रं, तान् बोधयन् धर्म शिरःप्रतिष्ठम् ॥ ए ॥ कदा संसदि सन्निविष्टो, निजाऽऽत शिष्याऽऽदिविभूषितायाम् । सङ्घोपकण्ठं च निजा जिलाएं. व्यजिज्ञपत् सूरिवरः कृपालुः ॥ १० ॥ जैनागमानां निजयुक्तियोगात्, संयोक्तुमेकत्र नवीनरीत्या । कोशं विधित्सामि जिनेन्द्र भाषामयं न लुप्येत यतः कदाचित् ॥ ११ ॥ श्रुत्वा पुनस्तमुपदेशवरं प्रहृष्टा
प्रदीप गुरोरनुशासनं तत् । संगृह्य द्रव्यमतुलं च ततोऽनिधानराजेन्द्रकोशममलं निरमापयँस्ते ॥ १२ ॥
इति विज्ञपयन्तिश्रीमदुपाध्याय मोदनमुनयः ।
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添
- इति -
श्रीमत्सौधर्म बृहत्तपागच्छीय कलिकाल सर्व कल्प- सर्वतन्त्र स्वतन्त्र जैन श्वेताम्बराचार्य श्री श्री १००८ जट्टारकश्रीमद्विजयराजेन्द्रसूरीश्वरमहाराज विरचिते
शब्दसङ्कलनात्मके " श्री अभिधानराजेन्द्रकोषे "
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चतुर्थो भागः समाप्तः ।
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॥ श्रीपीतरागाय नमः ॥
अभिधानराजेन्द्रः |
नमिऊण वज्रमाणं सारं गहिऊप आगमाणं च । अहुणा चचरथजागं, बोध्छं अनिहायराईदे ॥ १ ॥
శరదతతగరం 24
जकार
ଅରୁଣ ଉସର ଓ ମମତା
299 मज पुंजका स्कोर मस्थानं वायु अाज्यन्तरप्रेयः जिमध्यातास्पर्श बाह्यप्रयत्नाश्च घोषसंवारनादाः, अल्पप्राणश्च । वाच० । जिजन-जु वामः । मृत्युजय, जन्मनि, पितरि जनार्दने, प्र० । विषे, मुक्तौ, तेजसि, पिशाचे, बेगे, जेतरि । वाच० । जः पु मान् विजये मेरी, विस्तरे मत्सरे जने ॥ २४ ॥ जस्त्यांवर ते शब्दे, जा स्त्रियां देववाहिनी । योगिः समुद्रवेला च, जं नपुंस कमम्बुनि " ॥ १५ ॥ एकाo | गुरुमध्ये प्रान्तयोर्लघुद्रययुक्ते उन्दः शास्त्रप्रसि (151) त्रिवर्णे जगणे च । वाचः।
- त्रि० । “यकारः पुंसि यवनो मे, दातरि, मातरि ॥ ७ ॥ स्यागावयवयोः शिष्ये, विनये कल्पपादपे । या स्त्रियाननसूयायां, शांभालदम्यां च निर्मितो ॥ ७१ ॥ नपुंसकं यकारस्तु यशोरूपकयोर्जवेत्" । इत्यादि । एका० ।
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यद् - - त्रि० । यज् अदि-मिव । 'जो' इत्येयं बुद्धिविशेषविषयं चाच अनिर्दिनिर्देश्ये, नं० श्रा० म० । नि० चू० । लिबासेति वाकेति वा एवमादिनिवेस घायगा हौति । जे कारस्स निद्देसनिदरिसणं, जे असंतरा अभक्खाणं अभ कस्लाइ " इत्यादि । नि० चू० । "जेगारो पुरा श्रणिद्दिवायगु ऐसे, जहा जेण च जं च पशुच्वेत्यादि । अहवा जहा इमां चित्र जेगारो उस्सग्गऽववायचिपण पडिसेचियं वत्ति न निः दि गुरु लहुं या जयणाए, जयणाहि वा. तेण जेगारेण निइंसा कृतेत्यर्थः । श्रढवा-जेकारेण श्रनिद्दिभिक्खुस्त निदेसो कतो" । नि० चू० २०० । यदित्युद्देशः । श्र० ४ श्र० । '' अ-यति- पुं० । यत्-इन् । यतते चारित्रं प्रति प्रयतो भवतीति याची श्री रविशं इति यतिः । विचित्रद्रव्याऽऽयभिग्रहाऽऽद्युपेते साधो, रा० । तपस्विनि साधौ, श्रावण १ श्र० । साधौ दर्श० ४ तत्व | प्रयत्नवति, द्वा० ए६ द्वा०] 'यती' प्रयन्ने, "जयमागो जई होई" नि० ० २०३० । यनमानो जावतस्तथा तथा गुणेषु यतिर्नखेत । द्वा०५६० धर्मक्रियासु प्रयत ( प्रचनं ) मान. भ० डा० ३३ उ० । श्रघ० । प्रब्रजिते पं० ० २ द्वार । निग चू। गृहीतप्रव्रज्यो यतिरुच्यते । तथा च धर्मविन्दुः-" एवं यः शुयोगेन परित्यज्य गृहाऽऽश्रमम् । संयमे रमतं नित्यं यतिः परिकीर्तितः ॥ १ ॥ ० ३ अधि | मंदा मानुमतेरपि बिरते, कर प्र० । सुनौ पञ्चा० १ विचः । संयते, दश० ३
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अ० । उत्तमाऽऽश्रमिणि. द्वा०२७द्वा० प्र० । “ब्रह्मचारी गृहस्थपापस्तथा।" इति लोकप्रि
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नि० ३ वर्ग यम्यते जिह्वा यत्र । यम- क्तिन् । बन्दोप्रन्यख्याते जिह्वाया विश्रामस्थाने उच्चारणकालविच्छेदेखी० । सा च "कन्त्रित् छन्दस्यास्ते यतिरनिहिता पूर्वकृतिभिः पदान्ते साशोभांव जति पदमध्ये त्यजति चा" इत्याद्युक्त्या सुप्तिङन्तरूपपदान्ते ए उन्होन्यानुसार जिया विभ्रमरूपधारणाभावरूपा विधवायां संग संधि पाठविले नकारे विष्णो वादे च यत्परिमाणे इतिः परमा त्रि० । वाच० । स्था० ।
यतिन् - पुं० । यम-भावे क्तः । यतं यमनं संन्यासिनि परिव्राजके, विधवायां स्त्री० विच्छेदे, प्रा० म०प्र० । विरतो. अनु० तिनाम " इति योगशास्त्रे डैमप्रयोगः । 'जविन क्रि० नि० जविन्- त्रि० । वेगवति श्र० ।
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यदि - अध्य० । यदू- णिच् छन् णिलोपः । पक्कान्तरे, संभावनायां, गहयां, विकल्प च । चात्र० | अभ्युपगमे, नि० न्यू० १३० । जी० । पञ्चा० । श्राव । श्रा०म० । विशे० । यदीति पराज्यप गमसंसूचकः । दश० १ अ० ।
यतमनेन इनिः । ङीप् । वाच० ।
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" ज्ञेया सकामा य
जग्री- यतितव्य न० । कार्ये प्रयत्ने, पं० ६०१ द्वार " जइ श्रव्य जाया 'प्राप्तेषु संयमयोगेषु प्रयत्नः कार्यः । भ० ६० ३३ ० पहिकामुष्मिक फल प्राप्त्यर्थिना सत्येन प्रवृस्यादिल कणः प्रयत्नः कार्यः । प्रयतितव्ये. सूत्र० १०५ श्र०१ ० । कार्ये उद्यमे, पं० ६० १ द्वार । घटितभ्य, नि००१२० जइकिच्चं - प्रतिकृत्य - - न० । साधोः कर्तव्ये, पञ्चा० १२ विद्य० । साध्वनुष्ठाने, जावा० २५ अधि० । जच्छायहच्छा स्त्री० यद् ऋच्छ अ-टाप् । स्वातन्त्र्ये, खैरतायां च ।" यच्छालाभसंतुष्ट, वाच । श्रनजि संधिपूर्विकाप्राप्ती, ( भाचा० ) यहक्कतोऽपि नास्तित्वमात्मनः का पुनभगनिधि
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अतर्कितोपस्थितमेच सर्वे, चित्रं जनानां सुखदुःखजातम् । काकम्य तालेन तथाऽभिघातो न बुद्धिपूर्वोऽव वृथाऽभिमानः ॥ १॥ सत्यं पिशाचस्य बने सामो, मेरी करायैरपि न स्पृशभिः । मेरी विज्ञापरिताप यथा कानामद्धिपूर्वकं न काकस्य ि तालं पतिष्यति, नापि तालस्याभिप्राय:- काकोपरि पतिष्यामि, अथ तत्तथैव भवति एवमन्यदप्यतर्कितोपगतमजाकृपापीयमारभेषजीपको पमित्यादिपम्प
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(१३६४) जइच्छा अभिधानगजेन्डः।
जइस सर्वजातिजरामरणादिकं लोक यादृच्छिक काकतालीया55- | जणाटिप्पणग-जैनटिप्पनक-न। जैनाऽऽम्नायेन निष्पादिते दिकल्पप्रवसे यम । आचा० १ श्रु.१०१ उ० । एवमेव यह
टिप्पन के, ताट्टेपनक त्यधुना सम्यग् न झायने । कल्प०७ कण। कच्या गोपाबदारकादेम क्रियते 'डित्य, रूपित्य 'त्यादि ।
जाणवायाम-जविनव्यायाम-पुं० । शीघ्रव्यापारे, "घणपबश्रा० म०प्र०। भइच्छावाइ [ग] यदृच्छावादिन-पुं० । अकारणोत्पत्तिवादिनि, |
णजणवायामसमत्थे" उत्तः ६ अ०जविनशब्दः शीघ्रवच
न । अनु०। मं० । यदपि यहच्यावादिनः प्रलपति-न खलु प्रतिनियनो |
जडणवेग-जायवेग-पुं० । शेषवेगवद्वेगजयिनि येगे, भ०३ श० २३०॥ वस्तूनां कार्यकारणभाव इत्यादि। तदपि च कार्याकार्यविवेच. मपटीयाशेमुषीविकझतासूचकम, कार्यकारणावस्य प्रतिनि.
जाणी-जैनी-स्त्री०। जिनसबन्धन्याम, पञ्चा०३ विव० प्रतिका यततया संभवात् । तथाहि-यः शालूका उपजायते झालूकास
| जयिनी-स्त्री० । जयवत्याम , औ०। सदैव शाबूकाईव, न गोमयादपि । योऽपि च गामयादुपजायते जविनी-स्त्री. वेगवत्याम , औ० । शालूकः सोऽपि संदेव गाभयादेव, न शाकादपि । न चानयो. जइत्ता-जित्वा-अव्य० । जयं कृत्वत्यर्थे, स्था०६ ग.२०॥ रेकरूपता, शक्तिवर्णाऽऽदिचौयतः परस्पर जात्यन्तरन्यात् । वोऽपि च वरूपजायते वह्निः सोऽपि संदेव बहरेव, नार
जैत्री-स्त्री० । रिपुबल जय कन्याम, स्थ: ६०००। णिकाष्टादपि । योऽपि चागणिकाष्ठा दुपजायते सोऽपि सर्वदाऽ- जादवुत्तरवेगान्वय-यातदवा
जदेवुत्तरवेलबिय-यतिदेवोत्तरवैक्रिय-न। यतिदेवेमूल शरणिकाष्ठादेव, न वरपि । यदपि चोक्तम-बीजादाप जायते । रीरापेक्योत्तरकालं क्रियमाणे वैक्रियशरीरे, सत्र यतयश्च साकदलीत्यादि । तत्रापि परस्परं विभिन्नत्वादेतदेवोसरम । धयो देवाश्च सुरा यतिदेवाः । कर्म०१ कर्मः। अपि च-या कन्दामुपजायते कदली,साऽपि परमार्थतो बीजा-जइदोस-यतिदोष-पुं० नन्दःशासमसिम्यतिभके. प्रस्थानविदेव बेदितव्या,परम्परया बाजस्यैव कारकत्वात् । एवं वटाऽऽद. रतो, सर्वथा बिरतौ बा। विशेः । अनु० । अस्थानविच्छेदे, योऽपि शाखेकदेशानुपजायमानाः परमार्थतो बीजादवगन्तव्याः, तदकरणे वा । प्रा०म०प्र०ा तदात्मके सूत्रदोषभेदे, वृ॥१०॥ शाखातः शाखा प्रभवति,नत्रसाशाखा शाखामे तुका लोके व्य- जाधम्म-यतिधर्म-पुंoाक्षान्त्यादिके दशावधे यतिधर्म, उत्त०५ बहियते, किन्तु वटवीजस्यैव, सकाशाखाप्रशाखाऽऽदिसमुदा
असा "खंती मज्जब महत्र,मुत्ती तब संजमे ययोधब्बेसचं सोयं यस्य बरहंतुत्वेन प्रसिद्धत्वात् । एवं शाखैकदेशामुपजायमानो
पाकि-घणं च बंभं च जश्धम्मो ॥१४॥"नवता(विशेचटः परमाधनी मूलयटप्रशासारूप इति मुसबटबीजहेतुक पर
पव्याख्या 'अणगारधम्म' शन्ने प्रथम नागे २७९ पृष्ठे सिविता) सोऽपि बेदितव्यः । तम्मान क्वचिदपि कार्यकारणव्यनि
जइज्जब-यति [ पर्याय पर्यव- । यतिदाक्षापालनकाले, चारः, निपुणविचारप्रवीणेन च प्रतिपात्रा भवितव्य, ततो न कश्चिदोषः । एवं च यदुच्यते-न खल्वन्यथा बस्तुमझावं
पर्यायो द्विधा गृहस्थपर्यायो, यतिपर्यायश्च । प्रव० ६७ द्वार। पश्यन्तोऽन्यथाऽन्मानं प्रेक्षाचनः परिक्लेशयन्तीति वालमा
जइपज्जाय-यतिप याय येव-पुं० । 'जपज्जव 'शब्दार्थे, अमिति स्थितम् । नं।
प्रव.६७द्वार। जइजाण-यतिजन-पु.। साधुलोके, प्राय० ए०। सूत्रः । जइपज्जुवासणपर-यतिपयुपासनपर-त्रि० । माधुसेवापराय. श्रा । "बजे यग्यो य सया, सुयप्पमाप्रो जाजणेणं"। सूत्र.१
णे, पश्चा०६ चिवः। श्रु०२०१०।
जसरिता-यातपर्पत-स्त्री० । चरणोद्यतसाधूनां पदि. मौ. । जइजीयकप्प-यतिजीतकल्प-पुं० ! श्रीसोमप्रनसगिविरचिने य.
विचित्रव्याद्यनिग्रहाऽऽयुपेतानां साधूनां पर्षदि रास जानकल्पनाम के प्रकरणे, पत्तिश्च श्रीसाधरत्नमरिकता. जइपुच्छा-यतिपूच्चा-स्त्री० । साधुशरारसंयमवार्तापरकने । ऽस्ति । ग०१ अधिक।
पञ्चा० १ विव०। नजुत्त-यतियुक्त-त्रिमपरिवारजूतसाधुििमश्रिते,ध०३अधिक जइय-जयिक-त्रि । जयावहे, "जपसु सन्चसउणसु" जयिकेजइमोग-यतियोग-पुरुस्वाध्यायादिसाधुव्यापारे,पञ्चा०६विया | पुजयावहेषु सर्वशकुनेषु वायसादिषु । शा०१ श्रु०८ अासपा जडण-जैन-किन जिनः केवली. तस्यायं जैनः । जिनसंबन्धिान, । यदि च-अव्य० । यदीत्य, कल्प०४ वाण । विशेसर्वसंबन्धिान, नि. चू०१ उ01 "जणसासणवरि.
| जइस-यतिवंश-पुं०। यतीनामन्वये,समवायाङ्गनामकचतुर्थाले सा परा" निचू०१उ०। अतिशीघ्रगतो. "लंघण-पथण- च। तद्वशस्य तत्र समनमरणाधिकारे प्रतिपादितस्वाताम। जहण समत्थे "रा । जो । (एतद्वक्तव्यता ‘जिण' शब्दे जइवा-यदिवा-ग्रव्य प्रकारान्तरे, अथ वेत्यथे. व्य. १ उ०। चतुर्थभागे २४५ए पृष्ठे वक्ष्यते)
जविस्सामा-यतिविश्रश्रा मण-न0 । यतिदेह वेदविनोदजयिन-त्रि । जयवति, श्रौ० ।
ने, यतीनां साधूनां वैयावृत्याऽऽदिनिःप्रान्तानां पुष्टाऽऽन्न बनेन जविन-त्रि. वेगवति, “संघग-वग्गण-धावण-धोरण-तिवई- |
ण धावण धारण-तिबई- | तथाविधश्रावकादेगपि देहखदापनादमिच्चतां विश्रमणं खेदजइण सिक्खि अ-गणं।" वृत्तिर्यथा-जयिनी गमनान्तरजयवती, विनोदनं यतिविश्रमणम, करणीयामति गम्यते। मर्वसविनी वा वेगवती। ०। जविनशब्दः शीघ्रवचनः । अनुकत्रोचितक्रियाण्याहारः कार्यः। प्राकृतम्याचविश्राम्य तेरुपान्यशीघ्र. "उवश्य उप्पश्यतुरियनवाजणसिम्घवेगार्दि"ौ। दीर्घवम् । यद्वा-विश्राम्यतः करणमिति शतृमन्नस्य कारिने जविन-त्रि०। अतिशीघ्रमनी, "लंघण-पवण-जर्ण-पमरण- | घटिच विश्रामणमिनि भवति । पश्चा०१ चिय। समत्थे" रा.।
जिइस-यादश-त्रि० । अपभ्रंशे यादगथें, "अतांमसः" ।
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(१३६५) जइम भन्निधानराजेन्डः।
जंघाचर।४।४०३। इति सूत्रेण भदन्तानां वारशादीनामादेरवयव- जंगम-जङ्गम-त्रि० । गम-य-भच्। सततगतियुते, "शरीरिणां स्य द्वित् 'अइस' इत्यादेशो जवति । 'जइसो' प्रा०४ पाद ।
स्थावरजङ्गमानाम" "गुल्मैः स्थावरजङ्गमैः " वाचः। द्वीन्द्रिजउगोल-जतुगोल-पुं० । लाक्कागोलके, स्था०४ मा०४ उ०। यादित्रसजन्ती, श्रा० । स्था। जरण-यमुन-पुं०। तन्नामकराजविशेष,यो० वि०। संथा० ।(त- जंगमविस-जङ्गमविष-न० । जगमप्राणिनां ननदंष्ट्रादिगते
कथानकं तु 'आप(व)ई'शब्द द्वितीयभागे २४६ पृष्ठे संगृहीतम)| विष, पुष्टस्य प्राणिनो दंष्ट्राविधादिना यत् पीमाकारि तदपि जउणश्रम-यमुनातट-त्रि०। कालिन्दीतीरे, "दोघंहस्वी मि- | जङ्गमाविषम् । स्था०६ ठा। थो वृत्तौ"८।१।४। इति सूत्रण पके हस्वता । प्रा० जंगल-जङ्गल-न० । गल-यह-अच-पृषो० । बने, रहसि, १पाद।
मांसे, वाच । निर्वारिदशे, बृ० । देशो द्विधा-अनूपो, जङ्गसजउणराय-यमुनराज-पुं। यमुनाक्यराजविशेष,माव०४मा भनद्यादिपानीयबहुलोऽनपः । तद्विपरीतो जङ्गल, निर्जन जउणा-यमुना-श्री"यमुनाचामुपमाकामुकातिमुक्तके मोs
श्त्यर्थः। वृ०१०। अहिच्छत्राप्रतिबके आर्यदेशे चा प्रव० नुनासिक" ।।१।१७८। इति सूत्रेण मकारलोपः। प्रा०१ पाद ।
१४८ द्वार । प्रका० । सूत्र० । कालिन्द्यां नद्यां यमनगिन्यां सूर्यसुतायाम, मुर्गायाम् , पाच ।
जंगा-देशी-गोचरचूमा, दे० ना० ३ वर्ग। सा च गङ्गां संगच्यते । स्था० १ ठा० २ १० । यमुना
जंगिय-जागमिक-न० । जङ्गमजन्त्ववयवनिष्पन्न कम्बलादी नदीकूले पूर्वदिग्वधूकरावनिवाशितमुक्ताफलकरिग्केब कौ- वस्त्रभेद, जनमानसास्तदवयबनिष्पन्नं जाङ्गमिकं कम्बलादि । शाम्बी नाम नगर)। विशे० ।
इह गायेजउणाश्रम-यमुनातट-त्रि० । कालिन्दीतीरे, प्रा०१पाद । "जंगमजायं जंगिय, तं पुण विगलिंदियं च पंचेदि ।
एक्कक पि य पत्तो. दोइ विभागेण उणेगविहं ॥१॥ जउणाउर-यमुनापुर-मधुराया भागविशेषे, मयुराया यमु-|
पट्टसुवम्म मनए, भंसुएँ चीणंसुए य विगलिदी। नापुर समुः । ती०४५ फल्प ।
सम्मोट्टियमियनामे, कुतवे किट्टीय पंचेंदी ॥॥" जउणावक-यमुनावक-ज० । यमुनातटचर्तिनि स्वनामकोधाने,
पट्टः सुवर्ण सुवर्णसूत्रं कृमिकाणां मलय मलयविषय एव अंशुकं यो वि०। "इत्थ जउणावंके जनणरापण हयस्स दंडअणगा। इलक्ष्णपट्ट, चीनांशुक कोसिकारश्वीनविषये वा यवति श्लरस्स केवले सप्पन महिमत्थं दो बागमओ। "ती. कल्प। दणात् पट्टादिति मृगरोमजं शशलोमजं मूषकरोमजं वा, कुतप. जनप्पल-जयोत्पन्न-नविंशतिव्याकरणषु तनामक व्याक- | इछागले किट्टिजमतेषामेवावयवनिष्पन्नमिति । स्था०५ ०३ रणे, कल्प०१क्षण ।
उ० । सूत्रे प्राकृतत्वाद मकारलोपः । वृ०२ उ० । "जंगिओ जउब्वेय-यजुर्वेद-पुं० । यजुषामृक्सामभिन्नानां मन्त्राणां अंमगा"। नि००१०। प्रतिपादको वेदः। वेदोंदे,स च शुक्लकृष्णभेदेन द्विधातदि-जंगुवि-जाङ्गुलि-पुं० । गम-यह-जुक् वा गुलिः। विषवैधे, वरणं चरणव्यूहे । वाच । “रिउब्वेए जलवेप, सामवेए अप- वाच० । स्त्री० । गारुडिमन्त्रविशेष, " जागर्ति कानपिश्वेत, व्वणे।" विपा०१७ "चत्तारि वया।" मनु०। । तृष्णाकृष्णाहिजाङ्गलिः । पूर्णानन्दस्य तत् किं स्यात, दैन्यवृ. जओ-यत:-अव्य०। यस्मादित्य, यत्रेत्यर्थं च । सत्त०११।। श्चिकवेदना ? ॥१॥" अष्ट० १ अष्ट० । ज-यत-अव्य० । यस्मादित्ययें, नि० ० १५ १०। "जं पिय जंगुलिविज्जा-जागुझिविद्या-स्त्री० । विषविद्यायां, श्रावस्त्यां मए इमस्स धम्मस्स" इत्यादिसूत्रे यमिति विनक्तिव्यत्ययाद श्रीसंभवदेवा जालिविद्याऽधिपतिः । ती० ४५ कल्प। यःप्राणातिपात इति योगः। भाषामात्रे धा यदिति पदं व्याख्ये- जंगोन-जाडोल-न० । विषविघातक्रियाविधायके गदतन्त्रे, त. यम् । पा०। अम्बुनि, यशोम्पकयोः, एका० ।
दि सर्पीटलूतादधविषचिनाशार्थ विविधविषसंप्रयोगप्रशमजैकिंचिभासग-यत्किश्चिद्धापक-पुं० । असंबरूपलापिनि, नार्थ च । विपा०११०७० । पतकि आयुर्वेदस्य पञ्चमो पं.व.४ द्वार।
भेदः । बाचा जकिंचिमिच्छापडिकमण-यताकिञ्चिन्मिथ्याप्रतिक्रमण-न० । जंगोली-जङ्गोली-स्त्री० । विषविद्यातन्त्रे, स्था०८101 खम्भेदप्रतिक्रमणस्य पञ्चम भेद, "जं किंचि मिच्छ ति" । खे- जंघट्ठिया-जडास्थिका-स्त्री० । ऊर्वोः प्रतिष्ठाननूत जलाया मसिहाणाविधिनिसर्गाभागानाभोगसहसाकाराद्यसंयमस्वरूपं उपरिभागवर्तिनि अस्थिनि, जास्थिकयोहरूप्रतिष्ठितौ, तं० । यत किश्चित मिथ्या असम्यक तद्विषयं मिथ्यदमित्येवं प्रतिप- लोर-जयोट-401 अनागतोत्सपियीकालभाविनि रित्तिपूर्वकं मिथ्यापुष्कृतकरणं यत्किञ्चिन्मिथ्याप्रतिक्रमणमिति।।
तीयप्रतिवासुदेवे, तिला उक्तंच" संजमजोम अब्तु-ठियस्स जं किंचि तह समायरिया जंघा-जा-स्त्री०। जक्यते कुटियं गच्छति । गत्यर्थकस्य हन्तः मिच्छा एयं ति विया-णिकण मिच त्ति कायव्यं"॥१॥ ।
'कौटिल्ये यङ्-लुकि-अच-पृषो० । गुल्फजान्बोरन्तराले अवतथा
यवे, पादयोः संधाने गुल्फः, जङ्घयोः संधाने जानु नाम । खेलं सिंघाणं वा, अप्पमिलढापमजिओ तह य।
" चत्वार्यरनिकास्थीनि , जघयोस्तावदेव च।" वाच। वासिरिय पमिकमई, तंपिय मिच्नुक्कडं देह ॥१॥" इत्यादि ।।
जो जान्वोरधावर्तिन्यो । उत्त० २ ०। जं०। स्था०६ ठा०।
। जंघाचर-जङ्याचर-पु० । पादचारिणि, अनु। ३४२
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अंधाधारण
याचारणचारण-पुं० चारणमुनिप्रेदे ये चारित पोषिशेषप्रभावतः समुद्भूतगमनागमनविण्या जङ्घाचारणाः । प्रब० ६७ द्वार ! प्रा० म० । प्रज्ञा प्रति० रा० मं० तावन्तुनिवर्तितपुटक रविकरान् वा निकृत्या जङ्घाभ्यामाकाशेन चरतीति जहाचारणः । अस्य च सातिशयामलकणेन विकृष्टतपसा सर्वदैव तपस्यतो जङ्घाचारणमधिरुपजायते । विशे० पा० जस्धाव्यापारोपकृताधारणाः | सङ्घाचारणाः । ज० २० श० ८ उ० । ( 'चारण' शब्देऽस्मिन्नेव भागे ११७३ पृष्ठे विशेषव्याख्योक्ता )
( १३६६ ) अभिधानराजेन्ऊः |
पापानुसामध्ये १ प्रति या संतारिम- अक्ष्यासंतार्य दिनादिके उदकादी.
"
आचा० २ भु० ३ श्र० २ उ० ।
जंणाम - पद्माम - त्रि० । यानि नामानि यस्येति यनामा । यदभि धाने, प्रम० १ भा० द्वार । जंत-पत्र न०त्रि-अन् संयमने विशे जी० । “ विजाहरजमल जुगलजतासि " जी० ३ प्रति० रक्का दिपम्प्रे, जै० गा० । उच्चाटनाद्यर्थ कर लेखनप्रकारके, प्रश्न० २ आश्र० द्वार । यन्त्राणि नानाप्रकाराणि । जी०३ प्रति० । प्रशा० तद्यथा-मरधट्टकादि स्था०० प्र० संघा० प्रब० । तिलवन्त्रं प्राणकादि । प्रश्न० २ आभ० द्वार जससंप्रामादिवन्त्राणि । प्रन० २ श्राभ० द्वार । पाषाणक्केपयन्त्रम् । औ० स० [रथेोपकरणविशेषाः
जंपंत- जस्पत्- त्रि० । ब्रुवाणे, प्रश्न० ३ सम्ब० द्वार | सुत्र० । कि० भापके, बहुविलियम जंपा "
औष
लादि । प्रब० ६ द्वार । तन्त्रोक्ते देवाद्यधिष्ठाने, चक्रजदे, पाका पात्र, ज्योतिषकाद्यवज्ञणसाधने, पदार्थदने, सूत्रधारावादी पदार्थ सम्वाद पण साधने पदार्थे, नियन्त्र, पांच० ।
जंऩग - जन्त्रक - न० यन्त्रमिव श्वार्थे कन् । दारुभ्रामकयन्त्रनंदे, वाचo | गन्तबादी, ध० २ अश्रि० । जंतपत्थर बस्तर-पुं० गोफणादि (बन्त्रमुक्त) पाचा प्रन० २ भाभ० द्वार | घरट्टादौ वाच०
वृत्तिः- बहुविधा लीकशतजल्पकानाम् । प्रश्न०३ माश्र० द्वार । पमाथ जल्पमानान० १ ० द्वार पाण-जम्यानन० द्विहस्तप्रमाणे चतुर बेदिकोपशोि गोवदेशसि युम्वनाम्नि वाढने कूटाकारण्ादितायां शि विकायाम्, पुरुषप्रमाणायां स्यन्दमानिकायां च । स्था० ४ ठा० ३ उ० । अनु० । श्रौ० । जं० जी० । ज्ञा० । पर्यङ्कादी, इशा० ६ म० ।
।
तपास पन्त्रपाशक- पु० छूते जवार्थ यन्त्रस्थापिते पाश | फिर मन्त्र०"श्री" | ६२ । १४५ । के, आ० म० प्र० । जंत ।
पण कम्पन्त्रमनकर्मन्न० उपभोगपरिभोगाय सप्तममतस्य कर्मतोऽतिचारेकादशेऽतिबारे
इति सूत्रेणादेशः । जपनशीले, प्रा० २ पाद । जंबव-जाम्बवती श्री कृष्णाश्रमध्याम् ००१० स्त्री० । । श्रा० म० । विशे० । सा च अरिष्टनेमेरन्तिके प्रवज्य संलेखनां कृत्वा दिशानां पश्यति। अन्त० ४ वर्ग स्था० ।
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प्रकृतीनां वत्पीनरूपं कर्म तत् कर्म तस्मिन् उ० १ अ० | भ० । प्रा० चू० भा० पश्चा० । श्राव० यन्त्रे उदूखलादो पीरुनं धान्यखएरुनं तेन कर्म जीविका पीकनकर्म । (घ) प्रपीडनफर्म शिलोदुम्बलमुशलघरट्टारघट्टकता दिव यः फलादि तस् वीर दलवान साद याद डनम् । दलतैलस्य च कृति-र्यन्त्रमा प्रकीर्तिता " ॥ १ ॥ अत्र यन्त्रशब्दः प्रत्येकं संबध्यत तत्र तिलयन्त्रं तिलपीमनोपकरणम यन्त्र कोल्हुकादि, सर्पपैरएमयन्ते तत्पीनोपकरणे, मादितै प्रतिगृह्यते तद्मतेनं, तस्य कृतिर्विधानम् । श्रत्र दोषस्तु तिला दिवोदा समं चक्रम्" इति । ध० २ अधि० प्र० ।
जंबाल- जम्बाल - पुं० । जम्ब - घञ्-जम्बमानाति श्रादते श्र ला-कः । शैवाले, बाच० । कर्दमे, स्था० ३ ठा० ३ उ० । जरायो जरायुजाला गोमाजाविकमनुष्यादयः । सूत्र० १ ० ७ अ० जननील्याम, दे० ना० ३ वर्ग ।
"
जंबुल
जंतपीक्षण कम्पयन्त्रणमनकर्म न० जंतपण 'श दार्थे, उत्त० १ ० ।
जंतपुरिस - यन्त्र पुरुष - पुं० । बोहमये मन्त्रेण च पुरुषवेशकारके पुतलके, आ० म० प्र० ।
जंतलठ्ठी - यन्त्रयष्टी - स्त्री० ॥ यन्त्रोपयोगिनि लकुटे, दश० ७ श्र० । जंतवाडयचुली - यन्त्रणा (वा) टकचुली-यन्त्र मिक्षुपीनयन्त्र तत्प्रधानः पा (वा) टका यन्त्रपा (वा) टकः, तत्र चुल्ली यन्त्रपा( बा )टकचुद्धी । इक्षुरसपाकाय कृतायां चुल्ल्याम, जी० ३ प्रति० । स्था० ।
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जंतवाहण यन्त्रवानन० पञ्चदशकमदानान्तर्गतमनकर्मणि प्रव० ६ द्वार जंतु-जन्तु-पुं० । जन-तुन् । जायते इति जन्तुः । उ० ३ ० । भः । प्राणिनि सूत्र० १ ० १ ० २ उ० | पं० व० । श्राचा श्रा० म० । विशे० । जीवरूध्ये, उत्त० १३ श्र० ।
जंतुग-जन्तुक न० । वनस्पतिविशेषे, सूत्र० २ भु० २ श्र० । तृणविशेषोत्पन्ने संस्तारके, याचा० २ ० २ श्र० ३ ० । जण योजनां परस्परंगाने, ध० २ अधि० ।
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जंबु-जम्बु- न० जम्बूफले, “ जम्बु भक्खेमो " श्राव०४४ जम्बूफलादिषु कृष्णो वर्णः । जं० ३ बक्क । प्रज्ञा० । जंबुद्दीय-जम्बूद्वीप-न० जंबूदोव' शब्दार्थे, जं० १ बक्ष० । मंजुल देशीवाना मनाज ना० ३।
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जंबू
जंबू - जम्बू-स्त्री० | 'जम' अदने, कू-नि० वुक् । वृक्काविशेषे वाचण "ऊगारंता जंबू । " एतद्वृत्तिः- जम्बुः स्त्रीलिङ्गवृत्तिर्वनस्पतिविशेषः । अनु० । प्रज्ञा० । त्रयोदशजिनस्य चैत्यवृक्कों जम्बूः । स्था० १ ० १ ३२ | पृथ्वी परिणामरूपायां (स०८ सम०) जम्बूवृक्काकारायां सर्वरत्नमय्यां सुदर्शनानाम्न्यां शाश्वतायामनावृतदेवावासभूतायां जम्ब्वाम, पतयैवायं जम्बूद्वीपो ऽनिधीयते । निक्षेप:
जम्बूशब्दस्य नामस्थापनाद्रव्यन्नावभेदाश्चतुर्द्धा निकेषः । तत्र नामजम्बूर्यस्य जम्बूरिति नाम, यथा-जम्बूरन्तिम केवली, जम्बाऽनिधानं वा । स्थापनाजम्बूर्या जम्बूरिति स्थापना क्रिय ते । यथा-चित्रलिखितजम्बूवृक्कादि । व्यजम्बूर्द्विधा- श्रागमतो नो श्रागमतश्च । श्रागमतस्तदर्थज्ञातानुपयुक्ती, नोश्रागमतो इशरीर भव्यशरीरोभयव्यतिरिक्तभेदास्त्रिधा । तत्राऽऽयौ दी सुप्रतीतौ । उनयव्यतिरिक्त द्रव्य जम्बूरपि त्रिधा एकभावकबद्धायुष्काभिमुखनामगोत्रजन्तुभेदात् । तत्रैकभविको नामय एकभवानन्तरं जम्बूत्वेनोत्पत्स्यते ; बद्धायुष्कस्तु येन जम्वायुर्वद्धम; अनिमुखनामगोत्रस्तु यस्य जम्बा नामगोत्रे कर्मणी अन्तर्मुहूर्तानन्तरमुदयमायास्यत इत्ययं त्रिविधोऽपि भाविभावजम्बूकारणत्वाद् द्रव्यजम्बूरिति । जावजम्बूरपि द्विधा - मागमतो, नो श्रागमतश्च । तत्रागमतो ज्ञानोपयुक्तः, नो श्रागमतस्तु जम्बूदुम एव । जम्बूदुमनामगोत्रकर्मणी वेदयनित आह-यथा अभिमुखजम्बूनावस्य जीवस्य अन्य जम्बूत्वम्, " भाविनि नूतवदुपचारः" इति न्यायात् तथाऽऽसन्नपश्चात्कृत जम्बू भावस्याऽपि, नपूर्वकस्तनारः” इति न्यायात् । कथं न द्रव्यजम्बूत्वं निर्दिष्टम ? उच्यतेइदमुपलक्षणं तेन तस्याऽपि द्रव्यनिक्षेप एवान्तर्भावः - तस्य भाविनो बेत्यादि रूग्यलकणस्य सद्भावात् । अत्रानिर्देशकारणं तु श्री उत्तराध्ययनद्रुमपत्रीयाध्ययननियुक्तौ भोजबाहुम्वाजिपादैः बुम निक्केपेऽविवक्षणम्, त सुल्यन्यायावादस्य निक्केपस्येति, प्रस्तुते च नोआगमतो जावजम्ब्वाधिकारः । जं० १ वक्ष० ।
( १३६७ ) अभिधानराजेन्द्रः ।
स्स
"
कहि ते ! उत्तरकुराए कुराए जंबूपेढे णामं पेढे पछत्ते । गोयमा ! नीलवंतस्स वासढरपव्वयस्स दक्खिणेणं मंदरस्स उत्तरेणं मालवंतवक्रखारपव्वयस्स पञ्चच्छिमेणं सार महाई पुरच्छिमिले कूले; एत्थ एणं उत्तरकुराए कुराए जंबूपढे णामं पेढे पत्ते । पंच जोअणसयाई आयामत्रिवखजेणं, पष्परस एकासीयाई जो एसयाई किंचित्रि
साहियाइ परिक्खेवेां बहुमज्ऊदेमनाए वारस जोलाई वाहणं, तयांतरं च णं मायाए २ पदेसपरिहापीए २ सब्बे णं चरिमपेरंतेसु दो दो गान भाई बाहलेणं सव्वजंबूण्यामए अच्छे से णं एगाए पउमवरबेड़आए एगेण य वणसंडेणं सव्वच समता संपरिक्खित्ते, दुएवं पि ओ तस्स णं जंबपेटस्स चनद्दिति एए चत्तारि तिमोत्राणपरूपगा पत्ता । वमओ० जाव तोरणाई, त
'जंबूपदस्स बहुमज्झदेसजाए, एत्य णं महिषेदिपत्ता | जो अाई आयामचिकखं जेए, चत्तारि
For Private
जंबू
जोगाई वाढली; तीसे णं मणिपढिए उपि एत्यणं जंबू सुदंसणा पम्पत्ता | ग्रह जोणाई उ उच्चते जो उब्बेहेणं, तीसे णं खंधो दो जोश्र पाई उऊं उच्चतेणं अजोणं त्राह्मणं, तीसे णं साला छ जोअणाई उट्टं उच्चत्तणं बहुमज्झदेसनाए अनुजअलाई आयाम विक्खजेणं साइगाई अट्ट जोणाई सच्चगेणं तसें यमेयारूत्रे वण्णावासे वइरामयमूना रययमुपट्टि त्रिडिमा ० जाव अहि अमण शिव्युडकरी पासाच्या दरिलिज्जा, जंबूर णं सुदंमणाए चउदिसिं चचारि साझा पत्ता । तेसि णं सालाएं बहुमज्जदे सजाए एत्थ णं सिकायत पणत्ते, कोमं आयामेणं अद्धको सं विकखंभेणं देणं कोमं न उच्च नेणं अगस्तंभमयस
"
विट्टे० जाव दारा पंच घणूसयाई नहं उच्च जात्र मालाओ मणिपेडिया, पंच घणुसंयाई प्रायामविखं
माज्जाई धष्णुमयाई बाइलेणं; तीसे णं मणिपेढि आए उपि देवच्छंदर पंचधणुमयाई आयामवि
साइरेगाई पंचधणूसयाई उ उच्चतेणं जिएपडिमावो यव्वोति । तत्थ णं जे से पुरच्छिमिले सा एत्य णं जरणे पत्ते, कोसं प्रायामेणं, एवमेव वरमित्यसयणिज्जं सेसेसु पासायवसया सीहामणा य सप रिवारा इति, जंबूर णं बारसहिं परमवरवयाहिं सव्वओ समता संपरिक्वित्ता, वेइआणं वण्णओ, जम्बू णं असे ग्रहसरणं जंबूणं तदकुच्चत्ताणं सव्वच समता संपरिवित्ता, तासि णं वाओ, ताओ णं जंबू बहिं पलमवरवेड़याहिं संपरिक्खित्ता, जंबूर णं सुदंसणाए उत्तरपुरच्चि मेणं उत्तरपच्छिमेणं एत्थ णं अनादिअस्स देवस्स चनएदं सामाषिप्रसाइरसीणं चत्तारि जंबूसाहस्सीओ पएलताओ; तीसे पुरच्चिमेां चनएदं अग्गमादेसीणं चत्तारि जम्बू पण्णत्ताओ; "दक्खि पुरच्छि मेणं, दक्खिणं तह अवरदक्खिणं च । सवारसेव य, भवंति जंबूसहरसा३१ आणि आदिवाण पञ्चच्छिभेण सत्तेव होति जंबूआ । सालस साहस्सी, चउद्दिसिं आयरक्ताणं ||२|| " जंबूए गं तिहिं सइएहिं वणसंमेहिं सव्वच समता संपरिक्खित्ता जंबूए ं पुरच्छ्रिमेणं पश्चामं जो गाई पढमं वरणसं प्रोगादित्ता, एत्थ णं भवणे पष्मते, कोसं यायाम, सो चेत्र वा सयणिज्जं च एवं मेसासु वि दिसालु जवणा, जंबूए णं उत्तरपुरच्छिमेणं पढमं वणमं पमासं जोअणाई जग्गाहित्ता, एत्थ णं चत्तारि पुक्खरि
ओ पत्ता । तं जहा पउमा, पउपप्पभा, कुमुदा, कुमु दप्पा | ताओ को आयामेरा, अद्धको बिक्खने, पंचणुसयाई उच्त्रे देणं, तासि एं मज्जे पातायत्र के मंगा
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(१३६७) अभिधानराजेन्दः।
___ जंबू कोसं आयामेणं अक्सकोसं विक्खंभेणं देसूर्ण कोसं हुं रिक्वेपेण बहुमध्यदेशभागे विवक्षितविप्रान्तादर्धतृतीयशतयो
जनातिक्रमे इत्यर्थः बाहल्यन द्वादश योजनानि, तदनन्तरं मात्र. उच्चत्तेणं, वमो -सीहासणा सपरिवारा, एवं सेसामु
या २ क्रमेण २ प्रदेशपरिहाण्या परिहीयमाणः२ "सम्वसुति" विदिसामु।
प्राकृतत्वात् पञ्चम्यर्थे सप्तमी। तेन सर्वेज्यः चरमप्रान्तेषु मध्यगाहा
तोऽर्द्धतृतीययोजनशतातिकमे इत्यर्थः। द्वौ द्वौ कोशौ बाइल्येन "पनमा पनमप्पना चेव, कुमुदा कुमुदप्पना । सर्वात्मना जम्बूनदमयम् “मच्छं" इत्यादि। “से णं एमाए पउ. नप्पला गुम्म एलिणा, उप्पला उप्पबुजला ॥१॥ म"इत्यादि । तदिति अनन्तरोक्तं जम्बूपीठम,एकपनयरवेदिकया भिंगा जिंगप्पना चेव, अंजणा कजलप्पना ।
एकेन च वनखएमेन सर्वतः समन्तान, संपरिक्षिप्तमिति शेषः। -
योरपि पावरवेदिकावनख एमयोवर्णकःस्मर्तव्यःप्राक्तनः, तब सिरिकता मिरिमहिआ,सिरिचंदा चव सिरिनिलया"श।
जघन्यतोऽपि चरमान्ते विचरमान्त द्विकोशोधम, कथं सुत्रारोजंबूए णं पुरच्चिमिवस्स भवणस्स उत्तरेणं उत्तरपुर
दावरोहमित्याशक्याह-"तस्स "इत्यादि । तस्य जम्बपीठपिकमिसस्स पासायवमेंसगस्स दक्खियेणं, एत्य णं कू स्य चतुर्दिशि एतानि दिग्नामोपलकितानि चत्वारि त्रिसापम्पसे, अट्ट जोषणाई उर्फ उच्चत्तेणं, दो जोत्रणा उब्वे- पानप्रतिस्पकाणि प्रकप्तानि, एतानि च त्रीणि मिलितानि द्वि.हणं, मूले भर जोयणाई पायामविक्खंने बहमजादेस क्रोशोच्चानि जवन्ति । कोशविस्तीर्णानि,अत एव प्रान्ते विक्रो
शवाहस्यात् पीगत् उत्तरत एव भरतरावतां च सुखावहद्वारभाए छ जोअणाई आयामविक्खंभेणं, उवरिं चत्तारि जो.
भूतानि, वर्णकश्च ताबद्वक्तव्यो यावत तोरणानि "तस्सणं" अणाई आयापविक्खंभेणं "पणवीसचारसवा-रसेव मृले. इत्यादि व्यत्तम । “तीस " इत्यादि । तस्या मणिपीठिश्रमजिक उवरिं च । सविसेसाई परियो, कूडस्स इमस्स | काया उपरि, अत्र जम्बूः सुदर्शनानाम्नी प्रकप्ता, अष्टयोजनाबोधनी" |१|| मुले वित्थिो मज्के संखित्ते उवरितण न्यूोच्चत्वेन,अईयोजनमुध्धेन प्रवेश अथास्था एवोच्चत्व
स्थापयोजनानि विनागतोद्वाज्यांसूत्राभ्यां दर्शयति-"तीसणं" सबकणगामए अच्छे, वेावणसंभवमो,एवं सेसा वि
इत्यादि । तस्याः जम्वाः स्कन्धः स्कन्धादुपरितनःशाखाप्रभकूमा जंबूए णं सुदंसणाए दुवालसणामधेज्जा पमत्ता।
वपर्यन्तोऽष्टयोजने ऊोंचत्वेनार्धयोजनं बाहल्येन पीठेन तं जहा
तस्याः शालाविमिमापरपर्यायाया दिक प्रसूता शाखामध्य" सुदंसणा अमोहा य, सुप्पबुका जसोहरा। भागप्रभवा कर्द्धगता शाखा षट्योजनाम्यूद्धोंच्चत्वेन, तथा विदेहबूसोमणसा, णियया णिञ्चमंफिया ॥१॥
बहुमत्यदेशभाग प्रकरणात,जम्बूरिति गम्यम् । अष्टौ योजना
न्यायामविष्कम्नाभ्यां तान्येव अस्याः स्कन्धोपरितमभाग चतमुभद्दा य विसाला य, सुजाया मुमणा वि य ।।
सम्वपि दिक्षु प्रत्येकमकैका शाखा निर्गता च, कोशोनानि मुदसणाए जंबूए, णामधेज्जा दुवालस ॥२॥" चत्वारि योजानानि, तेन पूर्वापरशाखादैर्ध्यस्कन्धबाहल्य जंबुए णं अट्ठऽह मंगलगा, सेकेणढणं भंते! एवं वुच्चइ । संबनभ्ययोजनमीलनेनोक्तसंस्थानयनं, बहुमध्यदेशभागश्चात्र गोयमा! जंबूए सुंदसणाए प्रणाढिए णामं जंबूदीवाहिवई
व्यावहारिको प्रायः, तादीनां शाखाप्रनवस्थाने मध्यदेशस्य
लोकैर्व्यवाहियमाणत्वात्, पुरुषस्य कटिका इच, अन्यथा विडिपरिवसइ, महिक्लिए, से णं तत्थ चनएहं सामाणियसा
मायाः द्वियोजनाऽतिक्रमे निश्चयप्राप्तस्य मध्यनागस्य प्रहण हस्सीणं० जाव आयरक्खसाहस्सीणं जंबूदीवस्स पूर्वापरशाखावयविस्तारस्य ग्रहणसंजबः, विषमश्रेणिकत्वात् । गंदीवस्स जंबूए सुदंसणाए अणादियाए रायहाणीए अथवा-बहुमध्यदेशभागः, शाखानामिति गम्यते । कोऽर्थः १,
एणेसिं च बदणं देवाण यण्जाव विहार , से तेणढणं | यतश्चतुर्दिक्शाखामध्यभागः, तस्मिन्नित्यर्थः । अष्टयोजनागोमा! एवं बुच्चइ, अनुत्तरेणं च णं गोयमा! जाक
नयन तु तथैव, उच्चत्वेन तु सर्वाग्रेण सर्वसंख्यया स्कन्धजंबु सुदंसणाजाव जुविं च धृवाणि अासासया अक्खया
विमिमापरिमाणमीलने सातिरकाण्यष्टौ योजनानीति । अ
थास्या वर्णकमाह-"तीसण" इत्यादि । तस्या जम्चा अयअवछिया । कहिणं भंते ! अणाधिस्स देवस्स अणाढि
मतदूपो वर्णावासः प्राप्तः-वज्रमयानि मूलानि यस्याः सा वज्रआणाम रायहाणी पसत्ता । गोयमा ! जंबुद्दीवे दीवे मंदर-1 मयमूला । तथा रजतमयी विडिमा बहुमध्यदेशभाग क विनिस्स पव्वयस्स उत्तरेणं जं चव पुच्चवस्मिथ जमिगपमाणं तं गंता शाखा यस्याः सा रजतसुप्रतिष्ठितविडिमा, ततः यावत्पचेवणेयवंजाब नववाओ अजिसेमोम निरवसेसोत्ति।
दात चैत्यवृतवर्णकः सर्वोऽप्यत्र वाच्यः। कियत्पर्यन्तमित्याहकनदन्त उत्तरकुरुषु जम्बुपीठं प्रप्तम? निर्वचनसूत्रे गौतमेत्या
अधिकमनोनिवृतिकरी प्रासादीया दर्शनीया इत्यादि । श्रथामन्त्रणं गम्यम्,नोलवतो वर्षधरपर्वतस्य दकिणन मन्दरस्य पर्व
स्याः शास्त्राव्यक्तिमाह-"जबूए ण" इत्यादि । जम्म्बाः सुदर्शनातस्य उत्तरेण माल्यवतो वक्तस्कारपर्वतस्य गजदन्तापरपर्यायस्य याः चतुर्दिशि चतस्रः शासाः वा शाखाः प्राप्ताः। तामा पश्चिमेन पश्चिमायां सीताया महानद्याः पूर्वकूले, सीता द्विना. शालानां बहुमध्यदेशभागे उपरितनविभिमाशालायामिन्यगीकृतोत्तरकुरुपूर्वा,तत्रापि मध्यन्नागे,अत्रान्तरे उत्तरकुरुपुज- ध्याहार्य, जीवाऽभिगमे तथादर्शनात् । शप सुलभम, बेनाम्बपी नाम पीचं प्रशतं,पञ्चयोजनशतान्यायामविष्कम्नेन,योज यसिस्कटगतसिद्धायतनप्रकरणतो झयमित्यर्थः । अत्र पूर्व, नानां पञ्चदश तान्येकाशीत्यधिकानि किश्चिद्विशेषाधिकानि प. शालादौ यत्र यम्त तत्र तहतमाह-'- तत्थ ण " इत्या
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( १३६५ ) अनिधानराजेन्द्रः ।
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दि । तत्र तासु चतसृषु शालासु या सा पौरस्त्या झाला, सूत्रे प्राकृतत्वात् पुंस्त्वनिर्देशः । अत्र भवनं प्रकृतं, क्रोशमायामेन, एवमेवेति सिद्धावतनवदिति धर्द्धको विष्कम्न देशानं कोशात्वेनेति प्रमाणं द्वारादिवर्णकच वाच्यः । नबरमत्र शयनीयं वाच्यम्, शेषासु दाक्षिणात्यादिशालासु प्रत्येकमेकैकभावेन त्रयः प्रासादावतंसकाः सिंहासनानि सपरि वाराणि च बोव्यानि तेषां प्रमाणं च भवनवत्, तत्र बेदापनांदाय भवनेषु शयनीयानि प्रासादेषु त्वास्थानसभा इति । ननु भवनानि विषमायामविष्कम्नानि पद्महादिपद्मभव नादिषु तथादर्शनात् प्रासादास्तु समाया सायकूटमतेषु वृत्तवेतादयगतेषु वैजयादिराजधानी ज्येष्वपि विमानादिगतेषु च प्रासादेषु समचतुरस मायानविष्कम्नत्वस्य सिद्धान्तसिद्धत्वात्, तत्कथमत्र प्रासा दानां भवनतुल्यप्रमाणता घटते ? । उच्यते "ते पासाया कोसं, समूसा कोसबित्थिया ।" इत्यस्य पूज्यश्री जिननरूगक्रिमा श्रम क्षेत्रविचारणाचार्द्धस्य वृती ते प्रासादा कोशमेक देशोनामिति शेषः समुच्छ्रिता उथाः कोशाम क्रोशं विस्तीर्णः, परिपूर्णमकं कोशं दीर्घा इति श्रीमलयगिरिपादाः। तथा जम्बूद्वीपसमासप्रकरणे प्राच्ये शाले भवनम, इतसमाजात श्रीउमास्वातिवाचकपादाः । तथा तपागच्छाधिराजपूज्यश्री सोमतिलकसूरिकृतनम्यहृदयक्षेत्र विचारसत्काया: "पासायास दिसा, सालासु विभकुगिरिगय व्वतम्रो । इत्यस्या गाथाया अब शेषासु तिसृप शाखा प्रत्येकमेकमायेन तत्र ि मास्थायोचितानि मन्दिराणि देशोन कोशमुच्या कोशा विस्तीर्णी इति श्रीगुजरानादाः पदा सदाशयेन प्रस्तुतोपास्योत्तर जम्बूद्वीपपरिक्षेपक बनवापीप रिगतप्रासादप्रमाणस्तदनुसारेण चेत्येवं निश्चिनुमो जम्बूप्रकरप्रासादा विषमायामविष्कम्भा इति । यतु श्रीजीबाभिगमसूत्रवृती कोशमेकमूर्द्धमुच्येवेन विष्कम्भेनेत्युकं, तद् गम्भीराशयं न विद्मः । अथास्याः पद्मवरवेदिकादिश्वरूपमा "जम्बूर णं" इत्यादि। जम्बूदशभिः पद्म - arवेदिकानिः प्राकार विशेषरूपाभिः सर्वतः समन्तात् संपरिति दिकानां वर्णका प्राग्वत् श्माथ जम्बूलं जम्बूपरि वृत्य स्थिताः ज्ञातव्याः । या तु पीठपरिवेष्टिका सा तु प्रागेवोक्ता । अथास्याः प्रथमपरिके पमाह-" जंबूर णं" इत्यादि । जम्बू मितिवाक्यालङ्कारे अन्येनातेन जम्बूनां जम्बू वृकाणां तदकच्चत्वानां तस्या मूलं जवा अर्द्धप्रमाणमुरवावं यासां तास्तथा तासां सर्वतस्त्रमन्ताद संपरि क्षिप्ता उपलक्षर्ण तत्तेचायामविस्तारा प्रमाणा ज्ञेयाः । तथाहि ता अष्टाधिकशतसंख्या जम्ब्बा प्रस्वेकं चत्वारि योजनान्युन फोमेकमवगाहनम, एक योजनमुच्चः स्कन्धः णि योजनानि विकिमा सर्वाप्रणोस्त्वेन सातिरेकाणि चत्वारि योजनानि, तत्रैकैका शाखा अर्थकोशहीने द्वे योजने दीघां, क्रोशपृपुत्वः स्कन्ध इति भवति स संस्थया आयामविष्कम्जतचत्वारि योजनानि, आसु चानातदेवस्याभरणादीनि तिष्ठन्ति एतासां वर्णकशापनायाद( तासि णं वयभ चि) तासां च वर्षको मूलजम्बूसदृश एवेति । अथासां बावस्यः पद्मत्ररवेदिकाः ता आह" ताश्री पं "वादि उसानार्थ नवरं प्रतिजम्बू पर प
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पद्मवेदिका इत्यर्थः । एतासु च १०० जम्बूषु, अत्र सूत्रे जीवाजिगमे दत्त्रवादी
व जिनजवनप्रासादचिन्ता काऽपि न चक्रे, बहवोऽपि च बहुश्रुताः श्राद्धप्रतिक्रमणकिराया जम्बूक गत प्रथमवनख एक गत कूटाष्टकजिनप्रवनैः सह सप्तदशोत्तरं शतं जिनभवनानां मन्यमाना इहाप्येकैकं सिद्धायतनं पूर्वोकमानं मेनिरे ततोऽच तार्थ केबलिनो विदुरिति। संप्रति वा परिवाद सूत्रमा
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"इत्यादि। जम्मा सुदर्शनाया उत्तरपूर्वस्वामीशानको उरस्यामुतरश्मा कोण, अन्तरे विकपि इत्यर्थः । अनाहतनाम्नो जम्बूद्वीपाधिपतेर्देवस्य चतुर्णा सामानिसहस्राणां चत्वारि जादितानि "ती" इत्यादि कपठ्यम् गाथाबन्धन पार्थद्यदेवजम्बाह-व"इत्यादि रियाझेयकोणे, दक्षिणस्याम अपरसियनको समुचयार्थः पतातिषु दिक्कु यथासंख्यं श्रष्टादश द्वादश जम्बूनां सहस्राणि भवन्ति राधिकानि न न्यूनामीत्यर्थःप्राम्यत्। काधिपजतीयपरिपजम्बूध गाथाबन्धनाद"अ जियादिबाण" इत्यादि । अनीकाधिपानां गजादिकटकाधीशानां सप्तानां सप्तैव जम्वः पश्चिमायां भवन्ति, तृतीयः परिषः पूर्णः । अथ तृतीयमाह - श्रात्मरक्काणामनादृतदेवसामानिक चतुर्गुणानां षोमसहस्राणां जम्बः एकैका दि चतुस्सहस्रसहस्रसद्भावात् पोकशसहस्त्राणि भवन्ति, यद्यपि चानयोः परिक्षेपयोः जम्मुदिन पूर्वाचा तं तथापि पद्मपद्मपरिपम्यान, पूर्वपूर्वपरिक्षेप पक्कयोतरोत्तरपरि के पजम्बो माना ज्ञातव्याः । अत्राप्येकेकस्मिन् परिक्षेपे एकैकस्यां पङ्क्तौ क्रियामपेक्ष्य क्षेत्र साकीर्णेनावकाशदोषस्तथैवोद्भावनीयः तेन परिपजातयस्तचैव वायाः । संप्रत्यस्या एव वनत्रयपरिक्क्षेपान् वक्तुमाह-"जंबूर णं” इत्यादि । सा चैवं परिवारेति गम्यम् । त्रिभिः शतिकैर्योजनशतप्र माणैवंनख एकैः सर्वतः संपरिक्षिप्तः । तद्यथा-अभ्यन्तरेण, मध्यमेन, बाह्यनेति । अथाऽत्र यदस्ति तदाह-" जम्बूप णं " इत्या दि । जत्राः सपरिवारावाः पूर्वेण पञ्चाशयोजनानि प्रथमवनख एकमवगाह्य, अत्रान्तरे भवनं प्रशसं, कोशमायामेन, उपत्यादिकथनायातिदेशमाहस एव मूलजम्बूपूर्वशास्त्र:गतभवन संबधी वर्णको शेयः । शयनीयं बानादृतयोग्यम् एवं शेषास्वपि दक्षिणदिदि दिशि पञ्चाय नान्यवगाह्याद्ये वने भवनानि वाच्यानि । मात्र बने वापीस्वरूपमाद - " जंबूर णं उत्तर इत्यादि । जम्बा - तरपौरस्त्यदिग्भागे प्रथमं वनकारामं पश्ञ्चाशयोजनाम्बवगा यात्रान्तरे चतस्रः पुष्करिष्पः प्रज्ञप्ताः । एताश्च न सूची श्रेष्या व्यवस्थिताः किं तु स्वचितिप्रसाद परिचिप्य स्थिताः तेन प्रादविषयेन तन्नामान्येवम् पद्मा पूर्वस्यां पद्मप्रभा दकि णस्यां कुमुदा पश्चिमायां, कुमुदप्रभा उतरस्याम् । एवं द किणपूर्वादिविदिग्गतवापीष्वपि वाच्य, ताश्च क्रोशमायामेन, निम्नति वा पीमध्यगतप्रासादस्वरूपमाह -" तासि णं " इत्यादि । तासां चापानां चतसृणां मध्ये प्रासादावतंसकाः प्रकृताः, बहुवचनं च उक्तवक्ष्यमाणानां वापीनां प्रासादापेक्क्या द्रष्टव्यं तेन प्रतिवा पीचतुष्क में कैकप्रासाद भावेन चत्वारः प्रासादाः । एवं निर्देशो
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लाघवार्थ, कोशमायामेनाईक्रोशं विष्कम्जेन, देशोनं क्रोशमुखस्वेन वर्णको मूलजम्बूद किणशाखागतप्रासादवज्ज्ञेयः । एषु चादेवस्य श्रीमाये सिंहासनानि सपरिवाराणि प्राध्यानि जीवाभिगमे त्वपरिवाराणि, एवं शेषासु दक्षिणपूर्वादिषु दितु वाप्यः प्रासादस्य वक्तव्याः । एतासां नामदर्शनाय गाथाइयम् - पद्मादयः प्रागुक्ताः, पुनः पद्मबन्धत्वेन संगृहीता इति न पुनरुक्तिः । एताश्च सर्वा अपि त्रिसोपानचतुद्वारा पद्मवर वेदिकामनखमयुकाध बोध्याः अथ दक्षिणपूर्वमुख्या पूर्वस्य नलिना, दक्षिणस्यामुत्पन्नोज्ज्वला, पश्चिमायामुत्पला, उत्तरस्यां तथा अपरदक्षिणस्यां भृङ्गा, भृङ्गप्रभा, अञ्जना, कज्जप्रभा । तथा अपरोत्तरस्यां श्रीकान्ता, श्रीमहिता, श्रीचन्द्रा, श्री निलया। चैवशब्दः प्राग्वत् । अथास्य वनस्य मध्यवतीन स्वरूपतो लकयति-" जंबूर णं " इत्यादि । जम्ब्वा अस्मिन्नेव प्रथमे वनखण्डे पौरस्त्यस्य भवनस्य उत्तरस्याम उत्तरपरकायस्य ईशानकोणसत्कस्य प्रासादायक दक्षिणस्याम, अन्तरे कुटं प्रकृष्ट योजनान्युत्वेन द्वे योजने उद्वेधेन वृत्तत्वेन य एव श्रायामः स एव विष्कम्भ इति मूले योजनान्यायामविष्कम्नाभ्यां बहुमध्यदेश भागे भूमितश्चतुषु योजनेषु गतेव्वत्यर्थः । योजनाम्यायामविष्कराभ्याम-उपरि र चारि योजनान्यायामावेष्कम्नाभ्याम् । अथामीषां परिधिकथनाय पद्यमाह - " पणवीस " इत्यादिकं सबै प्रथमपाठगतऋबभकूटाभिशापानुसारेण बाध्य नवरं पविशतियोजनानि विशेषणधिकानि ले परित इत्यादि यथासंख्यं योज्यम्। निभङ्गविक्रमाश्रमस्तु बसहरु सरिसा स सम्पूर्णया या खिया" इत्यस्यां गाधायाषसमत्वेन भणितत्वात् द्वादश योजनानि श्रष्टौ मध्ये चेत्यूचे; तत्वं तु बहुश्रुतगम्यम् । एषु च प्रत्येकं जिनगृहम एकैकं विभिमागतजिनमिति। अथ से पकूट मतिदेशेनाद एवं संसा वि कुमा" इति मुकरी मारियाका शेषा एयपि सप्त कूटानि बोध्यानि, स्थानविभागस्त्वेषः । तथादिपूर्वदिग्भाविनो भवनस्य दक्षिणतो दक्षिणपूर्वदिग्भाविनः प्रासादावंतकस्यो द्वितीयं तथा दक्षिणदिग्मदिन भवनस्य पूर्वतो दक्षिणपूर्व दिग्भाविनः प्रासादावतंसकस्य पश्चिमायां तृतीयं तथा दक्षिणदिग्भाविनो भवनस्य पश्चिमायां दकिणापर दिग्भाविनः प्रासादावतंसक पूर्वतश्चतुर्थ, तथा पश्चिमदिम्मा बिना प्रासादास पूर्व तथा पश्चिमदिनाविन भवनस्य दक्षिणाऽपरदिग्भाविनः प्रासादावतंसकस्योत्तरतः पञ्चमम्, तथा पश्चिमदिग्नाविन उत्तरत उत्तरपश्चिमदिग्नाविनः प्रासादावतंसकस्य दक्षिणतः षष्ठं, तथा उत्तरदिग्नाविनो भवनस्य पश्चिमायाम उत्तरपश्चिमदिग्भाविनः प्रासादावतंसकस्य पूर्वतः सप्तमं तथा उत्तरदिग्जाविनो भवनस्य पूबेत उत्तरपूर्वदिनाविक प्रासादावतंसकस्य अपरतो ऽष्टममिति । श्रत्र स्थापना । श्रथ जम्ब्वा नामोत्कीर्तनमाह"जंबूर गं" इत्यादि । जम्ब्वाः सुदर्शनायाः द्वादश नामधेयानि प्रकृप्तानि । तद्यथा- सुष्ठु शोभनं नयनमनसोरानन्द कत्वेन दर्शनं यस्याः सा तथा, अमोघा सफना, श्यं हि स्वस्वामिभावेन प्रतिपन्ना सती जम्बूद्वीपाधिपत्यं जनयति । तदन्तरेण तद्विषयस्य स्वामिभागात अति प्रयुका योगा
( १३७० ) अभिधानराजेन्द्रः ।
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दियमप्युत्कुद्धा सकलभुवनव्यापकं यशोधरतीति लिहादित्वादच्, जम्बूद्वीपो नया जरूषा वनत्रयेऽपि विदितमहिमाः ततः संप पोकोधारित्यस्याः विदेहेषु जम्बूर्विदेहजम्बूः, विदेदान्तर्गतोत्तरकुरुकृतनिवासत्वात् सौमनस्य देतुत्वात् सौमनस्या, निहितां पश्यतः कस्याऽपि मनो दुष्टं भवति केवलं तां दृष्ट्वा प्रीतमनास्तां तदधिष्ठातारं च प्रशं सतीति, नियता सर्वकालमवस्थिता शाश्वतत्वात् नित्यं मएिक ता सदा भूषणभूषितत्वात्, सुना शोभनकल्याणभाजिनी, न ह्यस्याः कदाचिदुपवसंभव, महर्द्धिनाः समु यांचा पूर्वद आयाममायामु त्वेन चाष्टयोजन प्रमाणत्वात् शोभनं यातं जन्म यस्याः सा सुजाता विशुरुमणिकनकरत्नमूल्य द्रव्यजनिततया जन्मदोषरहितेति भावः शोभनं मनो यस्याः सकाशाद्भवति सा सुमनाः श्रपि चेति समुचये । अत्र जीवाभिगमादिषु वेदं जम्बादीनां नाम्नां व्यत्यासेन पाठो दृश्यते तत्रापि न कश्विद्विरोध इति । " जंबूर णं अमंगलाए इति व्यक्तम् । उपलक्षणात् ध्वजत्रादित्राणि वच्यति इति संप्रति सुदर्शनाशब्दप्रवृतिनिमितं पिपृच्चिषुरिदमाह -" से केणठणं " इत्यादि प्रश्नः प्रतीतः । उत्तरसूत्र-गौतम ! जम्म्यां सुदर्शना यामनात नाम जम्बूद्वीपाधिपतिनं भारता बादरविषयीकृता शेषजम्बूद्वीपगता देवा बेनात्मनोऽनन्यसदृशं महर्द्धिकत्वमीकमान सो नारत इति यथार्थनामा परिवसति; महर्द्धिक इत्यादि प्राभवत् । स च तत्र चतुर्णी सामानिकसहस्राणां यावदात्मरक सहस्राणां जम्बूद्वीपस्य जम्न्वाः सुदर्शनाया अनाहतनाम्न्या राजधान्या अन्येषां च बहूनां देवानां देवीनां चानादृतराजधानीवास्तप्यानामाधिपत्यं पालयन् पावधिहरति । तदेतेनार्थेन एवमुच्यते - जम्बूः सुदर्शनेति, कोऽर्थः १, अनाहत देवस्य दशमात्मनि मद्धिकत्वदर्शनमत्र कृतावासस्येति सुमनमिति यावत्, अनाहतदेवस्य यस्याः सकाशात् सा सुदर्श ना इति । यद्यप्यनाडतराजधानीप्रश्नोत्तरसूत्रे सुदर्शनाशप्रवृतिनिमित्त प्रश्नोतर सृत्रनिगमनसुत्रान्तर्गते बहुष्वादशेषु तथापि इत्यादिनिगमनम उत्तरत्रानन्तरमेव बाचयितॄणामव्यामोहार्थे सूत्रपाठेऽस्माजिर्लिखि तं व्याख्यातं च उत्तरषानन्तरं निगमनस्यैव यौकिकत्वादिति । अथापरं गौतम ! यावच्छन्दाजवाः सुदर्शनाया पतच्ाश्वतं नामधेयं प्रकृप्तं यन्न कदाचिन्न स्यादित्यादिकं प्राह्यं नाम्नः शाश्वतत्वं दर्शितम् । अथ प्रस्तुतवस्तुनः शाश्वतत्वमस्तिन बेस्याशङ्कां परिहरा" जंबू सुदक्षणा " इत्यादि । व्याख्यास्य प्रावत् । ग्रंथ प्रस्तावादस्य राजधानीं विषकुरा
,
"
"कहि मंत! अणादिपस्स इत्यादि गतार्थम नवरं पदच प्राम्यर्थितं यमिकाराजधानीप्रमाणं तदेव नेतय्यं यावदना तदेव स्योपपातोऽभिषेकश्च निरवशेषो, वक्तव्य इति शेषः । जं० ४ व३० । जी० । स्था० | सुध
,
,
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"
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"
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,
मंगणधर शिष्ये पुं० प्रश्न० १ श्रश्र० द्वार । विपा०| श्रन्त० | अणु० । कल्प० । " थेरस्स णं अजसुदम्मम्स सासवूनामेघवासीका सबगो कल्प०८ कण | "जम्बूणामं च कासयं, " काश्य पः मं० अवसर्पिण्यां जन्म चरमशरीरिणां नियमतस्तृतीय
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चतुधारको सिकिगमनं तु पाञ्चित् पञ्चमेऽप्यर के यथा जम्बूस्वामिनः । नं० ।
श्रीजम्बूस्वामिस्वरूपं चेदम
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राजगृहे ऋषभचारिपुत्रः पञ्चमो जम्बूनामा श्रीसुधर्मस्वामिसमीपे धर्मश्रवणपुरस्सरं प्रतिपन्नशील सम्यक्त्वोऽपि पित्रोदाग्रहवशादष्टौ कन्याः परिणीतः परं तासां सस्नेहाजिर्वाग्निर्न व्यामोदितः । यतः " सम्यक्त्वशीलतुम्बा भ्यां भवास्ति सुखमते दधानो मुनिम्बू स्त्रीकथं ॥१॥ रात्रीताः प्रतिबोधन चो थिमागतं चतुःशतनवनवतिचौर परिकरितं प्रभवमपि प्रावोधयत्, ततः प्रातः पञ्चशतचैारप्रियाष्टकतजनकजननीस्वंजनकजननीभिः सह स्वयं पञ्चशतवाविंशतितमनयनयतिकनककोटीः परित्यज्य प्रब्रजितः क्रमात् केवीवा पोश वर्षाणि गृहस्थत्वे विंशतिः कामस्थ्ये चतुश्चत्वारिंशस्केवलित्वे अशीतिवर्षाणि सर्वायुः परिपाल्य श्रीप्रजवं स्वपदे संस्थाप्य सिद्धिं गतः ।
( १३७१) अभिधानराजेन्
अत्रः कविः
'जम्बूसमस्तहारको, न भूतो न भविष्यति । शिवाभ्ववाहकान् साधून्, चौरानपि चकार यः ॥ १ ॥ प्रभवोऽपि प्रभुजीयात्, चौर्येण हरता धनम् । सेनेऽनयचौर्यहरं, रनत्रितयमद्भुतम् ॥ २ ॥ "
"
तत्र
" वारसवरिसेहिं गोध, सिद्धो वीराउ वीस हि सुहम्मो । सीप जंबू, वुद्धिया तत्थ दस गणा ॥ ३ ॥
मण १ परमोहि २ पुलाए ३, आहार ४ खग ५ उवसमे ६ कप्पे ७॥ संजमति केवल सिमा १० जंबुमि ॥४॥
(मण ) मन:पर्ययज्ञानम्, ( परमोहि ति) परमादधिर्यन्पित्रेऽन्तर्मुः केोपस लाकलब्धिर्यया चक्रवर्तिसैन्यमपि चूर्णीकर्तुं प्रचः स्यात्, ( महारग सि) माहारकशरीरलब्धिः (खत्रगति) कपकश्रेणिः ( उवसमति ) उपसमश्रेणिः ( कप्प थि) जिनकरूपः ( संजमति चि) संयमधिकं परिहारविसं
यथाक्यात चारित्रसणम् । अत्रापि कवि:-" लोकोत्तरं हि सीमाम्यं जम्बूस्वामिमहामुनेः मद्यापि यं पतिं प्राप्य शिवश्रीर्नान्यमिच्छति ॥ १ ॥ " कल्प० ८ क्षण । विशे० । संभूतविजयाचार्यस्य शयानां शिष्याणां मध्ये गौत
मगोत्रीये स्थबिरे, " थेरं च अजजंबु, गोयमगुरुं नमसामि ॥ ६ ॥ " कल्प०७ कण । श्रीजम्बू-प्रभव-स्वामियां सा तपस्या गृहीता, श्रीजम्बूखामिना सर्वायुरशीतिषां प्रभवस्वामिनः स्वर्गसंपत पालीगतं
श्री
कामिदानन्तरं किमद्भिः श्रीप्रथामिन रोका माध्यते सति न कोऽपि विरोधः । यदुक्तं परिशिष्टपर्वणि"मः श्रीगणरोति। तस्मै सपरिवाराय ददौ दीनां यथाविधि ॥ १ ॥ पितृनाच्च चान्ये प्रयोगतः। जम्बूकुमारमनुयान् परिव्रज्यामुपाददे " ॥ २ ॥ २७८ प्र० । सेन० ३ उब्ला० ।
जंबू जाम्बूनद-१० जम्बूनां भव
,
तथा च
जंबूदी
"
प्रभावाः
विशेषे, आ० म० प्र० । जी० । जं० जंबूणय र समयसुकुमालपवालपल्लवंकुरग्गा सेहरा । वृत्तिर्यथा- जाम्बूनदा जाम्बूनदनाम कसुवर्णविशेषमया रक्ता रक्तवर्णा मृदवो म नोज्ञाः सुकुमाराः सुकुमारस्पर्शा ये प्रवाला इंपडुन्मीलितप भाषा पढ़वाः संजातपरिपूर्ण प्रथमपत्रावरूप अस प्रथमद्भिद्यमाना अकुरास्ता चरन्तीति मृदु सुकुमारप्रवालपचबाङ्कुरधराः । कचित्पाठः-" जंबूण्यरक्तमउय इत्यादि । तत्र जाम्बूनदानि रक्तानि मृदूनि अकठिनानि सुकुमाराणि कर्कश स्पर्शानि कोमलानि मनोज्ञानि प्रवालपचवारा यथोदितस्वरूपा अग्रशिखराणि च येषां ते तथा। जी० ३ प्रति० । अन्ये तु जाम्बूनदमया अग्रवाला अङ्कुरापरपयया राजता इत्यादुः । जी० ३ प्रति० । जंबूलयमकाचजोपविनिमयी कलापी श्रीवाभरणविशेषो योक्त्रे च कण्ठबन्धनरज्जू प्रतिविशिष्टे शोभने यस्य स तथा । उच० ४ ० " जंबृणयमयाई गलाई जाम्बूनदमयानि गात्राणि । रा० ।
66
जंबूदाकिम - जम्बूदाकिम- पुं० | लक्ष्मणार्यायाः पितरि स्वना
मके राजविशेषे, महा० ६ ० । जंबूदीव-जम्बूद्वीप-पुं० २० जम्मा सुनापरनाम्याया
तदेवाचानृतवा उपसहित द्वीपः तत्प्रधानो वा द्व जम्बूद्वीपः श्र० १० सर्वसमुद्राणामत्यन्तरीभूते स्व नामके फीपे, जी० ३ प्रति० । ल० डी० । स० । अनु० ।
जम्बूद्वीप समयताविषथ गौतमां वीरं प्रति कहि णं भंते ! जम्बुद्दीवे दीने, के महालए णं जंते ! जंबूदी ने दीने किंसंलिए जंते अंबुदीने दीवे, कियापारावणकोयारे थे जंते ! जंयुदीये दीवे ? गोमा ! अयं गां जंबुद्दीवे दीवे सव्वदीनसमुद्दाणं सव्त्रनंतरए सम्बखुट्टा व तेलाप्पाणसंठिए बड़े रह कलसंग संविए वह पुक्खरकसिया संठाण संठिए बट्टे पढिपुष्पचंद संग संविए एगं जोयणसयस इस्सं श्रायामविसंभेणं तिरिण जोवन सबस इस्माई सोलसपसदस्साई दोपि य सत्तावीसे जोयणसए तिमि य कोसे अधावसं तेरस अंगुलाई अकं च किचि निस परिवखेवणं पते ।
"
of
[क] [स्मिन् देशे 'सिगुरोरामन्त्रणम् । जम्बूद्वीपो वर्तते इति शेषः । अनेन जम्बूद्वीपस्य स्थानं पृष्टम् । तथा भदन्त ! किंप्रमाणो महानालय आश्रयो व्याप्यवेत्ररूपो यस्य स तथा कियत्प्रमाणमस्य मढत्वमित्यर्थः । एतेन प्रमाणं पृष्टम । अथ भदन्त ! किं संस्थानं यस्य स तथा । एतेन संस्थानं पृष्टम । तथा मदन्त ! आकारभावः स्वरूपविशेषः कस्याकार भावस्य प्रत्यबताशे यस्य सः किमाकार भावप्रत्यचतारः, बहुलग्रहणाद्वैयाघकरण्येऽपि समासः । यद्वा-आकारस्य स्वरूपं जावाश्च जगतीवर्षधराद्यास्ततपदार्था चाकारजावाः, तेषां प्रत्यचतारोऽवतरम, आविर्भाव इति यावत्, आकार भावप्रत्यचतारः कः की हग्, आकारभावप्रत्यवतारो वस्मिन् स तथा । अनेन जम्बूद्वीप स्वरूपं,
पदार्थाश्व पृष्ठा इति इन्द्रनृतिना प्रश्नचतुष्टयं कृतं प्रतिवचःश्रवणाय सोत्साताकरणार्थं जगत्प्रसिद्ध गोत्राभिधान
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(१३७२) अभिधानराजेन्द्रः ।
जंबूदीव
भगवाना-मामन्त्रणप्रभवम् तेन हे गौतम । श्रयं यत्र वयं वसामः । अ नेन समय क्षेत्र बहिर्वर्तिनाम संख्येवानां जम्बूदीपानां व्यवच्छेदः। जम्बूद्वीपो नाम द्वीपः । कथंजुत इत्याह-सर्वद्वीपानां धातकी
मादीनां सर्वसमुद्रादादीनां सर्वात्मना साम सत्येन असफलतियेलांकमध्यवर्ती सर्वान्तर एम सर्वाभ्यन्तरकः, स्वार्थे कः प्रत्ययः । अभ्यन्तरमात्रं धातकीलएकोऽपि पुष्करची पापेाऽस्ति अतः सर्वशन्दोपादानमिति । मन जम्बूद्वीपस्यास्थानमुक तथा सर्वेभ्योऽपि समुद्देभ्यः कुलको लघुः । तथाहि सर्वलवयादयः समुद्रा धातकीरमादया द्वीपा जम्बूपादारभ्य द्विगुणद्विगुि कम्मायामपरिधयः ततः समुपायं मघुरिति । दीर्घत्वं प्राकृतत्वात् । भनेन सामान्यतः प्रमाणमभिहितं विशेबस्त्वायामादिगतं प्रमाणमप्रे वक्ष्यति । अत्र विशेषतः प्रमाणमचसरप्रासमपि वा प्रवृत्तिरिति तथा तपस्या खासंखानसंखितःतेक्षेन पापदि को मायापरिवृत भवति, न घृतपक्त इति तैलविशेषणं, तस्येव यत्संस्थानं तेन संस्थितः। अत्र तैलादित्वाकारस्य द्वित्वम् । तथा वृतो रथचक्रयासावसंचिता रचस्यावयवे समुदायोपचारात् रथाङ्गस्य चक्रवालं मण्डलं तस्येव संस्थानेन संस्थितः । अथवा चक्रवालं मराकलं मण्डलत्वधर्मयोगाचा रथचक्रमपि रथचक्रमासं शेषं प्राग्वत् एवं वृतः पुष्करकर्णिका संस्थानसंस्थितः पुष्करकर्णिका पद्मबीजकोशः, कमलमध्यभाग इति याचत । वृतः परिपूर्ण संस्थानसंस्थितः प्राग्वद पदद्वयं मावनीयम् । एकेनैव चरितार्थकत्वेऽपि नानादेशजविनेयानां क्षयोपशमवैविश्यात्कस्यचित् किचिद बोधकमित्युपमानानात्वम् । अत एव प्रत्युपमापदं योज्यमानत्वात् वृतपदस्य न पौनरुक्त्य शङ्काऽपि । पतेन संस्थानमुक्तम् । अथ सामान्यतः प्रागुक्तं प्रमाणं विशेष निर्वाद-पर्क योजनशतसहस्रप्रमाणानिष्य
योजनमित्यर्थः । श्रावामविकासम हारद्वन्द्वः, तेन क्लीषे एकवद्भावः, आयामविष्कम्भाभ्यामित्यर्थः ॥ अत्राह परः- जम्बूद्ध। पस्य योजनल के प्रमाणमुक्त, तच्च पूर्वपश्चि मयोजगती मूलविष्कम्सकद्वादशद्वादशयोजन त्यधिकं भवति, तथा यथोक्तं मानं विरुध्यत इति न जम्बूद्वीपजगतीविष्कम्जेन सहेच लक्षं पूरणीयं, लवणस मुरूजगतीचिष्कभेन व लवणसमुषलकद्वयम् । एवमन्येष्वपि द्वीपसमुद्रेषु, अन्यथा समुद्रमानात् जगतीमान मनुष्य रतिरिक्तः स्यात् । स हि पञ्चचत्वारिंशमात्रा भिधीयते। अयमेवाशयः श्रीमभयदेवसूरिभिः चतुप पञ्चाशसमे समवाये प्रादुष्कृतोऽस्तीति, तथा त्रीणि योजनशतसहस्राणि शतसहस्राणि योजनाधके
प्रयः कोशा प्राविंशमविशत्यधिकं धनुः खानि चाधिकमित्येतावाद परिण परिधिना प्रकृप्तः । अत्र सप्तविंशमष्टाविंशमित्यादिकाः शब्दाः "अधिकं तस्मिन् सहसतिशदान्ताया" ११५४॥ इति (म) साधकमशत्यधिकमित्यर्थः ।
परिध्यानयनोपायत्ययं पूर्णिकाका"विषयगुण-करणी पट्ट परि होइ
॥
जंबूदीव बिसंभपायगुणिश्रो परिरश्रो तस्स गणिनपयं ॥ १ ॥ " अत्र व्याख्या-वृत्तस्य वृत्तक्केत्रस्व च यो विष्कम्भो विष्कम्भपरिमाणं तस्य वर्गों विधीयते, बगों नाम-सेनैव राशिना तस्य गुणनं, तथा चतुष्कस्य चतुष्केण गुणने बोडश चतुष्कस्य वर्गः । ततः ( दहगुण ति ) दशभिर्गुणनात्, ततः करणरीतिर्वर्गमूलानयनं, ततो वृत्तस्य परिरयः परिमाणं भवति, तथा तस्य वृत्तस्य परिरयो, विष्कम्भस्य पादेन चतुर्थाशेन गुणितः सन् गणितपदं भवति । जम्बूद्वीपस्य विष्कस्नो व्यासः, स्थापना बधा - १००००० तद्वर्गः तद्गुखो वर्ग इति वचनाशकं लक्षण गुण्यते, जातम् - १००००००००००, स च दशगुणः क्रियते, शून्यानि ११, तदनु करणीति वर्गमूल मानयितं । तथाहि
" विषमात्पदतस्त्वत्या, वर्गस्थानमुच्यते न मूलेन । द्विगुणेन लभ्यं विनिवेशयेद् व्यकम् ॥ १ ॥ राग संशोध्य द्विगुणीत पूर्वम् । उत्सार्य ततो विभजे-च्छेषं विगुणीकृतं च नयेत् " ॥ २ ॥ इत्यनेन करणेनानीते वर्गमूले जातोऽपस्तनः दराशि:- ६३२४४७ । अत्र सप्तकरूपान्त्योऽन द्विगुणीकृत इति तद्वर्जशेषं सर्वमप्यर्क क्रियते, वग्धं योजनानि ३१६ २२७ वेदराशिव सप्तकेऽपि दिगुणीकृते जातः ६३२४५४ उपर शेषांशाः ४०४४७१, एते च योजनस्थानीवा इति कोशानयनार्थ चतुर्गुणा जाता. १२३७००४ - दराशिना भागे लब्धं कोशाः ३, शेषम ४०५३२ धनुरानवनाय द्विसहस्रगुणं जातम् ०१०४४०००, बेदराशिना भागे लब्धानि धनूंषि १२८, शेषम ८१००० पष्पवत्यगुलमानधनुषोऽगुलानयनाथै पवतिगुणं जातम् ८६२६२४८, बेदेन भागे लब्धम
लानि१२, शेष ४०७२४६, राशि: लापयनाथ 5गुणीक्रियते जाता अष्टकाः चतुर्दशसहस्राणि शतानि द्विनवत्यधिकानि ८१४६६२ बेदराशिः, स एकलब्धमेकमर्धालम् । अत्र व्याख्यातो विशेषप्रतिपचिरिति न्यायात् यवादिकयानीयते। तथाहि मिति अ भिर्गुपबन्ते जाताः ३२५८७६८ वेदः स एव लब्धाः यवाः ५, ततोऽप्यष्टगुणने यूकादयः स्युः तत्र यूका १, एतत् सर्वमप्यर्द्धाझुलस्य किञ्चिद्विशेषाधिकत्वकथनेन सूत्रकारेणापि सामान्यतः संगृहीतमिति बोध्यम् । गणितपदं तत्करणं च सोदाहरणमप्रे भावमिष्यते इति । जं० १ चक्क० जी० ।
अथाकारभावप्रत्ययतारविषयक निकुमाद
सेना बहराम जगईए सम्बभ समता संपरिक्खिते ।
( से खं पाए ति ) सोऽनन्तरोहितायामविष्कम्भपरिकेपपरिमाणो जम्बुद्वीपः, समिति पूर्ववत्, एकया एकसया भद्वितो यया, वज्रमय्या बज्ररत्नात्मिकया, जगत्या जम्बूद्वीपप्रकाररू पया द्वीपसमुद्रसीमाकारिण्या महानगरप्राकारकरूपया, सर्वतो दिक्षु समन्तादिक संपरिचिप्तः सम्यग् वेष्टितः । प्राकृतत्वाद्दीर्घत्वं वज्रशब्दस्य | जं० १ ० जी० भ० ( जगतीप्रतियद्धविशेषवक्तव्यता तु 'जगई' शब्देऽत्रैव भागेऽग्रे दर्शयिष्यते) संप्रति जम्पस्यापणार्थमाह
दीवस णं ते! दीवस का दारा पत्ता । गो
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( १३७३ ) अभिधानराजेन्द्रः ।
जंबूदीव
जंबूदीव
। तं
जयंते, अपराजिए । "बुद्दीवर
मा ! चचारि द्वारा पचचा से जहा विजये, बेजयंते दुषां त्रयोदशखानि एक बाल वास्तु श्रीजिनमचार्द्धाङ्गुलं गणिमाश्रममणी क्षेत्रविचारसूत्रवृत्यादी न विवक्षिता नापिते। तत्र योजनराशी पविशतिसहस्रैर्गु खिते सप्तकोटीशतानि नवतिकोटयः षट्पञ्चाशलकाः पश्चसप्ततिसहस्राणि नयन्ति तथा कोष
-
भंते!” इत्यादि । जम्बूद्वीपस्य समिति प्राग्वत् । नदन्त ! द्वीपस्य कति द्वाराणि प्रक्षप्तानि ? । जगवानाह - गौतम ! सरकार द्वारा तथा विजयम् वैजय तम, जयन्तम्, अपराजितं वा । जी० ३ प्रति० । ( द्वारप्रविविशेषषण्यताऽपि 'दार' शब्दे विलोकनीया )
संप्रति जम्बुद्वीपमध्यवर्तिपदार्थानां संग्रह गाथामाहखंगा? जोयण श्वासा३, पव्त्रय कूडाएय तित्य६ सेढी ओ७ । जिप सलिलाओ, १० अपिए होइ संगढ़णी || १ || संप्रवाक्यस्य संशित्वेन दुर्योधन्वाद सूत्रदेव प्रश्नोतर स्याविति
जंबूदीचे पं जंते ! दीने जरटुप्पमाणमेचेहिं संकेहि केयह संगधिपखं पाते हैं। गोयमा ! मस गणिं पाते।
जम्बूद्वीपो महन्त ! डीपो मरतप्रमाणं पट्कनाधिकषि शतियोजनाधिपयोजना देव भाषा परिमाणं येषां तानि तथा एवंविधैः खण्डैः शकलैरित्येवंरूपेण खण्डगाणतेन खण्डसंख्यया कियाम् प्रज्ञप्तः ? । भगवानाद-गौतम ! नवत्यधिकं खण्डशतं खकगणितेन प्रकृप्तः । कोऽर्थः ?, भरतप्रमाणैः खराः नवत्यधिकशतसंक्या के मिलितः संपूर्णः प्रमाणो भवति ।
'द्वारसूत्रम्
अथ योजनेति जंबूदी णं भंते! दीवे केवश्यं जोगणिएवं पत्ते ।। गोषमा ! " सचैव य कोसिया, उमासहस्साई | चउरणई च सहस्सा, सयं दिवकुं च गणियथयं " ।। १ ।।
जम्बूद्वीपो भवन्ती किया योजननितेन समचतुरस्त्रयोजनप्रमाणखएकः ः सर्व संख्यया प्रज्ञप्तः । भगवानाह - गौतम !
कोरियान एवोऽवधारणे व उत्तरत्र संख्यासमुच यार्थः । नयतीति नवतिकोपधिकानि इति व्याधेयं प्रस्ता वात् । अन्यथा कोटिशततो द्वितीयस्थाने सत्सु लक्षादिस्थामेषु नवदशकरूपा न ते गणितविरोधा षट्पञ्चाशच्छतसहस्राणि लक्षाणीत्यर्थः । चतुर्नवर्ति च सहसाथै पञ्चाशदधिकं योजनमित्येताय यमाणः जम्बूद्वीपस्य गणितपदं केष मित्यर्थः सूत्रे च योजन संख्यायाः प्रक्रान्तत्वात् योजनावधिरेव संख्या निर्दिष्टा, अन्यत्र तु भगवतीवादी गा
"
अमेगं पणरस, धणुस्सया तह य धणि पारस । चि अंगुलाई, जंबुद्दीवरस गणियपया ॥ १ ॥ " इति । इयं च व्यविषपायगुलियो अपरितस् मणिपतिनाथ जम्बूद्वीपपरिधिलिड सहस्रद्विशतसप्तविंशतियोजनादिको जम्बूद्वीपस्य विनस्थ करूपस्य पाईन चतुर्थोशन पञ्चविंशतिसहस्ररूपेण गुथितो जम्बूद्वीपगणितमिति । तथादि-जम्पपरिधिस्तिस्रो लक्काः, षोमश सहस्राणि, हे शते सप्तविंशत्यधिके योजनानां तथा गयूम अविशत्यधिकं शतं ध ३४४
गुणिले जातं पञ्चसप्ततिसहस्राणि गव्यूतानाम् एषां च योजनानयनार्थे चतुर्भिर्भागे हृते बन्धान्यष्टादश सहस्राणि सप्त-शतानि पञ्चाशदधिकामि योजनानाम् अस्य सहस्त्रादिके पूर्वराशौ प्रकिसे जातानि ए३ सहस्वाणि ७ शतानि ५० अधिकानि कोट्यादिका संख्या तु सर्वत्र तथैव तथा ध नुपामहाविंशं शतं पञ्चविंशतिसहस्रैरायते जाता शशि [लका धनुषा ३२०००००, अष्टभिश्च धनुयोजन म बति ततो योजनामयनार्थमभिः सह प्रेमनार योजनशतानि, अस्मिँश्च पूर्वराशौ प्रक्षिप्ते जातानि ९४ सहस्राणि शतं पञ्चाशदधिकमादिशतिसरायन्ते जातानि त्रीणि लक्षाणि पञ्चविंशतिसहस्वाधिकानि
गुलमपि पञ्चविंशतिसद सैरभ्यस्यते, जातान्यगुलामां पालानां दशसह नाणि पञ्चशताधिकानि तेषु पूर्वोकालराशी प्रसेिषु जा तोऽङ्गनराशित्रीणि लङ्काणि सप्तत्रिंशत्सहस्राणि पश्चाशदधिकानि एषां धनुरानयनाथ षष्पवत्या भागे हृते लब्धानि धनुषां पञ्चविंशतानि पञ्चदशाधिका शेष प टिरानि अस्य धनुरारोप्य तानयनाथ भागे वेलम्मे धनुष पर शतानि पञ्चदशाधिकानि, सर्वाग्रेण जातमिदं योजनानां सप्तकोटिशतानि नवतिकोट्यधिकानि षट्पञ्चाशलकाः चतुर्णवतिसहस्रासितमेकं पञ्चाशदधिकं तथा न्यूतमेकं धनुषां पञ्चदश शतानि पञ्चदशाधिकानि अगुलाबां षष्टिरिति । गतं योजनद्वारम् । जं० ६ बक० ।
अथ वर्षाणि
जम्बूद
भंते! कति बासा पाता ? गोपमा ! सत्तवासा । तं जहा-जरहे, एखए, देमवर, हेराए, हरिवासे, रम्मगवासे, महाविदेदे ।
भरतमैरायतं देवत् हिरण्यवत् हरिवश्यक मा विदेदः । जं० ६ वक्ष० ज्यो० । स्था० (महाविदेह क्षेत्र विभागी करणे तु दश वर्षाणि )
अथ पर्वतद्वारम
जंबूदीवे णं भंते! दीवे केवइया वासरा पचया पा चा? केवच्या मंदरा पन्या, केवया चित्ता, केवडया विचिता केवया जयगपन्या, केव्हया चागपव्यया, केवइया बक्खारा, केवइया दीहवेढा, केवइया वट्टवेया पाता । गोयमा ! जंबुद्दीवे दीवे व वासहरपव्वया एगे मंदर मे चिकू, एमे विचित्त, दो जयगपन्या, दो कंपन्या, बी वाया बोलीमंदीहवेवा, चत्तारि बट्टा, एवामेव मपुव्वावरणं जंबुद्दीव दीवे पुष्टि उत्तरा पव्वयस्या जयंतीति मक्खायं ति ।
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( १३७४ ) अभिधानराजेन्थः ।
जंबूदीव
प्रश्नसूत्रं व्यक्तम् । उत्तरसूत्रे संख्यामीलनाय किञ्चिदुच्यतेपर वर्ष मय दादयः एको मन्दरो मेरा एकत्रि कूटः एकश्च विचित्रकूतः एतौ च यमलजातकाचिव द्वौ गिरिदेवकुरुवर्तिनौ द्वौ यमकपर्वतौ तथैवोत्तरकुरुवर्तिनौ द्वे का नकदेवकुरुतरकुरुपतिह
त्येकं दशदशकाञ्चनकसद्भावात्, तथा विंशतिर्वकस्कारप र्वताः तत्र गजदन्ताकाराः गन्धमादनादयश्चत्वारः तथा चतुष्पकारे महाविदेद्दे प्रत्येकं चतुष्कचतुष्कसङ्गावात् । बोमश चित्रकू टादयः सरलाः द्वयेऽपि मिलिताः यथोक्तसंख्याः । तथा चतुस्त्रिंशदीर्घवैताख्याः द्वात्रिंशधिजयेषु भरतैरान्रतयोश्च प्रत्येकमेकैकनावात् चत्वारो वृत्तवैताढ्य हैमवतादिषु चतुर्षु वर्षेषु एकैकनावात 'एवामेव सपुव्वावरणं ति प्राग्वत् । जम्बूपेद्वीपे एकोनसप्तत्यधिके पर्वतशते जवत इत्याख्यातं म या अन्यैश्व तीर्थकृद्भिः । जं० ६ वक्क० ।
3
अथ क्षेत्राणि -
जंबुदीनेदीने दस खेचा पत्ता जहा नरहे पर बए, हेमवए, हेरन्नवए, हरिवासे, रम्मगवासे, पुच्च विदेहे, वरविदेद्दे, देवकुरा, उत्तरकुरा स्या० १० डा० | अथ कूटान
जंबूदीवे एणं ते! दीवे केवइया वासहरकूडा, केवइया वक्खाकूडा, केवया बेअकूटा केवड़ा मंदरा पत्ता है। गोषमा ! वासहरमा उप क्वारका, तिचिबुतरा अडकूदसया, नव मंदरा पता । एवामेव सपुव्वावरेणं जंबुद्दीवे दीने चत्तारि सत्तट्टा कूरुसया भवतीति मक्खायं ॥
जम्बूद्वीपे कति वर्षधरकूटानि इत्यादि प्रह्मसूत्रं व्यक्तम्ब तरसूत्रे-पपाशानि तवादि
जंबूदीव
33
पत्र पते । इति सूत्रम् तच्छिलोचयमात्रतापरं व्याक्येयमिति सर्वे सम्यक् । जं० ६ वक० स्थान |
अथ तीर्थानि -
जम्बुद्दी अंत ! दीवे नरहे वासे कति तित्या - ता है। गोयमा ! तो तिस्थापना से जहा-मागडे, वरदामे, भासे । जंबुद्दीवे एां दीवे एचए वासे कति नित्या पता? गोपमा ! तो तिल्या पणता तं १ जहा - मागडे, वरदामे, पभासे । जंबुद्दीचे णं दीने महाविदेढे वा गमे च नित्थापना है। गोमा ! तो तित्था पत्ता । तं जहा मागहे, वरदामे. पजामे । एवमेव सपुव्वावरणं जंबुद्दीचे दीवे एगं वि उत्तरे तित्यस जयतीति मक्वायं ति ।।
प्रश्नस्वयेाधनि चकियां स्वस्थमा साधनार्थ महाजवावतरणस्थानानि । उत्तरसूत्रे मरते त्रीणि तीर्थानि प्रज्ञतानि । तद्यथा-मागधं पूर्वस्यां गङ्गासङ्गमे समुद्रस्य, वरदामदक्षिणस्यां प्रभासं पश्चिम समुद्रस्य मे तसूत्रमपि जावनीयम् । नवरं नद्यौ चात्र रक्तारक्तवत्यौ तयोः समुद्रसमागमासे वरदामाध्ये च सत्याया सधै विजयसूत्रे चायं विशेषः - विजयसत्का गङ्गादि ४ महानदीनां यथा शीताशीतोदयोः संगमे मागधप्रभासाख्यानि भावनीयानि वरदामाख्यानि तेषां मध्यमतानि भाग्यानि एवमेव पूर्वापरमलिनेन एकं द्वघुत्तरं तीर्थशतं भवतीत्याख्यातमिति । जं० ६ व० । स्था० ।
प्रत्येकमेकादश, महाहिमवदुक्मिणोः प्रत्येकमष्टौ निषधनील तो सर्वसंख्या ५६ वस्कारकूटनिति तद्यथा-सरलचक्कस्कारेषु षोमशसु १६ प्रत्येकं चतुष्टयभावातू [३४] मजाकृतिस्कारेषु मानसप्त २ माल्यवद्विद्युत्प्रभयोः नव इति, उजयमीक्षने यथोक्तसंख्या, त्रीणि पहुत्तराणि ताव्यकृशतानि त भरतैरावतयोर्विजयानां
वैताकोषु चतुस्त्रिशति प्रत्येक नव संजयानयनं वैतादयेषु च कूटाभावः एवैताद दोपादानं, विशेषणस्य व्यवच्छेदकत्वात्, अत्र च व्यवच्छेद्यस्याभावादिति । मेरी नव, तानि चन्दनवनगतानि प्रायाणि, न भावनगतानि दिन्यस्ति तेषां भूमिप्रतिष्ठितत्वेन स्वतन्त्रकूटत्वादिति । संग्रहणिगाथायाम् - " पव्वयकूमा य इत्यत्र चोकसमुये ते चतुखिनानि तथाअष्टौ जम्बूवनगतानि तावन्त्येव शाल्मलीवनगतानि भइशाबचनगतानि च सर्वसंख्ययाऽष्टपञ्चाशत्संख्याकानि श्रप्राणि । ननु तर्हि एतद्गाथाविवरणसूत्रे - "वत्तारि सत्त सहा कूडसया” इत्येवंरूपे संख्याविरोधः उच्यते- एषां नियताधारकत्वेन स्वतन्त्रगिरि फुटेषु गणना अयमेवाशयः प पृथक्करणेन सूत्रकृता स्वयमेव दर्शयते यच्च प्रा ऋषभक् टाधिकारे केहि गंजते ! जंबुद्दीचे दीवे सभकुठे सामं सं सभकूड़ा पव्वया पत्ता |
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अथ श्रेणयः
जंबुद्दी ते ! दीवे केवइया विज्जाहरसेटीओ, केवडाओ आजिओगसेटीओ पणताओ ? । गोयमा ! जंबुदी दीवे सही विज्जाहरसेढीओ, अट्टमट्ठी आजिओगमेटीओ पराणचाओ एवामेव सब्वावरे जंबुद्दीवे दीवे छत्तीससेढीसए भवतीति मक्खायं ॥
प्रश्नसूत्रं व्यक्तम् । उत्तरसूत्रे गौतम ! जम्बुद्व | पे द्वीपे अष्टष्टिर्विद्याचरणय विद्याधरावासभूता पू परोदध्यादिपरिच्छिन्ना श्रायतमेखला जबन्ति चतुस्त्रिंशपितानि उत्तरतश्व एकैकणिमात्यां पष्टिरामियोग्य णय वमेव पूर्वापरमीन जम्बूद्वी कणिशतं भवतीत्याख्यातम् । अथ विजया:जंबुद्दीत्रे णं भंते । दीवे केवइया चक्कवद्विविजया, केवड़ाओ रायहाणीओ, केवइयाओ तिमिसगुहाम्रो, केवाओ
गुदा, केवया कयमालया देवा, केवडया माया देवा, केवया उसनकूडा पण्णत्ता ? । गोयमा ! जंबुद्दीवे दीवे चोत्तीसं चक्कवट्टिविजया, चोत्तमं रायहाणी
चोती गुहाओ चीन से खेप्वायगुदाओं, चोनीसं कयमालगा देवा, चोचीसं एहमालगा देवा, चोची
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जंबदीव अभिधानराजेन्डः।
जंबदीव प्रश्नसूत्रं व्यक्तम् । उत्तरसूत्र जम्बूद्वीपे छीपे चतुस्विंशचक्रवर्ति- | रचिलंदमणशब्दसाहचर्यात प्रतीयत, न तु रेणुकासुत इति । विजयास्तत्र द्वात्रिंशन्महाविदहविजयाः च भरतैरावत, अब ज०६ वक। योरपिचक्रवर्तिविजेतव्यकेत्रखरामरूपस्य चक्रवर्तिविजयशब्द
जंदीवे दीवे हरिवासरम्मगवासस् दो चउवीसा मलिवाच्यस्य सत्वात. एवं चतुर्विंशत् राजधान्यश्चतुस्त्रिंशत्तमिश्रागुहाः,प्रतिवैतात्यमकैकसंजवात्, एवं चतुरिंशत् खएकप्रपात
लासयसहस्मा जवंतीति मकवायं ।। गुदाः, चतुरिंशत् कृतमालदेवाः, चतुस्त्रिंशन्नक्तमालका देवा. तथा "जबुद्दीधे" इत्यादि सुबोध, द्वयोपयोः सहोक्ती श्वतुस्त्रिंशत ऋषभकूटनामकाः पर्वताः प्राप्ताः, प्रतिक्षत्र संन्न- हेतुः प्राग्वदेव, ( हरी ति ) हरिसलिला पूर्वाणवगा, हरिवर्षवतः चक्रवर्तिनो दिग्विजयसूचकनामन्यासार्थमकैकसद्भावात, द्वारकान्ता चापरावगारम्यके नरकान्ता पूर्वार्णवगा.नारीकायश्चात्र विजयद्वारे प्रकान्ते राजधान्यादिप्रश्नोत्तरसूत्र तद्विज
न्ता चापरावगा सर्वसंख्यया जम्बूद्वीप द्वीप हरिवर्षरम्यकयान्तर्गतत्वेनेति।
वर्षयोद्वै चतुर्विशतिसहस्राधिके सलिलाशतसहने भवत इति अथ इदा:
षट्पञ्चाशतसहस्राणां चतुर्गुणने एकभावत एव लाभात् । जंबुद्दीवे दीवे केवडा महदहा परमत्ता? । गोयमा ! अत्रापि सहस्रपरतया व्याख्यानं प्राग्वत् । ॐ० ६ वक्षः। सोलस महदहा पएणत्ता।
जंबुद्दीवेणं भंते ! दीवे मंदरपन्च यस्स दक्खिणेणं केवप्रश्नसूत्र व्यक्तम् । उत्तरसूत्र षोडश महाहदाः, षर्षधराणां | इया सलिलासयमहस्सा पुरचिवमपच्चच्छिमाजिमहा शीताशीतोदयाश्च प्रत्यकं पञ्च । जं०६ वक। स्था। लवणसमुदं समति ? । गोयमा! एगे छाणनए सालमा अथ सलिला:
सयसहस्से पुरच्छिमपञ्चच्छिमानिमुहे लवणसमुदं समजंबुद्दीवे णं ते! दीवे केवइआओ महाणईओ वास
पेंति ति । जंबुद्दीवे णं भंते ! दीवे मंदरस्स पन्चयस्स हरपवहाओ, केवड़ाओ पहाणईओ कुंडप्पबहाओ पाल
नत्तरेणं केवडा सलिलासयमहस्मा पुरच्छिमानिमहा ताओ? । गोत्रमा ! जंबुद्द वे दो चोद्दस महाणईओ
लवणसमुई समति । गोयमा ! एगे हम नए मलिनावासहरपत्रहाओ, गवत्तरिमहाणईओ कुंडप्पवहाओ,
सयसहस्से पुरच्छिमपञ्चच्छिमाभिमुहे जाव समप्पेइ। जंबुएवामेव सपुव्वावरेणं जंबुद्दीवे दीवे एनति महाणईणो
होवे णं भंते ! केवडा सबिलासयमहरूमा पुरत्यानिजतीति मक्खायं ।
मुहा लवणममुई समप्पति गोप्रमा! सत्त सलिनासयजम्बूद्वीपेद्वापे कियत्यो महानद्यो वर्षधरेभ्यः " तास्थ्यात्
सहस्सा अट्ठावीसं च सहस्मा० जाव समप्येति । जंबुद्दीवे तस्यपदशः" इति।वर्षधरहदयः प्रवदन्ति निर्गच्छन्तीति वर्षधरप्रवहाः। अन्यथा कुण्डप्रभवाणामपि वर्षधरनितम्यस्थकुण्ड
णं ते ! केवइआ सलिलासयसहस्सा पचच्छिमाजमुहा प्रजवत्वेन वर्षधरप्रनवा इति वाच्यं स्यात् । कियत्यः कुरामप्र- लवणसमुदं समति । गोयमा! सत्त सलिलामयसहभवा वर्षधरनितम्बवर्तिकुएमनिर्गताः प्राप्ताः ? । गौतम ! जम्बू- स्सा अट्ठावीस च सहस्सा जाव समप्पेंति, एवामेव सपुद्वापे चतुर्दशमहानद्यो वर्षधरहदप्रनवाः जरतगङ्गादयः प्रति
बावरेणं जंबुद्दीवे दीवे चोद्दस सलिलासयसहस्सा छकेत्र विद्विभावात् कुण्डभवाः षट्सप्ततिमहानद्यः, तत्र शीताया सदाव्यप्वटसु विजयेषु शीतादाया याम्येप्वष्टासु विज
प्पएणं च सहस्सा नवंतीति मक्खायं ॥ येषु च एकैकनावन पोमश गङ्गाः षोडश सिन्धपश्चातथा शी
अध मरुता दक्षिणस्यां कियत्या नद्य इत्याह-"जबुद्दीव दीवे ताया याम्येबष्टसु विजयषु शीतोदाया उदीच्येवासु विजय
'मंदरपब्धय" इत्यादि व्यक्तम् । नवरम् उत्तरसूत्रे एक षनवतिवसु चैकैकनावेन पोरश रक्ता रक्तवत्यश्च, एवं चतुःषष्टिः
सहयाधिकं सखिलाशतसहस्रम् । तथाहि-भरत गङ्गायाः सि. द्वादश च प्रागुक्ता अन्तनद्यः सर्वमीलने षट्सप्ततिरिति कुण्डप्र
धोश्च चतुर्दशचतुर्दशसहस्राणि, हैमवते रोहिताया रोहितां. भवानां तु सीताशीतोदापरिवारभूतत्वेनाऽसंभवदपि महानदी
शायाश्चाष्टाविंशतिरष्टाविंशतिसहस्रागि, हरिवर्षे हरिसलिलात्वं स्वस्वविजयगतचतुर्दशसहस्रनदीपरिवारं संपदुपेतत्वेन
या हरिकान्तायाश्च षट्पञ्चाशत् २ सहस्राणि.सर्वमीलने यधोभाव्यम् । एवमेव पूर्वापरेण चतुर्दशषट्सप्ततिम्पसंख्यामील
क्तसंख्या। अथ भरारुत्तरवर्तिनीनां संख्या प्रश्नयितुमाह-"जवुनेन जम्बूद्वीपे नवतिमहानधो भवन्तीत्याख्यातमिति । जं. ६
हावे" इत्यादि व्यक्तम : ननरम उत्तरसूत्रे सर्वसंध्या दक्विणसवक० । स्था० । सा( तासां चतुर्दशमहानदीनां नदी
त्रवद्भावनीया, वर्षाणां नदीनां च विशवः स्वयं बोध्यः । ननु परिवारसंख्या समुरूप्रवेशदिग् 'महाणई' शब्दे वक्ष्यते)
मेरुतो दक्किगोत्तरनदीसंख्यामीलने सपरिवारे उत्तरदक्षिणप्र.
वहे शीताशीतोदे कथं न मिक्षिते । उस्बते-प्रश्नसूत्र हि मेरुती जंबुद्दीचे दीवे हेमवय हेरएणवएमु वासेसु वारमुत्तरे स
दकिणोत्तरदिमागचर्ति पूर्वापरसमुजप्रबेशरूपविशिष्मार्थविषलिलासयसहस्से नवंतीति मक्खायं ।।
यकं तेन मरुतः शुरूपूर्वीपरसमुद्रप्रवेशिन्योरनयोनिबंचनसत्रऽजम्बूद्वीप हैमवतरण्यवतयोः क्षेत्रयोादशसहस्रोत्तरं नदी- नन्तनावः, यथाप्रश्न निर्वचनदानस्य शिष्टव्यवहारात् । अथ प. शतसहस्रं नवतीत्येवमास्यातम् अत्र शतसहस्रशब्दसाहचर्या- घोऽभिमुखाः कियत्यो बवणोदं प्रविशन्तीन्याह-"जंबहीवे दीये" दग्रसंख्यायां सहस्राणि प्रतीयन्ते । अन्यथा षट्पश्चाशतसह-| इत्यादि । जम्बुद्वीप द्वीप कियत्यो नः पूर्वाभिमुम्राः लवणोदं राणां चतुर्गुणने संख्याशास्त्रबोधः स्यात, दृश्यते च शब्दलाह- प्रविशन्ति.कियत्यः पूर्वममुष्प्रवेशिन्य इत्यर्थः। इदं च प्रश्नसूत्र चांदप्रतिपत्तिः। यथा-रामलक्ष्मणावित्यत्र रामशब्देन दाश. केवळ नदीनां पूर्व दिग्गामस्वरूपप्रमुच्यविषयक, तन पूधम्माल
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(१३७६) जंबुदीव अभिधानराजेन्द्रः।
जंबदीव प्रश्नसूत्राद्विजियते , उत्तरसूत्रे सप्त नीलकणानि , मष्टा- पमासिस्संति ; का मरिया तवसु, तति, नविस्संति ; विशतिश्च सहस्राणि यावत् समुपमपन्ति । तद्यथा-पूर्वसूत्रे
केवइआ णक्खता जोगं जोइस,जोअंति, जोस्मंति; केवडमेरुतो दकिणदिग्वार्तनीनामेकं पतिसहस्राधिकं लकमुक्तं, तद पूर्व पूर्वाब्धिगामीत्यागतान्यष्टानवतिः सहस्राणि,
श्रा महम्गहा चारं चरिंसु, चरंति, चरिस्संति; केवइआओ एवमुदीच्यनदीनामप्वष्टानवतिः सहस्राणि शीतापरिकरनध- तारागण कोडाकोमीभो सोनिंसु,सोनिति,मोनिस्संति य?। इच नकाणि द्वात्रिंशत्सहस्राणि च , सर्वपियोषधोक्तं मा- गोयमा ! दो चंदा पनासिंमु०३, दो मूरिआ तवईमु०३, नम् । अथ पश्चिमाग्धिगामिनीनां संख्याप्रश्नार्थमाह-" जंबु.
छप्पमं एक्खता जोगं जोईमु. ३, गवत्तरं महम्महमय दीव दीचे " इत्यादि । इदं चानन्तरसूत्रवत वाच्यं संख्या योजनीया,परस्परं निर्विझेपत्वात्। संप्रति सर्वसरित्संकलनामाह
चारं चरिंसु० ३ । “ एगं च सयसहस्सं, तेत्तीसं खबु " एवामेव सपुब्बारेणं" इत्यादि व्यक्तं, नवरम् जम्बूद्वीपे जवे सहस्साई। णच य सया पछासा, तारागणकोमिकोद्वीले पूर्वाब्धिगामिनीनामपराधिगामिनीनां च नदीनां संयोजने डीणं ॥१॥" चतुर्दशनकाणि षट्पञ्चाशत् सहस्राणि भवन्ति इत्याम्यातमा जम्बूद्वीपे भगवन् ! द्वीपे कति चन्याः प्रजासितवन्तः-प्रकाशननु इयं सर्वसरित्संस्था केवलपरिकरनदीनां,महानदीसहिता- नीयं वस्तु सदयोतितवन्तः, प्रभासयन्ति ब्योतयन्ति,प्रजासनां वा तासाम ?। उच्यते--महानदीसहितानामिति संभाव्यते, यिष्यन्ति सयोतयिष्यन्ति,उद्योतनामकर्मोदयाश्चन्द्रमएमलासंभावनाबीजं तु कच्चविजयगतसिन्धुनदीवर्णनाधिकारे नामनुप्णप्रकाशो हि जन उद्योत इति व्यवाहयते,तन तथा प्रभे प्रवेशे च सर्वसंख्यया आत्मना सह चतुर्दशजिनंदीसहस्रैः अनादिनिधनयं जगतस्थितिरिति जानतः शिष्यस्य कालत्रयसमन्विता भवतीति श्रीमलयगिरिकृतहतक्षतविचारवृत्त्या-1 निर्देशन प्रभा, प्रष्टव्यं तु चन्छादिसंख्या तथा कति सूर्यास्ता. दिवचनमिति । श्रीरत्नशखरसूरयस्तु स्वकेत्रसमासे-" अडस- पितवन्तः प्रात्मव्यतिरिक्तवस्तुनि तापं जनितवन्तः, एवं परि महाणश्नो, चारस अंतरणईउ सेसा उ। परिअरणच
तापयन्ति , तापयिष्यन्ति । प्रातपनामकर्मोदयाद रविमएमला. चउदस, एवं उपखसहसा य॥१॥" इति महानदीनां पृथमाणनं नामुष्णः प्रकाशस्ताप इति लोके व्यवड़ियते , तेन तथा प्रश्नो. चकुरिति । तत्वं तु बहुश्रुतगम्यम् । नम्वत्र प्रत्येकमष्टाविंशतिसह.
क्ति, तथा कियन्ति नक्षत्राणि योगं स्वयं नियतमण्डलचामनदीपरिवारा द्वादशान्तनधः सर्वनदीसंकलनायां कथं न
रित्वेऽप्यनियताऽनकमएमचारित्रिनिजमएमलक्षवमागतैहै: गणिता? उच्यते-श्यं सर्वसरित्संख्या चतुर्दशलकादिलकणं
सह संबन्धं युक्तवन्ति प्राप्तवन्ति , युद्धन्ति प्राप्नुवन्ति , . श्रीरजशेखरसरिनिः स्वोपनक्षेनसमासवृत्ती, तथा प्रतिमहान
योक्यन्ति प्राप्स्यन्ति । तथा कियन्तो महाग्रहा प्रकारकादीपरिवारमीलने स्वस्ववेत्रविचारसूत्रे श्रीजिननरूगणिकमा
दयधारं मामलकेत्रपरिमि चरितवन्तो अनुभूतवन्तः, श्रमणादिमत्रकारैः भीमनयागर्यादिभिवृत्तिकारइच्चान्तनंदी
चरन्ति अनुभवन्ति,चरिष्यन्ति अनुनवियन्ति ?। यद्यपि समयपरिवाराः संग्रहेण चोक्ताः। श्रीदरिमासूरिभिस्तु-"स्वंमा जोत्र
केत्रवर्तिनां सर्वेषामपि ज्योतिषकाणां गतिश्चार इत्यभिधीयते, ण" इत्यादि गाथायाः संग्रहण्यां चतुरशीतिप्रमाणा कुरुनदी
तयाऽप्यन्यव्यपदेशविशेषाभावेन बकातिचारादिनिगतिविरनन्तर्भाग्य ततस्थाने श्मा एव द्वादश नदीः चतुर्दशभिः२ नदी
शेषैर्गतिमत्त्वेन चैषां सामान्यगतिशब्देन प्रभः । तथा कियत्यसहः सह निक्तिप्य यथोक्तसंख्याऽपूरि। तद्यथा-"चउदस
स्तारागणकोट्यः शोजितवत्यः शोनां धृतवत्यः, शोभन्ते, शोसदस्सगुणित्रा, अडतीसणउ विजयममिला । सीमाण
भिष्यन्ति । एषां च चन्दादिसूत्रोक्तकारणानावन बहुलपका. णिवती, सीओआए वि एमेव ॥१॥" कैश्चित्त जयविजय
दो जास्वरत्वमात्रेण शोभमानत्वादित्यं प्रभाऽभिलापः । अत्र गतयोः गङ्गासिन्वोः रक्तारक्तवत्योर्वा अष्टाविंशतिसहस्रनदी
सोऽनुक्तोऽपि वाशन्दो विकल्पद्योतनार्थ प्रतिप्रश्नं बोध्यः । लक्कणः परिवारः, स एवासनतयोपचारेणान्तनदीनां परि
प्रगवाना--गौतम ! द्वौ चन्छौ प्रभासितवन्तौ, प्रभासते, प्रघारतयोक्त इत्यतोऽवसीयते, यदन्तनदीपरिवारमाश्रित्य मत
भासिध्यते च । जम्बरोपे क्षेत्र सूर्याक्रान्ताभ्यां दिग्न्यामन्यत्र वैचित्र्यदर्शनादिना केना ऽपि हेतुना प्रस्तुतसूत्रकारणाऽपि
शेषयोर्दिशोश्चन्काभ्यां प्रकाश्यमानत्वात, प्रश्नसूत्रे च प्रभासिसर्वनदीसंकलनायां गणिता इति।अत्रापि तस्वं बहुश्रुतगम्यमेव ।
तवन्त इत्यादौ यो बहुवचनेन निर्देशः स प्रश्नरीतिर्बहुवचयदि चान्तनदीपरिवारनदीसंकलनाऽपि क्रियते, तदा जम्बूद्वीपे
नेनैव प्रवतीति ज्ञापनार्थः। एकाद्यन्यतरानियस्य तु सिद्धाकिनवतिसहस्राधिकाः सप्तदश लक्षाः नदीनां भवन्ति ।
न्तोत्तरकाले संभवः, एवं सूर्यसूत्रेऽपि भावनीयम् । तथा द्वौ यदुक्तम्-"सुत्ते चन्दस लक्खा, छप्पामसहस्सजंबुदीवम्मि ।
सूर्यो तापितबन्तौ , जम्बुद्धीपत्रमिति शेषः, अस्मिन्नेव कंत्र दुति सत्तरस लक्खा , वाणउई सहस्ससलिला उ॥१॥"
चन्द्राकान्ताज्यां दिग्न्यामन्यत्राशेषयोर्दिशोः सूर्याभ्यां ताइति । एतेषां जम्बूदीपप्रज्ञप्युक्तार्थानां पिएमके मील के विष
प्यमानत्वाव तथा पपञ्चाशनक्षत्राएकैकस्य चन्द्रस्य प्रयजूते इयं संग्रहगाथा भवतीति। अथ जम्बुद्धीपव्यासस्य ल
त्येकमष्टाविंशतिनकत्रपरिवारान् योगं युक्तवन्तीत्यादि प्राम्बकप्रमाणताप्रतीत्यर्थ दक्षिणोत्तराच्यां केत्रयोजनसांप्रमीला
त् । तथा षट्माप्ततिं पासप्तत्युत्तरं महाग्रहशतम, एकैकनं जिनानामुपकाराय दर्वते । बथा-१००००० , अत्र सर्बानं
स्य चन्छस्य प्रत्येकमष्टाशीतग्रहाणां परिवारजावात चार लक्षयोजनप्रमाणम् । अत्रापि जगतीसत्कमूल विष्कम्भः स्वस्व.
चरितवदित्यादि । तथा पद्येन तारामानमाह-" तारागणकोदिग्गतमुखवने ऽन्तर्माननीय इति । ०६ वक।
'टिकोटीनामेकलकं त्रयस्त्रिंशच्च सहस्राणि, नव च शताअथ जम्बूद्धीपे चन्छादिसंख्यां पृच्छति
. नि , पश्चाशानि पञ्चाशदधिकानि अवन्ति । प्रतिचन्द्र ताराग
कोटाकोटीनां षट्पटिप्सहस्रनवशताधिकपञ्चसप्ततेसम्यमानजंबुद्दीवे णं जंते ! दीवे कार चंदा पनासिम, पभासिति, । स्वादिति । ०६ वक्षः ।
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जंबूदीव
जम्मूदी निधियां घुमाहपुदीनेदीने केवया निहिरयणा सम्यग्मेणं पयाना है। गोयमा ! तिथि बत्तरा लिहिरयणस या सव्वगणं पा ना जंबुदीचे दावे केवडआ णिहिरयणसया परिजांगताए
गति ?| गोषमा ! अापण उत्तीनं, कोसपर दोषि सतरा विहिरयणसया परिजोगाए ह मागच्छेति । जंवदीने दीवे केवडच्या पंचिंदिवरयणसया सदमे पता है। गोयमा ! दो दसरा पंबिंदियर या सया सव्वग्गणं पणत्ता । जम्बुदीचे दीवे जहमपदे वा उक्कोसपदे वा केवड़ा पंचिदियरयणसया परिभोगत्ताए हव्वमागच्छति ?। गोयमा ! जहापए अट्ठावीसं उक्कोसपए दोषि दभुत्तरा पंचिदियरयणसया परिभोगत्ताए हव्वमागच्छति। जंयुतेदां के एर्मि दिवश्यास या सव्वग्गेणं पत्ता ।। गोयमा ! दो दो दसुत्तरा एगिंदियरयणमया सव्वग्गेणं पपत्ता | जंबुद्दीवे ॥ भंते ! दीवे केवइया एर्निदिवर सपा परिजोगाए हन्यमागच्छंती है। गोयमा पानी उसे दोग दरा 1 एगिंदियरयणसया परिजोगत्ताए हव्वमागच्छंति । जंबूदीवे णं भंते ! दीवे केवड़ा आयामचिक्खजेणं, केनइयं परिक्खेवेणं, केवइअं नव्वेहेणं, केवइयं उ उच्चतेणं, केवश्रं सव्वग्गेणं पत्ता ? । गोयमा ! जंबुद्दीचे दीवे एवं जोअणसयसहस्त्रं आयामविवखंजेणं, तिथि जो सय सदस्साई सोलम य सहस्माई दोश असावी तिमि कोने प्रा
स तेरस य अंगुलाई गुनं च किंचि विसेसाहि परिवर्ण एवं जोअणसहस्से उन्हेां नवउतिजोणसहस्साई साइरेगाई न उच्चत्तणं, साइरेगं जोयस मन्त्र ।
" जंयुद्दस्यादि । जम्बूद्वीपे द्वीपे किति निरत्नानि उपनिपानानि यानि मङ्गादिदमुखस्थानि
स्तगत परिपूर्णषट्ख एकादिदिग्विजयव्यावृत्तोऽप्रमतपःकरणानन्तरं स्वसात्करोति तानि सर्वाग्रेण सर्वसंख्यया प्रज्ञप्तानि । भगवानामराणि निरस्तानि स प्रेमानामि नानानि चतुखि शता गुण्यन्त इति यथोक्ता संख्येति । श्यं च सत्तामाश्रित्य प्ररूपणा कृता । श्रथ निधिपतीनां कति निधानानि विवक्षित काले भोग्यानि भवन्तीति प्रश्नमाह" जंबुद्दीचे दावे " इत्यादि । जम्बद्वीपे कियन्ति निधिरत्नशतानि परिभोग्यतया उत्पन्ने प्र योजने चक्रवर्तिभिर्व्यापार्यमाणत्वेन "हव्वं इति" शीघ्रं चक्रायिनन्तरं निमित्यर्थः । नाही अन्यपदेशन जयपावनांच 'निधनाने नीति उत्कृष्टपदे तु सप्तत्यधिके निभिरत्नशते परिभोग्यतया सीमागच्छतः, उत्कृष्पभाविनां चक्रिणां त्रिंशता नव नव
३४५
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( १३७७ ) अभिधानराजेन्द्र
"
Sa
निधानानि भवन्तीति व त्रिशता गुण्यन्ते इत्युपपद्यते यथोकसंख्येति । अथ जीपवर्ति
राह (जी) जी भदन्त चिन्ति पान सेनापत्यादीनि तेषां तान मनि। भगवानाह गीत दशां
शिवण प्रत्येकं सप्त पञ्चेन्द्रियरत्नसद्भावेन सप्तसंख्या त्रिंशता गुष्यते, भवति यथोक्तं मानम् । ननु निधिसर्वाग्रपृच्छायां चतुस्त्रिंशतागुणनंनसा किमिति तु वासुदेवविजयेषु तदा तेषामनुपलम्भात् निधीनां तु सर्वदाप्रा सूत्र रत्नपरिभोगसूत्रे च न कश्चित्संख्याकृतो विशेष इति । अथ रत्नपरियोमा जम्बुदवे" इत्यादि प्रायो व्याख्यातत्वाद्व्यक्तम् । भयैकेन्द्रियरत्नानि प्रश्नयितुमाह-" जंबुहीचे " इति व्यक्तम् । नवरम् एकेन्द्रियरत्नानि चक्रिणां चक्रा दीनि तेषां शतानि इति । श्रथै केन्द्रिय रत्नपरिभोगसूत्रं पृच्छनाह" जंबुद्दीवेत्ति व्यक्तम् । अथ जम्बूद्दीपस्य विष्कम्जा • दीनि पृच्छा (जंबुद्दीचे ति) सूत्रे विकतायामप रिकेपाप्रा व्याख्याताः पुनः प्रश्नविषयीकरणं तु धादि
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करणस्य प्रस्तावाद्विसरणशी अधियजन स्मरणरूपय कारादिसूत्रे जम्बूद्वीपं द्वीपम, अपशब्दस्य कीयस्यनिर्देशा, कीवेऽपि वर्तमानत्वात् कियद्वेधत्वेन भूमित्रविवेत्यर्थः कायेन भूनिर्मार्थः कि
चीन इसम भगवानाद-गी. राम विष्टायामपरिक्षेपविषयं निर्वाचन प्रयत् दिनकं योजन नसतान वतियांजनखानि खातिर योजनशतसहस्रं सत्रेण मनुहारो जमायादी उपत्य यहारस्तु पर्वतचिमानादी प्रसिद्वीपे सकारा षयत्वादिति । उच्यते-समभूतलादारभ्य रत्नप्रज्ञायामधः सहस्वायोजनानिमनेोग्रामविजयादिषु जम्बूद्धपव्यवहार
पलक्ष्यमात्यनोपहारः सुप्रसिद्ध तथा जम्बूजानिये लाया ममिमा जम्बुद्वीपव्यपदेशपूर्वकम निषेकस्य जायमानत्वेन चत्वव्यवहारोऽप्यागमे सुप्रसिद्ध पवेति । जं०७०। अथास्यैव शाश्वतभावादिकं प्रश्नयन्नाहजम्बुद्दीवे णं. जंते ! दीवे किं सासए, कि अमास १ । गोमा ! सि सामए, मिश्र श्रमासए से केर भंते! एवं मासए सिद्ध असाम । गोअमा ! दव्बट्टयाए सासए, वरणपज्जवेडिं गंधरसफासयपज्जहिं सासर से तेणट्टेणं गोत्र ! एवं बुच्चइ सि सामए, सि सामए । जम्बुद्दी णं भंते ! दीचे काली के हो ? गोषमा पा खासिण कयावि स्थि,ण कया विजविस्त, जविंगु, जव अभविता धुत्रे त्रिए सासए अक्खए अए अट्टिए णिचे जंबुद्दीवे दीवे पत्ते ।
• जंबुद्दीवे णं " इत्यादि । इदं च यथा प्राकू पद्मरवैदिका धिकारे व्याख्यातम्, तथाऽत्र जम्बूद्रीपव्यपदेशेन बौध्यमिति ।
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(१३७०) जंबूदीव अभिधानराजेन्द्रः।
जंबदीव एवं च शाश्वताऽशाश्वतो घटो निरन्वयविनश्वरो दृष्टः, किम- अथ जम्बूद्वीपतिनाम्नो व्युत्पत्तिनिमित्त जिशासिषुः पृच्चतिसावपि तद्वत, नत नेत्याह-जंबुद्दीवे णं” इत्यादि । इदमपि
से केणट्ठणं ते! एवं बच्चइ-जंबद्दीवे दी। गोयमा! प्राक पावरवेदिकाऽधिकार व्याख्यातमिति । जं० ।।
जंबुद्दीवे गंदीवे तत्थ तत्थ देसेहिं देसेहिं बहवे जंबृरुक्खा अथ किं परिणामोऽसौ द्वीप इति पिच्छिषुराह
जंबूवणा जंबूवणसंमा णिचं कुसुमित्रा० जाव पिंडिमर्मजजंबुद्दीवे णं नंते ! दीवे किं पुढविपरिणामे, पानपरि
रिविडेंसगधरा मिरीए अईव उसोभेमाणा चिट्ठति बिए णामे,जीवपरिणामे, पुग्गलपरिणाम ? | गोयमा! पुढविपरि
सुदसणाए अणादिए णामं देवे महिलिए० जाव पग्निगामे वि, आउपरिणामे वि, जीवपरिणामे वि, पुग्गलप
ओवमट्टिईए परिवसइ, से नेणणं गोअमा! एवं वुच्चइरिणामे वि।
जंबूद्दीचे दीवे । जम्बूद्वीपे नदन्त!ीपः किं पृथ्वीपरिणामः पृथिवीपिण्डमयः, कि जलपरिणामः जलपिण्डमयः। पतादृशौ च स्कन्धावचि
अथ केनार्थेन नदन्त एवमुच्यते-जम्बूद्वीपो द्वीपः। जगवानातरजःस्कन्धादिवदजीवपरिणामावपि नवत इत्याशङ्कयाह- ह-गौतम ! जम्बूद्वीप द्वीप तत्र तत्र देश तरप देशस्य तत्र तत्र कि जीवपरिणामः जीवमयः। घटादिरजीवपरिणामोऽपि भव- प्रदेश बढ़वो जम्बूवृक्का पकैकरूपा विरस्थितत्वात्, तथा तात्याशङ्कयाह-किं पुसपरिणामः पुलस्कन्धनिष्पन्नः केवल बहूनि जम्बूवनानि जम्बूवृता एव समूहनावेनावस्थिताः, अवि. लपुम्लपिएकमय इत्यर्थः। तेजसस्त्वकान्तसुषमादावुत्पन्नत्वेन रलस्थितत्वात् । “एकजातीयतरुसमूहो वनम" इति वचनात् । पकान्तदुःषमादौ तु विश्वस्तत्वेन जम्बूद्वीपस्य तत्परिणामेs- तथा बढ़वो जम्बूवनखण्डाः जम्बवृक्तसमूहा एव विजातीयतरुश्रीक्रियमाणे कादाचित्कत्वप्रसङ्गः,वायोस्त्वतिचलत्वेन तत्परि- मिश्रिताः "अनकजातीयतरुसमूहो वनखण्डः" इति वचनात् । णामे द्वीपस्यापि चत्वापत्तिरिति तयोः स्वत एव संदेहाविष. तत्राऽपि जम्यूवृताणामेव प्राधान्यमिति प्रस्तुते वर्णकसाफल्य. यत्वेनन प्रश्नसूत्रे उपन्यास नगवानाह-गौतम!धिवांपरिणा- मा अन्यथा अपरवृक्षाणां वनखामनिमित्तभूतैर्जम्बूद्वीपपदप्र. मोऽपि, पर्वतादिमत्त्वात् । अप्परिणामोऽपि, नदीहदादिमत्वात् । वृत्तिनिमित्तत्वेऽसाङ्गत्यात् । ते च कथंभूता इत्याह-नित्यं सर्व जावपरिणामोऽपि मुखवनादिषु वनस्पत्यादिमत्वात् । यद्यपि कालं कुसुमिताः, यावतपदात् “णिच्चं माइया णिच्चं लवस्वसमये पृथिव्यप्कायपरिणामत्व ग्रहगनव जीवपरिणामत्वं
श्रा णिचं थवश्या०जाव णिच्चं कुसुमित्र-मार-लवश्य. सिकम, तथाऽपि लोके तयोर्जीवत्वस्याव्यवहारात् पृथग्य. थवश्व-गुनुअ-गोच्छर-जमलिअ-जुबलिअ-विणमिश्रहणम, बनस्पत्यादीनां तु जीवत्वव्यवहारः स्वपरसंमत इति पणमिअ-सुविभत्ता" इति ग्राह्यम् । एतव्याख्यानं प्राग्वनखपुसपरिणामोऽपि मूर्तत्वस्य प्रत्यक्वसिद्धत्वात्, कोऽय:?,ज- एमवाप्नक कृतमिति ततो शयम् । उक्तवर्णकोपेताश्च वृक्षाः श्रिया म्बूद्वीपो हि स्कन्धरूपः पदार्थः, स चावयवैः समुदितैरव
अतीव उपशाभमानास्तिष्ठन्ति । इदं च नित्यकुसुमितत्वाभवति, समुदायरूपत्वात समुदायिन इति।
दिकं जम्बूवृकाणामुत्तरकुरुकेत्रापक्षया बोध्यम । अन्यथेषां अध यदि चायं जीवपरिणामरूपस्तहि सर्वे जीवा अत्रो
प्रावृट्कालभाविपुष्पफलोदयवन्वेन प्रत्यक्षबाधात, पतन जत्पन्नपूर्वाः, उत नेत्याशङ्कयाह
म्वृवृक्षबडुबो द्वीपा जम्बूद्वीप इत्यावेदितं नवति । अथवा
जम्म्वां सुदर्शनाऽनिधानायामनादृतनामा, पूर्वजम्बूवृक्षाधिकारे जंदीचे ए भंते ! दीवे सच पाण। सबजीवा सव्व
व्याख्यातनामा देवो महर्द्धिको, यावत्करणात् "महज्जुइए" नृा सव्वसत्ता पुढविकाइयत्ताए आनुकाइअत्ताए तेउ
इत्यादि ग्राह्यम। पल्पोपमस्थितिकः परिवसति; अथ तेनाकाइयत्ताए वानकाइअत्ताए वणस्मइकाइअत्ताए नववएण- थेन भदन्त ! एवमुच्यते-स्वाधिपत्यनादृतनामदेवाश्रयनूतया पुव्वा ? । हंता गोयमा !. असई अवा अणं तखत्तो । जम्बोपलवितो द्वापो जम्बूद्वीप इति, सबकदेशा ह्यपरं सूत्रजम्बूद्वीपे नदन्त ! द्वीपे सर्व प्राणाः द्वित्रिचतुरिन्जियाः,
कदशं स्मारयति इति । " अदुत्तरं च ण जंबुद्दीवस्स सासर्षे जावाः पञ्चेन्डियाः, सर्वे भूतास्तरवः, सर्वे स
सप णामधेज्जे परमत्त, जंण कयाइ ण श्रासी, ण कयाइ स्वाः पृथिव्यप्ते जोधायुकायिकाः । अनेन च सांव्यवहा
णत्य, ण कया ण भविस्सइ० जाव णिच” इति झंयं, जीरिकराशिविषयक एवायं प्रश्नः , अनादिनिगोइनिर्ग
वाजिगमादशै तथा दर्शनात् । एतेन किमाकारभावप्रत्यवतारी तानामेव प्राणजीवादिरूपविशेषपर्यायप्रतिपत्तेः। पृथिवीकायि- जम्बूद्वीप इति चतुर्थः प्रश्नो नियूंढ इति । जं०७ वक्ष० जी०। कतया अप्कायिकतया तेजस्कायिकतया वायुकायिकतया जम्बूहीपस्य मध्य च मेरुनामा पर्वतोऽस्ति । तथाहिवनस्पतिकायिकतया उपपन्नपूर्वा उत्पन्नपूर्वाः ?। भगवानाह- महीड मम्मि विते णगिंदे, पन्नायते मूरियमुफलेम । 'हंता गोयमा ! एवं गौतम ! यथैव प्रश्नसूत्रं तथव प्रत्यु. चारणीयम-पृथिवीकायिकतया यावद्वनस्पतिकायिकतया
एवं सिरीए उस रिवन्न,मणोरमे जोअइ अचिमानी।१३। उपपपूर्वाः, कालक्रमण संसारस्यानादित्वात्, न पुनः सर्वे मह्यां रत्नप्रजापृधियां, मध्यदेश जम्वृद्वीपः, तस्यापि बहमध्यप्राणादयो जीवविशेषा युगपत्पन्नाः सकलजीवानामेक- देशे सौमनस विद्युत्प्रभगन्धमादनमाल्यवन्तदंशापर्वतमनुष्योकानं जम्बूबीप पृथिव्यादिभावनोत्पादे सकलदेवनारका- पशोभितः समभूभाग दशसहस्त्रविम्तीर्णः शिरसि सहरमदिनंदाभावप्रसतेः । न चैतदस्ति, तथा जगत्स्वभावादिति । कमधस्तादपि दशमहस्राणि ननियोजनानि योजनेकान-- कियन्तो वारानुत्पन्ना इत्याह-असदानेकशः, अथवा-अ.] शनागैर्दशभिरधिकानि विस्तीर्णश्चत्वारिंशद्योजनोट्रितमा-- नन्तकृत्यः-अनन्त वारान्, संसारस्यानादित्वादिति ।
पशोजितो नगेन्द्र पर्वतप्रधानो मेरुः प्रकर्पण झोके ज्ञायते
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जंबूदीव
सुयुलेक्ष्य आदित्यसमतेजाः विशिष्टतया मे
चमनन्तकप्रका
कोपोमित्यात्मनोऽन्तःकरणं रीतिमन मोमिली श्रादित्य इव स्वतेजसा द्योतयति दशदिशः प्रकाशयतीति । सूत्र० १ ० ६ ० स० । स्था० । जपान्येऽपि दीपा वर्तते तथाहिकेवतिया तेब्दीचे नामपेजेहिं पाते । गोयमा! असंखेला जंबूदीचा दीवानामपेज्जेहिं पता।
1
( १३७) प्रनिधानराजेन्द्रः : ।
कियन्तो नदन्त ! जम्बूदीपाः प्रशप्ताः, जम्बूद्वीप इति नाम्ना कियन्तो द्वीपाः प्रज्ञप्ता इत्यर्थः । एवमुक्ते भगवानाह - गौतम ! असंख्या जम्बूद्वीपा द्वीपमा जतिमाना असंख्येया द्वीपा इति भावः । जी० ३ प्रति० । स्था० ।
जंबुद्दीचे दीवे मंदरस्स पययस्स पुरच्छिमपथमं दो खिता पएलता । तं जहा बहुसमा अविसेसा० जाय पुण्वविदे चैव व्यवरविदेडे व
"
।
(पुरापणं ) पुरस्तात पूर्वस्यां दिशि पश्चात पश्चिमायामित्यर्थः । यथाक्रमं पूर्वश्वासो विदेहश्वेति पूर्वविदेहः, एवमपरविदेद इति । एतेषां चाऽऽयामादिन्यान्त रादवसेय इति । स्था० २ ० ३ उ० ।
अथ जम्बूदीपवेदिका
जंबूदीवस णं दीवस्स वेदिया दो गाउयाई उ उच्चते पण्यचा ।
जंबू " इत्यादि कव्यम्, नवरं वज्रमय्या अष्टयोजनोच्ायाः चतुदशांपर्यंचो विस्तृताया जम्बूफीपनगरप्राकारकन्याया जगत्याद्विगोनि पञ्चधनु स्तृतेन नानारत्नमयेन जालकटकन परिक्षिप्ताया उपरि वेदिकेलि. पद्मवश्येदित्यर्थः । पश्चनुत्तस्तिवामयुक्ता देवानामासनायनमोहनि नमुभयतो वनपव्रतीति । स्था० २ वा० ३३० । जंबूदीबग-जम्बूदीपक (ग) जम्बूदीपस्येदं जम्मूपकम था गतीति जम्पस स्था० ४ ० २ ० | जम्बूद्ध | पोत्पन्नमनुष्ये, पुं० । स्था० ६ ठा० । जंबूदीपति-जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति - ०। जम्बूद्वीपस्य प्रकर्षेनिःशेषकुतीर्थिकसार्थागम्य यथावस्थितस्वरूपनिरूपणलक्ष शेन शतिपनं यस्यां प्रत्यपद्धती, इप्तिर्ज्ञानं वा यस्याः सकाशात् जम्बूद्वीपतिः अथवा जम्बूद्वीपं प्राति प्रत्यन्ति स्वस्थित्येति जम्मूपाः जगतवर्षवर्षचराद्या कांतिया सकाशाद सा जम्मूः ०१ aho! स्वनाम्ना प्रसिद्धं पञ्चमोपाने, श्यं व ज्ञाताधर्मकथाक्षष्ठास्योपाङ्गम् । जं० १ वक्ष० पा० ।
66
प्रस्तुतीविश्वकर्मा श्रीधर्मस्वामी स्वास्मद् गुरुत्वानिमानं परिजिहीर्षुः प्रस्तुतप्रन्धना मोपदर्शनपूर्वक निगमनवाकयमाह
बसपणे जगवं महावीरे मिहिलाए डायरीए माहिभद्दे चेइए बहूणं समणां बहूणं समणीयं बहूणं सावयाणं
जंबूसाला
बहूणं साबियाणं बहूणं देवाणं बहूणं देवीणं मज्झगए एवमाक्ख, एवं जासड़, एवं पवेड़, एवं परूबेड़-' जंबूदीवपणती लाम' अज्जो ! अजयणे श्रहं व उंच पसि च कारणं च वागरणं च जुलो ओो उबर्दसे तिमि ॥
66 तप णं " इत्यादि । शाश्वतत्वात् शाश्वत नाम करवाच स पोऽयं जम्बूद्वीपो भवः सतं हि भावनात रागाः । ततः श्रमणो भगवान् महावीरो मिथिलायां नगर्यो। माणिभद्रे त्ये बहूनां भ्रमणानां बहुन भ्रमण आपका बहूनां भाविकाणां बहूनां देवानां बहूनां देवी मध्ये गतो, न पुनरेकान्ते एकतरस्य कस्यचित् पुरतः, एवं यथोक्तमुक्तानुसारेण इत्यर्थः, भाक्याति प्रथमतो वाक्यमात्र कथनेन एवं नाचते विशेषवचनकथनतः, एवं प्रज्ञापयति व्यरुपययवचनतः एवं रूपयत्युपपतितः यस्याि धानमाह-जम्मू दीपप्रकृतिरिति नाम पोपाङ्गमिति शेषः । जं० g वक्ष० । ( प्रमेयरत्नमज्जूषानाम्नी अस्य टीकेति 'पमेजरयणमंजूसा' शब्दे टीकाकरण प्रस्तावः ) जंबूदीवाहिवश-जम्बूदीपाधिपति पुं० माता देवे, डी० जंबूपपविभत्ति जम्पमनिक्ति० ि दिव्यनाट्यस्य विंशतितमविधौ, रा० ।
।
जंबूपेठ - जम्बूपीठ- - न० । यन्नाम्ना एवं जम्बूद्वीपं ख्यातं तस्याः सुदर्शनानाम्म्या जम्ब्वा अधिष्ठाने, जं० ४ वक्ष० । ( त कव्यता च 'जम्बू' शब्दे १३६७ पृष्ठेऽनुपदमेव प्रदर्शिता ) बूफल जम्बूफल जब रा० जंबूफसमधानी लुप्पल पुष्पपत्तनिकरमरगयश्रासासगनयकीयाऽसिवन्ने ।।
-
जम्बूफलानि प्रतीतानि असनकुसुमबन्धनम असगपुष्पवृन्तं, नीलोत्पलपुष्पपत्रनिकरो मरकतमणिः प्रतीतः । प्रालासको वीयकानिधानो वृक्को, नयनकीका नेत्रमभ्यतारा, असिः खङ्गं, तेषामिव वर्णो यस्य स तथा रा० औ० । " जंबूफलघुवा " जी०३ प्रति० ।
जंबूफल कालिया जम्बूफलकालिका-श्री जम्बूफलकृष् वाम जी०३ प्रति जम्बूफलसी० ३ प्रति० ।
जंबूलय - जम्बूलक - पुं० । लोकरूढयवसेये च नामके जसाधारे पात्रे, उपा० ७ ० !
जंबूसंग सम्बूखएक-पुं० स्वनाम प्रा. मा० म० द्वि० । tro चु० । यत्र विहारक्रमेणागत्य वीरजिनः गोशालच कीरसंमिश्रकूरं लब्धवान् । श्र० प्र० द्वि० ।
मामभ्यामिन पुं० [सुधर्मगणधरशिध्ये मा०म० द्वि० | स्थाoण ( तच्चरितं 'जंबू' शब्दे १३७१ पृष्ठे प्रदर्शितम् ) जंबूसाक्षा-जम्बूशाला त्री०। जम्बूखाया " परि बाप बंचिता सा गहाय हिंरुद्द, पुदिना पर लोग मा . जहा पत्थ जंबूदीव नत्थि मम परिवादी " आ० स० द्वि० ।
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(१३७०) संभग अनिधानराजेन्द्रः।
जक्खकद्दम जंभम -जामंक-पुं० । जृम्भन्ते विजृम्नन्ते स्वच्छन्दचारितया | वार्कादिष्वप्यतस्तेविति । भ०१४ श०० उ० । हृम्भाकारके, चष्टन्ते ये ते जम्भकाः । तिर्यग्लोकत्रासिव्यन्तरविशषदेवेषु, | रुरुगणभद, वाच०। भ० १४२०८१०। प्रा० म०। शा० । प्रा० क०।
जंभगामर-जम्नकामर-पुं० । जृम्भकनाम्ना ख्याते देव, "अएतेषां स्वरूपं वेवम
नूजविभोर्जीवः, प्राग्भवे जम्नकामरः"। आo 20।
जंभणा -देशी-यथेष्टवक्तरि, दे० ना० ३ वर्ग । अत्यि णं भंते ! जंजया देवा , जंभया देवा । हंता |
जभणी-जम्नणी-खी । तन्त्रप्रतिके विद्यानिशेषे, सत्र०२ अस्थि । से कणटेणं जते ! एवं वुच्चइ-जंभया देवा, | OR जंभया देवा । गायमा ! जनगा एं देवा णिच्च पमुश्य- | जना-जम्भा-स्त्री० भावे अः। श्रावस्यश्रमगर्भादिजनितजापक्कीलिया कंदप्परतिमेहुणसीला, जेणं ते देवे कुके पासे- ज्ये, वाच। ज्जा,से णं महतं अजसं पाउणे ज्जा, जेणं ते देवे तुढे पासे- जम्न-धा० । विजृम्भणे , " अवेर्जुम्नो अंभा" |४| ज्जा, से णं महतं जसं पाउणजा, से तेणटेणं गोयमा ! | १५७ । इति सूत्रेण " जंजा " आदेशे " स्वरावनतो वा" जंजगा देवा, जंभया देवा । कइविहाणं भंते ! जंजगा देवा
।८।४।१४० । इति सूत्रेण विकल्पादकारागमे च
जम्नते, 'जंनाइ-जन्नाइ' इति रूपे सिध्यतः । वि पराणत्ता । गोयमा ! दसविहा पमत्ता । तं जहा-अम
उपसर्गे तु " केसिपसरो विनंत्र" प्रा० ४ पाद । जंभगा पाणजगा वत्थजंभगा लेणजगा सयजंभगा भाग्य-जम्भित-न० । विवृतवदनस्य प्रबलपवननिर्गमे, पुप्फजंजगा फनजनगा पुप्फफलजनगा विजाजनगा - आव० ५ ०मा० ०।०। वियत्तजंजगा| जंभगाणं अंते ! देवा कहिं वसहि उति। जंजायत-जम्नमाण-त्रि० । विजृम्नमाणे, शरीरचेयाविशेषं वि. गोयमा! सव्वेसु चेव दीहवेयसु चित्तविचित्तजमगंपन्चए- दधाने, का० १ ० १ ० । मु कंचण पव्वएमु य, एत्था जनगा देवा वसहिं नवेंति । जंजायमाण-जुम्नमाण-त्रि० । 'जंजायंत' शब्दार्थ, का० १ जंभगाणं भंते ! देवाणं केवइयं कानं ठिई पएणता?।। श्रु० १७०। गोयमा ! एगपत्रिोत्रमं विई पएणत्ता।
जंजियगाम-जमिनकग्राम-पुं० । स्वनामके मगधदेशान्तर्गते (जंभग नि) जम्जन्ते विजृम्भन्ते स्वच्छन्दचारितया चेष्टन्ते |
ग्रामे, पाचां०३ चू० । अत्र हि देवेन्रूण भगवतो महावी
रस्यामुकेषु दिवसेषु गतेषु कानं समुत्पत्स्यते इति कथितं, ये ते जम्नकास्तिर्यग्लाकवासिनो व्यन्तरदेवाः (पमुख्यपकी-|
तग्रामस्य बहिस्ताच्च ऋजुपाझिकाया नद्यास्तीरे शालनिय ति) प्रमुदिताश्च त तोषवन्तः, प्रक्रीमिताश्च प्रकृष्टक्रीमाः
कस्याधो नगवतः केवलज्ञानमुत्पक्रम । श्रा. म०वि०मा० प्रमुदितप्रक्रोमिताः (कंदप्पर त्ति) अत्यर्थ केलिरतिकाः
चू । कल्प। (मेहुणसीन त्ति) निधुवनशीलाः (अजसं ति ) उपलकणत्वादस्यानर्थ प्राप्नुयात ( जसं ति ) उपल
जंभियग्गाम-जमिनकग्राम-पुं० । 'जंभियगाम ' शब्दार्थे, क्षणवादस्यार्थ वैक्रियलन्यादिकं प्राप्नुयारस्वामिवत् |
श्राचा०३चू। शापानुग्रहकरणसमर्थत्वात् तच्छालत्वाच्च तेषामिति ।। जंजो-देशी-तुषे, दे० ना० ३ वर्ग। "अरणजंजया" इत्यादि । अन्ने भोजनविषये तदभावसद्भावा-जक्ख-यक्ष-पुं० । 'यक पूजायाम, यद्दयते । यक-कर्मणि-घम् । रूपत्वबहुत्वसरसत्वनीरसत्वादिकरणतो जम्भन्ते विनम्जन्ते पाच । व्यन्तरविशेष, रा०। सू० प्र० । जी। श्री० । स० । येते तथा, एवं पानादिष्वपि वाच्यं, नवरम् (लेणं ति)लयन का० स०। अनु. । अष्टजेदव्यन्तराणां मध्य तृतीयभेदे यगृहम् ( पुष्फफलजंभग त्ति) उभयतम्भकाः, एतस्य च स्थाने काः। प्रव० १६४ द्वार। ते च त्रयोदशावधाः। तद्यथा-पूर्णनद्रा, • मंतजंग त्ति' वाचनान्तरे दृश्यते । ( अवियत्तजंलग- माणिभकाः,श्वेतनंद्राः,हरितभद्रा, सुमनोजकाः,व्यतिपातिकसि) अव्यक्तघा अन्नाद्यविभागेन जृम्भका ये ते तथा । कचि. भद्रा,सुनद्राः, सर्वतोजगाः,मनुष्ययक्षाः, वनाधिपतयो, वनाहातु-"अहिवजंभग ति" दृश्यते, तत्र चाधिपती राजादिनाय- रारूपयक्काः,यकोत्तमाः। प्रशा०१पद । जिनानां यक्काः सन्ति । कविषय ज़म्भका ये ते तथा (सम्बेसु चेव दीहवेयसुति) प्रव०१७ द्वार।(तन्नामानि तु 'जिनजक्व' शब्दनिधास्यामः) मर्वेषु प्रतिक्षेत्र तेषां भावात् सप्तत्यधिकशतसङ्ख्येषु दीर्घ-| वृक्षवासिमरे, उत्त०१६ अ०। देवे च । यथा यकेण देवेन विजयाःषु पर्वतविशेषु , दीर्घग्रहणं च वर्तुत्रविजयाई- प्राविटो यक्काविष्ट इति । स्था०५ ठा०१ उ०। स्वनामण्याते व्यवच्छदार्थम् । चित्तधिचित्तजमगपञ्चपसु त्ति) देवकुरुषु |
वणिजि प ! "पुव्वं किर सिरिकन्ननुजनगर जक्खो नाम नेगमो शीतोदानद्या उभयपार्श्वताश्चत्रकूटश्च पर्वतः, तथा उत्तरकुरु
हुत्था" ती० २६ कल्प । कौशाम्ब्यां धनयवाभिधाना धष्ठिषु शीताऽनिधाननद्या उन्नयतो यमकाभिधानौ पर्वतौ स्तः, ते. नौ । हा०२३ अष्ट। इति द्वा यतनामानौ वणिजी। स्वनामखु (फंचणपध्वपसु त्ति) उत्तरकुरुषु शीतानदीसंबन्धिनां ख्याते द्वीप, समु च । चं० प्र०२.पाहु। पञ्चानां नीलवदादिहदानां क्रमव्यवस्थितानां प्रत्येक पूर्वापर. जक्खकद्दम-यतकर्दम-पुं० । यक्वप्रियः कर्दम श्व इति द्वौ यकतटयोदेशदशकाञ्चनकाऽभिधाना गिरयः सन्ति, ते च शतं | नामानौ वणिजौ । स्वनामख्याते टोपे, समुद्रे च । चं० प्र० २०. भवस्येवं देवकुरुष्वपिशीतोदानद्याः संवन्धिनां निषधडदादी- पाह० । यके द्वीपे यवनज्यक्षमहानजी, यके समुझे यकृवरनां पञ्चानां दानामिति । तदेवं द्वे शते, एवं धातकीखण्डपू.| यकमहावरी । चं०प्र०२० पाहु ।
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( १३८१ ) निधान राजेन्द्रः ।
जक्खगुहा
जलगुड़ा-पक्षगुहा-श्री० [यहनिवासभूतायां गुहायाम "अधार्यरक्षिताचार्या, मथुरानगरी गताः । तत्र गुदा व व्यन्तरायतने स्थिताः ॥ १॥ " भा० क०
जवखग्गह- यक्षग्रह - पुं० [ यज्ञावेशे, जी० ३ प्रति० । उम्म रातादेती तो अं० २० जक्खणायग-नायक - पुं० । बैधमणे, अनु० । जक्खदित्त-यक्षदीप्त१--न० । एकस्यां दिशि अन्तराऽन्तरा - श्यमाने विद्युत्प्रकाशे, प्रब० २६ द्वार । जक्खादिवा-पहुचा श्री० स्लमद्रस्य सप्तानां भगि नीनां मध्ये द्वितीयायां भगिन्याम् आ० क० प्रा० चू० । भाष० । कल्प० । ति० । जवखपरिमापमनिया स्त्री० [प्रतिकृती "दो
रिमाओ " । जी० ३ प्रति० । जलचर-यक्षजद्र पुं० पक्षीपाधिपती देवे ०२० २० पाहु० | चं० प्र० ।
-
जक्त्वमेकमपविशतिपक्षमत्रमविभक्ति-श्री०द्विधाव्यस्य दशमभेदान्तर्गते न य० । लक्खमद्द पक्षमह० यज्ञार्थविहितमहोत्सवे प्राचा० २
रा०
भु० १ ० २ उ० । जक्खमद्राभद्द-यक्षमहानद्र- पुं० । यक्कद्वीपाधिपतौ देवे, सू०
प्र० २० पाहु० चं० प्र० । जक्खरची देशी-दीपासिकायाम, ५० ना० ३ वर्ग
अक्खबर पढ़नर-पुं० [यसका पिता देवे, सू०ब०१६ पाहु जक्खा पक्षा-श्री० स्युमभस्य सप्तानां प्रथिनांमध्ये प्रथमायां भगिन्याम् आ० क० ति० । प्रा० चू० । भाष० । ( तत्कथानकं तु लभ' शब्दे चरित्र अष्टव्यम्)
जवखाइह पावि० देवाधितेि स्पा०२०२ उ० । प्रोघ० । " जक्लाट्ठो पीयमो वा जातो कायविकिरिया दंसे । " आ० म० प्र० ।
अक्साइड भिक्खु गिसायमाणं नो कप्पर तस्स गणारच्छेदियस्स निज्जूहिए० जाव रोगातंकातो विप्यमुक्के, तभो पच्छा तस्स अहालस्सने नाम बहारे पडवियो सिया ॥
यक्षाविष्टं भिक्षं ग्लायन्तं यस्य सकाशमागतं तस्य गणाचच्छेदिनो न कल्पते निर्मूमिपाकर्तुं वै किं स्वग्लान्या तस्य करणीयं वैयावृत्यं तावत् यावत् स रोगातङ्काद्विप्रयुको भयति ततः पश्चात् तस्य प्रगुणीभूतस्य सतो धावको यथोचितस्वरूप व्यहाराः प्रायधि प्रस्थापयितव्यो दातव्यः स्यात् । व्य० अ० २४० ।
संप्रति यतो याविवो नवति तत्प्रतिपादनार्थमाहपुय्वभवियवेरे अहवा रागेण रागितो संतो ए िजक्रखचिडो, मेही सकिग बेसादी ||६८|| ३४६
जक्वाइड
पोर्वचन पूर्वभवभाविना देरेण अथवा रागेण रचितः सद्यराश्यते राज्य हावि प्रयति । तथा श्रेष्ठी द्वेष्यभार्यया मृतिकया, (सज्जित ति) लघुभ्राता ज्येष्ठार्या, द्वेष्यादिभिरित्यत्रादिशब्दात् प्रभृतिकाष्ठेषु भायया परिग्रहः ॥ ६० ॥
तत्र श्रेष्ठयाद्युदाहरणमाह
सेस्सि दोषि महिला, पिया य बेस्सा व वंतरी जाया । सामम्मि पमत्तं बलेसि तं पुनरेणं || ६ ||
" एगो सेड्डी, तरल दो महिला, एगा दिया, एगा बेहला थ तत्थ सा बेस्सा अकामनिज्जराय मरिरुणं वंतरी जाया, सेट्ठी बि तथारूवाणं थेराणं अंतिर धम्मं सोब्चा पव्वश्तो, सा जयवंतरी पुण्यभववेरेण विहाणि मगर, अनया पसंदगया तो " महिलेच
यो एका प्रिया, अपरा द्वेच्या । तत्रैका मृता व्यन्तरी जाता, सा आमराये स्थितं महिने पूर्व तिची गा थायामतीतकालेऽपि वर्तमानता प्राकृतत्वाद ॥६५॥ संप्रति घुम्रान्तमाह
गजाउगमहिला, अज्जोवा उ होइ खुइलए । परमाण मारियम्मी परिसेहे अंतरी जाया ॥७०॥ "गामे दो नायरो, तर मारिया
सापचेतुमा उयं धरमाणं न पाससि, तीप चिंतियं जावजीब ताब मे नस्थि सो देवरो तिम्रो नि किन बिसबारे मारितो विपन्नता, सतो नवियं अस् प्रयं कासी सो मयो स्थानि रेहि मे ममोर तेण वितियं रामेती मारितो नागो धिर कामजोगाणमिति संवेगतो पव्वतो, इयरी वि ह संता प्रकामनिजामरिक तरी जाया, मोहिणा पुरुषभावं पास, दिठो देवरो सामने वितो, ततो नाहमणेण इविनययेरेण सरतीय पम प्रखितो "अक्षरयोज माविष्ठमातुमसा केली प्रातरि प्रभ्युपपन्ना जातानुरागा, सा च तेन ज्येष्ठो भ्राता धरन्तं जीवन्तं न पश्यसीति प्रतिषिद्धा, मारिते प्रब्रज्यादिप्रतिपतितः प्रतिषिका यसरी जाता । अत्र पूर्व रागः पश्चाद् द्वेषः ॥ ७० ॥ इतिकाष्टान्तमाह
भतिया कुरुंचिएणं, परिसिद्धा वाणमंतरी जाया । सामम्मि पर, उखेति तं पुण्यवेरेण ॥ ७१ ॥
एगो कुटुंबितो उरालसरीरो एगाए भइगाए उरालसरीराप पत्थिता से लिया तो सागाडमा तेस पोलमा सारोगा अकामनिराम रिकणं वंतरी जाया, सो य कुटुंबिधो तहारुवाणं थेराणं अंतिर पओ, सो तीए अभोगितो अक्षया पमचं वडूण या तो ।” अक्करार्थस्त्वयम्-भृतिका कर्मकरी, कौटुम्बिक प्रतिषिका उपतरी जाता, ततस्तं कौटुम्बिकं भ्रामस्याश्रितं प्रमयं सन्तं पूर्ववैरेण (छलेति स ) कुलितवती ॥ ७१ ॥ संप्रत्येवं कलितस्य यतनामाह
तस्स उ नृपतिनिष्का, ज्यरवावेसेवा सयं वा वि नीयुत्तमं तु जावं, नाटं किरिया जहा पुव्विं ॥७२॥
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जबखाइड
तस्य रागेण द्वेषेण वा व्यन्तरादिना छलितस्य पुनः क्रि या कर्तव्येति योगः कथमित्याह तस्य भूतस्य नीयमुत्तमं तु भावं ज्ञात्वा कथं ज्ञात्वेत्यत श्राह यथाऽनिहितं पूर्वम्, किमुक्तं भवति ? - कायोत्सर्गेण देवतामा कम्प्य तद्वचनतः, का क्रिया कर्तव्येश्वत आता चिकित्सा नूतचिकित्सा ॥ ७२ ॥ व्य० २ ० ।
( १३८२ ) अनिधानराजेन्द्रः ।
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पथमेव निधी विषयीकृत्य सूत्रं यथाजक्खाइद्धिं निग्गंथि निग्गंथो गिएहमाणे नाइकम । यस विप्रतिपादनं परितनन्ध वदेव, केवलं स्त्रीलिङ्गाभिलापेन वाच्यम् । बृ० ६ उ० । जक्वादित्य यादी १० एकरदिशि अन्तराऽन्तरा माने प्रकाश य०७० आकाशे व्यन्तरकृतज्वलने, भ० ३ श० ६ उ० । नभसि दृश्यमानेऽग्निस हिते पिशाचे च, जी० ३ प्रति० । अनु० । जक्खालित्तं जक्खादितं श्रगासे जव 33 आ० ० ४ अ० । स्था० । जक्खालित्तय-पक्षादीप्तक । जक्वालित्तय पहादीस १० सादितय शब्दायें जी० ३ प्रति० ॥
"
"
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जक्खाबेस पक्षावेश-पुं० [देवाधिष्ठितम्यरूपे उन्मादे स्था० २ ठा० १ उ० । ० । (केवलिनो यक्कावेशो न भवतीति 'श्रष्ठउत्थिय' शब्दे प्रथमभागे ४५७ पृष्ठे गतम्) जक्खसिरी - यक्ष श्री - स्त्री० सोमभूतिब्राह्मणस्य स्वनाम्म्यां स्त्रियाम, झा० १ ० १५ भ० ।
"
जक्विंद - पक्ष- पुं० [ यक्षाणामिन्द्रे, स्था० ४० १४० । जिनके प्रब० । श्रीअरजिनस्य यकेन्द्रो यक्कः परमुखखिनेत्रः श्यामवर्णः शङ्खशिखिवाहनो द्वादशभुजो बीजपूरकयाचा मुरपाशकानपयुक्त दक्षिण को फलकलाकुसासूचयुक्तषामपाणिपश्च । प्रय०
२.६
द्वारा भ० ।
जक्खिणी-पक्षिणी श्री
पायोजिकायां व्यतयाम्
सा मया जखिणी जाया । " झा० म० द्वि० । अरिष्टनेमेः प्रथमप्रवर्तिन्याम् आ० म० प्र० स० प्रा० चू० । अन्त० । जक्खुत्तम - यक्षोत्तम - पुं० यक्षाणां त्रयोदशभेदेष्वति भेदे,
"
प्रज्ञा० १ पद ।
जग-जग - पुं० । जन्तुषु सूत्र० १ ० ७ श्र० ।
•
1
I
3
जगत्-न । गच्छति तस्तान् नारकादिभावानिति जगत् । भ० १२ श० ६ उ० । अष्ट० । पश्चास्तिकायरूपे चराचरे, नं० सोफे, संचा० लोकालोके नं० संसारे, सु० १ ० ६ भ० । चराचरभूतग्रामे, सूत्र० १ ० १५ अ० । सकल सरखे, नं० । दश० । प्राणिसमूहे, सूत्र० १ ० १० अ० संशिपञ्चेन्द्रि यसमूहे, नं० । पृथिव्यामू, सूत्र० १० २ ० १ ३० । " भुवणं जगं च लोश्रो । " को० । गम-क्किए- नि२- द्वित्वम्-तुकच । वायौ, जङ्गमे, त्रि० । बाच० । नगई जगतीश्री राम किए। "वर्तमाने महद्गच्छ तृवच्च " इति कात्यायनिवचनात् शतृतुल्यत्वात् ङीप् । भुवन, पृथिव्याममते भूमेश्चलत्वाद् गतिमत्वेनु तथात्वम् ।
1
जगई
99
श्रन्यमते जगदाधारत्वात् तस्यास्तथात्वमिति नेदः । द्वादशाक्षरपाद के छन्दोभेदे. वाच० । "भूयाणं जगई जहा । जगती पृथ्वी । उस० १ अ० । द्वीपसमुद्रसीमाकारिणि महानगरप्राकारको वज्रमय जम्बूद्वीपप्राकारे, जं० १ वक्क० | जी० ॥ तद्वक्तव्यता यथा
से एगाए व रामईए जगईए सन्चओ समता संपरिक्खिते सा नगई अह जोपासले पारस जोगाई विक्खणं, मज्भे अफ जोयणाई चिक्खंजेणं, उपि चत्तारि जोयणाई बिक्खं नेणं, मुले वित्थिया, मज्जे संक्वित्ता, उपि तया गोपुच्छ ठाणसंठिया सराई अच्छा सहा लएहा पडा पडा फीरवा निम्मला शिष्यंका किंकमच्छाया सप्पभा सहिसरीया सोया पासादीया दंसणिज्जा अजिरुवा परूिवा ॥
1
" से " इत्यादि । सोऽनन्तरोक्तायामविष्क्रम्भपरिक्षेपपरिमा णो जम्बूद्वीपः; णमिति वाक्यालङ्कारे, एकया जगत्या सुनगरप्राकारकल्पया, सर्वतः सर्वासु दिक्षु समन्ततः सामस्त्येन.. संपरितः सम्यग् वेष्टितः । “सा णं जगई" इत्यादि । सा च जगतं योजनाले योजन विष्कम्भेन, मध्ये अष्टौ उपरि चत्वारि, अत एव मूले विष्कमनमधित्य विस्तीर्थामध्ये संहिता, त्रिउपि तनुका, मूल विभागमात्र विस्तारभावात्तदेोपमया प्रकटयति- ( गोपुच्छ संगणसंठिया ) गोपुच्छस्येव संस्थानं गोपुच्छ संस्थानं, तेन संस्थिता. ऊर्डीकृतगोपुच्छाकारेति भावः॥ ( सव्ववइरामई) सर्वात्मना सामस्त्येन वज्रमयी वज्ररक्षामिका, अच्छा आकाशस्फटिकवदतिस्वच्छा ( सरादा ) श्लऋणपुलस्कन्धनिष्पन्ना श्लक्ष्णदल निष्पन्नपटवत्, (लएहा ) मसृणा घुटितपटवत (घा) घृष्टा श्व घृष्टा खरशाणया पाषाणप्रतिमावत्, तथा मृष्टा श्व मृष्टा सुकुमारशाणया पाषाणप्रतिमावत्, नारजाः स्वाभाविकरजो रहितत्वात्, निर्मला आगन्तु कमलाभावान्, निष्पङ्का कलङ्कविकला कदमरहिता वा निक्क इति निष्का निष्कवचानिरुपघा तेति भावार्थः । छाया दीप्तिर्यस्याः सा निष्कङ्कटकच्छाया सप्रभा स्वरूपतः प्रभावती समरीया बहिर्विनिर्गत किरणजाला,
अत
सद्योता बहिष्वस्थित वस्तुस्तमप्रकाशकर प्रसादायमनासहिता तत्काशियात् प्रासादयाम कारिणीति भावः । दर्शनीया दर्शनयोग्या, यां पश्यतश्चक्षुषी श्रमं नं गच्छत इति । ( अनिरूवा इति ) अनि सर्वेषां ष्णां मनःप्रसादानुकूलतया अत्रिमुखं रूपं यस्याः सा अभिरूपा, अत्यन्त कमनीया इति भावः। अत एव प्रतिरूपा प्रतिविशिष्टम साधारणं रूपं यस्याः सा प्रतिरूपा । अथवा प्रतिक्षणं नवं नवमिव रूपं यस्याः सा प्रतिरूपा जी० ३ प्रति० । अथान स्
कोऽपि वाचवितृणामधिकारार्थ जिज्ञापयि जगत्या इष्टस्थाने विस्तारानयनोपायः प्रदर्श्यते तत्र मूले मध्ये उपरि च विष्कम्न परिमाणं साक्षादेव सूत्रे लभ्यते, अपान्त राले उपरिष्टादधोगमनेऽयमुपायः जगतीशिखरादधो यावदुके भने सति तथा विस्तार रायादि उपरिभागान गाक्रम
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ज
ततो राशेरेकेन भागे ते मे योजनं गम्यूनाधि कं, तब योजनचतुष्कतं क्रियते जातानि पयोजनानि गम्यू ताधिकानि, एतावस्तत्र प्रदेशे विष्कम्भः, एवं सर्वत्र भाव्यम् । संप्रति मूलादूर्द्ध गमने विस्तारामयनोपायः मूलादूर्द्ध गमने यादूर्द्ध गतं, तस्यैकेन भागे हृते यलब्धं तस्मिन्मून विस्तरायस तत्र योजनादावतिकान्ते विस्तारा
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•
यथा मूलादुत्पद्य योजनमेकं किं ततो योजतस्य कयूनाधिकस्यैकेन भार्ग ते अभ्यं योजनं गव्यूत याधिकम् एतन्मूलसंबन्धिनो द्वादशयोजन प्रमाणविस्तारादयस्ता योजनाधिकानि एताव प्रमाणः सार्द्ध योजनातिक्रमे विस्तारः, एवं सर्वत्राऽपि भाव्यम् ! एवमृषभकूट जम्बूराम श्रीनगरकृष्टा नामस्थाने वि. स्तारानयनार्थमिदमेव करणं प्राव्यम् । जं० १ ० । अधास्यां गयाककटक वर्णनाया ह सायं जगई एगेणं महंतगपक्वकरणं सम्यो समता संपरिक्खित्ता, से णं गवक्खकडए अजो कुं उच्चणं पंचधणुसयाई विक्खंभेणं सव्वरयणामए अच्छे जान परुिवं ॥ साऽनन्तरोदितस्वरुपा जगती, ' ' इति प्राग्वत् । जगती फेन महता गयातकटकेन दृज्जाकसमूहेन सर्वतः सर्वा दिनु, समन्तात् सामस्त्येन, संपारिक्षिप्ता व्याप्तेत्यर्थः । ल गवाक कटक ऊद्धत्वेनार्क योजनं द्वे गव्यूते, विष्कम्भेन पञ्चधनुइशतानि सर्वात्मना रत्नमयः । तथा अच्छः अत्र यावत्करणाव प्राध्यापतिं विशेषम् इयं वाि संवादद्याच जगतीमिसिबहुमन्य नागगताऽषगन्ध्या रिं देवविद्याधरवृन्दरमणस्थानम् ।
अथ जगत्युपरिभागचर्णमाया
सीसे जग उपि बहुमसभाए एत्य महएगा परमवर वेश्या पचता । श्रभयणं उड़ उच लेणं पंचसयाई विक्खने जगईस मिया परिक्लेये सब्वरपचाम अच्छा जाब परिरूने ।।
( १३८३) अभिधानराजेन्द्रः ।
तस्या यथेोपाया जगत्या उपरितले यो बहुमध्य शत्रुक्षणो नागः, नागश्च प्रदेशमणोऽपि स्यासत्र व पद्मवर वेदिकाया प्रवस्यानासंभवः, अतो देशग्रहणेन महान् भाग इत्यर्थः स च चतुर्योजनात्मक जगत्युपरितनतलस्य मध्ये पक्षधनुःशतात्मक इति । सूत्रे एकारो मागधभाषालच्यानुरोधात् । मत्र तस्मिन् बहुमध्यदेशभागे, 'णं' इति प्राग्वत् । महती एका पद्मवदिका देवभोगभूमिः प्रकृता, मया शेषैश्ध. तीर्थकरेसाच्या योजनं पञ्चचतुरातानि विष्कम्भेन, जगत्थाः समा समामा जगतीलमा, खांब जगती
१,
समिका, परिक्षेपेण परिरमेण, कोऽर्थः जम्बूदीपस्य सर्वतो वलयाकारण व्यवस्थिताया जगत्या यावदुपरितमंत चतु योजनविस्तारात्मकं तरुमापदिशि देयोनयोजनाप ras प्रचार जगती परित्यक्तायनस्यापीति सर्वरक्षमथी सामरस्येन राजांचता, "भच्छा सरह ।" इत्यादि विशेषणकद स्वकं पाठतोऽर्थतश्च प्राग्वत् । जं० १ ष० । (पद्मवेदि कावकम्यता ं तु " पडमवरश्या" शब्दे पक्ष्यते )
"
महिकाप्रमाणं कि
,
जगती "जग" सम्दा ०१ प्राजकथितमस्ति या साया श्रागमने न्यूनाधिक्यं वा भवतीति प्र, उत्तरम-मक्षिका पक्षप्रमाणं यत्र जलमस्ति तत्र सर्वदा सदृशं भवति, परं बेला प्रयोगेण न्यूनाधिक्यज्ञानं नास्तीति । ५२ प्र० । सेन० ४ उल्ला० ।
जगईपव्ययग-जगतीपर्वतक पुं० सूर्यानविमानपरिसरभर्तिय
-
प्रदेशवर्तिषु पर्वतविशेषेषु रा०
जगह भासि (ए)
गत
जगगुरु-जगहुरु-पुं० जनता सचराचरयमस्य गुणैर्गुरुस्वात् जगतां वा जङ्गमान पथावस्तुतस्योपदेशनाचा मेय या गौरवात्वा गुरु पञ्चा४चिव त्रिभुवन नाथे जिने, पश्चा० ४ विव० । हा० । जगचंदरि-जगयन्यसूरि पुं० स्वनाम के तपागच्छायें कर्म० ६ कर्म० ।
" शिष्या मणिरत्नगुरो-स्ततो जगचन्द्रसूरयोऽभूषन् । भूतलविदिता नूतन- - वैराग्यावेगनाजस्ते ॥ २७ ॥ श्रीचैत्रगणास्नोयो, चिधूपमाद्देवनगाणमिश्रात् । उपसंपन्नाश्चरणं, विधिना संवेगवेगयुताः ॥ २८ ॥
तद्वृत्तान्तस्त्त्रयम्
बालातपोनिषन्तो यधुर्विधूमाः। शरकरतिरणि] ( १२८५) बर्षे, स्वातस्तत इति तपागच्छः । ॥ २ए ॥ " ग०४ अधि० ।
"क्रमात्माततपाचायें-स्ववियां मिथुनायका
समभूषन् कुले चाम्फे, श्री जगचन्द्रसुरयः ॥१॥" - कर्म० ५ कर्म० ध० ८० ।
जगबंदर- जगच्चन्यसूरि-पुं० जगह कर्म० ६ कर्म० ।
उ० ।
जगजीवजोण विद्यालय - जगज्जीवयोनिविज्ञायक - पुं० | जगढ़ "धर्माधर्माकाशमातिका जगत् सचराचरम" इति व चनात् जीवा इति जीवन्ति प्राणान् धारयन्तीति जीवा योमय इति (मं०) युद्ध मिश्रणे, युवन्ति तेजसा रीरयन्त सन्त बहारिकशरीरेण वैक्रियहारीरेण वास्त योनय जीवानामेवोत्थानसमे अनेकप्रकाराः समायोजय इति । जगडच जीवाश्च योनयश्च जगज्जीवंयोगय तासां विधिधमनेकप्रकारमुत्पाद्यात्मकता जानातीति विज्ञायको जगजीवनविद्यायकः केवलज्ञानमि मं जगजीवण-जगज्जीवन पुं० जगन्ति मानसिकत्वेन जीवयतीति जगजीवनः । जिनेश्वरे, स०३० सम० । दशा० ॥ जगजीव बिया जगज्जीवविज्ञापक०स० है विद्यालय -
।
जगजासि ( ) - जगदजाचिन् १० अगस्य जगद पुं० | ये यथा व्यवस्थिताः पदार्थः सामानाचितुं शीसमस्य जगना बी तथा ग्राह्मण मोडमिति ब्रूयात् तथा वणिजं किरामिति शुरुमानीरमिति पार्क बालमित्यादि तथा
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(१३८४) जगट्ठभासि (ण) अभिधानराजेन्डः।
जगणंदण काणं काणमिति, तथा सजं कुब्ज वडभमित्यादि, तथा कुष्ठिनं | इ जनार्थमुपविष्टः,तस्मिन्नवसरे कोऽपि योगी गृहद्वारे प्राप्तः। कायणमित्यादि, यो यस्य दोषस्तं तेन खरं परुषं वयात यः स पत्नी प्राह श्रेष्ठी-सद्योग्यां रसवती परिपूर्णपुरुषाहारप्रमाण जगदर्थनापी! अप्रियसत्यनाषिणि, सूत्र.१० १३ अ०।।
अस्य देहि, सा तथा करोति, योगी न लाति, तया स्वपतेः जयार्थनापिन्-पु०॥ जयार्थभाषी यथैवात्मनो जयो भवति त. प्रोक्तम् । पुनस्तनोक्तम्-रुप्यस्थालं वर्तुलिकासहितं देहीति,तथा थैवाविद्यमानमप्यर्थ भावते तच्चीलच, येन केनचित्प्रकारेणा
कृते तुष्टो योगने-भोः दातृशिरोमणे ! तव परीक्षायै श्रासदर्थभाषणेनाप्यात्मनो जयमिच्छतीत्यर्थः। असदर्थभाषणेना
गतोऽहं तुवं भिक्कार्थे भ्रमन्, यतो मम दातृपुरुषविलोकयतुः
पएमाला गताः परं न कोऽपि दृष्टः, त्वं वद्य रष्टः जगद्धपि प्रात्मनो जयमिति, सूत्र० १ ० १३ अ०।
रणक्षमः । साधुराह-ममेहरधनं क? । योगी माह-एष पाषाजगमिमो-देशी-विलाविते, दे० ना०३ वर्ग:
णः सद्रव्योऽस्ति इत्युक्त्वा स्थितो योगी । साधुरापि तत्पूजाजगमिजंत-जागर्यमाण-उत्थाप्यमाने, “धनाणं तु कसाया, यै यावद्वर्यऽकूलाद्यानयति तावत्स गतः. सर्वत्र विलोकितो. जगडिजंता वि परकसाएहिं । निच्छंति समुहित्या; सुनिवि.
ऽपि न लब्धः । साधुना चिन्तितमसौ योगी नहि, किंतु मम को पंगुलो चेव ॥१॥"द. ५०४५०।
पूर्वसंबन्धी कोऽपि देवः पुण्यकीर्तिदाता, विलोकितः पाषाणः,
एकत्र कारी दत्ता,रषदो दूरीकृताः, रष्टानि तत्र पश्चस्पर्शपाषाजगह-जग-पुं० । स्वनामके अन्नदानलब्धकीर्ती महर्धिके श्रे
णखएकानि, स्पर्शपाषाणयोगेन लोहं स्वर्णीनचेत । ततो गुरू. प्ठिनि, उपदेशतरङ्गिणी । यथा-पचालदेशमण्डने नदेसर
तं सत्यं मन्यमानो जगर्जगमुद्धरणाय मनोऽकरोत् । सर्वप्रामे श्रीमालीयकातिः सासोमाऽनिधो व्यवहारिमुख्या, त. देशेषु धान्यसंग्रहमकार्षीत । मुनिपतिते दिखीस्तम्भनपुरध. स्याङ्गजो जगहनामा श्राद्धः, एकदा पौषधागारे प्रतिक्रान्तं वि
वलकाणाहल्लापत्तनादिषु द्वादशोत्तरशतसत्रागारानमएमयत् । धाय मौनेन नमस्कारान् गुणयन्नस्ति, रात्रिप्रहरानन्तरं य. तेषु मोकानां सारभोजनं सघृतं दीयते यथेच्छम् । यतः "ननतिलिचन्द्रेण रोहिणीशकटं भिद्यमानंरा गुरुपार्श्व पृष्टम्
करवाली मणिमा, ते अगीला चारि । दानसान जगहूतणी, भगवन! एवंविधो भवनस्ति । गुरुभिरपि विलोक्योक्तम्-अत्र दीसा पुढविमझारि ॥२१॥"पुष्टनृपप्रवणभीत्या रोम्या पते कोऽप्यस्ति न ? साधुभिरुक्तम्-न कोऽपि । ततो गुरुभिरुक्तम्
प्रति सकल कोष्ठेषु नाम दत्तम् । "श्रध्य मूमसहस्सा, वासलसंवत् १३१५ मिने रौरवं पुर्मिकं भविष्यति । साधुनिः पृष्ट- देवस्स बार हम्मीरे । इगवीस य सुरताणे, म्भिक्खे जगमु. म-जगवन ! कोऽपि जगद्धाऽस्ति, न वेति । गुरुणोक्लम- साहुणा दिना" ||२२ ॥ एवंविधांजगमूकीर्ति श्रुत्वा स्पर्धया अस्माकं मन्त्राधिष्ठायकदेवेन.पूर्वमेवादिष्टमस्ति-अनेन प्रकारे- वीसलदेवराजेन बीसलनगरे सत्रागारो मएिकतः। संपत्यनाण जगपूर्जगदुद्धर्ता भविष्यति । तैरुक्तम्-भस्यहन्धनं का- वासलं परिवेषयति, कियहिनैस्तैलमपि निवारितम, एकदा स्ति?। गुरुः प्राह-"अस्य गृहवाटकेऽर्कस्याधः कोटित्रयप्रमाणं, राका कार्यविशेषेण जगरूसाधुराकारितः, स नृपं नत्वोपविधनमस्ति"श्त्यादि गुरुवचः श्रुत्वा जगमूश्चिन्तयति-अहो एः, राजाऽऽदेशे ' जी जी ' इति भणति । तदा चारमम महद्भाग्य, यद् गुरुमुखादेवं भूयते । ततो रात्री मौनेन स्थित णेनोक्तम्-"वीसलदेव रुक कर, जग कहावर जी । तपतः शालायां, ततः प्रभाते विलोकितं तदुष्टकथितं रात्री रिसा फालिसिच, ए परीसाव घी"॥ १३ ॥ तदनु मत्सरं तद्वचनं, तेन धान्यग्रहणचिकीर्षुरनूत् । इतश्च साधुजगरक
मुक्त्वा जगहपा निजप्रणामकरणं निषिद्धम, प्रभाते तत्रो. स्य बणिकपुत्राः वखारिस्थाः मलवारे सन्ति, तत्र बहूनां व्य- पविश्य दानमएमपिकायां द्रव्यदानं ददाति जगाः, तत्र यववहरिणां वखारिरस्ति । तत्र जगवखारिरपरव्यवहारिवस्त्रा- निकां बन्धयति, यतः लज्जया कुलीनाः प्रकटं नगृह्णन्ति, तेषां रिफ्यान्तराले पका पाषाणशिलाऽस्ति । तत्र प्योर्वस्वारिध. दानार्थ, सलज्जया च यवनिकान्तारिताः स्वकरं जगमूश्रष्ठयो निकयोः प्रातर्दन्तधावनकरणस्थानम् । एकदा समकालमेव तौ विस्तारयन्ति, तदनु यथाभाग्यानुसारेण हाटकटङ्करूप्यदन्तधावनायागती, एक पव तत्रोपवेष्टुं शक्नोति, न द्वावपि । टस्पर्ककहम्मशतादिददाति । अत्रावसरे बीसलदेवभपः तेनैकः कथयति-अत्राहं प्रथममुपविश्य दन्तधावनं करिष्ये। द्वि. स्वनाम्यपरीक्वार्थ वस्त्रादिवेषं परावर्त्य एकाकी निजकरं यवतीयस्तु वक्ति-अहं प्रथमं करिष्ये इत्यादि विवादे जायमाने निकाम्तस्थ उड्यामास। जगमूर्नानाप्रकारलकणताम्रताकरिमहाकृतितोऽत्यन्तं हगे जातः, राजवर्गीयनरैः पर्यवसायि- नताधनभाग्यसंपद्यशःसौख्यविद्यादिबहुरेखाङ्कितं तं कर रहा तावपि न मन्यते । ततस्तैरुक्तम्-यो राज्ञः षट्शतस्पर्द्ध
जगजनमान्यस्य कस्यापि नरेन्द्रस्य संप्रतीहशीमबस्थां प्रा. कानि दास्यति सोऽत्र दन्तधावनं करिष्यति । एवं बहुधनं
तस्य तथा करोमि यथा यावज्जीवं सुखी स्यात् इति वि. पम्तिं, मम श्रेष्ठी लज्जते यदि पश्चाद्वामि । यतः-" कत्राः
चित्य स्वकरालोतो मणिमपिमतमुडिका उत्तार्य प्रदत्ता । शर्बुधाः शास्त्रै-रिज्याः स्वैः पामराः करैः । गासीभिरङ्गनाः
सकौतुकेन भूपेन कणं स्थित्वा वामः कर उडितः । तत्रापि शकैः पशवः कसिकारिणः ॥२०॥" एवं युद्धे यावदकोऽपि
द्वितीया मुडिका मुक्ता। मुबाद्वयं गृहीत्वा नृपः स्वावासे न निवर्तते तावत् होडकोमस्य विलोक्यते । अतो मम
। अता मम | गतः। द्वितीयदिने जगइसाधुमाकार्य किमेतदिति दर्शितवान् श्रेष्ठी नामितो मा तूत ततो जगमूवणिकपुत्रेण पञ्चविंशति
मुकायम । साधुनोक्तम्-" जत्थ गश्रो तत्थ गो, सामशतस्पर्ककैः गृहीतः स पाषाणः "चारचलावई पानबोलावई |
ससीहो न जजए अहलं । जत्थ गो तत्थ गओ, पत्थ रो हाथदलाव धनादुफावह" इति लोकोक्तिः सत्या, तेन श्रेष्ठिना
पाणियं वह" ॥२॥ हठात् मुडाद्वयं परिधाप्य हस्तिस्कन्धः ज्ञापितो वृत्तान्तः । जगमूः प्राह-वयं कृतं यम्मम महत्वं
मारोप्य गृढे प्रेषित इति जगडूसाधुप्रबन्धः । उपदेशतरङ्गिणी। प्रदेशे रक्तिम् । ततः स पाषाणः स्वस्थाने नायितः। जग
तत्रापावश्य दन्तधावनं करोति । एकदा मध्याव जगजगणंदण-जगन्नन्दन-पुं० । जिनेश्वरे , स्वनामकचारणमुनौ
,
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( १३८५ ) अभिधानराजेन्द्रः |
जगदण
च । तथाहि "सपना कक्षा अनिणंदणजगणंदणचारणसमीने जग्ग- जागृ-धा० । निषाकये, सुश्रधम्मसंमतं परिवन्ना " । सङ्घा० ।
जगणाइ - जगन्नाथ पुं० । जगतः सकलचराचररूपस्य यथावस्थित स्वरूपरूपकारण विसापयेन्यः पालनाच नाथ श्व नाथो जगन्नाथः । जिनेश्वरे, नं० जगनिस्सिय- जग निश्रित नि० जगलोकस्तत्र निति - श्रितः । लोकस्थिते वस्तुनि " अगणिस्सिपाई पाई "
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उत०८० ।
।
जगनुचरिष- जगदुदुधरित २० जयतां प्राणिनां धरितं दिसादिनिबन्धनं कर्म प्राणिनां दुराचारे, हा० २१ अष्ट० । जगपागढ-जगत्मकट-शि० जन प्रत्यप्रमाणसि तया प्रकटे, प्रश्न० १ भाभ० द्वार ।
जगपियामह - जगत्पितामह - पुं० | जगतां सकलसंस्थानां नारका दिकुमतिथिनिपातभयापारात् पितंय पिता सम्यग्दर्शनमोगुणाइतिरूप धर्मस्यापि पार्थ रास्तत्प्रणीतत्वात् । नं०। जिनेश्वरे, ब्रह्मणि च । "ब्रह्मा जगत्पितामहः " सूत्र० १ ० १ ०३३० ।
"
जगबंधु - जगद्बन्धु- - पुं० जगतः सकलप्राणिसमुदायरूपस्याज्यापादनोपदेशण सुखस्थापकायात् बन्धुबन्धु जिनेश्वरे नं०।
।
जगय-धकृत् न० । यं संयमं करोति --तुक कुछ दक्षिणस्थे मांसपि तवर्धके रोग अब शसादौ नत्वे च यकनादेशः । वाच० । आसस्स णं धावमाणस्स हिययस्स य जगपस्स व अंतराले ।" भ० १०
श० ३ उ० ।
जगलं- देशी - पहिलायास सुरायाम् दे० ना० बर्ग जगसम्पदंसि [] - जगत्सर्वदर्शिन् पुं०
शिनि ज्ञातपुत्रे महावीरे, सूत्र० १० २ ० २४० । जगसहाब - जगत्स्वजाव-पुं० । जगतः चराचरस्य स्वो भावः । "जन्म मरणं च नियतं बन्धुर्दुःखाय धनमनिर्वृतये । तथास्ति यस विपदे तथापि लोको निरालीका ॥१॥" इत्यादि लड़ने विश्वस्वभावे, भाव०४ प्र० ।
जगहित - जगकित - त्रि० । पुरुषार्थोपयोगितया विश्वहितावहें,
स० ३२ सम० ।
जगहिय-जगत त्रिजगदित 'शब्द०३२ सम० जगाणंद - जगदानन्द - पुं० | जगतां संशिपञ्चेन्द्रियाणाममृतस्यन्दिमूर्तिदर्शनमात्र नाभ्युदयसामोपदेशद्वारेण चानन्ददेतुत्वात् ऐहिकामुष्मिकप्रमोद कारणत्वात् जगदानन्दः । जिनेश्वरे, नं० । जगार-ज (प) कारणे
"जगा
ठाणं तगारेणं निदेसो कीरति । " नि० चू० १७० । जगारी जगारी स्त्री० (राजग) इतिनानाप्रस
म्ये, "असणं भोषण - ससुग-मुग-जगारीइ सः समयः श्रादिशब्दादरीकरम्यादिग्रहः पञ्चा०५ विव० ।
३४७
जच्चकाग
" जाप्रेजग्गः " ॥ ६ | ४|५० ॥
'जग्गह' पक्के 'जागर' जागर्ति । प्रा० ४ पाद । जग्गण - जागरण - न० ! अनिषागमने प्रश्न० १ अभ० द्वार । जगढ़ बढ्ग्रह पुं०] यत् प्राप्यते तद्यतामित्याकारिकायां राजाज्ञायाम्, "रखा जग्गहो घोसितो " प्रा० म० प्र० । "यहूदी घोषितस्तत्र शतानीकमानीकमध स्पां स्वच्छया मुमुपुस्ततः " ॥ श्र० क० ।
इट् 'जगारी '
.
इन । ।
जग्गाद-यद्ग्राह-पुं० । 'जग्गह' शब्दार्थे श्रा० क० । पण जपनहन्ति मो० वाच स्त्रिया प्रतनकट्यधोजागे, कल्प० २ कृण । " सुंदरथणजघन" । औ० ! भगवबणकरचरणनयणलाबपणविलास कलिया रूपे स्त्रीकटेरप्रभागे च । तं ।
1
39 66
जच्च जात्य-त्रि० जाती प्रवः यत् । कुतीने, श्रेष्ठे, काम्ले, किं वा जान्याः स्वामिनो हेपयन्ति । जा। " सर्व या शूरः शोचता वर्णेषु तुख्यासु पक्षीयकृतयोनिषु धनसंभूता जात्या जातास्तयैव ते ॥ १॥" बाच० । स्वाभाविके, तं० । प्रo | प्रश्न० | सजातीये श्रविजातिमति जी० ३ प्रति० । नामपि जात्यरनं समानमजात्यरक्षेन । ल० " जह जच्चाबादलाणं, अस्साणं जणचपसु जायाणं । " झा० क० । जच्चजण - जात्याञ्जनन० । मर्दितेऽजने, कल्प० २ क्षण । प्रधाने, सौवीरके च । ज्ञा० १ ० १ ० ।
6
मरजयपयरिज्जुप समसंढियत अमान
लमसुकुमाल मरमजिरोमराई । जात्यानं मर्दितं तैलादिना
सम राणां प्रसिकानां जलदानां च मेधानां यः प्रकरः समूहस्तत्सदृशी तत्समानवर्णतया जात्या अनभ्रमरजलदप्रकरी इव (उज्जुन ति)
जुका प्रध्वरा, अत एव ( समति ) समा अविषमा संहि ता निरन्तरा (तपुत्र चि) तनुका सूक्ष्मा ( आइज सि ) प्रदेया सुभगा (लह त्ति ) लटभा बिलासमनोहरा (सुकुमास सुरुमा लेभ्यः शिरीषपुष्पादि वस्तुयापि
दुका, तत एत्र ( रमणिज्ज ति ) रमणीया ( रोमराइ वि ) रोमराजिर्यस्याः सा तथा ताम् । कल्प० २ क्षण ।
जच्चजण चिंगभेयरिद्वगभमराव लिग क्लगुलियकज्जलस मप्यभे ॥
जायं प्रधानं यदनं सीबीरकं
मेदः भृङ्गानिधानकीविशेषः विदलिताङ्गारो वा, रिष्टकं रत्नविशेषः । भ्रमरावती प्रतीता लगुटिका महिषटिका ज मप्रभेषु कृष्णेष्वित्यर्थः । का० १ ० १ अ० । जयंदा देश० ना० ३ वर्म जयज्जत जात्यका अन० । जाय
काइनचत् समागम
पद्मरूपे
अन्यकागजात्यकनक-२०,"ब
जायरूबे । " कल्प० ६ कुरा । प्रश्न० ।
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(१३८६) जच्चकमलकोमल .
अभिधानराजेन्द्रः। जच्चकमसकोमल-जात्यकमलकोमल-त्रि०। उत्तमजातिसं- तत्कार्यसकः । अजमश्चेतन इति भेदः । " नापृष्टः कस्यचिद् . भवकमलवत् कोमले, कल्प० २ कण।
बूयात,न चान्यायेन पृच्छतः । जानन्नपि हि मेधावी, जमवलोक जच्चमिय-जात्यान्वित-त्रि० । विशिष्टजातिसंभूते, १०३
आचरेत" ॥१॥ वाच। मपगतकर्तव्याकर्तव्यविवेके, प्राचा०१ उ०। सुकुलोत्पन्ने, सूत्र० १ ० १००।
शु०२७०२ उ०। स्थाबादस्वरूपोपसम्नरहिते,अप० ७ अष्टः ।
तत्त्वावबोधविधुरबुखौ,स्या। "जमा खसुनी जडं पज्जुवासं. जरचभिय-जात्यान्वित-त्रिका विशिष्टजातिसंभूते, ०३.०।। ति" । जम्मूढापरिकतनिर्विज्ञानशम्दा एकार्थकाः। रा०। जच्चमाण-जात्यमणि-पुं० । परागाविप्रधानमणी, पं० प. जमाभार-जटाजार-पुoा जटासमूहे, "जडाभारेण सम्बं सरीरं धार।
पाणिपण उम्मेत्ता सामिस्स बार गउं धुण" मा०म० वि०। जाचसुवम-जात्यसुवर्ण-पारमार्थिक सुबर्णे, दश.१००। जमाल-जटाल-पुं० । जटा प्रस्त्यर्थे सिमा सन् । पटवके, जबसुक्म-जात्यसुवर्ण- 'जच्चसुबम' शब्दार्थे, दश०१०।
कच्चुरे, मुष्कके, गुग्गले च । जटायुक्त, त्रि०ा चोरिणः शिखि
नचाम्य, जटामा शिरोरुहाः।"जटामास्याम, स्त्री०ावाचा अच्चिर-यच्चिर-न । यायकाले, व्य०७ उ०।। स्वनामख्याते प्रहविशेष, कल्प० ६ कण । चं०प्र०।। अच्चो-देशी-पुरुष, दे०मा०३ वर्ग।
जटावत-त्रि० । जटा अस्त्यर्थे मतुप, मस्य वः। वाचाप्राकृते अच्छ-यम्-धा० । परमे, “गमिष्यमाऽसां "। ।४।।
च" प्राल्विल्लोल्लासवन्तमन्तेत्तेरमणामतोः" ॥१५६॥ २१५ । इत्यन्तस्य छः । 'जचा' यच्छति । प्रा०४ पाद। इति सूत्रेण पालादेशः। जमालो' जटावान् । प्रा०५पाद्र । बत-पच्चत-त्रि० ददति, अष्ट० ३ अष्ट।
जटायुक्ते, वाच०। अच्छंदओ-देशी-स्वच्छन्दे, दे० ना०३ वर्ग।
जाम [ण -जटिन्-पुं०। जटा अस्त्यस्य इति । सके, अश्वत्थअजुबेय-यजुर्वेद-पुं० । द्वितीयवेदे,भ० २०१०। औ०। तुल्यपत्रयुक्तं वृक्तनेदे, वाचः। त्रि०। जटाधरे, ज० ए श०१३ यजुर्वेदशहिते निर्णये, व्यापारे च। स्था० ३ वा०३०।
उ००। ०। सज-जय-
विजेतं शक्याजियनारयजशथा.जमियाइलग-जटान-पुं० । प्रधाशीतिग्रहाणां त्रिपक्षाशत्तम "।६।१२।(पाणि) जेतुं शक्ये, वाचः।"घग्यो
स्वनामख्याते प्रहे, चं० प्र०२० पाहु“दो जमियाइलगा" जा"।।२।२४ । इति ग्यस्य जः। प्रा० २ पाद।
स्था०२ ठा० ३ उ०। मजरिय-अर्जरित-त्रि०। जर्जरं करोति,जर्ज-णिच् कर्मणि क्तः।
जमिश्रालय-जटाल-पुं० । 'अमियाइलग' शब्दार्थे, चं० प्र०
२० पाहु। .जीणींकते, शकलीकते, 'जराजर्जरितं पतिम्' वाच। "कुंतग्ग
जमिनं-देशी-खचिते, दे० ना० ३ वर्ग। निमजज्जरियसम्बदेहा" प्रभ० १ प्राधबार । राजीयुक्त, स्था०४ ग०४०।
जडिल-जटिल-पं० । जटा प्रस्त्यर्थे पिच्छा-इलन् । सिंहे. मज्जरियस-जर्जरित (झर्जरित)-शब्द-पुं०।तम्त्रीकरटिका
| जटायुक्ते,त्रिका "विवेश कचिजटिलस्तपोवनम् ।" वाच।
"उकरफुडकुडिलजामलकक्खडविकाफडाडोबकरणदच्छा" दिवायशब्दबदू झर्कर (जर्जर) ध्वनियुक्त शब्दे, स्था०१० मा
वृत्ति:-जटिलः स्कन्धदेशे केसरिणामिवाहीनां केसरसद्भाअह-जत-पुं० ।वाहीकदेशे,सोभिजनोऽस्य अन् । बहुषु जनप- पात् । न०१५ श०१3०1 का0। उत्त०। जटाधारियमवासि'दे लुप् । तदेशवासिषु,००ावाचor "स्याधूर्तादौ"|| पास्वरिमनि, प्रव०४ द्वार । बलितोद्वलिते च । “एगं महं ..॥३०॥ इति सूत्रेण तस्य । प्रा०२पाद।
कोसं वगंडियं सुकं जडिसं गठि"न०१६ २०३०। जह-सष्ट-१० । कतयजने, "महो अभिपण जटुं" मा० म०प्र० जमिलय-जटिलक-पुं० ।राही, सू०प्र०२० पाहु० । ०प्र०। यो । उत्त० २५०
जह-जह-पुं०। भाषया शरीरेण क्रियया वर जडे, स्थूले, दीक्षानजद्वि-पष्टि-सी०। य-क्तिन् नि म संप्रसारणम् । वजा है, प्रथ०१०७ द्वार।। विवपमे, जावलम्बने दमे च। तिम् । तम्ती, हार- तिविहो य होइ अहो, भासें सरीरे य करणे जडो य । लतायां, भाग्यो, मधूकायाम, बाबा" जटिमुफ्रिकोप्परप्पहा.
जासाजहो चउहा, जन्म एलग मम्मण दुमेहो ।' रिहणामिति" नि० १०.१००।
· जल जमवुडो भासह, जसमूत्रओ एव जासति भवत् । जग-जम-त्रि०) जलति घनीभवति । जस मञ्च, रस्य ला" पाऽनि पान पति किजियो मोहाता परमशगास भवेदिक,
जह एनगो ब्व एवं, एमगमूगो क्लबलेति ॥ नाम्ना जमसंहकः पुरुषः" ॥ सक्तलकणे मन्दबुद्धी,मा,वेदप्र- मम्मणो बोव्बको,खोइ वाया हुअवि सदा जस्स। हणासमथै, "अनंशी क्लीवपतिती, जास्यन्धषधिरी तथा । सन्म- दुम्मेहस्सण किंची, घोसंतस्सावि गय हा ॥ सजम्मूकाच,ये च केचिनिरिन्द्रियाः॥"बेदप्रणासमों जर
दसणणाणचरित्ते, तवं य समितीसु करणजोगे य । प्रतिदायभागः। हिमप्रस्ते, हिमेन मन्दाक्रिये, मुके, अल्पके, जले, न० । सीसके, न० । चेतनानिने प्रज्ञानादिसमूहे,
उचाई पि न गेएहर, जलमगो एलमगो य ।। घेदान्तमते हि पदार्थों द्विधा-जमोऽजमश्च । तत्र जडोकान- नाणा दहा दिवखा, भामाजद्दो अपच्चलो तस्स।
११.०
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(१३८७) भभिधानराजेन्दः।
जगद्वामा
सोयबहिरो य नियमा, गहणे नड्डाहाँ अहिगरणं ॥ जाड्य-न० । जइस्य भावः प्यञ् । जडतायाम्, सौख्ये च। तिविहो सरीरजड्डो, पत्थे भिक्खे तहेव वंदणए । "आलस्यश्रमगाये-जाड्यं जम्भासितादिकृत" । "वं एतेहि कारणेडिं, सरीरजई न दिक्खेज्जा ।।
जाड्यमिदं मौढच-मिदमत्यद्भुतं वचः। " बाच० । अइणे वा पत्रिमंथो, जिक्खायरियाएँ अपरिहत्यो य ।। जढ-त्यक्त-त्रि० । " तेनाप्फुरणादयः" । 0 । ४ । २५७ । इति नकृस्सासपरिक्कम-अहिअग्गीउदगमादीसु ।।
सूत्रण 'जढ' प्रादेशः । परित्यक्ते, दश०६०।पं० व०॥ आगादगिलाणस्स य, असमाही वा वि होज मरणं वा ।
आचा०नि०० । संथा। जड्डे पासे वि लिए , अबे य जवे इमे दोसा ॥ जण-जन-पुं०। जायते इति जनः! प्रा० म०प्र० 10। आचा। देसेण कक्खमादी, कुचणचवणुप्पझावणे दोसा ।।
विशे०। सूत्र० । जन-प्रच। वाचकालोके, उत्त०५ अगसूत्र।
आव० । आचा० । स०। नगरीदास्तव्यलोके, “पमुपजणपऽत्थि गलमो य चोरो, शिंदियमुंको य जणवादो ।।
जाणवया।" रा० भ०। मौ० । नि।का।प्राकृतपुरुषे, सूत्र णेगे सरीरजड्डो, एमादीया हवंति दोसा तु ।
१ श्रु० १ ०२०। प्रा० म० । स० । प्राणिनिवहे, तम्हा तं न वि दिक्खे, गच्छे मढवे अणुनाश्रो ॥ । पं०व०४ द्वार । प्राचा०। मातापितृपुत्रकलत्रादौ, कौटुम्बिक शरियासभिए भासे-सणामु आदाणसमिश्गुत्तीसु । । । जने च । प्राचा० १६०६ अ०४ उ०। ण विगति चरणकरणे, कम्मुदएणं करण जडो॥ जणश्मा -जनयित-पुं० । जन-णिच्-तृच् । पितरि, प्राचा०१७० जलमूग एलमूगो, अतिथूलसरीरकरणजड्डो य । ६म०४० उत्पादके, त्रि०मातरि, स्त्री-जीबाच०। दिक्खेतस्सेते खलु, चतुगुरु सेसेसु मासलहु ॥
" जणश्ता णाममंगे।" जनविता-मेघो यो वृष्ट्या धान्यमुद्रमयभासाजहं मम्मण, सरीरजई च णातिथूरं च ।
ति । स्था०1०९ उ०। जावन्जिय परियट्टे, करणे जई तु छम्मासे ॥
जणश्ता-पुं०। 'जणइना' शम्दाथे, स्था० म० उ० । मोत्तुं गिलाणकजं, उम्मेहं वा वि पाढे छम्मासो। जणक्खय-जनवय-पुं० । लोकमरणेषु, प्र० ३ श० ६.०। तो हेतुं दुम्मेहं, जो वि य करणम्मि सो जडो॥ जणक्खयकर-जनक्कयकर-त्रि० । लोकविघातकारके, “बहुकएहुवरि तो दोएह वि, आयरियो भने गाहे छम्मासा।
जणक्खयकरा संगामा।" प्रश्न ४ भाभ० द्वार । पच्छा अन्नो ततिओ, सो वि यम्मासपरिभद्दे ।।
जणकलकल-जनकलकल-पुं० । अनानामुपलज्यमानवर्णवि.
भागे श्वनौ, रा० । जो चिय तं, गाहेती, सिस्सो तस्सेव सो हवति ताहे। तह विन गिएहइ जदिह, कुलगणसंघे विगिचणता ॥
जणग-जनक-पुं० । जन-णिच-पवुड वाचपितरि, प्रव०१ पं० भाग
द्वार । सूत्र।का।सत्पादके, त्रिकाबाच०। मातापित्रादी,
"माता पित्रा कंदकारी जणगा रुदंति" भाचा०१६०८ म०८ जइनिधा-भाषया, शरीरेण, करणेन च । भाषाजहः पुन
बामातापित्रो, माचा०२०४०१3० जना लोकास्त सिधा-जसमूको, मन्मनम्का, एकमूकश्च । तत्र जसमम्न
एवं जनकाः। जने, “जणगा तं सुणेह मे।"मूत्र०१९०० श्व बुम्बुमायमानो यो पक्ति स जलमृकः । यस्य तु बदतः
सीतायाः पितरि, विदेहनृपभदे, वाच० । चरमजिनसमय.' सव्यमानमिव वचनं स्खलति स मन्मनमकः । यौलक
पर्तिनि तत्पूजके मिथिलानृपे च । “मिहिनाजण मो य चाव्यक्तं मूकतया शब्दमात्रमेव करोति स एसकमूक तथा
धरणो य ।" मिथिलायां जनको राजा धरणश्च नागकुमारेन्द्र यः पथि भिक्षाऽटने वन्दनादिषु चातीव स्थूलतयाऽशक्तो प्रब.
भगवतः पूजां कृतवान् । मा० म०प्र०। ति स शरीरजः। करणं क्रिया, तस्यां जङ्गः करणजङ्गः समितिगुप्तिप्रत्यवकणादिक्रियां पुनः पुनरुपदिश्यमानामप्यतीष
जाजता-जनयात्रा-स्त्री० । अत्यन्तलोकताप्तिसंभाषणे, "जजतया यो ग्रहीतुं न शक्नोति सः, करणजह प्रत्यर्थः । तत्र
पजसारहियाणं, हो जाजर्षण सया।" दर्श०४ तत्व। प्रापाजकृत्रिविधोऽपि ज्ञानग्रहणेऽसमर्थत्वास दीक्ष्यः। शरीर
जणाण-जनस्थान-नादपसकारण्ये, वाचनासिक्व जइस्तु मागगमनभक्तपानानयनादिवशक्तो भवति, तथाs- परेची )"आया देवजाणी नाम सुकरस महम्गहस्स तिजस्य प्रस्वेदेन ककादिषु कुथितत्वं भवति, तेषां जले- धूमा जणाणपुरेकीसंती दंम्यरापण विद्या, रुपवा ति प. मकाममेषु क्रियमाणेषु कीटिकादिप्लावना संभवति, ततः लामोमिया, भगं च तीसे सीलब्वयं, तस्स सरूपं उबलम्भ संयमबिराधना, तथा लोकोऽतिनिन्दा करोति बहुभक्षीति,
सुकमहागहेणं रोसबसेणं सावो दिशा-पयं मयर तथा श्वासो भवति ततोऽसौ न दीकणीयः ।.ध.३ म
दंपरायसाहियं सत्तदिवसम्भंतरे गररासी भविस्सा सि, धि० । प्रव०। पं००। नि० चू० । व्यः । प्राव० । ग०।
तं च नायं नारयरिसिणा, म्यरायरस कहिवं, तंच सो. हस्तिनि, पुं०।०१ उ० । नि० ० । जीत। व्यन्नाव
ऊण भीषो म्यराया सयलं जणं सह पागाउं यदप्पडसामूख, त्रि०ात । "जहाणं बडाणं, निग्विनाणंचनियम- मिणं सरणं पवनो बुडोभ, तप्पभिर जण ठाण नितस्स नर, साणं । संसारसूयराणं, कहियं पि निरस्थयं होश"॥१॥ तं०।। यस्स पसिनामधिज्ज, एवं परातत्थिया
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(१३ ) जमाहाण अभिधानराजेन्द्रः।
जगाउल माहप्पं उपवधिति, तस्स भारतलोगा कई नो बपिणर्दिति । जनपदानां लोकानां परिवादाय । प्राचा० १७०३ १०२ ती०१८ कस्प।
। 'जानपद'श्त्यनुवादे तु तत्र भये, "जणषयवहाए" जणणिकुच्छिमफ-जननीकुक्तिमध्य-ना मातृजनराम्तरे, तंग जनपदे भवाः जानपदाःकालाष्ट्रादयो राजादयो वा तधाय। जणणिवह-जननिवह-पुं० । महति नगरमोजिकादिबन्दे, आचा० १९०३ अ० २ उ०।
जणवयकहा--जनपदकथा-सी० । मालवकादिदेशप्रशंसानिजणणी-जननी-स्त्री० । जनयति प्रादुर्भावयत्यपत्यमिति जन
न्दात्मिकायां देशकथायाम, उत्त० ११ मा मौ०। मी। उस०२०।जन-णिच् प्रनि जन अपादाने, अनि
जणवयपाल-जनपदपाल-पुं०। जनपदं पासयति इति जनपदवा की । वाच० । मातरि, प्रव० १ हार । पञ्चा। कल्प।
पालः । जनपदरक्षके, औः। . पाव। सूत्रः । “मा स्तन्यपानाजननी पशूमा-मा दारला- जणवयपिया-जनपदपित-पुं० । जनपदानां हितत्वात (ौ०) भाच्च नराधमानाम् । भा गेहकृत्यावधि मध्यमाना-मा जीबि- पितेव । लोकपितरि, स्था०६ ठा० । सूत्र। तात्तीमिवोत्तमानाम ॥१॥५कल्प०४का । सत्पादकत्रीमावेचावाच०।
जणवयपुरोहिय-जनपदंपुरोहित-पुं० । जनपदस्य शान्तिकाजणण-जनार्दन-पुं० । जनरर्धते याच्यते भई' याचने,
रितया पुरोहित इव जनपदपुरोहितः । जनपदशान्तिकरे, कर्मणि ल्युट । जनमर्दति हिनस्ति ताम्वति जनान् समुरूवा
रा०। औ०। सूत्रः। सिनो ऽसुरभेदान् अर्दयति वा कर्तरि स्युट । विष्णी, वाचा
जणावयप्पहाण-जनपदप्रधान-त्रि० । सोकोत्कृष्टे, “प्रजा"काले प्रसुप्तस्य जनार्दनस्य, मेघान्धकारासु च शबरीषु"
| हिय जखवयपहाणाहि लालियंता" प्रश्न.भाभा द्वार। ' जगत्पीडके, त्रिभाव०१०।
जपवयवग्ग-जनपदवर्ग-पुं० । देशसमूहे, भ० ३ श०६०। जणपरिजूय-जनपरित-त्रि०। लोकगर्हिते, पं० १० १बार ।
जणवयसच्च-जनपदसत्य-न०। जनपदेषु देशेषु यद् यदर्थवाचजणपिच्चणिज्जरूव-जनमेक्षणीयरूप-त्रि० जनानां प्रेक्षणी- |
कतया रुढं देशान्तरेऽपि तत तदर्थवाचकतया प्रयुज्यमानं सत्ययंकटुं योग्यं पं स्वरूपं यस्य तव तथा। दर्शनीयरुपकलि- मषितथमिति जनपदसत्यमावथा कोणादिषु पयः पनीरते, कल्प० ३ कण।
मुदकमित्यादि । सत्यत्वं चास्यामुष्टं, विषकाहेतुत्वात् । नानाजणपुज्ज-जनपूज्य-त्रि । लोकमान्येषु, जीवा० १३ अधिक।
जनपदग्विष्टार्थप्रतिपत्तिजनकतया व्यवहारप्रवृत्तः। दशविधजणपूणिज्ज-जनपूजनीय-त्रि० । राजामात्यगुरुवेष्ठिप्रभृति- सत्यस्य प्रथमे मेदे, मा० १० ग० । ध०। षु बोकमान्येषु, पञ्चा०२ विष०।
जणवयसच्चा-जनपदसत्या-स्त्री०। जनपदमधिकत्येष्टार्थप्रतिजणप्पमह-जनप्रमर्द-पुं० । लोकचूर्णने, न० ७ श० ६ उ०।। पत्तिजनकतया व्यवहारहेतुत्वाव सत्या जनपदसत्या। दशजणप्पियत्त-जनप्रियत्व-न० । लोकप्रियत्वे, “ युक्तं जनप्रिय- विधायाः सत्यभाषायाः प्रथमे नेदे, प्रशा० १२ पद । त्वं, शुकं तमसिरिफलमलम । धर्मप्रशंसनादे-र्वीजाधाना-जणवडा-जनव्यथा-स्त्री०। लोकपीमायाम, प्र०७ २०६ उ०। दिभावेन ॥१॥" षो०४ बिव०। जणबह-जणवध-पुं। लोकघाते, प्र०७२० उ०।।
जणवाय-जनवाद-पुं० । जनानां परस्परेण वस्तुविचारणे, जणबोल-जनवोल-पुं० । जनानामन्यतवणे ध्वनी, बिपा०१
औ० । स्वनामस्पाते कसाभेदे,०२ पक्ष।सा लोकापवादे ९०१०। भ०।
च । पाच । " जणवायभपणं" भाषा
० ३४ जणवृह-जनव्यूह-पुं० । जनसमुदाये, भ०
०। गणमणोहर-जनमनोहर-त्रि० । लोकचेतोहारिणि, पक्षा विव
चक्राधाकारजनसमूहे, जनव्यूहस्य शब्दोऽपि तदभेदाजनजणमेजय-जनमेजय-पुं० । जनमेजयति । पज-णिच्-खशा- म्यूह पत्राच्यत । विपा० १९०१०।
रीसितनृपतेः पुत्रे, कुरुनामभूपपुत्रभेदे, पुरजयनृपपुत्र च । जणबह-जनव्यूह-जणवूह 'शब्दार्थ, विपा०२६०१०। वाचा क्रोधाज्जनमेजयो बिननाश । ध०१ मधि० । जणय-जनक-पुं० । 'जणग' शम्दाथे, प्रव०१ द्वार।
जासर-जनशब्द-पुं० । जनानां परस्परालापरूपे ध्वनी, जणयंत-जनयत्-त्रि०। उत्पादयति, पञ्चा० ११ विवः ।
औ०। रा०।दशा। जणवय-जनपद-पुं० । जनाः पद्यन्ते गच्चन्ति यत्र । पद माधारे जणसम्मह-जनसंमर्द-पुं० । जनानां परस्परं संघर्षणे, स्था० घः। वाचादेश, प्रश्नमाश्र द्वारा स्थाना कल्पग०१ उ.. प्राचा। उस वृक्षापा० म० जनानां लोकानां पदान्य-जणसंवद्रकप्प-जनसंवर्तकल्प-वि०। जनसंवर्त श्व लोकसंहाषस्थानानि येषु ते जनपदाः। साधुधिहरणयोग्येषु अवन्त्यादिषु | रसरशे, भ०७ श०६०। अर्धशितिदेशेषु, भाचा.१७०६५०५ उ०। राष्ट्र,
रामोशी-प्रामप्रधानपरुषे, बिटे च । देना०३ वर्ग। मनुष्यलोके, प्र० ७० ६ उ०। तत्रिवासिलोकेषु च । "हरंति धणधएणदबजायाणि जणवयकुत्राणं " जनपदकुलाना जणानल-जनाकुल-त्रि० । भोजिकादिर्भािरति प्रनूतैजनैरालोकगृहाणाम् । प्रश्न०३ आश्र० द्वार । "जणवयपरिवायाए" | कीणे, व्य०४ उ०। ।
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(१३७ए) जणाकुल अनिधानराजेन्द्रः।
जलोवईय जणाकुल-जनाकुल-पि० । 'जणाखल ' शब्दार्थे,व्य०४ उ०। सोममित्रासुतो या-दत्तस्सोमयशा स्नुषा । जणावबायनीरुत्त-जनापवादनीरुत्व-न । जनापबादाद मर- तत्पुत्रो नारदस्तेषा-मुम्वृत्या च भोजनम् ॥" मा० क०। णाभिर्विशिष्यमाणाद भीरुत्वं नीतिभावः । लोकापवादजीती,
मा०चू०। द्वा०१२वा०।
जमजाइ (ए)-यज्ञयाजिन्-पुं० । बजनशीले, नि0 घृ० १ जणि-व-मय। "वार्थे नं-उ-नाइ-नाबा-आणि-जण- उ०ी०। भ०। वः" ।।४।४४४। इति मन्त्रेणापभ्रंशे श्वाथै जणिप्रयोगः । प्रा० ४ पाद । श्वेत्यर्थे, " चंपयकुसुमहो मज्झि सहि
जम्मड-यज्ञार्थ-पुं० । बकैकप्रबोजने द्विजे, यानिमित्ते, उत्त० भसमुपयउ । सोहर इंदनीलुमणि जणि कण बाउ" |
२५ मा प्रा०४पाद।
जमवाण-यहास्थान-म० । नासिक्यपुरे,ती०२० काप । “एवं जणि-जनित-त्रि० । उत्पादिते, नि० चू०१ उ० । पाव०। नासिकपुरे कालंतरे पुथमि नापागनो मिहिलाहितो,तत्य जणिय-जनित-त्रि.। 'जणिम' शम्दाथै, नि००१ उ०।।
जणयरामो तेण व तत्थ दस जमा कारिया" ततः "जभट्टाणं
तितन्त्रवरं रुढं।" ती० २० कम्प । यज्ञवाटेबाबाचा । जणु-व-अव्य० । “ श्वार्थे नं-नव-नाइ-नावा-जणि-जण
जमदत्त-यज्ञदत्त-पुं•ा स्वनामस्वाते नारदपितरि, मा.का पः"।।४|४४४। इति सत्रेणापदंशे श्वशन्दस्व जणु'
भावामा० चू० । स्वनामयाते कौशाम्बीवास्तव्ये सोमव. इत्यादेशः । इत्व, "निरुवमरसुपिएँ पिए बिजणु।" प्रा.
ते, सोमदेवपितरि च । उत्त०१०। प्रभवाहुस्वामितृतीय
शिष्ये, कटप.क्षण। जाम्मि-जनोमि-सी। जनसंबाधे, रा०।
जयदेव-यादेव-पुं० कितिप्रतिष्ठितनगरीये चिसातपुत्रपूर्वभजण्याप-जनोहाप-पुं० । जनानां काक्वा वर्णने, प्रौ०।
विकजीवे स्वनामयाते दिजे, भाव०१०। जणेमाण-जनयत्-त्रि० । उत्पादयति, तं०।
जम्ममुह-यज्ञमुख-न०। बझोपावे, उत्त०१५ म०। नगोह-जनौघ-पुं० । जनसमुदाये, वृ० ३ ००।
जमावक-याज्ञवस्क्य-पुं० । शुक्रयजुःप्रवर्तके मुनिदे, पाच । जणोवयार-जनोपचार-पुं० । स्वजनादिलोकपूजायाम,पञ्चा०
(वेदाः) मनास्तुि पश्चात सुनसायाकवल्यादिनिः कृताः" २विव०।
प्रा. म. प्रतनामकधर्मसंहिताकर्तरि अषौ च । वाच । जन्म-य-पुं०। बज-भावे नः । बागे, चाच० ।
यावलयप्रभृतिऋषिप्रणीतधर्मसंहिताभिचिन्तयन्ति ते धर्मस त्रिविधः
चिन्तकाः। भनु । "अफजाकादिभिर्यको, विधिरो य उच्यते ।
जमवाम-यज्ञवा (पा)ट-पुं० । मकस्थाने, वाच । भा० म० । यष्टव्यमेवति मनः, समाधाय स साविकः । अभिसंधाय तु फलं, दम्भार्थमपि चैव यत् ।
उत्त। बाब०। ज्यते भरतभेष्ठ!,तं यहं विकि राजसम्॥
जएणसेट-यश्रेष्ठ-पुं०। यज्ञेषु भेष्ठो यकश्रेष्ठः । अथ वा-श्रेष्ठो विधिहीनमसालं, मन्त्रहीनमदक्षिणम ।
यका श्रेष्ठयक्षः । प्राकृतत्वात् याभेष्ठः।(उत्त०) उत्समयके, श्रमाविरहितं यकं, तामसं परिचक्षते ॥"
" वोसटुकाया सुश्चत्तदेहा, महाजयं जब जलसटुं " सच नानाविधः
उत्त०१२०॥ "द्राबवशास्तपोयकाः, योगयकास्तथा परे ।
जामिय-याझिक-पुंगा यकेन जयति बोकान इति याक्षिकः। प्रा० स्वाध्यायकानयकाच, यतयः संशितव्रताः ॥"
म०प्र०। प्राचा० । यकाय हितः यः प्रयोजनमस्य वा ठक। पञ्च गृहस्थकर्तव्या यज्ञा यथा
याजके ऋषिगादी, यजमाने च । बाच०। "मध्यापनं ब्रह्मयकः, पितृयज्ञस्तु तर्पणम् । होमो देवो बालनौतो, नृयकोऽतिथिपूजनम्॥"
जएगोवध्य-यज्ञोपवीत-न०1 यकेन संस्कृतमुपवीतम्। बाचा विष्णौ च । बाचा नागादीनां पूजायाम, मा०म०प्र०ाजा
| ब्राह्मणकण्ठसूत्रे, उत्स०२०। का०। प्रश्नका सूत्र०। प्रतिदिवसं स्वस्वष्टदेवतापूजायाम,जी०
तत्प्रसिद्धिस्वित्यम्३ प्रति० । श्राचा जी०३ प्रति। जं०।सयूपो बक एव हि भरतश्च भाबकानाइयोक्तवान्-भवद्भिः प्रतिदिनं मदीयं कतुरुब्बते, यूपरहितस्तु दानादिक्रियायुक्तो यक इति । विश०। भोक्तव्यं , फम्यादि च न कार्यम्, स्वाध्यायपरैरासितम्ब, जमज-यकीय-न। यहाय हितं तस्येदं बा। बाचा स्व- नुक्ते च मदीयगृहद्वारासमन्यवस्थितर्वक्तव्यम्-जितो भमामख्याते (जयघोषविजयघोषमुनिवक्तव्यताप्रतिबद्ध) उत्तरा
वान् , वर्धते भयं, तस्मान्मा इन मा हनेति । ते तथैव क
तवन्तः । भरतश्चरति सागरावगाढत्वात् प्रमत्तत्वात तध्ववनसुत्रस्य पञ्चविंशतितमेऽध्ययने, स०३३ समः । उन।
कुन्दाकर्णनोत्तरकालमेव केनाहं जित इति, माःकातं-कजमग्गि-यज्ञाग्नि-पुं० । अग्निष्टोमानले, दश०१०।
पायैः, तेभ्यः पव बईते भयमित्यालोचनापूर्वकं संवगं बाजन्मजस-यज्ञयशम्-पुं० । स्वनामस्याते नारदपितामहे तापसे,
तवानिति । अत्रान्तरे नोकबाहुल्यात् सूपकाराः पाकंक"भासीयदा सौर्यपुरे, समुद्रविजयो नृपः ।
तुमशक्नुवन्तो भरताय निवेदितवन्तः, नेद ज्ञायते का श्रावकः, तदा वक्रयशास्तत्र, तापसस्तस्य बनुभः॥
को वा नेतीति लोकस्य प्रचुरत्वात् । प्राह जरतः-पृच्छापूर्वक
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( १३०० ) अभिधानराजेन्द्रः ।
जोवईय
देयमिति । ततस्तान् पृष्टवन्तस्ते - को भवान्, भावकाणां कति व्रतानि ? । स श्राद-भावकाणां न सन्ति व्रतानि, किंतु अस्माकं पञ्चाऽणुव्रतानि । कति शिकावतानि ? । ते उक्तवन्तःसप्त शिकावतानि । य एवं जुतास्ते राशो निवेदिताः । स च काकणीरनेन तान् लामिकृतवान् पुनः षण्मासेन योग्या नयति तालातिवाद परमासाद
1
"
ब्राह्मणाः संजाता इति । ते च स्वसुतान् साधुभ्यो दत्तवन्तः, ते च प्रवज्यां चक्रुः । परीषहभीरवस्तु श्रावका एवासनिति । इयं भरतराज्यस्थिति आदित्ययस्तु का ना सीत्, सुवर्णमयानि यज्ञोपवीतानि कृतवान् महायशःप्रभृतयस्तु केवल यमयानि केवन विचित्रपयानि इत्येवं यज्ञोपवीत प्रसिद्धिः । श्र० म०प्र० ।
9
जोवत्रीय-यज्ञोपवीतजोवत्रीय यज्ञोपवीत न० 'जोश्य' शब्दार्थे, आ०म०प्र०
- । ।
राहः
नाम "गंगाभागीरही य
जोड़ो देशी राइ ० ० ३ वर्ग जएहली - देशी- नीव्याम, दे० ना० ३ वर्ग । जएडु नहु-९० " सूच ८२७५ ॥ इति प्राकृतसूत्रेण होः राहुः । प्रा० २ पाद । भरतवंश्ये भाजबीनृपपुत्रे नृपभेदे, वाच० | को० । जएडुसुषा जताश्री जण्डुसुया । " को० । जई - यदि - श्रव्य० । यदु- णिच्-इन्, णिलोपः । पक्कान्तरे, संभावनायाम्, गर्हयां, त्रिकल्पे च । वाच० । “ जति ण चोरं -लजसि ततो ते जीवियं नऽत्थि " । नि० चू० १ उ० । जतमाण - यतमान- त्रि० । प्राणिविषये यत्नवति, प्राचा० १४० ६० २ ० । यत्नवति च । श्रचा० १ ० ४ ० १ उ० । जति - यदि - अव्य०। 'जद्द' शब्दार्थे, नि० चू० १४० । जतिय-यात्रत् - त्रि० । यत्परिमाणे, वाच० ।" अपि जतियं जाणांत " नि० ० १०५ ४० ।
जतुकुंभ - जतुकुम्भ - पुं० । जातुषे घटे, सूत्र० १ ० ४ . भ०
१ उ० ।
जतुगोलसमाण - जतुगोलसमान त्रि० । मिम्भरुपक्रीडनकजगोलकप्रमाणे अनति महति भ० १६ श० ३ उ० जनुगोमासमाजनुंगोमसमान पुं० [अनुगोलसमा 'श
,
बहायें भ० १० श० ३ ० ।
जतो - यतस् - अव्य० । यस्मात् कारणादित्यर्थे पञ्चा० ६ विष० । जस- यत्न- पुं० | बेला विधानाद्याराधनोद्यमे, पश्चा० ३ विष० । अनतिग-पात्राविक-१० जिनयात्रात्रिके २०२ अधि
64
" अवाहिका निधामेकां, रथयात्रामथापराम । तृतीयां तीर्थयात्रांचे त्याहुर्यात्रां त्रिधा बुधाः ॥ १ ॥ " ध० २ अधि० । जता - यात्रा - स्त्री० या ट्रन् । वाच० पानं यात्रा । तपोनियमसंयोगादिषु प्रवृत्तौ भ० १० श० १० उ० । प्राय० । यात्रा द्विधासभ्यतो भावतश्च । इश्यतस्तापसादीनां स्वक्रियात्समाना, भावतः साधूनामिति । आव० ३ ० । किं ते जंते ! जत्ता ? | सोमिमा ! जं मे समधियमनमा पाणावस्यमादिमु ओगे जपणा से
( जयण त्ति ) प्रवृत्तिः । भ० १८० १० ०
अत्र प्रासङ्गिके शङ्कासमाधाने यक्ष
" नो यात्रा प्रतिमानतिव्रतभृतां साक्कादनादेशनात्, तत्प्रश्रय इत्यपि बना मोहराबेजम मुख्याः प्रथिता यतः शेषान्त · सामप्रयेण हि यावताऽस्ति यतना यात्रा स्मृता तावता ॥४७॥” प्रति० एतदृष्याश्यानं बेश्य शब्देऽस्मि माने १२२० पृष्ठे म्यम् ) ज्ञाधिक मिश्रपशमिकलणे माये श्राव० ३ श्र० । देवोद्देशेनोत्सवभेदे रथयात्रादा, बाच महोत्सव एव यात्रा, न तु देशान्तरगमनम् । ध० २ अधि० । पञ्चा० । सा च यात्रा त्रिविधा - अष्टशहिका, रथयात्रा, तीर्थयात्रा च ध० २ अधि० । ( तत्राप्राहिकास्वरूपं रथया त्रास्वरूपं च ' अजाण शब्दे प्रथमभागे ३६७ पृष्ठे दर्शितम ) स च सविस्तरं सर्वस्यपरिपाटीकरणादिमहोत्सवहाकियात्रा श्यं वैश्ययात्रा उपयुज्यते ०२ मधीर्थयात्रा स्वरूपं च ' तित्थजता ' शब्दे दृश्यम् ) देशान्तरगमने, स्था० ४ वा० १ ० । ० । और । विजिगीषया राक्षां गमने, गमनमात्रे, यापने, उपाये च । वाच० ।
'
4
जताभयग - यात्रानृतक - पुं० । यात्रा देशान्तरगमनं, तस्यां स हाय इति म्रियते यः स यात्राभृतकः । देशाटनसमयोपयोगिन्यनुचरे. स्था० ४ ठा० १ ० ।
"
जाति होति गमणं, उभयं वा एत्तिय घणेण । पं० भा० ॥ " अत्ताभयगो नाम तुमे श्रहं इमा जत्ता कायव्वा" । स्वयं यात्रां गन्तुमशक्नुवता यात्रासिद्धयै वेतनेन व्यापारितेऽनुचरे च | पं० ० । जताभिमुह-यात्राऽभिमुख त्रि० । गमनाभिमुख, प्र० । जाणियाणा विधान-म० जिमोत्सवविध सत्पाद के यात्रा विधिप्रकरणावयेद्वारियमे पाच ए विष० । (तद्वक्तव्यता' अणुजाण ' शब्दे प्रथम नागे ३६७ पृष्ठे विलोक्या)
जत्तिय
जत्तासिद्ध- यात्रासिद्ध-पुं० । कृतसमुषयात्रे, यो द्वादशवारं समुद्रमवमाह्य कृतकार्यः मेाऽयासिस यात्रासिका । अन्येऽपि पोतेन गन्तुकामा यात्रासिद्धाः प्रेषयन्ते । यात्रासिद्धकथा चेयम्
"कोऽपि बजिक हिमकंनामकः । तस्यान्धी लक्षशां भग्नं, षोहित्थं स तु नाभन ॥ १ ॥ जनमत |
मामी समप्यन् जगाम पुनरबुधी ॥ २ ॥ स्वयं समुद्रस्य तस्याज्यं धनं
।
तत्तियं वियं ।
"1
मम नाम गृहीत्वा या समुद्रमादते।
सोऽविपन्नः समयेतु, समुद्रस्तत्प्रपन्नवान् ॥ ४ ॥ भा०क० रा० जति अगारपचिननिज इति नकारमविनक्ति-१०
कासव
रा०
मानचिय यावदपरिमाणे वाच" जति गहि
आ० म० प्र० ।
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जत्तो
(१३६१)
अनिधानराजेन्बः। जत्तो-यतम्-मन्या तो दो तसोवा" ।।१६०॥ इति प्राकृतसू- बम् । उपस्थसंबमो ब्रह्माजोगसाधनानामस्वीकारोऽकिचनता, 'प्रेण तसाचो' इत्यादेशः। प्रा०२ पाद । बस्मात्कारणादित्यर्थे,
एते यमाः । तदुक्तम्-" अहिंसासत्यास्तेय-ब्रह्मचर्यापरिपशा० १० विष।
प्रदाः यमाः" इति । दिग्देशस्तीर्थादिः, कासश्चतुर्दश्या
दिः, आदिना ब्राह्मण्यादिरूपाया जातेब्राह्मणादिप्रयोजनरूपस्थ जत्थकामोसाइत्त-यत्रकामावसायित्व-न० । स्वाभिलाषितस्य
समयस्य च ग्रहः । ततो दिक्कालादिना भनवचिन्नाः समाप्तिपर्यन्तनयने योगसिद्धिभेदे, द्वा०२६ द्वा।
"तीर्थ कश्चन न दनियामि" "चतुर्दश्यां न इनिध्याजत्थ जत्थ-यत्र यत्र-श्रव्य० । यद्-त्रम् । यस्मिन् यस्मिन्नित्यर्थे,
मि" " ब्राह्मणान् न हनिष्यामि""देवब्राह्मणाद्यर्थव्यतिरेकेण वाच०। "उवहाणं जत्थ जत्थ सुत्ते, एसा सुत्सवीप्सा, जत्थ
नकमपि हनिष्यामि" इत्येवंविधावच्छेदव्यतिरकेण सर्वविषया उद्देसगे, जत्थ अज्झयणे, जत्थ सुयक्खंध, जत्थ भंगे कामु.
अहिंसादयो यमाः, सार्वभौमाः सर्वासु क्षिप्राद्यासु चित्तभूमिषु कालियभंगाणंगेसु णेया।" नि० चू०१३० ।
संभवन्तो महाव्रतमित्युच्यन्ते । तमुक्तम्-" एते तु जातिदेश. जदि-यदि-मव्य० । मभ्युपगमे, निचू.१००।
कामसमयानवच्छिन्नाः सार्वभौमा महावतम्" ॥ २॥ द्वा० जदिच्छा-यहच्छा-स्त्री० । अभिसंधिराहित्ये, ५० ३००।
२१ द्वारा जणंदण-यदुनन्दन-पुं० । श्रीकृष्णे, खाग० ।
बायमादिचतुर्भेदेषु, तथाहिजप-जप-धा। बारणे, वाचि च । भ्वा०-पर०-सक-सेट ।। यमाश्चतुर्विधा इच्छा-प्रवृत्तिस्यैयेसिचयः । (२५) अग्नि-माभिमुस्येन जपे, सम्यक कथने च । उप-नेदे, न०। ( यमा इति) यमाचतुर्विधाः-इच्छायमाः प्रवृत्तियमाः, खि. बाबा भावे अ । पुं० मन्त्राज्यासे, अनु। तत्प्रकारो यया- रयमाः, सिद्धियमाश्च। (२५)द्वा० १९.द्वा०।, "मनः संहत्य विषया-मार्यगतमानसः ।
छायमो यमेष्विच्छा, युता तद्वत्कथामुदा।। न हुतं न विनम्बंच, जपेन्मौक्तिकपङ्किवत् ।। .
स प्रवृत्तियमो यत्तत्, पालनं शमसंयुतम् ॥२६॥ जपः स्यादक्षरावृत्ति-मानसोपांशुवाचिकैः।
तहतां यमवतां कथातो या मुत्प्रीतिः, तया युता सहिता यचिया पदकरभेणी, वर्णस्वरपदारिमकाम॥
मेविच्छा इच्छायम उच्यते । यत्तेषां यमानां पालनं शमसंसवरेदर्थमुद्दिश्य , मानसः स जपः स्मृतः।
युतमुपशमान्वितं स प्रवृत्तियमः। तत्पालनं चात्राधिकलमनिप्रेजिलोष्ठौ चालयेत् किञ्चित, देवतागतमानसः॥
तम्, तेन न कामादिविकलतत्पालनकणे इच्छायमेऽतिन्याप्तिः ॥ किधिच्छवणयोग्यः स्या-पांशुः स जपः स्मृतः।
नच सोऽपि प्रवृत्तियम एक, फेव तथाविधसाधुचेष्टया प्रमन्त्रमुचारयेद्वाचा, वाचिकः स जपः स्मृतः॥
धान इच्छायम एव तात्त्विकपकपातस्यापि भ्यक्रियातिशाबैर्जपाविशिष्टः स्या-दुपांशुर्दशनिर्गुणैः ।
यित्वात् । तमुक्तम-" तात्त्विका पक्षपात च, भावशून्या च बिहाजपः शतगुणः, सहस्रो मानसः स्मृतः।।
या क्रिया ।भनयोरन्तरं झेयं, भानुबयोतयोरिव" ॥१॥ सं. जिहाजपः स विशेयः, केबसं जिहया बुधैः"।बाच.।।
विग्नपाक्षिकस्य प्रवृत्तचक्रत्वानुरोधे तु प्रवृत्तियम पवायं, जप्प-जल्प-पुं०। कलजातिनिग्रहस्थानसाधनोपालम्भपरे भा.
तस्व शासपोगानियतत्वादिति नयनेदेन भावनीयम ॥२६॥ षणे, स्थाग० । नि०० । स०।
सत्कयोपशमोत्कर्षा-दतिचागदिचिन्तया । जप्पनिश्-यतः प्रजृति-अव्य० । यस्मात्कासादारज्येत्यर्थे, "जप्पनिरं च णं अम्ह एस दारए कुञ्छिसि गन्नत्साए वळते
रहिता यमसेवा तु, तृतीयो यम उच्यते ॥२७॥ तप्पभिरं च णं अम्हे हिरोणं० जाब पीसकारेणं भईव
सतो विशिष्टस्य कयोपशमस्य उत्कर्षादुकादतिचारादीना अश्व वडामो। कल्प० ४ कण ।
चिन्तया रहिता, तदभावस्यैव विनिमयाव । यमसेवा तु तु.
तीयो यमः सिरयम उच्यते ॥२७॥ जम-यम-धा० । उपरतो, ज्वा०-पर-सक-अनिट् । उदित कत्वा वेद । मा-दीर्धीकरणे, उप-विवादे, 'यम' परिखेषणे,
परार्थसाधिका त्वेषा, मिदिः शुफान्तरात्मनः । चुरा-उभ०-सका-सेट्-वा-घटा० । वाच । यम-धा०
अचिन्त्यशक्तियोगेन, चतुर्थो यम उच्यते ॥ २० ॥ घम् । प्राणातिपातविरत्यादिरूपेषु पञ्चसु महावतेषु, पुं०।
(पराति) परार्थसाधिका स्वसन्निधौ परस्य वैरत्यागादिका. उत्त० २५ ० "दो यमा" स्था०२०३ उ० । का०ध रo) रिणी तु एषा यमसेवा सिरुिः। शुरुः कीणमझतया निर्मलोऽन्त. तत्र महावतपदनैत जिनरनिधीयन्ते, व्रतपदेन नागवतैः, धर्म- रात्मा यस्य अचिन्त्याया अनिर्वचनीयायाः शक्तेः स्ववीयर्योछापदेन पाशुपतैः, सांस्यासमतानुसारिभिश्च यमपदेनाभिधी- सरूपायाः योगेन चतुर्थों यम उच्यते ॥२०॥ द्वा०१६द्वा। यन्ते, कुशनधर्मपदेन च बौद्धैरभिधीयन्ने, वैदिकादिभिश्च यमयति-अच् । बाच० । दक्षिणदिकपालनिकायाश्रिते लोकछाह्मादिपदेनाभिधीयन्ते । द्वाद्वा० । हा०।
पाले, प्रश्न०१आश्र० कार । भरगीनक्षत्राधिपती, सू०प्र० - तत्स्वरूपं त्वेवम्
१० पाहु०। जं० । ज्यो० । स्था०। यमदग्निगुरौ तापसविशेष, . अहिंसासूनृताऽस्तेय-ब्रह्माकिञ्चनता यमाः।
प्रा० म०प्र० प्रा० चू०। श्रा०क०। दिकालाधनवच्छिन्नाः, सार्वभौमा महाव्रतम् ॥२॥
"यमास्यस्तापसस्तत्र, स तत्पाद्येऽग्निकोऽगमत् ।
प्रपन्नस्तस्य शिष्यत्वं, स घोरं तप्यते तपः॥ प्राणवियोगप्रयोजनो व्यापारो हिंसा,तदभावोऽहिंसा । वाङ्म- यमशिष्योऽग्निक इति, यमदग्निरिति श्रुतः। " प्रा० क० । नसोयथार्थत्वं सूनृतम् । परस्वापहरणं स्तेयं, तदभावोऽस्ते- "जमो नाम से ताबसों" प्रा०मद्विारा प्रा०चूसंयमने, श्रा०
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जम
(१३१२) अभिधानराजेन्द्रः।
जमग म०प्र० । मृत्यौ, मृत्युहेनुत्वात् । आव० ४ अ०। एकगर्नजा- जाव जमगाणं पव्वयाणं जमिगाण य रायहाणीणं अप्लेसिं यमाने यमजे, त्रि० । वाच। द्वित्वसंस्थायां च । वाच ।
च बहूर्ण वाणमंतराणं देवाण य देवीण य ादेवचं० जाव जमईय-यमतीत-न० । यमतीतेत्यायकर,भादाननाम्नि सूत्रकृता
पालेमाणा विहरति । से तेणढेणं गोयमा!एवं वुच्च-जमगअस्व पशदशेऽध्ययने,सूत्र० १७०१५ म०। स०। प्रश्नामाव०॥
पन्चया जमगपचया,अनुत्तरं च णं गोयमा जान णिजमकाइय-यमकायिक-पुं० । दक्षिणदिकपालदेवनिकायाभिते
था। कहिणं भंते ! जमगाणं देवाणं जमगाभो णाम रायवम्बायसुरविशेषषु, प्रश्न १ मा द्वार।
हाणीओ पएणत्ताओ। गोयमा ! जमगाणं पब्बयाणं नजमग-यमक-पुं० । शकुनिविशेषे, जी०३ प्रति० । स्वनामस्याते
तराणं ति तिरियमसंखेजदीवसमद्देवीतीवतित्ता अम्मि पर्वतविशेषे, (जी०) संप्रति उत्तरकुरुभाषियमकपर्वतबक्तब्यतामाह
जंबुद्दीचे दीवे वारस जोयणसयसहस्साई ओगाहित्ता,एत्थ कहिणं जंते ! उत्तरकुराए कुराए जमगा नाम दुवे पव्वता
णं जमगाणं देवाणं जमिगाओ णाम रायहाणीमो पछापमत्ता?| गोयमा! नीलवंतस्स बासहरपब्वयस्स दाढिणेणं
सानो वारसजोयणसहस्साईजहा विजयस्स० जाव महि. अट्ठ चोत्तीसं जोयणसते चत्तारि य सत्तनागे जोयणस
हिया जमगा देवा ॥
"कहि भंते !" इत्यादि । क भदन्त ! उत्तरकुरुषु कुरुषु हस्सं आवाधाए सीताए पहाईए उन्नो कुले, एत्थ णं
यमको नाम द्वौ पर्वती प्राप्ती नगवानाह-गौतम! नीलवतो उत्तरकुराए कुराए जमगा णाम दुवे पन्वता पत्ता । एगमे
वर्षधरपर्वतस्य दक्षिणान्त्याच्चरमान्तात् चरमरूपात् पर्यन्तागेणं जोयणसहस्सं न नञ्चत्तेणं अहाज्जाइं जोयणसयाई दर्श योजनशतानि चतुर्विंशानि चतुशिदधिकानि चतुरश्च उन्हेणं मले एकमेकं जोयणसहस्सं पायामविक्खंजेणं योजनस्व सप्त भागा भवाधया कृत्वा अपान्तराले मुक्तेति मज्के अच्छमाई जोयणसताई आयामविक्खंभेणं नवरिं
भावः। मत्रान्तरे शीताया महानद्याः पूर्वपश्चिमयोर्दिशोरुन
योः कुलमोः, अत्र पतस्मिन् प्रदेशे यमको नाम द्वौ पर्वतौ प्रक्षपंचजोयणसयाई प्रायामविक्वंभेणं मुझे तिमि जोयण
प्तौ । तद्यथा-एकः पूर्वकले.एकः पश्चिमकूले,प्रत्येक योजनसहसहस्साई एकं वावडं जोयणसयं किंचिबिसेसाहियं परि
नमुस्त्वेन, मईतृतीयानि योजनशतानि उद्वेधेन, अवगाहेन क्खवणं दो जोयणसहस्साई तिमि य बावत्तरे जोयणसते मेरुन्यतिरेकेण शेषशाश्वतपर्वतानां सर्वेषामपि विशेषेपोकिंचिविसेसूणपरिक्वेवेणं उवरिं पएणरस एक्कासीते जो. स्त्यापेकवा चतुर्भागस्वावगाहभावात. मुले एकं योजनसहनं यणसते किंचिविसेसाहिया परिक्खेवेणं पसत्ता, मूल वि
विष्कम्भः १०००, मध्ये भर्खाष्टमानि योजनशतानि ७५०,
सपरि पञ्चयोजनशतानि ५00, मूले त्रीणि योजनशतानि एक त्थिना मजके संस्वित्ता उपि तण्या गोपुच्चसंठाणसंठिया
व द्वापष्ट द्वापरयधिकं योजनशतं किञ्चिद् विशेषाधिकं परिसम्बकणगामया अच्छा सएहाम्जाव पफिरूवा पत्तेयं पत्तेयं
क्षेपण प्राप्ती ३१६२, मध्ये ३ योजनसहने त्रीणि योज. पउमवरवेतिया परिस्वित्ता,पत्तेयं पत्तयं रणसंडपरिक्वित्ता, नशतानि वासप्ततानि द्वासप्तत्यधिकानि २३७२, किश्चिातबएणो , दोएण वि तेसि णं जमगपब्बयाणं उप्पि बहु
शेषाधिकानि परिकेपेण प्राप्तौ, उपरि एकं योजनसहनं समरमणिज्जनूमिनागे पसत्ते, वएणमोजाव प्रासयंति ।
पच शतानि एकाशीतानि एकाशीत्यधिकानि योजनश
नानि किञ्चिविशेषाधिकानि १५०१ परिकेपेण, एवं च तो तेसि णं बहुसमरमणिजाणं जूमिभागाणं बहमजादेस- मूसे विस्तीर्णी मध्ये विमौ उपरि तनुकाबत पव गोपुच्चभाए पत्तेयं पत्तेयं पासायवसका पएणत्ता । तेणं पासाय. संस्थानसंस्थिती ( सम्बकणगामया इति) सर्वात्मना बसका वाढि जोयणाई अजोयणं च उर्फ उच्चत्तेणं
कनकमवा "अच्छा० जाव पडिम्वा" इति प्राग्वतातौ च एकतीसं जोयणाई कोसं च विखंजेणं अन्नुग्गत
प्रत्येकं प्रत्येक पावरबैदिकया परिक्षिप्तौ, प्रत्येक प्रत्येकं वन
बामपरिक्तिप्तौ, पनवरवेदिकावर्णको. धनखरामवर्णकच जमूसितवम्पमो शूमिभागनो उद्योता, दो जोयणा
गत्युपरि पावरवेदिकावनखाएमवर्णकवत बक्तव्यः । “जमणिपेदियाभो उबरि सीहासणा सपरिवारा० जाव मगपब्वयाणं" इत्यादि । यमकपर्वतयोरुपरि प्रत्येक बहस. जमगा चिट्ठति । से केणटेणं जंते ! एवं बुचंति- मरमणीयो भूमिनागः प्राप्तः । मिनागवर्णनं च-"से जढा. जमगा पब्बया, जमगा पन्चया । गोयमा ! जमगेस ६
नामप प्रालिंगपुक्खर वा " इत्यादि प्राग्चत् तावद्वक्तव्यं पब्बतेसु तत्य तत्थ देसे देसे तहिं तहिं बहमो खु
यावत् "बाणमंतरा देवा देवीप्रो य प्रासयंति सयंति.
जाव पचणुभवमाणा विहरति ।" "तेसि णं" इत्यादि । तयोहियाओ वावीओ.जाव बिलवंतियाओ तासु णं खुट्टा समरमणीययोमिनागयोर्व हमध्यदेशभागे प्रत्यक२ प्रासाखुडिया० जाब विलवंतियामु बढ्इं उप्पलाइं० जाव दावतंसको प्राप्तौ । तौ च प्रासादावतंसको द्वाषष्टियोजनासतसहस्सपत्ताई जमगप्पनाई जमगवस्माई जमगा, एत्थ
नि भर्दयोजनं चोर्ध्वमुस्वेन, एकत्रिंशोजनानि कोशं चैएं दो देवा महिलिया जाव पलिवमद्वितीया परिवसं
के विकम्नेन, “ अभुगयमूसियपहसिबा वा " इत्यादि
यावत् "पमिरुवा" इति प्रासादावतंसकवर्णनम् , उल्लोचचति। ते ण तत्य पत्तेयं पत्तेयं चजएवं सामाणियसाहस्मीणं० । जनम भमिनागवर्णनम, मणिपीठिकावर्णनम, सिंहासनवर्ण
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( १३०३ ) अभिधानराजेन्द्रः ।
जमग
नम विजयन नाम निरवशेषं प्राग्वक्तव्यम् | नवरमत्र मणिपीठिकायाः प्रमाणमायामविकम्नाज्यां हे योजने, बाढल्वेन एकं योजनम, शेषं तथैव । " तेसि णं सीहासणाएं " इत्यादि । तयोः सिंहासनयोः प्र त्येकम् " अवरुत्तरेणं " अपरोत्तरस्यां वायव्यामित्यर्थः । चसरपूर्वस्य च दिशि पतासु तिसृषु दिक्षु यमकयोर्थमनाम्नोमकपर्वतस्यामिनीव प्रत्येकं प्रत्येकं चतु सामानिकसहस्राणां योग्यानि चत्वारि भद्रासन सहस्राणि प्रज्ञप्तानि । एवमेतेन क्रमेण सिंहासनपरिवारो वक्तव्यः, यथा प्राग् विजयदेवस्य । " तेसि णं " इत्यादि । तयोः प्रासादावसंसकयोः प्रत्येकमुपरि मानिनइत्यापि प्राग्वत् तावद्वतव्यं यावत् " सयलहस्तपतगा " इति पदम । संप्रति नामनिबन्धनं पिपूच्छिषुरिदमाह-" से केणट्ठे " इत्या दि । अथ केनायें केन कारणेन एचमुच्यतं यती मक पर्वताविति भगवानाह गौतम! यमकपर्वतयोः णमिति बा क्यालङ्कारे वापीषु पुष्करिणी वालि
हूनि उत्पलानि यावत्सहस्रपत्राणि यमकप्रभाणि, यमका नाम 'शकुनिविशेषाः, तत्प्रज्ञाणि तदाकाराणि । एतदेव व्याचष्टे यमकबर्खाभानि, यमकसदृश वर्णानीत्यर्थः । यमकौ च यमकनामामौत तयोर्यमतमित्येन महर्दिकी यावद् महाभागौ पल्योपमस्थितिको परिवसतः । तौ च तत्र प्र त्येकं प्रत्येकं चतुर्णी सामानिक सहस्राणां चतसृणामप्रमहिषीणां सपरिवाराणां तिसृणामभ्यन्तरमध्य बाह्यरूपाणां यथासंकपमहादशाहदेवसहस्रसंख्याकानां सप्तानामनीकाि तीन योजानामात्मरकईयाखाखाम "जगाणं पययाणं अभिगाण य रायहाणी " इति । स्वस्थ स्वस्य यमकपर्वतस्य स्वस्याः यमिकाऽभिधायाः राजधान्याः, अन्येषां च बहूनां वाणमन्तराणां देवानां देवीनां च स्वस्पयमकाऽभिघराजधानीवास्तव्यानामाधिपत्यं यावद्विहरतः । यावत्करणात् -"पारेवडवं सामितं नट्टिसं " इत्यादिपरिग्रहः । ततो यमकाकारयमकर्णोत्पलादियोगात् यमकानिधदेव स्वामित्वाच्च ती यमक पर्वतावित्युच्येते । यथा चाह" से तंबणं इत्यादि । संप्रति यमिकाभिधराजधानीस्थानम्" हि मंते!" इत्यादि । क नदन्त ! यमकयोर्देवयोः संबन्धिन्यौ यमिके नाम राजधान्यौ प्रप्ते ? । भगवानाह - गौतम ! यमकपर्वयोरुततोऽन्यस्मिन् अमेजनसहस्राण्यवगाह्य, अत्रान्तरे यमकदेवयोः संबन्धिन्यो यमिकजयराजधानीसइयो ब कम्ये । जी० ३ प्रति० । शब्दालङ्कारभेदे, वाच० ।
35
"
पुनर्यमकपर्वतप्ररूपणा
कहि ते उत्तरकुरा जगा सायं दुने पम्पा पछचा ? | गोभमा ! लवंतस्स वासहरपव्ययस्म दक्खिणिल्लाश्रो परियंताओ भट्ट पद्धतीसे जो पचारि सतजाए जो अणस्स अवाहार सीमाए महासईए लमओ कूले, एत्य जगाला हुने पचया पचता जोभणसइस्सं उ उच्चतेणं अड्ढाइज्जाई जोणसयाई डब्बेहेणं मूले एगं जोअणसहस्सं आयामविक्खजेां मज्के अ
३४६
जमग
इमाणि जोअणसवाई आयामविवस्वं गां वरं पंचअणसयाई भाषामक्खियां मुझे तिथि जो भय सहस्साई एगं च बाब जोअणसयं किंचि विसेसाहित्रयं परिक्खेवेणं मक्के दो जोअणसहस्साई तिथिय बावचरे जोणसए किंचि विसेसाहि परिक्खेवेणं उवरि एगं जोसह पंच व एकासीए जोभणसर किचि विसेसाहिए परिक्खेवेणं मूझे वित्थिष्मा मज्भे संखित्ता उपि
आएगा सम्बलगाया अच्छा स एहा पत्ते पत्ते पउमवरवेइआ परिक्खित्ता पत्ते पसेअं वदा परिविखता, ताओ णं पलमवरवे आओ दो गाउआई उऊं उच्चत्तेणं पंच धणुसयाई विक्वं जेणं बेइ आवणमंद जानियो । तेसि णं जमगपन्या पि बहुसमरमणि भूमिजाने पर जाम देसि मे रमणिजस्स जूमिभागस्स बहुमन्यदेवनार, एत्य दुबे पासावयवगा पाता । ते यं पासापवगा वाचि जोअणाई अजोणं च उर्दू उच्यते एकतीसं जोअनाई कोर्स च मायामविवखजेणं पासायवरणले नाविवो, सीहासणा सपरिवारा० जाव एत्थ णं जमगाणं देवाणं सोलसरह भावर क्वदेवसाहस्सीणं सोलस नास
साहसी पात्ताओ से केलणं भंते ! एवं वुच्चइ-जमगा य पव्वया, जमगा य पव्वया ? । गोअमा ! जमगरव्य पं तस्य सत्य देसे तर्हि व बहने खुट्टा
या बाबी जान खिसिया बढ़ने उप्पलाई ० जाब जमगप्पनाई जमगबन्छा भाई जमगा य, एत्थ दुबे देवा महिडिया, तेणं तत्थ चडएदं सामाणि असाहस्तीणं० जान जमाला विरंति से तेणणं गोयमा एवं दुख-जमगपब्वया जमगपब्वया, अदुत्तरं च णं सासर णामधिजे० जाव जमगपब्वया जमगपन्चया कहि णं जेते जयगाणं देवा जयगाओ रामहाणीओ पक्षताओ। गोयमा ! अंबे दीवे मंदरस्सपव्ययस्स उत्तरेणं अम्पि जंबुद्दीचे दीवे वारस जोणसहस्सा ओगाहिता, एत्थ जगाणं देवा जमिगाओ रामदाडीओ परणत्ताभो, वारस जोणसहस्साई आयाम विक्खंजेणं सततीसं जो प्रणसदस्मा एव य मयाले जोअणसए किंचि विसेसाहिए परिक्खेवेणं पत्तेनं पत्ते पायारपरिकखेत्ता, ने णं पागारा सत्त तीसं जोअलाई श्रद्धजोणं च बङ्कं उच्चत्तेणं मूले अफतेरसजोभणाई विक्सकोसाई जोधणाई विक्खणं उवरिं तिठि साधकोसाई जोश्रलाई विक्खणं भूले वित्थिष्मा मज्जे संखित्ता उपि तना वाहिँ वहा ते चरंसा सम्बरणाममा अच्छा, ते पागारा
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जमग
(१३६४) अभिधानराजेन्द्रः।
जमग णाणामणिपंचवक्षेहिं कविसीसएहिं उवसोहिया। तं जहा- सिणं सत्नाणं मुहम्माणं तिदिसिं तो दारा पसत्ता । ते किएदेहिं० जाव मुक्तिब्रेहि, ते णं कविसीसगा भरूकोसं| ए दारा दो जोअणाई उई उच्चत्तणं जोअणं विक्खंनेणं आयामेणं देसणं अघकोसं नकं उच्चत्तणं पंच धणुसयाई तावइमं चव पवेसेणं सेा वएणो० जाव वणमाला। पाहवेणं सब्वमणिमया अच्छा, जमिगाणं रायहाणीणं तेसि णं दाराणं पुरमो पत्ते पत्तेनं तो मुहमंचा एगमेगाए बाहाए पणवीसं पणवीसं दारसए पप्मत्ते । ते णं पमत्ता, ते णं मुहमरवा अच्छतेरस जोअणाई आयामेणं दारा वावहिं जोअणाई अदजोमणं च उठं उच्चत्तेणं एक- उस्सकोसाई जाणाई विक्वंभेणं सारेगाई दो जोअतीसं जोमणा कोसं च विक्खनणं तावइभं चेव पवेसणं णाई उर्छ उच्चत्तणं० जाव दारा मिनागा य, पेच्छासेमा चरकणकनिए, एवं रायप्पसेणजविमाणवत्तव्य- घरमंझवाणं तं चेव पमाणं नूमिनागो मणिपेदियाओ, याए दारवयमो० जाव अमंगमगाई ति, जमियाएं ताओ णं मणिपेढियामो जामगं पायामविक्खभणं रायहाणीणं चउहिसिं पंच पंच जोमणसए भावाहाए| अघजोअणं बाहोणं सन्चमणिमईओ सीहासणा चत्तारि वणसंमा पमत्ता । सं बहा-असोगवणे, सत्ति- जाणिभवा । तेसि णं पेच्छाघरमंझवाणं पुरो वनवणे, चंपगवणे, चूमवणे । तेणं वणसंका साइरे-| मणिपेटियानो पसत्ता। तायो एणं मणिपढिाओ दो गाई वारस जोमणसहस्साई मायामेणं पंच जोमणस- जोअणाई मायामविक्खंनेणं जोमणं बाहोणं सन्चमणि. या विखंभेणं पत्ते २ पागारपरिक्खित्ता किएहा वण-| मईओ। तासि नप्पि पत्तेधे पत्तेअंतमोयना, ते णं थूभा संमवसो नमिओ पासायवडेंसगा य भाणिवा, ज- दो जोप्रणाईन उच्चत्तेषं दो जोअणाई आयामविमिगाणं रायहाणी अंतो बहुसमरमणिजे नूमिभागे पस- खंजेणं सेना य संखदल जाव अमंगलया । तेसि णं ते, वसओ त्ति । तेसि णं बहुसपरमणिज्जाणं नमिनागाणं | यूभाणं चनद्दिसिं चत्तारिमणिपेटियाओ पसत्ताओ । ताओ बहुमज्देसभाए एत्थ णं दुबे नवयारिया लेणा पत्ता।। णं मणिपढिामो जोअणं पायामविक्खंजेणं अकजोअणं पारस जोपसयाई प्रायामविक्खंभेणं तिमि जोअण-| पाहणं जिणपमिमायो बत्तब्वाभो । चेअरुक्खाणं सहस्साई सत्त य पंचाणउए जोणसए परिक्खेवेणं अ- मणिपेदिमाशो दो जोअणाई आयामविखंभेणं जोअणं फकोसं च बाहोणं सम्बजंबूणयामया अच्छा पत्तमं प- पाहणं चेइअरुक्खवएणभो, तेसि णं चेअरुक्खाणं चेनं पउमवरवेइया परिक्वित्ता, पत्ते वणसंभवममो पुरभो तओ मणिपदिआरोपमत्ताभो । ताओ णं मणिपेदिनाणिमब्बो, तिसोवाणपडिरूवगा तोरणा चनदिसि नू- पात्रो जोप्रणं आयामविक्खंभेणं अकजोअणं बाहलेणं, मिजागो अनाणिभन्यो । तस्स णं बहुमज्मदेसनाए एत्य तासि नपि पत्तेअंपत्तेनं महिंदकया पसत्ता, ते णं णं एगे पासायवमेंसए पसत्ते, वावहिं जोणाई अछ- अट्ट महिंदज्झया अट्टमाई जोप्रणाई उठं उच्चत्तणं भजोमणं च उठं उच्चत्तेणं इकतीसं जोभणाई कोसं च सकोसं नन्हेणं भदकोसं बाहवेणं वरामयवट्टवएणो , पायामविखनेणं वमो, उद्योपा मित्नागा सीहास- चेभा वणसंमा तिसोवाणतोरणा य भाणिभव्वा,तासिणं णा सपरिवारा, एवं पासायपंतीमो वि । तत्थ पढमा पंती- सभाएं मुहम्माणं वश मणोंगुलिभासाहस्सीनो पमत्तातेणं पासायवमेंसगा एकतीस जोषणाई कोसं च उई उ- | श्रो । तं जहा-पुरच्छिमेणं दो साहस्सीमो पएणत्ताभो,
चत्तेणं साइरेगाई अचसोलस जोअणाईपायामविक्खंभेणं। पञ्चस्चिमेणं दो साहस्सीओ, दक्षिणेणं एगा साहस्सी, विपासायपती-ते णं पासायव.सया साइरेमाई प्रक- उत्तरेणं एगा. नाव दामा चिट्ठति । एवं गोवाणसिप्राओ सोनसजोप्रणाई नकं उच्चत्तणं साइरेगाई अझडमाई जो- एवरं, धूवघमिश्राओ, तासि णं मुहम्पाणं सभाणं अंते प्रणाई प्रायामविखंभेणं । तइपासायपंती-ते णं पासाय- बहुसमरमाणिज्जेमिनागे पएणत्ते । मणिपेदिया दो जोबसया सारेगाइं अफट्टमाइं जोअण्णाई नई उच्चत्तणं, | अणाई प्रायामविक्खंभेणं, जोअणं बाहोणं, मसि एं साइरेगाइं अभटजोप्रणाइं पायामविखंनेणं,वष्मयो-सी
मणिपढिमाणं उप्पिं माणवए चेइप्रखंने महिंदमयप्पहासणा सपरिवारा । तेसिणं मूलपासायसियाणं उ-|
माणे उरि उक्कोसे उग्गाहित्ता हिहा उक्कोसे वन्जिना जिणतरपुरच्छिमे दिसीनाए, एत्य णं जमगाणं देवाणं सना
सकहामो पएणत्ताओ । माणगस्स पुग्वेणं सीहासणा श्री मुहम्माओ पसत्तारो, अद्धतेरस जोअणाई आयामे
सपरिवारा, पच्चच्छिमणं सयाणिज्जावएणओ, सयाणिज्जा णं उस्सकोमाई जोअणाई विक्खंजेणं णव जोप्रणाई ण उत्तरपुरच्छिमे दिसीभाए खुगमहिंदज्या मणिप- -
ण उत्तरपुराच्छम दिसाभाए खुमग उर्फ नाचनेणं अणेगखंजसयमामि विद्या सनावपश्रोता- दिनाविहणा महिंदज्यप्पमाणा. तसिं अवरणं चोप्फाला
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( १३६४) अन्निधानराजेन्द्रः ।
जमग
पहरणकोसा, तत्थ णं बहवे फलिहरयणपामुक्खा० जान चिद्वेति । सुहम्माणं उपि अमंगलगा, तासि णं उत्तरपुरच्छमेव इमे खायचं, एतेसि थे बहुमदेसा पत्ते पत्तेअं मणिपेटिका ओ दो जोभणाई आयाम विक्लंनेणं जाणं बाद लेणं, तासि लप्पि पसे पत्ते देवच्छंदया पचा। दो जोणारं श्रायामचिक्खंनेणं साइरेगाई दो जोभणाई वर्ष सभ्य सम्बरणामा जिपभिमानयणप्रो० जाय पूरककृच्छया, एवं अवसेसाण विसजा० जाब उबवायसभाए सयणिज्जं दहश्र अ जिसेअसजाए बहुभाजिसिके भंगे अलंकारिष्यसभा बहु अलंकारिकानं चि ववसावसभासु पुत्ययरपद्या मंदाक्खरियो बक्षिपेदा दो जोवाई भाषामबिक्वंभे जोभणं बाद लेणं० जावति । "नवा संकष्पो, अभिसे विदूषणाय नसाओ। प्रणिधम्यगयो, जहा य परिचारथा इवी ॥ १ ॥ जावयम्य पमाणे विहुति जगाओं पीलवंताओ सामंतरं खलु, जमगदहाणं दहाणं च ॥ ३ ॥ “ कहि णं " इत्यादि । क नदन्त ! उत्तरकुरुषु यमको नाम द्वौ पर्वती महती है। गौतम ! नीखवतो वर्षभरतस्य दक्षि खात्याच्चरमान्तात् इत्यत्र दाक्षिणात्यं चरमान्तम् मारभ्येति हे स्पष्लोपे पञ्चमी । दाक्षिणात्यापरमास्तादारज्यादक्षिणाभिमुखमित्यथेोजनानि तुि धिकानि चतुरश्च सप्त भागान् योजनस्याबाधवा, अपान्तराले कृत्वेति शेषः । शीताया महानद्या उन्नयोः कूलयोः, एकः पूर्व पश्चिमले थे। अत्रान्तरे मी नाम है पर्वतौ प्रकृतौ, एकं योजनसहस्रमूर्ध्वोच्चत्वेन, तृतीयानि योजनाम्पेन, उच्चतुर्थस्य चुम्यवगाहात मुले बोजन सहस्रमायामविष्कम्नाभ्यां वृताकारत्यात्मन्येभूत
2
"
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1
योजकमान योजनशतानि प्रायामविष्कप्राभ्याम, उपरि सहस्रयोजनातिक्रमे पञ्चयो जनशतान्यायामविष्कम्भाभ्यां मुळे श्रीणियोजनसहस्राणि एकच योजन द्वापयधिकं किञ्चिकामित्यर्थः प रिशेपेण, एवं मध्य परिधिरुपरितनपरिधिश्व स्वयमभ्यूह्यो, मूले विस्तीर्णो मध्ये संचिताकी धमकीतरी तो संस्था तेन संस्थितो परस्परं सरसंस्थाना वित्यर्थः अथवा यमका नाम शकुनिविशेष तो संस्थानं चानयोः प्रारस्य संसिद्धिप्रमाणत्वेन गोपुच्छस्व बोध्यं सर्वात्मनको शेय शताङ्कारेपत्तिरेबम- नीलवद्वर्षधरस्य यमकयोश्चान्तरमेकं यमर्क, तयोः प्रथमहदस्य व द्वितीयं प्रथमहदस्य द्वितीयहूद तृतीयं द्वितीयस्य तृतीयस्य चतुर्थ, तृतीयस्य चतुर्थस्य पञ्चमं चतुर्थस्य पञ्चमस्यप पश्चमहृदस्य च वक्षस्कार गिरिपर्यन्तस्य च सप्तमम् । एतानि च सप्ताप्यन्तराणि समप्रमाणानि, ततश्च कुरुविष्कम्भात् योजन ११०४२२ इत्येवंरूपा योजनसहस्रायामयोक योजनायामात्यमाणायामानां पञ्चानां दानांच
जमग
"
I
बोजन सहस्रमेकम, उभयोर्मीलने योजनसहस्रपङ्कं शोभ्यते च जातं योजन५८४२कला२, ततः सप्तभिर्मागे ते०३४ । ४, बचावशिवहितमिति वानअन्तरोकवेदिकामना एक प्रमाणाचाह -"ताभो " इत्यादि व्यकम् । संप्रत्येतयोर्यदस्ति तदाह-"तेसि णं" इत्यादि । तयोयमकपर्वतयोरुपरि बहुसमरमणीयो भूभिभागः प्रकृतः । प्रत्र पूर्वोकः सर्वो भूभागवर्णक उन्नेतन्यः । कियत्पर्यन्तमित्याह-यावसयो
समरमणीय भूमिप्रागस्य बहुमध्यदेशमा प्रसाद वतंसकौ प्रज्ञप्तौ । अथ तयोरुच्यत्वाद्याह-" ते " इत्यादि मिरवशेषं विजयप्रसाद सिंहासनादि व्यवस्थित
नवरं यमकदेवाभिलापेनेति । अथानयोर्नामार्थे प्रायनाइ - "ले केणं" इत्यादि प्रश्नसूत्रं व्यक्तम् । [। उत्तरसूत्रे यमक पर्वतयोस्तत्र है
प्रदेशका बाबतिपट्टि बनान बापदादादीनि यानि तथा यमप्रमाथीति
यमको यमकपर्वतस्तत्प्रभाणि तदाकारा थे यमन यमर्थः । यदि बा यमकाभिधानौ द्वौ देवौ महर्दिकी, अत्र परिवसतः तेन बमकाविति शेषं प्राम्यत् । प्रधानयो राजधानी प्रभावसरः- "कहि " इत्यादि महन्त यमकबोवयोमानाम ! ते! जम्बूद्वीपे द्वीपे मन्दस्य पर्वताम्यस्मिन् जम्बूद्वीपे दीपे द्वादशयोजन सहस्त्राण्यवगाह्यात्राम्हरे यमकपोर्वेयोर्थमिके नाम राजधान्य से द्वादश जनसहस्राण्याचामविष्कराभ्यां जनसहस्राणि जय व योजनशतानि चत्वारिंशदधिकद्विशेषाधिकानि परिक्षेपेण प्रत्येकं प्रत्येकं द्वे अपि प्राकारपरिक्षिप्त । कीतौ प्राकाराविति, तदस्वरूपमा" ते. पणं पागारा" इत्या दि। सीमकारी योजनानि योजनाह स्वेनोद योजनं येषु ताम्पदेयानि योजनानि विष्कम्भेण मध्ये पदानि
"
तो मध्यविध्यन्नस्यार्द्धमात् उपरि आणि सानिको योजना अस्थापि म विमानस्यादमूले विस्ता पदत्रयं विवृतप्रायम्, बहिर्वृतौ कोणावनुपलक्ष्यमाणत्वात् भ तुरस्रः पलायोद
किमाह-"ते णं पागारा णाणामणि" इत्यादि । तौ प्राकारौ नानामणीनां पद्मरागस्फटिक मरकताञ्जनादीनां पञ्च प्रकाश वर्णा येषु तानि यैः तथा तैः कपिशीर्षकैः प्राका राम्रैरुपशोभिती एतदेव विवृणोति तथा रिति कपिशीर्षकारणामुच्चत्वादिमानमाह - " ते णं" इत्यादि नि गदसिरुम । प्रधानयोः कियन्ति धाराणीत्याद" जमिगा" इत्यादि। यमिको राजधाम्योरेकैक वाढायां प तानि द्वाराणि - जानिये एकजनाको विकरमेण तावदेव प्रवेशकरकनकस्तूपिका मि ६ लाघवार्थमविदेशमाद-पहिमानं सूर्यमा मर्क, तस्य वक्तव्यतायां यो द्वारवर्णकः, स इहापि प्राह्यः । यामाह
विजयद्वारप्रकरणेोऽन
तिदिययोजनांन ख एमवक्तव्यमाह जमियाणं इत्यादि। यमिकयो राजधा
"
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(१३६६) जमग अन्निधानराजेन्डः।
जमग न्योधतुर्दिशि, चतसृणां दिशां समाहारश्चतुर्दिक, तस्मिंस्तथा, सोनिए" इति । अत्र व्याख्या सुगमा। अथ यमकदेवयोमूलप्रा. पूर्वादिग्वित्यर्थः। पञ्चपञ्च योजनशताम्यबाधयाऽपान्तरास कृत्व- सादस्वरूपमाह-"तस्सणं" इत्यादि । तस्योपकारिकालयनस्य ति गम्यते। चत्वारि वनखएडानि प्राप्तानि । तद्यथा-अशोकवनं, बहुमत्यदेशभागे, अत्रान्तरे एकः प्रासादावतंसकः प्राप्तः । 'सप्तपर्णवनं, चम्पकवनम,प्राम्रवनमिति भयतेषामायामाचाह- द्वापष्टियोजनान्यद्धयोजनं चोर्दोश्चत्वेन , एकत्रिंशद्योजनानि "तणं वणसंमा" इत्यादि।तेच वनखएमाःसातिरेकाणि द्वादश क्रोशंचायामविष्कम्नाभ्यां वर्णको विजयप्रासादस्येच वाच्यः। योजनसहस्राणि भायामेन पञ्चयोजनशतानि विष्कम्भेण प्रत्ये. उल्लोचावुपरि भागे भूमिभागावधानागौ सिंहासने सपरि. कंप्रत्येकं प्राकारैः परिक्तिप्ता, कृष्णा इति उपलवितो जम्बूद्वीप- वारी सामानिकादिपरिवारमासनव्यवस्थासहिते, यात्र पावरवेदिकाप्रकरणलिखितः. पूणों बनखएमवर्णको, नूमयः, उपकारिकालयनस्य प्रासादावतंसकस्य चैकवचनेन विपक्का प्रासादावतंसकाचं नणितव्याः। नूमयश्चैवम्-"तेसि णं वनसं- ताब द्विबचनेन विवक्षा, तत्सूत्रकाराणां विचित्रप्रवृत्तिकत्वा. माणं तो बासमरमाणिज्जा नमिनागा पमत्ता।से जहाणामए दिति । अथास्य परिवारप्रासादप्ररूपणमाह-"एवं पासायपंतीमालिंगपुक्खारे पा० जाव णाणाधिपंचवसहि मणीहिं भईव- भो वि" इत्यादि । एवं मूलप्रासादावतंसकानुसारेण परिवा. उवसोभिमा" इति । प्रासादसूत्रमप्येवम्-"तेसि पंवणसंडाणं रप्रासादपक्तयो ज्ञातव्याः जीवाभिगमतः, पक्क्तयश्चात्र मूलबहुमज्द सन्नागे पत्तभं पत्तेभं पासायघडेसप पयते । तेणं प्रासादतश्चतुर्दिषु पनानामिव परिकेपरूपा अवगन्तव्याः, न पासायव मेसया बाबर्द्धि जोमणाई अवजाभणं च नई उपते. पुनः सूचिणिरूपाः। तत्र प्रथमप्रासादपक्तिपात पषस-"से ण इकतीस जोमणाई कोसं च विक्खंभेणं प्रभुग्गयमसि- ण पासायघडेसप अमेहिं चसहिं तदपत्रपमाणमेसेहिं पाअपहसिमा य तहा बहुसमरमणिज्जे नूमिभाए होमो सी- सायवमेसरहिं सम्बो समंता संपरिक्खिते" स प्रासादाब. हासणा सपरिवारा, तत्थ णं चत्वारि देवा महिडिमा० जावं तंसकोऽन्यैश्चतुर्भिः प्रासादावतंसकैस्तदोषत्वप्रमाणमात्रैः, । पसिनोवमट्टिना परिषसंति।तं जहा-असोए,सत्तिवलेचंपए, अत्रोसत्वशम्दनोत्संधो गृह्यतें,प्रमाणशम्दन च विष्कम्भायामा, 'भषणे" इति भत्राशोकवनप्रासादेऽशोकवननामा देवः, एवं तेन मूलप्रासादापेक्तया अर्दोषत्वाविष्कम्भायामैरित्यर्थः। सर्वतः त्रियपि तमामा देवः परिक्सतीत्यर्थः । अथानयोरन्तीगव- समन्तात् संपरिक्तिप्तः । एषामुखत्यादिकं तु साक्षात् सूत्रक
कमाह-"जमिगाणं" इत्यादि । यमिकयो राजधान्योरन्तर्मध्य- देवाह-एकत्रिंशद्योजनानि कोशं चोयत्वेन, सार्कद्वाषष्टियोभागे बहुसमरमणीयो नूमिभागःप्राप्तः।वर्णक इति सूत्रगतप- जनानामर्दै एतावत पव लानात् । सातिरेकापीकाशादेन-"मालिंगपुक्खरे वा० जाव पंचवम्बेहि मणीहि उवसो- धिकानि, अषोडशानि साईपञ्चदशयोजनानि विष्कम्नाजिए वणसविनको जाष बहवे देवा य देवीमो य प्रासा- यामाभ्यामिति । अथ द्वितीयप्रासादपतिः। तःपानश्चैवम्-"ते णं यंतिजाव विहरति" इत्यन्तो ग्राह्यः । अत्र च उपकारिका- पासायबडेसया अमेहिं चहिं तदबुश्चत्सप्पमाणमत्तहिं पा. लंयनसूत्रमादर्शष्वरश्यमानमपि राजप्रश्नीयसूर्याभविमानवर्ण- सायव सपहिं सपर्दि सम्वनो समंता संपरिक्तित्ता" इति । के च रश्यमानत्वात् "तिमि जोपणसहस्माई सत्तया पंचाण- ते प्रथमपजिगताश्चत्वारः प्रासादाः प्रत्येकमन्यैश्चतुर्भिस्तदउए जोअणसए परिक्लेवेणं" इत्यादिसुत्रस्यान्यथानुपपत्तेच दोच्चत्वविष्कम्भायामैर्मूलप्रासादापेक्कया चतुर्भागप्रमाणैः प्रा• जीवाभिगमतो लिख्यते, आदर्शश्वदृश्यमानत्वं च लेखकवैगु- सादैः परिक्तिप्ताः, अत एवैते षोमश प्रासादाः सर्वसमयण्यादेवेति । तद्यथा-"तेसिणं" इत्यादि । तेषां बहुसमरमणी- या स्युः। एषामुञ्चत्वादिकं तु साकादेव सूत्रकृदाह-ते प्रासादाः यानां त्रुमिभागानां बहुमभ्यदेशभागे,अत्रान्तरे के उपकारिका- सातिरकाणि अर्द्धकोशाधिकानि साईपश्चदशयोजनान्युश्चत्वेसयने प्रज्ञप्ते, उपकरोत्युपष्टभ्नाति प्रासादावतंसकादीनीत्युप- न सातिरेकाणि कोशकोशचतुर्थाशाधिकानि, भीष्टमयोकारिका राजधानी प्रभुसत्कप्रासादावतंसकादीनां पीरिका,म. जनान्यायामविष्कम्भाज्यामिति । अथ तृतीया पक्तिः । तत्सभ्यत्र स्वियमुपकार्योपकारिकेति प्रसिका। उक्तंच-"गृहस्थानों प्रमेवम्-"ते ण पासायव.सया अमेहिं चउहिं तदद्धपत्तप्प. स्मृता रानामुपकार्योपकारिका।" इति । सालपनमिव गृहमिव माणमेत्तेहिं पासायवसपहिं सवो समता संपरिक्सित्ता" • ते च प्रतिराजधानीभव इति वे उक्त,बादश योजनशतानि प्रा- ते द्वितीयपरिधिस्थाः षोडश प्रासादाः प्रत्येकमन्यैश्चतुर्मियामविष्कम्भाभ्यां त्रीणि योजनसहस्राणि सप्त च योजनशता- स्तदोश्चत्वविष्कम्भायाममूलप्रासादापेक्वयाऽष्टांशप्रमाणोच्चनि पचनबत्यधिकानि परिकेपेण अर्कक्रोशं धनुःसहस्रपरिमाणं त्वविष्कम्भायामैः सर्वतः समन्तात् संपरिक्तिप्ताः । मत पवै. बाहव्येन सर्वात्मना जाम्बूनदमये अच्छे प्रत्येकं २ प्रत्युपकारि- ते तृतीयपक्तिगताश्चतुषष्टिप्रासादाः। एतेषामुश्चत्वादिप्रमाणं. कालयने पनयरवेदिके परिक्तिप्ते, प्रत्येक प्रत्येक वनखाएकवर्ण- सुत्रकृदाह-ते चतुःषष्टिरपि प्रासादाः सातिरेकाण्यष्टिमयोजको जणितव्यः । स च जगतीगतपनवरवेदिकास्थवनस्खएडा- नान्युपत्वेन, सातिरेकत्वं च प्राग्वत् । अष्टिानि अर्द्धतृतीनुसारेणेति, त्रिसोपानप्रतिरूपकाणि आरोहावरोहमार्गस्थानि यानि सातिरेकाणि सार्कक्रोशाष्टांशाधिकानि विष्कम्भायामाचतुर्दिशि पूर्वादिदिचु आयानि, तोरणानि चतुर्दिशि भूमिभाग- भ्याम् । एषां सर्वेषां वर्णकः-सिंहासनानि च सपरिवाराणि व कारिकालयनमध्यगतो भाणतव्यः । ततसूत्राणि जीवाभि- प्राम्पल । अत्रच परुक्तिप्रासादेषुसिंहासनं प्रत्येकमेक,मूलप्रासादे गमोपाङ्गगतानि क्रमेणैवम-"से णं वणसमें देसूणाई जोषणाई तु मूलसिंहासनपरिवारोपेतमित्यादिना केत्रसमासवृत्तौ श्रीचक्कचालविक्खंजेणं खयारिवाल यणसमए परिक्वेवणं, तेसि · मलयगिरिपादाः। तथा प्रथमतृतीयपङ्कचा मूलप्रासादे सपरिण उवयारिाजयणाणं चउदिसिं चत्तारि तिसोवाणपडिरूवगा वारे भहासनानि, द्वितीयपक्तौ च परिवारे पचासनानि जीवा. पम्मत्ता । वमो. तेसि णं तिसोवाणपभिरूवगाणं पुरओ पत्ते- भिगोपाल इत्यादि विसंवादसमाधानं बहुश्रुतगम्यम् । अं पत्ते तोरणा पमसाविमो, तेसि णं उवयारियालयणाणं | यद्यपिजीवाभिगमे विजयदेवप्रकरण, तथा श्रीभगवत्यङ्गवृत्ती उपि बहुसमरमणिज्जमिनागे पडते. जाव मणीहिं उच- चरमप्रकरणे, प्रासादपङ्किचतुष्क, तथाऽप्यत्र यमकाधिकारे
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जमग
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पक्षियं बोध्यम् । पत्रप्रासादसंग्रह यम| मूलप्रासादेन सद सर्वसंख्यया पश्चाशीतिः प्रासादाः ८५॥ अयात्र सभापञ्चकं प्रपञ्चयितुकामः सुधर्मसभास्वरूपं निरूपयति-" ते स णं" इत्यादि । यो प्रासादायकयोरुतरपूर्वस्यामं शान-कांग्रेऽस्मि भागे चमकाययोग्य सुध नामे सभे प्रकृते । सुधर्माशब्दार्थस्तु सुष्ठु शोभनो धर्मो देवानां माणवकस्तम्नवर्सिजिनस कृपया शातनाभीरुकत्वेन देवाङ्गनाजोगविरतिपरिणामरूपो यस्यां सा तथा । वस्तुतस्तु सुष्ट् शोभनो धर्मो राजधर्मः समन्तुनतुनिग्रहानुग्रहस्वरूपों यस्यां सा तथा योजनाम्यायामेन कोशानि योजनानि विष्कम्भे योजना अस साथै सावर्णकसूत्रमतिविशति अनेकस्तम्भशतस्वादिति सभावको जीवाभिगम को सम् " भगवंभसय सपिविष्ठाम्रो भन्नुग्गयसुकयवहरतोरणवररश्चसालनंजिला सुसिबिबिसिष्ठ संठिअपसत्यवे रुनि - अमित जाओ गाणामणिकणगरयणखश्चिम उज्जल बहुसमसुविभमिनागाओ ईगिरणगरम गरमाकिनरददसरतचमरकुंजरवणलपपडमल यति-तुग्गयबरवे श्रापरिगयाभिरामाओ विजाहरजमलजुअल जंतजुचाओ विष अचा सहस्तमालणी आश्रो कवणसदस्लकनिमाणो निम्भिसमाजीओ चलो असे सा सुफा साम्रो सस्सिरीचसुरुवाओं चणमनिरयणभूमिअगामी माणाधिपंच कापडापरिमंदिअभ्यसिहराओ धवलाओ महकायविणिम्मुतीमो बाउलोममहिमाओ गोसीससर ससुरनिरतचंद दापयंमित उप
कसाओ बंदणयसुकवतोरण परिवार नागाओ - सटोसन्सविषबारिमा सरस सुरदि मुकपुष्फ पुंजोबयारकलिश्राओ कालागुरुपबारकुंड रुकतु.कधूवडज्जत मघमघंतगंधधू आभिरामाओ सुगंधबरगंधिमाश्रो गंधिवा संघको दिग् इसपदि सम्वरणामो पछाडि शो" इति । अत्र व्यास्यातु सिकायतनतो रणादिवर्णकेषु वृत्तिन्यायेन सुलभति न पुनरुच्यते, नवरम् - अप्सरोगणानाम अप्सरः परिवाराणां यः संघः समुदायस्तेन सम्यक रमणीयतया विकीण बाकी दिव्यानां निमो शब्दास्तेः सम्यदारिता प्रकाशदी शेषं प्राग्वत् । अथास्यां कति धाराणीत्याह -" तासि णं स भा" इत्यादि । तयोः समयोः धर्मयोदशी द्वारा णि प्रकृतानि, पश्चिमायां द्वाराभावात् । तानि द्वाराणि प्रत्येकं द्वे योजने बसवेन योजनमे प्रवेशेन इत्यादिपन सूचितः परिपूर्णो द्वारवर्णको बाच्यो यावद्वनमाला । अथ मुखमदरूपपरिचनियाद इ त्यादि । तेषां द्वाराणां पुरतः प्रत्येकं प्रत्येकं त्रयो मुखमएकपाः प्रशप्ताः, सभाद्वाराप्रवर्तिनो मएमपा इत्यर्थः । ते च मएकपा त्रयोदश योजनाम्यायामेन सोशानि करण सातिरेके द्वे योजनाम तंत्रसय समिविष्ठा " इत्यादिवर्णनं सुधर्मासना व निर बशेषं यावद्वारा भूमिभागानां व वर्णनं पराप्यत्र
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४ १६
६४ मूलप्रा० १ सबसं ००४
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( १३६७) अभिधानराजेन्खः ।
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तमेव
देशमुखश्रमेत्रायाति तथापि जीवाजिगमादिषु मुखमररूपवर्णके भूमिभागवर्णकस्यात् यत्रातिदेशः । अथ मेकामड पर्णक
लाघवादादष्ापरवाइत्यादि
रङ्गमएमपानांपेष मुखमएमपोकमेच प्रमाणं भूमिभाग इति पदेन सर्वे द्वारादिकं भूमिभागपर्यन्तं वाच्यम् । एषु च मणिपीठिका वाकया । पतावदर्थसुचकमिदं सूत्रम् - "तेसि णं मुहमं वाणं पुरश्रो पत्ते पत्ते पेच्छाघरसंरुवा पणता तेणं पेच्याघर मंगवा अद्धतेरसं जो णाई भाया मेणं० जाय दो जोभणाइं बहुं उच्च लेणं० जाव मणिफासा, तेसि णं बहुमज्झत्रे सभाप पअं पत्ते वइरामया अक्वाडया पत्ता, तेलिणं बहुम
देसभा पचे पचेनं मणिपेटिमा पसा हि " प्रार्थनयमपाठः तुराकारी मणिकाधारविशेषः अस्याः प्रमाणाद्यर्थमाह-माओ मायामधिवसंमेण सम्यमणिमयीहासणा भाणिषा " इति । अत्र सिंहासनानि भणितव्यानि सपरिवाराणीत्यर्थः । शेषं व्यकम् । प्रथ स्तूपाच सरः-" तेसि
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" इत्यादि । तेषां प्रेक्षागृहमएमपानां पुरतो मणिपीठिकाः, अत्र बहुवचनं न प्राकृत शैली प्रबं, यथा द्विवचनस्था मे बहुतवनं " हत्था पाया " इत्यादिषु किं तु बहुत्वविषकार्ये, मात्र तिसृषु प्रेक्षागृह मण्डपहार दिनु पकैकसद्भावात् तस्रो प्रायाः अन्यत्र जीवाभिगमादिषु तथादर्शनात् । मथेतासां मानमाह" ताम्रो णं " इत्यादि कराव्यम्, यद्यप्येतत्सुयादशेषणं श्रायामधिकमेवं मह इति पाठो दृश्यते, तथाऽपि जीबाभिगमपाठष्टत्वेन राजप्रश्रीबादिषु प्रेक्कामएमपमणिपीठिकालः स्तूपमणिपीठिकाया द्विगुणमानत्वेन त्वाश्चायं सम्यक् पाठः संभाव्यते । भादर्शेषु त्रिपप्रमादस्तु सुप्रसिद्ध एव । अथ स्तूपवर्णनायाह - "तासि णं" इत्यादि । तासां मणिपीठिकानामुपरि प्रत्येकं प्रत्येकं त्रयः स्तूपाः प्रकृताः। जीवा निगमादी तु वस्तुप इति योजने स्वेन द्वे योजने मायामविष्कम्भाज्यां व्याख्यातविशेषप्रतिपतिरिति देशाने योजने मायामविष्कम्भायां ब्राह्यः अन्यथा मणिपीठिका स्तूपयोरभेद एव स्यात् । जीवाभिगमादौ तु सातिरेके द्वे योजने उच्चत्वमित्यर्थः । ते च श्वेतः, तत्वमेयोपमा यति-( संजदल ति) पावदकरणात् -"संख 'दस विमल निम्मलदधिघणगोखी र फेणरययनिअर पगाला स वरयणामया अच्छा० जाब परिरूवा " इति प्राग्वत् । कियद् दूरं प्राह्यमित्याह यावदष्टाष्टमङ्गलानीति । श्रथ तच्चतुदिशि यस्ति तदाह-खिला "इत्यादि तेषां पानां प्रत्येकं चतुर्दिक्षु चतस्रो मणिपीठिकाः प्रकृप्ताः । ताख मणिपीठिका याजनमायामविष्कम्भेण योजनायेन अत्र जिनमतिमाचम" तासि णं मणिपी. दिश्राणं चपि पत्ते पशेनं चत्तारि जिणपाडमा चो जिगुस्सेहयमाणमेत्ताओ पलिश्शंकणिसमाश्रो युभाभिमुहीश्रो
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जमग
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कित्ताओ चि ंति । तं अदा-उसभा वकमाणा चंदागणा वारिणा " इति । एतद्वर्णनादिकं बैताख्य सिद्धायतनाधिकारे प्रागुक्तम् । गताः स्तूपाः । “बेइ अरुक्खाण" इत्यादि व्यक्तम् । अत्र चैत्यवृक्कवर्णको जीवाभिगमोतो बाब्यः । स चायम्- "तेसि णं वेश्श्श्ररुक्खाणं प्रथमेश्रारुवे वलावासे पइसे तंजावर तर यसपट्टि मविडिमारामय
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( १३६८ ) अभिधानराजेन्द्र
जमग
कंदा बेलि अरुलखंधा सुजायवरजायरूवपढमविसालसाना लायामणिरयण विविहसायला हवे रुलिअरत्ततवणिजपसवेटा यूजरसमस सुकुमा लपवास पर वि सिमरियणसुनकुसुम फल भरणमिच साला सच्छाया सम्पमा सस्सिरीमा खनजोमा श्रमयरससमरसफला अहिअयणमणियुस्करा पासादी आजाद परिवा४इति व्याख्यातां कैस्यवृक्षाणामयमेो वचवासः प्रकृतः । तद्यथा-'बज्ररत्नमयानि मूलानि येषां ते वज्रमूलाः, तथा रजताजमा सुप्रतिष्ठिता विकिमा बहुमन्यदेश निर्गता शाखा येषां ते तथा । ततः पूर्वपदेन कर्मधारयः । रिष्ट
मयः कन्दो येषां ते तथा वैडूर्यरज्ञमयो रुचिरः स्कन्धो येषां ते तथा ततः पूर्वपदे कर्मधारयः सुजातं मूलरून्यशु★ वरं प्रधानं यजातरूपं रूप्यं तदाश्मिकाः प्रथमिका मूलभूता विशाला शालाः शाखा येषां ते तथा, नानामणिरक्षात्मिका विविधाः शाखामूलशाखा विनिर्गतशाखाः प्रशाखा येषां ते तथा । तथा बैडूर्याणि बैमूर्यमयाणि पत्राणि येषां ते तथा । तथा तप्ततपनीयानि तपनीयमयानि पत्रधून्तानि येषां ते तथा । ततः पूर्वष पीन कर्मचारयः जाम्बून्द जाम्बूनदनामसुवर्णविशेषमा रक्तवर्दा मुसुकुमारा अत्यन्तकोमजाः प्र बाबा ईषडुम्मीलित पत्र जावाः पश्चवजात पूर्ण प्रथमपत्र भावरूपा बरा प्रथममुद्भिद्यमानास्तरमा धरत ते तथा दि चित्रमणिरत्नमयानि सुरभीणि कुसुमानि फलानि च तेषां भरेण नमिता नामग्राहिताः शाखा येषां ते तथा सती शोभना छाया येषां ते सायाः एवं सत्प्रभाः । अत एव सच्छ्रीकाः । तथा सोमरक्षा रसानि फलानि येषां ते तथा अधिकं नयनमनोविशेषं प्रा "से बेहद बिहू तिलपवतोय. गलिरीसस शिवपदहिवस लोधवबंदणनीव कुडयकयंवपणसतासमामपिपियंगुपाराचवराय रोहिं
समता संपता स तिलकाय गळत्रोपगशिप सप्तपदधिप लोधवचन्दनपकुटज कदम्बपन सतासतमाल प्रियास प्रियङ्गपारापतराज वृकन
वृकैः सर्वतः समन्तात् संपरिक्षिप्ताः । एते च वृक्षाः केचिचाम कोशतः केचिलोकतश्वावगन्तव्याः । "तेणं तिसया जब मंदिरमा मूलतो कंदतो० जाव सुरम्मा" ते च तिल-कादयो वृका] मूलवन्तः कन्दवन्त इत्यादि वृकवर्णनं प्रथमो-पाङ्गतोऽवसेयं, यावत् सुरम्या इति । " ते णं तिलया० जाव चाहिं बहु पढमलयादि० जाव सामनाहि - सम्बनो समंता संपरिक्खिता । " ते च तिलकादयो वृक्षा अन्याभिर्बहुभिः पद्मताभिर्याषष्ठद्यामलताभिः सर्वतः समतात संपरिक्षिप्ताः । यावदादत्र नागलताच रूपक मताचा प्रायाः । " तांचो णं पडमलयामो० जाव सामन्याश्रो नियं कु०जाब पडिकाओ । ताश्च पद्मश्नताया नित्यं कुसुमिता इत्यादि सतावर्णनं वाक्प्रतिरूपा से मि " तेषां वैत्यकाणामुपरि श्रावौ मङ्गलकानि बहवः कृष्णवार प्रणित्वादिकम् तात्याः अथ महेन्द्रवजावसरः- सिबेम इत्यादि। पुनस्तिमणिपीडि काः प्रकृताः । ताख माणविका योजनमायामविष्कम्नाभ्याम्
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"
जमग
श्रयोजनं बाल्येन, "तासि णं उप्पिं पतेचं" इत्यादि । तासां मणिकानामुपरि प्रत्येकं प्रत्येकं महेन्द्रध्वजाः प्रहाः । से मानावे अर्द्धको घ मुखमुन त बाल्ये "दहरामचव " इति पालक परिपूर्ण जीवनिगमायुक्तवको प्राह्मः । सायम्-"निपरिधम सुपर
अमरपंच सहपरिमंमिमा बाउद्भूअविजयवेजयंती पभागा उताइच्चस कलिआ लुंगा गगणतसमभिसंघमासा सिहरा पासाद। श्रा० जान पमिरूवा" इति । अत्र व्याख्या-वज्रमयाः तथा वृत्तं वर्चुलं लष्टं मनोशं संस्थित संस्थानं येषां ते तथा, तथा सुठिष्टा यथा भवन्ति एवं परिघृष्टाः खरशाणपाषाणप्रतिमेव सुष्टिपरिघृष्टाः, तथा मृष्टाः सुकु मारशाणया पाषाणप्रतिमेव तथा सुप्रतिष्ठिता मनागप्यचलनात् तथा धरैः प्रचीनां खघुपा सहस्रैः परिमण्डिताः सन्तोऽभिरामाः शेषं प्राग्वत् । "तेसिणं महिदभयाणं सप्पिं अठठमंगलयाऊया कृत्ताच्छता " इत्यादि सर्व तोरणवर्णक इव वाच्यं जीवाभिगमत इति । उका महेन्द्राः अथ पुष्करिण्यः" इत्यादिपर्वत तथा सिणं मह
यापुतिदिथितारिणी
जोधा बायामेो विष दस जो उम्मेद्देणं अच्छा सहापुरी
पप परवेश्मपरिप पत्ते वणकपरिक्षितम्रो वसो” तथा “तासि णं णंदापुकारिणामं परोपमं विद्धिसि तो तिसोवाणपणा पता । तसि णं तिसोवाणपरुषगाणं वाओ, तोरणवसभो अभाणि अत्रो० जाब उताइत्ता" इति । अत्र जगतीगतपुएकरिणीवत् सबै वाच्यम् । अथ सुधर्मसभायां यदस्ति तदाह"तासि "इस्यादि । तयोः समयः सुभयोःमोकान पीठिकानां तथादि-पूर्व
मायामेकं सहस्रम, उतरख्यामक सहस्रम्,“जाब दामा" इत्यत्र यांषत्पदादिदं ब्राह्यम्-"तासु णं मणोगुमिधासु बढ्ने सुत्रका रुपमया फलगा पाता । तेलि सं सुखरुपमसुफल गेसु बहवे बश्रामया नागदंतगा पचता । तेसु णं बश्रामपसु नागदतंसु बहवे किएहसुधारि दामकलाबा०] जान सुकिल सुत्तबन्धारिभ्रमनुदामकलावा तेणंदामा तवणिज्जलंबूलगा विडंति" इति सर्वे विजयद्वारबदू वा कंगोमानतिविशतिमा
सिनाओ" इत्यादि । एवं मनोगुलिकान्यायेन गोम्रानस्यः शय्यारूपाः स्थानविशेषा वाच्याः, नवरं दामस्थाने धूपवर्णको वाच्यः । अथास्या एव भूभागवर्णकमाह-" तासि णं " इत्यादि । यो यो सो प्रस्तसमरमणीयो भूमिभागः प्रकृतः । अत्र मणिवर्णादयो वाच्याः, उल्लोचाः पद्मनादयोऽपि च चित्ररूपाः । अत्र विशेषतो यद्वक्तभ्यं तदाह- "मणिपदश्रा" इत्यादि । भन्न सुधर्मयोर्मध्यनागे प्रत्येकं मणिपीठिका वाच्या, i द्वे योजने आयामविष्कम्भाभ्यां योजनं बाल्येन "तासि णं" इत्यादि । तयोर्मणिपीठिकवोरुपरि प्रत्येकं माणवकनाम्नि चे त्यस्तम्भमहेद्रजसमा प्रमाणोऽययोजना दष्टमयोजनप्रमाण इत्यर्थः । वर्णकतोऽपि महेन्द्रध्वजवत् उपरि
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(१३६६) जमग - अभिधानराजेन्द्रः।
जमग पद क्रोशानवप्राय, उपरितनषदकोशान् वर्जयित्वेत्यर्थः । प्रध. नराणां च नराधीशै-नराधीशां सुरैः क्वचित् ॥ ६ ॥ स्तादपि षट् क्रोशान् वर्जयित्वा मध्येऽर्धपञ्चमेषु योजनेषु शति सुराणां च सुराधीशां, कलहो वा पुनः कथम् । गम्यम् (जिणसकहाउनि)जिनसक्थीनि जिनास्थीनीस्यम्त- केन वा स हिवार्यत, बजाग्निरिव दुःशमः ? ॥७॥ र्जातीयानां जिनदष्टाग्रहणेऽनधिकृतत्वात सौधर्मशानचरमब- माणवकास्यस्तम्भस्था-ऽहंइंट्राशान्तिबारिणा.। स्लीन्छाणामेव तद्ग्रहणात प्राप्तानीति, शेषो वर्णकश्चात्र जीवा- साधिव्याधिमहादोष-महावैरनिवारिणा॥८॥ भिगमोक्तो केयः । स चायम्-" तस्स जे माणवगचे अस्स कियरकालव्यतिक्रान्ते, सिक्तो महत्तरैः सुरैः। खंभस्स उवरि कोसे प्रोगादिसा हिला बिग्कोसे वजित्ता बभूवतुः प्रशान्तौ तौ, किंवा सिलोन नजतात ॥ युग्मम मम्झे अरूपंचमेमु जोत्रणेसु, एत्थ णं बहये सुवमरुप्पमया ततस्तयोमिथस्त्यक्त-वैरयोः सचिवद्वयोः। फलगा पमना । तेसु णं बहवे वश्रामया णागदंतया पसत्ता। प्रोचे पूर्वव्यवस्थैवं, सुधियां समये हि गीः ॥ १० ॥ तेसु णं बहवे रययमया सिकगा पत्ता । तेसु णं बहवे.
सा चैवम्वश्रामया गोमवया समुग्गया पएणता, तेसु णं बहव जिणसकहाओ संणिक्खित्ताओ चिति । जानो जमगाणं । • दक्षिणस्यां विमाना ये, सौधर्मेशस्य तेऽखिलाः । देवाणं अन्नसिं च बहणं देवाण य देवीण य अधिजामो बंद- ____ उत्तरस्यां तु ते सर्वेऽ-पीशानेन्जस्य सत्तया ॥ ११ ॥ णिज्जाबो पूअणिजानो सक्कारणिज्जाश्रो सभ्माणणिजाओ पूर्वस्यामपरस्यांच, वृत्ताः सर्च विमानकाः। कहाणं मंगलं देवयं चेइ पज्जुनासणिज्जात्रो" इति । अत्र प्रयोदशापीन्द्रकाश्च, स्युः सौधर्मसुरोशितुः ॥१२॥ व्याख्या-" तस्स एं" इत्याद्यारज्य "वाजत्ता" इति पर्यत पूर्वापरदिशोः व्यना-श्चतुरस्राश्च ते पुनः । प्रायः प्रस्तुतसूत्रे साक्वाद् इत्यादनन्तरमेव व्याख्यातम, सौधर्माधिपतेरी, ईशानचक्रिणः पुनः॥१३॥ मध्ये पामेषु योजनेषु, अवशिष्टयोजनवित्यर्थः। अत्रान्तरे सनत्कुमारमाहेन्के:ऽप्येष एव भवेत्क्रमः। बहूनि सुवर्णरूप्यमयानि फलकानि प्राप्तानि, तेषु फल केषु वृत्ता एव हि सर्वत्र, स्युर्विमानेन्द्रकाः पुनः ॥१४॥ बहवो बज्रमया नागदन्तकाः प्रशताः, तेषु नागदन्तकषु बहूनि इत्थं व्यवस्थया चेतः-स्वाथ्यमास्थाय सस्थिरौ । रजतमयानि शिक्यकानि प्राप्तानि, तेषु शिक्यकषु बहवो ब- विमत्सरी गतक्रोधी, जकाते तो सुरेश्वरी ॥ १५॥" जमयाः गोलको वृत्तोपत्रस्तद्वद् वृत्ताः समुद्गकाः प्रसिकाः
अथ प्रकृतं प्रस्तूयते-" माणवगस्स" इत्यादि । माणप्राप्ता,तेषु समुदगकषु बहूनि जिनसक्थीनि संनिक्षिप्तानि ति
कचैत्यस्तम्भस्य पूर्वस्यां दिशि सुधर्मायामेव सभायां सिंहाष्ठन्ति, यानि यमकयोर्देवयोरन्येषां च बहनां यमकराजधानी
सने सपरिवारे स्तः, यमकदेवयोः प्रत्येकमकैकसद्भावात् । तबास्तव्यानां वाणमन्तराणां देवानां देवीनां च अर्चनीयानि चन्द
स्मादेव पश्चिमायां दिशि शयनीये वर्णकम्तदीयः श्रीदेवीमादिना , बन्दनीयानि स्तुत्यादिना, पूजनीयानि पुष्पादिना ,
वर्णनाधिकारे उक्तः, शयनीययोरुत्तरपूर्वस्यां दिशि हलकमदे. सत्कारणीयानि वनादिना, समाननीयानि बहुमानकरणतः कल्याणं माल दैवतं चैत्यमिति पर्युपासनीयानीति । ए.
ध्वजो स्तः, तौ च मानतो महेन्मध्वजप्रमाणौ साईसप्तयोताशातनाभीरुतयैव तस्मात्ते देवा देवयुवतिभिर्न संभो
जनप्रमाणावुष्यत्वेन अर्द्धक्रोशमुद्वेधेन, बाहल्याज्यामित्यर्थः । न. गादिकमाडियन्ते, नापि मित्रदेवादिभिर्हास्यक्रीडादिपरा:
नु यदीमा प्रागुक्तमहेन्द्रध्वजतुल्यौ तदा किमिमौ कुल्लकेन वि.
शेषितौ ? उच्यते-मणिपीठिकाविहीनौ अत एवं कुल्लकावित्यस्युरिति । ननु जिनगृहादिषु जिनप्रतिमानां देवानामर्चनीयत्वादिकमाशातनात्यागश्च युक्तः, तासां सद्भावस्थापना
र्थः। द्वियोजनप्रमाणमणिपीविकोपरिस्थितत्वेन पूर्व महान्ती रूपत्वेनाराध्यतासंकल्पना वसंभवात् ; न तथा जिनदंष्टा
महेन्द्रध्वजास्तदपेक्कया इमौ च क्षुल्लकावित्यर्थादागसमिति । दिषु, तेन कथं तौ घटेते?, पूज्यानामङ्गानि पूज्या इव पूज्यानी
तयोः सुखमहेन्द्रध्वजयारेककराजधानीसंबन्धिनी २ परेण प. ति संकल्पस्यात्रापि प्रादुर्भावात् । पूज्यत्वं महाबैरोपशमक
श्चिमायां"चोप्फाला" नाम,प्रहरणकोशःप्रहरणभाएकागारं,तत्र गुणवस्वेन च । अस्मिन्नर्थे पूज्यश्रीरत्नशेखरसूरीन्छोपकश्राव
बहुनि परिघरत्नप्रमुखाणि यावत्पदाहरणरत्नानि संनिक्किप्ताकविधिवृत्तिसमतिः। तथाहि-परीकाप्राप्तनिर्लोभतागुणं रत्न
नि तिष्ठन्तिा "सुहम्माणं"इत्यादि।सुधर्मयोरुपर्यष्ट्राष्टमसकानि सारकुमारं प्रति चन्द्रशेखरसुरेणोचे
इत्यादि तावद्वक्तव्यं यावद बहवः सहस्रपत्रहस्तकाःसर्वरत्नमया
इत्यादि। सुधसनातः परं किमस्तीत्याह-"तासि णं"इत्यादि। "हरिषेणाणीहरिणे-गमेध्यनिमिषाग्रणीः॥
तयोः सुधर्मयोः सभयोरुत्तरपूर्वस्यां दिशि द्वे सिकायतने युक्तमेव हि स्वतश्लाघां, कुरुते सुरसाक्तिकम् ॥१॥ प्राप्त, इति शेषः । प्रतिसनमेकैकसद्भावादिति । अत्र लाघबक्ति स्म विस्मयस्मेरः, कुमार ससुरामणीम् ।
वार्थमतिदेशमाह-एष एव सुधर्मासभोक एव जिनगृहाणा. मामलाघ्य श्लाघते कि, सोऽप्युवाच गृणु बुवे ॥२॥ -मवि गमः पागेऽवगन्तव्यः । स चायम-"ते णं सिकाययणनवोत्पत्रतयाऽन्यहि, सौधर्मशानशकयोः।
असतेरसजोषणाई श्रायामेणं कसकोसाई विक्वंनेणं एव विवादोऽभूविमानार्थ, दार्थमित्र हर्मिणोः ॥ ३ ॥
जोमणाई उकं उच्चत्तेणं अणगखंजसयसमिविठा" इत्यादि। विमानसक्षा द्वात्रिंशत, तथाऽष्टाविंशतिः क्रमात ।
यथा सुधर्मायास्त्रीणि पूर्वदक्किणात्तरवर्तीनि द्वाराणि, तेषां सम्येतयोस्तथाऽप्येतो, विचदेते स्म धिम् भवम् ॥ ४॥ च पुरतः प्रेक्षामामपाः, तेषां पुरतः स्तूपाः, तेषां पुरतश्चतयोरिवोर्वीश्वरया-विमानम्प्रिमुग्धयोः। .
स्यवृक्षाः तेषां पुरतो महेन्मध्वजाः, तेषां पुरती नन्दापुष्कनियुद्धादिमहायुधाः, अप्यभूवन्ननेकशः॥५॥
रिराय उक्ताः, तदनु सन्नायां परामनोगुलिकासहखाणि पड निवार्यते हि करह-स्तिरश्चां तरसा नरेः। .
गोमानसीसहस्रागयुकानि । एवमनेनैव क्रमेश सर्व वाच्यम।
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(१४००) अभिधानराजेन्द्रः ।
जमग
मत्र सुधर्मातो यो विशेषस्तमाह- " बरं इमं णाणसं " इत्यादि व्यकम् अथ सुधर्मासमेव सनातुकमतिदि शन्नाह" असेसान वि" इत्यादि । एवं सुधमन्यायेनाशिष्टानामुपपात समादीनां वर्णन कियत्पर्यमित्याद यावदुपपातसभायामुपोपति नाथाभन पद्मदेवाभिषेक महोत्सवस्थानभूतायां बहु आमिषेयमभिषेकयोग्यं भाएकं वाच्यम् । तथाऽलङ्कारसनायामनिषिक्तसुरभूषणप रिधानस्यपनीयं वर्णन तथा हर वक यो भन्दापुष्करिणीमाना सि दितु ततोऽभिषेकसभायां स्थान पायां सुबलद्वारिक भाण्डमलङ्कारयोग्य भागमं तिष्ठति व्यवसायसम रशुभाध्यवसायानुचिन्तनस्थानरूपायाः पुस्तकरत्ने, ततो बलि पीठे अनयोरा मोत्यसुयोवेलिविसर्जनीडे शि
44
योजन आयामविष्कम्भाभ्यां योजनं वादयेनात्पदात्'सव्वरयणामया अच्छा पासाईश्रा ४" ततो नन्दाभिधाने पुष्क रिपोरिका सुमोन जियोरभोरअसुरयोस्तादान्ते तव सुत्रे प्रथम अपि नन्दापुरियो प्रयोजनमवशात् पश्चा धान्यायाख्यानस्य, अथ यथा सुधर्मासनात उत्तरपूर्वस्यां दिशि सिकायतनम, तथा तस्योत्तरपूर्वस्यां दिशि उपपातसभा, पर्व पूर्वस्मात् पूर्वस्मात् परम्परमुत्तरपूर्व वा या पीत्तरपूर्वस्य नन्दापुष्करिणीति । अत्र च " जमिगाओ रायहाणी" इत्यादिसूत्रेषु द्विवचनेन "तासिं० जाब पि मा "इत्यादिषेप्येकवचनेन निर्देशः रा प्रवृत्तियेदिति पनि काम राजधान्य तयो रधिपयोर्यम कदे वयोरुत्पत्यादिस्वरूपाख्यानाय विस्तररुचिः सूप्रकृत संग्रहगाथामाह-" उववाओं संकष्पो" इत्यादि । उपपातो यमकयोदेवोत्पतिर्याच्या तत उत्पक्षयोः सुरयोः शु व्यवसाय चिन्तितरूपः संकल्पः। ततः अनिषेक इन्द्राभिषेकः, ततःविभूषणा अलङ्कारसनायामलङ्कारपरिधानम्, ततो व्यवसायः पुस्तकरत्नोद्घाटनरूपः, ततः श्रर्चनिका सिद्धायतनाद्यर्था, ततः सुधर्मायां गमनं यथा च परिचारणा परिचारकरणं परिचारणा स्वस्वोक्तदिशि परिचारस्थापनमं, यथा यमकयोर्दे वयोः सिं डासमयोः परितो वामन समानिकानस्था पनं सेच ऋद्धिः संपत् नियतस्तु" बिंदु ना गादिषु " || ३ | ४ | ४२ ॥ इत्यनेन ( दैमसूत्रेण ) कारणार्थम् " णिवेच्या सधन्थघट्टचन्देरनः " । ५ । ३ । ११ । इत्यनेन चानप्रत्यये स्त्रीप्रत्यये साधुता वा जीवाभिगमादिज्यः । अथ यमकौ षहाश्च याचता अन्तरेण परस्परं स्थितास्तनिर्णेतुमाद" जावश्यं " इत्यादि । या वति प्रमाणे अन्तर्माने नीलवतो यमकौ भवतः । खलु निश्चि तं यावदन्तरं योजन सभागवतु भागाभ्यधिकं चतुशिदधि काष्टशतयोजनरूपं यमकद्रयोः, इद रूहाणां च बोध्यमिति शेषः । उपपत्तिस्तु प्राग्वत् । जं• ४ वक्ष० ।
-
जमगस मग - यमकसमक-अव्य० । युगपदित्यर्थे, जं० ३ बक्ष० । जी० । शा० ।
जमघोस यमघोष-पुं० क्षेत्रे आगामिन्यां चतुर्विंशतिकायां भाविनि चतुर्थे जिने, प्रव० ७ द्वार । जमजन्म - यमयज्ञ-पुं० । यमाः प्राणातिपातविरत्यादिरूपाः पञ्च,
जमदगि
त एव यशो भावपूजात्मकत्वात् विवक्तिपूज्यं प्रति इति यमयज्ञः । श्रहिंसादियमपालनरूपे नावयज्ञे, (उत्त० ) " यम इत्र प्राण्युपसंहारकारितया यमः स वासी यह मा हिंसामये अव्यय, उत्त० २५० जमशिया-यमनिका श्री० यमनिकाये साधूपक र विशेष,
स्था० ६ aro |
जमदग्नि-प (ज) मदद्मि-पुं० परशुराम पितरि तापसविशेषे,
( आ० क० ) ।
तत्कथा चैषम
1
वसन्तपुरबास्तव्यः, कचित्सन्नवंशकः । देशान्तरे मजनू सोऽथ प्रोगामीतकम यमाख्यस्तापसस्तत्र, स तत्पार्श्वेऽनिको ऽगमत् । प्रपमस्तस्य शिष्यत्वं स घोरं तप्यते तपः ॥ २ ॥ यमशिष्योऽनिक इति, यमदग्निरिति इतश्च जैनमाहेशा-वभूतां द्वौ सुरौ दिवि ॥ ३ ॥ स्वधर्म प्रशंसन्तापसी। परीक्षा युज्यते धर्मे, कर्तुमेतधीः ॥ 8 ॥ कचे श्राद्धः परीक्ष्यो नः, शैको वस्तापसोतमः । अथवा मोके परीक्षितुम ॥ ॥ अग्रे च मिथिलापुर्यो, राजा पद्मरथस्तदा । शतार्थी याति पायां, वासुपूज्यजिनासिके ॥६॥ गच्छतस्तस्य राजर्षेः, समुत्प्तेि सति क्रम । सर्वतः सूक्ष्ममण्डूक्यः क्रियन्ते स्म निरन्तराः ॥ ७ ॥ संस्था- श्रीमहाभयात्यधीः । मेघकुमार प्रात
॥ ८ ॥ दयालुं तन्मनोज्ञात्वा तौ ताः संहृत्य जग्मतुः । यमदग्नेः परीक्षार्थ, पुरातनमहाऋषेः ॥ ९ ॥ कृत्वा चटकयुग्मस्य, रूपं तत्कूर्चपजरे । स्थित्वाचे चटकः कान्ते! याम्यहं हिमचारिम् ॥ १० ॥ सोचे त्वं नेष्यसि ततो, लुब्धस्तश्चटिकारते ।
स चक्रे शपथान् गाढान्, प्रत्येति न तथाऽपि सा ॥ ११ ॥ ऊचे प्रत्येनिं शपथं कुरुषे प्रिय ! ऋषेरेतस्य पापेन लिप्ये नायामि यद्यहम् ॥ १२ ॥ उवाच चटकः कान्ते !, शपथं न करोम्यमुम् । महर्षिः क्षुभितोऽवोचत्तौ पाणिभ्यां विवृत्य सः ॥ १३ ॥ 'श्राः पापौ ! पातकं किं मे, यदेवं जल्पतो मिथः । चतुस्तौ महर्षे ! त्वं, मा कुपः शृणु नौ वचः ॥ १४ ॥ अपुत्रस्य गतिर्नास्ति, स्वर्गो नैव च नैव च । ॥ १५ ॥
मात्रमुखं
समिती मेने मु मिथ्याerथ संबुद्धो, देवः सम्यक्त्वमाप्तवान् ॥ १६ ॥ तस्यक्त्वा तापनाकष्टं, समासहस्रपालितम् । मदनी दो नगरं मृगको कम ॥ १७ ॥ जितपत्र प्रणम्याद किं ददे । स ऊ शतपुत्रीक !, पुत्री मेकां प्रयच्छ मे ॥ १८ ॥ शा या स्वामिच्छति सा ते स कन्यान्तःपुरं प्राप्त स्तानिस्तं वीक्ष्य यूरकृतम् ॥ १६ ॥ ऊचुश्च काकते।
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जमदग्गि
सोऽथ तचेष्टया रुष्टः, शदवा कुब्जीचकार ताः ॥ २० ॥ लरेनेका सुना दीकितं फलम
उक्ता चेच्छसि साऽऽदत्त, तत्करेणाऽऽददे स ताम् ॥ २१ ॥
1
ता अथोपस्थिताः कुब्जाः, श्यालिकात्वा हजूकृताः 1 स सगोदासिकायां तां, दत्तां राज्ञाऽऽश्रमेऽनयत् ॥ २२ ॥ पाणिग्रहणकाले च स तस्याः पाणिमग्रहीत् । ऋतुकालाचे पचामि ते ।। २३ ।। भवत्वेवं तथा कान्त !, स्वसा मे हस्तिनापुरे । अनन्तवीर्यार्याऽस्ति, तस्याः कात्रं चरुं पच ॥ २४ ॥ स पक्त्वा द्वौ च तस्याः, आर्पयत् साऽप्यचिन्तयत् । जाताऽटवी मृगी तावदहं मैवं सुतोऽप्यनुत् ॥ २५ ॥ ततः क्षात्रं स्वयं प्राश, ब्राह्मं जाम्यै न्ययोजयत् । अनूषामः सुतोऽथास्याः कार्तवीर्यः स्वसुः पुनः ॥ २६ ॥ रामेऽथो यौवनं प्राप्ते, तत्रागात्को ऽपि खेचरः । स चाकस्मादभून्मन्दो, रामेण प्रतिपातितः ॥ २७ ॥ विद्यां स तस्यादा-सां च सोऽसाधयने । पर्शुराम इति ख्यातः, ततः स पर्शुशस्त्रतः ॥ २० ॥ अन्यदारेाऽयासी भगिनीवेश्म तत्र च भगिनीमा
२५ ॥
9
जमदग्निरनिष-स्वपुत्रामपि तां ततः ।
रुपा व्यनीनशामा सपुत्रामपि रेणुकाम् ॥ २० ॥ तद्भगिन्यां श्रुतं तच्च कथितं स्वपतेस्ततः ।
सोऽथाऽऽगत्याऽऽभ्रमं नक्त्वा, गृहीत्वा गास्ततोऽवजत् ॥ ३१ ॥ पश्चात् परशुरामेण धावित्वा पर्शुना इतः । कार्तवीर्योऽनवाजा, ताराजा निस्तदङ्गजः ॥ ३२ ॥ सोऽथान्यदा पितुर्मृत्युं ज्ञात्वा रामकृतं रूपा । श्रागत्य पितरं तस्य, जमदग्निममारयत् ।। ३३ ।। ज्वलत्पर्युरथागत्य, रैणुकेयो रुषाऽरुणः || कार्तवीर्ये रणे हत्वा स्वयं राज्यं प्रपन्नवान् ॥ ३४ ॥ इतः पलायिता राशी, ताराऽगाचापसाऽऽश्रमम् । संभ्रमेणापतद् गर्भः, तस्या गृहन् भुवं रदैः ॥ ३५ ॥ सुभूम इति सा ववृधे तापसाश्रमे ।
परशुः परामस्य जज्वाल कत्रियान्तकृत् ॥ ३६ ॥ अन्यदामपान परामस्य गच्छतः।
. पर्शी ज्वलति तेनोक्ताः, भौताः स्वं क्षत्रियं जगुः ॥ ३७ ॥ परामः सप्तकृत्यः, किर्तिनिधित्
"
(१४०१) अभिधानराजेन्द्रः ।
स्थाल बनार दंष्ट्राजिस्तेषां मुक्ताकणैरिव ॥ ३८ ॥ एवं व्यधायि च क्रोधा-स्रामेण क्षत्रियक्कयः ।
नमयन्तः कुधं धन्याः, नमोऽर्दाः स्युः पुनर्जिनाः ॥ ३६ ॥ " आ० क० आ० चु० आ० म० । जमदग्निमा-जयदब्रिजटा श्री० बालके गन्ध
1
,
बे च । उत्स० ३ अ०
जमदग्गिपुत - जमदग्निपुत्र- पुं० । पर्शुरामे, जी० ३ प्रति० । जमपुरिससंकुल - यमपुरुष संकुल - नि० | यमस्य दक्षिणदिकृपाager अम्बापोऽसुरवशेवाः संकुल ये ते तथा । परमधार्मिककलितेषु प्रश्न ०१ श्राश्र० द्वार जयपुरियमनियमपुरुषसभित्र
परमाधार्मिक
क्रूरजने, प्रश्न० ३ आश्र० द्वार ।
३५१
जमालि
जमप्पभ - यमप्रभ - पुं० । चमन्द्रस्य यममहाराजस्य स्वनाम के उत्पात के उत्पात पर्वते, स्था० १० वा० ।
1
59
जमल - यमल - न० । यमं योगं लाति । ला-कः । युग्मे, वाच० । समश्रेणी के, रा० । जं० । उत्त० जी० भ० । अनु० ० विजा हरजमलजुअल जंतजुतं । ज०९ श० ३१०० । समसंस्थितव्यरूपे, रा० ॥ श्र० । " चक्कायनुसुमितरोहसयग्विजमलकवाघणदुष्पवेसा । " औ० । समे, शा० १० ८ श्र० । श्री० 1 निल्लालियजमनजुअलजीहं " शा० १० ८ [अ०] सहचर्तिथि, जमलजुल चंचल चलत" यम सहवतिं युगलं यं चञ्चलं यथा भवत्येवं चलन्त्यो रतिच पलयोर्जिह्वयोर्यस्य स तथा तमः प्राकृतत्वाच्चैषं समासः । भ० १५ ० १ ० । समानजातीययोर्युग्मे, रा० ।
66
जमलको डिया - यमनकोष्टिका स्त्री० । समतया व्यवस्थापितकुलिका ०२ ० "जमराकोडियासंग संठिया "
उत्त० २ अ० ।
66
"
1
जमलजुझ-पम युगल न० समानशीलेषु द्वन्द्वेषु, रा० जुलाई | आ० म० प्र० ।
33
"
जमलम्जुराजं जग- यमलार्जुन नजक श्रीकृष्ण सहि पितृरिणौ विद्याधरौ रथारूढस्य गच्छतो मारणार्थ पथि विनियमलार्जुनरूपी सरथस्य मध्येन गतः चूर्णनप्रवृत्तौ हतवान् । प्रश्न० ४ श्रश्र० द्वार ।
"
समणी के युग्मे, रा० जी० आ० म० । " विज्ञादजमल
जमलपद - यमलपद - न० । प्रायश्चित्तविशेषे, “यमलपदं नामतबकाला तेहिं विसेसिया कज्जति पढमपए दोहिं बघु. वितिय पर कालगुरु, ततियपर तब गुरु, चचत्थपए दोहिं वि गुरु । " नि० चू० १ ० ।
जलपप यमलप १० 'जमलपद' शब्दार्थे नि००९४० जमलपया इति तपःकालयोः संज्ञा । बृ० १३० । समपरिभाषयाऽष्टानामष्टानामङ्कस्थानानां यमलपदमिति संज्ञा । प्रज्ञा० १२ पद ।
जमलपाणि यमलपाणिपुं० मुष्टो भ० १० २० ३४० जलिय - यमलित - त्रि० । यमलं नाम सजातीययोर्युग्मं तत् संजातमेषां ते यमलिताः । रा० । जं० । जी० । युग्मीभूय व्यवस्थितेषु, समश्रेणितया व्यवस्थितेषु च । ज्ञा० १ ० १ अ० । औ० ॥ भ० ।
जमलीय- यमलौकिक पुं० अम्बादिषु परमाचा सूत्र १ श्रु० १२ श्र० ।
जमा - याम्या - स्त्री० | यमो देवता यस्याः सा याम्या । ० १० श० १ ० | दक्षिणस्यां दिशि, ओघ० । जमालि-यमालि-पुं० । महावीरजिनस्य जामातरि स्वनामख्याते प्रथमे निह्नवे, श्रा० क० । उत्त० स्था० कल्प० । तत्प्रयम्यश्चैवम्
तस्स णं माइणकुंरुग्गामस्स णयरस्स पच्चच्छि मेणं, एत्य णं खत्तियकुंमग्गामे णामं एायरे होत्था ।
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जमालि अभिधानराजेन्छः ।
जमालि तत्थ णं खत्तियकुंभग्गामे पयरे जमानी णामं खत्तिय- जाव सव्वा सम्बदरिसी माइणकुंकग्गामस्स एयरस्स कुमारे परिवस. अहं दित्ते. जाव अपरिजूए, उप्पि बहिया बहुसालए चेइए अहारूवं नग्गहं० जाब विहरह। पासायबरगए फुटपा योहिं मुयंगमस्थएहिं बत्तीसवछोडिं णं एए बहवे नग्गा जोगा० जाव अप्पेगइया बंदणनामरहिं. गाणाविहवरतरुणीसंपउत्तेहिं नवणचिज- वत्तियं. जाव णिग्गच्छति । तए णं जमाली खत्तियकुमाणे उवणच्चिजमाणे उबगिन्जमाणे नवगिजमाणे उव- | मारे कंचुइज्जपुरिसस्स अंतिए एपमहुँ सोच्चा लालिजमाये उवलालिजमाणे पाउमवासारत्त-सारद- णिसम्म हड्तुढे कोवियपुरिसे सहावेइ, सहावेत्ता हेमंत-ससिर-बसंत-गिम्हपज्जते छप्पि उऊ जहाविभ- एवं बयासी-खिप्पामेव भो देवाणुप्पिया ! चानघंटे वेणं माणमाणे काझं गालेमाणे इ8 सद्दे फरिसरसरूव- आसरहं जुत्तामेव उबटवेह, नववेत्ता मम एयमाणत्तिय गंधे पंचविहे माणुस्सए कामनोगे पच्चणज्जवमाणे वि. परचप्पिणह । तए णं ते कोवियपुरिसा जमालिणा हरदा। तए णं खत्तियकुंभम्गामे यरे सिंपामगतिग- खत्तियकुमारणं एवं वुत्ता समाणा पञ्चप्पिणंति । तए चउकचच्चरजाव बहुजणसदेश वा जहा उववाइ- णं से जमाली खत्तियकुमारे जेणेव मज्जणघरे तेणेव ए० जाव एवं पएणवेश, एवं परूबेइ, एवं खलु देवाणु- उवागच्च, उवागच्छपत्ता एहाए कयवलिकम्मे जहा प्पिया ! तमणे भगवं महावीरे आदिगरे० जाच सव्वएण् । उबवाइए परिसावएणो, तहा जाणियब्वं. जाव सम्बदरिसी माहणकुंकग्गामस्स एयरस्स बहिया बहुसा- चंदणोक्खिलगायसरीरे सव्वालंकारविनृसिए मज्जणधलए चेइए महापभिरूवं. जाव विहर, तं महप्फनं राम्रो परिणिक्खर, पडिणिक्खमइत्ता जेणेव पाहिरिखलु देवाणुप्पिया! तहारूवाणं अरहंताणं जगवंताणं जहा या उबट्ठाणसाला जेणेव चाउग्घंटे आसरहे, तेणेव नवाउबवाइए० जाव एगाभिमुहे खत्तियकुंडग्गामं एयरं मज्झं गच्छद, उवागच्चइत्ता चाउग्घटं आसरहं पुरूहइ, दुरूहमझणं णिग्गच्च, णिग्गन्छपत्ता जेणेव माहणकुंडग्गामे इत्ता सकोरंटमन्लदामेणं उत्तेणं धरिज्जमाणेणं महया पयरे जेणेव बहुसासए चेहए, एवं जहा उववाइए० जाव जमचडगरपहकरविंदपरिक्खित्ते खत्तियकुंडग्गामं एयर तिविहाए पज्जुवासणाए पज्जुवास, तए णं तस्स जमा- मझ मज्केणं णिग्गच्छ, णिग्गच्चइत्ता जेणेव माहणकुंलिस्स खत्तियकुमारस्स तं महया जणसई वा० जाव स- मग्गामे णयरे जेणेव बहुसालए चेइए तेणेव नवागच्छइ, हिवायं वा मुणमाणस्स वा पासमाणस्स वा अयमेया- उवागच्छइत्ता तुरिए निगिएहेइ, निगिए हेइत्ता रहं ग्वेद, रूवे अन्नथिए० जाव समुप्प जित्था, किं णं अज्ज | ग्वेदता रहाओ पच्चोरुहर, पचोरुहहत्ता पुप्फतंचूनाउहवत्तियकुंडग्गामे णयरे इंदमहेइ वा खंदमहेश् वा मुगुंदमहे- माइयवाणहाभो य विसज्जेइ, विसज्जेपत्ता एगसामियं नइ. वाणागमहेइ वा जक्खमहइ वा नूयमहेइ वा कूवमहेश तरासंगं करे, करेइत्ता प्रायते चोक्खे परमसुन्नए वा तहागमहेइ वा नईमहेइ वा दहमहेश वा पञ्चयमहेई बा | अंजलिमनलियहत्थे जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव रुक्खमहेइ वा चेश्यमहे वा यूवमहेश वा, जं. एए बहवे उवागच्छद, नवागच्चश्ता समषं जगवं महावीरं तिक्खुनग्गा जोगा राइमा इक्खागा पाया कोरवा खात्तया तो जाव निविहाए पज्जुवासणाए पज्जुवासइ । तए णं स्वत्तियपुत्ता भमा भरपुत्ता सेणावती पसत्थारो मेच्छा समणे जगवं महावीरे जमालिस्स खत्तियकुमारस्स मारणा इन्ना जहा नववाइए सत्यवाहप्पभितयो एहाया
तीसे य मह महालियाए सि० नाव धम्मकहा. जाव कयवालिकम्मा जहा उबवाइए० जाव णिग्गउंति, एवं सं- पमिसा पकिंगया। तए एंजमाली खत्तियकुमारे समणस्म पेहेड, संपेहेइत्ता एवं कंचुइज्जपुरिसे सहावे, सहावेत्ता भगवो महावीरस्स अंतियं धम्मं सोचा णिसम्म हट्ट एवं वयासी-किं णं देवाणप्पिया! अज्ज खत्तियकुंभग्गामे
जाव हियए नहाए उडेश, नइत्ता समणं जगवं महावीर पयरे इंदमहेर वा. जाव पिग्गच्छंती, तए णं से कंचुइ
तिक्खुत्तो० जाव मंसित्ता एवं क्यासी-सद्दहामि णं ज्जपुरिसे जमालणामणं खत्तियकुमारेणं एवं वृत्ते समाणे ।
| भंते ! णिग्गथं पावयणं, पत्तियामि गं भंते ! णिग्गंथं बहतु समणस्स भगवो महावीरस्स आगमणगहियवि- पाय रोएमि पं जंते !णिग्गथं पावयणं, अब्भुट्ठमि गं णिन्छए करयन जमाझिं खात्तियकुमारं जएणं विजएणं भने !णिग्गंथं पावयणं, एवमेयं भंते ! णिग्गंथं पावयणं, बफाबेइ, बदावेइत्ता एवं वयामी-णो खलु देवाणुप्पिया!
तहमेयं भंते ! णिग्गंथं पावयणं, अवितहमेयं ते !, अल खत्तियकुंडग्गामे यरे इंदमहेइ वा जाव णि- असंदिक्कमेयं भंते !, जाव से जडेयं तुम्भे वदह, णवरं गच्छति । एवं खलु देवाणाप्पिया!समणे जगवं महावीरे देवाणपिया ! अम्मापिपरो श्रापूच्चगमि, तए णं दवा
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( १४०३ )
अभिधानराजेन्द्रः ।
जमालि
शुपियाणं अंतियं मुंडे जवित्ता आगाराम्रो अपगारियं पव्वयामि ? | श्रद्धासुहं देवाप्पिया ! मा परिबंधं । तए से जमाली वत्तियकुमारे समणेणं जगवया महाबीरे एवं बुत्ते समाणे हतुडे समणं जगत्रं महावीरं तिक्खुतो० जाब एमंसित्ता तमेव चाउग्घंटं प्रासरहं दुरूह, दुरूहइसा समस्त जगवओो महावीरस्स अंतिया बहुसालाओ चेहया परिक्खिमइ, परिक्खिमता सकोरंटमलदामेणं० जाव घरिज्जमाणेणं महया जमचमगर ० जाव परिक्खिसे जेणेव स्वत्तिय कुंमम्गामे णयरे तेशेव उबागच्छ, उबागच्छत्ता खत्तियकुंरुग्णापं यरं म मझेणं जेणेव सए गिहे जेणेव बाहिरिया उबट्टाणसाला तेणेव जवागच्छर, जवागच्छत्ता तुरिए निगियह, निगिessता रहूं ठावे, ठावेइता रहाओ पच्चोरुहर, पचोरुइता जेणेव अजितरिया उबट्टाणसाला जेणेव अमापिरो वेब उबागच्छर, उवागच्छता अम्मापमरो जणं विजरणं बचावेर, बद्धावेइत्ता एवं वयासीएवं खलु अम्प ! ताओ ! मए समणस्स भगवओो महावीरस्म अंतिर धम्मं निसंते सेवियधम्मे इच्छिए पढिच्छिए
भिए । तर णं तं जमालिं खत्तियकुमारं अम्मापअरो एवं वयासी - धरणे सि णं तुम्मं जाया !, कयत्थे सि
माया पुणे सि णं तुम्मं जाया !, कयलक्खसिणं तुम्मं जाया !, जेणं तुम्मे समणस्स भगवओो • महावीरस्स अंतियं धम्मं निसंते सेवियधम्मे इच्छिए पनिच्चिए अजिरुइए । तर णं से जमाली खत्तियकुमारे अम्मापिरो दोषं पि एवं वयासी एवं खलु मए अम्म ! ताओ ! समस्स भगवो महावीरस्स अंतिए धम्मं निसंते० जाब अनिरुए, तर णं अहं श्रम्प ! ताओ ! संसारनयन्त्रि जीए जम्मजरामरणेणं तं इच्छामि णं अम्म ! ताओ ! तुब्भेहिं अन्नपुणाए समाणे समणस्स जगवच्यो महावीरस्स अंतिर मुंगे जवित्ता आगाराओ अणगारियं पव्वइचए, तर णं सा जमानिस खतियकुमारस्त माया तं आणि अकंतं अप्पियं श्रमणं भ्रमणामं अस्तुयपुव्वं गिरं सोच्चा खिसम्म सेयागयरोमकूपगलंत विगझीनगत्ता सोगभरपवेवियंगमंगी नित्तेया दीचिमणवयणा करयलमलिय व्ब कमळपाला तक्खण उलुग्गडुव्नल सरीरलायएण सुएनिच्छायगइसिरीया पसिदिसनूमणपमियखुविय संचुलियधवलवलया पन्नट्टतरिज्जा मुच्छांबसत चेतगरुई सुकुमाझविकिए केस हत्या परमुनियत्तव्व चंपगलया निव्बतमह व् इंदलई । विमुक्कसंधिबंधणा कोटिमतलंसि धस ति संगेहि सनिवमिया, तप णं सा जमान्झिस्स खत्तियकु
जमालि
मारस्स माया ससंभमोयत्तियाए तुरियं कंच भिंगारमुविग्गियसीय विमल जलधारपरिसिंचमाण निव्यावियगालट्ठी क्वत्रयतालियंटवीयरागजलियवाएणं संफुसिए - णं अंडरपरियां आसासिया समाणी रोयमाणी कंदमाणी सोयमाणी विमाणी जमालि खत्तियकुमारं एवं वासी - तुमं सिणं जाया ! अम्मं एगे पुले इट्ठे कंते पिए म मामे थेज्ने बेसासिए संमए बहुमए अणुमए जंमकरंद - गसमाणे रगणन्नूर जीवियउस्सविए हिययणंदजणणे - बरपुष्पं पिव दुलहे सबणयार किमंग ! पुण पासवायाए, तं णो खलु जाया ! अम्हे इच्छामो तुन्नं खणमवि विप्पअगं, तं प्रत्याहि ताब जाया ! जाव ताब अम्हे जीवामो तम्रो पच्छा म्हेहिं कालगहिं समाहिं परिणयब
कुलवंतंतुकज्जम्मि निरवयक्खे समणस्स भगवो महावीरस्स अंतिए मुंगे जविता आगाराश्रो अथगारिअं पव्बहिसि । तए णं से जमाली स्वतियकुमारे अम्मापरो एवं वयासी- तहा वि णं तं अम्म ! ताओ ! जं णं तुब्जे ममं एवं बदह-तुम्पं सि णं जाया ! अम्मं एगे पुले इट्ठे कंते तं चैव० जाव पव्बइहिसि, एवं खलु अम्म ! ताओ ! माणुस्सर नवे अणेगजाइज रामरणरोगसारीरमाणसपकामदुक्खवेयणव सणस प्रवद्दवाजिजूए अधुवे प्रणितिए असासर संझन्भरागसरिसे जलबुब्बुदसमाणे कुसग्गजल बिंदुसमि सुविणगदंसणोवमे विज्जुयाचंचले आणि समणपडणविसण धम्मे पुब्विं वा पच्छा वा अवस्सं विष्पजहिय
विस्सर से केस जाणइ अम्म ! ताभो ! के पुठिंब गम
पच्छागमणयाए, तं इच्छामि णं अम्म ! ताओ ! तुजेहिं अन्याए समाणे समणस्स भगवओ महावीरस्स० जब पव्वतए ? । तए णं तं जमालिं खत्तियकुमारं अम्मापियरो एवं वयासी- इमं च णं तं जाया ! सरीरगं पावसिहरू लक्खणर्वजण गुणोववेयं उत्तमबलबीरियस तजुत्तं विएणावियक्खण ससोनग्गगुणसमुस्सिय अभिजायमहक्खमं विविवाहिरोगरहियं निरुव हरदत्तपंचिदियप
पढमजोत्थमणे गउत्तमगुणेहिं जुतं तं अणुहोदि Pairo जान जाया ! नियगसरीररूत्र सोहग्गजोन्बणगुणं तओ पच्छा अन्य नियगसरीररूवसोहग्गजोन्त्रणगुणं श्रम्हेहिं कालगहिं समाहिं परिणयवओ वश्चियकुल चंस तंतुकनिरवयक्खे समणस्स जगबओ महावीरस्स अंतिए मुंडे वित्ता आगाराओ अणगारियं पव्वइहिसि । तए
से जमाली खत्तियकुमारे अम्मापियरो एवं बयासी - तहा त्रिणं तं ! ताओ ! जं णं तुब्भे मम एवं वदह-इमं च तेजाया! मरीरगं तं चैत्र ० जाव पव्वइहिसि एवं खबु
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( १४०४ ) निधानराजेन्द्रः |
जमालि
अम्म ! ताओ ! माणुस्सगं सरीरं दुक्खाययणं विविश्वाहिसयसंनिकेयं किड्डु डिजिरा एहारुजालउवण कसं पिए ऊं मट्टियजं मं व दुब्बलं अनुसंकिलिडं अणिविय सव्वकालसंठप्प जराकुणिमजज्जरघरं व समणपडणविद्धं सधम्मं पुत्रि वा पच्छा वा अवस्सं विप्पजहियव्वं नविस्सइ । से केस जाए-अम्म ! ताओ ! के पुब्वि तं चैव जाव पव्त्रइतर | तर तं जमालि खत्तियकुमारं अम्मापियरो एवं बयासी - इमाओ य ते जाया ! बिद्यलबालियाओ सारसयाग्रो सरितयाम्रो सरिव्ययाओ सरिसभावएणरूवजोsarगुणोपाओ सरिसरहिंतो कुलेहिंतो आणि एलियाश्रो कलाकुसल सन्नकान्नलाकि सुहोचियायो महवगुणजुसनिलिओत्रयारपंमियवियक्खणाओ मंजुल मियमहुरमणिय विसिय विपेक्खिय गईविलास चिट्ठियविसारयाओ विकलकुल सीलसालियाओ विमुकुलवंस संताणतंतुविषद्धपगब्भवयभाविणीओ महाणुकून्नहियइच्छि याम्रो ड तुज्ऊ गुण लहाम्रो उत्तमाओ णिचं भावारतसच्वंगमुंदरी जारियाच तं जुजादि ताव जा जाया ! यासिद्धिं विउले माणुस्सर कामजोगे, तो पच्छा त्तभोगी विसयविगयो को हस्ले
हिं कालगहिं० जाव पव्वइहिसि । तए एं से जमावत्तियकुमार अम्मापियरो एवं वयासी- तहा विं तं अम्म ! ताओ ! जं णं तुब्ने मम एवं बदह - इमाम्रो य ते जाया ! विलकुल जान पव्बड़ हिसि एवं खलु अम्म ! ताओ ! मास्सया कामभोगा असुई सासया बंतासवा पित्तासवा खेलासवा सुक्कासवा सोणियासवा उच्चारपासवणखेल सिंघाणवंत पूय सुक्क सोणिय समुज्जवा अमगुरू मुइयपुरीस पुणा मियगंधुस्सास प्रसृन निस्सासउ - saणगा वीजत्था अप्पकालिया बहूसगा कलमलाहिया सयुक्खबहुजणसाहारणा परिकिलेस किच्छदुक्त्व सज्जा
बुहज सेविया सदा सादुगरहणिज्जा अणंत संसारबन्धणा कमुयफल विवागा चुमुलि व अमुचमाणदुक्खा प्रबंधि यो सिद्धिगमविग्धा, से केसां जाणइ अम्म ! ताओ ! के पुत्र गणयाए, के पच्छा, तं इच्छामि णं अम्म : ताओ !० जब पव्वइत्तए । तर णं तं जमालिं खत्तियकुमारं - म्मापि एवं वयासी-इमे य ते जाया ! अजयपज्जयज्ञयाग य बहुहिरो य सुवतो य कंसे य दूसे विजलधणकणग० जाव संतसारसावएज्जे लाढि० जावामत्तमात्र्य कुलमा पकामं दार्ज पकामं जोनुं परिभाषतुं तं अहोहि ताव जाया ! विपुले माणुस्सए इष्ठ्ठिसकारसमुदए, तो पच्छा अणुत्तूयकलाणे वढियकु
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जमालि
लवंस० जाव पव्वइहिसि । तए एं से जमानी खत्तियकुमारे अम्मापरो एवं वयासी - तहा विणं अम्म ! ताओ ! जं णं तुझे ममं एवं वदह-इमं च ते जाया ! अज्जयपज्जय० जान पव्वशहिसि । एवं खलु अम्म ! ताओ ! हिरोय सुबह य० जाव सावएज्जे अग्गिसाहिए चोरमाहिए रायसाहिए मच्चसाहिए दाइयसाहिए अग्गिसाम० जाब दाइयसामणे अधुवे अणितिए सासर पुचि वा पच्छाच अवस्सं विप्पजाहियब्वं जबिस्स, से केस णं जाणइ तं चेत्र० जाव पव्वत्तए । तए णं तं जमानिं खत्तियकुमारं अम्मयाओ जाहे नो संचाएइ, बिसयाणुत्लोमेहिं बहूहिं आघवणाहि य पण्णवणाहि य विष्णवणाहि य समवणाहि य आघवेत्तए वा सहिणवेतर वा विएणवेत्तर वा तहेब विसयपडिकूलाहिं संजमभयGodकरीहिं पष्ठवणाहिं पष्मत्रेमाणा एवं वयासी एवं खलु
! uिriये पावणे सच्चे अत्तरे केवने जड़ा आबस्सए० जाव सब्बवुक्खाणमंतं करेइ, महीव एतदिडिए, खुरो इव एगंतधाराए, लोहमया जवा चावेयव्वा बालुया - कवळे इव निस्सारे, गंगेव महानदी पमिसोतगमगाया ए महासमुद्दो व्याहिं दुत्तरो तिक्खं कमियन्वं गुरुपं लंaraj, असिधारागं वयं चरियन्वं, यो खलु कप्पड़ जाया ! समणाणं णिग्गंयाणं आहाकम्मिएइ वा उद्देसिएर वा मिस्सजाएइ वा उज्झोयरिएइ वा पूइएइ वा कीएइए वा पामिच्चेइ वा अच्छेज्ने वा अणि सिडे वा अभिहमेइ वा कंतारभते वा दुब्जिक्खन तेइ वा गिलाणभत्ते वा बलियानत्तेइ वा पाहुणचत्तेइ वा सेज्जायरपिंमेश वा रायपिंडेर वा मूलजोयणे वा कंदभोयणे वा फलभोयइ वा बीयाणेइ वा हरियभोयणेइ वा भुत्तर वा पायए तुमंस चणं जाया ! सुहसमुचिए णो चेव णं बुढसमुचिए नालं सीयं नालं नाहं नालं खुड़ा नालं पिवासा नाझं चोरा नाझं बाला नालं दंसा नाझं मसगा नालं वाइयपित्तियसिंजियस मित्राइयावविहे रोगायंके परसहोमग्गे उ दिहियासेत्तर, तं यो खलु जाया ! अम्हे इच्छामो ॐ खणमवि विप्पओगं, तं प्रत्याहि ताव जाया ! जाब म्हे जीवामो, तो पच्छा अम्हेहिं कान्नगएहिं० जाव पत्रइहिसि । तए णं से जमाली खत्तियकुमारे अम्मापियरो एवं वयासी - तहा वि णं तं श्रम्म ! ताओ ! जं तुम्भे ममं एवं वदह एवं खबु जाया ! ग्गिंथे पात्रयणे सच्चे अत्तरे केवले तं चेत्र जाव पव्वइहिसि एवं खलु अम्म ! ताओ ! णिग्गंथे पात्रयो कीवाणं कायराणं कापुरिसाणं इहलोगपरित्राणं परलोगपरंमुहाणं विसयति
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(१४०५) जमालि अनिधानराजेन्डः।
जमासि सियाण पुरणचरे पामरजणस्स, धीरस्स णिच्छियस्स ब- संदिसह तुमं देवाणुप्पिया ! मए करणिज्जं । तए णं से वासियस्स जो स्वयु एत्य किंचि वि दुक्करं करणयाए, तं | जमाधिस्स खत्तियकुमारस्स पिया तं कामवगं एवं बयाइच्छामि णं अम्म! ताओ ! तुम्नेहि अन्जणुमाए समाणे सी-तुमं देवाणुप्पिया ! जमालिस्स वत्तियकुमारस्स परेसमणस्म भगवमो महावीरस्स० जाव पवइत्तए । तर
एं जत्तेणं चनरंगुझवज्जे पिंक्खमणप्पओगे अग्गकेसे कतं जमालि खत्तियकुमारं अम्मापिअरो जाहे नो संचाए
प्पेह । तए णं से कासवए जमालिस्स खत्तियकुमारस्स विमयाणुलोमाहि य विसयपडिकूलाहि य बहहिं प्राघव
पिउणा एवं वृत्ते समाणे हतुढे करयल० जाव एवं णाहि य पासवाणाहि य ४ाघवेत्तए वा० जाब विष्यवेत्तए
सामी! तह त्ति आणाए विणएणं वयणं पमिसुणेह, वा, ताहे अकामाई चेव निकमणं अणुममित्था । तए
पमिसुत्ता सुरभिणा गंधोदएणं हत्यपाए पक्खालेड, णं तस्स जमानिस्स खत्तियकुमारस्स पिया कोमुंबिय
पक्खालेइत्ता सुद्धाए अपमनाए पोत्तिए मुहं बंध,बंधश्चा पुरिसे सहावेइ , सहावेत्ता एवं बयासी-खप्पामेव भो देवाणप्पिया ! खत्तियकंडग्गामं नयरं सभितरवाहिरियं
जमालिस वत्तियकुमारस्स परेणं जत्तेणं चनरंगुलवजे
निक्खमणप्पभोगे भग्गकेसे कप्पेड़ । तए पं से जमानिस्स भाभियसम्मज्जि ओवमित्त जहा नववाइए० जाव पच्चप्पिएणंति । तए णं से जमालिस्स खत्तियकुमारस्स पिया
खत्तियकुमारस्स माया हंसलक्खणेणं पमसामरणं भग्ग
केसे पमिच्छड, पमिरवत्ता सुरजिणा गंधोदएणं दोचं पि कोदुंबियपुरिसे सद्दावेइ, सहावत्ता एवं वयासी
पक्खालेड, पक्खाइना अग्गेहिं वरेहिं गंधेहि पर हिं खियामेव जो देवाणुप्पिया ! जमालिस्स खत्तियकुमा
अंचेइ, अंचंइत्ता सुकेणं वत्येणं बंधइ , बंधेकत्ता रयणरस्स महत्यं महग्यं महरिहं विपुलणिक्खमणाऽजिसेयं
करंडगंसि पक्खिवइ, पक्खिवइत्ता हारवारिधारसिंदुवारबडवेह । तए णं ते कौटुंबियपुरिसा वहेच० जाव पञ्च
चित्यमुत्तावलिप्पगासाई मुतविप्रोगसहाई अंमूहि विपिणंति । तए णं तं जमालि खत्तियकुमारं अम्मापियरो
णिम्मुयमाणी विणिम्मुयमाणी एवं वयासी-एस एं अम्हं मीदासणवरंसि पुरत्यानिमुहं निसीयात्रे, निसीयावइत्ता भट्ठसएणं सोचमियाणं कलसाणं एव जहा
जमालिस्त खत्तियकुमारस्म बहमु य तिहामु य पन्वणीमु रायप्पसेणिए. जाव असयाणं भोमेजाणं कन्नसाणं
य उस्सवसु य जमेनु य छएणेसु य अपक्किमे दरिसणे
जविस्सतीति कह उसीसगमुझे उबइ । तए णं तस्स सविहिए० जाव महया रवेणं महया महया निक्खमणाभिमंगेणं अनिमिंचते, अभिसिंचतेत्ता करयलम्जाव जएणं
जमानिस्स खत्तियकुमारस्म अम्मापियरी दोच्चं पि उत्तविजएणं बद्धावे, बघावेइत्ता एवं वयासी-भण जाया !
रावकमाणं सीहास रयाति, रयातित्ता जमालि खत्तिकिं. देमो, किं पयजामो, किं णु वा ते अट्ठो । तए णं से
यकमारं भेयपीएहिं कसेहिं एहाति, सेयपीयेहिं कसेजमाली खत्तियकुमारे अम्मापियरो एवं बयासी-इच्छामि
हिं एहावेतित्ता पम्हलसुकुमालाए सुरभिएणं गंधकासाइएणं णं अम्मताओ! कुत्तियावणाओ स्यहरण च, पमिग्गई
गायाई सहेंति, चूहेंतित्ता सरसेणं गोसीसचंदणेणं गायाई च माणेनं, कासवगं च सदाविलं । तए णं से जमानिस्स
अणधिपति, गोसीस चंदणेणं गायाई प्रालिंपित्ता गाासा
हिस्सामवऊं चक्खुहरं वएणफरिससंजुत्तं हयनालापेखत्तियकुमारस्स पिया कोमुंबिय पुरिसे सद्दावेश, महावेइत्ता एवं वयासी-खिप्पामेव भो देवाणुप्पिया ! सिरिघराओ
लवातिरेगं धवनकणगखचितंतकम्म महरिहं हंसलक्खतिरिण सयमहस्साई गहाय दोहिं सयमहस्सहिं कुत्ति
णपमसामगं परिदिश, परिहित्ता हारं पिणोति पिणयावणाओ श्यहरणं च पडिग्गहं च आणेह, सयमहस्से
केतित्ता अद्धहारं पिणति, पिणतित्ता एवं बहा मूरिणं कासवगं सदावेह । तए णं से कोमुवियपुरिसे जमा- |
याजस्स अलंकारो तहेव चित्तरयणमंकाक मउ पिणलिस्स खत्तियकुमारस्स पिउणा एवं वुत्ते समाणे हट्ठ
खेति,किं बहुणा गंथिमवेढिमपूरिमसंघातिमेणं च उबिहेणं तुढ़करयल० जाव पमिमणेत्ता खिप्पामेव मिरिघराओ।
मल्लेणं कप्परुक्खग पिव अझकियविनूमियं करे,तए णं तिमि सयसहस्माई तहेव. जाव कामवगं सदावे। तपणं
मे जमानिस्स खत्तियकुमारस्स पिया कोडुंबियपुरिसे सद्दासे कासवए जमालिस्न खत्तियकुमारस्म पिउणा कोमंवि
बेड,महावेत्ता एवं वयासी-खिप्पामेव भो देवाणुप्पिया' अ. यपुरिमहिं सहाविए समाणे हढे तुढे एहाए कयनिकम्मे०
णगखंजमयसरिणविट्ठीलट्ठियसालिनंजियागं जहा रायजाव सरीरे जेएव जमालिस्म खत्तियकमारस्म पिया,तेणेव
प्पमेणइज्जे विमाणवएएओ जाच मणिरयाणघंटियाजालउवागच्च,उवागच्चइता करयल जमासिस्स खत्तियकुमार- परिक्खित्त पुरिससहस्सवाहिणीयं सीयं नव वेह, उवट्ठयेहस्सपियरंजएवं विजएएं बच्छाव,बद्धाश्त्ता एवं वयासी.' इत्ता मम एयमाणत्तियं पञ्चप्पिणह। तए णं ते कोमुंधियपु
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जमालि अभिधानराजेन्दः ।
जमालि रिसा० जाव पच्चप्पिणंति। तए से जमाली खत्तिय- कुमारस्स पिया तेणेव उवागच्छद, उवागच्छइत्ता करयल. कुमारे केसालंकारेणं वत्थालंकारेणं महालंकारेणं भाज- जाव बचावेद, बदावेत्ता एवं बयासी-संदिसंतुणं देवारणालंकारणं चठविहेणं अलंकारेणं अलंकारिए समाणे णुप्पिया ! जे भम्हेहिं कराणिज्जं, तए णं से जमालिस्स पमिपुष्णालंकारे सीहासणाश्री अन्नुढेइ,मन्भुढेइत्ता सीयं खत्तियकुमारस्स पिया ते कोकुंबियं बरतरुणसहस्सं पि अणुप्पदाहिणीकरेमाणे सीयं दुरूहर, दुरूहइत्ता सीहा- एवं वयासी-तुज्मे णं देवाणुप्पिया! एडाया कयालसणवरंसि पुरत्थाभिमुद्दे सएिणसएणे । तए णं तस्स जमा- कम्मा. जाव गहियणिज्जोगा जमालिस्स खत्तियकुमालिस्स खत्तियकुमारस्स माया एहाया जाब सरीरा ई- रस्स सीयं परिवहेह। तए गं ते कोकुंबियपुरिसा जमालिसमक्खणं पडसाडगं गहाय सीयं अणुप्पदाहिणीकरमाणी स्स खत्तियकुमारस्स सीयं परिवहति । तए णं तस्स जमालिसीयं दुरूह, दुरूहत्ता जमालिस्स खत्तियकुमारस्स | स्स खत्तियकुमारस्स पुरिससहस्सवाहिणीयं सीयं दुरूतस्स दाहिणेणं पासेणं भद्दासणवरंसि सएिणसएणा , तए णं समाशस्स तप्पढमयाए इमे अट्ठमंगला पुरभो प्रहाणुपु. सस्स जमालिस्स खत्तियकुमारस्स अम्मघाती एहाया० बीए संपढिया । तं जहा-सात्थियसिरिवत्थ भाव दप्पजाव सरीरा रयहरणं पडिग्गहं च गहाय सीयं अणुप्पदा- णं, तदाणंतरं च णं पुएणकलसजिगार जहा उपवाइए. हिणीकरेमाण। सीयं पुरूहइ, दुरूहइत्ता जमालिस्स | जाच गयणतलमणुलिहंती पुरो प्रहाणुपुबीए संपडिया खत्रियकुमारस्स बामे पासे भदासणवरंसि सएिणसएणा। एवं जहा उववाइए तहेव जाणियन्वं. जाव प्रालोयं च तए णं तस्स जमालिस्स खत्तियकुमारस्स पिडओ एगा करमाणा जयजयसई वा पजमाणा पुरो प्रहाणुपुघरतरुणी सिंगारागारचारुवेसा संगय जाब रूचजोव्वण- बीए संपघ्यिा , तयाणंतरं च णं बहवे उग्गा भोगा जहा विसालकलिया सुंदरथणहिमरययकुमुदकुंदेंदुप्पगासं सको. उबवाइए० जाब महापुरिसवग्गुरा परिक्खित्ता जमानिस्स रंटमधदाम धवलं मायवत्तं गहाय सहीलं उवधरेमाणी खत्तियकुमारस्स पुरो मग्गो य पासओ य अहाणुचिट्ठ। तए णं तस्स जमालिस्सनुजओ पासिं दुने वरत- पुत्रीए संपट्ठिया, तर णं जमालिस्स खत्तियकुमारस्स पिया रुणीमो सिंगारागारचारु० जाव कलियानो णाणाम-- एहाया कय० जाब विभूसिए हत्थिखंधवरगए सकोरंटमसणिकणगरयणविमझमहरिहतवणिज्जुज्जलविचित्तदंकानो
दामेणं कृत्तेणं धरिजमाणेणं सेयवरचामराहिं उयुब्बमाणीचिनियाभो संखंककुंददगरयश्रमियमाहियफेणपुंजसारण- हिं उबुध्वमाणीहिं हयगयरहपवरजोहकलियाए चानगासामो धवलाश्रो चामराम्रो गहाय सलीनं वीयमाणीओ | रंगिणीए सेणाए सकिं संपरितुझे महया जंडचडगर पीयमाणीओ चिट्ठति । तए शं तस्स जमालिस्स ख- जाव परिक्खित्ते जमालिस्स खत्तियकुमारस्स पिट्ठमो ५ यिकुमारस्स उत्तरपुरच्छिमेणं एगा वरतरुणी सिंगा- अणुगच्छद । तए णं तस्स जमासिस्स खत्तियकुमारस्स रागार० जाव कलिया से तं रययामयं विमलसलि-| पुरो महं भासा पासवरा उभभो पासिं णागाणागसपुगणं मत्तगयमहामुहाकिश्समाणं भिंगारं गहाय चरा पिट्टओ रहा रहसंगेली । तए णं से जमाली वत्तिचिछ । तए पं तस्स जपालिस्स खत्तियकुमारस्स दाहि- यकुमारे अनुग्गयजिंगारे परिग्गहियतालियंटे ऊसचियणपुरछिमेणं एगा बरतरुणी सिंगारागार० जाव कलिया | सेयत्ते पवीइयसयचामरवालवीयणीए सबिटीए० जाब चित्तकणगदंदं तालपटं गहाय चिट्ठः । तए णं तस्स | पाइयरवेणं, तयाणंतरं च णं बड़वे लडिग्गहा कुंतनपासिस्स खत्तियकुमारस्स पिया कोमुंबियपुरिसे सहा- ग्गहा० जाब पुत्थियग्गहा० जाव बीणग्गहा, तयाणंतरं घेई , सदावेदत्ता एवं वयासी-खिप्पामेव जो दे
चणं अट्ठसयं गयाणं अहसयं तुरियाणं अट्ठसयं रहाणं, वाणुप्पिया ! सरिसयं सरितयं सरिव्ययं सरिसलावल- तदातरं च णं सउमअसिकोतहत्था णं बहू णं पायत्ताणी रूवजोबणगुणोववेयं एगाभरणवसणगहियनिज्जोयं को- गं पुरओ संपडिया, तयाणंतरं च णं बहवे राइसरतलबर० मुंबियवरतरुणसहस्सं सदावेह । तए णं ते कोमुंबिय- | जाव सत्यवाहप्पनियमो पुरो संपडिया खत्तियकुंभग्गापुरिसा०- जाच पमिमुणेत्ता खिप्पामेव सरिसयं० जाव | मे णयरे मऊ मऊणं जेणेव माहणकमग्गामेणयरे जेणव । सहाति, तए णं ते कोवियपुरिसा जमालिस्स खत्ति- बहसासए चेइए जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव पहायकुमारस्स पिउणा कोमुंबियपुरिसहिं सहाविया समाणा रेत्थ गमणाए, तए णं तस्स जमालिस्म खत्तियकुमारस्स हतुट्ठा पहाया कयवनिकम्मा कयकोनयमंगलपायचिकत्ता) खत्तियकुंडग्गामं जयरं मऊ मऊकेणं णिग्गच्चमाणस्स एगाभरणवसणगहियनिज्जोया जेणेव जमालिस्स खत्तिय सिंघाडगतिगचनक० जाव पहेसु बहने अत्यच्छिया जहा
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( १४०७ )
अभिधान राजेन्द्रः ।
जमालि
बनाइए जा० अनिता य अभियुता य एवं वयासीजय जय गंदा धम्मेणं, जय जय णंदा तवेणं, जय जय गंदा जते, अभग्गेहिं पाणदंसणचरितमुत्तमेहिं जियाई जियाहि इंदियाई, जितं पाहि समणधम्मं, जियविग्घो वि य वसाह य देव ! सिद्धिमज्जे, निढणाहि रागदोसल्ले तवेणं, घिधणियबरूकच्छे महाहि अट्टकम्मसत्तू जाणेणं उत्तमे सुके
अप्पमत्तो, दराई श्राराहणपमागं च धीर ! तेझोकरंगमजे, पावय वितिमिरमप्युत्तरं च केवलणाएं, गच्छ य मोक्खं परं पदं जिणबरोवादेद्वेणं सिद्धिमग्गेण प्रकुमिलेन, हंता प रीसह चमुं प्रभित्रिय गामकंटकोवसग्गाणं, धम्मे ते विग्घमत्थु ति कट्टु अनिणंदेति य, अभित्युगंति य । तर णं से जमाली खत्तियकुमारे णयणमालासदस्सेहिं पेच्छिज्जमाणे एवं जहा जबवाइए कुणिश्रो० जाव विग्गच्छर, पिग्गच्छड़
जेणेव माणकुंडग्गामे ायरे जेणेव बहुसालए चेइए तेथेच उबागच्छर, उवागच्छत्ता बताईए तित्थ गराइसर पासह, पासइया पुरिससहस्वाणि सीयं वे, ववेत्ता पुरिससहस्वाहिणीओ सीयाभो पचोरुहइ । तर तं जमाल स्वनियकुमारं सम्मापियरो पुरो काउं जेणेव समणे जगवं महाबीरे सेणेव उवागच्छध, उवागच्छत्ता समणं जगदं महावीरं तिक्खुत्तो० जाव णमंसित्ता एवं बयासीएवं खलु भंते ! जमाली खत्तियकुमारे भ्रम्हं एगे पुते इहे कं० जाव किमंग ! पुरा पासण्यार से जहानामए ठप्पमेह वा पउमेर बा०जाब सहस्सपत्ते वा पंके जाए जले संबुहे पोलिप्पड़ पंकरणं, योवलिप्पइ जन्नरएणं, एवामेव जमाली बि खत्तियकुमारे कामेहिं जाए भोगेहिं संबुठे जोवलिप्प कामरएणं, णोबलिप्प भोगरए, यो लिप्पर मिचाइ थियगसयद्या संबंधिपरिजणेणं, एस देवाशुपिया ! संसारजयउब्बिग्गे भीए जम्पजरामरणं इक देवापियाणं अंतिए के भवि
भागाराओ अपगारियं पव्बइतर तं एस यां देवापियाएं अम्हें सीसजिक्वं दलयामो, परिच्छंतु देवापिया ! सीमभिक्खं । अहामुहं देवाशुपिया ! मा निबंध । तए णं से जमाली खत्तियकुमारे समणेणं जगया महावीरेण एवं बुचे समाणे हडतुडे समयं जगदं महावीरं तिक्खुतो० जाव णमंसित्ता उत्तरपुरच्छिमं दिसीभागं वकमर, अवकमइत्ता सयमेत्र श्राभरणमझालंकारं उम्मु । तर यां सा जमालिस्स खत्तियकुमारस्स माया इंसलक्खणेणं पमसामरणं आजरण मला झंकारं परिच्छs, परिच्छता हारवारिधार० जाव विम्मियमाणी विणिम्यमाणी जमालि खत्तियकुमारं एवं बयासी
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जमालि
घमियब्वं जाया ! जइयव्वं जाया ! परकमियव्वं जाया ! असि च णं हे णो पमादेयव्वं त्ति कट्टु जमालिस्स खत्तियकुमारस्सम्मापियरो समणं जगवं महावीरं वंदंति, णमंसंति, जामेव दिसिं पाउन्नूया तामेव दिसिं पडिगया । तए एं से जमाली खत्तियकुमारे सयमेव पंचमु फियं लोयं करे, करेता जेणेव समणे जगणं महावीर तेणेव उवागच्छर, नवागच्छता एवं जहा उसभदत्तां तहेब पन्चइओ, वरं पंचाहिँ पुरिससएहिं सद्धिं तहेन० जब सामाध्यमाइयाई एकारस अंगाई अहिज्जर, अदिजत्ता बहूदि चलत्थछट्टम० जाव मासदमा सक्वमणेहिं विचितेहिं तवोकम्मेहिं अप्पाणं जानेमाणे विहर | तए णं से जमाली अणगारे या कयाई जेणेव सममो भगवं महाबीरे तेणेव उबागच्छर, उवागच्छता सम जगवं महावीरं बंदर, णमंसर, वंदित्ता मंसत्ता एवं बयासी - इच्छामि णं जंते ! तुझेहिं अन्याए समाणे पंचहि अणगारसहिं सद्धिं बहिया जणवयविहारं विहरिसए । तर यं समणे भगवं महावीरे जमालिस्म अयगारस्स एयम णणे आढाइ, यो परिजा, तुसिणीए चिट्ठर । तर से जमाली अणगारे समये भगवं महाबीरे दोघं पितप एवं वयासी- इच्छामि णं भंते! तुम्ह अन्नार समाणे पंचाहि अणगारसएहिं सकि० जाब हिरिए । तए णं समणे जगत्रं महाबीरे जमालिस्स अणगारस्त दोषं पि तच्च पि एयमहं को आढाइ, जाव० तुसिणीए संचि । तए णं से जमासी अणगारे समणं जगवं महावीरं बंद, णमंसह. बंदिता
मंसिता समस्त जगवओो महावीरस्स अंतिभाभो बहुसालाओ चेयाओ पकिणिक्खमइ, पडिणिक्खमइता पंचगारसहिं सकिं बढ़िया जणवयविहारं विहरइ। तेणं कालेणं ते समएणं सावत्थी णामं शयरी हो स्था, वाओ, कोडर चेइए बम प्रो०जाब बामंकस्स काणं तेणं समरणं चंपा लामं जयरी होत्था, वरण प्रोपुछभ चेहए वो० जाव पुढवी सिलापट्ट । तर से जमाली अणगारे प्रणया कयाई पंचहि अणगारसएहिंसार्द्धं संपरिवुमे पुत्राणुपुत्रि चरमाणे गामा गामं बड़
माणे जेणव सावत्थी एयरी जेणेव कोइए चेहए. तेणेव उबागच्छर, उवागच्छत्ता अहापडिरूवं उग्गहं श्रगिएढइ. गिएहड़ता संजमेणं तवसा अप्पा भावेमाणे बिहरइ । तणं समणे भगवं महावीरे या कयाई पुब्बा पुि चरमाणे० जाव सुई सुहेणं विहरमाणे वा जेव चंपा यरी जेब पुष्प नदे चेइए, तेणेव उवागच्छ, बाग
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(१४००) अन्निधानराजेन्फः।
जमालि
जमालि
इत्ता महापभिरूवं उग्गहं उग्गिएहर, नग्गिएहइत्ता तियानो कोट्ठयाओ चड़याओ पमिणिक्वमंति, पमिसंजमेणं तवमा अप्पाणं जावमाणे विहरइ । तए णं तस्स | णिक्रवमहत्ता पुव्वाणुपुब्धि चरमाणे गामाणुगामं दृइज्जमाजयालिस्म प्रणगारस्स तेहिं अरसेहि य विरसेहि य अं- णे जेणेव चंपा गयरी जेणव पुसभद्दे चेइए जेएव समणे तेहि य पंतेहि य बहेहि य तुच्छेहि-य कालाइकतेहि य, जगवं महावीरे, तेणेव उवागच्छति, उवागच्चइत्ता समाणं पमाणाइक्तहि य सीएहिं पाणनोमणेहिं अएणया कयाई भगवं महावीरं तिक्खुत्तो आयाहिणं पयाहिणं बंदंति, सरीरगंसि विनतरोगातके पानन्नूए उज्जले तिनले पगाद णमंसंति, वंदित्ता णमंसित्ता समणं भगवं महावीरं उपसंककसे कडए चंडे दुक्खे दुग्गे तिब्बे पुरहियास पित्तज्जर- पज्जित्ताणं विहरति । तए णं से जमाली अणगार अप्ठया परिगयसरीरे दाहवुकतिए यावि विहर। तए णं से जमानी कयाई ताश्री रोगातंकाओ विप्पमुक्त हढे तुढे जाए अरोए अणगारे वेदणाए अभिलए समाणे समणे णिग्गंथे सहावेइ, बलियसरीरे सावत्यीओ णयो कोट्टयानो चेइयात्री सहावेपत्ता एवं वयासी-तुजके णं देवाणप्पिया! ममं सेज्जा- पमिशिक्खमा, पमिणिक्वमहत्ता पुयाण वि. चरमाणे संथारयं संयरह । तए णं समणा जिग्गया अमालिस्स | गामाणुगाम दूइज्जमाणे जेणेव चंपा एयर। जेणेव पुरणअणगारस्स एयमई विणपणं पमिसुणेति, पमिसुणे- भद्दे चेइए जेणेव समणे जगवं महावीरे, तेणव जबागच्चा, तिना जमालिस्स भणगाररस सेन्जासंथारगं संयति । नवागच्चइत्ता समणस्स भगवो महावीरस्स भरमामंते तए णं से जमानी प्रणगारे बलियतरं वेदणाए विच्चा समयं भगवं महावीरं एवं वयासी-जहा णं देवाणुमभिजूए समाणे दो पि समणे णिग्गंथे स- प्पियाणं बहवे अंतेवासी समणा णिग्गंथा छउपत्था भवित्ता हावेश, सदावेत्ता एवं वयासी-ममं णं देवाणुप्पिया ! बउमत्थावकमणेणं अवकमंता, णो खलु अहं तहा चेव सेज्जासंथारए किं कमे कज्ज। तए णं समणा णिग्गथा बउमत्थे भवित्ता बनमत्थावक्कमणेणं अवकते,अहं उप्पतं जमानिं अणगारं एवं वयासी-णो खलु देवाणप्पिया ! मणाणदसणधरे अरहा जिण केवली जवित्ता केवलीअक्कसज्जासंथारए कमे कज्जइ । तए णं तस्स जमालिस्स मणेणं अवकते । तए ण जगवं गोयमे जमालि अणगारं एवं भणगारस्स अयमेयारूचे अन्नथिए० जाव समुप्प- | वयासी-णो खलु जमाली केवनिस्स णाणे वा दंमणे वा जित्था, जंणं समणे भगवं महावीरे एवमाइक्खइ० जाव सेलसि वा यंगसि वा यूनसि वा आवरिज्जड़ वा, णिवारएवं परूवेइ, एवं खलु चलमाणे चलिए उदीरिज्जमाणे इज्जइ बा, जाणं तुम्भं जमाली ! उप्पप्पणाणदसणधरे उदारिए० जाब णिज्जारज्जमाणे णिजिम्मे,तं ण मिच्छा, अरहा जिणे केवली भविता केवझीअवकमणेणं अवकते, इमं च णं पच्चक्खमेव दीसइ-सेज्जासंथाग्ए कज्जमाणे ता णं इमाई दो वागरणाई वागरेहि,सासए लोए जमाल।, भकमे,संथारिन्जमाणे असंयरिए, जम्हा णं सज्जासंथारए असासए सोए जमाली!, सासए जीवे जमाली !, असासए कज्जमाणे अकडे संथरिजमाणे असंथरिए,तम्हा चन्नमाणे जीवे जमाली!? । तए णं से जमाली अणगारे भगवि अचलिए. जाव णिज्जरिज्जमाणे वि अणिज्जिले,एवं वया गोयमेणं एवं ते समाणे संकिए कंखिए० जाव संपेहेश, संपेहेत्ता समणे जिग्गय सदावेड, सद्दावेइत्ता एवं | कलससमाव जाए यावि होत्या, णो संचाएइ जगवओ वयासी-जं णं देवाणुपिया ! समणे भगवं महावीरे एव-| गोयमस्स किंचि वि पामोक्खमाइक्खित्तए तुसिणीए माइक्व० जाव परूवे, एवं खलु चनमाणे चझिए नं | मंचिइ जमाझी । समथे जगवं महावीरे जमालि चेव सन्नंजाब णिज्जरिजमाणे अणिाज्जम । तए ण तस्स | अणगार एवं बयासी-अत्थि ण जमाली! ममं बहवे जमानिस्स अणगारस्म एवमाइक्खमाणस्सजाव परुमा अंतेवासी समणा णिग्गंया उउमत्या, जे णं पभ एवं णस्स अत्थगइया समणा णिग्गंया एयमढे सद्दहति, पत्ति- वागरणं वागरित्तए, जहा ण अहं णा चेव ए एतषगारं यंति, रोयंति, अत्थगइया समागा णिग्गंया एयमणो नास भासित्तए जदा तुमं सासए लोए जमानी !, सहति,णो पत्तियति,णो रोयंति,तत्थ णं जत सपणा णि- | णं ण कदायि णासि, ण कदायिण जब, ण कदायि गंथा जमालिस्स आगगारस्स एयमह सद्दति, पत्तियंति, ए विस्मइ, जवि च, नवह, नविस्मति य, धुवे णिरोयंति, ते ण जमानि चेत्र अणगारं नवसंपज्जित्ता एं तिए सासए अक्खए अबए अवनिए णिच असासए विहरति । तत्थ पंजे ते समणा शिगंया जमा- लोए जमानी!ज प्रोसप्पिणी नवित्ता उस्मप्पिणी जवइ, लिस्म अणगारस्म एयमटुं णो सहइंति , यो पत्ति- उस्सप्पिणी नवित्ता ओमप्पिणी जवा, सासए जीवे यति , णो रोयंति, ते णं जमालिस्स भणगारस - जमानी! जंण कदायि णासि जाव णिचे अमासए
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(१४०१) जमालि अभिधानराजेन्कः ।
जमालि जीवे जमाली ! जणेरडए नवित्ता तिरिक्खजोणिए उववो । जमालीणं नंत देवे तानो देवसांगाओ आउभव, तिरिक्वजोणिए जवित्ता मणुस्से भवइ, मस्से क्खएणं० जाव कहिं नववजिहिति। गोयमा ! चत्तार नवित्ता देवे भव । नए णं से जमाली अणगारे सम- पंच तिरिक्खजोणियमस्सदेवभवग्गहणाई संसारं अणुणस्स भगवओ महावीरस्स एचमाइक्खमाणस्स० जाव | परियट्टित्ता तमो पच्छा सिज्झिहिति० जाव अंतं काएवं परूवेमाणस्स एयमटुं णो सह, जो पत्तियइ, यो हिति सेवं भंते ! तेत्ति जमानी सम्पत्तो। रोयड, एयमी असद्दहमाणे अपत्तियमाणे अरोपमाणे अथ भगबता श्रीमन्महावीरेण सर्वज्ञत्वावमुंतव्यतिकरं जादोच्च पि समणस्स जगवओ महावीरस्स अंतियानो नताऽपि किमिति प्रवाजितोऽसाचिति ? । उच्यते-अवश्य प्राताए प्रवक्कम, दोश्चं पि आताए प्रवक्कमित्ता बदहि |
भाविभावनां महानुभावैरपि प्रायो नायितुमशक्यत्वादित्यप्रसन्नावुभावणाहिं पिच्चत्तानिणिवेसेहि य अप्पाणं च |
मेव वा गुणविशेषदर्शनात भगृढलकाहि भगवन्तोऽहन्ता न
निध्ययोजनं क्रियासु प्रवर्तन्ते ।भ००३३ २० । परं च तनयं च बुग्गाहेमाणे वुप्पाएमाणे बहूई वासाई अथ सपिण्डप सामान्यतः सच्चितमेवार्थसामम्मपरियागं पाजण, पानणदत्ता अचमासियाए सं
मेकैकनिहवं प्रति व्यक्तितो निर्दिशमाहमेहणाए अत्ताणं सेइ, उसेइत्ता तीसं भत्ताई अणस
चोइस वासाणि तया, जिणेण उप्पाडियस्स नाणस्म । णाई देइ, देइत्ता तस्स गणस्स प्रणालोइयपटिकते
तो बदुरयाण दिही, सावत्थीए समुप्पचा ॥१३०६ ॥ कालमासे कालं किश्चा लंतए कप्पे तेरससागरोचमाई लिई
चतुर्दश वर्षाणि तदा जिनेन भीमन्महाबीरेणोत्पादितस्य ए देवकिपिसिएम देवेसु देवकिञ्चिसियत्ताए उपयो। तए केवलज्ञानस्य ततोऽबान्तरे बहरतनिहलानां दर्शनं अधि: णं भगवं गोयमे जमालिं अणगारं कामगयं जाणित्ता
श्रावस्त्यां नगयों समुपति ॥२३०६ ॥ जेणेव समणे भगवं महावीरे, तेणेव उवागच्चइ, उवागच्च- सा च यथोत्पना तथा विदर्शयिषुः संग्रह। इत्ता समणं जगवं महावीरं वंदइ, णमंसड, बंदित्ता णमंसि
गायामाह ता एवं वयासी-एवं खलु देवाणुप्पियाणं अंतेवासी कु- जिट्ठा मुदंसा जपा-लिणोज सावस्थितिंदुगुज्जाणे । सिस्से जमाली हामं अणगारे कालमासे कालं किच्चा काहि पंच सयाय सहस्सं, डंकेण जमालि मोत्तणं ॥ २३०७॥ गए, कहिं उपवमे । गोयमादि समणे भगवं महावीरे भगवं अत्र नावाधस्तावत्कथानकेनोच्यते-हैव भरतकेत्रे कुएमपुर गोयम एवं वयासी-एवं खलु गोयमा ! ममं अंतेवासी माम नगरम । तत्र जगवतः श्रीमन्महावीरस्य भागिनेयो जमाकुसिस्से जमालीणामं अणगारे, सेणं तदा ममं एवमाइ
लिनीम राजपुत्र प्रासीत् । तस्य च भार्या श्रीमन्महावीरस्य
अदिता। तस्याश्च जेष्ठति वा, सुदर्शनेति बा, अनवणीति क्खमाणस्स ४ एयमटुं णो सहइ ३, एयमढे असद्दहमाणे
या नामेति । तत्र पञ्चशतपुरुषपरिवारो जमासिनगवतो महादोच्च पि ममं अंतियाओ श्राताए अवकमइ, अवकमहत्ता पारस्यान्तिके प्रवज्यां जमाह । सुर्दशनाऽपि सहनस्त्रीपरिवारा बहर्हि असन्नावुन्जावणाहिं तं चेक जाव देवकिनिसिय- तदनु प्रवजिताततधैकादशस्वकेवधीतेषु जमालिना जगवान् चाए नक्व । (न.) जमाली ण नंते ! अणगारे पर- विदागर्थ मुत्कलापितः। ततो भगवता तृष्णीमाथाय न किञ्चि
प्रत्युत्तरमदायि, तत एवममुत्कलितोऽपि पञ्चशतसाधुपसादारे विरसाहारे अंताहारे पंताहारे सहाहारे तुच्गहारे
रिश्तो निर्गतः श्रीमन्महावीरान्तिकात । प्रामानुप्रामंच पर्यटन् अरसजीवी जाव तुच्छजीवी जवसंतजीवी पसंतजीवी वि.
गतः श्रावस्तीनगर्यो, तत्र च तेन्दुकाऽभिधानोणने कोष्ठकनावित्तजीवी। हंता गोयमा ! जमानी अणगारे अरसा- मिन चैत्ये स्थितः, ततश्च तत्र तस्यान्तःप्रान्ताहरैस्तीवो हारे जाव विवित्तजीवी । जहणं नंते ! जमाली अणगारे
रोगातः समुत्पत्रः, तेन च न शक्नोत्युपविष्टः स्थातुम । भरसाहारे० जाव विवित्तजीवी, कम्हाणं ते ! जमाली।
ततो बमाण भ्रमणान-मनिमित्तं शीघ्रमेव संस्तारकमास्तृणीत,
येन तत्र तिष्ठामि । ततस्तैः कर्तुमारब्धोऽसौ। बादं च प्रणगारे कालमासे कालं किच्चा लंतए कप्पे तेरस । वाहज्वराभिभूतेन जमालिना पृष्टम्-संतृतः संस्तारको न सागरोवमदिईएसु देवकिनिसिएम देवेसु देवत्ताए उव- घेति ?। साधुभिश्च संस्तृतप्रायवादर्धसंस्तृतेऽपि प्रोक्तम्वो ?। गोयमा ! जमाली णं मणगारे आयरियामिणीए
संस्तृत इति । ततोऽसौ वेदनाविह्वलितपेता उत्थाय तत्र
तिष्ठासुरई संस्तृतं तत् दृष्ट्वा क्रुद्धः-"क्रियमाणं कृतम् "। जवझायपमिणीए आयरियउवझायाणं अयसकारए
इत्यादि सिमान्तवचनं स्मृत्वा मिथ्यात्वमोहनीयोदयतो वक्ष्यअवमकारए जाव चुप्पाएमाणे बह वासाई सामापार
माणयक्तिभिर्वितयमिति चिन्तयामास । ततः स्थविरवक्ष्ययागं पाउणेइ, पाजणइत्ता अचमासियाए संलेहणाए तीसं माणाजिरव युक्तिभिः प्रतियोधितो यदा कथमपि न प्रतिजत्ताई अणसणाई देइ, बेदेश्त्ता तस्स ठाणस्स प्रणा
बुध्यते, तदा गतास्तं परित्यज्य भगवत्समीपे । अन्ये तु तत्स
मीप एव स्थिताः । सुदर्शनाऽपि तदा तव श्रावकदकुम्भलोडपपमिकते कालमासे कालं किच्चा लंतए कप्पे जाव | कारगृहे आसीत् । जमाल्यनुरागेण च तम्मतमेव प्रपन्ना,ढङ्कमपि
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(१४१०) जमालि प्रनिधानराजेन्द्रः।
जमालि तबाहयितुं प्रवृला, ततो ढङ्कन मिथ्यात्वमुपगतेयमिति ज्ञात्वा | विपर्यये बाधकमाह-मथ कृतमपि क्रियत इत्यभ्युपगम्यते, प्राक्तम्-नेरशं किमपि वयं जानीमः। अन्यदा चापाकाग्निमध्ये तर्हि नित्यमनवरतमेव क्रियतां कृतकत्वाविशेषात् । एवं च मृदाजनावर्तनपरावर्तने कुर्वता मारकर्मक प्रतिष्य तत्रैव सति न कदाचिदपि कार्यक्रियापरिसमाप्तिरिति ॥ १३१०॥ प्रदेशे स्वाध्यायं कुर्वत्याः सुदर्शनायाः समायञ्चलो दग्धः ।
किमेतावन्मात्रमेव दूषणं ?, नेत्याहततस्तया प्रोक्तम्-भावक! कि त्वया मदायसहाटी दग्धा ।। किरियावेफवं ति य, पुवर्मन्नूयं च दीसए होतं। तेनोक्तम-ननु दह्यमानमदग्धम्' इति नबति प्रवत्यास्सि-1
दीसदीहो य जमो, किरियाकासोधाईणं॥११॥ काम्तः, ततः क केन त्वदीया सहाटी दग्धा ? इत्यादि तमुक्तं परिनाम्य संबुद्धाऽसौ सम्यक प्रेरिताऽस्मीत्यनिधाय मिश्या
यदि च क्रियमाणं कृतमिप्यत, तर्हि घटादिकार्यार्थ या दुष्कृतं ददाति , जमालिं च गत्वा प्रकापयति । बदा चासो
मृन्मर्दनचक्रभ्रमणादिका क्रिया, तस्याः वैफल्यं प्रामोति, तत्कथमपि म प्रकाप्यते, तदाऽसौ सपरिवारा शेषसाधवका- काले कार्यस्य कृतत्वान्युपगात् । प्रयोगा-इह यत्कृतं, तकिनं जमालि मुक्त्वा भगवत्समीपं जग्मुः। जमालिस्तु बहुः
किया विफव, यथा चिरनिष्पन्नघटे, कृतं चाऽज्युपगम्यजनं ब्युझाद्यानासोचितप्रतिक्रान्तः कालं कृत्वा किस्चिषिकदेवे
ते क्रियाकाले कार्य, ततो विफला तत्र क्रियेति । किंचत्पनः । व्याख्याप्राप्यागमाबैतत चरितं बिस्तरतोऽबसे- क्रियमाणकृतवादिना कृतस्य विद्यमानस्य क्रियेति प्रतिपाअमिति । एष संग्रहगाथानावार्थः । अकराधस्त्वयम-(जंट्ठा
दितं भवति । एवं च प्रत्यक्षविरोधः, यस्मात्पत्तिकालाभुसण जमालिणोजति )ज्येष्ठा, सुदर्शना, अनवद्याङ्गी
त्पूर्वमनृतमविद्यमानमेव कार्य अवज्जायमानं रश्यते, उत्पत्तितिजमालिगृहणीनामानि । अन्ये तु व्याचक्कते-ज्येष्ठा महत)
काले तस्मात्कियमाणमकृतमेवेति । किं च-भारम्भक्रियासमसदर्शना नाम भगवतः श्रीमन्महाबीरस्य भगिनी, तस्याः पत्रो
य एव कार्यमुत्पद्यत इति तवाभ्युपगमः । एतचायुक्तम् । कुजमालिः, अनवद्याली नाम भगवतो मुहिता जमालिगृहिणी
तः ?, यस्मात् घटादिकार्याणामुत्पद्यमानानां दीर्घ एव निति भावस्त्यां नगर्यो तैन्दुकोद्याने जमालिनिहवराष्टिरुत्पति वर्तनक्रियाकालो रश्यत इति ॥२३११॥ बाक्यशेषः । तत्र पत्र शतानि साधूनां सहस्त्रं चार्यिकाणाम् । रश्यतां नाम दीर्घः क्रियाकालः, परं घटादिकार्यमारम्भपतेषां मध्ये या स्वयं न प्रतिबुद्धः तं जमालि मुक्त्वा ढलेन । क्रियासमय पक्ष शिवकादिकाले वा त्यत इति प्रतिबोधितः । इति नियुक्तिगाथार्थः ॥१३०७ ॥
चेत् , तदयुक्तम् । कुत श्त्याहप्रय भाष्यकारो येन विप्रतिपत्त्यभिप्रायेण जमालिनिडवो नारंजे चिय दीसइ, न सिवादकाएँ दीसह तदंते। . जातस्तं प्रकटय नाह
तो न हि किरियाकाले, जुत्तं कज्जं तदंतम्मि ॥२३१॥ • सक्खं चिय संयारो, न कज्जमाणो कन तिमे जम्हा ।
भारम्भक्रियासमय एव घटादिकार्य भवद् श्यते, नापि वे जमाली सव्वं, न कज्जमाणं कयं तम्हा ॥२३०॥ शिवाचकायाम्-शिवकस्थासकोशकुमादिसमयेष्वपिन - (मे जम्ह ति) यस्मान्मम साक्षात्प्रत्यक्कमेवेदं वृत्तं , यदुत
श्यत इत्यर्थः । कतर्हि रश्यते ?, इत्याह-तदन्ते दोघंकियाकम्बलास्तरणकपः संस्तारकः क्रियमाणो न कृतः, संतार्यमा
कालस्यान्ते घटादिकार्य भवद् श्यते , तस्मान क्रियाकासे जो न संस्तृतः। तस्माजमालिब्रवीति-सर्वमपि वस्तु क्रिया
कार्य युक्तं, तस्य तदानीमदर्शनात । तदन्ते तु दीर्घक्रियामाणं कृतं न प्रवति, किंतु कृतमेव कृतमुच्यते । ततो भगव
कालस्यान्ते युक्तं कार्य, तदानीमेव तस्य दर्शनादिति सकस्याविषु यदुक्तम्-" चालमाणे चलिए उरिजमाणे उड़रिए,
लजनस्य प्रत्यक्षसिद्धमेवेदम् । इति जमालिपूर्वपक्कः ॥२३९२॥ वेजमाणे बेश्य " इत्यादि, तत्सर्वे मिध्येत्यभिप्रायः ॥ अत्र स्थधिराः प्रतिविदधति स्म । कथमित्याहइति । २३०८।।
थेराण मयं नाकय-मनावभो कीरए खपुप्फंव । मपि च, क्रियमाणं कृताऽभ्युपगमे बहवो दोषाः, क पते । अहव अकयं पि कीरइ, कीरज तो खरविमाणं पि॥२३१३॥ इत्याह
स्थविराः श्रुतवृका गीतार्थाः साधवः, तेषां मतम्-कुप्ररूपर्णा जस्सेह कजमाणं, कयं ति तेणेह विजमाणस्स ।। कुर्षन्तं जमालि ते पवं प्रज्ञापयन्तीत्यर्थः-नाकृतमविद्यमानं करणकिरिया पवना,तहा य बहुदोसपमिवत्ती ।।२३०६॥
घटादिकार्य क्रियते, प्रसस्वात्, आकाशकुसुमवत् । अथाकृतम
। विद्यमानमपि क्रियते, क्रियतां तहि खरविषाणमपि, अकृतत्वा- . इह यस्य वादिनः क्रियमाणं वस्तु कतमित्यभ्युपगमः,ते. विशेषादिति ॥२३१३ ॥ मेह विद्यमानस्य सतः करणरूपाः क्रियाःकरणक्रियाः प्र- यमुक्तम्-"कीरउ निच्चं न य समत्ती" (२३१०) इत्यादि। तिपमा अङ्गीकृताः । तथा च सति बक्ष्यमाणानां बहनां
तत्रादपोषाणां प्रतिपत्रिज्युपगमपा कृता भवतीति ॥१३०९।।
निश्चकिरियाइदोसा, नणु तुन्ला असइ कतरगा वा । । तथाहि
पुब्वमन्यं च न त, दीसह किं खरविसाएं पि ॥२३१।। कयमिह न कज्जमाणं, सजावाओ चिरंतनघमो व्य ।।
नवसत्यविद्यमाने वस्तुनि करणक्रियान्युपगमे,नित्यक्रियादिप्रावा कयं पिकीरई,कीरउ निचं न य समत्ती ।।२३१॥ दोषाः, श्रादिशब्दाकियाऽपरिसमाप्तिक्रियावैफल्यपरिग्रहः, र क्रियमाणं कृतं न भवतीति प्रतिज्ञा , सद्भावात्- आवयोस्तुल्याः समाः , यथा कृतपके स्वया दत्तास्तथा अकृतस्य बिचमानस्वादिति हेतुः, चिरन्तनघटवदिति रष्टान्तः।
तपक्षेऽप्यापतन्तीत्यर्थः । किं तुल्या एव ?। नेत्याह-करतरका
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(१४११) जमालि निधानराजेन्द्रः।
जमालि पा । बिचमाने हिवस्तुनि पर्यायविशेषाधानबारेण कश्चि- दिह प्रष्टव्योऽसि-किं भवतः कार्य क्रियया क्रियते,उत तामन्तकरणानियाचुपचत एव, यथा-"माकाशं कुरु, पादौ कुरु, रेणाऽपि भवति । यदि क्रियया, तहिं कथं साऽन्यत्र समये, पृष्ठं,कुछ" इत्यादि। अविद्यामाने तु सर्वथा नायं न्यायः सं- अन्यत्र तु कार्यम् न हि सदिरे वेदनक्रियायां पलाशे छेदःसभवति, सर्वथा प्रसस्वात् खरविषाणवदिति । यदि च पूर्व मुपजायते ।किच-"क्रियोपरमे कार्य भवति, न तु क्रियास. कारणावस्थायामभूतमसत् कार्य जायते, तहिं मृपिएडाद ब्रावे" शति बदता प्रत्युत कार्योत्पत्तेर्विघहेतुः क्रियेति प्रतिघरवत् सरविषाणमपि जायमानं किंन रश्यते, असत्वाविशे- पादितं भवति । ततश्च कारणमप्यकारणमिति प्रत्यक्षादिवि पाद| अथ खरविषाणं भवन दृश्यते, तहिं घटोऽपि तथैवास्तु, रोधः। अथ क्रियामन्तरण कार्यमुपजायते इत्यन्युपगम्यते, 'विपर्ययो वेति ॥ २३१४॥
साहिं घटादिकायार्थिनां निरयंका सर्वोऽपि मृन्मदनपिपमधिबमुक्तम्-"दीस दोहो य जओ" (२३११) इत्यादि, तत्राह
धानचक्रारोपणम्रमणादिक्रियारम्नः, अतो न कर्तव्यं मुमुक्षु
निरपि तपःसंयमादिक्रियानुष्ठानं, तदनन्तरेणापि मुक्तिसुखसिपइसमउप्पमाणं, परोप्परविलक्खणाण सुबहूणं।
खेन चैवम, तस्मात् क्रियाकाल एव कार्य, न पुनस्तपरम दीहो किरियाकामो, जश्दीस कित्थ कुंजस्स ।।२३१५॥ इति ॥१३१७॥ यदि माम प्रतिसमयोत्पन्नानां परस्परविलकणस्वरूपाणां पुनरप्याह-ननु मृदानयनतन्मदनादिकश्चक्रादिचिन्नताकसुबहीनां शिवकस्थासकोशकुशूलादिकार्यकोटीनां क्रियाका• रणकार्यपर्यन्तो दीर्घ एवं मया घटनिर्वर्तनक्रियाकानोऽनुरलनिष्ठाकासयोरेकत्वेन प्रतिप्रारम्भसमयनिष्ठाप्राप्तानां दीकि- यते, मातु यत्रैव समये प्रारज्यते तत्रैव निष्पद्यत इत्यनुनूयते, याकानो रश्यते, तर्हि कुम्नस्य घटस्य किमत्रायातम् । श्व- तदेतत्कथमित्याहमुकं भवति-मृदानयनमर्दनपिएमविधानादिकालः सोऽपि
पइसमयकजकोडी-निरवेक्खो घरगया हिलामो सि। घटनिर्वर्तनक्रियाकाल ति तबानिप्रायः। मयं चायुक्त एव । मतः तत्र प्रतिसमयमन्यान्येव कार्याएयारभ्यन्ते, निष्पाद्यन्त च,
पासमयकज्जकालं, यूनाई! घडम्मि लाएसि ॥२३१॥ कार्यस्य कारणकालनिष्ठाकालयोरेकत्वात् । घटस्तु पर्यन्तस- हन्त! यद्यपि प्रतिसमयमन्यान्यरूपाः कार्यकोटयः तत्रोत्पद्यन्ते, मय एघारभ्यते, तत्रैव बनिष्पचत इति कोऽस्य दीपों निर्व- तथाऽपि निरपेकस्त्वम्-निष्प्रयोजनत्वेनाविवक्षितत्वादुत्पथतकियाकामः इति । २३१५ ॥
मा अपि तास्त्वं न गणयसीत्यर्थः। कुतः!, यस्माद् घटगता. मथान्यप्राक्तनकालसमयेष्वपि घटः किं न हश्यते १, इत्याह
निनाषोऽसि,सप्रयोजनत्वेन तस्यैव प्रधानतया विवक्तितत्वात् । प्रभारने अनं, किह दीसउ जह घडो पढारंभे ।
'घट होत्पत्स्यते' इत्येवं तत्रैव तवाभिलाषः, अतः प्रतिसमय
कार्यकोटीनामदर्शकत्वैन स्थूलमते! प्रतिसमयकार्यसंबन्धिनसिक्कादओ न कुंजो,किह दीसऍ सो तदकाए।।२३१६॥
मपि कासं सर्वमपि घटे लगयसि-'सर्वोऽप्ययं घटोत्पत्तिकालः' मन्यस्य शिवकादेरारम्भे अन्य घटलकणं काय कथं - इत्येवमध्यवस्पसि,त्वमित्यर्थः,तो मिथ्यानुजयोऽयं तवेत्यनिश्यते ।नदि पटारम्भे घटः कदाचिदपि दृश्यते। अतः किमु. प्रायः, एकसामयिक एव घटोत्पत्तिकाले बहुसामयिकत्वग्रहध्यते-"नारंभे चिय दीस" त्ति । शिवकादयोऽपि कुम्भक- खेन प्रवृत्तेः। अत्राह-ननु प्रतिसमय कार्यकोदय उत्पद्यमानापान भवन्ति, किं तु ततोऽन्य पवेति कथं तदकायामप्यसौ स्तत्र न काचन संवेद्यन्ते, किं वपान्तराले शिषकस्थासकोकुम्भो इयते । अत एव तदप्यतया प्रोच्यते " न सिबाद- शादीनि कानिचिदेव कार्याणि संवेद्यन्ते । सत्यम, किं तु स्थू. काप" इति ॥२३१६॥
लान्येव शिवकादिकार्याणि, यानि तु प्रतिसमयभावीनि सूक्ष्म__ यत्ततम्-“दीसास" इत्ति, तत्राह
कार्याणि तानि ग्यस्तो व्यक्त्या नावधारयितुं शक्नोति, पर अंते चित्र आरडो, जहदीसइ तम्मि चेव को दोमो ।
प्रतिसमयकार्याणां प्राहकारयनन्तसिमकेवलिना बानान्यु. अकयं वसंपइ गए,कह कीरउ कह व एस्सम्मि॥२३१७।।
त्पद्यन्ते, तान्यपि तत्रापान्तराले कार्याएयेव, इति घटन्त एवं प्र
तिसमयं कार्यकोटय इति ॥ २३१८ ॥ मन्त एष क्रियाकणे प्रारम्धो घटो यदि तत्रैव दृश्यते तर्दि
. अत्र प्रेरकः प्राहको दोषः १, न कश्चिदित्यर्थः । यदुक्तम्-" तो न हि किरियाकाले" इत्यादि । तत्राह-"अरुयं चा" इत्यादि । यदि च संप्रति
को चरमसमयनिपमो, पढमे च्चिय तोन कीरए कज्ज । वर्तमानक्रियाकणे न रुतं कार्यमितीच्यते तदा गते मतिकाम्ते,
नाकारणं ति कर्ज, तं चेवं ताम्म से समए ॥३१॥ एण्यति-अनागते च क्रियाकणे कथं नाम तत्कार्य क्रियताम। ननु यदि कार्यस्य दीर्घः कियाकालो नेप्यते, किंत्वेकसामामकथचिदित्यर्थः । तथाहि-नातीतभविष्य क्रियाकणी कार्य-| यिक एव, तहिं कोऽयं चरमसमयनियमो, येन तत्रैवोत्पद्यते कारकी, बिनष्टानुत्पन्नत्वेनासस्वात। खरविषाणवत, अतः कथं घटादिकार्यम्-न घटत एवायं नियम इत्यर्थः। तत एतचिय. कियान्ते कार्य स्यात् । तस्मास्क्रियमाणमेव कृतमिति । यदि
स्मारिक्रयमाणमव कृतामेति । यदि माभावात् किं प्रथमसमय पर कार्य न क्रियते-अपितु किचक्रियमाणमपि न कृतंक तर्हि रुतभिति वक्तव्यम्। क्रिया- यत एवेति काका नीयते । अत्रोत्तरमाह-अकारणं काय न बिगम इति चेत् । तदयुक्तम् । तदानी क्रियाया प्रसस्वात् तद- भवति. तयाम्पसमये,पद (से) तस्य घटस्य कारणमस्ति, न सावेऽपिचकार्योत्पत्ताविष्यमाणायां कियारम्नारप्रागपि कार्यों- तत्प्रथमसमये, पता कथं तत्रोत्पद्यते', अन्वयव्यतिरेकसमधि. स्पतिः स्यात्, क्रियासमाविशेषाद । अथ संप्रतिसमयः क्रिय- गम्यो रिकार्यकारणभावः, अन्वयव्यतिरेकाभ्यां चान्त्यसमय माणकाला, तदनन्तरस्तु कृतकालो,न च क्रियमाणकाले कार्य- पव घटाःकार लक्ष्यत इति तत्रैव तत्पद्यत इति युक्त मस्ति, इत्यतः खल्वकृतं कियते, तमित्यभिधत्से।नम्बर-1 एमपरमसमबनियम इति ॥ २३१६।।
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(१४११) जमालि अन्निधानराजेन्द्रः।
जमालि प्रथोपसंहस्तात्पर्यमाद
ननु यदि पूर्वमपराराणि कार्याणि निष्पद्यन्त, संस्तारकतेणेह कन्जमाणं, नियमेणं कयं कयं तु जयणिज।
स्तु पर्यन्तसमय पवारभ्यते, निष्पद्यते च पार्षभिया
कालनिष्ठाकासयोरनेदात् तर्हि। कथं संस्तारकस्यैष किंचिदिहकज्जमाणं,उवग्यकिरियं च होज्जाहि॥२३३०॥
स दीर्घः क्रियाकामो मयाऽनुभूयते ?, इत्याहतेन उक्तप्रकारेण क्रियमाणं वर्तमानक्रियाक्षणभावि कार्य नि
पइसमयकज्जकोमी-विमुहा संथारयाहिकयकज्जो । यमेन कृतमेबोच्यते, यत्तु कृतं तद्भजनीय विकल्पनीयम् । कथ. म? इत्याह-किचिदिह कृतं क्रियाप्रवृत्तिकालनावि क्रियमाणमु.
पइसमयकज्जकालं, कहं संथारम्मि लाएसि ॥२३२३॥ व्यते, अन्यत्तूपरतक्रियं चक्रापाकापुत्तीर्ण कृतं घटादिकार्य न गतार्या, नवरं सस्तारकेणाधिकृतं प्रस्तुतं कार्य यस्यासी संक्रियमाणमुच्यते, उपरतक्रियत्वादिति ॥ २३२० ॥
स्तारकाधिकृतकार्य प्रति समासः॥१३५३॥ तदेवं सामान्येन प्रतिपाद्य प्रस्तते जमालिसंस्तारकेडम सका तदेवं स्थविरेयुक्तिभिः संबोध्यमाने तस्मिन् कि संजातमित्याहसमपि स्थविरोक्तं युक्तिकलापमायोजयमाह
सो उज्जुसुयनयमयं, अमुणं तो न पढिवजए जाहे। जं जत्य नभोदेसे, अत्युच्चइ जत्थ जत्थ समयम्मि । ताहे समणा केई, उवसंपण्या जिणं चेव ॥३४॥ तं तत्य तत्थ मत्युय, मत्युव्वंतं पि तं चेव ॥२३२१॥ पियदंसणा वि पक्षणो-ऽणुरागो तम्मयं चित्र पवष्ठा । प्रास्तीर्यमाणसंस्तारकस्य यद्यावन्माचं नन्नादेश यत्र यत्र स- ढंकोवहियागणिद-कुवत्थदसा तयं जणइ ।। २३२५ ।। मये (प्रत्पुब्बा) पास्तीर्यते तत तावन्मानं तस्मिन्नभोदेश तत्र सावय! संघाही मे, तुमए दकत्ति सो वि अतमाह। तत्र समये भास्तीर्णमेव भवति, प्रास्तीर्यमाणमपि च तदे.
ना तुज्ज मज्कमाएं, दतिमो न सिर्फतो॥२३२६॥ चोच्यते । एवमुक्तं भवति-सर्वोऽपि संस्तारक पास्तीर्यमाणो नास्तीर्ण इति' क्रियमाणं कृतम् ' इत्यादि महावीरवचनं
दकं न डज्कमाणं, जइ विगएऽणागए वे का संका। व्यबीकमेव जमालिमन्यते । एतचायुक्तम्, नगवचनानिमाया.
काले तयभावाश्री, संघामी कम्मि ते दहा ॥१३२७॥ परिकानातासर्वनयात्मकंदिभगवद्वचनम् । ततश्च 'क्रियामाण-| चतम्रोऽपि गाथा गताः , नवरम ऋजुसूत्रो निश्चयनयविशेषः। मकृतम्' इत्यपि जगवान् कथंचिद् व्यवहारनयमतेन मन्यत (पियदसणा विति)आह-ननु पूर्व 'सुदर्शना' इति तस्या नाम पव, परम "चलमाण चलिए, नईरिज्जमाणे नईरिए" इत्या
प्रोक्तं, कथमिदानी प्रियदर्शनेत्युच्यते । सत्यं, किं त्विदमपितदिसूत्राणि निश्चयनयमतनैव प्रवृत्तानि । तन्मतेन च क्रियमाणं | स्था नाम द्रव्यम् । तथा चोक्तम्-" तेयसिरिंच सुरुवं, जणसंस्तृतम्, इत्यादि सर्वमुपपद्यत एव । निश्चयो हि मन्यते-प्र- इय पियदसणं धूयं " इति । " कोवहिय" इत्यादि । खाथमसयादेव घटः कर्तुं नारब्धः, किं तु मृदानयनमर्दनादीनि भ्यायपौरुषी कुर्वत्यास्तस्या आपाकाद् गृहीत्वा ढलेनोपहितः प्रतिसमयं परापरकार्याएयारज्यन्ते,तेषां च मध्ये यश्व समये
क्किप्तो योऽनिस्तेन दग्धो वस्त्रदेशो यस्याः सा दोपहिताप्रारज्यते तत्तत्रैव निष्पद्यते, कार्यकाल-निष्ठाकासयोरेकत्वात्,
निदग्धवस्त्रदेशा सती तं दई भणति, सोऽपि तां प्रियदअन्यथा पूर्वोक्तदोषप्रसंगात् । ततः क्रियमाणं कृतमेव नवति ।
र्शनामाह-" दर्छ" इत्यादि चतुर्थगाथाया अयं प्राचार्थः । एवं प्रस्तुतः सस्तारकोऽपि नाघसमयासोंऽपि संस्तरीतुमा
ननु यदि दद्यमानं दाइक्रियाक्षणे वर्तमाने वखं न दग्धमिरज्यते,कि स्वपरापरे तवयवाः प्रतिसमयमास्तीयन्ते.तेषां च
ति भवङ्गिरुच्यते, ततो विगते उपरते, अनागते षा भविष्यति मध्ये यो यत्र समयेऽवयवः संस्तरीतुमारज्यते स तत्रैवास्तीर्य
दाहक्रियाकाले का शडून वस्त्रदाढविषया?, तदभावाद-दाहते, परिपूर्णस्तु संस्तारकइचरमसमय एष संस्तरीतुमारज्यते
क्रियाया विनष्टानुत्पन्नत्वेन सर्वथा भन्नावादित्यर्थः । अतो तत्रैव च निष्पद्यत इति । संस्तीर्यमरणं संस्तीर्णमेव भव
वर्तमानातीतानागतलकणे कालत्रयेऽप्युक्तयुक्तितोऽदग्धत्वात तीति ॥ २३२१ ॥
कस्मिन् काले पाये ! ते तव सबाट मया दग्धेत्युच्यताम? "दीस दीहो व जमो" (२३११) इत्यत्राह- इति ॥ २३५४ ॥ २३२५ ॥२३२६ ॥ २३५७ ॥ बहुवत्थत्तरण विनिम्प-देसकिरियाकन्जकोमीणं ।
अथ प्रायें ! त्वमेवं मन्यसे, किम् ? इत्याहमनसि दीई काझं, जइ संथारस्स किं तस्स ॥३श्शा अहवान कमाणं, दई दाहकिरियासमतीए। यदि नाम बहुबलास्तरणविनिनदेशक्रियादिकार्यकोटीनां सं.
किरियाऽभावे दर्व, जइ दळं किं न तेसुकं ॥२३२॥ बन्धिनं दीर्घकालं मन्यसे जानासि त्वं, ततः संस्तारकस्य तस्व अथ चैवं भूषे-दह्यमान न दग्धं, किंतु दाहक्रियासमाप्ती किमायातम् । इत्यकरघटना । विभिन्नो देशो यासा ता वि- दग्धम । नन्वेवं सति दाहक्रियाऽभावे दग्धमित्युक्तं भवति । भिन्नदेशाः, ताश्च ताः क्रियाइच विजिनदेशक्रियाः, वस्त्रस्यो- पतचायुक्तम, यतो यदि दाहक्रियाऽनाव दग्ध, तदि त्रैलोक्य. पसंकणत्वात् कम्बलानां चास्तरणं वस्त्रकम्बमास्तरणं, तस्य मपिकिन 'दग्धम्' इत्यत्रापि संबध्यते, यथा बस्ने तथा त्रैलोविनिनदेशक्रिया वस्त्रकम्बलास्तरणविभिनदेशक्रियाः, तदाद- क्येऽपि दाहक्रियाऽभावस्य तुल्यत्वादिति ।। २३२८॥ यश्च ताः कार्यकोटयश्च तास्तथा, बह्वयश्च ता बरकम्बलास्त
ततः किमिह स्थितमित्याहरणविभिन्नदेशक्रियादिकार्यकोटयश्च बहुवलकम्बलास्तरण
नज्जुमुयनयमयामो, बीरजिणिदवयणावलंबीणं । विभिन्नदेक्रियादिकार्यकोटय इति समासः, तासामिति । भादिशब्दः स्वगतानेकभेदस्यापकः, कार्यणां च कोटिसं
जुज्जेज मज्जमाण, दडं वोतुं न तुम त्ति ॥३२॥ स्यत्वमिदापि पूर्ववद्भावनीयमिति ॥ २३१२ ॥
उत्तानार्था ॥२३९॥
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(१५१३) जमासि अभिधानराजेन्द्रः।
जमालिग्रामयण ननु दधमानदग्धवादिनोऽप्यञ्चलमात्रदेशे दद्यमाने कृतत्वप्रथमादिसमयेष्वपि सत्वादुपलम्नः प्रसज्यत ति, तसत्याटो कथं दग्धेति व्यपदिश्यते?, इत्याह
दपि न, तदा हि शिवकादीनामेव क्रियमाणता, ते चोपलभ्यसमए समए जो जो, देसो ऽगणिभावमेइ उज्माणस्स । |
न्त एव । उक्तं च विशेषावश्यके-"अनारभे अन्नं, कह दीसउ
जह घमो पमारंजे । सिवगादओन कुंभो, किह दसउ सो तं तम्मि डज्माणं, दपि तमेव तत्येव ॥२३३०॥
तदद्धाप" ॥२३१६ । घटगताऽनिलापतया च मूढः शिवकायो यो दाह्यस्य पटादेर्देशस्तस्वादिः समये समय ऽग्नि- दिकरणेऽपि घरमहं करोमीति मन्यते । तथा चाह-"परसमयप्रावमेति-दह्यत इत्यर्थः । तत्तद्देशरूपं बस्तु तस्मिन् समये कज्जकोमी, निरवेक्खं घडगयाभिलासो सि । पश्समयकज्जदह्यमानं भरायते. तथा दग्धमपि तदेव वस्तु तस्मिन्नेव समये कासं,यूलमई घमम्मि लापसि" ॥२३१७ ॥(विशे०) नापि भश्यते, अतो 'दह्यमानमेव दग्धम्' । यत्तु देशमात्रेऽपि दग्धे क्रियावैफल्यापत्सितः, यतः प्रागवाप्तसत्ताकस्य करणे क्रियावै. सहाटी मे दग्धेति त्वं वदसि, तत्सहाट्येकदेशेऽपि संघाटी- फल्यं स्यात्, म तु क्रियमाणकृतस्ये, तत्र दि क्रियमाणं क्रियाशम्दोपचारादिति मन्तव्यमिति ॥२३३० ।।
पेक्वमिति तस्याः साफल्यमेव अमेकान्तवादिनां च केनचिततः किमिह स्थितम् ? इत्याह
बूपेण प्राग् सवेऽपि रूपान्तरेण करणं न दोषाय, दीर्घक्रियाका
लदर्शनानुपपत्तिरिस्यपि न युक्तम । यतः शिवकागुत्तरोसरपनियमेण इज्झमाणं, दवंदळं तु होइ जयणिज्ज।।
रिणामविशेषविषय एव दाक्रियाकालोपलम्भो, न तु घटकिंचिदिह डऊमाणं, नवरयदाच होज्जाहि॥२३३१॥
क्रियाविषयः । उक्तं हि-" पतिसमयउप्परणाणं, परोप्परविल. व्याख्या प्रागुक्तानुसारेण कार्येति ॥ २३३१॥
क्खणाण सुबहूणं। दोहो किरियाकालो, जहदीस किं च इत्यादिढडोक्तयुक्तिभिः संबुद्धा प्रियदर्शना, शेषसाधवच कुंभस्म ॥२३१५॥"(विशे०) अथ कथञ्चिनिश्चितभेदे कृत'आर्य!इच्छामः सदनूतमिदं स्वदीयसंबोधनम्' इत्येवं ढाका- क्रियमाणे ततीर्थक्कमेव निश्चयव्यवहारानुगतत्वात तद्वचनिमुखमभिधाय एकाकिनं जमालिनं मुक्त्वा सर्वाण्यपि ग- सः, तत्र च निश्चयनयाश्रयणेन कृतक्रियमाणयोरभेदः। यदुक्ततानि जिनसमीपमिति एतदेवाह
म-"क्रियमाणं कृतं दग्धं, इयमानं स्थितं गतम् । तिष्ठव गम्यमानं इच्छामो संवोहण-मज्जो पियंदसणादनो ढंक।
च,निष्ठितत्वात् प्रतिक्षणम्॥१॥" व्यवहारनयमतेन तु नानात्वम
प्यनयोः,तथा च क्रियमाणं कृतमेव, कृतं तु क्रियमाणमेव स्यावोत्तुं जमाझिमक, मोत्तूण गया जिणसगासं ॥२३३ ।।
तू, क्रियमाणं क्रियावेशसमये क्रियोपरमे पुनरक्रियमाणमिति । तक्ताव । इति पञ्चविंशतिगाथार्थः ॥ २३३२॥ विशे। प्रा० उक्तंच-" तेणेह कज्जमाणं, नियमेण कयं कयं तु भयणिज । म० प्रा० चू० । “तए णं जमालिस्स एवमाइक्खमाणस्स - किंचिदिह कज्जमाणं, उबरयकिरियं च होजाहि" ॥१३१०॥ त्येगया निम्गंधा एयमत्थं सहइंति, प्रत्येगड्या णो सहदंति" (विशे०) किंच-भवतो मतिः क्रियाऽन्त्यसमय एषाऽभिमतका. (उत्त०) इत्यस्योपरि उत्तराध्ययनवृत्तिगत विवरणं प्रदर्श्यते- | यंत्रवन,तत्राऽपि प्रथमसमयादारज्य कार्यस्य कियत्यपि निष्पतत्र येन श्रद्दधति, ते एवमाहुः-भगवन ! भवतोऽयमाशय:- तिरष्टव्या,अन्यथा कथमकस्मादन्त्यसमये सानवेत । उक्तम्“ यथा घटः पटो नैव, पटो वा न घटो यथा । क्रियमाणं कृतं __ "माद्यतन्तुप्रवेशे च, मो तं किञ्चिद्यदा पटे। मैव, कृतं न क्रियमाणकम्" ॥१॥ प्रयोगश्च-यौ निश्चितभेदी, न अन्त्यतन्तुप्रवेशे च, नो तं स्यान्न पटोदयः" ॥१॥ तयोरक्यं, यथा घटपटयोनिश्चितभेदे च कृतक्रियमाणके, पत्र तस्माद्यदि द्वितीयादि-तन्तुयोगात्प्रतिक्कणम् । चासिको हेतुः, तथाहि-कृतक्रियमाणे किमकान्तेन निश्चित- किश्चिस्किश्चिदुतं तस्य, यदुतं तदुतं हि तत ॥२॥ भेदे, अथ कथञ्चित् यद्येकान्तन तत्कि तदैक्ये सतोऽपि कर- श्ह प्रयोगः, यद्यस्याः क्रियायाः माघसमये न नषति णप्रसङ्गतः, उत क्रियाऽनुपरमप्राप्तेराहोस्वित्प्रथमादिसमयेवपि तत्तस्या अन्त्यसमयेऽपि न भावि , यथा घटक्रियादिसकार्योपसम्भप्रशक्तः, अथ क्रियावैफल्यापत्तितो दीर्घक्रियाकाल- मये अभवन् पटो न भवति च कृतक्रियमाणयादे किवर्शनानुपपत्तेर्वा तत्रन तावत्सतोऽपि करणप्रसङ्ग इति युक्तम- यादिसमये कार्यम, अन्यथा घटान्तसमयेऽपि पटोत्पत्तिः सत्करणे हि पुष्पादेरेव करणमापद्यत इति कश्चित्सत एवं स्यात् । एवं च-" यथा 'वृक्षो धवश्चेति', न धिरुवं मिथो करणमस्माभिरभ्युपगतम, न चाभ्युपगतार्थस्य प्रसञ्जनं प्रयु- द्वयम । 'क्रियमाणं कृतं चेति', न विरुद्धं तथोभयम्" ॥१॥ प्रयोज्यते । नाऽपिक्रियानुपरमप्राप्तेः, यत इह क्रिया किमेकविषया, गश्च-यद येनाधिनाभूतं न तत् पकान्तेन भिद्यते,यथा-वृक्षवाद जिनविषया बायोकविषया नदोषः। तथाहि-यदि कृतं क्रि- धवत्वं, कृतत्वाविनाभूतं च क्रियमाणत्वमिति सकललोकप्रसि. यमाणमुच्यते,तदा तन्मतेन निष्पन्नमेव कृतमिति,तस्यापि क्रिय
द्धत्वाचघटपटयोस्तदायणैवमुक्त संस्तारकादावपि योज्यम। माणतायां क्रियाऽनुपरमप्राप्तिकणो दोषः स्यात्न तु क्रियमा.
तत्प्रतिपद्यस्व भगवन् ! "चलमाणे चलिए" इत्यादि तीर्थणं कृतमिति उक्ती तत्र क्रियावेशसमय एव कृतत्वाऽभिधानात्।
कृता चात्यन्तमवितथ्यमिति, स चैवमुच्यमानोऽपि न प्रतिपन्नउक्तं हि-क्रियाकालनिष्ठाकालयोरैक्यमिति। अथैवमपि कृतक्रि
बान् । उत्त०३ अ० । जमा कियन्तो भवा ति प्रश्नस्योयमाणयोरैक्ये कृतस्य सत्वात्सतोऽपि करणे तदवेस्थः प्रसङ्गः।
त्तरम्-यथा भगवतीमूलकर्णिकावृत्तिवीरचारित्रानुसारेण तदसतापूर्व दिसम्धसत्ताकस्य क्रियायामयं प्रसङ्गः स्यात् न
जमालेः पञ्चदश भवा शायन्ते । दी. ३ प्रका० । तु क्रियासमकालसत्ताबाप्तौ अथ भिन्नविषया क्रिया तदा सिद्ध. जमालिन्-पुं० । महावीरजिनप्रथमनिहवे, विशे०। माधनं , प्रतिसमयमन्यान्यकारणतया वस्तुनोऽभ्युपगमनेन | जमालिअज्झयण-जमाल्यध्ययन-न० । वाचनान्तरापक्रया भिन्नविषयक्रियानुपरमस्यास्माकं सिद्धत्वात् । अथ प्रथमा- अन्तकृहशाध्ययनानां षष्ठेऽध्ययने, श्दानींतनम अन्तकृदशासु दिसमयेष्वपि कार्योंपलम्भप्रसकेरिति पक्षे क्रियमाणस्य हि | तदनुपलब्धेः । स्था० १० ग०।
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(१४२४) जमालिपभव . अभिधानराजेन्द्रः ।
जम्मयागर जमालिपभव-जपालिमजव-पुं० । जमासेः प्रजव एतत्तीर्या | शिका नारी सप्तसप्ततिःपुरुषः" इति । तथा द्वादश महानि
यावशोषिते अविश्वस्तयोनिके भवतस्तत ऊर्मध्वंसमुपगपेक्षया प्रथमा उपलब्धिरेषां न पुनः सर्वथोत्पत्तिरेव, प्रागप्पेव
च्छत इति । तत्र जीवा बन्नयोरपि स्नेहमाहार्यस्वकर्मविपाकेन विधाभिप्रायसम्नयात तेऽमी जमालिप्रभवाः । जमाझिमताभ्यु
यथास्वं सीपुनपुंसकनावेन (विउदृति रिवर्तन्ते समुत्पद्यन्ते पगन्तबहुरतनिहवेषु, उत्त०३० ।
इति यावत, तत्तरकासं च स्त्रीकुक्षौ प्रक्किप्ताः सन्तःखियाऽऽजमावण-जन्मापन-न। विषमाणां समीकरणे, नि००१०।
हारितस्याहारस्य निर्यासं स्नेहमादवति, तत्स्नेदेन च तेषां जम्म-पुं० । जन्मन्-न । जन-जावे-मनिन् । “न्मो मः" ।।
जन्तूनां क्रमोपचयादानेन क्रमेण निष्पत्रुिपजायते । “सत्ता
कललं होर, सत्ताहं होइ बुन्धुयं" इत्यादि । तदेवमनेन २॥६॥इति अधोसोपापवादः "अन्त्यव्यञ्जनस्य" ।।८।।
क्रमेण तदेकदेशेन वा मातुराहारमोजसा मिश्रेण वा लोमभि११॥ स्यम्स्यनकारसोपः। "स्नमऽदामशिरोनभः" ।।८।।
धोऽनुपूयेणाहारयन्ति यथाक्रममानुपयेण वृद्धिमुपागताः ३२॥ इति सूत्रेण-चास्य पुसि प्रयोगः ।" जम्मो जम्म"
सन्तो गर्भपरिपाकं गर्भनिष्पत्तिमनुपपन्नाःततोमातुः कायाद. उत्पत्ती, स्था०६ ठा। अने० । गर्नयासतो योनिहारानिस्स. रणे, वाचकर्मकृतप्रसूती, भौ०।न्यायाधुक्त अपूर्वदेहग्रहणे,
भिनिवर्तमानाः पृथभवन्तःसन्तस्तद्योनेनिर्गचन्ति, ते च तथा
विधकोदयादात्मनः स्त्रीभाषमध्येकदा जनयन्त्युत्पादयन्ति । पाचला तत्र जन्म चतुर्विप्रम-सएमजं, पोत, जरायुजम् । भोपपातिकं च। भएमजाः हंसादयः, पोतजा इस्त्यादयः,
अपरे केचन पुंभावम नपुंसकभावं च । इदमुक्तं भवति-श्रीपुजरायुजा मनुष्याः, प्रोपपातिकाः देवनारका विशे। मा० नपुंसकभावः प्राणिनां स्वकृतकर्मनिवर्तितो नवति, न पुनर्यो
मा०म० । विवकाभेदे स्वष्टविधमपि जम्म । तथाहि- यारगिढ भवे सोऽमुष्मिन्नेव तारगेवेति,ते च तदहातबालकाः अपंडाजाता भएडजाः पतिगृहकोकिलादयः। पोता एव जाय- सन्तः पूर्षभवाच्यासादाहाराभिलाषिणो भवन्तिामातुः स्तन्यन्ते पोतजाः “मन्येष्वपि हश्यन्ते" इति जातेः प्रत्ययः, तेच माहारयन्ति । तदाहारेण चानुपर्येण च वृद्धास्तपुत्तरकालं नइस्तिषल्गुलीचर्मजलूकादयो, जरायुवेष्टिता जायन्त इति जरा- वनीतदभ्योदनादिकं यावत्कुमाषान् भुजन्ते, तथाहारत्वेनोयुजाः पूर्ववत मप्रत्ययः, गोमहिष्यजाविकमनुष्यादयः। रसाजा- पगतास्त्रसान् स्थावरांश्व प्राणिनस्ते जाया श्राहारयन्ति, तथा ता रसजास्तत्रारनालदधितीमनादिषु पायुकृम्याकृतयोऽतिसू
नानाविधं पृथिवीशरीरं लवणादिकं सचेतनं वा माहारयन्ति, दमा भवन्ति, संस्वेदाज्जाताः संस्थेदजाः मकुणयकाशतपदि- तथाहारितयात्मसास्कृतं सारूप्यमापादितं सत् 'रसासमांस. कादयः, संमूर्छनाजाताः संमूर्खनजाः शवनपिपालिकामक्षि- मेदास्थिमज्जाशुक्राणि धातवः' इति सप्तधा व्यवस्थापयन्स्यपकाशालिकादयः, उझेदनमुद्भित ततो जाता उफ्रिज्जाः,पृषोद. राण्यपि तेषां नानाविधमनुष्याणां शरीराणि नानापर्णान्याविरादित्वात्सझोपः । एवं साक्षरीटपारिप्लवादयः, उपपाताज्जा- भवन्ति,ते च तद्योनिकत्वात्तदाधारभूतानि नानावर्णानि शरीता उपपातजाः । अथवा-उपपाते भवा औपपातिकाः देवा ना. राण्याहारयन्तीत्येवमाण्यातमिति । सत्र०२०३१०। रकामा एवमष्टविधजन्म यथासंभवं संसारिणो नातिवर्तन्ते, | जम्मंकुर-जन्माकुर-न० । पुनरुत्पत्तिरूपे भरे, । "प्रधानपांएनदेव शास्त्रान्तरे त्रिविधमुपन्यस्तं, सम्बनगर्भोपपातजन्मर- शुपिहितं, पुरातनं कर्मबीजमविनाशि । तृष्णाजलाभिषिक्तं सस्वेदजोद्भिज्जानां समूच्र्छनजान्तःपातित्वात् अण्डजपोतज- मुञ्चति जन्मास्कुरं जन्तोः॥१॥"प्रा० म०वि०। जरायुजानां गर्भजान्तःपातित्वात् देवनारकाणामपिपातिकान्त:
जम्मंतर-जन्मान्तर-न० । अन्यान्यजन्मनि, पुनर्जन्मनि च। पातित्वात् इति त्रिविधं जन्मेति । इह चाष्टविधं, सोत्तरभेद
'आ.म.द्वि० (जन्मान्तरोपपत्तियुक्तयस्तु 'परसोग' शब्दे स्वादिति । आचा० १७०१०६००।
विलोक्याः) भय जन्म केन प्रकारेण जायते इत्यादिस्वरूपं प्रदश्यतेभार्याणामनार्याणां च कर्मभूमिजाऽकर्मभूमिजादीनां मनुष्याणां
जम्मकहा-जन्मकथा-स्त्री० । जातो मृतो वेत्येवं रूपायां वार्तानानाविधयोनिकानां स्वरूपं वक्ष्यमाणनीत्या समाख्यातम् ।
यां, जन्मचरित्रे च । सूत्र.१७० १०२ उ०। तेषां च नानपुंसकनेदभिन्नानां यथा बीजेनेति । यद्यस्य बीजं |
जम्मजरामरण-जन्मजरामरण-न। जन्म च जरा च मरणं तत्र खियाः संबन्धि शोणितंपुरुषस्य शुक्रम् , पतदुजयमप्यवि. चेति जन्मजरामरणानि । स्वस्वशब्दप्रदर्शितावस्थात्रये, "जध्वस्तं शुक्राधिकं सन्मनुष्यस्य, शोणिताधिकं स्त्रियाः तत्स- म्मजरामरणकरणगभीरदुक्खपक्खुभिप उरससिलं" वृत्ति:मता नपुंसकस्य कारणतां प्रतिपद्यते। तथा यथावकाशेनेति ।यो जन्मजरामरणान्येव करणानि साधनानि यस्य नत्सथा, तच्च यस्यावकाशो मातुरुदरकुदयादिकस्तत्रापि किल वामा कुक्ति,स्त्रि- गभीरदुःखं तदेव प्रकुभितं संचलितं प्रचुर सलिलं यत्र यो,दक्षिणा कुक्तिः पुरुषस्य, उभयाश्रितःषएढ इति । अत्र चाधि- | स तथा । प्रइन० ३ आश्रद्वार। भवस्तायोनिरविश्वस्तं बीजमिति चत्वारोजाः तत्राप्याच एव जम्मजीवियफल-जन्मजीवितफा-न० । जन्मनो जीवितस्य भक उत्पत्तेरवकाशो, न शेषेषु त्रिश्चिति । अत्रचस्त्रीपुंसयो. च फले, न०१५ श०१ उ०।। बंदोदये सति पूर्वकर्मनिवर्तितायां योनौ मैनप्रत्यायिको रता
गायको रता जम्मण-जन्मन्-न । उत्पादे, ज० २५ श० ६ उ० । प्रश्न । उभिलाषोदयजनितोऽग्निकारणयोररणिकाष्ठयोरिव संयोगः
"जम्मणजरामरणबाहिपरियट्टणारघट्ट"। वृत्तिः-जन्मजरामसमुत्पद्यते, तत्संयोगे च तच्छुक्रशोणिते समुपादाय तोत्पि.
रणव्याधीनां याः परिवर्तनाः पुनःपुनर्भवनानि ताभिररघहो । सबो जन्तवस्तैजसकामणाच्या शरीराभ्यां कर्मरज्जसंदानितास्तत्रोत्पद्यन्ते, ते च प्रथममुभयोरपि स्नेहमाचिन्वन्त्यवि.
यासाम् । प्रश्न०१ आश्रद्वार। ध्वस्तायां यौनौ सत्यामिति । विचस्यते तु योनिः । “पअपक्षा. जम्मणगर-जन्मनगर-न। 'जम्मणयर' शब्दार्थ, जं०५वका
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जयंत
जम्मणचरियाणबद्ध
अभिधानराजेन्द्रः। जम्मणचरियणिबछ-जन्मचरितनिवछ-त्रिका तीर्थकरजन्मा | नामख्याते एकादशे चक्रवर्तिनि, प्रव. २०७ द्वार । ति०। ऽभिषेकनिवद्ध नाट्यविधी, रा०। ।
स० । विमल जिनप्रधमनिवादातरि, स० । प्रा० म० । जम्मणमहिमा-जन्ममहिमन्-पुं०। जन्मोत्सवे,भ०१४श०२उ०।
लीलावतीगुणधरयोः पितरि श्रेष्ठिविशेषे, दर्श०१ तत्व । ति.
थिशब्दस्य पुसि निर्दियतया तद्विशेषवाचकानां नन्दादिशजम्मणयर-जन्मनगर-न। यस्मिन् नगरे यस्य जन्म भवति दानामपि पुंसि प्रयोगे तु जय इति तृतीयाष्टमीत्रयोदशीषु तत्तस्य जन्मनगरम् । उत्पत्तिपुरे, जं०५ बका।
तिधिषु, जं. १ बका जम्मदंसि (ए)-जन्मदर्शिन्-त्रि० । जन्मनः स्वरूपतो वेत- जगत-न० । अतिशयगमनात जगत । भ० २० श०२ उ० । रि, परिदरति, आचरति च । “जे गम्भदंसी से जम्मदसी, | जीवे, पञ्चास्तिकायात्मके लोके, नं०। (अधिकार्यस्तु 'जग' जे जम्मदंसी से मारदंस" प्राचा०२४०३०४ ००।
शब्दे अस्मिन्नेव जागे १३०२ पृष्ठे रश्यः) जम्मदोस-जन्मदोष-पुं० । जन्मदोषनिमित्तके तज्जातदोषवि- यत-पुं० । 'यम' उपरमे, यमनं यतं तद्विद्यते यस्य स यतः । शेषे, सच-"कच्छोल्मुयाएँ घामी जामो जो गहहण कण। "अनादिभ्यः" ॥७॥२॥४६॥ श्त्यप्रत्ययः । प्रमत्तगुणस्थानकतस्स महायणमझे, मायारा पायडा हुँति॥" इत्यापनेक
वर्तिनि साधौ, कर्म० ४ कर्म० । यतमाने, त्रि०। उत्त । विधः। जन्मसहनाविदोषे च। स्था०१०म० ।
सूत्र० । उपयुक्त, श्राव० ४ अ01 जम्मपक-जन्मपक-त्रिका स्वयमेव पकीभूते, विपा०१७००० जयं चरे जयं चिट्टे, जयमासे जयं सए । जम्मपवाह-जन्मप्रवाह-पुं० । भवपरंपरायाम, भाव० ३ ०। जय मुंजता नासतो, पावं कम्मं न बंधइ ॥७॥ जम्मापवाह जन्मप्रवाह-मुंगा 'जम्मपवाद' शब्दार्थे, भाव०३० पतत्तिर्यथा-यतं चरेत् सूत्रोपदेशेन ईर्यासमितः, यतं तिष्ठेजम्मपनिइ-जन्मप्रवृति-अव्य० । जन्मन भारज्यत्यर्थे, द
त् समाहितः । हस्तपादाद्यविक्केपण । यतमासीत उपयुक्त प्रा
कुश्चनायकरणन। यतं स्वपेत् समाहितो रात्री प्रकामशय्याशे०१ तत्व।
दिपरिहारेण । यतं नुजानः सप्रयोजनमप्रणीतं प्रतरसिंहभतिजम्मफल-जन्मफल-न० । जन्मसाध्ये, पश्चा०८विव०।
तादिना । एवं यतं भाषमाणः साधुनाषया मृदुकाल प्राप्तम् (८) जम्मनमि-जन्ममि-स्त्री०। जन्मस्थाने, “जननी जन्मभू- दश० ४ ० । “गन्जस्स अणुकंपण हाए जयं चिट्ठति, जयं मिध, स्वर्गादपि गरीयसी"। वाच०। “अवसेसा तित्थ- प्रासयति, जयं सुविति" यतनया यथा गर्भबाधा न भवति यरा, निक्खंता जम्मनूमीसु" । स०।
तथा तिष्ठति कर्द्धस्थानेन प्रास्ते आश्रयति चासनं, स्वपितिजम्ममह-जन्ममह-पुंon जन्ममहोत्सवे, श्रीमदर्हतां जनुभहोत्त- चेति झा०१ श्रु०१०। बकरणे देवना देहानि कियन्मात्रौञ्चैस्तराणीति प्रश्ने,उत्तरम-म- जय-जयति-जि-धा० । धातूनामनेकार्थकत्वाद् । बध्नाति होत्सवावसरे देवानां देहान्यभिषिच्यमानजिनसमानकालीन- इत्यर्थे, प्रा० । मनुजशरीरोचितानि संजाव्यन्त इति ५५ प्र०ा सेन०२ उल्ला जयंत-जयन्त-न० । दीपसमुत्राणां चतुषु द्वारेषु स्वनामख्याजम्मा-याम्या-खी० । दकिणस्यां दिशि,मा०म०प्र०ाविशे।
ते पश्चिमदिवर्तिनि हार, (जी०) (पतद्विशेषवर्णकस्तु 'विजय' जम्मादिदोसविरह-जन्मादिदोषविरह-पुं०। जातिजरामरण- शब्दे विजयद्वारवद् केयः) प्रभृतिषणवियोगे, पञ्चा० ८ विव० ।
तत्र तावज्जम्बूद्वीपसत्कजयन्तद्वारवक्तव्यता यथा-- जम्माभाव-जन्माभाव-पुं० । अनुत्पत्ती, दश०४ अ०।
कहि णं नंते ! जंबुदवस जयंते णाम दारे पम्मने । जम्माव-जन्मावर्त-पुं० । भवचके, " रागद्वपरसाविकं, मि- गोयमा ! जंबुद्दीचे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स पच्छिमेणं च्यादर्शनदुस्तरम । जन्मावर्ते जगत् क्वितं, प्रमादाद् नाम्यते पणयालीसं जोयणसहस्साई जंबुद्दीवे पञ्चच्छिमापरंत लवभृशम ॥१॥" प्राचा०१७० ३ १०१ उ०।
पासमुद्दे पच्चच्चिमकस्स पुरच्छिमेणं सीतोदाए महानदीए जम्मुप्पत्ति-जन्मोत्पत्ति-स्त्री० । जन्मना कर्मकृतप्रसूत्या उत्प
उपि एत्थ णं जंबुद्दीवस्म जयंते णामं दारे पामते । तं चेव त्तिर्या सा तथा । औ०। प्रसवनोत्पत्ती, " सिकाणं कम्मवीरा
मोपमाणं जयंते देव पच्चच्छिमेणं से रायहाणीए० जाव बच्चे पुणरवि जम्मुप्पत्ती न भवति" औ०। । जय-जय-पुं० । 'जि' जये, भावे अच् । परैरननिभूयमानतायाम,
महिकीए । प्रतापवृकी, रा०। ज्ञा० । वशीकरणे, द्वा०२६ द्वा०। परापेक्षया अथ लवगसमुजसत्कजयन्तद्वारप्रतिपादनार्थमाहउत्कर्षलाभे, शत्रुपराकमुखीकरण, संग्रामादिजये, वाच० "ज “कहि ण नंते!" इत्यादि । क नदन्त! लवणममुद्रस्य जयन्तं पणं विजपणं वद्धावति ।" रा०विपा० । मो०ाकल्प०नि० द्वारं प्राप्तम् । जगवानाह-गौतम ! लवणसमुऽस्य पश्चिः तत्र जयः परैरनभिभूयमानता, प्रतापवृमिश्च । विजयस्तु पर- मपर्यन्ते धातकीखालपश्चिमार्कस्य पूर्वतः सीताया महाषामसहमानानामभिभवोत्पादः । रा०। जयः सामान्या विघ्ना- नद्या उपरि लवणसमुद्रस्य जयन्तं नाम द्वारं प्राप्तम् । दिविषयः । विजयः स एव विशिष्टतरः प्रचएमप्रतिपन्यादि- एनद्वक्तव्यताऽपि विजयद्वारवद्वक्तव्या, नवरं राजधानीजयन्तविषयः। औ०।जयः स्वदेशे । विजयः परदेशे कल्प०१ कण । द्वारस्य पश्चिमभागन वक्तव्या। जी०३ प्रतिक एवं शेषद्वीपसमु"जयविजयमंगलसपाहि। औला जयविजयत्यादिभिर्म गालाभि- हाणामपि जयन्तद्वारमज्यूह्यम, पश्चानुत्तरविमानेषु स्वनाधायकवचनशतरित्यधः। औजि-फर्तरि अन् । वाचाव- मख्याते तृतीय विमाने, “ कुलागणं पंच अणुत्तरा महश्मदा
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( १४१६ ) अभिधानराजेन्द्र : ।
जयंत
सया महाविमाणा पत्ता तं जहा विजये वैजयंते जयंते अपराजिए सव्वंसिके" । स्था० ५ ० ३ उ० । तात्स्थ्यातदूव्यपदेशो यथा- पञ्चान देशनिवासिनः पञ्चालाः इति, तद्वासिषु अनुत्तरदेवेषु प्रज्ञा० १ पद । मेरोरुत्तरस्यां दिशि रुचकवरपर्वतस्याष्टसु कटेषु स्वनामख्याते सप्तमे कूटे, स्था० ४ ठा० । जि० - डः । वाच० । पञ्चविधानुत्तरोपपातिकानां देवानां तृतीये जयन्तविमानोद्भवे देवभेदे, पुं० । प्रज्ञा० १ पद । स० । आगामिकालनाविनि प्रथम बलदेवे, ती० २१ कल्प । वज्रसेनसूरियां चतुर्षु शिष्येषु मध्ये स्वनामख्याते तृढं। ये शिष्ये, यतः किल तनाम्नी शाखा निर्गता । कल्प०८ कुरा । इन्द्रपुत्रे, "यथा जयन्तेन शचीपुरंदरौ " " त्रिविष्टपस्येव पति जयन्तः " इति । वाच० । जयंती - जयन्ती - स्त्री० । जि-डः । गौरा० ङीष् । वाच० । स्वनामख्यातायां वीरजिनपरमश्राविकायाम, बृ० १ ० ।
तत्प्रबन्धो यथा
ते काले तेणं समरणं कोसंबी पामं जयरी होत्या, बायो- चंदोत्तरायणे चेइए, वरणभो-तत्थ एं कोसंबीए णयरीए सहस्साणीपस्त रष्ठो पोते सयाणीयस्स रपो पुत्ते | चेमगस्स रखो नत्तुर मिगावतीए देवीए अत्तर जयंतीए समोबासियाए जत्तिन्नए उदायणे पामं राया होत्था । व
- तत्थ णं कोसंबीए रायरीए सहस्सणीयस्स रो सुरहा सयाजीयस्स रएणो जज्जा चेडगस्स रणो धूया उदायणस्स रएणो माया जयंतीए समणोवासियाए भाउज्जा मियावती णामं देवी होत्या । व
प्रो - तं जहा - ० जाव सुरूवा । समणोवासिया० जाव विहर । तत्थ णं कोसंबीए एयरीए सहस्साणीयस्स रणो धूया याणीयस्तरयो नगिणीं उदायणस्स रह्यो पिउत्था, मिगावतीए देवीए एणंदा वेसालीसावयाणं अरहंताणं पुव्वसिज्जातरी जयंती समणोवासिया होत्था, सुकुमाल ० जाव सुरूवा । अभिगय० जाव विहरइ । तेणं कालेां तेणं समरणं सामी समोसवे० जाव परिसा पज्जुवासइ । तए णं से नदायणे राया इमीसे कहाए लद्धडे समाणे हतुडे कोमुंबिय पुरिसे साबे, सहावेत्ता एवं वयासी - खिप्पामेव भो देवापिया ! कोसंविं यरिं सब्जितरवाहिरियं एवं जहा कूणि तव सव्वं जात्र पज्जुवासइ । तए जं सा जयंती समवासिया इमीसे कहाए सट्टा समाणी
तुट्टा जेव मिगावती देवी तेणेव उवागच्छर, डबा - छत्ता एवं क्यासी एवं जहा एवमसए उसनदत्तो० जाव विद् | तर णं सामियावई देवी जयंतीए समणोवासियाए जहा देवादा जान पडिसुऐड़ । तए णं सामियावई देवी को मुविपुरिसे सदावे, सदावेइत्ता एवं वयासीखिप्पामेव जो देवापिया ! बहुकराजुत्ता रोहिया०जाव धम्मियं जाणवरं जुत्तामेव उवद्वावेह० जाव उवडवेंति०
जयंती
पच्चपिति । तए एां सा मियाबाई देवी जयंती ए समोवासियाए स िएहाया कयवलिकम्मा० जाव सरीरा बहूहिं खुज्जाहिं० जाव अंतेतराम्रो णिग्गच्छंति णिग्गच्छं तत्ता जेणेव बाहिरिया उबट्ठाणसाला जेऐव धम्मिए जापवरे तेणेव उवागच्छछ, उवगच्छत्ता० जाव दुरूढा । तए एं सा मिगावती देवं । जयंतीए समणोबासियाए सद्धि धम्मियं जाणप्पवरं दुरूढा समाणी लियगपरियाल जहा उसनदत्तो० जाव धम्मियाओ नाण 'पवराय पच्चोरुहइ । तरणं सा मियावई देवी जयंतीए समणोवासियाए सद्धिं बहिं खज्जाहिं जहा देवादा० जाव बंद णमंसइ उदायणं रायं पुरो कट्टु ठिझ्या चेव पज्जुवासइ । तर णं समणे भगवं महावीरे उदायणस्स रहणो मियाईए देवीए जयंतीए समणोवासियाए तीसे य महइ० जाव धम्मं परिकहेइ० जाव परिसा परिगया उदायणे पभिगए मिगात्रई विपभिगया । तए साजयंती समवासिया समणस्स जगवओो महावीरस्स अंतिए धम्मं सोचा पिसम्म हट्टतुट्ठा समणं भगवं महावीरं बंद, एसइ, वंदित्ता णमंसित्ता एवं क्यासी-कहां जंते ! जीवा गुरुयत्तं हवमागच्छं नि ? | जयंती ! पाणाइवाए एं० जान मिच्छादंसणसणं एवं खलु जीवा गुरुयत्तं इव्वमागच्छंति । एवं जहा पढमसए० जाव वीईक्यंति । नवसिद्धियत्त णं नंते ! जीवा णं किं सभावय परिणाम य ? | जयंती ! सजाओ य यो परिणाम य | सच्चे विणं भंते ! भवसि किया जीवा सिज्जिस्संति ? हंता जयंती ! सव्वे वि णं नवसिद्धिया जीवा सिकिस्मति । जइ णं नंते ! सव्त्रे वि जयसिद्धिया जीवा सिज्जिस्संति तम्हा णं जवासकिय विरहिए लोए जविस १ को इण्डे समट्ठे । से के णं खाइ अद्वेणं
ते ! एवं बुच्च सब्बे वि णं नवसिद्धिया जीवा सिज्जि संति | णो चेत्र णं जवसिद्धियविरहिए बोए भविस्स १ । जयंती ! से जहाणामए सव्वागाससेढी सिया प्रणादिया अवदग्गा परित्ता परिवुमा सा णं परमाणुपोग्गल मे रोहिं खंडेहिं समए समए अवहीरमाणी अवहीरमाणी अताहिं उस्सप्पिणी श्रसपिर्णाहिं अवहीर यो चेव णं अवहिरिया सिया से तेपट्टेणं जयंती ! एवं बुच्चइ सब्बे वि ० जाब भविस्मर | सुत्तत्तं नंते ! साहू जागरियत्तं साहू ? | जयंती ! अत्थेगइयाणं जीवाणं सुत्तत्तं साहू प्रत्येगइयाणं जीवाणं जागरियतं साहू | सेकेण्डेणं भंते ! एवंबुचइ अत्थेगइया०जा साहू ? | जयंती ! जे इमे जीवा हम्मिया अम्माया अम्मा मक्खाई अहम्मपलोई अहम्पपल
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'जयंती अनिधानराजेन्डः।
जयंती जणा अहम्मसमुदायारा अहम्मेणं चैव वित्ति कप्पे- दियवसट्टे वि, जाव फासिंदियवमट्टे वि, जाव अपरिमाणा विहरंति, एएसि ण सुलत्तं साहू, एएणं जीवा मुत्ता। यदृ । तए णं सा जयंती समोवासिया समणस्म भगसमाणा को बहूणं पाणल्याणं जीवाणं सत्ताणं दुक्खा- वो महावीरस्स अंतियं ९यमझु सोच्चा णिसम्म हट्ठणयाए सोयगयाए० जाव परियावणयाए वदंति एएणं
तुहा सेसं जहा देवाणंदा तहेव पवइए. जाव सव्वाजीवा सुत्ता समाणा अप्पाणं वा परं वा तदुभयं वा यो
क्खपहीणा सेवं भंते ! भंतेत्ति ॥
"तणं कालेणं" इत्यादि । (पोते ति) पौत्रः पुत्रस्यापत्यम् बहिं अहम्मियाहिं संजोयगाहिं संजोएत्तारो नवंति ए
(चेडगस्स ति) वैशालीराजस्य (नए ति)नप्ता दौहित्रः एणं जीवाणं मुत्तत्तं साहा जयंती! जे मे जीचा धम्मस्थि- (नाउज्जति) जातजाया (साली सावगाणं अरहताण या धम्माणुगा० जाच धम्मेणं चेव वित्ति कप्पेमाणा वि- पुव्यसिजाय ति) वैशालिको भगवान महावीरस्तस्प वचनं हरंति, एएसिणं जीवाणं जागरियत्तं साहू एएणं जीवा |
शुरवन्ति भावम्ति या तहसिकत्वादिति, बैशालिक श्राव
कास्तेषाम माईतानां महदेवतानां, साधूनामिति गम्यम पूर्वजागरमाणा बहूणं पाणाणं अदुक्खणयाए. जाव अपरि
शय्यातरा प्रथमस्थानदात्री साधवो हपूर्व समायाताल गृह यावयाए बटुंति, तेणं जीवा जागरा समाणा अप्पाणं एम प्रथमं वसतिं याचन्ते, तस्याः स्थानदातृत्वम प्रसिद्धत्वावा परं वा तदुजयं वा वहिं धम्मियाहिं मंजोयणाहिं दिति, सा पूर्वशय्यातरा (सभाववो त्ति)स्वभावतः पुद्रसंजोएत्तारो भवंति, एएणं जीवा जागरमाणा धम्मजाग
लानां मूर्तत्वषत् (परिणामो ति) परिणामो नानूतस्य रियाए अप्पाणं जागरश्त्तारो नवंति, एएसिणं जीवाणं
भवनन पुरुषस्य तारुपयषत् । (सम्वे वि गं अंते ! भवसिद्धि
या जीवा सिभिस्संति सि) भवा भाषिनी सिम्येिषां ते जागरियत्तं साहू, से तेणद्वेणं जयंती! एवं बुच्चइ अत्थेग
भवसिस्किास्ते सर्वेऽपि नदन्त! जीवा सेत्स्यन्तीति प्रश्नः । गइयाणं जीवाणं मुत्ततं साह, प्रत्येगइयाणं 'जीवाणं हम्तेत्यादि तूत्तरम अयं चास्यार्थ:-समस्ता अपि भवसिद्धिका जागस्यित्वं माहू । बलियत्तं ते ! साहू दुन्ध
जीवाः सेत्स्यन्ति अन्यथा भवसिकिकत्वमेव न स्यादिति अथ लियत्तं साहू ? जयंती ! प्रत्येगश्याएं जीवाणं बलिय
सर्वभवसिस्किानां सत्स्यमानताऽज्युपगमे भवसिकिकं शू
म्यता लोकस्य स्यात् । नैवं समयता। तथाहि-सर्च एवानागतसं साहू अत्थेगश्याणं जीवाणं दुबनियत्तं साहू । से के
कालसमया वर्तमानतां लप्स्यन्ते । " भवति स नामातीतः, णणं भंते ! एवं दुच्चइ० जाव साहू ? जयंती! जे इमे जीवा प्राप्तो यो नाम वर्तमानत्वम् । एध्य इच नाम स भवति, यःप्रा. अहम्मिया० जाव विहरंति, एएसि णं जीवाणं पुबलियत्तं प्स्यति वर्तमानत्वम् ॥१॥" इत्यभ्युपगमान्न चानागतकालसाहू एएणं जीवा, एवं जहा सुत्तस्म तहा दुचनियत्तस्म
समयविरहितो लाको नविष्यतीति । अथैतामेवाशङ्कां जयन्ती
प्रइनद्वारेणाऽस्मदुक्कसमयज्ञातापेक्कया शातान्तरेण परिहर्तुमाबत्तन्बया जाणियन्वा, बलियत्तस्स जहा जागरस्स तहा भा.
ह-"जहण" इत्यादि । इत्येके व्याख्यान्ति। अन्ये तु व्याचकतेणियन्वं० जाव संजोएत्तारो नवंति, एएसि एं जोवाणं सबैऽपि भदन्त! नवसिलिका जीवाः सेत्स्यन्ति, ये केचन सेबनियत्तं साहू से तेणढेणं जंयती! एवं वुच्चइ तं चेव जाव स्यन्ति ते सचेऽपि प्रसिद्धिका एव, नाभवसिफिका एकोसाह । दक्खत्तं भंते! साह आसियत्त साह जयती! प्रत्येग
ऽप्यन्यथा भवसिद्धिकत्वमेव न स्यादित्यभिप्रायः,'हम्ता' इत्याधुझ्याण जीवाणं दक्खत्तं साहू अत्थेगइयाण जीवाणं श्रा
तरम् । अथ यदि ये केचन सेत्स्यन्ति ते सर्वेऽपि भवसिद्धिका
एव, नाभवसिलिक एकोऽपीत्यभ्युपगम्यते, तदा कालेन सर्वलासियत्त साह । सेकेणणं भंते ! एवं बुच्चइ ते चेन
प्रवसिद्धिकानां सिद्धिगमनात भव्यन्यनतो जगतः स्यादिति जाव साहू ? जयंती!जे इमे जीवा अहम्मियाजाव विह- जयन्याः शङ्का तत्परिहारं च दर्शयितुमाह-"जाणं" इत्यादि। रवि । एएसि पंजीवाणं आसियत्त माह एरसिण जी.
(सब्वागाससेदि ति ) सर्वाकाशस्य घुम्ध्या चतुरस्त्रप्रतरी
कृतस्य श्रेणिः प्रदेशपङ्किः सर्वाकाशश्रेणिः (परित ति)वा अलसाउमाणा णो बहूणं जहा सुत्ता तहा अन्नसा
कप्रदेशिकत्वेन विष्कम्भाभावेन परिमिता (परिवुड ति) अंरायभाणि यन्ना जहा जागरा तहा दक्खा जाणियना०
न्तरैः परिकरिता स्वरूपमेतत्तस्याः अत्रार्थ वृक्षोक्ता नावनाजाव संजोएत्तारो नवंति । एएण जीवा दक्खा समाणा गाथा भवन्तिबहूहिं पायरियवेयावच्चेहिं उज्झायवेयावञ्चेहिं थेरव- "तो भणा किं ण सिझंति, प्रहय किमन्नन्य सावसेसी। यावच्चेहिं तवस्सीवेयावच्चेहिं गिनाणवेयावच्चाह सह
निललेवणं न जुज, तसि तो कारणं भन्नं ॥१॥" . बेयावच्चेहिं कुलवेयावच्चेहिं गणवेयावच्चेहि संघवेयाव
अयमर्थः-यदि भवसिद्धिकाः सेत्स्यन्तीत्यपगम्यते, ततो भ
णति शिष्यः कस्मात्र ते सर्वेऽपिसिध्यन्ति,अन्यथा नामकि. च्चेहि माहम्मियवेयावच्चेहिं अत्ताण संजोएत्तारो भव
कत्वस्यैवाभावात् । अधवा-अपरं दृषणं कस्मादभव्यसावशेषति, एएसि एं जीवाणं दक्खत्तं साहू से तेणट्ठण तं चेव० स्वादभव्यावशेषत्वेन अन्नव्यान् विमुच्येत्यर्थः। तेषां नव्याना जाब साढू । सोदियवसणं भंते ! जीवे किं बंधइ एव निलेपनं न युज्यते युज्यत पवेति भावः। यस्मादेवं ततः कारणं महा कोहवसट्टै तहेव० जाव अणुपरियट्टा । एवं चक्खि
सिके तुरन्याव्यवातिरिक्तं वाच्यं, तत्र सति सर्वनव्यनिले. ३५५
टिप.गरम मसाटास पातल daपमाहाता
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जयंती
पण तेसिमभवे विपर अनिलेषण न व विरोहो । ननु सम्बभव्यसिद्धी, सिया सितसिद्धी श्रां ॥ २ ॥ " अयमथ भव्यतेोसरं सम्यत्यमेव सिद्धिगमनकारणं न स्वन्यत्किञ्चिचत्र च सत्यपि भव्यत्वे सिद्धिगमनकारणे तेषां भग्यानामभन्यानामपि प्रति भव्यानप्याश्रित्य श्रनिर्लेपनमध्यचच्छेद, अभध्यानशिष्य व्यानां निर्लेपनमुक्तम पित्यर्थ तु न पुनरिहार्थे विरोधी बाधास्त सिद्धान्तसि देवाननु इत्यादि न हि सर्वसिद्धिः सिद्धा दान्तसिद्धेरिति ।
(१४१८ ) अनिधानराजेन्द्रः ।
66
जयसरसूरि कयन्ति ये तेऽधर्मप्रलोकिनः । ( श्रहम्मपलज्जण सि न धर्मे प्ररज्यन्ते श्रसज्जन्ति ये ते अधर्मप्ररञ्जनाः । एवं - ( अहम्मसमुदायार )ि न धर्मरूपञ्चारित्रात्मकः समुदाचारसमाचारः स प्रमोदो वाऽचारो येषां ते तथा,
एव" अहम्मण देव" इत्यादि । अधर्मेण चारित्रश्रुतविरुकरूपेण वृति जीविकां कल्पयन्तः कुर्वाणा इति, अनन्तरं सुजाता साघु तिला देव प्ररूपयन् सूत्रद्वयमाह - "वलियतं अंते !" इत्यादि। (वलिय ति ) बन्नमस्यास्तीति बलिस्तद्भावो बलिकत्वम् (व्वनियसं ति) एंबलमस्यास्तीति दुर्बनिक
कत्वं दकत्वं च तेषां साधु येनेन्द्रियवशानां यद्भवति तदा"सोदिय" इत्यादि (सोदिय
1
"
तत्पारतकपेण ऋतः पीमितः श्रोवेन्द्रियवशार्तः, श्रोत्रन्द्रियवशं वा, ऋतौ गतः भ्रांत्रेन्द्रियवशार्तः । भ० १२ २० २३० सप्तमबलदेवस्य मातरि, स० । भाव० । अकम्पिताऽनिघाटम गणधरस्य मातरि, आ० म०प्र० । पार्श्वशिष्यायां पश्चात् परिवाजकतायामुत्पल भगिन्या सा हि स्वभगिनी सोमा सहिता चोरिकसन्निवेशे अवटे क्षिप्यमाणं जगवन्तं राजपुरुषानुपशमय्य मुमोच । श्र० म० प्र० । पूर्वरुचकवास्तव्यायां सप्तम्यां दिक्कुमार्यास ३० । जं० । श्रा० म० ति० । प्रा० ० । स्था० । सर्वेषां प्रहाणां चतसृष्य प्रमहिषीषु तृतीयायामप्रमहिष्याम, जं० 9 वक्क० जी० । ० । पश्चिमविदेहस्य सीताया उत्तरदिग्वर्निमहावप्रविजयराजधान्याम, जं०४ बक० | स्था० रतिकरपर्वतराजधानी विशेष, द्वी० 1 मजनकपर्वतसत्क पुष्करिणीविशेषे, ती० २४ कल्प। जी० । स्था नवम्यां तिथे, जं० ७ ब० । कल्प० । चं० प्र० । पुरं विशेषे, यत्र किस गुणा सुरपतिभा बसुन्धरामा निवारा टिमजिन शिविकायाम, स० । महौषधिविशेषे, ती० ७कल्प । तथा हि । " जयन्तं मदगन्धाढ्या, तिका चैव कटूष्णिका । कृमिमुत्रामजित ख्याता, करवशोषण कुम्मता ॥ १ ॥ कृष्णा रसायनी तत्र, सेव सर्वत्र पूज्यते । ताकं विषदोषनं मधुरं हिमम " । पताकायाम्, बाच० दो जयंती ओ " । स्था० २४० ३ उ० " सिखायरी जयंती " इत्यत्र पूर्वस्यातरीशब्दस्यार्थः । प्रस्याध्य इति प्रश्ने, उत्तरम- अपूर्व साध्वादिः समा यातस्तद्गृह एव प्रथमं वसति याचते तस्यास स्थानदा सत्येन प्रसिद्ध भगवती मारे पूर्वा शेष इति १२७० [सेन० बा जय कित्ति - जयकीर्ति पुं० । अञ्चलगच्छीये मेरुतुङ्गसूरिशिष्ये जय केशरिरिशी रस्मसूरिणो गुरो, विक्रम १४३३ वर्षे अयं जातः, १४४४ वर्षे प्रत्रजितः १४६७ वर्षे सूरिपदं प्राप्तः, १४७३ वर्षे गच्छेशपदं प्राप्तः, १५०० वर्षे स्वर्गमगमत्। एतश्नामाद्वितीय विजयसिहरेः शिष्य ग्रासीत येन शीलोपदेशमाला नाम प्रन्थो विरचितः । जै० ३० ।
कामं ताबइ स्थिय, सिम्झिहिर अणागयकाए ॥ ११ ॥ से हो सोसि एवं पिसम्बन्धा-ण सिरिगमणं च निद्दिष्टं ॥ १२ ॥ " तौ द्वावप्यनन्तभागौ, मीलितौ सर्वजीवानामनन्त एव भाग इति यत्पुरमुच्यते-अतीतानागतान्वेति । तन्मतान्तरं तस्य वेदं बीजं, यदि द्वे अपि ते समाने स्वातां, तदा मुहूर्तादावतिक्रान्ते अतीताका समधिका, अनागताका च होति इस समय मुदभिः प्रतिकर्णी माणाऽध्यनागताद्धा, यती नक्कीयते ततोऽवसितं ततः साऽनन्त गुणेति, योभयोः समत्वं तदेवं यथाऽनागताद्वाया अन्तो मास्ति पत्रमतीताकाया श्रादिरिति समनेति जीवाश्च न सुप्ताः सिभ्यन्ति, किं तहिं जागरा एवेति सुप्तजागरसूत्रं तत्र च (सुत तं ति) निवशत्वम् (जागरियां ति ) जागरणं जागरः सोSस्यास्तीति जागरिकस्तद्भावो जागरिकत्वम् (अहम्मिय (स) धर्मेण श्रुतचारित्ररूपेण चरन्तीति धार्मिका स्तनिषेधादधामिकाः । कुत एतदेवमित्यत श्राद - ( श्रढम्माया ) धर्म श्रुतरूपमनुगन्तीति धर्मानुगास्तषेधादधर्मानुगाः । कुल एतदेवमित्यत आह- ( अहम्मिा ) धर्मः श्रुतरूपपवेष्टो बचनः पूजितो वा येषां ते धर्मा धर्मिणां धर्मेश निर्मधर्माविचारधर्माः जयकेसर जियकेशररिपुं०अधर्मिष्ठा वा अत एव ( अहम्मलाइ ) न धर्ममाख्यान्तीत्य वंशीला अधर्माख्यायिनः । अथवा न धर्मात् ख्यातिर्येषां ते (अनाश्यतया प्रो
।
" किड पुरा भव्य बहुचा, सम्यागासपरसहिंता । नषि सिज्झिर्हिति तो प्रण-इ किं तु भव्वराणं तेसिं ॥ ३ ॥ जद होऊणं नव्या वि के सिद्धिं न चैव गति ।
एवं ते वि अभब्वा, को विविसेसो भवे तेसिं ॥ ४ ॥ भएण्ड जब्बो जोगो, दारुदलियंति वा वि पजाया । जागो वि पुण न सिझर, कोर रुक्खादिहता ॥ ५ ॥ मान, बहवो गोसीस चंद्रमा संति जोगा वि इदं अछे परंरुभंडाई ॥ ६ ॥ न पुज पडिमुयायण संप हो जा जेलि पि अपसी, न य तेर्सि जोगया होइ ॥ ७ ॥ कि पुणपणी, सानिमा होइ
भ
न य होई अजाणं, एमेच य प्रब्वसिज्झणया ॥ ८ ॥ सिस्सिति य प्रवा, सब्वे वित्ति प्रणियं च जं पहुणा । तं पिय पयार थिय, दिट्ठीप जयंति पुरुछाए ॥ ॥ प्रध्यानामेव सिद्धिरिति । अहवा-पहुच कालं न सम्यभव्वाण होइ बोच्चि ॥ १० ॥ जं सीतागयाओ, अकाम्रो दो वि तुलाओ । तत्यातीतद्वार, सिद्धी को श्रनागो सिं ।
तिमूर्तिशिष्ये सिद्धान्त सागरगुरी, विक्रमसंवत् १४६१ वर्षे जातः १४७५ दीक्षितः, १४६४ आचार्यो जातः, १५०१ गच्छनायकः, १५४२ स्वर्गतश्चायमभवत । जै० ६० ।
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(१४१५) जयघोस अभिधानराजेन्द्रः ।
जयघोस जयघोस-जयघोष-पुं०। स्वनामन्याते मुनौ, ( उत्त.)
जे समस्या समुरुत्तं, परं अप्पाणमेव य । पाराणस्यां किल विजौ यमलौनातरी जयघोषविजयघोषो। तेसिं अनामिणं देयं, भो निक्खू व्यकामियं वायुग्मम् अजूता तयोरेको जयघोषनामा गङ्गाया स्मातुं गतः, कुररसर्प माकप्रासंहा प्रश्नजितः। तद्वार्ता चैवम
विजयघोषो पति-हे भिको अस्मिन् यो प्रत्यक्ष राय
मानम् अ सर्वकामिक पदरससिद्धं तेषां पात्राणां देयं वर्तते माहणकुलसंभो, प्रासि विप्पो महाजसो।
तेभ्यो देयमस्ति । न तु तुभ्यं देयं वर्तते । तेषां केषाम् । जायाई जमजएणम्मि, जयघोसे ति नाममो ॥१॥ ये प्रात्मानं स्वक यमात्मानम् च पुनः, परं परस्यात्मानं ब्राह्मणकुले संभूतः विप्रकुले समुत्पन्नः, 'जयघोष' इति नामतो समुष्त समर्याः । ये संसारसमुद्रात् प्रात्मानं तारयितुं विप्र भासीत । अत्र हि यत ब्राह्मणकुलसंभूतः विप्र भासीत समर्थाः परमपि तारयितुं समर्धाः। तेषां प्रदेयमस्ति इति इत्युक्तं तत् ब्राह्मणजनकादुत्पनोऽपि जननीजातिहीनत्वेऽना-| नावः ॥७॥ पुनः के प्रदेयमनं वर्तते ! ये विप्रा बेदविदो अखः स्यात मतो विप्र इत्युक्तम् । कीरशो जयघोषः। जम- बेदनाः तेषाम् । पुनये यशार्थाः यह एव अर्थः प्रयोजनं येषां जपणम्मि) पमं ययायाजी यायजीत्येवंशीला यापाजी यमाः ते कार्धास्तेषाम् । पुनये जितेन्क्रिया इन्द्रियाणां जेतारस्तेषाम् । परिसासत्पाऽस्येयब्रह्मनिलोंभाः पञ्च ते एव यको यमया- पुनय ज्योतिषाविदः ज्योतिःशाखस्यावेत्तारः । यद्यपि स्तस्मिन् पमयके भतिशयेन यज्ञकरणशीलः अर्थात्पश्चमहा- ज्योतिशास्र घेवस्थानमेवास्ति वेदविद इत्युक्त मागतम् तथापि मतरूपे यज्ञ याशिको जातः, यतिात इत्यर्थः ॥१॥
अत्र ज्योति शाखस्य पृथगुपादानं प्राधान्यक्यापनाचे तस्मात इंदियग्गामनिग्गाही, मग्गगामी महामुणी ।
पतगुणविशिया ये प्राह्मणास्तेषां देयमस्ति, पुनये धर्मशालागामाणुगाम रीयंतो, पत्तो वाणारसिं पुरिं ॥३॥
णां पारगास्तेषां देयम् अत्र अन्नं वर्तते, इत्यर्थः ॥८॥ समहामुनिः एकाकी साधुग्रामानुप्रामम(रायंतो इति)विचरन्
सो तत्थेवं पमिसिद्धो, जायगेण महामुणी । पाराणसी पुरी प्राप्तः। कीरशः स महामुनिः। इन्कियनामनिग्राही नवि रुटो न वि तुट्ठो, उत्तमझगवेसनो ॥ ए॥ सम्झियाणां प्रामं समूहम इन्छियपञ्चकं निगृह्णाति मनोजयेन
स महामुनिर्जयघोषः तत्र यके (एव) अमुना प्रकारेण विजबवशीकरोतीति इम्बियप्रामनिप्राही, पुनः कीरशस मार्गगामी
घोषण याजकंन याकारकेण प्रतिषिकः सन् निवारितः सन् मार्ग मोकं गवति स्वयम, अन्यान् गमयति इति मार्गगामी ।
नापि कष्टो नापि तुष्टः समभावयुक्तोऽभूत । कीरशः स महाबाणारसीए बहिया, उज्जाणम्मि मणोरमे।
मुनिः । उत्तमार्थगवेषको मोकाभिलाषी ॥ए। फासुए सिजसंथारे, तत्य वासमुवागए ॥३॥ नऽअहं पाणलं वा, न वि निम्बाहणायवा। स साधुराणस्यां बाह्ये, मनोरमे मनोहरे, उद्याने प्रासुके जी- तेसिं विमोक्खणवाए, इमं वयणमन्ववी ॥ १० ॥ परहिते शब्यासंस्तारके दर्जतृणादिरचिते शयनोपवेशनाखती
स महामुनिस्तेषां विजयघोषादिब्राह्मणानां विमोकणाथै कर्मसत्र (वासं इति) बसति कर्तुमुपागतः ॥ ३ ॥
बन्धनात मुक्तिकरणार्थम् एवं वचनम अवधीत्-परम अपान अह तेणेव कालेणं, पुरीए तत्थ माहणे।
लानार्थ न भववीत् ।पवं ज्ञात्वा न अबवीत् येन अपभ्य उपविजयघोसे ति नामेणं, जन जयइ वेयवी ॥३॥ देशं ददामि एते प्रसमा मह्यं सम्यग् अन्नपानं ददति इति पुरुषा अथ मनम्तरं तस्मिनंव काले यस्मिन् काले साधुर्वने समान अग्रवीत। किंतु तेषां संसारनिस्तारार्थमवदत् । वा अथवागतः तस्मिन्नेव काले तस्यां वाराणस्यां पुर्या विजयघोष' इति निर्वाहणाय अपि न पनपात्रादिकानां निर्वाड पज्यो मम नविनामा माहाको पथं पजति यथंकरोति। कीरशो विजयघोषः। व्यति तेन देतुना न वीदिति जायः ॥ १० ॥ बेदवित बेदशः ॥४॥
न विजाणसि बेयमुहं, न वि जन्माण जे मुहं । मह से तत्थ भणगारे, मासक्खमणपारणे ।
नक्खताण मुहं जंच, जं च धम्माण वा मुहं ॥१२॥ विजयपोसस्स जमम्मि, निक्खट्टा उववाहिए ॥५॥ किम भनवीत? इति माह-भो ब्राह्मण ! विजयघोष ! स्वं अथ अनन्तरं तत्र विजयघोषस्य यस पूर्वोक्तो जयघोषो वेदमुखं न विजानासि।पुनर्यत् यहानां मुखं वर्ततं तदपि त्वं न मगारो मासकमणस्य पारणे निक्षाया अर्थ निकाय उप-| जानासि । पुनर्यत् नत्राणां मुखं तदपि त्वं न जानासि । च स्थितः॥॥
पुनर्यवाणां मुखं वर्तते तदपि त्वं न जानासि ॥११॥ समुवडियं सहिं संतं, जायगो पमिसेहए।
पुनः स साधुर्विजयघोषं ब्राह्मणं प्रति पृच्छतिनदाहामि ते जिक्खं, जिक्ख जायाहि प्रयो॥६॥ जे समत्था समुदत्तुं, परं अप्पाणमेव य। तदा याजको पजमानो विजयघोषो ब्राह्मणस्ता निक्का __ण ते तुम विजाणासि, भह जाणामि तो भण||१|| समुपस्थितं सन्तं तं साधुं प्रतिषियति निवारयति, कथं नि- हे विजयघोष! ये परं च पुनः आस्मानम् । एवं समुप्त संसावारयतीत्याह-हे भिको ! स्वम् अन्यतोऽन्यत्र यादि (ते) तुभ्यं रात् निस्तारयितुं समास्तान स्वपरनिस्तारकान नजाभिक्षा म ददामि ॥६॥
नासि । अथ चेत् स्वं जानासि तदा (भण) कथय ? ॥१२॥ जे य वेयविओ विप्पा, जएणट्ठा य जिइंदिया ।
तस्स खवपमोक्खं च, अचयंतो तहिं दियो। जोसंगपिओ जे य, जे य धम्मस्स पारगा।॥ ७॥ सपरिसो पंजलिनमो, पुच्चई तं महामुणिं ।।१३||
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(१४२०) जयघोस अनिधानराजेन्द्रः।
जयघोस (तहि इति) तत्र यो विजो विजयघोषः प्राजालिपुटो बसा- मस्ते स्वया पात्रत्वेन मन्यन्ते । विद्या मारण्यकब्रह्माामपुराणाजानिः सन्. तं महामुनिं पृच्छति-कीरशो द्विजः । सपरिषत् रिमकास्ता एव बाह्मणसंपदो विद्याम्राह्मणसंपदस्तासाम प्रकाबहुभिर्मनुष्यैः सहितः। पुनः स विजा कीरशः सन् । तस्य सा. सन्तो यकवादिनो वर्तन्ते । चेत् बृहदारण्यकायुक्तं यकम् पते धोराकेपं प्रश्नस्तस्य प्रमोकं प्रतिषचनमुत्तरम (अयंतो इ- जानन्ते, तदा कथं एतारशं या कुर्युः । तस्माद् वृथैव वयं याति) दातुम मशक्नुवन् प्रश्नस्योत्तरं दातुमसमर्थः सन् | किकास्यन्त्रिमानं कवम्ति। पुनः कथजूताः स्वाध्यायतपसा दातुमित्यध्याहारः ॥ १३ ॥
घेदाध्यलोपवासादिना मूढाः बहिः संवृतिमन्तः माच्छादितत. बयाणं च मुहं बहि, वृहि जनाण मुहं।
स्वज्ञानाः। पते के इव? जस्मच्छन्नाः भग्नय श्वारकाच्छादित
बहय श्वास्यमेन पावे शीतत्व प्राप्ताः परं पायाग्निना मध्ये नक्खताण मुरं पहि, जं च धम्माण वा मुहं ॥ १४॥ हे महामुने ! स्वमेव वेदानां मुखं हि । पुनर्यत् यकानां मुलं
सन्तप्ता पवेति भावः॥१८॥ सम्मे हि पुनर्मकत्राणां मुखं सहि । पुनर्यत् धर्माणां मुखं तन्मे
पुनस्साधुर्षदतिइहि ॥ १४॥
जो सोए बम्जणो वुत्तो, अग्गीव महिमो जहा। जे समत्था समुछत्तुं, परं अप्पाणमेव य ।
सया कुसलसंदिटुं, तं वयं वूम माहणं ॥ १६ ॥ एयं मे संसयं सब, साह कहस पुच्चिश्रो ।। १५॥
हे विजयघोष! वयं तं ब्राह्मलं झूमः। तं कम ?। यो मुनिनियाह्मण पुनयें पुरुषाः परं च पुनरास्मानमपि संसारात उतुं समर्थाः
उक्तः। यदा कैश्चित् अझैः अब्राह्मणोऽपि ब्राह्मणोऽयमित्युक्तस्तं पम्ति पतन्मे मम शंसयविषयं वेदमुखादिकम प्रस्तिा हे साधो!
ब्राह्मणं न बमः इति जाधः कथं भूतः सः लोकमहितः पूजितः त्वं मया पृष्टः सन् सर्व कथयस्व ॥ १५ ॥
सन् दीप्यते।क श्व! । अग्निरिव । यथाऽग्निः पूजितो चूनादिइत्युले पुनराह
सिक्तो दीप्यते । कीरशंत ब्राह्मणम ? । सदा कुशलसन्दिष्टं कु.
शलैस्तत्त्वाभिःसंदिएं कथितम् ॥१६॥ अग्गिहोत्तमुहा वेया, जनही वेयसा मुई।
अथ कुशलसंदिष्टस्वरूपमाहनक्खत्ताण मुहं चंदो, धम्माणं कासको मुहं ॥१६॥
जो न सज्जा श्रागंतुं, पव्वयंतो न सोयह । रेबिजयघोष ! वेदा अग्निहोत्रमुखाः, भग्निहोत्रं मुखं येषां ते अग्निहोत्रमुखाः वेदानां मुखमग्निहोत्रम् । अग्निहोत्रं हि
रमई अजवयणम्मि, तं वयं वूम माहणं ॥३०॥ मनिकारिका, सा च यम-"कर्मेन्धनं समाश्रित्य,ढा सद्भा- हे विजयघोष! तं वयं ब्राह्मणं धूमः। तम इति कम ? यः (आगंतु वनाहुतिः। धर्मध्यानामिना कार्या, दीक्कितेनाधिकारिका ॥१॥" इति) बहुभ्यो दिनेभ्यः प्राप्त स्वजनादिकंबद्धभं जनं न खजति ना इत्यादि यज्ञविधिविधायिका कारिका गृह्यते । वेदानां यज्ञानां लिति अधवा-(भागंतुं शति) स्वजनादिस्थानमागत्य स्वजना पषा एवं कारिका मुखं प्रधानम् । अस्याः कारिकायाः अर्थः-क- दिन स्वजति न अभिष्वकं करीति, पुनयः प्रव्रजन स्थानात् माणि इन्धनानि कृत्वा उत्तमा नावना माहुतिर्विधेया धर्म- अन्यत स्थानं स्थानान्तरं गच्छन् अर्थात् विखुटन्न शोचते न ध्यानागा दीकितेन श्यम अग्निकारिका विधेया पुनहें ब्राह्मण! शोकं कुरुते । पुनर्य प्रार्थवचने तीर्थकरवाक्ये रमते तं वयं विजयघोष ! यार्थी पुरुषो वेदसा यकानां मुखं वर्तते, यको ब्राह्मणं वदामः ॥२०॥ दशप्रकारधर्मः। "सत्यं तपश्च सन्तोषः, क्षमा चारित्रमा- जायरूवं जहाऽऽमिट्ठ, निदत्तमझपावगं । जंवम । अक्षा धृतिरहिंसा च, सम्बरश्च तथा परः ॥१॥"
रागदोसजयातीतं, तं वयं वृप माहणं ॥१॥ इति दशप्रकारः। स चात्र प्रस्तावाद्भावयहस्तं यक्कम भर्थयति मभिलपतीति यज्ञार्थी स एव यशानां मुखं वर्तते । नक्षत्राणां
हे विजयघोष! धयं तं ब्राह्मणं श्रमः। कीरशमा जातरूपं स्वर्ष अशविंशतीनां मुखं चन्छो वर्तते, धर्माणां श्रुतधर्माणां चारित्र
सामृष्टं तेजो वृष्ये मनःशिलादिना परामृष्टं कृतवर्णिकाधर्माणां काश्यपः मादीश्वरो मुखं वर्तते। धर्माः सर्वेऽपि तेनैव धर्फनमनेन बाह्यगुण उक्तः। यथाशब्दवायें। पुनः कीरशं तम। प्रकाशिता इत्यर्थः ॥ १६ ॥ .
(नित्तमलपावर्ग) नितरामतिशयेन ध्मातं मसं कि तदूपं
पातकं यस्य तनिधातममपातकम् भनेन च अन्तरो गुण उक्तः। जहा चंदं गहाईया, चिट्ठति पंजलीउडा।
पुनः कथंनूतः। रागदपभयातीतं रागः प्रेमरूपः द्वेषोऽधीतिरूप बंदमाणा एपसंति, उत्तम मणहारिणो ॥१७॥ स्ताभ्यामतीले दूरीभूतस्तं वयं विप्रं वदामः ॥२१॥ यथा प्रहादिका अष्टाशीतिग्रहाः नक्कत्राणि भष्टाविंशतिप्रमि- तवस्सियं किसं दंतं, अवचियमंससोणियं । तानि एवं सर्वे ज्योतिष्का देवाश्चन्हं प्राअलिपुटाः पद्धा. सुब्वयं पत्तनिवाणं, तं वयं वूम माहणं ॥२॥ जलयस्तिष्ठन्ति संषन्ते । एवं श्रीऋषभदेवम् उत्तम प्रधानं गया स्यात्तथा मनोहारिणस्त्रिभुवनवर्तिनो भव्याः बन्द
विजयघोष! अयं तं ब्राह्मणं धूमः। तं कं तपस्विनम् । अत. मानाः स्तवनां कुर्वन्तो नमस्कुर्वन्ति बिनये प्रवर्तन्ते इति
एव कृशं दुर्बलम् । पुनः कीरशम्दान्तं जितेनियम । पुन:
कीरशम् । अपचितमांसशोणितं शोपितमांसरुधिरम् । पुनः प्रावः ॥ १७॥
कीरशम ? । सुवतं सम्यक्तानां धर्तारम । पुनः कीरशम् । अजाणगा जम्मवाई, विजामाहणसंपया।
प्राप्तनिर्वाणं प्राप्तं कपायाग्निशमनेन निर्वाणं शीतिनावं यनस मूदा सम्झायतवसा नासच्छा श्वऽग्गिणो ॥१॥। प्राप्तनिर्वाणस्तम् ॥ २२॥ हे विजयघोष विद्याम्राझणसंपदामजानानाः पुनर्यकवादि- तसपाणे वियाणित्ता, संगहेण य थावरे ।
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( १४२९)
अभिधानराजेन्द्रः ।
जयोस
जो न हिंसइ तिविद्देणं, तं वयं बूम माहणं ॥ २३ ॥ हे ब्राह्मण ! तं वयं ब्राह्मणं धूमः तम् इति कम है। यासान् प्राणान् पुनः स्थावरान् संप्रहेण समासेन संकेपेण विकाय त्रिविधेन मनोवाक्कायेन करणकारणानुमतिभेदेन नवविधेन म हम्ति, तं ब्राह्मणं बच्म इति भावः ॥ २३ ॥
कोहा या जइ वा हासा, लोहा या वह वा जया । सं न वयई जो उ, सं वयं चूम माहणं ।। २४ ।। हे विजयघोष ! यः क्रोधात्, यदि वा अथवा हासात, वा अथ या लाभाथ भयात् वृषाम् मसत्यवान ब्राह्मणं धूमः ॥ २४ ॥
चितमचिया, अर्थ वा यदि वा बहुं ।
न गिएर प्रदतं जे, तं वयं बूम माइणं ॥ २४ ॥ ब्राह्मण | पश्चिमन्तं सचितम्। अथवा अवितं प्राकम अल्पं स्तोकम, यदि वा बहुं प्रचुरम प्रदतं दायकेन अर्पितं स्वयमेव न गृह्णाति तं वयं ब्राह्मणं वदामः ॥ २५ ॥
दिनमा सरिच्छं, जो ण सेवइ मेहुणं ।
मनसा कायवकेणं तं वर्ष धूम माहणं ।। २६ ।। पुनयों दिव्यमानुष्यतिरश्चीनं मैथुनं मनसा कायेन बचसा - स्वा न सेवते । वयं तं ब्राह्मणं वदामः ॥ २६ ॥
जहा पोमं जले जायं, नोवलिप्पड़ वारिणा ।
एवं अकामेति वयं धूम माहणं ॥ २७ ॥
हे आह्मण] [ पुनस्तं चयं ब्राह्मणं वदामः से की मुना प्रकारेण अनेन तेन कामैः भगिः असं येन दृष्टान्तेन यथा पद्मजले जातं परं तत् पद्मं वारिणा न उपसि प्यते जलं त्यक्त्वोपरि तिष्ठति तथा जोगैरुत्पन्नोऽपि जोगेर मि सो यस्तिष्ठति स ब्राह्मणो शेयः ।। २७ ।।
लो मुहानीवी, अणगारं अकिंचनं । प्रसंसचं गिइत्थेसु तं वयं बूम माहणं ॥ २८ ॥ मूलगुणमुक्त्वा उत्तरगुणमाह- पुनर्ववं तं ब्राह्मणं ब्रूमः कीदृशं ? 1 भोलुपम् ब्राहारादिषु लाई पुनः जीवनात महारा आजीविकां कुर्वाणं संयमजीवितव्य धारक इत्यर्थः । पुनः संसकं गृहस्ये प्रतिबन्धरहितम् ॥ २८ ॥ जहिता पुव्वसंजोगं, नातिसंगे य बंधने । जो न स
भोगे, तं वयं धूम मादयं ।। २५ ।। पुनस्तं वयं ब्राह्मणं वदामः। तमिति कम ?। यो ज्ञाती स्वकीयगोत्रे च पुनः सङ्गे स्वसुरादि संबन्धे पुनर्बान्धवे पूर्वसंयोगं मातापित्राविर पुनरेतेषु पूर्वोकेषु न स्वजति मासको न प्रवति । तं वयं ब्राह्मणं वदामः ॥ २ए ॥
पबंधा सव्वत्रेया, जहं च पात्रकम्मुणा ।
न तं तातिस्सीले कम्पाणि बावंति ॥ ३० ॥ नो बिजयघोष ! सर्ववेदाः पशुबन्धाः वर्तन्ते पशूनां बन्धो बिनाशाय नियन्त्रणं येस्ते पशुबन्धाः केवलं वेदाः पशुहनन३५६
जयघोस
वो वर्तन्ते । न तु मोक्कदेतवः । हिंसायाः प्ररूपकत्वात् यतो हि वेदवाक्यमिदं भूयताम् "भूतिकामो वायव्यां दिशि श्वेतंागमाखभेव" इत्यादिपषन्तु
पुनः ) इ जनं यह पाप पापकर्मणा पापकारपन्चा
नाम अध्येतारं यज्ञकर्तारं वा न श्रायन्ते यज्ञकर्तारं वा दुःशीलं दुराचारं पापशास्त्राणां पठनेन पापकर्मकरणेन दुष्टाचारम् इह कर्माणि बसवन्ति वर्तन्ते पृष्टकर्माणि बलेन पापकर्मकर्तारं नरकं नयन्ति । अतः कारणात् एतस्मात् यागात् ब्राह्मणः पात्रतो किंतु अनन्तकगुणवान् पा ह्मण इति नायः ॥ ३० ॥
न वि मुंमिण समणो, न ओंकारेण बंभयो ।
न मुनीरवाणं सचीरेण न सावसो || ३१ ॥
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हे विषमतेन भ्रम निर्धन्धो न स्यात् । मोड रेणॐ भूर्भुवः स्वस्तीत्यादिना ब्राह्मणो न स्यात् । तथा-अर एपवासेन मुनिर्मोच्यते । कुशो दर्भस्तन्मयं वीरं उपलक्षणत्वाद कुशचीरं तेन कुशचीरेण थोपविण तापो न भवेत् ३९ ॥
समया समयो होइ, बम्जमेरेण बम्भयो ।
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ना व मुनी हो, देश होइ तामसो || १२ || (समय) समयत्वेन शत्रु मित्रयोरुपरि समानजा ति। ब्रह्मचर्येण ब्राह्मणो भवति ब्रह्म पूर्वोकम समय भानपं तस्य ब्राह्मणकारणमी करणं ब्रह्मव सेन ब्राह्मण उच्यते ब्रह्मत्वयुक्तो ब्राह्मण इत्यर्थः । ज्ञानंन मुनिभवति मन्यते जानाति हेयोपादेयविधी इति मुभिः स ज्ञानेनैव स्यात् । तथा तपसा द्वादशविधेन तापसो भवति ॥३२॥ कम्पुणा जो हो, कम्युला होइ स्वचियो । वयसो कम्पुणा होइ, सुद्दो हवइ कम्पुणा ॥ ३३ ॥ कर्मणा क्रियया ब्राह्मणो भवति, क्षमा दानं दमो ध्यानं, सायं शीर्ष प्रतिषा हामविज्ञानमास्तिक्य-त्णलक्षणम् ॥ १ ॥ अनया क्रियया लक्षणभूतया ब्राह्मणः स्यात् । कत्रियः शरणागतत्राणलक्षणक्रियया कृत्रिय उच्यते, न तु केवलं कृत्रियकुले जानिसमुत्यन्ने प्रति शस्त्रबन्धनत्वेनैव कत्रिय उच्यते । एवं वैश्योऽपि कर्मणा क्रियया एव स्यात् कृषिपपासादिक्रिया वैश्य उच्यते कर्मणा व शु भवति शोचनादिहेतुनेपण भारोइनजलाद्याहरणचरणमईनादिक्रियया शूरू उच्यते । अत्र ब्राह्मणलक्षणावसरे मन्येषां वर्णत्रयाणां लक्षणाविधानं व्याप्तिदर्शनार्थम् ॥ ३३ ॥ एए पाउकरे बुके, जेहिं होइ सिणाय श्री । सब्बकम्पविणि म्मुकं तं वयं बूम माहणं ॥ ३४ ॥ बुद्धो ज्ञाततत्वः श्रीमहावीरः एतान् अहिंसाद्यर्थान् प्राडुरका
प्रकटी कार येथे कृत्य सर्वकर्मनित्या स्नातको भवति केवली नवति । प्राकृतत्वात् प्रथमास्यानं द्वितीया । तम तादृशगुणयुक्तं स्नातकं वा वयं ब्राह्मणं वदामः ॥३४॥ एवं गुणसमाचा, जे जति दिवसमा ।
ते समस्या बिक, परं अप्पाणमेव य ॥ ३५ ॥
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(१४२२) जयधोस अनिधानराजेन्द्रः।
जयण पवंगुणसमायुक्ताः ये विजोत्तमाः ब्राह्मणश्रेष्ठाः भवन्ति । ते एवं सग्गति उम्मेहा, जे नरा काममालसा ।। ब्राह्मणोत्तमाः परमात्मानम अपि उद्धर्तुं समर्था भवन्ति ॥३५॥
विरत्ता उन लग्गति, जहा से मुक्कगोझए ।॥ १३ ॥ एवं तु संसए छिने, बिजयघोसे य माहणे ।
(ए) अमुना प्रकारेण माईमृत्तिकागोझकरष्टान्तेन दुर्मेधसो समुदाय तयं तं तु, जयघोसं महामुणिं ॥३६॥ दुष्बुद्धयो य नराः काममालसाः भोगेषु लम्पटाः (लग्गति) ततस्तदनन्तरं विजयघोषो ग्राह्मणःजयघोचं महामुनि सवा च मंसारे भासक्ताः नवन्ति। तु पुनःविरक्ताः कामभोगत्या विमुपचमम-उदाह कथयति इति संबन्धः किं कृत्वा । तं मुनि
खनराः (न झगति) संसारासता न भवन्ति । यथा शुष्को जयघोषं समादाय सम्यक उपलक्ष्य ज्ञात्वाक सति (एव) पूर्वो
मृझोलको भित्तौ न लगति ॥४३॥ कप्रकारेण विजयघोषस्य शंसय लिने सति ॥ ३६ ॥
एवं से विजयघोसे, जयघोसस्स अंतिए । तुट्ठो य विनयघोसे, इणमुदाहु कर्य जली।
श्रणगारस निक्खंतो, धम्मं सोचा भणुत्तरं ।। ४४।। माहणतं जहाजूयं, सुदु मे उवदंसियं ।। ३७॥
(एवं) अमुनाप्रकारेण स विजयघोषो प्राह्मणो जयघोषस्य बिजयघोषस्तुष्ट श्वं वचनं जयघोपमुनये आह-कीरशो वि- अनगारस्य अम्तिके समीपे निष्कान्तो दीवां प्राप्तः किं कृत्वा । जयघोषः। ताजनिः, है मुने! मे मम ब्राह्मणत्वं यथाभूतं यथा | अनुसरं धर्म श्रुत्वा ॥ ४॥ स्वरूपं सुष्टु सम्यगुपदर्शितम् ॥ ३७॥
खवित्ता पुन्नकम्माई, संजमेण तवेण य। तुम्भे जश्या जाणं, तुम्भं वेयविभो विक।
जयघोसविजयघोसा, सिद्धि पत्ता अणुत्तरं ४॥ ति वेमि जोइसंगविभो तुम्ने, तुम्ने धम्माण पारगा॥ ३८॥ |
जयघोषविजयघोषौ उभावपि अनुत्तरां प्रधानां गति लि. किंवचनम् ! माह-हे महामुने ! (तुम्भे इति) यूयं यकानां | किं प्राप्तौ । किं कृत्वा । संयमेन , च पुनस्तपसा पूर्वकर्माणि यहारः, यूयं वेदविदः वेदवित्सु विदो ज्ञातारो वेदविदाम्बराः कपयित्वा । इति अहं ब्रवीमि । सुधर्मास्वामी जम्बूस्वामिनं यूयम् एव । पुन!यम पब ज्योतिषाविदः। यूयम एव धर्माणां प्राह ॥ ४५ ॥ उत्त०१५ ०। पारगाः धर्माचारपारगाः॥ ३८॥
जयचंद-जयचन्छ-० । सोमसुन्दरसरिशिष्यपञ्चकमध्ये हितुम्भे समत्था उकत्तुं, परं अप्पाणमेव य । । तमाग्गहं करे अम्, निक्खे निक्खुनत्तमाः॥३६॥
तीये शिष्ये, ग० ४ अधि० । अनेन, विक्रमसंवत् १५०६ प्रति
क्रमणविधिनामा ग्रन्थो विरचितः । जै०६०। 'पुनमहाभुने ! यूयं परं पुनः मात्मानं समुद्धतु संसारात् निस्तारयितुं समर्थाः। (तं इति) तस्मात् कारणात भो निशु.
जयजयमद्द-जयजयशब्द-पुं० । जयजयारवे, मौ०। 'समाः:साधुश्रेष्ठाः ! भिकया निवाग्रहेण अस्माकम् अनुग्रह जयजयारव-जयजयारव-पुं०। जय जयेत्याशीर्वादशब्दे, "जय यूयं कुरुथ ॥ ३६॥
जय नंदा जय जय भहा जय जय स्खचियबरबसहा" वृत्तिःण कर्ज मज्झ निक्खेणं, खिप्पं निक्खम मूदिया।
संभ्रमे द्विर्वचनम । इह च दीर्घत्वं प्राकृतत्वात् । अथवा-जय मा नमिहिसि भयावह, घोरे संसारसागरे ॥४०॥
लं जगनन्द ! भुवनसमृद्धिकारका एवं जग! जगत्कल्याण
कर! औ० । "जय जय गंदा धम्मेणं जय जय गंदा तवणं" तदा जयघोषमुनिराह-हे बिज! मम जिकया कार्य नास्ति।
वृत्तिः-जय जयेत्याशीर्वचनं भक्तिसंभ्रमे च द्विवचनं नन्द वर्कत्वं किशानं कमस्व दीक्षां गृहाण । हे द्विज ! घोरे भीषणे
स्व धर्मेण एवं तपसाऽपि । अथवा-जय जय विपक्क न संसारसागरे भ्रमसि मिथ्यात्वेन त्वं संसारसमुझे भ्रमिष्यसि।
धर्मेण इह नन्देत्येवमकरघटना कार्या । भ० ६ श० ३३ ०। तस्मास्मिथ्यात्वं त्यज, जैनी दीनां गृहाणेति भावः । कथं जूते संसारसमुके। भयावर्ते सप्तभयजलभ्रमयुक्ते ।। ४०॥
जयट्ठभाति (ए)-जयार्यजाषिन्-पुं०। यथैवात्मनो जयो न. उबलेवो होइ जोगेमु, अजोगी नोवलिप्पड़ ।
वति तथैवाविद्यमानमप्यर्थ भाषते तच्चीनः जयार्थभाषी ।
येन केन प्रकारेणासदर्थभाषणेनाप्यात्मनो जयमिच्छति जने, भोगी भई संसारे, अनोगी विप्पमुच्चई ॥ ४१॥ 'हे विजयघोष! भोगेषुभुज्यमानेषु सत्सु उपलेपः कोपचय
सूत्र० १ श्रु० १३ अ०। रूपो बन्धः स्यात् । अभोगी नोगानाम् अनोक्ता , कर्मणा न
जयण-यजन-न । यागे, गायच्यादिपाठपूर्वकं विप्राणां संध्या उपलिप्यते। पुनोंगी भोगानां भोक्ता, संसारे चमति । अभोगी चैनरूपायां पूजायाम, अनु० । अभयस्य दाने च, प्रश्नः १ मोगानाम अभीक्ता, कर्मलेपाद विमुच्यते ॥४१॥
सम्बद्वार । हयसंनाहे, द.ना०३ वर्ग। कर्मझेपे दृष्टान्तमाह
यतन-न० । प्राणिरकणे, प्रश्न०१ सम्ब० द्वार । प्राप्तेषु योगेषु उदो मुको य दो जूढा, गोलया मट्टिया मया । उद्यमकरण, (अणु०) "जयणघडणजोगचरितं " वृत्तिःदो विश्रावमिया कुडे, जो उदो सोऽत्थ बग्गइ ॥४॥
यतनं प्राप्तेषु योगेषु उद्यमकरणं घटनं नापानानां तेषां प्राप्त्यर्थ
यत्नः यतनघटनप्रधाना योगाः संयमव्यापारा मनःप्रभृतयों वा उस आर्डः, च पुनः शुष्कः, एतौ धौ मृत्तिकामयौ गो
चारित्रे तत्तथा । अणु.३ वर्ग । लको कुज्ये भित्ती उच्चूडौ आक्तिप्तौ नत्र भापतितौ भित्ती आस्फालिती सन्तौ । अत्रयोः मृत्तिकामयगोलकामध्ये य
अजयं चरमाणो अ, पाण जूया हिंसः । उपः भाद्रो, मृदूगोलकः स कुख्य खगति ॥४२॥
बंधई पावयं कम्म, तं से हॉइ कमुकं फलं ॥१॥
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(१४१३) जयण अनिधानराजेन्दः।
जयया अनयं चिट्ठमाणो य, पाणयाइँ हिंसइ ।
धरणरूपायां कृत्स्नायां संयमक्रियायाम, महा०२० । उपयुबंधई पावयं कम्म, तं से हॉइ कडुयं फलं ॥२॥
क्तस्य युगमात्रष्टत्वे च । प्राचा०२ ० ३ ०१.०।
यतना च चतुर्विधा तथाहिअजयं आसमाणो अ, पाणनूयाइँ हिंसा ।
दन्बो खित्तमो चेब, कालो जावो तहा । बंधई पावयं कम्म, तं से हॉइ कमुभं फलं ॥३॥
जयणा चनबिहा वुत्ता, तं मे कित्तयतो मुण ॥६ir अजयं सयमाणो अ, पाणभूयाउँ हिंसा । बंधई पावयं कम्म, तं से हॉई कायं फलं ॥४॥
दब्बो चक्रवसा पेहे, जुगमित्तं च खित्तभो। अजयं मुंजमाणो अ, पाणभूपाइँ हिंमा।
कालो जाव रीएज्जा, नवनत्ते यजावो ॥७॥ बंधई पावयं कम्म, तं से हॉइ कमुभं फलं ।। ५॥
यतमतिवारं बुभूधुराह-"दबो " इत्यादि । सुगममेव, नवरं
तामिति चतुर्विधयतनां मे कीर्तयतः सम्यक् प्ररूपाऽभिधानद्वाअजयं जासमाणो अ, पाणया हिंसा ।
रेण संशब्दयतः शूरवाकर्णय शिष्येति गम्यते। यथा प्रतिकातबंधई पावयं कम्म, तं से हॉइ कडुआं फलं ॥६॥ मेवाह-द्रष्यत इति। जीवादिकं अव्यमाश्रित्ययं यतना, यशकुप्रयतं चरनयतमनुपदेशनासुत्राशया इति । क्रियाविशेषणमे यांचा प्रेक्तावलोकयेत्, प्रक्रमाज्जीवादिकं रून्यमवलोक्य तत,चरन् गच्छन् । तुरंवकारार्थः। प्रयतमेव चरन र्यासमिति
चासंयमात्मविराधनापरिहारेण गच्छेदिति भावः। युगमानंच मुलष्य न त्वन्यथा,किमित्याह-प्राणिभूतानि हिनस्तिा प्राणिनो | चतुर्हस्तप्रमाण प्रस्तावात् केत्र प्रेक्षत,श्य क्षेत्रतो यतना। कालबीजियादयः, जूतान्येकेन्द्रियाः तानि हिनस्ति, प्रमादानानी
तो यतना यावत (रीपज्जति) रीयते यावन्तं कासं पर्यटन्ति गाभ्यां व्यापादयतीति भावः । तानि च हिंसन बनाति पापं सावत् काखमनिगम्यते उपयुक्तश्च । भावतो दवावधानो यत् .कर्म अकुशलपरिणामावादत्ते क्लिष्टं ज्ञानावरणीयादि, तत् (स)
रीयते, इयं भावमङ्गी कृत्य यतना । उत्त० २४०। मुनिना हि भवति कटुकफलम, तत् पापं कर्म से' तस्यायतचारिणो।
इचासोच्वासावपि यतनया कार्यों । तदेवाह-"प्ति सोचून भवति । कटुकमित्यनुस्वारोशाक्काणिकः । अशुभफसं भव.
उस्सासं, नीसासं बांऽणुजाणिणं तमवि जयणाप न सम्बडा ति मोहादिहेतुतया विपाकदारुणमित्यर्थः ॥१॥ एवमयतं तिः
अजयणाप ऊससंतस्स को धम्मो को तबो" महा०६ म०। छन् ऊर्चस्यानासमाहितो हस्तपादादि विक्विपन शेषं पूर्व
श्रावकेणापि यतनया प्रवर्तितव्यमित्याह-यतनां विना प्रवृत्तीच बत् ॥ एवमयतम् आसीनो निषयतया अनुपयुक्तः सन् मा
सर्वत्रानर्थदराम एव,अतःसयतनया सर्वव्यापारेषु सर्वशक्रया कुश्चनादिमावेन, शेषं पूर्ववत् ॥ ३॥ एवमयतं स्वपनसमाहि
श्रावकेण यतनायां यतनीयम घ०२ अधिक जिन नबनकरणेतो दिवा प्रकामशय्यादिना, शेषं पूर्ववत् ॥ ४ ॥ एवमयतं
ऽपि यतना विध्यामेवेत्याह-यतनाऽपि जिनभवनकरणविध्यशुजानो निष्प्रयोजनं प्रणीतं काकशुगालभक्तिादिना, शेषं
अमेव प्रयतनावतो हि कुशक्रियासु प्रवर्तमानस्यापि प्रनृतपूर्ववत् ॥५॥ एवमयतं भाषमाणो गृहस्वनाषया निष्ठरमन्तर
सस्वसंधातसंभवेन कुशलाशयात्सम्यग धर्मो न भवति यत:भाषादिना, शेषं पूर्ववत् ॥ ६॥
" यतं बिना धर्मविधावपीद कहं चरे कह चिढे, कहमासे कहं सए ।
प्रवर्तमानोऽसुमतां विघातम् ।
करोति यस्माच ततो विधेयो, - कई लुजंता जातो, पावं कम्मं न बंध॥ ७॥ धर्मात्मना सर्वपदेषु यः॥१॥दर्श०१ तत्व। प्रवाह-ययेवं पापकर्मबन्धस्ततः “कहं चरे" इत्यादि । कथं
उक्तं च सैद्धान्तिक:केन प्रकारेण चरेत् । कथं तिष्ठत् कथमासीस? कथं स्वपेत। "जयणेह धम्मजणणी, जयणा धम्मस्स पालणीचेव । कथं भुखानः । कथं भाषमाणः। पापं कर्म न बभ्राति इति ॥७॥ जयं चरे जयं चिढे, जयमासे जयं सए ।
तवबुटिकरी जयणा, एगंतसुहावहा जयणा ॥ ५० ॥ जयं मुंजता भासतो, पावं कर्म न बंध ॥ ७॥
यतनेह धर्मजननी ततः प्रसूतेः, यतना धर्मस्य पासनी चैव
प्रसूतरकणात । तपोवृतिकारिणी यतमा इत्थं तच्छुके, एकाभाचार्य आह-"जय चरे" इत्यादि । यतं चरेत् । सूत्रोप
म्तसुखावहा सर्वतो व्यादिति गाथार्थः ॥५०॥ देशेनेर्यासमितः । यतं तिष्ठेत समाहितो हस्तपादाद्यविकेपेण, यतमासीत. उपयुक्त पाकुडबनायकरणेन, यतं स्वपेत
जयणाए वट्टमाणो, जीवो सम्पत्तनाणचरणाणं। .. समाहितो रात्री प्रकामशरयादिपरिहारेण, यतं नुज्जानः स.
सदावोहासेवण-भावेणाराहगो भणियो ।। ५१॥ प्रयोजनमप्रणीतं प्रतरसिंहभक्षितादिना, एवं यतं नाषमाणः
यतनायां वर्तमानो जीवः परमार्थे सम्यक्त्वज्ञानवरणानां साधुभाषया मृऽ कालप्राप्तं च । पापं कर्म क्लियमकशनानुबन्धि प्रयाणामपि श्रद्धावोधासेवनाभावेन देतुनाऽऽराधको भणितकानावरणीयादि नबध्नाति नाइत्ते। निराश्रयत्वात् विहितानु- स्तथा प्रवृत्तेसिंत गाथार्थः ।। ५१ ॥ ठानपरत्वादिति ॥८। दश ४ श्रा
एसा य हो णियमा, न यहियदोसणिवारिणी जेण । जवणा-यतना-स्त्री० । यत्ने, नि० चू० ११० । स्वशक्त्या नेण पवित्तिपहाणा, विएणेया बुष्मितेणं ॥५॥ अकल्पपरिहारे, प्रा०चू०६अ। पृथिव्यादिध्यारम्भपरिहार- एषा न जवति नियमात येनाधिकदोषनिवारणी इयम नानुबन्धे. करें यत्ने, दश०४० । अपादानां शीलासहस्राणां संप- नातेन प्रवृत्तिप्रधाना तत्वत्तो बियाबुकिमता सत्वेन || नाम अखरिमताविराधितानां यावज्जीवमहर्निशमनसमय सा इह परिणयजलदा-विमुष्प्रूवाभो हाइबिएणया।
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जयगा
अन्य महंतो सन्चो सो धम्म चि" ।। ५३ ।।
पर
खानमेव प्रतिपद्यपि महात् मेहेतुः स्थानानयोगादिति प्रति
जयना-त्रो० । जयनशीलायाम्, "जयणाए गए" । वृत्तिःशेषगतिजयनशीलया । कल० २ कृण ।
- 1
जयणात पतनायुक्त बनते १० जयणाम - जयनामन - पुं० । जयाऽभिधाने एकादशे चक्रवर्तिनि
स्था० १० ठा० । आव० ।
चारित्रविशेषयन्त
( १४२४)
अभिधानगजेन्
सावरथिन-पतनावरणीय
रायलकणे कर्मणि, भ० ए ० ३१ ३० ।
जय तिलगमूरि- जयतिलकसूरि०येनसिंह रिशिष्ये, तेन च मलवसुन्दरीपरिषं तथा सारि निर्ममे । जै० ६० ।
जयदेव जयदेव - पुं० । षनदेवस्वामिनश्चतुरशीतितमे पुत्रे,
कल्प० 9 कण ।
जयदेववागरण - जयदेव व्याकरण - न० । जयदेवकृतव्याकरणे, कल्प० १ ऋण ।
जयदेवसूरि-जयदेवसूरि-पुं० । प्रक्तामरकर्तुमनतुङ्गसूरेः पट्ट बर्तिनो वीरसुरेः शिष्ये, ग०४ अधि० ।
ते रम्यनगरे च । पिं० । जयप्य-पतास्मन् पुं० ध्यानैमिषराणे, आ० म० । जयप्पथ नवमन-पुं० प्रवचनसारोकार वयमपटीकाकरणे उदयप्रभसूरेः साहाय्यकारके आचार्य, जै० ६० । जयमंगला-जयमङ्गलाखी०कथानकप्रसा
०३ त
जयमाण - यतमान- त्रि० । क्रियायां यत्नपरे, दश० ६ श्र० १०
घ० । संयमानुष्ठाने परि समन्तान्मूलोत्तरगुणेषु उद्यमं कुर्वति, सुत्र० १ ० ६ अ० । श्राचा। संविग्ने, व्य०१ उ० । “जतमाणा तत्थ निहा, नाणत्या दंसणचरिते । " आ० म० प्र० । -जयराम जयराम - ० मुनिमेरे, जयरामादिराज र्षिकोटि त्रयमिहागमत् " । ती० १ कल्प । जगवल्लह - जयवब्लभ-पुं० । नृपनंदे, "जलयसुंदरं नाम नयरं तत्थ जयवल्लहो राया, कंतिकंदली से नारिया, दुडिया बीलालया " दर्श० १ तस्व० । जगन्लन - वि० | सर्वजनप्रिये च । दर्श० १ तत्त्व ।
6
शोद्भवे गुजरनृपे ती० ५ कल्प। जीवा० । जयसिंहमूर जयसिंहमूरि-पुं० [सर्वदेवशिध्ये दश०५ तत् । प्रश्नवाहनकुले हर्षपुरीयगच्कसंजाते अनुयोगद्वार - प्रवृत्तिही ममचन्द्राचार्यमसुरो, अनु म्यो ऽप्येतन्नामा अञ्चलगच्छीय श्रार्यरक्तिसुरेः शिभ्यो धर्मघोषसूरेर्गुरुरासीत् । अस्य च पिता वाहनामा नाघीनाम्नी च मा ता को देश सापारकनगरेऽयं विक्रमसंवत् १९७६ बर्षे जातः, सं०११९० वर्षे ऽयं दीक्षितः, सं० १११२ वर्षे सूरिपदं प्राप्तः स० १२५० वर्षे (G० वयसि) स्वर्गमगमत् । जै० ३० ।
जयद्दढ़-जयद्रथ-पुं० । सिन्धुदेशाधिपवृरू केत्रसुते राजप्रेवे, जयसिरि- जयश्री - स्त्री० । बिजयलक्ष्म्याम, आ० प्र० प्र० । स च घृतराष्ट्रम्प कश्यामुपयेमे स "जयइयो नाम यदि ते भगे स एषः । arao | गंगेनविडुरहोणजयद्ददं " ज्ञा० १ ० १६ श्र० । जयपुर-जयपुर-न० नगरविशेषे यत्र किस धर्मविनिर्मा लादाहत्य भिकां दातुमुद्यतां वसुमतीं निवारितवान् । दर्श० ३
स्वानामथ जयसेहर-जयशेखर०यरिशिष्ये स विक्रमसंवत् १४३६द्यमान उपसमिणिप्रबोधचिन्तामणि जैन कुमारसंभवधम्मिल्लचरित्रादीनां काव्यानां कर्ताऽभवत् । जै० ६० । जयसोमसूरि-जयमोमसूरि पुं० । स्वनाम के प्रमोदमाणिक्यसूरिगुरौ, अयमाचार्यः विक्रमसंवत् १६५७ मासीत् । विचाररनसंग्रदनामानं च प्रन्थं चकार । जै० इ० ।
जया - जया स्त्री० । वासुपूज्य जिनमातरि, प्र०११ द्वार । आव० । तृतीयाऽष्टमीत्रयोदशीरूपासु निथिषु, सू० प्र० १० पाहु० जी० । ६० प०। चं०प्र० । मघवनाम्नः स्तृतीयचक्रवर्तिनः स्त्रीरी, स० । पाजिनाधिष्ठात्री देवी कल्प जयन्ती रोगजयात्तस्यास्तथात्वम् । वाच० । सा च गुच्छाकारा, तथाहिगुच्छास्तु ताकी कर्पासीजीपी नीलादयः । श्राचा० १ ० १ अ०५ उ० । हरीतक्याम्, विजयायाम्, "भंग" इति नाम्ना लोके ख्यातायाम् । नीलदूर्वायाम्, अनि पताकादेवाच
जयाच जयादित्य पुं० पाणिनिस्याकरणे काशिकाकरणे बामनाचार्य सा०३०
जयाइच्च पुण्डरीकनृपस्यामात्ये, “जयसंघो
जयसंघ - जयसन्ध - पुं० अमच्चो ” श्र० चू० ४ श्र० १ जयसंधि-जयमपि पुं० पुरमनुपस्यामात्ये "जयचिणा श्रमचेण" श्राव० ४ ४० ।
जयसद्द - जयशब्द- पुं० । जयसुचकः शब्दः । शाक० त० । जय वन, उद्घुष्टनैकजयशब्दविराधितायाम्, वाच०। "मंगलजयसद्दकयालोए" मंगलाय जयशब्दः कृतो जनेनालीके यस्य स तथा। भी० । “जयसग्यो सप" जयेतिशब्दस्य व उद्घोषः उदूघोषणं तेन मिश्रो यः स तथा तेन । ज० ६ श० ३३ ३० । जयसिंह जयसिंह पुं० मधुरो, अभिकापुत्रमाता
महे वणिग्भेद, दर्श० ४ तस्व । ती० । जयसिंहदेव - जयसिंहदेव पु० सिकराजेोपाये चौथं
जयसुंदरी - जयसुन्दरी - न० । कृतमङ्गलापुरीयधनश्रेष्ठिसुतायाम । " कयमंगलापुरीप, धणलिट्टिसुया उ बालविहवाssसी । जयसुंदरि ति तीस, भतिजुया भायरा पंच ॥ १ ॥ " सङ्घा० ।
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( १४२५ ). अभिधानराजेन्द्रः ।
जयागांद
प्रयाणंद- जयानन्द पुं०रिशिष्ये "हरिभ पुनरेव मानदेवगुरुः विश्व
स्मात्सूरिर्जयानन्दः " | ग०४ अधि० । सोमतिलकसूरिशिष्ये च । तथाहितेषां त्रयो विनेयाः, तत्र श्रीचन्द्रशेखरः प्रथमः । यानन्दोऽस्तृतीयका देवन्द गुरवः ।
श्री सोमतिलकसूरे-स्त पत्र पट्टाम्बरादित्याः । ग० ४ अधि० । जर-ज-धा० जरायाम्, दिवा० पर० अक० सेट् । वाच० । “ऋ वर्णस्यारः " ॥ ८६ । ४ । २३४ ॥ इति प्राकृतसूत्रेण ऋकारस्यारादेशः । ' जर ' जीर्यते । प्रा० ४ पाद ।
जर - पुं० ० भावे अप् । जरायां, विनाशनं च । वाच० । ज्वर - पुं० । उवर भावे घञ् । स्वनामख्याते रोगभेदे, वाच० । विपा० । ० । जकुमार जर कुमार जग्ग- जरत्क- त्रिo | जीर्णे, " जरग्गश्रवाणहे शिवाज रस्का जरती जीर्णेत्यर्थः सा चासौ उपानब जरत्कोपानत् । ० ३ वर्ग ।
श्रीकृष्णागि०२०।
जरग्गर-जरऊ-पुं० कर्म टच् वाख० जीवतीय १० १४० । सूत्र० । “जरग्गवपाए" जरफषपादः । श्र० ३ वर्ग० बरन-जरठ- शि० कृ-या-अ-कर्क, कठिने, पाडनु पुं० जीर्णे, त्रि० । जरायाम, "नीरन्ध्रास्तनुमानिखन्तु जरठच्छेदामनप्रन्धयः "" अयमतिजरठा प्रकामगुर्वी " परिणते च । "जर कमलकन्द छेगीरिर्मयूखै:" वाच" जिरत पंमुपता" वृत्तिः-निर्धूतानि अपनी तानि जरठानि पाएरुपत्राणि येज्यस्ते निर्धूतजरउपारामुपत्राः । रा० मौ० जरपाग-जरापाक-पुं० [पष्टवर्षपर्याय सप्ततिवर्षजन्म के मानुषे
।
शेषे, स्था० ६ ठा० । खरयावसिद्ध-जरकावशिष्ट १० दक्षिणदिगावलीगतमहालर
कविशेषे, स्था० ६ ० ।
जरसति भो देशी-०३ वर्ग जरल नियो- देशी - प्रामाणे, दे० ना० ३ वर्ग । जर समण - ज्वरशमन - न० । ज्वरापहारे, "जरसमणाई रयणा,
पायगुणावि ते समिति जहा " वृत्तिः- ज्वरशमनादीनि ज्वरापहारप्रभृतीनि श्रादिशब्दातूलशमनादिप्रहो रत्नानि माणिक्यान्यज्ञातगुणाम्पपि रोगिभिरविदितश्रादिशमनसामध्यपन गुणवान् रामयन्ति विनाशयन्ति । पञ्चा०४ विव० । जरा-जरा-बी०। - श्रङ्ग-गुणः । वाच० । 'जू' वयोहानौ " इति वचनात् । जरणं जरा । वयोहानौ, न० १६ श० २ उ० । श्रा० म० । उत्त० । भात्र० । पं० सू० । प्रज्ञा० । ल० | द्वा० । सू० प्र० । वृद्धत्वे, संथा० । तं० । स्था० । ० ।
३५७
जीवानां जराशीकादिको धर्मः
जीवाणं भंते! किं जरा सोगे १ । गोयमा ! जीवाणं जरा वि सोगे वि से केणणं जेते !० जाव सोगे हैं। गोयमा ! जेणं जीवा सारीरवेदणं वेदेति । तेसि णं जीवाणं जरा, जेणं जीवा माणसं वेदवेदेति तेजीवाणं सांगे से देखा जब सोगे वि एवं रवि एवं जाव वशिषकुमाराणं पुढविकाश्याणं ते! जरासोगे ?। गोयमा ! पुचिकायाणं जरा, जो सोगे से केप्पा
० जाव णो सोगे है। गोयमा ! पुढवीकाइयाणं सारीरं वेद वेदेति । यो माणसं वेदलं वेदेति । से तेण द्वेषं जान णां सोगे एवं जाव चढरिंदियाणं मे जहा जीवानं ० जान बेमाणियाणं सेवं भंते! भंते! ति०जाब पजुवास
।
डय० ७ स० ।
जरय-ज्वरक - न० | मावलीगतमहानरकविशेषे, स्था० ६ ठा०| जरयमक्क जरकमध्य-५० चरगावलीगतमहाकवि
शेषे, स्था० ६ ठा० ।
जरयावत- जर कावर्त - न० पश्चिमदिगावलीगतमहानरकवि- जल-जल-धा०। श्राच्छादने, चुराउन सक० सेट् । जालयति ।
35
जीणीने जीवनोपयोगिक्रियायां च अक० भवा० पर० सेट् । जलति । अजालीत्। जजाल । जेलतुः । ज्वलादि । जनः जालः वाश्च० जल । अनच् त्रि० । वाच० । "बोलः ॥ ८ । ४ । ३०८ ॥ इति लक्ष्य लः पैशाच्याम् । मस्य सो वा । प्रा० ४ पाद । जडे, वाच० । उदके, सुत्र० १० ५ अ० २.उ० । पानीये, उत्त० ३५ श्र० । जलकान्तेन्द्रस्य प्रथमे लोकपाले, स्था० ४ ० १ ० । ० । अष्कायजीवे, कर्म० ४ कर्म० । प्रइन० । ह्रीवेरे गन्धद्रव्ये, ज्योतिषोक्तं लग्नावधिके पूर्वापादानत्रे न०" दनिष्यन्दज लेन लोचने " " जलाभिलाषी जलमाददानाम् "" न तज्जलं न सुचारुपङ्कजम " तृषिताय रोगिणेऽपि जलं देयस् ।
( जर ति) 'जू' वयोहानौ इति वचनात् । जरणं जरा वयोदानिः शारीरस्वरूपा या पमतो यदन्यदपि शारीरं दुः खं तदनयोपलकितम्, ततश्च जीवानां किं जरा भवति । (सोगेति) शोचनं शोको दैन्यमुपलक्षणत्वादेव चास्य सकलमानलदुःखपरिग्रहस्ततश्च तत शोको जवतीति । चतुर्विंशतिदण्डके च येषां शरीरं तेषां जरा येषां तु मनोऽप्यस्ति तेषामु भयमिति । भ० १६ श० २ उ० । जराभिभूतविग्रहा जघन्यतरामवस्थामनुभवन्ति रणपरिणामे "तु यस्वयोपकृतं मम " हा० २१ अष्ट० । जरासंघ जरासंघ नाम राजन श्रीमनेमिपत्रि - पुं०। स्वनामख्याते कृष्ण जरासन्धाधिकारे जरामांबनावराना धनय नाधिकारः कथं नोक्तः सोऽधिकारः शास्त्रीयो नवेति प्रश्ने, उत्तरमतीर्थकरोतीति शास्त्रीय एवेति । २३० प्र० । सेन० ३ बला० । पाएकव चरित्रे जरासन्धसत्करिण्यनाजसेनानी भीमेन हतो मायनेमिचरितादौ चानादृष्टि सेनाम्याद्दत इति कथं मिलतीति प्रश्ने, उत्तरम् अत्रापि मतान्तरमवसेयमिति । ९२ प्र० । सेन० १ उल्ला० ।
जल
तथा च
" पानीयं प्राणिनां प्राणास्तदायतं हि जीवनम् । तस्मात्सर्याश्वयस्यासु न रिवायते ॥१॥
नापि विना जन्तुः, प्राणान् धारयते चिरम् । तोयाभावेपिपासा कणादयते ॥ २ ॥
"
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(१४२६) जल भन्निधानराजेन्डः।
जलयर तृषितो मोहमायाति, मोहात् प्राणान् विमुञ्चति ।
प्रबोधने, प्रश्न. ३ सम्ब० द्वार । ज्ञानादिगुणोद्भासने, प्रव. तस्माजलमवश्यं हि दातव्यं नेपजैः समम् ॥३॥" वाचः। १४८ द्वार। णि० चू० । जस्मीकरणे च । ग०२ अधिः । ज्वल-धाादीप्तौ,चलने च । च्या० । पर० अक० सेट् । ज्यल- जलणप्पवेस-ज्वलनप्रवेश-०। बालमरणभदे, नि० चू०११ ति । अज्यालीत् । घटा० । ज्वलयति । ज्वला० । ज्वल:-ज्वा. मा । “जज्वाल लोकस्थितये स राजा " " जागर्ति लोको ज्वलति प्रदीपः, सखीगणुः पश्यति कौतुकेन । मुहूर्तमात्रं कुरु ।
जलणसिह-ज्वलनशिख-पुं० । सुरभिपुरवास्तव्ये स्वनामनाथ! धैर्य, बुभुक्तिः किं विकरेण तुत॥१॥" उदादिपूर्व
ख्याते ब्राह्मणे शुभमतेः पिर्तार, दर्श० २ तत्व । कस्य तत्तपसगंधोत्यार्थयुक्तवीप्ती, वाच । 'ज्यल' दीप्तौ वा जन्मणसिहर-ज्वलनशिखर-पुं० : चेताव्यगिरेक्किणे शिवमअच् । दीप्तिविशिष्टे, नावाच०। देदीप्यमाने, सूत्र०१ ७०५ | न्दरे नगरे स्वनामख्यात, राशि, उत्त०१३ अ०। अ०१उ०1101
जन्नणसिहा-ज्वलनशिखा-स्त्री० । स्वनामण्यातायां पाटलिपुजवंत-ज्वलत-त्रि० । देदीप्यमाने, सूत्र०२ ० २ ०। स्था।
नगरवास्तव्य हुताशनब्राह्मणभार्यायाम, भाव० ४ ० । श्रा० उत्स। ज्वामां मुश्चति, बत्त०११ अ०। महा। जाज्वल्यमाने,
धू० दश० । बिजयपुरनगरवास्तव्य रुद्रसोमद्विजभार्यायां च । उत्त०१६ ०। कल्प०।
सका। भा० क०। जन्मकंत-जलकान्त-पुं० । मणिविशेषे, उत्त० ३६ ० । प्रथा
जलदचरण-जन्मदचरण-पुं० । जलदमवष्टज्याप्कायिकजीवसूत्र । प्रा० म० । उदधिकुमाराणां दक्किणे, भ० ३ २००
पीमामजनयति, प्रब०१० द्वार। उकास्था०। प्रज्ञा। स०। जलकान्तेन्द्रस्य तृतीये लोकपासे, स्था.४०१301
जलदिहि-जलष्टि-स्त्री० । द्वि०प० । उदकस्य विषये लांचमलकिट-मलकिट्ट-न० । अयां मले, रा०।।
नप्रसरलकणयोमिनितयोरर्ययोः, भाव० ३ ०। नमकीमा-जमक्रीमा-खी। तमागजलयम्त्रादिषु मज्जनोन्म
जलपक्खंदण-जलपस्कन्दन-न । बालमरणभेदे, नि०० जनशक्षिकाछोटनादिरूपाय क्रीडायाम , ध०३ अधि० । दे.
११००। हावाबपि जलेनाभिरती, भ० ११० उ०।
जलपूया-जलपूजा-स्त्री० । प्रतिदिनं त्रिसन्ध्यमपि पवित्रगलि. जलकीमा-जलक्रीमा-खी । 'जलकोमा' शब्दार्थ, भ०११
तजन्मभृतभाजनानां जिनपुरतो दोकने, कर्पूरपूरसगौशीर्षघुस्.
णसारसरससुरनिसम्मिश्रपवित्रजलभृतककनककलशर्जसम- २०५०
जने च । दर्श०१ तत्त्व। जमग-ज्वलक-पुं० । वैश्वामरे, पिं०।
जलप्पभ-जलप्रभ-पुं० । उदधिकुमाराणां स्वनामख्याते उत्तजमगय-जलगत-पुं०। पूतरकादित्रसेषु, शबालादिवनस्प- रे, स्था०२ ठा० ३ उ० । भ० । जलकान्त-मस्थ स्वनामतिकायिकेषु जीवेषु, प्रश्न०१ आश्रद्वार।
स्याते चतुर्थे लोकपाने, स्था० ४ ग० १२० । भ० । बसचकवाल-जलचक्रवाल-० । तोयमामले, प्रश्न०३ आश्र जसप्पवेस-जनप्रनेश-पुं०। जले प्रविश्य म्रियते। बासमरणभे.
दे, स्था०२ ० ४ ०० । ०नि००। जलचार-जलचार-पुं० नावादिना संचरणे, प्राचा. १७० जलनमिआ-जनभमिका-स्त्री०। जसाधारमी, प्रहा०२ पद । ५०१०
जलमग्ग-जलमार्ग-पुं० । नावादिगम्ये पथि, सूत्र० २ ० १ जलवारण-जलचारण-पुं० । जलपरिणामकुशलेषु, जलमु
प्र०। जलस्य तद्वादस्य मार्गप्रणाल्याम, पाच०। पेस्य वापीनिमगासमुखादिवएकायिकजीवानबिराधयत्सु, ज.
जलमज्जण-जलमज्जन-न। अलेन दहशुद्धिमात्रे, भ० ११ ले भूमाविब पादोरकेपकुशोषु, ग०२ अधिक।
श०९ उ.। जमचारिया-जलचारिका-स्त्री० । चतुरिन्जियजीवभेदे, प्र
जमममू-जन्नमएमूक-पुं०। कुखुरादुन्ने जलव्यासे,नि०यू०१७०। का.१ पद।
जलमय-जलमय-त्रि० । मप्कायिकषु जीवेषु, प्रभा १ मा जलजलित-जाज्वल्यमान-त्रि० । देदीप्यमाने,कल्प० २ क्षण ।
श्रद्वार। जहाण-जसस्थान-न० । जलाशयषु, प्रका०५ पद।
जसमाझा-जनमामा-स्त्री०। प्रचुरजले, सत्र० २०१०। नसण-ज्वलन-त्रि० । ज्वल-ताच्छील्यादौ युख् । दीप्तिशीले,
जलमम-जलमक-पुं० । मुकभेदे, प्राब०४०।ग०।०। बाबा अनौ, सूत्र०१४०३०२ उ०। भाव० । पैश्वा
नि०५०। नरे, मा०म० । प्रात्मानं चारित्रं बा ज्यालयति दहतीति ज्वलनः।को, सत्र०१५०१०४ उ० । पाटलिपुत्रे हुता
जलय-जलज-म० । सहसपत्रादिषु, प्रज्ञा० १पद । मा०। शनब्राह्मणभार्यायां ज्वलनशिखायां जाते स्वनामख्याते पुत्र, मा.
मरा०। १०४०। मावा भा० का चित्रकके च। पुं०।वाचा
जलयर-जलचर-पुं० । जले चरति पर्यटतीति जलचरः।
प्राधारा" प्राबल्यता भनेकीपने, प्रश्न०१प्राकार शैत्यापनर-
१११३७॥ त्यधिकार। "चरष्ठ । माय शाधनार्थ वा वैश्वानरस्थ ज्वलने, प्रकाशकरणायटीप ११३मति टप्रत्ययः। "कगचजतदपयवा प्राया लुक" ॥८
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(१४२७ ) जलयर अभिधानराजेन्छः ।
जलहि २०१७७ इति यमुकि 'जगभर तदभावे 'जलयरों' जसपर।
जसयामलगंधिय-जलजामसगन्धिक-पुं० । जलजानामिव प्रा.१पाद । तेस पछिपतिर्यग्यामिका जलबरपथे।
जलजकुसुमानामिव मसो न तु कुरुम्यसम्मिश्रो यो गन्धः स न्द्रियसिर्यग्योनिकाः (प्रका)
वियते येषां ते जलजामलगन्धिका तेषु, "अतोऽनेकस्बरात" से किं तं जलयरपंचिंदियतिरिक्खजोणिया। समय- ॥श६॥ इतीकप्रत्ययः । पकगम्धिनी, जी०३ प्रतिकारा रपंचिंदियतिरिक्खजोणिया पंचविहा पसत्ता, तं जहा- जनरक्खस-जलराक्षस-पुं० । पञ्चमे राकसभेदे,प्रज्ञा०१पद०। मच्छा कच्चभा (हा) गाहा मगरा सुंसुमारा । जलरमण-जलरमण- जलक्रीमायाम ज्ञा०१७०१३००। मथ के ते जमचरपन्छियतिर्यम्योनिकाः !, सरिराह
जलरुह-जला-पुं० । जले रुहम्तीति जसरहा। उदकावकपन जलपरपशेलियातिर्यग्यानिकाः पञ्चविधाः प्रताः । तदेव
कादिक बनस्पतिकायभेदे.जी. १ प्रति० । भ० । जलकहा पाविधर तपणेत्यादिनोपदर्शयति-मत्स्याः कपाः सत्रे |
उदकारकपनकशैवसकाम्बुकापाषककशेतकोत्पमपाकुमुदनपकारस्य प्रकारः प्राकृतत्वात् । प्राहा. मकरा: शिशुमाराः | मारुतत्वात सूत्रे “ सुसुमारा " इति पानः। (प्रक्षा०)।
लिनपुण्डरीकादयः । माया.१९०११०५०। जे यावने तहप्पगारा ते समासो बिहा पमत्ता । तं
से किं तं जलरुहा । जमरुहा भणेगविहा पएणता। जहा-समुच्छिमा य गम्जवतिया य, तल्थ गंजे ते सम्म
तं जहा-उदए अवए पणए सेवाले कलंयुया हरे कसेरुया चिमा ते सम्बे णपुंसगा तत्यं णं जे ते गन्नवतिया,
कत्थनाणी उप्पले पउमे कुमुदे एलिणे मुजए सुगंपिए ते विविहा पक्षाचा । तं जहा-इत्थी पुरिसा णपुंसगा।।
पोमरीए महापामरीए सयवचे सहस्सबने करहारे ते जमबरपम्ब्यितिर्यग्योनिकाः समासतः संक्षेपण विधि
कोकणदे अरविंदे तामरसे भिसे चिसमुणाले पोक्सो भाः प्रक्षसाः। समूर्तिमा गर्भव्युत्क्रान्तिकाच । 'मूळ 'मोर- पोक्खलकिलए,जे यावएणे वहप्पगारा। सेजलाहा।। समुच्छाययोः। अस्मात् संपूर्वारसम्मन संमूर्छः "भकर्तरि । कारके संज्ञायाम" ॥३॥३॥१६॥ इति (पाणि०) भावे
प्रज्ञा १ पद ॥ पम्प्रत्ययः। गोपपातम्यतिरेकेण एवमेव प्राणिनामुत्पादति
जलरूव-मलरूप-पु.। उदधिकुमारेकस्य जसकाम्तस्य स्वभावः। तेन निर्वाः समाईमाः "भवादिमःEVI नामन्याते वितीये लोकपाले भ01000301 इति इमप्रत्ययः गर्भ व्युत्क्रान्तिकत्पत्तियां, म्युकान्तिशब्दोजललिमिर-जललिमिर-101 जलोस्पों वस्तुभारे, "जलखि बोत्पत्सिवाची तथा पूर्वाचार्यप्रसिके। यदि वा-गर्भात् गों- मिचिरनिवासियं"श०१तत्व। बासात युत्कान्तिनिष्क्रमणं येषां ते गर्नम्युकान्तिकाः, "शपादचा" ॥७।३।१७५ ॥ इति कप समासान्तः । पशब्दो प्र.
| जलवासि (1) अलवासिन-पुं० । परतीथिके तापसनेदे, त्येकं स्वगतानेकजेवसूचकी। तत्र येते संमूर्तिमास्ते सनपुं.
| "जलवासिणी सि"ये जमिमना एवासते । ० ११. सकाः संमूर्तिमनावस्य नपुंसकत्वाविनाभाषित्वात्,ये तु गर्भ- उ1नि० ०। व्युत्क्रान्तिकास्ते त्रिविधा प्राप्तातियथा-खियः पुरुषा:मपुं-जलविलय-जलश्चिक-पुछाचताराम्रूयजाधमक, प्रशा सकाः एतेषां चोभयेषामपि शरीरावगाहनादिषु यचिन्तनं या गर्भम्युत्क्रान्तिकानां श्रीपुंनपुंसकामां परस्परमपबहुत्वधिम्तमं तजीवानिगमटीकायां कृतमिति ततोऽवधार्यम् ।
| जलबीरिय-जसवीर्य-पुं०। चतुरिन्कियजीवन्नेदे,जी०१ प्रतिः। एतेसिणं एवमाश्याणं जलयरपंचिंदियतिरिक्खमोणि
अपनस्वामिना सप्तमे तश्य नपे, स्था०० डा0 भाव। याणं पजत्तापज्जताणं अबतेरस जाइकुमकोमिनोणि-|.
जलवुनुभ-जलबुदबुद-न०। जलस्य गोलाकारे विकार,
बाच। “विसयसुहंजमधुनुभसमा"ौ। प्पमूहसयसहस्सा भवतीति मक्खायं से जमयरपंचिंदिया तिरिक्खनोणिया।
नमसिषि-जलसिकि-स्त्री० । जलावगाहनात सिपी, "मुसं "पतेसिणं" इत्यादि। एतेषामेवमादिकानामुपदर्शितप्रकारा.
वयंते जससिद्धिमाहु" जसारगाहमात् सिरिमाहुस्ते भूषा हमांजलचरपग्लियतिर्यम्योमिकामा पर्याप्तापर्याप्तानां सर्व
बदन्तीति। सूत्र०१७०७०। संख्येयाप्रयोदशजातिकुलकोटानां योनिप्रमुखाणि योनिप्र
जलमग-जलशक-10 जलस्य शूकमग्रम । शैवाले, बाप.। बाहानि शतमालाजि प्रबम्सास्याख्यातं भगवद्भिस्तीर्थकर।।
इन्द्रस्य जल कास्तस्य स्वनामयाते द्वितीये लोकपासे, स्था. उपसंहारमाह-"से" इत्यादि । तदेवमुक्का जलबरपरेमिक
। ४ग०१3०1. यतिर्यग्योनिकाः । प्रा०१पद । साउत्साजी०। । जलसोयवाइ(न्)-जलशाचवादिन
मा०। जलसोयवाइ( )-जलशौचवादिन-पुं० । परतीर्थिकनेदे, भाचा सूत्रका स्थान जलपरा:जलजीवा। कल्प०३क्षण। .जससोय जे प्रति " ये चान्ये जा जलयरी-जलपरी-बी० । जलबरतिर्यग्योनिखियाम्, (जी.) बतादयस्ते सर्वेऽस्यमाहाकाहारमोजिरवात कशाला
से किं तंजलयरीयो । जलयरीमो पंचविधामो - सूत्र.१७०७ मा एणचानो। तं जहा-मच्छीयो० जाब संसुपारीमो । जसहर-जलघर-पु
कामा० जाव सुसुपारीभो । जसहर-जलघर-पुं०। महामेधे,कल्प०२ कण । बाचाको। से जायरीनो नी.प्रति।
। जलहि-जलधि-पुं० । जस्लानि धीयन्तेऽब । धा० कि० । समुद्र
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(१४२८) जलहि अनिधानराजेन्द्रः।
जल्ल •तोयधिप्रभृतयोऽप्यत्र । चक्षुःसंख्यायाम, संन्याभेदे, पाच ।। रे च । वाच । ज्वालाकुले, सूत्र० १०५ म०१ उ०॥
पचं शकुर्जिलधिरनय मध्यं पराईच । कल्प० ८क्षण । प्रम। "पक्वंदे जलियं जोयं" ज्वलितं ज्वालामालाकुलं जनावण-ज्वालन-नामदीपने,"जमणजलावणविदसणेहिं" मुर्मुरादिरूपम । वश०२० । सत्त० । “जमियाभासणो (जलावणं ति) स्वतः परतो बानेलहीपनमिति । प्रश्न.१
विष तेजसा जलंत" प्रम सम्ब० हार । आश्रद्वार।
जलियचुमिली-ज्वलितचुडिली-सी०। प्रदीप्ततृणपूलिकायाम्, जलानिसेयकठिणगाय-जलाजिषेककविनगात्र-jo । वानप्र- "जलियबुडिलीषिव अमुश्चमाणमहणसीलाओ" (जलियस्थ तापसनेदे, ये अस्नास्था न जुम्जते स्नानाद्वा पाएकुरीभू
बुडिलीषिष ति) प्रदीप्ततृणपलिकेव दहनशीमा ज्वलनस्थतगात्राः 'इति वृक्षाः'।न०११ २०१०नि०।
जावा इति । तं०। जन्नाभिसेयकढिणगायनुय-जलाभिषेककविनगात्रत-jo। जलूया-जलौकस्-स्त्री० । जलमोको वसतिरस्याः। जलजेडीवानप्रस्थतापसभेद। "जलाभिसेयकढिणगता" कचित
छियजीवविशेषे, मणु०३ वर्ग । जलौका जलजो द्वीन्द्रियजी"जलाजिसेयकढिणगायभूय" ति । श्यते तत्र जलाभिषेक |
अधिशेषः। भ० १३ श0 उ01 जलौकसो दुष्टरक्ताऽऽकर्षिएयः। कग्निं गात्रं भूताः प्राप्ता येते तथा । भ०११ श०१०नि०।
उत्त०३६ भ० भाक०। प्रज्ञा। जी01oभाष० । मा
चा।दश। प्रा० म०नि० चू० । खचरपन्छियतिर्यम्योजज्ञासय-जलाशय-पुं०। सरप्रभृतो जलस्थाने, (प्रहा०)
निकचर्मपक्किनेदे, जी०१ प्रतिः । प्रका। बादराएकायिकानां स्थानमधिकृत्य
जलका-सी० । जलूकेति भनेषणाप्रवृत्तदायकस्य मृजभाव. भगमेसु तलाएसु सरेमु नदीसु दहेसु बाबीसु पुक्खरि
निवारणार्यसूचकत्वात् । हुमपुष्पिकाध्ययने, दश०१।। णीसु दीहियामु गुंजालियासु सेरेस सरपतियासु सरसर- जलोयर-जलोदर--म० । जसप्रधानमुदरं यस्मात ५०। पंतियामु विसपंतियासु उज्झरेसु जिमरेमु चिस्सलेमु ारामयरोगभेदे, पाच । “पृथक समस्तैरपि चानिलाया, पल्सलेसु वेप्पिणेमु दीवेस समुद्देसु सम्बेसु चेव जसासएम साहोदरं बडगुई तथैव । भागन्तुकं सप्तममष्टमं तु, जलोदरं जमष्ठाणेसु जममिश्रामु ।
वेति भवन्ति तानि ॥१॥" भाचा.१९०६म.१००। किम्बहुना सर्वेष्वेव जलाशयेषु एतदेव म्याबटेजलस्थानेषु। जसोयरि (न्)जलोदरिन-पुं० । उदररोगविशेषषति, . प्रशा०२ पद । जी।
पाच । वातपित्तादिसमुत्थमधोदरं तवस्थास्युदरी तत्रजराक्षा म्येन वा ईश्वरेण कृपतडागसत्रदानाद्यतेन पुण्य- लोदर्यसाध्यः शेषाः स्थविरात्थिताः साध्या इति । माचा०१
सद्भाव पृष्टैर्मुर्मुजियविधेयं तदर्शयितुमाह- भु.६.१००। . दुहुओ वि ते ण जासंति, अस्थि वा नस्थि वा पुणो । जलोयरिणी-जलोदरिणी-सी० । कपिलमुतस्य कल्पस्थ
प्राय रयस्स हेच्चाणं, निव्वाणं पाउणंति ते॥१॥ स्वनामझ्यातायां जार्यायाम् , मा० का। यदि अस्ति पुष्यमित्येवमूचुस्ततोऽनन्तानां सस्वानां समवा-जलोया-जलौकस-पुं० । 'जलूया' शम्दाथे, अणु० ३ वर्ग। 'राणां सर्वदा प्राणत्याग एवं स्यात् । प्रीणनमात्रं तु पुनः स्वस्पानां स्वल्पकासीयमतोऽस्तीति न वक्तव्यम् ।नास्ति पु
जम्म-यल-jo। याति च लगति चेति यल्लः। रजोमात्रे,संथा। एयमित्येवंप्रतिषेधेऽपि तदपिनामन्तरायः स्यात, इत्यतो द्वि.
जामौ० शरीरादिमले,स०२२ समाधा प्रश्न.. धाध्यस्ति नास्ति वा पुण्यमित्येवं ते मुमुक्तवः साधषः पुन
विशे० । स्था। आवायल्लो मसीषशष इति । प्रश्न०५ ने भाषन्ते । किं तु-पृष्टस्सद्भिर्मीनं समाश्रयणीयमानिन्धे त्व
सम्बद्वार । यल्लः शरीरवस्त्रादिकमलम। स०२२ समः। स्माकं द्विचत्वारिंशदोषवर्जित माहारः कल्पते । एवंविध
यज्ञो मलःकर्णवदननासिकानयनजिहासमुत्थः शरीरसंभवश्च । विषये मुमुकूणामधिकार एव नास्तीति । उक्तं च-"सत्यं प्रब०७द्वार। बप्रेषु शीतं शशिकरधवलं वारि पीत्वा प्रकामं, व्युच्चित्रा
जन-पुं० । देहप्रनवपके, दर्श० ३ तत्व । जस्मोऽस्थिरो शेषतृष्णाः प्रमुदितमनसः प्राणिसार्था भवन्ति । शोषं नीते जलौघे दिनकरकिरणैर्यान्त्यनन्ता विनाशं, तेनोदासीननावं .
मालिन्यहेतुरिति । शा० १७० १३ म० । जल्नः शुष्कः अति मुनिगणः कूपवप्रादिकार्ये ॥१॥ " तदेवमुभयथाऽपि
प्रस्वेद इति । सूत्र० १ ० ३ ० १उ०। याति च भाषिते रजसः कर्मण आयो साभो नवतीत्यतस्तं चायं रजसो
सगति चेति जल्लः । पृषोदरादित्वानिष्पत्तिः । स्वल्पमौननानवद्यनाषणेन वा हित्वा त्यक्त्वा तेऽनवद्यभाषिणो नि
प्रयत्नापनेयः । जी०३ प्रति०। तं० । औ० । जल्लं कचिन वाणं मोकं प्राप्नुवन्ति इति । सूत्र० १६० ११ १०।
तापन्नं मसमिति । सत्त०३१०। जबो नाम मलः कग्निीनूत
कति । दशा०७०।"जल्यो उ होइ कमठं" नि००३०. जनासयसोस-जलाशयशोष-पुं० । जलाशयानां सरप्रभृतीनां
"जल्झो कमी जूतो" नि चु० ११०। “मलधिग्गलं शोषणम् । सरप्रभृतीनां शोषणे, तश्च कर्मादानम। यदुक्तम्
जल्लो भणति" नि०३ उ० । वरत्रास्त्रेलके, राकः स्तोत्रपा"सरदहतलायसोसो, बहुजलयरजीवस्खयकारी"प्रव०६द्वार।
ठके च । जल्लाः परत्रानेसका राज्ञः। स्तोत्रपाका इत्यन्ये । जलिंत-ज्वालयत्-त्रि० । दीपयति, महा०७०।
शा०१ श्रु०१०। पी० । अनु। कल्प० । जी० । दशा०। जलिय-ज्वलित-त्रि० । ज्वल-क-दग्धे, दीप्ते, चज्ज्वले, नास्वा । TR | राम्सच्चभेदे च । प्रइन० १माध० द्वार।
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जलपरीसद्
जलपरीसह पं(ज) परीप ० प इति मलः स पप
हो यल्ल परीपहः । अष्टादशे मनपरीषहे, उत्त० ६ श्र० । ० । जो मस्तत्परिषदेत सर्वतोवा स्नानो नादिवर्जनम् । ००४० प्र० अथ त्यादिवशत् शरीरे प्रस्वेद रजःस्पर्शालोपया स्यात् तदा मलपरीषहोऽपि सोढव्यः । अतस्तमाहकिलिन गाय मेहावी, प्रकेण य रण वा । घिसु वा परितावेणं, सायं नो परिदेवए ॥ ३५ ॥ मेघा श्रीकाले दादा पानापन प्रस्वेदाभा रामले परियकाम्यं प्राप्नया वा सिगात्रः सन् बाधितशरीरः सन् (सात) सुखं न परिदेवेत मला पारात सुवासाला न कुर्यादित्यर्थः॥३५॥ तदा किं कुर्यादिति ? । आह
अ
( १४२५) अभिधानराजेन्द्रः ।
-
बेल नितरापेड़ी, मारियंधम्मतरं ।
जाब सरीरजेट चि, कारण चारए ।। ३६ ।। निर्जरापेकी कर्मीः साधुस्ताया कायेन धारयेद देहेन मलं धारयेत् । पुनः मलपरीपदं (वेज) वेदयेत् सहेत तावत्कथं यावत् शरीरस्य पातः स्यात् । साधुः कीदृशः सन् ? आयं तचारित्ररूपं धर्मे प्रपन्नः सन् इत्यध्याहारः । कीदृशं धर्मम् ?, अनुत्तरं सर्वोत्कृष्टम् ॥ ३६ ॥ उस० २ श्र० । जल्लपेड़ा-जस्लपेक्षा श्री० जना पराकाराः स्तोत्र
पाठका इत्यपरे तेषां प्रेक्षा अनुप्रेक्षा । जनप्रेक्षखे, जी० प्रति० । नल्लमल - यामल- पुं० । याति च लगति चेति जनः। पृषोदरादित्वान्निष्पतिः । स वासौ मलश्च यस्तमसः। यलरूपे म से, "अमलकसे परम दास पछि यसरीनिवा सं० । मौ० ।
I
मलमल किय-पलमापति त्रि । बम जलमलपंकिचाणवि लावन्नसिरीओ जदा सि देहे गं"। जल्लमहितानामपि बहुधानामपीति भावः पं० ० ३ द्वार । " जल्सो कमदीनृतो मसो उबट्टितो फिइति पंकिता णाम जलमल्लेन प्रस्ता इति । निo चू० १ उ० । जलिय नल्लक २० शरीरमसे (जशियंत त्या अल्लो मलः । उत्त० २४ प्र० ।
95
-
पल्लित त्रिधानमनधर्मोपेतमयुके, ००३० नल्लेस- यस्लेश्य - त्रि० । यस्याः लेश्यायाः संवन्धिनि द्रव्यादो या परिवारता का करे
46
'उवत्रज " । या लेश्या येषां द्रव्याणां तानि यस्लेश्यानि यस्या .सेश्यायाः संबन्धिनीत्यर्थः । न० ३ श० ४ उ० । जन्झोसहि- जल्लोषधि-स्त्री० । जस्लां मल्लः कर्णवदनना सिका नयनजिह्वासमुद्भवः शरीरसमुद्भवश्च । स एवौषधियस्यासौ यत्प्रभावती जल्लः सर्वरोगापहारकः सुरभिश्च भवति स जल्लोषधिः । लब्धिभेद्रे, प्रव० २६० द्वार निब्धि३५८
जत्रां मतोरजेदोपचारात् । यत्रौषधिग्धिविशेषसंपन्ने साधी च । भ० यू० १ अ० [ ग० आ० म० । स्वा० । विशे० पा० । झोसडिपीमा मस धिर्यौषधिस्तां प्राप्तो यल्लौषधिप्राप्तः यहप्तौषधि सन्धिविशेषं प्रांत श्री०" जन्मांसहिपतेहि " ० १ ० द्वार
जय जप पुं० । जपरणजस्ता करणं इत्युक्तमादिमापणे च । वाच० । करजापो नन्दावर्तशङ्खावर्तादिरपि बहुफलः । उक्तं च- "करनावले पंच, मंगला साहुपरिमसंखाए । एष वारा अवसर, छति तं नो पिसायाई ॥ " बन्धनादिकऐ तु विपरीताविपरीतनमस्कारं क्षादि जपेत् । सद्यः क्लेशनाशः स्यात् । यद्यपि मुख्यवृस्या निर्जरायै एव सम्पदां गणनमुतं तथापि क्षेत्रमा सामग्रीयरोमेहिकाद्यर्थमपि स्मरणं कदापिका
उपविष्टं
पीतं स्तम्भेऽरुणं व क्षोभणे विद्रुमप्रभम् । कृष्णं त्रिद्वेषणे ध्यायेत, कर्मघाने शशि. प्रभम् ॥ १ ॥ " इति । करजाप'द्यशक्तस्तु रत्नाक्कादिजप मालया स्वहृदयसमश्रेणिस्थया परिधानवखचरणादाव सगस्या मेनुमनादिविधिना जपेत् ।
यतः
अव्यमेण
व्यग्रत्रिप्त्तेन यज्जप्तं, तत्प्रायो ऽल्पफलं भवेत् ॥ १ संकुलाजिने भव्यः, सशब्दान् मौनवान् शुनः ।
शुभदा
नजान् मानसः श्रेष्ठो, जापः श्लाभ्यः परः परः ॥ २ ॥ श्रीपादतिरिकृतप्रतिष्ठायकमाविमा मानसो मनोमानि । स्वसंवेधः । उपस्तु परेषमाणोऽन्तः संस्परूपः वस्तु पः सभायः अयं यथाक्रममुत्तममध्यमाधमविदिषु शान्तिपुष्ट निवारादिरूपासु नियोज्यः । मानसस्य यज्ञसाध्यत्वात् । भाष्यस्याधमसिकिफलत्वात् । उपांशोः साधारणत्वादिति । ध० २ अधि० ।
यत्र पुं० युधान्यदेवतेस शस्यानां जायते पत्रशातनम् । मोदमानाइच तिष्ठन्ति यवाः कणिशशालिनः || १॥ " वाच० । जं । यवा दयप्रिया इति । जं० २ ० । ओषधिभेदे, प्रज्ञा०१ पद । श्राचा० । यवैरङ्गुष्ठम ध्यस्थैर्विद्यास्यातिविभूतयः शुक्लप तथा जन्म दक्षिण
39
ङ्गुष्ठगैश्च तैः ॥ कल्प० १ क्षण । युकाष्टकमिते परिमाणनंद
च । “परमाणू तसरेणू, रहरेणु अग्गयं च बालस्स ॥ लिक्खा ज्या य यवो, भगुणविवडिया कमसो ॥१॥ " स्था० वा०| ज्यो० नं० प्रव० ।
1
यापि या णि"यापेजवः ॥ ८ ॥४ ॥ ४० ॥ इति प्राकृतसूत्रेण यातेपर्यन्तस्य 'जब' इत्यादेशो वा भवति । 'जवर जावे' | प्रा० ४ पाढ़ ।
'जब प्रो - देशी- जाडुरे, दे० ना० ३ वर्ग ।
जवजव - यवयव - पुं० । यवविशेष, भ० ६ श०६ उ० । ० । जं०
स्था० आचा० ।
जन- देशी- इलशिखायाम, दे० ना० ३ वर्ग ।
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जयगा
जवनशब्दः
जवराज अजवन-पुं० गेा०म०प्र० शीधे जनः जयशिया जवनिकाखी० अवश्यस्यां जू-यु स्वा । । । स्वार्थे कन् शीघ्रवचनः । ज० १४ श० १ उ० । वेगवति शीघ्रगे घोटके, अत इत्वम् । भाच्छादक ( परदा ) पटे वाच० । बाब० | परमेोत्कृष्ट वेगपरिणामोपेता जननाः । अ०म० प्र० । यवनिका स्त्री० युवमयस्य पुं० [पुर की तस् यवन- पुं० | मेच्छजातिभेदे, सू० प्र० २० पाहुण प्रब० सूत्र० । यवनिकाया, वाय "अतिरियं जयशियं श्रा देशभेदेनदेशस्ये जने च येगे. अधिकवेग " यरिकीमास्थानशानाम् अत्यन्तभागवर्तिनी जातो. पातितस्य तत्पुत्रस्य तुर्वसोवंश्ये जातिजेदे च वेगवति, त्रि० । बाच०।
।
यवनिकां काएकपटम् "अच्छाबेश सि" आयतां कारयतीति । [झा० १ ० १ ० । विशे० ।
यापन - न० । संयमभारोद्रादिदेहपालने, "यवणच्या समुयाणं नियं" संयम भारोधादिदेहपालनाय । दश० अ० ३ उ० । "जवणार
"जया निसेबर मधुं "बापनार्थ शरीरनिर्वाहारार्थमि
ति । उत०८ प्र० ।
( १४३० )
निधानराजेन्द्रः ।
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।
मा० सू० १ ० । जवणा-यापना- बी० । शरीरनिर्वाहे, उस० भ० यापनापि द्विविधा रूम्यतो भावतश्च । द्रव्यतः शर्कराखाक्षादिसदौषधैः कायस्य समाहितत्वात् जावतका इन्द्रियनो इन्द्रियोपशान्तस्वेन शरीरस्य समाहितत्वम् । प्रव०२ द्वार। भाव० । जवणाणिया-यवनानिका स्त्री० । ब्राझ्या लिपेलेक्यविधान
भेद, प्रज्ञा० १ पाद ।
जीव-पवनद्वीप-पुं० [नानां निवास द्वीपमे जनमज्जयममध्य-भि० ययस्येव मध्यं मन्यनामो यस्य बिपुलत्बसाधर्म्यात् तद्यचमध्यम् । यबाकारे, प्र० २५ श० ३३० । क० प्र० । अष्टान्निर्युकाभिः परिमिते प्रमाणभेदे च । न० । प्रब०२५४ द्वार | ज्यो० नं०। यथाकृतिमध्यं यस्य । चान्द्रायणभेदे, प्रथमदिनादापश्ञ्चदशदिनमेकैकप्रासवृख्या तदुत्तरं चापञ्चदशदिनं क्रमेणेकैकप्रासादाभ्या माससाध्ये व्रते, तस्य मध्यदिवसानां हि बहुप्रासवस्त्रेन यबमध्य तुल्यत्वम् । बाच० । जनमज्जचंदपमिमा यत्रमध्य चन्द्रप्रतिमा-श्री० 1 यवस्थेव मध्यं यस्याः सा यवमध्या चन्द्र इव कला वृद्धिहानिभ्यां या प्रतिमा सा चन्द्रप्रतिमेति यवमध्यचन्द्रप्रतिमा । स्था० ३ ० ३ ८ः : प्रतिमाभेद, “उमा जवेण संदेश था बिजयमन्त्र चंद्रमा ए" - जवमध्यचन्द्रप्रतिमायाम्, यवेनोपमाचन्द्रेण च यवस्थेव मध्यं यस्याः सा यवमध्या चन्द्राकारा प्रतिमा चन्द्रप्रतिमेति व्युत्पत्तेः। व्य०२ उ० । शुक्लप्रतिपदि एकं कवलमभ्यवहृत्य ततः प्रतिदिनं कपलवृद्ध्या पचदश पूर्णमास्याम, कृष्णप्रतिपाद व पञ्चदश क्त्वा प्रतिदिनमेकहान्या अमावस्यायामेकमेव यस्यां शृङ्क्ते सा बब मध्या चन्द्रप्रतिमेति । स्था० २ वा०३ ४० ॥ जनमज्झा - यवमध्या-स्त्री० 1 प्रतिमा भेदे, यवमध्या या यववदति कालादिनिराद्यन्तयोहोंना मध्ये व वृद्धेति । स्था०४ डा०१ ४० जवर प्रो - देशी - जत्राङ्कुरे, दे० ना० ३ वर्ग । जबराज - यवराज - पुं० । अनिलनरेन्द्रसुते स्वनामख्याते राजमि. (१०)
जवणालिया परनान्निकाखी०
कन्या बोलके, आ० म०
प्र० । यवनानको नाम कन्याचालकः । स च मरुम एक नादिप्रसिका चरणकरूपेण कम्पापरिधानेन सह सेवितां जयति परिधान करून प्रय अत एवायमूरुः सरकबुक इति व्यपदिश्यते । तथा च नायकृत-" जवनालतो चि भणितो, तुम्भे सरकंचुओ कुमारी" अ०म० प्र० । विशे० प्रा० नं० । जवशाली यवनाली श्री० [पयां नासिकायां यथा उप्यन्ते ।
श० १० ब० ।
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तस्थास्, "जवणाली जाम जाए गालीए जवा उपपंते तस्यास्वाविति सा जबणासी भरणति” भा० ० १ ० । जवणिज्ज-यापनीय-जि० । बंश्ये, " जत्ता ते भंते ! जबणि अब्याबाहं फासूयविहारं " ( जवणिजं ति ) यापनीयं मोक्कानिगच्छतां प्रयोजक इन्द्रियादिवश्यतारूपो धर्मः । भ० १
1
जाणिजे बड़े पण महा-दिगनव योईदियजवणिज्जेय से किं तं इंदियजवणिज्जे १ । इंदियज्जे जे इमे सोईदिययविखंदिपपाणिदियविजयिफासिंदियाई णिरुवइयाई बासे बर्हति सेतं इंदिजे से किं तं पोदियजवणिजे १ णो ईदियजवणिजे जं मे कोढमाणमायालोमा बोच्छिोउदीरेंति । सेयं णोईदियो से जब
1
1
|
( इंडियजवणिकां ति) इन्द्रियविषयं यापनीयं वयत्वमिन्द्रि यापनीयम् । एवं नयापनीयं नवरं नोशष्टस्य मिश्रवचत्वादिन्द्रियैभिः सहार्थत्वाद्वा इन्द्रियाणां सहचरिवा नोइन्द्रियाः कषायाः । ० ३ अधि० ज्ञा० प्रा० ।
जवण - जवान - नः । व्यजनभेदे, सु० प्र० २० पाहु० । ० जनपाणिय-पपपानीयन० यो "जयपाणि" यबोदके,
संस० नि० ॥
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कः पुनयेव इति ? | माहयवराजदीप-सचिव पुचप गदजो तहस । घुसा अोलिया गन्दमेव कूदा अभियम्य || पव्यय च नरिंदे, पुरागमममोलि पेढाण । जब पत्थ स्वरस्स उ उवस्तर परुमसालाए । यबो नाम राजातस्य दीघंपृष्ठः सचिवः, गर्दभश्च पुत्रः, दुहि अधिका सा गर्दैनन तीरागाभ्युपपप्रेम भूमि
सातारा
नरेम्स्य प्रजनं पुत्रस्नेहाच तस्यविभ्यां पुनः पुनरागमनम अन्यदा च चेटरूपाणाम् अमोलिकयां क्रीडनं खरस्य यवप्रार्थनं ततश्चापाये पुरुषः कुम्भकारस्तस्य शात्रायामित्यक्षरार्थः । भावार्थः पुनरयम् "उज्जेण नगरी तत्थ अनिल सुश्र यत्रो नाम राया, तस पुवो गइनो नाम जुबराया वस्स या गद्दभस्स
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( १४३१ ) अभिधानराजेन्द्रः ।
जवराज
सुवरपणो भइणी अमोलिया णाम । साग अतीव रूपवती । तस्स वि पर होताहे सो
नगि पाखिता प्रभोषवतीभवति । श्रमषेण पु किन सिर्फ गिरि मस्ि ति तादातुमिपरिति तस्थ आदि साथ समं भोप लोगो जाणिस्सति । सा कढि पि बिनट्ठा एवं होति कथं । अनया सो राया से अक नाउं निवेरेण पव्यतिश्रो । गहो राया जातो सो य जवो नेच्छति पढिचं पुत्तनेहेण व पुणे पुणा बणि पति भन्नथा सो उणीय अदूरसामंते जव तस्स समीचे बीसमति । तं च जवलेतं एगो खेतपालनो रक्खति । इम्रो य एगो गहनो तं जवलेतं चरितं इति । ताई तेण बेलपालपण सो गद्दभो भन्नति"प्राधाबल। पधावसी, ममं चाबि निरिक्सी। सतो ते मया भावो, जब पत्थसि गद्दद्दा ! ॥ १॥" अयं भाध्यान्तर्गतः श्लोकः कथानक समयमन्तरं यास्यते एवमुतरावपि की। " तेण साहुया सो सिलोगो गहियो । तत्थ य बेमरूपाणि रति मोलिया हा चि मणि हो सा म तेसिं रमंताणं अमोलिया ना बिले परिया। पकड़ा जाणिवा लिन पा संति । पच्छा एगेण बेडरूवणं तं बिलं पालिताण यं जा सायं पयस्मि वितमि परिया आहे ते भजति-" इम्रो गया सो गया, मगिअंतीम दासति । अ इयं विवाणामि अगा मोलिया ॥२॥ सो बिसि लोगो पढियो । पकड़ा. तेण साहुणा उज्जेर्जि पविसिता कुंभकारसाला उबस्सर गहियो सो य दोहो अमो
जब साहुणा रायले बिगहियो ताजिये ति-कहं पयस्स घेरं निज्जपमिति कानो गर्भ रायं भ तिस परीसदपराज काम जति पतिबसि पेष्ठह से उबस्लप आउहाणि तें अमषेणं पुढंबं
साथि आउाणि सम्म बक्सर भूमियाणि पतिनिरिदिने पति फारसा लाए उंडरो दुक्कियो उसरति जपणं ताहे तेणं कुंभकारें भ वि"मालयन डिसलग जयं मंखादाच ते नर्थवश मोदि से सिको गहिश्रो तालो राया भिरं मारे कामो रहूं मग्गर पगालेर बड्डाहो होहिसि काम्रो अमचेण ममं रचि फदससालं मोमछति । तस्य ते साधा पेडियो पढमो सिलोगो- "माधाय सीपधावसी, ममं चापि क्लिसी । तक्ति से मया जावो, जवं पत्थेसि गद्दभ |” ॥१॥ रचा नावं बेति जामो घुषं अतिसेसी यस साधू । तो बितिय पडिओ-इम्रो गया इम्रो गता, म जिंती दील | महमेयं विजानामि अगमे बूढा अमोलि बा ॥२॥ " तं पिणं परिगयं जहानामयं एतेन तमो ततितो पढियां "सुकुमालग! जय र हिंडसीलगभ स्थान से नये ॥३॥ ताड़े जाए समं व मारेकामा को ममं पितरो ताहे भसंते भोष परि पुणो वे कूति- एस भ्रमच्चो मम मारेका - मेण वंज करेति । ताई राया ममच्चस्स सीसं देषु साधुस् वतुं स कति सामेश् य " । अथ लोकत्रयस्थाशरार्थ:-ईपत् भाजिमुख्येन वा धावसि प्रकर्षेण पृष्ठतो धात्र.लि मामपि च निरीकले, सक्षितं मया भात्रोऽभिप्रायों यथा
पचाम्यचरितुं प्रार्थयति मो राजा भीमनुपते! प्रार्थयतीति प्रथम इतो गता २ मृग्यमाणा न दृश्यते श्रहमेतद्विजानामि अग भूमिगत चाहिता अमोलिका दोकान दिला. या द्वितीयः एप कस्य राहखशरीकुमार्या वात् सुकुमारक ! इत्यामन्त्रणं ( भइलग सि ) प्राकृते ! रात्रौ पिजनशील सूचकस्य दिया मानुषाकितथा ! राकस्तु वीरचर्यया रात्री पर्यटनशीलत्वात् । प्रयं ते तब नास्ति मन्यूसाद मनिमितात् किन्तु सप
जवासा
रत्र अमात्यात् । (ते) तत्र भयमिति । तृतीयश्लोकः । ततः स राजर्षिचिन्तयति
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सिविलयमणं अवि जारिसतारिसं । मुसिमोहिं, जोवियं परिरक्स्वियं ॥
- शिक्षितव्यं मनुष्येण अपि यादृशतादृशम् । पश्य मुग्धैरवि जीवितं परिरक्षितम् ॥ १
तथा---
पुब्ब बिराहियसचिबे, सामत्यणरचिश्रागमो गुणना । नाउम्म सचिवधायण - वामणगमणं गुरुसगासे ॥ पूर्व विराजितो यः सचिवस्तस्य राज्ञा सह समस्य पर्यालोचनं ततस्तयोः रात्रौ तत्रागमस्तस्य च राजर्षेस्तदानी पूर्वपतिकत्रयस्थ गुणना ततो ब नूनमतिशयामी महीयः पिता तो महात्मा [प्रान्तलातुमीलयैव राज्यं परित्यस्य भूयस्तदङ्गीकार कुरुते तदेष वर्षो ऽप्यस्यैवामात्यस्य कूटरचनाप्रपच इति परिभाष्य सविषघातनं कृत्वा स्वपितुः कामणं कृतवान् । ततस्तस्य राजर्षेः अहो भगवन्तो मामनेकशो भणम्ति स्म। प्राचार्याची सूत्रं परमहमात्मवैरिकतया नाटि यदि नामेानामपि मुग्धश्लोकानां पठितानामीदृशं फलमाविरभूव किं पुनः सर्वस्य भविष्यतीति विनिमय गुरुसका गमनं ततो मिध्यादुष्कृतं दासम्म पि लग्न इति । वृ० १ ० । जन-जगर-म० हराही
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१२५४॥ इति सु
रस्य सः । प्रा० २ पाद । उदरे, स्था० । जववारय-यत्र वारक- पुं० । शरावादिरोपिते यवाङ्कुरे, "जबबारयवरणय सत्यगादि महारम्मं " पञ्चा० ८ विष० । ७० । जवस - यवस - न० । यु- प्रसच् घासे, तुणे च । चाच० । गोधूमादिधाबे, "जलाणि वा "गोधूमादिधामति झाबा० २ ० ३ ० २० ।
|
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जब साग - यत्रशाक पुं० यवस्य शाके, "जबसागरलमाकं परिमुच्ने कवि हो " ० ० जवा-जपा- स्त्री० । वनस्पतिविशेषे डा० १ ० १ ० । नत्रामय-यवासक - पुं० । घनस्पतिजेदे, प्रका० १ पद । स्वा
कः । म्रात्र० ।
जवासा - यत्रामा - खी रसपुष्पे नेदे, "यवासाकुसुमेश बा" प्रज्ञा० । १७ पद | मुरुडासिनी, बाच।
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(१४३२) जवि (ण). अभिधानराजेन्द्रः।
जसमद जवि(ण)-जविन्-घोटके, वाच । सूत्र।
एकदिम्गामिनी कीर्तिः। सर्वदिव्यापकं यशः इति प्रसिकिः । जवित्तए-यापयितुम-अव्य । वर्तयितुमित्यर्थे, व्यवस्थापयि
उत्त०१० । कीर्तिरेकदिग्गामिनी प्रसिरिः सर्वदिग्गामिनी
सेव वणों यशःपर्यायस्वादस्य । अथवा-दानपुण्यफला कीतिः तुमित्ययें च। सूत्र०१० ३०२ उ०।
पराक्रमकृतं यशः। स्था० ३ ग.३ ० । कर्म । भगवत जवोदग-यवोदक-ना यवधावनजसे, दर्श०४ तस्य । पश्चाol ऋषभस्य स्वनामख्याते ऽत्रिंशत्तमे पुत्र च । पुंकल्प.क्षण । . कल्प० । “सीयं च सोधीरजवोदगं च" । यवोदकं यवप्र
जसकित्तिणाम-यशःकीर्तिनामन-न । तपः शौर्यत्यागादिना कासनजलम। उत्त०१५ मा स्थान
समुपार्जितेन यशला कीर्तनं संशब्दनं इलाधनं यशःकीर्तिरुमोदण-यवौदन-न० । यवनक्ते, "प्रायामगं चेव जबोदणं च" | व्यते। कर्म.१ कर्म० । यद्वा-यशः सामान्येन स्यातिः कीर्तियवौदनं यवभक्तम । उत्त०१५ ०।
गुणोत्कीर्तनरूपा प्रशंसा । अथवा-सदिग्गामिनी पराक्रमकजस-पुं० । यशस्-०।" स्नमदामशिरो नन्नः " ॥ १॥
ता वा सर्वजनोत्कीर्तनीयगुणता यशः दिग्गामिनी दानपु
एयकृता वा कीर्तिस्ते यदयाद नवतस्तयश कीर्तिनाम । ३२ ॥ दामन शिरस्नभस्वर्जितं सकारान्तं नकारान्तं च शब्द
शुभनामकर्मभेदे, पं० सं०३ द्वार। स० । यश कीर्तिनामोदया. रुप पुसि प्रयोकव्यम् । इति प्राकृतसूत्रेण प्राकृत पुंस्त्वम् । सं
द्यशः कीर्तिवति । कर्म०१ कमं० । प्रव० । उत्स० । यपुरसकते तु नपुंसकत्वम् । अश्-असुन्-धातोः युट् स । शौर्यादि
यवशाम्मभ्यस्थजनप्रशस्यो भवति तद्यशःकीर्तिनामति । कभूते स्यात्यपरपर्याय सर्वदिग्गामिनि प्रसिफिविशेष, वाच ।।
में०६ कम । था। यशःपराक्रमकृता च्यातियश इति । स्था० ३ग ४ उ । प्रश्न औ०। का० । सर्वदिम्गामिनीप्रख्यातियश इति।
न श०५| जसघाइ(न)-यशोघातिन्-त्रि० । यशोनाशके, "दंसलनाणच. 30 ! कीाम, दशा० । अ०स० । प्राचा० । (यशः रितं, तवधिणए निच्चकालपासत्था । एए प्रदणिज्जा, जे कीयोविंशेषः 'जसांकत्ति' शब्द अनुपदमेव अष्टव्यम्)। जसबाई पवयणस्स " प्राध० ३ ०।"पुव्वं समणगुणेटिं इलाघायाम, चं० प्र० १७ पाढ० । सत्र० । संयमे, अहिज्जतेहिं जसों मासी इमेहि सेर्वतहिं ताणि गणाणि ज" जम्हा असो चरणो य संजमो " यशो वर्णः संयम सोघाति तणं तेजसघाती एए पधयणस्स" माचू० ३ ०। प्रत्येकार्थाः । “जसो त्ति वा संजमा सि वा वएको ति था एग" इति वचनात् । व्य० १उ। “जसं संरक्कमप्पणो"
जसचंद-यशश्चन्छ-पुं० । स्वनामख्याते गणिमि, (भ०) यशः संरक्षनात्मनो यशःशम्देन संयमोऽभिधीयते । दश०५
-तथा च भवगतीसूत्रवृत्ताधभयदेवसरिः-- म०२ उ०। बिनोच । जसं संचिणु खतिए " यशः |
"श्रीमजिनेश्वराचार्य-शिष्याणां गुणशालिनाम । संयम विनयं वा संचिनु । उत्त०३० । स्वनामख्यातेऽन
जिनजद्रमुनीन्द्राणा-मस्माकं चाहिसंवितः॥ तजिनस्य प्रथमशिध्ये, स० "परणासातजिणा पढमसि
यशश्चन्द्रगणगदि-साहाय्यात सिदिमागता।" स्लो जसो नाम" ती०कल्प । पार्श्वनाथस्य स्वनामख्याते
परित्यक्ताम्य कृत्य स्य, युक्तायुक्तविघकिनः"। भ०४२ श०१3०। भगठम गणधरे च । कल्प०७ कण । स०।
जमजीविय-यशोजीवित-न0 । जीवित दे, तब जगवतो बजसंसि (न )-यशस्विन-पुं० । स्यानिमति, अनुस्वारः प्राक
बमानस्वामिनः "जसकित्ती य भयवतो" प्रामद्वि। तत्वात् । नि०१ वर्ग०। काभ०। भाचा यशस्विनः परा | जसद-जस (रा) द-पुं० । धातुविशषे, भौ० । येन वायुनाशीक्रमं प्राप्य प्रसिस्प्रिाप्तत्वात् । स० । इलाघान्विते, उत्स०५ यते । बाच०। भा कीर्तिमति, प्राचा०२४०२१०:उ01 "जसस्सिणो चक्खु-जसदपाय-जसदपात्र-न०। जसदधातुविशेषनिर्मिते पात्रे, “ज. पहटियस्स" सूत्र. १७०१६ अ० । “ प्रणुत्तरे पाणधरे ज- सदपायाणि घा" औ०। संसी" उत्त० ३१ अ० श्रमणस्य भगवतो महावीरस्य सि. जसदेव-यशोदेव-पुं० । स्वनामस्याते प्राचार्य, ग० ४ पार्थापरनामध्यये पितरि च । प्राचा० ३ ० । कम्प० ।
अधिः । स्थानावृत्ताघभयदेवसरिः--श्रीमजिनचन्हाचाजमकर-यशस्कर-त्रि० । यशः सर्वदिममामिप्रसिसिविशेषः । न्तिवासियशोदेवगणिसाधोरुत्सरसाधकस्येव विद्याक्रियातस्करो यशस्करः।०१७०१ भासवग्रिन्यापिकीर्तिक- प्रधानस्य साहाय्येन समर्थितम् । स्था० १० ग० । रे, तं० प्रा० मा भगवत ऋषभस्य स्वनामख्याते एकोन- 'यशादेवः पुनमियागच्छे चन्द्रसूरिशिष्यः पातिकसूत्रवृचत्वारिंशत्तमे पुत्रे, कल्प० ७क्षण।
तिपिएमविशुद्धिवृत्तिग्रन्थयोः कर्ता स च विक्रमसंवत ११७६।
विद्यमान भासीत् द्वितीयश्च यशोदेवसूरिः प्रवचनसारोजसकिनि-यशकीर्ति-स्त्री० । यशसा सर्वदिग्गामिप्रख्याति
कारकर्तुमिचम्मसूरेगुरुभ्राता प्रथमपञ्चाशकचूर्णिनामग्रन्थरुपण पराक्रमकृतन वा सह कीतिरेकदिग्गामिनी प्रख्या
कर्ता। जै००। तिनकमजूता वा यश-कीर्तिः । यशसा इलाघने, कर्म०१ कर्म०। पं० सं० । यशाकीयोश्चायं विशेष:-कीर्तिदानपुण्य
जसधा-यशोधन-न । स्वनामख्याते नृपे, २०। कला.यशः पराक्रमकृतम् । आ० म०प्र०"अविमेसितो जस। जसजा-यशोभ-पुं० । गुरुञ्चन्छसूरेः शिष्ये स्वनामख्याते याविससिता कित्ती" प्रा० चू. १ अ । दानपुगयफला कीर्तिः। चाये. "जातौ तस्य विनेयो,सूरी यशोजनेमिचन्द्राही"।ग०४ पराक्रमकृतं यशः मा०म०प्र०ा बहुसमरसंघनिवर्हणशौर्यल- अधिक प्राचार्यशय्यंभवस्य शिष्ये स्वनामख्यात प्राचार्य, नि. काम यशः, दानसाध्या कीतिरिति । सूत्र०१०म० ०-५30"सरयंभवस्स सीसो, जसभदो नाम मास गुण
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( ) जसनद अनिधानगजेन्द्रः।
जसोकित्तिणाम रासं।" ती०१३ कल्प। "जसनई तुंगिय बंदे," शय्यं नवशिध्यं द्वात्रिंशत्तममष्टक-मुवाच श्रीमयशोविजयः ॥१॥" म० यशोभद्रं तुङ्गिकंतुधिकगणं व्याघ्रापत्यगोत्रं वन्द । नाधरस्स ३१ मष्टा । णं अजजसनहस्स तुंगियायणसगोत्तस्स भंतेवासी दुषे घेरा,
प्रतिमाशतके नयषिजयमधिकृत्ययेरे मजसंन्यविजए माढरसगुले,येरे अजभरवाह पाईणस- "सदीयचरणाम्बुजभषणविस्फुरबारतीगुत्ते" श्रीयशोभ स्वपदे संस्थाप्य श्रीबीरादनवतिषः स्व. प्रसादसुपरीक्षितप्रवरशाखारक्षोपयैः। जंगाम इति श्रीयशोनमत्रिरपि श्रीभरुवासंभूतविजयाल्यौ जिनागमविवेचने शिवसुखार्थिनां भेयसे,. शिष्या स्वपदेन्यस्य स्वलोकमलं चक्रेकरूप०८ कण। मार्य- यशोषिजयवाचकैरयमकारि तस्वनमः ॥१६॥ संभूतविजयस्य माढरसगोत्रस्य शिध्ये स्थनामच्याते भाचार्य, पूर्व न्यायविशारदत्वविरुवं काश्यां प्रदत्तं बुधकल्पकण । साकेतनगरवास्तव्यस्य पुएमरीकराजस्य स्व- यायाचार्यपदं ततः कृतशतप्रन्यस्य यस्यार्पितम्। नामच्याते युवराजे, मा०पू० ४५० । भाषामा० क०। भव्यप्रार्थनयाऽनयादिविजयमाकोत्तमानां शिश, पकस्य पञ्चदशसु दिवसंषु चतुयें दिवसे, ज्यो० ४ पाहु ।। सोऽयं तस्वमिदं यशोविजय श्त्याच्याभृवाक्यातवान् ॥१४॥" जं०० प्र० । कल्प० । यशोभनात भाराजसगोत्रात् | प्रति। निर्गतस्य उम्पपाटिकगणस्य स्वनामख्याते कुलभेद,न. ।
नयोपदेशवतीकल्प. क्षण । साकेतनगरस्य पौएमरीकनृपतेर्युवराजस्य "गच्छे श्रीविजयादिदेवसुगुरोः सर्गुणानां गणैः, करमरीकस्य स्वनामक्यातायां भार्यायाम, सी० मा० ० प्रौटि प्रौदिमचाम्नि जीतविजयमाकाः परामैयदः । १०। भाषामा०क०।
तत्सातीर्थ्यभृतां नयादिविजयमाकोसमानां शिशुजसमहमूरि-यशोजघमूरि-पुं० पोशप्रकरणविवरणकार. स्तत्व किंचिदिदं यशोविजय इस्यास्यानुदायातवान् । के प्राचार्य, पो०१६ विवाधर्मघापसरहिं स शिष्यः स्या
नयो। द्वादरहस्यनामग्रन्थस्य कर्ता । जै० १०॥
"तकंप्रमाणनयमुख्यविवेचनेन,
मोडाधितादिममुनिभुतकेवलित्वाः। मसमंत-यशस्वत-त्रि० । यशस् मतुप मस्य वः । यशोषिशिरे,
पर्यशोषिजयवाचकराजमुख्याः, विनि-यशस्वीत्यष्यत्र । वाच । भरतवर्षाचे स्वनामग्याते
प्रन्येऽत्र मय्युपकार्ति परिशोधनाचैः॥"०४अधिकाप्रब. 'कुलकर,पुं० स्था०७० । ती.। अं० प्रा० माकल्प।
माचार्यः विक्रमसंवत्सराणां सप्तदशके शतके प्रासीत् । जै०१० मा० चूामा०क० । खियां की जीवन्तस्तु तत्र ज्योतिमत्याम यवतिक्कायाम, वनकार्पास्यां च । बाब०।
जमार-यशोधर-पुं० । भारतवर्षभषेऽतीतेऽष्टादशमे जिमे,
प्रबार । भारतवर्षनवे प्रविण्यत्येकोनर्षिशे जिने, प्रव०७ नसमित्त-यशोमित्र-पुं० । शर्बुजयशैलीशान्तिमदेवयो
बार । दीपापनस्य जीवं यशोधरनामानं जिनमेकोनविशं धन्द, चैत्यस्योद्धारके प्रावक, ती० १ करूप ।
प्रव०४६ द्वार भगवत ऋषभस्य द्वादशे पुत्रे, कल्प०७कण । असई-यशोमती-स्त्री० । वर्तमानावसर्पिण्या द्वितीयसकर- धरणस्थ मागकुमारेन्द्रस्य पीगनीकाधिपती. "जसोधरेमास तिनः सगरस्य मातरि, सामाषा पृष्ठिचम्पापुरस्थशाल राया पीहानीयाहिवई" स्था० ५ ०१०। पक्कस्य पञ्चदश महाशालयोनगिन्यां पिढरभार्यायां काम्पिल्यपुरस्थायां गा. सुविषलषु पञ्चमे दिवस, जं०७षक्ष। ०प्र०कल्प। गलीमातरि, प्रा०पू० १५० ।ती। मा०म०। भमणस्य | वेधकषिमानप्रस्तटे च । स्था० एग। साकेतनगरस्थस्य प्रगवतो महावीरस्य नयां प्रियदर्शनायाः पुञ्याम्, प्राचा विनयधरनुपस्यात्मजे स्वनामन्याते कुमारे,ध०र०वश.. ३० । कल्प० । पकस्य तृतीयायामष्टम्याच प्रयोदश्यां व (यशोधरचरितं तु धर्मरत्नप्रकरणादवसयम) दक्विणरुचकरारात्रितिया, चं०प्र० १० पाहु । जं० ।म. प्र.ज्यो । स्तम्यास्वरसु दिशाकुमारीषु चतुर्थदिशाकुमार्याम् , श्री.। दशपुरनगरवस्य शापिडल्यस्य ब्राह्मणस्य दास्यांचा उत्त.
स्था०८०बीमागचाती०।प्रा.कामाचा मा० १३० । कम्पिल्यनगरस्थस्य ब्रह्मदत्तस्याम्तःपुरप्रधामायां । म. जं०। पकस्य पञ्चदशसु रात्रिषु चतुर्धरात्री, ज्यो०४ भार्यायां पक्षहरितपुड्याम, सत्त०१३७०।
पादु० । जं० । कल्प० । सकलभुषनव्यापियशो धरतीति मसबस-पशोवंश-पुं० । मूर्ती यशसां वंश च पर्वप्रवाह व
यशोधरा । लिहादित्वादम्। जम्बूसुदर्शनायाम, जम्बूद्वीपो हि
विदितमहिमा शुधनत्रयेऽप्यनया जम्बोपलक्षितस्ततो भवति यशोवंशः।यशसा पर्वप्रवाहभूते, “जसवंसो नागहत्थीणं" 01
यथोक्तम् । यशोधारित्वमस्या इति । जी० ३ प्रति०। जं०। जमवाय-यशोवाद-पुं० । साधुवादे, " जसवपणं बता" जसा-यशा-श्री। कौशाम्बीवास्तव्यस्य काश्यपस्य भार्याकल्प०४कण।
यां, कपिलमातरि, उत्त०८माती। जसविजय-यशोविजय-पुं० । वार्षिशिकाविवरणद्रव्यगुणपर्या- जसोकामि ( 7 )-यशस्कामिन्-पुं० । कीर्तिकामिनि, “धिग. यभाषाविषरणद्वाविंशवष्टकप्रतिमाशतकनयोपदेशविवरणादि-- त्पुते जसोकामी" दश०२ मा । कारके भाचा ग्या० १४ अभ्या।
| जसोकित्ति-यशःकीर्ति-सी । 'जसकित्ति' शब्दार्थे, मा. द्वात्रिंशिकावृत्तौ नयविजयवर्णकमधिकृत्य
चू०१०। "यशोषिजयनामा त-चरणाम्भोजसेषिना।
जसोकित्तिणाम-यश-कीर्तिनामन-न। 'असकिरिणाम'श. द्वाणिशिकानां निवृति-चके तत्वार्थदीपिका(६) द्वा०३श्वाना दाय, कर्म०१ कर्म।
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(१४३४ ) असोचंद प्रभिधानराजेन्दः ।
जहमपय नसोचंद-यशवन्छ-पुं० । 'जसबंद' शम्दार्थे, भ०४२ श०१301 गुणेसु चेष" यथाक्रम यथावसरमिति । उत्स० १५०। असोजीविय-यशोजीवित-न। जसजीषिय' शब्दार्थे, मा०
"जहरूमते " यथाक्रम कमेणैव । पशाए विष०। म.दि।
महक्खाय-ययाख्यात- । प्रधाग्यातापरनामधेये चारित्रजसोद-जस (श)द-पुं०। 'जसद' शब्दाथै, भौ०।
भये, (प्रा.म.प्र.) नतोदपाय-जसदपात्र-10 । 'जसबपाय ' शब्दार्थे, मौ०।
अथ यपालतिचारि विवएपनाहनसोदेव-यशोदेव-jon'जसदेव' शबा, ग०४ अधिः।
माहसदो जाहत्ये, प्राजिबिहाएँ कहियमक्खायं ।
चरणमकसायमुदितं,तमहक्खायं "जाक्खायं"||१२७६।। जसोषणा-यशोधन-10 । 'जसघण'शम्दाथै, त०।।
बयाण्यातमिति द्वितीयं माम । तस्यायमर्थ:-यथा सर्वस्मिन् नसोचा-यशोनद्र-.। असभर' शब्दायें, ग०४ अधिः ।। जीवलोके स्थातं प्रसिखमकवायं भवति चारित्रमिति । तथैव सोमंत-यशस्वत-त्रि०। जसमंत' शब्दाथै, स्था०७०। यत तत् पधारपातं प्रसिकं सर्वस्मिन जीवसोके । मा. म.
प्राविश०। (अथास्यातविवरणम 'महस्वाय'शम् नसोमिच-यशोमित्र-पुं० । 'जसमित' शब्दार्थे, ता.१कल्प ।
प्रथमभाग ८६१ पृष्ठे बिलोकनीयम्) पसोय-पशोद-०। यशो ददाति दा-कापारवे, यशोदातरि, विकासन्धगोपपल्याम, सी०वाचा भमणस्य जगवतोम
| महग-अहक-पुं० । सेनाके, विशेo1 बाचीरस्वमार्याय मा . "समणस्सा जातियवत्युवाइ(ण)-यथास्थितवरतवादिन-पुं०। बथास्थि. भगवनो महावीरस्स प्रजा जसोया गोसंण कोरिया" मा- तममिलाप्यानभिलाप्यस्वादिना प्रकारेण स्थितं वस्तु बदित पा. "कारैति पाणिग्गहणं जसोयधररायकमाए " | शीलाः पद्यावस्थितवस्तुवादिनः । बम प्रकारेण वस्तुनो वासं० २१ कापामामा।
दिनि, पं० सू०१ सूत्र। बसोबई-यशोमनी-सी जसवई' शम्दा, स०। जहण-अघन-म० । बकं हन्ति । हन-पर-मच-पृ०। खीणां बसोबंस-यशोवंश-पुं० । जसवंश' शब्दा, नं०।। भोणिपुरोभागे, भोणौ च । पाच । जघनं पूर्वः कटिनाग बसोबाय-यशोवाद-पुं०। 'जसबाय' शब्दा, कल्प.क्षण|| इति । विपा०१०१०। सोविजय-यशोविजय-jo'जसविजय' शम्मा, कण्या०
जहणरोहो-देशी-करौ, दे० ना० ३ वर्ग। १४ अभ्या०।
जहणवर-बरजघन-10 । भेष्ठजघने, परशमस्य विशेषणस्थानमोहर-यशोधर-पुं०। जसहर' शब्दार्थ, प्रबार। | अपि सतः परनिपातः प्राकृतत्वात् । जी.३ प्रति०। बह-यया-मम्या पतप्रकारे, थाम् "याऽस्वयोवातादाबदा- महणिज-देय-त्रिका स्याज्ये, का०१०१०। ता"८१।७। इति प्राकृतसूत्रेणाम्ययेत्वातादिषु च
जहण्सव-देशी-अधोंडके.देना०३ वर्ग। शणे. मादेराकारख्यावा । प्रा० १ पाद । येन प्रकारणेत्यर्थे, बाबा.१९०६ १.३301 "जहसुसं तह प्रस्थो"(२६) यथा
जहएण-जघन्य-विक। इन-पर-म-पू० अघनमिवश्वाय पेन प्रकारेण यथापत्या सर्व व्यवस्थितं तथा तेव प्रकारे
बत्पा। प्रधमे, बाचामाप. निकटे, भ.९०११०। बाघों व्यावधेयः । सूत्र० १७०१३ मा मनुलामाचा उप
सर्वहाने, स्था०४०१०। सास्ये, स्था०१०१०। प्रदर्शने, पक्षा० १४ विषासूत्रधनुoामा० म०। उदाह
घरमे गर्षिते च । पदे, पुं०। जघनमनुशीलितम वस्व । पुंसा रणोपम्यासे, दर्श०४ तस्व। पिएका प्राव सूत्रउत्त०।
लिकाबाब०। मा० मा “जह मंगलानिहाणं " विशे० । पत्युदा-जहाणगुणकालग-जघन्यगुणकालक-पु. । अचम्पेग - हरणोपम्यासार्थः । यतसथान्यदप्यमया दिशा द्रव्यम् । च्याविशेषेणैकमेत्यर्थःगणो गणनाम्यस्थल तथामाचा०१४०८०१०ीरातोपदर्शने, जी० प्रति०। विधःकालो बणों येषां ते जघन्यगुणकालकाः। तेषु, । स्था० सं०। सूत्रका स्था0 150 बायोपन्चासे, सारश्ये, ]
वाक्योपन्यास, सारश्ये, १०१०। योग्यतायाम, मानुबप्ये, पदार्थानातिपत्तीचा पाया
जहएणधिय-जघन्यस्थितिक-त्रि०। जघन्या जयन्यसंख्या पत्र-प्रय० । "प्रपा हि-ह-रथाः" ।।२।१६१॥ इति प्रा
समयापेक्षया स्थितिर्येषां ते जघन्यस्थितिकाः एकसमयस्थिसमस्त्रेण पाहा 'जह' ति प्रा०पाद । यस्मिनित्य,वाया
तिके, स्था० १ ठा. १७० महंत-महत-
पित्यजति, "जिवषयणं भावतो जदंतस्स" ज्य० ३३० । .
जहएणपएसिय-जघन्यप्रदेशिक-पुं० । जयन्याः सर्वास्याः
प्रदेशाः परमाणपस्ते सन्ति येषां तेजघन्यप्रदेशिकाः। खाणुमहकम-यथाक्रम-अव्या क्रमस्थानुरूप्यं तस्यानतिकमो वा।।
कादिक, स्था० १०१ उ०। भव्ययी। क्रमानुरूप्ये, कमामतिकमे बाबाब०। बथाकम परिपाट्येति । दश०५०1"भट्टकम्माईबोखा-जहापय-जघन्यपद-म० पचते गम्यते इति पदं पदसंख्यामि.माणुपुम्खि जहकम" उत्स. ३१६० । बिहरामि यथा- स्थानं तब्चानेकधेति जघन्यं सर्वही पदं जघन्यपदम् ।सकम साबाबागनुकमेण । ०५३०" अरबमकाम- बहीने संख्यास्थाने, स्था०४ ग०२ उ० ।
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जयपुरिस
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नापुरिस जघन्य पुरुष - ० पुरुषविशेष स्था० ३ ० १ ० । (जनपुरिसातिविहा ' पुरिस' शब्दे वक्ष्यत ) नहएको सग - जघन्योत्कर्षक- श्रि० । जघन्यो निकृष्टः काशि बू व्यक्तिमाश्रित्य स एव च व्यत्यन्तरापेक्षयोत्कर्ष हो जयग्योत्कर्षकादि व्यक्तिमाथि नियतरापेक्षबोत्कृष्टे च । न० २५ श० १ ० ।
नइ एयोगादपग- जघन्यावगाढनक-त्रि० । अवगाहते नासते यस्यां साऽवगाहना क्षेत्र प्रदेशरूपा ला जघन्या येषां ते स्वार्थिककप्रत्ययाज्जघन्यावगाहनकाः
।
( १४३५), अभिधानराजेन्द्रः ।
स्था० १ ठा० १ ० ।
।
बहुत्य पचार्थ अभ्य अर्थममतिक्रम्य अध्यय० । अर्थस्थानतिक्रमे, पं० [सं० १ द्वार अम्बर्थयुक्के, त्रि० । पहचा० १५ बिष० । बधार्थ प्रदीपादि । स्था० १ ना० १० । बोच्छामि पंचसंगह मेवमहस्थं अहस्थं वा " बधार्थ यथावस्थितः प्रच चनाविरोधी भयो यस्मिन् वम् यद्वा-प्रर्थस्य प्रवचनI स्वानतिक्रमेण न स्वमनीषिकवा यथार्थम् । पं० सं० १ द्वार । "सम्यं दबाए जायर जद्दत्थं" बथार्थ यथाबद् यथा सर्वमोक मधेति । विशे० ।
नदस्थणियय - यथार्थानियत न० । व्यञ्जनाङ्गरमे, " तत्थसत्य निवयं तं जहा-दहतीति दद्दणो तबतीति तबणो पवमादि " । आ० ० १ ० ।
महत्थाम- यथास्थाम-अम्ब० । यथाबलं शक्स्थनतिक्रमेवेत्यथे, "झुंज व जहत्थामं " पहचा० १५ विव० । जप - यायात्म्य - न० । यथातस्ये, स्था० ५ डा० १० । जहवा यथावा- प्रव्य० प्रकारान्तरदर्शने, दश० १ अ० । महवाय यथावाद-प्रय० भावचनानतिक्रमेत्यर्थ ११ वि० ।
महा-यथा- अव्य०। 'जह' शब्दार्थे, प्रा० १ पाए । महारा-हिरवा-यय सू० १० २०१
० | "तसं च जहाइसेर" सुत्र० १० २ ० २४० । महाकाल - यथाकाल - अभ्य० । यथावसरमित्यर्थे, प्राबा० १ ०२०१०ोखिरह मुखी जहाका " बचाका यथावसरम् । संथा० ।
।
यथामित्यर्थे
" माराहिता
महागम-पंचागय-मम्य
महागमं " पं० ब० ६ द्वार । महाकन्द-पथाच्छन्द-पुं० स्था० डा०३७० महाजाय पथाजातच जातं समयविशेषमनतिक्रम्य यथाजातं, तदस्यास्ति अं। सूर्वे नीचे च । चाच० जहाजायपया।" यथाजात पचभूताः शिक्षामरणादिवर्जितबनित्यादिसाधन०
द्वार। यथाजातं भ्रमणत्वभवन संक्षणं जन्माश्रित्य योनिनिष्क जोहरा कोममाया भ्रमण जातो, रचितकरपुस्तु बोम्बा निर्गत एवंभूत एवं ग्रन्ते । तदव्यतिरेकादू वा यथाजातम् । कृतिकर्मणि, न० स० १२ सम० ।
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-
जहाजे यथाज्येष्ठप्रय ज्येष्ठस्यानतिक्रममनु जढाणामय - यथानामक-पुं० । अनिर्दिष्टनामके, कस्मिँश्चित् जी० ३ प्रति० । “जहानामको कोइ मिला " । यथानामकः कश्चित् लेष्ठः । म० म० प्र० । " से अहाणामए केर पुरिसं" स यथानामको यरप्रकारनामा देवदत्तादिनामेत्यर्थः । अथवा(से) इति सा यथेतितार्थः नामेति संभावनायाम् 'ए' इति वाक्यालङ्कारे । सं० । अनु०जी० | झा० । स्था० । जहानव- यथातथ्य-अन्य पचासायमित्यर्थे "जात तिमि यथासत्यं यथातथ्यमित्यर्थे माया० १२०४०२४० "अंजु धम्मं जातं" । यथातथ्यं यथाव्यवस्थितम् । सूत्र०१ ० १ ० "तं मे पबक्लामि जहातच्येणं" यथातथ्येनावितथं प्रतिपादयामीति । सू० १ ५० ५ ० १ ० । यथातथंबन यथाभ्यवस्थितं तथैव कथयामीति । सूत्र० १०५ ०२४० । जहातह - यथातथ - अव्य०। तथाऽनतिक्रम्य श्रमतिवृती - यी बाधा वस्य वस्तुनो बहुमुचितं तथारूपमा
थामयाब
अहानूय
याथातथ्य सूत्रकृतस्य योद्ध धिमार्गसमचरणाक्येषु यथा
या विपरीतं तिथं तदपि लेशतोऽत्र, प्रतिपादयिष्यत इति । नामनिष्पत्रे तु निक्केपे याथातथ्यमिति नाम । ( सूत्र ) अस्याध्ययनस्य याथातथ्यमिति नाम । सुत्र० १ ० १३० । किंतु जात" बाधायेन जानासि सम्यगवगच्छसीति । ०६०। महातझपण - यायातथ्याध्ययन-म० | सुत्रकृताङ्गस्य प्रयो (०)
1
स्वार्थाधिकारी बचा
जहसु वह भत्यो चरणं चारो वह चिनाय । संमि य पसंसार, अससीपमयं दुगुडाए || २६ ॥ "जद सं" इत्यादि । यथा येन प्रकारेण यथाप व्यवस्थितं तथा तेनैव प्रकारेणाथ व्याक्येयोऽनुष्ठयथ । एतद्दर्शयति-चरणमाचरण मनुष्ठातम्यम् । यदि बासका सूत्रस्य चारित्रमेवाचरणमतो यथा सूत्रं तथा चारित्रमेतदेव चानुपाथातथ्यमिति तयमपूर्वाभावाचे गाथापश्चान दर्शयितुमाह-यस्तुजातं प्रकृतं प्रस्तुतं यथा
मधिकृत्य सूत्रमकारि तस्मिन्नर्थे सति विद्यमाने यथावद् व्यायायमाने संसारासारणकारावेन महस्यमा वामाचा तयमिति भवति, विवक्षिते त्वर्थे सत्यविद्यमाने संसारकारनवगुप्सायां सत्यां सम्यगनुहीयमाने बापाचा म भवति । इदमुकं प्रयति-यदि यथा येनप्रकारेस्थितम् । तथैवार्थो यदि भवति व्याख्यायते ऽनुष्ठीयते च संसारमिस्तरणसमर्थय भवति ततो वाघातयमिति भ
सति व क्रियमाणे संसारकारणत्वेन जुगुप्सिते वा भवति । माध्यमिति वाचावात्पर्यार्थः १५० १३० जढ़ापत्रह करण - यथामवृत्तकरण - म० । करणभेदे, भाषा १
० है ० १ ३० ।
जहानूप- पथाचूत - त्रि० यथावृते, "जहानुपमतिसमंद ं" । यथाहूतं यथावृत्तम। ०१ ० १ ० मि० ० ।
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जहामालिय
जा
जापानिय - यथामानित - अध्य० । यथाधारितमित्यर्थे, “जहा जहिच्छिय-यथेप्सित-अव्य० । ईप्सितस्यानतिक्रमे, अध्ययी |
मालियं प्रोमो दल" यथामानि यचाधारितं चापरि 1 हितमित्यर्थः । ज० ११ ० ११३० । महारिह- यथाई- भव्य अढी योग्यतामनतिक्रम्य, अव्ययी० । यथायोग्ये ततः। "अर्थ आदिन्यो"||२२/१२७॥ सत्यते नहिच्छिकामकामिन्यथेप्सितकामकामिन् पुं० [पयेप्सि
स्वान्ये "आदिभ्योऽ॥ ५२ १२७ ॥ धामी मि० यथेष्टमप्यत्र । बाब० । “साहेर जदिकियं कज्ज" साध यति वखितं कार्यम्पा १०
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पदार्थों, जि० वा० । “ जहारिहं होर कायस्वं " पडला० १७ furo | यथा यथायोभ्यम् । दश० ७ प्र० । पं० सं० । यथाहै यथोचितम् । ज्ञा०१०१ प्र० । “जहारिहं जस्लं जं जुग्गं" यथायोग्यम् । आव ० ३ ० ।
(ture) अभिधानराजेन्द्रः ।
-
मा-देशी-विदग्धरचितायां गायायाम, दे० ना० ३ वर्ग
महारूब - यथारूप-अव्य०। रूपानंतिक्रमे, " यथा नेत्रं तथा शीखं, यथा मासा तथाऽऽर्जबम । यथा रूपं तथा बिधं यथा शीलं तथा गुणाः ॥ १ ॥ " अष० ४ म० । महाल-महाल- पुं० [देशभेदे कप० कृण । जहालाह-यथासाज- अव्य० । यथासंपत्तीत्यर्थे पञ्चा०४० महामंदीगण पथांसन्दिगण पुं० [सदका पक्षको गण परं तेषां पालना कियत् परिहारविनिमया दशमास्तकाप्रमाणं योगाधिक देति प्रखे उतरम्-यथा-जदृडिस युधिष्ठिर-अट्टिा ०१। दिकानां कालमा तु परिहारविशुद्धिसाध्यतिदेशवाक्यं जपयोक्त-५०येन प्रकारे, "परक्रमसी जमातपञ्चकपदायुपलभ्यमानत्वेनाष्टादश मासाः संभाव्यन्त " यथा उकं यथोक्तमिति । नि० ० १ ० इति । ४२ प्र० । सेन० २ उल्ला० । जहाबाइ ( ण् )-यथाबादिन - पुं० । येन प्रकारेण वादिनि, स्था०) को महाबाई सहाकारी बाऽपि भवर " सामान्यतो नो यथा वादी तथा कारी । स्था० ७ ठा० । महाविजय यथाधिभय-अध्यविभवानुरूपमित्यर्थे
' पाद ।
जहतकारिन्- यथेोक्तकारिन् - पुं० । यथोक्तं क्रियाकलापं कर्तु
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शीलमस्यति यथोक्तकारी । भाष० ३ अ० । भगवदाज्ञाराधके, बृ० १ उ० । मनुचरपद्येोचरप्रम्य० उत्तरस्थानतिक्रमे, सू० १ ० ३
"हतो
-
1
अ० ३ उ० ।
I
म जहाविभवं । " विभवारूपमित्यर्थः । पं० ० १ द्वार 'दा यथाचिन दाम्यं सर्वसाम्यः पचाचित्र विधानुसारेणेत्यर्थः । बो० ९ विष० । महाविहि-यथाविधि-प्रय सम्यमित्यर्थे पं० ० ४ द्वार जहासंख - यथासङ्ख्य-श्रव्य० संख्यानतिक्रमे, "यथासंक्यमनुदेशः समानाम्” ॥१॥३.१०॥ इति (पाणि०) म्यायात् । अ०म०प्र० महासचि यथाशक्ति अन्य शकेानुरूप्य मानुरुध्येय २०रारानुच्ये शक्त्यनुसारे]] [बाच "सेसा हाता इति सट्टा " यथाशकि पम् । आव ०५ प्र० । सामर्थ्यानतिक्रमेणेति । पञ्चा० ६ बिबol 'दाणमह जहासती " यथाशक्ति शक्तेरनतिक्रमेण वित्तबिसानुरूपमित्यर्थः पा० ३ विव०" सेगा जहासचि" यथाशकि त्यतिगृहनेन पञ्चा० ११ विष० । महासमाहि-पथासमाधिभय समाधानानतिक्रमे पञ्चा० । १ वि० ।
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1
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महापथात य० भुतानतिक्रमे " अहदस्वामि यथाश्रुतं यथासूत्रं वा वदिष्यामि । ०१० २०१० । यथासूत्र अध्य० सूत्रानतिक आचा० १०० १४० महि-यत्र - अव्य०। " त्रपो दि-ह-स्थाः " ॥ ६ | २ | १६१ ॥ इतिप्राकृतसूत्रेण प्रत्ययस्य एते मादेशाः । अस्थि ० पाद । यस्मिन्नित्यर्थे, बाच० ।
सामू मनोवाडितान् कामान शब्दादीन् कामयन्त इत्येवंशीला यथेप्सित काम कामिनः । जी० ३ प्रति०। मनोवातिकामभोजिनि, “जहिष्टिय कामकामिणो " यथेप्सितान् कामान् शब्दादीन् कामयन्ते भर्थात् भुज्जन्ते इत्येवं शीला ये दे तथेति । जं० २ ष० ।
जहिहिल-युधिष्ठिर पुं० । युधि युद्धे स्थिरः " गवियुधिभ्यां स्थिरः ||८|| ९५|| इति (पाणि०) पश्वम् । " उतो मुकुलादि०११०७॥ इतिप्राकृतातोऽत्यम् प्रा०] [१] [पाद पाडवाच ।
महोदय-पचोदित-२० येन प्रकारेण प्रतिपादिते, बचना बिरुद्धाद्यनुष्ठानं यथोदितम् । यथा येनप्रकारेण कालाधाराधमानुसाररूपेोदितं प्रतिपादितम् यथोदितम।०३। जहोबद्दष्ठ - यथोपदिष्ट- अव्य० । यथोक्तमित्यर्थे, "जदोषश्टुं अनि
समाज"। योपदिषं वयोमे ००२४० महोबएसकारि (न्) - यथोपदेश कारिन पुं०] उपदेश
यादेशः तस्यानतिक्रमेण कारिणि माचा०१ ० ० जा-ना-१०। जायायाम, जनन्याम्, शय्यायाम, पका० । देवबादिम्याम, योनी, समुदायाम एका
यावत्-मंत्र | परिमाणमस्य । "यावन्तावज्जीवितावर्तमानाबटप्राचारकमेचे १०:११२७१ ॥ सूत्रेण कारव्य बाहुक । प्रा० १ पाद । यत्परिमाणे, यावति, साकस्ये, व्याप्तौ, सीमायां च । अव्य० । वाच० " एवं जा छुम्मासा " । 'जा इति यावत्षण्मासामिति । पञ्चा० १० बिब० ।
1
ज्या स्त्री० । जरायां, कपाo | पर० अक अनिट् । जिनाति अभ्यासीद भए । चतुपे, गुण, मौम्यम् मातरि चूमी,
था। बाय० ।
1
यागी, महादिपर० स० अनिद याति वासीत्। वाच० । अनुसूयायाम्, शोभायाम, लक्ष्म्याम, निर्मिती, स्त्री० । पका० । रामायास्, मातरि, पाश्याम, युक्तौ, यात्रायाम, एका००
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(१४३७) जाइ प्रनिधानराजन्द्रः।
जाइ भाइ-जाति-स्त्री० । जनवं जातिः। बस.३०ापाचा जन- मतेर्वचनस्य - सर्वत्र पम्यगुणकर्मखम्योऽयमतिविसक-- तिन् । जन्ममि, "जाजरामरणपंधणविप्पमुका" प्रका० २
वपि प्रविशेषण प्रवृतः । इदमुकं भवति-परि सत्तासामापर लामाचा भाव । सत्रस्था1"जाब मरणं
न्यं व्यादियोऽभिस्यात् तदा म्यादिवत्तस्यापि भिन्नत्या. व जणोपवावं।" जातिमुस्पति नारकतिर्यमनुष्यामरज
सतःसर्वत्र सविस्यनिमा बुरि स्यात्नाति निनादनिमबुद्धिमलकणां च । सूत्र. १४० १५० । जातिर्वारकादिषु
प्रसवो युज्यते,घटस्तम्नादिभ्योऽपि तत्प्रसाद तस्माद प्रिो. प्रसूतिरिनि । विशेजायन्ते जन्तयोऽस्यामिति जातिः। उत्त.
वभिनबुलम्यानुपपसेकंम्पादिभ्योऽर्थान्तरमेव सामाम्ब३मा अनुगतैकाकारबुषिजननसमये अवयवयाये सादु.
मिति २१ए.॥
गोवादिसामान्य ताई कथंभूतम् इत्याहपदेशगम्ये व धर्मदे, यथा गोस्वमनुष्यत्वादि ब्राह्मणवणूक स्वादिष। वाच.। पकेम्ब्यिादीमामेकेम्ब्यित्वादिष्पसमा
गोत्तादम्रो गवाइसु, नियया धाराविसिबुधीभो। मपरिणतिलक्षणमंकम्ब्यिादिशमव्यपदेशनाक यसामान्य सा
परमो य निवित्तीपो, सामनविसेसनामाणो ॥२११॥ जातिः। उक्तंच-अव्यभिचारिणा सारश्येनकीकतोऽधारमा जा- गोत्वगजत्यादयस्तु गोगजायाश्रयवृत्तयः सामान्यविशेषनासिरिति । कर्मकर्मप्रकाश0सं0"जाइकुलवलक्षणं" मानो मन्तव्याः। कुतः ? इत्याह-निजकाधारेषु गोगजादिcar) जातिः पुरुषावादिति । सम्म कायम जातिरेकेन्द्रि- ध्वनुवृत्तिबुद्धितः-अनुगताकारबुम्हेितुत्वात्सामान्यनामामः, वादिः । स्था० ६ ० ।माचा । एकेम्कियद्वीनियस्वादिका
परतस्तु तुरगमदिषादेनिवृत्तिता निवर्तनाविशेषनामानः। तेऽपि जातिरिति । भाचा०१०४०२३.।जातिगुणवम्मातृक- व गोस्वादयो भिवभिनयुखिहेतुत्वात् साभयाद्भिमा एमात्वमाला०४ठा० २००। मातृसमुन्धा जातिरितिासूत्र०६४०
स्य मतेन मन्तम्या इति । तदेवं निरूपितं सामान्यम ॥ २१६१ ॥ १३०। उत्त०। पं०। कम्पका मौकामाचाo18 जाति
अथ विशेषस्वरूपनिरूपणार्थमाहतिकी पित्रादिका वा । प्रव०१६५ बार। जातिर्मातृपक्काप्राह्मा- तुझागइगुणकिरिए-गदेसतीयागए दबम्मि । णादिका वा । तं । जातयः कत्रियाचाः इति। उत्त०३०। प्रमत्तबुधिकारण-मंतबिसेसो त्ति से पुकी ॥२१६२।। सत्ता साममंपिय, साममविसेसया बिसेसोय (२४६३) प्राकृतिश्च गुणाच क्रियामाकृतिगुणक्रियाः, तुल्या भाकसामान्य त्रिविधम । तद्यथा-सत्ता १. सामान्यं १, सामान्य तिगुणक्रिया यस्य तत् तुस्याकृतिगुणक्रियम, अतीतमतिकान्तविशेष इति । तत्र द्रव्यगुणकर्मसकणेषु त्रिषु पदार्येषु सकि- मपगतम. भागतं तु प्रतीतम, अतीतं च तदागतं च अतीताहेतुः सत्ता सामान्य कम्यत्वगुणत्वादि । सामान्यविशेषस्तु गतम, एकदेशादतीतागतमेकदेशातीतागतम, तुल्याकृतिगुणपृथ्वीस्वजलस्वकृष्णस्वनीमत्वाचवान्तरसामान्यरूप इत्यादि ३| क्रियं च तदेकदेशातीतागतं च तथा तस्मिस्तुल्याकृतिगुअन्ये स्वित्थं सामान्यस्य वैविध्यमुपवर्णयन्ति-मविकल्पं महा- कियैकदेशातीतागते परमाणुद्रव्ये भयमस्मादन्यः परमाणुसामान्यम । त्रिपदार्थसहितुभूता सत्तारासामान्यविशेषो रित्येवंभूतायाः योगिनामन्यत्वबुद्धर्यः कारणं हेतुर्भवति सांड द्रव्यत्वादि महासामान्यसत्तयोर्विशेषणव्यत्यय इत्यन्ये । - त्यो विशेष इति । (से)तस्य नैगमस्य बुद्धिरभिप्रायः । इदव्यगुणकर्मपदार्थत्रयसदुकिहेतुः सामान्यम् । अधिकम्पा सके. मुक्तं भवति-परिमएकलसंस्थानाः सर्वपि परमाणव इति वैशत्यर्थः । सामान्य विशेषस्तु-व्यत्वादिरूप एवं त्यसं प्रसन पिकाःततस्तेषु तुल्याकृतिप्यपि संवेषु परमाणुषु भिन्नाः, ए. इति । विशेषश्चान्त्यः । विशे०।
तेन त्वनिमा इत्येव येयं परस्परमन्यत्वप्राहिका योगिनां बुद्धिसामान्य विशेषाँश्चायमन्युपगच्छति, अतः कथंभूतस्ता- सरपचते तबेतुभूतः परमाणुषव्यवर्ती भन्स्यो विशेष उच्यते । निच्छति । इत्याह
यथाजूता हि प्रथमेऽणी विशेषा न तथाभृता एवं द्वितीये, यसामनमनदेव दिन सामनबुष्पिवयवाणं ।
थाभूताश्च द्वितीयेन तथाभूता एव प्रथमे,अन्यथैकरवप्रसङ्गात तस्स विसेसो भयो, विसेसमड़वयणहेउ ति॥१७॥
इतीह भावार्थः । तथा-पार्थिवा प्रणवः सर्वेऽपि परस्परं तु. सामान्य विशेषेज्योऽन्यदेव देतुम तत्सदिति सामान्यबु
त्यगुणाः। तथा-भणुमनसोराचं कारष्टकारितम, यथा भने.
कर्षज्यसनम्,बायोस्तियम्गमन मिति । सर्वेऽध्यणपस्तुल्यक्रिया, के सामाम्यवचनस्य च तस्मादपि सामान्यादन्योऽनिल पव
तथा-एकस्मादाकाशदेशादाकाशप्रदेशाट यदैवैकः परमाणु: नित्यद्रव्यवर्ती मन्स्यो विशेषः । स हेतुर्विशेषो विशेष
स्थितिकयादत्येति । भन्यत्र गच्छति-तदेव यदाऽन्यः परमाणुइति मतेर्षचनस्य च । प्रयोगो-भित्री परस्परं सामान्याधि
स्तस्थित्युद्भवात्तत्रैवाकाशप्रदेशे समागत्य तिष्ठति, तदा एकशेची, निनकार्यवात, घटपटादिवदिति ॥२१ ॥
देशातीताऽऽगतत्वम् । अत एवं वैशेषिकप्रक्रियया तुल्याकृतिषु, केवलं सामान्यविशेषौ नैगमः परस्पर भित्री मन्यते, किं
तुल्यगुणेषु, तुल्यक्रियेषु, एकप्रदेशनिर्गतागतेषु च, परमाणुद्रतु स्वाभ्रयादपि गोपरमाएवादेस्तयोअंदमेवायमिन्कृतीति - व्येषु यदन्यत्वबुः कारणं सोऽन्त्यो विशेष इति (से) तस्य संयचाह
नैगमस्य बुभिः । स चाकृत्यादिना तुल्येवतुल्यबुखिहेतुत्वादणुसदिनि नणिए जिमनाइदम्बादत्यंतरं ति साम । ज्या जिन एवेति ॥१२॥ अविसेसनो मईए सम्बत्थाप्पवित्तीए ॥१६॥
पषं सामान्यविशेषषु प्ररूपितेषु परः प्रारसविति यतो "द्रव्यगुणकर्मसु सा सत्ता" इति पचनात्। सत्ता
नणु दन्बपन्जवडिय-नवावलं वित्ति नेगमो चेव । समवायादव परस्परविलक्षणेषु व्यगुणकमेसु सदिस्यकाकारा मम्मदिडी साह,न कीसमिकृत्तमोऽयं ॥१३॥ बुकिः प्रवर्तते, मतः सदिति नणिते म्याविन्योऽधान्तर- माह-नम्वेवं सति यत्सामान्य तान्यमा विशेषास्तु पर्यायाः,सतो मेष सामाम्यं मन्यते नेगमः । कुतः त्याह-सदित्यधिशेषित- कायपर्यायास्तिकनययमतावलम्बिरवात् सम्पपष्टिरेबाय नै
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(१४३८) जा अभिधानराजेन्द्रः।
जाइ गमनयः, जैनसाधुवत् । न हिजैनसाधयोऽपि जन्यपर्यायोभय.
असओ न खपुप्फस्स, सओ व किं सत्तया कन्जं१।२१६८ कपाद् वस्तुनोऽन्यत् किञ्चिदिच्छन्ति । तरिकमित्यसौ मिथ्या
यसत्तायोगावस्तुनः सत्वमिप्यते तत्स्वरूपेण कि सतोस्वभेदः' इति ॥ २१६३ ॥
सतो वा नवेत् ? इति वक्तव्यमा न तावदसतः सपुष्पस्येष भनोत्तरमार
सस्वं युज्यते । यदि तु स्वरूपेणैव सस्तु, तहि सत्तया कि मं सामनविसेसे, परोप्परं वत्युभो य सो भिने।
कार्यम?,तामन्तरेणापि स्वरूपणैव वस्तुनःसत्वादिति ॥२१॥ मन्न प्रचंतमम्रो,मिच्छादिही कणादो म्ब ।।२१ए॥
मपि चदोहिं विनएहि नायं, सत्यमुसूएण तह वि मित्तं।
पइवयुं सामन्न, जइ तोऽणेगं न यावि सामनं । अंसविसयपहाण-तणेण अमोननिरवेक्खा ॥१६॥
अह दवेमु तदेगं, तहवि सदेमं न सामन्नं ॥ १४ ॥ बद स्मात सामान्यविशेषी नैगमनयः परस्परमावन्तग्निची बदि तत्सामा प्रतिवस्तु वर्तते तहि नैकम, प्रतिवस्तुमम्बते, वस्तुनोऽप्याधारभूतात् कम्पगुणकर्मपरमाणुरुपादत्व.
तिवाद, प्रतिषस्तुस्वास्मवत् । यदि बा-न तत्सामान्य प्र. मतानिनो सताविपति,जनसाधवस्तु परस्परं स्वाधाराष्चक
तिषस्तुवृत्तित्वात, प्रतिवस्तुम्बात्मवत । अथ बहुषु काव्येषु खु. चिदेवतौ भिजाषिचन्ति,मतो मिथ्वारष्टिरेषा,कपाददि
तमपि तदेकं तथाऽपि सदेशं प्राप्नोति, प्रदेशस्व परमाणोति॥ २१६४॥ तथाहि-द्वाभ्यामपि द्रव्यपर्यावास्तिकनयाभ्यां
रिप बहुषु वृत्तियोगात । सदेशस्येच सति न सामान्यं, दे सर्वमपि निशानीतं समर्थितमुलूकेन तथाऽपि तन्मिय्या
हाभेदे देशिनोऽपि तदन्यतिरिक्तस्य भेदादिति ॥ २१९९।। स्वमेव परमारस्वखविषप्राधान्यान्युपगमेनोलूकाऽभिमती अथ प्रतिवस्तु वर्तमानमपि तदेकमिभ्यते तथापि दोष सम्बपर्वावास्तिकनयावन्योऽन्यनिरपेक्षा जैनाभ्युपगती पुनस्ती
इति दर्शयन्साहपरस्परसापेकी, स्थाबलानितत्वादिति ॥२११५ ॥
प्रा पावत्युमिहेगं, च तह वितं नत्थि स्वरविसाणं । अथ सिद्धान्तवादी स्थितपकदर्शनार्थमेकाम्तवादिनं गर्म दूषयितुमाह
नयतवलक्खणं तं, सन्धगयत्तश्रो खं व ॥१२००॥ मइ सामर्ष साम-म बुकिदेति तो विसेसो वि ।
प्रय प्रतिषस्तु तसे तत, एकं चप्यते, तथापि तत्रास्ति,
अनुपमभ्यमानत्वात, बरविषाणवताच तस्य स्वाभयभूतस्व सामनयनसाम-भकिन सि को नेश्रो ? ॥१५॥
गवादेरुपलकरणमुपसकं तद् युज्यते, सर्वगतत्वाव, मचादियदि गौःगौः इत्यादिसामान्यबुद्धिवचनोतुरितिकत्या सामा. व्यक्तिन्योऽन्यत्वाच, भाकाशवदिति ॥ २२००॥ बंत्वयेण्यते,इन्त!तहि परमाणुगतोऽन्यो विशेषोऽपि सामान्य प्रामोति, विशेषो विशेष इत्वन्यसामाम्यबुरिषचनहेतुत्वातान विशेषेप्यपि सामान्बमस्ति, कम्यगुणकर्मस्पेवतास्यन्युपग
साममविसेसकर्य, जनाएं तेसु कि निमितं तो। मारामथवा-गोस्वगजस्वादिको विशेषोऽपि सामान्य प्राप्नोति
मह तत्तो चिय तम्हा, तं परहेज ति ऽणेगतो। २०१॥ गावजवादिसामान्बनऽपि सामान्यं प्राप्नोतीय॑धः। सामन्य बदि नागारित्यादि सामान्यज्ञानं वचनं च सामान्यहेनुकं सामान्यमिति विवचनयोस्तत्रापि प्रवचन-सामान्य प्रवर्तते, तथा परमाणुष्वयमस्मादिशि इति विशेषकानं ब. पि सामाम्बमस्ति "निःसामान्यानि सामान्यानि" इति वच. चनं व बदि विशेषकतम, ततस्तेषु गोस्वतुरगत्वादिसामान्येमात् । ततश्चोकयुक्तर्षिशषस्यापि सामान्यत्वात को भेदः छ सर्वत्र सामान्य सामान्यमिति कानं पचनं च तथा तेषु सामान्यविशेषयोःन कधिदित्यर्थः इति ॥२१॥
विशेषषु सर्वत्र विशेषो विशेषः इति विशेषबुशिर्वचनं च कि सामान्यस्वापि च विशेषरूपता प्राप्नोतीति वचार- निमित्तमिति वक्तव्यम् । न च सामान्येष्वपि सामान्यमस्ति, महजे ण विसेसिज्जा, सविसेमो तेण जंपिसामध्यं । नापि विशेषेवम्ये विशेषाः सन्ति, येन तेषु तानिमित्त ते स्यातंपि बिसेसोऽवस्सं, सत्ताविसेसयत्तानो ॥१७॥
ताम अथ तत एव तेभ्य एष गोत्वादिसामान्येच्योऽपरबदि नबस्तुमा बुर्विचनं च विशेष्यतेस विशेष उभ्यते,
सामान्यमन्तरेणापि सामान्यज्ञानबचनेऽभ्युपगम्येते, विशेषज्य तन ततो यदपि परमपरं च सत्ता गोस्वादिकं सामान्यं तदपि
पष चाम्यविशेषनिरपेकेन्यो विशेषकानवचने येते, तस्मात
तहि तत्सामाम्यविशेषकानं वचनं च परहेतुकं सामाम्यविविशेषः प्राप्नोति, कुतः सत्तादीनामपिविशेषकरवात,तथाहिसपासामाम्यमपि गोस्वादियो बुद्धिपचुने विशेषयत्ति, गो
शेषनिमित्तमवेति नायमेकातः, सामान्यविशेषविषयाम्बामेव स्वादयोऽपिच सत्तादिन्यस्त विशेषयत्वेष,प्रयोगः-सामान्य
मामान्यविशेषकानवचनाम्यां व्यभिचारादिति ॥१२०१ ॥ मपि विशेष एव, शिषचनविशेषकत्वात, भन्स्यविशेषवदिति।
अथ सिद्धान्तबादी खितपक्षमुपदर्शवनाहतदेवं विशेषोऽपि सामान्यम, सामाभ्यमपि विशेषः'प्राप्नोती. सम्हा वत्पूर्ण चिय, जो सरिसो पज्जवो ससाममं । स्युक्तम ॥ २१७॥
जो विमरिसो विसेसो, समो ऽणत्यंतरं तत्तो।२२०२। कि-"त्रिपदासाकरीसत्ता" इति वचनात्सत्तासमवाबारसस्वं भवताऽभ्युपगम्यते तच्चायुक्तम् ।
समावस्तूनामेव गवादीनां खुरककुदमाङ्गलविषाणमामा
दिमत्वलकणो यः सरशः पर्यायः स एव सामान्यं,न पुनरेकनिकुतः स्याह
स्यनिरवयबाक्रिय सर्वगतत्वारिधोपेतं पराभ्युपगतम् । यस्त. सचाजोगासनो, सम्रो व सत्तं विज दस्म ।
तेषामेव गवादीनां शावलेषधावलेयत्वादिको विसरशोऽन्योऽ
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जाइ
(१४३) जाइ
प्रनिधानराजेन्द्रः। म्यं विलक्षणः पर्यायः स विशेषः। सच सामान्यरूपो विशेष- इत्युक्ते झगिति पुखौ न प्रतिभासते । ततस्तस्मात्सतपश्च पर्यायस्ततो पातुनोऽनन्तरमभिन्ना,कथति परक- मात्रमेव सत्तामात्रमेव, तदर्थान्तरं किशिस्ति पतिपतादिभिर्जिनोऽपि न स्वेकान्तेनाभिन्न भिन्नो वेति म्यमि- शेषतया कल्पेत इति ॥ २२०७॥ . ति । तदेवमुक्तो नैगमनयः॥२२०२॥
पत्तामात्रत्वमेव सर्वभावानां प्रावयवाहअथ संग्रहनयं व्याचिश्वासुराह
कुंभो भावाणन्नो, अ तो नायो प्रहमहानायो । संगहणं संगिएइ, संगिळते व तेण जे जेया।
एवं पकादमो विजावाणन्नति तम्म ॥१५०८॥ तो संगहोत्ति संगहि-यपिमियत्थं वम्रोजस्स||२२०३२॥
कुम्भो घटःस भावात सत्तातोऽन्यामनन्यो वायम्बोs. संग्रहणं सामान्यरूपतया सर्ववस्तूनामाक्रोमनं संग्रहः ।.
निया, तहिं प्रायः सत्तामात्रमेवाऽसौ(महासि) प्रथाथवा-सामान्यरूपतया सर्व संगृहातीति संग्रहः । अथवा
व्यथा-भावाशिमोऽन्युपगम्यत इत्यर्थः, तभावोऽसवासी, बयस्मात्सर्वेऽपि भेदाः सामान्यरूपतया संगृह्यन्तेऽनेनेति सं
भावादन्यत्वातबारबिचाणपदितिाप पटादयोऽपि प्रत्येकवा. प्रहः। संग्रहीतं च तत्पिएिमतं च संग्रहीतपिपिरतं, तदेवायोंs
व्याग ततस्तेऽपि द्वितीयपके सम्बप्रसंगादत्रावादनन्येऽभ्युपगमिधे बत्व तत्संग्रहीतपिरिमतार्थम् । एवंभूतं वचो बचनं|
तम्बाति सर्वमेव घटपटादिकं वस्तु तम्मा सचामात्रमेबस संग्रहस्मेति ॥ २२०३ ॥
बेति ॥ १३०८॥ तत्र संग्रहीतपिण्डिताथै, किमुच्यते वाह
अर्थवा-मबमेवायोंश्ययाऽभिधीयते । कथम त्याहसंगड़ियमागहीयं, संघिमियमेगजाइमाणीयं ।
मम्मत्तमिह बिसेसो,सामन्नं पिवपमेयनावाभो।। संगहियमागमो वा, वरेगो पिक्षियं भणियं ॥२०॥
सब्यस्थ सम्मईयो, बनिचारानावनो या वि॥२२०६॥ महब महासामचं, संगहियं पिंडियत्थमियरंति।
तन्मात्रमिह विशेषा ति प्रतिका, प्रमेवरवाद, सामान्यत । सम्बबिसेसाण, सामनं सब्बहा भणियं ।। २३०५॥ अथवा अन्यो हेतुः-सर्वत्र सन्मयभिचाराभावात सर्वत्र सामान्याऽभिमुखनासग्रहणमागृहातुं संग्रहीतमुच्यते,पिपिरतं |
सम्मतिप्रवरित्यर्थः। इति ॥ २२०९ ॥ स्पेकजातिमानीतमनिधीयते,तदेवततं वस्तु भयोऽभिधेयं यस्य
| মাদাগাবি বিঘা মাথাतत्संगृहीतपिएिकताथै वचनं संग्रहनयस्येति स्वयमेव परम्य
सावितुमाहम् । अथवा-संगृहीतमनुगमोऽभिधीयते, सर्वम्यक्तियनुगतस्य चूओ वणस्सइ चिय, मनाइगुणो ति तस्समूहोम। सामाग्यस्थ प्रतिपादनमित्यर्थः। बतिरेकस्त पिपिमतमुण्यते। विशेषप्रतिपादकपरमतनिराकरणमित्यर्थः सतश्च संगृहीतपि.
गुम्मादमी वि एवं, सम्बे णवणस्सइबिसिहा॥१०॥ पितार्थमनुगमयतिरेकार्थे संप्रवचनमिति रश्यम ॥२२०४॥
चूतो वनस्पतिः सामान्यरूप एव. मूसाविगुणस्वाद, तवसअथवा-सत्ता महासामान्य संगृहीतमुच्यते, इतर गोस्वा
म्हषत्-सूतादिवृक्षसम्वत् । गुल्मो सातासमूह, तदादयोऽपि दिकमबान्तरसामान्य पिएिमतार्थमभिधीयते । ततः संगृही.
सकषिशेषा बनस्पतेरविषिशिवा पचति सामान्यमेषातपिगिरतार्थ परापरसामान्याथै संग्रहषः। किंबहुनाकेन ।
स्ति, नविशेषा इति ॥ २२१०॥ . . सबै विशेषा अनन्या मंत्रिया यस्य तत्सर्वविशेषानन्यमामतः कोमीकतसर्वविशेष सामान्यदेव सर्वैः प्रकारः संग्रहवचम सामन्नाड बिसेसो, उन्नोऽन्नोव नस्थि भन्नो। स्थानियतया भणितमिति ।। २२०५॥
निस्सामन्नत्तामो, गन्नो सामन्नमेचं सो ॥११॥ कथं जूतं पुनः सामान्य संग्रहो मन्यते ।विशेषास्तु कुतो
सामान्याधिशेषोऽन्यः, अनम्यो वायचयः, तहि नास्त्थसौ, उसी मान्युपगच्छति इति दर्शनार्थमाह
सामाग्यवहितस्वात.सरविषाणषद। मथ मनन्यातहिंसामा. एकं नि निरवयव-मकिय सम्बगं च सामन्नं।
म्बमात्रमेवासौ, तत्स्वरूपवदिति । तदेवमुक्का संग्रहः ॥२२११॥ निस्सामन्नत्तानो, नऽस्थि बिसेसो स्वपुप्फ व॥२२०६॥ विशा पकताधिकारसामान्यरूपमेषमान्यतया मभ्युपगच्छपकंसामान्यम,सर्वत्र तस्यैव नावात,विशेषाणां चानावात्तथा
स्ति तेच म्यास्तिकमयानुपातिनो मीमांसकभेदाः अद्वैतवा नि सामाग्यम,अविनाशात तथा-निरवयवम्,मदेशस्वात,मकि
दिनः सांस्याइचाकेबिविशेषरूपमे बाध्यं निर्षचन्तिा तेच ब,देशाम्तरगमनाभावात सर्वगतं च सामान्यम, प्रक्रियत्वा
पर्यायास्तिकनयानुसारिणः सौगताः।भपरे ब-परस्परमिर दिति । विशेषास्तुन सन्ति, निःसामान्यत्वात् सामान्यव्यतिरे
पेवपदार्थपृथग्भूतसामान्यविशेषयुकं वस्तु वाध्यत्वेन निधिकिणां तेषामभावात् । ह बत्सामान्यातिरिकं तत्रास्ति, स्था
बते । ते च नैगमनयानुरोधिनः काणादा, अपादाभ । सपुष्पमिति ॥ २२०६॥
पताच पात्रयमपि किशिचर्यते । तथाहि-संग्रहमयावलपतदेव समर्थयति
म्बिनो पादिनः प्रतिपादयन्ति-सामाम्यमेव तस्, ततः पृथसदिति भणियम्मि जम्हा, सब्बत्यागाप्पबत्तए तुकी।
मभूतानां विशेषाणामदर्शनात्। तथा सर्वमेकमविशेषेण सदिति
कानाऽनिधानानुवृत्तिलिनुमितसत्ताकस्वात। तथा द्रव्यस्व. तो सम्म सम्प, नत्थि तदत्यंतरं किंचि ॥२५०७॥ मेष तरततोऽर्थान्तरभूतानां धर्माऽधमाऽऽकाशकासपुमजावयस्मात् सदित्येवंजणिते सर्वत्र शुधनत्रयान्तर्गते बस्तुनि ल्यायामनुपलब्धः। किच-ये सामान्यात् पृथग्भूता भन्योबुद्धिरनुप्रवर्तते प्रधावति। न हि तरिकमपि पस्त्वस्ति । वत्सत् म्यव्यावृवात्मका विशेषाः कल्यन्ते. तेषु विशेषत्वं विधतेन
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(१४४.) प्रनिधानराजेन्द्रः।
जा वा । नो बेनिःस्वन्नावताप्रसंगः, स्वरूपस्यैवाऽभावातास्ति गोस्वादिसवंगतम् । तद्विपरिताच शमशाबले यादयो विशेषाबत्ताह तमेव सामाम्यम । यतः समानामा नायः सामान्यम् । स्ततः कथमेषामैक्यं युक्तम् ! म सामान्यात पृथक् विशे. विशेषरूपतया च सर्वेषां तेषामविशेषण प्रतीतिः सिदैव । अपि पस्योपलम्भ इति चेत कथं तर्हि तस्योपलम्भ इति वाच्यम। च-विशेषाणां व्यावृत्तिप्रत्ययहेतुत्वं लकणम । व्यावृत्तिप्रत्यय सामान्यज्याप्तस्यति चेतन तहिं स विशेषोपसम्भः, सामा. एव च बिचार्यमाणो न घटते । व्यावृत्ति विवक्कितपदार्थे न्यस्यापि तेन ग्रहणात । ततश्च तेन बोधेन विविक्तविशेष इतरपदार्थप्रतिषेधः। विवक्कितपदार्थच स्मस्वरूपव्यवस्थापन- ग्रहणाभावात तहिशेषवाचकध्वनि तत्साध्यं च व्यवहार न मात्रपर्यवसायी कथं पदार्थान्तरप्रतिषेधे प्रगल्भते । प्रवर्तयेत् प्रमाता । न चैतदस्ति ; विशेषाभिधानव्यवदारयोः स्वरूपसत्वादन्यत्तत्र किमपि, येन तनिषेधः प्रवर्तते । तत्र प्रवृत्तिदर्शनात । तस्माद् विशेषमभिनयता तत्र च व्यवहार व्याची क्रियमाणायां स्वात्मव्यतिरिक्ता विश्वत्रयवर्तिनो- प्रवर्तयता तग्राहको बोधो विविक्तोऽभ्युपगन्तव्यः । एवं तीतवर्तमानाऽनागताः पदार्थाः,तस्मादण्यावर्तनीयाः। ते चना- सामान्यस्थान विशषशब्दं विशेषस्थाने च सामान्य शब्दं प्रयुकातस्वरूपा ब्यावर्तयितुं शक्याःतितकस्थापि विशेषस्य प- म्जानेन सामान्य ऽपितग्राहको बोधो विविक्तोऽनीकर्तव्यात. रिकाने प्रमातुः सर्वत्वं स्यात्न चैतमातीतिकं,यौक्तिकं वा। स्मात स्वस्थप्रादिणि माने पृथक् प्रतिभासमानत्वात् वावपीतरे व्यावृत्तिस्तु निषेधः। स चानाबाम्पत्वावः कथं प्रतीतिगोच- तरविशकलितो । ततो न सामान्यविशेषात्मकत्वं वस्तुनो घटते रमशति सपुष्पवत् । तथा येभ्यो लावृतिस्ते सपा मसपा इति स्वतन्त्रसामान्यविशषवादः। तदेतत्पकत्रयमपि न कमत पा असबूपाश्वेत्तर्हिसरविषाणात किन,म्यावृत्तिा सह- कोवं, प्रमाणबाधितत्वात सामान्यविशेषोजयात्मकस्यैव व पाश्चेत्सामान्यमेवा या चेयं व्यावृत्तिर्विशः क्रियतेसा सासु वस्तुनो निर्विगानमनुभूयमानत्वात् । वस्तुनो हि लकणमर्थविशेषव्यक्तिम्वेकाऽनेका चा। अनेका चेत्तस्या भपि विशे- क्रियाकारित्वम् । तचानेकान्तवादे पवाषिकलं कसयन्ति परीपत्वापत्सिरनेकरूपत्वैकजीवितत्वाद्विशेषाणाम । ततश्च तस्या ककाः। तथाहि-यथा गीरित्युक्त खुरककुदसास्नालालअपि विशेषत्वान्यथानुपपावृत्त्या भाव्यम् । व्यावृत्तेरपिच विषाणाचषयवसंपनं वस्तु स्वरूपं सर्वव्यक्त्यनुयायि प्र. व्यावृत्तौ विशेषाणामभाव एव स्यात; तत्स्वरूपजूताया व्या- तीयते तथा महिण्यादिब्यावृत्तिरपि प्रतीयते । यत्रापि च वृत्तेः प्रतिषिद्धत्वात, अनवखापाताच । एका चेत्सामान्यमेव शबमा गौरित्युध्यते तत्रापि यथा विशेषप्रतिनासस्तथा संक्रान्तरेण प्रतिपचं स्यादनुवृत्तिप्रत्ययलकणाव्यभिचारात् । गोत्वप्रतिभासोऽपि स्फुट एव । शबलेति केवल विशेषणोच्चाकि चाऽमी विशेषाः सामान्याद् निनाः अनिमा धा। भिका- रणेऽपि अर्थात,प्रकरणात वा गोस्वमनुवर्तते । अपि च शबन्नश्रेत् महकजटाभारानुकाराः।अभिनाश्वेत्तदेव तत्स्वरूप- | स्वमपि नानारूप, तथा दर्शनात् । ततो वका बलेत्युक्ते कोडीचत । ति सामान्यैकान्तवादः। पर्यायनयान्वयिनस्तु भाषन्ते- कृतंसकमशवलसामान्य विचकितगोव्यक्तिगतमेव शबलस्वं विविक्ताः कणक्षयिणो विशेषा एव परमार्थः,ततो विष्वम्भूतस्य व्यवस्थाप्यते। तदेवमावालगोपालं प्रतीतिसिऽपि वस्तुनःमासामान्यस्याप्रतीयमानत्वात् । न हि गवादिव्यक्तधनुनबकाले मान्यविशेषात्मकत्वे तफुभयैकान्तवादःप्रलापमात्रमान हिकवर्णसंखानात्मकं व्यक्तिरूपमपहायाऽन्यत् किंचिदकमनुयायि चित्कदाचित्केनचित्सामान्य विशेषं विना कृतमनुनूयते। विशेप्रत्यक्ष प्रतिभासते; तारशस्यानुजवाभावात । तथा च पठन्ति- पा बा तद्विना कृताः। केवलं दुर्णयप्रभावितमतिव्यामोहवशाद"पतासु पश्चस्ववभासिनीषु, प्रत्यक्षबांधे स्फुटमलीषु ।। कमपलप्यान्यतरद व्यवस्थापयन्ति बालिशाः सोऽयम्-अन्ध साधारणं रुपमवेकते यः, शुलं शिरभ्यात्मन ति सः॥१॥"
गजन्यायः । येऽपि च तदेकान्तपक्षोपनिपातिनः प्रागुक्ता दोषाएकाकारपरामर्शप्रत्ययस्तु स्वहेतुदत्तशक्तिज्यो व्यक्तिन्य ए. स्तेऽपि अनेकान्तवादप्रचएममुरादारजर्जरितत्वात्रोच्चासयोत्पते । इति न तेन सामान्यसाधनं न्याय्यम् किच-यदिवं तुमपि तमाः स्वतन्त्रसामान्यविशेषवादिनस्वेवं प्रतिकेप्या:मामान्य परिकल्प्यते, तदेकमनकं वा एकमपि सर्वगतमस- सामान्य प्रतिव्यक्ति कश्चिदभिन्नं,कथंचित्तदात्मकत्वाहिसरचंगतं वा सर्वगतं चत् किन व्यक्तधन्तराले पलन्यतेस
शरिणामवत् । यथैव हि काचिद् व्यक्तिरूपसभ्यमाना व्यक्त्यधंगतैकत्वान्युपगमे च तस्य यथा गोत्वसामान्यं गोव्यक्ती न्तराद्विशिष्टा विशरशपरिणामदर्शनादवतिष्ठते तथा सरशपकोहीकरोति । एवं किन घटपटादिव्यक्तीरपि; अविशषात। रिणामात्मकसामान्यदर्शनात समानेति, तेन समानो गौरयं मसर्वगतं चेत् विशेषम्पापत्तिरभ्युपगमबाधश्च । अथाऽनेक मोऽनेन समानः इति प्रतीतेन चास्य व्यक्तिस्वरूपाद निचत्वा गोस्वाश्वस्वघटत्वपटत्वादिभेद भित्वाचे तर्हि विशेषा एवं| व सामान्यरूपताव्याघातः। यतो रूपादीनामपि व्यक्तिस्वरूपास्वीकृताः, अन्योऽन्यं व्यावृत्ति हेतुत्वातान हि यात्वं त- दभिन्नत्वमस्ति, न च तेषां गुणरूपताव्याघातः । कथंचिद बश्वत्वात्मकमिति । प्रक्रियाकारित्वं न वस्तुनो लक्षणम ध्यतिरेकस्तु रूपादीनामिन सस्शपरिणामस्याप्यस्त्येव । पृथक तब विशेषेण्यव स्फुटं प्रतीयत । न हि सामान्येन काचि- व्यपदेशादिजाक्त्वात । विशेषा मपि नैकान्तेन सामान्यात 'पक्रिया क्रियते, तस्य निधियत्वात्, वाहदोहादिकास्वर्थ- पृथग्नवितुमर्हन्ति । यतो यदि सामान्यं सर्वगतं सिकं भवक्रियासु विशेषाणामेवोपयोगात । तथदं सामान्यं विशवज्यो सदा तेषामसर्वगतत्वेन ततो विरुद्धधर्माभ्यासः स्यात् । न च जिनमभित्रं वा भिन्नं चेदवस्तु, विशेषविश्लेषणार्थक्रियाका- तस्य तरिसम्म, प्रागुक्तयुक्त्या निराकृतत्वात, सामान्यस्य रित्वाऽभावात् । अनि चेत् विशेषा एष ततस्वरूपवत् । विशेषाणां कथंचित्परस्पराव्यतिरेकेणकानेकरूपतया व्यवइति विशेषकान्तवादः । नैगमनयानुगामिनस्वाहु-स्वतन्त्री
स्थितत्वात । विशषेच्या व्यतिरिक्तवाकि सामान्यमप्यने कमि सामान्यविशवा, तथैव प्रमाणन प्रतीतत्वात । तथाहि-सामा- प्यते । सामान्यातु विशेषाणामव्यतिरेकेण तेषामन्येकरून्यधिशपावत्यन्तनित्री, विरुरुधर्माध्यासितवात । यावेवं ता- पता इति । एकत्वं च सामान्यस्य संग्रहनयाशात सर्वत्र बेवं यथा पायः पावको। तथा चैतौ। तस्मात्तथा । सामान्य दि विझयम,प्रमाणार्पणात्तस्य सरशपरिणामरूपस्य विसरशपरि
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(१४४१) जा अभिधानराजेन्द्रः।
जाई णामवकशित्प्रतिव्यक्तिभेदात । एवं चासि सामान्यषिश- तपसा ब्राह्मणो जातः, तस्माजासिरकाणम् ॥ षयोः सर्वथा विरुधर्माध्यासितत्वम् । कथशिविरुधर्मा. हरिणीगर्भसंभूतो, हैरण्योऽपि महामुनिः । ग्यासितत्वं चेद्विवक्तितं तदास्मकक्काप्रवेशः,कञ्चिविरुद्धधर्मा सपसा ब्राह्मणो जातस्तस्माजातिरकारणम॥" दर्श०२ तस्व। ध्यासस्व कश्चिद्भदाविनानतत्वात् । पाथः पापकरष्टान्तोऽपि क्रियाकर्मविभागेन हि चातुर्वण्र्यव्यवस्था बत उक्तम्साध्वसाधनविकलः, तयोरपि कथंचिदव विरुधर्मावासि
"एकवर्णमिदं सर्व, पूर्वमासीद् युधिष्ठिर!। तत्वेन निमन्वेन च स्वीकरणात् । पयस्वपावकत्वादिनाहित.
क्रियाकर्मविनागन, चातुर्वराई व्यवस्थितम् ॥१॥ बोर्विरुरुधर्माध्यासो नदश्च, ग्यत्वादिना पुनस्तद्विपरीत
ब्राह्मणो ब्रह्मचर्यण, बथा शिल्पेन शिल्पकः । मिति । तथा च-कथं न सामान्यविशेषात्मकत्वं वस्तुनो घटत! इति । स्था० १४ श्लोक। तथा च सूत्रकृताङ्गवृत्तौ-सर्वमपि यद
अन्यथा नाम मात्र स्या-दिन्छगोपककीटबत्।। उत्त०२६मः। स्ति तसामान्यविशेषात्मक नरसिहाकारमुजयस्वभावमिति ।। (सप्तानां वर्णानां नचानां च वर्णान्तराणामुत्पत्तिः 'बंभ' तथा चोक्तम्
शब्द वक्ष्यते)बाकरणोक्ते पौत्राद्यपत्यारमके गोत्रे.घेवशाखा"नान्वयः सह दवा--भेदोऽन्ययवृत्तितः।
भेद च ।न्यायोक्ते साधर्म्यवैधाज्यव्याप्तिनिरपेक्षाज्यां धादि मृद्भरप्यसंसर्ग-वृत्तिजात्यन्तरं घटः॥१॥"
वाक्येषु दृषणवानरूपे वाक्ये, वाच । तथा सम्यग्धेती देवा
भास वा वादिना प्रयुक्ते झटिति तदोषतत्वाप्रतिभाये हेतुप्रति. " नरस्व सिंहस्पत्या-- सिंहो नररूपतः ।
विम्बनप्रायं किमपि प्रत्यवस्थान जातिषणानास इत्यर्थः।सा शम्दरिकानकार्याणां, बेदाज्जात्यन्तरं हि सः॥२॥" बचतुर्विंशतिन्नेदा साधादिप्रत्यवस्थानभेदेन । बथा सा. स्वादि । सूत्र० १५० १२ भ०।
धर्यवैधम्योत्कर्षापकर्षषपयोऽवण्र्याबिकल्पसाभ्यप्राप्यप्राप्ति-- "स्यतरजेदस्तुल्यत्वं, शङ्करोऽथानवस्थितिः।
प्रसङ्गप्रतिरष्टान्तानुत्पत्तिसंशयप्रकरणाऽहेत्वर्धापत्यविशेषोपपरूपहानिरसंबन्धो, जातिवाधकसंग्रहः ॥१॥" इति।
त्युपलभ्यनुपलब्धिनित्यानित्यकार्यसमाः । तत्र साधम्बंण अस्य व्याख्या-आकाशत्वं न जातिः । सक्त्यैक्पात् ।। प्रत्यवस्थानं साधर्म्यसमा जातिभवति । 'मनित्यः शम्मकृतघटत्वकलशत्वे न जाती । व्यक्तितुल्यत्वात् । २ । भूतत्वमूर्तत्वे कत्वाद् घटवदिति प्रयोग कृते साधर्म्यप्रयोगेशव प्रत्यवस्थानन जाती। आकाशे भूतत्वस्यैव मनसि च. मूर्तत्वस्यैव सद्भा- म् । 'नित्यः शब्दो' निरवयवत्वात् प्राकाशवत् : न चास्ति विशे. वेपि पृथिव्यादिचतुष्टये उभयोः सद्भावात् सङ्करप्रसाः ।।जा- पहेतुर्घटसाधम्यांत कृतकत्वात अनित्यः शम्भो, न पुनराकाश. तेरपि जात्यन्तराङ्गीकारे ऽनवस्थाप्रसाः । अत्यन्तविशेषता साधम्याभिरवयवत्वात् नित्य इति । वैधयेण प्रत्यबस्थानं वैध. नजातिः। तदङ्गीकारे तत्स्वरूपव्यावृत्तिदानिः स्यात् ।। सम" म्यममा जातिभवति। प्रनित्यः शमः कृतकत्वाद् घटवदिति । बायता न जातिः संवन्धाऽभावात । ६ । इत्येते जातिबाधकाः । अत्रैव प्रयोगे स एव प्रतिहेतुबैधयेण प्रयुज्यते (घटस्व हि स्था०८लाका कर्मवशादसुमतां विचित्रजातिगमनाजातेरशा- निरचयवित्वं वैध व सावयवत्वाद्वैवम्बम) 'नित्यः शब्दो' तत्वम् । अतो न जातिमदो विधेय इति । बदपि कैश्चिदुखते
निरवयवत्वात् । प्रनित्यं हि साबयब रटं घटादीति न चास्ति बथा ब्राह्मणा ब्रह्मणो मुखाद्विनिर्गलाः,बाहुल्यांकत्रियाः,ऊरुभ्यां विशषहे तुर्घटसाधर्म्यात कृतकत्वादनित्यः शब्दो न पुनस्तदैवैश्याः, पद्भ्यां शुद्राः इति । एतदप्यप्रमाणत्वादतिफल्गुणायं, धात निरवयवत्वान्नित्य इति । उत्कर्षापकर्षाभ्यां प्रत्यवस्थातदभ्युपगम नबशेषो वर्णानां स्यादेकस्मात् प्रस्तेऍनशा- नमुत्कर्षापकर्षसमे जाती भवतः। तत्रैव प्रयोग रान्तधर्म साप्रतिशाखाप्रतपनसोदुम्बरादिफसवद्रह्मणो वा मुबादेरब- कविसाध्वधर्मियापादयन्नुत्कर्षसमां जाति प्रयझे। यदि यवानां चातुर्वपर्यावाप्तिः स्वात् न चैतदिप्यते भवद्भिस्तथा
घटवत् कृतकत्वात् अनित्यः शब्दो घटवदेव मृताऽपि प्रवतु । यदि ब्राह्मणादीनां ब्रह्मणो मुखादेरुद्भवः । सांप्रतं किं न जा. न चेन्मूतों घटवदनित्योऽपि मा भूदितिशम्द धर्मान्तरोत्कर्षमायते । अथ युगादाचेतदित्येचं सति रष्टहानिररएकल्पना स्था पादयति । अपकर्षस्तु घटः कृतकः सन्-अश्रावणो यः। दिति । तथा यदि कैश्विदभ्यधायि सर्वनिक्षेपावसरे तद्यथा- एवं शब्दोऽप्यस्तु । नो चेद् घटवदनित्योऽपि मा भूदिति । सर्वकरहितोऽतीतः कालः कालत्वाद्वर्तमानकालवदेवं च सत्व- शब्द भावणत्वधर्ममपकर्षतीति । इत्येताश्चतस्रो दिमात्रदसदपि शक्यते वक्तं यथा नाऽतीतः कासो प्रझमुखादिविनिर्ग- शनार्थ जातब अक्ताः । एवं शेषा अपि विशतिरकपादशातचातुर्वण्यसमन्वितः । कालत्वाद्वर्तमानकालबद्भवति च वि. खादवसेमाः । स्या०१० श्लोक । दृषणाजासास्तु जातयस्तत्र शेषे यकीकृते सामान्य हेतुरित्यतः प्रतिकार्यैकदेशासिम्ता ना- सम्यक दृरणस्वाऽपि न तत्त्वव्यवस्थितिरनियतत्वात् । अनि शनायेति । जातेचानित्यत्वं युप्मात्सिवान्त पचाऽनिहितम् । यतत्वं च वदेवैकस्मिन् सम्यग् दृषणं तदेवान्यत्र दृषणातपथा-शुगालो वा एप जायते यः स पुरषो दद्यत भासं पुरुषशक्यपेकत्वाच दूषणाभासव्यवस्थितेरनियतत्वइत्यादिना । तथा-" सद्यः पतति मांसेन, नाकबा नव- मिति । कुतः पुनर्दपणाजासम्पाणां जातीनामबास्तवत्वात्तासन च । बहेन शूली नवति, ब्राह्मणः वीरविक्रयी ॥१॥"इ. सामिति । सूत्र०१९०११० । षड्जातिषु, सप्तम स्वरेषु, स्वादि खोके चाचा नाबी जातिपातः। बत उक्तम्-"काधिक असतारनेर, चुल्हयाम, प्रामलक्याम, काम्पिल्ये, छन्दास, कर्मणां बायोति स्थावरतां नरः । वाचिकैः पक्षिमृगतां, जातिफले, मालत्याम, पुष्पप्रधाने वृकभेदे च । वाचवारा० मानसरन्यजातिताम् ॥१॥" इत्यादिगुणरप्येवंविधैर्न ग्राझणत्वं प्रका। कल्पापाचा०। शा० । जातिकुसुमबणे, मद्यभेदे, युज्यते । सत्र०२४०६ अ० । प्राह्मणत्वादिजातिश्च न कस्य "मेडंन मेरगं च जाईच" जातिश्च जातिकुसुमबणे मद्यमेय। चित् कारणम् । स्मृतावप्युक्तम्
विपा० १ ० २ ० । जातिनपुंसकगनेजतिर्यगमनुष्यमध्ये "कैवर्तीगर्नसंभूतो, व्यासो नाम महामुनिः ।
मम्यक्त्वं प्राप्यते न वेति । प्रश्र, उत्तरम्-जातिनपुंसकमध्ये
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46
जाइ
सम्यक्त्वं देशविरतिश्व प्राप्यत इति आवश्यकादावस्तीति । १२९ प्र० । सेन० २ उल्ला० । जाइअंतर-जात्यन्तरन० नरसिंइत्यादिके विजाती नरस्य सिंहरूपत्वा-न सिंहो नररूपतः । शब्द विज्ञान कार्या णां भेदाञ्जात्यन्तरं हि सः ॥ १ ॥ " सुत्र० १ ० १२० । नाइच-जात्यप० जन्मकामादरम्यान विपा
64
'केर पुरिस जाइयंधे जाइअंधारूवे " जातेरारभ्यान्धो जात्मधः। विपा० १ ० १ ० । जाइ आजीवणा नात्याजीवना श्री० जीवनाले पिं० जामाभीनय जात्याजीवक० जाति ब्रह्मणादिकामाजीवति उपजीवति तजातीयमात्मानं सुखादिनपश्यं ततो भकादिकं गृहातीति जात्याजीवकः । श्राजीवकनेदे, स्था० ५ बा० १ ४० । यथा कञ्चन भिल्लमालादिजातयमीश्वरं डा माहाऽहमपि ममालादिजातयः स चेकजातिसंबन्धाद तस्य भिचादानादिकां प्रतिपति करोति । इति जात्युपजीवी ।
(TUR) अभिधानराजेन्ड
प्रब० २ द्वार ।
माइमारियमात्यार्थ पुं० जातिमका पहाता अपापा निर्दोष जात्यार्या विशुरू मातृके ( स्था० ) छव्हिा जाइमारिया मस्सा पद्मत्ता । तं जहा"बडा य कलंदा य, विदेहा वेदिगाइया । हरियाणा चैत्र, उपेया इन्जाइम्रो " ॥ १ ॥ अम्बद्धेत्यादि अनुपतिकृतिः मध्येता इज्यजातय इति । इभमर्हन्तीति इज्याः यद् " द्रव्यस्तूपान्तरित कदमकीदएको हस्ती न दृश्यते ते रम्याः” इति श्रुतिः। तेषां जातव इज्यजातबस्ता पता इति । खा० ६ ० । चारभासी बिस जात्याशं विष ५० भाइयो दंद्राः सासु विषं येषां ते प्राशीविषाः । जातित श्राशीविषा जास्याशीविषाः । बृश्चिकादिके, स्था० ४ ० ४ ० । ('प्रासीविस' शब्दे द्वितीय जागे ४६ पृष्ठे विशेषवतव्यता)
।
नाइकहा- जातिकथा-श्री० । विकथाप्रेदे, नि० ०१ ४० । माइकल जातिकुल १० संकुले
भंते! जीवा का आइकुल कोडीजोणिव्यमुदसय सहस्सा प बणा"। जातिरिति किल तिर्यग्जातिस्तस्याः कुलानि क मिकीटकादीनि जी०३ प्रति
माश्चक- नातिचतुष्क० केन्द्रिय रिजातक, ०२ कर्म
नापार वि० [वस्थेव दर्शनमस्य द्राकि बा । बत्सदृशे यथाविधे, टान्तात्सु स्त्रियां ङीप् । वाच01 भाविकपपरिणामे ०१ अि
"
माइ
पारच्छिक शि० भागतः । बधेया प्राप्ते, वाच० अतर्कितोपस्थिते काकतालीयादिकल्पे वस्तुनि तथा च बच्छावादिनः। श्राचा० १३०१०१० अनर्थके कित्यादिनानि न० । स्था० २ ० ४ ० । कदम
'वज्ञस्तुनोऽनिधानं स्थितमन्यार्थे तदर्थनिरपेक्रम | पर्यायानभिधेयं च नाम वाह्निकं च तथा ॥ १ ॥ "
जाइणाम विवादार्थमेतद्वाक्यातुन इन्द्रादिभिधानमिन्द्र इत्यादि वर्णमामिदमेव आवश्यकरुणवर्णचतुवा बीमात्रं यत्तदोर्निस्याभिसंबन्धात् तथामेति संटङ्कः। अथ प्रकारान्तरेण नाम्रो लक्षणमाड- (स्थितमन्यार्थे तदर्थनिरपेक्ष पर्यायाननिवं चेति तदपि नाम यत्तमित्याह-अन्यश्चासावर्थआभ्यार्थी गोपालदारकादिलक्षणः। तत्र स्थितम अन्यत्रेन्द्रादावर्थे यथार्थत्वेन प्रसिद्धं तदन्यत्र गोपालदारकादो पदारोपित मित्यर्थः वातदर्थनिरपेक्षम इति तस्येन्द्रादिः परमैश्वर्यादिरूपस्तदर्थः स चासावर्थश्चेति वा तदर्थस्तस्य नि
गोपी तथा तदर्थस्यामाबाद पुनः किं इत्याह-पर्यायामधेयमिति पर्यायाणां शकपुरन्दरानामन भिधेयमवाच्यं गोपालदारकादयो हीन्द्रादिशब्दैरुज्यमाना अपि स्यादिविशुन्दरादिशब्देन तन्नामापि नाम-तोप पर्यायान
कयते । चशब्दान्नास्न पत्र लकखान्तरसुचकं शचीपस्यादौ प्र सिर्फ सन्नामाच्या अन्यत्र गोपालदारको बहारोपितं नामेति तात्पर्यम् भीमप्रकारेणापि माद-बह किं च तचेति ) तथाविधन्त्वमित्यपिचादि रूपं किं नाम नामीर्थः ॥ १ ॥ अनु० । जाजरामरणसोगपणासन- जातिजरामरखशोकप्रशाशनजिमि जरा प्राणनाथः शोको मानसी विशेषतान् प्रत्ययति जियाशनः । जातिजरामरणापनयनसमर्थ, घ०२ अधि०० माइजुत-जातियुक्त - त्रि० । मातृपक्षयुते, जातिर्माकी तथा युतो विनयादिगुणवान् प्रयतीति । प्रब० ६४ द्वार जाइत यात्यमान- वि० आइडि - जातेष्टि - ०
कमाने प्रश्न० १ ० द्वार । कदर्थ्यमाने, । यज - किन जातस्य संस्कारार्थे कर्तकर्म संस्कारमेवे वाचन स० । सहित्य
दृष्टिः। बागभेदः नाइड-पर-त्रि
बध
सदस्यस्य जाइनि । जश् रबसि, जाइडिअपरिश्रमासुरूसहाव। लोहे कुट्टणरण जिम्बघणासहेसह ताव" । प्रा०४ पाद । जाइयाम-जातिनामन्नमने कर्म०) एकेन्द्र दीनामेकेन्द्रियत्वादिरूप समानपरिणतिलक्षणम् केन्द्रवाद शब्दव्यपदेशमापत्सामा जातिकर्म प्रकृतिरपि जातिः । इदमत्र तात्पर्यम्-व्यरूपमिन्द्रियमांपा केन्द्रियपर्याप्तिनामकर्मसामर्थ्यात सिकं, प्रारूपं तु स्पर्शनादीन्द्रियावरणोपमसामर्थ्यात "कायोपशमिकानि
"इतिचानरे केन्द्रियादिनिधनं तथा रूपसमान परिणतिलकणं सामान्यं तदव्यभिचार साध्यत्वाज्जातिनामसाध्यम् । उक्तं च-अव्यभिचारिणा सारश्येन एकीतो जाति जातिनाम कर्म कर्म प्रज्ञा० | पं० सं० ।
पधा
जातिनामे भंते! कम्बे पुच्छा है। गोयमा ! पंचविप ते । तं जहा एगिदियजातिनामे बेइंदियजातिनामे तेदिपजातिनामे परिंदयजातिनामे पंचिदियजातिनामे ||
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(a) अभिधानराजेन्द्रः ।
जाइयाम
प्रज्ञा० २३ पद । एकेन्द्रियजातिनाम, द्वीन्द्रियजातीनाम, जीद्विजातिनाम चतुरिन्द्रियजातिनाम, पञ्चेन्द्रियजातिनाम । कर्म० ६ कर्म० । भ्रा० प्र० । जाइणामगोयनिउत्त-जातिनामगोत्र नियुक्त त्रि० । जातिनाम गोत्रं च नियुक्तं यैस्ते तथा । नियुक्तजातिनामगोत्रे नारकादो,
भ० ६ ० ० ।
बाइणामगोयनिङत्सा उप-जातिनामगोत्र नियुक्तायुष्- वि०/ जातिमाया गोत्रेण च सह नियुक्तमायुर्वैस्ते तथा जातिमा
ना गोत्रेण च सह नियुक्तायुषि भ०६ श०८ ० । माइणामगोपनित-जातिनामगोत्रनिपत जि० जातिनाम गोत्रं च निवत्तं यैस्ते तथा । निधचजातिनामगोत्रे, भ० ६
जाइणामगोयनिहत्ताजय- जातिनामगोत्रनिधत्तायुष्- त्रि० । जातिनाम्ना गोत्रेण च सह निघत्तमायुर्यैस्ते तथा । जातिनाम्ना गोत्रेण च सह निघतायुषि प्र० ६ ० ० ० ।
भाइणामनिछत्त-जातिनाम नियुक्त शि० जातिनाम नियुकं नितरां युकं संबद्धं निकाचितं वेदने वा नियुक्तं यैस्ते तथा । नियुक्तजातिनामकर्मणि जीबे, प्र० ६ श० ८ ० । भाइणाम निरताप-जातिनामनियुक्तायुष त्रि० । जातिना ना सह नियुक्त निकाचितं वेदयितुमारब्धं वाऽऽयुर्यैस्ते तथा । जातिनाम्ना सह नियुक्तायुषि भ० ६ श० ८ ४० नाणामनिहाय जातिनामनिधता १० जातिरेकेन्द्र जात्यादिः पञ्चधा सैव नाम इति नामकर्मण उत्तर प्रकृतिविशेषो जीवपरिणामो वा तेन सह निघतं निषिक्तं यदायुस्तजातिनामनिधायुः जातिनाम्ना निव आयुष, ०६० ० । जातिनाम्ना सह निघतमायुर्वैस्ते तथा । जातिनाम्ना सह निघतायुषि जी, न० ६ श० ८ उ० । स्था ।
भाइणिवद्ध जातिनिवरून०
(०)
जातिनिवरूं तु चतुषा । तद्यथा
कथनीयं कथम् उच्चभ्ययाताधर्मकथादिपूर कथानकप्रायत्वात्तस्य । तथा गद्यम - ब्रह्मचर्याध्ययनादि । तथा पचम-इन्दोनका चार गीता निवकम । तद्यथा - कापिलीयमध्ययनम् -" अधुवे असामयम्मि संसारम्मि दुकापडराए" इत्यादि सूत्र ०१ ०१ ० १ ० । नाश (व) दिया जातिनिर्ह (ईला श्री जातान्यपत्य
तानि निर्यातानीत्यथों यस्याः सा । जातनिर्हता मा । विहतापत्यायाम, "विजय मित्तस्स सत्यवाहस्त सुभद्दा जारिया जार (ब) णिहुया विदोत्था " । बिपा० १ ० २ अ० । जाइतिग-जातित्रिक-२० । जातिशब्देनोपलक्कितं त्रिकम् । ति गाथावयवोक्ते जातिश्रये तत्र जातयः केन्द्रापत्र | गनबः सुरनरनियंग्नरकरूपाः चतस्त्रः । जगतिः प्रशस्ता - प्रशस्त विहायोगतिभेदेन दिया । इत्येवं जातित्रिकशब्देन एकादश प्रकृतयो गृह्यन्ते । कर्म० : कर्म० ।
" जाइबगर
1
जाइमय
जाइयेर- जातिस्थाविर- पुं० । जातिजन्म तथा स्थबिरः जातिस्थविरः । स्थविरभेदे, सठिवासजाए समणे णिगांधे जाइथेरे " स्था० ३ ०२४० ।
42
जाइदोस- जातिदोष - पुं० । जातिनिष्ठे दोषे, “स्त्रीजातौ दास्मिकता, नीलुक्ता भूसा रोषः त्रियातो द्विजातजाती पुनमः ॥१॥ ० ॥
!
नापमय जातिधर्यक
मं" जननं जातिरुत्पतिस्तकर्मकम् । श्राचा०१०१ २०५ उ० भाइप-जाविपथ० जातीमा केन्द्रियादीनां पन्था आ विषयः जानिमा "जाईपदं परिवमाये "सूत्र १ ॐ० ७ भ० ।" पासजाइपहे बहू" पाशा अत्यन्तपारवश्यहेतवः । कलत्रादिसंबन्धास्त एव तीव्रमोहोदयादिहेतुतया जातीचं पन्थानस्तत्प्रापकत्वान्मार्गः । उत्त० ६ ० । संसारे, । "अर जाप उवेश" जातिपन्थानं जन्ममार्गे संसारमुपैति । दश० २ ० जाइपुरु-जातिपुट न० जाति पुण्यजातिविशेषः पुरं पत्रादिमयं ज्ञानं जातिपुटम् जातिपुष्यस्वपादिमाने [झा० १ ० १७ अ० ।" जाश्पुमाण वा रा० ।
I
।
जाइप्पस एणा नातिप्रसमा खी० जातिपुष्पवासिता प्रसना जातिप्रसन्ना । सुराभेदे, "जाइप्पसन्नार वा " जी०३ प्रति०। जातिप्रायश्च जाइपाय - जातिप्राय - पुं० । दूषणाभासकल्पे, बाभ्योऽयं प्रकृतान्यविकल्पनात् " । जातिप्रायश्च दूषणाभासकल्पश्च बाध्यः प्रतीतिकल्पाभ्यामयं कुतर्क इति ।
द्वा० २३ द्वा० |
-
1
जाइबंझा-जातिबन्ध्या-स्त्री० जातेजन्मत भारज्य वन्ध्या मि वीजा जातिबन्ध्या । जन्मत आारज्य निर्बीजायाम्, स्था० ५
ठा० २४० ।
जाइनेय - जातिभेद - पुं० । सामान्यलक्षणायां घटत्वादिजाती, तस्मात् यतो यतोऽर्थानां व्याहृतिस्तभिबन्धनाः । जातिभेदाः प्रकल्प्यन्ते, तद्विशेषावगाहिनः ।
तस्मात् स्वपरव्यावृत्तिरूपात् हेतोः यतः यतः सजातीयात् विजातीयाच र्थात् पितातुका जातिभेदाः परपरिक सामान्यक्षणा: प्रकल्प्यन्ते । कीदृशा: इत्याह- (तद्विशेषावगाहिन इति) तस्य स्वपरव्यावृत्तिनाजः स्वलक्षणस्य विशेषामार्तस्वपाटलीपुत्रकत्ववासन्तकत्व रक्तत्वादिलक्षणास्तान् विकल्पबलायातानवगाहन्ते अवलम्बन्ते इत्थवं शीला ये ते तथा । अने० १ अधि जाग जातिमपटक ० जानिर्मा
पको जातीमण्डपकः। जातीमये मरारूपके अं० १ बक्ष० । जी० । जाश्मता ति वा " जामंत-जातिमत्त्र० । सुजातौ
भावा० २ ० ४ ०२४० ।
जापानमा स्थान
"
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(१४४४) अभिधानराजेन्द्र:।
जाड्मय
जाइसरण
म०७ सम।"जाइमपण वा” स्था० १० नग० । प्रइन० ।। समुप्पर" जातिस्मरणम् । उत्स०एम०शि०सं०। जा. जात्या ब्राह्मणब्राह्मरायुद्भवत्वेन मदोऽहंकारो जातिमदः । विस्मरणं द्विविधम्-सनिमित्तकम,प्रनिमित्तकंचासत्रबहावं जास्यहंकारे,उत्त०३मा जातिमदं विदधातो जन्तुरन्यजन्म- निमित्तमुद्दिश्य जातिस्मरणमुपजायते तत्सनिमित्सकम । बया नितामेव जातिहीलनांमभते बिकटां च भवाटवीं पर्यटतीति । वस्कलचीरप्रभृतीनाम । बत्पुनरेव तदावारककर्मणांकयोपशप्रव० १६६ द्वार।
मेनात्पचत तदनिमित्तकं यथा स्वयं कपिलादीनामा वृ०१ सर्वेषां मदस्थानानामुत्पत्तरारम्न जातिमदो वाह्यनिमित्तनि
उ० । जातिस्मरणं च संझिजातिविषयकमेव " सणिपुग्वे रपेको यतो नवत्यतस्तमधिकृत्याह
जासरणे समुप्प जित्था " संकिनः पूर्वजातिः प्राक्तनं जन्म
सम्या यत्स्मरणं तत्संक्षिपूर्वजातिस्मरणम | म्वस्त निर्देश तु ने पाहणो वत्तियजायए वा,तहुग्गपत्ते तह लेचई गा।
संकी पूर्वो भवो यत्र तत्संक्किपूर्वी संबीति चविशेषणं स्वरूपने पन्चईए परदत्तनोई,गोत्तणजे थन्नति माणवके॥१०॥
कापनार्थ न संकिजातिषिषवं स्मरणमुत्पयत इति । ०१ यो दि जात्या ब्राह्मणो भवति, क्षत्रियो वा वाकुवंश्यादिकः। ०१०। सदमेव दर्शवति-उप्रपुत्रः कृत्रियविशेषजातीकः । तथा
__ तथा चोत्तराभ्यग्ने(लेपति) त्रिवविशेष एव । तदेवमादिविशिष्टकुमोदनूतो देवलोगचुनो संतो, माणसं जवमागो। पथावस्थितसंसारस्वभाववेदितया बः प्रमजितः स्वक्तराज्यादि गृहपाशवन्धनः परैर्द मोक्तुं शीसमस्य परदत्तभोजी सम्यक्
समिनाणसमुप्पन्ने, जाइसरणं पुराणयं ॥ ७॥ संबमानुष्ठावी गोत्रे बैर्गोत्र हरिवंशस्थानीय समुत्पन्नोऽपि
देवलोकात व्युतः सन् मानुष्यं यमागतः इति संक्तिकाने नैव स्तम्भ गर्वमुपयायादिति । किन्ते गोत्रे अभिमानवके
समुत्पन्ने सति पुराणकं प्राचीनं जातिस्मरणमनुदिति शंषः । अभिमानास्पदे इति । एतमुक्तं भवति-विशिष्टजातीबतमा
संकिनो गर्नजपत्रोन्कियस्यशानं संविज्ञान तस्मिन् संकिकाने । सर्वलोकाऽनिमान्योऽपि प्रवजितः सन् कृतशिरस्तुण्ममुण्डनो
उत्त० १५० भिक्षार्थ परगृहाण्यटन् कथं हास्यास्पदं गर्व कुर्यात नेवासी
जातिस्मरणं कस्मातदाहमानं कुर्यादिति तात्पर्यायः ॥ १०॥ सूत्र० १७०१३ ०।' संस्कारे पूर्वजातीनाम, ...................... (६) जाइमयपमिवक-जातिमदप्रतिबक-पुं० । जात्यहंकारेणानने, संस्कार स्मृतिमात्रफले जात्यायुभोंगलक्षणे च “ एवं "माहमयपमिया हिंमगा मजिइंदिया" जात्या ब्राह्मणमा- | मया सोऽर्थोऽनुनूतः, एवं मया सा किया कता " सण्युद्भवत्वेन यो मदोऽहंकारस्तेन प्रतिस्तब्धाः प्रनम्राः आति | इति भावनया । सयमात् पूर्वजातीनां प्रागनुभूतजातीमदप्रतिस्तब्धाः । उत्त० ११ म०।
नां धीरनुस्मृतिरवबोधकमन्तरेणैव भवति। तदुक्तम-"संस्कानाश्य-जाचित-न । बाच नाव-क्त । बाचनवृत्ती, बाचाबा
रस्थ साकातकरणात पूर्वजातिज्ञानम्" (६) द्वा०२६ द्वा०। बाकर्मणि क । प्रार्थिते, त्रि०। वाचत | "सम्वं से
जातिस्मरणकारणानि योगविन्दौ वषाजाइयं होइ, नस्थि-किं चि भजाइयं" मा० महि
ब्रह्मचर्येण तपमा, सदाध्ययनेन च । माइयगमएक-याचितकमण्डन-न०। मार्गिताभरणे, पूर्णता- विद्यामन्त्रविशेषण, सत्तीर्थासेवनेन च ।। ५७ ॥ बाम, परोपाधेः सा बाचितकमएमनम । मा०१ मष्टा ।
ब्रह्मचर्येण भावतो वस्तिनिरोधरूपेण, तपसा उपवासादिनाइलिंग-जातिलिक-नाशिरःपाण्यादिक प्रापयवयवे, जा- मा, सवेदाध्ययनेन च सता सुन्दरेणात्मानुग्रहादिपरिणामयुतिमितानि प्राण्यवयकाः शिरःपाण्यादयस्तैर्दि गोत्वादिनक्षणा
कतवा वेदस्य सद्भतार्थागमस्याध्ययनेन वाचनापृच्चजातिसिंदमयते इति सम्म ३ काएक।
नादिस्वनावेन । चः समुण्य । विद्यामन्त्रविशेषेण ससाधना नाइवर-जातिवर-पुं० । जात्युत्तमे, “ जाश्वरसाररक्सि"
स्त्रीस्वामिका या विद्या, मन्त्रश्च तदितररूपः । ततो मन्त्रम्बा
करणप्रसिष्योर्विद्यामन्त्रवार्षिशेषेण बेदन सत्ती सेवनेन च प्रान०४ सम्ब० द्वार।
सतः सातिशयस्य व्यसनसलिलनिधिनिस्तारणोपायस्वस्थामाइसंपध-जातिसंपल-पुं० । उत्तममातृकपकयुते , प्रौ० ।
वरजङ्गमभेदनिभस्म तीर्थस्य भासवनेन पर्युपासनेन । चः स्था। रा०नि० । का0 | बबाह-"जाइकुलसंपला पाबम- प्राग्वत । ५७॥ किन सेबा किचि भासविच पका तग्गुणभा सम्ममा
तथालोए"ति। गुणवन्मातृत्वे, स्था० न०।
पित्रोः सम्यगुपस्थानात, ग्लानभैषज्यदानतः । माइसर-जातिस्मर-त्रि० । जाति पूर्वजन्म स्मरति । स्म-अच् ।
देवादिशोधनाच्चैव, भवेजातिस्मरः पुमान ॥ १० ॥ प्रतीतजन्मवृत्तान्तस्मृतियुक्ते, वाच. | "जाईसरा व जयवं" जाति स्मरतीति जातिस्मरो भगवान् । "निंदादिभ्यः"1५1१1001
पित्रोः जननीजनकयोः सम्यक यथावत् उपस्थानात त्रिसंइत्पणपवादोऽन् । मा० म०प्र०।"भवेजातिस्मरः पुमान्"
ध्यप्रणामादिविनयरूपात, "पृजनं चास्य विकंब, त्रिसंध्यं नमजातिस्परोऽनुनूतभवस्मर्ता । बा०बि०।
नक्रिया " इत्यादि वक्ष्यमाणत् । ग्लान भैषज्यदानतः ग्ला
नानां ज्वरादिरोगोपहतशरीरशकीनां पज्यस्योषधस्य दानता माइमरण-जातिस्मरण-न० । माभिनिवाधिककानविशेष, प्रा
बितरणात्, “देवादिशोधनाच्चैव" देवदेवस्थानपुस्तकसा"मव कानमात, " जाईसरणं धूपाश्रयादेधर्मकार्योपयोगिनः । "शोधनात्" तथाविधमला
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(१४४५) अन्निधानराजेन्दः।
जाइसरण
जाइसरण
पनयनेन निर्मलीकरणाद्भवेज्जायेत जातिस्मरोऽनुजूतभवस्म- स्वप्ने प्रवृत्तिरुक्तरूपा (तथाभ्यासात) तत्प्रकारादच्यासात र्ता पुमान् प्राणी ब्रह्मचर्यादीनां योगविशेषाणां शानावरण- | मन्दाभ्यासादित्यर्थः। (विशिष्टस्मृतिवर्जिता) स्फुटप्रतिन्नासहासान्तरङ्गकरणत्वात् ।
पस्मरणरहिता । " क्वचित् सिका" इत्युत्तरेण योगः। तथाअत्रैव प्रसङ्गसिकिमाह
(जाग्रतोऽपि) कीणनिधस्य कस्यचित् कि पुनरन्यस्येति कचित भत एव न सर्वेषा-मतदागमनेऽपि हि।
केने का वा (सिका) सर्वलोकसंमत्या प्रतिष्ठिता वृत्तिगच्छत
'तृणस्पर्शादिका तथाऽभ्यासादेव स्मृतिवर्जिता । एतदर्थप्रतीपरलोकात् यथैकस्मात् , स्थानात् तनुभृतामिति ॥५६॥
तावुपदेशमाह-(सूक्ष्मवुद्ध्या) निपुणानोगेन (निरूप्यताम) परि"अत एव" इत्यादि । अत एव ब्रह्मचर्यादेर्जातिस्मरण
भाव्यतामेदन्यथा उक्तस्याप्ययस्य सम्यगधगमाभावात् ॥६॥ हेतुत्वादेव (न) नैव सर्वेषां देहिनाम । एतत जातिस्मरणम,
अथ प्रकारान्तरत एव जातिस्मरणादात्मसिकिभागमनेऽपि प्यागतावपि किं पुनलोंकायतमतेन तद्भाव इत्य
मभिधित्सुराहपिहिशब्दार्थः । परलोकात परभवात् । "यथा" इतिहष्टान्ताये एकस्मात् स्थानात् पाटलिपुत्रकादेरागमनेऽपि तनुभृताम
श्रूयन्ते च महात्मानः, एते दृश्यन्त इत्यपि। समानुजूतार्यस्मरणम इतिः' वाक्यपरिसमाप्तौ । इदमुकं क्वचित्संवादिनस्तस्मा-दात्मादेईन्त निश्चयः ।। ६३ ।। . भवति-पथैकस्मात् पाटलिपुत्रकादेः स्थानादागतानामपि (श्रयन्ते) समाकर्यन्ते कथानकेषु भरुकच्छादौ शकूनिकाजीवसुबहुनां पथिकानां कचिद्विवक्षिते स्थाने न सर्वेषां प्रागनु- राजपुत्रीसुदर्शनादयः। चकारी हेत्वन्तरसमुच्चये। (महात्मानृतार्थस्मृतिरुपजायते, किंतु कषांचिदेव, एवं जवान्तरस्मृ- नः) प्रशस्तस्वभावाः । (पते) जातिस्मरकाः। (श्यन्ते इत्यपि) तावपि योजना स्यादिति न चाल्पबढ़त्वेन स्मर्तृणां दृष्टान्तदा
रश्यन्त साकादेव क्वचित इदानीमप्युपलत्यन्त । कीरशाः! ििन्तकोषम्यमुद्भावनीयं, स्मर्तृसंभवमात्रस्य प्रतिपादयितु | इत्याह-(संवादिनः) विसंवादविकलवचनाः । ततः किमिष्टत्वात राष्टान्तदान्तिकयोः सर्वदा, साधम्याभावाच ॥५६॥
मित्याह-(तस्मात्) जातिस्मरकादिर्मवादात् (प्रारमादः) जीपतदेव जावयन्नाह-
. वकर्मादेरतीन्द्रियस्यापि कथंचिद। "हंत" इति कोमलामन चैतेषामपि खेत-मुन्मादग्रहयोगतः।
न्त्रणे । निश्चयः संपद्यते इति ॥६॥ सर्वेषामनुजूतार्थ-स्मरणं स्याद्विशेषतः ॥ ६ ॥
अथ निगमयन्नाह(न च ) नैव । एतेषामप्ये कस्थानादागतानां किं पुनर्नवा- एवं च तत्वसंसिछे-योग एव निबन्धनम् ( ६४ ) न्तरादागतानामपि इत्यपिशब्दार्थः। हिः यस्मात् एताददम । ( एवम् ) चोत्त.न्यायनैव (तत्वसंसिरः) आत्मादृष्टादिप्रतीतेः उन्मादग्रहयोगतः उन्मादो मोहावेशो ग्रहश्च भूनावशस्तत योग एव नापरं किश्चित (निबन्धन) हेतुर्वर्तते । (६४)यो०वि०॥ उन्मादग्रहयोर्योगः संबन्धस्तस्मात् । सर्वेषां समस्तानाम ।।
ननु नवमासमत्रान्तरितमपि प्राक्तनं भव सामान्यजीवः किमित्याह-अनुनूतार्थस्मरणं (स्याद) भवेद् विशेषतः सर्वान् |
कथं स्मरतीत्याहविशेषान् प्रतात्य किं तु सामान्यनैव ॥ ६॥
जायमाणस्म जं दुक्खं, परमाणस्स वा पुणो। अध दार्शन्तिके सर्वेषां सामान्यन स्मृतियथा स्यात्तथाद
तेण मुक्खेण संमृढो, जाइं साइन अप्पणो ॥३॥ सामान्येन तु सर्वेषां, स्तनवृत्यादिचिह्नितम् ।
जायमानस्य गर्भानिस्सरमाणस्य उत्पद्यमानस्य वा यत् मुख अज्यासातिशयात् स्वन-वृत्तितुल्यं व्यवस्थितम् ॥६॥ भवति (वा) अथवा पुनर्मियमाणस्य पञ्चत्वं कुर्वाणस्य च सामान्येन साधारणतया । तुः विशेषणार्थः। सर्वेषां समस्तानां यत् दु:खं जयति । तेन दारुणदुःखेन संमूढो महामाहभावं प्राणिनास । स्तनवृत्यादिविहितं स्तनवृत्तिम्तदहर्जातानां स्तन. प्राप्तः जाति प्राक्तनभवमात्मीयं स्वकीयं मृढात्मा प्राण। न पानरूपा । प्रादिशब्दात रमणीयरूपकन्काद्यवझोकनकुतूह- स्मरति। कोऽहं पूर्वभवे देवादिकोऽभवमिति न जानातीति ॥२॥ लादिका विविधा चष्टा गृह्यते । तया चिह्नितं व्यक्तिनावमा- तं०(न जानाति 'दिसा' शब्दे दृष्टान्तः)। जातिस्मरणं संख्यामोतम् ' जातिस्मरणम् ' शति गम्यते। कोरशमित्याह-(अ- तजवनिर्णायकं न वेति प्रश्र, उत्तरम्-जातिस्मरणमपि समज्यासातिशया)पुनः पुनरासेवनमभ्यासम्तस्यातिशय उत्कर्ष- तिक्रान्तं संख्यातनवावगमस्वरूपं मतिकाननेद एवेति कर्मस्तस्मात् । ( स्वप्नवृत्तितुल्यम्) । स्वप्नकालोपलभ्यमान- ग्रन्थवृत्त्याचाराङ्गवृत्त्यनुसारण संख्यातभवनिर्णायकं जातिदिवसानुनूतवनदेवकुलादिविहारादित्यवहारसमम् । (व्यव. स्मरणं झायत इति । १३० प्र० । सेन० १ उठा० । कर्मस्थितम् ) प्रतिष्ठितम् । यथाभ्यामातिशयात स्वप्ने दिनान नूतोऽ- ग्रन्थवृत्तौ-जातिस्मरणमपि अतीतासंख्यातभवावगमस्वरूपं र्थ चपलत्यत, एवं स्तनवृत्यादिको व्यवहारःप्राम्भवानुनतो- मतिमानमेवेत्युक्तमस्ति "पुन्वभवा सो पिन, इक दो तित्रि भवान्तर इति ॥ ६१ ॥
जाव नवगं वा । उरि तस्स अधिसओ, सहावनी जाइसननु स्वप्नवृत्तिः पश्चादपि स्मयते न त्वेवं स्तनादिवत्तिभ
रस्स ॥१॥" इति गाथायां तु नव भवाः जातिस्मरणस्य पान्तरसंबन्धिनी इह स्मयत इति कथम् अनयोटेशन्तदा -
विषयास्तत्कथमिति प्रश्ने,उत्तरम-जातिस्मरणवान् पाचारान्तिकनाव इत्याशङ्कपाह
छावृत्त्याद्यभिप्रायेणातीतानसंख्यातान् भवान् पश्यतीति हाय
ते कर्मग्रन्धवृत्तावपि स एवानिप्रायोऽस्ति. "पुब्बभवा मा स्वमे वृत्तिस्तथान्यासा-विशिष्टस्मृतिवर्जिता।।
पिक" इयं गाथा तु दिनपत्रस्था न तु तथाविधग्रन्थस्था सन जाग्रतोऽपि कचित्सिछा,मृतमबुध्या निरूप्यताम॥६॥ | निमायिकान भवतीति। ३४ । सेन०३ उशाश्दानी भ
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जाइसरण
जागर
जं० ७ ० ।
श्ते मनुजानां,तिरश्यां च जातिस्मरणमस्ति न वा ? | यदि नास्ति जाऊकएणं - जातूकर्ण - पुं० । मुनिभेदे, वाच० । गोत्रने, न० तदा कुतो व्यवचिकन्नं तथाऽवधिज्ञानमपीदानीमस्ति न वा ? इत्यपि च प्रसाध्यमिति प्रश्ने, उत्तरम् वर्तमानकाले जातिस्मरणाद्यबधिज्ञानस्य व्यत्रष्छेदः शास्त्रे प्रतिपादितो नास्तीति | जाऊकएणं । य-जातुकर्णीय- न० । गोत्रनेदे, सु० प्र० १० - १३८ प्र० । सेन० ३ उल्ला० ।
हु० । चं० प्र० ।
भाऊरोदेशी ० ० ३ ।
भाइसरणपरखिज-जातिस्मरणीय १० मतिहानाबर
66
कर्मभेदेरावरणानि कर्माणि मत जाओोषण-पादोगश-पुं० जलजन्तुगणे, वाच सार[[वरभेदाः पोषन यदि विभि तोदयश्वमिति । ज्ञा० १ ० १ ० नातिसुमिण - जातिस्मरण - ' जाइसरण' शब्दार्थे, सेन० ३
मासेति । नानाविधस्तु बादस
सह वा यादोगणैरात्मानमारक्षन् । माचा० १० ५०५० जांवई - जाम्बवती स्त्री० । जाम्बवतोऽपत्यं स्त्री | कृष्णा देवस्य स्वनामस्यातायां पन्थाम् कल्प० 9 क्षण नागदमन्यां
उमा० ।
च । वाच० ।
जांणय- जाम्बूनद ग० जम्बूनवे भए स्वर्ण तीर - | भवस् । मृत तसं प्राप्य सुखवायुविशोषिता जाम्बूनदास्यं भवतिबद्ध युके इस जम्बूरसम् धुस्तूरे च । वाच० । जं० ।
( १४४६ ) अभिधानगजेन्ड
माइगु
नाशिक- ५० वर्षदे " जाइडिंगुलुपर था " । जालिदियुकेन वर्णकम् स कृत्रिमोऽपि भवतीति जात्याविशेषितः । ज्ञा० १ ० १ ० जात्यः प्रधानो दिलुको जात्यादिसुकः । प्रा० १ पद । भाई - माती- श्री० जन-कल्याब, सरपुष्ये ताभेदे च । वाच० । जं० । सुरायाम, दे० ना० ३ वर्ग 1 नाईफन्न जातीफल - न० । गन्धप्रधाने वस्तुनि आबा० १ भु० १ ० १ ० । ( जायफल ) इतिख्याते फले व । वाच० । माईमंदगतीकाश्मंदा
जं० १ बक्ष० ।
1
नाई जातीय जातीयः । समानजातियुके सजातीये, वाच० प्रा० म० । “एकग्रहणे, तज्जातीयग्रहणम्" इति म्यायः । प्रा० म० । किंचिच्छन्दात जातीयप्रत्ययः । प्रकाश थें । " गुणालय पंचजातीयं " पञ्चप्रकारम्। विशे० । यथा तार्किक जातीयः तार्किक प्रकारः । बाच० । नाईसर - जातिस्मर- शि० जाइसर शब्दाथ अा० प्र० प्र० । जाईसर-जातिस्मरणानं०जाइसरण
खा० १ ० १ ० १ ३० ।
भाईसरणावरणिज जातिस्वरणावरणीय नं० ईसरणवरणिका' शब्दार्थे ०१०१० नाईहिंगुलुप नातिक-पुं० [जाइदिनु राम् थे, का० १ ० १ ० ।
।
मायावत् कि० यत् परिमाणमस्य मतुप् । सोम ०६ यात्र
यो कारादेश्यययस्य मम इत्येय आदेशा नवन्ति । प्रा० ४ पाद । यत्परिमाणे, लाकल्ये, अवधी, व्याप्तौ, माने, अवधारणे च । वाच० ।
16
4
जाउया यातृ स्त्री० : या तृच् । देवरपन्यास, यातरौ तृन् । गन्तारे, त्रि । यातारौ । वाच० । “जाड्याभो जाणिस्संति” । जाउयाओ ति " देवराणां जायाः । शा० १ ० १६ ४० 'जागति " बातरो ज्येष्ठदेवरजायाः । बृ० १ ० । मात्र जास-पुं०
प्र० प
यावसाव
-
1
पर वि
जाग पाग- पु० बजे घर प्रक्षेपरूपे य, बाच० यजनं यागः । पूजने, " अमित्रगुणाधिकसद्योगसारसब्रह्मयागपरः " यागां यजनं पूजनं तत्परः तत्प्रधानः । बो० ए वित्र० श्राचा० शा० । देवपूजायाम, ० १० १० श्रीसिकार्यनृपस्य यागकरणदिशाजयतिकरे यागशब्देन देवसमर्थ नम् प्रति देवताज्ञायसनादिनि ब्राह्मणस पूजाविशेष, अनु० ज० । ज्ञा० । अश्वमेधादिकं च । पिं० । जागनागदा यस दस्म परिच्छ्रय यागनागदायसहस्रमतीच्छक(ro | यागा पूजाविशेषाः भागा विंशतिनागादयो दायाः सामान्यदानान्येषां ताने जागर - जागर - पुं० । जागृ-अप्। निखाभावे, आगरणे, कवचे च । वाख० । जागतति जागरः । अपगतनिले, " जागरवेरो
पर असंयमनिद्रापगमाजातील जागा आचा
"
श्रु० ३ ० १ ० | "सुत्ता श्रमुण उ सया, मुणी व सुप्ता वि जागरा होति " श्राचा०नि० १ ० ३ ० १ ० । व्यजागरां निवारहितः । भावजागरः सम्यग्दृष्टिः । प्रा० म० द्वि० । विशे० ।
अथ
यदनन
सुप्तत्वजागरत्वे प्ररूपयन्नाह
जागरा,
जीवानंतसुता, जागरा, सुतजागरा है। गोयमा ! जीवा मुलाब, जागरा चि मुखजागरा वि नेपा भंते! पृछा है। गोषमा शेरा गुना फ णो सुत्त जागरा | एवं जाव चरिंदिया | पंचिदितिविधियां भंते कि मुत्ता पृच्छा है। गांवमा! मुता । णो जागरा। सूत्तजांगरात्रि । मधुस्मा । जहा जीवा पाणमंतर जोसिपमागिया जहा परश्या । (सु) सर्वविरतिरूपनैश्चयिकप्रयोधाभावात् (जागर
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(१४४७) जागर अन्निधानराजेन्द्रः ।
जागरिता त्ति) सर्वविरतिस्पप्रवरजागरणसद्भावात् । (सुत्तजागर ति)| गुरोः तृतीयप्रहरेऽस्वापस्व वदयमाणत्वात् । ग्लानादेस्तु शरीमविरतिविरतिरूपसुप्तिप्रबुखतासद्भावादिति । भ०१६ श.६ रमान्दात प्रतिक्रमणवेलावामुचितमेव जागरथम । उसमषि डाला.
प्रवचनसारोबारेसंजयमास्साणं मुत्ताणं पंच जागरा पक्षचा। तं जहा
"सवे वि पढमयामे, इनि अवसहाण आदमा जामा।
तश्यो होष गुरुणं, चउत्थे सम्बे गुरुमुना ॥ १०॥". महा० जाव फासा ।
सर्वेऽपि साधवः प्रथमे यामे रात्रिप्रथमप्रहरं यावत् । स्वा"संजय" इत्यादि। बक्तम । नवरं संयतमनुष्याणां साधूनां न्यायाध्ययनादिकुर्वाणाः जाप्रति द्वौ च प्राधा वामौ वृषभाणां सुप्तानां निकावतां जाप्रतीति जागरा असुप्ता जागरा व जा- वृषजा श्च वृषभा गीतार्थाः साधवः तेषामयमों द्वितीय वामे मरा इयमत्र नावना-शब्दादबो हि सुप्तानां संयतानां जाम- ये सत्रवन्तःसाधवस्ते स्वपन्ति । वृषनास्तु जाग्रति तेच जाग्रतः हिवदप्रतिहत शक्तयो जवन्ति कमबन्धाभावकारणस्वाप्रमाद- प्रथापनादिसूत्रार्थ परावर्तयन्ति । तृतीयप्रहरी भवति गुरुणां स तदानी तेषाममावात् कर्मबन्धकारणं भवतीत्यर्थः ।
कोऽर्थः-प्रहरद्वयानन्तरं वृषभाः स्वपन्ति । गुरवस्तूस्थिसंजयमणुस्साणं जागराणं पंच मुचा पसचा । तं जहा-1
ताः प्रकापनादि गुणवन्ति चतुर्थप्रहरं वावत । चतुर्थे न प्रहरे।
सवें साधवः समुत्थाय वैरात्रिककासं गृहीत्वा कासिक मद्दा० जाव फासा ।
परावर्तयन्ति । गुरवः पुनः स्वपन्ति । अन्यथा प्रातनिंद्राघूर्णमानद्वितीयसूत्रभावना तु-जागराणां शब्दादयः सुप्ता व सुप्ता | मोचनास्तदशादेव भज्यमानपृष्ठका व्याख्यानभन्यजनोपदेशाअस्मचाग्निवत प्रतिहतशक्तयो भवन्ति । कर्मबन्धकारणस्य | दिकं कर्तुं ते सोद्यमाः सन्तो न शक्नुवन्तीति । (प्रव०१२८ द्वार) प्रमादस्य तदानीं तेषामभावात् कर्मबन्धकारणं भवतीत्यर्थः। प्रतिक्रमणघेला च तत्परिसमामिदशोपकरणप्रत्युपेक्षणासमन
संपतविपरीता संयता इति । तानधिकृत्याह- न्तरजाविमूर्योदयपरिमेया। यतः-"श्रावस्सयरस समप,णिहाप्रसंजयमणुस्सायं मुत्ताणं वा जागराणं वा पंच जागरा
मुहं चयंति प्रायरिया । तहतं कुणंति जद दस.पहिलेहा
तर सरो" ति। जागरणानन्तरकर्तव्यमाह-(सत्सर्ग इति) पम्मत्ता । तं जहा-सहा० जाव फासा ।
कायोत्सर्गःस चर्यापधिकीप्रतिक्रमणपूर्वकः कुस्वमदुःस्वपनि. "मसंजय" इत्यादि । व्यक्तम । नवरम् । असंयतानां प्रमादि- वारणनिमिनः प्राणिवधादिकुस्वप्नाव शताचाममानो मैयु. नया अवस्थायेऽपि कर्मबन्धकारणतयाऽप्रतिहत शक्तिशाद। नकुस्वमजावे तु चतुरुयोतकरोषयकनमस्कारचिन्तनादशभन्दादयो जागरा व जागरा भवन्तीति नाचना । स्था०/ तोभासमानोऽबसेयः। यतो यतिदिनचर्यायाम५ठा०२०।
"रिमं परिकमंता, कुसुमिण सुमिण निवारणुस्सग । जागरण-जागरण-10 । निसले का०१४०२मा भव- सम्म कुषंति निजिन-पमाणिदा महामुणिणो ॥१॥ बोधे, ध०३ अधिक।
पाणिवहप्पमुहाण, कुसुमिणभावे भवंति बजोत्रा। | প্রাণ যথা:
चत्तारि चितणिज्जा, सनमुक्कारा चउत्थस्स ॥२॥" ति। "जागरह जरा णिच्च, जागरमाणस्स बकुए खुद) ।
सतच (देवगुबादिनतिरिति) देवनतिश्चैत्यवन्दनम् । गुवादिनमो मुघाण सा धम्मो, जो जग्गा सो सया धयो॥१५
तिचतुर्भिः कमाश्रमणेगुर्वादिनमस्क्रिया तनोऽनन्तरं च (स्वा. सुभर सुअंतस्स सुमं, संकियबलियं भवे पमसस्स ।
ग्यायतिष्ठतति ) स्वाध्यायो वाचनादिः तस्मिन् यथासंभवं तिबागरमाणस्स सुभ, चिरपरिचियमप्पमत्तस्स ॥२॥
ठता एकाग्रता उपलकणत्वात् । पूर्वगृहीततपानियमानिप्रहमालस्सणं समं सोक्वं, ण विना सह निदया ।
चिन्तनधर्मजागरिकाकरणादि । यतःपरमां पमादण, णारंभेण दयाबुभा ॥३॥
"जिणनमणमुणिनमसण-पुञ्वं तत्तो कुणति सरझायं । बागरिया धम्मीण, महम्मीयं तु सुत्तिया सेया।
चिंतिति पुम्बगहियं, तवनियमाऽभिग्गहप्पमुहं ॥१॥ बपादिवभगिणीप. भकहिंसु जिणो जयंतीए ॥४॥
कि तकणिकचं, न करेमि अभिम्गहाय को चिनो। सुवश्य भयगरभूमो, सुयं पि से बरसती ममयसूयं ।
कि मह खनिमं जायं, कददिमदा मज्क वचंति ॥२॥ होही गोणतभूमा, जम्मि सुए भमयर" ॥५॥
कहन दुपमायके, खुप्पिस्सं किं परोव अप्पो था। भाचा०१७० ३ ०१ ००।
मह पिच्छा अश्यार, अकुज्जा धम्मजागरि ॥३॥" निशान्त्ययामे जागर्या, गुरोरचावश्यकक्षणे ।
ब्राझे च मुहूर्ते निर्मलबुद्धघुइयाद्भवति धर्मकोपायचिन्तनं
सफलमिति । धर्ममनोरथान् चिन्तयेति भावार्थः। यतस्तत्रैवउत्सर्गो देवगुर्वादि-नतिः स्वाध्यायतिष्ठता ॥ २० ॥
"जामिणिविरामसमप, सरए सनिलंब निम्मलं नाणं निशाया रात्ररत्ययाम चतुर्थयामे जागर्या जागरणं निद्रात्या
तत्य धम्मकम्म, प्रायमुवायं विचितेज्जा ॥१॥" ध०३ अधिक। मस्पर्धः। सापेक्कयतिधर्मो नवतीति योजना । अंग्रेऽपि सर्वत्रा बसेया जागरणविधिश्व-"जामिणिपच्छिमजामे, सब्वे जग्गंति
जागरमाण-जाग्रत्-न । जागृ-श-इन्छियादिनिर्विषयज्ञानबालवुकाई । परमिट्रिपरममंत, भणति सत्तवारामो ॥१॥"
योग्यावस्थायाम । तद्वति, त्रि। खियां जीप । वाम । इत्यादि । विशेषगृहस्थधर्माधिकारे प्रदर्शित पर निशान्त्य
निझावियुक्त च । पा० । “जागरमागी जागर" जागरण बामे जागरणम् । किमविशेषण भर्येषामेव उन केषांचिदेवेति
कुर्वत्या जागतिं निसानाशं कुरुत इति । नं0 । "निदाए भावतो विधामायामाह-(गुरोः) प्रवाजकस्य दिगाचाांदेवा चका
विय,जागरमा गणा चउपहममयर" निकाहिने.प्रा०म०वि०। सत्पात्रादे। आवश्यकन्नमतिकरणकरवावसर जावयांना जागरिता-जागरित-त्रिका जाए-नाजागरस्था -५०९८०।
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(१४४) जागरिय अनिधानराजेन्द्रः।
जागिणिपुर मागरिय-जागरिक-पुं०। जागरणं जागरः । सोऽस्यास्तीति कप्पमाणा विहरति । एएसि णं सुत्तत्तं साह, एएणं जीवा मागरिकः । न०१५ श०२ १०। निद्रारहिते, मा० म०वि०। मुत्ता समाणा णो बहूणं पाणयाणं जीवाणं सुत्ताणं जागरित-
त्रिजागृ-क्त। इन्द्रियविषयोपसमययोग्यावस्थायाम, दुक्खाणयाए सोयणयाए०जाच परियावणयाए बटुंति । जीवो हि स्वमादिहेतुकर्मनाशे इन्धियविषयान, अनुमेयाँश्व स्थू-। एएणं जीवा सुत्ता समाणा अप्पाणं वा परं वा तदुभयं वा लविषयान्, व्यवहारिकाँश्च पदार्थान,यस्यामवस्थायामनुन्जवति णो वहूहि अहम्मियाहिं संजोयणाहिं संजोएत्तारो जवति । तत जागरितम् । कर्तरि-काजागरणयुक्त, त्रि० । वाच।।
एएणं जीवाणं सुत्तत्तं साहू। जयंती! जे इमे जीवा धम्ममागरिया-जागरिका-श्री०। जागरणे, मा० १० १० ।
त्थिया धम्माणुगा. जाव धम्मेणं चैव वितिं कप्पेमाणा "पुव्यरत्तावरसकालसमयसि णो धम्मजागरियं जागरिता
विहरति । एएसिणं जीवाणं जागरियत्तं साह एएणं जीवा भवा । " जागरिका निकाक्येण बोधः। स्था० ४ ठा०२ उ०।
जागरमाणा बहूणं पाणाणं अक्खणयाए० जाव अपरिकइविदा णं भंते ! जागरिया पमना | गोयमा ! ति
यावणयाए बटुंति,ते एं जीवा जागरा समाणा अप्पाणं वा बिहा जागरिया पमचा । तं जहा-बुद्धजागरिया, अबुद्ध
परं वा तजयं वा वदहि धम्मियाहिं संजोयणादि संजोएनागरिया, सुदक्खुजागरिया । सेकेणटेणं ते! एवं वृद्ध
चारो नवंति । एए णं जीवा जागरमाणा धम्मजागरियाए इतिविहा जागरिया पमत्ता ?। तं जहा-बुकजागरिया,
| अप्पाणं जागरइत्तारोजचंति,एएसि जीवाणं जागरियतं भयुकजागरिया, मुदखुजागरिया । गोयमा ! जे इमे पर
साहू से तेणटेणं जयंती! एवं बुच्चइ प्रत्येगइयाणं जीवाणं इंता जगवंतो नप्पलणाणसणंधरा जहा खंदप० जाव स
मुत्तत्तं साह, अत्थेगश्याणं जीवाणं जागरियतं साहू । बम् सम्बदरिस। एएणं बुका बुफजागरियं जागरंति । जे मे अणगारा जगवंतो इरियासमिया नासासमिया. जात्र
( सुचतंति) निसावशत्वम्। (जागरियतं ति) जागरणं
जागरः सोऽस्यास्तीति जागरिकस्तजावो जागरिकत्वम् । गुत्तवंजयारि एएणं अबुछा अबुरुजागरियं जागरंति ।।
(अहम्मिय ति) धर्मण भुतचारित्ररूपेण चरन्तीति धार्मिकाजे इमे समणोवासगा अभिगयजीवाजीचा जाब विहरं स्तनिषेधाइधार्मिकाः । कुत एतदेवमित्यत माह-(महम्माण ति एपणं मदक्खजागरियं जागरंति। से तेणढणं गोयमा! या) धर्मे भूतरूपमनुगवन्तीति धर्मानुगास्तभिषेधावधर्मानु . एवं वुच्च तिविहा जागरिया जाव० मुदक्खुजागरिया।
गाः । कुत एतदेवमित्यत माह-(अहम्मिट्ठा) धर्मः भूतरूप
पवेटो वल्लभः पूजितो बा, येषां ते धर्मः। धर्मिणां पाश्टा (पुका बुद्ध जागरियं जागरंतिसि) बुद्धाः केबलावबोधन ते च
धर्मीयाः। भतिशयेन वा धर्मिणो धर्मिष्ठाः तनिषेधात् मधर्मिष्ठाः, बुद्धानां व्यपाढा काननिद्राणां जागरिकाप्रबोधो पुष्जागरिका, |
अधर्मेष्टाः अधर्मी वा मत एव । (महम्मक्वाई) धर्मतां जाग्रति कुर्वन्ति (अबुद्धा भवुजागरियं जागरंति ति)
माक्यान्ति इत्येवंशीला अधर्मास्यायिनः, अथवा-न धर्मात अकाः केवल कानाभावेन यथासनवं शेषकानसद्भावाच बुद्ध
क्यातिर्येषां ते अधर्मक्यातयः (अहम्मपलोइ तिन धर्ममपासरशास्ते च प्रबुद्धानां प्रस्थकानवतां या जागरिका सा |
देयतया प्रसोकयन्ति ये ते अधर्मप्रमोकिनः। (अहम्मपमजण तथा तां जाप्रति । न० १२ श०१ उ०।
सि)न धर्म प्ररज्यन्ते प्रासजन्ति ये ते अधर्मप्ररजना एवं जागरिता धम्मीणं, अधम्मियाणं च मुत्तिया सेया। . | च-(महम्मसमुदायार सि), धर्मरूपधारित्रात्मकः सबच्छादिवभगिणीए,अकहिं जिणो जयंतीए ॥२०६॥
मुदाचार समाचारः सप्रमोदो चा प्राचारो येषां ते तथा
अत एव-"महम्मेणं चव" इत्यादि । अधर्मेण चारित्रपच्छजणवर कोसंवी पयरी, तस्स मधियो सताणितो ध्रुतविरुद्धम्पेण वृत्ति जीविका कल्पयन्तः कुर्वाणां इति । राया, तस्स भगिण। जयंती, तीए भगवनो बद्धमाणो ज०१२०२ 30 जन्मतः षष्ठयां रात्री भवे रात्रिजागरणपुचितो-धम्मियाणं कि सुत्तिया सेया, जागरिया वा सेया?।। स्पे उत्सवविशषे च । विपा०१७०२०रा०। “छट्टे दिव. भगवया बागरियं धम्मीणं जागिरिया सया, णो सुत्तिया, से जागरियं करेति" रात्रिजागरणरूपमुत्सबविशेषम् । भ. मधम्मियाणं सुत्तिया सेया, णो जागरिया। (अकस्मुित्ति)। ११ २०११ उ०। प्रत्तीए एवं कहियवान् । नि० चू. १६ उ०।
जागो-स्त्री० । जागू-श।जागरणे, अ-जागराप्यत्रावाच । जीवाश्च न सुप्ताः सिद्धयन्ति। किं तर्हि जागरा एव इत्याह
"निशान्त्ययामे जागर्या गुरोचावश्यककणे" जागर्या जागमृत्तत्तं भंते ! साह, जागरियत्तं साहु । जयंती! प्रत्येग- रणं निकात्याग इत्यर्थः। ध० ३ भधिः । झ्याणं जीवाणं मुत्तत्तं साहू, प्रत्येगश्याणं जीवाणं
जागसहस्सभागपमिच्छय-यागसहस्रभागप्रतीच्चक-त्रियाभागरियत्तं साहू । सेकेणटेणं भंते ! एवं बुच्चइ-अस्ये- गाः पूजाबिजेषाः ब्राह्मणप्रसिद्धाः तत्सहस्राणां भागमशं गया. जाव साहू ?। जयंती ! जे इमे जीवा अहम्मिया | प्रतीच्छति अभव्यत्वात् यत् । तथाभूते, औ० ।। महम्माण्या अहम्मिट्ठा अहम्मक्खाई अहम्मपलाई जागिणिपुर-जाकिनीपुर-नास्वनामख्याते पुरे, "इमो असिमहम्मपलजमाणा अहम्मसमुदायारा अहम्मेणं चैव विति। रिजागणिपुरे सिरिमहम्मदसाहिसमाहिरात्रो"ती०४६ कल्प।
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(१४४) जागिणी भनिधानराजेन्द्रः।
जागविमाण जागिणी-जाकिणी-स्त्री०। हरिभरूसरेः प्रतियोधिका नि. झायक-त्रि०।ज्ञातरि, विके, पं० चूल। नं. 'जाणयति'कायको घेण्याम, "महत्तराया जाकिम्या, धर्मपुत्रेण चिन्तिता। प्राचा- झातेति । भौ०। यहरिभद्रेण, टीकेय शिष्यबोधिनी ॥१:"श०१०। जाणगय-यानगत-त्रिका यानानि शकटादीनि । तत्र गते,ौ०। माडी-देशी-गुरुम, दे०मा०३वर्ग।
जाणगसरीर शरीर-न०।"जागति" हायको, को पा माण-पान-न । या-भावे ल्युट् । गमने,वाचा स्थास.। तस्य शरीरं शरीरम् । जीवरहिते जानतः शरीरे, उत्त. १ सूत्रः । उपचितशक्त राक ममराष्ट्रादिरक्षां कृत्वा रिपोरास्क- अनि० ० । ज्ञातवान् इति कः । प्रतिक्षणं शीर्यत' इति म्दनाय गमने पायायायत नेमेति यानम् । स०१सम०। शरीरम् । कस्य शरीरम शरीरम । अनु। करणे-क्युद् ।गमनसाधने रथादौवाचायानानि सामान्यातः। जाणगसेवा-सेवा-स्त्रीज्ञातुः सेवायाम, "जिकासा तदसके
पण बाहनामातासाजीयानानिमीकादीनि। बाहना था, सदनष्ठानम क्षणम"1०२३० । निघेसरादीनि । पशा.६० । “विट्ठी जाणं सुउत्तम" यानं जाणगिह-यानग्रह-न० । या यानानि तिष्ठन्ति । तस्मिन् पहे. पानमा सूत्चममतिप्रधानमटिकमित्यर्थः । ग.१ अधिol | “जाणगिहाणि चा"। भाचा.२४०२० २ उ०। बाबाइममिति। रा०ा या रथादिकमिति । प्रश्न०५ सम्ब. द्वारा सामो०। स्था। यानानि शकटादीनि । रा०।
| जाणण-ज्ञान-10 1 अवगमने, भाष०६० । प्रा०। श्री०स्था०यानं गमयादि । अनु० जी०।।
जाणणा-का-श्री.ज्ञान का । संविती, भा०म० डिकाम। पानं गन्त्रीविशेष इति । प्राइन, सम्बद्वार। यानं लघुग
जाणणाणय-काननय-पुंगमयदे,"जाणणाणयो" कामोप. श्रीति । भ०८ २०००यानं शिक्षिकादीति। स्था०१० मा
सब्धिमात्रा भविशेषितं व्यास्तिक प्रत्यर्थः। मा० ३.०। भाचायान इस्वादीति । मा०कामा०म०। उत्तर जाणणासंखा-कानसंख्या-खी। "जाणणा"कानं संख्यायते "जाणं तुमासमाई" यानानि पुनरबादीनि, माविशयात निश्चीयते बसवनयेति संगया, कानरूपा संख्या जामसंक्या। गजवृषभरथशिविकादीनि। वृ०१०। "मत्तारिजाणा पक्ष- संख्याभेदे, अनु। साातं जडा-जुत्ते णाममेगे जुचे, जुत्त णाममेगे मजुत्ते, मजुचे मेतिं जाणणासंखा। जाणणासंखा जो जं जाण । णाममेग जुने, भत्ते जाममेगे मजुत्ते ।( स्था०) च..| तारि जाणा पश्चता । तं जहा-जुत्ते खाममेगे जुत्तप
तं जहा-सई सदियो,गणिभं गणिओ,निमित्तं नेमित्तिभो. रिणए जुचे णाममेगे मजुत्तपरिणए ४ ( स्था)।
कालं कालणाएं। बेज्जयं वेज्जो। सेतं जाणणासंखा। पत्तारि जाणा पछचा । तं जहा-जुत्ते णाममेगे जुत्तकवे "से कितं जाणणासंखा" इत्यादि । "जाणणा" कान संख्यायते जुत्ते खाममेगे मजुत्तकवे ४ ( स्था० ) चत्वारि जाणा निधीयते वस्वनयति संख्या, ज्ञानरूपा संख्या ज्ञानसंख्या । पएणत्ता । तं जहा-जुत्ते णाममेगे जुत्तसामे ४ " स्था०४ का पुनरियमुच्यते-यो देवदत्तादिर्यच्छदाधिकं जानाति स म०३ उ०।" अंतिवीरा महाजाणं" यान्त्यनेन मोक्षमिति तजानाति तब जाननसावभेदोपचारात्मानसंख्येत्युपस्कारः। पानम् । बारित्रे, प्राचा०१७० ३५० उ० । यात्येतदिति शेष पाठसिद्धम् । अनु०। पानम। "त्यल्यटो बहलम"॥३॥३११३॥ इति (पाणि)जाणणासक-कानशट-101 "पचक्खाणं जाणा, कप्प ज पचनास्कमर्माण ल्युट् । गन्तव्ये पत्रिका प्राव १६' गन्तव्य चत्रि० । प्राव ६ का।
का जम्मि होडकायब्वं मूलगुणवत्सरगुण तं जाणसुजाणणासु" झा-अवबोधने, धादि० पर० स० प्रनिद । "को आण- इत्युक्तलकण प्रत्याख्यानभदे, प्राष० ६०मा००। मुणी" ॥८॥४॥ ७॥इति प्रातसत्रेण जाण'मायाजाणय-का-पु०।'जाणग' शब्दार्थ, अनु० । 'जाणा मुण' जाणिग्रं-जाणिऊण । प्रा०४पाद तमं जाणयसरीर-कशरीर-
नजाणगसरीर'शब्दार्थ उत्स०१०। • कि जाणयसि कषमंडको" नि०१०१०। शापधा-जायसेवा-कमेवा-खी। 'जाणगसंवा शब्दाचा०२० स्वयें। चुरा०। उन्न सकल सेट। कृपयति । अजिज्ञपत् ।'का' प्ररणे, पुरा० उभ सक० सट् । वाच०।
जाणरह-यानरथ-पुं० । रथविशेषे, रथा विविधाः-यानरथाः, जाणं-जानत-त्रि० । अवगच्चति “अजाणो मे मुणि वृहि
संग्रामरधाश्च । तत्र संग्रामरथस्य प्राकारानुकारिणी फलकमज "जाननवगच्चन् । सुत्र०१४०५०१०। स्था।
यं। वेदिका, अपरस्य तु न जवतीति विशषः । जी०३ प्रति०। "प्रजाणता बिउस्सित्ता"सूत्र० १-श्रु.१० १०॥
जाणरूव-यानरूप-त्रि०। शिषकाचाकारवति, "समोत्यपणाउट्टी "सूत्र० १६०१०२ उगजानन जाणकवेणं" यानप्रकारेण शिविकाचाकारवतेति । २०३० खुध्यमानः। विशे० । उत्त। "प्रासुपएणण जाणया" जानता
४ उ। ज्ञानोपयुक्तन । प्राचा० १ ०८०१ उ०।
जाणवय-जानपद-त्रि। जनपदे भवः, तत पागतो वा अण् । माणत-जानव-त्रिका 'जाणं' शब्दार्थे,सूत्र०१ श्रु०५.१०॥
देशस्थे, देशादागते च । जनपदानां वृत्ती, स्त्री की। बाचा जानान-त्रि० । 'जणंत' शम्दाथें, सूत्र०१ श्रु०५०१०।
रा० ० । आचा० । सू०प्र०। “पमुख्यजणजाणषया" जन
पदे भवाः जानपदा विशिष्टार्यदेशोत्पन्ना। सुत्र०२७०१०। माणग-इ-पुं०।का-क । ब्रह्मणि, परिमते, सामपुत्रे, वुधे च ।।
"बहवे जाणवया लसिंसु" प्राचा०१ श्रु००३ उ०। बाच-अनु०। उत्त०।
जाणविमाण-यानविमान-त्रि० । यानश्च तद्विमानं च यानाव इक-त्रि० । कानिनि, सूत्र० १ श्रु० १ ० १ उ०। | वा गमनाय विमानं यानविमानम् । स्था०४ ग० ३३०।या
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(१९५०) जाणविमाण अनिधानराजेन्द्रः।
जाबगहेन नं गमनं तदर्थ विमानम् । यायतेऽनेनेति यानम तदेव विमानं जाण-का-स्त्री० । व्यावृत्तिभेद, यज्ञस्य हिंसादेतुस्वरूपफयानविमानम् । स्था०९ ग०१० यानरूपं वादनम् विमा लविदुषो कानपूर्विका व्यावृत्तिः सा तदनेदात् “जाणुत्ति गनं यानविमानम् । रा० । देवानां गमनसाधम नगराकारे वाह- दिता" स्था० ३ ठा०४ उ०। ने, “सपहं दाणं इस परियाणिया जाणविमाणा पत्ता।जाई-जाधव-स्त्री०। गङ्गायाम, "जापहवी मुहे" जातं जहा-पालए पुष्फए . जाब विमलबरे सव्वाभाद" यानं शिविकादि तदाकाराणि विमानानि देवाश्रयाणि यानवि
महण्या गाया मुख, स्था०६ ग० । विशे० । मानानि न तु शाश्वतानि नगराकाराणीत्यर्थः स्था० १० जावग-यापक-पुकायापयतीति यापकः। जी०३प्रति उपदेडा०।" दिव्वं जाणविमाणं विउठनेह "रा।
शदानादिना भव्य सत्वैरागादियापके जिने,कल्प०२ क्षण । जिबाणसाला-यानशाला-स्त्री०। यत्र यानानि निष्पाद्यन्ते तस्यां
णाणं जावयाणं" रा० । रागादीनेव सदुपदेशादिना यापशालायाम, । “ जाणसालाप्रो बा"। भाचा०२७०२ म.
यन्तीति जापकाः। ध०१ अधि० ल०। २ उ०मा० म० । दशा०। ।
जावगहेन-यापकहेतु-पुं० । यापयतीति यापकः। यापकचाची जाणाविय-ज्ञापित-त्रि०।बोधिते, "अभयकुमारेण जाणावि- हेतुश्च यापकहतुः । देतुजेदे, (दश०) तो"मा० म.दि।
"जावग" (८६ नियु) भेदव्याचिख्यासयाहजाणिम-ज्ञात-त्रि० । अवमते, प्रा० ४ पाद । “बलावलं उन्जामिगा य महिला, जावगहेउम्मि उंटलिंबाई ॥ जाणिय अप्पणो य" भात्मनो बलावसं कात्या परीषहादि- गाथादलम। अस्य व्याख्या-(नम्नामिग ति) असती माहसहनसामा विचार्य। उत्त०१०1"निरनोवमं जाणि- सा। किं यापयतीति यापकः । यापकश्चासौ हेतुश्च यापकहतु। बदुस्वमुत्तम"ज्ञात्वा विज्ञायेति। दश.१०। “महयं तस्मिन् उदाहरणमिति शेषः। उष्ट्रलिएकानीति कथानकसंस्पलिगोव जाणिया"। ज्ञात्वा स्वरूपतस्तद्विपाकतो वा परि- चकमेतत् श्त्यकरार्थः । नावार्थः कथानकादवसेयः तदं कस्विच । सूत्र.१९०२०२०।
थानकम् एगोवाणि अश्रो भजं गिरहेऊण पच्चंतं गो। पावेण माणिकण-कात्वा-भव्या विकायेत्यर्थे,प्रा०४ पाद। प्राचा खीणदबा धणियपरका कयावराहा य पच्चंत सर्वती पुरि
सा पुरतीयविज्जा य सा य महिला सम्भामिया पगम्मि नाणित-ज्ञात्वा-प्रय० । विज्ञायत्यर्थे "जाणितु धम्म महा
पुरिसे लगा तं वाणिययं सागारियंति चितिकण भणति-बच्च तहा" । भाचा. १९०६ म० १३० । प्रा०।
वाणिज्जेण । तेण भणिया किं घेत्तण बच्चामि । सा जणनाणियब्बगसामत्थजुत्त-ज्ञातव्यसामर्थ्ययुक्त-त्रि० । विक
नहालमियाभो घेत्तण बन्च उजेणिं । सगळं भरेता उज्जेणि प्तिकरणे, “जाणितम्बगसामस्थति वा विनतिउनूयंति | गतो। तार भणियो य जहा एक्केलयं दीणारेण विजह सिरसा वा एगा "मा००१०।
चितेति । बरं खुचिरं खिप्पं तो अस्थत। तेण तात्रो वीहीए माणिया-जि(का-श्री०। 'हा' अवांधने । जानातीतिका ।। उडियाभो कोण पुच्चई। मूलदेवेण दिको पुच्छिभोय। सि. "गुपचकाप्रीकिरः" ॥३॥११३५ ॥ इति क प्रत्ययः । अतो टुंतेण मूलदेवेण चिंतियं । जहा एस बराम्रो महिलया गाभलोपः ॥६॥४८॥ इति च (पाणि) भकारलापः । ततः। प्रो । ताहं मूलदेवेण भवति अहमेया उ तव विविणामि जति "अजापतष्टाप"॥१४॥ इति खियामा कैव क्रिका । स्वार्थिकः मम बि मुखस्स अकं देहि । तेण भणिय देमिसि । अनुवगने का प्रत्ययः । ततः "स्वकाजभस्त्राऽधातुत्ययकात्"॥२।४। पच्छा मूलदेवणं लो हंसो जाएऊण भागास बप्पाभोणगरस्म १०० ॥ त्याप: स्थाने पारकारादेशः । कप्रत्यया. परतःखि- मज्भे ठाकण भणति-जस्स गलए चंडस्वस्स लिमिया बामा ततः सिक्रिकेति। परिकानवल्याम्, " बीरमिव ज- न बद्धा तं मारेमि । अहं देवो पच्चा सम्वेण सोपण भीपण हा सा जे धुरंति इह गुरुगुणसमिधा दोसे य विवजंती | दीणारिकामो नट्टलिंमिश्राओ गहियाओ । विक्कियानो य । तं जाणसु जाणिय परिसं" इत्युक्त परिषद्भेदे च । नं० । ताहे तेण मूलदेवस्स श्रद्धं दिनं । मूलदेवेण य सो जराति. ज्ञात्वा-प्रव्य । विज्ञायत्यय, प्रा०४ पाद ।
मंदजग्ग! तव महिलाधुत्ते लग्गा । ताहे तव एवं कयं ण पत्ति
यति । मूलदेवेण भएणति-पहि बच्चामो जा ते दरिसीम । जाणु-जानु-न । जन धुण् । ऊरुजक्योमध्यन्नागे, स्वाथै कम्।
जदि ण पत्तियास ताहे गया अन्नाए लेसाए वियाले नवासी अवार्थे, वाच०। प्रहाउत्त“समुग्गनिमग्गगूढजा
मग्गियो। ताहे दिम्मो तत्थ एगम्मि पपसे ठिया । सो धुत्ता ए" तं० । " जाणुस्सेहपमाणमित्ते" स० ३४ सम ।
आगतो श्यरी वि धुत्तेण सह पिवेतमाढत्ता इमं च गाय:नाणकोप्परमाया-जानुकूपरमात्रा (ता)-स्त्री० । जानुपराणा
"इरि मंदिर पत्तहारी, महुकं तु गतो वणिजारो । मेव माता जननी जानुपरमाता एतान्येव शरीरांशभूतानि | परिसा सय च जीवन, मा जीवंतु घरं कयाइ पउ ॥२॥" तस्यास्तमौ स्पृशन्ति नापत्यम् । अथवा-जानुकूपराण्यव मूलदयो भात-कयलीवणपत्तवढिया, पभणामि । देव मात्रा परप्राणादः साहाय्यसमर्थः उत्मंगनिवेशनीयो वा परि- | महलपणं गज्जती मुणन तंमुहत्तमेव पच्छा। मूलदेवेगण जाणकरो यस्याः, न पुत्रलकणः सा जानुकूर्परमात्रा । अपत्यरहिता- ति । कि धुत्ते ततो पभाए निम्गतूणं पुणरवि प्रागतो नीए याम, " जाणुकोप्परमाया वि ढोत्या" नि. ३ वर्ग । शा०।। पुरतोनिओ सा सहसा संनंता अतुहिया। तो नाणपि पाणय-कापक-त्रि० । यदिनि, “जाण्याय जाण्यपुत्ताय " वणे बटुंते तेण वाणिपणं मन्वं तीए गीयपजत्तयं संभारिय। का० १.१३ भ०। विपा।
एसो लोइओ हेतू । लोउत्तरे वि चरणकरणानुयोगे एवं सी
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जाबादेत अभिधानराजेन्दः ।
जाय बो विकेड पयस्ये असदहतो कालेण विज्जादीहिं देवतं प्रायं "प्रागमिस्साए उस्सप्पिणीए चाउज्जामं धम्म पनविता"यामा पत्ता सहावयब्बो । तहा दब्वाणुओंग वि पमिवाति नाऊण महावतानीति । स्था• ग० । क्याविशेषे, कानदर्शनचारित्रेषु सहा बिसेसणवहुलो देत कायम्बो जहा कासजावणा हवा च । “माहणेणं ममया जामा तिमि ओदाहिया" "जामा" :सो सो णावगरकर पगये कुचियावण चचरी वा कज्वर त्यादि। यामा व्रतविशेषाः त्रयः उदाहताः। तद्यथा-प्राणातिबदा सिरिगुरण छलुए कया । उक्को यापकहेतुः। दश०१०। पातो, मृषावादः, परिग्रहश्व इति । प्रदत्तादानमैपुनयोः परिग्रह भावाण-यापन-न । या-णिच्-स्युद्। कालादेः केपणे,निरसने पवान्तर्भावात्रयग्रहणम् । यदि वा-यामा षयाविशेषाः। तद्यथागावाच०। वर्तने, “ मज्ऋण मुणि जाधए " यापयेदात्मानं
भष्टवर्षाद् द्वाविंशतः प्रथमः, तत ऊर्द्धमाषष्टेद्वितीयः, तत कई बर्तयेत् । सूत्र.१७०११०३३० । अट्ठमासे अजावए"। अजा
तृतीय इति । मतिबालवृष्योज्युदासः। यदि वा-यस्य ते उपपयवर्तितवान् । प्राचा०१००४ उ०। देवप्रतिपालने च।।
रम्यते संसारभ्रमणादेभिरिति यामा ज्ञानदर्शनचारित्राणीति "अह जावत्थ लूहेणं" धर्माधारं दे यापयतिस्मापाचा०१
ने उदाहता व्याख्याताः । प्राचा०१० ००१ उ० । १०० उ०।खियां युच् यापना तत्रैवार्थे यापना द्विविधा- जामझल्ल-यामवत-त्रिका "प्राल्विल्लोचालवंतमंतेरमणामतो' अभ्यतो, भावतश्च । कन्यत औषधादिना कायस्य । भावतस्तु ॥८॥२॥१५॥ ॥ ति प्राकृतसत्रेण मतोः स्थाने ''भादेशः। इन्सिगनोन्छियोपशमेन शरीरस्य कामणा । आव० ३० प्रा०२पाद । विद्यमानयामके, बाच। बावणिज्ज-यापनीय-त्रि० यापयतीति यापनीयः 'या'प्रा-जामदग्ग-जामदग्न्य-पुं० । जमदम्येरप्यत्वं यम् । यमदग्निपुत्र पणे । अस्य बावन्तस्य कर्तर्यनीयः । भाव०३० । शक्तिसम- पशुरामे, वाच । विशे०। .. विते, "जाबणिज्जाए जिसीहियाए" अत्र नैषधिक्येति विशेष्यम, यापनीयति विशेषणम् । 'या' प्रापणे । अस्य णि.
जामद-यापार्द-न० । पाम प्रहरं तस्थाईम यामाईम । चतु. सन्तस्य युगागमे यापयतीति यापनीया प्रवचनीयादित्वात्
घटिके समयविशेष, ग०१ अधिक। कर्तर्यमीय तया शक्तिसमन्वितयेत्यर्थः। ध०३अधिक मा०चूजामाह-यावत-30 गाणिज्जतंत-यापनीयतन्त्र-न। प्रन्यजेदे, ध०२ मधिः। । ४।४०६ ॥ इति प्राकृतसूत्रेण षकारादेर्महिं इत्यादेशो वा । नावय-यापक-पुं० ।'जावग' शब्दार्थे, जी०३ प्रतिः ।
प्रा०४ पाद। यत्परिमाणमस्य मतुप् । यत्परिमाणे, साकल्ये,
अवधी व्याप्ती, माने, अवधारणे च । अन्य० । वाच । “जाम नाबयहेउ-यापकहेतु-पुं० । 'जाबगहेउ' शब्दा, दश०१०। न निवर कुंभमह, सीहचपेमचटक । तामसमत मब. नाबलिपुर-जावलिपुर-न० । पुरभेदे, तथा च हारिभकारक- गलहं, परपश्वज्जा दक।" प्रा०४ पाद । वृत्ती,"श्रीजावलिपुरे रम्ये, वृत्तिरेषा समापिता" हा०३२ मष्टा जामान-जामात-पुंor "उहत्यादौ"॥।१।१३१ ॥ इति प्राकृत गावि(जंपिय-यापित-नि० । कालान्तरं प्राप्ते, “जंपिय तिल
सूत्रेण कारस्योकारः । प्रा०१ पाद । जायां माति मिनोति कीमगाय ति" यापिताः कालान्तरं प्राप्ताः । ०१ ध्रु०१७०।।
मिमीत वा। तृच । दुहितपती, बसने स्वामिनि च । वाचा बाम-याम-पुं० । यम्-धम्। समये, प्रहरे च । “यामो जात
जामाउय-जा (या)मातृक-पुं०।हितवर्तरि, विपा० १७.
३ म० । तथापि नायातः"पाच धासवरात्रेर्दिनस्य च चतुर्थभागः । स्था० ३ ग०२ उ०।
जामि-जा (या) मि-स्त्री० । जन-मिण--दिः । अथवातो जामा पत्ता । तं जहा-पढमे जामे मज्झिमे जामे |
यम-न्। अगिन्याम, हितरि,स्नुषायाम् कुलानियाम, सनि
हितलियाम, "यामयो यानि गेहानि" । बाबती . "मा. पाच्छम जाम। तिाहयामाहभाया कवालपमत्त धम्म बना। मी एगे" गत्वेत्यर्थ, स्था०१०। न,सवणयाए तं जहा-पढमे जामे मजिकमे जामे पच्छिमे जामेजारिणी-यामिनी-स्रो । यामाखिसक्याताः सन्त्यस्य बाहु. एवं० जाव केवलनाणं उप्पामेजा पढमे जामे मज्झिमे ल्ये इनि। रात्रौ. दरिकायां च " निसा जामिणी राई" को। मामे पच्छिमे जामे ।
| जामिय-यामिज-पुं० । अगिनीपुत्रे," प्रसाजो हिजो दत्ता, "तो जामा" इत्यादि । स्पष्टम। केवलं यामो रादिनस्य च | कालिकाचार्यजामिजः" । प्रा० क०। चतुर्थभागो यद्यपि प्रसिकस्तथापीर त्रिभाग एव विवक्तितः जामणकसम-जपाकसम-न । रक्तपुष्पस्य वृकभदस्य पुष्प, पूर्वरात्रमध्यरात्रापररात्रलवणो यमाश्रित्य रात्रिः त्रियामा इत्यु- “जामुणकुसुमेई वा" राधा व्यते । एवं दिनस्यापि । अथवा-चतुनाग एव सः । कि
| जायेय-जामेय-पुं० भगिनीपुत्रे, "राज्ये निवेश्य जामेयं, प्रमविद चतुर्यों न विवक्षितः त्रिस्थानकानुरोधादित्येवमपि प्रयो यामा इत्यभिहितमेव । " याव ति" करणादि
ज्यां स्वयमग्रहीत" प्रा० ० । श्यम्-"केवलं घोहिं बुज्झेजा मुं भवित्ता मागाराभी
जाय-जात-न० जन-क्त। समूडे, व्यक्ते, जन्मनि । वाया जाती, अणगारियं पम्वपज्जा केवलं बंजरवासमावसेजा । एवं प्रकारे च। स्था०१०गा जातमुत्पत्तिधर्मिकम् । तच व्यक्ति मंजमेणं संजमज्जा संवरणं संवरिन्जा भाभिणिवोदियणाणं | वस्तु । अतो भाषायाः जातानि व्यक्तिवस्तुनि भेदाः प्रकाराः। सप्पामेज्जा" इत्यादि । स्था० ३ ठा० २ उ० । प्राणातिपा- | (स्था०) जातं प्रकारः। स्था० म०१ उ०। "अट्टजाप वि अबिरमाणादिक व्रतविशेषे, प्राचा० १ ८०1101 बटवं" जातशब्दा दवाचकः। नि० चू०१3०।
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(१४५२) जाय अनिधानराजेन्द्रः।
जायगापरीसह 'जाय 'सद्दो प्रकारवाची। नि०० १६ उ०। प्रा० म०।०। सुई जायकम्मकरणे" जातकर्मणां प्रसवव्यापाराणां करणं उत्पन्ने, त्रि। स्था०1०सूत्र०ा उत्तवृकारणजाए" | विधानमा तस्मिन्, स्थाo०। औ०। जाते समुत्पन्ने, दर्श०४ तत्व । “पत्थ पाणा अणुप्पसूया पत्थजायकोकहन-जातकतहल-त्रि० । जातं कुतूहलं यस्य स पाणा जाया " नानादेशजविनयानुग्रहार्थमकाथिकान्येवैतानि । प्राचा०३७०१ अ० उ०। प्रवृत्त, रा०ा औ० विद्यमा.
जातकुतूहल। जातीत्सुक्ये, रा० । सु०प्र० । ने च । विशे० । पुत्र,पुं० । सरपायं च जायाप" सूत्र०१ श्रु०४
जायग-जातक-न० । जातस्य हितम-कन् । जातस्य शुभाशुभ०२ उ "जाए फले समुपो" सूत्र०१ श्रु०४ ०२३० "धमो निर्णायक वृहज्जातकादौ प्रन्थे, जातकर्मरूप संस्कारभेदे च । सिणं तुम जाया"(जायसि)पुत्र! भ० श०३३ १०।०।। वाच०। जातस्य निकेपः षधिः तथा चाचाराकनियुत्तो
जायक-न । जयति गन्धान्तरं जि-एषुम् । पीतषणे सुग......", जाए छकं च होई णायब्वं ।
न्धिकाष्ठे, याच० । जगनशब्दस्य तु षटूनिकेपोऽयं बातम्यो नामस्थापनाअन्य क्षेत्र | याचक-त्रिका याच-एषुस्। याश्चाकारके,वाचा देवैर्भगवत्सकथाकालभावरूपः तत्र मामस्थापने करणे, व्यजातं तु नो मा- दो(सकथा-जानुः गृहीते सति भावका देवानतिशयनक्या यागमतो व्यतिरिकम । नियुक्तिमायाकारो गाथापश्चान चितवन्तः दवा प्राप तेषां प्रचुरत्वान्महता यक्षन याचनाऽभिह. दर्शयति
सा माहुः-"हो याचकाः" इति।तत एव याचका रुदामा०म. उप्पत्तीए तह पज्ज-बंतरे जायं गहणे वि॥१॥
प्र० । “तेच सदा भग्गिसकदधादीणि जायंति ताहे देवर्ति तपतुर्विधम्-उत्पत्तिजातम, पर्यवजातम, भन्तरजातम, ग्रहण
भणितं श्मे केरिसगा, "जायगा" ततो जायगसहो जातो। ताहे
अम्गि घे ते सपसु सपसु गेहेसु ति" प्रा००१०। जातमा तत्रोत्पत्तिजातं नाम-यानि च्याणि भाषावगंणान्त:पातीनि काययोगगृहीतानि वाग्योगेन निस्ष्टानि भाषावनोत्पद्य
याजक-पुं०। याजयति-यज्-णिच्-एषुछ । धनादिलाभाय प. न्ते तत्पत्तिजातमा यदव्यं जापात्वेनोस्पन्नमित्यर्थःपर्यवजातं
राथै यज्ञकर्तरि, ऋत्विगादो, वाच । “सो तस्य पव पकितैरेव वाग्निसृष्टभाषाद्रव्यः' यानि विणिस्थानि भाषावणान्त सिको,जायगेण महामुणी"याजकन यककारकेण । सत्स०२६षला गैतानिसृष्षयपरघातेन भाषापर्यायवनोत्पद्यन्ते तानि द्रव्या
जायण-याचन-ना याच्-ल्युट् । याञ्चायाम्,वाचा पश्चा णि पर्यवजातमित्युच्यते। यानि स्वन्तराक्षे समभेण्यामेव निसृष्द
प्रार्थने, प्रव० ८६ द्वार । मार्गणे च । पाव० ४ अ०। । व्यमिति तानि भाषापरिणामं भजन्ते तान्यन्तरजातमित्युच्यते । यानि पुनन्याणि समश्रेणिविश्रीणस्थानि भाषास्वेन परि
यावन-न । कदर्थने, प्रभ० २ आश्रद्वार।। णतानि कर्णशकुलीविवरप्रविष्टानि गृह्यन्ते तानि चानन्तप्रदे. जायणजीवण-याचनजीवन-त्रि०ा याचनेन जीवनं प्राणधारशिकानि कन्यतः केत्रतोऽसंख्येयप्रदेशावगादानि कामत एक- णमस्येति याचनजीविनः । भार्षत्यादिकारः । उत्स०१५ म० । यादि यावदसंख्येयसमयस्थितिकानि भावतो वर्णगन्धरसस्प
याचनजीविन्-190 । याचनेन जीवनशीले च । “जाणाहि मे वन्ति तानि चैवंभूताग्रहणजातमित्युच्यते । उक्तं द्रव्यजातम । केत्रादिजातं तु स्पष्टत्वानियुक्तिकारेण नोक्तम । तवंभूतं यस्मि
जायणजीविणोति" उत्त०१२ अ०। न्केत्रे भाषाजातं व्यावयेते यावन्मानंया के स्पृशति तत् के. जायणा-याश्चा-स्त्री०। याच्-नक प्रार्थनायाम, बाचाकाo) प्रजातम् । एवं कालजातमपि। नावजातं तु तान्येवोत्पत्तिपर्यवा- उत्तामार्गणे च । श्राव०४ अ०। म्तरग्रहण व्याणि श्रोतरि यदाशब्दोऽयमिति बुकिमुत्पादय- यातना-स्त्री०। चुरा० यत-युच् । तीब्रवेदनायाम,पाच०।तीति। भाखा०२०४०१उ०। गमनक्रियायाम,आचा० दर्धनमायाम, प्रभ०१प्राथ. द्वार।दएको निग्रहो यातना वि१ श्रु०५ १०४ उ० । गते,
त्रिसूत्र०१ श्रु०३०१०। प्राप्ते नाश इति पर्यायाः । आव०६अ। “जायणा करणसयाणि" च । “मसुखे सिया जाए न दूसपज्जा" मूत्र. १ श्रु०१० अ०। कदर्थन हेतुशतानि । प्रश्न० ३ आश्रद्वार। नायंत-याचमान-त्रि०। याचनं कुर्वति, "जायंता पाणियं"जायणापरीसह-यानापरीषड-पुं०। याचनं याचा प्रार्थनेस्ययाचमानाः पानीयम् । प्रइन० ३ आश्र द्वार।
र्थः । सैव परीषहो याचापरीषहः । प्रव० ६ द्वार । उत्त० । जायअंधारूवग-जातान्धरूपक-पुं० । जातमुत्पन्नमन्धकनयन
परीषहभेद, (श्राव) निकोहि वस्त्रपात्रानपानप्रतिश्रयादिपयोरादित एवानिष्पत्तेः कुत्सितमरूपं यस्यासौ । जातान्ध
रतो लब्धव्यं सर्वमेव शालीनतया च न याचा प्रत्याड़ियते ।
साधना तु प्रागल्भ्यन्नाजा सा जाते कायें स्वधर्मकाय परिपाकरके. विपा० १७०१०।
सनाय याचनमवश्यं कार्यमित्येवमनुतिष्टता याश्चापरीषडविजजायकप्प-जातकल्प-पुं० । कल्पभेदे, जाता निष्पन्नाः श्रुतसं-|
यः कृतो भवति । श्राव०४०। प्रव. पं० सं० प्रा० चून पपेततया लब्धात्मनाभाः साधवस्तदव्यतिरेकात्कल्पोऽपि
___याश्चापरीषहमाहजात उच्यते । ध०३अधि०। पश्चा०।
मुक्करं खलु भो निचं, अणगारस्स भिक्खुणो। मायकम्म-जातकर्मन्-न । जातस्य कर्म । मन्त्रवत्सपिंप्राश- |
सव्वं सेजाइ त होइएपस्थि किंचि अजाइतं ॥ २० ॥ मादि। संस्कारभेदे, वाच । नाबच्छेदादिके प्रसवकर्मणि च।
गोयरग्गपविट्ठस्म, पाणी णो मुप्पमारए । “पढमे दिवले जायकम्मं करेति" जातकर्म प्रसवकर्म नावफेदननिखननादिकम् । शा० १ श्रु०१०। "णिवत्तेन सेओ श्रागारवासो त्ति, इ भिक्खू न चिंतए ॥॥
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(१४५३) जायणापरीसह
अनिधानराजेन्डः।
जायमजायपारिट्टावाणिया पुष्करसत्रम दुःखेन क्रियते इति दुष्करम दुरनुष्ठानं समुर्विशे. माना महासचा ज्ञानाद्यनिवृदये महापुरुषसेवितं पन्याजमपणे । निरुपकारिण इति विशेष द्योतयति । भी इत्यामन्त्रणे । नुवजन्तीति । सूत्र०१ श्रु० ३ ० १ उ०। नित्य सर्वका यावज्जीवमित्यर्थः। अनगारस्य निक्कोरिति। चः
मायणी-याचनी-स्त्री० । याच्यतेऽनयति याचनी । भाषानेदे, प्राग्वत् । किं तत पुष्करमित्याह-यत्सर्वमाहारोपकरणादि (से) तस्य याचितं नवति । नास्ति किश्चिद दन्तशोधनाद्यप्ययाचितं
स्था०४०१ उ० । याचना कस्यापि वस्तुविशषस्य देहीति सतः सर्वस्यापि वस्तुनो याचनमिति गम्यमानेन विशेषेण दु
मार्गणरूपे भाषाभेदे, प्रशा० ११ पद । भ० । दश। संधा। एकरमित्यस्य सम्बन्ध इति सूत्रार्थः ॥२८॥ ततश्च गोचरसूत्रम् जायतेय-जाततेजस्-पुं० अग्नी,"जायतयं न इच्छंति" दश०६ गोरिव वरण गोचरो, यथाऽसौ परिचितापरिचितविशेषमपहा. | अ०। "जायतेयं समारम्भ, बहुप्रो रुभिया जणा। अंतो धूमेयैव प्रवर्तते । तथा साधुरवि भिक्षार्थ तस्यानं प्रधानं यतोऽसौ ण मारेक, महामोहं पकुब्बह" स० ३० समः। एषणायुक्तो गृगहाति। न पुनरिव। यथाकथंचित्तस्मिन् प्रवियो
जायथाम-जातस्थामन्-त्रि० । उत्पन्नयले, "वसभी दब जाबगोचराप्रप्रविष्ठः तस्य पाणिस्तो (नो) नैव सुखेन प्रसार्यते पि. रामादिग्रहणार्य प्रवर्तते इति सुप्रसारः स एव सुप्रसारका क
थामे" गौरिवोत्पत्रबलः। स्था०६ ठा0। पंहि निरुपकारिणा परःप्रतिदिनं प्रणयितुं शक्य उत्तरत्र,इति. जायपक्ख-जातपक्क-पुं० । जाततस्तुरुहे, " जायपक्सा जहाईशब्दस्य निनकमत्यादित्यस्मातोः श्रेयानतिशयप्रशस्योऽगा- सा" उत्त० २३ म०। रवासं गास्थ्यं तत्राहि म कश्चिद याच्यते, स्वभुजार्जितं च
जायपुंखाइ-जातपुख्याति-पुं० । उत्पन्नगुणपुरुषविवेकप्रग्याती, दीनादिभ्यः संविभज्य भुज्यते इत्येतद्रिकुर्न चिन्तयेत् । यतो
नत्परं जातपुंख्याते, घा० ११०। गृहबासो बहुसाबयो निरषयवृत्यर्थ व तत्परित्यागस्ततः स्वयं पचनादिप्रवृत्तेभ्यो गृहिज्यः पिएकादिग्रहणं ज्याय्यमिति
जायफल-जातफल-न० । पुत्रम्पे फले, "जायफले समुप्पो" मावः । इतिस्त्रार्थः ॥ २९॥
जातः पुत्रः स एव फलं गृहस्थानां तथाहि पुरुषाणां कामभी'सांप्रतं प्रामद्वारं तत्र "दुकर बमु भो नि" इत्यादि । सूत्रम् ।
गः फलम् तेषामपि प्रधानकार्य पुत्रजन्मेति। सत्र० १ भु.४ मर्थतः स्पृशन्नुदाहरणमाह-जायण गाह
प्र०२००। जायणपरीसहम्मि य बलदेवो इत्थ भाहरणम् ॥
जायमजायकप्प-जाताऽजातकल्प-पुं० । कल्पभेदे, (पं.ना.) माशापरीषहे बलदेवोऽत्र नवति (आदरणम) उदाहरणम् । अत्र
जातमजावो अहणा, दोपह दि एते समं तु वच्चंति । संप्रदाय:-"जया सो वासुदेवो सम्बं बहंतो सिद्धत्येणं परिवा जातं णिप्पछति य, एगहुं होति णायन्वं ।। हिमो कराहस्स सरीरंसकारेकयसामाश्यो लिंगपद्धिज्जियो जातमजातं करणं, जाते करणे गती तिहा निष्ठा । तु गोसिहरे तवं तप्पमाणो, ण फहं भिचाण भिक्ख अली.
पजाए करणम्मि तु भ-भतरितं गती जाइ । इस्सं तणकटाहाराण भिक्खं गेपहति । न गामं न नगरं प्र. सियत्ति। तेण सो णाभियासिनो जायणपरीसहो एवं नका.
जातं खलु णिप्पमं, मुत्तेण ऽत्येण तदुभएणं च । पब । भएणे जणंति-बलदेवस्स भिक्खनमंतस्स वो ज.
चरणेण य मंजुत्तं, बतिरित्तं होति य अजातं । . जो तस्स स्पेण बत्तो ण किंचि भरणं जाणत्ति तबित्तो चेव जातकरणेण निम्मा, नरगतिरिक्खा गती न दोलि जवे । बेटुति तेण न सा दिडति गामनगरादि जहा पमियाहितो चेव
अहवा वि तिहा चित्रा, नरगतिरिक्खा मणुस्मगती।। भिवं जायर ति। एस जायणापरीसडो पसत्यो" एवं शेषसाधुनिरपि याशापरीषदः सोढव्य इति । सत्त...।।
दो वेमु वि तिपिद गती, निस्मा वेमाणिएमु उवउत्ती। "परदत्तोपजीवित्वात, यतीनां नास्ति जीवितम् । यतातो या.
चउसु चि गतीमु गछति, अमरिं प्रजातकरणेणं । बता पुःखं, काम्ये नेच्छेदगारिताम् ॥१॥" प्रा०म०.०यो एसो जातमजाते, कप्पो अभिहितो क्याणिं तु | पंजा। गशालवृत्ती-नायाचितं यतीनां यत्, परदत्तोपजीविनाम। या. याणि जायमजायकप्पं समं चपयंति । जातो निष्पक्ष भादु प्रतीच्छेत्त-बच्चत्पुनरगारिताम् ॥१४॥ ध०३ अधिः।
इत्यर्थः । प्रहबा-जायकम्पो संविम्गगीयत्थाणं, श्यरेमि सांप्रतं याशापरीषदमधिकृत्याह
संबिम्गासचिगाणं, भगीयत्याणं मजायकप्पो । ज जापकरणं सदा दत्तेसणा मुक्खा, जायणा दुप्पणोद्धिया (६)
जायकप्पो असदूतमजातमित्यनर्थान्तरम् प्रजातकरणमज़ात
कल्पः जायकरणे वि दो नरगतिरिक्खजोणीय गईभीबिनामा, बतीनां सदा सर्वदा दन्तशोधनाद्यपि परेण दसमेषणीय
अजायकरणे चउसु विगासु अनयार गई गच्छा जायममुत्पादाषणादोषरहितमुपभोक्तव्यमित्यतः धादिवेदनातांना यावज्जीव परदसैषणादुःखं भवति । अपि चेयं याचाप
जायकरणा । पं००। रीषहोऽपसत्वैर्दुःखेन प्रणोद्यत त्यज्यते । तथा चोक्तम्
जायमजायपारिद्वावणिया-जाताजातपारिष्ठापनिका-श्री० । "डिज्झार मुहलावरणं, वाया घोलेई कंठमज्जम्मि। द्वि० ब० । जाताजातपारिष्ठापनिकयाः, (ग) कह कह कई हिययं, देदि ति परं भणंतस्स ॥१॥
जाताजातस्वरूपं यथागति शो मुखे दैन्यं, प्रात्रस्वेदो विवर्णता।
"माहारम्मि जाया, सा दुविहा हो पाएपुन्बीए । मरणे यानि चिहानि, तानि चिन्दानि याचके ॥२॥"
जाया चेव सुविहिया, नायव्वा तह प्रजाया य॥१॥ इत्यादि । एवं दुस्त्यजं याशापरीषहं परित्यज्य गताऽभि- प्राहाकम्मे य तहा, लोजविसमाभिभोगिए गहिए ।
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(१४ ) जायमजायपारिद्वावणिया अन्निधानगजेन्द्रः।
जाया एएण हो जाय, वोच्छ से विही वोसिरणं ॥२॥" जायरूवकंग-जातरूपकाएम-न० । रत्नप्रभायाः पृथिव्याः षाप्राधाकर्मणि च तथा लोना गृहीते, विषकृते गृहीते, मक्कि
डशसु काएमेषु त्रयोदशे काएमे, स्था० १० ग०। कादिविपस्या जाते, प्रानियोगिक वशीकरणादिमन्त्राऽभिसंस्कृ | ते, ततोऽभ्यधारवादलितो ज्ञात सति पतेनाधाकर्मादिदोषेण
जायव-यादव-पुं० । यदोरपत्यम् । यदु-अण। यदुवंशजे, "पजाता स्यात् । (मे) तस्य विधिना न्युत्सर्जनं वक्ष्ये ॥२॥
ज्जुगणपविसंवणिरुकणिसढउसुयसारणगयसुमुहम्मुहाई" एगंतमणावाए, अश्चित्त घमिले गुरुवा? ।
णं जायवाणं " । प्रद्युम्नप्रतीपशाम्बानिरुद्धनिषधाल्मुकबारेण प्रकमित्ता, तिहाणं सायणं कुज्जा ॥ ३॥"
सारणगजसुमुखदुर्मुखादीनां यदारपस्यानाम् । प्रश्न. ४
आश्रद्वार। चीन वारान श्रावणं कुर्यात् , अमुकदोषादिदं त्यज्यते इति पिकचरेत ॥ ३॥
जायवय-जातवेदम्-पुं० ।जातान् प्राणिनः विन्दते जठरानल"भायरिए य गिलाणे, पाहुणए पुखभे सहस लाने।
स्बेन । 'विर' लाभ। असुन्। वहीं, “जायवेयं पापहि हणाह एसा उबदु अजाया, बोरुसि विही वोसिरणं ॥४॥" |
जभिक्खुं अवमन्त्रह" जातवेदसमग्निम् । उत्त० २२ अ ।
चित्रकवृके च । वाच०।। प्राचार्यार्थ तथा दुर्लभे विशिष्टे अन्ये सति सहसा च तल्लाभे जाते सति इत्यादि । हेतोरधिकग्रहणं स्यात् । एषा अजात
जायसंसय-जातमंशय-त्रि० । जातः संशयो यस्य स जातपारिष्ठापनिका ॥३॥
संशयः । उत्पन्नसंशये, सू०प्र०१पाहु। ०। का०।०प्र०। " पगंतमणावाए, अचित्ते मिले गुरुवढे।
ज०। रा०। पालोए तिरिण पुजा, तिढाणं सावणं कुज्जा ॥ ५॥" जायस-जातश्राक-त्रि० । जाता प्रवृत्ता श्रका इच्छा. मालोके प्रकाशे शुक्राहारस्य नान पुान् कुर्यात्, प्राधाकर्मादिम् | विशपो यस्यासौ जातश्राद्धः । प्रवत्तेच्गविशेष, शा०१४०१ सगुणशे एकः। उत्तरगुण दुष्ट तु हो, इति विशेषः। पूर्ववत् श्रि- ०। चं० प्र०। सू०प्र० । रा० ज० । नि०। औ०। भाषणं कुर्यात, पत्रमुपकरणविषयेऽपि जाताजाते पारिष्ठाप- जाया-यात्रा-सा । या-छ्न । जिगोषया राकां गमने, गम. निककेय इति । ग०२ अधि०।
नमात्र, देवोद्देशनोत्सवलेदे, रथयात्रादौ च । बाचा निर्वाह जायमजायाहार-जाताऽजाताधार-पुंग। आवश्यकपारिष्ठापनि- ! च। "जारस्स जाता मुणि तुंजपज्जा"। यात्राथे पञ्चमहानत. कानियुक्त्युक्तजातास्यपारिष्ठापनिकाविधिके, (ग) “जायम- भारनिर्वाहणार्थम् । सूत्र०१७०७० भ०। जायाहारे " (जायमजायाहारे सि) मकारस्यालाक्कणिकत्वात जाया-स्त्री० । जन-या। भार्यायाम,(भ.)। स्रावन जायाजाताधारः । पात्रश्यकपारिष्ठापनिकानिर्युक्स्युक्तजातास्यपारि. म्बयोः । कान्ताजनन्योः, प्रति० । भ० । छापनिकाविधिक इत्यर्थः । ग०२ अधि० । जाताजाताहार- "कृताकृताहारे,(ग०) "जायमजायाहारे"
समणोवामगस्स गं भंते ! सामाध्यकमस्स समणोवा(जायमजायाहारे सिमकारस्यालाकणिकत्वात् । जातः सं.
सए अस्थमाणस्म केइ जायं चरेजा।सणं भंते ! किंजापन्नोजातश्चासंपन्न बाहारो यस्यासौ जाताहारः । कदाचित् यं चरइ, अजायं चरइ। गोयमा! जायं चरइ, नो अजाय कताहारः कदाचिदकताहार इत्यर्थः । तत्र शुद्ध लब्धे जाता- चरइ । तस्स ण ते! तेहिं सीलव्ययगुणवरमणपञ्चकवाहारपलब्धे, मारवा अन्धे, अजानाहार उक्तं च-"अलब्ध- णपोसहोवासेहिं सा जाया अजाया नवइ । हता तपसो बुकि-लेग्ध देवस्य धारणेति"ग २ अधि० । पात्रामात्राहार-पुं० । यात्रायै मात्रयाऽऽहारी यस्या
जबइ । से केणं खाश्यं अणं नंते ! एवं बुच्चइ-जायं सौ यात्राबास । संयमस्वाध्यायादिनिर्वाहाय मात्रयाss
चरइ, नो अजायं च । गोयमा! तस्म णं एवं जबदारं कुर्वति, “जायमजायाहारे" अथवा-यात्राय मात्रया.
नो मे माया, णो मे पिया, नो मे जाया, णो मे भइणी, नो ऽऽहारो यस्यासौ यात्राहारः । माषत्वात् चेत्थं सिद्धिः । तत्र मे भजा, नो मे पुत्ता, नो मे धूया, नो मे सुएहा, पेजवंधणे यात्रा संयमस्वाध्यायापा, मात्रा तु तदर्थमेव पुरुषस्त्रीषण्ढानां पुण से अब्बोच्छिएणे जवइ, से तेण्डेणं गोयमा ! जाव नो क्रमेण द्वात्रिंशदष्टाविंशतिचतुर्विंशतिकवलप्रमाणाहारमध्यादेकहियादिकब लेनाहारग्रहणमिति । ग०२ अधिक।
अजायं चर। मायमूक-जातमूक-पुं० । जन्मतो मूके, विपा० १७.१०।
(केर जायं चरत्ति) कश्चिऽपपत्तिरित्यर्थः । जायां भार्या
चरेत सेवेत (सुराह त्ति) स्नुषा पुत्रनार्या (पेज्जवंधण ति) जायस्व-जातरूप-न० । जातं म्पमस्य प्रशस्तवणे,वाच०। सु.
प्रेमव प्रीतिरेव बन्धनं तत्पुनः 'से' तस्य श्राहस्थ अव्यवरित वणे, का प्रभा का स्थान जातं लब्धं रूपं स्वरूप रागादिकु.
नं भवति । अनुमतेरप्रत्याख्यातमात्प्रेमानुबन्धस्य चानुमतिअन्यविरहाद येन स तथा । स्था०६ ठा० । सुवर्णविशेषे, राका
रूपस्वादिति । भ० श०५ उ०। चमरस्यासुरेन्द्रस्य स्वना.. जं.। "जायरूवमईओ ओहाडणीप्रो" जातरूपं सुवर्णविशेषः ।
मख्यातायां बाह्यायां पर्षदि, स्था० ३० २ १० । “बाहि जी० ३ प्रति। " अहवा-जायसवे जं च प्रवालगवत् जानतं
जाया" जी० ३ प्रतिः। जायम भएणति" नि० चू० १ उ० । रूप्ये च, " हिरणं जायसव च, मणला विण चिंतप" जातरूपं रूप्यम् । नत्त
जाता-स्त्री० । प्रकृतिमहत्ववर्जितत्वेनास्थान कोपादीनां जा३५ ०।
तत्वाञाता।वमरादिदेवेन्द्राणां वाह्यपर्षदि, भ० १ ० १ ३०॥
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जायाइ (न)
जया [न् ] - यायाजिन पुं० यायजतीत्येवंशीलो यायाजी । बजनशीले, "जायाई जम जन्नस्मि " यमय यायाजी । उत० २५ अ० ।
( १४५५ ) अभिधानगजेन्द्रः
मायामाया- जात्रामात्रा-स्त्री० यात्रा संयमयात्रा तस्यां मात्रा यात्रामात्रा" आयागुरुं जयाधीरे जायामाया" । आचा० १ ५० ३५० ३३० । संयमार्थ परिमिताहारणे, नं जायामायाविति - जात्रामात्रावृत्ति - स्त्री० । संयमयात्राप्रमाणायां जीविकायाम्, "जायामायाविती होत्या "संयमयात्राप्रमा णा जीविकाऽभवत् । सुत्र० २ ० २ ० " जायामायाविसीओ" यात्रा संयमयात्रा मात्रा तदर्थमेव परिमिताहारग्रहणम्, वृत्तिर्विविधैरनिग्रहविशेषैर्वर्तनम् । भ० २५ श० ३ ४० नं० । नार-जार पुं० । जीर्यतेऽनेन 'जू' करणे घञ् । उपपन्तौ वाच० मलिकणविशेषे च । जारमारेति विशेषौ सम्यग्मणिकुणवेदिनी लोकादितव्यो । जी०३ प्रति रावण जंग श्रा०म० नारिश - यादृश त्रि० । यस्व दर्शनमस्य । यद्-दश टः 'डशः किष् टकसकः " ॥ ८ । १ । १४२ ॥ एतदन्तस्य दृशेर्ऋतोरिः । प्रा० १ पाद । यत्सदृशे यथाविथे, स्त्रियां ङीप् । वाच० । श्रा० म०प्र० । “जारिसश्रो जं नामा, जड य को जारिस फलं देति" याको यत्स्वरूपकः यादृशं यद्रूपम् । प्रश्न० १ आश्र० द्वार । "जं जारि पुत्रमकारि कम्मं तमेव आगच्छति संपराप" । यत्कर्म यादृशं यदनुभावं यादृस्थितिकं वा । सूत्र० १ ० ५ भ०२ उ० ।
मारुका-मारूकृष्ण-शिस्त योजन
स्था० ७ ० ।
जाल - जाब- पुं० । चुरा० 'जल' संचरणे घञ् । घाते, ' जल घातने णिच्-अव् । कदम्बवृक्षे, गवाके, दात्र० रा० । जं । सच्चि, गवाक्कविशेषे च । जान्नं सच्छिद्रो गबाक्षविशेषः । ज्ञा० १ ० १ ० | जानकं विषास्वितो गृहात्रयव विशेषः । प्रश्न० १ ० द्वार श्र० । " जालानि जालका नवनभित्तिषु लोके प्रतीतानि । रा० जी० | सु० प्र० चं० प्र० । स० । जी० । " जालंतरत्यदीप्प होयमो कडगावही होइ " अपवरकजालकान्तरस्थप्रदीपप्रभोपमः । विश० । गवाककिये. " गवाक्षजालैरभिनिष्पतन्त्यः " इतिभट्टः । मत्स्यधारणार्थे शणसूत्र निर्मित स्त्रनामख्याते श्रानाये, वाच० । ·4 जासुचिकूपाणि | जालेन वाऽऽनायेनोस्केचणानि । प्रश्न० १ अभ० द्वार। मत्स्यबन्धन विशेष, अभ० द्वार विपा० । तद्देव काँचा समरकमंता, तया. णि जालाणि दलितु हंसा " । जानानि बन्धनविशेषरूपाणि उस० १४ श्र० " बिंदसपदि जालहिं " उत्त० १ श्र० । " किं. दिस जालं अवलंबरोहिया " उत्त० १४ श्र० । अस्फुटकविकास, पादचारणायें पाये दम्ने समुहे च वाच० जे० भा० म० । द्रश्या० । सन्ताने, आत्र० ४ ० । इन्द्रजाल, वाचः । चरणानरविशेषे व न० औ० ।
91
प्रश्न० ४
"
नानंतरपण माझ
भागेषु स्नान वस्न
जाल गंठिया
लोके प्रतीतान्येव तदन्तरेषु च शोभायै रत्नानि संभवन्त्येव । स० रा० चं० प्र० जी० सू० प्र० । जालंधर-परदेशस्थेने
16
६० ब० । स्वनामस्याने योगिराजे, याच० । गोत्रभेदे व । देवादार माहादरमा " | कल्प० १ क्षण । श्र० यू० ।
"
1
जालंधरायण - जालन्धरायण - पुं० । गोत्रभेदे, "देवानंदाय माही जालंधरायणसगुसता । श्राचा० ३ चु० । जानकमग - जाल कटक पुं० । जालानि जालकानि नवनभि चिषु लोकेऽपि प्रतिकानि तेषां कटकः समूहो जातकटकः । जी० ३ प्रति० जातकटकाकीर्णे रम्यसंस्थाने प्रदेशविशेषे, ज० ३ प्रति । " विजयस्स णं दारस्स उनो पासि इहओ णिसिहियाए दो दो जालकरगा परणता " जाल कटकौ जालकटकाकीर्णौ प्रदेशविशेषौ । जं० १ ० | "साणं जगतीए केणं जावकडणं सनतो समता संपरिषिखत्ता जी० ३ प्रति० । जाल कटकाकाणी रम्यसंस्थान प्रदेशविशेषपलिरिति भावः । जी० ३ प्रति० ।
जालग जालक - पुं० । स्त्रार्थे कन् । गवार, पुं० । मोत्र कफले, नवकलिकासमूहे, कारके च । न० । वाच० । विषान्विते गृहावयवविशेषे प्रश्न ०१ श्राश्र० द्वार जालकं विच्छि तिगृहावयवविशेषः । झा० १ श्रु० १८० । जालकानि भवनभित्तिषु लोके प्रतीतानि । रा० । जी० । स० । ० प्र० । चं० प्र० जी० । चरणाभरणविशेषे च । श्र० ।" सखि क्षिणी जापरिवाणं "सद किङ्किलिकाभिः शुरू काभिः यज्जानं जानकं तदाभरणविशेषस्तेन परिक्षिप्ताः परिकरिताः ये ते तथा तेषाम् । भौ० ।
जालगंडिया-जालग्रन्थिका स्त्री० जा मत्स्यबन्धनं, तस्ये. व ग्रन्थयो यस्यां सा जालग्रन्थिका जालवद् प्रधियुतायाम, किं स्वरूपा सा ? इत्याह
जालविवाहविर्गठिया या अंतरगंठिया परंपरगंजिया अक्षयमंत्रिया गुरुपत्ता ममस नारिषत्तार अामागुरुपसंनारित्तार अह्ममाताए चिति ।
( जालगंजय सि) जालं मत्स्यबन्धनं तस्येव प्रन्थयो यस्यां जलधिक पिसा
धनुष्य परिपाठ्याचा गुम्फिता अन्धीनामदानातानमेवा एय कर णात् एतदेव प्रपश्याह- अणंतरगंतियति ) प्रथमप्र स्थीनामनन्तरव्यवस्थापिनैन्धिभिः सह प्रथिता अन्तरधिता एवं परम्परैव्यवहितैः सह प्रथिता परस्परप्रथिता कि मुक्तं भवत (अनमनगंजय (स) अन्योऽभ्यं परस्परेण प केन प्रन्धिना महाम्यां ग्रन्थिरन्येन सहास्य इत्येवं ग्रथिता अन्योऽन्यं ग्रथिता एवं च ( श्रन्नमन्नगुरुयतापति ) अन्योन्येन प्रभ्थनान् गुरुकता विस्तीर्णता अन्योऽन्यगुरुकता त्या ( श्रममन्ननारियनासि ) अन्योऽन्यम्य यो भारः स विद्यते यत्र तदद्भ्यो ऽयभारिक सद्भावस्तत्ता तया पवस्यैव प्रत्येको
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जालगंठिया
मागुरुय संभारिया
संयोजनेन तयोरेव प्रकर्षमनिमाद-) योग गुरुकं यत्संसारिकं व तथा तद्भावस्तत्ता तया - ( अन्नमन्नघडात्ताए ति ) अ न्योऽन्यं घटा समुदायरचना यत्र तदन्योऽन्य घटं तद्भावस्तचा तया ( बि सि आस्ते इति । ज०५ ० ३ उ० । नाझघर ग-जालगृहक-न० । जालकान्विते गृहे, का० १ ० ३ अ० । जालगृहकाणि गवाकयुतानि गृटकाणि । रा० । जी० । दार्वादिमयजालकप्रायकुडपं यत्र मध्यव्यवस्थितं वस्तु बहि:स्थितैर्न दृश्यते । ज्ञा० १ ० २ श्र० । म० । जालपंजर-जाप न०पणिया पर्यायाणि । ० ३ प्रति० रा० । जं० ।
66
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जालपगट- जालप्रकट-पुं० । ज्वालासमूहे, कल्प० ३ क्षण । भावविंद नान्दन० जी०३ प्रति नोला-श्वालाखी बातेजस्कायले ० १ पद जानाति वा " ज्वाला अनलसंबद्धेति । जी० ३ प्रति० । 'जाला तु रंधनविना " । का० १ ० १६ अ० । ज्वाला अन संबद्धा दीपशिखेत्यन्ये । जी० १ प्रति । ज्वालानाम अनल संबरूस्वरूपाणाम | भ० १४ श० ७ उ० । ज्वालाग्निशिखा जि नमूना स्था०५ वा०३ उ० ज्वालाछिन्नमूलानङ्गारप्रतिबद्धेति । आचा० १३० १ ० ४ उ० । ज्वाला विश्वमूला ज्वलन शिखेव । ०३६० हस्तिनापुरवा पसर
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इत्थिनाउरे तत्थ य पउमुत्तरो राया जाला तस्स- देवी ० २१ कल्प महापद्मचक्रवर्तिनो मातरि, स० । श्राव० । वन्प्रभजिनस्य शासनदेवतायाम्, " अच्चुयसंता जासा" ( ३३७ ) तस्याः वर्णको यथा - श्री चन्द्रप्रभस्य ज्वाला । मतान्तरेण भृकुटिदेवी पीतवर्णा वरालकाविशेषवाहनाद्रमुरभूषितदक्षिणका फलक परयुतवामपाणिद्वया च प्रब०२७ द्वार ।
मालाड मालाप
हा० पद जी०
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( २४५६) अभिधानराजेन्द्रः ।
मालावंतासयत् श्रपयति महा० ०
जाति-जालि पुं० [अनुतरोपपातिक
प्रतिरुवव्यता के नगारे, (अपु० )
तद्वक्तव्यता
भान्झाउय - जाला युष्क- पुं० । 'जालाउ' शब्दार्थे, प्रज्ञा० १ पद । मालामालिनी उचालामालिनी श्री० प्रभासस्यायां व
तायाम, ती० ४५ कल्प ।
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33
प्रथमद्याध्ययन
पढमस्स णं जंते ! प्रज्जयणस्स प्रणुत्तरोववाइयस्स समणं ० जाव संपत्ते के अट्ठे पत्ते ? । एवं खलु नम्बू का समणं रायगिद्धे नगरे रिकल्यमियसमिद्धिगुणसी नेए सेणिए राया धारिणी देवी सोमण 'नाशिकुमारे' जहा मेहो अह्न तु दातो० मात्र उपिं पासाए फुटति० जाव विहरति । सामी समोसढे विना िनहा मेढे वहा जालविनातो
आव
तटुंब निवखेतो जहा मेढो एकारम अंगाई जिति हिज्जतित्ता गुणरयणतत्रोक्रम्मं जहा खंदयस्स एवं० जाव दस्स बनवया सो व वायणा आपुच्छति रेि सद्धिं विपुले व दुरूति, नवरं सोलन वासाई सामा परियागं पाउलित्ता काले मासे का किया उचंदिमसोहम्मीसाण० जाव अरण अच्चुए कप्पे नत्रयगेविज्जुयविमाणे पत्थडे उ दुरखीति चडवत्ता चिजए विमा देवता ते मेरे जगवओ जालि अणगारे का लग जाता परिनिव्वाणयति काउसर्ग कवि करें तित्ता पत्तचीवराइ गिएइंति । तहेव उत्तरांति०जाव इमीसे आयरे गए भंते ! भगवं गोयमे ! जाव एवं खलु देवाणपिया अंतेवासी जासिनामं अणगारं प्रगतिनदए मेणीच्या जासिणगारे फालगर कहि उप एवं खलु गोयमा ! मग अंतेवासी तब जाव खंदयस्म कालगए उ चंदिम० जाव विजयत्रिमाणे देवत्ताए नववछे जालिसमणं भंते ! देवस्स केवइयं कालं विती पत्ता ? । गोयमा ! बत्तीसं सागरोत्रमा पछि पाता से णं ते! ततो देवलगात प्राक्खणं कहिं गच्छहित्ति गच्छहित्ता ।। गोयमा ! महाविदेहे वासे सिज्झिहिति । एवं खलु जंबू ! समणं० जाब संपते अणुत्तरोपवादमा पदमस्स वग्गस्स पदमस्म अयणस्स प्रथम प०१ वर्ग
अन्तरदशा प्रथमवधान्यवनप्रति म्यानगारे ।
तद्वक्तव्यता
पढपस्स णं जंते ! अज्कयणस्स के अड्डे पत्ते १ । एवं खलु जंबू !नों काणं तेणं समणेणं वारवती नयरी तीसे जहा पढमे० जाव करदे वासुदेवे आहेबच्० जान विहरति । सत्य वारवतीय गवरी वासुंदवो राया, धारणा देवी, बहाओ जहा गोयमो वरं नानकुमारे पणास दातो वारसंगी सोलसवासपरियाओ से जहा गोया से सिको अन्त० वर्ग I जालिय-ज्वालित त्रि० । दीपिते, प्रा० म० द्वि० ।, जी० । जालिया - जालिका - स्त्री० । वृन्ते, एकार्थिकानधिकृत्य (अन्त० वर्ग०) जाल, जालिका, वृन्तम् इति विशे ब। प्रश्न० ३ आश्र० द्वार । जाबुज्जन्झ-ज्वान्नोज्ज्वल- त्रि० । प्रभोज्ज्वले, औ० । जालुज्जलपइसियाभिराम - ज्वालोज्ज्वलप्रहसिताभिराम-त्रि ज्वाला एव यत् उज्ज्वलं प्रहसितमिव प्रहसितं तेनाभिरामो ज्वालोज्ज्वल प्रदखिताऽभिरामः । ज्वालात्मकोज्ज्वलप्रहसितेनाऽजिरमणीये, जो० ३ प्रति० । जाव यावत् त्रि० । यत्परिमाणस्य मतुप् । “अन्त्यव्य जनस्य” सूत्रेण तशेषः प्रा० १ पादपरिम
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(१४५७) जाव अनिधानराजेन्डः।
जावजीवा साकल्ये, व्याप्ती, वाच । परिमाणे, मर्यादायाम, अवधारणे रेणाएकनान्यस्ता जाताऽशीतिः ७० ततो बाप्रमायुनास्ते बाराचामम्यामा०० उत्ता(अत्र विशेषो 'जावजीवा' शीतिः 00 पुनर्गच्छन दशभिः संगुणिता मष्ठौ शतान्यक्षीयशम्दे द्रष्टव्यः)
धिकानि जातानि,८८० तता द्विगुणीकृतेन गारपिकगुणकारेण भावाय-यावत्क-निकायस्परिमाणे, पो०७ षिवा "प्रहवा जो | षोडशनिर्भागहते याभ्यते तदशानां संकलितमिति ५५ । अस्स जावात्रो" ।(जाबामो ति) यत्परिमाणो यावान् च पाटीगणितं भूयते । स्था० १० ठा। स एव यावत्को मुहर्ताविपरिमाणः स तस्य तावत्कः पूजाकारो जावजीव-यावज्जीव-अन्यायाचदिति प्रयं शब्दोऽवधारणे. भवति । पचा४धिव० ।
तंते । (प्रा०म०) जीवन जीयः, इति क्रियाशम्ममा०म०वि०॥ मावई-यावती-स्त्री० । गुच्छारमके वनस्पतिभेदे, प्रशा१पद ।
याघजीवो जीवनं प्राबधारणं यावज्जीवम्।"याबदषधारणे"॥२ नाचणं-यावच्च पम्-अभ्यः । यावति काले, " जावंचणं १॥इति(पाणि)अव्ययीभावसमासः। प्रा०म०वि०पासाबाति" यावन्तं कालमित्यर्थः। भ०१ श०००।
पत् प्राणधारणमित्यर्थे, स्था०३ वारदर्शकपं०मूजा. गावंत-यावत्-पुं० । भगवत्याः प्रथमशतकस्य षष्ठे उद्देशे, “जा- बजीचं परिसहा वसम्मा य संखया" "याबजी" वापत ते सि" यावदोपलक्कितः षष्ठः, यावतो भदन्तावकाशा
प्राणधारणमामाचा०१०म०८ उमाजम्मेत्य च। "जाब. स्तरात्सर्य इत्यादिसूत्राचासौ । ज०१श०१ उ01
जीवदुखराई"। आजन्माप्यनुकरणीयानि । प्रश्न.भाभ. नावग-यापक-पुंगा हेतुनेदे,(स्था)यापयति वादिनः कालयापनां
द्वार। "जावजीवं पि श्म, बज्जा एयाम्म लोयम्मि (२२)" वा. करोति।यथा काचिदसती पकैकरूपकेणैकैकमुष्टमिएकंदातम्या
बज्जीवम आजन्म । पश्चा० १०वि०1"जावजी बंधवाय मिति दत्तशिकस्य पत्युमतविक्रयार्थमुज्जयिनीप्रेषणोपायेन वि.
करिति "। प्रइन० ३ भाद्वार। दसेवायां कालयापनां कृतवतीति यापकः । उक्तं च-"म्भा- | जावजीवा-स्त्री०यावज्जीव-अव्य०।(जावजीवाए सि)प्राकमिया य महिला जावगहेडम्मि उलिमाई" ति । इह वृ- तत्वात । जीवनं जीवः प्राणधारणं यावज्जीयो बाबज्जीवन कैम्पपातम-प्रतिवादिनं ज्ञात्वा तथा विशेषणबहुमो हेतुः | यादित्यनेनाऽव्ययीभावसमासः। ततश्च यावजीचम प्राणाधाकर्तव्यो यथा कालयापना जवति । ततोऽसौ नावगच्चति प्रकृत. रणं यावत् इत्यर्थे, पा०1"जाबजीवाए प्रशिस्सिा " यावमिति सबेरशः संभान्यते,सचेतनाचायवाऽपरप्रेरणे सतिति- जीवं प्राणधारणं यावत् । पा० । मा० म० । “करेयग्नियतत्वाभ्यां गतिमत्वात् गोशरीरवदिति । अयं हि हेतु- मि भंते ! सामाइयं सवं सावजं जोगं पक्वामि जाब. विशेषणबहुलतया परस्य पुरधिगमत्वात् वादिनः कासयापना जीवाप" यावच्छन्दः परिमाणमर्यादावधारणषचनः । ताप
[ता स्वरूपमस्यानबवुभ्यमाना हि परी न झटित्येवाने का रिमाणे-यावन्मम जीवनपरिमाणं तावत्प्रत्याश्यामीति । मयांस्तिकत्वादिदूषणोजावनाय प्रवर्तितुं शक्नोस्यतो जबत्यस्माद्धादि- दायाम-यावज्जीवममिति प्राणधारण मर्यादीकस्य, अवधारणेमः कालयापनेति। मथ वा-योऽप्रतीतिव्याप्तिकतया व्याप्तिसा- यावजीवनमेव प्रत्यास्यामिन तस्मात परत इत्यर्थः। जीवन धकप्रमाणान्तरसव्यपेकत्वान्न झटित्येव साध्ये प्रतीति करोति, जीवस्ययं क्रियाशदः परिगृद्यते तया। अथवा-प्रत्याश्यानक्रिया अपितु काल केपेणेत्यसौ साध्यप्रतीति प्रति कासयापनाकारि- परिगृह्यते यावज्जीबो यस्यां सायावजीवा । मा० म०बि०। स्वात् यापका, यथा कणिकं वस्त्विति पके चौदस्य सस्वादि
थावचम्दार्थमाहति हेतुन हि सत्वश्रवणादेव कणिकत्वं प्रत्येति परः, इत्यता बौ. बा सत्वं क्षणिकस्बन व्याप्तमिति प्रसाधयितुमुपक्रमन्ते । तथा
जावदयं परिमाणे, मजायाए ऽनधारणेचे। ह-सत्वं नाम अर्थक्रियाकारित्वमेव, अन्यथा-वन्ध्यासुतस्या
तावजी जीवण-परिमाणं जत्तियम्मि ति॥३५१६।। पि सत्वप्रसा,अधीक्रया तु नित्यस्यैकरूपत्वात्, न क्रमण ना- जावजीवमिहाऽऽरेण, मरणमज्जायभो न तं कालं। पियागपोन कणान्तरे अकर्तृत्वप्रसवात् । इत्यताऽधक्रियालकणं
अवधारणे विजाव-जीवणमेवेहन न परओ॥३५१७।। सस्वमक्षणिकानिवर्तमान क्षणिक पचावतिष्ठत इत्येवं कंपण माध्यसाधने कामयापनाकारित्वाद् यापकः सत्वलकणो देतु
२४ यावत्'अयं शब्दत्रिवधु वर्तते, तद्यथा-परिमाणे,मर्यारिति । स्था० ४ ग०३ उ०।
दायाम् अवधारणेच इति। तत्र परिमाणार्थ ताबदाह-(जाव.
जामिति) किमुक्तं नवति?-यावन्मे जीवनपरिमाणमिहभवाजावंताव-यावत्नावत्-मव्य० । यावच तापच, ई०। बीजगणि
युष्कस्य परिमाणं तावन्तं कासं प्रत्याचक्के इति । मयांदार्थतप्रसिके अव्यक्तमानानयनाय कल्प्ये प्रथमे राशी. वाच ।
माह-जावजीवं" इत्यादि । अत्र यावजीवमिति । किमुक्त ज. स्था। "जावंताव सि वा गुणकारो सि वा एग" इति वच
बति ?-पारेण मरणमर्यादायाः अर्वा प्रत्याचक्के, न पुनस्तमात् । गुणकारस्तेन यत्संस्थानं तत्तथैवोच्यते तश्च प्रत्युत्पन्नाम
स्कासं प्रत्याभ्यानग्रहणकाल एव. किं तु मरणसीमा यावतिलोकस्टम अथवा-यावतः कुतोऽपि तावत एव गुणकारा
प्रत्याख्यामीति । अवधारणेऽपि-यावद् इहलवे जीवनंताव. पारथिकादित्यर्थः । यत्रं विचकित संकलनादिकमानीयत तत्
देव प्रत्याचके, न तु परतो, देवाद्यवस्थायामविरतले प्रत्यास्यायावत्तावत्सल्याममिति । संस्थाननेदे, स्था०१०म० । गण
नभङ्गप्रसङ्गात् । परतो मुन्कल मिति । विधिरपि न कर्तव्यो,भो. सभेदे, सूत्र०२०१०।
गाशंसादोषानुषङ्गादिति स्वयमव कष्टव्यमिति।३४१६॥ ३५१७: तत्रादाहरणम्"गयो पानाम्यस्तो, वाम्ग्युतो गवसंगुणः कार्यः।
अत्राएपरिहारावाहविगुणीतरामाते, वदन्ति सकालतमाचार्याः ॥१॥"
जावजी पने, जावजीचाए लिंगवचासो। अत्र किस गधो दश१० तेच वाग्छया पारमिछकगुणका-| भावप्पणया वा, जा
भावप्पश्चयो वा, जा जावजीवया ताए ॥३५॥ ३६५
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( १४५८ )
अभिधानराजेन्
जावजीवा
मनु उक्तन्यायेन यावज्जीवमिति निर्देश प्राप्ते यावज्जीवया इति निर्देशः किमर्थं भगवता सूत्रकृता विहित ? इति शेषः । अत्र प रिहारमाह- (जिंगालो) यित्यो ग मतः, तेनेत्थं निर्देशः कृत इत्यर्थः । अथवा-यावज्जीवशब्दात् जावप्रत्ययः उत्पाद्यते, ततश्चेत्यं भावप्रत्यये उत्पादिते या बावजीवता इति निष्पद्यते, तथा यात्रजीवतया प्रत्याख्यामीति संबध्यत इति ॥ ३५९८ ॥
नम्बित्थमपि "वावज्जीवतया" इति प्राप्ते यावज्जीबया इति कथं भवतीत्याहआजीचतया इति, जावलीबाए बालोवाओ । जावज्जीवो जीसे, जावब्जीवाढ़वा सा उ ॥ ३५१५ ॥ बावज्जीवतयेति निर्देशे प्राप्ते यत् यावज्जीवया इत्युक्तं तत् तकार लक्षणवर्णलोपादिति द्रष्टव्यम् । तृतीयं परिहारमाहअथवा जीवन जीयो पावलीया यस्यां सा पायांचा इति बहुवदिस्तथा 'पावरजीवया' इत्येवंरूयमिति ॥ ३५९ ॥ अत्र विनेयपृच्छाम उत्तरं याद
"
का पूरा सा संव, पञ्चकखाया किरिया तथा सम्बं जावजीनाथ ई पच्चक्खामीति सारखं ।। ३५२० ।। का पुनः पूर्वोक्तबहुवीदावन्यपदार्थे संबध्यत ? इत्याह-प्रत्या क्यानक्रियांत, तया यावज्जीवया प्रत्याख्यानक्रियया सर्व सा योगमहं प्रत्याख्यामि' इति संबन्ध इति ॥ ३५२० ॥ परिहारान्तरमादजीवमहवा जीवा, जावज्जीवा पुरा व सा नेया । ती पाययवयण, जात्र जीवाई तइएयं ।। ३५२१ ॥ अथवा जीवनं जोवा इति स्त्रीलिङ्गाऽनिधायक एवायं शब्दः साध्यते, न तु जीव इति पुंलिङ्गाऽनिधायकः । ततश्च यथा पुरा पूर्व तथा माध्यमादेन स समासे सा यावज्जीवा ज्ञेया; तद्यथा- यावत्परिमाणा जीवा यावज्जीवा एवं मर्यादायारपि समासः कार्य तथा यावरजीयया जाहत्य पाचान० यथार्थस्य प्रायः सत्यत्वे वास्तविक प्रत्यकयामि प्राकृतवचने व पते कारनिर्देशेन तृतीययमयसेयेति ॥ ३५२१ ॥ विशे० । यावज्जीवता स्त्री० यावर जीवनं प्राणचाराबम् " यावदवधारणे " || २ | १८ ॥ इत्यव्ययीभावसमासः यावज्जीवं भावो यावज्जीवता प्राकृतेऽन्त्य तकारस्यालाऋणिको लोप इति " जावजीवाद " इति सिरूम । श्र० म० द्वि० अलाक्षणिकवर्णलोपात् । यावज्जीवं जावा यात्रजीवता । मामाणोपमादित्यर्थे, पा
।
दाजीबा श्री० बाबजीयो यस्यां सा पाजीबा जी तिपरिमाणवत्यां प्रत्याख्यानादिक्रियायाम, (श्रा० म० ) अधुना पायग्रीवयति व्यापायते तत्रादी भावार्थमभि धित्सुराह
जावदवधारणम्मी, जीवणमत्रि पाणधारणे जणियं । आपणारा पावनिविशी अस्थे ॥ वादित्ययं शब्दोऽवधारणं वर्तते । जीवनमपि प्राणधारणं भणि. तम् । 'जीव' प्राणधारणे इति वचनात् । ततां यावज्जीवया प्रत्यास्यामीति कोऽर्थः श्राप्राणधारणं यावत् पापनिवृतिरिति परप्रतिषे विभाषाप्रति
जिइंदिय
पंधे तु सुरादिषूत्पन्नस्य नङ्गप्रसङ्गात् । इह जीवनं जीव इति क्रियाशब्दो न जीवतीति जीव श्रात्मपदार्थः जीवनं च प्राणधारणम् । श्रा०म०प्र०] “जावजीवाए जाव से अट्ठी" । यावज्जीवया यावज्जीवतया वा आजन्मेत्यर्थः । प्रश्न० ४ सम्ब० द्वार । जीवन जीवा यावत्परिमाणा जीवा जावज्जीवा | परिमाणवति मर्यादावति अवधारणा बिले विशे० ॥ जावज्जीवा-यावज्जं वा स्त्री०। 'जावजीवा' शब्दार्थे, विशे० । जबकि जादि ९० मधुमतीनगरचाये रखनामध्या ga, (alo)
-
'मधुमत्यां पुरि श्रेष्ठी, वास्तव्यो जावडिः पुरा । अष्टांतरे वर्षशतेऽतीते श्रीविक्रमादिह ॥ १ ॥
बहुषव्यव्ययाद्विम्बं जावडः स न्यवीविशत् । ती०१ कल्प । ( तत्कथा 'संतुंजय' शब्दे ) जावसिय मानसिक पुं० जव मुरुमाचादिषच्यं तेन चरन्तीति जावसिकाः । बृ० १ उ० । यासवाहिके, श्रोघ० । जास- जाब- पुं० पिशाच भेद, प्रा० १ पद
-
।
यास - पुं० । यस कर्तरि संज्ञायां घम् । दुरालनायाम, प्रयासे,
वाच।
जासुमण - जपासुमनस् - पुं० न० । जपा वनस्पतिविशेषः । तस्याः सुमनसः पुष्पाणि जपापुष्पे, अन्त० ४ वर्ग । "जासुमवाचा १७ प ( जासुसकुसुमरासि सि) जपाकुसुमपुष्पस्य जा इति लोकप्रसिकस्य यो राशिः । कल्प० ३ ऋण । वृकविशेष च । जपासुमनसश्च वृक्कविशेषः । डा० १ ० १ ०
"
जाहग - जाहक - पुं० । सेह के प्रा० प्र० प्र० । तिर्यग्विशेषे, श्रा० म० प्र० नं०1" स्तोकं स्तोकं पयः पीत्वा, जाहको लंडि पार्श्वतः " ० क० ।
स्खे, वाच० भा०म० ।
जाहे पदा भव्य दा 1
सक्के देविदे देवे राया" ( जाहेणं ति ) यदा । ज०१ २०९२० जि-ए-अन्य पश्चादेवमेवेदराम प्रत्युतः पच्चर -
।
पश्चि
पापभ्रंशे एवस्य जिः । प्रा० ४ पात्र । इण्वन् । सादृश्ये, अनि यांगे, अचार, चारनियोगे विनिग्र परिभ विशेष्यसंगतः अन्ययोगविशेषसंग प्रयोग व्यवच्छेदेवाच 1
जिचान अभिमन्यादिजियति मजेषित्वाच जिइंदिय जितेन्द्रिय- पुं० । इन्द्रियविकाराभावात् । भ० २ ० १० जाननिषेधेन इन्द्रियाणि येन स जितेन्द्रियः । सूत्र० २ ० ६ २० । जितानि वशीकृतामि इन्द्रियाणि स्पर्शनादीन्यनेनेति जितेन्द्रियः । उत्त० १२ श्र० । जिला पगीकृत पदमनाद या येन स जितेन्द्रियः । अ० ३० अ० इयेये, १० ११० । जिदिश्रां बज्जू" अ० म० प्र० । यश
सूत्र०
"
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जिइंदिय
1
कृतस्पशनादीन्द्रियकलापः । दश० २ न्यू० । विषयेषु रागादिनिरोद्धा । का० १ ० १३ प्र० । "आयगुता जिइंदिया" जितानि वशीकृतानि इन्द्रियाणि दीन देस्ले तथा । पर्वभूताः पापकर्म नाऽनुजानन्ति इति । सूत्र० १ ० ० "धि मंत्र दिया ग बिजयनेन्द्रियाणि येस्तै जितेन्द्रियाः । सूत्र० १ भु० एम० । जिनेन्द्रियाः शब्दादिषु रागचरहिताः श० ३ ० प्र० जिदियकसाय- जितेन्द्रियकषाय- त्रि० यत्कृतकरणकोपादिभावे पिडा दिसाया" पा० १४ विव जिप (जिय) जि - बा० गन्धमये, स्वा० पर० अ० ग्रहणमाषे, सक० अनिट् । निति । अन्नात् । प्रप्रासीत् । बाच० । " शिम्बर " नि० सू० १३० । प्राण-म० । प्रायतेऽनेनेति । म्रा-युट् । नासिकायाम, गन्धब्रह्मणे, वाच० । नि० ० । ('गंध' शब्दे च नागे ७५ विशेष
(१४४) अभिधानराजेन्द्रः ।
जिंहड्डि प्राइरमण - जिएलह गिडिकादिरमण-न० । कन्दुकगिने ३८ र मणं " जिनभवनस्य चतुरशीत्याशातनासु त्रिषष्टितमे आशातनाभेदे, घ० २ अधि० । जिगीसु - जिगीषु पुं०। जि-सन् । जयेच्छावति, रत्ना० ८ परि० । बिदुश्येषि० । बुद्ध-श-ज्यादेशः । मतिपूजे श्रेष्ठे च। अग्रज, पुं० । (घ० )
" उचि एवं पि सद्दो- अरम्मि जं निश् अप्पसममेधं । जिहूं व कहिं पि हु, बहु मनइ सब्बकज्जेसु ॥ ८ ॥ " (नि) पश्यति (जि) पेठ खाता पितृतुल्य स्तमिष तथा । ध० २ अधि० ।
अस्य व मिकणिडो, नाभिजाइ मिस्याबहुयालो । दिवसेात्रि जो जिङ्को, न य ही सिज्जइ स गोथमा ! गच्छो । ६० । यत्र च गणे ज्येष्ठः कनिष्ठश्च ज्ञायते । तत्र ज्येष्ठः पर्यायेण वृकः कनिष्ठः पर्यायेण लघु तथा यत्र वचनमाशाज्ज्येष्ठवचनं तस्य बहुमानः सम्मानः ज्ञायते । "जिदुविण्यव डुमाणे ति" पाठे तु ज्येष्ठस्य विनयबद्धमानौ ज्ञायते । तथा-यत्र
दिवसेनापि यो ज्येष्ठः स न हीयते चकारात् वत्र पर्यायेण संघुरपि गुणनीयले सिरिशिष्येश हे गौतम ! स गच्छो य इति । गीतिबन्दः | ६० ग० २ अधि० । जैष्ठ- पुं० 1 ज्येष्ठानक्षेत्रेण युक्ता पौर्णमासी ज्येष्ठी साऽस्मिन् मासे अए । स्वनामध्याते चान्द्रे मासे, वाच० । निकण्पयंकल्प
"
किस (०)
त्यहाकल्प जिननीनामुपस्थापना
चाम्लिममध्यम
नयतीनां च निरतिचार बारिषत्वात् दीक्षादिनात् एव, अथ पितापुत्र मातादुहितृराजामात्यश्रेष्ठवणिक्पुत्रादीनां साई गृहीतदीकाणामुपस्थापने का
समकमेव षट्जीवनिकायाध्ययन योगो वदनादिभियोग्यतां प्रा शास्तदा मनुक्रमेणेोपस्थापना यस्तोकमतरता किय विपित्रादीनामेव प्रधयमुपस्थापना, अन्यथा पुत्रादीनां
जि
बृहत्वेन पित्रादीनामप्रीतिः स्यात् । अथ पुत्रादीनां समहत्वेन - पेनिस्वेन मदरं तदा पित्रादिदेवं प्रति हाभाग ! सोऽपि यो बहुभ्यो मघुर्भविष्यति तव पुत्रे च ज्येष्ठ तवैव गौरश्रम एवं प्रज्ञापितः । स यदि अनुम म्यत तदा पुत्रादिः प्रथमम् उपस्थापनीयः, नाम्यथा, इति
मयेरसमस का सगोत्र, कष्पन्यबदारसुत्तस्स ॥१॥ " ती० १७ कल्प | जिकयर-पेतरजि० प्रति प्रा० २ पाद
जिठ्ठा - ज्येष्ठा - स्त्री० । ज्येष्ठनगिन्याम, वयोज्येष्ठायाम, ज्येष्ठस्य पम्याम्, गङ्गायाम्, अलक्ष्म्याम् अश्विम्यदधिके महादशे नक्कत्रे च माच० जे० । जि-जिन जति निराकरोति रागद्वेषादिकपानराठीत जिनः। स० १ सम० भौप्पादिको नक्प्रत्ययः । बं० । जयति रा गषमोहरूपानन्तरङ्गान् रिपुनिति जिनः । घ०२ अधि० । रागद्वेषाद्रिय परीषदो कारक
म० प्र० । दश० औ० । स्था० । पं० सं० । कर्म० । दर्श० । केबलिनि, विशे० । जिनाः सामाम्ब केवलिनः प्रहा ०१ पद । रामजना भवस्य पान चतुर्विि जिनाश्व केवलिनः चतुर्विश्च ००ताविशेषः ३० षभादिके चतुविशति संख्या तीर्थकरे च । सूत्र० १ ० ६ अ० । जिनकहिपके च । "हो जिनपिणो" जिना - लहान जिनकलिकाश्च वीज चीर्णः । पञ्च० ४ विव" जिनवरवसहस्त वरूमाणस्स रागादिजानामधिमनार्ययोपशान्तमीमहा तेषां मध्ये वराः प्रधानाः सामान्य केवलिनः। संथा० । “ जिणा"रागद्वेषाचेन्द्रियपरिषहोपसर्गघातिक
"
जितवन्तो जिनाः । जी० ३ प्रति० । कल्प० । “अरिदा जिणे केव बीजादि उपा० ७ ० जिनके इत्येकार्थी शब्द अर्थात मेदाऽभिधायकम ०२५ श०६४० ं। भाव० | "अयुत्तरं धम्ममिणं जिणाणं " (9) जिमानामृषभादितीर्थकृताम ष० १ ० ६ ० "शिदि "ं ।" तीर्थकराजिमतेन । अनु० लोगस्सुज्जोय गरे पियरे जिणे भरते किसी प ॥१॥ रागद्वेषकथायेन्द्रियपर पोपस गए कार ज्जिनास्तान् । प्रा० म० द्वि० ।" बावीस च निजिय- परीसया जियाईया भविमादिरविण जियंति जिणा ॥ २ ॥ " ति० ।" उबस मेण हणे कोहं, माणं जियकोहमारामामवया जिणे ! सूत्र० २ ० ३ श्र० । जिनक्रोधमानमाया जिनया, जिलोहा ते जिणा होति । " लांजा येन कारणेन जगवन्तस्तेन कारणेन ते जनाः भवन्तीति । आ० म० द्वि० । न च रागादीनामसत्वं प्रतिप्राणि अनुभवसित्वात् । न चानुभवोऽपि भ्रान्तः सुखदुःखाद्यनुभवाप प्रातिप्रसङ्गात् । एवं च जेयसंजवाज्जिनत्वमविरुद्धम । घ० २ अधि० । " जिणाणं जावयाणं " जिनज्यो जापकञ्यः । तत्र पीपीपल घातकर्मान
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कल्प० १ कृण ।
जिजूह उयेष्ठभूति-पुं० काश्यपमोत्रोत्पन्ने स्वनामस्या
1
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( १४६० )
अभिधानराजेन्द्रः ।
जिया
बल्वेषामसतां जयः, असत्वादेव हि सकलव्यवहारगोचरातीतस्वेन जयविषयतायोग्यस्त्रात् । भ्रान्तिमात्र कल्पनाऽप्येषामसङ्गनेयनिमितमन्तरेण ब्रान्रयागात
तिप्रसङ्गात् चितिमात्रादेव तु तदज्युपगमे ऽनुपरम इत्यनिमोक्षप्रसङ्गः । तथापि तदसरखे अनुभवबाधा, न हि मृगतृणिकादावपि जलाद्यनुभवः, आत्मनाऽप्यसभेव अविरुदङ्गनादिसिद्धमेतत् । न चायं पुरुषमात्रनिमित्तः सर्वत्र सदाभा बेनुपमे सुगणकादावपि जलानुभव चितिमा
निबन्धना रागादय इति जावनीयम् । एवं च तथा भ्रमस्वादिसामग्री समुद्भूतचरणपरिणामतो रागादिजेतृत्वादिना ताविकजिनादिसिद्धिः । ब्र० । “जदं जिणस्स वं रस्स” व्याक्याजिनस्य वीरस्य जयति रागादिति जिनः । औखादिकां नक्प्रत्ययः । तस्य भद्रं भवतु । अनेनापाबलिया-पायो विश्लेषः तस्यानिव प्रकर्षभाष पायातियोरागादिभिस्साम्यन्ति वियोग इत्यर्थः । ननु रागादिभिः सहास्यन्तिको वियोगोऽसंजवी प्रमाणबाधनातू तच प्रमाणमिदम-'यदनादिमत् तद्विनाशमाविशति' यथा श्राकाशम, अनादिमन्तश्च रागादय इति । किञ्च रागादयो धर्मास्ते धर्मिणो जिना, मभिक्षा वा ? यदि भिन्नाः तर्हि सर्वेषामि शेषेण वीतराग रागज्योि पुरुषवत् । अथ अभिनास्तर्हि तत्क्षये धर्मिणोऽप्यात्मनः कयः । तदभिनत्वात् तत्स्वरूपवत्। कुतस्तस्य बीतरागत्वम् तस्यैवाभाषादिति यद्यपि रागादयो दोष अनादितथापि कस्यचित् श्रीशरीरादिषु यथावस्थितवस्तुना बगमेन तेषां रागाप्रतापनः प्रतिपचयो संयतेविशिखादिसामसा भावमाप्रकर्षविशेषावतो निर्मूलमपि तयः । अथ यद्यपि प्रतिपकभावनासः प्रतिक्षणमपथयो दृष्टः तथापि तेषामात्यन्तिको ऽपि कयः संजयतीति कथमवसेयम् १ । उच्यते-अन्यत्र प्रतिमहात्म मन्दा उपलथा उत्
यः प्रतिपचस्य हुन्दा निरन्वय विनाशधर्माणः । ततोऽन्यत्रापि बाधकस्य मन्दतायां बायस्य मन्दतादर्शनाद्वाधकोत्कर्षः । अवश्यं बाध्यस्य निरन्वयो विनाशो बेदितव्यः । अन्यथा बाधकमन्दतायां मन्दतापि न स्यात् । मथास्ति ज्ञानस्य ज्ञानावरणीय कर्म बाधकं ज्ञानावरणीय कर्ममन्दतायां च ज्ञानस्यापि मना मन्दता । अथ च प्रवलज्ञानावरणीय कमदयोस्क - बैंsपि ज्ञानस्य निरन्वयो बिनाशः । एवं प्रतिपक्षनावेनो
पिन रामादीनामयन्तो भविष्यतीति त द्विविधं हि बाध्यम सहतस्वभावभूतम, सहकारिसंपाद्यस्थभावभूतं च । तत्र यत्सद्दभूत स्वभावभूतं तच कदाचिदपि निर विनाशमाविशति । ज्ञानं चात्मनः सहन्तस्वभावभूतम् आत्मा परत्वन्तयत्यपि ज्ञानावरणीयकमोद येन निरम्यविनाशानस्य, रागादयस्तु सोभादिकर्मविपाको [संपादित का ततः कर्मण निर्मूलमपगमेऽपि निर्मू.लमपगच्छन्ति नम्बासतां कर्मसंपाचा रागादयः । तथापिक नियम
तहत काठेऽकारता निवर्तते । तदसत् । यत इढ किञ्चि कति निवस्य विकारमापादयति । यथाऽग्निः सुवर्णे द्रवताम तथा हि-अभिनिवृत्तौ तत्कृता सुवर्णे रुचता बिर्त
जिय
पुनः कचिदनिवर्त्य विकारारम्भकम् । यथा स एवाग्निः काप्टेन खसु श्यामतामात्रमपि काष्ठे दहनकृतं ननिवृत्तौ निवर्तते । कर्म चात्मनि नित्य विकारारम्भकम, यदि पुनरानव विकारार स्कं भवता यदपि तदपि कर्मणा कृतं न कर्मनिवृत्तौ निवर्तेश्यामकृ
कर्मापादितं मनुष्यानममरत्वं कृमिकीट शिरोवेदनादि तत्व
स्मानिया विकारारम्भ कर्म ततः कर्मनि
मयि निवृत्ता । अरागादयो लाभादिकर्मविपाकोदयनिबन्धनाः, किं तु कफादिप्रकृतिहेतुकाः । तथादि-कफहंतुको रागः, पित्तहेतुको द्वेषः, वातहेतुकश्च महः। कफादयश्च सदैव संनिदिताः शरीरस्य तदात्मकत्वात् ततो न वीतरागत्वसंभवः। तदयुक्तम् । रागादीनां कफादिहेतुकत्वायोगात् । तथादि-स तकेतुको योऽयं न व्यभिचरति, यथाधूमम्प्रतिनियतकार्य करणाभावयवस्थानुपपते न च रागादयः कफादीन व्यभिचरन्ति, व्यभिचारदर्शनात् । तथाहि वातप्रकृतेरपि दृश्यते रागद्वेषौ, कफप्रकृतेरपि द्वेषमोदी, पित्तप्रकृतेरपि मोहरायौ । ततः कथं रागादयः कफादिदेतुकाः । अथ मन्येथाः - एकैकाऽपि प्रकृतिः सर्वेषामपि दोषाणां पृथक् पृथक् जनिका तेनायमदोष इति । तदयुक्तम एवं सति सर्वेषामपि जन्तूनां समरागादिदोष अवश्यं हि प्राणिनामेकतमया कदाचित प्रकृत्या भवितव्यम् सा चाविशेषेण रागादिदोषेण रागादिदोषाणामुत्पादिकति, सर्वेषामपि समानरागादिता अधारित प्रतिमाखि पृथक् पृथगवान्तरः कफादीनां परिणतिविशेषः तेन न सर्वेषां समरागादिताप्रसङ्गः । तदपि न साधीयः । विकल्पयुगलानतिक्रमात् । तथाहि सोऽप्यवान्तरः कफादीनां परिणति विशेषः, सर्वेषामपि रागादीनामुत्पादकः, आहोस्विंद कतमस्यैव कस्यचित् । तत्र यद्याद्यः पकस्ताह बावत् स परिणतिविशेषः तब का सर्वेषामपि रागादीनामुत्पादन क लमुत्पाद्यमाना रागादयः संबधन्ते क्रमेण तेषां वेदनाथ खलु रागाध्यवसायकाले द्वेषाध्यबसाया मोहाभ्यवसायो वा संबंधत। अथ द्वितीयः पक्षः- तत्रापि यावत्स कफादिपरिणतिविशेषस्तावक पत्र कचिद्रागादिशेषः प्राप्नोति । अथ च तदवस्य एष फादिपरिणतिविशेषे सर्वेऽपि दोषाः क्रमेण पराजय माना उपलभ्यन्ते । अथाद्दश्यमान एव केवल कार्यविशेषदर्श मोनास्तदा तदा तागादिदोषहेतुः कफ/ बि परिशेषाः यदि स परिणतिविशेषः सर्वथाऽननुभूयमानस्वरूपोऽपि परिक युपगम्यते यदि म Sप्याराधितो भवति । अपि च स कफादिपरिणतिविशेषः कुरुः तदा तदा मन्यान्यरूपेणेोपजायते इति वकन्यं देहादिति खेल, नतु तदवस्थेऽपि देहे भवद्भिः कार्यविशेषदर्शनतः तस्यान्यथाभवनमिष्यते। तत्कथम् ? तद्देहनिमित्तं न हि यदविशेषेऽपि तकिय स विकारस्ततुक इति वक्तुं शक्यम् । नाप्यन्यो हेतुरुपलभ्यते, तस्मान्तदप्यन्यथाजवनं कर्महेतुकमेष्टव्यम् । तथा च सतिकर्मे वे कमभ्युपगम्यताम किमान फाद परिणतिविशेषाभ्युपगमेन कि चाम्बासा रागादयः । तथाहि यथा यथा रागादयः सेव्यन्ते, तथा तथा नमुना ,
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जिण अभिधानराजेन्द्रः।
जिण विपरिणतिविशेषे तदवस्थेऽपि च दहे यस्येह जन्मनि परत्र वा पपसि भो! नियाणं, वहाण न य सुंदरं पयं ॥१॥ यस्मिन् दोषोऽज्यासः स तस्य प्राचुर्येण प्रवर्तते । शेषस्तु रूवं पि मंकिलेसी-ऽभिस्संगा पीडमालिंगो । मन्दतया, ततोऽभ्याससंवाद्यकापचय हतुका एव रागांदया, | परमसुहपश्चणीभो, एवं पिभसादणं चेव ॥२॥ न कफादिहेतुकाः, इति प्रतिपत्तव्यम् । अन्यब-यदि कफह- विसो य भंगुरो खबु, गुणरहिमा सडतहा वो। तुको रागः स्यात् ततः कफन रामवृद्धिर्भवत् , पित्तप्र. संपत्तिनिष्फला के-वसंतु मूलं प्रणत्थाणं ॥३॥ कर्षे तापप्रकर्षवत् । न च भवति, समुत्कर्षोत्यपीमाबाधित- जम्मजरामरणाई-विचित्तरूवो फलं तु समारो।। तपा द्वेषस्दैव दर्शनात् । अथ पक्षान्तरं गृहीथाः, यदुत न बगुजणनिम्बयकरी, एमो वितहाविहो चष ॥ ४॥ कफहतुको रागः, कि तु कफादिदोषसाम्यहेतुकः । तथाहि
अपि च-सूत्रानुसारंण ज्ञानादिषु यो नैरन्तयेणाभ्यासस्तापाऽपि कफादिदोषसाम्ये विरुद्धच्याभ्यभावतो रागाद्भवा रश्यत इति।
भावना वेदितव्या । तस्या अपि रागादिप्रतिपकत्वात् । नदि तदपि न समाचीन व्यभिचारदर्शनात्, न हि यावत्कफादिदो
तस्ववृस्या सम्यम्झानाधज्यासे व्यापृतमनस्कस्य नीशरीररामषसाम्यं तावत्सर्वदैव रागोवाऽनुभूयते, वायुद्भवस्यानुभ
णीयकादिविषये चतःप्रवृत्तिमातनोति । तथानुपलम्भात् ।। चात् । न च यद्भावऽपि यन्न भवति तत्तकंतुकं स च
तेच जिनाः त्रिविधाः तथा च-"तो जिणा पराणत्सा । तं तसा वक्तुं शक्यम् । अपि च-एवमन्ज्युपगमे ये विषमदोषाः ते
जहा-श्राहिनाणजिणे, मणपजवनाणजिणे, केवलनाणजिणे" रागिणो न प्राप्नुवन्ति । अथ च-तेऽपि रागिणो दृश्यन्ते ।
"तो जि" इत्यादि । सुगमा, नवरं रागद्वेषमोहान्स्यादेतत् भन्न बैस्तर्यात् । तस्वं निर्वच्मि-शुक्रोपचयहेतुको रागो
जयन्तीति जिनाः सर्वकाः। उक्तंच." रागद्वेषस्तथा मोहो, नान्यहेतुक इति । तदपि न युक्तमे हत्यन्तखोसेवापरतया
जितो येन जिनो ह्यसौ । अस्त्रीशस्त्राक्षमालत्वा-दहनवानुमीशुकक्षयतः करकतजामा रागिता न स्यात् । अवतेऽपि
यते ॥१॥" इति । तथा जिना श्व ये वर्तन्ते निश्चयप्रत्यक्षानतया तस्यामवस्थायां निकाम रागिणो दृश्यन्ते। किच-यदि शुक्रस्य
तेऽपि जिना,तत्रावधिप्रधानो जिनोऽवधिज्ञानजिन एवमितरा. रागहेतुता, तहिं तस्य सर्वनाषु साधारणत्वात् । नैकसीनिय
बपि, नबरमाद्याखुपचरितावितरो निरूपचार उपचारकारणं तु तो रागः कस्यापि नवत, दृश्यते च कस्याप्येकखानियतो
प्रत्यकझानित्वमिति । स्था० ३ ठा०४ उ01"बंदामि जिणवरागः । अयोध्येत-रूपस्यापि कारणगत्वपातिशयलुब्धः त.
रिद" जयन्ति रागादिशनभिजवस्ति जिनाः। ते चतुर्विधाः। स्यामेष रूपवस्यामभिरज्ज्यते। न योषिदन्तरे । उक्तं च"रूपातिशयपाशेन, विषशीकृतमानसाः । म्यां योषितं परित्य
तयधा-धुतजिनाः। अवधिजिनागमनःपर्यायजिनाः। केवलि. ज्य, रमन्ते योषिवन्तरे ॥१॥" तदपि न मनारमम । कपरहि.
जिनाः। प्रज्ञा०१पद।
जिननिक्केपश्चतुर्धा- . तायामपि कापि रागदर्शनात् । मथ तत्रोपचारविशेषः समी
"च उह जिणा नामठाच-पदव्यन्नावजिणभेएहिं॥३१॥ चीनो भविष्यति, तेन तत्रानिरज्यते उपचारोऽपि च रागहेतुर्न
नामजिणा जिणनामा, ठवणजिणा पुण जिणिवपरिमानो। रूपमेव केवलम् । तेनायमदोष इति । तदपि व्यत्रिचारिद्वयेनापि
दव्याजणा जिणजीवा,भावजिणा समवसरणस्था ३२"धार। विमुक्तायां कचिद्रागदर्शनात् तस्मादच्यासजनितोपचयपरिपाकं कर्मैव विचित्रस्वभावतया तदा तदा तत्ताकारणापेतं तत्र
जिनाश्चतुर्धा-नामजिनाः, स्थापनाजिनाः, कम्यजिनाः, प्राबतारागादिहेतुरिति । कर्महेतुका रागादयः । पतन यदपि क
जिमाभेति । तत्र जिनानां तीर्थकृतां नामानि ऋषभाजित. चिदाह-पृथिव्याविभूतानां धर्मा पते रागादयः । तथाहि
संजबादीनि । नाम जिना तथा-मएमहाप्रातिदायर्यादिसमृद्धि पधिव्यम्बुभूयस्वे रागः, तेजोवायुज्यस्थेद्वषो , जलवायुनू.
सातदनुभवम्तः । केवलिनः समुत्पशंकषमकामाशिवगताच यस्वे मोह इति । तदपि निराकृतमबसेयम , व्यभिचारात ।
परमपदं प्राप्ताः।नावतः सद्भावतो जिमा,भावजिनागाधान. तथाहि-यस्यामेवावस्थायां द्वषो माहोऽपि एयते तत पत
मोम्याच मनाना भावजिना याव्यातास्थापनाजिना: बपि यत्किंचित । तस्मात्कर्म हेतुका रागादयः। ततः कर्मनिवृत्ती
प्रतिमा,काश्चममुक्ताशममरकतादिनिर्मिमिताभ्यजिमाये जि. निवर्तन्ते । प्रयोगश्चात्र-ये सहकारिसंपाचा यदुपधानादप
नत्वेन नाविनोनषिष्यन्ति जीवाः भेणिकादय इति। प्रव०४२वार। कर्षिणः ते तदस्यम्ती निरन्वयविनाशधर्माणः यथा रोमह
जिनानां सर्वथास्तित्वम्दियो बनियो भावनोपचानादपकर्षिणश्च । सहकारिकर्म- अन्न जिणा अत्यि जिणा, अदुवा वि नविस्स। संपाचा रागादय इति । अत्र सहकारिसंपाचा इति विशषणं
मुसं ते एकमाईसु, इइ जिक्खू न चिंतए ।। ४५॥ सहनूतस्वभावोधादिम्पबछेदार्थम् । यदपि प्रागुपयस्तं प्र. माणं 'यदनादिमत नतहिनाशमाषिशक्ति'। यधाकाशमिति। तद
अनूषन् भासन जिना रागादिजेतारः 'मस्ति'इति विभक्तिप्रतिप्यप्रमाणम् । हेसारनैकान्तिकत्वात् । प्रागभावेन व्यभिचारात् ।
कपको निपातः । ततच विचन्ते जिनाः अस्य कर्मप्रवादपूर्वतथाहि-प्रागनापोऽनादिमानपि विनाशमाधिशत भम्पधा का.
सप्तदशमानृतांततया घस्तुतः सुधर्मस्वामिनव जम्बूस्वामिनं नुत्पत्तः भावनाधिकार सम्यग्दर्शनाविरसत्रयसम्पसमा प्रति प्रणीतत्वात् तम्कामे च जिनसंभवादित्यमुक्तंबिंदडार्दिकत्रा-- वितो बदितव्यः इतरस्य तदनरूपानुष्ठामप्रवृत्पन्नावन तस्य
स्तराप्रेक्षया वाइति भावनीयमा(अदुवंत्ति)अथवा-भपिभित्रकमिथ्यारूपत्वात् । माहच-" नाणी तम्मि निरनो, चारिती
मः (भविस्सासि) बचनव्यत्ययाधिध्यम्ति जिमा इत्यपि भूषा भावणाजागो हि " सा च रागादिदोषनिदानस्वरूपविष.
मनाक ते जिना अस्तित्ववादिन एषमनम्तरोकन्यायेन (मासु पफलगोचरा यथागममेवमनसेया।
सिपाहुः युवत इति भिजुन चिन्तयेत् । जिनस्य मर्यकाधिक्षेप.
प्रतिपादिषु प्रमाणापपन्नतया प्रतिपादनात्तदुपदेशशमूअस्थाच "कुविवाणुरोगो, पाविसुखस्स होरजीवरस । सहकामुष्मिकन्यवहाराणामितिमूत्रार्थः । उत्त० ३ भ०।
३६६
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( १४६२ )
अनिधानराजेन्द्रः ।
जिए
"जिनेस्तदुकं जीवो या धमधम प्रयान्तर मृचा नैवं चिन्तयेत् महतो प्रदात् ११ ॥ " भा० म० द्वि० । अयम-परायणानं जिला जगप्पवरा । जिराग दोसमोहा, पण बहावाइयो तेयं ॥ ५० ॥ अनुपहते परवर्तिते पति परानुमपरायणाः धर्मोपदेशावि मा परानुग्रहोचुकाः इति समासः । यत् यस्मात् कारणात् जिना: प्राकृनिरूपित शब्दार्थाः। त एव विशेष्यन्ते । जगत्प्रवरा चराचरमेत्यर्थः। दविधा अपि कदाचिद्रागादिभावाद विवादिनप्रतिजन निरस्ता राममोह यैस्ते तथाविधाः तत्राऽभिष्वङ्गलक्षणो रामः, श्री तिलकणो क्षेत्रः, महालक्षणश्व मोहः । चशब्दः पतद भावगुणसमुच्चयाः थे सेमेति रोग कारणेन ते यथावादिनः इ-गोदाम यस्य तु नेते दोषा-स्तस्यानुतकारणं किं स्यात् ॥ १ ॥ " इति गाथार्थः । प्राव० ४ ० "जयं
जिया कप्प
परोया | जिये तर जिनान्तर-१० जिनावधाने "दसणं मं ते ! चवीसापतित्थगराणं कर जिणंतरा परणता ? । गोयमा ! तेवीसं जिणंतरा परणता । भ० ३ श० २ उ० । (विशेषतः जिनान्तराणि 'अंतर' शब्दे प्रथमभागे ६५ पृष्ठे द्रष्टव्यानि जिण कप्प - जिनकल्प - जिनाः गच्छनिर्गत साधुविशेषाः तेषां कल्पः समाचारः । प्रब० ५३ द्वार | जिनानां कल्पो जिनकल्पः । कल्पो नीतिर्मयांदा सामाचारी | पं० खू० । जिनानामिव कल्पो जिनकल्पः । उप्रविहारविशेषे, घ० ३ अधि० । अभ्युद्यतविहारे । नृ० १७० |
विषयसूची
जिन जिनम कुर्यात अस्य नरामर शिवसुन
फलानि करावस्थानि ॥ १ ॥ " प्रति० ।
जिनवर्णको यथा
"निवासं निर्थि सुरेन्द्रसंसेचितमन्तरारिषम् ।
प्रमाचयुरूपाय नम
नमामि जैनं जगदीश्वरं महः ॥१॥" द्रव्या० १ अभ्या० । "नम बिंदाज मम्मि सुाणे। विहिणा वंदिय देवे, नंदो इय पुरा जिणनाई ॥ २६ ॥ जय जय सामिव जिणबर 1, केवलाक लिययत्युपरमत्य! मत्थवमणिकरनासुर! सुरवरसयन मिथकम कमल ! ॥ ३० ॥ मरोगमुखम्दि ! गढवदितमालय है।
पोयि, हिचकर! नी-सेससार्थ ॥ ३१ ॥ -धन हं जेण मए, अणोरपारस्मि भवसमुद्दम्मि । अवसयसहस्त्रदलं, पहु०र०)
" सानो विलोकितसभायं
. निःसीमनीमभव काननदाहदानम् । विश्वार्थितं प्रकरचारुसुधर्मरत्न
रत्नाकरं जिनवरं प्रयतः प्रणौमि ॥ २ ॥ " ० ० । "यथास्थिताशेषपदार्थसार्थ
कमाचानावधिम
जिगं जनानन्दकरं पाि नमामि जग्याम्बुज बोधसूरम् ॥१॥" दशा० १ ० ॥ जिनानां स्वरूपवर्णको यथा"पुरवरवाडा, फलिहा इंदुदित्यादिअघोसा सिविकस्थासडत्रे वि जिणा उच्चसं ॥ १॥" अनु०॥ जय जिनके विष्वीच जिरे, विवा जि-जये प्रादि-पर०स०बि-जि-हु-स्तु पू-धू को स्वच८४२४१ प्रकृत मन्तं णकारागमः स्वइच जिण जय । प्रा० ४ पाद । जि.गुंत-जयत्-त्रि अभिनंवति, दश०४ प्र० ।
(१) जिनकपिकानाश्रित्य द्वारसंग्रहः । (२) प्रवज्याद्वारम् ' पव्वज्जा' शब्दे । (३) शिक्षाद्वारम् 'सिकला' शब्दे अयोजन (४) अनन्तरोकेना नियतवासेन वक्ष्यमाणविहारद्वारेण व सह निष्पत्तिद्वारम् ।
(५)
(६)
1
निष्पतिद्वारे प्रतिद्वारभूतमुपसंपदादिद्वारचतुष्टयम् । प्रथममुपसंपद्द्वारम् तब सम्पन त्रिभिः प्रकारैश्च सह उपवर्णितम् । (७) तत्र द्वितीयमस्थिरस्वद्वारम् तदात्मपरोय नया विविधम । ते च तुलने प्रत्येकं चतुर्विध । (८) तत्र तृतीयं प्रतीच्छनाद्वारम् । तथ सोपनयेन स्नुषा दृष्टान्तेन समन्वितम् ।
(१) तत्र चतुर्थ वाचनाद्वारम् । तच्चोपदेश स्मारणाप्रतिस्मरणानिः त्रिविधम । घट्टनादिदष्टान्तत्रयेण, नि. राज
पदर्शित।
(१०) विहारद्वारम् । तत्र जिनकस्पिकमाश्रित्य प्रतिद्वाररूपाणि । अव्यवचित्तिमन मादीनि षट् द्वारा । (११) द्वियमाचार्यादिरुपपतुलनात्मकम (१२) परिकर्मद्वारम् अस्य द्विविधत्वमस्यै वाधिकारस्य (१६) अङ्केयम् ।
(१३)
पादप चलनानायनाकपम् । अत्रैव प्रथमा द्वितीया सस्वभावना 'सतभाषणा' शब्दे | तृतीया सूत्रभावना 'सुतनावणा' शब्दे । (१४) तुलनाजावनापश्च के चतुर्येकत्व भावना सदृष्टान्ता । (१५) तुलनामायनायके दिव्यासरूपाप
मी बलभावना भावबलेन शारीरबलेन च द्विविधा | (१६) पूर्वोक्तं परिकर्म पाणिप्रतिग्रहपरिकर्मभ्यां सजापरिकर्म ज्यामाहारोपधिभेदाभ्यां च विविधम, पुनः केनाssसनेन कथं नुतेषु संस्तारकेषु खोपवि शति जिनकल्पिक इति ।
(१७)
तपष्ठं बारम्। नुस् कस्य पार्श्वे, कस्य तरोरधस्तनप्रदेशे वा जिनकल्पि त्वं स्वीकरणीयम् । तच केन विधिना । ततः क्षामणम् । शेषाः किं कुर्वन्ति । कामणायां के गुणाः । जनपदस्थापितसुरनुशिष्ट साधूनामनुशिष्ट प्र दाय किं करोतीत्यादि प्रतिपादितम् । (१०) सामाचारीधारमः अवश्यादिप
नकल्पिकः प्रयुङ्क्ते अन्याः न श्रादेशान्तरमप्यत्रैवोतम ।
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जिगा कप्प
(१) समाचा
( १४६३ ) अभिधान राजेन्द्रः ।
द्वारसंग्रह गाथा |
(२०)
(५१)
शितिद्वारेषु सप्तर्चिशं माकपा बस्तरः । (२२) देवादायोग्यता भाविकाविचारः (२३) कंपूतिकं नयति । (२४) त्रिदिषु पृतिकं न ते किंतु सद कल्प इति सप्तमदिवसे पर्यटतः भाविकापृच्छा। (२५) द्वितीयाऽऽद्देश या देशान्तरम् । (२६) जिनका काकाले मार
न कारयन्ति । अक्षिमलमपि नापनयन्ति के तत्र प्रविशति के निर्गच्छति प्रत्येकमे धारिणः सप्रावरणाश्च भवन्तीत्यादि ।
।
(२७) जिनकल्पिकयोमध्ये कतरो महर्दिकः स दीपादि दृष्टान्तेन अर्थोपनयेन च समन्वितः । (२०) सोपवन महेलाइन
जनकल्पित्वावश्यं स्थास्यमित्युक्तम ग
जनकपिकादिनानामुपतिष्यानमिति स्य रत्नाकरोपमा ।
(२) पापपाणिभ्यां जिनकल्पिकस्य द्विविवस्वम् ।
(३०) जिनकल्पिका एकस्वरूपाः पृथक्स्वरूपा वा जत्रन्तीति शहा । पतेषामेव द्विविधत्वम् । (३१) जिनका लिरकी द्वादशविधोपाधिः स सर्वेषामेकविधा वा नेत्य है। विकल्पाः।
(३२) केन विधिना
जिनक
पिकास्तित्वमागमे प्रतीतम् । व्यवच्छेदस्तु केन बचनेन तीर्थकरैरुक्तमिति च सोत्तरम् । ( १ ) प्रथमं जिनकदिपकानाश्रित्य द्वारसंग्रह गाथामाहपलापयमत्यम्गणं च अनियो वासो । निष्फतीय बिहारी, सामाचार लिई एव ।।
प्रथमं प्रवज्या वक्तव्या, कथमसौ जिनकल्पिकः प्रवजित इति । सःशाप दासेन तत सूत्रतोऽयं प्रणम् । ततो नानादेशदर्शनं कुर्वतां यथाऽनियतो वा सो भवति । ततः शिष्याणां निष्पत्तिः। तद्नन्तरं बिहारः । ततो जनकल्यं प्रतिपक्षस्य सामाचारी । ततस्तस्यैव स्थितिः, क्षेत्रका यति गाथासमुदायार्थः द्वारा क मशो व्याख्या । दृ० १ ४० ।
(3)
( २ ) ( प्रवज्या द्वारम् ' पब्धउजा ' शब्दे ) सातत्यजनकु जिनकष्पिण पगयं, जिसे काले हेउ केवलीणं वा । सो जाइए भणितो, कत्थ श्रहीयं भयं ॥ अत्र जिनकलाकेन प्रकृतं स तु जिनकल्पिको नियमाज्जिनस्य तीर्थकरस्य काले वा स्यात्, अपरेषां वा गणधरदीनां केवलिनां काले ? ततः स शिष्यः एवं हेतुदृष्टान्तैर्भणितः प्रज्ञापितो जणति । भगवन्! यद्येवं ततः पठाम्यहं परमाचनां पूज्याः कुत्र नद विस्मादशि जिनको भविष्यति । जिनकाले वा भवेत् केवलिकाले वा ?.
जिस कप्प
अतः सपा
अंतरमणंतरे वा, इति उदिए धूलिनायमाहंसु । चिलप पना, दम्दा उयामेि जिले ॥
अन्तरं परकेण मया अधीतम् । अनन्तरं वा । तत्र यदि स आचार्यो गणधर शिष्यस्तस्याप्याराद्वा । ततः परंपरकेणाधत मित्यभिदध्यात्। अथासौ गणधर एव । तनोऽनन्तरं जिनस काश पत्र मिति
हिये शिष्य माहाक्यातवान् यथासिरं स्थापयित्वा तत उत्यायन पाता वश्यं किंचित्परिशति । ततोऽप्यन्यत्र प्रस्तीर्यमाणा जुवस्वरा परिशदति । यथा वा प्रासादे लिप्यमाने मनुष्यपरम्परया बि. पत्यमाणो बहुपरिशतिः स्तोकमात्रावर्षा न्तिममनुपस्य स्तं प्राप्नोति ।
के पुनररियापयपायमस्वरेहिं, मत्ताघोसेहिं वा वि परिद्वीणं । अरिस्थी, पगास सेवा पया चैत्र । देशात बिन्दुमाया परि हीनं भवति । परम्परया अधीयमानं भुतमिति प्रक्रमः, अपिखेत्यभ्युच्चये । भगवतः समीपे श्रधीयानानां कारणान्तरमध्यस्त तदात हस्तिनः पादानि, ईशानि किं कुन्यूनां संभवन्ति । एवं याद शनि महार्थानि जगवतीकृत वचनानिन्यपरेप किं इत्यतस्तीर्थकरोपमेव जामि
इत्यं शिष्येण के सुरिराहकोहाइको अस्थि संप परिसानिमा प अवयवाला विश्वाणवि कोटवाईट ॥
यथा कोष्टके धान्यं प्रप्तिं, तदवस्वमेव चिरमध्यवतिष्ठते । न किमन्तरे गलतियों निक्षिप्तवस्थचैव चिरमप्यवतिष्ठते, ते कोष्ठबुद्धयः । आदिशब्दात्पदा नुसारिको बीजबुद्धयश्च गृह्यन्ते तत्र ये गुरुमुखादेकसूत्रपत्रभूतरपदनिकुम्भमयान्ते पदमारिषुः कं मनुय मंत्र प्रभूततरमपनिगाह से बीज एवं विषायामसन्तिषु न परिशदेन इति भावः । तत इंशानि धूनिज्ञातानि मा जप मा ब्रूहि । अपि च-तत्र भगवतः समीपे अधीयानानां वितानामपि साका
रणं नवति । सफलस्याऽपि सोकस्य कौतुकडे तुस्वात् । कौतुकं समवसरणम् । श्रादिग्रहणेन जगवतो धर्मदेशनाक्षत्रणादिपरिग्रहः । बु० १ ० । (किकाद्वारा शब्दे पुनः प्रकृतयोजनांचाह 'तित्ययरस समत्वमाई। सुगवा करे सो बारमममाओ ।। तीर्थ समीपे सरकारध्ययनस्य व्यापणे प्रवति इत्युक्ते सति शिष्यः पाद-भगवन् !
"
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(१४६४) जिणकप्प अभिधानराजेन्द्र:।
जिणकप्प सत्यमेवैतत् यदादिशत यूयम् । अत इहैव पठामीत्युक्त्वा सूत्र. पाउमकानकायबो, ज, वि निगूढो वणनिगुंजे ।। ग्रहणं द्वादश वाणि करोति । द्वादभिवः सकत्रस्याऽपि सूत्रस्याध्ययनं विदधातीत्यर्थः । गतं शिकाद्वारम् । वृ० १ उ०।
इह किस कदम्बकाः प्रावृषि जन्नधरधाराभिहताः पुष्यन्ति ।
ततः प्राध्दकाले यः कदम्बः स याप धननिकुञ्ज निगूढा (४) अनन्तरोकेनानियतवासेन वदयमाणविहारद्वारेण च
गुप्तस्तिष्ठति । तथापि भ्रमरैमधुकरीनिश्च प्रात्मनः संबन्धिना सह निष्पत्तिहारम।
गन्धन च प्रसरता स्तव्यते झाप्यत,यथा-भत्र कदम्बवृक्तस्तिष्ठतश्चानन्तरातेनियतवासद्वारे वक्ष्यमाणविहारद्वारे च संभव.
ति । एवमयमपि भ्रपरमधुरीकल्पाजः साधुसाध्वीभिः पति। तत्रानियतवासद्वारं तावद्दयते इत्थं तेन देशदर्शनं कुर्वता | रिमाकम्पन च निजगुणनिकुरुम्बन प्रसपंता कदम्ब चाना शिष्याः प्रतीकाच सामाचार्या सूत्रार्थग्रहणायां च निष्पाद
दावत्यन्तनिगूढोऽपि तिष्ठन् सूच्यते । यितव्या, इत्यत्राम्तरे यदुक्तं प्रतिहारगाथायाम-"काट सुयं
यदि वावायव्वं, अधिणीयाणं विवगो य"॥ (१) निष्पत्तिद्वारे प्रतिद्वारजूतमुपसंपदादिद्वारचतुष्टयसं
कत्थ वन जल अग्गी, कत्थ व चंदो न पायी हो। प्रहमायामाह
कत्थ वरलकवणधरा, न पायमा होति मप्पुरिसा ।। नवसंपन्ज थिरतं, पमिच्छणा वायणोल्लगणे य । कुत्र वा न ज्वलति न दीयतऽग्निः। कुत्र वा चन्छः उदयं प्रा. घट्टणरुंचणपसे, दुहा य नहिं गए राया ॥
तः प्रकटो न जवति । कुत्र वा वराण्यत्तमानि लकणान्यभ्यप्रथम प्रतीच्छकाः यथा तमुपपद्यन्ते तथा वक्तव्यमा ततः
न्तरतो शानादीनि, बाह्यतः शरीरसौन्दर्यादीनि शचक्राढीनि, मात्मनःप्रतीच्चकानां च यथा स्थिरत्वं तुलनया करोति । तत
वा धारयन्तीति, वरलकणधराः सत्पुरुषाः प्रकटा न भवन्ति । ते प्रतीच्छना वाचनाच यथा नवति ततः प्रसाध्यताम् । . अत्र परोऽनुपपत्तिमुद्भावयन्नाहमागणहपान्तो घटनारुश्चनापत्ररष्टान्ताश्च यथाभिधाय- उदए न जलइ अग्गी, अन्नच्छन्नो नदीसई चंदो। न्ते तुष्टाध विषयं दृष्टान्तं यथा साधव प्राचार्यानुद्दिश्य दर्शय
मुक्रवसु महाभागा, विजा पुरिमा न जायंति ।। स्ति । (तहि गए ति) यत्राचार्यस्तिष्ठन्ति, तत्र गतामा पथा राजाधान्तः सरिभिरुदाहियते, तदेतत्सर्वे वक्तव्यमिति द्वार
उदके न ज्वनामः । किं तु विध्यायति । अभ्रच्छन्नश्चन्छो न गाथासमासाथैः।
दृश्यते । मूर्खषु मूर्खाणां पुरतो महाभागा विद्याप्रधानाः पुरुषाः (६) तत्रोपसंपवारमन्योक्तिराम्तेन त्रिनिः प्रकारैश्च
विद्यापुरुषास्तेऽपि न भान्ति न शोजन्ते । ततः-"कत्थ व म सह विनणिषुर्गाथामाह
जल अग्ग।" इत्यादि नोपपद्यते। तदयुक्तम् । अभिप्रायापरि. काहिर अवोच्छित्ति, सुत्तत्याणं ति सो तदहाए।
ज्ञानात् । इह हि स्वविषय पवाग्निचन्छसत्पुरुषाणां ज्वलनादि
सामर्थ्य चिन्त्यतेन त्वन्यविषये। प्रनिगम्मइ ऽयेगेहिं, पमिच्छपहिं विहरमाणो॥ एष महाभागः सूत्रार्थयोरव्यवचितिं करिष्यतीति बुद्ध्या
कः पुनरमोषां स्वविषय इत्याहस भट्याचार्यस्तदर्थ सूत्रार्थग्रहणनिमित्तमभिगम्यते अनेकैः
सुकिंधणम्मि दिप, अम्गी मेहरहिश्रो ससी जाइ। प्रतीय कैर्विहरमाणो देशदर्शनं कुर्वनिति । पाह-किमसौ तचिहजाण य निनणे, विजापुरिसा वि नायति । हिसिमामम्बरेण घोषपति, यथा, महं बहुश्रुतोऽहं बहुश्रुत शुष्कन्धन शुल्ककाष्ठादौ दीप्यतेऽम्निः । मेघरहितः शरदादिइति,यदेवमनेकैः प्रतीकैरभिगम्यते । नवं खम् शुकिविवेकसुधाधाराधीतचेतसः सन्तः कदाचनापि स्वगुणविकत्थने
काले अरच्छनः शशी भाति प्रकाशते । तद्विधकानं स
तारशे सहृदयलोके निपुणे व्याकरण प्रमाणादिशास्त्रकुशले प्रवृत्तिमातन्वते । मिथ्याजिगम्यताकप्रवझतमतमस्तिरस्कृतसं
विद्यापुरुषा अपि भान्ति शाभां लभन्ते । एष त्रयाणामप्यमीकानलोचनप्रसराणाम् इतरज-तूनामेव तत्र प्रवृत्तिसंभवात् ।
षां स्वविषयोऽत्र सर्वत्राप्यमी दीप्यन्ते न किश्चिदनुपपनम् । सक्तंब-"मोहस्य तदपि विलसित-मजिमानो यः परप्रणीना
तत्रैवापरं हातमाहयाः। तत्सममाऽपि तमिश्रं, याऽऽत्मम्नुतिरात्मना क्रियते ॥१॥" पद्येवं ततः कथमिव सोऽत्र तमेव प्रसिद्धिमारोहतीन्युच्यते
कुमुभयररसमुच्छा, किं न विवाहिति पुंकरीयाई । बासावजविहारी, जड़ विनय विकत्थए गुणे नियए । मुरकिरणा संसिस्स व, कुमयाणि अपंकयरसना ।। मानणंतो वि मुणिज्ज, पग च्चिय सा गुगगणाणं ।। न य अप्पगासगत्तं, चंदाइचाण सविसए होई । यांवजबिहारी वासु चतुरो मासानेकत्र स्थायी अन्यदा इय दिप्पति गुणा, मुक्खसु हासिजमाणा वि॥ पुनरनियतविहारी इत्युक्तं भवति । स पबंविधो यद्यपि न वि.
कुमुदानामुदराणि कुमुदोदराणि तंषु रसो मकरन्ट स्तस्मिन् कथयन निजकानात्मीयान् गुणान् । तथाप्यभणमपि स्वगुणान
मुन्धा मनभिदास्तदानीं तेषामप्रबुद्धत्वात् ।रिशोऽमीषां म. कोयत्त यन्नपि झायने । कुन इत्याह-प्रकृतिरेव सा गुगागणानां करन्द इति न विदन्तीत्यर्थः । एवंविधाः सूर्यकिरणा यदि म. कानादिगुण समूहानाम् । तदुक्तप-" अनणतो चि हुनजंति,
विषयत्वात् कुमुदानि न विवोधयन्ति । ततः किं स्वविषयसप्पुरिसा गुगादि नियहिं । बोद्धती य मणीभो, जाभो
भवानि पुएमरीकाणि म बोधन्ति ? बोधयन्येव । शशिनी ना मक्खाह घिति" ॥१॥
किरणा यद्यपङ्कजरसमा पङ्कजरसास्वादमुग्धास्ततःकि स्वविय- पतदेवान्योक्तिदृष्टान्तेन मढयति
यभूतानि कमुदानि न बोधयन्ति । ततश्च न च नैव प्रकाशक नमरोहें महयरीदि, सूइज्जइ अप्पणो य गंधेणं । चन्द्रादिम्पयोः स्वविपये जवति । कितुप्रकाशक यमेव इत्यम
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(१४६५) जिणकप्प निधानराजेन्द्रः।
जिया कप्प नैव प्रकारेण गुणज्ञानादिभिराव्याः समृकाः मूर्खेषु पशुप्रायेषु चार्याणां सकाशं वजामः, तावद्रष्ट्राऽयमाचार्योऽस्मेब खोपा. हस्थमाना भपि दीप्यन्ते, सदयहृदयषु प्रकाशन्ते । उक्तमानु- ध्यायस्तत्र गतानामाचार्या कापका ति (तिएडा संवित्ति) बलिकम् ।
ये संविधाः साधवस्ते त्रयाणां ज्ञानदर्शनचारित्राणामायोप्रकृतमनुसन्धीयते
पसंपद्यमानाः प्रत्यष्टव्याः (श्यरे चरणि सि) इतरे पार्श्वस्थासो चरणसुष्ठिअप्पा, नाणपरो सूओ अ माहिं।
दया यांदाचरणार्थमुपसंपद्यन्त, ततस्तेऽपि संग्राह्याः (श्रा
नेके ति) इतरथा कानदर्शननिमितं सूत्राधग्रहणदर्शनप्रनावनवसंपया य तसिं, पहिचण चेव साणं ।।
कशास्त्राध्ययनार्थमिति भावः । यदि उपसंपचन्ने, ततो मेम्नेत, स इति भविष्यवाचार्यः चरणसुस्थितात्मा, तथा कानपरः नोपसंपदं प्राहयेदित्यर्थः। सार्थपौरुषीकरणं प्रति उद्युक्तः, परां निष्ठां प्राप्तो वा दर्शना
मध यमुक्तमात्मपरोभयतुसना चतुर्विधेति । तत्रात्मतुलना बिनामाविस्वाम्.कामस्य दर्शनपर इत्याप एव्यम् । स च सा
तावद्भावयतिभुतिः स्वपरिवारवर्तिनिरपरेषां साधूनां यूनां पुरतः सचितः साधिता, नतस्तेषां साधूनां तस्याम्तिके आपसनति । तेन
पाहाराई दवे, नपाएन सयं जा समत्यो। व तेषां यथाविधि प्रतीच्छना कर्तव्या, इति ष उपसंपदः
खेत्तन विहारजोग्गा, खेत्ता विहतारणाईया । प्रकार उकः।
कालम्मि प्रोमाई, जावे अतरंतमाइपानगं । मथ द्वितीयप्रकारमाह
कोहाइनिग्गई वा, जं कारणसारणा या वि! एहाणाइममोसरण, परियट्टित्तं सुणिसु मो साहुं ।
हात्मतुलमा चतुर्विधा-अध्यनक्षत्रता,कालता, भावसम्म। प्रहित्ति य परिचोयण-उवमपय-दीवणा अत्यो । नत्र व्यत एषामुपसंपनानां यषणीयान्याहागदीनिखय. बनानादौ,मादिशब्दात रथयात्रादौ समवसरणे साधमीलनके मुत्पादयितुं समर्थः । प्रादिग्रहणाऽपधिशय्यापरिग्रहः। क्षेत्रत' (अमोए इति) व्यजनजददृषितं सुत्रं परिवयम्तं, साधु
ऋतबविहारयोग्यानि वर्षावासयोग्यानि वा क्षेत्राणि .. कमपि शुत्वा सम्मान नोदनां करोति । (अलाए इति)
त्पादयितुं शक्नोमि । न वा विहमित्यवा तस्मात्सारणं पार. पास प्राह-किमिति गीतार्थो श्रो-(अंटे इति ) अधों न मि.
नयनम, मादिशब्दात राजद्विष्टादिनारणानि कर्तुम सममति। इतरः प्राह-किमस्यार्थोऽप्यस्ति, बादं नमस्कारमादि कृ. ।
थो न वेति । काले अवम दुर्भिक्षम् तत्रादिग्रहणाद शिवनयादी स्वा सर्वस्यापि तस्याओं विद्यते। सभाह-यवं तर्हि "प्र
निर्वाहयितुं शक्नोऽस्मि न वति । भावे-(अतरंत ति) ग्लानीहिति" पदस्य कोऽर्थः । उच्यते-मार्सश्चतुर्दा-नामस्थापनाद्र
भूतानामादिशब्दाद्वालवृकादीनां वा एषां प्रायोग्यमुत्पादयितुं ग्वजावभेदाता नामस्थापन सुगमे । व्यतः मचित्तादिव्यैर
समथाऽहं नवेति । अथवा-शक्नोमि क्रोधनिप्र कः नवति । प्राप्त प्राप्तवियुक्तैर्वा य प्रातःस स्यानकाधादिभिर्रानभूतो
भाविग्रहणाम्मानमायालाभनिग्रहपरिग्रहः । यदा-याकारण भावारी एवं प्रकारदयनायं लोक आतोंवतंते,इत्याकर्य प्रमु
बामादिकं निमित्त मुदिश्यते, उपसंपद्यन्ते,तस्थाई सारणांकदितः। स साधुश्चिन्तयति-अहो अस्य सूत्रलवस्य पतारग
मोशो भवति । गतमात्मतुलनाद्वारम् । वयनमोऽर्थः, ततो यदि सर्वस्याधीनस्यार्थमवबुद्धये ततः सु
माहारद्वारमाहन्दरं भवति । इत्यभिसंघायार्थप्ररणार्थ तस्यैव पाश्व उपसंपाद प्राहागइ-अनियो, संनो मो विरममाइ-निन्दो । प्रतिपद्यते । ततोऽसी विधिना तस्यार्थदीपनं करोति, अर्थ
नम्नामग! खलु खत्तं, अरि उहियामो अवमहाभो। कषयतीत्यर्थः । एष द्वितीयः प्रकारः । अथ तृतीयमपि प्रकारमाह
ऊणारितवासी, मकानभिक्खपरिमोमाई। प्रहवा वि गुरुसमी, नवागए देसदमणम्मि कए ।
जाव कसायनिग्गह, चोयणनयपोरुसी नियया॥ उवसंपय साहूणं, हो कम्पिदिसाबंधे ।।
ते प्रतीकाः प्रथममेवोच्यम्त । द्रव्यत अाहारादीनां साअथवा-देशदान को सति यदाऽसौ गुरूणां समीपमुपागतो !
भोऽनियतः कदाचिद्भवति, कदाचिनेति । योऽपि नवति साभवति। तदा गुरुभिराचार्यपदे प्रतिष्ठाप्य दिग्बन्धे कृतेनुसाते
ऽपि विरसः। पुराणादनादिरादिशनादरमस्य हिन्वायनसति,विहारं कुर्वतोऽस्य पावें प्रतीकसाधनामुपसंपद्भवती
स्कृतस्य कस्य च बल्लचणकादेर्ग्रहणं सोऽपि निगढ झिति व्याख्यातं त्रिभिः प्रकारैरुषसंपदद्वारम् ।
तप्रायः क्षेत्रत उझामका निकाचर्यायां गन्तव्यं, बहियांमेषु त्रि(७) तत्र द्वितीयमस्थिरत्वद्वारम् । तशात्मपरोभयतुलनया हि.
कार्य यत्पर्यटन, सा छामकनिकाचर्या । सधा खलु कंत्राणि विधम् । ते च तुलने प्रत्यक चतुर्विधे
नाम यत्राल्पो लोकः प्रदाता, सोऽपि च स्तोकमेव ददानि ।
सत्र वितव्यम, अनृतुढिताभ प्रायो वसतयः प्राप्यन्त । यो आयपरोजयतुलणा, चरबिहा मुत्तसागणित्तरिया ।
यदा ऋतुर्वसते तस्य तदाऽननकूला इत्यर्थः । काल तः कदातिएहहा मंदिग्गे, इयर चरण-हरा नेच्छे ।
चिन्मासकल्पस्थाने वर्षावासम्थान वा ऊनम अतिरिक्तं वा सत्रासावात्मपरोभयविषयां तुलनां कति । सा च प्रत्येक कालकरणे वामोऽवस्थान भवत् । काऽपि क्षेत्रे अकाले सूत्रचतुर्विधा वक्तव्या । तथा-ये कचिगुणवर्जिता अगारिणः प्रव- पौरुप्या अर्थपौरुध्या या वेलायां निकाप्राप्य ततः सत्राधहाअन्ति। तेषामुपसपन्नानां चासौ सूत्रसारणां कराति,सूत्रं पाच- निरपि नाविनी, कुत्रापि पूर्वाऽपि पूणोंवमं स्वादरपूरकामा बतीत्यर्थः। उपलक्षणं चैतत । तेनासेवनां शिष्यमपि ग्राहयति। रमात्राया न्यून लभ्येत, आदिग्रहणास्पानकमपि न संपवते । तया तेषामुमोषापप्पली इत्वरा दिशं पनातिापथा यावदा. भाव-भावतः कषायनिमहसपुरूषनोद नायामपि कन्यादान
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जिपकप्प अनिधानराजेन्छः।
जिणकप्प 'च निवतावश्यंभाविनी सूत्राययोः पौरी, कदाचिदस्माकं ध.
सर्वेशामप्येषां विधिमाहमकथाविण्यप्रतापप्रार्थयाव्याघाताऽपि जवन्तं प्रबंदिस्यर्थः।
पामत्याइकिए, पालोयण होई दिक्खपनिईनो । तदेतत्सर्वमपि वपनीका मुत्साहः ततः प्रतिपयध्वमुपसंपदमिति।
संविग्गपुराणे पुण, जप्पभिई चेव प्रोसो।।
समानमसमाने, जप्पभिई चेव निग्गभोगच्न। अत्तणियपरे चेब, तुमणा उभयथिरकारणे बुत्ता।
सोहि पमिचिऊगं, सामायारिं पयंती ॥ मात्मविषया परविषया च तुलना भयोरपि स्थिरताकारखा स्थिरीकरणार्थमेवमुक्ता । गतं स्थिरस्वतारम् ।
बः पार्थस्थादिनिरेव मुष्मितस्तस्य दीकाप्रभृति कादि(0) तत्रतीय प्रतीकनाद्वारं तच्च सोपनयेन स्नुषार
नादारभ्य प्रलोचना भवति । यस्तु संविनमुपिडतवात् पूर्ण शान्तन सहोपवर्णितम्
संविग्नः पधादयसनीभूतः स पुराणसविन उच्यते। गापायां
प्रारुतत्वात बत्यासेन पूर्वपरनिपातःस यत्प्रभृति यहिनादारपडिबजते चेव, करिति सुपडाए दिलुतं ।
भ्याबसनः संजातस्तत्प्रनृत्येवालोचनादाप्यते ॥ यस्तु संविनः ... "पडियचंते"श्त्युचराई सर्वमनम्तरोक्तमर्थ बदि प्रती- सविधा-समनोकः साम्भोगिको समनोहः सांभांगिकः ।। सकप्रतिपयन्ते। तदानुषया वारशान्तमाचार्याःकुर्वन्ति। द्विविधोऽपि यत्प्रनति स्वगच्छानिर्गतस्तत एव दिनादारम्भ तमेवाह- .
प्रलोचनांदापयितव्यः। ततः शोधिमालोचनांप्रतीच्छनीयो यत. मासरहाई प्रोलो-यणाइभीयाऽऽनुले अपेहंती।
परछेदं मुलं वा प्रायश्चित्तमापनस्तस्य तदस्वा स्वकीयां सा.
माचारीमाचार्याः दर्शयन्ति । सकुलघरपरिचएणं, वारिज्जा मसुरमाईहिं॥
किं कारणमिति चेदित्याहखिसिजा हम्मइ वा, नाणिजइ वा घरा भगयति । भवि गीयसुगहराणं, वाइज्जताण मा दु अचियत्वं । नीया पुण से दोसे, गयंति न निच्चुनते य ।।
मेरामु य पत्तेयं-मा संखड पुबकरणेणं ॥ . बथा-काचिदः स्वकुलगृहस्य स्वकीयपितृगृहस्य संबन्धी यः |
ये गीतार्थाः भुतधरा बहुभुता गणिवाचकाविशम्दाभिधमा परिचयो रमणीयवस्तुदर्शन हेबाकस्तनाश्वरथान् । प्रादिग्रह- त्यर्थः तेषामपिकि पारतरषामित्यपिशब्दार्थः । धितथसानहस्स्यादीन, अवलोकनं गवाहस्तेन प्रादिशब्दाद परण बा
माचारीकरणेनोद्यच्छमानानां मैवं सामाचारीमन्ययाकारंकाजालकादिना भीतीनाकुलाँच जनान् प्रेक्षमाणा सती वार्यते।
वॉरित्यादिवचनैर्मा नूत् (अचिय) अप्रीतिकं यतोऽन्योऽन्य पुत्रि!मामवमोकिष्ठा,इति प्रतिषिभ्यते। स्वपुरादिभिःमा भूदस्याः गच्यानां काश्विदनीरश्यः सामाचार्यस्ततः प्रत्येक पृथा पृथक प्रसङ्गतः परपुरुषविषयोऽप्यवलोकनदेवाक इति । यदि बारिता
मर्यादासु सामाचारीषु वर्तमानासु प्रवाढतः पूर्वन्यस्ताया एव सती नोपरमते ततः (खिसिज्जा ति) निन्द्यते-श्राः कुलपां- सामाचार्याः करणन प्रतिनोदितानां मा (असंखडं) कल हो सुसे!किमेवं करोषीत्यादि । तथापि यदि न निवर्तते ततो
भवेदित्यस्मात्सा चक्रवालसामाचारी कांयतव्या । इम्यते । केशादिनिस्ताव्यते एवमपि यदि न, ततोऽतिष्ठन्ती गृ
बाद कथं पुनरभिधीयमानेऽप्रीतिकं भवेदुच्यतेहात निष्काश्यते।मा भूदपरासामपि गृहमहेनानामस्या:प्रसा.
गच्छइ वियारमा- वायो देह कप्पियारं से। जनित एवंविध एव कुहेवाक इति कृत्वा ये तु तस्या निजकाः पितृगृहसबकाः स्वजनाः (से) तस्याः दोषान् कादयन्ति
तम्हा उ चकवासं, कहिंति प्रणहिमिय निसिं वा ।। कथंचिपासम्भप्रदानादिना गदयन्ति । अपि न गृहानि
भयं वाचको विचारभम्याम । मादिशब्दात् जपानग्रहणाकाशयन्ति । गौरवाईत्वात्तत्र तस्याः। एष स्नुषारशाम्तः।।
दी गच्चति, प्रतो ददत, कलिग्तारं कमपि कल्पकं साधु (से)
तस्य बाचकस्य येन सामाचारी दर्शयति । एवमभिधीयमाने तस्य प्रथाोपनयमाह
पाचकस्य महदप्रीतिकं नवति । यथा हो स्वगणं विमुच्य परपरिसिज्ज अप्पो वा, सगणे दंगो न या विनिमुनम् । मणमुपसंपन्ना वयमप्येवं परियामहे इति, यत पवं तस्माषकअम्हे पुण न सहामो, सुमुरकुझं चेन सुएहाए ।
वालसामाचारी प्रतिदिनक्रियाकलापरूपां तेषां पुरत प्राचा
योः कथयन्ति । यथा ते कल्पिका जवन्ति, यावच्च सा ते से प्राचार्या भणन्ति-प्रायः पितगृहस्थानीयो युष्माकं स्वग
प्रमप्यते । तावत (अणहिडिय त्ति ) ते निवार्थ न दिएमाप्यछः स्वसुरस्थानीया वयम अश्वरथाद्यवलोकनस्थानीयं प्रमा
न्ते,मा नूतेषां सामाचारीशिकणव्याघातः। अथ न संस्तरन्ति, दासेवनं , गवाहादिस्थानीबान्धपुष्टालम्बनानि, तो युष्माकं
ततो निशि रात्री ते सामाचारी पाहायतम्या इति । गतं प्रतीस्वगणे स्वगच्छे प्रमादासेवनं कृतमपि मृश्यते कम्यते । अयो
उछनाद्वारम् । वारमा प्रायश्चित्तलकणः प्रमादप्रत्ययो नवांतत्र दीयते, न
(६) तत्र चतुर्थ वाचनाद्वारं तच्चोपदेश-स्मारणा-प्रतिस्मारचमहत्यपि अपराधे गमात निष्काशनं, गौरवाईतया भवतां
णाभिः त्रिविधम । घट्टनादिष्टान्तत्रयण, निष्काशनादिविभवति। वयं पुनः स्व मप्यपराधं भवतांन सहामः । श्वसुरकु-:
धिना स्थिरीकरणाय राजरष्टाम्तेन सहदर्शितम गृहीनसासमिव स्नुपाया बवाः संबधिनमपराधमित्युक्तेः। यदि ने प्रती माचारीकाणां सूत्रार्थवाचनादातव्या,वाच्यमानानां च तेषां साछका भणेयुः। एवमेतद्यदादिशम्ति भगवन्तः, ततस्ते प्रती
माचारीकरणे प्रमाद्यतां यो विधिस्तमभिधित्सुहार श्लोकमारधन्तापते च द्विधा,पविस्थादयो वा जवेयः,संविग्ना वा। तत्र थे पावस्थादयस्ते पाश्वस्थादिमुएिकता वाऽपि समनोशा वा
बएमो सारणे चेब, तइया पमिसारणा। अमनोका था।
गंदे अबढमाणं जं, अप्पच्छदेण बज्जेज्जा ।।
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(१४६०) जिपकप्प अभिधानराजेन्दः ।
जिपकप्प उपदेशः, स्मारणे चैव, तृतीया प्रतिस्मारणा चैव । ततः उन्हें शात यदि पाचगणहारी भवति, स्वम्पचौर्यकारीति भावः। उपदेशेऽवर्तमानं विनेयं गुरुरपि मारमन्यम्वेनास्माभिप्रायेण तथापि सहोड-सलोपत्रो गृहीतःसन्. याचमानोऽपि मोहन बर्जयेत्, परित्यजेदिति नियुक्तिश्लोकसमासाः। अथ विस्तरा। मुच्यते । एवं भवतोऽप्येकवारं महदपि प्रमादपदं तितिक्षितमस्तत्र गुरुमिस्ताम्प्रति वक्तव्यमस्माकमेचा सामाचारी, यनि- स्मानिः इतकतु स्तोकमपिन तितिक्षामहे। इत्थमुक्तोऽपियदि बाबिकल्पादयः प्रमादाः परितम्या एपपदेशः।
प्रमापति,तदास लघुपए वस्वा,द्वितीयं घानाहान्तं कुर्वन्ति। मथ स्मारणामाह
तमेवाहनिदापमायाश्सु, सइंतु खलियस्स सारणा होई।
घट्टिग्जंतं बुरर्क, इति उदिए दंफणा पुणो विश्य । नणु कहिय ते पमाया, मा सीयसु तेसु जाणतो ॥
पथा घुमाद रहितं साबण्यमानं साक्ष्यमानमपि "तुजं'
ति"देशीपदत्यादबदग्ध विनयमिति। बावदेवं भवामप्यस्मानिदैव प्रमादो निकाप्रमावः मादिशमावप्रत्युपेक्षितदुष्प्रत्यु
निरिस्थं स्मारणादिना महमानोऽपि प्रमादमेव सेषितवानिपेक्षिताविपरिग्रहः । तेषु सकदेकवारं स्वलितस्य स्मारणा कर्तव्या प्रवति। यथा-भोमहानाग! नम्बते पूर्वमेवास्माभिस्तव
त्येषमुविते कथिते सति यदि भूवः प्रमाधति, तदा पुनरपि
बएनना मासलघुपावधिता कन्या (विश्वंति) एतत् प्रमादाः कथिताः, ततो जानपि तेषुमा सीदेत्येषा स्मारया।
रिसीयमुराहरणमा मय प्रतिस्मारणामाह
त्वं दलितोऽपि यदि प्रमादाजोपरमते, तदा । फुरु रुक्खं प्रचियत्, गोणो तुदियो व माह पेलेज्जा ।।
सामनारान्तो बकम्बःसज्नं भमो न जाइ, धुव सारण तं वयं जणिमो । पासाणो संवुत्तो, भइरुचियं कुकुम तइए ।। स्फुटं नाम, परतेन प्रमादः कृतः परिस्फुटं माभिधीयते, कि "पासाया" इत्यादि । प्रति प्रतीव हरितं पिएं कम कि बन्पव्यपदेशेन भवितव्यमानामनिपिप्पस यथा-निर्ध- पाषाणः संपत्तः। एवं प्रवानपि महता प्रयासेनप्रतिनोचमानःकि मं!निरक्षर!निःखकरत्यादि,तदपिन वक्तव्यं,यतःस्फुटंक- प्रमत्तः संवृत्त, इत्येषं तृतीयमुदाहरणं कृत्वा, तथैव मासला भिधीयमानमप्रीतिकं जपति । अत्रच गारष्टारतोयथा-गौबलाव दीयते। अथ यदुक्तं प्राक (अविणीयाण विवेगो यति) तदि. वो महता प्रारेण लतितो,लं या बहमानः, प्रतोदनातितादि. दानी भाज्यते । भविनीता नाम, ये बहुश:ऽपि प्रतिनोचमामा: सः सन्तयित्वा भारं पातयति। हलंबा भनक्ति। एवमयमपि
प्रमाचम्ति । ते च छन्द अवसमाना भएयन्ते । तांध पुरय स्फुटार ककभपित्या वा प्रणित, कपायितत्वावसंखक- मात्मन्वन्देन वर्जययुः। ला गच्छात निर्गत । मत एवाह-गौरिव बाशम्बस्योपमा- का पुनरामचन्दो येन ते परिहियन्ते । प्रागबारगाथा. बास्य च सम्बन्धादसावपितुदिता,बरपुरुषभणनप्रतोदेन व्य
सूचितपत्ररशान्तश्च उच्यतेथितः सन्, मा दुनिश्चितं प्रेरयेत् । संयममारंबलादपहस्स्या- तेण परं निच्चुजणा, भाउट्टो पुण सयं परेहि वा। पातयेत् । अत पदच सचस्तत्कालं यदा प्रमादः कृतस्तदैव तंबोलपत्तनायं, नासेहिसि मज्झ अन्ने वि॥ भपयते (धुष सारणं ति)स वक्तव्यो वत्स! ध्रुवमवश्यं कर्त
ततः परंवारत्रयाश्व यदि न निवर्तते, तदा निष्काशना क. मं, संयमयोगेषु सीवतां सारणा। तथा च मौनीषचनम
संन्या, निर्गच्छ मदीयगच्छादिति । अथासौ स्वयं परंण पा "सोवा परो माया,विसं वा परियत्तमोजासियम्बा हिया
प्रकापितः सन्नावृत्त प्रमादात्प्रतिनिवृत्तःप्रतिजणति, भगवन् ! भासा, सपक्चगुणकारिया" तत्तस्मात् जिनाकाराधनाय वय
चमभ्व, मदीयमपराधनिकुरम्बं न पुनरेवं करिष्यामीति । ततो अयम्तमेवं भणामो, न पुनमत्सरप्रवेषादिना।
बद् द्वारगाथायां पत्रकातं, सचितं तपवरपते (तंबोलपत्तप्रय "सचं प्रमोन नमत्ति" पदव्याख्यानाचमाह- नायं ति) यथा तम्बोलपत्रं कुथितं सत् यदि न परित्यज्यते, वदिवसं विश्ए वा, सीयंतो वुच्चए पुणो तइयं ।
ततः शेषारयपि पत्राणि कोषयति । एवं त्वमपि स्वयं बिनटो, एगो वराहो सोद, बीयं पुष ते न विसहामो॥
मम अन्यानपि साधून विनाशयिष्यसीति कृत्वा निष्कासितो. सीदन् सामाचार्या प्रमाचन्, तस्मिन्नेव दिवसे ऽभ्यस्यां चला
ऽस्माभिः। संप्रत्यप्रमत्तैन भवितव्यं,मासगुरु च ते प्रायश्रितम् ।
अथ निष्काशनस्यैव विधिमाहवां विताये वा दिबसे पुनभूयोऽप्युच्यते, तृतीया प्रतिमारणा। एक उपदशी, दितीया स्मारणा , तृतीया प्रतिस्मारणति -
सुहमेगो निच्चुनई, णेगा नणिया वि जइ न वच्चंति। स्वा कथमित्याह-एकस्तव मदानपराधः सोदस्तितितितो
अन्नावएस नवहि, जग्यावण मारि कह गमणं ।। ऽस्माजिर्यदि पुनर्वितीयं स्वल्पमध्यपराधं करिष्यसि ततो।
ते पुनःप्रमाद्यन्ते,पका वा वाऽनेके वा। यकस्ततः सुखनैव नि. वयं तेन विषहामो, न सहिण्यामः ॥
गच्छ मदच्चादित्यभिधाय निष्कास्यताप्रथाने के बहवस्ततस्ते तथा चामंहगणरष्टान्तः क्रियते
बदि निर्गकृतेति भणिताः अपि, वयं बढ़वस्तिष्टाम, इत्यवष्टम्भ गोणा-हरणगहिरो, मुक्को य पुणो सहोदगहियो ।
कत्वा न व्रजन्ति,ततःशवसाधुन् रहस्यंशापयित्वाऽन्येन केना
प्यपदशन मिषेण यथा न तेषां शङ्का भवति, तापधि बिहा. मझोलछगण-हारी, न मुच्चए जायमाणो वि ॥
रयोग्य कारयित्वा अन्यव्यपदेशनैव रात्री चिरं जागरण काराबथा कविचारो गवादिहरणं कुर्वचारककैगृहीतस्ततो मु- पणीया । यथा न प्रातः शीघ्रमुत्तिष्ठन्ति ( सारिक त्ति) साअत, मामेकवारं नाई भूयः स्वल्पमपि चीय करिष्यामीत्युके, गारिका शब्यातरस्तस्याग्रता रहसि कथनीय, यथा वयं प्रभाबबालस्वादपरोपरोधार्मुक्तः पुनाईतीयवेमायां पूर्वांच्यासब-तएवामक प्रामं वजियामि । यदि कोऽपि महता निवन्धन
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(१४६७) जिपाकप्प अनिधानराजेन्ड:
जिणाकप्प युष्मान् प्रभवत्, यथा प्राचार्याः क्व गता इति । ततो जव- उंचांगाच्च । भन्नो अ आगंतुओ विजी, आगंतुं भणा । द्भिस्तस्य यथावनिवेदनीयम (गमण ति) ततो गमनं कर्तव्यम्।। मम अचिगुलिया उ. मच्चिमूलपममणी उ, ताहि मंजिपसु गतेषु च यदि ते बयु:
पन्छीसु निम्नवरा पुरहियासा वयणा भवति । मुहुर्स जश्न मुका मो दंगरुइ गो, जणंति इह तेन तमु अहिगारो ।
विम मारणाए मंदिनाहि.तो अंजाम अच्छीण। 'न माराम ति'
अनुवगए । अंजिपसु अच्छीसु निम्वनरा वयणा जाया ताडे सेज्जायरनिबंधे, कदय गया न विणयहाणी ।।
रना जणिय, अच्चीणि मे पाडयाणि, मारे ने वजं । नहि अहो सुंदरं समजान । यद्दरामव्यसनिन प्राचायांत मुक्ता अनुवगर्नु न मारियो । मुहत्तरेण नवसना वयणा । पोराणाण अयम् । इति ये भान्ति, न तध्वधिकारः । ये पुनः परि- अच्छीण जायाणि । विज्जो पात्रो" अथ गाथाकरार्थ:-प्रणस्यक्ताः सम्तो गादं परितक्ष्यन्ते । प्राः कष्टम । ज्झता वयं च भकुषोयी रुस रोगस्तद्वान् कश्चित् नग्न्द्रः। तस्य चागन्तुकवैद्यकारायां। निःसंबन्धा पन्धुभिस्तैर्भगवद्भिः प्रतः कथमिव भ- न गुटिकानां शमना स्वरूपकथना। ततो गका विषहाम्यह. विष्यामः । इति ते शय्यातरं महता निर्बन्धन पकन्ति-क- दनामिति भाण,वेचन चक्षुषांगुटिकाभिर जनम ।तता वेदना। थय, कुत्रास्मान् विमुच्य, गताः कमाश्रमणाः । स प्राह- पश्चात्कमेण सुख संजातम्। प्रगुणीभूत अक्षिणी । वषरधाम्नः। भर्फ प्रामम् । ततस्तन कथित त्वरितमागतानां तां न वि.| प्रयमापनयः-यथा तम्य राकम्तन्काइम्सहमपि गुटिकानयहानिः कर्तव्या । कि तु-प्रामवान्युत्थानं दएमकादि- जनं, कमेण चऋषोः प्रगुणीकरणात् परिणामसुन्दरं समजनि। प्रहणं च कर्तव्यम् । ततस्ते बालिपुटाः पादपतिताव- एवं भवनामपि स्मारणादिक, खरपुरुषत्वात यधप्यापातकपु:समुक्ता, बलिप्रकाशाम्यभूणि विमुञ्चन्ता विकृपयन्ति । जगवा | खं, तथाऽपि परिणाममुन्दरमव कष्टव्यम् । इह परत्र च सकलन! क्षमस प्रमडीयमपराचं, विलोकयतास्मान् प्रसाद मन्थर कल्याणपरम्पराकारणत्वादिति । (सक्तो निष्कासनविधिः) पाशा, प्रतिपयवं जूयः स्वातीच्चकतया, कुरुतानुग्रहं स्मा
अथ संग्रहमाहरणादिना । 'प्रणिपातपर्यवसितप्रकोपा दि भवन्ति महात्मानः'
इय अधिवगो य विगि-चियाणं च संगहो पुणग्नूओ। इत अई बय प्रमादं प्रयत्नतः परिहरिष्याम इति । ततो गच्छसत्काः साधवः सूरान् कृताऽजव्यः प्रसादयन्ति । गु
जे न निसग्गविणीया, सारा या केवलं तमि ॥ रखो यते, आर्या मनं मम पाश्च सारधिकस्यकल्पनाम्
(श्य ) एवमविनीतानामविवेकः परित्यागा (विगिचयाण न प्रत्याचार्यकरणेन ।
चति) परित्यक्तानां पुनरावृत्तानां यः संग्रहा विधयः। ये तु एवमुक्त साधवो भान्ति
निसर्गेण स्वनायेन विनीतास्तेषां स्मारणेव केवलं कर्तव्या । को नाम सारहीणं, स होइ जो नदवाइणो दमए ।
यदमिन्धं कर्तव्यमिति।।
उपमहरनाहदुढे विन जो प्रासे, दमे तं आसियं विनि ।।
एवं पमिच्छिकणं, निष्फत्ति कुणइ बारम ममा उ । को नाम सारथिनां मध्ये स भवति, यो नवाजिनो वि
एवं देशदर्शनं कुर्वन् शिष्यः । प्रतीच्छकान् प्रतीत्य, निष्पत्ति मातानश्वान् दमयेन्म। कधिदमौ; असारधिरवत्यर्थः । दुष्टा
सूत्रार्थग्रहणादिना द्वादश समाः संवत्सर्माण करोति । गत नविनातानपि योऽश्वान दमयति, शिकां प्राइवति । तमाश्वि निष्पत्तिद्वारम। कमश्वदमं ब्रुवते लौकिकाः।
अथ बिहारवारं व्याख्यायते___ भपि च
एमो चेव विहारी, सीसनिष्फाययंतस्स ।। होति तु पपायखलिया, पुचम्नासा य दुश्चया भंते!।
" एसो चेव " इत्यादि । एष एव विदारः शिष्यान् न चिरं वताणा य, हिया य अचंतियं अंत ।।
निष्पादयतो वदितव्यः । इयमन भावना तस्य दर्शनं कृत्वा
गुरुपादम्न मागतस्य गुरुभिराचार्यपदमध्यारोप्य, दिग्बन्धाभदन्त ! परमकल्याण योगिन् ! पूर्वाभ्यामादनादिभवाभ्याम- नुशायां विहितायां नवकल्पविधिना विहरतो, यः शिष्यतया, दुम्त्य जानि प्रमादस्वजितानि भवन्ति । प्रायां जन्तूनां निष्पादनविधिः, स एवमव द्वादश वर्षाणि यावत् विनयः, प्रमादा निद्राविकथादयः स्वनिनान्यनुपयुक्तागमनभाषणा- तुव्यवक्तव्यत्वादिति । बोनिन चयं स्मारणादिरूपा यन्त्रणा चिरं चिरकालं भा
(१२)विहारद्वारम् । तत्र जिनकल्पिकमाथि प्रतिद्वारकबिना सास्मीनावमुपगते, ह्यमीषामग्रमादं को नाम स्मारणादि
पाणि अव्यवच्छित्तिमनातीनि षट् हाराणि । कं करिष्यतीति भावः । न चेयमापातवत् परिणामऽपि दु
व्याधिख्यासुहारगाथामाहमहा, किंतु हिता च पथ्या । प्रात्यन्तिकतिशयन मन्त
अब्बोच्छित्तिमएपंच-तुलण उवगरणमेव परिकम्मे । अवसाने; परिणामे इत्यर्थः। बच परिणामसुन्दरं तदापातकममुध्योपादेयम, अत्रान्तरे स
तवमत्तसुएगते. उवसम्गमह य वडाक्खे ॥ रयस्तेषां प्रमादिसाधूनां नीवतरं सवेगमधगम्य ते.'
अव्यवस्चित्तिविषयं मनः प्रयुत। पानामानार्याणां तुलना, नेव स्थिरीकर्नु राजस्यान्तं कुर्वन्ति
स्वयोग्यताविषया भवति । नपकरण, जिनकल्पोचितभेव
गृहाति । परिकम, इन्छियादिजयरूपं करोति । तपामस्वयतकअच्छिरुपावनरिंदो, आगंतुविजगझियसंसणया।
स्थानि, उपसगसहश्चेति. पञ्च भावना भवन्ति । वटक इति, विसहामि त य जणिएं-ऽजणं वेयण मुहं पच्ग ।। जिनकल्प तीर्थकरादीनामभावे वटवृकस्याधस्तात् प्रतिपचते! " एगोराया तस्स अभिया जाया, वत्थाम्वविदिन स- इति सारगाथापमानार्थः।
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जिणकप्प प्रन्निधानराजेन्द्रः ।
जिणाकप्प अथैनामेव विवरीषुराह
उवहिं च अहागडयं,गेएह जाव ऽणुप्पाए । अणुपालि भो य दीहा, परियाअोवायणा विमे दिना।।
अापकरणद्वारमाह-" उदि च " इत्यादि । यावदम्य निप्फाध्या य मीसा, मेमोहियमप्पणो काउं॥
जिनकल्पप्रायोग्यं शुद्धषणायुक्तं प्रमाणापेतं चोपधि वस्त्रातेनाचार्यण सत्रार्थ योरव्यवचितिं कृत्वा. पर्यन्ते प्रांपररात्र- दि,नोत्पाद यति, तावद्यथाकृतमव गृहाति । ततः स्वकल्पप्रायोकालसमये धर्मजागरिकां जाग्रतेत्धचिन्तनीयम् । यथा अनुपानि | ग्य उपकरणे लब्धे सति प्राक्तनमुपकरणं व्युत्सृजतीति । गततो मया दीर्घः पर्यायः प्रव्रज्याम्पा. वाचनापि मया दत्ता, म. उपकरण द्वारम् । चितेयः । निपादिताच यांसः शिष्याः । तदवं कृता तीर्थ
(१२)तत्र चतुर्थ परिकमद्वारम् । अस्य द्विविधस्वमस्यैवा. स्याव्यवचितितकरणेन विहितमात्मन ऋणमोचनम् । अत
धिकारस्य (१६) अङ्के मष्टव्यम् । का भ्रयः प्रशस्यतरं ममात्मना हितं कर्तुम।
परिफर्मेति वा भावनेति वा एकार्थ। तत भात्मानं भावनाभिः किं नाम हितामिति चेदुच्यते
सम्यक जावयति । माह-सवेऽपि साधवस्ताबद्भावितान्तराकिं तु विहारण ऽन्नु-जएण विहरामि ऽणुत्तरगुणणं ।। स्मना भवन्ति । श्रतः किं पुनर्भावयितव्यम? सच्यतआउ भन्भुजयमास-गोग विहिणा अणु मरामि ॥ । इंदियकसायजोगा, विनियमिया जइ वि सन्चमाहहिं । किंतुरिति वित। ज्युद्यतविहारण जिनकल्पादिना, अनुत्त.
___ तह रि नयां कायन्बो, तजयसिधिं गणं तेणं ।। रगुणनानुत्तरा अनन्यसामान्या गुणा निर्ममत्वादयो यस्मिन् स तथा, तेनाहं विरामि । ( आउत्ति) ताहो (अनुज्ज
यद्यपि सर्वसाधुनिरिन्डियकषाययोगान, विविधैः प्रकारनियपसासणेणं ति) सूत्रत्वात् सत्रस्य अन्युयतमरणविशेषेण शा
मिता जितास्तथाप जिनकल्पं प्रतिपत्त कामेन पुनरेतेषां जयः सनोकेन विधिनानिये। अनु पश्चात् संलेखनाद्युत्तरकालं मर•
कर्तव्यः । तहिकाऽमुमिकापायपरिभावनादिना इन्ष्यिाणां गं प्रतिपद्येऽहमिति । (७०)
जयस्तथा कर्तव्यो, यधेयानिविषयषु गोचरमुपागतेषु रागइह चायं विधिः । यदि स्तोकमवायुवशिष्यते. ततः पादपो
षयोरुत्पत्तिरव न भवति । कपायाणामपि जयस्तथा कर्तव्यो,
यथा-मापा दर्वचनश्रवणादि बाह्य कारणमवाप्यान्वितेषु पगमनादीनामेकतरमभ्युद्यतमरणं प्रतिपद्यते । अथ प्रचुरमायुः परं जबलपरिक्षीणः, ततो वृक्षावासमभ्यास्ते, अथायुदधि
तेषामुपचय एच माविर्भवति । योगानामपि मनःप्रभृतीनां जचन जवाबलकीणस्तदाज्युद्यतविहारं प्रतिपद्यत इति, गतम
यस्तथा पतितव्यं, यधा-तेषामार्तध्यानादिकं दुष्प्राणिनामिच ग्यवरिकृत्तिमनोवारम।
नांदयमासादयति । अथ किमर्थमित्थमिन्छियकवाययोगाना (११)तत्र हितीयमाचार्यादिरूप-पश्चतुलनात्मकम ।
जयः कर्तव्य इत्याद-तेषामिनियादीनां जयस्तजयन सिकि. पानामाचार्योपाध्यायप्रवर्तकस्थविरगणावच्छेदकानां तुलना
र्जिनकल्पपारप्राप्तिस्तां गणयता मन्यमानेनेन्द्रियादीनां जबः भवति । यथा त्रयाणां अभ्युद्यतविहाराणां कतरं प्रतिपद्या.
करणीयः । १०१ उ०। (इतोऽग्रे 'भावणा' शब्द) महे। चैत पत्र प्रायोऽभ्युशतचिहारस्याधिकारिण इति कृत्वा
(१३) तत्र पञ्चमं तपादिपञ्चकानां पश्चतुलनाभाषनारूपति सापानियमः कृतः। इत्थमामानं तातयित्वा यदि जि
पम । द्वितीया सत्वभावना 'सत्तनावणा' शम्दे । तृतीया भकल्पं प्रतिपित्सुस्तदा इत्थं विधि करोति
सूचनाबना 'सुत्तन्नावणा' शब्द । गणनिवेचिरिओ,गणिस्स जो वठविओ रिंगणे।
तावत् प्रथमांपोनाधनामाहगजिन प्राचार्यस्य गगनिज्ञः। त्वरः परिमितकालापनो भ.
बवेण सत्तेण मुत्ता, पगत्तेण बलेण य।। पति । यो बा उपाध्यायादिर्यत्र स्थाने पदे स्थापित, स तत्प.
तुमगा पंचहा वुत्ता, जिणकप्पं पम्विन्जभो ॥ दमकतुल्यगुणे साधायित्वरनिक्षेपेण निकिति । श्राह-किम- तपसा, सत्वेन, सूत्रेण, एकत्वेन, बलेन च, एवं तुलना भामसावित्वरं गणादिनिक्षेपं विदधाति, म यावजीविकम् ?
वना पञ्चधा प्रोका । जिनकल्यं प्रतिपद्यमानस्येति नियुक्तिगा. उच्यते-इह च काकविवरगामिता शिलीमुखेन वामलोचने थासमासार्थः। पुत्रिकाया वेधनमिव दुष्करं गणाचनुपालनमा प्रतः पश्या
अथ विस्तरार्थम भधिन्सुगदमस्ताबदेतानबी-55चार्यप्रभृतयः किमस्य गणादरनुपालन कर्नु यथावदशने, वा न वा। यदि नेशते। ततो मया न प्रतिप.
जो जेए अणन्जत्यो, पारिमिमाई तवो उ त तिगणं । सम्यो जिनकल्पः! यता जिनकल्पानपासनादपि श्रेष्ठतरमित- कुग छुहाविजयडे. गिरिणइसीहो य दिलुतो ॥ रम्य यथाविधस्थानावे सूत्रोक्तनीत्या गणाद्यनुपालनं। बहुत- ययेन पौरुष्यादिकं तपोऽनभ्यस्त सामीभावसमानानीतं तत् रमिअंरानाभकारणत्वात् । न च बहुगुण परित्यागेन स्वरूपगुणो- त्रिगुणं,कान्वारान् करोति । यथा-प्रथमं पौरुषी वारत्रयाऽसेवपादा विदुषां कर्तुमुचितं । सुप्रतिष्ठित कार्यारम्भकत्वासपा- नेन मामीभावमानीय ततः पूर्वाद्ध तथैवासेव्य सात्मीनावमामित्यभिधाय, स भगवानिवरं गणादिनिक्षेपं विदधातीति। नयति । एवमेकामननिर्विकनिकादिष्वपि द्रष्टव्यम । किमर्थमि- ' बच पावस्तुशास्र इव प्रकने श्रीहरिभद्रपूज्य:- त्याह-शुद्विजयाथै यथा तुत्परोपहसहने सात्म्यं भवतीत्यर्थः।
“पिच्चासु ताव पप, करिसगा दोति अस्स 'खाणऽस्स। प्रय गिरिनदीसिदेन रष्टान्तः यथा-असौ गिरिनदी तरन् परजागाण विपापणं, निवडणं दुक्कर दान
तट चिकगेति । यथा मुष्कप्रदेश वृक्काद्युपलकिने मया गन्तम यबहुगुणचापणं, अप्पगुणपमाहणं जर वुहाणं ।
मिति संचरन् तीनोदकवेगनापहियते । ततोव्यावृत्य सूयः काउंकज-सलाण सुपरष्टियाऽरंभा"। (गतं पश्यतु- प्रगुणमेवात्सरति । यदि हियते । ततो भूयः तथैवोत्तरति । एवं बनाद्वारं)
बाबत मकमामपि गिरिनहीं प्रगुणमेवोत्तरीतुं न शक्नोति, ता
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(१४७.) जिणकप्प अभिधानराजेन्द्रः।
जिणकप्प पच्दुत्तरवाज्यासंगमुशति । एवं साडी याचाइवक्षितं तपः | सहायः साहाटिकसाधुस्तद्विषये, भारिशदादाचार्यादिविषसात्मीभान बाति, तावत्तदभ्यासं न मुम्चति ।
ये च, बायप्रेमाणि पूर्व तनुकीकृते परिहापिते सति, तसा पतदेवाह
पावादाहारे उपधी, देहेच, न सजनि, न ममत्वं करोति। रको तापत करेइ जह तो कीरमाणेणं ।
ततः किं भवतीत्याहहाणी न होइ अध्या, विहोज उम्पासउवसग्गो ।।
पुग्न निमममत्तो, उत्तरकालं विजमाणे वि।. एक तपस्तावत्करोतिपथा तेन नपसा क्रियमाणेनापि वि.
सानावियाभरे वा, कुसइ दटुं न संगइए। हितानुष्ठामस्य हानि भवति । यदापि कथंचित् भवेत्वएमा- पूर्व वित्रममत्वः सर्वेऽपि जीवा मसरुवनन्तशो वा सर्वसान् याबदुपसों देवादिकतोऽनेषणीयकरणादिकाः, तदा जन्तूनां स्वजननायेन शत्रुभावन च संजाताः । अतः कोऽत्रमा पिपरामासान पायदुपापित प्रास्ते । न पुनरनेषणीयमाहार स्वाको वा परः, इति भावनयात्रुटितप्रेमबन्धः, स तूत्तरका परहाति।
जिनकल्पप्रतिपस्यनन्तरं, व्यापारमानानविसंगतिकान् स्वसपस एक गुणान्तरमाह
जनान् स्वभाविकानितरान् वा वैक्रियशक्त्या देवादिनिर्मिअप्पाहारस्सनई-दियाई विसएस संपवतंति।
तान् बला, न हुज्यति, ध्यानात् न चलति । नेव किनिस्सह तबसा, गसिएसन सज्जए वा वि॥
मत्र रटान्तमाहবব জিম্বাশযান্থাৰুষ বা লন্ডিয়ান্ত স্মিথ
पुफपुरपुप्फकेक, पुष्फबई देवी जुमलय पमुवे । सर्वादिषु संवर्तन्त, न बकाम्यति,बाधामनुभवति । तपसा - पुत्तं च पुष्फलं, धूमं च सनामियं तस्स ।।
रसिकेषु मधुरेषु अशनादिषु सजति, सऊं करोति । - सहफियाणुरानो, रायत्तं चेत्र पुष्फचूलस्म । परिजोगाभाबनादराभावात् ।
घरजामाए दाणं, मिलए निसि केवलं तेणं॥ अपिच- . तपजावणाई पंचिं-दियाणि दंतानि जस्स बसमिति।
पवजा य नरिंदे, अपचयणं च णेगत्ते ।।
बीमंसा उसग्गे, विमा समुहिं च कंदण्या ॥ इंदियजोगायरियो, समाहिकरणार कारणए ।
पुष्फपुरं नयरं । तत्थ पुष्फळ राया। पुष्फबई देव।। साम-. तपाभावनया हेतुभूतया पोते संख्याकानीन्द्रियाणि दा. तानि सन्ति । यस्य वशमायनतामागसन्ति । स इन्छिययो
या, जयसं पस्या। पुष्फलो दारो। पुष्फच्मा दारिया। ताकि
दोषि सहक्कियाणि। परापरं आईव 'अणुरत्ताणि। माया पुष्फ. ग्याचार्यः, इम्झियगुणनक्रियागुरुः समाधिकरणानि समाधि
मोराया पबश्यो।अणुरागणं पुष्फला विजगिणी पव्याया। म्यापाराणि कारयतीन्छियाणि । यथा यथा सानादिषु स
सो य पुष्फचूलो। अनया जिणकप्पं पमिज्जिकामो। एगमाधिपद्यते, तथा तथा तानि कारयतीत्यर्थः । उका तपो
सजावणाए भपाणं भावहाइभो य पगेणं देणं बीमसणाप्रावना । वृ० १७०।
निमित्तं पुष्फचूनाए अज्जाए वं विम्वियं । तं धुत्ताधरिसि (१४) तुलनाभावनापञ्चके चतुर्यकत्वभावनामाह- पबत्ता । पुष्फचूलो य भणगारो तेणं प्रोगासेणं बोसा । साहे जर वि य युबममसं, वि साहि दारमाई म ।
सा पुष्फला प्रज्ञा जेजसरणं भवाहिति। बाहर, सोय
प्रगवं बुनिसपेमवंधणो"एगाहंणऽस्थि मे को बि, माहमआयरियाइममतं, नहा वि संजायए पच्छा ।।
नस्स कस्स वि" चा पगत्तभावणं भावितो गयो सपषि प-पूर्व गृहवासकासनावि ममत्वं साधुभिरा-1 हाणं । पर्व पगभावहार अप्पाणं भावयम्यो सि। गाथाकल तन्वादिग्रहणारपुत्रादिषु चिन्नमेव । तथाऽप्याचार्यादिवि. करयोजना स्वेद-पुष्पपुरे,पुष्पकेत् राजा । पुष्पवती देवी,युग. पयं ममत्वं पश्चात प्रवज्यापर्यायकाले संजायते तब कथं सं प्रसूते । वर्तमाननिर्देशस्तकालवियतया पुत्रं च पुष्पचन परिहापयितम्यम्।
दुहितां च तस्य समामिकां समानानिधानां तयोश्च सहब. उच्यते
तियोरनुरागो। राजस्वं चैव । पुष्पचूलस्य पुष्पचूलायाभर दिद्विनिवायालावे, अपरोप्परकारियं स पमिपुच्छं। हजामात्रे दानं। सा च नेन भी सम वसं निशि राधी मिसन्ति । परिहासमिहो य कहा, पुवपवित्ता परिहावे ॥ प्रवज्या व मरेन्जपुष्पम्य। तदनुरागेणानुपवाजनं च पुष्पचूला. गुवादिषु ये पूर्व धिनिपाताः सस्निग्धावलोकनानि ये घ
याः। तनो जिनकलां प्रतिपित्सुरेकत्वभावनां भावयितुं सनः। वि. तैः सहाशापास्तान् । तथा परस्परोपकारितां मियो भक्तपा
मर्शपरीक्का । तदर्य देवेनोपसर्ग क्रियमाणे विटैः सम्मुखी - नंदानग्रहणायुपकारं प्रति पृच्छन् सूत्रार्थाविप्रतिपृच्छया स
पचूलां कृत्वा घर्षणं कर्तुमारब्धं, ततः क्रन्दनाम । आर्य! श. हित, परिहास हाय, मिथः कथाश्च परमारवातो, पूर्वप्र.
रएं शरणमिति ।
अत्रोपसंहारमाहपत्ताः सर्वा अपि परिहापयति । ततश्च
. एगत्तभावणाए, पकामनोगे गणे सरीरे-णो। साईकयम्मि पुर्व, वाहिरपेम्मे सहायमाईमु ।
सज्न वेरगगओ, फासे मणत्तरं करणं ।। माहारे उपाहिम्मि य, देहे य न सज्जए पच्छा। पकत्वभावनया भाव्यमानप्रकामभागेषु शब्दादिषु गणेग.
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(२४७२) अनिधानराजेन्द्रः ।
जिए
शरीरे वा न सजति न सङ्गं करोति । किं तु वैराग्यं गतः सन् स्पृशनि, आराधयति । अनुत्तरं करणं प्रधानयोगला धनं जिनकल्पपरिकर्मेति । गता एकत्व भावना
(१५) मध बलभावना । तत्र बलं द्विघा नायबलं शारीरवनं च । तत्र नायबन्नमाद
जावो व अभिसंगो, सो उ पसत्यों व अप्पसत्यो वा । नेहगुणम्रो उ रागो, अपसत्यप्पमत्थओ चैत्र ।
प्रशस्तः । यः
भावो नाम अभिष्वङ्गः । स तु विधा- अप्रशस्तः प्रशस्तश्च । तत्रापत्यकलत्रादिषु हस्तजनितो रागः, सोऽ पुनराचार्योपाध्यायादिषु गुणवमानप्रत्ययो रागः प्रशस्तः । तस्य द्विविधस्यापि नावस्य येन मानसावष्टम्भेनासी युसर्गे करोति, तद्भावबलं मन्तव्यम् । शारीरमपि बलम-शेत्र जनापेक्षया जिनकल्पार्ड स्वातिशायिकमिष्यत इत्याह-तपाज्ञा-. प्रभूतिः भावनानि शरीरं ततः
कुतोऽस्य शारीरवलं फार्म हायपरमासनास देोवच वि। सती जह हो पिई, चिरा हा सो जप कर्म ॥
अनुरवधारणे । अनुमतमेवास्माकं यत्तज्ञानभावनायुक्तस्य शरीरवलं हीयते । परं देहोपचयेऽपि सति गथा धृतिर्मानसावष्टम्नलक्कणा निश्चला भवति । तथासौ यतते धृतिबलेन सम्यगात्मानं भावयतीत्यर्थः ।
माह - इत्यं धृतिबलेन जावयतः को नाम गुणः स्यादुच्यतेकसिला परिसम्म निमावि करपढ़करवेगा, जयनी प्रप्यचार्थ ॥ धिरणियबकच्छो, जो होड़ प्रणाउलो तमव्यहियो । भाषणाची संमोरो हो ।
करना संपूर्ण परीषहच मूर्मार्गाच्यवते, निर्जरार्थे परिपोटपरीषदाः चुद्रादयः । त एव तेषां वां चमूः सेना सा यद्यु. सिष्ठेत्, सम्मुखीभूय परिजात्रनाय प्रगुणा भवेत् । सोपल यदि कृतमहाकापि तथा पन्थानं स्वम्यग्दर्शनादिरूपं मोहमार्ग करोति इति दुईरपथकरः, तथाविधो वेगः प्रसरां यस्याः सा दुर्द्धरपथकर बेगा । भयजननीं त्रासकारिणीं महासस्थानां कापुरुषाणां ताविद्यामजिनका पति I
,
श्रुतिरेव " धणियं " प्रत्यर्थम, बद्धा कक्का येन स तथा । श्र माकुलः औत्सुक्यरहितः । श्रव्यथितो निष्प्रकम्पमानः स बबोधयित्वा पन्नास संपूर्ण
रथो भवति । परीषदापसर्गात् पराजित्य स्वप्रतिमां पूरय तीत्यर्थः ।
अपि चचलो हतिसन्या भाषणा एता । तं तु न विज्जड़ सज्यं, जं धिड़मंतो न साहे ||
अध्येताः तपःप्रभृतयो भावनाः धृतिबल पुरस्सरा प्रति दितियमन्तरे मासिक तपःकराच गुणाभाववितुं किं तु जनकपुरुषो
जिस कप्प
"
साधयति "सर्व सत्ये प्रतिष्ठितम् " इति वचनादेनेन " अब्दोसमस्यादिद्वाराचायाः उपि तद्भवतं बलभावनया, उपसर्गस हत्वनावादिति । गता वन
जावना ।
अथ ( उवसग्गस य नि ) इत्यत्र यः खशब्दः सोऽनुकस मुचये वर्तते । अतस्तदर्थ लब्धं विधिशेषमादजनकपियपडि, गच्छे समाण विश्परिकम् । ततिर भिक्लायरिया, पंतं लूहं अनिग्गहिया ||
पवनानिनांदितान्तरमा जिनकपिकल्य प्रतिरूपी तदनुरूप भूत्वा गच्छ एवं वसन् द्विविधं परिकर्म कांति तथा नीयस्यां पोनिकाहिमाचल
निग्रहयुक्ता ।
तथा
परिणामजोगसोही, उबहिविवेगो य गणविवेगो य । मिनावारचिसो-हर्ण चव ।। यो परिकाले, सप्पुरिसनिसेवियं परमघोरं । पच्छामि जियनिहार ॥
-
परिणामस्य गुर्वादिममत्वविच्छेदेन यांगानां चावश्यकव्यापा यथाकालमेव करणेन तथा प्राकृतस्योपधेर्विवेको गणविवेकश्च शय्यासंस्तारस्य विशेोधनं च । विकृतिविवेकश्च । तदा तेन कर्तव्यः । ततः पश्चिमे काले तीर्थव्य किरणानन्तरं त्रुि
रमघोरमन्तरतुवरं पादायी नियमध्यमेकाि जिनकविक विहारमुपै (१६)
परिकर्म परि
महापापनेाद्विविधम पुनः फेनासंस्तरति जनकइतेि । अथ शिव परिकर्म व्यापानयतिपाणिपादे च सचेलं अवेल म्रो जहाजविषा । सोते पगारें, जाने अणागयं चैत्र ।
द्विविधं परिकर्म | तद्यया पाणिपरिकर्म, प्रतिग्रहपरिकर्म च । अथवा सचेन परिकर्म, अचलपरिकर्म च । तत्र यो यथा पाणिपात्रचारक प्रतिपचारको वा सबैको वाजविता, स तेनैव प्रकारेण पाणिपात्र भोजित्वादिना अनागतमेवात्मानं भावयति ।
प्रकारान्तरमाह
हारे उहिम्पिय अहवा दुबिदं तु होः परिकम् । हो दो पंचसु, अभिग्गहो अन्नतरियाए । अथवा द्विविधं परिकर्म । श्राहारे, उपधौ च । तत्राहारं तावइसी तृतीय सेमे प्यादीप्तान पिपानांमध्य
,
या सर्वचैवास्वीकारः उपरि पा पालोनि धर्मिका प्रय अन्यतरस्यामंत्रणायामेकया नक्तं अपरया पानकमिति नियन्त्रय शेषाभिस्तिस्रुभिस्तद्दिव समग्रहणमित्यर्थः । उपधौ तु वस्त्रपात्र
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(१४७२) जिगाकप्प अभिधानराजेन्द्रः।
जिणकप्प योः प्रतिमाचतुष्टयं यत्पीठिकायामुक्तं तत्रायवर्जमुत्तरयो
कथं पुनरित्याररेव प्रहणं तत्राप्यन्यतरस्यामभिप्रहः।।
जइ किं वि पमाएणं, न मुटु ने वहियं मए पुग्छ । अथ " पंतं लूहं ति" व्याची
ने खामि अहं, निस्मल्लो निकमामा ।। निप्फावचणकुम्मा, अंतं तं तु दाइ वावनं ।
दि-किंचिप्रमादनानाभोगादिना न सुष्ठ (भ) भवतां मया नेहरहियं तु बूह, जं वृत्रलई सनावेण ।।
पतितं पूर्व, तदू (भ) युप्मान् कमयाम्यहं निःशस्यो
निष्कषायश्च । निषावाः खलः, चणकाः प्रतीत, आदिशनात कुस्माषा
इधं तन कमित सति शेषसाधवः किं कुर्वन्तीत्याहदिक च 'अन्नम'त्युच्यते।'प्रान्त' पुनस्तदेव व्यापन, विनष्टुं.
आणंदमंसुपायं, कुणमाणा ते विमिगयसीसा । यत्पुनः स्नेहरहितं तद्रूज, यद्वा-स्वभावेनोपमम्धादिकं तदपि ककं मन्तव्यम। ..
खामिति जहरिहं खलु, जहारिहं स्वामिता तेणं ।।
सेऽपि साधवः मानन्दाभुपातं कुर्वाणा भूमिगतशीयाः कितिअत्रैव विधिविशेषमाह
निहिताशरसः सन्तः कमयन्ति । यथाई यो यो रत्नाधिका नककुडयासणसमुई, करेइ पुढवीसिन्झाइमूव विसे ।। स सः प्रथममित्यर्थः । तेनाचार्येण यथाई यथापर्यायज्यष्ठं का. पस्विनो पुण नियमा, उक्कुम्भो केई उ जयंति ॥ मिताः सन्तः इति।
भयत्ध कामपायां के गुणा इत्याहतं तु न जुज्जा जम्हा, भतरोणऽत्यि भूमिपरिजोगी।
खाभितम गुणा खलु, निस्मल्लयविण यदीवणामग्गे । तम्मि य हु तस्स काले, भोवग्गहियोवह। नत्यि।
लापक्षियं एगतं, अप्पमिधा अजिएकप्पे । (उकरुयासणममुनि) देशीवचनस्वावल्यामं करोति ।
जिनकल्पे प्रतिपद्यमाने साधून कमयन्तः खलु एते गुणाःतयपृथिव शिलादिषुवा पृथियौशिलापट्टके. भादिशब्दादपरचापि
पा-निःशल्यता, मायादिशब्याभाबो नवति। विनयश्च प्रयुक्तो तथाविधेषु यथासंस्तुतेषु उपविशेा जिनकल्यं प्रतिप
- भवति।मार्गस्य दीपना कता प्रवति । इत्थमन्यैरपि क्षामणकपु. सः। पुननियमादुत्कुटुकः कंचिद्भजन्ति । विकल्पं कुर्वन्ति। उत्कु
रस्सर सर्व कर्तव्यमिति । लाघवमपराधनारापगमतो लघुटुको पा तिष्ठत्, उपविशेदा, तत्तु न युज्यत, यस्मादनन्तरोऽ
भाष उपजायते । एकत्वं नामिता मया मा सीद च । ताकमव्ययहिता नास्ति साधूनां नवेदमिपरिजोगः “ सुम्पुढवाए
क पचास्मीत्यनुभ्यान भवति। मप्रतिबन्धश्च, ममत्वस्य किन. नासिरति" बचनात्। तस्मिइच जिनकम्पकाले मोपप्रहिकोप' चिनास्ति। तदभावारच निषचापि नास्ति, प्रति गम्यते। ततश्चा
वाद् भूयः शिष्येषु प्रतिबन्धो न भवति ।
अप जिपनपदस्थापितस्य प्रेरनुशिष्टिमाहघोदापमं तु उत्कुटुक परतिष्ठति। उक्तशम्दसचितो विधिशपः। (१७)बिहारद्वारगतं षष्ठं वटवृक्षारमा न्यायानुकूल्ये,
मह ते सवालवुलो, गच्छो साइज णं अपरितते । कस्य पार्षे, कस्य तरोरधस्तनप्रदेशे बा, जिनक- स्वीकर. ण य साहु परंपरओ, तुमं पिअंते कुणसु एवं ॥ णीयम् । तबकेन विधिमा । ततःकामणम् । शेषाः किं कुर्व पुनपविनं विणयं, मा हुपमाए हि विणयजोगेमु । न्ति । कामणायां के गुणाः जिनपदस्थापितसूरेग्नुशिहिंसाधूः
जो जेण पगारेणं, उब उज्जइ तं च जाणाहि ॥ नामनुशिहिं च प्रदाय किंकरोतीत्यादिप्रतिपादितम्।।
प्रयच (ते)तबमबाल पयो गच्छो निसष्ट इति शेषः । अतोदबाई एकले, संघ समिद्धे य तो ग असा ।
ऽपरितान्तोऽनिर्षिलो (क)एनं गई सान्तयः संगोपयः, स्मारजिण-गणहरे य च उदम-अभिनेय असावकमाई॥ जावारणादिना सम्यक पारित्यर्थः । न च परित्यक्ताऽहममीरथमारमान परिकर्म । द्रव्ये, माविशदात् कंत्र, काले, भाष भिरित्याविपरिभाब्य । यतः एष एव परंपरकः शिष्याचार्यक्रमो -, अनुकूले प्रशस्ते स मालयिस्वा. सश्यस्यासस्पभावे गणं पदम्यवमितिकारक शिष्यं निष्पाय, शक्ती सत्या मत्युतबि. स्वकीयमवश्यमेव समाइय, ततः प्रथमं जिना, साधंकरस्त. हारः प्रतिपत्तभ्यः। त्वमप्यन्त शिष्यनिष्पादनारिकार्यपर्यवसाने स्थान्तिके। तदभावे गणधरः, तनिधाने। तबलाभे.चतुवंशपूर्व. पर्वमेव कुयाः। ये बहुभुतपर्यायज्येष्ठादयो बिनय योग्या गौरपरान्तिके। तदसंभवे, अभिनाशपूर्वधरपा । तस्याप्पमति, बाहास्तंषु पूर्वप्रवृत्तं यथोचितं विनयं मा प्रमादयः, प्रमा. बरपास्याधः । मादिग्रहणाचप्राप्तावशोकपकादीनामध. देने परिहापयेः । पञ्च साधुर्यन तपःसाध्याययावृत्याविना स्ताजिनकल्प प्रतिपद्यते।
प्रकारेणोपयुज्यते, मिजंराप्रन्युपयोगमुपवाति तंब जानीहितं केन विधिनेत्याह
तथैव प्रवर्तयत्यर्थः। गणि-गणारं नेता, खामे अगणी केवलं खामे।
. मध साधूनामनुशिक्षिप्रयच्छतिसम् च पालवु, पुनविरुके विमेणं ॥
मोमो श्राराक्षणिओ, अप्पतरसुओऽज मा प्रभो तुम्भे। गणी, गम्छाधिपाचार्यास पूर्वमित्वरनिकितगणं स्थशिष्यगः परिजवह तुम एसो, विमेसो संपर्य पुज्जो। नधर स्थापयित्वा भ्रमणसचं कमयति । (अगणिति) यस्तु । भवमोऽयम प्रध रालिकाऽयम अल्पतरश्रुती चा अपमम्मा. गणी न भवति, किंतु मामाभ्यसाधुः स कयलं शमयति।न | पेकया, अतः किमर्थमस्याहानिदेशं षय कुमंह, कति माऽध तु किमपि स्थापयति । किं पुनः कमयतीत्याह-सवै सकल ययम परिभवत । यत एष युष्माकं सांप्रतमस्मरथानांबवा. मपि स च शब्दात्तनाव स्वगच्छ बालवृद्धाकुन, पेच पूर्व. गुरुतागुणाधिकरवाच विशेषतः पूज्यो म पुनरपकातुमावत विस्था प्राविधितास्ता विशरण कमपात ।
इति भाषः।
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जिणकप्प अभिधानराजेन्छ।
जिणकप्प . त्यमुभयबामप्यनुशिधि प्रदाय किं करोतीत्याह
अहवा वि चकनाले, सामायारी उ जस्स जा जोग्गा । पक्खि व पत्तसहि ग्रो, सजंडगोवि विजगिज निरवेक्खो।। सा सव्वा वत्तव्या, सुभाइ वा इमा मेरा ।। जा तझ्या ता विहरो, से चनत्यो गाइ नपासु॥
अथवाऽपि, चक्रवाल प्रत्युपेकणादौ निन्यकर्मणि, यस्य जिनपया पकी पत्राभ्यां पक्काज्यां सहितः, प्राक्तनस्थाननिरपेकः |
कल्पिकादेर्या सामाचार) याम्या, सा सर्वा अत्र सामाचारीद्वारे स्थानान्तरं व्रजति । एवमपि भगवान् सनाएमकः पात्रसहिनो,
वक्तव्याराथुनाटिका वा श्यं वक्ष्यमाणा मेरा मर्यादा सामाचारी। निरपेको गच्छसत्कापेक्षारहितः, एकान्तं मासकटरप्रायोग्य (१६) श्रुतादिकानां वक्ष्यमाणसामाचारीणां सप्तविंशके ब्रजति । अयं च यावत्तृतीयपौरुषी, तावद् गच्चति । यत
तिहाराणिस्तस्यामेव (से) तस्य विटारा, नाम्यासु पौरुषीषु । यत्र __तामेवाभिधित्सुारगाथात्रयमाहतु चतुर्थी पौरुषी भवति, तत्र नियमात् तिष्ठति इति ।
सूयमंघयणुवसग्गा, पायंको वेदणा कइ जणा य । तस्मिनिर्गते शवसाधवः किं कुर्वन्तीत्याद
यमिन्नवसाहिकेचिर-मोच्चारो चेव पासवणो । सीहमित्र मंदरकंद-रात्तो नीमम्मिए तो तम्मि ।
आवासो तणफन्नयं, सारवणया य संम्वाणया य । चक्वुविसयं भइगए, अति आणं दिया सा॥ । पाहुमित्रोऽगी दीवा, ओहाण-वसे कई जणा उ। . सिंह श्व मन्दरकन्दरायास्तस्मिन्ननगारे सिंहे,गचात(नीअम्मिए)| भिक्खायरियापाणग-लेवाळेवा तहा अझेग य । निर्गते मति,कियन्तमपि भूभागमनुगमनं विधाय, ततश्चकुर्विष
आयंबिलपमिमाओ, जिगकप्पे मासकप्पो य । पमतिकान्ते प्रदर्शनीभूते, आयाम्ति स्ववति भानन्दता, भहो भयं नगवान् सुखलेवनीयस्थविरकल्पविहारं विहाया
श्रुतं १ संहनन २ उपसर्गः ३ प्रातको ४ वेदना ५ कति जना. तिपुष्करमभ्युद्यतविहारमभ्युपैति, इति परिभावनया gr:
इच६ स्थण्डिलं ७ वसतिः कियश्चिरं । चारश्चैव १० प्रश्रसन्तःसाधवः। इति।
वणं ११ अवकाशः १२ तृणफलकं १३संरकणता च १४संस्थाइदमेव विशेषमाह
पनकाच १५ प्राभृतिका १६ मग्निः १७प्रदीपः १८ प्रवधानं १९
पत्स्यथ कति जनाश्च २० भिक्षाचर्या २१ पानकं १२ लेपासप: निश्चलसचेले वा, गच्छारामा विणिग्गए तम्मि ।
२३ तथा अपच २४ भाचाम्लं १५ प्रतिमा २६ मासकल्पा चक्नुविसयं अईए, अईति आएंदिया साढू ।।
२७ (जिणकप्पेत्ति) पतानि सप्तविंशतिद्वाराणि जिनकम्पनिभेमो वा सचेन्नो बा । गगरामात सुखसवनीयाद्विनिर्गते, विषयानि वक्तव्यानि इति गाथात्रयसमुदायार्थः। तस्मिन् बकुर्विषयमतीते, आयान्ति । मानन्दिताः साधवः ।
अधावयवाय प्रतिद्वारं प्रतिपिपादयिषुर्यथाहणं प्रथासौ विवक्षितं के गत्या-किं करोतीस्याह-- .
निर्देश इति न्यायतः प्रथम भुतद्वारमाहभाभोएन खेतं, निम्बाधारण मासनिनाई।
भायारवत्यु तश्य, जहमयं हो नवमपुवस्स । गंतूण तत्थ विहरइ, एस विहारो समासेणं ॥
अहिए कालम्साणं, दस पुण उकोमनिएपाई॥ माभाग्य विज्ञाय केत्र, निव्याघातेन विनाभायन मासनि
जिनकल्पिकस्य जघन्यकभुतं, नवमपूर्वस्य प्रत्यास्यामनामकबहिं मासनिर्वहणसमर्थ गत्या-तत्र के विहरति । स्वनीति
स्याऽऽचाराक्यं तृतीयं वस्तु। तस्मिन्नधीते सति,कालकानं प्रब. परिपालयति । एष विहारो विशेषानुष्ठानरूपोऽस्य भगवतः
तत्यतस्तक भुतपर्याये वर्तमानस्य न जिनकस्पिकस्य प्र. समासेन प्रतिपादितः। श्युक्तं बिहारद्वारम । ०१०।।
तिपत्तिः। उत्कर्षतो दशपूर्वाणि निनानि । भुतपर्यायः संपूर्णव
शपूर्वधरः । पुनरमोघषचनतया प्रवचनप्रभावमापरोपकारा(१८) सामाचारीधारम । मावश्यक्याविपश्वसामाचारी
दिवारण च, बहुतरं निरामाभमासादयति। मतो नासो जिजिनकल्पिक प्रयुके, अन्यानाभादेशान्तरमप्यत्रैवोक्तम ।
नकल्प प्रतिपद्यते । सक्तं भुतद्वारम । • अथैतासां मध्याजिनकलिपकाः सामाचार्यों भवन्तीत्युच्यते
भय संहननद्वारमाहभावासिनिमीहिमि-नापुच्छरमपदं च गिहिए।
पढमित्युगसंघयणा, पिडए पुण बजकुडसामाणा। अन्ना सामायारी, न होति सेसे सिया पंच ॥
जिनकल्पाः प्रथमिल्लुकसंहननाः बजाननारायसंहननापेमावश्यकी, रधिकी, मिथ्याकार, भापृच्छाम, उपसंपदं च, ताः। धृत्या प्रकीकृतनिर्वाहवाममन:प्रणिधानरूपया बजकुम्यपहिषु गृहस्थविषयाम। पताः पञ्च सामाचारीजिनकल्पिकः | समानाः। -भधोपसर्गद्वारमाह - प्रयुक्त। मन्याः सामाचार्यों न जयन्ति, तस्य (ससे)शेषाः उपजतिन वा सिन-वसग्गा एस ति पुच्छा उ॥ पर मिष्याकाराया। प्रयोजनाभावात् ।
अपोपमगहारम-उत्पद्यते न वा अमीषामुपसर्गा दिम्यादयः भादेशान्तरमाह
इत्येषा पृरुका । भत्रोत्तरमाहभावासिइंनिसिहिई, मोतुं उपसंपयं च गिहिए। जइ विय उप्पज्जते, सम्म वि सहति ते उ उवसग्गे । सेमा सामायारी, न होति जिणकप्पिए सत्ता || मायमकान्तो यदवश्यमेतेशमुपसर्गा उत्पयन्ते, परं याप्युत्प. मावश्यकी नैषधिकी मुक्रवा, उपसंपदं च गृहिष गृहस्थ- चन्त, तथाऽपि सम्यगदानमनसो विषहन्त तानुपसर्गान्। विषयां, जिनकस्पिकस्य शंषा: सामाचार्यों मिथ्याकाराचा:
भधाऽऽद्वारमाहसान भवन्ति । तद्विषयस्य स्वसितादेरभाषात् ।
रोगातंका चे, नइमा जइ होति विसति ।।..
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जिणकप्प
आतङ्कद्वारमतिदिशति रोगाश्च कालसदाः । आतङ्काश्च सो घातिनः मे उत्पन्न या परिप ततो नियमाद्विषहन्ते ।
वेदनाद्वारमाद
अवगमा प्रोषक माय तेसिया भने दुविधा । क्लोआइपमा विवाह पिई एको ।
( १४७४) अभिधान राजेन्द्र. 1
आभ्युपगमकी, श्रीषकमकी तेयां जिनका या वेदना जयति प्रथमा-पोषाचा प्रतिदिननावी मोब:, आदिशब्दादातापनातपः प्रभृतिपरिग्रहः । द्वितीयाचीपकमिकी जयविपाकादिः, जरा प्रतीता । विपाकः कर्मणामुदयतत्समुत्या ।
अथ "कियन्तोजना" इति द्वारम ( एको सि) एक एवायं भगवान् भवति । यदि वेदद्वारमुपरिष्टात् व्याख्यास्यते । अथ स्थ एडलद्वारमाह
उच्चारे पास
उस्समां पंडिले कुरा पढने ।
सत्येव य परिजुए, कयकिच्चो उज्जर वत्ये ॥ उच्चारस्य प्रश्नवणस्य चोत्सर्गे परित्यागं प्रथमे अनापाते अलोके स्थपिकले करोति । तत्रैव प्रथमस्थरिमले कृतकार्यों विदिततत्राणादिति । अयं च संज्ञां व्युत्सृज्य न निर्लेपयति । कुत इति उच्यतेअप्पमभिन्नं बच्चे अयं लू व जोअयं भणियं । दीदेव उवसग्गे, उभयमवि प्र थंकिले न करे ॥ पर्व पुषमस्य भवति। वयं करुं जनमस्य गणितं ग या तथाकल्पत्याच्यासी नपिनबा पिदेव उपसर्गे उभयेऽपि संज्ञां का स्थ पिडले मापातादिदोषयुक्ते भागे करोति । बसतिद्वारमाद
-
श्रममता - sपरिकम्मा, नियमा जिणकपियाण बसही भो । मेव व मेरा पुष्ण पमज्जयं एकं ॥
अममाया ममेयमित्यभिहताः। अरिकर्मा साध पारिकता नियमात् जिनकपिकानां पतिः । स्थविरकल्पिकानामध्येवं वसतिर ममत्या, अपरिकर्मा च षष्ट या प्रमाणामेकमन्यत्परिकर्मेति न कुर्वन्ति इत्यर्थः । एतदेव स्पष्टयति
बिले न ढक्कंति न खज्जमा रिंग,
गोणो य वारिति न प्रमाणि ।
दारे न ढकिंति, न वल्लगिंति, दप्पेण थेरा जइया न कज्जे ॥
भगतला धूयादिना न स्यन्ति नया गा दिनिः बाद्यमानां भज्यमानां वा वसतिं निवारयन्ति । द्वारे न दर्किति कषायाभ्यां न संयोजयन्ति । स्थविरकल्पिका अपि कार्यामामेव वसतेः परिकर्म न कुर्वन्ति कार्ये तु पुष्टावलम्बने जाज्याः परिकर्म कुर्वन्त्यपि इतिभावः ।
जिया कप्प
कियचिरोबार प्रणा-बकाश तृणफलक-संरक्षण-संस्थापना द्वाराणि गाथाद्वयेन जावयतिकिंचिरकालं वसिहि, त्यय उमारमाइए कुछ
इइ अत्यमा इइ य इह तफलए गिल्डड पाय ॥ यस्य वसायमानायां तदीयस्थामि मन्ति कियत् चिरं कालं वत्स्यथ यूयं । यथा अत्र प्रदेशे उच्चारादीनि पुरीषप्रश्रवणादीनि कुरु । अत्र तु मा कुरु । हास्मिनबकाये आसीय ममेति तानि या हस्ना निर्दि श्यमानानि तृणप्रकानि गुडीया मापतानीति ॥ सारकलह गोणाई, माप पार्मेति उक्लिह व भंते! वा अभियोग नेति अधियचपरिहारी ॥ संस्कृत वा गादी बहिमिंग यूयमस्माकं वादग नानामापतन्तीं किं सुखं स्थापना पुनः संस्काररूपा विधेया (संतवण्या य (स) द्वारगापायां शतेन सुचिनम् अन्यं वा स्वादि पं यत्र वसतिस्वामी अभियोगं नियन्त्रणां करोति तं मनसामिस्वाध्यीतिकस्य परिहारिणो मम गवन्त इति ।
प्राभृतिकाग्निदीपावधानद्वाराणि व्याचष्टेपाहुकियद यो वा, अग्गिपगासो व जत्थ न वसंति । जत्यय भणति भंते! ओहाणं देहि गेहे वि ॥
यस्यां वसतौ प्राभृतिका बलिः क्रियते, दीपको वा यस्यां विधीयते। ग्रङ्कारादिकस्तस्य प्रकाश पत्र न बसन्ति । यत्र च तिष्ठत्सु सत्सु श्रगारिणो नरान्ति, अस्माक मागे अवधानमुपयोग ददत इति तत्रापि नातिष्ठते। वत्स्यथ कति जना इति द्वारमाह
सर्व पर्वतो न भयकड़ जावि न तत्य बसे । सुपि न सो इच्छा, परस्स अपिलियं जग
सतिमहामापयति कति जना पूर्य सत्यथेति तत्रापि न वसति । कुत इत्याह-सूक्ष्ममपि नासाविच्छति परस्याप्रीतिकं भगवान् । ( कश् जया उत्ति ) अत्र यस्तुशब्द स्तेनान्यामपीषदप्रीतिकजननीं वसतिमसौ परिहरतिति गम्यते । उ वस्तुसुमं पि यत्तं, परिहरए सो परस्त नियमेणं । जं तेण तुसद्दाम, वज प" ॥
भिक्षापानको
तपाई निक्लचरिया, पहिया एसा व च्युता । एमेव पाणगस्स वि, गिएह अ क्षेत्रमे दो ॥ तृतीयस्यां पौरुष्यां, भिकाचर्या एषणा च प्रगृहीता अनिहा सामान्यादिना पूर्वमेयोका एवमेव पानकस्यापि तृतीयपैारुभ्यां प्रगृहीतया वैषणया ग्रहणं करोति । तत्र शिष्यः पृच्छति - (बेवाले वेति ) किमसी विकरिको नापकृतम् अत्र दि "अ" परं विसरमाड पि म कंपाने प्रक्षेपकृते वलवणकसौवीरादिरूपे गृह्णाति, न लेपकृते ।
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(१४७५) जिणकप्प अन्निधानराजेन्सः ।
जिएकप्प आचामाम्लप्रतिमाद्वारद्वयमाह
सर्वप्रयत्न अहं, कल्प द्वितीये अहनि, भोजनं विपुलं करवा प्रायविलं न गएइ, जं च अणायंविनं विलेवा। दास्यामि, तुष्टमनसा प्रहृष्टन चेतसाततो भविष्यति मे महान् न य पडिमा पडिवज्जइ, मासाई जा य सेसा ॥
पुण्यलाभः । इत्थं विचिन्त्य, द्वितीये दिवस, विपुलमशनादिमायामाम्लमसौ न गृण्डाति । पुरीषाभेदा विदोषसंभवात् ।
भक्तमवगाहिम चोपस्कृत्य, तं भगवन्तं, प्रतीक्षमाणा तिष्ठति । अनायामाम्लमपि, यस्लेपकृतं तन्न गृहाति। न च प्रतिमा मासि
ततः किमभूदित्याहस्यादिका, असौ प्रतिपद्यते । याश्च शेषा जामहानकादिकाः फेमितवीहीएहिं, एंतवरनाणदंसणधरोहिं । प्रतिमा स्ता अपि न प्रतिपद्यते । स्वकल्पस्थितिप्रतिपालनमेव, अद्दीण अपरिवंता, विश्यं च पमिहिंडिया तत्थ ॥ नस्य विशेषाभिग्रह इति भावः। वृ०१०। (२०) भुनादिसप्तविंशतिकारान्तर्गतं,सप्तविंशं मासकस्पद्वारम।
स्फटिता परिहता वीथी यस्तैर्जिनकालयकैः कथं नूतरनन्तभथ मासकरूप इति द्वारमनिधिस्सुराड
घरकानदर्शनधरैः, महानन्तज्ञानमयत्वादनन्तास्तीर्यकरास्तककप्पे मुत्तत्यविसा-रयस्त संह गणवारियजुत्तस्स ।
पदिए, वरे उत्तम जिनकल्पिकानां ये ज्ञानदर्शन, उपलक
णत्वाच्चारित्रं च,तानि धारयन्तीत्यनन्तवरशानदर्शनधरास्तैः। जिणकप्पियस्स कप्पड़, अनिगहिया एसणा निचं ॥
प्राह चूर्णिकृत-"गणतं नाणं जेसि ते अणंता तिस्थकरा तेहि कल्पे जिनकल्पविषयौ यो सूत्रार्थों, तत्र विशारदस्य निपुण- जिणकप्पियाणं बरं नाणं दसणं चरितं च जंभणियं तद्धरोहि स्य, संहननं शारीरबलं, वीर्य धृतिस्ताभ्यां युक्तस्य, जिनकस्पि- ति" ततस्ते अदीनमनसः अविषमाः, अपरितान्ताः कायेनाकस्प कल्पते । अनिप्रदीता साऽभिग्रहा एषणा।
निर्विमाहितीयां वीर्थी क्रमागतां पर्यटितास्तत्र केत्र, एक (११)जिनकटमी पदवीच्यां भ्रमतीति विस्तरः ।
वचनप्रक्रमे ऽपि बहुवचनाभिधानमन्येषामपि, जिनकल्पिकानासा च मासकटपस्थितिमनुपालयतो भवतीति ।
मेवंविधवृचान्तसंभवल्यापनार्थम् । अतस्तस्यैव विधिमाह
(२३) कल्पशन्दार्थः । वीच्यां नमतस्तद्भक्तं पूतिकं जपति । कबीहीयो गाम, काउं एक्किक्कियं तु सो अडइ ।
अत्र चेयं व्यवस्थाबजेनु होइ सुई, अनिययविनिस्स कम्माई।।
पढमदिवसोवक्कयं, तिमि दिवसाई पूइयं होई ।। यत्रासौ मासकट करोति, तं प्रामं षट्वीथीहपतिरूपाः प्रतिमु तिसुन कप्पइ, कप्पइ तईउ जया कप्पो॥ कस्वा,ततः प्रतिदिनमकैकां यीधीमटति । यावत्यएमे दिवसे ष
नमकका याथामटांत । यावत्यएमे दिवसे ष- प्रथमे दिवसे तद्भक्तमुपस्कृतमाधाकर्म, श्रीणि दिवसानि छीं। कुत इत्याह-मनियतवृत्तरपरापरवीथीषु पर्यटतः, कर्मा- यावत् तद् गृहं पृति भवति । तेषु च त्रिषु पूतिदिनेषु, तस्मिन् दि आधाकर्मपूतिकर्मादिकं सुखं बर्जयितुं शक्यत इति भावः । गृह अन्यदपि किश्चिन कल्पते । यदा तु तृतीयः कल्पो गतो कथं पुनराधाकर्मादिसंबो भवतीत्याशङ्कय, नवति, तदा कल्पते। कल्पशब्द नेह दिवस उच्यते । उक्तंच प. तत्संभवादिदर्शयिषुराह
अवस्तुटाकायाम, कल्पते तृतीये कल्पे दिवसे गते अपरस्मिन् अभिमहे दद्द करणं, जचोगाहिमं तिम्ति पईयं ।
महनीति। तुदगो एगमणेगे, कप्पोत्तिय सत्तमे सत्त ॥
(२४) त्रिषु दिवसेषु पूतिकं न कल्पते, किन्तु षष्ठे सप्तमे च तस्य भगवतः प्रथमयीथीमटतः, कयाचिदगार्या श्रद्धातिर
दिवसे कल्पत इति । सप्तमदिवसे पर्यटतः श्राविका पृच्छा च ।
दिवस कल्पत शत कात्, घृतमधुसंयुक्तं क्षमुपनीतं । तेन च न कस्पते में, ले
- इदमेव स्पष्टयनाहपकता भिति न गृहीतं । तत एवमादीननिग्रहान् दृष्ट्वा, विश्यदिवसम्मि कम्म, तिनि उ दिवसाइं पूइयं होई । कर्मणः करणं भवति । तव भक्तमवगाहिम का भवेत, श्रीणि तिमु कप्पेसु न कप्पड़, कप्प तं दिवसाम्म ।। च दिवसानि तत्पूतिकं । नोदकः प्रश्नयति । एकं प्रामं किम
यस्मिन् दिवसे स जिनकल्पिकः प्रथमाध्यामटन तया दृष्टः, नेकान् घट्वीधीरूपान् करोति । सरिराह-कल्प एषोऽमीषां,
तदपेक्ष्य दितीये दिवसे तद्भक्तमाधाकर्म, तदनन्तरं त्रीणि दि. यत् षट् कल्पवीथीः कृत्वा, सप्तमे दिवसे पर्यटन्ति । सप्त च
वसानि पृतिक नवति । तेषु त्रिषु, कल्पेषु दिवसेषु, न कल्पते, जना, पकस्यां वसती च, संभवन्तीति समासार्थः।
किं तु कल्पते तत् षष्ठे दिवसे। . (२२) देयाऽऽहाराऽयोग्यतायां धाविका-विचारः।
अथावगाहिमविषयं विधिमादअथ विस्तारार्थमाह
करने से दाहामि, ओगाहिमंगणं णागतो अज्ज । दवण य अणगारं, सहा संवेगमागया काइ।
तइए दिवसे तं हो- पूइयं कप्पए बढे॥ नत्यि महं तारिसयं, अन्नं जमलज्जिया दाई ।।
(अवगाहिम) दिनद्वयमपि कमत इति कृत्वा, सा श्राद्धा. तमनगारं तपःशोषितं मल पटलजटिनं च परुषं दृष्ट्वा, हा
विनयवती । यदर्थमयमवगाहिमपाको मया कृतः, स मुनिरद्यकाचित्का, परसंवेगमागता सती चिन्तयति । किं मे जीवित
मदगृहाणं नागतः । अतः कल्ये (से) तस्याहं दास्यामि । तेन, यदीडशस्य महात्मनो भिका न दीयते । नास्ति मम ता
इदमवगादिममिति विचिन्त्य, तहानार्थ यदि स्थापपति, शं शोजन, यदहमज्जिता सती दास्यामि ।
तदा तृतीयदिवसे कर्मव भवति। यत्पुनस्तस्मिन्नेव दिवसेऽव्यततः
वछिन्नभावा सा, आत्माधितं करोति, तदवगाहिममपिजक्तसन्त्रपयत्तेण अहं, कल्ले काऊण जोपणं विउझं।
वन् मौलदिवसापेक्षया द्वितीयदिवसे कर्म, तृतीयादिषु तद्गृह दाहामि तुट्ठमणसा, होहि मे पुएणलानो चि ॥ पूतिक, षष्ठे तु दिवसे कल्पते ।
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(१८७६) जिणकप्प अनिधानराजेन्द्रः।
जिण कप्प एतदेव स्पष्टयति
प्रय स्थिानद्वारमनिधिसुराहएमेवोगाहिमगं, नवरं तस्यम्मि जमवि दिवसे तं । खत्ते काल-चारते, तित्ये परियाय-आगमे वेए । कम्म तिमु पूडन, कापड तं सत्तम दिवसे ॥
कप्पे सिंगे नेस-ज्झाणे जगणा-अभिमहा य ।। एवमेव भक्तवदवगाहिममपि,यत्तदिवस एवात्मा कृतंतद्धि पन्चावण माहवागे, मणमावन्ने वि से अशुग्याया। तीये दिवसे कर्म, तृतीयादिषु त्रिषु पूति, षष्ठे तु कल्पते । नवरं, कारण-निप्पमिकम्प, भत्तं पंथो य तइयाए॥ यत्तदिवस नान्मार्थति, त तृतीयेऽपि दिवसे कर्म । ततः त्रिषु एकस्मिन् केरऽमी भगवन्तो भवन्ति । एवं कार चरित्रे ३ दिनसेषु तत्पृतिकमिति कृत्वा, न कल्पते । किंतु कल्पने तद ताय पर्याये ५ भागम ६ दे ७कल्प ८ लि लेश्याय १० प्रहं सप्तमे दिवस, प्रत एव, चासो भूयः सप्तमे दिने तस्यां ध्यान ११ गणनायां ११ अभिग्रहाश्चामपां नवम्ति न वा?,१३ बीभ्यां पर्यटति।
प्रवाजनायो १४ मुएमापनायां च कीरशी खितिः १५ मनसाऽsमाह-ययेव तर्डि, यदि तस्मिन्नेव दिवस तं प्रथमवीथीमट-तं पनेऽपराधे (से)तस्यानुघानाश्चतगुरवः प्रायश्चितम १६ g, कहिचदाधाकर्मादि कुर्यात मोदकादिकं वा, तदर्थं कृत्वा कारणं १७ निःप्रतिकर्म १८, पन्धाश्च, तृतीयस्यां पौरभ्यासप्तमदिवसं यावदव्यश्वच्छिन्नभावं स्थापयेत् । तदा नामासी म १९-२० इति द्वारमाथाद्वयसमासार्थः। कथं जानाति ? कथं वा परिहरति इति ? उच्यते
व्यासाथै प्रतिहारमभिधित्सुः प्रथमतः केत्रधारमजीकृत्याहचोयग! तं चेव दिणं,जद विकारज्जादि कोइ कम्माई । जम्मणसंतीभावे, स होज सब्बासु कम्मभूमः। . नदु सो तं न विजापा, एसो पुष सिं अहाकापो॥ साहरणे पुण भइयं, कम्मे व अकम्ममे वा ॥
नोदक! तस्मिन्नव दिवमे यद्यपि कुर्यात कश्चित् किञ्चिदा- कंत्रविषया द्विविधा मार्गणा । जन्मतः,सद्भावतश्चाजन्मतोय चाकर्मादि, (न) नैव स तम विजानाति "हो नौ प्रक- प्र केत्र मयं प्रथम उत्पद्यते । सद्भावतस्तु यत्र जिनकल्पं प्रतिपत्यर्थ गमयत" इति वचनात, जानात्येवासी भुतोपानबग्नेन । मा.नाऽस्ति। तत्र जन्मसद्भावयोरुभयोरपि, अयं सर्वासु कर्मभूमाद-यसौ भुनोपयोगप्रामाण्यादेव जानीन, ततः किमर्थमेक मिषु,भरतपश्चकैरावतपत्रविदरपञ्चकनक्षणासुनवेत् ।स. प्राममनेकनागान् परिकल्प्य पर्यटति ? उच्यते-कल्प एकः (सिं) हरण देवादिना अन्यत्र नयने, पुननाउयं नजनीयं, कर्मभूमी वा अमीषां भगवतां। यत् सप्तमे दिवस भूयःप्रयमयीच्यां पर्यटम्ति। नयेदकर्मनूमौ धा। एतच सद्भावमाश्रित्योक्तं । जन्मतस्तु,कर्मनततइच, तं सप्तमे दिवसे प्रथमवीर्थी पर्यटन्टा , मावेवायं भवतीत्युक्तं केत्रद्वारम। सा श्राविका यात
अथ कामद्वारमाह-- किं नाग या य तश्या, प्रसन्नो मेक
मोमप्पिणीइ दोमुं, जम्मणता तिमु संतीभावणं । भो तुह निमित्तं । इह पुट्ठो सो नगवं,
उस्सपिणिविवरीया, जम्मणतो संत भावे य॥
भवपिण्यां जन्मतो द्वयोः सुषमण्यम दुष्पमसुषमयोः तदानीं यूयं किं नागताः। 'थेति' निपातः पूरणार्थः। मया दि.
तृतीयचतुधारकगार्भवत । सद्भावतस्तु त्रिषु तृतीय चतुर्थस्वानामत्त विपुश भक्तावकमुस्कुवन्त्या युष्मानुपयागात् पञ्चमारकेषु, ( सुषमदुण्यम-दुष्पमसुत्रम-दुषमरूपेषु) असद्व्ययः कृतः, इति पृष्टोऽसौ भगवानू तूष्णीक प्रास्त,
सुषमसुषमाया मन्ते जातो दुषमायां जिनकल्पं प्रतिशति शेषः।
पचते। इति कृत्वा उत्सर्पिणीविपरीता । जन्मतः सद्भावतश्च । (२५) द्वितीयादेश-यादेशान्तरम
श्वमुक्तं प्रवति-उत्सर्पिल्या पुण्यमदुमसुम्मसुषमाबिइयाएस इमं भण॥
मासु तिसृषु समासु जन्मभुने सुषमसुषमसुषमदुप्पमासु द्वितीयादेशे मावेशाम्तरे पुनरिवं प्रणति । किंतत्रत्याह- दयोरमुं कल प्रतिपद्यते । पुषमायां तीर्य नास्तीनि कृत्वा भनियता उ वसईमो, जमरकुनाणं च गोकुलाणं च। तस्यां जातस्यापि दुषमसुषमायामेष कम्पप्रतिपत्तिरिति । समणाणं सनणाणं, सारहाणं च महाणं ।।
जोसपिस्सपिणी-भवंति पलिजागतो चमत्थम्मि । मनियता बसतया स्थानामि, उपलक्षणत्वात् परिचमणानि | काले पलिजागेमुभ, साहरणं होत सब्बम ॥ च । कंषामित्याह-अमरकुलानां च, गोकुलामांच, भ्रमणानां, नोवसर्पिण्युत्सर्पिणीरूपे अवस्थितकाले, चत्वारा प्रतिभाशकुनानां, शारदानां च मेघानाम, इत्थं न मियतचर्यया नि- गास्तद्यथा-सुषमसुषमाप्रतिभागः। सुषमाप्रतिभागः। सुषम दुष्यकाटने श्रमावतामपि प्राणिनां नाधाकमादिकरणे नूयः प्रवृत्ति- माप्रतिभागः। दुण्यमसुषमाप्रतिनागश्चेति । नत्राचा देवकुरुत्तअपजायत इति ।
रकुवाद्वितीया रम्यकहरिवर्षयोस्तृतीयो हैमवतरण्यवतयोश्चमथ "सत्तत्ति" पदं विवृणोति
तुर्थस्तु महाविदेहेषु । तत्र चतुर्थे प्रतिभागे जन्मतः सद्भावत. एकाए वसहीए, नकोसेणं वसंति सत्त जणा।
स्वामी जवन्ति।नायेषु त्रिषु प्रतिजागेषु (काले ति) यो सहावि. अवरोप्परसंभासं, चयन्ति प्रमोन्नवीहिं च ॥
दहे जिनकल्पिकः स सुषमादिषु षट्स्वपि कालेषु संहरणतो एकस्यां वसतावुन्कर्षतः,सप्त जनाः,जिनकल्पिका षसन्ति । ते |
भवेत (पलिभागेषु अत्ति) भरतैरावतमहाविदेहेषु संजूनाः सं. बैकत्र षसम्तोऽपि परस्परं भाषणं त्यजन्ति । न कुर्वन्तीत्यर्थः।
हरणतः सर्वेष्वपि प्रतिभागेषु देवकुर्वादिसंबन्धिषु नवन्तीति । अन्योऽन्यवीधि च त्यजन्ति । यस्मिन् दिने, यस्यां पीध्यामेकः प.
. चारित्रद्वारमाह-- -पटात न तस्मिनेत्र, तस्यामपर इत्यर्थः । गतं सामाचारी
पदमे वा विईए वा, पमिवज्जा संजमम्मि जिणकर्ष। पुम्बपमिवएणो पुण, अमायरे संजमे होजा ।।
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जिपकप्प
प्रथमे वा सामाविकानि वा छेदोपस्थापनीयनानि संयमे वर्तमानो, जिनकल्पं प्रतिपद्यते । तत्र मध्यमतीर्थकरविदेसी कृतीर्थवर्ती, प्रथमं संयमे । पूर्वपश्चिमवर्ती तु द्वितयेति मन्तव्यं । पूर्वप्रतिपत्रः पुनरसी जिनकहिपको ब सरस्मिन् सूक्ष्म संपरावादावपि संयमे नवेद
( १४७७) अभिधानराजेन्
तीर्थ पर्याय द्वारद्वयमाह
नियमा होइ स तिरथे, निडिपरियार जनगुणतीसा अपरियार बीसा, दो विउकोसदेसूणा ।।
जिनको नियमाची भवति न पुन पनवा पर्याय द्विधापियां पतिपर्यायश्च तत्र हिपर्यायो जन्मपर्याय इत्येको ऽर्थः । तत्र जघन्यतः, एकोनत्रिशदणि। यतिपर्याये तु जघन्य विशवर्षाणि उत्कर्ष तस्तु द्वयोरपि द्विपचयतिपर्यायादेशोनां पूर्वको यदा प्राप्तो भवति तदा जिनकल्पं प्रतिपद्यते ।
तथाऽऽगम-वेद-द्वारे माह
न करिंत आगमं ते, त्यीत्रज्जेनुं वेदो इकतरो । पुष्पविच पुण होज सवेओ अवेयो वा ॥ जनकल्पिकार आगमम् पूर्वाध्ययनं त भुतं। विश्रोतसिकाय हेतोरेका प्रमनाः, सम्यगनुस्मरन्ति । प्राप्तिका क्षेत्रीय एकतर पुरु
1
।
बा, असंक्लिष्टस्तस्य भवेत् । पूर्वप्रतिपन्नः पुनः, सबेोऽवे वा भवेत् । तत्र जिनकल्किस्य तद्भवे केवलोपधिप्रतिषेधापदे उपशम-"उस मडी बसु, बेदे उवसमियम उ भवेदो म । न उ खविए अम्बे पहिनामा तु सवेद इति । या द्वारायाह
ठियमपिम्मि कप्पे, झिंगे भयथा उ दव्बलिंगेणं । महिका पदमा अपडमया होल सल्यानु ॥ किरपेच मध्यमजिनमा विदेह जिनमकोमी वेल्याने का
विशेषले । किं विशिनष्टि प्रथमतः प्रतिपद्यमानो, अन्यलिङ्गयुक्त व भवति । ममापति। यि सुमिता भवत्यपि बकं च " श्यरं तु जिलाभावा, एहि सययं न हो वि कयाइ । न य तेण विणा वि तहा, जायर से नावपरिहानी " न इतरदिति व्यतिक्रम यासु तेजसादिकासु, प्रथमकाः, प्रतिपद्यमाना भवन्ति । अप्रथमकास्तु पूर्वप्रतिपन्नाः सर्वास्वपि भलमा वर्तमान वर्तते न च भूप काममिति ।
ध्यान- गणना द्वारद्वयमाह
पम्मे पारे विदो श्रद्धासु परिचय, सहद च पश्विमे ।। चर्मे ध्यानेन सदस्य विशेषणार्थत्वात् सता, कल्पं प्रतिपद्यते । पूर्वप्रतिपन्नस्तु इतरेष्वप्यातादिषु ध्याकर्मकुशलामा
2.90
जिणकप्प
1
कर्मपरिजनोऽपि जो प्रायोि मुबन्धो भवति तद एवं कुलजोगो उहा मे तिष धम्मपरिणाम हेतु विभाषी, इमस्स पायं निबंध "॥ गणनाद्वारे प्रतिपति, प्रतिपद्यमानता मंर्गीकृत्योत्कर्षतः, शतपृथसत्यकश्मिम् समये मां भगवतां प्राप्यपूर्व मां यकार्य कर्मभूमिपम्यद शमध्येामेो त्कर्षतः प्राप्यमानत्वात् । जघन्यतस्तु प्रतिपद्यमानका एको, द्वौ, यो वेत्यादि । पूर्वप्रतिपन्नास्तु जघन्यतोऽपि सहस्रपृथक्त्वमेव । महाषिर्क सर्वदेवेातमवाप्यमानत्वात् पदाजघन्यपतरमिति ।
अनिग्रह प्रवाजना मुरकापना द्वाराणि व्याचष्टे । भिक्खायरियाईया, अभिग्गहा नेव सों व पब्बावे । उपदेश पुत्र पम्बेति जाणिता || मिक्षाचा गत्या प्रत्यागतिकादयां गांवशेषास्तदादयोऽभिग्रहाः, इत्वरत्वादस्य न जयन्ति । जिनकल्प एव हि यावत्कधिकस्तस्याऽभिग्रहस्तत्र व प्रतिनियता निर पदादाच गराइ स्तनपानमेवास्य परमं विशु यदाह " एयम्मि गोयराति, नियया नियमेण निरत्रबादा य । तपालनं त्रिय परं पद्मस्स बिसुद्धिहाणं तु " तथा नया साबन्धं प्रवाजयति । उपलक्षणत्वात् न च मुएलापयति । कल्पस्थितिथिमिति कृपा करोति प्रति नवाजिनमवश्यप्रत्रजनशीलं विज्ञाय । कञ्चन तं च संविध गीतार्थसाधूनां समीचे प्रति
अथ मणसावले वि से अरणुग्धाय सि द्वारं । मनसापि सूक्ष्ममतिचारमात्रापत्रस्यास्य सर्वजघन्यं चतुर्गुरुकं
प्रायश्चितम् ।
अथकारण निष्पतिकर्म-द्वारे आहनिप्पडिकम्यसरीरा न कारणं अस्थि किंचि मानाई । जंघावलम्मि खीणे, अविहरमाणो वि नावज्जे ॥ निष्यतिकर्मवारी अभी भगवन्तो नालिय यन्ति । न वा चिकित्सादि कारयन्ति न ख तेषां कारणम्, आलम्बनं ज्ञानादि किञ्चिद्विद्यते यद्वलासे द्वितीयपदासेवनं विदन्युः ।
नक्तः * पन्थाध ● तृतीयस्यामिति द्वारम् ।
यस्यां पय भिक्षाकाम, बिहारकालोऽस्य भवति । शेषाषु तु पौरुषीषु प्रायः कायोत्सर्गेणास्ते जङ्गाबले परिक्षीणे पुनरपि बिहार म पतिस्थ तिद्वारं याक्याने बानिति करपविहारः ०१० यासावस्था प्रस्तुतं फारमेवसयमे उकालं वं पुच्छितु वा बहुसं
क्षेत्रेपस्थिति
"
बहुगुगलानी, बिहारमयं जयई । ३७७ ॥ मेवाकालं त्वा, बहुशेषं श्रुतातिशयेन पृष्ट्वा च भुसातिशयुक्तमन्यं बहुशेषं ज्ञात्वा सुमहुगुणला मान् साधुनिहारे वापमयुतं न प्रधानमिति गाथार्थः । मनिपालनं द्वारं व्याधिया सुगहगणि उवाय-पत्रित्ति +थेर-गणावळे या इमे पंच । पायमगिरिणो, ते सिमिमा होइ तुलाभो ॥ ३७८ ॥
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(१४७८) जिपकप्प अभिधानराजेन्दः ।
जिणकप्प गणी गच्छाधिपः,प्राचार्यः,उपाध्यायः सूत्रप्रदः, प्रवृनिरुचितो
परिकर्मद्वारमभिधातुमाहप्रवर्तकः, स्थविरः, स्थिरीकरणात, गणावच्छेदको गणादेश
परिकम्मं पुण इहिंदि-आई विणिश्रमणभावणा नेपा। पासनवमः, पते पञ्चपुरुषाः, प्रायोऽधिकारिण इहान्युद्यतवि.
तमवायादालोमण-विहिणा सम्मंतो कुणइ ।।३०६॥ हारे । एतेषामियं वक्ष्यमाणा भवति, तुलनेति गाथार्थः। गणणिक्खेवित्तरियो, गणिस्स जो वा.वियो जहिंगणे।।
परिकर्म, पुनरिह प्रक्रमे इन्द्रियादिविनियमननावना केया
भावनाच्यासः। तत्परिकर्म अपायाद्यालोचनविधीनेन्द्रियादीसो त अप्पसमस्से-वं णिक्खिवइ इत्तरं चेव ॥३ना ।
नां सम्यक्त्वतः करोनाति गाथार्थः। गणनिक्षेप इत्परः परिमितकालो, गणिनो भवति । यो वा
इंदिअकसायजोगा, विणम्मिआ तेण पुन्वमेव णणु । स्थितो यत्र स्थाने उपाध्यायादौ, स तत्पदमात्मसमस्यैव निक्तिपतीत्वरमेवापरस्य साधारिति गाथार्थः। :
सच्चं तहा वि जयए, तज्जयसिछि गएं तो सो ॥ ३७॥
इन्जिय कपाययोगाः सर्व एव विनियमितास्तेन साधुना पूर्वपिच्छामु ताव एए, केरिमया होंतिमस्स गणस्स।
मेव ननु ? अत्रोत्तरं-सत्यमेतत, तथापि यतते, स तज्जयादिजोगाण विपाएणं, णिचहणं दुकरं होई ॥ ३०॥ न्द्रियादिजयात्सिद्धि गणयन् प्रस्तुतस्येति गाथार्थः । पश्यामस्तावदेते अभिनवाचार्यादयः, कीरशा नवन्त्यस्य स्था- इंदिअजोगहिं तहा, पेहऽहिगारो जहा कसाएहिं । अस्य प्रस्तुतस्येति तानवेति। अयोग्यानामनारोपणमेवेत्याशङ्कया- ___ एएहि विणाणेए, दुहवुठीचीअनूआआ ॥३८॥ ह-योग्यानामपि सामान्येन प्रायो निर्वहणं, प्रस्तुतस्य पुष्कर इन्छिययांगैस्तथा नेहाधिकारः प्रक्रमे। यथा कषायैः किमित्यप्रवति, बोकसिकमेतदिति गाथार्थः। .
त्राह-एभिविना नैते इन्छिययोगा दुःखवृद्धिबोजनूताः । इति युक्त्या तुलनाप्रयोजनमाह
गाथार्थः। णय बहुगुणचारणं, थोक्गुणपसाहणं वुहजणाणं । जेण उ ते वि कसाया, णो इंदिअयोगविरहिया हंति ।
टुं कयाइ कन्ज, कुमला सुपडियारंजा ॥ ३८१॥ तविणियमणं पितो , तयत्थमवेत्थ कायव्वं ।। नए॥ बच बहुगुणत्यागेन प्रामाणिकन, स्तोकगुणप्रसाधनं, बुधज- येन पुनः कारणेन, तेऽपि कषायाः नेन्डिययोगविरहिता नानां विपुषामिष्टं, कदाचित्कार्य, नैवेत्यर्थः । किमित्यत आह- नवन्ति । तद्विनियमनमपि ततः कारणात् । तदर्थमेव कषायनिकुशलाः सुप्रतिष्ठितारंजा नवन्तीति गाथार्थः ।
नियमनार्थमत्र कर्तव्यमिति गाथार्थः। उपकरणहारमाश्रित्याह
तपोजावनादिप्रतिपादनायाहउवगरणं सुदेसण, माणजुधे जमचिअं सकप्पस्स।
श्र परिकम्मिअभावो-ऽणज्जत्थं पोरिसाइतिमुणतवं । तं गेएहरु तयनावे, अहागरं जाव नचिअं तु ॥ ३ ॥ कुणइ उहाविजयटा, गिरिणइसीहेण दिलुतो ॥३१॥ उपकरणं वाविशुवैषणामानयुक्तं, यदचितं स्वकल्पस्य स- (यत्तिऐवं परिकर्मितन्नाथः सनेन्द्रियादिविनियमनेनानभ्यस्तमयनील्या,समात्युत्सर्गेणादित एव, नदभावे सति, यथाकृतं गृ- मसात्मीभूतं पूर्व पौरुष्याचभ्युपलकणमेतत् त्रिगुण तपा, क. हाति। यावचितमन्यद्भवति, तावदवेति गाथार्थः।
रोति। त्रिवारासेवनेन इन्जियजयाय सामीभावेन द्विजयाभाए उचिए अतयं, वासिर महाग विहाणेण ।।
र्यम्। गिरिनदीसिंहेनान इष्टान्तः। यथाऽसौ गिरिनर्दी वेगवती. इय प्राणाविरयस्सिह, विएणेअंतं पि तेण समं ॥३०॥
मसकदुत्तरणेनापि, प्रगुणमुत्तरत्येवमसावबाधकं तपः करोती.
ति गाथार्थः। जाते सत्युचितोपकरणे, तत् प्राक्तनं व्युत्सृजति । यथाकृतमुप
एतदेवाहकरणं, विधानम सौत्रेण, इयत्यागो निस्पृहनया प्राङ्गाविरतस्थलोकेऽपि विनयं । तदपि मोलमुपकरणं तेन समं पाश्चा.
इकिकं तान तवं, करेइ जह तेण कीरमाणेणं । "स्येनेति गाथार्थः।
हाणीण होइ जइया,वि होइ छम्मासुवस्सग्गो ॥३६॥ किमित्यत आह
एकैकं पौरुष्यादि तावत्तपः करोति सास्मीभावेन ।
यथा तेन तपसाह- . भाणा इत्थ पमाणं, विएणमा सम्बहेव परलोए।
अप्पाहारस्स ण ई-दिआई विसएसु संपयदृति । पाराहणाअतीए, धम्मो वझ पुण निमित्तं ॥३॥ नेप्रकिसम्म तवसा,रसिएसन सजई प्रावि ॥३॥ माझा प्रमाणं विझेया। सर्वथैव परलोके, न स्वन्यत कि- अल्पाहारस्य तपसा, नन्द्रियाणि स्पर्शनादीनि,विषयेषु स्पर्शशित् आराधनेन तस्या धमः । श्राशावाचं पुननिमित्तमिति नादिषु, संप्रवर्तन्ते । धातूकाभावान्न च काम्यति । तपसागायार्थः।
रसिकेष्वशनादिषु, न सज्जत, चापि। अपरिजोगेनानादरादिति उवगरणं नवगारे, तीए आराहणस्सऽवदृतं ।
गाथार्थः। पावइ जहत्यनाम, इहरा अहिगरणपो नणि अं॥३५॥ तवभावणाए पंचिं-दिआणि दंताणि जस्स वसमिति। उपकरणमप्युपकारे तस्याऽऽझाया अाराधनस्यावतमान सी इंदियजोग्गाइरिओ, समाहिकरणाई कारेइ ।। ३३ ॥ प्रामोति, यथार्थनामोपकरणमिति। इतरथा तदाराधनोपकारा- तपोभावनया हेतुभूतया, पञ्चेन्द्रियाणि दान्तानि सन्ति यस्य भावे सत्यधिकरणमेव जणितं तपकरणमिति गाथार्थः वशमागच्छन्ति प्राणिनः, स इन्द्रिय योग्याचार्यः इन्छियप्रगु
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(१७) जियाकप्प अन्निधानराजन्द्रः।
जिणकप्प खनक्रियागुरुः । समाधिकरणानि, समाधिव्यापारान् कारय- | पहाइजिक्खपंथे, जाण कालं विणा ठाइ ॥४०॥ तीन्द्रियाणि, इति गाथार्थः ।
मेघादिग्भेषु विभागेभयकालं प्रारम्भसमप्तिरूपम् । अथवोद्वारान्तरसंबन्धामिधिस्सयाह
पसमें दिव्यादौ । प्रेकादावुपकरणस्य भिक्षापथे औचिस्पेन श्रतमणिम्पानो खलु, पच्छा सो सत्तभावणं कुष।। आमाति, कालं योग्य विना स्थापयतीति गाथार्थः । निदानवविजयी, तस्य न पमिमा इमा पंच ॥३॥
एकत्वनावनामभिधातुमाह(अ) एवं तपोनिर्मातः खमु, पश्वादसौ मनिः,सस्वभावनां.
एगनभावणं तह, गुरुमाइसु दिष्ठिमाइपरिहारा। कराति। सत्वाच्यासमित्यर्थः । निद्राभयविजयामतस्करोति। भाषइ छिएणममत्तो, तत् हिअयम्मि काऊणं ॥४०२॥ सत्र तु प्रतिमाः सस्वभावनामामेताः पञ्चेति गाथार्थः। एकत्वभावनां, तथाऽसौ, यतिगुर्वादिषु दृष्ट्यादिपरिहागहपदमा उनस्मपम्मि, नीया वहिं तझ्या चनकाम्म । नालापपरिहारेण भावयत्ययस्यति । छिन्नममत्वः संस्तत्वं मुमघरम्मि पत्थी, तह पंचमिश्रा यसाणम्मि । ३५
हृदये कृत्वा-वश्यमाणमिति गाथार्थः। प्रथमोपाश्रये प्रतिमा, द्वितीया बहिरूपाश्रयस्य, तृतीया चतु
एगो माया संजो-गिरं तुऽसेसं मत पाएणं । में स्थाने संबन्धिनि, शून्यगृहे चतुर्थी स्थानसंबन्धिदेव, तथा
दुक्खणिमित्तं सव्वं, मो मज्जत्थानावं तु ।। ४०३ ।। पञ्चमी श्मशाने प्रतिमा । इति गाभार्थः ।
एक प्रात्मा तत्वतः संयोगिकं । स्वशेषमस्य देहादि, प्रायेण एयाप्सु र थोत्रं, पुचपत्तं जिणइ निमसो। फुसनिमित्तं सर्वमेतत् । हितस्तु मध्यस्थभावो यस्य सर्वति मृसगरिकाओ तह, भयं च सहसुब्भवं अनिअं ॥३६॥
गाथार्थः। पतासु प्रतिमासु स्तोकस्तोक, यथा समाधिना पूर्वप्रवृत्तां
स्य नावियपरमत्थो, सममुहदुक्खोवहीरो होइ । जयति निद्रामसौ मूषिक पृष्टादौ । तथा प्राविशम्दान्मार्जारा तसो असो कमेणं, साहेइ जहिच्चिों कज्जं ॥४०॥ दिपरिग्रहः । भयं च सहसोद्भवमजितं जयतीति गाथार्थः। टीका तु-(मूलप्रतावप्राप्तवानलिखिता)। एएण सो कमेणं, मिजगतकरसुराइकयमेअं।
एगत्तजावणाए, ण कामनोगे गणे सरीरे वा। जिणिकण महासत्तो, वह जयं निम्भो सयझं ॥३७।। सज्जइ वेरग्गगो , फासेइ अणुत्तरं करणं । ४०५॥ अनेनासौ क्रमेण यथोपन्यस्तेन, झिम्भकतस्करसुरादिकृत- एकत्वज्ञावनया माध्यमानया, न कामभोगयोस्तथा, गणे, श. मेतद्भय जित्वा-महासत्त्वः सर्वासु प्रतिमासु वहति भयं रोरेया, सजने, स गच्छति। एवं वैराग्यगतः सन, स्पृशत्यनुप्रस्तुतं निर्नयः सकतमिति गाथार्थः ।
सरं करणं, प्रधानयोगनिमित्तमितिगाथार्थः।। भूतभावनामाह
बलभावमामाहअह मुत्तनावणं सो, एगग्गमणाऽगानसो उ भयत्र ।
इम एगत्तसमेमो, सारीरं माणसं च वि पि । कालपरिमाणहेज, सन्नत्यं सम्बहा कुणइ ॥ ३०॥
भावइ बनं महप्पा, नस्सग्गधिईसरूवं तु ।। ४०६॥ अथ सूत्रभावनामसौऋषिरेकाममना अन्तःकरणेन अना.
पचमेकत्वभावमासमेतः सन्,शारीरं, मानसं च.द्विविधमप्येकुलो बहिर्वृत्या भगवानसी, कालपरिमाण हेतोस्तदन्या
तत भाषयति बझम, महात्माऽसौ, कायोत्सर्गधृतिस्वरूपं यथा सादेव तक्तेः स्वज्यस्तां सर्वथा करोत्युच्चासादिमानेनेति
संख्यमिति गाथार्थः। गाथार्थः।
पापं उस्मग्गेणं, तस्म लिईभावणारझा एसो। एतदेवाद
संघयणे विदु जायइ, पण्डिं पाराश्बनतुलो ॥४०७॥ पस्सासाम्रो पाणा, तमो-अ थोवो तो विप्र मुलुत्तो।
प्रायः कायोत्सर्गेण,तस्य यतेः स्थितिभावनाबमाच्चैष कायोएएहि पोरिसीओ, ताहि वि णिसाइ माणे ॥३॥ सर्गः, संहननेऽपि सति जायते । इदानीं भारादिबलतुल्या, सपासात प्राणादित्युच्चासनिःश्वासः । ततश्च प्राणात,
शक्ती सत्यामप्यभ्यासता भारवहनिदर्शनादिति गाथार्थः। स्तोका, सप्तमाणमानः । तताऽपि च स्तोकान्महती, विघटिक- सह मुहजाचेण तहा, जंतं मुडभावटिजरूवाश्री। कामः । पभिमुहतः पौरुष्पः । ताभिरवि पौरुषीभिः, निशादिष
एत्तो चिय कायब्बा, धिई णिहाणाइलाजो व्य ||४00। सादि जानाति, सूत्राभ्यासतः । इति गाथार्थः ।
सदा शुभनाघेन, तथा तस्य स्थितिरिति वर्तते । यद्यम्मादेवं एतो उपभोगाउ, सदेव सो मूढलक्खयाए ।
तालुभभावस्थैर्यरूपा । अत एव स्थितिसंपादनार्थ कर्तव्या दोस अपात्रमाणो, करेइ कि अधिवरी ॥१०॥ धृतिस्तन निधानादिलाल श्वेष्टसिरिति गाथार्थः। प्रत उपयोगात स्वाभ्यासगर्भात, सदेवासोऽमूढलकतया घिइवलए वद्धकच्छो, कम्म जया भोज्जो मामो । कारणेन दोषमप्राप्नुवन्, निरतिचारः सन् करोति कृत्यं, घि- | सम्बत्या अविसाई, उवमग्गमहो दर्द होड ।। ४० ॥ हितानुष्ठानविपरीतमिति गाथार्थः ।
धृतिबलनियरूककः, सत्कर्मजयार्थमुद्यतो, मतिमानेष सर्वश्रामेहाश्वमेसु उ-नओ कालमहावा नबस्सग्गे । । विषादिभावनोपसर्गसहो, दृढमत्यर्थं भवतीति गाथार्थः।
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जिएकप्प
चरम नाव नामनिधाय विशेषमाद
सन्वासु भावणासुं, एसो विहीन होज्जा आहेणं । एत्यं चमगहिओ, तयांतरं चेत्र के ति ।। ४१० ॥
सुविधिस्तु यमाणो भवत्योधन । अत्र शब्दगृहीतो द्वारगाथायां तदनन्तरं बिभ्यन्तरमेव केवनेति गाथार्थः ।
किपिडित्री, गच्छे चि कुलड़ वहपरिकम्मं । आहारोवाई ताड़े परिवज कप्पं ॥ ४११ ॥ जिनकल्पप्रतिरूपी तत्सदृशो गच्छ एव स्थितः सम रोति द्विविधं परिचमं च षष्यादिष विषयेषु ततस्तत्कृत्वा प्रतिपद्यते कल्पमिति गायार्थः । एतदेवाह
:
( १४८० ) अभिधानराजेन्द्रः ।
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तसेवा, पंचायरा जय आहारं । : दोresसयराम पुणो, तवाहें च अागमं चेत्र ॥ ४९२ ॥ तृतीयायां पौरुष्यामले पकृतं बलादि, पञ्चान्यतरयाणा, अजब आहारं द्वयोरन्यतरया पुनरेषणपधिच भजते 'यथाकृतं चैोपधि, नाम्यं तत्रोधतं पवैषणा प्राहारस्य सप्त । यथोकम" संसठासंखडा, उरुडा तह होइ अप्पलवा य । जगहियापग्गहिया, श्रभियधम्मा य सनमिया " ॥ १ ॥ "तत्थ पंचसुग्गहो. एक्कार अभिभाहो अलणस्स । एक्काए चेव पाणस्स,” ॥ वस्त्रस्य त्वेषणाश्चतस्त्रां । यथेोक्तम्- " हिडुपेह
तर मोरिकाचा प्रशिया
जिणेहि जिरागदो लेडिं" || 'बत्यं पि दोसु गिरह' इति गाथानावार्थः ।
पाणिग्गहपत्तो, सचेल नेषण वा वि दुविहं तु । जो जहरूवो दोहि, तह परिक्रम्मए अयं ॥ ४१३ ॥ पाणिप्रतिग्रहपात्र वद्भेदेन सचेलावेलनेदेन चापि द्विविधं तु प्रस्तुतं परिकर्म यो यथारूपो भविष्यति जिः। स तथा तेनैव प्रकारेण परिकर्मयत्यात्मानमिति गाथार्थः ।
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चरमद्वाराभिधित्सवाह
निम्मा तर्हि सो, गच्छाई सव्वहाऽगुजावित्ता । पुनइय सम्मे परा उप विहिणा ||४१४|| निर्मात परिकर्मयोग सर्वथाऽनुशा प्रा. पनि सम्पत्रिस्थापितानां पश्चा विधिना तेनैवति गाथार्थः ।
स्वामेड़ तओ संघ, सवाल
जहोचि एवं ।
गोरु विमे ॥४१॥
कामयति ततः सङ्घं. सामान्येन सबालवृद्धं यथोचितमेव व यमाणनीत्या अत्यन्तं सवितः सन् पूर्वविकान् विशेषेण कांचनेति गाथार्थः ।
किंचिपमा मुटु से पहिए पुि
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तं खामि महं, खिस्सो किसाओ चि ॥४१६ ॥ प्रमादेन हेतुना न सुष्ठु (मे) भवतां वर्तितं मया
जिuकप्प
पूर्वमवाम्यहं निन्या संत गाथार्थः।
दम्बा अणु, महाविजू अनिलाई । एकप्पं असद बरुवस्वे ॥४७॥ कन्यादानुकृते सति माविया दत्यादिकथा अथ जिनादीनामतिशयिनामज्यासं प्रतिपद्यते जिनकरूपमुत्सर्गेण । असति च वटवृक्षेऽपवाद । इति गाथार्थः ।
दाराव इह, सो पुन सहयाच भावणासारं ।
काऊ तं विहाणं, णिरविक्खो सव्वा वयइ ||४१८|| द्वारानुपातोः सनायां यां भावनासारं सरकृत्वा, तनमस्कारादिप्रतिपत्तिविधानं, निरपेक्षः सन्, सर्वथा वजति ततः । इति गाथार्थः ।
पक्वं
गच्छारामा विणिग्गए सम्म ।
सईए अनि भादिया साहू || ४१५ ॥ पपित्रोपकरणे अमुकनांकांची गच्छारामा सुखसंख्यानितजिनक पिके, पचयभूते, आमच्यात स्ववसतिमानन्दिताः साधवः तत्प्रतिपस्पतिगाथार्थः ।
श्रभोषनं खेत्तं पिब्वाघारण पासणिव्वाई | गंतुन तत्व विहर, एम बिहारो समासे ॥ ४२० ॥ (धनुद्य) विज्ञाय क्षेत्रं निर्व्याघातेन डेतुतेन, (मासणियाइं ) मासनिर्वहणसमर्थ गत्वा तत्र क्षेत्र विहरति । स्वनीति पालयति एप बिहारः, समासेनास्य भगवतः इति गाथार्थः ।
एत्थ य सामायारी, इमस्म जा होड़ तं पत्रक्खामि । जयमा दसविहार, गुरुपरमाणुसारेणं ॥ ४२१ ॥ अत्र च क्षेत्रे सामाचारी स्थितिरस्य या एवं जिनकल्पिकस्य । तां प्रवक्ष्यामि । भजनया विकल्पेन दशविधायां सामाचायमाणा गुरुपदेशानुसारेण, न मनीषित गाथार्थः ।
दशविधा नेवादेशानाह
इच्छा पिच्छा तड़का से प्रायस्य निसहिहऽऽपृच्छा। परिपुत्र बंद नियं तथा यथा चैत्र ||४३२|| इच्छा, मिथ्या, तथाकार, इति । कारशब्दः प्रत्येकमभिसंबध्यते इच्छाकारो, मिथ्याकारः, तथाकार इति । तथा परणने सर्वत्रेच्छाकारः । दोष भोदने मिथ्याकारः तथा श्रावश्यकी नैवेधिकी च श्रपृच्छा, वसतिनिर्गमे आवश्यकी, प्रवेशे नैधिकी, च स्वकापुच्छ तथा प्रतिपृच्छा इन्दन दिकरणकाल, प्रतिपृच्छापूर्यनाशनादिनान्द म्यणा भवत्योतेन उपसंपादिनिमितमिति वार्थः। अत्र जिनकल्पिक सामाचारीमाहसहमिच्छा
पति गिद्देसु । ठा सामायारी, ण होई सेसे सिप्रा पंच ॥ ४२३ ॥ कधिक मिथ्येति मिथ्याकारपृच्छामुपसंपदं
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(१४८१) जिएकप्प अभिधानराजेन्द्रः।
जिणकप्प गृहिस्वौचित्येन सर्वे कराति । अन्याः सामाचार्य इच्गकार्या.
उपसग-द्वारविधिमाह- . घा न भवन्ति (स ) तस्य शेषाः पञ्च प्रयोजनाजावादिति गाथार्थः।
दिव्वाई नबसग्गा, भइया एअस्म जइ पुण हवंति । आदेशान्तरमाह
तो अव्वहिओ विसह,णिचलचित्तो महासत्तो ॥४३॥ श्रावस्मि निसीहि, मोत्तुं नवमपयं च गिहिएसु ।
दिव्यादय उपसगा नाज्याः । अस्य जिनकल्पिकस्य नव
न्ति, वा नवा ? । यदि पुनर्भवम्ति कथञ्चित, ततोऽथितः सेसा सामायारी, ण होइ जिगकप्पिए सत्ता ॥४२॥
सन्विसहने तानुपसर्गान् । निश्चनचित्तो महासत्वः स्वल्पस्वभाभावश्यकी नैषेधिकी मुक्त्वा उपसंपदं च, गृहिवारामादि- वेन-इति गाथार्थः। वाघतः शेषाः सामाचार्यः पृच्चाद्या अपि न भवन्ति, जिनकल्पिक सप्त । प्रयोजनानाबादेवेति गामार्थः।
आतङ्क-द्वारविधिमाहअहवा वि चक्कनाले, सामायारी उ जस्स जा जोग्गा ।
अातंको जरमाई, से वि दु नो इमस्स ज हो । सा सम्मा वनवा, सुअमाईमा मा मेरा ॥ ४२५ ॥
णिप्पमिकम्मसरो, अहियास तं पि एमेव ।।४३२॥ अथवाऽपि चक्रवाले नित्यकर्मणि, सामाचारी तु यस्य या | मातको ज्वरादिः, सद्योघाती रोगोऽसावपि भाज्योऽस्य भवयोग्या जिनकल्पिकादेः। सासर्वा वक्तव्या पत्रान्तरे श्रुतादिका । ति।चा यदि नवनि कथाचत्ततः निष्प्रतिकर्मशरीरः सनधिबेयं मर्यादा वक्ष्यमाणा। इति गाथार्थः।
साते, तमप्यातङ्कमेवमेव । निश्चलचित्ततयेति गाथार्थः । सुभ-संपयणु-वसग्गो, भायंको वेणा कइजणा य ।
वेदना-चारविधिमाहमिय-वसहि-केश्चिर-मोच्चारे चेव पासवणे ॥२६॥ अन्जुवगमिश्रा उवक्क-माय तस्स वेणा भवे दुविहा । भुतसंहननोपसर्गा इत्येतद्विषयोऽस्य विधिर्वक्तव्यः । तथा- धुलोआई पढमा, जराविवागाइआ विइआ ॥ ४३३ ॥ माता, वेदना, कियन्तो जनाइचेति, द्वारश्रयमाश्रित्य-तथा
श्रान्युपगमिकी, औपक्रमिकी च । तस्य जिनकल्पिकस्य वेदस्थारिकव्य-वसति-कियचिरं-धाराएयाश्रित्य-तथा-उच्चारे
ना भवति द्विविधा.। ध्रुवलोचाद्या प्रथमा वेदना । ज्वरविपाबैष प्रभवणे चत्येतद्विषये । इति गाथार्थः।
कादिका द्वितीया वेदनेति गाथार्थः। प्रोभासे तणफलए, सारक्खणया य संग्वणया य ।
कियन्तो जना इति हारविधिमाहपाहमियोऽग्गीदवे,ओहाण वसे कइ जणा उ ॥२७॥
एगो अ एस जयवं, णिविक्खाअ सबहेव सव्वत्थ । तथा अवकाशे तृणफलक एताद्वषय इत्यर्थः । तथा सरकणता च संस्थापना चति द्वारद्धयमाश्रित्य-तथा-प्राभृतिकाग्नि
नावेण हो नि प्रमा, वमहिम्मि दना जइओ॥३४॥ दीपेधेतद्विषयम्तयावधानं वत्स्यन्ति कति जनाइचत्येतद् द्वार- पक पवैष भगवान् जिनकलाकः, निरपेक्कया सर्वथैव ष्यमाश्रित्येति च गायासमुदायार्थः।
सर्वत्र वस्तुनि, भावेनाननिष्यनेन भवति नियमात् । वसत्यानिक्खायरिा-पाणय-लेवावे अतह अलेवे ।। दी व्यतो नाज्यः । एकान्तोऽनेको वेति गाथार्थः। - आयविन-पमिमाअ, जिएकप्पे मासकप्पे य ।। ॥
स्थापिकल्य-हारमाहजिकाचर्या-पानक इत्येतद्विषयो, सेपाक्षेपे वस्तुनि, तथा-अपे
उचार पासवणे, नस्लग्गं कुण मिले पढमे । चैतविषयश्चेत्यर्थः। तथा-चाम्ल-प्रतिमे, समाश्रित्य-जिनकल्प, तत्येव य पडिजिम्मे, कयकिचो उज्जए वत्ये ॥४३५ ।। मासकल्प चैतद्द्वारमधिकृत्य-विधिर्वक्तव्यः। इति गाथासमुदा. . उरुचारे प्रश्रवण एतद्विषयमित्यर्थः । व्युत्सर्ग करोति । स्थयार्थः । एतास्तिस्रोऽपि द्वारगाथाः। आसामवयवार्थः प्रति
एिडले प्रथमऽनवपातादिगुणवति । तत्रैव च परिजीर्णानि स बारे स्पष्ट उच्यते।
न्ति । कृतकृत्यः स तूज्झति, वस्त्राणीति गाथार्थः । तत्र श्रुत-द्वारमधिकृत्याह
वसति-कारविधिमादप्रायारबत्यु तइयं, जहमयं होइ नवमपुत्रस्म ।
अममत्ताऽपरिकम्मा, दारविनाभग्गजोगपरिहीणा। तहियं कालणाणं, दम नकोरेण जिएणाई॥||
जिणवसहोथेराण वि, मोत्तण पमजणमकजे ॥४३६॥ प्राचारवस्तु तृतीयं, संख्यया जघन्यकं भवति । नवमपूर्वस्य संबन्धिश्रुतपर्यायस्तत्र कालकानं भवतीति कृत्वा-दशपूर्वा
अममत्वाऽममेयमित्यजिष्वङ्गरहिता । अपरिकर्मा, साधुनिमिएयुत्कृष्टतस्तु भिन्नानि श्रुतपर्यायतः । इति गाथार्थः ।
त्तमापनादिपरिकर्मवर्जिता। द्वारविन्न-जनयोग-परिक्षीणा,तासंहनन-हारमाश्रित्याह
रविनयोगः, स्थगनं पूरणरूपं । भग्नयोगः, पुनः संस्करणमेतपढमिल्गसंघयणा, धिइए पुण वजकुमामाणा। खून्या जिनवसतिः । अस्यानपवादानुष्ठानपरत्वात्। स्थविराणापविनंति इमं खयु, कप्पं सेसाण तु कया ॥४३॥
मप्येवनूतैव वसतिः। मुक्त्वा प्रमार्जनं वसतेरेवाकार्य मिति प्रथमिल्नुकसंहननात् वज्रऋषभनाराचसंहनना इत्यर्थः ।
पुटमासम्बनं विहायवंनतेति गाथार्थः ।
कियशिर-चारविधिमाहधृ (वृ) त्या पुनर्वजकुमयसमानाः प्रधानवृत्तय इति भावः । प्रतिपद्यन्त पनं खलु कल्पमधिकृतं जिनकल्पं । शेषाणां तु
केच्चिरकालं वसाहहि, एवं पुच्छंति जायणा सभए । कदाचित्तदन्यसंहनिनः । ति गाथार्थः ।
जत्य गिही सा बसहीण होइ एअस्स णि अमेण ।।४३७।।
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(१४८२) जिणकप्प भनिधानराजेन्द्रः।
जिगाकप्प कियश्चिरंकासं बस्स्यथ यूयमेवं पृच्छन्ति. याचनासमये काले, विक्वित्तठापसनणा- अग्गहणे अंतरायं च ॥४॥ पत्र गृहिणस्तत्स्वामिनः, सा वप्ततिरेचभूता न भवत्येव, तस्य
प्राभृतिका यस्यां वसती, बलिः क्रियतेऽवसर्पणादि तत्र त. जिनकल्पिकस्य नियमेन सूक्ष्माममत्वयोगादिति गाथार्थः ।
द्भक्त्या भवति । विकिप्तस्य बलैः स्थानारकायोत्सर्गतः शकु. उचार-द्वारविधिमाइ
नायग्रहणे सत्यन्तरायं च भवतीति गाथार्थः। ना नबारो पत्थं, आयरिश्रव्यो कयादनि जत्थ ।
अग्नि-धारविधिमाहएवं भणंति ते सा, विदु पडिकट्टचिअ एअस्स ।।४३ना । अग्गित्ति साऽगिणी जा, पमजणे रणमाइवाघाओ। मोचारोऽत्र प्रदेश माचरितव्यः कदाचिदपि । यत्र वसतावे
अपमज्जण अकिरिया,जोईफसणम्मि य विभास॥४४६॥ भणन्ति दातार, सापि प्रतिकुष्टैच, जगवत पतस्य वसतिरिति
अग्निरिति,साऽग्निर्या वसतिप्रमार्जने तत्र रेणुकादिना व्याधागाथार्थः।
तोग्नः । अप्रमार्जने सत्यक्रिया प्राहाभङ्गो, ज्योतिःस्पर्शने व प्रभत्रण-हारविधिमाह
विनाषाज्ज्चालन चाकारादाविति गाथार्थः। - पासवर्ण पिपत्य, इमम्मि देनम्मिण उण अमत्थ।
दीप-द्वारविधिमाहकाय तिजति हु, जीए एसा विणो जोग्गा ॥४३६।। दीवित सदीवा जा, तीए विसेसो त होइ जोइम्मि । प्रश्रवणमपिवाऽत्र बसतो, भस्मिन् देशे विवक्षित एव । न पुन- एत्तो चित्र इह भेओ, सेसा पुवाइमा दोसा ॥४७॥ रम्पत्र देशे कर्तव्यमिति भणन्ति, यस्यां वसती । एषा पिन
दीपिते सीपा या वसतिः, तस्यां विशेषस्तु सदीपायर्या योग्याऽस्योति गाथार्थः।व्याख्याता प्रथमा द्वारगाथा।
भवति ज्योतिषि। तद्भावेन स्पर्शसंभवादत एव कारणादिहानेहिनीया व्याख्यायते । तत्रावकाश-द्वारविधिमाह
दो द्वारस्य । छारान्तराच्छेपाः पूर्वोक्ता दोषाः प्रमार्जनादयः । ओवासोविएत्यं, एसो तुऊतिन पुण एसो वि ।
इति गाथार्थः। एव विजणंति जहिमा विण सद्धा इमस्स भवे ॥४४०।
अवधान-द्वारविधिमाहअवकाशोऽपि चात्र वसतौ,एष युग्माकं नियतः।न पुनरेषोऽ- पोहाणं अम्हाण वि गेहसु-बमोगदायगो तंमि । पि, एवमपि जणन्ति, यस्यां वसती दातारःसापिन शुझाऽस्यहोहिसि भणति टुंति, जीए एसा वि स ण जवे ॥धना प्रवेशसतिरिति गाथार्थः।
' अवधानं नामास्माकमपि गृहस्योपयोगदाता त्वमसि नग. तृणफलक-द्वारविधिमाह
वन अविष्यसि ? जणन्ति, तिष्ठति सति यस्यां वसतो, पषापि एवं तणफझगेसु वि, जत्थ विधारो न होइ निअमेणं । (से) तस्य जिनकल्पिकस्य न भवेदिति गाथार्थः । एसा विदुदहवा, उमस्म एवं विहा चेव ॥ ४४१ ॥
कियज्जन-द्वारविधिमाहपवं तृणफलकेम्वपि, यत्र विचारस्तु नवति, ततिनियमेनैषा
तह कह जणात्ति तुम्हे, वसहिह एत्यंति एवमवि जीए। पिवसतिर्कटल्या,पुरुषे एवंविधा चैत्राशुझेति गाथार्थः।
भाइ गिही लाए, परिहरए एवरमेअंपि ॥४॥ सरकण-द्वारविधिमाह
तथा कियन्ता जना इति यूयं वत्स्यथाऽत्र वसताविति ? ए. . सारक्ख ति तत्येव, किंचि वत्थु अहिगिच्च गोणाई। धमपि यस्यां वसती जणति, गृडीदाता ऽनुज्ञायां प्रस्तुतायां। जीए तस्मारक्खण-माह,गिही साविह अजोग्गाश परिहत्य सौ महामुनिन बरमेतामपि वसतिमिति गाथार्थः । सारक्षणेति तत्रैव बससौ, किञ्चिद्वस्तु अधिकृत्य, गवादि
परिहारप्रयोजनमाहबस्यां तत्संरकणमाह गृही। गवाद्यपि रकणीमिति । साऽपि सुहममवि दु अचिअत्तं, परिहरए सो परस्म निअमेणं । . वसतिरयोग्येति गाथार्थः।
जं तेण तुमहाओ, बज्ज अ पि तज्जणणिं ।।४५०॥ संस्थापना-द्वारविधिमाड
सूक्ष्ममध्यचियत्तमप्रीति मकण परिहरत्यसो भगवान् परस्य संवणा सकारो, पमाणीएऽणुवेहमो मते ! ।
नियमन । यद यस्माद तेन कारणेन तुशब्दात मलगाधोपा. कायब् ति अजीए,वि भणइ गिही सो विजोग त्ति ४४३॥ साद वर्जयत्यन्यामपि वसति तजननीमीषदप्रीतिजननी नत्र संस्थापना संस्कारोऽभिधीयते । पतन्त्याः सत्या अनुत्प्रेक्का
ममत्वमन्तरण तथा तथा विचारः क्रियत इति गाथार्थः । भदन्त कर्तव्येति च नो पेक्विनव्येत्यर्थः। यस्यामपि जणति गृही,
व्याख्याता द्वितीया मूलगाया। ततोऽसावप्ययोग्या वसतिरिति गाथार्थः।
. अधुना तृतीया व्याख्यायते । तत्र भिक्काचर्याद्वारविधिमार.. मूलगाथाचशब्दार्थमाह--
निक्खायरिआणिअमा, तइआए एमणा अभिग्गहिआ। श्रयं वा अनियोग, चमहसंसूइ जहं कुणइ ।
एअस्त्र पुवभणिया, एक्का चित्र होइ जत्तस्स ॥४१॥ दाया चित्तसरूवं, जोगा सा वि एअस्म ॥४४ निकाचर्यानियमानि,योगेन तृतीयायां पौरुष्यामेषणा च प्रहणैअन्यं चाभियोग चशब्दसंसूचितं, यत्र करोति वसती दाता | षणाऽजिगृहीता जवन्यस्य पूर्वणिता जिनकल्पिकस्य । एकैव चित्रस्वरूपं । योग्याने गऽप्येतस्य वसतिरिति गाथार्थः । नवति जक्तस्य न हितीयेति गाथार्थः। प्राभृतिका-द्वारविधिमाहु--
पानक-द्वारविधिमाहपाहुमिया जीएँ वनी, कज्ज प्रोसपणाइ तत्थ । पाणगगहणे एवं एसेसकालं पोपाजावो ।
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(१४७३) जिगाकप्प अभिधानराजेन्द्रः।
जिण कप्प जाणइस प्राइसपउ, समसइंच सो सव्वं ॥४५॥ कथं पुनर्भवकर्माम्य अटतः । अत्र प्रसङ्गन शर्ष किमप्यतन पानकप्रहणेऽप्येवमस्य न शपकावं, प्रयोजनानावकारणात् ।।
सव्यतागतमव वक्ष्यामि समासन । किममित्याह-शिष्य जब. संसक्तप्रहण दोषपरिवारमाह-जानाति, श्रुतातिशयेनैव शुरुमा
विवोधनार्थमिति गाथार्थः।। शुद्धं च, स सर्व पानकमिति गाथार्थः।
जिग्गहिए तत्य, जत्तोगाहिमग वीइ तिअ पूई । लेगाप-द्वारविधिमाह
चुअगाणिव्वयणति अ, उक्कोमेणं चमत्त जणा॥४६॥ संवाले ति इह, लेवामेणं अलेव जंतु |
प्रानिग्रहिक जिनकल्पिक उपध श्रद्धोपजायत अगार्याः ।
तत्र नक्तोग्राहिम कति,मा पतदुभयं करोति । द्वितीयेऽहनि श्रीम भ्रमण समें मिस्स, दुगं पि इह होइ विमं ॥४५३||
दिमसान् पनि । तद्भवतां वक्ष्यामः । अत्रान्तरे चादको नेपालपमित्यत्राधिकारलपवता व्यन्जनादिना, लेपवत यदो- निर्वचनामनि भवति । उत्कृष्टशोन्मगंपदेन सप्त जना,पते एकव. दनादि । किमुक्तं जवति-अन्येन संमिश्रं वस्त्वन्तरेण, द्वितीय सती भवतीति गाथासमुदायार्थः।। मप्यत्र नवतीति विक्षयं । भकं पानं चेति गाथार्थः।
सरच्छोहगाहातोऽवयवार्थमार___ अलेप-द्वारविधिमाह
जिणकप्पाजिग्गहिअं, दटुं तवमोसिमं महासत्तं । मल्लवं पर्य:ए, केवनंग पि हुन तस्वरूवं तु ।
संवेगा गयसघा,काई मा भणिज्जाहि । ४६१ ॥ प्रो नऽलेवकारी, अवमिति सरओ विति ॥४॥ जिनकल्पाऽभिप्राहकमृर्षि दृष्ट्वा तमाशाषितं महासत्वं, संवे. भलप, प्रकृत्या स्वरूपेण, केवलमपि सन् ,न तस्वरुपा तुलनेल- गासतश्च गतश्रद्धा सती, कााचत श्राद्धी योषिगणेत् ध्या पस्वरूपमेव जगाभ्यामवत । अन्ये वोपकारिणामलेपमित्येवं | दिति गाथाथः। सूरय प्राचार्या ब्रुवत इति गाथार्थः।
. कि काहामि अहला, एमो माहू न गिएहए एवं। . आचामाम्ल-द्वारविधिमाह
पत्थि मह तारिमयं, असं जमलजिया दाई ॥४६शा णायंबिलमेअंपिहू, असोसपुर सजे अदोमाओ। किं करिष्यामि । अधन्याहम् । एप साधुनं गृह्णाति, पतसत्र उस्लग्गियं तु किं पुग, पायइए गुणं जं स||४५५।। नूनं नास्ति । मम तादृशमन्यच्चाभन । यदलजिता दास्यामीति मायामाम्समेतदप्योपकारि । अतिशोषपुरापभेदोपा व्याख्या
गाथार्थः। विधातु नावेन । औत्सर्गिकमेवौद नरूप किं पुनः प्रकृतदेहरूपाया
सम्बपयत्तेण अहं, को काऊण लोअणं विउझं । अनुगुणं यद्वलादि (से) तस्येति गाथार्थः ।
द हामि पयत्ता ताई जण असो भयवं ॥ ४६॥ प्रतिमा-द्वारविधिमाह
सर्वप्रयत्नेनाहं कल्ले कृत्वा-भोजन साधु विपुलं दास्यामि पमिमति अमामाइ-सदा य अभिग्गहा सेमा।
प्रयत्नेन । तदा भणति चासौ भगवाँस्तच्छुम्बाक्ल्या निवारणाणो खलु एम पवज्ज, जं तत्थ विप्रो विसेसण॥४५६।।
येति गाथार्थः। प्रतिमा मासाद्या, प्रादिशब्दान्मूलगाधागताधभिग्रहाः, शेषा
अणिग्रामो वमहीओ, नमरकुनाणं च गोकुलाणं च । भकपड्यनादयो, न खल्वेष प्रतिपद्यते। जिनकल्पिको यत्तत्रा- समणाणं सनणाणं, सारइमाणं च मेहाणं ।। ४६४॥ भिग्रहे स्थितो विशेषणति गाथार्थः।
अनियता वसतयः, कवामित्याह-भ्रमरकुमामांच, गोकुलानां जिणकप' इति मूलद्वारगाधावयवं व्याविण्यासुराह
च, तथा श्रमणानां, शकुनानां, सारदानां च, मेघानामित्यर्थः । जिणकप्पे त्ति प्रदारं, अनेमदाराण विनयमो एस।
ताए व नववडिअं, मुक्का बोह। अतेण धीरेणं । एअंमि एस मेरा, अक्वायविवक्रिजमा णियमा ।।१५।। अहीणमपरिभंतो, विमं च पहिमियो वहिं॥४५॥ त्रिनकला इति च द्वार। मूलगाथागतमशेषद्वाराणां श्रुतसंहन. तया वा प्रगार्योपस्कृतमनाभोगात मुक्ता वाधीच.तेन धीरेण। मादीनां विषय एष यतते। इति एतस्मिन् जिनकल्प, एषा मर्या
द्वितीयऽदनि अदीनचेतसा परिनाम्तकायेन, द्वितीयांच, कदा भूतादियोकापवादविवर्जिता नियमादेकाम्तेनेति गाधार्थः ।
मागतां प्रपयटितो वीथिममाविति गाधाधः । 'मासकप्पो' इति द्वाराषयवार्थमाह
तयं व्यवस्थामाम निवसइ खित्ते, बचीहीनो अकुगइ तत्य वि ।। पढमदिवसम्मि कम्म, तिमि अदिवसाणि पूलभं हो । पंगगममकम्मा-इ बज पत्थं पइदिणं तु ॥ ४५ ॥ पूइसु तिस णो कप्पर, कप्पइ तदए गए कप्पे ।।४६६।। मासं निवसति के । एवं पम्बोधं। करोति गृहपतिरूपाः प्रथमदिवस कर्म, तपस्कृतं त्रीन दिवसान पूति जति नद. परिकल्प्य, तत्रापि चवीधीकदम्ब के एकैकामदति वाधीकर्मा- गृहमेव प्रतिषु त्रिषु न कलात। तत्रान्यदपि किश्चित कराते । दिवजनार्थमनिबद्धतया प्रतिदिनमिति गाथार्थः । व्याख्याता| तृतीय गते करूप दिवस अपरस्मिन्नदनीति गाथार्थः । तृतीया द्वारगाथा।
ओगाहिमए अजं, न आगो कल्ले तस्म दाहामि । सांप्रतमत्र प्रासङ्गिकमाह
दामि दिवमाणि कम्म, तइमाइमु पूअं होइ ॥४६॥ कह पुण होज्जा कम्म, एत्य पमंगेण सेप्सयं किं पि ।
उहादिम हुने, सति अद्य नाऽऽयातः स ऋषिः । कल्य वोच्छामि समासे में, सीस जणाविवोहणद्वार ।। ॥ तस्य दास्यामि । इति दिवसे सदाऽनिसंधत्ते । अत्र द्वौ दिवसी
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जिपकप्प अभिधानराजेन्डः।
जिण कप्प कर्म, तद्भावाविच्छेदातृतीयादिषु दिवसषु पूति, तद्भवतीति इतरेऽपि गच्छवासिन भाज्ञान एव निमित्तस्वाद, गुवादिगाथार्थः।
निमित्ततश्च हताः । प्रतिदिवसमपि दोषमपश्यन्त. सन्तोऽनषतिहि कप्पेहि न कप्पड़, कप्पा तं बहसत्तमदिणम्पि । । णारूपमटन्ति मध्यस्थभावेन समतयोत गाथार्थः। प्रकरणदिमहो पढमा,मेसा जं एक दापि दिणा॥४६॥
प्रासङ्गिकमेतत् । प्रस्तुतमेवाहतत्र त्रिषु को दिवसेषु न कल्पताकल्पत तद् गृहं,पष्ठमप्तम
एवं तु ते अता, वसही एकाए का मिजाहिं।। दिवसे प्रहणदिवसात । एतदेवाह प्रकरणदिवस: प्रथमोऽट। बीहाए अ अहंता, एगाए कइ अमिज्जाहि ॥१७॥ मगतः। शेषौ यदेको,द्वौ वा दिवसावाधाकमंगताविति गायार्थः। एवं तु ते अटलो जिनकहिरकाः। वमतावेकस्यां कति वसयुः!
अह सत्तमम्भि दिअाहे, पढौ बाहिं पुणो वि हिंडन । तथा वाथ्यां वा अटन्तः सन्न एकस्यां कत्यंटयुरेति गाथार्थः। । दपुण सा य सक्ती, तं मुणिवसनं नणिजाहि ॥४६६।। एगाए सहीए, उक्कामेणं वसंति सत्त जणा।।
अर्थ सप्तमे दिवस, पटनगतादारज्य । प्रथमा वाधी, पुनरपि अवरोप्परसंजाम, वजिता कह विजोएणं ॥७॥ हिंमन्तमटन्तं राष्ट्रवासाभाद्ध। भगारी, मुनिवृषभ प्रस्तुतं,भ. पकस्यां वसती वसन्तो. बाह्यायामकरतो घसन्ति सप्त जनाः। बोद्भूयादिति गाथार्थः। ..
कमित्याह-परस्पर संजाषणं वर्जयन्तः सन्तः, कथमपि योकिंणागयत्य तश्या, असवनी मे को तुह निमित्तं ।। गनति गाथार्थः । इति पुठो सो भयवं. विनाएसे इस बणइ ॥ ४७० ॥
वीहीए एक्काए, एको खलु पइदिणं अमइ एमो। कि नागतात्र यूयं तदा । असव्ययो मया कृतस्वनिमित्तं ।
अम भणति जयणं,साय ण जत्तिक्खमाणेभा॥४७॥ सदग्रहणादसव्ययत्वमिति पृष्टः स भगवान् जिनकालाकः।।
धीच्या खेकस्यामक एवं प्रतिदिनमटत्येष जिनकल्पिकः। अन्ये द्वितीयादेशे 'पूर्वादेशापेकया, ५ भणति वक्ष्यमाणमिति | गाधार्थः।
भणांन्त नजनां, सा च न युक्तिक्षमा कंयाऽत्र वस्तुनीति अणि प्राओ सहीओ, इच्चाइ जभेव बस्मि अं पुर्दिछ ।
गाथार्थः ।
कुत श्याहभाणार कम्माई, परिहरमाणो विमुखमणो ॥ ४७१ ॥
। एएसिं सत्त वीही, एत्तो चिन पायमो जो भणिया। भनियता बसतय इत्यादि । यदेव वर्णितं, पूर्वगाथासूत्रमिति।।
कह नाम अगोमाणं, हविज गुणकारगं णिमा ॥१०॥ माकया कमांदि परिहरन् विशुद्धमनाः सन्, भवति । इति गाथार्थः।
एतेषां सप्त वीथ्यः । अत एव कारणामा भूदेकम्यामुभयाटन. चोएइ पदमदिहे, जड़ कोइ करिज्ज तस्स कम्माई।
मिति प्रायसो यतो भाणताः, कचित्प्रदेशान्तरे कथं नाम,अनव
मानं भवेत्। अन्योऽन्यसंवर्तभावेन गुणकारकं नियमाप्रवचनतत्य ठिणाकणं, अपि चव तत्थ कह ॥७॥
स्थति गाथार्थः। खोदयति शिष्यः । प्रथमदिवस अटनगत एवं यदि कश्चिस्कुर्यात, किश्चन् कांद्यकल्प्यं, तत्र स्थितं ज्ञात्वा, केऽसंज
वीथीज्ञानोपायमाहल्यैव किंचित्तरकथमिति गाथार्थः ।
प्रासयेण अजमेए, वीहिविभागं अतो विजाणंति । चोअग! एवं विज्ञ, जइ ओ करि जाहि कोई कम्मा। ठाणाएहि धीरा, समयपसिद्धेहि लिंगेहिं ।। १ ॥ एहि सोतंण विअणाइ, मुआइमयजोगओजय ७१ अतिशयेन च यदेते श्रुततः बोथीविभागमतो विजानन्त्य वैते। चोदक! पवमप्यत्र यदि कुर्यात कश्चिकर्मादि प्रच्छन्नमेन्छ । | स्थानादिभिधीरा वसतिगतैः, समयप्रसिद्धैः, लिके,श्रुतादेवति नासा तत्र विजानाति ? विजानात्येव श्रुतातिशययोगतः। गाथार्थः।। कारणात्सद्भगवानिति गाथार्थः।
उपसंहरनाहएमो नण से कप्पो, जे सत्तमगम्मि चेव दिवसम्मि । एसा मामायारी, एएसिं समासओ समक्खाया। एगत्य अमर एवं, आरंजविवजण पिपित्तं ॥ ४७४॥ एत्तो खित्तादी, विडमेएसिं उ बक्खामि ॥ ॥ पष पुनः (से) तस्य कल्पः। यत्सप्तम पत्र दिवस एकत्र एषा सामाचारी, एतेषां जिनकल्पिकानां समासनः समापीध्यामटाना एवमुक्तवदारम्भविवर्जननिमित्तमिति गाथार्थः । ज्याना । अतः केत्राद्यां स्थिति ताबद्ध्यवस्थामेतेषामेव वक्ष्याइन अधिअयवित्तिं तं, दटुं सहाणं वि तदारंभ।
मीति गाथार्थः। प्रणियमओण पवित्ती, होइ तहा वारणाओ अ॥४७॥
खित्ते कालचरित्ते, तित्थे परिमाय-आगमे वेए। एबमनियतवृति त बौथिविहारेण दृष्ट्वा, श्राद्धानामपि प्रा
कप सिंगे लेसा-माणे गणणाऽभिगो सिंच ॥४८३|| णिनां तदारम्भेऽनियमात कारणात् न प्रवृत्तिनवति । तथा क्षेत्रे एकम्मिन् स्थितिरमीषाम् । एवं काले, चारित्रे, तीर्थे, पारणाच्चानियतत्वादिभाचेनेति गाथार्थः।
पर्याये, आगमे, वेदे, कल्प, लिके, लेइयायां, ध्याने, तथा गगच्छवासिनामेवमकुर्वतामदोचमाह
णनाऽभिग्रहाश्वेतेषां वक्तव्या । इति गाथासमासार्थः। अरे भाणाम्रो वि अ, गुरुमाइनिमित्तयो पदिणं पि। पचावण मुएडावण, मणसावम् वि से अग्याया। दासं अपस्तमाणा, अति मजकत्यनावण ॥४७॥। कारण-णिप्पडिकम्मे, जत्तं पयो अतइनाए । ४४ ॥
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( १४८५ ) अनिधानराजेन्द्रः ।
जिण कप्प
प्रवाजनमुण्डनेत्यत्र स्थितिर्वाच्या मनसाऽऽपनेऽपि दोषे (से) स्थाताश्चतुर्गुरवः प्रायश्चितम् तथा कारण निष्प्रतिकर्म- स्थितिच्या, तथा नक्तं, पन्धाश्च तृतीयायां पौष्यामस्येति गाथासमासार्थः ।
ब्यासार्थे तु गाथाद्वयस्याऽपि ग्रन्थकार एव प्रतिपादयति । सपा क्षेत्र द्वारमधिकृत्याह
खिसे दुहे मग्गण, जम्माओ चैव संतिजाने
।
जम्मणो जहि जाओ, संत जावे अ जाई कप्पो ॥ ४८५ ॥
द्विविधामा जन-जन्मसिद्भाव ता। तत्र जन्मतो यत्र जातः क्षेत्रे, एवं जन्मऽऽश्रित्य | सद्भायतश्च यत्र कल्पः क्षेत्रे, एवं सद्भावमाश्रित्य मार्गणेति गाथार्थः । जम्मासंतीजावे- होज सब्वासु कम्यमी । साहरणे पुरा जओ, कम्ये व कम्मभूमे वा ॥४८६॥ जन्मसद्भावयोरयं भवेत् सर्वासु कर्मभूमिषु भरताचासु संहरणे पुनर्भाज्योऽयं, कर्मभूमिको वा सद्भावमाश्रित्य अक मेमिको वासायमाधित्येति गाथार्थः ।
काल-द्वारमधिकृत्याऽऽद
श्रसपिपिए दोसुं, जम्पणप्रतिसु ा संतिज्ञावेणं । उपणविवरीओ जम्मणो संविजावेणं ॥४७॥ अवसर्पिण्यां काले, द्वयोः सुषमदुष्षम- दुष्यमसुषमयोजन्मतो जन्माऽऽश्रित्यास्य स्थितिः। तिसृषु सुषमदुष्पम-पुष्पमसुषम- दुष्प मासु सङ्गावेनेति स्वरूपतयाऽस्य स्थितिः। उत्सर्पिएयां विपरीतोSस्य कल्पः - जन्मतः, सद्भावतश्च । एतदुक्तं भवति दुष्षम दुष्षअ सुन-सुत्रमदुष्पमासु तिसृषु जन्मतः, दुष्षमसुषम- सुप्रमदुष'मयोः गुरूयोः सद्भावत एवेति गाथार्थः ।
गोपिथि उस्सप्पिणि, होइ त पतिभागभ उत्यम्मि कानेपलिजागे अ, सादरणे डोड सनेति ॥ ४०८ ॥ नावसर्पिषरसर्पिणीत्युभयशून्ये स्थिते काले प्रति स्वयं जन्मतः, सद्भावतश्च प्रतिजागे चतुर्थ पत्र । काले दुष्पमसुषम रूपे देशेषु प्रतिभागेषु च केवले सति सद्भावमा भिव्यजयति सर्वेपुत्तरकुर्वादित गाथा
चारित्र-द्वारमधिकृत्याऽऽहपढमे वा बीए वा परिवज्ज संजमम्मि शिकणं । पुण्त्रपनिओ पुरण, अरे संजमे हुज्जा ॥४८॥ प्रथमे वा सामादिक व द्वितीये वा वेदोपस्थाप्ये, प्रतिपद्यसे संचारित्रे सति जिनकल्पं यस्मिन् पूर्वप्रतिप पुनरसावन्यतरस्मिन् संयमस्थाने सूक्ष्मसंपरायादौ भवेदुपसमिति गाथार्थः।
,
ममितित्राणं, पढने पुरिमंतिमाण वीमि । पच्छाविकजोगा, अरं पाव तयं तु ॥ ४०॥ मध्यमतीर्थकराणां तीर्थे, प्रथमे भवेत, द्वितीयस्य तेषामभावात् । पुरिम वरमयोस्तु तीर्थकरयाः तीर्थे द्वितीये भवेत्, वेदोपस्थाय एव । पश्चाद्विगुरूयोगात् कारणादन्यतरं प्राप्नोति तं संयमं सूक्ष्मसंपरावादि तूपशमापेति गायार्थः।
३७२
जिया कप्प
तीर्थ-द्वारमधिकृत्या ऽऽड्तित्येति नियमओ च्चिय,
होइ सतित्थम्मनपुण तदभावे । विवा जाईसरणाइरहिं तु ||४||
तीर्थइति नियमत पय नयति स जिनि
तिन नावे विगतेऽनुत्पन्ने वा तीर्थे, जातिस्मरादिभिरेव काररिति गाथार्थ
अहिगयरं गुणवाणं, होइ प्रतित्यम्मि एस किं ए भवे । एसएस लिई पता बीरागेहिं ॥ ४६२ ॥
"
अधिकतरं तद्गुणस्थानं श्रेण्यादि जवत्यतीर्थे, महदेव्यादीनां वथाश्रवणादिति एष किं न भवति जिनकल्पिकः ?, इत्याशङ्काSsp - एषा एतस्य स्थितिर्जिन कल्पिकस्य प्रकृप्ता, वीतरागैः, न पुन काचितिरिति साधार्थः ।
पर्याय द्वारमधिकृत्याऽऽह
परिभाओं
दुभेओ, गिहि-ज-मेहि होइ पायो । एक्केको उ दुजेप्रो, जहा उक्कोसओ चेव ।। ४९३ ॥ पर्यायश्च द्विनेदोऽत्र गृहियतिनेदाभ्यां भवति ज्ञातव्यः । ए कैमियोलोजन्य उत्पति गाथार्थः ।
एस एस पाओ, गिहिपरियो जहा गुणतीसा । जइपरिआए बीसा, दोसु वि उक्कोस देखणं ॥ ४४ ॥ एतस्यैष ज्ञेयो गृहिपर्यायो जन्मत आरज्य जघन्य एकोनत्रिणि । यतिपर्यायो विंशतिवर्षाणि जघन्यः, एवं द्वयोरपि विदिष्टपर्याय देशांना पूर्वको मा थार्थः ।
आगम-द्वारमचिकृत्या 55
अपु पाहिज्जर, आगममेसो भइव तं जम्मं । जमुचिअप गिजोगा - SSराहणओ चैव कयकिश्च ॥। ४६५ ॥ अपूर्वे नाधीत आगममेषः कुतः, इत्याह-अतीत्य तज्जन्म वर्तमानं यद् यस्माऽचितप्रकृष्टषोगाराधनादेव कारणाव, कृतकृत्यो वर्तते । इति गाथार्थः ।
पुत्राहीयं तु तयं, पायं अणुसरह निचमेवेस । एगग्गमणो समं विस्सो असिगाइ स्वपड़े || ४९६ ॥ पूर्वा तु प्रायो ऽनुस्मरति नित्यमेवे जिनक स्पिक एकाग्रमनाः सम्यग् यथोकं, विश्श्रोतसिकायाः क्षयहेतुं तं स्मरति गाथार्थः ।
वेदद्वारमधिकृत्य उडू
पवित्र
अपत्तिका, इत्यीवज्जो न होइ एगयरो | पुण होल सवेध प्रवेश्रो वा ॥४६७॥ प्रवृतिका तस्य श्री एच नवस्येकतरः पुंवेद सोवा पूर्वप्रतिपक्षः पुनरध्यवसाय भेदोद्रायात्सो वेदो वैष भवेत् इति गाथार्थः ।
जनसमसेढीए खलु वेए उवमामिम्मि उ अत्रेभो । न खत्रिए तज्जम्मे, केवलप किसे इजाबाओ ||४||
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( १४८६ ) अभिधानराजेन्द्रः ।
जिणकप्प
उपशमश्रेण्यामेव वेद उपशमिते सति श्रवेदो भवति, न तु क्षपिते। कुतः ?, इत्याद-तजन्मन्यस्य केवलप्रतिषेधभावादिति गाथार्थः ।
कल्प-द्वारमधिकृत्या35दविश्रम अ कप्पे आचेनकाइएस ठाणेसु । सपिटमी, पत्र-पि उम्र अट्टिया विइओ। ४६६॥ स्थिते, अस्थिते च कल्प एष भवति, न कश्विद्विरोधः । अनयोः स्वरूपमाद-आचेलक्यादिषु स्थानेषु वक्ष्यमाणलक्षणेषु सर्वेषु इपिस्थिताः इति प्रयमः स्थिस्य या इति याजकृतिकर्मम्येष्ठपदेषु स्थिताः मध्यमकराचोऽपि परसु स्थिता मापादयनिय अन्तः इति द्वितीयः स्थितकल्पः इति गाथार्थः । स्थानान्याह
आचेनकुदसिय-सिज्जायररायपिंडकम्मे वा ।
autoकम, मासं पज्जोसाकप्पे ॥ ५०० ॥ अचेलक्यौदेशिक शय्यातरराजपिण्डकृतिकर्माणि पञ्च स्थामानि तथा व्रतज्येष्ठप्रतिक्रमणादीनि त्रीणि, मासपर्युपा कल्पों मे स्थाने इति गाथार्थः ।
लिङ्ग-द्वारमधिकृत्याऽऽड्लिंगम्पि होइ भयणा, पडिवज्जइ उभयलिंग संपन्नो । उरलं पुस्॥ ०? ।। लिङ्गे इति जयति नजना, वक्ष्यमाणस्य प्रतिपद्यते कल्पम, उभयखिङ्गसंपन्न, सव्यभावलिङ्गयुक्त इत्यर्थः । उपारे तु उपरिचारित्रपरिणामरूपं पूर्वमतिपक्षस्य निय मेन भवतीति गाथार्थः ।
इयरंतु जिस भावाइ एहि स
न होइ वि कयाइ ।
ते विणावि तहा, जाप से भावपरिहास | ५०२ | इतरतुदादिकार काश्वित्यपि काचित्र संभवत्येतत् । न तेन विनाऽपि तथा तेन प्रकारेण जायते (से) तस्य भावपरिहाणिरप्रमादाज्यासादिति गायार्थः ।
मेद्वारमधिकृत्य 55
लेसासुविसुका पासुन पुण सेसानु । पुब्बपकिवन्नभो ! पुण, होज्जा सव्वासु वि कहांचे ॥ ५०३ | कम न सर्वास्व
तेजस्व
पुनः शेषास्याचा पूर्व पिका कति कर्मकादिति गाथार्थः ।
च्चंत संकिनिष्ठा सुयोवकाक्षं च हंदि इयरासु । चिंता कम्माल गई, तहा वि विरियं फलं देव ॥ ५०४ ॥ नात्यन्तसंविष्टासु वर्तते जगवान् स्तोककालं च हन्दीतरासु अशुद्धासु, चित्रा कर्मणां गतिः, येन तावपि वर्तते, तथापि वीर्य फलं ददाति येन तङ्गावेऽपि यश्चारित्रशुद्धिरिति गाथार्थः । ध्यान द्वारमधिकृत्याऽऽह
काम्पिवि धम्मेणं, पडिवज्जइ सो पवमाणेणं ।
जिए कप्प
इरेमुवि जाणेसुं पुत्रपत्र ण परिसिद्धो ||२०|| ध्यानेऽपि प्रस्तुते, धर्मेण ध्यानेन, प्रतिपद्यतेऽसौ कल्पं प्रवईमानेन सता । इतरेष्वपि ध्यानेष्वार्तादिषु पूर्वप्रतिपन्नोऽयं न प्रतिषिद्धो भवतीत्यपीति गाथार्थः ।
एवं च कुसल जांगे, उद्दामे तिव्वकम्मपरिणामा । रोदवि जावो. इस्स पाये निरणुबंधो ॥ ५०६ ।। एवं कुशलयोगे जिनकल्पप्रतिपत्योद्दामे सति, तीव्रकर्मरिणामका र्तयोरपि भावोऽस्य शेष सब प्रायो निरनुबन्ध स्वरूपत्वादिति गाथार्थः ।
गणना-द्वारमधिकृत्याऽऽद्दगणण तिसयपुहत्तं, एसि एगदेव उक्कोसा । होपविणे, पशु अरा उएगाई ।। ५०७ ॥ गणनेति पृथक्त्वमेषां जिनकदिपकानामेकदे बोकृष्ट भवति प्रतिपद्यमानकान् प्रतीत्य, इतरा तु जघन्या गणनेकाद्येति गाथार्थः ।
पुव्व पडिवगाए उ, एसा उक्कोसिआ उचित्र खिचे । होइ सहसपुढलं, इयरा एवंविहा चैव ॥ २०८ ॥ पूर्वप्रतिपन्नानां त्वमीषामेषा गणना उत्कृष्टोचिता क्षेत्रे यत्वेषां भावो भवति यत सहस्रपृथकत्वमिति, इतराऽपि जघन्यैवविधैव सहस्रपृथक्त्वमेव लघुतरमिति गाथार्थः । अनिग्रह द्वारमधिकृत्याऽऽद
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दव्याई आभिग्गद, विचित्तरूवा ण दाँति इसरिया | एस आवकहियो, कप्पो चियऽभिग्गहो जेल | ५०६ |
व्याद्या अग्रिदाः सामान्या विचित्ररूपा न भवन्तीत्वराः । कुतः १, इत्याह- अस्य यावत्कथिकः कल्प एव प्रक्रान्तोऽभिमहो येनेति गाथार्थ
एवम गोराई, पाणिभ्रमेण शिरवाया य । सप्पा चि परे एमस्स विमुवाणं तु ॥१०॥ एतस्मिन् गोचरादयः सर्व एव नियता नियमेन, निरपवादाश्च वर्तते यतमानमेव परं प्रधानमेतस्य विशुस्थानम, किं शेषाऽभिग्रहैरिति गाथार्थः । व्याख्याता प्रथमा द्वारगाथा ।
अधुना द्वितीया व्यान्यायते तत्र प्रशासनाद्वारमधिकृत्याग्रहपच्यापे ण एसो प्रणं रूप्पकिङ सि फाळणं । भाउ तह पयट्टो, चरमाणसन्निरित्रिक्खो ।। ५११ || प्रवाजयति नैषोऽन्यं प्राणिनं कल्पस्थित इति कृत्वा, जीतमेतत, श्राज्ञातस्तथा प्रवृत्तोऽयं महात्मा चरमानशानिव निरपे कोतार्थः।
उपसंपुर्ण विश्वर, पुर्व पवितं आणि किंचि पिजडामणं गुणो ण दिसादविकखाए ॥१२॥ उपदेशं पुनरिति दहा त्वम् । तमपि यथासन्नेन वितरति गुणान् न दिगाद्यपेया कारणेनेति गाथार्थः ।
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मुएकन-द्वारमधिकृत्याऽऽदकावणात्रि एवं विशेआ एत्य चोगो आह ।
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( १४०७ )
अभिधानराजेन्द्र :
जिणकप्प
परी शिमा एम सिकीम पुढो १५१३ एकनाऽप्येवं विज्ञेया प्रयाजनावदत्र। चोदक आह-किमान ?प्रवज्याऽनन्तरमेव नियमादेव मुएमनेति कृत्वा किमिति पृथगुपाचेति गाथार्थः ।
अत्र " पुढो " द्वारम
गुरुराडेड एग्रिमो, पञ्चइअस्स वि इमस्स परिसेहो । अमोग्गस्माइसई, पक्षिजग्गादी बिहे नओ || ५१४ गुरुराह- इन नियमो यदुत प्रवज्याऽनन्तरमेवेयम, कुतः ?, प्रव्रजितस्याप्यस्याः प्रतिषेधो मुण्डनाया अयोग्यस्य, प्रकत्येहातिशयैः पुनः प्रतिभग्नदेविधते, यतो मुण्डना न स्वतः पृथगिति गाथार्थः ।
मनसाऽपस्थापीत्यादि द्वारमधिकृत्वाऽऽह भाराम मोरावि, अभारं निश्रमभो अपि चिंच गुरुगा सम्यां तु अन्नं ॥ ५१५ ॥ प्रपन्नस्य प्राप्तस्य मनसाऽप्यतिचारं नियमत एव सूक्ष्ममपिप्रायश्चित्तमस्य भगवतश्चतुर्गुरवः सर्वजघन्यं मन्तव्यमिति माथार्थः ।
जम्दा उत्तरकप्पो, एसोऽजत्तट्टमाइस रिसो छ । एगग्या पदाणो, तभंगे गुरुप्ररो दोसो || २१६ ।। यस्मान्तरकल्प एप जिनको कार्ति
प्रधान मादी, पतस्त मुदत दोष विषय विद्यार्थः ।
कारण-द्वारमधिकृत्याऽऽह
कारणमात्रणमो, तं पुण नालाइ सुपरिमुद्धं । एसन बिज्जर, उचितप्यमाणा पाये ।।५१७।। कारणमानमुच्यते बाद सुपर सर्वत्र - म्। तस्य तन्न विद्यते जिनकल्पिकस्य, उचितान्तःप्रसाधनांत् प्रायः जन्मोत्सव सिद्धेरिति गाथार्थः ।
सम्वत्य निरवइक्लो, आढचं विभ दर्द समाजितो । बट्ट एस महप्पा, किलिट्ठकम्मक्खयणिमित्तं ॥ ११८ ॥ सर्वत्र निरपेक्षः सन् प्रारब्धमेव दृढं समापयन् वर्तते, एष महात्मा जिनकल्पिक समिति गाथार्थः ।
निष्यतिकर्म-द्वारमधिकृत्याहनिष्यमिकम्मरीरो, अमिलाई चिया स य । पातिए वितंडा, वसम्मि ए बट्टई बीए ।। ११५ ।। एका अमिलाद्यपि नापनयति ब प्राणान्तिकेऽपि च तथा श्रत्यन्तरौ व्यसने न वर्तते द्वितीय इति गाथार्थः । अपबहुत्तालोअण- विसयाई ओ न होइ एसो चि । अहवा सुभभावा बहु पेचिश इमस्स ।। २० ।। अपचलनविजिनकल्पिक शति । अथवा शुभजावात्कारणात्, बहुकर्मप्येतदेवास्य तस्वत इति गाथार्थः ।
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चरम द्वारमधिकृत्याssतहआएँ पोरिसीए, भिक्खाकालो विहारकालो ।
जियाकप्प
सेमासु उ उस्सग्गो, पायं अध्याय लिह चि ॥ ५२१ ।। तृतीया यांना कालो, विहारकाल चास्य नियोगता, पातुकसान पाथार्थ
घासम्म खीणे, विहरमाणो चि एवर यावज्जे । तत्येव महाकणं, कुणड़ का जोगं महाभागो ॥ १२२ ॥ जङ्घावले कीणे सत्यविहरन्नपि नवरं नापद्यते दोषमिति । तत्रैव यथाकल्पं त्रे करोति योग्यं महाभागः स्वकरूपस्थः, इति गाथार्थः ।
- एसेव गमो लयमा, सुके परिहारिए अहानंदे | नातं व जिरोहिं, परित्रज्ज गच्छ गच्छे वा ॥ ९२३॥ एचएव गमनम्नदियां भावादिनियमाच्छके परिवारिके यथा तु निःपरिहारिकाणामिदं प्र तिपद्यते गच्छूस्तत्प्रथमतया नवकसमुदायः गच्छे वा एकनिर्गमादपर इति गाथार्थः ।
तरजावाण करिंति आदिले परिकम् । इचरित्र थेरकप्पे, जिकूले आनकहिया ||२४|| भावना याचामाम्लन परिकर्म सर्वमेव । एते च इत्वराः, यावत्कधिकाश्च भवन्ति । ये कल्पसमाप्तो
मागच्छन्ति ते इत्वराः । ये तु जिनकल्पं प्रतिपद्यन्ते ते यात्रकथिका इति । एतदाह-इत्वराः स्थविरकल्पा इति नूयः स्थविकले भवन्ति । जिनकल्ये वाधिकार प्रतीति गाथार्थः ।
पतत्संभवमाद
पुणे जिपं ना, प्रति तं चैव वा पुशोकं । गच्छेया इंति पुणो विधि विठाणा सिमविरुका |२५| पूर्ण परिहारे जिन बागिन्ति पुनः
परद्वारं गात पुनरनेन प्रकारेण जीइयपि स्थानाम्यमी शुद्धपरिहारिकाणामविरुषानीति गाथार्थः ।
इचिरावसग्गा, आर्यका बेषणा व वाजयंति । आवकहिआण मइया, तहेब बग्गामभागा उ ||२६|| इश्वराणां युद्धपरिहारिकाणामुपसर्गा श्रातङ्का बेदनाश्च न भवन्ति, तत्कल्पप्रभावाज्जीतमेतत् । यावत्कथिकानां भाज्या उपसर्गादयः, जिनकल्पस्थितानां संभवात् । तथैव षट्यामभागास्वमीषां यथा जिनकल्पिकानामिति गाथार्थः ।
पतेषामेव स्थितिमभिधातुमाह
खित्ते काले चरित्ते, तित्ये परियाऍ श्रागमे बेए । कप्पे लिंगे लेसा काखे गणणा अभिगद्दा व ।। ५२७।। पव्त्रावण - मुंगावण - मणसावर त्रि से अणुग्धाया । कारण- पिकिम्मा, भत्तं पंथो म त आए ||५२८|| अगाथास्यापि समुदायार्थः पूर्व ४६३-४०४)
अवयवार्थत्वाद
खिने भरहेरवर होती साहरण विमा | तोचि विधेयं, जमित्य कान्ने वि णाणचं ||२||
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( १४८० ) निधानराजेन्द्रः ।
जि कप्प
क्षेत्रे भरतैरयतयोभयन्ति परिहारिकाः संदरणवर्जिता यदि स्थिति अत एव भरतैरवभावाद्विशेषम यदत्र काले ऽपि नानात्वं प्रतिभागाद्यनाबादिति गाथार्थः । चारिस्थितिमभिधातुमाह
तुझा जडाणा, मंजमा
पढमहिमा |
:
तो लोगाणं तु परिहारिभद्वाणा ॥ ५३० ॥ पानि जघन्यस्थानानि स्वसंख्या संयमस्थानयोः प्रथमद्वितीयः सामायिकच्छेदोपस्थाप्याऽनियोज पेः पानोकानां स्वदेशस्था वृद्ध्य] परिहारिन संत गा
चायः ॥
तानि प्रयोगा, अविरुका चैव पदवीभ्राणं । पितोऽखा, संजमत्राणा उ दोएहं पिं । ३१ । साम्य परिहारिकसंस्थामानि मध्ये लोक इति प्रदे शस्यानवृक तावन्तीत्यर्थः । तानि चाविरुद्धान्येव प्रथमद्विबीयपोरिति विशेषात् सामायिकच्छेदोपस्थाप्य संयमस्थानानीति भाषः । उपयपि ततः परिहारिकसंयमस्थानेभ्यः, विशेषतः संयमस्थानानि सामा विकच्छेदोपस्याप्ययोरिति पचार्थः।
,
सद्वाखे परिपणी, असे वि दोक्न पुष्यपमिव
।
वितो सोडतं । अणयं पष्प वुच्चइ उ ।। ३२ ।। स्वस्थान इति नियोगनः स्वस्थानेषु प्रतिपत्तिः कल्पस्य । अन्येव्यपि यस्यानेयधिकतरेषु भवेत् पूर्वप्रति
शेषात् तेष्वपि वर्तमानः संयमस्थानान्तरेऽपि स परिद्वारविकिक इत्यती तनयं प्राप्योच्यते एव। निश्चयतस्तु न, संयमस्यामान्तराध्यासनादिति गाथार्थः ।
ठिकष्पम्मी विमा, प्रमेव च जयह दुविधावि लेसा-जाणा दोषि वि, दवंति जिणकष्पतुल्लाभो ।। २३३ ॥ स्थितकल्पे च नियमादेते भवन्ति, नास्थितकपेः पवमेव च भवन्ति विविधऽपि नियमाद्देवः श्याध्याने द्वे अपि अतः समयां जिनकल्यतुल्य एवं प्रतिपद्यमानादिदेमेति गाथार्थः ।
गणय लिएो गया, जहा पविति सकोसा
को सजणं, सयसो श्चिय पुत्रपरिवा ॥ ९३४ ॥ गणतो मणमाश्रित्य त्रय एव गणाः पतेषां जघन्या प्रतिपत्तिरियमादावेव शतश उत्कृष्ट प्रतिपत्तिरादावेव तथा बत्कृष्ट जघन्येन - उत्कृष्टतो जघन्यतश्च शतश पत्र पूर्वप्रतिपन्नाः । नवरं अधन्य पदाधिकमिति माथार्थः ।
सतावीस वा सदस्य उकोसमो अवि संस्था परिवछ जहा कोसा ||३५|| सप्तविंशतिपय पुरुष सखापयुत्कृष्ट प्रतिपति देतावतामेकदा शतशः सहस्रशश्च यथासंख्यं प्रतिपन्ना इति पूर्वमपि जघन्यात गायार्थः ।
परिमाण मणा, इको की हम कणपक्रखेवे । पुव्यपडियाविउ, जड़या एगो पुहतं वा ||३६|| प्रतिपद्यमानका नाज्या चिकल्पनीयाः । कथमित्याह-एकोऽ
जिण कप्प
विप्रतिपद्यमानाः पूर्वप्रतिपक्षका अपितु भाज्याः, प्रक्षेपपक्ष पत्र कथमित्याह-एकः पृथक्त्वं वा यदा भूयांसः द्रवन्तरं प्रतिपद्यन्तं भूयांस वैयमिति यथार्थ
खाण एवं परिहारिआए जिसकया। अआिण एसो काणताणं परक्स्यामि ।। ३७ ।।
एतत् खलु नानात्वमत्र यस्त्रिदर्शितं पारिहारिकाणां जिनकदरात् सकाशाच्यमेष पथकानाम ऊर्ज नानात्वमिदं वक्ष्यमाणलक्षणं प्रवक्ष्यामि जिनकल्प इति गाथार्थः । पं० ब०४] द्वार (शेषा वक्तव्यता ' अहालंद ' शब्दे प्रथमभागे ८६७ पृष्ठ द्रष्टव्या )
कमित्यपसंगेणं, एसो अनुज्जओ इह विहारो । संलहणासमो खलु, सुविसुको दोइ णायन्त्रो || ५३ || सविस्तरेण षोऽभ्युद्यतो विहाराच ने संलेखना समः खलु पश्चादा सेवनात्सुबिशुको भवति ज्ञातव्यो यथोदितः । इति गायार्थः ।
पारण चरमकाले, जमेस भणि सयाणमवज्जो । भवणाएँ छाया पुण गुरुरुम्नाईडिं परिचका ॥२५४ प्रायेण चरमकाले यदेवैष भणितः, सूत्रे सतामनयद्यः, नजनयाऽन्यदा पुनः स्याद्वा न वा, गुरुकार्यादिनिः प्रतिबन्धादिति 'गाथार्थः ।
केई जति एसो गुरुसंजयजोगओ पहाणी शि वारा विदु, अचंतं अप्पमायायो ॥ ५५५ ॥ केचन व्रणस्येषोऽभ्युद्यतविहार, गुरुसंयमागतः कारणाप्रधान इति, स्थविरविहारादपि सकाशादत्यन्तमप्रमादाकेतोरिति गाथार्थः ।
अने परत्यविरहा, नेवं एसो इह पहाणोति । एस विजावे, परिवत्तिणिसेहयो चैत्र ।।५५६ ॥ अन्ये परार्धविकारयमिति यति च परार्थ प्रधानः परलोक इति तस्याऽन्यभ्युचविहारस्य त
पराप्रतिपतिनिषेधा
एतदेवाऽऽहअजयमेगपरं परिवमिकाम सो विपयाये । गणगुख, एमेव अलकित वि ।। ५५७ ।। अभ्युद्यतमेकरं विदारं मरणं वा प्रतिकामः प्रयजयत्युपस्थित अन्य गणि
खलु तत्पालनासमर्थो न सामान्येन तच्छ्रन्यः स्नेहात्प्रव्रजति सति का वार्ता ?, इत्याह-एवमेवान्यथा तत्प्रव्रज्याभावेऽलब्धिकोऽप्यभ्युद्यतप्रतिपत्तिमात्रेण गुरुनिधया प्रवजतीति
थार्थः ।
गाथार्थः ।
एव पहाणी एसो, एगनेणेव आगमा सिद्धो । जुती विनेो, सपरुत्रगारो महं जम्हा ||२८|| प्रधान युद्यतविहारात् एकान्ते इति युक्त्याऽपि च ज्ञेयः प्रधानः, स्वपरोपकारो महान् यस्मा दिति साधार्थः ।
ण य एतो नवगारों, अमो णिव्वाण - साहं परमं ।
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जिणकप्प
(१५ ) अभिधानराजेन्दः ।
जिणकप्प
जं चरणं साहिज्जइ, कस्सइ सुहनामजोएणं ॥एएए| सर्व थेरविहारं, मात्तुं अन्नत्य होइ मुखो उ । नचात उपकारोऽन्यः प्रधानतरः, निर्वाणसाधनं परमं यबर- एत्ती चिम पमिसिके, अज्जामोऽसमत्तकप्पो य॥५६॥ गं साध्यते कस्यचित प्राणिनः शुभभावयोगेन हेतुना इति
सबै स्थविरविहारं मुक्रवा, स्वपरोपकारोऽन्यत्र भवति शुरु नसायाचपेक्कया । इति गाथार्थः।
पव, माशुषः। मत एवं प्रतिषिवसंत्रऽजातोऽसमाप्तकरूपति अचंतिमसुहहेऊ, एनं मोसि णिश्रममो चेव। । गाचार्यः। परिणम अपणो विहु, कीरंतं हंदि एमेव ॥ ५६०॥
पतरस्मरणमाहमात्यांम्तकसुखहेतुरेतच्चरणमन्येषां भग्यप्राणिनां नियमेनैव प्रजाम्रो गौमाणं, असमचो पणगमत्तगा हिड्ता। परिणमति. मात्मनोऽपि क्रियमाणमप्येषां हन्येवमेवाऽऽस्यन्ति- | उविसमदो विभणिनो,जाकम वीमरागेहिं ।।६।। कसुखस्वनेति गाथार्थः।
प्रजानां गीतार्थानां कल्पोऽसमाप्तः पत्रकारसप्तका वाऽप: गुरू संजमजागो विह, विधेमा सपरसंजमो जत्य। प्रातविषयोदयोरपि भणिनो यथाक्रमबीतरागैरित गाथार्थः। सम्म परमाणो, रविहारे असो होइ॥ ५६१ ॥ । पमिसिचवज्जगाणं, थेरविहारो महोड़ सुघोति। गुरुः संयमयोगोऽपि वियः। कर, स्वपरसंयम, पत्र हरा भाणाजगो, संसारपणा णियमा ।। ५७०॥ संघमे, सम्यक प्रवर्कमानः सन् सन्तस्या स्थविरविहारेचा. प्रतिषिरुवकानां साधूनां स्थविरविहारय प्रबति शुरु उसो भवति स्वपरसंयमः, इति गाथार्थः।
ति । इतरथा प्रतिषिद्धावर्जने भाकामा संसारथना नि. अच्चतमप्पमामो, वि जावमो एस हो पायम्यो । बमादिति गाथार्थः। मं सुहनावेण मया, सम्म असि तकरणं ॥५६॥ कयमित्यपमंगेणं, सविसयणिप्रया पहाणया एवं।। अत्यन्ताप्रमादोऽपि, भावतः परमार्थेन, एष भवति ज्ञातव्य दहुब्बा बुद्धिमया, गमो म अग्भुज्जयविहारो ॥११॥ एवंरूपा-यच्छुभन्नावेन सदा सर्वकालं, सम्यगन्येषां तत्करणं रुतमत्र प्रसङ्गेन विस्तरेण, स्वविषयनियताक्तन्यासात प्र. शुनभावकरणमिति गाथार्थः।
धानता एवं कण्या बुकिमताइयोरपि । गतमाज्युपतविहार नड़ एवं कीस मुणी, येरविहारं विहाय गीया वि। उक्तः । इति गाथार्थः । पं० २०४ार । पं० मा०।०५०। पविजंति इमं न तु, कालोचिभमणसणसमाणं ॥५६॥ (२६) (जिनकलिएक-स्थनिरकरिपक-जेनिसाना परस्पर ययेवं, किमिति मुनयः स्थविरविहारं विहाय गीतार्थी प्रपि प्रतिषिशेषः 'महालंद 'शम्मे प्रथमभागे८६८ पृष्ठे कम्यः ) सन्तः प्रतिपद्यन्त पनं जिनकरूपम् . न तु कामोचितमनशन- (२७) (२८) ( गमो जिनकस्पच वावप्येतो महर्षिकासमानं, तदाऽभ्याभागादिति गाथार्थः।
विति 'गच्छ ' शये तुतावनागे ८०३ पृष्ठे कम्यो) तकाले उचिस्सा , प्राणाआराहगणा पहाणेस ।। (२९) जिनकलिपको विविधः-भीमापाणि-विरूपाणिय इहरा न भायहाणी,निष्फलसत्तिक्खयाणे॥५६॥ तत्रादिरूपाणेः शक्त्यनुरूपाभिग्रहविशेषाद् द्विविधमुपकरणतत्कास एवोचितस्य पुंसः, प्राकाऽऽराधनातोः प्रधान पष मातयथा-रजोहरणं, मुखरखिका बाकस्यचित् स्वस्त्राणाये जिनकल्पः । तरथा स्वात्महानिः स्वकाले तदप्रतिपत्ती नि. होमपटपरिप्रहास्विविधम्मपरस्योरकविन्दुपरितापारिक फलशक्तिकयात कारणाद् केयेति गाथार्थः।
णार्थमौणिकपटपरिप्रहात चतुतिया-प्रसहिगुमरस्य द्विअहवाऽऽणानंगाभो, एसो अहिंगगुणसारणसहस्स ।
तीयौमपटपरिग्रहात पश्चधेति ॥ निद्रपामोस्तु जिनकल्पिकस्य
सप्तविषपात्रनिर्योगसमन्वितस्य रजोहरणमुखानकादिप्रहहीएकरणेण प्राणा, सत्ती सया वि जामव्यं॥५६॥
णक्रमेण यथायोग नवविधो दशविध एकादशीवधो बादशदि. प्रथयाऽऽमाजलावारमहानिः, एष थाऽऽशाभङ्ग, अधिक
धश्नोपधिर्भवति । पात्रनिर्योगश्च (प्रवचनसारोखारे)-"परंपगुणसाधनसमर्थस्य सतः हीनकरणेन हेतुनाऽऽशा, एवं
साबंधो, पायढवणं च पायकेसरिया । परसाई रयत्ताणं, यात शक्त्या सदाऽपि यतितव्यं, न तरकृयः कार्य इति
गोको पायणिजोगो ॥१८॥"माबा.२०१७०३ उ०। गाथाथैः।
(३०)(३१) (जिनकल्पिकानामुपकरणम 'उबहि' शम्मे द्वितीएत्तो अ इमं एवं, जं दसपुवीण मुच्चई मुत्ते ।
पजागे १०६० पृष्ठे कष्टव्यम) एस्स पढिस्सेहो, तयमहा अहिगगुणभावा ।।५६६॥
(३२)को बैन मन्यते तीर्थरैराभहितो जिनकल्प इति! इतबैतदेवं स्वपरसंयमः श्रेयान्, यदपि दशपूर्षिणां साधूनां
केवनं यास्यानां पुरुगणां येन विधिना तैरभिहितो जिनभूयते सुटे भागमे, एतस्य कल्पस्य प्रतिषेधः, तस्यान्यया कल्पस्तदेतदाकर्णय । किं पुनस्तत?, इत्याहपरोपकारकारेणाधिकगुणभावात कारणादिति गाथार्थः। एवं तत्तं नाउं, विसेसमो एव सत्तिरहिएहिं।
उत्तमधिसंघयाणा, पुन्वविदोऽतिसपणो सयाकासं ।"
मिणकप्पियाविकप्पं, कयपरिकम्मा पवनंति॥२५॥ सपरोवारविसए, जत्तो कज्जो जहामत्ति ।।५६७॥ एवं तस्वज्ञात्वा विशेषत एव शक्तिरहितैःशक्तिशून्यैः स्वपरोप
तं जा जिणवयणाश्रो, परजसि पवज्जतो सजिनो नि । कारे यत्नः कार्यः यथाशकि, अप्रमः, महरेतनिर्जराऽमिति |
प्रस्थित्तिकह पमाणं,कह चिनोतिन पमाणं।२५६२। गाथार्थः ।
परमभूतिसंहननाः पूर्ववेदिनो, जघग्यतोऽपि किशिभ्यन
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(१४०) जिणकप्प भनिधानराजेन्द्रः ।
जिगाकुमलमूरि नवर्वप का इत्यर्थः। सर्वदैव निरुपमशक्त्याधतिशयसंपन्ना टाण्ययोरग्रहः,ते परिदतव्ये, यास्तूपरितन्यः पञ्चषणास्तासामजिनकल्पिका अफि"तवेण सत्तण सुत्तण, एगत्तेण बलेण य । भिग्रह पता एव गृहीतव्याः इत्येवरूपः, तत्राप्येकदै कतरस्यां तुलणा पंचहा वुत्ता, जिणकप्पं पविजो" ॥१॥ इत्यादि योगी व्यापारः परिभोग इत्यर्थः । एवं भाबितमतयो यदा पूर्वोक्तविधिना कृतपरिकर्माण एवं जिनकल्पं प्रतिपद्यन्ते, ना- भवन्ति, तदा जिनकस्पिकचारित्रमुपयान्ति प्रतिपद्यन्त । न्यथा, इति न रथ्यापुरुषकल्पानां नवादशां जिनकल्पस्तीर्थ- घितिवलिया तवसूरा,णिति य गच्छाउ ते पुरिससीहा । रैरनुशात इति । तत्तस्माद् यदि जिनवचनादहदुपदेशाजिन
बलवीरियसंघयाला, उवमग्गसहा अभीरू य ॥४०५!! कल्प प्रतिपद्यसे त्वं, ततस्तहि 'स जिनकल्पो व्यवच्छिन्नः' इ. तीदमपि प्रतिपद्यख । अर्थतन्त्र प्रतिपद्यसे, तहिं जिनकल्पोऽ
धृतिर्वजकुज्यवदच्छेचं चित्तप्रणिधानं, तया, बलिका यलस्तीति कर्ष तीर्थकरवचनं तव प्रमाणम् ?, कथं चन्यवच्छि
बन्तःतथा तपश्चतुर्थादिकं पपमासिकान्तं तत्र शुराः समर्थाः,
एवंविधाः पुरुपसिंहाः, ते गच्छानिर्गचन्ति । पलं शारीरं,वीय चोऽसौ इति न प्रमाजम । नन्वाप्रदपिशाचिकाग्रस्तचेपित
जीवप्रनवं, केतुः संहननम् अस्थिनिचयात्मकं येषां ते तथा। मिक स्वेष्यामानमवृत्तवाहिति ॥१५५२ ॥२५५२॥
बलवीर्यग्रहणं चतुर्भकीकापमार्थमासाचेयम-धृतिमानामैको, मजिनकल्पमस्तित्वमागमे प्रतीतं, तद्व्यवच्छेदस्तु केन
न संहननवान् । संहननवानामैको न धृतिमान् ! सहननवान् धृबचमेन तीर्थरैरुक्तः, निवेदित्याह
तिमांश्च ! न संहननवान् न घृतिमान् । तत्र तृतीयभनेपण-परमोहि-पुलाए,पाहारग-खवग-उसमे कप्पे । नाधिकारः। उपसर्गा दिव्यादयः, तेषां सदाः सम्यगध्यासिसंजमतिय-केवलि सि-ऊषा य जंबुम्मि वुच्छिन्ना।२५६३।
तार-तथा-अजीरवः परीषदेभ्यो न बिभ्यति । गता जिनकल्प
स्थितिः। वृ०६ जिनकल्पिकः कथं मोकं न याति?,कर्मणो मनःपर्यायशानं, परमावधिः, पुलाकलब्धिः, प्राहारकशरीरं,
बाहुल्यादन्यद्वा किमपि कारणम,तस्य कपकश्रण्युपशमश्रेगयोक्षपकनिः , उपशमश्रेणिः, जिनकल्पः, परिदारविशुद्धिक-सू- मध्ये काऽपि भवति, न वा?, इति प्रश्ने, उत्तरम-जिनक. मसंपाय-यथाख्यातलक्षणं संयमत्रिक, केवली, मोक्तगमन
लिपकस्तस्मिन् भवे मोकं न याति, तथाकल्पत्वात् । किं चोलकणा सिमिश्चेति स येते पदार्थाः जम्बूस्वामिनि व्यव
पशमणि तु कश्चित्प्रतिपद्यते, न तु क्षपकणिम्, पञ्चवस्तुके छिनाः-जम्बूस्वामिनं यावत्प्रवृत्ताः, न तृत्तरत्र इति ॥२५६३||
। तथाऽनिधानादिति । १६३ प्र० सन० ३ल्ला०। विशेकापा०म०। जम्बूस्वामिनि व्यवच्छिन्नोऽसो, संहनना- जिणकप्पपडिमा-जिनकल्पप्रतिमा-स्त्री० प्रतिमाभेदे, "सो धभावात् सांप्रतं न शक्यत एवं कर्तुम् । विशे० ।
य जिणकप्पपमिमं करे" प्रा०म० द्वि०। जिणकप्पट्टिइ-जिनकापस्थिति-स्त्री० । जिनाः गच्छनिर्गत-HMAMT
च्छिानगत- जिणकप्पिय-जिनकल्पिक-पुं० । जिनानां कल्प प्राचारो जिसाधुषिशेषाः,तेषां साधुविशेषाणां कल्पस्पितिर्जिनकल्पस्थितिः। नकल्पः, स विद्यते येषां ते । “अत ठनौ"।५।। ११५ । स्था०३ म०४ उ० कल्पस्थितिभेदे,०६ उ० । सा चैवम- इति (पाणिनीयवचनात् ) ठन् । प्रब०६० द्वार । जिना गच्छजिनकल्पं हि प्रतिपद्यते जघन्येनापि नवमपूर्वस्य तृतीयवस्तु निर्गतसाधुविशपाः, तेषां कल्पः समाचारः,तेन चरन्तीति जिनि सति उत्कृष्टतस्तु दशसु जिन्नषु प्रथमे संहनने दिव्याधु-नकल्पिकाः। प्रव०६३ द्वार। जिनानामिव कल्पों जिनकल्प नपसर्गरोगवेदनाश्चासौ सहते, एकाक्येव भवति, दशगुणोपे- प्रविहारविशेषा,तेन चरन्तीति जिनकस्पिकाः। ध०२अधि। तस्थण्डिल एवोच्चारादि,जीर्ण वस्त्राणि च स्यजति । सदापधि- अज्यद्यतविहारिणि,पं०व०४द्वार। (एतस्याशेषवक्तव्यताऽनुविशमा अस्य भिक्षाचर्या तृतीयपौरुभ्यां पिषमपणोत्तरा, सा| पदमेव 'जिणकप्प' शब्देऽस्मिन्नव भागे १४६३ पृष्ठे निरूपिता) पश्चानामेकतरैव, विहारोमासकल्पेन, तस्यामेव वीच्यां षष्ठ- जिकित्ति-जिनकीर्ति-पुं०! तपागच्छगन्तर्गतसोमसुन्दरगणीदिने भिकाऽटनमिति,एवं प्रकारा चयम् "सुयसंघयण" इत्या. अस्य स्वनामख्याते शिध्ये, ग० ३ अधिः । अयं च वैक्रमीये दिकाद (वृहत्कल्प) गाधासमूहात् कल्पोक्तादवगन्तव्येति ।। १४ वर्षे विद्यमान प्रासीत् । अनेन चम्पकवेष्ठिकथानक, ध. स्था०३ ग०४०।।
प्राशालिनचरित्रं, नमस्कारस्तवटीका, दान कल्पद्रुमः, श्री. अथ जिनकटपस्थितिमाह
पाल गोपालकथा चेति ग्रन्धा विरचिताः । ०५०। पिज्जुत्तिमासकप्पे-सु वसितो जो गमो उ जिणकपे। जिणकिरिया-जिन क्रिया-स्त्री। जिनप्रणीतायां क्रियायाम, सुयसंघयणादीओ, सो चेव गमो गिरवसेसो ॥४०६। ।
पं०व०।
चादक प्राद-जिनक्रियाया असाध्या नाम न सन्ति?.सत्यमित्याहनियुक्तिः पञ्चकम्पः, तस्यां च मासकल्पः, प्रकृते च यो गमो जिनकल्पे जिनकल्पविषयः श्रुतसंहननादिको वर्णितः, स पव
जिकिरियाएँ असन्का, ए इत्थ योगम्मि केइ विति। गमो निरवशेषोऽवगन्तव्यः ।
जे तप्पभोगजोगा, तेऽसका एम परमत्यो ॥ ४५ ॥ स्थानाशून्यार्थ पुनरिदमुच्यते- .
जिनानां संबन्धिनी क्रिया तत्प्रणेतृत्वन जिनक्रिया, तस्या प्रगच्छम्मि य णिम्मीता, धोरा जाहे य मुणियपरमत्था । साध्या अचिकित्स्या, नात्र लोक प्राणिनांक, केचन प्राणिनो अगहजोग अजिग्गहें, उति जिगकप्पियचरितं विन्ध
विद्यन्ते। किंतु-ये तत्प्रयोगायोग्या जिनक्रियाप्रयोगानुचितास्ते बदा गच्छे, प्रव्रज्या शिष्यपदानुक्रमेण निर्मिता निश्पन्ना, तदा |
असाध्याः कर्मव्याधिमाश्रित्य, पप परमार्थ:-इदमत्र दृदयधारा औत्पत्तिक्यादिवुझिमन्तः, परीवहोपसगरकोच्या वा, |
मिति गाथार्थः । पं०व०१ हार। मुणितपरमार्थाः-प्रत्युद्यतविहारेण विहर्तुमवसरः सांप्रतम |
जिणकुनलसूरि-जिनकुशलसूरि-पुं० । खरतरगच्छीये म्वनास्माकमित्येवमवगतातचा-ययो: पिधषणयोरसंसष्टसंस। मण्यात प्राचार्य, "तुवनपदानुक्रमना-नुजाता जिनकुशक्षार
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(१४६५) जिणकुमलसरि अनिधानराजेन्धः।
जिणाजक्ख गुरुः" अट. ३१ अष्टा । भनेन वैक्रमीये १३३७ वर्षे जन्म | १सम्बर द्वार । "तह जिणचंदागमाओव" जिनचन्दाग. लावा १३४७ वर्षे जिनचन्द्रसरिणामन्तिके प्रवज्य १३७७ वर्षे मादर्हद्वचनात् । श्रा० । भावः । सुरिपदं प्राप्य चैत्यबन्दनकुलकवृत्तिनामा ग्रन्थो विनिर्मिता,जिणचंदगणि-जिनचन्ऽगणिन-पुं० । उकेशगच्छीय कक्कम तरुणप्रजाचार्याय च सरिपदं दत्तम् तथा १३६७ वर्ष स्वग्यम
+ रिशिष्ये, पतमेव देवगुप्तसूरिकुलमण्डनमूरिनामच्यां वदन्ति। गमत् । जै० ३०।
वैक्रमीये १०७३ वर्षेऽयमासीत् । अनेनेष नवपदप्रकरणं, तदुः जिण केसरिण-जिनकेशस्नि-पुं० । जिनसिंदे, "एको- परि टीका च विरचिता । जै० ३० । पार भमउ जप, विभडं जिणकेसरी सलीसाए । कंदप्पट- जिणचंदसारे-जिनचन्घमरि-पुखरतरगच्चायाजन: दादो, मयणो विहारिओ जेण ॥३॥" सूत्र०१४. ६ म.। चायशिष्ये स्वनामख्याते प्राचार्य, पशा०१६ विव० । स्था. निणक्वाय-जिनाख्यान-न। जिनेन कथिते, जी०१ प्रति०।।
"तन्छिण्या जिनचन्द्राख्याः, सरयो गुणभूरयः।"भए०३३
अष्ट बनेन संवेगरङ्गशाला नाम ग्रन्थो विरचितः। जिमद• “दुवालसंगं जिणक्वायं" उत्त०१३ श्रदर्श०।
ससरिसंतानीय जिनमाणिक्यमुरिशिध्ये स्वनामख्याते प्राचानिणगुण-जिनगुण-jo वीतरागत्वादिफ तीर्थकरगुणे, "जि. ये च, पं.व.४ द्वार। " श्रीमचिनचन्द्राक्षः, प्रिनवादीणगुणविसयं सक-मधुझिजणगं, अणुषहासं"जिनगुणविषय धितिप्रतापः" प्र०३२ अष्टः । अयं च वैक्रमीये ११५७ वर्ष वीतरागवादितीर्थकरगुणगोचरम् । पञ्चा०५ विव०। । जातः, १२०३ वर्षे दीकितः, १२११ वर्षे माचार्यपदम,१३५३
वर्षे स्वर्गतिं च लम्धवान् । तृतीयोऽप्येतनामा मानदेवजिनगुणसमुद्द-जिनगुणसमुध-पुं०। गुणरत्नाधारभूते जिनक.
रिगुरुः नेमिचन्द्रसूरिशिष्यवाभवत् । चतुर्थश्च खरतरगपे समुझे, पञ्चाग "पूया जिणगुणसमुद्देसु," जिमाश्च ते गुणा- कछीयः जिनप्रबोधसूरिशिष्या, तस्य वैक्रमीये १३२६ वर्षे नां गुणरत्नानामाधारत्वेन प्राचुर्येण च समुभा श्व समुदा- जन्म, १३३२ वर्षे दीका,१३४१ वर्षे सूरिपदप्राप्तिः । चतुषु राजसु श्चेति जिनगुणसमुखास्तेषु, पश्चा० ४ विव०।।
जैनधर्ममरापयत् । अस्मै कलिकाल केवलौति बिरुदम मिलत, जिणगोयमसीहाहरण-जिनगौतमसिंहाहरण-न० । जिन- १३७६ वर्षे स्वरयमगमत् । पञ्चमोऽन्येतनामा खरतरगगौतमसिंहदृष्टान्ते, जीया० ।
ने १४९२ वर्षे वर्तमान मासीत् । यच्चियो जिनस.
गरनामाऽऽसीत् । जे० ३०। निच्छयो पुण अप्पे, वि जस्म वत्थुम्मि जायए जावो।
जिणचिप्ल-जिनचीर्ण-त्रि० । जिनाऽऽचरिते, "प्रक्षोभो होश तत्तो सो निजरओ, जिणगोयमसीहाहरणं ।।
जिणचिमो" जिनाः श्रुतावधिमनःपर्यायकेवाज्ञानवन्तो, जिननिश्चयतो निश्चयनयात,पुनरपेऽपि हीनेऽपि न केवलं बलिप्ठे, कल्पिकाश्च, तैश्चीग आचरितो जिनाचीर्णः। पञ्चा०४ विव0। इत्यपिशब्दार्थः । वस्तुनि प्राचार्यादौ, यस्य नव्यस्य, वस्तुनि । सक्तरूपे, जायते प्रादुर्भवति, भावः प्रशस्तान्तःकरणं, ततः स :
जिण जख-जिनयक-पुं० । तीर्थकृतां भक्तिदके गोमुखादिके इति भावानिर्जरका कमद्वासकारको जिनगौतमसिंह आदरणं
यके, प्रका। रान्त इति गाथार्थः । भावार्थस्तु कथानकादवसेयः । तच्चेद
. जक्खा गोमुह महज-क्ख तिमुह ईसर मुतुवुरू कुसुमो । म-किल भगवता धीरेण गौतमस्वामी ग्राम गाछन् एकदा
मायंगो विजयाजिय, बंनो मणुप्रो सुरकुमारो ॥३७५।। मणितः। गौतम ! त्वया हालिको मार्गे गच्चता प्रवाजनीयः । छम्मुह पयाल किंनर, गरुमो गंधव तह य जखिदो । तथेति प्रतिपद्य प्रणम्य च भगवन्तं गतो गौतमो ग्रामे, दृष्टश्च
कवर वरुणो जिउमी. गोमेहो वामण मयंगो ॥३७६।। गच्चता केत्रनिकटवर्ती हालिकः । ततो गौतमन भाणितम-कि मौः करोषि ?, निजकर्माऽऽवदितमापुनरुवाच सः-सांप्रतं यश्च
यका भक्तिदकास्तीर्धकृतामिमे । यथा-प्रथमजिनस्य(ऋषभस्य) भणसि तदहं भगवन् ! करोमि।गौतमेनोचे-धमै कुरुष्वति। तेन
गोमुखो यतःसुवर्णवों गजवाहन चतुर्जुजो वरदाक्षमासिकायुव प्रोत्फुल्लवदनकमलेन म्यगादि-एवमिति । ततः प्रवाजितः
क्तदकिणपाणि ध्यो मातुसिङ्गपाशकावितवामपाणिज्यश्च।। सः, ततः स्वकार्य विहाय जगवतः संमुखमागच्छतस्तस्य शि.
अजितनाथस्य मदायकाभिधो यतः चतुर्मुखः श्यामवर्णः करीका दत्ता-एवं चकमितव्यम, एवंविधश्चास्मदीयो भगवान्
म्भवादनोऽपाणिवरदमुभरातसूत्रपाशकान्वितदविणपाणिघीरोजवता प्रतिपत्तव्य इत्यादि । सर्व तेन प्रतिपन्नम । यावद
चतुष्टयो बाजपुरको जयाशशक्तियुक्तवामपाणिचतुष्कश्च ॥२॥ द्यापि भगवान् नासीद् रहो, रहे च तस्मिन् रजोहरणं मुक्त्वा
श्रीसंभवजिनस्य त्रिमुखा नाम यकः त्रिवदनः त्रिनेत्रः यद्ययं ते गुरुस्ततोन किश्चित्तव धर्मेण कार्यमिति भणित्याच
श्यामवर्णः मयूरवाहनः पम्जो नकुलगदाऽभययुक्तदक्षिणकपलायितः। किन तस्य वासुदेवजवकृतपूर्वरोरान् पितृव्यसुत
रकममत्रयो मातुसिङ्गच्गगाकसूत्रवामपाणिपात्रयश्च ॥३॥ जीवसिंहपातनरूपान् नगवन्तं पश्यतः कर्मबन्धो, गौतमं च
श्री अभिनन्दनस्य ईश्वरो यकः श्यामकान्निगंजवाहनश्चतुर्भुजेो पश्यतः तवासा, गौतमश्च भगवदपेक्षया हीनद्मस्था
मातुशिलाकसुनयुक्तदक्षिणकरकमलद्वयो नकुलाशान्चितवामतीधरस्वादिहेतोः, नगवाँइचोत्तमः, तीर्थरत्वादिहेतुभिरेव
पाणिद्वयश्च ।। श्रीसुमतेस्तुम्वुर्यतः श्वेतवर्णी गरमवाहनच. इति सिम्म । जर्जावा० ३० अधि।
तुर्भुजो वरदशक्तियुक्तदकिरणपाणिद्वयो गदानागपाशयुक्तवाम
पाणि वयश्च ।।श्री पद्मप्रनस्य कुसुमा यक्को नीलवर्ण कुरङ्गवानिणचंद-जिनचन्छ-पुं० । जिनरूपे कारुणिकनिशाकरे, "जि-|
हनश्चतुर्नुजः फलाभययुक्तदक्षिणपाणिद्वयो नकुलाकसुत्रयुक्तबददि तुददिहात्रो" जिनबन्ः कारुणिकनिशाकरैः । प्रश्न घामपाणिद्वयश्च ॥ ६॥ सुपार्श्वस्य मातको यको नीस
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( १४६२ ) अभिधानगजेन्द्रः ।
जि जक्ख
जिवदास
पृष्ठवर्जिता)
जिंगखाम (ए)- जिननामन्-म० नामकर्म कर्मकर्म० जिणदत्त - जिनदत्त - पुं० । स्वनामध्याते खरतरगच्छीये जिनयज्ञनये बचायें "यानयदे
" इति। ससुर
वर्णों गजवाहनश्चतुर्भुजो विल्वपाशयुक्तदक्षिणपाणिद्वयो | ७ विव० घ० ( सात्र 'अणुजाण ' शब्दे प्रथमभागे ३६७ [[मकुलाषायुकामपाशिपच ॥७॥ श्रीचन्द्रमस्य विज यो पक्षो हरितवर्णः त्रिलोचनाभुजःणि हस्तवको वामहस्तघृतमुरश्च ॥ ८ ॥ श्रं सुविधिजिनस्याजितो यः श्वेतवर्णः कूर्मवादनश्चतुर्भुजो मातुलिङ्गा कसूत्रयु दक्षिणपाणिद्वयो नकुल कुन्तकलितधामपाणिद्वयश्च ॥ ६ ॥ शीतलस्य ब्रह्म पश्वासितः पद्मासन उष्ठभुमी मातुलिङ्गमुरपाशकाय युद्ध किणपाणिचतुष्टयो मलगदपत्र कामपाणि च ॥ १० ॥ श्री श्रेयांशस्य मनुजो यक्कः ( मतान्तरेण-ईश्वरः ) धवलवर्णः त्रिनेत्रो वृषवाहनश्चतुर्भुजो मातुलिङ्गगदायुक्त दक्षिणपाणिद्वयो नकुलका सूत्रपामपाविश्य ॥ ११ ॥ श्रीवासुपूज्यस्य सुरकुमारो यज्ञः श्वेतयों इंसान जोजपुरक करद्वय मनुयामाश्च ॥ १२॥ श्रीविमलस्य परामुखा यक्षः श्वेतवर्णः शिविवाहनो द्वादशभुजः फलमवाणपात्रवृदक्षिणअथक फाशामय युवामाश्चि ॥ १२ ॥ श्रीअनन्तस्य पातासो यक्षस्त्रिमुखो रक्तवर्णो मकरवाद्दनः पक्भुजः पापाशयुक्तराषियो नकुफलकालसूत्रयुक्तषामपाणित्रयन्त्र ॥ १४ ॥ श्रीधर्मस्य किंनरो यस्त्रिनुखो रक्तवर्णः कूर्मवाहनः बस्नुजो वीजपूरकगदा ऽनययुक्तदक्षिणयात्रियो नकुलपद्मायामाखायुकामपाणिश्च ॥ १५ ॥ श्री शान्तिनाथस्य गरको यक्षो वराहवाहनः क्रोरुवदनः श्या मावश्चतुर्भुजो बीजपूरकपद्मतिदरिद्वय ना ससूत्रयुक्त वामपाणिद्वयश्च ॥ १६ ॥ श्री कुन्थो गन्धर्वयक्कः श्याnew इंसवाहनश्चतुर्भुजो वरदपाशकान्वितदक्षिणपाणिद्वपो मातुलिङ्गाङ्कुशाधिष्ठित वामकरद्वयश्च ॥ १७ ॥ श्री अरजिनस्य यो यज्ञः परामुख नेत्रः श्यामवर्णः श शिवाजी बीजपूरकवासमुपाशकाम करीमधनु फा
"
बामपाणिपश्च ॥ १० ॥ श्रमल्लिजिनस्य यूवरां यतश्चतुर्मुख इन्द्रायुधपण गजवादभुज वरदपरशुनापयुक्त किणपाणिचतुष्टयो बीजपूरकशक्तिमुधराकसूत्रयुक्त वामपाणिचतुश्व अम्बे] कूपरस्थाने कुबेरमा) श्रीमुनिसुव्रतस्य वरुणों रचनेत्रः सितव पूबभवाहनो जटासुकुनूषितोऽजो वीजपूरकगदाबासशक्तियुक्त दक्षिणकरकमल चतुष्को नकुलपद्मधनुः परशुयुतवामपाणिचतुष्टयश्च । २० । श्रीनमिजिनस्य भ्रकुटितुर्मुखमेषः सुवर्णो वृषभवाहनोऽष्टन् जो बीजपूरकश किमुद्ररालय युक्त किणकरचतुष्टय नकुल पर शुभकामकरतुष्ट या ॥२१॥ श्रीने मिजिनस्य गोमेघो यक्षः विमुखः श्यामकान्तिः पुरुषवाहनः पम्भुजो मातुलिङ्गपरशुचकान्तिदकिणकर प्रयो मकुलशूलशक्तियुक्त वामपाणिश्रयच ॥ २२ ॥ श्री पार्श्वजिनस्य वामनो यो मान्तरेण पानामा ) गजमुख उफनाम शिरा श्यामवर्णः वाहन बीजपूरकोरयुक्त कि पानकुगयुक्त वामपाणियुग २३ ॥ बारजिनस्य मतको यज्ञः श्यामवर्णो गजवाहनो द्विभुजो नकुलयुतदक्षिणनुजो बामकरधृत वीजपूरकश्चेति ॥ २४ ॥ प्रव० ९६ द्वार । जिगनचा - जिनयात्रा - स्त्री० 1 दुस्सर्वे रथयात्रायाम, पञ्चा०
श्वराः
अ०.३२ अष्ट० । पं० व० । अयं च महाप्रजावक श्रा सीत्, अम्बादेव्या युगप्रधान पदमस्मै दत्तम् । वैक्रमये ११३२ वर्षेऽयं जातः, सोमचन्द्र इति गृहिपर्यायेऽस्य नामाss
१२४१
1
4
नामासीत्। ११६९ वर्षे चित्रकूट (चिसो इति प्रसिद्धे ) देवभषाचार्यदन्तं सुरिपदमवाप, संदेह दोतालीमकान् प्रधानश्चयत्। १२११ वर्षे अजयमेरु (अजमेर) नगरेऽयं स्वरगमत् ॥ द्वितीयोऽप्येतनामा वापरुंगधीयशिलसूरशिध्वजदेवरे शिष्यो बैंकमी १२१५ वर्षे विद्यमानं मासी, पेन विवेकवासशकुनशाखादय अनेके प्रथा निर्मित परकायद्याम यमजानत. १२७७ वर्षे च निर्गते वस्तुपाल सङ्गेऽप्ययमासीत्, अस्य शिष्योऽमरचन्द्रसूरि महाकविरासीत् । जै० ० । "सयसगुणरणरोहण गिरीहिं जिगनी "सक गुरारोगिरिभिर्निखिमाणि जिगरिवरेनामकैः सप्तगृहवासिभिरिति यावत् । जीवा० ३० अधि० | श्रावण वसन्तपुरस्थे स्वनामस्याने श्रावके, श्रा० क० । “बसंतपुरे नगरे जियसत्तू राया, जिणदत्तो से । " भाव० ५ श्र० । ० चू० (तत्कायोदाहरणे 'क्लिदिय' शब्दा ११०५ पृष्ठे काचस्सा' शब्दे ४२७ पृष्ठे च प्ररूपिता ) संग्रामवास्तध्ये स्वनामस्याने आवके पिंस्था 'आधाकम्म' शब्दे द्वितीयजागे २३३ पृष्ठे निरूपिते ) श्रावस्तीवास्तव्ये श्रावके, तं । पाटलिपुत्र नगरस्थे स्वनामख्याते श्रा वके, आ० भ० द्वि० । (तत्कथा 'लोन' शब्दे वक्ष्यते) वैशालीनगरीवास्तध्ये परनामधेये स्वनामपाते आपके ध० र० । स्वनामख्याते श्राके, यस्य पत्नी ईश्वरी श्राविका । कल्प० ८ कण | स्वनामख्याते श्रावके, यस्य पत्नी फल्गुश्रीः, "जण फग्गुसिरी नाम सावगमिहुणं । " महा० ५ ० । जिलदत्तपुत्त - जिनदत्तपुत्र- पुं० । सम्पानगरीवास्तव्ये सार्थवाहारके, ज्ञा० १ ० ३ ० ( एतत्कथा ' अंड ' शब्दे प्रथमभागे ५१ पृष्ठे व्या जिगादम्ब जिनव्य १० जनसंबन्धनि पे दर्श०१ तत्व (' वेश्यदव्य' शब्दे तृतीयभागे १२०३ पृष्ठे दइया । उदाहरणम् ' देवदव्य' शब्दे वयते ) जिनदास - जिनदास - पुं० । मथुरावास्तव्ये धावक विशेषे, 'यस्य भार्या साधुदासी सी जिदा त साहुदासी प्रिया तस्स । " (२) ध०र० । (अस्य 'सुप्तकाल ' शब्दे कथा वक्ष्यते ) राजगृहनगरस्थे मजे ि "सिहीत सुख भुषणबिम्सुश्री पदमो श्रीश्री उण जिनदासो, आवासो जूयवसणस्स " ॥ २ ॥ घ० र० (अस्य कथा ' बालकीसा' शब्दे वक्ष्यते) पाटलिपुत्रास्तव्ये भावके, प्रा॰ चू० ६ ० मथुरावास्तव्ये भावके,
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(१४६३) जिणदास अनिधानराजेन्द्रः।
जिएपडिमा . यस्य भार्या जिनदासी । “जिनदासो बणिक तत्र, श्रावकः भारते वर्षे चतुरशीतिर्जिनप्रतिमाः, ताश्चेमाःपरमाऽईतः। जिनदासी प्रिया तस्य, प्रियंकरणदर्शना ॥१॥" " पर्युपास्य परमेष्ठिपञ्चक,कीर्तयामि कृतपापनिग्रहम । प्रा०क०। ती० । प्रा०म० ! (तत्कथा 'कंबल' शब्दे तृतीयनागे तन्त्रवदिविदितं चतुर्युता-शीतितीर्थजिनामसङ्कटम ॥१॥" १७९ पृष्ठे अष्टव्या) राजपुरस्थे श्रावके च । पुं० । " रायपुरे
तथाहि.नयरे एगो कुलपुत्तगजातीओ, तम्स जिणदासो मिस्सो " श्रीशत्रुजये भवनधीपः श्रीवीरस्वामिप्रतिष्ठितः श्रीधादि. आव० ६ भ०। ( अस्य कथा 'पश्चक्खाण' शब्दे वक्ष्यते) नाथः । श्रीमूलनायकः पाण्डवस्थापिता नन्दिवर्धनो युगाजिणदासगणिमहत्तर-जिनदासगणिमहत्तर-पुंनिशीथ- दिनाथः । श्रीशान्तिप्रतिष्ठितः पुएमरीकः श्रीकन्नशा, द्विती.णिकारके प्राचार्य, "गुरुदिएणं व गणितं,महत्तरत्तं च तस्स यस्तु श्रीवीरस्वामिप्रतिष्ठितः पूर्णकलशः । सुधाकुण्डे श्री
तुडेहि। तेण कपसा चुराणी, विससनामा णिसीहस्स ॥१॥" जीवितस्वामी श्रीशान्तिनाथः मरुदेवास्वामिनीप्रधमसिद्धः । निचू०२० स०। पतेन महात्मना अनुयोगद्वावृहत्कल्पाSS- धीउज्जयन्ते पुण्यकशमदनमूर्तिः श्रीनेमिनाथः । काञ्चनवश्यकादिवपि चूण्यों रचिताः । जै० इ० ।
बलानके अमृतनिधिः श्रीअरिष्टनेमिः । पापामते अतीसजिणदिड-जिनदृष्ट-त्रि० । तीर्थकरानिमते, अनु।
चतुर्विशतिमध्यात अष्टौ पुण्यनिधयः श्रीमन्नेमीश्वरादयः । जिगदेव-जिनदेव-पुं०। भरुकच्चस्थे प्राचार्य, "भरुकच्छे जि
काशहदे विजुवनमङ्गलकलश: श्रीआदिनाथः । सोपारक
जीवन्तस्वामी श्रीऋषभदेवप्रतिमा । नगरमहास्थाने श्रीभरतणदेवो": "प्राचार्यों जिनदेवोऽभ-दत्रैव भृगुपत्तने।' प्रा०का
श्वरकारितः श्रीयुगादिदेवः । दक्षिणापथे श्रीगोमग्देवा श्री. (नत्कथा 'पणिहि' शब्दे वक्ष्यते) द्वारवतीवास्तव्ये अर्हन्मित्र)
बाहुबलिः। उत्तरापथे कसिङ्गन्देशे गोमः श्रीऋषभः। खकारष्ठिनः पुत्रे, "द्वारवायां महापुर्या-मईन्मित्रो वणिम्वरः। अनुधरी
'गढे श्रीउग्रसेनपूजितो मंदिनीमुकुटः श्रीआदिनाथः । महानगप्रिया तस्य,जिनदेवस्तु तत्सुतः॥१॥" प्रा० क0 । ('अत्तदोसो.
र्यामुदण्डविहारे श्रीआदिनाथः । तकशिनायां बाहुबलिविनिबसंहार' शब्द प्रथमभागे ५०३ पृष्ठे कयाऽस्य निरूपिता)। कौशा.
मितं धर्मचक्रम । मोक्कतीर्थ श्रीआदिनाथपापुके । कोलपाकम्बीनगरवास्तव्ये केमदेवाऽऽमजे स्वनामख्याते श्रावके,ध०र०।
पत्तने माणिक्यदेवः श्रीऋषभो मन्दोदरीदेवताऽवसरः । मना(तत्कथा 'बंभसण' शब्दे वक्ष्यते) साकेतनगरवास्तव्ये श्रावके,
यमुनयोर्वेणीसङ्गमे श्रीश्रादिकमण्डलुम । श्रीअयोध्यायां थी"साएए सतुंजयो राया, जिणदेवो सावओ।" प्रा० चू०४ प्र०। (नरकथा 'पचक्खाण' शब्दे वक्ष्यते) चम्पानगरीवास्तव्ये
अजितस्वामी । चन्देयाम् अजितः । तारणे विश्वकोटिशिक्षा
यां श्रीअजितः । अङ्गदिकायां श्रीअजितस्वामिशान्तिदेवताद्वय श्रावके, "नयरी य चंपनामा,जिणदेवो सत्यवाह अहिछत्ता।"
श्रीब्रह्मेन्द्रदेवताऽवसरः। श्रावस्त्यां श्रीसंभवदेवो जाङ्गत्रीविद्या. . श्रा० न्यू०४ अ01 (तत्कथा' संगपरिएणा' शब्दे वक्ष्यते)
ऽधिपतिः। सेगमतीग्रामे श्रीअनिनन्दनदवः, नर्मदा तत्पादेभ्यो जिणदेसिय-जिनदशित-त्रि० जिनेन कथिते, दर्श०४ तत्त्व ।
निर्गता।ौञ्चद्वीपे सिंहलद्वावे हंसद्वीपे श्रीसुमतिनाथदेवजिना इह हितप्रवृत्तगोत्रविशुद्धोपायाभिमुखापायविमुखा
पादुकाः। पाम्बुरिनामे श्रीमतिदेवः। माइन्पर्वते कौशाम्यां च दयः परिगृह्यन्ते, तथा मूलटीकाकृता व्याख्यानात, जिनेन्यो
श्रीपद्मप्रभः। मथुरायां महालक्ष्मीनिर्मितः श्रीसुपार्श्वस्तूपः । • हितप्रवृत्ताऽऽदिरूपेच्यः शुश्रूषाऽऽदिभिर्व्यक्तभावेन्यो देशितं क
श्रीदशपुरनगरे श्रीसुपाश्वः सीतादेवीदेवताऽवसरः । प्रभासे थितं गणधरैरपि जिनदेशितम् । तथा जम्बूस्वामिप्रभृतय शशिभूषणः श्रीचन्प्रभश्चन्द्रकान्तमणिमयः श्रीज्वालामा. एवंविधा एवेति निरूपणीयमेतत् । अथ प्रकृतिसुन्दर लिनीदेवताऽवसरः । श्रीगौतमस्वामिप्रतिष्ठितो बलच्यागतः मिति कस्मादजिनेन्योऽपि नोपदिश्यते ?। उच्यते-तेषां
श्रीनन्दिवर्धनकारितः श्रीचन्प्रभः । नासिक्यपुरे श्रीजीवितस्वतोऽसुन्दरत्वेन अनोपनिपातसंजवात । दृष्टं च पा
स्वामी त्रिभुवनतिलकः श्रीचन्मनः । चकावत्या मन्दिरमुत्रासुन्दरतया स्वतःसुन्दरमपि रविकराऽऽधुलूकादीनामनाय।।
कुट: श्रीचन्द्रप्रजः। वाराणस्यां विश्वेश्वरमध्ये श्रीचप्रभः। .माह -"पजियब्बं धीरेण,हियं जं जस्स सम्वहा । आहारो
कोयाद्वारे श्रीसुविधिनाथः । प्रयागतीथें श्रीशीतलनाथः । धि. वि दुमच्चस्स, न पसत्यो गले सुची"॥१॥ जी०१प्रति०।
ध्याद्री, मलयगिरौ च श्रीश्रेयांसः । चम्पायां विश्वतिक्षकः “ धम्मो य जिण देसिश्रो" जिनदेशितः केवलिना भाषितः ।। धीवासुपूज्यः । काम्पित्ये गङ्गामूले, सिंहपुरे च श्री विमलतं.। उसका
नाथः। मथुरायां यमुनापुरे समुझदेवः । समुझे द्वारवत्यां शामिणधम्प-जिनधर्म-पुं०। जरतवर्षस्थपद्मिनीस्वामनगरबास्त
कपाणिमध्ये श्रीअनन्तः । अयोध्यासमीपे रतवाहपुरे नागब्ये स्वनामख्याते श्रावके, ती०१०कल्प । जिनसंबन्धिनि धर्म, महितः धीधर्मनाथः । किष्किन्धायां लङ्कायांत्रिकुटगिरौ भी" अणुत्तरं धम्ममिणं जिणाणं।" अनुत्तरं धर्म जिनाना- शान्तिनाथः । गायमुनयोगीसङ्गमे श्रीकुन्थ्घरनायौ । श्रीपर्वत मृषभादितीर्थकृतां संबन्धिनम् । सूत्र०१ श्रु०६अ।ध० । मलिनाधः । भृगुपत्तनेऽन_रत्नचूमः श्रीमुनिसुव्रतः । प्रति नं० प्रा०। "वत्युपयासणसूरो, असियरयणणाणसायरो ज.| ष्ठानपुरे अयोध्यायां विन्ध्याचले माणिक्यदएमके मुनिसुव्रतः। यह । सव्वंजयजीवबंधुर-बंधू सुविहो विजिणधम्मो ॥१॥" अयोध्यायां मोक्षतीर्थ नमिः । शौर्य पुरे शङ्खजिनालये पाटलि. स्था०५.ठा०२उ०।
नगरे मथुरायां द्वारकायां सिंहपुरे स्तम्भतीथे पाताल गङ्गाऽ. जिणपमिमा-जिनप्रतिमा-स्त्री। जिनबिम्बे, "जिणपमिमादस
निधः श्रीनेमिनाथः । अजागृहे नवनिधिः श्रीपार्श्वनाथः । णेष पमिबुद्ध।” (१ गाथा) दश०१०। जिनप्रतिमा सनाव. स्तम्भनके भवभयहरः। फलवर्षकायां विश्वकल्पमताऽभिधः। स्थापनरूपेति । रा०दिश । जी । प्रति० । नया० । षो। कर हटके उपसर्गहरः । अहिच्छत्रायां त्रिनुबनभानुः । कविद्वारा पश्चा०1('चेश्य' शब्दे तृतीयत्नागे १२०५ पृष्ठे सवा कुपके, नागदे च श्रीपार्श्वनाथः । कुक्कुटेश्वरे विश्वगजः । पळव्यतोक्का)
| माहेन्पर्वते कायापाश्वनाथा । कारपर्यते सहस्रफणी २७४
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(१४६४) 'जिणपमिमा अन्निधानराजेन्डः।
जिण पालिय पार्श्वनाथः । वाराणस्यां दमनात भव्यपुष्कराऽवतंकः । हिता,अहद्वचनत्वात्प्रवचनस्याप्राह च-"सुयमिह जिलपवय महाकामान्तरे पातालसक्रवर्ती । मथुरायां कल्पद्रुमः ।। णं,नस्सुप्पत्ती पसंगतोऽभिहिया" इति ॥१३॥०॥ आ०म००। बम्पायामशोकः । मलयगिरी श्रीपावः । श्रीपर्वत घण्टाकर्णो जिपसत्य-जिनप्रशाम्त-त्रि० । जिनभाषित, "बासू नाणेस महावीरा । विन्याद्री श्रीगुप्तः । हिमाचले गयापावः मन्त्रा
जिणपसाधेसु" जिनप्रशस्तेषु जिनजाषितेषु। प्रइन०५ सम्म धिराजः श्रीस्फुलिः । श्रीपुर अन्तरिकः श्रीपार्श्वनाथः । द्वार । जिनाना निशुझोपायाभिमुखापायविमुखाहतमाकिमीभीमेश्बरे श्रीपाश्वनाथः भायलस्वामिगढे देवाधिदेवः।
प्रवृत्तादिनेदानां प्रशस्तं निरुपमं पथ्यावत उचितसेवनया श्रीरामशयमे प्रद्योतकारिधीयमानः । मोटेरे चाय नाणके
हिनं जिनप्रशस्तम । जिनहिते च । जी०१ प्रति। . पक्ष्यां मेल के मुएलस्था श्रीमानपनने उपकंशपुरे कुएम.
| जिणपाडिहरय-जिनमातिहार्य-न । अतिशयपरमपूज्यत्वमामे सत्पुर बकायां गङ्गाहदे सरस्थाने वीतभये चम्पायाम
स्यापकालङ्कारविशेष, दर्शा। अपापापां पुखपर्वते नन्दिवनकोटिनुमौ धीरः। वैभाराखौ राजगहे कैलाशे श्रीरोहिणाद्रौ श्रीमहावीरः । अष्टापदे चतु.
. तानि च-- बिशनिस्तीकरा:सम्मेतशैल विंशतिाजेंनाः । हेमसरावरे द्वा.
कंकेसि कुसुमबुट्ठी, दिवाण-चामराऽऽसणाईच । सप्ततिजिनालयाः काटिसिवशिलासिडिकेत्रम।
भावलय-रि-छत्तं, जयति जियपाटिराई ॥ “ति जैनप्रसिद्धानां, तीर्थानां वामपनः। ..
जयन्ति शेषाऽऽतमहिमानमधः कुर्वते, कानि ?, करकेलिलसन्देहोऽयं स्फुटीक,श्रीजिनमनमूरिणा"॥१॥ ती०४५ कल्प।
प्रभृतानि जिनप्रातिहार्याणीति संबन्धः । तत्र कहिलदिनकरजिणपएणत-जिनमकस-त्रिक तीर्थकरप्रणीने, "जिणपगण
करप्रसरावारकोऽशोकवृतः । एतन्मानं च-"बतासं धगुदा,
चेयरुखो उ वद्धमाणस्स । सेसाणं तु जिणाणं, ससरीरा लिगं। "पं. ०१द्वार । जी० । जिनहिताऽऽश्यनिवर्त.
बारस गुणात्रो" ॥ १ ॥१। कुसुमवृष्टिः-सुरकविमुक्ताधः योगितिःप्रज्ञप्तं तदन्यासस्वानुग्रहाय सूत्रत आचाराऽऽद्योपा.
स्थितन्नजानुदानपञ्चवर्णसुगन्धिपुष्पवर्षम् ।दिव्यध्वनि:कादिनदेन रचितं जिनप्राप्तम् । उक्तं च-"अत्थं नाम
सुरनरतियजन्तु जातस्वस्वभाषापरिणामरमणीयः संध्याऽनीपरिहा, सुतं गंधति गणहरा णिउणं। सासणस्स हियहाए,
तपरिषत्प्राणियुगपदने कमंशयापहारचतुरः क्षारक्षुझावाघसो सुत्तं पवत्त ॥२॥" त्ति। जी०१ प्रति०। ।
धिकतरमाधुर्यवानायोजनगामी देशनानिनादः ३ । चामरे-- मिणपरियाय-जिनपर्याय-पुं०। केवलिपर्याये, न० २० श० |
त्रिनुबनैश्वर्यसंसूबके शरश्चन्द्रमचिनिचयगौरे प्रकीर्णक ४। ० उ०। (तत्स्वरूप केवलि' शब्द तृतीयनागे ६५२ पृष्ठे प्रासनममेयमहिमाऽऽविर्भावक,समुच्चलत्पश्चवर्णमणिकिरणएव्यम्)
कदम्बककबुरितदिगन्तरं सिंहासनम् ५। भावनय-निर्जितमाजिणपवयण-जिनप्रवचन-न। जैनाऽऽगमे, (प्रा०म०) .. तएकमएमनं मौलिपृष्ठप्रतिष्ठितं प्रभाजालम् ६ । भरी-पुरतो खांसमपि च केयं जिनप्रवचनोत्पत्तिः, कियदनिधानं च
व्योम्नि शब्दायमानः प्रतिरबनरितनुबनोदरो मुन्दुभिः ७ । जिन ?, को वाऽस्थाभिधानविभागः, इत्यतत प्रासङ्गि
उनम:एकदेश समुदायोपचाराजगतात्रयकप्रनुत्वाविभीवनच.. कशेषं शद्वारसंग्रहं वाभिधित्सुराह
तुरंपार्यावन्दमण्डलनिभ.ऽनपत्रत्रयम् । म्ह कलरित्यत्र
प्राकृतवशाद्विभक्तिझोपः । नावलबजेरीछत्रमित्यत्र समाहारजिगपरयण उप्पत्ती, पवयणएगढिया विनागो य ।
न्द्वः। शेषं सुगमम्,समस्तासमस्तनिर्देशश्च बन्धानुनोम्यात,एवदारविही पनपविही, वक्रवाणविह। अणूप्रोगा। १३५०। मन्यत्रापि यथालजवमूद्यम । अतिशयान्तर्गतत्वेऽपि चामीपां रह जिनप्रवचनोत्पत्तिः, प्रवचनकाथिकानि, एकाधिकविनाग- पृथगुपादानम, प्रातिहार्येऽपि व्यपदेशान्तरेणाऽऽगमे रूढत्वाघेति त्रितयमपि प्रसवशेष,वाराण्युद्देशनिर्देशाद।नितेषांविधिः । दिति गाथाधः॥6॥दर्श०१नस्व । प्रकरणं द्वारविधिः; अयमुपद्धातोऽभिधीयते । नयविधिस्तू-जिणपानिय-जिनणलित-पुं० । चम्पानगरीवास्तव्ये स्वनामपक्रमादीमा समानुयोगद्वाराणां तुर्थमनुयोगद्वारम् । तथा ध्या- ख्याते माकन्दिसार्थवाहपुत्रे, शा० ।। क्यानस्य विधिविधानविधिः-शिष्याऽऽवार्यपरीकाऽनिधानम् ।
तत्कथाअनुयोग सूत्रस्पर्शिकनियुक्तिः, सूत्रानुगमश्चेति समुदायार्थः ।
नवमस्स णं भंते! णायकयाणस्त समणेणं जगवया महामाह च-चतुर्थमनुयोगद्वारं नयविधिमाभिधाय पुनस्तृतीयानु- वीरणं० जाव संपत्तेणं के अटे पहात्ते । एवं खलु जम्बू! योगदारामानुगमाभिधानं किमर्थम् उच्यते-नयानुगमयाः तेणं कालेणं तेणं समरणं चंपा नाम नयरी होत्या। तीसे सहचरभावप्रदर्शनार्थम्। तथादि-नयानुगमा प्रतिसूत्रं युगपद
एं चंपारणयरीए कूणिए णामं राया होत्या । तत्य णं चंपाए नुधावतः, नयमतत्यस्यानुंगमस्यानावात् । यदि युगपन्नयानुगमौ गडकतातो तपन्यासोऽपि युगपदेवास्तु, किमर्थमनु
णयरीए बहिया उत्तरपुरच्छिमे दिमीनाए एन्थ णं पुस्तयोगद्वारचतुपयोपन्यासे नयानामन्ते उपन्यासः ॥ उच्यते-युग- जद्दे णामं चेइर होत्या । तत्य णं मायंदी णामं मत्यवादे पवक्तुमशक्यत्वात् । श्राह चमूटीकाकृत्-अनुयोगद्वारच तुष्ट- परिवसति अके। तस्मयं जहा णाम जारिया । तीमे गंभबोपन्यासे तु नयानामन्ते ऽभिधानं युगपतमशकपत्वादिति। दाए नारियाए अत्तया दुवे सत्यवाहदारया होत्था । तं अपरस्स्वाह-वतुरनुबोगद्वाराऽऽस्मक शालं,ततश्चतुरनुयोगद्वा
जड़ा-जिणपाझिए य, निणरक्खिए य । तर णं तेसि मा. रातिरिकस्य व्याख्यानविधेरुपन्यासो निरर्थकः । तदयुक्तम्।। अनुगमानतया निरर्थकत्वायोगात्। अनुगमाङ्गता च व्याख्या
गंदियदारगाणं अमया कदाई एगो सहियाणं इमेयाचादिति तत्रजिनप्रवचनोत्पत्तिनियुक्तिसमुत्थानप्रसङ्गतोऽभिः। रूपे मिहो कहाममुलाचे समुप्पन्जित्या । एवं खलु अम्हे ब.
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(१४९५ ) अन्निधानराजेन्द्रः ।
जिगापालिय
बणसमुद्र पोयवहणं एकारम वाराश्रो श्रोगाढा; सन्वत्य त्रियां लट्ठा करकज्जा अस्स मग्गा पुरवि निययघरं इन्त्रमा गया, तं मेयं खज म्हं दे गया! बालसमं पि
समुद्द पोयचढण उम्माहत्तर तिर अष्पमध्छस्स एम परिणति । पढिसुर्णेतित्ता जेयंत्र अस्पापियरां सेणेव उवागच्छेति । उवाच तित्ता एवं बयामी एवं खलु अम्हे अ-मय.ओ ! एकारस बारा तं चैत्र० जाब निययघरं
माया, तं इच्छामो अम्मयाओ ! तुमहिं अन्नछाया समाया दवालसं लक्षणसमुदं पोयत्रहणणं ओगाहसर । वते यां ते मागंदियदारए सम्मापिअरो एवं बयासी-इमे को जाया । अज्जगपज्जग० जान परिआएसए, तोह सात्र जया ! विडलं माणुस्सर इड्डीसकार समुदए, किं भा सपच्चत्रारणं णिरायंत्रणणं झत्रणसमुहोत । रेणं, एवं खलु पुलसम्म जत्ता मोत्रमम्गा यात्रि भवति, तम्हा पं तुम्भेदु तालसम्म झाममुद्दे० जाग उग्मादेह माहुतुब्धं सरीरस्स वावती भविस्स । तते णं मार्गदियारंगा माविअरो दोचं पि तच्चं पि एवं बयामी - एवं खबु अम्हे अम्मा ! एकारन बारा लब समुहं० जाव प्रोगाहित्तए । तते पण ते मागंदियदार अम्माप जाहे संचारति बहुहिं प्राघवणाहिय पचत्रणादि ययतर वा, पवित्तर वा ताई कामयाए चेत्र एम प्रजापित्ता, ततेषं ते मार्गदियदारया अम्मापिनर्दि अब्भगृछाता समाणा गगमं च धरियं च मेलं च पारिच्छेच जहा अरागस० जाव लवणसमुहं च बहुहिं जोगमाई भोगाढा । तते णं ते स मार्गदिग्दारगाणं अणंगतिं जोयमयातिं श्रगाढाएं समयाएं उप्पातियमाई अगाई प्रान्नुयाई । तं जहा - अकाले गज्जियं, का विज्जु० जान यणियसद्द कान्नियत्राए० जान तत्य स थिए । तते णं सा गावातणं कालियनाणं आणि जपाणी आणि जमा, संचालिज्जमणी संचालिज्जमा, संखोभिज्जपाणी संखोभिज्जपाणी, सलिलतिक्खवेगेहिं प्रणिपट्टिज्जमा | अणियट्टिज्जपाणी, काट्टिम करतला -- उवयप्राणी हुए वित्र तेंदुए तत्येव उत्रयमाणं । उपयमाणवित्र रगतलाओ सिद्धविज्ञाहरकलगा उपयमाणी वित्र गगणतज्ञाम्रो जडविज्ञाहक सगा विप्प सायमाणी चित्र महागरुवगवित्तासिया जुयगवरकर नगा धामणी चित्र महानगर सिय सद्दवित्था ठाणभट्ठा मासि किसोरी विगुंजाणी वित्र गुरुजादिडावरोह सजणकुलकन्नगा घुम्ममार्ण चित्र बीचीपहारसयतालिया गन्नियलं
चित्र गगणतज्ञातो रोयमाणी चित्र सझिलगंविविप्रपाणघोरं सुपरहिं णववद् उवरयभच्या विलनमाणी चित्र
For Private
जियपालिय परचकराया जिरोहिया परममहाभया भिड़या महापुरवरी अजायमार्ण चित्र कच्छांमणप ओगजुत्ता जोगपरिक्वाइया
समावि महा कतारविणिगाय परिसंता पारणयवया अम्मया सोयमाणी चित्र तत्रचरणकखीएपरिजोगा बदल कालदेवत्ररब इपिककुचरा जग्गमेढिमोडियस समाला मलाइपत्रकपरियामा फन्नतरततकिंततसंधित्रिमसंतलोदकीलिया सब्बंगवियंभिया परिसकिय रज्जुविसरतसव्वगता आपपलगभूया अकराजणमणारंहो व जमाली गुरुई ककपधारणात्रियवा थिगजण कम्पकारविलत्रिया लागात्रिहरयण पण संपुषा बहुहिं पुरिसहि रोयमाणेहिं कंद्रमाणेहिं सोयमाणेहिं तिष्यमाणे हि दिलवमाहिं एवं महं तो जलगयं गिरिसिहरमामायइत्ता संभग्ग तोरणा मोदियज्यका बन्नयस्य स्वं मिया करकरस्स तत्येव वि उबगता । सते - ताए णावाए भिज मी एते बहत्रे पुरिसा विपुलपणियभंडपायाए अंतोजसम्पिनिज्जामिया होत्या । तए णं तं मागंदियारवा या दक्खा वा कुममा मेहावी निउणसिप्पोवगया बहुसं पोहणपरासु कयकरणा सदा विजया अमूहा अमहत्या एवं महं फलगम आसाएति । जेसि च णं पदेमंति से पोयवहणे त्रिवसे, तेसिं च णं पदेसंसि एगे महं रमादीचे एामं दीवे होत्या । गाई जोभणाई प्रायामविक्रमेणं गाई जोयणाई परिवखेवे नाणादुओ देसेसस्निरीए पासादीए दरिसविने अभि रूपरू, तस्स बहुमज्जदे सजाए, एत्थ णं महं एगे पासायवर्टिस याचि होत्या, अन्भुग्गयम सिए जाव सस्सिरी रुवं पामादीए दरिसपिजे अनिरूवं परुिवे । तत्थ पासायचसिए रयणदीवदेवया णामं देवया परिवसति; पात्राचंमा रुद्दा खुदा साहसिया । बस्स णं पासा - यवनियस्चत्तारि चादसिं वर्णसंका पण्णत्ता- किल्हा किरहाजासा । तते वे मार्गदियदारया तेथे फक्षयणं नत्रज्यमाणा तवज्जमाना रययदीत्र तेणं संछूढा यावि होत्या । ततेां ते मागंदियदारया थाई अति, लहइना मुहुसंतरं प्रासासंति, फनगखंड विसज्जेंति, विसज्जैतित्ता र· यणदीबं उत्तरेंति, उत्तरेंनित्ता फलाएं मग्गणगत करेंति, फन्नाणि आहारेति, आहारेतित्ता खाक्षिएराणं मग्गरागवेसरी करेंति, करेंतित्ता नलिएराति फोडंति, नालिएरस्वतिचणं अामास्न गत्लाई अब्जैर्गेति, पोक्खरिधि ओगाइति, ओ गार्हेतित्ता जलमज्जणं करेंति, करेतित्ता० जाव पच्चुत्तरंति, पुढविलापट्टनि सिीयंति, ग्रिसीयतिसा प्रसस्था सत्या सुदासवरगया चंपारणपरं सम्मापिजयं आपु
T
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( १४६६ )
अभिधानराजेन्द्र : ।
जिणपालिय
चलवण समुद्दोत्तारं च कालियवायसमुत्यां च पोयहणविवर्त्तिच फलहवंमस्स आसायणं च रयणदीवतारं च चिंतेमाणा अणुचिंतेमाला ओहयमण संकप्पा ० जावज्जियायति । तते णं सा रयणदीवदेवया तं मागंदिय दारगं प्रहिणा आजोएइ, आभोएड़त्ता असिफल गवग्गहत्या साधना सततान्नप्पमाणं उ बेहासं उप्पय, उपयइत्ता ताए उकडाए० जाव देवगतीए बीईवयमाणी बीईत्रयमाणी जेणेव मार्गदियदारए तेणेत्र वागच्छा, नवागच्छत्ता प्रामुरुता ते मागंदियदारए खरफरूस निठुरवयणेहिं एवं वयासी-हं भो मागंदियदारया ! जति गां तुजे मए सविलाई जोगनोगातिं चुंज. माणा विरह, तो मे अत्थि जीवित्र्यं, ऋतु मं तुन्भे गए सविला नो विहरह, तो जे इमेणं नीलुष्पनगवल - गुलिय० जान खरधारेणं असिणा रतमंदमंसुयाई बाजपाई | बसोनियाई तालफलालीव सीसार्ति रगते पामि । सते णं ते मागंदियदारया रयणदीवदेवयाएं अंतिए एयमडं सोचा पिसम्म जीया संजायचया करयल० जाव एवं वयासी-जं णं देवाप्पिया ! वस्तति तस्स आणाववा: यवयणनिदेसे चिहिस्सामो । तर पं स रयणदो वदेवया ते मागंदिपदारए एहति, गेरहतित्ता जेणेव पासायवामसर तेणेव उवागच्छति, उवागच्छत्ता असुन पोग्गलाबहारं करोति, सुमपोग्गलपक्खेवं करेति, ततो पच्छा तेहिं सद्धिं लाति जोगभोगाति जमाणी विहरति, कलाकलिं च श्रमयफझाई जवर्णेति । तए णं सा रणदीवदेवया सकवयणसंदेसेणं सुट्टिएणं लवणाहि asur लवणसमुदे तिसत्तखुत्तो अणुपरिपट्टियन्ने, जं किंचि तत्थ तणं वा पत्तं वा कहुं वा कयवरं वा असूई पूइयं दुरनिगंधिमचोक्खं तं सव्वं आहुणीयतिसत्तखुतो एगंले पादेयन्वं ति कट्टु निउत्ता । तते पणं सा रयणदीवदेवया ते मार्गदियदारए एवं वयासीएवं खलु देवापिया ! सक्कत्रयणेणं सुट्ठिय तं चैव जाव एिउता तंजाव अहं देवाडुपिया ! लवण समुद्दे जात्र - पामि ताव तुब्ने इहेब पासायास सुद्धं सुहेणं श्रभिरममाणा चिहह । जइ णं तुब्ने एयंसि अंतरंसि जब्बिग्गा वा उस्या वा उपया वा भवेजाह, ता तुभे पुरच्छिमि वणसं गच्छेज्जाह । तत्य णं दो नऊ सया साहीणा । तं जहा - पानसे य, वासारते य । तत्य कंदझसिलिपदंतो शिनत्रपुप्फपीवर करो कुमयज्जुनशी व सुरभिदाणो पाउसउऊ गयवरो साहीको १। तत्थ य सुरगोपमणिविचित्ते ददुरकु लरसियउज्झररवो वरहिणविंदपरिणदसिहरो वासारच
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जिणपालिय
उऊ पव्व साहीणो । तत्थ एणं तुब्जे देवाप्पिया ! बहुसु वावसु य० जाव सरपंतियासु य बहुमु आलियघरएमु य० जात्र कुसुमघर यहं सुहेणं श्रभिरममाणा अभिरममाणा विहरेज्जाह | ज णं तुब्ने तत्थ उव्बिग्गा वा उस्सुया वा उया वा भवेज्जा, ताणं तुन्भे उत्तरिक्षं बणसंडं गच्छेजाद | तत्थ एदो उऊ साहीणा । तं जहा सरदो य, हेमंतो य । तत्थ उसणसत्तव एणकउहो नीलुप्पल पउमनलिन सिंगो सारसचक्कवायर सियघोसो सरतो गोवई सया साहिजो १। तत्थ य सियकुंदधवलजोएटो कुसुमियलोकवणदमंडलतलो तुसारदगधारपीवरकरी हेमंनटऊ ससी सया साहो । तत्थ गं तुब्ने देवागृध्विया ! बावीस य विवाद | ज णं तुब्ने तत्थ वि उव्जिग्गा वा० जाव उस्या वा वेज्जाद, ता णं तुब्ने अवरिल्लं वणसंडं गछेज्जाह । तत्थ गं दो उऊ साहीणा । तं जहा - बसंते य, गम् य । तत्थ य सहकारचारुहारो किंसुयकणियारासोगउदो कसियतिल गवनमालावत्तो वसंतउऊ नरवतिसाहीलो ? । तत्थ य पाल सिरस सलिलो मल्लियावासंतिय
वेलोसीयलसुरभिअल्लिमयरचरियगिम्हटऊ सागरो साहो । तत्थ बहुसुजाव विहरेज्जाह । जइ तुजे देवापिया ! तत्थ वि उव्विग्गा उस्सुया भवेज्जाइ, तओ तुम्हे जेणेव पासायवसिए तेणेव उवागच्छेज्जाह, ममं पडवाले माणा चिट्ठेज्जाइ, मा णं तुब्भे देवापिया ! दक्खिपिल्लं वरणसंढं गच्छेज्जाद । तत्य ां महं एगे उग्गविमे चंडविसे महाघोरविसे महाविसे अइकाए महाकाए मसिमहिसमूसाकालए नया विसरोसम्झे अंजणपुंजलियरगासे रत्तच्छे जमलजुयल चंचलचलंतजी हे घरणियल वेणिनूए उक्कडफुरुकुमिल जकुलकक्ख कवियरुफुडाडोवकरणदक्खे लोहागारधम्ममा घमघमंतघोसे लागलियचंमतिव्वरोसे समुहतुरियचवलं धर्मते दिट्ठीविसे सप्पे परिवसति । मां तुम्भे सरीरगस्स वावती जविस्सति । ते मार्गदियदारए दोच्चं पितचं पि एवं वयति । वयत्ता वेजव्वियसमुग्धाएणं समोहति ताए उकिडाए० जाव लवणसमुदं तिसत्त खुत्ती अणुपरिट्टे पयत्ता यानि होत्या । तए णं तं मागंदियदायात मुद्दतंतरस्स पासायवसिए सई वा रतिं वा धि वा लभमाणा अम एवं बयासी एवं खलु देवाणपिया ! रणदीवदेवया अम्हे एवं वयासी एवं खलु अहं मक्क
संदेणं मुट्ठिए लवणादिवइणा० जाव बावनी भ विस्मति, तं मेयं खलु अम्हं देवाप्रिया ! पुरच्छिमि बणसं मं गमित्तए अम्मममस्स पडिमुति, जेणेत्र पुरच्छिमिले वणमंतेव उवागच्छछ । उवागच्छतित्ता तत्थ वा
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(१४९७) जिणपालिय धाभिधानराजेन्द्रः।
जिणपासिय बीसु प० जाव मालिघरएम य० जाब विहरति । तते ते रयणदीनदेवयाए हत्याओ साहत्थि नित्यरजामो। ततेणं मागंदियदारगा तत्थ विसई वा जाव भलनमाणा जेणेव से सूलाइए पुरिसे ते मागंदिअदारए एवं वयासी-एस नत्तरिखे वणसंडे तेणेव उवागच्छति,उवागच्छतित्ता तत्थ णं णं देवाणप्पिया पुरचिमिद्धे वसंडे सेलगस्स जक्खस्स बावीसुय० जान मालिघरएम य० जाब विहरति । तते णं ते जक्खाययणे सेलए णामं प्रासरूवधारी जक्खे परिवसति । मागंदियदारया तत्थ णं विसईचा जाव जेणेव पच्चाच्छामो
तते णं से सेलए जक्खे चाउद्दसमुष्टिपुष्टामामिणीस वाणुसंकेतेणेव उवागच्छंति, नवागच्छंतिता जाब विहरनि।। भागयसमए पत्तसमए महया महया सद्देणं एवं बयासी-के तते णं ते मागंदियदारगा तत्थ बिमतिं वा. जाव अलजा |
तारयामि, पालयामि। तं गच्च णं तुम्भे देवाणप्पिया! माणा असम एवं वयासी-एवं खबु अम्हे देवाणप्पिया! पुरच्छिपिवं वणसं जेणेव सेंलगम जक्खस्स महरिहं रयणदीवदेवया सवयणसंदेसेणं मुडिएणं सवणाहिवाणा | पुप्फच्चणियं करेह, अक्खपायवडिया पंजलिउडा विणएणं •जाच मा णं तुझे सरीरस्स वावत्ती जविस्सति, तंज
पज्जुबासमाणाचिट्टह । जाहेणं से सेलए जक्खे प्रागयसवियन्वं । एत्थ कारणेणं तं सेयं खलु अम्हं दक्खिणिनं
पए पत्तसमए एवं बग्रेज्जा-कतारयामि?,कंपालयामि?। तारे बणसं गमित्तर ति कह अधमास्स एयममु पमिसुणेति,
तुज्के बदा-अम्हे तारयाहि, अम्हे पानयाहि, सेझए जक्खे जेणेच दक्विणिवे वणसंमे तेणेव पहारेत्थगमपाए तोणं परं रयणदीवदेवयानो हत्याप्रो साहत्यि णित्यारेजा.भ. गंध णिजाए से जहाणामए अहिमदेति वा जाव अणिह
महाभेण याणामि इमेसिं सरीरगाणं का म आबई नचितराए । तते णं ते मागंदियदारया तेणं असुभेणं गंधेणं अ.
स्सइ । तएणं ते मागदियदारया तम्स सूलाइमस्स पुरिसस्स भिजूया समाणा सरहिं सरहिं उत्सरिज्जेहिं प्रासातिएहिं
अंतिए एयमढे सोचा णिसम्म सिग्घं चं चवलं नुरियं चइयं पीति । पीहेतित्ता जेणेव दक्खिणिवे वणसंमे तेणेव उवा
जेणेव पुरच्छिमिल्ने वाम पोव पोक्खरिणी तेणेव उरागया। तत्थ णं महं गं आघतणं पासंति अध्यिरासिसयसं.
गच्चइ । उवागच्छत्तिा पोक्खरिणिं ओगाद। ओगाहेत्ता कुसंजीमदरिसणिज्ज, पगं च णं तत्य मूलाध्यं पूरिसं
जलमजएं करेइ । करेइत्ताजाई तत्य नप्पलाईजाव गिएहंकलुणाति कहातिं विस्सरातिं कुव्वमाणं पासंति। पासंतिचा
ति । गिएहतित्ता जेणेव सेलगस्स जक्खस्स जक्खाययणे
तेणेव उवागच्छ नवागच्छइत्ता पालोर पणामं करिति, जीया. जाव संजातभया जेणेव से सूनाइए पुरुसे तेणेव स्वागच्छंति । नवागच्छंतिचा तं मूलाइ पुरिसं एवं
महरिहं पुप्फचणियं करिति, जापायचडिया सुस्सुसमाणा वयासी-एस ण देवाणुपिया! कस्साघयणे, नुमं चणं किं
णमसमाणान्जाव पज्जुवासंति तए णं से सेलए जवखे को वा इहं हन्धमागते ?,केण वा इमेयारूवे प्रावई पातिए ।
आगयसमए पत्तसमए एवं वयासी-कं तारयामि?, पानतते णं से सूलाइते पुरिसे मागदियदारए एवं चपासी-एस
यामि । तए.णं ते मागंदियदारया उडाए जडेश,करयझजाव णं देवाणुप्पिया!रयणदीवदेवयाआघयणे, अहं णं देवाण
कह एवं वयासी-अम्हे तारयाहि, अम्हे पानयाहि । तरण प्पिया ! जंबुद्दीवातो दीवातो जारहामो वासाओ कार्क
से सेलर जक्खे तं मागंदियदारयं एवं बयासी-एवं खयु दिमए पासवाणियए विनलं पणियनंडगमायाए पायव
देवाणुप्पिया ! तुम्मे मए सविणसमुई मऊ मझणं हणेणं लवणसमुई नवागो । तते णं अहं पोयवहणवि
| वीईवयमाणाणं सा रणदीवदेवया पावा चंका रुद्दा खुद्दा वत्तीए निच्चूढभंडसारे एग फागखं आसाएमि । तते
साहसिया बहुहिं स्वरएहि य मउएहि य अणुणं अहं खुज्माणा उबुकमाणा रयणदीचं तेणं संबूढो ।।
लोमेहि य पमिलोमेदि य सिंगारेहि य कसुणेहि य उवततेणं सारयणदीवदेवया ममं श्रोडिणापासति । पामतित्ता
सग्गेहि य उवसग्गं करोहिं ति। तं जड़ णं तुम्भे देवाणपिममं गेएहति, मए सदि विउलातिं नोगभोगाई तुंजमाणी
या! स्थणदीवदेवयाए एयमर्ट आढाह वा, परियाणहवा, विहरति । तते णं सा रयणदीवदेवया अप्पया कयाई अहा
अवक्खएह वा, तो भे महं पिट्ठामो विहुणामि, अहणं मदुगंसि अबराइंमि परिकुतिया समाण ममं एयारूवं |
तुम्ने रयणदीवदेवयाए एयमटुंणो आदाह, णो पारजाणह, श्रावई पावेति। तते गजति देवाणुप्पिया! तुज्कं पि.
यो अवयक्खह, तो भे रयणदीवदेवयाहत्यातो साहत्थि मेसि सरीरगाणं कामठो प्रावती य जविस्सति । तते णं ते
णित्यारेमि । तते णं ते मागंदियदारगा सेलगं नक्खं एवं वमागंदियदारमा तस्स सूलाझ्यगस्स पुरिसस्स अंतिए एय- यासी-जणं देवाणाप्पया वइस्संति तस्स एं उवायवयणणिमहं सोचा णिसम्म वलियतरं जीया० जाच संजातजया इसे चिहिस्सामो। तते णं सेबग जक्ख उत्तरपुराच्छमादास मलाइतं पुरिसं एवं वगामी-करणं देवाणप्पिया! अम्टे । जागं अवकपड़ । अवकमत्ता बेचियममुग्याएणं मया
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(१४६८) जिणपालिय अभिधानराजेन्द्रः।
जिणापालिय इण। समोहणत्ता संखेन्जाई जोयणाई दंग निस्सर,दो- मए सदि इसियाणिय रमियाणि यमलियाणि य कीपिसचं पिउन्नियसमुग्याएणं समोहण समोहणत्ता लियाणि य हिंडियाणि य मोहियाणि य ताहे णं तुम्भे एग महासरूवं विनम्बइ। विउचइत्ता ते मागंदियदारए सब्वाति अगणेमाणा ममं विप्पजहाय सेलएण य समि एवं बयासी-भो मागंदिया!आरुण देवाणुप्पिया! मम लवणसमुहं मझ मज्जेणं बीतीवयह । तते णं सारयणदीपिष्टुिंसि । तते ते मागंदियदारया हन्तुट्ठा सेलगस्स ज- बदीवया जिणरक्खियस्स मणं प्रोहिणा आलोएति, आ
खस्स पणामं करेइ करेइत्ता सेलगस्स पिट्टि दुरूदा। नए भोत्ता एवं बयासी-निवं पिय एं अहं जिनपालियस्स थं से सेलए जक्खे ते मागंदियदारए दुरूडे जाणित्ता स- अणिहा, पिच्चं मम जिणपालिए प्रणिके, णिच्चं पिय उद्वतालप्पमाणमेत्ता नई बेहास उप्पयति । उप्पयइना साए। णं मम जिणरक्खिए इहे, णिच्चं पि य णं अहं निणररकिडाए तुरियाए दिव्वयाए दिन्वगए सवणसमुई क्खियस्स इहा, णिच्चं पिय णं ममं जिणरक्खिए पहे। मझ मज्झेणं जेणेव जंबुद्दीवे दीवे जेणेव भारहे वासे | जई णं ममं जिणपालिए रोयमाणी कंदमाणी सोयमामेणेव चंपा गयरी, तेणेव पहारेत्यगमणाए । तते पं सा| पी विलवमाणी जाव णावयखति, किं गं तुम पि जिणरयणदीवदेवया लवणसमुई तिसत्तरवुत्तो अणुपरियति । जं
रक्खिया ममं रायमाणिक जाव पावयक्खसि । तते णं सा तत्थ तयं वा पत्तं वा जाव एगंते पाडेति, जेणेव पासायव- रयणदीवदेवया मोहिणा जिणरक्खि यस्स मणं णाकण मिसए तेणेव उवागन्छ । उवागच्छइत्ता ते मार्गदियदारया वहणिमित्तं उवरिं मागंदियदारगाणं दोएडं पि१॥ दोसकन्निया पासामसिए अपासमाणी अपासमाणी जेणेच पुरच्छि
समलियं णाणाविहचुमवासमीसियं दिव्वं घाणमणमिले वणसं० जाच सब्बतो समंता मगगणगवेसणं करेति।
णिबुझ्करं सम्बोय सुरनिकुसुमबुद्धिं पमुंचमाणी पमुंचकरेचा तए णं तेसिं मागंदियदारगाणं कत्थइ मुइं वा
माण।। णाणामणिकणगरयणघंटियखिखिणिनेउरमेहल. . अन्ननमाणी असभमाणी जेणेच उत्तरित्रे वणमंमे,
नूसणरवेणं दिसाओ विदिसाओ परयंती बयेणमिणं वएवं चेव पञ्चच्छिमिल्ने वि० जाव भपासमाणी श्रोहिं पढ
यति सा सकबुसा ३ । होना वमुला गोला नाहदइयजति । पजता ते मागंदियदारए सेलएणं सकिं लवणस.
पियरयणकंतसामिनिग्विणणिवकत्थिाणिकि वाकयएण्यमुहं मऊ मज्केणं बीतीवयमाणे पासति । पासत्ता आसर- सिढिलजावनिलजसुक्ख मकबुणजिणरक्खियमुग्घहिययताजाव सममागया असिखेमगं गेएहति गेएहतित्ता स- रक्खग ।। ण हु जुजसि एक्कियं प्रणाहं अबंधवं सहताअप्पमाण मेत्ता० जाव उप्पयति । उप्पयइत्ता ताए तुज्क चन्नण नववायकारियं उज्किनमधमं गुणसंकरऽहं किडाए. जाव जेणेव मागंदियदारया तेणेव नवाग- तुम्भे विहुणा ण समत्था जीवितुं खणं पि । ५। इमस्स कछछ । उवागच्छतित्ता एवं वयासी-भो मागदियदारगा! उ अणेगऊसमगरविधिहसावयसयाउन्नघरस्स रयणागरस्स अप्पत्यियपत्थिया किं णं तुम्भे जाणह ममं विप्पजहाय | मझे अप्पाणं वहेमि तुज्ज पुरओ,एहि,नियत्ताहि, जामि सेझएणं जक्खेणं सकिं लवणसमुदं माझं मजगवी- कुवित्रो खमाहि एकावराहं मे । ६ । तुज्क य विगयघणतीवयमाणा तं एवमवि गए, जति णं तुम्भे ममं अ- विमलससिमंडलागारसस्तिरीयं सारयणवकमलकुमुदकुवबयक्खह तो भे अस्थि जीवयं,मह णं नो अवयक्खह तो सयविमलदानिकरससिभनयणवयणं पिवासागयाए सका मे इमेणं नीलुप्पागवन्न जान सीसाई पामि । तते ण से पेच्चिन जे अवलोयश्ता इओ ममं नाह ! जा ते से मागंदियदारया रयणदीवदीवयाए अंतिए एयमद्रं सोचा पेच्छामि बयणकमलं । ७ । एवं सप्पणयसरक्षमहुराति णिसम्म अभीया अतथा अणुब्बिग्गा अक्खुनिया असं- पुणो पुणो कसुणाई वयणाई जंपमाण सा पावा मग्गो जंता रयणदीवदेवयाए एयपटुंनो श्रादति, नो परियाणंति, समन्ने पावहियया। । तते णं से निणरक्खिए चणायक्वंति,अणादायमाणा अपरिअवयक्षमाणा सेल- समाणे तेण य नूसणरवेणं कसमुहमणहरेणं तेहि य एणं जक्खेणं सम्झिनणसमुहं मऊ मऊोणं वीतीवयंति। सप्पणयसरनमदुरजणिएहिं संजायविउलमणराए रयादीतते णं सा रयणदीवदेवया ते मागंदियदारया जाहे नो | वस्स देवयाए, तीसे सुंदरथाएजहणवयणकरचरणणयणसंचाएति बहहिं पढिलोमेहि य उवमग्गेहि य चालित्तए वा लावमरूवजोवणलावल्मसिरिंच दिव्वं सरभसनवगहियाई खोजिसए वा विपरिणामेत्तए वा,ताहे महरहिय सिंगारेहि विव्यायक्लिमियाणि य विहसियसकमक्खादिहिणिस्सासिपायुपहिया नवसम्मेहि य उवसम्गे उपयत्तया वि होत्या। यमलियनवालियवियगपणपणयखिज्जियपासादीयाणि य ईजो मार्गदियदारगा ! जा णं तुम्नेहिं देवाणुपिया!) सरमाणे रागमोहियमती भवसे कम्मत्रसगते अवयवस्वति
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(१४ ) जिणपालिय प्रनिधानराजेन्द्रः।
जिपापालिय मग्गतो सविलियं । तए णं जिणरक्खिया समुप्पाकसुणभावं | कालगण । नत णं से जिणपानिए अम्मापिउणं सबणममु. पच्चुगन्नत्थक्षणाद्वियमई अवपक्खंतं तहेव जखे सेलए होतारं च कालियबायसमुत्यणं च पायवाणविवसिंच -
आहिणा जाणिकण सणियं सणियं नविहति । महखंगासातणं च रयाणदीवांतारणं च श्यणदीवदेवनियपिट्टाहिं विगयो । तते णं सा रयणदीवदेवया | यागिएटणं च नोगपरिजूयं च सूलाइयपुरिसदरिमणं प निसंसा सकलणं जिणरक्खियं सकलुसा सेनगपिघाहिं सेलगनखमारहणं च रयणदीवदेवयानवसग्गं च जि. उवयंत दामे ! मनोमि'त्ति जपमाणी अप्पत्तं सागरसनिलं | परक्खियस्म विवत्तिं च लवणममुहानत्तरणंच चंपाऽऽगमणं गिएिहय वाहाहिं प्रारसंतं उर्छ नबिहति, अंवरतले उव- च सेलगजक्खमापुरकणं च जहाज्यमवितहमसंदिकं - यमाणं च ममनग्गेण पमिच्चित्ता नीयुप्पागवलप्रयसीप- | रिकहति । तते से जिणपानिए भाव विपुलाई जोगी गासणं असिवरणं खंगाखंमिं करति तत्थ वि विसवमाणं । गाई मुंजमाण विहरह। तस्स य सरसवाहियस्म घेत्तणं अंगमंगाति सरुहिराई।
तेणं कालणं तेणं समएणं सपणे जगवं महावीरे० मक्खित्तवनिं चनदिसिं करेति सा पंजग्निपहा । एवामेव |
जाव जेणेव चंपा एयरी। जेणेव पुस्मन चेदए तेणेव ससमणासो ! जो अम्हं णिग्गंथाण वा अम्हं णिग्गंथीण |
मोसदे, परिसा णिग्गया, कृणियो वि राया जिग्गयो, गा अंतिए पन्चइए समाणे पणरवि माणुस्सए कामनोगे
जिणपालिए धम्मं सोचा पन्चइए इकारसंगविऊ मामिएणं श्रासायद, पत्थयति, पीहेति, अभिन्नसति, से णं इह नवे |
नत्तेणं जाव सोहम्मे कप्पे देवताए उपवासे, दो सागरोचेव बहुएं समणाणं समणीणं साबयाणं साबियाणं० जात्र
बमाई दिई पामत्ता । ताओ पं. जाव महाविदेहे वासे सि. संसारं अणुपरियट्टिस्सति । जहा वा से जिणरक्खिए"छलियो अवयवखंतो, निरायवक्खो गतो अविग्येणं ॥
मिहिति । एवामेव समणाउसो ! नाव माणुस्सए कामनो.
गेनो पुणरवि आसाएति,से गंजाव वौतिवइस्सति, जहा तम्हा पक्ष्यणसारे, निरावयक्खेणं नवियध्वं ॥१॥
से जियपाक्षिए, एवं खन्न जंबू! समयेणं भगवया महाजोगं अवयक्वंता, पति संसारसागरे घोरे ।
वीरेणं० जाव संपत्तेणं एवमस्स णायज्झयणस्स अयमढे भांगेहि निरवयक्खा, तरंति संसारकंतारं ॥२॥"
पएणचे ति वोमि ॥ तत णं सा रयणदीवदेवया जेणेव जिणपानिए तेणेव नवागच्छ । उवगच्छना बहुहिं अणुलोमेहि य पहि
"जह रयणदीवदेवी, तह इत्थं अविरई महापाचा ।। लोमेहि य खरेहि य मउएहि य सिंगारेहि य कबुणेहि य
जालाचयी पणिया, तह मुहकामा इहं जीवा ॥१॥ स्वसहि य जाहि नो संचाएति चामित्तए वा खोभित्तए
जह तेहिं जीएहिं, दिवो आघायमंडले पुरिसो॥ . वा विपरित्तए वा, ताहे संता तंता परितंता निम्बिएणा
संसारदुक्खजीया, पार्वति तहेच धम्मकहिं ॥३॥ समाणी जामेव दिसि पाउन्नूया तामेव दिसिं पमिगया।
जह तंग तेसि कहिया, देवी दुक्खाण कारणं पोरं । तते णं से सेलए जक्ख जिणपालिएणं सकिं लवणसमई
तत्तो चिय णित्यारो, सेलगजक्खान णम्पत्तो ॥ ३॥ मऊ मज्केणं वीइवय,जेणेव चंपा गयरी तेणेव उवाग- इय धम्मकहा भव्या-ण साहएऽदिट्टअविरमहायो।। छति । उवागच्कृतित्ता चंशएणयरीए अग्गुज्जाणंसि जि
सयलहउजूया, विसयाविर त्ति जीवाणं ॥४॥ णपालियं पिट्ठातो नत्तारति । उत्तारेतित्ता एवं वयासी-एस
सत्ताण दुहत्ताणं, धम्म सरणं जिणिंदपम्मत् ॥ णं देवाणुप्पिया! चंपा णयरी दीसत्ति कटु जिणपालियं
पाणंदरूवणिन्ना-णसाहणं तह य देसेड़ ॥ ५॥ श्रापुच्कृति, भापुच्छतित्ता जामेव दिसिंपाउन्नया तामेव
जह तेसिं तरियन्वो, रुद्दसमुद्दो तहेव संसारा ॥ दिसि पगिया । तते णं जिणपालिए चंपं अणुपविसंति,
जह तेसिँ सगिहगमणं, निवाणगमा तहा इत्य ॥ ६॥ मेणेव सए गिहे जेणेव अम्मापिअरो,तेणेव उवागच्चइ । उ
जह सेलगस्स पिटुं, तेसिं भवार्ण तह इह चरणं ॥ पागच्छता अम्मापिठणं रोयमाणेजाव विनवपाणे जि
जह देवीवामोहो, तो चुनो पाविओ निहणं ॥७॥ णरक्खियवावित्तिं णिवेदेति । नते णं जिणपालिए अम्मा
तह प्रविरइए णडिओ, चरणचुओ सुक्खमावयाइलो॥ पियरो मित्तणाति जाव परिजणणं सकिंरोयमाणातिब
णिनमा अपारसंसा-रसायरे दारुणसरूवे ।। ७॥ दुई लोइयाईमयकिच्चाई करेति। करेइत्ता कालेणं विगयसोया
जह देवीऍ अखाहो, पत्तो मट्ठाणजीवियमुहाई ॥ नाता। तने णं जिणपालियं अमया कयाइं मुहासणवरग
तह चरणविप्रो साह, अक्खोहो जाणिवाणं" संभम्मारिअरो एवं क्यासी-कह पुत्ता ! जिखरक्खिए । 'का.. श्रु०ए०।
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(१५००) जिणपिया
अभिधानराजेन्द्रः।
जिणभत्तिदसणाणुराग मिणपिया-जिनपिता-पुं० । नानेयाऽऽदीनां पितरि, प्रव० । गौडदेशावतसस्य, श्रीजिनप्रभसूरयः । कल्पं पाटलिपुत्रस्थ, तन्नामानि वम
रचयांचरागमात् ।।१॥" ती० ३५ कल्प । तस्य समयो "मामी जियसरिया, जियारी तह संघरो।
जिनप्रभसूरिकृते शत्रुजयको-"श्रीविक्रमादे वाणा-विमेहे धरे पश्म , महसेण अबत्तिए ॥ ३२४॥
श्वदेवमिते सिते। सप्तम्यां तपसः काव्य-दिवसेऽयं समसुग्गीचे दडरहे विएहू, बसुपुज्जे य खतिए ।
यित: ॥२॥ती०१कल्प । "श्रीजिनप्रनसुरीणां,साहाय्योभिकवचम्म सिंहसंण य, भाणू यषिसंसणी ॥ ३२५॥
असौरभा । श्रुतात्तंसतु सतां, वृत्तिः स्याहादमजरी" हरे सुनसणे कुंभे, सुमित विजए समुदविजए म।
॥८॥स्या० ३२ श्लोक। राया यमस्ससेणे, सिरथे विय सत्तिए । ३५६॥"प्रष.
" नन्दानेकपशक्तिशीतगुमिते १३०६ श्रीविक्रमोर्वीपते११ द्वार।
वर्षे भारुपदस्य मास्यवरजे सौम्ये दशम्यां तिथी। मिणपुत्त-जिनपुत्र-पुं० । जिनशिध्ये, क्षणिकाः सर्वसंस्कारा
श्रीहम्मीरमहम्मदे प्रतिपतिषमामगमलावण्डले, विज्ञानमात्रमेवेदं भी जिनपुत्राः! इति । सम्म १काएक।
प्रन्योऽयं परिपूर्णतामत्रजत श्रीयोगिनी पत्तने ॥ ३॥"
"तीर्थानां तीर्थभक्तानां, कीर्तनन पवित्रितः। जिणपहिण-जिनपूजार्थित्-पुंजिनस्येव पूजामधयते यः।
कल्पः प्रदीपनामाऽयं, प्रन्यो विजयतां चिरम ॥१॥" स जिनपजार्थी । गोशासकादी, जिनप्रजार्थिता च त्रिशत्तम
ती०४८ कल्प । (जिनप्रभपरिणो महम्मदसाहिशकाधिरामोहनीयस्थानमिति । स०३० सम
जेन समागमो 'वीरकप्प' शन्दे वक्ष्यते) मिणप्रया-जिनपूजा-बी०। अहंदने, पचा विव० ।
विव० । जिणापरूविय-जिनमरूपित-त्रि० । जिनेन भगवता वर्षमा"कुसुम-ऽक्सय-धूनहिं दीवय-वासेहि सुंदरफर्महिं । पृया
नस्वामिना यथा श्रोतृणामधिगमो भवति तथा सम्यक प्रण. पय सालसहि, अविहा तस्स कायन्बा ॥ २४ ॥"दर्श०१
यनक्रियाप्रवर्तनेन प्ररूपितं जिनप्ररूपितम । जिनेन सम्यकसम्व। प्रतिः। पं०० भाद्वारा जीवा०। (अस्य व्याख्या
प्रणीते, जी०१ प्रति०।। बेश्य 'शत्रैव भागे १२८४ पृष्ठे गता। तथा त्या सर्वा |
जिणप्पलावि (ण)-जिनपलापिन-पुं० । जिनमात्मानं प्रकर्षण वक्तम्यता 'वेश्य' शब्ने तृतीयभागे १२७७ पृष्ठे निर्दिष्टा)
लपतीत्यवंशीलो जिनप्रलापी। प्रात्मानं जिनं मन्यमाने गोशाल. जिणप्याविग्यकर-जिनपूजाविघ्नकर-पु० । जिनपूजानिषेधके
कादौ, नगवत्यां गोशालकमतमधिकृत्य-" प्रजिणे जिणप्पसावदोषोपेतत्वाद् गृहिणामप्येषा अविधयेत्यादि कुदेशनादि
लावी"०१५ श०१3०1"एवं सो प्रजिणो जिणप्पलावी भिः समयान्तस्तत्वदूरीकृते, कर्म०१कर्म।
विहर"प्रा० म० छिन्। जिणप्पणीय-जिनप्रणीत-त्रि। जिनोक्ते, "जिणमयं जिण
जिणप्पवयण-जिनप्रवचन-न० । जिना उगमे, जीत०। प्पणीय " जिनेन भगवता वर्द्धमानस्वामिना प्रणीतं समस्तार्थ.
"जिनप्रवचनं नौमि, नवतेजस्विमण्डलम् । संग्रहात्मकमातृकापदत्रयप्रणयनादू जिनप्रणीतमा नगवान् हि यता ज्योतींषि धावन्ति, हनुमन्तर्गतं तमः ॥२॥ बमानस्वामी केवलकानावाप्तावादी बीधिपरमगुणकनि- निप्रत्यहं प्रणिदधे, जवानीतनयानहम् । तान् गौतमादीन् गणधारिणः प्रत्येतद् मातृकापदत्रयमुक्तवान् । सर्वानपि गणाध्यक्का-नवामोदरसङ्गतान् ॥ ३॥" जीता। "उप्पनेशया, विगमेवा, धुवेवा" इति । पतष पदत्रयमुपजिणवाड-जिनवाज-पुं० । अजयदेवरिशिष्ये स्वनामजीव्य गौतमादयो द्वादशाङ्गं विरचितवन्तः, ततो भवत्येतदू
न्याते भाचार्य, अष्ट० ३१ अष्ट० । अयं वैफ्रमीये १९६० वर्षे माजिनमतं जिनप्रणीतमिति । जी०१ प्रति० । दर्श।
सीत्,अयं षटूल्याणकवादी पिएमविशुद्धिप्रकरण-गणधरसार्ध. जिणप्परोध-जिनप्रबोध-पुं०। स्वरतरगच्चीये जिनेश्वरसरिशि
शतक-प्रागमिकवस्तुविचारसार-कर्मादिविचारसार-धर्कमाम्ये, वैक्रमीये १२८५ वर्षे जातः, १२६६ वर्षे दीक्षितः, १३३१ नस्तवाऽऽद्यनेक ग्रन्थकदासीत्। चित्रकूटेऽस्य पनि चिपकाबर्षे रिपदे स्थापितः, १३४१वर्षे स्वरगमत् । कातन्त्रव्याकर
व्यानि शिलायां लिखितानि सन्ति । जै०१०।। णोपर्यनेन टीका कृता, प्रबोधमूर्तिरित्यपरमस्य नामाऽऽसीत् । जिरणबिंब-जिनबिम्ब-न० । जिनप्रतिमायाम, षो० ६विव० । जै००
| (जिनबिम्बकारणविधिवक्तव्यता • चेश्य 'शब्दे तृतीयनागे जिणपजमूरि-मिनमनमरि-पु० । लघुखरतरगच्चस्थे जिन
१२६६ पृष्ठे गता) सिंहमूरिशिध्ये स्वनामख्याते प्राचार्य, सी०४८ कल्प । अने। नाऽऽचार्येण वैक्रमीये १३६५ वर्षे ऽयोध्यायापिरवा जय
जिविंचपइट्ठावणा-जिनविम्वप्रतिष्ठापना-स्त्री० । अईस्पतिहरस्तोत्राजितशास्तिस्तोत्रयोरुपरिटीका रचिता । सरिम- मास्थापन, पश्चा०विव०। (जनाबम्बप्रातष्ठाावा प्रप्रदेशषिवरणं, तीर्थकल्पः, पञ्चपरमेष्ठिस्तवः, सिमाम्तागम- श्य' शब्द तृतीयनाग १२७० पृष्ठे अष्टव्यः) स्तवः, दयाश्रयमहाकाव्यं चत्यादयां बहवो प्रन्या निर्मिताः। जिणभल-जिननक्त-पुं० । मपुरानगरवास्तव्ये स्वनामस्या निस्यमयमभिनवकाव्यं कृत्वैव आहारमकरोद, न्यायकन्दली- श्रावके, प्रा०म० द्वि०। (तत्कथा 'णमोकार' शन्दे वदयते) पग्जिकानाम्नीटीकाकृत रत्नशखरसुरिगरुश्च स मासीदिति | जिणभत्ति-जिनभक्ति-स्त्री० । जिनसेवायाम, " भत्तीर तत्तथानामुपक्रमोपसंहाराभ्यामवगम्यते । जै.३० तथा.
जिनवराणं " .आव० २०।। हि-"इत्य पृथक्त्वविषयाकमिने शकाम्ने, वैशास्त्रमासि सितपत्तगषष्ठनिध्याम् । यात्रोत्सवोपनतसङ्घयुतो यतीन्छः स्तोत्रं जिणजत्तिदसणाराग-जिनजत्तिदर्शनानुराग-पुं० । जिनं पधाद् गजपुरस्य जिनप्रनास्यः ॥२०॥"ती०४८ कल्प । प्रति भक्त्या त्या यो दर्शनानुरागो दशनचा स तथा। जिनं
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जिभचिदंसणा गुराग
प्रति नक्त्या कृतायां दर्शनेच्छायाम, "जिवन दिसणारागेणं दरिसियाओ । " औ० । जिराजचिराग - जिनभक्तिराग-५० जिविषयके भक्तिपूर्वकंऽनुरागे, "अप्पेगइया जिणमलिरामेयं " जिने भगवति वर्तमानस्यामिनि प्रतिरागां भक्तिपूर्वकोनुरागस्तेनेति रा० जिभत्तिसूरि [ ए ]-जिननक्तिसूरिन्- पं० । भरतरगच्छीये जिन सक्यसूरिशिष्येजिनलाभसुरिगुरौ, सोऽयं वैक्रमी मे १७७० बर्षे जातः, १७७६ वर्षे दीक्षितः, १७६० वर्षे सूरिपदं प्राप्तवान्, १००४ वर्षे स्वरगमत् । जै० इ० । 'जिद्दगणिक्खमासमण-निनभद्रगणिक्षमाश्रमण-पुं० | भ रूबहुस्वामिविरचितसामायिक नियुक्तिभाष्याऽऽदिकारके मा चायें, श्रममाचायों वैक्रमीयाद् ५८५ वर्षाद् ६४५ वर्षे यावदू विद्यमान भासीत्। ध्यानतर्क, म
प्रणी विशेष
भावेन रचिता इति तद्मया ३०
तथा च विशेषाऽवश्यकवृतौ
" आवश्यक प्रतिनिबद्धगभीरप्राप्य
( १५०१) अभिधानराजेन्द्रः ।
पीयूष जन्ममधिर्गुणरज्ञराशिः ।
यातः कमाश्रमणतागुणतः क्षितौ यः, सोऽयं गणिर्विजयते जिनभद्रनामा " ॥ ३ ॥ विशे० । मनु भ्रमद्भचाप्रणीता सामायिक नियुक्तिरि मध्ये व्याया नेमिदमनुयोगभयतेने अि प्रायापरिज्ञानात्। तथाहि सामायिक पाक देशत्वादावश्यकरूपता तावण विरुध्यते । विशे० | नं० 1 तथा चा
वश्यक ध्यानशतकमधिकृत्य रेगादास का जय समुदिजियममा समर्थ-दि कम्मोहीक जाणा ॥१॥" आव०४ ० "जिन भगणिं स्तौमि कमाश्रमनमुत्तमम् । यः भुताउजीतमुद्दधे, सौरिः सिन्धोः सुधामिन " ॥ ४ ॥ जीत० ।
नियम [] भिननसुनि पुं० स्वनामध्याते प्रा. चायें, तत्रैको जिनेश्वरसूरिशिष्यः खरतरगच्छीयः, येन सुरसुकथा नाम ग्रन्थो रचितः । द्वितीयः शालिभट्टशिष्य पत
आमा, स बैकमा १२०४ वर्षे विद्यमान सत्तेन
कुमारकथा नाम ग्रन्यो विरचितः । तृतीयः खरतरगच्छे जिनसरिशिष्यः जै० ० जिगजवाजिनभवन- न०जिनाऽऽयनने पं० २०४द्वार। दर्श० ० द्वा० । पो० (जिनभवनकारणविधिः 'बेश्य १२७८ पृष्ठे उक्तः ) जियजासिय-जिनभाषित
01
जिनके "सुद जिभासि यं ।" जिनभाषितं जिनोक्तम । उत्त०२७ प्र० । "विहिणा जिणप्रासिव"जनतेने सर्वस्वमतिवा सेन । पञ्चा० १ विब० ।
निर्मा-जिनपती- श्री० हेमपुरनगरस्थस्य सुर
स्वनामध्यातानां दुरिता '' शब्दे वच्यते ) निगमंडप-जिनममनपुं० तपायी सोमसुन्दरसूरि१४६२ वर्षे कुमारबन्धनामध
विरचितः । जै० ६० ।
३७६
जिएमुद्दा जिमय - जिनमत - न० 1 रागाऽऽदिशत्रून् जयति स्म जिनः। स च यद्यपि स्थवीतरागोऽपि भवति, तथापि तस्य तीर्थप्रवर्त कत्वायोगात् कल्प केवलानी दाद | ईमान स्वामी, तस्य वर्तमानतीर्थाधिपतित्वात् । तस्य जिनस्य वज्रं मानखामिनम
बादपर्यन्त द्वादशाने गणिपिटके, जं । ०१ प्रति० प्रा० चूक ज्यां०। "तित्थयरसमो सूरी, सम्मं जो जिणमयं पयासे । " जिनमतं अमित
अयि भामि" जिनावतीकराः तेषां मतमागमरूपं प्रवचनम् । भाव० ४ ० " भाषेण जिणमम्मि उ आरंभपरिमादाश्री" रामाऽऽदिनिः तन्मत एचपीरागशासन एवेत्यर्थः । पं० ब० १ द्वार । नतु सिद्धान्ते, "इंदि पसिक जिणमयम्मि । " 'पचा० ४ विष० । तीर्थकरामिप्राबे च। " सांऊण जिवरमयं" जिनवरायां तीथकराणां मतमभिप्रायम् । सूत्र० १० १० १० जिएमयहिय - जिनयतस्थित त्रिण सर्वज्ञाऽऽगमस्थिते, "विसेसभां जिणमयविभाणं ।" जीवा० ८ अधि० ।
जिणमय निट - जिनमत निपुत्रि० भागमप्रवीणे,
अ० ३ उ० ।
जिन [ए] जिनमहिमन पुं०] जिनमहत्वे, कंबा जिएमहिमं i आ० क० ।
"
प्राधा
मिणपाणिमूरि-निनमाणिक्यसूरि० [मपुत्रचरित्रकार आचायें जै०० मिणमाया जिनमातृ-सी०
मध्यादिकानां निशन
म्यास, स० ।
तनामानि स्वित्थम
" मरुदेवि विजय सेवा, सिद्धत्था मंगला सुसीमा व । पुहवी लक्खण रामा, नंदा दिएहू जया सामा ॥ ३२२ ॥ सुजसा सुन्वय प्रहरा, सिरि देव व प्पभावई बेब । पडमा य बप्पा, सिब वामा तिसलबाई व ॥ ३२३ ॥ " प्रब० ११ द्वार ।
मुणिश्यापकीय मिनमुनिचेत्वाऽऽदित्यनीक - पुं०। तीर्थकरखाधुचतुर्वस सिगुरु भुताऽऽदिकानाम वर्णवादाऽऽशातनाद्यनिष्टनिर्वर्त के कर्म० १ कर्म० । जिणमुद्दा जिनमुकाखी०जनानामात्सर्याणां सत्का,जिना या विमुकाऽन्यासजिना मुखादे पश्चा० ।
-
अथ जिनमुखामाद-
चचारि अंगुलाई, पुरम ऊणाई जत्थ पच्छिमभो । पायाएं उग्गो, एसा पूरा दोड़ जिएमुद्दा || २० ॥ चत्वारीति संख्या, मङ्गलानि प्रतीतानि । तानि च स्वकीयाम्बेम पुरतोऽग्रतः तथा नायि यस्यां मुखायां पश्चिमतः पश्चिमभागे, पादयोश्चरणयोरुत्सर्गः परस्परपरित्यागः संसगभाषी पुनः शब्दयोगमा जनमुदाययतिपादनाथः।
संकृतकार्याणां सत्का
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(२४०२ ) अभिधानराजेन्द्रः ।
जिगा मुद्दा
जिना या विशेष जिनांत गाथार्थः । ॥ २० ॥ पञ्चा० ३ विश्व० स० । सङ्घा० | प्रब० । जिणरक्खिय- जिनरक्षित पु० । चम्पानगरीवास्तव्यस्य माक
सार्थवाहस्य पुत्रे स्वनामस्याने सार्थवादे, डा०1" जोगे य पता पति संसारसागरे घोरे।" बारिचं प्रतिपद्यापि नोगानभिकाङ्क्षन्तः पतन्ति संसारसागरे घोरे, जिनरहितवत् । [झा००ताचानुपदमेव जियपालिय स्मिन्नेव जागे १४९४ पृष्ठे डक्का )
"
जिारयणसूरि [ ] - जिनरत्नसूरिन् - पुं० । खरतरगच्छीये जिनराजसूरिशिध्ये निन्द्र तेन १६६२ वर्षे सूरिपदं प्राप्तः, तथा १७११ वर्षे आगरानगरे स्वर्गतिर्लेभे । संसारित्वेऽस्य "रूपचन्द्र" इत्यभिधानमासीत् । एतन्माताव्येतेन सह प्रब्रजिता । जै० ३० । जिनरायसूरि ()- जिनराजसूरिन पुंरगज नसिंहरिशिष्ये वैकमीये १६४७ वर्षेऽयं जातः १६५६ वर्षे १६७४ वर्षे पिदं प्राप्त १६३२ वर्षे पट्टने स्वरगत श्रीमद्देवाऽऽदितीर्थङ्कराणा मानामनेनैव प्रतिष्ठा कारिता, वैषधयकाव्यनेन जिनराजनानी डीका रचिता । जै० ६० ।
जिणरूत्र - जिनरूप - न० । परमाऽऽत्मरूपे, " जिनरूपं ध्यातव्यं, योगविधान्यथा दोषः।" जिनरूपं परमात्मरूपमिति । पो० १४ विष० ।
निसानमूरि[ ए ]-मिनसानमूरिन् पुं० खरतरगच्छीये जिनभक्तिरिशिष्ये, श्रयं वैक्रम। ये १७८४ वर्षे 'बीकानेर' नगरे जातः, १७६६ वर्षे दीक्षितः, १८०४ वर्षे माएमवीबन्दरे सुरिजांतः, १८३४ वर्षे स्वरगमत् । श्रास्नप्रबोधनामा प्रन्थोऽनेन रचितः । जै० इ०
जि.गवई - जिनवाक्-स्त्री० । जिनवचने, “जे कोविया जिणव पि।" वे जिनमपि कोपयेयुरम्धा कुर्युः ०१७० । जिनवंस- जिनवंश-पुं० [जिनाये, "साणं जिणो"। बं
शानामन्वयानां मध्ये यथा जिनवंशः प्रधानम् । संथा० । निणवयण - जिनवचन-न० | जिनाम्तीर्थकराः तेषां वचनमागम जिनम् द०१० जवानांच २०१० जनवचनदेवचनम् पश्चा १२ चित्र० । जिनवचनमाचारादि । स० ।" कुरा वि सहावेणं, दिखानावि होऊन भाि
क्कसुहाबद्दा होति” ॥१॥ श्रूयन्ते हि एवंविधाचिलाती सुतादय इति । तथाऽवयमिति (जिनका नाथयेदिति सर्वत्र संकधः ) पधावस्थितार्थप्रकाशकत्वेन सफलपरप्रकाि श्रमानयामिति प्रायः उच" यसका स दन्त्ररणाममा सतेोक्का । जिणत्रयणस्स भगवओ, न तुलमि तं प्रणम्येयं ॥१॥" तथास्तुनिकारेणाप्युक्तम्- "कल्पहुमः कल्पितमादाय वितामणिचिन्तितमेव घसे1 विचिन्त्ययेऽपि लोके तामुपैति ॥ १॥" अथवा पूर्णामिति पूर्वजवपरम्परोपाका कर्म दतिया साणा, ताम् । यत उक्तम्- "अं अनाणी कम्मं, वे बदुवा बासकोटा विद गुस
तदू
जिणवयण
यां " ॥ १॥ तथा-अमितामित्यपरमिताम् । यत उक्तम्" स जावावि सन्चोद्दीन जं तो सतत गुण लघु, अत्यो एगस्स सुसंस्स” ||१|| अमृतां वा परमामृशं पया तथा चोकम" जणवरामो रवि दिया य खजमाणस्स । तितिं बुडो न गच्छर, हेउ सहस्सोव गुढस्स ॥ १ ॥ नरनरगतिरियर-संसार गाणं|
दिगमस-मासु ॥१॥ तांबा जीवाम, उपपत्तिक्षमत्वेन सार्थका मिति भावः । न तु यथा तेषां जाना नदी घोरा थचादिनी ॥१॥" इत्यादिवाक्यनिि वन मृतामिति । तथा अजितामशेषपरमवादिनाऽशामि रपराजितामिति भावः । तदुक्तम्- "जीवाश्वत्थुचिंतण- कोस देवरण समि तिस्रयं ॥१॥" तथा महापमिति महानपरमितोऽयवस्था सा तथाविधाता पूर्वापराविधित्वादनुयोगद्वारा गर्भत्वाच महार्था, तां, महत्स्यां वा । तत्र महामतयः सम्यग्रह एव एवेोच्यन्ते । ततश्च महत्सु स्थिता महत्स्था, तां च, प्रधान सत्वस्थितामिति भावः । महस्यां वा, अतिशय पूज्यामित्यर्थः । बत उत्तम"सयल सुरासुरमा पुस- जोइस बंतरसुइयं नाणं । जेणेड गणरा णं इंतिवृत्ते सुरिंदा वि" ॥१॥ महानुभावः सामर्थ्यादिलक्षणो यस्याः सा तथाविधा, तां. प्राधान्यं चास्याश्चतुर्दश पूर्वविदः स धमन्तो जायते, ततश्च सकलस्यास्य त्रिवनस्थ प्रभवन्ति । यत उक्तम्- "पहू णं भंते! चउद्दत्रपुण्वी घमाओ घरसड सं, पढाओ परसहस्सं वि उ करित्तए ?। गोयमा ! हंता पहू'त्यादि परोतरधिमानादिपपानः उच
तगम्मी, चचदस पुविरस हो उ जनो। उक्को सो सम्ब. सि. किगमो वा अकम्मस्ल ॥ १ ॥ तथा महाविषयामिति । महदूविषयताऽस्याः सकन्न व्याऽऽदिविषयावभासकत्वात् । चकं च"दव्वाश्र सुयनाणी सव्वदव्वाई जाण, नो पास" इत्यादि कृतं प्रसङ्गेनेति गाथार्थः । दर्श० ४ तत्व । श्राव० । ( विस्तरतो गाथा व्याख्या' आणा' शब्दे द्वितीयभागे ११५ पृष्ठे प्रष्टव्या ) जिणवणे रता, जिणवयणं जे करंति जात्रेण ।
मला अविट्ठा, तेहुंति परित्तसंसारी || २६४ ॥ इति द्विनसंसारिणः स्युरित्यर्थः । ते इति के है, ये जीवा जिनवचने श्रद्वाक्ये अनुरक्ताः सन्तो भावेन जिनवचनं कुर्वन्ति इत्यनेन मनोवाकायैः जिनधर्ममाराधयन्ति । पुनः कीशास्ते ?, अमला मिथ्यामलरहिताम पुनः कीदृशाः १, असं ffer: मोहमत्सराऽऽदिक्लेशरहिताः । एतदृशा जीवाः संसार पारं कृत्वा मोकं व्रजन्तीत्यर्थः । उत्त० ३६ अ० | जिनवचनस्य प्रामात्यमुचस्तुनिकारक सुनिखितं प स्फुरन्ति याः काश्चन सूक्तिसंपदः । तवैव ताः पूर्वमहात्रोस्थिताः, जगत्प्रमाणं जिनवाक्यविप्रषः ॥ १ ॥ " नं० | जिनवचनप्रशंसा यथा- "जयति जगदे कमङ्गल-मपदनिःशेष पुरितघनतिमिरमरविधिमय यथास्थित वस्तुका जिं शवन्त्रः ॥ १ ॥ " नं० । जिनवचनस्य हितकारित्वं यथा"गंणं हियं वयणं, गोयम ! दिस्संति केवलियो । बीकान
वालिया
तिथवरमास पण जे तह सिंदा देवगणा तरल, पापहि य मंति हरिसिया " | महा
ت
+
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जिगावयण
(१५०३) अनिधानराजेन्फः।
जिणवयण
६.जिनवचमादन्यत्र न शरणम् । उक्त-"जन्मजरा. मरणभये-रभिते न्याधिवेदनाप्रस्ते । जिनवरवचनादन्यत्र मास्ति शरणं कचिल्लोके ॥१॥" प्राचा०१०१०१००।
जिनवचनस्य सम्यक्त्वं यथाभई मिच्छादसण-समूहमध्यस्स अमयसारस्स। जिणवयपास्स नगवो, संविग्गसुहाहिगम्मस्स ॥१६७॥ भकं कल्याणं,जिनवचनस्यास्त्विति संबन्धः। मिथ्यादर्शनसमूह. मवस्य । ननु मन्मिथ्यादर्शनसमूहमयं तन् कथं सम्यग्रूपतामा खादयति !, न हि विषकणिकासमूहमयस्यामृतरूपताऽऽपत्तिः प्रसिहाना परस्परनिरपेकसंग्रहाऽऽदिनयरूपानसांस्यादिमिथ्या दर्शनानां परस्परं सन्यपेक्षतासमासादितानेकान्त. पाणां विषणिकासमूहविशषमयस्यामृतसंदोहस्यैव सम्य. कत्वाऽऽपतः। दृश्यन्ते हि विषादयोऽपि भावाः परस्परसं. बोगविशेषमबाप्ताः समासादितपरिणत्यन्तराअगदरूपतामात्मसातकुर्वाणाः। मध्वाज्यप्रभृतयस्तु विशिष्टसंयोगावाप्तद्रव्या. न्तरस्वन्नावा मृतिप्राप्तिनिमित्तविषयरूपतामासादयन्तः ।न बाध्यक्षप्रसिकार्थस्य पर्यनुयोगविषयता, अन्यथाऽन्यादेरपि दाह्मदहनाक्त्यादिपर्यनुयोगाऽऽपत्तः। अत पव निरपेका नेगमा
इयो दुर्णया,सापेवास्तु सुनया उच्यन्ते। भाभिहितार्थसंवा. रिचई बादिवृषभस्तुतिकृतसिप्सेनाऽऽचार्यवचनम्-"नया. स्तव स्यात्पदलाञ्छना इमे, रसोपविष्टा श्च सोहधातमः । भवस्यनिप्रेतफला यतस्ततो, भवन्तमार्याःप्रणताहितैषिणः"॥१॥ शति । अथवा सांस्यादेरेकान्तवादिदर्शनसमूहमयस्य चूर्णनक्वजावस्य,मिथ्यारष्टिपुरुषसमूहविघटनसमर्थस्य वा,यद्वा-मि. चादर्शनसमूहा नैगमाऽऽदयः, एफैकनैगमाऽऽदेनयस्य शतवि. पत्वात् । "पक्केको वि सयविहीं" इत्याद्यागमप्रामाण्यादवयचा यस्य तन्मिध्यादर्शनसमूहमयम, जिनवचनस्य नैगमाऽऽदय: सापेकाः सप्तावयवाः,तेषामप्येकैकः शतधा व्यवस्थित इत्यनिप्रायः। समूहरूपसप्तनयावयवादाहरणापेक्षया च सप्तमङ्गीप्रदधनमागमक्षा विदधति । सामान्यविशेषाऽऽत्मकत्वावस्तुतस्वस्य, सामान्यस्यैकत्वात्, तद्विवक्तायां यदेव घटादि व्यं स्यादेकमिति प्रथमनकोविषयः, तदेव देशकालप्रयोजनभेदानानात्वं प्रतिपद्यमानं तद्विवकया स्यादने कमिति द्वितीयजङ्गविषयः, सदेवोभयाऽऽत्मकमेकदैकशब्देन यदानिधातुं न शक्यते तदा स्वादवक्तव्यमिति तृतीयभङ्गविषयः। तदेवावकाशदातृत्वेनाला. धारणनैकमाकाशं, तदेवावगाह्याघगाहकाबगाहनाक्रयाभेदाबनेकं भवति, तद्रूपैर्थिना तस्यावस्तुत्वाऽऽपत्तेः ! प्रदेशभेदापेवयाऽपि च तदनेकम् । अन्यथा हिमवद्विध्ययोरप्येक सताप्राप्तः। तस्य च तथाविवक्षायां स्यादेकं चाने चेति च. सुभऋविषयता । यदेकमाकाशं भवतः प्रसिहं तदेकस्मिन्नवयवे विवक्षिते एकमवयवस्यावयवान्तराद्भिनजिनानां वाचकस्य सदस्याभावादवक्तव्यं चेति । तथाविवकायां स्यादकमवक्त
चेति पचमनविषयः। तत् यदेवैकमाकाशं प्रसिदं भवतः तदवगायाबगाइनक्रियाभेदादनेकम् । एकानेकत्वप्रतिपादकसम्माभावादवक्तव्यं चातः स्यादनेकमवक्तव्यं चेति पटभाबिपवः । बदेवेकमाकाशात्मकतयाऽऽकाशं नवतः प्रसि, त. देव तथैकमबगावावगाहनक्रियापेकयाऽनेक, युगपःप्रतिपादनापेशवाऽवक्तव्य चति स्यादेकमनकमबक्तव्यं चेति सप्तमभङ्गविषयः। एवं स्यात्सर्वगतः स्थादसवंगतो घटादिरियादिका.
ऽपि सप्तभती वक्तव्या,यतो य एव पार्थिवाः परमाणवो घर एव विनसाऽदिपरिणतिवशाजलानिलानसावन्यादिरूपतामात्मसारकुर्वाणा: स्यात सर्वगतो घट श्त्यादिसप्तभविषवतां बथोकन्यावात् कथं नासादयन्ति न च घटपरमाणुनां पुत्रलरूपतापरित्यागे पूर्वपर्यायापरित्यागे घटपर्यावाऽऽपत्तिः, कणिकाक्षणिकैकान्तयोरयकिवानुपपत्तेरसस्वापत्ते,परिणामिन एव सुवर्णात्मनाऽवस्थितस्य केयूराऽऽमकविनाशमनुभवतः कटकाद्यात्मनोपयमानस्य वस्तुनः सत्यात,अन्यथा क्वचित्कास्यचित्कदाचिदनुपलब्धेः । न चाभ्यनादन्यकरिष्ठं प्रमाणान्तरमस्ति, यतस्तद्विपरीतन्नाबाज्युपगमः क्रियते । अन्तर्वधिहर विषादाऽबनेकाऽऽकारवितकोऽऽत्मकचैतन्यस्व स्थासको कुशलाऽऽधनेकाऽऽकारस्वीकृतैकमृत्पिपमादेःस्वसंवेदनाऽक्षजाध्यकतःप्रतिपत्तेः। सर्वयोपलन्यमध्यक्षरूपं पूर्वापरकोटपोरसदिति वदतः सर्वप्रमाणविरोधात कुएमलागदाऽऽविषु पर्या. येषु ताहाभूतसुवर्णद्रव्योपलन्धेः कार्योत्पत्तौ कारणस्य सर्वथा निवृस्यनुपलब्धेन च साहश्यविप्रलम्भात्तदभ्यवसायकल्पनेति वक्तुं तदेकान्तभेदसाधकप्रमाणस्यापास्तत्वात । मचक. थश्चित्स्वनावभेदेऽपि तादात्म्यक्षतिः, प्राधप्राहकाकारसं. विद्वद्विविक्तपरमाणुषु स्थूलै कघटाऽऽदिप्रतिनासपा प्राह्यप्राइकाऽऽकारविविक्तसंवित्प्रकल्पनेऽध्यकधियोऽपि विवक्विता कारविवेकाविवेकानुपलब्धेः । मध्यकेतरस्वनावाच्या विरोधस्वरूपासिद्धावन्यत्रापि का प्रवेषः । तथाहि-शक्यमन्यत्रापि पवमभिधातुम-एकमेव पार्थिवजन्य लोचनाऽऽदिसामग्रीविशेषात् चूर्णादिप्रतिपत्तिभेद ऽपि भिन्नमिव प्रतिभाति, प्रत्यास
तररूपताव्यवस्थितकविषयत्वात्। न हि स्पटास्पष्टनिर्भासभेदेऽपि तदेकत्वक्षतिः, तद्वदिहापि रूपाऽऽदिप्रतिन्नासाभेदेऽप्येकपंकिं न स्यात?,प्रतीतेरविशेषात् ।एवं न स्याद्वादिनोऽमेरप्य. नुष्णस्वप्रशक्तिरित्यसङ्गतमभिधानम् । यतस्तत्रापि स्यादुष्णोडनिरिति स्पर्शविशषणोष्णस्य भास्वराऽऽकारेण पुनरनुष्णस्व तस्यैकस्य नानास्वभावशक्तेरवाधितप्रमाणविषयस्यैवं नो दो. पाऽऽसक्कासंभवात् तस्मादेकस्यैव सामग्री नेदवशारथाप्रतिभासाविरोधः। कारणस्य च कार्याऽऽत्मनोत्पत्ती न किधिवपक्षणीयस्ति, यत्तथोरिपत्सुस्वजानता न भवेत् । अत एव मृदादिभा. यो घटस्वभावेन नश्वरः, कपालस्वरूपेण चोत्पत्तौ तिष्ठतीति स्वजावत एव नश्वरः,उत्पिन्नः स्थास्नुश्चान्यतमापाये पदार्थस्यैवासंत्रवात. त्रितयनावं प्रत्यनपेक्कावाच्च । न हपुत्पन्नःपदाथः किश्चित् स्थिति प्रत्यपेक्षते, स्थित्यात्मकस्वादुत्पादस्य, न चावस्थित उत्पत्तो किञ्चिरपेक्ते, उत्पत्तिस्वभावत्वात स्थिते। न च विनए उत्पत्ति प्रति हेत्वन्तरापेको, विनाशस्योत्पस्यात्मकत्वात्, ततः पूर्वापरस्वभावपरित्यागावाप्तिलकणं परिणाम. मासादयन् जाबो व्यवतिष्ठते! इति प्रत्यक्कादिप्रमाणगोचरमतदध । शब्दविद्युत्प्रदीपादेरपि निरन्वयविनाशकल्पनाऽसते. व, तपामादौ स्थितिदर्शनादन्तेऽपि तत्स्वन्नावानतिकमात्। न हि भावः स्वस्वनावं त्यजति, प्रागपि तत्स्वभावपरित्यागप्रशतेः, अन्ते च क्यदर्शनात् प्रागपि नश्वरस्वभावादादाबुत्पत्तिसमये स्थितिदर्शनादन्ते स्थितिः कि नाभ्युपेयते । न च विद्य. प्रदीपादेस्तैजसम्पपरित्यागात्तामणस्वीकरणे किञ्चिदवि. रुदं नवेत्। न च स्वभावभेदस्तदेकत्वविघातक, प्राग्राहकाकारमंवदनवद येववेदकाऽऽकारविवकपरोक्कापराकसवित्ति.
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(१५०४ ) अभिधानराजेन्द्रः ।
जिणत्रयण
महापथाच तो स्तद तदकरण विरोधाकिरत्वं तथा स्थित्युत्पादहेत्वाविंशरारुधर्मणः : स्वास्नुताकरणे विनश्वरस्वभावः किन विनश्येथाली स्वास्नुस्तथापि डि चितितरान ये स्वत एव तस्य स्थिते ॥ तथेोत्पत्तिहेतुरपि यदि क रोति, तदा न स्यात्किञ्चित्करत्वमेव नात्रस्य स्वयमेव भावानावरूपत्वात् । अथाना] [भावरूपतां नयतिलाई नामदेतुरपि भावमभावीकरोतीति कथमञ्चित्करः स्यात् ? न ह्यनाबस्य भाबी करणे प्राषस्य बाsभावीकरणे कश्विद्विशेषः संजबी । अत एव च तेषामन्यतमस्य सहेतुकत्व महेतुकत्वं चाभ्युपगच्छन् सर्वेषां तदभ्युपगन्तुमईति, अविशेषात् । न च भिन्नयोगक्षेमत्वात् कार्यकार योरेकत्वमनुपप स्वभावमेवे उध्येश्यप्रतिपतेः। सर्वसंधिरक्षणानामेकपतिविनाशवतामभित्र योग कार्यका रणयोरेकत्वमनुपपत्रम्, स्वजाव भेदे ऽप्येकत्वेऽपि च परस्परतः पृथग्भावसि मयात्राभिप्रयोगमेऽपि प्रतिमासमे सर्दि यत्र प्रतिभासामेदस्तत्र मिश्रयोगक्षेमावेऽप्यभेदप्रतिभा सभेदाभेदयोर्वस्तुभेदानेदव्यवस्थापकत्वात् । समुदायस्य च देशकालभेदाभावात् सकृदेव संवित्यात्मनोत्पतेरेकत्वं प्रसज्ये त । यदि च स्वनावभेदो वस्तुभेदलणं, तदा सन्तानान्तरबोरिव विषयरूपायाः संवित्तरेकत्वेऽपि प्रत्यङ्केतयोर्वाऽसौ विद्यत इति नाना प्रवेत्। यदि पुनः स्वनावनेदाविशेषे पिताना कारपोरेव तादात्म्यं पुनः सता मान्तरसंवितीनामिति प्रत्यासः कुत
परस्यापि विवक्षित कार्योपादानोपादेयतयोरेवस्त दात्म्यं कथञ्चिद् वदतो न कश्चिदोषः प्रशक्तिमान्। निराकृतखानेकश एकान्तवादः, तत्प्रसाधकहेतूनां सर्वेषामनेकान्तव्याप्ततया विरुतादर्शनादर्शनं कान्तादिन स्थानमनेकान्ताविविजयस्येवेतर पराजयाधिकरणमाक्षिण स्वाद् " विरुद्ध हेतुमुद्भाव्य, वादिनं जयतीतरः । इत्यस्य बचसो न्यायानुगतत्वात् । यदि पुनरसाधनाङ्गवचनं वादिनः पराजयाधिकरणमभ्युपगम्येत तदा वादाभ्युपगमं विधाय तू
"
भावमात्रेणासाधनाङ्गस्यावचनाद्वादिनो विजयः किं न स्वात् ?; प्रतिवादिनोऽपि स्वपसिकिमकुर्वतः कथं न विजयस्तत एत्र नचेत् ? । श्रय साधनाङ्गायचनमपि निग्रहस्थानं, सर्दिवादिप्रतिवादिनादिकरणानावाविशेषाणामिति
मम्बेयमित रजयस्यान्यतरपराजयाधिकरण तैव प्राप्ता, न च स्वपन जिप्राप्तिः प्राप्ती कथं तदे सरस्य पराजयः । यदपीष्टस्यार्थस्य सिद्धसाधनं तस्यानं स्वप्राचार्यानुपलम्भणं हेतु पक्षधर्मत्वादि स्वावचनं निग्रहस्थानं वादिन इत्युक्तम् । तदप्यचारु । प्रतिवादिनोऽपि पक्षधर्मत्वाऽन्यतमस्यानुक्तावसमर्थने वा विजयाप्राप्तेः तदप्राप्तौ च वादिनो निग्रहस्यानानुपपतेरित रजबनास्तरीयकत्वादितरपराजयस्थ; एवं हेत्वाभासादेरसाधनाङ्गस्व
वादिनो निस्यानमिति प्रतिव अथ ततः साध्यसिद्धेरभावात्तस्य निग्रहस्यानं प्रतिक्षिप्तम् । उक्त न्यासे च तद् विकेपादेरसाधनाङ्गकरणस्य तत एव तत्प्राप्तेः ततो यादिनमाचनमाया स्वप
व प्रतिवादी तत्पक्वप्रतिक्षेपेण निगृह्णातीत्येवदेव न्यायोपेतसुत्दश्यामः । एवं प्रतिदिन शेषमायतन स्थान
शायता स्वपसिद्धिमस्यादिनोविज तत्साधनस्य सदोषत्व संभवात् । तस्य सदोषत्वेऽपि तदुकानासनिंदिति नाभिधानाशादिनोऽपि पराजयाद्यधिकरणत्या
स्पराजयप्राप्तेः । अत एव प्रतिवादिनो दोषस्यानुद्भावनमपि न विमानमय वादिपसरप्रतिबन्ध विक्योद्भावनं प्रतिवादिप सिकाब साधकतमं तत्स दिनः पराजयाधिकरणम् । अन्यथा सत्पादप्रसारिकाद्वा नमपि तस्य पराजयाधिकरणं स्यात् । अथ पक्षाऽऽदिन स्वासाधनत्वात्सायने वादिनस्तपरिनिबन्धनपराजयाधिकरणता, तर्हि यत्सत्क्षणिकमिति व्याप्तिवचनादेव शब्दस्यापि त्यानंत एव तस्य पराजयाधिकरणं भवेत्। न च शब्दे शब्दविप्रतिप
पेन साथ सन्धानरुकं भवेद्विप्रति पती वा तत्साधकतो रसिकत्वादिदोषत्रयानतिवृष्ठे यतैबा न्युपगमाता साध्यत्वानुपपतिः यदि च संस सिकी सद्विस्तराभिधानं प्रियानं तर्हि सत्यात पि
कृतकत्वप्रयत्नानन्तरीयकत्वाद्यभिधानं कथं न निग्रहस्थानं स्यात् ?, कथं वा कृतकप्रयत्नानन्तरीयकादिषु स्वार्थिकस्य त स्वोपादानं तत्र स्यात् । यत् सत् तत्सर्वे कणिकमित्यादि साधनवाक्यमभिधाय पङ्गादिवचनवत्तत्समर्थनमपि निग्रहस्थानं प्रसकम् । असमर्थितमपि स्वत एव तत्बेनोकमेव स्त्रसाध्याबिनाभूतस्य हेतोः प्रदर्शनम्, आसाध्यसिद्धेः सद्भावात् । स्वभाव कार्यानुपलम्नप्रकल्पनया तद्वचनं निग्रहस्थानं परस्य प्रसक्तम् । अनुपपतिविशेषद
जिणवया
"
नम्। महानामपि व्याधिद्यावृत्तिनि यदि पुनरुज्यानुपलब्धेरेवासिद्धि तथा राम जीवच्छरीरं प्राणादिमत्वादित्यच घटाई रात्मनो कणिकवाद श्यानुपलम्भादेवासि यत्सत्कृणिकमिति सामसत्येन व्याप्यसिद्धितः कृणवानुमानं नानवद्यं स्यात् । किंच देशकालखनामविप्रकृष्टंभावानुपलब्धेरभावासिको सर्वत्र स दा सर्वोतमोऽनन्तरेवानुपपत्तिमानितिध्यातेर सिद्धेनं तत स्तत्सिद्धिः स्यात् । न चाभ्यक्का नुपलम्भौ तत्कार्यकारणभावप्रवाचकान्युपगम्यमान समितिविचारक स्वाच्च तो व्यापारा विधातुं मी तत्पृष्ठभाविधिकस्य निमभ्युपगमे सविकल्पकस्यानिष्टं प्रामाप्र सम्बत | अनधिगताधिगन्तृत्वादविसंवादित्याच्यताविकल्पस्तु हिंसाविरतिदानचेतसां स्वर्गादनिबन सामर्थ्य स्वनाव संवेदनस्यैव सर्वात्मना वस्तुसंबदनेऽपि निर्णमनशादेव प्रामादयोपपत्तेः अन्यथानुमानमा तद्गुतमादितयेत्युकं प्रागस्वानामनुपलम्भादेवसिद्धार्थ किवा साऽभावानां व्यादयेत्येतदपि परस्य निग्रहस्थानमेष, ततः स्वपसिद्धिरितरस्य पराजयाधिकरणं, सच परोपन्यस्तसोदर्शन देतुसमर्थनेन वा पपन्य देवखितादिदोषप्रतिपादनपुरा कर्तव्यपर पराजयनिबन्धना विजयागा बाजा स्थापनेन पर पक्कनिराकरणेन च सनाप्रत्यायनं विधयम, अन्यथा जयपराजयानुपपते तासिकाने कान्तिकत्ता साधनदोषाद्भावने निजी परिसमाप्तः अथ स्वपरिभाषा त्यामाकाद साधनाङ्गादिनिप्रद
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( १५०५ ) अभिधानराजेन् ।
जिणवयण
जिणवर
यानमा नरापिपादानमजिरावयामगुगसुभासिय भिनवचनानुगतिनाषित ि तस्यासाधनत्वप्रदर्शनेन प्रतिवादिकृतेन पराजयः, प्रतिवादिनस्तु जिनयचनमनुगत्या 55नुकूल्येन मुष्ठ भाषितं बेन स वृथा । समुद्भुतदोषज्ञापनाञ्जयः नि यदि पतिप्रति तस्मिन् स० । दिवा स्वपरोत्कर्ष]] कर्षप्रत्यायनमात्रेण वादी मणिमयमयभासिय जिनश्वनानुगतमहि[ - मतदाननापि निरास करणात आरमो स्कर्षसंवात्प्रतिवादिनां विजयप्राप्तिः; वादिनो निर्दोषसाधनानिधायिनोऽपि पराजयप्रसक्तिः। अथ समर्थस्यापि साधनस्यासमर्थनेन स्वरक्षसिद्धेरभावाद् वादिनः पराजयो न्यायप्राप्त एवाना उभयत्र पराजयप्रसक्तेः। न ह्यभूतदोषोपनयनिगमनाद्युद्भावनमा श्रेण प्रतिवादिना प्रकृतं वस्तुतस्त्वं प्रसाधयन् स्वपक्कसाधनसाम
विकलेन वादीनि इतिपक्ष प्रतिवाद्य व्यसाधनाङ्गस्य साधनायेोपादानादस्मनिदेशाले रिन्युत्तस्मात् "असाधना-मोपमानं द्वयोः विग्रहस्थानमन्यकि, न युक्तमिति नेष्यते ॥ १॥" इत्यादि वादन्यायज्ञक्षणमेकान्तवादिनां सर्वमसङ्गतम् । च कन्यायात् सर्वस्य चैकान्तसाधनात् तस्यासत्वेन साधयितुमशक नित्वेन तत्र दोषो दोष
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निर्दोष पराजयानधिकरणतावस्थेत महा स्वादित्यलं पिष्टपेषणेनेति व्यवस्थितं मिथ्यादर्शन समूहमयविद्यते मृतं मरणं मृत मोह संसारयति प्रापयतीति वा तस्याबन्धमोक्षकार तिपादकत्वाच श्रमयसायस्स " चेति पाठेऽमृतवत्स्वाद्यते इत्य मृतस्वादम, अमृततुरूपमिति यावत् । तथा रागाऽऽद्यशेषभुजे तृपुरुषविशेषरुच्यत इति जिनवचनम्, तस्य, अनेन विशि पुरुषप्रणीततस्वनयनगमयति राम्राकामतो नगवत इति श्रनेनापि विशेषणेन सस्यैहिकसंपद्विशेषजनकत्वमा संसारभयोगाविभूतमोक्षाभिलाषैरपकृष्यमाणरागद्वेषाढ ङ्कारका मुध्यैरिदमेव जिनवचनं तत्वमिति । एवं सुखेनाभिगम्यते यत्तत्संनिसुखाभिगम्यं, सेनापि विशितिशय संवित्समन्तियति वृषमनिस्वत्य मस्य प्रतिपादयति विगुणाखितस्य सा मायकाऽऽदिविन्दुसाराचमस्थिति प्र करणसमाप्तावन्त्यमङ्गलसंपादनार्थे विशिष्टां स्तुतिमाहेति । सम्म० ३ काण्ड |
जिनवदन- जिनमुखे, औ० भिकप्परुक्खनिनजनागम
" जिणत्रयण कप्यरुखो, अगसु सत्यालवित्धियो। तब नियम कुसुमगुच्छो, सुग्गफलबंधणो जय ॥ १ ॥ "
आचा० १ ० १ ० १ ० ।
जिम्मासुरागरसमण- जिनवचन [ वदन] धर्मानुरागरक्तमनस् - त्रि० । जिनवचने जिनवदने वा धर्मानुरागण रक्तं मनो यस्य स तथा । तस्मिन् मौ० । जिणवयपवुड - जिनवचनप्रद्विष्ट त्रि० । जिनाऽऽगमप्रविष्टे, 'जिवयणपट्टे" जिनास्तीर्थकराः तेषां वचनमागमल कणं तस्मिन् प्रद्विष्टश अमीता इति । दश० १ ० । जावयबाहिरमा - जिनवचनबाह्यमति- त्रि० । सर्वशासनबहिर्मुखमुषीके, वृ० १४० ।
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नवचनानुगताधिक]भाषित-विनियमाबाद, जुगतं संपर्क, नामिति पूजितमधिका भाषितं येनाभ्यापनाऽऽदिना स तथा । तस्मिन् स० । जिणबयणविहि- जिनवचनविधि - पुं० । प्रवचनोके प्रकारे, " जिणत्रयविदाई दो वि साबा ।" जिनवचन विधिना प्रवचनांतेन प्रकारेण धा० । जिनपर जिनवचनरुचि०जिनागमदधिके, घ०१० श्रयं च गुणवतः पञ्चमो भेदः ।
संप्रति जिनवचनरुचिरूपं पञ्चमं भेदं व्याख्यानय शाहसवणकर इच्छा, होइ रुई सहाणसंजुत्ता ।
विणा करतो, सुखी सम्मत्तरयणस्स १ । ४६ ॥ श्रवणमाकर्णनं, करण मनुष्ठानं, तयोरिच्या तीचाभिलाषो, जबतिथि संयुक्त प्रतीतिसंगता, जयन्ताधिकायाये. ति । अस्या एव प्राधान्यख्यापनायाऽऽह एतया विश्वरूपया रुच्या, विनाऽभावेन, कुतः शुद्धिः ?, न कुतोऽपीत्याकृतम् । संभ्य क्त्वरत्नस्य शुश्रूषा धर्मरागरूपत्वात्तस्य, तयोश्च सम्यक्त्वसद भाविनि सिकाउ“सुधरा
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या जहासमाही याचे नियम सम्म|१| इति पञ्चगुणभावना आम्ये तु पञ्चगुणा नित्यमभिदधति"सुत्तरखं आपणं करण भनि । गुणवंते पंचमिया, अणिमिच्छाहिया हो ॥ १ ॥ " अत्रापि सुत्ररुचिः पठनाऽऽदिस्वाध्यायप्रवृत्तिः, अर्थरुचिविनयं विप्रयुकं करणानभिनिवेश मुख्याधव अनिष्टोत्साहता पुनरिष्यति न विशेष [ श्राशङ्कानीय इति । ध०र० । (जिनबचनरुचिविषये जयन्तीश्राविका कथा 'जयंती' शब्देऽस्मिन्नेव जागे १४१६ पृष्ठे गता ) जिणवयणसुइ - जिनवचनश्रुति - स्त्री०। जिनाऽऽगमश्रवणे, “सुजहा सुरलोयासरी, रयणायरमेहला मी सुलहा । मिन्दुसुजय जय दुला ॥१॥ जियाबयाण-जिनवचनाडकर्णन १० राषिलवणे, "ततागमो हि तदा जणवा गुणा।" जिनचचमाकर्णनस्य तीर्थकरणस्य पते गुणा जिणवर - जिनवर - पुं० । जिनाः उग्रस्थांतरागाः तेषां बराः । पञ्चा० ४ विव० । प्रश्न० । रागाऽऽदिजयाजिनाः, अवधिमनःपर्यवोपशान्तमोह क्षीणमोढाः, तेषां मध्ये वराः सामान्य केवलिनो जिनवराः । संथा० । जिनानां वरा उत्तमाः, भूतभवद्जाबिप्रावस्वनावावभासि केवलज्ञानकसितत्वात् । प्रज्ञा १ पद । भुताऽऽदिजिमप्रधाने केवलिनि, आव० २ भ० । " चलवीसं पि बिरातियरा मे पसीदंतु "जिनादिज च्यः प्रकृष्टाः। ध०२ अधि० उत्त०। जिना रागद्वेषाऽऽदिजयनशीला सामान्य समय पर प्रधानोऽतिपेक्षया श्रेष्ठो जिनवरः। तं । तीर्थकरे, आ०२ ० "तित्थवरे
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(१५०६) जिगावर निधानराजेन्द्रः।
जिणसासण जिणवरे" रागवेषमोहजितो जिनाः, पवंभूताश्च सामान्यकेव- साम्राज्यमलंचकार, श्रिय स वः श्रीजिनधीरनाशः "॥१॥ लिनोऽपि भवन्तीति तदृव्यवच्छेदार्थमाह-परा:प्रधानाः चतु- कर्म०१ फर्म । खिशदतिशयसमन्वितखेन । सूत्र.१ भु.१ अ०१ ० "सोकण
| जिणसंकास-जिनमडुनश-पुं० । सर्वज्ञसरशे, कल्प०६ क्षण, जिणवरमयं," जिनवराणां तीर्थकराणां मतमभिप्रायमं । सूत्र० १४.१०१०। द.."जगमत्थयाट्रेयाणं,विप्रसिभव.
सकलसंशयच्छेदकत्व, स्था० ३ वा०२०। "अजिणाणं जिणरमाणसणधराणं । नाणुजोयगराणं, सोगम्मि नमो जिणव.
संकासाणं" । अजिनानामसर्वस्वाद जिनसंकाशानामविसं. राणं ॥१॥"द०५०४५०।
पादिवचनत्वाद् यथापृष्टनिर्वचनस्वाच । स्था० ४ ०४ उ० ।
जिणसंथव-जिनमस्तव-पुं० । “लोगस्सुजोयगरे" इत्यादिजिणवरिंद-जिनवरेन्छ-पुं० । जिनास्थवीतरागाः, तेषां
| पायां जिनस्तुती, दश०५ म०१०। गराः प्रधानाः केवलिना,तेषामिन्हास्तीर्थकरनामकर्मोदयवर्तिस्वादू नानाविधातिशयसमेतरवारच तीर्थकराः। अतस्तेषां, जि
जिएसकहा-स्त्री०-जिनसक्थि-न० । जिनास्पिनि, भ०। नवरेकाणामित्यर्थः । “पूजाए जिणवरिंदाणं।" पचा०४ वि. चमरस्स णं अमुरिंदस्स अमुरकुमाररएणो चमरचंचाए 40। "वंदामि जिणवरिंद" प्रका० १ पद । (जिनवरेन्द्रमिति) रायहाणीए सनाए मुहम्माए माण वर चेइए खंने वइरामजयन्ति रागाऽऽदिशत्रूननिभवन्ति येते जिनाः, तेच चतुर्विधाः। एस गोलवसमग्गपस बमोजिणसकहाभो समिक्खि. तद्यथा-अनजिनाः,भवधिजिना,मनःपर्यायजिनाः, केवलिजिनाः। तत्र केवलिजिनस्वप्रतिपत्तये वरग्रहणं, जिनानां धरा उत्तमाः
त्तानो चिट्ठति ॥ भूतभवद्भाविनावस्वभावावनासिकेवलज्ञानकसितस्वाद जिनम.
(जिणसकहानो ति) जिनसक्थीनि जिनास्थीनि । भ० रा,तेचातीर्थकरा अपि सन्तः सामान्य कवलिना जवन्ति, तत
१० श० ५ उ० । सूत्रे स्त्रीत्वनिर्देशः प्राकृतत्वात् । सू० प्र०१७ स्तीर्थकरत्वप्रतिपत्त्यर्थमिप्रहणम, जिनवराणामिन्छो जि
पाहु० । (सनास्थितजिनसक्थ्यनुरोधादिन्याः सजायां मैनवरेन्द्रः, प्रकृष्टपुण्यस्कन्धरूपतीर्थकरनामकर्मोदयातीर्थकर
थुनं कर्तुं न शक्नुवन्तीति अगमहिषी' शब्दे प्रथमभागे इत्यर्थः । प्रका०१ पद ।
१७५ पृष्ठे उक्तम) जिणवसह-जिनवृषन-पुं० । जिनभ्रेष्ठ, “अस्संजसं जिणव- जिणसासण-जिनशासन-न० । रागद्वेषमोहल कणान् शन सहं ।" असंज्वलं जिनवृषभम् । स०।।
जितवन्त इति जिनाः, तेषां शासनं जिनशासनम । सम्म० १ जिणवाणी-जिनवाणी-स्त्री० । अहंचने, “विलसतु मन
काएक । जिनप्रवचने, दश०१०। वीतरागवचने, “सुचासि सदा मे, जिनवाणी परमकरूपलतिकेव । कल्पितसकसन
णं जिणसासणं । "(२५ गाथा) दश..जिना उशायां
च, “णिक्खंता जिणसासणे।" जिनशासने जिनाऽऽकायाम् । रामर-शिवसुखफलदान पुललिता" ॥१॥चं०प्र०१पाहु।
उत्त.१८०। सूत्र। "देवा देवी नरा नारी, शाबराश्चापि शाबरीम । तिर्यइचोऽ
"समस्तवस्तुविस्तारे, व्यासर्पत्तै लवज्जले । पि हि तैररची, मेनिरे भगवकिरम " ॥ १॥ दशा० १०।
जीयाच्छोशासनं जैन, धीदीपोद्दीप्तिवर्द्धनम् ॥२॥ जिणविज-जिणवैद्य-पुं०। जिनभिषग्बरे, भावः ।
यत्प्रभावादवाप्यन्ते, पदार्थाः कल्पनां विना । जा सबसरीरगयं, मंतेण विसं शिरुभए के ।
सा देवी संविदे नास्ता-दस्तकल्पलतोपमा ॥३॥" उत्त०१मा तत्तो पुणोऽवणिज्जइ, पहाणतरमंतजोगण ॥ १७३ ॥ जं च मे पुच्चसी काले, सम्मं मुद्रेण चेयसा ।। यत्युदाहरणोपन्यासार्थः, सर्वशरीरगतं सर्वदेवव्यापकं,मत्रेण ताई पाउकरे बुके, तं नाणं जिणसासणे ॥ ३२॥ विशिष्टवर्णानुपूर्वीलकणेन, विषं मारणाऽऽत्मकद्रव्यं, निरुध्यते यच ( मे इति) मां पृच्चसि प्रश्नयसि, काले प्रस्तावे, सम्यनिश्चयेन ध्रियते,की,कके तक्कितदेशे, ततो मङ्कात् पुनरपनीयते । क युद्धन अविपरीतबाधवता, चेतसा चित्तेन 'सकणे तृतीया' केन?, इति,मत पाह-प्रधानतरमन्त्रयोगेन, श्रेष्ठतरमन्त्रयोगेने. "ता" इति सूत्रत्वात् तत् (पाउकरि त्ति)प्रामुष्करोमि प्रकत्यर्थः। "मंतजागेहि" इति च पागन्तरम् । तत्र मनायोगाभ्यामित्य- टीकरोमि, प्रतिपादयामीति यावत् । बुझोऽवगतसकलवस्तुर्थः। मात्र पुनर्योगशब्देनागदं परिगृह्यते । इति गाथार्थः ॥१७३॥ तस्वः। कुतः पुनर्बुद्धोऽसि?,अत पाह-तदिति यत्किञ्चिदिह जगति एष रशान्तः, अयमर्थोपनयः
प्रचरति ज्ञान यथाविधवस्त्ववोधरूपं तजिनशासने,अस्तीति तह तिहुअणता विमयं, मणोविसं मंतजोगवझजुत्तो।
गम्यते । ततोऽहं तत्र स्थित इति तत्प्रसादादुकोऽस्मीत्य
भिप्रायः । इह च यतस्त्वं सम्यक् शुझेन चेतसा पृच्छस्यतः परमाणुम्मिणिरुंना,अषणे तो विनिणविजो।१७।।
प्रतिक्रान्तप्रश्नादिरप्यहं यत्पृच्छसि तत् प्रादुष्करोमीत्यतः "तह" इत्यादि । तथा त्रिभुवनतनुविषयं, त्रिनुवनश
पृच्छ यच्चमित्यैदम्पर्यार्थः। अथ वा-अत एव अक्ष्यते यथा रीरालम्बनमित्यर्थः । मन एव भवमरणनिबन्धनस्वाद विषं " अपणो परेसिं च " इत्यादिना तस्यायुर्विनामवगम्य संमनोवि, मन्त्रयोमबलयुक्तो जिनवचनभ्यानसामध्यसंपन्नः,
जयमुनिनाऽसौ पृएः-कि यन्ममायुरिति । ततोऽसौ प्राह-यच परमाणे निरुणीक तथाऽचिन्त्यप्रयत्नाच्च अपनयति, तताऽपि
मां काबविषयं पृच्छसि तत्मागुक्तवान् बुकः सोऽत पव तस्मादपि परमाणाः, कः ?, जिनवैद्यो जिनभिषग्वर इति
तज्ज्ञानं जिनशासने, व्यवच्चंदफलत्वाद् जिनशासन पब, न गाथाथेः ॥ १७४।। भाव०४०।
स्वन्यस्मिन् सुगताऽदिशासन, अतो जिनशासन एवं यनो वि. जिणवीरणाह-जिणवीरनाय-पुं० । महावीरस्वामिजिने, “ब
धयः, येन यथाऽहं जानामि तथा त्वमपि जानीष, शेष प्राम्बग्धोदयादारणसत्पदस्थ,निरोपकारिबवं निहत्य । यः सिकि- दिति सूत्रार्थः ॥ ३२ ॥ उत्त० १० अ० ।
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( १५०७ ) अभिधानराजेन्
जिणसासा
नह जिसामरिया, धम्मं पार्सेति साहब सुद्धं । न कुतित्यिएस एवं दीसइ परिपालकोवा ॥ ९३ ॥ यथा येन प्रकारण, जिनशासननिरता निश्चयेन रताः, धर्म शापिशब्दार्थपान्तरन्ति साधवः, पजीवनिकायपरिदानेन कृतकारिता 55दिपरिवर्तनेन शुद्धमकल नै सान्तरीयाः तस्माच कुलार्थिकेयथासाधुषु दृश्यते परिपालनोपायः, पञ्जीवनिकायपरिज्ञानाऽऽद्यभावात्। जिणाइनस-जिनाऽऽदिभक्त पुं० तीर्थनाथानां सिद्धाऽऽचायेंउपायग्रहणं च साभिप्रायकशास्त्र पायोऽचिन्त्यते पायायात्यानामन्येषां गुणगरिष्ठानां बहुमानकरे, कर्म १ कर्म० । न पुरुषानुष्ठानं, कापुरुषा हि वितथकारिणोऽपि भवन्त्येवेति गाथार्थः ।। ६३ ।। दश० नि० १ श्र० ।
जिला एस - जिनाऽऽदेश-पुं०। भर्हद्वचने, "पब्वजानामजिणासो । पं० ० १ द्वार ।
- ।
"खानु
जिणसासनपरंमुह - जिनशासन पराङ्मुख वि० जैनमार्गविशे इत्थी संगया बाखां, जिण सासरा परम्हा "रा जितना तेषां शासनमा काममतुभूता सत्पराङ्मुखाः संखारानिय जैनमार्थविशेषिणः सूत्र०१
जिवाचा जिनाऽऽङ्गा-श्रीरागनपती बन्धा जिनाऽऽकां च तत्तपः गुरुमिध्यते । ” अष्ट० १ अष्ट० । मिणा चिनिनानुचीर्ण-त्रि जितिय नियते कथागसिद्वैर्गणधारिभिरनुचीर्णे जिनानुचार्णम । गणधरैः सकृतमा शमिमी निवर्तकसम
भु० ३ ० ४ उ० ।
मेमेघनामक समाधिरूपेण परिणमिते, जी० " जिणापुचिराणं जिणपण" जिना पहिला पनि योगसिद्धा गणधारिणः परिवृते विविधार्थस्यात् सुषाणामजी १ प्रति ।
नियसिंह (प) - जिनसिंहरिन् । बरतरगच्छ जिन
सुरिशिष्ये स्वनामख्यात श्राचार्ये, ती० २१ कल्प । पञ्चा० । अयं बैक्रमीये १६१५ वर्षे जातः, १६२३ वर्षे दीक्षितः, १६७० वर्षे सुरिपदं प्राप्तः, १६७४ वर्षे स्वर्गतः । द्वितीयोऽप्येतनामा पूनमबाग मुनिरत्नसूरिशिष्यः, येनाममस्वामिचरित्रनामा प्रन्थो रचितः । जै० ०
निणसीस- जिनशिष्य-पुं० गणधरादिके, स० ।
जिसीसाणं चैव समणगणपवरगंधहत्वणं धिरजसायं परिसह सेरिउबलपमद्दणाणं द (त) वदिराचारित्तणापसंमत्तसारविविद्दण्यगारप्पसत्यगुण संजुषाणं अवगारमहरिसी अणगारखान बल्यो ।
जिन शिष्याणां वरादीनाम, किंजुतानाम्, तद भ्रमणगणप्रवरगन्धदस्तिनां भ्रमनोसमानामित्यर्थः । तथा-स्थिरशसां तथा परीषद सत्यमेव परीषदन्दमेव रिपुरतत्तथा दवयद्दावाग्निरिव दताम्रज्यखानि पाज्ञान्तरेण तपोवनानि चाज्ञानसम्यान, ते द्वारा: सफला विविधप्रकार विस्तारा, मनेकविध
ये कमाये। गुणास्तेः संयुतानां कचिद् गुणध्वजा नामिति पाठः । तथा अनगाराश्च ते महर्षयश्चेत्यनगारमहर्षयः, तेषामनगरगुणानां वर्णकः श्लाघा श्राख्यायत इति योगः । म० । जियसुंदर-जिनसुन्दर-मध्ये स्वनामस्यते
}
1
तपागच्छीय जाचायें, ग०४ अधि० येन दीपावलीक नाम प्रन्थो विरचितः । वैक्रमं। ये १४६६ वर्षेऽयं विद्यमान भा सीत् । जै० ६० ।
जिसे हरसूरि [ ए ] - जिनशेखरसूरिन् - पुं० । खरतरगच्छीये जिनवसिध्ये १२०४ वर्षे रुपयःस्था पितः सम्यक्त्वसप्ततिका-शीलतरङ्गिणी प्रश्नोत्तर रत्नमालावृविश्वेति ग्रन्था विरचिताः । जै० ६० । सिक्खमूरि[ ए ]-जिन सौरूपरिन् पुं० [खरतरगच्छीये जिनचन्द्रसूरिगुरी, बैकमीये १७३६ वर्षेऽयं जातः, १७५१ वर्षे दीक्षित, १७६३ वर्षे सूरिजीतः १७८० वर्षे स्वर्गतः । जै० ६० ।
जिणालय
हिरण[ए] - जनगणनागये जिन
1
शिष्ये १०२ वर्षे वीरमानचित्या विचारात प्रो. रामशेखरनरपतिकथायेति हो धो रचित ०३० निहंसमूरि[ रा ]- जिनहंस रिन्- ५० बृददखरतरगच्छ जिनसमुषसूरिशिष्ये आचाराङ्गापरि दीपिकाकारक आचार्य, जै० ६० ।
जिणापप-जिनानुयत वि० जनानामतीतानागतवर्तमाना नामृषभानन्धरस्वामिप्रभृतीनामनुजनानुमत जिनानामानुन सम्मते "नाम"वस्तुत स्वर्गमा प्रति मनागपि विसंवादानावादिति जिनानु मतम् । जी० १ प्रति० ।
मिशाएखोम-निनानुझोम जि० जिनानामयन्यादिजिनामा
मनुलोममनुगुणं जिना तुम जिनानामनुगु, णिमयं लोमं तदूवादयध्यादिना। तथादिमिदं जनमतमायमानाः साधवःपर्यायकेवलज्ञानमासादयति जी० १ प्रति । निशायाजिनाऽऽयतनन० भवने पं० २० ४ द्वार
39
पश्चा० ।
1
जिवालय जिनालय १० जनभवने से जिन 3ये चैकि करोति तत्कन सूत्रे प्रकरणेबाबत तथा कुमलिन इथे कथयन्ति चैतीक देवर्मा जय तस्य पुष्पादि लात्वा कथं चटापयन्ति ?, इति प्रश्ने, उत्तरम्-धौतिढौकनमिति परम्परया ज्ञायते, तथा तन्निर्माल्यं न कथ्यते । यता"भोगविण दवं निम्मलं विति गीभत्था ।" इति श्राद्धवृत्ताबुक्तत्वादिति । १२५ प्र० । सेन०२ चला० । ज्ञानव्यममारिद्रव्यं च जिनगृहकार्ये श्रायाति न वा ? इति प्रश्न उत्तरम् - ज्ञानद्रव्यं जिनालयका आयातीत्यराण्युपदेशचन्तामणी अ मारिकारणं बिना न समायातीत
सेन०३ उल्ला०| जिनाऽऽ कार्यकर्तुरात्मीयं कार्य दीयते, न वा?, इति प्रश्न, उत्तरम् -जिनाऽऽलयस्थापकेन स्वकीयकार्ये न कायंत इति । ४६२ प्र० । सेन० ३ उद्धा० । जिनाऽऽजये रात्रौ तरकरणे देवमुपद्यते नान्यथा, न वा १ र शाखानुसारेण
"
वा तत्सं
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(१५००) जिणालय अनिधानराजेन्द्रः।
जिमा मुलावांधना गीतगानाऽऽदिन शुवति,परं देवान्योत्पत्तिका- | वक्तप्रवीणाप्रतिहतप्रवचनार्थप्रधानवाक्प्रसरस्य मुविदितमुरोन रात्रावपि गीनगानाऽऽदिभावनाकरणे लाभा ज्ञायते निजनमुखस्य श्रीजिनश्वराऽऽचार्यस्य । स्था० १० वा० । इति । ७७ प्र० । सेन०४ उहा।
"यो जैनानिमतं प्रमाण मनघं व्यत्पादयामासिवान्, जिणावधिणाण-जिनावधिकान-न। ज्ञाननेदे,श्रीजिनानामव.
प्रख्यानैर्विविधैनिरस्य निखिझं बौशाऽदिसंबन्धि तत्। धिकानं सरशं, किंवा विशेषः १, शति प्रश्न उत्तरम-यो जिनो
नानावृत्तिकथा बथापथमतिक्रान्तं च चक्र तपः,
निःसंबन्धविहारमप्रतिहतं शास्त्रानुसारासथा ॥७॥ पतः समति तस्य तत्स्थानसंबन्धि प्रवर्कमानं चावधिज्ञानं
तस्याऽऽचार्यजिनश्वरस्य मदववादिप्रतिस्पर्किना, प्रवतीति, न संवेषां जिनानामवधिज्ञानसारश्यमिति । १२८
तद्वन्धोरपि बुकिसागर इति ख्यातस्य सूरेर्नुवि । प्र० । सेन. १ नखा।
छन्दोबन्धनिबरुबन्धुरवचःशब्दादिसलक्ष्मणः, जिग्णाहिय-जिनाऽऽहित-त्रिका जिनसहितः,जिनानां वा संबन्धी श्रीसंविनविहारिणः भुतनिधश्चारित्रमामणः" | का०२ माहितो जिनाहितः जिनप्रतिपादिते, जिनानुष्ठिते च । सूत्र
भु०५ वर्ग ११०। "चरे भिक्ख जिणायं।" जिनहितः प्रतिपादितोऽनुष्टितो
तथा च पञ्चाशकवृत्तौ बर्द्धमानबर्णनमुपक्रम्यपो मार्गों जिनानां वा संबन्धी योऽभिहितो मार्गस्तं चरेवनुति.
" शिष्योऽभवत्तस्य जिनश्वराऽऽस्यः, ठेत् । सुत्र०१६०६अ।
सरिः कृतानिन्द्यविचित्रशास्त्रः । मिणिकण-जित्वा-अव्य० । जयं करवेत्यर्थे, प्रा०४ पादा मजा
सदा निरासम्बविहारवर्ती,
चन्द्रोपमश्चकुलाम्बरस्य"॥२॥ पशा०१६ विव। "पप्प्येप्पिएवेन्येविणवः" 11४४४०। इनि प्राकृतसूत्रेणापभ्रं- भटके वीरजिनमारज्य वर्षमानमुनिपर्यन्तमुपवर्यशे स्वाप्रत्ययस्य एप्पि, एप्पिण,पवि,पविणइत्यादेशाः। प्रा०४ "संवेगरमशाला-प्रन्थार्थकथनसूत्रधरतुल्यः।
। पाद। "गंग गमिपिणु जो मुम,जो सिवतिय गप्पि।कीलदि सूरिजिनेश्वराऽऽसया, सिकिविधेः साधने धीरः" ॥३॥मह. तिवसावासगउ, सो जमलेोउ जिणप्णि ॥१॥" प्रा०४ पाद । ३२ अए। अन्योऽप्येतनामा राजगच्चीयो पजशास्त्रायां कोजिणिता-जित्वा-अव्य० । जयं कृत्वेत्यर्थ, प्रा०४ पाद। टिकगणमध्यगोऽभयदेवसूरिशिष्योऽजित सेनगुरुः, तेन जैननैषनिणिंद-जिनेन्द्र-पुं० । जिननायके तीर्थकरे, "एत्य इमं व
धीयकाव्यं रचितं, स च वैक्रमीये १०५० वर्षे विद्यमान
मासीत् । अपरश्च वैक्रमीये. १२६१ वर्षे मासीत, सच रिणभं जिणिदो।" जिनेन्डैः जिननायकैः। पञ्चा०५ विवा
सूरिप्रभसूरिशिष्यः । चतुर्थश्च खरतरगच्छे जिनप्रबोधसरिशिमौ० । पं० २० । रा०।
प्यः चन्द्रप्रभचरित्रग्रन्थरचयिता प्रामीत् । तस्य जन्म १२जिणिदपएणत्त-जिनेन्मज्ञप्त-त्रि० । तीर्थकरप्रणीते, पं० ब०
४५ वर्षे, दीका १२५५ वर्षे, सूरित्वं १२५८ वर्षे, स्वर्गतिः २वार।
१३३१ वर्षे समभवत । जै०३० । जिणिंदवयाण-जिनेन्छवचन-न । जिमेश्वराऽऽगमे, पञ्चा।
राऽऽगम, पञ्चा०। जिणुज्जाण-जिनोद्यान-न। भवन्तीजनपदस्थोज्जयिनीनग
MSIM चितं चित्तपयजुधे, जिणिंदवयणं असेसमत्तहि। | रोत्तरपार्श्ववर्तिनि स्वनामन्यात उद्याने, ग०५ अधिकानिवृत परिसुफमेत्य किं तं, जं जीवाणं हि णस्थि ? ॥३॥ जित्तम-जिनोत्तम-पुं० । तीर्धकरे, "मगं बिराहित जिणुचित्रम्-अद्भुतमनकातिरायाभिधानवादलानादिनदत्वाद्वा समाणं ।" जिनोत्तमानां तीर्थकराणाम् । उत्त०२० म०। चित्रमनेकविध, तथा चित्रपदयुतम्-नानाविधार्थप्रतिपादका. निणेप्पि-जित्वा-अव्य० । जयं कृत्वेत्यर्थे, प्रा०४ पाद । निधानयुक्तम, जिनेन्दवचन-जिनेश्वराऽऽगमः, अशेषसस्वहितं समस्तप्राण्युपकारकं भव्यानुसारेण मार्गप्रतिपस्युपायप्रतिपा
जिणेस-जिनेश-पुंज महति, "जिनेशगाविस्तरमाप तकः।" बनपरत्वात्,परिशुद्ध कपच्छेदतापविशुद्धं सुवर्णमिव निर्दोषम।
जिनेशगीरईद्वाण । व्या०६ मध्या० । एवं च अत्रास्मिन् जिनवचने,किं तद, यज्जीवानां हितं नास्ति',
जिणेसर-जिनेश्वर-पुं। जिनेन्छे, तीर्थकरे, पशा०१६ विव०। सर्वमपि जीवानां हितमस्तीत्यत इदं तपः परिदृश्यमानाऽऽगमे जिणेसरसूरिण]-जिनेश्वरमरिन-पुं०1"जिणिस्सरसूरि" अनुपलभ्यमानमप्युपलब्धमिवावगन्तव्यं, तथाविधजनहितत्वा- शब्दार्थे, जै० ०। दिति गाथार्थः॥ ३१॥ पश्चा०१६ विव०
जिपोवड-जिनोपदिष्ट-त्रि० । तीथकराभिमत, " जिणानिणिस्सर-जिनेश्वर-पुं० । जिनेन्द्र तीर्थकरे, पश्चा०१६विवण पण भावेणं । " ग०२ अधिः। निणिस्मरमुरि[ए]-जिनेश्वरसूरिन्-पुं०। श्रीवर्धमानसूरि- जियोवएस-जिनोपदेश-पुं० । द्वादशाङ्गे प्रवचने, "ण वितशिष्य अभयदेवसूरिगुरौ स्वनामख्यात प्राचार्य, स्था०१०००। उचाओ जिणोवएसम्मि ।" सम्म ३ काण्ड । एतस्मादेवाऽऽचार्यात् खरतरगच्छः प्रवृत्तः,प्रयमाचार्यों बैक-जि-जीणे-त्रिका "उज्जीणे"।।१।१०। इति प्राकृतसू. माये१०८० वर्षे विद्यमान आसीत् । एतेन जावानपुरमुषित्वा हा- | प्रेण जीर्णशब्दे इत उत्वे-'जुप्पो' उत्स्वाभावपक्के-'जिमो'। प्रार रिजनाएकटीका, पञ्चलिङ्गीप्रकरणं, धीरचरित्रं,लीलावतीक- पाद । हनियुक्ते, भ०१ श०१०। "जुम्मे जराजज्जरियदेडे"। था,रतकोशश्चेत्यादिका अनेके अन्या रचिताः जैण्ड तथा च जीणों हानिगतदेहः। भ०१६ श०४ उ०। उत्त। मनु० । स्या नावृत्ती-श्रीमश्चकुत्रीनप्रवचनप्रणीताप्रतिबद्धविहारहा- निःसार, "जहा जुराणाइ कटाइ हव्यवादो पमत्थति" । यथा रिचरितश्रीवर्कमानानिधानमुनिपतिपादोपसेविनः प्रमाणा35. जीर्णानि निःसाराणि काष्ठानि हव्यवाहो हुनतुक प्रमध्नातिशीनं
दिव्युत्पादनप्रवणप्रकरणप्रबन्धप्रणयिनः प्रबुप्रतिबन्धकप्र- भस्मसात् करोति । प्राचा०१ २०४० ३० ।"अप्पंग
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( १५०६ )
अनिधानराजेन्द्रः |
जिगण
या दावद वरुक्खा जुषा 1 " जीर्णा इव जीर्णाः । ज्ञा० १ ० १० म० । प्राकृते क्वचिस्त्रं न भवति । " जिसे भोयणमओ।" प्रा० १ पाद । प्रा० चू० जरायुक्ते, जीरके, पुं०। शैलजे, न० । स्थूलजीरके, स्त्री० । वाच० । परिणतवयसि बृ० १ ३० ।
। वृद्धायामपरिणीतायां
जिए कुमरी - जीर्णकुमारी - स्त्री० सियास "जा कुमरी "जी जीरा, जरा वृत्यर्थ से जीत्यापरिणीतत्वाय जीर्णकुमारी झा० २ ० १ वर्ग १० । नि० ।
1
जिए गुल - जीर्णगुरु-पुं० । निस्सारगुमे, जीर्णगुडस्य पि. एमी भवनलकणो बन्ध इति । प्र० ८ ० ६४० । अनु० । जिए - जीर्ण-२० निस्वारते अनु जिस-मीतएडुल पुं० विस्वारस्य पिरामी
-
भवनलक्षणो बन्धः । भ० श० १४० । अनु० । जिएखतया जीर्णव- श्री० [सके, भुजंगमे तु तयं जहा जहे, त्रिमुरुवती से दुहसेज्ज माहणे । " यथा सर्पः कचुकं त्यक्त्वा निर्मलो भवत्येवं मुनिरपि दुःखशय्या तो नरकाऽऽदिभवाद्विमुच्यत इति । आचा० २ श्रु० ४ चू० । जिएणडुआ जीर्णदुर्ग १० राचस्य तेजपाल त्रिनाकारिता गिरिमानलस्ये उपनगढापरनाम के डी० "वादपणे व पोरवालकुलमंडणासरायकुमरदेवतणया सुरारीरं धरापापानामविखा दो भावरा मंतिपरा हुत्या सत्य तेजपाता गिरिनारतले निमंकि तेजपालपुरंधियं जस्स उ पुग्वदिसार उग्गसेणगढं नाम डुमां जुगाश्नाहृप्पमुह जिण मंदिररहितं विजयः तस्स य तिरिए नाम पसि जागति वा गारगति ति या गढस्स बादि दाहाल रिवारवाडयाविति उत्तरविसार विसालनसालासोहियो दसडुभारमंडवो, गिरिदुवारे य पंचमो हरी दामोधरो सुवएणरेहानईपारे वढ्छ ।” ती० ४ कल्प | जिराभीराखी निःसारसुरायाम् सुरा
-
स्थानीभवनल को बन्धः । न ८ श० १ ० । अनु० ।
जिष्ठसेडि [ ण् ]-जीर्णश्रेष्ठिन् पुं० । श्रेष्ठिपदाच्च्युते श्रेष्ठिनि
६० र० ।
" पुरी समस्ति वैशाली, शालीनजनशालिनी । समीरमाो, जिन्दताः सुधीः ॥ १ ॥ सदा -सेनेक कयुतः श्रेष्ठिपदाज्जीर्ण श्रेष्ठत्वेन स विश्रुतः " ॥ २ ॥ घ० र० । “ वाणारसीए रुद्दस्रेणो जुएणसेठी । " आव० ४
अ० । कल्प० ।
निष्ठानिस जीणां भी क्षियनिमित्तम् ।
“ जिला जिसे य भोयणे बहुलो । ” आ० म०प्र० । ० क० । जिष्ठासा - जिज्ञासा - स्त्री० । बुभुत्लायाम्, पञ्चा० ४ विव० । जिए एज्जाए - जीर्णोद्यान न० । राजगृहनगरस्योत्तरपश्चिम• दिशि स्थिते स्वनामख्याते उद्याने, ज्ञा० १ ० १ ० । जिए एद्धार - जीर्णोधार - पुं० । जीर्णस्य भग्नमन्दिरादेरुकारो
३७८
जिन्भामय सोक्ख
यत्र । संस्कारनेदे, वाच० । घ० । "नवीनजिनदस्य विधाने प्रवेत् । तस्मादष्टगुणं पुण्यं, जीर्णोद्धारेण जायते ॥ १ ॥ जीर्णे समुद्धृते याव - सावत्पुण्यं न नूतने । उपदों स्वचेत्यस्यातिरपि ॥ २ ॥
तथा
राया अमच सिठी, कोबीप वि देखणं काळं । जिसे या विकारवर ३ जिग्भवणाई जे उ- - इति प्रसीद सडिश्रपरिश्राएं । ते उद्धरंति अप्पं, भीमाओ जवसमुद्दाओ ॥ ४ ॥ " जीर्णायकारकारणपूर्वकमेव च नाययेत्यकारणमुचितमः तत एव संप्रतिनृपतिना एकोननवतिसहस्रा जाणकाराः रितु सखाये एवं कुमारपा वयस्तुपायाद्यैरपि नभ्यचैत्येभ्यो जीर्णोद्वारा एव बहवो य धाप्यन्तेति । ध० २ अधि० । जिष्ठोन्जवा स्त्री० । देशी खूबयाम, दे० ना० ३ वर्ग ।
जित्तिअ - यावत्- त्रि० । यत्परिमाणे " यत्तदेतदो ऽतोरिति
एतल्लुकू च " ॥ ८ । २ । १५६ ।। पद्भ्यः परस्य डावाऽऽदे रताः परिमाणार्थस्य 'इति' इत्यादेशो भवति, एतदो लुक् च । यावत्, 'जित्तिमं । प्रा० २ पाद ।
निध-यथा येन प्रकारेत्यर्थे च यथातथां धांधा कि ५०१ ॥ इति प्राकृतव था इत्यस्य 'इध' 'इह' इत्यादेशौ भवतः । प्रा० ४ पाद । जिन्भगार-जिहाकार - पुं०] जिह्वा कारके शिल्पि भेदे, प्रशा०१ पद । जिम्नानिहाय विनि० " भी बा" ||८२ ५७ ॥ इति प्राकृतसूत्रेण वा भः । प्रा०२ पाद। "ईर्जिहासित्रिशद्वशती त्या " ॥८१॥ ६२॥ इति प्राकृतसूत्रेण ईकारविकल्प प्रा० १ पाद । रसज्ञानेन्द्रिये रसनायां च । वाच० प्रश्न० । जं० । औ० । प्रशा० । “सत्तंगुलिया जीड़ा ।" जिह्वा मुखाज्यन्तरधर्तिमांसवरूप देणाः साङ्गला "जि
सिद्दित्यमित्तं "मद्यमांसरसानिलिप्सा
तिमिमायाभिरभितापयन्ति । सूत्र० १ ० ५ ० १ ० । उत्त० । उपा० । जिन्भाकुड - जिहा इष्ट-पुं० जिह्वया दुष्टे, श्राव०४ अ० उत्तः । जिन्नादोस - जिहादोष-पुं० । जिह्वाविकारे, माव० ४ अ० । जिब्जामय - जिह्वामय-पुं० । जिहेन्द्रियहानी, स्था० ६ ठा० । जिन्भामय दुक्ख - जिह्वामय दुःख - न० । जिह्वेन्द्रियहानिरूपे दुःखे, " जिग्भामरणं दुक्खेणं संजोएत्ता जवइ ।” जिह्वामयं जिहेन्द्रियहानिरूपं यद् दुःखं, तेन संयोजयिता जवति । स्था० ४
ग० ४ उ० ।
1
जिन्भामय सोक्ख - जिह्वामय सौख्य-न -न० । जिह्वाया विकारो मयं यं रसोभा बम्नाऽऽनन्द रूपे जिह्वेन्द्रिय सुखे, "जिन्नामयाओ साक्खाश्र बवरोवित्ता जवः ।
93
स्था० ४ ० ४ ३० ।
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जिभिदिय अभिधानराजन्तः।
जिय जिग्निदिय-जिह्वन्धिय-न० । रसनेन्द्रिये, प्रश्न. १ आश्र.
जाव न सतिं च मतिं च तत्य कुजा, पुणरवि जिजिदिएण द्वार । जिद्धेन्द्रियं च दुःसाय जवति ।
सातियरसानि अमापावकाई,किं ते ?, अरसविरससी- यथा दुःखाय नवति तथोदाहरणम्- .
ययुक्खाणजपपाणभोयणाई दोसावावमकुहियपूइय"भूप्रतिष्ठपुरे राजा, सोदासो मांसलोनुपः।
अमामाविण बदभिगंधियाई तित्तकायकसाप्रमारिॉषिताऽन्येा-मर्मासं पर्युषितं पुनः ॥१॥ मार्जारो जगृहेऽन्यत्तु, न सूनास्वप्यभूत्तदा ।
यअंबिलरसलिंदनीरसाई अमेसु य एवमाइएमु रसेसु राको भीतेन सूदेन, शिशुापाद्य संस्कृतः॥२॥
अमणुमपावएम.न तेसु समणेण रुसियब्वं० जाव चरेज्ज नुमानः पृष्टवान् राजा, मांसं स्वादिष्ठमद्य किम् ।
धम्म ।। प्रश्न५ सम्बद्वार ।। (टीकाऽस्य 'रसगिक' शब्द) तेनाऽऽण्यातेऽभयं दत्वा, हस्बैक पचेः सदा ॥३॥
जिब्जिया-जिबिका-सी। जिला-कन, टाप् । कृतिमाजलातच ज्ञातं जनैः सर्वैः, ततो राकस इत्यसौ। पाययित्वा महामद्य-मटव्यां कर्दितो नृपः॥४॥
याम्,सका शीतोदाया महानद्याः प्रपातमधिकृत्य-"वरामयासत्राप्येकाकिनं व्यापा-यााति सच मानुषम् ।
पजिव्हियाए"। वज्रमय्या जिसकया प्रणालस्थमकरमुखसार्थस्तत्रावनाऽगच्छत् ,शातः सुप्तेन तेन न॥५॥
जिहिकया। स०। "रोहियंसा णामं महाणई जो पपडा, श्रावश्यकं प्रकुवोणाः, दृष्टाश्च मुनयः स्थिताः।
पत्थ णं महं पगा जिव्हिया पएणत्ता।" जं० ४ वक० । शक्रांत्याक्रमितुं तान्न, ततश्चिन्तां प्रपन्नवान् ॥ ६॥ जिम-नुज-धा०। भक्कणे, आत्म। पालने, पर०सक०रुधादि० प्राचार्य : कथितो धर्मः, प्रबुद्धः प्रावजत् ततः।
अनिट् । “ भुजो मुंजजिमजमकम्माएहसमाणचमढचहाः" । प्राचार्या ज्ञानिनोऽभूवन, अभ्युद्दः स तैस्ततः॥७॥ ८।४।११० । ति प्राकृतसूत्रेण जुजेर्जिमाऽऽदेशः। "जिमइ-जे भाषिणः कति तारकाः, तसझाऽतिदुःखदा ।
म" प्रा०४ पाद । नुते अन्नम्, अनौक्षीत, भूमि नुनाक्ति पास. अतव्याली प्रयत्नेन,दुर्जया मोहनीयवत् ॥ ७॥"श्रा०का यति । वाच०। 'जिमइ-जिम्म'। प्रा०४ पाद । प्रा०म० प्रा००।
जिम-धा० । भक्कणे, जेमति, अजमात । वाचः। जिभिदियनिग्गह-जिहेन्द्रियनिग्रह-पुं०।६ता जिह्वेन्डियस्य |
निमिय-जिमित-त्रि० । कृतभोजन, विपा० ३ ० । “जिमिए निग्रहे , जिद्धेन्द्रियस्य स्वविषयाभिमुखमनुधावतो नियमने,
| जुत्तुत्तरागए"। जिमितो नुक्तवान् । भ०३ श०१०। । उत्त०।
जिम्म-जिन-त्रि० । हा-मन्-द्वित्वादिल नि० । " पदमइमजिभिदियनिग्गहणं ते! जीवे किं जाण्या? जिभिदि
मस्ममाम" ||७२।७४ ॥ इत्यादिसूत्रेण म्हः क्वचिन्न यनिग्गडेणं मणप्पामणुस्मेसु रसेसु रागहोसनिग्गरं जाणय
जवति । प्रा०२ पाद । कुटिले, मन्दे, तगरवृके च । वाचा इ, तप्पच्चइयं कम्मं न बंधेड, पुव्यवकं च निजरे ॥६५॥ "अजिम्मकंतणयणा" अजिह्म अमन्दे नानावतया निर्विकाहे भदन्त ! जिन्डियनिग्रहेण जीवः किं जनयति ? गुरुराह
रचपले कान्ते नयने यासा तास्तथा । जं० २ वक्क० । स०। हे शिष्य! जिह्वेन्द्रियनिग्रहेण जीवा मनोकामनोकेषु रसेषु राग
कौटिल्ये, न0 । तदात्मके मायाकषायान्तर्गते मोहनीयकर्मवेषनिग्रहं जनयति, नत्प्रत्ययिक रागद्वेषनिमितकं कर्म न | न च । स०७४ समः। बनाति, पूर्वबद्धं रागद्वषोपार्जितं कर्म निर्जरयति-क्षयति । जिम्मजद-जिह्मजम-त्रि०मायारहिते, "जिम्मजडा ति वि. ॥६५॥ उत्त० २६ प्र०
सभे।" जिह्मजडानि जिह्मन मायया रहितानि । व्य०३ उ०। जिजिदियपमिसंलीया-जिहन्जियप्रतिसंझीनता-स्त्री०म- जिम्मय-जिह्मक-पुं० । मेघभेदे, स्था० ५ ०। " जिम्हेनोकामनोवाहारेषु रागद्वेषपरिहाराऽऽत्मक श्राजीविकानां णं महामहे बहुवासेहिं एग वासं भावेर वा, ण वा भावेह।" तपाभेदे. स्था०४ वा. २ उ०।
जिह्मस्तु बहुभिर्धर्षणैरकमेव वर्षमन्दं यावद् भुवं जावयति, जिजिदियबल-जिहन्धियबल-न । बलभेदे, स्था०१०म०। नैव वा जावयति, रूक्षत्वात्तजलस्येति । स्था०४ ठा० ४००। जिनिदिय{म-जिहन्छियमएम-पुंग मुण्डनेदे, स्या०१०००। जिम्न-जिह्म-त्रि। जिम्म' शब्दार्थे, प्रा०५ पाद । जिजिदियसंवर-जिहन्द्रियसंवर-पुंगरसनेन्द्रियसंवरणे,स्था जिम्भजढ-जिह्मजड-त्रि०। 'जिम्मजढ' शब्दार्थे, व्य० ३उ०। तथैवम्
जिम्जय-जिह्मक-पुं० । 'जिम्नय' शब्दार्थ, स्था०५०। चनत्थं जिभिदिएण सातियरसाणि न मणुम्भदकाई,
जिम्ह-जिह्म-त्रि० । जिम्म' शब्दार्थे, प्रा०५ पाद । किं ते ,प्रोग्गाहिमविविहपाणलोयणगुलकयखंम्कयतेल्लघ
जिम्हजद-जिह्मजड-त्रि० । 'जिम्मजद' शब्दार्थे, व्य० ३ उ० । यकयभकावेसु बहुविहेसु लवणरससंजुत्तेसु महुमंसबहुप्पका. रमजियनिहाणगदालियंबसे हंबरूदहिमरयमज्जवरवा--
जिम्हय-जिह्मक-पुं० । 'जिम्मय' शब्दार्थे, स्था८४ ठा०४००।
जिय-जित-न । जि-भाव क्तः । जये, कर्मणि क्तः । अभिनूते, काहीसीहुकापिसायणसायऽटारसबहुप्पगारेसु नोयणेसु य
सूत्र०१ श्रु०१ अ०४ उ० । पराजिते, ग०२ अधि० । जयलम्धे, मणएणवएणगंधरसफासबहुदवसंजिएमु अलसु य एव- वशीकत, बायत्तीकृते च। त्रि० । वाच । वृ० । सूत्रात्ता
पसु रसेमु मारामजदएमु, न तेमु समयेणं सज्जिय० । परावर्तनकाले, प्रश्नोत्तरकाले, शीघ्रमागति, अनु. ।
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जिय
जीमूय
शाऽऽदौ परावर्तनं कुर्वतः परे या क्वचित्पृष्टस्य सः यव | जिगलोह जितसोज १० विफलीकृतलो, बी० यत् - - । । शीघ्रमानणति तज्जितम् । अनु । विशे० | ग० | "जियं नाम- जियवं- जितवत्- त्रि० । प्राप्तजये, प्रश्न० १ आध० द्वार । जत्य पुषिो तत्थ भागिति जगाइ " पं० चू० । जियसत्तु - जितशत्रु - पुं० | पराजितशत्रौ, जितसच पररायजियंतय - जीवत्-न० | दरितवनस्पतिकायदे, प्रा० १ पद । सीहा ।" प्रश्न० ४ संब० द्वार । श्रजितजिनस्य पितरि प्र०१२ जियंती - जीवन्ती - स्त्री । वल्लीनेदे, प्रज्ञा० १ पद । द्वार । आव० स० । “विजया जियस चुपुत्तस्स ।" ति० । वाणि ज्यप्रामवास्तव्ये नृपे, "तत्थ वाणियग्गमे जियससू राया।" नियकरण जितकरण पुं० [करण, "जियकरणी उपा० १ ० चम्पानगरीवास्तव्ये नृपे, "चंपा नाम नयी होत्या, एगस्थे ।" जितकरणो विनीत इति द्वावप्येकार्थी तात्पर्येविपुष्ठभद्दे चेहर, जियसत्तू राया ।" उपा० १ भ० छत्रानगरीवाश्रान्त्या; शब्दार्थस्तु परस्परं भिना, जितकरणो नाम-करणदक स्तव्ये नृपे आ० म० प्र० । वसन्तपुररुथे नृपे, "बसंतपुरे नयरे उच्यते, विनीत इति विनयकरणशीलः । व्य० ३ ० । जियसत्तू राया । " आ० म० द्वि० बीतशोकानगरी वास्तव्ये जियकसाय - जितकषाय- त्रि० । निगृहीतक्रोधाऽऽदिभावे, नृपे श्रा०० | "बीयसोपा नगरी, जियसचू नाम राया।" भा० पञ्चा० १७ विष" तिखोगपुजे जिणे जयकार" ज चू० २ श्र० । प्रा०म० । उज्जयिनीनगरी वास्तव्ये नृपे, उत० २ तकषायान् निराकृतक्रोधाऽऽदिभावान् । पञ्चा० १० वि० । अ० । सर्वतोभऽनगरस्थे नृपे, " सम्वभोजद्दे जयरे जियस जियकोह - जितक्रोध - त्रि० । अभिभूतकोपे, द्वा० १२ द्वा० । णामं राया होत्था । " बिपा०१ ०५ ० मथुरानगरीवास्तव्यं स्वनामयते नृपे मिथिलानगरी वास्त त्रिफलीकृतोदितकांधे, औ०। "जितेन्द्रिया जितक्रोधाः, दुर्गास्वनामख्याते नृपे, जं० १ बक्ष० । मिथिलायां नगर्यो जितशत्रुरायतितरन्ति ते । द्वा० १२ द्वा० । नाम राजा । सु० प्र०१ पाहु० । मल्लिजिनेन सह प्रवजिते पाच सदेशस्ये काम्पियनगरनायके राजनि खा० "जिस पञ्चालराया " जितशत्रुर्नाम पाश्चासजनपदाजः का स्पिल्यनगरनायकः । स्था० ६ ठा० । का० । भविष्यति स्वनाप्रख्याते दत्तस्य राइः सुते च । ती० । दो म राया वारिवासाओ पद जिवेश्महि काही लोग सूर्मिकाही ति इसस्स पुछो जिवस तस्स विय मेघघोसो कक्की अनंतरं महानितीदं न षट्टिस्लर | " ती० २० कल्प । जिसेण जितसेन पुं० । श्रावस्तीवास्तव्ये स्वनामस्याले प्राचार्य ४० सुमतिजिनसमकाि
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,
asaर्तिनि, ति० । कौशाम्बी वास्तव्ये स्वनामख्याते नृपे, आ० क० । कौशाम्बीत्यस्ति पुस्तत्र, जितसेनो महापतिः । " आ० क० । भरतवर्षस्थे मतीनायामुत्सर्पिण्यां स्वनामस्या कुकरे, स० जिप्सेलेस- जितशैलेश-पुं० । मेरोरपि निष्प्रकम्पत
( १५११) श्रभिधान राजेन्द्रः ।
जियक्ख - जिताक्ष- - त्रि० । जितेन्द्रिये, " विषयकुलसो जियगम्भीरो ।” दर्श० ५ तव । पञ्चा० ।
1
जियणिह - जितनिद्र- त्रि० । जिता निद्रा आलस्यं येन स जितनिषः स्वानस्ये, जं० ३ ० मौ० पनि ०१ अधि० । स हि रात्रौ सूत्रमर्थे वा परिभावयन् न निष्या वाध्यते । प्रव० ६४ द्वार । श्रप्रमते, आचा० १ ० १ अ० उ० । जियणिहिंदिय जितनिधिय-त्रि जिसने बान निषा इन्द्रियाणि येस्ले जितनिन्द्रियाः वशीकृत निद्वेन्द्रिये, बृ० १४० ।
-
जियपरिसा - जित परिषत् - त्रि० महत्यामपि परिषदि क्षोभमनुपयाते, प्रब० ६४ द्वार ग० । आाचा० । स० । नियपरीसम जितपरिभ्रमत्रि० परिभ्रमरहिते,
०१
कण ।
जियपरीसह - जितपरिषद् - त्रि० । जिताः पराजिताः परिषदाः शीतोष्णरूपा येन स जितपरिषहः । ग० ३ अधि० । श्र० । शी. तपारस्य जं०३० जियप्पा - मिताssस्मन् पुं० सूत्र० । तथा चोक्तम्
"कोहं माणं च मायं च, लोभं पंचिदियाणि य । दुज्जयं चैव अप्पाणं, सत्यमध्ये जिए जियं ॥ १ ॥ जो सहर सहस्वार्ण संग्रामे दुखाये जिने । एक्कं जिज्ज अप्पाणं, एसे स परमो जम्रो " ॥ २ ॥ सूत्र० १० २ म० ।
जियजय जितभय मि०
जियमाल - जितमान - त्रि० । विफलीकृतमाने, औ० । जियरागदोस - जितरागद्वेष- त्रि० । रागद्वेषरहिते, "जिणो जिरागदो सदि ।” जितरागद्वे बैर्विगतासत्यवाद कारणैः । पञ्चा० ६ fo।
०१
श्र० ।
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जियारि - जितारि - पुं० । संभवजिनस्य पितरि अाब० १ अ० । प्रब० स० ।" सेनाए जियारितणयस्स ।" ति० । उज्जयिनीनगरवास्तव्ये स्वनामयते नृपे "पिग्यस्तिः सर्वपुरामुज्जयिनी श्रिया । तस्यां वश्यान्तरङ्गारि-र्जितारिः पृथिवीपतिः ॥ १ ॥ " भ० क० जिह-यथा-श्रव्य०। साहश्ये, येनप्रकारेणेत्यर्थे च । "कथंयथातथां चादेरेमेमेदेधा डितः ॥ ८ । ४ । ४०१ ॥ प्रा० ४ पाद । जंजीर बी०जरायती दो जरायां दुर्गावपि। जी रेफान्तस्तदर्थः । स्त्री० । पका० ।
|
जी मृग - जीमूत- पुं० । ज्या- क्विप् जीः । तथा जरया मूतो बकः ।
"
'मु' बन्धने क्तः । जयति नभः, जीयते वायुना वा जि-त-मुट् दीर्घश्व वा । मेघे, वाच० प्रा० रा० । जं० । स्था० । जी० । मेघविशेषेच" जी महामेदे एवं वाणं सवाई भावेश । स्था० ४ ठा० ४ उ० । मुस्तके, पर्वते, घृतकरे, देवताबुके, इन्द्रे, कोशातकी लतायाम, वाच० ।
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(१५१२) जीय अभिधानराजन्द्रः।
जीयकप्पिय जीय-जीत-न०। पाचरिते, "जीयमिणं आणाओ।" पञ्चा०१५ | गौणं नामान्तरं, तथा च पञ्चकल्पनाऽनुज्ञाकल्पस्थ विंशविव० स्थान जीता प्रा० मात्राचारे,कल्प.क्षण।"अप्प- तिनामधेयान्यधिकृत्य-"तित्थकरहिं कयमिणं, गणधारणिं तु गइया जीयमेयं ति"। जीतमेतत् कल्प एष इति कृत्वा। रा"कु- तेहि ससाणं । तत्तो परंपरेणं, आइस तेण जीयं तु ॥१॥" चिसि गम्भत्ताएऽचकते तं जीयमयंतीप्रपन्चुप्पएणमणागया- पं०भा० । जीतकल्प आचरितकल्पो जिनप्रतिबोधनलकणः ।
" जीतमेतत् प्राचार एष इत्यर्थः। कल्प०२ कण । सर्वानुची- स्था० १० ग०। जीतमाचरितं, तस्य कल्पो वर्णना प्ररूपणा, d, विशे। अथजीतमिति कोऽर्थ इत्यत प्राह -"बहुजणमाइथं
जातकल्पः । प्राचारवर्णने, तत्प्रतिपादके जिनभगणितमाश्र. पुण, जीय उचियं ति एगटुं।" बहुनिजनैर्गीतार्थेराचीर्ण बहुज
मणरचिते छेदश्रुतविशेष च । जीतः। नाऽऽचीर्णमिति वा,उचितामति वा एकार्थम् । किमुक्तं भवति?,
क्ष्य एस जीयकप्पो, समासमो मुविहियाणुकंपाए । बहुजनाऽऽचीर्ण नाम जीतमिति । व्य०१ उ०। प्रनूतानेकगीतायकृतायां मर्यादायाम, उपचारात्तत्प्रतिपादक प्रत्येच। जोतं
कहिओ देयमयं पुण, पत्ते सुपरिच्छियगुणम्मि ॥२७॥ नाम-प्रभूतानेकगीतार्थकता मर्यादा, तत्प्रतिपादको प्रन्योऽ.
ছযমুনা সন্ধাৰ্যাথাঘল হামলাৰামমিয়া प्युपचाराज्जीनम । व्य०१ उ०। मर्यादाकारणे सूत्रे च । जीत. चतसृन्निर्गाथानिराद्यस्य, चतसृभिद्धितीयस्य, तिभिस्तृतीयमिति मूत्रमुच्यते, जीतं स्थितिः, कल्पो मर्यादा, व्यवस्थेति हि
स्य, द्वाज्यां चतुर्थस्य, पञ्चभिः पञ्चमस्य,"उद्देसऽज्झयणेतुं, पर्यायाः । मर्यादाकारणं च सूत्रमुच्यते । नं०।
खंधंगसु कमसो पमायस्स।" इति गाथातःप्रारभ्य "झोसिञ्ज जीव-पुं० प्राणधारणे, प्राणिनि च । जी०। “जीयस्स विसो
सुबहुं पिहु।"इति गाथापर्यन्त कृत्याटपञ्चाशद्भिगाथाभि -
नाऽऽचारादिपञ्चकातिचारगोचरस्य षष्ठस्य तिसृभिः सप्तमहणं परमं ।"'जीव' प्राणधारणे, जीवति, जिजीव, जीविष्यती
स्य चतनिरष्टमस्य सप्तनिर्नवमस्य नवभिर्दशमस्य प्रायधित्युपयोगलकणत्वेन त्रिकासमपि जोधनाजीवस्तस्य विशेषेण
सस्य व्याख्यानेन एष सर्वसमुदायाऽऽत्मको जीतकल्पः जीतशोधवम् । जी०१ प्रति०।
माचरितं, तस्य कल्पो वर्णना प्ररूपणा, समासतः संकेपतः जीवित-ना"यावत्तावज्जीविताऽऽवर्तमानाचटप्रावारकदेव- सुविहितानुकम्पया, शोजनं विहितमनुष्ठानं येषां ते सु. कुलवमेवेवः"।।१।२७२ ॥ इति प्राकृतसूत्रेण सस्वरस्य व. विहितास्तेषामनुकम्पया कथितः प्ररूपितः, देयः पुनरय कारस्यान्तर्वर्तमानस्य सुग् वा । प्रा०१पाद । जीविते, "जीय- पात्रे सुपरीक्षितगुणे जात्यकाञ्चनवत्तापच्छेदनिकषसहे संधिकामत्थधम्महे ।" जीवश्च जीवितं जीतं वा । प्रश्न०१आश्र० | के गीतार्थे, न पुनरन्यस्मिन्, येन जीतकल्पदायकग्राहको द्वार । जीवितमित्र जीवितम् । श्रुते, मर्यादायां च । विशे। द्वावपि कर्मनिर्जरया शुद्ध्यतः सिद्धयतश्चेति । जीत० ।
तथा च जीतकल्पवृत्तौ तिलकाचार्यः-"इति नुतिकृत्यकृतः एएहि कारणेहि, जीयं ति कयं गणहरेहिं ॥१११३।।
भुत रहस्यकल्पस्य जीतकल्पस्य । विवरणलवं करिष्ये, स्व. (जीयं ति) जीवितं श्रुतं द्वादशाङ्गम् । अयमत्रानिप्रायः यथा जी. स्मृतिबीजप्रबोधाय ॥६॥" इह निशीथकल्पव्यवहाराऽऽदीनि षस्य जीवितमात्रं न कदाचिद् व्यवच्छिद्यते, तथा अन्यबाच्छ- भूयांसिदश्रुतानि,तेषु चातिविस्तरेण प्रायश्चित्तान्यनिधीयन्ते, तिनयाभिप्रायतः धुतमपि न कदाचिद् व्यवोच्चद्यते, ततो जी | प्रतिदिनं च कल्पं तदवगाहसामर्थ्य प्रतिमन्थं नानाऽतिचारानावितमिव जीवितं श्रुतमुच्यते, तणधरैः सुखग्रहणाऽऽदिकार- श्रित्य पुरुषाचौचित्ये न काऽपि क्वाप्युपपत्तिरुच्यते । ततः कि
न्यः कृतम् । अथवा-न सुखाऽऽदिकारणेभ्य एव. किं तर्हिी, कुत्रदानं दीयते?,कथमात्मनः परस्य वा गुधिर्भवति?,इति व्या. (जीयं ति) जीवितं मर्यादा, ततश्च गणधराणां जीवितं धर्मों | मुह्यन्त्यन्तवासिनोऽतस्तेषां सुखेन प्रायश्चित्तविधिप्रतिपत्तये मर्यादैवेयं यदुत तन्नामकर्मोदयतस्ततस्वाजाव्यात् कर्तव्यमेव पूज्यश्रीजिनभागणिकमाश्रमणः समस्तच्छेदग्रन्थानामुपनितैः श्रुतविरचनम् । अथवा-(जीयं ति) जीवितमाचरितम् । कप. पत्कस्पं तदपेक्वयाऽत्यल्प जीतकल्पं कृतवान् । परं द्विधा विएवायं सर्वगणधराणां यत्तैः संदर्भणीयमेव श्रुतम् । विश० । नेयाः-योग्याः, अयोग्याश्च। तत्र योग्याः ये रत्संवेगतरङ्गिणीहोइ मुहं जीयं पिय, कायन्वमिदं जोऽवस्सं १११६।
तरकप्रकालितान्तरमलाः परिमलितबुद्धयः समस्तसिमान्त
महार्णवपारीणाः परिणतवयसः सापधीनप्रतिभाप्राग्भारसासव्वेहि गणहरोहिं, जीयं ति सुयं जओ न वोच्चिनं ।
रचेतसः सततमुत्सगांपवादगोचराऽऽत्तारचतुगहिचरप्रनजिगणहरमज्जाया वा, जीयं सत्राणुचिन्नं वा ॥१११७॥ ता। ये स्वेतद्विपरीतास्तिन्तिणिकाऽऽदयइच ते अयोग्याः। य(जीयं पियत्ति) जीवितं श्रुतम अथवा-जीवितं मर्यादा,यदि दुक्तम्-"तितिणिए चलचित्ते,गाणंगणिए य दुब्बमचरिते।भा. पा-जीतं सर्वानुचीर्णमाकोऽर्थः, इति । आह-"कायब्वं"इत्या- यरियपारिभासी,वामाचट्टे य पिसुणे य"॥१॥ ति। तिन्तिणिका दि। कर्तव्यमिदं, यतोऽवश्यं सर्वैर्गणधरैरित्युत्तरगाथायां सं
मुहर्मन्दमन्दस्वरनाषणशीसाः,गाणङ्गणिका ये पपमासादगबन्धः। ततो जीवितं द्वादशाङ्गश्रुतं, मर्यादा,सर्वगणधराऽऽचीणे णाद गणं संक्रामन्ति, एतेषामयं न दातव्यः । यतः-"श्रामे घर बेदमिति कृत्वा कृतं प्रथितं गणधरैरिति, तदेव 'जीर्य' इति | निहत्तं, जहा जलं तं घर्म विणासे । श्य सिद्धतरहस्सं, अ. शब्दार्थत्रयं भवतीति ताँखीनप्यान् तस्य दर्शयति-"ली-| प्पाहारं विणासेड ॥१॥" अतो योग्यानामेव दातव्यः। जीता। यं ति सुयं " इत्यादि । विशे० प्रा०म०।।
जीयकप्पिय-जीतकल्पिक-पुं० । जीतेनावश्यंभावेन कल्प प्रानायकाप-जातकस्प-पु. । जीतनावश्यं जावन कल्प आचारो चारा जीतकल्पः, सोऽस्ति यस्य स जीतकल्पिकः । कल्प०५ जीतकल्पः। कल्प०५कण। पूर्वपुरुषाचरितल कण प्राचार.पा. क्षण | जीतकल्प प्राचरितकल्पो जिनप्रतिबोधनलकणो विद्यते चिव। तदात्मके काभेदे, पं०भा० । सचानकाकल्पस्य यस्य स जीतकक्ष्पिकः । जीतकल्पवति, स्था०१० ग०।
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(१५१३) जीयधर अनिधानराजेन्द्रः ।
जीयववहार जीयधर-जीतधर-त्रि० । सुत्रधरे, आर्यगोत्रोत्पन्ने शामिव्यशि- । श्ह शिष्यः प्राह-विशेषणं हि व्यवच्छेदकं भवति, यथा ध्ये स्वनामस्याते प्राचार्य च । जी। “संमिल्लं अज्जजीयधरं।" | नीलोत्पलमित्यत्र नीलविशेषणं, उत्पल शब्दस्य रक्तोत्पभारात्सर्वदेयधर्मज्योऽर्वाग् यातमार्यम। जीतमिति सुत्रमुच्यते।
लाऽऽदिभिरपि सामानाधिकरण्य संत्रवत्ति तावच्चेजीतं,स्थितिः,कल्पो,मर्यादा, व्यवस्था इति हि पर्याया। मर्यादा
दाय, तत् किमत्राप्यन्येऽपि व्यवहाराः सन्ति, येन जीतकारणं च सूत्रमुच्यते। तथा 'धृ' धारणे । ध्रियते,धारयतीति व्यवहारगतमिति विशेष्यते ?। गुरुराह-सन्त्यन्येऽप्यागमधरः । "लिहाऽऽदित्यः"॥५॥१॥५०॥ इत्यच्प्रत्ययः । मार्यजी
श्रुताऽऽज्ञाधारणाव्यवहाराख्याश्चत्वारो व्यवहाराम, तद्तस्य धर पार्यजीतधरः,तमा अन्ये तु व्याचक्षते-शाएिकव्यस्यापि
व्यवच्छेदायह जीतपदम् । जीत० । येष्वपराधेषु पूर्वमहशिष्य आर्यगोत्रो जीतधरनामा सूरिरासीत् ,तं वन्दे इति । नं०।
यो बहुना तपःप्रकारेण शुद्धिं कृतवन्तः, तेवपराधेषु सांप्रतं जीयाक्खण-जीवलक्षण-न०। जीवस्याऽऽत्मनो,लक्कणं-अक्ष्यते ज्ञा
व्यक्षेत्रकामभावान् विचिन्त्य संहननाऽऽदीनां च हानि
मासाद्य तदुचितेन केनचित्तपाप्रकारेण यां गीतार्थाः शुकिं यते यदन्यव्यवच्छेदेनेति तल्लकणम्, मसाधारणं स्वरूपं,जीवनका
निर्दिशन्ति, तत् समयपरिजापया जीतमुच्यते । अथवा पत्र णमा जीवस्यासाधारणे स्वरूपे,कर्मातश्चानाऽऽदिक उपयोगः,
गच्छे सूत्रातिरिक्तं न्यूनं वा कारणतः प्रायश्चित्तं प्रवर्तितं अत एवोक्तमन्यत्र उपयोगसकणो जीवः" इति। कर्म०४ कर्म।
तद् जीतं, तस्य व्यवहारो जीतव्यवहारः। जीय-जीवितवत-त्रि० । प्राणिनि, “वप्प ! ताय ! जीयवं"
स चायम्जीवितवन् !, प्रश्न०१ श्राश्र द्वार।
" वत्त ऽणुवसपवत्तो, बहुसो प्रासेविओ महजपणं । जीयववहार-जीतव्यवहार-पुं०-1 व्यकेत्रकालभावपुरुषप्रति- एसो हु जीयकप्पो, पंचमओ होश नायवो ॥१॥" सेवाऽनुवृत्त्या संहननवृत्त्यादिपरिहाणिमवेक्ष्य यत्प्रायाईच- वृत्तं पात्रबन्धप्रन्थिदानाऽऽदिक एकदा पकेन वा जातः,ततोऽनु. सदानं, यो वा यत्र गच्छे सूत्रातिरिक्तकारणतः प्राय
वृत्तं पुरुषान्तरं यावत्,ततःप्रवृत्तं पुरुषप्रधाहेन अतर एष बहुश चित्तव्यवहारप्रवर्तितो बहुनिरन्यैश्चानुवर्तितं तज्जी
आसेवितो महाजनन । बहुश्रुतनिर्वहने भाष्यकृताऽप्युक्तम्तम् । स्था० ५ ग० २० ज०। जीतं श्रुतोक्तादपि हीन
"वत्तो नाम एक्कसि, माणुवत्तो जो पुणो वितियवारं । मधिकं वा परम्परयाऽऽचीण, तेन व्यवहारो जीतव्यवहारः।
तइयव्वारे पत्तो, सुपरिग्गहिश्रो महजणेणं ॥१॥ ध. २ अधि० । व्यवहारजेदे, "जीए य पंचमए । "जीतं
बहुसो बदुस्सुपार्ह, जो वत्तो न य निवारित्रो होइ । गीतार्थसंविग्नप्रवर्तित सुव्यवहारः । पञ्चा०१६ विवः।
वत्तऽणुवत्तपमाणं, जीपण कयं हवा एयं ॥६८२॥" तथा च
एष जीतकल्पः पञ्चमो व्यवहारो भवति सातव्यः । जीत।
प्रव० । व्य। कयपत्रयणप्पणामो, वुच्छं पच्छित्तदाणसंखेवं ।
___ व्यवहारकस्पे जीतव्यवहारं दर्शयतिजीयन्नवहारगयं, जीयस्स विसोहणं परमं ॥ १॥ । ददपुरमादिसु कल्ला-णयं तु विगलिदिएसुऽजत्तहो। प्रकर्षेण परसमयाद् यथावस्थितनुरिभेदप्रभेदैरुच्यन्ते जी-- परियावणे एतसिं, चउत्थमायंबिला हुंति ॥१०॥ बाजीचाऽऽदयः पदार्या अनेनास्मिन्निति वा प्रवचनम्-सामायि
दईरो मण्डूकः, तदादिषु तत्प्रभृतिषु. मकारोऽवाक्कणिका, काऽऽदिविन्दुसारपर्यन्तं मुख्यतः श्रुतज्ञानम्, उपचारात् तत्रोप- प्राकृतत्वात् । तिर्यपञ्चन्छियेषु, जीविताद् व्यपरोपितेविति युक्तश्चतुर्विधः सोऽपि; कृतः प्रवचनस्य प्रणामो येन स शेषः। कल्याणकं स्विति । तुशब्दो विशेषणार्थः । स चैततिकृतप्रवचनप्रणामोऽहं वक्ष्ये प्रायश्चित्तदानसंक्वपम, पापं किन- शिनष्टि-पञ्चकल्याणप्रायश्चित्तं (विलिदिएसुभत्तठो इति) तीति पापच्छित् । अथवा-प्रायश्चित्तम्-जीवं,मनो,वातीचा- विकलान्यसंपूर्णानि इन्द्रियाणि येषां ते विकन्छिया:-एकद्विरमलमलिनितं शोधयतीति प्रायश्चित्तम् । आपत्वात् प्राकृतेन त्रिचतुरिन्द्रियाः,तत्र-“व्याख्यानतो विशेषप्रतिपत्तिः” इत्येक'पच्चित्तं'। उक्तं च-"पावं हिंदइ जम्हा, पायच्छित्तं ति भन्नए छिया अनन्तवनस्पतिकायिका अष्टव्याः। तेषु अभक्तार्थ एव-नतम्दा। पापण वा वि चित्तं, सोहेई तेण पच्चित्तं" ॥१॥ तस्य पवासः प्रायश्चित्तम् । (परियावणे पर्सि इत्यादि)पतेषां दर्दुरादानं तस्य संकेपः सङ्ग्रहस्तं,जीतव्यवहारकृतम्,जीतव्यवहारः- दीनां परितापनायां यथासंख्यं चतुर्थोऽऽचामाम्ले प्रायश्चित्ते नव"वत्सऽणुवत्तपवतो," इत्यग्रतनगाथयैव वक्ष्यमाणलक्षणः, तेन तः। श्यमत्र नावना- यदि दर्दुगऽऽदीन तिर्यपञ्चन्द्रियान् गाढंपकतमुपदिष्टं,जीतव्यवहारगतं वा जीतव्यवहारात् प्रविष्टम,जी- रितापयति,ततोऽभक्तार्थःप्रायश्चित्तम्। अथ विकलेन्षियान् अ. वस्य, "जीव प्राणधारणे" जीवति, जिजीव, जीविध्यती. नन्तवनस्पतिकायप्रभृतीन् गाढं परितापयति,तत प्राचामाम्लम्। त्युपयोगलकणत्वेन त्रिकालमवि जीवनाज्जीवः, तस्य, विशेषण उपलक्कणमेतत् तेनैतदपि जीतव्यवदारानुगतमवसेयम-यदि शोधनम् । विशेषश्चायम्-द्विजाऽऽदयोऽपि स्थूलबुरूयः कापि द१रप्रभृतीन तिर्यक्पश्चेन्जियान मनाक संघट्टयति,तत एकाशप्राणिवधादी सामान्येन प्रायश्चित्तं ददति,न पुनः संघट्टनपरि- नकम, अथाऽऽगाढं परितापयति,तत प्राचामाम्लम तथा अनतापनोपद्रवाऽऽदिनेदैः सर्वेषामेकेन्द्रियाऽऽदिवसपर्यन्तानां विष- न्तवनस्पतिकायिक चतुरिन्द्रियाणां संघट्टने पूर्वार्द्धम्,पतेषामेवायनेदेन प्रायश्चित्तं दातुं जानन्ति । न ह्ययमुपदेशस्तदीयशा- नागाढपरितापने एकाशनं,तथा पृथिव्यप्तेजोवायुप्रत्येकवनस्परेवस्ति । इह पुनः प्रवचने सर्वमस्ति । अत एव यथोपलस- तीनां संघट्टने निर्विकृतिकम,अनागाढपरितापने पुरिमार्कम,श्राकारारिष्टकोदकाऽऽदिनिर्वस्त्रमलस्य शोधनं, तथाऽत्रापि क
गाढपरितापने एकाशनं, जीविताद् व्यपरोपणे प्राचामाम्लम् ॥ भमलमलिनस्य जीवस्य जीतव्यवहारोपदिष्ट विशोधनम:प
इत इदमपि जीतमेवेति दर्शयतिरम-प्रकृष्टम, अनन्यसदृशम, नान्यत्रैवविशिष्टः प्रायश्चित्तवि- अपरिष्मा कालासु, अपडिकंतस्स निविगइयं तु । धिरस्तीत्यर्थः।
निव्वीतिय पुरिमट्टो, अंबिल ग्ववणा य आवासे ॥११॥ ३७९
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जीयववहार अन्निधानराजेन्डः।
जीयववहार अपरिका प्रत्याख्यानपरिझाया अग्रहणं, गृहीताया वा भङ्गः। धीरपुरिसपएणत्तो, पंचमतो आगमो वि दुपसत्यो । सूत्रे विनक्ति लोपः, आईत्वात् । तथा कानाऽऽदिषु प्रतिक्रामतो
पियधम्मऽवज्जनीरू-पुरिसज्जायाचिप्लो य ॥६७६॥ व्यावर्तमानस्य प्रायश्चित्तं निर्विकृतिकम्।किमुक्तं भवति?, यदि नमस्कारपौरुष्यादि दिवसप्रत्याख्यानं न गृह्णाति, गृहीत्वा वा
पष पञ्चमको जीतव्यवहारो धीरपुरुषप्रशप्तः तीर्थकरगणधरैः विराधयति,तथा स्वाध्यायं प्रस्थाप्य यदि कोलस्य न प्रतिकाम
प्ररूपित आगमः पञ्चविधा, व्यवहारसूत्राऽऽत्मकतया श्रुतझानति, न कालप्रतिक्रमणनिमित्तं कायोत्सर्ग करोति । आदिश.
विदश्चतुर्दशपूर्विणः, तैः कालं प्रतात्य प्रशस्तः प्रशंसितः, तथा म्हात तु येषु स्थानेषु श्योपथिकया प्रतिक्रमितव्यं,तेषु चेत्तथा
प्रियधर्मभिरवधनीरुभिः पुरुषजातैः, अनुचीर्णः,तस्मात्सत्यतया न प्रतिकामति, तर्हि प्रायश्चित्तं निर्विकृतिकमिति । तथा (निब्बी
प्रत्येतव्यः,अर्थतः सूत्रतश्च यथाक्रम तीर्थकरगणधरैरजिाहततिय इत्यादि) आवासे' मावश्यके एकाऽऽदिकायोत्सर्गाकरणे,
स्वात् । तथाहि-"पंचविहे ववहारे पएणसे ।" इत्यस्य सूत्र.
स्यार्थस्तीर्थकराषितो,गणधरैश्च श्रमाय सूत्रीकृतः,अत पवो. सर्वाऽऽवश्यकाकरण च यथासंख्यं निर्विकृतिकपूर्वाlssचामाम्सकपणानि । इयमत्र भावना-अावश्यके यद्येकं कायोत्सर्ग
तमैः पुरुषजातैराचार्णः, ततः कथमत्र न प्रत्ययः १, इति । न करोति ततः प्रायश्चित्तं निर्विकृतिक, कायोत्सर्गध्याकरण
अधुना जीतव्यवहारनिदर्शनमाहपूर्वार्द्धम, प्रयाणामपि कायोत्सर्गकरणानामकरणे आचाम्लम,
सो जध कालाऽऽदीणं, अपडिकंतस्स णिविगइयं तु । सर्वस्यापि चाऽऽवश्यकत्याकरणेऽभक्तार्थमिति ॥११॥
मुहणंतफिर्मिय-पाणग-ऽसंवरणे एवमादीसु ॥६७७॥ जं जस्स व पच्छित्तं, आयरियपरंपराएँ अविरुषं। . स जीतब्यवहारो, यधेत्युदाहरणमात्रोपदर्शने, कालादिभ्यः, जोगा य बहुविगप्पा, एसो खलु जीयकप्पो उ ॥१२॥ आदिशब्दात स्वाध्यायाsदिपरिग्रहः । अप्रतिक्रान्तस्य । गायत्प्रायश्चितं यस्याऽऽचार्यस्य गच्छे आचार्य परम्परागतत्वेना
थायां षष्ठी पञ्चम्ययें। मुखानन्तिके मुखपोत्तिकायां,स्फिटितायां, विरुवं,न पूर्वपुरुषमर्यादाऽतिक्रमेण विरोधभाक् । यथाऽन्येषामा
मुखपोत्तिकामन्तरेण इत्यर्थः। तथा पानकस्यासंवरणे पानाचार्याणां नमस्कारपौरुष्यादिप्रत्याख्यानस्याकरणे, कृतस्य वा
ऽऽहारप्रत्यास्यानकरणे निर्विकृतिकं प्रायश्चित्तम् । भने प्रायश्चित्तमाचाम्लम्, तथाऽऽवश्यकगतैककायोत्सर्गकरणे
एगिदिऽतवजे, घट्टणतावेऽएगाढऽऽगादे य । पूर्वा, कायोत्संगद्वयाकरणे एकाशनकमित्यादि । तथा ये योगा णिवीतिगमादीयं, जा आयामंत उद्दवणे ॥७॥ उपधानानि बहुविकल्पा गच्छदेन बहुतेदाः, प्राचार्यपरम्प- एकेन्षियस्यानन्तकायिकबर्जस्य, पृथिव्यप्तेजोवायुप्रत्येकव-. राऽगतत्वेन वाविरुकाः, यथा नागिलकुलवंशवर्तिनां साधू. नस्पतीनामित्यर्थः। घट्टने अनागाढे,तापने आगाढेच,निर्विकृतिनामाचारादारभ्य यावदनुत्तरोपपातिकदशाः, तावन्नास्ति श्रा- काऽऽदिकं, यावदाचाम्समपजावणे जीविताद् व्यपरोपणे । चाम्ल,केवलं निर्विकृति केन ते पठन्ति,आचार्यानुझाताश्च विधि- श्यमत्र भावना-पृथिवीकायिकाप्कायिकतेजस्कायिकवायुवनना कायोत्सर्ग कृत्वा विकृतीः परितुञ्जतेतथा कल्पव्यवदा-1 स्पतीनां घट्टने निर्विकृतिकम, अनागाढपरितापने पुरिमार्द्धम्, रयोर, चन्द्रप्राप्तिसूर्यप्रज्ञप्त्योश्च केचिदागादं योगं प्रतिपन्नाः, आगाढपरितापने एकाशनम,अपलावणे प्राचामाम्लमिति । अपरे त्वनागाढमिति । (एसो खमु जीयकप्पो उ इति) एष स- विगलिंदियघट्टणता-वऽणगाढऽऽगाढे तहेव उद्दवणे। वोऽपि खलु गच्चभेदेन प्रायश्चित्तभेदो,योगभेदश्चाऽऽचार्यपर
पुरिमलातिकमणं, नेयव्वं जाव खवणं तु ॥६ ॥ म्परागतो जीतव्यवहारो वेदितव्यः । व्य०१ उ०१ द्वार। - अथ कोऽसौ जीतव्यवहारं प्रयुजीतेत्यत पाह
पंचिंदियघट्टणता-वऽणगाढऽऽगाढे तहेव नदवणे । जो आगमे य सुत्ते, य सुस्मतो आण-धारणाए य ।
एक्कासण आयाम, खवणं तह पंचकराणं ॥६८०॥
विकलेजियाणां घीजियप्रभृतीनां घट्टने,तापने अनागाढे,प्रा. सो ववहारं जीए-ण कुणइ वत्ताणुवत्तेण ॥६७३||
गाढे च,तथा अपद्रावणे,क्रमेण पूर्वार्धाऽऽदिक्रमेण ज्ञातव्य यावं. यभागमेन,सुत्रेण च,गाथायां सप्तमी प्राकृतत्वात तृतीयाऽथे। व कपणम । किमुक्तं भवति ?, घट्टन पूर्वार्कम, मनागाढपरितातथा प्राकया, धारणया च शून्यो रहितः, स जीतेन वृत्तानुवृ. पने प्राचामाम्लम, श्रागाढपरितापने निर्विकृतिकम, अपकावणे सेन । अस्य व्याख्यानं प्राग्वत् । व्यवहारं करोति ।
कपणमिति ॥६७६॥ तथा पश्चेन्द्रियाणां घट्टने एकाशनकम,अनावृत्तानुवृत्तत्वमेव भावयति
गाढपरितापने आचामाम्लम, आगाढपरितापने कपणमजक्ताअमुतो अमुतत्य कतो,जह अपुतस्स अमृतेण क्वहारो। थम, अपद्रावणे पञ्चकल्याण-निर्विकृतिकपूर्वार्द्वकाशनकाचाभमुतस्म वि य तध कतो,ममुतो अमुतेण ववहारो ।६७४॥
माम्लक्कपणरूपम् । तं चेवऽमजतो, ववहारविहिं पठंजति जहुत्तं ।
एमाईओ एसो, नातव्यो हो जीयववहारो। जीएण एस भणितो, ववहारो धोरपुरिसेहिं ॥६७॥
आयरियपरंपरए-ण आगतो जो व जस्स भवे ॥३०॥ अमुको व्यवहारोऽमुके कारणे समुत्पन्नेऽमुकस्य पुरुषस्यामु
एवमादिक एष जीतव्यवहारो भवति ज्ञातव्यः, यो वा यस्य केनाऽऽचार्येण यथा कृतः पतेन वृत्तत्वं भावितं; तथैवामुकस्य
आचार्य परम्परकेणागतः स तस्य जीतव्यवहारो ज्ञातव्यः । यारशे एव कारणेऽमुकेनाऽऽचार्यणामुको व्यवहारः कृतए नेना
बहुमो बहस्मुतेहिं, जो बत्तो न य निवारितो होति । नुवृत्तत्वमुपदर्शितं; नमेव वृत्तानुवृत्तं जीतमनुमजन् आश्रयन्
वत्तावत्तपमाणं, जीपण कयं हवति एयं ॥६८॥ यथोक्तं व्यवहारविधिं यत्प्रयुक्ते, एष जीतेन व्यवहारोधी- यो व्यवहारो बहुश्रुत शोऽनेकवारं वृत्तः प्रवर्तितो, न चारपुरुषैणितः।
'न्यबहुश्रुतैभवति विद्यते निवारितः एतेन वृत्तानुवृत्तं जी
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(१५१५ ) जीयववहार अभिधानराजेन्दः ।
जीयववहार तेन प्रमाणं कृतं भवति । एष जीतन्यवहारः प्रमाणीकर्तव्यः, - रेऽमुकस्य तपसःप्राप्तिरिति । सा च निशीथ-कल्प-व्यवहाराति भावः।
ऽऽदिषु विस्तरेणाभिहिता। तपसश्च पञ्चकादेः परामासान्तस्व एतदेव च सविस्तरं भावयति
महीयान् दानविरचनाप्रपञ्च प्रोच्यते।।अत्राऽऽपत्तिदानं च सं. जं जीतं सावजं,न तेण जीतेण होइ बहारो।
केपेणैव निरूप्यते-तच्चात्र दानं निन्नमासादारज्य पपमासा
तं यावरुवति । भिन्नत्यादि । भित्रमासादिकाश्च पम्मासाम्तान् जं जीतमसावजं, तेण तु जीतेण ववहारो ॥६०३।।
वक्ष्ये। अयं नाव:-जीतेन जीतव्यवहारेण, भिन्नमासाऽऽदिशयद जीतं सावध, न तेन जीतेन भवति व्यवहारः, यद् जी- दैः किं किं तपोऽभिधीयते ?, इत्यभिधास्यामीत्यर्थः । ६० । तमसावध, तेन तु जीतेन व्यवहारः।
भिनाऽऽदीस्तावदाहअध व्यवहारः। अथ कि सावद्यमसावयं वा जीतमित्यत पाह
भिन्नो अविसिक च्चिय, मासो चउरो य उच्च लहगुरुगा । छारहडिहामाला-पेट्टण य रिंगणं तु सावज । दसविहपायच्छितं, होइ असावज जीयं तु ॥६॥
णिन्चियगाई अहम-जतंतं दाणमेएसि ॥६१॥
इह समयपरिजाषया दिनपञ्चविंशतिरूपो भिन्न इति भित्रमासो. यसु प्रवचने, लोके चापराधविशुद्धये समाचरितम्-तारावमु.
ऽभिधीयते । स चाविशिष्ट एव लघुपश्चकगुरुपचकाऽऽदिने पानं, हमौ-गुप्तिगृहे प्रवेशनं,हड़मालाऽऽरोपणं, पेट्टेन-चदरेण
दाविवक्षया एवात्र गृह्यते । (मासो चउरो य उच्च लदुगुरुरिक्षणं, तुशब्दात खरारूदं कृत्वा प्रामे सर्वतः पर्याटनमि
गा ) अत्र चकारौ मासे समुच्चायको । ततो मासांश्चत्येनमादितत् सावधं जीतम् । यत्तु दशविधमालोचनादिकं
त्वारो मासाः, धम्मासाः । लघुगुरुका ति व सर्वेषु यो. प्रायश्चितं तदसावधं जातम।
ज्यम् । यथा लधुमासो, गुरुमासो, लघुचतुर्मासं, गुरुचतुअत्र चादकः-कदाचित्सापद्यपि जीतं दद्यात ।
मासं, लघुषएमासं, गुरुषएमासं चेति । पतेषां निलमासलतथा चाह
घुमासगुरुमासलघुचतुर्मासगुरुचतुर्मासलघुषण्मासगुरुपरामानस्समे बहुदोसे, निरंधसे पवयणे य निरक्खे ।
साऽऽस्यानां सप्तानामापत्तौ सत्यां निर्विकृताधष्टमभक्कान्तम्एयारिमम्मि पुरिसे, दिजा सावज्जजीयं पि ॥६५॥
निर्विकृतिकपुरिमाकाशनाऽऽचामाम्लचतुर्थषष्ठाष्टमाऽस्यं दानं उत्सनेन प्रायेण बहुदोषे, " निबंधसे" सर्वथा निर्दये, तथा|
यथासंख्यं शेयमित्यर्थः । ६१। प्रवचने प्रवचनविषये निरपेके, एतादृशे पुरुषेऽनवस्थाप्रसा.
पतानि च बघुपञ्चकाऽऽदिभेदाऽऽत्मकनिम्नमासाऽऽदीनि गुरुष
एमासान्तानि पूर्वम, "अद्धेण निमसेसं" इति गाथाम्याक्यायां निवारणाय सावद्यमपि जीतं दीयते।।
सप्रपत्रमाख्यातानीत्यन्यत्र प्रपञ्चितानि । सामान्येन तपस संविग्गे पियधम्मे, अपमचे वा अवज्जभीरुम्मि।
उपसंहारमाहकम्हि इ पमायखलिए. देयमसावज्जजीयं तु ॥ ६८६॥ इय सवाऽऽवत्तीओ, तवसो नाउं जहकम्म समए । संवि, प्रियधर्मिणि, अप्रमत्ते वा, अवधनीरौ कस्मिश्चि- जीएण दिन निबी-यगाइ दाणं जहाऽनिहियं ॥६॥ प्रमादचशतः स्वलिते देयमसावधं जीतम् ।
इत्यमनाप्रकारेण,सर्वा भापत्ती तपसः संबन्धिनीः, यथाक्रम. जंजीतमसोहिकरं, ण तेण जीतेण होइ ववहारो। । मतीचारानुसारेण, समय सिद्धान्ते,शात्वा, जीतेन,निर्विकृति
जं जीतं सोहिकर,तेण उ जीतेण ववहारो॥६७७॥ काऽऽदि दानं,यथा येन प्रकारेणात्रिहितं,तथा दद्यादित्यर्थः ।६। यद जीतमशाधिकरं, न तेन जीतेन भवति व्यवहारः कर्तव्यः,
विशेषानिधानाय प्रस्तावनामाहवत्पुनर्जीत शोधिकर, तेन जीतेन व्यवहारो विधेयः ।
एयं पुण सव्वं चिय, पायं सामनओ चिनिद्दिष्टं। शोधकराऽशोधिकरजीतप्रतिपादनार्थमाद
दाणं विभागओ पुण, दवाइविसेसियं नेयं ।। ६३॥ जं जीतमसोहिकरं, पासत्यमपत्तसंजयाऽऽइएणं ।
एतत्पुनरालोचनाऽहाऽऽदिप्रायश्चित्तदानं, सर्वमेव, प्रायो बाजइ वि महजणाऽऽचिन तेण जीतेण ववहारो।६।।
दुल्येन, सामान्यतो व्याऽऽद्यविनागतो. विनिर्दिष्टम विभाजं जीतं सोहिकर, संविग्गपरायणेण दंतेण ।
गतः पुनः व्याऽऽदनि व्यक्षेत्रकालभावपुरुषप्रतिसेवनाएगेण वि आनं, तेण न जीतेण ववहारो॥६७णा
दीनि,तइपेकं विशेषितं हीनमधिकं वा, यथोक्कमेव वा, जीतं
दानं दातव्यमिति शेयम् । ६३ । यद् जीतं पार्श्वस्थप्रमत्तसंयताऽऽचार्णमत एवाशोधिकर, तद
शेषमेव सुव्यक्तमाहयद्यपि महाजनाऽऽचीण, तथापि न तेन जीतेन व्यवहारः कर्तव्यः, तस्याशोधिकरत्वात् । यत्पुनीत संवेगपरायणेन दान्तेन दव्यं खत्तं कालं, जावं पुरिम पडिसेवणाश्रो य । पकेनाप्याचीर्ण, तत शोधिकरं कर्तव्यम् । व्य०१० उ०। नाउ पियं चिय दिज्जा, तम्मत्तं होणमहियं वा ॥६॥ संप्रति सूत्रकारः स्वयमेव सूत्रेणैव प्रस्तावयन्नाह
अत्र बन्धाऽऽनुलोम्येन प्राकृतत्वात्पुरुषशनो लुप्तविभक्तिको जं जन जणियमिहयं, तस्सावत्तीऍ दाणसंखेवं ।
निर्दिष्टः । ततश्च व्यं क्षेत्र कालं भावं पुरुष प्रतिसेवनाश्व भिनाइया य बुच्छं, कम्पासंता य जीएणं ॥६॥ झावा,मितमेव व्यक्केवाऽऽदिप्रमाणेनैव,कोऽर्थः,न्याऽऽदिषु इह जातव्यवहारेऽपराधमुद्दिश्य यद्यत् प्रायश्चित्तं न भणिनं, दीनेषु हीनम, अधिकेप्वधिकम, अहीनोत्कृष्टेषु तन्मात्र-जी. तस्याप्यापत्तिविशेषेण दानसर्पं वक्ष्ये ।भापत्तिश्चामुकातिचा- तोक्तसममेव, दद्यात् । ६४ ।
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(१५१६) जीयववहार अभिधानराजेन्द्रः ।
जीयववहार तत्र न्याऽऽचनिधित्सयाऽऽह
लहुसो लहुसतराओ, अहलहुसो चव हो यवहारो॥" पाहाराऽऽई दव्वं, वलियं सुलहं च नाउमहियं पि। अहागुरु-अहालहु-अहालहुसशब्दगुरुतमलघुतमलघुकतमा दिज्जाहि दुब्बलं दु-सहं च नाऊण हीणं पि ॥६॥
बच्यन्ते । एष च नवविधोऽपि श्रापत्तिदानतपोज्यां का.
सेन च योजनीयः। माहाराऽऽदिक द्रव्यं यत्र देश वासिकं,सुलनं च यथा-अनूप
तत्रेदमापत्तितपःदेशे शालिकूरो पलिकः,स्वभावेनैव सुसजश्च तं ज्ञात्वाऽधिक गुरुमासो १, गुरुलघुचतुर्मासो २,. गुरुल घुषपमासश्च ३। मपि जीतोक्ताद् बहुतरमपि दद्यात् । यत्र पुनर्वल्लचणककाज- लघुमासो,निन्नमासोश,विशतिकं च ३। पञ्चदशकं १, दशकं काऽऽदिको कक्षाऽऽदारो पुर्वन्तो, उर्लभइच, तंबावा हीनं
२,पञ्चकं चेति ३। उक्तं च-"गुरुगोय हो मासो, गुरुयतरो चेव जीतोक्कावल्पमपि दद्यादित्यर्थः । ६५।।
होइचउमासो। अहगुरुश्रो उम्मासो,गरुपक्खे होइ पडिवत्ती" अथ कत्रकालाभिधानार्थमाह
॥१॥अत्र सामान्येनानिधानात् चतुर्मासकशब्देन गुरुचतुर्मासुक्खं सीयल साहा-राणं च खित्तमाहियं पि सीयम्मि ।
स-लघुचतुर्मासाऽख्योभयमपि ग्राह्यम; परामासशब्देन च
गुरुघरामास-बघुषरामासाऽऽख्यद्वयमपि ग्राह्यम् । "तीसाय प. सकतम्मि य हीणतरं, एवं काले वि तिविहम्मि ।६६।
एमबीसा, बीसा विय होइलहुयपक्वम्मि ॥" अत्र 'तीसा' चैतत् मक क्षेत्र स्नेहरहितं, बातुलं वा शीतलं पुनः स्निग्धम, अनूपं स्यूनतयैवोक्तमः अन्यथा लघुमासे साधंसप्तविंशतिरेव दिनावा, साधारण-मध्यस्थम,अस्निग्धरूकम् । इह शीते खिग्धकेत्रे नि भवन्ति । "पनरस दस पंचेव य, बहुसयपक्वम्मि पमिव. जीतोक्तादधिकमपि दद्यात्रुकेच हीनतरं जीतोक्तायस्पतरम्। ती"॥१॥ प्रतिपत्तिरापत्तिरित्यर्थः। भत्र चकारोऽनुक्तसमुचये। तेन साधारणक्षेत्रे साधारणं जीतो.
अथेदानीमेषु गुरुकादिषु दानतपःक्तमात्रमेव, अहीनाधिकं दद्यादिति शेयम् । कालेऽपि त्रिविधे- अष्टमम १, दशमम् २, द्वादशं च ३। षष्ठम् १, चतुर्थम २,. वर्षाशिशिरप्रीमरूपे, एवममुनैवोक्तप्रकारण, जीतोक्ताधिकसम- प्राचाम्लं च ३ । एकाशनम् १, पुरिमार्द्धम् २,निर्विकृतिकं च ३ हीनानि तपांसि यथासंख्यं दद्यादिति सामान्यातिदेशः॥१६॥ इति वर्षाशिशिरग्रीष्मेषु दीयते । विशेषतः कालं प्रपञ्चयन्नाह
उक्तं चगिम्हसिमिरवासामुं, दिजऽहमदसमवारसंताई।
" गुरुगं च अहम खलु, गुरुयतरायं च होइ दसमं तु । ना विहिष्णा गावविह-मुयववहारोवएसेणं ।। ६७॥
अहगुरुयं वारसम, गुरुपक्खे होइ दाणं तु ॥१॥ अत्र कामस्त्रिधा-ग्रीष्मशिशिरवर्षावकणः। स च सामान्यतो द्वि
छ चउत्थयंबिल, लदुपक्खे होश तवदाणं । धा-स्निग्धो, रुवश्च । स च द्विरूपोऽप्युत्कएमध्यमजघन्यभेदात
एगासण पुरिमई, निब्वीय लहुस सुखो वा ॥२॥" त्रिधा । तत्रोत्कृष्टस्निग्धोऽतिशीतः,मध्यमस्निग्धो नातिशीतः, जघ.
( सुद्धो व ति) यस्तु निर्विकृतिकमात्रमपि तपः कर्तुमशक्तः म्यस्निग्धः स्तोकशीतः । उत्कृष्टरूकोऽत्यष्णः, मध्यमरूनो ना
स मिथ्यापुष्कृतनैव शुद्ध्यतीत्यर्थः । एवमोघेनोक्तो नवविधः त्युष्णः, जघन्यरूकः कवोष्णः । एवंरूपे ग्रीशिशिरवर्षाऽऽख्ये श्रुतव्यवहारोपदेशः। कालत्रये नबबिधश्रुतव्यवहारोपदेशन नवविधो-नवविधतपो
साम्प्रतं विभागतः कथ्यतेदानलकणः, स चासौ भुतव्यवहारोपदेशश्च, तेन नवविधश्रुत
"ओहेण एस भरिण प्रो, इत्तो वुच्छ विभागणं । म्यवहारोपदेशेन, विधिना वैपरीत्याभावेन, ज्ञात्वाऽष्टमदशम
तिगनवसत्ताव सा-एक्कासी हि पहि॥१॥" द्वादशान्तानि तपांसि दद्यात् । अयं भावार्थः-ग्रीष्मशिशिर
अत्रैष नवविधव्यवहारस्त्रिभिर्नवनिः सप्तविंशतिभिरेकाशी. वर्षासु यथाक्रमं चतुर्थषष्ठाटमानि जघन्यानि, घाटमदशमानि
तिनिश्च दैर्भवति । तत्र संकेपतस्तावदयं त्रिभेदः-उत्कृष्टो, मध्यमानि, अष्टमदशमहादशान्युत्कृष्टानि ।
मध्यमो, जघन्यश्च । तत्र गुरु-गुरुतर-गुरुतमाऽऽख्यो गुरुपक्क उक्तं च
उत्कृष्टः । लघु-लघुतर-लघुतमाऽऽल्यो लघुपक्को मध्यमः । " गिम्हासु चउत्थं दिजा, ग्टगं च हिमागमे ।
लघुक-लघुकतर-लघुकतमाऽऽस्यो लघुकपको जघन्य इति । वासासु अहम दिज्जा, तवो एस जहागा ॥१॥
__यदाहगिम्हासु छगं दिजा, अहमं च दिमाऽऽगमे ।
"नवचिद ववहारेसो, संखेवेणं तिहा मुणेयव्यो।' वासासु दसमं दिज्जा, एस मज्झिमगो तबो ॥२॥
ठक्कोसो मज्झिमगो, जहागो चेवं तिविहेसो॥१॥ गिम्हासु अहम दिज्जा, दसमं च हिमाऽऽगमे ।
उक्कोसो गुरुपक्खो, बहुपक्खो मज्झिमो मुणेयम्यो । बासासु दुवामसम, एस उक्कोसो तबो ॥ ३॥"
लहुसपक्खो जहनो, तिविगप्पो एस नायब्वो" ॥ २॥ एष नवविधतपोदानलकणः श्रुतव्यवहारोपदेशः । अथवा- नवभेदस्त्येवम--गुरुपन्न एकोऽप्युत्कृष्टमध्यमजघन्यभेदात् नवविधभुतव्यवहारोपदेशो द्विधा-श्रोघतो, विजागतश्च । तत्री- त्रिधा । एवं अघुपकोऽपि त्रिधा । लघुकपकोऽपि चैवं विधेति । घतो गुरुः १, गुरुतरो २, गुरुतमश्च ३। लघुः१, लघुतरो २,ल. तत्र गुरुपके त्रैविध्यमिदम्-गुरुपका पाएमासिक-पाश्चमासिकाघुतमश्च ३ । लघुको १, लघुकतरो २, बघुकतमश्चेति ३। ऽऽख्य उत्कृष्टः,चातुर्मासिक-त्रैमासिकाऽऽगयो मध्यमः,द्वैमासिएवं नवविधः।
कगुरुमासिकाऽऽख्यो जघन्यः । सघुपक्के लघुमास उत्कृष्टः, भिउक्तंच
नमासो मध्यमः,विशतिकं जघन्यम लघुकपक्ष पञ्चदशकमुक"गुरुमो गुरुपतराम्रो, अहागुरू चेव हो ववहारो। एम, दशकं मध्यमम, पञ्चमं जघन्यमित्येष नवविधा उपचितः बहुमओ लहुअतरा हालदू चेव ववहारो॥१॥ स्वरूपश्रुतव्यवहारो दर्शितः ।
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जीयववहार अन्निधानराजेन्द्रः।
जीयववहार भणितं -
स्त्रमणाऽऽयामेगासण, तिविहुक्कासाइ दाण पणगम्मि । "गुरुपक्ने नकोसो, मग्भ जहन्नो त एवं लघुए वि। लदुसे बी तहसु, सत्तावीस य पासासु" ॥६॥ एमव य लहुसे वी, श्य एसो नवविहो हो ॥१॥
एवं यथा वर्षासूत्कृष्टाऽऽद्यापत्तिनवके सति दानतपसोवागुरुपक्खे कम्मासा, पणमासो चय होर उक्कोसो।
दशमादौ कृत्वा पकाशनान्ताः सप्तविंशतिन्जेदाचारणिकया मन्झो चउ-तेमासो, दुमास-गुरुमासग जहन्नो ॥२॥ कृताः, तथा शिशिरेऽपि, कवनं दशममादी कृत्वा पुरिमा - लहुभिन्नमासीसा, लहुपक्खुकासमझिमजहन्ना । न्ताः। ग्रीष्मे पुनरष्टममादौ कृत्वा निर्विकृत्यन्ताः सप्तविंशति. पनरसगं इस पणगं, लहुसुकोसाइतिविहेसो ॥३॥ नेदाः कार्याः, यन्त्रस्थापनातश्च इंयाः । वर्धाशिशिरग्रीमाणां प्रावत्तितवो एसो, नवभेप्रो वम्मिश्रो समासेण ।
सप्तविंशतित्रयमीलन चकाशीतिदानतपमो नंदा भवन्ति । - अहुणा च सनबीसी, दाणतयो तस्मिमो होइ"॥४॥ कंस्य समविनागरूपस्य एकदेशस्य एकादिपदात्मकस्यापतस्याऽऽपत्तितपस इदं सप्तविंशतिभई दानतपो जवति । तत्र कमणं निवत्तनं, शषस्य तु बुद्ध्यादिपदसाताऽऽत्मकस्यैकदेशगुरुपक एकोऽपि नवधा। तद्यथा-सत्कृष्टोत्कृष्टः १, उत्कृटमध्यमः स्यानुवर्तनं यस्यां रचनायां सा समयपरिभाषया.पक्रान्ति. २. उत्कृष्टजघन्यः ३, मध्यमोत्कृष्टः४, मध्यममभ्यमः ५, मध्य.
रुच्यते । यथा वर्षासु गुरुतमे उत्कृष्टतो द्वादशमं, मध्यमतो मजघन्यः ६, जघन्योत्कृष्टः ७, जघन्यमध्यमः ८, जघन्यजघ- दशमं, जघन्यतोऽष्टमम् । एषां मध्यादेकदेशो द्वादशलक्षणोऽ. म्यति एा एवं सघुपकोऽपि नवधा एवं बघुकपकोऽपि पक्रामति. द्वादशमाटमे गुरुतरं गतोऽप्रेतनं च षष्ठं मीचवमेव नवधा ए। सर्वमोलने सप्तविंशतिनेदा भवन्ति । ल्यते. ततश्च गुरुतरे उत्कृष्टतो दशमं, मध्यमतोऽष्टमं, जघन्यतः भणितं च
षष्ठम । एषां मध्यादेकदेशो दशमलक्षणो निवर्तते, अष्टमषष्ट गु. "गुरु-लघु-लघुसगपक्खो, शक्तिको नवषिहो मुणयन्यो । रुकं गच्छतोऽप्रेतनं चतुर्थ मील्यते, ततश्च गुरुके उत्कृष्टतोसक्कोसुकांसो वा १, उक्कोसगमज्झिमर जहन्नो ३ य ॥१२॥
टम, मध्यमतः षष्ठं, जघन्यतश्चतुर्थमिति । यथा चेयमेकाशीतिमकुक्कोसो मज्झिम-मझो २ तह हो मज्झिमजहम्रो ।
कदानतपोयन्त्रके वर्षाऽऽद्यनवकेऽद्ध पक्रान्तिर्दर्शिता, तथैव श्य जय जहन्नो वी, गुरुपक्खे हुँति नवभेश्रा ॥२॥
सर्वेष्वपि नवकेषु विलोकनीया। पुवुत्ता नव भेया, नेया सव्वे तहेव ल हुपक्ने ।
यदाहनव चेव बहुसपक्खे, सत्तावीसं नवंतर" ॥३॥
"सिसिरे दसमाईणं, चारणभेएण सत्तधीसेण । तत्रेदमेव सप्तविंशतिविधं दानतपो व्यक्तीकुर्वनिह गुरुपके ष.
चाय पुरिमसम्मी, अद्भुकंती तह व ॥१॥ पमासिकपश्चमासिकाऽऽस्योत्कृष्टाऽऽपत्ती सत्यामू-उत्कृष्टोत्कृष्टं
महममाई गिम्हे, चारणनेएण सत्तवीसण। द्वादशं तपः, उत्कृष्टमध्यमं दशमम, उत्कृष्टजघन्यमटमम् । चतु
तह चव अधुकंती, वायह निब्बीयए नवरं"॥२॥ मासिकषिमासिकाऽऽस्यमध्यमाऽऽपत्ती-मध्यमोत्कृष्टं दशमम,
पतनैरापत्तयःस्वका नियमात्सर्या बोद्धव्यााएकविधाऽऽपत्ति मध्यममध्यममष्टमम, मध्यमजघन्यं षष्ठम । द्विमासिकगुरुमा
षुच द्वादशाऽऽयं तपः कर्तुमसहिष्णाहांसस्तावत्कार्यों यावत्रसाऽऽस्य जघन्याऽऽपत्ती-जघन्योत्कृष्टमटमम, जघन्यमध्यम
पानामपि पतीनां स्थितमेकपयन्तकोष्ठकगतं चतुर्याऽऽदि निर्विषष्ठम, जघन्य जघन्य चतुर्थम । लघुपके नघुमासाऽऽस्योत.
कृतिकान्तं तपः,ततस्तस्य दीयते। तत्करणेऽप्यशक्तस्य पुनस्त. पत्तौ-उत्पत्कृष्ट दशमम,उत्कृष्टमध्यममाष्टमम, उत्कृष्टज
थैव ह्रासयेत् । स्वस्थानतपो दातुं वासु वर्षाकामोक्तं,शिशिरोधन्यं षष्ठम्। भित्रमासाऽऽण्यमध्यमाऽपत्ती मध्यमोत्कृष्टमष्टमम्,
तं शिशिर,ग्रीष्मोक्तं ग्रीष्मे । तदपि कर्तुम तमस्य परस्थान-वर्षामध्यममध्यमं षष्टम,मध्यमजघन्यं चतुर्थमाविंशायजघन्या
स्वपि शिशिरोक्तं. ग्रीष्मोक्तं वा हासयनिर्दीयते । एवं स्थाने स्थाने उपत्ती-जघन्योत्कृष्टं षष्ठम्,लक्ष्यमध्यमं चतुर्थम, जघन्यज
वर्षशिशिरग्रीमरूप हासयद्भिस्तावनेयं यावन्निविकृतिकमात्र. घन्यमाचामाम्लम् ॥ लघुकपके पञ्चदशाख्योत्कृष्टाऽऽपत्ती-उ.
मेव दयतया स्थितम् । कश्चित्वेवं व्याख्यातम्-प्राधाकर्मिस्कृष्टोत्कृष्टमटमम,उत्कृष्टमध्यमं षष्ठम उ जघन्यं चतुर्थम् । द.
काऽऽद्युक्तौ या पम्जीवनिकायविराधना, तजनितं प्रायश्चित्तं शकायमध्यमाऽऽपत्तो-मध्यमोत्कृष्टं षष्ठम,मध्यममध्यम च.
स्वस्थानम, आधाकाऽऽद्यासेवाभणितं च चतुर्थादिकं परस्थातुर्थम,मध्यमजघन्यमाचामाम्समापनकाऽऽस्यजघन्याऽऽप
नं, तहाने कथमेव हासविधिईय इति ?।
उक्तंचसौ-जघन्योत्कृष्टं चतुर्थम्, जघन्यमध्यममाचामाम्सम, जघन्य. अघन्य मेकाशनमिति । एवं वर्चासु सप्तविंशतिविधं दानतपः ।
" पपडि दाणेहिं, प्रावतीमो मया सया नियमा । यदाह
सव्वा बोद्धध्यायो, असहस्सिक्किकहासणया ॥१॥ "चारसग दसम अट्टम, छप्पणमासेसु निविहदाणणं ।
जावश्यं किक, तंप हासिज असहुणोताव। चउ-तेमासे दस अ-ट्ट छठ उक्कोसगाई तिहा ॥१॥
दाउ सहाणतवं. परगण दिज्ज एमेव।२॥ एमेवुकोसाई, उमासगुरुमासिए तिहा दाण।।
एवं गण ठाण, हिहा उत्तं कमेण ढासित्ता। अट्ठम छ? चनुन्थ, नवविहमयं तु गुरुपक्खे ॥॥
नेयव्यं जावश्य, नियमा निब्बीइयं कं" ॥ ३॥ दसमं अहम , बहुमासुक्कोसगाइ तिह दाणं ।
एष नवविधो व्यवहारः। एकाशीतिकस्य नविधव्यवहारयन्त्रअहम टु च उत्थं, उक्कोसाह य तिहा भिन्ने ॥ ३ ॥ कस्य स्थापना (१५१८ पृष्ठेऽग्रे) अत्र च उत्कृपाऽऽदीनि जघन्याछट्टच स्थायाम, नकोसाई यदाण बीमाए ।
तानि तपांसि स्थाप्यन्ते,एवं सुखेन हासः कर्तुं शक्यते, सुत्रे तु सहुपक्खम्मि नवविही, एसो वीपो भवे नवगो।।४।। जघन्याऽऽदीन्युत्कृष्टान्तान्युक्तानि, तद्विचित्रत्वात् सूत्ररचनाया अहम ह च उत्थं, एसुकोसाइ दाण पन्नरसे ।
इति । उक्तं कालविषयं सप्रपञ्च प्रायश्चित्तम ॥ ६७ ॥ (भा. 8 चउत्थायामं, दससूतिविहे य दाण नये ॥ ५॥
पाऽऽदिविषय प्रायश्चित्तं तु तबोरिह' शब्द वक्ष्यते)
३८०
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(१५१८) अभिधानराजेन्द्रः।
जीयववहार
जीयववहार
एकाशीतिकस्य नवविधव्यवहारयन्त्रकस्य स्थापना चेयम्
वर्षासु २७
उत्कृष्टापत्नौ
मध्यमापत्ती
जघन्यापत्ती ६।५ गुरुनमम न० उ० १२४।३ गुरुतरम् म० उ० १०२१ गुरु ज० न० गुरुतमम् उ० म. १० गुरुतरम् म० मा ८
गुरु ज०म० गुरुतमम् उ० ज० ८ गुरुतरम् म० ज०६]
गुरु २७॥ लघु
उ० उ० १०/२५ बघुनरम् म. उ० २० लघुतमम् ज० ० लघु उ० म०८ अघुनरम् म० म०
अघुतमम् ज० म० ____४ लघु उ० ज०
लघनगम म० ज० ४ लघुतमम् ज० ज० प्रा० लघुकम उ० न०८/१० लघुकतरम् म० उ० ६५ लघुकतमम् ज० उ० लघुकम उ० म०
लघुकतरम् म. म. ४ लघुकतमम् ज० म० प्रा० लघुकम ३० ज० ४ अघुकतरम् म० ज० प्राचाम्सम लघुकतमम् ज० ज० पकाशनकम्
६
शिशिरे २७ नत्कृष्टापत्ती
मध्यमापत्ती ६।५ गुरुतमम् उ० उ० १०-४।३ गुरुतरम् म. न. गुरुतमम उ० म. ८
गरुतरम् म० म. ६ गुरुतमम न० ज० ६ गुरुतरम् म० ज. २७॥ लघु १० उ० ८ बघुतरम् म. १०६ लघु उ०' म०६
बघुतरम् म० म०४ लघु उ० ज० ४ लघुतरम् म० ज० प्रा० १५ लघुकम् उ० उ०
लघुकतरम् म० उ०४ लघुकम् उ० म०४ लघुकतरम् म० मा भा० - लघुकम् उ० ज० प्रा० लघुकतरम् म० ज० ए०
जघन्यापत्ती २११ गुरु ज० उ. . गुरु. ज० म०
गुरु ज० ज० प्रा० लघुतमम् ज० ० लघुतमम् ज० म० प्रा० लघुतमम् ज० ज० लघुकामम् ज० उ० प्रा० लघुकतमम् ज० म० ए० लघुकतमम् जज) परिमाईम
६।५
२
॥
ग्रीष्मे २७ उत्कृष्टापत्ती मध्यमापत्तो
जघन्यापत्तो गुरुतमम् १० उ० ४ ४।३ गुरुतरम्म
।३ गातरम
० उ०६२।१ गुरु ज० ० गुरुतमम् न० म० गुरुतरम् म. म. ४
ज०म० श्रा गुरुतमम् न० ज०४
गुरुतरम् म० ज० प्रा० गुरु ज० ज०. ए. लघु
बघुतरम् म० उ०४/२० लघुतमम् ज० उ० प्रा० लघु न. म. ४
लघुतरम् मा म० प्रा० लघुतमम् ज० म० लघु उ० ज० श्रा० लघुतरस म० ज० ए० अधुतमम् ज) जा लघुकम् उ. उ. ४१० लघुकतरम् म० उ० प्रा०५ लघुकतमम् ज. न ए लघुकम् उ० म० श्रा. लघुकतरस मा मा पा अघकनमम् ज० मा पु० लघुकम् उ० ज० ए० बघुकतरम् म० ज० पुरिमार्द्धम लघुकतमम् ज० ज० निर्विक
निकम
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(१५१६) जीयविजय अभिधानराजेन्छ।
जीव मीयविजय-जीतविजय-पुं० । यशोविजयगणिगुगर्नयविजय- वाच०। क इत्थंभूत इति चत् । उच्यते-यो मिथ्यावादिका गणेः सतीये मानविजयगणिशिध्ये प्राचार्य, प्रति० । प्रति- बितरूपतया साताऽऽदिवदनीयाऽऽदिकर्मणामभिनिवर्तकः, तमाशतके कल्याणविजयवर्णनमधिकृत्य-" तच्छिण्याः प्रतिगु
त्फत्रस्य च विशिष्टसातादेरुपनोक्ता,नरकाऽऽविभवेषु च यथाणधाम हेमसूरेः,श्रीलाभोसरविजया बुधा बभूवुः। श्रीजीतोत्तर
कर्मविपाकोदयं संसा, सम्यग्दर्शनशानचारित्रोपसंपन्त्ररत्नविजयाऽभिधानजीत-कश्रीमन्त्रयविजयौ तदीयशिष्यौ" ॥१५॥
प्रयाभ्यासप्रकर्षवशाय निःशेषकर्माशापगमतः परिनिर्वाता, स द्वात्रिंशिकायां लाभविजयवर्णनमधिकृत्य-" यदीया हग्ली
जीवः सवः प्राणी आत्मत्यादिपर्यायाः। नक्तं च-"यः कर्ता लाऽज्युदयजननी मारशि जने, जमस्थानेऽप्यकंद्युतिरिव ज. कर्मन्दानां, जोक्ता कर्मफलस्य च । संसर्ता परिनिर्वाता, पात् पङ्कजबने । स्तुमस्तच्छिष्याणां बनमविकलं जीतविजया- सखात्मा नान्यलक्षणः " ॥१॥इति । कर्म०१ कर्म०।०। भिधानां विकानां कनकनिकपस्निग्धवपुषाम ॥४॥" द्वा० ३२ |
जीवझकामद्वा० । नयो । अप।
नवप्रोगलक्षणमाणा-निहणमत्यतरं सरीराओ । भीया-ज्या-स्त्री० । ज्या-अ । “ज्यायामीत् "1८1२१११५॥ जीवमरूवं कारि, भोइं च सयस कम्मस्स ।। ५६ ॥ इति प्राकृतसूत्रेण व्यञ्जनात्पूर्वमोद नवति । प्रा० २ पाद । उपयुज्यते अनेनेत्युपयोगः साकारानाकारा:। उक्तश्चम घनुषो गुणे, मौव्याम, मातरि, भूमौ च । वाच०।
द्विधा अष्टचतुर्भेदः, स एव लक्षणं यस्य स गसकणस्तं, बीर-ज-जरायाम, दिवादि-पर० अक० सेट् घटादिः। “हस्त
जीवमिति वश्यते । तथा अनाद्यनिधनम्-श्रनाथपर्यवसितं,
भवापवर्गप्रवाहापेक्षया नित्यमित्यर्थः । श्राव०४०। दर्श। ग्रामीरः"।।४।२५० ॥ इति प्राकृतसूत्रेणैषामन्त्यस्य ईर इत्यादेशः। प्रा०४ पाद । जीर्यति, अजरत्, अजारीत, जीर्णः,
जीवो अपाइनिहणो,णाणाऽऽवरणाइकम्मसंजुत्तो। (8) जरा, जरयति । वाच।
जीवतीति जीवः,मसौ अनादिनिधनः-अनाद्यपर्यवसित इत्यजीव-जीव-पुं० । जीवनं जीवः । जीव-जावे घम् । प्राणधारणे, र्थः। स चकानाऽऽवरणाऽऽदिकर्मणा समेकीभावेनान्योन्यव्याप्त्या, प्रा० मा विशे० । पा० । “हसति गया दविया,णावकंवंति
युक्तः संबको कानाऽऽवरणाऽऽदिकर्मसंयुक्तः। श्रा० । "कानाजीवितुं । " जीवितुं प्राणान् धारयितुम् । आचा०१ २०१
उत्मकः सर्वशुभा-शुनकर्ता स कर्मणा । नाना संसारिमुक्ताभ०७ उ० । "जीवो त्ति जीवणं पा-धारणं जीवियं ति
ऽऽख्यो, जीवः प्रोक्तो जिनाऽऽगमे " ॥१॥ दर्श०४ तस्व । पज्जायां ॥" (३५० गाया) विशे०। जीवितवान, जीवति.जीवि.। निसर्गचेतनायुक्तो, जीवोऽरूपी ह्यवेदकः ।। [३०] प्यतीति जीवः । आचा०१ श्रु०८०२०। दर्श०। प्राव०। निसर्गा सहजा या चेतना, तया युक्तः निसर्गचतनायुक्तः, उपयोगलक्षणे जीवाव्ये, सूत्र०२७० ११०।" न य एगो सर्वेभ्योऽचेतनेभ्यो भिन्नो, जीवः, व्यवहारनयेन रूपवेदसहितासम्बगो. निकिरिश्रो सक्नणाश्नेत्राओ।" (१९५७ गाथा) ऽपि निश्चयनयन रूपरहितो-रूपात्यन्ताभावयुक्तः, वंदरहितो. अपयोगकणो हि जीवः । स चोपयोगो रागद्वेषकषायविष- वेदात्यन्ताभाववान्, सत्तामात्रम, निर्गुणो, निर्विकारो जीवः । याश्यवसायादिभिभिद्यमान उपाधिजेदादानन्त्यं प्रतिपद्यत उक्तं च-"अरसमरूवमगंध, अवन्नं चेयणागुणमसइं । जाण अ. त्यनम्ता जीवाः, लकणजेदाद, घटाऽऽदिवदिति । विशे०। लिंगम्गहणं, जीवमणिद्दिसंगणं ॥१॥"अभ्या० १० अध्या। ___ जीवनिक्केपश्चतुर्धा । तथा च नियुक्तिः
..."जीवमजीचे,रूवमरूबी य सप्पएसे या"सुखदुःखशानोपयो. निक्लेवो जीवम्पी, चनविह सुविहो उ होइ दवम्मि ।
गलकणो जीवः,तभिन्नोऽजीवः। एतौ द्वौ नेदी प्रत्येक रूप्य रूपि
भेदी। तथा चाह-रूप्यरूपिण इति । तत्रानादिकर्मसन्तानपरिभागमणोआगमतो, नोागमतो य सो तिविहो ॥१॥
गता रूपिणः, अरूपिणस्तु कर्मरहिताः सिका इति । प्रा० म०। जाणगसरीरभविए, तन्वरित्तं च जीवदव्वं तु । प्रा०चू० । (जीवस्यास्तित्वनित्यत्वाऽऽदि 'माता'शब्दे द्वितीय.
भावम्मि इसविडो खत्रु,परिणामो जीवदधस्स ॥२॥ भागे १७२ पृष्ठे प्रतिपादितम् ) ' तव्यतिरिक्तं च जीवाव्यम, व्यजीव उच्यते इति प्र
___ जीवस्य कश्चिद् नित्यत्वं कश्चिदनित्यत्वम्कमः । तुर्विशेषद्योतकः । स चायं विशेष:-न यथा क
सासए जीवे जमाली, जंण कदाइ णासिजाव णिच्चे । दाचित् तत्पर्यायवियुतं व्यं, तथाऽपि च यदा वि- अमासए जीवे जमाली!, णं णरइए नवित्ता तिरिक्खयुक्ततया विवक्ष्यते, तदा तद्रव्यप्राधान्यतो व्यजीवः। भावे तु
जोणिए भवइ, तिरिक्ख जोणिए वित्ता मास्से भव, शविधः, स्वझरवधारणे, दशविध एव परिणामः कर्मक्कयो
माणुस्से भवित्ता देवे जब ।। ज.६ श० ३३ उ० । पशमोदयापेकपरिणतिरूपो,जीवाव्यस्य संबन्धी,जीवादनन्यस्पेन जीवतया विवक्तितो जीव इति प्रक्रमः। तत्रच वायोपश
. जीवानां कथञ्चित्साहश्य, कथग्निद नमिकाः पद-पञ्चेन्द्रियाणि,षष्ठं मनः,ौदयिकाः क्रोधाऽऽदयश्चत्या.
"सच्चे पाणा प्रणेलिसा ।" [४ गाथा ] रोमीलिता दश जवन्ति। उत्त०३६ अादश०(विस्तरेण निक्केप
- सर्वेऽपि प्राणिनो बिचित्रकमसद्भावाद नानागतिजातिशरीरा'माता' शब्दे द्वितीयभागे १६७ पृष्ठे उक्तः)इन्जियपश्चकमनोवा
लोपाङ्गाऽऽदिसमन्वितत्वादनीरशा विसरशा। सूत्र०२७०५॥ कायवक्षत्रयोशासनिःश्वासायुर्वक्षणान् दश प्राणान् यथायोगं (हस्तिकुन्थ्यो समानजीवत्वं, जीवस्य संकोचविकाश शालित्वं धारयतीति जीवः । कर्म० १ कर्म । नं० प्रा० म० भ०। च 'पपसिण' शब्दे वक्ष्यते) प्राणधारणधर्मके प्रारमनि, स्था० १०१००। आचा।
जीवचैतन्ययोर्मेदाभेदीदर्श । देहानिमानिनि भारमनि, मनुष्यावधिकीटपर्यन्ते चेतने, जीवे णं ते नीचे जीवे । गोयमा! जीवे ताव नियमा
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जीव
(१५२०) अनिधानराजेन्बः।
जीव जीवे,जीवे विनियमाजीचे जीवे ते ! नेरए नेरइए सबसि पाणाणं सबेसि भयाणं सम्बसि जीवाणं सजीवे । गोयमा! नेरइए ताव नियमा जीवे, जावे पण रिय | चोसि सत्ताणं । नेरइए, सिय अनरइए । जीवे | भंते ! असुरकुमारे | सर्वेषां प्राणिनां द्वित्रिचतुरिन्छियाणां, तथा सर्वेषां भूताअसुरकुमारे जावे ? । गोयमा! अमुरकुमारे ताव नियमा
नां प्रत्येकसाधारणमृदमबादरपर्याप्तकापर्याप्तकरूपाणामिति ।
तथा सर्वेषां जीवानां गर्भव्युत्क्रान्तिकसंमूर्चनजोपपातिकपजीव, जीवे पुण सिय असुरकुमारे, सिय णो अमुरकुमा
चेकिवाणाम् । तथा-सर्वेषां सस्वानां पृथिव्याये केन्द्रियारे । एवं दएकमो जाणियव्यो० जाय वेमाणियाणं ।
णामिति । इह च प्राणाऽऽदिशम्दानां यद्यपि परमार्थतो अंदजीवइ भंते ! जीवे जीवे जीव १ । गोयमा ! जीव ताव स्तथाऽपि उक्तम्यायेन भेदो बष्टव्यः । उक्तं च-"प्राणा वित्रिनियमा जीवे, जीवे पुण सिय जीवइ, सिय नो जीवइ । चतुःप्रोक्ता, भूतास्तु तरवः स्मृताः । जीवाः पन्छिया: प्रो. जीव नंते ! नेरइए नेरइए जीवइ ? । गोयमा ! नेरपए
काः, शेषाः सस्वा उदीरिताः॥१॥"र्शत। यदि वा-शम्दम्यु.
त्पत्तिद्वारेण समभिरूढनयमतेन भेदो अपव्यः। तथाहि-सततं ताव नियमा जीव, जीव पुण मिय नेरइए, सिय अने
प्राणधारणात्प्राणाः, कालत्रयभवनाद जूता, त्रिकालजीवनाद रए, एवं दंगो नेयचो० जाच वेमाणियाणं ।
जीवाः, सदाऽस्तित्वात सस्था ति। प्राचा० १६०१म०६ उ०॥ 'इह एकन जीवशब्दन जीवो गृह्यते, द्वितीयेन च चैतन्य मिन्य. सर्वेषां प्राणिनां (दशविधाःप्राणा विद्यन्ते येषां ते प्राणिनस्तेतः प्रश्नः । उत्तरं पुनर्जीवचैतन्ययोः परस्परेणाविनाभूतत्वाद् पाम) सामान्यतः संक्षिपञ्चन्द्रियाणाम । तथा सर्वेषां भूतानां जीवः चैतन्यमेव, चैतन्यमपि जीव पवेत्येवमर्थमवगन्तव्यम् । मुक्तिगमनयोग्येन भव्यत्वेन व्यवस्थितानां,तथा सर्वेषां जीवामारकाऽऽदिषु पदेषु पुनर्जीवत्वमव्यभिचारि, विषु च नारका | नां जिजीविष्णां च, नथा सर्वेषां सत्वानां तिर्यनरामराणां दिवं व्यभिचारीत्यत आह-"जीवे णं भंते ! नरए" इत्यादि। संमारे विश्यमानतया करुणाऽऽस्पदानाम् । एकार्थिकानि चैजीवाधिकारादेवाह-(जीव नंते ! जीवे जीवे जीवत्ति) तानि प्राणाऽऽदीनि वचनानि । प्राचा० १९०६०५ उ० । जीवति प्राणान् धारयति यः स जीवः, नत यो जीवः स जी
स्था०आव०। पा०ाज्ञा०। सूत्र० बनीति प्रइनः । उत्तरं तु या जीवति स तावनियमाजीव, अ. सम्बे पाणा सम्बे नूया सब्बे जीया सवे सत्ता । जीवस्य आयुःकर्माभावन जीवनाभावात । जीवस्तु स्याजी. सर्वे प्राणाः सर्व एव पृथिव्यप्तेजोवायुवनस्पतयः द्वित्रिचतु:पति, स्यान जीवति,सिरूस्य जीवनाभावादिति । नारकादिस्तु पञ्चन्छियाश्चन्द्रियबसोवासनिःश्वासाऽऽयुष्कलकणप्राणधानियमाजीवति, संसारिणः सर्वस्य प्राणधारणधर्मकत्वात्, जी. रणात् प्राणाः। तथा-सर्याणि नवन्ति भविष्यत्यभूवनिति चबतीनि पुनः स्याचारकादिः स्यादनारकादिरिति । भ०६ | | तुर्दशभूतनामान्तपातीति । एवं मर्व एव जीवन्ति जीविष्यन्ति श०१० उ० । "प्रागान् क्षेत्ररूपेण, धारयन् जीव उच्यते।"इ. अजीविषुरिति जीवाः नारकतिर्यनरामरलक्षणाचतुगतिकाः। स्युके प्राणिनि, वाच आतु० ध०। सूत्राद्वी ज० नं०। तथा-सर्व पव स्वकृतसानासातोदयसुखदुःखभाजः सस्थाः, जीवो जन्तुरसुमान प्राणी सत्वो नूत इत्यादयो जीवपर्यायाः । एकार्थाश्चत शब्दाः । आचा० १ श्रु० ४ ० १ उ० ! विशे०।३०। प्रश्न । कर्म० । उत्त० । अनु० । श्राव० । वृ०।
तथा चैवंनूतनयमाधिकृत्यतथा चजम्हा आणमंति वा पाणमंति वा उस्ससंति वा नीस
एवं जीवं जीवो, संमारी पाणधारणाजवो। संति वा तम्हा पारणे त्ति वत्तव्यं सिया । जम्हा नूए जवइ
निच्छो पुणरज्जीवो, जीवणपरिणामरहिओ नि।२२५६। जविस्मा तम्हा जप त्ति वत्तव्य सिया। जम्हा जीवे जीवइ
जीवति “पञ्चन्द्रियाणि त्रिविधं बलं च, उच्छासनिःश्वासमथा
न्यदायुः । प्राणा दशैते जगवद्भिरिष्टा-स्तेषां वियोगीकरणं च जीवत्तं आउयं च कम्मं नवजीव, तम्हा जीवे त्ति वत्तव्यं
हिमा ॥१॥" इत्यादिवचनप्रसिद्धान् दशविधप्राणान् धरसिया । जम्हा सत्ते मुहासुद्देहिं कम्मेहिं, तम्हा सने वि वत्त- तीति शब्दार्थवशाज्जीवन्नेव दशविधप्राणधारणं कुर्वन्नस्य नयवं सिया ।
स्थ मतेन जीव उच्यत । स च सामानशविधप्राणधारणतत्र प्राण इति, पतसं प्रति वक्तव्यं स्थात, यदोच्चासाऽऽदि. मनुभवतीति दशावधप्राणानुभवानारकादिः संसार्येव भवति । मस्वमात्रमाश्रित्य सस्य निर्देशः क्रियते, एवं जवनाऽऽविध- मिद्धस्त्वतन्नयमतेन जीवोऽसुमान् प्राणीत्यादिशब्दन व्यपदि. मविवक्कया मृताऽऽविशब्दपञ्चकवाच्यता तस्य कालभेदेन इयते । जोवनाऽऽदिपरिणामरहित इतिकृत्वा शब्दार्थाभावात्, व्याख्येया, यदा तूच्छासाऽऽदिधर्म युगपदसौ विवक्ष्यते, तदा किं तर्हि सत्तायोगात्सत्त्वः,अतति तांस्तान ज्ञानदर्शनसुखा55. प्राणा जूतो जीवः सत्यो विज्ञो वेदयिता इति, एतत्तं प्रति वा- दिपर्यायान् गच्छतीत्यात्मेत्यादिभिरेव शब्दनिर्दिश्यत इति ॥ व्यं स्यात् । अथवा--निगमनबाक्यमेवेदमतो न युगपत्यकव्या. ॥२२५६।। विश०। प्रा० म०।। ज्या कार्येति । "जम्हा जीवे" इत्यादि । यस्माउजीव प्रात्माऽसौ,
__ तथा च नयोपदेशेजीवति प्राणान धारयति; तथा जीवत्वमुपयोगलकणम आयुः
सिको न तन्मते जीवः, पोक्तः मचाऽऽदिमंझ्यपि । पकं च कर्म उपजीवति अनुनयति, तस्माजीध इति वक्तव्य स्यादिति । (जम्हा सत्त सुहासुहहिं कमेडि नि)सक्त श्रा
महानाष्ये च तत्वार्थ -नाष्ये धात्वर्थबाधतः॥४०॥ सक्तः,शक्तो वा समर्थः सुन्दरासुन्दरासु चेष्टासु । अथवा-सक्तः (सिद्ध इति) तन्मते एवंभूननयमते,सत्वाऽदिसंझ्यपिसत्तासंबद्धः शुभाशुभैः कर्माभरिति ।भ०२०१०।
योगात् सत्वः, अतति स्वान २ पर्यायानात्मत्यादिसंज्ञाधायपि,
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जीव अन्निधानराजेन्द्रः।
जीव सिद्धो, महाभाष्ये विशेषाऽऽवश्यके, तस्वार्थभाष्ये च धात्वर्यवा- सबसंग्रहस्य स मात्रार्थत्वात्सत्यागः । व्यवहार सूत्रको म्यषघतो 'जीव' प्राण धारणे इति धात्वर्थानम्बयाद जीवन प्रोक्तः। हारनय ऋजुसत्रनयइच, शब्दः,समनिरूदरचेत्येते नया एवं प्र. तथा च विशेषाऽऽवश्यकवचनम-"एवं जी जीवा, संमारी चक्षते ॥१५॥ पाणधारणाणुभयो । सिद्धो पुणरज्जीवा. जीवणपरिणामरह
भावमौदयिकं गृह-नेवंचूतो भवस्थितम् । सि ॥२१५६॥"॥४॥
नीवं प्रवक्त्यजावं तु, सिकं वा पुगसाऽऽदिकम् ॥४६॥ . एतदेव तत्वार्थभाध्यवचनमनूद्य व्यवस्थापयति
(भावमिति) एवंभूतनयस्तु प्रौदयिकं नावं व्युत्पत्तिनिमिजीवोऽजीवश्च नो जीवो, ना अजीव इतीहिने ।
समेव प्रवृत्तिनिमित्ततया गूढन् भवस्थितं संसारिणं जावं प्रव. जीवः पवस्वपि गति-विष्टा नावै पञ्चभिः॥४॥ क्ति-जीवशम्भेन वपदिति, अजीचम अर्जावपदार्थ तु सिकं (जीव इत्यादि) जीवोऽजीवो नो जीयो ना घजीवश्चति चतु- घा, पुलाऽऽदि अन्य वेच्छत्यसौ । ४६॥ निःपदैः कोऽर्थः प्रतिपाद्यः, इतीहिने प्रश्नयोग्यविचारविषय- नो मजीवश्च नो जीवो, न जीवाजीवयोः पृथक । हुन, लिभातिना गतिमार्गणायां पञ्चस्वपि मतिषु नारकतिर्य- देशप्रदेशौ नास्येष्टा-विति विस्ततमाकरे ॥४॥ नरामरसिम्मतिक्षणासु, हि निश्चितं, पञ्चजीवेरोइयि.
(नो इति) नो जीवो नो अजीवश्चतनये जीवाजीवविक्तव्यकसाविककायोपशामकापशमिकपारिणामिकसक्षणैः, जीव इ.
योःसतोः पृथग्न-पार्धक्यं नापद्यते, यतोऽस्य मयस्य देशप्र. टः, व्युत्पत्तिनिमित्त जीवन जादायकभावोपलक्विताऽऽ-मत्व.
देशा नेष्टाविति, नोशनः सर्वनिषधार्थ एप घटत इत्येतदाकरूपपारिणामिकनावविशिष्टस्य जीवस्य भावपञ्चकाऽऽत्मनो जी.
रेऽनुयोगद्वाराऽऽदौ विस्तृतम् ॥४७॥ चपदार्थत्वात्। न चाऽऽत्मत्वप्रवृत्तिनिमित्तोपादाननैवानतिप्रसकि व्युत्पत्ति निमित्तापनकणग्रहणेनात वाच्यम्, मंजपति
इत्थं स्वसमयसिमामेवभूतनयायप्रक्रियामसमुपलक्षकभावे तस्यागम्यान्याय्यत्वात् । अन्यथा मएकपाश्व
पपाच, तया दिगम्बरोक्तप्रक्रिया दृषयतिकर्णाऽऽदिपदतल्यताप्रसङ्गादिति दिक ॥४१॥
सिको निश्चयतो जीयः, इत्युक्तं यद्दिगम्बरैः। नवि सर्वनिषेधार्थे, पर्युदामे च संश्रिते ।।
निराकृतं तदेतेन, यन्नयेऽन्त्येऽन्यथा प्रथा ॥४॥ पुद्गलप्रजृति व्य-मजीव इति संझितम् ॥ ४॥
(सिक इति ) एतेन पूर्वोक्तेन सिको निश्चयतो जीव इति
यदिगम्बरैरुक्तम्--"निकासं च दुपाणा, इंदियबलमाउ पाणमप्रति सर्वनिषधाणे जीवत्वावच्छिन्नान्योन्यानावबदथें नभि
पाणो य । ववहारा सो जीयो,णिन्छयदो दुचेदणा जस्स॥१॥" विवक्षित, पर्युदासे सादृश्य च तत्र संश्रिते तात्पयविषयाकृते,
इत्यादिना; तनिराकृतम । यद् यस्मादन्त्ये पसंभूतनये अन्यथा पुल प्रभृति पुनाऽऽदिव्यम अजीव इतिपदेन संशितम
प्रथा 'भांसको जीवः' इत्येव प्रसिभिःशुरुनिश्चयश्च स एवेति पर्युदासानाथयणे तु जीवस्य गुणपर्याययोरपि नेदतया धवणे
कथं निश्चयतः सिका जीव इति वक्तुं शक्यमिति ॥ ४ ॥ नाजावपदप्रयोगप्रसङ्ग इति जावः ॥ ४२ ॥
नन्वेवभूतः पर्यायाथिकम्वेव शुरुनिश्चयः, तेनास्मदुक्तानो जीव इति नोशब्द-उनावः सर्वनिषधके।
नुपपत्तावपि व्यार्थिकप्रभेदन सर्वसंग्रहनयेन . देशप्रदेशौ जीवस्य, तस्मिन् देशनिषधके ।। ४३ ॥
शुरुनिश्चयेन तदुपपादयिष्याम इत्या(मो इनि)नो जीव इति शब्दवाच्ये नोशब्दे सर्वनिषेधके विध.
काङ्खायामाहकिते ऽजीव एक, देशनिषेधके तु नोशब्दे पाश्रीयमाणे देशनिषे
अात्मत्वमेव जीवत्व-मित्ययं सर्वमंग्रहः। - अस्य देशाच्यनुज्ञानान्तरीयकवाजीवस्य देशप्रदेशावेक नो. जीवशब्दव्यपदेश्यावन्युपगन्तव्या ।। ४३ ॥
जीवत्वप्रतिनः सिक-साधारएयं निरस्य न || ४॥ जीवो वाऽजीवदेशो वा, प्रदेशो वाऽप्यजीवगः ॥
. (प्रात्मत्वमिति) आत्मत्वमेव जीवत्वं जीवपदप्रवृत्तिनिमित्तं,
पारिणामिकभावम्य कालत्रयानुगतत्वेन सत्ययात, औदयिकअनयैव दिशा झयो, नोअजीवपदादपि ॥४४॥
भावस्य चौपाधिकत्वेन कालत्रयानुगतत्वेन च तुन्वादिलायं (जीवा वेति) अनयैवोक्तयैव दिशा, नायजीवपदादपि, नो- सबसंग्रहनयस्तु-सिद्धसाधारण्यं जवस्थौल्यं निरस्य, जीवशब्दस्य सर्वनिवेधकत्वे जीवो जीवपदार्थो वा बोध्यः, तस्य दे. स्वसाधने न प्रतिनूः, सर्वत्र तुल्य जीवत्वादेवको व्यवहारतो शानिषेधकत्वे वाऽजीवदेशो वाऽजीवगः अजीबाऽऽध्रितः प्रदेशो जीवोऽन्यश्च निश्चयत इति विजागकरणमसमभावनाभिधानमेवा "अमानोनाः प्रतिषेध" इत्यनुशासनतौल्ये ऽपि संसगांभावो- वापयेत । सर्वसंग्रह पय हि कोपाधिनिरपेक्ष शृद्धद्रव्यार्थिकः, अन्यान्याभावश्च नोऽर्थः, नौशब्दस्य स्वभाव एकदेशो वातत्र तेन च संसारिचतन्यमपि निरुपरागं शुद्धमिति परिणध्यत एव । चान्वयिता बच्छेदकावच्छिनप्रतियोगिताकन्वतंदकदेशत्वाऽs- तमुक्तं व्यसंग्रहे.. मगणगुण वाणेहि अ, उदम य हवंति दिव्युत्पत्तिबालभ्यमिति सिद्धान्तपरिभाषेति निगर्वः॥४४॥
तह सुरुणया। बिया संसारी, मध्ये सहा उ सुद्धणया" उक्तं मतं कियतां नयानाम् ?, श्त्याह
॥१॥ इति । नच संसारिचतन्यस्य संग्रहनयन शक्त्या गुरू.
चैतन्य, निश्वयेऽपि व्यकन्या शुद्धचैतन्यस्य सिद्ध एव निश्चया. नैगमो देश ग्राह।, व्यवहार सूत्रको ॥
साधार एयमिति शङ्कनीयम, संग्रहस्य शक्तिप्राहकन्येन शब्दः समनिरूढये-होमिते प्रचक्षते ॥४५॥
व्यक्तिग्राहकतया व्यवहार एष विश्रान्तेः, निश्चयतो द्विचेतना(नेगम इति)नगमो नैगमन प्रदेशसंग्राही भवान्तरसंग्राही. | शाली सिम् एव जीव इत्यस्य व्याघातात ॥ ४९।
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जीव
(१५१२) अभिधानराजेन्दः।
जीव जन्य निश्चयतः सिखस्याऽजीवत्वे भवद्भिरियमाणे भव- ज्यम, यतस्तत्र "सो उजयक्त्रण" इत्यादिगाधायां 'धार. तामेव प्रन्ये संमारिसिवसाधारण जावपदाथानि बति सिनितावात्मानमिति धर्मः' ति फल फलको धात्व धानं कथम, इत्याशङ्कायामाह
चिन्ना | सा च-कुडूपत्वेन कारणथं वदत एवंभूतनयम्य यजीवत्वं क्वचिद व्य-भावमाणान्वयात स्मृतम् ।
मते शैलेश्यन्त्यक्षण एव धर्मपदार्थासद्धिमाक्विणी; तदनन्तर
सिकिसाधारणरूपसाफव्यम्यवधानात् । र तु धातुगा धात्व. विचित्रनेगमाऽऽकूतात्, तर यं न तु निश्चयात् ॥५०॥ वचित्रस्वरूपविषयिण। रिम्ता । सा च तन सहा व्यव(यदिति) यजीवत्वं कचिद् प्रन्ये द्रव्यप्राणानां, भावप्राणानां धानं गवेषयत, म्वरूपं तु सिखनुरोधन संसारिपयेव पर्यबान्वयानेव करणात स्मृत,संसारिसिम्साधारण्यमिति विशेषः। वमाययेत्, न तु सिक इति महान् विशेषः । स्यादतत, धर्मतद् विचित्रो विविधावस्यो यो नैगमस्तस्याऽऽनादजिप्रासाद पदेऽपि धास्वों धारणमामान्यमेव, तब यता विशपतात्य
यम,न तु निश्चयान्पवंचूतनयात् । तथा चैव नुतनयेनैव सिद्ध रशात सिमाधारणरूपविशेषे पर्यचस्यति, नया जबप. मजी वयं प्रतिजानामह, न त नयान्तरानिमन जीवस्व- दार्थोऽपि विशये पर्यवस्यतीति सिख एव दत्तपदो भविष्यपि विप्रतिपद्यामहे, ति शुभाशाखेन नैगमनयेन साधारण. तीति। मैवम् । 'जीव' पाणधारणे इत्यत्र प्राणपदं समभिः जीवत्वान्युपगमेऽपिन कतिः । इयांस्तु विशेषः प्रसिद्धनगम म्याहुने साधारणस्य भूरिप्रयोगवशादौदविकप्राणधारण एक प्रौदयिकनावापललितमात्मस्वाऽऽयं पारिवामिकभावमेव पर्यवसानारामत एव गोपदस्य नानाऽर्थत्वेऽपितता रिप्रयोजीवपदप्रवृत्तिनिमित्तमभ्युपैति । तद्विशेषश्च कधिपचारोप- गवशात्सास्नाऽऽदिमत परोपस्थितेः, अश्वाऽऽदेस्तु पदारजीवी व्यभावप्राणान्यतरवरवेनानुगतमादायककायिकभाव. समजिन्याहाराऽऽदिनति तान्त्रिकाः। तदेवमेवं नूतनयाभिप्राबमिति ने सिद्धान्तार्णवे नयविकल्पकल्लोलाचव्यं तत्संप्ल. बण सिको न जीव इति व्यवस्थापितम् । यदि पुनः प्रस्थ. बम्बसनिनां विकोभाऽऽहम ॥ ५..
कन्याबाद विशुद्धतरनैगमभेदमाश्रित्य प्रागुक्तस्वन्धगाथा ननु 'जीव' प्राण धारणे यत्र भावप्राणाधारणमेव धास्वर्ण,
म्याग्मायने परैः, तदा न किञ्चिरस्माकं पुण्यताति किमपीविवक्तिस्वात.निश्चयतः सिस्य जीवत्वं समर्थयि.
पसि रढतरकारन। “ऐन्छी ततिःप्रणयिपुरामधाराप्रै-यं. प्याम इत्याकारक्षायामाह
पादपकिरणः कसययुगीतम् । स्नात्राम्भसा दलितयादवपात्वर्थे जावनिकेपान, परोक्तं न च यक्तिमत् ।
दुरकर. शश्वरप्रभुमिमं शरणीकरामि " ॥५२॥ नयां।
स च द्विविधः समारी, सिद्धश्च । जी० ३ प्रति० । विश० । प्रसिघार्थोपरोधेन, यमयान्तरमार्गणा ॥ ५१ ।। सूत्रः । संसारिणो दश धिप्राणधारणाउजीवाः, सिद्धार (चात्वर्थ ति) धाव जीवत्ययें, भावनिकपाद भावस- ज्ञानादिभावप्राणधारणास्था०। प्राणाइच द्विधा-कन्यादेतमहात्, परोक्तं निश्चयतः सिर एव जीव इति दिगम्बरक्त, णा, भावप्राणाश्च नत्र द्रव्यप्राणा इन्छियाऽदयो, जापाणा नच नैव, युक्तिमत् , यद यस्मात प्रसियोऽनादिधातुपागऽऽदि. कानाऽऽदीनि । द्रव्यप्राणैरपि प्राणिनः संसारसमापणा नारकाप्रसायमानो योग्यः, तदनुरोधेन,नयान्तरस्य मार्गणा विधारणा यः, केवलभाषमाणैः प्राणिनो व्यपगतसमस्तकमस: प्रवति । तथा च पाशधात्वर्णमुपलकणीकतेतरनयार्थप्रतिस- सिद्धाः। प्रका० १ पर। जी। ग्यानं ताशचात्वर्थप्रकारकजिज्ञासयैवं जूतानिधानस्य सां.
जीवानां द्वविष्यम्प्रदायिकत्वास तत्र भावनिक्षेपाऽऽश्रयणं युक्तमित्यर्थः । अन्यथा
दुविहा सन्मजीवा पए गत्ता। तं जहा-सिका चेव, अतत्रापि निकेशान्तराभयणेऽनवस्थानात प्रकृतमात्रापर्यवसाना
मिका चेव । दुविदा सन्चनीचा पएणचा । तं जहा-मईदस्ततोकानाने शूभ्यतापां वा पर्यवसानात।किच-पनाहगुपरितनैवभूतस्य प्राक्तनैवंभूनानिधानपूर्वमेवाभिधानं युक्तम,
दिया चव, प्रणिदिया चर। [स्या०२ ग० ४ २०] अन्यथाऽप्राप्तका लत्वप्रसङ्गात । तस्माद् व्यवहाराऽऽद्यभिमतब्यु- सुविहा सन्यजीवा पएणत्ता । तं जहा-मकाइया चेव, त्पत्त्यनुराधेनायिकभावनाहकत्वमेवास्य सूरिनिरुक्तं युक्त- अकाइया चेव ! दुविहा मन्बजीचा पएणत्ता । तं जहा-समिति स्मनग्यम् । न चन्द्रियरूपप्राणानां वायोपशमिकत्वात्
जोगा चेव, अजोगा चेव । दुविहा सबजीचा पत्ता । तं कधर्मबंभूतस्यावयिकनावमाप्रमादकस्यमित्याशनीयम्, प्रा. धाम्नायुष्कमोदय सणस्यैव जीवनार्थस्य ग्रहणात् । नपहते
जहा-सवदगा चेव, अवेदगा चैत्र । [जी. १ प्रति०] 5दियेऽप्यायुरुपयनव जीवननिश्चयादिति दिक ॥५१॥
विहा सब जीवा पएणता। तं जहा-सकसाया चेत्र, अकशङ्का शेषमुपम्यस्य परिहराने
साया चेव [ स्या००४ उ.] दुविहा सन्मजाशैलेश्यन्त्यक्ष धर्मो, यथा मिस्तयाऽमुमान् । वा पएणता । तं जहा-सझेमा य, भलेप्सा य । ( जी० ) बाच्यं नेत्यपि यत्तत्र, फो चिन्ह धातुगा ॥ ५॥ दुविहा मनजीवा पाणत्ता । तं जहा-गाणी चेत्र,अबणा(शैलेश्वरवकण इति) शैलेश्वा प्रयोगिगुणस्थानस्या- जी चेव । [जी०] दुविहा मन्य जीवा पहाता । तं जहात्वक्षणे चरमणे,यथा निश्वयतो धर्मः,नार्वाक्तनकालभाव) तुज्यवहारत एव । धर्म संग्रह एयां हरिभकानार्थ :
मागारोव उत्ता चेव, अणागारोवनुत्ता चेव । [ जी.] "सो उन्नयसयदेऊ, सलमीचरम समयभाव जो। ममो पुख
दुविहा सधजीवा परागत्ता । तं जहा-श्राहारगा चेव, णियो , तस्सेह पसाहगा भाणो॥१॥" ति। तथा- प्रणाहारगा चेव । जी०१ प्रतिः । सुमान जीवोऽपि निश्चयतःसिक एव भविष्यतीत्यापन बा- | "दुविहा"इत्यादि कपछ्यम (वा.)"सदंदिया"इत्यादि।सेन्द्रि
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(१५२३) जीव अभिधानराजेन्द्रः।
जीव वाः संसारिणः, अनिख्यिाः सिकाः। (जी०१ प्रति०) सेजियाः सय इति यावत् । एवं वक्ष्यमाणया रीत्या प्राण्यायन्ते पूर्वसू. संसारिणः, अनिन्दिया अपर्याप्तकालसिद्धाः। (स्था) रिभिः । इद प्रतिपत्याख्यानन प्रणालिकयाऽर्थाख्यानं द्रष्टव्यं, "सकाश्या चेव " इत्यादि । सकायाः पृथिव्यादिषहाविधकाय- प्रतिपत्तिभावेऽपि शब्दादर्थे प्रवृत्तिकरणात् । तेन यदुच्यते विशिष्टाः संसारिक, मकायाः तद्विलक्कणाः सिद्धाः। (स्था) शम्दाद्वैतवादिभिः-शममात्र विश्वमिति। तदपास्तं रूटव्यम्। "सजोगा चव" इत्यादि । सयोगाः संसारिणः प्रयोगा अयो- तदपासन चयमुपपत्तिः-एकान्तकस्वरूपे वस्तुन्यभिधानतयागिनः, सिकाश्च । (स्था०) "सवेदगा चेव" इत्यादि । संवेदाः संभवात, भिन्नप्रवृत्तिनिमित्तानावात्, ततश्च शब्दमात्रमित्येव संसारिणः भवेदा भनिवृत्तबादरसंपरायविशेषाऽऽदयः षट् स्यात्, न विश्वमिति प्रणाझिकयाऽर्धाभिधानमेवोपदर्शयति । सिद्धाश्च । (स्था०) "सकसाया चेव" इत्यादि । सकषायाः तयधा-एके प्राचार्या एवमाख्यातमन्तः-द्विविधाः संसारससूक्षसंपरायान्ताः, अकषाया उपशान्तमाहाऽऽदयः चत्वारः मापन्ना जीवाः प्राप्ताः | एके एवमापातवन्तः-त्रिविधा: सिकाश्च । (स्था०) "सलसा य" इत्यादि । संश्याः स. संसारसमापना जावाः प्राप्ताः । एवं यावद दशविधा इति । बांग्यताः संसारिणः, प्रवेश्या प्रयोगिनः सिद्धाश्च । (स्था०) इह एक इति न पृथग् मतावलम्बिनो दर्शमान्तरीयाइव केचिद. "णाणी चेष" इत्यादि । शानिनः सम्यग्दृष्टयः,प्रज्ञानिनो मि. न्ये प्राचार्याः, किंतु य एव पूर्व हिप्रत्यवतारविवकायां वर्तमाध्यायः । (स्था) “सागारोवउत्ता चेव " इत्यादि । स. ना एवमुक्तवन्तः। यथा-द्विविधाः संसारसमापना जीवा इति, हाऽऽकारेण विशयांशग्रहणशक्तिलकणेन वर्तते य उपयोगः एवं त्रिप्रत्यवतारविवकायां वर्तमानाः। द्विप्रत्यवताराचिवकामस साकारो, ज्ञानोपयोग इत्यर्थः। तेनोपयुक्ताः साकारोपयुक्ताः। पेय त्रिप्रत्यवतारविचकाया अन्यत्वात्, विवका विवकावतां अनाकारस्तु तद्विनवणो, दर्शनोपयोग इत्यर्थः । अभिधीयते च कश्चिदभेदादन्ये इति वेदितव्याः। अत एवं प्रतिपत्तय इति ब-"जं सामन्त्रगहणं, जावाणं नेय कटु आगारं। अविससि
परमार्थतोऽनुयोगद्वाराणीति प्रतिपत्तबमा य एवं द्विविधाऊण भरथ. दतणमिति वुच्चए समए" ॥१॥ च । तेनोपयुक्ता स्त एव त्रिविधास्त एव चतुर्विधा इति; तेषामनेकस्वभावअनाकारोपयुक्ता इति । (स्था)।("पाहारगा चेव" इत्या- तायां तत्तद्धर्म देन तथातथाऽभिधानता युज्यते, नान्यथा; दिसूत्रस्य व्याक्या 'माहार' शमे द्वितीय जागे ५१० पृष्ठे गता)
एकान्तकस्वभावतायां तेषां वैचिच्यायोगतस्तथातथाऽभिधान
प्रवृत्तेरसंगवात् । पवं सति अष्टावकल्पम् दैवं, तिर्यग्योनि च दुविहा सन्मजीवा पएणचा। तं जहा-जासगा य, अजा
पञ्चधा भवति, मानुष्यं वैकबिध, समासता भौतिकः सर्ग सगा या [जी०] दुविहा सव्वजीवा पएणचा। तं जहा- इति वामात्रमेव, अधिष्ठातृजीवामामेकरूपत्वाभ्युपगमनेन चरिमा चेव, अचरिमा चेत्र। [जी.] दुविहा सजीवा पसा- तथारूपाचव्यासंभवादिति । पवमन्ये ऽपि प्रवादास्तथा था। जहा-ससरीरी य, मसरीरी य । [जी० १ प्रति०] |
वस्तुवैविध्यप्रतिपादनपरा निरस्ता कम्पाः , सर्वथैकस्वनाव. "मासगा य" इत्यादि भाषकाः भाषापर्याप्तिपर्याप्तकाः, ता|
स्वायुपगती वैचित्र्यायोगात्। विषेधावभाषका:-अयोगिसिया, एकैन्छियाश्च । (स्था०)।
संप्रत्येता एवं प्रतिपत्तीः क्रमेण व्याचिस्यासुः
प्रथमत माद्यां प्रतिपति विज्ञावयिषु("रिमा चेव" इत्यादिसूत्रस्य विस्तर चरम' शम्दे
रिदमाहवतीयभाग ११३८ पृष्ठे उक्तः) “ससरीरी य" इत्यादि । सशरीरिणः संसारिणः, अशरीरिणस्तु शरीरमपामस्तीति श.
तत्य जे ते एवमाहंमु-दुविहा संसारसमावरमगा जीवा रीरिणः, तनिषधादशरीरिणः सिकाः । स्था० २ ग०४ उ०।
पसत्ता। तं जहा-तमा चेव, थावरा चेव ।। संग्रहणीगाथा चेयम्
(तत्थ जे ते इत्यादि) तत्र तासु नवसु प्रतिपत्तिषु मध्ये केत
द्विप्रत्यवतारविचकायां वर्तमाना पवमास्थातवन्तः-द्विविधाः "सिदसइंदियकाए, जोगे वेए कसायलेसा य ।
संसारसमापनका जीवाः प्रशप्ता इति । ते, णमिति वाक्यालणावभोगाहारे, भासगचरिमे य ससरीरी"॥१॥
हारे । एवं वक्ष्यमाणरीत्या द्विविधत्वनावनाऽर्थमाख्यातवन्तः। स्था०म०४०॥
तद्यथेत्युपन्यस्तद्वैविध्योपदर्शनार्थमाह-त्रसाश्चैव, तत्र त्रसबंप्रति संसारसमापनजीवाभिगममन्निधित्सुस्तत्प्रभसूत्रमाह
न्ति मष्णाद्यभिनप्ताः सन्तो विवक्तितस्थानाऽद्विजन्ते गन्छ
न्ति च गावाऽऽद्यासेवनाऽथै स्थानान्तरमिति त्रसाः । अनया संसारसमारमएसु णं जीवेसु माओ णव पभिवत्तीओ
च व्यु-पत्या प्रसास्त्रसनामकर्मोदयवर्तिन पव परिगृह्यन्त, म एवमाहिति । तं जहा-एगे एवमासु-दुविहा संसारम
शेषाः । अथ च-झपैरगाह प्रयोजनं, तेषामप्श्वग्रे बक्ष्यमाणमावलगा जीवा पम्मत्ता। एगे एवमासु-तिविहा संसारस- स्वात् । तत एवं व्युत्पत्तिः-त्रसन्ति अभिसन्धिपूर्वकमननिपावलगा जीवा पएणता । एगे एवमाहंमु-चन्चिहा सं- सन्धिपूर्वकं चा ऊर्चमधस्तियंदु चलन्तीति प्रसाः। तेजसा सारसमावएणगा जीवा पत्ता । एगे एबमाइंसु-पंचविहा
वायवो द्वीन्जियादयश्च । उष्णाऽऽद्यभितापेऽपि तत्स्थानपरिहारा.
समर्थाः सन्तस्तियन्तीति पचंशीनाः स्थावराः पृथिव्यादयः। संसारसमावएणगा जीवा पएणत्ता । ते एएणं अभिाल- चशब्दो स्वगतानेकभेदसमुच्चयार्थी । पवकाराववधारणावणं० जाच दसधिहा संसारसमावठगा जीवा पाता। यौ । पते एव संसारसमापनका जीवा, पनव्यतिरेकेण सं. संसारसमापनेषु, णमिति वाक्यालङ्कारे। जीवेषु,श्मा वक्ष्यमा
सारिणामभावात् । जी. १ प्रति० । स्था० । जलकणा नव प्रतिपत्तयो, द्विप्रत्यवतारमादौ कृत्वा दशप्रत्यक
जीवानां त्रैविध्यमतार यावद् येनव प्रत्यवतारास्तद्रूपाणि प्रतिपादनानि, सवि. विरहा मजाचा पाता। जहा तसा पावरा,
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जीव
(१५२४) जीव
अनिधानराजेन्द्रः। णो तसा णो थावरा। जी०३ प्रति०] तिविहा सबजीवा एगिदिया जाच पंचेंदिया ।| स्था० एग ३ उ०] पमत्ता ! तं जहा-परित्ता, अपरित्ता, नो परित्ता नो अपरि- पंचविहा समजीवा पम्मत्ता । तं जहा-नेरइया. तिरिक्खचा। [जी०३ प्रति०] तिविहा संसारसमावळगा जीवा पम- जोणिया, मास्सा, देवा, मिचा । पंचविहा सन्यजीवापसा। तं जहा-इत्थी,पुरिमा, पुंसगा । तिविहा सच जीवा. | सत्ता। तं जहा-कोहकमाइ, माणकमाई, मायाकमाई,लो. पमत्ता । तं जहा-सम्मदिट्ठी, मिच्छदिट्टी.सम्मामिच्छदिट्ठी। . नकसाई, अकमाई । जी. ३ प्रति०॥ तिविहा सबजीचा पत्तातं जहा-पजत्तगा, अपज्जत्तगा, "पंचावन्यादि।" संसारसमापना भववर्तिनः, सर्वजीवाः नो पज्जत्तगा नो अपज्जत्तगा। [ स्था० ३०१०]
संसारिमिद्धाः, अकषायण उपशान्तमोहाऽऽदयः । स्था०
५०३ उ०। तिविहा सम्बजीवा पसत्ता । तं जहा-मुहुमा, वायरा, नो
संसारिणो य मुत्ता, मंमार) छनिहा समासेण । मुटुमा नो वायरा । [ जी० ३ प्रति०] तिविहा सच्चभीवा पम्पत्ता। तं जहा-सप्त। असम्पी, णो साली को अ.
पुढवीकाइयमादी, तनकायंता पुढो भेया ।। ६४ ।।
चशब्दस्य व्यवहित उपन्यासः। संसारिणो मताति। तत्र समी। [जी] तिविहा सव्वजीवा पछत्ता । तं जहा
संसारिणः पद्विधाः षट्प्रकाराः, समासेन जातिसंक्षेपणेति जवसिफिआ, अजवमिश्रिा ,नो जवसिदिमा नो अन्न- भावः। षधित्वमेवाऽऽह-पृथिवीकायिकाऽऽदयनसकायान्ताः। बसिदिमा ।। जी. ३ प्रति।
यथोक्तम्-"पुढवीकोइया, प्राउकाश्या, ते काश्या,कासकायिरक्तानुक्तसंग्रहार्थ गाथाऽम्
या, वणस्सश्काश्या, तसकाश्या।" पृथग्भेदामात स्वातन्त्र्यय "सम्मदिहि-परित्ता-पज्जत्तग-सुहुम-सन्नि-भाविका य।" |
पृथग्भिन्नस्वरूपाः, न तु परमपुरुषविकारा इति ॥६४॥ श्रा०।
जावानां षाविधत्वम्स्था०३०००।
छबिहा संमारसमावएणगा जीवा पक्षता । तं जहा-पुढ"परित्ता" इत्यादि । परीताः प्रत्येकशरीगः, अपरीसाःमा. धारणशरीराः। परीत्तशब्दस्य उन्दोऽर्थ व्यत्यय इति । (म्था०३
वीकाच्या० जाव तसकाघ्या। छबिहा सव्वजोवा पएणठा०२ उ०) "पज्जत्ता" इत्यादि । ( नो पज्जत त्ति)नो पर्या
ता। तं जहा-आनिणिवोहियणाणं), जाव केनलणागी, सकाः, नो अपर्याप्तकाः सिद्धाः। (स्था.३०२०)"सही". अन्नाणी । अहवा-छबिहा सबजीवा पसत्ता । तं इत्यादि । संझिनः समनस्काः, असंझिनोऽमनस्काः, उभयप्रति.
जहा-एगिदिया. जाव पंचिंदिया, अणिदिया। अहवापंधवर्तिनः सिकाः । (जी. ३ प्रति०) "भवसिफिया".इ. स्यादि । सर्वत्र तृतीयपदे सिका वाच्या स्था०३०२ उ०।
छबिहा सधजीवा पएणत्ता। तं जहा-बारानियसरीरी, जीवानां चातुर्विध्यम् -
वेनब्वियसरीरी, आहारगसरीरी, तेयग़सरीरी, कम्मगसरीचनबिहा संसारममावएणगा जोवा पण्णता । तं जहा- री, अतरीरी॥ रइया, तिरिक्खजोणिया, मणुस्सा, देवा । चउबिहा ____ संसारसमापन्नकजीवसुत्रे-पृथित्रकायिकाऽऽदयो जोवनयोसबजीवा परमत्ता । तं जहा-मणजोगी, क्यजोगी, का
ताः, पूर्वसूत्रे तु निकायनेति विशेषाद् न पुनरुक्ततेति ।हा.
निसूत्रे प्रकानिनस्त्रिविधा:-मिथ्यात्वापहनशानाः। इम्ब्यिसूत्रेयोगी, अजोगी । अहवा-चनबिहा सबजीवा पल
अनिनिध्याः,अपर्याप्ताः, केवलिनः, सिद्धाश्चेति । शरीरसूत्रे यद्यसा । तं जहा-इत्थिवेयगा, पुरिसवेयगा, णपुंसगवेयगा, | प्यन्तरगतो कार्मणशरीरसंभवः, तद्व्यतिरिक्तम्य तेजसशरि. अवेयगा । अहवा-चउबिहा सबजोवा पसत्ता । तं | णोऽसम्भवः, तथाऽप्येकतरा विवक्षया भेदो व्याख्यातव्यः,तथा जहा-चखुदंमण, अनखुदंमणी, ओहिंदसणी, के
अशरीरी सिद्ध इति । स्था० ६ ठा० । बलदसण।। अहवा-चनविदा सयजीचा पएणत्ता ।
जीवानां सप्तविधत्वम् - तं जहा-संजया , असंजया २, संजयासंजया ३, जो
सत्तविहा संसारसमावएणमा जीवा पएणत्ता । तं जहासंजयांसंजया ॥
नेरया, तिरिक्खजाणिया, तिरिक्खजोणिणीओ, मणुध्यक्तानि चैतानि, नवरं मनोयोगिनः समनस्काः, योगत्रयस-| स्सा, मणस्सीयां, देवा, देवीप्रो । सत्तविहा सचदावेऽपि तस्य प्राधान्यात्। एवं वाग्यागिनो द्वीन्द्रियाऽऽदया,का- 'जीवा पाता। तं जहा-पुढवीकाइया, पाउकाड्या, ययोगिन एकेन्द्रियाः.अयोगिनो निरुरुयोगाः सिद्धाश्चेति । अवे.
ते उक्काइया, नाउक्काश्या, वणस्सइकाइया, तसकाइया, दकाः सिकादयश्चकुषः सामान्यार्थग्रहणमवग्रहे हारूपं दर्शनं चक्षुर्दशनं तद्धन्तश्चतुरिन्द्रियादयः,अचकुःस्पर्शनादितदर्शनवन्त
अकाश्या । [ जी.] मत्तविहा समजीया पत्ता । एकेन्द्रियादय इति । संयताः सर्वविरताः, असंयता अविरताः तं जहा-कएहलेसा, नमिलेसा, काउक्षेसा, तेउलेमा, संयतासंयता देशावरतात्रयः, तत्प्रतिषधवन्तः सिका इति । पहलेमा, मुक्कलेसा, अलेसा । जी । स्था०४ग०४ उ01.
सूत्रद्वयं करावणं, नवरं सर्वे च ते जीवाश्चेति सर्वजीया, सं. जीवानां पञ्चविधत्वम्
सारिमुक्ता इत्यर्थः। तथा (अकाइय त्ति) सिहाः, षधिकायापंचविहा संसारममावलगा जीवा पाणत्ता। तं जहा- व्यपदेवयत्वादिति । अलेवयाः-सिद्धा प्रयोगिनो वेति । [जो०]
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(१५२५) अभिधानराजेन्छ।
जीव
जीव
अट्टविहा संसारसमावलगा जीवा पत्ता । तं जहा-पढ- दिया, तइंदिया, चतुरिदिया, पंचिंदिया, अणिंदिया । मसमयनेरइया, अपदमसमयनेरइया, पढमसमयतिरिक्ख- जी० १० प्रति। जोणिया, अपढमसमयतिरिक्खनोणिया, पदमसमयमणुस्मा, | अनिन्द्रियाः सिका अपर्याप्तका उपयोगतः केवसिनश्चेति । अपढमसमयमाणुस्सा , पढमसमयदेवाः, अपढपसमयदेवा ।
स्था०१० म०। जी प्रतिस्था ।
दमविहा सन्मजीवा परमत्ता । तं जहा-पदममययणेग्इया, तत्र प्रथमसमयनारकाः नारकाय:प्रथमसमयसंवेदिनों अप्रथम- अपढम-समयनेग्इया, पढमममयतिरिक्खजोणिया, अपहमसमयनारका नारकायुष्यादिसमयवर्तिनः, एवं तिर्गम्योनिका. समयतिरिक्वजोणिया, पढमममयमणूमा, अपढमसमयमदयोऽपि भावनीयाः। जी०८ प्रति०।।
पासा, पढमममयदेवा, अपढमसमयदेवा, पढमसमयसिदा, अट्टविहा सधजीवा पाहता। तं जहा-नेरझ्या,तिरिक्व
अपढमसमयसिका। जी०१० प्रति० स्था०॥ जोणिया, तिरिक्वजोणिणीओ, मास्मा, मणुसीओ य,
जीवानां चतुर्दशविधत्वम्देवा, देवीओ य, सिद्धा। अहवा-अट्टविहा सव्वजीचा पएणता । तं जहा-आजिणिवाहियणाणी जाव केवल
कइविहा णं जंते ! संसारममावएणगा जीवा पएणता? पाणी, मडाणाणी, मुयश्रणाणी, विजंगनाणी।
गोयमा ! चनहसविहा संसारसमावलगा जीवा परमत्ता । तं स्थाग०॥
जहा-मुहुम अपज्जत्तगा १, मुहुपपज्जत्तगा २, बादरअनवविधत्वमाह
पज्जत्तगा ३, बादरपज्जतगाव, वेइंदिया अपज्जत्तगाए, नवविहा सन्चजीवा पएणत्ता । तं जहा-पुढवीकाध्या,
वेइंदिया पजत्लगा ६,एवं तेबंदिया ७-G,एवं चनरिदिआनकाइया, ते उकाड्या, वाउकाड्या, वणस्मस्काइया, वे.
या ८-१०, अमएिणपंचिंदिया अपज्जत्तगा ११, अमशंदिया, तेइंदिया,च उरिदिया,पंचिं दिया। जीए प्रति०॥
एिणपंचिंदिया पन्जलगा १२,सएिणपंचिंदिया अपज्जत्तगा
एणपाचादया पज्जतगार जीवाणं नवहिं गणेहिं संसारं वत्तिमुवा,वत्तंति वा,वत्ति.
१३,सएिणपंचिंदिया पजत्तगा १४ । भ.२५श०१ उ०।
तत्राहसंति वा । तं जहा-पुढवीकाइयत्ताए० जाव पंचिंदियकाइ.
चउदमविहा वि जीवा, विबंधगा सिमंतिमो भेमो। रात्ताए।
चोदसहा मवे वि दु, किमाइमताइपयनेया ॥१॥ संसरणं निवर्तितवन्त अनुनृतवन्तः, एवमन्यदपि । स्था०
चतुर्दशविधा अपि चतुर्दशप्रकारा अपि, जीवाः प्रागुक्तस्वरूठा०। नवविहा मन्चजीचा पस्पत्ता । तं जहा-एगिदिया. वेई
पा अपर्याप्तसुदमै कन्छियाऽऽदयो, विबन्धका कयाः, विशेषेण ब.
न्धका विबन्धकाः, अष्टप्रकारस्य कर्मण इति शषः । तषां चतुदिया, तेइंदिया, चतुरिंदिया, रतिया, पंचिंदियतिरि- दशविधानां जीवानाम, अन्तिमो भेद:-पर्याप्तसंक्षिपश्शेन्द्रिक्वजोणिया, मणूसा, देवा, सिचा। जी० ए प्रति । याभ्यः चतुर्दशधा चतुर्दशप्रकारो मिथ्यादृष्टपादिभेदादवनवविहा सब जीवा पएणत्ता । तं जहा-पढमममयणेर
सेयः,सर्वेऽपि चैतेऽनन्तरोक्ता अपर्याप्तसूक्ष्मैकेन्द्रियाऽऽदयो मि
ध्यारधादयश्च,किमादिकैः पदैः सत्पदाऽऽदिकैश्च प्रमण्यमाणा तिया, अपदमसमयणरतिया, पढएममयतिरिक्ख जोगिया,
यथावातव्याः॥१॥ अपदमममयतिरिक्वजोणिया, पढमसमयमरणमा, अप- तत्र" यथोद्देशं निर्देशः" इति न्यायात प्रथमतः किमा. ढमसमयमणमा, पढमसमयदेवा, अपढमसमयदेवा, सिका।
दिपदैः प्ररूपणां चिकीर्षुरादजी.ए प्रति० ।
किं जीवा उवमममा-इएहिँ जाहि संजुयं दव्वं । दशविधत्वम्
कस्स सरूवस्स पह, केणं ति न केणइ कयाओ॥॥ दस विदा संमारममावएणगा जीवा पएणत्ता । सं जहा
किं जीवाः ?-किं नाम जीवा इत्यभिधीयते ?, एवं परेण प्रसे पढमसमयएगिदिया, अपढमसमयएगिदिया, पढमसमयवे
कृते सति मूरिरुत्तरमाह-उपशमाऽऽदिभिरुपशमौदयिक कायिक
कायोपशामकपारिणामिकैर्भावैः संयुतं संमिश्र 5व्यम् । श्राहइंदिया, अपहमसमयवेइंदिया. जाव पढयसमयपंचिंदिया, औदयिकाऽऽदीन भावान् परित्यज्य किमितीहीपदामिकस्य भा. अपढमममयपंचिंदिया। जी० १० प्रति० ॥
वस्य साक्षादुपादानम? । उच्यते-इह जीवस्य स्वरूपं पृष्टेन तच सुगम, नवरं प्रथमः समयो येषामे केडियत्वस्य ते प्रथ
सता तदेव वक्तव्यं यदसाधारण स्वरूपम, एवं हि पदार्थान्तरमसमयास्ते च ते एकन्डियाश्चेति विग्रहः । विपरीतास्त्वितर
स्वरूपेच्यो वैविक्त्येन तत्प्रतिपादितं भवति, नान्यथा, औदविएवं द्वित्रिचतुःपञ्चेन्द्रिया वाच्याः । स्था०१०म०
कपारिणामिकौ च भावावजीवानामपि भवता,अतस्तो साक्षादमविहा सव्वजीवा पएणता । तं जहा-पूढवीकाश्या,
नोपात्ती, क्षायिकोऽपि च भाव औपशामकन्नावपूर्वकः, न
भावमनासाद्य कश्चिदपि कायिक भावमासाद. आउकाध्या,तेउकाइया,चाउकाइया. वणप्फतिकाइया, वेई- यति. कायोपशमिकोऽपि च भावो नौपशमिकाजावादत्यन्त.
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जीव
(१५२६) जीव
अनिधानराजेन्द्रः। नेदी, तत इह साक्षादौपशमिकस्य भावस्योपादानमिति । ततः छियतियञ्चः प्रत्येकं चतसृषु तनुषु संभवन्ति । तत्र त्रीणि “कस्य प्रभवः स्वामिनो जीवाः ?" इति प्रश्नं कृते भति उत्त- शरीराणि पूर्वोक्तान्येव, चतुर्थ स्वौदारिकमवगन्तव्यम, वैकिरम्-स्वरूपस्य प्रात्मीयस्य रूपस्य, निश्चयनयमतमेतत् ।। यं च वायुकायिकानां पञ्चेन्द्रियतिरश्चां वैक्रियलन्धिमतामव. तथाहि-कर्मविनिर्मुक्तस्वरुपा आत्मानो न केषामपि प्रनवः | सेयम, सर्वेषामविशेषेण, तथा मनुजा मनुष्याः पञ्चस्वपि तकिंतु स्वरूपस्यैव, तथाम्वाभाव्यात् । यस्तु स्वरवामिनावः सं- नुषु संभवन्ति । तद्यथा सारिक वैक्रिये पाहारके तैजस का. सारे, स कर्मोपाधिजनितत्वादौपाधिकः, न पारमार्थिक इति ।। र्मण च। तत्र क्रियं वैक्रियतांब्धमताम,पाहारक चतुर्दशपूर्वतथा केन कृता जीवा? इति प्रश्ने कृते सति समाधिः-न के-] चेदिनाम,ौदारिकतैजसकार्मणानि सुप्रतीतानि, शेषास्त्वकद्विनचित्कृताः, किन्तु नभस्वदकृत्रिमा एव, यथा चाकृत्रिमता | त्रिचतुरसंकिपञ्चेन्जियतिर्यञ्चः प्रत्यकं तिसृषु तिसृषु औदारिजीवानां तथा धर्मसंग्रहणीटीकायां सप्रपञ्चमनिहितमिति | कतैजसकामणरूपासु तनुषु वेदितव्याः, सिद्धा व्यपगतसकनेह नूयोऽभिधीयते, ग्रन्थगौरवभयात् ॥२॥
लकममलकल ङ्काः, पुनरविग्रहा विग्रहरहिताः, अशरीरा इकत्थ सरीरे लोए, व दुति केवचिर सव्वकालं तु । । त्यर्थः॥४॥
का जावजुआ जीवा, विगतिगच उपंचमीसेहिं ।। ३।। तदेवं किमादिपदैःप्ररूपणा कृता संप्रति सत्पदाऽऽदिपदैः प्रककुत्र जीवा अवतिष्ठन्ते?, इति प्रश्न कृते सति उत्तरमाचार्य पाह- पणा कर्तव्या, सत्पदाऽऽदीनि च पदान्यमूनि-"संतपयपरूवणशरीरे, लोके वा, तत्र सामान्यचिन्तायां लोके,नालोंक, अलो. या, दचपमाणं च खित्तफुसणा य। कासो य अंतरं भा-गभाव के स्वन्नावत एव धर्माधर्मास्तिकायजीवपुलानामसंभवात् । अप्पाबटुं चैव ॥" तत्र प्रथमतः सत्पदप्ररूपणां विदधातिविशेषनिम्तायां शरीरे, नान्यत्र, शरीरपरमाणुभिरेव सह प्रा
पुढवाई चन चनहा, साहारणवणं पि संततं सययं । स्मप्रदेशानां कीरनीरवदन्योन्यानुगमनावात् । उक्तश्च-"अनोनमणुगया.इमं च तं च त्ति विभयणमजुत्तं । जह खीरपाणि
पत्तयपजऽपज्जा, विहा सेसा न नववना ॥ ५॥ याई," ति।तथा-(केवचिर त्ति)कियश्चिरं कियत्कालं जीवा भ- इह ये पृथिव्यादयश्चत्वारः पृथिव्यप्तेजोवायुरूपाः प्रत्येक सबन्ति?,इति प्रश्न कृते सति उत्तरम-सर्वकालमेव,तरेवकागर्थः। इह दमबादरपर्याप्ताऽपर्याप्ततेदाच्चतुर्दा चतुःप्रकाराः, सर्वभेद"केणं तिनं कण कया न (२)" इत्यनेन प्रन्यन पूर्व जीवानाम- संख्यया षोडशसंख्याः, ततो भूयः सर्वेऽपि प्रत्येक द्विधा नादित्वमावदितम, इदानीं स्वनिधनत्वम, ततश्चानादिनिधना द्विप्रकाराः । तद्यथा-प्रागुत्पन्ना उत्पद्यमानाश्च, प्रागुत्पनोजीचा इति कष्टव्यम् । तथा च सति मुक्त्यवस्थामाधिगता अ. स्पद्यमानता च प्रज्ञापकापेक्षया वेदितव्या । ते सर्वेऽपि सततमपि जीवा न विनश्यन्ति, किन्तु शानाऽऽदिक स्वस्वरूपेऽवतिष्ठ- नवरतम; (संततं ति) यथायोगं सर्वत्र वचनलिङ्गपरिणामेन न्त इति श्रयम् । तेन यत्कश्चिदुच्यते
संबद्धयन्ते, सन्तो विद्यमानाः सर्वका सन्तः प्राप्यन्त इत्यर्थः। "दीपो यथा निर्वृतिमन्युपतो,
तथा साधारणवनमपि साधारणवनस्पतयोऽपि पर्याप्तसूक्ष्मनैवावनिं गच्छति नान्तरिकम् ।
बादरभेद भिन्नाः प्रत्येक द्विधा, प्रागुत्पन्ना उत्पद्यमानाच, सततं दिशं न काञ्चिद्विदिशं न काञ्चित,
सन्तो विद्यमाना: सर्वेऽपि सर्वदेव सन्त इत्यर्थम् । तथास्नेह कयाकेवलमेति शान्तिम् ॥१॥
(पत्तय इत्यादि) प्रत्येकबादरवनस्पतयः पर्याप्ताऽपर्याप्ताश्च । जीवस्तथा निवृतिमन्युपेतो,
प्रत्येक द्विधा-प्रागुत्पन्नाः, उत्पद्यमानाश्व | सततं सन्तः सर्वनैवान गच्कृति नान्तरितम्।
कालं सतः प्राप्यन्ते इति यावत् । शेषास्तु द्विात्रचतरिन्द्रियासदिश न काश्चिटिदिशं न काश्चित,
झिपञ्चन्जियाः प्रत्येकं पर्याप्ताऽपर्याप्ताश्च,संझिपञ्चन्धियाः पुनःपमेहक्षयात्केवलमेति शान्तिम् ॥ २॥
र्याप्ताः प्रागुत्पन्नाः सततं सन्तः उत्पद्यमानकास्तु नाज्याः; तुशतथा
ब्दस्यानकार्थत्वात् संझिनो लब्ध्यपर्याप्तकाःप्रागुत्पन्ना उत्पद्यमाअहन्मरणचित्तस्य, प्रतिसन्धिर्न विद्यते ।
नाश्च जाज्याः। कथमेतदवसीयते? इति चेत् । उच्यते-इह संक्षिप्रदीपस्येव निर्वाणं, विमोक्षस्तस्य चेप्सितः" ॥ ३॥ इति।
नां सन्यपर्याप्तकानामवस्थानमन्तर्मुहर्त्तमात्र, तेषामायुषोऽन्तर्मु.
हृत्तमात्रत्वात् । अन्तरं चैतषामुत्पत्तिमधिकृत्योत्कर्षतो द्वादशतदपास्तमवसेयम् । सतः सर्वधा विनाशायोगातू, तथादर्श- मुहाः, ततस्ते प्रागुत्पन्ना अपि सत्तायां भाज्याः । ननु द्वित्रिच. नादिति कृतं प्रसङ्गेन, मा भूद् ग्रन्धगौरवमिति कृत्वा । तथा तुरसंझिपञ्चन्द्रियाः अपि सध्यपयोतका अन्तमहायुषः, कतिनिरुपशमाऽऽदिभिभावयुताः संयुक्ता जीवाः १, इति प्रश्न | अन्तरमपि च तेषामन्तमुहर्त्तमात्रमन्यत्रोद्घष्यत, ततः कथं कृते सति, उत्तरमाह-द्विकत्रिकचतुःपञ्चमिधः । पं० स०। तेऽपि प्रागुत्पन्ना भाज्या न भवन्ति। नैष दोषः। तपामवस्थान( जीवस्थानेषु भावस्थितिः ' गुणट्ठाण' शब्द तृतीयभाग स्य वृहत्तरान्तमुहर्नग्रमाणत्वात् तदायुषस्तावन्मात्रत्वात् । कथए२३ पृष्ट कर्मग्रन्थेन गतार्था)
मिदमवसिमिति चेत् ?। उच्यते-ग्रन्थान्तरे नित्यराश्यधिकारे तत्र ये जीवा यावत्सु शरीरेषु सजवन्ति, तान् तावत्सु प्रति- नित्यगशिभिः सह तेषां योगपद्यनाभिधानात् ॥ ५ ॥ पादयन्नाह
तदेवं चतुर्दशविधान् सत्पदप्ररूपणया प्ररूप्य सांप्रतमे तेषासुरनेरझ्या तिसु तिमु, वानपणिं दीतिरिक्ख चउ चउम। मेवान्तिमो भेदश्चतुर्दशप्रकारः सत्पदग्ररूपणया-प्ररूपयिनव्यः; मणुया पंचमु सेमा, निमु तणुमु अविग्गहा सिद्धा ॥४॥ स च चतुर्दशधा गुणस्थानकदाद्भवति, ततो गुणस्थानसुरा नैरयिकाश्च प्रत्येकं तिसपु तनुषु शरीरेषु वर्तन्ते तद्यया
कान्येव सत्पदप्ररूपणया प्ररूपयतितेजस,कार्मण, वैक्रिये च । तथा वायवो वातकायाः, तथा पञ्चे- मिच्छा अविरयदेसा, पमत्त अपमत्तया सजोगी य ।
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जीव
(१५५७) अनिधानराजेन्डः।
जीव सम्बई इयरगुणा, नाणाजीवेस वि न होति ॥ ६॥
'ये जला अष्टौ (काभ्यां) गुणयन्ते, जाताः पोडश । ते तृतीयविन्दु.
स्थाने स्थाप्यन्ते, ततोऽधस्तनो द्विकः प्रतिप्यते, जाता श्रष्टादमिथ्यायविरतदेशविरतप्रमत्ताप्रमत्तसयोगिकवक्षिलवणा
श। ततो भूयः पाश्चात्या अौ प्रक्षिप्यन्ते, जाताः पविशतिः। नि गुणस्थानकानि सवा सर्वकालं विद्यन्त, इतराणि शेषाणि
एतावन्तः पदत्रये भङ्गाः। ततः सैव पशितिद्वाभ्यां गुण्यते, (गुण त्ति) गुण स्थान कानि सास्वादनसम्यग्मिथ्यारष्टचपूर्वकर
जाता द्विपश्चादात् । साचतुर्थविन्दुस्थान स्थाप्यते, ततोऽधस्तजानिवृत्तिबादरसूक्ष्मसंपरायोपशान्तमोहक्षीणमोहायोगिकव--
नो द्विकः प्रक्षिप्यते, ततो जाताश्चतुःपञ्चाशत् । तता पुनरपि लिलकणान्यष्टसंख्याकानि नानाजीवपि, प्रास्तामेकस्मिन् जीवे इत्यपिशब्दार्थः । न सर्वकालं भवन्ति, न सर्वकालं
पाश्चात्या हिंशति-प्राक्कप्यते,जाता अशीतिः। एतावन्तः पदच. विद्यमानानि प्राप्यन्ते इत्यर्थः, किन्तु कदाचिदेव । यदाऽपि च
तुष्टये भाः। ततः सा अशीति-ज्यां गायते, जातं पश्यधिक सास्वादनाऽऽदयः प्राप्यन्ते, तदाऽपि कदाचिदेककाः, कदा
शतम,तत्पञ्चमबिन्ऽस्थाने स्थाप्यत,तताऽधस्तनो द्विकः प्रक्कि
प्यते,जातं द्विषटयधिकं शतम, ततः पुनरपिप्राक्तनी मशीतिःप्रचिद् बहवः, बहुत्वं च प्रतिनियतं प्रत्येकमग्रे वक्ष्यति ॥ ६॥
विप्यते, ततो जाते देशते द्विचत्वारिंश । एतावन्तः पदपञ्चक पतेषां च सासादनाऽऽदीनामष्टसंख्याकानां यावन्तो
भङ्गाः । ततस्ते द्वे शते चित्वारिंशे द्वाभ्यां गुण्येते; जातानि भेदा एकछिकाउदिसयोगतः सर्वसंख्यया
चत्वारि शतानि चतुरशीत्यधिकानि । तानि षष्टबिन्दुस्थाने जवन्ति, तावन्तः प्रतिपिपादयिषुः
स्थाप्यन्ते, ततोऽधस्तनो द्विका प्रक्षिप्यते,जातानि चत्वारिशसामान्यतः करणगाथामाह..
तानि षशीत्यधिकाकि ततो भूयः प्राक्तने द्वे शते द्विचत्वारि. इगद्गजोगाईणं, वियमहो एगपुणेग इइ जुयलं । शदधिक प्रक्षिप्येते,जातानि सप्तशतान्यपाविंशत्यधिकानि । ५. इति जोगा न दुदुगुणा,गुणियविमिस्सा भवे भंगा ॥७॥ तावन्तः षट्षु पदेषु जलाः । ततः सप्तशतान्यष्टाविंशत्यधिकानि एकतिपयोगाऽऽदीनाम् एककद्विकत्रिकसंयोगाऽऽदीनां प्र
द्वाज्यां गुण्यन्ते, जातानि चतुर्दश शतानि पटपश्चाशदधिकानि ।
तानि सप्तमबिन्दुस्थाने स्थाप्यन्ते, ततोऽयस्तनोविका प्रतिप्यत्येकमधस्तादेकानेकरूपं युगलं द्विकमवस्थाप्यते, तत एक
ते, जातानि चतुर्दशशतानि अष्टपञ्चाशदधिकानि । ततःपुनरपि कयोगादारज्य (उदुगुण ति) द्विगुणा द्वाज्यां सहिता
प्राक्तनानि सप्तशतानि अपाविशत्यधिकानि प्रक्तिप्यन्ते, ततो हिद्विगुणाः । तथाहि-पाश्चात्या जला द्विगुणाः क्रियन्ते, ततो
भवन्त्येकविशतिशतानि पमशीत्यधिकानि । एतावन्तः सप्तद्विकसहिता विधेयाः । ततः पुनरपि गुणितविमिश्रा ये भङ्गाः
पदभङ्गाः। श्रमनि चैकविंशतिशतानि षडशीत्यधिकानि द्वाप्राचीना द्वाच्यां गुणितास्तैः केवलेः सहिताः किन्ते,
ज्यां गुण्यन्ते, जातानि त्रित्वारिंशच्छतानि द्विसप्तत्यधिकानि । तत ईप्सितपदे इष्टसंख्याका नङ्गा नवन्ति । श्यमत्र भावना
तान्यष्टमबिन्दुस्थाने स्थाप्यन्ते, ततोऽधस्तनों द्विकः प्रक्षिप्ययाचन्तः पदार्धा विकल्पेन भवन्तो भेदसंख्यया ज्ञातुमिष्टास्ता
ते, ततो जातानि त्रिचत्वारिंशच्छतानि चतुःसप्तत्यधिकावन्तोऽसत्कल्पनया बिन्दवः स्थाप्यन्ते । इह च प्रकृता अष्टौ ।
नि । ततो भूयोऽपि प्राक्तनान्येकविंशतिशतानि षडशीत्यधिसास्वादनाऽऽदयः ततोऽष्टौ बिन्दवः स्थाप्यन्ते, तेषां चाधस्तात्
कानि प्रतिप्यन्ते, जातानि षष्टयधिकानि पञ्चषष्टिशतानि । प्रत्येक द्विकः स्थाप्यः । स्थापना चेयम्-३:३३३३३३
एतावन्तोऽपदभङ्गाः॥७॥ . तत्रैकपदे द्वौ नौ । तद्यथा-पको बहवो वेति पदध्ये भता अष्टौ । तद्यथा-पाश्चात्यो द्वौ भलो कान्यां गुणिती जाताश्चत्वा
संप्रत्यषामेव भङ्गकानां प्रकारान्तरेण प्ररूपणामाहरः, ते हितोयबिन्दुस्थाने स्थाप्यन्ते ततोऽधस्तनो द्विकः प्र.
अहवा एक्कपईया, दो नंगा गिबहुत्तसन्ना जे। क्किप्यते, जाताः षट्, ततो "गुणियविमिस्सा" इति वचनात् यौ पाश्चात्यो द्वौ भनौ हान्यां गुणितौ तौ षट्षु मध्ये प्रक्षिप्ये
ने चिय पयवतीए, निगुणा उगसंजुया नंगा ॥७॥ ते,ततो जाता अष्टो, पतावन्तः पदद्वये भङ्गाः । ननु पदधये नका- अथवेति प्रकारान्तरोपदर्शने, एकपदिको एकपदभवी द्वौ । इचत्वार एव प्राप्यन्ते । तथादि-किल पकः सास्वादन एको भङ्गा भवतः, को तौ ?, इत्याह-यो एक बहुत्वसंझौ-कदामिश्र इत्येको भक्तः, एकः सास्वादनो बहवो मिश्रा इति द्विती- चिदनेक इत्येवंरूपौ, ततस्तावेव द्वौ भङ्गावादी कृत्वा पदयः, बहवः सास्वादना एको मिश्र इति तृतीयः, बहवः सास्वा- वृको हिकाऽऽदिपदवृठी प्राक्तनाः प्राक्तनास्त्रिगुणाः क्रियन्ते, दना बहवो मिश्रा इति चतुर्थः। अतः परमेकोऽपि भो न ततो द्विकेन संयुक्ता विधेयाः, ततस्तत्तत्पदभङ्गा भवन्ति । संभवति, तत्कथमुच्यते-पदद्वये भङ्गा अष्टौ भवन्तीति ? । त- इयमत्र नायना-ताविकपदिको नौ पदव्य त्रिगुणीक्रियेते, दयुक्तम् । अभिप्रायापरिज्ञानात् । इह हि यदि सास्वादनभिश्री तता जाताः षट् । ते द्विकन संयज्यन्ते, ततो जायन्तेऽष्ट । सदैवावस्थिती भवेताम्, जजना तु तयारेकानेकत्वमात्रकृतव पतावन्तः पदद्वये भताः । ततस्तेऽसौ त्रिगुणाः क्रियते, जाता केवला जवेत, तदोक्तप्रकारेण द्वयोः पदयाभङ्गाश्चत्वार एव चतुर्विंशतिः । सा हिकेन संयुक्ता जाता हिंशतिः । एनावनवान्ता यावता सास्वादनामश्री स्वरूपणाप विकल्पनीयो । न्तः पदत्रये नङ्गाः । ततः साऽपि पतित्रिगुणीक्रियते, जातथाहि-कदाचित् सास्वादनो भवति, कदाचिम्मिश्रा, कदाचि- ता प्रसप्ततिः। ततो द्विकप्रकपः, ततो जयत्यशीतिः। एतायन्तः
भो। यत्र सास्वादनः केवलो जायमानः कदाचिदेकः कदाचि पद चतुष्टये भताः । एवं तावद् वाच्यं, यावत्सप्तपदनाः षडदनेक इति द्वौ नौ । एवं मिश्रेऽपि द्वाविति चत्वारः। उनी शीत्यधिकान्येकविंशतिशतानि । तानि भूयत्रिगणीक्रियन्ते, च युगपज्जायमानी नवदुक्तप्रकारेण चतुर्भङ्गिकतया जायते, ततो हिकः प्रतिप्यते, जातानि षष्टयधिकानि पञ्चषष्टिशताततः पदध्ये जला अष्टौ भवन्ति । एवमुत्तरत्रापि भार्थनावना नि । एतावन्तोऽष्टसु सास्वादनाऽऽदिपदेषु जङ्गाः॥७॥ तदेव भावनीया।सम्प्रति पदयभादश्यन्त-तत्र पाश्चात्या:पदद- कृता सत्पदग्ररूपणा।
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( १५२८)
अभिधान राजेन्द्रः |
सम्प्रति इव्यप्रमाणमाह
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साहारा भैया, चउरो अताऽसंख्या सेसा । मिच्छाता चहरो, पलियामंखं ममेससंखेजा ||८|| साधारणानां साधारणबनस्पतिकायिकानां चत्वारो नेदाः, पर्याप्ता पर्याप्तसूक्ष्मवादररूपाः प्रत्येकमनन्ता श्रनन्तसंख्याः, अनन्तलोक 55 प्रदेशमाषाः पृथिव्य तेजोवायवः प्रत्येक पावसाबाद भेदाभेदाः तथा पापभेदभिः प्रवेकवादतिका पर्याप्ता पर्याप्तद्वित्रिचतुर संसिंज्ञिनोऽसंख्याता असंख्यात सं स्याः । अथापर्याप्ता संज्ञिनः कथमसंख्याता गीयन्त ? न हि ते सदैव प्राप्यन्ते, किंतु कदाचिदेव, ततः कथमसंख्याता घट ते । नैष दोषः । यतो यद्यपि ते सदैव न जवन्ति तथापि यदा भवन्ति तदा जघन्येनैको द्वौ वा उत्कर्षतोऽसंख्येयाः । उक्तं च" एगो व दो व तिम्नि व संखमसंखा व एगसमपणं । इति । तथा मिथ्यादृष्ट्यो ऽनन्ताः - अनन्त लोकाऽऽकाशप्रमाणाः, तथा चत्वारः सास्वादन सम्यग्मिथ्यायविरतम्य शिविर रूपाः प्रत्येकं पल्योपमा संश्येय भागवर्तिप्रदेशराशिप्रमाणा इत्यर्थः । इद सास्वादनाः सम्यग्मिथ्यादृष्टयश्चाधुवत्वाकदाचिज्ञ प्राध्यन्ते कदाचिन्न वदा प्राप्यन्ते दा नेवाः पयो अवितथम्यगृष्टिदेशविताः पुनः काका: काचि बढ ते द्वयेऽपि प्रत्येकं क्षेत्रपल्योपमासंख्येय भागवर्तिप्रदेशराशितुव्याः, उत्कर्षतो ऽप्येतावन्त एव, नवरमसंख्यातस्य तस्यासंख्यातमेभिवाज्ञयन्याय संध्यानमसंख्यान देशविरतेश्वाविरत सम्यग्दृष्टयो जघन्यपदे उत्कृष्टपदे च प्रभूतततरा मवसेयाः; शेषाः प्रमत्ताऽऽदिगुणस्थानवर्तिनां जीवाः प्रत्येकं संख्येयाः प्रतिनियतसंख्याकाः, सा च प्रतिनियता संस्या स्वयमेव वक्ष्यते ॥ ८ ॥
प्राप्यन्ते
सामान्यतो इम् साम्प्रतमेतदेव विशेषतोऽनिधित्सुरादपचेपपलवणा-या उपपरं हरति योगस्स ।
अंगुल असंखनागेण जायं भूद्गतथ् य ॥ ए ॥ वर्षात्वाद्रवनस्पतिकायिका भूकाधिका उदककाविकाश्च पर्याप्तबादराः प्रत्येकं लोकस्य घनीकृतस्व सप्तरज्जुप्रमाणस्य उपरितापस्तनप्रदेश रहिले के कमदेश प्रम काऽऽकारं प्रतम मात्र क्षेत्राचे माज कलमपि हरन्ति । इयमत्र जावना सर्वेऽपि प्रत्येकबादरपर्याप्तवनस्पतिकाधिक जनयाम
तास यदि युगपदेके कमाये यागमा
स
स्यन्ति तत एकेनैव समयेन ते सकलमपि प्रतरमपहन्ति । तत मायाकृतस्यैकस्मिन्प्रतरे संख्ये यभागमात्राणि खरामानि भवन्ति तावत्प्रमाणाः पर्याप्त प्रत्येकबादरवनस्पतयः । एवं पर्याप्तवादरनृकायिकोदक कायिकानामपि प्रत्येकं भावना कार्या। यद्यपि चामीषां त्रयाणामपीत्थं समानप्रमाणत्वमभिहितं तथाऽप्यङ्गुला संख्येयनागस्यासंख्यात भेदनिवात्परस्परमिदमसे तो प्रत्येकान दरस्य यः पादाविका संय गुणवादकायिका अ
जीव
आवलियो का चलिए गुणियो हु बायरा क बाऊ प लोगसंखं, सेसनिगमसंखिया होगा ॥ १० ॥ श्रावलिका असंख्येय समयाऽऽत्मिकाऽप्यसत्कल्पनया दशसम
ssत्मिका कल्प्यते, ततस्तस्या दशसमयाऽऽत्मकाया श्रावत्रिकावर्गः, स च किल कल्पनया शतसमयप्रमाणः, तत आवनिकायर्ग ऊनावलिका कतिपय
तिपय समयन्यूनैरावलिकासमयैरष्टनिरित्यर्थः, गुग्यते । गुणन च कृते सति यावन्तो वर्गा भवन्ति तेषु च वर्गेषु यावन्तः समयास्तावत्प्रमाण बादरपर्याप्ततेजस्कायिकः । तथा बाऊ य लोगसंत बाबादपर्याय लोकसंख्येयभागा घनीकृतस्य लोकस्यासंख्येयेषु प्रतरेषु संख्याततमभागवर्त्तिषु यावन्त आकाशप्रदेशास्तावत्प्रमाणा इत्यर्थः । श्रमीषां पृधियम्बुजवायुप्रत्येक वनस्पती परस्परम पसिना पर्यायादरजस्काधिका, नेयः पर्याप्तत्यादयनस्पतिकायिका असंख्येयगुणाः योऽपि पर्यायादभूकाका अध्येयगुणाः तेभ्योऽपि पाद कायिका असंख्ययगुणाः, तेज्योऽपि पर्याप्तबादरवायुकायिका अपेयगुणाः सगिया सांगा इति ) शेषांत्र पृथग्यायिकामा मापद करणम संख्या लोकाः, श्रसंख्येयेषु लोकेषु यावन्त श्राकाशप्रदेशास्तावत्प्रमाणाः। किमुक्तं जवति ?, असंख्येय लोकाऽऽकाशप्रदेशप्रमाणाः पृथिव्यम्बुतेजोवायूनां प्रत्येकमपर्याप्ता बादरा, पर्याप्ता अपर्याप्ताश्च सूक्ष्मा भवन्तीति । इदं सामान्येनोक्तं, विशेषतः स्वस्थाने प्रत्येकं त्रयाणामपि राशीना शामा अगुणाः ज्योऽपि पर्या दमाः संख्यगुणाः
सवाद
प्रत्येक वनस्पतयोऽसंख्येयलोकाकाशप्रमाणा श्रवगन्तव्याः । साधारण वनस्पतीनां व प्रागेव पर्याप्तापर्याप्तसूक्ष्मवादररूपाचत्वारोऽपि भेदाः सामान्यतोऽनन्त लोकाकाशप्रदेशप्रमाणा उक्ताः। यदि पुनस्तेषामपि विशेषमवले. यम-चादरीससाधारणः सर्वका
धारणा श्रसंख्येयगुणाः तेभ्योऽपि सूक्ष्मपर्याप्त साधारण श्रसं गुमताचरणः संवगुणः ॥१०॥ पज्जत्तापज्जत्ता, वितिचन अस्सल अवहरति । अंगुलखाख एसइर्थ पुरो पपरं ॥ ११ ॥
त्रिचतुरसंनो द्वन्यत्रीन्द्रियचतुरिन्द्रियासंज्ञिपञ्चेन्द्रियाः पृथक्प्रत्येकं पर्याप्ता अपर्याप्ताश्च यथासंख्यमगुलसंख्येया संख्येयभाग प्रदेशेनाजितं खकितं प्रतरमपहरन्ति ।
मंत्रज्ञान सर्वेऽपि पर्याप्ता द्रिया यदि युगपदेकैकमगुलमात्र क्षेत्र संख्येयनागमात्रं खाकं प्रतरस्यापहरन्ति तत पकेनैव समयेन ते सकलमपि प्रतरमपहरन्ति । इदमुक्तं भवति घ नीकृतस्य लोकस्य सप्तरज्जुप्रमाणस्यैकस्मिन् प्रतरे यावन्त्यहुलसंख्येयनागमात्राणि खण्डानि तावन्तः पर्याप्ता द्वीन्द्रियाः । एवं पर्याप्तास्त्रीय तुरिन्द्रियासंझिपञ्चेन्द्रिया अपि प्रत्येकम+ गायन्ति पुनरेव भागमा तातोपा रिन्द्रियाद्रियत्वाद्यपि सर्वे
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पर्याप्ताः सर्वेऽपि चापर्याप्ता द्वीन्द्रियाऽऽनयः सामान्यतः समानमातापि विशेषनिम्तायामिदमत्वसेव
सर्वस्तोका पर्याय विशेषाधिकार पर्यायाधिकापसा या विशेषाधिकार, अपर्याप सातेोपमारिया विशेषाधिपोऽय पर्याप्तास्त्रन्द्रिया विशेषाधिकाः तेभ्योऽप्यपर्याप्ता द्वीन्द्रिया विशेषाधिकाः तदेवमन्द्रियपर्वताः सर्वेऽपि जीवा संख्यया प्ररूपिताः ॥ ११ ॥
सम्बति संरूपणार्थमाह
(१५२६) अभिधानराजेन्द्रः ।
सभी उपमाएँ अस्वसेदिनेरइया | सेडिअम खेज्मो, मेसामु जह्रुत्तरं तह य ॥ १२ ॥ संज्ञिनश्चतसृष्वपि गतिषु वर्तन्ते ततो गतीरधिकृत्य तत्प्र रूपणा कर्तव्या । तत्र प्रथमतो नरकगतिमधिकृत्याऽऽह प्रथमायां नरकपृथियां रामेधानायां घनीकृतस्य लोकस्य सप्तरज्जुंप्रमाणस्य श्रसंख्यया एकप्रादेशिक्यः श्रेणयः, एताव स्प्रमाणा नारकाः ; श्रसंख्यातासु एकप्रादेशिकीषु श्रेणिषु याक्त आकाशप्रदेशास्तावत्प्रमाणा नारका इत्यर्थः । गाथाऽन्ते शब्दस्यार्थसूचना भवनपत
दिनयाः शेषासु दिवादिषु पृथिवीषु प्रत्येकम् ( सेढिअसंखेज्जंस ति ) घनीकृतस्य लोकस्यैकस्या श्रप्येकप्रादेशिक्याः श्रेणरसंख्ययतमो जागो नारकाः; श्रसंख्य तमे भागे यावन्तः प्रदेशास्तावत्प्रमाणा नारका इत्यर्थः । ( जहुत्तरं तद य ( ) तया चेति समुच्चये । यथोत्तरं च यथा यथा उत्तरा पृथ्व। तथा तथा पूर्वपृथ्वीगतनारकापेया असं क्याततमा असंख्याततमनागमात्रा प्रष्टव्याः । तद्यथा-द्वितीयका तृतीयपृथिव्यां नारका न भागमात्राः नृतीयपृथ्वयतारकापेक्षा चार का असंख्यात नागमात्राः । एवं सप्तस्वपि पृथ्वीषु व्यम् । कथमेतदव सेयमिति चेत् ? । उच्यते युक्तिवशात् । तथाहिसर्वस्तोका सप्तमधियां नारकाः पूर्वोत्तरपश्चिमभागमा योऽपि तस्यामेव सप्तमस्य दक्षिणदिना गनाविनोऽयमिति
स्तवः शुक्लपाक्षिकाः, कृष्णपाक्षिकाञ्च । तेषां वेदं लकणमछह येषां किञ्चिदून पुल परावतांई मात्रः संसारको गृलपातिकाः; अधिकतर संसारभाजिनस्तु कृष्णपाक्षिकाः । उत्त च
जेसिमको पोग्गन- परियो सेसओ य संसारो । ते सुक्कपक्खिया खलु श्रहिए पुण कएहपक्खीओ ॥ १ ॥ अत एव स्वकाः शुक्लपाक्षिकाः, बहवः कृष्णपाविकाश्च । कृष्णपाक्षिकास्तु प्रदक्षिणस्यां दिशि समुद क्षु तथास्वाभाव्यात् । तच तथास्वानाव्यं पूर्वाचार्यैरेवं युभिवृह्यते तथा कृष्णपातिका दीर्घतर संसाराजिन दीर्घरसंसाराजा
पापदाश्च क्रूरकर्माणः क्रूरकर्माश्च प्रायस्तथास्त्रां भाव्याअशेष यंत उक्तम्" पायमिह कुकना, भवसिद्धीया विदाहिणिले सु | नेरइयतिरियम या सुराइनासु गच्छति ॥ १ ॥ " ततो दयां दिशि बहन कृष्णामुत्यादसंभा संजय पूर्वोत्तरपश्चिमे दाक्षिणात्य संस
३०३
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योऽपि यतमानापूरपश्चिम दिग्भाविनोऽसंख्येयगुणाः । कथमिति चेत् ? । उच्यतेसर्वोत्कृपाकर्मकारिणः संश्चेिन्द्रियतिर्यग्मनुष्याः स यामुत्पद्यन्ते पापकारिण
पृथि सर्वोकृपाकर्मकारियो
कापवश्वसनीय कार
राः ननां संयेात्यनार कापूर्वोत्तरपश्चिमनारकाणामयमुत्तरांतपृथिवीरप्यधिकृत्य नावितव्यम् । तेज्योऽपि तस्यामेव षष्ठदक्षिनारका अि प्रासिं
नाय पूर्वोत्तरपश्चिमवाचिनः मेच पञ्चदिदिवर्तनोऽयेयगुणाय चतुर्थपृथिव्यां नाऽभिधानायां पूर्वोत्तरपश्चिमदिग्भागभाविनोऽम्पोऽपि तस्यामंदि दिशि असंख्यगुणाः तेभ्योऽपि तृतीयां कामना पूर्वोत्तरपश्चिमदिग्नाविनोऽसगुणाः अपि तस्यामेव दूतीय दाक्षिणात्या संख्येयगुणाः तेभ्योऽपि द्वितीय पृथिव्यां शर्कराप्रमाऽनिधानायां पूर्वोत्तरपश्चि मदिग्भाविनोऽसंख्येयगुणाः, तेज्योऽपि तस्यामव द्वितीय पृथि
दाक्षिणात्या अपराधिय
पूर्वोत्तरपश्चिमदिग्नाविनोऽपि तस्यामेव पृथिव्यां किस्पां दिशि नारका असंख्येयमृगाः । पं० [सं०] । ( श्रत्रत्यः संवादी प्रज्ञापनाप्रन्थः ' अप्पाबहुय ' शब्द प्रथमभागे ६५२ पृष्ठे गतः )
ये च ये ज्योऽसंख्येयगुणास्तेषां ते असंख्येयतमे जागे वर्तन्ते तताथियां पूर्वोत्तरपश्चिमवार के पि भारतमे भागे किं पुनः भावनीयम्।
अनार केन्यः पवमाथि समुद्रम (जड़तरं तह (स) ॥ १२ ॥ सम्प्रति व्यन्तराणां प्रमाणमाहसंखेज्जजोयणाणं, सूपए से भाओ पयरो | अंतरमुरेहि हीर एवं एकेक ।। १३ ।। योजना या मुनिप्रादेशिकी ि भवति ? - संख्येययोजनप्रमाणा या एक प्रादेशिक) पङ्किः तत्प्रदशैर्भक्तः प्रतरो व्यन्तरसुरर पहियते । भयमत्र तात्पर्यार्थः- या यति संयोजनमा प्रादेशिक श्रेणमात्राकाशकान्येकस्मिन् प्रतरे जवन्ति तावत्प्रमाणा व्यन्तरसुराः । अथ वेयं कल्पना-संख्येययोजन प्रमाणकप्रादेशिक श्रेणिमात्र एकयदि सर अपहरति हिं सकलमपि प्रतरमेकस्मिन् समय से अपराधि स एवार्थः । एवमेकैकस्मिन् भेदे व्यन्तरनिकाये षष्टव्यम् । किंशुकं जयति यथा परिमाणमुक्कमेच मेकैकस्मिन् व्यन्तरनिकाये परिमाणमव सेयम् । न चैवं सर्वसमुदायपरिघात अभिप्रमाण हेतु योजन लंबे
यत्वस्य वैविगात् ॥ १३ ॥
पदोगुल परमेहिं जाइ परो । जोइसिएहिं हीरइ, सहाणे त्यी य संखगुणा ॥१४॥ षट्पञ्चाशदधिकशताऽनप्रमादचिप्रदे
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अभिधानराजेन्दः । स्वरिकतः प्रतर उक्तस्वरूपो ज्योतिष्कदेवराहयते । इयमत्र | प्रनानारकाऽऽदिपारमाणेषु प्रत्येकं यावत्यः श्रेण यस्तावतःप्रदेजावना-घट्पञ्चाशदधिकशतध्यमण्या ऽङ्गलप्रमाणे कप्रादाश- शान् श्रेणिव्यातिरिक्तान गृहीत्वा एकप्रादेशिक्यः सूचयः फ्रिकश्रेणिमात्राणि यावन्स्येकस्मिन् प्रतरे भवन्ति तावत्प्रमाणा ज्यो- यन्ते, तासां च सुचीनामङ्गल प्रमितमस्गुल नागमितमिदं वक्ष्यतिकदेवाः। अथवयं कल्पना-पट्पञ्चाशदधिकशतद्वयसंख्या- माणं मानं प्रमाणम् ॥ १६ ॥ इलप्रमाणे कप्रादेशिकश्रेणिमात्र खण्डमेकैकं यदि युगपत्सर्वे
तदेव दर्शयनिऽपिज्योतिष्कदेवा अपहरन्ति,तहि ते सकलमपि प्रतरमकस्मि
बप्पन्नदोसयंगुल-भूओ लूओ विगिक मूलतिगं ।। मेव समये अपहरन्ति, तथा स्वस्थाने चतुर्धपि देवानकायेषु
गुणिया जदुत्तरत्या, रासीओं कमेण सूईओ ॥१७॥ स्वस्खनिकायगतदेवापेक्षया देव्यः संख्येयगुणा द्रव्याः , प्रकापनायां महादएमके तथा पागत।
षट्पञ्चाशदधिकशतद्वयप्रमाणस्याङ्गलमात्रस्याक्गुलकेत्रगत
प्रदेशराशंभूयो भूयो वारं वारं विगृह्य । किमुक्तं भवति?-वर्गमूअस्संखसेढिखपए-सतुक्षया पढमदुइयकप्पेसु ।
साउनयनकरणन एकं वारं विगृह्य वर्गमनमानीय नृयो विगृहात, मढि असंखससमा, उवरितु जदुत्तरं तह य ॥१५॥ ततो द्वितीय वर्गमूलमागच्छति, ततो नूयोऽपि विगृह्यत, ततघनाकृतस्य लोकस्य या अधि आयता एकप्रादेशिक्यः श्रेण
स्तृतीय वर्गमूलमागच्छति । एवं न्यो न्यो विगृह्य मूलत्रिक योऽसंख्यातास्तासां यावान् प्रदेशराशिस्त तव्यास्तावप्रमा
वर्गमूल त्रयमानीय यथोत्तरस्था राशयो गुण्यन्ते । ततो गणिताः गाः प्रथमे कल्प सौधर्माऽऽण्ये, द्वितीये चकटप ईशानाऽऽण्ये
सन्तस्ते क्रमेण यथाक्रम सूचयो जवन्ति । एतावत्प्रदेशराशिण. प्रत्येक देवा भवन्ति । केवलं सौधर्मकल्पगतदेवापेत्तया ईशा
माणा यथाक्रम रत्नप्रभानारकाउदिषु श्रेणिपरिमाण देनवः सनकथ्यगता देवाः संख्येयभागमात्रा इष्टव्याः, प्रज्ञापनायामी
चयो भवन्तीत्यर्थः यमत्र जावना-अङ्गलमात्र कंत्र पकप्रादशिशानदेवापेक्षया सौधर्मकरूपदेवानां संख्ययगुणतयाभि
कश्रेणिरूपे असंख्याता अपि प्रदेशाः किलासत्करूपनया षटू धानात् । ( सेढिप्रससंससमा उवरितु त्ति) तुर्वाक्यभेदे,
पञ्चाशदधिकशतद्वयप्रमाणाः कल्प्यन्ते, तेषां प्रथमं दर्गमूलं नपरि पुनः सौधर्मे शानकल्पयोरुपरिष्टात्पुनः सनत्कुमारमा
षोडश, द्वितीयं चत्वारि, तृतीय च द्वे । एते च राशय उपर्य
धोनावेन क्रमेण व्यवस्थाप्यन्त। तत्र प्रथमवर्गमूमन घोडशनहेन्ब्रह्मलोकलान्तकमहाशुक्रसहस्रारलकणेषु कस्पेषु प्रत्यर्फ देवा घनाकृतस्य लोकस्य एकप्रादेशिक्या एकस्याः श्रेणरसं
कणेन उपरितनः पट्पञ्चाशदधिकशतद्वयप्रमाणो राशिणु
एयत । गणिते च सति तस्मिन् जातानि यावत्यधिकानि चत्वाज्येयांशसमाः, असंख्येयतमे भागे यावन्तो नन्नःप्रदेशास्तावप्रमाणाः (जहुसरं तह य ति) तथाचति समुच्चय,यथा उत्तरे
रि सहस्राणि । एतावत्यः किल श्रेणयो रत्नप्रभानारकाणां उत्तरे देवाः-उत्तरोत्तरकल्पगता देवास्तथा तथा पूर्वपूर्वक
परिमाणाय व्याः, पतावप्रमाणश्रेणिगताऽऽकाशप्रदेशरा. स्वगतदेवापेकया असंख्येयभागमात्रा अध्याः । इदमुक्तं भवति
शिप्रमाणाः प्रथमपृथिवीनारका भवन्तीत्यर्थः । तथा द्वितीयेन यावन्तः सनत्कुमारकल्पगता देवास्तदपेक्तया माहेन्द्रकल्प
वर्गमूलेन चतुष्कलकणेनापरितनः षोडशकलवणो राशिणुअसंख्येयजागमात्राः, माहेन्द्रकल्पगतदेवापेक्वया सनत्कुमार
एयते। गुणिते च सति जाता चतुःषष्टिः । एतावत्यः श्रेणयो कल्पगता देवा असंख्येयगुणा इत्यर्थः । एवं माहेन्द्रकल्पगत.
जवनपतीनां परिमाणावधारणाय द्रष्टव्याः । तथा तृतीयेन वर्गदेवाकया ब्रह्मलोककल्पगतदवा असंख्येयभागमात्राः। एवं
मूलेन द्विकलकणेनोपरितनश्चतुष्कल कणो राशिगुण्यते। ततो लान्तकमहाशुक्रसहस्रारकल्पेयपि नावनीयम् । " तह य"
जाता अष्टौ । एतावत्यः श्रेणयः सौधर्मदेवानां परिमाणायशाइत्यत्र चशब्दस्यानुक्तार्थसमुच्चायकत्वादानतप्राणताऽऽरणा
तव्याः १७॥ च्युतकल्पेषु अधस्तनमध्यमोपरितनदेयकेषु अनुत्तरविमा
रत्नप्रजानारकाऽऽदीनामेव विषये प्रकारान्तरेण नूयः श्रेणिपनेषु च प्रत्येक क्षेत्रपस्योपमस्यासंख्येयतमे भागे यावन्तो ननः
रिमाणमादप्रदेशास्तावत्प्रमाणा देवा अवगन्तव्याः। पूर्वपूर्वदेवापेक्षया चो- अह वंगुलप्पएसा, समूल गुणिया न नेरइयाई । सरोत्तरदेवाः संख्येयगुणानाः, तथा प्रशापनायां महाइरामके
पढमइयापयाई, समूत्रगुणियाइँ इयराणं ॥ १७ ॥ पवितत्वात् । (महादएकपाठस्तु-'अप्पाबड्य' शब्द प्रथम भागे ६५२ पृष्ठे अभ्यः )
अथवति प्रकारान्तरसूचने, प्रकारान्तरं चेदम् पूर्वमङ्गुनमात्र.
केत्रप्रदशराशिरसत्कल्पनया षट्पञ्चाशदधिकशतद्वयप्रदेशइह पूर्व रत्नप्रभानारकाणां भवनपतिदेवानां सौधर्मकल्पगतदेवानां च परिमाणमसंख्येयश्रेणिगताऽऽकाशप्रदेशाराशिव
प्रमाणकाल्पता, इह तु न तथा कल्ल्यते, किंतु यथा वस्थित. माणं सामान्यनोक्तं, तत्र न ज्ञायते के बहवः, के स्तोका इति?
पव विवक्ष्यते इति । अङ्गाने एकप्रादेशिकश्रेणिको अङ्गुलमात्रे
ये प्रदेशास्ते स्वकीयन वर्गमूलन गुरिणताः सन्तो यावन्तः सं. तत परस्पर विशेषमाह
भवन्ति, एतावत्प्रमाणा नैरयिकसूचिः-नैरयिकपरिमाणवेतूनां सेढी एकेकपए-सरइयमईणमंगुलप्पमियं ।
श्रेणीनां विस्तरः। किमुक्तं नवति?-रताचप्रमाणाःप्रथमपृथि. घम्माएँ जवणसोह-म्मयाण माणं इमं होइ ।। १६ ॥ योनारकाणां परिमाणावधारणाय श्रेणयोऽवगन्तव्याः । तथा घमायां धर्माभिधानायां प्रथमपृथिव्यां नारकाः, तेषामिति
अङ्गुनमात्रकंत्रप्रदेशाराहार्यत प्रथमं पदं वर्गमूसंत स्वकीयेन शेषः, तथा भवनपतीनां सौधर्मजानां च सौधर्मकल्पगतानां मूलेन वगमूनागुनमात्रवेत्रप्रदेशराश्यपेक्या हितायेन सदेवानां परिमाणावधारणाय या असंख्येयाः श्रेणयः पूर्वम्- घर्गमूलेन गुण्यते । गणितं च सति यावान् प्रदेशराशिभवति, क्तास्ताः प्रति प्रत्येकमकैकं प्रदेशं श्रेणिव्यतिरिक्तं गृहीत्वा या| एतावत्प्रमाणा भवनपतीनां परिमाणावधारणाय श्रेणया इष्टरचिताः सूचय पकप्रादेशिक्यः श्रेणयः। किमुक्तं भवति?-रत्न- । व्या। तथा महशुलमात्र क्षत्रप्रदेशराशेरेव यदू द्वितीय पदं वर्ग
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(१५३१) अनिधानराजेन्द्रः।
जीव मून, तत् स्वमू लेन स्वकीयेन वर्गमूलेन अश्गुनमात्रकेत्रप्रदेश अडतोऽपि स्थापना-४२६४६६७२६६। , राश्यपेक्कया तृतीयेन च वर्गमूलेन गुण्यते। गुणित च सति यावा. अस्याधिराशेर्वों गाथात्रयेण प्रतिपाद्यते । तद्यथान् प्रदेश राशिभवति तावत्प्रमाणाः सौधर्मदेवानां परिमाणावधा- "लक्खं कोमाकोडिण, चउरासीई भवे सहस्साई। रणाय घेणायो शेयाः, पतावत्प्रमाणश्रेणिगताऽऽकाशप्रदेश
चत्तारि य सट्टा, होति सया कोडिकोडीणं ॥१॥ राशिदल्याः सौधर्मदेवा भवन्तीति भावना । एवं पूर्वप्रापि
चोयाला लक्खाई, कोमीणं सत्त वेव य सहस्सा। भावना एव्या ॥१८॥
तिनिय सया य सयरा, कोडीणं होति नायब्वा ॥२॥ संप्रत्युत्तरक्रियसंझितिर्यकपञ्चेन्जियपरिमाणा
पंचाणनई लक्खा, एगावन्नं भवे सहस्सा। वधारणार्थमाह
स्सोमसुत्तरसया, एसो रहा य हवह वम्गो।। ३।।" अंगुनमूनासंखिय-भागप्पमिया उ होति सेढाओ। अतः स्थापना- १८४४६७४४०७३७०६१५१६१६ । उत्तरविलम्बियाणं, तिरियाण य सनिपज्जाणं ॥१६॥ पप षष्ठो वर्गः पूर्वोक्तेन पञ्चमवर्गण गुण्यते । गुणित च मति अगुलस्याङ्गुलप्रमाणस्य केत्रस्य प्रदेशराशेर्यन्मूलं वर्गमूलं
यावान् राशिर्भवति तावत्यमाणा जघन्यतोऽपि पर्याप्तगर्भप्रथम,नम्य योऽसंख्येयो भागस्तेन प्रमितास्तत्प्रमाणास्तिरश्चां
जमनुष्याः । स च राशिरतावान् जबतिसंकिपञ्चेन्द्रियाणामुत्तरवैक्रियाणां परिमाणांवधारणाय श्रेण.
७९२२०१६२५१०२६४३३७५६३५४३६५०३३६ । योऽवगन्तव्याश्यमत्र भावना एकप्रादेशिके अङ्गनमात्रे केत्रेयः अयं च राशिरेकोनत्रिंशदङ्कस्थानेन कोटाकोट्यादिप्रकारेणाप्रदेशराशिः, तस्य यत् प्रथम वर्गम्यं, तस्यासंख्येयनागे याव.
निधातुं कथमपि शक्यते, ततः पर्यन्तवर्तिनोऽस्थानादान ता नभप्रदेशाः,तावत्प्रमाणासु श्रेणिषु यावान् प्रदेशराशिस्ता- रभ्याङ्कस्थानसंग्रहमा पूर्वपुरुषप्रणीतेन गाथाद्वयेनानिधीयतेचत्प्रमाणा उत्तरवैक्रियशरीरलब्धिसम्पन्नाः पर्याप्तसंझिपञ्चे. "- य तिनि तिनि सुन्नं, पंचेव य नव य तिनि चत्तारि। न्द्रियतियञ्चो वदितव्याः। उक्तं च-"पचेदियतिरिक्त जाणिया- पंचव तिनि नब-च सत्त तिव तिमेव ॥१॥ शंकेवड्या वे उब्धियसरीरा पन्नता। गायमा! असंखना,का. चउ ग्चएचट पक्को, पण दो छकेकगो य अव । लो असंखजाहिं उस्सपिणीोसपिणीहि अवहारति, दो दो नव सत्तेव य, अंकठाणा गुणतीसं ॥२॥" खेतमो पयरस्स असंखेजमागे असंखेज्जाप्रो सेट। ओ,तासि
एष च राशिः पूर्वसूरिनिस्त्रियमलपदादा चतुर्यमलपणं सेढाण विक्खं नसूई अंगुलपढममनवम्गस्स भसंस्खे जह
दस्याधस्तादित्युपवरायते; तत्रद्वी द्वौ वर्गों यमलपदम । तथा भागो" इति । उत्तरक्रियशरीरलब्धिसंपन्नाः पर्याप्तसंशि
चोक्तमनुयोगधारचूर्णी-"दो विनि वा जमलपयं ति जन" तिर्यकपञ्चेम्झिया असंख्येयषु कापसमुफ्रेषु गजमत्स्यहसाऽऽदयो कष्टव्याः ॥ १९॥
इति। ततः पम् वर्गाः समुदितास्त्रियमलपदम,प्रियमनपदसमा.
दारस्तस्मादृर्वमब राशिः,षष्ठवर्गस्य पञ्चमवर्गेण गुणितत्वात् । सम्प्रति मनुष्यपरिमाणप्रतिपादनार्थमाह
अष्टवर्गसमुदायश्चतुर्यमल पदम् चतुर्णी यमक्षकपदानां समाहार उकोसपए माणुया, मेढी रूवाहिया अवहरति । इत्यर्थः । तस्याधस्तात् सप्तमवर्गस्याप्यपरिपूर्णत्वात् , एष च तत्यमूलाइएहिं, अंगुलमूलप्पएसेहिं ॥२०॥
राशिः षण्मुवतिच्छेदनकदायी।तथाहि-प्रथमो वर्गों द्वे दनके द
दाति । तद्यथा-प्रथमं दनकं द्वौ,हितीयमेकं द्वितीया वगंधदद्वये मनुष्याः-गर्भव्युत्क्रान्ताः,संमूछिमाश्च। तत्र गर्भव्यु
स्वारिदनकानिात प्रथममष्टो,द्वितीयं चत्वारि,तृतीयं दे,चतु. स्कान्ता:-पर्याप्ता, अपर्याप्ताश्च भवन्ति । समूच्छिमास्तु अन्त.
यमेकमा एवं तृतीयवाँऽधी दनकानि । चतुर्थः षोमश । पञ्चमो मुहूर्तायुषोऽपर्याप्ता एव नियन्ते । एतच्च प्रागेव प्रथमाधिकारेऽनिहितम् । ततस्ते पर्याप्ता न भवन्ति । तत्र ये गर्भव्युत्क्रा
द्वात्रिंशतम् । षष्ठश्चतुष्टिम, स एवं पञ्चमवर्गेण गुणितः न्ताः पर्याप्ता मनुष्यास्ते सदेव बज्यन्ते, ध्रुवत्वात्तेषाम् । ते च
षमबतिम् । कथमेतदवसेयमिति चेत् ? । उच्यते- यो संख्येयाः, संख्या च तेषां जघन्यतोऽपि पञ्चमवर्गगुणितष.
यो वर्गों येन येन वर्गेण गुण्यते, तत्र तत्र द्वयाईयोरपि
दनकानि प्राप्यन्ते । तथा प्रथमवर्गेण द्वितीये वर्गे गुष्ठवर्गप्रमाणा द्रष्टव्या । अथ वर्गः किमुच्यते ?, किस्वरूपश्च
णिते पट् । तथाहि-द्वितीयो वर्गः पोशलक्षणः प्रथमपञ्चमो वर्गः ?, किंनूतः षष्ठः ?, कीडम्बा पञ्चमवर्गगुणितः स
वर्गेण चतुष्करूपेण गुण्यते । गुणिते च सति जाता चतुःषष्ठो वर्गों भवतीति ? । उच्यते-यह विवक्तितो राशिस्तेनैव राशिना गणितो वर्गश्त्यभिधीयते । तत्रैकस्य वर्ग एक एव जव.
पष्टिः। तस्याः प्रथमदनकं द्वात्रिंशत,द्वितीयं षोडश,तृतीयमी, ति, ततो वृद्धिरहितत्वादेष वर्ग एव न गएयते, द्वयाश्च वर्ग
चतुर्थ चत्वारि, पञ्चमं द्वे. षष्ठमे कमिति । एवमन्यत्रापि भावचत्वारो जवन्ति; इत्येष प्रथमो वर्गः ४। चतुर्णा वर्गः षोम
नीयम् । तत्र पञ्चमवर्ग द्वात्रिंशच्छेदनकानि,पठे चतुष्पष्टिः,नतः । शति द्वितीयो वर्गः १६ । षोडशानां वर्गों द्वशते षट्पञ्चा
पश्चमबर्गेण षष्ठे वर्गे गुणिते पावतिच्छेदनकानि प्राप्यन्ते । शदधिके इति तृतीयो वगः २५६ । योः शतपोः पट्रपश्चा
पवमेकराशिविनयजनमतिप्रकर्षाऽऽधानाय त्रिप्रकार आगमे शदधिकयोर्वगः पञ्चषष्टिसहस्राणि पश्च शतानि पत्रिंशद
परमगुरुभिरूपदर्शितः । तथा चानुयोगद्वारसूत्रम्धिकानि, एष चतुर्थो वर्गः ६५५३६ ।।
"जहमपदे मणुस्सा, संखजासंस्खेजा कोड।ओ। अस्य च राशेर्वर्ग. सार्द्धगाथया प्रोच्यते
तिजमलपयस्स उरि, तउ जमझपयस्स हेहा य ॥२॥ "चत्तारि य कोडिसया, अउतीसं च हॉति कोमीनो। अहव ण हो वग्गो, पंचमवम्गं पडुप्पन्नो। अउणावन्नं लक्खा, सत्तही चव य सहस्सा ॥१॥
अहय ण एणउयणगदाई य रासाइ" ॥२॥ दो य सया छन नया, पंचमवग्गो इमो विनिहिछो।" ये तु गजव्युत्क्रान्ताः समूचिमाश्चापर्याप्ताः, ते उभयेऽपि
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जीव
(१५३३) अन्निधानराजेन्द्रः।
जीव कदाचित् प्राप्यन्ते, कदाचिन्न । यतो गर्नव्युत्क्रान्तानामपर्याप्ता- तेषामनन्तलोकाऽऽकाशप्रदेशराशिप्रमाणत्वात् । तथा प्रमत्तानां जघन्यतः समयमात्रम, उत्कर्षता हादश मुहत्ती अन्तरं, | प्रमत्तसंयता जघन्यतोऽपि कोटिसहस्रपृथक्त्वपरिमाणाः प्रासंमूर्छिमानांत्वपर्याप्तानां जघन्यतः समयमात्रम,उत्कर्षतश्चतुर्वि- प्यन्ते, उत्कर्षताऽपि कोटिसहपृथक्त्वमानाः । इद पृथक्त्वं शतिरन्तर्मुहसाः, अपर्याप्ताश्चान्तर्मुहूर्त्तायुषः,अतोऽन्तर्मुहानन्त. हिप्रभृत्या नवकाटिसहनाणीति । तथा इतर अप्रमत्तसंयता: र सर्वेऽपि निर्लेपमपगच्छन्ति। तस्मादमा दयेऽप्यपर्याप्ताः क- स्तोकतराः प्रमत्तसंयतेच्या स्वल्पतराः॥११॥ दाचिद्भवन्ति, कदाचिन्न । यदा पुनरमी दयेऽपि अपर्याप्ता गर्भ
एगाई चउपएणा-समग उक्सामगा य नवसंता। व्युत्क्रान्ताश्च पर्याप्ताः समुदिताः सर्वोत्कर्षेण भवन्ति तदा तेषा
अचं पच्च सेढी-ऍ होति मम्मे वि संखजा ॥२॥ मिदं परिमाणग-" उक्कोसपए." इत्यादि । उत्कृष्टपदे सवोत्कृष्टसंमूचिमगर्भव्युत्क्रान्तसमुदायग्रहणरूपे, मनुजा मनु
होपशम का उपशान्ताश्च कदाचिद्भवन्ति, कदाचिन्न, उपव्या रूपाधिका एकेन रूपेण परमार्थतोऽसताऽपि कल्पिते
शमश्रेणेरन्तरस्य भावात् । ततश्च यदा अपशमका अपूर्वकनाधिकाः सन्त एकप्रादेशिकश्रेणिरूपे अगुलमा क्षत्र यः प्र
रणानिवृत्तिबादरसूक्ष्मसंपराया उपशान्ता उपशान्तमाहा दे२.राशिरसत्कल्पनया षट्पञ्चाशदधिकशतद्वयप्रमाणस्त
भवन्ति, तदा जघन्यत एको द्वौ त्रयो वा, उत्कर्षतचतुःपञ्चाप्रथमं वगमूलं पोशलक्षण तृतीगेन वर्गमूलन द्विकलकणेन
शत् । इदं प्रमाणं प्रवेशनकमधिकृत्योक्तम, एतावन्त पस्मिन् गुण्यते। तनो जाता द्वात्रिंशत् । ततस्तैरगुलप्रथमवर्गमूलप्रदे
समयेऽपूर्वकरणाऽऽदिषु गुणस्थानकेषु प्रत्येकमुपशमश्रेणिमाधिशैस्तृतीववगमूलप्रदेशैराहतैर्गुणितरसत्कल्पनया द्वात्रिंशत्सं.
कृत्य प्रविशन्तः प्राप्यन्ते इत्यर्थः। श्रेणरुपशमश्रंगरकां कालं स्यः प्रतरस्यैकां श्रेणि सकलामध्यपहरन्ति । इयमत्र भावना
प्रतीत्य पुनर्नवन्ति सर्वेऽपि संख्येयाः । इदमुक्तं भवति-सकएकप्रादेशिके श्रेणिरूपे अगुलमात्रे क्षेत्र या प्रदेशराशिस्तस्य
लेऽप्यन्तर्मुदत्तलक्षणे उपशमश्रेणिकालेऽन्येऽन्ये प्रविशन्तः सयत्प्रथमवर्गमूल तत्तनीयवर्गमूलगुणितं सत यावद्भवति, ता.
वेऽपि संख्ययाः प्राप्यन्त । पाह-नन्वन्तर्मुहूर्तप्रमाणेऽप्युपशमश्रेचन्मात्रं स्त्रएकं प्रत्येकं यदि सर्वेऽपि पर्याप्तापर्याप्तसंमूछिम
णिकाल असंख्येयाः समयाः प्राप्यन्त, तत्र यदि प्रतिसमयभेगजमनुच्या गृहन्ति, ततः सकलामपि श्रेणिमेकस्मिन्नेव समये
कैकः प्रविशति, तथाऽपि सकलं श्रेणिकालमधिकृत्यासंख्ययाः ते अपहरन्ति,परमकं मनुष्यरूपं न प्राप्यत; सोत्कर्षेऽपि तेषा
प्राप्नुवन्ति, किं पुनर्दित्रादेरारज्योत्कर्षतश्चतुष्पश्चाशतः प्रमेतावतामेव केवलवेदनोपलब्धत्वात्। तथा चोक्तमनुयोगद्वा
बेशने । अत्रोच्यते-स्यादियं कल्पना यदि सकलष्वपि श्र. रचणीं-"उक्कोसपए जे मणुस्सा हवंति, ते इक्कम्मि मणुय
णिसमयेषु प्रवेशो भवेत, यावता स एव न भवति, किंतु केषुव्ये परिकहे समाणे तेहिं मगुस्सेहिं सेढी अवहीर, तीस य
चिदेव समयेषु । अथैतदपि कथमवसीयते इति चेत? उच्यते-- सडीए कालखत्तेहिं अवहारो मग्गिजा कालो ताव असं.
होपशम श्रेणि प्रतिपद्यन्ते पर्याप्तगर्भजमनुष्या एत्र, न शेषजीवाः, नेजाहिं प्रोसप्पिणीहि नस्मप्पिणीहिं । मेोत्तनो अंगलपढमब
तेऽपि चारित्रिणः,न ये केचन, चारित्रिणश्चोत्कर्षतोऽपि कोटिग्गमूलं तइयवम्गमूलपमुप्पन। किं भणियं हो?, नीस सढीए
सहस्रपृथक्त्वमानाः, तेऽपि च न सर्वेऽपि श्रेणि प्रतिपद्यन्ते, अंगुलायए खेत्त जो य पपसरासी, तस्स ज पढमं वगमूलं
किं तु कतिपया एव, ततो ज्ञायते-न सर्वेष्वपि उपशमोगापपसरासिमाणं, तं तश्यवम्गमूलपएसरासिणा पदुप्पाज्ज,
समयेषु प्रवेशो भवति, किं तु कषनिदेव, तत्रावि कदाचित परुष्पाइए समाणे जो परसरासी भवर,एवइएदि खदि अवदी-
कुत्रचित् समये पश्चरशापि कर्म नुमरिधिकृत्योत्कर्षतश्चतु:रमाणी अवहारमाणी जावनिकाइ ताव मस्सा
पञ्चाशत् प्रविशन्तः प्राप्यन्ते, नाधिकाः, ततः सकोऽपि श्रेणि
वि अवहीरमाजानिदतिाप्राह-कहमेगसेटाप दह मेसेहि खंडेहिं अवहीरमाणी
काले संख्येया पत्र भवन्ति । तेऽपि च शनानि द्रष्टव्याः, न अवहीरमाणी असंखज्जा उस्सप्पिणीश्रोसप्पिणीहिं अवतीर?
सहस्राणि, तथा पूर्वसूरिनिरावेदितत्वात् ॥१२॥ मायरियो पाह-खत्तस्स सुहुमत्तगो। सुत्ते विमं भणियं
खवगा खीणाजोगी, एगाई जान होंति अट्ठसयं । "सुहमा य होड कालो, तत्तो सुहमयरं हवा खेत्तं । अंगुल से- श्रद्धाएँ सयपुहत्तं, कोमिपुहत्तं सजोगीभो ।। २३ । दीमेते,उसप्पिणियो असंखजा ॥१॥" इति । ततश्चदमायातम्
दहापि कपकाः कोणमोहा अयोगिनश्च कदाचिद्भवन्ति, ककानतोऽसंख्ययोत्सर्पिण्यवसर्पिणीसमयसमानाः, केत्रतः पुनः
दाचिन्न, कपकघेणेरयोगिकालस्य चान्तरसंभवात् । ततो यदा रेकस्यामेकप्रादेशिक्यां श्रेणावलमात्रकंत्रप्रदेशराशेः प्रथमबर्गमूलं तृतीयवर्गमूलगुणितं सत् यावत्प्रदेशपरिमाणं भवति,
कपका अपूर्वकरणानिवृत्तबादरसंपरायसूदमसंपरायाः, वीणाः सावन्मात्राणि खरामानि यावन्ति नवन्त्येकखामहीनानि, तावन्तः
कोणमोहा अयोगिनोऽयोगिकेवलिनश्च भवन्ति. तदा जघन्यसर्वोत्कृष्टपदे मनुष्या, तदेवमपर्याप्तसदमकॉन्डयाऽऽदिभदेन
त एका द्वौ वा, उत्कर्षतोऽष्टशतम् अष्टाधिकशतप्रमाणाः । इद
मपि प्रमाणं प्रवेशनमधिकृत्योक्त.मवसेयम् । एतावन्त एकबतुर्दशविधानामपि जीवानां परिमाणमुक्तम् ॥ २०॥
स्मिन्समये कपकत्वे, कोणमोहत्ये, अयोगित्वे चोत्कर्षतः प्रवि. संप्रति गुणस्थानकभेदेन चतुर्दशविधानां परिमाणमाह
शन्तीत्यर्थः । (अद्धार सयपुहत्तं त्ति ) अद्धा कपकश्रेणिकासासायणाइ चनरो, होति अमंखा आणतया मिच्छा।
लोऽयोगिकालश्च । तस्यामद्धायां सकलायामपि प्रत्येकमन्ये. कोमिसहस्मपुहत्तं, पमत्त इयरे उ थोवथरा ॥१॥ । ऽन्ये प्रविशन्तः सर्वसंख्यया शतसंख्याः प्राप्यन्ते । श्यमत्र भासास्वादनाऽऽदयः सास्वादनसम्यग्दृष्टिसम्यग्मिध्यादृश्यविर- बना सकनेऽपि कंपकश्रेणिकाले उन्तर्मुहर्नप्रमाणे पञ्चदशतदेशावरतरूपाश्ववारः प्रत्येकन संख्याताः; सास्वादनादीनां स्वपि कर्मभूमिध्वन्येऽन्ये प्रविशन्तो यदि सर्वेऽपि संख्यायन्ते, चतुणामपि प्रत्येकमुत्कर्षपद केवपल्योपमासंख्येयभागवर्तिप्रदे- तथाऽपरकर्ष तोऽपि शतपृथक्त्वसंख्या एव लज्यन्ते,नाधिकाः । शराशिप्रमाणस्वात् । तथा अनन्ता अनन्तसंसया मिथ्यारष्टयः । एवमयोगिकेवनिनोऽपि नावनीयाः। (कोडिपुतं सजागीमा
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जीव
(२५३३) अन्निधानराजेन्धः।
जीव
त्ति) सयोगिनः सयोगिकेवलिनः पुनः काटिपृथक्त्वं कोटि- नंते, तृतीये मन्थनसमये पुनरमंख्ययनागषु, चतुर्थं सर्वलोके । पृथकवसंख्याः । इह सयोगिकेवलिनः सदैव भवन्ति. ध्रुवत्वा- । तथा चोक्तम-चतुर्थे लोकपुरणमष्टम संहार इति । "होच सेषाम, तेच जघन्यपदेऽपि कोटिपथकत्वमाना, उत्कर्षतोऽपि | सजोगि वि समुग्धाप" इत्युक्तम् ॥२५॥ कोटिपृथक्त्वमाना एव । केवमुत्कर्षपदे कोटिपृथक्त्वं वृहत्त- ततः समुद्धातप्रस्तावादशेषान् समुद्धातान्प्ररूपयतिग्मबसयम् ॥१३॥ तदेवमुक्तं.ऽव्यप्रमाणम् ।
वेयणकसायमारण-वेउब्धियते उहारकवलिया। साम्प्रतं केवप्रमाणमाह
सग पण चउ तिनि कमा,मासुरनेर यतिरियाणं ॥२६॥ अप्पजत्ता दोनि नि, सुहमा एगिदिया जए सव्वे ।
समुद्धातशब्दः पाश्चात्योऽग्रेतनगाथागतो वा प्रत्यकमभिससेसा य अमखज्जा, बायरपत्रणा असंखस ॥ २४॥ बध्यते । तद्यथा-वेदनासमुद्धातः, कषायसमुद्धातः, मारणसमु. द्ववेऽप्यपर्याप्ताः-बभ्यपर्याप्ताः करणापर्याप्तकाचा अपिशब्द- द्वातः, वैक्रियसमुद्धातः,तेजससमुद्धानः. आहारकसमुद्रातः, कस्यानुक्तार्धसमुच्चायकत्वात् पर्याप्ताश्च । सूक्ष्मा एकछियाः पृ. बलिसमुद्धातश्च । तत्र वेदनया समद्धानो बदनाममुद्धातः, स थिव्यम्बुतेजोवायुवनस्पतयः प्रत्येक सऽपि सर्वस्मिन्नपि जगति चासातवेदनीयकोऽश्रयः। कपावण कषायोदयन समद्धात: भवन्ति,"सुहमा उसबोए" इति वचनप्रामा एयात् । माह-सू
कषायसमद्धातः,सच कषायचारित्रमोहनीयकर्माऽऽश्रयः। तथा दमाःसर्वेऽपि पृथिव्यादयः पर्याप्ताऽऽदिभेदनिका प्रत्येकं सर्वतो. मरणे मरणकाले भयो मारणः, मारणश्चासी समुदातश्च मा. कव्यापिन इत्यासवानीटासिारः, ततः किममिह मुख्यया रणसमुद्धातः, सोऽन्तर्मुहूर्तावशेषायुःकर्मविषयः । तथा वैक्रिये वृत्या अपर्याप्तग्रहणं कृतमपिशब्दात्तु पर्याप्तग्रहणमिति उच्यते- प्रारभ्यमाणे समुद्धातो क्रियसमुद्धातः, स च वैक्रियशरीरनापर्याप्तापेक्रया स्तोकानामप्यपर्याप्तानां स्वरूपनोऽनिबाहुख्यख्या- मकमविषयः' तथा तेजसि विषये भवस्तैजसः, स चासो समु. पनार्धमानथाहि-यद्यपि अपर्याप्तेच्या संख्येयगुणहीनाः पी- द्वातश्च तैजससमुद्धातः स च तेजोलेश्याविनिर्गमकानभावी तैशास्तथाऽपि ते सर्वस्मिन्नपि जगति वर्तन्ते, इत्युच्यमाने निः- जसशरारनामकर्माऽऽश्रयः । आढारके प्रारज्यमाणे समुद्धात संशयमनिबाहुल्यं तेषां स्यापितं भवति । अथ कथं पर्याप्ता | आहारकसमुद्धातः, स चाऽऽहारकशरीरनामकर्मविषयः । केअपर्याप्तापक्कया संख्येयगुणहीना.? उच्यते-प्रज्ञापनायामपर्या- वमिन्यन्तमुहर्तभाविपरमपदे भवः समुद्धातः केवलिसमदासापकया पर्याप्तानां संख्येयगुणतयाऽभिधानात् । तथा च तद्- तः। अथ समुद्घात इति कः शब्दार्थः ?। उच्यतेन्थ:-"सम्वत्योवा सुहुमा अपज्जत्ता पजत्ता सखजगण त्ति।" | समित्य कीभावः, प्राबल्य, एकीभावेन प्रायल्यन घातः मम्अन्यत्राप्युक्तम्-"जीवाणमपज्जत्ता,बहुतरगा वायराण बिन्नेया। दृघातः। केन सह एकीभावगमनम? इति चत् । उच्यत-अर्थामुटुमाण अपजसा, ओहेण उ केवन। विति ॥१॥" शेषास्तु हेदनादिभिः। तथाहि-बदाश्रात्मा वेदनाऽऽदिसमुद्घातगतो शेषतः पुनः पर्याप्तापर्याप्नेदभिन्ना बादरैकेन्द्रियाः पृथिव्य- भवति तदा वंदनाऽऽद्यनुभवज्ञानपरिणत एव भवति,नान्यज्ञानम्बुन जावनस्पनयश्च प्रत्येकं लोकस्यासंख्ययतमे भागेऽवति- परिणतः प्राबल्यन घातः कथम, इति चेत् । उच्यत-इह वेद. टन्ते । ( बायरपवणा असंखेसु त्ति) बादरपवना बादरवायु- | नाऽऽदिसमुद्रातपरिगासो बहून् वेदनीयाऽऽदिकर्मप्रदेशान् कायिकाः पर्याप्ता अपर्याप्ताश्च प्रत्येक लोकस्यासंन्ययेषु भा. कालान्तरानुभवनयोग्यान उदीरणाकरण नाकप्योदवावक्षिकायां गेषु वर्तन्ते । लोकस्य हि यत्किमपि सुपिर, तत्र सर्वत्रापि प्रक्षयानुभूय च निजरयति, भात्मप्रदेशैः सह संश्लिष्टान् शावायवः प्रसत, यत्पुनरतिनिधिमानचितावयवतया शुषि- तयतीत्यर्थः। तत्र वेदनासमुद्घातगत आत्मा वेदनीय पुलिपरहीनकनकगिरिमध्यभागादि, तत्र न. तच सकतमपि लोक- शातं करोति । तथाहि-वेदनाकरालितो जीवः स्वप्रदेशान. स्यासंख्येयभागमात्र, तत एकमसंख्येयभाग मुक्त्वा शेषषु नन्तानन्तकर्मस्कन्धोगितान शरीरादहिरपि विक्षिपति । तैश्व सर्वेश्वयसंगययेषु भागेषु वायवो वर्तन्त इति ॥ २४॥ प्रदेशेवंदनजठराऽऽदिरन्ध्राणि कर्णस्कन्धाऽऽद्यन्तरालानि चापू. सासायणाइ सन्चें, लोयस्म असंखयम्मि नागम्मि ।
र्याऽऽयामता विस्तरतश्च शरीरमात्र केत्रमभिव्याप्यान्तर्मुहले
यावदवनिष्ठते । तस्मिश्चान्तर्मुहूर्ते प्रभूतासातवेदनीयकर्मपुमिच्छा न सबझोए, होइ सजोगि वि समुग्याए ॥२५॥
फल परिशातं करोति । कपायसमुद्घातसमुकता कपायाख्यचासास्वादनाऽऽदयः सास्वादनसम्यम्दएिसम्यग्मिथ्यारष्ट्यादयो रित्रमाहनीयकर्मपुफलपरिशातं करोति । तथाहि-कषायोदयमिथ्याष्टिसयागिकवलिवर्जाः प्रत्यक सर्वेऽपि लोकस्यासंख्ये. समाकुलो जीवः स्वप्रदेशान् बहिर्विक्तिप्य तैः प्रदेशवंदनादरायतामागेऽवतिष्ठन्ते,सम्याग्मध्यादृष्ट्यादयो हि संक्षिपञ्चेन्धि- दिरन्ध्राणि कर्णस्कन्धाऽऽद्यन्तरालानि चापूर्याऽऽयामविस्तयेव प्राप्यन्तेसास्वादनास्तु केचित्स्वल्पाः करणापर्याप्तवा- | राज्यां दहमात्रं केत्रमभिव्याप्य वक्तते, तथाभूतश्च प्रभूतक'दरकन्छियद्वित्रिचतुरिन्न्यिासझिपञ्चेन्जियप्वपित च संशिप- पायकर्मफलपरिशातं करोति । एवं मारणसमुद्धातगत श्रायु:चनियादयः स्वरूपत्वाल्लोकस्यासंख्येयभाग वर्तन्त इति। पल शात, बैकियसमुद्धातगतः पुनर्जीवः स्वप्रदेशान् शगीराद सास्वादनाऽऽदयो लोकासंख्येयभागवर्तिन उक्ताः। तथा मिथ्या- | बहिनिष्कास्य शरीरविष्कम्भबाहल्यमानमायामतः संख्येययोदृष्टयः सर्वलोक सर्वस्मिन्नपि लोके जवन्ति। सूभन्छिया जनप्रमाणं दए निसृजात,निसृज्य च यथास्थलान् क्रियश'दि सकललोकव्यापिनः, ते च मिथ्यादृष्टय इति। तथा सयो- रीरनामकर्मालान् प्रावत शातयति । तथा चोरम-"वेडाचग्यपि सयोगिकवल्यपि, श्रास्तां मिथ्यादृष्टय इत्यपिशब्दा. यस मुग्धापण समोहन्नइ । समोहाणता संखेजाई जोयणाई 'र्थः । समुद्घाने समुद्घातगतः सन् सर्वलोक भवांत सक- दंग निसिर। नासरित्ता अहावायर पुग्गले पारसाई" इति। ललोकव्यापी भवति । तथाहि-समुद्घातं कुर्वन् प्रथमे दाम तैजसाऽऽहारकसमुद्घातौ वैक्रियसमुद्यात बदगम्तव्यौ । समय, द्वितीये च कपाटसमय लोकस्यासंख्ययतमे नागे ब. कंवल तेजससमुद्घातगतस्तैजसशरीरनामकर्मपुजलपरि--
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जीव
शातम. आहारकसमुद्घात गतस्त्वाद्दारकशरीरनामपुद्गल परि
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शातं करोति, आदारकसमुद्घातश्चाऽऽहारकशरीर प्रारम्भका वेदितव्यः केवलसतसमुद्धस्तु केवली शुभाशुभनामोनी परिशातं करोति केप विशेष रुप साना प्रत्येक इर्तिका समुद्घातः पुनरसामयिका उ पनायाम् - " वेयणासमुग्धापणं नंते ! कइ समय पक्षले ? | गोयमा ! श्रसंखज्जसमए तो मुहुलिए पराणत्ते । एवं जाव आहारसमुग्धाए । केवलिसमुग्धारणं जंत ! कइ समय पन्नन्ते १। गोयमा ! असम पत्ते " इति। एतानेव समुद्घातान् गतिषु वितयति""मनुष्यती सप्तापि समु दूधाता भवन्ति, मनुष्येषु सर्वभावसंभवात् । सुरगतावाद्याः पञ्च समुद्राता आहारक समुद्घातकेप लि समुदायो भयात्। पुनरेषु चतुर्दशोधनसकिद मध्य संजवात् । निरयगतावाद्याश्चत्वारः समृद्धाताः, तत्र तेजससमुद्घातस्याप्यसंभवात तदसंप्रवश्च नैरयिकाणां तेजां
वीि
पवनवजांनां शेषजीवानामाद्यास्त्रयः समुद्घाताः तेषां व क्रियलब्धेरप्य संभवात् ॥ २५ ॥
वैकियमत्वंहिपनिर्विशेषमाह पंचिदियतिरियाणं, देवाण व होंति पंच सणणं । साऊ पदमा चउरो समुदाया ।। २६ ।। पञ्चेन्द्रियतिरश्चां संझिनां देवानामिव प्रथमाः पञ्च समुद्धा
य
1
बेदनाकामारयकरूपा
( १५३४ )
निधानराजेन्द्रः ।
प्रथमा
॥ २६ ॥ गतं क्षेत्रद्वारम् ।
समुद्घाताः
अधुना स्पर्शनाधारमाह
चन्दसविद्यावि जीवा, समुघाणं फुसति सव्वजगं । रिमेटी ई एवं मिच्छा मनोगंीया ॥ २७ ॥ चतुर्दशविधा अपि अप
देशप्रकाश अपि जगद समुद्घा मरणसमुद्धमभावनाक न्द्रियाः पर्याप्ता अपर्याप्तश्च प्रत्येकं सकलओकवर्त्तिनः, ततस्ते सिलोपन किं पुनर कसमुद्घातयोगतः ? | बादरापर्याप्त केन्द्रियाऽऽच्यः स्वस्थानम. चित्य प्रत्येक लेक त्य पुनः सकललोक स्पर्शिनोऽपि नवन्ति । तथाहिह-समुद्धात इह मरणसमुद्वात उच्यते, मरणसमुद्घान समुरुतस्तु जीवः स्वशरीरविनादयं अन्यतो देष्वासंध्यागमात्र
म.
उत्कर्षेण संख्येयानि योजनानि स्वप्रदेशदरमं निसृजति । नि सृज्य च यत्र स्थावेऽग्रेतनज्ञवे समुत्पत्स्यते तत्र स्थाने तं स्वप्रदेशद एक प्रक्षिपति । तत्रोत्पत्तिस्थानं ऋजुगत्या एकेन स मयेन स्वप्रदेश रामः प्राप्नोति । विग्रहगत्या तूत्कर्षतश्चतुर्थे स मये, यतो मरणसमुद्घानमधिकृत्य नानाजीवापका बादराप मस सतः प्राप्यन्ते इति इति
जीव
सूक्ष्मै केन्द्रियलका ऋजुश्रेण्या ऋजुगत्या । वाशब्दः पक्कान्तरसूचने न केवलं समुद्घातेन ऋजुण्या वा इत्यर्थः सर्व जगत् स्पृशन्ति । तथाहि अधोलोकान्ना अन्नादृलोकान्ते उत्पद्यमानाशापि रज्जूः स्पृशन्ति एवं सपदि नानीम मायाः सफललोकस्पर्शिनः । संप्रति गुणज्ञान के स्पर्शनां चिन्तयति - ( एवं मिच्छा सजोगीय ति ) एवं सर्वजगत् स्पर्शितया मिध्यादृयः सोनिया सूक्ष्मैकेन्द्रियाइच सकललोकस्पर्शिनः, सयोगिकंबलिनः पुनः समुद्घातगत समस् दर्शिताः ॥ २७ ॥
शेषगुणस्थानकेषु स्पर्शनामाद
मीसा अजया अड अरु, वारस सामायणा व देसजई । सग सेसा उसंती, रज्जू खीणा || २० ||
मिश्राः सम्यग्मिथ्यादृष्टयः, अयता श्रविरतसम्यग्दृष्टयः, प्रत्येकमष्टाष्टौ रज्जूः स्पृशन्ति, द्वादश पुनः सास्वादनाः, देशयत यो देशविरताः षट् । शेष उक्तव्यतिरिक्ताः कीणमोद वजः प्रमत्ताऽऽद्याः प्रत्येकं सप्त सप्त रज्जूः स्पृशन्ति । कीणाः क्षीणमोहाः पुनरसंस्थेयांशं रज्जोरसंख्येयं नागम् ॥ २८ ॥
एनामेव गाथां स्वयमेव नात्रयतिसहसारंतियदेवा, नारयणे हे जति तत्यजुवं । निजता देवण इयरमुरा ||२५|| इह सहस्राराम्तकाः सहस्रारपर्यवसाना देवा नारकस्नेदेन पूर्वसङ्गति न तस्य वेदगोपशमनार्थम उपलचणमे तत् पूर्ववैरिकस्य नारकस्य वेदनोदारणार्थे वा तृतीयां रवि निदेषाः स्नेहाssदिभावाः स्नेहाऽऽदिप्रयोजनेनापि नरकं न गच्छन्तीति सहस्वारान्तग्रहणम् । तथाऽच्युतदेवेन जन्मान्तर स्नेह तस्तद्भवस्त्रतो वा, इतरे सुराः शेवसुरा श्रध्युतदेवलोकं यावन्नायन्ते । ततः सम्यग्मध्यादृष्टीनामचिरतसम्यग्दृष्टीनां च प्रत्येकमष्टाष्टरज्जुस्पर्शना घटते । इयमत्र भावना - इह यदा सम्यग्मिथ्याहपदमा
देवेनाच्युतदेवलकं स्नेहाजायते, तदा तस्य परज्जुस्पर्शना भवति,"ब अच्चुर" इति वचनात् । तथा कश्चिदमरः सदारकल्पवासीसम्म पूर्वसङ्गतिकस्या पूर्ववैरिकस्य बेदनीदीरणाय या बालुकामानानामपि नरकपृथिवीमुपगच्छति, तदा भवनपतिनिवासस्याधस्तादन्यदपि यमधिकं प्राप्यते इति पूर रज्जुद्वयेन सहिता अष्टौ भवन्ति । एवं नानाजीवापेक्षया सम्यग्विध्याय अनुपका प्राध्याको अपि सहस्रारनिवासी देवः सम्मा रणवशात् तृतीयां नरकजुवं गच्छन् सप्त रज्जूः स्पृशति, म एव सदरदेव यादवल नीयते, तदा श्रन्यामध्ये कामधिकां रज्जुं स्पृशतीत्यरज्जस्पर्शनातिसम्यग्दृनामप्यस्पर्शना भावनीया । वस्यविरत सभ्य स्वतमनाः कामकुत स्तेषामन्यथाऽपि कथं न जावना क्रियते ? । उच्यते अन्यथा तेषामष्ट्ररज्जुस्पर्शनाया असंभवात् । तथाहि तिर्यद मनुष्यो
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जीव
(१५३५) अभिधानराजन्छ।
जीव ससम्यक्त्वो द्वितीयाऽऽदिषु नरकपृथिवीषुम गच्छतिनाऽपितत सप्तरज्जुस्पर्शिनः,ह आपकश्रेण्याऽऽरूढा अपूर्वकरणाऽऽदयो न प्रागच्छति, ततोऽनुसरसुरभवं गच्छता, ततो वा च्युत्वा मनु- नियन्ते, न च मारणसमुद्घातमारजन्ते,ततस्तेषामसंख्येयभाज्यभवमागच्यतः सर्वोत्कृष्टा सप्तरज्जुम्पर्शना अवाच्यते, नाधि- गमात्रैव स्पर्शना घटते, नाधिका। अत एव कीणमोहस्याका काप्यन्यत्र, ततोऽविरतसम्यग्दृष्टयोऽपि मिथ्याष्टि- संध्ययनागमात्रस्पर्शना प्रागच्यधायि,ततोऽपूर्वकरणाऽऽदानापदविशेषणाएरज्जुस्पर्शकाः प्रतिपत्तव्याः, न प्रकारान्तरेण ।। मुपशमश्रेणिमधिकृत्य सप्तरज्जुस्पर्शना प्रत्यपादि। पर पाहअपरे पुनरादुः-अविरतसम्यग्दृष्टीनामुत्कर्षतो नवरज्जुस्पर्शना | ननु मनुष्यानवायुषः कय,परभवायुष उदये परलोकगमनं,नदानी कथमिति चत् । उच्यते-ह तन्मतेन कायिकसम्यग्दृष्टयः चाऽविरतता, नोपशमकत्वादि, तत्कथमपूर्वकरणाऽऽदीनां स. तृतीयस्याममि नरकपृथिव्यां गच्छन्ति, ततोऽनुसरसुरजवं तरज्जुस्पर्शनेति । नैष दोषः। इस द्विविधा गतिः-कन्दुकगनिः, गध्यतां ततो वा व्युत्वा मनुष्यभवमागच्चतां सप्तरज्जुस्प- इलिकागतिश्च । तत्र कन्दुकस्येव गतिः कन्दुकगतिः। किमुक्तं शना । तृतीयस्यां पृथिव्यामुत्पद्यमानानां ततो था उद्धृत्य मनु- भवति?-यथा कन्दुकः स्वप्रदेशसंपिपिमत ऊर्द्ध गति, प्यनवमागच्यतां द्विरज्जुस्पर्शनेति सामान्यतोऽविरतसम्यम्ह- तथा जीवोऽपि कश्चित्परजवायुष उदये परलोकं गच्चन् स्व. धीनां नवरज्जुस्पर्शना । व्याख्याप्रज्ञप्याद्यभिप्रायेण पुनरमीषां प्रदेशानेकत्र संपिएज्य गच्छति । तथा इलिकाया व गतिद्वादशरज्जुस्पर्शनाऽपि प्राप्यते। तथा हि-मनुत्तरसुरजवंगच्चतां, रिलिकागतिः, यथा इलिका पुच्छदेशमपरित्यजती मुखेनाततो वाच्यत्वा मनुष्य नवमागच्चतां सप्तरज्जुस्पर्शना । तथा नर- ग्रेतनं स्थानं शरीरप्रसारणन संस्पृश्य ततः संहरति, तिरश्चामन्यतरोऽविरतसम्यग्दृष्टिः पूर्वबकासुः कार्यापशमिक एवं जीवोऽपि कश्चित्स्वभवान्तकाले स्वप्रदेशैरुत्पत्तिस्थान सम्यक्त्वेन गृहीतेन व्याख्यामप्याद्यभिप्रायतः षष्टनरक- संस्पृश्य परभवायुःप्रथमसमये शरीरं परित्यजति । तत पृथिव्यामपि नारकत्वेनोत्पद्यते । ततो वा उद्धृत्य कायोपशामक इलिकागतिमधिकृत्यापूर्वकरणाऽऽदीनां सप्तरज्जुस्पर्शना न विसम्यक्त्ववानत्र मनुष्येषु मध्ये समुत्पद्यते।ततोऽविरतसम्यम्ह हन्यते । तथा ऋजगत्यैव (पुढेसजया इति) अत्र पुंग्रहणेन ष्टिः षष्ठनरकपाधवीं गच्छन् पश्चरज्जूः स्पृशति । ततः सा. मनुष्यग्रहणम् । ततोऽयमर्थः-मनुष्यरूपा देशयता देशविरता मान्यतोऽविरतसम्यम्दृष्टानां सर्वसंख्यया द्वादशज्जुस्पर्शना । द्वादशेऽच्युतानिधाने देवलोक गच्छन्ति उत्पद्यन्ते, ततस्तेषां सप्तमपृथिव्यां पुनः सम्यक्त्वसहितस्य गमनमागमनं या प्रक- पर रज्जुस्पर्शना, तियालोकमध्यादच्युतदेवलोकस्य परज्जप्त्यामपि निषिकं, ततः पाठनरकपृथिवीग्रहणम् ॥ २९ ॥ मानत्वात् । तदेवमुक्तं स्पर्शनाद्वारम् ॥ ३१ ॥ पं० सं०२द्वार ।
सम्प्रति सास्वादनानां द्वादशरज्जुम्पर्शनां भावयति- (एषां नवस्थितिकालः 'भवहिरकाल' शब्दे वक्ष्यते । गुणबढाए नेइओ, सासणनावेण एइ तिरिमणए ।
स्थानविभागेन कालमानं 'गुणहाण' शन्दे तृतीयजागे ए१५ लोगतनिक्खुडमुं, जं तसमासायणगुणत्या ॥ ३०॥
पृष्ठे गतम् )
पुढवी य आऊ अगणी य वाऊ, षष्ठमरकपृथिव्यां वर्तमानः कश्चिन्नारकः स्वभवान्ते औपशमिकसम्यक्त्वमवाप्य सास्वादननावं गतः सन् कानं
तणरुखवीया य तसा य पाणा। करोति, कालं च कृत्वा तिरकु मनुष्येषु या मध्ये समुत्प
जे अंमजा जे य जरानपाणा, पते, ततस्तस्य पश्चरज्जुम्पर्शना नवति । इह सप्तमाधवी- संसयजा जे रमजानिहाणा ॥१॥ नारका सास्वादनभावं परित्यज्यैव तिर्यवत्पद्यते, इति षष्ठ
पृथिवीकायिकाः सत्त्वाः, चकारः स्वगतभेदसंसूचनार्थः : स. पृथिवीग्रहणम् । तथा तियग्लोकादपि कचित्तिर्यश्च। मनु
चाय भेद:-पृधियोकायिकाः सुक्ष्मा बादराश्च. ते च प्रत्येक ध्या वा सास्वादनगुणस्थाः सास्वादनसम्यग्दृष्टिगुण स्थानवर्ति
पर्याप्तका पर्याप्तकले.देन द्विधा, एचमकायिका अपि । तथाऽग्निनः सन्त नपरि लोकान्तनिष्कुटेषु प्रसनाडीपर्यन्तचर्ति लोका
कायिका वायुकायिकाश्च एव्याः। वनस्पतिकायिकान् भेदेन द. न्तप्रदेशत्पद्यन्ते, ततस्तेषां सप्तरज्जुस्पर्शना । ततः सामान्य
शयति-तृणानि कुशाऽऽदीनि, वृताश्चाश्वत्थाऽऽदयो,बीजानि शातः सास्वादनगुणस्थानस्थानां सर्वसंख्यया द्वादशरज्जुस्प
व्यादीनि । एवं बनी गुरुमाऽऽदयोऽपि वनस्पतिभेदा यात्रर्शना समुत्पद्यते । न होकं जीवमधिकृत्येयं स्पर्शना चि
स्थतीति प्रसाःद्वीन्द्रियाऽऽदयःप्राणाः प्राणिनः। ये चा एमाजानहाते, कि वेक गुणस्थानं, ततो न कश्चिदोषः । इह प्रायः सा
ता आमजा:-शकुनिसरीमृपाऽऽदयः, ये न जरायुजा जम्बावेस्वादननावमापन्नानामधोगतिनोंपजायते, ततो द्वादशरज्जुस्पशना प्रतिपादिता। यदि पुनरधोगतिः सास्वादनानां नवेत
टिताः ममुत्पद्यन्ते ने च गौमहिन्यजाविकमनुष्याऽऽदयः। तथा ततोऽधोलोकमिष्कुटादिष्वपि तेषामुत्पादसंभवाचतुर्दशर
संस्वेदाजाता: संस्खेदजा:-यूकामत्कुणकृम्यादयः। य च रसजान्जुस्पशनाऽभिधीयते ॥३०॥
निधानाः दधिसौवीरकाऽऽदिपु सतपदमसनिभा इति ॥ १॥ संप्रत्यपूर्वकरणाऽऽदीनां म्पशनामनिधिसुराह
सूत्र०१०७.। उवसामग नवसंता, सव्वत्थे अप्पमत्तविरया य ।
द्वात्रिंशद्भदा जीवा यधागच्छति रिउगई, पुंदेसजया उ वारसमे ॥ ३१॥
एमविद विह-तिविहा-चनहापंचविहाउनिहा जीवा। उपशमका न पशमश्रेण्याऽऽरुढा अर्वकरणानिवृत्तबादरमुक्ष्म- चेयण तस श्यरेहिं, वेयगकरणकाएहि ॥ २॥ संपरायाः, उपशान्ता नपशान्नमाहाः, तथा अप्रमत्तांवरना अ. एकविधद्विविधत्रिविधवतु पञ्चविधपडिया शत । एका प्रमत्तसंयताः, चशब्दात्प्रमत्तजावाभिमखाः, मयार्थ सर्वधि-विधा विधानं येषां ते एकविधाः, एवं सर्वत्र एकविधाश्च द्वि. सिद्धे महाविमाने, ऋजुगत्या, गच्छन्ति उत्पद्यन्ते । ततस्ता विधाथ त्रिविधाश्व चतुझी च पञ्चावधश्च पविधा:- एकविध
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(१५३६) जीव अभिधानराजेन्द्रः ।
जीव द्विवित्रिविधचतुर्धापञ्चविधषद्विधाः । दीघता पुनः प्राकृतप्र. कपर्याप्तकभेदतश्चतुर्दा नवति । एवमुन काऽऽनिवप्यायोज्यम्। भवा। जीनाः प्राणिनःसर्वेऽपि संसारिकसस्था: "यथोदेशं तथा पञ्चेजियाः पुनःसझ्यसंकिनेदतो विधा। पुनर कैकाः पयांप्तकनिर्देशः" इति न्यायात्पुननिर्देशमाह-चेतना प्रसेतरैः, वेदाश्च, भेदतो जिद्यमानाचतुर्का जवति । बनस्पतिप्रत्येकाः पदावगतयश्च, करणानि च, कायाश्च वेदगतिकरणकायास्तैः वेद- यवे पदसमुदायोपचारात्, पूर्वापरनिपाताच प्रत्यकवनस्पगतिकरण कायैः करण नुतैरते एकविधाऽऽदयो जीवास्तदा- तयः, विकला विकलेजियाः, तत्र विकलान्यपरिपूर्णानि इन्छिदयो भवन्तीति गम्यते । तत्रैकविधाश्चतनामाश्रित्य यतः याणि येषां ते विकन्डिया:-द्वीन्छियत्रीन्द्रयचतुरिन्षियाः, सर्वेऽपि संसारिणो, मुक्ताश्च न व्यभिचरम्ति, एकन्छियवनस्प- किंविधाः?, द्विविधाः पर्याप्तकापर्याप्तकभदाः,तथा चतुर्द्विकमीत्यादीनां तथैवोपलब्धेः । तथा हि
लनादष्टौ भवन्ति, पुनश्चतुर्विशतिमीलनाश्च सचेऽपि द्वात्रिंश"कालफलदाणाहा-रगहणदोहलयरोगपमियारे।
द्विधा जवन्ति, इति गम्यत इति गाथार्थः ।।५।। दशं०४ तत्त्व । नाऊण जाण सम्वे. नारि ब्व सचेयणा तरुणा ॥१॥"
त्रिषष्टयधिकपञ्चशतभदा जीवानामफत्रस्य दानं फवदानं,काले फलदानं कासफदानम् । आहार- अम्मापिउणो सरिसा, सव्वं वि खमंतु मे जीवा । (६०) स्य ग्रहणमाहारग्रहणम,कासफल दानं च पाहारग्रहणं च दोह- (अम्मापिउणो सरिल ति) मातापितसमानाः, यथा माताढकश्च रोगश्च प्रतीकारश्च कानफलदानाहारग्रहणदोहदक- पित्रारुपरि निस्कृत्रिमस्नेहो भवति, तद्वद मम सर्वेऽपि जीवाः रोगपतीकारास्तान्, कि, ज्ञात्वा अवबुद्ध्य, जानीहि सऽपि पृथिव्यप्तेजावायुसाधारणवनस्पतयः सूदमवादरपर्याप्तापर्यानारीवत्सचेतनास्तरवो वृताः । यथाहि नार) काझफसदानाss. प्तभदन चतुर्विधाः, सर्वमीलने विंशनिधाः, प्रत्यकवनस्पतिहिहारग्रहणप्रवणा दोहदाऽऽदिधर्मयुक्ता सती सचेतना, एवं त्रिचतुरिन्छियाः पर्याप्तापर्याप्तभेदेनाष्टधाः,तिर्यकपञ्चधिया जवृता अपि तकर्मयुक्तत्वेन सचेतना इति गाथार्थः॥१॥ लचरस्थलचरखचरपरिसर्पनुजपरिसपीः पश्चापि मझ्यसशिद्वान्छियाऽऽदोनां पुनः स्पष्टैव सा, गत्यादिविशिष्टचेष्टाववा- पर्याप्तापाताऽऽदीनां विंशतिसंख्याः,नारकाः पृथिवीभेदेन सप्त, तेषाम् ।। द्विविधाः पुनस्त्रसस्थावरभेदाभ्याम् । ते त्रसा पर्याप्तापर्याप्तभेदेन चतुर्दशधाः। तथा कर्माकम्मभूमिजान्तरद्वीद्वान्छियत्रीष्यिचतुरिन्द्रियपञ्चेन्द्रियाः, स्थावराः पृधिव्युदक.
पमनुजाः पञ्चदशत्रिंशषट्पञ्चाशत्संख्याः, पाप्तापर्याप्तभेदतो तेजावायुवनस्पतिभेदात्पश्चधा । त्रैविध्यं वानपुंसकत्वादागत.
द्विरु सरशनध्यमानाः। असांकमनुजा एतद्द्वीपान्तादिभवा - म। चतुद्धा चातुविध्यं नारकतिर्यनरामरापंक्षया । पञ्चविधाः ।
पर्याप्ता पकोत्तरशतमानाः। नवनपतयो दशधा पर्याप्तापर्याप्त पुनरिन्छियाश्रिताः । पक्विधा पृथिव्यप्रेजोवायुवनम्पतित्रस
रूपतो विंशतिमानाः। व्यन्तराः पाशधाः पयांप्तापर्याप्तत्वन द्वा. कायभेदादिति गाथार्थः । एकस्मादारभ्य यावता द्विधास्ताव
त्रिंशद् भेदाः। जम्भका अपि दश पर्याप्तादिनाविंशतिधाः। ज्यो. त्प्रतिपादितम ॥२॥
तिकाः पश्च गतिस्थितिभेदतो दश पर्याप्तापर्याप्तत्वादिना वि.
शतिधाः। वैमानिका वादा, नव.पश्चाऽपि पर्याप्तापर्याप्तयोगइदानीं तेपामेव नवविधत्वमाह
तः पश्चाहान्मानाः। किल्विपिकाविविधाः पर्याप्तादिना पोढाः। पुढवी भाऊ तेऊ, वाउ वाणस्सइ तहेव वेइंद।।
लोकान्तिका नव पूर्ववदष्टादशधाः। तदेवं सर्वजावाविषय. तेइंदिय-चउरिदिय-पंचिंदियभेय ओ नवहा ॥३॥ धिकपञ्चशतमानाः, कमन्तु कमां कुर्वन्तु म मम पते समस्ता सुगमा चेयम् ।
अपि जीवा इत्यर्थः । संथा। पुनश्चतुर्दश विधत्वमाह
नारकाऽऽदिजीवानाश्रित्य स्थित्यादिपगिदिय मुहमियग, मनियर पणिदिया य सविनिचळ।।
वितिनस्तासाऽऽहारे, किं वाऽऽहारेइ सन प्रो वा वि। पजत्तापजत्तग-जेएणं चनद्दस ग्गामा || ४॥
कइ जागं सव्वाणि च, कोस बनुन्जो परिणमंति॥१॥ एकेन्द्रियाः पृथिव्यतेजोवायुवनस्पतयः, ते च सूमंतराः। तत्र |
('आहार' शब्दे द्वितीयभागे ५०१ पृष्ठे आहारवक्तव्यता) सूदमाः सूक्ष्मनामकर्मोद्भवा. सर्वलोकव्यापिनः सर्वथा निर
झ्याणं भंते ! पुवाहारिया पोग्गला परिणया?१, तिशयिनाम दृश्याः, बादराः पुनव्यवहारानुगाः प्रायशस्वनाद्य- आहारिया आहारिजमाणा पोग्गना परिणया ? , स्तवर्तिनः। तथा संधीतराः पञ्चेन्छियाः। तत्र संझिनो मनावि. | अणाहारिया आहारिंग्जेस्समाणा पोग्गला परिणया? ३, ज्ञानयुक्या देवनारकगभेजतियग्नगः । इतगः पुनरसंझिना म.
अगाहारिया अणाहारिजस्समाणा पोग्गला परिणया? | नोलब्धिविकलाः समूजाः पञ्चन्द्रिया:, इत्येते चत्वारोऽपि सह द्वित्रिचतुभिर्वर्तन्त इति सद्वित्रिचत्वारः,ततः सप्तापि पर्या.
गोयमा ! रइयाणं पुच्चाहारिया पोग्गला परिणया १, प्तकापर्याप्तकभेदाचतुर्दश भेदा जा यन्त इति गाथार्थः ॥४॥
आहारिया आहारिज्जस्सयामा पोग्गला परिणया, परिपुनद्वात्रिंशद्विधत्वमाह
मंति य २, अणाहारिया श्राहारिजस्ममाणा पोग्गपुढविदगअगणिमारुय-बाण सयणंता पणिंदिया चउहा।
ला णो परिणया, परिणमिस्संति ३, अणाहारिया अवणपत्तेया विगला, सुविहा सव्ये वि वत्तीसं ॥५॥
पाहारिज्जस्समाणा पोग्गला णो परिणया, णो परिणपृथिव्युदका निमारुतवनस्पत्यनम्नाः । समासः पुनरत्र सुकर
मिस्मति ।। णेरइयाणं भंते ! पुवाहारिया पोग्गला एव। पञ्चेम्न्यिाश्च चतुर्दा चतुर्नेदाः षट्चतुष्कमीलनाचतुर्वि
चिया, पुच्छा ?। जहा परिणया,तहा चिया वि, एवं चिया, शतिभवन्ति। तत्र पृथिवीकायः सूक्मवादरनंदतो द्विधा.पुनरेके। उवाचया, उदारिया,
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जीव
( १५३७ )
अभिधानराजेन्द्रः ।
गाहा
31
इत्या
"परिणत चिया उपधिया, उदीरिता बेयाय विजिया । एकिकाम्मपदम्पी चउब्विा पोला होति ॥२॥ (पुब्वाहारियत्ति ) ये पूर्वमाहताः पूर्वकाले एकीकृताः, स गृहीता इति यावत् । अभ्यवहृता वा; ( पोग्गल प्ति ) स्क धाः । (परिणयत्ति ) ते परिणताः पूर्वकाले शरीरेण सह संपृक्ताः परिणति गता इत्यर्थः । इति प्रथमः प्रश्नः १ । ह व सर्वत्र प्रश्नत्वं काकुपावादवगम्यते । तथा-( माहारिय ति ) पूर्वकाले श्राहृताः संगृहीताः, अभ्यवहृता वा; (आहारिज्जमाण सि ) ये च वर्त्तमानकाले श्राहियमाणाः संगृह्यमा णाः, अन्य वहियमाणा वा पुद्गलाः (परिणयति ) तें परि यताः । इति द्वितीयः २ । तथा-( अणाहारियत्ति ) येऽतीतकालेनाहुताः । ( आहारिग्जस्समाण ति ) ये नाग काले आदरिष्यमाणाः पुखास्ते परिणताः इति तृतीया ३। तथा-" अणाहारिमा अणाहारिज्जस्समाए दि। अतीतानागता उदरणकि पानिषेधा यद्यपि चत्वार एव प्रश्ना उक्ताः, तथाऽप्येते त्रिषष्टिः सभः ततः पूर्वता हियाणा हरियाणा नाता अनाद्विषमाणा धनाहरियाणात पानी सुचितानि । तेषु च पदा 35वन पद्वियोगे विंशतिः चतुष्कोपयोगे प इति । अत्रोत्तरमाह-" गोयम" इत्यादि व्यक्तम्। नवर ये मानार पूर्वकालएव परिणताः प्रणानन्तरमेव परिणाम भावात् १ | ये पुनराद्दता आहियमाणाश्च ते परिणताः, श्रा हृतानां परिणामभावादेव परिणमन्ति च श्राहियमाणानां परिमावस्थ वर्तम२ द्वितीय प्रश्नोत्तरविकल्प एवंविधो दृष्टः, यडुत आहता प्रहरिष्यमा णाः पुरुताः परिणताः परिणंस्यन्ते च यतोऽयं तेनैवं व्यायातः यडुत ये पुनराहुना आढरिष्यन्ते, पुनस्तेषां केचित्परि जताः, अपरिणताइच ते सम्पृक्ताः शरीरेण सह । ये तु न ताव संपृष्यते कमरे तु ते ते परिस्थति पुनरनाहुना हरियोपरिणता मनाइनान संपर्काभावेन परिणामाभावात्। यस्मात्वारिष्यन्ते ततः पारयणं स्यन्ते, माहृतस्यावश्यं परिणामनावादिति ३। चतुथे स्वतीतभविष्यदाहरणक्रियाया अन परिणामामादाय इति । तदनुसारंचैव प्रातिकानामुतराच्या ति । अथ शरीरसंपर्क लक्षण परिणामात् पुरुलानां चया
पूर्व
यो भवन्तीति तद्दर्शनार्थे प्रश्नयन्नाद-"नेरइयो" इत्यादि । यात्राणि परिणामसूत्रमानतिदेश
नीति तथादिजा परिणया तहा चिया वि" हत्यादि । इस पुस्तकेषु वाचनाभेदो दृश्यते, तत्र न संमोहः कार्यः, सर्वास्तु केवलं पत्रानुसारेण सूत्राणि व्याकरणानि च मतिमनाऽध्येयानीति । तत्र चिताः शरेयं गताः। उपचिताः पुनः प्रदेशसामध्येन शरीरे चिता पति उदीरितास्तु स्वनावनोऽनुदिताला कर्म करगाविशेषेण प्रविष्य यान् वेदयते । दाल बेदम रणा एसा ।" तथा वेदिताः स्वेन रसविपाकेन प्रतिसमय मनुदयमाना अपरिसमाप्ताः शेषानुभावा इति । तथा निर्जीर्णाः का ३८५
जीव
रन्ये नानु समयमशेषत द्विपाकडा नियुक्ता इति । "गाह सि" परिणताऽऽदिसूत्राण संग्रहणाय गाथा जवति । सा चयम्" परिणय " इत्यादि । व्याख्यातार्था । नवरम् एकैकस्मिन् पढ़े परिणतचितोपचिताऽऽदौ चतुर्विधाः श्राहृताः १, माता श्रा हियमाणा २, अनाहता श्रहरिष्यमाणाश्च ३, अनाहता श्रनाहरिष्यमाणाश्च ४ । इत्येवं चतूरूपाः पुरुक्षा भवन्ति, प्रश्ननिधनविषयारिति ।
विद्य
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I
रयाण जंते! कतिविदा पोगला निजति है। गोमा ! कम्मदव्य वरगण महि किच्च विदा पोग्गला जिवंति । तं जहा चैव बायरा चैत्र १ । रचार्थ जंते! कति विहा पोग्गला चिज्जति ।। गोयमा ! आहारदव्यमग्गणमहिकिन विद्धा पोम्गला विनंति तं जहा बारा क्षेत्र २ एवं उपरणं ते! कतिविहा पोग्गला उदीरंति । गोयमा ! कम्मदव्ववग्गणमयि दुविदा पोरगा उदीरंति तं जहा अणू चेव, बायरा चेव ४ । सेसा वि एवं चैव भारिणयव्वा । वेदंति ५, णिज्जरंति ६, उयहिंसु ७, उयहंति ८, जयट्टिस्मंलिए, संकर्मिसु १०, सकामेति ११, कामिति १२, निहात्तसु १३, निहत्तति १४, निहत्तिस्तंति १५, निकाइंसु १६ निकात १७, निकाइस्सति १० । सत्यम किम्व्ययगमदिकिच्च गाहा
"जेदिय चिता उवचिता, उदीरिता वेदिया य णिजिला । काम निकायले तिविकासे ॥ १ ॥
-
"रव्याणं भंते! करविदा पोग्गला भिज्जति" इत्यादि व्यकम गरम भागद भवन्तिनकरणाकरणाभ्यां दम
वरसाः, तीव्ररसास्तु मन्दरसा जवन्तीत्यर्थः । उत्तरम- (कम्मदaerगणमरिकिश्च त्ति) समानजातीयव्याणां राशिव्य वर्गहासौदारिकादिमध्यस्तकर्म व्यगण कर्मद्रयाणां वा वा कर्मणानामधि सामायिर्मया इत्यकर्मद्रव्याणामेव
मनुभावचिन्तातियान्तराणामितिकृत्य क
)
गंगा बायरा श्चैव शब्दः समुच्चयार्थः । ततश्च अणवश्व बादराश्च सूक्ष्माश्च स्थूलाश्चेत्यर्थः । सूक्ष्मत्वं स्थूलत्वं चैषां कर्मद्रव्यापक वावग न्याय यत औदारिकाऽऽद्रियाणां मध्ये कर्म व्यायेवमणीति दनानिर्जराः श ब्दार्थभेदेन वाच्याः, किं तु चयसुत्रे उपचयसुत्रे च "आहारव्यमाणमडिकिय इति यदुकं तत्रायमनिभावः- शरीरमाश्रित्य चयोपचयौ प्राख्याख्यातौ तौ चाऽऽहारणाऽव्येभ्य एव भवतो नाम्यतोल आहारद्रव्यवर्गममचिमितिबा दयस्तु कर्मकर्मण मधिकृत्येति (उपसु ति ) प्रतिवन्तः शहापवर्तन साधिशेष दीनताकरणम अप
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(१५३८) अनिधानराजेन्द्रः।
जीव
जीव
नस्य चोपलक्षणत्वादुद्वर्तनमपीह दृश्यम, नच स्थित्यादेवृहिक- नान्यान् ।(गहणसमयपुरक्खो ति) ग्रहणसमयः पुरस्कृतो रणस्वरूपम । (संकर्मिसु त्ति) संक्रमितवन्तः, तत्र संक्रमणं वर्तमानसमयस्य पुरोवती येषां ते ग्रहणसमयपुरस्कृता । प्राकृ. मूलप्रकृत्यभिज्ञानामुत्तरप्रकृतीनामध्यवसायविशेषेण परस्पर तस्वादेवं निर्देशः। अन्यथा पुरस्कृतग्रहणसमया इति स्यात्, संचारणम।
ग्रहीष्यमाणा इत्यर्थः। उदीरणा च पूर्वकामगृहीतानामेव भवति, तथा चाह
प्रहणपूर्वकत्वाऽदीरणायाः । अत नक्तम-भ्रतीतकालसमयगृ. "मुलप्रकृत्यभिन्नाः, संक्रमयति गुण उत्तराः प्रकृतीः। हीतानुदीरयन्तीति गृह्यमाणानां प्रहीष्यमाणानां चागृहीतन स्वात्माऽमूर्तत्वा-दध्यवसायप्रयोगेण ॥१॥" स्वादुदारणाभाव।। तत उक्तम-"नो पदुप्पम " इत्यादि । वेदअपरस्त्वाह
नानिर्जरासूत्रयोरप्येषवापपत्तिरिति । "मोत्तण पाउयं खयु, दंसणमोहं चरितमाहं च ।
ऐरयाणं भंते ! जीवाओ कि चलियं कम्मं बंधंति, सेसाणं पगईणं, उत्तरविदिसंकमो नणिश्रो ॥१॥"
अचलियं कम्मं बंधति ? | गोयमा ! णो चलियं कम्म एतदेव निर्दिश्यते-यथा कस्यचित्सद्यमनुनवताऽशुभकर्मपरिणतिरेवंविधा जाता, येन तदेव सद्वद्यमसद्वद्यतया सा
बंधति, अचझियं कम्मं बंधति ।। णेग्इयाणं ते ! मतीनि। पवमन्यत्रापि योज्यम् । (निहत्तिसु त्ति) निधत्तान् कृत. जीवाओ किं चलियं कम्मं नदीरंति, अचनियं कम्मं उदी. षन्तः,ह च विश्लिानां परस्परतः पुत्रानां निचयं कृत्वा धा. रति ? । गोयमा ! णो चलियं कम्मं उदीरंति, अचनियं रणं रूदिशग्दत्वेन निधत्तमुच्यते । उद्वर्तनापवर्तनव्यतिरिक्त
कम्म उदगति ३ । एवं वेदंति ३। नयट्टति । करणानामविषयत्वेन कर्मणोऽवस्थानमिति। (निकासुत्ति)।
संकापति ए। निहत्तंति ६ । णिकायंति सच्चे अचनिकाचितवम्तो, नितरां बरूवन्त इत्यर्थः। निकाचनं च तेषामब पुगलानां परस्परविश्लिष्टानानेकीकरणमन्योन्यावगाहिता
लियंणो चलिय। रक्ष्याणते! जीवाश्रोकिं चलियं कम्म अग्निप्रतप्तप्रतिहन्यमानसूचीकलापस्येव सकलकरणानामवि- णिज्जनि, अचलियं कम्मणिन्जरेंति । गोयमा ! चलियं पयतया कर्मणो व्यवस्थापनमिति यावत्। "भिज्जति"इ-| कम्मं णिजरेंति,णो अचलियं कम्मं णिज्जति । स्यादिपदानां संग्रहणी यथा-" भदिय" इत्यादिगाथा ग
गाहातार्था । नघरम् अपवर्तनसंक्रमनिधत्तनिकाचनपदेषु त्रिविधः कालो निर्देव्यः , अतीतवनमानानागतकालनिर्देशन तानि
बंधोदयवेदोय-दृसंकमणणिहत्तणिकाएमुं। बाच्यानीत्यर्थः । इह चापवर्तनाऽऽदीनामिव नेदाऽऽदीनामपि अचलिय कम्मं तु नवे,चमिश्र जीवाउणि जरए ॥2॥ त्रिकालता यता, न्यायस्य समानत्वात् । केवलमविकणान्न "मेरायाण" इत्यादि व्यक्ता च । नवरम (जीवाश्रो कि चलि. तन्निद्देशः सूत्रे कृत इति ।।
यति) जीवप्रदेशेभ्यश्चलित, तेवनवस्थानशीलं, तदितरस्वपरयाणं भंते ! जे पोग्गला तेयाकम्मत्ताए गिएहति,
चलित, तदेव बध्नाति । यदाह-" कृत्स्नैर्देशैः स्वकदे-शस्थं ते किं तीतकालसमए गिएहति, पड़प्पाकालसमर गि
रागाऽऽदि परिणतो योग्यम् । बध्नाति योगहेतोः,कर्मस्नेहाक्त श्च
चमलम् ॥॥" एवमुदारणावेदनापवर्तनासंक्रमणनिधसएइंति, अणागयकालममए गिएहति । गोयमा ! णोऽती
निकाचनानि भाव्यानि निर्जरा तु पुजवानांनिरनुभावीकृतानातकालसमए गिएहंति , पप्पाकालसमए गिएहति , मात्मप्रदेशच्यः शातनम, सा च नियमाच्चलितस्य कर्मणो, को अणागयकालसमए गिएहति । ऐरइयाणं भंते! जे नाचसितस्यात् । इद सङ्कहणी गाथा-" बंधोदय" इत्यादि पोग्गला तेयाकम्मत्ताए गहिए नदी ति, ते तितका
जावितार्धा, केवल मुदयशब्दनोदीरणा गृहीतात। उक्ता नारक
वक्तव्यता । भ०१२०१ उ०। लसमयगहिए पोग्गले उदीरति , पटुप्पाकानसमयघिण
अथ असुरकुमारवक्तव्यतामाहमाणे पोग्गने नदीगति, गहणसमयपुरक्ख पोग्गो उदी
अमरकुमाराणं भंते! पुवाहारिया पोग्गला परिणया १. रांत । गोयमा! तीतकानसमयगहिर पोग्गले नदीरति, असुरकुमाराजिलावणं जहा ऐरइयाणं० जाव चलियं कजो पमुपायकाससमयघिप्पमाणे पोग्गले उदीरति, णो! म्म णिज्जरेंति । ज०१ श० १०॥ गहणसमयपुरक्खो पोग्गले नदीरंति । एवं वेदांत ३, एवं यावत्स्तनितकुमाराणां, पृथिवीकायिकानां यावद् वनस्प.णिज्जरंति।
तिकायिकानां यथा नैरयिकाणां यावदचलितं कर्म निर्जरयन्ति ।
(द्वीन्द्रियाणां स्थित्याहारौ 'विई' शब्दे; तथा 'आहार' शब्दे - “नेहयाणं" इत्यादि व्यक्तम् । नवरं (तेयाकम्मत्ताप त्ति) तैजसकामणशरीरतया, तद्रूपतयेत्यर्थः । (अतीतकालसमए
द्वितीयभाग ५०५ पृष्ठे अष्टव्यो) ति) कालरूपः समयो, न तु समाचाररूपः कालोऽपि समय
एएसि णं ते ! पोग्गलाणं आगासाइजमाणाणं अरूपा,न तु वर्णादिस्वरूप इति परस्परेण विशंपणाकालसम- फासाइजमाणाण य कयरे, कपरेहिंतो लाप्पा वा बहया वा यः, अतीतः कासमय:-अतीतकालस्य चोत्सापरायादेः समयः | तुवा वा विसेसाहिया ननयमा ! मन्नत्थोवा पोग्गला परमनिकोऽशोऽतीतकाल समयः, तत्र । (पदुष्पम त्ति )
अणासाजमाणा, साज्जमाणा अणंतगण।। ईप्रत्युत्पन्नो वर्तमानो, नोऽतीतकात्यादौ प्रतीतानागतकालविपयग्रहणप्रतिषेधः,विषयातीतत्वात् । विषयातीतत्वं च नयोर्वि
दिगाणं ते ! पोग्गला आनार विरहात, तेणं तेनष्टानुत्पनत्वनासत्वादिति, प्रत्युत्पन्नत्वऽप्यभिमुखान गृहाति सिं पोगक्षा कीसताए तुज्जो भुज्जो परिणामति । गोय
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(१५ ) जीव अन्निधानराजेन्द्रः।
जीव मा! जिग्निंदियफामिंदियवेमायाए तुज्जा लुज्जो परि-| सूत्रे यमुक्तमष्टमभक्तस्यति, तद्देवकुर्वादिमिथुनकनरानाश्रित्य एमति । बेइंदियाणं भंते ! पुवाहारिया पोग्गला परि- समवसेयमिति । णया। तहेव० जाव चन्त्रिय कम्मं णिज्जति ॥
वाणमंतराण टिईए णागतं, अवमेसं जहा णागकुमारा(अणासाइजमाणाणं ति ) रसनेन्डियतः । (अफासाज- एं, एवं जोऽसियाण वि, वरं नस्सासो जहम्मेणं मुहमाणाणं ति)स्पर्शनन्जियतः। 'फयरे' इत्यादि यत्पदं त. त्तपुहुत्तस्स, नकोसेण वि मुहुत्तपुहृत्तस्स, आहारी जहमेणं देव श्यम्-(कयर कयरहितो भप्पा वा, बया या, तुझा वा, दिवसपुहुत्तस्स, नकोसणं वि दिवसपुहुनस्स, मेसं तं चेव ।। विसेसाहिया वति) व्यक्तं च । " सम्बत्थोवा पोग्गला अ
“घाणमंतराणं" इत्यादि । वाणमन्तराणां स्थिता मानात्वं कासापज्जमाणा" इत्यादि । ये अनास्वाद्यमानाः केवलं रसनेम्ब्यिविषयास्ते स्तोकाः, अस्पृश्यमानानामनन्तनागर्तिन
(अवसेसं ति) स्थितेरवशेषमायुकवर्जमित्यर्थः । प्रागुक्त.
माहारादि वस्तु,यधा नागकुमारादीनां तथा रश्यम । व्यन्तइत्यर्थः। ये स्वस्पृश्यमानाः कवलं स्पर्शनविषयास्तेऽनन्तगुणाः
राणां, नागकुमाराणां च प्रायः समानधर्मत्वात् । तत्र व्यन्तराणां रसनेन्कियविषयच्यः सकाशादिति ।
स्थितिर्जघन्येन दशवर्षसहस्राणि, उत्कर्षेण तु पल्योपममिति । तेइंदियचरिंदियाणं णाणत् विएण्जाव अणेगाइं च णं | "जोइसियाण वि" इत्यादि । ज्योतिष्काणामपि स्थितेरव. भागसहस्साई प्रणाघाइज्जमाणाई, अण्णासाइज्जमाणाई,
शेषं तथैव, यथा नागकुमाराणामात्र ज्योतिषकाणां स्थितिज
कोन पल्यापमाभागः, उत्कर्षेण पस्योपमं वर्षक्षक्षाधिकअफासाइज्जमाणाई विछसमावज्जति । एएसि णं भंते !
मिति । नवरं (उस्सास त्ति कवलमुमासस्तेषां न नागकुमारपोग्गलाणं भणाघाइज्जमागाणं,अणासाइज्जमाणाणं, अ
समानः, किं तु वदयमाणः। तथा चाह-"जइनेणं मुहलपुहुफासाइजमाणाण य पुच्छा। गोयमा! सव्वत्थोवा पोग्ग- तस्स" इत्यादि । पृथक्त्वं प्रिभृतिरानवत्या,तत्र यजघन्य सा प्रणाघाइज्जमाणा,अ-गासाइजमाणा अणंतगुणा, अ
मुखपृथक्त्वं तद् वित्रा मुहुर्माः, यशोत्कृष्टं तदधौ नव वति ।
आहारोऽपि विशषित एव । तथा चाह-"आहारा" इत्यादि । फासाइजमाणा अणंतगुणा । तेइंदियाणं घाणेदियजिभि
भ०१श०१ उ०। दियफासिंदियवेमायत्ताए तुज्जो जुज्जो परिणति । चउ
पृथ्वीकायिकाऽऽवासेषु नैरयिकाऽऽदीनां स्थितिस्थानाऽऽदिरिदियाणं चक्खिांदयवाणिदियजिनिंदियफासिंदियचाए
प्रतिपादनाय संग्रहगाथामादमुज्जो भुजो परिणमंति ।
पुढच। विश्रोगाहण-सरीरसंघयणमेव संगणे । (तेदियच उरिदियाणं नाणतं विपति) तदस-"जह- | लेस्सादिहीणाणे, जोगुवोगे य दस ठाणा ॥५॥ श्रेणं अंतोमुहुत्तं, नकोसणं तेइंदिया पगूणं पन्नासं राहंदिया,
"पुढवी" इत्यादि । तत्र पुढवाति लुप्तविभक्तिकत्वानिर्देयरिदियाणं ग्म्मासा।" तथा भावारेऽपिनानात्वम । तत्र च "तेदियाणं भंते ! जे पोग्गले अाहारत्ताए गएहति" इत्यत
शस्य पृथिवीषु, उपलक्षणत्वाचास्य पृथिव्यादिषु जीवाऽऽवासे
स्विति व्यामति । (निदत्ति)"सूचनान्सत्रम" इतिन्यायात भारज्य तावत् सत्रं वाच्यं यावत् “अणगाई च णं भागसह
स्थितिस्थानानि वाच्यानीति शेषः (एवं प्रोगाहण ति) स्साई अणाघाइज्जमाणाई" इत्यादि । इह चान्जियसूत्रापेक
अवगाहनास्थानानि । शरीराऽऽदिपदानि तु व्यक्तान्येव,एकागपाउनाघ्रायमाणानीति, अतिरिक्तमतो नानात्वम् । एवमल्पबदुत्व
तं च पदं प्रथमैकवचनान्तं श्यम । इत्येवमेतानि स्थितिमूत्र परिणामसूत्रे च । चतुरिन्डियसूत्रेषु तु परिणामसूत्रे "च
स्थानाऽऽदनि दश वस्तूनि इहोद्देशके विचारयितव्यानीति गाक्विदियत्ताए घाण दियत्ताए" इत्यधिकमिति नानात्वमिति ।
यासमासार्थः । विस्तरार्थ तु सूत्रकारः स्वयमेव वक्ष्यतीति । पंचिंदियतिरिक्खजोणियाणं लिई जणिऊण ऊसासो तत्र रत्नप्रभापृथिव्यां स्थितिस्थानानि तावत्प्ररूपयन्नाहबेमायाए आहारो अणाभोगणिवत्तिए असम इमासणं भंते ! रयागपनाए पुढवीए तीसाए निरयावा. प्रविरहिओ आभोगनिवत्तिो जहमेणं अंतोमुहत्तं, ससयसहस्मेमु पगमेगसि निरयावामंसि नेरइयाणं केवइया नकोसेणं कठ्ठभत्तस्स, सेसं जहा चनरिंदियाणं० जाव विश्वाणा पम्पत्ता । गोयमा! असंखेजा विट्ठाणा पचलियं कम्मं णिज्जरति । एवं मास्साण वि। वरं श्रा- सत्ता । तं जहा-जहालिया निई समयाहिया, जहसिया ठिई जोगणिवत्तिए जहामणं अंतोमदुत्तं, नकोसणं अट्ठमन
दुसमयाहिया, जाव असंखिज्जसमयाहिया,जहा मया लिई तस्स, सोइंदिय० ५ वेमायाए जो जो परिणमंति ।
तप्पानग्गुकोसिया विई॥ सेसं तहेव जाव चन्नियं कम्मं पिज्जरेति ॥
"मीसे गं" इत्यादि व्यक्तम । नबरम-(पगमेगास निरयापश्चेन्जियतिर्यसूत्रे-(ठिई भणिऊण स्ति) "जहनेणं अंतो वासंसि त्ति) प्रतिनरकाऽऽवासमित्यर्थः। (चिट्ठाण त्ति) प्रा. मुहृत्त उक्कोसेणं तिनि पलिओबमाई" इत्येतद्पां स्थिति या विजागाः (असंखेज त्ति) सहयाऽतीतानि,कथम्.प्रथम. जाणिवा (ऊसासो त्ति) उच्चासो विमात्रया वाच्य इति ।। पृथिव्यपेक्वया जघन्या स्थितिर्दशवर्षसहस्राणि, उत्कृष्ट सातथा नियंकपञ्चन्द्रियाणामाहारार्थ प्रति यदुक्तम्-" उफ्कोमणं | गगेपमम, एतस्यां चैकैकसमयवृद्ध्याऽसवययानि स्थितिस्थाकट्ठभत्तस्स त्ति," तबकुरूत्तरकुरुतिर्यक्षु लन्यते । मनुष्य- नानि भवन्ति । असङ्खघयत्वात् सागरापमसमयानामित्यव न.
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(१५४.) जीव अभिधानराजेन्द्रः ।
जीव रका35वासांपक्कयाऽप्यसाययाम्येव तानि.कवलं तेषु जघन्यो. भंगा तहिं करेज्जाहि। जदियं न होश विरहो, अनंगयं सत्तवीस्कृष्टविनागो प्रधान्तरादवसेयः। यथा-प्रथमप्रस्तटनरकेषु ज- सा वा ॥१॥" अयं च तत्सत्ताऽपे विरहो द्रष्टव्यो, न तत्पाघन्या स्थितिर्दशवर्षसहस्राणि, उत्कृष्टा तु नतिरिति । पतदेव दापक्कः, यतो रत्नप्रभायां चतुर्विशनिर्मुदूर्ना उत्पादविरहकाल दर्शयन्नाह-"जहनिया ठिई" इत्यादि । जघन्या स्थितिर्दशवर्ष- उक्तः,ततश्च यत्र सप्तविंशतिर्नसका सच्यन्ते,तत्रापि विरहनावासहस्राधिका, इत्यक स्थितिस्थानम, तश प्रनिनरक भिन्नरूप. दशीतिः प्राप्नोति, सप्तविंशतेश्चाभाव एवात । तत्र (सम्वे वि म,सैव समयाधिकति द्वितीयम, इदमपि विचित्रम,एवं यावद
ताव होज कोदेवउत्त त्ति) प्रतिनरकं स्वकीयस्वकीयस्थित्यसयसमयाधिका सा। सर्वान्तिमस्थितिस्थानदर्शनायाऽऽह
पंकया जघन्यस्थितिकानां नारकाणां सदैव बहूनां सद्भावाना(तप्पानग्गुकोसिय त्ति) उत्कृष्टाऽसावनेकविधति विशेष्यते,
रकभवस्य च फांधोदयप्रचुरत्वात् सर्व एव क्रोधोपयुक्ता तस्य विवनिसनरकावासस्य प्रायोम्योचिता उत्कर्षिका तत्. भवेयुरित्यको भङ्गः "अहवा" इत्यादिना द्वित्रिचतुःसंयोगभला प्रायोम्योत्कर्षिका इत्यपरं स्थितिस्थानम,दमपि विचित्रं,वि.। दाशतात्र विकसंयोग बहुवचनान्तं कोधममुश्चता पम् नकाः चित्रत्वादुत्कर्षस्थितेरिति ।
कार्याः। तथाहि-क्रोधोपयुक्ताश्च,मानोपयुक्तश्च १, तया क्रोधापएवं स्थितिस्थानानि प्ररूप्य तेम्वेष क्रोधाऽऽधुपयुक्तत्वं नारका. युक्ताश्च, मानेपयुक्ताश्च । एवं माययैकत्वबहुत्वाच्यां हो, णां विनागेन दर्शयनिदमाह
लोभेन च द्वौ। एवमेते द्विकयोग षट्,त्रिकयोग तु द्वादश भवन्ति। इमीसे गं भंते ! रयणप्पनाए पुढवीए तीमाए निरया- तथाहि-क्रोधे नित्यं बहुवचनम, मानमाययोरेकवचनमिन्यका, बाससयसहस्सेम एगमेगंमि निरयावासंमि जहापयाए
मानकत्वे मायावहत्वे च द्वितीयः। माने च बहवचनं, मायाया
मेकत्वमिति तृतीयः । मानबहुत्वे मायाबहुखे च चतुर्थः, पुनः चिईए वट्टमाणा नेरझ्या किं कोहोवउत्ता माणोबजुत्ता मा
क्रोधमानोभरित्थमेव चत्वारः, पुनः क्रोधमायालोभैरित्थयोपत्ता लोनोवउत्तागोयमा ! सन्चे विताव होज्ज
मेव चत्वारः,एवमेने द्वादश । चतुष्कसंयोगे त्वौ। तथाहि-कोकोहोच उत्ता १, अहवा-कोहोर उत्ता माणावनत्ते य, धे बहुवचनेन मानमायालोभेषु चैकवचनेनैकः । इत्यमेव सोअहवा-कोहोवउत्ता य माणोवउत्ता य ३, अहवा-कोहो- भे बहुवचनेन द्वितीयः । एवमेतावेकवचनान्तमायया जाना, उत्ता य मायोवउत्ते य ४, अहवा-कोहोच उत्ता य मा
एवं बहुवचनामाययाऽन्यो द्वी, एवमेत चत्वार एकवच
नान्तमानेन जाताः। एवमेव बहुवचनान्तमानेन चत्वार इत्येवयोव उत्ता य५. अहवा-कोहोबत्ता य लोभोवउत्ते य
म।। एवमेत जघन्यस्थितिषु नारकेषु सप्तविंशतिर्भवन्ति । ६ , अहवा--कोहोवनत्तां य लोजोवनत्ता य ७। जघन्यस्थिती हि बहवो नारका भवनक क्रोधे बहुवचनमेव । अहवा-कोहोनउत्ता य माणोवउत्ते य, मायोवउत्त य १,
इसीसे णं ते : रयणप्पनाए ढवीए तीसाए निरयाकोहोवउत्ता य माणोवउत्ते य मायोव उत्तार, कोहोवउत्ता
वाससयसहस्सेसु एगमेगसि निरयावासंसि समयाहियाए माणोवउत्ता मायोवउत्ते य ३, कोहोवनुत्ता माणांवउत्ता
जहमार वट्टमाणा नेरच्या किं कोहो ता माणोवनमायोवउत्ता ।। एवं कोहेणं माणेणं लोनेणं चनारि भंगा
त्ता मायोवउत्ता सोनोवउत्ता । गोयमा ! क हावउत्त य १२ । अहवा-कोहोवनत्ता माणोवउत्ते मायोवउत्ते सो
माणोव उत्ते य मायोदनत्ते य लोजोवउत्त य,कोहोवउत्ता य जोवनत्ते ?, अहवा-कोहोवउत्ता माणोवनुत्ते मायोवनुत्ते
माणोवनत्ता य मायोवउत्ता य लोजोवउत्ता य, अहवामोजोवउत्ना २, अहवा-कोहोवउत्ता माणोव उत्ते मायोव
कोहोवउत्ते य पाणोवउत्त य,अहवा-काहोवनत्त य माणासत्ता सोभोवनत्ते ३, अहवा-कोहोबउना माणोवउत्ते
बलत्ता य, एवं असीइभंगा नयव्वा । एवं0 जाव संखेजसमायोव उत्ता लोभोवउत्ता ४, अहवा-कोहोवनत्ता मा
मयाहिया विइ, असंखेन्जसमयाहियहिए तप्पानग्गुक्कोणोवनुत्ता मायोवउत्ते लोभोवनते ५, अहवा-कोहोव
सियाए ठिईए सत्तावीसं नंगा भाणियचा । नत्ता माणोवउत्ता मायोवउत्ते लोभोवनुत्ता ६, अहवाकोहोवनुत्ता माणोवनत्ता मायोवउत्ता लोभोवउत्ते ,
" समपाहियाए जहनहिईए वट्टमाणा नेराया कि कोहोच.
उत्ता" इत्यादि प्रश्नः दोत्तरम्-"कोहोवनत्ते य" इत्यादअहवा-कोहोवउत्ता माणोवत्ता मायोव उत्ता लोभोव
योऽशीतिर्भाः। समयाधिकायां यावत् संख्येयसमयाधिउत्ता । एवं सत्तावीसं भंगा नेयवा॥
कायां जघन्यस्थितौ नारका ननवन्त्यपि भवन्ति चेदेको वा;"श्मीसे गं" इत्यादि । (जदमियाए ठिए बट्टमाणत्ति) नेके बेति। ततः क्रोधाऽऽदिवेकत्वेन चत्वारो विकल्पाः,बहुत्वे. या यत्र नरकाऽऽवासे जघन्या,तस्यां वत्तमाना: "फि कोदोवउ- न चान्ये चत्वार पव४,द्विकसंयोगे चतुर्विशतिः। तथाहि-कोते' इत्यादिप्रश्ने "सन्धेवि" इत्याद्युत्तरम। तत्रच प्रतिनरकंज- प्रमानयोरेकत्वबहुत्वाभ्यां चत्वारः, पवं क्रोधमाययोः ४, एवं घन्यस्थितिकानां सदैव भावात्तषु च क्रोधोपयुक्तानां बहुत्वात्स- शोधलोभयोः४, पवं मानमाययोः ४, एवं मानझोभयोः ४. एवं प्पविशतिभङ्गकाः। एकाऽऽदिसंख्यातसमयाधिकजघन्यस्थितिका-] मायालानयोरिति ४ विकयोगे चतुविशातः, त्रिकयोग द्वात्रिनांनु कादाचिरकत्वात्तेषुच क्रोधाऽऽधुपयुक्तानामेकन्वानेकत्वसं. झात । तथादि-फ्रोधमानमायानामेकाचे नका,एप्वेव मायाबदत्वेन जवादशीतिजलकाः। एकछियेषु तु सर्वकषायोपयुक्तानां प्रत्येक द्वितीयः, पवमेती मानकत्वन, द्वादेवान्यो तद्वत्वेन, एवमेते च. बहुनां भावादभङ्गकम। आइच-"संभव जाह विरहो,असीति- त्वारः, क्रोधेत्वेन चत्वार पव, अन्ये क्रोधबहुत्वेनेत्यवमष्टी,
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(१५४१) जीव प्रनिधानराजेन्द्रः।
जीव कांधमानमायात्रिके जाताः । तथैवान्येऽष्टौ क्रोधमानलाभेषु, या च जघन्यस्थितिकानां सप्तविंशतिः सा जघन्यावगाहमतथैवाम्मेडी क्रोधमाया सोनेषु,नथैवान्येऽष्टौ मानमायानोभेष्वि. स्वमतिक्रान्तानामिति भावनीयम् । तिरात्रिंशत, चतुष्कयोगे षोडश । तथाहि-क्रोधाऽऽदिवेक
शरीरद्वारेत्वेनेको, लोजस्य बहुत्वेन द्वितीयः, एवंमती मायकत्वेन, त
मीसे ए नंते ! रयाप्पनाए जाव० एगमेगंमि निरयाथापी मायाबहुत्वेन । एवमेत चत्वारो मानकत्वेन, तथाऽन्ये चत्वार एव मानबहुत्वेन । एवमेत अणौ क्रोधेकत्वेन, एवमम्ये.
चामंमि नरयाणं कइ सरीरया पठाता । गायमा ! तिमि ही क्रोधबदुत्वेनात घोमश । एघमत सर्व एवाशीतिरिति । पते सरीरया पमत्ता । तं जहा-वेउन्धिए, तयए,कम्मए । इमीच जघम्बास्थतावकाऽऽदिसख्यातान्तसमयाधिकायां जबम्ति,
से पं भंत !0 जान बे उच्चियसरीरे वट्टमाणा नेर । किं अलसायातसमयाधिकायास्तु जघन्यस्थितेरारज्योत्कृपस्थिति यावत्सप्तविंशतिनास्त एव , तत्र नारकाणां बहुन्वादिति ।
कोहोवत्ता. सत्तावीसं जंगा। एएणं गमेणं तिल सरीर
या जाणियन्वा ।। अथावगाहनाद्वारे
(सत्तावीसं नंग सि) अनेन यद्यपि वैकिय शरीरे सघमासे मते ! रयणप्पनाए पुढवीए तीसाए निरया- प्तविंशतिनका उक्ताः, तथापि या स्थित्याश्रयाऽवगाहनाबासमयसहस्मेसु एगमेगंसि निरयावासंसि नेरइयाणं के- श्रया च जङ्गकप्ररूपणा, सा तथैव दृश्या, निरवकाशवावझ्या ओगाहट्ठाणा पएणत्ता। गोयमा ! असंखेज्जा
तस्याः, शरीराश्रयायाश्च साधकाशत्वात् । एवमन्यत्रापि
विमर्शनीयमिनि । ( एएणं गमेणं तिमि सरीरया प्राणिश्रीगाहणट्ठाणा पएणता । तं जहा-जहलिया ओगाहणा
यच ति) वैक्रियशरीरसूत्रपाठेन त्रीणि शारीरकाणि क्रिय. अंगुलस्स असंखेज्जानागं, जहलिया ओगाहणा एगपदे- तेजसकामणानि भणितव्यानि, त्रिवपि नरकसप्तविंशतिर्वासाहिया, जहसिया प्रोगाहणा दुपदेसाहिया, जहनिया च्येत्यर्थः । ननु विग्रहगती केवले ये तैजसकामणशरीरे स्यातां भोगाहणा. जात्र असंखज्जपदेसाहिया, जहरिणया ओ
तयारल्पत्वेनाशीनिरपि भड़कानां सम्भवतीति कथमुच्यते
तयोः सप्तविशतिरेवेति । अत्राच्यते-सत्यमेतत्, केवल क्रियगाहणा तप्पाउग्गुकोसिया ओगाहणा॥
शरीरानुगतयोस्तयोरिदाश्रयणं केवझयाश्चानाथयणमिति सप्ततत्र (ोगाहणद्वाण त्ति) अवगाहन्ते भासते यस्यां साऽवगा. विशतिरेवति । यच्च द्वयोरेवातिदेश्यत्वे त्रीजात्युक्त, नत्रयाहना तनुः,नदाधारभूतं वा केत्रं, तस्याः स्थानानि प्रदेशच्या णामपि गमस्यास्यन्तसाम्योपदर्शनार्थमिति ॥ विभागा अवगाहनास्थानानि, तत्र (जहमिय त्ति) जघन्या:
संहननद्वारेहलासंख्येयभागमात्रा सर्वनरकेषु, (तप्पानम्गुकोसिय त्ति) मीसे णं ते ! रयणप्पनाए जाव नेरझ्याणं सरीरया तस्य विवक्तिनरकस्य प्रायोग्या या उत्कर्षका सा तत्प्रायोग्योत्कर्षिका । यथा-त्रयोदशप्रस्तटे धनुःसप्तकं रत्नित्रयम-स
कि संघयणा पणणता ?। गोयमा ! एहं संघयणाणं पद्धं चेति ।
असंघयणी,नेवऽट्ठी नेव छिरानेव एहारूणि, जे पोग्गला
अणिहा अकंता अप्पिया सुहा अमणुमा अमणामा, ... इमीसे एं भंते ! रयणपजाए पुढवीए तीसाए निरया
एएसि सरीरसंघायत्ताए परिणमंति । इमीसे गं भंते ! . बाससयसहस्सेमु एगमेगंसि निरयावासंसि जहसियाए
जाव छएहं संघयणाणं अमंघयणे वट्टमाणाणं नेरझ्या किं श्रीगाहणाए वट्टमाणा नेरक्या कि कोहोव उत्ता असीई जं.
कोहावनुत्ता? सत्तावीमं भंगा। गा जाणियचा जाच संखेजपदेसाहिया जहमिया ओ.
(उगहं संघयणाणं असंघणि त्ति) मां संहननानां जऋषगाहणा, असंखज्जपएसाहियाए जहामियाए ओगाहणाए भनाराचाऽऽदीनां मध्यादेकतरेणापि संहननेनासहनना नान । बट्टभागाणं तप्पाउग्गुकोसियाए आगाहणाए बट्टमाणाणं
कस्मादेवमित्यत पाह-"जेवटी"इत्यादि। नैवास्थ्यादीनि तेषांसनेरझ्याणं दोसु वि सत्तावीसं भंगा ।
न्ति, अस्थिसञ्चयरूपं च संहननमुच्यत इति । (अणि ति)
इध्यन्ते स्मेताटातनिषेधादनिष्टाः, अनिष्टमपि किश्चिकमनीयं "जहम्मियाए" इत्यादि । जघन्यायां तस्यामेव चैकाऽऽदिस- भवतीत्यन उच्यत-मकान्ताः, अकाम्तमपि किश्चित्कारणवशाअघातान्तप्रदेशाधिकायामवगाहनायां वर्तमानानां नारकाणाम- प्रीतये भवतीरात आह-अप्रियाः,अनीतिहेनवः, अप्रिय नेयां रूपधारक्रोधाऽऽथुपयुक्त एकोऽपि लभ्यते,अतोऽशीतिभंडाः। "प्र. कुतः?,यतः (असुभ त्ति) अशुभस्वजावाः, तेच सामान्या अपि संस्खे जपएस"इत्यादि। असङ्ख्यातप्रदेशाधिकायांतरप्रायोम्योत्क- भवन्तीत्यतो विशेष्यन्ते-(श्रम गुम्म त्ति) न मनसाऽन्तःसबे. टायां च नारकाणां बहुत्यात्तेषु च बहूनां क्रोधोपयुक्तत्वेन
दनेन शुभतया झायन्त इत्थमनोज्ञाः । अमनोकना चकदापि कांधे बहुवचनस्य भावान्मानादिषु त्वेकत्वबहुस्यसम्नवास- स्यादत पाह-(अमरणाम त्ति)न मनमा अम्यम्ने गम्यते प्रविशतिर्भङ्गा भवन्तीति । ननु ये जघन्यस्थितयो जघन्याव.
पुनः पुनः स्मरणता ये नेमनीमाः। एकाथिकाचैते शब्दा अनिमाहनाश्च भवन्ति, तेषां जयस्थितिकन्वेन सप्तविंशतिनङ्ग
प्रताप्रकर्षप्रतिपादनार्थी इनि । (संघायत्ताए सि) सहानतया, काः प्राप्नुवन्ति, जघन्यावगाहकत्वेन चाशीतिरिति विरोधः ? ।
शरीररूपसञ्चयनयेत्यर्थः। पत्रोच्यते-जघन्यस्थितिकानामपि जघन्यावगाहनाकालेऽशो
संस्थानद्वारेतिरेव, उत्पत्तिकासनावित्वेन जघन्यात्रगाहमानामरूपत्वादिति,
इमीसे पं भंते ! जाव सरीरया किंसंठिया पमना?। ३०६
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( १५४२ ) अभिधानराजेन्द्रः ।
जीव
गोषमा ! दुवा पाच तं जहा नवचार शिक्षा प उत्तरव्निया य । तव्य णं जे ते जवधारणिजा ते हुंसंठिया पत्ता, तत्थ जे ते उत्तरवेजव्निया ते विमसंडिया पहना इजा वट्टमाणा नेरइया कि कोहोबत्ता ?, सत्तावीसं भंगा ।
(सिड) कि संस्थानिक संस्थितानि ? ( भवधारणिज्जति) भवधारणं निजजन्माति वादनं प्रयोजनं येषां तानि भवधारणीयान्याजन्मधारणीया
उत्तरपूर्वरा णि उतरकालभावीनि बैकियाणि उत्तरवाकयाणि (हुं संस्थिता।
लेश्याद्वारे
इमी से णं भंते ! रयणप्पजाए पुढवीए नेरइयाणं कइ लेस्साओ पत्ताओ ? । गोयमा ! एगा काउलेस्सा पत्ता । इसे भंते! रयप्पनाए० जाव कानलेस्साए बट्टमाणा सत्तावीसं गंगा ।
दृष्टिद्वारे
इसी से जेते! जाय किं सम्मदिट्टी, मिच्छदिडी, णं जात्र सम्मामिच्छदि १ गोषमा तिमी 1
पं०
सम्पसने वहाणा नेरइया सत्तासे गंगा एवं मिच्छदंसणे त्रिः सम्मामिच्छूदंसणे असी नंगा | (सम्मामिच्छदंसणे असीइनंग प्ति) मिश्री नामल्पत्वात् तद्भा यस्यापि चालतोऽदे को वङ्गाः।
इसीसे
,
कानद्वारेजब कि नाही है। गोयमा ! नाणी वि वि वि नाणा नियमा, तिथि प्राणाई जवणार इमीसे मंजा मानिलिवोहिण ! बट्टमाणे । गोयमा ! सत्तावीसं जंगा, एवं विश्वपालाई तिमि हाई माणिपलाई।
(तिथि बाणाई नियम) या नरकेन्ते तेषां प्रथमसमयादारज्य भवप्रत्ययस्यावधिज्ञानस्य नावास्त्रिज्ञानिन एव ते, ये तु मिथ्यादयस्तं सभ्योऽसाभ्योत्यत्र साभावाद नमस्तेवामा पादतमुत्प
स्पतिरिति तेषां पूर्वमहान प स्थत वच्यते - (तिष्ठि
नया
णाई जणाति) नजनया विकल्प
1
त्रार्थे गाये स्थाताम्
" सठी रइपसुं, उरनपरिचायणंतरे समए । विभंग श्रहिं वा श्रविगहे विग्गड़े लहइ ॥ १ ॥ अस्सणी नरपसुं, पजत्तो जेण बढइ विभंगं । नाणा तिशेव तत्रो, श्राणा दोन्नि तिन्नेव ॥ २ ॥ " एवम् "तिष्ठि णाणाई " इत्यादि । श्रभिनिबधिक ज्ञानवतानि यानि इमान अहाना
जीव
निवेति । इह च त्रीणि ज्ञानानीति यदुक्तं, तदाभिनिबांधिक स्य पुनर्गणनेन । अन्यथा द्वे एव ते वाच्ये स्यातामिति। "तिष्ठि अन्ना" इत्यपदिनेापूर्वकाल भाविनी विवदयेते, तदा अशीतिर्जा लभ्यन्ते श्रयत्वात्तेषाम् । किं तु जघन्याय ततो जघन्यावगाहनाश्रयेणैवाशांतिभाषासेवा इति ।
योगद्वारे
० जान किं मानोगी बनोगी कापजोगी ?। गोषमा ! तिथि विजावणी माणा सत्तावीसं भंगा; एवं कायजोए ।
( एवं कायजाए ति ) ८ यद्यपि केवलकाराकाययोगे अशी संतपणासामान्यकाय योगाssश्रयणाच्च सप्तविंशतिरुचेति ।
उपयोगद्वारे
इसीसे ० नाव नेरश्या किसागारोवडचा अणगारोव उत्ता ? । गोयमा ! सागारोवउत्तावि, अणगारोवत्तावि । इमीसे० जात्र सागारोचते वहमाना सचामं जंगा, एवं विमचारी जंगा एवं सच वि
पुडोओ नेपल्याओ, पाथतं लेसासु ।
।
( सागारोवउत्तत्ति ) श्राकारो विशेषांशग्रहणशक्तिः तेन सह इति साकारः, तद्विकलोऽनाकारः । सामान्य ग्राहीत्यर्थः । ( णाणत्तं लेसासु चि ) रत्नप्रभा पृथिवं । प्रकरणत्रपटथियकराम्यध्येयानि पश्याविशेष स्वात् । श्रत एव तद्दर्शनाय गाथा
।
गाहा
काय दो या ऍ मीमिया नीलिया पडत्यी । पंचमियाए मीसा, कण्ड़ा तत्तो परमकएहा ॥ १ ॥ ( काय इत्यादि ) तत्र (तश्याए मीसियति) वालुकाप्रकरणे उपरितननरकेषु कालेषु भ ते यथासम्भवं प्रश्नसूत्रे उत्तरसूत्रे चाध्येतव्ये इत्यर्थः । यच्च सूत्राभिल्लापेषु नरकाऽऽव 'ससङ्ख्यानानात्वं, तत् "तीसाय पन्नसा" इत्यादिना पूर्वप्रदर्शितेन समय सेयमिति । पत्र जिलापः कार्यः - "लक्करपनाए गंभंते ! पुढचीए पणवीसाए नरयावास सय सहस्सेसु एगमेगंस नरयावासंसि कर लेस्साओ
ताओ ?। गोयमा ! एगा काउलेस्सा पत्ता । सकरपभाष णं नंते !० जाव काउलेसाए बट्टमाणा नेरइया कि कोहोब ता ? इत्यादि० जाव सत्तावीसं भंगा" । एवं सर्व पृथिवीषु गाथानुसारेण वाच्यम् ।
चमडीए एवं भंते ! अमरकुमारावामसयसहस्से एगमेनि अनुरकुमाराचासि अरकुमाराणां केवया वि हाणा पत्ता | गोमा ! असंखेज्जा विड्द्वारा पत्ता । तं जहाज लिई जहां नेया तहा नवरं पहिलोमा जंगा जाणिवा हो लोभोवता उगने
जायकुमारा
नवरं नागचं जाणियन्त्रं ।
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जीव
( १५४३ ) अनिधानराजेन्द्रः ।
असुरकुमारप्रकरणं ( पहिलोमा भंग ति ) नारकप्रकरणं हि कोकण कनसुकुमारा करादिनाऽसी कार्य इत्यर्थ
विताव होजा लोहोबत्त त्ति) देवा हि प्रायो लोनवरतो भवसुकुमारा सोभोपयुधः स्युः । द्विसंयोगे तु परमेयायोगे त्यां बरं ग्राम
ही कोशिका का जाणियां ति नारकाणामसुर कुमाराऽऽदीनां च परस्परं नानात्वं कात्या प्रश्न सुनाएयुत्तरसूत्राणि चाध्येयानीति हृदयम् । तनारकाणामसुरानां च संहनन संस्थान
ति । तच्चैवम्-" चनसठीय णं भंते । असुरकुमारावासस्यसदस्येषु पगमेसि असुरकुमारावासंसि असुरकुमाराणं सरीरगा किं संघयणी १ । गोयमा ! असंघयणी, जे पोग्गला सिंघा परिणमति पाचि णवरं नवधारणिज्जा समचउरंससंठिया, नत्तरवेनग्विया श्र संधिया एवं साविक लेखाओ पाओ है। मोयमा ! चत्तारि । तं जहा कण्हा नीला काऊ तेऊन्नेसा । चन्छ सठीय मं०जाव कराहले साथ वट्टमाणा किं कोहोबत्ता १०४ गोयमा ! सव्वे वि ताव होज्ज लोहोवउत्ता " इत्यादि । एवं " नीलकाकतेक वि" । नागकुमाराऽऽदिप्रकरणेषु तु "चुलसीप नागकुमारावास व्यसहस्त्रेसु " येथे पडली असुराणं नागकुमाराण दोह चुलसी" इत्यादेवचनात् खषु इत्यादेर्वचनात्प्रश्नसूत्रेषु प्रवनसङ्ख्यानानात्वमवगम्य सूत्रानिलापः कार्य इति ।
सं
भंते! पुढविकाइपास एगोगांस पुढविकाइयावासंसि विकाइया पाठि पता है। गोगमा ! असंखेचा विद्वाणा पाता। तं जहान वि० नाव तप्पाउकोसिया दिई । ते विकायानामसमे सिवाना माशा पुढविकाया किं फोटोवरचा माणोपा माया सोजोवरता १। गोमा ! कोहोबत्ता वि, माणोवउत्ता वि, मायोवनत्ता वि, लोहोबत्तानि । एवं पुढविकाइयाण सव्र्व्वसु वि ठाणेसु अजंग, नवरं तेनुलेस्साए असीगंगा एवं आउ काइया वि, उकायवाङकाइयाणं सब्बैसु वि ठाणेसु अभंग फरकाइया नाविकाइया ।
( एवं पुढविकाश्याणं सव्त्रेसु ठाणेसु अभंगय त्ति ) पृथिवीकायिका एकैकस्मिन् कषाये उपयुक्त बहवो लज्यन्त इत्यभकुकं दशस्यपि स्थान ले पृथिवीकायिकेषु लेश्याद्वारे तेजोलेश्या वाच्या । सा च यदा कोनेको वा पृथिवीका कन्याऽऽदितिर्मा
तिथियायिक प्रकरणेस्थितिस्थाद्वा
णवर
33
तमेवास्ति, शेषाणि तु नारकवठाच्यानि । तत्र न नाणसं जाणियध्वं इत्येतस्यानुवृत्तेर्नानात्वमिह प्रश्नत उसरतापसेयम्। तथा शरीरादिषु
तापास
जीव
विकाइयाण कर सरीरा पत्ता ? गोयमा ! तिनि । तं जहाओरालिए तेय, कम्मए ।" एतेषु च "कोहोबउत्सावि, मागोवत्ता व " इत्यादि वाच्यम् । तथा-"असंखेने गं० जाव पुढविकाइयाणं सरीरंगा कि संघपणी " इत्यादि तथैव । णवरं पोग्गला मपुष्षा श्रमष्ठा सरीरसंघाय साप परिणमति । " एवं संस्थानद्वारेऽपि किं तुमरे "डा" साथ देव वाच्यम्, न तु "दुविहा सरीरंगा पष्ठत्ता । तं जहा भवधारविज्ञाय उरइत्यादि तदभावादिति । इयाद्वारे पुनरेवं वाच्यम" पुढवीकाश्याणं भंते ! कइ लेसाओ पत्ताश्र है। गोयमा ! बत्तारि । तं जड़ाकसा जाब लेखा" तासु च तिष्यभङ्गकमेव. तेजोलेश्यायां त्वशीतिनेङ्गकाः, पतश्च प्रागेवोक्तमिति । दृष्टिद्वारे इदं वाच्यम्-" असंखेखेसु० जाव पुढविकाश्या किं सम्महिमिडिडी सम्मामिट्टी है। गोषमा ! मिि शेष तथैवाद्वारेऽपि तय किया ते ! किं नाणी, प्राणी? । गोयमा ! नो नाणी, अनाणी नियम अन्नाणी" योगद्वारे नम् याणं भंते 1 किं मणजोगी, जोगी, कायजोगी ? । गोयमा ! नो मणजोगी, नो नजोगी, कायजोगी " ( एवं श्रावकाशया पृथिवीकायिककायिका दशस्वपि स्थानकेध्यायां वाऽशीतिक बन्को, यतस्तेष्वपि देव उत्पद्यत इति । " तेउकाइय " इत्यादौ स्थितिस्थानाऽऽदि
1
क्रोधापकानामेकबहुना देवा न्त इति तेजोलेश्या तेषु नास्ति । ततस्तत्सम्भवान्नाशीतिरपीभवति । एतेषु व मूत्राणि पृथिवीकाधिक समान फेय वायुकायसूत्रेषु शरीरद्वारे पचमध्येयम्-"असंखे णं भंते! जाव वाचकाश्याएं कइ सरीरा पष्ठत्ता ?। गोयमा ! चस्तारि । तं जहा श्ररालिए, वेतेय, कम्मपत्ति" । 'वणष्फइकाइया' इत्यादि । वनस्पतयः पृथिवी कायिकसमाना वक्तयाः, दशस्त्रपिस्थान काभावा पाय व वाशीतिभङ्गकसद्भावादिति । ननु पृथिव्यम्बुवनस्पतीनां दृष्टिद्वारे मारवा नमान सम्यक कर्मन्ये
रे मतिज्ञानं श्रुतज्ञानं चादपाचैत इत्येवमशीतिर्नङ्गाः सम्यग्दनामिनिधानेषु चन्तु मदि स्वादन जावस्यात्यन्तविरत्वेनाविवक्तित्वात् । तत एवाच्यते"भयाभावो पुढवा - इएस विगलेसु होज्ज उववषो।" इति । उभयं प्रतिपद्यमानपूर्वतिरूपमिति ।
19
वेदियतेइंदियच नरिंदियाणं जेहिं ठाणेहिं नेरव्याणं असी गंगा, हिंगणेहिं असीई चेव, नवरं अमहिया सम्यते भिगोविना सुपना एप असी भंगा जिया सत्तावीस जंगा, तेस सब्बे अजंगयं ।
,
"वेइंदिय" इत्यादावेव मकरघटना-" जेहिं गणाई नेरव्याणं गाईदियतेदिदिया सी ईतकादिपातान्ाधिका व्यस्थिती, तथा जघन्यायामवगाढनायां च तत्रैव च संख्ये यान्तप्रदेशवृषायां ३, मिश्र ४ च नारकाणामशीनिङ्गका उक्त विकलेन्द्रियाणामप्येतेषु स्थानेषु मिश्रदृष्टि जेवर्शीति
"
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जीव
(१५४४) प्रभिधानराजेन्द्रः।
जीव रेव, अल्पत्वात्तपा मेकैकस्यापि क्रोधाऽऽद्यपयुक्तस्य सनवान्, नैरयिका दशसु द्वारेघभिडितास्तथा मनुष्या अपि भणितमिश्रष्टिस्तु विकले। यकीन्यपु च न भवतीति न विको व्या इति प्रक्रमः । पतंदवाह-"जहि"इत्यादि । तत्र नारकाछियाणां तत्राशीतिभङ्गक संभव इति । स्त्विह सूत्र कुतोऽपि णां जघन्यस्थितावकाऽऽदसंख्यातान्तसमयाधिकायाम १, वाचनाविहापाद् यत्राशीतिस्तत्राप्यन्नक मनि व्याख्यातमा इ. तथा जघन्यावगाहनायाम २, तस्याभव सख्यानान्तप्रदेशा. देव विशेषानिधानायाऽऽह-"नवरं" इत्यादि । भयमर्थः-दृष्टि धिकायाम ३, मिथं च ४ अशीतिभङ्गका उक्ताः । मनुष्याणाद्वारे, ज्ञानद्वार चनारकाणां सप्तविंशतिरुक्ता । विकलेम्याणां मप्यतवशीनिरव । तत्कारणं च तदरूपन्चमनि । नारकाणां, तु ( अम्भहिय त्ति) अत्यधिका शातिर्भकानां भवति ।
मनुष्याणां च सर्वथा साम्यपरिहारायाऽऽह-"जसु सत्तावीस" केत्याह-सम्यक्त्वेऽल्पायसां हि विकलन्ष्यिाणां सास्वादन. इत्यादि । सप्तविंशतिर्भङ्गकस्थानानि च नारकाणां जघन्यभावेन सम्यक्त्वं नवति, अल्पत्वाच तेषामेकत्वस्यापि संभवे. स्थित्यसंस्यातसमयाधिकजघन्यस्थितिप्रभृतीनि, षु च जनाशीतिर्भङ्गकानां भवति, एवमाजिनिबोधिक श्रुते चति । तथा
घन्यस्थिती विशेषस्य वक्ष्यमाणत्वेन तद्वर्जेषु मनुष्याणामभ. "जहि" इत्यादि । यषु स्थानेषु नैरयिकाणां सप्तविंशतिभा,तंषु
कं, यता नारकाणां बाहुल्येन क्रोधोदय एव भवति । न स्थानेषु द्वित्रिचतुरिन्द्रियाणां महकानावः, तानि च प्रागुक्ता.
तपां सप्तविंशतिर्भङ्गका उक्तस्थानेषु युज्यन्ते । मनुष्याणां तु शीतिभनकस्थानावशिष्टानि मन्तव्यानि, भकाभावश्च क्रोधा
प्रत्येक क्रोधाऽऽद्यपयोगवतां बहूनां जावान कपायोदय विशेषोउपयुक्तानामेकदैव बहूनां भावादिति । विकलन्द्रियसूत्रा- ऽस्ति । तेन तेषां तेषु स्थानेषु भाकानाव इति । इहैव विशषाणि च पृथिवीकायिकसूत्राण वाध्येयानि । नवरमिह लश्याद्वारे
भिधानायाsse-"नवरम्" इत्यादि । येषु स्थानेषु नारकाणामतेजोमेश्या नाध्येतव्या ।हांद्वारे च-" वेदियाणं भले! किं
शीतिस्तेषु मनुष्याणामप्यशीतिः, तथा "जसु सत्तावीसा तेसु सम्माहट्ठी, मिचद्दिकी, सम्मामिच्छट्टिी। गोयमा ! सम्म
अनंगयं" इत्युक्तम,केवलं मनुष्याणामिदमत्यधिकम-यदुत जघ. द्दिष्ट चि, मिच्छट्टिी वि, नो सम्मामिच्कृहिछी । सम्मदसणे
न्यकस्थिती तेषामशीतिनं तु नारकाणाम । तत्र सप्तविंशतिरुक्केवट्टमाणा वेइंदिया कि कोहाब उत्ता?," इत्यादि प्रश्न उत्तरम्
त्यभङ्गकम । तथा आहारकशरीरे अशीतिः,पाढारकशरीरवतां श्रशीतिर्भाः । तथा ज्ञानद्वारे-" वेइंदियाणां भंते ! कि माण।,
मनुष्याणामल्पत्वात्। नारकाणां तु तन्नास्त्यवत्यतदभ्यधिकं मअनाणी । गोयमा! नाणी वि,अन्नाणी वि। जइनाणी दुनाणी
नुष्याणामिति । इह च नारकसूत्राण मनुष्यसूत्राणां च प्रायः मश्नाणी, सुयनाणी य । शेषं तथव अशीतिश्च ना इति ।
शरीराऽऽदिषु चतुषं शानद्वार एव च विशेषः। तथाहि-"असंखेयोगद्वारे-वे इंदियाणं भंत! किं मणजोगी, वइजागी, कायजो.
ज्जेसणं भंते! मास्साबाससुमणस्साणं का सरीरा पागी। गोयमा! नो मयाजोगी, वजोगी, कायजागी य" शप
ता?। गोयमा! पंच । तं जहा-ओरालिए, वे उचिप, आहारप, तथैव । एवं श्रीन्द्रियचतुरिन्द्रियधारायपि।
तेयप,कम्मए । असंखेज्जेसु णं जाव आरालियसरीरे वट्टमाणा
मासा कि कोहोचमत्ता वि० ४।" एवं सर्वशरीषु, मयपंचिंदियतिरिक्खजोणिया जहा नेरइया तहा जाणिय- रमाहारकंऽशीतिर्भकानां वाच्या, एवं संहननधारऽपि, नवरं व्या, नवरं जहिं सत्तावीसं भंगा तहिं अभंगयं कायध्वं ।
"मगुस्साणं नंत! कर संघयणा पासत्ता ? गोयमा ! छ संघय. जत्थ असीई तत्थ असी मास्सा वि । जेहिं गणेहिं ने
णा पत्ता । तं जहा-बश्रोसहनाराप० जाव छबटुं।" संस्था
नद्वार " संगणा पाता । तं जहा-समचउरसं० जाय हुंड"। रघ्याणं असीनंगा तेहिं ठाणेहिं माणुस्सा वि असीइ- लश्याद्वारे-" लेसाओ परमत्ताओ । तं जड़ा-कपडलेसा० मंगा जाणियन्वा । जेसु सत्तावीसा तसु अन्नंगयं । नवरं जावसुक्कलेसा" शानद्वारे-"मणुस्साणं नंत! का नाणाणि मणस्साणं मभहियं जह पयष्टिर्डए पाहारए य असी- गोयमा! पंच। तं जहा-प्राभिणिबोहियनाणं०।" पपु च केवनभंगा, वाणमंतरजोऽसवैमाणिया जहा जवणवासी। न
वर्जेवमतकम्, केवले तु कपायोदय एवं नास्तीति। "वाणमं.
तर" इत्यादि । व्यन्तराऽऽदयो दशस्वपि स्थानेषु यथा भवनबा. वर नागतं जाणियव्वं । जं जस्म जाव अत्तरा।
सिनस्तथा वाच्या यत्रासुराऽऽदीनामशीक्निकाः,यत्रच स. "पंचिदिय" इत्यादि । (जहिं सत्तावीसं जंग ति) यत्र
प्तविंशतिः,तत्र च व्यन्तरादीनामपि ते तयेव चाच्याजाका. नारकाणां सप्तविंशतिर्भास्तत्र पञ्चन्द्रियतिरश्चामभङ्गकम,तश्च
स्तु लोत्रमादौ विधायाध्यतव्याः, तत्र भवनवासिभिः सह जघन्यस्थित्यादिकं पूर्व दर्शितमेव, भङ्गकाभावश्च क्रोधाऽऽयु
व्यन्तराणां साम्यमेव ।ज्योतिषकाऽऽदीनां तु न तथोत । तेस्तेषां पयुक्तानां यहुनामेकदेव तेषु भावादिति । सूत्राणि चह नार- सर्वथा साम्यपरिहारसूचनाया358-(णवरं नाणतं भाणियठवं कसूत्रबध्येयानि । नवरं शरीरद्वारे ऽयं विशष:-"असंखे. जंजस्सत्ति) यल्लेश्याऽऽदिगतं यम्य ज्योतिषकाऽऽदेना नात्यमितज्जेसु णं भंते ! पंचिदितिरिक्ख जाणियावामेसु पचि दय- रापेकया भेदस्तज्ज्ञातव्यमिहेति, परस्परतो विशेष शास्वा पन. तिरिक्ख जोणियाण केवश्या सगरा पत्ता ? गोयमा! च- पां सूत्रारायध्येयानाति भावः । तत्र लेश्याद्वारे-ज्यानिकाणामसारि । तं जहा-ओरालिए, वेउब्बिए, नेयप, कम्मप" सर्वत्र कैनेजोलेश्या वाच्या। ज्ञानबारे-त्रीणि ज्ञानानि, प्रज्ञानान्यबाभनकमिति । तथा महननद्वारे-" पचिदियांतारक्खजाणि.. वित्रीरयेव. असंझिनां तत्रोपपातालावेन विभङ्गस्यापर्याप्तकायाणं केवड्या संघयणा पासत्ता ? । गोयमा! छ संघयणा । तं | वस्थायामपि भावात् । तथा वैमानिकानां वेश्याहारे-तेजोलेमहा-वरोसहनारायः जाव छेबह ति" । एवं संस्थान- इयाऽऽदयस्तिस्रोलेश्या वाच्या ज्ञानद्वारेच त्रीणि ज्ञानान्याद्वारेऽपि-"चट्ठाणा पत्ता । तं जहा-समच उरसे०"६। पवं नानि चेति । वैमानिकसुत्राणि चवमध्ययान-" सखा सेश्या द्वारे-"कलेसाओ पत्ता प्रो. ? गोयमा ! छल्लेमा पम- भंते ! वेमाणियावासमयमहम्सेसु एगमेगास वेमाणियावासभातं जहा- कराहले स्प्ता०६।(मगुस्सावित्ति) यथा सिकेवया ठिट्टाणा परता?." इत्येवमादीनि॥ भ०१००५उ०।
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जीव
(१५४५) जीव
अनिधानगजेन्धः। जीवानां सवलाफव्याप्तस्वम्
एतदेव प्रपञ्चयन्नाहएमिण भंत महासयमि लोगमि अत्थि के परमागापो
कइते ! पुढवी ओ पहणत्तामो ? । गोयमा ! जहा गंगनमेन विपएमे.जत्य णं अयं जी न जाए ना, नमए वा
पढमसए पंचनुद्देसए तहेव श्रावासा गवयचा. जाव । गोयमा! जो इगममहे। मेकेणटेणं भंते! एवं वुबह
अत्तरविमाणे तिजाव अपराजिए मन्वसिद्धे । अयं णं एयंमि महालयंमि लोगसि पत्थि के परमाणुपोग्गलमेले
त ! जीवे इमीमे स्यणापभाए पुढवीए नीसाए गिरयावि पदेसे.जत्य ग अयं जीवे ण जाए वा, एमए वा वि ?।।
वाममयसहस्सम एगमेगंसि बिरयावामि पुढवीकाश्यगोयमा ! से जहाणामए के पुरिसे अयासयस्म एणं महं।
ताए० नाव वणस्सइकाइयत्ताए णग्गत्ताए णेग्इयत्ताए भयावयं करजा, सेणं तत्य जहाणं एग वा दो चा
उनमा पुग्ने ?। हंता गोयमा असई अना अपंतखुत्तो। निमि वा, उक्कोसेणं अयासहस्सं पविखवजा, ताओ एणं
"करणं" इत्यादि । (नरगत्ताए त्ति) नरकाऽऽवासपाथवी
कायिकतयेत्यर्थः । (श्रमनि) असरदनकशः (अदुवत्ति) तत्य पनरगोयगो पउग्पाणीयात्रो जहम्मणं एगाई वा
अथवा (गंतखुत्तो ति) अनम्नवोऽनम्नवारान् । पुयाहं वा तियाहं वा,उक्कोसेशं छम्मासे परिवसेज्जा, अ
सब जीवा वि पं भंते ! इससे रयाप्पनाए पुढवीए त्यिक गोयमा ! तस्म अयावयस्स के परमाणपोग्ग- |
तीमाए पिरयातं चेव जाव अएं तखत्ता । अयं णं भंते ! समेत वि परमे, जेणं तासिं अयाणं उच्चारेण वा पास
जीचे मकरप्पनाए पुढवीए,पणवीसाए एवं जहा रयणप्पवणण वा खेलेण वा सिंघाणेण वा बंतण वा पित्तेण वा
जाए तहेव दो पायावगाजाणियन्या,एवं0 जाव धूमपभापृएण वा-सुकण वा सांणिण वा चम्मेहिं वा रोमेहिं वा
प। अयं णं भंते ! जीने तमाए पुढवीए पंचणे णिस्यावासस. सिंगहि वा खुरोहिं वाणहहिं वा अणिकंतपुब्वे भवऽ । णो
यसहस्म एगमेगसि, ससं तं चत्र । अयं ण भंते ! जीवे अंडे इण? ममढे, होजाइ णं गोयमा! तस्म अयावयस्स केड
सत्तमाए पुढवीए पंचमु अणुनरमु महइमहानएसु परमाणुपोग्गलमेत्ते वि पएसे, जेणं तासिं अयाणं उच्चारण
महाणिरएम एगमेगसि णिग्यावामनि, सेसं जहा रयबाळ जाव णहेण वा अणिकंतपुव्वे, पो चेव णं एयंमि
णप्पभाए। अयं णं भंते ! जीवे च उमट्ठी असुरकुमारामहालयसि लोगस्न मामयं चावं, संमारस्म अणादि नावं.
वाससयसहस्सु एगमेगसि असुर कुमारावासि पुढवीकाइजवस्म य णिचनावं, कम्मरहत्तं जम्मणमग्णवादुवं च
यत्ताए जाव नस्सइकाइयत्ताए देवत्साए देवित्ताए पासपमुञ्च त्यि के परमाणुपोग्गलमेत्ते वि पपने, जत्य | णमयणममत्तांवगरणत्ताए उववएणपुव्वे । हंता गोअयं जीवे जाए वा, ण मए वा वि, से तंगटणं तं चेव० यमा०! जाव कवुत्तो । सयजीवा वि भंते ! एवं चत्र, एजाव ग मए वा वि ।।
वं० जाव थणियकुमासु णाणत्तं ावानेसु भावासा पु(परमाणुपोग्गलमत्ते वित्ति ) अत्रापिः संभावनायाम । नभणिया। अयं णं भने ! जीवे असंखेमु पुढविकाइया(प्रयासयस सि) षष्ठ-याश्चतुर्थ्यर्थत्वाद जाशताय (अयाव
वानसयमहस्सेसु एगमेगसि पुढवीकाझ्यावसंमि पुढवीयंति) अजान जम, अजावाटकमित्यर्थः । (उकोसेणं अधासह. स्तं पाक्खवज त्ति) यदिहाजाशतप्रायोग्ये बाट उत्क
काइयत्ताए जाव वणस्मइकाइयत्ताए उववमपुवे ?। हंता घेणाजासहप्रक्षेपणमनिहितं तत्तासामनिसहरणतया ऽव- गोयमा जान खुत्ता । एवं सम्बनीवा नि । एवं० जाय. स्थानण्यापनार्थमिति । ( पउरगोयगओ पनरपाणीयानो ति) वणस्मश्काइए। प्रचुरचरणभूमयः, प्रचुरपानीयाश्च । अनेन च तासां प्रचुरमुत्रपु (असंखेजेसु पुदविकाश्यावासमयसहस्सेसु त्ति)हासंरोपपभयो बुनकापिपासाविरडेण स्वस्थतया चिरजीवित्वं ख्यानेषु पृथिवा कायिकाऽऽवासेवेत्रावनैव मरूयतसहसक्तम । ( नहिं व ति) नखाः खुराग्रजागास्तैः "जो चेब . स्रग्रहणं तत्तागमतिबदुत्वख्यापनार्थम् । नवरम्णं पयंसि महालयांसि लोगंसि " इत्यस्य "अन्थि के परमा- अयंग भंते ! जवि असंखेज्नेस् वेइंदियावानसयमहस्ममु गुपोग्ग मेत्ते निपपसे " इत्यादिना पूर्वोक्तानिनापेन संब
एगमेगंमि वेदियावासंनि पुढवीकाइयत्ताए जाव वणन्धः. महत्वालोकस्य । कमिदमिति चत?। अन पाह-"नागम्स" इत्यादि । कायणो ह्येवं न संभवतीत्यत मुक्त.म-लोकस्य
स्मइकाइयत्ताए नेइंदियत्ता नववमपुचे । ता गोयमा! शश्वितभावं, प्रतीत्यति योगः । शाश्वतत्वेऽपि लोकस्य संसा- जाव आगंतवुनो। मवजीचा विणं एवं चत्र, एवं० जाव रम्य सादित्य मेवं स्यादित्यमादित्वं तस्योक्तं,नानाजीवांपकया। माणुस्सेम, वरं तेइंदिएनु० जाव वणस्सइकाइयत्नाए तेईसंसारस्थानादिन्वेऽपि विवक्षितजीवस्यानित्यत्वे नोक्तोऽर्थः
वियत्ताए चउरिदिएमु चर्दियत्ताप, एवं पंचिंदियनिस्यादतो जीवस्य नित्यत्वमुक्तं, निन्यत्वे ऽपि जीवस्य कर्मालपस्वे तथाविधर्मसरणाभावानोक्तं वेस्तु स्यादतः कर्मयाहुल्यमु.
रिक्ख जोणिएसु पंचिंदियनिरिक्वजोणियत्ताए मागास्मेस क्कम,कर्मबाहु येऽपि जन्मादेग्ल्पत्वे नोक्तोऽर्थः स्यादिति जन्मा
पणुस्सत्ताए, सेसं जहा वइदियाणं, वाणमंतरजोइसियसोदिवाहुल्यमुक्तमिति ।
हम्मीसाणाण य जहा अमुरकुमाराणं ।
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(१९४६) जीव अन्निधानराजेन्द्रः।
जीवकाय "तेइदिपसु" इत्यादि । त्रीन्छियाऽदिसूत्रेषु द्वीन्छियाऽऽदि. शिनम) (जीवानां कर्मप्रतिष्ठितत्वं, कर्मसंगृहीतत्वं, जीवपुसूत्रात त्रीन्छियचतुरिन्द्रियेन्यादिनैव विशेष इत्यर्थः । इलयोरन्योन्यबद्धत्वं च 'झोगट्टि 'शब्दे वक्ष्यते) करणे व । - अयं णं भंते ! जीवे सणंकुमारकप्प वारसमु विमाणावास
जीवनोपाये, 'जीव' णिच अन् । वृनंद,वाचा बृहस्पती,नहे.
यताके पुष्पनक्षत्रच स्था०२ ०१ उ० । यथा मनुध्ययोनी सयमहस्सेमु एगर्भगंसि माणि यावाससि पुढवाकाडया, म.
दीडियाऽदिजीवोत्पत्तिस्तथैव तिर्यम्योनौकश्चिद्विशेषो धा! सं जहा अमुरकुमाराणं. जाव अणंतवत्तो । णो चेव पं इति प्रश्ने, उत्तरम-तिर्यगाश्रितः कोऽपि विशेषः शास्र स्टो देवित्ताए, एवं सम्यजीवा वि, एवं जाव आणयपाण एसु, नास्तीति । १४५ प्र०। सेन०३उल्ला० । अनुत्तरविमानेषु जीएवं भारणचुणसु नि।
धः कति भवान् करोतीति प्रश्ने, उत्तरम-विजयाऽऽदिषु उत्क
पतो वारद्वयं, मर्यासिरिविमाने एकबारमिति । जीवाभि(णो नेवणं दविसाए ति ) ईशानान्तेष्वेव देवस्थानेषु व्य
गमवृत्तौ विजयादिषु विचरमा,ति तत्वार्थसूत्रचतुध्याय उत्पन्न, सनत्कुमाराऽऽदिषु पुनति कृत्या "नो चेव ण देवि.
सार्थसिद्धिविमानादागतोऽनन्तरभवे सिद्ध्यत्येव,विजयाऽऽदिताप" इत्युक्तम् ।
चतुषु गतो मनुष्येषु चाऽऽयाति। तत्रापि जघन्येन एकं द्वौषा अयं णभंत! जीवे तिमुवि अट्ठारसुत्तरेस गेषिजगवि- भयौ, उत्कर्षतश्चतुशितिभवान, तत्र नरभवेऽष्टी, देवभोऽथी, माणावाससएमु एवं चेत्र । अयं णं भंते ! जीवे पंचसु अणु- भूयो नरजवी, ननः मियतेच, विजयादिषु विरुत्पन्नस्य सरविमाणेसु एगमगंसि प्रणतरविमाएंसि पृढवि० तहेव
नियमास्मिद्धिरनन्तरजव पवेति प्रघोषः, प्रज्ञापनायां संख्यात.
जवानिति । ७ प्रसेन०.३ उद्वा० । भाउत्तिमामा धनजाव प्राणतखुत्तो। णो चेवणं देवत्तार दविताए, एव
स्पतिविशेषः किं संख्यातजीवोऽसंख्यातजीवा,अनन्त जीयो या?, सन्मजीवा वि।
कुछ प्रोक्तमस्तीति प्रश्ने, उत्तरम-पाउनिमत्कम्सऽऽदी प्र. (णा चेवण देवत्ताए देविताए बसि) अनुसरविमानेष्व-!
संपाता जीवाः, पत्रादौ तु एकैको जीव इति प्रज्ञापनाऽऽदौ .नन्त्रकस्यो देवा नोत्पद्यन्ते, देव्यश्च सयवेति "णो चेवणं" प्रोक्तमस्तीति । 989.सेन) ३ उल्ला० । जी येनानादिकात्यायुक्तमिति।
मानवं समय देयं च भवति, तदनपणे बुध्यते, न घेति प्रशने, - भयं णं ते! जीने सम्बनीवारणं माइताए पित्तित्ताए
उत्तरम-पकान्तो नास्ति; यदि तपःस्वाध्यायादिना कम नि.
जरयति, नहा तदर्पणे बुट्यो । कर्मनिज्जरणमन्तरा तदनजाऽत्ताए जगिणित्ताए भजात्ताए पुत्तत्ताए धयत्ताए सु- पण न बश्य । इत। ६७प्र.सिना ४ उल्ना० । व्यवहारएहनाए नवनाम हो । हंता गोयमा! जाच अतवृत्तो। राशि प्राप्ता जीवः पुनः सदमनिगादमध्ये याति, न वेति प्रश्ने, प्रयंभंते जवि सम्मजीवाणं अरिनाए वरियत्तार घाया- उत्तरम गृहमनुष्यान् पृष्वा ददानीन्यवराणि सम्तानि ।११६७०। ताए वहाताए पडिणीयत्ताए पञ्चापित्तत्ताए नवमव्वे ।
सेना ४ नलला० । विकसितपुष्प मनामध्ये जीयाः संख्याता,
असं रूपाता वेतिप्रश्ने, उत्तरम केषु वित्पुष्पेषु संख्याता, केषुहंता गोयमा!. जाव अधूत वुत्ता । सबजीचा विणं भंते !
चिदसंरुपाताः केचिदनन्ताश्च प्रज्ञापनाऽऽदिषु कधिताः सन्ति । • एवं चेव । अयं णं भंते ! जो सबज वाणं रायताए
जातिपुष्पमध्ये तु संख्याता पब कथिताः सन्ति ।१३८ प्रास. जुवरापत्ताए. जाव सत्यवाहत्ताए उववएणपुब्वे ? हंता गो- न.४उल्ना । यमा! असति जाव प्रगतखुत्तो। सबजीनाणं एवं चेव । जीव प्रागनिया-जीवारम्निका-खी । यज्जीवानारजमाण(रिसाए ति ) सामान्यतः शत्रुभावेन ( वेग्यिताए ति)।
| स्योगमृद्यतः कर्मबन्धनं सा जीवारम्भिका । क्रियानेदे, "पारं.
भिया किरिया दुबिहा पराण ता । तं जहा जीवारलिया चव, घेरिका शत्रुभावानुबन्धयुक्तस्तत्तथा-(घायगत्ताए ति)मार
अजीवारंभिया चेव"। स्था० २०१०। कतया (बहताए त्ति) व्यधकनया, ताडकतयेत्यर्थः । (प. मिणीयमाए सि) प्रत्यनीकतया कार्योषघातकतया (पच्चामि
जीवं जीव-जीवजीव-पुं० । जीववो, " स गुणं जीयंजीवेणं सत्ताप सि) मित्रसहायनया।
गन्छ, जीव जीवेणं चि।" अनुस्वारस्यागमिकत्याज्जीव
जीवन जीयब न गति ,न शरीरबलेन । ज०२ श० १००। अयं पं भंते ! जीवे सबजीवाणं दासत्ताए पेपत्ताए।
का० । अन्त । जीवान् जीययति दर्शनेन तृप्तिकरत्वात् । चकोनुयगत्ताए नाइलगत्ताए जोगपुरिसत्ताए सीसत्ताए बेस
रपक्षिणि, वाचः। नाए नववएणपुले । हता गायमा!0 जाव अणंतखुत्तो, जीवनावग-जीवनीवक-jo । जीवान् जीवति खन् । च. एवं सधजीना वि० जाव प्रणंतग्वुत्तो ।
| कोरे, चर्मपक्षिभदे, वाच । प्रज्ञा । जी० । औ० । प्रश्न । • (दासत्ताप त्ति) गृहदासीपुत्रतया (पेसत्ताए त्ति) प्रेष्यतया जीवंत-जीवत-वि० । प्राणान् धारयति;"मच्छा व जीवंत प्रादेइयतया (भुयगचाए त्ति) भृतकतया दुष्कालादौ पोषित- व जोतिपत्ता"।(१३ गाथा) सुत्र०१ श्रु० ५ ० १ उ०। सया (जास्वगत्ताप त्ति) कृष्यादिनागस्य नागग्राहकत्येन (जो
जीवकप-जीवकल्प-पुं० । व्यकल्पनेदे, “तिविहो य जी. गरिसत्ताए ति ) अन्यैरुपार्जितानां भोगकारिनरतया जान (सीसत्तार त्ति) शिक्षणीयतया (वेसत्तार ति द्वेष्यतयेति। वकप्पो, दुपयचनप्पय अपयभेपहि।" पं. ना० । पं. च। ज०१२ श० ७ उ० स्था(जीवः सदा समितभेजते तत्र कि जीपकाय-मविकाय-पुंजीवनं जीवोझानाऽऽधुपयोगस्तत्प्रधाबन्धक इति रियावहिया' शन्दे द्वितीयभागे ६२४ टेद- नः कायो जीवकायः। भ०७ श. १ उ० । जीवराशी, सूत्रः ।
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(१५४७) जीवकाय अभिधानगजेन्ज:।
जीवट्ठाण जीवकायस्वरूपनिरूपणार्थमार
जीवधाय-जीवघात-j०। प्राणातिपात, आव० ६ प्र.। पुढवीजीचा पुढो सत्ता, भाउजीवा तहाऽगणी।
जीवजद-जीवजह-त्रि० । जीववर्जित, नि००१ उ.। वाउजीचा पुढा सत्ता, तणरुक्खा सबीयगा । ७॥ । ( पुढवाजीबा इत्यादि ) पृथिव्येय पृथिव्याश्रिता था।
जीवाण-जीवस्थान-1०। ६० । मर्मणि, वाच० । जीवम्ति जीवाः, ते च प्रत्येकशरीरत्वात्पथक प्रत्यक मस्या ज
यथायोगं प्राणान् धारयन्तीति जीवाः प्राणिनः शरीरभृत सबोऽवगन्तव्याः । तथा प्रापश्च जीवाः । पवमानका
इति पर्यायाः। तेषां जीवानां स्थानानि सयापर्याप्तकेन्द्रिय. पाश्च, तथाऽपरे वायुजीवाःतदेवं चतुमहाभूनसमाधि
स्वाऽऽदयोऽयान्तविशेषास्तिष्ठन्ति जीवा एषु इति कृस्या जी. ताः सस्थाः प्रत्येक शरीरिणाऽवगन्तव्याः । पन एव पृथि
वस्थानानि । जीवानां सूदमापर्याप्त केन्द्रियत्वाऽऽदिके वान्तरवि. व्यप्तेजोवायुसमाश्रिताः सत्वाः प्रत्यकशरीरिणो, बषयमाण
शेषे, कम। बनस्पतेन्तु साधारणासाधारणशरीरत्नापृथक्यमध्यस्ती
अथ जीयस्थानप्रतिपादिकां गायामाह- . स्यस्यार्थस्यदर्शनाय पुनः पृथक् सस्वग्रहणमिति । बनस्पतिका- | नमिय जिणं जियमग्गण-गुणगावोगजोगदोमायो। ५स्तु यः सदाः सः सोऽपि निगोदरूपः । साधारणयादर- बंधडपबहभावे, संखिज्जाई किमवि बुच्छं ॥१॥ तु साधारणाऽसाधारणश्चेति । तत्र प्रत्यकशरीरिणोऽसाधार- |
जिनं नत्वा जीवस्थानाऽऽनि वश्य इति संबन्धः। कर्म०) जी. णस्य कतिचिंद्भदानिदिदिकुराह-तत्र तृणानि दर्भधारणाऽऽदी.
बमागणागुणस्थानानि पदये, इट स्थानशब्दस्य प्रत्यकं योनि, काश्चूताशोकाऽऽदयः, सह बीजैः शानिगोधूमादिभि. गाद् जीवस्थानानि मार्गणास्थानानि गुणस्थानानि उपयोतंत इति सीजकाः। एते सर्वेऽपि वनस्पनिकायाः सस्वा अ- गध योगश्च लेश्याश्चेति द्वन्द्वे हितीयाशस् । (कर्म) बगन्तव्याः । अनेन च बोका दिमतनिरासः कृतोऽवगन्तव्य यद्वा-बन्ध इति पदैकदेशेऽपि नामा' सत्यभामेनिन्याय. इति। पनेषां च पृथिव्यादीनां जीवानां जीवत्वेन प्रसिकिस्वरूप
न पदप्रयोगदर्शनादुन्धहेतवा मिथ्यात्वाविरतिकषाययोगरूपण निरूपणमाचारे प्रथमाध्ययने शास्त्रपरिकाऽऽख्ये व्यक्षेण प्रति. वषयमाणा गृह्यन्ते (अपबहु ति) भावप्रधानत्यानिशस्व पादितमिति नेद प्रतन्यते ।
प्रस्पबहुत्वं, गत्यादिरूपमार्गणास्थानाऽऽदीनां परस्पर सोकभूषष्ठजीवनिकायप्रतिपादनायाह
यस्थम । (जाय नि) जीवाजीवानां नन तेन रूपेण जयनानि प्रहावरा तसा पाणा, एवं छकायआहिया ।
परिणमनानि, भाषा औपशमिकाऽऽदया, तनो बन्धश्चापबरएतावर जीवकाए, णवरे को विजई॥ ॥
स्वं च भावाश्चेनि बन्द द्वितीयाबहुवचनं शस् । सूत्रेच-"अप्प. (अहावरेत्यादि ) तत्र पृथिव्यतेजोवायुवनस्पतय ए
बहू' इत्यत्र दीर्घवं "दोघडखौ मिथो वृत्तौ" ।।१।। कम्यिाः सदमबादरपयांप्तापर्याप्तक नेदेन प्रत्येकं चतुर्वि
इति प्राकृतसूत्रेण । (संखिज्जा (स) संख्यायत चतुःपल्यादिघाः । अथानन्तरमपरेऽन्ये प्रसन्नीनि प्रसाः, द्वित्रिचतुःप.
प्ररूपणया परिमीयत इनि संस्थेयम् । आदिशम्दावसंम्येयाश्याः कृमिपिपीलिकाभ्रमरमनुभ्याऽऽदयः । तत्र 16
नम्तकपरिग्रहः । तत एवं जीवस्थानाऽऽदिकमनन्तकपर्यवसानं त्रिचतुरिजियाः प्रत्येक पर्याप्त मापर्याप्तकनेदात्यविधाः ।
द्वारकलापमा अव वक्ष्ये इत्यनेनाभिधे यमाहाकथं वक्ष्य इत्या. पश्चेयास्तु संश्यमंझिपयांप्तकापर्याप्तकभेदामचतुर्विधाः ।
(किमवित्ति) किमपि किश्चित स्वल्प न विस्तरवत् ।दुपमासदेवमनन्तरोक्तया नीन्या चतुर्दशभूनप्रामाऽमकतया व्या.
नुभायनापचायमानमंधाऽयुबलाऽऽदिगुणानामैयुगीनजनामां क्यानास्तीर्थकरगणधराऽऽदिमिरतावानेव नद्भदाऽऽत्मक एव,
विस्तराभिधाने सत्युपकारासंभवात्तदुपकारार्थ चैप शाख 55. संक्षेपतो जीवनिकायो जीवराशिर्भवत्यएडजोद्भज्जसंस्थेद
रम्भप्रयासः। एतेन संकिप्तरूचिसत्वानाभित्य प्रयोजनमायटे। जाऽऽरवान्तभावानापरो जीवराशिथिद्यत कश्चिदिति ।
संबन्धस्वर्थाऽपत्तिगम्यः,स चोपायोपेयलकणः,साध्यसाधसूत्र०१७.११ १०॥
नलकणा. गुरुपर्वकमल कणो वा स्वयमभ्यूह्यः । ह च मागनीवकिारया-जीवक्रिया-स्त्री० । जीवस्य क्रिया व्यापारी जी. णास्थानगुणस्थानाऽऽदयः सये पदार्थो न जीवपदार्थमन्तरेण অঙ্গ। ৰামাঙ্গিযাম, থাৎ।“ জাক্কিা দ্বারা
विवारयितुं शक्यन्त इति प्रथमं जीवस्थानग्रहणम १ । जीपाता। तं जहा-सम्मतकिरिया बेव,मिच्चत्तकिरिया चेव।"
वाश्च प्रपञ्चतो निरूप्यमाणा गत्यादिमार्गणास्थानरय निरूपस्था०२०२ उ० ।
यितं शक्यन्त इति तदनन्तरं मार्गणास्थानग्रहणम। तेषु च जीवगराय-जीवकराज-पुं० । नेमिजिनसमकालिके स्वनाम
मागणास्थानेषु वर्तमाना जीवा न कदाचिदपि मध्याहचाख्याने राजनि, ति।
द्यन्यतमगुणस्थानकविकला जवन्तीति शापनाय मार्मणास्था
नकानन्तरं गुणस्थानग्रहणम् ३ श्रमूनि च गुणस्थानकानि जीवग्गाह-जीवग्राह-अव्य० । जीवता ग्रहणे, "जीवग्गा गि.
परिणामशुद्धय शुद्धिप्रकर्यापकर्षरुवाएयुपयोगवनामेयोपपद्यन्ते, पहति । " जीवतीति जीवस्तं जीवं जीवन्तं गृह्णाति । ज्ञा० १ नाम्यपामाकाशाऽऽद नां. तेषां ज्ञानादिरूपपरिणामरदिगम्यामु०२०।
दिनि प्रतिपत्यथै गुणस्थानकग्रहणानन्तरमुपयांगग्रहणमा उपमीवघण-जीवधन-पुजीवाश्च ते घनाश्च शुषिराऽऽपरणाद् योगवन्तश्च मनोवाकायवेपासु वर्तमाना नियमनः .मसंबन्धजीवधनाः। प्रा०म०अिन्तररहितत्वेन जीवप्रदेशमशेषु,सि. भाजो भवन्ति । तथा चाऽऽगम:-"जावणं एस जीवे एयः वय
बतणमधिकृत्य-"अरुविण जांबघणा" जीवाश्च ते घना अ- चलाफा घट्टर खुम्नातं तं भावं परिणमा, नाव अट्र. न्तररहितत्वेन जीवप्रदेशमयाः। उत्त०३६ अ०। जीव पव घ. विहबंधए वा सत्तविहबंधए वा छब्धिहबंधए वा एकविहवं. मा मातःसन्धांक्षाशकल इव यस्याहिरण्यगजें, वाच।। ए बानो ण प्रबंधए" इतिधापनार्थमुपयोगग्रहणानन्तर योग.
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(१५४०) जीवट्ठागा अभिधानगजेन्छः ।
जीवद्रागा प्रहणम । यांगवशाचोपात्तस्यापि कर्मणा यावा कृष्णाऽऽद्यन्य
नहतुः शक्तिविशषः।मा च विषयभेदान पोदा-पाहारपर्याप्तिः, समले च्यापरिणामा जायने, नावन्न तम्य स्थितियाकाबशेषो
शरीरपाप्तः, इनिध्यपर्याप्तिः, उच्चामपयांप्तिः, भाषापर्याप्तिः, जवनि, "स्थिनिपाकविशेषस्तस्य जबात वेश्याविशेषण "ति
मनापर्याप्तिश्चति । तत्र यया बाहामाहारमादाय खबरमरूपतया पचनप्रामाण्यात । ततो योगवशापात्तस्य कर्मणो नं. परिणमयति सा आहारपर्याप्तिः, यया रमीभनमाहारं सासश्याविशेषतः स्थितिपाकविशेषो भवतीनि प्रतिपत्तय यो- ग्मांममेद।ऽस्थिमज शकलत्तणमप्तधातुरूपतया परिणमयति सा गानन्तरं श्याग्रहणम ६ । नयावन्तश्च यथाय गर्बन्धहेतु. शरीग्पयाप्तिः, यया धातुरूपाया परिणामतमाहारामान्यरूनिः कर्मबन्धादयोदारणासत्ताः प्रकुर्वन्तीति ज्ञापनाय बेश्या
पतया पारणमयति सा इन्द्रियपर्याप्तिः, यया पुनरुच्चामप्रायोमन्तरं बधग्रहणम ७। बन्धोदयाऽऽदियुक्ताश्च जीचा मार्ग- ग्यवर्गणालिकमादायांच्चामरूपतया परिणमरया लम्य जाम्यानाऽऽयाश्रित्य नियमतः परस्परमणे वा भवयुबहवा
च मुच्चीत सा उच्चामपर्याप्तिः, यया तु जापाप्रायोग्यवर्गणाबेनि निवेदनाबधानन्तरमल्पबहुत्यग्रहणम ८ ने च जीवा
व्यं गृहीत्वा भाषान्वेन परिणमय्याऽऽसमय च मुश्चति सा आपणास्थानाऽऽदिघल्प वा बहवो वा भवन्तोऽवश्यं पलामोप- पापर्याप्तिः, यया पुनर्मनायोग्यवर्गणादायक गृहीत्वा मनस्वेन शामिका दिनागनाकेषुनिद्भावषुवतन इति प्रकटनार्थ मल्पय. परिणमय्याऽऽलम्म्य च मुञ्चति मा मनःपर्याप्तिः। पताश्च यथाहवान भायग्रहणम । औपशामकाऽऽदिभाववतां च जी
क्रममेकेन्द्रियाणां द्वानियादीनां संकिनां च चतु.पञ्चपटपानामरूपब - नियमतः संस्ययकेनासंदेयकनानन्तकन वा संख्या भवन्ति । यदभाणिनिरूपणीयमिति भावग्रहणानन्तरं संयका दिग्रहणाम- "प्राचारसरीमिंदिय-पज्जनी माणपाणनाममणे। ति १० यद्यपि नेह सामान्यनोक्तं जावस्थानाऽऽविदय नथा. चत्तारिपंच छपि य, पगिदियविगवसन्नाणं " ॥१॥ ध्येवं विशषता द्रव्यम । जीवस्थानकेषु गुणस्थानकयोगांप- पर्याप्तयो विद्यन्ते येषां ने पर्याप्ताः "अभ्राऽऽनित्यः" । ७।२। योगलेश्याकर्मबन्धोदयोदोरणासत्ता वस्य । फर्मः। ४६। इति मत्वर्थीयोऽपप्रत्ययः; स्मार्थिक कप्रत्ययोपादानापमागणास्थानकेषु जीवस्थानाऽऽदानि
याप्तकाः। ये पुनः स्वयोग्यपर्याप्तिपरिसमाप्तिविकलास्ते उपर्या"उदमजियठाणेसुं, च उदस गुण वाणगाण जोगाय ।
प्रकाः । ते च बिधा-सन्या, करणैश्च । तत्र येऽपर्याप्तका पव उवमोगोमबंधद-ओदीरणासंतअपर"॥ कर्म01
सन्नो नियन्ते, न पुनः स्वयोग्यपर्याप्त मर्या अपि समर्थयन्ते ते तत्र योदेशं निर्देश इति न्यायात प्रथम तायजीव
सध्यपर्याप्तकाः। ये पुनः करणानि शरीरेन्डियाऽऽदानि न तावनि
वर्तयन्ति, अयवा अवश्यं पुरस्नान्निनयिध्यन्ति ते करणापस्थानानि निरूपयन्नाह--
यांप्तकाः। हवमागमः-"ध्य पर्याप्तका अधिनियमादाहा. इह मुहमवायरेगि-दि-वि-ति-चउ अमनिसनिपचिंदी।
रशरीरनिध्यायर्याप्तिपरिसमाप्तवेध नियन्ते, नाबाग, यस्मादा. अपनत्तापजता. कमेगा चनदस जियट्ठागा ॥३॥ गामिनवायुबंचा पिने सर्व एव देहिनः, नचा 5ऽहारशरीरेहास्मिन् जगति अनेन क्रमेण चतुर्दश जीवस्थानानि प्राग्निः जियपर्याप्तिपर्याप्तानामेव वध्यत इति ॥ तंदवं निरूपिनागिनशम्माधानि भवनि केन क्रमेणान चारणह-सूक्ष्मवादरै- नि जीवस्थानानि । कम० ४ कर्म। पं० सं० । (जीयस्थानेषु कोन्द्रद्विधिनतासकिसाझपन्छियाः,एने चमऽपि प्रत्येक २४ गुणस्यानानि गुणहाण' शब्दे तृनायमागे ए.७ पृष्ठे पयांप्तका अपर्याप्तकाला नत्रैकं सर्शनअक्षणमिन्द्रियं येषां ते उक्तानि) साम्प्रतं योगा कमवसरप्राप्तास्तं च पश्चतरा । केन्द्रियाः पृधिव्यप्नेजाचायुवनस्पतयः। तच प्रत्येक द्वेधा-सू. तद्यथा--सत्यवाग्योगः, असत्यवाम्योगः, सत्यमृगायाग्योगः, नावानराधाममनामकोदयात्सूक्ष्माःसका लोकव्यापिनो, असत्यामृगवाग्योगः। बादरनामकमान याद्वादराः, तेच लोकप्रतिनियतदेशवर्तिनः।
तत्स्वरूप दमविचितुरसंक्षिसहिपश्चेन्डिया इति । इन्द्रियशन्दम्य प्रत्येक
"सच्या हिया सनामिह. संतो मुणयो गुणा पयत्था वा। योगाववाधियानाछियाः चतुरिन्छिया असंझिसंझिनेद- ताम्बवरीया मोसा, मीसा जातकुभयसहाया ॥ १ ॥ निन्नाश्व पश्चन्छियाः। तत्रद्वेशनरतनलत्तणे इन्द्रिये येणं अर्णाहगया जा तासु वि.सद अभिनय केवलो असचमुसा"। सेवान्द्रियाः, कृमि तरकचन्दनकशयकपर्दजनीकारभृतयः। एवं मनायोगोऽपिचता द्रश्या काययोगः सप्तधा-श्रीहारिअाणि स्पर्शनरसनघ्राणरूपाणीम्ब्यिाणि येते त्रीबिया- कम, औदारिकमिथं, बैंक्रिय, वैक्रियामिश्रम, आहारकम्.आहापुनरकुणयूकागईनेन्द्रगोपकमरकोटका3उदयः। चत्वारिस्पर्शन- रकमिश्र, कामणं च । नादारिक काययोगस्तिर्यमनुष्ययोः, रसनप्राणवकुल कणानान्छियाणि ययं ते चतुरिन्छिया:, भ्रमर
। तयारवापर्याप्तयोरौदारिकमिश्रकाय योगः, वैक्रियकाययोगो दे. मक्षिकामशकवृधिकाऽऽदयः पश्च स्पर्शनरसनघ्राणचक्षुःश्रोत्रन- बनारकयोः निर्यकम नुपयोर्वा, वैकियलब्धिमताः क्रियकरणानीसियाणि येषां ते पश्चम्द्रियाः,मत्स्यमकरेजकसानसारम- मिश्रकाय योगोऽपर्याप्त पार्देवनारकयोस्तियमनुष्ययोर्चा, वैहंसनरसुरनारकाऽऽदयः। ते च द्विधा-मानोऽसंक्किनश्च। तत्र सं. क्रियस्यारम्भकाले परित्यागकाले च पाहारकं चतुर्दशपूर्वबि. कान संका, भूतभवद्भाविभावस्वभावपर्यामोचनम् । " उपस:
दः. आहारकमिश्रकाययोगः, भाहार कस्य प्रारम्नसमयगांडातः" ।५ । ३। ११० । इत्यङ् प्रत्ययः । सा विद्यत येषां
रित्यागकाले च कामणकापयोगोऽप्रकारकर्मविकाररूपसकिनःविशिष्टस्मरणादिरूपमनोविज्ञानमाज इति यावत।।
शरीरचा स्वरूपोऽन्तरालगतायुत्पत्तिप्रथमसमये केवलि समुसद्विपरीता अझनो विशिष्टस्मरणाऽऽनिरूपमनोविज्ञानविकमा धानावस्थायां च । स्त्यर्थः। एते च सूची केन्द्रियाऽऽदयः प्रत्येक द्विधा-पर्याप्तकाः ।
नानतान् योगान् जीवस्थानके व्यचिख्यासुगढअपर्याप्तकाचा पर्याप्ति मामलोपवयजः पुषग्रहणपरिणम अपनत्तककि सम्मुर-तमीसजागा अपनसन्त्रीम।
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(१५४६) जीवट्ठाण अमिधानराजेन्म:
जीवट्ठाण ने मावन्नमम एमुं, तणुपकेमू नस्लमन्ने ॥४॥ पयाप्तसूचमैकन्मिय औदारिककाययोगो भवनि, पयाप्तशब्दश्च अपर्याप्तानां सूक्ष्मवादरद्वित्रिचतुरसंछिपश्चेन्द्रियाणां पटूमर्या "सच्चे मन्त्रिपजने" इतिपदाद झमरुकमणिन्यायेन सर्वत्र याज्यः। सपटू, तस्मिन् अपर्याप्तपदे, संज्ञिपश्चेन्जियापर्याप्तवर्जिनेषु (उसु त्ति) चतुर्पु द्वीडियत्रीनिडयन तरिन्द्रियामंझिपश्चन्द्रिये. षट्सु अपर्याप्तेषु योगी भवनः। द्विवचनस्य बद्दवचनं प्राकृनत्या. पु पर्याप्तेषु तदवोदारिक जवति कि कवलम?, नेत्याह-सभा त । यथा-"हल्या पाया" इत्यादौ। कौवोगा? इति । पाह-काम- सह नाषया असत्यामृपास्वरूपया, “विगलेसु असच्चमास गौदारिकामथौ; तत्र कार्मणकाययोगोऽपान्तरालगतावत्पत्तिप्रथ- ति" वचनात् बत्तंते इति सभापम । कोऽध?-विकलत्रिकासं. मसमये च,शषकाझं त्वौदारिकमिश्रकाययोगः। (अपजमनीसु । झिपञ्चेन्जियेषु पयांतषु औदारिककाययोग सत्यामृषाभापाल - ते सविउवमीस प्ति ) अपर्याप्तसंविषु मंझ्यपयांप्तजीवेषु तो क्षणो द्वो योग इत्यर्थः । तदित्यनुवतंते, तदादारिक सह पूर्वोत्तो कामणौदारिकमिश्रकाययोगी भवनः । किं कवलौ ?,ने. बैंक्रियद्विकन बैंक्रियक्रिय मिश्रलक्षणेन वसंत इति सबैत्याह-सह क्रिमिश्रण वर्तत इति सक्रियमिश्री । तथा चा- किद्विकं चादरकन्द्रियपप्तेि भवति । अयमर्थः-बादरैकेन्डिये पयाप्तमझिनि त्रयो योगा नवान्त कामंणकाययोगः, श्रौदारि- पर्याप्त औदारिककाययोग-वैक्रियकाययोग-वैफिमिश्रकाकमिथकाययांगः, वैक्रियामश्रकाययोगश्च । तत्र कार्मणकाय
ययोगक्षणास्त्रयो योगा जवन्ति । नत्रौदारिककाययोगः पृयोगोऽपान्तरालगतावुत्पत्तिप्रथमसमये च शेषकालं तु तियङ्म
थिव्यम्बुजोवनस्पतीनां वैशियद्विकं तु वायुकायस्येति प्रकनुष्ययोरीदारिकमिश्रकाययोगः। माझिनोऽपर्यातस्य देवनारकेषु
पिता जीवस्थानेषु योगाः। कर्म.४ कर्म । पुनरुत्पद्यमानस्य वैक्रियमिश्रकाययागो अष्टव्यः,न शेषस्य, असं.
एतेषु पुनर्जीवस्थानेषु योगानभिधित्सुराह- - भवाता मिश्रता चात्र कार्मणेन सहजपच्या । अत्रैव मतान्तरमुप- विगमासन्नीपज्ज-त्तएमु लभंति कायवइ जोगा। दर्शयन्नाह-पषु पूर्वनिर्दिष्टेषु शेषपर्याप्त्यपेक्षया पर्याप्तेषु,तनुपर्या- सन्ने वि. सनिपज्ज-तएम सेसेसु काोगो ॥६॥ प्पु, शरीरपर्याप्त वत्यर्थः । औदारिकमौदारिककाययोगम,
८ पदैकदेश पदममुदायोपचाराद् विकला इत्युक्त विकलेश्रध्ये कचिदाचार्याः शीलाङ्काऽऽदयः; प्रतिपादयन्तीति शेषः ।
न्द्रियग्रहणम : पवमन्यत्रापि यथायोग परिजावनीयम् । तत्र शरीरपर्याप्त्या हि परिसमाप्तिवत्या किल तेव शरीर
विकलेन्द्रियेषुद्वित्रिचतुरिन्द्रयरूपेषु,असज्ञिकषु च पश्चेन्द्रियेषु, परिपूर्ण मिष्पन्नमिति कृत्वा । तथा च समन्धः-औदारिक
पहिले कायवाग्योगों लज्यते । तत्र काययोग औदारिककाययोगस्तियङ्मनुध्ययोः शरीरपर्याप्ते, तहारतस्तु मिश्र
शरीरलकाणी अटव्यः, यागयोगश्चासत्यामृषारूपः, “विगलेसु इति। नम्बनया युक्त्या संझिनो ऽपयांप्तम्य देवनारकपद्यमान
असच्चमंसि च।" इति वचनात् । सऽपि च सद्विपञ्चन्छियेस्य तनुपर्याप्त्या पर्याप्तस्य चैक्रियमपि शरारमुपयद्यान एव,
खु पर्याप्त समभेदाः कायवाइमनोयोगाः पञ्चदशापि योगाकिमिहतोक्कमिति?। उच्यते- उपलकणस्वात् पतदांप एव्य.
स्हेषु नवन्नात्यर्थः । नत्र कर्मणौदारिकमिश्री केवलिसमुदमित्यदोषः । यद्वा-हापर्याप्ता सध्यपर्याप्तका एवान्तर्मुहुर्ता
घानावस्थायाम । नक्तंच-"मिश्रादारिकयोगी. सप्तमषष्ठाव. युषो प्रल्यानेच तियङ्मनुष्या एव घटन्ते,नेपामवान्तमुह
तीयेषु । कार्मणशरीरयोगी, चतुर्थक पञ्चम तृतीय च ' ॥१॥ युरकत्वसंजवान्,न देवनारकाः,तेषां जघन्यनोऽपि दशवर्षस
इति । आहारका हारकमिश्राबाहारकक्रिय क्रियमिश्री च इनाऽऽयुष्कत्वाद । सभ्यपर्याप्तका अपिच जघन्यताऽपीडिया
तत्कर्तुः शेपास्त्वौदारिकाऽऽदयः सुप्रतीताः,तथा शेषेषु पर्याप्तापर्याप्ती परिसासायामेव नियन्ने, ना_गित्युक्तमागमाभिषा
पर्याप्तमृदमघादरैकेन्द्रियेषु, अपर्याप्त च द्वित्रिचतुरिन्जियासं. येण । ततस्तेषां लब्ध्यपर्यामकानां शरीरपर्याप्या पर्याप्ताना
झिसशिषु काययोग एवैको भवति ॥ ६॥ मौदारिकमेव शरीरमुपपद्यते, न वैक्रियमित्यदोषः । किं चान्य
तमेव म्पष्टयनाहमतकथनेनायमभिप्रायः सूयते यद्यपि तेषां शरीरपर्याप्तिः स. मजनिए, तथापि इन्द्रियोच्चासाऽऽदीनामधाप्यनिष्पन्नत्वेन श.
लखीए करणेहि य. ओरालिय मीसगो अपजते । रीरस्यासंपूर्णत्वात् । अत एव कार्मणस्याप्यद्यापि व्याप्रियमा
पजत्ते ओरालो, वेनधिय मीसगो वा वि ॥ ७॥ णत्वाचौदारिकमिश्रमेव तेषां युक्त्या घटनानमिति ॥४॥ सध्या, करणैश्चापर्याप्त श्रौदारिफामश्रः काययोगो भवति । सव्वे सन्निपजत्ते, चरखं सुहमे सनास तं चनम् ।
इदं अतिर्यकमनुष्यानधिकृत्योक्तमयसेयम् । तेषामेव हि समया, बायरि सविनधिगं, पजसविसु वार नवोगा ॥५॥
करणैश्चति विशेषणद्वयसंभवः, न देवनारकाणां. ते हि करणास दशापि योगा भवन्तिातथाहि-चतुको मनायोगः,चतु
पर्याप्ता एव संभवन्ति,न लायपर्याप्तिकाः, ततस्तेषामपर्याप्तावकी बायोगः,सप्तधा काययोगः। क्व,ति। श्राह-संझिपयाप्त संसी
स्थायां कियमिथः काययोगो दिनन्यः। सप्तानामपि चापर्याचासौ पर्याप्तः संझिपर्याप्तस्तस्मिन् संझिपर्याप्ते । नन्यौदारिकभि
प्लानामपान्तरालगतावुनपत्तिप्रथमसमयेच कामणकाययोगः । अवैक्रियमिश्रकामणकायोगाः कथं संक्षिपर्याप्तस्य घटन्ते,तेषा.
तथा पर्याप्त औदारिको, चैकियो, क्रियमिश्रश्च । तत्रौदारिक
'स्तिर्य छमनुष्याणां. वैक्रियो देवनारकाणां, क्रियक्रियमिश्री मपर्याप्तावस्थाभावित्वात् । उच्यत-क्रियामधं संयताऽऽदेवं. कियं प्रारजमाणस्य प्राप्यते, औदारिकमिश्रकामणकाययोगी तु
पर्याप्तबादरवायुकायिकपश्चेन्द्रियनिय मनुष्याणां वैक्रिय लम्धिकेवझिनः समुद्घातावस्थायाम् ।
मताम् | अपिशब्दादाहारकाहारकमिश्रौ चतुर्दशपूर्वविदः, इह यहाह भगवानुमास्वातिवाचकवर:
कंचन शरीरपर्याप्तेरवीक नरतिरइनामौदारिकमिधे, देवनार. " श्रीदारिकप्रयोक्ता, प्रथमाष्टमसमययोरसाविष्टः।
काणां चैक्रियमिध,शरीरपति पुनः शेषपर्याप्तिनिरपर्याप्तामिश्रौदारिकयोक्ता, सप्तमषष्टद्वितीयषु ॥१॥
नामप्यौदारिक वैक्रियं चेच्छन्ति, तन्मतेनेयमन्य कतृका गाथाकार्मणशरीरयोगो, चतुर्थक पञ्चमे तृतीये च ॥” इति। । कम्मुरनगमपजे, वेनविद्गं च सन्निनषिद्धे ।
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जीवद्वाण
(१५५०) अन्निधानराजेन्द्रः ।
जीवट्ठाण
पज्जे उरलो चिय, चार वन्चियग च ॥ ७ ॥
प्रादाराभिवापः शुढेदनीयप्रभवः खल्वाम्मपरिणामविशेष इति । अपर्याप्त सूक्ष्म दो कार्मणमौदारिकद्विकं च औदारिकौटारि- अभिलापश्च-ममैवरूपं वस्तु पुटिकार, तपदीन मवाप्यते कमिश्ररक्षणं,नाबना पातनिकासारण धेदितव्या संझिन पुनः
सता समीचीन नयतीत्येयं शब्दार्थोल्लस्नानुबद्धः स्वपुणिनिमि"ल खो" इति वैकिपनब्धिमनि देवादावपर्याप्त क्रियाद्वकम
सभूनप्रनिनियनवस्तुप्राज्यव्यवसायरूपः। सच श्रनमेव शब्दा. बैक्रियक्रियश्रिलक्षणे, चशब्दात कार्मणं च एडयम । नया
धाऽऽलोचनानुमारित्वात. अनस्यैवैतल्लक्षणत्वात्। पर्याप्तेषुसझाऽऽ देशनादौदारिक पकाययोगः,पत्रकणमेत
यदवादिषुर्दशितप्रवादिकुवादिश्रीजनभगणितमाश्रमणपादा:सू-तन देवनारकेषु वैक्रिय एव । तथा वात वायुकायिक पर्याप्त थे।
"इदियमणानिमित, बिम्नाणं जे सुयानुमारणं । कि यद्विकम-वाकय क्रियमिश्रलणं,बराब्दस्यानुक्तसमुचायक
नियमाथुतसमन्यं, तं भावसुयं मइंसेसं"॥१॥ स्वादादारिक चक्रिर्याद्वकर्मापचवारकायस्य कस्य चिदव
(सुपा मारणं ति) शब्दार्थाऽलाचनानुसारण कंवनमेजयम, न तु सर्वस्य । यत उक्तं प्रज्ञापनाचूर्णी-" निगई
केन्द्रियाणामध्यक्त पय कश्चनाप्यनिर्वचनीयः शब्दार्थोखो साव रामीणं धेनुब्धियलद्धी चव नत्थि, वायरपज्जुत्ताणं पि
अध्यः। अन्यथाऽऽद्वाराऽऽदिसंझाऽनपपतेः। यदप्युक्तम भाषा
विधधानन्डियलब्धिविकलन्याकामयाणां श्रम समिति । सखजश्भागस्लत्त"। अत्र ( तिराई रासीसे ति ) त्रयाणां
नदप्यममीकिनाभिधानम् । तथाहि-बकुमादेः स्पर्शनेन्ट्रिया. पर्याप्तापर्याप्तसदमापर्यातबादररूपाणां राशीनाम । ५.०१
निरिक्तव्यन्डियलग्धिविकऽपिकिमपि समं भावरिपद्वार । कर्म साम्प्रतमुपयोगः प्ररूपणावसम्मतः, ते च
शकविहानमन्युपगम्यने । “पंचिदिय व बउझो,मरु ब्य बद्वादश । तद्यथा-मतिकानश्रुतवाना ऽवधिकानमनःपर्यवहान
विसोवलं भानो।" इत्यादिवचनप्रामाण्याना तथा जापाथ्रीकंवलज्ञानलगानि पञ्च मानानि । मत्यज्ञानश्रुनाकानविभङ्गरू
त्रान्छपलग्धिविकलन्ये ऽपि तेषां किमपि मम श्रुतमाप भधिपाणि प्रायझानानि । चनावादशनाअचिदर्शनकेव
पनि, अन्यथा हार। दिसंझ ऽनुपपपने यद'हुः प्रशस्यभालदर्शनरूपाणि चयार दर्शनानी बनानु ग्यागान् जीवस्थान
समस्यकाश्यपाकला. श्रीजिनमऽगणिज्ञमाश्रमगा:-"जह सु. कंषु दिदर्शविपराह-(पजमन्निसु वार उरोग नि) पजशद.
हम भाचिदिय-नाणं म्यांटयाण विरहे थि। दश्वसुया भावम्मि न पर्याप्त माते। ततः पप्ताश्च ने संझिवि पयं तमाशनः, तेषु पर्याप्तसंक्षिषुद दश हाशमा उपयोगा भवन्ति ।
वजाबसुयं पन्धिया ईणं ॥१॥" इति। सही चासो अपर्याप्तः संश्य
पर्याप्तम्मस्मिन् मंडपपर्याप्त मनःपवज्ञानचक्षुर्दशनकवलज्ञानच को ननु चुना,उसागानां नया जीवस्वभावतो योगद्यातनवान्। उक-"सार दाणुरोगा।"
कवनदर्शनल रणद्विकविहीना शेषा मनिशाननकानावधिज्ञाश्रीमायादुव पिगदा अयाहु:
नमत्यज्ञानश्रुनाइानविन ज्ञानाचक्षुर्दशनाधिदर्शनरूपा अ"नाणम्मि दमणम्मि य, पत्ता एगयर।म्म व उत्सा।
प्रग्यांगा भन्निा कर्म४ कर्म।
जीवम्यानेषायोगानोभरधानिसव्यस्स केवनिस्स बि.जुग दो नान्य उपभोगा' ।। इति ॥५॥ पजच उरिदियसनि,दुदंस दुअनाथ दास चक्खु विणा।
मासुय अन्नाण.5-4 दंसावकार गणेमु । सनिअपजे मणना-चक बुकानदुगविहगा ॥५॥
पजतच पणिादमु, मचक सन्नी वारस विपा चतुरिन्द्रियाच असंशनश्च चतुरिन्जियारुदिना, पाताश्च
एकादशसु पर्याप्त पर्याप्तम्ब नरकन्छियहीन्द्रि यत्रीते चतुरिन्द्रियासकिनश्च, पाप्त वनुरिन्द्रियातक्षिषु, चत्वार
या पर्याप्तबछियासंज्ञिसाझयु मस्यकाकथनाकानाचक्षुदर्श
नाण्याखयपयोगा भवन्ति । अपर्यतकाचहलपोतका उपयोगा भवन्तिा के त ?.इत्याह- सप्रनाम त्ति ) दलों दर्शन, द्वयोशियोः समाहारो द्विदर्शन-नईशनाचतुई
वदितव्याः । अन्यथा करणापर्याप्तकेषु चतुरिन्द्रियाविधिक शनलकणम, द्वयोरकानयोः समाहार रहन-मत्यहानश्रुता.
यपर्याप्त मत्या ननदेनमपि प्राप्यते,मुलटीकायामाचायणाकानकाना अपन:-तवरिये पर्याप्त माकपचे.
ज्यशानात् । इन करणापर्याप्त मनिश्रुनाविज्ञानवियेषु च मत्यज्ञानश्रुनाशानचतुर्दशनाचक्षुशनल कणाश्चत्वार
भङ्गानाधिदशनान्यपि नया । ( परजत व उपगिदिसु ति) उपयोगा भयान्न । दशसु जीवस्थानकेषु पर्याप्तापर्यत.
पर्याप्त चतुरिन्द्रयेषु असंझिपञ्चेन्न्येिषु चसचनुः सच. क्ष्मवादरैकेजियद्वीन्छियाछियाउपर्याप्तापयांतचतुरिन्छिया
कुदर्शनाः पूर्वोक्तात्रय उपयोगा भवन्ति ।मंदिषु च पर्याप्तेषु संकिपञ्चन्जियलक्षणेषु पूर्वोक्ताश्चत्यार उपयोगाश्चक्षुर्दशन
द्वादशापि । पं० सं० १ द्वार । बिना भान । पूगंदराजावस्थानकवु दुर्शनवर्षा
साम्प्रनं जीवस्थानचंव लश्याः प्रतिपिपादायपुगहभवदर्शनमत्यशानभुनाकान अक्षणा स्त्रय उपयोगा भवन्तिान
मभिदुगि उलेम अपन-तबायरे पढम चउति मेसेस । नुसरीनामवरण तयोग्शममभवाद्भपतु मनिर कांग्णा .
संशिनो द्विकमपर्याप्तपर्याप्तलक्षणं संक्षितिक, तस्मिन् म. यत्त श्रृi तक मजाघरनि । भाषाधिधयित्र
हिन्यपर्याप्त, संझिनि पर्याप्ते चत्यर्थः। पट लेइयाः कृष्णनालकाब्धिमता हि तदुपपद्यन, नान्यस्य ।
पोतन जापाशुक्नझक्षणा भवन्ति । अपर्याप्तबादरे प्रथमाश्च. तदक्तम
तस्रः कृष्णनाकापोतनेजारूपा भवन्ति । जाडया कथम“जायसुयं भावासा-यलहिणो जुम्जर न इयरस्स।
स्मिन्नयन इनि त ?, उच्यते-गदा "पदवीप्रावण स्मइभातानिनुहस्स सुय, से ऊण व ज हविजाहि" इति? | गम्भे पज्जत्तसंखजीवसु । समाचुयाणं बासी, सेमा पकिउच्यते-ताबदीन्द्रयाणामाहारा दिनमा विद्यालयासो सेहिया गा" ॥२॥ इति वचनात कश्चनापि देवः स्वर्गलोका. अभियानान,समा चाभिलार नुन्यते । यदादि परोपक रन व्यतः सन बादरैकेन्डियतया नूदकतरुषु माये समुपद्यते, रिनिः श्रीहरिमसूरिमिम्बाऽऽवश्यकटी कायाम्-प्रादारसंहा। तदा तस्य घण्टामालान्यायेन साप्राप्यत इत्यदोषः । (ति से
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(१४ ) जीवट्ठागा अन्निधानराजेन्डः।
जीवट्टाया ससु ति । प्रथमा इत्यनुवर्तते-प्रथमास्तिनः कष्णनीलका- बन्धश्चतुर्थो बन्धः। नाऽऽयुवंजांना तानां कर्मप्रकृतीमा बन्धो पोतरकणाः, शंषषु प्रागुक्तापर्याप्तपतसंकिपश्चन्हियापर्यात. जघम्येनान्तमुंहत यावदुरपण च त्रयस्त्रिशस गंगेपमाणि प. बादरैन्जियजितेषु अपर्याप्तपयाप्तसूक्मे कन्छियाछियत्री- मासोन महत्तानपूर्वकोटित्रिजागाभ्यधिकामिया-आयुजियवागन्द्रियाऽसांझपञ्चन्द्रिवपयांप्तबादरैक जयप्रक्षाव. बन्धका तासामबन्धो जघन्योत्कर्षणाममहर्न प्रमाणः। श्राकादशसु जीयस्थानेषु जयन्ति ताः नान्या, मेषां सरचा- युपि मध्यमानेऽरानां प्रकृतीनां बन्धः प्राप्यते । प्रायुपथ बन्धो. शुभपरिणामत्वात. शुभपरिणामरूपाच तेजालेश्या ऽऽदयः। उज्नर्मुहसमव का जीत, न नतोऽप्याधिकम् । तथैता पाटातदेवं जीवस्थानकष मेश्या अभिधाय साम्पतमेतेम्वेव ब
वायमोहनीयन जोः पट् । गतासांच जघन्यनैकं समयं बन्धः। ग्धादयोदोरणामाऽस्यं स्थानचतुष्टयमभिधि सुग -
तथाहि-कानाऽऽचरणदर्शनावरणवेदनीयनामगोत्रान्तरायसत्तऽवंधुदीरण, संतुदया अह तेरसमु ! ७॥
पाणां पश्मांप्रमतीनां बन्धः सूवामपरायगुणम्थ ने, बापश
मधेपयां कश्चिदेकं समय स्थित्वा, द्वितीयसमय भवक्कयेण दिवं "सस SE बंधु" इत्यादि । सप्त वा अष्टो वा सप्ताटा: "सुज्वा) गतः समधिरतो भवति । भविरतत्व चाचश्य सप्तप्रकृतीनांबसंकमा संश्यय संख्यया बहुवादिः" ।३।११॥ इति (सहे.) न्ध प्रति पयां बन्धो जघम्यनै समयं यावदुत्कर्षण स्वन्तपत्रेण बहुवाहिसमासः। यथा-दिवा इत्यादौ। बन्धश्चादीरणाच| मुंहस, सक्षमसंपरायगुणस्थानस्याम्तमुहर्नकत्वात् । तथा स. बन्धादारण, सप्तायनां बधांदरण सप्त एबन्धादारणे, त्रयोद.
तामां प्रकृतीनां बन्धम्यवरछेद सत्यकस्याःसा नायरूपाया शसु जावस्थानेषु साझाप्तवार्डनषु शेषषु भरतः । एतदुक्तं
प्रकृतबन्धः। स च जघन्य मे समयमा एकसमयता चोपशम. भधात-अपर्याप्तधर्मकाजय-पर्याप्त मैकन्द्रिया-प्रयांप्तबाद
श्रेण्यामुपशान्तमाहगुणस्थान प्राबद्भावनीया; उत्कर्षेण पुनरैकेन्द्रिय-पर्याप्तबादरें जिया-ऽपर्याप्तद्वीन्छिय-पर्याप्तद्वी-द्रया
शोनां पूर्व कोर्टि यावत् । स चोकर्षतः कम्य वेदितव्य ति प्रयाप्तत्रीनिध्य-पप्तपीडिया:उपर्याप्त चतुरिन्ज्यि -पचाप्त--
चत । उच्यते-यो गर्भवासे माममप्तकमपियाऽनन्तरं शीतचतुरिन्डिया-पर्याप्तामकिपधेन्द्रिय-पयांप्तासंक्षिपञ्चम्या
मेव यानिमिकमण जम्ममा जातो याष्टकाराई संयम प्र. उपर्यातसंझिान्द्रयरूपषु त्रयोदशसु जीवस्थानेषु सप्तानाम.
तिपत्रः, प्रांतपस्यमनरं च कृपक श्रेणमारांपादित कलशापानां वा बन्धः, मप्तानामष्टानां वा नतीरणा। तधाह-याउनुभू. नदर्शनः, नस्य मयोगिकलिनो वकतव्यः । अयं कात्रताप. वमानभायखभागनवभागाऽदिरे शप सनि परनवायर्व
यांधा-मिथ्यारश्याचप्रमत्ताम् सप्तानाम्नांबा ब-, प्रा. ध्यने, नदाऽपानामपि कर्मणां वन्धः शेषकानं स्वायत्रो बन्धा
युधधाभावान अपूर्धकरणानिवृक्तिवादग्योश्च सप्तानां बन्धः, भावामप्तानामेव यन्धः । तथा यदाऽनुभूयमानभवायुरुद
सामसंपराये पक्षां बाधा, अपशान्तमा हानिकस्याः क. याऽऽपालकाशेयं भवति, तदा सप्तानामुदीरणा । अनुनय
नर्वधः। तथ मच्चोदयश्च प्राकृतत्वात् सम्मोदयाननामकिमाननवायुयोऽनुवरणात प्राव झकाशेषम्णेदीरणाऽनस्वात् । उदीरणा दि उदयाऽऽयालकाबावर्तिनीयः स्थितियः
पर्याप्त सत्तामाश्रित्य त्रीण स्थानानि । तद्यथा-सप्त. अएनन्या. मकाज्ञाकवाय महिनासहितन वा यागकरणेन दलिकमाक
रिपवमुदयमप्याश्रित्य त्रीणि स्थानामिनट यथा-सप्त. अष्ट, योन यसमयप्राप्तदा लकेन महानुनयनम् । तथा चोक्तं कर्म
चत्वारित मनिसमुदयोऽछौ, एनासांचाष्टानां ससाऽ. प्रकृती -उदयापलियाचादिग्लि ठहिना कसायसदि.
भव्यानधिकृपयानापयंसाना, भव्यानधिकृपयामादिसर्यय. पामहिरणं जोगकरणे दलियमाकछिय उदयपत्तदलिपण
साना तथा-मावाण सप्तमा सत्तासच जघन्योकणात. समं अणुभवणमुदीरा" । ततः कामावलि कागतम्यदीव
मुंह प्रमाणा। सादिक्षीणमोहगुणस्थानो तस्य च कालमानणा भवति। न च परजवाऽऽयत्तिहोणासनमः, तस्योद.
महामनि घतिकर्मचतुपयकयेण चसमृणां सत्ता।साच पाभावात, अनुदितस्य च उदरण' उनहत्वात् । शपकासंग्य.
जधन्यनाम्न हतप्रमाणा, सत्कर्षण पुनर्देशानपूर्वकोटिमाना।
तथा-सर्वप्रकृतिरूमदयोऽही तासांचा योऽध्यानाधिस्याना. हानामुदीरणाामचादयश्च प्राकृतत्वात 'मनोदया:, पानामव कर्मणां त्रयोदशप जीवस्थानकष पूर्येषु भग्नः । तथादि-पतेष
पर्यवसाना, मध्यान बित्यानादिसपर्यवसानः । उपशातिमाप्रयोदशसु जीवस्थानकेषु सर्वकालमानामपि सत्ता, यतोऽ.
हगुणस्थामकारप्रतिपतितामाश्रित्य पुनः सादिसपर्यवसानः। स नामविकर्मणां सत्ता पशाम्तमोगुणस्यानकं यावदनुध.
च जघन्यनाम्नर्मुइ प्रमाणः, उपशमश्रेणीनः पतितस्य पुन. संत । पोच जीवा उत्कर्षमा यथासंभवमधिरतसम्यम्हगुि.
रप्यमहन कस्याप्युपशमणिप्रनिपतेः। उत्कर्षेण तु देशो. जस्थानचनिन पवति । एवमुदयोऽस्यतेष जीवस्थानेपानाम
नापाद्धंगमनपरावर्त । तथा-ता एवाणी मोहनीयवोः मन्नानाबकर्म द्रियः । तथाति-नसंपरायगुणस्थानकं यावद
सामुदयो जघन्य नेक समयम। तथाहि-मोहवर्जसप्तमप्रकृतीपानामपि कमणामुइयोऽजाप्यते ॥७॥
नामुदय उपशाम्तमोहे, कोणमा वा प्राप्यत्र कश्चिदरशाम्त.
गुणस्थान के एक समयं स्थित्या दिनीये समये च भवरण पनेषु जीवस्थानक.क.पतोऽपि यथासंनयमविरतसम्यम्ह
दिवं गच्छ अधिरनो नवति । अविरतत्वे घावश्यमटानां प्रकृती. टिगुणस्थानकसंभव इति
नामुदयः, ननः मतानानुदयो जघन्य नैक समयं यावदव प्यने, सत्तऽढछेनबंधा, संदया मत्त अट्ठ चनारि ।
उत्कण स्वन्तमहनम् उपशान्तमोह की णमोहगुणस्थानयोगम्नसत्तछ पंच सुगं, नीरगा सनिपज्जते ।।
महर्तिकत्वात नधा-घनिकमबजाश्चतस्रः कर्मप्रकृतयः नासा
च जघन्यत न द य ाम्नम हुनिक, उत्कण देशानपूर्वका दिनमंशी चासौ पाप्तश्च सांझपर्याप्तः तस्मिन् मज्ञिराप्त, चम्बारो।
माण इनि । पिए अर्थश्वायम्-पिध्याष्टिगणस्थानकमारल्य बन्या भवन्तिानद्यथा-समानांकनां बन्ध एकः.अष्टानां प्रक- यावशान्तमोग गम्थानकं नावधानामपि सत्ता. तीणमोवामां बम्बोद्वितीय पक्षांतीनांबन्धस्तृतीयः,रकस्याः प्रकृत- गुणस्थाने समानां सत्ता, सयोग्ययोगगुणस्यानकयांश्चतए
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जीवट्ठाण अभिधानराजेन्द्रः।
जीवगिवत्ति णां सत्ता । नथा-मिध्याहः प्रभृति सूक्ष्मसंपायं याबदा- जीवस्थानचौयिक-क्वायर्यापशमिक-पारिणामिकरूपन्नावत्रयम, नामुनयः, उपशान्तमाहगुणस्थाने कीणमोहगुणस्थाने व स. तथा मध्यारण्यादिगुणस्थानकात्तामच मायनी यम । पसंदेषच सानां प्रकृतीनामदयः। सयोग्ययोगिगुणस्थान याश्चतसृणामुदय.
जावत्रयं संकिन्यपि लक्ष्यपर्याप्त । करणमात्रापर्याप्त तस्मिन् • इति ॥ तथा-संझिपर्याप्त मन्दीरणास्थानानि पश्च । तद्यथा
कीणसप्तकामां क्षायिकसम्यक्त्यस्य केषाश्चिद देवामाशापशभिसप्त. अष्ट, पद, पश्च, इति । तत्र यदा अनुभूयमानभवायुराव
कत्यस्यापि संजयाददायक-नायिकाकायापशभिक दारिणामिलिकाऽवशेषं प्रवति, तदा तथास्वनावत्वेन तस्याद्रीयमाण
करूपमापामको दायक-कायोपशमिक-पारिणामिकरूपं दा स्थालतानामुदारणा। यदात्वनुभूयमाननवायुरायलिकाऽवशेष भावचतुएयमवसयम । पर्याप्त तु संज्ञिान प्रागुक्तेन गुणस्थानमनवति, तदाऽष्टानां प्रकृतीमामुदारणा । तत्र मिथ्याष्टिगुण
मेण सभावा भावनीयापं०सं०२द्वार।(जीवस्थानेषु बन्धोदस्थानकात्मभृति यावत्प्रमत्तमयतगुणस्थानकं तावासप्तानाम- यसत्तास्थानानि 'बंध' शब्द वक्ष्यन्त)(बन्धोदयसत्तास्थानान्यः शानां बाहीरणा। सम्यक्रमिथ्याटिगुणस्थानके तु सदयाहानाम- धिकृत्य स्वामिता 'कम्म' शब्द तृमीयमागे २०७ पृष्ठे निरूपिता घोहोरणा,श्रायुष प्रावनिकाऽवशेषमिश्रगुगस्यानस्यैवाभावात् । जीव-जीवन-न। जीव-ल्युट् । प्राणधारणे, "जीवणमविपा. तथा अप्रमत्तगुणस्थानकात्प्रभृति यावत्सूक्ष्मपरायगुणस्थान- णधारणे भणियं ।" जीवनमवि प्राणधारणे भणितम, 'जीवकस्याप्रवलिकाऽय शेषो न भवति,तावदनीयाऽऽयुर्वर्जानां षयां प्राणधारणे' इति वचनात् । श्रा०म० द्वि०विश.1“जी. प्रकृतीनामुदीरणा,तदानीमतिविशुद्धत्वेन वेदनीयाऽऽयुरुवीरगा.
विज्ज य आदिमोक्खं" जीव्यात्प्राणधारणं कुर्यात् । सूत्र०१ योग्याध्यवसायस्थानानावात् । पात्रनिकाऽवशेष तु मोहनीय.
भ्र० ७ मापाचू । जीव्यतेऽनेन । वृत्ती, जले,मज्जने,हैयस्वाथ्यावलिकाप्रविष्टत्वेनादीरणाया असंभवाद् कानाऽऽवरणद. मावीने च। वाच.। जीचयतीति जीवनः। जीवनकारके, त्रि।
नाऽऽरणनामगोत्रान्तरायाणामेवोदीरणा। एतेषामेव चोपशा- स०३० समापुत्रे,जीवनौषधे,वाया इष्फनक,वृत्ते,पुंगवाचा तमोहगणस्थानकेऽप्युद्वीरणा । कोणमोहगुणस्थानकेऽप्यतेषा | जीव
जीवण उ-जीवनहेतु-पुंज ६ ता"विद्या शिल्पं भृतिः सेवा,
-जीव मंच यावदावलिकामात्रमवशेषो न भवति । प्रावलि काऽवशेष
गोरका विपणिः कृषिः । वृत्तिमक्ष्यं कुशीदं च, दश जीवनहततुकानाऽऽधरणदर्शनाऽऽधरणान्तरायाणामप्यावनिकाप्रविष्टत्वा.
| वः ॥५॥" इत्युक्तेषु विद्याऽऽदिषु जीवनोपायषु दशसु, वाचा मोदीरणति योरेव नामगोत्रयोरुदारणा एवं सयोगिकेवविगुणस्थानकेऽपि । अयोगिकेवलिगुणस्थानके तु वर्तमा
जीवणाम-जीवनाश-पुं० जीवित नाशे. मृत्यौ, "प्रासीविसो वा नो जीवः सर्वयाऽनुहीरक एव । ननु तदानीमप्येष सयो
विपरं सुरु,कि जीवनासाउ परं न कुजा"। किं जीयितनाशापिकचलिगुणस्थानक व भवोपनाहिकर्मचतुष्टयोदयवान्
न्मृत्योः परं कुर्यात, न किश्चिदपीत्यर्थः । दश ०१ उ०। बसने,ततः कथं तदाऽपि तयान मगोत्रयोरुदीरको न भवति? जीवशिकाय-जीवनिकाय-पुं० । जीवानां निकाया राशिजीवभैष दोषः । उदये सत्यपि योगमव्यपेक्त्यापुदीरणायाः, तदानीं मिकायः । जीवराशा, स्था० ६ ठा० । जीवनिकायाध पृथि. व तस्य योगासंजवादिति। कर्म०४ कर्म।
व्यादयः षट् । प्रश्न सम्बद्वार । श्राव० । दानी गुणस्थानकेषु जीवस्थानानि चिन्तयत्राह
जीवनिकाया पन्नत्ता। तं जहा-पुढधिकाश्या० जाव . सलजियठाण मिच्ने,सग सामाणि पण अपज्ज सभिग।
तसकाइया॥ सम्मे मन्त्री दुविठो, ससेमुं सन्निपज्जत्तो ॥ ४५ ॥ जीवानां निकाया राशयो जीवनिकायाः । इह च जीवनिकासर्वाणि जीवस्थानानि चतर्दशापि मिथ्याषिगणस्थानकेष | यानाभधाय यत्पृथिवीकायिकाऽऽ दशदैनिकायवन्त उक्तास्त. भवन्ति, मिथ्यास्वस्थ सर्वेषु जीवस्थानकेषु सन्नवात् । तथा- तेषामभेदोपदर्शनार्थम् । न ह्येकान्तेन समुदायात् समुदायिनो (सगति) सप्त जीवस्थानानि सास्वादन भवन्ति । तद्यथा- तिरिच्यन्ते, व्यतिरेकेणाप्रतीयमानत्वादिति । स्था०६101 पञ्चापर्याप्ताः-यादरैकेन्द्रियोऽपर्याप्तः १, द्वान्द्रियोऽपर्याप्तः २, जीवाणिज्ज-जीवनीय-त्रिः। उपजीव्ये, “ देवसिणाए बबु श्रीन्धियोऽप्रयाप्तः ३, चतुरिन्दियोऽर्याप्तः ४, असंझिपञ्चे- अयं पुरिसे देवजीवणिजे ।" सूत्र०१ श्रु०७ अ० । जियोऽपर्याप्तः ५ । संक्षिद्विकम्-संश्यपर्याप्तः १, संक्षिपर्याप्तः
कम-सश्यपयाप्तः १, सशिपयाप्तः | जीवणिवत्ति-मीवनिवृत्ति-स्त्री निर्वसनं निवृत्तिः निष्प३ । अपर्याप्त काश्चेद करणापर्याप्तका द्रष्टव्याः, न तु लब्ध्यप- तिः, जीवस्य कछियाऽदितया निवृत्ति बनिवृत्तिः। जीवस्यैबाप्तकातेषु मध्ये सास्वादनसम्यक्त्वसहितस्योत्पादानावात्।
केन्द्रियाऽऽदितया निष्पादने, भ० । (मम्मे सनी विहो त्ति) अविरतसम्यग्दृष्टिगुणस्थान के संझी
जीवनिवृत्तिभेदा:द्विविधोऽपर्याप्तपर्याप्तरूपो व्यः । इहापर्याप्तका करणा
कइबिहा णं भंते ! जीवणिव्यती पसत्ता ? | गोयमा ! पेकया यः, न तु लब्ध्यपेक्कया, लब्ध्य पर्याप्तमध्येऽविरतसम्यहरजाचात् । शेषेषु मिश्रदेशविरल्यादिगुणस्थानकेषु सं.
पंचविहा जीवाणिवत्ता पमत्ता । तं जहा-एगिदियजीवकी पर्याप्त इत्येकमेव जीवस्थानकं, न शेषाणि तेषां मिश्रनाव
णिवत्तीजाव पंचिंदियजीवणिवत्ती। एगिदियजीवदेशविरतिप्रतिपत्त्यनावात् । न च पूर्वप्रतिपन्नमिश्रजावोऽन्ये. णिवत्तीण भंते ! कइविहा परमत्ता। गोयमा !पंचधु जीवस्थानकेषु संक्रामवज्यते, "न सम्ममिच्छो कुणर काल" इति वचनात् । तदेवं गुणस्थानकेषु व्याख्यातानि जी
विहा पसत्ता । तं जहा-पुढवीकाश्यएगिदियजीवणिबस्थानकानि । कर्म०४ कर्म०।
वत्ती० जाव वणसरकाश्यएगिदियजीवगिणवत्त । पुढ
वीकाध्यएगिदियजीवाण व्यत्ती णं भंते ! कडधिहा पजीवस्थानकेषु नावा:जीयस्थानेष्वपि भावाः स्वयमेव चिन्तनीयातबाऽऽयेषु द्वादशसु | सत्ता । गोयमा ! दुविहा पछत्ता । तं जहा-मुहमपुढवी
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(१४५३) जीवगिव्वत्ति श्रभिधानराजेन्द्रः।
जीवदिट्टियां काश्यएगिदियजीवणिवत्तीय, बादरपुढीकास्यएगि- जीवत्यिकाएणं जीवे अणंताणं आजिपिबोहियणाणपजदियजीवणिबत्ती य । एवं एएणं अनिलावेणं भेदो जहा | वाणं अणंताणं सुप्रणाणपज्जवाणं जहा वितियसए बगबंधे तेयमसरीरस्स० जाव सम्वट्ठसित्तरोववा- अस्थिकायउद्देसए० जाव उवोगं गच्छति, नवोगाश्यकप्पातीतवेमाणियदेव । पंचिंदियजीवणिव्यत्ती भंते! क्वणेणं जीवे ॥ काविहा पप्पत्ता १ । गोयपा! दुविहा पत्ता । तं जहा- जीवानां किं प्रवर्तत इति प्रश्नः । उत्तरं तु प्रतीतार्थमेवेति । पज्जत्तगसव्वट्ठसिफणुत्तरोववाडय जाव देवपंचिदिय- भ० १३ २०४०। । जीवणिबची य अपज्जत्तगसव्वट्ठसिकाएत्तरोववाइय०
_ जीवास्तिकायस्याजिवचनान्याहनाव देवपंचिंदियजीवणिवत्तीय ।
जीवस्थिकायस्स णं भंते ! केवडा अजिवयणा पमसा। (जहा बड़मबंधे तेयगसरीरस्स त्ति यथा-महसबन्धाधिकारे
गोयमा! अणेगा अनिवयणा पम्मत्ता । तं जहा-जीवे ति अटम शतनवमोदेशकाभिहिते तेजःशरीरस्य बन्ध उक्त,पवमिह
चा,जीवत्थिकाए ति वा,पाणे ति वा,नए ति वा,सत्ते ति वा, निर्वृत्तिर्वाच्या, सा च तत एव दृश्येति ॥भ०१९.२००विस्पतिवा,चेया ति वा,जेया ति त्रा,माया ति वारंगणे ति जीवणिज्जाणमग्ग-जीवनियोणमार्ग-पुं० । जीवस्य निर्याणं वा,हिंमए ति वा,पोग्गले ति वा,माणवे ति वा,कत्ता ति वा, मरणकाले शरीरिणः शरीरानिर्गमः, तस्य मार्गों जीवनिर्याण-विकत्ताति वा,जए तिवा,जंतूति वा,जोणिए ति वा,सयंनू मार्गः । जीवनिर्गममार्ग, स्था।
ति वा,ससरीर। ति वा,नायए ति वा,अंतरप्पा ति बा,जे यापंचविहे जीवस्स णिजाणमग्गे पलने । तं जहा-पाएहिं,
वले तहप्पगारा, सव्वे ते जीवअनिवयणा पापता ॥ नरूहिं, नरेणं, सिरेणं, सवंगेहिं । पाएहिं णिज्जाणमाणे (चय त्ति) चेता-पुलानां चयकारी,चेतयिता वा। (जये निरयगामी जव । नरूहि णिजाणमाणे तिरियगामी ति)जेता कमरिपृणाम् । (प्राय त्ति) आत्मा नानागतिसतत. जनइ । उरेणं णिज्जाणमाणे मण्यगामी जवइ । सिरेणं
गामित्वात् । (रंगणे ति) रगणं रागस्तद्योगाङ्गमः।( हिंडप णिजागामाणे देवगामी जवइ । सव्यंगहिणिज्जाणमाणे
त्ति) हिएमकत्वेन हिएककः । (पोग्गले त्ति ) पूरणाझलनाथ
शरीरादीनां पुलः। (माणव त्ति) मा निषेधे,नवः प्रत्यग्रो मा. सिधिगतिपजसाणे परमत्ते ॥
नवः, अनादित्वात्पुराण इत्यर्थः । (कत्त त्ति) कर्ता कारकः निर्याणं मरणकाले शरीरिणः शरीराभिगमः, तस्य मार्गों निः | कर्मणाम् । (विकत्त त्ति) विविधतया कर्ता, विकर्तयिता वा र्याणमार्गः पादाऽऽदिकः, तत्र (पापहिं) पादाभ्यां मार्गनूताभ्यां छेदकः कर्मणामेव । (जए त्ति अतिशयगमनाद् जगत् । (जंतु कारणताऽऽपन्नाच्यां, जीवः शरीरान्निर्यातोति शेषः। एवमूरुज्या- ति) जननाजन्तुः। (जोणि त्ति) योनिरन्येषामुत्पादकत्वात् । मित्यादावपि। अथ ऋमेणास्य निर्याणमार्गस्य फलमाह-पादा- (सयंचत्ति) स्वयं जवनातू स्वयंभूः। (ससरीरि ति)सह ज्यां शरीरानियान् जीवो निरयगामीति । प्राकृतत्वादनुस्वार इ. | शरीरेणति सशरीर।।(नायए त्ति) नायकः कर्मणां नेता। ति। निरयगाभी भवति । एवमन्यत्रापि । सर्वाणि च तान्यानि (अंतरप्पत्ति ) अन्तर्मध्यरूप आत्मा न शरीररूप इत्यन्तराच सर्वातानि,नैर्निर्यान् सिकिंगतिः पर्यवसानं संसरणपर्यन्तो य. त्मेति । भ० २० श०२ १०
. स्य स सिरिगतिपर्यवसानः प्राप्त शत । स्था० ५ ग०२७०। जीवदय-जीवदय-पुं० । जीवनं जीवः-भावप्राणभारणममरणजीवणिस्सिय-जीवनिश्रित-त्रि० । जीवाऽऽश्रिते,स्था० ७ ०। धर्मत्वमित्यर्थः, दयत इति जीवदयः । जीवेषु वा दया यस्य स जीवनिःसत-त्रि । जीवेज्यो निःसृतो निर्गतो जीवनिःसृतः।। जीवदयः । जीवदयोपेत, स०१ सम। औ० । कल्प। जीवनिर्गत, स्था० ७ ठा। (जीवनिःसृताः स्वराः 'सर'
जीवदया जीवदया-स्त्री० जीवाश्चतनाऽऽदिमितव्यङ्गया एकेन्धिशब्दे वदयन्त)
याऽऽदया,तेषां दया रकणं जीवदया। जीवरकणे,दर्श०१ तत्व ।
जीवदयाम्वरूपमाहनीवत्यिकाय-जीवास्तिकाय-पुं० । जीवन्ति,जीविष्यन्ति, जी
अंधाणं विगाणं अयंगमाणं अणाहाणं बहुवाहिवेयवितवन्त इति जीवाः, ते च तेऽस्तिकायाश्चेति समासः । प्रस्येकासंख्येयप्रदेशात्मकसकल लोकभाविनानाजीवाव्यस
णापरिगयसरीराणं सबसोयपरिभूपाणं दारिहदुक्खदोह. मूहाऽऽत्मकेऽस्तिकायभेदे, अनु । आव० । स० घटादि- म्गकलंकियाणं जम्मदारिदाणं समणाणं विहलियाणं च मानगुणस्य प्रतिप्राणि स्वसंवेदनसिद्धत्वाजावस्यास्तित्वमव. संबंधिवधवाएं जं जस्म इट जत्तं वा पाणं वा० जाच गं. गन्तब्वम् । न च गुणिनमन्तरेण गुणसत्ता युक्ता,अतिप्रसङ्गात् ।
धगधनमुवन्नहिरवं वा कुासु य सयलसोक्खदायगं संनव देह पचास्य गुणी युज्यते । यतो ज्ञानममूर्त चिद्रूपं सदैवधियगोचरातीतत्वाऽऽदिधर्मोपेतमतस्तस्यानुरूप पव कश्चिद् गुणी
पुमं जीवदयं ति । महा०३ चू। समन्वेषणीयः । स च जीव एव, न त देहो, विपरीतस्वात। जीवदव्यप्पकप्प-जीवाव्यप्रकल्प-पुं०। "जीवस्स दंबरम यदि पुनरननुरूपोऽपि गुणानां गुणी कल्प्यते,तानवस्थारूपाss- | जहा देवदत्तस्स अग्गके सहत्थाणं कप्पणं" जीवाव्यप्रकल्पः। दिगुणानामप्याकाशाऽऽदेगुणित्वकल्पना प्रसङ्गादिति । अना। उन्यप्रकल्पभेदे, नि.चू०१०। जीवास्तिकायेन जीवानां प्रवृत्तिमाह
जीवदिट्ठिया-जीवदृष्टिका-बी० । या अश्वाऽऽदिदर्शनार्थ ग. जीवत्थिकारणं भंते ! जीवाणं किं पवत्तइ ? | गोयमा ! यति तस्याम, स्था० २ ठा० उ०।
जावाद
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(१५५४। जीवदेवसूरि अनिधानराजेन्द्रः ।
जीवपएसिय जीवदेवमूरि-जीवदेवसरि-पुं०।"रासिलसूरिशिष्य, जै००। जीवपरतिय-जीवप्रादेशिक-
पुंजीवप्रदेशा एव जीवप्रदिबायटग्राम महीधरमहीपालनामानौं द्वा ब्राह्मणकुमारावास्ताम।। शिकाः । अथवा जीपप्रदेशो जीवाभ्युपगमतो विद्यते येषां ते तयोमहीधरो जिमदत्तमुरिणा दीक्षितो रासिल्लमूरिरजवत् । तथा । चरमप्रदेशजीवनरूपिणः (स्था० ७ ठा०) एकेनाऽपि महीपालो देशान्तरे दिगम्बरप्रवज्यां गृहीत्वा सुवर्णकार्ति- प्रदेशेन न्यूनो जीवो न भवत्यतो यनैकेन प्रदेशेन पूर्णः मामाऽभवत् । तत्र समाधाकर्मिकाऽऽदिदोषानुक्तिमवेक्ष्य स जीयो नवति । स एकःप्रदेशो जीवो भवतीत्येवंविधवारासिलसरिसमीपे श्वेताम्बरदीक्षामग्रहीत् . ततो जीवदेवसू- दिनि तिष्यगुप्ताऽऽचार्यमताविसंवादिनि द्वितीयनिहवे, औ० । रिनामाऽभवत् । एतेनैव वायटग्राम जैनानां प्राह्मणः सह वि
अथ द्वितीयनिह्नववक्तव्यतामाह नियुक्तिकारःरोधस्त्याजितः। जै००।
सोलस वासा तया, जिाणण उप्पामियस्स नाणस्स। जीवधम्म-जीवधर्म-पुं० [जीघानां जन्मजरामरणब्याधिरोग
जीवपएमियदिट्ठी, तो उसभपुरे समुप्पन्ना ॥२३३३ ॥ शोकसुखदुःखजीवनाऽऽदिक धर्म, सूत्र०२ श्रु. १०।
रायगिहे गुणसिलए, वसु चउदसपुब्धि तीसगुत्ते य । जीवपट्ठिय-जीवप्रतिष्ठित-त्रि० । जीवेषु स्थिते, "अजीवा |
'आमलकप्पा नयरी, मित्तसिरी करपिउमाई ॥२३३४।। जीवपहिया" अजीवाः शरीराऽऽदि पुद्गलरूपा जीयप्रतिष्ठिताः, जीवेषु तेषां स्थितत्वात् । भ०१श०६ उ०। स्था० ।
श्रीमन्महावीरजिनेन तदा धोकश वर्षाणि केवलज्ञानस्योत्पा
दितस्याभूवन् । ततश्च राजगृहापरनाम्नि ऋषजपुरे नगरें जीवपएस-जीवप्रदेश-पुं। जीवानामवयवे, भ० ।
जीवप्रदेशिकरष्टिः समुत्पन्नेति । कथमुत्पन्ना, इत्याह-राजजिन्नजीवस्त्रण्डानां जीवप्रदेशैः स्पर्शी यथा
गृह नगर गुणशिल के चैत्ये चतुर्दशपूर्विणो वसुनामान पाचाअहते ! कुम्मे कुम्मावलिया गोहा गोहावलिया गो- ीः समागताः, तेषां च तिष्य गुप्तो नाम शिष्यः । स च तत्र णा गोक्षाबलिया मणुस्से मणुस्सावसिा माहसे महि- पूर्वगतमालापकं वक्ष्यमामास्वरूपमधीयानो वक्ष्यमाणयुक्ति
निर्विप्रतिपन्नोऽसंबुद्धः परिहता गुरुभिर्विहरन् आमलकल्पासावनिया, एएसिणं ते! हा वा तिहा वा संखेजहावा |
या नगा गतः,तत्र च मित्रश्रीनाम्ना श्रावकण "कृरपिडा-" छिएणाणं जे अंतरा ते विणं तेहिं जीवपएसेहिं फुडा?
दिना कूरसिक्थाऽऽदिदानेन प्रतिबोधित इत्यर्थः ॥ १३३३ । हंता फुडा । पुरिमेणं ते ! अंतरा हत्येण वा पाएण वा २३३४ ॥ अंगुझियाए वा सलागाए वा कटेण वा कलिंबेण वा
अथास्य नियुक्तिगाथाद्वयस्य भाध्यमाहआमुसमाणे वा संमुसमाणे वा आसिहमाणे वा वि- आयप्पवायपुव्वं, अहिजमाणस्मतीसगुत्तस्स । लिहमाणे वा एणयरेण वा तिक्खेणं सत्थजाएण आ
नयमयमयाणमाण-स्स दिहिमोहो समुप्पालो ।।२३३५।। छिंदमागे वा विच्छिंदमाणे दा अगणिकाएणं समोम- श्रात्मप्रवादनामक पूर्वमधीयानस्य तिष्यगुप्तस्य अयं मत्राहमाणे तेसिं जीवपएसाणं किंचि आवाई वा वावाहं वा
लापकः समायातः । तद्यथा-"एगे भंते ! जीवपरसे जीवे
त्ति वत्तव्य सिया? । नो इण? समटे । एवं दो तिलिजाब नप्पायड, छविच्छेदं वा 'करे । जो इणहे समटे । नो
दस संखेज्जा। असंखजा भंते! जीवपएसा जीव त्ति वत्सब्वं खलु तत्थ सत्थं कम ॥
सिया ?। नो इण सम । एगपएसूणे विणं जीवे नो जीवे "अह" इत्यादि । (कुम्मे त्ति) कर्मः कच्छपः। (कुम्मायलि. त्ति वत्तवं सिया । से कण अटुंण ? । जम्हा णं कसिणे पडि. यत्ति) कूर्मावनिका कच्छपपङ्किः, (गोह त्ति) गोधा सरीसृ. पुन्ने लोगागासपएसतुल्ने जीवे जीवे त्ति दत्तञ्चं सिया, से पविशेषः । (जे अंतरत्ति)यान्यन्तरालानि (ते वित्ति)ता. तेणं प्रण" इति। अमुचाऽऽलापकमधीयानस्य कस्यापिनभ्यन्तरालान्यपि (कलिबण वत्ति)काकाप्टरूपेण (प्रामसमाणे यस्येदमपि मतम्, न तु सर्वनयानामित्येवमजानतस्तिष्यगुप्तस्य वत्ति) भामृशन्, ईषत्स्पृशन्नित्यर्थः (समुसमाणे व ति। मिथ्यात्वोदयाद् ऐः दर्शनस्य मोहो विपर्यासः सजात इति । सामत्येन स्पृशन्नित्यर्थः। (प्रालिहमाणे वत्ति) आलिखन् ॥ २३३५ ॥ पित्सकद्धा कर्षन्, (विलिहमाणे वत्ति) विलि खन् नितरा
कथमित्याहमनेकशी वा कर्षन्, ( प्राच्छिंदमाणे व नि) ईषत्सकृद्धा एगादो पएमा, नो जीवो नो पएसहीणो वि। छिन्दन , (विच्चिदमाणे व त्ति) नितरामसका छिन्दन जं तो स जेण पुन्नो, स एव जीवो पएसोत्ति ॥२३३६।। (समोडमाणे ति) समुपदहन् । श्रावहं व त्ति) ईपद्वाधां (वाबाई व त्ति) यावाधां प्रकृष्टपीडाम् । भ०७ श०३०।।
यद्यस्मादेकाऽऽदयः प्रदेशास्तावज्जीवो न भवति, “ एगे भते! एक एव चरमप्रदेशा जीव इत्यभ्युपगमाउजीवः प्रदेशो येषां ते ।
जीवपएसे।" इत्याद्यासापके निपिकत्वाम् । एवं यावदेकेनापि जीवप्रदेशाः । चरमप्रदेशजीवप्ररूपिणि द्वितीयनिहवे, विशे०।
प्रदेशेन डीनो जीवोन भवति, अत्रयाऽऽलापके निवारितत्वात् । "जीवपएसा य तसिगुत्ताश्रा" । जीवप्रदेशाः पुनस्तिष्यगु
ततस्तस्माद् येन केनापि चरमप्रदेशेन स जीवः परिपूर्णः क्रियते, प्तादुत्पन्नाः । विशः।
स एव प्रदेशो जीवो, न शेषप्रदेशाः । एतसूत्राऽऽलापकप्रामाप्रदशजीव-पुंग। प्रदेश इत्यन्त्यप्रदेशः जीवो येषां ते प्रदेशजीव
ण्यादित्येवं विप्रतिपन्नोऽसाविति ॥ २३३६ ॥
रयादित्येवं विप्रतिपन्नाऽसा प्राकृतत्वाच व्यत्ययः । अन्त्यप्रदेश एव जीव इत्यभ्युपगते.
ततः किमित्याहउत्यप्रेदशजीवादिनि द्वितीयनिहवे, उत्स. ३ अ०। । गुरुणाऽनिहियो जइते, पढमपपसो न सम्मो जीवो।
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(१५५५) जीवपएसिय अनिधानराजेन्द्रः।
जीवपाएसिय तो तप्परिमाणो चिय, जीवो कहमतिमपएसो ।२३३७। अह तम्मि व जो हेऊ, स एव सेसेमु वि समाणो ॥३३४१॥ एकोऽन्त्यप्रदेशो जीवस्तद्भावभाविवाज्जीवत्वस्येत्यादि छु. अथास्यादवशेषषु प्रथमाऽऽदिप्रदेशेषु, देशतो जीवः समस्त्येव, बाणस्तिष्यगुप्ता गुरुणा वसुसूरिणा अनिहितः हन्त! यदि ते अन्स्यप्रदेश तुमर्वाऽऽत्मनाऽसौ समस्तीति विशेषः। ततो "जंस. तव प्रथमो जोवप्रदेशो जीवो न समतः, ततस्तॉन्तिमो जी. वहा न वासु" इत्येतदसिमिति भावः। अत्रोत्तरमाह-नथा. प्रदेशः कथं केन प्रकारेण जीवः। न घटत एव सोऽपि जीव | पि कथमन्त्यप्रदेश सर्वाऽऽत्मना जीवो युक्तः। ननु तत्रापि देशत इत्यर्थः । कुतः, तत्परिणाम इति कृत्वा । इदमुक्तं जवति-भवद- एत्राऽसौ युज्यते,तस्यापि प्रदेशस्वात.प्रथत्रादिप्रदेशवत । अ. भिमतोऽन्त्यप्रदेशोऽपि न जीवः, अन्यप्रदेशस्तुल्यपरिणाम- थान्त्यप्रदेशे संपूर्णो जीव इष्यते, तर्हि तत्र तद्भावे यो हेतुः स त्वाद, प्रथमाऽऽधन्यप्रदेशवदिति ॥ २३३७ ॥
शेषेष्वपि प्रथमाऽऽदिप्रदेशषु समान एव, तुल्यधर्मकत्वात् । अथवा व्यत्ययेन प्रयोग इति दर्शयति
अतस्तेष्वपि प्रतिप्रदेशं संपूर्णजीवत्वमन्त्यप्रदेशवास्कि मेथ्य
ते, इति ॥२३४२॥ अहव स जीवो कह ना-इमो त्ति को वा विसेसहेक ते ?
अथ प्रथमाऽऽदिप्रदेशेषु जीवत्वं नेप्यते, तन्त्यिप्रदेशेऽपि श्रह पूरणो त्ति बुझी, एकको पूरणो तस्म ॥२३३॥
तभेष्टव्यम् । कुतः?; इत्याहअथवा-सोऽन्तिमप्रदेशः कथं जीवस्त्वयाऽभ्युपगम्यते !,
नेह पएसत्तणो , अंतो जीवो जहाश्मपएसो । कथं चन-नेवाऽऽदिमः प्रथमस्तपतया इष्यते । नन्वाद्योऽपि
आह सुयम्मि निसिया, सेसा न उणोंतिमपएसो॥२३४२।। प्रदेशो जीव एवेष्यता. शेषप्रदेशतुल्यपरिणामत्थात्, अन्स्यप्रदेशवदिति । को वाऽत्र विशेषहेतुस्तव, येन प्रदेशत्वे तुल्ये
रहान्त्यप्रदेशोऽपि न जीवः,प्रदेशत्वात,यथा प्रथमाऽऽदिप्रदेश प्चम्तिमो जीबो न प्रथमः, इति । अथ विनितासंख्येयप्रदेश
इति । पाह-नस्वागमबाधितेयं प्रतिका, यतः पूर्वोक्ताऽऽलापराशरस्त्यःप्रदेशः पूरण इति विशेषसद्भावतः स जीवो न प्रथम
करूपे भुते शेषाः प्रथमाऽऽदिप्रदेशा जीवस्वेन निषिकान इति तव बुद्धिमतदयुक्तम् । यतो यथाऽस्यः प्रदेशः पुरणस्त-पुनरन्त्यप्रदेशातस्य तत्र जीवत्वानुकानात । अतः कथं प्रथमाथा पकैका प्रथमाऽऽदिप्रदेशः, तस्य विधक्तिजीवप्रदशराशः।
दिप्रदेशवदन्त्यस्य जीवस्वनिषेधं मन्यामदे, इति ॥२३४२॥ पूरण एव, एकमपि प्रदेशमन्तरेण तस्यापरिपूर्तेरिति ॥२३३७॥
अत्रोत्तरमाहएवं च सर्वप्रदेशानां पूरणवे इदमनिष्टमापतति । नणु एगोति निसिको, सो विमुए जा सयं पमाणंते। किम, इत्याह
सुत्ते सन्चपएसा, भणिया जीवोन चरिमांसि ।२३:३। एवं जीवबहुत्तं, पइजीवं सम्बहा व तदनावो।
ननु मोऽपि-अन्त्यप्रदेशः श्रुते जीवत्वेन निषिकः कुतःत्याहइच्छाविवजमो वा,विसमत्तं सम्मसिद्धी वा ॥२३३६॥
एक इति कृत्वा । तथाहि-तत्रैवेस्थमुक्तम्-"पंगेनंते ! जीवपपसे . एवं सर्वजीवप्रदेशानां विवक्तितप्रदेशमानपुरणस्वेऽन्त्यप्रदेश
जीव त्ति बत्तन्वं सिया। णो इण समटुं" इति । ततो यदि
भुतं तव प्रमाण,ततोऽन्त्यप्रदेशस्यापि जीवत्वं नेटण्यम,पकत्वात. वत्प्रत्येक जीवत्वात्प्रतिजीवं जीवबदुत्वमसंख्येयजीवाऽऽमकं । प्राप्नोति । अथवा-प्रथमाऽऽदिप्रदेशवदन्त्यप्रदेशस्याप्यजीव
प्रथमाऽऽधन्यतरप्रदेशवत् । किञ्च-यदि श्रुतं हन्त! प्रमाणीक
रोधि, तदा सर्वेऽपि जीवप्रदेशाः परिपूणी जीवत्वन श्रुते भणिस्वे सर्वया तदभावो जीवाभावः प्रसजति । अथ पूरणत्वे समानेऽप्यन्त्यप्रदेश एव जीवः, शेषास्तु प्रदेशा अजीवा इत्या
ताः, न त्वेक एव चरमप्रदेशः । तथा च तत्रैवाभिहितम्-"ज.
म्हाणं कसिणे पमिपुले लोगागासपएसतुझं जीवे ति वत्तप्रहो न मुच्यते, ताहि राजाऽऽदेरिवेग भवतः, यत्प्रतिभा
व्वं सिया"। अतः श्रुतप्रामाएयमिच्छता भवता नेक एवान्स्यप्र. सते तदेव हि जल्यत इति । तथा च सति विपर्ययोऽपि क-1 स्मान भवति-प्रायो जीबोऽन्त्यस्तु प्रदेशो जीव इति !, विषम
देशो जीवत्यनेष्टव्य इति ॥१३४३ ॥ स्वं वा कुतो न जवत्ति-कंचनाऽपि प्रदेशा जीवाः, केचिस्वजी
अमुमेवाथै रान्तेन साधयन्नाहचा इति ? । अनियमेन सर्वविकल्पसिभिर्वा कस्मात्र नवति. संतू पढोवयारी, न समत्तपको य समुदिया ते उ । स्वेच्छया सर्वपक्षाणामपि वक्तुं शक्यत्वादिति ? ॥२३३६॥
सब्बे समत्तपम्पो , सधपएसा तहा जीवो ॥२३४॥
एकस्तन्तर्भवति समस्तपटोपकारी, तमप्यन्तरेण समस्तपरजं सनहा न वीमुं, सम्बेमु वितं न रेणूतेयं च ।।
स्यानावात् । परंस एकस्तन्तुः समस्तपटो न भवति,किन्तु ते सेसेसु असन्तूमो, जीवो कहमतिमपएसे ॥३३४०॥ तन्तवः सोऽपि समुदिताः समस्तपदव्यपदेशं लजन्त इति प्र. यद विश्वकस्मिन्वय सर्वथा नास्ति तत्सर्वेष्वपि प्र- तीतमेव । तथा जीवप्रदेशोऽप्यको जीवो न भवनि किन्तु सर्वे. षयवेषु समुदितेषु न भवति, यथा रेणुकणेषु प्रत्येकमसत्तत्स- ऽपि जीवप्रदेशाः समुदिता जीव इति ॥२३४४॥ मुदाय तेलं, नास्ति च प्रधमादिके एकै कस्मिन् प्रदेशे जीव- ननु प्रारा यक्तम.-"मयमयमयाणमाण-स्स दिहिमांहो स. त्वं ततः शेषेषु प्रधमाऽऽदिप्रदेशध्वसजीवत्वं परिणामा दिना मुप्पनो त्ति" तत् कस्य नयस्यैवं मतम् ?,श्स्येतदूव्यक्तीकरण: तुल्ये कथमकस्मादेकस्मिन्नेवान्स्यप्रदेशे समायातमिति।२३४० बकमुपदेशमाह - पुनः परमतमाशाक्य परिहरनाह
एवंभूयनयमयं, देस-पएमा न बत्युणो भिएणा । अह देसमोऽवमेमे-सु तो विकिह सम्बहंतिमे जुत्ते।। तेणावत्य चिया, कमिणं चिय वत्युमिह से ।२३४५॥
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जीवपएसिय अभिधानगजेन्दः ।
जीवपएणवगा जह तं पमाणमेवं, कसिणो जीवो अहोवयाराओ। दरूपोऽन्त्याचयवो यदि न परितोषकरो, भवतामित्यर्थः, तर्हि
संव्यवहारातीते तस्मिन्नन्न्यावयवे कुतः किल समस्तावयवि. देसे वि.सबबुखी, पवज सेसे वि तो जीवं ॥२३४६॥
ग्रहो भवतामिति ? ॥२३५१॥ एवंभूननयस्येदं मतं यत-देशप्रदेशौ न वस्तुनो भिन्नौ, तेन ती अवम्तरूपी मनी। अतो देशप्रदेशकलपनारहितं कृत्स्नं
प्रमाणयन्नादपरिपूर्णमेव वस्तु 'से' तस्यैवंचूतनयस्यष्टम् । ततो यदि तदवं- अंतिमतंत न पडो, तकज्जाकरणो जहा कुंभो। भूतनयमतं प्रमाण जानासि त्वम, एवं तार्दै कृत्स्नः परिपूणों
श्रह तयभावे विपमो,सो किं न घडो खपुष्पं व?॥२३५॥ जीबो, न स्वन्त्यप्रदेशमात्रमपि प्रतिपद्यस्व । अथ प्रामा दग्धः, पटो दग्धः, इत्यादिन्यायादेकदेशेऽपि समस्तवस्तूपचाराद
अन्त्यतन्तुमा न पटः, तस्य पटस्य कार्य शीतत्राणाऽऽदिक
तत्कार्य,तस्याकरणं तत्कायर्याकरण,तस्मादिति । यथा कुम्भो घटः। म्त्यप्रदेशलक्कण देशऽपि समस्तजीवकिस्तत्र प्रवर्तत, तर्दि
अथ तदभावेऽपि पटकार्याभावेऽपि तन्तुः पट इप्यत, तर्हि शेषऽपि प्रथमाऽऽदिप्रदेश उपचारतो जीवं प्रतिपचव,न्यायस्थ समानत्वादिति ॥२३४५। २३४६ ॥
किभित्यसौ पटो घटः खपुष्पं वा न भवति, पटकाकर्तृत्वअथवा-अज्युपगम्येदमुक्तं, न चैकप्रदेशमात्र सर्वजी.
स्याविशेषादिति ? ॥२३५२॥ बोपचारो युज्यत इति दर्शयन्नाह
तथाहिजुत्तो व तत्रयारो, देसाणे न उ पएसमेत्तम्मि । उवलंभब्यवहारा-जावाप्रो नत्थि ते खपुप्फंव। जह तंतूणम्मि पडे, पडोवयारो न तंतुम्मि ॥२३४७॥ . अंतावयवेऽवयवी, दिटुंताजावो वा वि ॥२३५३॥ अथवा-उपचारादप्येक एवान्त्यप्रदेशा जीवो न भवति, किं तवाभिमतोऽवयवी अन्त्यावयवे नास्ति, उपलब्धिलकणप्रातु देशाने पर जीवे जीवोपचारी युज्यते, यथा तन्तुन्निः क. तस्यानुपलब्धः, व्यवहाराभावाच्च, खपुष्पवदिति । अथवातिपयकने पटे पटोपचारो दृश्यते, न त्वेकस्मिंस्तन्तुमात्र • अन्त्यावयवमात्रमवयवी, अवयविसंपूर्णहेतुत्वीत, ' इत्यत्र इति ॥ २३४७॥
ताबदू रष्टान्ताभावाद्न माध्यसिरुरिति ॥ २३५३ ॥ एवं गुरुणाऽभिहिते ततः किम् ?, इत्याह
यदि नाम नोपलज्यते, नापि व्यवाहियते, दृष्टान्ता- . ध्य पम्माविमो जाहे. न पब ज्ज सो को तभो बज्को ।
भावाच्च नानुमायते, ततः किम् ?, इत्याहतउ आमाकप्पाए,मित्तसिरिणा सुहोवायं ॥३४॥ परचक्खोडामाणा-दागममो वा य मिद्धि अत्थाणं । नक्खण-पाण-व्वंजण-वत्यंतावयवलाजिमोजण सन्चप्पमाणविसया-इयं मिच्छत्तमेवं ने ॥२३५४ ।। सावय! विधम्मियाम्हे,कीसतितो भाग इ सहो।२३४६। प्रत्यक्कादिप्रमाणैरर्थानां मितिः, नानि च त्वतपक्कसाधकनण तु सितो, पज्जंतावयवमेत्तोऽवयव।।
खेन न प्रवर्तन्ते । अतः सर्वप्रमाणविषयातीतं भे'भवताजइ सच्चपिणं तो का,विहम्मणामिच्छमिहराले २३५०!
मभिहितं मिथ्यात्वमवेति ॥ २३५४ ॥ गतार्था एव, नबरम, इति पूर्वोक्तप्रकारेण गुरुभिः प्रका.
तदेव मित्रश्रीश्रावकेणोक्ते स किं कृतवान् ?, इत्याहपितस्तिष्यगुप्तो यावन्न किञ्चित्प्रतिपद्यत, नत उद्घाट्य बाह्यः
श्य चोइयमंबुछो,खामिय पमितानिनो पुणो विहिणा । कृतो विहरनामसकल्पां नगरी गत्वा आघ्रशालयने स्थितः। गंतु गुरुपायमूलं, ससीसपरिसो पमिक्कतो । २३५५।। तत्र मित्रश्रीश्रावकण नियोऽयमिति झात्वा तत्प्रतिबोधनार्थ
इति प्रेरितः संवुछोऽसौ विहितकामतक्षामितेन मित्रश्रीश्रागत्वा निमन्त्रित:-' यन्मदीयगृहे प्रकरणमद्य तत्र भवद्भिः स्व
बकेण संपूर्णानप्रदाना ऽऽदिविधिना पुनरपि प्रतिवाभितो गुरुयमागन्तव्यमा ततो गतास्ते तद्गृहे। तेन च तत्र तिष्यगुप्तमु.
पादमूलं गत्वा शिष्यपरिषत्समेतो विधिना प्रतिक्रान्तः सम्यपोप्य महान्तं संभ्रममुपदर्शयता तत्पुरतो भक्ष्यभोज्यानपान- सपोन्तिके विजारेति गाथार्थः ॥ २३५५ । व्यञ्जनवस्त्राऽऽदिवस्तुनिच या विस्तारिताः । ततस्तेषां मध्या
जीवप्रदशा आकाशपदेशमतुल्यो वाऽधिको वा दीना वेनि? सर्वत्रान्यावयवान् गृहीत्वा प्रतिक्षामिताऽसौ, करसित्थाss
प्रश्न, उत्तरम-जीवप्रदेशाऽऽकाशप्रदेशयोनिविभागभागरूपदिना प्रतिलाभित इत्यर्थः । ततो भणत्यभिधत्ते- "श्रावक!
त्वेन तुल्यत्त्यमेवेति मन्तव्यम् । १०२ प्रः। सेन०३ उल्ला। विधर्मिताः किमिति त्वया ययमित्थम् ?। ननः भाको नात
तथाऽश गोस्तनाकारा जीवप्रदेशाः सन्ति, नेषां कर्मवर्गणा (नणु तुज्झमित्यादि)(मिच्छामहरा ने ति) अन्यथा यदि
लगति, न वेति ? प्रश्ने,उत्तरम्-जीवानां मध्याष्टप्रदेशानां कर्मनेदं सत्यम्, तदा सर्वमपि मिथ्श भवतां भाषितामति ।२३५०,
वर्गणा न लगतीति ज्ञानदीपिकायां प्रोक्तमस्ति । यथाअपि च
"स्पृश्यन्ते कर्मणा तेऽपि, प्रदेशा पात्मनो यदि । तदा जीयो अंतोऽस्यवोनकुणा, समनकज्जति जान सोनिमयो। जगत्यस्मि-नजीवत्वमवाप्नुयात् ॥२॥ १५ अगसेन०४ वा। संववहाराईए,तो तम्मि कोऽवयविगाहो?॥२३५१॥
यावगाहा ॥२३५१॥ जीवपएणवणा-जीवप्रकापना-स्त्री० । प्रज्ञाप्यन्ते जीवाऽऽदयो यदि नामाऽन्त्यावयवः समस्तस्याप्य वयविनो यत्साध्य - भावा अनया शब्दसंहत्येनि प्रापना । प्रा०१पद । जीवाकाये तन करोनीत्यनाऽनानानिमता भवताम्-करपक्वान्नमस्त्रा- मां प्रज्ञापना जीवप्रकापना । प्रज्ञापनोपाङ्गस्य जीवप्रशापिकायां दोन मिव कतिपयलस्थसुकुमारिकाऽादमृदयस्नगहतन्वा- शब्दसंहतो, प्रा. पद ।
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जीवपलवणा अभिधानराजेन्छ।
जीवभाव साम्प्रतं जीवप्रकापनामभिधित्सुस्तद्विषयं प्रभसूत्रं चाह- सच प्रायोगिक तत्र गतिरेव परिणामो गतिपरिणामः। एवं स. से किं तं जीवपासवणा । जीवपएणवणा दुविहा पण-| र्वत्र गतिश्चह गतिनामकर्मोदयानारकाऽऽदिव्यपदेशदेतुः,तत्प. चा। तं जहा-मंसारममावएणजीवपणावणा य, असं
रिणामश्च नवकयादति। सच नरकगत्यादिश्चतुर्विधो,गतिपरि
णामे च सत्यवन्छियपरिणाम् भवति। तमाह-(इंदियपरिणासारसमावएणजीचपएणवणा य । से किं तं असंसारसमा.
मे तिसच धोत्रादिभेदात्पञ्चधेति। इन्द्रियपरिणनी चेष्टा. बएणजीवपटवणाअसंसारसमावसजीवपमाषणा दु
अनिष्टविषयसंबन्धाद्वागद्वेषपरिणतिरिति तदनन्तरं कषायपरिविहा पहाचा । तं जहा-प्रणंतरसिमभसंसारसमाव- णाम उक्तः। स च क्रोधाऽऽदिनंदाचतुर्विधः कषायपरिणामे च एमजीवपएणवणा, परंपरसिकप्रसंसारसमावएणजीव
सति लेश्यापरिणतिः, न तु लेश्यापरिणती कषायपरिणतिः, येन
कीणकषायस्यापि शुक्ल लेझ्यापरिणतिर्देशोनपूर्वकोटिं यावद्भपएणवणा॥
पति । यत उक्तम-"मुहुतकं तु जहमा, उकासा होइ पुवको"सेकिंत" इत्यादि । अथ का सा जीवप्रकापना । सूरिराह: ।
मायो । नवहि वरिसेदिकणा, णायब्वा सुक्कलेस्साए"१॥ जीवप्रकापना द्विविधा प्रसा। तद्यथा-संसारसमापन्नजीवप्र
त्ति । प्रतो लेश्यापरिणाम उक्तः। स च कृष्णादिजेदावोढति। कापनाच, भसंसारसमापनजीवप्रशापना च । तत्र संसरणं
अयं च योगपरिणाम सति भवति, यस्मानिरुद्धयोगस्य श्यापसंसारो नारकतिर्यइलरामरभवानुभवलक्षणः, तं सम्यगेकीभा.
रिणामोऽपैति, यतः समुच्छिन्नक्रियं ध्यानमलेश्यस्य भवतीति बेनाऽऽपनाः, संसारवर्तिन इत्यर्थः। तेच ते जीवाश्च, तेषां प्र
खश्यापरिणामानन्तरं योगपरिणाम उक्तः स च मनोवाक्कायवापना संसारसमापनजीवप्रज्ञापना । न संसारोऽसंसारो मो
भेदात्रिधेति । संसारिणां च योगपरिणतावुपयोगपरिणतिर्जपस्तं समापना असंसारसमापनाः,मुक्ता इत्यर्थः। ते च तेजी
पतीति तदनन्तरमुपयोगपरिणाम उक्तः । स च साकारानाकावाघ, तेषां प्रज्ञापना असंसारसमापनजीवप्रकापना। चशब्दा
रभेदाद्विधा । सति चोपयोगपरिणामे ज्ञानपरिणामः,मतस्तदनप्राग्वद् प्रावनीयौ । तत्राल्पवक्तव्यस्वात्प्रथमतोऽसंसारसमा
न्तरमसावुक्तास चाऽऽभिनिबोधिकादिभेदात्पञ्चधा । तथा'पाजीवप्रकापनामभिधित्सुस्तद्विषयं प्रश्नसूत्रमाह-"से कितं"
मिथ्यानमप्यज्ञानपरिणामो मत्यज्ञानवताशानविभङ्गका. इत्यादि । अथ का सा असंसारसमापन्नजीवप्रकापना ?।।
नसकणनिविधोऽपि विशेषग्रहणसाधादशानपरिणामग्रहत्रिराह-असंसारसमापन्नजीवप्रकापना द्विविधा प्राप्ता ।
णेन गृढीतो कष्टव्य इति ज्ञानाज्ञानपरिणामच सति सम्यक्रवातयथा-अनन्तरसिद्धासंसारसमापन्नजीवप्रकापना च, पर
दिपरिणतिरिति, ततो दर्शनपरिणाम उक्तः । स च विधा, म्परसिद्धासंसारसमापन्नजीवप्रज्ञापना च। तत्र न विद्यतेऽन्तरं
सम्यक्त्वमिथ्यात्वमिश्रभेदात् । सम्यक्त्व सति चारित्रमिति, व्यवधानम, अर्थात्समयेन येषां तेऽनन्तराः, तेच ते सिहा
- ततस्तत्परिणाम उक्तः । स च सामायिकाऽऽदिनेदास्पश्चधेति 'वानन्तरसिकाः, सिम्त्वप्रथमसमय वर्तमाना इत्यर्थः । ते
रूयादिवेदपरिणामे चारित्रपरिणामो, न तु परिणामे वेदपरिणच तेऽसंसारसमापन्नजीवाश्च अनन्तरसिकासंसारसमापन्न
तिर्यस्मादवेदकस्यापि यथाख्यातचारित्रपरिणतिरति चाजीयाः, तेषां प्रज्ञापना अनन्तरसिद्धासंसारसमापन्नजीवप्र
रित्रपरिणामानन्तरं वेदपरिणाम उक्तः, स च ख्यादिनेदाकापना। चशम्दः स्वगतानेकभेदसूचकःतथा-विवक्किते प्रथ
विधेति । स्था० १० ठा। मे समये वः सिरूस्तस्य यो द्वितीयसमयसिद्धः स परः, तस्या
जीवपञ्चक्खाणकिरिया-जीवप्रत्याख्यानक्रिया-स्त्री०। जोवपि यस्तृतीयसमयसिकः स परः। एवमन्यऽपि.वाच्याः। परेच परेचेति वीप्सायां "पृषोदराऽऽदयः" ॥३२॥१५॥ इति (सि०
विषये प्रत्याख्यानाभावन बन्धाऽऽदिव्यापारे, स्था०२ ठा०१ ६०)सुत्रेण परम्परशम्दनिष्पत्तिः। परम्पराश्च ते सिद्धाश्च पर
जीवपाओसिया-जीवप्रादेषिकी-खो। जीवस्याऽऽत्मपरतदु. म्परसिकाः, विवक्तिसिकस्य प्रथमसमयात्प्राग् द्वितीयाss. प्रयरूपस्योपरि प्रवेषाऽऽद्या क्रिया प्रदूषकारणमेव वा जीवप्रा. दिसमयेवतीतासां यावद्वर्तमानाति भावः तच ते असंसा- द्वेषिकी । प्राषिक्याः क्रियाया दे, भ०३।०३० स्था। रसमापन्नाश्च परम्परसिद्धासंसारसमापन्नाः, तेच ते जीवाश्च, जीवपाकुच्चिया-जीवपातीतिका-स्त्री० । जीवं प्रतीत्य यः . तेषां प्रज्ञापना परम्परसिहासंसारसमापन्नजीवप्रकापना। अ.] कर्मबन्धः सा तथा । क्रियाभेदे, स्था०२०१०। .प्रापि चशब्दः स्वगतानेकजेदसंसूचकः । प्रज्ञा०१ पद। जीवजाव-जीवभाव-
पुंजीवत्व, भ०। जीवपरिणाम-जीवपरिणाम-पुं० । परिणमनं परिणामः, त- शतो जीव थानाऽऽदिगण इति दर्शयन्ना- . सद्भावगमनमित्यर्थः । यदाह-"परिणामो ह्यान्तर-गमनं न
जीवणं भंते! सनहाणे सकम्मे मवले सवीरिएसपुरिसकारच सर्वथा व्यवस्थानम् । न च सर्वथा विनाशः, परिणामस्त
परकमे प्रायजावणं जीवभाव उबदसे ति बत्तव्वं सिया। किदामिष्टः॥१॥" द्रव्यार्थनयस्यति सत्पर्ययेण नाशः प्रा. दुर्भावोऽसना च पर्यवतो द्रव्याणां परिणामः प्रोक्तः । खलु प
ढता गायमा! जीवणं सनहाणे नाव ननदंसे त्ति बत्तन्न ययनयस्येति जीवस्य परिणाम इति विग्रहः। जीवस्य तत्त. मिया। से कणद्वेणं. जाव वत्तव्वं सिया? ! गोयमा ! द्रावगमने, स्था।
जोवणं अणंताणमाभिणिवाहियनाणपज्जवाणं,एवं मुयनादसबिहे जीवपरिणामे पएणते । तं जहा-गइपरिणामे, णपज्जवाणं भोहिनाणपज्जवाणं मणपज्जवनाणपज्जवाणं इंदियपरिणामे, कसायपरिणामे, लेस्सापरिणामे, जोगप- केवलनाणपज्जाणं मइप्रमाणपज्जवाणं मुयअन्नाणपज्जरिणामे, बोगपरिणाये, नागपरिणामे, दंसणपरिणामे, बाणं विजंगनाणपज्जवाणं चखुदंसरणपज्जवाणं अचक्षुचरित्तपरिणामे, वेदपरिणामे।
दसणपज्जवाणं मोडिदसणपज्जालदसणपनवा
३९०
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जीवभाव अनिधानराजेन्द्रः।
जीवविवागा णं नवोग गच्छर उव प्रोगलक्खणेणं नीचे से एण्टेणं जीवविजात-जीवविभक्ति-स्त्री. न्यविभक्तिभेदे, सूत्र०१ एवं बुच्च-गांयमा! जीवे सहाणे. जाव वत्त सिया। श्रु० ५ ० १ उ० । जीवविभक्तिः सांसारिकेतरभेदाद् वैधा। "जीवेणं" इत्यादि।इह च 'सउहाण' इत्यादीनि विशेषणानि
तत्राप्यसांसारिकजीविनक्तिव्यकालभेदाद वेधा । तत्र. मुक्तजीवब्युदासाथानि।(प्रायभावेणं ति) प्रात्मभावन उत्थान- व्यतस्तार्थातीर्थसिद्धाऽदिनेदात्पञ्चदशधा । कालतस्तु तत्पशयनगमननोजनाऽऽदिरूपेणाऽऽत्मपरिणामविशेषण (जीवभावं थमसमयसिकादिभेदादनेकधा । सांसारिक जीवविभक्तिरित ति ) जीवत्वं चैतन्यमुपदर्शयति प्रकाशयति इति वक्तव्यं
झियजातिभवभेदात्रिधा । तत्रेन्द्रियविभक्तिरेकन्छियविकले. स्यात,विशिएस्योत्थानाऽऽदेविशिष्टचेतनापूर्वकत्वादिति ।"
न्द्रियपञ्चन्द्रियजेदान्पश्चधााजीवानां विभागेनावलापने,उत्त। ताणमाभिणियोहिय" इत्यादि । पर्यवाः प्राकृता अविभा-|
| " इत्तो जीववित्ति तु, वोच्छामि भणुपुब्धसो” ॥४०॥ गाः पलिच्छदा, ते चानम्ता प्राभिीमबोधिकझानस्यातोऽनन्ता
। उत्त०३६ श्रा नामानिनिबोधिककानपर्यवाणां संबन्धिनमनन्ताभिनियोधिक जीववियार-जीवविचार-पुं० । जीवविचारणायाम,सेम।"शानपर्यवाऽऽत्मकमित्यर्थः। उपयोगं चेतनाविशेषं गच्यतीति यो
हामनगपमाणे, पुढवीकार वंति जे जीवा। ते पारेषयमित्ता, गः। उत्थानाउदावात्मभावे वर्नमान इतिहदयस्थम अथ या.
जंबूदीबेन माइंति ॥१॥ पगम्मि दगबिंदुम्मि, जे जीवा जिणय. स्थानाऽऽचात्मजावे वर्तमानो जीव आभिनिबोधिकहानाऽऽद्युप
रेहि पम्मत्ता । ते जा सरिसवमित्ता, जंबूदीये न माइति ॥२॥" योगं गच्छति, तरिकमेतावतैव जीवनावमुपदर्शयतीति वक्तव्य
पतमाथाद्वयं प्रतिक्रमणसूत्रवृत्तिप्रवचनसारोबारसूत्रवृत्त्यादी स्यात?,इत्याशक्याह-"उचोग" इत्यादि । प्रत उपयोग
यथा रश्यते, तथा तेजस्कायप्रभृत्ये केन्द्रियाणां जीवमानप्रतिसक्षणं जीवनावमुत्थानाऽऽद्यात्मभावेनोपदर्शयतीति वक्तव्य
पादिका गाथाः प्रायो प्रन्थे न दृश्यन्ते, तत्कथम् ? किशस्यादेब्रेति । भ०० श०१० उ०।
बरट्टिकातएजुनप्रमाणमात्रे तेजस्काये ये जीवास्ते यदि मस्तजीवमजीव-जीवाजीव-पुं० । जीवद्रव्याजीवद्रव्ययोः, मा०
कलिक्षाप्रमाणदेहधारिणो भवेयुः, तना ते जम्बूद्वीपेन मान्ति । - म०२०।
निम्बपत्रस्पृष्टमात्रे वाया ये जीवाः सन्ति, ते यदि खसखसप्रमाजीवमिस्सिया-जीवमिश्रिता-स्त्री०। प्रभूतानांजीवानां स्तोकानां
णदेहधारिणो जवेयुः, तदा जम्बूद्वीपे न मान्ति । अयमर्यः प्रमा
णम्, अप्रमाणं वाकिञ्च-एतदर्थप्रतिपादिके यारश्योबुटितपत्रे च भूतानां च शशफनखाऽऽदीनामेकत्र राशौ र यदा
गाथेऽपि स्तः । तद्यथा-"वरहितंदुलमिला, तेऊजीवा जिगहिँ कभिदेवं प्रदति-अहो! महान् जीवराशिरयमिति, तदा सा
पत्ता । मत्थपलिक्खपमाणा, जंबूढीवन माइति ॥१॥जे निय. जीवमिश्रिता। सत्यामृषाभाषानेदे, सत्यामृषात्वं चास्या जीवत्सु
पत्तफरिसा,वाऊजीवा जिणेहिँ पत्तााते जर खसखसमित्ता, सत्यरात्, मृतेषु मृपात्वात् । प्रका०११पद।।
जंबूदावे न माइति ॥२॥" किञ्च-पृथिवीकायाऽऽदिजीवप्रमाणजीवयाई-देशी-व्याधमृरणम्, दे०मा० ३ वर्ग ।
प्रतिपादिकायां गाथायां पारापताऽऽदयः प्रोक्ताः,ते च तत्सतजीवरक्खा-नीवरक्षा-स्त्री० । गोप्रभृतिजीवमोचनाय व्यनि- तीर्थकाले भिन्नभिन्नप्रमाणदेहधारिणो भवन्ति,तेन पारापता
नां ध्यं प्रहीतुं कस्पते,न वा, इति प्रश्न,उत्तरम-यदि काना- ऽऽदयः किंकालीना ग्राह्याः? इति प्रश्ने,उत्तरम-तेजस्कायिकप्रभृदिसंबन्धि व्यं न भवति, तदा गृह्यते,निषेधो सातो नास्ती- तिशरीरमानप्रतिपादकं गाथाद्वयं यद्यपि महाप्रन्थेन श्यते, ति। ४७० प्रक। सेन०३ उझा०।
तथापिसत्रेण सह सम्मतमेव, तदर्थस्य सुत्रानुयायित्वाता तथाजीवरामि-जीवराशि-पुं० । राशिभेदे, जीवराशिििवधः- जीवमानप्रतिपादकपारापताऽऽदिप्रमाणमवस्थितकालत्वेनमसंसारसमापनोऽसंसारसमापन्नश्च ।.स.
.हाविदेहगतं ज्ञायत इति मुग्धबोधनार्थश्वायमुपदेश इति नका.
ऽप्यनुपपत्तिः ॥२५८प्रासेन० ३उनु० । एतनामके प्रकरजीवरुय-जीवरुत-न० । मयूरमार्जारशुकसारिकाऽऽदिसपिते,
णग्रन्थच। जीता। जीवलिंग-जीवलिङ्ग-न. चलनस्पन्दनारकुरोद्भवस्वेदम्ला
जीवविरिय-जीववीर्य-न० । मात्मसामये, “ गासियं जीव
विरियं कहं वि।" पं०व०३कार। नाऽऽदिके, "विनाय लिंगं तमथावराणं।" सूत्रः २०६०।
जीवविवागा-जीवविपाका-श्री० । जीव एव विपाकः स्वशक्तिजीवलोय-जीवलोक-पु.। 'जीवद्रव्ये, का० १ ० १ ०।
दर्शनलकणो विद्यते यासां ता जांबविपाकाः । कर्म०५कर्मः। जीवविजय-जीवविचय-पुं० । मसंख्येयप्रदेशाऽऽत्मकमाकारा
जीवे जीवगते ज्ञानाऽदिनक्षणे स्वरूपविपाकस्तपघाताssनाकारोपयोगलकणानादिस्वकृतकर्मफलापयोगिवाऽऽदिजी- दिसंपादनाभिमुखताल कणों यासांता जीवविपाकाः। कर्मप्रकयस्वरूपानुचन्तन, सम्म ३ काए ।
तिभेदे, पं० सं०३द्वार। । जीववित्तिविमि-जीववृत्तिविशिष्ट-त्रि० । केत्रवृत्तित्ववि. जीवविपाकित्वमधिकृत्य परप्रश्नमपनुदयमाहशिएं, "जोत्तिविशिष्टाङ्गा-भावाभावग्रहोऽप्यसन् । उत्क- संपप्प जीयकाने, उदयं काोन जति पगईभो। पश्चापकर्षश्वा-यवस्था यदपेकया " ॥२५ ॥ जीववृत्ति- एवमिणमोहहे, श्रामज विसेसयं नत्यि ॥ १७ ॥ विशिष्टः क्षेत्रावृत्तित्वविशिष्टः । द्वा० १५ वा।
नन कास्ताः कर्मप्रकृतयो, या जीवं कावं बाऽऽश्रित्य नोदयजीवविप्पजट-जीवविप्रजह-त्रि० । प्रामुके, भ०७ श०१ उ०। मधिगच्चन्ति? सर्वा अपि जीवकासावधिकृत्योदयमधिगच्छन्ती. "देवदिपस्स दारगस्स सरीरं णिप्पाणं णिचिटुं जीवविप्प- ति भावः । जीवकासावन्तरेणादयासंभवात् । ततः सर्वा अधि जद कूवर पक्खोता" (जीवविप्पजड़ ति) आत्मना विषमुक्तः। সাবৰিা হবনি মমিন্নাথঃ। অন্যান্য স্মা-মে०१६०२०।
" इत्यादि । मोघतः सामान्येन हेतु हेतुत्वमात्रमाश्रित्य, एवमे
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जीवविवागा
सद्यथाविशेषणं तुम एतन्न भवति जीवः कालो वा सर्वासामपि विकृतीनामुदयं प्रति साधारणः, ननस्तदपेक्षया चतु प्रकृतीनां चिन्ता क्रियते, तहिं सर्या अपि जीवविपाका एव कालविपाका एव वा नास्त्यत्र संपादकमप्यसाधारण प्रति हेतुरस्ति, ततस्तदपेक्षया क्षेत्रविपाकन्याऽऽदिव्यपदेश इत्यदोषः ॥ ४७ ॥ पं० सं० ३ द्वार । कर्म० । अनुज्ञायाम
जीव जीववृफिक
नुहाया चोणं
नाम | नं० ।
जीवसंखे जीवसंप-संजीव परिि संक्षेपपादयोऽपान्तरजाति जीवानां संजीव अपार जीवस्थाने, कर्म० ६ कर्म० । जीवगहि-मीपसंगृहीतवि०
संगृहीतः स्वीकृत
जीवसंगृहीतः । जीवैः स्वीकृते, स्था० । " श्रजीचा जीवसंगहिया" अवकाशाऽड्यो जीयैः संगृ स्वीकृताः । श्रजीवान्वितानाम जीवानां सर्वव्यवहाराभावात् । स्था० २ ० १ ० । प्र० ।
(१८५१) अभिधानराजेन्छ |
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नीवसंजय-जीव संयम पुं० संयम जीवसंयमः । जीबेषु दिसादिपरिहारे, च० १५० १ ० १४० जीवसाइत्थिया जीवस्वाहस्तिका स्त्री० । यत्स्वहस्तेन गृहीतेन जी मारयति साहसिका क्रिया-२०१० जीवा जीवा-श्री जीव जीवा प्राणधारणे ००१ श्र० । जीवनं जीवा इति स्त्रीलिङ्गानिधायक एवायं शब्दः साध्यते, न तु जीव इति पुंल्लिङ्गाभिप्रायकः शब्दः । विशे० । जीव श्रव्, जीवयतेरच् वा टाप् । प्रत्यञ्चायाम्, सू० प्र० १३ पाहु० । धनुषो गुण, चाच तेदि सजीवहि धणुपि सजीवैः कोट्यारोपितप्रत्यञ्चैः । ज्ञा० १ ० ८ अ० । जीवेव जी - बाणस्य मयराद्व
वर्षायामनियाऽऽरोपिनज्याधनुःपृष्ठाकारयोः परिधिख एकयोः धनुः पृष्टसंज्ञकयोः पर्यम्त भूतसरलप्रदेशपतौ, स० ।
मा
हेमवयन्नवयाओं जीवा सत्ततीसं जोयएसहमाई छच्च चउत्तरे जोगणसए मोलसए एगुणवीसइजाए जोयणस्स किंचि विभ्रूणाओ प्रायामेां पत्ता ॥
मादकप्रमाणसंवादनाचा
स्सा, बच्च सया जायणाण चउसयरा । हेमवयवास जीवा, किंम्यूगा सोलस कला य" ॥ १ ॥ ति । कला एकोनविंशतिर्मागो योजनस्येति । स० ३७ सम० ।
डेरा जीवन परिचयमाणमादमाझ्या जीवाती - इस्माई मत्त य चत्ताले जोयएसए दस एगूणबीसइभागे पास किंचि विमृणा परिवरचेणं पाचा । जम्बूलमायां द्वि श्रारोपितपाधनुः पृष्ठाऽकारे परिस तशी तु
जीवाजीव
१७
जीव इति । एतत्सूत्र संवादिगाथा च "चत्ताला सरसया, मरुतीससहरूस इस कना य धणु।” इति । स० ३८ सम० "जं वस्त्र पाणी दाहिणार जीवा जीवा प्रत्यञ्चया, दरकयेत्यर्थः । सू० प्र० १२ पाहु० । मीचाइ नापनाय मीषादिभाववाद मुंजीचा पदार्था दे. "जीवाभावाओ, बंधाश्वसागो इदं नाव " पं०व०४ द्वार जीवाजीव-जीवाजीची स्था
समयाइ वा आलियाई वा जीवाइ वा अजीवाइ वा यबुम्बः । प्राणापाण्ड़ वा थोवाइ वा जीवा वा अजीबाइ वा पश्च सलाह पर सवार वा जीवा का अ जीवाइ वा पवच्च । एवं मुहुत्ताइ वा अहोरत्ताइ वा पक्खाइ वा मामाइ वा कइ वा श्रयणाइ वा संवच्छूराइ वा जुगाइ वा वासमयाइ वा वासनहरुनाइ वा वासनय सहस्नाई वा वामकोमी वा पुगाड़ का पुव्बाइ वा तुमियंगाइ वा मिया वा गाइ वा कमाइ वा अपगावा वाड़ वा हुहुअंगाई वा हूहूयाइ वा उप्पलंगाइ वा उप्पलावा मंगाइ वा पठमा या एलिगाइ वा लि या वा अस्यणिउरंगाई वा भवति या अभंगा या अंगार या आर वा पगार वा पाड़वा चूमिं गाड़ वा चूलियाई वा सीसप्पहेलियंगाइ वासीसप्पदेलियाई वा पक्षियोत्रमा वा सागरोत्रमा वा मणिया प्रमाणी वा जीवा वा अजीवाद या प
गामाइ वा गराइ वा निगमाइ वा राहाणी वा माइ वा कन्काइ वा मरुंवाइ वा दोषमुहाइ वा पट्टणाइ वा आगरा वा आसमाइ वा संवाहाइ वा संनिवेसाइ वा घोसाड़ वा आरामाइ वा उज्जालाइ वा बनाइ वा वखमाइ वा बाबी वा पुक्खरणी या सराइ वा सरपंतिवाइ वा - गमाइवा तमागाइ वा दद्दाइ वा गदी वा पुढवी वा उद
या वातचा या योगागरा वा बलवाइ वा बिगहाइवा दवाइ वा समुद्दा वा वेला वा बेश्या वा दाराइ वा तोरणा या रश्या वा यात्रामा पा जाब मालियावासा वा कप्पा वा कम्पनिमायासा वावासा वा वासहरपव्वयाड वा कूडाइ वा कमागारा वा विजया वारायाणी वा जीवावा अभी वाइवा प छाया वा आता या दोनिया या अपकारावामामा वा उम्पाणाई वा अतिपात्रनिहाइया उज्जाणगिदा वा अलिंद वा मखिवावाइ वा जीबाइ वा अमीबाई वा पश्चः स्याः ॥ विशेषाणामुलो धर्मोऽनिहित विकारादेव समयावधि जीवाजीवतयैव धर्मधर्मिणोरभेदेनोच्यत इति । तत्र सर्वेषां का प्रमाणानामाद्यः परमसूक्ष्मोऽधो निरवयव उत्पलपत्र
पूर्व
ज
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जीवाजीव
दादरचोपहितः समयः तस्याि बया बहुत्वाद्बहुवचनमित्याह - "समयाइ वा" इत्यादि । इति शब्द उपदर्शने । बाशब्दो विकल्पे । तथाऽसंख्यातसमय समुदयाssत्मिका प्रावलिका कुलकभवग्रहणकालस्य षट्पञ्चाशदुत्तरद्विशततमजागता इति; तत्र समया इति वा आवलिका इति वा यत् कालस्तुविभागेनाइतिपर्या पर्याविशोधका पर्यायत्वादजीचा इति । वकारौ समुच्चयार्थी, दीर्घता च प्राकृतस्वात् । प्रोच्यते अभिधीयत इति न जीवाऽऽदिव्यतिरेकिणः स. मवायः तथाहि जीवाजीवानां सादियानादा या स्थितिस्तङ्गेाः समयाऽऽदयः । सा च तरूर्मः, धर्म धर्म
(१४८६०) अभिधानराजेन्द्रः ।
नियत धर्मधर्मिविषय एव संशयो न स्यात्, तदन्येभ्योऽपि तस्य विशेष यह तिल ताशाचा विसर - विवरान्तरतः किमपि शुक्रं पश्यति, तदा किमियं पताका, किंवा बलाका?' इत्येवं प्रतिनियत धर्मिविषय संशय इति । अभेदे हि स धानुपरे गुण एव तस्यादि इह त्वभेदनयाsssयणाजीवा इति बेस्याद्युकम् । इह ब-समबालकाचार्यद्वयस्याजावाचा मकराया भ जनातृ द्विस्यानकाचतारो यः एवमुतान विशेषं तु वक्ष्याम इति । ( आणापाणु इत्यादि) । धनप्राणावियुवा विश्वासकास संक्याला पनिकाप्रमाणः ।
आह च
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'हट्टुस्स प्रणवगल्ल-एस निरुव किटुस्स जंतुणो । पगे उस्सासनिस्लासे, एस पाणु ति बुच्चार " ॥ १ ॥ तथा स्तोकाः सप्तोच्वासनिः श्वासप्रमाणाः कृणाः संख्यानप्रमाणतणाः, सप्तस्तोकप्रमाणा लवाः । एवमिति यथा प्राकने सुत्रत्रये जीवा इति यक्ष अजीवा इति च प्रोच्यन्ते इत्यधीराम पवं सर्वेसरसूत्रेष्वित्यर्थमुद्री सप्तशतिखयमाणाः।
मुक्ता
'सच पाणि से थोचे, सत धोषाणि से लबे। तर यस विषादि ॥ १ ॥ तिथि सहस्सा सप्त य, सयाइ ते उरुरिं व उस्सासा । एस सोमणि सोना " ॥ २ ॥ अहोरात्रासम्मुखाः पक्काः पञ्चदशाहो माला द्विपक्षाः, ऋतम्रो द्विमासमाना वसन्ताऽऽद्याः, श्रयनानि ऋतुश्रयमानानि, सम्बत्सरा अयनरूयमानाः, युगानि पञ्चलम्बसराणि वर्षशताऽऽदीनि प्रतीतानि पूर्वाङ्गानि चतुरशीतिवर्ष पूर्वाचि पूर्वाङ्गानि इदञ्चषां मानम् -
" पुत्रस्स उ परिमाणं, सर्यारे खलु होति कोडिलक्खाओ । उत्पन्नं च सदस्सा, बोधव्या वासकोमीण " ॥ १ ॥
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०५६०००००००००० पूत्राणि चतुरशीतिलकगुणितानि टिनिति एवं पूर्वस्य पूर्वस्य चतुरशीतिलकगुणने मोरमुत्तरं संक्यानं प्रति वाकीर्षति। तस्य चतुर्नवत्यधिकमङ्कस्थानशतं जत्रति ।
अत्र करणुगाथा"हाणं, पण सुपरसीगुधियं च कासारे, गाई मुल संखं " ॥ १ ॥ देवाः सव्यवहारिक संयतः तेन
जीवाजीव
1
प्रथमपृथिवीनाराण जवनपतिभ्यन्तराणां नरतैरते म दुःपमायाः पश्चिमे भागे मरतिरक्षां वा शीर्षप्रदेलिकायाः परतोऽप्यस्ति संख्यातः कालः । स चानतिशायिनां न व्यवहारविषय इति कृत्वौपम्ये प्रप्तिः, अत एव शीर्षप्रहेलिकायाः परतः पल्योपमाऽऽयुपन्यासः। तत्र पल्येनोपापमान असंख्यातवर्षकोटी कोटी प्रमाणानि वक्ष्यमाणलक्षणान; सागरेणोपमा बेषु तानि सागरोपमाणि पत्योपमकोटी कोटीश्शकमानानीति, दशसागरोपमकोटी कोट्य एशेष ग्रामादेिव स्तुविशेष अपि जीवाजीचा पति द्विपदे सासूराह- (गामेत्यादि) इह च प्रत्येकं जीवा एवेत्याद्यालापोऽध्येतव्यः, ग्रामादीनां च जीवाजीवता प्रतीतैव। तत्र कराऽऽदिग क्या प्रामाः, नैतेषु करोऽस्तीति नकराणि, निगमा वणिनिवासाः, राजधान्ये वासु राजाभिषिच्यते टानिक सानिमणि, मानिसर्वतोऽयोजनात्परतोयस्थितप्रामाणि मुखानि येषां जलपानावपिस्ता पत्तनानि येषु जलस्थल पथयोरन्यतरेण पर्याद्वारप्रवेशः, आकरा सोहाऽऽरपतिभूमयः तीर्थस्थानानि संवाद सम भी कृषि करवा येषु भूमिभून धान्यानि कृषीवलाः संवन्ति रक्तार्थमिति, सनिवशाः सार्थकटकाऽऽदे, घोषाः गोष्ठानि आरामा विविधवृक्षलतोपशोभिताः कदल्यादि प्रच्छन्नषु श्रीसंहितानां पुंसां रमणस्थान उद्या नानि पत्रपुष्पकच्यापोपशोभितानि बहुजनस्य विधिस्योन्नतमानस्य भोजनार्थे यानं गमनं येष्विति । यनानृत्येकजानीयाणि चनखदा अनेकजातीयवा श्री चतुरखा, पुष्करिणी वृत्ता पुष्करवती बेति सरां सि जलाऽऽशय विशेषाः सरःपङ्कयः सरसां पद्धतयः । ( अगर ति ) अवटाः । तमागाऽऽदीनि प्रतीतानि । पृथिवी रखनाssदिका, उद्धस्त वो बातस्कन्धा घनवाततवाताः, इतरे वा, अवकाशान्तराणि वातस्कन्धानामधस्तादाकाशानि जीवता येषां समधिकाविचाऽऽजयासत्वात् वलयानि थिय
"
|
घनोदधिधनवाततनुवातल करणानीति । विग्रहाः लोकनामाजिवापत द्वीप समुद्रक्षा समुद्रजलवृद्धि, वेदिकाद्वारा ऽऽदीनि का विस्यविशेषा तेषां च जीवता कर्मपुलाद्यपेक्षया । तदुत्पत्तिमयो नैरविकावासा तेच जीवता पृथिवीकाधिका इति । एवं चतुर्विंशतिदरककोऽभिधेयः । अत एवाऽऽह-याबदित्यादि । कल्पा देवलोकाः, तद्देशाः कल्पविमानाऽवासाः, वर्षा नरनादित्राणि वर्षपर्वनामित्यः कूटानि मानि कूरागराणि संध्यानि, विजयाश्चक्रवात विजेतव्यानि कच्छाऽऽदीनि क्षेत्रखएमा - नि, राजधान्यः कैमाऽऽदिकाः । जीवेत्यादीहांकं सर्वत्र सम्ब धनीयमिति । ये
त्यादिकं गतार्थम नगरं या वृक्ाऽऽदीनामा आदित्यस्य दक्षिणा सो मसिन अतियानगृहाणि नगर
उम
यानि गृहाणि प्रतीतानि । पाणिनितिक
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(१५६१) जीवाजीव अभिधानराजेन्डः।
जीवाजीवाहिगम मेतत्सर्वमित्याह-जीवातच जीवव्याप्तत्वात, तदाश्रितस्वा- जीवानामजीवानां च योऽधों जीवविभक्तिीवार द्वा। अजीवा इति च पुद्गलाऽऽद्यजीवरूपत्वात्, तदाश्रित- नावस्थापनमेव जीवविभक्तिः, उत्तरत्राप्येवमेव संबन्धिनबाद स्वाहेति । प्रोच्यते-जिनैः प्ररुप्यत इति । हच-"जीवापा" व्याख्येयः। (तहिं ति) वचनव्यत्ययात्तयोर्जीवाजावविनक्स्यो. श्त्यादिसूत्रपञ्चकेऽपि प्रत्येकमध्येतव्यमिति । स्था०२ठा०४१०। मंध्ये द्विविधा सिकानाम, असिद्धानां च । (मजीवाणं तुसि)
अथ समयाऽदिवस्तु जीवाजीवरूपमेव कस्मादनिधीयते', तुरपिशब्दार्थः,ततोऽजीवानामपि भवति (इचिहा चि) 'उच्यते-तद्विलक्षणराश्यन्तराभावात् । अत एवाह- तुरवधारणे, ततो द्विविधैव रूपिणामरूपिणां च विभाषितम्या
दो रासी पम्मता । तं जहा-जीवरासी चेव, अजीव- विशेषेण व्यक्तं वक्तव्या। उत्तनिपाई. ३६ अाजीवाजीवरासी चेव । स्था००४०।
विभक्तिप्रतिपादके बसराध्ययनस्य दिशेऽध्ययने, न० स०। (जीवाजीवयोरस्तित्वप्रतिपादनं ' अस्थिवाय' शब्द प्रथम
जीबाजोषविभक्त्याख्यं किंशमध्ययनं व्याख्यायतेभागे ५१९ पृष्ठे कृतम्)
जीवाजीवविनत्ति, सुह मे एगमणा श्रो। जीवाजीवपरिकाने फलम
जं जाणिकण भिक्खू, सम्मं जय संजमे ॥१॥ जो जीवे वि न जाणे, अजीव विन जाणइ ।
भो शिष्याः! पकाप्रमनसः सम्तः स्थिरचित्ताः सन्तो यूयं तां जीवाजीवे अजाणतो, कहं सो नाही संजमं? ॥१२॥
जीवाजीवविन्नक्ति जीवाजीवाऽऽदीनां सक्षणं,मे मम कथयतःसतः यो जीवानपि पृथिवीकाविकाऽदिभेद भिन्नास जानाति, अ.
शृणुता जीवाच अजीवाश्च जीवाऽजीवा,तेषां विन्नक्तिलकण. जीवानपि संयमोपघातिनो मद्यहिरण्याऽऽदीन जानाति था,
कानेन पृथक पृथक करणं जीवाजीवविभक्तिः, ताम, उपयोगजीवाजीवाऽऽदीनजानन् कथमसौ शास्यति संयम तद्विषयम,
घान् जीव एकछियादिः। उपयोगरहितोऽजीवः काष्ठाऽऽदि। तद्विषयाज्ञानादिति नावः ॥ २२॥
इत्यादिजैनमतोक्तलकणेन लक्ष्यकानम, तामिति काम?, यां
जीवाजीवविज्ञक्ति ज्ञात्वा भिक्षुः संयमे संयममार्गे सम्यक जो जीवे नि वियाणेइ, अजीवे वि वियाण।
यतते यत्नं कुरुते ॥१॥ जीवाजीवे वियाणंतो, सो ह नाही संजमं ॥ १३ ॥
जीवा चेव अजीवा य, एस सोए वियाहिए । ततश्च यो जीवानपि जानात्यजीचामपि जानाति,जीवाजीवान्
अजीवदेसमागासे, अझोए से वियाहिए ॥२॥ विजानन् स एव ज्ञास्यति संयममिति प्रतिपादितः पञ्चम उप. देशार्थाधिकारः ॥१३॥
जीवाश्चेतनाल कणाऽऽत्मका,च पुनरजीवा अचेतनाऽऽत्मकाः। जया जीवमजीवे य, दो वि एए बियाणइ ।
चकार एवकारश्च पाद पूरणे। एष लोको व्याख्यातस्तीर्थकरैरु.
तः । अजीवदेश आकाशम, असोको व्याख्यातः। भजीवस्य ध. तया गई बहुविहं, सव्वजीवाण जाणइ ॥१४॥
मास्तिकायाऽदिकस्य देशोऽशोऽजीवदेशो धर्मास्तिकायाऽऽदियदा यस्मिन् काले जीवानजीवांश्च द्वावप्येतौ विजानाति-वि.
वृत्तिरहितस्य भाकाशस्यैव देशास असोको व्याख्यातः। जीवा. विध जानाति, तदा तस्मिन् काले गतिं नरकगत्यादिरूपां,बहु
जीवानामाधेयभूतानां लोकाऽऽकाशमाघारनुतमतो लोकालोकविधां स्वारगतभेदेनानेकप्रकारा,सर्वजीवानां जानाति, यथाव
लकणमुक्तम् ॥२॥ स्थितजीवाजीवपरिज्ञानमन्तरेण गतिपरिज्ञानानावात् ॥१४॥
जीवाजीवधिभक्तिर्यथा स्यात्तथाऽऽहसत्तरोत्तरां फलवृद्धिमाह--
दनओ खित्तो चेब, कालओ नावओ तहा। जया गई बहुविहं, सव्वजीवाण जाणइ ।
परूवणा तेसि नवे, जीवाणमजीवाण य ॥३॥ तया पुनं च पात्रं च, बंधं मोक्खं च जाणइ ॥१२॥
व्यतो द्रव्यमाश्रित्य इदं अव्यम् इयद्भ, केत्रतः इदं जन्यम यदा यस्मिन् काले गति बहुविधां सर्वजीवानां जानाति,तदा
एतावति क्षेत्र स्थितं, कालत इदं द्रव्यमियत्कालस्थितिमद्वर्तते, पुण्यं च पापं च बहुविधगतिनियन्धनं, तथा-बन्धं जीवकर्मयो.
भावतोऽस्य द्रव्यस्य इयम्तः पर्यायाः। एवं तेषां जीवरुष्याणागदुःख वकणं, मोकं च तद्वियोगसुखलकणं जानाति । दश०४
मजीवजव्याणां च व्यक्षेत्रकालभावेन चतुझी प्ररूपणा नवेत् अाजीवतां स्तोकानां च भूयसां मृतानां च शशफनखाऽऽद।
॥३॥ उत्त० ३६ अ०।। नाभेकत्र राशी कृतानाम। प्रज्ञा० ११ पद । प्रनूतेषु मृतेषु स्तोकेषु जीवत्सु एकत्र राशीकृतेषु शङ्खादिषु,प्रका०११ पद । पतावतो. जीवाजीवसमाजत्त-जीवाजीवसमायुक्त-त्रि। जीवरुपयोगल
जीवन्त एतावन्तोऽत्र मृता इति नियमेनावधारयता विसं. कणैस्तथाऽजीवैधर्माधर्माऽऽकाशपुद्गलाऽऽदि कैः समन्वितो जीवादे जीवाजीयमिश्रिताः । सत्यामृषाजापानदे, प्रशा० ११ पद ।। वाजविसमायुक्तः। जीवाजीवसमन्विते, तथा च लोकमधिकृत्य. जीवाजीववित्ति-जीवाजीवविक्ति-स्त्री० । जीवानामजी.
" जीवाजीवसमाउत्ते, सुहदुक्खसमम्मिए" । सूत्र०१ श्रु०१ चानां च विभक्तिर्विजागनावस्थापना जीवाजीवविभक्तिः ।
अ०३उ०। जीवानामजीवानां च विनागेनावस्थापनायाम, उत्त। जीवाजीवाहिनम-जीवाजीवाभिगम-पुं० । जीवानामेकेम्ब्यिातथा च नियुक्तिकार:
दीनामजीवानां धर्मास्तिकायाऽऽदीनामभिगमः परिच्छेदो जीवाणमजीवाण य, जीवविजत्ती तहिं दुविहा ॥३६
जीवाजीचाभिगमः । जीवाजीवरच्छेदे, जी० । मिछाणमसिद्धाण य, अज्जीवाणं तु होइ दुविहान ।
से किं तं जीवाजीवाहिगमे। जीवाजीवाहिगमे दुविहे पतो रूविपरवीण य, विनासियचा जहासुतं ॥३७ मते । तं जहा--जीवाहिगमे य, अजीवाद्दिगमे य ।
जाणा
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जीवाजीवाहिगम अनिधानराजेन्षः।
जीवाणुसासण अथ कितीबाजीबाजिगम इति । अथवा-प्राकृतशैल्या:- प्रति०। जीवाजीयस्वरूपम् अभिगम्यतेऽस्मिमिति जीवाज वाभिनिषेयवधिपचनानि जवन्तीति न्यायात किं तदिति को. गमःदशवैकामिकस्य परजीवनिकायाध्ययने , दश० ४ ० ऽसावित्यस्मिन द्रष्टव्यम् । ततोऽयमर्थ:-कोऽसौ जीवाजी. হালি লীলঙ্কাযাযাবহামনিনबाभिगमः!, इति । एवं सामान्येन केनचित्प्रो कृते सति जग. याह नियुक्तिकार:-"जांबाजीवाभिगमो"-जीवाजीवाभि. बान् गुरुः शिष्यवचनानुरोधेनाऽऽदराऽऽधानार्थ किश्चित्प्रत्युवा- गमः, सम्यग् जीवाजीवाभिगमहेतुत्वात् । दश नि०४ अ० । बांऽऽह-जीवाजीवाभिगमाऽनन्तरोहित शम्दाथों विविधो हि.
जीवाणंद-जीवानन्द-पुं० । स्वनामख्याते सुविधिवैद्यस्य सुते, प्रकार प्राप्तस्तीर्थकरगणधरैः अनेन चागृहीतशिष्यानिधानेन निर्वचनसूत्रेणैनवाहन सर्वमेव सूत्रं गणधरप्रस-तीर्थकरनिर्यच.
"जम्बूद्वीपे विडेषु, पुरे क्षितिप्रतिष्ठिते । वैद्यस्य सुविधेः सूनरूपं, किन्तु किचिदन्यथाऽपि, केवसं सूत्रं बाहुल्येन गणधरैः
नु-जीवानन्दाभियोऽभवत् ॥ १॥" भा०क० । इन्ध, स्तोकं शायत उक्तम्-"भत्यं भासह, भरदा" इत्यादि।
जीवाणुसासण-जीवानुशासन-म. जीवस्याऽऽत्मनो जातितपति बश्यमाणभेदकथनोपन्यासार्थः, स जीवाजीवानि
निर्देशाबा जीवस्य भग्यप्राणिगणस्यानुशासनं शिका । जीवस्य गमो पपा विविधो भवति तथोपन्यस्यत इति भावः ।
शिकायाम, तत्प्रतिपादके श्रीदेवसरिविरचिते स्वनामख्याते जीवाभिगमश्च, मजीवानिगमश्च । चशब्दो वस्तुतस्वमा
प्रकरणप्रन्ये च । जीवा। जीकृत्य इयोरपि तुल्यकक्कतोद्भावनायौँ। माह-जीवाजीवाभि
तस्येयमादिमा गाथागमप्रससत्रे संचलित उपन्यस्तः, तं तवोच्चार्यासंचमितनि. जिम्माहियरायरोसं, वीरं नमिऊण झवणतियबंधुं । पंचनानिधानमयुक्तम, असंचमित संचलितविधानायोगात् ।
मऊत्थानावणाए, जीवस्सऽणसासणं वोच्चं ॥१॥ मेष दोषः। प्रससंत्रऽप्यसंचलितस्यैवोपन्यासात भिन्नजा.
बोरं नत्वा जीवानुशासनं पश्य इति संट अवयवार्थस्व. तीययोरेकरवायोगात्।जी०१ प्रतिक जीवानामेकेन्कियाss
पम्-निमंधितरागरोचं निराकृतप्रीतिद्वेष, धीरं वर्तमानती दीनामजीवानां धर्मास्तिकायादीनामभिगमः परिच्छेदों य.
धिपति,नत्वा प्रणम्य,किविशिष्टम', जुवनत्रिकबन्धुं जगत्त्रय. स्मिन् सजीवाजीमाभिगमम । जीवाजीवपरिच्छेदप्रतिपा- बान्धवं माध्ययभाषनया रागद्वेषानावन जीवस्याऽऽत्मनो के जीवाजीवाभिगमास्येऽध्ययनविशेषे, जी।
जातिनिर्देशाबा जीवस्य नव्यप्राणिगणस्य। एवम प्रेऽपि तस्येवमादिमं सूत्रम
ज्ञातव्यम् । मनुशासनं शिक्काम अत्र च "स्वराणां स्वरे प्रक
तिलोपसंधयः" इति प्राकृतलक्षणेन सकाराकारसोपेऽनुशम्दा यह खलु निणमयं जिणाणुमयं जिणाणलोमं जिणप्प. कारस्य सस्वरत्वे च रूपमिदम् । एवमत्रापि यथासंभवं णीतं जिणपरूवियं जिणक्खायं जिणाणचित्रं जिणपम
सेयमिति पदयऽनिधास्ये। शम्मव्युत्पत्यादिवर्चस्तु सर्वत्र मिणदेसियं जिणप्पसत्थं अणुचिंतिय तं सहरमाणात
सुकर एवेति न प्रतम्यते । जीवा.१ अधि०। पत्तियमाणा तं रोएमाणा थेरा भगवंते जीवाजीवानि
- मन्ते चगर्म णामअझयणं पएणवइंस।
श्य सिरिसिदंतमहो-यहीण सिरिनेमिचंदसरीणं ।
उबएसाम्रो मझ-स्थया य सिरिदेवसूरीहिं ॥१॥ जिनप्रशस्तं जिनानां गोत्रविशुद्धोपायाभिमुखापायविमुखाहि
सिरिवीरचंदमुरी-ण सीसमत्तेहि विरयं एयं । तप्रवृत्तादिभेदानां प्रशस्तं निरुपमपथ्यानबत् उचितवनया हितम, पवंभूतं जिनमतमनुचिन्स्य भौत्पत्तिक्यादिभेदभि- सिकंतजुत्तिजुत्तं, जीवस्सऽणुमासणं विमलं ॥३॥
या पर्यालोच्य तद जिनमतं श्रदधाना यद्यपि नाम काल- ता सयलागमपरम-स्थकण यकसवट्टलद्धन्वहिं । बैगुण्यतो मेधाऽऽदिगुणहीनाः प्राणिनस्तथाऽप्यतः स्वरूप
सयलगुणरयणरोदण-गिरीहिं जिणदत्तम्गीहिं ॥३॥ मण्यधिगतं नवच्छेदायेत्याईचिसतया मन्यमानास्तथा तदू जि. नमतमेव प्रयिमाणा प्रसाशक्तिप्रीत्या पश्यन्ता तथा तजि
सोडियमेयं अने-सि मूरिपवराण सम्मयं किं च । नमतमेव रोचयन्तः सात्मीनावेनानुभवन्तः, क पते ? .
अंएत्थ प्रणागमियं, तंगीयत्था वि सोहिंतु ॥४॥ स्याह-सविरा जगवन्तः, तत्र धर्मपरिणत्यनिवृत्या संयम- इतिः प्रकरणसमाप्ती, श्रीसिद्धान्तमहोदधीनां शोभनाऽऽगमकियामतयः स्वविगः परिणतसाधुनावाः, प्राचार्या इति
वृहत्समुकाणांश्रीनेमिचन्द्रसरीणामेतानां श्रीमपुत्तराध्ययनगर्भः । जगवन्तः भुतैश्वर्याऽऽदियोगात् । भग्नवन्तो वा क
लघुवृत्तिवीरचरितरखचूमाऽऽदिशास्त्रकर्तृणां बृहद्गच्चशिरामपायादीनिति नगवन्तः । पृषोदरादित्वानकारलोपः । जी- कानां निष्कलङ्कसिद्धान्तव्याख्यानशिक्षातो मध्यस्थतया राबाजीजिगमनं नाम, नामशब्दस्यात्राज्यवस्वात्ततः परस्य
गाऽऽचनावत्वतः श्रीदेवसरिनिः श्रीवीरचामृरीणां निजदेवतीयकवचनस्य लोपः । जीवानामेकेन्जियादीनामजीवा- शनावशम्धनिर्मलकीनां शिष्यमनैर्विनेयगणे पद्गुणैर्षिनां धर्मास्तिकायाऽऽदीनामभिगमः परिच्छदो यस्मिन् तद् रचितं दृब्धमेतदिदं सिमान्तयुक्तं राकान्तयुक्तिसहितं, जीवजीवाजीवानिगमः । इदं चान्वर्थप्रधानं नाम । यथा ज्वलताति स्याऽऽस्मनो भव्यस्य वा अनुशासनं बोधक, विमनं निर्मलम् । ज्वान इत्यादि । किं तदित्याह-अधीयत इत्यध्ययनम, विशि- तथेति । किं च-सकमाऽऽगमपरमार्थकनककपपलब्धोपमः राधावनिसंदर्भख, प्रज्ञापितवन्तः प्ररूपितवन्तः। एतेन गुरुपर्व.
निःशेषसिमान्ततस्वचामाकरतत्परीवादक्षोपल प्राप्तोपमानःस. कमणःसंबन्धः साकारदर्शित एतदुपदर्शनानिधेषा.
कलगुणरत्नरोहणगिरिभिनिखिझगुणमाणिक्यरोहणशैलैजिं-- दिकमपि सिद्धय । यो कमनन्तरमिति रुतं प्रसनजी मसारी नरेतनामकः सप्तगृहनिवासिभिरिति यावत् ।
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जीवाणुमासण अनिधानराजेन्धः ।
जीवाभिगम शोधितं निदोषीकृतमेतद् जोवानुशासनम् । अन्येषां महेन्स पासत्थखेच १५ नाणरिप्रमुखाणां मरिप्रवराणामाचार्यवर्याणां सम्मतमाभिप्रेत, किं
इनिंद १६ गुरुगच्छवागं च १७-१८ ॥॥ व-अपरं यत्र प्रकरणे अनागमिकमुत्सूत्रं, तीतायाः सिका.
पंजाइपृय १५ उस्सतविदः, शोधयन्तु निर्मलीकुर्वन्तु । ति गाथाचतुष्टयार्थः। মক্কায় নিলাম কখন মামা
ग्ग पढण २० बलहीण १ प्रविहिगमणं च १२ । देसवसुमरीसा-हिंसाईबन्नकहियनामाहिं।
मलानंद २३ मविक्खापयरणमिणमो रक्ष्यं, तेवीसा-तिनि-सयगाई।
ण २४ मनमणं च १५ ओलग्गं २६ ॥३॥ देशवसुसररीसाहिंसासवणा ये शम्दा, तेषु ये मादिवर्णाः संजकरणं १७ जिणकुमुप्रथमाकराण, तैः कथितं प्रतिपादित, नामाभिधेयं येषां ते
मप्य २८ सुरूग्गहं च श्ए तबनिंदा । तथा, नै, प्राकृतभाषया 'देवसूरीहि' इत्यर्थः । प्रकरणं अन्धसं.
मिच्छश्चेइ ३१ मिच्छ ३५ अपदर्भः नं प्रत्यक्षम, मो इति निपातः पूरणार्थे। रचितमिति । आह
माणस.३३ प्रस्संजया ३४ पाणे ३५॥४॥ अणहिलवामनयर, जयसीहनरेसरम्मि विज्जते ।
चारित्तसत्त ३६ भायरदोहटिवसहिठिएतिवासट्ठीसूरनवमीए॥
ए ३७ गुणधुई ३० एऍ हॉति अडतीसा। भणहिल्लपट्टनगरे श्रीगूर्जरराजधान्यां जयसिंहनरेश्वरे श्री- अहिगारा उ इम.मी, कर्णकर्णिदेवराजसूनौ विद्यमाने सति दोहरिनामश्रावकवस- जीवस्सऽणुसासणे विमझे ॥५॥ तिखिताषष्टे संवत्सरे एकादशशत उपरिष्यादिति शेषः ११६२ . पतवध पर्वोकाधिकारवशतो केयः । जीवा० ३६ प्रधिः। सुरेणाऽऽदित्यवारण नवमी तिथिज्ञक्षणा तस्यां रचितमि
जीवजिगम-जीवानिगम-पुं० । जीवानां केयानामवस्यादिनति पूर्वगाचोकक्रियासंबन्धादिति गाथार्थः। "पतस्थ वृसिकरणे, पुण्यं यद्यपार्जितं मया तेन ।
बाजिगमो जीवानिगमः । गुणप्रत्ययावध्यादिप्रत्यक्षतः सस्थासुखितोऽस्तु भन्यलोकः, कुमाहवियोगतो नित्यम ॥१॥
निगमे, स्था०३ ग.१ उ०। मासेन के नेयं, सरस्वतीतोषतः कुता वृत्तिः।
से किंतं जीवानिगमे ?। जीवाभिगमे विहे पडते ते प्रणदिलपाटकनगरे, विजयिनि जयसिंहदहनपे ॥२॥
जहा-संसारसमावएणगजीवानिगमे य, असंसारसमावदोहविसतिवासैः, श्रेष्ठश्रीजासकस्य दानरुचे।
एणगजीवानिगमे य॥ 'सदुपटम्भादपरं, च भाविकाया वसुन्धोः ॥३॥ धीराऽऽदिपुत्रमातु-नित्यं जिनसाधुपूजनरतायाः।
संसरणं संसारो नारकतिर्यनरामरभवग्रहणलक्षणस्तं स. भीदेवप्रिभिरसौ, नव्यजने जातविमलदयैः॥४॥
म्यक एकीभावनाऽऽपमा प्राप्ताः संसारसमापना: संसारखश्रीमद्धिमिचन्नास्य-सूरिनिःशोधिताऽऽस्तः ।
र्तिनः,ते व ते जीवाच, तेषामनिगमः संसारसमापनाजीवामितिरेषाऽतिगम्भीर-सिसिमान्तपारगैः" ॥५॥
गमः । तथा-- संसारोऽसंसार: संसारप्रतिपक्कभूतो मोक __ साम्प्रतमस्य प्रकरणस्याशीर्वादमाह
इत्यर्थः। तं समापना असंसारसमापन्नाः, तेच ते जीवा, नाव जिणसासणामिणं, एयं जीवाणसासणं ताव ।
तेषामभिगमोऽसंसारसमापन्नजीवाभिगमः । शब्दावुभये.
षामपि जीवानां जीवत्वं प्रति तुल्यकहतासूचकौ तेन ये बिनंदउ लोए सिकं-तजत्तिसारं कुमयहरणं॥
ध्यानप्रदीपकल्पं निर्वाणमभ्युपगतवन्तः, ये व नवानामात्मगुप्रतीतार्थी।
जानामत्यम्तोच्छेदेन, ते निरस्ता व्याः, तथाभूतमोक्षाभ्यु. येनाभिप्रायेणेदं प्रकरणं को कृतं तमाविकु
पगमे तदर्थ प्रेक्षावतां प्रवृत्त्यनुपपत्ते न खलु सचेतमः स्वधाय बाह
कण्ठ कुगरं व्यापारयति, खितोऽपि हि जीवन कदाचित पंमित्तणाजिमाणे-ण विरक्ष्यं नेय किंतु इय बोहो। रूमाप्नुयात्, मृतेन तु निर्मूलमपहस्तिताः संपद इति । वह धम्मरयपुवमूरी-ण चेहिए जति ज जीवा।। १॥
केवलान् जीवान जीवांश्वानुच्चार्य अभिगमशमसंबविता श्वमपि तथैव ।
प्रोऽभिगमव्यतिरेकेण प्रतिपत्तेरसंभवः, ततस्तेषामभिगम्यते
धर्भल्यापनार्थः, तेन सदेवेदमित्यादिसबैदामचपोह उतोकअधुना यावन्तोऽत्र मुख्यतः प्रकरणेऽधाधिकाराः
दितव्यः । सदद्वैताऽऽधभ्युपगमेऽभिगमः गम्मतारूपधर्मानुयोगपन्नामष्टास्तान् संग्रहगाथापचकेन स्मृत्यर्थमाह
ताप्रतिपत्तेरेवासंनयात् । जी०१ प्रतिका "तिहि दिसादिजीवाविंचपाडापास
जं जीवाभिगमे पक्षसे । तं जहा-उखाप, भव्हो,तिरियाय । पर्व स्थनमण २ पडिकमण एवंदणं ४ नंदी। पाँचदियतिरिक्वजारिणयाणं,एवं मणुस्साण वि" स्था०३०) दाणनिसेहो ६ महमा
" दिसाहिं जीवाणं जीवानिगमे पते। पावापाव ल ७ पमिम अविही ए प्राण्ड्डाणं ॥१॥
भदाप, एवं पंचिंदियतिरिक्खाजोणियाण विमएस्समग वि". सिद्धबलि १० पढ' पासा
स्था०६ ठा० । जीयानामुपलकणत्वादजीवाना चानिगमो कानं
यास जीवानिगमः।स्थानास्योपाभूतेऽङ्गवाहो उत्कालि. २११ चेइविहि १२ मरिसंघनिंदं च १३-१४ कानुनविशेष च। पा० । ०।
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जीवि (यू)
जीवि [ए] - जीविन् पुं० प्राणधारके" एते व जीवियो " जयन्ति परगृहातो
साऽऽदाना सुतिशिरसः सर्वभोगवञ्चिता तंजतीति । सुत्र० १ ० ३ ० १ ० ॥ जीविकाम- जीवितृकाम शि० दीर्घकालमायुकानिज्ञापिणि पिया पियजीविणो जीविकामा " यत एव प्रियजीविनोदका जीवितुकामाः दीर्घकाल पिन (भाषा) जीविकामे लालप्यमाणे "जीविकाम श्राचा० " आयुष्कानुभवनमभिलषमाणः । भाचा० १ ० २ ० ३ ० जीवियोसविय - जीवितोत्सविक त्रि० । जीवितस्योत्सव इव जीवितोत्सवः स एव जीवितोत्सविकः । रा० । ० । जीवितविषये वा उत्सवो महेंः, स इव यः स जीवितोत्सविकः । भ० | "जीविनोसविए" । प्र० श० ३३ उ० । झा० रा० । जीवियोसासिय जीवितासिक च्वासयति पति जति स एव जीवितासिका जी चितवर्द्धक, भ० श० ३३ उ० । शा० । जीविय-भीति-न० प्राणधारणे, रा० प्रक्ष० । विशे० । ज्ञा० | आय० । अनु० नि० "जीवियं णाभिकखेजा । जीवितं प्राणधारण कृणं नानिकात आ अ० उ० ।" ते बीरा बंधणोमुक्का, नात्रकंखंति जीवियं । " जीवितमसंयमजीवितं प्राणधारणं वा । सूत्र० १ ४० ६ अ० । जीवितं दुविहं-संजम जीवियं, असंजमजीवियं च " । नि० यू १० ।
"
फुसियमित्र कुसग्गे पवं समिवश्यं वातेरियं एवं बा - लस्स जीविपं ।
66
"
( १५६४ ) अभिधानराजेन्खः |
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कुशावालस्य जीवितमिति भूतमित्याह"" इत्यादि प्रध दकपरमाणुपचयात् प्रश्नं प्रेरितं वातेनेरितं संनिपतितं-भाविनिचापि निपतितं द
यमिति यथा कुशाग्रमित्येवमिति यथावदु संभावितस्थितिकः, एवं बालस्यापि जीवितम, अवगततस्वो हि स्वयमेवावगच्छति । श्राचा० १० अ० १ ० । जीवितं दशधा तथा चाऽऽह
नाम उपादवि आहे भव भने जोगे य । संमजस किसी जीवितं भन्न दमडा ॥
जीवितं दशधा भएयते । यथा नाम जीवितं. स्थापनाजीतिं जीवितमओपी गजीवितं, संयमजीवितं यशोजीवितं, कीर्त्तिजीवितं च । एष गाथासनासार्थः । व्यासार्थे तु भाष्यकारक स्वयमेव वक्ष्यति । नामस्थापनेादनात् शेषनार्थमाददन्त्रे सच्चित्ताड़ी, आयतदन्वयाज आहे | नेरपाई जये, सन्जय तरमेव उपवन्ती ।। दिपीतमित्यर्थः सवितादि सचितनचितं, मिश्रं च । इह कारणे कार्योपारा येन षच्येण सविता चित्तमिश्रनदेन पुत्रहिरण्योभयरूपेण यस्य यथा जीतित तथा ती चितम्। भावे जीवित सामान्य
1
जीविय
जीवितमासयता आयुःप्रदेशकर्म तस्य सह मानता युता धायु कर्मसहचारिता, जीव स्वेत्यर्थः । इदं च सामान्यजीवितं सतराशे सर्वदा भावि, तत इदमङ्गीकृत्य यदि परं सिद्धा एव मृताःन पुनरन्ये केचन । उक्तमोघजीवितम् । नैरधिकाऽऽदीनां नैरयिकतिर्यज्ञनरामराणां नये स्वस्थ स्थितिम जीवन (म्य अधेव उपय) तस्मिन्नवे भूयो भूयो जीवितं जीवितका
अधिकृते तिर्यग्जवे, मनुष्यभवे वा स्वकाय स्थित्यनुसारेण ज्यो जूय उत्पत्तिः । इदं चौदारिकशरीरिणामेवाव सातव्यम्, अन्यत्र निरन्तरं भूयोनृपस्तत्रैवोपस्यभावात्। उक्तं त भांगम्म चकमाई, संजमनीयं तु संजय जणस्स । जसकित्तीय जयवतो, संजम नरजीव अढिगारो || भोग भोगी नाम आदि बलदेवासु देवाऽऽदिपरिग्रहः । उतं भोगजीवितम् । संयमजीवितं संयतजनस्य साधु लोकस्य । उक्तं संयमजीवितम् । यशःकीत भग वतो वर्द्धमानस्वामिनः । ततो यशोजीवितं कीर्त्तिजीवितं च नगवतः प्रतिपत्तव्यम् । यशःकीत्र्योश्चायं विशेष:-" दानपुण्यफ ला कीर्त्तिः, पराक्रमकृतं यशः । " अन्य त्विदमेकमेवाभिदधवि. केवलं संयमप्रतिपादशम
गतं प्रतिगृह्णन्ति । श्र० म० १ ० २खएक । विशे० ॥ श्र०चू० । जीवस्य नेनाऽऽयुष्कर्मणेति जीवितम् प्राणधारणा के आयु
षि, श्राचा० १ ० १ ० १ उ० । "जीवियं दुष्पमिवूह "जीवि तमायुष्कं तत् क्षीणं सत् दुष्प्रतिबृंहणीयं. पुरभावार्थो, नैव वृद्धि नीयते इति यावत् । श्राचा० १० २ श्र० ५ उ० । अथवा जीवितमायुष्कम संयम जीवितं बेति । धाचा० १५० २ अ० २ ३० । " णो जीवियं णो मरणाहिकंखी | जीवितमसंयमजीवितं दीर्घायुष्कं वा । सूत्र० १ ० १३ श्र० । " ण य संखयमाहु जीवियं, तह विय बालजणो पगन्जइ । न च नैव जीवितमायुकं कालपर्यायण त्रुटितं सत्पुनः ( संखयमिति ) संस्कर्त्तु तन्तुवत्संघातुं श
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तत्येवमाद्विधावस्थिते बालो हो जनः प्रमते पापं कुर्वन् पो भवति असदनुष्ठान तोऽपि न लज्जत इति । सूत्र० १० २ ० २ उ० । न च नैव त्रुटितं जीवितमायुः संस्कर्तु संघातुं शक्यते, एवमाहुः सर्वाः । तथाहि - "दंरुकलियं करित्ता, वश्यंति हु राश्रो य दिवसा य । आऊ बेल्लना, गया य पुर्ण नाणनियतं ति ॥ १॥" तथाऽप्येवमपि व्यवस्थिते जीवानामायुषि बालजनोऽन्यो लोको निर्विवेकतया अनुष्ठाने प्रवृत्ति कुर्वतां याति अनुष्ठा नेनापि न लज्जत इत्यर्थः । सूत्र० १ श्रु० २ श्र० ३ ० । कृमग्गे जसविंदुए, यो चित्रमाणए । एवं जीवयं समयं गोयम मा पमावए ||२|| हे गौतम! समयमात्रमपि मा प्रमादीः । तद्धेतुमाह-यथा कु शस्याग्रे अवश्यायचन्दुर्ब्रम्यमानः सन् स्तोकं स्तोककालं ति प्रति वातादिना प्रेर्यमाणः सन् पतति तथा मनुष्याणां जीवितम आयुरस्यरं शेषम एवमापोऽनित्यत्वं हास्या पर्ने प्रमादो न विधेय इत्यर्थः ॥ २ ॥
उत्तरियम्पि, भीवियर बहुपचवाय हर पुरा कर्ड, समर्थ गोयममा पमायए ।। ७२ ।।
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(२०६५) निधानराजेन्द्रः |
जीविय
इत्युक्तदृष्टान्तेन, इस्बरे स्वल्पकालपरिमाणे, मनुष्यस्याऽऽयुषि नो गौतम ! पुरा कृतं रजः प्राचीनकृतं पातकं दुष्कर्म, विशेषेण धुनीहि जीवात् पृथक कुरु । हे गौतम! पुनर्जीवितके अर्थात् सोपक्रमे आयुषि बहवः प्रत्यवाया उपघात देतवो ऽध्यवसा बाऽऽदय वर्तते किं तस्मिन् बहुप्रत्य बायके, समयमपि मा प्रमादं कुर्या: । अत्राऽऽयुः शब्देन निरुपक्रमं आयुर्जयते जीवितशब्देन सोपक्रमं भण्यते । पति प्राप्नोति उपक्रम हेतु निरपवस्तथा यथास्थित्या पव अनुभवाधिति आयुः। युधि निरुपकने आयुषि स्वरूपपरिमापोऽपि दुष्कृतं दूरीकुरु । यद्यपि पूर्वकोटिप्रमाणमायुर्भवति, तथापि देवापेक्षया स्वल्पमेव यम, अतृप्तत्वात् । यदुक्तम" धनेषु जीवितव्येषु रतिकामेषु भारत । अतृप्राणिनः सर्वे याता यास्यन्ति यान्ति च ॥ १ ॥ " अत्र सोपक्रमनिरुक्रमायुकोन केवलिन एव भवेत् । उत्त० १० अ० ।
1
ता किमत्थं उसो ! नो एवं चिंतेयब्वं जवइ | अंतराबहुले खलु अयं जीविए, इमे बहवे बाइयपितियसिंभियसंनिवाड्या विविध रोगाऽऽयंका फुर्मति जीविधं ॥
तादादौ किमर्थे नैवं चिन्तयितव्यम्, हे आयुष्मन् ! एवं शृणु तो नयति राय विप्रचुरमिदं खलु निय जीवितमायुर्जीवानाम् । तथा-श्मे प्रत्यक्का बदवो वातिका बारोगोद्भवाः पैत्तिका सिरोज (सिटि सि ) लेष्यभवाः साधिपातिका जिन्याः चिविधा अनेकप्रकारा रोगा व्याधयः, ते च ते आतङ्काश्च कृच्छ्रजीचितकारिण इति रोगातङ्का जीवितं स्पृशन्तीति । तं० । शरीरे, उत्त०१० अ० भगवान् श्रीमहावीरदेव गौतमस्वामिनमुद्दिश्यान्यानपि जन्य जीवानुपदिशति
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मप पंगु जहा निक्टर राइगनाथ प्र एवं मयाण जीवियं समयं गोयम ! मा पमावत् ||१|| दे गौतम ! एवमनेन दृष्टान्तेन मनुजानां मनुष्याणां जीवितं जानीहि त्वं समयं समयमामपि मा प्रमाद: प्रमादं मा कुर्याः । अत्र समयमात्रग्रहणमत्यन्तप्रमाद निवारणार्थे, अनेन केन दृष्टान्तेन ?, तद् दृष्टान्तमाह-यथा रात्रिगणानामत्यये गमनेरात्रीयांगणा रात्रिगणाः कालपरिणामाः रात्रिदिवससमूह तेषामत्ययेऽतिक्रमे पाय मपत्र तात् शिथिल पनिपतति तथैव दिनानामत्यये आयुक वृन्ते शिथिल जाते सति जीवितं शरीरं पतति । जीवो जातो यस्मिन् तज्जीवितं शरीरमित्यर्थः । जीवितस्य कालस्य वि नाशाभावादू जीवितशब्देन शरीरमुच्यते । उत्त० १० अ० । जीवितमिव जीवितम् । द्वादशाङ्गे श्रुत, मर्यादायां च । विशे० ।
श्रा० म० ।
जीवितकरण- जीवितान्तकरण पुं० प्राणबधे प्रापधस्य चैतद् गौणं नाम । प्रश्न ०१ श्राश्र० द्वार ।
जीवि
"
वा विसं खाय जीवियही । दश० ९ ० १ ००। श्राचा० । सूत्रo | " श्रयं न कुजा इह जीवियही । इदासंयमजीवि सार्थी प्रभूतकाल सुनासाथ आये कमल २००
૩૨
जीवियासंसप्प श्रोग
जीवियणाम [ ण् ] - जीवितनामन्न० । जीविका तो नामनि, अनु०। " से किं तं जीविथणामे १। जीविवणामे भवकरप उक्कुरुमिए भिमए कजवर सुप्पर । सेतं जीविणामे । " " से कि तं जीविणामे" इत्यादि । इह यस्था जातमासांकरतयामामपि किञ्चिदपत्यं जीवननिमित्तमव कराऽऽदिष्वस्यति तस्य चावकरक उत्कुach इत्यादि नाम क्रियते तज्जीविका हेतोः स्थापनानामाssख्यायते । (सुप्परसि) सुर्वे कृत्वा व्यज्यते, तस्य सूर्पक पव नाम स्वाप्यते, शेषं प्रतीतम् । अनु० ।
जीवियजावणा- जीवितभावना स्त्री० । जीवसमाधानकारिएयां भावनायाम, सुत्र० ।
यथा भूतेषु मैत्री संपूर्ण भावमनुभवति तथा दर्शवितुमाहभूपनि बिरुक्ला, एस धम्मे बुसीमओ ।
साहू जगं परिभ्राय, असि भीवितज्ञावणा ॥ ४ ॥ "" इत्यादि। भूतैः स्थावरजङ्गमेः सह विरोध म कुर्याद, तपघातकारिणमारम्भं तद्विरोधकारणं दूरतः परिव जयेदित्यर्थः । स एषोऽनन्तरोक्तो भूताविरोधकारी, धर्मः स्वभावः, पुण्याऽख्यो वा (बुसीमओ ति) तार्थकृतोऽयं सत्संयमबतो बेति तथा सत्यवान सास्ती गच्चराचरनूतआमाऽऽयं कंबल135सोकेन सर्वकप्रती वापरा परिज्ञाय सम्यगध्यास्मिन् जगति मौनान् वा धर्म भावनाः पञ्चविंशतिरूपा द्वादशप्रकाश वा या अजिमतास्ता जीवितज्ञाबना जीवसमाधानकारिणी: सत्संयमातथा मोक्षकारिणीर्भावेयदिति । सूत्र० १२० १५० ।
जीयमरण निश्वख जीवितमरण निरबका बि० जी चितमरणयोर्विषये निराजीवितमनका जी वितमरणयोर्विषये वाञ्छारहिते, कल्प० ६ क्षण । जीवियरसज-भीविकरसभ - साधारणशरीरबारब पुं० । स्पतिकायिकभेदे, प्रज्ञा० १ पद ।
जीवियरेहा जीवित रेखा श्री० मणिबन्धादुत्थाय तर्ज कान्तर्गतायां रेखायाम, कल्प० । "मारिषायुषः।
पान्तिपि तयातरम। ११॥ येषां रेखाइमास्तिनः, संपूर्णा दोषवर्जिताः । तेषां गोधना संपूर्णान्यन्यथा न तु ॥ १२३ उच्यन्ते व यावन्त्योऽङ्गुल्यो जीवित रेखया । पञ्चविंशतया या स्तावन्त्यः शब्दां बुधैः " ॥ १३ ॥ कल्प० १ कप
जीविया - जीविका - स्त्री० 'जीव' आकन्-इत्वम् । जीवनोपाये, आजीवने च । वाच० । वृत्तौ स्था० ४ डा० २ ० । आजन्मनिवदे, झा० १ ० १ अ० कल्प० । 66 सा जीवि या पठविया चिरेण । " सुत्र० २ ० ६ अ० । मि०जीविको म०११ ० "जीवियाहिंपीदा
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णं दलइ । [झा० १ ० १ भ० । कल्प० । म० । जीविया सप्प योग- जीविताऽऽर्शमामयोग पुं० जीवित प्रा शंसा मे जीविताप्रयोगः प्रशंसा
[ ए ] - जीवितार्थिन् पुं० । जीवितुकामे, "जो जीविपारि-जीविका
११० | माजन्मनि
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जुउंछ
जीवियासंतप्पयोग
अभिधानराजन्द्रः। प्रयोगोंदे, स्था० १० ग० । जीवितं प्राणधारणं, तदाशंसा- | नीहाउट्ठ-जिहादृष्ट-पुं० । 'जिम्मा' शब्दार्थे,आय०४म। यास्तवजिसाषम्य प्रयोगः, यदि बहुकानमहं जीवेयमिति । संलेखनायास्तृतीयेऽतिचारे, उपा० १ ०। तथा कश्चि
जीदादोस-जिहादोष-पुं०। 'जिम्भादास' शब्दायें,भाव०७० स्कृतानशनः प्रनूतपौरजनवातविहितमहामहः सततावलो- जीहादोसणिवुत्त-जिहादोषनिवृत्त-त्रि० । रसगृकिरहिते, यू० कनात्प्रचुरवन्दारुवृन्दवन्दनसमदर्शनात् अस्तोकविवेकिलो- १००। कसत्कृतश्लोकसमाकर्णनात् पुरतः संजूय तूयो भूयः सकामिकजनषिधीयमानोपदणश्रवणात अनघसमस्तसाजनम
जीडामयमुक्ख-निहामयवःख-न० । 'जिजामयदुक्ख'शज्यसमारब्धपुस्तकवाचनवनमाल्याऽऽदिसरकारनिरीकणावं
ब्दार्थे, स्था० ५ ०२ उ०। मन्यते-प्रतिपमानशनस्यापि मम जीवितमेष सुचिरं श्रेयः जीहामयसोक्ख-जिमयसौख्य-न०। 'जिन्नामयसोक्ख' मत एवंविधा मद्देशेन विनतिर्वर्तत इति जीविताऽऽशंसाप्रा | ब्दार्थे, खा० ५ ग०१ उ०। योगः। ध०२ अधि० । मा० चू। भा०। .
जीहिंदिय-जिहेन्धिय-०। जिम्निदिय' शब्दाणे, ... जीवियासंसा-जीविताऽऽशंसा-स्त्री०। प्राणधारणाभिलाषा
आश्र धार। याम, उपा.१० । जीवितं प्राणधारणं, तत्र पूजाविशेष
जीहिंदियनिग्गह-जिहेन्जियनिग्रह-पुं० । जिम्भिादियनिग्गह' दर्शनात् प्रजूतपरिवाराऽऽदिविलोकनात् सर्वलोकश्लाघाश्रवणाच एवं मन्यते-जीवितमेव श्रेयः, प्रत्यास्यातचतुर्विधाss
शब्दार्थे, उत्त० २६ म०। हारस्यापि यत पवंविधा मडरेशेनेयं चितिवर्सत त्याशंजीहिनियसंबर-जिहेन्शियसंबर-jon'जिभिदियसंबर' श. सेति तृतीयः । जीविताऽऽशंसासंलेखनायास्तृतीयेऽतिचारे, हाथै, प्रश्न ५ संब० द्वार घ.३ अधि।
| जु-जु-पुं०।बेगे, नभास, स्वके, गती, स्त्रीला एका। जीवियासा-जीविताऽऽशा-स्त्री० । जीवितप्राप्तिसंत्रावनायाम,
य-त्रिका यौति पृथा भवतीति युः,विचि गन्दसत्वाद्गुणाभावः। म. १२०५० । जीवितस्य प्राणधारणस्याऽऽशा वाञ्छा जोविताऽऽशा। प्राणधरणवाकायाम्, रा०नि०का० । बो
पृथगनूते, जै० गा० । अपृयग्नते च । 'यु' मिश्रणेऽमिश्रणे चेति प्रकपायजेदे, स०१२।
वचनात । जै० गा.। . जीबियासामरणजयविप्पमुक-जीविताऽऽशामरणजयविममु
जमाल-देशी-तरुण, दे० ना० ३ वर्ग। क-त्रि० । जीवितस्य प्राणधारणस्याऽऽशा वाका मरणाच
जुलिअ-देशी-द्विगुणिते, दे० ना० ३ वर्ग। बद्भय, ताभ्यां विप्रमुक्तो जोषिताऽऽशामरणत्रयविनमुक्तः । जी- जुइ-द्युति-[ती-स्त्री०। द्युत इन्षा की। "घय्ययों जः" विताऽऽशामरणनयोपेकके, नि०१ वर्ग १०हारा०। १२४ । इति प्राकृतसूत्रेण जः । प्रा०२पाद । स्फुरणे, का०१ जीवप्पत्ति-जीवोत्पत्ति-सी० । प्रसस्थावरान्यतरप्राणिप्रापु- ०६. शरीराऽऽभरणाऽऽदिदीप्ती,स० ३० सम०। औ०। भावे, सेन०।
सूत्रका एतिवक्तव्यताप्रतिबके निरयाऽऽबलिकोपास्य वृष्णिदअथ वृद्धपं० कनकविजयगणिकृतप्रयाः, तदुत्तराणि च
शानामकपश्चमवर्गस्य षष्ठेऽश्ययने, नि.१ वर्ग 1(तद्वमचित्ताशनाऽऽदिचतुष्कमध्ये रात्रौ सजीवानां स्थाव
क्तव्यता निशठवत, सा च 'निसढ'शब्दे वक्ष्यते) प्रान्तरे ते. रजीवानां बोत्पत्तिवति, न वा १,इति प्रश्शे, उत्तरम
जास, का० १ श्रु० अ० । तपोद्दीप्तौ, तेजोमेश्यायाम, रात्रावचित्साशनाऽऽदिचतुष्कमध्ये "तजोणिप्राण जविाणं,तहा
उत्त०१० । माहात्म्ये च, प्रतिः प्रेमा माहात्म्यमित्यर्थः। संपाइमाण यानिसि भत्तेवहो दिट्ठो,सम्वदंसीहि सम्बहा"॥१॥
स्था०६०। कान्ती, शोभायाम, प्रकाशे च । वाच० । 'जु' इतिश्राकदिनकृत्य सूत्रबचनात, तथा-"अक्ख तिहुअणणाहो,
कितन् । दशसम्प्रयोगे च, 'जु' अभिगमने इति वचनात् । दोसो संसत्ति होरईए । भत्ते तगंधरसा, रसेसु रसिया
जी०३ प्रतिभा प्रज्ञा०। जिया इंति" ॥१॥ इति छूटकगाथाऽनुसारेण च स्थावरजीवो.
युति-श्री पुंगक्तिन् । मिश्रीकरणे,प्रव०६द्वार।युक्ती,इएपरिस्पत्तिः संजाव्यते, न तत्र त्रसजीवानाम्, रात्रियोगादिति । ४८
वाराऽऽदिसंयोगे,स्था०। (जुशत्ति)द्युतिदीप्तिःशरीराऽऽभरणाप्रसेन २चल्ला
दिसंभवा, युतिर्वा युक्तिरिष्टपरिवाराऽऽदिसंयोगलवणति । स्था० जीवोकरण-जीवोकरण-10 | मन्त्रशास्त्रभेदे, स्था० ६ ठा0। ३०३ उगवस्तुघटनायांत्र, (सबज्जुईए)सर्वयुल्याऽऽभरणाजीड-लस्ज-धा।बीडायाम, भ्वादि०-मात्म-प्रक-सट् । दिसंबन्धिया सर्वयुक्त्या वा चितेषु वस्तुघटनालवणयति । "मस्जेीह" १०३॥ इति प्राकृतस्त्रेण लस्त्रे दाऽऽदेशः।
झा०१७०१०। स्था० । धुत्या यथाशक्ति विस्फारितेन
शरीराऽऽभरणतेजसति । प्रा० म०१०१स्वएम। जीहरुलाखाप्रा०४ पाद । लज्जते, अलज्जिष्ट। निष्ठायामनिद, तस्य नः। लमः । वाच ।
जइम-धतिमत-त्रि० । द्युतिदीप्तिरतिशायिनी विद्यते यस्य सः। जीहगार-जिहाकार-पुं० । जिम्भगार ' शब्दा, प्रज्ञाo उत्त०५ श्रादीप्तिमति, सूत्र० १ श्रु० ६ ०। तेजस्विनि,
उत्त०१० अ०। प्राचा। १पद। जीहो-जिहा-स्त्री० । 'जिन्जा' शब्दार्थे, प्रा० २ पाद । जुई-द्युति-स्त्री० । द्युत इन् जीप। 'जुर' शब्दार्थे,प्रा०२ पाद। प्सनेन्द्रिये, वृ०१०
जुउंछ-जुगुप्स-स्त्री० । 'गुप्' निन्दायां स्वार्थे सन् । "जुगु
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(१५६७) जुउंछ
धाभिधानराजेन्द्रः। प्सेझुण-दुगुच्छ-सुगंछाः" ॥18॥४॥ शति प्राकृतसूत्रेण दिकं यद् योजनाकरणम् । तद्यथा-सत्यमनोयोजनाकरणम्, प्र. जुगुप्सेरेते त्रय मादेशाः । पुण, दुगुरुका, दुगंन । पले- सत्यमनोयोजनाकरणम, सत्यामृषामनोयोजनाकरणम,प्रसस्याजुगुच्छर । गसोपे-दुरान्छा, उंगह। पक्के-जुसन्छ, जुन । मृषामनोयोजनाकरणमिति । स्वस्थाने प्रत्येक मनोवाकायलकणे, प्रा०४ पाद बाबा
तेषां योजनाकरणानां, दो विनागो वक्तव्यः। तद्यथा-चतुर्का,चतुजुउंछिय-जुगुप्सित-त्रि० । निन्दिते, नि०पू० ४००।
र्धा, सप्तधा चैवेति । अयमत्र भावार्थ:-चतुर्भेदं सत्यमनोयोज
नाकरणाऽऽदिदर्शितम, पवं वाग्योजनाकरणमपि सत्यवायोजुगिय-जुङ्गिक-पुं०। जातिकर्मशरीरादिभिर्षते, ग०। जा
जनाकरणमिति । प्रा०म.१०२खएम । प्रा० चू०।तिकर्मशरीराऽऽदिभिर्दूषितो जुडितः । तत्र माताकौलिकवर
जुजुरुमो-देशी-अपरिग्रहे, दे० ना.३ वर्ग। टसूचिकछिम्पकादयोऽस्पृश्या जातिजुनिता:स्पृश्या अपि, स्त्रीमयूरकुक्कुटाऽऽदिपोषकाः वंशवरारोहणा नापितसोक.
जुगंब-जुगुप्स-'जुञ्छ' शब्दा, प्रा०४ पाद । रिकबागुरिकत्वाऽऽदिनिन्दिसकर्मकारिणः कर्मलिता, करचरणकर्णाऽऽदिवर्जिताः पन्कुब्जषामनककाणप्रभृतयः शरी.
जुग-जुग-धा० । त्यागे, भ्वादि०-पर०-सका-सेद, दिद। रजुड़ियाः । ग०१ अधिक धाव्यानि०५०। (जुङ्गितस्य
युङ्गति, मयुक्तीत् । वाच । दीकाऽनहत्त्वं 'पायरिय' शब्दे द्वितीयत्नागे ३२३ पृष्ठे बकस्)
युग-धा० । बजने,म्यादि-पर-सक-सेट, इदित्। वाचा वितियपदे दिक्वेजा
युगि-अच्, पृषो०-लोपः । युग्मे, द्वित्वसंख्याऽन्धिते, वृषिजाहे य माहणेहिं, परिनुत्ता कम्मसिप्पपमिविरता। नामौषधे, हस्तचतुष्कपरिमाणे चानवाचा चतुर्हस्तप्र. अडाणए विदेसे, दिक्खा से उत्तिमढे य ॥ ४१६॥
माणे यपे, प्रव०१०४ द्वार! प्रभा स्था०। भ०।२०। जी। जाहे जंगितो महायणमाहणेहिं परिजचो ताहे दिक्विजति,
शकटाविशेष, जं०३ बक०।"इंते भंजए जुगं।" युगं जूकम्मसिप्पविरता माहणादिभुत्ता तया दिक्खिाजंति, सरीरसुं.
सरम् । उत्त०२०।" उसु चोश्या तत्तजुगसु जुत्ता।" सूत्र गितो अदिक्षितो उत्तिम बा । नि०यू० ११ १० । पं.
१०५०२ उ० । "सुजायजुगजुत्तबज्जगपसत्यसुविरश्यनिम्मियं । " उपा.
१ ०। शकटाङ्गविशेषाऽऽत्मके मा० । पं० चू०।
करचरणस्ने पुरुषलक्षणावशेष, जं०३वका चतुर्विशत्यङ्गलमाजड़ित-पुं० । जातिकर्मशरीरादिजिदूषिते, ग १ अधिक।
नैश्चतुर्भिहस्तनिपनेऽवमानप्रमाणसाधनेऽवमानविशेषे, मनु खएकीकृते, व्य०३ उ०। पिं०।
यदवमीयते खाताऽऽदि तदवमानम् । केनावनीयते, इत्याहजुगियंग-जुङ्गिताङ्ग-त्रि० । व्यङ्गिते, स्था०५ ग०३ ७०। "दस्येण वा डेण वा धणुक्केण वा जुगेण वा नालिआण वा कम्तिहस्तपादाऽऽषयवे, पिं०।
अक्षेण वा मूसलेण वा।"चतुर्भिईस्तै निष्पन्ना अवमानविशे
पादण्डधर्नुयुगनालिकाकमुशलम्पाः षट् संक्षालनन्ते । अत झुंज-युज्-धा। बन्धने, युतौ च । खुरा०-उन० । पक्के
पचाऽऽद-"
दंधणू जुगनालिया व अखं मुसलंच चकहत्य।" ज्वादि-पर-सक०-सेट् । “युजो झुंजजुजजुप्पाः" ॥८॥
अनु० । ०। ज्योगासालोकप्रसिके कृतयुगाऽऽदिके सत्यत्र४।१०६ । इति प्राकृतसूत्रेण युजेरेते त्रय मादेशाः। झुंजा, जु.
ताद्वापरकलिरूपे कालविशेषे, स्था०। पञ्चवर्षाऽऽत्मके सुष. ज्जा, जुप्पश् । योजयति, योजयते । प्रा०४ पाद । योगे, समाधी,
मदुषमाऽऽदिके कालमानविशेषे च । स्था० ३ ०४ उ०॥ दिवा०-अक०-अनिट् । युज्यते, अयुक्त । बाच01 जुंजाय
"पंचसंवरिप जुगे" जं०१ वक्षाकर्म० । विश० । स्था। जहत्थामं । ''युजिर् ' योगे, योजयति च । नि००१ उ०।
अनु०। आ० म.। तं० भ० । कल्पज्ञान(तानि पञ्च झुंजण-योजन-न० । 'युज्' नावादी स्युट्। संयोगे, णिच् ल्युट्। संवत्सराणि' पब्व'शब्दे वक्ष्यामः) संयोगकरणे, पाच० । व्यापारणे, " इंदियाण य जुजणे" श्री.
तथाअनेत्ररसनानासात्वगादीनामिन्त्रियाणां शब्दरूपरसगन्धस्प
दिविषयेषु व्यापारणे, उत्त०२४ म०1" सब्बिंदियजो. चंदो चंदो अनिव-विभोय चंदमनिवष्ठियो चेव। गजुंजणया।" स्था० ७०।
पंचसहियं जुगामिणं, दिडं तेल्लोकदसीहि ॥ जंजणा-योजना-स्त्री० । व्यापारणे, मा०म० अ०२ खण्ड।।
चान्द्रश्चान्कस्तदनन्तरमनिवर्द्धितभूतो नूयश्चान्द्रः। पत्र मका. जंजणाकरण-योजनाकरण-10 । मनःप्रनृतीनां व्यापारणक
रोऽनाकणिकः । ततोऽभिवादतः। एतैः पञ्चभिः सहितम। रणे,नोश्रुतकरणभेदे च । नोश्रुतकरणनेदमधिकृत्य-"तह यजु
किमुक्तं भवति', पतत् पञ्चवर्षात्मकं युगम् । इत्थम्भूतं युगजणाकरणं ।" योजनाकरणं च मनःप्रनृतीनां व्यापारणम् ।
मिदं रष्ट त्रैलोक्यदर्शिभिः सर्वहस्ताकद्भिः, ततोऽवश्यमि(प्रा०म०)
दं तथति अध्यम् । साम्प्रतं योजनाकरणं व्याचिण्यासुराह
एतदेव व्याख्यानयतिझुंजणकरणं तिविहं, मणवयकाए मणसि सच्चाई। पढमविइयाउ चंदा, तइअं अभिवधिय वियाणाहि । . सहाणे तब्नेदो, चन चउहा सत्तहा चेत्र ॥ . चंदे चेव चनत्यं, पंचममभिवाहियं जाण ॥ योजीकरणं त्रिविधम् तद्यथा-मनोवाकाये मनोवाकायविषयं युगे पञ्चसंवत्सराऽऽत्मकेऽनन्तरमुहिरो प्रथमद्वितीयौ संवत्समनाविषय, वागविषयं, कायविषयं चेत्यर्थः तत्र मनसि सत्या- रौचान्द्रो ज्ञातव्यो,तृतीयसंवत्सरभिवधितं जानीहि । चतुर्थ
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( १५६८ ) अभिधान राजेन्द्रः |
जुग
संवत्सरभूषामेवानीहि पञ्चम
चान्द्राः संवत्सराः, ते द्वादशमासिकाः, यौ तु द्वावभिवर्द्धिताऽऽकयौ संवत्सरौ तौ त्रयोदशमा सिकौ चान्द्रमासप्रमाणेन । अत्र द्वितीयस्य चान्द्र संवत्सरस्य य श्रादिसमय स्तदनन्तरं पश्चाद्भा वी समयः प्रथम चान्द्र संवत्सरस्य पर्यवसानं च । तदानीं च चन्यूमो योग उत्तराषाढा निः, उत्तराषाढानां च तदानीं शेषीसाः पतिविशति द्वारा भागामु
"
कस्य च द्वाषष्टिभागस्य सप्तषष्टिधा छिन्नस्य सत्काश्चतुःपञ्चाशद् प्रागाः। चतं च-"जेणं वेशचंद संवच्यरस्त भाई से णं पढमहल चंद संच्छरस्स पज्जवसाणे भांतरं पठामे समय तं स मयं च णं चंदे के नक्खत्तेणं जोइ ? । ता उत्तराहि आसाढाहिंदी पायट्टमा मास चाहिभागं च सराहा देना चाि या सेसा" इति । तदानीं च सूर्यस्य योगः पुनर्वसुनत्रेण, पुनसुनक्षत्रस्य च तदा शेषीभूताः षोमश मुहूर्त्ताः, अष्टौ द्वाषष्टिप्रायासस्य एकस्य च द्वापनिागस्य समस्य सत्का विंशतिर्भागाः । उक्तं च तं समयं च णं सूरे के नक्खणं जोप६ ? । ता पुणन्वसुगा, पुणावसुस्स सोलस मुडुता, अ य वावहिनागा मुहुत्तस्स वाबडिभागं च सत्तठिहा तिचा वीसं चुटिया भागा सेसा इति । तृतीयस्याभिनर्किताऽऽस्यस्य संवत्सरस्य यादिसमयस्तदनन्तरं पाद्भाची समयो द्वितीयस्य बाइसं वत्सरस्य पर्यवसानं तदानीं च चन्द्रमसो योगः पूर्वाषाढाजः, तासां च पूर्वापादानां शेषीभूताः सप्त मुहूर्तात्रिपञ्चाशच द्वापरिभागा मुहूर्तस्य एकस्य च द्वादिभागस्य सम्पष्टिया छिन्नस्य सरका एकोनचत्वारिंशद्भागाः । उक्तं ब-"जे णं त
"
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"
जिसे दर स्स पज्जवसाणे प्रतरं पता करे समय तं समयं च णं बंद के नव जो ताम्बाहि आाखाहाहि पुष्याणं प्रसादानं सत्त मुडुता, तिपचास व वाषट्टिभागा मुडुत्तरस बाब व सतहिा बित्ता उणयाला चुलिया भागा सेला " इति । तदानीं च सूर्यस्य योगः पुत्रेण तस्य च पुनसुनव्यता शेषीभूताद्वारा षष्टिभागा मुहूर्तस्य, एकस्य च द्वाष्टभागस्य सप्तष्टिधा - नस्य सत्काः सप्त जागाः । उकं ब-"तं समयं च णं सरेकेणं नखत्तेणं जोर ? ता पुग्यसुणा, पुणब्वसुस्स बायालीसं मुद्दता पतीच वाभागा मुद्रामा स शहिदा छित्ता सत्त चुटिया जागा सेसा इति । चतुर्थस्य संवत्सरस्य य श्रादिसमयस्तदनन्तरं पश्चाद्भाची समयस्तदसन्तरमतिवर्जिताऽरूप संवत्सरस्य पर्यवसानं तदानी पानी नां तदानीं त्रयोदश मुहूर्तात्रयोदश च द्वाषष्टिभागा मुहूर्तस्य, एकस्य च द्वाद्विनागस्य सप्तयष्टिधा छिन्नस्य सत्काः सप्तार्थ. शतिर्भागाः । उक्तं च-" जे संवत्थस्त संच्छरस्स आई से णं तवस्त्र अभिवडियसंत्रच्कूरस्स पजवसाणं अनंतरं पच्छे कड़े समय तं समयं च णं चंदे केणं नक्ख तेणं जोएछ ? | ता उष्रादि प्रसादादि उत्तराणं प्रासादानं तेरस मु हुत्ता, तेरम य वात्रट्टिभागा मुहुत्तस्स, बावडिनागं च सत्ता छेना सत्तावीस चुपिण्या भागा सेसा" इति । तदानीं च सूयस्य योगः पुनर्वसुत्रेण पुनर्वसुत्रस्य च तदा द्व
योग उतरावाद्वानि
जुग
पट्पञ्चाशद् द्वाषष्टिजागा मुहूर्तस्थ, एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य सप्तषष्टिधा निस्य सरकाः पष्टिभागाः शेषाः । बक्तं च-" तं समयं चणं सूरेकेणं नकलतेणं जाए। ता पुणञ्च सुखा, पुरानसुस्स दो मुडुतनागा उप्पनं वावट्टिभागा मुहुत्तस्स, वावा व चहा दिसी पुणिया भागा सेसा" इति पञ्चमस्य तस्य संवत्सरस्य व आदिसमयस्तदनन्तरं पचा भावी समयश्चतुर्थस्य वान्द्रस्य संवत्सरस्य पर्यवसानं तदा च चन्द्रमसो योग उत्तराषाढा नक्षत्रेण तस्य चोरापादानत्रस्पानी पीता एकोनचत्वारिश
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परिभागा मुदुर्णस्य पनि यस्य समष्टिचा प्रतिस्प सप्तचत्वारिंशद् जागाः । उकं ब-" जे खं पंचमस्त अभिव डियर आई से णं चउत्थस्त चंद संच्छरस्त पज्जबसाणे अनंतरं पच्छाकमे समय तं समयं च णं संदे कें नक्खणं जोए ?। ता उत्तरादि श्रासादाहिं, उत्तराणं श्रासा• ढणं गुणतासी मुसा, बसालीसं व बावट्ठिनागा मुडुतरल, वावभिागं च सप्तट्ठिहा बित्ता छीपालीस (१) खुशिया जागा ऐसा " इति तहामी च योगः सूर्यस्य पुनर्वसूत्रेण तस्व पुनस्तताएको वि
,
तिषाभागा मुदस्य पकस्य चाभागस्य सप्ता विनस्य सत्काः सप्तचत्वारिंशद् जागाः। उक्तं च- "तं समयं च णं सुरेकेणं नक्तेणं जोइ ? ता पुणन्वसुणा, पुणः सुरस अट जातीसं मुसा एगवीसं च वावठिभागा, वावद्विभागं वसन्तहिदा वित्तायामसिं (?) चुचिया भागा सेसा" इति। यश्च द्वितीयस्य युगस्याऽऽदिनूतस्य चन्द्रसंवत्सरस्य प्रथमसमयस्तद्मन्तरं पाद्भावी समय पञ्चमस्याभिवाप बलानं तदा चन्द्रमसो योग उत्तरापादानत्रेण सोऽपि चमसमवर्ती सूर्यस्याऽपि च पुष्यनक्षत्रेण, पुण्यस्वाऽपि च तदानों वर्षोभूता एकविंशतिर्मुदुरुस्त्रयश्चत्वारिंशत् द्वाष्टिनागः मुहूर्त्तस्य, एकस्य च द्वाषष्टिनागस्य सप्तष्टिधा निम्नस्य त्रयस्त्रिंशद् नागाः । उक्तं च-"ता जे णं पढमस्स बंद संकरम्स भाई से णं पढमस्स अभिवडियच्छरस्स पजवसा अयंतरं पच्छाकमे समय तं समयं च णं चंदे केणं नक्खलेणं जोइए ? । ता उत्तरादि आसाढाहि, उत्तराणं श्रासादाणं चर मलम । तं समयं च सरेकेणं नक्ख सेणं जोइ ? ता पुस्सेणं, एकवीसंमुडुता तेयालीसंच, वावठिभागं च सत्तडिहा बिसा भागा सेसा" इति सर्वत्र चिन्तायां मुहूर्त्ताः सूर्यमुहूर्ता वेदितव्याः, न तु व्यावहारिकाः । संप्रति युगेऽपि लोपपया याच परिमाणमतिदेशेन प्रतिपादयम्नादचंद्रमभिवड़ियाणं, वासाणं पुत्रवत्रियाणं च । तिमिदं पिपमा जुगस निरवसे ॥ चन्द्राणां संवत्सराणां योध्यास्मरयोरित्यर्थः । कर्मभूतानामित्यादपूर्व दिमानवानहितानां समुदायरूपे युगे विविधध्यायादिरूपतया तया सबै निरवशे चमवगन्तव्यम्। तथा युरो विकानि १८३० तथाहि--युगे बान्द्रा हो चारी द्रवसरे मह त्रीणि शतानि चतुष्पञ्चाशदधिकानि । द्वादश च द्वाषष्टिनाग
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जग
अभिधानराजेन्द्र:। महोरात्रस्य ३५४।१३। तदेतत् त्रिनिर्गुण्यत, जातान्यहो पकटिजागा अपि प्रवर्द्धमाना एतावन्तो लज्यन्ते । तत पते. राषाणां दश शतानि द्वाषष्टपधिकानि षशिश्च द्वाषष्टभागा षां तिधिकरणार्थमकपष्टचा भागे ते लब्धानिशत्तिथयः, अहोरात्रस्य १०६२।१६। अभिवतिसंवत्सरे चैकस्मिन्न- ता अहोरात्रस्यापर्यधिकत्वेन प्रतिप्यन्ते । तत आगतं यथोहोरात्राणां त्रीणि शतानि ज्यशीत्यधिकानि, चतुश्चत्वारिंशय ततिथिपरिमाणमिति । तथा तवैकस्मिन् युग अहोरात्रा हाधष्ठिभागा अहोरात्रस्य ३०३ ।।। एतदद्वाभ्यां गुएयते, मष्टादश शतानि त्रिंशानि-त्रिंशदधिकानि जवन्ति । तथाहिजातानि सप्त शतानि षट्पष्टयधिकानि, अहोरात्रस्य एकस्मिन् युगेऽन्यूनातिरिक्तानि पञ्च सूर्यवर्षाणि भवन्ति, प्रकृताश्च पत्रिंशद द्वापष्टिभागा अष्टाशीती प्रक्षिप्यन्ते, जातं एकैकसिश्च सूर्यवर्षे त्रीणि शतानि षट्पट्यधिकानि महोरात्राचतुर्विशत्यधिकं शतम् १२४ । तस्य द्वाषष्टया भागेरते लम्धी णां, तानि पञ्चनिर्गुण्यन्ते,ततो यथोक्तमहोरात्रपरिमाणं भवति । द्वावहोरात्री, तो पूर्वबहोरात्रेषु मध्ये प्रतिप्येते. ततः सर्वसंक
तत्थ पडिमिन्जमाणे, पंचहिँ माणेहि पुन्चगणिएहिं । सनया जाता अहोराधा अष्टादशशतानि त्रिंशदाधिकामि १०३०। पतावन्तो युगेऽहोरात्राः। यदा तु मुहर्त परिमाणं चिस्यते,तदा
माहि विभन्जित्ता, जइ मासा होति ते वोच्चं ॥ एकैकस्मिन्नहोरात्रे त्रिंशन्मुहर्ता श्त्यष्टादश शतानि त्रिंशदधि
सत्रानन्तरोक्तस्वरूपे युगे पञ्चनिर्मानानसंवत्सरः,मादित्यसं. कानि अहोरात्राणां त्रिंशता गुण्यन्ते, जातानि चतुष्पञ्चाशत्स.
परसराऽऽदिनिरित्यर्थः । पूर्वगणितैः प्राक्पतिसंख्यातस्वरूपः, इम्राणि नवशतानि ५४५०० । एतावन्तो युगे मुहताः। तथा प्रतिमीयमाने परिगण्यमाने , मासैः सूर्याऽऽदिमासैः, विनज्यचोक्तं जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ता-पंचसंघच्चरिए ण नंते ! जुगे केवमा माना मासा यावन्तो जवन्ति तान् वक्ये । मुहुत्ता पत्ता गोयमा! पंचसंबच्चरिप ण जुगे दस अयणा,
प्रतिज्ञातमेव निर्वाहयति-- तासं उऊ, सही मासा, पगे घीसुसरे पक्षसप, अट्ठारस पाश्च्चेण उ सट्ठी, मासा उणा न हॉति एगट्ठी । तीसा अहोरससया, चउपमं मुडत्तसहस्सा नव सया पत्र- चंदेण य बावट्ठी, सत्तही होति नक्षत्ती ।। ता" इति । (जं०७वक) अत्र षधिर्मासाविंशत्युसरं च पक्कशतं
'प्रादित्येन प्रादित्यमासेन विजज्यमाना मासा युगे भवन्ति सर्यसंवासरापेकया कपच्यम, ततो न कश्चिद् वक्ष्यमाणपौर्ण
षष्टिः षष्टिसंख्याः । तथाहि-सूर्यमासे सार्वाशिवहोरात्रा, मास्यादिसंख्यानेन । एकस्मिन्मुहूत्र्लोपरि चत्वार माढकाः, ततो युगे चाहोरात्रामामष्टादशशतानि त्रिशदधिकानि, तत एते. यम्मुहर्सपरिमाणं चतुपश्चाशत्सहस्राणि नवशतानि तत चतु: षां साईत्रिंशदहोरात्रैर्भागे ह्रियमाणे षटिर्मासा लज्यन्ते । भिगुण्यते ततो यथोक्तमाढकपरिमाणं भवति । तथा-पकैफ
तथा ऋतुना ऋतुसंवत्सरस्य सस्कैर्मासैर्विनज्यमाने युगे एकस्मिन्नहोराने मेयरूपतया परिमाणं त्रयो भारा, अहोरात्राणां पटिमांसा नवन्ति । ऋतुमासो हि त्रिंशदहोरात्रप्रमाणः, च युगे अष्टादश शतानि त्रिंशदधिकानि, ततस्तानि त्रिनिर्गु
ततोऽष्टादशशतानां त्रिंशदधिकानां त्रिंशता भागे ते एकएयन्ते, जातानि चतुप्पश्चाशत्सहस्राणि नवत्यधिकानि ५४९०
पष्टिरेव लज्यत इति । तथा चान्द्रेण चाइसंवत्सरसकेन पतावन्तो भागा युगे । ज्यो०२ पाहु ।
मासेन च विनग्यमाना मासा युगे सर्वसंख्यया द्वापष्टिभव. युगेऽयनाऽऽदिप्रमाणं पृच्छमाह
न्ति । तथाहि-चान्द्रमासपरिमाणमेकोनशिदिनानि द्वात्रिंशपंचसंवचरिए णं भंते ! जुगे केवडा अयाणा, केव- च द्वाषष्टिभागा दिनस्य, तत एकोनत्रिशहिनानि द्वाषीहभाग. इया उऊ, एवं मासा, पक्खा, अहोरत्ता, केवइया मुह- करणार्थ द्वाषष्टया गुण्यन्ते, जातानि सप्तदशशतान्यष्टनवत्यता पएणता?। गोयमा! पंचसंवच्चरिए ६ जुगे दस
धिकानि १७६८। ततो द्वात्रिंशपरितना द्वापष्टिभागास्तत्र
प्रक्तिप्यन्ते , जातान्यष्टादशशतानि त्रिंशदधिकानि १८३० । अयणा, तसं नक, मट्टी मासा, एगे वोमुत्तरे पक्व
येऽपि च युगाहोराधा अष्टादशशतानि त्रिंशदधिकानि, सए, अट्ठारस तीमा अहोरत्तसया, चउपएणं मुहत्तसह- तेऽपि द्वाषया गुण्यन्ते, जात एको लवस्त्रयोदशसहस्सा एव सया पसत्ता ॥
साणि चत्वारि शतानि षटपधिकानि । ११३४६० । पते"पंचसंबकरिए णं भंते ! जुगे" इत्यादि। पश्च संब.
থানায়হানমিহঘিমাছমাৰৰকাথামামামা सराः सौरा मानमत्येति पञ्चसांवत्सरिक युगम, अनेन द्वियते, लब्धाचनमासा घाषष्टिः । तथा नक्षत्रेण नक्कानोत्तरसूत्रेण "दस अयणा" इत्यादिकेन विरोधः, चान्छ
मासे परिगण्यमाने सर्वसंख्यया युगे नक्कत्रमासा सप्तसंवत्सरोपयोगिनां चम्झायणानां तु चतुस्त्रिंशदधिकशतस्य
पष्टिनवन्ति । तथाहि-नक्षत्रमासः सप्तविंशतिरहोरात्रा संजवात् । ०७वतः।
एकविंशतिः सप्तषष्टिनागाः, सप्तपटिनागकरणार्थ सप्तसंप्रति युगे सर्वसंख्यया तिथिपरिमाणम हो.
पएषा गुपयन्ते, जातान्यष्टादशशतानि नोत्तराणि १७०६। रात्रपरिमाणं च प्रतिपादयति
तत उपरितना एकविंशतिः सप्तषष्टिभागास्ता प्रक्किप्यन्ते, अट्ठारस सढिसया, तिहीण नियमा जुगम्मि नायब्वा ।
जानान्यष्टादशशतानि त्रिंशदधिकानि १८३० । युगस्यापि तत्येव अहोरत्ता, तोसा अट्ठारसमया ॥
च संबन्धिनलिंशदधिकाटादशशतप्रमाणा अहोरात्राः सप्तरइह तिथयः शशिसंभवाः, अहोरात्रास्तु सूर्यसंभवाः, तत्रयुगे
एघा गुण्यन्ते, जात एको लक्षः विंशतिसहस्राणि पशतानि निधीनां नियमाद्भवन्त्यष्टादश शतानि षष्टयधिकानि ज्ञातव्यानि।
दशोत्तराणि १२०६१०। एतामष्टादशशतैत्रिंशदधिकश्चन्द्रः कथमिति चेत् ? । उच्यते-श्ह सूर्यककमर्कमाएकल मेकेनाहोरा
माससत्कद्वाषष्टिभागरूपैभागो हियते,सन्धाः समष्टिमासान प्रेण परिमिनि मापयति, तस्य चाहोरात्रस्य षष्टिभागो वर्क
मासा सयपएणासं, सत्त य राईदियाई अजिबाहे। ते, युगे चाहोरात्राणामष्टादशशतानि त्रिंशदधिकानि । तत। एकारस य मुइत्ता, विमहिजागा य तवीस ।।
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जुग
तिरखार्क मासे परिमण्यमाने सर्वा युगे अनिवर्द्धितमासाः सप्तपञ्चाशद्भवन्ति, सप्त राविदिवानि एकादश मुह क च मुहूर्त्तस्य द्वाप टिनागास्त्रयोविंशतिः । तथाहि-अभिवर्द्धितो मास एकत्रिंशदहोरात्रः, एकविंशत्युत्तरं शतं चतुर्विंशत्युत्तरशतभागाना महोरात्रस्य तत एकत्रिंशदहोरात्राश्चतुर्विंशत्युत्तरशसभागकरणार्थ चतुर्नियन्ते जाताचतुत्वारिंशदधिकानि ३८४० तत उपरितन मे कत्रिशत्युत्तरं शतं जागानां तत्र प्रक्षिप्यते, जाताभ्ये कोनचत्वारिंशच्छतानि पञ्चषष्ट्यधिकानि ३६६५ । यानि च युगे मदोरात्राणामष्टादशशतानि शिधिकानि १८३० ताि विशत्युतरेण शतेन
नव शतानि विंशत्यधिकानि २२६९२० । तत एतेषामेकोनच स्वारिंशत्यधिकैरनिवदिनमाससरफरा
भाग गोविले सम्म
शे
नयनानि १५नयनाय चतुर्विंशत्यधिकेन शतेन भागो हियते, लब्धानि सप्त रा दिन शेषति चतुतिगाः सप्तचत्वारिंशत् तत्र चतुर्मिमांगेरेकस्य व नागस्य सि शन्मुहूर्त्ता भवन्ति । तथाहि एकस्मिन्नहोरात्रे त्रिंशन्मुहूर्ताः म होरात्रे व चतुर्विंशत्युत्तरं शतं नागानां कल्पितमासे, तस्य चतु वित्तस्य निता भागे ते सारो नागाः कस्य
(490) अभिधानराजेन्छ |
"
भागस्य सत्कारारराभागाः तंत्र रेकस्य च भागस्य देशभकि हूर्ता लब्धाः, शेषस्तिष्ठति एको भागः, एकस्य च भागस्य सरकाः पो विशद नागाः किमुकं प्रतिवाद त्रिंशभागा एकस्य च भागस्य सत्काः शेषास्तिष्टम्ति, ते ब किस मुभा ततः पर चतुर्दिशत्युतरशतस्थापन वितेला मु दुर्थस्य द्वारा पोविंशतिः। एवं संख्या मादा दधिकानामहोरात्राणां तदा यथोकमासगतदिवसमत तद्यथा-युगे किल सूर्यमाखापेक्षा मिला तो विशदचिकानां परचा भाग हिते दिवसा - दिवस । तावतो दिवसा सूर्यमासे तथा एकपि कर्ममासा युगे, ततोऽष्टादशशतानां त्रिंशदधिकानामेकचा भागीदोराजा तानकर्ममा अहोरा
विमान शशतानां द्वाष्टचा भागहरणं, लब्धा एकोनत्रिंशदोरात्रा द्वात्रिशुचयामा अहोरात्रस्य तावचन्द्रमासपरिमाणम तथा मक्षत्रमाला युगे सप्तषष्टिः । ततः सप्तधा अष्टादशशकानां जायते लम्बाः शितिरद्दोराकाशमापरिमाणम्।
तथा अतिमासायुगे
भागो ि
दोरा पति सप्त तपमानामुपरि सप्त अहोरात्रा एकादश मुहूर्त्ताः एकस्य व मुहर्त्तस्य त्रयोविंशनिद्वषष्टिभागावर्त्तन्ते । तत्र सप्तज्यः पट पातिताः, शेष एक अ होरात्र स्तिष्ठति स च चतुर्विंशत्युतर नागः क्रियते कादश मुहूर्ता:, एकस्य व मुहूर्तस्य त्रयोविंशत्युत्तरशतं मध्ये
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जुग
-तत्र
प्रतिप्यते, जातमेकसप्तत्यधिकं शतम् । तस्य सप्तपञ्चाशता जागे ते पापचतुर्विशदुत्तरतमानामिति ना वस्परिमाणमनिवतिमासस्य । संप्रति सूर्याऽऽदिमासेषु मुदिपरिमाणं ते सूर्यमासे त्रिंशदहोरात्रा प चोरामोरा गुयन्ते जातानि तानि अहोरात्रा व मुस ततः सर्वसंख्या सूर्यमासे नसतानि पञ्चदशोराणि मुट्टभवन्ति । एकैकमुपन पानिपतराणि ज्ञाभ्यां गुण्यन्ते जातान्यष्टादश शतानि त्रिंशदधिकानि १८३० । एतावत्सूर्यमासे घटिकानां परिमाणमेवया तु चिन्तायामेकैको मुटु अनु माण इति मुनां नवशतानि पञ्चराणि चतुर्भिर्गुरायते, जातानि षट्त्रिंशच्छतानि पष्टद्यधिकानि ३६६० । पतावना सर्वसंख्या सूर्यमासे भ्राढकाः । तौल्यत्यचिन्तायामेकैकस्मिन्नहोरात्रे त्रयो भाराः, ततस्त्रिंशत् त्रिनिर्गुण्यन्ते, जाता नवतिः ६०, अहोरात्रार्थे च सा भार इति सर्वसंकननया सूर्यमान तथा कर्ममा होरात्राः ततो मुहूर्ताऽऽनयनार्थे त्रिंशता गुण्यन्ते, जातानि नवशतानि, पतवन्तः कर्ममासे मुहताः, एत एव मुहूर्त्ता घटिकागुरुले प्रति घटिकाइयस्य नावाजा तान्यष्टादशशतानि १००० । एतावत्कर्ममासे घटिकानां परिमाणम् । तथा मुहूर्ते चत्वार श्राढका इति । तदेवं मुहूर्त्तपरिमाणं नवशताऽऽत्मकमा ढकाऽऽनयनाय चतुर्जि
जान ३६००चिन्तायामाढकाः कर्ममासे तौल्यत्वचिन्तायां प्रत्यहोरात्रं त्रयो भारा इति त्रिंशदहोरात्रास्त्रिनिर्गुण्यन्ते, जाता नवतिः ९० । इयत्संख्याकाः कर्ममासे नौवश्वकर्मभाराः । तथा चन्द्रमास एकोनाशात्रिंशद्वापटिनामा अहोरात्रस्य सोनगिर शता गुण्यन्ते, जातानि नत्रशतानि षष्ट्यधिकानि ९६० । एतेषां द्वापष्ट्या भागो हियते लब्धाः पञ्चदश मुहर्त्ताः शेषास्लिीितिपोराणिक द्वा
भागा मु०० मु नयनाय द्वाज्यां गुण्यते, जातानि सप्तदशशतानि सप्तत्यधिकानि, षष्टिश्च द्वाषष्टिभागा घटिकायाः १७७० । ६ । एतश्चन्द्रमासे घटिकापरिमाण तथा तमेवमुपास कलमण्य ढकाऽऽनयनाय चतुर्भिर्गुग्यते, जातानि पञ्चत्रिंशस्त्रतानि एकचत्वारिंशदधिकानि, अष्टपञ्चाशच्च द्वाषष्टिनामा आढकस्य ३५४१ । १ । तत एतावन्मेयत्वचिन्तायां चन्द्रमा सेकपरिमाणमहो
प्राक्तन मे कोनत्रिंशद्रूपं भाराऽऽनयनाय त्रिभिर्गुण्यते, जाताः ससाशीतिः ८७ । येऽपि च द्वात्रिंशद् द्वापनिगाः, तेऽपि त्रिनिगुण्यन्ते, जाता पतिः ९६ । तस्था द्वापष्ट्या भागो हि लब्ध को भारः शेषस्तिष्ठन्ति चतुस्त्रिंशत् ३४॥ ततः सर्वसं
याचन्द्रमसाध्यत्व चिन्तयामाशीनिर्माणः चतुखि शत्र द्वाषट्रभागा भारस्य ८८ ।। नक्षत्रमासः सप्तविंशतिरहोरात्रा एकविंशतिः सप्तषष्टभागा उपरितनाः, ततः सप्तविंशतिजन्य शानि दशाधिकानि सप्तष्टतराणि द्वापभागा अहोरात्रस्य १० । । येऽपि वैकविंशतिः सप्त प्रभागा
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जुग अनिधानराजेन्धः ।
जग सपरितनाः, तेऽपिशिता गुण्यन्ते, जातानि षट्शतानि त्रिंशद- कविंशत्युत्तरं च शतं चतुर्विशत्युत्तरशतनागानां मुर्तस्य । धिकानि । पतंषां सप्तषष्ट्या नागो हियते, लब्धा नव मुहर्ताः, तथा-सूर्यदिवसस्य एकष्टिोटका परिमाणम, कमदिवसस्य शवास्तिष्ठन्ति सप्तविंशतिः । मुहूतांश्च मुदूर्तराशौ प्रतिप्यन्ते, पष्टिघाटकाः, चन्द्रदिवसस्य एकोनषष्टिघटिका हौ च द्वात्रिंशजातानि संण्यया मुहूर्तानामधी शतान्यकोनविंशत्यधिकानि द्भागी घटिकायाः, नक्षत्रदिवप्तस्य चतुष्पश्चाशद्धटिका द्विचत्वासप्तविंशतिश्च८१६।२७। एकस्य च तस्य सप्तपष्ठिभागाः। पतावन- रिशासप्तपष्टिभागा घटिकायाः, अभिवतिदिवसस्य परिघटिसत्रमासे मुहर्तपरिमाणम् । ततो घटिकापरिमाणाऽनयनार्थ- का अष्टादशोत्तरं शतं चतुर्विशन्युत्तरशतनागानां घटिकायाः। मंतदेव द्वाभ्यां गुण्यते, जातानि षोडश शतान्यष्टात्रिंशदधि- ११८।११४। एकैकस्यां च घटिकायां द्विावादकाविति दिवस. कानि, चतुष्पश्चाशच सप्तपटिनागा घटिकायाः १६३० ।। स्य मेयत्वचिन्तायां सूर्यदिवसस्य द्वाविंशतं चत्वारथ पताब घटिकापरिमाणमा नक्षत्रमासे तीध्यत्वचिन्तायामकस्मि- द्वापष्टिभागा भाढकस्य २२४९। नक्कत्रदिवसस्य दशोत्तरं अहोरात्र प्रयो भागा इति सप्तविंशतिरहोरात्रातिभिर्गुणयन्ते, शतमाढकानां, पञ्चनवतिराढकाः, सप्तविंशतिः सप्तपटिनागा जातान्यकाशीतिः, पतस्य रिमाणं नक्षत्रमासे पकाशौतिभारा- भादकस्य ११०। ७५ ।। अनिवतिदिवसस्य सप्तवित्रिषष्टिश्च सप्तषष्टिांगा भारस्य, तथा एकविंशतिरपत्रि- शत्युत्तरमाढकशतं द्वादशोत्तरं शतं च चतुर्वरात्युत्तरशतनाभिर्गुण्यते, जाता त्रिषष्टिः, ततो जातं तौल्यत्वपरिमाण गानामाढकस्य १२७ । १३ । एकैकस्यां नवनाग्निमात्रमासे पकाशीतिनारात्रिषष्टिश्च सप्तपष्टिर्भागा ना- कायाः पत्रशतमिति तौल्यत्वचिन्तायामिदं दिवसस्य रस्य । तथा-पकैकस्मिन्मुहर्ने चत्वार प्राढका इति मुह
परिणम् । सूर्यदिवसस्यकषष्टिपल शतानि परिमाणम ६१००। संपरिमाणमनन्तरोक्तं सर्वमपि चतुर्भिर्गुण्यते, तत प्रा
कर्मदिवसस्य चतुःपञ्चाशतपल शतानि ५४००। चन्ऽदिवस. गतानि नक्षत्रमासे मेयपरिमाणचिन्तायामाढकानां द्वात्रिंश
स्यैकोनषष्टिपल शतानि द्वौचद्वापष्टिभागी पलशनस्य ५४०० *च्छतानि सप्तसप्तत्यधिकान्येकचत्वारिंशय सप्तपष्टिभागा भढ- हरे । नक्षत्रदिवसस्य चतुष्पश्चाशत्पलशतानि हाचत्वारिंशच्च कस्य ३२७७18। अनिवर्वितमासे एकत्रिशदहोरानाः, एक- सप्तषष्टिभागाः पलशतस्य ५४००।१३। अभिवतिदिवसस्य विशम्युसरं च शतं चतुर्विशत्युत्तरशतभागानामहोरात्रस्य, त्रिषष्टिः पल शतान्यष्टादशोत्सरं च चतुर्विशत्युत्तरं पल शतस्य तत्र महानयनार्थमंत्रिशदहोरात्राविशता गएयन्ते, जा- ६३०० । । तदेवमुक्तं सप्रपञ्चं पञ्चानामपि संवत्सराणां तानि नवशतानि त्रिंशदधिकानि ९३० । तदपि चैकर्षिश. स्वरूपं, युगप्रमाणं च । ज्यो० २ पाहु० । सू०प्र०। स्युत्तरं शतं भागानां, तदपि त्रिंशता गुण्यते, जातानि ष- पंचसंवच्चरियस्स णं जुगस्स नक्खत्तमासेणं मिजमात्रिंशच्छतानि त्रिंशदधिकानि ३६३० । एतेषां च चतुर्विशत्यु. णस्स सत्तसहि नक्खत्तमासा परमत्ता। सरेण शतेन भागो हियते, लब्धा एकोनत्रिंशन्मुहूर्ताः, शंखमुद्वर
"पंच संवच्चर"इत्यादि । नक्षत्रमासो येन कानेन चन्द्रो , ति चतुर्विशत्युत्तरशतभागानां चतुर्विंशश्च चतुर्विशत्युत्तरशत.
नकत्रमएमसं नुक्ते, स च सप्तविंशतिरहोरात्राणि, एकविंशतिभागा मुहतो मुहूर्तराशौ प्रविष्यन्ते, ततो जातमभिवाते मासे
श्वाहोरात्रस्य सप्तषीपभागाः २७।।। युगप्रमाणं चाष्टानश. सर्वसंकलनया मुहूर्तपरिमाणं नवशतान्येकोनषष्ट्यधिकानि
शतानि त्रिंशधिकानीति प्रारदर्शितम १८३० । तदेवं नका चतुर्विंशव चतुर्विशत्युत्तरशतभागाः ५६।३। मुहुर्ते व श्रमासस्योक्तप्रमाणराशिना दिनसप्तपष्टिनागतया व्यवस्थापिते. घटिकाद्वयमित्येतदेव मुहर्न परिमाणं घटिकाऽऽनयनाय द्वाभ्यां
न त्रिंशत्तराष्टादशशतप्रमाणेन युगदिनप्रमाणराशिसप्तषष्टि. गुण्यते, जातान्येकोनविंशतिशतान्यष्टादशाधिकानि घांटकाना. भागतया व्यवस्थापितः, एक सकं, द्वाविंशतिः सहस्राणि, षद मध्वपितुर्विशत्युत्तरं शतंभागानाम् १६१।। एकैकस्यां
शतानि, दश श्रेत्येवंरूपो १२२६१० । विभज्यमानः सप्तषष्टिनक्ष. च घटकायां द्वौ द्वावादकाविति घटिकापरिमाणमिदम् ।
त्रमासप्रमाणो भवतीति । स०६७ सम० । मेयरूपतया चिन्तायामाढकाऽऽनयनाय हास्यां गएयत, जा.
पंचसंबच्चरियस्स एंजुगस्स रिउमासेणं मिन्जमाणस्स ताम्याटकानामयात्रिंशच्छतानि सप्तत्रिंशदधिकानि, द्वादश च चतुर्विशत्युत्तरशतभागानामादकस्य ३८३७ । । तथाहि ।
गमाहिं उनमासा परमत्ता। एकस्मिन्नहोरा जारप्रयमित्येकशिवहोरात्रातिभिर्गुण्यात,
"पंच" इत्यादि। पश्चनिः संवत्सरैनिवृत्तमिति पश्चसांवरमरिक, जातानिनवति राः । यदपि कविंशत्युत्तर शतमपि विभिग
तस्य, णमित्यारे, युगम्य कानमानविशेषस्य तुमासेन एयते, जानानि श्रीणि शतानि त्रिषष्ट्याधिकानि ३६३ । त.
चन्द्राऽऽदिमासेन मीयमानस्य एकीट:-ऋतुमासाः प्रहप्ताः । पांच चतुर्थशस्युत्तरेण शतेन भागो हियते, लब्धी द्वौ भारा,
वह चाय भावार्थ:- युगं दि पञ्च संबसरा निष्पायतीच पूर्वराशी प्रतिष्येते, शेष पञ्चदशोत्तरं शतम, तत पागतं
स्ति । तद्यथा-बचकोऽभिवतिधम्छाऽभिवतिश्चेतौल्यचिम्तायामभिधतिमासे परिमाणं पश्चनवतिर्भाराः
ति । तत्र एकोनर्षियानहोरात्राणि द्वात्रिंशच द्विपतिशनमकं पञ्चदशातरं चतुर्थिशत्युत्तरशतभागानामा ५।१५।
भागा अहोरात्रस्येत्येवं प्रमाणन २६ 1..। कृष्णमयदा तुमासस्य प्रिंशसमो भागो दिवस इति दिवसलक्षणमनु ।
तिपदामारभ्य: पैगामासीनिष्ठितन चक्रमासेन हाददासूर्यमालादिनियसपरिमाणं चिन्त्यते, तदा यदेव तस्य
मासपरिमाणाचसंवत्सरः । तस्य च प्रमाणमिदममासस्य विमापेक्षया परिमाणं, नदेव तस्य दिवसस्य म.
त्रीणि शतान्यहां चतुष्पञ्चाश उत्तराणि, द्वादश भ हिपहर्तापक्षया, परिमाणमबसेयम् । यथा मर्यदिवसम्य त्रिंश
प्रिभागा दिवसस्य ५४ तथा-एकत्रिशदहामेकमुहर्त परिमाणं, कर्म दिवसस्य त्रिंशन्मुहर्ना एकविंशतिम्च
चिंशत्युत्तरं च शतं चतुर्विशत्युत्तरशतभागानां दिवसस्येत्येवं सप्तपरिभागा मुहूर्त, अभिवतिदिवसस्यकत्रिशम्मुर्मा ए.
प्रमाणोऽभिवतिमास इति . ३.11 एतेन च मासेन द्वादशमासप्रमाणोऽभितसंवत्सरो भवति । स च प्रमाणे.
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(92) अभिधानराजेन्द्रः
जग
म त्रीणि राताम्यां धनयारिंशच द्विप ष्टिभागा दिवसस्य ३८१ । हेरें । तदेवं प्रयाणां चन्द्रव राणाश्चाभिररिकीकरण जातानि दिना नां त्रिंशदुत्तराण्यप्रादशशतान्यहोरात्राणाम् १८३० । ऋतुमासश्च त्रिशताऽदोरात्रैर्भवतीति त्रिंशता जागहारे लब्धा एकषष्टिः ऋतुमाला इति । स० ६१ सम० ।
दोसरचारिणः सूर्या पुनः संवत्सरेण दक्षिणोत्तरचारिणो जयन्ति । अत्र चन्द्रस्य नक्षत्रमासां ग्राह्यः, सप्तदिनाशितािमश्चेति प्रमा
२७ | तन १३ ॥ १ ॥ चन्द्रस्य दक्तिणाssयनम, श्रद्धेन चोत्तरायणम् । यतश्चन्द्रचन्द्राऽभिवति. चन्द्राभिवर्कितनामानः संवत्सराः । ते च त्रिंशदपिकाहा नदिन युगे पञ्च भवन्ति सोन दिनमानाः द्विपश्चिमा सा शिदिनमाना सूर्यमामा पनि विशतिः सप्तनागा नक्षत्रमाखाः सतते युगे चन्द्रस्य दक्षिणायनानि सप्तषष्टिः, उत्तरायणान्यपि सप्त. षष्टिः सर्वाणि युगे चन्द्रायणानि १३४ तथा सूर्यस्य पण नोगो येतानि पानि द्रोऽतिकाय यानि लुके, पृष्ठं दरवेत्यर्थः इत्यादि दृश्यम् ॥ ७६ ॥ सूर्यमंडल दिक प्रकाश्याथ नह अतारका स्वरूपमाह
3
अब मलाई एक्वाणं जिहिं महिआई | दो मंगलाएँ दीव, मंडल कं च लत्रणम्मि ॥ ८० ॥ अभिनेति
जलप
सो अन्तरमफलं तन्नत्राणामपि सर्वाज्यन्तरम एमनं, यश्चन्द्रमस सर्वबाह्यं मण्डलं तन्नक्षत्राणामपि सर्वबाह्यं मएकलम्। यदुक्तं जम्बूद्ध) पप्रकृत्याम्- "जंबूदीवे णं भंते! केवश्रं श्रोगाढिता नक्तमंडला पद्मता ? । गोयमा ! जंबूदीचे दीवे असीसयं श्रोमंडला मुद्दे विि
से जोश्रणसर ओगादेत्ता, एत्य व नक्खत्तमंडला पन्नत्ता । सव्वग्नंतराओं णक्खत्तमंगलाश्रो कंबश्य अबाहार स
बाहिर णक्लत्तमंडले पत्ते ? गोयमा ! पंचसुत्तरजो प्रणसर श्रबादा क्वनमंडले पण ते " इति ॥ ८० ॥ अथ केषु केषु चन्द्रमएमसेषु नचत्राणि सन्ति ? इत्याहअभि १ सत्रण २ घट्ठिा ३,
समिस पुब्बुत्तरा य ५ जक्ष्वया ६ ।
रेवा असि जरी ए
- पुव्युत्तर १० फरगुणीओ ११ अ ॥ ८१ ॥ श्रनिजिच्छ्रवणच निष्ठाशतीन पूर्वजादोत्तराभाषपदा युगे दशायनानि । तत्र पञ्च दक्षिणायनानि पञ्चैवो
राणाशांनाना८३
तद्दशगुणं युगं १८३० दिनप्रमाणम् । तथा सूर्यः सर्वाज्यन्तरमरमले दिनमेकं चरति, सर्वबाह्येऽपि दिनमेकं शे बेषु मण्डलेषु प्रदेश निर्गमाज्यां दिनद्वयम, अतः प्रथमचरमदि सरे ३६६ दिनानि सो
मं
जुग
संप्रति कति ममलानि चन्द्राः, सूर्या वा युगमध्ये चरन्तीत्येतन्निरूपयतिसत्तरससए पुसे, अट्टे चेव मंगलं चरः । चंदो जुगेण पिमा सूरो अङ्कारस तो ॥
युगेन्द्रचन्द्रानिपतिन्द्रानिवति सरप eisseria नियमान्मण्डलं चरति भ्रम्या पूरयति सप्तदशशतान्यधिकानि १७६८ सूर्य: पुनर्युगेन मण्डलानि चरति अष्टादशशतानि त्रिदशदधिकानि १८३० ।
संप्रति चन्द्रः स्वकीयेनायनेन कियन्ति मण्डलानि पति
तेरस य मंडला, तेरस सहिद जागा व । अयण चरइ सोमो, नक्खतेऽरूमासेणं ॥
नाम
सरनामाखेन यचन्द्रस्थानं तेनानेनन् योदश मरामलानि, एकस्य च मरामस्य सप्तषष्टिभागीकृतस्य त्रयोदश भागान् चरति । कथमेतस्योपपत्तिरिति चेत् ? । दधिकेनायनशतेन सप्तदशशतान्य
-
हितानि न लभ्यन्ते तत एकानं किं लभामहे । राशित्रयस्थापना - १३४ । १७६० । १ । अत्रान्त्येन राशिनैककलकणेन मध्यराशिर्गुण्यते स च तावानेव जातः । तत
राशिमा विशदधिकेन शतरूपेण भागो दिय
शेषास्तिष्ठन्ति पविशतिःकराश्याद्विकेनापवर्त्तना, बन्धात्रयोदश सप्तष्ठनागाः । अधुना यावन्ति मण्डलाम्येकेन पर्वणा चन्द्रवरति तानिदिदिक्षुराद
चोदस य मंडलाई, विमट्टिजागा य सोलस हवेज्जा | मास उई एसियम पर खेतं ।
मासान पणा उपनिमा एतावन्मात्रमेताय प्रमाणं क्षेत्रं चराते । यडुत चतुर्दश मएकलानि, एकस्य च म एकल्लस्य षोमश द्वाषप्रिभागाः । तथाहि यदि चतुर्विंशत्यधिकेन पवंशतेन सप्तदशशतान्यषष्ट्यधिकानि मएकलानां लभ्यन्ते तत एकेन पर्वणा किं लभ्यते ? । राशित्रयस्थापना१२४ । १७६७ | १ | अत्रान्त्येन राशिना मध्यराशिगुरायते, ते च तावानेव जाताः, तत्राऽऽद्येन राशिना भागहरणं, लब्धाश्चतुर्दश, शेषास्तिष्ठन्ति द्वात्रिंशत् । तत्र छयच्छेद कराइयांकिके नापवर्त्तना, लब्धाः षोमश द्वाषष्टिभागाः ।
संप्रति पगलज्यो ऽयमगतम एक लापगमे षच्छेयमयति
मंगलं मं-टलस्स सतहिजाग चत्तारि । नव चैव चुलियाओ, इगतीकरण एए ॥
एकं मएकमेकस्य च महलस्य सप्तषष्टिभागाश्चत्वारः, एकस्पष्टभागाभागार,
तापर्यत के बाप
शेषादि
त्यधिकेन पर्वतेन सप्तदशशतान्यष्ट्यधिकानि मएकलानां लज्यन्ते तत एकेन पर्वणा किं लभामहे ? | अब राशिय स्थापना- १२४ । १७६१ । अत्रान्त्येन राशिना मध्यरा
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(१५७३) जुग अभिधानराजेन्द्रः।
जुगप्पहाण शिगुण्यते, स च तावानेव जातः, तत श्राद्येन चतुर्विंशत्य- जुगंधर-युगन्धर-पु० । युगं रथस्य युगकाष्ठं धरति धृ-खच् । धिकन शतरूपेण राशिना भागहरणं, नेद्यच्छेदकराइयोश्चतु.
रथस्य युगकाप्टासम्जने कूवराण्ये काष्ठभेदे, जं० १ वक० । निरपवर्तना, लब्धानि चतुदर्श मएमलान्यष्टौ च एकत्रिंशद
पर्वतभेद, वाचभम्बरतिलकपर्वतस्थे स्वनामख्याते प्राचार्य, भागाः । पतस्मादयनकेत्रं शोध्यते, तत्र चतुर्दशस्य अयोदश मा० मा "जुगंधरा नाम पायरिया विविहनियमधरचनहसपु. माममानि शुकानि, एकमवशिष्टम। संप्रत्यष्टाज्य एकत्रिशद्भा.
विच उमाणावगया।"आ० म० भ०१खाका अम्बरतिक्ष. गत्यस्त्रयोदश सप्तपष्टिभागाः शोध्याः। तत्र सप्तपष्टिरष्टभिर्गु- कपर्वतमधिकृत्य-"युगन्धरमुनिस्तत्र, तदा कवलमासदत।" जिताः, जातानि पञ्चशतानि षट्त्रिंशदधिकानि ५३६ । एक
श्रा० क०। अपरविदहस्थे महाबाहवासुदेवस्य समकालिके त्रिंशता प्रयोदश गुणिताः, जातानि चत्वारि शतानि व्युत्तरा.
तीर्थकरे, प्रा. चू० १ ०। प्राव०।। णि ४०३ । पतानि पञ्चज्यः षत्रिंशदधिकेभ्यः शोध्यन्ते, स्थितं शेषं त्रयस्त्रिंशदधिकं शतम १३३। तत एतत्सप्तपष्ट्रि
जुगच्छिह-युगच्छिछ-न । युगरन्ध्र, श्रा० क०। नागाऽऽनयनार्थ सप्तपण्या गुण्यते, जातानि नवाशीतिश
"पुञ्चत हो जुगं, अवरते तस्स होइ समिलायो। तान्येकादशाधिकानि ८६११ । दराशिरोल एकत्रिंशत्, सच
जुगनिम्मि पवेसो, अ संसहभो मणुअलंभो ॥१॥" सप्तषष्ट्या गुएयत, जाते द्वे सहस्र सप्तसप्तत्यधिके २०७७ ।
पूर्वान्ते समुहस्य युगम, अपरान्ते तु सम्या,ततो यथा युगस्य ताभ्यां भागो ह्रियत, लब्धाश्चत्वारः सप्तषष्टिनागाः, शेषा
निजे तस्याः प्रदेशः संशयित इत्येवं मनुष्यजन्मलाभः । स्तिष्ठन्ति षशतानि ज्युत्तराणि ६०३ । ततश्चेद्यच्चंदकरा
तथाश्योः सप्तषप्ट्याऽपवर्तना, जाता उपरि नवाधस्तादेकत्रिंशत,
“जह समिला पन्भट्टा, सागरसलिले प्रणोरपारम्मि।
पविसिज जुगरिछई, कह विभमंती भमंतम्मि ॥१॥" लब्धा एकस्य सप्तपष्टिनागस्य नवैकत्रिशच्छेदकृता भागा इति । ज्यो०१६ पाहु०।०।०प्र०। (युगे किमादिकाः संव
नवरम- अणोरपारम्मि'देश्यस्वादपार इत्यर्थः।
"सा चंगवायवीई-पगुम्सिमा अवि लभिज्ज जुगनिइं। सरा इत्यनुपदमेव 'जुगाइ' शब्दे १५७५ पृष्ठे वक्ष्यन्ते) युगेऽमावास्याः पूर्णिमाश्च यथा
न य माणुसाउ नहो, जीवो पुण माणुसं बहः ॥ १॥"
प्रा०का उत्त। पंचसंवच्चरिए णं जुगे वावहिं पुन्निमाओ,वावडिं अमा
जुगणक-युगनछ-पुं० । युगमिन नदो युगनरूः । यथा युगं वासाओ परमत्ताओ।
वृषभस्कन्धयोरारोपितं वर्तते तद्वद् योगोऽपि यः प्रतिभाति प्त "पंच" इत्यादि । तत्र युग त्रयश्चन्द्रसंवत्सरा भवन्ति, तेषु षट्त्रिं. शत्पौर्णमास्यो भवन्ति.द्वौ वानिवर्द्धितसंवत्सरोजवतः,तत्र चा.
युगनद्ध इत्युच्यते । एतदाकार योगभंदे, सू०प्र०१२ पाहु । भिवतिसंवत्सरः त्रयोदशनिश्चरूमासैनवतीति तयोः पम्
जुगप्पहाण-युगप्रधान-पुं० । युगश्रेष्ठ, निचू०१ उ०। "तत्थ विंशतिः पौर्णमास्य इत्येवं द्विषष्टिस्ता भवन्तीति, एवममावास्या
मजवारा सुच्चति जुगपदाणा।" श्रा०म०१.२ खण्ड । अपीति । स०६५ सम ।
जो दुप्पसहो सूरी, होहिंति जुगप्पहाण आयरिया । जुगंतकडनमि-युगान्तकृद कर नूमि-स्त्री० । युगानि कालमा- अजमुहम्मप्पभिई,चउरहिया मुनि य सहस्सा ४५१॥ नविशेषाः,तानि च क्रमवनि,तत्साधाधे क्रमवर्तिनो गुरु- इहावसर्पिण्यां सुषमावसानसमये छिहस्तोच्छूितश्चतुर्विशशिष्यप्रशिष्याऽऽदिरूपाः पुरुषास्तेऽपि युगानि,तैः प्रमितान्तकर- तिवर्षायष्कः पुष्कलतपःक्षपितकर्मतया समासनः सिकिसौधं
मियुगान्तकरनूमिः । ज्ञा०१ श्रु०७ अकल्प० । पुरुषलकण- शुझान्तरात्मा दशकालिकमात्रसूत्रधरोऽपि चतुर्दशपूर्वधर युगापेकयाऽन्तकराणां नववयकारिणां भूमिः कालो युगान्तकर
श्व शक्रपूज्यो दुष्पसहनामा सर्वान्तिमः सूरिविष्यति ततःतं जुमिः। स्था०म० । अन्तकर (कद्) नूभिनेदे, (मा च कस्या
पुष्पसहं याबत, तमजिव्याप्यैवेत्यर्थः। आर्यसुधर्मप्रभृतयः, प्रा. तकृत कियतीति तत्तचन्दे निरूपिता)पुरुषौ युगमिव पुरुषयुगं,
रात सर्वहेयधर्मेभ्योऽर्वाक जात आर्यः,स चासौ सुधर्मः,तत्प्रभृतदपेक्षयाऽन्तकराणां भवान्तकराणां, निर्वाणगामिनामित्यर्थः।
तयः,प्रभृतिग्रहणाच जम्बूस्वामिप्रभवशय्यंजवाऽऽद्या गणधरपभूमिः कालो युगान्तकरनूमिः। इदमुक्तं भवति-भगवता वर्क
म्परा गृह्यते, युगप्रधानास्तत्तत्काल प्रकरपारमेश्वरप्रवचनोपमानस्वामिनस्तीर्थे तस्मादेवावधेः तृतीयं पुरुषं जम्बूस्वामिन
निषद्वेदित्वेन विशिष्टतरमूलगुणोत्तरगुणसंपन्नत्वेन च तत्कायावनिर्वाणमजूत, तत उत्तरं तद्वयवच्छेद इति । स्था० ३
लापेक्षया जरतक्षेत्रमध्य प्रधाना आचार्याः सरयश्चतुरधिकसद०४०।
वध्यप्रमाणा भविष्यन्ति । अन्ये तु चतूर हतसहस्रदयप्रमाजुगंतकरभूमि-युगान्तकृद [कर ] जूमि-स्त्री० । "जुगंतकम- णा इत्याहुः। तत्वं तु सर्वविदो विदन्ति ।। नूमि" शब्दार्थे, ज्ञा० १ श्रु० अ० ।
यश्च महानिशीथग्रन्थे जग्रन्थ ग्रन्थकार:जुगंतरपलोयणा-युगान्तरमलोकना-स्त्री०। युगं यूपः, तत्प्रमा- "इत्थं चायरिआणं. पणपन्ना हुँति कोमिलस्वा ओ । णमन्तरं व्यवधानं प्रलोकयति या सा तथा । (ज) युगं यू
कोमिसहस्से कामी, सए य तह पत्त चव ति" ॥१॥ पः, तत्प्रमाणो भूनागोऽपि युगः, तस्यान्तरे मध्ये प्रलोकन
तत्सामान्यमुनिप्रत्यपेकया अष्टव्यम् । तया च तत्रैवोक्तम्यस्याः सा तथा । युगप्रमाणनभागव्यवधानेन प्रक्षोकयन्त्याम,
" पपसिं मकाओ, एगे निव्वर गुणगणाने। भला " जुगमंतरपलोयणाए दिछीए" (जुगंतरपलोयणाप त्ति)|
सवुत्तमभंगणं, तित्थयरस्साणुसरिसगुरू ॥१॥" प्रव० युगं यूपः, तत्प्रमाणमन्तरं स्वदेहदेशस्य दृष्टिपातदेशस्य च
२६४ द्वार। व्यवधान,प्रलोकयति या सा युगान्तरप्रशोकना, तया,टप्स्येति।। चतुरांधकद्विसहसामना युग
चतुरधिकद्विसहस्रामिता युगप्रधानाः सिमान्ते प्रोक्ताः, ते सान०२श०१3०।
| म्प्रतं क सन्ति?,इति प्रभ,उत्तरम-साम्प्रतं युगप्रधानाः सन्तीति ३६४
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जगण्पहागा
( १५७४ )
श्रभिधानराजेन्द्रः |
नयनरम्य ते भवि ध्यन्तीति ज्ञायते । ५१ प्र० । सेन० १ उला० । जुगमच्छ पुगपत्स्य पुं० । मत्स्यभेदे, विपा० १ ० ८ ० । जी० । प्रज्ञा० ।
जुगमन - युगमात्र त्रि । युगं यूपं चतुर्हस्तं तत्प्रमाणं युगमात्रम् । चतुर्हस्तप्रमाणे, प्रवर १०३ द्वारा । "पुरम्रो जुगमत्ताए, पेहमाणो महिं चरे । " (३ गाथा) पुरताऽग्रतो युगमात्रया शरीरप्रमा
या शकटोर्द्धसंस्थितया दृष्ट्येति । दश० ५ ० १ ४० । जुगमाय - युगमात्र त्रि० । 'जुगमस' शब्दार्थे, प्रत्र० १०३ द्वार "पुरओ जुगमायं पेहमाणे " युगमात्रं चतुर्हस्तप्रमाणं शकटो
संस्थितं जूनागं पश्यन् । आचा० २ ० ३ ० १ ३० । जुगल - युगल - न० 1 युगं द्वित्वं विद्यतेऽस्त्यस्य लच् । युग्मे, द्विस्वसंख्याऽन्विते च । त्रि०। वाच०। युगनं द्वयमिति । अनु० तं उस ० ज्ञा० रा० | ० | स० । औ० । सजातीयविजातीययो ईन्द्रे, रा० जी० ॥ जं०। " आमेलगजमलजुगवट्टय अन्य रश्यसंवियपहरा । " युगलौ युगल रूपौ द्वावित्यर्थः । ज्ञा० १ ० १ भ० ।
जुगल पम्प युगधर्म ५० श्रीपुरुषइन्द्रचमें आ० म०१ अ० १ खण्ड | तं० | ज्यो० । जुगलधाम्य-युगलधर्मिक पुं० । स्त्रीपुरुष द्वन्द्वधर्मवति तं । जुगलयमणुय-युगलकमनुज-पुं० । युगलधर्मिणि मनुष्ये, ज्यो० १ पाहु० ।
जुगलि[ए] - युगलिन् - वि० सजातीयविजाते
कुरो भगवान् युगलिकोऽहं युगलिनीति (श्रेयांस वचः ) कल्प०
यस्मिन् काले कालान्तरे या यावन्तो युगस्तिस्मिन् तावन्त एव न्यूना, अधिका वा ? इति प्रश्ने, उत्तरम-यस्मिन् काले यावन्तो युगकाले तु तावन्त एव भवति । कालान्तर नरतैरायतयोगािचिका द तु जातु तत्संहरण संभवे कुतश्चित्तदानयनमपि भवतीति न तत्र म्यूनाधिकयमिति । १३ प्र० । सेन० ३ चल्ला० । जुगलिप - युगक्षिक त्रि० । स्त्रीपुरुषोते, कल्प० 9 ऋण | आदिनाथस्य बारके तालफलेन युगलिकदारको मृतो, युगलिनां चाकालमरणं न भवतीति कथं घटते ?, इति प्रश्ने, उत्तरम-पूर्व कोट्यधिकायुषो युगांजना न्यूनायुषि न म्रियन्ते तवः श्राश्रादिसाथस्य वारके तालफलेन सूपस्य युगलिन पूर्वका धिमा संगति ३००३ प्रका बुगलका समुद्र पनि अस्वयं श्रीभवन्ति इति प्रश्ने, उत्तरम्" पुरा हि मृतमिथुनशरीराणि महांखगाः । नीडकाष्ठमियोत्पाट्य, सद्यत्रिक्षिपुरम्बुधः ॥ १षभदेवरिय मात्ममुगलिक हियत अन्यगलिक
1
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येवं संभाव्यते, आरण्यकपशूनां निसर्गत मृतानां यथा किमध्ययवाऽऽद्रिकं नोपलभ्यते, तथा तेषामपीत्येपाऽपि संभा बना संजायत इति । ३० प्र० । सेन० ३ उल्ला० । सर्वेषु युगलिकक्षेत्रेष्ठ युगलिनां गर्भजगर्न व्युत्क्रान्तनेदभिन्नानां जघन्यमध्य
जुगाड़ मोहनमाखयं कि बोल्ट ने उत्तर युगलिनामुत्कृष्टमायुर्यथास्थानं त्रिपल्योपमादि प्रतीतं, जघन्यं तु शेवम् मतिमार क्षुल्लकजवरूपं कश्चिज्जन्तुः करोतीत्यर्थका कराण्याचाराङ्गसन्ति परं तायामेव जयत मध्ययुग नीगर्भेऽपि नवलक्षमितिगर्भजा उत्पद्यन्ते, निष्पद्यन्ते च द्वयमेव । शेषास्तु स्वस्वमायुपवर्त्य गर्नस्था एवं म्रियन्त; तथा कुलकभवादधिकसमयाऽऽदिभवने संभवतीति । १६८ प्र० सेन २ उला० । युग झित - त्र० । युगलं सजातीयविजातीययोर्द्वन्द्वं तत्संजातमस्स्यस्य युगलितः सजातीयविजातीय द्वन्द्वोपेते, जी ० ३ प्रति० । जं० । जी० ।" निश्वं जुगलिया " युगलतया स्थिताः । ज्ञा० १ श्रु० १ ० ।
जुगझियखेत्तकप्परुक्ख - युगलिक क्षेत्र कल्पवृक्ष - पुं० | युगनिकक्षेत्र का सम्पतिकाथ्वीकारूपा वा तरम् ते वनस्पतिरूपा इति । ४०६ प्र० सेन० ३ उदला० । जगवं - युगवत् - त्रियुगं सुषम दुष्वमाऽऽदिः कालः, सोऽदुष्टो निरुपद्रवी विशिस्यास्य कहते असामध्यविनहेतुः ख चास्या अनु० भ० रा० । ० म० ।
युगपत् - अव्य० । युगमित्र पद्यते, पद- क्विप् । एकस्मिन् काल इत्यर्थे, नं० ।" खतारि कम्मं से जग खनेछ" । यौगपद्येन निर्जरयति । औ० । श्रा०म० । उत्त० । विशे० । ( युगपत्क्रियाद्वयवक्तव्यता' दोकिरिय' शब्दे वक्ष्यते )
1
जुगवाहु - युगबाहु - पुं० । युगो यूपस्तदाकारा वृत्तत्वाद्दीर्घत्वाचा बाहवो यस्य सः । युगवद्दीर्घबाहौ स्था० वा० । सुविधिजिन सुविधा स० पूर्ववि देवस्थे सामन्तीर्थकर समकालिके वासुदेवे ००७ २० | आय० । मासपदेशस्थस्य सुदर्शनपुर नृपतेर्मविरेधस्य स्वनामख्याते भ्रातरि उत्त० ९ अ० | मिथितास्थे मिराजपितरि इथे जुगारेापुतो नमी नाम
महाराया: " ति० ।
जुगवच्छर-युगसंवत्सर-पुं० [पय] तत्पुरका संवत्सरो युगसंवत्सरः। सू० प्र०१० पाहु० चं० प्र० । पञ्चतंत्र - युद गपुरकरः ज०७०संवारविशेष जुरामा १५६७ पृष्ठे
जुगसंनिज-युगसभित्र तथा प्रायतया च यूप
जुगसल
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थिरक संधी पुरवरफ त्रिवयिया । जी० ३ प्रति । तंo | प्रश्नः ।
जुगाइ युगाऽऽदि पुं० प्रथमतः प्रवृत्ते मासतिथिमुहूर्त्तादौ च । जं० ।
संप्रति युगसंवत्सरमा लदिनानामादि प्ररूपयतिआदी जुगन संपच्छरो मासस्य प्रकमासो छ । उ
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(१५१५) जगाइ अनिधानराजेन्डः।
जग्गायरिया दिवसा भर हेरचए, राईया मह विदहेसु ।।।
किमाइआ उऊ, किमाइआ मासा, किमाइया पक्खा, युगस्य चन्द्रचन्द्राभिवतिचन्द्राभिवद्धितरूपसंवत्सरपञ्च- किमाआ अहोरत्ता, किमाइया मुदुत्ता, किमामा करकाऽऽत्मकस्याऽऽदिः संवत्सरः, सच चान्ः, तमसावन्य- णा, किमाइआ णखत्ता पामता। गोयमा! चंदाइमा संयुगस्य प्रवर्तनात् । चान्छस्य संवत्सरस्याऽऽदिर्मासः । स च
बच्छरा, दक्षिणाइआ अयणा, पानसाइआ उऊ, साश्रावणत आपाढपौर्णमासीचरमसमयः पाश्चात्ययगस्य पर्यवसानं, ततोऽभिनवयुगस्याऽऽदिर्मासः प्रवर्तमानः श्रावण
वणाइमा मासा, बहुलाइमा पक्खा, दिवसाइमा अहोरएव भवति, तस्यापि च मासस्य श्रावणस्या 55दिरमासः त्ता, रोडाइमा मुहत्ता, बालवाझ्या करणा, अभिजिवाइया पकः, पकद्वयमीलनेन मासस्य संभवात । सोऽपि च पक्षो णक्खत्ता समणानसो!" [जं० ७ वद०] बहुलो बेदितव्यः, पौर्णमास्थानन्तरं बहुलपकस्यैव भावात् ।
तदेवं 'राईया सह विदेहेसु' इत्यनेन (पूर्वोक्तगाथा) अवयवेन म. तस्यापि च बहुलस्यामासस्यापि भरतकेत्र युगस्यादिः
हाविदहेष्वनया गाथया भरतैरवतयायुगस्याऽऽदिः प्ररूपितः । प्रवर्तते, ततो दिवस एव मासाऽऽदिरूप उत्पद्यते, यदा च भरतके दिवसस्तदैरवतेऽपि दिवसः, तदा च पूर्वविदहव.
संप्रति भरतैरवतविदेहेषु साधारणं युगस्याऽऽदि प्ररूपयतिपरविदेहषु च रात्रिः,प्रत ऐरवतेऽपि अर्द्धमासस्याऽऽदिदिवसो, सावण बहुलपटिवए, बालवकरणे अनीइनक्वत्ते । महाविदंडेषु रात्रिरिति ।
सम्वत्थ पढमसमए, जुगस्स भाई बियाणाहि ॥ ___ संप्रति भरतैरवतेऽधिकृत्याऽऽदिप्ररूपणार्थमाह
सर्वत्र-जरते, ऐरवते, महाविदेहेषु च श्रावणमास बहुलपक्केदिवसाइ अहोरत्ता, बहुलायाणि होति पन्नाणि । कृष्णपक्ष प्रतिपदि तिथौ बावकरणे अनिजिन्नत प्रथमस
मये युगस्यादि विजानीहि । ज्यो०२ पाहु०। अलिई नक्खत्ताई, रुद्दो आई मुहुत्ताणं ॥
सर्वत्रेति भरतैरावतविदेहेषु नाव्यम् । अवसर्पिण्यां परमाभरते, ऐरवते च दिवसाऽऽदयो दिवसमूला अहोरात्रा, यग- मारकाणामप्यादिः गोत्ररव, विदंहषु यद्यप्यारकाणामभावा, स्याऽऽदो दिवसस्येवह प्रवत्तमानत्वात् । पर्वाणि पक्तरूपाणि ब. तथापि पञ्चसंवत्सराऽऽत्मकस्य युगस्य सद्भावः । मं०।। हुमाऽऽदानि कृष्णानि भवन्ति,कृष्णपकस्यैव युगाऽऽदौ भावात् ।।
कृष्णपक्कस्थव युगाऽऽदो भावात् ।। जुग-युग्य-न० । यज्-यत्-कुत्वम् : “ युग्य च पत्रे" ॥ ३ ६/तथा नकत्राणामादिरनिजित्, तत पवाऽऽरज्य नक्षत्राणां क्र- । १२६॥ इति (पाणिनि) सूण निपातनम् । अश्वाऽऽदिके वाहने, मेण यो प्रवर्तमानत्वात् । तथाहि-उत्तराषाढानवत्रचरमसमये
स्था०४ ठा०३ उ० प्रश्न युग्यमिव युग्यम् । संयमभारवोपाचात्ययुगस्य पर्यवसानम् । ततोऽभिनवयुगस्याऽऽदिनकत्रम
ढरि साधी, स्था। निजिदेव भवति । तथा मुह नामादिनुहों । इह दिवसा.
युग्यभेदा यथा3ऽदिरहोरात्र इत्यु कं, दिवसाऽऽदि के चाहोरात्र क्रमेणामी पञ्चाशम्मुहतः। तद्यथा-प्रथमो मुहूर्तों रुषः, द्वितीय श्रेयान, ततायो
चत्तारि जुग्गा पमत्ता । तं जहा-जुत्ते,णाममेगे जुत्ते, जुत्ते मित्रः,चतुर्थी वायुः, पञ्चमः सुपीतः,पंष्ठाऽभिचन्द्रः, सप्तमो माहे. णाममेगे अजुत्ते, अजुत्ते णाममेगे जुत्ते, मजुत्ते णाममेगे द्रः,अष्टमो बनवान, नवमः पद्मः, दशमो बहुसत्या,एकादश ई. अजुत्ते ।। शानः,वादशस्तत्स्थः ,त्रयोदशो भाविताऽऽ:मा,चतुर्दशो वैश्रवणः, युग्ध वाहनमश्याऽऽदि । अथवा-गोल्लविषय जम्पानं विहस्तपञ्चदशो वारुणः, पोमश प्रानन्दः, सप्तदशा विजयः, अपादशो प्रमाणं चतुरस्त्रं सदिकमुपशोनितं युग्यकमुच्यते, तत् विष्वक्सेना, एकोनविंशतितमः प्राजापत्यः, विशतितम उप- यक्तमारोहण सामनचा पर्याणाऽऽदिकया पुनर्यक्तं वेगादिशमः, एकविंशतितमो गन्धर्वः, द्वाविंशतितमोऽग्निवेशः, प्रयो... भिरित्यवं यानवद् व्याख्ययम् । स्था० ४ ठा० ३ उ० । बिशतितमः शतवृषभः, चतुर्थिशतितम प्रातपवान्, पश्च- युगमहति युगं वा वहति यत् । युगवाह के 59वादी , विशतितमोऽममः, पविशतितमोऽरुणवान्, सप्तविंशतितमो त्रि० । चाच० । गठशादिके, प्राचा०१७०१० ५उ01 भौमः, अपविशतितमो वृषभः, एकोनत्रिशत्तमः सर्वार्थः, गोवदेशप्रसिद्ध जम्पानविशेष, प्रश्न. ५ श्राश्र० द्वार । यु. त्रिंशत्तमो राकसः।
भ्यानि गोन्नविषयप्रसिद्धानि द्विहस्तप्रमाणानि वेदि कोपशो. उक्तं च जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ती
भितानि जम्पानान्येवति । शा० १ श्रु.२ १ अ० । अनु० । ज०। "रुहो सेए मित्ते, वाऊ पाए तहेव अभिचंदे। .
जी०। भ०। श्री. प्रश्न । पुरुशरिकप्ते श्राकाशयाने, सूत्र. माहिद बनव पम्हे, बहुसच्चे चव ईसाये ॥१॥
२५० २ ०। युग्यं पुरुषोतकिप्तमाकाशयान, जम्पानमि. तत्येव भावियप्पा, बेसमणो वारुणेय आणदे।
त्यर्थः । जं० २ वक्त। विजय य वीससाणे, पायावच्चे तह य उसमय ॥२॥
जुग्गगय-युग्यगत-त्रिक वाहनोपरि स्थिते, औ० । गंधव अस्मिवेसी, सयरिसह प्राय च प्रमभं च ।
जुग्गय-युग्यक-'जुम्ग' शब्दाथें, स्था० ४ ०३७०। रुण भोमे रिसहे, सम्बके रक्खसाईया ॥ ३॥" ततो युगे मुहूर्तानामादिको रुद्र एव भवति । ज्या०२ पाहु।
जुग्गायरिया-युग्याचा -श्री० । युग्यस्याऽऽनया वहनं ग.
मनं युग्याचर्या । युभ्यस्य गमने, स्था० ४ ०३ उ०। तथा च जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तावेजोक्तम्
युग्याचयानेदाः"किमाइमाणं जंते ! संबच्छरा, किमाइमा अयणा, चत्तारि जुग्गायरिया पहाता । तं जहा-पंथ जाई णाम
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जुग्गायरिया भनिधानराजेन्सः ।
जुज्कारिय मेगे,णो उप्पहनाई। नप्पहनाई णाममंगे, णो पंथजाई। सत्यप्यावरणे प्रहरणं विना किं करोतीति, प्रहरणं प्रहरणं च ख. एगे पंथनाई वि, जप्पहजाई वि । एगे णो पयजाई, णो
ड्राऽऽदि, यामाबरणप्रहरणानि, यदि युद्ध कुशलत्वं नास्ति,
तदा किं यानाऽऽदिनेति युद्ध संग्राम कुशलत्वम्, कुशलत्वं च प्राउप्पहनाई। .
वीएयरूपं, सत्यप्यस्मिन्नीति विना न शत्रुजयनमतो नीतिः, नीति(जुम्गायरिय प्ति) युग्यस्य चर्या वहन, गमनमित्यर्थः। क्वचितु- |
श्वापक्रमाऽऽदिलक्षणा, सत्यामपि चास्यांदक्षन्वाधीनो जयः, ततो "जुग्गारियत्ति" पाठः, तत्रापि युग्याचर्येति, पथयाय्येकं युभ्यं |
दत्तत्वम्, दक्षत्वमाशुकारित्वं, सत्यप्यस्मिन्निर्व्यवसायस्य कुतो भवति, नोत्पथयायीत्यादि चतुर्नकाहच युग्यस्य चर्याद्वारेणैव
जय इति व्यवसायः, व्यवसायो व्यापारः, तत्रापि यदि न शरीनिदेशे चतुर्विधत्वेनोक्तत्वात् तश्चर्याया एवोदशोक्त चातुर्विध्य.
रमदीनार ततो न जय शति शरीरम्, अर्थात्परिपूर्णाङ्गम् । तत्रामवसयेमिति भावः । युग्यपक्षे तु युग्यमिव युग्य, संयमयागे
प्यारोग्यमेव जयायेति (आरोगवं ति) प्रारोग्यता, चः समुपये, भारवोढा साधुरेख, सच पथियाय्यप्रमत्त सत्पथयायी लिहा. एवोऽवधारणे । ततः समुदितानामेवैषां युकासत्वमिति सूत्रार्थः। वशेषः, उभययाय) प्रमत्तश्चतुर्थः सिक्रमेण सदसभ- उत्तपाई०३० यानुभयानुष्ठामरूपत्वात् । अथवा-पथ्युत्पथयोः स्वपरसमय. जकाणा-याध्यान-न । युरिणां परप्राणज्यपरोपणारूपत्वाद यायित्वस्य च गत्यर्यत्वेन बोधपर्यायत्वात स्वपरसमयबोधापेक्तयेयं चतुर्भशी नेयेति । स्था०४ ठा० ३ उ०।
भ्यवसायः, तस्य श्यानं युकण्यानम् । ध्यानभेदे, भ्रातृणां विना
शे, चेटकेन सह कोणिकनृपस्येव, अकारवत्यादिग्रहणे चएकजुग्गारिया-युग्याचर्या-स्त्री०। 'जुग्गायरिया' शम्दाथै, स्था०४
प्रचोतस्येव वा । मातु। ग०३०।
जुज्झत-युध्यत-त्रि० । युदं कुर्वति, नि००१२० । " महया जुजाता-युक्त्वा-अव्या योगं कृत्वेत्य, प्रा० २ पाद ।।
रिखुबलेण जुऊतो विछो।" प्रा०म०१ ० १ खएर। मुज्झ-युध-धा० । युद्ध, दिवा०-मात्म-क-अनिट् ।।
युध्यमान-त्रि० । शस्त्राणि व्यापारयति, " जुतं दधम्मा. युध्यते, अयुरू । वाच० । " संपलग्गो छ जुज्झिउं" । प्रा० म०१०१खएक । युद्धे, न० । युध्-क्तः। शस्त्रादिके
गं"। सूत्र० १ ० ३ ० १ उ०। पणव्यापारे योधने, वाच० । मुष्टयाऽऽदिना परस्परतामने, तं०। जुझकित्तिपुरिस-युसकीर्तिपुरुष-पुं० । युरुजनिता या की"जुज्झाई बाहुजुमाश्याई वट्टाश्याणं च" युद्धानि नाम-बाहुयु- | सिं, तत्प्रधानः पुरुषो युरूकीर्तिपुरुषः । युद्धजनितकीर्तिमति द्वाऽऽदनि, यदि वा वर्तकाऽऽदीनांच। प्रा०म०१ ०१ खाएम। पुरुष, स.। युबै कुषकुटाऽऽदीनामिव मुएलामुरिक, शूटिणामिव शुङ्गाशुङ्गिजसल-
यु शन-पुं०। युद्धप्रवीणे, उत्त०३० । यु. ययासया योधयोवल्गनम | जं०२ पक्क० । प्रायुधयुके, कक्रियाकानवति, प्रा० क०। का०१६०१ अ० । वैरिणां परप्राणश्यपरोपणाध्यवसाये, जाणा-यानोनि-स्त्री० । व्यूहरचनाऽदिके,स्था ठा। मातुः । संग्रामे, "अप्पाणमेव जुज्काहि, किं ते जुझण बज्क
संग्रामनिर्गमप्रवेशे च । श्रा० क० । उत्त० । भो।" उम० अ० । नि०। प्रश्न अन्यतः संग्रामयुक, जावतः परीपहाऽऽदियुद्ध, तद् द्विविधम, प्रार्यानायनेदात् । तत्रानार्य
जुकदक्ख-युषदक-पुं० । युके आशुकारिणि, उत्स० ३ ० । संग्रामयुरूं, परीषदाऽऽदिरिपुयुद्धं त्वार्यम। भाचा०१० जुज्जववसाय-युद्धव्यवसाय-पुं० । 'युरूव्यापारे, उत्त० ३ ० । श्र० ३० । तदात्मके द्वासप्ततिकमाऽन्तर्गते कलाभेदे, झा० १ जुज्वीरिय-युवीय-पु. । पुष्पदन्तजिनसमकालिके नृप, शु०१ म०प्र० । । ।
" जुज्झवीरियथुयस्त । " ति०। - युरुदर्शननिषेधो यथा
जुसज्ज-युसज-६०। युनिमितं सजःप्रगुणीनूतो यु'जे निक्खू आसजुकाणि वा. जाव सूकरजुज्काणि वा
| सज्जः । रा०। युद्धप्रगुणे, भ० ७ श० ६ ० । युद्धसज्जा चक्रवदंभणमियाए अजिसंधारेइ, अभिसंधारतं वा मा- रणप्रत इति । औ०। इज्जह ॥ २ ॥
जुज्सत-युधश्रध-त्रि० । युद्धं संग्रामस्तत्र संजाता श्रका "हयजुम" गादा ! हयोऽश्वस्तेषां परस्परतो युकं, एवमन्ये- यस्य सः । युष्श्रमावति, प्रश्न० ३ आश्र० द्वार । षामपि, गजाऽऽदयः प्रसिद्धाः, शरीरेण बिमध्यमः करदः, रक्त- जुमसूर-युशूर-पुं। युद्ध शूरः सुजटः । रणदीकाबद्धकके, पादपवट्टकः शिखी, धूम्रवर्णी लावकः, प्राडिमादि प्रसिका. अ. संथा। शरविशष, “जुज्कसूरे वासुदेवे" युद्धशूरो वासुदेवः।
पछायादिकरणाह जुक, सब्वसाधावक्खाभण गाजुक, कृष्णवत्तस्य पश्यधिकेषु त्रिषु संग्रामशतेषु लब्धजयत्वात् । पुव्वं जुरूण जुकिल पच्छा संधी विक्खोभिजति जत्थ तं स्था० ४ ० ३ उ०। जुर । नि० चु० १२ उ०।
जुमाइजुक-युछातियुछ-न०। यत्र प्रतिद्धन्धिहतानां पुरुषा. जुज्झंग-युकान-न । संग्रामाने, उत्त।
णां पातः स्यादित्येवम्भूने खङ्गाऽऽदिप्रकेपपूर्वक महायुद्ध,तदासाम्प्रतं युझाङ्गमाह
त्मक द्वासप्ततिकलाऽन्तर्गते कलाभेदे च । ज०२ वक० स०। जाणाऽऽवरणपहरणे, जुजो कुमलत्तणं च णीतीए । औः । झा० । दक्खत्तं ववसाता, सरीरमारोगयं चेव ||१४|| नत्तनिक जजमारिय-यछाये-न० । युरूमेदे,युद्धं द्विविधम,आर्याऽनायने(जाणावरणपहरणे त्ति) यान च दस्त्यादि, तत्र सत्यपि न दात् । अनार्य संग्रामयुद्धम, परिषहाऽऽदिरिपुयुद्धं स्वायम् । शक्तात् यमिनीवतु शत्रुमत प्रावरणम, आवरणं च कवचादि, आचार १७०५ अ०३००।
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(१५७७) जुज्झारिह अनिधानराजेन्द्रः।
जुत्तिसुवस जुज्कारिह-युकाई-त्रि० । युफोचिते, "इमेणं चेच जुज्काहि किंबहदन्तराला पाग्निः सेतुर्यस्य स युक्तपालिकः । परस्परसंघते जमेण बज्झओ । जुझारिदं तु खलु दु-हल जत्थ कुस- दसेतुक, रा०। जी। बेहि ॥१॥"प्राचा०१ श्रु.५०३ उ० ।
जुत्तफुसिय-युक्तस्पृष्ट-न० । उचितविन्मुनिपाते, " जुत्तफुसिय. जुकित्ता-युवा-मन्य०। युकं कृत्वेत्यर्थे,स्था० ३ ग० २२० ।
निहायरेणुयं ।" स० ३४ समः । जुम्ल-जूर्ण-जीर्ण-पि० । तृणनेदे, बाच० । 'जिम्म' शब्दार्थे च । प्रा०१ पाद।
जुत्तरूव-युक्तरूप-त्रि० । संगतस्वभावे, प्रशस्तस्वभावे, चितजुमकुमारी-जीर्णकुमारी-स्त्री० । 'जिम्मकुमारी'शब्दा, बा।
वेषे, सुविहितनेपथ्ये च । स्था०४ ठा० ३ उ०। २६०१ वर्ग १०।
जुत्तसोह-युक्तशोभ-नि०। युक्तं शोजते युक्तस्य वा शोभा यस्य जुगुन-जीर्णयुम-jor 'जिमगुल' शब्दार्थे, भ०० उ०|| तक्तशाभम् । गवाऽऽदिसत्सामग्रीयुक्ततया शोभमाने पानाs. जुएणघय-जीर्णघृत-न० । 'जिएणघय' शब्दार्थे, अनुः।
दौ,स्था०४ ठा०३ उ01 युक्ता बिता शोभा यस्य सः। युक्त
शोभोपेते, स्था०४ ग. ३७०।। जुएणतंझ-जाणतएमुल-पु० । 'जिएणतंदुस' शब्दार्थे, प्र०
जुत्ति-युक्ति-खी० । योजनं युक्तिः, युज्-क्तिन् । विशेष योगे, ८००। जुएणतया-जाणत्वर-स्त्री० । 'जिएणतया ' शब्दार्थे, भाचा. "दिवाए जुसीए " युक्त्या विवक्षितार्थयोगन। पी० । भक्ती, २०४०।
स्वाग० । रूच्याऽऽदिसंयोगे,स०५ अङ्गामायाका जुहणदुग्ग-जीर्ण भुर्ग-101 'जिम्मदुम्ग' शब्दार्थे, ती०४ कल्प।
युक्त्याउन्यान्यभक्तिभिस्तथाविधद्रव्ययोजनेनेति । स्था०
वा। लोकन्याये, षो०६ विव०विशे०।हेती, स०५ मङ्ग। जुम्ममुरा-जीर्णमुरा-स्त्री०। 'जिम्मसुरा' शम्दा,भ०८० उ०॥
उपपत्ती, अष्ट०१६ अष्टः । श्रा० । पश्चा।" एसा समु तंत. जुम्मसहिए-जार्णश्रेष्ठिन-पुं० । 'जिमसेट्टि ()' शम्दा- जत्ति ति।" तन्त्रयुक्तिः शास्त्रीयोपपत्तिः । पञ्चा०१८ विष०। थे, ध०र० ।
अवितधभरिणतो, " तस्थिमा जत्ति बत्तव्वा ।" जीवा०० अजुम्माजम्म-जीर्णजीर्ण-त्रि० । 'जिलाजिम्म' शब्दार्थ, प्रा०म. धि०। युक्तयः सर्वप्रमाणनयगर्भा इति । पो०५ विव० अनु१०१खएक।
माने, यो० वि० । अनुमानसाधने लिङ्गकानाऽऽदौ, वाच । "सजुएजाण-जीर्णोधान-न0 1 'जिगणुज्जाण' शब्दार्थे, शा० १
ज्वाहि अणुजुत्तीहिं।" सर्वैरेव हेतुपान्तःप्रमाणीततैः। सत्र०९ श्रु०१०।
अ० ११ अ युक्तयः साधनानि, प्रसिद्धविरुझानकान्तिकपरिजुएशकार-जीणोंघार-पुं०। 'जिएणुशार' शब्दार्थे, ध०२अधिol
हारेण पक्कधर्मत्वसपक्तत्वविपक्षवल्यावृत्तिरूपतया युक्तिसङ्गता जुाहा-जोत्स्ना-स्त्री। जोइसिणा' शब्दार्थ, प्रा०५ पाद ।
युक्तयः । सूत्र० १ श्रु० ३ अ०३ उ०। योजनं युक्तिः। अर्थघट
नायाम, स०५ अङ्ग । सुत्रा"तन्य जत्ती वि पयमा । "जी०१ जुति-प्रति-स्त्री० । द्युती, 'सम्बर्जुए' सर्वात्याऽभरणादि
प्रति० । " सबजुईए " सर्वयुक्त्या चितेपु वस्तुघटनासंबन्धित्या ।हा० १ श्रु०७०।
सक्कण येति । ज्ञा०१ श्रु० ७ ०। विधौ, बृ०१०। युक्तिरजुत्त-युक्त-त्रिका युज-क्तः। युत,"जुनानि वीवदाऽऽदियुतानि। विधारणमित्युक्ते नाटकाङ्गविशेषे च । वाचल। प्रौ। "गुत्ते जुत्ते तदा जए।" युक्तो ज्ञानादिभिः। सूत्रः१५० जर्ति-स्त्री । ज्वर-क्तिन, संप्रसारणम् । ज्वरे, वाच०।। २०३ ३० । संयुते, पञ्चा०१२ विव० मिलिते,अष्ट०१अष्ट। उपते, पो०११ विवाश्लिष्टे,प्रा०चू०। युक्तं श्लिष्टमित्यनर्धान्त
जुत्तिखम-युक्तिकम-त्रि० । उपपत्तिसहे, पञ्चा० १२ विव० । रम् । प्रा०चू०१ अगसमन्विते, प्राचा०१. श्रु०५ अ०१ उ०पर
मा० म) । " नागमत्तिक्खन होइ"। (३६५ गाथा) विशे० । स्परसंबक, सूत्र०१ श्रु०१ अ०१ उ०। विशे०। झाकी रा०ा उचित, जत्तिगई-युक्तिगवी-स्त्री०॥ यथार्थवस्तुस्वरूपविभजनोपपत्तिअनु। स्था। जं०रा०जी०। योग्ये,नि०० १० उ०।युक्तं युक्तिः । सैव गौयुक्तिगवी । युक्तिरूपायां गवि, “ मनोवत्सो योग्य घटमानमिति । नि००१०। "जुत्ता" युज्यते, घटत युक्तिगवी, मध्यस्थस्यानुधावति"। (१ श्लो०) अष्ट०१६ अष्ट० । इत्यर्थः । नि०० १ उ० । उपपन्न, चं०प्र०२० पाहुासत्र०। जत्तिम-यक्तिन-त्रि०ा युक्तिझानवांत, "गधार गायजात्तम्मा।" सु.प्र० । संगते, मा०१०१६ अ० । स्था०। विपा०। जं० पाया। उपा०। पञ्चा। युक्तियुक्त, सूत्र०१ श्रु० ५ अ०२० । संमते,
निवाधित-त्रि। उपपत्तिनिराकृते, "जम्हा ण दर्श०४ तत्व । उद्युक्ते, प्रव०६४ द्वार । अभ्यस्तयोगे योगिनि, पुं० । पलानीबृन्तनेदे च, न्यायाऽऽगतद्रव्याऽऽदौ, न० । वाच०।
जुत्तिवाहिय-विसो वि सदागमो हो।" (४४ गाथा) जुत्तगइ-युक्तगति-स्रो । मृदुगतो, " जुत्तगती णाम मिदुग
पञ्चा० १८ विव०। नी।"न शीघ्रं गच्चतीत्यर्थः। नि०० १६ ००।
जत्तिसुवा-युक्तिसुवर्ण-पुं० । कृत्रिमसुवर्णे, दश० २० अ०। जुत्तजोग-युक्तयोग-पुं० । सयुतकायाऽऽदिचेष्टे. " सम्वहिं जु- __ युक्तिसुवर्णस्य का वार्ता ?, न्याहतजोगस । " पञ्चा० १२विव०।।
जुनीमुवाणगं पुण, सुवाणवामं तु यदि वि कीरजा । जुतपरिणय-युक्तपरिणत-त्रि० । सत्सामग्या युक्ततया परि. | ण दु होति तं मुवामं, मेसीह गुणीसंतेहिं ॥३६।। जते यानाऽऽदौ, स्था० ४ ठा०३ उ०।
युक्त्या ऽव्यसंयोगन, यदसुवर्ण सत्सुवर्गाकारं स्यात् तद् युक्तिजुत्तपानिय-युक्तपालिक-त्रि० । युक्ता परस्परं संबद्धा न तु सुवर्ण, तत्पुनः सुवर्णवर्ण पीतच्चायमव, यदपीत्यन्युपगम कि
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जत्तिसुव
बेत विधीयेत, कथञ्चितथापि 'न हु' नैव भवति स्यात् तद्यु हेम
भिरसद्भिरिति गाथार्थः ॥ ३६ ॥ पञ्चा० १४ विव० ।
कित्तिपुरिस- युद्ध कीर्तिपुरुष- पुं० । 'जुज्भकिलिपुरिस शब्दार्थे, स० ।
जुरूकुसल - युद्धकुशल-पुं० । 'जुज्झकुसल' शब्दार्थे श्र०क० । जवणी इ-युद्धनीति - स्त्री० । 'जुज्जणी' शब्दार्थे, आ० क० । जुदवख दक्ष पुं० [जुमदल शब्दा०३२० जुद्धवासाय- युकव्यवसाय पुं० कयवसाय सम्हा
उत्त०३ प्र० ।
जुकविरिषी पुं० जुन्कविरिय शब्दार्थे, सि बुक पुफसल पुं० [सुमन' शब्दार्थे, रा० जुद्धसङ्घ-'०३०द्वार पत्ता युक्त्वा श्रध्य० युज-कचा योगं कृत्येत्यर्थे प्रा० ४ पाद ।
जुम्म पुग्म न० - पृषोदराः
।
मुसुरो
वा " । ८ । २ । ६३ । इतिप्राकृतसूत्रेण ग्मस्य म्मो वा प्रा० २ पाद संपादिते ०० युगले, "युग्मतिभूतानि शी युक्ता, चतुर्दश्यथ पूर्णिमा । प्रतिपाऽप्यमावस्या, तिथ्योग्मं महाफलम् ||" इत्युक्ते तिथियोगविशेषे, वाच० । गणपरिभाषया समराश्यात्मके राशिविशेषे वास्था० ४ ० ३ ० | युग्मभेदा:
कां जंते ! जुम्मा पत्ता ? । गोयमा ! चत्तारि जुम्मा पत्ता । तं जहा - कडजुम्मे, तेश्रोए, दावरजुम्मे, कलिओए । सेकेण्डे भंते! एवं बुच्चइ० जाव कलिओए ? | गोयमा ! जेणं रासीचउक्कणं अवहारेणं अवहरेमाणे अवहरेमाणे चउपज्जबसिए से तं कडजुम्मे १ । जेणं रासीच अवहारेणं अपहरेमाणे अवीरेमात पज्जवसिए, सेतं तेभए २ । जे एं रासीच नकएवं अवहारेणं वीरेमाणे वीरेमा पज्जन सिए से तं दावरजुम्मे ३ । जे गं रासीच उक्कणं अवहारेण भवदरिमाणे अवहीरेमाणे एगपज्जवसिए, से तं कनिओए ४ । से तेलट्टेणं गोयमा ! एवं वृचइ० जाव कलिओए । "द सम्म
44
या समी राशियुग्ममुच्यते विषमस्तु
गरि तत्र ग्राम्याच्यो द्वी च भोज शब्दान वतः, तथापी युग्मशब्देन राशयो विवद्विताः, श्रतश्चत्वारि युमानि, राशय इत्यर्थः । तत्र ( कडजुम्मे ति) कृतं सिद्धं पूततः परस्य राशिसंज्ञान्तरस्याभावेन न प्रयोज
समराशिविशेषतम् (भ) त्रिमिति कृतयुग्मपरिवर्णिनिरोजी विषमराशिविशेषस्योजः। ( दायरजुम्मेत्ति ) द्वाभ्यामादित पत्र, कृतयुग्माद्वोपरिवर्त्तित्र्यां यदपरं युग्मं कृतयुग्मादन्यत्तनिपातनविकोकिएन
-
(१५.७८ )
अभिधानराजेन्द्रः |
6
•
जुम्म
1
तयुग्माको परिवर्तिना प्रोजो विषमराशिविशेषः कल्योज इति । "राखी" इत्यादि। यो राशिधनुष्ककेनापहारंणापद्वियमा पर्यवसितोति सकृयुग्ममनियते यत्र पतुरुपायेन चतुष्कापहारो नास्ति सोऽपि चतुष्प सद्भावात्कृत युग्ममेव, एवमुत्तरपदेष्वपि । २१८ २०४ ४० । अचार | स्था० । यस्तु त्रिपर्यवसितः स योजो, द्विपर्यवसि तो द्वापरयुग्मे, एकपर्यवसितः कल्याज इति । इह गणितपरि भाषायां समराशर्युग्म इत्युच्यतं विषमस्तु इतिह समयमिति लोके तु कृतयुगानि मुच्यन्तात्रिंशच सहस्राणि कलौ चतुष्टयम्। वर्षाणां द्वापरादीस्थादे द्वित्रिचतुर्गुणम" ॥१॥ इति । स्था० ४ ठा० ३ उ० । उत्तराशीभरका55दिषु निपपा
रयाणं चन्नारि जुम्मा पचातं जहा कम जुम्मे, ओए, दावरजुम्मे, कलिओए । एवमसूरकुमाराणं० जाब यणियकुमाराणं, एवं पुढविकाइयाणं श्राजतेउवालवणएसइईदियाणं तेईदियाणं चरिंदियाणं पचिदियतिरि क्खजोणियाणं मनुस्साएं वाणमंतरजोइसियाणं वेमाणिया सव्वोस जहा नेरयाएं ||
"नेरश्याणं” इत्यादि सुगमम् । नवरम्, नारकाऽऽदयश्चतुर्धा अपि स्युः, जन्ममरणाभ्यां दीनाधिकत्व संभवादिति । स्था० ४
० ३ उ० ।
अनन्तरं कृतयुग्माऽऽदिराशयः प्ररूपिताः । अथ तैरेव नारकाऽऽईन् प्ररूपयन्नाद
रामजुम्बा, तेयोच्या, दावर जुम्बा, फलि ओखा है। गोयमा ! जप कमम्मा, कोसपदे ते
श्रा, अजमकोसपदे सिय कटजुम्मा० जाब सिय कलिओम ० जाव यणियकुमारा ।।
" रश्याणं " इत्यादि । ( जहएपपदे कम जुम्म ति) भयलोकत्येन कृतयुक्ताः कृतयुग्मसंहिता ) सर्वोकृष्टायां योजः संहिता, मध्यमपदे चैत्रमाज्ञाप्रामाण्यादवगन्तव्यम् ।
धात
"
स्मइकाइयाणं पुच्छा !। गोयमा ! जहापदे नकोस पदे पदा हमकोमपदे सिय कमजुम्मा० जाव मिय कलिओ | वेदियाणं पुच्छा ?। गोयमा ! जहमम्मा, कोसपदे दावरजुम्मा, अजयतुकोसपदे सिय कम्पा० जाब सिय कलिओप्रा । एवं० जान चहादिया | सेसा दिया जहा दिया, पंचि दिपतिविखणिया जाय बेमालिया जहा रश्या सिद्धा जहा वणस्सइकाइया ॥
"वणस्सइकाइयाणं" इत्यादि । वनस्पतिकायिका जघन्यपदे, सरकृष्टपदे वापदाययपदस्योत्स्वाना तथाहि दतिय यथा नारकादीनां कालान्तरेणापि लभ्यते, न तथा वनस्पती नां तेषां परम्परया सिद्धिगमनेन तारनन्तत्वापरित्यागेऽप्यनियतरूपत्वादिति । ( सिद्धा जहा वणस्लश्काश्यति ) जघन्यपदे, उत्कृष्टपदे चापदाः, अजघन्योत्कुष्टपदे च स्याकृतयुग्मा
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( १५७६ ) प्रभिधान राजेन्द्रः ।
जुम्म
ऽऽदय इत्यर्थः । तत्र जघन्योत्कृष्टपदापेक्षया श्रपदत्वं वर्द्धमानतया तेषामनियतपरिमाणत्वाद्भावनीयमिति ॥
इत्थ भंते! किं कमजुम्मा पुच्छा ? । गोयमा ! जपपदे कम जुम्पाओ, ठक्कोसपदे कमजुम्मा, श्रजद
कोपदे सिय कडजुम्माप्रो० जात्र सिय कलिश्रोआओ । एवं असुरकुमारइत्थं । यो वि०जान थणिय कुमारइत्थमो वि, एवं तिरिक्खजोलियइत्यीओ वि, एवं म
सत्य वि एवं वाणमंतरजोइसियत्रेमाणियदेवइत्थी ओ वि ।। ज० १८८ ० ४ ० ।
रइयाएं जंते ! कइ जुम्मा पत्ता । गोयमा ! चत्तारि जुम्मा पत्ता । तं जहा करुजुम्मे० जाव कलिओए । से के जेते ! एवं बुच्च — रइयाणं चत्तारि जुम्पा पणत्ता । तं जहा- कमजुम्मे, अट्टो तदेव । एवं० जाव वाचकाइयाणं । वणस्सइकाइयाणं पुच्छा ? । गोयमा ! वणस्सइकाइया सिय कम जुम्मा, सिय तेओया, सिय दावरजुम्मा, सिय कलिओआ । से केलट्टेणं जंते ! एवं बुच्चवसइकाइया जात्र कलिया ? । गोयमा ! उबवायं पच्च से तेणद्वेणं तं चेत्र । बेदियाणं जहा पेरड्याणं एवं० जात्र बेमाणियाणं । सिद्धाणं जहा वणस्सइकाइयाणं ॥
1
" मेरइयाणं नंते ! कति जुम्मा" इत्यादी (अठो तहेव ति) स चार्थः । " जे णं णेरयाणं चक्करणं अवहारेणं श्रवहीरेमाणा अवहरेमाणा चउपजबसिया तं गं नेरइया करुजुम्मे इत्यादिरिति । वनस्पतिकायिक सूत्रे - ( उबवायं परुच्च चि) यद्यपि वनस्पतिकायिका अनन्तत्वेन स्वभावात्कृतयुग्मा एव प्राप्नुवन्ति तथापि गत्यन्तरेभ्य एकाऽऽदिजीवानां तत्रोत्पादमङ्गीकृत्य तेषां चतूरूपत्वमयौगपद्येन नवतीत्युच्यते उद्धर्तनामप्यङ्गीकृत्य, स्थादेतत् केवलं सेह न विवचितति ॥
अथ कृतयुग्माऽऽदितिरेव राशिभिव्याणां प्ररूपणायेदमाह
धम्मत्यिकार णं भंते ! दव्वट्टयाए कि कमजुम्मे० जब कलिओए ? । गोयमा ! यो कमजुम्मे, पोतेओए को दावरजुम्मे, कलिश्रोए । एवं धम्मत्थिकाएवि । एवं ग्रागासत्थिकाए बि । जीवत्थिकाए गं पुच्छा है। गोयमा ! कमजुम्मे, णो तेओए, णो दावरजुम्मे,
कलिओए । पोग्गलत्यिकाए णं पुच्छा ? । गोयमा ! सिय कमजुम्मे० जाब सिय कलिओए, असमर जहा जीवत्यिकाए । धम्मत्थिकारणं भंते ! पदेसहयाए कि कमजुम्मे पुच्छा ? । गोयमा ! करुजुम्मे, गो तेओए, णो दावरजुम्मे, यो कमिए । एवं० जाव
असम |
" धम्मस्थिकारणं ते!" इत्यादी ( कनिभोर ति )
For Private
जुम्म
एकत्वाद्धर्मास्तिकायस्य चतुष्कापहाराभावेने कस्यैवावस्थानात्कल्योज एवासाविति । " जीवत्थि " इत्यादि । जीवरूव्याणामवस्थितानन्तत्वात्कृत युग्मतैव । " पोम्गलन्धिका
" इत्यादि । पुनास्तिकायस्यानन्त भेदत्वेऽपि संघातभेदभाजनत्वाच्चातुर्विध्यमध्ययम श्रकासमानां त्वतीतानागतानामवस्थितानन्तत्वेन कृतयुग्मत्वम् । अत एवाह( श्रद्धासमए जहा जीवस्थिकार सि ) बका प्रध्यार्थता । अथ प्रदेशार्थता तेषामेवोच्यते " धम्मत्थि " इत्यादि । सवांएयपि द्रव्याणि कृतयुग्मानि प्रदेशार्थतयाऽवस्थितासंख्यातप्रदेशत्वादवस्थिताऽनन्तप्रदेशत्वाच्चेति ।
अथ व्रव्याण्येव क्षेत्रापेक्षया कृतयुग्माऽऽदिभिः
प्ररुपयन्नाह
धम्मत्थिकाए णं ते! किं प्रगाढे, अणोगादे ? | गोमा ! गाढे, पो लोगढे । जइ प्रगाढे, किं संखेज्जर से गाढे, असंखेज्ज पर सोगाढे, अनंत परमो गाढे १। गोमा ! णो संखेज्जपए सोगाढे, असंखेज्जपए सांगाढे, णो
सोगाढे। जइ असंखेज्जपरसोगाढे, किं कडजुम्मपमग पुच्छा ? | गोमा ! करुजुम्पपरसोगाढे, णो तेर, णोदावरजुम्मे, यो कलिओयपरसोगाढे । एवं अहम्मत्थिकाए वि, एवं आगासत्थिकाए, जीवत्थिकाए, पोगलत्थिकार, प्रवासमए एवं चेत्र ।
“धम्मस्थिकाप" इत्यादि । (अखेपरसो गाढेति) भ संख्यातेषु लोकाssकाशप्रदेशेष्ववगाढोऽसौ लोकाऽऽकाशप्रमाणत्वात्तस्येति । ( डम्परलोगाडे सि ) लोकस्याब स्थिता संख्येयप्रदेशत्वेन कृतयुग्मप्रदेशता, लोकाऽऽकाशप्रमा णत्वेन च धर्मास्तिकांयस्यापि कृतयुग्मतैव । एवं सर्वास्तिकायानां लोकावगाहित्वा तेषाम् । नवरम् आकाशास्तिकायस्थावस्थितानन्तप्रदेशत्वादात्मावगाहित्याच कृतयुग्म प्रदेशावगाढताका समग्रस्य चावस्थिता संख्येयप्रदेशाऽऽत्मक मनुष्य क्षेत्राव माहित्वादिति ।
अथ कृतयुग्माऽऽदिभिरेव जीवाऽऽदीनि पविशतिपदान्येक स्वपृथकत्वाभ्यां निरूपयन्नाद-
जीवे णं भंते ! व्याए कि कमजुम्मे पुच्छा ? । गोमोकजुम्मे, यो तेओए, णो दावरजुम्मे, कलिओए । एवं रवि, एवं० जान सिद्धे ॥
" जीवेणं " इत्यादि । सत्यार्थतया एको जीव एकमेव द्रव्यं, तस्मात्कल्योजो, न शेषाः ।
teri in ! दवाए किं कमज़म्मा ? । गोयमा ! श्रोघांदेसेणं करुजुम्मा, यो तेश्रो, णो दावरजुम्मा, कालियो । विहाणांदेसेणं णो कमजुम्मा. णो तेश्रो, पोदावरजुम्मा, कलिया । णेरइयाणं जंते ! दव्बट्टयाए पुच्छा || गोमा ! ओघादेसेणं सिय कडजुम्मा० जाव सिय कलियो । विद्वाणादेसेणं णो कम जुम्मा, यो तेश्रो, पोदावरजुम्मा, कलिओ, एवं० जाव सिद्धा।
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जुम्म ।
अनिधानराजेन्षः।
जुम्म "जीवाण" इत्यादि । जीवा अवस्थितानन्तत्वादोघाऽऽदेशन
जुम्मा,णो कलिप्रोग्रा। विहाणादसेणं कमजुम्मपदेमोगाढा सामान्यतः कृतयुग्माः, (विदाणादेसेणं ति) भेदप्रकारेण
वि० जाव कलिोअपदेसोगाढा वि । णेरझ्याणं पुच्चा।। एकैकश इत्यर्थः । कल्योजा एकत्वात्तत्स्वरूपस्य । " मेराया.
" इत्यादौ (भोघादेसणं ति ) सर्व एव परिगण्यमानाः गोयमा ! भोघादेसेणं सिय कहजम्मपदेमोगाढा वि० जाव (सिय कमजुम्मे त्ति)कदाचिश्चतुष्कापहारेण चतुरमा भव- सिय कनिमोअपदेसोगादा वि । विहाणादमेणं कडजुम्मपन्ति । "एवं सिय तेभोमा" इत्याधष्यवगन्तव्यमिति । उक्ता देसोगादा वि० जाव सिय कलिओअपदेसोगाढा वि, एवं कव्यार्थतया जीवाऽऽदयः। मथ तथैव प्रदेशार्थतयोच्यन्ते
एगिदियवजा० जाव वेमाणिया सिखा । एगिदिया य
जहा जीवा। जीवेणं ते ! पदेसट्टयाए किं कमजुम्मा पुग्ला । गो
“जीवाण नंते !" इत्यादि । समस्तजीवैरवगादानां प्रदेशापमा ! जीवपदेसे पमुच्च कमजुम्मे, णो तेओष, णो दावरजु
नामसंख्यातत्वादस्थितत्वाच्चतुरप्रवेस्योघाऽऽदेशेन कृतयुमो, णो कलिभोप । सरीरपदेसे पमुच सिय कर जुम्मे० ग्मप्रदेशावगाढाः, विधानाऽऽदेशतस्तु विचित्रवाद यदवगाहना. भाव सिय कमियोप,एवं जायेमाणिए। सिफेणं भंते! या युगपञ्चतुर्विधाः,ते नारकाः पुनरोघतो बिचित्रपरिणामत्वे.
नविचित्रशरिप्रमाणत्वेन विचित्रावगाहनाप्रदेशपरिमाणत्वानपदेसट्टयाए कि कहजुम्मे पुच्छा ग्यमा ! कमजुम्मे, |
योगपोन चतुर्विधा प्रपि, विधानतस्तु विचित्रावगाहनको तेभोर, जो दावरजुम्मे, णो कलिओए।
स्वादेकदाऽपि चतुर्विधास्ते भवन्ति । (एवं पगिदियसि"जीवणं" इत्यादि। (जोधपएसे पकुच्च कमजुम्मे सि) किंवरजा सम्वे विति) असुराऽऽदयो नारकवक्तव्या असंख्यातायादवस्थितत्वाय जीवप्रदेशानां चतुरन पर जीवप्र. इत्यर्थः। तत्रौघतस्ते कृतयुग्मादयः-प्रयोगपोन,विधानतस्तु देशतः। "सरीरपएसे पमुष" इत्यादि प्रौदारिकाऽऽविशरीर. युगपदेवते; (सिमा पगिदिया य जहाजीव ति) सिकाप्रदेशानामनातरवेऽपि संयोगवियोगधर्मवादयुगपच्चतुर्वि- एकेन्द्रियाश्च यथा जीवास्तथा वाच्याः, ते चौघतः कृतयुग्मा धता स्यात् ।
एव, विधानतस्तु युगपचतुर्विधा अपि । युक्तिस्तूभयत्रापि जीवाणं भंते ! पदेसट्टयाए कि कमजम्मा पुच्छा। गोयमा!| प्राग्वत्। जीवपदेसे पमुच्च अोघादेसेण वि विहाणादेमेण वि कडजु- . अथ स्थितिमाश्रित्य जीवाऽऽदि तथैव प्ररुप्यते- । म्मा,णो तेश्रोमा,णो दावरजुम्मा,णो कलिभोपा। सरीर
जीने णं भंते कि कमजुम्मसमयहितीए पूच्छा। गोयमा ! पदेसं पडुच्च ओघादेसणं सिय कदजुम्माजाव सिय क- कहजुम्मसमयहितीए. णो तेओए, णो दावरजुम्मे, णो कसिमोना । विहाणादेसेणं कमजुम्मा विजाव कलियोमा लिओयसमयहितीए । ऐरइए णं पुच्छा। गोयमा ! सिय वि। एवं णेरड्या वि,एवं जाव वेमाणिया। सिद्धाएं भंते !
कमजुम्मसमयद्वितीएक जाव सिय कनिमोयसमयहितीए । पुच्छा ! गोयमा ! अोघादेसेण वि विहाणादसेण विक- एवं. जाच वेमाणिए सिके जहा जीवे ॥ मजुम्मा, णो ओमा,णो दावरजम्मा, णो कलिया ।
"जीवेणं" इत्यादि । तत्रातीतानागतवर्तमानकालेषु जीवोs. "जीवाणं" इत्यादि । (मोघादेसेण वि बिहाणादेसण वि
सीति, सर्वाकाया अनन्तसमयाऽऽत्मकत्वादवस्थितत्वाचासो
कृतयुग्मसमस्थितिक एव । नारकाऽऽदिस्तु विचित्रसमयकडजम्म ति) समस्तजीवानां प्रदेशा अनन्तस्वादवस्थि. तत्वाच पकैकस्य प्रदेशा असंख्यातत्वाइवस्थितत्वाच चतुरप्रा
स्थितिकत्वात्कदाचिचतुरग्रः, कदाचिदन्यत्त्रितयवर्तीति । पब,शरीरप्रदेशापेक्वया वोघाऽऽदेशन सर्वजीवशरीरप्रदेशाना
जीवाणं नंते ! पुच्चा ? । गोयमा ! ओघादसेण वि,विहामयुगपश्चातुर्विध्यम, अनन्तत्वेऽपि तेषां संख्यातभेदभावेनानव- णादेसेण वि कमजुम्मसमयहितीया,णो तेओश्राणोदावरस्थितम्चात् । "बिहाणादेसेणं कम्जुम्मा वि" इत्यादि । विधा
जुम्मसमयहितीया, णो कलिओपा । णेरडयाणं पुच्छा। ना:देशनकै कजीवशरीरस्य प्रदेशगणनायां युगपच्चातुर्विध्य प्रवति, यतः कस्यापि जीवशरीरस्य कृतयुग्मप्रदेशता, कस्या
गोयमा ओघादसेणं सिय कमज़म्मसमयहितीया वि. जाव पि योजःप्रदेशतेत्येवमादीनि ।
सिय कलियोअममयद्वितीया वि । विहाणादेमेणं कडजम्मअथ केवतो जीवाऽऽदि तथैवाऽऽद
समयद्वितीया वि जाव० कझिोअसमयष्टितीया वि, एवं० जीवेणं भंते ! किं कमजम्मपदेसांगाढ पुच्छा। गोयमा!| जाव वेमाणिया सिछा जहा जीवा ।। सिय कमज़म्मपदेसोगाढे० जाब सिय कलिओयपदेसी- "जीवाण" इत्यादि । बहुत्वे जीवा ओघतो. विधानतश्च चतर. गाढे, एवं० नाव सिच्चे।
असमयस्थितिका एव, अनाद्यनन्तत्वेनासन्तसमयस्थितिकन्या"जीवे णं" इत्यादि। औदारिकाऽऽदिशरीराणां विचित्रावगा
तेषाम । नारकाऽऽदया पुनर्विचित्रसमयस्थितिकाःतियां च स. हनत्वाचतुरप्राऽऽदित्वमस्तीत्यत पवाऽऽह-"सिय कमजुम्मे"
| षां स्थितिसमयमीलने चतुष्कापहारे चौघाऽऽदेशेन स्यात्कृतयः इत्यादि।
ग्मसमयस्थितिका इत्यादि, विधानतस्तु युगपश्चतुर्विधा अपि । जीवाणं ते! किं कमजम्मपदेसोगाढे पुच्चा । गोयमा! अथ भावतो जीवाऽऽदि तथैव प्ररूप्यतेप्रोपदेसेणं कमजुम्मपदेसोगाढा, णो तेश्रोग्राणो दाबर- जीवे णं ते ! कानवमपजवहिं किं कडजुम्मे पुच्छा।
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(१८) जुम्म निधानराजेन्द्रः।
जुम्म गोयमा ! जीवपदेसे पटुञ्च णो कमज़म्मे० जाव णो कलि- एवं मुयणाणपज्ज वेहिं वि, एवं विनंगणाणपजवेहिं कि, श्रोए। सरीरपदेमे सिय कमजुम्मे जाव सिय कलिओए। चक्खुदंसण अचक्खुदसणोहिदसणपज्जवहिं। एवं० जाव वेमाणिए । मिदो चेत्र ण पुच्चिज्जा ॥
केवमानपर्यवपके च सर्वत्र चतुरप्रत्वमेव वाच्यं, तस्यानन्त"जावेणं" इत्यादि (जीवपपसे पच नो कमजुम्म त्ति ) अमूर्त
पर्यायवादवस्थितत्वाच, एतस्य च पर्याया अविभागपनिच्छेदस्वाजीवप्रदेशानां न कालाऽऽदिवर्णपर्यवानाधित्य कृतयुग्माss.
रूपा एवावसयाः,न तु तद्विशेषाः,एकविधत्वासस्येति । (दो दंडग दिव्यपदेशोऽस्ति; शरीरवर्णापक्कया तु क्रमेण चतुर्विधोऽपि
ति) एकत्वबहुत्वकृती द्वौ दएमकाविति । भ० २५ श०४ उ० । स्यात् । अत पवाऽऽद-" सरीर " इत्यादि। (सिद्धो न चेव
पुलानेव कृतयुग्माऽऽदिभिनिरूपयन्नाहपुच्चिजाति) प्रमूर्तत्वेन तस्य वर्णाऽधभावात् ।
परमाणुपोग्गन्माण भंते ! दबध्याए किं कमजुम्मे,तेश्रोए य, जीवाणं ते ! किं कालवामपज्जवहिं पुच्छा । गोयमा!
दावरजुम्ो कलिभाए। गोयमाणो कडजुम्मे,णो त आए, जीवपदेसे पफुच्च अोघादेसण वि विहाणामेण वि, जो
गोदावरजुम्मे,कलिओए। एवंजाब अणंतपएमिए खंधे। कहजुम्मा० जाव णो कलिप्रोभा । सरीरपदेने पमुच ओ
"परमाणु" इत्यादि । परमाणुपुकला प्रोघाऽऽदेशतः कृतयुग्मा
ऽऽदयो भजनया भवन्ति, अनन्तत्वेऽपि तेषां सातदतोऽघादेसेणं सिय कडजुम्मा० जाव सिय कमिश्रोत्रा । विहाणा.
नवस्थितस्वरूपत्याद, विधानतस्तु एकैकशः कल्पोजा एवेति । देसणं कमजुम्मा० वि जाव कलिपोप्रा वि । एवं० जाव परमाणपोग्गमा णं भंते ! दमट्ठयाए किं कमजुम्मा बेमाणिया, एवं पीलवामपज्जवहिं वि दंममो जाणियन्यो । पुच्चा ? । गोयमा ! ओघादेसेण सिय कमजुम्मा. जाव एगत्तपुहत्तेणं, एवं० जाव सुक्खफासपजहिं । जीवे णं | सिय कलिभोप्रा,विहाणादेमणं णो कमजुम्मा, णो तेश्रो. नंत! आजिणिबोहियणाणपजवहिं किं कमजुम्मे पुच्चा। या, णो दावरजम्मा,कलिनोआ,एवं जाव अपंतपदेसिया गोयमा!सिय कडजुम्मे जाव सिय कलिनोए, एवं ए. खंधा। परमाणुपोग्गला णं भंते ! पदेमट्टयाए किं कहजुम्मा गिदियवजं. जाव वेमाणिए । जीवाणं भंते ! भाभिणि- पुच्चा । गायमा! णो कमजुम्मे,णो तेयोए,णो दावरजुम्मे, वोहियणाणपज्जवेहिं पुच्चा ? । गोयमा ! ओघा- कलि मोए। उपदमिर पुरका? गोयमा कमजुम्ने,णोते. देणं सिय कमजुम्मा० जाव मिय कलिमोआ । ओए,दावरजुम्मे,णो कलिओए। तिपदमिए पुच्छा?। गोयमा! विहाणादेसेणं कमजुम्मा वि० जाव कलिओावि । एवं गोकड जुम्मे,णोदावरजुम्मे,नेप्रोए,गो कलिआए। चप्पदे. एगिदियवजंजाब वेमाणिया । एवं मुयाणाणपज्जवहिं वि, सिए पुच्चा?। गोयमा कमजुम्मे,णों ने ओए,गोदावरजुम्मे, भोहिणाणपजवेहिं वि एवं चेत्र, वरं विचिदियाणं | णो कनिमोए । पंचपदेलिए जहा परमाणुपोग्गले । बप्पएपत्थि भोहिणाणं, मणपज्जवणाणं वि एवं चेच, णवरं सिए जहा दुपदेसिए। सत्तपदेनिए जहा तिपदेमिए । अट्ठजीवाणं मणुस्साण य सेमाणं णत्थि।।
पदेसिए जहा चनप्पमिए । एवपसिए जहा परमाणुपो. (प्राणिणिबोयनाणपज्जवेहि ति )आभिनियोधिकझानस्याss ग्गने । दमपएभिए जहा दुपएमिए । संखजपएसिए णं भंते ! वरणक्कयोपशमभेदेन ये विशेषास्तस्यैव च ये निर्विभागपरिच्छे- पोग्गझे । पुच्छा ? । गायमा ! सिय कमजुम्मे० जाब सिय दास्ते प्राजिनियोधिकझानपर्यवास्तैः, तेषां चानन्तत्वेऽपि क.
कलिओए । एवं असंखजनपएमए वि । एवं अणंतपएमिए योपशमस्य विचित्रत्वेनानस्थितपरिणामत्वादयोगपद्येन जीवश्चतर माऽऽदिः स्यात् (एवं पगिदियवजं ति) केन्द्रियाणां
वि । परमाणुपोग्गझे णं जले ! पएसट्टयाए किं कमजुम्मा सम्यक्त्वाभावानास्त्याभिनिबोधिकमिति न तदपकया तेषां
पुच्छा ?। गायमा! अोघादेसणं मिय कडजुम्माजाव सिय कृतयुग्माऽऽदिव्यपदेश इति: "जीवाण" इत्यादि। बहुत्वे सम- कनियात्रा । विहाणादसा णो कमजुम्मा,णो तोश्रा, स्तानामानिनिवाधिकझानपर्यवाणां मोल ने चतुष्कापहारे वा यु
को दावरजुम्मा, णो कनिमोना। गपचतुरमादित्वमाघतः स्याद, विचित्रत्वेन क्षयोपशमस्य तत्पर्यायाणामनवस्थितत्वात् । विधानतस्त्वेकदैव चत्वारोऽपि
(पंचपपमिए जहा परमाणु पोग्गल ति) एकाग्रत्वाकल्योज
इत्यर्थः । (कपएमिए जहा उपसिर त्ति) द्यग्रत्वाद् हापरयः तद्भदाः स्युरिति।
ग्म इत्यर्थः । एवमन्यदपि । “सखेजपपसिए रंग " इत्यादि । जीवे गंभंते ! केवलणाणपज्जवे हि किं कडजुम्मे पुच्ग। संख्यातप्रदेशिकस्य विचित्र संस्थत्वाजनया नातुर्विध्यमिति । गोयमा कमजुम्मे,णो तेस्रोए,णो दावर जुम्मे,णो कनिआ- दुपएसियाणं पुच्छा । गायमा! आघादसेणं सिय कमए। एवं मास्स वि,एवं सिद्धाव । जीवाणं ते! केवलणाण जुम्मा, णो तेप्रोआ, मिय दावरजुम्मा, णो कनिओमा । पुच्छा ?। गोयमा! ओघादसेण वि विहाणादसण विकडजु. विहाणादसेणं णो कडजुम्मा, णो तेप्रोत्रा, दाबरजुम्मा, म्मा, जो तेश्रोत्रा, णो दावरजुम्मा, णा कलि प्रोग्रा। एवं
णो कलिओआ। मास्मा वि । जीवे णं ते! मइप्रमाणपजहिं किं कडज़
"पसिया णं " इत्यादि । हिप्रदेशिका यदा समसंख्या
भवन्ति तदा प्रदशतः कृतयुग्माः , यदा तु विषमसण्यास्तदा म्मे; जहा आभिणिवादियणाणपज्जवहिं तहेव दादगा, द्वापरयुग्माः । "विदाणादेसणं " इत्यादि। ये द्विप्रदेशिकास्ते
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जुम्म अभिधानगजेन्द्रः।
जुम्म प्रदेशार्थतयैकैकशश्चिन्त्यमाना द्विप्रदेशत्वादेव द्वापरयुग्मा दावरजुम्मा, णो कन्निाया। विहाणादसेणं णो कडज़भवन्ति ।
म्मपएमोगाढा, णो तोआ, णो दावरजुम्मा, कनिमो. तिपएसिया णं पुच्छा। गोयमा! अोघादेसणं सिय
अपएमोगाढा। कम्जुम्मा० जाव सिय कलिओपा । विहाणादेसेणं णो "परमाणुपोग्गला " इत्यादि । तत्रौघतः परमाणवः कृतकमजुम्मा, तेोत्रा, णो दावरजुम्मा, गो कलिओआ ।। युग्म प्रदेशाधगाढा एव नवन्ति, सकललोकव्यापकत्वातंपाम् ।
सकलसांकप्रदेशानां चासंख्यातत्वादवस्थितत्वातच चतुर"तिपएसिया " इत्यादि।समस्तत्रिप्रदशिकमीलने तत्प्रदेशा.
प्रतेति। विधानतस्तु कल्योजप्रदेशावगाढाः, सर्वेषामकैकप्रदेमांच चतुम्कापहारे चतुरग्राऽऽदित्वं भजनया स्यात, मनवस्थि.
शावगादत्वादिति। तसंख्यात्वात्तेषाम् । यथा चतुणों तेषां मीलने द्वादश प्रदेशाः, ते च चतुरप्राः पञ्चानां योजाः, षमा द्वापरयुग्मा, सप्तानां क
दुपदेसिया णं पच्छा। गोयमा! अोघादेसेणं कमजुम्मस्थोजा इति । विधानाऽऽदेशन च ऽयणुकत्वात् स्कन्धानामिति । पएसोगाढा, एो तेश्रोत्रा, णोदावरजुम्मा,णा कन्निप्रोप्रा। चनप्पएसिया णं पुच्छा। गोयमा! श्रोधादेसेण वि
विदाणादमेणं णो कमजुम्मपएसोगाढा, णो तेप्रोअपएसो. विहाणादेसेण वि कहजुम्मा, णो तेश्रोमा, णो दावरजुम्मा,
गाढा, दावरजुम्मपएसोगाढा वि, कलिओअपएमोगाढा वि। णो कनिमोना। पंचपएसिया जहा परमाणुपोग्गला ।
तिपएसिया गं पुच्छा ? । गोयमा ! ओबादेसेणं कमजुछप्पदेसिया जहा दुपदेसिया । सत्तपएसिया जहा तिपदे
म्मपएसोगाढा, पो तेश्रोआ, णो दावरजुम्मा, णो कलिसिया । भट्ठपदेसिया जहा चउप्पदेसिया । णवपए मिया
प्रोप्रा । विहाणादेसेणं णो कमजुम्मपएसोगाढा, तेजहा परमाणु पोग्गला । दसपएमिया जहा दुपदेमिया ।
श्रोअपएसोगाढा वि, दावरजुम्मपएमोगाढा वि, कलिओसंखेजपएसिया णं पुच्छा ? । गोयमा! ओघादेसे सिय अपएसोगाढा वि। चनप्पएमिया ऐ पुच्चा गोयमा प्रोधादेकमजुम्मा० जाव सिय कनिमोआ । विहाणादेमेणं क- सेणं कमजुम्मपएसोगाढा, णो तेश्रोत्रा, णो दावरजुम्मा, मजुम्मा वि० जाच कसिनोमा वि । एवं असंखेजपए
यो कलिश्रोआ । विहाणादेमेणं कमजुम्मपएमोगाढा वि० सिया वि, अणंतपएसिया वि॥
जाव कालमोअपएमोगाढा वि । एवं जाव अपंतपएमिया।
द्विप्रदेशावगाढास्तु सामान्यतश्चतुरना एव, उक्तयुक्तितः। "चउप्पएसिया णं" इत्यादि । चतुष्पदेशिकानामोघतो वि. धानता प्रदेशाश्चतुरमा एव । (पंचपएसिया जहा परमाणुपो.
विधानतस्तु द्विप्रदेशिका ये द्विप्रदेशावगाढास्ते द्वापरयुग्माः, मंगल ति) सामान्यतः स्यात्कृतयुग्माऽऽदयः प्रत्येक चे काना
ये त्वकप्रदेशावगादास्ते कल्योजाः । एवमन्यदप्यूह्यम् । एवेत्यर्थः । (कृप्पएसिया जहा दुपएसिय ति) ओघतः स्या
परमाणपोग्गले एं भंते ! कि कमजुम्मसमयहिईए पुच्छा। स्कृतयुग्मद्वापरयुग्मा, विधानतस्तु द्वापरयुग्मा इत्यर्थः । एवमु.
गोयमा ! सिय कमजुम्मसमयहिईए जाव कलिअसमयतरत्रापि।
हिए।एवं० जाच अणंतपएमिए।परमाणुपोग्गलाणं किं कम___ अथ केत्रतः पुमलाँश्चिन्तयन्नाह
जुम्मा पुच्छा। गोयमा ओघादसेणं सिय कडजुम्मसमयपरमाणुपोग्गझे णं ते ! किं कहजुम्मपएसोगाढे पु- ट्रिईया. जाव सिय कलियोअममयटिईया। विहाणादसणं जा । गोयमा! णो कमजुम्मपएसोगाढे, णो ते ओए,णो कमजुम्मसमयट्टिईया वि० जान कलिओअसमयट्ठियादि। दावरजुम्मे, कलिोअपदेसोगाढे । दुपएसिए णं पुच्छा एवं० जाव अणंतपएसिया । परमाणुपोग्गला गं ते ! का. गोयमा ! णो कमजुम्मपएसोगादे, णो ते ओए, सिय सवामपन्जवेहिं किं कमजुम्मे ते ओए?। जहाविईए वत्तव्यया। दावरजुम्मपएसोगादे, सिय कनिमोअपएसोगाढे । तिपए- एवं वमेसु वि सम्वेस, गंधेसु वि एवं चेव, रमेसु विजाव मसिए णं पुच्छा ? गोयमा ! णो कमजुम्मपएसोगाढे, मिय हुररसो त्ति । अणंतपएसिए ६ नंते ! खंधे कवकतेप्रोअपएसोगाढे, सिय दावरजुम्मपएसोगाढे, सिय कन्नि- फासपज्जवहिं किं कमजुम्मे पुच्छा। गोयमा! सिय श्रोअपएसोगाढे | चप्पएसिए णं पुच्छा । गोयमा ! सिय कडजुम्मे० जाब सिय कमिओए । तपएसिया ण त ! कमजुम्मपएमोगाढे० जाव सिय कनिमोअपएमोगाढे, खंधा करवमफासपज्जवहिं किं कमजुम्मा पुच्छा। गोयमा! एवं० जाव अणंतपएसिए ।
आघादेसणं सिय कडजुम्माजाव सिय कलिओपा । विहापरमाणुः कल्योजप्रदेशावगाढ एव, एकत्वात् । द्विप्रदेशिकस्तु णादेमेणं कडजुम्मा वि० जाव कक्षिोत्रा वि । एवं मन यद्वापरजुम्मप्रदेशावगाढो वा, कल्याजप्रदेशावगाढा वा स्यात, परिणामविशेषात् । एवमन्यदपि सूत्र नेयम् ।
गुरुयलहुया वि नाणियन्ना, सीओसिण पिछलकवा
जहा वया। परमाणुपोग्गला मां नंते ! किं कमजुम्मा पुच्छा ? । गो.
(अणतपएसिए णं भंते ! खंघे त्ति) ३ह कर्कशाऽऽदिम्पशांधियमा! अोघादेसेणं कडजुम्मपएसोगाढा, णो तेश्रोत्रा, णो कारे यदनन्तप्रदेशिकस्य व स्कन्धस्य ग्रहण, तत्तस्यैव पादरस्य
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जम्म
(१५०३) अभिधानराजेन्स:।
जयग कर्कशाऽऽदिस्पर्शचतुष्टयं जवाति, न तु परमापवादरित्यभिप्राये- । गतः सन् कार्याणि प्रेकते चिन्तयति स युवराजः । व्य०१ उ०। णेति । अत एवाऽऽह-(सोप्रोसिणणिरूलुक्खा जहा वम ति) युवा राजा यत्र।ब० बी०। युवराजनि, प्राचा०२ श्रु०३ १०१३०। पतत्पयवाधिकारे परमाएवादयोऽपि वाच्या इति भावः ।। भ० २५ श०४ १०
जुवाण-युवाण-युवन-पुं० । "पुंस्यन प्राणो राजवच्च" ॥ । जुम्मपएसिय-युग्मप्रादेशिक-त्रि० । समसंख्यप्रदेशनिष्पन्ने, त.
३। ५६ ॥ इति प्राकृतसत्रण पुंलिले वर्तमानस्यानन्तस्य स्थाने
'प्राण' इत्यादेशो वा भवति । प्रा० ३ पाद। युवा यौवमस्थस्तु दात्मके प्रतरवृत्तभेद च । न० २५ श०४ १०।
प्राप्तवया एष इत्येवमणति व्यपदिशति लोको यमसी निरूजुम्ह-युष्मद्-त्रि०। युष्-मदिक । संबोध्यचेतने नवदायें,
क्तिवशाद युवाणः। बाल्याऽऽदिकालेऽपि दारकोऽभिधीयतेऽतो तस्य चोक्तार्थे त्रिषु लिङ्गेषु सर्वनामता। वाच0 । “युष्मद्यर्थप.
विशिष्टवयोऽवस्थापरिग्रहार्थमेतधिशेषण | यौवनस्थ इत्येवं रेतः"।८।१।१४६ । शति प्राकृतसूत्रण युष्मच्छब्देऽर्थपरे लोकेन व्यपदिश्यमाने प्राप्तविशिष्टययोऽवस्थे, भनु । यस्य तः। 'तुम्हारिसो, तुम्हकरो' प्रा० १ पाद । (युध्मच्छ
हारसा, तुम्हकरा' प्रा० १ पाद । (युष्मच्छजधपत्थी-यौवनती-खी। तरुण्याम, "पिच्छसि मुहं सतिदरूपसिकिस्तु एतत्काशप्रथमभागस्य प्रथमपरिशिष्टे २८ पृष्ठे
लयं, सविसेसं सरायण महरेणं । सकमक्वं सवियारं, तर. प्रदर्शिता, रूपाणि तु तृतीयपरिशिष्टे १७ पृष्ठे विवेचितानीति | तत एवावगन्तव्यानि)
सञ्छि जुब्बणत्थीए ॥१२॥" तं०। नुयल-युगल-न० । 'जुगल ' शब्दार्थे, अनु।
जुसिय-जष्ट-त्रि० । जुन-क्तः। उच्छिष्टे, सेविते च । पाच । जुयधम्म-युगलधर्म-न० । 'जुगलधम्म' शब्दार्थे, भा० म०१
प्रीते, "पारण देश लोगो, नपगारिसु परिचिए व जुसिए था।"
स्था०४०४ उ०। अ०१खएन।
जुहिडिल-युधिष्ठिर-पुं०।युधि युके स्थिरः। "गवियुधिभ्यां स्थिजुयन्नधम्मिय-युगलधर्मिक-jor 'जुगलधम्मिय' शब्दार्थे, तं०।
र" ||८३५॥ इति । पाणि०) सूत्रेण षत्वम् । वाचः । हस्तिजुयायमणुय-युगलकमनुज-पुं० । 'जुगलयमणुय' शम्दाथै,
नापुरस्थे पाएमुराजस्य ज्येष्ठपुत्र. शा०१ श्रु० १६० । "जुहिटिज्यो०१ पाहु ।
लपामोक्खाणं पंचए पंडवाणं।" अन्त.१७०५ वर्ग भ०। जुरुजित-न० । देशी-गहने, दे० ना० ३ वर्ग ।
जुहुट्टिन-युधिष्ठिर-पुं० । "युधिष्ठिरे वा" ||८||१६॥ इति प्रा. जुवा -युवन्-त्रि०। यु-कनिन् । श्रेष्ठ, निसर्गबसवति, वाच०। तसत्रेण यधिष्ठिरशब्दे प्रादेरित उत्वं वा । प्रा०१पाद । 'जुहियौवनस्थे, जी०३ प्रति० । राणा युवा यौवनगामीति । द्वा० २२ डिल' शब्दार्थे,प्रा०१पाद । झा० । द्वा० । युवा वयःप्राप्त इति । उपा० ७ म० भ० । "प्राषोडशाग- ज-ज-पुं० । जवे, व्योम्नि, पिशाचे, गणके, जने, सबसे, प्रा. वेद बाला, तरुणस्तत उच्यते ।" इत्युक्तवयस्के तकणे, वाचा र्भाव.नवे च सरस्वत्याम, श्री०।"जः पुंशिळे जवे व्याम्नि, द्वा०ा आचालशालाबाव०।
पिशाचगणक जने । जूः खियां तु सरस्वत्यां, जातिः स्यात्सब. जुवा-युवति [ती]-स्त्री० । युवन् तिः । युवत्-डी वा। यौ.
ले पुमान् ॥१॥” इति । एका• । "जूजुवो जुम इत्यपि, मार्भा बनवन्यां खियाम, बाच० । तरुण्याम, का0 श्रु०१ अ० मावा घे भो इति।" एका०। मौ० प्रा० । रा०। "जुई समणं व्या।" युवतिरभिनवयौवना
| जूम-पुं० । देशी-चातके, दे० ना.३ वर्ग। खी। सत्र०१४०४.१००।
जय-युप-पुं०।न। यु-पक-पृषो०-दीर्घः। युगे, "जूयसहयुवजण-युवति [ती] जन-पुं० । तरुणीजने, प्रा०१ पाद।।
सं" यूपा युगास्तेषां सहस्रम । कल्प०५पाण । प्रश्नका स्तम्न. अनंगव-यवगव-पुं०। युषाऽयं गीः युवगषः । यूनि गाव, मिशेष. जं० २षक०। यस्तम्भे, जं० ३ वक० । उत्त०। "जुबंग सिधा।" भावा० २७०४ म०२ उ०। . यकीयपबन्धकाष्ठलेदे, यागसमाप्तिचिहाथै स्तम्भेच, पाच। जुवरज-यौवराज्य-न० । प्राचीननृपतिमा यो यौवराज्याभिषि- जयस्तम्भे, पुं०। वाच। तदात्मके सामुहिकशास्त्रोक्त पुरुषस्य तमासीत्तेनाधिष्ठितं राज्यं परमनेन यावसाचापि वितीयो
करचरणस्थे प्रशस्तक्षणभेद,जं.२पक्ष० । खनामन्यात युवराजोऽजिषिक्तस्तावद्यौवराज्यमुख्यते । इत्युक्तमक्षणे राज्ये, पश्चिमस्यां दिशि स्थिते पातालकलशे च । प्रव० २७२ द्वार। १०.01 मिooा यत्र नाचापि राजानियेको नवति । इत्यु- पत-न। दिष-क्तः । कीमाविशेष, औ०। प्रत्र । स्था० । काकणे यौवराज्ये, प्राचा० १४० ३.१०००। हत्त०।"अणुकर्म सो जयं खेल।"मा० म०१०१२ शुवराय-युवराज-पु० । युवा चाऽसी राजा बयुवराजः । पि- पाएका उत्स०('मणुस्सत्त' शब्देऽस्पटातः) पाशककी. तरि जीवति सति राजयोग्यः कुमारो युवराज उच्यते । इत्यु
मायाम, प्रमाणिकरणकक्रीमाया, कैतव च । वाचा तदात्मक कलक्षणे कुमारपदधारके. उत्त०१६ भ० । राको कित्तीयस्था- |
वासप्ततिकलाऽन्तर्गते कलाभेदे, का०१०१०।०।। नवत्तिनि, म्य०१० । राजयोग्यकियत्कार्यकरे राजपुत्रे, बा.| जूयखलय-शुतवलक-नः । पूनस्परिकसे, का-१०२०। प० । युबराज उस्थिताऽऽसन इति । जी०३ प्रतिकाभावः। जयग-यूपक-पुं० । सन्ध्याममा धम्मपना व ययुगपद भक्तभा० मध्य० । भौ० । माचाogo
स्तक "जयगो ति" भणितम् । सायाप्रनाचम्प्रभयोमिश्रस्वे, युवराजखरूपमाह
तदात्मके प्रान्तरिके स्वाध्यायदे या "सविरे अंतलिक्खए भावस्सगाई काउं, सो सुच्चाई तु हिरवसेसाई ।
अमज्काइए पाते। तं जहा-काषाए, दिसिदार, गजिप, वि. अत्याणीमज्झगओ, पच्छा कज्जाजुबराया ॥३१॥ जप,निग्याए,जूयप जक्खालित्तए,धूमिप,महिए,र पहुग्घाए।" यो नाम प्रातरुत्थाय शौचपूर्वाणि आवश्यकानि शरीरखि- स्था०१००। शुक्लपक्षप्रतिपदाऽदिदिनत्रयं पायः सम्यातावतानाऽहीनि निरवशेषाणि हत्या प्रास्थानिकामध्य. छेदा मात्रियन्ते ते यूपका इति । भ.७०३301 भाव
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जयग
"
शब्दे
पश्चिमस्यां दिशि स्थिते स्वनामख्याते महापाताले स्था० ४ ठा० २ ० । ( यूपकस्य विशेषवक्तव्यता तु प्रसज्जाश्य प्रथमभागे ८२६ पृष्ठे निरूपिता ) संभावर व जूपगो कदण विधि ॥ १७ ॥ (जयगोति) " संऊप्पदा, चंदप्पा य, जेणं जुगवं भवंति तेण
(१) अभिधानराजेन्द्रः ।
पाचगाव विभा देवाललन मुखति, अओ ते तिथि दिना पानोलियकालं न गेबहंति, तेसु तिसु दिणे पाचोसियसुत्त पोरिसिं न करेति " इति गाथार्थः ॥ भाव० ४ प्र० । जलमध्यवर्त्तितटे, बेटे, बृ० १ ० तपासानादिका क्रिया कर्तव्येति 'दगतीर' शब्दे वक्ष्यते )
जयगर तकर० धूतं करोति जयगर-धूतकर- । ।
क्रीडाकारके, बाच० । प्र० ।
नारिया कि निपजूरायण-नूर-१०
मय् पाशका ऽऽदि
जूयगार - द्यूतकार - त्रि० । धूतं करोति । कृ-पषुस् । पाशकाऽऽदिकीकाकारके, वाच० । प्रश्न० ।
जूपच पचिति श्री० [हेषु पचने भी।
द्यूतचिति- स्त्री० । द्यूतानि क्रीडाविशेषास्तेषां चितिः । द्यूतञ्चभ०
I
यमाय घृतममाद-पुं० तं प्रतीतं तदपि प्रमाद पथ प्रमादः प्रमादभेदे ( स्था० ) " तासकय सचिव, धनं कामाः सुचेष्टितम् । नश्यन्त्येव परं शीर्ष, नामापि च विनश्यति " ॥ १ ॥ स्था० ६ ठा० । नृपप्पसंगि[] - द्यूतप्रसङ्गिन भि० छूता ०१
भु० २ अ० । मा० म० ।
29
ज्या - यूका - स्त्री० । संस्वेदजे श्रीन्द्रियजीवविशेषे, प्राचा० १ भु० १ ० ६ ० । प्रज्ञा० । “ लिक्खं वा जूयं बा | आचा० २ ५० २ ० । अभियाऽऽत्म प्रमाणने स्था० ६ २० । अष्टलक्षाऽऽत्मके अनु०।" अलिक्खाओ सा एगा ज्या।" भ०.६० ७० जं० । उस० | प्रब० । ज्यो० नं० । 1
छ्यासेज्ञायरय-पूकाशय्यावरक-पुं० [सूकानां स्थामदार,
न० १५ २० १४०
क्रुधू
नूर-जूर था वयोदाम, अक० । बधे, सक० दिवा०-०सेट् जूते, अजूबा पक्षाला "प्रहारि जूरह । " यथा बाऽयसो लोहस्याऽऽहर्त्ता अपान्तराले रूपयादिलाने सत्यपि दूरमानोतमिति कृत्वा नोज्झितवान् पश्चात्स्वा बस्थानाऽवाप्ता वल्पलाभे सति जूरितवान् पश्चात्तापं कृतवान्, एवं भवन्तोऽपि जूरयिष्यन्तीति । सूत्र० १ ० ३ ० ४ उ० । -धा० । कोपे, दिवा०-पर० अक० । सोपसर्गसक-श्र निट् । “ क्रुभ्रैर्जूरः” । ८ । ४ । १३५ । इति प्राकृतसूत्रेण क्रुधेर्जूर इत्यादेशो वा भवति । 'जूर' 'कुज्झा' । प्रा० ४ पाद । कुध्यति नृत्यमभियुज्यत तया खिद-६०० दैन्ये, दिवा०दधा० च आत्म० भक० -- अनिद् "विदेजूंरवरी ||४१३२॥ खिरेतायादेशी वा जवतः । 'जूर' 'बिसूर' 'स्विजर' । प्रा० ४ पाद । खिद्य से. खिते । वाच० । परिघातें, तुदा०- पर० अक० अनिट् मुचा दिन्दित असत् खिनः बाच
1
जे
जूरण - जूरण - न० क्योदानों, सूत्र० २ ० ४ ० । गईणे, सू० १ श्रु० १६ प्र० । पश्चातापे, सू० १ ० ३ श्र० ४ उ० । जूर्व- वञ्चधा० । प्रतारणे, " वशेवेंद्र बवेल वजूर बोमकाः ॥ ८ । ४ । १२ ॥ इति प्राकृतसूत्रेण वञ्चेरेते श्रादेशा वा भवन्ति । 'जूरवर, बंब' । प्रा० ४ पाद ।
शोकातिरेकाच्छरीरजीर्णताप्राणायाम,
भ० ३ श० २ उ० ।
। देशी-गोपाले, दे० ना० ३ वर्ग । जूरुमिल्लय - पुं० जयग' शब्दार्थे, स्था० १० वा० । जबग- यूपक- पुं० । जूचि पचितिस्त्री० [पविशब्दार्थे श्र० जून- जूप पुं० न०
1
मुलककटुयाएका दिसाम
स्था० ३ ठा० १० सू० प्र० । चं० प्र० प्र० प्रश्न० ।
जूसणा - जूषणा - स्त्री० | सेवायाम, औ० ।
जोषणा - स्त्री० | सेवनायाम, स्था० ४ ठा० ३ उ० । सूत्र० । जूयिष्ट से स्था०४०४० जोतिषि सूत्र० २०७०। जूह-पू० पृ० जातीय समुदायाच यूथं समूह इति । स्था० १० वा० । उत्त० । जूहमलवाइ[ए]-यूथमसत्रादिन् पुं०। वादिविशेषे, कल्प०६ कृण। जूहवइ - यूथपति-पुं० यूथस्वामिनि, झा० १ ० अ० "भावी यूथपतिः स्वयम् । श्र० क० । “सो वानरजूदवई ।" प्रा०क० जाहि-यूथापि पुं० यूथस्वामिनि, आ००१२०१ आएक जूहा हिवइ - यूयाधिपति - पुं० । यूथस्य चतुर्विधसंघस्याधिपतिः । यूथस्वामिनि उत्त० ११ अ० । जूदिय-यूथिक- वि० दूधभये, “पुध्वजूदियङ्काणाणि वा दयजूहियद्वाणाणि वागयजूहियठाणाणि वा " आचा० २०२० । जूडिया यूथिकाखी० युथ पो० स्वार्थ प्रत
।
·
इत्वम्-टाप् । अम्लान के पाठायाम, यूथ्यां च । वाच० | पुष्पप्रधाने गुल्माऽऽत्मके वनस्पतिविशेषे, श्राचा ०१ ०१ २०५ ० प्रा० । रा० । जं० | "जूहियाकुसुमेइ वा । अ०म० १ ० १ ख एक ।
जूढियापुर-यूथिकापुर १०] [यूथिकायाः पुरं पत्रादिमयं सभाजनं वृधिकार यूथिका पुण्यस्य पचादिभज
[झा० १४० १७ अ० अ० म० ।
-
डियामंत्र-यूथिकामएटपक पुं० [यूथिका वनस्पतिविशे षः, तन्मयो भएकपकः यूथिकामण्डपकः । यूथिकामये मएमपे, जी० ३ प्रति० । जं० ।
जे-जे - श्रव्य० । पादपूरणे, वृ० १ च० । व्य० | तं० । “जे” इति निपातः पादपूरणार्थः । तथा चाह वररुचिः स्वप्राकृतलकणे" जेराः पादपूरणे " ॥ । २ । २१७ ॥ एते पादपुरणे प्रयोक्तव्या इति वृत्तिः । आ० म० १ ० १ खण्ड प्रश्न० । पञ्चा० । ज्ञा० । वाक्यालङ्कारे, जे इति निपातो वाक्यालङ्कारार्थं इति । विशे० । * जे ति खबु णिसे " ज इति । नि० ० १ ० । य इत्यस्य स्थानेऽपि 'जे' इति । कल्प० १ कण ।
"
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जेकण
जेट्टा
(१५८५)
अनिधानराजेन्द्रः। मेऊण-जिस्था-अन्य० । जयं करवेत्यर्थे, प्रा०४ पाद ।
उपस्थापनया ज्येष्ठ इत्युक्तम् , अथ तद्विधिमुपदशंयत्राहभट्ठ-ज्येष्ठ-वि.। वृद्ध-ष्ठनि ज्यादेशः। भ०१ श०१ उ० ज०।।
पढिएँ य कहिएँ अहिगए,परिहर उगवणाएँ कप्पो ति। सू०प्र० । उत्त। 0 प्र0 । अनु । यो यस्याऽऽदौ स तस्य
छकंतीहि विमुदं, सम्मं एचएण भेएण ॥ ३०॥ जेष्ठः । यथा-द्विकस्यैको ज्येष्ठः, त्रिकस्य त्वेककोऽनुज्येष्ठः, च.
पठितेऽधीने सूत्रतः शस्त्रपरिक्षाऽध्ययने । चशम्भो निन्नमः । तुकाऽऽदीनां तु स एव पोष्ठानज्येष्ठः। एवं त्रिकस्य द्विको ज्येष्ठः,
कथिते व्याख्यातऽर्धतः । अधिगत च ज्ञाते, पस्मिन्नेय सति । स एव चतुष्कस्यानुज्येष्ठः, पञ्चकाऽऽदीनां तु स एव ज्येष्ठाऽ. नुज्येष्ठ इति । अनु० । विशे० । अम० । अतिवृके, "कणित
(१) एकारस्य तु हस्वपाटः प्राकृतत्वात । परिहरन् वजयन् सन् मज्झिमंजडा धितिसंघयणण उसिहा।" ज्येष्ठमतिशयवृद्धम,
परिहार्यम् उपस्थापनाया महावतारोपणस्य कल्पो योगउत्कृष्टमित्यर्थः । उत्त पाई 01 श्रेष्ठ, "गिन्धधम्मा परम
त्येवंभूतःप्राणी।फि परिहरनित्याद-पष्टुं जीवनिकायषप.अन. तिनथा।" गृहस्थधात्परमं प्रधान ज्येष्ठमित्येवंशावाविशे०।
तपटू वा, त्रिनिर्मनोवाकायः,
विनिता यथा भवात तथा, रस्माधिके, पञ्चा८१६ विव० । कल्प० ।
सम्यग्नावतः, नवकन नवपरिमाणेन, भेदेन विकल्पेन, नवयत्र च गच्छे ज्येष्ठकनिष्ठो नहायेते,म तामा तथा च
भिदैरित्यर्थः। मनसा कृतकारितानुमतितिः,एवं वाचा कार्यन जत्य य जेट्ठ-कणिटो, जाणिज्जा जेहक्यणहमाणो ।
चेति ॥ ३०॥ दिवसेण विजो जेट्टो,न यहीलिजइस गोयमा! गच्चो।४६।
अथ द्वायुगपदुपस्थाप्यमानयोः को ज्येष्ठः ?, इत्यत्रादयत्र च गणे ज्येष्ठः कनिष्ठश्व शायते, तत्र ज्येष्ठः पर्यायण वृरूः,
पितिपुत्तमाझ्याणं, समगं पत्ताण जेढ पितिपलिई । कनिष्ठः पर्यायण लघुः। तथा यत्र ज्येष्ठस्य वचनमादेशो ज्यटव. थोवतर विसंबो, पनवणाए बच्चणा ॥ ३१॥ चनं, तस्य बहुमानः समानो ज्ञायते । जेहविणयबमाण त्ति' | पाये तु ज्येष्ठस्य विनयबहुमानी शायेते, तथा यत्र दिवसना
पितापुत्राऽऽदीनां जनकसुनप्रभृतीनाम्, मादिशब्दाद्राजामात्यमाऽपि यो ज्येष्ठः स न होव्यते, चकाराद्यत्र पर्यायेण लघुरपि |
तादुहितराश्यमात्याऽऽदिग्रहः। समकं युगपत,प्राप्तानां विवक्किता. गुणवृद्धो न दीव्यते, सिंहगिरिशिष्य वज्रशिशुरिव । गौतम !
श्ययनाधिगमनोपस्थापना योग्यतामवाप्तानां योगपयेनैवोपस्थास गरुको रेय इति । ग० २ अधिः
प्यमानानां, ज्येष्ठा रत्नाधिकाः पितृप्रभृतयः पित्रादयः स्युः, प्रा. । अग्रज, पुंकवाच।।
दिशन्दालाजामात्यगझ्यादिप्रहः । अथ पुत्राऽऽदिः प्राप्ती न "उचिनं एभं वि सहो-प्ररम्मि जं निइ अप्पसममेव ।।
पित्रादिः,तदा को विधिः?, इत्याह-स्तोकपऽन्तर विशेष दि. जेई व कणि पिहु, बह मन्नइ सम्यक जेसु ॥ ८॥"
नद्वयाऽऽदितः पित्रादिरपि प्राप्स्यतीत्येवरूपे, विलम्बः प्रतीक्वणं (निपत्ति) पश्यति (जे व त्ति) ज्येष्ठो छाता पितृतुल्यः |
कार्यः पित्राद। प्राप्त सति युगपदव पित्रा पुत्राऽऽदिरुपस्थापतमिव तथा । घ०२ अधि.।
नीयो माभूपुत्राऽऽद्यपेक्कया बघुनाकरणेन पित्राऽऽदेरसमास्युनिज्येष्ठ-वि० । वृह-नि ज्याऽऽदेशः । ततः स्वार्थिक अ अ.
क्रमणाऽऽदिरिति । अथ बह्वन्तर,तदा को विधिः?,इत्याह-प्रशापतिवृके, श्रेष्ठ च । अग्रजे, पुं० 1 वाच० ।
नया पित्रादेः सम्बोधनया-"तव पुत्रा यदि विक्वितां महाबत. भेट्टकाप-ज्यटकल्प-कल्पनेदे. ज्येष्ठो रत्नाधिकः, स एव कल्पा श्रियं प्राप्नोत्यन्येषां च ज्येतरो भवति तवैवाभ्युदयः, ततो न वृघुचव्यवहारा यत्र स ज्येष्ट कल्पः कल्पनेदे,कल्प०१वण । त्वयाऽस्य विघ्नो विधेयः" इत्यादिलकणया,उपस्थापना बताs. पुचतरं सामध्यं, जस्स कयं जो बतेमुबट्टविओ।
रोषणा कार्या । अथ प्रहप्यमानोऽपि यदि न प्रतिपद्यते, तदा एस कितिकम्मजहो, ण जातिमुतओ उपक्खे ॥ । प्रतीकणीय यावदसा प्राप्ताद्वये राजाऽऽइयो युगपद्यदा तूपस्थायस्य सामायिक पूर्वतरं प्रथमतरं कृतमागेपिनम, यो वा प्यन्ते तदा ययाऽऽसन्नं ज्येष्ठ नेति । तदेवं प्रकारद्वयेनापि यष्टत्वे बनेषु प्रथममुपस्थापिना, स एप कृतिकमज्येष्ठो भएयते, न
सर्वेऽप्यवस्थिता इति गाथात्रयार्थः ॥३१॥ पश्चा०१७ विव०। पुनर्द्विपकेऽपि संयतपने संयतापके च जातितो बहत्तरं जन्म. जेज-ज्येष्टाय-पुं० । प्रथमे आयें, नि० चू० १ उ० । पर्यायमङ्गीकृत्य, श्रुततः प्रतूतं श्रुनमाधिस्य ज्येष्ठ इहाधिक्रियते, ह च मध्यमसाधूनां यस्य सामायिक पूर्वतरं स्थापि
जेहनइ-ज्येष्ठनूति-दु। 'जिभू 'शब्दार्थे, ति। तं स ज्येष्ठः, पूर्वपश्चिमानां तु यस्य प्रथममुपस्थापना कृता जेट्ठपहाजा-ज्येष्ठमहाजन-पुंगा ज्येष्ठायसाधुसमुदाये,वृ० उ० । स ज्येष्ठ इति । वृ० ६ ३० । व्य० । पं0 भा०। पंचू० ।
जेट्टयर-ज्येष्ठतर-त्रि० । 'जिघ्यर' शब्दार्थे, प्रा०२ पाद । ज्येष्ठस्वरूपं गाथात्रयणाऽऽहउवावाणाएँ जेहो, विसे नो परिमपच्चिमनिणाणं ।
जेहा-ज्येना-स्त्री० ज्येष्ठनगिन्याम् , वयोज्येष्ठायाम, ज्येष्ठस्य पवजाए न तहा, मज्झिमगाणं णिरतियारो ।। २० ॥ पल्याम, गङ्गायाम, मलदम्याम, अश्वन्यधिक ऽष्टादशे उपस्थापन या महावतारोप गेन, ज्येष्ठो रत्नाधिको विकेयः,पू.
इन्जदेवताके नक्षत्रे, वाच० । चं० प्र० ज्यो । स्था० । श्चिमजिनानामित्यत्र साधूनामिति शेषःप्रव्रज्यया त प्रवाजने- अनु० । आव० । “ जेट्राणक्वते तितारे पम्पसे " । न पुनस्तयति ज्येष्ठा केय इत्येतत्सम्बन्धनार्थः । मध्यमकानां स० १ समः । स्था० । भगवनो महावीरस्य स्वनामख्याद्वाविंशति जनसाधूनां निरतिचारोऽतिचाररहितः । सातिचार- तायां दुहितरि, तस्याश्च ज्येष्ठति वा सुदर्शनेति बाउन.स्तु नोपस्थापनया प्रवज्य या वा ज्येष्ठः, प्राक्तन्यास्तवारप्रमाण- घद्यानति वा नामेति । विशे। वैशालीनगरनृपतटकस्य स्वात, पुनरूपस्थापनाया: सामायिकाsरोपणस्यैव च प्रमाण- (१) "पदोतो पदान्ते प्राकृते स्वा वा" इति मे छन्दोऽनुस्वादित ॥२६॥
शासन । ३९७
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जेडा
जो
स्वनामरूयातायां दुद्धितरि, सा च " जेठा कुंरुग्गा मे वद्धमा- | जेपि- जेतुम् अव्य०। "तुम एवमणाणदम एहिं च || ४ ४४९ ॥
सामिणो नंदिवरुणस्स दिष्वति । श्रा० चू० ४ श्र० । मेहापेष्ठानुज्येष्ठ विचाद्यपेक्षया प्रथमेा०
-
1
इति प्राकृतसूत्रेणापभ्रंशे तुमः प्रत्ययस्य एवं भण, अहं श्रणहिं एते चत्वार आदेशा वा पके- पप्पि पप्पिणु पचि पचिणु ते चत्वार आदेशाः । प्रा० ४ पाद जिवाव्य जयंत्०४ पाद जेमनुज-धा० । भक्कणे, " जुजो जुञ्जजिमजे मकम्मा एह समाणचमढवडुः 1 ६ । ४ । ११० । इति प्राकृतसूत्रेण भुजेजेमाऽऽदेशः । ' जेम' प्रा० ४ पाद । " पुत्ररहे साली चुप्पर, अवरपडे जेम्मइ । अ०म० १ ० १ खराम । जेमल-जेमन - त्रि० । वटकपूराऽऽदिके, "जेम विहिपरिमाणं करेइ । " जेमणानि वटकपूराऽऽदीनि । उपा०१ भ० उद्वाहादिजेमनार यथासि कसत्कजेमनवारगृहे, अन्यथा वा ? इति प्रश्ने, उत्तरम-विवाहजेमनवारवत्पौषधिक सत्कजमनवारगृहेऽपि मुनीनां विहर्तु न कल्पत इति । २०४ प्र० । सेन० २ सल्ला० । जेमणय-देशी- -न० । दक्षिणा, दे० ना० ३ वर्ग । जेमावल-जेपापन - न० । भोजनकारणे, भ० ११ १० ११ उ० । जेमिणि जैमिनि-पुं० । अन्यतीर्थिके मुनिजे, विशे० । सूत्र० । जैमिनिभिरतरामभाषी पटुग्रहः सम्यग्वेदार्थस्य परिज्ञाता ऽऽसीत् । नं० ।
जिमेलमाणा
-
म० १ ० १ खगम अनु० विशे० ( कास्य यथा तत्वं तथा
4
'जेठ' शब्दे १५८५ पृष्ठे व्याख्यातम् ) जेडामूल- ज्येष्ठामूल- पुं० | ज्येष्ठा, मूलं वा पौर्णमास्यां यत्र स्या रसज्येष्ठामूलो मासः । ज्येष्ठमासे, "गिम्द कालसमयम्मि जेष्ठामूत्रम्मि मासम्मि । " श्र० । भघ० । नेहामूली - ज्येष्ठामूली - स्त्री ज्येष्ठपूर्णमास्याम सु० प्र० १० पाहु० । जं० चं० प्र० । जेडोवग्गह- ज्येष्ठाग्रह - पुं० । पर्युषणायाम, नि० चू० १० ० । जेण जैनपुं० [जिनो देवताऽस्य । जैनध
1
पासके, वाच० ।
यत्र - अव्य० । यस्मिन्नित्यर्थे, " जेणेव कामदेवे समणावासए तेणेव त्रागच्छर, उवागच्छत्ता ।" यत्र कामदेवः श्रमणोपास कस्तत्रोपागच्छति स्म । उपा० २ श्र० ।
धम्म- जैनधर्म-पुं० । आईतधर्मे, "आमगोरस संपृक्त- द्विदलं ख वित्रजयेत्। द्वाविंशतिरनदयाणि, जैनधर्माधिवासितः १।” जै. धर्मेण धर्मेणाधिति भावितामा अि न०। जिनोदितमार्गे, 'श्ररूया जैनव
( १५=६ ) अभिधानराजेन्द्रः ।
-
जे गवत [ए]-- जैन वर्त्मन्--न
कर्मना। द्वा० २३ द्वा० ।
सासवा जैनशासन- १० जिनोदिते शास्त्रे, "समस्तपस्तु ताजानं जैनं धी सिवईनम् ॥१॥ " उस० १ ० ।
सित-जैननिद्धान्त पुं० जैनागमे, "गिरस्तमतिभ्या पकाशकमनिय नमस्कुम, जेसिका
जास्करम्" ॥ १ ॥ क० प्र० ।
दिवागरण- जैनेन्द्रव्याकरण न० । व्याकरणजे, कल्प० १
-
कण |
मेसर मेनेश्वर भिजिनेश्वराणाम् | जिनेश्वर नि, प्रति० ।
जेत्तिअ-यात्रत्–श्रि० । “ श्वांकेमध डेलिन - मेलिल - मेदहा:" | । ८ । २ । १५७ । इति प्राकृतसूत्रेणेवं किम्भ्यां यततद्भ्यश्च पर. यात्री पनि पल्लि पद्दद्द इत्यादेशा भवन्ति, मिल् पतल्लुक च । प्रा० २ पाद । यत्परिमाणे, वाच० ।
जेसिन पावत् त्रियत्परिमाणे पा०३ पा
--"war" सूत्रेणापयात्परस्यातो इंसुल्न इत्यादेशः । यत्परिमाणे, प्रा० ४ पाद ।
जेत्थु - पत्र - अध्य०। " यत्रतत्रयोखस्य डिदेवतु ॥ ८ ।४:४०४। इति प्राकृतसूत्रेणापभ्रंशे यत्रशब्दावयवस्य त्रस्य मित् एत्पु इत्यादेशः । प्रा० ४पाद । यस्मिन्नित्यर्थे, बाब० । जेरह पा०ि परिमाण ०२ पाद।
-
1
e-fazer-wi, “goài¶yàtàsage" इति प्राकृतसूत्रेणाप
महत्यादेशाः । प्रा० ४ पाद । जयं कृत्वेत्यर्थे, बाचन
जे
"क न] संविदे (२२ गाथा ) [
"
-
"
मानुष्यगतिक्षणम् । उत्त० ७ अ० । जया मेह० जयकर्तरि "जेयाति था" जेता कर्मरिणाम् । भ० २० श० २३० । " जेपण परिवित्थए । ( सूत्र ) "रं अप्पा, जाव जयं न पला । " सूत्र ०१ ० ३ भ०१ उ० पावलोव
जेवकु इति
-
] जहा ति
|| 5.08|R|=||
कारावयवस्य मिदंवड इत्यादेशः । प्रा० ४ पाद। यत्प रिमाणे, वाच० ।
जेवि - जिल्वा-अव्य०। ' जेप्पि ' शब्दार्थे, प्रा० ४ पाद । जेत्रिए - जित्वा - अव्य० । 'जेप्पि ' शब्दार्थे, प्रा० ४ पाइ । जेसलमेरु-जयशल्य मेरु- पुं०] स्वनामस्याते नगरभेदे, डी०३प्रका०| जेहिल - जे हिन्न - पुं० । वसिष्ठ गोत्रोत्पन्ने आर्य नागस्य शिष्ये स्वनामख्याते स्वबिरे, "जेडिलं च वासिहुं।" कल्प०८ क्षण । "थे रस्स णं श्रञ्जनागस्स गोयमसगुत्तस्ल अज्जजेहिले घरे अंतेवासी वासिते । " कल्प० ० कृण । जेह-यादृक् त्रि० । " याकारक गटां वाडेडेंट: "
1
४४०२
स्पडित एह इत्यादेशः । प्रा० ४ पात्र । यत्सदृशे वाचः । जो धोखी०। द्युत-मोः। " द्यय्यय जः " ८२२४ | इति प्राकृतसूत्रेण द्यस्य जः प्रा० २ पात्र स्वर्गे, माकाशे च । वाच नियमे उपन०म०
सक० अनिट् । ज्ययते, अज्यास्त । वाच० ।
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( १५०७ ) अभिधानराजेन्
जो
ज्योक् - अव्य० । ज्यो- को किः । संप्रत्यर्थे, काल भूयस्त्वं, श्रीप्रतायाम्, प्रश्ने च । वाच० । जोश्रण-न० । देशी- लोचने, दे० ना० ३ वर्ग । जोईगया पुं० देशी-इन्द्रो दे० ना० जो ज्योतिपुं०
।
-
[स
39
श्रादेर्दस्य जः । सूर्ये, अग्नौ बाच० "रुप्पमलं व जोश्णा । । ' ज्योतिषाऽग्निना । श्राचा० २ श्रु० १६ श्र० । दश० । स्था० । भ० । सूत्र० । " सप्पी जहां परियं जोश्मज्भे । " सूत्र० १ ० १३ श्र० । स्था० । “ किं माहणा. जोहसमारभता । उत्त० १६ ० " के ते जोई, के य ते जोहडाला।" किं ज्योतिः कोऽग्निः । उत्त० १६ म० । विपा०|ज्वलक्ष्झौ, ज्योतिष एवाऽऽद्याधारो ज्व चूर्णित्-"मनुगाडि अग
णी जयंतो सि ।" नं०। प्रकाशस्वनावे प्रदीपाऽऽदिके, पो०१५ जिहाद जो वि"ज्योतिष प्रदीपाऽऽदि अंधे मढ नापि सह वर्तमानो न पश्यति । सुत्र० १० १२ म० । “स
। प्र०
राइपण जोइया कियायमाणाणं । " सुत्र०२ ०२ अ० । "डुविशेष होई सराई य सम्पराई " नि० ०१६४० | ज्योतिविधिरात्रिकमा मदिरा यत् प्रज्वलति पितं सार्वत्रिकम् । उभयोरपि तिष्ठतां (गीतार्थानां ) चतुर्लघुकाः । वृ० २४० । स्वर्गे, विशे० प्रा० म० । ज्योतिरग्निः, तत्कार्यकारिणि कल्पवृकभेदे, स० १० सम० मेधिकावृक्के, वाचा ज्योतिरिव ज्यां तिः सम्यग्ज्ञाने, आदित्याऽऽदि प्रकाशे, स्था०४ वा०३ उ० सूत्र नेत्रकन निकामध्यस्थे दर्शनसाधने पदार्थ, नक्षत्रे, स्वयं प्रकाशे, सर्वावास के चैतन्ये, वाच० ग्रहनक्षत्रतारकाऽऽदिके, चं० प्र० । ज्योतीप्रकृतारका इति बं० २०१ पाटु झाव | प्रश्न | ग्रह चन्द्र सूर्य नक्षत्रतारकाणां ज्योतिषां ज्योति saणे विमानविशेषे, स० । तत्प्रतिपादके ज्योतिषामयने शास्त्रभेदे, नि० ३ वर्ग ३ श्र० । तडू द्वासप्ततिका अन्तर्गत कलानेदे च । नः । कल्प० ७ क्षण ज्योतिरेव ज्योतिः । उपाजितने प्रास्था०४०३४०रित योज्ज्वलस्वनावे च । वि० स्था० ४ ठा० ३ उ० । योगिन् पुं० योगोऽस्य विद्यते इति योग । | नंश योगबलसम्पन्ने, पो० १५ विव० । योगिनो योगभाज इति । द्वा० २६ द्वा० | योगाभ्यासपरे, यो० वि० । दिव्यदृष्टौ यो० वि० । मनोपरोधक अ० [अ०] यांनी धर्म ध्यान लक्षणः येषां विद्यते इति योगिनः । साधौ, श्राव० अ० । " सम्यक्त्वज्ञान चारित्र : योगः सद्योग उच्यते । एतद्योगा योग। स्यात् परमब्रह्मसाधकः ॥ १ ॥ एतदाकारे साधकभेदे, पं० सू० ४ सूत्र ट ० रत्नत्रयरूपमा कोपायिनि अ० २०
तत्रापायच नया योग दर्शना [२१] तत्र मुक्तिरागे उपाये च नवधा नवभिः प्रकारै योगिनेदस्य प्र दर्शन तथाहि पायो गो मध्योपायो मृदुसंग अपामध्ये मध्योपाया मध्यसंवेगः, श्रभ्युपायो मध्यसंवेगः, मृदूपायोऽधिसंवेगः, मध्योपायोऽधिसंवेगः, अभ्युपायो ऽधिसंवेगश्चेति नवधा योगिन इति योगाचार्याः । द्वा० १२ द्वा० । तीर्थकरे, गीतार्थे च । वृ । गीतात्वि कत्ता इव सो कत्ता, एवं जोगी विनायन्यो ।
जो बलपलज्जय
कर्ता श्व तीर्थंकर श्वाकोपनीयत्वात् कर्ता द्रष्टव्यः । एवं योग्यपि ज्ञातव्यः । किमुक्तं भवति १--यथा तीर्थकरः प्रशस्तमनोवाक्काययोगं प्रयुनो योगी भएयते एवं गीताउपवाद वलये सापवादकियां कुर्वाणो मनो वाक्काययोग प्रयुञ्जानो योगीव ज्ञातव्यः । वृ० १ उ० । अात्मशास्त्रानुष्ठान अन्यतीर्थ परिषदे म० । युज- घिनुण् । संयोगवति, त्रि० । बाच० । जोइन । देशी-००३
जोइांग- ज्योतिरङ्ग-पुं० । ज्योतिरग्निः, तत्र च सुषमसुषमायामराया ज्योतिरवयवस्तु सौम्यप्रकाशमिति भावः त कारणयोतिर सुमसुषमा ज्योतिषिके
-
भेदे, स्था० १० वा० ति० । ज्योतिषिकाः सूर्यमण्डलमिव स्वतेजसा सर्वमप्यवभासयन्तः सन्तीति । तं० । जोइजनगढ़-ज्योतिरुपगूढ स्थितिपाऽग्निनोपगूढः समा लिङ्गितः । श्रम्मिनोपगूढ जतुकुम्ने, " जोश्वगूढे । " सूत्र० १
भु० ४ श्र० १० |
जोइक्ल-० । देशी-दीपे | • जोक्स ' शब्दश्व देश्यो दीपे वर्त्तते । प्र० ४ द्वार दे० ना० ' जोइक्खो ' नाम दीपः । 'जोइक्खं तह वालयं च दीत्रं मुणेज्जाहि । ब्य 9 उ० 1 जोइजसा-ज्योतिर्यशस स्त्री० । कौशाम्बी नगरस्थायां स्वनामरुयातायां वत्सपालिकायाम्, आव० ४ अ० ।
66
जोइकाल - ज्योतिःस्यान- न० : अग्निस्थाने, नं० । "के ते जोई के य ते जोशहाणा ।" उस० । ज्योतिःस्थानं यत्र ज्योतिनिंधीयते । उत्त०१२ श्र० ।
नोइणाय योगिज्ञान-१० सालीतानागता पहारा । स्कारिणि सम्म २ काण्ड समाधिविशेषां
पञ्चा० १६ विव० । योगिज्ञानस्य सकलातीतानागतापहासाक्षात्कारिणोऽतीतानागतत सत्पदार्थाना वेऽपि भवान्युपगमात् । सम्म० २ कापड |
शाह-योगिनाथ-करे ० १४०
जोश | पट्टण - योगिनी पत्तन न० पुरनेदे, अष्टापदकल्पमधिकृत्य ग्रन्थोऽयं परिपूर्णतामनज श्रय" ती० ४७ कल्प |
जोइल ज्योतिर्वलनं बलं यस्यादियाssदिप्रकाश वा ज्योतिः, तदेव तत्र वा बलं यस्य स तथा । सदाचारवति ज्ञानवति, दिनचारिणि । स्था०४ ठा०३ उ० । जोइबलपजलप - ज्योतिर्बलप्रज्वलन - त्रि । ज्योतिर्बलन का
-
-
|
गबलेन प्रकाशबलेन वा प्रज्वलति दर्पितो भवत्यवष्टम्भं करोति यः स तथा । ज्ञानवति, प्रकाशचारिणि च। स्था०४ठा० ३ ४ | जोडबलपरजय ज्योतिर्वरजन ज्योति सम्प ज्ञानम श्रादित्याऽऽदिप्रकाशो वा ज्योतिः, तदेव तत्र वा बलं यस्य स तथा । सदाचारवति, दिनचारिणि च। स्था०४ ठा०३ उ० जोइवनपलक्षण - ज्योतिर्बलप्रसज्जन-त्रि। ज्योतिर्बलेन कानबलेन प्रकाशबलेन वा संचरन् प्रलज्जते इति ज्योतिबलप्रलज्जनः । मिथ्याज्ञानिनि, अन्धकारचारिणि च । स्था० ४
ब० ३ ३० ।
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जो बुि
बोबुद्धि-योगिबु के श्री० समाधिविशेषयीचे "जग" योगिया सम
बघेन योगिन व श्रध्यात्मिकार्थविवेचनचतुरचेतसो नव स्तीति । पञ्चा० १७ विव० ।
मोहक ज्योतिर्जाट -१० अभिभाजने "
-
free महरागविरागाओ। " तं ।
(१८) अनिधानराजेन्ड
ज्योतिर्मय जाते, "त
मोइज्य-ज्योति
समज
भूयं " समा तुल्या ज्योतिषा बहिना भूता जाता या सा तथा । विपा० १ ० ४ अ० । स्था० । " तं जोइभूयं च सया बसे "स्वोतिर्भूतं चन्द्र135दित्यदीपक
रूपम् । सूत्र० १ भु० १२० ।
मोहमंत - ज्योतिष्यत् पुं० । ज्योतिरस्त्यस्य मतुप् । सूर्ये, प्लकद्वीपस्थे पर्वतभेदे च । लताभेदे, रात्रौ योगशास्त्रांके चितवृत्तिभेदे च । खी० । ङाप् । वाच० । तैलविधानं तिलाउतसीसी ज्योतिष्मतीकरजाऽऽदिनिरिति । श्र० १
० १० ५ ० | ज्योतिर्युक्ते, त्रि० । बाच० ।
नोमय - ज्योतिर्मय त्रि० ज्ञानमये, श्रा० म० १० २ खाएर । प्रकाशमये ज्योतिर्मयीय दीपस्य क्रिया सर्वाऽपि मिची।"
अ० १३ अष्ट 1
लोय यौगिक वि० शब्दभेदे प्र० यौगिक बामेय मामायातोपमानमेवादिसंयो गवद् यथेोपकरोति सेनयाऽनियात्यभिषणयतीति । प्र० २ सम्ब० द्वार ।
-योजित - त्रि० । उपनीते, पञ्चा० १५ विष० । संबन्धिते, श्री० । व्य० ।
मोरन० देशी- दे०० वर्ग बोस ज्योतिषधि० ज्योतिधिकृत्य कृतो प्रन्यः नि०-०-कि ज्योतिरमप्यत्र । वाच० । ज्योतिःशास्त्रमके वेदाङ्गभेदे भाव० ३ श्र० । भा० म० । उत्त० । ज्योतिश्चके, कल्प० १ कण । " जे गह। जोइसम्म चारं चरंति । " प्रज्ञा० ३ पद । क्योतिष्क क्षणे विमानविशेषे, स० । नक्षत्रे, दे० ना० ३ वर्ग । ज्योतिष-पुं० ज्योतिश्वके/भवा ज्योतिषाः । ज्योतिश्वक स्थिते सूर्याऽऽदिके देवभेदे, पुं० । पञ्चा० २ विव० । ० । मोइसंगविन ज्योतिषाङ्गविद- त्रि० । ज्योतिषं ज्योतिष्कं ज्योतिःशाखमतिवियो शास्त्रस्य, शिक्काssधानां च वेत्तरि, उत्त० २ श्र० । पोरवाल प्रयोतिः ० ज्योतिषः करूपस्य सं नः । "तारकाणं तिहि ठाणेहिं तारारूने बरेजा ।" इत्यादिना सूत्रेण प्रतिपादित संचालने, स० ३ श्रङ्ग । बो० योतिस् पर्यन्ते, स० ।
-
तत्प्रमाणं यथा
जोइस चक
शेषः । ( जातिसंते चि ) ज्योतिश्चक्रपर्यन्तः प्रज्ञप्त इति । स ११ सम० ।
जोइमकरंदय - ज्योतिष्करण्डक - न० । सूर्यप्रकशित उद्धृते ज्योतिषां प्रतिपाद के प्रकरणग्रन्थभेदे, ज्यो० ।
तथा ज्योतिष्करण्डकं विवाद मलयगिरिः
"गुरुः । ज्योतिष्करण्डकं व्यर्क, विवृणोमि यथागमम् " ॥ १ ॥ ज्यो० १ बाहु० ।
ज्योतिष्कराम केऽधिकाशा
कासपमार्थ माणं निष्णची, महिनमासगस्स चिय यच्छामि श्रमरचं पथ्यतिद्वीणं समति च ॥ एक्खत्तय परिमाणं, परिमाणं वा वि चंदसूराणं । नक्खत्तचंदसूरा - ए गई नक्खत्तजोगं च ॥ मंडलविजागणं, आत मंद हच ॥
विवाए, ता बढी च दिवमाणं ॥ मासपुराणमामी, परिसंवाद । वदारनयमणं, तं पुरण सृण मे णपणे ॥
इह सूर्यप्रकृतिसत्का अधिकारा एकविंशतिरूपप्राभृतनिबद्धाः, तत्र प्रथमेऽधिकारे कालस्य समयाऽऽदे घटिकापर्यन्तस्य प्रमाणं वक्ष्ये, द्वितीये मानं प्रमाणं संवत्सराणाम, तृतीये श्रधिकमासस्य निष्यति सम्म गाथ कं क्रममुल्लस्य चतुर्थे पर्वतिथिसमाप्ति बदये, पञ्चमं श्रवमरात्रम, गाथायां चान्यथा निर्देशः छन्दोवशात् । ततः षष्ठे नक्कसंस्थानादिपरिमामि सम्म
पं. अमेयन्द्रसूर्यनमस जम्बूद्रभागमा नम, द्वादशे आवृत्तिम् प्रयोदशे चन्द्रसूर्यनत्राणां ममले मण्ड मुतिपरिमाणमनुपरिमाणम
दो
सप्ता श्रम, अष्टादश दिवसानां वृद्ध्यपवृद्धी, एकोनविंशतितमे अमावास्या पौर्णमासीवक्तव्यताम्, विंशतितम प्रनष्टं प एकविंशतितमेडी चि कारान् वक्ष्ये व्यवहारनयमतेन, निश्चयनयमतेन हि कलाकलांप्रतिकांशगणनया परमार्थतः परमश्रुतविदो बुध्यन्तेन शेषाः॥ न च तथा कथ्यमानानां श्रोतॄणाम् श्रञ्जसाऽवगमपथमृच्छति । तो व्यवहारयमनयोजन कतिपयकलाक भागरूपेण बक्ष्ये, तश्च तथा मे कथयतो भवानवहितमनस्को भूत्वा शृणु तदेवं निर्दिष्टा अथाधिकाराः । ज्यो० १ पाहु जो इसग राय-ज्योतिर्गणरामोशी महनतार काणि तेषां गणः समूहस्तस्य राजाऽधिपतिज्योंतिगणराजः । चन्द्र, सूर्ये च । चं० प्र० १ पाहु० ।
१०
सोगताओ इकारस एकारेदिं जोयसर जोसको अवाहाए जोइसंते पनतं ।
'लोकान्तामित्यलङ्कारे एकादश श एकादशयांजनाधिकानि अवाधया बाधारद्वितया कृत्वेति
66
तियां चक्रं ज्यो० १ पाहु० 1 पक्कार एकवीसा, सयएक्कारा हिया य पक्कारा । मेरु अल्लोगावाहे, जोइस चक्कं चरइ वाइ " ॥ १ ॥ स० ११ सम० ।
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जोक्सचक अनिधानराजेन्फः ।
जोइमिय तत्स्वरूपं यथा
|.जोसिणा-ज्योत्स्ना-स्त्री० । ज्योतिरस्त्यस्यमः, उपधालो. लोगाणभावजणियं, जोसचक्कं जणंति अरिहंता। पश्च । "सदम-मण-ब-ह-ह-णां पहः"1८1१।७५ । इनि सम्वे कालविसेसा, जस्स गाविसेसनिप्फना ॥
प्राकृतसूत्रेण स्नस्य एहो वा प्रा० २ पाद । कोमुद्यां,चहकिरण
व । वाच0 । 'जोइसिणा" स्था० २ ग०४२० । । यस्य ज्योतिश्चक्रस्य चन्छसूर्यनक्कत्राऽऽदिरूपस्य संबन्धिना,ग- जाडमिणापक्व-ज्योत्स्नापक-पुं० ज्योत्साप्रधानः पक्षो ज्यातिविशेषेण निष्पन्नाः, सर्वे कालविशेषाश्चन्द्रमाससूर्यमासन
सापक्षः । शुक्लपक्ष, चं००१५ पाहु । सू० प्र०1 कत्रमासाऽऽदिकाः, तद् ज्योतिश्चकं लोकानुनावजनितमनादि.. कालसन्ततिपतिततया शाश्वतं वेदितव्यम, नेश्वराऽऽदिकृतमि
जाइसिणाभा-ज्योत्स्नाभा-स्त्री० । चन्छस्य स्वनामध्यातायामति जणन्ति प्रतिपादयन्ति, भगवन्तोऽहन्तः । तीर्थकृतां च बच
प्रमहिन्याम, भ०१०श०५ १० । ज्यो० । स्था० । सू० प्र० । नमवश्यं प्रमाणयितव्यं, कोणसकलदोषतया तद्वचनस्य वितथा|
चं००। यत्वानावात् । उक्तं च-" रागाद वा द्वषाद वा. मोहा - जोइमिय-ज्योतिपिक-jo । सूर्याऽऽदिके ज्योतिथकस्थिते देवक्यमुच्यते नृतम । यस्य तु नैते दोषा-स्तस्यानृतकारणं किं
भेद,प्रका०२ पद । पश्चा०। उत्तरकुरुषु नवे स्वनामयाते प्रमस्थात ?" ॥१॥ अपि च-युक्त्याऽपि विचार्यमाणो नेश्वराऽऽदि
गण, तत्र प्रदेशे बहवो ज्योतिषिका नाम हुमगणाः । घंटां प्राशति, ततस्तदन्नावादपि ज्योतिश्चक्रं लोकानुनावज
जी० ३ प्रतिः। नितमवसयम । यथा च युक्त्या विचार्यमाणो नेश्वराऽऽदिर्घ
विषयसूचीटते, तथा तत्वार्थटीकाऽऽदौ विजम्भितमिति तत पवावधार्य- (१) 'जोइसिय'शब्दस्यानुवादान्तरव्युत्पीत्तवाच्यार्थान्तरप्र. म । ज्यो०.१ पाहु० । (ज्योतिश्चक्र मरुतः कियत्या प्रवाधया
दर्शनम् । खरतोति प्रवाहा' शब्दे प्रथमभागे ६८२ पृष्ठे रइयम)
(२) ज्योतिप्काणां पञ्चविधत्वप्ररूपणम् । द्वीपवन्दिरसाकृतप्रइनेषु-जम्बूद्वीपगतमेरोः परितो यथैक-
(३) मनुष्यत्रवर्तिनां मानुयोत्तरपर्वतात् स्वयं नरमणसमु.
(R) विशत्यधिककादशशतयोजनाम्यवाधां कृत्या ज्योतिश्चक भ्राम्य- |
बावधिकानां च ज्योतिषकाणां चलवस्थिरत्वविचार ति, तथाऽन्यद्वीपगतमेरुज्योऽपि कियतीमचा कृत्वा भ्रमन्ति?,
(४) प्रसङ्गता मनुष्यक्त्रं निरूप्य स्फुटं ज्योतिषकाणां चला ति प्रश्ने, उत्तरम्-अत्र जम्बूद्वीपगतमेरोः परितो यथेकवि
स्वस्थिरत्वानदर्शनम् । शत्यधिकैकादशशतयोजनाम्यवाधां कृत्वा ज्योतिश्चक्रं सा
(५) सर्वलोके प्रनिहीपं प्रतिसमकं चकाकीनां परिमाणम्यति, तथैवान्यद्वीपगतमेरुभ्योऽपीति संभाव्यते. बाकरा
प्रतिपादनार्थमन्यतीथिकानां द्वादशप्रतिपत्तीरुद्भाव्य णि तु व्यक्ततया दृष्टानि न स्मर्थन्ते,इति । १२:०।ही०४ प्रका
भगवसिमान्तनिरूपणम् ।
(६) जम्बूद्वीपगतचन्माऽदिसंख्यासमाडिक गाथे। जोइमपह-ज्यातिष्पथ-पुं०। प्रहचन्द्रसूरनक्कत्रम्पाणां ज्योति- | (७) मनुष्य कंत्रगतचन्म याऽऽदीनां संख्यापरिमाणकथनम्। .वां ज्योतिएकमवणविमानविशेषाणां ज्योतिषी या दीपाऽऽप (0) चर्य नक्षत्रताराग्रहाणां पिटकवक्तव्यता- पिटक. पन्था ज्योतिष्पर्थः । ज्योतिष्कदेवानां मांग, अनर्मार्गे च । सः।
प्रमाणनिरुक्तिः। ज्योतिष्पन्न-त्रिका प्रदचन्द्रसूरनकत्ररूपाणां ज्योतिषां ज्योतिष्क
मनुष्यवेत्रगतचन्द्रसूर्यपङ्कयो यावत्यो यथा च स्थिलक्षणविमानविशेषाणां. ज्योतिषो वा दीपाऽऽodःप्रजा प्रका
: तास्तन्निर्वचनम् । शो यस्मिन् । ज्योतिष्कदेवसदृशप्रभे,अग्निसरशप्रभे च । स०
(१०)" नत्राणां पङ्क्तिप्ररूपण। जोइसमूहमंग-ज्योतिषमुखमाफक-पुं० । पर्ये, कल्प०कण ।'
. .(११)"प्रहाणां पक्तिनिर्देशः।
" (१३) चम्बादयो यत्र यथा भ्रमन्ति तनिरूपणम जोइसराय-ज्योतिष्कराज-पुं० । ज्योतीर्षि प्रहनक्षत्रतारकाणि (.१३) चन्द्राऽऽदित्यग्रहमामखानामन्यमण्डलसंचारित्वनानव तेषां राजाऽधिपतिज्योनिकराजः । चन्के, सये च । च० प्र० । स्थितत्वं, नकानारामरामलानां तु मेरुमभितः संचा. "जोइसरायस्म पन्नत्ति।" ("गाथा) ज्योतिपकराजस्य
रियादवस्थितत्वम् । चन्म सः । च० प्र०१ पाहु । स्था० । सू०प्र०।।
(१४) बसूर्ययोमामलस्थानादूर्वमध, संक्रमणबक्तम्यता। जोइसामयण-ज्योतिपामयन-न० । ज्योतिःशास्त्राऽऽत्मक (१५) चन्डसूर्य नक्कत्रमहाग्रहाणां चारविशेषेण .मनुष्याणां दामनदे, औ०। मा० चू० । कल्प० । अनु०।
सुखपुःस्वविधि प्रतिपाय, दीकाऽऽदिशुभकार्याणि छ. মানৱকিৰাঘঘানান
তিনি । जोइसालय-ज्योतिगलय-पुं० । ज्योतिराझयो गृहं येषां ते
(१६) चसयाणां तापक्केत्रं यथा वर्धते हीयते वा तपज्योतिरालयाः। ज्योतिकदेवेषु, "पंचहा जोइसानया।" उत्त०
पादनम् । ३६ ०
(१७) तेषामेव तापक्षेत्रसंस्थानस्य वर्णनम् । जोसिंद-ज्योतिष्केन्द्र-पुं० । सर्य, चन्द्रे च । स्था० ६ ठा।। (१८) मनुष्यक्षेत्रमध्य चन्द्रसूर्यग्रहनक्षत्रताराणां चारोपगत्वं "नंदिमसरिया य पथ दुवे जोइसिंदा जोइसियरायाणो परि
विधिच्य तेषामेव मनुष्य कंत्राद् बहिर्गस्यनावोद्घा
टनमा वसति।" ० ० १ पाहु ।
(१६) प्रतिधीपं चन्द्रादिसस्याविवेचन । जोइसिण-ज्य [ ज्यौ ] सन-पुं० : ज्योत्स्नाऽन्विते शुक्ने पक्षे |
(२०) प्रतिद्वाप प्रतिममु च ग्रहनक्षत्रतारापरिमाणपरिज्यो०४.पाहु.।
झामोपायः। ३०
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जोइसिय 'अनिधानराजेन्दः।
जोइसिय (२१) मानुषोत्तरपर्वतस्य बदिः चन्द्रसूर्याणां तेजांस्यव-| (४०) एकैकंपरिपूर्णमएमलं चन्छाऽऽदयः प्रत्येक यावद्भिर स्थिताम्यव, तथाऽभिजिता चन्छाः पुष्यण च सर्व
होरात्रैश्चरन्ति तदुपवर्णनम् । देव युक्ताः सूर्या नवन्तीति प्रतिपादनम्।
(४६) युग चन्दाऽऽदयः प्रत्येक यावन्ति मण्डलानि चरन्ति (१२) मनुष्य केत्रबहिर्गतचन्भर्याणां पङ्क्त्यवस्थानोप
तत्परामर्शः। पत्तिः ।
(५०) ज्यौतिष्कदेवानां गतिविशेषविषये द्वे संग्रहगाथे । (२३) मनुष्यक्षेत्रस्यान्तर्बहिश्च चम्बाऽऽदीनां देवानामृधों- (५१) चन्छसूर्यनक्षत्रत राणामल्पादकत्वमहर्दिकत्वप्रति-- पपनत्वकल्पोपपन्नत्वचिमानोपपन्नत्वाऽऽदिविचारः।
पादनम् । (२४) चन्द्रसूर्ययोजच्यवनोपपातवक्तव्यतायां परतीर्थिक ज्योतिषिज-पुं० । “ हमदन्तात् सप्तम्या संकायाम" ॥ ६
মলিলিলিবায়দুৰন্ধ মামলমহাল। |३ ॥ इति (पाणि) सूत्रेण सप्तम्या अलुक। वाच । (२५) पुष्करोदाऽऽदिषु द्वीपसमुक्षेषुचनाऽऽदिसंश्याम्याहारः। ज्योतिश्चके जातो ज्योतिषिजः । ज्योतिश्चक्रजाते दंचनेद, (२६) चन्झस्ययोः परिवारकथनम् ।
पञ्चा०२ विवः। (२७) चन्द्राऽऽदीनां यारशोऽनुभावस्तत्प्रतिपाच तविषयेऽ- ज्योतिष्क-पुं० । ज्योतिरिव, इवायें कन् ।चित्रकवृत, मेधिका
न्यतीथिकानां प्रतिपत्तीरुदस्य जगवत्सिद्धान्तवर्णनम् । पोजे, गणिकारीवृत्त च । स्वायें कन् । वाच । चोतन्ते इति (२०) चन्छसूर्ययोः संस्थितिविषये परतीथिकानां षोमश- ज्योतींषि विमानानि, तनिवासिनो ज्योतिष्काः। उत्त०२ ० ।
प्रतिपत्तिप्रदर्शनानन्तरं भगवन्मतोपन्यासः। प्रहनक्षत्राऽऽदिषु, ब० वा वाचला ज्योतिप्यु नक्षत्रेषु भवा ज्या(२६) चन्द्राऽऽदित्यचारवचनम् ।
तिकाः, शब्दव्युत्पत्तिरेवयं, प्रवृत्तिनिमित्ताऽऽश्रयणात्तु चन्द्रा (३०) चन्छसूर्याऽऽदोनां भूमरुध्वमुच्चत्वप्रमाणप्रतिपादने प- दयो ज्योतिप्का इति। स्था०२ठा०३ उ० । सूत्राज्ञा०।
रेषां पञ्चविंशतिप्रतिपत्तीरुभान्य नगवदभिप्राय- चं प्रज्योतिष्मतीलतायाम, स्त्री० । मेरोः शृङ्गान्तरे, वाच। प्रकटनम् ।
गणितप्रतिपादके ज्योतिःशास्त्रेच। ना सूत्र०१ ०१ १०४००। (३१) चन्मसूर्याणां केत्रापेकयाऽधस्तनाः, समश्रेणिव्यवस्थि
ज्योतिषिक-पुं० । ज्योतिष शास्त्रं वेत्यधीते वा उक् । देवके, ता वा तारारूपविमानाधिष्ठातारो देवा पुतिविभघाऽऽदिकमपेक्ष्य चन्मयांच्यां केचिदणषः कचितु
वाच । ज्योनिश्चके भवो ज्योतिषिका, स एव ज्योतिषिकः।
ज्योतिश्चक्रनवे देवभेदे, पञ्चा०१ विव०। स्या इति प्रपञ्चः। (२३) नक्षत्रमएमलिकामपेक्ष्य सर्वाभ्यन्तरचारित्वमाभजि.
ज्यौतिष्क पुं० । ज्योतिष्कदेवानां निवासभूते देवलोकभेदे, बकत्रस्य मूलाऽऽदानां सघबाह्यचारित्वं स्वातिनकत्र- भ०५ श०१० उग ज्योतींषि विमानविशेषाः,तेषु भवाज्यौति. स्य सर्वोपरिचारित्वं नरणीनकत्रस्य सर्वाधवारि. काः । ज्योतिश्चक्रभवे देवभेद, स्था०५ ठा० १० । त्वमिति प्रतिपादनविस्तरः।
(२) ते च पञ्च-"पंचविहा जोशसिया पलना । तं जहा-चंदा (३३) चन्द्रः सूर्यो वा कियत् केत्र प्रकाशयतीति विचारे द्वा. सूरा गहा णक्खत्ता ताराओ।" स्था० ५ ग० १००। दश प्रतिपत्तीरितरेषां व्युदस्य नगवत्सिकान्तोक्तिः ।
(३) चंदा १ सूरा य २ गहा ३, नक्वत्तावतारया यएपंच इमे। (३४) चन्छादीनां जम्बूद्वीपे चारकेत्रविष्कम्तमानम्। (३५) ज्योतिष्काणामल्पबहुत्वम् ।
एगे चल जोइसिया, घंटायारा थिरा अवरे ॥१४॥ (३६) बसूर्यग्रहनक्षत्रताराणां मध्ये यो यस्मात् शीघ्रग- चला,सूर्याः,प्रहाः,नक्षत्राणि, तारकाश्वेत्येवं पञ्च ज्योतिकने. तिस्तनिरूपणम्।
दानवन्ति । तत्र चैक मनुध्यक्षेत्रवर्तिनो ज्योतिएकाश्चमा मेरो (३७) ज्यौतिष्काणामेकमुहूर्ते यावती गतिस्तनिकाक्तः।।
प्रादपियन सर्वकालं भ्रमणशीलाः, अपर पुनये मानुपांत्सरप(३८) चन्द्र क्षत्राणां परस्परं मामलभागविषयावशेष
बंतात परेण स्वयं नुरमणसमुद्रं यावद्वतन्ते ते सर्वेऽपि स्थिरा: निर्धारणम।
सदाऽवस्थानस्वभावाः, अत एव घण्टाकारा अचल धर्मकस्वेन (३६) ग्रहमधिकृत्य योगचिन्ता ।
घण्टाबत स्वस्थानस्था एव तिष्ठन्तीत्यर्थः । प्रव. १६४ द्वार।
चं.३० । उत्त०।दश। (४०) सूर्येण सह नक्षत्रस्य योगचिन्तनम् । . (४१) सूर्येण सह प्रहस्य योगविचारः।
. (४) प्रथमतो मनुष्यक्षेत्र प्ररूपयति(४२) चन्छाऽऽदयो नक्षत्रण (समासन) यावन्तिमएमलानि
जंबूदीवो लवणो-दही य दीवो य धाइमंड । चरन्ति तदुपपत्तिः।
कालोदाह पुक्खरवर-दीवलो माणुस खत्तं ॥ (४३) चान्द्रमासे यावन्ति मएमज्ञानि चन्द्राऽऽदयश्वरान्त त. प्रत्यक्कत उपलन्यमानः प्रथमो जम्बूद्वीपः, ततः सर्वस्योरकीर्तनम् ।
तस्तस्परिकेपी लवणोदाधिः, ततोऽपि परतः सामस्त्येन (४४) ऋतुमासमधिकृत्य चन्द्रादीनां मएमचारवर्णनम् । लवोदधिपरिकप। धानकोखको द्वीपः, तस्यापि सर्वतः (४५) सूर्यमासमधिकृत्य चन्छाऽऽदीनां मण्मचारविवेकः। परिकेपी कालोदधिसमुजः, ततोऽपि परतः सर्वतस्तत्प(४६) अभिवर्धितमासमधिकृत्य चन्काऽऽदीनां मण्डलचारो- रिकेपि पुष्करवरहीपस्यार्द्धम । पते जम्बूद्वीपधातकीनएमपपादनम् ।
पुष्करवरखापारूपा पाः, द्वौ च लवणोदधिकालोद(७) एकेनाहोरात्रण चन्द्राऽऽदयः प्रत्येकं यावन्ति मण्डलानि
धिरूपी समुजौ, मानुषं केत्र-मनुष्याणामुत्पत्तमरणस्य च चरन्ति तत्समधनम् ।
नावात् । अस्मिश्च मानुषे के समा विभागाकालविभागाः
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जोइमिय
सुमसुमायो भवन्ति तो मनुष्यक्षेत्रात सर्वमपि देवारण्यं देवानां क्रीडास्थानं, तत्र जन्मतो मनुष्याः, नापि तत्र कोsपि कालविजाग इत्यर्थः ।
( १५६१ ) अभिधान राजेन्
एतदेव स्पष्टयन्नाह - एतं मालसखित्तं एत्थ विचारीणि जोइसगणाणि । परतो दीवसमुद्दे, अहिये जो जान ||
एतत् अनन्तदितस्वरूपं मानुषं क्षेत्रम, अस्मिंश्च मनुष्य क्षेत्रे, विचारिणो विचरणशीला ज्योतिष्कगणाश्चन्द्रसूर्यग्रहनक्षत्रतारागणाः । सूत्रे च नपुंसकता प्राकृतत्वात् । परतो मनुष्यक्क्षेत्रस्व शेषेषु द्वीप समुष्य स्वतमय स्थानशील ज्योतिश्धकं जानीहि । ज्यो० ६ पाहु० ।
"
(2) संप्रति प्रतिद्वीपं प्रतिसमुचन्द्राऽऽदोनां परिमाणप्रतिपादनाय कति सर्वलोके आपला
7
ताका
इति, ततस्तदूविषयं प्रश्नसूत्रमाहचंदरिया सम्बलो ओजाति, उज्मोपंति तवेति पजाति आहिता ति बदेखा ॥ (ता कति णमित्यादि)''कति "" इति वाक्यालङ्कारे चन्द्रसूर्याः सर्वलोके ना बभासमानाः, उद्योतयन्तः प्रकाशयन्त आवयाता इति वदेत् । एवमुक्ते भगवानेतद्विषये यावन्त्यः प्रतिपत्तयस्तावतीरूपदर्शयति
तत्य खलु इमाम्रो दुबान्नसपमिवतीभो पछताओ । तत्येगे एवमामु-ताएगे चंदे एगे सूरे सन्नलोयं प्रोजामेति, उज्जोएति, तत्रेति, पभासेति, एगे एवमाहंसु । एगे पुल मासु तातिष्ठि चंदा तिहिण सूरा सचनोयं श्रोभासेति, उज्जोएंति, तचेति, पजासेंति, एगे एवमामु श एगे पुल एवमाता आउहिँ चंदा भाजहिं सूरा सचबोअं ओजाति, उज्जोएंति, तति, पंजासेंति, एगे एवमागे मासु एवं एवं अनिला येणं पो
- चंदास सूरा दम चंदा दस सूरा वारस चंदा वारस रा ६ बावासी चंदा वाताझीसं सूरा ७। बावतरी चंदा बाबतरीसूरा । वातानं सं चंदमयं वाताजीसं मूरामयं । वातरं चंदमयं मातरं १० । बापाली बंद पायानी सूरसह ११ बाबत री चंदसहस्वावत्तरी सूरसहस्सं सव्वलोयं भोजासंति, बज्जोर्वेति तर्वेति, पज्ञासंति, एगे एत्रमाहंसु १२ ॥
(नत्येत्यादि ) तत्र सर्वलोकविषयवस्त खल्विमा वक्ष्यमाणस्वरूपा द्वादश प्रतिपत्तयः परतीर्थिकैरभ्युपगमरूपा प्राप्ताः तत्र तेषां द्वादशानां परतार्थकानां मध्ये एके परतीर्थिका पत्रमाहुः - ( ता इति ) तेषां पार्थिकानां प्रथमं स्वशिष्यं प्रत्यने तोपक क्रमोपदर्शनार्थः । एकश्चन्द्र एकः सूर्यः सर्वलोकमवभावयति, अवज्ञामयन् उद्योतयन् तापयन् प्रजासयन् श्र स्यात इति वदेव अत्रैवोपसंहारमाह-- ( एगे पवमा
जोइसिय
सुकेनाशयः सूर्यास
भासयन्त भाख्याता इति वदेत् । उपसंहारवाक्यम् (एगे एवमासु)२] एके पुन
यीः सर्वलोकमवभासयन्त श्राख्याता इति वदेत्। अत्राप्युपसंहार:- (पगे मासु ) ३ ( एवमित्यादि) एवमुक्तेन प्रकारेण एतेनानन्तरोहितेनाभिनापेन तृतीयप्राभृतोक्तप्रकारेण द्वाइ शप्रतिपत्तिविषयं कलमपि सूत्र नेतव्यम्। नचैत्रम्-" सत्त चंदा सत्त सुरा इति) पगे पुण एवमादंसु-ता सत्त चंदा सत सूरा सम्बलीये ओपन घा दिति वरजा, एगे एचमासु ४ । एगे ! पुण एवमाहंसुता दस दादाि
महिय विजा, एंगे पवमासु ५। एगे पुण पवमाहंसु-ता वारस चंदा वारस सूरा सव्वलोयं भोजासेति, बज्जोएंति, त बैति पनाति विज्ञापमा ६ पंगे पुण
प्रोभासेति
बयासी चंदा बावाली रासली तचेति मासैति आहिचा मासु बगेपु एवमाता बाबा सूरा सन्चलोयं श्रोभासेति, उज्जा एंति, तवैति, पनाति, श्रादियति वरजा, एगे एत्रमाहंसु । एगे पुण पत्रमाहंसु-ता बयालीस वायरस सम्मल मासे, पाहा, मासु
एगे पुणपत्रमासु-ता बावसरं सदसयं वाचतरं सूरलयं स लोयं भोजासेह, जोपर, तब, पभासे आहिय ि घरजा, एगे मासु १०। एगे पुण एवमादसुता वायसीदस बाबाजीसं सुरसहस्स सो उज्जो, तवेश, पनासेर, श्राहिय त्ति वपज्जा, एगे एमाहंसु ११ । पगे पुणे एवमाहंसु-ता बाबतरं चंदसहस्स वासरं सूरसहस्सं सम्बलोयं मोभासेर, उज्जो, तवेश, भार, माहियति बज्जा, पगे एत्रमासु १२ । " पताश्च सर्वा अपि प्रतिपत्तयो मिथ्यारूपाः, तथा भगवान् स्वमतमेताभ्यः पृथग्भूतमाद
वयं पुण एवं बदामो-ता श्रयं णं जंबुद्दीवे दीने जाव परिक्खेवेणं ताव जंतु वे दी वे केवतिया चंदा पजासेंसु बा, पजाति वा पनामिति वा केवतिया सूरा वा सति वा विति वा? केवलिया नक्सा जोसुवा जोतिबा जोता है केवतिया गहा चारं चरिं चरंति वा परिवति वा? केवलिया तारागण कोि सोवासोतिया, सोनिस्संति वा । ता जंबुद्दी वे एं दीचे दो चंदा भासु वा पजासिति वा, पभामिस्मंतिवा, दो सूरिया तबसु वा तवंति वा, तत्रिस्संति वा, छप्पां लक्खता जोयं जोसुवा, जोएंति वा, जोइस्संति वा, वाचत्तरिगढ़सतं चारं चरिं वा, चरंति वा, चरिस्संति वा, एगं सयसहस् तेजीच सहस् सा पासा तारागण को मा सोया, सोजितिया, सोभिति वा । ( वयं पुणस्यादि) वर्ष प्रकारण बामः । तमेव जम्बूद्वीपा
पूर्व
लाना एवं मा प्रकारमाह- ( ता भयं यमित्यादि ) परिपूर्ण पठनीयं व्यायामी
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(१५५२) जोसिय - अनिधानराजेन्द्रः।
जोसिय च(ता जंधुहीवे णं दीवे दो चंदा इत्यादि ) जंबुद्धीपे द्वौ चन्द्रौ ।
सत्त य सया अणणा, तारागण कोझिकोमीणं"॥३॥ प्रतिभासितवम्ती, प्रतिभास्यते, प्रतिभासियेते,सन्यास्तिकनय'
सोनंमुवा, सोनंति वा, सोभिस्संति वा॥ मन सकल कालमेवंविधाया एव जगस्थितेः सद्भावात् । तथा द्वौ सयौँ तापितवन्तौ,तापयतस्तापयिष्यतः। तथा एकैक
"मगुस्सखेसे ण" इत्यादि पारसिद्धम् । उक्तं चैवरूपं परिस्य शशिनोऽविशतिर्नवत्राणि परिवारो, जम्बद्धीपेच द्वौ श.
माणमन्यत्रापि । श्रीसमित्यादि गाथात्रयम् ) तत्र द्वात्रिंशं शिनी, ततः षट्पञ्चाशनक्षत्राणि, जम्बूहीपे चन्द्रसूर्याच्या सह
चन्मशतम, एवं द्वौ चन्डॉ जम्बूद्धापे,चत्वारा लवणोद.द्वादश योगं युक्तवन्तः, युक्तवन्ति, योक्ष्यन्ति वा। तथा कैकस्य शशि
धातकीखा, द्वाचत्वारिंशकालादे, द्वासप्ततिरभ्यन्तरपुष्कनोऽधाशतिग्रहाः परिवारतः,ततः शशिष्यसत्कग्रहमीलने स.
राद्धे, संबसंख्यया द्वात्रिंशं शतम् । एवं मर्याणामपि त्रिशं बसंख्यया षट्सप्लयधिक ग्रहशतं नयति, ततो जम्बूद्वीपे चार
शतं परिजाबनी यम । नक्कत्राऽऽदिपरिमाणम् अष्टाविंशत्यादिसंचरितवान् ,बरति,चरिष्यति च। तथा एफैकस्य शशिनस्ताराप
स्यानि नक्षत्राऽऽदीनि द्वात्रिंशन शतन गुणयित्वा परिभाव. रिवार: कोटाकोटीमांषट्षष्टिः सहस्राणि, नवशतानि पञ्चसप्त
नीयम । जी०३ प्रति। स्पधिकानि,जम्बूद्धीपेचद्वी शशिना, तदेतत ताराप्रमाद्वाभ्यां
मतभेदेनाहगुण्यते. तत एक शतसहस्रं प्रयनिशसहस्राणि नवशतानि अहासीतिं चत्ता- सतमहस्सा मण्यलोयम्मि । पश्चाशदधिकागि तारागणकोटीनां भवन्ति । एतावत्प्रमाणास्ता- सत्त य सता अणुणा, तागगणकोडिकोडीणं ॥३॥ रा जम्बूद्वीपे शोजितवत्या, शोभन्ते, शोभिष्यन्ते । स० प्र० (अहासोईचत्ता ति) अधाशीतिः सहस्राणि चत्वारिंशत १६ पाहु । जी० । जात्रा
शताधिकानि, शेपं गतार्थम् । सु० प्र० १६ पाहु । ० (६) संप्रति बिनयजनानुग्रहाय यथोक्तजम्बुद्धीपगत- प्र० । भ० । द०प०। चन्द्राऽऽदिसंख्यासंप्राहि के द्वे गाये श्राद
संप्रति सकलमनुष्य लोकगततारागणस्योपसंहारमाहदो चंदा दो सूरा, णक्पवत्ता खल हवंति छप्पाला। . एसो तारापिंडो, सव्वसमासेण मायरायम्मि । वायत्तरं गहसतं, जंबुद्दीने वियार। णं ॥१॥
बहियं पुण ना तारा, जिणेहिँ जणिभा असंखेजा।।१।। एग च सयसहस्स, तित्तीसं खलु भवे सहस्साई। एवत्तियं तारगणं, जं भणियं माणुसम्मि लोगम्मि । एव य सता पछासा, तारागण कोझिकोमीणं ॥२॥ चारं कसंबुथापु-फसंउितं जोतिसं चरति ॥ ॥ एते चले पनि सुगमे, नवरं (जंबुद्दीवे बियारी ण) णमिति
पषोऽनन्तगेक्तगायोक्तस्तारापिएमः संबसंख्यया मनुष्यलोबाक्यामकारे, ततो 'वियारीति' विभक्तिपरिणामेन चन्द्रादिभिः
के,भाल्यात इति गम्यते । वहिः पुनर्मनुष्यलोकाद यास्तारास्ता सह सामानाधिकरण्येन योजनीयमिति ॥ सु०प्र०१६ पाहु।
ज़िनः सहस्तीकृद्भिणिता असंख्याताः, द्वीपसमुहाणाम.' (सवणसमुहगतचम्काऽऽदिसंख्यापरिमाणम 'सवणसमुद' शब्द
संण्यातत्वात् । प्रतिद्वी प्रतिसमुच यथायोग सण्येयानामबच्यते) (धातकीखएमद्वीपचन्द्रादिसंख्या 'धायई स्वमदीय'
-संण्येयानां च ताराणां सद्भावात २॥ "एचश्य" इत्यादि । ए. शमे प्रतिपादयिष्यते)(कासोदसमुरुचन्द्रादिसंख्या कासोद.
तावतसंख्याकं तारापरिमाणं यदनन्तरं भणितं मानुषे लोक, शये तृतीयजागे ५०४ पृष्ठे गता)(पुष्करवरद्वीपचन्छाऽऽदिसं.
तज्ज्योतिकं ज्योतिष्कदेवधिमानरूपं कदम्बपुष्पसंस्थितं क. व्या,प्राज्यस्तरपुष्कराद्धंगतचन्काऽऽदिवक्तव्यताच 'पुक्खरयर
बम्बपुष्पबत् अधःसंकुचित उपरि विस्तीर्णमुनानीकृतार्ककदीव शम्दे बक्ष्यते) ह सर्वत्र तारापरिमाणचिन्तायां कोटी
पित्यसंस्थानसंस्थितमित्यर्थः । चारं चरति चार प्रतिपद्यते, कोट्या-कोटीकोट्य एव एव्याः, तथा पूर्वसूरिव्याख्यानात्।
तथा जगतस्थाभाव्यात् । ताराग्रहणं चापलक्षणं, तेन पर्यावअपर उच्छ्याइनल प्रमाणमनुश्रित्य कोटी कोटीरव समर्थमन्ते ।
योऽपि यथोक्तसंख्याका मनुष्य झोके तथा जगत्स्वानावात चार कंच-"कोमाकोडीसतं, तरंतु मनंति केश थोवतया। अने
प्रतिपद्यन्ते शति एव्यम ॥२॥ उस्से हंगुल-माणं काऊण ताराणं ॥१॥" इति । जी०.३ प्रतिका
संप्रत्यत्तद्गतमेवोपसंहारमाहा(७) संप्रति मनुष्य केत्रगतसमस्तचन्काऽऽदिसंख्या
रविससिगहणवत्ता, एवतिया आहिता मणुयलोए । परिमाणमाह--
जेसिं णामागोतं, न पागता पम्प हिंति ॥ ३ ॥
रविशशिप्रहनक्षत्राणि,उपलक्कणमेतततारकाणि च एघायन्स्यमणस्मखेते णं ते ! का चंदा पत्तासेंसु वा, पभासिति
तायसंययानि पाक्यातानि सर्वकर्मनुष्य झांक, येषां किमित्या. बा, पभासिस्मति वा, कर सूरा तबइंसु वा, तति वा, ह-येषां सूर्याऽऽदीनां यथोक्तसंख्याकानां सकममनुष्य नोकतविस्संति वा । गोयमा!
भावितानां प्रत्येकनामगोत्राणि, इहान्धर्थयुक्तं नाम सिमान्तप. - "वत्तीसं चंदसयं, बत्तीसं चेव सरियाण सयं ।
रिभाषया नामगोत्रमिन्युच्यते। ततोऽयमर्थ:-नामगोत्राणि भ. . सयलं.मास्मलोयं, चरंति एए पगासेंता ।।१।।
विधयुक्तानि,यदि वा नामानि व गोत्राणि मामगोत्राणि,प्राकृता
अनतिशायिनः पुरुषाः न कदाचनापि प्रज्ञापायथ्यन्ति, केवलं एकार सय सहस्सा, उपि य सोना महम्गहाणं तु ।। • यदा तदा वा सर्वका पध, तत विमपि सूर्याऽदिसंस्थान बसया नमनया, णक्खत्ता तिम्धि य महस्सा ॥२॥ प्राकृत पुरुषाप्रमेयं सर्वज्ञोपदिशमिति सम्यक श्रद्धमिति ॥३॥ अवासी सतसहस्मा,वायालीसं सहस्स मणुयलोगम्मि।। () गवटि पिळगाई, चंदादिवाण मणुयलायम्मि ।
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(१५९३) जोइसिय भनिधानराजन्यः ।
जोइसिय दो चंदा दो सूरा, य हुँति एकेकर पिमए ॥३॥ | 5, षट् धातकीनराम, एकविंशतिः कालोदे,षत्रिंशदत्यन्तररोचकौनो मर्यापिकालिन पुष्करा इति। अस्यां चपनी सर्वसंख्यया षट्पटिश्चकन्द्रादित्यानां पिटकानि सर्वसंख्यया मनुष्यलोके भवन्ति षट्
मसः । एवं यो मेरोरपरभागे चन्धमास्तन्मूनायामपि परकी पष्टिसंख्याकानि । अथ किंप्रमाणं पिटकम् ? इति पिटकप्रमाण
षट्पष्टिश्चन्छमसो वेदितव्याः ॥ ६॥ माह-पकैकस्मिन् पिटके द्वौ चन्डौ, द्वौ सूर्यों च भवतः किमुक्तं
(१०) अथ नक्कत्राणां पक्तिस्वरूपमाह- . भवति-द्वौ चन्छौ द्वौ सावित्येतावत्प्रमाणमकैकं चन्दाऽदि. कृप्पन पंतोश्रो, णखत्ताणं पायलोयम्मि। त्यानां पिटकमिति । एवंप्रमाणं च पिटकं जम्बूद्वीपेपकप, जम्मू
कावहि गवर्हि, हवाई इकिकिया पंती ॥ ७॥ द्वीपे क्योरेव चन्द्रमसोईयोरेव सूर्ययोभावात। पिटके सषणसमुख, तत्र चतुगो चन्द्रमसां चतुणों च सूर्याणां भावात् ।
मकवाणां मनुष्यांक सर्वसंख्यया पक्क्तयो जवन्ति षट्पञ्चाशएवं षट् पिटकानि धानकोखण्डे, एकविंशतिः कालोदे, पद
'त्। एकैका च पर्भिवति षट्पष्टिषट्पटिनकरप्रमाणा इत्यर्थः । त्रिंशदभ्यन्तरपुष्कराद्ध, इति भवन्ति सर्वमीलने चादि.
तथाहि-अस्मिन् किन जम्बूद्वीपेदविणतोऽभाग एकस्यस्यानां षट्षष्टिः पिटकानि ॥३॥
शिनः परिवारजूतानि अभिजिदादीन्यष्टाविंशतिनकत्राणि क्रमेण छाष्टुिं पिडगाई, णखत्ताणं तु मणुयलोयम्मि ।
व्यवस्थितानि चारं चरन्ति, उत्तरतोऽभागे हितीयस्य श.
शिनः परिवारभूतानि अष्टाविंशतिसंख्याकान्यनिजिहादीन्येष छप्पमं पक्खचा, कुंती एक्केकर पिदए ॥४॥
नक्कत्राणि क्रमेण व्यवस्थितानि, तत्र दक्विणतोऽईजागे यदभि(बावहीत्यादि ) सर्वस्मिन्नपि मनुष्यलोके सर्वसंख्य- जिनक्षत्र तत्समश्रेणिव्यवस्थिते द्वे आभजिनक्षत्र सवणसमुख, या नत्राणां पिटकानि भवन्ति षष्टिः । नक्षत्रपिट- पद धातकीस्त्र एमएकविंशतिःकालादे, षट्त्रिंशदच्यन्तरपुष्ककप्रमाणं च शशिवयसंबन्धिनत्रसंख्यापरिमाणम् । तथा रार्द्ध इति सर्वसंख्यया षट्पटिरभिजिनकत्राणि पङ्कया व्यवचाह-एकैकस्मिन् पिटके नक्षत्राणि भवन्ति षट्पञ्चाशत्- स्थितानि,श्रवणाऽऽदीन्यपि दक्विणतोऽर्द्धभाग पङ्कमा व्यवस्थिसंध्याकानि । किमुक्तं नवति?-पटपञ्चाशनकत्रसंख्याक- तानि षट्पष्टिसंख्याकानि भावनीयानि । उत्तरताऽप्यभागे मकैकं नत्रपिटकं भवति । अत्रापि षट्पटिसंख्याभावना, | यदभिजिन्नतत्र तत्समधेणिव्यवस्थित उत्तरभाग एवरे मभि. पवमेकं नकत्रपिटक जम्बूद्वीपे, वे लवणसमुळे, पम् धातकी. जिनको लवणसमुद्राषट् धातकीखएके, एकविंशतिः कालोदे, गएक, एकविंशतिः कालोदे, पत्रिंशदभ्यन्तरपुष्कराः इति । पद्मिशत पुष्कराः, एवं भ्रषणाऽऽदिपक्तयोऽपि प्रत्येक पट
गर्हि पिटगाई, महग्गहाणं तु मायलोयम्मि। । षधिसंख्याकाः बेदितव्याः, इति भयन्ति सर्वसंख्यया षट्पश्चाछावतरं गहसतं, होई एकेकर पिडए ॥५॥ शनकत्राणां पतयः, एकैका च पशक्तिः षट्पटिसक्येति ॥७॥ महाप्रहाणामपि सर्वस्मिन्मनुष्यलोके सर्वसंख्यथा पिटकानि
(११) मथ प्रहाणां पक्तिस्वरूपमाहभवन्ति षट्षष्टिः । प्रहपिटकप्रमाणं च शशिद्वयसंबन्धिग्रहसं.
गवत्तरं गहाणं, पंतिसयं हवति मणुयसोयम्मि। स्वापरिमाणम् । तथा चाह-एकैकस्मिन् पिटके प्रहपिटके प्रवति षट्सप्ततिशतं षट्सप्तत्यधिक प्रदशतं, सप्तत्यधिक प्र..
गवढि छावडिं, च हदई इक्किक्किया पंती ॥ ७॥ हशतपरिमाणमेकैकं प्रदपिटकमिति । ततः पर्षाष्टसंख्या. ग्रहाणामकारकप्रभृतीनां सर्वसंख्यया मनुष्यलोक षट्सप्तत्य. भावनाच प्राधाकर्तव्या ॥५॥
धिकं शतं भवति,एकैका च पक्तिर्भवति पदधिषट्पष्टिग्रहसं. (१)प्रथ चन्छसर्याणां कियत्या पट्टयः, कथं च स्थिताः?, इत्याद- ज्या। अत्रापायं नावना- जम्बद्धापे दक्षिणताऽभागे एकस्य चत्तारि य पंत भो, चंदाइचाण मणुप्रलोयम्मि।
शशिनः परिवारनुता प्रकारकप्रभृतयोऽधाशीनिग्रहासरतो. गहि छाबहि, च हो एकिकिया पंती॥ ६॥
ऽर्द्धभागे द्वितीयस्य शशिनः परिवारभूता अनारकप्रभृतय ए.
पापाशीतिः। तत्र दकिणताऽभागे योऽकारनामा प्रहस्तरस. ( सत्तार य इत्यादि ) ह मनुष्यलोके चकाऽऽदिस्थानां पतयश्चतस्रो भवन्ति । तद्यथा-वे पक्ती च
मधेणिव्यवस्थिती दक्षिणभागे एव द्वापारको लबणसमुक, काणां सूर्याणाम, पकैका च पक्तिर्भवति षट्पष्टिः ।
पर धातकीखण्मे, एकविंशतिःकालोदे, पशिद अत्यन्तसूर्याऽऽदिसंख्या तद्भाबना चैवम-एकः किल सों
रएकरा, इति परष्टिः । गवं शेषा अपि सप्ताशीतिहा: पजम्बूद्वीपे मेरोदक्षिणभागे चारं वरन् धर्तते, एक उत्तरभागे,
तथा व्यवस्थिताः प्रत्येकं षट्पपिदितव्याः। पषमुत्सरतो. एकबन्धमा मेरोः पूर्वभागे. पकोऽपरजागे । तत्र यो मेरोदक्षि
प्यकंजागे अनारकप्रभृतीनामाशीतिप्रहाणां पतयः प्रत्येक
पट्पटिसंख्याका भावनीयाः, इति भवति सर्वसंख्यया ग्रहाभागे सूर्यचार चरन वर्तते तत्सम श्रेणिव्यवस्थिती हो दकि
णां षट्सप्तत्यधिकं पक्तियतम्, पकै का च पक्तिः षट्षष्टि- . भागे मूर्यो, अषणसमुद्र, षट् धातकीखएमे, एकविंशतिःका.
संण्याकेति ॥८॥ लोदे, षट्त्रिंशत् अभ्यन्सरपुष्करा, अस्यां सूर्यपत्ती षट्
(१२) अर्थतषां चबाऽऽदीनां भ्रमणस्वरूपमाहषष्टिः सूर्याः। योऽपि च मेरोहतरजागे व्यवस्थितः सूर्यधारंच. रन् यतते तस्यापि समश्रेण्या व्यवस्थितौ घाबुतरभागे मूर्यो
ते मेरुमणे चरती, पयाहिणाऽऽवत्तमंझना सब्ने । लवणसमुद्रे, धातकीखएमेषट्, एकविंशतिः कासोदे, पत्रिंश
भागवटियजोगेहि, चंदा सूरा गहगणा य || पभ्यन्तरपुष्कराति । मस्यामपि पक्ती सर्वसंख्यया पदधिः " मेरुमणुचरंति " इत्यादि । ते मनुष्यलोकवर्तिनः म सूर्याः। तथा यो मेरोः किन पूर्व भागे चारं चरन् वर्तते चन्द्रमा चन्द्राः,सर्वे सूर्याः.सर्वे च प्रहगणा.अनवस्थितैयथायोगमान्यतत्समधेणिव्यवस्थिती द्वौ पूर्वभाग एष चन्द्रमसौ सषणसमु. रस्यैन कत्रेण सहयोगरूपलकिता:(पयादिणाऽऽ मरमा इति)
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(१५६४) जोइसिय अनिधानराजेन्द्रः।
जोइसिय प्रकरण सर्वासु विक्षु विदिक च परि समन्ताच्चन्द्राऽऽदीनांद- वेद्यानि कर्माणि तानि नां तथाविधां विपाकसामग्रीमधिगम्य . किण एव मेरुर्भवति यस्मिन्नावतें मण्डलपरिभ्रमणरूपे म प्रद. विषाकं प्रतिपद्यन्ते, प्रतिपन्नविपाकानि च तानि शरीरनीरोगविणः,प्रदक्विण आवर्तमानो येषां ते तथा, मेहमनु लक्कीकृत्य | तासंपादनतो,धनवृकिकरणेन वा,बैरोपशमनतः, प्रियसंप्रयोग. चरन्ति । एतेनैतदुक्तं भवति-सूर्यादयःसमस्ता अपि मनुष्य- संपादनतो वा प्रारब्धाभीष्टप्रयोजननिष्पत्तिकरणतः सुखमनु. लोकवर्तिनः प्रदक्विणाऽवर्तमएलगत्या परिभ्रमन्तीति ॥६॥ जनयन्ति । अत एव मडीयांसः परमविवेकिनोऽक्ष्पमपि प्रयोजनं (१३) श्ह चन्द्राऽऽदित्यग्रहाणां मएमन्नानि अनवस्थितानि,य. नतिधिनकत्रमुहाऽऽदावारभन्ते, न तु यथाकपश्चन । यायोगमन्यास्मन्नन्यस्मिन् मण्डले तेषां संचारित्वात, नत्र- अत एव जिनानामप्याका प्रव्राजनाऽऽदिकमधिकत्ययमवतिष्ठतेताराणां तु मण्डलान्यवस्थितान्यव । तथा चाऽऽह
यथा सुनके शुभाऽऽदिदिशमभिमुखीकृत्य शुभ तिथिनका. पक्वत्ततारगाणं, अवहिता मंगला मुणेयचा । मुहूर्ताऽऽदी प्रवाजनबताऽऽरोपणाऽऽदि कर्तव्यं, नान्यथा।
तथा चोक्तं पञ्चवस्तुकेते नि य पदाहिणाऽऽव-त्तमेव मेरुं भणु चरेति ।।१०॥
"पसा जिणाणमाणा, सित्ताईयां य कम्मुजो जणिया। "णक्यत" इत्यादि । नत्राणां तारकाणां च मण्डलाम्यवस्थितानिशातम्यानि। किमुक भवति ?-पाका प्रतिनियत.
नदवाइकारणं जं, तम्हा सञ्चत्य जश्यव्यं " ॥१॥
अस्या भक्करगमनिका-एषा जिनानामाका-यथा शुभके शुन मेकैकं नत्राणां तारकाणां च प्रत्यक मणमामिति । न चत्थमनवस्थितमाममत्वोक्तावेवमाशङ्कनीयम-ययतेषां गतिरेव
दिशमभिमुखीकृत्य शुभे तिथिनक्कत्रमुहर्ताऽऽदौ प्रवाजनवता मजवतीति । यत माह-"ते बिय" इत्यादि । तान्यपि-नक
रोपणाऽऽदि कर्तव्यं, नान्यथा। अपि च-केत्राऽऽदयोऽपि कर्मप्रालि, तारकाणि च । सूत्र पुंस्त्वनिर्देशः प्राकृतम्बात् । प्रद
णामुदयाऽऽदिकारणं भगवदभिरुक्ताः,ततोऽभव्यकेत्राऽऽदिकिणाऽऽधर्नमेन, इत्थं क्रियाविशेषणं, मेरुमनुलतीकस्य चर.
सामग्री प्राप्य कदाचिदशुभवेद्यानि कर्माणि विपाकं गत्यावय न्ति । एतच्च मेलं लकाकृत्य प्रदक्षिणावर्त, तेषां चरणं
मासादयेयुः,सदुदये च गृहीतवतभनाऽऽदिदोषप्रसङ्गः । शुभकप्रत्यकत एवोपलक्ष्यत इति समवादि ॥१०॥
व्यक्तमाऽऽदिसामध्यांतु प्रायो नाशुभकर्मविपाकसंभव इति नि. (१४) भय चन्द्रयोमएमलस्यानार्द्धमधश्च संक्रमणप
विघ्नं सामायिकपरिपालनाऽऽदि। तस्मादवश्यं छमस्येन सर्वत्रशुििनषेधमाह
भक्षेत्राऽऽदौयतिव्यम्। ये तु भगवन्तोऽतिशपिनस्तेऽतिशयबनारयणिकरदिणकराणं, नई व अहेव संकमो नऽत्यि ।।
देव निर्विघ्नं सविघ्नं वा सम्यगधिगच्छन्ति, ततो न शुनतिथि
मुहर्ताऽऽदिकमपेकन्ते इति न तन्मार्गानुसरणं उमस्थानांन्यायम। मंडलसंकमणं. पुण, सम्नंतरबाहिरं तिरिए॥ ११ ॥
तेन थे परममुनिपर्युपाप्सितप्रवचनविरम्बका अपरिमितजिन"रोणकर " इत्यादि । रजनीकदिनकराणां चादि. शासनोपनिषद्तूतशालगुरुपरम्परापोतनिरवधविशवकालोचि. स्यानामधश्च संक्रमो न भवति, तथा जगत्स्वाभाब्यात ।
नसामाचारीप्रतिपन्धिनः स्वमतिकलियतसामाचारीका अभिदतिय पुनर्मामले लंकरणं जवति । किविशिष्टर, इत्याह
धति-यथा न प्रवाजनाऽऽदिषु शुन्नतिथिनक्कत्राऽऽदिनिरीक्कर्ष साभ्यन्तरवाहम, अज्यन्तरं च बाह्यमभ्यन्तरबाघ, सहाय
कर्तव्यं, न खाजगवान् जगत्स्वामी प्रवाजनायोपस्थितेषु शुनस्तरं बाहान वर्गत इति साभ्यन्तरबाह्यम् । एतदुक्तं भवति- तिध्यादिनिरीकणं कृतबानिति । ते भपास्ता द्रष्टव्याः ॥१२॥ सामानराम्मपत्रात्परतस्ताबमण्डलेषु संक्रमणं यावत्स- (१६) अथ चन्छसूर्याणां केन प्रकारेण प्रकाश क्षेत्रं बर्द्धते, बाह्य मण्डलं, सर्वबाह्याच मामलार्वाक तावन्मपडलेषु
कथं च होयते, तदाहसंक्रमणं यावत्सर्वाऽऽज्यन्तरमिति ॥१९॥
तेसिं पविसंताणं, तावकवेत्तं तु वकृते णिययं । (१५) रयणिकरदिणकराणं, एक्खत्ताणं महागहाणं च ।
तेण य कम्मेण पुणो, परिहायति निक्खमंताणं ॥१३॥ चारविसेसेण जवे, सुहदुक्ख विधी मणुस्माणं ॥१॥ 'तसिं' इत्यादि । तेषां सूर्याचमसां सर्वबाह्यान्मामलादम्पत • रयणिकर ' इत्यादि । रजनीकरदिनकराणां चलाss. रंप्रविशतांतापक्षेत्र प्रतिदिवसं क्रमेण नियमादायामतो वईते, दित्यानां, मत्राणां च, महाग्रहाणां च चारविशेषण तेन येन च क्रमेण परिबर्द्धते तेनैव क्रमेण सर्वाभ्यन्तरान्मएडनादव. तेन चारेण सुखदुःखविधयो मनुष्याणां जयन्ति । त- हिनिष्कामतां परिहीयते । तथाहि सर्वबाह्ये मराफले चारं चरतां पाहि-द्विविधानि सन्ति सदा मनुष्याणां कारिख । सूर्याचन्डमसा प्रत्येकं जम्बूद्वीपचक्रवालस्य दशधा प्रविनक्तस्य तबधा-भवेद्यानि, अशुभवेद्यानि च । कर्मणां मामान्य- |
द्वौद्वी भागो तापक्केत्र, ततः सूर्यस्यात्यन्तरं प्रविशतःप्रतिमएमतो विपाहतवः पञ्च । तयधा-व्यं, केत्र, कालो, भवो, जा. संपएचधिकषट्त्रिंशतप्रविभक्तस्य द्वौ द्वौ भागौ तापक्षेत्रस्य पश्च। उक्तं च-" उदयलयन उवयमा-वसमा जं च कम्म- वर्द्धते, चन्द्रमसस्तु मामलेषु प्रत्येक पौर्णमासीसंभवे क्रमेख णो भामिया । दन्छ खतं कालं, नवं च भावं च संपप्प"॥१॥ प्रतिमयमलं पविशतिर्भागाः,सप्तविंशतितमस्य च एक-सप्तअनकर्मणां प्रायःशुनयद्यानां कर्म गां शुभद्रध्यकेत्राऽऽदिसामग्री भाग इति बर्वते । एवं च क्रमेण प्रतिमा डलमनिवृक्षो यदा स. विपाकंतुः,असुनवद्यानाम गुजहन्यकेत्रादिसामानतो यदा ज्यन्तरे मरामले चार चरतः,तदा प्रत्येकं जम्बूद्वीपचवालबेवां जन्मन कत्रादिविरोधी चन्सर्यादीनां चारो जवति, स्य त्रयः परिपूर्णा दश भागास्ताप केलं, ततः पुनरपि सर्वायत. तदा तेषां प्राया यान्यशुनवेद्यानि कर्माणितानि तां तथाविध. रमण्डवाद बहिनिकमणे सूर्यस्य प्रतिमण्डलं बटवधिकषटविपाकसामग्री मवाप्य विपाकमायान्ति,विपाकमागतानि शरी- त्रिशच्छनप्रविजक्तस्य जम्बूद्वीपचलयालस्य द्वौ द्वौ भागो परिररोगोत्पादनेन, धनहानिकरग्यतो वा, प्रियविप्रयोगजनेन बा, | डीयते, चन्द्रमसस्तु नएडवेषु प्रत्येक पौर्णमासीसंभवक्रमेण कलहसंपादनतो वा दुःख मुम्पादयन्ति । यदा च एव जम्मन- | प्रतिम एडलं पधिशात गाः, सप्तविंशतितमस्य च भागस्य कत्रातुनचादीनां चारस्तदा ते प्रायो यानि शुभ-। एक सप्तनाग इति ।
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जोइसिय
अभिधानराजेन्द्रः ।
जोइमिय
[१७] तसिं कलंबुयापु-फसंहिता हुंति ताववेत्तमहा। कृताः सन्तः (पाइल्सचंदसहित त्ति) उहिएचयुक्ताः तद् भंतो असंकुमा बा-हिवित्यहा चंदसूराणं ॥ १४ ॥
द्वीपात समुद्राद्वाप्राक जम्बूद्धीपमादिं कृत्वा ये प्राक्तनाश्चन्छा
ने आदिमचनका दिमचन्द्रः, उपलकणमेतत्-मादिमस्. (तेसिमित्यादि)नेषां चन्छसूर्याणां तापक्षेत्रमुखाः कलम्बुका पुष्प
फैश्च सहिता यावन्तो भवन्ति । एतावत्प्रमागा अनन्तरं कालोसंस्थिता नाझिकापुष्पाऽऽकारा भवन्ति । एतदेव व्याचष्टे अन्त
दाऽऽदोभवन्ति । तत्र धातकीखरामेद्वीपेनद्दिष्टाः चन्द्रा द्वादशते मेंरुदिशि संकुचिताः, पहिलवणदिशि विस्तृताः। एतच्च प्रागेव
त्रिगुणाः क्रियन्ते.जाता: पत्रिंशत् । श्रादिमचनकाः षट् । तद्यथाचतुर्थे प्रानते भावितमिति न तूयोनाव्यते। म०प्र०१६ पाहु।
द्वौ चन्छौ जम्बोपे, नत्वारोपणसमु। पौरादिमचन्दः जी०। मं०।०प०। ('तावक्खेत्त' शब्दे चैतद् इष्टव्यम्)
सहिता द्वाचत्वारिंशद्भवन्ति। एतावन्त: कासोदेममुचला। [20] अंतो मणस्सखेत्ते, हवंति चारोवगा तु ववमा । एष एव करणविधिः सूर्याणामपि । तन सूपी अपि तंत्रतावन्तो पंचविहा जोतिसिया, चंदा सूरा गहगणा य ॥२०॥
बेदिनन्याः। तथा कासोदे समुद्र द्विचत्वारिंशचन्छमस नदियाः,
ते त्रिगुणाः क्रियते, जानं पविशं शतम | आदिमचम्मा - अन्तर्मध्ये मनुष्य केत्रे मनुष्यकेत्रस्य, पञ्चविधा ज्योतिषकाः।त.
हादश तद्यथा-द्वी जम्बनी, चन्यारो लवणसमकेद्वादशधापथा-चन्द्रा, सूर्याः, प्रहगणाः, चशम्दानकत्राणि, तारकाच,
तकोखराम। पौरादिमचन्ः महितं पत्रिंशत,जातं चतुश्चत्वाभवन्ति चारोपगाश्चारयुक्ताः ॥५०॥
रिंशं शतम् । एतावन्तः पुष्करवरही चहाः, एतायन्त पष तेण परं जे सेसा, चंदाइचगहतारणक्खत्ता ।
सर्वाः । एवं सर्वपि द्वीपसमदेवतत्करणवशाच्चसंम्पा णत्यि गती ण विचारो, अवहिता ते मुणेयन्वा ॥१॥प्रतिपत्तव्या । सेनेति प्राकृतत्वात् पञ्चम्यर्थे तृतीया । ततो मनुष्यवेत्रात्परं
(२०) संप्रति प्रतिद्वीप प्रतिसमुहं च ग्रहनक्षत्रतारापरिबानि शेषाणि चन्छाऽऽदित्यग्रहतारानक्कत्राणि चाऽदित्य
__माणपरिज्ञानोपायमाहब्रहतारानवत्रविमानानि सूत्रे पुंस्त्वनिर्देशः प्राकृतत्वात् । तेषां
रिक्वग्गहतारगं, दीवस मुद्दे जत्यिकृसि गाउं । नास्ति गतिन तस्मात् स्थानाञ्चलनं, नापि चारो मराफलगत्या तस्म ससिहिं तु गुणितं, रिक्खग्गहतारगम्गं तु ॥२५॥ परिजम, किं त्ववस्थितान्येव तानि ज्ञातव्यानि ॥२१॥ भत्र प्रशम्दः परिमाणवाची, यत्र पे समुद्रे वा नक्षत्र(१६) एवं जंबुद्दी, मुगुणा लवणे चउग्गुणा हुंति। परिमाणं ग्रहपरिमाण तारापरिमाणं वा सातुमिच्छसि तस्व लावणगा य तिगणिता, ससिसूरा धायईसंडे ॥ ॥
द्वीपस्य समुस्य वा संबन्धिभिः शशितिः, एका शशिन:
रिवारभूतं नक्षत्रपरिमाणं प्रहपरिमाणं तारापरिमाणं च गुणि. (एवं जंबुद्द।वे इत्यादि) एवं सति एकैकश्चन्द्रसयों जम्बूद्वीपे तं सत् यावद्भवति, तावत्प्रमाणं तत्र द्वीप समुझे या नत्रपविगुणो.नवति।किमुक्तं भवति ?-द्वौ चम्मसौ द्वौ सूयौं च जं. रिमाणं ग्रहपरिमाणं तारापरिमाण मिति । यथा सवणसमुकं किम्बूद्वापे,लवणसमुझे तावेकेको सूर्याचन्जमसौ चतुगुणौ भवतः,
ल नत्राणां परिमाणं ज्ञातुमिष्ठं, सचणसमुंद्र च शशिनश्चत्वाचत्वारश्चन्जाः, चत्वारश्च सूर्या लवणसमुद्र भवन्तीति भावः ।
रसतत एकम्य शशिनः परिवारजूतानि याम्यष्टाविंशतिनकत्रालावणिकाः लवणसमुदभवाः शशिसूरात्रिगुणिता धातकी-।
शिलराखिगुणता धातका- णि तानि चतुर्मिगुएवम्ते, जातं द्वादशोसरं शतं, सायन्ति लथ. बगहे भवन्ति, द्वादश चन्छौः, द्वादश सूर्या धातकी खण्ड | णसमुफे नवनाणि । तथा मष्टाशीतिघेहा एकस्य शशिनः परिजवन्तीत्यर्थः ।।२२।।
वारजूताः, ते चतुर्भिर्गुपयन्ते, जातानि श्रोणि शतानि द्विपदो चंदा इह दीवे, चत्तारि य मायरे लवणतोए । श्वाशदधिकानि ३५२ । तावन्तोनवणसमटे ग्रहाः। तथा एकस्य धातडसंह दीवे, वारस चंदा य सूरा य ॥ २३ ॥
शशिनः परिवारभूतानि तारागणकोट कोटानां षट्पष्टिः सहधातासंढप्पनिती-उठिा तिनुणिता नवे चंदा।।
नाणि नवशतानि पञ्चसप्तत्याधेकानि, तानि चतुर्मिगुराबन्त,
जातानि कोटाकोटीनां द्वे के सप्तपष्टिसहस्राणि नव शनानि आदिशचंदमहिता, अणंतराऽयंतरक्खेत्ते ॥ २४॥ . २६७९०००००000000000001 एतावत्यो अषणसमनाराग"दो चंदा" इत्यादि सुगमम् । " धायइसक" इत्यादि । ण कोटा कोटयः एवंरूपाचनत्रादीनां संख्या प्रागेयोक्ता । एवं धातकीखरामः प्रतृतिरादियेषां ते धातकीखगप्रतयः, तेषु सध्यपि द्वीपसमुनघाउदिसंख्यापरिमाणं परिभावनी. धातकीख रामप्र नृतिषु द्वीपेषु समुद्रेषु च ये वहिपाश्चमा द्वा. यम। 'यशादयः । उपलकणमेतत-सूर्या घा, ते त्रिगुण नास्त्रिगुणी-- तत्सद्द्वीपममुर्निग्रहाऽऽनिरुपा यत्रकादवधारयांनाम | चरू | संयं । प्रह नक्षत्र
तारा जम्बूद्वीप २ । १५६
१३३५00000000000०००० बयणसमुह ४ : ३५२
२६७००००००००००००००००० धातकीखाक
८.३७०००००००००000000000 कालोदसमुख
३६५६
२८१२९५०००००००००००००००० पुरुकरवरद्वीप १४४ १४४
४०३२ ए६४४४०००००००००००००००००० सर्वसंख्या २१४ । २०४ १७५५३
ए७५६८५१०००००००००००0000000
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(१५ ) जोइसिय माभिधानराजेन्ः।
जोइसिय (२१) पहिता तु माणुसनग-स्स चंदमूराणऽवहिता तेश्रा। किट्ठमीहणादबालकलकलरवेणं अच्छे पच्चतरायं पदा
चंदा अभिया जुत्ता, सूरा पुण हुँति पुस्सेहिं ॥२६॥ | हिणावत्तं मंगलचारं मेरुं अणु परिय९ति । "बहिता" इत्यादि । मानुषनगस्य मानुषोत्तरपर्वतस्य बहि. "अठासीतिंच गहा" इत्यादि गाथाद्वयं निगदसिकम् । तातो अन्द्रसूर्याणां तेजांसि अवस्थितानि भवन्ति । किमुक्तं भवति?- मणुस्सस्नेत्ते" इत्यादि। अन्तर्मनुष्यकेत्रस्य ये चा सूर्यग्रहगसूर्याः सदैवानयुष्णं तेजसा, न तु जातुचिदपि मनुष्यलोक णनक्षत्रतारारूपा देवास्ते किमूोपपन्नाः सौधर्माऽऽदिच्या द्वाप्रीष्मकाल वायुष्णतेजसः। चन्द्रमसोऽपि सर्वदेवानतिशीत- दशभ्यः कल्पेज्य कदमुपपन्नाः?,कल्पेषु सौधाऽऽदिषु उपप. लेश्याकाः, न तु कदाचनाप्यन्तर्मनुष्यक्षेत्रस्य शिशिरकाल नाः कल्पोपपन्नाः?, विमानेषु सामान्येषूपपन्ना विमानापपनाः?, स्वातिशीततेजसः । तथा मनुष्यकेत्राद बहिः सर्वेऽपि चन्याः चारो मएमलगत्या परिभ्रमणं,तमुपपन्ना भाश्रिताश्वारोपपत्रा?, सर्वदेवाजिजिता नक्षत्रेण युक्ताः,सूर्याः पुनर्भवन्ति पुष्येण युक्ता
चारस्य यथोक्तरूपस्य स्थितिरभाचो येषां ने चारस्थितिका?, इति ।।२६।। सू०प्र०१६ पाहु०। (चसर्याणां चन्छचन्हाणां
अपगतचारा इत्यर्थः। गतौ रतिरासक्तिः प्रीतिर्यपां ते गतिरतितथा सूर्यसूर्याणां च परस्परमन्तरपरिमाणप्रतिपादनम् 'अं
काः। पतेन गतौ रतिमात्रमुक्तम् । संप्रति सावादगति प्रश्न यति. तर' शम्दे प्रथमभागे ६६ पृष्ठे गतम)
गतिसमापना गतियुक्ताः। एवं प्रश्ने कृते भगवानाह-"ता ते णं (२२) संप्रति बहिश्चन्द्रसूर्याणां परक्यवस्थानमाह
देवा" इत्यादि । 'ता' इति पूर्ववत् । ते चाऽऽदयो दवा नोद्धोंपपना:नाऽपि कल्पोपपन्नाः,
किंतु विमानोपपन्ना, बारोपपन्नासूरंतरिया चंदा, चंदंतरिया यदिण यरा दित्ता।
भारसहिताः, नो चागस्थितिकाः, तथा स्वभावतोऽधिगतिरतिचित्तरलेसागा, सुहलेसा मंदक्षेसा य ।। २५ ॥ काः, साकारुतियुक्ताच, ऊर्द्धमुखाकृतकसम्बुकापुष्पसंस्थान(सरंतरिय सि) नृलोकाद् यहिः परक्या स्थिताः सूर्यान्तरिता
संस्थितयोंजनसाहनिकैरनेकयोजनलहरप्रमाणेस्तावकरसाभन्द्राम्यबान्तरितादिनकराः दीप्ताः दीप्यन्ते स्म,दीप्ता नास्वरा
हनिकाभिग्नकसहनल्याभिर्बाह्यानिः पर्षद्भिः । अत्र बहुइत्यर्थः । कथंभूतास्ते चन्छसूर्याः ?,इत्याद-चित्रान्तरलेश्याकाः
वचनं व्यक्यपेकया, वेकुर्विकाभिषिकुर्वितनामारूपधारिणीभिः, चित्रमन्तर मेश्या सप्रकाशरूपा येषां ते तथा,तत्रचित्रमन्तरंच.
महता रणति योगः। अहतानि अज्ञतानि,अनघानीत्यर्थः। यानि न्द्राणां सूर्यास्तरितत्वात्. सूर्याणां चबान्तरितत्वात् चित्रश्लेश्या
नाट्यानि गीतानि वादित्राणि च,याश्च तन्न्यां बीणा,ये च तल.' चन्द्रमसांशीनरहिमत्वात् सूर्याणामुष्णरश्मित्वात् । लेश्याविश
ताला हस्ततालाः,यानि च त्रुटितानि शेषाणि तूर्यागि,ये च घ. पप्रदर्शनार्थमाह-(सुहलेसा मंदलेसा यत्ति) सुखं लश्याश्व
माघनाकारा ध्वनिसाधात् पटुप्रवादिता निपुणपुरुषप्रवादिता द्रमलो,न शीतकाले मनुष्यलोक श्वास्यन्तशीतरवमय इत्यर्थः ।
मृदङ्गा,तयां रवण, तथा स्वभावतो गतिरतिकै खपर्षदन्तग. मन्दलेश्याः पर्याः,न तु मनुष्यलोके निदाघसमये श्व एकान्तत
तैर्देवेवेंगन गच्चसु विमानेषु उत्कृष्त उत्कर्षवशेन यो मुच्यते उष्णयमय इत्यर्थः। माद च तस्वार्थीकाकारो हरिभजसरिः
सिंहनादो, यश्व क्रियते बालो नाम मुख हस्तं दत्वा महता श. मास्यन्तशीतामसो, नात्यन्तोष्णाः , किंतु साधा
दन फुकरण, यश्च कलकलो व्याकुलशब्दसमूहस्तद्रवेण, मेंरएयं प्योरपीति ॥२६॥
मिति योगः। किविशिम, इत्याह-अच्छमताव स्वच्छमति.
निर्मल जाम्बूनदरत्नबहुलत्वात्, पर्वतराज पर्वतेन्झ, प्रदक्षिणा(२३) रहेवमुक्तं यत्र द्वीपे समुकेवा नक्षत्राऽऽविपरिमाणं वर्स मामलचारं यथा नवति तथा मरुमनु सकीकृत्य 'परिय. तुमिष्यते तत्र एकशशिपरिवारजूसनक्वत्रादिपरिमाणं इंति' पर्यटन्ति । सू० प्र० १६ पाहु०।०प्र० । जी। साबक्षिः शशिभिर्गुणयितव्यभिति। तत एकश.
(बाह्यज्योतिष्कदेवेन्द्रस्थानम 'दहाण' शम्दे द्वितीयभागे शिपरिवारभूतानां प्रहाऽऽदीनां संख्यामाह
५३५ पृष्ठ गतम) प्रवासीतिं च गहा, अट्ठावीसं च हुंति नक्वत्ता। तापहिया णं मणुस्सखेत्तम जे चंदिममरियगा. आव एगससीपरिवारो, इत्तो ताराण बोच्छामि ॥२०॥ - तारारूवा ते गं देवा किं उचिवएणगा, कप्पोवबएणगा, गवहि सहस्साई, एव चेव सता पंचसयराई। विमायोववामगा, चारांववएणगा, चारद्वितिया, गतिरएगससीपरिवारो,तारागणकोमिकोमीणं ॥३१॥ तिया, गतिसमावएणगा ? । ता ते णं देवा णी उछोवत्रता मंतोमणुस्सक्खेते जे चंदिममूरियगहगणणखत्तता- छगा, णो कप्पावबएणगा, विमाणोचवएणगा, जो रारूवा, ते ण देवा किं नुहोववभागा,कापावयाचगा,विमाणो- चारोववएएगा, चारद्वितिया, पो गइया, णो गतिबवामगा, चारोववलगा, चारद्वितिया, गतिरातिया, गतिस- समावएणमा पकिटनगणसंवितेहिं जोयएमतमाहस्साए. मावामगा। ता ते णं देवा हो नछोपवलगा, को कप्पो- हिताववेत्तेहिं सतसाहस्सियाहिं बाहिराहिं वेचनियाहिं बवझगा, विमाणोववमगा, चारोववस्मगाणो चारद्वितीया.. परिसाहिं महताऽतनहनीयवाश्य. जाघरवणं दिवाई गहरक्ष्या, गतिसमावमगा उहीमहकमंबुआपुप्फतंगण- नौगजोगाई जमाणे विहरति,सुहलेस्मा मंदलस्सा [मंदा. संवितेहिं जोणसहस्सीएहि तावखेत्तेहिं साहस्सिमा- तपनेसा] चित्तरक्षेसा असोएणसमागाढाहिं अम्माहिं कूमा हिं बाहिराहिं वे उब्धियाहिं परिसादि महताऽहतणगी- व गणहिता ते पदेसे सम्बतो समंता अोजासंति, नमो. वाइयतेतीवलतालमियघणमहंगपाप्पयाइयरवेणं माता ति. तति, पनासेंति, ता सिंदेवाणं जाहे इंदा चयंति
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जोइसिय
से कहमिदाणिं पकरेंति, ता० जात्र चत्तारि पंच सामाशिया देवा तं ठाणं तदेव० जाव छम्मासे ।
( १५३७ ) अभिधानराजेन्द्र : ।
" ता बहिया णं " इत्यादि प्रश्नसूत्रमिदं प्राग्वद् व्यास्येयम् । भगवानाह - "ता ते णं" इत्यादि । 'ता' इति पूर्ववत् । ते मनुष्य क्षे
डिदियो ईषा नोपपपप किं तु विमापा तथा नो चारोपपत्राचारयुका कि तु खारस्थितिकाः। व्रत पत्र नो गतिरतयो, नापि गतिसमापनकाः, पकेटका संस्थान संस्थितिभियोजनशतसाहस्रिकैरातपक्षेत्र यथा पटका म्रायामतो दीर्घा प्रवति, विस्तारतस्तु स्तोका, चतुरस्रा
, तथा तेषामपि मनुष्य के श्राद्वहिर्व्यवस्थितानां चन्द्रसूर्याणामातपक्षेत्राण्यायामतोऽनेक योजनशतसहस्रप्रमाणानि, विस्तरत एक योजनशतसहस्राणि चतुरस्राणि चेति । तैरिश्यंभूतैरातपक्षे
साहसिकाभिरनेकसहस्रक्यानिर्वाद्याभिः पद्धि.. बहुव्यक्त्यपेक्षया मतेत्यादि पूर्ववत् दिवि भवान् दियान, भोगान् जोगान् शब्दाऽमाना विरह कविशेषचन्द्र किंतु परमा
इत्यर्थः । मन्दा लेश्या रश्मिसंघातो येषां ते तथा । कथंभूताअादिवा, इत्या येषां ते तथा 1. भावार्थश्चास्य पदस्य प्रागेवापदर्शिसतत भूतान्दाऽऽदित्या परस्परमवगादाभिश्याम ताहि-चन्द्रमां प्रत्येकं श्या योजनामा विस्तारयन्द्रसूर्याणां च सूचीप
क्या व्यवस्थितानां परस्परमन्तरं पञ्चाशयोजन इस्राणि प्रभाःसूर्य, सूप्रभाि अन्प्रजाः इत्थं परस्परमवगाढ. मिश्याजिः कूटानि च पर्व तोपरि व्यवस्थितशिखराणीय स्थानस्थिता सदैव एकत्र स्थान स्थिताः तान् प्रदेशान् स्वस्वप्रत्यासन्नान् अवभासयन्ति, उद्योत व्यक्ति, तापयन्ति, प्रकाशयन्ति। "ता सिं गं जाहे इंदे खयंति" ह स्वादि प्राम्यद् व्याक्येयम । सू० प्र०१७ पाडू० । जी० । चं०प्र० । २४) संप्रतिपश्वनोपपाती ब
.
द्विषयं सूत्रमाद
ता कईसे चोदा भाहिए ति बदेखा ? तत्थ खलु इमाम पनवी परिवओो पछताओ तत्य - मासु वा समयमेव चेदिमसूरिया अशे पर्यति, अच्छे सबबजंति, हियति वएज्जा, एगे एवमाहंसु । एगे गुणमाचमेव बंदिमसूरिया अप यंति, अछे उबवजंति, आहिय चि वज्जा, एगे एमाहंस जहेब ढेडा तदेव० जाव ता एगे पुण एवमादंसु'ता भाओसपिणी उस्सप्पिणीमेव चंदिमसूरिया अच्छे चयंति, अच्छे उबवति, एगे एकमासु । वयं पुण एवं बदामो-ता बंदिमसूरिया णं देवा महिडिया महाजुईया महाबला महाजसा महासोक्खा महाणुजावा बरबस्थमाघरा वरगंधधरा बराभरणभारं प्रयोविनिणयआप अझे चयंति, अछे उबवज्जंति, आहिय ति वएज्जा । "ता कहं से" इत्यादि । 'ता' इति पूर्ववद् कथं केन प्रकारेण
४००
जोइसिय
नगवन् ! त्वया चन्द्रादीनां व्यवनोपपानी व्याख्यानाविति देश ? सूत्रे द्वित्वेऽपि बहुवचनं प्राकृतत्वात् । खलं व "बहुवयण दुषणं " इति । एवं प्रक्षे कृते जगवानेतद्वषये याचन्त्यः प्रतिपत्तयः सन्ति तावतीरुपदर्शयति-" तत्थ्" इत्यादि । तत्र च्यवनपपातविषये खल्विमा बयमाणस्वरूपाः पञ्चविंशतिः प्रतिपत्तयः परतीर्थिकाम्युपगमरूपाः प्रकृप्ताः । तद्यथा-"तस्थे गे" इत्यादि । तेषां पञ्चविंशतिपरतीर्थिकानां मध्ये एके परतीर्थिक एवमाहु:-'ता' इति । तेषां प्रथमं स्वशिष्यं प्रत्यनेकवक्रम्य तोपक्रमेकमाम मनुसमयमेव चन्द्रसूर्या अन्ये पूर्वोत्पाश्च्यवन्ते च्यवमानाः अन्ये अपूर्व उत्पद्यन्ते उ त्पद्यमाना माझ्याता इति वदेत्। अत्रोपसंहारमाह-'ता' एके दवमाडु के पुनरेषामनुमेवन्द्रसम्पू त्पन्नाश्च्यवन्ते च्यवमानाः अन्येऽपूर्वा उत्पद्यन्ते उत्पद्यमाना आख्याता इति वदेत् । उपसंहारमाद" एगे एवमादसु जहा हिडा तहेव जाव" इत्यादि । पत्रमुक्तेन प्रकारेण यथा अधस्तात् षष्ठे प्रानृते भोजः संस्थितौ चिम्यमानायां पञ्चविंशतिप्र तिपचय उक्तास्तथैवात्रापि वक्तव्याः । ता अग्रोसप्पिस्विणिमेव" इत्यादि षम्भि "एगे पुण एवमाहंसु-ता भराईदियमेव चंदिमसुरिया अ खयंति, मने उचदजंति, आदिया इति वरजा, एगे एवमाहंसु ३ पुराएमा सामुपमेव बंदिमसूरिया अति उपचरति चाहिया इति बजाएंगे पक्षमा ४ प पुण माता मंदिरय उववज्रंति, आहियति वपन्जा, एगे पवमा हंसु शारगे पुण एवमासुमेरिया
हिजा एवं अयमेव ॥ अमेागमेषामेव १० । ता अणुवाससहरसमेव ११ ता प्रवास सय सदस्समेव १२ पुष्यमे १३ ता अयमेव १४मे १५ तास
ता
पलिचोयममेव १७ ता अनुपलिभोषमसयमेव १८ । ता अलिमोहरसमेव १६ सासइसमे २०|ता अणुसागरोषममेव २१ । ता असागरोपमसमे २२ तासागरीयसहस्वमेव २३बमसयस दस्तमेव २४ ।” पञ्चविंशतितमप्रतिपत्तिस्तु साकादेव सूत्रकृता दर्शितम्। तदेवमुक्ताः परंतीर्थिकप्रतिपत्तयः । पताश्च सर्वा अपि मिथ्यारूपाः। तत एताभ्यः पृथग्भूतं स्वमतं भगवानुपदर्शयत"" इत्यादि
लाना एवं वक्ष्यमाणेन प्रामः । तमेव प्रकारमाह"ता बंदिम" इत्यादि । 'ता' इति पूर्ववत् । चन्सूर्याः, जमिति
महम
दिकायेषां ते तथा तथा महीतिः
येषां ते महाद्युतयः तथा महद् बलं शारीरप्रमाणं येषां ते महाबला तथा म विगत वि यशः श्लाघा येषां ते महायशसः । तथा महान् भवनपतिभ्यन्तरेयो अंतभूर्त तथा तेषां प्रशान्तस्यायं येषां ते महासौक्याः, तथा महान् अनुभावो बैक्रियकरणाऽऽदिविषयोऽचिन्त्यः शक्तिविशेषो येषां ते महानुभावाः । वर
माल्यधरा बरगन्धधरा बराऽऽभरणधरा अव्यवि नयार्थतया यातिकनयमतेन कामं वच्यमाणप्रमाणं स्वस्था
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( १४६८ ) प्रनिधानराजेन्द्रः ।
मोइसिय
बावच्छेदे, अन्बे पूर्वोत्पाव्यबन्ते यवमानाः अन्ये तथा जगत्स्वाभावात् परमासादारतो नियमतत्पद्यन्ते उत्पद्यमाना आस्थाता इति वदेत् स्वशिष्येभ्यः । सू० प्र० १७ पा० । [२५] ताक्स्वरवदे णं समुदे केवतिया चंदा पजासेंसु बापभानंति वा, पभासिस्संति वा पुच्छा तहेव ? ता पुक्खर रोदे णं समुद्दे णं संखेज्जा चंदा पजार्सेसु वा, पनासंति बा, प्रभासस्मति बा० जान संखेज्जाओ तारागणको किकोकोभिसुवा, सोनंति वा, सोनिस्संति वा । एते अभिलावेणं वरुणवरे दीवे बरुणोदे समुद्दे ४, खीरबरे दीघे स्व.रोदे समुद्दे ए, घतवरे दीवे घतोदे स मुद्दे ६, खोलवर दीवे खोतोदे समुद्दे ७, नंदिस्वरे दी दसरवरे समुदे अरुणे दीत्रे अरुणोदे समुद्दे ६, अरुण रे दीने अरुणवरे समुद्द १०, अरुणवरोवभाने दी अरुण रोवभासे समुद्दे ११, कुंमचे दीवे कुंमलोदे समुद्दे १२, कुंरुझवरे दीने कुंमलबरोदे समुद्दे १२, कुंमन्नवरोवनासे दीवे कुंमलबरोबभाने समुद्दे १४, सन्धेसि विकभपरिकखेत्र जोतिसाई पुक्खरोदसागरमरिसाई ।
" सम्बेसि" इत्यादि । सर्वेषामुक्तस्वरूपाणां समुद्रानामन्यत् कुएकलवरावभासममुद्रपर्यन्तानां विष्कम्भपरिक्षेपज्योतिषाणि पुष्करोदसागर सदृशानि च वकन्यानि सङ्ख्येयां जनप्रमाणो विष्कस्नः सङ्ख्ये व याजनप्रमाणः परिकेपः, सस्येवाचाऽऽस्यां वक्तव्या इत्यर्थः सू० प्र०१६ पाहु० चं०प्र० ।
ता रुपगे णं दीत्रे केवतिया चंदा पजानेंसु वा पनानंति या पभासिस्ति वा पुच्छा ? । ता रुपगे णं असं खेज्जाई चंदा पजासेंमुवा, पभासंति वा, पजासिस्मति बा० जान अखेज्जाश्रो तारागण कोमिकोमीओ सोभं मोर्भिसुवा, सोभंति वा, सोभिस्तंति वा, एवं रूपगे समुद्दे, रुगगवरे दीने, रुयगबरोदे समुदे, रुयगव रोवजासे दीवे, रुयगवरोव जासे समुद्दे, एवं तपोबारां ऐतबा० जाव सूरे दीने, सूरोदे समुद्दे, सूरवरे दीवे, सूरवरे समुद्दे, सूरबरोत्रजासे दीवे, सूरवरोव भासे समुदे, सव्वेति विक्खनपरिक खेत्रज्जोखिसाई रुयग वरदीवसरिसाई ॥
"सब्वेसिं" इत्यादि । सर्वेषां रुचकसमुद्राऽऽदीनां सूर्यवरा बभाससमुद्रपर्यन्तानां विष्कम्न परिकेपज्योतिषाणि रुचकदीपलानि वक्तव्यानि, असंख्येययोजनप्रमाणो विष्कम्नोऽसंस्पेययाजनप्रमाणः परिके पोऽसंख्ययाः प्रत्येकं चन्द्रसूर्यग्रदनचत्रतारका बक्तया इति भावः । सु० प्र० १० पाहु० | चं०प्र० ।
ता देवे णंदीचे केवतिया चंदा पचासेंसु वा, पचासंति वा, भास्सिंति वा पुच्छा तदेव ? | ता देवे . दवे असंखेज्जा चंदा पचासे वा, पनासंति वा, पजासिस्संति बा० जाव असंखेज्जाओ तारागण कोटिकोम । ओ सोभं सोर्जेसुवा, सोभति वा, सोजिस्संति वा । एवं देवोदे स मुद्दे, [गे दांत्रे, प्यागोदे समुद्दे, जक्खे दीवे, चक्खांदे समुद्दे
For Private
जोइसिय
नृते दी, भूतोदे समुद्दे, सयंनूरमले दीबे, सयंजूरमणे समुद्दे सत्र दे दीवमरिसा । सृ०म० १६ प ० चं० प्र० । जी० । (२६) चन्द्रसूर्ययोः परिवारो बधाएगमेस्मां भंते ! चंदिमसूरियस्स केवतिम्रो एक्खतपरिवारो पत्ता?, केवतिम्रो महाहपरिवारो पत्तो ?, केति तारागण कोकाकोमीओ परिवारों परणत्ता हैं । गामा ! एगमेगस्स णं चंदिमसूरियस
"अट्ठास इंच गहा, अट्ठावीसं च होड़ णक्खत्ता । एगमसीपरिवारो, एत्तो तारागणं बोच्छं ||१|| छामिस्साई, एव चेव सयाइँ पंचसयराई । एमसी परिवारो, तारागण कोकिकोडीनं " ||२|| "पगमेगस्स णं नंत ! चंदिमसूरियस्स" इत्यादि । एकैकस्थ भदन्त ! चन्द्रसूर्यस्य, अनेन च पदेन यथा नक्कत्रादीनां चन्द्रः स्वामी, तथा सूर्योऽपि तस्याऽपीत्यादिति ख्यापयन्ति । किवन्ति नक्षत्राणि परिवारः प्रज्ञप्तः १, कियन्तो महाप्रदा श्रङ्गरकाssदयः परिवारः प्रज्ञप्तः १, कियत्यस्ता राग एकोटी कोट्यः परिवारः प्रकृतः । श्ह नूयान् पुस्तकेषु वाचनाभेदो, गलितानि
सूत्राणि बहुषु पुस्तकेषु ततो यथाऽवस्थित वाचनाभेदप्रतिप स्वधै गलितसूत्रीकरणार्थे चैवं सुगमान्यपि विवियन्तं । भगंवानाह - गौतम ! एकैकस्य चन्द्रसूर्यस्य अष्टाविंशतिर्न कत्राणि परिवारः प्रज्ञप्तः, अष्टाशीतिर्महाग्रहाः परिवारः प्रज्ञप्तः । "छा
सहस्सा" इति गाथा । पट्षष्टिः सहस्राणि नव चैव श तानि पञ्चसप्तानि एकशशिपरिवारः तारागण कोटी कोटा नाम, कोटीकोटीत कोट्य एवं संज्ञा, ततस्तारागणकोटीनामिति द्रव्यम् । जी० ३ प्रति० १ ० । पते च यद्यपि चन्द्रस्यैच परिवारोऽन्यत्र श्रूयन्ते तथापि सूर्यस्यापीत्वादेत एव परिवारतयाऽवसेया इति । स० दसम | मं० । सू० प्र० ।
·
(२७) की शब्धन्द्राऽऽ नामनुभाव इति, ततस्तद्विषयं प्रश्नसूत्रमाह
- ता कहं ते अणुभावे श्राहिते ति वदेज्जा ? तत्थ खलु मा श्री दो पडिवसीओ पण चाम्रो । सत्य एगे एत्रमासु-ता चंदिमसूरिया को जीवा, अजीवा, पोषणा, जुनिरा, बादरवदिषरा, कलेवरा नत्थिते में उट्ठाणे ति वा कमेति वा बलेवा बिरिति वा पुरिसक्कारपरक ति वा, ते पो विज्जुं सवंतिणो असणं सर्वति, यो यणितं लवंति, अहे य णं बादरे वाउकार समुच्छति, अहे य णं बादरे बाउकार समुच्छित्ता त्रिज्जुं पिवंति, मणि पि लवंति, यहितं पिबंति, एगे एत्रमाहंसु । एगे पुल एत्रमाहंसु-ता चंदिमसूरिया पं जीवा, जो अजीवा, चणा, यो सुसिरा बादरबुदिधरा, नोकवरात्यितेनं उट्ठाणे ति वा कमेति वा बजे ति वा विंरिएति वा पुरिसकारपरकमेति वा, ते पिपिसवंति, अमरिं पि लवंति, यणियं पि लवंति, एगे एत्रमासु । वर्ष पुण एवं बदामांता चंदिमसूरिया णं देवा महिड्डिया० जान महाणुभावा वरवत्थधरा वरमलधरा वराजरणवारी भन्योचिचियता अत्रे चयंति, असे उज्वंति ।
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(१२) अभिधान राजेन्द्रः ।
जोइसिय
"ता कढं ते" इत्यादि । 'ता' इति पूर्ववत् कथं केन प्रकारेण चन्द्रादीनामनुभावः स्वरूपविशेष आयात इति वदेत् । एवमुके भगवानाह एतद्वषये द्वे प्रतिपक्षी ते उपदर्शयास-"तस्थ अबु " इत्यादि । तत्र चन्द्राऽऽदीनामनुभाषविषये खल्यमे द्वे प्रतिपक्षी परतीर्थिकान्युपगमरूप प्रसं
इत्यादि । तत्र तेषां द्वयानां परतीर्थिकानां मध्ये एके परतीर्थिका पत्रमाहुः - ( ता इति ) तेषां परतीर्थिकानां प्रथमं स्वशिध्वं अत्यने कोकमेकमा चन्द्रसूर्यमितिया क्यालङ्कारे, तो जीवा जीवरूपाः, किं त्वजीवाः। तथा नो घनानि निरुप्रदेशांपययाः, किं तु चिरा तथा बारा प्र :, धान सुजीव सुव्यक्तावयवशरीरोपेताः, किं तु कलेवराः कलेबरमात्रास्तथा नास्ति, णमिति वाक्यालङ्कारे तेषां चन्द्रादीनाम्, मनोविक
था कर्म तपणापणादि बलं शारीरमा वर्षमान्तरो साइटिसकारपरक मे इनका
प क्रमः स एवासाधिताभिमतप्रयोजनः । पुरुषकारा पराक्रमा पुरुषकारःपराक्रममिति । वाशब्दः सर्वत्रापि पूर्ववत् । तथा ते चजयंत प्रियति
माध्वनि विद्युद्विशेषरूपं नापि गर्जितं किं तु "महे इत्यादिनामच मिति पूर्वबाद वायुकायिकबाद वायुकापिका सं
विद्युतमशिनमप्रिय ति, गर्जितमपि प्रवर्त्तयन्ति, विद्युत्रादिरूपेण परिणमन्ति इति भावः । अत्रोपसंहारमा - ( एगे एवमाहंस) १। एके पुनरेवमादुः'ता' इति प्राम्यत्। चन्द्रमतिपाला जीवाजी रूपाः, न पुनरजीवाः, यथाऽऽदुः परतीर्थिकाः, तथा घनाः, न शुबिराः, तथा बादरवन्दिधरान कलेवरमात्राः, तथा अस्ति से. पाता" इत्यादि पूर्ववत् व्या पनि प्रयन्त अशनिमि र्जितमपि प्रवर्तयन्ति । किमुक्तं जवति ?, विद्युदादिकं सर्व चन्द्रादिर्तवित्रोपसंहारमाह-( एमा
एवं परतीर्थिकप्रतिपतिमुपदश्यं संप्रति भगवान् स्वमतं कथयनि" वर्ष पुरा" इत्यादि । वयं पुनरेवं वदामः कथं इत्याह-'' ते पूर्ववदन्द्रमिति
डारे, देवा देवस्थान सामान्य जीवमात्राः कथंभूतास्ते देवा इत्याद-महािमी मानपरिवारादिका येषां ते तथा ( ०जात्र महापुजावा इति ) यावत्करणात् -"मदजुश्वा महाबला महाजला मडेसक्खा " इति रुष्टव्यम् । तत्र महती श्रुतिः शरीराऽऽमरणविषया येषां ते महाद्युतयः । तथा मद्दद् बलं शारीरप्रमाणं येषां ते महाबलाः, तथा महदू यशः क्यातिर्वेषां ते महायशसः, तथा महेश इति महान् इश ईश्वर स्वास्या येषां ते महेशाख्याः क्वचित्, "महासोक्खा" इति पाठः । तत्र महत्सौरूपं येषां ते महासौम्याः तथा महाननुनाबो विशि
किराविषया मयि शक्तिर्येषां से महानुभावा बरवा बराः वरमाल्यधरा वराजरणधारिणः, अव्यवच्कूितिनवार्यतया अन्यास्तिकनयमतेन, अन्य पुत्रस्पना स्वायुःकय
यवन्ते मन्ये तत्पद्यन्ते । सू० प्र० २० पा० । ( ज्योतिषकाणां कामभोगौ ' कामभोग' शब्दे तृतीयजागे ४४२ पृष्ठे द्रव्यौ )
(योः संस्थाननामे क
जोइसिय
श्वेततायाः संस्थितिराक्यातेति ततस्तद्विषयं प्रह्मसूत्रमाह
ता कहूं से से आए निती माहिता ति वदेजा है। तत्म स्वधमा विदा संजिती पयसा तं जहा पंदिरयसंवितीय, तावकखेत्सनितीय । ता कहं ते चंदिमसूरियासंठिती आहिता ति वदेज्जा ? । तस्य खलु इमातो सोलम परिवती पछताओ । तत्येगे च एवमामु-ता समचउरंससंठिता चंदिममूरियसंठिती पासा, एगे एवमासु १ । एमे पुरा एवमाहंसु-ता बिसम चउरंभसंठिता चंदिमसूरियसंठिती
२। समथरको जिता विसमचकोटिया ४ समचकवालसंठिता ए त्रिसमचकवालसंठिता ६ चकचक्रवालसंहिता, एगे एक्माईसु । एगे पुछा एवमारंभु-वा छत्तागारसंहिता चंदिमसूरियसंविती पत्ता, गेहसंविवाह, गेहावणसंठिता १०, पासादसंविता ११ गोपुरसंठिया १२ पेच्छाघर संहिता १३ वलीसंविता १४ सिता १५ ब्राह्मम्गपोचियासंविता चंदिमसूरियसंविती पात्ता १६ । सत्य से मासु वा समतादिमसूरियर्सविती पत्ता, एते गए ऐतव्वा णो चेव णं इतरेदिं ।
"ता कहं ते सेनाप संठिई महिया ति बदेखा ? " । 'ता' इति पूर्ववत् । कथं भगवन् ! स्वया श्वेततायाः संस्थितिराख्याता इति भगवान् वदेत् ।। एवं भगवता गौतमेनो के वर्कमांनस्वामी भगवानाह " तत्थ " इत्यादि । तत्र श्वेतताबा विषये सत्रियं वक्ष्यमाणस्वरूपा द्विविधा संस्थितिः प्रकृता । सामेव तद्यथेत्यादिनपर संवति तद्यचेत्यत्र । ततोऽयमर्थ:-सा
1
प्रकारेण द्विविधा भवति तस्थितिस्तापक्षेत्र संस्थ
राता चन्द्रविमानाक्षेत्रस्तर
श्याम
प्रकारे श्वतता द्विविधा प्रवनि । तत्र चन्द्रसूर्यसंस्थितिविषये प्रश्नवति-" ता कहं ते " इत्यादि । 'ता' इति प्राग्वत्। कथं ते त्वया भगवन्! चन्द्रस्थितया बदेव इन्द्रसूर्यविमानानां संस्थानरूपा संस्थितिः प्रागेवानिति तत इ चन्द्रसूर्याणां संस्थितिश्चतुर्णामपि अवस्थानरूपा रुष्टव्या । पवमुक्ते भगवानेतद्विषये यावन्त्यः परतीर्थकानां प्रतिपत स्तापतीपदर्शयति" संस्थ" इत्यादि । रा
स्थिती विचार्यमाणायां खल्विमाः पांश प्रतिपत्तयः प्रकृताः । तद्यथा-वादन] एचमा समचतुरख संस्थितिः ः प्रकृता । समचतुरस्रं संस्थितं संस्थानं यस्याश्चन्द सूर्यमस्थितेः सा तथा । अत्रैवोपसंहारवाक्यमाद "एगे एमा ईसु १" एवं सर्वत्रापि प्रत्येकमुपसंहारवाक्यं द्रष्टुमके पुनरेवमा-विषम चतुरमाना सूर्यसंस्थिति ता । अत्रापि विश्रमचतुरस्त्रं संस्थितं संस्थानं यस्याः सा तथेति विग्रहः २ । ( एवं समचकोपसंतियति ) एवमुकेन प्र कारेशापरंचमात्रा सोचना स्थितिर्व कन्या । सा चैवम" एग पुण पचमासु समच उक्कोविपद्मा थे।"
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(१६०० ) अभिधानराजेन्द्रः |
जोइसिय
अत्र ( समचकोणसंतिय ति ) समाश्चत्वारः कोणा यत्र तत् समचतुष्कोणं, समचतुष्कोणं संस्थितं संस्थानं यस्याः सा तथेति विग्रहः ३ । (विसमचउकोणसंतिय सि ) विषमाश्चन्वारः कोणा यत्र तद्विषमखतुष्कोणं, तत्संस्थितं संस्थानं यस्थाः चन्द्रसूर्यसंस्थितेः सा तथा श्रन्येषामभिप्रायेण वक्तव्या । सा चैवम"पगे मासु विमोजिया मसुरियर्समहं४। समयकालसंडियस) सम चक्रवालं समचक्रवासरूपं संस्थितं संस्थानं यस्याः सा तथा । परेषामभावेण संस्थितिम्या सा "गेमा समय मि पता, एंग एवमाहंसु" ५। (विसमचक्कवालसंवियसि ) वि. मचक्रवालं विषमचक्रवालरूपं संस्थितं संस्थानं यस्याः सा तथा । अन्येषां मतेन चन्द्रसूर्यसंस्थितिर्वक्तव्या । सा चैव पुण पचमासु-दिसमवायाद या मंत्रिय सि) चकस्य रथाङ्गस्य चकवालस्थाई त संस्थितं संस्थानं यस्याः सा तथा अन्येषामभिप्रायेण वक्तव्या । सावन-संयादि मसूरियसंपन्नता, पगे एवमाहंसु " ७ । "गे पुष" ६त्यादि । एके पुनराहुः छत्राऽऽकार संस्थिता चन्द्रसूर्य संस्थितिः प्रकृता । अत्रैवोपसंहारः- "एगे एवमाहंसु" ८ (गेट संठियति) गेहस्येव वास्तुविद्योपनिषद्धस्येष संस्थितं संस्थानं यस्याः सा तथा । अपरेषां मतेन चन्द्रसूर्य संस्थिति कन्या । सा चैवम्"गेमा डिपिए
मासु गायण संजिय) गृहयुक्त
प
विद्यानं यस्याः सा तथा । अन्येषामप्रायेण बभ्यासाचं पुनामेहायमसंडिया दिमत्यपि पचमासु" १० । (पासायसंतिय (स) प्रासादस्येव संस्थितं संस्थान यस्याः सा तथा अन्येषामजिप्रायेण वक्तव्या । सा चैवम्- "एगे पुचमापासाया बंदिमसूरियां पता
१३ ।
११. गोपुरसंजय (स) गोपुरस्य संस्थित संस्थानं यस्याः सा तथा अन्येषां मतेनाभिधातव्या । सा चैषम् - "दमा गोरखाप पगे पथमाहंसु " १२ । ( पेच्छाघरसंतिय स ) प्रेक्षागृहस्थेच वास्तुविद्याप्रसिद्धस्य संस्थितं संस्थानं यस्याः सा तथा अपरेषां मतमा निधातव्या । तद्यथा-"एगे पुण पबमाहंसु पिच्छाघरसंठिया दिमसूरियसंईि पत्ता, एगे एवमाहंसु (स) सभ्या व प्राणामाथि सं संस्थानं यस्याः सा तथा । अन्येषां मनेनाभिधातव्या । सा चैवम" पं पुणाईला दिसू संचिताको पथमा १४ सय न तस्य तमुपरितनो प्रायस्तस्थे ब संस्थितं संस्थानं यस्याः सा तथा अपरेषामभिप्रायेण सम्पुर्ण पत्रमा ल संठिया बंदिमसुरियसंठि पद्मत्ता, एगे एवमाहंसु " १५ । पलिया) बालापतिको देशीशब्दस्वादाकाशे तमागमध्ये व्यवस्थित क्रीडास्थान लघुप्रासादमाह, तस्या इव संस्थितं संस्थानं यस्याः सा तथा अपदेषां मतेन अभिधानीया । तद्यथा-"गे पुरा पवमासु वास
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जोइसिय
पतिपािदिमरिया" १६ । तदेवमुक्ताः परतीर्थकानां प्रतिपत्तयः, एतासां च मध्ये या प्रतिपतिः समीचीना तामुपदर्शयति-"सत्य" इत्यादि । तत्र तेषां पोशानां परतीर्थिकानां मध्ये ये ते वादिन पवमाहुः समवतुरस्रसंस्थिता चन्द्रसूर्यस्थिति ए तेन नयेन नेतव्यम् - एतेनाभिप्रायेणास्मिन्मते ऽपि चन्द्रसूर्यसंस्थितिरवधार्येति भावः । तथाहि इह सर्वेऽपि कालविशेषाः सुषमादयो युगमूला युगस्य चाऽऽदौ भावले मासि बहुतकप्रतिपदि प्रातरुदयसमये एकः सूर्यो दक्षिणपूर्वस्यां दिशि व संते, तद् द्वितीयस्त्वपरोत्तरस्याम, चन्द्रमा अपि तत्समये एको
म
गया : समरस्तावम तं वैषम्यं यथा-सूर्याय म
मसौ सर्वबाह्य इति तदल्पमिति कृत्वा न विवक्ष्यते । तदेवं यतः सकलकालविशेषाणां सुषमसुषमाऽऽदिरूपाणामादिनुतस्य युगच्या समचतुरखताः सूर्याचन्द्रमसौ भवन्ति ततस्तेषां संस्थितिः पाता अन्यथा बा संप्रदायं समचतुरस्रसंस्थितिः परिभावयेति । (मो इरहित ) तो चैव नैव, इतरैः शेषैर्नयैश्चन्द्रसूर्य संस्थिति तेषां मिध्यात्यचन्द्रसूर्यथितिः। सू० प्र० ४ पाहु० [सं० प्र० । जं० जी० । (चन्द्रविमाना 55• दोगां संस्थामाऽऽदि 'जोयमाणशब्दे से बहते (२९) मद्राऽदिलवारा बांया इति, ततस्तद्विषयं प्रश्नसूत्रमाद
ता कहूँ ते चारा अहिता ति वदेज्जा ।। तत्य खलु इमा विहा चारा पत्ता । तं जहा आदिवचारा य, चंद
-
चारा य ॥
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ता कहं ते 'इत्यादि । 'ता' इति पूर्ववत् कथं केन प्रका रेण किंप्रमाण्या संख्यया १, इत्यर्थः । चारा आख्याता इति व देत ? जगवानाह - "तत्थ" इत्यादि । तत्र चारविचारविषये व विमे वक्ष्यमाणस्वरूपा द्विविधा द्विप्रकाराश्चाराः प्रकृप्ताः । द्वैविध्यमेवाह तथा दन्द्रादी पर स्परसमुच्चये ।
प्रचारपरिहाना सूत्रमाह
ता कहूं ते चंदचारा आहिते ति वदेज्जा ।। ता पंच संवच्छरए जुगे भिक्खसे समसचारे चंदे सदि जो जोति ॥
"ता कई ते" इत्यादि । 'ता' इति प्राग्वत् कथं केन प्रकारेण, कया संख्यया ?, इत्यर्थः । त्वया जगवन् ! चन्द्रचारा आख्याता इति वदेद ? जगवानाद-"ता पंच" इत्यादि । 'ता' इति पूर्ववत्, परिचन्द्रानियत चन्द्राि समिति
पि न्याय देसाई यांग युनकि योगमुपपद्यते कि भवति चन्द्रोऽभिजिनकत्रेण सह संयुक्ता युगमध्ये सप्तषष्टिसंख्यान् चारान् चरतीति । कथमेतदवसीयते इति चेत् ? । उच्यतेइद योगमधिकृत्य सकलनक्षत्रम एकली परिसमाप्तिरंकेन नक्षत्रमासेन भवति नचासाथ युगमध्ये समष्टिः पानाव
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(१६०१ ) श्रनिधानराजन्द्रः ।
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यिष्यते । ततः प्रतिनक्षत्र पर्यायमंकेकं चारमनिजिता मक्षश्रेण सह चन्द्रस्य योगसंभवादुपपद्यते चन्द्रोऽनिजिता नक्षत्रेण संयुक्त युगमध्ये सप्तषष्टिसंख्यान् चारान् चरतीति । एवं प्रतिनक्कत्रं भावनीयम् ।
संप्रत्यादित्यचारविषयं प्रश्नसूत्रमाह
ता कहं ते इच्चचारा ग्राहिते ति वदेज्जा १। ता पंचसंत्रच्छरिए णं जुगे अनिईएक्वत्तं पंच चारे सूरेण सि नोयं जोएति, एवं जात्र उत्तरासादाणक्खत्ते पंच चारे सूरे सद्धिं जोयं जोएनि ॥
"ता कहं ते " इत्यादि । 'ता' इति प्राग्वत्। कथं किंप्रमाणया संख्यया भगवन् ! त्वया भाहित्यचारा आख्याता इति वदेत् ।। भगवावाद"ता पंचवच्चरिए णं " इत्यादि । ता' इनि पूर्ववत् । पञ्च सांवत्सरिके चन्द्राऽऽदिपञ्च संवत्सरप्रमाणे, युगे युगमध्ये, मभिजिनवत्रं पञ्च चारान् यावत् सूर्येण सह योगं युनक्ति । अत्राप्ययं जात्रार्थः- अभिजिता नकत्रेण सह संयुक्तः सूर्यो युगमध्ये पञ्चसंस्यान् चारान् चरति । कथमेतदवगम्यते इति चेत् ? । उच्यते-इह योगमधिकृत्य सूर्यस्य सकलनक्षत्रमइडली परिसमाप्तिरेफेन सूर्य संवत्सरेण । सूर्य संवत्सरा युगे भवन्ति पञ्च । ततः प्रतिनत्र पर्याय कै कचारमनिजिता नक्षश्रेण सह योगस्य संभवाद् घटते अभिजिता नक्षत्रेण सह संयुक्तः सूर्यो युगे पञ्च चारान् चरतीति । एवं शेवनध्वपि भावना भावनीया । सू० प्र०१६ पाहु० ।
(३०) संप्रति चन्द्रसूर्याऽऽदीनां भूमेरुर्द्धमुच्यत्वप्रमाणं वक्तव्यमिति ततस्तद्विषयं प्रश्नसूत्रमाद
ताक ते उच्चचे हिते ति वदेज्जा ? तत्य खलु इमाओ
पति पत्ताओ । तत्येंगे एवमाहंसु-ता एगंजोयणसहस्नं सरे उ उच्चत्ते दिन चंदे, एगे एत्रमाइंसु ? | एगे पुण एत्रमाहंसु-ता दो जोयमहरुसाई सूरे उ उच्च अठ्ठाइज्जाई चंदे, एगे एवमाहं २। एगे ण एनमासु-ता तिमि जोयणसहस्साई सरे उछं उच्च
अाई चंदे, एगे एत्रमा ३ । एगे पुण एमासु-ता चत्तारि जोगणसहस्साई सरेउ उच्चदेणं पंचपाई चंदे, एगे एवमाहं ४ । एगे पुण
मासु-ता पंचजोयणसहस्साई सूरे उ उच्चत्तेणं अछाई चंदे, एगे एत्रमासु ए। एगे पुए एवमामु-ता जोयणसहस्साइं सूरे उ उच्चतेणं अमसमाए चंदे, एगे मासु ६ । एगे पुरा एवमाहंसु-ता सत्तजोयणसहस्नाई भूरे नहुँ उद्यत्तेणं अट्ठमाई चंदे, एगे एवमाह । एगे पुण एवमाता भट्टजोयल सहस्साई सरे उङ्कं नचतेणं अनत्रमाई चंदे, एगे एवमाईसु ८ एगे पुल एत्रमाहंसु-ता नवजोयणसहस्सा सूरे न नच्चत्तेणं अट्ठदसमाई चंदे, एगे एवमाहंसु एए। एगे पुण एवमाहंसु-ता दमजोयणसहस्साइं सूरे टङ्कं नचचेणं श्रद्धष्कारस चंदे, एगे एक्काईस १०। एगे
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For Private
जोइसिय
पुरण एत्रमासु एक्कारसजोयणसहस्सा सूरे नहुं उच्चतेणं वारस चंदे, एगे एवमाहंतु ? । एतेयं प्रभिन्नावेतवारस सूरे अतेरस चंदे १ तेग्स सूरे श्रद्धचांदस चंदे १३ | चोदस सूरे पारस चंदे १४ । परम सूरे असोबस चंदे १५ । सोलस सूरे असत्तरस चंदे १६। सत्तरस सूरे अट्ठारस चंदे १७| अट्ठारस सूरे अरुए गुगात्री सं चंदे १८ गुणीसं सूरे अद्धवीसं चंद १६ | बीसं सूरे प्र एगवी चंदे २० | पगवीमं सूरे अवावीमं चंदे २१| वाव संसू अतेवं मं चंदे २२| तेवीसं सूरं श्रचउनीसं चंदे २३ | चन्वी सूरे अपणवी चंदे, एगे एत्रमाहंसु २४ एगे पुत्रमासु-पवी जोयणसहस्सा सूरे उकं उच्चतेणं अत्री चंदे, एगे एवमाहंसु २५ । वयं पुरा एवं बदाम-ता इमीसेरगणप्पजार पुढवीए बहुसमरमणिजाओ चूमिनागाओ सत्तगजए जोयणसए न उपपतित्ता देहिले तारत्रिमाणे चारं चरति, अट्टजोय एसए नहुँ उप्पतित्ता सूरविमाणे चारं चरति, सीईए जोयासए उकं उपपत्त्तिा चंदत्रिमाणे चारं चरति, एवजोपणनताई उहुं उप्पतित्ता उवरिं तारविमाणे चारं चरति, डिल्लाओ तारविमालाओ दम जोयणाई उहुं उप्पतिता सूरवमाणे चारं चरति, नवजत्तिजोयलाई उहुं उप्पनिया चंदत्रिमाणे चारं चरति, दमुत्तरं जोयसतं उ उपतित्ता उवरि तारारूवे चारं चरति, ता सूरविमालातो अमीतिजोयलाई ननुं उप्पतित्ता चंदत्रिमाणे चारं चरति, जोयणमतं उ उप्पतित्ता उवरि तारारूवे चारं चरति.ता चंदरिमाणां वीनं जोयणाई उ उपनित्ता नबरि तारारूत्रे चारं चरति । एवामेत्र सपुव्वावरणं दमुत्तर जांयणसतं वाहले तिरियमसंखज्जे जोतिसविसए जोतिनं चारं चरति आहितेति वदेज्जा ।
“ ता कई ते " इत्यादि । 'ता' इति पूर्ववत् । कथं केन प्रकारेण भगवन् ! त्वया जुमेरु चन्द्रादीनामुच्चत्वमाख्यातमिति वदेत् ? । एवं प्रश्ने कृते भगवानेतद्विषये यावन्त्यः प्रतिपत्तयस्तावतीरूपदर्शयति-" ता तत्थ " इत्यादि । तत्र उच्च विषये खल्विमा वक्ष्यमाणस्वरूपाः पञ्चविंशतिप्रतिपत्तयः परतीर्थिकज्युपगमरूपाः प्रकृताः । ता पत्र " तत्थगे" इत्या दिना दर्शयति । तत्रैतेषां पञ्चविंशतिपरतीर्थिकानां मध्ये एके परतीर्थिक एवमादुः- 'ता' इति पूर्ववत् । एकयो जनसहस्रं सूर्ये नुमेरुर्द्धमुच्यत्वेन व्यवस्थित ईसाईयोजन सहस्रं मे रुद्रः किमुतं भवति ? - जुमेरुर्द्ध योजन सहस्रे गनेऽत्रान्तरे सूर्यो व्यवस्थितः सार्द्धं च योजन सहस्रगते चन्द्रः । सूत्रे च] योजनसंख्यापदस्य सूर्यादि पदस्य च तुल्याधिकरणम्वनि देशो ऽनेदोपचारात् । यथा पाटलिपुत्राट् राजगृदं नययोजनानीत्यादौ । एवमुत्तरेष्वपि सूत्रेषु भवनीयम् । अत्रोपसंहारमाहवमास १ " के पुनरेवमाहू:-'ता' इति
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जोइमिय अभिधानराजेन्दः ।
जोसिय पूर्ववत् । वे योजनसहने भूमरूY सूर्यो व्यस्थता, अई- पगे पुण पवमासु-ता बावीसं जायणसहस्सा सूरे सळू तृतीयानि योजनसहस्राणि चन्द्रः। अत्रोपसंहार:-"एगे एव- उत्तण अफतेवीसमाई चंदे, पगे पवमासु १२० तेवीसं सुरे मासु २" एवं शेषाण्यपि सूत्राणि भावनीयानि। " एएणं" अद्धच उवासमाई चंद इति । एगे पुण एषमासु-ता तेवीसं इत्यादि । पतेनानन्तरादितेनाभिलापन शेषप्रतिपत्तिगतमपि जोयणसहस्साई सूरे उषं उत्तणं अद्धचवीसमाई चंद, सूत्रजातं नेतव्यम् । तच्चैवम-"तिमि" इत्यादि । "एगे पुण ए- एगे पवमादंसु २३॥ चनवीसं सरे अपंचवीसमाई चंदे इति । घमासु-तिमि जोमणसहस्साई सूरे न उच्चत्तणं अट्ठा- पंग पुण एवमासु-ता चउन्धीसं जोयणसहस्साई सूरे सद
चंदे, पंग पवमासु ३" "ता चत्तारि" इत्यादि।" एगे उच्चत्तणं अरूपंचवीसमाई चंदे, पग एवमासु २४ । पंचर्विपूण पथमास-ताबसारि जोयणसहस्साई सरे - शतितमप्रतिपत्तिसूत्रं तु साक्वाइर्शयति-"एगे पुग्ण एवमासुसणं मपंचमा वंदे, पगे एबमाइंसु४"1"ता पंच"इ. ना पणवीसं" इत्यादि । एतानिच सूत्राणि सुगमत्वात्स्वयं भावस्यादि । “एगे पुण एषमासु-ता पंच जोयणसहस्सार सूरे मीयानि। तदेवमुक्ताः परप्रतिपत्तयः। संप्रति स्वमतं जगवानुप
कुं उससेणं भाई चंदे, एगे पषमासु एवं छ सूर दर्शयति-वयं पुनरुत्पन्न के वलविदस्तु एवं बल्यमाणेन प्रकारण मरसत्तमाई चंदे । पगे पुण पबमास-ता बजायणसहस्साई बदामः । तमेव प्रकारमाह-"ता मीसे" इत्यादि । 'ता' इति सूर उ उच्चसणं अवससमा क, पगे पवमासु ६ । पूर्ववत् । भस्या रत्नमनायाः पृथिव्या बहुसमरमणीयाद् भूमिन्नासत्तरे प्रहमाचं इति । एगे पुक पषमाइंसु-ता सत्तजो- गादूर्दै सप्तयोजनशतानि नवस्यधिकानि उत्प्लुत्य गन्या, अत्राबणसहस्सार उहुं उरुचणं मकामाचंदे, एगे एबमा
स्तरेऽधस्तनं ताराविमानं चार चरति-मण्डलगत्या परिभ्रमरंसुअरे मानवमाई चंदे इति। पगे पुण एवमाहंसु- ण प्रतिपद्यते, तथा अस्या एव रत्नप्रभायाः पृथिव्या बहुसमर. ता बहजोयणसहस्साई मूरे उर्छ सच्चत्तेण भस्नषमा चंदे, मणीयाद् भूमिभागादुर्द्धमष्टी योजनशतान्युत्प्लुत्यात्रान्तरे - पगे एपमाईसुदानवस्रे भइसमाचंदे इति। एगे पुण एवमा- यविमानं चारं चरति । तथा अस्या एव रत्नप्रजायाः पृथिव्या हंसु-सा नयजायणसहस्सासरे वर्ष सच्चसणं असदसमाई बहुसमरमणीयाद् भूमिभागादूर्बुमष्टौ योजनशतान्यज्ञात्यधिचंके, पंगे पवमाइंसुरी दस सूरे अकएकारसाई चंदे शति । एगे कानि उत्प्लुत्यात्रान्तरे चन्द्रविमानं चारं चरति,तथा अस्या एव पुण पवमासु-ता दसजोयणसहस्साई सुरेई सच्चत्तेणं रत्नप्रनायाः पृथिव्या बदुसमरमणीयाद् भूमिभागादूर्द्ध परिमम्पकारसाई चरे, पगे एवमासु १०। एकारस सूरे प्रवा- पूर्णानि नखयोजनशतान्युत्प्अत्यात्रान्तरे सर्वोपरितनं तारारसचंदे इति।पगे पुण पषमाउंमु-ता कारसजोयणसहस्सा
विमानं चारं चरति, अधस्तनात्ताराविमानादशयोजनान्यु. सुरे उद्धं उबसेणं अरूवारस चंदे, एगे एवमासु ११। बारस
स्प्लुत्यात्रान्तर सूर्यविमानं चारं चरति । तत एवाधस्तनात ता. मूरे भरतरसमाई चंदे इति। एगे पुण एवमासु-ता वारसजो.
राधिमानाभवतियोजनान्यूर्द्धमुत्प्लुत्यात्रान्तरे चरूविमानं चार रणसहस्साई सूरे उई उच्चत्तणं अस्तेरसमाई चंद, एगे चरति । तत एव सर्वाधस्तनात्ताराविमानाशोत्तरं योजनशपषमासु १श तेरस सूरे अरुचउदसमाई चंदे इति । पगे पुण |
तमूर्द्धमुत्प्लुत्यात्रान्तरे सर्वोपरितनं ताराविमानं चार चरति । एवमासु-ता तेरेसजोयणसहस्साई सरे उबँउच्चसणं अद्ध
"ता सरविमाणाओ" इत्यादि। 'ता' इति पूर्ववत् । सूर्यविमानांदबोसमाईचंदे, एगे पवमासु १३. चोहस सुरे अरूपंचदस
लमीतियोजनशतान्युत्प्लुत्यात्रान्तरे चन्द्रविमानं चारं चरति, माई चंदे इतिापगे पुण पत्रमासु-ता चोहसजायणसहस्साई
तस्मादेव सूर्यविमानादूर्व योजनशतमुत्प्लुत्यात्रान्तरे सर्वोपसरे उर्छ उच्चसेणं भवपंचदसमाई चंदे, पगे पवमासु १४।
रित तारारूपं ज्योतिश्चकं चार चरति। "ता चंदविमाणाभो" पारस सूरे अरूसोलसमाई चंदे इति । एगे पुण पवमा हंसु
इत्यादि । 'ता' इति पूर्ववत् । चन्द्रविमानादूर्व विंशतियोजता पारसजायणसहस्सासरे गर्छ थत्तेणं अद्धसोलसमाई
नशतानि उत्प्त्यात्रान्तरे सर्वोपरितनं ताराविमानं ज्योतिचंदे, एग पवमासु १५। सोलस सुरे असत्तरसमाई चंदे
श्चक्रं चारं चरति (एवामेवेत्यादि) एवमेव उक्तेनैव प्रकारेण इति। पगे पुष एवमाहंसु-ता सोलसजोयणसहस्साई सरे उर्छ
(सपुवावरणं ति)सह पूर्वापरेण वर्तत इति सपूर्व, सपूउच्चत्तेणं अद्धसत्तरसमाई नदे, एगे पवमासु १६। सत्तरस
धै च तत् अपरं च सपूर्वापरं, तेन पूर्वापरमीलनेनेत्यर्थः । माई सरे महारसमाईचंद इति । एगे पुण एवमासु-ता स.
दशातरयोजनशतबाढल्येन । तथाहि-सर्वाधस्तमात्ताराकपाद सरसजोयणसहस्सा सूरे उईं सबसणं अट्ठारसमाई चंदे,पगे
ज्योतिश्चक्राइच दशभियोजनैः सूर्यविमानं,ततोऽप्यशीत्या यो. एवमासु १७ प्रहारस सरे अभएगुणासमार चंदे इति। एगे
जनैश्चन्द्रविमानं,ततो विंशत्या सर्वोपरितनं तारारूपं ज्योतिश्चपूण पवमासु-ता प्रहारसजोयणसहस्साई सूरे उर्छ उच्चत्ते
कचारविषयस्य दशोत्तरं योजनशतं बाहल्यं, तस्मिन् दशांत्तरे अरूपगुणवीसमाई चंदे, एगे एबमासु १८ । पगुणधीसं सूरे
योजनशतबाहल्ये । पुनः कथंजूते ? त्याह-तिर्यगसख्येये यो. अद्धीसमाई चंदे इति । एगे पुण एवमासु-ता पगुणवोस
जनकोटाकोटीप्रमाणे ज्योतिर्विषये मनुष्यवेत्रविषयं ज्योतिश्चक्रं जोयणसहस्साई सूरे उठं उच्चत्तेणं अस्वीसमाई चंद, पगे
चार चरति, चारं चरन्मनुष्यक्षेत्रादु बहिः पुनरवस्थितमाएवमासु १६॥ बीसं सूरे प्रद्धएगवीसमाई चंदे ति। एगे पुण
ख्यात इति वदेत् । स० प्र० १७ पाहु । च० प्र० । जं० । जी० । एवमासु-ता वीसं जोयणसहस्साई सूरे उठं उच्चनेणं अद्ध- धरणियलाउ समाओ, सत्त न नउपहँ जोयणसरहि। एगवीसमाई चंदे, पगे पवमासु २० । एगवीसं सूरे प्र. हिहिहो होइ तमो, सूरो पुण अट्ठहिँ सरहिं ॥ ४॥
यावीसाई चंदे शति । एगे पुण पवमासु-ता इक्कवीसं असए आसीए, चंदो तह चेव होइ उवरितले। जायणसहस्सा सूरे उर्छ उच्चत्तेणं अनावीसमाई चंदे,
एग दमुत्तरसयं, बाहवं जोइसस्स भने ॥५॥ पंग परमाइंस २१ । बाबीसं सरे प्रवासमाई चंदे इति ।
३०.१०॥
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( १६०३)
अनिधानराजेन्द्रः ।
जोइसिय
(३१) देवखामर्थ्य प्रत्यासत्यैत्र ज्योतिष्कानधिकृत्याऽऽद्दतातियां चंदिमसूरियाणं देवाशं हिडं पि तारारूत्रा पितृमावि, समं पितारारूत्रा अणुं पितुल्ला वि, पाराव णुं पितुल्ला वि । ता अस्थि । ता कहूं ते चंदिमसूरियाणं देवाणं हिद्वं पि तारारूवा अणुं पितुञ्जा वि, समं पितारारूवा अणुं पितुल्ला वि, उपिपि तारारूत्रा अपि तुला वि १ । ता जहा जहा णं मिणं देवाणं तवणियमवंनचेराई जस्सिताई जवंति, तहा ताणं तेति देवाणं एवं जवति, तं अणुते वा तुझते वा, ता एवं खलु चंदिमसूरियाणं देवाणं हिंडं पि तारारूवा पितु ॥
"ता अस्थिं " इत्यादि । 'ता' इति पूर्ववत् । श्रस्त्येतद् भग वन् ! बहुत चन्द्रसूर्याणां देवानां (हि ं पित्त ) केत्रापेकया अधस्तना अपि तारारूपविमानाधिष्ठातारो देवा द्युतिविभवसेश्याऽऽदिकमपेक्ष्य केचिदणवोऽपि लघवोऽपि भवन्तीत्यर्थः । केचित्तुल्या अपि भवन्ति । तथा सममनि चन्द्रविमानैः सूर्यवि मानश्च क्षेत्रापेक्षया समश्रेण्याऽपि ये व्यवस्थितास्तारारूपास्तारात्रिमानाधिष्ठातारो देवाः, तेऽपि चन्द्रसूर्याणां देवानां द्युतिविनत्राऽऽदिकमपेक्ष्य केचिदणवोऽपि भवन्ति, केचित्तुल्या अपि, इति गौतमेन प्रश्ने कृते भगवानाह - (ता अस्थि ति ) यदेतत् त्वया पृष्टं तत्सर्वे तथैवास्ति । एवमुके पुनः प्रश्नयति- "ता क ने" इत्यादि सुगमम् । भगवानाह " ता जह जढा " इत्यादि । 'ता' इति पूर्ववत् । यथा यथा । णमिति वाक्यालङ्कारे । तेषां देवानां तारारूपविमानाधिष्ठातृणां प्राग्भवे तपोनियमत्रह्मचर्याणि उच्छ्रितानि उत्कदानि भवन्ति तथा तथा तेषां देवानां तस्मिन् तारारूपविमानाधिष्ठातृभावे एवं संवति, यथा- अणुस्वातुल्यत्वं वा । किमुक्तं भवति?-यैः प्राग्भवे तपोनियमब्रह्मचर्याणि मन्दानि कृतानि ते तारारूपविमानाधिष्ठातृदेवभवमनुप्राप्ताश्चन्द्रसूर्येभ्यो देवेभ्यो द्युतिविभवाऽऽदिकमपेक्ष्य होना भवन्ति, यैस्तु भवान्तरे तपोनियमब्रह्मचर्याणि अत्युत्कान्यासेवितानि ते तारारूपविमानाधिष्ठातृरूपं देवत्वमनुप्राप्ता द्युतिविभावादिकमपेक्ष्य चन्द्रसूयैर्देवैः सह समाना भवन्ति । न चै तदनुपपन्नम् । श्यन्ते हि मनुष्यलोकेऽपि केविजन्मान्तरोपचि ततथाविधपुण्यनाग्नारा राजत्वमप्राप्ता श्रपि राज्ञा सद तुल्यघुतिविभवा इति । "ता एवं खलु" इत्यादि निगमनवाक्यं सुगमम । सू० प्र० १०. पाहु• । चं० प्र० । जी० । जं०। (म. न्दरायपेक्षया ज्योतिष्काणां चारः ' प्रवाहा ' शब्दे प्रथमभागे ६८२ पृष्ठे प्ररूपितः )
[३२] ता जंबुद्दीवे णं दीवे कतरे क्खत्ते सव्त्रतरिल्लं चारं चरति, कतरे एक्खत्ते सन्ववाहिरिल्लं चारं चरति, कयरे एक्खत्ते सव्बुवरिनं चारं चरति, कमरे एक्खते सबचिरं चरति ? | अभिई एक्खत्ते सन्वन्तरिक्षं चारं चरति, मूत्रे एक्खत्ते सव्यबाहिरिल्लं चारं चरति, सातोक्खते सरि चारं चरति, भरणं एक्खत्ते सन्त्रनिं चारं चरति ।
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जोइसिय
"ता जंबुडीचे णं दीवे कयरे नकखते" इत्यादि सुगमम् । नवरम्, श्रभिजिनक सर्वाभ्यन्तरं नक्कत्रम एमाले कामपेक्ष्य, एवं मूलादीनि सर्वषाह्याऽऽदीनि वेदितव्यानि । सू० प्र०१८पा०| उक्तं च-" तब्वम्भंतरभिई, मूलो पुण सब्ब बाहिरो भमइ । सम्वोदरं च साई, भरण। पुर्ण सम्वद्दिमिया " ॥ ६६ ॥ ६० प० । चं० प्र० । जी० ।
(३३) चन्द्रः सूर्यो वा कियरक्षेत्रं प्रकाशयतीति ततस्तद्विषयं प्रश्नसूत्रमाह
ता केवतियं खेत्तं चंदिमसूरिया प्रजासंति, उज्जोर्वेति, तति, पगार्सेति, आहिता ति वदेज्जा ।। तत्थ खलु इमाओ वारस परिवती पछताओ । तत्थेगे एवमामु-ता एवं दीवं एगं समुदं चंदिमसूरिया ओजासंति, उज्जोर्वेति, तर्वेति, पगासेंति, एगे एवमाहंसु । एगे पुण एवमासु-ना तिभि
तिष्ठि समुद्दे चंदिमसूरिया प्रजासंति, उज्जांवेंति, नवेंति, पगासेंति, एगे एवमाहंसु २ । एगे पुल एत्रमासु-ता
दीने मुद्दे चंदिमसूरिया प्रजासंति, उज्जोर्वेति तर्वेति, पगासेंति, एगे एत्रमासु ३ । एगे पुण एवमासु-ता सत्त दी सत्त समुद्दे चंदिमसूरिया ओनामंति, उज्जोर्वेति, तवेंति, पगार्सेति एके, एगे एवमाहं ॥ एंगे
एवमातु-दस दीवे दस समुद्दे चंदिमसूरिया प्रोजा• संति, उज्जोर्वेति, तति, पगार्सेति एके, एगे एवमाहंसु ए एगे पु एवमाहं सु-ता वारस दीवे वारस समुद्दे चंदिमसूरिया प्रभासंति, उज्जोर्वेति, तत्रैति, पगार्मेति एके, एगे एवमाहंसु ६ । एगे पुण एवमाहंसुता वायालीसं दीवे वायालीसं समुद्द चंदिमसूरिया प्रोभासंति, उज्जो वेंति, तर्वेति, पगा सेंति एके, एगे एवमाहं | एगे पुत्रमाहंसु वावन्तरिं दीवे वावरिं समुदे चंदिमसूरिया प्रजाति, उज्जोर्वेति, तर्वेति, पगामेंति एके एगे एवमाहंएगे पुल एवमाहंसु-ता वातालीसं दीवसतं वाताझीसं समुदसतं चंदिमसूरिया ओनासंति, उज्जोत्रेति, नर्वेति, पगार्मेति एके, एगे एवमाहंसु । एगे पुण
मासु तावावतारं दीवसतं वाक्त्तारं समुदसतं चंदिमसूरिया प्रजासंति, उज्जोर्वेति, तवेंति, पगार्सेति एके, एगे एमासु १० । एगे पुण एवमाहंसुता वायालीसं दीवस वायाली समुदसहस्सं चंदिमसूरिया प्रोनासंति, उज्जीवति, तवेंति, पगार्सेति एके, एगे एवमाहंसु ११ ॥ एगे पुण एवमाता चावतारं दविसदस्सं वाचतारं समुद्दसहस्सं चंदिमसूरिया श्रजानंति, उज्जोर्वेति, तति, पगासेति एके, एगे एकमा १२ ।
""ता के वश्यं " इत्यादि । 'ता' इति पूर्वमत् । कियत्क्षेत्रं चसूर्य बहुवचनं जम्बूद्ध पे चन्द्रद्वयस्य सूर्ययस्य च जावात् । अवभासयन्ति तत्रावतासो ज्ञानस्यापि प्रतिभासो व्यवहियते, अतस्तद्व्यवच्छेदार्थमा उद्योतयन्ति स चोदद्योती यद्यपि लो
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( १६०४ ) अनिधानराजेन्डः |
जोइसिय
के भेदेन प्रसिको, यथा-सूर्यगत आतप इति, चन्द्रगतः प्रकाश इति, तथाप्यातपशब्दन्द्रप्रभायामपि वर्त्तते । यदुकम्"चन्द्रिका कौमुदी ज्योत्स्ना तथा चन्द्रानपः स्मृतः । " इति । प्रकाश शब्दः सूर्यप्रभायामपि एतच्च प्रायो बहूनां सुप्रतीतं, साधारण प्येकाधिक मा तापयन्ति प्रकाशयन्ति श्राख्याता इति । इहाऽऽस्वात्ति बाधन्तपदेनापि सह नामपदस्य समन्वयो भवति । तत एवमर्ययोजना इण्या-किर अभासयन्न उद्यो तयन्तस्तापयन्तः प्रकाशयन्त आस्याता जगवतेति भगवान् व "देत् ? । एवं गौतमेनो के जगवानेतद्विषयं परतीर्थिकप्रतिपत्तीनां मिथ्याभावोपदर्शनाय प्रथमतस्ता एवोन्यस्यति तत्थ" इत्या दि । तंत्र चन्द्रसूर्याणां क्षेत्रावभासनविषये इमाः खमु द्वादश प्रतिपत्तयः परतीर्थंकाभ्युपगमरूपाः प्रशप्ताः । तद्यथा-" त स्थ" इत्यादि । तत्र तस्यां द्वादशानां परतीर्थिकानां मध्ये एके प्रथमास्तर्थान्तराया एवमाहुः एकं । यमेकं समु अवभासयन्तौ उद्योतयन्तौ तापयन्तौ, प्रकाशयन्तौ । सूत्रे द्वित्वेऽपि बहुवचनं प्राकृतत्वात् । उक्तं च-" बहुवयणे दुवय"स्यादिद्वय बाविसेय परतीर्थेकेरेकस्य चन्द्रमस एकस्य व सूर्यस्याभ्युपगमात् । संप्रति अस्यैव यमनस्योपसंहारमाह-पगे पचमासु ) एवं स
"
निकेतनश्रीन् पानी समुद्रान् चन्द्रसूर्यौ, अवनासयत उद्योतयतस्तापयतः प्रकाशयत इति । एवमुत्तरत्रापि द्र२ तथा पुनस्तृतीयामा (अति) परिपूर्णार्थस्या मित्यर्थः । श्रर्द्धचतुर्थान् द्वीपान् चतुर्थान् समुद्रान् चन्द्रसूर्यापनात तुम सप्तद्वीपान् सप्त समुद्रान् चन्द्रसूर्यावज्ञास्यतः । ४ । एके पुनः पञ्चमा एवमाचक्कते दश द्वीपान् दश समुद्रान् चन्द्रसूर्याचवनालयतः । ५ । एके पुनः षष्ठा एवमभिवनि-द्वादशी पान् द्वादश समुद्रान् चन्द्रसूर्यवयायतः । ६ । एके पुनः सप्तमा एवं भाषन्ते द्विचत्वारिंशतं द्वीपान् दित्वारिंशतं सम् द्वान् चन्द्रसूर्यादयभान के पुनराद्वा तिचायत
के पुनर्वापयमा द्विवारिंशदधिकश त्वारिंशदधिकं समुद्रशतं चन्द्रसूर्यावभासयनः । ६ । एके पुनदेशमा एवं द्विि
समुद्रापा दशाः पुनरेवमाहुः - घाचत्वारिंशद्वाचत्वारिंशत्यधिकं द्वीपसदनं रिधिसमुद्रसमानः ११
पके द्वादशाः पुनरेवमाहुः साधिकासहस्रं द्वासप्तत्यधिकं समुद्रसहस्त्रं चन्द्रसूर्यावचनास
यतः १२ ।
पताश्च सनी अपि प्रतिपत्तयो मिथ्यारूपाः तथा च भगवानेता व्युदस्य स्वमतं भिनमेव कथयति
वयं पुरा एवं बदाम-ता अयं णं जंबुद्दीचे दीवे सव्चदीबसमुदा० जाव परिक्त्रे पत्ते मे णं एगाए जगतीए सयतसमेत परिकखेवे मायां जगती तद्देव मंदी
जो सेय
वपन्नसीए०जात्र एवामेत्र सपुव्वावरणं जंबुदीने दी चोद साहस्सा छप्पन्नं च सलिलामहस्मा जयंतीतिम खाता मेदीचे पंच चकमार्ग संत्रा माहित देख ताकदीने दीने पंचकभागसंडिले माडिता ति वेज्जा ? । ता जनाणं एते दुवे सूरिया सव्वान्नंतरं मं
संकमित्त चारं वति तदा जंबुद्दीवस्स दक्मिनिमि पंचचक्कभागे ओभासंति, उज्जोर्वेति, तवेंति, पजार्मेति तं एगे वि एवं दिव पंचचकभाग ओभामेति एके, एगे त्रि एवं दीप पंचचकमार्ग ओजासेनि एकं तता उत्तमकट्टपसे कोसर अङ्कारसमुने दिवसे जवाते जलिया बालमुचा राई जवः, ता जनाणं एते दुवे सूरिया सध्या उपसंकमित्ता चारं चरति तदा गं tree दीवरून दोणि पंचचक्क नागं प्रभासंति, नज्जोर्वेति, तथेति पगार्नेति । तं एगे वि एवं पंचचक्कभागं ओभासति, उज्जोइ, तवेड़, पगासेइ, एगे वि एक पंचचक्कनागं ओजाने एक तताएं उत्तम पत्ता उकोसिया अंद्वारस मुचा राई भवति न दुवाल से दिवसेति ।
वयं पुण "इत्यादि वयं पुनः कुषा यथाऽवस्थितं जगडुपलभ्य एवं वक्ष्यमाणप्रकारेण वदामः । तमेव प्रकारमा - "ता अयं णं" इत्यादि । अत्र (जहा जंबुद्दीवयथा जम्मीयं
"
इत्यारज्य यावत् " एवामेव सपुव्वावरेण जंतुदीचे दीवे चोदसंसलिलायसह सनिवासहरुमा भनीति मक्खायं" इत्युक्तम् । तथा एतावद्रन्थसहस्रवतुष्यप्रमाणमत्रापि वक्तव्यं परं प्रन्थगौरवजयान लिख्यते. केवलं जम्बूद्ध | पत्रइतिपुस्तकमेव निरीक्षणीयमिति । अयमेवंरूपणे जम्बूकः पचयोपनातिपातो मया इति स्वशिष्याणां पुरतः। एवमुके भगवान् गौतमः शि
स्पष्टावबोधार्थ यः पृच्छति "ता कह" इत्यादि । 'ता' इति पूर्ववत् । कथं जगवन् ! त्वया जम्बूद्वीपो दीपः पञ्चचक्रजागसंस्थित श्राख्यात इति वदेत ?। भगवानाह "ता जया णं" इत्यादिति पूर्ववत्या मिनि
प्रवचनदियां प्रसिद्धी सूर्यो सर्वोतम एकमुपक्रम्य चारं चरतः, तदा तौ समुदितौ द्वापि सूर्यो जम्बूद्व | पस्य त्रीन् पञ्चचक्रवाल भागान् श्रवनास्यतः, उद्योतयतः, तापयतः, प्रका शयतः । कथं प्रकाशयतः ?, इति परप्रश्नावकाशमाशङ्कय पतदेव विभागत श्राह - "एंगे वि" इत्यादि । पकोऽपि सूर्यो जम्बूद्वीपस्य द्वीपस्य एकं पञ्चमं चक्रबाल भागं द्वय र्द्धमिति द्वितीयम यस्य सार्थः पूरयार्थी बुधायो नागि इत्यत्र तम । श्रयं च भावार्थ:- एकपञ्चमं चक्राला दि तयस्य पञ्चमस्य चक्रवाल भागस्यार्थेन सहितं प्रकाशयति । तथा कोऽपि अपरोऽपि द्वितीयोऽपीत्यर्थः। एकं पञ्चमं चक्रवा भागं प्रकाशयतीति उभयप्रकाशित भागमीने परिपू भागत्रयं प्रकाश्यं भवति । इयमत्र जावना - जम्बूद्वीपगतं प्रकाश्यं चक्रवालं पष्टषधिकत्रिंशच्छतभागं कल्प्यते ३६६० । तस्य भागो द्वाशिविप्रमाण ३२,
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जोइसिय अनिधानराजेन्द्रः।
जोइसिय प्रशन यत्यधिकसहस्रनागमान:१०१ ततः सर्वाभ्यम्तरे मएनसे संख्यभागसत्कभागचतुष्याधिकं प्रकाशयति । अपराऽपि वर्तमान एकोऽपि मूर्यः ट्त्रिंशतसंख्यानां नागानामष्टानय- पूर्वः परत एकं राम चक्रवालभाग यथोक्तभागचतुष्टयास्यधिक सहनं प्रकाशयति, द्वितीयोऽप्यष्टानवत्वधिक सहसम, | धिकं प्रकाशयति । एवं प्रतिमएमसमें कैकः सूर्यः पश्यधिकपटउन्नयमीलने एकविंशतिशतानि पम्पबत्यधिकानि २१९६ प्रका- त्रिशच्छतमागसत्कलागवयवदनेन प्रकाशयन् तावदयमयों श्यमानानि लभ्यन्ते, तदा च द्वौ पञ्चकवालनागौ रात्रिः ।। पावसान्वन्तरं मामलम । तस्मिथ साज्यस्तरे मण्डले सपथा-एकतोऽपि पञ्चमो भागो द्वात्रिंशवधिकसप्तशतभाग- द्वितीयस्य पञ्चमचक्रवाल नागस्याई परिपूर्ण भवति । तत एसंख्या रात्रिः, परतोऽपि एकः पशमो भागो द्वात्रिंशदधि- कोऽपि सूर्यस्तत्र मण्डले पकं पञ्चम चक्रवालभागं साई जम्पू. कसमशतभागसंख्यौ रात्रिः,उभयमीलने चतुर्दशशतानि चतु:- जोपस्य प्रकाशयत्यपरोऽप्यकं पञ्चमं सक्रवाल नागं साम। पष्टपधिकानि भवन्ति । १४६४। षष्टपधिकषत्रिंशच्छतमागा- तथा जम्मधीपस्य दश भागान् परिकल्यान्याप्युक्तम-. नां रात्रिः, सर्वभागमासने पशिच्छतानि पएपधिकानि "छच्चेव चन्दसभागे, जम्बूदीवस्स दो वि दिवसयरा। भवन्ति । संप्रति तत्र दिवसरात्रिप्रमाणमाह-" तया णं " | ताविति वित्तलेसा, भभिंतरमंझले संता ॥१॥ इत्यादि । तदाऽऽज्यन्तरमएसमारकामे उत्तमकाष्ठा प्राप्तः बसारियसभाग, अम्बनीपस्स दो वि दिवसयरा। परमप्रकर्षप्राप्त बन्योऽष्टादशमाहों दिवसो भवति । ज- साविति संतलेसा, बाहिरए मरने संता॥२॥ . धन्या हादश मुहनो रात्रिः । ततो द्वितीये अहोराने द्वितीय- छत्तीसे भागसप, सकारुण जंबुदोवस्स। मण्डल बत्तमान पकाऽपि मूया जम्बूधापरवेक पञ्चम चक्र तिरियं ततो दोना-गे वह वहायावा॥३॥". बालभागं सापटपधिकशतभागसत्कभागवयही- म०प्र०३ पार० प्र०। (चन्द्रसूर्ययोदक्विणोत्सरचारा: नं प्रकाशयति । अपरोऽपि सूर्य पकं पञ्चमं चक्रवालजागं
'मयण' शब्द प्रथमभामे ७५० पृष्ठे व्याः ) साईपष्टपधिपत्रिंशच्छतभागघ्यहीनं प्रकाशयति । त- | (२४) अथ जम्बूद्वीपे सन्धाऽऽदीनां चारक्षेत्रविफम्भतीये अहोरात्र तृतीये मण्डले वर्तमान एकोऽपि सूर्य एकं
मानमाहपञ्चमं चकवासभागं साई षष्ट्यधिकट्त्रिंशच्छतभागसत्क
दीवे आसइसयं जो-प्रणाण तीसहिप्रतिभि सय सवणे। मागचतुष्टयन्यून प्रकाशयति । अपरोऽप्येकं पञ्चमं चक्रवालभाग साईपष्टयधिकषत्रिशच्छतभागसत्कनागवतुष्टयन्यूनं
खितं पणसय दसहि अनागा अमयाल इगसट्ठी॥ ॥ प्रकाशयति । एवं प्रत्यहोरात्रमकैकः सूर्यः षधिकषत्रि
दाणे जम्बूद्वीपे चन्छयोः सूर्ययोश्च केत्र चारोत्रं विफम्मतो:शतभागसत्कभागद्वयमोचनेन प्रकाशयन् तावदवसेयो या.
शीत्यधिकं शतं योजनानां १०८, लवणे चत्रिंशदधिकानि त्रीणि वत्सर्वबाह्यं मम सर्वाभ्यन्तराममण्डलात्परतस्यशीत्यधिक
शतानि योजनानाम् ३३० । उभयोमीलने दशाधिकानि पञ्चश. शततम, ततः प्रतिमएडसं भागद्वयमोचनेन यदा सर्वदाय
तानि योजनानामष्टचत्वारिंशकपष्टिभागा योजनस्य ५१० । मएमसे चरति, तदा त्रीणि शतानि षट्रषघधिकानि भागानां
" । नत्राणामपि चारकेत्रमेतदेव, सर्वाज्यन्तरसबाह्यअट्यन्ति, यशीत्यधिकस्य शतस्य द्वाज्यां गुणंने पतावत्याः
मण्डलयोः परस्परं दशाधिकपञ्चशतयोजनप्रमाणान्तरालसंनयाया भावात । त्रीणि शतानि षट्पष्टपधिकानि पञ्चमः
स्योक्तत्वात । ग्रहाणां. तारकाणां च चारकेत्रविष्कम्भमान चक्रचालभागस्य द्वात्रिंशदधिकसप्तशतनागप्रमाणस्या परि.
व्यक्तया शास्त्रेषु नोपमन्यत इति । म। पूर्ण तत्र मएकले त्रुट्यतीति एक एव परिपूर्णः पचमचक्रवाल
(३५)(ज्योतिप्काणामल्पबदुत्वं 'अप्पाबहुय' शदे प्रथम. भागस्ता प्रकाश्यः । तथा चाह-"ता जया णं" न्यादि ।। भागे ६४१ पृष्ठे जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिपातो गतार्थम, न तत पर तत्र यदा, णमिति पूर्ववत् । एतौ प्रवचनप्रसिद्धौ द्वापि सूर्यो |
अन्यान्तरपाठो बितन्यतेऽतस्तत पवावधार्यम). सर्वयाह्यमएमनमुपसंत्रम्य चारं चरतः, तदा तो समुदिती ज
(३६)संप्रति चन्मसूर्यग्रहनक्कत्रताराणां कः शीघ्रगतिभगवमद्धीपस्य । चकवालपश्चमभागा अवनासयत उद्योतयत
माख्यात इति, ततस्तहिषयं प्रश्नसूत्रमाहस्तापयतः प्रकाशयतः। तद्यथा-एकोऽपि सूर्य एकं पञ्चमं स. सा कहं ते सिग्धगती वत्यु आहिते ति वदेज्जा ?। ता कवावनागं प्रकाशयति । एकोऽपि अपरोऽपि,द्वितीयोऽपीत्यर्थः।। एतेसि णं चंदिमसूरियग्गहगणनखत्ततारारूवाणं चंदेहिएकं पञ्चमं चक्रवाल जागं प्रकाशयति ।" तथा " इत्यादि।।
तो सूरा सिग्घगती, सूरेहिंतो गहा सिग्यगती, गहेहितो सदा संवाह्यमएकलचारकाले उत्तमकाष्ठाप्राप्ता उत्कर्षिका श्र.. दशमुहत्ता रात्रिः.जघन्यतो द्वादशमुहर्तप्रमाणो दिवसः।इछ ।
णक्रवत्ता सिग्धगती, पक्वत्तेहितो तारा सिग्यगती, पथा निफामतोःसूर्ययोर्जम्बद्धीपविषयप्रकाशविधिः क्रमेण ही सयपगती चंदा, सवसिग्धगती तारा। पमान जलः, तथा सर्वबाबादमएकलादभ्यन्तरं प्रविशतोः क्रमेण | "ता करते" इत्यादि । 'ता' इति पूर्ववत् । कथं भगवन् ! त्वया वर्षमानो वेदितव्यः। तद्यथा-द्वितीयस्य परामासस्य द्वितीये म चन्मसर्याऽऽदिक वस्तु शीघ्रगत्यात्मकं शीघ्रगति पाण्यात होराने सर्यवाह्यान्मपरबादाक्तनेऽनन्तरे द्वितीये मएमले. वर्स- इति वदेत् ।। भगवानाह.-"ताएपसिण" इत्यादि । पतेषां मान एकोऽपि सूर्य एकं जम्बूद्वीपस्य पञ्चमं चक्रवाबभागं षष्टयः | चरूसूर्यग्रहनक्षत्रतारकाणां पशानां मध्ये चन्भ्यः सूयाः धिकषत्रिंशच्छतसंख्यनागसत्कभागप्याधिक प्रकाशयति । शीघ्रगतयः, सूर्येभ्योऽपि ग्रहाः शीघ्रगतयः, प्रदेयोऽपिनअपरोऽपिसूर्य एकंपाम चक्रवानभागं षष्टयधिकषशिवतत्राणि शीघ्रगतीनि, नत्रेभ्योऽपि ताराः शीघ्रगतयः । अत एसंस्पनागसत्कनागद्वयाधिकं प्रकाशयति। दिनीयस्य पदमास- बैतेषां पञ्चानांमध्ये सर्वाल्पगतयश्चमा,सर्वशीघ्रगतयस्ताराः। स्पद्वितीयेऽहोरा सर्ववाद्यान् मएमसाद कने ननीय मण्ड। (३७) एतस्यैवार्थस्य सविशेषपरिकानाय प्रभं करोतिवर्तमान एक पलम बकवासभागं पश्यधिकपदशित- ता पगमेगणं मृहत्तेरा चंदे केवतियाई नागसताई ग
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(१६०६ )
अभिधानराजेन्द्रः ।
जोइसिय
तिता में मंडप
मेला चारं चरति तस्स तस मंडल परिक्खेवरून सत्तरस श्रट्टे भागा सते गच्छति, हाती संता के सा। ता एगमे
सतह
मुझे सूरिए के तियाई जागसताई गच्छति । ता नं नं मंडल उपमिताचारं चरति तस्समपरिक्वस्स अफारस तीसे जागसते गतिमंदतइस्ने अडानमा नागमेग पक्वते केवतिया जगात गच्छति है। ताजं जमलं नमिताचारं चरति तस्स तत्र मंगलस्स परिक्खेबस्स अवारसपणती भागते गतिमंदस्पेणं भाणवतिसतेहिं बेत्ता ।
26
तापगमगेणं " इत्यादि । 'ता' इति पूर्ववत् । एकैकेन मुहून चन्द्रः कियन्ति महलस्व भागशतानि गच्छति ? जगबामाह -" ताजं जं" इत्यादि । यद्यद् मण्डलमुपसंक्रम्य चन्द्रश्चारं चरति, तस्य तस्य मरुतस्य संबन्धिनः परिक्षेपस्य परिधेः सप्तदशशतान्यष्टषष्ठपाधकानि जागानां गच्छनि भएक
परिपमेन शतसहस्राशनवस्या शि भज्य । श्यमत्र जावना-इह प्रथमतश्चान्द्रमसो मएमल कालो निरूपणीयनन्तरं तनुसार मुहूर्तमतपरिमाणं भावी बम् । तत्र प्रथममएकल कालनिरूपणार्थमिदं त्रैराशिकं यदि
दशनिः शनैरपश्यतिभिरएक गैरटादश शतानि त्रिंशदधिकानि रात्रिन्दियानि सज्यते, त द्वाज्याला (मति भाव) कति रात्रिन्दिवानि सज्यन्ते । राशि त्रयस्थापना - १७६८ । १८३० । २ । राशिनाथ राजन त्रिशतानि ष्टद्यधिकानि । ३६६० । पतंषामाद्येन राशिना मागर, अन्धेदिशेषत स्वधिकंश १२३ तक रात्रिदिवे इति तस्य त्रिगुणने जान
कानि । ३७२० । तेषां सप्तदशनिः शतैरते लौ द्वौ मुहूतौ ततः शेषवच्छेद कराइयोरटकेनापवर्तना जनश्राशित्रयोविंशतिदशशत कविशत्य
त्रिके, श्रागता मुहूर्तस्यैकविंशत्यधिकशतद्वयज्ञागास्त्रयोविंशतिः । एतावता कालेन देऊं मण्डले परिपूर्ण चरति । कि मुक्तं ।। रे भवति ? एतावता कालेन परिपूर्णमक मामले च न्द्रश्वति तदेवं मण्डल कालपरिज्ञानं कृतम् । साम्प्रतमेतदनुसा रेण मुहूर्त गति परिमाणं चिन्त्यते तत्र ये द्वे रात्रिदिवे ते मुहूर्तकरणार्थ त्रिंशता गुण्येते, जाताः षष्टिमुहूर्ताः । ६० तत उपरितनी
मुकिता, जाता द्वाः । ६२ । एषा सवर्णनार्थ द्वा ज्यां शतायामेकविंशत्यधिकाभ्यां गुगयते, गुणयित्वा चोपरि तना प्रयाविशतिः क्षिप्यते, जातानि त्रयोदशसहस्राणि सप्तश तानि पञ्चविंशत्यधिकानि । १३७२५ । एतदेकम एक लागत मुहूर्त सत्कविशत्यधिकशतद्वयभागानां परिमाणं; तनस्त्रैराशिककमवसरः यदि त्रयोदशभिः सहस्रैः सप्तभिः शतैः पञ्चवि शत्यधिकैरेकविंशत्यधिकशुनद्वय नागानां मएकल नागा एकं
सहस्रनष्टायलिशान लभ्यन्ते तत एनमुकिल नामहे ? राशिस्थापना - १३७२५ । १०६८०० १ । इाद्य कविधिभागरूपस्ततः पार्थ
ओइसिय
यो राशिकाभ्यामेकविंशत्यधिक गुण्यते जाते द्वे शते एकविंशत्यधिके । २२१ । ताभ्यां मध्यरा शिष्यते जाते फोट
राय शतानि । २४२६५८०० । तेषां त्रयोदशभिः सहस्रैः सप्तत्रिः शतैःपञ्चधिकैर्भागो हियते, लब्धानि सप्तदशशतान्यष्टषष्ट्यधिकानि । २७६८ । एतावतो भागन यत्र तत्र एकमएमले चन्द्रो मुहूर्तेन गच्छति । गमेत्यादिति पूर्ववत् कैकेन मु सैन सूर्यः क्रियन्ति भागशतानि गच्कूति ? । भगवानाह - "ता जं जं" इत्यादि । यद्यन्मण्डपक्रम्य सुधा
ता
1
तस्य तस्य मण्डल संबन्धिनः परिक्षेपस्य परिधेरष्टादशनागशतानि विधिका सहाय याच शासइति । त्रैराशिक बलात् तथा हि-यदि पष्टधा मुहूर्तैरेकं शतसहस्रमष्टानवतिः शतानि मामलभागानां लभ्यन्ते तत एकैकेन मुहू· सैन कति भागान् लजामहं ? राशिश्रय स्थापना- ६० । १०५ ८०० | १| अत्रान्त्येन राशिना एकलक्षणन मध्यस्य राशगुणनं, जातः स तावानेव । एकेन गुणितं तदेव जयति" इति वचनात् । ततस्तस्याऽऽधन राशिना पटिलकणेन भागो हियते लब्धाम्यष्टादशशतानि त्रिंशदधिकानि । १८३० । एतावतो भागान् मराकलस्य सूर्य एकैकेन मुहूर्त्तेन गच्छति । "ता एगमगें" ६त्यादि । 'ता' इति पूर्ववत् । एकैकेन मुहूर्त्तेन कियतो भागान्मएमलस्य नक्कत्रं गच्छति । जगवानाह " ता जं जं " इत्यादि । यद्यदात्मीयमा कालप्रतिनियतमएक लमुपसंक्रम्य चारं चरति तस्य तस्याऽऽत्मीयस्त्र मण्फलसंबन्धिनः परिकेपस्य परिपरशरभागशतानि कानि गच्छति म शतसहस्रेणाष्टनवत्या च शतैश्वित्वा । इहापि प्रथमतो म एडलका निरूपणाय ततस्तदनुसारेणैव मुहूर्त्तगत परिमाणभान्वना । तत्र मएकल काल प्रमाणांचन्तायामिदं त्रैराशिकम. मद्यशाधिकैः सकलयुगादिनिभएक शतानि विधिका त्रिदिव सोद्वाभ्यामर्द्धमान परिपू
वः) किं लजामडे ? राशित्रयस्थापना - १०३५ । १८३० । २ । अपन राशिना मध्यराशेनं जाताना षष्ट्यधिकानि । ३६६०। तत आद्येन राशिना भागहरणम् ।१८३५ । लब्धमेकं रात्रिन्दिवम । १ । शेषाणि तिष्ठन्त्यष्टादशशता१०२५ नयनार्थमेतानि
जानि
पञ्चाशदधिकानि । ५४७५० । तेषामष्टादशनिः शतैः पञ्चहुलाको २९ पराया जात राशिः, ऋणि शतानि सप्तोत्तराणि । ३०७ | छेदकराशि: त्रीणि शतानि सप्तषष्ट्यधिकानि । ३६१ । तत आगतमकें रात्रिन्दित्रम, एकस्य च रात्रिन्दिवस्यैकोनत्रिंशन्मुहूर्ताः एकस्व च मुहूर्त्तस्य सप्तयष्ट्यधिकत्रिंशद्भागानां त्रीणि शतानि सप्तोत्तरा२६ । ३०७ | दानमेतदनुसार परिमा
३०
कोही प्रजातानि सासवर्णनार्थे त्रिभिः शनैः सप्तषष्ट्यधिकैर्गुण्यते, गुणयित्वा घोपरितनानि श्राणि शतानि सप्तोत्तराणि प्रक्षिष्यन्ते, जाताम्य
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जोइसिय
कविंशतिसहस्राणि नवशतानि षष्ट्यधिकानि । २१६६० । तनस्त्रैराशिक यदि मुहूर्तगत सप्तषष्ट्यधिकत्रिशद्भागानामे विशत्या सहस्रैर्नवभिः शतैः षष्ट्यधिकैरकं शतसहस्रमा नपतितानि मसलत कि
लभामहे ? राशिश्रय स्थापना - २१९६० १०६८०० १ अत्रा यो राशिगत सप्तद्यधिकत्रिंशदू जागरूपः, ततोऽन्त्या ऽपि राशि स्त्रिभिः शतैः सप्तघधिकैगुण्यते. जातानि श्रयेव शताधिक ३६ जाता तत्रः कोटयो द्वे के पत्रासहस्राणि षट्शतानि । ४०२६६६०० । तेषामधन राशिनैकविंशतिः सहस्राण नवशतानि पधिकानं त्येवंरूपेण भागो हियते, सन्धान्यष्टादशशतानि पञ्चत्रिंशदधिकानि । १८३५ । एतावतो भागाशकत्रं प्रतिमू दुगच्छति, तदेवं यतश्चन्द्रो यत्र तत्र वा मएकले एकैकेन मुहूर्तेन मण्डल परिक्षेपस्य सप्तदशशतान्यष्टयधिकानि भा गानां गच्छति, सूर्योऽष्टादशशतानि त्रिंशदधिकानि नक्षत्रम
( १६०७ ) अभिधानगजेन्द्र |
लानि पञ्चशदधिकनिकः सूर्याः, सूर्येभ्यः शीघ्रगतीनि नक्षत्राणि, ग्रहास्तु वक्रानुवाSSदिगतिभावतोऽनियतगतिप्रस्थाना ततो न पामुक्तप्रकारं यतिप्रमाणप्ररूपणा कृता ।
उक्तं च"चंदेहि सिगरा, सूरा सुरेहि होति नक्त्ता । अणियगपत्थाणा, हवंति सेसा गहा सब्वे ॥ १ ॥ अट्ठारस पणती से, भागसप गच्छर मुहसेणं । नक्खत्तं चंदो पुण, सत्तरस सए व बहऽ ॥ २ अडारसजागसए, तीसे गच्छ रखी मुहुरा । नखत्तसीमा, सो चे रहनायच्वो ॥ ३ ॥
इदं गाथात्रयमपि सुगमम् । नवरं नत्र सीमाच्छेदः स ए यात्रापि ज्ञातव्य इति । किमुक्तं भवति ? - अत्रापि मएमसमेकन शतसहस्राष्टानवत्या च शतैः प्रविभक्तव्यमिति ।
(३०) स्वरूपमेव चंद्रनत्राणां परस्परं मनागविषयविशेषं निर्द्धारयति - ता जया यांचं गविसमा भवति से गतिमा सकेपत्रिनेनेति । वापडिजागे विसेविता जनाणं गतिमा गतिसमाज से एं गतिमा
ताए कंवतियं विसेसेति । सत्ता भागे विसेसेति । ता जता सूरं गतिसमावणखने गतिसमासे भवति से गतिमाताएं केवतियं विसेसेति । ता पंचभागे विमेसेति । ता जना से चंदगतिसमासेवितं गतिसमासे पुरच्छिमाते जामाते समामादिन्ना णवमुहूत्ते मत्तावीसे च तडिभागे चंदे सद्धिं जोएति, जो जोमुहुत्तस्म एसा जो परियकृति, जो जोएता विजेति, विजह तिने गोई याचि जयति ता जता से चंद्रगतिममा समावणे पक्वते गतिसमासे पुरमा विज्ञागा मायादेति पुरा भागाते समासादेशा मुझे चंदे जो जो जो जोएना मो अपरिहति नो जोएसा विनेति विजइति,
जोइसिय
विध्यमान विगतमो वापि पति एवं एए अमि लामहता राई, तिमतीचा भागयव्वाई जात्र उत्तरासादा ।
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ता जया णं" इत्यादि । 'ता' इति पूर्ववत् । यदा णमिति वा वाहङ्करे। चन्द्रगतिसमापन सुगनि किनो भवति । किमुक्तं भवति ? - प्रतिमुहूर्तचन्द्र गतिमपेक्ष्य सूर्यपरि
न कियन्तो नागान्मुनीन् विशेषयति ?, एकेन मुहूर्तेन चन्द्रोक्तभितेभ्यो जागेभ्यः कियतोऽधिकतरा जागान् सूर्य आक्रामतीति भावः भगवानाह द्वाषष्टिभागान् विशेषयति । तथाहि चन्द्र प केन हर्तेन सप्तदशनागशतान्यषष्ट्यधिकानि गच्छति। १७६८ । सूर्योऽष्टादशशतानि त्रिंशदधिकानि । १८३० । ततो भवति द्वाषष्टिभागकृतः परस्परविशेषः । ता जया णं" इत्यादि । 'ता' इतिवत् यदा गतिसमापनमपेक्ष्य न गतिमा निदान क तिपरिमाणेन किवन्तं विशेषयति ?, चन्द्राक्रमितभ्यो जाज्यः कियतो जागानधिकानाक्रामतीति ज्ञावः । भगवानाद- सप्तप विभागाशक केन मुहूर्तेन श्रष्टादशभागशतानि पञ्चत्रिंश धिकानि चन्द्रस्तु सप्तदशभागशतान्यष्टपत्रिकानिः तद उपपद्यते सप्तषष्टिभागकृतो विशेषः । " ता जया गं" इत्यादि प्रश्नसूत्रं प्राग्वद् नावनीयम् । जगवानाह - "ता पंच " इत्यादि । पञ्च भागान् विशेषयति, सूर्याऽऽक्रान्तभागेभ्यो नक्कत्राssक्रान्तभागानां पञ्चभिरधिकम्बात् । तथाहि सूर्य एकेन मुहूर्तेनावादश भाग रानानि त्रिंशदधिकानि गच्छति । नक्षत्रमष्टादश भागशतानि पञ्चत्रिधिकानि ततो भवति परस्परं पश्चभागकृतो विशेषः । ताजा णं" इत्यादि । 'ता' इति पूर्ववत् । यदा जमिति वाक्यालङ्कारे, चन्द्रगति समापन्नमपेक्ष्याभिजिम्न गति पतितानि
1
शकत्रं चन्द्रमसं समासादयति । एतश्च प्रागेव नावितम् । समा साद्य च नव मुहूर्तान्, दशमस्य च मुहूर्तस्य सप्तत्रिंशतिः सप्तष्टिभागान् बन्द्वेण सार्द्धं योगं युनक्ति, करोति, एतदपि प्रागेव भावितम् । एवंप्रमाणं च कालं योग युक्ता पर्यन्तसमये योगमनु परिवर्तयति । श्रवजन कत्रस्य योगं समर्पयतीति भावः । बोग पराया तेन सद्यो जातक बढ़ना है तो चापि भवति । " ता जया गं" इत्यादि । 'ता' इति प्राभवत् । यदा चन्द्रं गतिलमापनमपेक्ष्य श्रवणनकत्रं समापनं भवति, तदा तच्छ्रवणनक्कत्रं प्रथमतः पौरस्त्याद्भागात्पूर्वेण जागेन चन्द्रमसं समासादयति, समासाद्य चन्द्रेण साई त्रिंशन्मुहूर्तान् याव
नावापर्यन्तसमये योगमनु परिवर्तयति । धनिष्ठानक्कत्रस्य योगं समर्पयितुमारभते इत्यर्थः । योगमनु परिवर्त्य च तेन सह योगं विप्रजहाति । किं बहुना विनयोगी बाऽपि भवति।"" इत्यादि प्रकारान्तरोपयानि मुहू
'मुहू
सांनिशी
यानिि पीनि यानि च पञ्चम्बारिश म्युक्तर सर्वाण्यपि क्रमेण तावद्भणिकयानि यावदुत्तराषाढा । तत्राभिलापः लुंगमत्वात्स्वयं जावनीयः प्रत्थगौरव भयान जिख्यत इति । (३९) योगता जया णं चंदगतिमा गगतिसमात्र पुरच्छि
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(१६०८) ओइसिय अभिधानराजेन्द:।
जोइसिय माते जागात समासादति,पुरच्छिमाते जागात समासादे- से जागाते समासादति, पुरछिमाते जागाते समासादचा ता चंदेणं सम् िअद्धा जागं जुजति,अधा जोगं जुजति- | सरेण सकिं अधा जोयं जुजति, अदया आयं जंजित्ता चा प्रवधा जोगंभापरियट्टति, अदा जोगं अणुपरियट्टति- प्रका जायं प्रापरियति, अवधा जोयं प्रणपरियहिचा चा विजेति, विजहति, विपजाति, विगतजोई याविनवति।। विजेतिन्जाव विगतजोई यावि भवति । "ता जया पं" इत्यादि । 'ता' इति पूर्ववत् । "ता नया पं" इत्यादि सुगमम। बदा णमिति वाक्यालारे, चन्दं गतिसमापन पक्ष्य (४२) मधुना चकाऽऽदयो नत्रेण मासन कति मएफलानि प्रदो गतिसमापो नवति, तदा स प्रहः पौरस्त्याजागाम्पू.
चरन्तीत्येतनिकपयितुकाम माहग भागेन प्रथमतश्चक्रमसं समासादयति, समासाचच नाणक्खत्तेणं मासेणं चंदे कति मंगलाई चरति । ता बचासंभवं योगं युनक्ति, यथासंन योगं युक्त्वा पर्यन्तसम.
तेरस पसाई चरति, तेरम य पत्तहिजागे मंडलस्स । वेषयामंजवं योगमनुपरिवर्तयति, यथासंभवमन्यस्य प्रहस्य बोगसमर्पयितुमारप्रते इति। प्रावयोगमनुवस्वं च तेन सहयोग
ताणक्खनेणं मासेणं सूरे कति मंगलाई चरति ।। तातेरस विजहाति, विप्रजहाति।किंबहुना, विगतयोगीचापि प्रवति ।
मंगलाई चरति, चोचालीसंच सत्तहिभागे मंडलस्स । ता (४०) अधुना सूर्येण सह नक्षत्रस्य योगचिन्तां करोति- णक्वचे कति मंकलाई चरति । ता तेरस कमाई चरवि, गाजयाण सूरं गतिसमावण्यं अभिई णक्खत्ते गतिसमावो पुर असीतालीसं च सद्विजागे मंगलस्स । जिमाते भागाते समासादेति,पुरच्छिमाते भागातेसपासादेत्ता | "तापक्वतेणं"त्यादि । 'ता' इति पूर्ववत निकत्रेसमापत्तारि महोरत्ते ध्व मुहत्ते रेणं सकिं जोयं जोएति, जोयं
सेन बाकः कति मएफलानि चरति । पर्व गौतमेन प्रमे रुते
भगवानाह-"ता तेरस" इत्यादि। त्रयोदश मएलान, चतुरअणुपरियट्टति,प्रणपरियाट्टित्ता विजेति,विजहति,विप्पजह
शस्य मएमसस्य त्रयोदश सप्तषष्टिनागान् । कथमेतदवसीयते! ति,विगतनोई याविजवति एवं प्रहारत्ता छ एकवीसं मुडुत्ता इति बेत् उच्यते-राशिकमला। तथाहि-यदि सप्तषष्टयानप, तेरस महारत्ता वारस मुहत्ता य, वीसं आहोरत्ता तिमिश पत्रमासरथे शतानि चतुरशीत्यधिकानि मपरसानां अभ्यन्ते, मुर्त्ता य, ताव सब्वे भाणितब्दा जाव नत्तरासादाणक्खता। सत एकेननकत्रमासेन कि सभामहे ।राशित्रयस्थापना-६७। "ता जया " इत्यादि । 'ता' इति प्राग्वत । यदा सूर्य गति.
८८४ ।। अत्रामस्येन राशिना मध्यराशेर्गुणनं, जातः स समापनमपेक्ष्याभिजिचकत्रं गतिसमापनं भवति, तदाऽनिजि- ताबानेव, तस्य सप्तषश्या भागहरणं, सम्धानि त्रयोदशमएमपत्रं प्रथमतः पौरस्त्याद्भागात्सूर्य समासादयति, समासाच मानि, चतुर्दशस्य च मममस्य प्रयोदश सप्तषष्ठिभागाः। १३। चतुरः परिपूर्यानहोरात्रान, पञ्चमस्य चाहोरात्रस्य परमुहान " ताणक्यते " इत्यादि मर्यविषयं प्रसत्रं सुगमम। पावत्सर्येण सह योग बुनक्ति। एवंप्रमाणं च कालं यावद्योग जगवानार-"ता तेरस" इत्यादि । प्रयोदश मएमलानि, चतुः पुस्त्यापर्यन्तसमये योगमनुपरिवर्तयति। श्रवण नक्कत्रस्य योग देशस्य च मामलस्य चतुश्चत्वारिंशतं सप्तवाष्टिनागान् । तथाहिसमर्पयितुमारभत इति भावः। अनुपरिवर्त्य च तेन सहयोग यदि सप्तषष्ट्या नकर्मासनव शतानि पञ्चदशोत्सराणि मबिजहाति,विप्रजहाति,किंबहुना !,विगतयोगी चापि भवति। बरसानां सूर्यस्य लभ्यन्ते, तत एकेन नक्कण मासेन कति 'पर्व' इत्यादि । एवमुक्केन प्रकारेण पश्चदशमुर्तानां शतभिष- मएममानि मनामहे ।राशित्रयस्थापना-६७ । ११५।।
प्रभृतीनां पडहोरात्राः, सप्तमस्याहोरात्रस्यकविंशतिमुहर्ता- मत्रान्स्येन राशिना मध्यराशेर्गुणनं, तत पायेन राशिना भागमिशन्मुहुर्तानां भवणाऽऽदीनां प्रयोदश अहोरात्राश्चतुर्दश- हारः, सम्धानि त्रयोदश मण्डलानि, चतुर्दशस्य च मामलस्व स्याहोरात्रस्य द्वादश मुहूत्ताः, पनचत्वारिंशन्मुहानामुत्सर. चतुश्चत्वारिंशत्सप्तपष्टिभागाः।१३।४। "ता पत्र" इत्यादि मापदाऽऽदीनां विंशतिरहोरात्राः, एकविंशतितमश चा... नक्षत्रविषयं प्रभसूत्रं सुगमम् । नगवानाह-"ता तेरस" इत्यामोरात्रस्य प्रयो मुहर्ताः, क्रमेण सर्वे तावाणितच्या पाना। दि । त्रयोदश भएकसानि, चतुर्दशस्य च ममतस्य अर्थसप्तच. सराचाढामकत्रमा
स्वारिंशतं सार्धषट्चत्वारिंशतं सप्तषष्टिनागान् चरति । तथाहि. तत्रोत्तराषाढानकत्रगतमत्रिलापं साकादर्शयति- यदि सप्तषष्ट्या नकत्रैमासैरष्टादशशतानि पत्रिंशदधिकानि वाजता णं सूरं गतिसमावणं उत्तरासादाणक्खत्ते ग- अमरामलानि नक्कत्रस्य अभ्यन्ते, तत एकेन नक्षत्रेण मा. तिसमावस्मे पुरच्छिमाते भागात समासादेति, पुरच्चिपाते
सेन कि लभामहे ।राशित्रयस्थापना-६७ । १०३५।१।
अत्रामयन राशिना मध्यराशेर्गुणनं, तत भागेन राशिना भागाते समासादेत्ता वीसं अहोरत्ते तिमि य मुहत्ते
प्रागदारः, सम्धानि सप्तविंशतिरमण्डलानि,अष्टाविंशतितममरेण सदि जोयं जोएति, जोयं जोएत्ता जोयं अणुप
स्य चाचपडसस्य पदिशतिः सप्तषष्टिनागाः २७ । ततो रियति,जोयं अपरियहिता विजेति, विजहति, द्वाभ्यामचमगामाज्यामेकं मामलमित्यस्य राशरकरणे विप्पजहति, विगतजोई यावि भवति ।
मम्धानि प्रयोदश मण्डलानि, चतुर्दशस्य भएमसस्य सार'ता जया' इत्यादि सुगमम् । एतदनुसारेण शेषा भप्यालापाः पदमरवारिंशात्सप्तपष्टिभागाः । १३ ।। स्वयं वक्तम्याः, सुगमत्वासु नात्र दश्यन्ते।।
(४३) संप्रति चन्नमासमधिकृस्य सन्द्राऽऽदीनां मएमसनि(४१) संप्रति मर्येण सह ग्रहस्य योगचिम्तां करोति
पणां करोतिना जवाणं मुरं गतिसमाव; गहगतिसमावो पुरलिया वा चंदे मासेणं चंदे कति संपत्ताई चरवि। बोस
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जोइसिय
जोइसिय
प्रनिधानराजेन्द्रः। चनलागाई मंगलाई चरति, एगं चचीससयभागं (४) साम्प्रतमृतुमासमधिकृत्य चन्द्रादीनां मण्डलमंडलस्स । ता चंदेणं मासेणं सूरे कति मंगलाई चरति ?।
निरूपणां करोतिसा पम्मरस चनजागृणाई मलाई चरति, एगं च चन
ता उनणा मासेणं चंदे कति मंडलाई चरति। ता चोरसमबीससयभागं मंडलस्स । ता चंदेणं मासेणं णक्खत्ते कति |
डलाई चरति, तीसं च एगघिभागे मममस्स । ता उउणा मंगलाई चरति १। ता पारस चनभागृणाई मंगलाई।
मासेणं सूरे कति मंडलाई चरति ? | ता पणरस मंझलाई चरति, बचउबीससतनागे मंगलस्स ॥
चरति । ता उनणा मामेणं एक्खत्ते कति ममलाई चरति ।। " ता चंदणं" इत्यादि । 'ता' इति पूर्ववत् । चन्द्रेण मा
ता पणरस समझाइंचरति,पंच य बावीससतभागे मंडलस्स । सेन प्रागुक्तस्वरूपेण, चन्छः कति मामलानि चरति भ.
"ता उमासेणं चंदे " इत्यादि । ऋतुमासेन कमान मवानाह-"ता चउद्दस" इत्यादि । चतुर्दशस्य चतुर्भाग
चकः कति मामलानि चरति ?। नगवानाह.." ता चोइस" मण्डलानि चतुर्नागसहितानि मामलानि चरति, एकं च इत्यादि । चतुर्दश मण्डलानि चरति। पञ्चदशस्य च मममस्थ चतुविशतितमं मण्डलस्य । किमुक्तं भवति ?-परिपूणानि विशतमेकषष्टिभागान् । तथाहि-यदि एकपष्टया कर्ममासरी चतुर्दश मएफलानि, पञ्चदशस्य च ममनस्य चतुर्भाग चतु
शतानि चतुरशीत्यधिकानि मएकलानां सभ्यन्ते,तत एकन कर्म. विशत्यधिकशतसत्कैत्रिंशद्भागप्रमाणम, एकं च चतुर्विंशयः |
मासन किं सन्नामहे ।राशित्रयस्थापना-६१।८८४।१मत्राधिकशतस्य भागं द्वात्रिंशतं, पञ्चदशस्य मण्डलस्य चतुर्वि |
न्त्येन राशिना एकलकणेन मध्यराशेगुणनं, जातः स तावाकात्यधिकशतभागान् चरति । तथाहि-यदि चतुर्वि
नेव । तस्य एकपष्टया जागहरणं, लब्धानि परिपूर्णानि चतुशत्यधिकेन पर्वशतेनाष्टौ शतानि चतुरशीत्यधिकानि मण्डलानां |
दश मामलानि, पञ्चदशम्य च मण्डलस्य त्रिंशदेकपष्टिसभ्यन्ते, ततो द्वाभ्यां पर्वाभ्यां किं मनामहे ? राशित्रयस्थापना
भागाः । १४ ।" ता उउणा मासेणं " इत्यादि सूर्यविषय १२४ागण्वाराअत्रान्स्येन राशिना द्विकलक्षणेन मध्यराशेर्गुणनं,
प्रश्नमत्रं सुगमम । भगवानाह-" ता पणरस " इत्यादि। जातानि सप्तदशशतान्यष्टपटवधिकानि १७६७। तेषां चतुर्विशत्य
पञ्चदश परिपूर्णानि ममलानि चरति । तथाहि-योकपण्या धिकेन शतेन भागहरणं,लब्धानि चतुर्दश मण्डलानि, पञ्चदश.
कर्ममासैनव शतानि पञ्चदशोसराणि सुर्यमण्डलानां लभ्यन्ते. स्य च मएमसस्थ काशिचतुर्विशत्यधिकशतजागाः।१४३३३ ।
तत पकन कर्ममासेन किलभामहे |राशित्रयस्थापना-६१ । "ता चंदणं" इत्यादि सूर्यविषयं प्रश्नसूत्रं सुगमम् । "ता
११५।१। अत्राम्त्येन राशिना मध्यराशिगुण्यते,जातः सतावापन्नरस" इत्यादि । पञ्चदश चतुर्भागन्यूनानि मण्डलानि चरत्ति,
नेव,तस्यैकपटचा भागहरणं, लब्धानि परिपूर्णानि पन्चदशमएकं च चतुर्विशत्यधिकशतभागं मालस्य । किमुक्तं भवति?
पालानि। १५ । "ता उणा मासेणं"इत्यादि नवत्रविषय प्रमचतुर्दश परिपूर्णानि मण्डलानि, पञ्चदशस्य च मण्डलस्य
सूत्रं सुगमम । भगवानाह-"ता पणरम" इत्यादि । पञ्चदशम. चतुर्नवतिचतुविशत्यधिकशतभागान् चरति । तथाहि-यदि
एमलानि चरति षोडशस्य च ममलस्य पञ्चद्वाविंशतिशतमा. चतुर्विशत्यधिकेन पर्वशतेन नव शतानि पञ्चदशोत्तराणि
गान् । तथादि-यदि द्वाविंशेन कर्ममासशतेनाष्टादश शतानि प. मरमलानां लभ्यन्ते, ततो द्वाज्यां कि सभामहे ॥राशित्रयस्था
त्रिंशदधिकानि मण्मयानि नक्कत्रस्य लभ्यन्ते,तत एकन कर्मपना-१२४ । ११५। २ । अत्राम्त्येन राशिना मध्यराशेर्गुणनं,
मासेन किं लभामदे? राशित्रयस्थापना-१२।१०३५।१।प्र. माताम्यष्टादश शतानि त्रिंशदधिकानि । १८३० । एतेषामायेन
पान्त्येन राशिना मध्यराशगुणनं,जातःस तावानेव,तस्याऽऽयेन राशिना चतुर्विशत्यधिकेन शतेन नागहरणं, बन्धानि चतुर्दश
सशिना द्वाविंशत्यधिकशतरूपेण नागहरणं.लब्धानि पञ्चदश मामलानि, पञ्चदशस्य च मामलस्य चतुर्नवतिचतुर्विशत्य
मएमलानि, पोमशस्य च पञ्चद्वाविंशशतनामाः । १५॥ गरे । धिकशतनागाः । १४१४ा इति। "ता चंदेणं" इत्यादि मक- (४५) संप्रति सूर्यमासमधिकृत्य चन्काउदीनां मधमलानि विषयं प्रश्नसूर्य सुगमम् । जगवानाह-"ता पसरस" इत्यादि।
निरूपयतिपञ्चदशमएम्नानि चतुर्भागन्यूनानि चरति, षट्चतुर्विशत्य. ता प्राइच्चेणं मासेणं चंदे कति मंडलाई चरति । ता धिकशतभागान्मएकलस्य । किमुक्तं प्रवति ?-परिपूर्णानि चोहमयंगलाई चरति, एक्कारस य पत्ररसजागे मंगझस्स। पतर्दशमएफलानि चरति, पञ्चदशस्य च मामलस्य नवनवांतचतुर्विशत्यधिकशतभागान् । तथाहि-यदि चतुर्विशत्य
ता प्राइच्चेणं मासेणं सूरे कति ममलाई चरति ।ता धिकेन पर्वशतेनाष्टादश शतानि पञ्चत्रिंशदधिकानि अर्क
पणरस चउभागाई मंडलाई चरति । ता प्राइचेणं मासेणं मण्डलानां सभ्यन्ते,ततो द्वाज्यां पर्वभ्यां किं लभामहे ? राशि- एक्खत्ते कति ममलाई चरति । ता पणरस चउजागार्ड अयस्थापना-१२४ । १८३५।। अत्रान्स्येन राशिना द्विकप्रक- मंगलाई चरति, पंचतीसं च वीससतनागे मंगलस्स ॥ णेन मध्यराशर्गुणनं, जातानि षट्त्रिंशतानि सप्तत्यधिकानि । ____" ता प्राइचणं " इत्यादि । 'ता' इति पूर्ववत् । श्री. ३६७० । एतेषामाधन राशिना चतुर्विशत्यधिकशतरूपेण नाग- दित्यन मासन चन्द्रः कति मण्डलानि चरति!। भगवाहरणं, बन्धा एकोनत्रिंशत, शेषास्तिष्ठन्ति चतुःसप्ततिः । इदं नाह-चतुर्दश मण्डलानि चरति, पञ्चदशस्य च मएमथाखंभण्डलगतं परिमाणम् । द्वाभ्यां चार्द्धमएमलाभ्यामेकं लस्य पकादश पञ्चदश भागान् । तथाहि-यदि परचा सपरिपूर्ण मण्डलं,ततोऽस्य राशक्षिकेन भागहारः, सम्धानि चतु- यमासैरष्टौ शतानि चतुरशीयधिकामि मण्डलानां चन्द्रस्य ल. देश मण्डलानि, पञ्चदशस्य च मण्डनस्व नवनवतिश्चतुर्वि। ज्यन्त, तत एकन सूर्यमालेन कि लभामहे ।राशित्रयस्थापनाप्रात्यधिकशतभागाः।१४।।
.10 अत्रामन्येन राशिमा मध्यराशेर्गुणनं, जातः स ४०३
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(१६१०) जोसिय अभिधानराजेन्डः।
जोइसिय तावानेव, तस्य षष्ट्या जागहरणं, लब्धानि चतुर्दश मामलानि, त्रयस्थापना-ए२८ । १३७९०४।१। अत्रान्स्यन राशिनेकलरोषास्तिष्ठन्ति चतुश्चत्वारिंशत् । ४४ । ततइद्यम्बेदकराइया- कणेन मध्यराशेस्तामना, जातः स तावानेव,तस्थाsोन ८९२८ भतुम्केनापवर्तना, जात उपरितनो राशिरकादशरूपोऽधस्तनः राशिना भागहरणं, लब्धानि पञ्चदश मामलानि । १५ । पश्चदशरूपः, लब्धाः पञ्चदशमण्डलस्यैकादशभागाः । १४ । शंषमुरति एकोनचत्वारिंशच्कृतानि चतुरात्यधिकानि ।३६.
।"ता भाचणं" इत्यादि सूर्यविषयं प्रश्नसूत्रं सुगमम् । ८४ । ततश्चेद्याछेदकराश्यारष्टाचत्वारिंशता उपवर्तना, जात भगवानाह-पञ्चदहाचतुर्नागाधिकानि मामलामि चरति तथा उपरितनो राशिस्यशीतिरधस्तनः षडशीत्यधिकं शतमान। हि-यदि षष्टया सर्यमासनवशतानि पञ्चदशोत्तराणि मण्डला- आगतं षोडशमामलस्य ज्यशीति पाशीत्यधिकशतभानां सूर्यस्य सभ्यते, तत एकेन मासेन कि सभामहे । रा. गाः । "ता अभिवहितसं" इत्यादि सूर्यविषयं प्रभसूत्र शित्रयस्थापना-६०। ९१५ । १ । अत्रान्त्येन राशिना एक- सुगमम् । जगवानाह-"ता सोलस" इत्यादि । घोडश कणेन मध्यराशेगणनं, जानः स ताबानेव, तस्य पष्टया भागह- मण्डलानि त्रिभिर्भागन्यूनानि चरति । ममलं द्वाभ्यारणं, लब्धानि पञ्चदशमएमलानि, षोडशस्य च षष्टिभागविम- मष्टाचत्वारिंशदधिकाज्यां शताज्यांछित्त्वा तथाहि-यदि षट्पकस्य पञ्चदशनागात्मकाश्चतुर्भागाः । १५ "ता प्राइच- शाशदधिकशतसंख्ययुगभाविमिरष्टाविंशदधिकैराभवति-- सं" इत्याद नक्षत्रविषय प्रभसूत्रं सुगमम् । भगशनाह-"ता प. मासनवाशीतिशतैः सूर्यमण्डलानामेकं लक्ष,विचत्वारिंशत्साहबरस" इत्यादि। पञ्चदश मण्डलानि चतुर्भागाधिकानि पश्चधि- स्राणि, सप्त शतानि चत्वारिंशदधिकानि लभ्यन्ने, तत एकना. शतं विंशत्यधिकशतजागान् मण्डलस्य चरति । किमुक्तं भवति?. निवर्द्धितमासेन किं सभामदे ! । राशित्रयस्थापना-GE२८ | पोमशस्य च मण्डलस्य पञ्चत्रिशतं विशत्यधिकशतभागान् १४२७४०।१। अवान्स्यन राशिनकलकर्णन मध्यराशिगेंचरति । तथाहि-यदि विशन. सूर्यमासशतनावादश शनानि एयते, जातः स ताबानेव, तस्याऽऽद्येन ८१२७ राशिना नागो पञ्चत्रिशदधिकानि मामलानां नक्वत्रस्य लभ्यन्ते, तत एकेन | द्वियते,लब्धानि पञ्चदश मएडानि ।१५। शेषमुदरन्ति अष्टासूर्यमासन कि लज्यत । राशित्रयस्थापना-१२०। १८३५ ॥१॥ शीतिशतानि विंशत्यधिकानि ।८८२० ततइच्छेद्यच्छेदकराश्योः अत्राम्स्येन राशिना मध्यराशिगुणितः, जातस्तावानेव, तस्य पत्रिंशताऽपवर्तना, जात उपरितनो राशिर्के शत पञ्चचत्वारिंविशत्यधिकेन शतेन भागहरणं, लब्धानि पञ्चदश मामलानि, शदधिके । २४५ । अधस्तनो द्विशतेऽष्टचत्वारिंशदधिकं ।२४०। पञ्चत्रिंशच विंशत्यधिकाः शतभागाः पोसशस्य ।१५।।। भागतं षोमशमराकलं त्रिभिर्भागै!नं द्वाभ्यामष्टाचत्वारिंशद(७६) अधुनाऽभिवद्धितमासमधिकृत्य चन्दाऽऽदीनां मएमला- धिकाभ्यां शताभ्यां प्रविभक्तम् ।२४८ । “ता अनिवहिनेण"s. नि निरूपयन्नाह
त्यादि नविषयं प्रश्नसूत्र सुगमम् । जगवानाद-"ता सोलस" ता अजिवलितेणं मासेणं चंदे कति मंडलाई चरति । ता|
इत्यादि । पोमश' मरामसानि सप्तचत्वारिंशता भागैरधिकानि
चतुर्दशनिः शतैरष्टाशीत्यधिकैमएमनं छित्वातियाहि-यदिपपसरस मंझलाई चरति, तेसीति-छचुलसीतिसत
ट्पञ्चाशदधिकशतसंख्ययुगभाविभिरभिवद्धितमासनवाशीतिमागे मंडलस्स | ता अनिवहितेणं मासेणं सूरे कति शतैरष्टाविंशत्यधिकैन कत्रमण्डलानामेकलकं त्रिचावारिंशत्सहमंगलाई चरति । ता सोलस मंगलाई चरति तेहिं ना- स्राणि शतमेकं त्रिशदधिकं लभ्यते, तत एकेनाभिवदितमासेगेहिं कगागाई,दोहिं अमयालेहिं सएहिं मंगलं छित्ता। ता न किसनामहे ।राशित्रयस्थापना-CE२८ । १४३१३०।१। अभिवहितणं मागंणक्खत्ते कति मंझलाई चरति ?।ता
अत्राम्येन राशिना एकलकणेन मध्यराशेर्गुणनं, जातः स ता
• बानेव, तस्दाऽऽोन ८६२८ राशिना भागो हियने, सम्धानि सोसम मंगलाई चरति, संतालीसाएहिं नागेहिं अहि
पोमश मएमलानि, शेषमुद्धरति द्वे शते यशात्यधिके । २०२। याहिं चोद्दसहिं अट्ठामीएहिं सरहिं मंझनं छेत्ता ॥ ततइच्छेद्यच्छेदकराश्योः षट्रेनापवर्तना, जाता उपरि सप्तचत्वा. "ता भजिवलितणं" इत्यादि । 'ता' इति पूर्ववत । अभिवर्कि- रिंशत्, अधस्तु चतुर्दश शतान्यष्टाशोत्यधिकानि । ट। तेन मामेन चन्छः कति मण्डलानि चरति जगवान हता आगताः सप्तचलारिंशद् अष्टाशीत्यधिकचतुःशशतभागाः । पण्णरस" इत्यादि । पञ्चदश मण्डलानि चरति, पोमशस्य बमपमनस्य यशतिषशात्यधिकशतनागान् । तथाहि-प्र
(४७) संप्रत्येकै केनाहोरात्रेण चन्द्राऽऽदयः प्रत्येकं कति मण्मअयं त्रैराशिकम-वह युगेऽभिवस्तिमासाः सप्तपञ्चाशत्, सप्त
लानि चरन्तीत्यतन्निरूपणार्थमाहसाहोरात्राः, एकादश मुदत्तात्रयोविंशतिश्च द्वाषष्ठिभागा मुद्- ता एगपेगेणं अहोरत्तेणं चंदे कति मंझलाई चरति । ता संस्य । पांच राशिः सांऽश इति तस्त्रैराशिककर्मविषयः। एग अचमनं चरति, एकतीसाए भागेहिं ऊणं एवहिं ततः परिपूर्णमासप्रतिपस्यर्थमयं राशिः षट्पञ्चाशदधिकन शतेन गुण्यते, जातानि परिपूर्णानि नवाशीनिशतान्यष्टाविंशत्यधि.
पल्सरसेहिं सतेहिं अद्धमंझ छेत्ता । ता एगमेगेणं अहोकाम्यभिवाम्तमामानाम। किमुक्तं भवति?-षट्रपञ्चाशदधिक
रतणं मूरिए कति ममलाई चरति । ता एगं अच्छमंडलं शतसंख्येषु युगवतावन्तः परिपूर्णा अनिवर्कितमासा बज्यन्ते । चरति । ता एगमेगेणं अहोरत्तोपं णक्वते कति मंडलार्ड एनबहानशाभृते सूत्रकृतव साक्षादनिहितम । तनखराशि- चति । ता एग अद्धमतं चरति, दोहिं जागेहिं अधियं ककर्मावतारः । यद्यविंशत्यधिकैरजिवस्तिमासैनवाशीतिशनैः षट्पञ्चाशदधिकशतसंख्यया युगभाविभिश्चान्द्रम
सत्तहिं पुतीसेहिं सएहिं अच्छमंझनं त्ता। एमलानामे कल कं सप्तत्रिशत्महस्राणि नवशतानि चतुरुत्तराणि "ता एगमेगेण " इत्यादि । 'ता' इति पूर्ववत् । एकैकेनाहोरा. 'खभ्यन्ते, तत एकेनाशिवदितमासन कि भाम। राशि- ब बड़ः कति मण्डलानि चरति ? । भगवानाह-"ता पगं"
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( १६११) अभिधानराजेन्द्रः ।
जोइसिय
पनि
इत्यादि । बराते एकत्रिशता मागे पञ्चदशोत्तरैः शनैरर्द्धमएमलं दिखा। तथाहि रात्रिन्दिवानामटादशभिः शतैस्त्रिंशदधिकैः सप्तदश शतान्यष्टषष्ट्यधिकान्यर्द्धमहकलानां चन्द्रस्य लभ्यन्ते, तत एकेन रात्रिन्दिवेन किं लभ्यते ? राशित्रयस्थापना १८३० १७६८|१| अत्राप्यन्त्येन राशिनैककरोग मध्यराशियते जातः स तावानेव तस्या35येन १८३० राशिना नागहरणं, स चोपरितनस्य राशेः स्तोकतेराश्यपिर्तना
ज्ञान उपरितनो राशिरी शतानि चतुरशीत्यधिकानि स्तनो मत्र शतानि पञ्चदशोत्तराणि । ६६६ । तत श्रागतमेकत्रिशता भान्नमेकमभिः शते पञ्चदशोत मिति । " ता एगगणं " इत्यादि सूर्यविषयं प्रश्न पूत्रं सुगमम् । भगवानाह - "ता एगमेगणं " इत्यादि । एक मर्कमएकलं चरति । एतच सुप्रतीतमेव । "ता एगमेगेणं " इत्यादि नक्षश्रविषयं प्रह्मसूत्रं सुगमम् । भगवानाह " ता एगमेगणं " स्वादि। एक ममलं द्वाभ्यां भागान्यामधिकं चरति द्वार्थिशदधिकनिः तथाहि बां
इ
श्राणामवादशभिः शर चिकानि नामानि लभ्यन्तेनाहो किं लभ्यते ? । राशित्रयस्थापना - १८३० | १०३५ ।१। श्रज्ञात्वेन राशिनककरूपेण मया जाता तस्याऽऽद्येन १८३० राशिना जागरणं. लब्धमेक मई मरामलं. शेष श्री नाधिकानि र
बाता
तिभागी।
(४८) अधुना एकैकं परिपूर्ण मण्डलं चन्झाऽऽदयः प्रत्येकं कतिभिरदोरात्रैारतीयरूपणार्थमाह
ता एगमेगं मंडल चंदे कतिर्हि मोरखेटिं चरति । ता दोर्दि होरसेहिं चरति, एकतीसार जागेहिं अहिगेहिं
हिं चोतालेहिं सतहिं राईदिएहिं छेत्ता । ता एगमेगं मंफलं सूरे कतिहिं अहोरचेहिं चरति । ता दोहिं अहोरतेहिं चरति । ता एगमेगं मंगलं णक्खतं कतिर्हि श्रहोरतेहि चरति । ता दोहि अहोरचेहिं चरति, दोहिं भागेहि कणेहिं तिहिं सत्तहिहिं सतेहिं राईदियं छेत्ता ।
दि
“ता एगं" इत्यादि । 'ता' इति पूर्ववत्। एकैकं मण्ड न्द्रः कतिभिरहोरात्रैश्वरति ? । नगवानाह " सा दोहिं " इत्या महोरात्र पर एकत्रिशताधिका राशिदधिकैः शनैरादित्य तथाहि यदि रूस्य म एकलानामष्टनिः शतैश्चतुरशीत्यधिकैरहोरात्राणामटादश शतानि त्रिंशदधिकानि लभ्यन्ते, तत एकेन मएमलन कति रात्रिन्दिवानि लभामहे ? राशित्रयस्थापना - ००४ । १८३०१ १। अत्रान्त्येन राशिना मध्यराशेर्गुणनं, जातः स तावानेव पानामा मागदर पास्तिष्ठन्ति द्वाषष्टिः । ६२ । ततश्य छेद कराया शिक
पोरनविधिक अमेकविद्विचत्वारिंशदधिकवतुः सतनागाः "वा पग
जोइसिय
मेगं " इत्यादि । 'ता' इति पूर्ववत् । वकैकं मएम सूर्यः कति जिरहोरात्रैश्वरति ? | भगवानाह - "ता दोहि" इत्यादि । द्वाच्या महारात्राभ्यां चरति । तथाहि यदि सूर्यस्य मष्फलानां नवभिः शतैः शरैराधिहाराजा लभ्यन्ते तत एकेन ममलेन कत्यहोरात्रान् लभामहे ? राशित्रयस्थापना - ६१५ | १८३० । १ । अत्रान्त्येन राशिना मध्यराशेखनं जातः स तावानेव तस्याऽऽद्येन ६१५ राशिना नागहरणं, लब्धौ द्वावहोरात्राविति । " ता एगमेगं " इत्यादि । 'ता' इति पूर्वकमारा मन कतिनिरो
भगवानाद - "ता दोहिं " इत्यादि । द्वाभ्यामहोरात्राभ्यां चरति, शम्य भागाभ्यां दोनाम्यां निधि शतै रात्रिन्दिवं हित्वा । तथाहि यदि नक्कत्रस्य मएमलानामष्ठादश
रात्रिन्दिवानां लभामहे, तदैकेन मण्डलेन किं लभामहे ?| रा शित्रयस्थापना - १०३५ / ३६६० | १ | अत्रान्त्येन राशिना मध्यराशेस्ताडना, जातः स तावानेव तस्याऽऽद्येन १८३५ राशिना भागढरणं, लब्धमेकं रात्रिन्दिवं शेषाणि तिष्ठन्त्यष्टादश शतानि पञ्चविंशाधिकानि १८२४श्योः पञ्चकेनापवर्त्तना । जात उपरितनो राशि स्त्रीणि शतानि पञ्चषष्ट्यधिकानि ३६५ । छेद करा शिस्त्रीणि शतानि सप्तषष्ट्रयधिकानि, ३६७ तत आगतं द्वाभ्यां सप्तषष्टद्यधिकशतभागाच्यां होनं द्वितीयादिति ।
(४६) संप्रति चन्द्राऽऽदयः प्रत्येकं कति मण्डलानि युगे चरन्तीत्येतनिरूपणार्थमाह
ता जुगेणं चंदे कति मंगलाई चरति । वा अट्ठचुलसीते मंडलसते चरति । ता जुगेहिं सूरे कति मलाई चराते हैं। ता व पारसे मंगलसते चरति । ता जुगेणं एक्खचे कति मंगलाई चरति है। ता अफारस पाती से दुभागमंडलसते परति ॥
1
"जु" इत्यादि 'ता' इति पूर्व युगेन कति म एकलानि चरति । भगवानाह - "ता अठ" इत्यादि । 'ता' इति पूवन् । अष्टौ मण्डलशतानि चतुरशीत्यधिकानि चरति । तथाहि-चन्द्र एकेन शतसहस्रेणाष्टनवत्या शते प्रविभक्तस्य म पलस्याष्पष्टयधिक सम्भागामु इर्चेन गच्छति । युगे च मुहूर्त्ताः सर्वसंख्यया चतुःपचाशसहस्राणि नत्र शतानि ततः सप्तदश शतानि श्रष्टषष्ट्यधिका निसानको सप्तति कास्त्रिषष्टिः सहस्राणि द्वे शते ६७०६३२०० । ततोऽस्य राशेरेकेन शतसहस्रेणाष्टानवस्या व शतैः १०९८०० मण्ड'लाssनयनाय भागो हियने, लब्धानि अष्टौ शतानि चतुरशीत्यधिकानि मञ्जानामिति । "ता जुगेणं" इत्यादि सूर्यविषयं प्रश्नसूत्रं सुगमम् | जगवानाह - "ता नव पणरस" इत्यादि । ता इति पूर्ववत् । नव मएकलशतानि पञ्चदशाधिकानि चरति । तथाहि-यदिद्वाराज्यमेकं म सकलाजिर
तनः कति
मरमलानि लक्ष्यन्तं ? राशित्रयस्थापना- २२१ १६३० । अत्रान्त्येन राशिना मध्यराशे गुणनं जातान्यष्टादश शतानि त्रिंशदधिकानि १३ पायायेन राशिया फिरूपेण जागरणं,
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( १६१२ )
अभिधानराजेन्खः |
जोइसिय
64
लब्धानि नव शतानि पञ्चदशोत्तराणि ६१५ ता जुगणं इत्यादि नक्षत्रविषयं प्रश्नसूत्रं सुगमम् । जगवानाह "ता अहारस" इत्यादि । अष्टादशद्विभागम एकलशतानि श्रर्द्धम एकलशतानेपानिपानि चति । तथाहि-मेकेन शतसहस्रेणाष्टानवत्या च शतैः प्रविजक्तस्य मण्डलसत्कान् पञ्चत्रिंशदधिकशतसंपाद नागान् एकेन मु मुसी: सर्वसंश्या पद त्राणि, नव शतानि । ततस्तैः चतुष्पञ्चाशता सहस्त्रैर्नवभिः शतैदश शतानि पञ्चधा मुख्यन्ते जाता द कोटयः, सप्त लकाः, एकचत्वारिंशत् सहस्राणि पञ्चशतानि १००७४१५००। मएमलानि चेह ज्ञातुमिष्टानि, तत एक य शतसहस्रस्याष्टानवतेश्च शतानामर्के यानि चतु:
"
शत्सहस्राणि न शतानि तेभांगो द्वियते सम्धानि अष्टादशतानि पञ्चविशदधिकाने अज्ञानामिति । सू० प्र०१५ पाहु० चं० प्र० । ज्यो० । ६० प० । (५०) " चंदेहि उ सिग्धयरा, सुरा सूरेहिं तह गढ़ा सिम्मा । मत्ता व गहेहि य, नक्खत्तेहिं तु ताराश्री ॥ ६४ ॥ सन्न गई चंदा, तारा पुरा हुति सम्बसिग्धगई । एसो गईविसेलो, जोइसियाणं तु देवाणं ॥ ६५ ॥ " द० प० । (५२) चन्द्रताराणामपरिक
वराह
एतेस ते चंदिमरि अगा क्खतता गरुचाणं क परेसम्म परे है। गोमाताराबेहिंतो एक्खत्ता महिडिया, एक्खत्तर्हितो गहा महि हुआ, गहिंतो सूरिया महिचिया, सूरेहिंतो चंदा महिष्ठिआ, सव्त्रपिढिया तारारूवा, सव्वमाि चंदा ।
" एतो णं" इत्यादि । पतेषां भदन्त ! चन्द्रसूर्य ग्रहन कृलनारूपाणां मध्ये कतरे सर्वमहर्द्धिकाः, कतरे च चकारो ऽत्र गम्यः । भगवान गौतम! ताराज्यांन यांदा महर्द्धिकाः सूर्या
'काः, सूर्येभ्यश्चन्द्रा महर्द्धिकाः। श्रत एव सर्वाल्पाकास्तारारूपाः, सर्वमहर्डिकाश्वन्ाः । इयमंत्र भावना गतिविचारणायां येज्यः
उकारते तेय ऋद्धिविचारणायामुत्क्रममा क्रेया इति । जं० ७ वन० जी० सू० प्र० चं० प्र० । ( चन्द्रसूर्यास्तमयराकरणं च 'सूरमंस' शब्दे वक्ष्यते ) गणितप्रतिपाद के ज्योतिःशास्त्रे, म० । सूत्र० १ ० ३ ० ३ उ० ।
भोसिपदेविस्थी ज्योतिष्वदेवखी श्री चन्द्राऽऽदिज्योति देवानाममहिष्याम् जी०
से किं तं जोइमियदेविस्यियाश्रो ? | जो सियदेविथियाओ पंचविदाओ पाओ। तं महाचंदनिया
जोऽसियदेवित्यियाओ, सूरत्रिमाण जोइमियदेवित्थियाश्रो, गहविमाण जोइसियदेवित्थियाओ, एक्खत्तचिमाणजोइसियदेवित्यियाओ, ताराविमाण जोइसियदेवित्यियाश्रो सेचं नोसिवदेवित्यियाओ मी० १ प्रति ।
1
जोसियमंत्रज्योतिष्कमएस० [
4
राणां मएले जं० ७ वक्क० । ( ज्योतिष्कमण्डल निष्पत्तिस्वरूपं 'मंडल' शब्दे वक्ष्यते) (अथ सूर्यमण्डवानां मिथश्चन्द्रमएम - वानां चान्तराणि 'अंतर' शब्दे प्रथमभाग ६६ पृष्ठे
हो कति
अथ कति यवन्तस्वाद
जोइसियमंगल
संततमंतरमेयं, रवीण पणसट्ठि मंडला दीवे । तत्य विसट्टि जिसने तिनि अवाहाऍ तस्सेव ॥ ११॥ सन्ततं निरन्तरम् एतत्पूर्वोक्तं सूर्याचन्द्रयोश्च मध्य प्रविशतोडितिश्च मपकलानां परस्परमन्तरं यं तत्र व्योः पञ्चपलांनीच तस्य बाहायाम् । इदं तु श्रीमुनिचन्द्रसुरिनिरुकं समवायावृत्तौ । त्रिस्थाने जम्बूद्वीपस्य पर्यन्तिमेऽशीत्युत्तरे योजनशन्ति
षष्टि सूर्योदय, सूर्य शेषाणि तु मलान निषेध
इत्युकमस्ति संग्रहणी नृत्य
व्यानि सूर्य
२ हरिवादी ॥ ११ ॥
चंदा निसडे विअ, मल पण गुरुवएसि दीति । सेसाइँ मंगलाई, दोएह वि जलहिस्स मज्ऊम्मि ॥ १२ ॥ तथा चन्द्रयोर्निपधनीलवत्पर्वते यत्र पञ्च मएमलानि गुरुपदेशे श्यन्ते । शेषाणि द्वयोरपि जलधौ रवेर्दश पञ्च शशिनश्च भवन्ति । तत्राप्ययं विशेषः १ ।२।३।४।५। ११ । १२ । १३ । १४ । १५ । पतानि चन्द्रस्य सूर्यस्याऽपि साधारणानि । ६ । ७ । ८ । १० रूपाणि पुनश्चन्द्रस्यैव भवन्ति, न जातुचिदपि तेषु सूर्यः समायाति । चन्द्रस्य मामलान्तराणि चतुर्दश सन्ति । तत्र चतुर्षु सर्वाभ्यन्त रेषु सर्वबाह्यमएलान्तरेषु च सूर्यस्य प्रत्येकं द्वादश मराकलानि स्युः, मध्यवर्त्तिषु षट्सु चन्द्रमण्डनान्तरेषु सूर्यम एकलानि त्रयोदश भवन्ति ॥ १२ ॥ मं० ।
चन्द्रमएकलाऽऽदिविष्कम्भो यथाएडिभागे बेतू - जोयणं तस्स होति जे जागा । वे चंदा छप्पनं प्रमाली जवे सूरा
|
एकषष्ट्या योजनप्रमाणाङ्गुलनिष्पन्नं भित्त्वा तस्य भवन्ति ये भागा एकषष्टिसंख्याः, ते च चन्द्राश्चन्द्रमण्डलानि षट्पञ्चाशद् भवन भयमय चत्वारिंशद्भागाः किमुक्कं भवति १ योजनस्यैकषष्टिभागाः षट्पञ्चाशश्चन्द्रम एकलस्य वि कस्तपरिमाणं सूर्यम एस्पाटात्वारिं । एतदेव गंज्यू परिमाणेन चिन्त्यते तत्र चतुर्गव्यूतं योजनमिति षट्पञ्चाशच तुर्भिर्गुष्पंते जाते द्वे शते चतुर्विंशत्यधिके । २२४ । तयोरेकषष्ट्या भागे हुते बन्धात्रयः क्रोशाः, एकस्य च क्रोदास्य एकवारिंशदेि
तिरेकषाष्टभागा योजनस्योत्सेधपरिमाणं चन्द्रम एकलस्य सागनमेकत्वारिंशद्विसप्तत्यधिक नागा माबूलस्य तथा सृ यस्याष्टाचत्वारिंशदशनागा योजनस्य चतुर्निर्गुण्यन्ते, जातं द्विनवत्यधिकं शतम् ॥ १६२॥ तस्यैकषष्ट्या भागो हियते - ब्याखयः क्रोशाः, कोशस्य च नवैकपष्टिनागा विष्कम्नार्द्धमुरले
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जोसियमंरुस अभिधानराजेन्दः।
जोग घ इत्युसेधपरिमाणं चतुर्विशत्येकषष्टिनागा योजनस्य । यदि | मातु। स्था० । द्वा०। प्रश्न विश० । सभष, भा१००। बाघ गव्यूनं, नव च छाविंशत्यधिकशतनागान गब्यूनस्य । अप्राप्तझानाऽऽदिप्रापणे, कल्प.१ क्वण। तथा चन्स्य चकमण्डलम्य परिधेः परिमाण वे योजने, प्रयः
(१) “जोगक्नेमं वट्टमाणा परिवहति । " अलब्ध. कोशाः, एकस्य कोशस्य सप्तत्रिशदेकषाभागा विशवाधिकाः ।
स्यप्सितस्य वस्तुनो लानो योगा, लब्धत्य परिपालन मूर्यमपालस्य योजने, एकः कोशः, अष्टापश्चाशश्च सप्तषष्टि
केम इनि । झा० १ श्रु० ५ भ. । योगो बीजाऽऽशानोभागाः कोशस्य विशेषाधिका नक्षत्राऽऽदिमामलानां तु वि
द्भदपोषणकरणम्, क्षम तत्तदुपवाऽऽपादनम् । रा० । सं. कम्भाऽऽदिपरिमाणं संग्रदणीटीकायां तत्त्वार्थटीकायां चाभि
योग, मेलने, वादिधारणे, यता, शदादीनां प्रयोग, हितमस्मानिारति ततोऽवधार्यम । ज्यो०७ पा० ।
समुदायशब्दस्यावयवार्थसंबन्धे, 'योगबलं समाया' इति (चन्द्रसूर्य नक्षत्रग्रहताराणां मुर्तगतिप्रमाणं 'जोइसिय' शादे
मीमांसकाः । “योगः कर्मसु कौशनम" इत्युक्ते यथास्थित. १६०५ पृष्ठे गतम)
घस्तुनोऽन्यधारूपप्रतिपादने, वाच । विधिकत्रनुकूलपरि
वारसंपत्ती, प्रति०। व्यतो बाधे मनाबाकायच्यापारे, तं० । जोइसियराय-ज्योतिष्कराज-पुं०। चन्के,सूर्य च।" चंदरि
मा. म० । मा० चू।नं० । अनु० । नि० चू०। पं००। या य पत्थ दुषे जोइसिंदा जोइसियरायागो परिवसति।" | नास्था । प्राय। उत्त। सत्र । विश योगो, प्रका० २ पद । स्था• । सू० प्र०।
व्यापारः, कर्म, क्रियेत्यनान्तरमिति । विशेातु। न्य। जो सियविमाण-ज्योतिष्कविमान-न० । चन्ससूर्यग्रहनक्कत्र.
जीता "जोगा मामाईश्रा।" योगा मनोव्यापाराऽऽदयः। प्रति।
भाचा स्था० । सूत्र। "मणवयसकाइए जोगे वट्टमाणाणं" ताराणां विमाने, "एत्थ णं जोइसियाणं देवाणं तिरियमसंखे.
स्था ग
. खा जोइसियविमाणावाससयसहस्सा हवंति ।" प्रका० २
(२)स च द्विधा । द्रव्य योगो, भावयोगश्चपद। (सर्वा विमानवक्तव्यता 'विमाण' शब्द चदयते)
दचे मणवइकाए-जोगा दचा हा उ नावम्मि। मोइस्सर-योगीश्वर-पुं०। योगो धर्मः शुक्लध्याननक्कणः,स येषां
जोगो सम्मत्ताई, पसत्थ इयरो य विवरीयो । विद्यते इति योगिनः साधवः; रीश्वरः सदुपदेशन तेषां
व्य इति द्वारपरामर्शः । (मणवकाए-जोगा दवा इति) प्रवृत्तेस्तत्संबन्धाऽऽदिति, तेषां वा ईश्वगे योगीश्वरः। प्रभुरि
मनोवाकाययोग्यानि च्याणि व्ययोगः। श्यमत्र भावना-जीस्यनर्थान्तरम् । योगिनां प्रभा, पाव० ४ अ०।.
वेनागृहातानि गृहीतानि वा स्वव्यापाराप्रवृत्तानि सध्ययोगः । __ यमुक्तम
(दहा - भावाम्म त्ति) द्विधैव,तुशब्दस्यैवकारार्थत्वाद् द्विप्रकार "चाण्डालः किमयं द्विजातिरथवा, शमोऽथ वा तापसा,
पवनावे नावविषयों योगः । तद्यथा-प्रशस्तोऽप्रशस्तश्च । तत्र किंवा तत्वनिवेशपेशल मतियोगीश्वरः कापि वा।
प्रशस्तः सम्यक्त्वाऽऽदिः। श्रादिशनादानाऽऽवरण परिग्रहः। इत्यस्वल्पविकल्पजल्पमुखरैः संभाष्यमाणो जने
प्रशस्तता चास्य प्रशस्यते युज्यते अनेनात्माऽपवर्गखत्यमों रुष्टो न हि चैव दृहदयो योगीश्वरी गच्छति ॥१॥" उत्त
बधबलात् । इतरो मिथ्यात्वाऽऽदियोगो विपरीतोऽप्रश३०। याज्ञवल्क्यमुना, योगिनां श्रेष्ठे च। दुर्गायाम, स्त्री० ।
स्तः, युज्यते ऽनेनाऽऽन्मा अष्टविधेन कर्मणेति व्युत्पत्तिभावात् । कीए । वाच.'
श्रा० म० १०२ वएक। "दच जोगो-तिएई चपडं वा योगेश्वर-पुं०। युज्यन्त इति योगा मनोवाक्कायव्यापारसकणाः,
जोगाणं जागो । अहवा-मगवडकायपाओगाणि दब्बाणि ।
जावजोगो-" जोगो किरियं थामो, उच्छा-ह परकमो तहा तेरीश्वरः प्रधानो योगश्वरः । सोगप्रधाने, आव० ४ भ० ।।
चहा । सती सामन्धं नि य, जोगस्स हवंति पज्जाया"१५ श्रीकृष्णे, यां, बभ्याककर्कोटक्यां च, स्त्री० । ङीष् । वाच ।
सो य सम्मत्तादि अणुगतो पसत्या, मिच्छत्तप्रमाणविरति'योगिसमय- त्रियोगिनां चिन्तनीये, आव०४।। गयो अपसत्थो"। प्रा०चू०१०
(1) मनोवाक्कायान्मको योग एकस्मिन्समये शुन्नोऽशुभो भोईरम्हिचारण-ज्योतीरश्मिचारण-पुं० । चारणभेदे, चका
वा नवन्न तूभयरूप इति प्रेरकः प्राहकंग्रहनक्षत्राऽऽद्यन्यतमज्योतीरहिमसंबन्धेन नुवीय चरणच
ना मण्वकाोगा, सुभाऽमुभा वि समयम्मि दीसंति । स्क्रमणप्रवणा ज्योतीरश्मिचारणाः । प्रव०६७द्वार ।
दवम्मि मीसनायो,भवेज न उ जावकरणम्मि १५३६ नोईरस-ज्योतीरस-न० । रत्नभेद, रा०। झा । प्रा०म०।
ननु मनोवाक्काययोगाः शुजा अशुभाश्च, मिश्रा इत्यर्थः । एकस्थाज्योतीरस नाम रत्नम । जी०३ प्रतिः। .
स्मिन् समये दृश्यन्ते। तत्कथम्। उच्यते-"सुभोऽसुभोवास एगभाईरसमय-ज्योतीरसमय-त्रि० । ज्योतीरसाऽऽस्यरत्ना55. समयम्मित्ति(१९३५गाथा)"तथाहि-किञ्चिदावधिना दानास्मक, "जाईरसमया उत्तरंगा।" "जोईरसमया वंसा। " | दिवितरणं चिन्तयतः शुभाशुनोमनोयोगः। तथा-किमप्यविधिज्योतीरसं नाम रत्नं तन्मया वंशाः । रा०।
नैव दानाऽऽविधर्ममुपदिशतः शुभाशुनो वाम्योगः। तथाकिममोकारकरण-जोत्कारकरण-न०। पित्रादीनां जोत्कारकरणा
प्यविधिनैव जिनपूजावन्दनाऽऽदिकायचेष्टां कुर्वतः शुभाशुभका
ययोग इति। तदेतदयुक्तम। कुन श्त्याह-"दम्मि " इन्यादि। इद.ऽऽत्मके जिनभवनस्थितानामाशातनाभेदे, ध०२ अधि।
मक्तं भवति-इह द्विविधो योगः व्यतो, जावतश्च। तत्र मनोवामोग-योग-पुं० । योजनं योगः। युज्-घम् । बन्धे, योगो बन्ध ककययोगप्रवर्तकानि च्याणि, मनोवाक्कायपरिस्पन्दाऽऽत्मत्यनान्तरमिति । पं. स. ४ सत्र । संबन्धे, ०६० को योगच द्रव्ययोमः । यस्त्वेतदुभयरूपयोगतरण्यवसाय
४.४
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(१४) अभिधान राजेन्ः |
जोग
सनायोगः तत्र शुभाशुभपाणां यथोक्तचिन्तादेशनाकायचेष्टानां प्रवर्त्तके विविधेऽपि सव्ययोगे व्यवहारमयदर्शनविवज्ञामात्रेण जवेदपि शुभाशुभत्वलको मिश्रभावः, न तु मनोवाक्काययोगनिबन्धनाध्यवसाय रूपे नावकर भा चाम के योगे अगोद मेनगुनायुरूपोऽपनयनतु सोऽवि शुभभोपालः समस्त धोकादेशमा विक योगाणामपि शुभाशुभरूपमा मनो बाहुन्ययोगनिबन्धयवसायरूपे तु करणं भवयोगे भाजप मनायो गति नियनयदर्शनस्यैवाग न हि शुभाम्नानि वाध्यवसायानि मुक्या जानाध्यवसायास्तृतीयो राशिरागमेकचित्रपीष्यते येनाध्यवसायरूपे भावयोगे शुभाशुभत्वं स्यादिति भावः तज्ञाययोग एकसमये शुभ वा पि न तु मिश्रः । विशे० । प्रति० ।
(४) योगा दोषाय गुणाय च भवन्ति तदेतत्प्रतिपादयतिमणो य वाय काश्रय, तित्रिदो जोगसंगहो ।
ये अजुस्स दोसा, उत्सव गुणाचा ॥
मनोयोगो, बाग्योगायोगतिविधियोग। प्रति संकेत योगो भवतीत्यर्थः
योगा श्रयुक्तस्यानुपयुक्तस्य दोषाय कर्मबन्धाय भवन्ति, युक्तस्य तुत एव गुणाऽऽवहाः कर्मनिर्जराकारिणः संपद्यन्ते । वृ० ३३० । तदात्मके भश्रवद्वारभेदे, स०५ सम० योजनं योगो, जीवश्य वीर्यपरिस्पन्द इति यावत् । यदि वा युज्यते घावनचलनाSSदिक्रियासु व्यापार्यत इति योगः कर्मणि । यद्वा युज्यतं सं बध्यते घानमाऽऽदिजियोऽनेनेति ३॥१३०॥ इति करणे घञ्प्रत्ययः । कर्म० ३ कर्म० । स० | पं०सं० । श्रावण अनु०। भावतः कायाऽऽदिकरणयुक्तस्याऽऽत्मनो वीर्यपरिणतिविशेषे, स्था० १ बा० । अष्ट० 1
(६) योगप्ररूपणा याऽऽह -
तिवि जोगे पत्ते । तं जहा-मांजोगे, वयजोगे, काजोगे ॥
आह च
1
" मणसा वयसा कारण वा वि जुत्तस्स विरियपरिणामो । जीवस्त प्रप्पणिज्जो, स जोगसन्नो जिणक्खाभो ॥ १ ॥ तेश्रोजोगेण जहा, रतलाई घमस्त परिणामो । जीवरम, विनियमवि अप्यपरिणामो " ॥ २ ॥ इतेि । स्था० ३ ० १ ० । श्रदारिकाऽऽदिशरीरस्याऽऽत्मनो बोपरिणतिविशेष कायदारिवे किवा उदारकरी पायसमूह साचिप्पाजी पस्यापारी वायोगः नं० पं० [सं० स्था० । सूत्र० । मनसा करणेन युक्तस्य जीवस्य योगो वीर्यपर्यायो दुर्बलस्य यष्टिकान्यवष्टम्भकरो मनोयोग इति स तु समयोगापामग सत्यमृमनोयोगः असस्य सूचामनीयांगति मनसो वा योगः करणकारणानुमतिरूपो व्यापारो मनोयोगः । एवं वाग्योगोऽपि । एवं काययोगोऽपि । नवरं स सप्तविधः, श्रदारिकौदारिकमि अनैयिनैकमिधा दारका उध्दारकर्मिकाकयोगदादिति। तदारिकाका सुद्धाः सुबोधाः। श्रदारिकमि औदारिकापरि मिश्र उच्च यथा गुरुमिनि
(५) स च मनोवाक्कायलॠण सहकारिकारणभेदात्रिविधः" परिणामावणगह-णसाहणं तेण वरूनामतिगं ॥" क०प्र० । मस्याक्षरगमनिका परिणम परिणाम अणिज तू ( व्यञ्जनात् - ) ॥ ५ । ३ । १३२ ॥ इति घञ् प्रत्ययः । परिणामाऽऽपादानामित्यर्थः । आलम्म्यत इत्यासम्बनम, 'श्रनट्' | ४ | ३ | १२४ । इति भावेऽनट्प्रत्ययः । गृहीति तेषां साधनं साध्यतेऽनेनेति साधनं, योगसंहि वीर्ये" करणाssधारे " । ५ । ३ । १२६ । इत्यनद्प्रत्ययः । तथाहि तेन वीर्यविशेषण योगसं शितेनौदारिका ssदिशरीरप्रायोभ्यान् पुत्रान् प्रथमतो गृह्णाति गृहीत्वा च प्राणाऽपानाऽऽदिरूपतया परिणमति परिणमध्य निसर्गहेतुसामध्येषि शेषसिद्धये तानेव पुरुझानवलम्बते । यथा मन्दशक्तिः कश्चिनगरे परिभ्रमणाय यष्टिमवलम्बते, ततस्तदवष्टम्भतो जातसामर्थ्यविशेषः सन् तान् प्राणापानाऽऽविपुल न विसृजतीति । परिणामाऽऽजाबनवीर्य तेन केन मनोवाक्कायावष्टम्नतो जायमानेन ( लऊनामतिगं ति ) लब्धं नामत्रिकं मनोयोगः, वाग्योगः, काययोग इति । तत्र मनसा क
नामवरिपूर्ण वादेव मोदारिक कामेन नौरिकतया नापि कार्मणतया व्यपदेष्टुं शक्यमपरिपूर्णत्वादिति तस्य मिश्रव्यपदेशः। एवं वैक्रियाऽऽहारक मिश्रावपीति शतकटी का लेशः। प्रज्ञापनाव्याख्यानाम-दारिकायाः शुकास्तत्पयसकस्य मिश्रापर्याप्तकस्येति । तत्रोत्पत्तावदारिक कायः कार्मणेन, औदारिकशरीरिणश्च वैक्रियाऽऽहारककरणकाले वैक्रियाऽऽहारकाज्यां मिश्री भवति पवमैौदारिक मिश्रः । तथा बै मी देवात्पती कार्मणेन वैक्रियस्य बौदारिकवेशाकायामादारिकेण आहारकर्मिथस्तु साधिताऽऽदारककायप्रयोजनः पुनरौदारिकप्रवेशे श्रदारिकेणति का-मंणस्तु विषद्दे के सर्वार्थ योगा पञ्चदशधेति । सग्रहोऽस्य - " सच्चं मोसं मी, अस
मोसं मणो वर चेत्र । काश्री बराल विक्रिय, आहारंग मीस कम्म जोगो ति ॥ १ ॥ स्था० ३ ठा० २४० ।
रणभूतेन योगो मनोयोग बाचा बोगों चायोग कायेन योग (3) काव्यविशेवे मनोयगावच्या
काययोगः । कर्म ०५ कर्म० ।
दोनदा
योगः काचियस्य
जोग
" तिवि जोगे" इत्यादि इदच बीर्यान्तरापपपमसमुत्पलब्धिविशेषप्रत्ययमभिसम्यगभिसन्धिपूर्वकमात्मना वीर्ययोगः । श्राह च "जोगो विरियं थामो, उच्छाह परक्कमां तहा चिठा । सत्ती सामत्थं ति य, जोगस्स वंति पज्जाया" ॥१॥ इति । स च द्विधा-सकरणोऽकरणश्च । तत्रालेश्यस्य केवलि
कृत्योपयदर्शनं चोपयुज्ञानस्य योऽसावपरिस्पन्दः प्रतिघो वीर्यविशेषः सोऽकरणः । स मेदाधिक्रियते सकरणस्यैव त्रिस्थानकारिया स्तस्यैव व्युत्पत्तिः, तमेव चाऽऽश्रित्य सूत्रव्याख्या युज्यते । जीवः कर्मभिर्येन " कम्मं जोगनिमित्तं वज्झ " इति वचनादू युक्ते वा प्रयुङ्क्ते यं पर्यायं स योगो, वीर्यान्तरायक्षयोपशमजनितो जीवपरिणामविशेष इति ।
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जोग अन्निधानराजेन्डः।
. जोग णां जन्तूनां न वर्तते, अशरीरिणां सिद्धानामेव तनिवृत्तरि- भ्यत एवेति एवं नृतस्य प्रयोजनमात्रस्य सर्वत्र विद्यमानत्वाद् त्यतो पारमिसर्गाऽऽविकासेऽपि सोऽस्त्येवेति भावः । धावनवल्गनाऽऽदिव्यापारस्यापि पृथक योगत्वप्रमझात्,तस्मातहि समुच्चिद्यतां मनोधाग्योगकथा । नेत्याह
द्विशिष्टव्यवहाराअभूतपरप्रत्यायनाऽऽदिफसत्वाद्वाङ्मनोयोगा
वेव पृथक कृती,न प्राणापानयोग इति । तदेवं तनुयोगो बानिकिं पुण तणुसरं-ण जेण मुंचड़ स बाइओ जोगो।।
सर्गविषये व्याप्रियमाणो बागयोगः, मनने तुव्याप्रियमाणो म. मम्मश्य स माणसिओ, तणुजोगो चेव य विभत्तो ३५ए। नोयोग, वाग्विषयो योगो बाग्योगः,मनोविषयो योगो मनोयो'किं पुण त्ति' तथाऽपीत्यस्याथें । ततश्चेदमुक्तं भवति-यद्यपि गइति कृत्वा । इत्येवं तनुयोगविशेषावेव वाङ्मनोयोगी इस्ये काययोगः सर्वत्रानुगतोऽस्ति, तथाऽपि येन मनोवागद्रव्याणा
तदर्शितम ॥३६॥ मुपादान करोति, स कायिको योगः। येन तु संरम्भेण तान्येव
अथवा स्वतन्त्रावेतौ इति दर्शयनादमुञ्चति, स वाचिकः। येन तु मनोखण्याणि चिन्तायां व्यापारय
अहवा तणुजोगादिभ-वइदन्नसमहजीववावारो। ति, स मानसिकः । इत्येवं तनुयोग पवैक उपाधिदास्त्रिधा सो वजोगो जमाइ, वाया निसिरिज्जए तेणं ॥ ३६॥ विभक्त इति। पतावन्मादन प्रयोऽप्यमी योगा व्यवहियन्ते ।
तह तणुवावारादिम-मणदबसमूहजीववावारो। परमार्थतस्त्वेक एव सर्वत्र कायिको योग इति ।३५९।
सो मणजोगो भमद, मन्ना नेयं जो तेणं ॥१४॥ तथा च प्रमाणयन्ति
अथवा-तनुयोगन कायव्यापारणाहतो गृहीतो योऽसौ बारसणजोगो चिमणवइ-जोगा कारण दबगहणायो। सव्यसमूहः, तेन सहकारिकारणनूतेन तनिसर्गाथै योऽसौ भाणापाण च न चे, तो वि जोगंतरं होजा ॥३६०॥ जीवस्य व्यापारः,स वाम्योगो मण्यते, वाचा सहकारिकारण. तनुयोग एव मनोवाग्योगौ, तदन्तर्गताववैतावित्यर्थः ।
नूतया जीवस्य योगो वाम्योग रति कृत्वा। किं पुनस्तेन क्रियते?, इषं प्रतिज्ञा, कायेनैव तव्यग्रहणादिति हेतुः,प्राणापानवदिति
इत्याह-सैव वाक् तेन जीवव्यापारेण निसज्यते-परप्रत्यायनास्टान्तः । यथा-कायेन व्यग्रहणात प्राणापानव्यापारः कार्यि
र्थमुच्यत इति । तथा तनुब्यापारेणाऽऽस्तो योऽसौ मनोद्रव्यस. कयोगान भिद्यते, एवं मनोवाम्योगावपीति जावः । न वेदेवन
मूहः, तेन सहकारिकारणनूतेन वस्तुचिन्तनाय योऽसौ जीचेत खया प्राणापानव्यापारस्तनुयोगतयाऽज्युपगम्यते, तीह
वस्य व्यापार, स मनोयोगो नएयते, मनसासद कास्किारणतकोऽपि सोऽपि प्राणापानण्यापारो योगान्तर स्यात, ततो
जूतेन जीवस्य योगो मनोयोग इति व्युत्पत्तेः। कुतःपुनरयं मबोगचतुष्टयप्रसङ्गः, भनि चैतत् तस्मात्कायिकयोग पवाय
नायोगः,इत्याह-यतस्तेन केयं जिनमूादिकं मन्यत चिन्स्यते. मिति ॥३६०॥
ऽतस्तस्य मनोयोगत्वमिति। तदेवमत्र पक्ष वाराजव्यनिसर्गाss.
दिकाले तनोापार सन्नपि न विवक्षितः, किंतु वानोकअत्र परःप्राह
व्यसचिवस्य जीवस्यैवेति स्वतन्त्रावेव वाख्खनोयोगी, न तु त. तुझे तणुजोगत्ते, कीस व जोगंतरं तो न को।
नुयोगविशेषताविति भावः । पानापानाव्यसाचिव्यात.त. मणवइजोगा व कया, जम्मइ ववहारसिपत्थं ॥३६॥ न्मोचने जन्तोस्तद्योगोऽपि स्वतन्त्रः पृथक प्रामोतीति चेत् । न । ननु त्वमुक्तयुक्त्यैव सर्वेषां तुल्ये तनुयोगत्वे मनोवाग्योगव- "भष्प ववहारसिहत्थं । (३६१ गाथा)" इत्यादिना प्रतिविकिमिति तोऽसौप्राणापानव्यापारः कायिकयोगाद योगान्तरं
दितत्वादिति ॥ विशे॥ न कृतः, किमिति चतुर्यों योगो न कृत इत्यर्थः। अथ नैवं क्रियते, | (८) सामान्येन योगं प्राप्य विशेषतो नारकाऽऽदिषु चतु. तदि तुल्येऽपि तनुयोगत्वे मनोवागयोगी काययोगास्किमिति / विशती पदेषु तमतिदिशन्नाहपृथक् कृती , तस्मात्तनुयोगत्वस्य सर्वत्र तुल्यत्वादेक एव एवंणेरइयाणं विलिदियवजाणं. जाव वेमाणियाणं । काययोगः क्रियतामा उपाधिभेदेन तु चत्वारो वा योगाः क्रियन्ताम् । अन्यथा पकपातमात्रमेव स्याद्, न तु युक्तिीरति भावः।
"एवं" श्त्यादि कण्ठ्यं, नबरमतिप्रसङ्गपरिहारायेदमुक्तम् । अत्रोसरमाह-"भम"श्यादिभिएयतेऽत्रोत्तरं,किं ततः, इत्या.
(विगनिंदियवज्जाणं ति) तत्र विकलेम्भिया अपञ्चेन्डिया. ह-व्यवहारस्य लोकलोकोत्तररूढस्य सिब्बर्थ प्रसिद्धिनिमि
स्तेषां ह्यकेन्धियाणां काययोग एव, द्वित्रिचतुरिन्द्रियाणां तु , मनोवाग्योगावेव पृधकृतौ, न प्राणापानयोग इति ॥३६१॥
काययोगवाभ्योगायिति । स्था० ३ ०१ उ०। जी०। (यो
गानाश्रित्य दण्डका 'पमोग' शब्दे वक्ष्यते) व्यवहारोऽपि किमितीत्यं प्रवृत्त इत्याह
___ उत्पल जीवानधिकृत्यकायकिरियाऽऽइरितं, नाऽऽणापाणयफनं जहवईए ।
ते णं ते! जीवा किंमणजोगी,वइजोगी,कायजोगी। दोसइ मणुसो य फु, त गुजोगऽभतरो तो सो॥३६॥
गोयमा ! यो मणजोगी, णो वय जोगी, कायजोगी वा, कायक्रिया कायव्यापारः, तदतिरिक्तं तदत्यधिक प्राणापानफलं न किमपि दृश्यते । यथा वाचो मनसश्च स्फुटं तद् दृश्य
कायजोगिणो वा ।। भ० ११ श० ११० जी० । ते। इदमुक्तं नवति-यधा वाचः स्वाध्यायविधानपरप्रत्यायनाऽऽ.
मनुष्याणां योगो यथादिक,मनसश्च धर्मध्यानादिकं, विशिष्ट स्फुटं कायक्रियाऽतिरि
ते णं भंते ! जीवा किं माणजोगी, वजोगी, कायजोगी, कंफलमुपलभ्यते,नैवं प्राणापानयोः इति तनुयोगाऽभ्यन्तरवत्ये। वासोमणापानव्यापारो व्यवाहियते, न पृथक। न च वक्तव्य
अजोगी । गोयमा! मणजोगी विवजोगी विकायजोगी जीववसाविति प्रतीविजननादिकं प्राणापान सलमप्पल. वि, प्रजोगी चि ।।
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(१३१६) अभिधानराजेन्कः |
जोग
योगद्वारे मनोयोगिनो, वाम्योगिनः, काय योगिनोऽयोगिना । त प्रायोगिनः शैलेश्यवस्थां प्रतिपन्नाः। जी० १ प्रति० । (पुलाका sstrai योगो 'णिग्गंध' शब्दे । संयताऽऽदीनां योगः 'संजय शब्दे वक्ष्यते )
,
(१) नैरधिकाऽऽदियमकेषु समविषप्रयोगाबधिकृत्य योगाकिमाद
दो नंगे ! या पदमा किं समजोगी, विसमभोगी है। गोयमा सिप समजोगी, सिय विमजोगी । से केद्वेणं जंते ! एवं बुच्च - सिय समजोगी, सिय विसबनोगी है। गोपमा ! आहारयाओं वा से अणाहार, घ यादारपाओ वा से आहारए सियहां सिय तुझे, सिय अडिए, जहीणे असंवत भागहीणे वा संखेजड़भागडणे वा संजीवा असं गुणही वा अह अम् असंज्जइागमम्यदि वा संखेजड़नागमनदिए ना, गुणमन्नहिए या असंखेज गुणमनहिए वा से से० जाब सिय समजांगी, सिय बिसमजोगी, एवं० जाव बेमाणिया ।
" दो भंते !" इत्यादि । प्रथमः समय उपपन्नयोर्ययोस्ती प्रथ समयपत्र, उत्पतिको नरक क्षेत्रात सापोर विग्रहेण ऋजुगत्या वा, पकस्य वा विप्रद्वेण, अन्यस्य च ऋजुगस्पेति । (समजागि) समो योगो विद्यते ययोस्तौ समयोगिनौ, एवं विश्रमयोगिनी ।" आहारयाश्रो वा " इत्यादि । आटारकाद्वा, आहारकं नारकमाश्रित्य ( से ति ) स नारकोऽनादारकः। अनाहारकाद्वा, अनाहारकं नारकमाश्रित्याहारकः। किमि स्वामी विदारक
योऽसौ निरन्तराऽदारकत्वादुपचित बोगियानाहारको बोपोली डीनः पूर्वमनाद्वार करवेनानुपश्वीनयोगत्वेन च विषमयोगी स्यादिति भावः । (सिथ तुल्ले चि ) यौ समानसमयया विग्रह गया ऽनाहार की योनी गत्या वा त्यांनी तयारेक इतरापेक तुल्यः, समयोगी जवतीति भावः । (अम्भहिए ति ) यो विग्र वेदारी नाहारका चिततरत्वेनाभ्यधिको विषमयोगीति ज्ञावः । श्ह च- "श्राहारयाओ बा से श्राहार" इत्यनेन हीनतायाः, 66 अणः हारबाबा आहार" इत्यनेन चापविकतायामुक्त तुल्यतानिबन्धनं तु समानधर्म नालक्षणं प्रसिद्धत्वानोकमिति २० २५ ० १ ० योगिम काययोग्ययोगकानामन्यत्वं संसारसमापजीवानां यो मायाबहु
योग
मिथ्या यावन्तो योगास्ते पर्याप्तानां योग रूक्ष स्थितिबन्धप्रस्तावे 'बंध' शब्दे दृश्याः) भुतोपदिष्टे संयम हेतौ सम्यक्कामोवाकयापारे योगाः सुतोपदिशः सर्वतः व्य० १ उ० । योगाः सम्वमनोवाक्कायव्यापारा इति । अने० ३ अधि० । योगो विशिष्टमनोवाक्कायव्यापर इति च । सूत्र० १
जोग
०८ भ० समाधौ उस०१ श्र० । ध्यानविशेषे, पो० २षिब० । श्रारंमाभ्यन्तरपरिणामे, द्वा० १६ द्वा० ।
(१०) कतिविधो योग इत्याह
सालम्बनो निरालम्बनध योगः परो दिया है। जिनरूपध्यानं स्वज्यायस्वच लगस्त्यपरः ।। १ ।।
सदरादिज्ञानविषयेण प्रतिमाऽऽदिना पत
इति सनः निरालम्बन21551बनाद्विषयभावापा निष्कान्ती विराजम्यो दिन ध्यान स्वरूपेष्ट दृश्यते, तद्विषयो निरालम्बन इति यावत् । योगो ध्यानविशेषः, परः प्रधानो द्विधा ज्ञेयो द्विविधो वेदितव्यः । जिनरूपस्य सअवसरस्थितस्य ध्यानं तिनं शन्दोल -श्राद्यः प्रथमः, सालम्बनो योगः । तस्यैव जिनस्य तस्वं केवलजयप्रदेश के ज्ञान देना तत्तस्वगः । तुरेवकारार्थः, अपरोऽनलम्बनः, मुक्तपरमात्म स्वरूपध्यानमित्यर्थः ॥ १ ॥
कथं पुनर्जनरूपं ध्यातव्यमित्याहअष्टपृथग्जनचित्त-त्यागाद्योगिकुलचित्तयोगेन । जिनरूपं ध्यातव्यं, योगनिधावन्यथा दोषः ॥ २ ॥
श्रष्ट च तानि पृथग्जनचित्ताति च तेषां त्यागात्परिहाराव, योगिकुलस्य प्तिं मनः तोगेन तत् संबन्धि, जिनरूपं परमास्मरूपं, ध्यातव्यं ध्येयं, योगविधी योगविधान, अन्यथा दोषोऽपराधः ॥ २ ॥
तान्येव चाष्टौ चितान्याहवेदांगपो स्थानान्त्यन्याः ।
युक्तानि हि चित्तानि, प्रबन्धतां वर्जयेद् मनिमान् ॥ ३ ॥
दन्तता किवापप्रवृचिद्धेतुः पथि परिश्रान्तया भावेऽप्युपस्थितस्यैव उद्विग्नता कुम करोति न सुखं लभते । केपः चिप्तचित्तता, अन्तराऽन्तराऽन्यत्र न्यस्तचित्तवत् । उत्थानं चित्तस्याप्रशान्तवादिता, मनःप्रभृती
मुकादमाचान्तिरूपा सु क्तिकायां रजताध्यारोपवत् । श्रन्यमुद् अन्य हर्षः । रुग् रोगः,
पामा प त्यानं निधान्यमुच्च रु बाऽऽसकान दि संबद्धानि हि. चित्तानि प्रस्तुतान्यष्ट, प्रबन्धतः प्रबन्धन, यह मतिमान् बुद्धिमान् । सदयग्राह
स्वेदेदाभावा शिधानमिह सुन्दरं भवति । एतचे प्रवरं कृषिकर्मणि सविद यम् ॥ ४ ॥ संख्यावाढत्वाभावा मैकाम्यम इड प्रस्तुते योगे, सुन्दरं भवति । एतच प्रणिधानम्, यह योगे प्रयरं प्रधानं कृषिकर्माणि धान्यनिचले हि नवज्जलयः शेयम् ॥ ४ ॥
गेविषमं करणमस्य पापेन । योगिकुल जन्मात्रमेतद्विदामिष्टम् ॥ ५ ॥ गेचितदोष, विद्वेषाद्योगविषयतो, विष्टिसमं राजविष्टिकल्पं, करणमस्य योगस्य, पापेन हेतुभूतेन एतविधं करणम,
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जोग
जोग
प्रनिधानराजेन्द्रः। योगिनां कुले यजन्म, तस्य बाधकम । अनेन योगिकुलजन्मापि! णमपि हि नरसिम्ये नाभिमतफलनिष्पत्तये, नियमानियमेन, जन्मान्तरे न लज्यते इति कृत्वा योगिकुमजन्मबाधकम, मल- अस्य प्रस्तुतस्यार्थस्य, इस्यननुष्ठानम्-इतिहेतोरननुष्ठानमकमत्यर्थम, एतत्तद्विदामिष्टं योगविदामभिमतम् ॥ ५॥
रणं, तेन कारणेन, पतत्करणं, बन्ध्यफलमेयएफलाभावात् । देोऽपि चामबन्धा-दिष्टफलसमृधये न जास्वेतत् । . श्यं हि रुग्भाकपा पोमारूपा वाऽनुष्ठानजातेरुच्छेदकरणद्वारेण
सर्वानुष्ठानानां बन्यफत्रत्वाऽऽपादनाय प्रनवति, तेन सदोषा नासकृत्पाटनतः, शालिरपि फलाऽऽवहः पुंसः॥६॥
विवेकिना परिहर्तव्येति दर्शिता ॥१०॥ क्षेपेऽपि च वित्तदोष, अप्रबन्धात्प्रबन्धत्वाभावात, चित्तस्य श्रफलसमृरुये विवक्कितफलसमृदयर्थ योगनिष्पत्तये, न, जातु
आसोऽप्यविधाना-दसशसक्त्युचितमित्यफसमेतत् । कदाचित, पतस्करणं, चित्तं वा भवति । किमित्यन्यनान्यत्र चि. भवतीष्टफलदमुच्च-स्तदप्यस यतः परमम् ॥ ११॥ तप्रकपे फलसमृकिन भवतीतिमाह-नासकृदनकशा, उत्पा.
प्रासोऽपि चित्तदोषे सति विधीयमानानुष्ठाने इदमेव सुन्दटनत उत्खननात्, शाझिरपि धान्यविशेषः, फाऽऽवहः फल
रमित्यवं को, अविधानाच्छास्त्रोक्तविधरभावात, सक्तिरनवर. संयुक्तः, पुंसः पुरुषस्य यतो नवति ॥६॥
तप्रवृत्तिन विद्यत सनो यस्यां सेयमसङ्गाऽभिवताभाषवती, उत्याने निर्वेदात्, करणमकरणोदयं सदैवास्य ।
प्रसका चासो सक्तिश्च, तस्या उचितं योग्यमिति कृत्वा, प्रफल. प्रत्यागत्यागोचित-मेतत्तु स्वसमयेऽपि मतम् ॥ ७॥
मेतदिएफवरहितमेतदनुष्ठानम,भवति जायते, इष्टफलदमिएफ
ससंपादकम, उचैरत्यर्थ, तदपि शास्त्रोक्तमनुष्ठानम, प्रसङ्गमस्थाने चिनदोषे सत्यप्रशान्तवाहितायां,निवेदातोः, करणं
भिवङ्गरहितम, यतो यस्मात्, परमं प्रधानम् । असायुक्तं . निष्पादनम. प्रकरणोदय भाविकानमाश्रित्याकरणस्यैवोदयो
नुष्ठानं तन्मात्रगुणस्थानकस्थितिकार्येव, न मोहोन्मूलनद्वारेण यस्मिन्निति तत्तथा, सदैवास्य योगस्य, न विद्यते त्यागो यस्य
केवलज्ञानोत्पत्तये प्रभवति, तस्मात्तदार्थना भासमस्य दोषकथञ्चिदुपादेयत्वासदत्यागं, त्यागायोचितं योग्यम, भप्रशा
रूपता वियति ॥११॥ म्तवाहितादोषात् । अत्यागं च तस्यागोचितं च अत्यागत्यागो. चितम, पतत्तु पतत्पुनः, करणमनिसंबध्यते । खसमयऽपि स्व.
एवमएपृथाजनचित्तदोषान् प्रतिपाद्य, तस्यागद्वारेण सिद्धान्तेऽपि, मतमिष्टम ॥७॥
योगिचित्तमुपदर्शयन्नाहभ्रान्तो विभ्रमयोगद, न हि संस्कारः कृतेतराऽऽदिगतः।।
एतद्दोषविमुक्त, शान्तादात्ताऽऽदिनावसंयुक्तम् । तदनावे तत्करणं, प्रक्रान्तविरोध्यनिष्टफलम् ॥ ७ ॥
सततं परार्थनियतं, सहक्लेशविवर्जितं चैव ॥१२॥ वान्तौ बित्नदोष सति, विभ्रमयोगाम्मनोविभ्रमसंबन्धात्न
एतदोषविमुक्तमष्टचित्तदोषवियुक्तम,शान्तोदात्ताऽदिभावसं. हि संस्कारा नैव वासनाविशेषः, कृततराऽऽदिगतः-इदं मया
युक्तम्-शान्त उपशमवान् । यथोक्तम्-" न यत्र दुःखं न सुखं कृमितरदकतम । प्रादिशब्दादिदं मयोच्चरितमिदमनुच्चरि
न रागा, न' द्वेषमोहो न च काचिदिया । रसः स शान्ता तम । पतस पनद्विषयः। न हि मनाविभ्रमे कृतेतरादिसं
विहितो मुनानां, सर्वेषु भावेषु समः प्रदिष्टः॥१॥" उदास कारोजयति। तदभावे संस्काराजाचे,तत्करण-तस्य प्रस्तुतस्य
उदारः। यत उक्तम-“अयं निजः परो वेति, गणना लघुचेतयोगस्य करणं, प्रक्रान्तविरोधि प्रस्तुतयोगविरोधि, अनिष्ट
साम् । उदारचरितानां तु, वसुधैव कुटुम्बकम् ॥१॥" आदिफलमिप्रफलरहितम् ॥७॥
शब्दासम्जोरधाराऽऽदिनावपरिग्रहः । तैः संयुक्तं समन्वितम,
सततमनबरतम, परार्थनियत परोपकारनियतवृत्ति, सकेअन्यमुदि तत्र रागात् , तदनादरताऽर्थतो महापाया। हाविवर्जितं चैव-सक्लेशो विशुद्धिप्रतिपक्का कालुभ्यं, तेन सर्वानर्थनिमित्तं, मुद्विषयाङ्गारवृष्टयाना ॥॥ विरहितं चैव ॥ १॥ भनुष्ठीयमानादन्यत्र मुत्प्रमोदः,तस्यां सत्यां चित्तदोषरूपायां,
मुस्वप्नदर्शनपर, समुल्लमद्गुणगणौघमत्यन्तम् । तत्रान्यस्मिन् वा,रागादभिलाषाऽतिरेकात्, तदनादरता अनुष्ठीयमानानादरभावो,अर्थतः सामयात, महापाया महानपायो य
कल्पतरुवोजकल्पं, शुनोदयं योगिनां चित्तम् ॥१३॥ स्याः सकाशात्सा तथा, सर्वानर्थनिमित्तं सर्वेषामनर्थानां हेतुः, | सुस्वप्नदर्शनपरं-शो जनाः स्वःसुस्वप्नाः-श्वेतसुरभिपुणवत्राऽs. सदनादरताऽभिसंबध्यते । मुद्विषयाङ्गारवृश्याभा-मुदा हर्षस्य | तपत्रचामराऽऽदयः,तदर्शनप्रवृत्तम,समुखसन् गुणगणौधो गुणত্তিথ্য অনামমাংঘারামান্থিমনছক্কাব্যচক্ষা- निकरप्रवाहो यस्मिस्तत्समुल्लसदगुणगणौघम, अत्यन्तमतिशयवृष्टिसरशी, प्रमोदविषयार्थोपघातकारिणीत्यर्थः । श्यं चा- न,कल्पतरुवीजकलां.कल्पतरोबीजं स्वजनकं कारणं तेन तुल्यन्यमुत्सुन्दरेष्वपि शास्त्रोक्तेषु चैत्यवन्दनास्वाध्यायकरणाऽऽदिषु म्,शुभोदयं योगिनां चित्त,शुभ उदयोऽस्यति शुनोदयम् ॥१३॥ भूतानुरागाचैत्यवन्दनाऽऽद्यनाद्रियमाणस्य तत्करणबेलायामपि कस्य पुनरवविध विशेषेण योगिनश्चितं भवतीत्याहतदुपयोगाभावनेतरत्राऽऽसक्तचित्तवृत्तेः सदोषा, न हि शास्त्रो
एवंविधमिह चित्तं, भवति प्रायः प्रवृत्तिचक्रस्य । क्तयोरनुष्ठानयोरयं विशषः समस्ति-यतैकमाइरविषयो, प्र
ध्यानमपि शस्तमस्य, वधिकृतमित्याहुराचार्याः ॥१४॥ न्यदनादरविषय इति ॥ रुजि निजजात्युच्छेदात,करणमपि हि नेष्टसिझये नियमात्।
एवंविधमवस्वरूपम, इह प्रक्रमे,चित्तं मनः, भवति सम्भवति,
प्रायो बाहुल्येन, प्रवृत्तचक्रस्य प्रवृत्तरात्रिन्दिवानुष्ठानसमूहस्य अस्येत्यननुष्ठानं, तेनैतद् बन्ध्यफनमेव ।। १०॥
योगिनः, ध्यानमपि पूर्वोक्तस्वरूपम, शस्तं प्रशस्तम्, अस्य स्व. अजिरोगे चित्तदोषे सति,निजजात्युच्चेदादिति। कोऽय!, कर। स्यैव, अधिकृतं प्रस्तुतम, इत्याहुराचार्याः सरयो ब्रुवते ॥१४॥
४०५
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जोग
"
कथं पुनस्ताने देशाऽऽद्यपेक्षया भवतीत्याहविविक्तदेशे सम्यमितकाययोगस्य । कायोत्सर्गेण एवं यद्वा पर्यबन्धेन ।। १५ ।। शुभ दिनसम् स्थेन संयमितकाययोगम्य नियमितसर्वकार्यस्य कायोत्स स्थानरूपेण मयामासम विशेषरूपण ॥ १५ ॥
साध्वागमानुसारत् चेतो विन्यस्य जगवति विशुधम् । स्पर्शानेषाचरितयोगितंस्मरण योगेन ।। १६ ।।
-
( १६१०)
अधिामराजेन्द्रः ।
लघु वधा जवत्येवमागमा मुसारात् सिद्धान्तानुसारेण खेतविश्वश्वजि
संस्का प्रतिष्ठिता लग्वाऽऽत्मलाना ये योगिमस्तेषां संस्मरणयोगः स्मरणव्यापारः तेन । यो हि यत्र कर्मणि सिद्धस्तदस्मरणं तफलसिद्धये भवति ॥ १६ ॥ षो० १४ घ० ।
'योगश्चितवृत्तिनिरोधः' इति पाचियोस:करणवृत्तनिरोध, वाच० । योगो मनोवाक्कायनिरोध इति । संथा | योगचांद्रयशेधनमिति । उत्त० १२ श्र० । मोक्षण जनादेयत्र
44
मुख्य हेतु व्यापारताऽस्य तु ॥ १ ॥ " इत्युक्तञ्जकणे माक्षमुख्यहतौ व्यापारे, द्वाट ।
.
1
(११) मोका मोती पोगो, जितेनचित् । सायदान तयाजाने तुक्तिभेदों न कारणम् ॥ ३ ॥ मोतुमि यतोयात् कारणात् स योगशास्त्रकार संगीयते । भिद्यते भेदमनुभवनि, म नैव ततो कवियोग कुइयासा सापस्य योगाभ्यासनिष्याद्यस्य मोकादा करूपत्यात् । सकलकर्मक्लेशकयल कणो हि मोकः, न तत्र क चिद्भेद इति । एवंसति यसि तदाह तथानाचे तु मोकाभेदजावे पुनःतिको योगशास्वात्मानयोग ङ्गानां यो भणितः सः, न कारणं हेतुर्योगभेदस्य । न हि नाममात्रनभयाभिद्यले एकस्यापि शकाऽऽदेरमेन नाना व्यवह्रियमाणत्वात् ॥ ३ ॥
अयमेवविशेषमादमास्य, किंतु पनपने
चरादित्यं स्वजः ॥ ४ ॥ ममता कति स्यांग कितना भ्य सरेण योगः । कीदृशम ? इति । हसताऽनुपचरितेन गोचरासंयम की
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मोहतुर्योगो युज्यते इत्येवंरूपेण निपुोहापो यस्तो
गहिया पचन नियमा "एसोय उत्तमो जं, पुरित्यो एत्थ बचिओ नियमा। वंचि सधेसुं कनाणेसुं न संदेहो ॥ १ ॥ " ॥ ४ ॥
जोग
अथ कस्मादस्व गांव राऽऽविद्धिमृग्यते इत्याशङ्काऽऽहगोवरचं स्वरूपं च फलं च यदि युज्यते ।
अस्य योगस्ततोऽयं पर मुख्यादयोगतः ॥ ५ ॥ गोविषयः परियमिः स्व प्रवृत्तिलक्षणम, फलं मोक्काऽऽत्मकम् चकारा उक्तसमुच्चये । यदि इत्यन्युपगमे । युज्यते घटते, अस्य योगस्य, योगः । ततो rassदियोगाद्. अयं प्रस्तुतो यद्यस्मात्स्यात् । एतदपि कुलः स्याह मुख्यस्यानुपचरितस्य शब्दार्थस्य मनो अनाद्योग इत्येवंलक्षणस्य योगतो घटनात् ॥ ७ ॥ यो० वि० । ( १२ ) योगस्य लक्षणं निरूपयन्नाह - मोक्रेण योजनादेव, योगो ह्यत्र निरुच्यते । लसेन देनुव्यापारारूप तु ॥ १ ॥
योगो हि योगशब्दों हि श्रत्र लोके, प्रवचने वमोक्षण योज नायुपाधते तेनास्य योग व्यापारता, लक्षणं, निरुतार्थस्याप्यनतिप्रसक्तस्य लक्षणत्वान पायात् ॥ १ ॥
मुख्यत्वं चान्तरद्रत्वात् फलाकेपास दर्शितम् । चरमे पुद्गलाssवर्से, यत एतस्य संजयः ॥ २ ॥ न सम्माभिमुख्यंस्यादार्थेषु परेषु तु । मिध्यास्पदीनां दिमुदानामिवाङ्गिनाम् || २ || मुख्यत्वं श्रान्तरङ्गत्वान्मोकं प्रत्युपादानत्वात् पत्र जनमं प्रत्यविलम्बत्वाच्च दर्शितं प्रवचने, यतो यस्माद्, चरमे पुनाऽऽवर्ते, एतस्य योगस्य संभवः। इत्थं ह्यभव्यपुरभव्यकि कृतो भवति पकस्य मकालुपादानत्यायस्य फलविन्नम्बादिति ध्येयम् ॥ २ ॥ नेति स्पष्टः ॥ ३ ॥ तदा जत्राभिनन्दी स्वात् संज्ञा बिना । धर्मकृत् कविदेवाङ्गी, लोकपङ्गिकृतादरः ॥ ४ ॥ तदाऽवरमेष्वावर्त्तेषु श्रङ्ग) प्राणी, संज्ञात्रिष्कम्भणम श्राहारा
वाि
चर्मकारी लोकपी लोकसभावसंपद नरूपायां कृताऽऽदः कृतयनः स्यात् ॥ ४ ॥
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निमत्तरी जवान शनः। अनाभिनन्दी स्याद्, निष्फलतः ||५|| क्षुद्रः कृपणः, सोभरतिर्याच्या शीलः, दीनः सदैवादप्रकल्पाणः, मत्सरी परकल्याण्डुःस्थितः, नयवान्नित्यजीतः शठो मायात्री संसारमा
वानव । दधिदुग्बाम्बुताम्बूलपण्यपण्याङ्गनाऽऽदि भिः। इत्यादिवचनैः संसाराभिनन्दनशील, स्याद्भवेद्, निष्फ आरम्भङ्गः सर्वेदाचामिनिवेश क्रियासंपन्नः ॥५॥ झोका तो चिनेनना। पियासा ॥६॥ खोकानन्निनिमित्तं. या महिने को स्मित
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या शिरसा व योगविरूपणत्यांप हताशा ॥ ६ ॥
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जोग अन्निधानराजेन्द्रः ।
जोग महत्यल्पत्वबोधन, विपरीतफलाउवहा।
जिलाषण रहिता,चेतसोऽन्तरात्मनःपरिणतिः स्थिरा एकाप्रा, नवाजिनन्दिनो लोक-पङ्क्त्या धर्मक्रिया मता ॥७॥
स्वविषय एवं यत्नातिशयाज्जाता तत्रैव च तज्जनमीत्यर्थः।१॥ महति अधरीकृतकल्पद्धचिन्तामणिकामधेनौ धर्म, अस्गन्वबो
बाबान्ताधिमिथ्यात्व-जयव्यङ्ग्याशयाऽऽत्मकः। धेनानितुच्छकील्यांदिमानहेतुत्वज्ञानेन, विपरीतफमाऽबहा
कण्टकञ्चरमोहानां, जयैर्विघ्नज यः समः॥ १३ ॥ पुरन्तसंसारानुबन्धिना,भवाजिनन्दिनो जीवस्य, लोकपडत्या
बाह्यव्याधयः शीतोष्णाऽऽदयः, अन्ताधयश्च ज्वराऽऽदयः, धर्मक्रिया मता, नात्र केवलमत्रत्वमेव, किं तु विपरीतफल. मिथ्यात्वं भगवद्वचनाधकानं.तेषां जयस्ततकृत कम्पनिराकरणं स्वमिति भावः ॥७॥
तयाझ्याशयाऽऽत्मकः कण्टकज्वरमोहानां जयैःसमो बिनजधर्मार्थ सा शुभायापि, धर्मस्तु न तदर्थिनः ।
यः। इत्थं च हीनमध्यमांतकृष्ठत्वेनास्य त्रिविधत्वं प्रागुक्तं व्यक्ती
कृतम् । तथाहि-कस्वचित पुंसःकएटकाऽऽकीर्णमा वर्णिस्य क्लेशोऽपीष्टो धनार्थ हि, क्लेशार्थ जातु नो धनम् ।।८।। कएटकावनो विशिष्टगमनविघातहेतुतकहिते तु पथि प्रवृत्तस्य धर्माय सम्यग्दर्शनाऽऽदिमोकबीजाऽऽधाननिमित्तम, सा निराकुलं गमनं संजायते, एवं कण्टकबिनजयसमः प्रथमो लोकपङ्किः, दानसंमानोचितसंजाषणाऽदिजिश्चित्रैरुपायैःशु- विन्नजयः। तथा-तस्यैव ज्वरबेदनाऽनिभूतशरीरस्व विनपाभाय कुशलानुबन्यायापि। धर्मस्तु तदथिनो लोकपडायनो न दन्यासस्य निराकुलं गमनं चिकॉरपि सत्कर्तुमशक्नुवतःकशुजाय, हि यतो, धनार्थ क्लेशोऽपीटो-धनार्थिनां राजसेवा55. पटकविनादप्यधिको ज्वरविघ्नः, तजयस्तु निराकुलप्रवृत्तिहेतुः दौ प्रवृत्तिदर्शनात् । क्लेशा जातु कदाचिद्, धनं नेष्टम, न दि एवं ज्वरविनममो द्वितीयो विघ्नजयः। तस्यैव चाध्ननि जिगमि'धनाद मे क्लेशो नवतु' इति कोपीच्चति प्रेतावान् ।
वोडमोडकल्पो मोहविघ्नः, तेनान्निनूतस्य प्रेर्यमाणस्याप्यतदिदमुक्तं योगविन्दौ
विनीनैर्न गमनौत्साहः कथञ्चिप्राऽभवति, तज्जयस्तु स्वरसतो “धर्माय लोकपङ्किः स्थात्, कल्यागाईं महामतेः।
मार्गगमनप्रवृत्ति हेतुः । एवमिह मोदविघ्नजयसमस्तृतीयो वितदर्थे तु पुनर्धर्मः, पापायापधियामक्षम् ॥०॥" नजयः। इति फलैकोनेयाः खल्वेते ॥ १३॥ तथा
सिधिस्ताचिकधर्माऽऽप्तिः, सातादनुभवाऽऽस्मिका । "जनप्रियत्वं शुरूं, सरूमसिफिलदमझम ।
कृशेपकारविनया-विता हीनाऽऽदिषु क्रमात् ।। १४॥ धर्मप्रशंसनाऽऽई-वीजाऽऽधानाऽऽदिभावेन ॥१॥" ॥॥ इति ।
सिद्धिः तात्विकस्याच्यासशुद्धस्य, न स्वाज्यासिकमात्रस्य, अनाजोगवतः साऽपि, धर्माहानिकृतो वरम्। ।
धर्मस्य अहिंसा प्राप्तिरपलब्धिः ,साक्षादनुपचारण, अनुशुभा तत्त्वेन नैकाऽपि, प्रणिधानाऽऽद्य जावतः ॥ ए॥
भवाऽऽत्मिका श्रात्मनात्मना अात्मनि संवित्तिरूपा ज्ञानदर्शनअनाजोगवतः समर्छनजप्रायस्प स्वभावत एव वैनथिकप्र. चारित्रैकमूर्तिका, हीनाऽऽदिषु क्रमात कृपोपकारविनयाम्विता, कृतेः, साऽपि लोकपकत्या धर्मक्रियाऽपि, धर्माहानिकतो धर्मे हीने कृपाउन्विता, मध्यमे उपकारान्यिता, अधिके च विनययुमहत्वस्यैव यथास्थितस्याज्ञानाद्भवोत्कटेच्छाया अनावेन महत्य- ता ॥ १५॥ सत्वाप्रतिपत्तेधर्महान्यकारिणो, वरमन्यापेक्षया मनाक् सुन्दरा, अन्यस्य योजनं धर्मे, विनियोगस्त उत्तरम् । तत्वेन तत्त्वतः, पुनर्नेकाऽपि प्रणिधानाऽऽधजावतो नैकाऽपि कार्यमन्वयसंपच्या, तदवन्ध्यफलं मतम् ।। १५ ॥ वरं, प्रणिधानाऽऽदीनां क्रियाशुद्धिहेतुत्वात् ॥९॥
अन्यस्य स्वव्यतिरिक्तस्य, योजनं धर्मेऽहिंसाऽऽदी विनियोगः, तानेवाऽऽह
तपुत्तरं सिद्ध्युत्तरं कार्यम् । तदन्वयसंपत्याऽविच्छेदसिद्धया, प्रणिधानं प्रवृत्तिश्च, तथा विघ्नजयस्त्रिया ।
अवश्यफलमव्यभिचारिफलं मतम् । स्वपरोपकारवुद्धिलकसिरिश्च विनियोगश्च, एते कर्मशुनाऽऽशयाः ॥१०॥
स्यानेकजन्मान्तरसन्ततोबोधेन प्रकृष्टधर्मस्थानावाप्तिहेतुकर्मणि क्रियायां, शुभाऽऽशयाः स्वपुत्रिशुद्यनुबन्धहेतवः
त्वात् ॥ १५॥ शुभपरिणामाः; पुष्टिरूपचयः, शुद्धिश्च झानाऽऽदिगुणविघाति
एतैराशययोगैस्तु, विना धर्माय न क्रिया। घातिकमहासोस्थनिर्मत्रता, इत्यवधेयम् ॥ १०॥
प्रत्युत प्रत्यपायाय, स्रोभकोधक्रिया यथा ॥ १६ ॥ प्रणिधानं क्रियानिष्ठ -मधोवृत्तिकृपाऽनुगम् ।
एतैःप्रणिधानाऽऽदिभिः,प्राशययोगैस्तु विनाधर्माय न क्रिया
बाह्यकायब्यापाररूपा, प्रत्युतान्तर्मालिन्यमद्भावात प्रत्यपायापरोपकारसारं च, चित्तं पापविवर्जितम् ॥ ११ ।।
येध्यमाणप्रतिपक्वविघ्नाय, यथा लोनकोधक्रिया कूटतुबाप्रणिधानं क्रियानिष्ठमधिकृतधर्मस्थानादविचझितस्वभावम,
दिसडामाऽदिलवणा। नमुक्तम्-"तत्वेन तु पुनकाउ-प्यत्र अधोवृत्तिषु स्वप्रतिपन्नधर्मस्थानादधस्ताद्वर्तमानेषु, प्राणिषु
धर्मक्रिया मता। तत्प्रवृत्वादिबैगुण्या-लोभकोधक्रिया यथा॥" कृपाऽनुगं करुणाऽन्वितं, न तु हीनगुणत्वेन तेषु औषसमन्वितं,
॥६॥ (यो०बि०)॥१६॥ परोपकारसारं न परार्थनिष्पत्तिप्रधानं च, चित्तं पापविवर्जितं
तस्मादचरमाऽऽचर्चे-प्वयोगो योगवर्त्मनः । सावद्यपरिहारेण निरवद्यवस्तुविषयम् ॥ ११॥
योग्यत्वेऽपि तृणाऽऽदीनां, घृतत्वाऽऽदस्तदा यथा ॥१७॥ प्रत्तिः प्रकृतस्थाने, यत्नातिशयसंभवा ।
तस्मान्प्रणिधानाऽऽधभावात, अचरमाऽऽयर्सेपु योगवमनो अन्याभिलापरहिता, चेतःपरिणतिः स्थिरा ॥१॥ योगमार्गस्य, प्रयोगोऽसंभवः । योग्यत्वेऽपि योगस्वरूपयोग्य. प्रवृत्तिः प्रकृतस्थानेऽधिकृतधर्मविषये, यत्नातिशयसंभवा पूर्व- त्वेऽपि, तृणाऽऽदीनां तदा तृणादिकाले, यथा घृनत्वाप्रयलाधिकोत्तरप्रयत्नजनिता, भन्याभिलाषणाधिकतेतरकार्या- देरयोगः-तृणाऽऽदिपरिणामकाले तृणाऽऽदेताऽऽदिपरि
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जोग
नामस्वरूप योग्यत्वेऽपि घृताऽऽदिपरिणामसहकारियोग्यताभाषा वचा मघुनाऽऽदिपरिणामः तथा भावी बम् । अत एव सहकारियोभ्यताऽभावयति तत्र कामे कार्याउपधानम् ।
तद् योग्यता ऽभावपचेनैव साधयितुमभिप्रेत्याध्य ( योगविन्दौ ) भिडसूरिः
तस्मादचरमा
(१६२०) अभिधानराजेन्द्र
कार्यस्थितितरोद्व-त्तज्जन्मस्वामरं सुखम् ॥ ९३ तेजसानां च जीवानां भव्यानामपि नो तदा । यथा चारित्रमित्येवं नान्यद्दा योगसंभवः ॥ ए४॥ इति ॥ १७॥ नवनीताऽऽदिकम्पस्तचरमावर्त इष्यते।
अत्रैव मिझो जायो, गोपेन्द्रोऽपि यदभ्ययात् ॥ १० ॥ यो परिणामबन्धननय दिव्यतत्तस्मात् परमा नेपा गम अत्रैव चरममलोभायो भवनिष्यमा बाद्भवति । पपेन्द्रोऽपि अभ्यधाद म्यन्तरेण ॥ १८ ॥ अनिवृत्ताधिकारायां, मन सर्वचैव हि ।
न पुंसस्तवमार्गेऽस्मिन, जिज्ञामाऽपि ते ॥ १५ ॥ निवृतः प्रतिलोमशीनोऽधिकारः पुरुषाभि मरूपो यस्यास्तस्यां हि सर्वैरेच प्रकारे, अनन्य स्थानस्याप्यायित्यर्थन मस्त श्वमार्गेऽजिज्ञासाऽपि किं पुनस्त दयासः ?, इत्यपिशब्दार्थः । प्रवर्तने संजायते ॥ १६ ॥ साधिकारप्रकृति-स्पाव हि नियोगतः ।
पध्येच्छेव न जिज्ञासा, क्षेत्ररोगोदये जवेत् ॥ २० ॥ साधिका पुरुषानिवृत्त प्रकृदि. योगनियमः जहासापान क्षेत्ररोगोदये इव पध्येच्छा । केत्ररोगो नाम- रोगान्तराऽऽधारमूनः ततो यथा पथ्यापथ्यांस तथा प्रकृतेऽपि ॥ २० ॥
पुरुषाभिभवः कश्चित, तस्यामपि हि हीयते । युक्तं तेनैतदधिकमुपनिष्यिते ॥ २१ ॥
ติ
हसायामपि हि सत्य त्रुभिः पश्य मिलो नाच संमति, तेनैन फ्रोपेन्द्रो युक्तम् | अधिकमपरिणाम्यात्मपके सनिवृत्यनुपपति उपरमात्रि
शिकायां भणिष्यते ॥ २१ ॥
भावस्य मोचहेतुत्वं तेन मोके व्यवस्थितम् । सस्यैव चरमा
क्रियाया अपि योगतः ।। २२ ।
तेन भावस्यान्त परिणामस्य, मोक्षे मुख्यहेतुत्वं व्यवस्थितं रोग सयोग इत्युकं प्रांत तस्यैव योगत क्रियाया अपि मोके मुख्य देतुत्वम् अतस्तस्या आप योगत्वमिति जायः ॥ २२ ॥
राताम्रस्य हेमवं जायते यथा । क्रियाया अपि सम्यक्तं तथा जावानुदेधनः ॥ २३ ॥ तानस्य रसानुवेधासिद्धरसलंपर्काद्, यथा हेमवं जायते,
जोग
तथा क्रियाया अपि भावानुवेधतः सम्यक्त्वं मोहसंपादनशकिरूपम् ॥ २३ ॥
नापसात्म्येत एवास्याः भगेऽपि व्यक्तमम्ययः । सुवर्णघटस्यां तां त्रते सौगता अपि ॥ २४ ॥
अत एवास्याः क्रियाया भावसारम्ये स्वजननशक्त्या जावव्याप्तिलक्षणे सति अपि तथाविधरूपायोदयाचाशेऽपि व्यकं प्रक टम. अम्बयो भावानुवृति प्रक्षसः तदुष्यत्य भावेऽपि तदत्य नपगमात् । अत एव तां भावशुद्धां क्रियां, सौगता अपि सुवर्णघटतुल्यां मुक्ते । यथा हि सुवर्णघटो भिद्यमानोऽपि न सुनुबन्धं मुञ्चनि,एवं शुभक्रिया तथाविधकषायोदयानाऽपि शुकशैवेति । तदिदमुक्तम-सानुबन्धं जो यम् । गीयतेऽन्यैरपि तत्, सुघटसनिजम् ॥ ३५१ ॥ " ( यो० वि० ) इति । २४|
शिरोदकसमो जावः, क्रिया च खननोपमा ।
पूर्वानुष्ठानार नायकरतो वा ||२|| शिरोदकसमस्तयाविधकूपे सहजप्रवृत्त शिराजलतुल्यो भायः, क्रिया च खननोपमा शिराऽऽश्रय कूपाऽऽदिखननरूहशी, अतो नावपूर्वादनुष्ठानाद्भाव वृद्धिधुंवा, जलवृद्धौ कृपखननस्येव भाववृद्धी क्रियायास्याज्ञायस्य दरवेऽपि बहुदलमेलनक पाया वृद्धेस्यव्यतिरेकानुविधानात ॥ २४ ॥
महमूकचूर्णसदृशः, फ्रेशध्वंसः क्रियाकृतः । तस्मसदृशस्तु स्वार जावपूर्णक्रियाकृतः ॥ २६ ॥ किपाकृतः केवल कियाजनितः सो रागादिपरिज्ञवः मरामूकचूर्णमदशः पुनरुत्पत्तिशयन्तित्वादभावपू क्रियाकृतस्तु स्मरशो महसूरुमम्म स्यान् पुनत्पत्तिशक्त्यजावात् । एवं च क्लेशध्वंसविशेषजनकः शक्ति वेशेष एव क्रियायां भाववृद्ध्यनुकूल इति फलितम् ॥ २६ ॥
तथा च
विचित्रावद्वारा तव, क्रिया हेतुः शिवं प्रति ।
अस्या व्यञ्जकता ऽप्येषा परा ज्ञाननयोचिता ||२७|| विधिको मापोऽध्यात्मादिरूपः द्वारा किया, प्रितु दण्ड इव चक्रभ्रमिद्वारा घटे । करणता च तस्याः शक्तिविशेषेण, न तु भावपूर्वकस्पेनैय भावस्याम्यधासि शिवाय
काऽप्येष हेतुना विशेषरूपा परा अत एव जावस्थापकत्वरूपाऽभिव्यञ्जकता ज्ञाननयोचिता ज्ञाननयप्राधान्योपयुक्ता, न तु व्यवहारतो वास्तवी, अन्यथा सत्कार्यवादप्रसङ्गादिति भावः ॥ २७ ॥
व्यापारथद्विपस्वाद बीर्योझासाच्च स स्मृतः । विविच्यमाना जिद्यन्ते, परिणामा हि वस्तुनः ॥३॥
योग विज्ञानादात्म शक्तिस्फोरणाच उपाय स्मृतः क्रमयतः प्रवृत्तिविषयस्य व्यापारत्यात् । एतेन व्याऽऽदेव्यवच्छेदः । हि यतो, विविच्य - माना भेदनयेन गृह्यमाणा, वस्तुनः परिणामा भियन्ते । तथा च-न व्यापाराऽऽश्रयस्यापि व्यापारत्वमिति भावः ॥ २८ ॥ एतदेवाऽऽह
जीवस्थानानि सर्वाणि, गुणस्थानानि मार्गणाः । परिक्षामा विवर्तन्ते जीवस्तु न कदाचन ॥ २०५ ॥
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जोग
सर्वाणि चतुर्दशापि जीवस्थानानि गुणस्थानानि तावमस्येव, माया मताचा परिणामा वितं दद्याविशेष अजन्ते वस्तुनमत्रिवर्तते तस्य शुहावनावस् कस्वभावत्वात् ॥ २६ ॥
उपाधिः कर्मणैव स्वादाचाराऽऽदौ श्रुतं वदः ।
विज्ञावानित्य जावेऽपि ततो नित्यः स्वभाववान ॥ ३० ॥ Marissaौ हादः श्रुतम्-यदुत उपाधिः कर्मणैव स्थात्, "क मुणा उवाही जायति सि" वचनात्। ततो विभावानां मिथ्यास्वगुणानादरज्यायोमिगुणखानं यावत् प्रवर्तमानानामाधिकभावानाम, अनित्यभावेऽपि स्वनाववानात्मा नित्यः, तस्योपाध्यजनितत्वात् उपाधिनिमित्तका अध्यात्मनो भावः स्तद्रूपा एव युज्यन्ते इति चेत् सत्यम शुद्ध नवरयाम पुनः कभाव जननचरितार्थसंयोग भितीति श्व विविच्यमानस्यैकत्राप्यनन्तभावेन मिथ्यात्वात् ॥ ३० ॥ व्याऽऽदेः स्वादनेदेऽपि शुरू जे दनयाऽऽदिना । इत्थं व्युत्पादनं युक्तं नयसारा हि देशना ॥ ३१ ॥ धन्याऽऽदेः परिणामे ज्यः स्वात् कथञ्चिदभेदेऽपि शुरूः केवलो यो दाना इत्थमुकल्या व्युत्पाद
(१३५१) अभिधानराजेन्: ।
प्रधानादिदेश शास्त्रे अन्यथा ऽनुयोगपति आत्माऽपि योग इतीष्यत पत्र, बरणाऽऽत्मनोऽपि जगवत्यां प्रतिपादनादिति भावः ॥ ३१ ॥
योगलक्षणमित्येवं जानानो जिनशासने । परोक्तानि परीक्षेत परमाऽऽनन्दवरुधीः ।। ३२ ॥ योगलक समिति स्पष्टम् ॥ ३२ ॥ द्वा० १० द्वा० । (१३) स्वकीयं योगत्रक समन्यदीययोग लकणे विचारिते
-
चित्तवृत्तिनिरोधं तु, योगमाह पतञ्जलिः । इष्टुः स्वरूपावस्थानं यत्र स्पादविकारिणि ॥ १ ॥ निरोधं योगमा तथा सूत्रम-योगनिरोध" (१-२) विपदार्थ न्यायटुः पुरुषस्य, स्वरूपे चिन्मात्ररूपतायाम, अवस्थानं यत्र यस्मिता विकारिणि व्युत्पन्नविवेककमाना वान् कर्तृवाजिमाननिवृत्तौ प्रोन्मुक्तपरिणामेन । तथा च सूत्रम्" तदा द्रष्टुः स्वरूपेऽवस्थानमिति । (१-३) ॥ १ ॥ आपने पियाकारं यत्र चेन्द्रियतिः ।
."
पुमान् भाति तथा चन्द्र-धलचीरे चलन पथा ॥ २ ॥ यत्र बेन्द्रियवृत्तित इन्द्रियवृत्तिद्वाग, विषयाऽऽकारमा विष essकारपरिणते मति, पुमान् पुरुषस्तथा भाति यथा चलीरे चन्द्रः स्वधर्माच्या पाचिकत्वेन प्रनयन इत्यर्थः । तावृतिसाध्यमिनि" (१-४) ४२॥
तच्चितं वृतस्तस्य पञ्चतय्यः प्रकीर्तिताः ।
मानं जपो विकल्पथ, निद्रा च स्मृतिरेव च ॥ ३ ॥ सचि तस्य वृतिसमुदाय कृष्णस्यापचिनो ऽपवार पञ्चतथ्य वृत्तयः प्रकीर्तिताः । तदुकम" वृतयः पचनव्यः "सां०] २-३३) (०१५) क्लेशा ऽऽकान्ताः तद्विपरीता अपि तावत्य पथ । ४०६
जोग
ता एकोदिशति-मानं प्रमाणम, भ्रमो विकल्पो, निद्रा ब स्मृतिरेव च । तदाह-" प्रमाणविपर्ययविकल्पनिषाः स्मृ तयः । " ( १-६ ) ॥ ३ ॥
आमां क्रमेण लक्षणमाह
मानं ज्ञानं यथार्थ स्यादतस्थित मतिभ्रमः । चैतन्यमित्यादी विकल्पोऽवस्तुशाब्दधीः ॥ ४ ॥ निषा च वासनाsजाव-प्रत्ययाऽऽलम्बना स्मता । सुखादिविषयावृति-नांगरे स्मृतिदर्शनात् ॥ ५ ॥ तथा अनुभूत विषया-संघोषः स्मृतिः स्मृता । rai निरोधः शक्त्याऽन्तः स्थितिर्हेतौ बढि ईतिः ॥ ६ ॥ मानं यथार्थताहिकानं स्यादि हा प्रमाणमिति" योस्तदभावमिद " विपर्ययो मिथ्याज्ञान" (१०) संशयोऽपि स्था पुर्वा पुरुषो बेत्यतदूपप्रतिष्ठखादत्रैवान्तर्भवनि । पुंमचै सम्यमित्यादपि शब्दपवि तस्य कम्बल इतिवत् शब्दजनिते ज्ञाने पष्टच भेदोऽध्यवस्तीयते समिहाविद्यमानमधि समारोप्य प्रायः वस्तु तस्तु चैतन्यमेव पुरुष इति नानुपाती वस्तु शुम्यो (व्यवहार) (१) नि विशेष पायमस्थिति चेन्न तानिन
1
नायज
स्तुनस्तथास्य मनपेक्षमाणो योऽध्यवसायः स वि
इनि ॥४॥ श्रभावप्रत्ययाऽऽन्नम्बना भावप्रत्ययाऽऽलम्बन बिरहिता वासना च निद्रा स्मृता, सन्ततमुद्धितत्वात्तमसः । समस्तवि चयपरित्यागेन या प्रवर्तत इत्यर्थः। तदाइ "अभावप्रत्ययाऽऽलम्बना वृत्तिर्निया ।" (१-१०) इयं च जागरे जाग्रदवस्थायां स्मृतिदर्शनात् सुखमहमस्वाप्समिति स्मृत्यालोचनात्सुखाऽऽदिवि
वृतिः सुखमनुनये तदानुः ॥ तथाऽनुतविषयस्य प्रमाणविपर्ययत्रिकला निद्राभृतार्थस्था संप्रमोघः संस्कारद्वारेण बुद्धावुपारोढः स्मृतिः स्मृता । तदाह"अनुभूतविषयासंमशेषः (१-१२) मुका पञ्चानामपि नाम देसी कार तामिनिवेशमिया क प्रकाशवृतिनियम निशेध ६॥ स चाज्यासाच वैराग्या-तत्राज्यासः स्थिती श्रमः ।
भूमिः स च चिरं नैरन्तर्य दधतः ।। ७ ।। सोनियाच
कम-" अभ्यासवैराग्याभ्यां तनिरोध इति । " (२-१२) नाज्या किसी वृतिय स्वरूप परिणामे अमो यत्नः पुनः पुनस्तथात्वेन चेतसि निवेशनरूपः । तदाह
6
त स्थितौ यज्ञोऽभ्यास इति । ( १-१३ ) स च चिरं चि रकालं नैरन्तर्येण । Ssदरेण चाऽथितो दृढभूमिः स्थिरो भवति । तदाढ-"स तु दीर्घकालनैरन्तर्य सत्कार सेवितो दृढत्रुमिरिति।" (१-१४) ॥७॥
या कारसंज्ञा स्वार रहनुपर्यो । वितृष्णास्वापरं तस्याद्वैराग्यमनधीनता ॥ ॥ दिवा
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जोग
दि अनु गुरुमुखादित्यमुखको वेदः, ततः प्रतीयमानानु अधिकइति व्युपसे। तयोः परिणाम विष्ण पनिगर्वस्य या वशीकारसंज्ञा 'ममैवैते वश्या नाहमेतेषां वश्यः' इत्येवं मिशऽऽत्मका । तदपरं वच्यमाण पर वेराम्या पाश्चात्यं वैराभ्यं स्यात् अनधीनता फलतः पराधीनताऽभावरूपम्। सदाह-अविकविषयवितृष्णस्य वशीकारा वैराम्यमिति" (१-१२ ) ॥
चेायसंज्ञकम् ।
मुख्यमुत्पाद्य वैराग्यमुपयुज्यते ॥ ६ ॥
तत्परं जातपुंख्या
( १६२२) अभिधानराजेन्द्रः ।
"
• जातातपत्रगुणपुरुषविवेकरुयातेः गुण वैतृष्यसंज्ञकं गु पितृष्णाऽनास कृणम् यथार्थाभिधानं परं नराग्यमाह तत्परं पुरुषका गुण वैतृष्य मिति (१-१६) प्रथमं हि विषयविषयं द्वितीयं च गुणविषयमिति भेदः बढ़िया विश्वैदर्शजन्यस्य भाव णमुत्पाद्य वैराग्यमुपयुज्यते उपकाराऽऽधायकं भवति ॥ ६ ॥ निरोधे पुनरज्यासो, जनयन स्थिरतां दृढाम् । परमाऽऽनन्दनिष्यन्द- शान्तांतदर्शनात् ॥ १० ॥
-
निरोधे विततिनिरोधे अभ्यासः पुनरंदामतिशयितां स्थि रतामवस्थिनिय जनवन परमानन्दनियस्यानिशचित सुखानिभूतस्य शान्तनोतमः शान्तरसप्रवाहस्य प्रदर्श नातू, उपयुज्यते इत्यन्वयः । तत्रैव सुखमग्नस्य मनसोऽन्यत्र गमनायोगात् । इत्थं च 'चित्तवृत्तिनिरोधः' इति योगकणं सोपपत्तिकं व्याख्यातम् ॥ १० ॥
(१४) अथ तदू दूपयन्नाह
न चैतद्युश्यते किञ्चिदात्मम्यपरिणामिनि । कूटस्थे स्यादसंसारो - भोको वा तत्र हि धुत्रम् ॥ ११ ॥ न चैतत् पूर्वोकं किञ्चिदपरिणामिनि श्रात्मनि युज्यते, तत्रा. ssत्मनि हि कूटस्थे एकान्तिकस्वभावे सति असंसारः संसाराजाय एव स्वात् पुष्करपनि पस्य तस्याविवलितपाव स्वात्। प्रकृतिकारोपहितस्वभावे च तस्मिन् संसारदाबामभ्युपगम्यमाने नितिको मोकाभावो वा स्यात् मुदाय पूर्वखावस्य त्यागे कीटस्यहानिङ्गात् ॥११॥ प्रकृतकत्वे मुक्तिः सर्वस्य नैव वा । जमावाच पुमर्थस्य कर्तव्यस्वयुक्तिमत् ।। १२ ।।
रवि कवेयुपगम्यमाने सर्वस्य मुक्तिस्पात मेय वापरस्त् पर्क प्रति विलीनोपधानायास्तस्याः स र्वान् प्रति तथात्वात् एकं प्रत्यतादृश्याश्च सर्वान् प्रत्यतथात्वाअन्यथा स्वभाव। किं च-मनोव्याप्रियमस्य जोगपादनार्थमेव प्रकृतितामभ्युदयमः। तदुकमा दशमात्रः शुको प्रया पश्यः (२-२०) यस्यामेति। " (२-२१) जाया तस्याः पुमर्थस्य कसेव्यत्वमयुतिमत् पुरुषायों मया कर्त्तव्य इत्येवं विधाध्यवसायो हि पुरुषार्थ कर्त्तव्यता, तत्स्वभावे च प्रकृतेर्जकत्वव्याघात इति ॥ १२ ॥
अत्र स्वसिद्धान्ताऽऽशयं प्रकटयन् पूर्वपत्री शङ्कते - ननु चिचस्य वृशीनां सदा ज्ञाननिबन्धनात् ।
जोग
चिच्छायासंक्रमादेतो-रात्मनोऽपरिणामिता ॥ १३ ॥
ननु चित्तस्य वृत्तीनां प्रमाणाऽऽदिरूपाणाम, सदा सर्वकालमेव, ज्ञाननिबन्धनात्परिच्छेदहतोः । चिच्छायामा दात्मनोऽपरिणामिताऽनुमीयते । इदमुक्तं भवति-पुरुषस्य चिनृपस्य सदेवाधिष्ठातृत्वेन सदस्य निर्मज्ञेयंसत्वं तस्यापि सदैव व्याचैोपरकं भवति तथा विवस्य रायस्य चिच्छायासंकान्तिसद्भावात् सदा सिद्धं भवति । परिणामित्वे स्वात्मनश्चिच्छायासंक्रमस्या सार्वदिसदातृत्वं न स्यादिति । तदिदमुम" सदा ज्ञाताश्चित्तवृत्तयः तत्प्रभोः पुरुषस्यापरिणामित्वादिति " । (४-१८ ) ॥ १३ ॥
ननु चित्तमेव सरवोत्कर्षाद्यदि प्रकाशकं तदा तस्य स्वप्रकाशरूपत्वादर्थस्येवाऽऽत्मनोऽपि प्रकाशकत्वेन व्यवहारोपपतौ किं प्रहीत्रन्तरेण ?, इत्यत श्राह
स्वा33भासं खलु नो चित्तं दृश्यत्वेन घटाऽऽदिवत् । तदन्यदृश्यतायां चा-नवस्थास्मृतिसङ्करौ || १४ || चित्तं खलु, नो नैव, स्वाभासं स्वप्रकाश्यं, किं तु द्रष्टुवेद्यं, दृश्यवेन त्वेन परादिव। यद्यद्दृश्यं तद्वेष मिति व्याप्तेन तत्स्वाना (d १६) अन्तर्बहिर्मुखव्यापारद्वयविरोधात् तनिष्पाद्यफल यस्यासंवेदनाच बहिर्मुखतत्तस्य संवेदनार्थनिष्टमेव तत्फलं न स्वनिष्ठमिति राजमानः तथापि रहस्यं विमस्त्वित्तायां च वित्तान्तर दृश्यतायां च चित्तस्याभ्युपगम्यमानायामनवस्थास्मृतिसङ्करी स्वाताम् । तथाहि यदि सारे येथे वासाऽपि बुद्धि: स्वयं बुद्ध्या युद्धात प्रकाशातुमसमर्थेति प्रा इयन्तरकल्पनीयम, तस्याप्यन्यदित्यनवस्थानापुरुषा युषः सहस्रेणाप्यर्थप्रतीतिर्न स्यात् । न हि प्रतीतावप्रतीतायामथेः प्रतीतो भवति । तथा स्मृतिसङ्करोमी स्यात् । एकस्मिन् रूपे, रसेवा समुत्पन्नायां बुद्धौ तद्ग्राहिकाणामनन्तानां बुद्धीनामुस्पत्तेस्तज्जनित संस्कारैर्युगपद् बह्मीषु स्मृतिपूत्पन्नासु कस्मिन्नर्थे स्मृतिरियमुत्पन्नोते ज्ञातुमशक्यत्वात् । तदाद-" पकलमये चोभयानवधारणम् (५-२० ) ।' ।” ( ४-२० ) " चित्तान्तरादृश्ये बुद्धिबुद्धेरतिप्रसङ्गः स्मृतिसङ्करश्चेति ” ( ४-२१ ) ॥ १४ ॥
नन्वेवं कथं विषयव्यवहार इत्यत्राऽऽद्दअङ्गाङ्गिजावचाराज्यां, चितिरप्रतिसंक्रमा | द्रष्टृश्योपरकं तद्, चिचं सर्वार्थगोचरम् ।। १५ ।। चितिः पुरुषरूपावकिः अङ्गाङ्गिभाव चाराभ्यां परिणामपरि मिभावगमनाभ्यास, अप्रतिसंक्रमा उत्पेतासंकीणां यथा हि गुणाः स्वबुद्धिगमन लकणे परिणामेऽङ्गिनमुपसंक्रामन्ति तद्रूपतामिवाऽऽपद्यन्ते, यथा चाऽऽनोकपरमाणवः प्रसरन्तो विषयं व्याप्नु यन्ति नैवं चितिशक्तिः तस्याः सर्वदैकरूपतया स्व व्यवस्थितत्वादित्यर्थः। तत्तस्माचित सन्निधाने बुद्धेस्तदाकारता. ssपसीनायामेवोपजायमानायां बुद्धिवृत्तिप्रतिसंकारताया विशिष्टतया संपती स्वसंयुभ्युपपनेरित्यर्थः ।
श्याम्यामुपरक रूपतामचाप विषा3कारपरिणामं च चित्तं, सर्वार्थगोचरं सर्वविपयग्रहण समर्थ भ. बति विप्रतिसंक्रमायास्तदाऽऽकाणी
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. (१९२३) जोग अनिधानराजेन्द्रः।
जोग तिसंवेदनम्।"(४.२२) द्रष्टदृश्योपरतं चित्तं सर्वार्थम् । (४-२३)| समाप्तः सहजशक्तिववक्षयात् कृतार्या प्रकृतिः, न पुनः परिणायथा हि निर्मवं स्फटिकदर्पणाऽऽद्येव प्रतिबिम्बग्रहणसमर्थम,एवं ममारभते । एवंविधायां च पुरुषार्थकतध्यतायां प्रकृतेजेंडस्वन रजस्तमोज्यामनभिभूतं सत्त्वं शुद्धत्वाचिच्छायाग्रहणसमर्थ, न कर्तव्याध्यवसायाभावेऽपि न काचिननुपपत्तिरिति ॥ १५ ॥ पुनरशुद्धत्वारूजस्तमसी । ततो न्यग्भूतरजस्तमोरूपमतिया ननु यदि प्रतिलोमशक्तिरपि सहजैव प्रधानस्यास्ति, तत सत्वं निश्चलप्रदीपशिखाकारं सदैवकरूपतया परिणममानं किमयं योगिभिर्मोक्वार्थ यतः क्रियते । माकस्य चानर्थचिच्चायाग्रहणसामर्थ्यादामोकप्राप्तेरवतिष्ठते, यथाऽयस्कान्त- __नीयत्वे तदुपदेशकशास्त्रस्याप्यानर्थक्यमित्यत प्राद. सन्निधाने लोहस्य चलनमाविर्भवति, एवं चिदूपपुरुषसविधा
न चैवं मोक्षशास्त्रस्य, वैयर्थ्य प्रकृतेर्यतः । ने सत्त्वस्याभिव्यङ्गयमभिव्यज्यते चैतन्यमिति ॥ १५ ॥ इत्यं च द्विविधा चिच्छक्तिरित्याह
ततो मुःखनिवृत्यर्थ, कर्तृत्वस्मयवर्जनम् ॥ २०॥ नित्योदिता त्वजिव्यङ्ग्या, चिच्छक्तिर्द्विविधा हि नः।
न चैव मुक्तौ प्रकृतेरेव सामर्थ्य ,मोकशास्त्रस्य वैयर्यमानर्थक्यं,
यतो यस्मात्,ततो मोकशास्त्राद्,पुःस्वनिवृत्त्य पुःखनाशाय,प्रआद्या पुमान् द्वितीया तु, सत्वे तत्सविधानतः ॥१६॥
कृतेःप्रधानस्य,कर्तृत्वस्मयस्य कर्तृत्वाभिमानस्य, वर्जनं निवृ. नित्योदिता, तु पुनः,अजिव्यङ्ग्या, हिविधा हि नः-अस्माकं त्तिभवति । अनादिरेव हि प्रकृतिपुरुषयोनोंक्तभोग्य नावलक्षणः चिच्चक्तिः-आद्या नित्योदिता पुमान् पुरुष एव, द्वितीयाऽजिव्या- संबन्धः, तस्मिन् सति, व्यक्तमचेतनायाः प्रकृतेः कर्तृत्वानिमाग्या तु,तत्सन्निधामतः पुंसःसामीप्यात्,सत्वे सत्वनिष्ठा। योजः- नादू दुःखानुभवे सति 'कथमियं दु:खनिवृत्तिरात्यन्तिकी मम “अत पवास्सिन दर्शने द्वे चिच्छक्ती-नित्योदिता, अभिव्यरूम्या स्यात्' इति जवत्येवाभ्यवसायः, अतो पुःस्वनिवृत्त्युपायोपदेशच । नित्योदिता चिच्चक्तिः पुरुषः तत्सन्निधानाभिव्यक्तयाऽभि- कशास्रोपदेशापेक्षाऽप्यस्य युक्तिमतीति ॥२०॥ ध्वनं चैतन्यं सत्वमभिव्यझ्या चिच्चक्तिरिति ॥ १६॥
व्यक्तं कैवल्यपादेऽदः, सर्व साध्विति चेन्न तत् । इत्थं च भोगोपपत्तिमप्याह
एवं हि प्रकृतेोदो, न पुंसस्तददो वृथा ॥ २१ ॥ सत्वे पुंस्थितचिच्छाया-समाऽन्या तपस्थितिः। प्रतिविम्बाऽऽत्मको लोगः, पुभि लेदाऽऽग्रहादयम् ॥१७॥
कैवल्वपादे योगानुशासनचतुर्थपादे,अद पतत्, व्यक्तं प्रकटं,
सर्वमस्त्रिलं,साधु निर्दोषमिति। समाधसे-इति चेन्न तत, यत्प्राक सत्त्वे वुद्धः सात्त्विक परिणामे, पुंस्थिता या चिच्चाया, त.
प्रपञ्चितं, हि यतः, एवमुक्तरीत्या,प्रकृतेर्मोकः स्यात, तस्या एव त्समा याऽन्या, सा स्वकीयचिच्छाया, तस्या उपस्थिति
कर्तृत्वाभिमाननिवृत्त्या पुःखनिवृत्त्युपपत्तेः,न पुंसः, तस्यावरूत्वे. रभिव्यक्तिः, प्रतिबिम्बाऽऽत्मको भोगः । मन्यत्रापि हि प्रतिबि.
न मुक्त्ययोगाद्, मुचेबन्धनविश्लेषार्थत्वात् । तत्तस्माददो वम्बे प्रतिबिम्ब्यमानच्छायासदृशच्छायान्तरोगव एवं प्रतिबिम्ब.
क्ष्यमाणं भवद्ग्रन्थोक्त, वृथा कपशोषमात्रफलम् ॥११॥ शब्देनोच्यते । पुंसि पुनरयं भोगो भेदाऽऽग्रहादत्यन्तसान्निध्य. न विवेकाग्रहणाद् व्यपदिश्यते । यत्तु व्यापकस्यातिनिर्मलस्य
पञ्चविंशतितत्वझो, यत्र तत्राऽऽश्रमे रतः। चाऽऽत्मनः कथं सत्त्वे प्रतिविम्बनमिति। तन्न । व्यापकस्याप्या
जटी मुएमी शिखी वाऽपि, मुच्यते नात्र संशयः।।२।। काशस्य दर्पणाऽऽदावप्रकृष्टनेमल्यवति च जलाऽऽदावादित्या. अत्र हि पञ्चविंशतितत्वज्ञानात् पुरुषस्यैव मुक्तिरुक्ता, सा च उदानां प्रतिविम्बदर्शनात् स्वस्थितचिच्चायासदृशचिच्चाया. न संभवतीति । न च नोगव्यपदेशवन्मुक्तिव्यवदेशोऽप्युपचाऽभिव्यक्तिरूपस्य प्रतिबिम्बस्य प्रतिबिम्बान्तरवैलकण्याचे रादेव पुसि संभवतीति वाच्यम; एवं हि तत्र चैतन्यस्याप्युति भोजः ॥ १७॥
पचारेण मुवचत्वाऽऽपतेः बाधकाजावान्न तत्र तस्योपचार इति इत्थं प्रत्यात्मनियतं, बच्चितत्त्वं हि शक्तिमत् ।
चेत्, तत्र कृत्याऽऽदिसामानाधिकरण्यस्याप्यनुनूयमानस्य कि
बाधकम् ?,येन तेषां भिन्नाश्रयत्वं कल्प्यते। प्रात्मनः परिणानिर्वाहे लोकयात्रायाः, ततः कातिप्रसञ्जनम् ? ॥ १० ॥
मित्वाऽऽपत्सिर्वाधिकेति चेदान । तत्परिणामित्वेऽप्यन्ययानपा. इत्थमुक्तप्रकारेण, प्रत्यात्मनियतम आत्मानमात्मानं प्रति निय
यात, अन्यथा चित्तस्यापि तदनापत्ते,प्रतिक्षणं चित्तस्य नश्वर. तफलसंपादकम् । वुद्धितत्वं हि लोकयात्राया लोकव्यवहारस्य स्वोपनब्धः। “अतीतानागतं स्वरूपतोऽस्त्यध्धभेदो धर्माणाम्।" निर्वाहे व्यवस्थापने,शक्तिमत्समर्थम,ततः कातिप्रसअनं, योगादे- (४-१२) "ते व्यक्तसूक्ष्मगुणाऽऽस्मानः।" (४-१३)"परिकस्य मुक्तावन्यस्यापि मुक्त्यापत्तिरूपं, प्रकृतेः सर्वत्रैकत्वेऽपि णामैकत्वाद् वस्तुतत्त्वमिति।" (४-१४) सूत्रपर्यालोचनाद्धर्मबुझिव्यापारभेदेन दोपपत्तेः । तया च मूत्रम्-" कृतार्थ प्रति भेदेऽपि तेपामङ्गाङ्गिभावपरिणामैकत्वाद् न चित्तानन्वय इति नष्टमप्यनष्टं तदन्यसाधारणत्वादिति ।" (२-२२) ॥ १८ ॥ चेत्, तदेतदात्मन्येव पर्यालोच्यमानं शोभते, कूटस्थत्वश्रुतेः
यञ्चोक्तम्-"जडायाश्च पुमर्थस्य" इत्यादि, तत्राऽऽह- शरीराऽऽदिभेदपरत्वेनाप्युपपत्तरिति सम्यग् विनावनाकर्तव्यत्वं पुमयेस्या-नुलोम्यपानिलोम्यतः ।
यम् ॥ २२ ॥ प्रकृती परिणामानां, शक्ती स्नानाविके उने ॥ १५ ॥
किचपुमर्थस्य कर्तव्यत्वं प्रकृती परिणामानां महदादीनाम, भानु
युद्ध्या सर्वोपपत्तौ च, मानपात्मनि मृग्यते । लोम्यप्रतिबोम्यतः, उभे शक्ती स्वानापिके स्वनावमिके, पुमय संहत्यकारिता मानं, पागर्थ्य नियता च न ॥ २३ ॥ सतीति शेषः । न त्वन्यद, महदादिमहाभूतपर्यन्तः खल्वस्या बुद्धचा महत्तत्वेन, सर्वोपपत्तौ सकतनोकयात्रानिर्वाहे च बहिर्मुखतयाऽनुलोमः परिणामः, पुनः स्वकारणानुप्रवेशद्वारे- सति, प्रात्मनि मानं प्रमाण मृग्यते । कृत्याऽऽद्याश्रयव्यतिरिक्ते णास्मितान्तःप्रतिलोमः परिणामः । इन्धं च पुरुषस्य भोगपरि- पात्मनि प्रमाणमन्वेषणीयमित्यर्थः। न च पारायनियता परा.
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लोग
त्याच्या संहत्यकारिता संभूयमितिचकेवाकारिता, मानतिरिकामा प्रमाणं यत्त्यर्थक्रियाकारि परा टटम. यथा शय्याशयनाऽऽसनाऽऽद्यर्थाः । सत्वरजस्तमांसि व बिरालपरिणाममा संहत्यकारीचितः परार्थानि परः स पुरुष इति । तटुक्तम्-" तदसंश्येयवासना निश्चित्तम. पिपरा, संस्कारेत्यादिति ४२४) ॥ २३ ॥ कुनः १, इत्याह
सानामपि स्वाङ्गि न्युपकारोपपतितः । बुद्धिर्नामैत्र पुंस्तत्, स्याश्च तत्त्वान्तरव्ययः ॥ २४ ॥ सस्वाऽऽदीनां धर्माणां वा उपकारोपप सितः फलानादुपमे माना जा संहत्यकारित्यम्य त्या संपपरासि बुद्धचैव सफन्यादवारमा क रिद्धिबुद्धिः पुंसः पुरुष स्यैव नाम स्यात् । च पुनः, तस्यान्तरन्ययोऽङ्काराऽऽदितो छेदः स्यात् ॥ २४ ॥
"
( १६२४ ) अभिधान राजेन्द्रः ।
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तथादिव्यापार भेदादेकस्य वायोः पञ्चविधत्ववत् । अङ्गारादिसंज्ञानोपपचिसुकरत्वतः ॥ २५ ॥
एकस्य वायोः व्यापारनेदा दुई गमनादिव्यापारभेदा प वाययः प्र थापानाऽऽदिभेदादिति [[पद कुराऽऽदिसंहानामामुपपत्तेः सुतः सौत् तथाहि बुद्धिरेाहङ्कारस्यापारं जनयद्वारयुज्यताम सैन भाषा साधिकार प्रकृतिरिति व्यपदिश्यताम किमन्तर परिकल्पयेति ॥ २५ ॥ पुंसकत्वेऽपि कूटस्थस्यमयुक्तिमत् । अनित्वमेतत्सदेत्यादि निरर्थकम् ।। २६ ।
स्व. वेन्युपगम्यमाने यमकिमङ्गनम् प्रनिष्यामिजनता 'अकारणमकार्ये च पुरुषः " इति वचनं व्यादन्येतति ज्ञावः । अधिनत्यमभिकंदेशात्मक पुरुष स्तु सदैकरूप इति चेत्, तर्हि तदेत्यादि" तदा रूष्टुः स्वरूपावस्थानम" (१-३) इति सूत्रं निरर्थकम, तदेत्यस्य व्यवच्छेद्याभावातद्विषयस्य घटादिव्यवहारविषयस्यापि तथात्वाऽऽपत्तौ शून्यवादिमतप्रवेश इति भावः ॥ २६ ॥ निमित्तत्वेऽपि कौटरध्य-मथास्यापरिणामतः । स्याद्वेदोपदेन तथापि भवमोकृषोः ॥ 23 ॥ अवास्थामनवमिनिभविष् कि प्रति अपरिणामतः परिणामाभावाद त्यस्यानुपादानकारणमित्यर्थात् उपादानकारण परिणाम स्वाद परिवामस्य चास्यागमन प्रणत्वादिति भाषा तथाऽपि भवमोकयोः संसारापवर्गयोः, धर्मभेदेन जोमनिमित्ताविमिरास्वधर्मभेदेन स्यात्कथश्चिद, जेद आवश्यकः । मोपे पूस्वभावले कारणान्तराभावाच प्रोग इति को भेद इति [?] सौम्य । कथं तजियोमा विरोधः । स्वमाचा नायमिति पेयमेवस्था द्वाद इति कि वृथा विद्यसे ? ॥ २७ ॥
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जोग
मतदवस्थ्यं च, बुद्धेर्भेदेऽपि तत्वतः । प्रकृत्यन्ते लये मुक्तेर्न चेदव्याप्यवृत्तिता ॥ २८ ॥ केभेदे प्रस्थात्मभिमाने, तस्वनः पर मार्थतः प्रकृत्यन्ते प्रकृतिविश्रान्ते, लये डुः बभ्वंसे सति, प्रससादयस्वयम एकस्य मुकायन्यस्यापि - रिहार एवं प्रकृतेरेव मुकेर म्युपगम्यमानत्वाद तस्यास मुकत्वामुकस्योभयविरोधात एकत्र वृके संयोगतदजावयोरिव प्रकृतौ विभिन्नवृद्धावच्छेदेन न मुक्त्वामु कस्त्र पोर्विरोध - त्यत आह-वेद्यदि, मुकेर व्याप्यवृतिता, न, अभ्युपगम्यत इति शेषः तद्भ्युपगमे च मुकेऽप्यमुक्त्यव्ययद्वाराऽऽपतिरेव दू
म चै मुकस्याप्यात्मनोज रानमोगापतिरिति कृतनिश्मम्युपेतम् २८ प्रधानभेदे चैतत् स्यात्, कर्मबुद्धिगुणः पुमान् । स्याद्वधावति जयताद् जैनदर्शनम् ॥ २७ ॥ दोपप्रिया प्रधानभेदे चान्युपगम्यमाने आत्मभोगापवजि मेनकर्मस्वात. पुमान् पुरुषः बुद्धिगुणः स्यात बुडल ज्ञानानामनन्तर
वध पर्यायत इत्येवं जैनदर्शनं जयना, दोषलवस्याप्य स्पर्शात् । ननु च पुंसो विषयग्रहणसमर्थत्वेनैव चिद्रूपत्यं व्यवतिष्ठत इस विकामगुणत्वं न युक पारविरोधादिति
नाम के कोपर्याग स्व
जावत्वेन तदविरोधादिति ॥ २६ ॥
तथा च कायरोधाssदावव्यासं प्रोक्तलक्षणम् । एकाग्रता रोपे वाच्येच माथि चेतसि ॥ ३० ॥ तथा च
दर्शनजि
प्रक्षणम, कायरो वाऽऽदानस्याम आदिना वा निरोधाऽऽदि ग्रहः। यकाशनाचा काशनातिरोधमात्रसाधारणे रोवा प्राचिएकाग्रताया पृष्ठभाविनि चेतस्वयात्माऽरिशु व्याप्तम् ॥ ३० ॥
योगाऽरतोय विदिशे व्युत्थानं क्षिप्तमूढयोः । एकाच निरुदे च समाधिरिति चेन तत् ॥ ३१ ॥ अथ विकले वियोगारम्भः सिडोसियोत्पानम कामे निरुद्धेवि समाचित पृष्ठभावि चित्तस्या लक्ष्यत्वादेव न तत्राव्याप्तिः । विप्तं हि रजस उकादस्थिरं बढि मुखतया सुख दुःखाऽऽदिविषयेषु कल्पितेषु सन्निहितेया रजसा प्रेरितम, तश्च देवदैत्यदानादीनाम, मूढं तम उद्रेका कृत्याकृत्यवभागासंग कोचाभिर्विव नियमित सदैव रक्षः पिशाचादीनामविक्षिप्तं तु सरोकार पनि दुःखमाचमेव शब्दाऽऽदिषु प्रवृत्तम तच्च सदेव देवानाम् । एनास्तिनश्चितावस्थान स मायायुपयोगिन्यः काप्रनानिरुद्धको सो कथांतरमवस्थितत्वाच्च समाधावुपयोग नशेते ति खेदू, न तत् ॥ ३१ ॥
योगाऽरम्भे योगस्य, निश्येनोपपादनात ।
मदुक्तं लक्षणं तस्मात् परमाऽऽनन्दकृत् सताम् ॥१२॥ योगायोग म्भक से पनयो
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जोग
(१६२५) जोग
अभिधानराजेन्द्रः। गस्योपपादनात व्यवस्थापनात, क्रियमाणं कृतमिति तदभ्युप- कस्य योगसाधना जवन्ति । अत्र योगपञ्चके, प्रत्येक एकै.कस्य गमासाद्यसमये तदनुत्पत्तावग्रिमसमयेष्वपि तदनुत्पस्यापत्तः। चत्वारोभेदाः। तेच श्मे-इच्ग १, प्रवृत्तिः५, स्थिरता ३, सिद्धिः वस्तुतो योगविशेषप्रारम्नकालेऽपि कर्मकरूपफलाम्यथाऽनु- ४ इत्येवं भेदा केयाः । उक्तं च विशतिकायाम-“ शकिको य पपस्या व्यवहारेणापि योगसामान्य सद्भावोऽवइयान्युपेय इति चउद्धा, इत्थं पुण तत्तयो मुणेयन्यो । इच्छापवित्तिधिरसिप्रागुक्तातिव्याप्तिर्वज्रलेपायितैव । तस्मान्मक्तं लकणं 'मोत्तमु. भियत्रो समयनी" ॥१॥ इत्यादि ॥३॥ स्यहेतुव्यापारः,' इत्येवंरूपं, सतां व्युत्पन्नानाम, अदुष्टत्वप्रतिप.
इच्छा तद्वत्कथाप्रीतिः, प्रवृत्तिः पालनं परम् । सिद्वारा परमाऽऽनन्दकृत् ॥ ३॥द्वा० ११ द्वा०।
स्थैर्य बाधकभीहानिः, सिचिरन्यार्थसाधनम् ॥४॥ (१५) योगानेदाः-अत्र मिथ्यात्वाऽदिहेतुगतं मनोवाक्काययोगअयम, तच्च कर्मवृष्तुित्याद न ब्राह्मम, किं तु मोकसाधनदे
इच्चा साधकभावाभिलाषः,तट् योगपञ्चकं येषु विद्यन्ते नवन्तः
श्रमणाः,तेषां कथामुगुणकथनादिषु,प्रीतिः-इष्टता। उक्तंचह. नुनूतं शुाध्यात्मजावनानावितचेतनावीयपरिणामसाधनकारकप्रवर्सनरूपं ग्राहां व्यन्नावभेदं वाह्याऽऽचारविशोधपूर्व
रिमपूज्वैः-"तज्जुत्ताहापाई,समयादविपरीणामणी श्च्ा।"
इति। तस्य सम्यग्दर्शनादिगुणवृतिहेतुभूनं क्रियाश्रुताच्यास. জানাৰাছুড়িক
पालनं परंपरा उत्कृष्टा सा प्रवृत्तिः। उक्तं च-“सम्वत्थुवसम-.. मोकण योजनाद् योगः, सर्वोऽप्याचार इष्यते।
र,तप्पासणगा पवित्तीओ।" इति । इत्येवं योगद्वयं बाह्यरूपत्वात् विशिप्य स्थानवर्या-ऽऽसम्वनैकारयगोचरः॥१॥ क्रियामुख्यत्वात साध्यावलम्बिना कारणरूपमा शेषाणां तु शु. सकल कमक्कयो मोकः, तेन योजनाद योग उच्यते । सच जबन्धनिबन्धनं स्थैर्य-बाधका अहाहाध्यवसाया प्रतीचारा, सर्वोऽध्याचारो जिनशासनोक्तः चरणसमतिकरण सप्ततिरूपो तेषां जोर्भय, तस्य हानिरजावः, निरतिचारगुणपालनारूपं यत्र मोक्षोपायवाद् योग प्यते । तत्र विशेषेण स्थानम् १, वर्णः २, | तत स्थैर्यम । वयोपशमोऽपि अतिगुणसाधनापरिणमनेन स. अर्थः ३, पालम्बनम ४,एकाग्रता५,इति पञ्चप्रकारयोगो मोको- हजभावत्वात् निर्दोषगुणसाधनो जयति । उक्तं च-"तचेव पायहेतुर्भतः, इत्यनेनानादिपरभावाऽऽसक्तभवनमणग्रहात् पु- एयवाधग-चिंताहियं धरत नेयं । " शुद्धानामर्थानां पर. फल लोगमनानां न भवत्ययमाभप्रायः-यतोऽस्माकं मोकः सा- मात्मरूपाणां साधनं स्वरूपालम्बन शुद्धनत्त्यसाधनं सिरिः। ध्योऽस्लिास च गुरुवचनस्मरणतत्त्वजिज्ञासाऽऽदियोगेन स्वरूप उक्तं च-" सब्वं परमत्थसाहग-रूवं पुरण हो सिद्धि त्ति।" निर्मल निःन परमाऽऽनन्दमयं स्मृत्यं नत्कथाथवणप्रीत्यादिकं एवं सप्रभेदं शेयम् ॥ ४॥ करोति, स परम्परया सिद्धियोगी भवति। न हि मरुदावत् यायद् ध्यानकत्वं न भवति तावद् न्यासमुहावर्णशहिपूर्वसर्वेषामल्पप्रयाला सिद्धिः, नस्या हि अनल्पाऽऽशातनादोषका- कमावश्यकचत्यवन्दनप्रन्युपेक्षणाऽऽदिकमुपयोगयोगचापल्य-- रकत्वेन निधवासा सिद्धिः। अन्यजीवानां चिराऽऽशातना- वारणार्थमवश्यं करणीय, महद् हितकरं सर्वजीवानां, तेन बद्ध गाढ कर्मणां तु स्थानाऽऽदिक्रमणय अयति ॥१॥ स्थानवर्णक्रमेण तत्वप्राप्तिरितिअथ योगपश्चके वाह्यान्तरङ्गसाधकत्वमुपदिशति
अर्थाऽऽत्रम्बनयोश्चत्य-वन्दनाऽऽदौ निभावनम् । कर्मयोगदयं तत्र, ज्ञानयोगत्रयं विदुः ।
श्रेयसे योगिनः स्यान-वर्णयोर्यत्र एव च ॥ ५ ॥ घिरतेप्वेष नियमाद, बीजमा परेष्वपि ॥२॥
अर्थो वाक्यस्य भावार्थः,मालम्बनं वाच्य पदार्थ आहतस्वरूप तत्त्र मोकमाधने, कर्मयोगद्वयं, क्रियाऽऽचरणायोगरूपम्, उपयोगस्यैकत्वम,अधश्च आलम्बनं च अर्थात्रम्बने, तयोचित्य. अयम् अर्थप्रमुखं, ज्ञानयोग विदुः प्राहुर्बुधाः। तत्र विशतिकाऽनु- वन्दनाऽऽदौ अद्वन्दनाधिकार, विनायनं स्मरण करपाय, सारेण नवणाऽऽदिकं निरूप्यते-तत्र स्थानरूपं कायोत्सर्गाss. श्रेयसे कल्याणार्थ, च पुनः, स्थानं वन्दनकं कायोत्सर्गशरीरावदिनाऽऽगमोक्तक्रियाकरणे करचरणाऽऽसनमुघारूपम् । उक्तं स्थानम,आसनमुहाऽऽदिके, वा अकराणि, तयोर्यत्र एव शुकिः च विशतिकायाम-"वाणवणस्थालं वण--रदिश्रो तंतम्मि पंचढ़ा यसे कल्याणाय भवति । उक्तं चाऽवश्यक-"ज बाद, व. एसो । उगमित्य कम्म जोगो,नहा लिय नागजोगो "॥१॥ एष चामेलियं,हीणक्खरं,प्रश्चक्खरं,पयहीणं, विणयहीणं, घोसहीणं, पश्चप्रकारो योगः, बिरतेष देशविरतसधिरतेप, नियमाद नव. जोगहीणं,मुटु दिन्नं, दुटु पमिच्चियं, अकाने कभी सउझाओ, तियोगपञ्चकं हि वापट्यनारणम, तेन योगवता नवितव्यम् । काल न की सज्झायो,असज्झाए सम्झाश्य, सम्झाप न स. परेषु मार्गानुमारिप्रमुखेषु बीजमात्रं भवति किञ्चिन्मानं भव झाइयं. तस्त मिच्छा मि टुकडं।" इत्यनेन व्यक्षेत्रकालवि. ति। उक्तं च विशतिकायाम्-"दसे सव्ये य तहा, नियमेण सो झड़ो नाबसाधनसिकिः, तेन द्रव्यक्रिया हिता ॥५॥ चरित्तिणो हो। श्यरस्स बीयमितं, प्रति चेत्र केशरच्चंति ।।
आलम्बनमिह हेयं, द्विविधं रूप्यरूपि च ।। (१६) अत्र योगोत्पत्तिहेतवः ग्रोच्यन्तेकृपानिर्वेदसंवेग-प्रशमोत्पत्तिकारिणः ।
अरूपि गुणसायुज्यं, योगानालम्बनं परम् ॥६॥
शह जैनमार्गे, आलम्बनं विविध शेयम् । एक-रूपि, अपरम. भेदाः प्रत्येकमत्रेच्छा-प्रवृत्ति स्थिरसियः॥३॥
.अरूपि । तत्र रूप्यालम्बनं जिनमुनाऽऽदिकपिामस्थपदस्थरूप. कृपा अनुकम्पा-दुःखितेषु दुःखमोचनलक्कण मातापरि-| स्थपर्यन्तं यावत अर्हदयस्थाऽलम्बनं, तायत कारणावलम्बन णामः । निर्वेदः भवोद्वेगः-चतुर्गतिषु चारकवद्भासनम | संवे. शरीरातिशयो येन रूप्यवसम्बन,नत्र अनादिपरजावशरीरधनस्व. गः मोक्षानिझापा, प्रशमः कषायाभावः । पते परिणामा:- जनावलम्बी परत्र परिणतचेतनः विषयाऽऽस्वादाऽऽद्यर्थ तीर्थयो योगो मोक्षोपायः, तस्योत्पत्तिकारिणः करणीलाः, ए. राऽऽद्यवसम्बनमपिजवहेनुः। तथैव यः स्वरूपाऽऽनन्दपिपासितः वारकूपरिणामपरिणतस्य संसारोद्विग्नस्य शुझात्मस्वादेच्च- स्वरूपसाधनार्थ प्रथमं कारणरूपं जिनेश्वरं वीतरागाऽऽदिगुणस
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(१९२६) अभिधानराजेन्द्रः |
जोग
मूरखते पाच मुली यावलम्बी पत्र श्रईत् सिरुस्वरूपं ज्ञानदर्शन चारित्राऽऽद्यनन्तपर्यायविशुकं शुदाध्यात्म धर्ममवलम्बते इति । अरुप्यालम्बनी तत्र जाव्यते-अनादितो जीव मूर्तफलकम्यावलम्बनपरितः कथं प्रथमत एवामर्ताऽऽनन्दरूपं स्वरूप यत अतिशयोवीतरागमु दादिकं परं चालयविषयकाद्धिकरं खीचना 550वलम्बनं स्यज्यति इत्येका परावृत्तिः । पुनः स एव श्रतिशयाऽऽदिरूपं मूर्ते नालम्बनं यम, अहं तु श्रमूर्तः, मूर्तभावरसिकत्वं नोपयुज्यते । यद्यपि अर्हतः संबद्धं तथापि श्रदयिकं नालम्बनम, अनन्तगुणाऽम्बनमुत्तममिति गुणावलम्बी मूर्तान्नावा न रसिकत्वेन गृह्णाति, सापेकपरत्वेन पश्यतीति द्वितीया परावृत्तिः।
मत 35 गुणरसिक भवति तेन परमेष्ठिस्वरूपं कारणंनाबांये स्वीयासं पेय दशम्यायव्यापकभावाच्या स्ति करवायास्तिकानन्तस्वानन्दमयं ध्येयायल बने इति तृतीया परावृतिरिति साधनपद्धति सर्वेषां तत्स्वरूप साधनम अरूपगुणाः सिद्धगुणा भावात्म सा या योगायोग जनं द्यपि पदवलम्बनं श्रुता33दीनां तयापि मनावनमेव पर उत्कृष्ट योगः कं च पाठ "तत्राप्रतिष्ठितं खलु, यतः प्रवृत्तश्ववत्यतस्तत्र / सर्वोत्तमो हि मनुजवानालम्बनो गीत" निरालम्यनयोगेन धारावाहिप्रशान्तवादिता नाम चिन्तितस्य स्वरसत एव मनः सहजधारायां वर्तते, न प्रयासो भवति । उक्तं च विंशतिकायाम्- "आलंबणं पि यं परमो सितम्गुणपरणमित्सो, दमो श्रालंबणो नाम ॥ १ ॥ एकाप्रयोगस्यैवापरनाम अनालम्बनयोग इति । एवं स्थानाऽऽद्याः पञ्च इच्छा ऽऽदिगुणिता विंशतसेच प्रत्येकमनुष्ठानचतुष्कयजिता अतिप्रकारा भवन्ति ॥ ६ ॥
तत्स्वरूपनिरूपणायोपदिशति
प्रीतिभविचोऽसगैः स्यानाऽऽद्यपि चतुर्विधम् । तस्माइयोगियोगा-पक्षपोगः कमार जवेत् ॥ ७ ॥ इति चतुरशी तिभेदाः भवन्ति योगा योगिनामा योग प्राप्तिर्भवति योगी योगशैलेश करणं
पखानाऽऽयः प्रांतिक
"
प्रयोगचापल्यरहितो योगस्तं प्राप्नोति तेन पुनः क्रमाद् मोक्षः "सर्वकमीभाव लक्षण आत्मनस्तादात्म्यावस्थानं मोकः।" एवं योगः संयोगः क्रमात् अनुक्रमेण भवति । ( अथ प्रीत्या द्यनुष्ठानस्वरूपं तु षोमशकपान 'भारा' शब्दे प्रथम ३७७ पृष्ठे गतार्थम्) एवं क्रमेण योगसाधनारतः सर्वयोगरोधं कृत्वा अयोगी भवति ॥ ७ ॥ स्थानाऽऽय योगिनस्तीर्थोच्छेदाऽऽयालम्बनादपि । सूत्रदाने महादोषः, इत्याचार्याः प्रचक्षते ॥ ८ ॥
इति स्थानाऽऽदिप्रवृत्तिपोगरहितस्य सुत्रदानं महादोष इति श्राचार्या हरिभाऽऽदयः प्रचक्षते कथयन्ति, कस्मात् ? तीच्छेदाऽऽयालम्बनात, निरास्तिकस्य सूत्रदाने कदाचित कुप्ररुणाकरणेन तीर्थोच्छेदो भवति ।
उतं च विंशतिकायाम
"रियरच्या इति पालं स एय एमेच सुनकिरियाइनासो, सो समंसविहाय ॥ १ ॥ सोम को विस, नयससमयमादिना । पयंविभावयम् तिरछेदभीका ॥ २ ॥
जोग
मुण लोगसनं, नाऊण य साहसमयसग्भावं । सम्मं परियट्टिव्वं, बुहेण मइनिउणबुडीए " ॥ ३ ॥ एवं प्रथमं खानाऽऽदिविशुद्धिं कृत्वा इष्वाऽऽदिपरिणतः क्रमेण स्वस्वरूपाऽऽलम्बनाऽऽदि गृहीत्वा प्रीत्याद्यनुष्ठानेन असानुठानयोगतः सर्वशो भूत्वा अयोगीभूय सिद्धो भवति श्रतः क्रमसाधना श्रेयस्करी । इति व्याख्यातं योगाष्टकम || अष्ट २७ अष्ट० ।
अध्यात्म ज्ञावना ध्यानं, समता वृत्तिसंक्षयः । योगः पञ्चविधः प्रोक्तो, योगमार्गविशारदैः ॥ १॥ द्वा० १८६० । अष्ट० ( सबै भेदाः 'प्रावणा' शब्दे विवेचनासांता पदप
(१७) वृतिरोधोऽपि योगवेद, भिद्यते पञ्चधाऽप्ययम् । मनोकावृत्तीनां रोधे व्यापारभेदतः ।। २७ ।। मोकल योगः पचामि इति प्रदर्शितं वृतिरो धोऽपि वेद्योग उच्यते भयमपि पञ्चधा भिद्यते मनोबाकाय वृत्तीनां रांधे व्यापारभेदतोऽनुभवसिकानां भेदानां प त्वात्; अन्यथा अन्य मात्र परिशेषप्रसङ्गादिति भावः ॥ २७ ॥
प्रवृत्तिस्थिरताभ्यां हि मनोगुप्सिदये किल । नेदावत्वार इष्यन्ते तत्रान्त्यायां तथाऽन्तिमः ||२८|| प्रवृतिः प्रथमान्यासः स्थिरता उत्कर्षका
सिकिल आद्यत्वारो ने अध्यात्मजायनाध्यानमतान्त्रणा इष्यन्ते, व्यापारभेदादेकत्र क्रमेणोभयोः समावेशाशुन्यात्तथाऽमायां वमनोगु अन्तिमो वृत्तिसंकय इष्यते । इत्यं हि पञ्चापि प्रकाश निरपाया एवं ॥ २८ ॥
विमुक्तकरूपनाना, समत्वे सुप्रतिष्ठितम् ।
यात्माऽऽरामं मनवेति मनोगुप्तित्रिपोदिता ॥ २५ ॥ विमुकं परित्यका विका सुप्रतिष्ठितं सम्यग् व्यवस्थितम, आरमारामं स्वनाव तिबर्फ, मनः, तद्वेदिभिः मनोगुप्तिखिधा विनिः प्रकारैः उदिता कथिता ॥ २६ ॥
अन्यासामवतारोऽपि यथायोगं विभाव्यताम् ।
यतः समितिगुतीनां प्रपन्चो योग उत्तमः ॥ ३० ॥ अभ्यासां वाकाय गुप्त समित्यादीनाम, अवतारो पि यथायोगं यथास्थानं विनाव्यतां विचार्यां परमात् समिति प्रपञ्च यचाप विस्तारी, योग उच्यते म उत्कृष्टः, न तु समितिगुप्तिविभिन्नस्वनावो योगपदार्थोऽतिरिक्तः कोऽपि विद्यत इति ॥ ३० ॥
उपायत्वेऽत्र पूर्वेपा - मन्त्य एवावशिष्यते । तत्पचमगुणस्थानादुपायोऽर्वागिति स्थितिः ॥ २१ ॥ श्राध्यात्माऽऽदिभेदेषु योगेषु पूर्वेषामध्यात्माऽऽदीनाम, उपाययोगोपात्त्रमात्रे व अस्य एव वृक्ष योगो शिष्यते। तस्मात् पञ्चगुणानादव पूर्व सेवारूप उपाय तत आरज्य तु सानुबन्धयोगप्रवृतिरेवेति स्थितिः सन्तन्त्रमयदा । ३१ ।।
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जोग
( १६२७ ) अभिधानराजेन्द्र
भगवचनास्थित्या योगः पञ्चविधो ऽप्ययम् । सर्वोत्तमं फर्म दधे परमाऽऽनन्दसा || ३२ ॥ निगदसिद्धोऽयम् ॥ ३२ ॥ द्वा० १८ द्वा० । (१८) अध्यात्माउद्दीन योगदानुपदस्य तारानाभेदप्रदर्शनेन मेाऽऽद
इच्छां शाखं च सामर्थ्य माश्रित्य त्रिविधोऽप्ययम् । गीयते योगशास्त्र- निजं यो विधीयते ॥ १ ॥ शाखं सामर्थ्य वा विविध उप्पयं योगो योगशा खते, इच्छायोग, शास्त्रयोगः, सामध्ये योगध्येति यो निर्व्याजं निष्कपटं विधीयते । सव्याजस्तु योगाऽऽभासो गणनायामेव नावतरतीति ॥ १ ॥
इच्छा योगमाह
चिकीर्षोस्तु श्रुतार्थस्य, ज्ञानिनोऽपि प्रमादिनः । कालाऽऽदिविकलो योगः, इच्छा योग उदाहृतः ॥ २ ॥ चिकीर्षोः तथाविश्वकयोपशमाजावेऽपि निर्व्याजमेव कर्तुमिच्बोः, श्रुतार्थस्य श्रुताऽऽगमस्य अर्थतेऽनेन तत्त्वमिति, तत्त्वा शब्दस्याऽऽगमवचनत्वात् । ज्ञानिनोऽपि श्रवगतानुष्ठेयतस्वार्थस्यापि प्रमादनविकादितादिना विक सोऽयोगधन्दाऽऽदिग्वापारः इच्छायोग उदाह प्रतिपादितः ॥ २ ॥
प्रधानस्येच्छायोगत्वे तदङ्गस्यापि तथात्वमिति दर्शयन्नाहसाङ्गमध्येककं कर्म प्रतिपत्रे प्रमादिनः ।
न स्वेच्छायोगत इति, श्रवणादत्र मज्जति ॥ ३ ॥ साङ्गमपि श्रङ्गसाकल्येनाविकलमपि, एककं स्वल्पं किञ्चित्कर्म, प्रतिपन्ने बहुकालव्यापिनि प्रधाने कर्मण्यार, प्रमाद दयान योग इति त्रयोगे मज्जति मग्नं भवति । अन्यथा हि इच्छा योगाधिकारी जगवान् हरिभयोगप्रकरणप्रारम्ने सुपावादपरिहारेण सर्व श्रीबाऽरप्रदर्शनार्थे न त्वे योगतोऽयोगमित्यादिनाथ क्ष्मत्; चाइनमस्कारमात्रस्याल्पस्य विधिशुरूस्यापि संभवात् । प्रतिपत्रस्थपर्यायान्तर्भूत्वेन च नमस्कारस्यापि योगप्रभवत्वमडुष्टमिति विभावनीयम् ॥ ३ ॥
यथाशक्त्यप्रमत्तस्य, तीव्रदाववोधतः । शाश्रयोगस्वस्वार्थाऽऽराधनादुपदिश्यते ॥ ४॥ यथाशक्ति स्वशक्त्यनतिक्रमेण, श्रप्रमत्तस्य विकथाऽऽदिप्रमादहितस्य तीव्र तयारी जिनचनाऽस्ति
त्यानुष्ठानातु शास्त्रयोग उपदेश्यते ॥४॥ शास्त्रेण दर्शितोपायः, फलपर्यवसायिना । तदतिक्रान्तविषयः सामर्थ्याऽऽरूपोऽतिशक्तितः ॥ ५ ॥ सायना मोनोपदेशेन शास्त्रेण दर्शितः सामान्यतो ज्ञापित उपायो यस्य, सामान्यतः फपर्यवसा मावच्छास्त्रस्य द्वारमाश्रयोजनेन विशेषतुि
,
प्रतिशक्तिः शक्ति सदनिकान्तशिखातिक्रान्तगोचरःः सामर्थ्याऽऽख्यो योग उच्यते ॥ ५ ॥
जोग
शास्त्रातिक्रान्तविषयत्वमस्य समर्थना
शास्त्रादेव न बुध्यन्ते, सर्वथा सिद्धिहेतवः । अन्यथा अवणादेव सर्वत्वं प्रयते ।। ६ ।। सितवः सर्वे सर्वथा सबैः प्रकारैः शास्त्रादेव न बुध्यन्ते अन्यथा शास्त्रादेव सर्वसितिनां यो सम श्रवणादेव सर्वसहेतुकाने सार्वसिधुपधायकोत्कृष्टहेतु
ज्ञानस्याप्यावश्यकत्वात्तदुपलम्भाऽऽख्य स्वरूपाऽऽचरणरूपचा
त्रिस्थापितवानात् सर्वसिद्धपायज्ञानस्य साया
व्यत्वाच्च ।
तदिदमुकम
"सिखाने स्वतः शाखादेवावगम्यन्ते सर्ववेद योगिभिः ॥ १ ॥ सर्वथा तत्परिच्छेदात, साक्षात्कारित्वयोगतः । तत्सर्वज्ञत्वसंसिद्धेः, तदा सिद्धिपदाऽऽप्तितः ॥२||" ॥ ६ ॥ माभिज्ञानगम्पस्तत्, सामर्थ्याऽऽरूपोऽयमिष्यते ।
रुणोदयकल्पं दि, प्राच्यं तत्केवलार्कतः ।। ७ ।। तस्मात्प्रतिज्ञानगम्योऽयं सामयोग सार्वशदेतुः खयं मार्गानुसारिप्रकृष्टहस्यैव विषयो न तु वाचाम, रूपकश्रेणिगतस्य धर्मव्यापारस्य स्वानुभवमात्रवेद्यस्या दिति भावः । ननु प्रातिनमपि श्रुतज्ञानमेव, अन्यथा षष्टज्ञानप्र सङ्गात् तथा च कथं शास्त्रातिक्रान्तविषयत्वमस्येत्यत आह-तत् प्रातिभं दि, केवलार्कतः केवलज्ञाननानुमालिनः, प्राच्यं पूर्वकालीनम, श्रणोदयकल्पम ॥ ७ ॥ एतदेव भावयतिरार्दिनादपि पृथग् यथा नो वाऽरुणोदयः ।
श्रुताच केवलज्ञानात, तथेदमपि भाष्यताम् ॥८॥ यथाऽरुणोदयो रात्रेनिमिया अधगित्यर्थः न पुनरत्रेकरूप्यं विवेचयितुं शक्यते पूर्वास्वाविशेषेोभयभागसंजवात्तात् केवलाना तथेदमप्रति
ज्ञायां तत्काल एव तथाविषयोपशमनावितस्तस्य त न तस्वतोऽसंव्यवहार्यतया श्रुतादशेषद्रव्यपर्यायविषयत्वेन कायोपशमिकत्वेन च केवलज्ञानाधिभिन्नत्वात् केवल पूर्वापरकोटियवस्थितत्येन राकार्यतया च तायामभिप्राया
तू ॥ ८ ॥
ऋतम्भराऽऽदिभिः शब्दे वयमेतत्परं । इष्यते गमकत्वं चा मुख्य व्यामोऽपि पक्षगी ॥ छ ॥ प्रकृतं प्रतिभा परेपनि रादिभिः शब्देयमिष्यते, आदिना तारकादिशब्दः गमकत्वं सामर्थ्य योगाय प्रातिपरिय यद् यस्मा यासोऽपि जगौ ॥ ६ ॥ प्रागमेनानुमानेन ध्यानाच्यासरसेन च ।
त्रिया प्रकल्पयन मां लगते योगमुत्तमम् ॥ १० ॥ आगमेन शास्त्रेण, अनुमानेन रूपेण ज्यामाभ्यासस्य रसः श्रुतानुमानप्रज्ञाचित्रण ऋतम्भराऽऽख्यो विशे विषयः तेन च त्रिधा प्रज्ञां प्रकल्पयन् उत्तमं सर्वोत्कृष्टं, योगं लभते ॥ २० ॥
दिपापसंन्यासयोगसंन्याससंज्ञितः ।
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( १६२८) अभिधानराजेन्द्र : ।
जोग
क्षायोपशमिका धर्माः, योगाः कायाऽऽदिकर्म तु ॥ ११ ॥ दाद्विकारोऽयं सामयोगः संयासयोगसंन्याससंके जाते यस्य स तथा संज्ञा बेड तथा संज्ञायत इति - स्वातत्स्वरूपमेव परामनि कास्यादयो धर्माः योगास्तु कायादिकर्म कायोत्सर्गकरणा
उद्या कायाप्याचाराः ॥ ११ ॥
द्वितीयापूर्वकरणे, प्रथमस्ताविको भवेत् ।
आयोज्य करणादू, द्वितीय इति द्विदः ।। १२ ।। द्वितीयाकरण इति निधनप्रथमापूर्वक बद्वितीय प्रथमेऽतिसामयोगास पूर्वकरणस्य तु नाजान पूर्वग्रन्यिनेदा 55दि फलेनानिधानाद यथाप्राधान्यमय मुपन्यासः । चारुश्च पश्चानुपूर्व्येति समयविदः । ततो द्वितीयेऽस्मिँस्तथाविधकर्मस्थितेस्तथाविधसंख्येयसागरोमानिकप्रभाविनि प्रथमो धर्मसंन्याससंहितः सामभोग ताकि पारमार्थिको भदेत् उपयोगिनः कायोपशमिककाम्यादिधर्मनिवृत्तेः शास्त्रियापि भवति प्रतिकृणधर्मसंन्यासायाः प्राज्ञानयोगप्रतिपत्।ि अत एवास्या अविरत वाधिकाः। यथोकमा प्रस्थार्थदेशोत्पति लान्वितः । प्रायकर्ममल बुद्धि:, दुर्लनं मानुष्यं, जन्म मरणानमिसं संपदा विषयात संयोगो वियोगान्तः, प्रतिकृणं मरणं, दारुवी विपाक स्वगतसारय तत कपायो उपहास्या गवि राजामात्ययौ र जनमतकारी कल्याण समुपसंपन्नश्चेति" । नानीदृशो ज्ञानयोगनाराधयति, न चेदृशो नातिनीयम् सर्वज्ञवचनमागमः त्रायमनिताइति योग्यकर पलामो भयोहिकर्माणि तथा व्यवस्थाप्य तत्पण्व्यापारणं शैलेश्यावस्थाद्वितीय योगसंन्याससहित इति द्विमिच विस्थायां काया 33देिषोगानां संन्यासेनायो - स्य सर्वसंग्यासलत्तणय सर्वोतमस्य योगस्य प्राप्तेरिति ॥१२॥ ताविकताविति सामान्येन विचाऽप्ययम् ।
ताविको वास्तवोऽभ्यस्तु तदाभासः प्रकीर्तितः ॥ १३ ॥ सामान्येन विशेषमेानुपदे, तारिको ताकत धाऽप्ययं योग इष्यते । तात्त्विको वास्तवः, केनापि नयेन मोयोजनफल इत्यर्थः । अन्योऽतात्विकस्तु तदानास उक्तलक्षयोगोचितपादना योगदानासमानः प्र
कीर्तितः ।। १३ ।।
पुनर्वन्धकस्यायं व्यवहारेण तात्त्विकः । अध्यात्मावनारूपो निश्नोत्तरस्य तु ॥ १४ ॥ अयं योगो ध् हारेण कारणस्यापि कार्योपचाररूपेण तस्त्रिको च्यास्मरूपो भावना निययेन नियनयेनोपचारपरिहारकर स्य तु चारित्रिण पत्र ॥ १४ ॥
अनधकस्योपहासम्
सदावर्तनादीनामनासिक उदाहृतः । प्रत्यवायफलप्रायः तयावेषाऽऽदिमात्रतः ।। १५ ।
जोग
सहदेवारस आयतं वनन्तीति सहावा आदिशब्दा द्विरावर्तनाऽऽदिग्रहः । तेषामनात्रिको व्यवहारतो, निश्चयतञ्चातत्त्वरूपोऽपरिणामम्बादानोऽध्यात्मभावनारू पो योगः प्रत्यपावोऽनर्थः फलं, प्रायो बाल्येन, यस्य स तथा तथा तत्प्रकार जावमाराध्याऽऽत्मभावनायुक्त योगियोग्यं यद्वेषाऽऽदिमात्रं नेपथ्यचेष्टाजापालकणं श्रकानशून्यं वस्तु तस्मात. नत्र हि वे पाssदिमात्रमेव स्याद्, न पुनस्तेषां काचिच्छ्रद्धालुनेति ॥१५॥
नुरूपपेक्षी यथायोगं चारित्रयतएव च।
हन्त ! ध्यानाssदिको योग-स्नासिकः प्रविजृम्भते ॥ १६ ॥ यथायोगं यथाखानं, शुद्धयपेक उत्तरोत्तरां शुद्धिमपेय प्रवर्त मानवारित एव श्यकः पारमार्थिक स्वरूपो ध्यानाssदिको योगः प्रविजृम्भते प्रोल्लसति ॥ १६ ॥
पायजावाभावान्यां सानुबन्धोऽपरभ सः । निरुपक्रमकर्मैवा- पायो योगस्य वाधकम् ॥ १७ ॥
अपायस्य प्रायाभावा सापासाचा अप निरनबन्ध, सयोगः अपायतिः सानुबन्धन नि रनुवन्ध संत योगस्य बाधकं निषक्रमे विशिष्टान यानुष्ठेयमनाइयंस्यामा कर्मचाहनीयाऽऽरूपमपायः ।। १७ ।।
बहु जन्मान्तरकरः, सापापस्येव साय | अनाश्रवस्त्येक जन्मा तच्चागव्यवहारतः ॥ १८ ॥ बहुजन्मान्तरको देवमनुष्याद्यनेक जन्मधिशेष तुम कर्मणोऽवश्य वेदनीयत्वात्, सापायस्यैवापायवन एव, सावो योगः, एकमेव वर्तमानं जन्म यत्र स त्वमाश्रवः । ननु कथमेतन?,
योगिकवल गुणस्थानादव सर्वसंवराजावेनानाश्रयत्वासंभवादित्यत श्राह तत्त्वाङ्गनिश्चयप्रापको यो व्यवहारः, ततः स्तेन साम्परायिककर्मवचनस्य वाऽऽपस्याभ्युपगमा सदभावे इत्यराऽऽश्रवभावेऽपि नानाश्रययोगक्षतिरिति भावः ।
तदुक्तम" आश्रवो बन्धहेतुत्वाद्, बन्ध एवेह यन्मतः । स साम्परायिको मुख्यः, तदेषोऽर्थोऽथ सङ्गतः ॥ २७५॥ एवं चरमदेहस्य, संपरायवियोगतः ।
इत्वराssवभावेऽपि स तथाऽनाश्रवो मतः ॥ ३७६ ॥ निश्चयेनात्र शब्दार्थः, सर्वत्र व्यवहारतः । निव्यवहारी बहू द्वावप्यभिमतार्थी ॥ २७७॥" (बो०वि०) तृतीया ततो निश्वेनोप
पकव्यवहारत इत्यन्वयः ॥ १८ ॥
इथे साधवानाश्रवत्वाभ्यां योगविभ्यमुक्या, शाखापेक्षस्वाधिकारिकत्वतद्विपर्ययाज्यां तद्द्वैविध्याभिधानाभिप्रा
बवानाह
शास्त्रेणाधीयते चार्य, नासिके गोत्रयोगिनाम् । मिद्धेर्निष्पन्नयोगस्य, नोद्देशः पश्यकस्य यत् ॥ १६ ॥ अर्थ व योगो गोत्रयोगिनांगण योगिनाम असमं विगतमा योगमायाभावात् शास्त्रेण योगतत्रेय माथी तथा सिद्धेः सामश्याम एवं कार्यमिष्यनिष्य प्रयोगस्यासङ्गानुष्ठानादर्शनेन सिद्धयोगस्वायं शास्त्रे नाधीयते यद् यस्मात् पश्यकस्य स्वत एव विदितवेद्यस्य, उ
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( १६२२ ) अभिधानराजेन्द्रः ।
जोग
दिश्यत इत्युद्देशः, सदसत्कर्तव्याकर्तव्याऽऽदेशो नास्ति । यतोऽनिहितमाचारे-" उद्देसो पासगस्स नास्थिसि " ॥ १६ ॥
कुलप्रवृत्तचक्राणां, शाखात् तचकुपक्रिया । योगाssचार्यैर्विनिर्दिष्टं, तल्लणमिदं पुनः ॥ २० ॥ कुल योगिनां प्रवृद्धचक्रयोगिनां च शास्त्राद् योगतन्त्रात, सावि. चित्रत्वेन प्रसिद्धा, पक्रिया योगसिद्धिरूपा भवति । तटुक्तं योगदृष्टिसमुचये "कुलप्रवृत्तचका ये, त एवास्याधिकारिणः । वोगिनो न तु सर्वेऽपि तथा सिखादिभावतः " ॥१॥ तेषां कुलप्रवृ
योगिनां लक्षणं पुनरिदं वक्ष्यमाणं, योगाऽऽचार्यैर्योगप्रतिपादकैः सूरिभिर्विनिर्दिष्टम् ||२०|| द्वार०१ध्वा०। (कुल योगिलक्षणं 'कुलजो गि' (श्) शब्दे तृतीय जागे ५९८ पृष्ठे द्रष्टव्यम् । प्रवृत्तचक्र योगिलहलं च ' पवचचक ' शब्दे वक्ष्यामः }
याचकयोगाऽऽप्त्या, तदन्यद्वयन्नाजिनः । एतेऽधिकारिणो योग-प्रयोगस्येति तद्विदः ॥ २४ ॥ आद्यावञ्चकयोगस्य योगावञ्चकयोगस्य, आप्त्या प्राप्त्या हेतुभूतया तदन्ययलाभिनः क्रियावञ्चक फलावश्यक योगलाभवन्तः, तद्वन्ध्यभव्यतया तत्वतस्तेषां तस्नाभवत्त्वाद । एतेऽधिकारिणो, योगप्रयोगस्याधिकृत योगव्यापारस्य इत्येवं तद्विदो योगविदोऽभिदधति ॥ २४ ॥ द्वा० १६ द्वा ।
सद्भिः कल्याण संपन्नै - दर्शनादपि पावनैः ।
तथा दर्शनतो योग, प्रधानञ्वक उच्यते ॥ २ए ॥. सद्भिरुसमैः, कल्याणसं पत्रैर्विशिष्टपुण्यवद्भिः, दर्शनादप्यवलोकदादपि, पावनैः पवित्रैः, तथा तेन प्रकारेण गुणवत्तयेत्यथेः । दर्शनतो योगः संबन्धः, भाद्यावञ्चकः सद्योगावञ्चकः, उच्यते इष्यते ॥ २७ ॥
तेषामेव प्रणामाऽऽदि - क्रियानियम इत्यलम् । क्रियावञ्चकयोगः स्याद्, महापापक्षयोदयः ॥३०॥
तेषामेव सतामेव प्रणामाऽऽदिक्रियानियमः इत्यलं कियावञ्चकयोगः स्यात्, महापापकयस्य नीचैर्गोत्रकर्मक्षयस्य, उदय उत्पत्तिर्यस्मात् स तथा ॥ ३० ॥ फलावञ्चकयोगस्तु, समय एव नियोगतः । सानुबन्धफलावाऽऽप्ति-धर्मसिद्धौ सतां मता ॥ ३१ ॥ फनावञ्चकयोगस्तु सद्भ्य एवानन्तरोदितेज्यः, नियोगतो ऽवश्यंजावेन सानुबन्धस्योत्तरोत्तर वृद्धिमतः, फलस्यावाऽऽप्तिः, तथा सदुपदेशाऽऽदिना धर्मसिद्धौ विषये सतां मता ॥ ३१ ॥ इत्थं योगविवेकस्य, विज्ञानान्टीनकल्पषः । यतमाना यथाशक्ति, परमानन्दमश्नुते ||३२|| इत्थमिति स्पष्टम् ॥ ३२ ॥ द्वा० १६ द्वा० । अनन्तरोको योगविवेकः स्वाभिमतयोगमेदे परोक्तयोगानामवतारे सति व्यवतिष्ठते, इत्यतोऽयं निरूप्यतेसंप्रज्ञातोऽपरश्रेति, द्विधा ऽन्यैरयमिष्यते ।
सम्यक् प्रज्ञायते येन, संप्रज्ञातः स उच्यते ॥ १ ॥ संप्रातः, अपरोऽसंप्रज्ञातश्चेति, अन्यैः पातज्जलैः, अयं योगो, द्विवेष्यते, सम्यक् संशय विपर्ययानभ्यवसायरहितत्वेन,
You
For Private
जोग
प्रज्ञायते प्रकर्षेण ज्ञायते, भाग्यस्व स्वरूपं येन स संप्रज्ञात उच्यते ।। १ ।।
बिसर्केण विचारेणाऽऽनन्देनास्पितयाऽन्वितः । नान्यस्य जावनाभेदात् संप्रज्ञातश्चतुर्विधः ॥ २ ॥ वितर्केण विचारे, आनन्देनास्मितयाऽन्वितः क्रमेण युक्तः, भाव्यस्य, जावनायाः विषयान्तरपरिहारेण चेतसि पुनः पुनर्नि बेशनल कृणायाः, जेदाव, संप्रज्ञातश्चतुर्विधो भवति । तदुक्तम्" वितर्कविचार/ऽऽनन्दास्मितारूपानुगमात् संप्रज्ञात इति । " ( १-१७ ) ॥ २ ॥
पूर्वापरानुसन्धानात्, शब्दोवाच भात्रना ।
महाजूतेन्द्रियार्थेषु, सत्रिकल्पोऽन्ययाऽपरः ॥ ३ ॥ पूर्वापरयोरर्थयोः, अनुसन्धानात्, शब्दोच्चाच्कुन्दार्थोपरागाच; यदा भावना प्रवर्त्तते महाभूतेन्द्रियल कन्वर्थेषु स्थूलविपयेषु तदा सविकल्पः-सवितर्कः समाधिः । श्रन्यथाऽस्मिनेवाssलम्बने, पूर्वापरानुसन्धान शब्दार्थो शून्यत्वेन नावनायामपरो निर्विकल्पः- निर्वितर्कः ।। ३ ।।
तन्मात्वान्तःकरणयोः, सूक्ष्मयोर्भावना पुनः । दिकालपर्माचच्छेदात्, सविचारोऽन्यथाऽपरः ॥ ४ ॥ तन्मात्रान्तःकरणयोः सूरमयोर्भाग्ययोः, दिक्कालधर्मावच्छेद । दू-देकाल धर्मावच्छेदेन, भावना पुनः सविचारः समाधिः । अन्यथा तस्मिन्त्राऽम्बने, देशकालधर्मावच्छेदं विना धर्ममात्रावभासित्वेन भावनायाम, अपरो निर्विचारः समाधिः ॥ ४ ॥ यदा रजस्तमोलेशा - नुविद्धं मान्यते मनः । तदा जान्यसुखोधेकात्, चिच्छ केर्गुणभावतः ॥ ५ ॥ यहा रजस्तमसोलैशेनानुषिद्धं मनोऽन्तःकरणतत्वं नान्यते, तदा जाव्यस्य भावनाविषयस्य, सुखस्य सुखप्रकाशमयस्य सस्वस्य चद्रेकादाधिक्यात, विष्व केर्गुण भावतो ऽनुदेकात् ॥ ५ ॥ missनन्दोऽत्रै एकते, विदेा वत्तयः । देहाहङ्कारविगमाद, प्रधानपुपदर्शिनः ॥ ६ ॥
साऽऽनन्दः समाधिनंवत्युक्त देतुतः, अत्रैव समाधौ बद्धवृत्तयो विदेहा भस्यन्ते, देहाहङ्कारविगमाद् वहिर्विषथाऽऽवेशनिवृत्तेः, प्रधानमदर्शिनः प्रधानपुरुष तस्वाऽऽविर्भावकाः ॥ ६ ॥
सध्वं रजस्तमोलेशा-नाक्रान्तं यत्र जाव्यते ।
स सास्मितोऽत्र चिच्छक्ति -सत्रयोर्मुख्यगौणता ||७|| यत्र रजस्तमोलेशेनानाक्रान्तं सत्वं भाव्यते स सास्मितः समाधिः। अत्र विच्छक्तिसस्त्रयो मुख्य गौणता, नान्यस्य गुरूसस्वस्थ न्यग्भावाश्चिच्केश्वोद्रेकात् सत्तामात्रावशेषत्वाच्चात्र सास्मितत्वोपपत्तिः । न चाहङ्काराःस्मिनयोरभेदः शङ्कनीयः, यतो यत्रान्तःकरणमदमित्युलेखेन विषयं वेदयते सोऽहङ्कारः, यत्रान्तर्मुखतया प्रतिलोमपरिणामेन प्रकृतिलोने चेतसि सत्तामात्रमेव जाति, साऽस्मितेति 9 ॥
चैत्र कृततोषा ये, परमात्मा नत्रोणः । चित्ते गते ते प्रकृति-लया हि प्रकृतौ लयम् ॥ ८ ॥ अत्रैव सास्मितसमाधावेव, ये कृततोषाः परमाऽऽत्मानवेकिणः परमपुरुषादर्शिनः, ते हि चित्ते प्रकृतौ वयं गते सति प्रकृतिलया उच्यन्ते ॥ ८ ॥
ग्रहीतृग्रहणग्राह्म-समापत्तित्रयं किक्ष |
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(१६३०) जोग अनिधानराजेन्द्रः।
जोग अत्र सास्मितसाऽऽनन्द-निर्विचारान्त विश्रमम् ।। ए॥ रहितस्थितिप्रवाहयोग्यं भवति । यमुक्तम्-" निर्विचारत्ववै. सास्मितसमाधिपर्यन्ते परं पुरुष ज्ञात्वा जावनायां विवेकख्या
शारोऽध्यात्मप्रसादः।" (१-४७) ततोऽध्यात्मप्रसादात , ऋत
म्भरा प्रज्ञा भवति ऋतं सत्यमय बिभर्ति, न कदाचिदपि विपन तौ ग्रहीतृसमापत्तिः, साऽऽनन्दसमाधिपर्यन्ते महणसमापत्तिः,
र्य येणाऽऽच्छाद्यते या सातम्नसातमुक्तम्-"ऋतम्भरा तत्र निर्विचारसमाधिपर्यन्ते च ग्राह्यसमापत्तिबिधान्तेत्येतदर्थः॥६
प्रचा।" (१-४७) सा च श्रुतानुमितित आगमानुमानाज्यां मारिवानिजातस्य, क्षीणवृत्तेरसंशयम् ।
सामान्यविषयाभ्यां विशेषविषयत्वेनाधिका । यदाह-" श्रुतानु. तास्थ्यात्तदञ्जनत्वाच्च, समापत्तिः प्रकीर्तिता ॥ १० ॥ मानप्रदाभ्यामन्यविषयाविशेषार्थत्वादिति ।” (१-४६ ) ॥१२॥ मणरिव स्फटिकाऽऽदिरत्नस्येव,अनिजातस्य जात्यस्य, कोणवृत्तेः तजन्मा तन्वसंस्कारः, संस्कारान्तरबाधकः । क्षीणमलस्य, असंशयं निश्चितं, तात्स्थ्यात्तत्रैकाग्रत्वात, तदञ्जन- असंप्रज्ञातनामा स्यात् , समाधिस्तनिरोधतः ॥ १३ ॥ वाच तन्मयत्वात,न्यग्नुते चित्ते विषयस्य नाव्यमानस्यैकत्वोरकर्षात,समापत्तिः प्रकीर्तिता। तदुक्तम् "क्षीणवृत्तेरनिजातस्येव
तत ऋतम्भरप्रकायाः,जन्मोत्पत्तिर्यस्य स तथा,तत्वसंस्कार:
परमार्थविषयः संस्कारः, संस्कारान्तरस्य स्वेतरस्य-व्युत्थामणेहीतृग्रहणग्राह्येषु तत्स्थतदजनता समापत्तिः।” (१-४१)
नजस्य, समाधिजस्य वा संस्कारस्य बाधकस्तनिष्टकार्यकरयथा हि निर्मलस्फटिकमणेत्तदृपाश्रयवशात्तपताऽऽपत्तिः,पवं
णशक्तिभङ्गकृदिति यावत् । तदुक्तम्-" तजः संस्कारोऽन्यनिमलचित्तसत्त्वस्य तत्तद्भावनीयवस्तूपरागात्तताऽऽपत्तिः। य
संस्कारप्रतिबन्धी ।" (१-५०) तस्य निरोधतः द्यपि ग्रहीतृग्रहणग्राह्येत्युक्तं,तथापि भूमिकाक्रमवशेन व्यत्ययो
सर्वासां चित्तवृत्तीनां स्वकारणे प्रविलयात् , संस्कायोध्यः। यतः-प्रथमं ग्राह्यनिष्ठः समाधिः,ततो ग्रहणनिष्ठः,ततोऽ.
रमाबोदितवृत्तिलकणोऽसंप्रज्ञातनामा समाधिः स्यात् । त. स्मितोपरागण ग्रहीतृनिष्ठः, केवलस्य पुरुषस्य ग्रहीतुर्भाव्यत्वा
दुक्तम्-" तस्यापि निरोधे सर्वनिरोधी निर्बीजः समाधिारसंजवादिति बोध्यम् ॥१०॥
ति।"(१-५१) ॥१३॥ संकीर्णा सा च शब्दार्थ-डानरपि विकल्पतः ।
विरामप्रत्ययाच्यासाद्, नेति नेति निरन्तरात् । सवितको परैर्नेद-भवतीत्थं चतुर्विधा ॥ ११ ॥
ततः संस्कारशेषाच्च, कैवल्यमुपतिष्ठते ।। १४ ॥ सा च समापत्तिः,शब्दार्थज्ञानैर्विकल्पतोऽपि संकीर्णा सविता
विरामो वितर्काऽऽदिचिन्तात्यागः,स एव प्रत्ययो विरामप्रत्ययः, ो । सदाह-"तत्र शब्दार्थज्ञानविकल्पैः संकीर्णा सवितर्का।"
तस्याच्यासः पौनःपुन्येन चतसि निवेशनं, ततः, नेति नेति (१-४२)तत्र श्रोत्रेन्द्रियग्राह्यः,स्फोटरूपोवाशब्दः,अर्थो जात्यादिः,
निरन्तरादन्तररहितात् , संस्कारशेषादुत्पन्नः, ततोऽसंप्रज्ञातस. झानं सत्वप्रधाना वुद्धिवृत्तिः, विकल्पः-शब्दज्ञानानुपाती वस्तु. माधेः । गत उक्तम्-" विरामप्रत्ययाभ्यासपूर्वः संस्कारशेषा. शन्योऽर्थः,पतैःसंकीणा-यत्रैते शब्दाऽऽदयः परस्पराध्यासेन प्र. दन्य इति।" (१-१८) कैवल्यमात्मनः स्वप्रतिष्ठत्वनवणम, तिभासन्ते-गौरिति शब्दो,गोरित्ययों, गौरिति ज्ञानमित्याकारण, उपतिष्ठत आविर्भवति ॥ १४ ॥ इत्थं परैजेंदश्चतुर्विधेयं भवति । तथाहि-"महास्मृतिपरिशुद्धौ (१६) तदेवमुक्तौ पराजिमतौ सजेदी सोत्पत्तिकमौ च संप्रनास्वरूपशून्येवार्थमात्रनिर्भासा निर्वितर्का।" (१-४३) यदाह-'उ
तासंप्रज्ञाताऽऽख्यौ योगभेदौ; अथानयोर्यथासंनवमवतारमाहतणविपरीता निर्षितर्केति'। यथा च स्थूलभूताऽऽदिविषया सवितर्का, तथा सूक्ष्मतन्मात्रेनियाऽऽदिकमर्थ शब्दार्थविकल्प.
संपातोऽवतरति, ध्याननेदेऽत्र तत्त्वतः । सहितत्वेन,देशकाझधर्मावच्छेदेन च गृएहन्ती सविचारा नएयते,
ताखिकी च समापत्ति-नाऽऽत्मनो भाव्यतां विना॥१५॥ धर्मिमात्रतया च तं गृह्णन्ती निर्विचारेति । यत उक्तम्-"एतयैव अत्र संप्रज्ञातासंप्रज्ञातयोर्योगभेदयोर्मध्ये, संप्रज्ञातस्तत्वतो सविचारा,निर्विचारा च मूक्ष्मविषया व्याख्याता ।" (१-४४) ध्यानभेदेऽवतरति,स्थिराभ्यवसानरूपत्वात्, अध्यात्माऽऽदिक"सूक्ष्मविषयत्वं चालिङ्गपर्यवसानम।"(१-४५)न क्वचि- मारज्य ध्यानपर्यन्तं यथाप्रकर्ष संग्रहातो विश्राम्यतीत्यर्थः । द्विद्यते,न वा किश्चिटिलङ्गति गमयतीत्यलिङ्गं प्रधान,तत्पर्यन्त- यदाह योगबिन्दुकृत-समाधिरेष एवान्यैः, संप्रज्ञातोऽभिधीमित्यर्थः। गुणानां हि परिणामे चत्वारि पर्वाणि-विशिष्ट निलम, यते । सम्यक् प्रकर्षरूपेण, वृत्त्यर्थानतस्तथा" ॥४१८॥ इति । भविशिएलिङ्ग, लिङ्गमात्रम,अनिङ्ग चेति। विशिष्टनिनं भूतानि, पष एषाध्यात्माऽऽदियोगः तात्त्विकी निरुपचरिता च समापत्ति. भविशिष्टलिङ्गं तन्मात्रेन्डियाणि, लिङ्गमा बुद्धिः, अनिङ्गं च प्र. रात्मनोभाव्यतां जावनाविषयतां विना न घटते, शुरूस्याभाव्यधानमिति । एताश्च समापत्तयः संप्रज्ञातरूपा एव । यदाह- त्वे विशिष्टस्यापि तत्वायोगाद् विशेषणसंबन्धं बिना बैशिमृत्य "ता एव सबीजः समाधिरिति ।" (१-४६) सह बीजेनाss. स्यापि दुर्वचत्वाच्चेति । तथा च ग्रहीतृसमापत्तिामात्रमे सम्बनेन वर्तत इति सीजः, संप्रज्ञात इत्यर्थः ॥ ११ ॥
वेति भावः ॥१५॥ इतरासां समापत्तीनां निर्विचारफलत्वानिर्विचारायाः फल- परमाऽऽत्मसमापत्ति-जीवाऽऽत्मनि हि युज्यते। माह
अनेदेन तथा ध्याना-दन्तरङ्गस्वशक्तितः ॥ १६ ॥ अध्यात्म निर्विचारत्व-वैशारये प्रसीदति ।
जीवाऽऽभनि हि परमाऽऽस्मसमापत्तिः,तयापरिणामत्रवणायु.
ज्यते,अभेदेन तथा परमात्मत्वेन ध्यानाद् जीवाऽऽत्मनोरन्तरङ्गा ऋतम्भरा ततः प्रज्ञा, श्रुतानुमितितोऽधिका ॥१२॥
या उपादान नूतायाः स्वशक्तितस्तयापरिणमनादात्मशक्तेः शक्त्य निर्विचारत्वस्य चरमसमापत्तिलकणस्य, वैशारद्ये प्रकृष्टा
सत एव व्यक्त्या परिणमनस्य तथा सामग्रातः संभवादिति भ्यासबसेन नेमल्ये,अध्यात्म शुरूसत्व, प्रसीदति क्वेशवासना- भावः ॥ १६ ॥
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जोग
(१६३१) जोग
अभिधानराजेन्डः। (२०) जीवाऽऽत्मनि परमाऽऽत्मनः सत्त्वोपपत्यर्थमात्मत्रयं । गमात् । तदुक्तम-" असंप्रज्ञात एषोऽपि, समाधिर्गीयते परैः। सन्निहितमुपदर्शयति
निरुकाशेषवृत्त्वादि, तत्स्वरूपानुवेधतः ॥४२०॥" (यो वि०)
इति । धर्ममेघ इत्यप्यस्यैव नाम । यावत्तत्वनावनेन फसमलि. बाह्याऽऽत्मा चाऽऽन्तराऽऽत्मा च, परमाऽऽत्मोति च त्रयः।।
प्सोः सर्वथा विवेकण्यातौ धर्मम शुक्लकृष्णं मेहति सिञ्चतीति कायाधिष्ठायकध्येयाः, प्रसिका योगवाड्मये ।। १७ ॥
व्युत्पत्तः। तदुक्तम्-"प्रसंख्याने कुशीदस्य सर्वथा विवेकरख्याती कायःस्वाऽऽत्मधिया प्रतीयमानः,-'अहं स्थूलोऽहं कृशः,' श्त्या. धर्ममेघः समाधिरिति।" (४.२९ ) पवमन्येषामपि तत्तत्तन्त्र. गुल्लेखनाधिष्ठायकः कायचेष्टाजनकप्रयत्नवान्, ध्येयश्च ध्यान- सिमानां शब्दानामोऽत्र यथायोगं भावनीयः । तदाह-"ध. भाव्यः, एते त्रयो-बाह्याऽऽत्मा च अन्तराऽऽत्मा च, परमाऽऽत्मा ममेघोऽमृतामा च, भवशशिवोदयः। सत्त्वाऽऽनन्दपरश्चेति, चेति योगवामये योगशास्त्रे प्रसिका। एतेषां च स्वेतरभेदम- ऽयोज्योऽत्रैवार्थयोगतः" ॥४२॥ (यो०बि०) अस्माद वृत्तितियोगित्वध्यातृत्वध्ययत्वैर्ध्यानोपयोगस्ताविकातात्त्विकैकत्व- संतयात् फलीजूतात, सर्वतः सर्वैः प्रकारैः,पापगोचरः पापविपरिणामतश्च सन्निधानमतान्विकपरिणामनिवृत्तौ तात्त्विकप- षयः,प्रकरणनियमः, अनुमीयत इति शेषःानरकगमनाऽऽदिवृरिणामोपनम्नश्च समापत्तिरिति ध्येयम् ॥ १७॥
त्तिनिवृत्तेमहारम्नपरिग्रहाऽऽदिहेत्वकरणनियमेनैवोपपत्तेः॥२१॥ अन्ये मिथ्यात्वसम्यक्त्व-केवलज्ञाननागिनः। प्रन्थिभेदे यथाऽयं स्याद्, बन्धहेतुं परं प्रति । मिश्रे च क्षीणमोहे च, विश्रान्तास्ते स्वयोगिनि ।। १७ ॥ नरकाऽऽदिगतिष्वेवं, झेयस्तोतुगोचरः ॥ २२॥ अन्ये पुनराहुः-मिथ्यात्वसम्यक्त्वकेवलज्ञाननागिनो बाह्याऽऽ- यथाऽयमकरणनियमो, बन्धहेतुं मिथ्यात्वं परमुतकृष्टं सप्ततिस्मान्तराऽऽत्मपरमात्मानः। ते तु-मिश्रेच कोणमोहे चायोगिनि कोटिकोट्यादिस्थितिनिमित्तं, प्रत्याश्रित्य प्रन्धिभेदे निरूप्यते । च गुणस्थाने क्रमेण विधान्ताः तत्रच बाह्याऽऽत्मतादशायाम-त. एवं नरकाऽऽदिगतिषु निवर्तनायासु,तकेतुगोचरो नरकाऽऽदि. राऽऽत्मपरमाऽऽत्मनोः शक्तिः, तदेकडव्यत्वात, अन्तराऽऽमद- हेतुविषयोऽकरणनियमो केयः ।। २२॥ शायां च परमाऽऽत्मनः शक्तिः, बाह्याऽऽत्मनस्तु पूर्वनयेन योगः। दुःखात्यन्तविमुक्त्यादि, नान्यथा स्यात् श्रुतोदितम् । परमाऽऽत्मतादशायां च बाधाऽऽत्मान्तराऽऽत्मनाईयोरपि
हेतुः सिकश्च भावोऽस्मि-निति वृत्तिक्षयौचिती॥३॥ नृतपूर्वनयेनैव योग इति वदन्ति । तत्वमत्रत्यमध्यात्ममतपरी
अन्यथा दुःखात्यन्तविमुक्त्यादि, श्रुतोदित सिद्धान्त प्रतिपाकायां व्यवस्थापितमस्माभिः ॥ १८ ॥
दितं,न स्यात् । तदाह-"अन्यथाऽऽत्यन्तिको मृत्युयस्तत्राss. विषयस्य समापत्ति-रुत्पत्ति वसंझिनः।
गतिस्तथा । न युज्यतेहि सन्याया-दित्यादि समयोदितम।" आत्मनस्तु समापत्ति-र्भावो ऽव्यस्य ताच्चिकः ॥१णा ॥४१६।। (यो बि०) न च तत्वज्ञानेनैव दुःखात्यन्तविमुक्त्युपप. विषयस्याऽऽत्मातिरिक्तस्य नाव्यस्य, समापत्तिजीवसंझिनो
सौ किमकरणनियमेनेति वाच्यम?, तस्याऽऽत्यन्तिकीमथ्याशा.
ननाशद्वारा हेतुत्वोपगमे तद्धत्वकरणनियमस्यावश्याऽऽश्रयभावानिधानस्योत्पत्तिरुच्यते । बदन्ति हि नयदकाः-'अग्न्युपयु
णीयत्वादिति भावः । अस्मिँस्तत्तत्पापस्थानाकरणनियमे च, तो माणवकोऽप्यशिरेवति' शब्दार्थप्रत्ययानां तुव्यानिधानत्वा
सिकः परापराधनिवृत्तिहेतुतत्त्वज्ञानानुगततया प्रतिष्ठितो त् न वत्थंज्ञानयोः कश्चनैकवृत्यारूदतया पकत्वपरिणामःसंभव
भाषोऽन्तःकरणपरिणामो हेतुः। तदुक्तम्-"हेतुमस्य परं भावं, ति, चतनत्वाचेतनत्वयोर्विरोधादिति भावः । आत्मनस्तु समा
सत्त्वाद्यागो निवर्तनम् । प्रधानं करुणारूपं, वते सादर्शिनः" पत्तिर्कव्यस्य परमाऽऽन्मदनस्य, तात्विकः सहजशुको भावः
॥४१७ ॥ (यो बि०) इति एवमकरणनियमोपपत्ती, वृत्तिपरिणामः ॥१६॥
क्षयौचिती वृत्तिक्कयस्य न्याय्यता,देवकरणनियमेन फलानुत्पअत एव च योऽर्हन्तं, स्वव्यगुणपर्ययैः ।
त्तिपर्यायोपपत्तेस्तत्प्राम्भावापगमस्यापि योग्यताविगमाऽऽख्यवेदाऽऽत्मानं स एव स्वं, वेदेत्युक्तं महर्षिनिः॥ २०॥ स्य हेत्वकरणनियमेनैव फलवत्त्वात्तहिरहितस्य तस्य फलयत पव दलतया परमाऽऽत्मैव जीवाऽऽमा, अत एव च, यो- नियतत्वात् । तदुक्तम्-"महमूकजस्मन्यायेन, वृत्तिबीजं महाउडन्तं तीर्थकर, स्वद्रव्यगुणपर्ययैर्निजाकाऽऽत्मकेवलज्ञान- मुनिः। योग्यताऽपगमाइग्ध्वा, ततः कल्याणमश्नुते ॥ ४२२॥ स्वजावपरिणमननवणः, वेद जानाति, स एव स्वमात्मानं (यो० वि०) इति ॥ २३ ॥ वेद तत्वतो जानाति, तथाझानस्य तथाध्यानद्वारा तथा- (२२) ननु यद्येक एव योगस्तदा कथं भेदः?, भेदे च प्रकृते समापत्तिजनकत्वादिति महर्पिजिरुक्तम् । यतः पञ्चते
किं तदन्तर्भावप्रयासेन', इत्यत आह" जो जाण अरहते, दवत्तगुणत्तपजयत्तेहिं । सो जाणइ
योगे जिनोक्तेऽप्येकस्मिन , दृष्टिभेदः प्रयतते । अप्पाणं, मोहो खलु जाइ नम्स लयं ॥१॥"न चैतद्गाथाकतुदिगम्बरवन महर्षित्वाभिधानं न निरपद्यमिनि मृढधिया श
क्लयोपशमवैचित्र्यात् , समेघाऽऽद्योघदृष्टिवन् ॥ २४ ॥ दुनीयम, सत्यार्थकथनगुणेन व्यासाऽऽदीनामपि इरिजद्राss.
जिनोत सर्वयोक्ते, नत्यत एकस्मिन्नपि योगे, कयोपशमवै. चार्यस्तथाऽभिधानादिति अष्टव्यम् ।। २० ॥
चिच्या दृष्टिनेदो दर्शनविशेषः प्रवर्तते,समेघाऽऽदी मेघसहित.
राध्यादौ,मोघदृष्टिवत्-सामान्यदर्शनमिव । यथा हि एकस्मि(२१) असंप्रज्ञातनामा तु, संमतो वृत्तिसंशयः।
नपि दृश्ये समेघायां रात्री दृष्टिः किञ्चिन्मात्रग्राहिणी,अमेघायां सर्वतोऽस्मादकरण-नियमः पापगोचरः।। २१॥ तु मनागधिकतरग्राहिणी । एवं समेघाऽमेघयोदिवसयोरप्य. असंप्रज्ञातनामा तु समाधिवृत्तिसंकयः समतः, सयोग्ययो- स्ति विशेषः । तथा सग्रहाग्रहयोश्चित्तविभ्रमतदजावाभ्यामर्भगिकेवलित्वकाले मनोविकल्पपरिस्पन्दरूपवृत्तिक्कयण ताप- कानकयोरपि मुम्बत्वविवेकाच्याम् उपहतानुपहतलोचनयोश्च
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जोग
(१६३५) जोग
अभिधानराजेन्छः। दोषगुणाज्यां ग्राहकबोरपि, तथा प्रकृतेऽपि बोगराजेद इति । पापस्येव बन्धवशुनकुटुम्बचिन्तनादियोगेऽपि परपरिभावनीवम । पतत्रिवन्धनोऽयं दर्शनभेद ति योगाचार्यान पामेन सदनुबन्धस्यैवोपपत्तेः। बल्व खिरादिरष्टिमतां मित्रान्धीनां योगिनां बथाविषवं
तमुक्तम्बबजेदावबोधात्प्रवृत्तिरप्यमीषां परार्थ शदबोधनाबेन विनि- “नार्या याऽन्यसकाया-स्तत्र भावे सदा स्थितेः। चाहतवा मैञ्यादिपारतमण गम्भीरोदाराशयत्वाचा- तदयोगः पापबन्धव, तथा मोकेऽस्य श्यताम् । २०४॥ रिचरकसम्मीविन्यचरकचारणनीखेत्याहुः॥२४॥ द्वा०३०द्वान न चेह प्रन्थिन्नेदेन, पश्यतो भावमुत्तमम् । योगस्य कारणानि विवचुर्योमस्य प्रथमोपायभूतां
इतरेणाकुलस्थापि, तत्र चित्तं न जायते" ॥ २०५॥ पूर्वसेवामाह
(यो०बि०) १७॥ पूर्वसेवा तु योगस्य, मुरुदेवाऽऽदिपूननम् ।
निनाऽऽशयविशुधौ हि, बाझो हेतुरकारणम् ।
शुश्रूषाऽऽदिक्रियाऽप्यस्य शुमचाऽनुसारिणी ॥१॥ सदाचारस्तपो मुक्त्य-वेषयविप्रकीर्वितावाद्वान
निजाऽऽशयविशुद्धी हि सत्यां, वाह्यो हेतुः कुटुम्बचिन्तनाऽदि(वमाऽऽदीनां योगात्वं योगीजानियमाप्रदियोगान्युकानां
ज्यापारोऽकारणं, कर्मवन्धं प्रति भवहनूनामेव परिणामविशेमित्राचा एयश 'जोगदिति' शब्दे वक्ष्यन्ते)
पेस मोकहेतुत्वेन परिणमनात-"जे जत्तिया यहेक,भवस्स ते (१३) बोगमार्गाधिकारिखम्तु
तत्तिमा य मुक्खस्स।" इति वचनप्रामाण्यात् । ननु किमेकेन योजनाद् योग इत्युक्तो, पोकेण मुनिसचमैः ।
शुभपरिणामेन',क्रियाया अपिमोककारणत्वात, तदभावे तस्या
किचित्करत्वात श्वत माह-शुश्रुषाऽऽदिक्रियाऽप्यस्य स. स निवृताधिकारायां, प्रकृतौ देशतो ध्रुवः॥ १४ ॥
म्यग्रहाः, शुद्धधकानुसारिणी जिनवचनप्रामारावप्रतिपस्ययोजनाद्धटनाद, मोशेख, इत्यस्मादेतो,मुनिससमैःऋषिपुक- नुगामिनी, परिशुद्धोहापोहयोगस्व हि प्रकृतेरप्रवृत्तिविरोधिबैः, योग उक्त, स.निवृत्ताधिकारायां व्यावृत्तपुरुषाभिनवायां, प्रतियोगान्यां सम्यगनुष्ठानावस्यकारणत्वात्तेनैव तदादिप्रकती सत्यां, सेशतः किश्चिदृस्था, ध्रुवो निश्चितः ॥ १४ ॥ प्यत इति भावः। मोपेन्धवचनादस्मा-देवलक्षणशालिनः।
तक्तमपरैरस्येष्यते योमः, प्रतियोगोऽनुगत्वतः ॥ १५॥
"चार चैतद् यतो बस्य, तथोहः संप्रवर्तते।
पतद्वियोगविषयः, अकाऽनुष्ठानभाक स यत् ॥२०६॥ प्रसाद गोपेन्द्रबचनात्,एवंवकपशालिनःशान्तोदात्तत्वादि.
प्रकृतेरा यतश्चैव, नाप्रवृत्यादिधर्मताम् । गुणयुक्तस्यापुनबन्धकम्पपरैतीर्थान्तरीयैः, योगाप्यते-उच्यते,
तथा विहाय घटते, ऊहोऽस्य विभलं मनः॥२०७४ प्रतिश्रोतोऽनुगति यः स प्रतियोतोगः,तावस्तत्वं, तत
सति चास्मिन् स्फुरकल-कल्ये सत्वोल्वणवतः। शन्कियकपायानुकूला हि वृत्तिरनुप्रोतः, तत्प्रतिकूखा तुप्रतियोत
भावस्तमित्यतः शुद्ध-मनुष्ठानं सदैव हि" ॥२०८॥ (यो०वि०) शति । इत्थं हि प्रत्यहं शुभपरिणामवृद्धिः सा च योगफलमि
गनु सम्यग्याष्टिपर्यन्तमन्यत्र द्रव्ययोग एवोच्यते इति कथस्वस्य योगौचित्यम् । तदाह- वेलावलनवना-स्तदापूरोप
मत्र लावतोऽयमुक्त शति चेत् चारित्रप्रतिपन्थिनामनन्तानबसंहतेः । प्रतियोतोऽनुगत्वेन, प्रत्यहं वृहिसंयुतः" ॥ २०२ ।। धिनामपगमे तदपप्रादु वनियम इति निश्चयाऽऽधयणादल्प(यो.वि.) ति ॥ १५॥
नेदविवक्षापरेण व्यवहारेण त्वत्रायं नेष्यत एव । " एतच्च तक्रियापोगहेतुत्ता, योग इत्युचितं वचः।
योगहेतुत्वाद,योग इत्युचित वचः।मुख्यायांपूर्वसेवाया-मवतामोकेऽतिद्धचित्तस्य, निन्नान्चेस्तु भावतः ॥१६॥
रोऽस्य केवलम"॥२०६॥ (यो० वि०) इत्यनेनापुनर्बन्धका
तिशयाभिधानं तु सम्यग्डशो नैगमनयशुद्धिप्रकर्षकाष्ठापेकतचा, क्रियायोगस्य सदाचारलकणस्य, हेतुत्वाद योग इ. मिति न कश्चिद्विरोध इति विनावनीयं सुधीभिः॥१८ । स्येवमुश्चितम्, अस्य श्ययोगववाद, मोक्षे निर्माणेऽतिरद. चित्तस्यैकधारावग्रहदयस्य, जिन्नग्रन्थेविंदारितातितीवरागद्वे.
एतनिश्चयवृत्त्यैव, यद् योगः शास्त्रसंहितः । पपरिणामस्य तु, भावतो योगः संभवति । सम्यम्हटेडि मो- त्रिधा शुद्धादनुष्ठानात, सम्यक्प्रत्ययवृत्तितः ॥ १५ ॥ काकासाकणिकचित्तस्य, या या चेष्टा, सा सा मोक्तप्राप्ति- एतद् यदुक्तम्-निन्नग्रन्धेरेव भावतो योग इति, निश्चयवृत्त्यैव पर्यवसानफलिकेति तस्यैव नाचतोऽयम, अपुनबन्धकस्य तुन परमार्थवृत्त्यैव, न तु कल्पनया, यद् यस्माद्, शास्त्रेणैव संकी, सार्वदिकस्तथा परिणाम इति व्यत एवेति । तदुक्तम्-"नि- तद्विना त्वसंझियत काप्यर्थे प्रवर्तमानो यः, तस्य, त्रिय वक्ष्यअप्रन्येस्तु यत् प्रायो, मोके चित्तं भवे तनु । तस्य तत्सर्व माणैत्रिभिः प्रकारैः, शुद्धानिरवद्यात, अनुष्टानादाचारात्, सएवेह, योगो योगो हि भावतः ।२०३। (यो०वि०) इति ॥१६॥ म्यकप्रत्ययेनाऽऽत्मगुरुसिङ्गशुद्ध्या स्वकृतिलाध्यताऽऽद्यभ्रान्तअन्यसक्तस्त्रियो भर्तृ-योगोऽप्यश्रेयसे यथा।
विश्वासेन, वृत्तिः प्रवृत्तिः, ततो जवतीति ॥१६॥ तथाऽमुष्य कुटुम्बाऽऽदि-व्यापारोऽपिन बन्धकृत ॥१७॥
शास्त्रमासनजव्यस्य, मानमामुष्मिके विधौ । अन्यस्मिन् स्वभर्तृव्यतिरिके पुंसि, सकाया भनुपरतरिरंसा- मेव्यं यद्विचिकित्सायाः, समाधेः प्रतिकूलता ॥२०॥ याः,स्त्रियो योपितः, भर्तृयोगोपि पति शुश्रपणादिव्यापारो- प्रासजव्यस्यादूरवर्तिमोकलाभस्य प्राणिनः, प्रामुमिके पि, यथाऽश्रेयसे पापकर्मबन्धाय, तथाऽमुष्य प्रिननन्धेः, कुटु- विधौ पारलौकिके कर्मणि, शानं मानं, धर्माधर्मयोरतीन्द्रियम्बाऽऽदिव्यापारापि, न बन्धकृत, पुण्ययोगेऽपि पापपरिणामेन स्पेनतदपायत्ववोधने प्रमाणान्तरासामाताअतःसव्यं सर्वत्र
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(१९५३) जोग अनिघानराजेन्द्रः।
जोग प्रवृत्ती पुरस्करणीय, न तु चिदयंशेऽनादरणीयम् । यद्य- (२५) योगस्य फर्मवयः, तथा कर्मापयधिहस्यस्माद, विचिकित्सायाः-युक्त्या समुपपणेऽपि मतिभ्यामोहोत्य
केशाः पापानि कर्माणि, बहुभेदानि नो मते । अचित्तविप्लुतिरूपाया,समाधेः चित्तस्वास्थ्यसपस्य, कानदर्शनचारित्रात्मकस्य बा, प्रतिकूलता विरोधिताऽस्ति । अथों
योगादेव चयस्तेषां, न भोमादनवस्थितः ॥३१॥ हि त्रिविधः-सुखाधिगमो, दुराधिगमोऽनधिगमति श्रोतारं सतो निरुपमं स्थान-मनन्तमुपतिष्ठते । प्रति भियते । प्राय वथा-वसुष्मतचित्रकर्मनिपुषस्व कपास- जवप्रपञ्चरहितं, परमाऽऽनन्दमेपुरम् ॥ ३॥ रिद्वितीयः सैवानिपुणस्थ, तृतीयस्त्वन्यस्येति । तत्र प्रथमचर
नोप्रमाकं,मत,पापान्यञ्जभविपानि, बहुदानि विचित्रालि, ममोनास्त्येव विचिकित्सा, निश्चयादसिच। द्वितीये तु देश
कर्माणि कानाऽऽवरणीयानिशा उत्स्यन्ते। अतः मलय एवं कालस्वनावविप्रकरे धर्माधर्मादो प्रवन्ती सा महानर्थका
लेशहानिरिति नावः ननु-"नामकीयते बर्म, कल्पकोरिणी । यदागमः-" वितिगिळं समावनेमप्पानेलंगो लह.
टितिरपि । अवश्यमेव जोतव्यं, स्तं कर्मभाशुजम १॥" तिसमाहि।" अतश्चिमबुदर्थ शासवाऽऽदरणीयमिति
इति वचनाद्रोगादेवकर्मणांकये तस्थाप्यपुरुषार्थत्वमविवारिभावः। यत उक्तम्-"मलिनस्य यथाऽत्यन्तं, जसं सास्य शो
तमेवेत्यत माह-योगादेव ज्ञानक्रियासमुन्शयलकखात्या ,तेधनम् । अन्तःकरणरवस्थ, तथा शास्र विदुर्बुधाः" ॥ २२० ।
पां नामाभवार्जितानां प्रचितानां न भोगादनवस्थिते गजनि(यो० वि०)॥२०॥वा० १४ द्वा।
तकर्मान्तरस्यापि जोगनाश्चत्वादनशस्थानाताननु निरनिवा(२४) भात्माऽऽदिप्रत्ययं विना न सिद्धिरित्यपक्रम्य
भोगस्य न कर्मान्तरजनकत्वं, प्रचितानामपि च तेषां क्षयो
योगजाराधीनकायब्यूटबलादुत्पत्स्यत इति चेत् ।। प्रायसदयोगाऽऽरम्नकस्त्वेनं, शास्खसिचमपेक्षते ।
चित्ताऽदिनाऽपि कर्मनाशोपपतेः कर्मणां जोगेतरनाश्यत्वस्थासदा भेदः परेच्यो हि, तस्य जात्यमयूरवत् ॥ २५॥ | पिव्यवस्थितौ योगेनापि तमाशसंभवे कायन्यहाऽऽदिकल्पने सद्योगाऽऽरम्भकस्तु सानुबन्धयोगाऽऽरम्जक एव, एनमात्मा प्रमाणानावात्। कर्मणां कानयोगनाश्यतायाः-"कानाम्निः सर्वदिप्रत्यवं, शास्त्रसिद्धमतीबियार्थसार्थसमर्थनसमर्थाऽऽगम- कर्माणि,भसतात कुरुतेन" इति भवदागमेनापिसिबत्वा. प्रतिष्ठितम्,अपेक्षतेऽवलम्बते । परेभ्यो हि असदद्योगाऽऽरम्भके- वानराऽदिशरीरसस्ते शूकरा दिशरीरानुपपत्तेः कायथ्यदाभ्योहितस्य सोगाऽऽरम्भकस्य,सदाभेदो वैलक्षण्यं,जात्यमा नुपपत्तेर्मनोऽन्तरप्रवेशादिकल्पने गौरवाया ये स्वाहुः पातायूरवत सर्वोपाधिषिशुरुमयूरवत । यथाहि-जास्यमयूरोऽजात्य. साः-अग्नेः स्फुलिकानामिव कायव्यूहदशायामकस्मादेव चि. मयूरात सदैव जित्रः, तया सद्योगाऽऽरकाकोऽप्यन्यस्मादिति चात्प्रयोजकानानाचित्तानां परिणामोऽस्मितामात्रादिति । तदुजावना । तदुक्तम्-" न च सद्योगभव्यस्य, वृत्तिरेवं. कम “निमासचित्तान्यस्मितामानात।"(४-४) "प्रवृत्तिभेद विधाऽपि हि । न जात्यजात्यधमान् यज्जात्यः सन् भजते । प्रयोजकं चित्तमेकमनेकेषामिति ।" (४-५) तेषामप्यनन्तशिखी" ॥२४१३ ( यो०वि०)॥२६॥
कालप्रचितानां कर्मणां नानाशरीरोपनोगनाश्यत्वकररानं मोड
एय । तावदष्टानां युगपद् वृत्तिलाजस्याप्यनुपपरिति निप. यथा शक्तिस्तदएमाऽऽदौ, विचित्रा तदस्य हि।
कमकर्मणामेव भोगेकनाश्यत्वमाश्रयणीयमिति सर्वमवदातम। गर्नयोगेऽपि मातृणां, भूयतेऽत्युचिता क्रिया ॥ ३० ॥
॥ ३१ ॥ तत इति व्यकम ॥ ३२ ॥ द्वा० २५ दा। यथा तदएमाऽदी जात्यमयूराएमचञ्चुचरणाऽऽद्यवयवेषु, श
(२६) योगस्य प्रेकावत्प्रवृत्त्यापयिकं माहात्म्यमुपदर्शयत्राहक्तिः विचित्राऽजात्यमयूरावयवशक्तिविलकणातघदस्य हि स- शास्त्रस्योपनिषद योगो, योगो मोक्षस्य वर्तिनी।
योगाऽऽरम्भकस्याऽऽदित एवाऽऽरभ्येतरेभ्यो विलकणा श. अपायशमनो योगो, योगः कल्याणकारणम् ॥१॥ क्तिरित्यर्थः । यत उक्तम्-"यश्चात्र शिखिदृष्टान्तः, शास्त्रे प्रोक्तो
संसारवृधिर्धनिनां, पुत्रदाराऽऽदिना यथा । महात्मभिः । स तदएमरसाऽऽदीनां, सत्यादिप्रसाधनः" ॥२४५ ॥ इति (योगबि) अत एव सद्योगाऽऽरम्भकस्यति
शास्त्रेणापि तथा योग, बिना हन्त ! विपश्चिताम् ॥२॥ गम्यम्।मातृणां जननीनां, गयोगोऽपिकिं पुनरुसरकाल?,इ. इहापि सन्धयश्चित्राः, परत्र च महोदयः। त्यपिशब्दार्थः । श्रूयते निशम्यते, शास्त्रेषु अत्युचिता सोकाना. पराऽऽत्माऽऽयत्तता चैत्र, योगकल्पतरोः फलम् ॥३॥ मतिश्लाघनीया, क्रिया प्रशस्तमाहात्म्यलाभलकणा । यत एवं योगसिदैः श्रुतेष्वस्य, बहुधा दर्शितं फलम् । पठ्यते-"जणणी सम्वत्थ वि णि-उपसु सुमत्ति तेण सुमह जिणो।" (४३ गाथा) तथा-"गभगए जं जणणी, जायसुध
दाते बेशतश्चैतद्, यदन्यैरपि दर्शितम् ॥ ४॥ म्म त्ति तेण धम्मजिणो।" (४७ गाथा)तथा-"जाया जणणी जं
श्यं चतुःश्लोकी सुगमा । द्वा० २६ द्वा। सु-स्वयत्ति मुणिसुबो तम्हा।” (५० गाथा) (प्राव०२०)
प्रायश्चित्तं पुनर्योगः, प्रारजन्मकृतपाप्मनाम् । इत्यादि । इदं गर्जावस्थायामुकम । उत्तरकालेऽप्यत्युचितैव अब्धीनां निश्चयादन्तः-कोटाकोटिस्थितेः किल ॥२३॥ तेषां क्रिया। यत उक्तम्-" औचित्याऽऽरम्भिणोऽवका, प्रे. प्रागजन्मकृतपाप्मनां पुनः प्रायश्चित्तं योगः,तनाशकत्वात्तस्य। कावन्तःशुजाऽऽशयाः । अबभ्यचेष्टाः कालक्षाः, योगधर्माधि- तथा किलेति सत्ये, अब्धीनांसागरोपमाणाम, अन्तःकोटाको. कारिणः"५४४॥ (यो०वि०) इति। तदेवं सिकः सदयो। टिस्थितेनिश्चयादपूर्वकरणाऽऽरम्भेऽपि तावस्थितिककर्मसगारम्भक इतरेज्यो विलकरणः, स चाऽऽरमाऽऽदिप्रत्ययम- द्भावाऽवश्यकत्वस्य महामायाऽऽदिनसिकत्वात् , तस्य च पेक्वत एवेति ॥३०॥ द्वा०१४ द्वा०।
धर्मसन्यासैकनाश्यत्वादिति ॥ २३ ॥ ४०९
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जोग
(१६३४) अभिधानराजेन्डः।
जोग निकाचितानामपि यः, कर्मणां तपसा तयः ।
कुण्ठीभवन्ति मन्दानि जायन्ते, तीक्ष्णानि निशितानि, मन्मथासोऽतिप्रेत्योत्तमं योग-मपूर्वकरणोदयम् ॥ २४ ॥
स्त्राणि कामशस्त्राणि-शब्दाऽऽदिविषयरूपाणि, सर्वथा सर्व
प्रकारैः । क!, इत्याह-योगवर्माऽऽवृते योगसंवाहवति,चित्तेम. निकाचितानामपि उपशमनाऽऽदिकरणान्तसंयोज्यत्वेन व्यव.
नसि । कीदृशानि? इत्याह-तपश्चिमकराण्यपि मासकपणाssस्थापितानामपि, कर्मणां यस्तएका कयो, भणित इति शेषः ।।
दितपोभ्रंशकारीण्यपि, तथाविधयोगविकलानां तपस्विना"तवसा उ निकास्त्राणपि,"इति वचनात् । सोऽपूर्वकरणोदयम,
मिति ॥ ३५॥ उसमं योगं धर्मसंन्यासलकणमनिप्रेत्य, न तु यत्किञ्चित्तप इति बटव्यम् । तत्वमत्रत्यमध्यात्मपरीकाऽऽदौ विपश्चितम् ॥२४॥
अवनद्वयमप्येतत् , श्रूयमाणं विधानतः ।
गीतं पापक्षयायोचै-योगसिकैर्महात्मभिः॥४०॥ अपि कराणि कर्माणि, कणाद योगः क्विणोति हि।
अक्षरद्वयमपि,किं पुनः पञ्चनमस्कारादीन्यनेकान्यतराणी त्यपिज्वानो ज्वानयत्येव, कुटिन्नानपि पादपान् ॥१५॥
शब्दार्थः । एतद् योग इति शब्दलक्षणं, यमाणमाकर्यमानं, दृढपहारिशरणं, चिल्लातीपुत्ररक्षकः ।
तथाविधार्थानवबोधेऽपि विधानतो विधानेन,अहासंवेगाऽऽदिअपि पापकृतां योगः, पक्षपातान्न शङ्कते ॥ १६ ॥
शुद्धभावोल्लासकरकुङ्मलयोजनाऽऽदिलक्षणेन, गोतमुक्तं, पाप
कयाय मिथ्यात्वमोहाऽऽद्यकुशवकर्मनिर्मूत्रनाय उरत्यर्थम् । अहर्निशमपि ध्यातं, योग इत्यकरद्वयम् ।
कैर्गीतम् ?,इत्याह-योगसिद्धेर्योगः सिको निष्पन्नो येषां ते तथा, अमवेशाय पापानां, ध्रुवं वज्रागलायते ॥२७॥
तैर्जिनगणधराऽऽदिभिः, महात्माभिःप्रशस्तस्वभावैरिति ॥४०॥ आजीविकाऽऽदिनाऽर्थेन, योगस्य च विडम्बना ।
तथापवनानिमुखस्थस्य, ज्वानम्माननोपमा ॥ २० ॥ मलिनस्य यथा हेम्नो, बहेः शुद्धिर्नियोगतः । योगस्पृहाऽपि संसार-तापव्ययतपात्ययः ।
योगाग्नश्चेतसस्तद्-दविद्यामलिनाऽऽत्मनः ॥ १ ॥ महोदयसरस्तीर-समीरलहरीनवः ॥ २६ ॥
मलिनस्व ताम्राऽऽदिमलब हुलस्य, यथेति दृष्टान्तार्थः। दम्नः योगानुप्राहको योऽन्यैः, परमेश्वर इष्यते ।
सुवर्णस्य, वढेर्वैश्वानरात शुद्धिर्मिता,नियोगतो नियमेन,शु.
द्धकारणानां स्वकार्याव्यभिचारात् । योगाग्नयोगवह्नः, चेतसो अचिन्त्यपुण्यप्राग्नार-योगानुग्राह्य एव सः ॥३०॥
मनसः,शुरुितः,तद्वमवत्। कीदृशो मनसः?,श्त्याह-अविद्याजरतो भरतकोणी, नुनानोऽपि महामतिः।
मविनाऽऽत्मनः सद्भूतवस्तुविषयभ्रान्तिवशाशुद्धनितस्वरूपतत्कालं योगमाहात्म्याद, बुजुजे केवलश्रियम् ॥ ३१ ॥ स्यति ॥४१॥
तथापूर्वमप्राप्तधर्माऽपि परमाऽऽनन्दनन्दिता ।
अमुत्र संशयाऽऽपन्न-चेतसोऽपि ह्यतो ध्रुवम् । योगप्रभावतः प्राप, मरुदेवा परं पदम् ॥३२॥ अश्लोकी सुगमा । द्वा०२६ द्वा०।
सत्स्वप्नप्रत्ययाऽऽदिन्यः, संशयो विनिवर्तते ।।४।।
अमुत्र परलोकविषये, संशयाऽऽपन्नचेतसो भवान्तरं समयोगमाहात्म्यमेवाऽऽह
स्ति, न वेति प्रान्तमनसः,किं पुनरन्यस्येत्यपि हीतिशब्दार्थः । योगः कल्पतरुः श्रेष्टो, योगश्चिन्तामणिः परः।
अतो योगाद्, ध्रुवमसंशयं, सत्स्वप्नप्रत्ययाऽऽदिभ्यः सत्स्वानायोगः प्रधान धर्मागां, योगः सिधेः स्वयं ग्रहः ।। ३७॥ निजायमाणावस्थायां स्वर्गाऽऽदिनवान्तरदर्शननकणाऽऽख्यः प्र. योग को निरुतः, कल्पतरुः कल्पद्रुमः, श्रेष्ठोऽन्यकल्पटुभेन्यो- त्ययः प्रतीतिवान्तरस्य, आदिशब्दान्निजोहापोहतथाविधाssउतिशाय।। तथा योगश्विन्ताननिश्चिन्तारत्नं, परः प्रकृपः,योगः गमाभ्यासजन्यप्रत्ययग्रहः, तेभ्यः सकाशात, संशयः संदेहो, प्रधानं वस्तु, धर्माणां शेषधर्मस्थानानाम् । तथा योगः सि. विनिवर्तते उपरमति ॥४॥
निवृत्तिलकणायाः, स्वयंग्रह हेतुत्वात्स्वयंग्रहः । यदत्र पुनः शुद्धसमाचारा हि साधवः सत्स्वमत्राभेन निजोहापोहयोपुनर्योगरान्होपादानं तदस्यात्यन्तमादरणीयतास्वापनार्थ- गेन, सदागमाभ्यासेन च, प्राक् संशयितमनमोऽपि व्यावमिति ॥ ३७॥
तितविपर्यास हेतुमिथ्यात्वाऽऽदिमोहोदया अभ्रकगृहान्तर्वत्रि. तथा च जन्मवीजाग्नि-जरसोऽपि जरा परः ।
तप्रदीपप्रनोदाहरणेन भवान्तरं निर्णयन्त्येवेति । न च व
क्तव्यं स्वप्नोऽपि कथं लज्यते इति?। दुःखानां राजयक्ष्माऽयं, मृत्योमृत्युरुदाहृतः॥ ३८॥
_ यतःनगा चेति ममुच्चये, जन्मबी जाग्निः पुनःपुनर्जन्मकारणकर्म
श्रधालेशानियोगेन, बाह्ययोगवतोऽपि हि । शक्तिदाकारी,तया जरसोऽपि जराया अपि,जरा,वयोहानिकारणत्वात.परा प्रकृश ! तथा दुःखानां शारीरमानसाऽऽबाधारू
शक्लस्वमा नवन्तीष्ट-देवतादर्शनाऽऽदयः॥४३॥ पाणां, राजयक्ष्मा राजमान्द्यमिव, अयं योगः, तथा मृत्योरन्त
श्रकालेशा बहुमानाकाद्,नियोगेन नियमेन,बाह्ययोगवतोऽपिदि कस्य मृत्युरुदाहृतः शास्त्रकारैर्निरूपितः ॥ ३८॥
तथाविधोपयोगशून्यतया नावयोगानुरूपक्रियामात्रयुक्तस्य, किं
पुनरबाह्ययोगवत इत्यपि हीतिशब्दार्थः । किम् ?, इत्याह-शुक्रकिश्च
स्वप्ना अमलीमसाः स्वमाः, जवन्ति जायन्ते, इटदेवतादर्शनाऽऽ. कुण्ठीन वन्ति तीक्ष्णानि, मन्मथास्त्राणि सर्वया ।
दयः-दिवसाऽऽरन्धाऽऽराधनजिनगुरुधार्मिकदर्शनाऽऽदिलयोगवर्माऽऽवते चिते, तपश्छिकरारयपि ।। ३॥ कणाः ।। ४३॥
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जोग
(१६३५) जोग
अभिधानराजेन्ः। तथा
मी,श्त्याह-यदप्रत्यक्तपूर्वकं प्रत्यकेणानुपलत्य यद्भाषितम् ।. देवान् गुरून् दिजान् साधून, सत्व
धान्तमाह-यथा इह मर्त्यलोक,कश्चिद वाक्त असावादी मीमां.
सकाऽऽदिः,अप्सरसो मेनकारम्नाऽऽद्याः स्वर्ग सन्नि,मोक्षेच प्रायः स्वमे प्रपश्यन्ति, हृष्टान् सन्नोदनापरान् ॥ ४॥
मुक्तौ पुनरानन्द प्राहादः, उत्तमः सर्वातिशायी; साक्षादर हि देवान् आराध्यतमान जिनाऽऽदीन ,गुरुन् धर्माऽऽचार्याऽऽदीन,मा. वाच्य अप्सरःप्रमुखे ब्रुवाणो मीमांसकाऽऽदिःप्रलापमाप्रकायें तापित्रादीन वाद्विजान अब्धदोकानामकद्वितीयजन्मनो मुनीन्, स्यात् एवं नास्तिकोऽप्यतीन्द्रियं देवताऽऽदिकं निवान इति । साधून शेषशिष्टलोकान,सत्कर्मस्थाः स्वसिकान्ताविरुकक्रिया- अथैवमनवकाशीकृतः कदाचित्परलोकसंशयवादी, मीमांसको स्थिताः,हिः प्राग्वदू,योगिनो योगाच्यासपराः प्राणिनः; किम,. वा यूवात् ? ॥४॥ त्याह-प्रायो बाहुल्येन, स्वप्ने प्रतीतरूपे पव, प्रपश्यन्ति प्रेकन्ते,
यथादृशन् हर्षवतः, तथा सनोदनापरान् शुरुार्थविषयप्रेरणपरा- योगिनो यत्समध्यकं, ततश्चेमुक्तनिश्चयः। यणान् ॥४४॥
आत्माऽऽदेरपि युक्तोऽयं, तत एवेति चिन्त्यताम् ।।४।। न चासौ भ्रान्तेति भावयन्नाह
योगिनो दिव्यदृशःप्रमातुः,यत्समध्यक्ष प्रत्यक्षकानं,ततस्तत्स. नोदनाऽपि च सा यतो, यथार्थे वोपजायते ।
मध्यक्षाद,चेद् यदि उक्तनिश्चयः-अप्सरसः स्वर्गे,मोके चाऽऽनन्द तथाकालाऽऽदिभेदेन, हन्त ! नोपप्लवस्ततः॥४५॥
इति प्रागुक्तार्थनिर्णयो जायते, एवं तर्हि आत्माऽऽदेरप्यतीन्छि
यार्थस्य । किं पुनः प्रस्तुतस्य?, इत्यपिशब्दार्थः । युक्तो घटनोदनाऽपि च न केवलं देवतादर्शनाऽऽदि,सा देवाऽऽदिकृता,यतो
मानोऽयं निश्चयः, तत एव योगिसमध्यकादेव, श्येतश्चिन्त्यता यस्मात्कारणात्,यधार्थैव सूचितप्रयोजनफलैवोपजायते । कथ.
विमृश्यतामिति ॥४९॥ म?,इत्याह-तधाकासाऽऽदिभेदेन तत्प्रकारकालकेत्रभावविशेषे.
एतदेव भावयतिण,हन्त ! इति प्राग्वत्। न नैव, उपप्लवः वाताऽऽदिधातुविकार
अयोगिनो हि प्रत्यक-गोचरातीतमप्यम् । जनितश्चित्तसकोभो वर्तते प्रेरणा; ततो यथार्थत्वाद् हेतोः, न हि यथार्थफलभाजः प्रतिभासा अविसंवादिरूपत्वाबोके
विजानात्येतदेवं च, वाधाऽत्रापि न विद्यते ॥ ५० ॥ नपलवरूपतां लभन्ते, किं तु सत्यरूपतामेवेति ॥ ४५ ॥
अयोगिनोऽग्दिशः प्रमानुः,हिर्यस्मात प्रत्यक्षगोचरातीतमपि तथा
ऐन्डियकाध्यकविषयभावातिक्रान्तमपि प्रात्माऽऽदि वस्तु, किं
पुनरितररूपम?,इत्यपिशब्दार्थः । अलमत्यर्थम् हस्ततमन्यस्तनिम्बममन्त्रप्रयोगाच्च, मत्यः स्वप्नोऽभिजायते ।
स्तलस्थूलमुक्ताफलावलोकनोदाहरणेन,विजानाति प्रेकते । ए. विजनेऽविगानेन, सुप्रसिफामिदं तया ॥॥ तद्योगिसमध्यकं, दिव्यदर्शनत्वात्तस्य । यदि नामैवं ततः किं स्वप्नमन्त्रप्रयोगाच्च-स्वप्नलाभफलो मन्त्रविषयः, तत्प्रयोगात्, सिम्?,इत्याह-एवं च अस्मिश्च प्रकारे सति,बाधा अघटनालचकाराचु द्धयोगाच्च, सत्यः स्वप्नो यथार्थः स्वप्नः, अभिजायते कणा, अत्रापि आत्माऽऽदिनिश्चये, न केवलमप्सरःप्रतावर्थे,इ. प्राविभवति,एतदेव ढीकुर्वन्नाह-विद्वज्जने मतिमलोके,अविगा- त्यपिशब्दार्थः । न विद्यते नास्ति ॥५०॥ नेनाविप्रतिपत्त्या, सुप्रमिकमतीव ख्यातिमागतम, स्वतमन्त्र- (२७) श्त्यमागमगम्यत्वमनिधायाधुनाऽनुमानविषयत्वमाहप्रयोगात्सत्यः स्वप्नो जायत इत्येतत्,तथा तेन प्रकारेण ॥ ४६॥ आत्माऽऽद्यतीनिश्यं वस्तु, योगिप्रत्यकलावतः । नैवभूतहेतुकोऽयं व्यवहार इति दर्शयति
परोक्षमपि चान्येपा, न हि युक्त्या न युज्यते ॥ ५१ ।। न ह्येतद्भूतमात्रत्व-निमित्तं संगतं वचः ।
प्रात्माऽऽदि आत्मकमसर्वज्ञाऽऽदि,अतीन्द्रियमिडियविषयभा. अयोगिनः समध्यवं, यन्नविधगोचरम् ॥ १७॥ वातीतं वस्तु,न हि न, युज्यते इत्युत्तरेण योगः । कीरशम?,इ. नदिनैव,एतदुतरूप देवतादर्शनाऽऽदितृतमात्रत्वनिमित्तं नृत- | त्याह-योगिप्रत्यक्षतावतः सर्वशज्ञानविषयभावने, परोक्षमपि मात्रत्वं केवल तभाव पध, निमित्तं हेतुर्यस्य तत्तथा, इत्येवं च इन्छियज्ञानागांचरमपि,किं पुनरपरोक्कम,स्त्यपिचशब्दार्थः। परेण प्रवर्तमानं, सङ्गतं घटमानकं, वो वचमम, एतत्स्वप्नदर्श. अन्येषामस्मादृशाम् अर्वाग्दशा, न हि नैव, युक्त्या शुभ. नाऽऽदि,यत्कश्चिदू भूतमात्रमित्युच्यते, तदसङ्गतं वच इत्यर्थः । हेनुप्रयोगरूपया, न युज्यते, किं तु युज्यत एव । कुतः,हत्याह-अयोगिनोऽर्वाग्दर्शिनः प्रमातुः,समध्यकं प्रत्यक्ष
तत्र युक्तिःचालुबाऽऽदि,यत् यस्माद् नेव, पवंविधगोचरम्-एवंविधाःस्वाम
"अचेतनानि भूतानि, न तम्मों न तत्फलम। दर्शनाऽऽदिरतीन्द्रियोऽर्थी तृतमात्रनिमित्तो,न तु देवताऽनुग्रह
चेतनाऽस्ति च यस्येह, स एवाऽऽत्मेति बुध्यताम् ॥१॥ मन्त्रप्रयोगाऽऽदिनिमित्तक इत्यादिकोऽयों गोचरोविषयो यस्य यदीयं नूतधर्म। स्यात, प्रत्येक तेषु सर्वदा । ततया । इदमुक्तं नवनि-पद्मस्थस्य पृथिव्यादिरूपनूनमात्रपरि। उपक्षज्येत सस्वाऽऽदि, कविनत्वाऽऽदयो यथा ॥ २॥ हारेणातीन्द्रिये देवताऽभावर्थे विधिप्रतिपेधयोः प्रत्यकमकम
काचिम्यादिस्वनावानि, नृतान्यभ्यक्षसिद्धितः। मेव, तस्य तदविषयत्वादिति ॥४७॥
चेतना तु न तदूता, सा कथं तत्फलं भवेत् ? ॥३॥" इत्यादि। एतदेव भावयति
"तुल्यप्रतापोद्यमसाहसानां, प्रलापमात्रं च वचो, यदप्रत्यक्षपूर्वकम् ।
फेचिल्लभन्ते निजकार्यसिकिम् ।
परेन तामत्र निगद्यतां मे यथेहाप्सरसः स्वर्गे, मोक्षे चाऽऽनन्द नत्तमः ॥४॥ कर्मास्ति हित्वा यदि कोऽपि हेतुः॥१॥ प्रलापमात्रमनर्थकमेव,चः समुच्चये; वचो वचनम् । कीदृश- विचित्रदेहाऽऽकृतिवर्णगन्ध
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जोग अनिधानराजेन्डः।
जोग प्रभावजातिप्रभवस्वभावाः ।
श्रा विद्वदङ्गनासिक-मिदानीमपि दृश्यते । केन क्रियन्ते नुवनेनिवा
एतत्मायस्तदन्यत्तु, मुबहागमजाषितम् ।। ५५ ॥ चिरन्तनं कर्म निरस्य चित्रा? ॥२॥
श्रा विद्वदनासिद्धम-पा-विद्वद्भ्यः आ-अनाज्यश्च यो विवर्य मासान्नयगर्भमध्ये,
लोकः तस्येत्यर्थः। सिर्फ प्रतीतम्, इदानीमपि :पमायां, किं बहुप्रकारैः कलाऽऽदिभावैः।
पुनः सुषमपुःषमाऽऽदावित्यपिशब्दार्थः। दृश्यते अवलोक्यते, बद्वत्य निष्काशयते सवित्र्याः,
पतत् प्रागुक्तं योगफलं, प्रायो बाहुल्येन, तदन्य तक्तादन्यत् को गर्जतः कम विहाय पूर्वम ?"॥३॥ इत्यादि । "वीतरागोस्ति, सर्वत्र प्रमाणाबाधितत्वतः।
पुनर्योगफलं, सुबहु प्रतिभूरि,ग्रामपध्यादिकं हि प्राप्तिम्पम, सर्वदा विदितः सद्भिः, सुखाऽऽदिकमिव ध्रुवम् ॥१॥
भागमभाषितम्-आवश्यकनियुक्त्यादिनिमपितम् । कीयते सर्वथा रागः, क्वापि कारणहानितः।
यमुक्तं तत्रज्वलनो हीयते किं न, काष्ठाऽऽदीनां वियोगतः ॥२॥
"भामोसहि विष्पोसहि-खेलोसहि जल्लमोसदी चेव । प्रकर्षस्य प्रतिष्ठान, ज्ञान कापि प्रपठ्यते ।
संभिमसोय उजुमद, सम्बोसहि चेव बोधवो ॥६॥ परिमाणमिवाकाशे, तारतम्योपलब्धितः" ॥३॥ इत्यादि।
चारण श्रासीचिस के चसी पमण पाणिपो य पुब्बधरा।
अरहंत चकवट्टी, बलदेवा वासुदेवा ॥६६॥ इति । अत्रैवान्युच्चयमाह
"अलौस्यमारोग्यमनिष्टरत्वं, किं चान्यद योगतः स्यैर्य, धैर्य श्रधा च जायते।
गन्धः शुनो मूत्रपुरीषमपम । मैत्री जनप्रियत्वं च, मातिभं तत्वनासनम् ॥ २२ ॥
कान्तिः प्रसादः स्वरसौम्यता च,
योगप्रवृत्तेः प्रथमं हि लिङ्गम् ॥१॥ किं च इत्यभ्युच्चये, अन्यत्प्रागुक्ताद्विलकणं योगफलमस्ति।
मैयादियुक्तं विषयेषु चेतः, तदेव दर्शयति-योगतो योगात, स्थैर्य स्थिरनावः प्रतिपन्न
प्रजाधवद्धैर्यसमन्वितं च । निर्याहणो, धैर्य व्यसनाशनिसन्निपातेऽपि अविचलित
द्वैरधृष्यत्वमनीष्टलाभो, प्रकृतिनावः, श्रद्धा च रुचित्तत्वमाानुगा, जायते आधि
जनप्रियत्वं च तथा परं स्यात् ॥ भवति, मैत्री सर्वसत्वेषुमित्रनावः, जनप्रियत्वं च शिष्टलोक
दोषव्यपायः परमा च तृप्तिवल्लभभावः, प्राति सहजप्रतिभाप्रभवं, तत्त्वभासनं जीवा
रौचित्ययोगः समता च गुर्वी ॥ दितत्वावलोकनं भवतीति ॥५२॥
वैराऽऽदिनाशोऽय कृतंभरा धीः, तथा
निष्पत्रयोगस्य तु चिइमेतत्" ॥३॥ विनिवृत्ताऽऽग्रहत्वं च, तथा इन्द्रसहिष्णुता ।
अथोक्तादेव योगफलात्तत्वान्तरप्रसिद्धार्थमाहतदभावश्च लानश्च, बाह्यानां कालसङ्गतः ।। ५३ ॥ न चैतळूतसङ्कनत-मात्रादेवोपपद्यते । विनिवृत्ताऽऽग्रहत्वं च निर्मुक्तानुचितार्थाभिनिवेशित्वं च, तथा तदन्यद्भेदकानावे, तद्वैचित्र्याप्रसिदितः ॥ २६ ॥ द्वाहसहिष्णुता निरुपक्रमक्किएकादयाऽऽपादितानामिष्ठबियो- न च नैव, पतद्योगमाहात्म्यं भावयोगिधुपलभ्यमानं, नूतसगानिgसंप्रयोगाऽदीनां व्यसनानां सम्यक् सहनभावः। तदना. हातमात्रादेव पृथिव्यादिमहाभूतसङ्घातात केववादात्माऽऽदि. वश्च द्वन्द्वविनाशश्च प्रायः परिशुद्धयोगोपहतशक्तिकत्वाद् द्ध- रूपतत्त्वान्तरशून्यात, उपपद्यते घटते । कुतः, इत्याह-तदन्य
संपादकोपायानाम, लाभश्व प्राप्तिश्च बाह्यानां निर्वाहाss- नेदकाभावे-तस्माद् भूतसाताद् यदन्यत्तवान्तरमात्मकादीनां समाधिहेतूना, कालसङ्गतो यो यत्र काले योग्य इति ५३॥ दिनकणं,नेदकं विशेषकारि, तस्यानावे तद्वैचियाप्रसिद्धितः, तथा- .
तेषां तसवतानां कायाऽऽकारपरिणतानामपि, वैचित्र्यस्य धृतिः कमा सदाचारो, योगऋषिः शुभोदया।
नानात्वस्य, योगमाहात्म्ययुक्तत्वेतरलकणस्य,अप्रसिकरघटनाप्रादेयता गुरुत्वं च, शमसोख्यमनुत्तरम् ॥ ५४॥
त्। अतो बलात् अनुमिमीमहे भूतसहतारिक्तं विचित्रशक्ति
सङ्गतं तत्वान्तरं समस्ति, यद्वशादयं योगमाहात्म्यभावाभावधृतियेन केनचिद् व्यसनभोजनाऽऽदिना निर्वाहमात्रनिमित्तेन
लकणो भेदः संपद्यते ॥५६॥ योग । सन्तोषकमा सत्येतरदोपवणेन कार्यतत्वमविचार्यान्तर्बहिश्च
अथ निगमयन्नाह-- कोपोदयाद धिक्रियामापाद्यमानस्यात्मनो निरोधनम्। सदाचा- एवं च तवसंसिके योग एव निवन्धनम् ।
सर्वोपकारप्रियवचनाकृत्रिमोचितस्नेहाऽऽदिका सजनचेष्टा। योगवृद्धिः सम्यग्दर्शनाऽऽदिमुक्तिबीजोत्कर्षरूपा । शुनोदया
अतो यनिश्चितैवेयं, नान्यतस्त्वीदृशीकचित ॥ ६४॥ प्रशस्तफमोझमहेतुः । धृत्यादेः प्रत्येकविशेषणमेतत् । प्रादेयता
एवं चोक्तन्यायेनैव,तत्वसंसिके:-श्रात्मादृष्टाऽऽदिप्रतीतेः,योग परैरादरणीयवचनचेटनरूपता। गुरुत्वं च सर्वत्र गौरवलान
एव नापरं किञ्चिद्, निबन्धनं हेतुर्वर्तते । एतदपिकुतः, इत्याहलक्कणम् । तथा शमसौख्यमतिमन्दीभूतकषायविषदोषतया
अतःयोगात्,यत् यस्मात,निश्चितैव अविपयांसवत्येव,श्यं तत्त्वप्रशमशर्म । अनुसरं विषयसेवाजनिताऽऽनन्दानिशायि । यतः
सिद्धिः स्याद्,न नैव, अन्यतोऽन्यस्माद्वादप्रतिवादाऽऽ..तुः पुनपठ्यते-" निर्जितमदमदनानां, वाकायमनोविकाररहितानाम् ।
रथे, ईरशी निश्चितरूपा तत्त्वसंसिकिः,क्वचित् क्षेत्राऽऽदी।६।। विनिवृत्तपराशाना-मिहैव मोक्षः सुविहितानाम"॥१॥ इति।
(२८)अतोऽत्रैव महान् यत्न-स्तत्तत्तत्त्वप्रसिधये। भत्र च श्लोकत्रयेवकारास्तथाशब्दश्च समुच्चयार्थः ॥५४॥
प्रेक्षावता मदा कार्यो, वादग्रन्थास्त्वकारणम् ।। ६५ ।।
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जोग
ओग
(१६ )
अभिधानराजेन्द:। प्रतः-मस्मात्कारणात, मत्रैव योगे,महान् अन्योपायाताया। | मतचन्द्रमसः सूर्यस्य वा एकतरस्व प्रहेण नक्षत्रेण वा एक. पजामादरः, तस्य तस्य तावस्य वर्गनरकाऽऽदे, प्रसिम्ये तरेण जाता, मदनन्तरं द्वितीयेन सूर्याऽऽदिना सोपवयं गतः प्रतीत्यर्थ, प्रेक्षावता बुद्धिमता, सदा सर्वकालं, कार्यों विधे- सप्रीणित इति प्रायः महकप्लुतो नाम दशमः सा मण्डका कः। उपायान्तरप्रतिषेधमाह-वादप्रन्थाः परपकनिराकरणेन प्लुत्या यो जातो योगः समपकप्लुनः, सब प्रदेश सावे. सपक्षप्रतिष्ठापनानि तर्कप्रकरणानि, तुः प्राग्वद, प्रकारणं तत्व.] दितम्यः भन्यस्य महकप्ततिगमनासंजवात् । कंच-बनाप्रतीतेरहेतवः ॥६॥
सूर्यनक्षत्राणि प्रतिनियनगतानि, प्रहास्त्वनियतगतब इतिाप. एतदेव समर्थयमान प्राह
दिरथं पथावबोधं दशानामपि बोगानां स्वामानावना रुता उक्तं च योगमार्गझै-स्तपोनि तकन्मपैः।
पचासंप्रदापमन्यथा वाच्या, तत्र युगे वनातिच्छत्रवर्जाः शेषा
नवापि बोगाः प्रायो पहुशो बदुषु च देशेषु भवन्ति । छत्रातिनावियोगिहितायोच्चै-मोहदीपसमं वचः ॥ ६६॥
च्छत्रयोगस्तु कदाचित्कमिचिदेव देशे। सू०प्र०११ पादु। उक्तं च निरुपितं पुनः, योगमार्गह-अध्यात्मविद्भिः पतअलिप्र
(३०)योगान्वाद मोगा। पमाऽऽदिकेषु योगाोय.(नेच'जोगंग' भृतिनिः, तपोनिधूतकम्मः प्रशमप्रधानेन तपसा कोणमार्गा
शम्देऽनुपदमेव १३३८ पृष्ठे वक्ष्यन्ते) उत्साहे.पो०३ विकलाप्रा. नुमारिबांधवाधकमोहमलैः, भाषियोगिहिताय-भावयद्विवा
काशगमनाऽऽदिफो पारमेपाऽऽदिके पसंघात योग प्रकाशरबहल कलिकालयोगिहितार्थम, उरत्यर्थ, मोहदीपसममति
गमनादिफलो व्यसंघातः । पिं०। यांगा वशीकरणाऽदि. मोहान्धकारप्रदीपस्थानीयम, वचो बचनम ॥६६॥
प्रयोजनाद् सभ्यसंयोगा इति।प्रश्न०१संबद्यार। “जोगो पुण पतदेव दर्शयति
हो पायलेवाई।" निचू.१३ उ० 1 "सिकरणपायनवाडबादाँश्व प्रतिवादाश्च, वदन्तो निश्चितास्तथा ।
दिया तु जोगा मुणेया।"भा पं०ची पादप्रमेाऽऽद. तत्वान्तं नैव गच्चन्ति, तिलपीलकबद्तौ ॥६॥ पः मौभाग्यदौभाग्यकरा योगाः । ३०३ मधिला योगसौभाग्यापादाँ पूर्वपकरूपान्, प्रतिवादाँचपरोपन्यस्तपतप्रतिवचन
ऽऽदिकद व्यनिनय इति । ग०१अधिका(अध्ययूधिकाना, रूपान्,चौसमुचये,बदन्तो ब्रुवारणाः निश्चितामसिदानकान्तिका
गृहम्धानां वा योगकरणे प्रायश्चित्तादिमत्राणि 'भा उधिय' दिहेतुदोषपरिहारण, तथा तेन प्रकारेण तत्तच्छास्त्रप्रसिदन,
शम्ने प्रथम नागे ४७२ पृष्ठे द्रव्यानि । तेषां सत्राणां व्यासर्वेऽविदशनिनो मुमुकचोऽपि, किम , इत्याह-तत्वान्तम मा.
ज्यारुपा गाथा: 'पसिणापसिण' शब्दे रश्याः) तदात्मके पश्चस्माऽदिनावप्रसिमिरूप, नैव गछन्ति न प्रतिपद्यन्ते । तिलपी
दश उत्पादनादरोये चापि०। (तक्तव्यता जोगपिंक' शम्दे मकवद् निरुसाकसंचारतिनयन्त्रवाहननियुकैकगीमहिषा55.
रश्या) धुनोपधाने, “जोगा य पहावेकपा ।" योगा उपधादिवत. गती वहनरूपायां सत्यामितियथा प्रमौ तिमीसको
नानि,बहुविकल्पाः गच्छभेदेन बहुभेदाः । व्य०१०। "भागागादिनिरुदाकतया नित्यं भ्राम्यनपिन तत्परिमाणमवबुध्य.
दमणागादे, विधे जोगे समासती दोर" । जोगो दुविधोते, पचमेतेऽपि वादिनः स्वपक्षाभिनिवेशान्धा विचित्रं वदन्तो
भागादो य, अणागाढो ५ । जम्मि जोगे तणा मो अपि नोच्यमानतस्त्वं प्रतिपयन्त इति ॥ ६७ ॥ यो वि० ।
आगादी। पथा भगवतीत्यादि । इतरोभणागाढो, पयोत्तरापन्धसूर्यनत्राणां वृष दानुजाताऽऽदिके योगेच। सु०प्र०।
ध्ययनादि । नि० चू०४०।प्रागादमुत्तराध्ययननगवत्या.
दिकम, भनागाढं दशकालिकादिकमिति । जाता था। (२६)ते च दश
वाक्ये, वाक्यस्यैकार्यिकानधिकृत्य-"वाजोगजोगे थ।"श. तत्य खबु मे दसविधे जोए पएणत्ते । तं जहा-धमत्ता- ७० । ज्योतियोक्ते रविचन्मयोगाधीनेषु विकुम्भाऽदिषु एनाते , वेणुयाणं जाते २, मंच ३, मंचाइयचे तिथिवारनकत्राऽऽदीनामन्यतरान्यतमानाममृतयोगोऽमोदययोकत्ते ५, छत्तातिछते ६,जुअण , घणे ७, पीणिते है,
ग इत्यादिक योगविशेष,वाचा पापमासिकयोगाऽऽदौ दत्ति.
प्रत्याश्यानं कार्यते, तत् किं "साणभोर पंचातयं प्रायमंककत्ते प्यामं दसमेत्ता १० ॥
बिलं पचनाचा" श्याचाम्साऽऽदिस्याने पठ्यते, प्रथया-"स. "तत्य बनु" इत्यादि । तत्र युगे, खल्वयं यत्वमाणो,दशविधो पाणभोभणं पंचदत्तिनं एगासणं पचखा।"त्येकाशनपोगः प्रातः । तद्यथा-वृषभानुजातः । अत्र अनुजातशब्दः काऽऽदिस्थाने पठ्यते, तिप्रश्रेउत्तरम-"मपाणभौयणं पंच. सरशवचनः, वृषभस्यानुजातः सरशो वृषनानुजाता, वृषभा- दत्तिनं मायांबलं पचक्खाइ" इत्येवंरूपं प्रत्याश्यानं गुरुपरप्रकारेण चन्कसूर्यनक्षत्राणि यस्मिन् वोगे एव तिष्ठन्ति स वृषभा. म्परया पठ्पमानमुपलभ्यते, न स्वम्पधेति। ७६ प्र.। सेन०१ नुजात इति भावना। एवं सर्वत्रापि भावयितायम । वेणुवंशः, उल्ला । योगमध्ये रात्रावनाहारग्रहणं भवति, नपा! ति सदनुजातस्तत्सरशो वेणुकानुजातः।मचो मशसरशः। मचान् प्रश्ने, उत्तरम-रात्री योगिनां संघकाभावात किमपि प्रहीत म्यवहारप्रसिद्वान् वित्रादिभूमिकाभावतोऽतिशायी मञ्चो म- न कल्पते, संघ तु सायं मुक्तमिति प्रातःप्रवचनप्रवेदनानशातिमश्वः तत्सरशो योगोऽपि मचातिमतः छत्र प्रसिम्म, स्तरमेव तहण कल्पत इति । १०३ ३० । सेन. २ । सदाकारी योगोऽपि कृत्रम् । स्त्राव सामान्यरूपात उपर्यन्या- प्रावइयकोनराध्ययनाऽऽदियोगेषु पत्तनीयमुजगोधूममोदकान म्यचत्रभावतोऽतिशायि पत्रं छत्रातिच्छत्रम,तदाकारो योगोऽपि
केचन गृहन्ति, केवन न?, इति प्रश्न,उत्तरम्-न गृहन्तोति वृकत्रातिच्छत्रम,युगमिव नदो युगन,यथा युगं वृषभस्कन्ध- परम्पराऽस्तीति । १३५ प्रासेन०२ उमा। मावश्यकयोबोरारोपितं वर्तते तइद् योगोऽपि यः प्रतिनाति, स युगन
गसंबद्धदशवकालिकयोगप्रवेशःशुवति,नवा, इनि प्रश्रे, इत्युच्यते । घनः संमर्दकपः, यत्र चन्द्रः स्यों वा प्रहस्प उत्तरम-शुदाति । १३ प्रासेन ३ उठा० । येन साधुना मक्षत्रस्व वा माये गति, प्रीणित उपचयं नीतः यः प्रय- योगा न न्यूढाः तेन तयोगानां प्रवेशोचारणं कार्यते, न
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मोग
प्रनिधानराजेन्द्रः।
जोगट्ठाण
बा',इति प्रमे, उत्तरम-मुल्यवृत्त्या येन ये योगा ब्यूढा,तेन ते- (१७) वृत्तिनिरोधस्थापि योगत्व तस्यापि पचविधत्वाssपामेव प्रवेशोत्तारणाऽऽदिकं विधीयते, तदभावे तु नन्धनुयोग
बनेकविषयविवेचनम् । द्वारयोगाऽऽदिना सवेंग्वव्यूढयोगेषु प्रवेशः, तेभ्यो मिर्गमनं च (१०) योगस्येच्नशानसामाऽऽद्यवान्तरनेदप्रदर्शनन कार्यते, तयोः क्रियाया असंबद्धत्वादिति परम्पराऽप्यस्ति, परं
तद्विवेकः। सर्वथैव तक्रिपाकारिता न यतीति । ३६ प्र० । सेन. ३ (१५) संप्रकावासंप्रज्ञात योर्यथासंभवमवतारः । बल्खा । चक्षुर्विकलस्व साधो पावें कालिकोकाक्षिकयोगस्य | (२०) जीचाऽऽत्मनि परमाऽऽस्मनः सत्वोपपत्यधमात्मत्रया किया कृता शुरुति, न वाइति प्रभे, उत्तरम-काखिकोका
निरूपणानन्तरं विषयाऽऽमनोः समापत्त्यादिनितिन विकयोगक्रिया चतुर्विकलस्य साधो पा प्रायो न रानी- (२:) असंप्रकातनानः समाधेनिंचनम् । ति कातमस्ति । १५ प्र० । सेन. ३ मल्ला ।
(२२) पकस्मिन्नपि योगेऽन्येषां ममावेशाऽदिविचार। विषयसूची
(२३) योगमार्गाधिकारिणः। (१) भलब्धेप्सितवस्तुमाभ-वीजाधानोभेर पोषणक- (२४) मात्माऽऽदेप्रत्ययं विना न योगसिरिः।
रण-संमोग मेनन-वर्माऽऽविधारण-युक्ति-शम्मादि- (२५) योगादेव कर्मकयो भवतीति प्रतिपादनम् । प्रयोगसमुदायशन्द निष्टावयासंबन्ध यथास्थितय
(२६) योगस्य माहात्म्यम् । स्त्वम्वचारूपप्रतिपादन-विधिकर्षनुकूलपरिवारसंपत्ति. (२७) योगस्याडगमगम्यत्वप्रदर्शनानन्तरमनुमानगम्यत्वमनोवाकायच्यापाराडाइयो योगशम्दाधा।
प्रदर्शनम् । (२) व्यभावभेदेन योगस्य दैविध्यप्रकपणे प्रशस्ताप्रश- (५८) योगे एव महान् यत्रो विधेय इत्युपदेशः।
स्तत्य निरूप्य कश्ययोगभावयोगयोनिर्वचनम् । (२६) युगे योगस्य दशविधवप्रदर्शनम् । (३) बोगस्य मनोचाकायाऽऽत्मकस्य एकस्मिन् काले युग- । (३०) प्रकोणकविषयाः। पत शुनाशुनवनिरसनम।
जोगंग-योगाग-ना यमाऽऽदिके, योगानंच यमो भवेत्।" (४) मनोबाकायतया योगस्य द्वैविध्यमुपपाच, योगाना.
शा०२१वा० अहिंसाऽऽदियमानधिकृत्य-"योगसाकतोमयुक्तस्य कर्मबन्धकारकरवं युक्तस्य कर्मनिर्जराकारि.
मीयां, योगाङ्कत्वमुदाहतम।" यथोक्तम-"यनियमाऽऽसनलं च भवतीति प्रतिपादनम् ।
प्राणायामप्रत्याहारधाराभ्यानसमाधयोऽधामानि योगस्थ(५) परिणामालम्बनग्रहणसाधनत्वेन मनोवाकायमक्षण
ति।" द्वा०२२ द्वा० । पो०। पुरुषसप्ततिकलाऽन्तगत कलासहकारिकारणभेदाद योगस्य त्रैविध्यम् ।
भेदे, कल्प०७क्षण । भास्मनो बीर्यान्तराय तय कयोपशमसमुत्थलब्धिवि.
जोगंत-योगान्त-पुं० । शैश्यवस्थायाम, द्वा० २५ द्वा०। शेषप्रत्ययमभिमन्यनभिसन्धिपूर्वकत्वं योगस्य प्र. तिपादनम।
जोगंतरग-योगान्तरक-न० । भन्यो योगो व्यापारो योगान्तर(७) मनोवागयोगयोः कायन्यापारविशेषत्वेन विचारः। म, तदेव योगान्तरकम । भन्यस्मिन् योगे, पा०५ विषः। (८) सामान्ययोगप्ररूपणानन्तरं विशेषतो नारकादिषु जागंपरायण-योगन्धरायण-पु.। उदायमनृपतः खनामक्यातयोगविचारः।
उनास्थे, "नरामि नृपस्यायें, नाहं यौगन्धरायणः।" भार (1) नैरविकाऽऽदिदपरकेषु समविषमयोगावधिरुत्य प्र. ४० मा० . कपणा।
जोगवखेम-योगक्षेम-न । योगश्च समं च समाहारवन्धः । (१०) श्यानतत्त्वरूपसासम्बनिरालम्बनस्वेन योगस्य बैवि. ज्य प्ररूप्य, ध्याननिरूपण-खेदाचविधचित्त.
मलय लानचिन्तामहिते लम्धपरिरकणे, " योगक्षेमं वहाम्यपरिहारप्ररूपण-तत्फताफनत्वप्रदर्शन-शान्तोदाचा.
हम" चाच.।" जोगवन में बहमासा परिवहति ।" का०१ 5ऽदियुक्तचित्तव्यावर्णनाऽऽदिविस्तरः।
| भु०५ मारा। (११) योगस्य मोकहेतुत्वेन प्रदानम् ।
जोगवखेमपय-योगक्षयपद-न । योगमाय पद्यते गम्यते । (१२) योगस्य सकण निरूप्य, दुरभव्याभव्यलकणनिरूप- |
नार्थस्तत् पदं योगक्षेमपदम् । योगक्षेमार्थ के परे, “अणुचर णाऽऽद्यनेकवियोपपत्तिः ।
जोगखेमपयं लंनिए समाणे।" सूत्र. २ भु०७ म०। (१३) स्वकीय सकर्ष परकीयलक्षणे विचारिते सति स्थि. भोगचलणा-योगचलना-स्त्री० । चलनाभेदे, भ०१७श०३३० । रीभवतीति पतजाल प्रतियोगशास्त्रानुसारियोग
(अस्यानिविधत्वं 'चलणा' शन्दे तृतीयभागे ११६५ पृष्ठे स्य लक्षणाऽऽदिनिरूपणम् ।
रूएण्यम्) (१४) विस्तरतो हि पुनस्तस्य परकीयप्रकपितयोगस्य | जोगचित्त-योगचित्त-वि.। योगबीजोपादानप्रणिधानचित्ते, बगमनम्।
द्वा०२१ वा। (१५) स्थानवर्यार्थानम्बकाप्रपम्पेण योगस्य पञ्चविध
जोगजुत्त-योगयुक्त-त्रि० । दसविधचक्रबालसामाचार्याचा. त्वं प्राप्य, विरतेषु तस्य नियतभावित्वं, परेषु तु वरण प्रगुण, कर्म०१ कर्म०।।
बोजमात्रमेवेति विवचनम् । (१६) योगोत्पत्तिहेतून निरूप्प स्थानादीनां प्रीतिभत्ति.
जोगजुत्तया-योगयुक्तता-स्त्री० । अनगारगुणनेदे, "जोगम्मि वोऽसरशीतिनेदस्याऽऽयिभवन, स्थानाऽऽद्ययो.
जुत्तता।" श्राब० ४ ० । प्रश्न पिनः मुत्रदाने दोपोद्घारनं च।
| जोगहाणा-योगस्थान-न० । योगो वीर्य, तस्य स्थानं योग
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( १६३५) अनिधानराजेन्द्रः ।
ओगट्ठाण
स्थानम् । बीऽऽदिविभागांशसंघाने कर्म० ५ कर्म० । (तद्वक्तव्यता 'अप्पाबहुय' शब्दे प्रथमभागे ६५६ पृष्ठे गता ) जोगणिओग - योगनियोग- पुं० । ६० स० । कार्मणवशीकरयायिका योगनियोगे कार्मणीकरण 155 दिग्रकरि ति । सं० ।
1
जोगणिग्गढ़ - योगनिग्रह - पुं० । कायोत्सर्गे, “ उस्सगो वा जोगणिग्गडो तित्रा" आ० चू० ५ अ० । भोगलिरोड योगनिरोध-पुं० योगादारिकाऽऽदेश योगसमुधा अत्मपरिणामविशेष एव तेषां निरोधनं निरोधः प्रलयकरणम्, योगनिरोधः । मनोवाक्कायव्यापारप्रनयकरणे, स एव च जिनानां ध्यानम् । " जोगणिरोहो जिणाणं सु । भाव० ४ अ० अ० म० ।
33
भोगणियोगनिवृति स्वी० योगनिष्यतो म० १ ० १ ० ।" करविहाणं भंते! जोगणिती पत्ता गोयमा ! तिथि जहाजोगणिय काय जागनिध्वती, एवं जाव वैमाणिया जस्स जविहो ओगो। " ज० ९६ ० ० ० । जोगत्तिय योगत्रिक-न० । कृतकारितानुमतिरूपे व्यापारत्रिके,
दश० १० अ० ।
भोग दिट्टि योगदृष्टि-स्त्री० । योगजप्रातिभज्ञाने द्वा० १६ द्वा० मित्राssदिकायां योगदृष्टौ च । ० १ अधि० ।
सामंगतो बोधो दृष्टिः सा चाटोदिता ।
मित्रा तारा बला दीप्रा, स्थिरा कान्ता प्रभा परा ||२५|| सध्या शास्त्राद्यभिप्रायप्रसद्द्दक्षा संगतो बांधो दृष्टिः, तस्या उत्तरोत्तरगुणाऽऽपानद्वारा सत्प्रवृत्तिपदा हवात्तकम-"सच्छ्रद्धा संगतों बोधो, राष्टिरित्यभिधीबताघात-सत्प्रतिपदा
"
35
१
इति । सा चाष्टोदिता-मित्रा, तारा, बन्ना, दमा, स्थिरा, कान्ता, प्रभा, परा चेति ॥ २५ ॥
गोमकाष्ठाग्नि-करणदीपप्रजोपमा ।
रत्नताराना, क्रमेणेवादिसभिजा ||२६|| मित्रोमा नयनोऽभएकामा स कृप्रयोगकालं यावदनवस्थानात अल्पवीर्यतया ततः पटुस्मृतिजाराचानानुप से विकल
नादागादिनि ताराष्ट्रियमाणस श्यमयुक्त कल्व, ततो विशिष्ट स्थतिवीर्यविकलत्वात्, अतोऽपोलि
1
इतथा कार्याभावादिति। बलाग्निकणातुन्या ईपशिष्टोधयात्रामा
प
प्राया स्मृतिः इह प्रयोगलमये, तद्भावे चार्थप्रयोगमा प्रीत्या बनतेश भावादिति । दीप्रा रसिदशी। विशिष्टतरोबोधत्रयात्। श्रतोऽत्रोद स्थितिची, तनपट्यपि प्रयोगस ये स्मृतिः एवं प्रयोग बन्दना तथा तिरिति प्रथमगुणस्थानककतावानिति समयः स्थिरा व निवाराध हि रञ्जनारसमानः, तद्भावोऽप्रतिपाती प्रवर्द्धमानो निरपायो नापरपरितापवत् परितोषद्धेतुः प्रायेण प्रणिधानाऽऽदियोनिरिति । कान्ता वाराऽऽना, वदवबोबस्तारामास्वमानः
जोगदिहि
अतः स्थिता निराचार
सार विशिप्रभासच विनियोगम्भीरोदारा 33शयमिति । प्रभा अर्काभा । तदवबोधस्तरणिनास्मानः, स
तुरं सदा ने प्रायो विश्वासरः मासु खमिद, अकिञ्चित्कराएयत्रान्यशास्त्राणि समाधिनिष्टमनुष्ठानं, दिनाशः परानुप्रदकर्तृना च
येषु तथा बन्ध्या सतुक्रियेति । परातु दृष्टिश्चन्द्राऽभाव बोधश्चन्द्रचन्द्रिकाभास्समानः, सद्ध्यानरूप एव सर्वाि पनि भाडामा सोनुष्ठानं प्रतिकमखाऽऽदि. परोपकारित्वं यथाभ कियेति तथा मेखमिवाधकमेवादि कुरलकक्कबगुड कल्पाः खल्वाद्याश्चतस्रः खण्डशर्करामत्स्यपचपलमाश्रिता याचावादिनामेव रुपयादिगोचराणां संगमा नलाविकल्पासंवाद २६ ।। माssदियोगयुक्तानां खेदाऽऽदिपरिहारतः । द्वेष दिगुणस्यानां क्रमेषा समता ॥ २० ॥ माया योगाङ्गा योगम्यमनियमासन प्रणायामप्रत्याहारधारणाध्यानसमाधयोऽष्टावङ्गानि योगस्येति" (२-२३) तैर्युकानां दाउदनग प्रोकानाप्रत्यनीकाणानां परियो येऽष्टौ गुणाः । तटुक्तम्- “श्रद्वेषो जिज्ञासा, शुभ्र्ग श्रवणबोधमीमांसाः परिशुद्ध प्रतिपत्तिः, प्रवृत्तिरष्टाङ्किकी तत्र ॥ १ ॥ इति । तत्स्थानां तत्प्रतिबवृत्तीनां क्रमेणैपा दृष्टिः सतां जगव स्पतजलि भदन्त भास्कराऽऽदीनां योगिनां मतेष्ठा ॥ २७ ॥
35
1
भायाः सापाय पाता मिध्यादृशमि तत्वतां निरपायाथ मिश्रग्रन्थेस्तयोत्तराः ॥ २० ॥ आधाश्चतस्रो मित्राऽऽया दृष्टयः, रह जगति, मिथ्यादृशां नवन्ति । सापायात तितुकर्म न ममावादपायसहिताय कर्मवैचित्र्याद् योगेन, सपाताश्च न तु सपाता एव, ताभ्यः नावादिति स्वामि प्रस्तावतः परमार्थना निरपाया अणिकानामेत दभावपाचकर्मसामध्ये हि तस्यावस्था सलोनाला तदाशयस्य कार्य:बनावेपिनुपपते, योगाचार्य पात्र प्रमाणम तदुक्तम्- " प्रतिपातयुतावाद्याश्चतस्रो नोत्तरास्तथा । सापाया अपि चैतास्तत् प्रतिपातेन नेतरा ॥२॥ " इति ॥ २८ ॥ प्रयाणनाभावेन निशि स्वापसः पुनः । विद्या दिव्यभवत धरणपोपजायते ॥ २ए ॥ प्रयाणस्य कान्यकुब्जा SSदावनवरनगमनब्रक्षणस्य, भङ्गाभावेन निःशरात्रौ स्थापनमा विता स्वर्गजन्मनः सकाशात्, चरणस्य चारित्रस्योपजायते ॥ २९ ॥ तादृश्यौदायिके जावे, चिलीने योगिनां पुनः । जात्र निरन्तरगति प्राया योगप्रवृत्तयः ॥ ३० ॥ तादृशि खर्गगतिनिवासयति श्रधिके जावे प्रशस्त रागादिरूपे, विलीने पुनर्योगिनां जाग्रतो या निरामयः प्रायायधियां प्रवृतो भवि
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(९६०) जोगदिष्टि अभिधानराजेन्द्रः।
जोगपिंड मोकपुरमाप्युपपत्तेः तथाविधकर्मरूपश्रमाभावेन, तदपनयनाथै | " चम्मयणपट्टे य, चिलिमिली धारए गुरु।" पट्टो योगपत्र सापसमस्वनावनाविलम्बादिति भावः ॥ ३०॥
इति । ध० ३ मधि। मिध्यात्वे मन्दतां प्राप्त. मित्राऽऽद्या अपि दृष्टयः। जोगपमिकमण-योगप्रतिक्रमण-न.1 मनोवचनकायव्यापारामार्गाभिमुखभावेन, कुर्वते मोक्षयोजनम् ।। १ ।।
जामशोभनानांब्यावर्तनरूपे प्रतिक्रमण भेदे,स्था०५०३ उ०॥ मिथ्यात्वे मिश्यात्वमोहनीये कर्मणि, मन्दतां प्राप्तेऽपुनर्बन्धक- |
नोगपर-योगपर-त्रि० । उत्साहपरे, पो०४ बिष। वाऽऽदिभावेन मित्राऽऽया अपि रष्यश्चततः किनः स्थिरा-जोगपरिणाप-योगपरिमाम-पुं० । योग पव परिणामो योगऽचा इत्यर्थः १. मार्गाभिमुखजावन मार्गसामुक्येन व्ययो- परिणामः । जीवपरिणामद, स च मनोवाकायदाविधेति । बतया मोकयोजनं कुर्वते, चरमाऽवतंभावित्वेन समुचितबो. स्था०८ ठा। ग्यतासिद्धेः॥१॥
जोगपिंग-योगपिएफ-पुंगयोगी वशीकरणाऽऽदिफलो कन्य. प्रकृत्या जनकः शान्तो, विनीतो मृरुत्तमः।
संयोगः । पञ्चा. १३ विव० । योगादजनाऽऽदेरवाप्तः पिएको मूत्रे मिथ्यागप्युक्तः, परमाऽऽनन्दभागतः ॥३॥ योगपिण्डः माना०२६०१०१ उ. योगः पादप्रलेपमत उक्तदेतोः, सत्रे जिनप्रवचने, प्रकृत्या निसर्गण, भरूको
नाऽऽदितत्प्रयोगेण सम्धः पिएको योगपिएमः। जीतकायदा मु. निरुपमकल्याणमूर्तिः शान्तःफ्रोधविकाररहितः,विनीतोऽनुद्ध
ग्यतोकान् सौभाग्याऽदिविवेपनराजवशीकरणादितिल केन तप्रकृतिः, मृनिर्दम्भः, उत्तमः सन्तोषसुखप्रधानः, मिथ्याग
जलस्पतमागोंद्वङ्घनसुनगदुलंगविधिमुपदिश्याऽऽदारं गृहाति, पि, परमानन्दभाक् निरतिशययोगसुखभाजनयुक्तः,शिवरा
तदा योगपिएकदोषः। युक्तकणे पञ्चदशे उत्पादनादोये, बर्षिवदिति ॥३२॥ दा०२० द्वा।( शिवराजर्षिचरित्रं सिव'
उत्त० २६ अपिंग। ध० । स्था०। पदे वक्ष्यते) ( मित्रा-तारा-बना-दीप्रा-स्थिरा-कान्ता
उत्पादनादोषाधिकारे योगहारमधिकृत्य-"पायलेवणे प्रभा-पराणां योगंरष्टीनां व्याख्यानं स्वस्वशदे कष्टव्यम)
जोगे " ति व्याख्यानयनाहबोगदुप्पणिहाण-योगदुष्पणिधान-न० । सावधप्रवर्तनालन
सोभगदोजग्गकरा, जोगा आहारिया य इयरे य। कायवाझ्मनसां प्रणिधाने, ध०१ अधिक।
अप्पत्थधूवचासा, पायपोवाइणो इयरे॥ पोगदुष्पणिधानानि, स्मृतेरनवतारणम् ।
योगाः सौजाग्यदौर्भाग्यकरा जनत्रियत्वानियत्वकराः। ते चद्धि
धा-पाहाः , स्तरेच। तत्रादार्या ये पानीयाऽऽदिनामहाज्य. अनादरश्चेति जिनेः, प्रोक्ताः सामायिके व्रते ॥५॥ बहियन्ते । तद्विपरीता इतरे। तत्राद्या:-प्राप्यर्थाः,धूपाचासाश्च । योगदुष्प्रणिधानात ते प्रक्रमात्पशातिचाराः सामायिक- ये पानी याऽऽदिना सह घर्षयित्वापीयन्ते ते प्राप्यधारा धूपावाप्रते जिनः प्रोक्ता इत्यन्वयः। तत्र योगाः कायवार- साः प्रतीताः। अथ चूर्णस्य वासानां च परस्परं का प्रति. मनासि, तेषां दुईष्टानि प्रणिधानानि प्रणिधयो दुणिधा- विशेषः, द्वयोरपि कोदरूपत्वाविशेषात् ? । उच्यते-सामान्यमानि, सावखे प्रवर्तनाल क्षणानीत्यर्थः । तत्रापि शरीरावय. काव्यनिष्पनः शुष्क प्रादों वा कोदः चूर्ण, सुगन्धयनिपानां पाणिपादाऽऽदीनामानभृतताऽवस्थापनं कायदुष
पत्राश्च शुष्कपचं पिष्टाः वासाः, इतरे वाऽऽहाया योगाः शिधानम । वर्णसंस्काराभावोऽर्थानवगमश्चापल्यं च वागदु.
पाइप्रलेपनाऽऽदयः। वि०। पणिधानम् । क्रोधलोनद्रोहाभिमानेाऽऽदयः कार्यव्यासः जे भिक्खू जोगपिंडं मुंजइ, लुंजंतं वा साइजइ ॥७॥ संभ्रमश्च मनोदुणिधानम् । ध० २ अधिः । ( पतेषां जो जिकातु जोगपिंक, मुंजेज सयं तु अहव मातिजे । सामायिकवतस्यातिचारत्वं सामाश्य' शम्दे वक्ष्यते)
सो प्राणा प्रणवत्थं, मिस्कृत्तविराहणं पावे ॥ १०४॥ मोगपच्चक्रवाण-योगप्रत्याख्यान-न । मनोवाकायानां व्या
पादलेवाऽऽदिजोगेहि भाउट्टे जो पिकं उपादेति, तस्स प्रा. पारो योगः,तस्य प्रत्यास्यानं परिहारो योगप्रत्याख्यानमा उत्त. णादी दोसा। निचू०१३ उ०। "असिवादिकारणेसु वा जो२४ा प्राणातिपातादिष कृतकारितानुमतिलकणानां मन:- गपिंडं उपाएज्जा ण दोसो त्ति।" नि०० १३ २० । प्रभृतिव्यापाराणां निरोधप्रतिक्षाने, न०१५ २०१००।
अत्र दृष्टान्तं गाथात्रयेण भावयतियोगप्रस्यास्पानफलं प्रश्नपूर्वकमाह
नइकन्द-चिन्न-दीवे, पंचसया तावसाण निवसति । जोगपञ्चक्खाणेणं ते! जीवे किं जणय । जोगपञ्च- पन्नदिवसेमु कुनबह, पाखेबुत्तार सकायो। खाणेणं अजोगितं जणय। अजोगी एंजीवे नवं कम्म जणे सावगाण खिंसण, सपिय खमाश् गण सेवणं । नबन्ध, पुचवद्धं निजरेइ ।। ३७॥
सावयपयत्तकरणं, अविणय लोए चलणधोए । भगवन् ! योगप्रत्याग्यानेन जीवः किं जनयति योगप्रत्या पमिलानिय वचंता, निब्धुम नकुल मिलण सपियाभो। ज्यानन अयोगित्वं जनयति-शोशीभावं भजति । अयोगी हि विमिदयपंचसया ता-वसाण पनज साहा य॥ लीवः चतुर्दशगुणस्थाने प्रवर्तमानो जीयो नवं कर्म न बध्नाति, "पृश्यां प्रतिष्ठं नगरं, सुप्रतिष्ठः क्षितीश्वरः । पूर्वबद्धं कर्म निर्जरयति, कपयतीति भावः। उत्त. २६ ।।
कृष्णा वेणा च वाहिन्यौ, तिष्ठतस्तत्रान्तिके ॥१॥ मोगपट्ट-योगपट्ट-न० । योगाभ्यासार्थे पट्टम । योगिधायें पट्टः ब्रह्मदीपस्तयोरन्त-स्तत्राऽऽसन् केऽपि तापसाः। सूत्रोंदे, वाच । गुरुणां धायें विशिष्व उत्तरपढेच । पुं० ।। वीव पादपेन, ते जनोपरिचारिणः ॥२॥
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जोगपिंड
जोगवं
जोगमग योगमार्ग - ५० योगसूत्रमिदं परमं सर्वस्य हि योगमार्गस्य ।" बो० १५ विव० । अध्यात्मशास्त्रपथे च । पञ्चा० १६ विव० ।
जोग मुद्दा- योगमुषा श्री० हस्तविन्यासविशेषा मुद्राभेदे, संघा० १ प्रस्ता० ।
योगमुद्रायाः स्वरूपमाह
अमोंतरि अंगुलि - कोसाकारेहिँ दोहि इत्येहिं ।
पिहोरि कोप्परसं ठिएहि तह जोगमुदति ॥ १५ ॥ अन्योन्यन परस्परेन भन्तरित व्यवहिता कशा खातो तथा तो. कोशकारी व कमलकोरफडी जयजोटनेनान्योऽन्यान्तरितानिकाशाकारी, ताभ्यामद्वाभ्यां दस्ताभ्यां कराभ्यां करणभूताभ्याम् पुनः किन्तायां स्व उदरस्य उपरि ऊर्द्धभागे, कूर्पराज्यां कुदणिकायां संस्थितौ व्यवस्थितौ यौ तौ तथा ताभ्यां पेट्टोपरिकूरसंस्थिताभ्याम् । तथा तेन प्रकारेणाऽऽचर लगम्येन, श्रयवा - पञ्चाङ्गप्रणिपा सापेक्षया समुच्चयार्थता योग हस्तयोजनविशेष समाना मुद्रासविशेषविशेषइनसमर्थो योगमुद्रा, भवतीति गम्यते । इतिशब्दो योगमुद्राअणसमाप्तिसूचकः, उपप्रदर्शनाथों या इत्येयोग
जोगबुट्टि - योगवृद्धि-स्त्री० । सम्यग्दर्शनाऽऽदि मुक्तिबीजोत्कर्षे, मुद्देत्यर्थः । इति गाथार्थः ॥ १९ ॥ पञ्चा० ३ वित्र० । दर्श० । योगया कि कर्णव्यमश्वादयो० बि० ।
पानी हो जोगमुद्दा (१७)
जोगभास - योगाज्यास पुं० । योगो ध्यानं, तस्याभ्यासः परिचय योगाभ्यासः । ध्यानपरिचये, पो० । योगाभ्यासमाहस्थानांम्पन तदम्ययोगपरिभावनं सम्यक् । परतच्च योजनमलं, योगाभ्यास इति तच्चविदः ॥ ४ ॥ कथयनेनेति स्थानमासनविदापरूपम कार्यास पर्यबन्ध नासिक प्रशासनिक का अर्थः शब्दस्यानि
दिनमाम्यनादम्यः सद्विरनिस्वरूप
(१६४१ ) अभिधानराजेन्द्रः ।
परादिशी।
वातस्ततो लोकः, कुजिताः श्रावका श्रपि ॥ ३ ॥ आसामपरे धर्मा जिनधर्मोऽपि यते । सदाऽऽसमिताचार्या, तंत्रयुजमा तुलाः ॥४॥ श्रीगुरोराज्य भीतः। प्रमितानां प्रबोधाय, शिक्कां तस्य ददौ रहः ॥ ५ ॥ सोऽथ गत्वा प्रज्ञाते तानू, भौतान् सर्वानमन्त्रयत् । इटास्तेऽच्चरित्रेण ॥६॥
अथानीय गृन् पादशीचे कृतोद्यमः ।
स तैर्निषिध्यमानोऽपि, भक्त्यैवाक्षालयत् क्रमान् ॥ ७ ॥ धौनाथ पादुकास्तेषां व भोजास्ततः ।
मथानुवजनं श्राद्धाः, अकालय इव व्यधुः ॥ ८ ॥ नद्यां प्रात्प्रविशस्ते, बुरन्तस्तारकै धृताः । तदेत्युच्चैर्जना ऊचु· मुष्टाः स्मश्वद्मतापसैः ॥ ६ ॥ रात्राऽऽचायांस्तदाऽऽयाताः योग किया नहीं जगुः । एहि पुत्रि ! यथा यामो वयं परतरं तत्र ॥ १० ॥ मिश्रितोद, सर्वेषामपि पश्यताम् । जग्मु-लोकः सर्वोऽपि विस्मितः ॥ ११ ॥ गुरवः परतो तापसाः प्रतियुकारते तेषां प सेता साधवोऽभवन् " ॥ १२ ॥ अ० क० ।
ક
स
विषयः प्रतिमाइति यावत्। परि
वर्णाश्वासयत भावनं सर्वतोऽज्य सम्यक् समीचीनं परं तवं योजयतीति परतत्त्वयोजनं, मोक्षण योजनात, अनमत्यर्थम्, योगस्य योगाङ्गरूपस्य ध्यानस्य वाऽभ्यासः परिचय योगाभ्यासः, 'इति' इत्थं, तस्वविदोऽविदन्ति । कथं पुनः स्थानाऽऽदीनां योगरूपत्वं, येन तत्परि नावनं योगाभ्यासी जवेत् ?। उच्यते-योगाङ्गत्वेन, योगाङ्गस्य च शास्त्रेषु योगरूपताप्रसिके हेतुफलभावेनोपचारात् । योगाङ्गत्वं तु स्थानानां प्रतिपादितमेव योगशास्त्रेषु यथोक्तम्" यमनियमाssसनप्राणायामप्रत्याहारधारणाध्यानसमाधयोऽष्टाव - ङ्गानि । " ( २- २७ पातञ्जल योग० ) ॥ ४ ॥ षो० २ विवः । जोगजंग-योगभग पुं० धानस द्विविधा । श्रुतोपधानभङ्गे, च सर्वभङ्गो, देशभङ्गश्च । व्य० ४३० । द्वा० । नि० । (योगभङ्गे प्रायवित्तमरियापविशब्देभा १९६२ पृष्ठेय्यम ) जोगजाविवम-योगजाक्तिपति त्रिधर्मव्यापारविशेषा"पात जोगभावियमणं " योगभावितां धर्मव्यापारविशेषवासितधियामिति । पञ्चा० ४ चित्र० ।
स्तवपाठः शक्रस्तवाऽऽदिपतनम, भवति, कर्तव्य इति शेषः । कथा इत्याह-योगमुद्रा प्रदर्शिता ननु प तुर्विंशतिस्तवाऽऽदेरेव पाठी योगमुद्रा विधेयांनतु शक्रस्तवस्य तर्हि किमर्थ समाकुञ्चितयामजानुर्भूमिविन्यस्तदक्षिण जानुलाटपटेकरकुमः योति जीवाभिग मादिष्यनिधीयत इति । केवलं नानन्तरोकविशेषणयुक्त एव तं पठतीति नियमोऽस्ति, पर्यङ्काऽऽसनस्थः शिरोऽधिनिवेशित करकोरकस्तं पचतीत्यस्यापि ज्ञानाधर्मकथा • सुदर्शनात् तथा हरिमा बाणा वैश्वयन्दन" तिनिहितजानुकरतलो भुवनगुरौ विनिवेशितनयनमानसः प्राणपठति इत्यस्य विध्यन्तरस्याभिधानात्। ततोऽ रूप पांडे विविधविधिदर्शनात्सर्वेषां च तेषां प्रमाणग्रन्थोसत्येन विनयविशेषत्वेन निषेक्त्या योगमुद्रयाऽपि शक्रस्तवपाठो न विरुध्यते, विचित्रत्वान्मुनिमतानाम् । न चैता - नि परस्परमतिविरुद्धानि सर्वेरपि विनयस्य दर्शितत्वादिति । पञ्चा० ३ विव= | प्रव० । दर्श० । सङ्घा० । जोगरहिय योगरहित जि० सम्यगत योगां इदने तदात्मके सुत्रदोषभेदे च । न० । ध० ३ अधि० । जोगलोयण योगझोचन त्रिοयांग पो यस्य । - - एव लोचनमति योगबलेन यथावस्थित वस्तुपरिज्ञानवति, यो० बि० । जोगवं योगत्त्रयोजनं योगा द्वान् अतिशायने मनु व्यापारयति योगः समाधिः सोऽस्यास्तीति यो गवान् । प्रशंसायां मतुप् । समाधिमति, उत्त० ११ श्र० । संयमाऽऽदियोगवति च । तुत्र० १ ० २ ० १ ० ।
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(१६४२) निधानराजेन्द्रः ।
जोगवढ्य भोगवह
योग हनन० योगदने सेगा योगीइहनं कृत्वा साधवो द्वादशाङ्गीं पठेयुः, किं वाऽन्यथा वा ?, इति प्रश्ने, उत्तर-प्रापजेयुः कदा चिकेनवियोगापति शाह
ते तदपि कर्तव्यम आगमध्यवहारिकृतत्वात् । यत श्रागमव्यवहारी यथा लाभं जानाति, तथा करोतीति । ११६ प्र० । सेन०४ उल्ला० । भोगवादि (ए) - योगवाहिन् योगेन पहल पनि पार
दे. कारनेदे च । वाच० । श्रुतोपधानकारिणि, स्था० १० ठा० । भ० । ० ( एतद्वक्तव्यता ' जोगविहि' शब्दे १६५५ पृष्ठे वक्ष्यते ) योगेन समाचिना सर्वानुत्सुकरलकन वह स्वंगीलो योगवाही । समाधिस्थावितरि, स्था० १० ठा० । योगबिंदु-योगबिन्दु पुं० योगरूप मोक्ष देतोरनुष्ठानस्पि रवयवो योगबिन्दुः । योगावयवे, योगावयवानां प्रतिपाद के श्राचार्य हरिभद्रसूरिविरचिते स्वनामख्याते प्रकरणग्रन्थनेदे ख । यो० बि० ।
तस्य वेदनखाऽऽयन्नविनिर्मुक्तं शिवं योगवन्दितम् । योगबिन्दु वच्यामि तवसि महोदयम् ॥ १ ॥ नवनिमादिभाव अन्तःपर्यवसानं विनिर्मुक्तं विरहितं किम ?, इत्याह-शिवं सकलोपप्लव कलाबिकसं देवताविशेषम् । कीदृशमी, इत्याह-योगीन्द्रवन्दितं गणध रादिनानुदिननस्कृतम्। किम इत्याह-योगचिजुन योगस्प
देखोस् बिन्दु योगबिन्ततिपाद कला प्रकरणमयोगविदुरुते ततो योगबिन्दुनाम करवानि अनिमम इस्पद तस्यसि आत्माऽऽदितस्त्रप्रतीतिनिमित्तम्। पुनरपि कीदृशं योगबिन्दुम इत्याह- महोदयं महान् प्रशस्य उदयो निःश्रेयसाभ्युदयसंसिद्धिरूपो यस्मात् स तथा तम् ॥ १ ॥
पुनरपि कीदृशं योगबिन्दुम ?, इत्याहसर्वेषां योगशास्त्राणा-मविरोधेन तत्त्वतः । सभास्थापचैव मध्यस्यास्तद्विदः प्रति ||२|| सर्वेषां गताऽदेवणीत योग शाखाणा मध्यात्मप्रधानाम् विरोधेन तदपर्यालोचनेन न पुनः येनाचितस्य प्रतिदर्शनम अन्यथाऽन्ययात्र स्वात्पशान्तवाहितासं विषभागपरियम शि वयमं वादे, योगिभिर्गीयते ॥ ॥ इति तथा सा अन्वयव्यतिरेकगुरू युक्तिरूपया स्वापक्रम संपादन प्र तिष्ठाकारि सर्वेषामेव चैइति समु गशास्त्रकाराणां निजनिजम तात्यन्तानिनिवेशेन विप्रतिपन्नत्वास्वयं सर्वयज्ञात्राणां संस्थापकमिदं प्रकरणं स्वातः इत्याशयाऽऽह मध्यस्थान् स्वदर्शनरागपरदर्शन द्वेषयो मैध्यनागवर्तिनः, द्विदयोगप्रति इति स्वदर्शनं प्रत्यम यमेषु श्रोतृपु वस्तुस्थापनायोगात् तथा चोक" घाग्रही बत निजीपतियुक्ति, तत्र यत्र मतिरस्य निविष्ठा पक्षपातरहितस्य तु युक्ति-यंत्र तत्र मतिरेति निवेशम् ॥ १ ॥ इति । श्राद्यन्तवि निर्मुकमिति व विशेषणं शिवसन्तानापेकम् । न पुनरेकः कश्चि दनादिशुरूः शिवः समस्ति तस्य शाखान्तरे महता प्रबन्धेन प्र
जोगविढि
तिषिद्धत्वात् । अत्र च नत्वा शिवमित्यनेन विनापोहहेतुः शास्त्रयोगविदुमत्यनेनार्थमभिधेय
म
तर सिद्धय इत्यनेनानन्तरप्रयोजनम् महोदयमित्यनेन तु परम्प राप्रयोजनमनिहितम् । श्रभिधानाभिधेयलक्ष गश्च संबन्धः स्वयमेव वाच्य इति सर्वेषां योगशास्त्राणामविरोधेन इत्युक्तम् ॥२॥ यो० बि० ।
अथास्य योगशास्त्रविरचनस्य प्रयोजनमुकारस्थानं स्वनाम व सूचयन् शास्त्रकार इदमाह
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स्वल्पमत्यनुकम्पाथै, योगशास्त्रमहार्णवात् । आचार्यहरिण, योगबिन्दुः समुद्धृतः ।। ५२ ।। स्वल्पमयनुकम्पा तुमतिजनानुग्रहाय योगशास्त्राच तत्तत्तन्त्रान्तरप्रसिद्धानि महार्णषो महासमुद्रः, तस्मात् । श्राचा• हरिभद्रेणेति शास्त्रतो नाम मियादयःसमु द्धृतः पृथककृत इति ॥ ५२५ ॥
अथ शास्त्ररुदेवप्रणिधानमाडसमुपार्जितं पुण्यं यदेनं शुभयोगतः ।
पायविरहात तेन, जनः स्तायोगझोचनः ||२६|| समुत्यारस्थाना विसंवादेन पृथक्कृत्य अर्जितमुपा पुरा कर्मरूपम एनं योग परोपकारकापारात प्यारामोह संसारान्यभावस्य परिद्वारेगा, तेन शुभकर्मा, जनो भवलोकः स्ताप इति आह-योगोचन:-यथातिवस्तुपरिज्ञानायक ओम स तथा । विरह इति च जगवतः श्रीहरिजसूरेः खप्रकरणाङ्कप्रद्योतक इति । यो० बि० । जोगवियोग विशुद्ध १० निरवयव्यापारे " उन जोगविसुद्धा | पञ्चा० १८ विव० । जोगविहि-योगविधि - पुं० । योगविधाने, पो० १३ विव० । उपधानवहनं विना श्राद्धस्य, योगोद्वहनं च विना साधोः स्वत्वविताच्यवाचनादिकमधर्म इति स्थित यो गाकराणि चैतानि -" तिर्हि ठाणेहिं संपन्ने अणगारे श्रणाइअं श्रणवदां दीमद्धं चाउरंत संसारकंतारं वीतं । त्रपजा । तं जहाअणि विजोगवाहिलाए" इति स्था मातृतीयस्थाने तथा सजाँया आगमेसि भद्दगत्ताए कम्मं पकरिति । तं जहा श्रणिदाणयाए, दिट्टिसंपजगदादिया अमाइल्लयाए, अपासत्यवार, सुसामन्नत्ताए, पवयण्वच्छल्ल याए, पचयउभावण्या । " इति स्थानाङ्गदशमस्थाने | तथा"यावती माई अकऊडले विवि
जगायचं (25 गाथा) तथा कोमाणे अ, मायालो भए । पसंतचित्ते दंतप्पा, जोगवं उवहा
॥इति चतुराभ्ययने तथा-"अनि सिहाण शिसमा द्वात्रिंशदधिकारे तथा-"नाणं पंचा- श्राभिणियोदिना जाव केलणाणं तत्थ चत्तारि नाणारं उप्पाई उज्जाई णो उद्दिसंति, णो समुद्दिसंति, णो भगुप्तविजंति, सुचना णस्स च देसो १, समुदेलो २ मा ३, मलुओगो ४ पवत्तर | इत्या चतुयोगद्वारे देशादिकरणं च योगस्यैवेति कर्तम्पता ।
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(१६४३) जोगविहि प्राभधानराजेन्धः।
जोगविहि एवं कालग्रहणाऽऽदिविधिरप्युत्तराध्ययनाऽऽदिगतो द्रष्टव्यः। उ-| बुष्टिमए सत्तघरमंतरगए य अहोरत्तं । महियाए रोचुट्ठीपधानं च यद्यस्मिन्ननादो भणितं,तत्तद्विधिश्च योगविधिप्रतिपा
ए महाकलहे आसने पुरिसाणं इत्यीणं वा जुज्कधूदकग्रन्थतो शेयः । कासक्रमच आचाराङ्गाऽऽदे त्रिवर्षाऽऽदिपयो
लिमाश्महे गाढपलीनणे जच्चिरं दमिए कासगए ठवियों यःसूत्रोक्तातल्नबनेन ददतस्तु प्राज्ञानताऽदयो दोषा एव । स च कासो यथा
जाव असमंजसं, ताव मसकानो। निरंतर बुव्वुयवुडीए " तिरिसपरिमागस्स उ, आयारपकप्पणाममज्जयणं ।
तिन्हं, सामन्नधाराए पंचएई, फुसियमित्ताए सत्तएहंदिचनवरिसस्सब सम्मं, सुगडं नाम अंगं ति॥१॥ पाणं परेण आजकायभावियं ति निन्नमासं असज्जाओ। दसकप्प व्यवहारा, संवच्छरपणगदिक्विअस्सव ।
बसही पुण गीयत्येण उजयकानं दन्नाइएहिं सोहिगणं समवायो ति अ, अंगाई अट्रवासस्स ॥२॥
यब्बा-तत्थ तेरिच्चं सोणियपंसचम्पअहिरूवं प्रणदसवासस्स विवादा, एकारसवासयस्स य श्माओ । खुडिअविमाणमाई, अज्जयणा पंच णायवा ॥३॥
धियं सत्तहहत्थऽनंतरे पमएकालानो पोरिसितिगमसयारसवासस्स तहा, अरुणुववाया पंच अज्झयणा ।
काभो । सोणियं पुरण चूमिपमियं उहि न कप्पइ । तेरसबासस्स तहा, उधाणसुभाइथा चनरो॥४॥
मंमे पुण बहि धोए अंतो पक्के कप्पइ । अंडए निवे चउदसवासस्स तहा, पासीविसन्नावणं जिणाविति ।
गवाइपस्याए तहा जराए पमिए तहेव पोरिमितिगमपम्मरसवासगस्स य, दिछीविसभावणं तह य ॥५॥ सोमसवासाईसु य, एक्कुत्तरवट्टिएसु जहसंखं ।
सज्जाओ | विरालाइणा महाकायमसगाइगहिए अंतो चारणभावणमहसुवि-भावणा तेप्रगनिसग्गा ॥६॥
सहित्थस्स अहोरत्तमममायो । दगवाहेण वढे अग्गिणा पगूणवासगस्स उ, दिछीवाश्री दुवालसममंगं ।
दछे परियावन्ने विवन्ने गिलिप्रोग्गिझिए उभयनिग्गतेसु पुण बोसवरिसो, अणुवाई सवसुत्तस्स" ॥७॥ इति ।।
मसगरवाहिए हंतरिए य न असज्कामो, माणुस्सए भावश्यकाऽऽदेस्तु योगोद्वहनोत्तरकाल एव काल इत्यवसेयम्।
वि नवरं हत्थसए तिसु अहोरत्तं । अहिए पुण वारस ध०३अधिक।
बरिसाणि। दंते नढे पयत्तेण गनिटे अदिखे तस्मोहडावअहुणा सेससाहूणं जोगविही वियाहिज्जा । तत्य पढमं
___णहूं अट्ठस्सासो उस्मग्गो कीरइ । इत्योए मासाविए कालग्गहणविही जमा-"दिण १ वसहि कालवेला
महाउपत्ताए तिनि दिणाणि भमकानो; परो तहा ३, दिसि सोही एकालविहि ६ समक्खाया।
पावासुयाए वसवेहिं पन्नवियाए अणत्यंताए तहेव काजसम्झायप्पटवणं ,वृच्छामि जहागमं सुगम"॥१॥ दारं ।
सग्यो । पसूयाए. कबडए जान सत्तदिणे, कवीच्याए पुण तत्य चित्तस्स आसोयस्स य मुक्कपंचपाए, आसाढस्स | अहदिणं, जगदलाइएसु बाहिं धोइयनइखयगाढवंधिए न कत्तियस्स य सुक्कचनद्दमीए य मज्झएहाम्रो पारन्न असज्झाइयं । तह विगलंतेहिं तिनि बंधा कायदा। पमिवयंतेमु दिणेसु लामेसु पुण सावणपुस्लिमाए महा- अणाहमडए बाहिं नीणियमित्ते विसुजाइ । अमझायं ति का कानग्गहणं-अज्झयण नसाइयं ण "रुद्दाइगिहमुसाणे, असिवोमाऽऽयाऍ बार परिसाणि । कीर, जगवईवज्ज जोगा य ण पिक्खिप्पंति । चित्तसु- अमझाइयं च रुहिरे, मच्छियपामो जहिं खुप्पे ॥१॥ कएगारसीग्रो पारन्त पुनिमंतेमु दिवसेसु अचित्तरज- सकाइऍालोए, कालाईए अणुचरण कुज्जा। श्रोहमावणत्यं पडिक्कमणाणंतरं चउजोअगरं चिंतयमाणो घाणामृत्तपुरीमे, चिलिमिलि अन्नत्य गम्मा ॥२॥" काउस्सग्गो कीर । अह न सुमरियं तो संवच्छरं जाव एवं मुद्ध दिवसे पच्छिमपोरिसीए सोहित्तु गुरुपुरो धूलीए पतीए अमझाओ। मूरगहणे मुक्के तं चेव अहो- वसहीए पवेश्याए श्रावस्सए कए फिमियाए कालवेलाए रत्तमसज्झाइयं, अमुकं तं चेब, अन्नं च । एवं चंदग्गहणे जहाकाले उस्सग्गेमु तिसु चरम वा कएमु कालो मज्जायस्स मुके सा चेव राई अमुक सा राई. अनं च अहोरत्तं ॥ घेप्पड़,नाहि वाघाइओकालो चित्तव्यो। अकरते पुण फिरणे यतः
अहरत्तिो , तइयपहानसमयए वेत्तिमो, तो वेरत्ति"मगह निबुरू एवं, सूराई जेण हुंतिऽहोरत्ता ।।
यसकायपहरणं । तस्सजायकरणकालं विलंबिय, जहा पाइन्नं दिणमुकं, सो चिय दिवसो य राई य" ॥१॥
खलियाइणा अट्ठवेनाइए कालग्गहणवेला, पमिकमणवेगंधवनगरादिसिदाहउक्काविजहि इक्विका पोरिसी अ.
लाय पहुच्चइ, तहा पानाइओ घेतब्बो । तहा तिम तिथि
तारगाओ ति पानाइए अदिखे विपासासु अतासकायो । गन्जिए दो पोरिसी। रविजयश्रद्दानक्खलामो
रगा चनरो उन्नम्मि चिट्टो वि कालग्गहणवेलाए आय. भाव साइयंता दस नक्खत्ता, ताव विज्जुगन्जिएहिं न अस
विज्जुगाज्जएराह न अस- रियस्स सहाइकहणविखेवाइणा वायणायरियभावे य झामो। धमहमिको य प्रदुप्पहरा । संसरुधिरपनि- कालम्गाहिणोमबयर ए हिंसाए निरावाद्वाप वपायार
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(१६४४) जोगविहि भभिधानराजेन्द्रः।
जोगविहि वित्त पढमकासकामस्सगं एयदिसाभिमुद्दो चेव करिति। इत्थं मत्थएण बंदामि । आवसी इत्यं आमज्जइ३, इत्यादि तं जहा-"पानसिअमहोरत्ते,उत्तरदिसि पुन पेहए कालं। नमो स्वमासमणाणमित्थं नाणिय कालग्गाहिसमीवे दक्खिवेरत्तियम्मि जवणा, पुचदिमा पधिसे काझे"॥१॥ णाभिमुहो चिट्ठइ । इत्य गंगकमरुएहिं दिटुंतो नायबो । कासग्गाही पुण पुरिसगुणजुत्तो कालं गिएहइ । जा दंम्वरेण महतसरेण घुटुं,तो जेण न मयं,तस्स कानो " पियधम्मो दधम्पो, संविग्गो चेवबजभीरू य। न दिज्जा, अहव एहिं न मयं, तो दंभधरस्म न दिनइ । खेयत्ते य अजीरू, कालं पडिझेहए साह" ॥१॥ तोकासम्गाही दमियासंमुहं मत्यएण बंदामि, आवसं। सामन्नेोण तान कालग्गहणविही जम्म
इत्यं प्रामज्ज३३,चाइ नमो खमासमणाणमित्यन्तम् । तो "कणगाहणं ति कालं, ति पंच मत्तेव सिसिरवासेसु । वणायरियममीवे खमासमणपुव्वं हरियं पडिक्कमड़, नमोउका उ सरेहा जा, रेहारहियो नवे कणगो" ॥२॥ कारं चिंतेड, पारित्ता नमुक्कारं भणः खमासमणाणं पुचि कणगो सन्नरहो, पगासविरहियो य । उका महंतरेहा, | पुत्ति पहिय वारसावत्तं वंदणं दान-इच्छाकारेण संदिमह पगासकारिणीय। अहवा-रेहाविरहियो विप्फुलिंगो पगा- वाघाइअकाललियावणियं इत्थं मत्यएण वंदामि | आवसी सकरो उका चेव । काले हिमाणे कालगाहिणो दंडध- इत्थं आसज्ज ३, नमो खमासमाणाणमिच्चाइणा कालमंम्ने रस्स वा बच्चंतस्स णियत्तस्स कालमियावणिया,कानस्स- जाइ दंमधरो, तस्संमुई दमियं धरेड, तो कालग्गाही ग्गो वा बंदणाणतरं संदिसावण पवेयणसमए वा पावा- तयग्गे ओहमिन मत्यएण बंदामि, इरियावहियं पमिकमिन सुयाई रुयंतेहिं अच्चायासेण रुयंति अजंपिरहिंजगेण जंपि- इत्यं इच्छामि पमिक्कमिनं रियावहियाए भणिन काउस्मकण अप्प्रेणावि वीसरसहरुयंतेण जीपाउित्तयविहसियनि- गे नमुक्कारं चिंता पारित्ता नमुक्कारं भणिय मंमासए पमिकुरपहरणरोसाविसस हि सिद्धिमारिहच्चाइ अणिट- लेहिय दो वि उवविसंति । तो कानग्गाही दाहिणचलणोविसरण चञ्चउविहम्मति सव्वत्थ जोइहिखलियाइएहि वरि संबकं कानमंम्ने रयहरणं प्रविय मुहपुर्ति उवरि कार्य च नएदविओपाभाइओ पुण नवहोक्किममले तिनि वारे | च पहिय वासहयोग कालमंगलं संघट्टिय दाहिणहघित्तुं कप्पइ । अभावे पुष तहिं चेत्र नववेमा धिप्पर । इमि- स्थगहियरयहरणेण पाए पमन्जिय मुहपुत्तिं संगोविय णा विहिणा जइसदिनावणपुच्वं भज्जइ,तो मूलामो धिप्पइ।। दाहिणजंघमूले रयहरणं वामहत्येण निवासिय रयहरगादमा संदिसावणाणंतरं वच्चंतस्स काझममन्नस्स पमिहणाणं- सियाहिं दाहिणहत्यं तिषिवारे हिटोवरि संघट्टिय कालतरं पुर्व वा जज, तो एमेव नियत्तियकालगिएडवो उव- मंगलमंमियकयसंपुमहत्थगंगुट्टएहिं नासाए दाहिणपायरियसपीवे खमासमणपुव्वं संदिसावणविहिष्णा काम- कन्ने वा तिनि वारे उपयोग करिय हिटोवरि दोहिं मंझनं आगच्चइ। अह काममले पमिहणाणंतरं कालका- | हत्थेहिं एगंतरियं तिनि वारे आवत्तेण नूमि परामसिउस्सोण काउस्सम्माणंतर कासमंझले वियस्स तो तत्थेव य दाहिणहत्यगहियरयहरणेण कालमंमलहियवामकविमो षणायरियसमुहं गऊण पंचंगखमासमणपुलं रंगुट्ठअंगुलीणं अंतरे निन्नि वारे पमन्जिय वामजाणुणा संदिसाविय पुणो मृमानो काउस्सग्गं करे । प्रहका- कालममन्नं संघट्टिय दंडधरहत्थाओ दंमियं गहिय पेहिलकानस्सग्गाणंतरं गच्चतस्स पवेयणसमए भजइ, तो य कमीए निवेसइ । एवं तिन्नि वारे पुत्तिहणपुव्वं मेंमन्नामो घिप्पइ।
डलं पमिटेहिय दमियं नमोकारपुवं दंमधरकरे समप्पेइ । विसंसेण कालग्गहणविही जमाइ-तत्थ पाउमिए पढम तमो दोहिं हत्थेहिं कालमंमयं संघट्टिय हत्येसु पाएम कानभूमि पमन्जिय दक्खिापदिसाए उवणायरियं ठवि. समग्गनाइतो निसीही नमो खमासमणाणं ति जणतो त्तु कालग्गाही दंमियाहत्यवामपासहियदंपरसमीचे स्व- कालमंडले पविसइ, चोलपट्ट पमिलेहेद, सागारियस्स जावे मासमणपुछ जग-इच्छाकारेण संदिस्सह वाघाइ- नछो होऊण रयहरणेणं तं पमजिय जणइ-वाघाइकाकालपमियर, इत्यं मत्थएण बंदामि । पावसी इत्यं ललियावणियं करोमि काउस्सग्गं, अन्नत्थूससिएणं जाव श्रासज ३, निसीह १ पासज्ज ३, निसीही भासज्ज वोसिरामि । कासग्गाहे नहिए दंम्बरो वि उछो होकण ३, निसीहीनमा खमासमणाणं भणिय कालसगासे दो वि भणइ-इच्छकारि साहवो ! जबनुत्ता होड । बाघाश्यकालं चिट्ठति । तमो दंडधरो दिमाऽऽयोयं करिय इत्यष्ट्रियदमिया- वाचट्ट, दंडियं तस्म रजे धरड, अभिक्खणं कालग्गाहिस्स ममहंमत्यएण बंदामि। श्रावसी इत्थं इच्चाइ नमो खमा- पाए पमज्जइ य, इयरे कानस्सग्गे नमुक्कारंचिंतिय सणिय समणाणं नणिय वाणायरियमीचे खमाममणं दाउं एवं वाहाओ सपाहटु रयहरणसाणाई मुह पुत्तियं मुहे दानं सभणइ-इच्छाकारेण संदिसह वाघाइयं च कालं वाचा. । चाविसस्सासं चउवीसं ययं चिंते । तो उमाफियं
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जोगविहि अभिधानराजेन्डः।
जोगविहि सामन्नपुब्बियं अज्झयणे, तइयज्झयणस्स सिझोगं च।। "जोगिगुणा?जोगुक्खिव२, सुयअंगुद्देसऽणुन्न नंदीय ॥ एवमुचराए चिंतिय पुनाए दाहिणाए पच्छिमाए चिंतेड़, जोगाण्डाणविही ४, कप्पु ५ संघट्ट ६ निक्लेवो ७।। पुणो उत्तराए बाहाम्रो अवज्ञविय नमुकारं चिंतेइ, पारिता
तत्थनमुक्कार कत्तिा मत्यएण वंदामि आक्सी इच्छ इन्चावि- गुरुजतो अपमत्तो, खतो य निरुयगत्तो। हिणा ठवणायरियसमीवे पवेसिय खमासमणपुव्वं शरियं धीरचित्तो ददसत्तो, विणयजुतोजनाविरत्तो ॥शा पमिक्कमइ; काउस्सग्गे नमुक्कारं चिंतिय नणित्ता य खमा- जियमोहो जियनिहो, हियपियमियर्जपिरो मिउ असत्यो। समागपुर पुत्ति फेहिय बंदणं दानं इच्छाकारेण संदिसह अप्पाहारो अप्पो-वही य दक्खो मुदक्खिन्नो ॥२॥ वाघाइअकालं पवेमिन, इच्छं खमासमण इच्छुकारि साहको पंचसमिओ तिगुत्तो, नज्जुत्तो संजमे तवे चरणे । बाघाइयकालो सुज्झइ । जगवन् ! सुद्धो वाघाइयो कालो परिसहसह होइ मुणी, विसेसओ जोगवाहिति ॥४॥ मुच्चो । तओ मंगलाइसज्झायं करति । दमघरोखमासमण- कयसोहिलोयकम्मे, तिवासपरियाइएण कामेण । पुव्वं भणइ-साहयो ! दिदमुयं किंचि पुच्छिए,मुछो कालो। भायारपकप्पाई, उदिसि कप्पई जुम्गो" ॥५॥ एवं अफरतियपानाइया वि विप्पति । केवलं तयभावे तत्य जोगा दुविहा-गणिजोगा, बाहिरजोगायोगणिजोमा पानाइए इलाकारेण संदिसह पानाइयो काबलिओ० विवाहपन्नत्ती, बाहिरजोगा उकालिया। उक्कालिया श्रावनाव मुफ त्ति जन्नइ । एवं मुझे काले पानाइप य सगाई। ते पुण संघट्टयं, कालिए सुसंघट्टयं । ते दुविहा
वाणायरियसमीवे गुरूहि समं खमासमण पुन्नं पुत्ति पे- आगाढा, अणागादा य । आगादा-नुत्तरज्जयणासत्तिहिय चंदणे दिन्ने साहको नणंति-इच्छाकारेण संदिसह कयाविवाहपन्नत्तीपन्हवागरणमहानिसीहाणि । प्रागाडा सज्झायं संदिसावि । गुरू भण-संदिसावेह । साहवो नाम-सव्वसम्मत्तीए अत्तरिज्जइ ति का आगाडेसु इति जणिय खमासमणं दाऊण जणंति-इच्छाकारण उत्तरज्जयणवजेसु माउवाणयं च इव । सेसा सब्ने असंदिसह सकायं पट्टविउं । गुरू जणा-पट्टवेह । साहको | णागादा । असम्मत्तीए वि कारणे दिणतिगाणंतरं - इच्छति नणात । तयो गुरूहि एनं चेच पट्ठाविए सब्ने तरज्जड त्ति गोसे पमिकमणाणतरं चूनियाए पवश्याए जणंति-सज्जायस्स पहावणियं करेमि कानस्सग्गमि- पमिलेहणाणतरं वसहीए पवेइपाए साहू नबनोगं कच्चाइ० जाव वोसिरामि । तो नमक्कारं चिंतिय सणियं रिय गंधे प्राणिय गो पुरमो पुत्ति पहिय खमासमणसणियं वाहाश्रो साहरु सत्तावीसुस्सासं चनवीमत्वयं पुग्न भणइ-६च्छकारि तुम्हे अम्हे जोगुक्खेवावणिय सुमफियं सामपन्नियं तस्यज्यणसिसोगं च चिंतिय देने वंदावेह । तमो सकत्ययं भणिय खमामपणपुग्नं बाहामो अवलंबिय नमुक्कारं चिंतिय पारिता नमुक्कारं जोगुक्खेवावणियं सत्तावीसुस्सासं कानस्सगं रजं जणिय बंदणं दानं गुरुं भण-इच्छाकारेण संदिसह स- करिय चउत्रीसत्ययं जणइ । कालिएस पुण गुरूहिं जोन
झायं पवेइ इच्छं पुणो खमाममाण पुव्वं जणा-इच्चकारि वाहिए सायपट्टविए जोगुक्खेवे कए सुयक्खंघस्स साहवो सज्झाओ सुज्कइ। भगवन्! मुछो सामो सुघो। अंगस्स नहेसे अणुन्ना य नंदी जवइ । तत्थ खमासमणपु. एवं साहू वि गुरुपुरओ सज्काए पवेइए सब्बे समगं स- वं अमुगसुयकावं, अंगउद्देसावणियं वा नंदिकावणियं जकार्य करिति । तो वंदणगं सज्झायं करिति । तो वंद- वासनिकखेवं करेह । एवं देवे बंदावेह । तमो वळूतिया णगं दाउं गुरूहिं वइसबगे संदिसाविए खमासमण पुन्वं बह- थुइहिं देवे वंदिय चारमावत्तं वंदणं देई । तो दो वि सणगे ठामित्ति भणिए इयरे वि तहेव करिति। पानाइय
नंदिकावधियं सत्तावीकृस्सासं काउस्सग्गं करिति, चउसमायं पुण तोज्जाव सुचत्ति जन्नइ । अत्रापि कुतस्व
वीसत्ययं भणंति । तमो गुरू नमुक्कारपुवं नंदि कसद । सा लिताऽऽदिनिःकालव्याघातः। एवं सुके सजाए पोरि
चेय-नाणं पंचाई पमत्तं । तं जहा-आनिणिवोहियनाणं, सिंजाव सज्माइत्ता उवणायरियसमीचे खमासमणपुर सुयणाणं, ओहिनाणं, मणपज्जवनाणं, केवलनाणं । तत्व इच्छाकारेण संदिसह सकार्य पडिकमिउं इच्छं समायप
चत्तारि नाणाई उप्पाई ठवणिजाई नो उदिसिज्जति, नो मिकपावधियं करोमि काउस्सग्गपिञ्चाड नयुक्कारचिंतणं,
समुद्दिसिजंति, नो अणुन्नविजंति, सुयनाणस्स उद्देसो जामंच एवं कालपडिक्कमणं पि पाजाइए पण पच्चिमपो
समुद्देसो नाणुरोगो य पवत्त । जसुयनाणस्स उद्देसो रिसीए पुणो वि सजायं पट्टविय करिय पमिकपिय कालो समुद्देसो नाणोगोय पवत्ताइ, किं अंगपविट्ठस्स उद्देमो पमिकमेयब्यो । अमुके पुण पानाइए अन्नो निकालो। समुद्दे सो अणुभाणुओगो य पनत्त १ । अंगपविट्ठस्स जा मुपमिजग्गियो पाजाइयठाये गएयलो ॥ दारं॥ ॥ नदेसो समुहेसो अणुन्नारामोगो परत्तद, अंगबाहिरस्स वि
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( १६४६ ) अभिधानराजेन्द्रः ।
जोगविहि
उद्देसो समुद्देसो नपुगो पवत्तइ । जइ अंगवाहिरस्स उदेसो समुद्देसो अणुमा आगो पवत्तइ, किं आवस्सगस्स नदेसो समुदेसो अणुभायोगो पवत्त, आवस्सगवडरित्तस्म उद्देसो समुद्देसो अन्नाणुओगो पबत्तई १॥ ४॥ जइ भवस्सगवइरिचस्स उद्देसो समुद्देसो अणुन्नाणु प्रोगो पत्रचर, कानियस्स वि उद्देसो समुद्देसो अणुन्नाणुओगो पत्रत्तइ । उक्कालियस उद्देसो समुद्देमो अणुमा आगो पवत्त, दसवेयालियस्स रायपसेोणियस्स जीवाजिगमस्स पावणाए महापत्राए मंदीर अणुओगदाराणं देविंदत्ययस्स तंडुलवेयालियस्स चंदाविज्जयस्म पोरिसिमंडलस्स मंडलिपवेसस्स गणिविज्जाए विज्ञाचरणविणिच्छियस्स जाणविभत्तीए मरण विजत्तीए प्रापविसोहीए संझणासुयस्स बीयरागसुयस्स विहारकप्पस्स चरणविद्दीए आउरपच्चक्खाणस्स सब्बेसि पि एएसिं उदेसो समुद्देसो श्रणुन्नाणुओोगो पवत्तइ । जर कालियस्स उद्देसो समुद्देसो - गुन्नाणुओगो पबत्तइ, उकालियस्स वि उद्देसो समुद्देसो
गुणा आगो पवत । नइ आवस्सगवइरित्तस्स उसो समुद्देसो प्रणुन्नाओगो पवत्तइ, कालियस्स वि ater समुदेसो प्रणुनाओगो पवन, कालियस्स वि उदेनो समुद्देसो अणुधाणुओोगो पवत्तर || २ || जइ कालिस देसो समुद्देसोअमाणुभोगो पत्रत्तर, दसवेयालियस्स रायपसेजियस जीवा निगमस्त पनत्रण ए महापनवणार नंदीए अणुओगदाराणं देविंदत्ययस्स तं पुनवेयालियस्स चंदाविज्जयस्स पोरिसमंडलस्स मंगलिपवेसम्म गणिविज्जाए विज्जाचरणविणिच्चियस्स जाणवित्जसीए मरण विजत्तीए आयविसोही संमेहणासुयस्त बीयरागसुयस्त विहारकप्पइस चरणविहीर उरपच्चक्खाणस्स सन्धेसि पि एएसिं उसो समुदेोषाणु योगो पत्रतइ ||६|| जइ कान्नियस्स उद्देसो समुद्देसो अणुत्राणुओोगो पत्रत्तर, किं उत्तरज्जया
प्पस्सववहारस्स इसिनासियाणं निसीहस्स महानिसीहस्स सूरपन्नतीए जंबूदीवपन्नत्तीए चंदपन्नत्तीए दीवसागरपन्नत्तीए खुड्डिया विमाणपविजत्तीए महलियात्रिमाणपविजत्तीए अंगचूलियाए बंगचूलियाए विवाहचूलियाए अरुणोववाए देविंदत्ययस्स [वरुद्योववायस्स] तंडुलवेयालियस्स चंदाविज्जयस्स पोरिसिपमन्नस्स मंडलिपवेसस्स ग पिविजाए विज्ञाचरण विपिच्छियस्स जाणविभत्तीए मर
विजत्तीए प्रायविसोहियस्स गरुझाबवायस्स घरणोत्रवायस्स बेसमणोववायस्त्र बेलंधरोववायस्त [देविंदोववायस्स ] उद्वाणसुयस समुद्वाणसुयस्स नागपरियावलियाणं निरयावलियाणं कपियाणं कप्पवसियाणं पुष्क्रियाएं पुफिरावलियाणं वन्हियाणं वन्दिदसाणं प्रासीवि
For Private
जोगविहि
सावणाएं दिट्ठीविसभावणाणं चारणजावणाणं महासुमिणभावणाएं तेयग्गनिसग्गाणं सव्वेसिं वि एएसिं उदेसो समुद्देसो नागो पवत्तइ ॥ ७ ॥ जइ अंगपविट्ठस्स उदेसो समुद्देसो श्रणुन्नागो पवत्तड़, किं प्रायारस्स सूयगमस्स ठाणस्स समवायस्स विवाहपन्नत्तीए नायायम्मकहाणं वासगदसाणं प्रतगमदसाणं अणुत्तरोवेवाइयदसाणं पण्डवागरणाणं विवागमुयस्स दिट्टिवायरस ससि पि एस उद्देसो समुद्देसो अणुणा ओोगो पवतइ ||८|| इमं पुण पट्टवणं पमुच्च इमस्स साहुस्स साहुणी वा अमुसुक्स्वधस्स गस्स च उद्देसो नंदी अणुन्ना गंदी वा पवतs, तो उनावसिय मंताणं सेज्जं वामदाणं; तो जोगवाही स्वमासमणं दाडं भणइच्चकारि तुम्हे मुगसुयक्खंधं अंगं वा उद्दिसह । गुरू नइ - उद्दिसामि । बीयखमाममणं संदिग्रह- किं जणामि ?| तर अमुगयसंधं गं वा उद्दिहं । इच्छामि अणुस हिं । गुरू जणइ - उद्दिष्टं उद्दिष्टं । खमासमणाणं इत्येणं सुत्तें प्रत्थणं तदुभए जोगं करिज्जाहि । चनत्थे तुम्हाणं पवेयं साहूणं पवेयमि । पंचमे नमुक्कारेणं पयक्खिणाई, एवं तिन्निवारा । छट्ठे तुम्हाणं पत्रेइयं साहूणं साहूणीं पवेइयं संदिसह-काउस्सग्गं करोमे । सचमए मुगसुयक्खंधअंग दिसावणियं करेमि काउस्सगं इत्यादि सत्तावीसुस्सासचिंतणं चचवी सत्यय भणनं । एवमणुन्नाए वि; नवरं सम्पं धारिज्जा, अन्नेसिं च पविज्जाहि । समुदेसे पुण थिरपरिचियं करिज्जाहि । सुयक्खंधे उद्दिट्ठे तस्स अजयलाई उदिसिय अज्जयतं उद्दिस्सिज्जइ । तं तिविहं एगसरं, समुदेसं, बिसमुद्दे च । एगसरं नाम - उद्देसगरहियं । समुद्देसं विहं- दुउद्दे, चक्क उद्देसगं । विसमुद्देसं-तिगपणगउद्दसं । तत्थ एगसरं श्रज्जयणं उद्दिसिय समुद्दिसिय तिविद्देण संदिसाविय खमासमणपुत्रं गिरहामि ति यि खमासमणदुगेण कालमंगलं संदिसावेमि, पमि - हिस्सा मि० खमासमणदुगेण वइसणए गमि, तो वंदणं दानं अज्जयणमणुन्नत्रिय खमासमण 5गेण कामं संदिसावेमि, पडिलेहियस्सामि, खमासमणदुगेण सज्जायं पडिक मिस्सामि, तिविहेण वि बसणं संदिस्सावेमि, मिले हिस्सामि, [खमासमणदुगेण सज्जायं पमिक्कमिसामितिविज्ञेणविवमणं संदिस्साचेमि, पमिने हिस्सामि, स्वमासमणदुगेणं सज्जायं पडिक्कमिस्सामि, ] तिविज्ञेण वि बसणं संदिसाविय खमासमण डुगेण बइसलए ठामि तो बंद दारं प्रयणमपुन्नात्रिय खमासमणदुगेण कालमंगल० खमासमा० सज्जायं पडिक्कमामि, खमा
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जोगविहि अनिधानराजेन्द्रः।
जोगविहि समणदुगेण कासं पमिकमामि, तो वइसणाचंदणं । एवं दो सफाया कालमंडलाणि य पच्छिमपोरिसाएंवरं एगसरे तिन्नि काउस्सग्गए एगं दिणं दुउद्देसजायणा वि करिज्जा, अह न पहविजा, नो कयं पि अणुबंदणं दानं अजयणमुद्दिसिय पढमुद्देसए बीयन(सोन- हाणं मूसाओ उच्छिज्जा, वाघाइयकाझे मुझे भदिसिज्जा, तं पढमहेसे समुदिसिय बीयन(सो उदि- ज्झयणे दिवसाइयं राईए वि करिज्जा, तहा पच्छिमसिजइ । तं पढमुद्देसो समुद्देसिज्जा, तो बीओ, तो अ- पोरिसीए कालियजोगेमु वइसणाचंदणं संघहा पाउत्तवा
झयणे, तो वायणाइयं, तो बंदणं दाउं पढमुद्देसो णयं पि नहावणिकाउस्सग्गं च कीरइ, संघट्टण पुण भारंअणुन्नविज्जइ. तो वीओ, तो अज्जयणं, तमो का- भदिणा पार उम्मासाणंतरं भारओ चेर पूरिजति । लमंमलाइयं । एवं तवउवसग्गा दिणमेगं; एवं सए वि
"मावस्सगे य एगो, मुयसंधो कच्च हुँति अझयणा । मत्थ एगो काझो नवगं आइस्या अंतिद्वा उद्देसा इति
दुनिदिणा सुयर्वधे, सो वि य हुंति अट्ट दिणा ॥१॥ पत्तव्वं । बग्गे वि एवं । नवरं अज्जयणं ति बत्तव्यं, चउरा
दसयालियम्मि एगो, सुयखंथो वारसेव अफयणा । श्यमुद्देसे वंदणं दाउं अज्यासपुव्वं पदमं पढमे |
पंचम नवमे दो चन, उद्देसा दिवस परसा ॥३॥ बीओ वीए उदेसो उदिसिज्जा । तो दो वि उद्दे
छत्तीसं अग्झयणा, एगेगदिशेण तुरियमस्संखा । ससमुद्देसयवायणायं का बंदणयपुवं दो वि अणुन
दो दिण दो मुयखंधे, गुणचत्ता उत्तरज्जयणे ॥३॥ विज्जति । एवं उस्सग्गा सत्तदिणमेगं । एवं सेसा दो
अहवेगसरा चउदस, एगेगदिणेण दुन्नि तइय दिणा । दो उद्देसा छहिं उस्सग्गेहिं एकिकादणेण वच्चंति, अंतिया |
सत्तावीसं वासी..."""मो इं पनिइकप्पे"॥४॥ पुण दो नदेसा नद्दिसिय समुहिसिय तओ अजायणं | समुदिसिय वायणाश्यं काउं नहेस उगमज्झयणं च अणु-|
असंखं पुण भइ पढमपोरिसीए उहिसइ, तो आयअविना। एवं ग्रह नस्सग्गा दिणमेगं । एवं विसमहेसेस
बिनेण भणुनविज्जद, जइ बीयदिणे पोरिसिमझे, तो वि । नवरं उद्देसमुदिसिय अज्झयणं समुद्दिसिजइ, तओ
निम्बीएण; मह ततो बीयदिणे वि प्रायविझं । एवं नहेसमणुनविज्जइ, एवं उस्सग्गा पंच,दिणमेगं,तहा मुयखं
कणचत्ता अट्ठावीस दिणा उभट्ठज्यणरेसा ॥ घो । तत्थ दो दिणा-एगेण समुद्देसो,एगेण अणुना । जत्येगे
"सत्तय उपचउ४चउरो,६पंच अव सत्तचनरोय। दो मुयखंधे तत्येगदिणेण सुयखंधस्स समुहसो, एगेण |
कारस११तिशतिरदोश्दोर,दोदो सत्तेक एको य"॥१॥ अणुना । जत्थेगे दो मुयखंधा तत्थेगदिणेण सुयखंघस्स | मुयखंधयदिणसमं प्रायरे सबदिणा पम्मत्ता । सत्यसमुद्देसो, अंगमुयखंधो, उद्देससमुद्देसो, एगेण अणु- परिएणाए उद्देसा ७ दिण ४ लोगविजए जसा ६ मा। जत्थेगदिणेण सुयखंधस्स समुद्देसो, प्रणुन्ना य, दिण ३ सीोसणिज्जे उद्देसा दिण सम्पने उद्देसा। अंगमुयखंधो नदेसो अणुमा विण य पदिनिरुकं करियड | दिण ५ आवईए उद्देसा ६ दिण ३ धुवज्जयणे पारणगं वा निदिसंति प्रायामाइपारणगं, निबिइय, नहेसा ए दिण ३विमोहे उदेसा ७ दिण ४ वहाणसुए तो स्वमासमणपुव्वं पच्चक्खाणं करेइ, तमो वइसणा- नसा दिण महपरिणयज्यणं बुच्छिन्नं, दिणमेगं दणगं । इत्थं वइसणाणंतरं पवेइयव्वं, तो पदमं वइसणयं | सुयखंध । णंदीए ण, एवं दिन श्वापिंडेसणाए नहेसा ११ संदिसावणयं न किज्जा, पच्चक्खाणाणंतरं वइसायं वंद- दिण ६ सिजाए उद्देसा ३ दिण २ भासज्जायाए उ. घोण वेसग्इ,तो खए संघट्टय मुहपत्ती खए संघट्टय संदि- देसा २ दिण १ पाएसपीए नहेसा दिण १ नवसाविय खए संघट्टलेोजाब सरीरखए संघट्टालियावाणियं| गहपडिमाए उद्देसा ३ दिण १ सत्तसत्तिक्कया आनकाउस्सग्गे नमुकारचिंतणं, भणणं च । एवं आउत्तवाणयं तबाणएणं दिण उजावणज्यणे दिण' विमुत्तिज्यणे पि,नवरं तइए खमासमणाणंतरं तंबा तना सीसा काँसा दिण १ वीओ सुयक्खधो । दिण १ अग्गे दिण २ एवं श्रासोना रूपा हाडचामरुधिर पालमूकी मांसाऽऽदि इत्ये- चारांगे दिण एकाएपम्मि बूढे य कमजोगी हवा, दिणबमादि मोहमावणिय करोमि काउस्सग्गमित्यादि कायोत्सर्ग| स सव्वास जा पूर्ववत । भगवईए पढाए माउत्तवाणए पुत्तीओ न
| "पदमऊयणउद्देसा,चन तिय चउदो मुगार इकसरा १६। पेहिज्नंति, इकिके काले दो दो सफाया, दो दो काल- बीए सत्तिकसरा २३, सूयगडे सबदिण तीस" ॥१॥ मंगलाणि, एवं सव्वं पि पदमपोरिसिमाके न पहविज्जा। तीसज्झयणेस कृब्बीस दिणा दो सुरक्खंधमुकं दिणं, तो कालं पश् इकिकं समायं पढविचा अपहाणं कीर. अम्गे दो दिणा, एवं तीसं दिया।
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(१९४८) जोगविहि अनिधानराजेन्द्रः।
जोगविहि "कसरंचन ३ चन धतिय,नद्देमा त उ पाणेगसरा १०॥ वीए पुण दस वग्गा, पण नंदी दिवस तित्तीसं ॥१॥ ठाणा अनारस दिणा, उसगइगद्नंदि तिनि दिणा"॥२॥ दुमु दुमु वग्गेसु कमा, अज्क्रयणा हुंति दस य चनपन्ना । इयाणि जगवई । सा य उमासेहिं छहिं दिणेहिं ओनत्तवागए बत्तीसा चउ अहूं, धम्मकहा बीयसुयखंधे ॥२॥ एवं वच्चइ । इत्थ नस्थि मुयक बंधो। सयाणि पुण इक्क- सत्तमए पुण अंगे, दस अजायणाणि एगमरयाणि । तालीसं, मत्तारै काला । इत्य विवाहपन्नत्तिअंगं नंदीए चउदस दिण नंदितियं, एगो य तहा सुयबंधो ।।३।। नदिसिय पढमसयं उदिमिजद । तत्य य नदेसा दम इकि- वारस दिण अट्ठमए, अंगे बग्गहएम अजयणा । कदिणेण दो दो जंति, एवं दिणाए। वीयसए वि दस दस अट्ठ तेर दस दस, सोलस तेरस दस कमेण ॥४॥ उद्देमगा, नवरं पढमो खंदगुद्देसो आयंविझदुगोण सपाणभो- नवमंगे सत्त दिणा, वग्गतिए तेमु अन्कयणसंखा । यणाहिं पंचहिं दत्तीहिं दोहिं दिणेहिं वञ्चा, सेसा नबुद्देसा दसगं तेरस दसगं, नंदितियं एगमुयखंधो ॥५॥ पंचहिं दिणेहिं, एवं दिणा सत्त । तइयमए देमुद्देसो दसोंगे एगसरा, दस अज्झयणाणि चन्दस दिणा य । पढमनदेसओ एगदिणेण बच्चइ, वीमो चमरुदेमओ खं- बूढाइ भगवईए, कप्पर रह छटनोगि न्न ।।६।। दओ अ दोहिं दिणेहिं वच्चड़ । एवं पन्नरसेहिं कालेहिं च- पढमम्मी मुयखधे, एगसरा दस हवंति अज्झयणा । मरेहिं अणुनाए ओगाहिमविगइविमज्जणत्यं अट्ठस्सासो वीए वि दसेगसरा, चउवीस दिणा विवागमुए" ||७|| काउस्मग्गो कीरइ,उजागो विलम्गह। पंच निधिइया,जलं श्याणि नवंगा-पायारे उवाइयं?,मूयगमे रायपसेणयंत्र, भायंपिनं । तदा मोइयवधारियतीमागाइ कप्पइ । सेसा अ- गो जीवानिगमो ३, समवाए पन्नवणा , एए नक्काहुद्देसा चनहिं दिणेहिं वच्चति । च उत्थसए दस उद्देसा। लिया। भगवईए मूरपन्नती ,नायाणं जंबुद्दीवपन्नती ६, तत्य पढमा अट्ठ प्राइवअंतिल त्ति कानस्सग्गेहिं एग- उवासगदसाणं चंदपन्नत्ती ७। एए कालिया। सव्वे वि उद्देदिणेण अंति। सेसा दो उद्देसगा अट्ठस्सग्गेहिं एगेहिं दिगण ससमुद्देस अणुन्नत्यं आयंबिलतिगेण वचंति । अन्नेसिं पुष नंति । सव्वदिणं वीसं । नवमदसममएमु चउतीस न- पन्नवा जुते जोगमज्के प्रायविलतिगपुरणत्यं वि वचंति । ऐसा, नव नव वग्गा, इकिकं दिणं । इकारसमे मए उदेसा अंतगढदसाइपंचन्हमंगाणं निरयावलियमुयक्खंधो उबंगं । १२ दिन ॥वारसमे तेरसमे चउदसमे य उद्देसा १०दिन ।।
तम्मिपंच वग्गा-कप्पियानो कप्पवमिसियामो,पुफियामो, इकिक्कदिणे पत्ररसमे गासालए आयामदुर्ग, सपाणजोयणा.
पुप्फचूनियाओ। एएसु चउमु दम दम अज्यणा। वन्दिदभो तिनि दत्तीओ, दो दिऐ, एवं एगेण चत्ताए काहिं
सासु वारस । एवं दिणा ५,मुयक्खधे दिणा ,सम्बे दिणा। गोसाले अणुनाए अहम जोगो बग्गा, सत्त निविड्या,
अहणा ले अग्गंथा-निसीहज्जयणा एगसरा दिन १७, भट्टमं आश्वं पुग्ण अहमच उदसीसु आयामं । सेसाणि
सुयखंधे दिन २, एवं वीसं दिणा । छमी सयाणि नव नव नस्सगेहिं इकिकदिणेण जंति । त
"पढमेगसरं नव सो-ल सोन वारस,चउक्क उगवीसा। स्थ सोझममे सए उद्देना ?।। सत्तरममे उद्देसा १७। अट्ठारसमे सत्तयणेसु निवियं, पन्नगं तत्य नंदीए" ॥१॥ उद्देसा१० एगुणवीसहमे उद्देसा१०वीसइमे उद्देसा१०।इकवी अणोगदाराणं तिन्नि निविइइया । देविंदत्थया तंमइमे उद्देसागवावीसश्मे उद्देसा ६०वीसइमे उद्देसा५०। दुवयालियं चंदाविजया पानरपच्चक्खाणं गणिविकरिसुगसए२७ उदेसा११। कम्मस जणाणसए २८ उद्देसा ज्जा। एवमाइसु इक्किंकं निबीइयं । एनं आवश्यके दिन , ११। उव्वट्टणासए ३२ नदेसा २७। पगिदियजुम्पसयाणि
दशकालिके दिन १५,[मंडनिके ७] उत्तराध्ययने ३ए,माबारसशि नेमु चवीसगमयं दुहा कारं ६शसेढीसयाणि
चारांगे ५०, सूत्रे ३०, गणांगे १७, ममवायांगे ३,भगवती बारम ३४ नहेमा १२४। एगिदियमहाकम्ममयाणि वारस
१०६,झाताधर्मकथा ३३, उपासकदशांग १४, अंतगडदशा ३५ उद्देमा १३२ । बेइंदिरमहाजुम्मसयाणि वारम ३७, १२,अणुत्तरोववाई ७,पएहवागरण १४, विपाक २४, उवाई उदमा १३२ । चलगिदियमहाजुम्मसयाणि वारस ३८ रायपसेणी ३,जीवानिगम ३, परमवणा ३, सूर्यप्राप्ति उद्देना १३२ । सन्निपंबिंदियमहानुम्ममयाणि वारस ४० ३, जंबूद्वीपप्रज्ञप्ति ३, चन्प्राप्ति ३, निरयावली ७, निउद्देमा १३२। रासी जुम्मस ए ? देसा १६ । एवं शीथ १०, कल्पनाष्य २०, महानिशीथ ४५, पंचकल्पर, काला ७५ अंगनमुद अमुलायम किंदियां । एवं स- जीतकरूप,नंदी ३, अनुयोगद्वार १,ग०१। सर्वसंख्या ब्वे मनहत्तरं काला अणुन्नाए नंदीए नामं ठविजा ।। इगुवीस मास, दिन ६,संपयं आउत्तवाणए कप्पाकप्पविही। "नायगए गुगवीम, पगारसऽझयण पदयसयबंधे। | सत्य सगच्छसंवामयच्छिमाणं जोगवाहिसन्नी असमायं
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(१६४०) जोगविहि अन्निधानराजेन्सः।
जोगसंगह चन उवहण । उल्लासन्नासणुपसाणमज्जाराईणं आ- "इय वुत्तो जोगविही, संखेवणं सुयाणुसारेणं । मिसासीणं पक्खीणं अंतिणभक्खिणोत्तनयरस्स गयहब- जंचन इत्थ उ नणियं, गीयायरणान तं नेयं ॥१॥ खगणं च्छिका समापी नवं हई चम्मं च नवहणाघ- नम्मायं गुरुरोगा-ऽधम्मन्नरियं तु सम्बसंसारं । पार्वतीए वंतीए वंते अदिस्समाणे न उवहम्मइ । सं- जोगविहीऍऽपमतो, वायंतो कुज जहणियं ॥॥" नियमणुयतिरियचिदियसंघट्टे नवहम्मइ । कप्पइ नि- एसा जोगविही जंबू! समणेणं जगवया महावीरेणं पवेइया बिगश्यतिलहिं कारणोपायगायगायाइ अन्जंगित्तणं मुअक्खाया सुपपत्ता तुज्जो लज्जो णिग्गंथाणं निग्गंथीणं सीपणतुन्नणलेवणाइयं न कप्पइ कार्ड। मा उहजोगाओ जाणियव्वा पासियव्वा फाप्तियब्बा पाझियच्या तीरइयन्या सन्नविगहि वारमहत्याए उहजोगलग्गे पुण भोगाहि- किड्यन्वा, एसा णो अतिकमिश्रध्वा । एसाए बिहीए मवजाहिं जसपाणं उबहम्मइ । पगरणसंसट्टमाइसरावाइ- बहिया मुत्तपरिणीया अत्यपमिणीया तनुभयपमिणीया वियं च न उहणतदिनवणीयमिस्सकन्नलनयषंजिया- जिणाणाए विराहगा णिएडगा चेव अणतसंसारिया,तेसिं ए तहिणतिद्वमिस्सकुंकुमपिंजरियार अन्नंगिएण य उवह पासे जोगविहीए विणा कडकिरियाकला एगंतसो मिम्मइ । कडाइ थिरं बिगइसंसई उत्तिविमंत्रियमकप्पभायणं
च्छादिहिया चेव, पुण जंबू! एयारिसाए जोगविहीए दुयंतरियं च न उवहणइ । एवं तिरिच्छविएसु परोप्परं बाहिया ते साह कहाणं मंगलं देवयं चेममिव पज्जुसंबसु दायगेसु वि एसो उवहयाणुवहयविही जच- वासणिज्जा मोक्खफलदायगा यचा, पुण जे जंबू! पाणणिमित्तं काउस्सग्गे कर दब्बो। तहा ककबइक्र- अणुयामोगकिरियाबहिया माहुवेसे विहरता वि सगुनलवाँणीखमसकरक्खीरछसाढियाककरियगुलहा- किरियाए फमामोवं दंसस्ता वि ते असाहू, दिडीए विप णी बीसदणबाटनंदिहलनालियरतिलयरतिबीइ तहा दहव्वा सेवं ते ते ति । " तमेव सच्चं णिस्संके, जं वासीमोइमक्खियममलामोश्यसत्तुयकुल्युरिघोलसिहरणि- जिणेहिं पवेइ ॥" अंग। तिनवट्टिकरवाइ छज्जोगा भाउरं कप्पंति । छठे जोगे (आगादानागाढयोगविधौ स्वाध्यायभूमेद्विविधत्वम् - पुण लग्गे न तत्तद्दिणमोइवग्यास्थितीमणाश्यं कप्पश् ।
रियापवि' शब्द तृतीयभागे १९५६ पृष्ठे भव्यम) प्रत्र
महोपाध्यायश्रीविमलागणिकृतप्रो यथा-पाएमासिकयोगो. भववाएण असुहस्स तिन्हं घाणोनक्खियं विइंजणं न क
द्वाहकानां पदिवसाधिकैर्वा षण्मासैर्वा, पमदिवसहीना, . पइ । गिहिभायणसइसजायणेणांवि अप्पणा कप्पड़ मास्यासोचनादीयते।यदि वाऽधिकैस्तदानीमस्वाध्यायसंबन्धित चंदपरिगाहित्तए। तहा जंजत्थ जोगे कप्पा,तं चेव आव- द्वादशदिनक्केपरचातुर्मासिकास्वाध्यायदिनचतुष्टयमपि कथं न स्सयाश्म कप्पइ । भत्तपाणपमिलेहणकाले वीहिणुच्छंगे विष्यते । तथा च दशदिनाधिकाः पएमासा जवन्तीति कथमा
सोचनाविधिरितिप्रसाघम् ,इति प्रभे, उत्तरम्-पाण्मासिकयोरयहरणं च विप्रणुत्तरं परागपवीहीए पत्तवंधा पनत्तरि |
गवाहिनां पदिवसाधिकैः पामारस्वाध्यायदिनगणनानिकप्पइ पणवीसं वही पेहिय उवसंतो जचपाणभगडिए
रपेक्कमेव प्रासोचना दातव्येति वृक्षसंप्रदाय इति । १८:०। पुत्तिरयहरणे वेश्याबहिरा पच्छितोय पुणो वि कानस्सग्गे | ही०१ प्रका० । व्य.1(योगवादकस्य कारणे विकृतिः कल्पत संघटुं वहइरोहरणपत्तिवज्जो जा सरीरसंबंधी दवड, सो इति 'विगह' शब्द वदयते) पुणो विपमिलेहियचो। वेश्यानाहरगयं उदनोयणोव-जोगविरिय-योगवीर्य-न० । भाववीर्यभेदे, सब विधा, रिगयं च भत्तं पाणं च मजकपबिट्ट अंगलिचनकोग्राहियं| मनोवाकायभेदात् । सत्र० १७०८० तिपणाइयं मज्जपविलु अंगुट्ठहियं पत्ताश्यं च उस्संघट्टिजइ। जोगवीय-योगबीज-न। मोक्योजकानुष्ठानकारणे, द्वा० २१ जत्तं पाणं वा उगुडिनमीए रपहरणं पुत्तिं वा भूमीए प. बा. (तानि च 'जोगदिहि' शन्दे अस्मिन्नेव भागे १६४६ पृष्ठे मिए ठिो निस्संनिसने ठियस्त च अप्पेड़ उगुमिउभू.
गतानि)
जोगसंगह-योगसंग्रह-पुं०।युज्यन्ते इति योगा मनोवाकायमीए ठियं संघटे। विगहाउ असंखडं वा करेमाणो तुयट्टो वा
न्यापारा,ते चेह प्रशस्ता पव विवक्षिताः, तेषां शिष्याचार्यसंघट्टे वा पेयलाईई पायचारिमणुयतिरियच्छिन्ने य उस्सेबटुं २
गतानामालोचनानिरपनापाऽऽदिना प्रकारेण संग्रहणानि संग्रभुंजइ, अकालसन नहुं वा करेइ,कासमम्माणि यमिक्षाण दार, प्रशस्तयोगसंग्रहाः,प्रशस्तयोगसंग्रहनिमित्तत्वादालोचनाय न पडिलेहा, दिणबुड्ढी जोगनिक्खेबो वि उक्खेवस- ऽऽदयोऽपि योगसंग्रहाः । प्रशस्तयोगसंग्रहनिमितेषु मालो
चनाऽऽदिषु, स.। रिसो, नवरं पुचिं पहिय वंदणं दावं पच्चक्खाणं काउंवि
ते च त्रिंशद् भवन्ति । तदुपदर्शकं लोकपञ्चकमाहगइविसज्जावणियं अहुस्सासं काजस्सग्गं करिति, पारिए | आलोयण निरक्याचे, पावईमु ददधम्मया । नमुक्कार जणंति।
प्राणिस्सियोवहाणे य, सिक्खा गिप्पमिकम्मया ॥७३॥ ४१३
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(१६४०) जोगसंगह धभिधानराजन्द्रः।
जोगसत्प (आलोयण त्ति)प्रशस्तमोतसाधनयोगसंग्रहाय शिष्येणाऽऽ. पमाए ति ) न प्रमादोऽप्रमादः, अप्रमादः कार्यः २६ । चार्याय सम्यगालोचना दातव्या १(निरवलावे त्ति) प्राचा- (लवालवे त्ति ) कालोपलक्षणं क्षणे क्षणे सामाचार्यनुष्ठानं योऽपि प्रशस्तमोक्षसाधको योगसंग्रहायैव प्रदत्तायामालोच- कार्यम २७ । ( माणसंवरजोगे य सि) ध्यानसंवरयोगश्च मायां निरपलापः स्याद्, नान्यस्मै कथयेदित्यर्थः २। एकारा
कार्यः, भ्यानमेव संवरयोगः २८ । (उदए मारणतिए ति) न्तश्च प्राकृते प्रथमान्तो भवतीत्यसकृदावेदितम् । यथा-"कतरे | वेदनोदये मारणान्तिकेऽपि न कोभः कार्यः २६ । इति मागच्छ दित्तरूवे" इत्यादि। (श्रावईस दढधम्मय सि)| चतुर्थगाथासमासार्थः।। ७६ ॥ तथा योगसंग्रहायैव सर्वेण साधना आपत्सु व्याऽऽदिभेदासु संगाणं य परिणा य, पच्छित्तकरणे वि य । बढधर्मता कार्या, आपत्सु सतीषु, सुतरां दृढधर्मेण भवितव्य
पाराहणा य मरणंते, बत्तीसं जोगसंगहा ।। ७७ ॥ मित्यर्थः ३। (प्रणिस्सिोवहाण ति) योगसंग्रहार्यवानिश्रितोपधानेन भवितव्यम् । अथवा-अनिधितोपधाने च
(संगाणं च परिश्मा यत्ति) समानां च परिक्षा, प्रत्याख्यानएयत्नः कार्यः, उपदधातीत्युपधानं तपः । तदनिश्रितम् ,
रिक्षानेदेन परिक्षा कार्या ३० । (पच्छित्तकरणे वि य ति) निधितं च । तच्च तपधानं चेति समासः४।(सिक्ख त्ति)
प्रायश्चित्तकरणं कार्यम ३१ (पाराहणा य मरणं ते त्ति) प्राराप्रशस्तयोगसंग्रहायैव शिका मासेवितव्या । सा च द्विप्रकारा
धना च मरणान्ते कार्या, मरणान्तकाल इत्यर्थः ३२ । एते द्वाभि
शद्योगसंग्रहाः इति पञ्चमगाथासमासाथः॥७७॥ श्राव०४०। जवति-ग्रहणशिका, भासेवनशिक्षा च ५। (निप्पीडक
साधा। "ते य श्मे बत्तीसं जोगसंगहा-धम्म सोलसविसमय त्ति) प्रशस्तयोगसंग्रहायैव निष्पतिकर्मशरीरेणासेवनीया, न पुनर्नागदत्सबदन्यथा पर्तितव्यमिति प्रथमगाथासमासार्थः
धं,एवं सुकं पि। पते वत्तीसं जोगसंगह त्ति।" पाल्यू. ४०। ॥ ६ ॥ (नागदसदृष्टान्तः 'णिप्पमिकम्मया' शब्दे वदयते)
(भाखोचनाऽऽदीनां योगसंग्रहाणामुदाहरणाऽऽदि तत्तच्छन्दे
दृश्यम्)योगविधिप्रान्ते विखितमस्ति यत्प्राजातिककालो वैराअसायया अलोने य, तितिक्खा अजचे सुई।
त्रिककालखाने स्थाप्यत इत्यत्राकसंध्वादिकारणायैतत्स्थापनमसम्मदिट्ठी समाही य, पायारे विणो वए ॥ ७ ॥ न्यथा वेति प्र?, उत्तरम्-प्राभातिककाला वैरात्रिकका(अमायय त्ति) तपसि अज्ञानता कार्या, यथाऽन्यो न जाना- लस्थाने स्थाप्यतामाकसन्ध्यादिकारणे सति,तथा वैराविकप्राति तथा तपः कार्यम् । प्रशस्तयोगसंग्रहायेत्येतत्सर्वत्र योज्यम् । भातिककालजेदाकसन्यादिसद्भाचे समुद्देशानुझयोमध्ये कार. ७ (अन्नोने यत्ति) अलोनश्च कार्यः। अथवा-प्रोजेन यत्नः णतो पद्यन्तरं जायते, तदा अग्रे दिनमेकं वृद्ध्या दीयते, प्रा. कार्यः। (तितिक्ख त्ति) तितिका कार्या, परीषहाऽऽदि
गाढयोगेतु प्राकसन्धिपुरणानयनाद् यावत् श्राचाम्लमेव काजय इत्यर्थः ।। (अज्जवे त्ति) ऋजो व प्राजवं, तथ क
, गुझिया शुद्ध्यति, योगविध्यादौ तथैव प्रतिपादनादिति । तव्यम् १० । (सुर ति) गुचिना भवितव्यं,संयमवतेत्यर्थः ।। ३० प्र० । सन० १ उवा० । (सम्मदिष्टि ति) सम्यगविपरीता दृणिः कार्या, सम्यग्दर्श-| जोगसच्च-योगसत्य-न० । मनोवाकाययोगेषु सत्यं योगसत्यनयन्द्रिरित्यर्थः १२ । (समाह। यति ) समाधिश्च कार्यः, म। उत्त० २६ ० । योगा मनोवाकायाः, तेषां सत्यमधिसमाधानं समाधिश्वेतसः स्वास्थ्यम् १३। (आयारे विणतो तथत्वं योगसत्यम् । भ०१७ श० ३ उ० । मनःप्रनृतीनामति) द्वारद्वयम् । प्राचारोगमः स्यात्, न मायां कुर्यादि- वितथत्वरूपे सत्यभेदे, प्रश्न ५ संब. द्वार । योगतः संबस्यर्थः १४ तथा विनयोपगमः स्थात,न मानं कुर्यादित्यर्थः१५।। न्धतः सत्यं योगसत्यम् । तथा दण्डयोगाद् दण्डः, छत्रयोगा. इति द्वितीयगाथासमासार्थः ।। ७४ ॥
चत्र एवं उच्यते, इत्येवंरूपे सत्यजेदे च । स्था० १००। घिई मई य संवेगे, पणिही मुविहि संवरे ।
योगसत्यस्य फसं प्रश्नपूर्वकमाहप्रत्तदोसोवसंहारे, सबकामविरत्तया ॥ ७ ॥
जोगसबेणं भंते ! जीवे किं जणयइ जोगसच्चेणं जोगे । धिई मई यति) धृतिर्मतिश्च कार्या, धृतिप्रधाना |
विसोहे ॥ ५॥ मतिरित्यर्थः १६ । (संवेगे सि ) संवेगः संसाराद्भयं, हे भदन्त ! योगसत्येन मनोवाकाययोगानां सत्यं योगसत्यं, मोकाभिलापो वा कार्यः १७ । ( पणिदि ति ) प्रणि- तेन बोगसत्यम मनोवाक्कायसाफल्येन जीवः किं जनयति । तघिस्याज्यो, माया न कार्येत्यर्थः १८ । (सुविहि ति) दा गुरुराह-हे शिष्य ! योगसत्येन योगान् विशोधयति मसुविधिः कार्यः १ए। (संवरो ति) संवरः कार्यः, न तु न | नोवाकाययोगान् विशदीकरोतीति कर्मबन्धाभावानिर्दोषान क. कार्य शति व्यतिरेकोदाहरणमत्र नावि २०। (अत्तदोसोब-| रोतीति नावः ॥५२॥ उत्त० २६ म०। योगः संबन्धः, तस्मात्ससंहारे त्ति) आत्मदोषोपसंहारः कार्यः २१ 1 (सम्बकाम- त्या योगसत्या। छत्रयोगाद् विवक्षितशब्दप्रयोगका त्रामावेविरत्तय ति) सर्वकामविरक्तता भावनीया २२ । इति ऽपि छत्रयोगस्य संनवात् छत्री। एवं दरामयोगादण्डीत्येवंरूपे सतीयगाथासमासार्थः।। ७५ ॥
पर्याप्तभावानेदे, स्त्री-टाप् । प्रका० ११ पद । पच्चक्खाणे विउस्सग्गे, अप्पमार लवानवे।
जोगसमास-योगसंन्यास-पुं० । सामर्थ्ययोगमाधिकृत्य-"द्विमाणसंवरजोगे य, उदए मारणंतिए ।। ७६ ॥
धाऽयं धर्मसंन्यास-योगसंन्याससंकितः।"दा० १६ द्वा० (त. (पच्चबाणेति)मनगुणोत्तरगुणविषयं प्रत्याख्यानं कार्य-| कव्यता 'जोग' शन्दे अस्मिन्नेव भागे १६२७ पृष्ठे गता) मिति द्वारद्धयम् २३-२४ । (विउस्सगे ति) विविध उत्सर्गों | जोगसत्य-जोमशास्त्र-नगपातअश्वाऽऽदियध्यात्मचिन्ताशास्त्रेषु, न्युत्सर्गः, सच कार्य ति व्यभावभेदजिनः २५ । (प्र-द्वा०२३दागयोगविला"पइडिया जोगसत्येन।"योगशाओवध्या
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जोगसत्य
रमन्धेषु पावलाऽऽदिति पञ्च०१ वि० हेमचन्द्र ऽऽचार्यविरचिते योगशाखनामके प्रकरणान्ये च ।
जोगसद्द - योगशब्द- पुं० । योगप्रतिपाद के शब्द, अत्र परिमतश्री जगमाल गणित यथा-" भावस्सिपाए जस्स जोगो सिज्जातर०" इत्यत्र योगशब्देन किमुच्यते ? इति प्रश्ने, उतरम् -'बस्य योगो' भिक्कार्थे गच्छन्निदं वक्ति, यस्य योगोयेन वस्तुना सद् संबन्धो जविष्यति, तद् ग्रहीष्यामीत्यर्थः । इति श्रनिर्युक्तवृत्तौ । १० प्र० । ही० १ प्रका० । जोगसिद्ध - योगसिद्ध - पुं० । योगेषु योगे वा सिद्धो योगाद्धः । योगातिशयवति सिरूदे, श्रा० म० । साम्प्रतं योगसिद्धं प्रतिपादयन्नादसव्वे विदव्वजोगा, परमच्छेरयफलाऽवेगो वि | नस्सेस दोन सिद्धो, स जोगासको जहा समितो ॥ सर्वेऽपि कात्स्न्येन व्ययोगाः परमाऽऽश्वर्यफलाः परमाद्भुतकार्याः । अथवा एकोऽपि योगः परमाऽऽश्चर्यफलो यस्य भवेत्
सिका योग योगे वा सिधे योगसिद्धोऽतिशयवान्। यथा समित श्राचार्य इति गाथाङ्करार्थः । श्रा० म० १ ० २ खराम । ( कथानकं ' जोगपिंड ' शब्दे श्रस्मिन्नेव जागे १६४० पृष्ठेयम्)
(१६२१) अभिधानराजेन्व:।
द्वा० १६ द्वा० ।
जोगिणाण - योगिज्ञान - १० 'ओराण शब्दासम्म ०२ काएम । जोगिणाह - योगिनाथ- पुं० । 'ओहणाह' शब्दार्थे, द्वा० १५ द्वा० । जोगिणी पट्टण - योगिनी पट्टन न० ।' जोइणीपट्टण ' शब्दायें, ती० ४७ कल्प । जोगिय-यौगिक-त्रि० । 'जोश्य' शब्दार्थे, प्रश्न० २ संब० द्वार ।
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जोगबुद्धि-योगिवृद्धि श्री. 'जो' शब्दार्थे ० जोग्ग- योग्य-त्रि० । योगमर्हति । युज्-यत्. ण्यत वा । योगाहें, वाच० । अर्हे, “ अरिहो ति वा, जोग्गो विघा एगई।" आ० ० १ ० । योग्यमहं मित्यनर्थान्तरम् । विशे० ॥ श्र० म० । उचिते, दश० १ ० । प्रभो, पभुति वा जोगो तिवा एग ं ।” नि० चू० २० उ० । घटमानके, “ अजोगरूवं इह मं जयाणं ।" अयोग्यरूपमघटमानकम् । सूत्र० २ ० ६ अ० । निपुणे के पुनवेच विनामोपचे, न० बाच प०२ बाटो, दे० ना० ३ वर्ग । । । नोगमुदितव - योगशुद्धितपस् - - न० | मनोवाक्कायव्यापाराऽन- जोग्गा-योग्या स्त्री० । योगमर्हति युज्-यत्-कुत्खम । एयत्वा । वधता संपादके तपोविशेषे, पञ्चा० १० विष० । यत्र निर्विकृतायामोपपासा केकयोगी योगद परिपाटी येन तपोदिनानि स्युरिति पञ्चा० १३ विष० योग गुसचिव मनोवाक्कायि
जोगसिद्धि - योगसिद्धि-स्त्री० । योगनिष्पतौ, यो० बि० । लोग कि योगा कि स्त्री० योगाः कायदा मनोन्यापारवृद्धिः सोपयोगान्तरगमननिरवद्यनाथशुभचि नादिरूपायांशु
गुणनिकायाम, भ० ११ ० ११३० । श्र० । अन्यासे, जं० ३ बक्क० । “खुरली तु श्रमो योग्याज्यासः" इति चचनात् । क लप० ३० क्षण । शास्त्राज्यासे, सूर्यस्त्रियां च । वाच० । गर्भधा रणसमर्थाय योनौ, तं० ।
लोग
I
सहिते, पो० १३ वि० । जोगणियोगहानि - स्त्री० । योगानां संयमव्यापाररूपाणां हानि पानी "रेणाधिन तेखि आसी जोगाण हाणी दुविहे वलम्मि । " व्य० १ ० । नोगहीण-योगहीन-चारेोषभेदे
-
श्राव० ४ श्र० ।
जोगाइ सय - योगातिशय- पुं० । श्रात्माभ्यन्तरपरिणामोत्कर्षे,
जोगायरिय- योगाचार्य पुं० । पतञ्जल्यादिके, " योगाऽऽचा
यथोदितम्। "योगात्पादिभिरिति । द्वा० २१ द्वा० । योगप्रतिपादके सूरौ च । " योगाऽऽवार्यैर्विनिर्दिष्टं तन क्षणमिदं पुनः। "योगाचायें। योगप्रतिपादभिरिति ।
६० १९ द्वा० ।
जोगायार-योगाऽऽचार - पुं०। योगेनाऽऽचतेि । श्रा-चर् घञ्। प्रतिक्षेपेण विज्ञानादिति पेण विज्ञानमात्रसमभको योगाऽऽचार इति । सम्म १
काण्ड । वाच० ।
जो (यू)
जोगारूढ योगाऽऽरूड पुं० [योगमाकद
आह
" यदा तु नेन्द्रियार्थेषु न कर्मस्वनुषज्जते । सर्वसंकल्प संन्यासी, योगादस्तदोच्यते ॥१॥ इत्युके योगिने, “योगा 536ढस्य तस्यैव, समः कारणमुच्यते । " इति । बाख० । योगे स म्यग्दर्शनचारित्रे आत्मीय आरूढो योगाऽऽरूढः । सम्यग्दर्शन योगादः समादेष शुध्यत्यन्तर्गतक्रियः । " अष्ट० ६ अष्ट० । जोगि (ड्)- योगिन् पुं० जोर (ए) शम्दार्थे १४
"
विव
कोसायारिं जोणं, संपत्ता सुकमीसिया जड़या । सहया जीवब्वार, जोग्गा अनिया मिथिदेहिं ॥१॥
धोका योनि संप्राप्ताः सन्तः शुकमि बिता ऋतुप्रान्ते पुरुषसंयोगेन संयोगेन या पुरुषो मिलिना ) ला जागति योग्य भणिताः कथिताः जिनेन्द्र ॥ ११ ॥ खं० ॥ जोग्गोचयरिया-योग्योपचर्या स्त्री० । योग्यानां देवगुरुलाधर्मकस्वजनीनामाचाऽऽदीनामुखितोष पोम्पोपश्चर्या धूपप्रेमाखनदानादिमका देवगुरु
1
धार्मिक जन मानाचादीनामुतोपम०२०। जोड-यौट सम्बन्धे, भ्यादि० पर०-सक० सेटू । यौद्धति, श्रयटीत् । चङि न हस्वः । वाच० । नक्कत्रे, दे० ना० ३ वर्ग जोडि - पुं० । देशी-ध्याधे, दे० ना० ३ बर्ग । जो [[]-पोन पुं० [योनि सविताऽऽदिकां चतुरशीतिल दया करोतीति यस्ता विपि विलु संसारे है० म० ।
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(१६५५) जोण अभिधानराजेन्सः।
जोणि जोण-योन-पुं० । अनार्यप्राये देशभेदे, का।
श्रीन्द्रियेषु, दे चतुरिन्छयेषु । तथा चतस्रो योनिलका नारजोणयपमहवियइसिणियथोरुणियलसियसनसियदावडि
काणां, स्वतस्रो देवानां, तथा तिर्यक्षु पश्चेन्द्रियेषु चतस्रो बो.
निलकाः । तथा चतुर्दश योनिलका मनुष्येषु । सर्वसंख्यायाध सिंहलिप्रारविपुलिदिपकणिपन्हिमुरुडिसबारपारसीहिं।
मीलने चतुरशीतियोंनिलक्का भवन्ति इति । न च वक्तव्यम, योनिकाभिः, पहविकातिः, इमिनिकाभिः, थोरुनिकाभिः,
अनन्तानां जीवानामुत्पत्तिस्थानान्यप्यनन्तानि प्राप्नुवन्ति, यतो ससिकाभिः, बकुसिकान्तिः, द्राविकीभिर, सिंहसीभिः, पार.
जीवानां सामान्याऽऽधारभूतो लोकोऽप्यसंख्येयप्रदेशात्मक एव, बीभिः, पुसिन्दीभिः, पाणीभिः, बाहिकानिः, मुरुपडीभिः,
विशेषाऽऽधाररूपाण्यपि नरकनिष्कुटेवेव च, येन प्रत्येकनाधाशबरीमिः, पारसीभिः, नानादेशीभिरनार्यप्रायदेशोत्पमानि
रणजन्तुशरीराएपसंख्येयान्येव, ततो जीवानामानन्त्येऽपिकथरित्यर्थः का०१०१०।
मुत्पत्तिस्थानानन्त्यम् । भवतु तहसंख्येयानीति चेत् । नैवम् । जोणि-योनि-पुंगस्नीका उत्पत्तिस्थाने, उत्त० ३ ०। सूत्र। यतो बहून्यपि तानि केवलिरष्टेन केनचिहणोऽदिना धर्मेण मयादीनामुत्पत्तिखाने पाकरे,वायाकारणे,पञ्चा०विव०। सरशान्येकैव योनिरिष्यते,ततोऽनन्तानामपि जन्तूनां केवलिवि. उत्पत्तिहेती, प्रश्नपत्राद्वार। उपाये, स्था०३ ग० उ०।। वकितवर्णाऽऽदिसारश्यतः परस्परान्त वचिन्तया चतुरशीति(मर्थबोनयः 'प्रत्यजोणि' शब्दे प्रथमभागे ५०१ पृष्ठे भाविता)। सकसंख्या एव योनयो भवन्ति, न हीनाधिकाः ॥९८२२६०३॥ 'यु' मिश्रणे इति वचनाद युवन्ति तेजसफार्मणशरीरवन्तः
पतदेवाऽऽहसन्त भौदारिकाऽऽविशरीरयोग्यस्कन्धसमुदायेन मिश्रीनव- समवप्माइसमेश्रा, बहवो वि दु जोणिलक्खभेाभो । न्ति जीवा यस्यां सा योनिः। न.१.२०१०। औणाऽऽदि.
सामन्ना घेप्पति दु, एकगजोणीऍ गहणणं एन्धा को निप्रत्ययः। जीवानामुत्पत्तिस्थानविशेषे, स्था० ७ ठा० ।
समैः सहशैः,वर्णाऽऽदिभिर्वर्णगन्धरसस्पर्शः, समेता युक्ताः, प्रधानाचा प्रज्ञानं०।स।प्रभ । असुमतामुत्प
समानवर्णगन्धरसस्पर्शा इत्यर्थः। बहवोऽपि प्रभूता अपि, योचिस्थानं योनिर्भणनीयेति । सूत्र.१९० १२मायोषि
निभेदबक्षाः, हुनिश्चितम,इह एका योनिर्जातिग्रहणेन गृह्यते । बचान्यदेशे, मनु०। सा च स्मरकूपिका ।
कुतः,सामान्याद्व्यक्तिभेदतःप्रानूत्येऽपि समानवर्णगन्धरसतल्लक्षणम्
स्पर्शसद्भावेन सादृश्यादिति । ननु योनिकुत्रयोः कः प्रतिवि. इत्थी' नानिदिहा, सिरादुगं पुप्पनालियागारं । शेषः। उच्यते-योनिः जीवानामुत्पत्तिस्थानं,यथा-वृश्चिकाss तस्स य हिहा जोणी, अहोमुहा संठिया कोसा । ए॥| देोमयादि । कुलानि तु-योनिप्रभवाणि।तथाहि-पकस्यामेव खिया नार्याः, नारधोऽधोभागे, पुष्पनालिकाऽऽकारं सुम
योनावनेकानि कुलानि भवन्ति, यया छगणयोनी कृमिकुलं, मोवृन्तसहश, शिराहिकं धमनियुग्मं वर्तते, च पुनः तस्य शि
कीटकुलं वृश्चिककुयमित्यादि । यदि वा तस्यैव वृश्चिकाऽऽदेगोरातिकस्याधो योनिः स्मरकूपिका संस्थिताऽस्ति । किंजूता!,
मयाऽऽकयोनित्वनोत्पन्नस्यापि कपियरक्ताऽऽदिवर्णभेदादनेअधोमुखा । पुनः किंभूता?,-(कोससि)कोशा खपिधान
कविधानि कुलानीति । प्रव० १५१ द्वार। समाचा० । काssकारेत्यर्थः॥६॥ तं०।
योनिभेदा:योनिसंख्या यथा
तिविदा तिविहा जोणी, अंमा पोया जराउया चेव । चोरासीश्जोणिप्पमुहसयसहस्सा पड़ता।
वेदिय तेइंदिय, चउरो पंचिंदिया चेव ॥१५४॥ चतुरशीतियोंनयो जीवोत्पत्तिस्थानानि. त पव प्रमुखानि
" तिविहा " इत्यादि । अत्र हि शीतोष्णमिश्रभेदात्तथा द्वाराणि योनिप्रमुखानि, तेषां शतसहस्राणि सक्षाणि योनिप्र- सचित्साचित्तमिश्रभेदात्तथा संवृतविवृततपुभयनेदात्तथा सी. मुखशतसहस्राणि प्राप्तानि । स०४ समः।
पुनपुंसकजेदाच्च इत्यादीनि बहूनि योनीनां त्रिकाणि संभपुदवि दग अगणि मारुअ, इकिके सत्तजोणिलक्खाओ ।
वन्ति । तेषां सर्वेषां संग्रहार्थ विविधा विविधेति वीप्सापण पत्ते अणंते, दस चउदस जोणिलक्खाओ।एन्॥
निर्देशः । तत्र नारकाणामाद्यासु तिसृषु मिषु शीतैव योनिः,
चतुर्णामुपरितननरकेषु शीता, अधस्तननरकेषष्णा, पञ्चमीषविगलिदिएमु दो दो, चनरो चउरो अनारयमुरे ।
ष्ठीसप्तमीषणैव, नेतरे, गर्भव्युत्क्रान्तिकतिर्यङ्मनुष्याणामशेषतिरिपमु हुंति चनरो, चउदसलक्खाउमणुएमुंह देवानां च शीतोष्णा योनिर्नेतरे, द्वित्रिचतुःपश्चेन्द्रियसंमूर्छन'यु' मिश्रणे, इत्यस्य धातोः, युवन्ति नवान्तरसंक्रमणकाले
जतिर्यामनुष्याणां त्रिविधाऽपि योनि:-शीता, उष्णा, शीतो. तैजसकार्मणशरीरवन्तः सन्तो जीवा औदारिकाऽऽदिशरीर- ष्णा चेति । तथा नारकदेवानामचित्ता, नेतरे, द्वीन्धियाऽऽदिसंप्रायोग्यपुलस्कन्धैर्मिश्रीभवन्त्यस्यामिन्यौणादिके 'नि' प्र- मूर्छनजपञ्चेन्जियतिर्यकमनुष्याणां त्रिविधाऽपि योनिः सचिस्पये योनिः ; जीवानामुत्पत्तिस्थानमित्यर्थः । तत्र पृथिव्युद- त्ताचिनमिश्रयोनिर्नेतरे। तया देवनारकाणां संवृता योनिनकाग्निमरुतां संबन्धिन्येकैकस्मिन् समूहे सप्त सप्त योनिल- तरे, द्वित्रिचतुरिन्द्रियसंमूर्छनजपञ्चन्छियतिर्यकमनुष्याणां विका भवन्ति । तद्यथा-सप्त पृथिवीनिकाये, सप्तोदकनिकाये, वृता योनिनेंतरे, गर्भव्युत्क्रान्तिकतिर्यकमनुष्याणां संवृतविवृता सप्ताग्निनिकाये, सप्त वायुनिकाये । वनस्पतिनिकायो द्विविधः। मोनिर्नेतरे, तथा नारकानपुंसकजपश्चनियतियश्मनुष्याणां सांचा-प्रत्येकोऽनन्तकायश्च । तत्र प्रत्येकवनस्पतिनिकाये दश विवृता योनिर्नेतरे, गर्भयानय एव। तिर्यचस्त्रिविधाः-स्त्रीपुनपुं. योनिलक्षा, अनन्तवनस्पतिनिकाये चतुर्दश। विकनेन्द्रियेषु सकयोनयोऽपि मनुष्या अप्येवं त्रैविध्यनाजः। देवाःस्त्रीपुयोनय द्वाधियाऽऽदिषु द्वीन्छियत्रीन्धियचतुरिन्कयरूपेषु प्रत्येक दे एव । तथा परं मनुष्ययोनेस्वैविध्यम् । तद्यथा-कूमानता,तस्यां वे योनिलचाः। तद्यथा-वे योनिल केहीन्छियेषु, द्वे योनिखके चाहनचक्रवादिसत्पुरुषाणामुत्पत्ति तथा संस्थाऽऽवर्चा, सा
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(१६५३) जोणि अभिधानराजेन्दः।
जोणि च स्त्रीरत्नस्यैव, तस्यां च प्राणिनां सनवो नास्ति, न| गोयमा ! नो सीता, नो नसिणा, सीतोसिणा जोणी । निष्पत्तिः । तथा वंशीपत्रा, सा च प्राकृतजनस्येति । तथा जोइसियाणं माणियाण वि एवं चेव ॥ परं त्रैविध्यं नियुक्तिकहर्शयति । तद्यथा-एडजा, पोतजा,
तत्र नैरयिकाणां विविधा योनिः-शीता, नष्णा च । न तृतीया जरायुजा चेति । तत्राएमजाः पक्ष्यादयः, पोतजा वस्गुली
शतोष्णा । कस्यां पृथिव्यां का योनिरिति चेत्, उच्यते-रत्नगजकलभाऽऽदया, जरायुजा गोमहिषीमनुष्याऽऽदयः, तथा
प्रजायां शर्करप्रभायां वालुकाप्रभायां च यानि नैरयिकाणामुपद्वित्रिचतुःपञ्चेन्छियभेदाच निद्यन्ते। भाचारभु०१०६ उ०।
पातक्षेत्राणि तानि सर्वाण्यपि शीतस्पर्शपरिणामपरिणतानि सत्त्वानां योनयः प्रतिपाद्यन्ते
उपपातकेत्रव्यतिरेकेण चान्यत् सर्वमपि तिसम्वपि पृथिवीकतिविहा णं भंते ! जोणी पसत्ता। गोयमा ! तिविहा णस्पर्शपरिणामपरिणतं, तेन तत्रत्या नैरयिकाः शीतयोनिका जोणी पम्पत्ता । तं जहा-सीता जोणी, उसिणा जोणी,
बाणां घेदना घेदयन्ते । परकप्रभायां बदन्युपपातकेत्राणि सीतोसिणा जोणी।
शीतस्पर्शपरिणामपरिणतानि,स्तोकान्युग्णस्पर्शपरिणामपरिण
तानि,येषु च प्रस्तटेषु नरकाऽऽवासेषु शीतस्पर्शपरिणामान्युप“कतिविहा ते ! जोणी" स्यादि । कतिविधा कतिप्रकारा, पातक्षेत्राणि,तेषु तव्यतिरेकेण चान्यत्सर्वमुष्णस्पर्शपरिणामं,तेषु णमिति पूर्ववत, नदन्त! योनिः प्रज्ञप्ता?|श्रय योनिरिति कःश- प्रस्तटेषु नरकाऽऽवासेषु चोपपातक्षेत्रापयुष्यणस्पर्शपरिणामानि, मार्थः । उच्यते-"यु" मिश्रणे,युवन्ति तैजसकर्मिणशरीरबन्तः तेषु तस्यतिरेकेण चान्यत्सर्व शीतस्पर्शपरिणाम, तेन तत्रत्या सन्त औदारिकाऽऽदिशरीरप्रायोग्यपुनस्कन्धसमुदयेन मिश्री- बहवो नरयिकाः शीतयोनिका उष्णां वेदनां दयम्से, स्तोका भवन्त्यस्यामिति योनिरुत्पत्तिस्थानम् । औणादिको निप्रत्ययः। उम्णयोनिकाः शीतबेदनामिति । धूमप्रनावां बहन्युपपातकेभगवानाह-गौतम! त्रिविधा योनिः प्राप्ता । तद्यथा-शीता, त्राणि उष्णस्पर्शपरिणामपरिणतानि, स्तोकानि शीतस्पर्शपरिसष्णा, शीतोष्णा । तत्र शीतस्पर्शपरिणामा शीता, उ- जामानि, येषु च प्रस्तटेषु येषु च नरकाऽऽवासेषु चोष्णस्पर्शपणस्पर्शपरिणामा उष्णा, शीतोष्णरूपोजयस्पर्शपरिणामा | रिणामपरिणतान्युपपातकेत्राणि, तेषु तपतिरेकेणान्यत्सर्व शीतोष्णा।
शीतपरिणामं, येषुच शीतस्पर्शपरिणामान्युपपातकेत्राणि, ते.. योनिविशेषप्रतिपादनायाऽऽह
वन्यत्सर्चमुष्णस्पर्शपरिणाम, तेन च तत्रत्या बहब उनेरइयाणं ते! किं सीता जोणी,नसिणा जोणी.सीतो- योनिकाः शीतवेदनां वेदयन्ते, स्तोकाः शीतयोनिका सिणा जोणी । गोयमा! सीता वि जोपी, उसिणा वि ।
उष्णवेदनामिति । तमःप्रभायां तमस्तमःप्रभायां चोपपात
क्षेत्राणि सर्वाण्यप्युष्णस्पर्शपरिणामपरिणतानि, तस्यतिरकेण जोणी, नो सीतोसिणा जोणी। अमरकुमाराणं भंते ! किं
चान्यत्सर्व तत्र शीतस्पर्शपरिणाम, तेन तत्रत्या मारका उसीता जोणी,उसिणा जोणी,सीतोसिणा जोणी? गोयमा! णयोनिकाः शीतवेदनां वेदयितार इति।भवनवासिनो गर्जव्यु. नो सीता जोणी, नो उसिणा जोणी, सीतोसिणा जोणी, कान्तिकतिर्यपश्चेन्द्रियगर्नन्युत्क्रान्तिकमनुष्याणां प्यन्तरएवंजाव थणियकुमाराणं । पुढवीकाइयाणं ते! किं सीता
ज्योतिकवैमानिकानां चोपपातत्राणि शीतोष्णरूपोभयस्पर्शजोणी, उसिणा जोणी, सीतोसिणा जोणी । गोयमा !
परिणामपरिणतानि,तेन तेषां योनिरुभयस्वभावा-न शीता,ना.
प्युष्णा। एकेन्द्रियाणामग्निकायिकवर्जावां द्विमिचतुरिन्द्रियसं. सीता वि जोपी, सिणा वि जोणी, सीतोसिणा वि
मूछिमतियकपञ्चेन्द्रियसंमूधिममनुष्याणां चोपपातस्थानानि जोणी । एवं प्राउवाचवणस्सवेदियतेंइदियचउरिंदिया- शीतस्पर्शाभ्युष्णस्पर्शान्युभयस्पर्शान्यपि भवन्तीति, तेषां त्रिविण वि पत्तेयं भाणियन्वं । तेउकाइयाणं नो मीता, उसिणा, धा योनि:-तेजस्कायिका उष्णयोनिकाः, तथा प्रत्यक्कत उपलनो सीतोसिणा । पचिंदियतिरिक्खजोणियाणं ते ! किं
म्धेः। प्रज्ञा०८पद। (पतेषामल्पबहुत्वम् 'अप्पाबहुय' शब्द प्र.
थमभागे ६५० पृष्ठे गतम) शीताऽऽदियोनिमकरणार्धसंग्रहस्नु सीता जोणी, नसिणा जोणी,सीतोमिणा जोणी । गोय
'प्रायेणैवम-“सीमोसिणजोणीया, सब्वे देवा य गम्भवकमा ! सीता वि. जोणी, उसिणा वि जोणी, सीतोसिणा वि ती। उसिणा य तेउकाए, दुह निरए तिविद सेसेसु ॥१॥" जोणी । समुच्छिमपंचिंदियतिरिक्खजोणियाण वि एवं | (गम्भवक्कंति त्ति) गर्भोत्पत्तिकाः । भ०१० श०२ उ० स्थान चेव । गन्जवतियमणुस्साणं ते ! किं सीता जोणी,
नूयोऽपि प्रकारान्तरेण योनीनां त्रैविध्यं प्रतिपिपादयिषुराहउसिणा जोणी, सीतोसिणा जोणी ? । गोयमा ! नो
__कतिविहा णं भंते ! जोणी पसत्ता गोयमा ! तिविहा सीता जोणी, नो उसिणा जोगी, सीतोसिणा
जोणी पएणता । तं जहा-सचित्ता, अचित्ता, मीसिया। नोणी। मास्साणं जन्ने ! किं सीता जोणी, नसिणा
' “कविदा गं ते! जोणी पनत्ता?।" इत्यादि । सचित्ता
जीवप्रदेशसंघका, अचित्ता सर्वथा जीवविप्रमुका, मिभा लोणी, सीतोसिणा जोणी। गोयमा! सीता वि,
जीवविप्रमुक्ताविप्रमुक्तस्वरूपा। उसिणा वि, सीतोसिणा वि जोणी । समुच्छिमममुस्साणं नेरइयाणं भंते ! किं सचित्ता जोणी, अचित्ता जोणी, भंते ! किं सीता जोणी, नसिणा जोणी, सीतोसिणा मीसिया जोणी गोयमा!नो सचित्ता जोणी, अचिजोणी ?। गोयमा ! तिविहा विजोणी। वाणमंतरदेवाणं | ता. नो मीसिया जोणी । असुरकुमाराणं भंते ! किं सकिं सीता जोणी, उमिणा जोणी, सीतासिया जोणी चित्ता जोगी, अचित्ता जोषी, मीसिया नोणी गोयमा!
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(१६५४) जोणि अभिधानराजेन्ः।
जोणि नो सचित्ता जोणी, अचित्ता जोगी, नो मीसिया । एवं० नानां संवृतगवाककल्पत्वात्। तत्र च जाता:सन्तो नैरयिकाःप्र. जाव थणि यकृमाराणं । पुढवीकाइयाणं भंते ! किं सचित्ता
बमानमूर्तयस्तेभ्यः पतन्ति शीतेत्य उष्णेषु, उष्णेभ्यः शी
तेविति । भवनपतिव्यन्तरज्योतिष्कवैमानिकानामपि संवृता जोणी,अचित्ता जोपी, मीसिया जोपी। गायमा ! सचित्ता
योनि तेषां देवशयनीयदेवदूप्यान्तरिते उत्पादात, "देवसयरिणवि जोणो, अचित्ता वि जोणी, मीसया विजोणी। एवं० जांसि देवदूमंतरिए अंगुलासंखेजनागमेत्ताए सरीरोगाहनाव चारिदियाणं । सम्मुच्छिमपंचिंदिगतिरिक्वजो- जाए उवबज्जा" ति बचनात् । एकन्डिया अपि संवतयोनिणियाणं, सम्मुक्किममणुस्साण य एवं चेक गन्जवति
का,तेषामपि योनः स्पष्टमनुपलक्ष्यमाणत्वात्। वीडियाऽऽदीनां
चतुरिन्जियपर्यन्तानां सम्मूचिमनियंपञ्चन्छियसम्माधिमयपंचिंदियतिरिक्खजोणियाणं गज्जवक्कंतियमणुस्साण य
मनुष्याणांच विवृता योमिः,तेषामुत्पत्तिस्थानस्य जलाशयाऽऽदे. नो सचित्ता, नो अचित्ता, मीसिया जोणी । वाण- स्पष्टमुपलभ्यमानत्वात् । गर्भव्युत्क्रान्तिकतिर्यकपञ्चेन्द्रियगर्भतरजोशसियचेमाणियाणं जहा असुरकुमाराणं ॥
व्युत्क्रान्तिकमनुष्याणां च संवृतविवृता योनिः, गर्भस्य संवृत. तत्र नैरयिकाणां यदुपपातक्षेत्र तत्रन केनचिज्जीवेन परि- विवृतरूपत्वात् । गो ह्यन्तःस्वरूपतो नोपलज्यते, बहिस्तू. गृहीतमिति तेषामचित्ता योनिः । यद्यपि सदमैकेन्द्रियाः सक
दरवृद्धवादिनोपलदयते इति । प्रका०९ पद । (अल्पबहुत्वम बसोकव्यापिनः, तथाऽपि न तत्पदेशैरुपपातस्थानगुन्ना
'अपाबहुय'शम्दे प्रथमभागे ६५८ पृष्ठे गतम्) अन्योन्यानुगमसंबद्धा ति मचिचैव तेषां योनिः। पवमसुर
संवृताऽऽदियोनिप्रकरणासंग्रहस्तु प्राय एवमकुमाराऽऽदीनांजवनपतीनां व्यस्तरज्योतिष्कवैमानिकानां वा " एगिदियनेरझ्या, संबुमजोणी तहेव देवा य । भचिसा योनिर्भावनीया । पृथिवीकायिकाऽऽदीना संमृच्विं- बिगनिंदिपसु बियडा, संबुडवियमा य गम्भम्मि ॥१॥" ममनुष्यपर्यन्तानामुपपात के जीवैः परिगृहीतमपरिगृहीत. एकेन्द्रियाणां संवृता योनिः, तथास्वभावत्वात् । नारकाणामुन्नपस्वभावं व संजयतीति विविधा योनिः, गर्नम्युत्का
मपि संवृतव । यतो नरकनिकुटाः संवृतगवातकल्पाः, तेषु न्तिकतिर्यपशेन्द्रियाणां गर्भव्युत्क्रान्तिकमनुष्याणां च यत्रो. च जातास्ते वर्दमानमूर्तयः, तेभ्यः पतन्ति शीतेन्यो निष्कटे. स्पत्तिस्तत्र सचित्तारित्ता अपि शुक्रशोषिताऽऽदिएदलाः भ्य उणेषु नरकेषु, नणेभ्यस्तु शीतेजिति । देवानामाप संकृत सम्तीति मिश्रा तेषां योनिः । प्रशा०९पद । (अस्पबहुत्वम
तैव । यतो देवशयनीये देवघ्यान्तरितोऽगुलासरस्थान. 'अप्पाबहुय' शब्द प्रथमजागे ६५८ पृष्ठे कष्टव्यम्)
भागमात्रावगाहमो देव उत्पवत इति । प्रा१० श.२००। सचित्ताऽऽदियोनिप्रकरणार्यसंग्रहस्तु प्रायेणवम
स्था। सूत्र० । नं। "भषित्ता सलु जोखी, नेरस्यासं तहेव देवावं।
सम्पति मनुषयोनिविशेषप्रतिपादनार्थमाहमीसा य गन्जवासे, तिविहा पुण होश सेसेसु"॥१॥ सत्यध्ये केम्झियसकाजीवनिकायसंभवे नारकदेवानां या
कतिविहाणं ते! जोणी पएणना गोयमा! तिविहा पपातक्षेत्रं तम केनचिजीवन परिगृहीतमित्यत्रिता तेशं जोणी पयत्ता । तं जहा-कुम्मुनया, संखावत्ता, बंसीपत्ता। योनिः । गर्नबासयोनिस्तु मिमा, शुक्रशोणितपुमलानामचि- कुम्मन्नया णं जोणी उत्तमपुरिसमाउयाणं कुम्मुन्नयाए सं चानां गर्भाशवस्व सचेतमस्य नावादिति । शेषाणां पृथि
जोशीए उत्तमपुरिसा मन्मं वक्रमति । तं जहा-अरहंतचकवम्यादीनां संमूळजानां च मनुण्याऽऽदीनामुपपातको जोवेन पारगृहीतऽपरिगृहीते उन्नयरूपे चोत्पत्तिरिति त्रिविधाऽपि यो.
हीणं बलदेवा वासुदेवा । संखावत्ता पंजोणी इत्थीरयणनिरिति । भ०१.श. २३० । स्था० । प्रव०।
स्म, संखावत्ताए णं नोणीए बहवे जीवा य पोग्गला यबभूयोऽपि प्रकारान्तरेण योनीः प्रतिपादयितुकाम माह- कमंति, विउकमंति, चयंति, उपनयंति,नो चेवणं निप्पजंकतिविहाणं ते! जोणी पपत्तागोयमा तिथि
ति । वसीपचा गं जोणी पिहरणस्स, बंसीपत्तियाए णं जो. हा जोणी पएणत्ता । तं जहा-संबुडा जोणी, बियका
पीए पिहुजणे गन्भं वक्कमंति॥ जोणी, संबुमत्रियका जोणी । नेरश्याणं ते ! किं संबुडा
"कविता णं भंते! जोणी पक्षा?" इत्यादि।कुर्मपृष्ठमियो. जोणी, वियमा जोणी,संबुझवियमा जोणी । गोपमा!सं- आता काँग्रता । शरवस्येवाऽऽवता यस्याः सा शङ्कावर्ग। मुमा जोणी,नो वियहा जोणी,नो संचुमवियमा जोणी। एवं. संयुक्तबंशीपत्रद्वयाऽऽकारत्वाद् वंशीपत्रा। शेषं भुगम, नवरं जाब वणस्सहकाझ्याणं । बेइंदियाणं पुच्छा। गोयमा! नो
शशावायां योनौ बहवो जीवा जीवसंबद्धाःपुभवाचावक्रमन्ते,
प्रागच्छन्ति, व्युत्क्रामन्ति गर्भतयोत्पद्यते,तथा चीयन्ते सामासंबुमजोणी, बिगडजोणी, नो संचुमवियमजोणी । एवं०
भ्यतश्चयमागच्छन्ति, उपचीयन्ते विशेषत उपचयमायान्ति, परं जाव चउरिदियाणं । संमुच्छिमपचिंदियतिरिक्खजोणि
न निष्पद्यन्ते, अतिप्रबलकामाग्निपरितापतो ध्वंसगमनायाणं संमुच्छिममणुस्साण व एवं चेव । गम्भवतियपंचिं- दिति वृक्षप्रवादः । प्रज्ञा पद। दियतिरिक्खजोणियगम्जवतियमणस्साण यनो संबुमा
एतद्वक्तन्यतासंग्रहस्त्वेवम्जोगी, नो वियहा जोणी, संबुडवियमा जोणी। बाणमं- ___ "संखाऽऽवत्ता जोणी, स्थीरयणस्स होइ विलेया। तरजोइसियवमाणियाणं जहा नेरइयाणं ॥
सीए पुण उप्पलो, नियमान विणासई गन्जो॥१॥ सरदारकाषां संवा योनिः,नरकनिष्कुटानां नारकोत्पत्तिस्था-1 कुम्मुम्बजोगीपतित्ययय चाहि-वासुदेवा य।
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(१६५५) जोणि अनिधानराजेन्द्रः।
जोणिपादुम रामा वि य जायंते, सेसाए सेसगजणाश्रो ॥२॥" ति। वति। विश्वस्यते,कीयते एवं च तदबीजमवाजं भवति उत्तमपि भ०१०श०२ उ०। स्था०। प्रव०।
नाडुरमुत्पादयति । किमुक्तं भवति?-ततः परं पोनिव्यवच्छेदःप्र. तथा शुभाशुभभेदेन योनीनामनेकत्वं गायाभिः प्रदश्यते- ज्ञप्तो मया.अन्यैश्च केवलिनिरिति शेषं स्पष्टम । स्था०३PORNON "सीयाऽऽदी जोणीत्रो, चनरासी-तीयसय-सहस्साई। अह भंते ! कसावमसूरतिममुग्गमासनिष्फावकुन्नत्थाअसुभाओ य सुजाई, तत्थ सुजाश्रो मा जाण ॥१॥
लिसंदगसंतीणं पलिमंघमाईणं एएसिणं धष्ठाणं । जहा अस्संत्रा उमणुस्सा, राईसरसंस्खमादिमाईणं ।
साली तहा एयाणि वि,णवरं पंचसंबच्छराई,सेसं तं चेच । तित्थगरनामगोतं, सन्नसुहं होइ नायव्वं ॥२॥ तत्थ वि य जाश्संप-ग्नतादि सेसा उ हुंति असुनायो।
अह जते! अयसिकुसुंजगकोहवकंगुवरगरानगकोदूसगमदोसु विकिबिसादी, सेसाप्रो हुँति असुजानो ॥३॥ पासरिसवमूलाबीयमाईणं एएसि एंधनाणं । एयाणि वि पंचिदियतिरिएसु. हयगयरयणे हवंति उ सुभाओ। तहेब,णवरं मच संबच्छराई, सेसं तं चेत्र । ज०६श०७० सेलाश्रो असुनाओ, सुजवन्नेगिदियादीया ॥॥
बदेत्यादि सूत्रसिद्धम । नबरम, अथेति परमानार्थः । देविंदचक्रवट्टि-तणाई मोनु च तित्थगरजावं ।
प्रदन्तेति गुह्यमन्त्रणम् । (अयसीति) अतसी कुसुम्भो रहा अणगारभाविता विय, सेसा न अणंतसो पत्ता"||
रातका कलाविशेषः सणस्वप्रधानो धान्यपिशेषः, सर्पपा. भाचा० १ ० १ ० १ उ०।
सिकार्थकाः, मलकः शाकविशेषः, तस्य बोजानि ककारलोपअथ स्त्रीणां किययो वर्षेभ्यः पुनका योनिविध्वंसो सन्धिज्याम "मलावीय ति" प्रतिपादितमिति । शेषाणां पर्याभवतीत्याह
या आकरूढितो केया इति । यावद्महखात-" मंचाउत्ताणं पणपना य परेणं, जोणी पमिनायए महिनियाणं। मालाबत्ताणं प्रोलित्ताणं लंपियाणं मुहियाणं।" इति द्रष्टव्यम। पसचरी परओ,पारण पुमं जवेऽवीओ॥१॥
व्यास्याऽस्य प्रागिति । पुनयावतकरणात-"पविकंसद बि.
सद से बीए मवीए भवश्तेष परं।" इति श्यम स्था०७ठा। महिलानां स्त्रीणां प्रायः प्रवाहेण (पणपत्रा यति) पञ्चपञ्चा
कोष्ठाऽऽदिषु निकितानाम, उपलकणमेतत्-पिहितानामयशर्षेभ्यः (परेणं ति) ऊर्य योनिःप्रम्याति, गर्भधारणा
लिशानां बाञ्छितानां मुद्रितानां चोत्कृष्टानां स्थिती सप्तवर्षाऽसमर्था प्रवतीत्यर्थः। तं० । (एतता बहुवतन्यता 'गम्भ'
णि भवन्ति , जघन्येन पुनः सर्वेषामपि पूर्वोक्तानां धान्या. शब्द तृतीयभागे ८३१ पृछे कष्टव्या)
नामतर्मुहत स्थितिवेत् , अन्तर्मुर्तात परतः स्वायु:सम्पति जीवविशेषयोनिवक्तव्यतादिर उच्यते । तत्र- सयादेवाचितं जायते । सा च परमार्थतातिशयज्ञानेनैव सम्मचेदं सूत्रम्
परिज्ञायते, न छास्थिकज्ञानेनेति न व्यवहारपथमवतरअह भंते ! सालीणं बीहीणं गोधूमाणं जवाणं जवजवा
ति । अत एव च पिपासापीमितानामपि साधूनां स्वजावत: एवं एएसि णं धमाणं कोहाउनाणं पद्यानत्ताणं मंचा
स्वायुःत्तयेणाचित्तीनूतमपि तमागोदकपानाय धर्कमानस्वामी उचाणं मालाजुत्ताणं अोशिचाणं बिचाणं पिहियाणं मु
भगवान् नानुकातवान् । इत्यंभूतस्याचित्तीभवनस्य ग्यस्थानां
इलकत्वेन मा भूत्सर्वत्रापि तमागोदके सचित्तेऽपि पत्रात्यसादियाणं लंछियाणं केवइयं कासं जोणी संचिइ । गोयमा !
घूनां प्रवृत्तिप्रसङ्ग इति कृत्वा । प्रव. १५४ द्वार। काला जहां अंतो मुहुत्तं, उक्कोसं तिमि संबच्छराई, तेण परं सूत्र०। (कियहरगमनेन धान्यानामचित्तत्वमिति 'अचिर' मोणी पमिलायइ, तेण परं जोणी विकसह, तेण परं बीए शम्दे प्रथमजागे १८५ पृष्ठे अष्टव्यम) अन्येषामुत्पादकत्वाद अबीए भव, तेण परं जोणीचोच्छेदे पायचे, समणासो!
जीवे जीवस्याभिवचनान्यधिकृत्य-"जोणीए त्तिवा" योनिरन्ये.
पामुत्पादकत्वात् । भ. २००१००। भगनामके देवे, तहे. भ०६ श०७०।
वताके पूर्वाफल्गुनीनको च। स्था०२ ग.३ २०। वाच । " ते ति" पदं साधनीयमिति, तो भंते सि महावी- योनिविचारे-यत्र मनुष्योत्पत्तिस्तत्रैव द्वन्द्रियाऽऽदीनामुत्पतिरमामन्त्रयन्नुक्तवान् गौतमाऽऽदिः। शालीनां, कलमा55- श्यते, तथा च योनिसङ्करः स्यात्, इति प्रश्ने,उत्तरम्-मनुदिकानामिति विशेषः । शेषाणां ब्राहीलामिति सामान्यम् । यब
प्यद्वन्छियाग्दीमा योन्येकत्वेऽपि स्वस्खजातावेव योन्यकत्वव्य. यवा यवविशेषा एव । एतेषामभिहितत्वेन प्रत्यक्षाणां कोष्ठे कु.
वहारो, न तु भिन्नजाती। अत एव गणादिषु अप्युत्पधानां शूखे आगुप्तानि प्रक्षेपणेन संरक्षितानि कोष्ठागुप्तानि,तेषाम् । एवं
भूयसां कुलानां दीडियाऽऽदीनां स्वजात्यपेक्षया योन्येकत्व, सर्वत्र,नवरं पल्यं वंशकटकादिकृतो धान्याऽधारविशेषः,मञ्चः निनजातीयानामपि तत्रोत्पन्नानां स्वजात्यपेक्षयकयोनिकत्वं, स्थूणानामुपरिस्थापितवंशकटकाऽऽदिमयो जनप्रतीतः,मालको तेनन योनिसङ्करः संभाव्यत शति। १.११ प्रासेन० उल्ला। गृहस्योपरितमनागः। अभिहितं च-"अक्खुट्टो हाई मंचो, मानो
जोणियात-योनिघात-पुं० । योनिविर्वसे, नि००४ उ० । य घरोवार हो" इति । (भोलित्ताणं ति) द्वारदेशे पिधानेन सह गोमयादिना अवभिप्तानामा (लिसाणं ति) सर्वतः (पिहिया.
(अस्य विस्तरः 'गम्भ' शब्दे ८३१ पृष्ठे अष्टव्यः) जति) स्थगितानाम् (मुदियाणं ति) मृत्तिकाऽऽदिमुद्रावताम्
जोणिजम्मणणिक्खमण-योनिजन्मनिष्क्रमण-न० । योन्या पाणं ति) रेखाऽऽदिभिः कृतलाजनानाम (वाति जन्माधिकरणे, कल्प. २ कण । कियन्तं कालं योमियस्यामकर उत्पद्यते, ततः परं योनिः जोणिपाहम-योनिप्राज़त-न। जीवयोनिभेदस्वरूपप्रतिपादप्रम्खायति,वर्षादिना हीयते, प्रतिभ्वस्यते विध्वंसाभिमुखीन के पूर्वाधिकाविशेष. पृ०१०
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जोशिप्यमुद
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मोणिप्पमुह-योनिप्रमुख वि० योनिद्वारके, विपा० १ ० १ अ०] ।" [चतरासीइजोसिप्पमुहयसहस्सा। "स०स म० योनिमुखानि योनिमाहाणि एकस्यामेव योनावनेकजातिकुल संभवादिति । जी० ३ प्रति० । प्रव० ।
जोणिनूय-योनिनूत - त्रि० । योन्यवस्थे बीजाऽऽदौ, "जोणि
अनूप बीए, जीवोsवकमा सो व श्रष्ठो वा । " श्राचा० नि० १ भु० १ २० ५ उ० । श्रत्र जूनशब्दोऽवस्थावखनः, योन्यत्रस्थे बीजे योनिपरिणाममजडतीत्यर्थः । श्राचा० १४० १० ५ ४० बीजे योनिभूते योग्यवस्थां प्राप्ते योनिपरिणाममजतीति जात्रः । बीजस्य हि द्विविधाऽवस्था । तद्यथा-योन्य वस्था, अयोग्यवस्था च । तत्र यदा वीजं योन्यवस्थां न जहाति, अथ बोज्झितं जन्तुना, तदा तद् योनिभूतमित्यभिधीयते । प्रज्ञा० १ पद नि० चू० ।
नोणिमुहणिष्फ मिय- योनिमुख निस्फटित - त्रि० । स्मरमन्दिरतुरामनिर्गते, तं० ।
जोणिय - योनिक- त्रि० । योनदेशोद्भवे, ज्ञा० १ ० १ ० योनिज - त्रि० । योनिस्थानाद् जायते । जन-डः । देहभेदे, ज राजेएमजे च देहे, वाच० । जोणिलक्खचुलसी - योनिलचतुरशीति- स्त्री० । चतुरशीतियोनिलक्कसमूहे, प्रव० १५१ द्वार । ( तद्वक्तव्यता ' जोणि शब्दे १६५२ पृष्ठे गता ) जोणिविहाण - योनिविधान- न० । योनिभेदे, विपा० १ ०
१ श्र० ।
( १६५६ ) अभिधानराजेन्द्रः ।
नोणिसंगढ़ - योनिसंग्रह - पुं० । योनिरूपतिहेतुर्जीवस्य तया संग्रदोऽनेकेषामेकराभ्यामिद्वाप्यत्वं योनिसंग्रहः भ० श० ५ उ० । योनिभिरुत्पत्तिस्थानविशे षजवानां संग्रहो योनिसंग्रहः । योनिप्रतिपादनद्वारा उमेकेषां जीवानामेकराम्देन प्रति पादने, स्था० ।
योनिसंग्रहतो जीवानाद
सत्तविद्धे जोसिंग पछचे से जहा अंगजा, पोतना, जरायो, रसया, संसेवया, संमुच्चिमा उत्रिया ॥
"
-
जोय
तिषिद्धे भोषिसंग पछते तं महा-मवा, पोषया समुच्छिमा ॥
"पणीखं भंते!" इत्यादि पक्षिणां भदन्त ! [कतिविधः कतिप्रकारो योनिसंग्रहो, योग्युपलक्षितं संग्रहणमित्यर्थः । भगवानाह - गौतम ! त्रिविधो योनिसंग्रहः प्रज्ञप्तः तद्यथाअयजा:- मयूराऽऽद्यः, पोता- स्यादयः संमूमि खञ्जरीटाऽऽदयः । जी० ३ प्रति० ।
यगाणं भंते ! कइविहे जोणिसंग हे पत्ते ?। गोयमा ! तिविहे जोणिसंग पछत्ते । तं जहा-मया, पोयया, संमुच्मा एवं जहा खइराणं ॥
'मुषगाणं ते!" इत्यादि भुजगानां भदन्त ! [कतिथियो योनिसंग्रहः प्रकृप्तः ?। इत्यादि पक्षिवत् सर्वे निरवशेषं वक्तव्यमू । जी० ३ प्रति० ।
6
रा
बिहे " इत्यादि । योनिभिरुत्पत्तिस्थानविशेषेजवानां संग्रदो योमिसंग्रहः । स च सप्तधा, योनिनेदात्सप्तधा जीवा इत्यर्थः । अरुजः पक्रिमत्स्य सर्वाऽध्य पोतं वस्त्रं तखाः पोतादिव वा चोहित्थाज्जाताः, श्रज युत्रेष्टिता इत्यर्थः । पोतजा हस्ति वल्गुलं । प्रभृतयो जरायो गर्भवेष्टने जातास्तद्वेष्टिता इस्पर्थः। जरायुजा मनुष्याः गवादयरसे मना जाना रसज्ञा । संवेदाज्ञाताः संस्वेदजाः युकाऽऽदयः । सं. मूर्द्धनेन निर्युक्ताः संमृद्धिमाः कृम्पादयः उद्भिदो भूमिनंदा
ज्ञाता बद्भिज्ञाः खञ्जनकाऽऽदयः । स्था० ७ ठा० ।
जोसंग पण तं जहा अंडया, पोषया ० जाव उब्धिया उबवाइया ॥ "म" इत्यादि सुगम, नवरमोपपातिका देवनारकाः ।
स्था० ८ ठा० ।
संप्रति पणि प्रकारान्तरेण भेदप्रतिपादनार्थमाहपरस्त्रीणं भंते! कवि जोसिंग पथाचे १। गोमाजोपयोक्त्र न० जो
चनप्पयथल्लयर पांचदियतिरिक्खजोणियाणं पुच्छा है। गोमा ! दुबिहा पत्ता । तं जहा जराउया संमुच्छिमया । जराउया तिविहा पत्ता । तं जहा- इत्थी, पुरिसा, नपुंगा तत्वां जे ते मुसा ॥ "उपयाणं" इत्यादि चतुष्पदानां भदन्त ! [कतिवि धो योनिसंग्रहः प्रज्ञप्तः ? भगवानाह गौतम ! द्विविधो योनिसंग्रह प्रइतः तद्यथा-पोतजार, संमूर्तिमा न एमजन्यतिरिक्तगर्भभ्युकान्तास्ते सर्वे जरायुजा, अजरायुजा वा पोतजा इति विवक्षितमतोऽत्र द्विविधो यथोपो योनिसंग्रह उक्तः । अन्यथा गवादीनां जरायुजत्वात् तृतीयोऽपि जरायुजलक्षणो योनिसंग्रहो वक्तव्यः स्यादिति । तत्र ये पोतजाः ते त्रिविधाः प्रशप्ताः । तद्यथा-स्त्रियः, पुरुषाः, नपुंसकाश्च । तत्र ये ते संमूतिमास्ते सर्वे नपुंसकाः । जी० ३ प्रति० ।
जलयरपंचिदियतिरिक्खजोगियाणं भंते! पुच्छा ।। गोपमाता पाता। नहाश्रमया, पोया, संमुच्छ्रिमा, एवं जहा यगपरिसप्पाणं ॥
" जलचराणं " इत्यादि । जलचराणां नदन्त ! कतिविधो योनिसंग्रहः प्रज्ञप्तः ? । भगवानाह गौतम ! त्रिविधो योनिसंतथा-समजा बोजा संमूमिाथ
" एस
जौ० ३ प्रति० । जोणिसमुच्छेय- योनिसमुच्छेद- पुं० । योनिविध्वंसे, जोसी जगाणं दिट्ठा न कप्पर जोणिसमुच्छेश्रो। " प्रश्न • ५
सम्ब० द्वार ।
जोएद ज्योत्स्न- पुं० ज्योत्स्ना शुक्र ज्यो०४ पा जोएडा ज्योत्स्ना स्त्री० [ जोखिशब्दार्थे, प्रा०१ पाद - - । ' । जोश पोक्त्र १० युज्यतेऽनेन युक युगबन्धनार्थे दामनि, वाच० । “सुकिरणतवणिज्जजोत्तकनियं" ५०३ ०" जो समयपहारपादपरि जाएं। यूपे वृषभसंयमनमिति प्रश्न सं०द्वारा० योत्र - न० । गु-न् । योक्रे, वाच० । सूत्र० ।
शब्दार्थे जं० २०
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(१६५७) अभिधानराजेन्द्रः |
जोयण
व
जोया योजन-न । युज - भावाऽऽदौ ल्युट् । स्युट् । संयोगकरणे, वाच० । संबन्धने प्रश्न० १ उता चतुर्गव्यूताऽऽत्मके अध्वमानविशेषे, जं०१ .. चडगार जोयणे पाते । " स० १ सम० भ० आ० म० प्रज्ञा० । “ चनहत्थं पणधपुहं, दुनि सहस्लाइ गाउअं तेलि । सत्तारि गाउआ पुण, जोश्रणमेगं मुणेयब्वं " ॥ १ ॥ प्र० २५६ द्वार । " अठेव धणुसहस्सा, जोयणमाणं पमाणेयं । " ज्यो २ पाहु० ।
संयोगे णिच् ० द्वार । स्था०|
संप्रति मागधयोजनमाहमागहस्सां जोपणस्स अहस्सा नीहारे पास ते।
"माय" इत्यादि मगधेषु भवं मागचं मगधदेशव्यवहतं तस्य योजनस्याभ्यमानविशेषस्याष्टधनुः सहस्राणि नीदारो नि गमः प्रमाणमिति यावत् (निहते चि) कपिः नि धत्तं निकाचितं निश्चितं प्रमाणमिति गम्यते । इदं च प्रमाणं परमापचादिना क्रमेणावसेय ।
"
तथाहि
'परमाणू तसरेणू, रहरेणु श्रग्गयं च बालस्स । सिक्खा जूया व जयो अट्टगुणवियडिया कमसो ॥ १ ॥ " रात्र परशुराम यपरमानां समुदयरूप स्वादिभेदा अनुयोगद्वारानिदिता अनेनैव संगृहीता दृश्याः तथा पौरादितिस्पति गच्छतीतिर गमनोत्खातो रथरेपुरिति । एवं चाष्टौ । यवमध्यान्यङ्गुतं, चतुर्विंशतिरडूलानि स्तः चत्वारो दस्ता धनु- सहस्रे धनुषांग चत्वारितानियोजनमिति भागमा चिय दपि योजनं स्यादिति प्रतिपादितम्। तत्र यन् देशे षोमश निर्धनुयूतं स्यात्तत्र पनि सदस्रेधनुष योजनं भवतीति । स्था० वा० । श्राव० । भरहो वि गयो पूर्व काऊचरणस्स अहादियामहिम करिया इ, इओ निवत्ताए अठाहियाए तं चक्करयणं पुग्वमुहं पहावियं, अरो सम्ययलेण तमसुधार, उजवणं गंतरा ठियं ततो सा जोयणसंखा जाया "। श्राव० २ भ० ।
जो सिय
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जोव्वल - यौवन- न० | यूनो भावः - अण् । "औत श्रोत्” ॥८|१| १५० ॥ इति प्राकृतसूत्रेणाऽऽदेरौत ओकारः । प्रा०१ पाद " तैलाऽऽदी " |012 | प्राकृतसूत्रेणानादो वर्तमान स्यान्त्यस्यानन्त्यस्य च व्यञ्जनस्य द्वित्वम् । प्रा० २ पाद | तारुण्ये, प्रश्न० ४ सम्ब० द्वार । झा० | पं० व० । नि० चू० । मिरुवद पसरसजोय्बणक कसतरमचयभाचमुगाओ। निरुपद्धतं रोगादिना चितं सरसं गृङ्गाररसोपेतं निहपहतो वा स्यो रसो पत्र तथाविधं यौवनं तथा शोपाकृतया वस्तरुणवयोनावस्तास्यं तं चोपगता वास्तास्तथा । इह च यौवनतरुणभावयोर्यद्यप्येकार्थता, तथापि सरसत्वात्वल कण्योर्मनः शरीराश्रितयोः प्रधानतथा वि वक्तियोर्धर्म योराधारतया भेदेन विवणाद् न पौनरुक्त्य मिति । औ० । “जोब्वरोण य संपले ।" उत्त० २१ प्र० । यौवनं परमस्तरुणिमेति । प्रज्ञा० ३५ पद "आषोमशाद् भवेद् बालततस्तदण उच्यते वृद्धः स्यात्सप्ततेरुर्द्धम" इत्युक्तम
',
"
"सो"बोचनं योविशेषलक्ष णमिति । श्रा० म० १५० २ खएक। वाच० । सूत्र० । “यौवनमुदग्रकाले विद्यातिविरूपकेऽपि दर्शयति पाकसमये निम्बफलस्यापि माधु ॥१॥ इति दश० ३ ० अ जो " वयोवयवयवपादानं प्राधान्य स्थापनार्थे, धर्मार्थकामानां तन्निबन्धनत्वात्सर्ववयसां यौवनं साधीयस्तदपि त्वरितं यातीति । उक्तं च- "नश्वेगसमं चंचलं, च जीवियं जोवणं च कुसुमसमं । सोक्खं च जं प्रणिचं, तिरिण वि तुरमाणभोजाई ॥ १ ॥ " श्रचा १ ० २ ० १ उ० । जोन एकरण-यौवनकरण २० कालकृतोपस्थाविशेषाSSमके रसायना उद्यापादितवयोवस्थाविशेषाऽऽत्मके करणभेदे, सूत्र० १० १२० १४० । जोब्बणकिग-यौवनक्रीमक वि०
स्थायी कर्तरि तथा चोक्तम्" पियपुत्त भाइकिरुगा, णत्तू किडगा
यसमा पा याणं ॥ १ ॥ " सूत्र० १ ० ४ श्र० १० ।
जोव्वणग-यौवनक- न० । यौवनमेव योवनकम् । दशा० १०
श्र० । यौवने, "जोन्वणगमणुप्पत्ते ।" श्र०म० १ ० १ खपम । जोन्वणगुण - यौवनगुण - पुं० | युवतीनां प्रियभाषित्वाऽऽदिके गुणे, शा० १ ० १ ० ।
रुपयगयें "बियाले
जोयगनीहारि [ए] - योजननीहारिन - त्रि० । योजनातिक्रामिणि "जोयनीहारिया सरेणं । ” योजनातिक्रामिणा शब्देन । उपा० २० नीहारी सरो।" त म अतिशयः । स० ३४ सम० । जोयणपरिमल - योजनपरिमएमल त्रि० । योजनं योजनप्रमाणं परिमएम, गुणप्रधागोऽयं निर्देशः पारिनोव्यणमद-पौवनमदपुं० यस्य स योजनपरिमल योजनापरिम । "जोषणपरिमंडलं सुसरं घंटे तिक्त झालेमाले" रा० । नोषणा योजना- स्त्री० युज- णिच् छ संयोगकरणे नि० चू० २७० "उत्तमं प्रणिपातेन शूरं भेदेन योजयेत् नी रूपप्रदानेन सदृशं च पराक्रमैः " ॥१॥ दश० ३ अ० । जोषण योजनीय त्रि०संधी, नि०० १४० नोयत्तिग-जोगत्रिक-न० । 'जोगत्तिय' शब्दार्थे, दश०१० अ० जोसला - जोषणा - स्त्री० । प्रीतौं, सेवायां च । 'जुत्रो' प्रीति सेजोब० देशी-बिन्दी, स्तोके देना ३ वर्ग जोवारी स्त्री० [देशी धान्ये, दे० ना० ३ वर्ग
एहिं जाकीरति जोम्णमरण वयपरिणामे सरिया - हूँ ताई हिअर खरुति ॥ १॥" सूत्र० १ जोणिया पावनिकाखी० जोत-पद- वि० सेवमाने
० ३ श्र० ४ ० । चने रा
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० १ ० ६ ० ४ ४० । जोसण - जोषण - न० | सेवने, आचा० १४० ६ ० ४ ० ।
आव० ।
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वनयोरिति वचनात् । श्र० स० ।
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जो सिय- जुष्ट- त्रि० । सेविते, सूत्र० १० २ श्र० ३ उ० ।
४१५
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जोसियंग
जोसियंग - योषिदङ्ग - न० । स्त्रीणापत्रे, तथा चोकम" का पीपमतिमा मिया मस्निग्धा - शव कथा कुपितोऽपि कुपित इव । १ सू० १०४
अ० १० ।
नोसियाण - जोषित्वा - अव्य०। प्रीतपित्वेत्यर्थे, व्य०७ ४० । जोह-योध-पुं० । युध्यति शत्रून् प्रतिसंहरतीति योधः । युद्धं कृत्वा शत्रूणां जेतरि, उत्त० १४ अ० शूरपुरुषे, " जोहाण य सी।" योधानां शूरपुरुषाणाम | स्था० १० वा० । सुभटे, "यथा योधैः कृतं युद्धम् ।" अष्ट०१५ अष्ट० । ते च भटेभ्यो विशिष्टतराः सहस्रयोधाऽऽदयः । औ० भ० रा० वा० । सूत्र० । " सावरण विग्र जोहो " ०१ ४० सहयो विश्वाभावेऽपि बोधयमिदानीम् ।
तथा च
साहस्तीमला खलु महपाणा पुव्य आसि जोड़ा उ वसुनत्यि एहि किं ते जोड़ा न होती तो १ ॥
|
पूर्व योधा महाप्राणाः सहस्रमल्ला आसीरन्, इदानीं तेषां तु या न सन्ति किन्वनन्तभागहीनाः, ततः किं ते योधा न नवविकासत्येन तेषामपि कार्यकरणादिति ?, भावः । व्य० ३ ० । युध्यत इति योधः सुभटः, बोध श्व योधः । कर्मचैरपराजयकार के बहुभुताऽऽदो. "अप्यमले जोडे. एवं हवश बहुस्सुए।" उन्त०११ अ० भावे घञ् । युद्धे, वाच योद-पुं० [पुध तृच् । युद्धकर्तरि वाच
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पोसज्ज वि० योधानां युद्धं तत्रिमितं
( १६५६ ) भन्निधानराजेन्द्रः ।
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ज्जर
सज्जः गुणीभूतो यः स योधसज्जः। योधानां युका प्रमुखीभूते, जी० ३ प्रति० ।
जोहद्वारा योपस्थान न० घालीदाद के युद्धकालभयोधानामङ्गविन्यासविशेषे, स्था० १ ठा० । तानि च " लोयप्पपाप पंच डालाणि तं जहा माली, पचली. बखाई. मंगलं, समपादं । " ० म० १ भ० २ ख एक । "याणि पंच ठाणाविषाणपणकरणानि चि" माम०१ २०१. खत्म | मा० चू० । उत० ।
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तथा च योधाऽऽदिस्थानप्रतिपादनार्थमाहआलीदें पचली, बेसाई मंडले व समपाए । बोधानां स्थानं पञ्चविधी प्रत्यासी, वेशाचं, भएऊलं समपाई तेपि स्थानयधा यथायोगं युध्यन्ते, तत एतानि योधस्थानानीति । व्य०१० | "असे जणंति सिचे जाणं जहाज बलि द्वितो पासतो पितो याति तं णामति" नि० चू० २०४० बलीदाऽऽदीनां स्वरूपं तत
"
जोहिया-योधिका स्त्री० । भुजपरिसपिणीभेदे, जी०२ प्रति० । झट-शद-पा० शालने वा०प०-०-निश पो" ४ १३० ॥ इति प्राकृत शीते डादेशः । 'ज्झडर' । प्रा०४ पाद शीयते, अशदत् । वाच० - घा० । सञ्चलने, स्वादि० पर०- अक० - सेट् | "क्षरः ज्जर-कर्-ध सिर-र-पर-पचड चित्र सिआ१३० इति प्राकृतसूत्रेण करतरादेशः प्रा०४ पाद करते, अक्षारीत्। वाच० ।
"
इति श्री सौधर्म बृहत्तपागच्छीय — कलिकाल सर्वज्ञकल्प- जट्टारकजैन श्वेताम्बराऽऽचार्यश्री १००८ श्रीमद्विजयराजेन्द्रसूरीश्वरविरचिते "अभिधानराजेन्द्रे " जकाराऽऽदिशब्द
सङ्कलनं समाप्तम् ।
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भकार
(१५) अभिधानराजेन्डः।
कडिज्जंत कंका-काका-स्त्री० । झमिति कृत्वा फट्यते यत्र मः। ध्वनिदे,
तथाध्वनियुक्त प्रचण्डानिले च ।पाच । कलहे, पृ. ३ ASPEA444444444443 Revolwatcoloosoteobolvoiwalsakseion
१०। तृष्णायाम, सुत्र० २०१० उ० । कांधे, मायायाम, सत्र० १० १३०। सोनेगयाम, माया०१ शु०५०३ उ०। विप्रकीर्णवचने, स्था०८1० । व्याकुलतायां च । इष्टविषयावाप्ती रागझम्झा । अनिष्टाचाप्तौ च द्वेषकञ्फा । प्राचा०१ ०३०३ उ०। ऊंझाउर-फमाऽऽतुर-त्रि० । तृष्णातुरे,सत्र०५०२ म०।
ऊंझावाय-फझावात-पुं। अशुने निष्ठरे सवृष्टिक व पाया, SRememamaeeeeeeeee
प्रज्ञा०१ पद । भ०। कंक्रिय-फित-त्रिकाबुनुक्षिते, हा०१७०१०।
झंट-तम-धा० । चलने, दिवा०-पर०-सक०-सेट् । वाचा क-क-पुं०। झग' संहतो, ग्रहे, पिधाने वा मःसुरगुरौ.
" भ्रमेष्टिरिटिल्ड-दुरादुल-दएदल्ल-कम्म-भम्मम-भमा-भइन्के, ध्वनी, वाच । स्वप्ने, गून्ये, कर्बकेपणे, विनऐ, विवरे,
माड-तल अराट-झण्ट-झम्प-भुम-गुम फुम-फुस-दुम-दुस-परीभृक्ने, एका । को० । शब्दान्तरे, सरसीरुहसंभवे ऊन्झानिले,
पराः"४१६१॥ इति ऊंटादेशः। 'झंटा।'प्रा०४ पाद । प्रताप, भ्रमर, हंसके, मदे, उपाय, घर्घरध्वाने, एका ।
खियां की । लघुवकेशेषु, दे०मा०३ वर्ग। 'म ति य माणस्स होइ निसे।' ध्यानस्य निर्देश, भा० ।
ऊंटलिअ-खी। देशी-चक्रमणे, दे० ना० ३ वर्ग। म.१०२खएक । नष्टजन्ये, त्रिकाबाच.।
कंग-पुं० देशी-पीमुके, देना०३ वर्ग। जन-ध्वज-पुं०1" ध्वजे वा" |२७ । ध्वजशब्दे संयुक्त- जमल
कंफल-खी। देशी-असत्याम, कीमायां च देना०३ वर्ग। स्य को वा नवति । 'झो'धो । प्रा०पाद । चतुको उतरन्य
| कंतर-ध्यन्तर-10 । धियो बुद्धेरन्तरं विशेषोभ्यन्तरम । विणाऽऽकारे वंशदएकोपरिस्थिते वस्त्रास्त्रण्डे, वाच ।
शिष्टबुझौ, अने०४ अधिः। झंकारि-न० । देशी-अवचयने, देना०३ वर्ग। ऊंतरजोग-ध्यन्तरयोग-पुं० । भ्यन्तरेणोपलहिते सम्यकमनो ऊंख-उप+आ+लभ-धारा निन्दापूर्वक दुष्टवचने, परस्परदूषणे |
बाकायव्यापाररूपे असम्यक्ष्मनोवाकायनिषेधरूपे योगे, अनेक
४ अधि। च । वाचल। "धातवोऽर्थान्तरेऽपि"1018|२५८ । उक्तादर्थाः। दर्थान्तरेऽपि धातवो वर्तन्ते इति उपालम्नेलादेशः।' ऊन'।
| कंप-भ्रम-धा। चलने, ज्वा०-पर०-सक०-सेट् । वाच । उपालम्नते, भाषते वा । प्रा०४पाद । “ पालम्भेस्वपश्चार
"नमेटिरिटिल.-"॥८॥४।१६१ ॥ इत्यादिना झंपादेशः। चेलवाः" ।।४।१५६॥ इत्यनेन वा उपालम्नेखादेशः। 'ऊं
झंप'प्रा०४ पाद । ख' 'उवालम्न ।' प्रा०४ पाद । तुष्टे, देना । कंपणी-स्त्री० । देशी-पदमणि, दे० ना० ३ वर्ग। वि+अप-धा० । परिदेवनोक्तौ, वाचा"धातवोऽर्थान्तरेऽपि, कंपिअ-न० । देशी-श्रुटिते, घट्टिते च । दे० ना० ३ वर्ग । ॥८४२५८ ॥ इति विलपंखादेशः । "विल-
बाऊंस-क्रिया । देशी-संतप्यते, विलपति, उपालनते, निःश्व॥७४१४८॥ इत्यनेन वा ऊंखादेशः । प्रा०४ पाद ।
सिति च। दे० ना० ३ वर्ग। निर+श्चम-धा। मुखनासाभ्यन्तर्गत वायौ, वाचा नि:- कि-नदेशी-वचनीय, दे० ना० ३ वर्ग। श्वस:खः" ।८।४। २०१ । निःश्वसख इत्यादेशो नवति ।। ककर-कर-पुंजकर्क-अरन् । वाचा "नादियुज्योरन्येषाम्" 'ऊंखा 'नीसस।' प्रा०४ पाद।
11४।३२७ । बिकापैशाचिकेऽप्यन्यषामाचार्याणां मतेन ऊखर-पुं० । देशी-शुष्कतरौ, दे. ना० ३ वर्ग।
तृतीयतुर्ययोरादौ वर्तमानयोः युजि धातौ चाद्वितीयौ न झखरिअ-न० । देशी-प्रवचयने, दे० ना० ३ वर्ग।
भवतः । झज्झरो, मच्छरो। प्रा०४ पाद । 'झांझ' इति स्याते कंऊ-क -पुं० । कलहविशेषे, औ०।
वाद्यभेदे, पटहे, कलियुग, नदभेदे, पाच । कंऊकर-ककर-पुं० । येन येन गणस्य भेदो भवति तत्का
ऊकरिय-करित-जर्जरित]-वि०। सतन्त्रीककरटिकाऽऽदि. रिणि, येन गणस्य मनोपुःखमुत्पद्यते तद्भाषिणि च । प्रश्न.३
घाद्यशब्दवति, स्था० १० ठा। संब० द्वार । प्रा० चू।
कमरी-स्त्री० । देशी-स्पर्शपरिहारार्थे, चण्डालादीनां कंककारीय-फाकारीय-पुं०। झन्झकरे, "जेण गणस्स भेदो
| इस्तयष्टी, दे० ना०३ वर्ग। भवति, सम्बो वा गणो झंझवित्रो अत्यति, तारिस भाभमप्पर-ऊटिति-न । वेगे, दु. ४ पाद । दिअहा जन्ति करे वा।" श्राव०४०।
झाप्पमहि, पमहिमणोरह पच्चिा" प्रा०४ पाद ३८८ सुधा कंकपत्त-कफप्राप्त-द्वि० ताकलको, मायां वारितंत-कीरयमाण-त्रि० । हायमान, "वासासु सातवाताह प्राप्ते, सूत्र०१०१३०
झमिजतो। " प्राव.१०।
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(१९६०) ऊमिल अनिधानराजेन्दः।
जवण ऊमिल-जटिल-त्रि०"जटिले जो भो वा" ॥११९४ा जटि- मृतुको, मन्दमन्द इति यावत् । एवंविधो यो (मारुति )
जस्य को वा भवति। कमिलो'-'जमिलो' निविझे,प्रा०१ पाद।। मारुतो वायुः, तस्य ( लय ति) लय आश्लेषो, मिलनमिति ममी-स्त्री० । देशी-निरन्तरवृष्टी, दे० ना० ३ वर्ग।
यावत् । तेन (पाहय ति) माहत भान्दोलितो यः । तत
एव (कंपमाण सि) चलनस्वभावो यः स तथा तम् । पुनः जत्थ-न० । देशी-गते, नष्टे च । दे०मा० ३ वर्ग।
किविशिष्टम ?-(अप्पमाणं ति) अतिप्रमाणम, महान्तम् . कमाल-न० । देशी-इन्द्रजाले,दे ना.३ वर्ग।
त्यर्थः। पुनः किविशिष्टम?-(जणपिच्चणिज्जरूवं ति) जनानां जय-ध्वज-पुं०। ध्वज-अच् । शौएिमके, सच । चाच०। च.
प्रेक्षणीयं रुष्ट योग्यं रूवं स्वरूपं यस्य स तथा तम । कल्प.
३क्षण । श्रा० म०। खवाड़े, मेद्रे च । पुं०। न० । वाच । सिंहाऽऽविवानोपेते, भ० ए श० ३३ उ० । चतुष्कोणाऽऽ
स्त्रियां टाप् । १० । शानि०। स्था। विपा० । कारे वंशदण्मोपरिस्थिते वरखएमे, वाच। औ० । चतुर्दशामामटमे स्वमभेदे, कल्प।
झर-स्मर-धा० । स्मरणे, ज्वा०-पर०-सकल-अनिट् । “स्मरे
भर-भूर-भर-भल-लढ-बिम्हर-स्मर-पयर-पम्हहाः'।८। तमो पुणो जच्चकणगलहिपशहरं समूहनीलरत्तपी
४।७४। इति झरादेशः । झर । प्रा० ४ पाद । प्रसुकिल्नसकुमालुसियमोरपिच्चकयमुच्यं भयं अहिय
कर-पुं० । देशी-सुवर्णकारे, दे० ना० ३ वर्ग। सस्सिरीयं फालिअसंखंककुंददगरयरययकलसपंडुरणं म
फरक-पुं० । देशी-तृणमयपुरुषे, दे. ना० ३ धर्ग। स्थयत्थंण सीडेण रायमाणेण रायमाणं जित्तुं गगणतलमंकसं चेव वचसिएणं पिच्चइ सिवमउयमारुयलयाहयकंप
झरग-ध्यात-पुं० । ध्यायतीति ध्याता । ध्यानकर्त्तरि, " भणगं माणं भइप्पमाणं जणपिच्छणिजख्वं ॥
करगं झरगं, पभावगं णाणदंसणगुणाणं।" तं० । " तमो पुणो जस" इत्यादितः "जणपिच्छणिजस्वं" इतिप
करण-करण-स्त्री०। क्षरणे, व्य०१०। यन्तम् । ततः सा त्रिशला पुनरष्टमे स्वने (भयं ति) ध्वज करणा-करणा-स्त्री०। करणे, श्रा०म०१ अ०३ खण्ड । पश्यति।किं विशिष्टं ध्वजम?-"जश्चकणग" इत्यादि । जात्यम | झरुअ-पुं० । देशी-मशके, दे० ना० ३ वर्ग। सत्समजातीयं यत् ( कणगं ति) कनकं सुवर्ण तस्य (बहिति)
करयच-स्मर्तव्य-त्रिका परिचेतव्ये, वृ०५०। वष्टिः, तत्र (पाहिति) प्रतिष्ठितं, सुवर्णमयदएमशिखरे खि.
कलकि-दग्ध-त्रि० । भस्मीनूते,"तक्ष्यादीनां छोद्वाऽऽदयः" तमित्यर्थः । पुनः किं विशिष्टम् !-(समूह सि) समूहीभूतानि, बहुनि श्यर्थः। (नीलरतपीअसुकिला ति)नीसरक्तपीतशुक्न
10181 ३६५। ति दहस्य झत्रकादेशः,क्तप्रत्यये "स्वराणां-" वर्णमनोहराणीत्यर्थः । (सुकुमाल ति) सुकुमालानि (7
1018|१३८ । क-कि, "कगच०-" ।।१।१७७। प्रसियत्ति) उल्लसन्ति, बातेन लहलहायमानानि इत्यर्थः ।
तलुक । स्वायें कः ।स्-१-१। “कग०"८।१।१७७। कलुक । एवंविधावि यानि (मोरपिछति) मयूरपियानि, तैः कृता मू.
"स्यमारस्योत" ।।४।३३१ । 'अ' लक्किदा दुं० ४ जा इव केशा इव यस्य स तथा तम्। अयमर्थ:--यथा मनुष्य.
पाद । "सासानलऊलकियत, वाहसलिससंसित्तन।" प्रा० शिरसि वेणिभवति,तथा तस्य वजस्य वर्णस्थाने मयरपिन
४पाद ३५ सूत्र। समूहः स्थापितोऽस्तीति । पुनः किं विशिष्टम १-(अहियसमिस
ऊलक्कित-त्रि० । जस्मीभूते, प्रा०४ पाद । रीयं ति) अधिकसभीकम,प्रतिशोभितम् इत्यर्थः। पुनः किं वि- | फलकलिग्रा-स्त्री० । देशी-कोलिकायाम, दे. ना०३ वर्ग। शिष्टम् ?-एवंविधन सिंहेमराजमानम् इति विशेषणयोजना।म.
झला-खी। देशी-मृगतृष्णायाम, दे० ना०३ वर्ग । कीरन सिंहेन?-"फालिय" इत्यादि। स्फटिक रत्नविशेषः, शः प्रसिक, भोऽपि रत्नविशेषः, (कुंद ति) कुन्दस्य ध. | कटासिय-न। देशी-दग्धार्थ, दे० ना०३ वर्ग। धमपुष्फविशेषस्य माल्यम्, (दगरयक्ति)दकरजांसि जमक-कलंकि-नदेशी-दग्धार्थे, दे० ना० ३ वर्ग। जाः, (रययकास ति) रजतकलशो रूप्यघटः, (पंकुरेण
कलरी-कधरी-स्त्री० । कति कम-अरन्-पृ०। वाच०।उभयति.) उक्तसर्ववस्तुवत उज्ज्वलवर्णेन, ( मत्थयत्येण ति) मस्तकस्थितन, चित्रतया ध्वजशिरसि आलेखितेनेत्यर्थः ।
तो विस्तीर्णे चविनद्धमुखे मध्ये सकिसे ढक्काकारे वाद्यभेदे, पुनः कीरशेन सिंहेन !-( रायमाणेण ति ) राजमानेन,
प्रा०म० अ०१ खण्ड । प्रज्ञालाजी अल्पोच्छुये महामुखे.(भ० सुन्दरत्वात शोभमानेनेत्यर्थः। (रायमाणं ति) राजमानम
एश०३३ उ०) चतुरङ्गालनायिके करटिसदृशे बलयाकारे प्रा.
तोद्यविशेषे च । आचा०१०१०५ उ० प्रा० म० । शति तु योजितम् । पुनः कीरशेन सिंहेन ?-(भित्तुं) नेत्तुं द्विधा कर, किम् ?-(गगणतलमंडनं ति ) आकाशतलमण्डलम् ।
कल्प० । रा० ०।ज्ञा० । विशे०।"संस्खो गदा गंधारं, (यसि)उत्प्रकायाम् (ववसिपण ति) सोद्यमेनेव ।
ममिं पुण झल्लरी।" स्था० ७ ठा० । अनु०। प्रयमर्थ:-विजस्तावद्वायुतरङ्गेण कम्पते । कम्पमाने च ध्वजे
कद्धरासंठिय-फारीसंस्थित-त्रि० । मल्लसिंस्थानवति, प्र. सिहोऽपि गगनं प्रति उच्छलति । तथा च प्रेक्वते-अयं
ल्पोच्छ्रायत्वान्महाविस्तारत्वाच) तिर्यग्नोककेत्रलोको मलरी. मिहः किं गगनत जेतुम उद्यमं करोतीति ? (पिच्छत्ति)| सीस्थतः। भ० ११ प्रेक्षते ति प्राग्वत् । अथ पुनः किं विशिष्ट ध्वजम ?-"सिखवण-ध्यापन-न0 1 उपशमश्रेण्या कर्मानुदयलकणे वि. इत्यादि । शिवः सौम्यः सुखकारी, मत पव । मनच ति)। भ्यापने, माना० १० अ०१२०।
मत (पहिया ति) कणा त्या
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समा
कवणा याभिधानराजन्द्रः।
जाण जवणा-कपणा-स्त्री० । कपणाऽपचयो निर्जरा पापकर्मणाम- (१२) ध्यातुः स्वरूपस्य निरूपणम। स्मादिति कपणा। विशे० (१६१ गाथा)। "पावाण खवण (१३) तत्रानुप्रेकालेश्यालिद्वाराणि। त्ति" पापकर्मक्षपणहेतुत्वारकपणा । भावाभ्ययने सामायिका- (१४) फलद्वारे प्रासम्बनादिविस्तरः। ऽऽदिश्रुतविशेषे, अनु० । स्था० । (मस्या निकषस्तु 'सवणा'
(१५) ध्यातव्यद्वारस्य विशेषतो विवरणम । शब्दे तृतीयत्नागे ७३३ पृष्ठे गतः)
(१६) संसारप्रतिपकतया मोकहेतुानमिति निरूपणम् । कस-ऊप-पुं० । मष्यते कर्मणि घः । मत्स्ये, जी० ३ प्रति।। (२७) ध्यानाष्टकेन ध्यानस्य फलादिनिरूपणम् । वाच० त०। जं। प्रश्न विशेषमाणमीनराशौ च । भावे
(१) ध्यानस्वरूपमघः । तापे, अच् । खिले वने च । ना नागवल्ल्याम, स्त्री०। वा.
उपयोगे विजातीय-प्रत्ययाव्यवधाननाक् । च० "कसविहगसुजायपीणकुच्छी।"जी०३ प्रति०।०। शुभैकमत्ययो ध्यानं, सदमाऽऽनोगसमन्वितम् ॥ ११॥ टचिन्ने, अयशसि, तटे, तटस्थे, दीर्घगम्भीरे च । दे० (उपयोग शति) उपयोगे स्थिरप्रदीपसरशे धारामने शाने, मा० ३ वर्ग।
विजातीयप्रत्ययन तजिदकारिणा विषयान्तरसंचारेणालऊसिभ-न० । देशी-पर्यस्ते, माकृष्ट च । दे ना० ३ वर्ग। क्ष्यकाबेनापि,अन्यवधानजागनन्तरितः, शुभेकप्रत्ययः प्रशस्तै
कार्थबोधो, ध्यानमुच्यते, सूचनाउनोगेनोत्पाताऽऽदिविषयसू. कसुर-न० । देशी-ताम्बूले, म च । ३० मा० ३ वर्ग।
आमाऽऽलोचनेन, समन्वितं सहितम् । शा० १० द्वा०। काअ-ध्याति-स्त्री० । "स्वरादनतो वा"10।४।२४०।
ध्यानं च विमले बोधे, सदैव हि महात्मनाम् । कागन्तवर्जितात्स्वरान्ताद्धातोरन्तेऽकाराऽऽगमो वा भवति । ' काका ' प्रा०४ पाद । ध्याने, स्था०६ ग०। आव० ।
सदा प्रसृमरोऽनभ्रे, प्रकाशो गगने विधोः॥२०॥
(ध्यानं चेति) विमले बोधे च सति, महात्मनां सदैव हि काइ-ध्याति-स्त्री० । 'झा'शब्दाथै, प्रा०४ पाद ।
ध्यानं भवति, तस्य तत्रियतत्वात् । रष्टान्तमाह-मन भरहिकाइय-ध्यात-त्रिका अनुप्रेक्किते, स्था० ३ ग०४०।
ते गगने, विधोरुदितस्य प्रकाशः सदा प्रमृमरो भवति, तथा5काइयव-ध्यातव्य-त्रि० । ध्येये, प्राच० ४ ०।
वस्थास्वाभाब्यादिति । द्वा०२४ द्वा०। काउन-न० । देशी-कासिफले, दे० ना०३ वर्ग।
(२)तानुर्विधमकाम-काट-पुं०। कद-णिच् अन् । निकुञ्ज कान्तारे, वणाऽऽदी- चत्तारि काणा पक्षता । तं जहा-भद्दे काणे, रोदे काणे,
नां च मार्जने, वाच० । लतागहने, दे० ना० ३ वर्ग। धम्मे काणे, मुक्के काणे। काढन-काटन-न० । कोषे, स्था०५ ग० २ उ०प्रस्फोटने ।
सुगम चैतद्-नवरं-ज्यातयोध्यानानि, अन्तमुहर्तमान कार्य स्था०५ ग०२ उ01
चित्तस्थिरतालक्षणानि । उक्तं च-"भंतो मुत्तमित्तं,विचाऽव. जाण-ध्यान-न०1"ये' चिन्तायाम् । श्रा००४०च्यायते स्थाणमेगवत्पुम्मि । ग्नमत्थाणं काणं, जोगनिरोहो जिणा चिन्त्यते वस्वनेन, यातिी भ्यानम् । प्रव०६द्वार“साश्व- ति" ॥२॥ तत्र ऋतं दुःखं, तस्य निमितं,तत्र वा नवम,ऋते या सध्यह्यां झः" ।।२।२६ ॥ इति ध्यस्य सः। प्रा०२ पाद ।
पीडिते नवमासंध्यान, योऽध्यवसायो हिंसाऽऽयतिकीर्यानुगतं चिन्तायाम, प्रा०४०४ भ० । परिणामस्थिरतायाम, भष्ट०६
रोळ. श्रुतचरणधमांदनपेतं धये, शोधयत्यप्रकार कर्ममलं, महा एकाडलम्बनसस्थस्य सरशप्रत्ययस्य च प्रत्ययान्तनि- शुवं वा क्लमयतीति शुक्लम । स्था० ४ ० १ उ० । वि
शे० धनागम औलाप्रा.च.। तत्र च्यातिनयुक्तप्रवाहे, पो० १२ विव०। मान्तर्मुहर्तमात्रकालमेकाप्रचित्त
मिति भावसाधनः, तत्पुनः कालतोऽन्तमुहर्तमात्र, भेदतस्तु ताज्यवसाने, प्रव०६द्वार । एकावसम्बनेन मनःस्थैर्ये, विशेष सूत्र०। योगनिरोधे, स०१ सम० । प्रा० । पश्चा० । स्था।
चतुःप्रकारमादिभेदेन, ध्येयप्रकारास्त्वमनोविषयसम्म. ग०। सूत्र०।
योगाऽऽदयः। तत्र शोकाक्रन्दनविज्ञपनाऽऽदिलवणमासे,ते. विषयसूची
न उत्सनबधाऽऽदिलकणं रो, तेन जिनप्रणीतभावभकाना
दिलक्षणं धम्य, तेन अवधासमोहाउदिलक्षणं शुक्नम । तेन (१) ध्यानस्वरूपम् ।
फलं पुनरेषां तिर्यनरकदेवगत्या विमोकाऽऽयमिति कमेण ध्यानस्य चातुर्विध्यम ।
अयं ध्यानसमासार्थःन्यासार्थस्तु-ध्यानशतकादबसेयः। तथेध्यानाध्यानयोर्विवचनम् ।
दं ध्यानशतकम-अस्य च महार्थत्वाद्वस्तुतः शास्त्रान्तरत्वाद (४) ध्यानस्यैव भेदनिरूपणम् ।
प्रारम्न एव विघ्नविनायकोपशान्तये मालार्थमिष्टदेवतानमप्रशस्ताप्रशस्तानि ध्यानानि ।
स्कारमाहशुभाशुभध्यानस्य विशेषतो वर्णनम् । धर्मध्यानस्य वर्णनम् ।।
वीरं सककाण-ऽग्निदहकम्मिंधणं पण मिळणं। (0) तत्र प्रसङ्गतो ज्ञानदर्शनचारित्रवैराग्यजावनानां
जोईसरं सरएणं, माणज्यणं पवक्खामि ॥१॥ स्वरूपप्रदर्शनम्।
बोरं शुक्यानाम्निदग्धकमेंन्धनं, प्रणम्य, ध्यानाध्ययनं प्रव(६) देशद्वारे परिणतापरिणतयोगानां स्थाननिदर्शनम्। क्यामीति योगः। तत्र 'इर' गतिप्रेरणयोरित्यस्य विपूर्वस्याज(१०) कालाऽऽसनाऽऽलम्बनक्रमद्वाराणि।
न्तस्य विशेषण ईरयति कम गमयति,याति खेड शिवमिति वीरः। (११) ध्यातव्यद्वारे ध्यातम्यभेदप्रतिपादनम् ।
तंबोरं, किविशिष्टम !, इत्यात पाह-गुचं क्लामवतीति -
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(१६६२) अनिघानराजेन्छः।
काण
फागण
लं, शोकं खपयतीत्यर्थः । 'ध्यै-ध्यायते चिन्त्यते ऽनेन तस्वीम- | चित्तवेत्यर्थः । वा पूर्ववत् । अथवा (चिंते सि)अथवाशब्दः ति ध्यानम, एकाप्रचित्तनिरोध इत्यर्थः। शुक्लं च तद् ध्यानं च, प्रकारान्तरप्रदर्शनार्थः । चिन्तेति-या खलूक्तप्रकारद्वयरहिता तदेव कमन्धनदहनादग्निः शुक्रवानाम्निः तथा मिध्यादर्शना- मनश्चेष्टा, सा चिन्तेति गाथार्थः॥॥ विरतिप्रमादकषाय योगैः क्रियत इति कर्म-कानाऽऽवरणीयाऽऽदि,
इत्थं ध्यानापानबक्षणमोघतोऽभिधायाधनाऽभ्यानमेष का. तदेवातितीवदुःखान मनिवन्धनत्वादिन्धनं कर्मन्धन, ततश्च शु
__ लस्वामियां मिरूपयन्नाहक्लध्यानाग्निना दग्धं स्वस्वभावापनयनेन जस्मीकृतं कर्मेन्धनं येन स तथाविधः,तं प्रणम्य,प्रकर्षेण मनोवाकाययोगनवेत्यर्थः।
अंतोमुत्तमित्तं, चित्तावत्थाण मेगवत्थुम्मि । किम, समानकर्तृकयोः पूर्वकाले क्त्वा-प्रत्ययविधामा ध्या- बरमत्थाणं जाणं, जोगनिरोहो जिणाणं तु ॥ ३ ॥ नाभ्ययन प्रवदयामीति योगः। तत्राधीयत इत्यध्ययनं, कर्मणि इह मुहर्सः सप्तसप्तसिलवप्रमाणः कालविशेषो भएयते । (मा. ब्युटु, पठ्यत इत्यर्थः। ध्यानप्रतिपादकमध्ययनं ध्यानाध्ययनम् ।
व.) अम्तमध्य करणे,ततश्च अन्तर्मुहुर्तमात्र, कासमिति गम्य. तद्याथात्म्यमढीकृत्य प्रकण वक्ष्ये ऽभिधास्ये, किविशिष्टं बीर
ते।मात्रशन्दस्तदधिककाजव्यवच्छेदार्थः। ततश्च निन्नमुहर्तमेप्रणम्य ?, इत्यत आह-योगेश्वरं, योगीश्वरं वा। तत्र युज्यन्त
व कामम, किम् ?, बित्तावस्थानमिति-चित्तस्य मनसः,अश्वस्थान इति योगा मनोवाकायब्यापारलक्षणा, तरीश्वरःप्रधानः, तम्।
चिसावस्थानम, प्रचस्थितिरवस्थानं,निष्प्रकम्पतया वृत्तिरित्यसथादि-अनुत्तरा एव भगवतो मनोवाकायन्यापारा इति ।
थः । क!, एकवस्तुनि-एकमद्वितीय, वसन्स्यस्मिन् गुणपर्याया यथोक्तम्
इति वस्तु-चेतनाऽऽदिएकं च सद्वस्तु च एकवस्तु,तस्मिन् । 7. "दचमणोजोएणं, मणनाणीणं अणुत्तराणं च।।
प्रस्थानो वानमिति-सत्र च्छादयतीति ग्न-पिधान, तच झानामसयोजिस्ति के-यलेण नाऊण सति कुणा ॥१॥
दीनां गुणानामाचारकबाद ज्ञानाबरणाऽऽदिनक्कणं घातिगिभियपयक्खरसरला मिच्चितरतिरिच्चसगिरपरिणामा ।
कर्म, उमनि स्थिताः स्थाः, अवलिन इत्यर्थः । तेषां - मणणेवाणी वाणी, जोयणनीहारिणी चेव ॥२॥
स्थानां, ध्यामं प्राग्वत्। ततश्चायं समुदायार्थ:-अन्तर्मुहत्तंका. एका य अणेगेसिं, संसयवोच्छेयणम्मि अपमिहया।
बं यश्चित्तावस्थानम् एकस्मिन् वस्तुनि तत् छद्मस्थानां ध्यानन य निधिज्जासोश्रा, तिप्पह सब्बानपणं दि॥३॥
मिति। योगनिरोधो जिनानां विति। तत्र योगास्तत्वत औदारि. सम्वसुरेहितो वि हु. अहिगो कंतो य कायजोगो से ।
काऽऽदिशरीरसंयोगसमुत्था प्रात्मपरिणामविशेषव्यापारा एवं । तह धिय पसंतरुचे,कुण सया पाणिसंघाए" ॥४॥ इत्यादि।
यथोक्तम-" औदारिकाऽऽदिशरीरयुक्तस्याऽऽत्मनो वीर्यपरियुज्यते वाऽनेन केवलज्ञानाऽऽदिनाऽऽत्मेति योगो ध
तिविशेषः काययोगः; तयौदारिकवैक्रियाहारकशरीरव्या. मंडाक्यभ्यानलकणः । स येषां विद्यते इति योगिनः
पाराऽऽहतवाव्यसमूहसाचिव्याधीवव्यापारी वाग्योगः त. माधवः, तैरीश्वरः, तमुपदेशेन तेषां प्रवृत्तेः, तत्संबन्धा- थौदारिकवैक्रियाऽऽदारकशरीरव्यापाराऽऽहतमनोसायसमूहदिति । तेषां वा ईश्वरो योगीश्वरः प्रभुः स्वामीत्यनान्त
साचिव्याज्जीवव्यापारो मनोयोग इति । अमीषां निरोधो योरमात योगीश्वरम् । अथवा योगिस्मार्य-योगिनां चिन्त्य, ध्येय- गनिरोधः, निरोधनं निरोधः, प्रत्रयकरणमित्यर्थः । केषां १, मित्यर्थः । पुनरपि स एव विशेष्यते-सरण्यं-तत्र शरणे साधु,
जिनानां केवलिनां, तुशब्द एवकारार्थः । स चावधारणे, शरण्यः,तं रागाऽऽदिपरिभूताऽऽश्रितसत्ववत्सलं,रककमित्यर्थः।
योगनिरोध पच, न तु चित्तावस्थानं, चित्तस्यैवाभावात् । ध्यानाध्ययनं प्रवक्ष्वामीत्येतद् व्याख्यातमेव ।।
अथवा योगनिरोधो जिनानामेव ध्यान, नान्येपाम,अशक्यत्वाअत्राह-यः शक्तध्यानाग्निदग्धकमेंन्धनः स योगीश्वर एव,
दित्यलं विस्तरण । यथा चायं योगनिरोधो जिनानां ध्यान यश्च योगीश्वरः स शरण्य पवेनि गतार्थे विशेषणे । न । अभि
यावन्तं च कालं तद्भवत्येतदुपरिष्टा दमयाम इति गाथार्थः ॥३॥ प्रामापरिज्ञानात् । इह शुक्लध्यानाग्निदग्धकर्मेन्धनः सामान्यकेवळ्यपि नवति, न त्वसी योगेश्वरः, वाकायातिशयाभा
साम्प्रतं छद्मस्थानामन्तर्मुहूर्तात्परतो यद्भवति, वातास एव च तत्वतः शरण्य इति कापनार्थमेवाऽष्टमेतदपि।
तमुपदर्शयन्नाहतथा चोजयपदव्यभिचारे एकपदव्यभिचारे अशातकापनार्थ भंतोमुहुत्तपर मो, चिंता काणंतरं व हुज्जादि । च शास्त्रे विशेषणानिधानमनुझातमेव पूर्वमुनिभिरित्यलं विस्तरेगति गाथार्थः॥१॥
मुचिरं वि हुज बहुव-त्थुसंकमे गाणसंताणो॥४॥ (३) साम्प्रतं ध्यानाध्यानलकणं प्रतिपादयत्राह
अन्तर्मुर्तात्परत इति-भिन्नमुहर्तादृर्द्र, चिन्ता प्रागुत.स्वरूपा,
तथा ध्यानान्तरं वा भवेत् । तत्रेह न भ्यानादन्यद ध्यानं ध्यानाज थिरमझवसाए, तं जाणं जं चनं तयं चित्तं ।
न्तरं परिगृह्यते, किं तर्हि ?, जावनाऽनुप्रेक्षाऽऽत्मकं चेत इति । त हुन्ज नावाणा वा, अणुपेहा वा अहव चिंता ॥२॥ इदं च ध्यानान्तरं तदुत्तरकालनाविनि ध्याने सति प्रवति, यदित्युद्देशः, स्थिरं निश्चनम्,अध्यवसानं, मन एकाग्रताऽऽम्बन- तत्राप्ययमेव न्याय इति कृत्वा भ्यानसन्तानप्राप्तियतः, अतस्तमित्यर्थः। तदिति निर्देश, ध्यान-प्राङ्निरूपितशम्दार्थम् । ततथै- मेव कालमानं वस्तुसंक्रमहारेण निम्पयन्नाह-सुचिरमपि नदुक्तं भवति-यस्थिरमध्यवसानं तट्यानमभिधीयते. यथल- प्रभूतमपि, कालमिति गम्यते । भवेत, बहुवस्तुसंक्रमे सति, मिति यत्पुनरनवस्थितं तच्चित्तम्। तचौघतस्त्रिधा भवतीति दर्श- ध्यानसन्तानो ध्यानप्रवाह इति । तत्र बहूनि च तानि वस्तूनि यति । तावेज्ञावना वेति-तश्चित्तं भवेत् । का?, नावना-जाव्यत बवस्तूनि, भात्मगतपरगतानि गृह्यन्ते । तत्राऽऽत्मगतानि इति भावना, ध्यानाच्यासक्रियत्यर्थः । वा विभाषायां, मनप्रेका मनःप्रतीनि, परगतानि व्याऽऽदी नीति,तेषु संक्रमः संचरणवति-अन पश्चाद्भावे,प्रेकणं प्रेका, सा च स्मृतिः, ध्यानापस्य मिति गाथाधः ॥४॥
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काण
अभिधानराजेन्सः।
(४) अथ ध्यानस्यैव भेदानाद
(७) साम्प्रतं धर्मध्यामावसरः, तत्र तदभिधिरसचेकायाऽऽदिविहिकिकं, तिव्वं मउयं च मऊं च।
| স্বকবি রানাঘানুষমাजह सीहस्स गतीनो, मंदा य पुता दुया चेव ।।
कास्स भावणाओ, देसं का सहाऽऽसमविसेस । पुनढाध्यवसायाऽऽत्मकं चित्तं त्रिधा-कायिक. वाचिकं, भाषण कम्मका-इअव्वयं जे पकायारो॥२०॥ मानसिकं चकाचिकं नाम-यत्काथन्यापारेणोपयुक्तो प्रकचा- तत्तोऽणुप्पेहाओ, लेस्सा लिंगं फलं च नाऊण । रणिकां करोति, कर्मवष्वा सन्मानाङ्गोपाङ्गस्तिष्ठति । याचिकं
धम्मं जाइज मुणी, वकय जोगो तो मुकं ॥२७॥ सु-मयेशी निरवद्या भाषा भाषितव्या, नेशी साबचेति विमर्शपुरस्सरं यजायते। यद्वा-धिकथाऽऽदिव्युदासेन श्रुतपरा
ध्यानस्य प्रानिकापितशब्दार्थस्य,किम् ? भावना:-ज्ञानाssari,
शास्वति योगः। किंच-देशं तदुचितं, कालं, तथाऽसनविशेष बर्सनाऽऽदिकमुपयुक्तः करोति तद्वाचिकम् । मानसं तु-एकस्सिर
तदुचितमिति, मालम्बनं वाचनादि,मं मनोनिरोधाऽऽदि, वस्तुनि चित्तस्यैकाग्रता । पुनरेकै त्रिविधं-तीवं, मृदुकं च,
तथा ध्यातव्यं ध्येयमाकाऽऽदितथा ये च ध्यातार:-अप्रमादाऽऽ. मध्यं च । तत्र तीवमुत्कटम, मृदुकं च मन्दम, मध्यं च-माति
दियुक्ताः ततोऽनुप्रेक्षा:-न्यानोपरमकाक्षभाविन्योऽनित्यत्वा55ती नातिमृकमित्यर्थः। यथा सिंहस्य गतयस्तिस्रो भवन्ति ।
चालोचनारूपाः, तथा सेवा:-प्रदा एव, तथा लिधं-श्रद्धानातद्यथा-मन्दा ब, पता, द्रुता च । तत्र मन्दा-धिलम्बिता,
5ऽदि, तथा फलं-मुरलोकाऽऽदि। चशब्दः स्वगतानेकभेदप्रप्लुता-नातिमम्दा नाति त्वरिता, द्रुता-अतिशीघ्रवेगा । ०१
दर्शनपरः। एतद् ज्ञात्वा, किम् ?, धर्ममिति-धर्मध्यानं, ध्यायेउ०। दर्श।
न्मुभिरिति । तत्कृतयोगः-धर्मध्यानकृताज्यासः, ततः पश्चात्, त्य तावत् सप्रसङ्गं ध्यानस्य सामान्येन सक्कणमुक्तम,अघुना
शुक्लध्यानमिति गाथादयसमासाः। न्यासार्थ तु प्रतिद्वार विशेषलकणाभिधित्सया ध्यानोद्देशं विशिष्टफलहेतु.
प्रन्यकार: स्वयमेव वश्यति । २८ । २६ । भावं च सङ्केपतः प्रदर्शयन्नाह(५) प्रशस्ताप्रशस्तानि ध्यानानि
तत्राऽऽद्यद्वारावयवार्थप्रतिपादनायाहअदृ १ रुदं २ धम्मं ३, सुकं ४माणावत्थ अंताई।। पुवकयम्जासो भा-वणाहिँ माणस्स जुग्गयमुचेइ । निव्वाणसाहणाई, भवकारणमट्टरुदाई ।।५।।
ताओ अ नाणदसण-चरित्तवेरग्गानिप्रयाओ ॥३०॥ भास,रो,धर्म, शुक्लम। तत्र ऋतं पुःखं,तनिमितो रढोऽध्य. "वेरग्गजाणा" इति पाठान्तरम् । घमायः ऋते नवमात, विसष्टमित्यर्थः। हिंसाऽऽद्यतिक्रौर्यानुगतं |
पूर्व ध्यानात्प्रथम, कृतो निर्वर्तितः, अभ्यास आसेवमायक्षणो रौद्रमा चरणश्रुतधर्मानुतं धर्मम् । शोधयत्यष्टप्रकारं कर्ममतं,शुचं येन स तथाविधः, काभिः पूर्वकृतान्यासः?-भावनानिः करणवा कामयतीति शुक्लम् । अमूनि ध्यानानि वर्तन्ते । अधुना फाहे. भूतानिः,नावनासु वा जावनाविषये पश्चादू,ध्यानस्याधिकृतस्य, तुत्वमुपदर्शयति-तत्र ध्यानचतुष्टये, अन्ते चरमे-सूत्रक्रमप्रामा- योग्यताम्-अनुरूपताम्,उपैति यातीत्यर्थः। ताश्च भावना ज्ञानरापाद् धर्मशुक्ले इत्यर्थः। किम् ?, निर्वाणसाधने । इह निर्वृतिनि- दर्शनचारित्रवैराग्यनियता वर्तन्ते, नियता इति परिचिताः। ाण,सामान्येन सुखमभिधीयते । तस्य साधने,कारणे इत्यर्थः। पागन्तरे वा जनिता इति गाथार्थः ॥ ३०॥ ततश्च-" अट्टेण तिरिक्खगति, रोइज्माणेण गम्मती नरयं ।
(0) साम्प्रतं ज्ञानभावनास्वरूपं गुणदर्शनायेदमाहधम्मेण देवलोय, सिकिंगात सुक्ककाणणं ॥१॥" इति यदुक्तं,
णाणे निचब्जासो, कुणा मणोधारण विमुधिं च । तदपि न विरुध्यते । देवगतिसिक्किगत्योः सामान्येन सुसिके रिति । अथापि निवाणं मोत्तः,तथाऽपि पारम्पर्येण धर्मध्यानस्या
नाणगुणमुणिअसारो, तो काइ सुनिच्चन्नमईओ ॥३१॥ पि तत्साधनत्वादविरोध इति । तथा भवकारणमार्नरौद्रे इति ।
शाने श्रुतझाने, नित्यं सदा, अल्यास आसेवनालकणः, करोति तत्र भवन्त्यस्मिन् कर्मवशवर्तिनः प्राणिन इति भवः-संसार
निर्चत्तयति, किम ,मनसोऽन्तःकरणस्य, चेतस इत्यर्थः। धारएव, तथाऽप्यत्र व्याख्यानतो विशेषप्रतिपत्तेस्तियनारक
णमभव्यापारनिरोधेनावस्यानमिति जावना। तथा विशुचि, भवग्रह इति गाथार्थः ।। ५ ।। श्राव०४ अ० सम्म ।
तत्र विशोधन विशुकिःसूत्रार्थयोरिति गम्यते । ताम,चशब्दाद
भवनिर्वेदं च । एवं ज्ञानगुणज्ञातसार शति-ज्ञानेन गुणानां जीवा(६) अथ शुभाशुभध्यामज्ञापनार्थमिदमाह
जीवाऽऽश्रितानां, 'गुणपर्यायं च यम्' इति वचनात, पर्यायावायरसगंधफासा, इट्ठाणिट्टा विभामिया मुत्ते ।
णां च तदविनाभाविनां (मुणितो) ज्ञातः सारः परमार्थो येन अहिकिञ्च दबझेसा, ताहि न साहिजई भावो॥ स तथोच्यते, ज्ञानगुणेन वा ज्ञानमाहात्म्येनेति नायः । हात: सत्रे प्रज्ञापनाऽऽदी, कृष्णाऽऽदीनां वेश्यानां यद्वर्णगन्धरसस्प
सारो येम, विश्वस्येति गम्यते । स तथाविधः । ततश्च पश्चाद, हाः, इष्टा अनिष्टाच, विभापिता विविधमकैरुपमानैवर्णिताः।
ध्यायति चिन्तयति; किंविशिष्टः सन् ?, निश्चला निष्पकम्पा,
सम्यम्झानतोऽन्यथाप्रवृत्तिकम्परहितेति भावः । मतिवुझियस्य (वेश्यावर्णनं 'लेस्सा' शब्द यक्ष्यते) तदेतत् सर्वमपि व्यो। इया अधिकृत्य प्रतिपत्तयम्।ताभिश्च सव्यसंश्यानिः शुभाशु
स तथाविध ति गाथार्थः ॥ ३१ ॥ उक्ता ज्ञानभाधना । भाध्यवसायरूपः साध्यते भावः । ७० १३०। श्राव० । दर्शका
साम्प्रतं दर्शनभावनास्वरूपं गुणदर्शनार्थमिदमाइ(मार्तध्यानयक्तव्यता अट्टहाण' शब्द प्रथमन्नागे २३५ पृष्ठे
संकाइदोसरहियो, पसमत्यिजाइगुणगणोवेरो । निरूपिता । रोरुध्यानवकव्यता तु 'रोहमाण' शब्दे यक्ष्यते। होइ असंमृढमणो, दंसमुद्धीइ काणम्मि ॥३॥ धर्मशुक्लध्यानयोस्तु परमार्थतो ध्यानत्वादिहैव व्याख्या। । (संकादिदोसरहित ति) शकुन शङ्का,प्रादिशब्दारकालाऽऽदि.
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(१६६४) जाब प्राभिधानराजेन्द्रः।
जाण परिग्रहः । उका-"शङ्काकाकाविचिकित्साऽन्यदृष्टिप्रशंसापर-| चशम्दात्तथाविधक्रोधाऽऽदिरहितश्च । य एवंविधो वैराग्यपासएमसंस्तवाः सम्यग्दृष्टेरतीचाराः" इति। (एतेषां च स्वरूपं प्र- जावितमना जवति स खल्वज्ञानाऽऽद्यपवरहितत्वाद् भ्याने स्थास्थानाध्ययने न्यशेण वयामः) तत्र शङ्काऽऽदय एव सम्ब- सुनिश्चलो भवतीति गाथार्थः ॥ ३४ ॥ तक्ता वैराग्यभावना, क्त्वाऽऽक्यप्रथमगुणातिचारत्वादोषाः शादिदोषाः,तेः रहि- मूलद्वारगाथास्ये ध्यानस्य भावना इतिच्यास्यातम् । तात्यक्ता उक्तदोषरहितत्वादेव। किम् ?-प्रश्रमस्थैर्याऽऽदिगुणग- (E) मधुना देशद्वारव्याचिस्यासयाऽऽहसोपेतः। तत्र प्रकर्षण श्रमः प्रश्रमः खेदः। स च स्वपरसमयत. निच्चं चिअजुबइपसू-नपुंसगकुसील(परिवजिग्रं जाणो। स्वाधिगमरूपःस्थैर्य तु जिनशासने निषकम्पता। मादिशब्दान्
गणं विप्रणंजाण, विसेसोकाणकालम्मि ॥ ३५ ॥ प्रनावमादिपरिप्रदः । उक्ता-"सपरसमएँ कोसळू, पिरिया
नित्यमेव सर्वकालमेव,न केवलं ध्यानका शति । किम्?.युवतिजिजसासणे पभाषणया । प्राययजसेवनत्ती, सणदीवा गुणा
पशुनपुंसककुशीवपरिवर्जितं, यतेः स्थानं विजनं भणितमिति। पंच" प्रथमस्थैर्याऽऽदय एव गुलाः, तेध गणः समूहः,ते.
तब युबतिशम्देन मनुष्यस्त्री, देवी च परिगृह्यते। पशुशम्देन तु मोपेतो युक्तो यः स तथाविधः। अथवा-प्रशमाऽऽदिना स्थैर्या
तिर्यनीति । नपुंसकं प्रतीतं, कुत्सितं निन्दितं शीखं वृत्तं येअदिना बगुबगखेनोपेतः । तत्र प्रामादिगुणगणः प्रशम
पीते कुशीयाः, ते च तथाविधा पूतकाराऽऽदयः। संवेगनिर्वदानुकम्पाऽऽस्तिक्याभिव्यक्तिलकण; सैर्याऽऽदिस्तु
उक्तवदर्शित एच। पश्यम्भूतः, असी मबत्यसंमृदमनाः, तत्वान्तरे. वास्तचित्त इत्यर्थः। दर्शनयोकलकणया हेतुभूतया,क!,
"जायरलोलमेंगा, बादामगाणो जे य । ज्याने इति गाथार्थः ॥ ३२॥ उक्ता दर्शनभावना ।
पते हुंति कुसीसा, बजगव्या पयत्तेणं" ॥१॥
युवतिश्च पशुश्चेत्यादिद्वन्द्वः। युवत्यादिभिः, परि समन्ताद, साम्प्रतं चारित्रभावनास्वरूपं गुणदर्शनायेदमाह
जिंतं रहितमिति विग्रहः । यतेस्तपस्विनः साधोः, एकग्रहखे नवकम्माणायाणं, पोराणविणज्जरं सुभादाणं ।
सज्जातीयग्रहणमिति साध्वाश्च । किं , स्थानमवकाशवक्ष. चारित्तभावणाए, झायमयत्वेण य समेइ ॥ ३३॥ जम् । तदेव विशेष्यते-युवत्यादिव्यतिरिक्तशेषजनापेक्षया वि. भवकर्मणामनादानमिति-नवान्युपचीयमानानि प्रत्यमाथि नएय. गतं जनं बिजनं, भणितमुक्तं, तीर्थकरैर्गणधरैवेदमेवं नूतं निते, कियन्ते इति कर्माणि-झानावरणीयाऽदीनि,तषामनादा- त्यमेव, अन्यत्र प्रवचनोक्तदोषसंनवाद, विशेषतो भ्यानकाल नमग्रहणम, चारित्रभावनवा समेति गच्कृतीति योगः। तथा इति । प्रपरिणतयोगाऽऽदिनाऽन्यत्र ध्यानस्याऽऽराधयितुमपुराणविनिर्जरा-चिरन्तमक्षपणमित्यर्थः। तथा अभाऽऽदान- शक्यत्वादिति गाथार्थः ॥ ३५ ॥ मिति-अमं पुण्यं सम्यक्त्वहास्यरतिपुरुषवेदाभायुर्नामगोत्रा- इत्यं तावदपरिणतयोगाऽऽदीनां स्थानमुकम्, अधुना मकं,तस्वादानं प्रणम् । किम् ?-चारित्रनावनया इतुभूतवा
परिणतयोगाऽऽदीनधिकृत्य विशेषमाहध्यानं, चशम्दानवकर्मानादानादि वा प्रयत्नेनागेन, समति चिरयजोगाणं पुण, मुणीण काणे सुनिश्चनपणाणं । गपति, प्राप्मातीत्यर्थः। तत्र चारित्रभावनयेति कोऽयः', 'चर' गतिमषयोरित्वस्य
गामम्मि जणाश्मे, सुन्नेऽरने वन विसेसो ॥३६॥ "अर्सिलूथमुखनिसहचर इत्रः" ॥३२॥१८॥ इति (पाणि०)
तत्र स्थिराः संहननधृतिभ्यां बलवन्त उच्यन्ते, कृता निर्वसिताः, इत्रप्रत्यवान्तस्य चरित्रमिति भवति । चरन्त्यनिन्दितमने- मन्यस्ता इति पावत् । के?-युज्यन्त इति योगा:-ज्ञानाऽऽदिभा. नेति चरित्रं-कयोपशमरूपं, तस्य प्रावधारित्रम् । पतपुकं
बनाऽऽदिव्यापाराः, सक्तमत्रतपप्रभृतयो वा यस्ते कृतयोगाः, भवति-दहान्यजन्मोपात्ताविधकर्मसंचयापच्याय चरणमा
स्थिरावते कृतयोगाश्चेति विग्रहः तेषाम। अत्रच स्थिरकृतयोगबः चारित्रमिति, सर्वसावण्योगविनिवृत्तिम्पा क्रियेत्यर्थः ।।
योश्चतुर्भडीजवति। तद्यथा-थिरे खामेगणो कयजोगे" इत्यातस्य नावनाऽभ्यासश्चारित्रभाबनेति गाथार्थः । उका चारि
दि। स्थिरावा पौनःपुन्यकरणेन परिचिताः कृता योगायैस्ते तथाअभावना ॥ ३३॥
विधा, तेषाम् ।पुनःशम्दो विशेषणार्थः किं विशिष्ट-तृतीयभसाम्प्रतं वैराग्यभाबनास्वरूपं गुणदर्शनार्थमाह-. गवतांन शेषाणां, स्वभ्यस्तयोगानां वा । मुनीनामिति-मन्यन्ते सुविइअजगस्सहाओ, निस्संगो निभो निरासो छ।
जीवादीन् पदार्थानिति मुनयोविपश्चितःसाधवः, तेषाम,तथा बेरग्गनाविअमणो, काणम्मि सुनिश्चलो हो ॥ ३४॥
भ्याने अधिकृते पव धर्मध्याने, सुष्टतिशयेन निश्चवं निधकम्पम
मोयेषां ते तथाविधाः,तेषामा एवंविधानां स्थानं प्रतिग्रामे जनाऽऽ. सुष्टहीच विदितो ज्ञातः जगतश्चराचरस्य । यथोक्तम्"जगन्ति जङ्गमान्याहु-जंगद् झेयं चराचरम् ॥"
कोणे, शून्येऽरण्येवा,नविशेष इति। तत्र प्रसति बुद्ध्यादीन गु
जान इति प्रामः, गम्यो वा कराऽऽदीनामिति प्रामः, सन्निवेसविस्वो भावः स्वनावः ।
शेषः। इह बैकग्रहणेन तज्जातीयग्रहणानगरनेट-कर्वर।ऽऽदि"जन्म मरणाय नियतं, बन्धुःखाय धनमनिर्वृतये ।
परिग्रह इति । अनाऽऽकीणे जनाऽऽकुले प्राने एवोधानाऽऽदौ, तन्नास्ति यन्न विपदे, तथापि लोको निरालोकः" ॥१॥
तथा शन्ये तस्मिन्नेव, अरण्ये वा कान्तारे वेति, वा बिकल्पेन इत्यादिवकणो येन स तथाविधः । कदाचिदेवनूतो
विशेषान्न नेदः, सर्वत्र तुल्यत्नावत्वात् परिणतत्वात्तेपामिति ऽपि कर्मपरिणतिवशात समझगो भवत्यत आह
गाथार्थः ॥ ३६॥ निःसङ्गो विषयस्नेहमङ्गरहितः। एवम्भूतोऽपि कदाचित सभयो प्रवत्यत पाह-निर्भया-इहलोकाऽऽदिसतनयविप्रमुक्त। कदा.
तो जत्थ समाहाणं, होइ मणोक्यणकायजोगाणं । चिदेवम्भूतोऽपि विशिट्रपरिणत्यभावात् परलोकमधिकृत्य सा
नयोवरोहरहो, सो देमोकायमाणस्स ॥ ३७॥ शंसोभवल्पत माह-निराशश्च-इहपरलोकाऽऽशंसाविप्रमुक्त,
यत एतदुक्तमतस्तस्मात् कारणाद्, यत्र प्रामादौ स्थाने, स.
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माण अभिधानराजेन्ः।
माण माधानं स्वास्थ्य, भवति जायते । केषाम ?, इत्यत आह-मनो. | किसकृदेव प्राप्ताः!,न । केवलवज बहुशोऽनेकशः, किविबाकाययोगानां प्रावनिमपितस्वरूपाणामिति । श्राह-मनोयोग- शिष्टाः!, शान्तपापाः, तत्र पातयति नरकाऽऽदिग्विति पापम, सनाधानमस्तु, वाकाययोगसमाधानं त्वत्र क्कोपयुज्यते, न हि शान्तमुपशम नीतं पापं यैस्ते तथाविधा इति गाथार्थः ॥४॥ तन्मयं ध्यानं भवति । अत्रोच्यते तत्समाधानम-तावन्मनोयो गोपकारकं ध्यानमपि च तदात्मकं भवत्येष ।
तो देसकालचिट्ठा-नियमो काणस्स नत्थि समयम्मि । यथोक्तम्
जोगाण समाहाणं, जह होइ तह पयस्यब्वं ॥४॥ "एवंविधा गिरा मे, वत्सचा परिसीन वत्सब्वा ।
यस्मादिति पूर्वगायायामुक्त,तेने सहास्यानिसबन्धः,तस्मादू.देशश्य यालिय बझ-स्स भासभोवाश्यं जाणं ॥१॥" कालचेष्टानियमो,भ्यानस्य,नास्ति न विचते।समवेमागमे,कि तथा
तु योगानां मनःप्रभृतीनां समाधानं पूर्वोकं, यया भवति तथा "सुसमादियकरपाय-स्स अकज्जे कारणम्मि जयणाए । वतितव्यं यत्नः कार्य इत्यत्र नियम पवेति गाथार्थः४१॥ गतकिरियाकरणं जंतं, काश्यमाणं भवे जइणो ॥१॥"
मासनद्वारम् । म चात्र समाधानमात्रकारित्वमेव गृह्यते, किंतु नूतोपरोधरहि. अधुना मालम्बनद्वारावयवार्थप्रतिपादनायाऽऽहतः, तत्रभूतानि पृथिव्यादीनि, उपरोधस्तत्संघटनाऽदिलकणः, प्रालंबणाऽऽइचायण-पुच्छणपरिभट्टणाणुचिंताओ। तेन रहितः परित्यक्तो यः।पकग्रहणे तज्जातीयग्रहणात् अनृताद.
सामाइमाइ एया-सदमाऽऽवस्मयाई च॥४२॥ सादानमैपुनपरिग्रहाऽऽपरोधरहितव,स देशो,यायत:-चि.
हधर्मध्यानाऽऽरोहलाधमासम्यम्त श्त्यासम्बनानि, वाचना न्तयता, उचित इति शेषः । अयं गाथार्थः॥३७॥ गतं देशवारम् ।
पृच्छना परावर्तनाग्नुचिन्ता इति। तत्र वाचनं वाचना,विनेयाब (१०) अधुना कालाऽऽसनाऽऽलम्बनक्रमद्वारेषु क्रमप्राप्तं
निजरायै सत्राऽदिदानमित्यर्थः। शहिते सूत्रादौ संशयापनो. कालद्वारमनिधिसुराह
दाय गुरुपयनं प्रमातिापरिवर्तनं तु पूर्वाधीतस्यैव सूत्रादकालो वि सो चिम जहिं, जोगसमाहाणमुत्तमं ला ।
रविस्मरणनिर्जरानिमित्तमभ्यासकरणमिति अनुचिन्तनमनुचिन उ दिवसनिसावेला-इनिअमणं काइणो भणि३८।
म्ता, मनसैचाविस्मरनिमित्तं सूत्रानुसरणमित्यर्थः। वाचना, कलन कासः, कसासमूहो वा, स चातृतीयेषु द्वीपसमुकेषु प्रमत्यादि द्वन्तः। एतानि च सुतधर्मानुगतानि वर्तन्ते । तथा बसूर्यगतिक्रियोपलवितो दिवसाऽऽदिरवसेयः । भपिशब्दो सामायिकाऽऽदीनिसर्माऽऽवश्यकानिचेति । अनि तुपरक देशानियमेन तुल्यत्वसंजावनार्थ तथा चाह-कालोऽपि स एव, र्मानुगतानि वसन्त।सामायिकमादौ येतानि सामायिकादीभ्यानोचित इति गम्यते । यत्र काले, योगसमाधान मनोयो- नि।सामायिकं प्रतीतम्, प्राविशम्दान्मुखवानकाप्रत्युप्रचारगाऽऽदिस्वास्थ्यम, उत्तम प्रधान, लभते प्रामति,न तु पुनव, दिलकणसकलचक्रबालसामाचारीपरिग्रहः। यावत्पुनरपिसातुशब्दस्य पुनःशब्दार्थत्वादेवकारार्थवादा । किम् , दिवसनि- मायिकमिति। पतान्येव विधिवदासेम्यमानानि सन्ति शोमनानि, शासाऽप्रदिनियमनं भ्यायिनो प्रणितमिति दिवसनिशे प्रतीते। सन्ति चतानि चारित्रधर्माऽऽवश्यकानि चेति विग्रहसमावकघेला सामान्यत एव तदेकदेशो मुहूर्ताऽऽदिः । मादिशब्दात्यू. कानि नियमतः करणीयानि । चः समुपये।इति गाचार्यः ॥४२॥ हिापराद्वाऽदिसूचा । एतनियमनं दिववेत्यादिलकणं,ध्यानिनः साम्प्रतममीषामेवाऽसम्बनत्वे निवन्धनमाहसत्वस्य, भणितमुक्तं, तीर्थकरगणधरैवेति गाथार्थः । गतं | विसमम्मि समारोहा, दबदबाऽऽलंबणो जहा परिसो। कामद्वारम ॥३०॥
मुत्ताऽऽकयाऽऽझंबो, तह झाण समारुहा॥४३॥ मासनविशेषद्वारं व्याचिस्यासयाऽऽह
विषमे निम्ने दुःसंचारे, समारोहति सम्यगपारिकोरोनार्च जचिम देहावत्था, जिया सा जाणोवरोहिणी हो।
याति। कः?, इदं बसवत,कन्य रज्ज्वाचासम्बनं यस्य स तथा काइज्जा तयवत्यो. विमो निसमोऽनिसनो वा ॥३॥ विधः। यथा पुरुषः पुमान्कश्चित्सूत्राऽऽदिकृतासम्बनः,वाचनाइद यैव काचित,देहावस्या शरीरावस्था निषमताऽदिरूपा,कि- 3ऽदिकृताउलम्बन इत्यर्थः। तथा तेनैव प्रकारेब, ध्यानवरं प. मा,जितेत्यभ्यस्ता,चिता वा, तथाऽनुष्ठीयमाना,न,ध्यानोपरो मध्यानमित्यर्थः। समारोहतीति गाथार्थः। गतमासम्बनद्वारम । धिनी भवति-नाधिकृतधर्मध्यानपीमाकरी भवतीत्यर्थः। ध्यायेत, अधुना क्रमहारावसः। तत्र माधवा कम धर्मस्थ तदवस्थ इति-सैवावस्था यस्य स तदवस्थः, तमेव विशेषतः
शुक्लस्य च प्रतिपादयत्राहप्राऽऽह-खितः कायोत्सर्गेण,पन्नताऽऽदिना निषाण उपचिष्टी, माणपमिवत्तिकम्मो, होइ मोजोगनिग्गहाईओ। धीरासनाऽदिनाऽनिषपणः शयितो दएमाऽऽयताऽऽदिना,वा
जवकाले केवलिणो, सेसस्स जहा समाहीए ॥४४॥ विभाषायामिति गाथार्थः॥३६॥ माह-किं पुनरय देशकालाऽऽसनानामनियम इति!,अत्रोच्यते
ध्यान प्राइनिरुपितशब्दार्थ,तस्य प्रतिपत्तिकम इति समासः। प्र
तिपत्तिकमा प्रतिपतिपरिपाट्यभिधीयते।सत्प्रवति मनोयोगसव्वासु वट्टमाणा, मुणनो जं देसकालचिट्ठास।
निप्रहादि। तत्र प्रथम मनोयोगनिग्रह,ततो वाग्योगनिप्रहा.ततः वरकेवसाइभावं, पत्ता बहसो समियपावा ॥४०॥ | काययोगनिग्रह इति।किमयं सामान्येन सर्वस्यैवेत्यंभूतःक्रमः!; मर्यास्वित्यशेषासु,देशकारचेशस्विति योग। चेष्टा देहावस्था, न, किंतु जवकाने केवलिनः । अत्र मवकालशम्देन मोकगमनकिम, वर्तमाना अवस्थिताः.के ?,मुनयः प्राकृनिरूपितशब्दा. प्रत्यासत्रः अन्तर्मुर्सप्रमाख एव शैलेश्यवस्थान्तर्गतः परिथी, यद्यस्मात्कारणात् किम ,चरः प्रधानन्चासौ केवलाऽऽदि- गृह्यते । केवसमस्यास्तीति केवली, तस्य शुक्लभ्यान पवावं भावव,तं,प्राप्ता इति भादिशब्दान्मनःपर्यायकानाऽऽदिपरिहा क्रमः प्रतिपत्तिकमः। शेषस्थान्यस्य धर्मध्यानप्रतिपः, पोगका
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भाग
खावाधित्य किम् ? यथा समाधिनेति ययेव स्वास्थ्ये जयति तथैव प्रतिपतिरिति गाथार्थः ॥४४॥ गतं कमद्वारम् । ( ११ ) इदानीं ध्यातव्यमुच्यते
आणा विज अवार, विवाने ठाणओ अ नायया । एए बतारि पया, जायन्ना धम्मकाणस्स ॥ ४५ ॥ चतुर्वेदमा पायमित्यादि ११५ पृठे गतम)
उपायविपाकसंस्थान ''द्वितीयागे
अधुना द्वितीय उच्यते
रागोसकसाया साइकिरिया माणणं । इहपरलोगाचार, जाइना परमी ।। ५१ । रागद्वेषपायावाद किवा वर्तमानानां इहपरलोकापा चार ज्यायेद यथा रामाऽऽदिवि। कामुकविरोधिनी । उकं ब"रागः सम्पद्यमानोऽपि दुःखदो एगोचरः । महान्यायमितस्य अपध्याम्नाभिज्ञापयद" ॥ १ ॥
तथा
"पः सम्पद्यमानोऽपि तापयत्येव देदिनम् । कोटरस्थ ज्वलनाच, दावानल इव दुमम् ॥ २ ॥ तथा-
( १६६६ ) अभिधानराजेन्ः
"यादिनेनिथ रागस्थायि फलम।
"
संसार पचोकः सर्वः सर्वदर्शिभिः ॥३॥ इत्यादि ।
तथा
"दोसानम्रसंतत्तो, शह लोगे चैव दुखिनो जीवो। परोगकिस य पावो, पावर निरयानलं तत्तो" ॥४॥ इत्यादि ।
तथा-
कपायाः क्रोधाऽऽदयः, तदपाचाः पुमः --
"कोहो पीई पणाले, मानो विजयनास्तपणे । माया मिचाणि नासेर, बोभो सव्वावणासणो" ॥ ५ ॥ "कोड़ो माय मनिमाड़ी प
माया य होजो य पचमाणा ।
नतारि एए कसिणा कसाया, मिर्चति मूलाई पुनर" ॥६॥
तथा श्राश्रवाः कर्मबन्धहेतवो मिथ्यात्वाऽऽदयः, तदपायाः
पुन:"मोहिम जीवो लोग एक्लाई सिरमा पायो, पावति पलमाऽऽइगुणदो" ॥७॥
तथा
"लुक को बाऽऽदिभ्यो
यः तिमहितं वा न वेति येनाऽऽवृतो बोकः ॥८॥
तथा
मे।
जीवा पावति इदं, पाणववादावरतीऍ पावाए। नियसुधायणमादी, दोसे जणगरहिए पावे ॥ ६ ॥ परगएवं प्रसवकिरिवाहि जावारिमाया हिरयादिगति जमतां ॥१०॥ इत्यादि । आदिशब्दः स्वगतानेकमेक्यापक प्रकृतिस्थित्यनुभावप्रः देशजग्धग्राहक इत्यन्ये किवास्तु काकादिमेवा पञ्च । एताः पुनरुत्तरत्र न्यक्रेण वच्यामः ।
विपाकः पुनः
" किरिया पमाणा, कागमा दुखिया जीवा इड वेव व परलोगे, संसारपव कुगा भणिया ॥ १ ॥ " तवं रागादिक्रियासु वर्तमानानामपाबान्क विशिष्टः समिति, माह-बपरिवर्जी
परिगृह्यते, तत्परिवर्जी, प्रप्रमत्त इति गाथार्थः ॥ ५१ ॥ उरुः द्वितीयोध्यायः ।
झाप
अधुना तृतीय उच्यतेपयप्पिसा सुनावभिमुद्दामुनि । जोगाजानमणि, कम्पविभागं विधि | २ | तत्र प्रकृतिस्थितिप्रदेशानुभावभिषं शुभाशुभमित्यप्रकृ निशा कर्मप्रकृतयोऽभिधीयन्ते नारीवादिभेदा इति । प्रकृतिरंशो नेद इति पर्यायाः स्थितिः - तासामेवावस्थानं जघन्यादिभेदनम् प्रदेशशब्देन जीवप्रदेश कर्मच म्यते धनुभावन तु विपाकः पतेत्यादयः शुभजेरभिन्ना भवति प्रकृत्यादिमेद भिनं शुभाशुभविभक्तं योगानुजायजनितं मनोयोगाऽऽदिगुणनवं कर्मविपाक विधिदिति गायार्थः भावार्थ: विरादयसेवः तवेद" पतिभि शुभाशुभविभकम्मा विचित्
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कम्म
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दाखा नावावर प सुभं पुणे-साताऽपि विभि पागं, जहा कम्मपगमीए तहा विसेसेण चिंतेजा विचितेजा। किवितिभि सुभासुभविभि कम्मविपाक विधितेा निति चितासि व अपगमीण जनमज्मुिसला जहा कम्मपगमी । किं व परसभिन्नं शुभाशुनं० नाव कृत्वा पूर्वविधानं पदयोस्तावेव पूर्ववद्रम्य वर्गघनौ कुर्यात् । नां तृतीयराशेः, ततः प्राग्वत् कृत्वा पूर्वविधानमिति २५६॥ श्रमीषां घने कृते राशिरपमागच्कृति अथवा चतुभिर वारा गुणिते अस्य राशेः पूर्वपदस्य घनाऽऽदि कृरला, तस्य वर्गाऽऽदि । ततः द्वितीयपदस्य इदमेव विपरीतं क्रियते । तत एतावेव वयैते । ततस्तृतीयपदस्य वनेन कर्मणा राशि १६७७७२१६ चिंतेज्जा । पदेसो ति जीवपदसा कम्म हमे एक्कतायगा पुोगादत अणुवाद भेदो का बित्थरो कम्मपगडी भणियाणं कम्मविपाक चिंतेजा । किं न अणुभावभिन्नं सुनासुभवितं कम्मधिवासितां
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व एवं परामीण पुरुबरूनिकाश्याणं उदयाश्रो अणुनाषणं तं च कम्मविपाक जोगाणुभावजणियं विचितेज्जा । तत्थ जोगा मकाया, अणुभावो जीवगुण एवं समिध्यादर्शना विरतिप्रमादपायाः, तिहि मात्रेण व जयिमुपायं जीबस्स कम्मं जं, तस्स विपाकं उदयं वित्रितेज्जा उस्तृतीयोध्यायमेदः ।
" इति ।
तं चतुर्थ उच्यतेजिनदेखिआई लक्खणाणलाई । उपाया पापा ने अदव्वाणं ।। ५३ ।। जिना: प्राकृनिरूपित शब्दार्थास्तीकराः तैर्देशितानि कथितानि जिनदेशितानि कानि ? श्रत आह-लक्षणसंस्थानाऽऽसनवि
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भाण
धानमानानि । किम!, - 'विविन्तयेत्' इति पर्यन्ते वक्ष्यति षष्टधां(?) (५८) गाथायामिति । तब लक्षाऽऽदीनि विचिन्तयेदत्रापि गायाइमित्युत्तमायोजनीयमिति तत्र लक्षणं मस्तिकायादित्यादिना संस्थानं मुख्यवृत्या पुअरचनाऽऽकारणं परिममा जीवानाम्। यथोकम " परिमंडळे पवडे, तसे चउरंस श्रायते चेत्र । " जीवशरीसमचतुरखाऽऽदि धो-"समयहममले साति बामणे खुम्जे हुंमे विथ संठाणे, जीवाणं छ मुवा ॥ १॥ धर्माधर्मयर लोकापेक्षा भावनी"उरग
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यो। लोगो श्रद्धागारो, मका खिचागिई आ ॥ १॥" तथाऽऽसनान्याचारणानि धर्मास्तिकायादीनां लोकाऽऽकानया तथा विधानानि धर्मास्तिकबादीना मेव नेदानीत्यर्थः । यथा धम्मत्धिकार चम्मत्धिका वस्स देसे धम्मन्थिकायस्स पदेसे " इत्यादि । तथा मानानि प्रमाणानि धर्मास्तिकायादीनामेवात्मीयामि तथा उत्पा स्थितिमादिपया ये चाणां धर्मास्तिकापानां सातवेदिति । पादादिपत्पादय
यौव्ययुकं सत्" इति वचनात् । बुन
( १६६७)
अभिधानराजेन्द्रः |
"घटमी लिवणांध, नाशोत्पादस्थितिययय । शोक प्रमोद माध्यस्यं जनो याति सहेतुकम ॥ १ ॥ पयोव्रतो न दध्यति, न पयोऽत्ति दधिव्रतः ॥
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गोरसव्रतो नोभे, तस्मात्तस्वं त्रयाऽऽत्मकम् ॥ २ ॥ " ततश्च धर्मास्तिकायो विवक्तिसमय संबन्धरूपापेकयोपद्यते तदनन्तरातीतसमयसंबन्धरूपापेक्षया तु विनश्यते धर्मास्तिकायामनातु नित्य इति "सर्वव्य किषु नियतं कृणेन विशेषः सत्योषित्यपवित्यो कृतिज्ञातियवस्थानात् ॥१॥" आदिशन्दादगुरुच्या दिपर्यायपरिषद सार्थ इति गाथाऽर्थः ॥५३॥ किञ्चपंचयिकायमचं लोगगणाइनिहां जियस्वायं । नामाले अविद्धि तिविद्दमहोद्योग ने आई ॥ २४ ॥ पञ्चास्तिकायम लोकमनाद्यनिधनं जिना क्यासमिति, किया पूर्ववत् । तत्रास्तयः प्रदेशाः तेषां काया अस्तिकायाः, पञ्च च ते अस्तिकायाति विग्रदः एते च धर्मास्तिकायाश्रया त्याप अकरा या इति ।
उक्तं चजीवानां पुत्रानां च गत्युपग्रह कारणम् । धर्मास्तिकायो ज्ञानस्य, दीपश्चक्षुष्मतो यया ॥ १ जीवनस्थिरयुपकारणम्। अधर्मः पुरुषस्येव तिष्ठासोरवनिः समा ॥ २॥ जीवानां च धर्माधर्मास्तिकाययोः । बादराणां घटो यद्वदाकाशमवकाशदम् ॥ ३ ॥ ज्ञानाऽऽत्मा सर्वभावो, भोका कर्ता च कर्मणाम् । जानासंसारमुकाऽसयो, जीवा प्रोको जिना स्पर्शरसगन्धवर्ण- शब्दमूर्त्तिस्वभावकाः । सङ्घातभेदनिष्पन्नाः, पुफला जिनदेशिताः " ॥ ५ ॥ तन्मयं तदात्मकम; लोक्यत इति लोकस्तम्, कालतः किंभूतमिति नातित्यर्थः ।
,
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धनेश्वरादियमा सादिर्शनाशि वाहनावा सीधकरणम
आह-जिन शिवानीनीधमधिकारोऽनुवर्तत प ततश्च जिनाऽऽख्यातमित्यतिरिष्यते । न । अस्थाऽऽदरसपाफ नार्थत्वात्, आदरस्थापनाऽऽदौ च पुनरुकदोषानुपपतेः । तथोकम
काण
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अनुवादाउदबोध्या-भृशार्थविनियोग देवासु ईचरसंभ्रमा गणनारणेन पुन
तथा-नामा दिनेदविहितं भेद नामाऽऽदिभेदावस्थापि तमित्यर्थः ।
उक्तञ्च
" नामं ववणा दविए, सेते काले नवे च भावे य पज्जवलोगे य तद्दा, विदो लोगनिखेयो ॥ १ ॥ " प्रायार्धतुर्विंशतिस्तयविवरणादयः । साम्प्रतं लोकमधि-त्रिविधं कर लोकमेव प्राकृतायोलोकादिि दाचिर्योपरि इति गाथाऽर्थः ॥ कितने विवेदिति
प्रतिपादयन्नाह
खिड़वलय दीवसागर - निरय विमान इठाणं । बोमाइड्डाणं निचे लोगहिरिद्वाणं ।। ५५ ।। कतिपयसागरनिश्यविमानस्थ
तयः धर्माऽऽया पायाना भूमयः परिगृ ह्यन्ते बलवान घनोऽरमकानि धर्मा55दिपकविंशतिः पयः स्वयम्भूरमणद्वीपान्ता असष्याः सागरासा दया स्वयम्नूरमणसमुद्रपर्यन्तावा व रिया सीमन्तकाssar अप्रतिष्ठानावसानाः संख्येयाः ।
यत उक्तम्
" तीसा य पन्नत्रीसा, पनरस य दसेव सहस्साई । तिवेगं पंचूणं, पंच य नरगा जहा कमलो " ॥ १ ॥ विमानानि ज्योनिष्कादि संघीन्यनुत्तरविमानान्तान्सयानि ज्योतिष्क विमानानामपत्वात्
भवानि भवन्यायालयान असुरादिनिकायसंबन्धीनि नि
उक्तं च
" सवय कोमीओ, हवंति यावतारं सय महस्सा। एसो जवणसमालो, नवणवती बियाणेज्जा ॥ १ ॥ " आदिशब्दादयेयव्यन्तरनगरपरिषदः।
उक्तं च[हेोरिजोस रहिरहोस पढमे अंतरियाणं, जांभा नगरा श्रसंखेज्ञा ॥ १ ॥ " ततश्च वितयश्च वलानि चेत्यादिद्वन्द्रः । एतेषां संस्थानमाका विशेषणं विचिन्तयेदिति । तथा व्योमाऽऽदित मित्यत्र प्रतिष्ठितः प्रतिष्ठानं भावे ल्युट् । व्योम श्राकाशम् दिशापरिि माऽऽदिप्रतिष्ठानं लोकस्थितिविधनमिति योगः । विधिधानं प्रकार इत्यर्थःस्थ
शबनम दिवा पूर्व
"
त्यत्ि
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(१६६८) अनिधानराजेन्द्रः।
माण
जागा
किच
संवरकयनिच्छिई, तवपवणाऽऽविचजवणतरवेगं । नवोगलक्खणपणा-इनिहणमत्थंतरं सरीरानी। वेरग्गमग्गपडि, विमुत्तिावीइनिक्रवोहं ।। ६० ॥ जीवमरूवं कारिं, नोइं च सयस्स कम्मस्स ॥ ५६ ॥ |
इहाऽऽश्रवनिराधः संवरः, तेन कृतं निश्छिम, स्थगितरन्ध्रमि
त्यर्थः । अनशनाऽऽदिवकणं तपः, तदेवेटपुरं प्रति प्रेरकत्वात् उपयुज्यतेऽनेनेन्युपयोगः, साकारानाकाराऽऽदिः। उक्तं च-"स |
पवन इव तपःपवनः, तेनाऽऽविद्धस्य प्रेरितस्य, जवनतर: विविधोऽचतुर्नेदः। स एव लक्षणं यस्य स उपयोगकणस्त.
शीघ्रतरः, वेगो रयो यस्य स तथाविधस्तम् । तथा विरागस्य म; जीवमिति वक्ष्यति । तया-अनाद्यनिधनम अनाद्यपर्यवसितं,
भावो वैराग्य, तदेवेष्टपुरमापकत्वाद् मार्ग श्व वैराग्यमार्गः, त. जवापवर्गप्रवाहापक्कया नित्यमित्यर्थः । तथाऽर्थान्तरं पृथग्भूतं,
स्मिन् पतितो गतस्तम्, तथा विश्रोतसिका अपध्यानानि, एता कुतः?, शरीरात जाताचे कवचनम-शरीरेभ्य औदारिकाऽऽदित्य
एवेष्टपुरप्राप्तिविघ्नहेतुत्वाद्वीचय व विश्रोतसिकावीचयः, ताइति। किमिति?,अत प्राद-जीवति, जिविष्यति, जिवितवान् वा
भिनिकोभ्यः निष्प्रकम्पस्तमिति गाथाऽर्थः॥६०॥ जीव इति, तम। किंभूतमिति !, अत आह-अरूपिणममूर्तमित्यर्थः। तथा कारं निर्वतक, कर्मण इति गम्यते। नया भोक्ता.
एवम्नूतं पोतम् । किम् ?रमुपोक्तारम्, कस्य ?-स्वकस्य प्रात्मीयस्य, कर्मणो ज्ञाना- आरोढुं मुणिवणि श्रा, महग्यसीलंगरयणपमिपुत्रं । 5वरणाऽऽदेरिति गाथाऽर्थः ।। ५६॥
जह तं निवाणपुरं, सिग्यमविग्घेण पावंति ॥ ६१॥ तस्स य सकम्मजणि अं, जम्माजलं कसायपायालं।
प्रारोदुमित्यारुह्या, के?, मुनिवणिजः-मन्यन्ते जगतत्रिकालाववमाणसयसायमण, मोढ़ाऽऽवत्तं महाभीमं ।। ५७॥ स्थामिति मुनयः, त पवातिनिपुणमायव्ययपूर्वक प्रवृत्तेर्वणिज तस्य च जीवस्य च, स्वकर्मजनितम्-प्रात्मीयकर्मनिर्वतितम्।।
श्व मुणिवणिजः। पोत एव विशेष्यते महाघांणि महाहाणि, शीकम?-संसारसागरमिति वक्ष्यति।किन्नूनम?,जन्माऽदिजलं,
लाङ्गानि पृथिवीकायसमारम्भपरित्यागाऽऽदीनि वक्ष्यमाणलजन्म प्रतीतम; आदिशदाजरामरणपरिग्रहः। एतान्येवातिबहु
कणानितान्येयैकान्तिकाऽऽत्यन्तिकसुखहेतुत्वान्नानि,तैः प्रति. स्वाजलमिव जनं यस्मिन्स तथाविधस्तम् । तथा कषायपातालं.
पूर्णो भृतस्तम । यथा येन प्रकारेण, तत्प्रकान्तं, निर्वाणपुरं मि.
किपत्तनं परिनिर्वाणपुरं वेति पागन्तरमा शीघ्रम आशु,स्वल्पेकपायाः पूर्वोक्ताः, त पवागाधनवजननसामान्येन पातालमिव
नकालनेत्यर्थः । अविघ्ननान्तरायमन्तरण, प्राप्नुवन्यासादयपातालं यस्मिन् स तथाविधस्तमा तथा व्यसनशतश्वापद वन्तमव्यसनानि पुःखानि,यूताउदीनि वा,तथा तान्येव पीमाहेतुत्वात
न्ति, तथा विचिन्तयेदिति वर्तते । श्त्यय गाथाऽर्थः ॥६१॥ श्वापदानि, तान्यस्य विद्यन्त इति तद्वान्, तं, (मणं ति) दे- तत्थ य तिरयणविणिो -गमअमेगंति निराबाई । शीशब्दो मत्वर्थीयः। उक्तं च-"मतुवत्थाम्म मुणेजद, आलं लं
साहावित्रं निरुव, जह सुक्खं अक्खयमुर्विति ॥६शा मणं च मयं च" इति। तथा मोदाऽवर्तम-मोहो मोहनीय कर्म,
तत्र च परिनिर्वाणपुरे,त्रिरत्नविनियोगाऽश्मकमिति-त्रीणि र. तदेव तत्र विशिष्टभ्रमिजनकत्वात् प्रावतों यस्मिन् स तथावि
स्नानि इनाऽऽदीनि,विनियोगधैषां क्रियाकरणं, ततःप्रसूतस्तदाधस्तम् । तथा मदानीमम्-अतिभयानकमिति गाथाऽर्थः ।५७।
स्मकमुच्यते । तथैकान्तिकमिति-एकान्तभावि निराबाधमित्या
बाधारहितं, स्वाभाविकं न कृत्रिमम, निरुपममुपमाऽतीतमिति । अनाणमारुएरिअ-संजोगविप्रोगवीसंताणं ।। उक्तं च-"ण वि अस्थि माणुसाणं, तं सोक्खं ।" इत्यादि। यथा संसारसागरमणो-रपारमसंह विचिंतिजा ॥८॥
येन प्रकारेण, सौख्यं प्रतीतम, अक्षयमपर्यवसानम, उपयान्ति মান জানাব্যাথলনিন মানববিuাম, এ
सामीप्यन प्राप्नुवन्ति, क्रिया प्राग्वदिति गाथाऽर्थः ॥ १२ ॥ तत्प्रेरकत्वान्मारुतो वायुः,तरितःप्ररितः, कः?--संयोगवियोग- किं बहुणा सव्वं चित्र, जीवाइपयत्थ वित्थरोवे अं । वीचिसन्ताना यस्मिन् स तथाविधस्तम् । तत्र संयोगः केनचि- सवनयसमूहमयं, माज्जा ममयसम्भावं ॥६३।। रसह संबन्धः, वियोगम्तनैव विप्रयोगः । एतावेव सततप्रवृत्त.
किंबहुना जाषितेन ?, सर्वमेव निरवशेषमेव, जीवाऽऽदिपदार्थस्वाद्धीचय ऊर्मयस्तप्रवाहः सन्तान इति भावना । संसरणं सं.
विस्तरोपेतं-जीवाजीवाऽऽश्रवबन्धसंवरनिर्जरामोक्काऽऽख्यपसारः सागर इन संसारसागरस्तम्। किम्भूतम् ?-"मणोरपारं"
दार्थप्रपञ्चसमन्वितं, समयसद्भावमिति योगः। किंविशिष्टम् ?अनाद्यपर्यवसितम, अशुभमशोभनं, विचिन्तयेत, तस्य गुणर.
सर्वनय समूहाऽऽत्मकं व्यास्तिकायाऽऽदिनयसवातमयमिहितस्य जीवस्येति गाथाऽर्थः ।। ५७॥
त्यर्थः। ध्यायेद्विचिन्तयेदिति भावना । समयसद्भावं सिहातस्म य संतरणमई, सम्मईसणमुबंधणं अणहं। तामिति हृदयम्। श्रयं गाथाऽर्थः। गतं ध्यातव्यद्वारम् ॥६३॥ नाणमयकन्नधान, चारित्तमयं महापो।। ५६ ॥
(१२) साम्प्रतं येऽस्य ध्यातारस्तान्प्रतिपादयन्नाह - तम्य च ममारमागरम्य, सन्तरणम सन्तरणसमर्थ, पो
सबप्पमायरहिआ, मुणो खीणोवसंतमोहा य । तमिनि बक्यात । किविशिषम', सम्यमशनमेव शोननं पन्धनं यस्य मनयविधः, नम्. अनघम-अपापम् । ज्ञानं प्रतीतं,तन्म
कायारो नाणधणा, धम्मज्झाणस्स निद्दिट्ठा ॥६॥ यम्नदात्मकः, कर्णधारो नियामकविशेषो यस्य यस्मिन् वा स प्रमादा मद्याऽऽदयः । यथोक्तम्-" मजं विसयकसाया, निदा तथाविधस्तम, चारित्रं प्रतीतम, तदात्मकम् । महापोतमिति विकहा य पंचमी भणिया।" सर्वप्रमादेः रहिताः सवैप्रमादमहावाहिन्थमा क्रिया पूर्ववादति गाथाऽयंः ॥ ५९ ॥
रहिता,अप्रमादवन्त इत्यर्थः मुनयः साधव की पोपशान्तमो
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अनिधानराजेन्धः।
काण हाश्चेति-क्कीणमोहाः कपकनिर्ग्रन्थाः, उपशान्तमोड़ा उपशाम- पव परिणामविशेषात् तीवमन्दाऽऽदिनेदा इति गाथाकनिन्धाः। चशब्दादन्ये चाप्रमादिनः, ध्यातारश्चिन्तकाः, धर्म- ऽर्थः ॥ ६७ ॥ उक्तं वेश्याद्वारम् । ध्यानस्येति सबन्धः । ध्यातार एव विशेष्यन्ते-ज्ञानधना ज्ञान
इदानी लिङ्गवारं विवृण्वन्नाहविचाः, विपश्चित इत्यर्थः। निर्दिष्टाः प्रतिपादिताः, तीर्थकरगण
भागमउवएसाऽऽणा-निसग्गयो जं जिणप्पणीयाणं । धरैरिति गाथाऽर्थः॥६४॥ उक्ता धर्मध्यानस्य ध्यातारः।
जावाणं सद्दहणं, धम्मज्माणस्स तं लिंगं ।। ६० ।। साम्प्रतं शुक्लध्यानस्याप्याद्यभेदद्वयस्याविशेषेणैत
बहाऽऽगमोपदेशाऽऽकानिसर्गतो यजिनप्रणीतानां तीर्थङ्करप्रएव यतो ध्यातार इत्यतो नान्ये पुनभिधेया
मपितानां, भावानां व्याऽऽदिपदार्थानां, श्रद्धानम्-अवितथा भविष्यन्तीति लाघवार्थ चरमजेदध्यस्य
पत इत्यादिलक्षणं, धर्मध्यानस्य, तद्विमिति । तच श्रद्धाचप्रसङ्कत एतानवाभिधित्सुराह
नेन लियते धर्मध्यानीति । इह चाऽऽगमः सूत्रमेव, त. एए वि य पुन्नाणं, पुन्यधरा सुप्पसत्यसंघयणा। दनुसारेण कथनमुपदेशः, माझा त्वर्थः, निसर्गः स्वजाव इति पुन्ह सजोगाजोगा, सुकाण पराण केबलियो ॥६५॥ गाथाऽर्थः ॥ ६॥ एत एव येऽनन्तरमेव धर्मध्यानध्यातार उक्ताः,पूर्वयोरित्याच
किंचयोयोः शुक्लध्यानदयोः पृथक्त्ववितर्क सविचारम, एकत्व- जिणसाहगुणकित्तण-पसंसणादाणविणयमंपन्नो । वितर्कमविचारमित्यनयोः,ध्यातार इति गम्यते। अयं पुनर्विशेषः- मुसीलसंजमरो, धम्मकाणी मुणेयन्यो ।।६।। पूर्वधराश्चतुर्दशपूर्वविदस्तदुपयुक्ताः, इदं च पूर्वधरविशेषण
जिनसाधुगुणोत्कीर्तनप्रशंसादानविनयसंपन्न । इह जिनसाधवः मप्रमादवतामेव वेदितव्यमान निर्ग्रन्थानां, माषतुषमरुदम्यादी
प्रतीता,तद्गुणाश्च निरतिचारसम्यग्दर्शनादयः,तेषामुत्कीर्तन मामपूर्वधराणामपि तदुपपत्तेः। सुप्रशस्तसंहनना इत्यासंदन
सामान्येन संशब्दनमुच्यते । प्रशंसा स्वहो श्लाध्यतया भाकपू. नयुक्ताः,श्दं पुनरोघत एव विशेषणमिति । तथा द्वयोः शुक्सयोः,
विका स्तुतिः,विनयोऽज्युत्थानाऽऽदिः. दानमशनाऽऽदिप्रदान परयोरुत्तरकाभाविनोः प्रधानयोर्वा सूचमक्रियानिवृसिम्युपर
एतत्संपन्न पतत्समन्वितः । तथा श्रुतशीलसंयमरता-तत्र श्रुतं तक्रियाप्रतिपतिलकणयोर्यथासह सयोग्ययोगिकेवखिनो,
सामायिकाऽऽदिबिन्दुसारान्तं,शीनं बताऽऽदिसमाधानलकणं, ध्यातार ति योगा एवं न गम्यते "सुकाणाश्गवोबीपस्स
संयमस्तु प्राणातिपाताऽऽदिनिवृत्तिलक्षणः। यथोक्तम्-पश्चा. तनियमपत्तस्स प्यार कायंतरियार वट्टमाणस्स केवलनाणं
अवादित्यादि । एतेषु नाचतो रतः किम् !, धर्मध्यानी विक्षासमुप्पज्जा,केवलियसुक्कलेसो अज्काण) य० जाव सुहुमकिरिय
तव्य इति गाथाऽर्थः ॥ ६६ ॥ गतं लिद्वारम। मनियहि ति"गाथार्थः ॥६५॥ उक्तमानुपातिकम्।
(१४) अधुना फाद्वारावसरमा तच्च लाघवार्थ शुक्रध्यानफनाधि. (१३) दानीमवसरप्राप्तमनुप्रेकाद्वारं व्याचिस्या
कारे वक्ष्यतीति। नक्तं धर्मध्यानम्। इदानीं शुक्लध्यानावसर इत्यसुरिदमाह
स्य चान्वर्थः प्राग्निरूपित एव । इडापि च भावनाऽऽदीनि फलाकापोवरमे वि मुणी, निश्चमणिचाचिंतणोवरमो ।
न्तानि तान्येव द्वादशद्वाराणि भवन्ति । तत्र भावनादेशकाला
सनविशेषेषु धर्मध्यानादस्याविशेष एवेत्यतस्तान्यनारत्या55. होइ सुजाविचित्तो, धम्मकाणेण जो पुचि ॥६६॥
सम्बनाऽऽदीन्यनिधित्सुरादयह ध्यानं धर्मध्यानमनिगृह्यते ; तदुपरमेऽपि तद्विगमेऽपि, मुनिः साधुः नित्यं सर्वकालम, अनित्याऽऽदिचिन्तनोपरमो नव
अह खंतिमवजन-मुत्तीओ जिणमयप्पहाणाओ। ति। प्राविशन्दादनित्याशरणैकत्वसंसारपरिग्रहः। एताश्वतम्रोऽ- भालंवणेहि जेहिं, सुक्ककाणं समारुहः ॥ ७० ।। नुप्रेक्षा भावयितव्याः,इष्टजनसंप्रयोगविषयसुखसंपद इत्या. प्रथेत्यासनविशेषाऽऽनन्तर्य,कान्तिमार्दवाऽऽर्जवमुक्तयः क्रोधमादिना ग्रन्थेन। फचाला सचित्ताऽदिघनभिनङ्गभवनिर्वेदादि। नमायासोनपरित्यागरूपा परित्यागश्चाक्रोधेन वर्तनम,उदयनितिजावनीयम् । अथ किंविशिष्टोऽनित्यादिचिन्तनोपरमो भ. रोधः,उदोर्णस्य च विफत्रीकरणमिति । एवं मानाऽऽदियपि भाव. वति ,अत श्राह-सुभावितचित्तः सुभावितान्तःकरणः, केन?, नीयम् । पता एव कान्तिमार्दवाऽऽर्जवमुक्तयो विशेष्यन्ते-जिनमधर्मध्यानेन प्रानिरूपितस्वरूपेण, यः कश्चित, पूर्वमादाविति तप्रधाना इति-जिनमते तीर्थंकरदर्शने, कर्मक्षयहेतुतामधिकृत्य गाथाऽर्थः ॥ ६६ ॥ गतमनुप्रेकाद्वारम् ।
प्रधानाः जिनमतप्रधानाः। प्राधान्य चाउमामकषाय चारित्रम, अधुना बेश्याद्वारप्रतिपिपादयिषयाऽऽह
चारित्राचा निश्चयतो मुक्तिरितकृत्वा । ततश्चैना आझम्बनानि प्रा. टुंति कम्पविसुकाउ, लेमाओ पीअपम्हमुक्कामो ।
निरूपितशब्दार्थानि,यैरालम्बनैः करणनूतै. शुक्लन्यानं समारोधम्मज्माणोवगय-स्स तिवमंदाइभेाओ ॥ ६७ ।।
हतिातथाच कात्याद्यासम्बन एव शुक्भ्यानमासादयति, नाम्य
इति गाथाऽर्थः। व्याख्यातं शुक्नध्यानमधिकृत्याऽऽलम्बनद्वारमा ह भवन्ति संजायन्ते, क्रमविशुभाः परिपाटिविशुकाः,काः?, (शुक्रव्यानभेदाश्च 'सुक्कझाण' शब्दे बिलोकनीयाः) लेश्या।। ताश्च पीतपशुकाः। एतदुक्तं प्रवति-पीतलेश्यायाः
साम्प्रतं क्रमद्वारावसरः-क्रमश्चाऽऽद्ययोहयोपद्मलेश्या विशुमा, तस्या अपि शुकलेश्येति कमः । कस्यैता
धमध्यान पयोक्तः । इह पुनरयं विशेष:-- भवन्ति?, अत पाह-धर्मध्यानापगतस्य, धर्मध्यानयुक्तस्येत्यर्थः। किंविशिष्टाश्चैता भवन्ति !, अत माह-तीवमन्दाऽऽदि
तिहयणविसयं कममो,संम्विविश्रमणं अम्मि उनमत्यो। बेदा इति । तत्र तीवदाः पीताऽऽदिस्वरूपेष्यन्त्याः, मन्द- .
झायइ मुनिप्पकंपो, काणं अमणो निणो होड ७१॥ दासत्वाद्याः । प्रादिशनामध्यमपक्षपरिग्रहः । अथवौधत बितवनमवस्तिगूवं लोक भेदं, तद्विषयो गोचर प्रालम्बनं
४१.८
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(१६७०) काण
अन्निधानराजेन्द्रः। यस्थ,मनस इति योगः। तत् त्रिभुवनविषयं,क्रमशः क्रमेण,परिपा
नाणानयाणुसरणं, पुनगयमुपाणुसारेणं ॥ ७ ॥ ट्या प्रतिवस्तुत्यागबवणया,संकिप्य संकोच्य, किम?, मनः-अ.
उत्पादस्थितिजङ्गाऽऽदिपर्यायाणाम, उत्पादाऽऽदयः प्रतीताः । न्तःकरणम् । क्व?,अणी परमाणी, विधायेति शेषः। कः?, छद्मस्थः
आदिशब्दान्मूतोमूर्तग्रहः । अमीषां पर्यायाणां, यदेकस्मिन् प्रानिरूपितशब्दार्थः। ध्यायति चिन्तयति, सुनिष्प्रकम्पोऽदीव
व्ये अण्यात्माऽऽदी, किम ?,नानानयहव्यास्तिकायाऽऽदिनिः, निश्चल इत्यर्थः। ध्यानं शुक्लं, ततोऽपि प्रयत्नविशेषान्मनः अप
अनुस्मरणं चिन्तनम् । कथम, पूर्वगतश्रुतानुसारेण पूर्वविदः। नीय, अमना अविद्यमानान्तःकरणो, जिनो भवत्यहन् भवति,
मरुदेव्यादीनां त्वन्यथा । तत्किमित्याहचरमयोद्वयोातेति वाक्यशेषः । तत्राप्याद्यस्याम्तमुहर्तन
सविआरमत्यवंजण-जोगतरो तयं पढमसुकं । शैलेशीमप्राप्तस्तस्यां च द्वितीयस्येति गाथाऽर्थः ॥७॥
आह-कथं पुनः उग्रस्थः त्रिनुवनविषयं मनः संक्षिप्याणी होइ पुहुत्तविक, सविप्रारमरागभावस्स ॥ ७० ॥ धारयति, केवली वा ततोऽप्यपनयति (अत्र रान्तः 'जिण-1 सविचारम-मह विचारेण वर्तत इति सविचारम,"विचारोsविज्ज' शन्दे तृतीयजागे १५०६ पृष्ठे गतः)
र्थव्यञ्जनयोगसंक्रमः" इति प्राह च । अर्थव्यञ्जनयोगान्तरसा-मअस्मिन्नेवार्थे दृष्टान्तान्तरमनिधातुकाम श्राद
थों द्रव्य, व्यञ्जनं शनः, योगो मनःप्रभृति, एतदन्तरत ओसारिएंधणभरो, जह परिहाइ कम्मसो हासो वा। पतद्भेदेन,सविचारम, अर्थाद्यजनं संक्रामतीति विभाषा । तम, थोविंधणावसेसो, निव्वाइ तोऽवणीओ अ॥ ५॥
कमी-पतत प्रथमं शुक्लमाचं शक्यं भवति किनाम्ना?, इत्यत
आह-पृथक्ववितर्क सविचार-पृथक्त्वेन देन विस्तीर्णभावेन अपसारितेन्धनभरः-अपनीतदाह्यसंघातः, यथा परिहीयते
अन्ते वितर्कः श्रुतं यस्सिँस्तत्तथा । कस्येदं भवति !, इत्यत्राहानि प्रपद्यते, क्रमशः कर्मण, हुताशोचह्निः, वा विकल्पार्थ,स्तो
सह-अरागनावस्य रागपरिणामरहितस्थेति गाथाऽर्थः ॥८॥ केन्धनावशेषः हुताशनमात्रं भवति, तथा निर्वाति विध्यापय. ति, ततः स्तोकेन्धनादपनीतश्चेति गाथाऽर्थः ॥७॥
जं पुण मुनिप्पकंप, निवायसरणप्पश्वामिव चित्तं । अस्यैव दृष्टान्तस्त्रोपनयमाह
उप्पायट्टिइभंगा-इयागमेगम्मि पज्जाए ॥ ८१ ॥ नह विसएंधणहीणो, मागोहासो कमोण तणुअम्मि।। यत्पुनः सुनिष्पकम्प विक्षेपरहितं, निर्वातशरणप्रदीपश्च निविसएंधणं निरुज, निघाइतोऽवणीओ अ॥७६||
गंतवातगृहैकदेशस्थदीप श्व, चित्तमन्तःकरणं, क्व?, उत्पाद
स्थितिजनाऽऽदीनामेकस्मिन् पर्याये ।।८।। तथा विषयेन्धनहीनो गोचरेन्धनहीन इत्यर्थः । मन एव
तत्किम? अत श्राहदुःखदाह कारणत्वाद् दुताशो मनो हुताशः, क्रमेण परिपाट्या,
अवियारमत्यवंजण-जोगंतरो तयं विश्यमुकं । ननुके कृशेक्का-विषयेन्धने, अणावित्यर्थः। किम?, निरुभ्यतेनिश्चयेन ध्रियते, तथा निर्वाति, ततस्तस्मादों अपनीतति पुचगयमालंचण-मेगत्तविअकमवियारं ॥२॥ गाथाऽर्थः ॥ ७६॥
अविचारमसंक्रमम, कुतः?, अर्थव्यजनयोगान्तरत इति पूर्वपुनरप्यस्मिन्नेवायें दृष्टान्तोपनया वाह
बत्। तत, किमेवंविधम् ?,द्वितीय शक्तं भवति । किमभिधान तोयमिव नालिआए, तत्तायसनायणोदरत्यं वा ।
मिति,अत पाह-पकत्वधितर्कमविचारं एकत्वेनाभेदेन वितर्कः
न्यजनरूपः,अर्थरूपो वा यस्य तत्तथा। इदमपि च पूर्वगतश्रुतापरिहाइ कमेण जहा, तह जोगिमणोजनं जाण ॥७॥
SSसम्बनम, पूर्वगतश्रुतानुसारेणैव भवति । अविचारादि नोयमिव उदकमिव. नालिकायाः घटिकाया,तथा-तप्तं च तदा-| पूर्ववदिति गायाऽर्थः ॥८॥ सयभाजनं लोहभाजनं, तदरम्थंवा विकल्पार्थः ।परिहीयते निव्वाणगमणकाले, केवलिणो दरनिरुक्कजोगस्स । ऋमेण यथा । एप दधान्तः। अयमुग्नयः-तथा तेनैव प्रकारेण,
सुहुमकिरियाऽनि अहि, तअंतणुकायकिरियस्स ॥७३॥ योगिमन एवाऽविकलवाजलं योगिमनोज, जानीहि अवबुध्यस्वा तथा-अप्रमादानलसप्तजीवभाजनस्थं मनो जलं परिही.
निर्वाणगमनकाले मोक्वगमनप्रत्यासनसमये, केवलिनः सर्वयत इति नावना । अलमतिविस्तरेण इति गाथाऽर्थः ॥७॥
स्थ, मनोवाम्योगद्वये निरुद्ध सति, अर्द्धनिरुद्धकाययोगस्य, किअपनयति ततोऽपि जिनबैद्य इति वचनादेव तावत्केवली
म्?, सूक्ष्मक्रियानियार्ति-सदमा क्रिया यस्मिन् नत्सूक्ष्मक्रिय, सूक्ष्ममनोयोगं निरुणहीत्युक्तम् ।
क्रियं च तदनिति चेति नाम-निवर्तितुं शीलमस्येति निर्ति, अधुना शेषयोगनिरोधविधिमभिधानुकाम आह
प्रवर्धमानतरपरिणामात्, न निवर्ति अनिवर्ति, तृतीय, ध्यान
मिति गम्यते । तनुकायक्रियस्येति-तन्बी उच्चासनिःश्वासाऽऽदिएवं चिअवय जोग, निरंज कमेण कायजोगं पि।
लकणा, कायक्रिया यस्य स तथाविधस्तस्येतिगाथाऽर्थः ॥८॥ तो सेलेसु व्य थिरो, सेनेसी केवनी हो ॥ ७० ॥ तस्मेव य सेलेमि, गयस्म सेलेमुव निष्पकंपस्स। एवमेव पनिरेव विषाऽऽदिदृष्टान्तः, किम्?, वाग्योग, निरुणाक। वाचिनकिरिश्रमप्पमि-वाईकाणं परममुकं ॥ ४॥ तथा क्रमेण काययोगमपि, निरुणानि वर्तते । ततः शैलेश
तस्यैव च के वनिनः शैलेशी गतस्य, शैलेशी प्रास्वर्णिता, तां श्व मेरुरिव, स्थिरः सन् शैलेशी केवली भवतीनि गाथाऽर्थः।।
प्राप्तस्य, किंविशियस्य?, निरुरुयोगत्वाच्छैलेश इव निधकम्प(आव०)(कह च भावार्थः 'सेलेसी' शब्द वदयते)
स्य, मेरुरिव स्थिरस्येत्यर्थः। किम्?, व्यवच्छिन्नक्रिय,योगाभावात ( १५ ) श्दानी ध्यातव्यद्वारं विवृण्वन्नाह
अप्रतिपाति अनुपरतिस्वभावामिति । एतदेव चास्य नाम, ध्यान उपायटिभंगा-इपजवाणं जमेगदम्बम्मि ।
परमशुक्लं, प्रकटार्थमेव तदिति गाथाऽर्थः॥४॥
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( १६७१) श्रभिधानराजन्द्रः ।
जाण
इत्थं चतुर्विधं ध्यानमभिधायाधुनैतत् प्रतिबन्द्र मेव वकव्यताशेषमनिधित्सुराह
पढमं जोगे जोगे-सुवा मयं विभमेगजोगम्मि | तइअं च कायजोगे, सुकमजो गिम्मि चनत्थं ॥ ८५ ॥ प्रथमं पृथक्त्ववितर्क सवित्रारं, योगे मनचाहो, योगेषु वा सर्वेषु मतमिष्टम, तचागमिक तपातितः । द्वितीयम् एकत्वि तर्कमविचारं, तदेकयोग एव, अन्यतरस्मिन् सङ्क्रमाभावात् ' तृतीयं च सूक्ष्मक्रियानिवर्ति, काययोगे, न योगान्तरे, शुक्लम' प्रयोगिनि च शैलेशी केवलिनि, चतुर्थम् ज्युपरतक्रिया प्रति. पाति, इति गाथाऽर्थः ॥ ८५ ॥
श्राह गृलभ्यानोपरिमभेदद्वये मनो नास्ति, अमनस्कत्वात् केवलिनः, भ्यानं व मनोविशेषः, 'ध्यै' चिन्तायामिति पाठात् तदेतत्कथम:, इति । उच्यते
जब मत्यस्स मलो, काणं जाइ सुनिश्चलं संतं । तह बलियो काओ, सुनिच्चलो जर काणं ॥ ८६ ॥ यथा छह्मस्वस्य मनः, किम ? - भ्यानं भएयते । सुनिश्वलं सव तथा तेनैव प्रकारेण, योगत्वाव्यभिचारात्, केवलिनः कायः सुनिश्चलो जस्पते ध्यानम् । इति गाथाऽर्थः ॥ ८६ ॥ आह-चतुर्थे निरुद्धत्वादसावपि न भवति, तथाविधनावेऽपि च सर्वभावप्रसङ्गः तत्र का बार्ता ? इत्युच्यतेपुष्पगवि, कम्मविणिज्जरदेउ चावि । सद्दत्यबहुत्ताओ, तह जिणचंदागमा प्रो ॥८७॥ चित्ताभावे वसई, सुडुमोवरय किरियाज जयंति । जीवोव प्रोगसन्जा-बच्चो जवत्थस्स जायाई ॥ ८० ॥
काययोगनिरोधिनो योगिनोऽयोगिनो वा, चित्ताभावेऽपि लति सूक्ष्मोपरतकिये भएयेते । सूक्ष्मग्रहणात्सूक्ष्मक्रियानिवर्तिनो ग्रहणं, उपरतग्रहणाडुपरतक्रियाऽप्रतिपातिन इति ॥ पूर्वप्रयोगादिति हेतु:, कुलालचक्रभ्रमणवदिति दृष्टान्तोऽज्युहाः । यथा - चक्रं भ्रमणनिमि तद एकाऽऽदिक्रियाऽनावेऽपि भ्रमति, तथाऽस्यापि मनःप्रभृतियोगोपरमेऽपि जीवोपयोगसद्भावतो नाचमनसो भावात् नवस्थस्य ध्याने इति । अपिशब्दश्वोदनानिर्णयप्रथमहेतु संभावनाऽर्थः । चशब्दस्तु प्रस्तुत देवनुकर्षणार्थः । एवं शेषतवोऽप्यनया गाथया योजनीयाः ॥ विशेषस्तूच्यते - कर्मषिनिर्जरण हेतुतश्वापि कर्मविनिर्जरणहेतुत्वात्, क्षपकश्रेणिवत् । जयति च कपक श्रेण्या मिवास्य नवोपग्राहि कर्मनिर्जरे ति भावः । चशब्दः प्रस्तुतत्त्वनुकर्षणार्थः । अपिशब्दस्तु द्विती हेतु सम्भावनार्थं इति ॥ तथा शब्दार्थबहुत्वात, यथैकस्यैव हरिशब्दस्य शक्रशाखामृगाऽऽदयोऽनेकेऽर्थाः, एवं ध्यानशब्दस्यापि न विरोधः 'ध्यै ' चिन्तायाम्, भ्यै ' काययो गनिरोधे, ' ध्यै ' अयोगित्वे, इत्यादि । तथा जिनचन्द्राऽऽगमाचैतदेवमिति । उक्तं च-" श्रागमश्चोपपत्तिश्च, सम्पूर्ण दृष्टिल कणम् । अतीन्द्रियाणामर्थानां सद्भावप्रतिपत्तये ॥ १ ॥ " इत्यादि गाथाद्वयार्थः ॥ 09 ॥ ८ ॥ उक्तं ध्यातव्यद्वारम् | ध्यातारस्तु धर्मध्यानाधिकारे उक्ताः ।
अधुनाऽनुप्रेका कारमुच्यतेसुकाणसुभाविप्र-चिनो चिंते जाणविगमे कि ।
For Private
जाप
नियमप्पेहाम्रो, चचारि चरित्तसंपन्नो || ८ए ॥ शुक्लध्यान शुभावितविश्वश्चिन्तयति ध्यानोपरमेऽपि नियतमनुप्रेाश्वतत्रवारित्रसंपन्नः, तस्य परिणामरहितस्य तदभावादितिगाथाऽर्थः ॥ ८६ ॥
ताम्बैताः-
प्रसवदारावार, तह संसारासुहाणुजावं च । जवसंतागमणवं वत्पूर्ण विपरिणामं च ॥ ६० ॥ मानवद्वाराणि मिथ्यात्वाऽऽदीनि तद पायान् दुःखदाःया संसाराभानुभावं व 'असुभानुभावबंधी संसारो" इत्या दि । वसन्तनमनन्तं भाविनारकाऽऽद्यपेक्षया वस्तूनां विपरि जामा सचेतनाचेतनानाम; "सन्वद्वाणाणि प्रसासयाणि "इत्यादि । एताश्चतस्रोऽप्यपायाशुभानन्तविपरिणामानुप्रेक्षा माध मेदसंगता एव रुष्टव्याः । इति गाथाऽर्थः ॥ ६० ॥ उत्तमनुप्रेक्षाधारम् ।
इदानीं सेश्याद्वाराभिधित्सयाऽऽहसुकाएलेसाए, दो तइथं परमसुकलसाए । थिरया जिम सेलेस, लेसाई परमसुकं ॥ ७१ ॥
सामान्यम शुक्लायां बेश्यायां द्वे श्राद्ये उक्त लक्षणे, तृतीयमु लक्षणमेच, परमशुक्ललेश्यायां स्थिरताजितशैलेशं मेरापि निष्प्रकम्पतरमित्यर्थः । लेश्याऽतीतं परमशुक्लं चतुर्थमिति गाथाऽर्थः ॥ ६१ ॥ उकं लेश्याद्वारम् ।
इदानीं लिङ्कद्वारं विवर्णयिषुस्तेषां नामप्रमाण स्वरूपगुणभावनार्थमाह
महासंमोहविषे गवसग्गा तस्स हुंति लिंगाई | लिंगिज्जइ जो मुणी, सुक्कज्झाणोवगयचित्तो ||२|| चालिज्जइ बीडे व धीरो न परीसहोवसग्गेहिं । सुहुमेसु न संमुच्छ, जावेसु न देवमायासु ॥ ६३॥ देह पिच्छ, अप्पाणं तह य सव्त्रसंजोगे । देवोदिवसग्गं, निस्संगो सन्दद्दा कुणइ ॥ ए४ ॥ अवधासंमोहविवेकस्युत्सर्गाः, तस्य शुक्लध्यानस्य, भवन्ति ि ङ्गानि लिङ्गपते गम्यते यैर्मुनिः शुक्लध्यानोपगतचित इति गाथाऽकरार्थः ॥ २ ॥ अधुना जावार्थमाह-चाल्यते ध्यानाच परीसहोपस गैर्विनेति वा धीरो बुद्धिमान्थिरो बान तेभ्य इत्यवधलिङ्गम् । सूक्ष्मष्यत्यन्तगढ नेषु न संमुह्यतिन्न संमोहमुपगच्छ ति, भाषेषु पदार्थेषु न देवमायास्वनेकरूपास्वित्यसंमोडलिङ्गम्, इति गाथाऽर्थः ॥ ६३ ॥ देहविविक्तं पश्यति आत्मानं तथा च सर्व संयोगानिति विवेकलिङ्गम् । देोपधिव्युत्सर्गे निःसङ्गः स fer करोतीति म्युत्सर्गलिङ्गमिति गाथाऽर्थः ॥ १४ ॥ गतं सिङ्गद्वारम् ।
साम्प्रतं फलद्वारमुच्यते । इह च लाघवार्थे प्रथमोपन्यस्तं धर्मफलमभिधाय शुक्लध्यानफलमाह, धर्मफलानामेव शुद्धतराणामाचशुक्ल द्वयफस्वस्वादत श्राद
ति सुनाssसव संवर - विणिज्जराऽपरसुहाईँ बिउलाई । जाणवरस्स फलाई, मुहानुबंधीणि धम्मस्त ॥ एए ॥
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जाण अनिधानराजेन्डः ।
काण जवन्ति शुभाऽऽवसंबरनिर्जरामरसुखानि-शुभाऽऽश्रवःपुण्याऽऽश्रवः, सम्बर:-अशुनकर्माऽऽगमनिरोधः, विनिर्जरा.
जह रोगाऽऽसयसमण, विसोसणविरेअणोसहविहीहि । कर्मयः, अमरसुखानि-देवसुखानि । एतानि च दीर्घस्थिति
तह कम्माऽऽमयसमणं, झाणाणसणाइजोगेहिं ।।१०॥ विशुरुधुपपाताच्यां बिपुलानि विस्तीर्णानि, भ्यानवरस्य ध्यानप्रधानस्य, फलानि बनानुबन्धीनि सुकुलप्रत्ययानि पुनों
यथा रोगाऽऽशयशमनं रोगनिदानचिकित्सा, विशोषणविरेचघिलाभनोगप्रवज्याकेवलशमेश्यपवर्गानुबन्धीनि, धर्मभ्यानस्ये.
লাঘবঘিাম-গমীজনবিন্ধীঘমা: নখ কামাsযয় ति गाथाऽर्थः ॥ १५ ॥ उक्तानि धर्मध्यानफलानि ।
मनं कमरोगचिकित्सा,ध्यानानशनाऽऽदिभियोगैः, मादिशब्दाद अधुना शुक्लमधिकृत्याऽऽह
ध्यानवृद्धिकारकशेषतपोभेदग्रहणमिति गाथाऽधेः॥ १०२ ॥ ते म विसेसेण सुहा-ऽऽसवादोऽणुत्तरामरमुहं च ।
किचदुन्हं सुकाण फलं, परिनिन्या परिवाणं । ए६ ॥
जह चिरसंनियमिंधण,जलणोपवणसहिमो दुभं महा। ते च विशेषण शुनाऽऽश्रवाऽऽदयोऽनन्तरोदिता, अनुत्तरामर- तह कम्मिघणमामि, खणेण काणानसो महः ॥१०३॥ सुखं च, योः शुक्लयो, फलमाचयोः। परिनिवावं मोकगमनं
बचा चिरसंचितं प्रभूतकालसंचितम्, इन्धनं कामाऽदि, ज्व(परिमा ति) चरमयोईयोरिति माथाऽर्थः॥६६॥
सनोऽग्निः, पवनसहितो वायुसमन्वितः, द्रुतं शीघ्रं, दहति न. अथवा सामान्यनव संसारप्रतिपकभूते पते इति
स्माकरोति । तथा दुःखतापहेतुत्वाकर्मवेन्धनम, अमितमने. दर्शयति
कनवोपातम, अनन्त, कणेन समयेन, ध्यानमनल श्व ध्यानानभासदारा संसा-रहेनयोजन धम्ममुक्केसु ।
खा, असौ, दहति भस्मीकरोतीति गाथाऽर्थः ।। १०३ ॥ संसारकारणाई, न तो धुवं धम्ममुकाई ॥६॥
जह वा घणसंघाया, खणेण पवणाहया विलयमिति। भाश्रवद्वाराणि संसारदेतबो वर्तन्ते, तानि च यद् यस्मात्र काणपवणावमा, तह कम्मरणा विलिनंति ॥१०॥ धर्मशुक्लयोर्भवन्ति । संसारकारलानिन तस्माद् ध्रुवं नियमेन यथा या धनसमाता:-मेघोत्कराः, क्षणेन, पवनाहता वायुप्रे. धर्मशक्लानि । इति गाथार्थः॥७॥
रिता,विशयं विनाश,यान्ति गन्ति ।ध्यानपवनावधूता ध्यान. (१६) संसारप्रतिपक्षतया स मोकहेतु.
बायुविहिताः, तथा कर्मैव जीवस्वभावा घनाः कर्मघनाः । भ्यानमित्यावेदयन्नाह--
उक्तं चसंबरविणिज्जराभो, मुक्खस्स पहो तबो तासि ।
"स्थितःशीतांगुवज्जीवा, प्रकृत्या भावास्या। काणं च पहाणंगं, तबस्स तो मुक्खोऊ ॥ ॥ चन्धिकावविज्ञानं, तदाबरणमन्नवत्" ।।१॥ संबरविमिर्जरे मोकस्य पन्थाः-अपवर्गस्य मार्गः, तपः पन्थाः इत्यादि। पिलीयन्ते विनाशमुपयान्ति, इति गाथाऽर्थः॥१०४० मार्गः, तयोः संवरनिर्जरयो। ध्यानं प्रधानाचं तपस भारत
किशेवमन्यदिहलोकप्रतीतमेव ध्यानफलमिति दर्शयतिरकारणत्वात् । ततो मोकदेतुस्तद ध्यानमिति गाथा: 18
न कसायसमुत्थेहि अ, वाहिजइ माणसेहि सुक्खेहिं । अमुमेवार्थ सुखप्रतिपत्तयेरान्तः प्रतिपादयत्राह
ईसाबिसायसोगा-इएहिँ जाणोपगपचिचो ॥१०॥ अंबरलोहमहीणं, कमसो जहमलकलंकपंकाणं।
नकषायसमुत्यैश्चन कोधाऽऽयुद्भवैश्व, वाध्यते पीण्यते,मानसैः सोकावणयणसोसे, साइंति जलानलाचा ।। ए॥ दुःखः, मानसग्रहणात्ताप इत्यापि यक्कम, तन्नबाध्यतेहअम्बरलोहमहीनां बसालोहकितीना, क्रमशः कमेण,यथा म.
याविषादशोकाऽऽदिभिः,तत्र प्रतिपक्काभ्युदयोपलम्भजनितो मकलक्कपकानां यथासंस्य शोभ्यापनयनशोषान् यथासंस्था मत्सरविशेष ईयी, विषादो वैक्लव्यम्, शोको दैन्यम् प्रादिशमेव, साधयन्ति निर्वर्तयन्ति, जवानखाऽदित्याः। इति गा
बाद हाऽऽदिपरिग्रहः । ध्यानोपगतचित इति प्रकटायम्। भयं थाऽर्थः ॥९॥
गाथाऽर्थः ॥ १०५॥ तह सुज्काइसमत्था, जीवंबरझोहमेइणिगयाणं ।
सीमायवायएहि अ, सारीरेहि मुबहुप्पगारोहिं। काणजमानमूरा, कम्ममाकलंककाणं ॥१०॥ माणसुनिचलचित्तो, न बहिजा निजगपेही॥१०६॥ तथा शोध्यादिसमर्था जीवाम्बरसोहमेदिनीगतामां ध्यानमेव जलानलसूयाः, कमैव मसकलस्कपडा, तेषामिति गाथाऽर्थः
বহু জাল স্কার্যাবহান্নাবানহামিষ, বিহাৰা
सुदादिपरिग्रहः । शारीरैः, सुबहुप्रकारैरनेकौदैः, ध्यानमुनि॥१००॥
चलचित्तः ध्यानभावितमतिः, न स बाध्यते, ध्यानसुखादिति
गम्यते । अथवा न शक्यते चालयितुं, तत एव निर्जराऽपेकी तावो सोसो भेओ, जोगाणं जाणो जहा नियं।
कमतयापेक्षकः। इति गाथाऽर्थः ॥१०६॥ उक्तं फलद्वारम् । तह तावसोसनेमा,कम्मस्स वि जाणोनिमा ॥१०॥
अधुनोपसंहानाहतापः, शोधो, नेदः, योगानां, भ्यानतो ध्यानाद, यथा नियत- इयमवगुणाऽऽहाणं, दिद्दादिमुहसाहणं जाणं । मवश्यम । तत्र तापोःखं, तत पर शोषो दौर्बल्यम, तत एव
मुपसत्यं सके, नेकेअंच निच्चं पि॥ १०७॥ भेदी विदारणं; योगानां वागादीनां तथा तेनैव प्रकारेण, नापशोपभेदाः, कर्मणोऽपि भवन्ति । कस्य ?-भ्यायिनः,
पंचुत्तरेण गाहा-सएण माणसयगं समुद्दिडं। न यहच्या , नियमाद् नियमेनेति गाथाऽर्थः ॥ १०१ ॥
जिणनहखमासमणे-हिँ कम्ममोहीकरं जाणा ॥१०।।
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काण अभिधानराजेन्डः ।
जाणसंवरजोग 'इय' एवमुक्तेन प्रकारेण, सर्वगुणाऽऽधानमशेषगुणस्था- अन्यतरस्माद्व्याचन्यतरवस्तुविषयादा ध्यानादतीतो यः नं, स्टारएसुखसाधनं ध्यानमुक्तन्यायात्सुष्टु प्रशस्तं तीर्थ- कश्चिदद्यापि द्वितीयध्यानं न संग्रामोति, सद्वितीयं ध्यानमसंकराऽऽदिनिरासेवितत्वाद, यतश्चैवमतः श्रयं, नान्यथतदि- प्राप्तः सन् ध्यानान्तरे बर्तते, सा ध्यानान्तरिका भवतीनि ति भावनया, झेयं ज्ञातव्यं, स्वरूपतः ध्येयमिति, चिन्तनीय शेषः । श्यमत्र भावना-व्यादीनामन्यतमध्यानधतो यदा क्रियया । एवं च सति सम्यग्दर्शनशानचारित्राएयासेवितानि चित्तमुत्पद्यते-सम्प्रति शेषाणां ध्यातव्यानां कतरद ध्यायामी. नवन्ति, नित्यमपि सर्वकालमपि । श्राह-एवं तर्हि शेषक्रिया- ति, एवंविधो विमों ध्यानान्तरिकेत्युच्यते । अत्र यथास्रोपः प्राप्नोति। न । तदासेवनस्वापि तत्वतो ध्यानत्वात् । नास्ति (विपहे व चिकुंचियमो ति) द्विपथं मार्गक्यम्यान, नमः काचिदसौ क्रिया,या प्रागमानुसारेण क्रियमाणा साधूनां ध्यान कश्चिदेकेन पथा गच्छन् पुरस्ताद हिपथे मार्गद्वयेर मात न भवतीति गाथार्थः ॥१०७॥ ॥ १०॥ समाप्तं ध्यानशतकम विकुञ्चितमतिकाऽनयोमा गयाः कतरेण वजामात विमा भाव०४ अ०। यो संघा०। (केवलिममग्घाय' शब्द| कुलबुद्धिः सन्नपान्तराले वर्तते । एवमेयोऽपि यानान्तरे तृतीयजागे ६६७ पृ शैलेश्यवस्थायां ध्यानमुक्तम् )
इति । वृ०१ उ०। (१७)। नस्वरूपं निरूपयन्नाद
काणकोट्ठोवगय-ध्यानकोष्ठोपगत-पुं० । ध्यान-धर्मध्यानं, शु. ध्याता ध्येयं तथ ध्यानं, त्रयं यस्यैकतां गतम् । क्लध्यानं च । तदेव कोष्ठः कुशूलो ध्यानकोष्ठः, तमुपगतो ध्यानमुनेरनन्यचित्तस्य, तस्य दुःख न विद्यते ॥१॥
कोष्ठोपगतः । यथा हि कोष्ठके धान्य प्रक्षिप्त विप्रसृतं भवति,
एवं ध्यानतोऽविप्रकोणम्ध्यिान्तःकरणवृत्ती, रा०। चं० प्र० । ध्याताऽन्तराऽऽत्मा ध्येयस्तु, परमाऽऽत्मा प्रकीर्तितः ।
जा० । सु० प्र० । विपा० । औ० । धर्मध्यानकोटमध्यानं चैकायसंवित्तिः, ममापत्तिस्तदेकता ॥२॥ नुप्रविश्येन्द्रियमनांस्यधिकृत्य संवृताऽऽत्मनि, झा० १ ० १ माणो विम्बप्रतिच्छाया, समापत्तिः पराऽऽत्मनः । अ०। नि० ओ०।
नषद् ध्याना-दन्तराऽऽत्मान निमल।। ३॥ जाणजत-ध्यानयुक्त-वि०। ध्यानं चित्तनिरोधः,तेन युमो यः आपत्तिश्च ततः पुण्य-तीर्थकृत्कर्मवन्धतः ।
स तथा । चित्तनिरोधवति, प्रश्न. ३ सम्ब० द्वार। तज्ञावानिमुखत्वेन, संपत्तिश्च क्रमानवेत ॥ ४ ॥ काणजोग-ध्यानयोग-पुं० । ७त। चित्तनिरोधलकणे धर्मइत्थं ध्यानफलायुक्तं, विंशतिस्थानकाऽऽद्यपि । ध्यानाऽऽदौ विशिष्टमनोवाक्कायव्यापारे, सूत्र. १ श्रु० अ०। कष्टपात्रं त्वजव्याना-मपि नो पुर्तभं भवेद ।। ए॥
काणज्यण-ध्यानाध्ययन-न० । ध्यानप्रतिपादके प्रावश्यका जितेन्जियस्य पीरस्य, प्रशान्तस्य स्थिराऽऽत्मनः । ध्ययने, श्राव०४०। मुग्वाऽऽसनस्य नासाग्र-न्यस्तनेत्रस्य योगिनः॥६॥
कारण ज्झयणरइ-ध्यानाध्ययनरति-स्त्री० । ७० । ध्यान चा. रुकबाह्यमनोवृत्ते-धीरणाधारया रयाव ।
ध्ययनं च ध्यानाध्ययने, अध्यन पूर्वकत्वेऽपि ध्यानस्याल्पा प्रसन्नस्याप्रमत्नस्य, चिदानन्दसुधाविहः ॥ ७॥ रत्वादभ्यस्तित्वाच पूर्वनिपातः । पकालम्बनसंम्धस्य सहाप्रसाम्राज्यमप्रतिद्वन्द्व-मन्तरे च वितन्वतः ।
त्ययस्य च प्रत्ययान्तरप्रवाहस्वाध्याययोरासक्ती,पो०१२विवः ध्यानिनो नोपमा लोके, सदेवमनुजेऽपि हि॥७॥
कागाप्पयाम-ध्यानपकाश-पुं० । ध्यानप्रतिपाद के अवशेष,
उक्तञ्च ध्यानप्रकाशे-" जायरियप्पो चिरकालीग्रो।" अg.. अप३० अष्ट० । “बीए काणं झियायह।" दिनस्य द्वितीये
अष्टा प्रहरे ध्यान ध्यायतीनि प्रतिदिनक्रिया । उत्त० २६ अ० ।। करणप्रत्ययेन निर्विपये मनप्ति, उत्त०१२ भ० ।
काणावर-ध्याननर-न । ध्यानश्रेष्ठ, मृत्र०१६०६ भ०। प्रधा काणंतर-ध्यानान्तर-न० । अढाध्यवसायध्यानस्य चान्तरि
नध्याने, आव०४०। प्रश्न: धर्मभ्याने, प्राय०४०।
काणविभत्ति-ध्यानविभक्ति-स्त्री० । ध्यानान्यानध्यानाऽऽननि, कायाम, वृ० १ ०।
तेषां विभजनं विभक्तियस्यां ग्रन्थपती सा । उत्कालिकश्रुतजाणंतरिया-ध्यानान्नारिका-स्त्री० । ध्यानयोः शुकध्यानद्विती.
विशेष, नं०।पा। यतृतीय नेदलका योरन्तरं मध्यं ध्यानान्तरम, तदेव ध्यानान्तरिका । स्था० ठा० । अन्तरस्य विच्छेदस्य करणमन्तरि
काणमंवरजोग-ध्यानसंवग्योग-पुं० । प्यानमेव संवरयोगो का, ध्यानम्यान्तरिका ध्यानान्तरिका । भ० ५० ४ उ० ।
ध्यानसंवरयोगः । स. ३२ सम० । ध्यानस्य मध्यनागे, कल्प०६ करण । प्रारब्धध्यानस्य समा.
ध्यानसबरयोगतामाहसावपूर्वस्यानारम्भणे, ज. ५ श. ४ उ० । द्रव्यादीनाम
" नगरं वसिंधुवरुण, मुमिवां अज्जपुम्स । न्यतमध्यानवतो यदा चित्तमुत्पद्यते-सम्प्रति शेषाणां ध्या- मायण समिन मुहमे झाण बिवायो भ ॥ १॥" तव्यानां कतर ध्यायामीत्यविध विमर्श, वृ० ।
" आसीन्मुगिमवको राजा, नगर सिन्धधर्कने। केयं पुनध्यानान्तरिकेनि?, उच्यते
पुष्पनत्यभिधास्तस्मि-नाचायां सुपदश्रुताः ॥ १॥
बोधितम्तैः स गजेन्दुः, परमः श्रावकोऽजयत् । अन्नतरकाणऽसीतो, विश्र झाणं तु सो अमंपत्तो।
पुमिवश्व शिष्योऽस्ति, पामनिबटुथतः ॥ २ ॥ काणंतरम्मि बट्टइ, विपहे व विकुचियमईओ ॥
अवमभनयाऽन्यत्र, निष्टनि म पर सुखी ।
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भाणसंवरजोग
अन्यदादपुराचार्याः सुमच्याने प्रवेशनम् ॥ ३ ॥ महाप्राणसमं तच्च तत्र स्याचेतनाऽपि न । अगीतायां तत्पा पुष्पमित्रोऽथ शब्दितः ॥ श्रागतः कथितं तस्य, प्रपन्नं तेन तेऽप्यथ ।
1
करके ध्यानमारेभिरे रदः ॥ ५ ॥ इसे ढकं न कस्यापि स तेषां किं तु बक्त्यदः । अत्रस्था एव वन्दध्वं व्याकुलाः सन्ति सूरयः ॥ ६ ॥ दिनैः कतिपयैरन्येऽमन्त्रयम् साधवो मिथः । कुर्वन्तः सन्ति किं पूज्याः, एकस्तत्र न्यभालयत् ॥ ७ ॥ तावद् गुरुने चलति न स्पन्दते न वक्ति च । आख्यत्तदर्थं सर्वेषां रुष्टाः सर्वेऽपि साधवः ॥ ८ ॥ श्रायांssख्यासि त्वमाचार्यान् किं न कालगतानपि १ । सांडवकालगता नैते, ध्यानं ध्यायन्ति किं त्वमी ॥ ६ ॥ व्याघात मा कार्षुरुचुस्ते धूर्तता तव । साधिकाऽसि, बेतालं पूर्व सबै तेनामि मानिन्ये तैस्ततो राजा ऽऽचार्याः कालगता इति ॥ ११ ॥ सीलिङ्गिकः किं तु न निर्याणं कन राजा स्वयमथाऽऽलोक्य, मेने का लगतान् गुरून् ॥ १२ ॥ पुष्पमित्रमवज्ञाय शिक्षिका तिता । अभ्याच पाये महति, स्पृश्योऽङ्गुष्ठो मम त्वया ॥ १३ ॥ पुष्पस्तमिति संकेतात्, पस्पर्श प्रत्यबुद्ध सः ।
॥ १० ॥
वः
क०
किमार्थ व्याघातः शिष्यः कृतः। १४ उक्तास्ते न कृतं रम्यं भङ्गो ध्यानस्य नः कृतः । प्रवेश्य ध्यान येन स्वाद्योगसंग्रहः ॥१५॥ ० ० ॥ श्राव । भाचू । श्रष्टाविंशे योगसंग्रहे, प्रश्न०५ संघ० द्वार । जायसयम-ध्यानशतक-म० ध्यानप्रतिपादके गाथाशतके "बुतरेण गाढा-सरयाणसयगं समुदि १०८ गाया
आव० ४ ० । घ० ।
जाणीव प्रोगचित-ध्यानोपयोगचित्त-त्रि० । ध्यानोपयोगे विशियाना या यस्य सः । विशियानाभ्यासवि से, संधा० ।
( १६७४ )
अभिधानराजेन्द्रः ।
काम-ध्यात भि० दवे, आचा० २०१०१००
। चू०। ध्याय-वि० धनुज्यले २० द्वार
कामण - ध्मापन - न० । प्रदीपनके, व्य० २४० । सूत्र० । कायर्थदि ध्यानस्थरियल १०० २०
१ अ० १ ० ।
"
कामिय- ध्यामित त्रि० । मग्निना दग्धे व्य० ७ ० । वृ० । वाघरं सवं कामियं । भ० म० १ ० १ खण्ड । दे० ना० । काय ध्या० भस्मीकृते नं० कायन्त्र- ध्यातव्य - त्रि० । ध्येये भव० ४ ० | दर्श० । झापा ध्यान चिन्तके, प्रा० ४० शे० । कारु- श्री । देशी-चीर्याम, मिरिंड 'कारभार, एस जंगकिडी । " ( ४८ गाथा ) चीरोलता गहन जीर्णकृपे एष यत् पतिष्यति इत्यर्थः । दे० ना० ३ वर्ग । कान - धमापन - भस्मसात करणे, आचा० १ ०१० ५ ० ।
"
6
झुणि जावणा-ध्यापना- स्त्री० । अग्निसंस्कारे, आ० म० १ ० १ ख एक सय भगवतो निर्याणप्राप्तस्यान्येषां च साधूनामिया कृणामितरेषां च प्रथमं कृतः पाकेऽपि संजाताः । अ०म० १ ० १ खण्ड ।
किंगिर - जिङ्गिर- पुं० | बीडियजीवभेदे, जी० १ प्रति० । किंगिरम- क्रिङ्गिरड - पुं० । श्रीबिजीवभेद, जी० १ प्रति० । जिंजिय-फिजित - त्रि० । बुजुक्काऽऽर्ते, बृ०६ ४० ।
| agile,
झझिरीबलीप सा
गोि आचा० २ ० १ अ. उ० । वल्लीपला शके, वृ० १ उ० ।
जिम्म-नेय न० पेन पर किया
मान्यमालायते तस्मिन्भावे ०१२
५४०
जियात ध्यायत्त्र० चिन्तयति विपा० १० २ ० कियायमाण - ध्यायमान- त्रि० । जाज्वल्यमाने, दशा० १० ०। ज्वलति ज००६ उ० । सूत्र० । दह्यमाने, झा०१०१० ध्यायमान- त्रि० । चिभ्यमाने, दशा० ५ प्र० । भ० । जिरिंड न० देशी-जी दे० ना० ३ वर्ग जिनियाका प्रा० १ पद फिलिरिक्षा स्त्री० । देशी-चीहीतृणे, मशके च । दे०ना०३ वर्ग । जिमी - जिल्ली - श्री० । विलति चिल- प्रच् पृषो०- गौरा०टयांकर तपस्वी ब कन्दभेदे, प्रज्ञा० १ पद ।
जीव-चीन त्रि०क्षिका दुर्बले. कामे वाय० अ० क० प्र० । अहे, कीटे न । दे० ना० ३ वर्ग । जीर-श्री देशी- दे० ना०३ वर्ग
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33
पुं० [देशी तुला रूपे वाद्यविशेषे दे० ना० ३ वर्ग । कुंझिप कुल्कित बुभुति भ० १६० । च ।
त्रि०
४ उ० ।
कुंकुं मुमयय-म० देशी मन, दे० ना० २ वर्ग कुंटा-देशी प्रवा०० वर्ग
कुंदन कुम्बनऊन प्रालम्बे कर्णाऽऽनरणावि०१
४० १ अ० ।
कुटु-१०। देशी-अली के दे० ना० ३
कुरा नृगुप्स पा० निन्दायाम "गुणगु ६ः ॥ ८६ । ४ । ४ ॥ इति जुगुप्सतेाऽऽदेशः । 'भुजद्द' प्रा० ४ पाद ।
33
।
कुणि ध्वनि-पुं० वन्-इन्। श्वनिविश्वः॥ १५२॥ इति आदेश्यम् प्रा० पायद अलइकारांचे उत्तम काव्ये च । वाच० । “भुणि कन्नडप्पट्ट । प्रा० ४ पाद |
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ि
कुनिख० देशी- दे० ना०३ वर्ग भुल्लरी- देशी- गुल्मे, दे० ना० ३ वर्ग । कुमा-जोपणन०
कल्प० । शा० ॥
कुमणा जोषणा खी० सेवायाम स्था०५ डा० १४० ॥ सिग जुषित - त्रि० । सेविते, वृ० २३० ॥ सिर-शुषिर [ न० शुषेः शोषस्य दानाच्छुबिरम्। श्राकाशे, भ० २० श० २ उ० । रन्ध्रे, झा० १० ८ ० । पोल्ले, नि० चू० १२० । सच्छि, ग०२ अधि० । अन्तःसाररहिते, दश० १० अ० असारकाये, प्रश्न २ श्राश्र० द्वार । शङ्खाऽऽदौ, रा० । काहसाऽऽदौ, रा० । श्रा० म० । जी० आ० चू०| वंशाऽऽदौ बाधे, भ० ४ ० ४ ० ० चतुर्विधे तो भावा० २. २०२० १२० ।" सिरा जमलीयसंडिया" उपा० २ अ ।
श० | ।
अथ कतिविधं शुषिर मिति प्रभावकाशमाशङ्क्याऽऽहशुचिरं पञ्चविधमः । तद्यथा- पुस्तकपञ्चकं पञ्चकं दूष्यं वस्त्रं, तत्पञ्चकं द्विविधम्-अप्रत्युपेक्षक दूष्यपञ्चकं, दुष्प्रदृष्यपञ्चकं त
(१९७५) अभिधानराजेन्ः |
अथ पञ्चादिषु दोषाना
तलपणगम्मि वि दोसा, विराहणा होति संजमाऽऽताए । सेसेसु वि पणगेसुं, विराहणा संजमे होति ।। तृणपञ्चकेऽपि दोषा भाज्ञाभङ्गाऽऽदयो भवन्ति । विराधना च संयमात्मविषया । शेषेष्वपि दूष्यपञ्चकाऽऽदिषु संयमविषया बिराधना भवति ।
सेवायाम स्था० २०१० ।
इदमेव जावयति
अहिविच्ग विसकंटग-मादीहिँ खयं व होज्ज आयाए । कुंयादि संजय जति उम्बतादि तति लडुगा ।। तृणाऽऽदिषु शुपिरत्वाददिवृश्चिको वा विषकण्टको वा जवेत् । पतैः प्रदिशब्दादिकादिभिश्य तत्र शयान यासीनो या उपद्येत । क्षतं वा दर्जाऽऽदिषु सुप्तस्य जवेत्। एषा श्रात्मविराधन कुन्युनाऽऽदेाणिव्यपरोपणं तु संयमचिन
प्रो (यति वाचतो वारानुन परिवर्तनमा प्रसारणं वा करोति (नति ) तावन्तञ्चतुर्लघुकाः । वृ० ३४० ॥ कुसिरगोल मंत्रिय - सुपिरगोल संस्थित- त्रि० । अन्तः शुचिरगो
बकाऽऽकारे ज० ११ श० १० उ० ।
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मोसेहि
1
जूर-स्वर- चा० वा०-०-सक०मनि "स्मर-र-भर भल-लढ - बिम्हर- सुमर-पयर पम्हुहाः॥४७॥ इति प्रदेश 'क्रूर' 'सरह' प्रा० ४ पाद स्मरति मा
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भूरइ सि" हृदयेन खिद्यते । आचा० १० २ ० ५ उ० । कुटिले, दे० ना० ३ वर्ग ।
जून - जोषण - न० । प्रीतौ सेवायां च । औ० । स्त्रियां टाप् । स्पा० २ठा० २३० । प्रा० चू । स० ।
फूसरित्र्य - त्रि० | देशी - अत्यर्थे, स्वच्छे च । दे० ना० ३ वर्ग । कूसिय- जुष्ट- त्रि० । सेविते, स्था० २ ठा० २३० । प्र० । ० । जूषित - त्रि० । कपिते, स्था० २ डा० २ ० | कल्प० । ॐ प्र-पुं० देशी- दे० ना० ३ वर्ग कन्दुके, ।
।
केप ध्येय १० चिन्तनीये प्रा० ४ ०।
जो लिखी देसी
दे
जो श्री० [देशी-मदिष्या दे० ना० ३ वर्ग
-
।
।
जोमप्प - न० | देशी - पणके, दे० ना० ३ वर्ग । कोमिश्र - पुं० । देशी- व्याधे, दे० ना० ३ वर्ग । कोल्लिया - फोल्लिका - स्वी० । पुरुषद्वयोत्कित्ते “ फोली ” इति ख्याते पदार्थे, सूत्र० २ ० ४ ० ॥
66
कोस कोष-पुं० । यथेह तीर्थे धम्मासान्तमेघ तपः, ततः षष्ठां मा सानामुपरि यान् मासानापनोऽपराधी, तेषां क्षपणमनारोपणम् । प्रस्थे चतुः सेतिकाऽतिरिक्त धान्यस्येव भाटने, स्था० ॥ ४०२ उ० । नि० चू० । कोमा कोष न० मार्गणे, "आनोषणं तथा माता झोलणं ति वा एगहुं । व्य० २ ० । कोसमाचा-जोषयत् कृपयति चा० १०५ ० २४० । - त्रि०। कोसिय-तु-त्रि सेविते प्रा० १०५ ० ३ ० । ओषितत्र० । कृषिते, आचा० १ ० ५ अ० २४० । कोसेपाण-- जुषत्--त्रि० । प्राचरति, श्राचा० १४० ८ ० १३० को सेहि--देशी- क्रिया । गवेषयत इत्यर्थे, वृ० ३३० ।
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इति श्री सौधर्म बृहत्तपागच्छीय कलिकाल सर्वकरूप-जहारक
जैन श्वेताम्बराऽऽचार्यश्री १००० श्रीमद्विजयराजेन्द्रसूरीश्वर विरचिते "विधान राजेन्द्रे " ऊकाराऽऽदिशब्द
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सङ्कलनं समाप्तम् ।
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इत्यं वर्णों सूर्यस्थानीयः स्पर्श
- पुं० टल डः । वामने, पदे, निःश्वने, वाच० । धने, सूनी कर धूमे पाते. भावने भानुरश्मी, सामने, मासे, स्थिरे, अश्वे च । एका० । करने, टङ्कारे च । न० । वाच० । टंक- टङ्क - पुं० । टांक- घश्, अच् वा । कोपे, कोषे, खङ्गे, पाषाणभे दनेऽस्त्रे वाच । खड्गाऽऽदीनामग्रभागे प्रश्न० १ ० द्वार मुद्रात्रिविशेषे पञ्च० ४ वि० । श्राव० । प्रशा० छिन्नत दे कूटे, नं० 1 भ० । एकदिशि विले पर्वते, का० १ ० १ ० । जयपर्व ०१ कल्प० । लोमपक्किनेदे च । जी० १ प्रति० । चनुषकरूपे परिमाणे, नीलकपित्थे, खनित्रे, दर्पे च । पुं० | वाच० | खड्डे, च्छित्रे, खाते, जङ्घायाम, खनित्रे, भित्तौ न च । दे० ना० ४ वर्ग । टंकन केयुः 'सोहागा' इतियाते कारभेदे बाच। उत्तरापथे म्लेच्छदेशवास्तव्ये स्वनामध्याते म्लेच्छविशे, विशे० प्रा० म० प्रा० च्० सूत्र० । टेकाडूनी स्वनामस्य तीर्थे यत्र पूज्यते ।
ना० ४३ कल्प ।
टेकिन० | देशी प्रते दे० ना० ४ वर्ग । टेवर प्रि० देशी भारिके दे० ना०४ वर्ग
टक्कर- टक्कर- पुं० । अङ्गुल्यादिना शिरआदौ दगिति करणे, व्य०
२ ३० १
(१६०६)
अभिधान राजेन्द्रः ।
टगर-नगर-पुं गृ-अच् । तस्य क्रोडस्य गरः । वाच० | " त गर-सर-त्वरेदः ॥ ८ । १ । २०५ ।। इति तस्य टः । प्रा० २ पाद | स्वनाभख्याते वृक्के, याच० । टमरुक-रुममक-पुं० । " चूलिकांपैशाचिके तृतीयतुर्ययोराद्य. द्वितीयो " ॥ | ४ | ३२५ ॥ इति रुस्य टः । प्रा० ४ पाद । वाद्यभेदे, कापालिक योगवाद्ये चमत्कारे च । वाच० । टसर सर - पुं० । स श्ररन् । तन्तुवायोपकरणभेदे, वाच० । "नगर-बसर त्वरे : ८ । १ । २०५ । इति श्रस्य टः । प्रा० १ पाद |
टाटा स्त्री० घटिकायाम, भुवि, भृत्यायां, व्यावृती, निगरेऽपिच । एकार |
दाल दाल- न० । श्रास्थिति फले, दश० ७ अ० । श्राचा० । पूरी डिबी०सी०
तत्कल्पं यथा
श्रीपार्श्वे चेणाभिख्यं, ध्यात्वा श्रीवीरमप्यथ । कल्पं श्रीटिम्पुर तीर्थस्याभिधास्ये यथाश्रुतम् ॥ १ ॥ पातजनन्यास्तदे महानद्याः | नानाघनवनगहना, जयत्यमौ टिम्पुरीति पुरी " ॥ २ ॥ श्रत्रैव मारते वर्षे त्रिमलयशा नाम भूपतिरभूत् । तस्य सुमङ्गवादेव्या सह विषयसुखमनुभवतः क्रमाज्जातमपत्ययुगलम् । तत्र पुत्रः पुष्पच्चूलः पुत्री पुष्पचला। श्रनर्थसार्थमुत्पादयितुः पुष्पचूलस्य कृतं नोकैः " वङ्कचूल " इति नाम । महाजनोपालब्धेन राज्ञा रुषितेन निःसारितो नगराद्वङ्कचूलः । गच्छँश्व पतितो भीषणायाटव्यां सह निजपरिजनेन स्वस्रा च स्नेह
या तत्पिपासाऽऽर्दितो दृष्टे मिली गीतः स्वप स्थापित पूर्वी अनुगमन गरसाथी अन्दा सुस्थिताना अर्बुदाचापा त्रायै प्रस्थितास्तामेव सिंहगुहां नाम पक्षीं सगच्छाः प्रापुः । जावर्षाका अजनि पृथ्वी जीवा
1
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टिंपुरी
हालो मार्गाला वसति
रयः । तेन च प्रथममेव व्यवस्था कृता । मम सीमान्तधर्मकथा न कथनीयाद तो पुष्यधायादिखादिको धर्म, न यं मनोको निति 'वस्तु' इि
श्रये गुरवः । तेन बाऽऽहूय सर्वे प्रधानपुरुषा जणिताः । अहं राजपुत्रः, मत्समीपे ब्राह्मणाऽऽदय आगमिष्यन्ति ततो द्भिजीववधो, मांसमद्याऽऽदिप्रसङ्गश्च पल्ल्या मध्ये न कर्त्तव्यः । एवं ते तु यतीनां न भक्तपानमजुगुप्सितं कल्पत शेततैस्तथैव कृतं याच मासान् प्राप्त विहारसमयः
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सूरिभिः समणायं सउणाएं " इत्यादिवाक्यैः तैः सह चलितो वङ्कचूलः स्वसीमां प्राप । तेन विज्ञप्तं वयं परकीयसीमान प्रतिभा सूरिमसीमार मुपेताः तत्किमप्युपदिशामस्तुभ्यम् । तेनोक्तम्- यन्माये निर्वह ति तडुपदेशेनानुगृह्यतामयं जनः । ततः सूरिनिचत्वारो निबमा दत्ताः । तद्यथा अज्ञातफलानि न भोकव्यानि सप्ताष्टानि पदान्यपसृत्य घातो देयः, पट्टदेवी नाभिगन्तव्या, काकमांसं न भक्षणीयमिति । प्रतिपन्नास्तेन ते । गुरून् प्रणम्य स स्वगृहानागमत् । श्रन्यदा गतः सार्थस्योपरि घाट्या, दा कुन करणान्नागतःसार्थः। त्रुटितं च तस्य पश्यदनम् । पीमिताः क्षुधा राजन्याः,
दैः पिक फलितः गृदीनानि फलानि न जानाति तन्नामधेयमिति तेज
तैः
किफलैः । ततश्चिन्नितं तेन श्रहो ! नियमानां फलं तत एका पंचायत रजस्वला पा ssलोकेन पुरुषपा निजपल्या सह प्रसुप्ता । जातस्तस्य कोपकरद्वारेण
तावत् स्मृतो नियमः । ततः सप्ताष्टपदान्यपक्रम्य तं ददस् खानमुपरिखना जति । तद्वचः श्रुत्वा लज्जितोऽसावपृच्छत् किमेतदिति । साऽपि नटवृत्तान्तमची कथत् । कामेण तस्य तद्राज्यं शामतस्तत्रैव पायांनाचार्यस्य शिक तयोरेकः साधुखिमापणं विदधे द्वितीयश्चतुमांसकपणम । चच्त्रस्तु तद्दत्तनियमानामायतिशुभफलतामवबांक्य व्यजिपत् । भदन्तौ ! मदनुक
रामपालाम
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(१६७०) टिंपरी अनिधानराजेन्द्रः।
टिंपुरी म्पया कमपि पेशलं धर्मोपदेश दत्तः । ततस्ताज्यां चैत्यविः । उक्ताच नाप्यरटपुरुषेण-यदिमांतजैव विमुच्य स्थेयाः, नो के धापनदेशना क्लेशनाशिनी विदधे । तेनापि शराविकापर्वत. त्सा एवं त्वां हनिष्यामीति । तेन नयाऽऽतेन तत्रैव मुक्ता यु. समीपचर्तियां तस्यामेच पल्ल्यां चर्मरावतीसरित्तीरे कारितमु. गीलिका इत्यादि । किन संजायने देवताधिष्ठितेषु पदार्थ
स्तरं चारु चैत्वम् । स्थापितं श्रीमन्महावीरबिम्बम् । तीर्थतवा षु भूयते च संप्रति काले कश्चिम्लेच्छ पाषाणपाणिः श्रीपासरदंतता प्रयान्ति स्म चतुर्दिग्भ्यः सक्ला। कासान्तरे कश्चिन्ने. वनाथप्रतिमा नाफतुमुपस्थितः स्तम्भितयादुजातः, महति . गमः सभार्यः सर्वथा तद्यात्राये प्रस्थितः,प्राप्तः क्रमेण रन्तिनदी- जाविधी कृते सजतामापन्न इति । श्रीवीरबिम्ब महत, नदपेक्षम। नाबमारूदौ च दम्पती चैत्यशिखरं व्यलोकयताम् । ततःस. या लघीयस्तरं श्रीपाश्वनाथविम्बमिति महावीरस्यानकरूपो. रजसं सौषणिककचोल के कुमचन्दनक प्रक्विप्य जलं ते.
ऽयं देव इति भेदाभेरण इत्याख्यां प्राचीकशत । श्रीमच्चे तुमारब्धवती नेगमगृहिणीप्रमादान्निपतितं तदन्तर्जलतलम् ।
बनणदेवस्य महीयस्तममाहात्म्यनिधेः पुरः ताज्यां महर्षिभ्यां तां ततो नणितं वषिजा-"अहो! श्दं कचोलकं नैककोटिमू. सुवर्णमुकुटमन्त्राऽऽम्नायः समाधितः प्रकाशितश्च भव्येभ्यः । स्परत्नखचित राखा प्रहण केऽर्पितमासीत् , ततो राज्ञः कये सा च सिंहगुहापरली कालक्रमात ' टिम्पुरी ' इत्याबुटितव्यम:। इति चिरं विषय घङ्कचलस्य पल्लीपतेर्विशापितं क्या प्रसिफा नगरी संजाता । अद्यापि स भगवान तत् । यथा-अस्य राजकीयवस्तुनो विचितिः कार्यताम् । तेमापि भीमहावीरः सचेल्लणपाश्र्वनायः सकलसन तस्यामेष पुर्या धीवर आदिएस्तच्छोधयितुम् । प्राविशदन्तनंदम् विचिन्वता पात्रोत्सवेराराप्यते इति । भन्यदा वकचून उज्जयिन्यां खात्रचान्तर्जलतलं र तेन हिरण्मयग्धस्थं जीवन्तखामिधीपार्श्वना- पातनाय चौयवृत्त्या कस्यापि भेष्ठिनः सद्मनि गतः, कोलाहल यबिम्ब तावत, पश्यति सस बिम्बस्य हदये तत कचोलकम। भुत्वा ततः चलितः । ततो देवदत्ताया गणिकाया गाणिक्यमा. धीवरेणोक्तम्-धन्याविमौ दम्पती, यद्भगदतो वकसि घुसणच- विक्यभूताया गृहं प्राविंशत् । रटा सा कुष्ठिना सह प्रसुता ।
चन्दनविलेपनादें कचोसकं स्थितम । ततो गृहीत्वा तदापितं सतो निःसृत्य गतः पुरः भेष्ठिनो पेश्म । तत्रैवियोपको लेक्य के नैगमस्य । तेनापि दत्तं तस्मै बहु कन्यम । उक्तं च विम्बस्य रूपं तुचतीति परुषवाभिनिर्भस्य निःसारितो गेहात पुत्रः भेष्ठिना। नाविकेन । ततो वन्न श्रमालुना तमेव प्रवेश्य निष्कासितं विरराम च यामिनी । यावमाजकुलं यामीत्यचिन्तयत् ताव दुजतद् बिम्बम् । कनकरथस्तु तत्रैव मुक्तः। निवेदितं हि केनापि स्वप्ने गाम धामनिधिः । पल्लशिश्च निःसृत्य नगरामोधां गृहीत्वा तरुप्रान्नावता नृपतेः-यत्र क्षिप्ता सती पुष्पमाला गत्वा तिष्ठति तसे दिन नीत्वा पुना रात्रावागाजाजकुममामा एमागासद् बहि. तत्र बिम्ब शोद्ध्यमिति । तदनुसारेण बिम्बमानीय समर्पितं राक्षे गोंधापुच्छे विलम्य प्राविशत्कोशम् । रष्टो राजाप्रमाहण्या। रुपया वाचूलाय । तेनापि स्थापितं श्रीबीरबिम्बस्य बहिर्मएकपे या- पृष्टश्व-कस्त्वमिति । तेनोचे-चौर इति । तयोक्तम्-मा भैषी,मया वत् का नन्यं चैत्यमस्मै कारयामीत्यभिसंधिमता । कारिते सह सङ्गम कुरु।सोऽवादीत-का त्वम्। साऽप्यचे अग्रमहिष्यह चैत्यान्तरे यावत्तत्र स्थापनार्थमत्थापयितुमारजन्ते राजकी- मिति । चौरोऽवादीदू-यवतहिं ममाम्बा भवसि,अतो यामि? याः पुरुषास्ताबदिम्ब नोत्तिष्ठति स्म । देवताधिष्ठानात्तत्रैव स्थि- इति चौरेण निश्चिते, तया स्वाझं नावंदाय पूतकतिपूर्वमादना तम । प्रद्यापि तत्रैवाऽऽस्ते। धीवरेण पुनर्विज्ञप्तः पञ्जीपतिः-यत्तत्र रककाः। गृहीतस्तैः। राका चानुनयार्थमागतेन तद् एम् । राकादेव! मया नद्यां प्रविष्टेन बिम्बान्तरमपि दृष्ट, तदपि पहिरानय- तारत-पौरुभ्यामनं गाद कुर्चीवमिति तै उछितः। प्रातः पृष्ठः किनेनौचितीमश्चति,पूजाऽऽरूढं हि भवति । ततः पल्लीश्वरेण पृष्टा तिभृता। तेनाप्युक्तम्-देव! चौर्यायाहं प्रविष्टः पश्चादेव नाएमास्वपरिपत-जो!जानीते कोऽप्यनयोर्बिम्बयोः संविधानक?,केन गारे देण्या रष्टोऽस्मि । यावदन्यन्न कथयति ताबनुष्टो विदितवेयो स्थलतो नद्यन्तजलतले न्यस्ते? इत्या करकेन पुराविदा स्थवि. नरेन्सः, स्वीकृतः पुत्रतवा। स्थापितश्च सामन्तपदे । देवी रेण विज्ञप्तम्-देव! एकोऽस्मिन्नगरे पूर्व नृपतिरासीत् । स च पर- | विडम्ब्यमाना रविता बङ्कन । अहो! नियमानां शुनफसचक्रेण समुपेयुषा सा यो, सकलचमूसमूहसनहनेन गतः। मित्वनवरतमयमध्यासीत् । प्रेषितश्चान्यदा'राका कामरूपतस्याग्रमहिष च निजं सर्वस्वमेतच बिम्बद्वयं कनकरथस्थं तूपसाधनार्थम् । घातै जर्जरितो विजित्य तमगात् स्वस्थानम् । विधाय जलदुर्गमिति कृत्वा चर्मण्वत्यां कोटिम्बके प्रक्षिप्य म्याहताश्च राज्ञा वैद्याः, यावद् गृहोऽपि घातवणो विकशति । स्थिता । चिरं युद्धवतस्तस्य कोऽपि स्खलः किल वातामान- सैरुक्तम्-देव! काकमांसेन शोजनोजवत्ययम् । तस्य च जिनपीत-यदयं नृपतिस्तेन परचक्राधिपतिनृपतिना व्यापादित दासभावकेण सार्द्ध प्रागेव मैत्र्यमासीत् । अतस्तदानयइति । तत् श्रुत्वा देवी तत्कोटिम्बकमाक्रम्यान्तर्जलतवं प्राक्ति- नाय प्रेषितः पुरुषः पुरुषाधिपतिना, येन तद्वाक्यारका कमांस पत । एकं च तयोरानीतं पूज्यमानं चाम्ति । द्वितीयमपि चेद भक्कयतीति । तदातश्च जिनदासोऽवन्तीमागच्छन्नुभे दंग्या निःसरति तदोपकम्यतामिति । तदाकण्यं वचनः परमाईत. रुदत्यावरूाकीत् । तेन पृष्ठे-कि रुदियः ? । तायामुक्तमचूलामणिस्तमेव धीवरं तदानयनाय नद्यां प्रावीविशत् । स
अस्माकं भर्ता सौधर्माच्युतः, मतो राजपुत्रं पतचलं च तबिम्ब कटीदनवपुर्जतलेऽवतिष्ठमानं बहिःस्थशेषा
प्रार्थयावदे, त्वयि गते स मांसं भवयिता,तेन गन्ता ऽगतिम, चावलोक्य निष्कासनोपायाननेकानकार्षीत् । न च तनिर्ग- तेन दिवा तेलोकम-तथा करिष्ये,यथा तन्न भवयिता । गतश्च तत्र समिति देवतप्रभावमाकलय्य समागत्य च विशामीशाय न्य. राजोपरोधातचलमवोचत्-गृहाण बसिभुकपिशितम, पद वेश्यत ततस्वरूपम् । मद्यापि तरिका तथैवाऽऽस्ते । अयतेऽ. भुक्तः सन् प्रायश्चित्तं चरे। वइचलोऽवोचत्-जानासि त्वं यदायापि-केनापि धीवरस्थविरेण नौकायाः स्तम्भे जाते तत्कारणं
बाप्पेकान्तं प्रायश्चित्तं प्राह्म, ततः प्रागेव तदनाचरणं श्रेय विचिन्वता तस्य हिरएमयरथस्य कीलिका लब्धातांक. इति; "प्रकालनास्पिस्य,दारस्पशन वरम् ।" ति बाक्या. नकमयीं रष्ट्रा सम्धेन तेन व्यचिन्ति-यदिमं रथं कमात्मर्व
त। निषिको नृपतिः। विशेषप्रतिपन्नव्रतनिवहश्वाच्युतकरूपमा गृहीत्वा भारमान् भविष्यामीति । सतधरात्रौ निद्रानमे।। गमव । बलमानने जिनडासेन से देम्पो तब सदस्यौटा प्रो
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टोलाग
(१६७७) टिपुरी
अभिधानराजेन्द्रः। कम् -किमिति हदियः? ; न तावत्स मांसं प्राहितः। ताभ्याम- टिट्टियावण-टिट्टियापन-न। शब्दायमानकरणे, "मयूरी . भिवधे-स शधिकाराधनवशादच्युतं प्राप्तः ।
डयं प्रभिक्खणं मभित्रणं नो सम्वद्देश्० जाव नो टिट्टिया"चेल्लणापाश्र्वनाथस्य, कटपमेतं यथाभुतम् ।
धे।।" का०१ श्रु०४ा स्वकीयकर्ण समीपे धृत्वा टिट्टियाये किशिद्विरचयांच, श्रीजिनप्रनसरयः" ॥१॥
ति-शब्दायमानं करोति । ज्ञा०१ श्रु०४०।०। इति श्रीवेक्षणापाश्वनाथस्य कल्पः॥
टिप्पी-स्त्री० । देशी-तिल के, दे० ना०४ वर्ग । टिम्पुरीस्तवस्त्वषम्
टिरिदिन-भ्रम-धा० । चलने, ज्वान-पर० अक० सेट् । वाच । " विविधनगरुपलमनायैरनिभ्राजिता,
"भ्रमेष्टिरिटिल-दुण्दुल-ढएदल्ल-चकम्म-भन्मड-भमड-भमादश्रीवीरप्रक्षुपार्श्वसुव्रतयुगाऽऽदीशाऽऽदिबिम्बैर्युता।
तल अंट-कंट कंप-तुम-गुम-फुम फुस-दुम दुस-परी-पराः" ८|| पली तृतलविश्रुता नियमिनः श्रीचकूचूलस्य या,
१६॥ इति टिरिटिल्लाऽऽदेशः। 'टिरिटिवई','जमा प्रा०४पाद। सा भूत्या चिरमद्भुतां कलयतु प्रौदि पुरी टिम्पुरी ॥१॥ व्योमचुम्बिशिखरं मनोहरं, रन्तिदेवतटिनीतस्थितम् ।
टिविमिक-मएम-धा० । भूषायाम, चुरा०-उन-पक्षे-वाअत्र चैत्यमवलोक्य यात्रिकाः, शैत्यमाशु ददति स्वचचुषोता,
पर सकल-सट्-उदित । बाच० । “मरामेश्चिश्व-चिचमुलनायक हान्य जिनेन्द्र-श्वारुलेपघटितोद्भटमर्सिः।
चिचिल्ल-रीम-टिविमिका: "E४११॥ इति टिचिमिकाऽऽदेशः। दक्षिणे जयति चेलणपार्यो, जात्युदक्तदपरः फणि केतुः ॥३॥
टिनिर्मिक' । प्रा०४पाद। एकत प्रादिजिनोऽत्र जिनोऽन्यो-ऽन्यत्र पुनर्मुनिसुव्रतनाथः।
टुंट-पु० । देशी-चिन्नकरे, दे० ना०४ चर्ग। एवमने कजिनेश्वर मूर्ति-स्फूर्तिमदत्र चकास्ति जिनौक: nan
टुवर-तुवर-पुं० । तरति दिनस्ति रोगानसौ । तृ-वरन् । नि०. अत्राम्बिकाद्वारसमीपवर्तिनौ,
गुणाभाचः । वाच० । 'तगर-प्रसर-तवरेटः' ॥८।१।२०५।। श्री क्षेत्रपाली जुजषट्कभास्वरौ।
इति तस्य टः । प्रा०१पाद । धान्यदे, कषायरसे च, तद्वतिः सर्वपादाम्बुजसेवनालिनी,
वि०। प्राढक्याम, सौराष्ट्रमृत्तिकायां च । स्त्री० । षित्वाद् की. सस्य विघ्नोघमपोहतः क्षणात् ॥५॥
। स्वार्थे कन् । तुवरिकाऽप्यत्रैव । वाच । यात्रोत्सवानिह सिते सहसो दशम्या
टॅटा-स्त्री०। देशी-प्तस्थाने, दे० ना०४ बर्ग। मालोक्य लोकसमवायविधीयमानान् ।
टेक्कर-न० । देशी-स्थले, दे० ना०४ वर्ग। संभावयन्ति भविकाः कलिकाल गेहे,
टोकण-ना देशी-मद्यपरिणामनारामे, दे० ना० ४ वर्ग। प्राघूर्णकं कृतयुगं ध्रुवमन्युपेतम् ॥ ६॥
टोकल-टोकल-। एकधान्यनिष्पन्न व्यञ्जनभेदे, पकधान्य. अमरमदितमेतत्तीथमाराध्य भक्त्या, फलितसकलकामाः, सबनीतीजयन्ति ।
निष्पन्नान्यपि पूलिकास्यूलरोटकमएमकपर्वरकघूघरीटोकलघुयह सपरिमलाऽऽयं चन्दनं प्राप्य यद्वा,
तीवाटकणिकाऽऽदीनि पृथक पृथक् नामाऽऽस्वादबत्त्वेन पृथक क इट सहनु तापव्यापमासिङ्गिताम?॥७॥
पृथक् च्याणि । ध.२ अधि। शशधरहपीकाकिझोणी मिते १२६१ शकवत्सरे,
टोप्परिया-टोप्परिका-स्त्री० । “दवरी" इति स्याते जनाऽऽ. प्रहमणिमहे मवान्वीता उपेत्य पुरीमिमाम् ।
दिनिक्षेपणायें वस्तुनि, प्राचा. २०१०७ उ० । ग० ज मुदितमनसम्ती धस्यास्य प्रनाथमहोदधि
घन्योपकरणेषु टोप्पटिकाऽपि गृह्यते । रिति विरचयांचक्रः स्तोत्रं जिनप्रभसूरयः" ॥6॥ टोसंत्र-देशी-मधुके, दे. ना०४ बर्ग। टिम्पुर। स्तोत्रम् । ता० ४३ कल्प ।
टोल-पुं०। देशी-शलने, देना.४ वर्ग । टिंबर-पुं० । देशी-स्थविरे, दे ना०४ वर्ग ।
टोझगड-टोलगति-पुं० । पञ्चमे बन्दनदोघे, " टोलो टन उकि. टिक्क-मला देशी-तिल के, दे० ना०४ वर्ग।
इंतो, प्रोसक्कभिसक्कणं हो।" वृ. ३ उ०। प्रध० । पक्षम
दोषमाद- अबवष्कणं पश्चाऊमनम, अनिष्वाकणमनिमुखागटिग्घर-पुं० । देशी-स्थघिरे, दे० ना.४ वर्ग ।
मनं. तेऽवकणाभिवकणे टोबवाल 5वदुत्लवमानः कटिहिभ-टिट्टिच-पुं० । 'टिट्ट' इत्यव्यक्तं भापते। (टिहिर) रोति यत्र तट्टोलगतिवन्दनकमित्यर्थः । प्रव०२ द्वार । श्राव। पक्तिभदे, स्वार्थ कन, अवार्थ, वाच । खियां जीप। वृ० उष्ट्राऽदिसमप्रचारे च । भ०७ श०६ उ०। जं०। मा०म० अ०१ नाम ।
टोमागइ-टोनाकृति-त्रिका प्रशस्ताऽऽकारे, भ०७ २०६ उ०। पर ARASHTRAGHETTYPETRY THAT
ELEGEETTERONEXCELLEN इति श्रीसौधर्मबृहत्तपागच्छीय-कलिकालसर्वकल्प-नट्टारकजैन श्वेताम्बराऽऽचार्यश्री १००७ श्रीमद् विजयराजेन्द्रसूरीश्वरविरचिते “ अनिधानराजेन्” टकाराऽऽदिशब्द
सङ्कलनं समाप्तम् ।
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ठकार
अभिधानराजेन्सः ।
ठवणा नया अक्षाऽऽदिरून्यं सर्व, स्थापनैय वा प्रकाऽऽदिव्यरूपा
सर्व स्थापनासर्वम्। स्था०१०म०। RAAAAAAAAAAAA
ग्वणा-स्थापना-खी । स्वाप्यतेऽमुकोऽयमित्यभिप्रायेण किelealaloooaoagalpacapagalba
यते निर्वयंत इति स्थापना । काष्ठ कर्माऽऽदिगताऽऽवश्यकवव सवादिम्पे, अनुका स्था० । सेप्याऽऽदिकमणि,स्था०२ 100 स० । सर्वस्य वस्तुनो निजे निजे प्राकारे, विशे। भाकारीव. शेषे, आम० अ०१खएक । लेप्याऽऽदिकर्म-अहंदादिविकपन स्थाप्यते । स्था० १५ ठा० । सद्भावासनावरूपप्रतिकृती,
भाचा०११०२ ० १ उ० । पत्रादिशिखिते आकार, SSETTETTETTERegranepone नयो । भा०म० । स्था० । तचित्र स्थापनेति-तस्य
घटस्य चित्रं पत्राऽऽदिलिखित प्राकारः स्थापना ।
तलकणं चेद स्मरन्तिठ-उ-''श्त्ययं वणों मूळस्थानीयः स्पर्शसंक्षकः । वाच० ।।
"यत्तु तदर्थवियुक्तं, तदभिप्रायण यच्च सत्करणिः । उ-पुं० । महेशमहामन्त्रे, मन्त्रिाण, नूपे,वामवे, भासने, शयने,
लेप्या.ऽदिकर्म तत् स्था-पनेति क्रियतेऽपकासं च" ॥१॥ माकाशे, जलाऽऽशये, घटे, चक्रे, मुखायाम,कुरामले,भगवत्कचे,
एतदर्थोऽयम्-यदस्तु,तदर्थवियुक्तंभावेन्द्रार्थरहितं,तदभिप्राय बृहद्भवाने, साहसे, स्तम्भे, चन्धमण्डले च । न०। शवे,शून्ये,
ण उद्बुध्या, करणिराकृतिः, यहाऽऽद्याकृति लेप्याऽऽदिकर्म
क्रियते, चशब्दादाकृतिशून्यं चावनिकेपाऽऽदि, तत् स्थापनेति; मनोजे, करिने च। त्रि० । एका।
तच्चाल्पकामित्वरमित्यर्थः । चशम्दाद् यावद्रव्यनावि च इअ-पुं० । देशी-उस्विते, अवकाशे, दे० ना०४ वर्ग।
मृतव्यमिति, घटकारणीभूता मृदेव द्रव्यघट इत्यर्थः। नयो । उकार-ठकार-पुं० । शङ्करे, विषये, दरे, भासे, शङ्कनिनादे,
ननु सादृश्यसंवन्धस्य स्थापना निकेपनि सिकन्वेऽसद्भा कये, रौधरसे, ध्वनौ च । एका।
वस्थापनोच्छेदप्रसङ्गोऽनिप्रायसंबन्धस्यापि तन्निउक्का-ढका-स्त्री० । " चूमिकापैशाचिके तृतीयतुर्ययोराद्यद्वि- यामकत्वं च नाम्न्यपि तस्य सुवचनत्वादति. तीयो" ||G४।३२५ ॥ इति दस्य ठः । प्रा०४ पाद । स्व.
प्रसस्तदवस्थएवत्याशङ्का यामाहनामयाते वायभेदे, वाच०।
अतिप्रसङ्गो नै चा-ऽनिपायाऽऽकारयोगतः । उक्कुर-उस्कुर-पुं० । ग्रामाऽऽदिप्रभो,विशे०। प्रा०म०।
यच्छुतोक्तमनुसध्य, स्थापना नाम चान्यतः ॥ एए॥ महारत्त-ठट्टारत्व-न) । शुल्वनागवङ्गकांस्यपित्तलाऽऽदीनांक
(अतिप्रसङ्ग इति) एवमुक्तासकरप्रकारेण च, अतिप्रसङ्गो न रणघटनाऽदिना जीविकायाम, ध०५अधिः ।
भवति, यत् श्रुतोक्तं सिद्धान्तवचनमनुलक्ष्य,अक्षाऽऽदावेवानिउस-स्तब्ध-त्रि० । “स्तब्धे ठ-दो"।। ८२॥ ३६॥ इति स्तम्धे प्रायसंबन्धं, प्रतिमादावव चाऽऽकारसंबन्धं पुरस्कृत्य, स्थापसंयुक्तयोर्यथाक्रम पढौ भवतः । जमे, प्रा०२पाद ।
नाऽऽडियते, अन्यतोऽन्यस्यले च, नाम निक्षेप इति क्वातिउप्प-स्थाप्य-न० । असंव्यवहार्ये, भनु। भ०।
प्रसङ्गः । तथाच-सूत्रबोधितबलवदनिष्ठाननुबन्धीष्टसाधनतागरिब-न । देशी-गौरविते, ऊर्ध्वस्थिते, देना०४ वर्ग। कतातगुणस्मृतिजनकसंस्कारोद्धोधकाभिप्रायाऽऽकारान्यतर-- उल-पुं० । देशी-निर्धने, दे० ना०४ वर्ग।
संबन्धवस्वं तत्स्थापनात्वमिति फलितं भवति । १९ ।। ठवण पुरिस-स्थापनापुरुष-पुं० । पुरुषप्रतिमाऽऽदी, स्था.३
उक्तविशेषप्रयोजनमेवोपदर्शयितुमाहना० १००।
अत एव न धीरई-पतिमायामिवाईतः। ग्वणप्पमाण-स्थापनाप्रमाण-न० । आकारविशेषयवस्तु-| भावसाधोः स्थापनायाः,व्यनिङ्गिनि कीर्तिता।।१०। प्रतिपादके नामनि, मनु० ।
"अत एव" इत्यादि । अत एवोक्तविशेषणनिवेशध्रौव्यादेसे किं तं ठवपापमाणे। ग्वणप्पमाणे सत्तविहे पत्ते। ब. अप्रतिमायामहत इव, द्रव्यझिङ्गिनि प्रकटप्रतिषविणि तं जहा
पार्श्वस्थाऽऽदौ, स्थापनायाः, भावसाधो, धीः, सिकान्ते, न "एक्खत्तादेवय-कुले, पासंम-गणे अ जीवियाहेक। ।
कीर्तिता ॥१०॥ प्राभिप्पाइयनामे, वणानामं तु सचविह" ॥ १ ॥
कुतः ?, इत्याहप्रय किं तत् स्थापनाप्रमाणम् ? स्थापनाप्रमाणं सप्तविधमिः |
सा हि स्याप्यस्मतिद्वारा, भावाऽऽदरविधायिनी । स्थादि। "णक्खत्तगांदा।" श्यमत्र हृदयम्-नकत्रदेवताकुलपाख
न चोत्कटतरे दोष, स्थाप्यस्थापकनावना ॥ १०१।। गगणाऽऽदोनि वस्तून्याश्रित्य यस्य किश्चिन्नामस्थापनं क्रि. सा हि स्थापनाधीहि, स्थाप्यस्मृतिद्वारा " एकसंबन्धिज्ञाने यते,सेद स्थापना गृह्यते । न पुनर्यत्तु तदर्थवियुक्तं तदन्निप्रायेण, अपरसंबन्धिस्मृतिः"इति नियमविधया स्थाप्यस्मृतिव्यापारण, बच्च तत्करणीत्यादिना पूर्व परिभाषितस्वरूपा सैव प्रमाणं भावादरम्यस्थाप्यगतगुणप्रणिधानोद्रेकस्य, तज्जनितानजरातेन हेतुभूतेन नाम सप्तविधं भवति । अनु।
ऽतिशयस्य वा,विधायिनी। न च स्थापनाविषये उत्कटतरे दोघे, ग्वसन्ध-स्थापनास-न। स्थापनया सर्वमेतदिति कल्प- प्रतिसन्धीयमाने इति शेषः । स्थाप्यस्थापकभावना, फल
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( १६८० ) अभिधानराजेन्द्रः ।
ठवणा
बतीति शेषः । तथा च सव्यलिनिदर्शनादपि न भावसाधुगुणाः ननु स्मृतिरेव तनियामक प्राविकसादृश्यस्य रजोरणगोष्पदादिरूपस्य तस्याधिक तू. त्कटदोषवत्वेन प्रतिसंघीयमावस्य सा दृश्या । वन्दनकनियुक्ती"तित्यवगुणा परिमारि विणतो तित्थयरुति णमंतो, सो पावर गिज्जरं विवलं ||५|| लिंग जिणपपणन्तं पव णमंतस्स णिज्जरा विचला । जर वि गुणविपणिं, बंदर अज्झपसोद्दीप ॥ ५७ ॥ " मनोरर्थः किम्मशब्दे तृतीयभा
•
प्रम्यः) इति गाथाभ्यां सारयसंबन्तमाया मईतो अव्यलिङ्गिनो जावसाधोस्तटस्थेन स्मृतेरुत्थापकतयाउध्यात्मविनिवेन
पूर्वकृता । तन्न । श्राचार्यैरे कत्रोत्कट दोषवखेनोपस्थित समानसंसंवेदनाभ्यगुणयानु
गुप
बढ़ा, अन्यत्र चोक्तकारणाभावान्न तथात्वमिति वैषम्यमुगावयित्वा समाधानं कृतम् ।
"
तिरे सिमं तु ब
सावज्जा किरिया इयरेसु धुवा सममन्ना " ॥ ६०॥ इति । मस्या अर्थः- सम्तो विद्यमानाः शोजना वा तीर्थंकरत्वेन प्रतीयमानस्य गुणाः तीर्थकरेऽति, श्यं च प्रतिमा, तेषां नमस्कुर्वता इदमा समापयादिफलकनुमानतीर्थक रगुणस्मृताऽऽलम्बनम् । यद्वा तेषां गुणानाम, इदमध्यात्म्यम्अध्यारोपविषयः तटस्थेन स्मृती योगजीवासमापयसि । न च तासु प्रतिमासु सावधा सपापा, क्रिया, इतरेषु पार्श्वस्थायोग्यते ततः समासाद्य क्रियायुक्त भूतियोग एवं च सति प्रतिमायामुजयक्रियाभावप्रसञ्जित उजयफलाभावस्तदालम्बनकस्थाप्य
गुणसंकल्परूपमःमः विशेषाभावो
साधयि
तुं कथं न प्रगल्जते ?, इत्याशङ्काशेष उजयविकल एव श्राकारमाये कतिपयगुणान्वितेोगुणाध्यापकल्परूपनामानिराहेतुः भग्यत्वात्
कर्माद्विशेध्यत्यस्य गोरगानकर्मशेष्यविपर्यासन्पेन वाले153द इत्यभिप्रायेणाचार्यस्य निराकृतः ।
तथाहि
"
जह सावरा फिरिया, अस्थिय पमिमासु पवमियराधि तयाचे पस्थि फलं श्रह हो अहेउ होइ ॥ ६१ ॥ काम उनयाभावो तह विफलं अस्थि मचिसुई|प | ती पुण मणचिसुद्धी -६ कारणं हुति परिमाओ ॥ ६२ ॥
पिडिमा जा. मुणगुणकाकारण लिंग उभयमत्रि अस्थि लिंगे, ण य पडिमासून अस्थि ।। ६३ ।। णियमा जिणेसु उ गुणा, परिमाश्री दिस्स जं मणे कुणइ । श्रगुणे व त्रियाणतो, कं नमउ मणे गुणं काचं ? ॥ ६४ ॥ जद लंबगलिंगं जाणनस्स णमो धुवं दोसो | सिम गाऊ ण चंद्रमाणे धुत्रो दोसो" । ६५ । इति ॥ १०१ ॥ ( आमां गाथानामधे ः 'किकम्म' शब्दे तृतीयभागे ५१७ पुष्टे गतः )
1
ठत्रणा
देवस्थापनास्थले साधकमात्रावद्विशेयगुणसंक भावस्य निर्जरा हेतुत्वमित्यागतम् तथायुतम् घन निद्यकर्मवद्विशेकत्वेनैव देवीचित्वारुणीर यापेक्षया कारणभावगौरवस्य महादोषावस् नास्थलीबनावे जापान्यन्यतरकृतातिरिक्तविशेषाभावे यथो तरूपेणैव हेतुत्वे मायाच्छादितदोषे मालयविहाराऽऽदिना शु
प्रधानदशायां वन्द्यमाने साधी कथं निर्जरोत्यत्तिः संगच्छते ? । न च तत्र निरवद्यकर्मयुक्ततयाऽगृहीतासंसर्गकगुणसंकल्पेन पृथगेव निर्जरात्याददोषः तथा सति यन्नासावकर्मकत्वेनातागुणसंकल्पत्वेन बन्धहेतुताया एव युक्तत्वात्, प्रतिमावन्दनादुभयाजावापत्तेः । न च सत्त्वशुद्धिविधया कारणतायामयमेव प्रकारः,
योगविषया कारणतायां तु वास्तविषयतया एव निवेशास दोष इति वाच्यम् सत्वविप्रतिमायन्नाब्रिजेत्पते, "त विफलं अस्मि" इत्यनेन प्रतिपादनात् किं दोषोभयवैकल्यमात्रेण प्रतिमायामद्भ्यवसायस्य निर्जराऽङ्काचे प्रतिष्ठिताप्रतिष्ठि तयोरविशेषाऽऽपत्तेः । न च
" सयकारियार एसा, नायर ठवणार बहुफला केर । गुरुकारियार भने, विसिष्ठविदिकारियार य ॥ १ ॥ पंडिले विय एसा, मणुषयणार पसत्थगा चैव । आवासमा हि पाथमुवणार दियं ॥ २ ॥ उवयारंगा इह सो-वयोगसाहारणाण फला । किं चविलेलेण तत्र, सब्वे विय ते विभाअब्बा " ॥३॥ इतिपूजाविधिधिशिकावचनपर्यालोचनायामिति वाच्य मत प्रतिष्ठितत्वव्याप्य पुरस्कारेणेव मानसप्रतिष्ठापुरस्कारेण प्रवृत्तानां पूजाविधिकल्पानां विधिप्रतिष्ठितपूजाजन्मताच्छेद जातियाप्यजात्यवच्छेदेन मनसाभिप्रायशोधिताविधिप्रतिष्ठित पुजाजन्यतावच्छेदक जात्यवच्छेदेन च फलभेदाकेतुमेशे युकइत्यभिप्रायेण प्रवृत्तावपि प्रतिष्ठासामाम्यस्था किञ्चित्करचे तात्पयनवाद अन्यथा प्रतिष्ठापिवेषप्रसङ्गात्।
ततः प्रतिष्ठाऽऽदिविधिप्रतिमागविशेषः को निहन्यनामित्याशङ्कतातिस्थयरगुणा " । ( आव० ६० गाथा ) इत्यादिनाथामेव व्यापानान्तरमूचितं कान्तरं परिष्कुर्याद
यद्वा प्रतिष्ठा-धिना, स्वाऽऽत्मन्येव पराऽऽत्मनः । स्थापना स्पात्ममापत्तिर्विम्बे साचोपचारतः ॥ १०२ ॥ यद्वा पक्कान्तरे, प्रतिष्ठाविधिना प्रतिष्ठाकारयितुः स्वाऽऽत्मन्येचपरात्मनः परमगुणवतः त्रिभुवनभर्तुः ध्यानतारतम्ये च तात्स्थ्यतदञ्जनत्वस्वरूपा समापत्तिरेव स्थापना स्यात्, निश्वयतः सर्वक्रियाणां तत्फलानां च उद्देश्य संबन्धित्वेन व्यवह्नियमाणानामपि स्वात्मसंबन्धित्वस्यैव भाष्याऽऽदौ व्यवस्थापनात् । पराऽऽत्मन इत्युपलकणम। स्वभावस्याऽऽईत्यादिप्रतिष्ठया कार पितरि स्वभाव एव स्वाप्यते । परम्परया तु तन्मूलप्रमाणानुपलबध्या विषयवचनाऽऽद्यप्रवर्तकत्व संबन्धस्मारितः । तत्र च खलु प्र तिष्ठा निजभावस्य एव, देवतोद्देशात् स्वात्मन्येव परं यत् स्थापनामह वचननांत्या ऊचे-" बीजमिदं परमं यत्, परमाया एव
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( २६८१ ) अभिधानराजेन्द्रः ।
चवणा
समरसाऽऽपत्तेः । स्थाप्येन तदपि मुख्या, इन्तैषैवेति विज्ञेया ॥ १ ॥ " इति । नन्वेवं निश्चयतः स्थापनाया आत्मगतायाः प्राप्तौ प्रतिमायां तद्व्यवहारः कथम् ? अत आह-बिम्बे च, सा स्थापना उपचारतः, स्वाऽऽत्मनि स्थापितस्य भावस्याऽऽलम्बनतया समापत्तिविषयक्रियमाणस्य परमाऽऽत्मनः साकारयोगमुद्राऽनुकारितया वा लक्षणया एव इत्यर्थः ॥ १०२ ॥
नस्वेवं यजमानगतारमेव प्रतिष्ठाफलं भवद्भिरुपपादितम् साताकादीनां का सिद्धि सहित स्थात, पहि प्रतिष्ठाऽऽदितश्चारकालाऽऽदिस्पर्शनाश्यः पूजाफल प्रयोजकः कचिदतिशय उपयुपगतः स्यात् प्रतिप्रतिमापूजनस्यादिना फलविशेष हेतुत्वस्य इत्थमेव वक्तुं शक्यत्वात् । न च यजमानगतादृष्टं तदादितं तथा चाण्मानाऽऽदिस्पर्शेन व्यधिकरणेन तन्नाशयोगाद् यजमानस्य तददृष्टकये पूज्यत्वानापतेः। एतेन संबन्धविशेषेण यजमानगतादृष्टस्य प्रतिमागतत्वसमर्थनमपि प्रत्याख्यातम् । य-प्रतिष्ठाविर्देवतासंविधानस्य स्वादस्त्रीयत्वाऽऽदिशानतदाहितसंस्काररूपस्य उत्पादात् फलोत्पत्तिः चाण्डालाssदिस्पर्शे च तदभावात् फलजाव इति कयचिद् मतम् । तत्तु मुक्तिप्रतिष्ठितदेवताया अभिमानानावात प्रतिष्ठया तदुपकरण स्य अशक्यक्रियत्वात् चाऽऽचार्यैरेव दूषितम् । तटुक्तम्- " मुक्यानन प्रतिष्ठिताया न देवतायास्तु स्थाप्येन च मुख् तत्, तदधिष्ठानाऽऽद्यजावेन” |१| इत्यादेर्न च तस्या उपकारः क श्चिदत्र मुख्य इति तदतत्वकल्पनेचा बालीकासमा भवतीति । यदपि " प्रतिष्ठितं पूजयेत् " इति विधिः प्रतिष्ठाकालीनयात्र दस्पृश्यस्पर्शांभार्याविशिष्टः प्रतिष्ठापनमाज था फल इति गोपाध्या रुन नदपि प्रतिष्ठायां जायतेत ध्वंमस्यैव फलजनकव्यापारस्याऽऽश्रयणे चारष्टमात्रस्यैव दलजला निश्वात् कथं प्रतिष्ठितेऽप्रतिष्ठि तत्वज्ञानेन पूजाफलम् ?, प्रतिष्ठाध्वंस्रवत्वेन प्रमीयमाणत्वस्य पूजाफलजनकतावच्छेदककोटी निवेशेन प्रतिष्ठान प्रमी यमाणत्वस्य निवेशयति नदित्।
नादिफलप्रयोजकत्वं कथं प्रतिष्ठाया है, इति जिज्ञासायामादप्रतिष्ठितप्रत्यनिज्ञा ममापपराऽऽत्मनः ।
रोपनमा चट्टणामपि धर्मः ॥१०३॥ (प्रतिनेिति सा स्थापना, प्रतिष्ठितप्रत्यनिलया, समापन्नो यः प SSत्मा जगवान्, तस्य, आहार्याऽऽरोपतः, द्रष्टृणाम उपलक्षणाद् चन्द्रकानां पूजकानां च धर्मभूः धर्मकारणं जयति । श्रयं भावःप्रतिमायां भगवदभेदापं विना न तावद्वन्दन पूजनाऽऽदिफलं संप मा मति स्वरसतो तोयतीत्याहार्य एव संपादनीयः । श्राहार्यत्वं बच्चा जन्यत्वम इच्छा च दृष्टसाधनताज्ञानसाध्या, इति इष्टसाधनताज्ञानसंपादनाय प्रतिष्ठितां प्रतिमां भगवदभेदेन अविधिः कल्पनीय तथा चाऽऽहार्य भगवा रोमादिशेषार्थ
योजनाला प्रतिष्ठपरम्पराभवति । प्रतिि
४५ १
त्रणा
तं पूजयेत्" इत्यत्रापि तप्रत्ययस्व स्वएकशः शक्त्या क्षणाSSदिना वा प्रतिष्ठाऽऽदायांऽऽरोपविषयवादिनेव फलहेतुता । कप्रत्ययस्य चत्सर्गिकण कृत्प्रत्ययार्थेनापप्रत्ययस्वेनैवावति चिन्तामणिकारादयति सूक्ष्ममतिनिपुणं व वयमीक्षामदे ॥ १०३ ॥
उक्तमेव वक्ष्यमाणफलान्वयेनाऽऽदतत्कारणेच्छा जनक- ज्ञानगोचरोपकाः । विधयोऽप्युपयुज्यन्ते, तेनेदं दुर्मतं दृतम् ।। १०४ ।। (तत्कारणेति तस्याऽऽहाऽऽरोपस्य कारणंया इच्छा, तज्जन यत् प्रतिष्ठितां प्रतिमां भगवदयाविध जनितं ज्ञानं, तगोचरीभूतायाः प्रतिष्ठाया बोधकाः, इष्टसाधन बोचनादिद्वारा तत्पत्तिहेतव इति यावत् विधयो वि. चिपाक्पानि अयुपयुज्यन्ते फलन्तो भवन्ति तैः प्रतियादने प्रतिष्ठितप्रतिमायामारोपविधिना नगवदभेदाध्यारोपप पती जपतेनेदं या दुर्मत माध्यात्मिकाऽऽजासानां, हतं निराकृतम् ॥ १०४ ॥ किं तत् ?, इत्याहप्रतिष्ठाऽऽयनपेक्षायां शाश्वतप्रतिमाऽर्चने । अशाश्वतापूजायां को विधिः किं निषेचनम् ? ।। १०५।।
प्रतिमाने प्रतिष्ठाया घाटाविह प्रथमतोऽनपेज्ञायां तत्रैव तस्याः फले व्यभिचारात् । अशाश्वतानां कृत्रिमत्रतिमानां पूजायां प्रतिष्ठितां प्रतिमां पूजयेत्" इति विधिः कठिन पूजयेत्" इति निषेधनं च किम प्रति प्रतिभावपरिष्टानिष्टसाधनता व्यभिचारादावेन तत्र चि पिनिषेधान्यस्यायोग्यत्वात् इति भावः ॥ १०५ ॥
कथमेतन्निरस्तम् ?, इत्याहपूजाऽऽपि ज्ञानविव्यङ्गित्वं यदाश्रिताः । शाश्वताशाश्वताच, विभेदेन व्यवस्थिताः ।। १०६ ।। (पूजाऽऽदीति) पूजाऽऽदिविधयः- “प्रतिष्ठितां प्रतिमां पूजयेत" त्यादिवालक्षणः ज्ञानविधेः 'प्रतिष्ठितां प्रतिमां भगव नत्वेनाध्यारोपयेत्" इत्यङ्गवाक्याऽऽत्मकस्य, अङ्गित्वं प्रधानत्वम भाश्रिताः शाभ्यनाशयता विभेदेन ि स्थिताः। तथा च प्रतिष्ठाया न पूजासहकारित्वम्, किं तु स्वकर्तव्यताबोधकविध्यङ्गताऽऽपन्नविधिविषयनिर्वाहकत्वेन प्रयोज कत्वम् । तच्चा शाश्वतप्रतिमास्थले । अन्यत्र त्वनादिप्रतिष्ठितत्वप्रत्यभिज्ञाया एव तथात्वं तादृशशिष्टाऽऽचारेण तथैव विधिबोध नादिति विकल्पेनानयोः पूजाप्रयोजकय्याने कोऽपि दोष इतिनिधिमेवेतिविधा
नदेशनविशेषाकरवेन व्यवस्थितविकल्पोपपादक विधितिष्ठदिदिकारणा
अम्बोपनिष्ठितुल्यतामा मन संभावशोषितशुद्धनिमि समिति के शु
नानीशोध नमात्रेण मध्यम शुद्ध्यपव्यवात्तस्या अपि च शुनानुबन्धसारत्वादिव्यादिकमुपास्मात् स्थापना रथेन जगनगास्मारकतया तदाहारोपयोजकता या संग्रनयेाप्यवति १०६ ॥
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( १६०२ )
अभिधानराजेन्द्रः |
तत्रणा
पतेन यदारोऽपि निरस्त याद एतेन व्यवहारोऽपि स्थापना नाग्रहो हतः । नत्रार्द्धजरतीयं किं, नाम्नाऽपि व्यवहर्तरि ? ॥ १०७ ॥ (पतेनेति एतेनानुदिन संपदस्थापना व्यवस्थापनेन, व्यवहारोऽपि, स्थापनाया अनाग्रहोsस्वीकारो
रिबन केादिणा स्व्यवहारे नाम्ना उपि नामनिपणापि व्यवहार व्यवहारमभ्युपगच्छति कि. मिदमजरतीयम :: दुत स्थापनया व्यवहार इति, न हीन्द्रप्र तिमायां नेन्द्र व्यवहारो जवति, तत्राजत्रन्नपि भ्रान्त एव । न वा नामाऽऽदिप्रतिपत्रव्यवहारसाङ्कर्यमः इत्येकमाद्रियमाणस्यापरं परिस्यजतः केवलमा किमाश्रमेवेति ॥ यो अथ सामान्येनैव स्थापनायाः स्वरूपमाहजं पुण तदत्थनृणं, तयनिध्याएव तारिसाऽऽगारं । कीर व मिरागारं इतरमियरं वसा उपया ||२६|| सा स्थापनाऽभिधीयते यत्, किम् ?, इत्याह-यत्क्रियतेइन्द्रादिस्थापनारूपतया वायवस्तु पुनः नामक्षणात् स्थापनालकृणस्य वैसदृश्य द्योतकः । केन ?, इत्याहतदभिप्रायेण तस्य सद्भूतेन्द्रस्यानिवासावस्तेन क
भूतस्तु इस दावत
पुनरपि कथम्भूतमनाशाऽऽकार- सद्भूतेन्द्रसमानाऽऽकार, वाशब्दस्य निम्नकभाविक शुन्यमित्यर्थः। चित्रलेप्यका कादिषु तु निराकार मित्यर्थ पुनः किंनूनम् इत्वरम - अल्लकालीनम् । इतरढा-या निवेत्तु तु-नवनस्थापना पनावेन समये निर्दिष्टमेव तदिदमिह तात्पर्यम्-यद्वस्तु सद्या साकार, निराकार या का . यावत्कथिकं वा स्थाप्यते सा स्थापनेति । प्रकृते योजना तु नेत्रकमदगतः परममुनिः स्थापना या मङ्गलम, स्थाप्यते इति चा स्थापना, तथा मङ्गत; स्थापनामङ्गलमिति व्यपदिश्यते । इति गाथाऽर्थः ॥ २६ ॥
अथ भाष्यकारः स्वयमेव नामस्थापनामङ्गन्नयोरुदाहरणमुपदर्शयाह
जह मंगलमिट नामं, जीवाजीवोभयाण देसीओ | कजलाई उगाए मोथियाईनं ।। २७ ।।
शब्द उदाहरणोपन्यासार्थः । क्व थथा ? इत्याह-जीवाजीनां देशनो देशमा ममिति नाम रुदम् । तत्र जीवस्या मेमेङ्गलमिति नाम रूढम, सिन्धुचिषये अजीवस्य दवरकवलनकस्य मङ्गलमिति नाम कदम, लाटदेशे जीवाजीबोभयस्य तु मङ्गलमिति नाम रूढं वन्दनमानायाः, दरिकाऽऽदीनामिह चेतनत्वात् पत्राऽऽदीनां तु सचे तनत्वादू जीवाजीयोजयत्वं भावनीयम् । स्वस्तिकाऽऽदीनां मु या स्थापना लोके, तस्या रुढं स्थापनामङ्गलत्वमिति शेषः । इति गाथाऽर्थः ॥ २७ ॥ विशे ।
ओरियन्ते, जम्दा तू तेण उण ति ।" पं०ना० । प्रकृतः प्रतिक्रमणं कुणाः स्थान कुणा अपि तीरस्प
कुना
उरणा
अन्यस्य या है. इति प्रश्ने उत्तर तीर्थरूप देवगुरुरूपत्वेन तत्समीपे प्रतिक्रमणाऽऽदि कुर्वतां स्थापनाप्रयोजनं न स्यात्, जि परीक्षेत तु स्थापनाकरणानामभि
प्र० । ० ३ प्रका० । दीपवन्दिरसङ्घकृत प्रश्नः - अक्षमाला55दिका स्थापना या नमस्कारेण विधीयते परि उद्योते दृष्टिरक्षणं सुकरम्, अन्धकारे कथं च FI वति ?, तीन च स्थापना शुरूयति, न ar ?, इति प्रश्ने, उत्तरम् अत्र अक्षमाला पुस्तकाऽऽविकस्थापना नमस्का रेण स्थाप्यते स्थापना उनन्तरं कर पाते यथाशकि टपयोगी र अन्धकारे प रन्तरे जाते तु पुनः स्थापनां कृत्वा श्रग्रतः किया क्रियते । यतः स्थापना द्विधा इत्वरा यावत्कयिका च तत्र 5स्वराकमालाऽऽदिका, या नमस्कारेण स्वयं स्थापिता ह बुपयोगः तारेधतिष्ठति यावत्कपिका प्रतिमा 55दिकाया कशा स्थाप्यते सा पुनः पुनःस्थापन विलोक्यते । ६ प्र० । ६।०४ प्रका० । कायोत्सर्गे वन्दनकदानाबसरे स्थापनाऽऽचार्य चालनं शुष्यति न वा ? इति प्रश्ने, उत्तरम् अत्र कायोत्सर्गकरणावसरे, बन्दनकदानावसरे च स्थापनाऽऽश्वार्थचासनं न शुद्ध्यतीत्येकान्त झालो नास्तीति । १४० | १०४ प्रका० । पण्डितगुणविजय गणिकृत प्रश्नः - स्था पताः पितिप्रदेशे मस्तिदूरे स्थापित किया शुति वस्ति ?, इति प्रश्ने, सरम् अत्रोद्धे मस्तकातू पायात् नियं स्थाने स्थापित स्थान पद्धति सम्पाद स्थापतासु तासु अनादी कापिया क्रियमाणत्वं, तत्कारणिकमिति ज्ञेयम् । ४ प्र० । ० २ प्रका स्थापने नं० । 'णिक्खेवो' स्थापनाऽभ्यासक इत्यनर्थान्तरम् । आ० धू. १ अ० । न्यासे, पञ्चा० विव० । निधानं निधिनिंपो न्यासो विरचना प्रस्तारः स्थापनेति पर्यायाः । श्रनु । (जिविस्थापनाशी १२७० निरुपिता सा च तताउद ३ ना० ४ उ० । स्थाप्यते साधुनिमित्त कियन्तं कालं यावनिधीयते इति स्थापना । यद्वा-स्थापनं साधुभ्यो देयमिदमिति बुद्ध्या देववस्तुनः कियन्तं कालं व्यवस्थापनं स्थापना, तथोगाद्देयमपि स्थापना | स्वस्थाने चुद्धं । स्थाल्यादी परस्थाने सुस्थितकारिकाविरका निमि ०६७
घानादिकं स्थापति
पिं० पञ्चा० । श्राचा०धि० । उत० | ग०|०| अथ स्थापनाद्वारमाइ
सहा परद्वा चिचतु होइ नाप स्वराऽऽदिपरंपरण, हत्यगयघरंत जान |
9
१
स्थापितं साधुनिमित्तं घृतभक्ताऽऽदि । तश्च द्विधा । तद्यथास्वस्थाने, परस्थाने च तत्र स्वस्थानं चुल्य चचुल्लाऽऽदि । पर स्थान- छकाऽऽदि । एकैकं द्विधा- अनन्तरं, परम्परं च । तत्र यस्य साधुनिमित्तं स्थापितस्य सतो विकारान्तरं न भविष्यति, यथा न तदनन्तरस्थापित कराऽधिकं तु परम्पर परम्परास्थापितम् । तथाहि कोरं स्थापितं सद्दधि प्रयति दधि भूत्वा नवनीतं, नवनीतं भूत्वा घृतं ततो यदेव साधुनिमित्तं वीरं धृत्वा घृतीकृत्य ददाति तदा तत् कीर परम्परास्थापित भवतिपत्रमन्यदसादिक -
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ठवणा अनिधानराजेन्द्रः।
ग्वणा पृव्यम् । तथा पङ्किस्थिते गृहत्रये उपयोगावकाशसमवे ततकृत,नाहि तस्य भूयोऽपि धिकारःसंभवति तत् साधुनिमित सति, हस्तगतासु तिसृषु निकास्वकः, साधुरेको भिक्षां सम्य- स्थापितमनन्तरस्थापितम् । उपनक्षणमेतत्-तेन काराऽऽदि. गुपयोगेन परिभाक्यन् गृहाति । द्वितीयस्तु इयोहयोहस्त- कमपि यस्मिन् दिने साधुनिमित्तं स्थापित, यदि तस्मिन्नेव गते द्वे भिक्षे परिभावयति । ततो गृहत्रयात्परतो यावद् गृहा- दिने ददाति, तर्हि तदपि दध्यादिरूपं विकारान्तरमनापद्यमा. स्तरं न भवति, तावन्न तस्य स्थापनादोषः । गृहान्तरे तु सा- नमनन्तरस्थापितं कन्यम् । तदेव तु कीरं साधु नमि पृ धुनिमित्तं हस्तगता भिका स्थापना, तत्रोपयोगासंभवात् ।। सदध्यादिरूपतया परिकर्यमाणं परम्परास्थापितं भवति । वत्र एनामेव गाथां भाष्यकृद् व्याचिख्यासुः प्रथमतः स्व- एवमिवरसाऽऽदिकमपि तस्मिन्नेव दिने स्थापितं दीयमानस्थानमाह
मनन्तरस्थापितम् । ककवाऽऽदिरूपतया तु परिकर्यमाणं पर
म्परास्थापितमिति। चुती अवनझो वा, गणटाणं तु भायणं पिढरे ।। मट्ठाणघाणम्मि य, नायगाणे य चतुजंगा ॥
सम्प्रति विकारोतराणि कन्याणि प्रतिपादयतिद्विविध स्थानम् । तद्यथा-स्थानस्वस्थानं, प्राजनस्वस्थान
बच्चूखीराईयं, विगारि अविगारि घयगुमाईयं । च । तत्र स्थानरूपं स्वस्थानम्-चुल्ली. अवचुल्लो बा। चुल्ल्या परियावज्जणदोसा, ओयणदहिमाश्यं वा वि ।। अव पश्चात प्रवचुल्लः । राजदन्ताऽऽदित्वादशब्दस्य पूर्वनि
अक्षुकीराऽऽदिकं विकारितस्य कलवाऽऽदिदध्यादिविकारसहि. पानोऽदन्तता च । तत्र चुल्ल। प्रतीता । अवचुल्लो अवहकः ।
तत्वात् । तथा प्रोदनदध्यादिकमपि करम्बाऽऽदिरूपं धिकारि । एतयोश्च स्थितं सद भक्तं पच्यते । तत पती स्थानरूपं स्व
कुतः, इत्याह-पर्यायाऽऽपादमादोषात् । करम्बाऽदिक हि स्थानम । जाजनरूप तु स्वस्थान-पितरं स्थानी, तत्र स्थानस्व- क्रियमाणं नियमात्पर्यापद्यते, कोथमायातीत्यर्थः । ततस्तदपि म्याने, भाजनस्वस्थाने च चत्वारो भङ्गाः । तद्यथा-दुल्ल्यां|
विकारिद्रष्टव्यम् । तदेवं विकारीतराणि द्रव्यारयन्निहितानि । स्थापित. पिठर च । चुटल्यां स्थापित, न पिचरे, ग्यकाउदी
सम्प्रति कीराऽऽदिक परम्परास्थापितं नापयति-- स्थापिनत्वात् । न चुट्यां. किं तु पिठरे । तच खुल्ल्यषचुल्लाज्यामन्यत्र प्रदेशान्तरे स्थापित सध्यम । न खुल्ल्यां.न पिठरे,
नभट्ठ परिनाथ, अन्नं लकं पोयणे घेथी। चुक्त्ययचुद्वान्यामन्यत्र उच्चकाऽऽदौ स्थापितमित्यर्थः। रिणभीया व अगारी, दहि ति दाहं सुए उवणा ।। संप्रति परस्थानमाह
नवणीय मंशु तक, ति जाव अत्तडिया व गिएहति । छच्चगवारगमाई, होई परहाणमो अणेगविहं।
देसूणा जाव घयं, कुमुणं पि य जचियं कालं ।। सट्ठाणे पिढरे छ-चगे य रमेव दूरे य ॥
'उम्भटुं' केनापि साधुना कस्याश्विदगारिपयाः सकाशे चकवारकाऽऽदिकम, यनेकविध,परस्थान परभाजनं भवति द्रा कीरमभ्यर्थितम् । ततस्तया प्रतिकातम् क्वणान्तरे दास्यामि । एवम्। तत्र कच्चक-पटलिकाऽऽदिरूपमावारको लघुघटः! प्रा. साधुना चाम्यत्रान्यत् कीर बन्धम् । ततः पूर्वमत्यथितया दिशब्दापाकभाजनवजेचुल्ल्यवचुलवशेषसकसभाजनपरिग्र- भगारिएया पुग्धसंप्राप्ती सत्यां साधु प्रति प्रत्यवादि-गृहाण दः । समापि स्यस्थानपरस्थानापेकया चतुनङ्गी। तद् यथा- भगवन् । इदं दुग्धमिति । साधुना चोक्तम्-लब्धमन्यत्र मय। स्वस्पाने स्वस्थाने, स्वस्थाने परस्थान, परम्याने स्वस्थाने, दुग्ध, ततो यदि नूयोऽपि प्रयोजनं भविष्यति, ततो ( घेथी। परस्थाने परम्थाने । एनामेव चतुर्भङ्गीं दर्शयति-"सट्टाणे" प्रदीप्यामि । एवमुक्ते सा अगारिणी ऋणभीतेव स्वयं नो दुइत्यादि । अत्र (सहाणे पिढरे चगे य इति ) अनेन जङ्ग- भुजे किं च । एवं चिन्तयामास-इवः कल्ये, दधि हत्वा दास्याव्य सूचितम, स्वम्धानम्य पिकच्चकाभ्यां प्रत्येकमभि- मोति । तत एवं चिन्तयित्वा स्थापयति । ततो द्वितीयदिने दधि मबन्धात् । तद् यथा-स्वस्थाने चुल्ल्यादौ, पिठरे वा, तथा ! जातं, तदपि साधुना न गृहीतं, तद् नवनीतं तकं च जात, स्वस्थाने चुल्ल्यादी, कमन के च । परस्थाने (पमेव दूरे य| नवनीतर्माप घृतं कृतम् । इह कीराऽऽदिक सकलमपि स्थापना - नि) ३६ दुरं चुपल्यवचुल्लाभ्यामन्यत् प्रदेशान्तर, तत्रापि दोषत्वात साधूनां न कल्पते । यद्वा-क्षीरादिकं यावद तदकयाऽपि, एवमेव भङ्गय मध्यम । नद यथा-भाजन- नवनीतं, मस्तु, तकं वा, तायदेतानि सर्वापयप्यात्मार्थीकृतानि को स्वस्थाने पिमरे परम्थान ऽन्यत्र प्रदेशान्तरे, नथा पर- मा गृहीयात साधुः। कुटुम्बे नविष्यतीत्येवमात्मसत्ताकीकृतानि स्थाने ऽन्यत्र प्रदेशान्तरे परस्थाने छञ्चका दाविति । सर्वसं- नु साधवो गृहन्ति । घृत त्वात्मार्थीकृतमपि तेजस्कायाऽऽर. रूय या चत्वारो नङ्गाः । तदेतदेव मूल गाथायाः " सट्टाणे" ह. म्नादाधाकमेति न कल्पते । घृतं च स्थापितं सत तावत् घ. त्यादि पूर्वाद्ध व्याख्यातम ।
इते यावदेशोना पूर्वकोटी । तथाहि-पूर्वको ट्यायुषा केनापि अथ " खोरादिपरंपरा " इति व्याचिख्यासुराद
साधुना वर्षाष्टकप्रमाणेन कस्याश्चित पूर्वकोट्यायुषोऽगार.
यः पावें घृत ययाचे । तयोक्तम्-कणान्तरे दास्यामि । एककं तं मुविहं, अणंतरपरंपरे य नायव्यं ।
साधुना चान्यत्र घृत लब्धम् । ततः सा ऋणभीतव तायद अधिकारि कयं दवं, तं चेच अणंतरं होई॥
घृत धृतवतो यावत् साधोरायुः । ततो मृते साधौ तदन्य. सत् साधुनिमित्तं स्थानम, एक स्वस्थानपर स्थानगतं द्विविधा नोपयुक्तमिति नास्ति स्थापना । (इह वर्षाष्टकस्याधःपूर्वको ज्ञातव्यमानद् यथा-अनन्तरे अन्तराभावे, विकाररूपव्यवधाना. टेपरि च चारित्रं न नवति । चारित्रिणं चाधिकृय स्थापना. भावे इत्यर्थः । परम्परके, विकारपरम्परायामित्यर्थः। तत्र यत् दोषः, ततो देशोना पूर्वकोटीत्युक्तम) एवं गुमाउदेरप्यविना
की स्वयोगेनाविकारि-भूयोऽसंभवविकारि धृतगुमाऽऽदि.' शिनो व्यस्य यथायोग स्थापनाकाबपरिमाण पटव्यम् ।
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(१६४) ठवणा अभिधानराजेन्डः।
ग्वगाकम्म (कुमुवि यति) कुमुणितमपि-करम्बाऽऽदिरूपतया कृतम । तत्र हयुक्तम्-अस्ति काचित् पुष्करिणी कर्दमप्रचुरजला । पि, यावन्तंकासमविनाशनात कासं, तस्थापना करण्या। तन्मध्यदेशे महापुरामरीकम् । तदुरुरणार्थ चतसत्यो दिग्न्यपरतस्तु कथितत्वाद् ण्यते पवेति नावः। तदेवं कीराऽऽदि- श्वत्वारः पुरुषाः सकर्दममागें प्रवेष्टुमारब्धाः । ते चाकृततक परम्परास्वपितमुक्तम् ।
पुरूरणा एव पड़े निमनाः । अन्यस्तु तटस्थोऽसंस्पृष्टकदम साम्प्रतमिछुरसाऽऽदिकमपि परम्पराखापितमाह
पवामोधवचनतया तमुदतवानिति बातम । उपनयश्चायरसककनपिंगुला-मच्छंडियखंडसकराणं च ।
म-भत्र कर्दमस्थानीया विषयाः, पुएमरीक राजाऽऽदिर्भ
व्यपुरुषः, चत्वारः पुरुषाः परतीथिकाः, पञ्चमः पुरुषः साधुः, होइ परंपरउवणा, अन्नत्थ व जुज्जए तत्थ ॥
अमोधवचनं धर्मदेशमा, पुष्करिणी संसारः, तदुद्धारो नियह केनापि साधुना किमपि प्रयोजनमुद्दिश्य कोऽपीपुर- घोणमिति । मनेन च ज्ञान विषयानिप्वङ्गवतामन्यतीथिकासं याचितः । स प्रतिज्ञातवान् कणान्तरे दास्यामि । साधुना नां व्यस्य संसारानुसारकत्वं, साधोश्च तद्विपर्यय बदता साम्यत्रे पुरसो लब्धः । पूर्वमन्यर्थितच रणजीत श्व तमिधु प्राचार्येण परमतदूषणेन स्वमतं स्थापितमतो भवतीति, दं रसं ककवं करोति, यावत शर्करेति । एतेषां चेपुरसकाss- कातं स्थापनाकमेति । अथवा-मापनं क्षणमपोध स्वाभिमतदीनामुत्तरोतरपिएमगुमादिपर्यायाऽऽपादनपुरस्सरं प्रिय- स्थापना कार्यत्येवंविधार्थप्रतिपत्तिर्यतो जायते तत् स्थापनाकमाणानां स्थापना परम्परस्थापना । एवमन्यत्रापि रुन्यान्तरे यो. में। यचा किल-मालाकारण केनापि राजमार्ग पुरीपोत्सर्गजक६ परम्परया स्थापना घटते, तत्र परम्परास्थापना करण्या।
णापराधापोहाय ततस्थाने पुणपुजकरणेन किमिदमिनि यावर स्थापितस्य नाधाकर्मसंभवः, तावदात्मा कृतंक- पृच्छतो लोकस्य हिङ्कशिवो देवोऽयमिति वदता व्यन्तराऽऽयतस्पते । कृतपाकाऽऽरम्भं तुन कस्पते ।
नस्थापना कृतेति । एतस्मात किलाऽऽख्यानका दुक्तार्थः प्रतीयते। सम्प्रति " हाथगयघरंतरं जाव" इति न्याचिभ्यासुराद
इदं स्थापनाकर्मेति ॥ स्था० ४ ठा० ३ उ०। जिक्रवग्गाही एग-त्थ कुणड विइन दोसु उपभोगं ।
अधुना स्थापनाद्वारमानिधिसुराहनेण पर नक्खित्ता, पाहुडिया होगविया उ॥ भिकाणाही एकत्रोपयोगं करोति, द्वितीयस्तु वयोगृहयोःतत्र
उपणाकम्मं एकं, दिलुतो तत्थ पोंडरीभं तु । त्रिषु गृपयोगसम्म स्थापनादोषो न भवति । गृहत्रयात्परं
अहवा विसबढकण-हिंगुसिवकयं उदाहरणं ॥ ६६ ॥ सावर्यमुत्पादिता भिका मानृतिका स्थापना भवति । उक्तला. स्थाप्यते इति स्थापना, तया, तस्याः,नम्यां वा कर्म-सम्यग. पनाद्वारम । पि० स्थाप्यते इति स्थापना। वक्ष्यमाणेनाssरो- भावार्थप्ररूपणलक्षणा क्रिया स्थापनाकर्म । एकमिति तज्जापणाप्रकारेण शुधीनूतेच्यः सञ्चयमासेज्यो ये शेषा मासास्ते. स्पेशया, इष्टान्तो निदर्शनम् । तत्र स्थापनाकर्माण, पौएमरीक [ प्रतिनियदिवसग्रहणतो व्यवस्थापने, व्य०१३० नि. तु, तुशब्दात्तथाभूतमन्यव । तथा च पोपहरीकाध्यपने पौ. चू। (प्रस्थापनानेदाः पच्चिस' शम्ने वक्ष्यन्ते) अनुकायाम, एमरी प्राप्य प्रक्रिययवान्यमनिरासेन स्वमतमवस्थापिनपत पञ्चमं गौणमनुज्ञानाम । नं० । पर्युषणायाम. वर्षाक- मिति । अथवेत्यादि पश्चाई सुगमम । लौकिक अदमिति ल्पादन्या मर्यादा म्थाप्यते अनयेति व्युत्पत्तेः। नि०५०१० गावरार्थः। भावार्थस्तु कथानकादबसेयः। तदम-"जहा 1०। (विशेषः ' पन्जुमणा' शब्दे वक्ष्यते)
एमसिजगरे एगो मालायागे सम्माओ करंडे पुप्फे घेत्तण वणाकप-स्थापनाकाप-पुं० । अकल्पस्थापनाकल्प-शैक्क- वीहीर एइ । सो अव भच्चाहियो, ताहे नेण सिग्घ बोसिरि. स्थापनाकल्पोभयरूपे साध्वाचारे, ६० ।
कणं, सा पुष्फपिडिगा तस्सेव उपरि पल्हन्थिया । ताहे लो. उवाणाकप्पो ऽविहो, अकप्पठवणा य सेहठवणा य । श्रो पुच्छर-किमेयं ति जेणिय पुप्फाणि छसि ?। ताह सो पदमो अकप्पिएणं, पाहाराऽध्दी न गिएहावे ॥
भण-अहं असोविओ, एत्य हिंगुमिवो नाम । एतं तं वारण
मंतर हिंगुसि नाम उत्पन्नं । लोएण परि गहियं । प्रया में स्थापनाकस्पो द्विविधा-अकल्पस्थापनाकल्पः, शैकस्थाप
जाया। साइंगये, अज वितं पालिएने हिंगुलिवं नाम थाणमाकपन । तथाकल्पिकेनानधीतपिण्डैपणाऽऽदिसत्रार्थेन, प्रा.
मंतरं । एवं जा किंधि उडाह पावयणीयं कयं होजा केण वि हारादिकं न प्राहयेतू-नानाययेत्। तेन नीतं न कल्पत
पमापण, ताहे तहा पच्छापयञ्य, जहा पच्चुमा पवयम्भाव. इत्यर्थः । एष प्रथमः-अकरूपस्थापनाकल्प उच्यते।।
णा हबह । संजाए उड़ाहे जह गिरिसिद्धहि कुसल बुहीहि अट्ठारसे य पुरिसे, वीसं इत्थीउ दस णपुंमा य । लोयस्स धम्मसका पवयणवण सुटु कया"। पवं नावचदिक्खेति जो ॥ एते, सेहवणाए सो कप्पो॥ रणकरणानुयोग लोकं चाधिकृत्य स्थापनाकर्म प्रतिपादितम् । अष्टादश भेदाः पुरुषे पुरुषविषयाः, विंशतिः खियो, दश न
अधुना हव्यानुयोगमधिकृत्योपदर्शयत्राहपुमकाः । एतानप्रचत्वारिंशतमनलान् शैकान् यो नदीलतेस | सन्न जिचारं हे उं, सहसा वोत्तुं तमंद अन्नेहिं । एप कल्पकल्पवतोरभेदात् शैक्कस्थापनाकल्प उच्यते । वृ०६ उवह सप्पसरं, सामत्थं चऽप्पणो नानं ।। ६७॥ उ० । नि० ० । पं० भा० ।
सह व्यभिचारेण वर्तत ति सव्यनिचारःतं हेतु-साध्यधर्मान्व वाणाकम्म-स्थापनाकर्म-न० । स्थापनं प्रतिष्ठापन स्थापना, याऽऽदिल क्वणं, सहसा तत्कणमेव, 'वात्तु" अभिधाय नमेव देतु. तम्या: कमे करणं स्थापनाकर्म । येन ज्ञातेन परमतं दपयित्वा मन्य तुभिरेव, उपडते समधयति,सप्रसरमनेकधा स्फारयन् स्वमतम्यापना क्रियने तत्स्थापनाकमेति भावः । तच द्वि- सामर्थ्य प्रझाबन्नमाचशब्दो जिनक्रमः। आत्मनश्च स्वस्य च ज्ञात्वा तीया दिनीयथुतस्कन्धे प्रथमाध्ययनं पुण्डरीकाऽऽस्यम। | विज्ञाय, चशब्दात्परस्य चोति गाथार्थः ॥ ६७ ॥
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( १६०५ ) अभिधानराजेन्द्रः ।
ठवणाकम्म
नावार्थस्य द्रव्यास्तिकाऽऽद्यनेकनय संकुचनसा धुना तत्स्थापनाया नयान्तरमतापेक्षया सव्यभिचारं हेतुमभिधाय प्रतिपक्षनयमानुसारतः तथा समर्थनीयः यथा सम्यगनेकान्तवाद प्रतिपत्तिर्भवतीति । श्राह उदाहरणभेदस्थापनाऽधिकार चिन्तायां सव्यभिचारहेत्वभिधानं किमर्थमि. ति तदाश्रयेण सामुदाहरणानां द न्वितं चोदाहरणमपि प्राय इति ज्ञापनार्थम्; श्रलं प्रसङ्गेन । अभिहितं स्थापना कर्मद्वारम । दश० नि० १ उ० ।
कुछ स्थापनाकुल २० प्रतिकुले ०३० स्थापनाकुलानि निविंशति अथवा यानि लोके गर्दितानि कुलानि स्थापितान्युच्यन्ते तेषामपरियोज : राज्यद्वारादिकमुत्पादयति ०१० इदाणिं पति
उवाले दिए बारए अस किम्मे । अस्याप्याश्या उणावणाकुला अतिशय तियेाचादीनां मनमानीय
विसंवारते इत्यर्थः नि००१ बल "सज्जातरसामगाइकुलाइ ग्वणकुलाइ प्रांति । " नि० चू० ४ उ० । जे भिक्खू वाकुलाई अजाणिय अपुच्छिय अगवेसिय पुन्नामेव विश्वायटिया अनुपसि अपवित वा साइज्जइ ॥ २४ ॥
म से
"
जेवणाला इति उप्याकुला ठरणाकुला अनो ज्जा इत्यर्थः । साधुवणार वा उविज्जति त्ति वाला सेज्जातरा इत्यर्थः । पुव्वदिठे पुच्छा, दिट्टे गवेसणा । अधवाणामेण वा गोते वा दिसाए वा पुच्छा, थूनियाशवेधेर्दि गवेसा, पूर्वे प्रथमम, आदावेव । जो पुण पुरणगवेस करोति, तस्य पूर्व न भवतीत्यर्थः ।
गाहा
उवाला दुविधा, सोइय लोउत्तरा समासेण । इतरिय भावकहिया, दुविधा पुा सोइया होति ॥५६॥ समासो संस्खेत्रो, लोच्या दुबिहा- इत्तरिया, आवकहिया य । इमे इत्तरिया । गाहापगमनलाई इचारया ने य होंति णिच्छूडा । जे जत्य जुंगिता खलु, ते होती यावकधिया तु ॥ ६०॥ कालावधी जे उप्पा कया ते णिच्बुढा (जे ति) कुला, जत्थ वि. सपना बिना अनोखा इत्यर्थः कम्मेण या, सिप्पेण वा, जातीय वा कम्मे - एहालिया, सोहका, मोरपोसगा । सिप्पेदेविता, तेरिमा, पयकरा, सिल्लेवा, जातीए याणा, डावा, मारेशिया व धारणे ते चेत्य गिता, जदा सिधुए मिलेगा।
इमे लोगुत्तरा गाह दुविधा लोउत्तरिया, वसंतराव सचपरंतर जातु मुणं वसविका ।। ६१ ।। चलदीप संबद्धा य, असंबद्धा य । वसहीए मोतुं सतघरा बसबिका भवा पावा
।
४२२
उवणा कल
इमा अबका गाड़ा
दावे अभिगमस संमते खलु तदेव मिले। मिच्छत्ते मामाए अवियते, एवं इतरे वि गायन्त्रा ।। ६२ ॥ महामहो दारु दासोसम्म गिता ज्यो निगम (सिम्मी पा दोसा लुमो पादपूरणे (मिति) ग्रभिहियमि साहुपडिनर | सासणेणं मा मम घरं पछि समणं तिजणाः । असा बलु साहू घरं पति यत्ता वाया भणाति न किंचि वि । एतेषु बिसरपंतावणादि दोसा (श्वति
॥
गाड़ा
एतेमामारे, उवण कुलं जो तु परिसतो भिक्खु । पुत्र अपुच्छितेणं, सो पावति प्राणमादीणि ॥ ६३ ॥ फंग ।
चोदेग आह-लोउत्तरे ठियाणं लोध्यपरिहारेण किंच अर्थ
झोउचरम्प उविता-ण लोग जिम्बाहिरन मिच्छति । लोगजढे परिचचा, तित्यत्रिवी य वो य ॥ ६४ ॥
पुण्य कंठं । लोग दुनिया जे, ते परिहरतेण तित्थस्स विबड्डी कता नवति, ( वोति ) जसो पनावितो भवति तो भष्यति ।
वोश्व कुन्ने गेहं तस्स इमे दोसा । गाहा
सो पत्रयाणी, विष्परिणामो तद्देव य गुंछा । सोपवणकुत्रे, गहणे आहारमादीणं ॥ ६५ ॥
यसो ति अत्रसो, पवयणहाणं)- न कश्चित्प्रवजति संमसरिता सामंताला दु जवंति अस्पृश्या इत्यर्थः । पच्छुक कंटं । लोडस दासले पतिस्मे दोसा | गाढ़ा आयरिय बालबुढा, स्ववगगिलाणा महोदराऽऽएसा । सच्चे व परिचा, जो कुझाई सिति ।। ६६ ।। मोदी आरसा प्राकका निधि त्रिशति निविशति, प्रविशतीत्यर्थः ।
इमं पातं । गाहा
आयरिप गिलाणे, गुरुगा लगा व मगे पाहु गुरुगो व बाझ, सेहे व महोदरं लडओ ॥६७॥ जो पते जिविसति तसिमे गुणा माहागच्छ महाभागो सवालोऽणुकंपियो तेरा।
जिनकल्पाअंदरखानामाकरत्वात् समुच महानुभागः, बालवृरूगिलाणादीनां च साधारणत्वान्महानुजागः, जो तेसु ते सो गोपितो
गाहा
गगपदोसा य जढा, जो उपकुल परिहर ||१८||
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ठवणाकुल अभिधानराजन्द्रः।
ठवणाकुल उम्मदोषाश्च परित्यक्ता भवन्ति।
नास्तीति कृत्वा न गृह्यते, नतः अमानस्तस्योपजायते । अथ गच्चबासीणं श्मा सामायारी। गच्चम्नि गाहा
मुबते-पात्रं गृहीत्वा यावद्यमागच्चामः, तावदेवमेव तिष्ठतु,
ततः स्थापनाऽऽदयो दोषा भवेयुः। तस्मादुग्राहणीयं पात्रकम् । गच्चम्मि एस कप्पो, चासावासे तहेव उहबदे।
जिनगृहेषु च वृन्देन सर्वेऽपि चैत्यानि वन्दित्वा गृहचैत्यवकप्पो विधी, एस वासावासे, रडुबके घा।
न्दनार्थमाचार्येण कतिपयैः साधुभिः प्रादितपात्रकैः समं गामनगरनिगयेसुं, अतिमेसी उगवते सकी ।। ६ए ॥
गमनं कर्तव्यं, तत्र यदि धावका प्राशुकेन भक्तपानेन निभन्ध
येत, ततो ग्रहणमपि तस्य कर्त्तव्यम् । पृ० १२० । गामणगरातिसु विहरंताणं अतिसयदन्वा नकोसा, ते |
___ कानि पुनः कुलानि चैत्यवन्दनं विदधानास्ते ( सूरयः) जेसु कुलेसु लम्भंति, ते ठाविषबा, न सन्यसंघामगा
दर्शयन्ति ? । उच्यतेतेसु पविसंति (सकि ति) संजमे सवा नस्स सो सकी, दाणे अनिममस, सम्मत्ते खलु तहेव मिच्चत्ते । मायरिभो।
मामाए अवियते, कुलाई दार्मिति गीतत्था ॥७१।। मजाद गादा
रातो दिवसतो चा चाहिहिया वसहीप बा जिक्खं हिंडता मज्जादगवणेणं, पबत्तगा सव्ववेत्ते मायरिया।
ग्वणकुले दासेनि।
दरिसिनेमु गुरुणो इमा सामायारीजो तु अम्मज्जातिधो, आरजति मासियं लदुयं ॥७॥
दाणे अभिगमसहे. संमत्ते खलु तदेव मिच्छत्ते । मज्जाया मेरा, ताणं ठवणा,पवत्तगा य सम्बसेत्तेसु प्रायरिया
मामाए अवियत्ते,कलाइ गएंनि गीयत्या॥७२॥ नि००४० भवंति । जो पुण पायरिओ मजायं ण वत्ति, ण पवत्तेति वा,
पतानि कुलानि सापयन्ति गीतार्थाः; अमीषु प्रवेष्टव्यममीषु सो अमज्जालो असमायारिणिप्फणं मासलहुं पावति ।। तु नेति व्यवसापयन्तीत्यर्थः। नि० चू० ४ उ०।
मथ न सापयन्ति तदा किम ?,इत्याह__अथ स्थापनामनिधित्सुःप्रस्तावनामाह
दाणे अनिगमस, सम्मने खन्न तहेव मिरचे । भत्तहिया च खमगा, अमंगलं चोषण जिणाहरणं । मामाए अवियते, कुलाई अविति चन गुरुगा॥७॥ जइ खमगा वंदंता, दासंतियरे विहिं वोच्छं । ७४४॥ एतानि कुलान्य स्थापन्यारो गुरुकाः प्रायश्चित्तम् । ते हि साधवः केवं प्रविशन्तो भक्तार्थिनो वा भवेयुः, कप
यत पयमन:का वा । पदि कपकाः, ततो नोदकस्य नोदना प्रेरणा-यथा प्रथ- कयउस्सगाऽऽमंतण, अपुच्चणे अकहिएगयरदोसा । ममेव तावदमकलमिदं यमुपवासं प्रत्याश्याय प्रविश्यते । सुरि- वाकुलाण य उवणं, पविभागीयत्यसंघामो ।७५० गढ-(जिणाहरणं) जिनानामुदाहरणं मन्तब्यमाते हि भगक- उत्सगे-चैत्यवन्दनं विधाय गतानामै र्यापधिकीकायोत्सर्गे कृते, तो निष्क्रमणसमये प्रायश्चतुर्थादि तपः कृत्वा निकामन्ति, न
यद्वा-(ओसय ति)मावश्य के कृते सर्वेऽपि साधवो मोताधच तसेपामममम् । एवं तत्रापि भावनीयम् । ततश्च यदि तेत.
रामन्त्रणीया:-मागच्छत कमाश्रमणाः!, भाचायां स्थापनां प्रव. पकाः, तदा चैत्यानि बन्दमाना एवं दर्शयन्ति स्थाप- यिष्यन्ति । इत्थमुक्ते सर्वेऽप्यागम्य * गुरुपदकमलमभिवन्ध नाकुलानिकेत्रप्रत्युपेककान् । अथ भक्तार्थिनस्ते, ततः (इयरे रचिताजलयस्तिष्ठन्ति । तत प्राचार्य: केत्रप्रत्युपेक्षकाः प्रीii)श्तरेषु भक्काधिषु यो विधिस्तं वक्ष्ये ।
व्या:-कथयत कानि कुलानि प्रवेष्टव्यानि,कानि या नेनि ? तत. तमेवाह
स्तैरपि केत्रप्रत्युपेक्वविधिवत्कथनीयम् । यद्याचा: क्षेत्रमन्ने दर्दु नुग्गा-हिएण प्रोदरि भयं समुप्पजे ।
प्रत्युपेशकान्न पृच्छन्ति, ते च पृथाः सन्तो न कथयन्ति, ततस्तेषु नम्हेक दोहिँ तिहि वा, उग्गाहिय चेहए वंदे ॥७४।।
प्रविशतां ये संयमाऽऽत्मविराधनाऽऽदयो दोषास्तानेकतरे-सर.
यः,केत्रप्रत्युपेकका बा, प्राप्नुवन्ति । ततः कथिते सति यानि त्यवन्दनार्थ गन्तुकामा यदि सर्वेऽपि पात्रकमुग्राहयेयुः, सृहीतमिथ्यात्वमामकाबियत्तानि तानि सर्वथैव स्थाप्यानि, ततः सर्वान् साधूनुमाहितेन पात्रकेण दृष्ट्वा महो! श्रीदारि. यथा मैतेषु केनापि प्रवेष्टव्यम्,यानि तु दानश्चाद्धाऽऽदीनि स्था. का पते इति भावकश्चिन्तयति । भयं च तस्य समुत्पद्यते । पनाकुलानि तेषामपि स्थापनं कर्तव्यमा कथम, इत्याद-प्रवि. यथा-कथमेतावनां मयैकेन दास्यत इति । तस्मादेकेन द्वाज्यां शति एक एव गीतार्थसङ्घाटको गुर्वादिवेयावृत्यकरः, तेषु । त्रिभिर्वा साधुभिरुद्वाहितपायकैः, शेषैः पुनरनुहादितपात्रकैः
इदमेव जावयतिमहिताः सूरयश्चैत्यानि बन्दन्ते।
गच्छम्मि एस कप्पो, वासावासे तहेव दुबके। अथ योकोऽपि साधुः पात्रकं नोदग्राहयति, ततः को दोषः!,
मामनगरनिगमेमुं, अइसेस) गवए सई। ।। ७५१ ॥
वर्षाचासे, तथैव ऋतुबके, ग्रामनगरनिगमेषु स्थितानां गच्छे सदाभंगोऽणुग्गा-हियम्मि उवणाझ्या नवे दोसा।। पष कल्पः का?,इत्याह-अतिशेषाएयतिशायीनि सिग्धमधरघरचे प्रायरिए, कइपयगमणं च महणं च ॥७ ॥ व्याणि प्राप्यन्ते येषु तान्यतिशेषाणि (सम्िित) दानश्राव. भयानुदाहिते पात्रके प्रयान्ति, ततश्चैत्यानि बन्दमानान् रष्टा " वा व्यपि" ॥६॥ ४॥ ३८ ॥ अनुनासिकलोपः । भा. कोऽपि धर्मभदावान् कपानेन निमन्त्रयेत् , तदा यदि भाजनं । गत्य, भामम्प ।
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(१६८७) घगाकुल अभिधानराजेन्मः।
वाणाकुला न्ति, पर्वविधा ने कुलानि स्थापयेत् । पकं गीतार्थसबाट मु. अन्योऽपरचमढणायां दोषः। कः?, इत्याह-व्यस्थावगाहिम क्या, शेषसाटकान्न तत्र प्रवेश कारयेत् ।
ताऽऽदे,कारणमन्तरेणापि दिने दिने गृहमाणस्य,क्षयो प्रति। आह नियुक्तिकार:
ततश्च यधनिमयमवगाहिमाऽऽदिकम्य साधूनामर्थाय फरोति,
कीणाति वा,तत उगमोऽपि च न शुचति,सदोषत्वात् तदुत्पा. किं कारणं चमढणा, दबखनो नम्गमो वियन सुज्के।
दितमपि म कल्पत इति नावः। ततः काखे ब्यच्चिन्ने ऽर्षगच्छम्मि नियय कज्ज,आयरियगिलाणपाहुणए ॥५॥ भरून्ये, प्रयोजने उत्पन्नेऽपि नास्ति सानस्य प्रायोग्य, ततः किं कारणं को हेतुः १, येन स्थापनाकुलेम्बेक एव सहाटकः परितापमहापुःखादिका प्लानाऽऽरोपणारुण्याभद्रकमाप्रविशति । सूरिराह-(चमढण ति) अभ्यैरन्यैश्च सधाटकैः न्तकृताच दोषा भवन्ति । प्रविशद्भिस्तानि कुलान्युद्वेगं प्राप्यन्ते । ततश्च न्याणां स्ति
तानेवाहग्धमधुराणां कयो भवति । तमोऽपि च न शुरुषति । गच्छे
दबक्खरण पंतो, इत्थि घाएइ कीस ते दिन । च नियतं निश्चितं प्रायोग्यद्रव्यैः कार्य भवति। किमर्थम,इत्याहआचार्यग्लानप्राघूर्णकानां हेलोरिति नियुकिगाथासमासार्थः ।
जदो हपहडो, करिज्ज अन्नं पि माइणं ।।७५६॥ अव भाष्यकार एनामेव विवृणोति
इह कस्वापि प्रान्तस्य नार्या श्रामिका, ततस्तया अन्यायमा पुबि पि वीरमुणिया, भणिया जणिया पहावए तरिय ।
भनां याचमानानां प्रायोग्यं द्रव्यं सर्वमपि प्रदसम ततस्तस्याः
पतिभोजनार्थमुपयिष्टः सन् ब्रूते-कर में परिवेषय । सा प्राहसा चमढणाऍ सिग्गा, नेच्छा दहूं पि गंतुं जे॥७५३।।
साधूनां प्रदतः। स प्रतियात्-पृधुलिका तर्हि परिवेश्य । सा "जद का वीरमुणिया केणइ पारजिएण तित्तिराईणं ग. प्राह-ता अपि प्रदत्ताः । एवं सूपदुग्धदाधिप्रभृतीन्यपि साधू. हणे निकारिया समाणी तित्तिराणि गिदा, पच्छा सा नां वितीर्णानि । इत्थं व्यकयण प्रान्तः कुपितः सन् स्वसिायं तेहिं सावरण विणा वि निक्कारेक, सा वीरसुखिया श्तो घातयेत-कुट्टयेत् । कस्माकिमर्थ, स्वया तेज्यः सर्थमपि दसतो पदावेर, जाब न किंचि पेच्छर, ताहे सा धे- मिति कृत्वा पत्र पान्तरम-"दव्यक्खपण लुक ति"जुयारिया समाणी जसो सावयं दटुं पच्चा विकारेह, तहा न्धो लोभाभिनूतः, शेष प्रारमन् । यस्टु भकको गृहपतिः, स वि पयं पि न इच्छा गंतुं । " अथ गाथाक्षरयोजना-यः भाद्धिकया सर्वस्मिन्नपि दत्ते, तत्रैव च कथिते, हृष्टप्रहपी भ. शुनिकद्वितीयः शनाद्यपेक्वारहितो मृगयां करोति स वीरः पति; दृष्टो-नाम मनसि परितोपवान् । प्रदृष्टस्तु प्रदसितवदनः उच्यते । तस्य शुमिका, यथा पूर्वमहऐऽपि श्वापदे भणिता समुद्त रोमहर्ष इति। ततश्च कुर्यादन्यदपि,अवगाडिमादिक गत्कृता कृता सती ( नुरियं) त्वरितमितस्ततः प्रधावति, साधूनामर्थाय कारयेदित्यर्थः । एतद्दोषपरिदरणार्थमेकं मीनतःसा'चमढणया' निरधंकमुळेजनया, 'सिग्मा' श्रान्ता सती, तार्थसङ्घाटकं मुक्त्वा, शेषाः स्थापनाकुलानि न निर्विशेयुः। प्रासन्तमपि श्वापदं दृष्ट्वा, पदमपि गन्तुं, 'जे' इति पादपूरणे, पूर्णके चाऽऽयाते सति प्राण्ये विधेयं, तच स्वभावानुमतेनेकृति । पप रष्टान्तः।।
रेव जतपानः। अथोपनयस्त्वेयम्
बथा घात्र दृप्रान्तमाहएवं सकुलाई, चमदिजंता अन्नमहि ।
जई पहिसे चारिं, पासो गोणे य जे य जाबसिया । नेच्छंति किंचि दाउं, संतं पि तर्हि गिलाणस्स ।।७५४॥ एएसिं पविक्खे, चत्तारि उ संजया होति ॥७५७।। पवममुनैव प्रकारेण, श्रारुफलानि (चमदिजंताई ति) उ.
जो दस्ती, महिपाश्वौ प्रतीती, गोणो यत्रीवः। पतेषां ये देज्यमानानि, अन्यान्यैः-तुल्लकस्थविरकपकाऽऽदिभिः । यद्वा(मनमान्नेहि ति) अन्योन्यः परिफल्गुमावैः कारणैः । यथा ए
यावासका यबसस्तत्प्रायोग्यमुझमाषादिरूप आहारः, तेन का प्राद-ग्लानस्य शीर्ष ऽप्यति, शर्करां प्रयच्छ । अपरः
तद्वहनेन चरन्तीति यावसिकाः, ते अनुकूनां चारी मानयन्ति । प्राह-ममोदरं पुण्यति, दनः करम्बेन प्रयोजनम् । तदपरः
पतेषां जहाऽऽदीनां प्रतिपक्की प्रतिरूपः, पक्षसहशपक्क इत्यर्थः। प्राह-प्राघूर्णक पायातोऽस्ति घृनाऽऽदिकं देहि । अन्यः प्राह
तत्र चत्वारः प्राघूर्णकसंयता नवन्ति । तद्यथा-जइसमानो, अहमाचार्यस्य हेतोरायातोऽस्मि,दुग्धं सशर्कर प्रतिमाभयेत्या.
महिपसमानः, अश्वसमानः, गोसमानश्चेति । दि । ततस्तानि वीरन्-यूयं सर्व एव ग्लानाः, अतो वयं
अथामीषामेव व्याख्यानमाइकियतां प्रयच्चामः?, को वा जानाति-यूयमाचाऽऽदीनां जड्डो जं वा तं वा, सुकुमालं महिसो महुरमासो । देतोगुलीथ, माहोस्विदात्मार्थम् । इत्येवमवेज्यमानानि नेच्छ
गाणो मुगंधिदब, इच्चइ एमेव साहू वि ॥७५८॥ ति.सदषि विद्यमानमपि,घृतादिकं, किञ्चित् स्तोकमात्रमपि, ग्ज्ञानस्य, उपप्रवणत्वान-प्राचार्यप्राघूर्णकाऽऽदेरप्याय दानम्। जड़ो हस्ती,स यद्वा तद्वा-सकर्कशकटुकाऽऽदिकमप्याहारयति । ततश्च यत्ते ग्यानाऽऽदयः परिताप्यन्ते, तनिष्यन्नं प्रायश्चित्तम् ।
यस्तु महिषः, स सुकुमारं बंशकरोबाऽऽदिकमभिलपति । अश्वो गतं चमढणाद्वारम् ।
मधुरं मुझमाघाऽऽदिकमभिकाति । गोर्वनीवर्दः, स सुगन्धिकअथ व्यक्कयोमाशुद्धिकारमाह
व्यमजनकप्रन्थिपर्णाऽऽदिकमिच्छति । एवमेव साधवश्चत्वार
चतुर्विधं भक्तमिच्छन्ति । " तत्थ पढमो जइसमाणो पाहुणअम्रो चपदणदोसो, दन्वखो उग्गमोवि य न मुके।
गसाहु भण-मम जं दोसिं पंचाउराहगं बा कजिवा लखीणे उद्घभदने, नत्यि गिलाणस्स पाजग्गं ॥ ७५|जक, तं चेव प्राणहिः नघरं बदरपूरंग पवं भणिए किं दोसी
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(१६ ) ठवणाकुल अनिधानराजेन्द्रः।
ग्वणाकुल चेव आणेयन्वं, न विसेसेण सोहणं तस्स पाण्यन्वं । वि.। मतुएप्रत्ययः । यथा गोमानिति । (कोकहल्लत्ति) मत्वर्थीय प्रत्यभो पाहुलयसाहू भणा-परं मे नेहरहिया विधूलिया सु. यलोपात्कौतूहलिन,प्रतिबकं सत्रार्थग्रहणसक्तमापतान् वैयाकू. कुमाला होउ । तो जणा-महुरं नवरि मे होडा पडत्यो त्यमाचार्यों न कारयेदिति समासार्थः । भणइ-अनं वा पाणं वा निप्पमिगधं मे भाणेह । एवं ताणं
अथैनामेव गायां विवरीषुः प्रथमतः प्रायश्चित्तमाहप्रजंताणं जं नोगं तं सयकुलेदितो विससियं माणिज्जा। संविएम चेव सकृयकुत्रेसु लम्भह, ता ठषिपसु पादुओं य
तिमु बहुओतिसु बहुभा,गुरुओ गुरुग्रा य बहुग लहुगोय। कीरमाणे महंतो निरालाभो.साहुक्कारो य पाविजातो पेसगकरितगाणं, आणा विराहणा चेव ॥७६१॥ कायब्वं तं जहाविहि साइहिं ति।"
अलसाऽऽदीन् य प्राचार्यः स्ववैयावृत्त्यर्थं प्रेषयति, व्यापारवमाह-यद्येवं ताह श्रारूकुलेषु मा सोऽपि प्रवेशमकार्षीत्वदा | तीत्यर्थः । यधैनिदोपैर्दुष्टः स्वयं वैयावृत्यं करोति; तयोः प्रेषप्राघूर्णकाऽऽदिकार्य समुत्पन्न नविष्यति, तदा प्रवेशं करिष्या- ककुर्वतोःप्रायश्चित्तम् । तद् यथा-त्रिषु अलसबलाशिनिकामुषु मः, ततश्च बहुतरमुत्कृष्टं च लप्स्यामहे ।
लघुको मासः, त्रिषु कपककोपनानिमानिषु चत्वारो लघवः, भिराह
मायावति गुरुको मासः । सोजयति चत्वारो गुरुकाः । कौतूह
लवति चत्वारो लघुकाः, सूत्रार्थप्रतिबके लघुमासः । भाडाएवं च पुणो ठविए, अप्पविसंते इमे नवे दोसा।
ऽऽदयश्च दोषाः; विराधना चाऽऽत्मसंयमविषया। बीसरण संजयाणं, विमुक्कगोणी पारामे ॥७५
तत्रालसस्वमशीलयोजनादोषानाहएवं च तावचमढणायां दोषा अनिहिताः । पुनःशब्दो विशे-|
ता अत्थ ना फिहिओ,सकानो अन्नसमाविरे दोसा। पणार्थः । यदि पुनः स्थापनाकुलानि सर्वथैव स्थाप्यन्ते, तनो | (गयेर त्ति) सबथैव स्थापितेषु अपविशतां साधनामेते दोषा | गुरुमाई तेण विणा, विराहणुस्सकवणादी॥७६शा भवेयुः। तय ग-विस्मरण सेयतानां जवति, निका दातव्येति- अलसः स्वप्नशीलच तावदुपविष्टः शयानो वा प्रास्ते, यावत् नियमाजावा मित्रच विशुकया गवा, पारामेण च रष्टा- सन् विद्यमान कानःसत्कालः,निक्षायाःस्फिटितोतिकान्तः,तदा म:-"जदा एगस्स चोदधिजाइयस्स गोखी-धेणू।सा व पो- च पर्यटनसी यद्वा तद्वा जनपानं लभतेन प्रायोग्य,तेन प्रायोम्बे. सपच्चुलेसु कुन कुन पृद्धस्स य पयशातस्स य दसदि म विना या गुर्वादीनामाचार्यबालवृद्धग्नानाऽऽदीनां विराधना दिबसेहि संबका भविस्सहाताहे सोचिते-एसा यावी ताव | तनिष्पन्नं प्रायश्चित्तम् । यद्वा-अतिक्रान्तायां वेलायामायान्नं वैबायं वीरं देतवा य उल्लहंबीरं भबिस्सा,समयतया अवस्सं यात्प कर मत्वा प्रायोग्यस्यानुवाकणं श्राकानि कर्युः, 3. कजं,तो श्याणि न हामि। तया चेच एक्कसराप दुहिस्सामि, त्सरे तद्विदायुरिति भावः। यद्वा-तपस्कृतं प्रायोग्यं नक्तं स्था. वरं मे दस कुलवा होतया । पत्ते च संखमिदिवसे महंतं कुंडयं पयेयुः, ततः स्थापनादोषः। प्रादिशब्दात्साधूनामसंविभक भगहाय गोणीदुहणच्याए दुको जाव विसुका, जुलुप्रो वि तं कथं मुखे प्रक्षिप्यते ?, इति बुवा तेषामतुज्यमानानाममत्थि पुरूस्सा एवं संजया विप्रणांनुयंतो तेखि ससाणं प- म्तरायाऽऽदयो दोषाः॥ महान चेन जाणंति-किं संजया अत्यि, न वा? ते विसंजया
प्रपत्ते वि अलंनो, हाणी अोसकणा य अपन। जम्मि दिवसे कज्जंति मिगया जाव न संति ताणि दवाणि, तम्हा दोएह वा तिएह वा दिवसाणं अवस्स गंतव्वं ।।
अणहिंमतो अचिरं,न लहइज किंचि आणेड ॥७६३। महया पारामदिटुंतो-जहा एगो पाराम्भिो सो चिंतेइ-मम अथ यदेतत् कास्माकं मध्ये समापतितं तन्निवाहितं प्रमारामे पुप्फाणं आढयं दिणे दिणे नटेइ,इंदमहदिवसे अ बहुजणो वत्विति कृत्वा अप्राप्ते का निक्षामटति, तदा भलामो-न पुकाणं कायओ भविस्मर,तो मादिणे दिणे गुप्फाई उच्चमि,तदि
किमपि प्राप्यते । ततश्चाऽऽचायाऽऽदीनां हानिरसंस्तरं जवति । ससं वर बणि पुष्पाणि होताण त्तिापत्ते य इदमहदिवसेसोप- यस्तु अतिभकोऽतीव धर्मश्रद्धावान्, गृहयति सोऽवपकणं, स्थिया उ घेत्तुं गो,ताव सो पारामो मप्फुटतो, एगमवि पुष्फन
विवक्तिकालादर्वाक जक्तनिष्पादनं कुर्यात । यहा-अमावनथिएवं ते यदिवसं कजमुप्पत्रं तदिवसं पविट्ठा ठवणाकुलेसु।
सत्वानिकानुत्वाद्वा चिरमहिएममानः सन् किमपि जनते; तादे सका नणंति-तुम्भे इह चिय अत्यंता न मुणह वेलं अम्दं,
यत्किञ्चिद्वा पर्युषितं ववचणकाऽऽदिकं वा आनयति, तेन पप चत्ता वेना अप्पविसंतसुयन कोश्मणं पडिवजाहान वा|
नक्तनापध्यतया गुर्वादीनां ग्लानत्वं भवति; ततः परिमयुबर गिलाणपाउम्गं वि नत्यि।" यतवैवमतः प्रवेशव्यं तापमहापुःखाऽऽदिका ग्लानाऽऽरोपणा। स्थापनाकुत्रेषु गीतार्थसंघाटकेन।
___ अथ 'घसिर ति' पदं भावयतिस कारग्दोषैविरहितः, इत्यत माह
गिएहामि अप्पाणो ता, पजत्तं तो गुरूण घित्यामि । अम घसिरं सुबिरं, खमगं कोहमाणमायलोहिद्धं ।
घेत्तं च तेसि घेत्य, सीयन ग्रोसकोमाई ।।७६॥
यो महोदरः स वैयावृत्ये नियुक्तो निक्षामटन चिन्तयति-एकोकालपमिवर्क, बेयावचं न कारिजा।।७६०॥
द्वामि तावदात्मनो योग्य पर्याप्तं, ततो गुरूणां हेतोर्ग्रहीष्यामि । अलसं निरुद्यम, प्रसितारं बहु नक्किणं, सुप्तारं स्वप्नशीलम। यद्वा-तेषां गुरूणां योग्यं गृहीत्वा, तत आत्मनो अर्थाय प्र"शीनाऽऽद्यर्थस्थरः" 1G1२१४५॥ इति प्राकृतल झणबलादुम- दीध्ये, इत्यं विचिन्त्य यदि प्रथमं गुरूणां योग्यं गृहीत्वा पपत्रापि तृन्प्रत्ययस्येरादेशः। कपकं प्रतीत (कोदमाणमायालो- स्वादात्मार्थ गृहाति, ततो यावता कासेनाऽऽत्मना पूर्यते, तत्प. दिति) कोयवन्तं,मानववं,मायावन्तं लोभवन्तम । सर्ववापि यांनं भवति, तावता स्थापनाकुलषु बेलाऽतिकमो प्रचेत् ।
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(१९७१) ग्वाकुल अभिधानराजेन्छ।
ग्वणाकुल अथ वेलाऽतिक्रमभयाद्देशक एव तेषु प्रविशति, तत आत्मनोऽ. गुरुजत्तिमं विणीयं, वेयावञ्चं तु कारज्जा॥७६।। वशं भवेत्, उदरपूरणं न भवेदिति भावः । ततवमा
एभिरनन्तरोक्तः,दोपैर्विमुक्तं वर्जितमाकिविशिष्टम, ल्याह-कृत हारतया तस्यैव अनागाढपरितापनाऽऽदयो दोषाः।
योगिनं गीतार्थमाझातशीबाऽऽचारम्-शात सम्यगवगतं,शीसं प्रिअथ क्षपकक्रोधवतो दोषानाह
यधर्मताऽदिरूपम्,माचारश्चकवाक्षसामाचारीरूपो यस्य स तथा, परिताविजा खमनो, अह गिराह अप्पणो इयर-हाणी।
तमातथा गुरव आचार्याः,तेषु भाक्तमन्तमान्तरप्रतिबन्धोपेतम।
विनीतमन्युत्थानाऽऽदिवाहविनयवन्तम् । एवंविधं शिष्यं वै. अविदिन्ने कोहिल्लो, रूस किंवा तुमं देसि ॥७६॥
यावृत्यमाचार्यः कारयेत् । यदि कपको गुरूणां हेतोः प्रायोग्यं गृहाति,नाऽऽत्मनः, ततः स पाह-किमर्थ बैयावृत्त्यकरस्येयन्तो गुणा मृम्यन्ते ।। एव परिताप्यते । अथाऽऽमनो गृहाति, तत इतरेषामाचार्याणां,
उच्यतेहानिः परितापना । यस्तु क्रोधवान्. सोऽबितीणे-अदने स. साहंति य पियधम्मा, एसणदोसे अनिग्गहविममे । ति रुष्यति । रुष्टश्चागारिणं नाति-यदि भवान् न ददाति,
एवं तु विहिग्गहणे, दयं वति गीयत्था ॥७॥ तहिं मा दात् । किं भवदीयं गृहं दृष्ट्वाऽस्माभिः प्रवज्या प्र
प्रियधर्माणः, उपनक्षणत्वादपरैरप्पनन्तरोक्तगुणैर्युक्ता वैयातिपन्नोत? किं वा त्वं ददासि, येनवमहं ददामीति गर्वितो भवसि ? । इत्यादिजिर्दुर्वचनैः साई विपरिणमयति।
वृत्यकराः ( साहंति ति) कथयन्ति, एषणादोषान्-प्रक्षितनि
विताउदीनि । यथा-नत्यं म्रक्तिदोषो भवति, इत्थं तु निक्तिप्त मानिमायिनोदोषानाह
इत्यादि । एतैश्च दोषैर्दु साधूनां न दीयते । अभिग्रहविशेषांच कणाणट्ठमदिन्ने, थको नय गच्छए पुणो जवा। जिनकल्पिकस्थविरकल्पिकसंबन्धिना, कथयन्तिा एवम्-उक्तन माई भद्दगनोई, पंतेण व अप्पणो छाए ॥७६६।।
विधिना, स्थापनाकुलेषु प्रहणे,श्रयं वयम्तो गीतार्थाः द्रव्यमयः स्तब्धःमानी,सकने तुच्चे दत्ते, (अणुउत्ति) अभ्युत्थाने वा
घृिताऽऽदिक वर्षयन्ति ।
इदमेव भावतिप्रकृते (अदिन त्ति) सर्वथैव वा भदत्ते सति, पुनर्भूयः, तदीयं गृहं न गच्छति । भणति च धावकाणामितरेषां च को विशेषः?,
एसणदोसे व कए, अकए वा जश्गुणविकत्थता । यदि द्वितयेऽपि साधूनामभ्युत्थानाऽऽदिविनयप्रक्रियामन्तरण ___ कहयंति असहनावा, एसणदोसे गुणे चे ॥७७१॥ भिक्षां प्रयच्छन्ति, नतो नाहममुभ्य गृहं भूयः प्रविशामीति । एषणादोषे म्रक्तिताऽऽदी कृते वा अकृतेवा,यतिगुणान् शान्तिमाततो (जं वत्ति)तद्गृहिप्रवेशं विना प्रायोग्यस्थालाभे यत्किञ्चि- देवादन, विकत्थमाना:-विविध श्लाघ्यमानाः, प्रशनावा केदाचार्यादीनां परितापनाऽऽदिकं भवति, तनिष्पन्नं प्रायश्चि- तववर्जिताः, न भकणोपायनिमित्तमिति भावः । एषणादोषान् सम् । यस्तु मायी भद्रकभोजी,प्रायोग्यमुपाश्रयाहि क्त्वा प्रा- कथयन्ति । तथा गुणा:-साधनां प्राशुकैषणीयभक्तपानप्रभवाः न्तमानयतीति नावः । यद्वा-प्रान्तेन ववचणकाऽऽदिना, मात्मनो पापकर्मनिर्जराऽऽदया,तांश्च,गीतार्थाः कथयन्ति । यथा-"समयोग्य निग्धमधुरभव्यं गदयति, गदयित्वा च गुरुणांद- गोवासगस्स णं भंते! तहारूवं समणं यामाहणं वा फासुपणं शेयति।
एसणिज्जेणं असणपाणखाइमसाश्मेणं पमिलामेमाणस्स किं लुब्धस्य दोषानाह
कज गोयमा! पगंतलो निज्जरा कज्जनस्थि यसो पा. ओलासा खीराई, दिजंते वा न वारई लुछो।।
वकम्मे कज्जत्ति"।
अथेत्थं न कथयेयुः, ततः के दोषा इति ?. आहजेऽणेगविसणदोसा, एगस्स वि ते उ बुधस्स ॥७६७।।
बालाई परिचत्ता, अकहितेऽणेमणाइगहणं वा । यो लुब्धः सन् स्थापनाकुलेषु कीराऽऽदीन्यवभाषते। यद्वा-श्रद्धाऽतिरेकतस्तैर्दीयमानानि स्निग्धमधुराणि न वारयति, ततश्च
नय कहपबंधदोमा,अह य गुणा साहिया हॉति ७॥ येऽनेकेषु स्थापनाकुलं प्रविशत्सु चमढणाऽऽइयो दोषा व.
तेषु धाककुलेषु जिनकल्पिका भिक्षार्थमायाताः, तेषां परमाणिताः, ते सर्वेऽप्येकस्यापि बुब्धस्य प्रवेशतो द्रष्टव्याः।
न्नाऽदिक लेपकृतमुपनीतं, तेश्च भगवद्भिःप्रतिषिद्धम । तत.
स्तानि श्रारूकामि बिन्तयेयुः-'एत एवं प्रधानाः साधयः, इतरे कुत्हलिनः सूत्रार्थप्रतिबरूस्य च दोषानाह
तु स्निग्धमधुरऽव्यग्रादिणः सर्वेऽपि नामधारकमात्राः सानरमाई पिच्छंतो, ता अत्यइ जाव फिर्डई वेना। ध्वाभासा एवं इति । ततः श्रद्धाभङ्गभाजितानि नूयः प्रायोग्यद्रमुत्तत्ये पमिवको, श्रोसकऽभिसक्कमाईया ॥७६ना व्यं नोपाकयेयुः । एषमभिग्रहविशेषानकथागीतार्थ
बोलाऽऽदयः परित्यक्ता भवन्ति । अनेषणातो दोपान्, यः कुतूहली,स नटाऽऽदीन् प्रेकमाणस्तावदास्ते, यावद्वेवा स्फिटति । यस्तु सूत्रे अथे वा प्रतिबक आसक्तः, स गुरूणां धर्म
शुद्धभक्तपानदानस्य च गुणान्न कथयेयुः, ततस्तानि श्राकथाऽऽदिव्यग्रतया यदैवान्तरं लभते, तदैवाप्राप्तकालेऽपि भि
कान्यनेषणां कुर्यु तत्र च यदि प्रतिषिध्यति, तदाऽपि बालाऽऽक्षार्थमवतरति । वेलाऽतिक्रम वा कृत्वाऽकासबेलाऽऽदाववतर.
दयः परित्यक्ता ; तेषां प्रायोग्याभावे मस्तरणाभावात् । अथ न ति, ततोऽववकणानिध्वाकणाऽऽदयो दोषाः ।
प्रतिषिभ्यते, ततोऽनेषणाऽऽदिग्रहणं भावयेत् । श्रादिशब्द ए. यतश्चैवमतः किं कर्तव्यमिति !, माह
"हक्रोरन्यतरस्याम'॥१४॥५३॥ (पाणि) इक्रोर
णौ यः कर्ता मणौ कर्म वा स्यात् । "हको नया ॥ २ ॥२८॥ एयद्दोसविमुक्कं, कमजोगिं नायसीलमाया।
(हैम०) इकोरणिकर्ता जौ कर्म वा स्यात् ।
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ग्वणाकुल अनिधानराजेन्द्रः।
ग्वगाकुल णादोषाणामेव स्वगतानेकभेदसूचकः । आह-गोचरप्रविष्टानां युज्यते, धाधकस्यापि तेन तेनोपायेन साधोरेषणीयमसाधूनां कथाप्रबन्धः कर्तुं न कल्पते । अमी च साधव इत्यमे. | नेषणीयं वा दातुमेव युज्यते इति । इत्थं द्विविधानामपि पणादोषाऽऽदीनां कथाप्रवन्धतः कथं न दोषभाजो भवन्ती- श्राद्धानां पुरतः एकं वाचत्वारिंशदोषरहितं,यपुञ्चमिवोऽछं. ति? । उच्यते-न च नैवात्र, कथाप्रबन्धदोषा भवन्ति । यदिद स्तोकस्तोकग्रहणात, तब्बुद्धोछम, उत्सर्गपदमियर्थः। तत्कय. जक्तपानझोलुपतया कथां प्रबध्नीयुः, ततो भवेयुर्दोषाः, तच्च | यन्ति । किं सर्वदैव', नेत्याह-मुक्त्या केत्रकाली, भावं चेति । नास्ति, एषणाशुद्धिहेतोरेव तेषामित्थं कथनात् । अथ च प्रत्यु: क्षेत्रं कर्कशतेत्रमध्वानं वा, कालं भिक्षाऽऽदिकं, भावं ग्लानतेत्थं कथयद्भिस्तैीतार्थैर्गुणा:-बासवृकाऽऽद्युपष्टम्भगुरुप्रभृत- त्वाऽऽदिकं प्रतीत्य, ते श्रारूपः किश्चिदपवादमपि प्रायन्ते । वा, साधिता जवन्ति।
अपि च-दहमपि ते श्राका कापनीयाःकथं पुनस्ते कथयन्ति ?, इत्याह
संथरणम्मि असुफ, दोएह वि गिएइंतदितयाणहियं । गणं गमणागमणं, बावारं पिमसोहिमसोगं ।
पानरदिलुतेणं, तं चेव हियं असंथरणे ॥७७६।। जाणताण वि तुम्भं, बहुवक्वेवाण कहयामो ।।७७३॥ ।
संस्तरणं नाम-प्राशुकमेषणीयं वा अशनाऽऽदि पर्याप्तं प्राप्यते, स्थानं नाम-आत्मप्रवचनसंयमोपघातवर्जितो भूभागः। यत्र
न च किमपिग्लानत्वं विद्यते; तत्राशुरूम प्रमाकमनेषणीयं च, स्थितस्य गवाश्वमहिषाऽऽदेराहननाऽऽदिन भवति, स आत्मो
गृहतो ददतध, द्वयोरपि,ग्रहितमपथ्यमा गृहतः संयमवाधाषिपघातवर्जितः । यत्र तु निमनाऽऽद्यशुचिस्थानव्यतिरिक्त प्रदे
धायित्वात् । ददतस्तु भवान्तरे स्वल्पायुर्निबन्धनकर्मोपार्जनात् । शे स्थितस्य लोकः प्रवचनस्यावर्ण न यात्, स प्रवचनोप
तदेवाशुद्धम, प्रसंस्तरणे अनिर्वाहे, दीयमानं च हितं पथ्यं नवघातवर्जितः । यत्र पुनः पृथिव्यादिकायानां विराधना न भवति,
ति। पाह-कथं यदेवाकल्प्यं, तदेवच कल्प्यं भवितुमर्हतीति । स संयमोपघातवर्जितः । गमनं, गच्छता षटकायानामुपमर्दनं उच्यते-पातुरो रोगी, तस्य दृष्टान्तेनेदं मन्तव्यम् । यथा हि-रोकुर्वता न गन्तव्यम् । एवमागमनमपि, निक्कां गृहीत्वा साधुसं- गिणः कामप्यवस्थामाश्रित्य अन्नौषधाऽऽदिकमपथ्यं प्रवति, मुखमागच्छता दायकेनोपयुक्तेनाऽऽगन्तव्यम् । व्यापारः कर्त. काश्चित्पुनः समाश्रित्य तदेव पथ्यम; एवमिहापि भावनीयम् । नकरामनपेषणाऽऽदिकः । तं च सम्यग् शापयन्ति-ईटशे व्यापारे
तदेवं भाषितम्-" साहति य पियधम्मा, एरणदासे अजिग्गभिक्षा प्रहीतुं कल्पते, ईदृशे तु नेति । पिएमशुद्धरु |
हविसेसे।" (७७० गाथा) इति । सोकं देशोदेशं कथयन्ति-इत्थमाधाकर्माऽऽदयो दोषा उप
अथ यमुक्तम्-(एवं तु विहिग्गहणे ति)तत्र विधिग्रहणं जायन्ते, इत्थमेभिर्दोषैरपुष्टः पिएडः साधूनां दयिमानः शुद्धो
भावयतिबदुफलश्च भवतीत्येवंपिएमनियुक्तिशतो शापयन्तीति नाचः। तथा यद्यपि यूयमिदं साधुधर्मरूपमग्रेऽपि जानीथ, तथाऽपि
संचइयमसंचश्यं, नाऊण असंचयं तु गिण्डंति । युष्माकं बहुव्यापाणामविस्मरणार्थ कथयाम इति ।
संचइयं पुण कजे, निबंधे चेव संतरितं ॥७७७॥ अपि च
प्रायोग्यव्यं हिंधा-सञ्चयिकमसञ्चयिकं च । सञ्चयिक-घृ. केसिंचि अजिग्गहिया, अणजिग्गहिएसणाय कोसिंचि।। तगुममोदकाऽऽदि। असञ्चयिकंतु-दुग्धदधिशालिसूपाऽऽदि। मा हु अवनं काहिह, सव्वे वि हु ते जिणाणाए॥७७४॥ तत्र यदसञ्चयिक, तत् स्थापनाकुलेषु प्रभूतं ज्ञात्वा गृहन्ति ।
सञ्चयिकं पुनानप्राघूर्णकाऽऽदौ महति कार्ये उत्पन्ने गृहन्ति । केषाश्चित्साधूनाम,अभिगृहीताएषणा । यथा-जिनकल्पिकानाम् ।
अथ श्राकानां महानिर्बन्धो भवति, ततोऽग्वाना अपि गृहकेषाश्चित्तु अनभिगृहीता । यथा-गच्छवासिनाम, सप्तस्वपि ए.
न्ति, परं सान्तरितम; न दिने दिने इति भावः । एष सञ्चयिपणासु तेषां भक्तपानस्य ग्रहणात् । एवं चापरां भक्तपानग्र
कग्रहणस्यापवाद उक्तः। हणसामाचारी दृष्ट्वा यूयं मा अवां करिष्यथ । कुतः?, इत्याहमर्वेऽपिते भगवन्तो जिनकल्पिकाः स्थविरकल्पिकाच, जिनाऽऽ.
अथापवादस्यापवादमाहशायां वर्तन्ते, स्वस्वकल्पस्थितिपरिपालनात् । अतो न केल्यव- अहवण साविभवे, कालं भावं च बालबुलाई । ज्ञातुमर्हन्तीति भावः।
नाउ निरंतरगहणं, अग्निनावे य गयंति ॥७७॥ किं च
"अहवण त्ति" अखासमव्ययं प्रकारान्तरद्योतनार्थम । श्राव. संविग्गजाबियाणं, बुधगदिद्वैतभावियाणं च । काणां श्रद्धां दानरूचि तीवां परिज्ञाय, विजवं च विपुलमुत्तूण खेत्तकाने, भावं च कहिंति सुकुंछ ॥७७।।
तरं तदीयगृहेऽवगम्य, कादं पुर्भिकाऽऽदिकं, भावं च म्लान
स्वाऽऽदिक, ज्ञात्वा,बालवृद्धाऽऽदयो वा आप्यायिता नवन्तीति येषां श्राकानां पुरत एषणादोषाः कथ्यन्ते, ते द्विधा-संविग्न.
झात्वा, निरन्तरग्रहणमपि कुर्वन्तिः सञ्चयिकमपि दिने दिने जाविताः, लुब्धकदृष्टान्तभाविताश्च । संविग्नरुद्यतविहारिभि
• गृह्णन्तीति भावः। यावध दायकस्य दाननाबो न व्यवच्चिद्यजाविताः संविग्नभाविताः । ये तु पार्श्वस्थाऽऽदिभिलुब्धकदृष्टा
ते, तावदच्छिन्ने भावे तिष्ठन्ति, दीयमानं प्रतिषेधयन्तीत्यग्लेन नावितास्ते लुब्धकदृष्टान्तभाविताः। कथमिति चेत् ? ।
धः । यथा तेषां नूयोऽपि श्रद्धा जायते । उच्यते-पार्श्वस्थाः श्राद्भानित्यं प्रज्ञापयन्ति । यथा
अथ स्थापनाकुले भक्तपानग्रहणे सामाचारीमनिधिसुराहकस्यापि हरिणस्य पृष्ठतो लुब्धको धावति, तस्य हरिणम्य पलायनं श्रेयः; लुब्धकस्यापि तत्पृष्ठतोऽनुधा
दवपमाणं गणणा, खारिय फोमिय तहेव अघाय। वनं श्रेयः । एवं साधोरप्यनेषणीयग्रहणतः पनायितुमेव संविग्ग एगठाणे, अणेगसाहूसु पन्नरस ॥७७॥
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(१६११) ग्वणाकुल अनिधानराजेन्दः ।
ठवणाकल व्यं शाल्यादि, तस्य प्रमाण सातव्यम-कियदत्र गृहे रसवन्यां। वणव्युत्पन्नमतीनि न कुयुः, ततः प्रायोग्याव्यस्यालामे शालिमुदाऽऽदि दिने दिने प्रविशति गणना नाम-कियन्ति घृत- पामाऽऽदीनां हानिर्भवेदिति । पलान्यत्र प्रविशन्तिा यद्वा-कियन्ति मानुषाएयत्र जेम (य) न्ति।
एगो व होज गच्छो, दोनि व तिनि उवणा असंविग्ग । कारो लवणं, तेन संस्कृतानि कारितानि-करीराऽऽदीनि व्यञ्जनानि, तानि कियन्त्यत्र पच्यन्त इति ? (फोडिय सि) स्फोटि- सोही गिलाणमाई, असईई दवाइ एमेव ।। ७०३ ॥ तानि मरिचजीरकाऽऽदिकटुभाएमधूपितानि शालनकानि । ए. विवक्कितक्षेपको वा गच्छो भवेत, दो वा, प्रयो धा। तत्र तेषामपि तथैव प्रमाणं ज्ञातव्यमा श्रद्धा कालः,स ज्ञातव्यः-कि- गच्छमाश्रित्य विधिरुक्तः। अथ यादीन् गच्छानधिकृस्य विमत्र प्रहरे वेला, नत सार्द्धप्रहरे,आहोस्वित्प्रहरद्वये इति। एतद् | धिरभिधीयते-(ग्वणा असंविम्गेति) येषु असंविग्नाः प्रवि. काव्यप्रमाणाऽदि विज्ञाय संविग्नो मोक्ताभिलाषी । (पगाणे | शन्ति, तेषां श्रारूकुलानां स्थापना कर्तया । न तेषु प्रके. त्ति ) एकः संघाटकः, तत्र प्रविशति । यदि पुनरनेके साधवः ष्टव्यम् । अथ प्रविशन्ति, ततः पञ्चदशोझमदोषानापद्यन्ते । स्थापनाकुलेषु प्रविशन्ति, ततः पञ्चदशाऽऽधाकर्माऽऽदयोऽ- | (सोहि ति)तदोपनिष्पना शोधिः प्रायाश्चत्तम् । यद्वा-"सो. निसृष्टान्ता उमदोषा जवन्ति, अभ्यवपूरकस्य मिश्रजात- हिति पदं गिलाणमाई" इत्युत्तरपदेन सद योज्यते । अतोऽय. पवान्तर्भावात् । एष संग्रहगाथासमासार्यः ।
मर्थः-ग्लानप्राघूर्णकाऽऽदीनामर्याय, असंविग्ननावितेष्वपि पु. अस्या एव भाष्यरुद् व्याख्यानमाद
लेषु शोधिरेषणाशुकिः तया शुद्ध जतं गृह्यते, न कश्चिदोषः । असणाइदम्बमाणे, दसपरिमिएँ एगभत्तमुन्चरति । " (असई दवार पमेव त्ति)" अन्यत्रासति अविद्यमाने, सो एगदिणं कप्पइ, निचं तुज्कोयरोइहरा *19000
स्वाऽऽदिकमप्येवमेव-असंविग्नजावितकुलेषु प्रहीतव्यमिति मशनमोदनमुद्राऽऽदि, आदिग्रहणास्पानकखादिमस्खादिमपरि- द्वारगाथासमासार्थः। प्रहः । एतेषां द्रव्याणां परिमितानामपरिमितानां च मानं प्रमा
अथैनामेघ विवरीषुराहणं ज्ञातव्यमा यत्र परिमितमशनाऽऽदिन्यं प्रविशति,तत्रदशानां
संविग्गमनाते, अतिति अहवा कुले विरंचिंति । मानुषाणां देतोरुपस्क्रियमाणे, एकस्यापरस्य योग्यं भक्तं भक्तार्थमुहरति । स च भक्तार्थ एकस्य साधोः परिपूर्णाऽऽहा
भएणातुंच्छं च सह, एमेव य संजयग्गे ॥ ७४|| रमात्ररूप एक दिनं ग्रहीतुं कल्पते। इतरथा यदि द्वितीयाऽऽदि. इह यैस्तत के प्रत्युपतितं, तेषु पूर्वस्थितेषु ये अन्ये साधवः दिवसेषु गृहन्ति, तदा (निचं तु त्ति)स साधुनिः प्रतिदिव-) समायान्ति, ते साम्भोगिका, असाम्नोगिकाश्च । तत्र चासा. सं गृह्यमाणो भक्ता? नित्यजेमनमेव तैः श्राद्धैर्गण्यते, ततश्च म्लोगिकेषु संविम्नेषु विधिरुच्यते-संविग्नवास्तव्यसाधुनिः,अनु. तदर्थमध्यवपूरकः प्रक्षिप्येत । एवं तावत्परिमितमाभित्योक्तम। झातेपूर्वखापनाकुलेचु, 'प्रविशत. वयमझातोचंगवेषयिष्यामः, प्रयापरिमितमधिकृत्याऽऽह
इत्येवमनुकायां प्रदत्तायामागन्तुकाः संविग्नाः स्थापनाकु. अपरिमियारदेण चि, दमएहमुबरइ एगभनहो। लेषु (अतिति त्ति) प्रविशन्ति । वास्तव्यास्तु स्थापनाकुलवबंजणसमितिमपिढे, वेसणमाईमु य तहेब ।।७०१॥ । जेषु गुरुवासवृक्षादीनामात्मनश्च हेतोभक्तपानमुत्पादयन्ति । पत्र पुनरपरिमितं राज्यते, तत्र दशानां मानुषाणामांगपिन.
अथवा वास्तव्या असहिष्णवः, ततो यावन्तो गच्गा, तावद्भिबाटाऽऽदिसाधाकानामपि हेतोः, राद्धपकस्य योग्यो भक्तार्थ।
जागैः स्थापनाकुलानि विरचयन्ति-मार्याः! एतावत्सु कुझेषुनव. उहरति । स ब दिने दिने कल्पत इति । प्राह च चर्णिकत
द्भिः प्रवेष्टव्यम, एतावत्सु पुनरस्माभिरिति । अथवा यद्या"अपरिमिए पुण भत्ते, दसरहारेण वि एगस्स जत्तको दिखे
गन्तुकाः (सहइति) सहिष्णवः समर्थशरीराः, ततोऽकातीदिणे कप्पा चेवा" तथा व्यञ्जनानि तीमनवटिकाभजिंकाऽऽदी
मंगवेषयन्तः पर्यटन्ति । परमेव च संयतीवर्गेऽपिष्टव्यम् । नि। (ममितिम ति) समिता कणिका, तथा निष्पन्नाः समिति
ता अपि सादिगमसद्भावे एवंविधमेवंविधं कुर्वन्तीत्यर्थः। माः-मएमकाः, पृपुलिका बा, पिष्ट मुहमेरकादि। सतुप्रभृति वा। एवं तु एणमनो-इआण संजोइमाण ते चेव । (वेसणं) मरिचजीरकहिगुमभृतिक कटुनाबमम । मादिन
जाणिचा निर्मषं, क्त्यन्मेषं स तु पमाणं ॥ ५ ॥ जागवणशुरख्यादिपरिग्रहः । पतषार्माप परिमाणं तथैव काव्यं, यथा अशनाऽऽदीनाम् । एतावता इन्बप्रमाणं गणना।
एवं, तुः पुनर, एवं पुनर्विधिरन्यसाम्भोगिकानामुक्तः ये तु कारितस्फोटितानीति गाथादलं भावितम् ।
साम्भोगिकापरस्परमेकसामाचारीकाः, तेषामागन्तुकानामांमथ " भद्धा यत्ति" पदंब्याचष्टे
यत एव वास्तव्याः स्थापनाकुलेन्यो भक्तपानमानीय प्रयप. सतिकालकं नाउँ, कुन कुले ताहि तत्थ पविसति।
न्ति । अथ श्राद्धाः प्राघूर्णकभका प्रतीच निर्बन्ध युः ।
पथा-प्राघूर्णकसंघाटकोऽप्यस्मगुडे प्रस्थापनीयः। ततो निर्वभोसकणा दोसा, अल) बालाहाणी य न्शा
न्ध कारवा, वास्तव्यसंघाटकेनाऽऽगन्तुकसंघाटकं गृहीत्वा तत्र सत्कालाका-भिकायाः संबन्धी यः, तत्र देशकालम्पोमातं
गन्तव्यम् । यदि च-तत्र प्रचुरप्रायोग्यं प्राध्यते,तत आगन्तुककात्वा, कुले कुले, तस्मिन् देशे,तत्रकाले.प्रविशन्ति । अथ देश
संघाटकेन गवेषणानकर्तव्या। यथा-किमित्येतायत्प्रचुरंदीयते।। काले प्रतिक्रान्तेऽप्राप्ते वा प्रविशन्ति, ततोऽवश्वकणाऽऽदयो
किंतु. (स तु)स एव वास्तव्यसंघाटकः, तत्र प्रमाणं यावन्मात्र दोशःमयावच्चाकणाऽऽदिकं तानि धारकान्यशुद्धदानदोषश्र-1
प्रहीतव्यम, यद्वा कल्पनीयं, तदेतत्सर्वमपि स एव जानानीति • "सो एगदिणं कप्पतिऽणेकतिर मोदरो हरा।" प्रावः । एष एकस्यां यसतो स्थिवानां विधिमकः । १.१ ति प्राचीनपुस्तकस्थान
१० माघ।
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(१६६२) ग्वणाकुल अन्निधानराजेन्पः।
ठवगाण्य भथ पृथम्वसतिव्यवस्थितानामाह
सन्नी स गृहस्वामी श्रावकः, स्वयं भुङ्क्ते, ततो वा गृह्यते, अन्यअस वसहीऍ वीसुं, रायणिए वसाह भोयणा गम्मा *।
दीयाद्वा कुतोऽपि गृहाद्यत्प्रहेणकाऽऽदिकमायातं तद् गृह्यते ।
अथ ' दवा एमेव त्ति' पदं व्याख्यानयन्तिअमहू अपरिणया वा, ताहे वीमुं सहू वियरे ॥७०६॥
असतीए व दवस्स व,परिसित्तियकंजिगुलदवाईणि । विस्तीर्णाया वसतेरसत्यभावे, विष्वक पृथग्, अन्यस्यां वसती
अत्तट्टियाइँ गिएह, सव्वालम्ने विमिस्साई ।।७०६।। स्थितानाम, आगन्तुको वास्तव्यो वा यो रत्नाधिक आचार्यः,तस्य वसतावागम्यावमरत्नाधिकेन भोजनं कर्तव्यम् । अथैक
यदि ग्लानस्य गच्छस्य वा योग्यं यं पानकं सविन्नभावितेस्मिन् गच्छे, योर्वा गच्चयोरसहिष्णवो ग्लाना भवेयुः, अ.
ध्वपि कुलेषु (परिसित्तियत्ति) येनोष्णोदकेन दधिभाजनानि ले. परिणता वा शैकाः-परस्परमिलिताः सन्तोऽसंखमं कुर्युः, तदा
प्यन्ते, तत् परिषिक्तपानकं काजिकमारनासम, गुलद्रवं नाम(वीसुंति) अपरिणतान पृथक् पृथग भोजयन्ति । (सहू विय
यस्यां केबल्लिकायां गुम उत्काल्यते, तस्यां यत्तप्तमतप्तं वा पानीयं
तद् गुडोपलिप्तं द्रवं गुरुवम् । आदिग्रहणाश्चिञ्चापानकाऽप्रदिपरेत्ति) अकारप्रश्लेषादसहिष्णूनां प्रथमालिका वितरन्ति प्र. यच्चन्नि, ततोऽपरिणतान् वसतो स्थापयित्वा कृतमालिकान् स.
रिग्रहः। एतानि पानकानि यदि तैः श्रासकैरात्माऽऽर्थितानि प्रहिष्णून गृहीत्वा, सर्वेऽपि रत्नाधिकवसतौ गत्वा मगमत्यां जुञ्जते ।
थममेवाऽऽ:मार्थ कृतानि, ग्लानाद्यर्थ गृह्णाति। (सवालम्भे त्ति) अथ बोत्तरार्धामन्यथा व्याख्यायते-(असहू इति) यद्य
यदि सर्वथैव ग्यानस्य वा गच्चस्य वा योग्यमेपणीयं न ल
ज्यते. तदा । विमिस्साह त्ति) विमिश्राणि असंविग्नानां धाव. यमरनाधिक प्राचार्यः स्वयमसहिष्णुर्न शक्नोति रत्नाधि
काणां चार्थायाचित्तीकृतानि, तान्यपि द्वितीयपदे गृह्यन्ते । काऽऽचार्यसन्निधौ गन्तुं, नवा तावन्ती वेबां प्रतिपालयितुं शक्तः, अपरिणता वा अगीतार्थास्तस्य शिष्याः, तेषां नास्ति कोऽपि अथ " असई दवाइ” इत्यत्र योऽयमादिशब्दः, तस्य सामाचार्या उपदेष्टा, आलोचनाया वा प्रतीच्छकः । ततो वि.
सफलतामुपदर्शयन्नाहस्त्रम्बसतौ द्वावयाचार्यों समुद्दिशतः ( स विअरे त्ति) प्रथया-यदि रत्नाधिकः सहिष्णुः, तत इतरस्यायमरत्नाधिक
पाणहाणपविट्ठो, विसुदमाहारलंदिओ गिएहे । स्योपाश्रयं गत्वा समुदिशति । एवं तावद योगच्चयोर्विधि- अच्छाणाइअसंथरे, जश्न एमेव जदमुफ ॥७६०॥ रुक्तः ।
पानकार्थ वा प्रविष्टो यदि विशुद्धेनैपणीयेनाऽहारेण गृहपअथ त्रयो गच्चा भवेयुः, ततः को विधिरिति ?, पाह
तिना छन्द्यते निमरूपते, ततश्चन्दितः सन् तमपि गृह्णाति । ततिएह एक्केण समं, भत्तटुं अप्पणो अवलं तु ।
था-(श्रद्धाणाइ त्ति) अध्वनिर्गतानां साधूनां हेतोः, भादिशपच्छाइयरेण समं, आगमण विरेगोसो चेव ॥७०७॥ दादवमौदर्याशिवाऽऽदिषु वा असंस्तरणे, असविग्नभावितकुयद्येक प्राचार्यो वास्तव्यो भवति, द्वौ चाऽगन्तुकौ, तत इत्य
खेषु, एवमेव म्यानोक्तविधिना शुझान्वेषणे, तित्वा यत्नं कृत्वा,तत्रयाणामाचार्याणां समनचे द्वयोरागन्तुकयोमध्याद यो रत्नाधि
तोयद शुरुमनेषणीयं, तदप्यागमोक्तनीत्या गृहन्ति । उक्त स्थवि. का, नस्य संबन्धी यो वैयावृस्यकरः, तेनैकेन समं वास्तव्याऽऽचार्य- रकल्पिकानधिकृत्य विहारद्वारम् । वृ० १ उ०।। वैयास्यकरः पर्यटन प्राघूर्णकाऽऽचार्यस्य हेतोभक्तार्थ परिपूर्णा
ग्वणाणतय-स्थापनानन्तक-न० । स्थापनानन्तकं यदक्कादा. हारमात्ररूपम,आत्मनश्चाऽऽत्मीयाऽचार्यार्थमाधमर्धमात्र,भा
वनन्तकमिति स्थाप्यते । तस्मिन्ननन्तकनेदे, स्था० १० ग। कुलच्यो गृह्णाति पश्चादितरेणाऽऽगन्तुकावमरत्नाधिकाऽऽचार्यसंबन्धिना वयावृस्य कृता समं पर्यटन तथैव तद्योग्यं नक्तार्थमा
(इदं च ' अणंतग' शब्दे प्रथमभागे २६० पृष्ठे अष्टव्यम) स्मनश्वार्धमात्रं गृह्णाति । (भागमणे विरेगों सो चेव त्ति) यदि वणाणय-स्थापनानय-पुं० । स्थापनाप्राधान्यमिच्छति नये, त्रिचनःप्रभृतीनामाचार्यागामागमनं भवति, ततः स एव वि- स्थापनानय आह-स्थापनेत्याकारः। तत:-"प्रमाणमिदमेवार्थरेको विभजनम् । किमुक्तं भवति ?-तदीयैरपि वैयावृत्त्यकरः स्याऽऽकारमयतांप्रति। नामाऽऽदिन विनाऽऽकारं, यतः केनापि समं यथाक्रमं पर्यटना वास्तव्यसाधुना आत्मीयाऽऽचार्यार्थ बद्यते॥१॥तथाहिन्नाम्नोऽान्तरऽपि वर्तयितुं शक्यत्वाद् न ततथा व्यादिनि गर्नताथै चिनज्य भक्तं प्रहतिव्यं, यथा सा- दुवेखेऽप्याकारावनासमन्तरेण नियतनीलाऽऽद्यर्थग्रहणमित्यानिमयावृत्यकरण समं पर्यटनास्मगुरूणां नक्तार्य परिपूर- कारग्रहण एव ग्रहात् सर्वस्य सिद्धमाकारमयत्वम्, ततो ज्ञानयतीति।
झेयानिधानानिधेयाऽऽदिसकसमाकाराऽऽरोपितमेव संव्यवहाअथ "गिलाणमाई अमति ति" पदं विवृणोति- रावतारि, तद्विकलस्य खपुष्पस्येवासत्वात् । उत्त०१अः। अनरंतस्स न जोगा-मई इयरहि भाविप्रोचसिन ।
आगारो चिय मइस-द्दवत्थुकिरियाफलानिहाणाई। अन्नपहाण मुवावम, ज वा सन्नी सयं मुंजे ॥८॥ प्रागारमयं सव्वं, जमणागारं तयं नस्थि ॥६॥ अरनो ग्लानः,नम्य, उपलकणत्याद्-प्राचार्यम्यापि, यद्योम्यं प्रा.
प्राकार एव श्राकारमात्ररूपाएयेव, कानि?, इत्याह-मतिश्च योग्य,तस्थामत्यत्राभे,नरे नाम अमंविनाः,भांवितेपुधारकुलेपु, प्रांवइय, यस्मिन्महानसे तेऽमीयांना अध्ययपूरकाऽऽदिदोषदुष्यं
शब्दश्चेत्यादिद्वन्द्वः । तत्र मनिस्तावझेयाऽऽकारग्रहणपरिणत-- मिकां गृहने, नजयिचा, यदन्यस्मिन्महानसे केवलं गृहार्थ
त्वादाकारवती । तदनाकारवत्त्वे तु-" नीलस्येदं संबेदनं नमेवोपम्हतं, नतो ग्लानाऽऽद्यर्थ गृह्यते । यद्वा नक्तं पृथगुपकृतं,
पीताऽऽदेः,' उनि नयत्यं न स्यात. नियामकाभावात् । नीलाऽऽ
द्याकारो हि नियामकः, यदा च स नेष्यते, तदा 'नीलग्राहिण) * गर्नु, इति प्राचीन पुस्तक पाठः।
मति पीताऽऽदिग्राहिणी" इति कमब्यवस्थाप्येत, विशेषाना.
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ठवणाणय
वात, तस्मादाकारवत्येव मतिरज्युपगन्तव्या । शब्दोऽपि पोलिकावादाकारणानेव घटाऽऽदिकं तु वसवाकारवत्वेन प्रत्यक्षसिरूमेव । क्रिपा ऽप्युत्क्षेपणाव केपणाऽऽदिका क्रियावतो अनन्यत्वादाकारवत्येव फलमपि कुम्भकाराऽऽदिक्रियासाध्यं घटाकिं त्वाऽऽदिवस्पययरूपत्वादाकारवदेव अ भिधानमपि शब्दः स च पौद्गलिकत्वादाकारवानित्युक्तमेव । तस्माद् यदस्ति तत्सर्वमाकारमयमेव । यवनाकारं तनास्त्येव बन्ध्यापुत्राऽऽदिरूपत्वात्तस्येति गाथाऽर्थः ॥ ६४ ॥ अथ प्रयोगद्वारेणानाकारं वस्तु निशचिकीर्षुराहन परामपं व आगाराजाओ खपुष्फे व उपसंव्यवहारा भाषाओ नागरं च ।। ६५ ।। परस्याऽऽकारचद्वस्तु निषेधकस्य अनुमतं सामयी यदनाकार वस्तु, तन्नास्ति, आकाराभावात् खपुष्पवत् । अपरमपि हेतुद्वयमाह -" उवलंभ" इत्यादि । (नाणगारमिति ) नासत्यनाकारं वस्तु सर्वचैवानुपश्यमाना सेनानीवतोऽपि व्यवहारस्याभावाच इति पर्यन्तवतीं चकारोऽत्र योजनीया पुष्पवदिति रातो देवेऽपि स पवेति गाथाऽर्थः । ॥ ६५ ॥ विशे० ।
( १६६३) अभिधानराजेन्द्रः ।
ठपणापुरिस स्थापनापुरुष पुं० पुरुषप्रतिमादौ ०३ ०१० काऽऽदिनिर्मिते जिनप्रतिमाऽऽदिक सूत्र०१ भु० ४ अ० १ उ० ।
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ठाण
दमिति । तथाविधं मुद्राविन्यासमुपलभ्य मृतिकाऽऽदिषु मा पोऽयं कार्षापणोऽयमिति । प्रका० ११ पद । ध० । ववदि-स्थापनेन्द्र- पुं० । इन्द्राऽऽकार लक्किते, स्था०३ ठा० १ उ० । (व्याख्या चास्य 'इंद' शब्दे द्वितीयजागे ५३३ पृष्ठे गता) ठविमा - बी० । देशी प्रतिमायाम, दे० ना० ४ वर्ग । वित्ता-स्थापयित्वा अन्य०। प्ररूप्येत्यर्थे, उम्र० १० उप स्थापित संयतार्थ स्वस्थाने परस्थाने या स्था पिते स्थापनादोष, ६००३० "सिंकमा च होज चलाचलम् । ” (६५ गाथा) दश०५ ०१ ८० । स्थापितं द्विविधम-चिरस्थापि
मासलघु । वृ० १ ३० । ऊर्ध्वे, निकटे, हिकायां च । दे० ना०४ वर्ग ।
उवणायरिंग स्थापनाऽऽचार्य पुं० । श्रत्रकाऽऽदिषु स्थापिते आचार्य, ( ध० ) श्रावकस्य स्थापनाऽऽचार्यविचारःननु " गुरुविरहम्मिन उवणा, गुरूवरसोवदंसणत्थं च । जिणविरहमिव जिगविणामंतणं सहलं ॥१॥" इत्यादिविडा शेषाऽवश्यकचचनप्रामाण्याद्यतिमामायिक प्रस्तावे दन्त शब्दं व्याख्यानयतां भाष्यकृता साधुमाश्रित्य स्थापनाऽऽचार्य. स्थापनमुकं न ांकमा त्यति कुलस्तेषां स्थापनाऽधिकार इति चेत् ? न | भदन्त शब्दं भणतां तेषां स्थापनाssवार्य स्थापन युक्तमेव । अन्यथा भदन्तशब्द पठनं व्यर्थमेव स्यात् । अथ व स्थापनाचार्यस्थापनमन्तरेणापि बन्दनाऽऽद्यनुष्ठानं विधी बते, तदा इनकनीयप्यमाणमतो, उदिसि होइ चउद्दिसिं उग्गहो गुरुणो । " इत्यक्करैर्गुरोरवग्रहप्रमाणमुक्तम, तत्कथं घ तेन दावे गुरुगनाथमा घटस्था ग्रामानावे तरमीमध्यस्थात् ०२ अधि० त्रयोदशनिः प्रतिलेखनाभिःस्थापनाचार्यस्य प्रतिलेखना पडलेगा।' शब्दे वक्ष्यते ) वणवीर-स्थापनावीर पुं० । वीरवर्कमान स्वामिस्थापनावत् सुनटस्य स्थापनायाम, सू० प्र० २० पाहु० । वासच्च-स्थापनासत्य - न० । स्थाप्यत इति स्थापना, यल्लेव्यादिकमोदेदादिविकल्पेन स्याप्यते तद्विषये सत्यं स्थापना सत्यम् । यथा-अजिनोऽपि जिनोऽनाचार्योऽप्याचार्योऽयमिति ।
१० वा० ॥ जिनप्रतिमादिषु जिना 55 दिव्यपदेशे प्रश्न० २ संब० द्वार । स्थापना सत्या यथाविधमङ्काऽऽदिविन्यासं मुद्राविवास योपलम्य प्रयुज्यते यथा-एक तो बिन्दु सहितमुपलभ्य शतमिदमिति, बिन्दुत्रगसहितं सहस्रमि
४२४
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ठत्रियगजोइ (ण्) -स्थापनकभोजिन् त्रि० । स्थापनादोषदुष्टप्राभृतकनोजिनि, व्य १ उ० ।
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उरिया स्थापिता स्त्री० आरोपणाने (स्था० ) पायविमानस्तस्य स्थापितं कृतं पादवितुमारव्यमित्यर्थः ।
यादिवैयावृत्यकरणार्थम त बोति वैयावृत्य कर्तुमवैयावृत्यसमाप्ती तु करिष्यतीति स्थापित इति। स्था० ५ ० २ ० ।" मासाऽऽदी निक्खिसं, जं सेसं दिज"० ०१ ४० यदि पुनग्माखमित देवावृपमानां करोतीति स्था
स्थापिते यदन्यत् शेषमुद्धातमनुद्घातं बाऽऽपद्यते, तत्सर्वमपि प्रमादनिवारणार्थमनुद्घातं दीयते सा 'हाऊदमा' धारोपणा । व्य० १ ० ।
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स्थाा गतिनिवृत्ती, "स्थापक चिट्ठरिया" ॥ । ४ । १६ ॥ इतिठादेश 'डाई' ०४ "आता गडा" मि००१० ठाउँ–स्यातुम्-अव्य०। ‘ष्ठा' गतिनिवृ सौ इत्यस्य तुमुन्प्रत्ययान्तस्य भवति । अवस्थायेत्यर्थे, भाव० ५ प्र० ।" इच्छामि वा कालसभां । " आव० ५ ० ।
गऊण-स्थिवा अन्य अवस्थायेत्यर्थे पञ्चा० १८ विष० ।
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ठाग - स्ताय न० | झवकाशे, वृ० ३ ० । ठाण-स्थान-१० । ' स्था' नावाऽऽदौ ल्युट् । “ स्पाथक दुनिया: " ४ १६ ॥ इतिष्ठादेशः प्रा०४ पाद | अवस्थितिविशेषे, श्राव० ५ श्र० एकत्रैव (दश०४ अ० ) उपवेशने, दशा० ३ श्र० । निषद्यायाम्, स्था० १० वा० । निषदनस्थाने, स्वम्वर्तनस्थाने, भ० १४ श०८ उ० । पादन्यासविशेषे भ० g श० ० उ० । श्रवस्थाने, प्रब० ११२ द्वार । श्रासने, झा० १ ० १ ० । गमनाडुपरम्य निवेशं कृया कवितप्रदेशेषु स्थाने ०१० स्थित १० ५० १४०० कुव्यादिषु स्थाने, नि० ० १ उ० । माने, दे० ना० 8 वर्ग ।
जे भिक्खू अंतरहिया पुढची ठाणं वा सेवा निसीदियं वा यतं वा साइनइ ॥ १ ॥ जे शिकवू
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गण
सरवखाए पदवी वा वा सेवा हिसीहिये वा चेएइ, चेयंतं वा साइज्जइ || २ || जे भिक्खू ससणिकापुढवी ठाणं वा सेवा मीहिये या चेए, चेयं वा ॥ ३ ॥ जे जिक्खू वित्तमंता सिलाए चित्तमंताए बेलुए कोलावासंसि वा दारुए जात्र पट्टिए सांडे सपाणे सर्वाए समस्से सटचिंगपण गदगमट्टियमकमय संतारायंसि वाणं वा सेज्जं वा पिसीहियं वा चेएर, चेयं वा साइज ॥४॥
सविसरले कोडे सास उस्सं वर्त्तिगणगढ़ गमट्टिय मक्क मग संकमणं, पते सुतपदा । इमं वक्खाणं गादापुत्रीमादी ठाणा, जत्तियमित्ता उग्राहिया मुते । तेलीणी वाऽऽदिणो दोस्रो ॥ २ ॥
( १६६४ ) अभिधानराजेन्द्रः |
काउस, आकर णं श्रनरहिया णाम सविता तमि सङ्काणे चिडल
श्रहवा । गाहा
अंतररदिनार सिंह होति सससिका । अंतरविभिन्ना फा-सुगाव पुरवीतु ससरक्खा ॥ २ ॥ चामेण रहिता निरंतरामेवापुढ वीण रहिता अधिकार
सं
अंत
या विहिराया रहिया अतरहिता, सर्वा सचेतना, न मिश्रा इत्यर्थः । ईसि उला मणिद्धा. सेयं पुढवी अवित्ता, सबितेज आरक्षण विभिष्ठा तसरक्खा
गाहा
चित्तं जीवो जणितो, तेणं सह संगया तु होति मच्चित्ता । पासासादा, सेलू पुरा महिया ले ॥ ४ ॥
पण मासिला सचितो या बेलू बेदु ।
गाडा
कोला न घुणा तेसिं, आत्राम तप्पतिधियं दारुं ।
मातु मुगादी, पाणग्गने नमः चहरो ॥ ५ ॥ विनयं तु परूडं तदेव रूढं तु होति हरिताऽऽदी । कीगो र निरंकुरो गो || ६ ॥
कोला
घुगा, तेमि श्रावासदारुप वा जांचपतिहिए साणे दारुवनाि बीयं तं कुरुविन हरिन, कीमभणगरगो-बलिंगो, परूपंचा गागागा गमडिया विज्ञो सो मांसया ।
गाहा
मनपुण, लूनानो अदितो जाव संतोष विपक्षिकादीणि तेर्मि ॥ ७ ॥
उ,
कमियं यस्माक्षे संक्रमणं भवति । अहवा सेवागं संकमणं पिपीलियमक्को
गण
गादी जाति | गणं उच्ठाणं, सेजा असणं, निसीहिका सहायकरणं । एएसि चेयणं करणं, वासंताणं, पच्चित्तं, आणादियां य दोसा, आए संजमे य दोसा जहासंभवं जाणियां। पुढवादिदिया संघट्टयादिकरणे चेपणोवमा हमा
गाड़ा
पेनमा अकते, पणे मुझे व जारिखं दुक्खं ।
एमेव य अन्वत्ता, वियणा एगिंदियाणं तु ॥ ए ॥
जहा रस्स जराए जिम्सस्स वरिससतायुस्स तरुणेण बलवता जमलपाणिना सव्वायामेण श्रकंतस्स जारिसा वेयणा, तारिसा पुढवाईपास अधिकतरा उणादिट्टिय
भवति । बेयणा य जीवस्स नवति, णोऽज बस्स, ते य जीवलिगादिसु अव्वता जहा मते सुते वा अव्वतं सुदुक्खलिंगं, एवं पगिदिए वि अवता येणा दवा, लिंगं च । किं च- एगिदियाण उपयोगपसाढगा इमे दिना । गाहाजोयणे वा खितिए वा, जहा ऐहो तडित ।
पाप नेकलेस, कारें जे अपथल || ए || जहरु नोमानणारिश्ण सरोरोवचयो भवति, ख य अव्यसणम्रो लक्खति । साटो सुमो सो बि समस दिस्सति, ओ पुढबीए तनुहिनो अस्पः ततो तेण प्राबल्य नेहक हत्थादिसरीरमंखणं कर्तुमशक्यम् । अस्स दिट्ठतस्स उबसंघारो । गाहाकोहातिया परीणामा, तहा रगिंदित्राण तु । पात्रले तेसु कज्जेसु, कारेंतु जे पवनं ।। १० । पर्मिदिया कोहादिया परिणामा, सागरिया उपयोगा सहा सादिया पण ते सम्ये भाषा सुभरुणयो अणतिलयस्स अतुगलक्खा । जहा मी पञ्जा कोहदया उक्को संति, विनिभिगुडि वा करेंति, तेसु ने अतिकज्जेसु तदा प्राबल्येन गिड़िया अपचला, असमर्थ इत्यर्थः। जम्दा पुढवीकाया विधवेदणमषु भवति, तम्हा तेसु गणादियं काव्यं ।
अववादतो वा करेज्ज । गाहावाकयमिवो, गेलम्मा संभ्रमेगतरे ।
साघारण य असती जपणा व जा जत्य ॥ ११॥ बोलायो पाओस परपयोग अनुकंपपडि यत्तणेण वा अणंतर हियाचा मेसु ग्वेज्जेज्जा, सिगढ़िया सहिमलभता रुक्खादिदेहेसु वायंति, बेज्जडा, श्रोसहका या गिलाणी जया जिस पडले गरज, श्रद्धापडिया या ठायेति श्रगणिमादिसंभवे वा सद्विणिग्गता वायंति, वसहिवाघाए वा ठायंति, सव्वहा या समिति अनंतरहितादिरिला जा जत्थ जयणा संभवति पर्मिले हणपप्रज्जणा दिणा वा, सा सध्या विकायच्या ॥
सुतंजे भिक्खु पुर्णसिपालु काममा
चेयंतं वा साइज्जइ ॥ ५ ॥
वा प्रोकासिमा सिज्जं या हिसीहिया चेह
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बदाणपीटा
गाहा
गण अभिधानराजेन्डः।
ठामा गाहा
पत्रमंतो कायवहे, आउवधाओ य जाणनेदादी। यूणाऽऽदी ठाणा खल, जत्तियमेत्ता उ आहिया मुत्ते।। तस्सव पुणो करणे, अहिंगरणं अस्पकरणे वा ॥ १९॥ तेसि ठाणादाणी, चेतेताऽऽणादिणो दोसा ॥१२॥
गतार्या । णवरं (णिहनाणिहयत्ति)णिक्खयमणिक्वयं का। थूणा वेली, मिहेबुको उंबरो, उसुकालं उक्वलं, कामजनं तारिसे सदोसे गणाई करेतस्स इमे दोसा
ततो गमंतो छएर कायाणं विराहणं करज, अप्पणो
वा से हत्थपादादिविराहणा हवेज्जा । भाणादि वा पूणा उ होति वियली, गिहेबुश्री नंबरो उ नायचो ।
उपकरण जातं विराधज्जा । तस्स य घृणादियस्स पामियरस उद्धखलं सुकालं, सिणाणपीदं तु कामजलं ॥ १३ ॥ रज्जुयास्स वा बोडितस्स या वि संघातियस्स पुणो करणे गतार्था । णवर-सिणाण मज्जणा दो वि एगट्ठा ।
आएणस्स चा अरिणवस्स करणे, मधिकरणं प्रवति । परिवितियपदं । गाहा
सिपकरणे प्राणादिया दोसा, चउलहुं च से पनि । वोसिडकाएँ असिवे, गेलऽद्धाणसंभमेगतरे ।
बोसिहकाएँ असिवे, गेलऽदाण संजमेगतरे । सहीवापारण य, असती जयणाय जा नणिया ॥२॥ वसहीवाघाएण य, असतो जयणा यजा मत्य ॥२०॥ पूर्ववत् ।
पूर्ववत् । नि००१३ २० । स्वरूपमाप्ती, सम्म० ३ काएर । जे भिक्खू कुन्नियंसि वासिलसि बा लेलुयंसि वा अंत- ऊर्थस्थाने. व्य.४३.कायोत्सर्ग, पृ.१३० । नि० चू०। रिक्खजायंसिवा गणं वा सेज वा मिसीहियं वा चेए, भोघ०। पं.भा.प्राचा० स्था०। प्राव० सत्र। चेयं वा साइज्जइ ।। ६ ।।
पञ्च स्थानानि मुक्त्वा निग्रन्थनिग्रंन्यौनिकर कायो। कुलियं कुई, तं जतो णिश्चमबतरति, स्वरा सह करजएण
रसों न कार्य:जित्ती, नईण पातमी नित्ती, सिमा लेट्ठू पुजुत्ता पढमसुसे पंच ठाणोडिं निग्गंधा य. निग्गंधीओ य एगयो ठालियमा सचिचा इह भणिज्जा । शेश्वं पूर्ववत ।
थं वा सेज्ज वा निसीरियं वा चेएमाणा हाइकमंति । वं गाहाकुलियादी गणा खल, जत्तियमेत्ता उपाहिया मुत्ते ।।
जहा-अत्थेगड्या निर्णया य निग्गंधीओ य एनं मई आतेसु हाणादीणी, चेतेता आणमादीणि ॥ १५ ॥
गामियं चित्रावायं दीहमदममत्रिमणुपविहा, तत्येगयाओ पूर्ववत्।
वाणं वा सेज वा निसीहियं का चेएमाणा णाकति ?। बोसिट्टकाएँ असिवे, गेनाऽघाणसंभमेगतरे । अत्येगइया पिग्गंथा य शिगंधी भो य गामंसि वा नगरंमि वसहीवाघारण य,असती जयणा यजा जणिया।१६।
वाजाव रायहाणिं वा वासं उगया एगइया नस्य उबस्स. पूर्वयत् ।
यं लभंति, एगइया णो लनंति, तत्येगयाओगणं बा० सुतंजे भिक्खू खंधसि वा फलिहंसि वा अकुइंसि वा गिह
जाब पाइकमंति २। अत्येगइया य शिगंया य णिग्गंधीओ मालसि वा मुबंधे सुनिक्खित्ते चलचले गणं वा सेजं वा य एागकुमारावासंसि वा सुवनकुमारावासंसि वा वास निमीहियं वा चेए चेयंतं वा साइजा ।।७॥
उकगया, तत्येगयाोगणं वा० जाब पाइकमंति३ । (जेभिक्खू संधंसिया इत्यादि) खंध पागारो, पेटं घा, फलिहो
आमोसगा दीसंति इच्छंति णिग्गयीओ चीवरपडियाए भग्गना,अहो मंचो। सो य मंडयो।गिहोवरि मालोदुभूमिगा- पनिगाहेत्तए, तत्येगयाभो ठाणं वाजाव बाइकमंति हा दीणि । जहा गयक्रोबसोभितो पासादो सब्योधरि दाता जं जुवाणा दीसंति ते इच्छति णिग्गंथीमो मेहुणवमियाए पदम्मितलं भूमितलं तरं वा हम्मतलं । एस सुत्तत्यो। माणिज्जुत्ती। खंधादिगाहा
डिगाहेचप, तत्येगयाोगणं वा० जाव णायकमंति ५। खंधो खबु पायारो, पेटं फलिहा तु अग्गमा होति ।
इच्चेहिं पंचाहि मोहिं० जाव हाइक्कमति । अहवा खंधो न घरो, मंचो अड्डों गिहमाझो॥१७॥
"पंच" इत्यादि सुगमम् । नबरम (गयाोति) एकत्र अहया खंधो घरो, गृहे घटकदारुसंघातो, स्कन्ध इत्यर्थः ।
(ठाणं ति)कायोत्सर्गः, उपवेशनं वा । (सेज (स) शयनम् । मुबंधे लि। बंधो ऽविधो-रज्जुब चो,कहादितु वेहबंधो वा। तेणं
(निसाहिय त्ति) स्वाध्यायस्थानं, चेतयन्तः कुर्यन्तो नातिसुबद्धं दुव.णिक्वित्तं ति-णिहित,स्थापितमित्यर्थः। तेण सु.
कामन्ति-न लङयन्ति, आशामिति गम्यते। (अस्थि त्ति) सन्ति शिक्वित्त केति नियुमिरिक्वतंति पालावगो, तं अपमिले
भवन्ति, (एमय ति) एके कंचन, एकामद्वितीयां, महहियं उपडिलोहियं या, निष्पकंपं अनिष्पकंप, अनिष्पकम्पि
ती विपुलामग्रामिकामकामिकां वा अनभिलपणीयां छिन्नाम, त्वादेव चलाचलं चलनाचलनस्वनावं, तादृशे स्थानाऽऽदिन
श्रापाता सार्थगोकुत्राऽऽदीनां यस्यां सा तथा, तामादोऽश्वा कर्तव्यम
मार्गों यस्यां सा तथा, तांदाघीवाम् । मकारस्त्वागमिकः । दधिों
SET वा काला निस्तरणे यस्यां सा दीर्घाका,तामटवीं कान्तारज्जुबेहो बंधो, पिहयाणिहतं तु होति निक्खवणं ।।
रम,अनुप्रविष्टा सुर्भिकाऽदिकारणवशात् तबाटव्याम (एअनिरिक्ख अपहिलेदा, चलाचलमणिप्पर्क तु॥१७॥ गयोति) एकता, एकत्रेत्यर्थः । स्थानाऽऽदि कुवन्त बाग
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(१९६६) गण भन्निधानराजेन्छः।
गण मोक्तसामाचारी नातिकामन्ति तथा राजधानी-यत्र राजा:- स्मा, पञ्चेन्जियतियम्मनुजानां सप्लाष्टी वा, भवस्थितिस्तु वाभिषिच्यते, वासमुपगताः, निवासं प्राप्ता इत्यर्थः। (एगाया य यूदकवनस्पतिपृथिवीनां त्रिसप्तदशद्वाविंशतिवर्षसहस्राऽऽत्मित्ति)एकका एकतरा,निर्ग्रन्धा निर्ग्रन्थिका वाचः पुनरर्थः । अत्र
का,तेजसस्त्रीएयहोरात्राणि, द्वीन्द्रियाणां शहनाऽऽदीनां द्वादश प्रामाऽऽदौ उपाभयं गृहपतिगृहाऽऽदिकमिति ।। तथा (प्रत्ये.
वर्षाणि, त्रीन्जियाणां पिपीलिकानामेकोनपञ्चाशदहोरात्राणि, त्ति) अथ गृहपतिमृदाऽऽदिकमुपाश्रयमनस्या। (एमइया) पके फेचन मागकुमारावासादौ वासमुपगता अथवा(अस्थेसि)
चतुरिन्द्रियाणां नमरादीनां परमासाः, पञ्चेन्द्रियतिर्यग्मनु
घ्याणां त्रीणि पव्योपमानि, रेवानां नारकाऽऽदीनां च कायस्थिमह संबध्यते, अस्ति सन्ति भवन्ति , निवासमुपगता, तस्य च ना.
तेभीवाद भस्थितिः त्रयस्त्रिंशत्सागरापमाणीति । श्यमुगकुमारावासाऽऽरतिशून्यत्वात् । अथवा बहजनाऽऽश्रयत्वाद. नायकत्वाच निर्ग्रन्थिकारवार्थमेकत पर स्थानाऽऽदि कुर्वाणा ना
कृश । जघन्या तु सर्वेषामन्तर्मुहर्ताऽऽत्मिका, नवरं देव
नारकयोर्दशवर्षसहस्राणीति । अथवा अकास्थानं समयावनितिक्रामन्तीति ३॥ तथा प्रामुष्णन्तीत्यामोपकाचौराः, श्यन्ते च मच्छन्ति निग्रंथिकाः (चीवरवमियाए नि)चीचरप्रतिझया
कामहर्ताहोरात्रपक्वमासर्वयनसंवत्सरयुगपव्योपमसागरोपमो
त्सपियवसर्पिणी पद्लपरावर्तातीतानागतसर्वकारूपमिति । वस्त्राणि गृहीष्याम इजिप्रायेण, प्रतिग्रहीतुं यति गम्यते । तत्र निर्ग्रन्यास्तककणार्थ मेकतः स्थानादिकमिति ४ । तथा मै
कार्यस्थानं तु-कायोत्सर्गाऽऽदिकम् अस्योपलक्षणत्वानिषद्याssपुनप्रतिज्ञया-मैपुनार्थमिति ५। इदमपवादसूत्रम्। उत्सर्गश्चाप
द्यपि गृह्यते,उपरतिविरतिः.तत्स्थानं-देशे सर्वत्र च श्रावकसाधुवादसहितो नायगाथाजिरवसेयः।
विषयम् । वसतिस्थान-यो यत्र प्रामगृहाऽऽदौ वसति। संयमस्था
नं-संयमः सामायिकच्छेदोपस्थापनीयपरिहारविशुद्धिसदमताशेमा:---
संपराये यथाख्यातरूपः, तस्य पञ्चविधस्याप्यसवयेयानि सं"जयणपयाण चनपहं, अस्पतरजुए उ संजए संते। यमस्थानानि । किं तदसंख्यम?, इति चेत्, अतीन्छियत्वादजे निक्खू विहरेजा, अह वा वि करिज सम्झाय" ॥१॥
थस्य न साक्षानिर्देष्टुं शक्यते । आगमानुसारोपमया तूच्यते(एका साधुरेका स्त्रीत्यादिभङ्गकानामित्यर्थः)।
हैकसमयत्वेन सूक्ष्माग्निजीचा असंख्येयलोकाऽकाशप्रदेशप्र. "असणादि वा हारी, उच्चारादि चावरिजाहि । माणा उत्पद्यन्ते, तेभ्योऽग्निकायत्वेन परिणता असंख्येयगुणाः, निट्टरमसाधुजन्तं, मणेतरकहं च जो कहए ॥२॥" ततोऽप्यनुभागबन्धाभ्यवसायस्थानान्यसंख्येयगुणाः, ततोऽ(स्त्रीभिः सहेति)
प्यनुभागवन्धाभ्यवसायस्थानान्यसंख्येयगुणानि संयमस्थाना
न्यप्येतावन्त्येवेति सामान्यतः । विशेषतस्तूच्यते सामायिक" सो प्राणा प्रणवत्य, मिच्छत्सविराहणं तदा दुविदं ।
दोपस्थापनीयपरिहारविशुझीनां प्रत्येकमसंख्येयनोकाऽऽका. पावर जम्हा. तेणं, एए उ पप वि वजेजा ॥३॥"
शतुल्यानि संयमस्थानानि सुक्ष्मसंपरायस्यान्तौतिक"वीयपयमणपज्झ गवन्नुवसमारोहगहाणे।
त्वादन्तर्मुहर्त समयतुल्यान्यसंख्येयानि संयमस्थानानि, यसंजमभयवासासु य, खंतियमाईण णिक्वमणे ॥४॥"त्ति ।। (अपवादोऽनात्मवश इत्यर्थः) स्था० ५ ग. २ उ०।
थाख्यातस्य वेकमेवाजघन्योत्कृष्ट संयमस्थानम । अथवा
संयमश्रेण्यन्तर्गतानि संयमस्थानानि ग्राह्याणि, सा चानेन परमारवादीनां स्थिति परिणामे, विशे०। स्थीयते अनेनेति स्थानम् । कायोत्सर्गपर्यनुबन्धपद्मासनाऽऽदिसकसशास्त्र
क्रमेण भवति । तद्यथा-अनन्तचारित्रपर्यायनिष्पादितमेकं सिके आसनविशेष, षो० १२ विव० । प्रकारे, स्था.
संयमस्थानमसंख्येयसंयमस्थाननिर्वत्तितं कएमकं, तैश्वास.
ख्येयैर्जनितं षट्स्थानक, तदसंख्येयाऽऽत्मिका श्रेणीति । प्रम१० नग०। दे, प्रा. चू०४०।स। स्था० । पदे, स्था० १० वा० सत्कर्षापकर्षरूपे (उत्त० ३४ १०) गुणविशेष,
हस्थानं तु-प्रकर्षण गृह्यन्ते वाचोऽस्येति प्रग्रहः, ग्राह्यवाक्यो
नायक इत्यर्थः । स च लौकिको, लोकोत्तरश्च । तस्य स्थान स्था०५ग०३०। भाकारे, ओघ । पर्याये, आव०४०। कारण, स्था०२ मा०४ उ०।०। नपादानकारणे, सुत्र०१०
प्रग्रहस्थानम् । लौकिकतावत्पञ्चविधम् । तद्यथा-राजा, युवराजो, १०२ उ०। प्राचा० निमित्ते, स०२६ सम० । तिष्ठन्त्य
महत्तरः, अमात्यः, कुमारश्चति । सोकोत्तरमपि पञ्चविधम् ।तस्मिन्निति स्थानम् । सामान्ये, भ०१श०१२ । प्राचा० ।
द्यथा-प्राचार्योपाध्यायप्रवृत्तिस्थविरगणावच्छेदिभेदात् । योव्य० । वस्तुनि, स्था० ९० । ज्योतिःस्थाने, यन्त्रस्थाने
धस्थानं पञ्चधा । तद्यथा-लीदप्रत्यालीढवैशाखमरामबसच । नि०१ श्रु०३ वर्ग ३ अामाश्रये, सूत्र० १ ० ११
मपादजेदात् । अचलस्थानं तु-चतुर्दा, सादिसपर्यवसानभे
दात् । तद्यया-सादिसपर्यवसानं परमारवादेव्यस्यैकप्रदेशाऽऽअ० स्था0 1 श्राव० । आवासे, उत्त०५०।
दाववस्थानं जघन्यत एकं समयम, उत्कृष्टतथासंख्येयकालस्थानस्य पञ्चदशधा निकेपमाह
मिति। सायपर्यवसानानां सिद्धानां प्रविष्यदकारूपम; अनादिनाम बणा दविए, खेत्तका उस जबरई वसही। सपर्यवसानमतीताकारूपस्य शैलेश्यवस्थाऽन्त्यसमये कामसंजम पग्गह जोधे, अचन्न गणण संधणा भावे ॥७३॥
णतैजसशरीरभव्यत्वानां चेति । अनाद्यपर्यवसानं धर्माध. तत्र द्रव्यस्थानं इशरीरजन्यशरीरव्यतिरिक्त. द्रव्याणां सचि.
म्माऽऽकाशानामिति । गणनास्थानम-एकद्यादिकं शीर्षप्रशिचाचितमिश्राणां स्थानमाश्रयः। क्षेत्रस्थान-जरताऽऽदि, ऊर्जा
कापर्यन्तम । सन्धानस्थानं द्विधा-द्रव्यतो, भावतश्च । पुनरभस्तियश्लोकाऽऽदि चेति, पत्र के स्थानं व्यास्यायते । महा
णेकै द्विधा, चिन्नाच्चित्रभेदात् । तत्र व्यच्छिन्नसन्धान कामस्तस्थान-द्विधा,कास्थिति-भमस्थितिनेदात । तत्रका- कञ्चुकाऽऽदे। मच्चिन्नसन्धानं तु पदमोत्पद्यमानतन्वादेरिति । यस्थितिः पृथिव्यप्तेजोवायूनामसंख्येया उत्सपिण्यवसर्पिण्यः। नावस्थानमपि-प्रशस्ताप्रशस्तनदाद द्वधा । तत्र प्रशबनस्पतेस्तु ता पवानन्ताः, विकलेन्द्रियाणामसंश्येया वर्षसह- स्ताभिचनावसम्धानमुपशमक्षपकपयामारोढतो जन्तो
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(१६६७) गण अनिधानराजेन्द्रः।
गण रपूर्वसंयमस्थानान्यच्छिन्नान्येव भवन्ति। श्रेणिव्यतिरेकेण अमंखेजभागे, ममुग्याएणं सोयरस असंखेज्जनागे, या प्रवर्कमानकपडकस्येति । छिन्नप्रशस्तभावसन्धानं पुनरौ
सहाणणं लोयस्स असंखेज्जइभागे। पशमिकाऽऽदिनाबादौदयिकाऽऽदिनावान्तरगतस्य पुनरपि शुरूपरिणामवतस्तत्रैव गमनम् । अप्रास्ताछिन्नभावस. 'कहि णं भंते!' इत्यादि । ( कहि त्ति) कस्मिन्, 'ण' शब्द। न्धानमुपशमश्रेण्यां प्रतिपततोऽविशुद्धयमानपरिणा- वाक्याबारे । जदन्तेति परमगुवा मन्त्रणाम । बादरपृथिवीमस्थानन्तानुवन्धिमिथ्यात्वोदयं यावत्, उपशमश्रेणिमन्त- कायिकानां पर्याप्तानां स्थानानि स्वस्थानाऽऽदीनि प्राप्तानि प्रकपि. रेणापि कपायवशाबन्धाध्यवसायस्थानान्युत्तरोत्तराण्यव- तानि ?। एवं गौतमस्वामिना प्रश्ने कृते भगवान् वर्षमानस्वाम्याहगाहमानस्य वा इति । अप्रशस्तच्छिन्नसन्धानं पुनरोदय- गौतम ! "सहाणेणं" इत्यादि । ननु गौतमोऽपि जगवानुपाचकभावादीपरामिकाऽऽदिभावान्तरसंक्रान्ती सत्यां पुनस्तत्रैव तकुशलमूलो गणधरः तीर्थकरजाषितमातृकापदश्रवणमात्रागमन मिति । इह द्वारद्वय योगपद्येन व्याख्यातम् । तत्र सन्धा- चाप्तप्रकृपश्रुतकानावरणकयोपशमश्चतुर्दशपूर्ववित् सर्वावरनस्थानं जव्यविषयम, इतरतु नावविषयमिति । उक्त स्थानम् । सन्निपाती विवक्षितार्थप्रतिज्ञानसमन्वित एव, ततः किमर्थ पृअथवा भावस्थानं कषायाणां यत् स्थानमिह परि- च्छति ?, न हि चतुर्दशपूर्वविदः सर्वोत्कृष्टश्रुतलब्धिसमन्वितम्य गृह्यते, तेषामेव जेतृद्रव्यत्वेनाधिकृतत्वात्तेषां
किश्चित् प्रज्ञापनीयमविदितमस्ति ।यत उक्तम् -" संखाईए वि किं स्थानं, यदाश्रित्य च ते भवन्ति । शब्दा
भवे, साहइ जं वा पुरो न पेच्छेज्जा । नयणं अणाइसंसी. बिऽऽदिविषयानाश्रित्य च ते भवन्तीति
याई एस छ उमथो" ॥१॥ सत्यमेतत् । केवल जाननेव तदर्शयति
गौतमस्वामी भगवान् अन्यत्र विनयेज्यः प्रतिपाद्य तत्सम्प्रत्य
यनिमित्तं विवक्षितार्थ पृच्छति । यदि वा-प्रायः सर्वत्र गणधरपंचसु कामगुरणेमुं.मदफरिसरसरूवगंधेसु ।
प्रश्नतीर्थकरनिर्वचनरूपं सूत्रम,अतो भगवानार्यश्यामोऽधीत्यमेव जस्म कसाया वटुं-ति मूलठाणं तु संसारे ॥४॥
सूत्रं रचयति । अथवा सम्भवति तस्यापि गणभृतो गौतमस्वा. तत्रेयाऽनङ्गरूपः कामः, तस्य गुणाः,यानाश्रित्य चासौ चेतसो मिनोऽनानोगः,छद्मस्थत्वात्। उक्तं च-"न हि नामानाजोगः,ग्नस्थ - विकारमादर्शयति । ते च शब्दम्पर्शरसरूपगन्धाः, तेषु पञ्चवपि
स्वेद कस्यचिन्नास्ति। झानाऽऽवरणीयं हि, ज्ञानाऽऽवरणप्रकृतिकव्यस्तेषु समस्तेषु वा विषयभूतेषु,यस्य जन्तोर्विषयसुखपिपासो- म॥१॥" ततो जातसंशयः सन् पृच्चतीति न कश्चिद्दोषः। 'गोय. मुखस्यापरमार्थदर्शिनः संसारानिध्यङ्गिणो रागद्वेषनिमिरोप- मा!' इति लोकप्रथितमहाविशिष्टगोत्राभिधायकोपमाऽऽमाणप्सुनमनोकतरविषयोपनब्धौ सत्यां कषाया वर्तन्ते प्रादुर्नवम्ति,त- ध्वनिः गौतम! गौतमगोत्रेति भावार्थः । (सटाणेणं इति) स्व. न्मबश्च संसारपादपः प्रादुर्नवनीत्यतः शन्दादिविषयोदभूत. स्थानं यत्राऽऽसते बादरपृथिवीकायिकाः पर्याप्ताः आसनाश्च वकायाः,संसारे संसारविषय,मूलस्थानमेवेति। एतदुक्तं भवति- ऽऽदिविजागनादेष्टुं शक्यन्ते तत्स्वस्थाममिति भावः । स्वस्थान रागाऽऽद्युपहतचेताः परमार्थमजानानोऽततस्वभावेऽपि तस्व- ग्रहणमुपपातसमुद्धातस्थाननिवृत्त्यर्थम्,तेन स्वस्थानेन,स्वस्थानमङ्गीभावाऽऽरोपणेनान्धादप्यन्धतमः कामी मोदते । तत पाह- कृत्येति नावः । अष्टासु पृथिवीषु, सर्वत्र बादरपृथिवीकायिकानां " दृश्यं वस्तु परं न पश्यति जगत्यन्धः पुरोऽवस्थितं,
पर्याप्तानां स्थानानीति योगः। ता एवाट पृथिवीनामग्राहमाहरागान्धस्तु यदस्ति तत्परिहरन् यन्नास्ति तत्पश्यति । "तं जहा" इत्यादि । तद्यथा-रत्नप्रजायां यावदष्टम्यामीषतकुन्देन्दीवरपूर्ण चन्द्रकलशश्रीमल्लतापल्लवा
प्रारभारायाम, तथाऽधोलोक-पातालेपु पातालकलशेषु बलयानारोप्याशुचिराशिपु प्रियतमागात्रेषु यम्मादते ॥१॥" मुखप्रभृतिषु, नवनेषु भवन पतिनिकायाऽऽवासरूपेषु भवनभद्व वा कर्कशशब्दाऽऽदो व्रजतीति । ततश्च मनोझेतरशब्दाss.
मिकारूपेषु । श्ह नवनग्रहणेन भवनानामेव केवलानां ग्रहणम: दिविषयाः कपायाणां मूलस्थानं, ते च संसारस्यति गाथाता. भवन प्रस्तटग्रहणेन तु भवनानामपान्तरालस्यापि तथा नरकेषु स्पर्याधः । आचा०नि० अ०२ अ०१3०। उत्त० । नि.
प्रकीर्णकरूपेषु नरकाऽऽचामेषु, नरकाऽऽवत्रिकासु प्रालिकाचू० । सूत्र।
व्यवस्थितेषु नरका3उवासेषु, नरकप्रस्तटेषु नरकभूमिरूपेषु, कहिणं भंते ! बादरपुढविकाइयाणं पज्जत्तगाणं ठाणा
अत्रापि नरकनरकाऽऽवक्षिकाग्रहणेन केवला एव नरका55
वासाः परिगृह्यन्ते, नरकप्रस्तटग्रहणेन तु नरकापान्तगलमपएणता?। गोयमा ! सहाणेणं अट्ठम पुढवी । तं
पि । ऊर्द्धलोके-कल्पेषु सौधर्मिकाऽऽदिकल्पेषु. अनेन ETजहा-रयणप्पभाए, सकरप्पनाए, बाबयप्पनाए, पंक- दश देवलोकपरिग्रहः । विमानेषु ग्रैबेयकमम्बन्धिषु प्रकीर्णकपजाए, धूपप्पनाए, तमप्पनाए, तमतमप्पनाए, अहे
रूपेषु, विमानाऽऽवकिकासु आवलिकाप्रविष्टेसु वेयका55. सत्तमाए इसिप्पनाराए, अहोरोए पायानेसु जवणेसु
दिविमानेषु, विमानप्रस्तटेषु विमाननीमकारुपपु; अत्रापि
प्रस्तटग्रहणं विमानान्तराखभाविनामपि यथासंजवभाविना जवाणपत्थमेमु निरएमु निरयावबियामु निरयपत्थडेमु, उ- बादरपर्याप्तपृथिवीकायिकानां स्थानपरिग्रहार्थ; तथापि तिर्यकुलोए कप्पेस विमाणेमु विमाणावलियामु विभाणपत्थ- | रोके-टड़ेपु छिन्नटङ्केषु, कूटेपुसिकाऽऽयतनकूटप्रभृतिपु, शैत्रेषु मेमु, तिरियलोए टंकेमु कुडेमु सेनेमु सिहरिमु पन्भारेमु
शिखरहानपर्यतेषु, शिखरिषु शिखरयुक्तेषु पवतेषु, प्राग्जारेषु विजयेमु वावारेमु वासेसु वासहरपव्वएमु ना वेनासु वे
ईषत्कुब्जेषु, विजयेषु कच्चाऽऽदिषु, बकम्कारेषु विद्युत्प्रना55
दिपु पर्वषु, वर्षेषु जरताऽऽदिष, वर्षधरेसु हिमवहादिप. ध्यासु दारेमु तोरणेम दीयेसु ममुद्देमु । एत्य णं बादरपुढ- |
वनेषु, वेलासु समुकाऽऽदिपानायरमण नूमिषु, घेदिका विकाइयापं पजत्तगाणं गणा पणनावबापणं सायम्सा जश्वनीपजगत्यादिसंबन्धिनी, द्वारेषु विजयावाद, तार
४२५.
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(१६६७) अभिधानराजेन्द्रः ।
गण
गह
जेषु द्वाराऽऽदिसंबन्धिषु, किंबहुना !, सामस्त्येन सर्वेषु । समाना मी गृह्यन्ते इति । प्रभूताश्च स्वभावतोऽपीत्युपपातेम द्वीपेषु समुद्रेषु । "एत्थ णं" इत्यादि । अत्र बतेषु स्थानेषु बाद। समुद्घातेन च सर्वलोके वर्तन्ते। अन्ये तु अभिदधति-स्वभावत रपृथिवीकायिकानां पर्याप्तानां स्थानानि प्राप्तानि, मया, म. एवामी बहव इति,उपपातम समुद्घातेन च सर्वलोकव्यापिनः, न्यैरपि तीयकृद्भिः । " उववाएणं" इत्यादि । उपपातो बाद तत्रोपपात केषाश्चिद्वक्रगत्या, तत्र ऋजुगतिःसुप्रतीता।वस्थारपृथिवीकायिकानां पर्याप्तानां यदनन्तरमुक्तं तत्प्राप्पयाभिमु. पना चैवम् अत्र यदेव प्रथमं वक्रमेके संहरन्ति, तदेवापरेतमयमिति भावः, तेनोपपातमङ्गीकृत्येति भावः । लोकस्य चतु। दशमापूरयन्ति एवं द्वितीयवऋदेशसंहरणेऽपि, तत्रोत्पत्तादशरज्ज्वात्मकस्यासस्येयभागे । अत्रैके व्याचकते-ऋजुसत्र. वपि प्रवाहतो निरन्तरमापूरणं नावनीयम् । (सहाणेणं सोगनयो विचित्रः, ततो यदा परिस्थूग्ऋजुसूत्रनयदर्शनेन बादर. स असंखेज्जभागे इति) यथा पर्याप्तानां भावितं, तथा प्र. पृथिवीकायिकाः पर्याप्ताश्चिन्त्यन्ते, तदा ये स्वस्थानप्राप्ता पाहा. पर्याप्तानामपि भावनीयस्, तनिश्चयैस्तेषामुत्पादभावात । राऽऽदिपर्याप्तिपरिसमाप्त्या विशिष्टविषाकतो बादरपर्याप्तपृथि. कहिणं भंते ! मुहमपुटविकाश्याणं पज्जत्तगाणं वीकायिकाऽऽयुर्वेदयन्ते.त एव द्रष्टव्या,नापान्तरासगतावपि,त.
अपजत्तगाण य गणा पत्ता ? । गोयमा ! मुदानी विपाकाऽऽयुर्वेदनासंभवात् । स्वस्थानं च तेषां रत्नप्रभाs. दिकं समुदितमपि लोकस्यासयभागे वर्तते । तत पपाते.
दुमपुदचिकाइया जे पज्जत्तगा, जे य अपज्जत्तगा, नापि लोकस्यासण्ययभागगता घेदितव्याः । मन्ये स्वमिदध.
ते सम्वे पगविदा प्रविसेमा अनाणचा सबलोए ति-पर्याप्ता हि नाम-बादरपृथिवीकायिकाः सर्वस्तोकाः, ततस्ते- परियावनगा पएएत्ता समाउसो! प्रा० २ पद । उपान्तरालगतावपि परिगृह्यमाणा लोकस्यासक्येयनाग एवे- कहि णं नंते ! अतरोववस्मगवायरपुढविकाइयाणं ति न कश्चिदोषः । तथा च-समुद्घातेनापि लोकस्यास गणा पत्ता। गोयमा ! सणेणं अहस पुढवीसुतं रुयेयभाग एव वक्ष्यन्ते । अन्यथा समद्घातावस्थायामपि
जहा-रयणप्पना जहा सट्टाएपदे जाव दीवसमुद्देमु । एत्थ स्वस्थानातिरेकेण केत्रान्तरवर्तित्वसंभवादसण्येयभागवर्तिता नोपपद्यत इति । तत्वं पुनः केवनिनो विदन्ति, विशिष्टश्रुतविदो
शं प्रणंतरोवववगाणं पादरपुढविकाइयाणं गणा पत्रया । तथा-(समुग्घाएणं लोगस्स असंखेज भागे ति) त्ता। उववातणं सबनोए,समुग्धारणं सवलोए,सट्टाणणं ममुरातेन समुद्रातमधिकृत्य,लोकस्यासङ्ख्येयभागे । इय- लोगस्स असंखेज्जइजागे। (ज०) सहाणेणं सव्वेसिं जहा मत्र भावना-यदा बादरपर्याप्तपृथिवीकायिकाः सोपक्रममा
ठाणपदे, तेसिं पज्जतगाणं गायराणं उबवायसमुग्धायमযথা, নিবন্ধমাথা ঘামানৗঘাথলম্বিকমাयुबंद्धा मारणान्तिकसमुद्घातेन समवदन्यन्ते,तदा ते विकि
द्वाणाणि जहा तेसिं चेव अपज्जत्तगाणं बादराणं,मुहमाHSSत्मप्रदेशदण्डा अपि लोकस्यासस्येयतम पव भागे ब- एं सम्बेसि जहा पुढवीकाझ्याणं नणिया, तहेव भाणियनम्न स्तोकस्यात् । बादरपृथिवीकायिकपर्याप्तायुधाचाप्यक्षी- बा० जाव वणस्सहकाइय तिज० ३४ श.१ उ०। जमिनि पर्याप्तवादरपृथिवीकायिका मपि लभ्यते । इह पूर्व
कहते! बादरानकाइयाणं पज्जतगाणं गणा पृथिव्यादिषु स्वस्थानमात्रमुक्तम् । इदानी स्वस्थानेनापि कियति लोकस्य भागे वर्तन्ते इति निरूपयति-(सहाणेणं
पसत्ता । गोयमा ! सहाणेणं सत्तमु घणोदधिमु सत्तम लोगस असंखेज नागे हति) स्वस्थानं रत्नप्रनाऽऽदि। तब
घणोदधिवलएम, अहोमोए पायालमु नवणेसु जवणपत्थ. ममुदितमपि लोकस्यासंख्येयभागवति। तथादि-रक्षप्रजात्र- मेमु,उन्झोए कप्पमु विमाणेसु विमाणावलियामु विमाणशंातियोजनसहस्त्राधिकल क्षप्रमाणपिण्डभावा, पवं शेषा - पत्थडेमु, तिरियलोए अगमेसु तलापमु सरेमु नदीमु दहेसु पि पृथिव्यः स्वस्वधनभावेन वक्तव्याः । पातालकलशा अपि
बाबीमु पुक्खरिणीमु दीहियामु गुंजालियासु सरेसु सरपंयोजननवाबगाहाः,नरकाऽऽवासाखिसहनयोजनोच्न्याः , वि. मानाम्याप द्वात्रिंशद्योजनशतबहुलानि, ततः सर्वेषामपि परि
तियासु सरसरपंतियासु विज्ञपंतियामु नकरेम बिफरेम मितभावात समुदितानामध्यसंख्येय नागवर्तितबंति ॥ चिवमु, पल्ललेस पिणेमु दीवेसु समुद्देसु सन्चेमु चेत्र
कहि गं भंते ! वादरपुटविकाझ्याणं अपज्जत्तगाणं जलासएमु जलवाणेसु जन्मभूमिमासु । एत्थ एं बादरागाना पमित्ता? । गोयमा ! जत्येव बादरपुढविकाइयाणं
उकाइयाणं पज्जत्तगाणं ठाणा पम्पत्ता। नववापणं लोयपज्जत्तगाणं वाणा पम्पत्ता, तत्येव वादरपदविकाइयाणं
स्स असंखेज्जड़नागे। कहिणं भंते ! वायरभाउकाश्याएं अपज्जनगाणं गणा पम्मत्ता। नबनाएणं सबलोए,ममु
अपज्जतगाणं गणा पमता? | गोयमा! जत्येव बादरग्यारणं सम्बोए, सहाणेणं सोयस्स असंखज्जइनाग ।
पाउकाइयाणं पजत्तगाणं गणा, तत्थेव वादरमानकाइबादरापयांनधिवकायिकमुत्र-( उवापणं सन्चलोए, स. याणं अपज्जत्तगाएंगणा पत्ता । नववाएणं सनसोए, मुग्यापणं सध्यलोए इति ) हापयांप्ता बादरथिवीकायिका समग्यापणं सम्बनाए, सट्ठाणेणं लोपस्स असंखेज्जइनागे। স্বত্বাৱালাৰাৰ কৰঘন থি স্বাগদাখা
कहिणं भंते ! मुहुमाउकाइयाणं पजत्तापज्जत्ताणं विकाऽऽयुर्विशिष्ठवपाकनो वेदयन्ते, तथा देव गायकवर्जेभ्यः शपसकायेत्यभोपपद्यन्ने, वृत्ता अपि च देवनायिक
गणा पालचा।। मोयमा ! सहमग्राउकाझ्या जे य शपेषु संबपि स्थानेषु गच्चति । ततोऽपान्तरावगतावपि पज्जतगा, जेय अपज्जतमा, वे सन्चे एगविहा अक्सेिसा
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गण
( १६६६ ) श्रभिधानराजेन्द्रः ।
अनायता सव्वलोए परियावन्नगा पत्ता समाउसो ! । कहि णं भंते ! बादरतेनकाश्याणं पज्जत्तगाणं डाणा प सा । १ गोयमा ! सहाणेणं तोमस्सखेत्ते अढाइज्जेसु दीवसमुद्दे निव्वाधार पनरससु कम्मभूमीसु बाधायं पमुच्च पंचसु महाविदेद्देसु । एत्थ णं बादरतेउकाइयाणं पज्जगाणं ठाणा पत्ता । उववारणं लोयस्स असंखेज्जइजागे, समुग्धापणं बोयस्स असंखेज्जइजागे, सहाणेणं लोयस्स असंखेज्जइभागे । कहि णं जंते ! बादरतेकाइयाएं अपज्जत्तगाणं ठाणा पष्ठत्ता १ । गोयमा ! जत्थेव बादरतेनकाइयां पज्जत्तगाणं गणा, तत्थेव बादरतेनकाइयाणं प्रपज्जत्तगाणं ठाणा पम्पत्ता | नववाएां लोयस्स दो टुकवामेसु तिरियलोयतट्टे य, समुग्धाएणं सम्बलोए, सट्टाणेणं लोयस्स असंखेज्जइनागे । कहि णं भंते ! सुदुमतेनकाइयाणं पज्जत्तगाणं अपजत्तगाण य ठाणा पक्षता ? । गोयमा ! सुदृमते काइयाणं जे पज्जतगा अपज्जत्तगाय ते सव्वे एगविहा अविसेसा अनायता सव्वलोए परियावन्नगा पत्ता समणाउसो ! | कहि णं नंते ! बादरवाकाइयाणं पज्जत्तगाणं ठाणा पत्ता ? । गोयमा ! सहाणेणं सत्त घणवाए, सत्तसु घणवायबल एसु, सत्तसुतवाएसु सत्तसु तरणुवायवल्लएसु, अहोलोए पायालेसु जवणेसु नवपत्थ मेसु जवणच्छिदेसुजवण निक्खुडेसु निरएस निरयावलिया निरयपत्यमेसु निरयच्छ्रद्देसु निरय निक्खुमेसु उठलोए कप्पेसु विमासु विमाणावलियासु विमाणपत्थमेसु विमाच्छूद्देसु विमाण निक्खडेसु, तिरियलोएमु पाईपदा हिनदीसु सव्वेषु चेन लोगागासच्छिदेसु लोगनिक्खुमेय । एत्थ णं बादरवाजकाइयाणं पज्जत्तगाणं ठाला पत्ता । जववाएणं लोयस्स असंखेज्जेसु जागेमु समुग्धा लोस्स असंखेज्जेमु जागेस, सहाणेणं सोयस असंखेज्जेसु भागेसु । कहिं णं भंते ! बादरवालका
या अपज्जत्तगाणं गणा पत्ता ? । गोयमा ! जत्थेव बादरवाङकाइयाणं पज्जत्तगाणं, तत्थेव बादरवाङकाइयाएं अपज्जत्तगाणं ठाणा पष्मत्ता । उवत्राएणं सबसोए, समुग्वाणं सव्वलोए, सहाणेणं लोयस्स असंखेज्जेसु भागे । कहि णं भंते ! सहुमवाउकाइयाणं पज्जत्तापज्जत्ताणं ठाणा पत्ता ! । गोयमा ! सुहुमवाकाइयाणं जे पज्जत्ता अपज्जत्ता य, ते सव्वे एगविहा अविमेसा अनात्ता सव्वलोयपरियावन्नगा पत्ता समाउसो ! | कहि णं भंते ! बादरवणस्सइकाइयाएं पज्जत्तगाणं ठाणा पत्ता? । गोयमा ! सङ्काणणं सत्तसु घदस घणोदहिबलएसु, होलोए पायात्रेसु जसुजवणपत्यमे, उच्योर कप्पे त्रिमाणेसु विमा
गण
पावलियामु विमाणपत्य मेसु तिरियलोए भगडेसु तलागेसु नदीसु दस बावीसु पुक्खरिणीसु दीदिपा गुंजालियासु सरेसु सरपंतियास सरसरपंतियासु बिलपतियासु रेसु निकरेसु चिलसु पसलेस वपियेसु दीवेसु समुद्देसु सव्वेसु चेत्र जल्लासएस जलट्ठाणेसु । एत्य एंबादरवणस्सइकाइयां पज्जत्तगाणं ठगणा पठत्ता । ब वाणं सव्वलोए, समुग्धाएणं सव्वलोए, सहाणें लोगस्म संखज्जइजागे । कहि णं भंते ! बादरवणसहकाया अपज्जतगाणं ठाणा पत्ता ? । गोयमा ! जत्थेव बादरवणस्सइकाइयाणं पज्जत्तगाणं ठाणा, तत्येव बादरवणसइकाइयाणं मपज्जतगाणं गणा पाता । उनवारणं सव्वलोए, समुग्धारणं मव्वलोए, सहाणेणं सोयरस संखेज्जइजागे । कहि णं जंते ! सहुमवणस्मइकाइयाणं पञ्जत्तगाणं अपज्जत्तगाण य ठाणा परण
। गोया ! सुहुमत्रणस्सइकाइया जे पज्जत्तगा जे अपज्जत्तगा य, ते सब्बे एगविहा अविसेसा - नाणत्ता सव्वलोयपरियावएगा पणत्ता समणाउसो ! | कहिं जंते ! बेइंदियाणं पज्जत्तापज्जत्तगाणं ठा पत्ता । गोयमा ! उठलोए तदेकदेसभागे, श्र होलोए तदेकदेस भागे, तिरियलोए गमेसु तलासु नदीसुदात्री पुक्खरिणी दीढियास गुंजालियासु सरेसु सरपंतियासु सरसरपंतियासु उज्जरेसु निज्करेमु चिह्न - सुप पिणे दीवेसु समुद्देसु सव्र्व्वसु चेत्र जन्नाससु जलट्ठाणेसु । एत्थ णं बेइंदियाणं पज्जत्तापज्जसगाठा पत्ता । उवत्राएणं लोयस्स असंखेज्जइनागे, समुग्धा लोस्स असंखज्जइभागे, सहाणेणं लोयस संखेज्जभागे । कहि णं जंते ! तेइंदियाणं पज्जतापज्जत्तगाणं गला पण्णत्ता १ । गोयमा !
लोए तदेकदेमभाए, अहोलोए तदेकदेस जाए, तिरियो गमेसु तलाएस बावीस पुक्खारणीमुदी - हिया गुंजा लियामु सरेसु सरपंतियासु सरसरपंतियामु बिज्ञपतियासु उज्रेसु निज्जरेसु चिह्नलेसु पसले पिणे दी समुद्देसु सन्बेसु चेत्र जन्नासएमु जलट्ठासु । एत्थ णं तेड़ दियाणं पज्जत्तापज्जत्ताएं गणा पम्मुक्त्ता । उवत्राएणं लोयस्स प्रसंखेज्जश्नागे, समुग्धारणं लोयस्स खज्जइजागे. सहाणेणं सोयस्स असंखेज्जइजागे । कहि णं जंते ! चनरिंदियाएं पज्जत्तापज्जत्ताणं
पत्ता ? गोया ! उसोए तदेगदेस जाए, होलोए तदेदेनागे, तिरियलोए अगडेसु तन्नारसु वावी पु क्खरिणी दीहिया गुंजालियासु सरेसु सरपंतियालु सरसरपंतियासु खिज्जरेसु उज्जरेस चिह्नले पनले पि
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(१७००) अभिधानराजेन्छः ।
गण
जागा
णेसु दीवेसु समुद्देसु सम्बेसु चेव जामएसु जलहाणेसु । क्खत्तजोइमपहा मदवसापूइयपमलरुहिरमंसचिक्खिद्वालिएत्य णं चनरिदियाणं पन्जत्तापज्जत्ताणं गणा पामुत्ता। ताणुनेवणतमा अमई वीसा परमभुग्जिगंधा काळयगनववाएणं लोयस्स असंखेजइनागे, समुग्यापणं लोय- णिवन्नाभा कक्खमफासा पुरहियासा अमुभा गरगा अस्स असंखज्जइभागे, सहाणेणं लोयस्स असंखजानागे। मुना नरगेमु वेदणाओ। एत्य प रयणप्पभा पुढविनेरझ्याकहिणं ते ! पंचिंदियाणं पज्जत्तापजत्ताणं टाणा प- णं पजत्तापज्जत्ताणं गणा पत्ता । नववाए लोयस्स सत्ता । गोयपा! उड्ढनोए तदेकदेसजागे,अहोरोए त- असंखेज्नाभागे,समुग्याएणं लोयस्स असंखेज्जइभागे, सदेकदेसभाग, तिरियलोए अगमेसु तलाएसु नदीसु द- हाणेणं झोयस्म असंखेजाभागे । तत्य णं बहवे रयहेसुवाचीसु पुक्खरिणीसु दीहियासु गुंजानियासु स- णपत्नापुढविनेरइया परिवसंति । काला, कानाभासा, गंरेसु सरपंतियासु सरसरपंतियासु बिझपंतियासु उज्क- भीरलोमहरिमा, भीमा,उत्तामणगा,परमकिएहा बन्नेणं परेसु णिकरेसु चिल्ललेसु पसलेसु वप्पिणेसु दीवेसु स- सत्ता समणाउसो! । ते णं णिचं भीया णिचं तत्था णिचं मुहेसु सम्बेसु चेव जनासएसु जलहाणेसु । एत्य णं पं
तमिया णिचं उविग्गा णिचं परममसुभमंबई नरगनयं चिंदियाण पज्जत्तापज्जत्ताणं गणा पमत्ता । उबवाएणं
पच्चभवमाणा विहरति । कहिणं भंते ! मकरपलोयस संखेज्जइभागे, समुग्याएणं सोयस्स असंखे- जापुढविनेरइयाणं पजत्तापजत्ताणं गणा पामत्ता । कहि नानागे, सहाणेणं सोयस्म असंखेजहभागे । कहि एं। णं ते! सकरप्पभापुढविणेरडया परिवसंति ।। गोयमा !
ते ! नेरइयाणं पज्जत्तापजत्ताणं गणा पत्ता?, कहिणं सकरप्पभापुढवीए वत्तीमुत्तरजोयणसयसहस्सबाहराए, भंते ! नेरइया परिवसंति ? । गोयमा! सहाणेणं सत्तसु उपरि पगं जोयाणसहस्सं नग्गा हित्ता, हेच चेगं जोयणपुढवीसु । तं जहा-रयणप्पनाए सकरप्पभाए बाबुयप्पनाए
सहस्सं बज्जित्ता, मज्के तीसुत्तरजोयणसयसहस्से । एत्य पंकप्पभाए धूमप्पजाए तमप्पजाए तमतमप्पनाए । एत्थ
एं सकरप्पभापुढविशोरइयाणं पणवीमं णिरयावासमयसनेरझ्याणं चनरासिं निरयावाससयसहस्साई जवंतीति म- हस्सा हवंतीति मक्खायं । ते णं नरगा अतो बट्टा बाहिं क्खायं । तेणं गरगा अंतो वट्टा,बाहिं चनरंसा, अहे खुर
चउरंसा अहे खुरप्पसंगणसंधिया णिच्चंधयारतमसा व-- पठाणसंठिया निचंधयारतमसा वगयगडचंदमूरनक्खत्त
वगयगडचंदमूरणवत्तजोइसपहा मेयवनाप्यपमरुहिरजोइसपहा मेदवसापूयरुहिरममचिक्खिालित्तालेवणतया मंसचिक्खिलित्तालेवण तला अमुई वीसा परमदुभिअसुई वीसा परमब्जिगंधा काऊयगणिबनाना कक्ख- गंधा काऊयगणिवमाना कक्खफासा पुरहियामा अमफासा पुरहियासा असुना नरगा असुना नरएम वेय- मुभा नरगा, असुभा नरगेमु वेयणाओ। एत्य णं सकरप्पपाओ। एत्य नेरइयाणं पज्जत्तापज्जत्ताणं गणा पाप
नापुढविणेरझ्याणं पज्जत्तापजत्ताणं गणा पत्ता। उवता। उववाएवं लोयस्म असंखेज्जइभागे, समग्याएणं लो
वाएणं लोयस्स अमंखेजजागे, समुग्याएणं लोयस्स अ. यस्स असंखेजनागे, सघाणेणं लोयस्स असंखेज्जजागे। संखेज्जइभागे, सहाणेणं लोयस्स असंखेज्जहभागे । तत्थ एत्य ण बहवे नेरइया परिवसंति कानाकालाजासा गंभी. णं बहवे सकरप्पभापुढविणेरड्या परिवति । काला, कारलोमहरिमा,नीमा,नत्तासणगा,परमकाहा वोणं पसत्ता। लाजासा, गंजीरखोमहरिमा,भीमा, नत्तासणगा, परमकितेणं तत्य पिच्चं जीया णिचं तत्था णिचं तासिया पिच्चं
एहा वमेणं पसत्ता समागासो! ते णं निच्चं भतिा निनविग्गा मिचं परममसुभमंबकनरगभयं पच्चणुब्भवमाणा
च्चं तत्था निच्चं तसिया निच्चं अधिग्गा निच्चं परममविहति । कहिणते! रयणप्पजापुढविनेरइयाणं पज्ज
मुजसंबछ नरगजयं पच्चणुब्भवमाणा विहरति । कहिणं त्तापज्जत्ताणं गणा पएणत्ता? कहिणं भंते ! रयणप्प- जंते बाबुयप्पभापुढविणेरइयाणं पन्जत्तापजत्ताणं गणा जापुढविनेरइया परिवसति । गोयमा! इमीसे रयणप्पभाए | पामत्ता। गोयमा! बायप्पना पुढीए अट्ठावीमुत्तरजोयणपुढवीए अमीउत्तरजोयणसयसहस्सवाहल्लाए नवरि एणं सयमहस्सबाहल्लाए नवरि एगं जोयणसहस्सं उम्गाहिता, नोयणमहस्समोगादित्ता, हेट्ठा चेगं जोयणसहस्सं वज्जित्ता, हेट्ठा चेगं जोयणमहस्सं वज्जिना, मजो छवीमुत्तरजोयमजके अत्तरिजोयाणसयसहस्से । एत्य णं रयणप्पना- सयसहस्से । एत्थ णं वाबुयप्पनापुढविणेरझ्याणं परमरस पुढविनेरझ्याणं तीसं निरयावाससयसहस्सा जवंतीति निरयावासमयमहस्सा भवंतीति मक्खायं । ते णं नरगा मक्खायं । तेणं नरगा अंतो वट्टा बाहिं च नरंसा अहे खु- अंतो वट्टा बाहिं चनरंसा अहे खुरप्पसंगणसठिया निच्चरपसंगणसंधिया निच्चंधयारतमसा वगयगचंदमुरन-] धयारतमसा ववगयगहचंदसूरए क्खत्तजोइसपहा मेयवसापू
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( १७०१ ) अभिधानराजेन्द्रः |
गण
यपमझरुरिमं मचिक्खिललिताले तथा असुई बीसा परमदुभिगंधा काय शिवन्नाजा कक्खमफासा दुरहियासासुभा नरगा, सुना परएसु वेयणा । एत्थ णं बाबुभापुढवीराणं पज्जत्तापज्जत्ताणं ठाणा पएलता । लवत्राणं लोयस्स असंखेज्जइभागे, समुग्घा एवं लोयस्स संखेज्जइजागे, सट्टाणेणं सोयस्स असंखेज्ज:भागे । तत्य ं बहने वालुयप्पभापुढवीणेरइया परित्रसंति । काला, कालाभामा, गंभीर लोमहरिसा, जीमा, उत्तासगा, परमकिएहा बछे पत्ता समणाउसो !। ते पं निचं जीया निचं तत्था निच्चं तमिया निचं उब्बिग्गा निचं परममसुभसंबन्धं णरगभयं पच्चन्भवमाणाविहरति । कहि णं भंते ! पंकप्पजापुढविणेरेइयाणं पज्जचापजत्ताणं गला पत्ता ? । गोयमा ! पंकप्पापुढत्रीए बीतरजाय एसय सहस्सबादलाए उवरि एगं जोयस - इस्सं गाहिता, हेडा चेगं जोयणसहस्सं वज्जित्ता, मज्झे भट्ठारभुत्तरे जोयणसय सहस्ते । एत्य णं पंकप्पभापुढविनेरयाणं दस निरयावासस्य महस्सा भवतीति मक्खायं । ते परगा तो बट्टा, बाहिं चउरंसा, अहे खुरप्पाणसंविया निबंधयारतमसा वनगयगह चंदसूरनक्खत्तजोइसपहा मेयवसापूपमझरुहिर मंसचि क्खिल्ल लित्तालुलेवतला सुई वीसा परमदुब्धिमधा काऊयगणिवा जा कक्खमफासा दुरहियासा असुभा नरगा, असुभानरगेसु वेणा । एत्य णं पंकष्पभापुढविणेरइयाणं पज्जसापजनाएं गणा पण्णत्ता । उवत्राएणं झोपस्स असंखेज्जइजागे, समुग्धारणं लोयस्स असंखेज्जड़भागे, संगपेणं लोयस्स असंखेज्जइभागे । तस्य णं बहने पंकप्पापुढविरेश्या परिवसंति । काला, कालोभासा, गंभीरनोमहरिसा, जीमा, उत्तानएगा, परम किएहा वएप ता समाउसो ! । ते णं निचं जीया निश्वं तत्था निचं तसिया निच्च उन्त्रिग्गा निच्चं परममसुन संबद्धं नरगभयं पच्चन्भवमाणा विहति । कहि णं भंते ! धूनप्पनापुढविनेरइयाणं पज्जत्तापजताएं गला पण्णत्ता ? । गोयमा ! धूनप्पजापुढवीए द्वारमुत्तर जोयएस यसहस्सा इल्लाए, उवरि एवं जोयगसहस्सं उग्गाहित्ता, हट्ठा चेगं जोयणसहस्सं वज्जित्ता, मज्झे सोलसुत्तरे जायेणसयसइस्से । एत्य णं धूमध्पनापुढत्रिणेरइयाणं तिरिण निरयात्राससयस इस्सा दवंतीति मक्खायं । ते णं नरगा तो बट्टा, बाहिं चरंसा, हे खुरपसंवाणसंठिया निच्चंधयारतपसा वत्रगयगहचंदमूरनक्खन जोइसपहा मेयवसाप्रयपकलरु हिरमंस चिक्खिल्लसित्ता खुलेपणातला असुई की -
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गण सा परमन्निगंधा काऊपग विछाजा कक्खमफासा दुरहियासा असुजा नरगा असूना नरगेसु वेयणाश्रो । एत्थ णं धूमपापुढविणेरइयाएं पज्जत्तापञ्जत्ताएं गणा पणत्ता | नववारणं लोयस्स असंखेज्जइभागे, समुग्धाएवं लोयस्स संखज्जइजागे, सहाणेणं लोयस्म - संखेज्जइजागे । तत्थ णं बहवे धूमप्पजापुढविणेरेया परिवसंति । काला, कालाभासा, गंभीरलोमहरिसा, भीमा, उत्तालगा, परम किएहा वराणं पाता ममणाउसो ! । ते णं निच्चं जीया निचं तत्था निच्चं तसिया निचं उचित्रग्गा निच्च परममसुसंबद्धं नरगजयं पच्चन्भव - माणा विहति ।
कहि णं भंते! तमप्पभापुढ चिनेरइयाणं पज्जत्तापज्जत्ताणं
पत्ता । गोया ! तमापुढवीए सोलसुत्तरजोयएसयसहस्सचा हल्लाए उवरि एगं जोयणसहस्सं उग्गाहित्ता, हेडा
गंजोयणसहस्वत्ता, मज्जे चोदसुत्तरे जोयण सहस्से । एत्थ णं तमप्पापुढविणेरइयाणं एगे पंचूणे नरगात्रास सयसहस्से हवंतीति मक्खायं । ते णं मरगा अंतो बट्टा,बाहिं चउरंसा, अहे खुरपठाण संठिया निबंधगारतमसा ववगयगहचंदसूरनक्रखतजो इस पहा मेदवसापृयपरुलरुहिरमंसचिक्विलितापुक्षेत्रणतला असुई बीसा परमदुब्विगंधा कक्खडफासा दुरहियासा असुभा नरगा असुना नरगेस वेयगाओ। एत्थ णं तमापुढविणेरश्याएं पज्जत्तापज्जत्ताणं ठगणा पत्ता । उववारणं लोगस्स असंखेज्जइ भागे, ममुग्धाएं लोयस्स असं वज्जइजागे, सहाणेणं लोयस्स प्रसंखेज्जइभागे । तत्य णं बहवे तमप्पजापुढविणेरइया परिवसंति । कान्झा, काबाजासा, गंभीरनोमहरिसा, भीमा, उत्तासएगा, परम किएहा
पत्ता समाउसो ! | ते गं निचं जीया निश्चतत्या निश्च तसिया निचं उव्लिग्गा निच्च परममसुभसंबद्ध नरगजयं पच्चणुब्भत्रमाणा विहति । कहि णं जंते ! तमतमापुढविणेरइयाणं पज्जत्तापज्जत्ताणं ठाणा पसा। गोया ! तमतमापुढवीए अङ्गुत्तरजोयणसयस हस्सबाहलाए उवरि श्रवतेव एण जोयणमहस्सा उग्गाहित्ता, हेट्ठा वि श्रद्धतेत्रा जोयगासहस्सं वज्जित्ता, मज्जे तिमि जोयणसहस्सेसु । एत्य णं तमतमापुढविणेरयाणं पज्जत्तापज्जत्ताणं पंचदिसिं पंच अणुत्तरा मद्दइमदागा महानिरया छत्ता । तं जहा - काले, महाकाले, रोरुए, महारोरुए, पट्टाऐ । ते णं नरगा तो बट्टा, बाहि चरंसा, हे खुरप्पठाण संठिया, निश्बंधयारतमसा वचगयगचंद सूरनक्खत्तजाई सपहा मेयपूयवसारुहिरमंसचिक्खालिचाणक्षेवणतला असुई बीसा परमदुज्जिगंधा
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(१७०२) गण अभिधानराजन्तः।
गण कक्वमकासा दुरहियासा असुना नरगा भसुजा नरगेमु | मत्त भवणकोसीओ बावत्तरि च जवणावाससयमहस्सा
प्रणामो। एत्य णं तमतमापुढाविनेरश्याएंगणा पत्ता। हवतीति मक्खायं । ते णं भवणा बाहिं बट्टा, अंतो सपवाए मोयस्स असंखेउजाभाए, समुग्याएणं सोयस्मा मचरंसा, अरे पुक्खरकभियासंगणसंठिया नकिमतरअसंखेम्जइजाए, सट्टापणं लोयरस असंखेजभारत- विउझगजीरखातफलिहा पागारऽद्यालयकवास्तोरणपक्षिस्य बहवे तमतमापुढाविनेरइया परिवसंति। काला,काला- दुवारदेसभागा अंतसयग्यिमुसलनुसंमिपरिवारिया - नासा, गंजीरलोमहरिसा, जीमा,उत्तामणया, परमकिएहा नका सया जया सया अजेया सदा गुत्ता भयानकोटबोण पक्षता समणाउसो! ते गं निचं भीया निचं रक्ष्या भयानकत्रयणमाला खेमा सिवा किंकरामरकंमो. वत्या निचं उधिग्गा निचं परमममुभसंबई नरगमयं - वरक्खिया लाउदोश्यमाहिया गोसीससरसरत्तचंदनदहबामनवमाणा विहरति ।
रदिनपंचंगुनितमा उचियचंदणकन्नसा चंदणघम्सुक"मासीय बत्तीसं. अद्यावीसंच होवीसं च । यतोरणपमिवारदेसनागा पासत्तोसत्तविनलबट्टवण्याप्रहारस सोलसगं, भद्दुत्तरमेव हेडिमया ॥१॥ रियमबदामकझावा पंचवन्नसरससुरभिटकपुष्कपुंजोबअयुत्तर बत्तीस, छन्नीसं चेव सयसहस्संतु। याकलिया कालागुरुपवरकुंदुरुकतुरुक्कधूवमघमघंतगंधुबुभद्वारस सोशसगं, चोरसपाहियं तु नहीए ॥२॥ याभिरामा सुगंधवरमंधगंधिया गंधवट्टीतूया मच्छरगणमचतिवम सहस्सा, उवरिमहो वजिऊण नो जणिय।। संघसंकिसा दिन्चतुझियसहसंपादित्ता सबरयणापया - पर उतिसु सहस्से-स होति नरगा तमतमाए ॥३॥ च्छा सएहा सएहा घट्ठा मट्ठा णीरया निम्ममा निका सीसा य पनवीसा, पारस दसेव सयसहस्साई। निकंकमच्छाया सप्पभा ससिरिया सनज्जोया पासादीया तिनि य पंचूर्णगं, पंचेच अणुतरा नरगा ॥४॥" दरिसणिज्जा अनिरूवा पडिरूवा! एत्य जवणवासीकहिण भंते ! पंचिंदियतिरिक्खजोणियाणं पज्जत्ताप- देवाशं पज्जत्तापज्जत्ताणं गणा पसत्ता । उवचारणं जत्ताणं गणा पएणता । गोयमा उलोए तदेकदे
लोगस्स असंखेज्जइभागे, समुग्धाएणं मोयस्स असंखेसभाए, प्रोमोए तदेकदेसभाए, तिरियलोए अगमेसु
जाइलागे, सहाणेणं लोयस्स असंखेज्जइलागे । तत्थ गं बलाए नदीम दहेमु बावीसु पुक्खरिणीय दहियासु
बहवे जवणवासी देवा परिक्सति । मुंजामियासु सरेसु सरपंतियास सरसरपंतियासु बिलपंति
तं जहापासु उज्झरेसु निन्फरेसु चिझलेसु पसलेसु वाप्पिणेसु दीवेसु "मसुरा नागसुचना, विज्जू अग्गी य दीव उदही य । समुस सम्बेसु चेन जलासपसु जलहाणेमु । एत्य पं-| दिमि पवाराथणियाणामा,दसहा एए भवणवासी ॥१॥" चिंदियतिरिक्खजोणियाणं पज्जत्तापज्जत्ताणं ठाणा पम- चूमामणिमनरयणसाए। फणिगरुमवरपुछाकलसंकिचा। नववाएणं लोगस्स असंखेज्जाभागे, समुम्पारणं मो.
उप्फेसा सीहमगरमयंकप्रस्सबरवकमाणनिज्जुत्तचिवचिंधपस्स असंखेज्जइनागे,सहाणेणं सोयस्स असंखेज्जइजागे।।
मता सुरुवा महिध्या महज्जुतिया महायमा महावना कहिणं भंते ! मास्साणं पज्जत्तापज्जचाणं गणा महाजावा महासोक्खा हारविराइयवस्था कमगतपपत्ता ?। गोयमा! अंतोमणुस्सरिखते पणयालीसाए | डियर्थभियनुया भंगदकुंभमढगंमतकमपीढधारी विमोयणसयसहस्सेसु प्रवाइजेसु दीवसमुद्देसु पनरससु चित्तहत्थाजरणा विचित्तमालामउसिमनका कमाणगपत्रकम्मनूमीसु तीसाए अकम्ममीसु उपनाए अंतरदीवे ।। रवत्थ परिहिया कबाणगपवरमवाणुलेवणधरा भासुरोंदी एत्य गं मास्त्राणं पजत्तापज्जत्ताणं गणा पम्मत्तान- पलंपवणमालधरा दिनेणं वो दिब्बेणं गंघेणं दिबणं पवाएणं लोयस्स असंखजानागे, समग्याएवं सनसोए, फासणं दिवेणं संघपणेणं दिब्बेणं संठाणेणं दिवाए इसहाणेणं लोयस्स असंखेज्जनागे ।
र दिबाए जुत्तीए दिव्वाप पनाए दिनाए गयाए दिकहिणं भंते ! भवाणवासीण देवाणं पज्जत्तापज्जत्ताणं माए भच्चीए दिग्वेणं तेएणं दिव्यांए लेस्साए दस दिसाम्रो ठाणा पत्ता, कहिणं जवणवासी देवा परिवसतिगो. नज्जोमाण पत्तासेमाणा, ते णं तत्थ साणं साणं भवणापमा ! इमीसे रयणप्पनाए पुढचीए असी उत्तरजायणमय- बाससयसहस्माणं साणं साणं सामाणियसाहस्सीणं साणं मास्साहवाए जबरि एर्ग जोयणसहसा उग्गाहित्ता.हेटा साणं तायतीसाणं साणं साणं लोगपाहाणं माणं साणं
जोधणसहस्सं वज्जित्ता, मजके प्रहात्तरि जोपणसय- अगमरिसीणं साणं साणं परियाणं सायं साणं मणीयाणं सास्त, पत्थ जनवासी देवापं पज्जत्तापजचाएं सायं सायं प्रणीयाहिबईणं साणं सायं प्रायरक्खदेवसाह.
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ठाण
अभिधानगजेन्डः।
ठाया
स्सीणं अघोसि च बहणं भवणवासीणं देवाण य देवीण | तमालामन लिमउमा कवाणगपवरवत्थपरिहिया वाणगय आहेबच्च पोरेवच्चं मामित्तं भट्टित्तं महत्तरगनं मा- पवरमजाणुनेवणधराजामुरबादी पलं कानमालधरा दिनेछ णाईसरसैणावच्च कारेमाणा पालेमाणा महया इयनगी- बोणं दिवेणं गंधेशं दिनेणं फासेणं दिब्धणं संघयषणं दियवाइयततीतलतालतुझियपण इंगपडुप्पवाइयरवेणं दि- वैषं संठाणेणं दियाए बीए दिव्वाए जुईए दिव्याए भासाए माई जोगजोगाई जेमाणा विहरति ।
दिवाए गयाए दिवाएपहार दिनाए अच्चीए दिवेण ९ए. काहि नंत! असुरकुमाराणं देवाणं पजत्तापज्ज- ण दिनाए लेसाए दसदिसाम्रो नज्जोवेमाणापनासमाणा। साणंगणा पत्ता ?, कहिणं भंते ! अमुरकुमारा देवा ते ण तत्य साणं साणंजवणावाससयमास्साणं सायं साणं परिवति । गोयमा ! इमीसे स्यणप्पनाए पुढवीए अ- सामाणियसास्नीणं साणं साणं तायत्तीमाणं माणं साणं सीनत्तरजोयणसयसहस्सबाहद्वार वरि एग जोयणस- मोगपानाणं साणं साणं अगमहिसीणं सायं साणं परिसाणं हस्सं उग्गाहित्ता, हेहा चेगं जोयणसहस्सं वन्जित्ता,मके साणं साणं अणीयाणं साणं साणं अणीयाहिबईणं साणं भट्ठहत्तरे जोयणसयसहस्से बाहलाए । एत्थ णं असुर- साणं आयरक्खदेवसाहस्सीणं, अमेसिंच बहणं जवणवाकुमाराणं देवाएं चोवहिजवणावाससयसहस्मा जयंतीति सीणं देवाण य देवीण य आवरचं पोरेपच्चं सामिवं मक्खायं । तेणं भवणा बाहिं बट्टा, अंतो चउरमा, महे भहितं महतरगतं प्राणाईसरसेणारचं कारेपाणा पापुक्स्वरकाियासंठाणसंग्यिा किनंतरनिउलगंजीरक्खाय- लेमाणा महया दयनहगीयवाश्यतीतलतालतुझियघणफलिहा पागारऽद्यालयकवाडतोरणपमिवारदेसभागा अंत-| मुरंगपप्पवाइयरवेणं दिन्नाई भोगजोगाई हुंभेमाणा विसयग्धिमुसमभुमिपरिवारिया अउज्का सदा सया बलया हरति । चमरबनियो इत्य दुवे अमरकुमारिंदा असुरकुसदा गुत्ता अम्याला कोडगरक्ष्या अत्यालकयवनमाला माररायाणो परिक्संति। काला,महानालसरिसा, नीलगुलिखमा सिवा किंकरामरडमोवरक्खियानाउलाइयपहिया गो- यगवापसीकुमुमप्पगासा, पियसियनयवत्तनिम्मलेसीससीससरसरत्तचंदणदहरदिनपंचंगुलितला उवचियचंदण | यरत्ततंबनयणा गरुनाययउजुत्तुंगनासा उबचियसिमापवा. कलसा चंदणघमसुकयतोरणाडिदुवारदेसन्नागा भासतो. सविफलसनिकाहरोहा मुरससिसगल विमलनिम्मलसत्तबिउलबहवग्यारियमल्लदामकलावा पंचवनसरससुरजि- दहियणसंखगोखीरकुंददगरयमुशालियाधनमदंतसेढी दुमुक्कपुष्फपुंजावयारकग्निया कालागुरुपवरकुंदुरुक्कनुरुक्क- यवहणि छतधोयतसतवपिजरत्ततनतामुनीहा अंनणकम्तधूवमघमतगंधुडुयामिरामा सुगंधवरगंधगंधिया गंध- पणक सणरुगगरमशिजनिकसा बामेयकुंमधरा अहबहिभूया प्रकरगणसंघसंविकिमा दिन्वतुझियसहसं-] चंदणाणुभित्तगत्ता ईसीसिलिंधपुप्फप्पगोसाई भकिन्निपत्रंदिया सन्नरयणामया भच्छा सएहा घट्टा मट्ठा नीरया। हाई मुटुमाइंचल्याई पचरपरिहिया, वयं च पदमं समाकंता, निम्ममा निप्पंका निकंकमच्छाया सप्पभा ससिरिया सज- विइयं च असंपत्ता, हे नोव्वणे वट्टमाणा तलभंगयतुमिजोया पासाइया दरिसणिज्जा अभिरुवा पभिरूवा । एत्थ यपवरनूसणनिम्मलनिरयमणिरयामंपियनुया दनमु
असुरकुमाराएं देवाणं पज्जत्तापज्जताणं गणा पमचा ।। हामंदियऽग्गहत्या चूमामणिविचित्तचिंधगता सुरूवा महिस्ववाएणं लोयस्स असंखेजइभागे, समुग्धाएणं लोयस्स | किया महज्जुइया महायसा महब्बला महाणुनागा महासोअसंखेज्जइनागे, सहाणेणं लोयस्स मसंखेज्जनागे । तत्य
क्खा हारविराश्यवस्था कम्यतुडियर्थभियजुया अंगयकुंबहने प्रमुरकुमारा देवा परिवसंति । काला, सोडितक्खा, दनमट्टगंडतलकासपीढधारी विचित्तहत्याजरणा विचित्तचिंचोटा, धवल पुष्पदंता, असियकेसा,वामेयकुंडलधरा.अ. मालामननिमनदा कराणगपवरवत्यपहिया कद्वाएगप
चंदणाणसिचगता ईमीसिलिंधपुप्फपगासाई संकिलि-1 परमखाएलेनणपरा भासुग्बोंदी पत्रंबवणपासधरा दिव्वेणं हाई सुहमाई वत्थाई पचरपरिहिया,वयं च पदमं समइकता, व दिने गंधणं दिन्ने फासेणं दिव्येणं संघयणे विइयं च मसंपत्ता, भरे जोवणे बट्टमाणा तलभंगयतु - दिवेणं संगणेणं दियाए पछीए दिनाए जुईए दियाए डियपवरजसण निम्मलनिरयमणिरयणमंमियतया दसमु- भामाए दिवाए गयाए दिवाएं पहाए दिमाए अच्चीए हामंडियऽग्गहत्या मामणिविचित्तचिंधगता सुरूवा महिहि- दिनणं एएवं दिवाए साए दमदिसाओ उज्जोवेमाया महज्जुझ्या महायसा महम्बला महाजागा महामो- शा पनासेमाण।। ते णं तत्थ माणं साणं भवरणावाससक्खा हारविराज्यवत्या कढयतुमियथंजियनुया अंगरकुं यमहस्साणं साणं माणं सामाणियमाइस्सीणं माणं स्लमहगंडयाकरणपीढधार। विचिचहत्थाजरा विचिः साणं.तायणीसाणं साणं सायं मोगपालाणं साणं साणं
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गण
अभिधानराजेन्द्रः।
गण
भग्गमाहिसाणं साणं साणं परिसाण साणं साणं अणीया- जवणावाससयसहस्मा जयंतीति मक्खायं । ते णं भवएं साणं साणं अणीयाहिवाईणं साणं साण आयरक्ख- णा बाहिं बट्टा,अंतो चउरंसा, सेसं जहा दाहिणिवाणं० देव सहस्साएं, अन्नेसिं च बहणं भवणवासी देवाण जाब विहरति । वली इत्थ वइरोयणिंदे वइरोयणराया प-- पदेवीण य आहेवच्चं पोरेवच्चं सामित्तं भट्टित्तं महत्तरगतं रिवसइ, काले महानीलसरिसे जान पनासेमाणे, से णं प्राणाईसरसेणावच्चं कारेमाणे पालेमाणे महया हयनगी- तत्थ तीसाए भवणाबाससयसहस्साणं सहीए सामापवाइयतीतलतालतुडियघणमुडंगपप्पवाश्यरवेणं दि- णियसाहस्सीणं तायत्तीसाए तायत्तीसगाणं चउएहं ब्वाई भोगनोगाई अँजेयाणा विहरति ।
लोगपालाणं पंचए अगमहिसीणं सपरिवाराणं तिएहं कहि णं ते ! दाहिणियाणं प्रसरकुमारदेवाणं पज्ज-| परिसाणं मत्तएई आणीयाणं सत्तएहं मणीयाहिबईणं तापजनाणं गणा पत्ता', कहिणं भंते ! दा- चउएहं सहीणं पायरक्खदेवसाहस्सीणं, अम्लेमिं च हिणिवा णं असुरकुमारा देवा परिवति । गोयमा ! बहणं उत्तरिस्लाणं अमरकुमाराणं देवाण य देवीण जंबुद्दीचे दीवे मंदरस्स पब्वयस्स दाहिणणं इमीसे र
| यावरचं पोरेवच्चं० जाव कुवमाणे विहरति । यणप्पनाए पुढवीए असीनुत्तरजोयपासयसहस्मबाह- कहि एं भंते ! नागकुमाराणं देवाणं पज्जत्तापज्जछाए उवरि एग जोयणसहस्सं जग्गाहित्ता, हेहा चगं चाणं गणा पएणता?, कहि णं जंते ! नागकुमारा देवा जोयणसहस्मं वज्जित्ता, मज्झे अहत्तरिजोयण-| परिवसंति । गोयमा ! इमीसे रयणप्पनाए पुढवीए असयसहस्से । एत्य णं दाहिणिलाणं अमुरकुमाराणं देवा- सीउत्तरजोयणसयसहस्मबाहद्वार, उपरि एगं जोयणसहणं देवीण य चोत्तीसं जवणावाससयमहस्सा हवंतीति स्मं वज्जिऊण, मझे महत्तरिजोयणमयसहस्से । एत्थ मक्खायं । ते णं जवणा बाहिं बट्टा, अंतो चउरंसा, सो णं नागकुमाराणं देवाणं पज्जत्तापज्जत्ताणं चुलसीइनवणाचेव वएणमो. जाव पभिरूवा । एत्थ एं दाहिणिलामं वाससयसहस्सा हवंतीति मक्खायं । तेणं भवणा बाहिं असुरकुमारदेवाणं पज्जत्तापज्जत्ताणं गणा पएणता । बट्टा, अंतो चनरंसा० जाव पमिरूवा। तत्य णं नागकुमातिसु वि लोगस्म अमंखेजइभागे । तत्य णं बहवे दाहि- राणं पज्जत्तापजत्ताणं गण पप्पत्ता । तिमु वि लोगस्स पिल्ला असुरकुमारदेवा देवीओ परिवति । काला.लो- असंखेजइभागे । तत्थ णं बहवे नागकुमारा देवा पग्विसंति हियक्खा तहेव. जाव तुंजेमाणा विहरति । एवं समत्थ | महिठिया महज्जुझ्या सेसं जहा मोहियाणं जाव विहरति । नाणियन्वं नवणवासी ।
धरणनूया एणंदा एत्थ वे नागकुमाररायाणो परिवसंतिमचमरे इत्थ अमरकुमारिंदे असुरकुमारराया परिवसा । हिहिया,सेसं जहा अोडियाणं० जाब विहरंति। कहिणं भंत! काझे महानीलसरिसे. जाव पहासेमाणे,सेणं तत्य चउ- दाहिणिवाणं नागकुमाराणं देवाणं पज्जत्तापजत्ता गतीसाए जवणावासमयसहस्साएं चउसट्ठीए सामाणिय- णा पएणता ?, कहिणं भंते ! दाहिणिवा णं नागकुनारा साहस्सीणं तायत्तीसाए तायत्तीसगावं चउएई लोग- देवा परिवसंति । गोयमा! जंबुद्दीचे दीवे मंदरस्स पन्न यस्स पालाणं पंचपई अग्गमाहिसीणं सपरिवाराणं तिगडं परि- दाहिणेणं इमासे रयणप्पनाए पुढवीए असीउत्तरजोयणसाणं सत्तएई अणीयाणं सत्तएई अणीयाहिबईणं च- सयसहस्सवाहलाए, उवरि एगं जोयणसहस्सं उग्गाहिता नएहं च चउसट्ठीणं आयरक्खदेवसाहस्साणं, अन्नसिं च | हेहा चेगं जोयणसहस्तं वज्जित्ता, मज्के अट्ठहत्तरिजोयणबहणं दाहिणिस्लाणं देवाणं देवीण य माहेवाचं पोरे- सयमहस्से। एत्थ णं दाहिणिलाएं नागकुमाराणं देवाणं चीबच्चं० जाब विहरति ।
यालीस भरणावाससयसहस्सा हवंतीति पक्खायं । तेणं कहि णं भंते ! नतरिल्लाणं असुरकुमाराणं देवाणं भवणा बाहिं चट्टा० जाव पमिरूवा । एत्थ णं दाहिणिलाणं पज्जत्तापज्जताणं गणा पल्पता, कहिणं भंते ! - नागकुमाराणं देवाणं पज्जत्तापज्जत्ताणंगणा पत्ता,तिस सरिन्ला असुरकुमारा देवा परिवति । गोयमा ! - विलोगस्स असंखज्जइभागे। एत्य णं बहने दाहिणिलाणं बुद्दीवे दीवे मंदरस्स पन्नयस्स उत्तरेणं इमीसे रयण- नागकुमारा देवा परिवसंति महिहियाजाव विहरति । धरणे प्पभाए पुढवीए असीनत्तरजोयणसयसहस्सबाहल्लाए एत्थ नागकुमारिंदे नागकुमारगया पारवतंति महिहीए. स्वरि पगं जोयणसहस्सं नम्गाहिता, हेडा चेगे जोयपास- नाव पभासेमाणे, से णं तत्य चोयानीसाए भवणावासइस्सं वजित्ता, ममे भट्ठहत्तरिजोयणसयसहस्से । एत्य सयसहस्साणं ए सामाणियसाहस्सीणं तायत्तीसाए थं उत्तरिस्ताणं असरकमारा देवा देवीण य नीस सध्यत्तीसगाणं एवं लोगपालाणं गए अम्गमाहसीणं
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गण
( १७०५) श्रनिधानराजेन्द्रः ।
सपरिवाराणं तिएहं परिसाएं सत्तएदं अणीयाणं सत्त एवं अणीयादिवईणं चवीसाए मायरक्खदेवसाहस्सीणं, अनेसि च बहूणं दाहिणिल्लाणं नागकुमाराणं देवाण य देवीण यावचं पोरेबच्चं० जाव कुव्वमाणे विहरति । कहि णं जंते ! उत्तरिलाएं नागकुमाराणं देवाणं पज्जसापजता गणा पत्ता १, कहि णं भंते ! उत्तरिया नागकुमारा देवा परिवसंति ।। गोयमा ! जंबुद्दीवे दीने मंदरस्स पव्वयस्स उत्तरेणं इमीसे रणपनाए पुढवीए असी उत्तरजोयणसयस इस्सबाट लाए जबरि एगं जोयणसहस्सं भोगाहिता, हेट्ठा चेगं जोयणसहस्सं बज्जित्ता, मज्जे हत्तरिजोयणसयस हस्से । एत्य णं उत्तरिल्लाणं नागकुमाराणं देवाणं चत्तालीसं जवणावाससय सदस्सा हवंतीति मक्वायं । ते णं जवणा बाहिं बट्टा, सेसं जहा दाहिणिला जाव विहति । भूयाणंदे इत्य नागकुमारिंदे नागकुमारराया परिवस महिडिएन्जाब पनासेमाणे, से तत्थ चत्तालीसाए भवणावाससय सहस्साणं माहेवच्च० जाव विहरड़ ।
कहि णं जंते ! सुत्रष्पकुमाराणं देवाणं पज्जत्तापज्जत्ताणं ठपणा १, कहि णं भंते ! सुवाकुमारा देवा पविसंति ? । गोयमा ! इमीसे रयणप्पजाए पुढवीए० जान एत्य णं सुत्रकुमाराणं देवाणं वावत्तरिजवणावासस्यसहस्सा हवंतीति मक्खायं । ते णं भवणा बाहिं वट्टा० जाव पमित्रा, तत्य णं सुवष्पकुमाराणं देवाएं पज्जतापज्जचांगला पत्ता । तिसु वि लोगस्स असंखेज्जइ भागे । तत्य णं बहवे सुकुमारा देवा परिवसति महिडिया, सेसं जहा ओहियाणं० जाव विहरंति । वेणुदेवे वेणुदासी य इत्य दुवे सुवणकुमारिंदा सुबकुमाररायाणो परिवति, महिष्ठिया० जाव विहरति ।
कहिणं चंते ! दाहिणिलाणं सुत्रष्पकुमाराणं देवाणं पज्जत्तापज्जसाणं ठाणा पत्ता ?, कहि णं भंते ! दाहिणिल्ला सुष्पकुमारा देवा परिवसंति ।। गोयमा ! इमीसे० जाव मके प्रदत्त रिजोयणसयस हस्से । एत्य णं दाहिशिल्ला सुवाकुमाराणं अट्ठत्तीसं भवणावामसयसदस्सा हवंतीति मक्खायं । ते णं भत्रणा बाढ़ि बट्टा० जाव पनि । तत्य णं दाहिणिल्लाणं सुवष्पकुमाराणं पज्जत्तापजत्ताणं ठा पाता । तिसु वि लोगस्स असंखेज्जइजागे । एत्थ णं बहने सुकुमारा देवा परिवसति । वेणुदेवे इत्य सुबशिंदे सुत्रकुमार रायाणो परिवसंति, सेसं जहा नागकुमाराणं ।
कहि णं जंते ! उत्तरिल्लाणं मुंबष्पकुमाराणं देवाणं प
४२७
गप
ज्जतापज्जत्ताणं गणा पत्ता ?, कढि णं नंते ! उत्तरिया सुवणकुमारा देवा परिवसंति ।। गोयमा ! इमीसे रयणप्पजाए०जाब एत्य णं उत्तरिखाशं सुवणकुमाराएं वसन्त्रया जलिया, तहा सेसाण वि चोदसरहं इंदाणं भाणियoot; नवरं भवणनाणत्तं इंदाण नाणत्तं वशेण नालचं परिहानागतं च इमाहिं गाहाहिं गंतव्वं
" चोट्ठी असुराणं, चुलसीती चैत्र ढोड़ नागाणं । बावतारं सुवसे, बाजकुमाराण छष्ठउती ॥ १ ॥ दीदसादही, चिज्जुकुमारिंदथणियमग्गीणं ।
पिलाएं, छात्रत्तरिमो सयसहस्सा ॥ २ ॥ चौतीसा चोयाला, अमतीसं दोइ सय सहस्साइं । पप्पा चालीसा, दाहिए ओ होति भवणाई ॥ ३ ॥ तीसा चत्तालीसा, चोत्तीसं चेत्र सयसहस्साई | छायाला बत्तीसा, उत्तरम्रो होति भनणाई ॥ ४ ॥ चनसट्टी सट्ठी खलु, बच्च सहस्सा उ असुरवज्जाएं । सामालियान एए, चग्गुला आवरक्खाओ ॥ ५ ॥ चमरे धर तह वे - देवहरिकंत अग्गिसी य । पुझे जन्नतेय, अमिए वेलंबे घोसे य ॥ ६ ॥ बलि नूगाणंदे - मुदालि हरिमहऽग्गिमाण व विसिडे । जनपर्ने अमियवाहणे, पभंजणे वा महाघोसे ||७|| " उत्तरिझाएं० जाव विहरति ।
"काला असुरकुमारा, नागा उदही य पंडुरा दो वि । बरकणगणिहसगोरा, होंति सुबच्छा दिसा थणिया ॥ १ ॥ उत्तत्तकगवष्णा, विज्जू अग्नी य ढोंति दीवा य । सामा पिगुवा, बाउकुमारा मुणेयव्वा ॥ २ ॥
सुरे होंति रत्ता, सीलिंधप्पुप्फभायणा उदही । सासयवसणधरा, होंति सुत्ररणा दिसा यलिया || ३ || नीला रागवा, विज्जू अग्गी व होंति दीवा य । संजाऽणुरागवसला, वाङकुमारा मुणेयब्दाः ||५||" कहिं भंते ! वाणमंतराणं देवाणं पज्जत्तापज्जत्ताणं गणा पत्ता?, कहि णं जंते ! बामंतरा देवा परिवति ? | मोयमा ! इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए रयणामयस्स कंडयम जोयणसहस्सवाहास्स उवरि एवं जोयलसयं ओगाहिता, हिडा वि एगं जोयणसय वज्जिता, मज्जे सु जोयणसएमु । एत्य णं वाणमंतराणं देवागं तिरियमसंखेज्जाओ भोमेज्जानगरावास सय सहस्सा हवंतीति मक्खायं । ते णं भोमेज्जा एगरा बाहिं वहा, अंतो चनरंसा, हे दुक्खरकन्निया संगणसंगिया, उक्किनंतर विलगंभीरखायफनिहा पागारऽहालय कत्रा कतोरण परिवारदे
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ठगम अभिधानराजेन्द्रः।
गण सजागा जंतसयग्घिमुसलनुसंटिपरिवारिया अउका सया एणसिं च बहूणं वाणमंतराणं देवाण श देवीण य श्राजया सया गुत्ता प्रम्यालकुटरइय अस्पालकयवसमाला| हेवच्चं पोरवच्चं सामित्तं जट्टित्तं महत्तरगतं भाणाईमरसेखेमा सिवा किंकरामरदंडोवरक्खिया लाउलोश्यमाहिया णावच्चं कारेमाणा पालेमाणा महया हयनगीयवाइयतंगोसीससरसरत्तचंदणददरदिपपंचंगुलितला उनचियचंद- तीतलतालतुमियघणमुइंगपडुप्पवाइयरवेणं दिव्बाई भोगएकलसा चंदणघडकयतोरणपमिदुवारदेसजागा पास-1 भोगाईमुंजेमाणा विहरति । सोसत्तविउबट्टवम्घारियमल्लदामकलावा पंचवन्नसरस- कहिणं भंते ! पिसायाएं देवाणं पज्जत्तापज्जत्ताणंगणा मुरभिमुक्कपुप्फपुंजोवयारकनिया कानागुरुपवरकंदरकतुरु- पक्षात्ता', कहि णं भंते ! पिसाया देवा परिवसंति । गोकधूवमघमघंतगंधायाभिरामा सुगंधवरगंधिया गंधवट्टीया यमा ! इमीसे रयणप्पनाए पुढवीए रयणामयस्स कंम्यस्स अच्छरगणसंघविकिमा दिव्वतुडियसहसंपन्नंदिया पमाग- जोयणसहस्सबाहवस्स उवरि एगं जोयणसयं श्रोगाहित्ता, मासानमाजिरामा सम्बरयाणमया अच्छा सएहा सहा हिहा नेगं जोयणमयं बज्जित्ता, मनके अट्टम जोयणसघट्टा मट्ठा नीरया निम्मला निप्पंका निकंकमच्छा- एम, एत्थ णं पिसायाणं देवाणं तिरियमसंखेजा भोमेया सप्पना ससिरीया सज्जोया पासादीया दरिस- ज्जानगरावाससयमहस्सा हवंतीति मक्खायं । ते गण भोणिजा अनिरूवा पमिरूवा । एत्थ णं वाणमंतराणं देवा- मेज्जा नगरा बाहिं बट्टा, जहा प्रोहियो भवणवाओ, तहा णं पजत्तापज्जत्ताणं अण्णा परमत्ता । तिसु दि लोगस्स नाणियन्वो० जाव पमिरूवा । एत्थ णं पिसायाणं देवाण असंखेज्जइलागे । तत्य णं बहवे वाणमंतरा देवा परि- पज्जत्तापजत्ताणं गणा पत्ता । तिमु विमोगस्स असंखेवसति । तं जहा-पिसाया नूया जक्खा रक्खसा किन्नरा ज्जनागे,तत्य णं बहवे पिसाया परिवति महिहिया जहा किंपुरिसानुयगवातणो य महाकाया गंधवगणा य निउण- भोहियाजाव विहरति । काझा,महाकाला,इत्य वे पिगंधवगीतरइणो अणवमियपणवामि यइसिवाइयनूयवाइय- साइंदा पिसायरायाणो परिवसंति महिहिया महज्जुइया० कंदियमहाकंदियकोहंम्पयंगदेवा चलचवलचित्तकीलण- जाव विहरति । दवपिया गहिरहासयपिया गीयणिञ्चरती वणमालाss- कहि णं भंते ! दाहिणिताणं पिमायाणं देवाणं गणा मेलपनलकुंडासच्छंदविउधियानरणचारुतूसणधरा स-1 पप्पत्ता ?, कहिणं भंते ! दाहिणिल्ला पिसाया देवा परिबोयमुरभिमुमसुरइयपलं बसोहंतकंतवियसितचितवनमा. वसंति ? । गोयमा ! जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स सरइयवच्छा कामकामा कामरूवदेहधरा नाणावि- दाहिणणं इसीसे रयणप्पनाए पुढवीए रयणामयस्स कंसहवनरागवरवत्यालितचित्तचिबगणियंसणा विविहदे। यस्स जोयणसहस्मबाहवस्स उपरि एगं जोयणसयं ओसनेवत्यगहियवेसा समुश्यकंदप्पकलहकेलिकोलाहलप्पि- गाहित्ता, हिट्ठा चेगं जोयणसयं वज्जित्ता, मज्के असु या-हासा बोलबहुला अमिमोग्गरसत्तिकुंतहत्या अणेग- जोयणसएम, एत्थ णं दाहिणियाणं पिसायाणं देवाणं तिमणिरयाणविविहनिज्जुत्तविचिनचिंधगया सुरूवा महि- रियमसंखिजा भोमेजानगरावाससयसहस्सा हवंतीति हिया महज्जुतिया महायसा महावला महाणुजागा महा- मक्खायं । ते णं जवाणा जहा श्रोहियो भवणवमो सोक्खा हारविराश्यवच्छा कमगतुडियद्यनियनुया अंग- तहेब जाणियन्वो० जाव पमिरूवा, एत्थ णं दाहिणियकमन्नमहगंडजुयाकरणपीधारी विचित्तहत्यारणा दाणं पिसायाणं देवाणं पजत्तापजत्ताणं ठाणा पठत्ता, विचित्तमालामउलिकबाणगपवरवत्यपरिहया कबाणगप- तिसु बि लोगस्स असंखज्जइलागे, तत्य णं बहवे दाहिपरमलालेवणधरा जासुरवोंदी पलंबवणमालधरा दि- णिवा पिसाया देवा परिवसंति,महिलिया जहा ओहिया. वेणं बनणं दिव्वेणं गंधेणं दिनेणं फासेणं दिनणं संग- जाव विहरति । काले जत्थ पिमाईदे पिसायराया परिवणणं दिव्वाए शहीए दियाए जुईए दिवाए पनाए दिवाए
सति महिहिए. जाव पभासमाणे, से पण तत्थ तिरियछायाए दिव्याए अञ्चीए दियेणं एएणं दिवाए लेसाए
मसंखेज्जाणं भोमेजा णगरावासमयसहस्साणं चनएहं दसदिसायो नज्जोवेमाणा पजासेमाणा। तेणं तत्य साणं
सामाणियसाहस्सीणं चढएहं अग्गमहिसीएं सपरिवाराणं साणं नोमेजाणगरावाससयसहस्सा असंखिजाणं साणं
तिएई परिसाणं सत्तएहं अणीयाणं सत्तएर अणीयाहिबईसाणं सामाणियसाहस्तीणं साणं साणं अम्गमाहिसीणं साणं | णं सोलसएहं पायरक्खदेवसाहस्सीणं, अबेसिं च बहणं साणं सपरिसाणं साणं सामं अणीयाणं साणं साणं अ-| दाहिणियाणं वाणमंतराणं देवाण य देवीण य आहे वच्चं. णीवाडिवईणं साणं साणं मायरक्खदेव साहस्सीएं, अ. जाव विहरति ।
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(१७०७) गण अभिधानराजेन्दः ।
गण उत्तरिलाणं पुग? । गायमा ! जदेव दाहिणिलाणं दसुत्तरं जोयणसयं बाहो, तिरियमसखिजे जोडमविमए। बत्तन्वया, तहेन, उत्तरियाणं पि, नवरं मंदरस्स पन्मयस्स एत्य णं जोइसियाणं देवाणं तिरियमसंखिज्जा जोडसियउनरेणं महाकाले जत्य पिमाइंदे पिसायराया परिवसति. विमाणा वाससयसहस्मा हवंतीति मक्खायं । ते णं विमानाव विहरति । एवं जहा पिसायाणं तहा ल्याणं पिजाव णा अद्धकविठ्ठगसंठाणसंविया सव्वफालियामया अइहगंधवाणं,नवरं इंदमु नाणसं भाणि यव्यं, इमणं पि विहिणा | गयमुसियपहसिया व विविहमणिकणगरयणभत्तिचित्ता नृयाणं सुरूवपमिरूवा, जक्खाणं पुस्मभद्दमाणिभदा, यानकृतविजयवेजयंतीपागा छत्तापच्चत्तकलिया तुंगा रक्खसाणं नीममहानीमा, किन्नराणं किन्नरकिंपुरिसा, किं. गगनतझमहिलंघमागासिहरा जालंतररयणपंजरुम्मीनिय व्ब
गणं सप्परिसमहापरिमा.महोरगाणं अइकायमहाकाया, मणिकणगथभियागा वियसियसयपत्तपोमरीया तिलगरगंधवाणं गीतरई गीत जसा० जाव गीयजसे विहरति ।। यणकचंदचित्ता नानामणिमयदामालंकिया अंतो बाहिं च "काले य महाकाले, मुरूव पमिरूव पुष्पानद्दे य । सएहा तवणिज्जरुइलबाबुया पत्थमा मुहफासा ससिरीयअमरवइ माणनद्दे, जीमे य तहा महाभीमे ॥१॥
रूवा पासाईया दरिसणिज्जा अनिरूवा पमिरूवा, एत्थ गं किन्नर किंपुरिसे खनु, सप्पुरिसे खलु तहा महापुरिसे ।
जोइसियाणं देवारणं पज्जतापज्जत्ताणं गणा पएणत्ता। अइकाऍ महाकाए, गीयरती चेव गीयजसे"शविहरति।।
तिसु विमोगस असंखेज्जनागे । तस्य बहवे जोइसिया कहिणं भंते ! अणवन्नियाणं देवाणं ठाणा परम
देवा परिचमंति । तं जहा-घहस्सई,चंदा,सूरा,सक्का,सणिता,कहि णं भंते अणवनिया देवा परिवसति। गोयमा!
चकरा, राहुधूमकेतुबुधा, अंगारगा, तत्ततवाणिज्जकणगवन्ना इमीसे रयणप्पनाए पुढवीए रयणामयस्स कंम्यस्स जोयण
जे गहा जोइसिम्मि चारं चरति, केतू य गतिरइया अहावीसहस्सबाहल्लस्स उवरि हिट्ठा य एगं जोयणसयं वज्जित्ता,
सशविहा य नक्खत्ता देवयगणा नाणासंगणसंग्यिाओ य मजके अहम जोयणसएम,एत्य अणवन्नियाणं देवाणं ति
पंचवन्नाओ तारयाओवि य तेयलेस्साचारिणो अविस्सारियमसंखिज्जा जवणा वामसयसहस्सा हवंतीति मक्खाय।।
मममनगई पत्तेयं णामंकपगडियचिंधमउमा महिमियाजाव ते एंजाब पडिरूवा, एत्य णं अण्वनियाणं देवाणं गणा
पभासेमाणा, ते तस्य साणं साणं विपाणावाससयसहपत्ता । नवधाएणं लोगस्स असंखेज्जाजागे, समुग्घाएणं
स्साणं साणं साणं सामाणियसाहस्सीणं साणं साणं श्रलोगस्स असं खेज्जइभागे, सटाणेणं सोगस्स असंखेज्जइ
ग्गमहिमीणं सपरिवाराण साणं सायं परिमाणं साणं साणं भागे। तत्य णं अणवन्निया देवा परिवसंति,महिहिया जहा
मणीयाणं साणं साणं णीयाहिवाईणं साणं साणं पिसाया नाव विहरंति, सन्निहियसामाणा,इत्य मुवे अणव- श्रायरक्खदेवसाहस्सीणं अनेसि च बहूणं जोशमियाणं निदा अणवन्नियकुपाररायाणो परिवति महिदिया,जहा
देवाण य देवीण य आहेवच्चं. जाव विहरति । चंदिमकालमहाकासा, एवं जहा कालमहाकालाणं दोएडं पि सूरिया य, एत्य मुवे जोड़सिंदा जोइमियरायाणो परिदाहिणिबाणं उत्तरिहाण य जणिया, तहा संनिहिय- वसंति महिडिया० जाव पनासेमाणा, ते णं तत्थ माणं सामाणाएं पि भाषियव्वा !!
साणं जोइसियविमाणावाससयसहस्साणं चउरई सामाणिसंगहणिगाहा
यसाहस्तीणं चनएहं अग्गमहिसीणं सपरिवाराणं तिएई "अणवन्निएँ पागवन्निएँ, इसिवाइऍ भूयवाइए चेव ।
परिसाणं सत्तएई अणीयाणं सत्तएई अणीयाहिर्वईणं कंदिऍ य महाकंदिऍ, कोहंडऍ पयंगदेवा य ॥२॥"
सोअसण्इं आयरक्खदेवसाहस्साणं जोसियाणं देवाण इमे इंदा
य देवीण य आहेवचं० जाब विहरति । "संनिहिए सामागिएँ, धाइ विधाए इसी य शमिवाने। कहि णं ते! माणियाणं देवाणं पज्जत्तापज्जत्ताणं ईसरे महेसरे विय, हवइ सुबत्थे विसाले य ॥१॥ गणा पत्ता?, कहिणं ते ! वेमाणिया देवा परिवसति हासे हासरई वि य, सेए य भवे तहा महासेए । १। गोयमा ! इमीभे रयणप्पभाए पुषीए बहुसमरमणिपयगे पयगपए विय, नेयवा आणुपुबीए॥॥" | ज्जाओ जूमि नागाओ न चंदिममूरियगहनखत्तकहिणं भंते ! जोइसियाणं देवाणं पजनापजत्ताणं गणा तागरूवाणं बहूई जोयणसयाई बहूई जोयणसहस्लाई पन्नता?, कहि णं भंते ! जोसिया देवा परिवति । बहुगाओ जोयणकोमीओ बहुगाओ जोयणकोमाकोगोयमा ! इमीसे रयणप्पत्ताए पुढवीए बहुसमरमणिज्जा-1 मी उऊं दूरं उप्पइत्ता, पत्य ण सोहम्मीसाणसणंमो भिजागामो सचषउए जोयणसए उनप्पश्चा, कुमारमाहिंदबंभलोगलंतगमहासुक्कसहस्साराणयपाणय --
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(१७००) ठाण अभिधानराजेन्यः ।
मागा प्रारण मानुयगेविजाणत्तरेमु तत्य इत्थ णं वेमाणियाणं गाओ जोयणकोटीमो पहुगाओ जोयणकोडाकोमीओ देवाणं चउरासीविमाणसयसहस्सा सत्ताण ईजत्रे सह- उ दूरं नप्पडत्ता एत्य णं सोहम्मे नामं कप्पे पन्नत्ते । साओ तेवीसं विमाणा हवंतीति मक्खायं । तेणं विमाणा पातीणपमीणायते नदीपदाहिणवित्यिन्ने अफचंदसंसचरयणामया अत्या सएहा लहा घट्ठा मट्ठा नरिया गणसंठिए अच्चिमानिभासरासिवन्नाले असंखेज्जाश्रो निम्मला निप्पंका निकंकमच्छाया सपहा ससिरीया स- जोयणकोमीओ असंखेजाओ जोयणकोमाकोमोश्रो उज्जोया पासादीया दरिमणिज्जा अनिरूवा पमिरूवा, प्रायामविक्खनेणं असंखेज्जाओ जोयणकोडाकोइत्य णं वेमाणियाणं देवाणं पज्जत्तापग्ननाणं वाणा मीनो परिक्खेवेणं सबरयणामए अत्ये सएहे सड्ढे पसत्ता । तिमु वि लोगस्स भमंखेजइभागे, तत्थ एं घटे पढे. जाव पडिरूवे । तत्य णं सोहम्मगबहवे वेमाणिया देवा परिवसति । तं जहा-सोहम्मीसाणस-| देवाणं बत्तीसं विमाणावामसयसहस्सा हवंतीति मक्खाकुमारमादिवंभलोगनंतगमहासकसहस्मारमाणयपाण
यं । ते विमाणा सबरयाणामया अत्या० जाव पारणमच्चुयगेविज्जगाएत्तरोवाझ्या देवा, ते णं मि- | पफिरूवा । तेसि णं विमाणाणं बहमज्देसभाए पंच यमहिसवराहसीहकगाददुरहयगयत्तुयगखग्गनमकवि-| बमया पम्मत्ता । तं जहा-असोगवमए, सत्तपन्नवसए, मिमपागफियचिंधमनडा पसदिलवरमनतिरीमधारिणो चंपगवमेंसए, चूयवसए,मज्के तत्य सोहम्पवमेंसर । तेणं बरकुंकबुज्जोइयाणा मनमदित्तसिरया रत्तामा पउपप्पह- बसया सन्नरयणामया भत्था० जाव पफिरूना. पत्थ एं गोरा नासेया मुहवामगंधफामा उत्तम उबिणो पवर- सोहम्मगदेवाणं पजत्ताऽपज्जत्ताणं गणा पत्ता, निसु बत्यगंधमक्षाणुलेवणधरा महिहिया महज्जुश्या महायसा वि लोगस्म प्रसंखज्जइलागे, तत्य णं वह सोहम्मगदेपानना महाणुभागा महासोक्खा हारविराश्यवच्छा क- वा परिवसंति महिष्ठिया० जाव पन्नासेमाणा । तेणं नत्य बगडियथं भियन्तुया अंगदकंगनमगंमतलकपीढधार।।
सायं साणं विमाणावाससयसहस्साणं साणं माणं अविचित्त त्याभरणा मिचित्तमालामनलीकल्लाणपवरवत्थ
ग्गमहिसीणं साणं साणं सामाणियसाहस्सीणं एवं जब परिहिया कक्षाणगपवरमलानेवणा जासुरबोंदी पसंवत्र
भोहियाणं तहेच एतेसि पि जाणियबं० जाच पायणमानधरा दिवेणं पण,दिवेणं गंधे,दिवेणं फासेणं,
रक्खदेवसाहस्सीणं, अन्नेसि च बढणं सोहम्मगकप्पवादिनेणं संघपणेणं, दिनेणं संगणेणं,दिवाए इडीए,दि
सीणं वेमाणियाणं देवाणं देवीण य आहेबच्चं पोरेवश्चं० बाए जुईए,दिवाए पनाए,दिबाए छायाए, दिव्याए अ
जाव विहरति । सके इत्य देविंदे देवराया परिवसइ बबीए,दिवेणं तेएणं,दिवाए लेसाए दसदिसाभो उज्जोव
जपाणी पुरंदरे सयका सहस्सक्खे मघवं पाकसासणे माणा पनासेमाणा,तेणं तत्य साणं साणं विमाणावाप्तस--
दारिणयोगादिवई बत्तीसविमाणवाससयसहस्साहिबई यमहस्साणं साणं साणं सामाणियसाहसीएं साणं साणं एरावणवाहणे सुरिंदे अरयंवरवस्यधरे आलइयमाझमठो तायत्तीसगाणं साणं साणं सोगपालाणं साणं साणं अग्ग
नवहेपचारुचित्तचंचल कुंकलविलिहिज्नमाणगं महिलिएक पहिसीणं सपरिवाराणं साणं साणं परिसाणं साणं साणं
जाव पभासेमाणे से णं तत्थ बत्तीक्षाए विमाणावाससयप्रणयाणं साणं साणं अणीयाहिबईणं साणं साणं प्राय
सहस्साणं चउरासीए सामाणियसाहस्साणं तायत्तीसाए रक्खदेवसाहस्सीणं अत्रेसिं च बहणं चेमाणियाणं देवाणं वायत्तीसगाणं चउण्डं लोगपालाणं अट्ठएवं अग्गमदेवीण य आहेवचं पोरेवच्चं सामित्तं भहितं महत्तरगत्तं
हिमीणं सपरिवाराणं तिएडं परिसाणं सत्तएडं - प्राणाईसरमणावञ्चं कारेमाणा पालेमाणा महया हयनट्ट- णीयाणं सत्तएई आणीयाहिवईणं चनएहं चउरामीणं गीयवाश्यतंत तन्नतासतुफियषणमुइंगपडप्पबाइगरवेणं दि.
प्रायरक्वदेवसाहस्सीणं, मन्नोसि च बढ़गं सोहम्मकप्पबाई जोगभोगाईनुजमाणे विहरति ।
बामीणं वेमाणिया देवाण य देवीण य आहेवचं पोकहिए नंत! सोहम्मगदेवाणं पज्जत्ताऽपजत्ताणं गणा
रेवचं कुबमाणे. जाब विहरति । पसत्ता, कहिणं ते ! सोहम्मगदेवा परिवसंति ।। कहि भंते सागदेवाणं पजत्तापज्जताणं ठागत्यमा! जंबुरीचे दीचे मंदरस्स पञ्चयस्स दाहिणे इमीसे णा पत्ता, कहिणं भंते ! इसाणगदेवा परिवति । रयणप्पभाए पुढचीए बटुसमरमणिज्जाश्रो पिनागायो | गोयमा ! जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पन्चपस्स उत्तरेणं इमी
चंद्रिमसूरियगहगणनक्खत्तताराणं बहाणि जोयाणसयाई से रयणप्पभाए पुढवीए बहसपरमणिज्जाम्रो नूमिनागाबहणि जोयणसहस्साई बहुणि जोयणसयसास्साई बढ़- भो नई चंदिमसूरियम्गगणनक्खचतारारूवाणं बरं
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(१७०७) गण निधानराजेन्द्रः।
गण मोयणसयाई बहई जोयणसहस्साइं० जाव नप्पश्त्ता, इ- विदे देवराया परिवसह, अरयंबरवत्थधरे, सेसं जहा सकस्थ साणे नामं कप्पे पाते, पाईपदीणायए नदी. स्स,से णं तत्य बारसएडं बिमाणावाससयसहस्साणं बापादाहिणवित्यिन्ने, एवं जहा सोहम्मे० जाब पफिरूवे ।। बत्तरीए सामाणियसाहस्सीणं, सेसं जहा सकस्स अग्गमवत्य पं ईसाणगदेवाणं अट्ठावीसं विमाणावाससयसहस्सा हिसीबज्नं, नवरं चउएहं बावत्तरीणं भायरक्खदेवसाहहवंतीति मक्खायं । ते णं विमाणा सव्वरयणामया० जाव स्सीणं. जाब विहरइ। पभिरूवा । तेसि णं बहुमज्देसनाए पंच वडेंसगा कहि भंते ! माहिंदाणं देवाणं पज्जनाऽपज्जसाणं ग. पत्ता । तं जहा-अंकवमेंसए, फलिहवमेंसए, रयणवमें- णा पमत्ता ? कहिणं नंते ! माहिंदगा देवा परिवति । सए, ० जाव सुरूववामिसए, मज्के इत्य ईसाणवढेसए । गोयमा! इसाणस्स कप्पस्स उम्पि सपक्खि सपमिदिसिं ते णं वमेंसया सन्चरयणामया. जाव पटिरूवा। इत्थ णं बहूई जोयणाई. जाव बहुगाओ जोयणकोडाकोमीओ ईसाणाणं देवाणं पज्जचापज्जत्ताणं गणा पएणत्ता। तिसु नई दूरं नप्पइत्ता, तत्य णं माहिंदे णामं कप्पे पसत्ते, पावि लोगस्स असंखेजइजागे, सेसं जहा सोहम्मग- ईण मीणायए जाव एवं जहेव सणकुमारे,नवरं अट्ट विदेवाणं. जाब विहरति, ईसाणे इत्थ देविंदे देवराया माणावाससयसहस्सा वमेंसया,जहा ईसाणे,नवरं मज्के तत्थ परिवसति सूलपाणी बसनवाहणे उत्तरोगाहिबई देविंदे देवराया परिवसइ, अरयंवरवत्थधरे, एवं जहा सअट्ठावीसविमाणावाससयसहस्साहिवई अरयंवरवत्यधरे, णंकुमारे जाव विहर, नवरं अहएई विमाणायामसयस-- सेसं जहा सकस्स० जाव पत्नासेमाणे, तत्थ अट्ठावीसाए
हस्साणं सत्तरीए सामाणियप्ताहस्सीणं चउपहं सत्तरीणं विमाणावाससयसहस्साएं असीतीए सामाणियसाहस्सी
प्रायरक्खदेवसाहस्सीणं० जाब विहरह। णं तायत्तीसाए तायत्तीसगाणं चउएहं लोगपालाणं अ
कहिणं नंते ! बंभलोगदेवाणं पज्जनापज्जत्ताणं हुएई अग्गमाहिसीणं सपरिवाराणं तिराह परिसाणं स
गणा पसत्ता ?, कहि णं ते ! बनसोगा देवा त्तएहं मणीयाणं सत्तएहं अणीयाहिबईणं चउएहं भ
परिवति । गोयमा! सर्पकुमारमाहिंदाणं कप्पाणं उम्पि सीतीणं आयरक्खदेवसाहस्सीणं, अन्नसिं च बहूणं ई
सपक्खि सपमिदिसिं बहई जोयणाइं० जार उप्पइत्ता, इत्य साणकप्पवासीणं बेमाणियाणं देवाण य देवीण य आहे
णं बंजलोए नाम कप्पे पाईपापडीणायते, नदीणदाहिणवचं पोरेवच्चं कुन्चमाणे जाव विहर।
विस्थिन्ने, पमिपुन्नचंदसंगणसंगिए अच्चिमाली भासरासिकहिणं ते ! सणंकुमारदवाणं पज्जत्तापज्जत्ताणं प्पने, भवसेसं जहा सणंकुमाराणं, नवरं चत्तारि विमाणागणा पत्ता ?; कहि एं भंते ! सणं कुमारा देवा वाससयसहस्सा वमेंसगा, जहा सोहम्मस्स बसया, नवरं परिवसंति । गोयमा ! सोहम्मस्स कप्पस्स अपि मक्के इत्य बनसोयवमेंसए, इत्थ णं बंजोगाणं देवाणं सपक्खिं सपमिदिसिं बह जोयणाई बहई जोयण- गणा पमत्ता । सेसं तहेव० जाब विहरति । वंभे इत्थ देसयाई बहई जोयणसयसहस्साई बहगाो जोयणकोमी- विदे देवराया परिवसइ अरयंबरवत्थधरे, एवं जहा सणं. श्रो बहुगामो जोयणकोडाकोडीओ उर्छ दूरं उप्पश्चा,। कुमारे जाव विहरति, नवरं चउएहं विमाणावाससयसतत्य णं सणंकुमारे नामं कप्पे पामते, पाईणपमीणायए, हस्साणं सट्ठीए सामाणियसाहस्सीणं चउएह य सट्ठीणं उदीणदाहिणवित्थिन्ने, जहा सोहम्मे कप्पेण्जाव पफिरूवे। प्रायरक्खदेवसाहस्सीणं, अन्नसिं च बहणंजाब विहर। तत्य णं सणंकुमाराणं देवाणं वारस विमाणावाससयस- कहि णं जंते ! लंतगदेवाणं पज्जत्तापज्जत्ताणं ठाणा हस्सा हवंतीति मक्खायं । ते णं विमाणासन्नरयणामया० पमत्ता, कहि णं नंते ! लंतगदेवा परिवसंति ?। गोयमा ! नाव पडिरूवा,तसिणं विमाणाणं बहुमज्देसजागे पंचव- | पंजसोगस्स कप्पस्स उप्पि सपक्खि सपमिदिसि बदई मेंसगा पसत्ता । तं जहा-असोगवमेंसए, सत्तवप्लवमेंसए, जोयणसयाई० जाव पहुईओ जोयणकोमाकोमीओ नई चंपगवमेंसए, चूयरडेसए, मज्के जत्य सणंकुमारवमेंसर, ते दूरं जप्पइत्ता, इत्थ णं संतए नाम कप्पे पाने । पार्षणपणं वमेंसया सव्वरयणामया अच्चा जाब पभिरूवा। तत्थ
मीणायते जहा बंजसोए, नवरं पन्नासा विमाणावाससहणं सणंकुमारदेवाणं पज्जनाऽपज्जत्ताणं गणा पत्ता। स्सा हवंतीति मक्खायं, बडेंसगा जहा ईसाणवमेंसगा, नवरं तिसु दि लोगस्स असंखेज्जइजागे. तत्य णं बहवे सणं- मजके इस्थ लतगवटेंस ए देवा तहेव० जाब विहरति, संतए कुमारा देवा परिवसंति महिहिया. जाब पभासेमाणा| इस्य देविंद देवराया परिवसइ, जहा सणकुमारे, नवरं पविहरंति, नवरं अगमदिसीमो णत्यिसकुमारे, इत्य दे. मासाए विमाणावाससहस्साणं, पन्नासाए सामाणियसाह
४२०
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( १७१० ) अभिधानराजेन्धः ।
गण
स्त्रीणं चाहं पन्नासाणं प्राय रक्खदेव साहस्सीणं असेसिं च बहू० जाव विहरइ ।
'चा
कहि णं ते! महामुक्काणं देवाएं पज्जत्ताऽपज्जत्ताणं गणा पत्ता?; क िां जंते ! महामुक्का देवा परिवसंति १। गोयमा ! तस्स कप्पस्स उपि सपक्खि सपडिदिसिं० जाब उपइत्ता, इत्य णं महासुके नामं कप्पे पत्ते, पाईमीणायते, उदीपदाहिण वित्थिने, जहा बंजलोए, नवरं विमाणावाससहस्सा हवंतीति मक्खायं, वडेंसगा जहा सोहम्मर्केसगा, नवरं मजे तत्य महासुक्क डेंस ए० We fees | महामुक इत्थ देविंदे देवराया जहा संकु मारे, नवरं चचालीसार विमाणावाससाइस्सीणं चत्ताक्षीसाए सामाणियसाहस्सीएं चउरहं चत्तालीसाएं आयरक्खदेवसाहस्सीणं० जाव विहरति ।
क िभंते ! सहस्सार देवाणं पज्जत्ताऽपज्जत्ताणं ठाणा पत्ता?; कहि णं भंते! सहस्सारा देवा परिवसंति ? । गोया महासुक्कस कप्पस्स उपि पक्खि सपमिदिसिं०जान उपत्ता, इत्य णं सहस्सारे नामं कप्पे पत्ते, पाईएपीरायते, जहा बंभलोए, नवरं व त्रिमाणावास सहस्सा हवंतीति मक्खायं देवा तदेव वडेंसगा, जहा ईमाणस्स वर्षेसगा, नवरं मज्जे जत्थ सदस्सारवस ए० जाव विहरति । सहस्सारे इत्थ देविंदे देवराया परिक्स, जहा सणकुमारे, नवरं एवं विमाणावास सहस्ताणं तीसाए सामाणि - साहसी ं चनएह यतीसाणं आयरक्खदेवसाहस्सी ० जाव आहेवचं पोरेबच्चं कारेमाणे विहरति ।
कहि णं भंते! प्रणयपाणयदेवाणं पज्जत्ताऽपज्जत्ताणं ठाणा पत्ता?; काढणं भंते ! प्राणयपाणयदेवा परिवसंति है। गोयमा सहस्सारस कप्पस्स उपि सपर्विख समिदिसिं० जात्र उप्पइत्ता, इत्य णं आण्यपाणयणामेणं दुबे कप्पा पत्ता, पाईपमीणायते, उदीप दाहिण वित्थिन्ना, अव चंदमंठाणमंठा चिमाली भासरासिप्पना, सेसं जहा सण कुमारे० जाब परिरूवा । तत्थ णं प्राणयपाण्यदेवाणं चत्तारिविमाणावाससाहतीत मक्खायं जात्र पडिरूवा वसा, जहा सोहम्पे, नवरं मज्जे पाणयन कैंसर, ते णं वडेंसगा सव्वरयामया अच्छा०जाव पारिरूवा, इत्थ णं प्रणयपाण्यदेवाणं पज्जत्तापज्जत्ताणं ठाणा पन्नत्ता; तिसु वि लोगस्स संभागे, तत्थ णं बहवे आण्यपापयदेवा परिवति, महिष्ठिया० जाव पजासेमाणा । ते णं तत्थ सां साणं त्रिमाणावामसया० जाव विहरति । पाणए एत्थ देविंदे देवराया परिवति, जहा सकुमारे, नवरं चनएदं विमाणावासस्याएं बीसाए सामाणियसाहस्सीणं असी
For Private
गण
ती प्रायक्खदेव साहस्सीणं, अन्नेसिं च बहूणं० जान विहरति ।
कहि णं भंते! आरणच्चयाणं देवाणं पज्जत्तापज्जत्तापत्ता ? ; कहि णं भंते! आरणच्चुया देवा परिवसंति ? । गोयमा ! आणयपाणयाणं कप्पाणं उपि सपार्कख सपामीदसिं इत्थ आरणच्या नाम पुत्रे कप्पा पत्ता, पाईणपणायता, उदीणदाहिणत्रित्थिन्ना,
चंद संवगणसंविया चिमाली जासरासिवन्नाभा असंखिज्जाओ जोया कोडाकोमीओ आयामविक्खं नेणं, असंखेज्जाओ जोयको माकोमीओ परिक्खेवणं सव्वरययामया अच्छा सएड़ा लट्ठा घट्टा मट्ठा नीरया निम्मला पिंका निकमच्छाया सप्पन्ना ससिरीया सउज्जोया पासाईया दरिसणिज्जा अभिरुवा परिख्वा । इत्थ एं आरणच्या देवाणं तिन्नि विमाणावाससया इतीति मक्खायं । ते णं विमाला सव्वरयणामया अच्छा सहा लट्ठा घट्टा मट्ठा नीरया निम्मला निष्का निक्कंकडच्छाया सप्पभा ससिरीया सउज्जोया पासादीया दरिसणिज्जा अभिरूवा परूिवा, तेसि णं विमाणाएं बहुमज्झदे सभाए पंच व सया पत्ता । तं जहा - अंकवडेंसए, फलिहवर्डेसए, रयणसए० जाव रूववडेंसए, मज्जे जत्थ अच्चुयनकैंसर, ते णं वर्गेसया सव्वरयामया०जाव परिरूत्रा; इत्य णं श्रारणच्चयाणं देवाणं पज्जत्तापज्जत्ताणं ठाणा पात्ता । तिसु वि लोगस्स असंखेज्जइजागे, तत्थ णं बहने आरणच्या देवा० जाव विहरति । अच्चुए तत्थ देविंदे देवराया परिसर | जहा पाए० जाव विहरति, नवरं तिएदं विमाणावाससगाणं दसएहं सामाणियसाइस्सीणं चत्तालीसाए प्रायरक्खदेव साहस्त्रीणं आहेत्रचं०जाव कुब्वेमाणे विहरति । " बत्तीसघात्रीसा, वारस अड चउरो सयसहस्सा | पन्ना चत्तालीसा, च सहस्सा सहस्सारे ॥ १ ॥ प्रणयपाणयकप्पे, चत्तारि सयाऽरणच्चुए तिथि । सत्तविमाणसयाई, चउसु बि एएस कप्पेसु ॥ २ ॥” सामाणियसंग्रहणीगाहा
" चउरासी असीई, बावन्तरि सत्तरी य सडीए । पन्ना चत्तालीसा, तीसा बीसा दस सहस्सा ॥ १ ॥ " एए चैव आयरक्खा चउग्गुणा ।
कहि ते ! हिडिमगे विज्जगदेवाणं पज्जत्तापजताएं गण पत्ता ?; कहि णं जंते ! हेट्ठिमगेविज्जगा देवा परिवसंति । गोयमा ! आरणच्चयाणं कप्पा रंग उपिं० जाव न दूरं उप्परता, इत्थ हे हिमगविज्जाणं देवायां तत्र गेवेज्जविमाणपत्यका पद्मत्ता, पाईएपडीपायया नदीणदा
Personal Use Only
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(१७११) अभिधानराजेन्धः |
गण
हिपत्रित्थिन्ना परिपुन्नचंद संवारण मंत्रिया अच्चिमाञ्जी भासरासिवन्नाभा, सेसं जहा बंभलोगे -जाब परिरूवा । तत्थ णं हे डिमगेविज्जगाणं देवाणं एकारसुत्तरे विमागावाससए हवंतीति मक्खायं । ते णं विमाणा सव्वरयणामया ०जाब परिरूवा, इत्य णं हेट्टिमगेविज्ञगाणं देवाणं पज्जत्तापजताएं गला पत्ता | तिसु त्रि लोगस्स - संखज्जनागे, तत्य णं बहवे हेट्ठिमगेविज्जगा देवा परिवमंति, सच्चे सममहिडिया सव्त्रे समज्जुतीया सव्वे स मजसा सव्त्रे समवन्ना सव्वे समाणुजावा महासोक्खा - शिंदा असा पुरोहिया अहर्मिंदा नामं ते देवगणा पछत्ता, समाउसो ! |
कहि णं भंते ! मिगाणं गेविज्जगदेवाणं पज्जत्तापजत्ताणं ठाणा परणता ?; कहि णं भंते! मज्जिमगे विज्जगदेवा परिवर्तति । गोयमा ! देहिमगेविज्जगाणं उपि सपक्खिसपडिदि सिं० जाव उप्पइत्ता, इत्य णं मज्झिमविज्जगदेवाएं तो गेविज्जगत्रिमाणपत्थडा पत्ता, पाईपमीणायता, जहा हेट्ठिमगेविज्जगाणं, नवरं सत्तुत्तरे विमाणाबाससए तीति मक्खाए । ते णं विमाणा०जाव पडिरुवा, इश्य गं मज्जिमवेज्जाणं देवा० जाव तिसु वि लोगस्स प्रसंखज्जइभागे, तत्थ एं बहने मज्जिपगेवेज्जगा देवा पविसंति० जाव अहर्मिंदा नामं देवगणा पत्ता, समणाउसो ! |
कहि रंग भंते! उवरिमवेज्जगाएं देवाणं पज्जत्तापज्ञत्ताठाणा पत्ता?; कहि मां भंते ! उवरिमगेविज्जगा देवा परिवसंति ? । गोयमा ! मज्झिमवेज्जगदेवाणां उपिं जाव उप्पड़ता, तत्थ णं उबरिमगेवेज्जगाणं देवाएं तत्र गेविज्जगविमाणपत्यका पणत्ता, पाईएपमीणाओ, सेसं जहा
विजगाणं, नवरं एगे विमाणावाससए हवंतीति मक्खायं, सेसं तत्र भाणियव्वं ० जाव अहमिंदा नामं ते देवगणा पण्णत्ता, समाउसो ! |
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एक्कारसुत्तरं हे - डिमए सत्तुत्तरं च मज्झिमए । सयमेगं वरिमए, पंचत्र अत्तरविमाणा " ॥ १ ॥ कहिं जंते ! अणुत्तरोववाइयाणं देणं पजत्तापजचाणं गणा पणत्ता ; कहि ां भंते! अणुत्तरोववा - या देवा परिवति १ । गोयमा ! इमसे स्यलप्पभाए पुढवीए बहुसमरमणिज्जाओ भूमिभागाओ नहुं चंदिमसूरियगइगणनक्खत्ततारारूत्राणं बहूई जोपसयाई बहू नोयणसहस्सा बहूई जोयणसय सदस्साई बहुगाओ जोयाकोमीओ बहुगाओ जोयाकोकाकोमीओ कुं दूरं उप्परचा मोहम्मीसाणसणं कुमारमाहिंदबंजलोगलं
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गण
तगसुकसह स्सारप्राणयपाणय आारणत्र्प्रच्चुयकप्पा तिमि यहारसुत्तरे गेविज्जविमाणावाससए वीतीवत्ता ते णं परं दूरं गता पीरया निम्मला वितिमिरात्रसुद्धा पंचदिसिं पंच अणुत्तग महतिमहालया महात्रिमाणा पत्ता । तं जड़ा-विजए, वे जयंते, जयंते, अपराजिए, सब्बहसि । तेणं विमाणा सव्वरयणामया अच्छा सदा घट्टा मट्ठा पीरया निम्मल्ला निष्का निकंकडच्छाया सप्पभा सतिरीया सउज्जोया पासादीया दरिमपिज्जा अनिरूवा पडिरूवा, इत्य णं प्रणुत्तरोबवाइयाणं देवाणं पज्जत्तापज्जत्ताणं ठाणा पत्ता । तिसु वि लोगस्स असंखेज्जइजागे, तत्थ णं बहवे अत्तरोववाइया देवा परिवति, सच्चे सममहिडिया सव्वे समत्रला सन्वे समाजावा महासोक्खा अलिंदा अप्पेरसा पुरोहिया अहमिंदा ते देवगणा पत्ता, समणानुमो !
कहि णं ते! सिद्धाणं ठाणा पत्ता?, कहि णं भंते! सिका परिवति । गोयमा ! सव्बस्स महाविमाणस्स उरिताओ धूनिगग्गाओ दुबाझसजोयणे ğ अवाहाए, इत्य एवं इसी पन्जारा नाम पुढवी पत्ता । पण्यालीसं जोयणस्यसहस्साई प्रायामविक्खनेणं, एवं नोयणकोमीओ बायालीसं च सयसहस्साई तीसं सहस्साई दोनिय अपने जोयएमए किंचि विसेसाहिए परिक्रखेवेणं पष्ठत्ता, इसी पब्भाराए णं पुढत्रीए बहुमज्जदेसभाए ग्रह जोयणिए खेत्ते जोयणाई बाहणं पस ततो अनंतरं च णं माताए २ पएसपरिहाणी २ परिहायमाणी २ सन्त्रेषु चरिमंतेसु मच्छियपत्तातो तयरी - गुलस्स संखेज्जइभागे बाहणं पत्ता, इसीपन्नाराएं पुढवी दुबालसनामधे जा पाता, इसीति वा इसी पन्भाराइ वायरीति वा तयरीति वा सिद्धिति वा सिद्धानएतिवा मुक्ती वा सुत्तान्तए वा सोयग्गेति वा सोयग्गभियाति वा लोयपरिबुज्जलाइ वा सव्वपाणयजीवसत्तसुहावाइ वा इसी भारा णं पुढची सेता संखदलनिम
मोत्थिय मुगालद गरयतुमारगोखीरहारवन्ना उत्तापयछतसं वाणमंठिया सब्वज्जुसुत्रसमई अच्छा सराहा लहा घट्टा मट्ठा पीरया निम्मला निष्पका निर्ककमच्छाया स प्पभा ससिरीया सज्जोया पासादीया दारेसपिज्जा - भिरूवा पढिरूवा, इसीपनाराए णं सीताए जोयणम्मि लोगतो, तस्स णं जोयस्स जे से वरिल्ले गाउए, तस्स णं गानयस्स ने से उबरिने उन्नागे, एत्थ णं सिद्धा जगत्रंतो सादिया अपज्जवासिया गजातिजरामरण जोनिसंसारकअंकली भावपुजवगन्जवामवसडी० एवं च समड़कंवा सासयमा गयरूं कालं चिट्ठति । वत्थ वय वे
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(१७१२) गण अभिधानराजेन्द्र:।
ठाण प्रवेदा अवेयणा निम्ममा प्रसंगा य संसारविप्पमुका। शधनं मूमप्रमाणापेक्तया त्रिजागहीनप्रमाणं संस्थान, ता लोपदेसनिन्वत्तिसंगणा।
काग्रे, तस्य सिम्स्य, नान्यदिति। अत्र शिष्यः पृच्छन्नाह
साम्प्रतमवगाहनामुत्कृष्टाऽऽदिनेदनिनामभिधित्सुराह
तिमिसया तेत्तीसा, घणुत्तिनागो य होइ नायव्यो। कहिं पडिहया सिचा, कहिं सिहा पट्ठिया।
एसा खत्रु सिकाणं, नकोसोगाहणा जणिया ॥५॥ कहिं बोदिं चहत्ता णं, कत्थ गंतूण सिक? ॥१॥
चत्तारि य रयणीओ, रयशि तिजागणिया य बोधचा । "कदि पमिहया सिहा"श्त्यादि । 'कहि' इत्यत्र सप्तमी हतीया,प्राकृतत्वात । यथा “तिसुतिसु प्रकिया पुढवी"
एसा खलु सिचाणं, माझिम ओगाहा भणिया ।।६।। श्त्यादि । ततोऽयमर्थः केन प्रतिहताः केन वलिताः', सिकाः एगा य हो रयणी, अहेव य अंगुलाइ सहियाई । मुक्ता तथा ककस्मिन् खाने,सिका, प्रतिष्ठिता अवस्थिताः तथा एसा खलु सिकाणं, जहन्न प्रोगाहणा भणिया ॥७॥ ककस्मिन् केत्रे,बोनिदस्तनुः शरीरमित्यनर्धान्तरं, तां त्यक्त्वाक गया सिध्यन्ति निष्ठितार्थी भवन्ति ।" सिर" इत्यत्रानु
त्रीणि शतानि, प्रयसिंशानियरिंशदधिकानि,धनुत्रिभाग सारसोपो कष्टव्यः, अथ चैकवचनोपन्यासोऽपि सत्रशैल्या न
प्रवति बोडन्यः । एषा बलु सिमानामुत्कृष्टावगाहना भणिता विरोधभाका तथा चान्यत्राप्येवं प्रयोगः-"वत्थगंधमकारं,
तीर्थकरगणधरैः, सा च पञ्चधनु-शततनुकानामवसेया । ननु स्थीयो सयणाणि या मच्छंदा जे नहुँजति, न से चार
मधेवा नाभिकुलकरपत्नी,नामेव पञ्चविंशत्यधिकानि पञ्चधनु:ति बुध ॥१॥" इति ।
शतानि शरीरप्रमाणं, यदेव च तस्य शरीरमानं तदेव मरुदेवा, एवं शिष्येण प्रमे कृते हिराह
अपि, “संघपणं संगणं, उच्चत्तं चेव कुत्रगरोद समं" इति प्रमोए पमिहया सिका, लोयग्गे य पटिया।
वचनात् । मरुदेवा च भगवती सिघा, ततस्तस्या देहमानस्व
त्रिजागे पातिते सिद्धावस्थायाः सानि त्रीणि धनुःशतान्येइह बोदिं चइता णं. तत्य गंतूण सिफइ ॥२॥ बावगाहना प्राप्नोति, कचमुक्तप्रमाणा उत्कृष्टाबगाहना घटते? "प्रसोए पडिहया सिका" इत्यादि। अत्रापि सप्तमी तृतीया।। इति। नैष दोषः । मरुदेवायाः नाभेः किश्चिदूनप्रमाणत्वात, बलोकन केवलाऽऽकाशास्तिकायरूपेण, प्रतिहनाः स्खलिताः खियोहि उत्तमसंस्खाना उत्तमसंस्थानेभ्यः पुरुषेभ्यः स्वस्थकाला. सिद्धा, यह तत्र धर्मास्तिकायाऽऽधभावात्तदानन्तर्यावृत्ति- पेकया किञ्चिवूनप्रमाणा नवन्ति । ततो मरुदेवाऽपि पश्चधनु:रेव प्रतिस्खलन, न तु संबाचे सति विधाता, अप्रतिमत्वात,स- शतप्रमाणेति न कश्चिदू दोषः। भपि च हस्तिस्कन्धाधिरूढा संकुप्रतिघानां हि संबन्धे सति विधातो, मान्येषामिति । तथा चिताश्री सिद्धा। ततः शरीरसंकोचनभावान्नाधिकावगाहनालोकस्य पशास्तिकायाऽऽत्मकस्य, अग्रे मुहनि, प्रतिष्ठिता - संभव इत्यविरोधः । माद च भाष्यकत्-" कह मरुदेवामाणं, पुनरागत्या व्यवस्थिताः, वह मनुष्यलोके, बोन्दित,त्यक्त्वा, नाभीतो जेण किंचिदूणा सा । तो किर पंच सय रिचय, अतत्र लोकाग्रे, समयान्तरप्रदेशान्तरास्पर्शनेन पवा सिम्बन्ति हवा संकोचतो सिका"॥५॥(३१६७ विशे०)"चत्तारि. निष्ठितार्या भवन्ति।
य रयणीयो" इत्यादि । चतस्रो रत्नयो, रविश्व विभागोना च संप्रति तत्र गतानां यत्संस्थानमानं तदनिधित्सुराह
बोधव्या, एषा बलु सिकानामवगाहना भणिता मध्यमा । दीहं वा हस्सं वा, जं चरिमजवे हावज्ज संगणं।
माद-जघन्यपदे सप्तनस्तोच्छितानामागमे सिकिरक्ता, तत
पचा जघन्या प्राप्नोति, कथं मध्यमा ?। तदयुक्तम् । वस्तुतस्वापतत्तो विभागहीणा, सिचायोगाहणा जणिया ॥३॥ रिकानाताजपन्यपदे दि सप्तहस्तानां सिद्धिरुता तीर्थकरापे. "दीई वा हस्सं वा" इत्यादि । दीर्घ था पशधनुःशतप्र- क्षया, सामान्यकेवगिनां तु हीनप्रमाणानामपि जवति। श्दमपि माणं, हस्वं वा हस्तस्यप्रमाणं, वाशब्दाद मध्यमं वा विचित्रं, चावगाहनामानं चिन्तने सामान्यपिकापेकया, ततो न कश्चियच्चरमभवे पश्चिमभवे, नवेत् संस्थान,ततस्तस्मात्संस्थानात, शेषः॥६॥ "एगा य हो' इत्यादि । पका रत्निः परिपूर्णा अशी त्रिभागहीना बदनोदरादिरन्ध्रपूरणेन तृतीयेन नागेन हीना, चाकुलान्यश्विकानि, एषा भवति सिमानामवगाहना जघन्या । सिद्धानामवगाहना, अवगाहन्ते अस्यामित्यवगाहना स्वावक्षेत्र, साच कर्मापुत्रादीनां द्विहस्तानामवसेया। यदि वा-सप्तहप्रणिता तीर्थकरगणधरैरिति । अत्र गतस्य संस्थानप्रमाणा- स्तोच्छितानामपि पन्त्रपीलनाऽऽदिना संबत्तितशरीराणाम। पेकया चित्रागहीनं तत्र संस्थानमिति भावः।
प्राह चनाध्यकृतपतदेव स्पष्टतरमुपदर्शपति
"जेदार पंचधासय, एवं मका य सत्सहत्थस्स । जं संगणं तु हं, भवं चयंतस्स चरमसमयम्मि।
देवत्तिभागढीणा, जहानिया जा विहत्थस्स" ॥ ३१६६ ॥ पासी य पदेसघणं, तं संठाणं तहिं तस्स ॥ ४॥ | "सत्तसिपसु सिकी, जहन्नतो कहमिहं विहत्येसु। "ज संगणं तु " इत्यादि । यत्संस्थामं यावत्प्रमाणं सं.
सा किर तित्थयरेसुं, सेसाणं सिझमाणाणं ॥३१६८॥ स्थानम, हमनुष्यभवे प्रासीकतदेच, भवन्ति प्राणिनःकर्म
ते पुण होज विहत्था, कुम्मापुत्तादो जहषेणं । पशवर्सिनोऽस्मिन्निति भवं शरीरं, त्यज्यतः परित्यजतः, का
अन्ने संवट्टियस-तहत्यसिस्स हीण ति ॥ ३१६६।" बयोग परिजिहानस्येति जावः । चरमसमये सूरमाक्रियाप्र.
(विशे०)॥७॥ तिपातिभ्यानबसेन बदनोदराऽऽदिरन्ध्रपूरणाविभागेन हीनं
साम्प्रतमुक्तानुवादेनेव लक्षणं सिमानामभिधित्सुराहप्रदेशनमासीत (तं संगणं तहिं तस्स सि.) तदेव च प्रवे। भोगाढण िसिद्धा, भवाचिभागण होइ परिवीणा।
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ठाण धाभिधानराजन्द्रः।
गण संगणमणित्थंथ, जंजरामरणविमुक्काणं ।। ॥ दर्शने, ज्ञाने च-केवलशाने । यद्यपि सिद्धत्वप्रादुर्भावसमये "ओगाहणाएँ" इत्यादि सुगम, नवरम् (अणित्थंथमिति)
केवलज्ञानमिति ज्ञान प्रधान, तथाऽपि सामान्यसिकल घणइदंप्रकारमापनमित्यम, प्रत्यं तिष्ठतीति इत्यंस्थः, न इत्थंस्थम्.
मेदिति ज्ञापनार्थमादौ सामान्याऽऽलम्बनं दर्शन मुक्तम । तथा भनित्थस्थं, वदनाऽऽदिशुधिरप्रतिपूरणेन पूर्वाऽऽकारान्यथात्व
च सामान्यविषयं दर्शनं, विशेविषयं ज्ञानमिति । ततः सामावतोऽनियताऽऽकारामिति भावः। योऽपि च सिद्धाऽऽदिगुणेषु
कारानाकार, सामान्यविशेषोपयोगरूपमित्यर्थः । सूने मकारो. "सिद्ध न दीदे न हस्से" इत्यादिना दीर्घत्वाऽऽदीनां प्रतिषेधः
ऽलाक्षणिकः। सक्षणं- तदन्यन्यावृत्तिम्बरूपम, पतत् अनन्तरोक्तं, सोऽपि पूर्वाऽऽकारापेक्कया संस्थानस्यानित्यंस्थत्वात्प्रतिपत्त
तुशब्दो वक्ष्यमाणनिरुपमसुखविशेषणार्थः, सिमानां निष्ठिव्यः, न पुनः सर्वथा संस्थानस्याजावतः।
तार्थानामिति ॥ ११॥ माह च भाष्यकृत
सम्प्रति केचलझानदशेनयोरशेषविषयतामुपदर्शयति"सुसिरपरिपूरणामो, पुवागारबहाववत्थातो।
केवलणाएवजत्ता, जाणंती सच्चन्नावगुणनावे । संगणमणिधंथ, जं भणियं अणिययागारं ॥ ३१७५॥ पासंति सन्चो खलु, केवलदिट्ठीहिणं ताहिं ॥१॥ पत्तो थिय पमिसेहो, सिद्धाइगुणेसु दीयाऽऽईणं ।
"केवझणाणुवसत्सा" इत्यादि । केवलज्ञानेनोपयुक्ताःन त्व. जमणित्थंथं पुवा-5ऽगारावेक्वाएँ नाभावो ॥ ३१७३॥"
न्तःकरणेन, तदनाबादिति केवलझानोपयुक्ताः,जानन्स्यवगच्छ(विशे०) ॥८॥
न्ति,सर्वभावगुणभावान् सर्वपदार्थगुणपर्यायान् । प्रथमो भावनन्धेते सिकाः परस्परं देशभेदेन व्यवस्थिताः, उत नेति।
शब्दः पदार्थवचनः, द्वितीयः पर्यायवचनः । गुणपर्याययोस्त्वयं मेति तद् ब्रूमः । कस्मादिति चेत् ?, उच्यते
विशेष:-सह वतिनो गुणाः, क्रमवर्तिनः पर्याया इति । तथा जत्थ य एगो सिको, तत्थ अनंता जवक्खयविमुका।। पश्यन्ति सर्वतः बल,खलशब्दस्यायधारणार्थत्वात सर्वन पव, अन्नोन्नसमोगादा, पुट्ठा सव्वे वि सोयते ॥ए।
केवमहरिनिरनन्ताभिः, अनन्तैः केवलदर्शनैरित्यर्थः । केवलद.
शनानां चानन्तता, सिकानामनन्तत्वात् , महाऽऽदौसानग्रहणं "जत्थ य" इत्यादि । यत्रैव देशे, चशब्दस्य पवकारार्थत्वात, पकः सिद्धो निर्वृतः,तत्रानन्ता भवतयविमुक्ताः अत्र भवक्षयन
प्रथमतया तऽपयोगस्थाः सिद्भयन्तीति शापनार्थम् ॥ १२॥ हणेन स्वेच्छया भवावतरणशक्तिमत्सिकव्यवच्छेदमाह । श्र
सम्प्रति निरुपमसुखन्नाजस्ते इति दर्शयतिन्योन्यसमवगाढाः, तथाविधाचिन्त्यपरिणामत्वाद्धर्मास्तिका- न वि अत्थि माणसाणं, तं सोक्खं नत्थि सव्वदेवाणं । बाऽऽदिवत् । तथा स्पृष्टा लग्नाः सर्वेऽपि लोकान्ते ॥६॥
जं सिघाणं सुक्खं, अन्यावाहं उवगयाणं ॥ १३॥ फुमा अणंते सिके, सव्वपएसेहि नियमसो सिका। "न वि अत्यि" इत्यादि । नैव अस्ति मनुष्याणं चक्रवाते वि असंखेजगुणा, देसपदेसेहि जे पुट्ठा ॥ १०॥ | दीनामपि, तत्सौख्यं, नैव सबंदेवानामनुनरपर्याप्तानामपि, यत् "फुसर" इत्यादि । स्पृशत्यनन्तान् सिद्धान् सर्वप्रदेशैरात्मसंब.
सिद्धानां सौख्यम, अव्यावाधामुपगतानां, न विविधा प्रायाधा भिभिनियमशः सिद्धातथा तेऽपिसिसाःसर्वप्रदेशस्पृष्टभ्योऽ.
भव्याबाधा. ताम, उप सामीप्येन गतानां प्राप्तानाम् ॥ १३ ॥ संख्यगुणा वसन्ते,ये देशप्रदेःस्पृष्टाः कथमितिचेत?,उच्यते. ___ यथा नास्ति तथा नचा उपदर्शयतिहैकस्य सिकस्य पदवगाहन के, तत्रैकस्मिन्नपि परिपूर्णेऽव. सुरगणसुहं समत्तं, सव्वापिमियं अणंतगुणं । गाढा घन्ये ऽप्यनम्ता: सिद्धाःप्राप्यन्ते । अपरे तु ये तस्य क्षेत्र.
नवि पाव: मुत्तिमुहं-ऽणंताहिँ वि वग्ग वग्गृहि ॥१४॥ स्य एकैकं प्रदेशमाक्रम्यावगाढास्तेऽपि प्रत्येकमनन्ताः,एवं द्वित्रिचतुष्पश्चाऽऽदिप्रदेशवृस्या ये ऽवगादास्तेऽपि प्रत्येकमनन्ताः,
"सुरगणसुदं" इत्यादि । सुरगणसुखं देवसङ्घातसुखं, सम.
स्तं सम्पूर्णम, अतीतानागतवर्तमानकालोद्भवामित्यर्थः । पुनः तथा तस्य मूल के त्रस्व एकैकं प्रदेश परित्यज्य येऽवगादास्तेऽपि
सकापिदिमतं सर्वकालसमयगुणितम, तथाऽनन्तगुणमिप्रत्येकमनन्ताः। एवं च सति प्रदेशवृम्दिानियां ये समबगादाते परिपूर्णककेत्रावगादेन्योऽसंख्येयगुणा जवन्ति, अच
ति, तदेवं प्रमाणं किलासत्कल्पनया एकैकाऽऽकाशप्रदेशे स्था.
प्यते, इत्येवं सकलाऽऽकाशप्रदेश पूरणेन यदप्यमन्तं भवति, गादप्रदेशानामसहस्यातत्वात् ।
तदनन्तरमप्यनन्तर्गवर्गितम, तथाऽप्येषं प्रकर्षगतमपि मुक्तिप्राइच भाष्यकृत
सुखं सिद्धिसुखं, न प्रामोति ॥ १४ ॥ " एगक्खेत्तेऽणता, पएसपरिघुक्किहाणिो तत्तो।
एतदेव स्पष्टतरं भवन्तरेण प्रतिपादयति९ति असंखेजगुणा-संखपएसो जमवगाहो" ॥ ३१००॥
सिच्चस्स मुहोरासी,मबच्चापिमिए जा हविज्जा। (विशे०)॥१०॥
सोऽणंतवग्गनाइओ, सन्यागासे ण माजा॥ १५ ॥ सम्प्रति सिकानेष लक्षणतः प्रतिपादयति
"सिद्धस्स सुहोरासी" इत्यादि । सुखाना राशिः सुस्वराशिः असरीरा जीवघणा, उवत्ता दंसणे य नाणे य । सुखसातः, सिकस्य सुखराशिः सिम्सुखराशिः, सर्वाद्धापिसागारमणागारं, लक्षणमेयं तु सिवाणं ॥ ११ ॥ दिमतः सर्वया साद्यपर्यवलितया अध्या, यासुखं, सिकः प्रति. "अरीरा" इत्यादि । अविद्यमानशरीरा अशरीग, औदा
समयमनुभवति, तदेकत्र पिण्डीकृतमिति भावः सोऽनन्तवर्गरिकाऽऽदिपञ्चविधशरीररहिता इत्यर्थः। जीवाश्च ते घनाश्च व.]
भक्तोऽनम्तैवर्गमूलरपवर्तितः, अनन्तर्वगमूस्तावदपवर्तितो याबनोदराऽऽदिशुधिरपुरणाद् जीवधना उपयुक्ता दशने-केवल- परसर्वागावणेन गुणकारेण गुणने यदधिकं जातं,तस्य सवेस्या
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(१७१४) गण अभिधानराजेन्फः।
गण पर्वर्तनः सिमवायः समयभाविसृखमात्रता प्राप्त इति भावः। वतः परमसन्तोषमधिगताः, अतुसमनन्यसरशम, उपमातीतसर्वाकाशे न माति-पतावन्मात्रेऽपि सर्वाकाशे न माति, सर्व त्वात शाश्वतं प्रतिपाताजावात; अन्यायाधं लेशतोऽपि व्यावास्तु दूरापास्तप्रसर एवेति झापनार्थ पिएमयित्वा पुनरपवर्तनं धाया मसम्मवात, सुखं प्राप्ताः, अत एव सुखिनस्तिष्ठन्ति ॥१६॥ मुखराशेः। श्यमत्र नावना-श्ह किल विशिष्टाऽऽहादरूपं सुखं
पतदेव सविशेषतरं भावयतिपरिगृह्यते, ततश्च यत प्रारज्य शिष्टानां सुखशब्दप्रवृत्तिः,त. सिछत्तिय बुकत्ति य, पारगतत्तिय परंपरगत त्ति । माहादमधिकृत्य एकैकगुणवृद्धितारतम्येन तावदसाबाहादो उम्मुक्तकम्मकवया, अजरा अमरा असंगा य ॥३०॥ विशिष्यते,यावदनम्तगुणवृद्ध्या निरतिशयनिष्ठामुपगतः, सोऽय- "सिदत्तिय" इत्यादि।सितं बद्धमयप्रकारं कर्म, मातं भ. मत्यन्तोपमाऽतीतकान्तौत्सुक्यविनिवृत्तिरूपस्तिमिततमफल्प- स्मीकृतं, यैस्ते सिद्धाः। "पृषोदरादयः" ॥३॥१५॥(हम०) घरमाऽभवादासदासिकानां यस्माचारतःप्रथमाचोमपान्तरा. इति पनिष्पत्तिः, निर्दग्धानेकभवमन्धना इत्यर्थः । तेच नवर्सिनो ये गुणास्तारतम्येनाऽऽह्याद विशेषरूपाः, ते सर्वाऽऽका. सामान्यतः कर्माऽऽदिसिमा भपि भवन्ति । यत उक्तम्-"कम्मे शप्रदेशेभ्योऽप्यतितूयांसः । ततः किलोक्तम्-"सब्बाऽऽगासे न सिप्पेय विजाप,मंते जोगे य ागमे । प्रत्य-जत्ता-अनिपाए, मापजा" इति । अन्यथा यत्सर्वाssकाशे न माति, तत्कथमेक- तवे कम्मक्खए इय" ॥३६२॥ (माध०नि०)(३०२विशे०) ततः स्मिन् सिद्ध मायात, इति पूर्वसूरिसम्प्रदायः ॥१५॥ कर्माऽऽदिसिकाध्यपोहायाऽऽद-(बुद्ध त्ति) अज्ञाननिद्राप्रसुप्ते साम्प्रतमस्य निरुपमता प्रतिपादयति
जगति अपरोपदेशेन जीवाऽऽदिरूपं तत्वं बुरुवन्तो वुद्धाः,सर्वज्ञ जह नाम कोइ मिच्छो, नगग्गुणं बहु विजाणंतो।। सर्वदर्शिस्वभावबोधरूपा इति भावः । पतेऽपि च संसारण चएइ * परिकहेनं, उवमाए तहि असंतीए ॥१६॥
निर्वाणोभयपरित्यागेन स्थितवन्तः कैश्चिदिश्यन्ते,"संसारेन च "जद नाम" इत्यादि । यथा नाम कश्चिम्लेच्छो नगरगुणान् गृद.
निर्वाणे, स्थितो जुवनभूतये । अचिन्त्यः सर्वलोकानां; चिन्तारनिवासाऽऽदीन्, बहुबिधान अनेकप्रकारान्,घिजानन्,अरण्याss.
स्नाधिको महान् "॥१॥ इतिवचनात । ततस्ताग्निरासार्थमाहगतः सन् अन्यम्लेच्छेभ्यो न शक्नोति परिकथयितुम । कस्माद
पारगताः-पारंपर्यन्तं संसारस्य,प्रयोजनवातस्य वा,गताः पारम शक्नोति?.इत्यत आह-उपमायांतत्रासत्याम। "निमित्तकारणदे
गताः। तथा भव्यत्वाऽऽकिप्तसकलप्रयोजनसमाप्त्या निरवशेष. तुपु सर्वासां विभक्तीनां प्रायो दर्शनम्।" ति न्यायाद हेतौ स
कर्तव्यशक्तिविप्रमुक्ता इति भावः । इत्थंभूता अपि कैश्चित प्तम।। तत्र उपमाया प्रभावादिति अष्टव्यमा एष गाथाऽक्षरार्थः॥
यहच्यावादिभिरक्रमसिद्धत्वेनापिगीयन्ते। तथोक्तम्-“नैकाभावार्थः कथानकादवसेयः । तदम-"प.गोमहाराबासीमि.
दिसल्याक्रमतो, वित्तप्राप्तिनियोगतः। दरिराज्याऽऽप्तिसमा, ब्दोऽरो चिहति । इतोय एगो राया मासेण अवहरितोतं
तन्मुक्तिः कचिन्न किम् ? ॥१॥" ततस्तन्मतन्यपोहायाऽऽहअडर्वि पवेसितो। तेण दिको सकारेऊण जणवयं नीतो। रन्ना
परम्परागता इति। परम्परया ज्ञानदर्शनचारित्ररूपया,मिथ्यारवि सो नगरे पच्छा सवगारि ति गाढमुपचरितो-जहा राया
ष्टिसासादनसम्यगमिथ्यादृष्ट्यविरतिसम्यग्दृष्टिदेशविरतिप्रमा चिर धवनघरानोगेण वि, वासाकालेणऽरएणं सरिजमार- तनिवृष्यनिवृत्तिवादरमम्परायसदमसम्परायोपशान्तमोहकीदो, रत्रा विसजिओ, ततोऽरागा पुच्छति-केरिसं नयर ति। लमोहसयोगिकेवख्ययोगिकेवलिगुणस्थानभेदभिन्नया, गताः। सोवियाणंतो वि तत्थोधमाऽनावा न सके नयरगुणे परिक- पते च कैश्चित्तवतोऽनुन्मुक्तकर्मकवचा अभ्युपगम्यन्ते,तीर्थनिहे । एस दितो"॥१६॥
कारदर्शनादिवाऽऽगच्छन्तीति वचमतः पुनःसंसारावतरणाभ्यु. अयमर्थोपनयः
पगमादतस्तन्मतापाकरणार्थमाह-उन्मुक्तकमकवचाः-उत्पाबइय सिद्धाणं मोक्वं, अणोरम नत्यि तस्स प्रोवम्म । ल्येनापुनर्भवरूपतया मुक्तं परित्यक्तं कर्म कवचमिव कर्मकवचं किंचि विसेसेणित्तो, सारिक्वमिणं सुबह वोच्छं॥१७॥ यैस्ते उन्मुक्तकमकवचाः । अत एव अजराः शरीरानावतो "श्य सिका" इत्यादि । इति एवं,सिद्धानां सौख्यमनुपमं ब
जरसोऽजावात् , अमरा अशरीरत्वादेव प्राणत्यागासम्भवात । ते। किमिति ?, तत पाह-यतो नास्ति तस्यौपम्य, तथापि
उक्तं च-" वयसो हावीह जरा, पाणचामो यमरणमादि। बालजमप्रतिपत्तये किञ्चिद्विशेषण, "तो" इति । पाप
सदेहम्मि तनयं, तदभावे नेव कस्सेव ॥१॥" असना:खादयेत्यर्थः । सारश्यामा वक्ष्यमाणं, शृणुत ॥१७॥
बाह्यान्यन्तरसङ्गरहितत्वात ।। २०॥ जह सबकामगुणियं, पुरिसो नोत्तूण नोयणं कोई।। णित्थिनमन्बदुक्खा, जातेिजरामरणबंधणविमुक्का । ताहानुहाविमुक्को, अत्थिज जहा अमियतितो ॥१८॥। अध्याताई सुक्खं, अण्होंती सासयं सिका।।१॥ "जद सम्" इत्यादि । यथेत्युदाहरणोपदर्शनार्थः । भुज्यते
"नित्थिन" इत्यादि । निस्तीर्ण लङ्कितं सर्व दुःखं यैस्ते नि. इति नोजनं,सर्वकामगुणितं सकलसौन्दर्वसंस्कृतं,कोऽपि पुरुषो,
स्तीर्णसर्वदुःखा। कुतः,श्त्याह-(जातिजरामरणबंधणविमुक्का) नुक्त्वा.क्षुत्तविमुक्तः सन्,यथा अमृततृप्तः,तथा तिष्ठति ॥१८॥
जातिजन्म, जरा धयोहानिलक्षणा,मरणं प्राणत्यागरूप,बन्धनाइय सव्य कालतित्ता, अउवं निब्वाणमुचगया सिका।
नितत्रिवन्धरूपाणि कर्माणि, तैर्विशेषतो निःशेषापगमनेन मुक्ता
जातिजरामरणबन्धनविमुक्ताः।हेतावियं प्रथमा । यतो जरामरसासयमवावाह, चिट्ठति सुही सुहं पत्ता ।। १५॥
णबन्धनविमुक्तास्ततो निस्तीर्णसर्वदुःखाः, कारणाभावात् । "इय" इत्यादि । इति एवं निर्वाणं मोक्कमुपगताः सिकाः, I
ततोजयाबासौख्यं शाश्वतंसिका अनुभवन्ति ॥२१॥प्रशा०५ सर्वकालं सायपर्यवसितं कालं,तृप्ताः सर्वधौत्सुक्यविनिवृत्तिना.
पद । जी। एतदर्थप्रतिपादके प्रज्ञापनाया द्वितीय पदे,प्रका०१ * "शकेश्चय तर-तीर-पाराः" ॥८181८६॥ शकौतेरे- पद । ज तिष्ठति अनवस्थाननिबन्धनकर्माभावेन सदाऽवते चत्वार प्रादेशा भवन्ति । 'यत्यजतेरपि 'चया स्थितो भवति यत्र सत् स्थानम् । क्रीकर्मणो जीवस्य स्व.
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(१७१५) गण अनिधानराजेन्बः
ठाणंतर पे, सोकाग्रे वा। भ०१श.१००। सं० । तिष्ठन्ति प्ररूपणया व्यवस्थाप्यन्ते, शेषं प्रायो निगदसिखं, नवरं (टंक सकलकर्मक्रयावातानन्तमानसुखरूपाध्यासिताः शुभारमानो तिलिचतटरमरुटानि पर्षतस्योपरि यथा-बेताबस्यो स्मिन्निति स्थानम् । सम्म०२ काण्ड । व्यवहारतः सिसिके, परि सिखायतनकूटाजवानि मवटानि,शला हिमबहादया, निश्चयतो यथाऽवस्थितस्वरूपे, स्थानस्थानिनोरभेदोपचारात् शिखरिणः शिखरेण समन्विता,तेच वैताच्याऽऽदयः। तथा या सिद्धिगतिनामधेये, जी. ३ प्रति० । प्रदेशे, पा. । उत्त। कूटमुपरि कुब्जामवत कुरजंतत्प्राम्भारमायद्वा-यत पर्वतस्य - तिष्ठन्ति मुमुक्कवो येषु तानि स्थानानि । महाव्रतेषु, पशा १३ परिस्तिकुमला कति कुजविनिर्गतं. तत्प्राग्भारम् ।कुपडानि विवगामा स्थीयतेऽम्मिन्निति स्थानम्। दुर्गतिगमनाऽऽ. गङ्गाकुण्डाअधीनि, गुहास्तमिनागुहाऽऽदया, भाकरा या दिके, सूत्र०१ शु०६ अाअवगाहनायाम, प्रा०म०२०। वर्षाऽऽद्युत्पत्तिलामानि, इदा पौएररीकानयः, नद्यो गलासितिष्ठन्ति साधवोऽति स्थानम् । वसती, १०२०।तिष्ठन्त्य भवादयः, प्राण्यायन्ते । तथा स्थानेन । अथवा-स्थाने,णमिति स्मिन् कर्माणि प्रायश्चित्ताऽऽचरणत इति स्थानम । पाराशिते,
वाक्यालरोपकायेकोत्तरिकया वृक्षा दशस्थानं यावद विष. जी०१ प्रतितिष्ठन्त्यस्मिन्प्रतिपाद्यतया जीवाऽऽदय इति
दितामां भावानां प्रकरणामाख्यायते। किमुकं भवति-एकसंस्थानम् । स्थानानाऽऽस्ये प्रवचनपुरुषस्य तृतीयेऽओ. स.
स्यायां द्विसंख्यायां यावदशसंख्यायांये ये प्राधा पथातक मङ्ग । समुदाये, कर्म०५ कर्मः।
न्ति, तथा ते ते प्ररुप्यन्ते हरयर्थः । यथा "पगेभाया" स्याकि
तथा "इथं च णं खोगे तं सम्बं सुप्परियारं जीवा बेख गणंग-स्थानाङ्ग-न। तिष्ठन्ति प्रतिपाद्यतया जीवाऽऽदयः
अजीवा चेव" इत्यादि । “ ठाणस्स पं परिचा बायणा " पदार्था अस्मिन्निति स्थानम् ।नं।सातिष्ठन्ति भासनेषसन्ति इत्यादि सर्व प्राग्वत्परिभावीयम । पदपरिमाणं व पूर्वस्मापथावदभिधेयतयैकत्वाऽऽदिविशेषिता मारमाऽऽदयः पदार्या य. दहादुत्तरस्मिन्नुत्तास्मिन द्विगुणमयसेयं, शेषं पाठसिर स्मिन् तत्स्थानम । अथवा-स्थानशब्नेहकाऽऽदिक: सल्याने याबधिगमनम् । . । निपुणबुखादिगुणगणमाणिक्य दोऽनिधीयते, ततश्चाऽऽत्माऽऽदिपदार्यगतानामेकाऽऽदिदशा- रोहणधरणीकरपेन प्राण्डागारनियुक्तमेव गणधरेण पूर्वकान्तानां स्थानानामभिधायकत्वेन प्राचाराभिधायकत्वादाचारव. ले चतुर्वणश्रीश्रमणसाभकारकस्य तत्सन्तानस्य चोपकाराम दिति स्थान,तच प्रवचनपुरुषस्व कायोपशमिकभावरूपस्या- निरूपितस्य विविधार्थरलसारस्य देवताऽधिष्ठितस्य विधा. गमिवा वेति समुदायार्थः । स्था० १० । प्रवचमपुरुषस्य कियाबलयताऽपि पूर्वपुरुषण केनापि कुतोऽपि कारणादनुन्मुतृतीयेऽरे स०१अक।
खितस्यात एव चकेवाधिदमयंजीकरणां मनोरथगोचरातिसे किं तं ठाणे गणेणं जीवा गविजंति, जीवा ठा-1
कान्तस्य महानिधानस्येव खानाजस्य तथाविधविद्याऽऽदिवल.
विकलैरपि केवलं धापप्रधानः स्वपरोपकारार्थविनियोजना. विनंति,जीवाजीवा गविनंति,ससमए गविज्ज,परसमए भिलापिन्निरत एष चाविगणितखयोग्यतैनिपुखपूर्वपुरुषप्रयोगा. गविज्जइ, ससमयपरसमए गविज्जर, लोए वाविजई. नुपसत्य किचित् खमत्योत्प्रेक्ष्य तथाविधवर्तमानजनामापूअलोए ठाावेज्जा,लोयाझोए गविज्नइ । गणेणं टंका कूमा
छप च तमुपायान् पूताऽऽदिमहाव्यसनोपेतैरिबास्माभिमुद्रसेना सिहरिणो पन्जारा कुंडाई गुहाओ प्रागरा दहा नईओ
जमिवानुयोगः प्रारज्यत इति शासप्रस्तावना। तस्य चानुयोग
स्य फलाऽदिशारनिरूपणतःप्रवृत्तिः।यत उक्कम-"तस्स फख. भापविज्जति । गणणं एगाइयाए एगुत्तरियार बुझीए जोगमंगम-समुदायथा तहेव दाराई। तम्भेयनितिनम-पयो दसगाणगवियाणं भावाणं परूवणा आपविजनहागण- यणाचबमाई" ॥१॥इति । तत्र कापता प्रवृत्तये फलमवार सणं परिता वायणा संखिज्ना अणुओगदारा संखिज्जा
वाच्यम् । अन्यथा हि निष्प्रयोजनस्वमस्याऽशकमाना: भो. बेदा संखिज्जा सिझोगा संखिज्जाओ निज्जुचीमो संखि.
तारकपटकशासामर्दन हवन प्रबरचिति । सस्थामन्तरपर.
म्परजेदाद विधा । तत्रानम्तरमावगमः, तत्पूर्वकानुष्ठामतबजाओ संगहणीमो संखिज्जायो पभिवतीभो,सेणं अंग
भापवर्गप्राप्तिर्या सा परम्परप्रयोजनमिति । तथा योगः स. हयाए तइए अंगे एगे सुमक्खंधे दस अज्क्रयणा एगवीसं म्बन्धः। स च यदि पायोपेषभावलाखो, यतानुयोग उपा. सदसणकाला एगचीसं समुद्देसणकाला वावचरिपयप्तहस्सा याअर्थावगमाऽऽदि चोपेयमिति, तदा सप्रयोजनानिधामादेवा. पयगेणं संखिज्जा अक्खरा अणंता गमा अयंता पज्जया
निहित इत्यवसरलकणः सम्बन्धोऽस्य वाच्यः कोऽस्य दाने परिचा तसा भणंता थावरा सासयकडनिबंधानिकाश्या
संबन्धोऽवसर इति,भावयोम्योपादाने मस्य कति ताम
म्यस्य मोक्षमार्गाभिखाचितः स्थितगुरूपदेशस्य प्राणिनोऽएकजिणपनचा भावा आपविज्जंति,पन्नविज्जति,परूविज्जंति, प्रमाणप्रत्रज्यापर्वावस्यैव सूत्रतोऽपि स्थानाई देवमिति । दंसिज्जंति, निदसिज्जति,नवदंसिज्जंति, से एवं प्राया एवं
अयमवसरो, योम्योऽपि चायमेवेति । नाया एवं विधाया एवं चरणकरणपरूवणा प्रायविज्जका
बयोक्तमसे तंगणे।
“तिबरिसपरियागस्स , भायारपकप्पणाममग्माषचं।
बउबरिसरस य सम्म, सूयग नाम अंग सि.१ "से कित" इत्यादि। प्रथकित स्थानमा तिष्ठन्ति प्रति
सकप्पञ्चवहारासंबरपलगदिक्वियरसेव। पायतया जीवाऽऽध्या पदार्था असिन् ति स्थानर ।।
गवं समचामो विय, अंगे ते अहवासस्स ॥२॥"शति । तथा चाह मूरि:-"गखे" स्थाहिबानेन, बामे वा। अम्बथा दानेऽस्थाकामनायो दोचा इति । स्था०५ग. पमिति बाक्सासवरेजीबाप्यन्वे यथावशिवाठार-स्थानान्तर-स्वस्थाबात्परस्थावे,.२वधि
को प्रयोजन करवाया जा
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गणकप्प अभिवानराजेन्नः।
ठागठिय माकप-यानकाप-पुं। कल्पनेदे, "अधुणा तु वाणकप्पो, कियन्तं कालं यावत् ', अन आढ-( जाब सिवं) यावत शिर्ष उदाणादिमो मुणेयवो। वितकप्पसंजतस्स वि, प्रमो
निरुपद्रवं यातमिति । (अहवा वी ते ततो फिमिया) अथवा श्रहितस्सेव ॥३॥" पं. भा०। पं० चू०।
ते भाचार्याउदयम्तस्मात केवादपगता म्रष्टा इति, ततश्च माणगुण-स्थानगण-पुं० । स्थानं स्थितिर्गुणः कार्य यस्य स वातापलम्नं यावत् तिष्ठति ॥ १७ ॥ स्थानगुणः । स्था०५०१०। जीवपुतानां स्थितिप- इदानी भाष्यकृत शेषद्वाराणि व्याख्यानयनाहरिणतानां स्थित्युपएम्न हतौ गुणतोऽधर्मास्तिकाये, न० १ पुन्ना च नई चउमा-मवाहिणी वि य न कोइ उत्तारे । श०१०।
तत्यंतरालदेसे, उहिउ ण विनम्न पविती ॥२७॥ गणचंचल-स्थानचञ्चल-पुं० । चञ्चनराम्दोक्तार्थके चञ्चन
पूर्णा भृता, का ?, नदी, किंविशिष्टा ?, चतुर्मासवाहिनी, न भेदे, वृ०१०
कश्चित्तारयति, ततोऽपान्तराले एव तिष्ठति । नत्र, अ. वाणठवाणा-स्थानस्थापना-स्त्री. । उचितस्थानन्यासे, प-1
स्तराले वा देश, जस्थित उरुमितः, न च प्रवृत्तिर्वार्ता लन्यते, शा०८ विव०।
अतस्तिष्ठति तावत् ॥१७ गणवाइण-स्थानस्यायिन-पुं०। उचितस्थानस्थातरि,पृ.१
फिमिएमु जा पवत्ती, सयं गिलाणो परं व पडियर। ३०नि००।
कालगय त्ति पवित्ती, समंकिए जाव निस्संकं ॥१८॥ गणठिइ-स्थानस्थिति-स्त्री.1 विहारान्तरं वसतिप्रवेशात्मा
(फिडिएसु) तस्मात केत्रादपगतेषु सत्सु (जा पवत्ती) मध्ये स्थिनौ, प्रोघ०। (पतहकव्यता च 'मासकप्पबिहार'
याचद्वानिवति, तावत्तिष्ठति । तथा-(सय गिनाणो) स्वयमेव शब्दे वक्ष्यते)
ग्लानो जातः, ततस्तिष्ठति। (परं व पडियरह) अन्य बा ग्लान गणठिय-स्थानस्थित-त्रि० । उत्तरोत्तरविंशिष्टसंयमस्थाना
सन्तं प्रतिचरति (कानगय त्ति पवित्ती) अथवा-कालगध्यासिनि, सूत्र.११.२०१०।।
तास्ते भाचार्याः, इति पवम्भूता,प्रवृत्तिः भुता, ततः (ससंकिते पष्ठे द्वारे स्थानस्थितो भवतीदमुक्तं, स च एभिः कारणैः- जाव निस्संक ) सशङ्काया वा यामनिश्चितायां तावदास्ते, असिवे प्रोमोयरिए, रायउटे जए पाइजाणे ।
यावन्निःशङ्क संजातमिति ॥१८॥ फिमि गिलाणे कानगएँ,नासे वाण हिमो होइ। १७७
वासासु नजिन्ना, बीयाऽऽई तेण अंतराचि । भशिवे देवताजनितोपाचे सति तस्मिन् यत्राभिप्रेतं गमन
तेगिच्छि जोगि सार-क्खण हट्टे यगणमिच्छनि १८१॥ कदाचिदपान्तराले भवति, ततश्चानेन कारणेन स्थानस्थिती वर्षासूद्भिन्ना बोजाऽऽदयः, आदिशदादनन्तकायः, तेन भवति । (प्रोमायरिए ति) युनिके विवक्षिते देशे जाते कारणन अन्तराल एव तिष्ठति । मन्दश्च (मिच्छित्ति)चि. अपान्तगसे वा, ततश्च स्थानस्थितो भवति । (रायदुहित)
कित्सकं, तथा (भो त्ति) भोगिकं प्रामस्वामिनं पृच्छति। राजद्विष्टं कदाचित्तत्र भवत्यभिप्रेतदेशे, अपान्तगले वा, तेन च
किमर्थं पुनः वैद्यभोगिकयोः पृच्छनं करोतीत्यत आह-(साकारणेन स्थानस्थितो भवति। स्तेनादिभयं विवक्किते देशे,अ.
रक्षणहहे) वैद्यं पृच्छति मन्दतायां सत्यां (इत्ति) रढीपान्तगले वा, ततस्तेन कारणेन स्थानस्थितो भवति । (नासि)
करणार्थम, नोगिकं पृच्छति संरक्षणार्थ परिभवाऽऽदेः, ततः कदाचिन्नई। विकिने देशे अपान्तराले वा भवति, तेन प्रतिब
स्थाने च वसनमिच्छन्ति केचित् ॥११॥ धेन स्थानस्थितो भवति। (फिडियक्ति कदाचिदसावाचार्य
तत माहस्तस्मात् केषात् व्युतोऽपगतो भवति, ततश्च तावदास्ते
संविग्गसन्निनग-अहप्पहाणेसु जोइयघरे वा । बावद्वार्ता लन्यते, अनेन कारणेन स्थानस्थितो भवति । ठवणा आयरियस्सा, सामायारी पउंजणया ॥१८२॥ ( गिलाण सि ) लानः कदाचिदसावाचार्यों जवति, तेन वैद्यभोगिकयोः कथयित्वा संविग्नेषु मोक्षाभिलाषिषु तिष्ठति, प्रतिवन्धेन स्थानाम्यतो भवति । (कानगए ति) कदा- (सन्नि ति) सही श्रावकः, तदगृहे तिष्ठति, भरूका साचिदसावाचार्यः कालगतो मृतो नवति तथाच यावत्तन्निश्चयो
धूनां श्रमाकरः, तद्गृहे तिष्ठति, तदूगृहे निवासं करोति । मवति तावत् स्थानस्थितो भवति । (वाले ति) वर्षाकासः
(महप्पहाणेसु त्ति) यथाप्रधानेविति-यो यत्र प्रामाऽऽदी प्र. भजातस्ततस्तत्प्रतिबन्धात् स्थानस्थितो भवति, तत्रैव ग्रामा
धानः प्रथितस्तेषु यथाप्रधानेविति । पतेषामन्नावे (भोश्यघरेष हावास्ते । श्यं द्वारगाथा ॥१७७॥
त्ति) जोगिकगृहे वा ग्रामस्वामिगृहे वा तिष्ठति । तत्र च तिष्ठन् इदानी नियुक्तिकार एव तानि विहाराणि व्याख्यानयन्नाह
किं करोतीति?,अत आह-(ठवणा आयरियस्मा)दएककाऽऽदि. तत्येव अंतरावा, असिवाऽऽदी सोउ परिरयस्सऽसति । माचार्य कल्पयति निराबाधे प्रदेशे; अयमाचार्य इति तस्य चा. संचिडे जाव सिवं,अहवा वी ते तो फिडिया ||१७|| प्रतः सकलां चक्रबालसामाचारी प्रयुक्रे, निवेद्य करोती(तत्य सिनत्र योऽसौ विवक्षितो देशः,तत्रैव(अंतरा)अन्तराने
त्यर्थः॥१०२॥
एतच कारणिकद्वारमबा, अशिवाऽऽदयो जाता इनि श्रुत्वा प्राकपर्य। आदिग्रहणात् अवमौदरिकराजविष्टमयानि परिगृह्यन्ते । (परिरयस्ससह त्ति)
एवं ता कारणि प्रो, दुइज्ज जुत्तो अप्पमाएणं । 'भमाझ्यस्स' असति अभावे तिष्ठति। एतदुक्तं जवति-यदि गन्तं निकारणि ओ एत्तो, चश्मो आहिंडओ चेव ॥ १३ ॥ शक्नोति श्रमणः ततोऽपान्तरानं परिहत्यानिलवितस्थानं ग- पचं तावत्कारणिकः, ( दृइज्जत्ति) विहरति । कथं
जत, मथ न शक्यत गन्तुं ततः (संचिति) संतिष्ठेत।। विहरति ?, (जुत्तो अप्पमापणं ) अप्रमादेन युक्तः, प्रयत्नपर
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गणठिय
(१७१७) माभिधानगजेन्द्रः।
इत्यर्थः। निष्कारणकोऽत ऊर्द्धमुच्यते, सद्विविधः (चयो) गणागा-स्थानायतिका-खां० । कार्यस्थायाम, पृ० । नो त्याजितःसारणवारणादिभिस्स्याजितः माहिएमका-प्रगी- कानिध्याः स्थानायतयो भवितं स्थानायतं नामोईस्था. तार्थश्चकस्तूगाऽऽदिदर्शनप्रवृत्तः ॥१३॥
नरूपमायतं स्थानं,तधस्मामस्ति सा स्थानायतिका । पृ०५उ०॥ तत्र तावत त्याजित उच्यते
स्थानादिगा-स्वी०। प्रस्थायाम, केचित्तु 'ठाणागा' इति मह सागरम्मि मीणा, संखोनं सागरस्स असहंता ।
पतन्ति । तत्रायमर्थ:-सर्वेषणं निषदनाउनोनां स्थानानामादि. णिति तो सुहकामी, निम्गयमेचा विणस्संति ॥१न्दा
भूनमूर्द्धस्थानमतः स्थानानामादौ गच्चतीनि स्थानाऽऽदिगं पथा सागरे समुझे, मीना मत्स्याः , संकोभं सागरस्य असह. तदुच्यते, तद्योगादार्यिकाऽपि स्थानाऽऽदिगेति व्यपदिश्यत । मानाः, निर्गच्छन्ति, ततः समुद्रात, सुखकामिनः सुखाभिला. | वृ०५ उ०। (एतच्च 'पासन' शब्दे द्वितीयभागे ४७० षिणः, निर्गतमात्राश्च विनश्यन्ति ॥१४॥
पृष्ठे उक्तम) एवं गच्छममुद्दे, सारणचीईहिँ चाइया संता। गणाश्य-स्थानातिद-पुंगास्थानं कायोत्सर्गाऽदिकमतिशयेन किंति तो मुहकामी, मीणा व जहा विणस्संति।१५।। ददाति प्रकरोति अतिगति वेति । स्था० ७ ०भ० । एवं गन्समुद्रे मारणवारणा एवं धीचयः, ताभिस्थाजि- कायोत्सर्गकारिणि, धर्मधर्मिणोरभेदोपचारात कायक्लेशभेदे ताः सन्तोनिगच्छन्ति, ततो गच्छात, सुखाभिसाषिणो, मीना | च।स्था०७ ठा। इव मीना यथा विनश्यन्ति। उक्तं त्याजिनद्वारम ॥१५॥ भोघा स्थानातिग-पुं०। कायक्लेशभेदे, स्था०७०। (श्राहिण्डकस्तु 'आहिमग' शब्दे द्वितीयभागे ५२७ पृष्ठे | स्थानायतिक-पुं० । कायक्लेशभेदे. स्था. ग.। प्रतिपादितः) गणणिउत्त-स्थाननियुक्त-त्रिका स्थाने पदे नियुक्तो व्यापारि
ठाणायय-स्थानाऽऽयत-न० । ऊर्वस्थानरूपे पायतस्थाने, तः स्थाननियुक्तःप्रवर्तकस्वविरगणावच्छेदकेषु,ग०१ माध०।
१०५०। सामान्यसाधौ, ध० ३ अधि।
गाण [D]-स्थानिन्-पुं०।त्रिका स्थानानि विचन्ते येषां ते गणतिग-स्थानत्रिक-न० । स्थानत्रये,धापिएमग्रहणं कुर्वता स्थानिनः । स्थानवत्सु. सूत्र० १ ०२०। स्थानत्रय परिदरणीयमा तद्यथा-आत्मोपघाति, संयमोपचा-गणकमुय-स्थानोत्कुटुक-त्रि। स्थानमासनमुत्कुटुकमाधारे ति, प्रवचनोपघाति चेति । ध०३ अधिः ।
पुतालगनरूपं यस्यासौ स्थानोत्कुटकः ।मासनानिमहविशेषगणपमिमा-स्थानप्रतिमा-नागास्थानं कायोत्सर्गाऽऽद्यर्थ मा- वति, भ०२ श०१०। धयः, तत्र प्रतिमा स्थानप्रतिमा । स्थानविषयक तथा भिजिगणप्पश्यमह-स्थानोत्पातिकमह-पु. । स्वनामयाते भपूर्वे ग्रह, वत्सारिगणप्पमिमा।" (स्था०) स्थानं कायोत्सर्गाच- बरसवविशेष, वृ०१००। थे आश्रयः,तत्र प्रतिमा स्थानप्रतिमाः। तत्र कस्यचिद भिको-नावण-स्थापन-नामारोपणे, पो०१२ विवाघारण, प. रेवंभूतोऽभिग्रहो भवति-यद्यहमचित्तं स्थानमुपाश्रयिष्यामि, शा०१३ विवा तत्र चाश्चनप्रसारणाऽऽदिकां क्रियां करिये, तथा किचिदचित्तं कुरुपादिकमवलम्बयिध्ये,तथा तत्रैव स्तोकं पादवि.
गगवणा-स्थापना-स्त्री०। निक्षेपे, न्यासे, स्था०१०। प्रतिदरणं समाधयिष्यामाति प्रथमा प्रतिमा।द्वितीया तु पाकुचन
छायाम, प्रतिष्ठा स्थापना स्थानं व्यवस्था संस्थितिः स्थिप्रसारणाऽऽदिक्रियामवलम्बनं च करिष्ये.न पादविहरणमिति।
तिरवस्थानम, अवस्था चैकाधिकानि पदानि । ०५३०। तृतीया तु श्राकुञ्चनप्रमारणमेव, नालम्बनपादविहरणे इति वित्ता-स्थापयित-त्रि।स्थापनशीले, स्था०३ ग.१ उ. चतुर्थी पुनर्यत्र त्रयमपि न विद्यते । स्था० म०३००। ठिअस्स-स्थितलेश्य-नालेश्यभेदे, स्था०३ ग०४०। गएपरिणाम-स्थानपरिणाम-पुका परिणमन परिणामः, तत्त-| (पर्यस्त 'बासमरण' शब्दे वक्ष्यते) द्भावगमनमित्यर्थः। यदाह-परिणामो ार्थान्तराऽऽगमनं, न ड-स्थिति-स्त्री०। भवस्थान, भाव.४० विश। च सर्वथा व्यवस्थानं, न च सर्वथा विनाशः। परिणाममेदे,
स्थाने,
स्थाठा० ३ ० । जीतं स्थितिः कपो म्या० १० ठा। गणनट्ट-स्थानत्रष्ट-त्रि० । स्थानाचारित्रादू, गुरुकुलावासा.
व्यवस्था समयो मर्यादेति हि पर्यायाः । नं० । दर्श० ।
"दुविहा पिपणा । तं जहा-कायहि वेव, भावट्टिचे दिकात, सिद्धान्तव्यास्यानरूपाद्वा सूत्रप्ररूपणेन ब्रटे, दुधा- व।" वा०२०३3. प्राथ. श्रा००। (व्याख्या चारेच।तं०।
'कप्पट्टिा' शम्दे तृतीयभागे२३३ पृष्ठे प्रदर्शिता) स्थितिः प्रकमाणस्य-स्थानरत-त्रि०कायोत्सर्गकारिणि, प्राचा.२४० रुपमवस्थान विकल्पनमित्येकार्थम । स्था०४०३ उ० । २०३०
स्वभावव्यवस्थायाम. द्वा०२१ का०।क्रमे, स्था०४ ठा. १ ठाणरिच्छुप-स्थानधिक-न० । सम्बिमनपुंसकजीच
सापायुषि, न०१५ श०५१० प्रश्नतद्भवशक्के माय. भेदे, प्रशा०१ पद।
वि, कल्प०६कण। गणसत्तिक्य-स्थानसप्पैकक-पुं०। प्राचारामस्य द्वितीयश्रुत
नैरयिकाणाम्स्कन्धे सप्तककानां प्रथमे, प्राचा.२० २ च । स्था।
नेरझ्याणं भंते ! केवइयं कालं लिई पाता। गोयमा ! (अत्रत्यः मयों विषयो' बसदि' शब्द वक्ष्यते)
जाणं दस बाससहस्साइं, नकोसेणं तेत्तीस सागरोचमाई।
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( १७१८ ) अभिधान राजेन्द्रः ।
ठिइ
नैरfयकाणां नदन्त ! कियन्तं कालं स्थितिः प्रकृता । तत्र स्थीयतेऽवस्थीयते अनयाऽऽयुष्कमनुभूत्येति स्थितिः स्थितिरायुष्कर्मानुभूतिर्जीवनमिति पर्यायाः । यद्यप्यत्र जीवेन मिथ्यास्वाऽऽदिनिरुपान्तानां कर्मफलानां ज्ञानावरणं । याऽऽदिरूपतया परिणतानां यदवस्थानं सा स्थितिरिति प्रसिद्धं तथापि नारकाऽऽदिव्यपदेशहेतुरायुष्कर्मानुभूतिः । तथाहि यद्यपि नरकगतिपञ्चेन्द्रियज्ञात्यादिनामक मोंदयाऽऽभयो नारकत्व पर्यायः, तथाऽपि नारकाऽऽयुः प्रथम समय संवेदन काल एव तनिबन्धननारक क्षेत्रमप्राप्तोऽपि नारकस्य व्यपदेशं लभते । तथा च मौनम् प्रवचनम् - " नेरइय णं नंते ! नेरइपसु उबवज्जर, अने र नेरलु उवत्र १। गोथमा ! नेरइए मेरइपसु उववउजर, नो अनेरइप नेरपसु उत्रवज्जह" इत्यादि । ततः सैवाऽऽयुकर्मानुभूतिरिह यथोक्तव्युत्पच्या स्थितिरभिधीयते इति । अत्र निर्वचनमाह" गोयमा !" इत्यादि । एतच्च पर्याप्तापर्याप्तविभागाजावेन सामान्यत उक्तम् ।
यदा तु पर्याप्तापर्याप्तविभागेन चिन्ता तदेवं सूत्रम - जगनेरयाणं भंते! केवइयं कालं विई पत्ता १ । गोयमा ! जहणं तोमुद्दत्तं नकोसेण वि अंतोमुहुतं ॥ " अपजस गनेरयाणं भंते!" इत्यादि । शहापर्याप्ता द्विषिधाः- लब्ध्याकरणैश्च। तत्र नैरयिका देवाः संख्ये यवपीयुषस्तिमनुष्याः करणैरेत्रापर्याप्ताः, न लब्ध्या, लभ्यपयशिकानां तेषु मध्ये उत्पादासम्भवात् । तत एते उपपातकाल करणैः कियन्तं कालमपर्याप्ता रुष्टव्याः । शेषास्तु तिर्यग्मनुष्या सध्या अपर्याप्त उपपातकाले च ।
एव
चकं च
" नारगदेवा तिरिमपु-बगन्भजा जे असंखवासाऊ । ए अध्यज्जसी, उबबाद चैत्र बोधव्वा ॥ १ ॥ सेसा य तिरियमरणुया, लकि पप्पोववायकाले य ।
हम विय जश्यन्वा, पजतियरे य जिणवयणं ॥ २ ॥ " अपर्याप्तकाम जघन्यत तो वाऽन्तर्मुहूर्तम्। श्रत उत्तम" गोयमा ! जणं उक्कोसेण वि तोमुहुतं " । पज्जत्तगनेरइयाणं भंते ! केवइयं कालं विई पत्ता १ । गोयमा ! जहां दस वामसहस्सा तो मुहुत्तूणाई, कोसेणं तेतीसं सागरोवमाई अंतोमुत्तणाई || अपर्याप्ताऽपगमे व शेषकालः पर्याप्ताका । तत उक्तं पर्याप्तसू.." गोयमा ! जणं दस वाससहस्सा तोहुचूणाई, कोण तेली सागरोधमा तोमुडुत्तूणाई । " एतच पृथिव्यविभागेन चिन्तितम् ।
सम्प्रति पृथिवा विभागेन विन्तयतिरणभापुढविणेरयाणं भंते 1 केबइयं कालं ठिई पाचा ! । गोयमा ! जहसणं दस बामसहस्साईं, कोसे सागरोवमं । अपज्जत्तयश्यणप्पभापुढविणेरइयाणं जंते ! केवयं कालं लिई पत्ता ? । गोयमा ! जहमेण वि तोमुहुलं, कोसे त्रिप्रतोदुतं । पज्जतयरयणप्पजापुढविणेरयाणं जंते ! केवइयं कालं विई पाचा । गोयमा ! ज
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विइ
इणं दस वाससहस्साई तोमदत्तूणाई, नकोसेणं सागरोवतोमुदुत्तमं । प्रज्ञा० ४ पद । अनु० स० ।
इमी रयणभार पुढवीए प्रत्येमइयाणं नेरइयां तेवीसं सागरोषमा लिई पएलता । सम० २३ सम० ।
सक्करस्पना पुढांवेनेरइयाणं भंते ! केवइयं कालं टिई पता ? । गोयमा ! जहोणं एवं सागरोषमं. उक्कोसेणं तिमि सागरोवमा | अपज्जत्तय सकरप्पभापुढविणेरड्या भंते! केवइयं कालं विई पत्ता ? । गोयमा ! जहएणेणं
तोमुद्धतं, कोण त्रि तो मुहुतं । पज्जत्तयमकरप्पनापुढविणेरयाणं भंते! केवइयं काझं ठिई पत्ता !। गोथमा ! जहां सागरोवमं तो मुहुत्तूणं, नकोसेणं तिमि सामरोमाई तो मुहुत्तू |ई|
बालुयप्पभापुढविनेरयाएं जंते ! केवइयं कालं विई पणता ?। गोयमा ! जहभेणं तिहिए सागरोवमाई, उकोसेणं सत्त सागरोवमाई। अपज्जत्तयबालुयप्पभापुढविणेरइयाणं भंते ! केवइयं कालं विई पएलत्ता १ । गोयमा ! जहां तो मुदुतं नकोसेण वि तोमुदुत्तं । पज्जचयबालुयप्पन्नापुढविनेरझ्याणं नंते ! केवइयं कालं ठिई पएएत ? | गोधमा ! जनेणं तिरिए सागरोत्रमाई अंतोमुहुत्तूणाई, कोसेणं सत्त सागरोवमाई अंतोमुहुत्तूणाई | पंकप्पा पुढविणेरइयाणं जैसे ! केवश्यं कालं विई पष्ठाता ? | गोमा ! जहां सत सागरोवमाई, उक्को सेणं दस सागरोमाई | अपज्जत्तयपंकप्पा पुढविनेरयाणं जंते ! केबइयं कालं लिई पएएत्ता ? । गोयमा ! जहन्नेणं अंतोमुहुत्तं, उकोसेण वि तोमुहुत्तं । पज्जत्तयपंकष्पभापुढबिनेरइयाणं भंते ! केवइयं कालं विई पएलत्ता ? | गोमया ! जहन्नणं सत्त सागरोवमाई तो मुद्दत्तूणाई, नक्कोसेणं दस सागरोवमा तोमुहुत्तूणाई । धूमपजापुढविणेरड्याणं भंते! केवइयं कालं लिई पत्ता । गोमा ! जहोणं दस सागरोवमाई, नकोसेणं सनर सागरोमाई | पज्जत्तयधूमप्पजापुढविणेरइयाणं जंते ! केवइयं कालि पाता । गोयमा ! जहन्त्रेण वि तोमृदुत्तं, उकोसेवितोमुत्तं । पज्जत्तयधूपप्पजापुढविनेरइयाणं भंते ! केवइयं कालं ठिई पत्ता १ । गोयमा ! जहन्नेणं दस सागरोमाई समुदुत्तूणाई, उक्को सेणं सतर सागरोमाई तोमुत्तूणाई |
तमप्पभापुढविनेरइयाणं जंते ! केवइयं कालं विई पत्ता १ । गोयमा ! नहोणं सतर सागरोत्रमाई, कोसेफ बाबीसं सागरोत्रमाहं । अपज्जचयतमप्पत्नापुढ
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( १७१६). अभिधान राजेन्द्रः ।
विश
विनेरयाणं भंते ! केव्हयं कालं विई पत्ता १ । गोयमा ! जञेण वि अंतोमृदुतं, नकोसेण वि श्रंतोमुडुतं । पतत्तयतमप्पभापुढविनेरध्यामां भंते! केवइयं कालं विई पता ? । गोयमा ! जभेणं सतर सागरोमाई अंतोगुणाई, उकोसेणं बावीसं सागरोवमाई तोमुहुत्तूणाई ।
महेसपुढविनेरयाणं भंते ! केवइयं कालं निईछाता | गोगमा ! जहनेणं बावीसं सागरोवमाई, नकोसेणं तेत्तीस सागरो माई | अपज्जत्य श्रसत्तमपुढविनेरइयाणं भंते! केवइयं कालं विई पत्ता । गोयमा ! जहनेणं अंतोमुटु, उक्कोसेण वि अंतोमुहुत्तं । पज्जत्तयश्र हे मत्तमपुढविनेरइयाणं जंते ! केवइयं कालं विई पत्ता १। गोथमा ! नहभेणं बात्रीसं सागरोत्रमाई अंतोमुदुत्तूणाई, उकासेणं तेसीसं सागरोवमाई तो मुदुत्तूणाई ।
देवानां स्थितिः
देवाणं जंते ! केवइयं कालं नि पत्ता ? । गोयमा ! जनेणं दस बाससदस्साई, उक्कोसेणं तेत्तीस सागरोवमाई । अपज्जतयदेवाएं जंते! केवइयं काल लिई पता १। गोयमा ! जहणं तो मुद्दत्तं नकोसेण वि अंतोमुदुत्तं । पज्जचयदेवाएं जंते ! केवइयं कालं विई पात्ता १ । गोयमा ! जहनेगं दस वाससस्साई तोमुडुत्तूणाई, उक्कोसेणं तेत्तीस सागरोमाई तोहुणाई |
देवीं जंते ! केवइयं कालं लिई पत्ता १। गोयमा ! जनेणं दस वाससहस्सा, नकोसेणं पणपत्र पलिप्रोमाई । अपज्जतगदेवी जंते ! केवश्यं कालं निई पछचा ? | गोयमा ! जहन्नेणं तोमुदुत्तं, उक्कोसेण वि तोमुदुचं । पज्ञत्तयदेवीणं जंते ! केवश्यं कालं ठिई पासा ? । गोयमा ! जहनेणं दस वाससहस्साइं अंतोमुदुतूणाई, नकोसेणं पपन्न पलियोषमा तोमुदुत्तूणाई ।
भवासीणं जंते ! देवाणं केवइयं कालं ठिई पाता ।। गोमा ! जन्नें दस वाससहस्साई, उक्कोसेणं सातिरेगं सागरोत्रमं । अपज्जत्तयभवणवासीणं भंते ! देवाणं केवइयं काठई पत्ता ? । गोयमा ! जहन्नेण त्रि अंतोमुडुत्तं,
कोसेवितोमुत्तं । पज्जत्तयन बणनासीणं भंते ! देवाणं केवइयं कालं ठिई पत्ता ? । गोयमा ! जहन्नेणं दस बाससहस्साई अंतोमुहुत्तूणाई, उकासेणं सातिरेगं सागरोत्रमं तो मुहुत्तूणं । भवणवासिणीणं भंते ! देवीयं केवइयं कालं ठिई पष्ठ१। गोमा ! महन्नेां दस बाससहस्साई, नकोसे
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अपंचमाई पलिश्रोत्रमाई। अपज्जत्तियाणं जंते ! जकवासिणीणं देवणं केवइयं कालं ठिई पाचा ।। गोयमा ! जहन्नेणवितोमुत्तं, नकोसेष वि तो मुहुषं । पज्जचियाणं भंते ! जवणवासिणीणं देवीणं केवइयं कालं पिता ? | गोयमा ! जहन्नेणं दस वाससहस्साई - सोमुहतूणाई, कोसेणं पंचमाई पलिप्रोमाई वोमुहाई |
असुरकुमाराणं जंते ! देवाणं केवश्यं कालं लिई पष्ठचा !! गोयमा ! जहनेणं दस बाससहस्साई, उकोसेणं साइरेयं सागरोवमं । अपज्जतयश्रमुरकुमाराणं भंते ! देवाणं केवइयं कालं ठिई पत्ता ? । गोयमा ! जहोण वि अंतोदुतं, कोण वितोमुहुत्तं । पज्ञत्तय असुरकुमाराणं भंते ! केवइयं कालं ठिई पत्ता । गोयमा ! जहन्नेणं दस वाससढस्साई अंतोमुहुत्तूणाई, उकासेणं सातिरेवं सागरोवमं तो मुहणं ॥
असुरकुमारीणं भंते ! देवी केवइयं कालं लिई पठत्ता ? । गोमा ! जहां दस वाससहस्सारं, उक्कोसेणं श्रद्धपंचमाई पनि माई | अपज्जत्तियाणं असुरकुमारीणं जंते ! देवीणं केवइयं कालं विई पणता ? । गोयमा ! जहए कि अंतोमुत्तं, उक्कोसेण वि तोमुहुत्तं । पज्जचियाणं असुरकुमारीणं भंते ! केवध्यं कालं विई पछदस बाससहस्साइं तो मुहुचूणाई, ठकोसेणं पंचपाईं पविमाई तोहुतूणाई । नागकुमाराणं जंते ! देवाणं केवइयं कालं विई - १। गोयमा ! जपेणं दस बाससहस्साई, नकोसे दोहिल पविमाई देसूणाई । अपज्जत्तयाणं जंते ! नागकुमाराणं देवाएं केवयं कालं ठिई पत्ता ? । गोयमा ! जषेणं अंतोमुदुनं, उक्कोसेण वि तोमुदुषं । पज्जत्तयाणं अंते ! नागकुमाराणं देवाणं केवइयं कालं विई पछा! | गोयमा 1 जहोणं दस वाससइस्साई तोमुहुत्तणाई, कोसेणं दोधि पलिश्रोत्रमाई देसुणाई तोमुहलाई । नागकुमारीणं भंते! देवीणं वश्यं कालं ठिई पसचा ? | गोमा ! जहां दस बाससदस्साई, उक्कोसेणं देणं पनि श्रोषमं । पज्जतियाणं नागकुमारीणं जंते ! देवील केवइयं कालं विई पणसा ।। गोयमा ! जहणणं तोमुटुसं, उक्कोसेण त्रिअंतोमुहुतं । पज्जत्तियागं नागकुमारीणं भंते! देवीणं केवइयं कालं लिई पएलता ? | गोयमा ! जदभेणं दस बाससहस्साई अंतोमुहुत्तूणाई, उक्कोसेणं देणं पक्षिश्रवमं अंतोमुहुत्तूणं । सुबएणकुमाराणं चंते ! देवाणं केवइयं कालं लिई -
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(१७२०) dिs अभिधानराजेन्डः।
विश गोयमा ! जाणं दस वाममास्माउं. नकोसेणं| जहण विउकोमेण वि अंतोमहत्तंअपज्जत्तयमुहम पुढविदो पलिश्रोमाइंदेमूणाई। अपज्जत्तयाणं पुच्छा । गो- काइयाणं पुच्छा। गोयमा! जहन्नेण वि उक्कोसेण वि पमा ! जहण विउक्कोण विभंतोमुत्तं । पज्जत्तयाणं अंतोमुहत्तं । पज्जत्तयसुदुमपुढविकाझ्याणं पुच्छा । गोयमा! पुच्चा । गोयमा ! जहाणं दस वाससहस्साई अंतोमु- जहन्नेण वि कोसेण वि अंतोमुहुत्तं । चादरपुदविकाइयाणं इत्तूणाई. नकोसेणं दो पलिम्रोवमाई देसूणाई अंतो- पुच्चा। गोयमा! जहन्नणं अंतोमहत्तं, उक्कोसेणं बावीसं महत्तूणाई।
वाससहस्साई । प्रशा०४ पद । सुवएणकुपारीणं देवीणं पुच्छा। गोयमा! जहएणणं
बायरस्सणं भंते ! केवतियं कालं ठिती पन्नत्तागोपदस वाससहस्साई,उकोसेणं देणं पझिओवमं अपजत्ति
मा! जहणं मंतोमुत्तं, उकोसणं तेत्तीस सागरोवमाई याणं पुच्चा ?। गोयमा ! जहन्नेण वि उक्कोसेण वि अंतो
हिती पाम्पत्ता। जी०६ प्रति । अपजत्तयबादरपुढविमुटुत्तं । पज्जातियाणं पुच्छा | गोयमा ! जहणणं दस वा
काइयाणं पुच्छा ?। गोयमा! जहमेण विनकोसेण वि मसहस्साई भतोमुत्तूणाई उक्कोसेणं देखणं पलिग्रोवम
अंतोमुहुत्तं । पज्जत्तयवादग्पुदक्किाइयाणं पुच्चा । गोभंतोमुत्तम् ।
यमा ! जहलोणं अंतोमुहुत्तं, नकोसेणं बावीसं वाससहएवं एएणं अनिसावेणं अोहियअपज्जत्तपज्जत्तम
स्साई अंतोमुत्तूणाई। सत्तयं देवाण य देवीण य यन्नं जान थणिपकुमाराणं जहा नागकुमाराणं ।
प्रानकाइयाणं भंते ! केवयं कालं निई पमत्ता । पुढविकाइयाणं ते ! केवश्यं कालं पिएणता।
गोयमा जहन्नेणं अंतोमुहत्तं,उकासेगां सत्त वाससहस्साई। गोयमा! जहनेणं अंतोमुहले, उक्कोसणं वावीमं वासस
पज्जत्तयाउकाझ्याणं पुच्छा। गोयमा ! जहम्मेण वि इस्साई । प्रज्ञा०४ पद ।।
नकोसेण वि अंतोमुहत्तं । पज्जत्तयमाउकाइयाणं पुच्चा। साहपुढवीणं भंते ! केवश्यं कालं ठिई पत्ता ? गोयमा ! | गोयमा ! जहणणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं सत्त वाससहस्साई अहनेणं अंतोमुहुत्तं, नकोसेणं एगं वामसहस्सं । सुख
अंतोमुहत्तूणि आई । भानकाइयाणं प्रोहियाणं भपजपुढवीपुच्छा है। गोयमा ! जहन्नेणं अंतोमुह, नकोसेणं
त्तयाणं पज्जत्तयाणं जहा सुदुमपुदविकाझ्याणं तहा भाबारस नामसहस्सा । बाबुयापुढवीपुच्छा । गोयमा जह
णियध्वं । बादरभाउकाश्याणं पुच्छा । गोयमा! जहन्नेणं बेणं अंतोमुहुत्तं,उकोसेणं चनदस वाससहस्सा । मणोसि
अंतोमुहत्तं, उकोसेणं सत्त वाससहस्साई। अपज्जत्तयवालापुढवीपुच्चग। गोयमा ! जहनेणं अंतोमुहत्तं, उक्कोसेगां
दरअाउकाझ्या पुच्चा गोयमा! जहमेषा वि उकासेण मोनस वाससहस्साई । मकरापुदवी पुच्चय । गोयमा ! ज
वि अंतोमुटुत्तं । पजत्तयाणं पुच्चा ?। गोयमा ! जान्ने हम्मेणं अंतोमुदुत्तं, उक्कोसेणं अहरम वाससहस्साई । खर
अंतोमुटुत्तं, नकोसेणं सत्त वाससहस्साई अंतोमुहुत्तूणाई।
तेउकाइयाणं ते ! केवश्यं कानं लिई पम्मत्ता गोयमा! पुढवीपुच्छा । गोयमा ! जहनेणं अंतोमुत्तं, नकोसेणं वाबीसं वाससहस्सा।
जहन्नेणं अंतोमुद्त्तं, उक्कोसेणं तिमिी राइंदियाई। अपज्जत्त" सराहपुढविकाश्याणं" इत्यादि । लक्ष्णपृथिवीकायिकानां
याणं पुच्चा गोयमा! जहन्नेण वि उक्कोसेण वि अंतोनदन्त ! कियन्तं कालं स्थितिः प्रकप्ता ? । नगवानाद-गौतम! मुहुत्तं । पजत्तयाणं पुच्छा ? गोयमा! जहन्ने अंतोमुत्तं, नयन्येनान्तर्मुहुर्तम, उत्कर्षत एक वर्षसहस्रम् । एवमम्येनानि. नकोसेणं तिलि रादियाइं अंतोमुहत्तणाई । मुहुपतेउकाइसापेन शेषाणामपि पृथिवीनाम । शुरूपृथिव्या डानश वर्षस. याणं पुच्छा। गोयमा ! जहन्नेण विउकोसेण वि अंतोहस्राणि, बासुकापृथिव्याश्चतुर्दश वर्षसहस्राणि, मनःशि
मुहुत्तं । अपज्जत्तापज्जत्ताणं सुहुमाणं पुच्छा । गोयमा! लापृथिव्याः पोमश वर्षमहस्राणि, शर्कगथिन्या भष्टादश बसहस्राण, स्वरपृथिव्या द्वाविंशतिवर्षसहस्राणि । सर्वा
जहन्नेण वि नकोसेण वि अंतोमुहुत्तं । बायरतेउकाश्याणं मामपि चामूषां पृथिवीनां जघन्येन स्थितिरम्तर्मुदत्त वक्तव्या। पुच्चा। गोयमा जहन्नेणं अंतोमुटुत्तं, नकोसणं तिषि मी० ३ प्रति०।
राइदियाई। अपजत्तयाणं पुच्छा। गोयपा! जहरणेण वि अपज्जत्तयपुढाविकाडगाणं ते ! केवडयं कालं ठिई उकोसेण वि अंतोमुहुत्तं । पज्जत्तयाणं पुच्छा ?। गोयमा ! पमाना। गोथमा ! जहले विनकोमेण विभंतोमहत्तं । जहएणेणं अंतोमुटुत्तं, उक्कोसेणं तिरिण राइंदियाई अंतोपजत्तयपुढविकाइयाणं भंते ! केवइयं कालं गिई पत्ता | मुहृत्तणाई। गोयमा जहनेणं अंतोमुहुत्तं,उकोसेणं बाबीसं वाससहस्सा- वाजकाइयाणं भंते ! केवडयं कालं लिई पएणत्तागोगमा! अंतोमुत्तशाई। सूदुम्पुढाबकाइयाणं पुछा । गोयमा!। जहणं अंतोमहुत्तं, उकोसेणं तिरिण बाससहस्साई ।
1
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(१७२१)
अभिधानराजेन्द्रः |
विश
अपज्जयवाकाइयाणं पुच्छा ? । गोयमा ! जहोणं अंतोमुहुत्तं, कोण वि तोमृदुत्तं । पज्जत्तयाणं पुच्छा है । गोमा! जो तमुत्तं, उक्कोसेणं तिथि दास सदस्साईं तोमुदुगाई | सुदुमवा उकाइयाणं पुच्छा १ । गोयमा ! जहोणं अंतोमुडुत्तं, नक्कोसेण वि तोमुहृत्तं । अपज्जत्तयाणं पुच्छा । गोयमा ! जहां अंतो मुहुत्तं, उक्कोसेण वि तोमुहुत्तं । पज्जत्तयाणं पुच्छ ? । गोयमा ! जहमें अंतोमुद्दत्तं, उकोसेण वि अंतोमुहुत्तं । बादरवाङकाइयाणं पुच्छा ?। गोयमा ! जहणं अतो मुहुत्तं, उक्कोसें तिमि बाससदस्साई । अपज्जत्तबादरवाङकाइयाणं पुच्छा १ । गोयमा ! जहोणं अतोमुहुत्तं, उक्कोसेण त्रिअंतोमुदुत्तं । पज्जत्तबादरवा उकाइयाणं पुच्छा ? । गोयमा ! जहसेणं अंतोमुदुत्तं, उकोसेणं तिमि वाससहस्सा तोमुहुत्तूलाई ।
वणस्सइकाइयाणं जंते ! केवइयं कालं ठिई पएलता ? | गोमा ! जहणं तोमुदुत्तं, नक्कोसेणं दस वाससहस्साईं । अपज्जत्तयाणं पुच्छा ? । गोयमा ! जमेणं अंतोमुदुत्तं, उकोसेण वि तोमृदुत्तं । पज्जत्तयाणं पुच्छा ? । गोयमा ! जहां संतोमुदत्तं नकोसेणं दस वामसहस्सा तोमुदुचूणाई | सुदुमत्रणस्स इकाइयाएं ओहियाएं अपज्जतपज्ञचाय तोमुहुत्तं । बादरवणस्सइकाइयाणं पुच्छा १ । गोमा ! जहां तोमुडुत्तं, नक्को सेणं दस वास सदस्साई । अपज्जत्तबादरवणस्सइकाइयाणं पुच्छा ।। गोयमा ! जहसेतोमुत्तं नकोसेण वि तो मुहुत्तं । पज्जत्तवादरवएस्सइकाइयाणं पुच्छा ! । गोयमा ! जहोणं अंतोमुडुतं, नकोसेणं दस वामसदस्साई तोमुदुनूलाई ।
बेड़ंदियाणं जंते ! केवइयं कालं निई पएलता ? । गोयमा ! जहां अंतोमुदुत्तं, उक्कोसेणं बारस संवच्छराई । अपज्जत इंदियाणं पुच्छा है। गोयमा ! जहणं तोमुहतं, उक्कोसेतोमुहुतं । पज्जत्तबेदियाणं पुच्छा है। गोयमा ! जहां अंतोमुहुत्तं, नकोसेणं बारस संच्छराई तोमुहुत्तूणाई ।
तेइंदियाणं भंते ! केवइयं कालं विई पणत्ता १ । गोयमजणं तोमुडुतं, नक्को सेणं एगूणवराई दियाई । अपज्जत्तयतेई दियाणं पुच्छा ? । गोयमा ! जहोणं तोमुहुत्तं नकोसेधावितोमुहुत्तं । पज्जत्ततेंड़ दियाणं पुच्छा ।। गोयमा ! जहणणं अंतोमुदुत्तं, नकोसेणं एगूणवपराईदिया तो मुहुगाई |
चडरिंदियाणं जंते ! केवइयं कालं विई परणता ? | गोमा! जो तमुत्तं, उक्कोसेणं छम्मासा । अपजचयच उरंदियाणं पुच्छा । गोयमा ! जहां अंतोसुदुचं, उ१
४३९
विश
कोसेण वि श्रंतोमुदुत्तं । पज्जत्तयचनरिंदियाणं पुच्छा ?। गोमा! जहां अंतोदुत्तं, उक्कोसेणं उम्मासा अंतीमुत्तूणा । पंचिदियतिरिक्खजोणियाणं भंते ! केवश्यं काल लिई पणता ? | गोगमा ! जहणणं अंतोमुदुत्तं, नक्कोसेणं तिमि पलिप्रोमाई | अपज्जत्तयपांचदियतिरिक्खजोणिया पुच्छा - १। गोयमा ! जहोणं अंतोमुडुत्तं, उक्को से वि
तोमुहुत्तं । पज्जत्तयपंचिदियतिरिक्खजोणियाणं पुच्छा ।। गोमा ! जो अंतोमुदुत्तं, उकोसेणं विन्नि पसिओमाई अंतोमुत्तूणाई । संमुच्छिपपचिदियतिरिक्खजोशियां पुच्छा ? । गोयमा ! जहां अंतोमुदुतं, उक्कोसेणं पुन्त्रकोमी । पज्जत्तय संमुच्छिमपंचिंदियतिरिक्खजोणियाणं पुच्छा ? । गोयमा ! जहोणं अंतोमुहुत्तं, 1 उकोसेवितोमुद्दत्तं । पज्जत्तय सम्मुच्छिमपंचिंदियतिरिक्खजोखियाणं पुच्छा । गोयमा ! जसेणं अंतोमुहुत्तं, नकोसेणं पुन्त्रकोमी अंतोमुहुत्तृणा । गन्भवकंतियपंचिंदियतिरिक्खजोणियाणं पृच्छा ? । गोयमा ! जहएऐणं तोमु, कोमेतिणि पलिओ माई । अपज्जत्तगन्जवक्कतियपंचिदियतिरिक्खजोणियाणं पुच्छा १ । गोयमा ! जहोणं अंतोमुडुत्तं, नकोसे त्रिअंतोमुडुतं । पज्जतगब्जवकंतियपत्रिंदियतिरिक्खजोलियाणं पुच्छा ।। गोयमा ! जहणणं तोमुदुतं, उक्को से णं तिष्ठि पलिप्रोमाई - तोमुत्तूणाई |
जलयरपंचिंदियतिरिक्खजोलियाणं केत्रइयं कालं विई प छत्ता । गोया ! जहां अंतोमुदुत्तं, उक्कोसेणं पुत्र कोडी | अपज्जत्तजन्ऩयरपचिदियतिरिक्खजोगियाणं पुच्छा ? । गोयमा! जहमेणं अंतोमुद्वृत्तं, नकोसेण वि अंतोमुडुत्तं । पज्जचयजलयर पंचिदियतिरिक्खजोणियाणं पुच्छा ? । गोयमा ! १ जहषेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं पुव्त्रकोम। तोमुदत्तणा । सम्मुच्छिमजलयर पंचिदिपतिरिक्खजोलियाणं पुच्छा १ । गो
मा! होणं तोमुडुतं, उकोसेणं पुन्त्रकोम। । अपक्षतयसम्मुच्छिमजल यर पंचिंदियतिरिक्त्व जोणियाणं पुच्छा ।। गोयमा ! जहोणं अतोमुदुत्तं नकोसेण वि अंतोमुहुत्तं । पज्जत्तसम्मुच्छिमजन परपंचिदियतिरिक्खजोगियाणं पु
? | गोयमा ! जसे गं अंतोमुदुत्तं, उकोसेणं पुन्त्रको । अंतोमुहुत्ता । गब्जवकं तियजन्नगरपंचिदियतिरिक्खजो - या पुच्छा ? | गोषमा ! जहसेणं त्र्यंनोमुडुतं, उकोसेशं १ पुत्रको । अपज्जत्तयगन्नवकंतिय जन्न यरपंचिदियतिारक्खजोणियाणं पुच्छा १। गोयमा ! जहणणं अंतोमुहुत्तं, उक्को सेतोमुत्तं । पज्जत्तगजवर्क तयजलयर चिंदियतिरिक्खजोशियाणं पुच्छा ? । गोयन्त ! जहां अंतामुडुतं, चकोसेणं पुव्वकोमी तोमुहुत्तूणा ।
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(१७२१) विश
अन्निधानराजेन्द्रः । चउप्पयथलयरपंचिंदियतिरिक्खनोणियाणं पुच्छा ? । गो- हएणणं अंतोमुहृत्तं, उक्कोसेणं पुब्बकोमी अंतोमुहुत्तूणा । यमा ! जहम्मेणं अंतोमुहुत्तं, नकोसेणं तिमि पलिअोवमाई। नुयपरिसप्पथलयरपंचिंदियतिरिक्खजोणियाणं पुच्चा । अपजत्तयचनुप्पयथायरपंचिंदियतिरिक्खनोणियाणं पुच्छा गोयमा! जहलेणं अंतोमुहुत्तं,उक्कोसेणं पुन्चकोमी। अपज्ज।गोयपा! जहणं अंतोमुत्तं,नक्कोसेण वि अंतोमुहुर। सयभुयपरिसप्पथलयरपंचिंदियतिरिक्खजोणियामं पुच्छा। पन्नत्तयच उप्पयथलयरपंचिंदियतिरिक्खजोणियाणं पुच्छा?। गोयमा! जहएणेणं अंतोमुत्तं, नकोसेण वि अंतोमुदुत्तं । गोयमा! जहएणणं अंतोमुहत्तं,नकोसेणं तिमि पलिश्रो- पन्जत्तयभुयपरिसप्पथक्षयरपंचिंदियतिरिक्खजोणियाणं बमाई अंतोमुहृत्तागाई । सम्मुच्छिमचनुप्पयथलयरपंचिंदि-1 पुच्छा। गोयमा!जहएणेणं अंतोमुहत्तं,उकोसेणं पुवकोडी यतिरिक्खजोणियाणं पुच्छा। गोयमा! जहएणणं अंतोमु- अंतोमुटुत्तूणा। सम्मुच्चिमन्नुयपरिसप्पथलयरपंचिंदियति हुत्तं, नकोसेणं चउरासीई वाससहस्सा अपजत्तयसम्मुः | रिक्खजोणियाणं पुच्छा ?। गोयमा ! जहएहोणं अंतोमुहुत्तं, छिमचनप्पयथलयरपंचिंदियतिरिक्खजोणियाणं पुका। उक्कोसणं वायानीसं वाससहस्साई । अपज्जत्तयसम्मुच्चिगोयमा ! जहोणं भंतोमुत्तं, नकोसेण वि अंतोमुहुत्तं । मनुयपरिसप्पथलयरपंचिंदियतिरिक्खजोणियाणं पुच्छा। पज्जत्तगसम्मुच्छिमघउप्पयथलयरपंचिंदियतिरिक्खजोणि
गोयमा ! जहणं अंतोमुत्तं, उक्कोसेण वि अंतोमुत्तं । याणं पुच्छा ?। गोयमा ! जहएणणं अंतोमुलुत्तं, उक्कोसेणं पज्जत्तगसम्मुच्छिमजुयपरिसप्पथलयरपंचिंदियतिरिक्ख-- चनरासीई वाससहस्साई अंतोमुदत्तणाई । गम्भवतिय- जोणियाणं पुच्छा। गोयमा! जहोणं अंतोमुहुत्तं,उक्कोसेणं चउप्पयथक्षयरपंचिंदियतिरिक्खजोणियाणं पुच्छा। गोय- वायालीसं वाससहस्साई अंतोमुहुत्तूणाई । गम्भवतियन्नुमा ! जहएणेणं अंतोमुहत्तं, उक्कोसेणं तिमि पनिोवमाई। यपरिसप्पथायरपंचिंदियतिरिक्खजोणियाणं पुच्छा गोअपज्जतगगजवकंतियच उप्पयथलयरपंचिंदियतिरिक्वजो.
यमा! जहम्मेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं पुचकोडी । अपज्जणिणं पुच्छा | गोयमा! जहरणेणं अंतोमत्तं, नको- त्तगम्भवतियनुयपरिसप्पथलयरपंचिंदियतिरिक्खजोणिसेण वि अंतोमुहुत्तं । पजतगगम्जवतियच उप्पयथल- याणं पुच्छा ?। गोयमा! जहएणणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेण यरपंचिंदियतिरिक्खजोणियाणं पुच्चा । गोयमा ! जहम्मेणं वि अंतोमुत्तं । पज्जत्तयगन्नवकंतियनुयपरिसप्पथलयरअंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं तिरिण पनिोवमाई अंतोमुहुत्तूणाई। पंचिंदियतिरिक्खजोणियाणं पुच्छा ? गोयमा ! जहएणेणं
नरपरिसप्पयलयरपंचिंदियतिरिक्खजोणियाणं पुच्छा। भंतोमुटुत्, उक्कोसणं पुन्चकोडी अंतोमुत्तूणा । गोयमा ! जहएणणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं पुन्चकोडी। अप- खहयरपंचिंदियतिरिक्खजोणियाणं भंते ! केवश्यं कालं जत्तयउरपरिसप्पयलयरपंचिंदियतिरिक्खजोणियाणं पु- लिई पएणता । गोयमा ! जहएणणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं च्छा । गोयमा! जहएणणं अंतोमुहत्तं, नकोसेण वि
पलिश्रोवमस्स असंखेज्जइभागे। अपज्जत्तयखहयरपंचिंदिअंतोमुहुत्तं । पजत्तगउरपरिसप्पथन्जयरपंचिंदियतिरिक्ख- यतिरिक्खजोणियाणं पुच्छा? गोयमा ! जहमेणं अंतोमुजोणियाणं पुच्छा | गोयमा ! जहएणणं अंतोमहत्तं, दुत्तं, नकोसेण वि अंतोमुहुत्तं । पज्जत्तयखहयरपंचिंदियउक्कोसेणं पुन्चकोमी अंतोमुहत्तणा ।
तिरिक्ख जोणियाणं पुच्छा । गोयमा ! जहोणं अंतोमुसम्मुच्छिमसामएणपुच्छा कायव्या?। गायमा! जहएणणं दुत्तं, उक्कोसेणं पनिओवमस्स असंखेजश्भागे अंतोमुहुनूअंतोमुटुतं,उकोसेणं तेवप्नवाससहस्साई। अपज्जत्तगसम्मु- णे। सम्मुच्छिमखहयरपंचिंदियातिरिक्खजोणियाणं पुच्छा। छिमउरपरिसप्पथलयरपंचिंदियतिरिक्खजोणियाणं पुच्छा । गोयमा ! जहणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं बावत्तरिवाससह१।गोयमा! जहणणेणं अंतोमुहुत्तं,उकोसेण वि अंतोमुहुत्तं ।। स्साई । अपज्जत्तयसम्मुच्छिमखहयरपांचंदियतिरिक्खजोपज्जत्तगसम्मुच्छिमउरपरिसप्पथायरपंचिंदियतिरिक्खजो- णियाणं पुच्चा गोयमा !जहनेणं अंतोमुदुत्वं,उकोसेण घि णियाणं पुच्छा। गोयमा! जहएणणं अंतोमहत्तं, नको- अंतोमुटुत्तं । पज्जत्तयसम्मुचिमखहयरपंचिदियतिरिक्खजोसेणं तेवनवाससहस्साई अंतोमुहुत्तूणाई । गज्जवकंतिय- णियाणं पुच्चा गोयमा!जहएणणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं उरपरिसप्पथलयरपंचिंदियतिरिक्खजोणियाणं पुच्छा। बावत्तरिवाससहस्साइं अंतोमुहुत्तूणाई । गन्जवकंतियखगोयमा! जहएणणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसणं पुन्चकोमी । अ- हयरपंचिंदियतिरिक्खजोणियाणं पुच्छा । गोयमा ! जहपज्जत्तगगम्भवतिय उरपरिसप्पथलयरपंचिंदियतिरिक्ख. मेणं अंतोमुहुत्तं,नकोसेणं पलिप्रोवमस्स असंखेज्जइनागे। मोणियाणं पुच्छा। गोयमा! जहएणगणं अंतोमुदत्तं,नकोसेण वि अंतोमुहत्तं पजत्तगगम्भवतियनरपरिसप्पथ
अपज्जत्तयगम्भवकंतियखहयरपंचिंदियतिरिक्ख जोणियाणं जयरपचिंदियतिरिक्खजोणियाणं पुच्चा गोयमा! ज- पुच्चा । गोयमा ! जहष्मणं अंतोमुहुत्तं,नक्कोसेण विनंतो
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( १७२३)
निधान राजेन्द्रः ।
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मुहुत्तं । पज्जत्तयगन्भवकं तियखइयर पंचिंदियतिरिक्खजो - लियाणं पुच्छा ? । गोयमा ! जहां अंतोमुदुत्तं, उक्कासेणं पलिप्रोवमस्स असंखेज्जइभागो तो मुदुत्तूणो ।
मणुस्माणं जंते! केवइयं कालं ठिई पत्ता ? । गोयमा ! नणं तोमृदुत्तं, उक्कोसेणं तिमि पलिश्रवमाहं । अपज्जतयमणुस्सारणं पुच्छा है। गोयमा ! जो अंतोमुहुसं, कोसेवितोमु । पज्नत्तयमस्ताणं पुच्छा ? | गोमा ! जणं तोमुहुत्तं, उक्कोसेणं तिष्ठि पलिओचमाई तोमुत्तूणाई | प्रज्ञा० ४ पद ।
( निर्ग्रन्थानां स्थितिः ' निग्गंथ ' शब्दे वक्ष्यते ) स्त्रीणाम्
मस्सित्थीणं जंते ! केवतियं कालं विती पत्ता ? | गोयमा ! खेत्तं पकुच्च जहएरोणं तोमुहुत्तं, नक्कोसेणं तिष्ठि पलिश्रोत्रमाई | धम्मचरणं पडुश्च जहमेणं अंतोमुहुत्तं, उकोसे देसूणा पुन्त्रकोमी | कम्मनूमगमपुस्तिथी एं भंते! केवतियं कालं विती पण्णत्ता ? । गोयमा ! खेसं पमुच जइसे तोमुदुत्तं, उक्कोसेणं तिथि पलिओ
माई | धम्मचरणं पहुच जाएं तो मुहुत्तं, नक्कोसेणं देगा पुन्त्रकोमी । जरहेरवयकम्म नृगममणुस्तिस्थीणं भंते ! केवतियं कालं विती पएलत्ता ! । गोयमा ! खेत्तं पमुख जहणणं तोमुदुत्तं, नक्कोसेणं तिष्ठि पलिप्रोमाई | धम्मचरणं परुच जहणणं तो मुदुत्तं, ठक्कोसेणं देगा पुण्चकोडी । पुत्रविदेह अवरविदेहकम्मनूमगमलुस्सित्यीणं जेते ! केवतियं कालं विती पणचा ? । गोयमा ! खेत्तं पकुच्च जहणणं तोमुहुत्तं, उक्कारेणं पुत्रकाडी | धम्मचरणं पमुच्च जहणणं अंतोमुदुत्तं, उक्कासेणं देसूणा पुव्त्रकोमी । ग्रकम्मभूमगमणुस्सित्थणिं जंते ! केवतियं कालं विती पएलता १ । गोयमा ! जम्मणं पमुच्च जहसेणं देणं पनिोवमं, पनिश्रोत्रमस्स असंखेज्जतिनागणं कणगं, उक्को सेणं तिथि पलिप्रोमाई | संदरणं पमुच्च जहणणं तोमुहुत्तं, उक्कोसेणं देणा पुन्त्रकोमी । देमवर एरन्नत्रए जहएलेणं देणं पलिश्रोत्रमं, पक्षियोत्रमस्स प्रसंखेज्जइनागेणं कणगं, उक्कोसेणं पक्षिश्रवमं । संहरणं पशुच जइणं प्रतोदत्तं उक्कोसेणं देसूणा पुब्वकोमी । हेमवर एरन पहुच जणं देणं पलियोवमं, पलिओ
मस्स संखेन भागेणं ऊणगं, उक्कोसेणं पक्षियोवमं । संहरणं परुच्च जइहोणं तोमुदुत्तं, उक्कोसेणं देणा पुकोमी | हरिवारम्गवास कम्मभूमगमलुस्सित्थीनं नंखे ! केवइयं कालं विई परायचा १
विश
गोमा ! जम्म पमुख जडमेणं देमूणाई दो पतियत्रमाई, मिस असंखेज्जतिजागे ऊणाई, नकोसे लं दोपलिप्रोमाई | संहरणं पकुच जहसेणं अंतोमुटु, उकसे देणा पुत्रको । देवकुरुउत्तरकुरु कम्मभूमगमस्सित्यं भंते ! केवतियं कालं विती पत्ता ! | गोमा ! जम्म पशुच जहरणं देसूणाई तिमि पक्षिमाई, पलिप्रोत्रमस्स असंखेज्जतिनागेणं कणगाई, उकोसेणं तिम्ठि पलिओ माई | संहरणं पडुच जहणणं तोमुहुत्तं, उकोसे देसूणा पुन्त्रकोडी | अंतरदीवगभकम्मभूमगमणुस्सित्यीणं भंते ! केवतियं कालं विती पएणता ? । गोयमा ! जम्म णं पमुच्च जहसेणं देणं पलिश्रोत्र, पतिमस्स प्रसंखेज्जतिभागेणं कणयं, उकोसेणं पलिप्रोस्स असंखेज्जतिभागं । संहरणं पमुख जोणं अंतमुत्तं, उकासे देसूणा पुव्वकोमी ॥
मनुष्यस्त्रीषु क्षेत्रं प्रतीत्य, क्षेत्राऽऽश्रय ऐनेति जावः । जघन्यतो मुहूर्तम, उत्कर्षतो देवकुर्वादिषु, जरताऽऽदिष्वपि च, एकान्तसुषमादिकाले त्रीणि पल्योपमानि । धर्मचरणं धर्मसेवनं प्रतीत्य, जघन्ये नान्तर्मुहूर्तमेव । तच्च तद्भवस्थिताया एव परिणामवशनः प्रतिपातापेक्क्या अष्टव्यम् । खरणधर्मस्य मरणमन्तरेण सर्वस्तोकतयाऽप्येतावन्मात्र कालावस्थानभावाद । त थाहि काचित् स्त्री तथाविधक्कयोपशमनावतः सर्वविरति प्रतिपद्य तावन्मात्रक्षयोपशमभावात् अन्तर्मुहूर्तानन्तरं भूयोऽपि अविरतसम्यग्दृष्टि, मिथ्यात्वं च प्रतिपद्यते इति । अथवाधर्मचरणमिह देशचरणं प्रतिपत्तव्यं, न सर्वचरणम; देशचरणप्रतिपत्तिस्तु जघन्यतोऽप्यन्त मौहूर्तिकी, तस्या भङ्गबहुलत्वातू । अधोभयाऽऽचरणसंभवे किमर्थमिह देशचरणं परिगृह्यते ? | चच्यते - देशचरणपूर्वकं प्रायः सर्वचरणमिति ख्यापनार्थम् । अत एवोकं वृद्धै:-" सम्मसम्मि उ लद्धे, पलियपुहुतेण सावश्रो हो । चरवलमो खयायं सागरसंखतरा होति ॥ १ ॥ अपरिवलिए" इत्यादि । उत्कर्षतो देशूना पूर्व कोटी, अष्टसांवत्वरिषयाश्चरणधर्मप्राप्तेः, तदूर्द्ध चरमान्तर्मुहुर्त्त यावदप्रतिपतितपरिणामभावात् । पूर्वपरिमाणं चेदम" पु०बस्स उपरिमाणं सारं खलु वासको मिलक्खाओ । छप्पराणं च सहस्ला, बोधव्त्रावासकोमीणं ॥ १ ॥” इति । सम्प्रति कर्मभूमिकाऽऽदिविशेषत्रीणां वक्तव्यतामाद - (कम्मभूमगम पुस्सित्थीणं इत्यादि ) अक्षरगमनिका सुगमा । भावार्थस्स्वयम-कर्मभूमिकमनुष्यस्त्रीणां क्षेत्रं कर्मभूमि सामान्यलक्षणमधिकृत्य जघन्यतोऽन्तर्मुहूर्तम्, उत्कर्षतस्त्रीणि पश्योपमानि । तानि च जस्तैरावतेषु सुषमसुषमालक्षणे भरके वेदितव्यानि । धर्म चरणमधिकृत्य जघन्यतोऽन्तर्मुहूर्त्तम, उत्कर्षतो देशोना पूर्व कोटी । नावमा चात्र प्रागिव द्रष्टव्या । एवमुतरसुइयेऽपि । मत्रैव विशेषचिन्तां चिकीर्षुराह - "भर देव यवाल कम्र्मभूमग" इत्यादि सुगर्म, नवरं नरतैरवतेषु त्रीणि पल्यशेषमानि, सुषमायां पूर्वविदेहापरावेदेषु क्षेत्रतः पूर्वकोटिः, तत कई तत्र तथा क्षेत्रस्वाभाव्यादायुषो ऽसम्भवात् । (अक्रम्मम गेत्यादि) जन्म प्रतीस्वेति । अकर्मभूमिषूत्पत्तिमाश्रित्य जघन्यतो देशोनं पल्पोपमं
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तचाष्टभागम्यूनमपि देशोनं भवति । ततो विशेषथापनाया- पल्योपमस्यासंख्येयभागोनम् । एतच्च हैमवतैरण्यवनक्षेत्रापेक्षया रुष्टव्यम् । तत्र जघन्यतः स्थितेरे तावत्प्रमाणायाः संघात, उत्कर्ष त त्रीणि पल्योपमानि तानि च देवकुर्वपेक्षया । ( संहरणं पशुचेत्यादि ) संद्रणं नाम - कर्मभूमिजायाः स्त्रियोऽकर्म नुमिषु नयनं तत्प्रतीस्य तदाश्रित्य जघन्येनान्तर्मुहूर्तम्, उत्कर्षनो देशोना पूर्वकोटी । इयमत्र जावना-इड कर्मभूमिकाsध्य कर्मभूमिषु संहना अकर्म भूमि केति व्यवह्रियते, तत्क्षेत्र संबन्धभावात् । यथा लोके कश्चित् मगधाऽऽदिदेशात् सुराष्ट्रान् प्रस्थितो, गिरिनगरेषु निवासं कल्पयितुकामः सुराष्ट्रपर्यन्तग्रामं प्राप्तः सन् समुत्पद्यमानेषु तथाविधेषु प्रयोजनेषु सौराष्ट्र इति व्यवहियते, तद्वदधिकृताऽपि तत्र संहता सती काचिदन्तर्मुहूर्ते जीवति । ततोऽपि वा भूयोऽपि संहियते काचित्पूर्व कोट्यायुष्का यावज्जीवमपि तत्रावतिष्ठते, ततो जघन्यतोऽन्तर्मुहूर्तमुक्कम, उत्कर्षतो देशोना पूर्वकोटीति । आद-भरतैरवतान्यपि कर्मभूमौ वर्तते; तत्र चैकान्तसुमाऽऽदौ त्रीण्यपि पल्योपमानि स्थितिरस्या भवति, संहरणं च संभवति, तत्कथं देशोमा पूर्वकोट) भरायते इति ?। अत्रोय-कर्मकाल विवक्कयाऽभिधानासस्य चैतावन्मात्रत्वादिति हैमवतैरण्यवत कर्म भूमि कम नुष्य स्त्रीणां जन्मतो जघन्येन देशोनं पस्योपमं, पल्योपमासंख्येयजागेन न्यूनम, उत्कर्षतः परि पूर्ण पल्योपमम । संद्रणमधिकृत्य जघन्यतोऽन्तर्मुहुर्तम, उत्क तो देशोना पूर्व कोटी भावना प्रागिव । एवं "हरिवारम्भग" इत्याद्यवि सूत्रत्रयं भावनीयम् । नवरं हरिवर्षरम्यकयोर्जन्मतो तघन्येन द्वे पल्योपमे, पस्योपमासंख्येयभागन्यूने । सत्कर्षतः परिपूर्ण है पल्योपमे । देवकुरुत्तरकुरुषु जन्मतो जघन्येन त्रीणि बल्योपमानि पल्योपमासंख्येयभागहीनानि । उत्कर्षतः परिपूर्णानि त्रीणि पल्योपमानि । अन्तरद्वीपेषु जघन्यतो जघन्येन देशोनपल्योपमासंख्येयः कियता देशोन इति चेत ? अत शाहबढ्योपमासंख्येयभागोनः । किमुक्तं जवति १ - उत्कृष्टात पश्योपमासंख्येयनागप्रमाणादायुषो जघन्यमायुः पल्पोपमासंस्थेय भागन्यूनम, नवरमूनताहेतुः पल्योपमासंख्येयो भागोssतीव स्तोको रूष्टव्यः । संणमधिकृत्य सर्वत्रापि जघभ्यत सत्कर्षतश्च तावदेव प्रमाणम् । जी० २ प्रति० । नपुंसकानाम
(१७२४) श्रभिधानराजेन्द्रः ।
मस्सण पुंसगस्स णं अंते ! केषतियं कालं विती पठता ? | गायमा ! खत्त पहुच जढएरोणं अंतोसुहुत्तं, उक्कोसेां पुत्र कोमी | धम्मचरण पकुच्च जहणणं अंतोमुहुत्तं, कोसणं देणा पुनकोमी । कम्पनूमगभ रहेरवयपुब्वविदेवरविदेहमणुस्सए पुंसगस्म त्रि तहेव । प्रकम्मभूमगमाणुस्मणपुंसगस्स णं जंते ! केवतियं कालं विती पष्मत्ता ।। प्रोमा ! जम्मणं पच नहएणेणं त्र्यंतोमुदृतं, उक्कोसे
तोमुडुचं । संहरणं पडुच्च जहणणं अंतामुदुक्तं, उक्कोसेणं दंसणा पुव्वकोषी । एवं० जाव अंतरदीवगाणं ॥
सामान्यतो मनुष्यनपुंसकस्यापि जघन्यतोऽन्तर्मुहूर्तम, उत्कर्षतः पूर्वकी कर्मभूमिकमनुष्यनपुंसकस्य के प्रतीत्य जघन्यतोऽउत्कर्षतः पूर्व कोटी । धर्मचरणं ब्राह्यवेषपरिकरितप्रय
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ज्याप्रतिपत्तिमङ्गकृत्य जघन्येनान्तर्मुहूर्ते तत ऊ मरणाऽऽदिनावात् । उत्कर्षतो देशोना पूर्वकोटी, संवत्सराष्ट्रकाद्धे प्रतिपद्य जन्मपालनात् । भरतैरवतकर्मभूमिकमनुष्य नपुंसकस्य च क्षेत्र, धर्मचरणं च प्रतीत्य जघन्यत उत्कर्षतश्चैवमेव बकव्यम | अकर्मभूमिकमनुष्यनपुंसकस्य जन्म प्रतीत्य जघन्येनान्तर्मुहूर्तम, उत्कर्षेणापि श्रन्तर्मुहूर्तम । अकमंत्र्मौ हि संमूकिंमा मनुष्या नपुंसका एव भवन्ति, न गर्भव्युत्क्रान्तिकाः, युगलधर्मिकाणां नपुंसकत्वाभावात् । समूहिंमाश्च जघन्यत उत्कर्षतो वाऽन्तर्मुहूर्तायुषः, केवलं जघन्यादुत्कृष्टमन्तर्मुहूर्ते बृहत्तरमवसेथम् । संड्रणं प्रतीत्य जघन्यतोऽन्तमुहूर्तम, उत्कर्षतो देशोना पूर्व कोटी, संहरणादूर्द्धमा मरणान्तमवस्थान संभवात् । देशोनता च पूर्वकोट्या गर्भनिर्गतस्थ संजवात् । एवं विशेषचिन्तायां द्वैमत्रतैरण्यवता कर्मभूमिकमनुनपुंसकस्य हरिवर्ष रम्यक वर्षाक में भूमिकमनुष्यनपुंसकस्य देव कुरूत्तरकुर्व कर्मभूमिकमनुष्य नपुंसकस्य, अन्तरद्वीपकमनुनपुंसकस्य च जन्म, संहरणं च प्रतीत्यैवमेव वक्तव्यम् । जी० ३ प्रति० ॥
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सम्मुच्छिममस्साणं पुच्छा । । गोयमा ! जहोणं - तोमुदुतं, उक्कोसेण वि अंतोमुहुत्तं । गब्जवकंतियमणुस्सा
पुच्छा ? । गोयमा ! जहएणेणं तोमुहुतं, उक्को सेणं तिष्ठि पलिश्रोमाई । अपज्जत्तगगन्ज व कंतियमगुस्साएं पुच्छा ? । गोयमा ! जहएऐणं अंतोमुदुनं, उकोसेण वि
तोमुहृतं । पज्जत्तगगन्ज व कंतियमणुस्साणं पुच्छा ! | गोमा ! जणं तोमुदुत्तं, उक्कोसेणं तिघि पलिओ - माई अंतोमुहुत्तूणाई । प्रज्ञा० ४ पद ।
उत्तरकुरुमनुष्याणां जघन्येन पल्योपमस्यासंख्येयनागेनोनानि त्रीणि पल्योपमानि उत्कर्षात् परिपूर्णानि त्रीणि पल्योपमानि । जी० ३ प्रति० ।
वाणमंतराणं नंते ! देवाणं केवइयं कालं ठिई पष्णत्ता १ । गोयमा ! जहां दस वासस इस्साईं, उक्कोसेणं पक्षिश्रोवमं । अपज्जत्तयत्राणमंतर देवाणं पुच्छा है। गोयमा ! जहसेणं अंतोमुदुत्तं, नकोसेण वि तो मुदुतं । पज्जत्तयवा
मंतर देवाणं पुच्छा १ । गोयमा ! जहणणं दस बाससहस्साई तो मुद्दत्तूणाई, नक्कोसेणं पलिओदमं त्र्यंतोतू । प्रा० ४ पद । प० द० ।
अकाम कायक्लेशतपखिनां व्यन्तरेषूपपन्नानां दश वर्षसहस्राणि स्थितिः । भ० । बालमरणम मृतानां व्यन्तरेषूपपनानां द्वादशवर्षसहस्राणि स्थितिः । श्र० । विधवानामल्पारम्नप्रवृत्तानां व्यन्तरेषूपपन्नानां चतुर्दश वर्षसहस्राणि स्थितिः । औ० । कामकायक्लेशतपस्विनीनां स्त्रीणां व्यन्तरेषूपपन्नानां चतुःषष्टिवर्षसहस्राणि स्थितिः । श्रौ० । उदकद्धितीयाऽऽदीनां पाखमवतिनां निर्विकृतिकानां व्यन्तरेषूपपन्नानां चतुदशी तिवर्षसहस्रं स्थितिः । और ।
वाणमंतरीणं देवीणं पुच्छा ? । गोयमा ! जहणणं दस बाससस्साई, उक्को सेणं अपवित्रोपमं । अपजत्तियाणं भंते ! बाणमंतरीणं देवीणं पुच्छा ? | मो
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ठिक
(१७२५) विह
प्राभिधानराजेन्ः। यमा ! जहएणणं अंतामुहत्तं, नक्कोसेण वि अंतोमुदत्तं ।। पुच्चा ?। गोयमा ! जहमेणं अंतोमदत्तं,उकोसेण वि अंपज्जत्तियाणं नंते ! वाणमंतरीणं देवीणं पुच्छा । तोमुदुत्तं । सूरविमाणे णं पज्जत्तदेवाणं पुच्छा ? गोयमा! गोयमा ! जहएणणं दस बाससहस्साई अंतोमुहुत्तूणाई, जहोणं चउनागपलिभोवमं भंतोमहत्तणं, नकोसणं उकोसेणं अपलिअोवमं अंतोमहत्तणं ।
पलिओवमं वाससहस्समम्नहियं अंतोमुहत्तणं ।। जोइसियाणं भंते ! देवाणं केवश्यं कालं विई पएणता?
सूरविमाणे णं नंते ! देवीणं पुच्छा । गोयमा! जहमेशं गोयमा ! जहमेषां पलिअोवमऽभागो, उक्कोसेणं पत्रिभो।
चननागपलिमोवम, नकोसेणं अपलिभोवयं पंचर्हि वाबमं वाससयसहस्समभहियं । अपजत्तयजोइसियाणं पु- ससएहिं अम्भादियं । सरविमाणे णं भपजत्तियाणं देवीणं च्चा? गोयमा! जहणं अंतोमुदुत्वं, उक्कोसेण वि अंतो
पुच्छा?। गोपमा! जहमेषं अंतोमुहुर्त, नकोसेण वि अंतोमु. मुटुत्तं । पज्जत्तयजोसियाणं पुच्छा | गोयमा! जहमेणं
इत्तं । सूरविमाणे णं पज्जत्तियाणं देवीणं पुच्छा।।गोयमा! पलि ग्रोवमट्ठलागो अंतोमुडुत्तणो, नकोसेणं पलिश्रोवर्म जहोणं चउभागपलिमोवमं अंतोमहत्तणं, नकोसेणं भवासप्सयसहस्समनहियं अंतोमुहुत्तणं ॥
कपलिओवमं पंचहिं वाससरहिं अन्जहियं अंतोमुहत्तर्ण । जोऽसिणी णं भंते ! देवीणं पुच्छा ? गोयमा! जहम्मेणं
गहविमाणे णं नंते ! देवाणं पुच्चा । गोयमा ! जहमेणं पन्निोवमट्ठनागो, नकोसेणं अच्छपनिओवमं पचास
चननागपलिओवयं, उक्कोसेणं पसिनोवमं । गहचिमाणे वाससहस्समभाहियं । अपज्जत्तियाणं जोइसिणी णं पु
णं अपज्जत्तदेवाणं पुच्चा । गोयमा ! जहमेणं अंतोछा। गोयमा ! जहमेणं अंतोमुहुत्तं, नकोसेण वि
मुटुस, उक्कोसेण वि अंतोमुत्तं । गहविमाणे णं पज्जतदेअंतोमुहुत्तं । पज्जत्तियाणं जोइसिणी णं पुच्छा। गोय
वाणं पुच्छा ! । गोयमा ! जहएणेणं चनभागपनिप्रोत्रम मा! जहणं पत्रिोवमट्ठभागो अंतामु हत्तणो, उक्कोसेणं
भंतोमुहत्तणं, उक्कोसेणं पशिओवयं अंतोमुहसणं । अपलिओवमं पलासवाससहस्सहिं अभहिए अंतो
गहविमाणे ण नंते ! देवीणं पुच्चा?। गोयमा ! जहलेणं
चउभागपनियोवमं,उकोसणं अपलिमोवमं । गहविमाणे मुहत्तूणं ।। प्रज्ञा० ४ पद । जी। होतकाऽऽदीनां वानप्रस्थानां ज्योतिफेषूपपन्नानां वर्षशत
णं अपज्जत्तियाणं देवीणं पुच्छा ! | गोयमा! जहलेणं अंसहमाधिकं पस्योपमं स्थितिः। औ०।
तोमुहुत्तं, उकोसेण वि अंतोमुहुत्तं । गहविमाणे एं पजात्तचंदविमाणे णं भंते ! देवाण पुच्चा ? । गोयमा ! जह
याणं देवीणं पुच्छा। गोयमा!जहाणं च उभागपशिोवर्म मेणं चनजागपलिअोवम, नकोसेणं पलि ग्रोवम वास
अंतोमुत्तूणं, उक्कोसेणं अदपलिप्रोत्रमं भंतोमुहत्तणं । सयसहस्समम्नहियं । चंदविमाणे ते ! अपज्जत्तया
एक्वत्तविमाणे ण ते ! देणं पुच्छा । गोयमा ! देवाणं पुच्चा । गोयमा! जहम्मेणं अंतोमुहत्तं, न
नहोणं चउभागपत्रिभोवर्म, नकोसेणं अवलिओचमं । कोसेण वि अंतोमुहुत्तं । चंदबिमाणे णं ते ! पज्जत
एक्वत्तविमाणे णं अपजत्तयाणं देवाणं पुच्छ। गोयपा! पाणं देवाणं पुच्चा । गोयमा ! जहमेणं चननागप
जहमेणं अंतोमुहुत्तं,नकोसेण वि अंतोमुत्तं ।एक्वत्तविलिओवयं अंतोमुहुत्तूणं, उक्कोसणं पलिअोवमं वासस
माणे पज्जत्तयाणं देवाणं पुच्छा। गोयमा ! जहणं बसहस्समजहियं अंतोमुटुत्तूणं ।
चउजागपलिअोवमं भंतोमुहत्तणं, नकोसेणं अपमिश्रोचंदविमाणे णं भंते! देवीणं पुच्छा। गोयमा! जहमेणं
वमं अंतोमुहुत्तूर्ण ।
एक्वत्तविमाणदेवीणं पुच्चा। गोयमा! जहमेणं चचनभागपतिओवमं, उकासेणं अपलिओचमं प
उभागपलिश्रोचम,नकोसेणं सातिरेगं चनभागपलिश्रोवर्म। एणासाए वाससहस्सेहिं अभहियं । चंदविमाणे णं प्र
एक्खत्तचिमाणे गएं अपज्जत्तियाणं देवीणं पुच्चा ? गोयमा ! पज्जत्तियाणं देवीणं पुच्चा ? । गोयमा! जहणं अंतो
जहएणणं अंतोमुहुत्तं, नक्कोसेण वि अंतोमुहत्तं । णक्खमुदुत्तं, उक्कोसेण वि अंतोमुहत्तं । चंदविमाणे णं पज
तविमाणे णं पज्जत्तियाणं देवीणं पुच्छा। गोयमा! जहचियाणं देवीण पुच्चा । गोयमा! जहोएं चन
मेणं चनभागपलिग्रोवमं अंतोमहत्तमं नकोसे सातिरेगं नागपन्निोवमं अंतोमुहुत्तर्ण, उक्कोसेणं अपलि- चउभागपलिमोघम अंतोमुटुत्तूर्ण । भोवमं परमासाए वाससहस्सोहि अन्जहियं अंतोमुदुत्तणं । ताराविमाणे णं ते! देवाएं पुच्छा? गोयमा ! जह
मुरविमाणे णं भंते ! देवाणं केवश्यं कानं लिई पसत्ता ? मेणं अभागपसिनोवम, उक्कोसेणं चनजायपनि प्रोवर्म। गोयमा! जहमेणं चउजागपलिप्रोवम, उक्कोसेणं पतियो- ताराविमाणेणं अपजचदेवाण पुच्चा गोयमा ! जहमेणं वयं बाससहस्समम्नहियं । मुरचिमाणे णं अपज्जत्तदेवाणं अंतोमुहत्तं, नकोसेण विभंतोमुडुत्तं ताराविमाणे णं पज
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( १७२६ )
श्रभिधानराजेन्द्रः ।
विश
तदेवाणं पुच्छा ? 1 गोयमा ! जहोणं श्रट्टभागपनिओत्रमं तोमुत्तू, कोसे चलनामपलिप्रोवमं तो मुहुत्यं । ताराविमाणं भंते! देवीणं पुच्छा ? । गोगमा ! महणं - जागो, उको सेयं साइरेगं प्रभागपक्षिओवमं । वाराविमाणे णं अपज्जत्तियाएं देवीणं पुच्छा ? । गोयमा ! नइ एवं अंतोमुडुतं नकोसेण वि तोमुदुतं । वाराविमाणे णं पज्जत्तियाणं देवीसं पुच्छा ? । गौयमा ! जहhi अनागपाश्रोत्रमं अंतोमुहुत्त्रां, नको सेणं साइरेगं
जागवितोमुहुत्तूर्णं ।
मानियाणं भंते ! देवाणं केवइयं कालं विई पण१। गोयमा ! जहोणं पक्षियोवमं, उक्कोसेणं तेतीसं सागरोवमाई | अपज्जतवेपालियाणं ते! देवाणं पुच्छा है। गोयमा ! जहोणं अंतमुदुत्तं, उक्कोसेण वि अंतोमुहुतं । पज्जयत्रेमाणियाणं पुच्छा ! । गोयमा ! जहां पसोमं तोमुत्तूणं, नकोसेणं तेतीसं सागरोत्रमाई तोमुहत्तूणाई । प्रज्ञा० ४ पद । सू०प्र० । जी० । जं० । बेमाणिणीणं भंते ! देवीणं केवइयं कालं ठिई पछयत्ता १ गोयमा ! जहणणं पक्षियोवमं, उक्कोसेणं पणपणं पक्षिश्रोमाई | अपज्जत्तियाणं देवीणं बेमाणिपीएं पुच्छा है । गोयमा ! जहो ं तो मुद्दत्तं उकोमेण वि तोमुहुतं । पज्जचयाणं त्रेमाणिखीणं देवीणं पुच्छा ? । गोयमा ! नहोणं पलित्रमं अंतोमुत्तूर्णं, उक्कोसेणं पणपणं पक्षिओवमं तो मुहुत्तू । सुरियाजस्सं भंते ! देवस्स केवश्यं कालं विती पलer ? । गोयमा ! चत्तारि चत्तारि पक्षिप्रोमाई विई पत्ता | सूरियाजस्स णं जंते ! देवस्स सामाणियपरिसो
गाणं देवा वइयं कालं ठिई पाता ? । गोयमा ! चारि पक्षिोत्रमा लिई पत्ता । रा० । स्था० । जी० । (शmissीनां देवानां पर्षत्सु स्थितिः 'परिसा' शब्दे वक्ष्यते) सोहम्मे णं भंते ! कप्पे देवाणं केवइयं कालं विई पत्ता ? । गोयमा ! जहएणेणं पक्षियोवमं, नकोसेणं दो सागरोवमाई । प्रज्ञा० ४ पद । स० । ५० प० । सोहम्मे कप्पे अपज्जत्तदेवाखं पुच्छा ? । गोयमा ! जहां
तोमुडुतं, कोण वि अंतोमुहुत्तं । सोहम्मे कप्पे पज्जचदेवाणं पुच्छा ? । गोयमा ! जहसेणं पलिभोवमं - तोमु, कोसेणं दो सागरोवमाई तो मुत्तखाई ।
सोहम्मे कप्पे देवीणं पुच्छा १ । गोयमा ! जहोणं पतिप्रव, कोसेणं पद्मासं पलिप्रोमाई । सोहम्मे कप्पे अपजत्तिया देवी पुच्छा । गोयमा ! जहणणं अंतोमु दुत्तं, कोण वितोमुद्वचं । सोढम्मे कप्पे पज्जचियाणं
For Private
विश
देवीणं पुच्छा ? । गोयमा ! जहां पलिवमं तोमुदुत्तू, जंको सेणं पन्नासं पलिप्रोमाई तोमुहलाई । सोहम्मे कप्पे परिग्गहियासं देवीणं पुच्छा ! | गोयमा ! जढोणं पक्षिओत्रमं, उक्कोसेणं सत्त पक्षियोमाई | सोहम्पे कप्पे परिग्गहिया अपजत्तियाशं देवीणं पुच्छा ? । गोयमा ! जहणणं अतोमुदुत्तं, उक्कोसेण वितोमुत्तं | सोहम्मे करणे परिग्गहियाणं पज्जतिया देवीणं पुच्छा १ । गोयमा ! जहसेणं पक्षिश्रोत्रमं तोमुहत्तूर्णं, उकोसेणं सत्त पलिप्रोमाई तोमुदुत्तूणाई । खोहम्मे कप्पे अपरिगहियाणं देवीणं पुच्छा ।। गोयमा ! जहोणं पक्षिश्रवमं, उक्कोसेणं पन्नासं पक्षियोमाई। सोहम्मे कप्पे अपरिग्गहियाएं अपज्जत्तियाणं देवीणं पुच्छा ? | गोमा ! जहां तो मुहुत्तं, उक्कोसेण वि अंतोमुहृत्तं । सोहम्मे कप्पे अपरिगढ़ियाणं पज्जत्तियाखं देवी पु
? | गोमा ! होणं पलिश्रोत्रमंत्र्ांतोमुहुत्तूर्णं, उक्को - सेणं पणासं पलिओ माई तोमुहुत्तूणाई |
ईसा कप्पे देवाणं पुच्छा ! । गोयमा ! जहोणं सागं पविमं, उक्कोसेणं साइरेगाई दो सागरोवमाई | ईसा कप्पे अपज्जत्तयाणं देवाणं पुच्छा ? । गोयमा ! जह छेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेण वि तोमुहुत्तं । ईसाणे कप्पे प
त्या देवाणं पुच्छा ? । गोयमा ! जइहोणं सातिरेगं पक्षिषमं तो, उकोसेणं सातिरेगा तो सागशे माईतीमुत्तूणाई | प्रज्ञा० ४ पद | ईसाणस्स णं दिस देवरन्नो अग्गमहिसीणं नव पलिपाई लिई पत्ता । स्था० एड०
ईसाणे कप्पे देवीणं पुच्छा ? । गोयमा ! जढघेणं सातिरेगं पलिप्रोवमं, उक्कोसेणं पणपणपलियोमाई । ईसाणे कप्पे देवी पज्जत्तियाणं पुच्छा ! । गोयमा ! जहोणं अंतोमुदत्तं नकोसेणवितोमुदुत्तं । ईसाणे कप्पे पज्जत्तियाणं देवणं पुच्छा । गोयमा ! जहमेणं साइरेगं पनि प्रोवमं त्र्यंतोमुत्तणं, उक्को सेणं पण पापविमाई अंतोमुहुत्तूणाई । ईसा कप्पे परिग्गहियाणं देवीणं पुच्छा ! । गोयमा ! जोणं साइरेगं पक्षिश्रोत्रमं, उक्कोसेां नव परिश्रवमाई । ईसाणे कप्पे परिग्गहियाएं अपज्जत्तियाणं देवीणं पुच्छा ।। गोमा ! जो अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेण वि तोमुहुतं । ईसाणे कप्पे परिग्गहियाणं पज्जत्तियाणं देवीणं पुच्छा ! | गोयमा ! जहोणं साइरेगं पलिश्रमं तोमुहुत्तू, उक्कोसेणं नव पलिश्रोमा तोमुहुत्तूणाई ।
ईसा कप्पे अपरिगहियाणं देवीणं पुच्छा ।। मोयमा ! जहघेणं साइरेगं पत्रिओनमं, नकोसेणं पणपापसिओ
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निय अन्निधानराजेन्दः।
शि बमाई। ईसाणे कप्पे अपरिग्गाहियाणं अपज्जत्तियाणं दे
तद् यथाबीणं पुच्छा ।। गोयमा ! जहएं अंतोमहनं, उक्कोसेण | तेणं परिष्नायगा एयारूवेणं विहारेणं विहरमाणा बहवि अंतोमुत्तं । ईसाणे कप्पे अपरिग्गहियाणं पज्जत्तियाणं इबासाई परियाई पाउणिति, बहइं वामाई परियाई पाउदेवीणं पृच्छा। गोयमा! जहमेणं सारंग पलिओवमं हिता कालमासे कालं किच्चा नकोसणं बंजलोए कप्पे अंतोमुत्तूणं, उक्कोसेणं पणपष्ठ पलिभोषमाइं अंतो- देवत्ताए अवतारोति । तेहिं नेसिं गई दस सागरोमुहुत्तूणाई ॥
बपाई लिई पएणता । सेसं तं चेत्र ।।१२।। मौ० ।
अम्ममस्य देवस्य ब्रह्मलोककल्पे देवेषूपपत्रस्य दश सागरोप. ईसाणस्स णं देविंदस्स मन्मिए परिसाए देवाएं छ प
मा स्थितिः। औ०। सिप्रोत्रमा लिई पएणत्ता। स्था० ६ ठा० ।
लंदए पुच्छा! । गोयमा ! जहरणं दस सागरोषमाई, ('लोगपाल 'शब्दे सन्डाणां लोकपालानां स्थितिवक्तव्य.
उक्कोसेणं चउदस सागरोबमाइं । लतए अपज्जत्ताणं पुता) कन्दर्पिकाऽऽदीनां श्रमणानामुत्कर्षेण सौधर्मकल्पे कन्दपिकेषु देवेषूपपन्नानां वर्षसहस्रमभ्याधिकं पव्यापमं स्थितिः ।
चा। गोयमा ! जहमेणं अंतोमहत्तं, उक्कोसेण वि अंभौ० भ० । द०प० । स्था।
तोमुहत्तं । संनए पज्जताणं पुच्चा । गोयमा! नहएणणं सणंकुमारे कप्पे देवाणं पुच्छा। गोयमा ! जहणं दो | दस सागरोवमाई अंतोमुत्तूणाई, उक्कोसेणं चउदस सागसागरोवमाई, उक्कोसेणं सत्त सागरोवमाई । सणंकुमारे कप्पे | रोवमाइं अंतोमुटुत्तूणाई । प्रज्ञा० ४पद । अपज्जत्तगाणं देवाणं पुछा। गोयमा ! जहम्मेणं अंतो- সামাৰ মলিনানামাঘssধিমালঙ্কানাमुहुरा, उकोसण वि अंतोमुटुत्तं । सणंकुमारे कप्पे पज्जत्ताणं
मुत्कर्षेण सान्तके कल्पे देवकिस्विषिकेषपपनानां प्रयोदश
सागरोपमा स्थितिः। औ०। देवाणं पुच्छा। गोयमा ! जहरणं दो सागरोवमाई
तद् यथाअंतोणदत्तलाई उकसिण सत्त सागरोवमाइं अंतोमुत्तूणाई। से इमेगामाऽऽगरजाणसभिवेसेसु पन्वक्ष्या समाणा नवमाझ्देि कप्पे देनाणं पुना। गोयमा ! जहमेणं साइरेगाई | ति। तं जहा-आयरियपाहणीया, नचजफायपडिणीया, कुदो सागरोवमाई, उकोसेणं सत्त साहियाई सागरोधमाई । सपरिणीया, गणपमिणीया, पायरियावज्झायाणं अयममाहिंदे कप्पे अपज्जत्ताणं देवाणं पुच्छा ? । गोयमा ! ज- कारगा अवएणकारगा अकित्तिकारगा बहहिं असम्भावहोणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेण वि अंतोमुहत्तं । माहिंदे कप्पे एम्भावणाहिं मिच्छत्ताहिणिवेसेहि य अप्पाणं च परं पज्जत्ताणं पुच्छा ? । गोयमा! जहोणं साइरेगाइं दो साग- च तनयं च बुग्गाहेमारणा वृप्पाएमाणा विहरिसा बहूई रोवमाई अंतोमुहत्तूणाईनकोसणं सत्त साहियाई सागरो- चासाई सामएणपरियागं पामणिति, बहुयस्स ठाणस्म बमाई अंतोमुहुनूणाई।
भणालोइय अपमिकता कालमासे कालं किच्चा कोअसुरिंदवज्जियाणं भवणवासीणं देवाणं देसूणाई दो। सेणं संतए कप्पे देवकिठिवसिएमु देवकिन्विसित्ताए पलि ग्रोवमाई चिई पमत्ता ?। सोहम्मे कप्पे देवाणं नववसारो हवंति । तोहिं तेसि गती तेरस सामरोवमाई सकोसेणं दो सागरोत्रमाइं लिई पएणता । ईसाणे कप्पे । ठिती अणाराहगा, सेस तं चेव ॥ १५ ॥ औ० । देवाणं उक्कोसेणं साइरेगाई दो सागरोबमाई लिई पएणत्ता। महासुके देवाणं पुच्चा ? गोयमा ! महोणं चउदस सणंकुमारे कप्पे देवाणं जहएणणं दो सागरोवमाइं ईि सागरोचमाई, उकोसेणं सतर सागरोवमा महामुके अपपएणचा । माहिदे कप्पे देवाणं जहणं साइरगाइं दो। जत्ताणं पुच्छा १ । गोयमा ! जहएणेणं अंतोमुकुचं, नको. सागरोवमाइं दिई पसत्ता । स्था० २ ठा०४०।। सेण वि अंतोमुत्तं । महामुक्के पज्जत्ताणं पुच्चा । गोयमा! बंगलोए कप्पे देवाणं पुच्छा ?। गोयमा ! जहम्मेणं
जहणं चोदस सागरोबमाई अंतोमुहुत्तूणाई, सकोसेणं सत्त सागरोवमाई, नकोसेणं दस सागरोवमाई । बंभलोए
सतर सागरोवमाइं अंतोमुदुतूणाई। अपज्जत्ताणं पुच्छा ।। गोयमा ! जहएणणं अंतोमुटुचं, सहस्सारे देवाणं पुच्छा | गोयमा ! जहमेणं सतर सकोसेण वि अंतोमुहुत्तं । बंभलोए पज्जत्ताणं पुच्छा ?। सामरोबमाई, उक्कोसेणं अट्ठारस सागरोवमाई । सहस्सारे गोयमा ! जहोणं सच सागरोवपाई अंतोमुत्तूमाई, उ- अपज्जचाणं पुच्छा। गोयमा! जहमेणं अंतोमुहत्तं, उकोकोसणं दम सागरोबमाई अंतोमुडुत्तूणाई ।
सेण वितोमुहत्वं । सहस्सारे पज्जताणं पुच्छा। गोमस्करिसाम्ययोगिकापिलादीनां सरकपरिवाजकानामु
यमा नहोणं सतर सागरोक्माइंभंतोमरतुणाईनकोसेणं कण प्रहालोककल्ये देवेषपपचानां दश सागरोपमा स्थिति:- अधरस सागरोवमाई अंवोमुत्तूणाई। प्रज्ञा०५पद।
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चि
वि
(१७२९)
अभिधानराजन्द्रः।। संझिपञ्चेन्जियतिर्यग्योनिकापर्याप्तकानां शुभैः परिणामैः नं-| तेवीसं सागरोबमाई.उक्कोसेणं चउचीसं सागरोचमाई। हिहि. झिपूर्वजातिस्मरणे समुत्पने स्वयमेव पश्चाणुव्रतानि परिवर्ज
ममज्किमविज्जगअपज्जत्तगदेवाणं पुच्छा। गोयमा ! जहयित्वा बहूनि शीलवतगुणविरमणप्रत्याश्यानपोषधोपवासाsदीनात्मना जावयमानानामुत्कर्षेण सहखारे कल्पे देवेषपप
लेणं अंतोमुहुसं, उकोसेण वि अंतोमुडुत्तं । हिडिममजिकभानामष्टादश सागरोपमा स्थितिः । मो०।
मगेविज्जगपज्जत्तगदेवाणं पुच्छा। गोयमा! महएणणं तेआणए कप्पे देवाणं पुच्छा ?। गोयमा! जहस्सेणं अट्ठारस वीसं सागरोवमाई अंतोमहत्तणा.उक्कोसेणं चउनीसं सासागरोचमाई, उक्कोसेशं एगणवीसं सागरोवमाई । आणए गरोवमाइं अंतोमुलुत्तूणाई। अपज्जत्ताणं देवाणं पुच्छा। गोयमा! जहएणेणं अंतोमु
हिडिमनवरिमगेविजगदेवाणं पुच्छा । गोयमा! जहएणेइत्तं,उकोसेण वि अंतोमुत्रं | आणए पज्जत्ताणं देवाणं | पंचवीसं सागरोवमाई, उक्कोसेणं पणवीस सागरोवमाई। पुच्छा ? । गोयमा ! जहमेणं अट्ठारस सागरोवमाइं अंतोमु- हेहिमउवरिमगेविजगदेवाणं अपज्जताणं पुच्छा। गोयमा ! हुत्तूणाई,उकोसेणं एगूणवीसं सागरोचमाइं अंवोमुत्तूणाई।
जहएणेणं अंतोमहत्तं, उक्कोसेण विभंतोमहत्तं । हिटिपाणए कप्पे देवाणं पुच्ा। गोयमा ! जहोणं एगूपणवीसं सागरोवमाई, उक्कोसेणं बीस सागरोवमाई। पाणए
मउवरिमगेविज्जगदेवाणं पज्जत्ताणं पुच्छा ? । गायमा ! अपज्जताणं देवाणं पुच्छा ?। गोयमा ! जहमेणं अंतोमु
जहएणणं चनचीमं सागरोवमाइं अंतोमुहत्तणाई, उक्कोसेणं
पणवीसं सागरोवमाई भंतोमुत्तुणाई। दुत्तं, उक्कोसेण वि अंतोमुहुत्तं । पाणए पज्जत्ताणं देवाणं । पुच्छा। गोयमा जहस्सेणं एगृणवीसं सागरोवमाई अंतो
मजिकमहेडिमगेविज्जगदेवाणं पुच्चा । गोयमा ! जहएणेणं मुहुत्तणाई, उक्कोसेणं वीसं सागरोवमाई अंतोमुहणाई।
पंचवीसं सागरोवमाई, उक्कोसेणं उन्बीसं सागरोवमाई। आरणे कप्पे देवाणं पुच्चा गोयमा! जहाणं बीस साग- ममिटिमगेविज्जगदेवाणं अपज्जत्ताणं पुच्छा ? । गोरोवमाई, नकोसणं एगवीसं सागरोवमाइं । पारणे अप- यमा ! जहएणोणं अंतोमहुत्त, उत्तिल वि अंतोमुजत्ताणं देवाणं पुच्छा। गोयमा! जहमेणं अंतोमुहत्तं, उ
दुत्तं । मज्झिमहेडिमगेविनगदेनाणं पन्जत्ताणं पुच्छा। कोसेण वि अंतोमुहुतं । पारणे पजत्ताणं देवाणं पुच्छा।
गोयमा! जहएणेणं पणवीसं सागरोवमा अतोमुत्तूणाई, गोयमा ! जहयोणं वीस सागरोबमाई अंतोमुहत्तूणाई, न
उकोसेणं छब्बीसं सागरोवमाइं अंतोमुत्तूणाई। कोसेणं एकवीसं सागरोषमाई अंतोमुटुत्तूणाई।
मजिक्रममजिक्रमगेविज्जगदेवाणं पुच्ग। गोयमा ! जहअच्चुए कप्पे देवाणं पुच्छा ? । गोयमा ! जहोणं ए
एणणं छब्बीसं सागरोवमाई, उक्कोसेणं सत्तावीसं सागरोकत्रीमं सागरोवमाइं, नकोसेमं बाबीसं सागरोवमाई।
वमाई मन्किममजिकमगेविज्जगदेवाणं अपजत्ताणं पुच्छा। प्रच्चुए अपजत्ताणं देवाणं पुच्छा ? । गोयमा! जहोणं गोयमा ! जहमेणं अंतोमुहुत्तं, उकोसेण वि अंतोमुहूअंतोमुदुत्तं, उक्कोण वि अंतोमुहुत्तं । अच्चुए पन्ज- तं । मज्झिममाझिमगेविजगदेवाणं पज्जत्ताणं पुच्छा। चाणं देवाणं पुच्छा । गोयमा ! जहएणणं एकवीसं सा-| गोयमा ! जहरणेणं कव्वीसं सागरोचमाइं अंतोमुहुत्तूणाई, गरोचमाई.अंतोमुत्तूणाई, उकोसेणं बावीसं सागरोवमाई। उकोसेणं सत्तावीसं सागरोबमाई अंतोमुहुत्तूणाई। अंतोमुत्तूपाइं । प्रज्ञा०४ पद ।।
मजिकमनवरिमगेविजगदेवाणं पुच्छा। गोयमा ! जहणं प्राजीवकानामच्युते कल्पे देवेषुपपनानाभात्मोत्कर्षकादीनां सत्तावीसं सागरोक्माई, उकोसेणं अट्ठावीसं सागरोचमाई। प्रामाऽऽकराऽऽविसनिवेशेषु प्रवजितानां श्रमणानामुत्कर्षेणा- मन्किम नवरिमगविज्जगदेवाणं अपज्जत्ताणं पुच्छा । गोव्युते कल्पे आजियोगिकेषु देवेषूपपन्ननां च द्वाविंशतिसागरोपमा स्थितिः । । ।
यमा ! जहएणोणं अंतोमुहत्तं, नकोसोण वि अंतोमुहुत्तं ।
मजिक्रमनवरिमगेविजगदेवाणं पजत्ताणं पुच्चा गोयमा! हेडिमहेहिमगेवि जगदेवाणं पुच्चा । गोयमा ! जहमेणं
जहोणं सत्तावीसं सागरोवमाई अंतोमुहुत्तणाई, उकोसेणं बावीसं सागरोवमाई,नकोसेणं तेवीसं सागरोचमाई । हेहि
अट्ठावीसं सागरोबमाई अंतोमुहत्तणाई। महेडिमगेवि जगमपजत्ताणं देवाणं पुच्चा ? गोयमा ! जइएणेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेण चि अंतोमुहुतं । देहिमहेहि
उपरिमहेडिमगेविजगदेवाणं पूच्छा? गोयमा!जहएणणं ममेविजगपज्जत्ताणं देवाणं पुच्छा ?। गोयमा ! जहएणणं अट्ठावीसं सागरोवमाई,उक्कोसेणं एगपतीसं सागरोचमाइं। बावीसं सागरोचमाई अंतोमुहुत्तूणाई, उकोसेणं तेवीसं सा- नवरिमहेछिमगविजगदेवाणं अपज्जत्ताणं पुच्छा? गोयमा! गरोवमाई अंतीमुहुत्तूणाई।
जहमेणं अंतोमहत्तं, उक्कोसेण वि अंतोमहत्तं । उवरिपडे. हिडिममझिमगेवि जगदेवाणं पुच्चा गोयमा जहणं । हिमगेविज्जगदेवाणं पज्जताणं पुच्छा। गोयमा! जह
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वि
वि
(१७२६)
अभिधानराजेन्नः। एणेणं अट्ठावीसं सागरोवमाई अंतोमुहत्तूणाई, उकोसेणं | माई।णरदेवाणं भंते! पुच्छा । गोयमा जहएणेणं सत्त वाएगणतीसं सामरोवमाई अंतोमुदुत्तूणाई।
ससयाई, उकोसेणं चउरासीतिपुचसयमहस्साई। धम्मदे. उपरिममझिमगेविज्जगदेवाणं पृच्छागोयमा ! जह
वाणं भंते ! पुच्छा गोयमा!जहोणं अंतामहतं,नकासणं छोणं एगृणतीसं सागरोदमाई,उकोसेणं तीसं सागरोवमाई। देसूणाई पुन्बकोमी। देवाहिदेवाणं भंते ! पुच्छा ?। गोयमा! उपरिममज्झिमगेविज्जगदेवाणं अपज्जत्ताणं पुच्छा ।गो
जहमेणं वायत्तरि वासाई, उक्कोसेणं चनरासी पुबसयसयमा! जहमेणं अंतोमुहुत्तं,नक्कोसेण वि अंतोमुहुत्तं । नबरि
हस्साई भावदेवाणं भंते ! पुच्छा । गोयमा जहमेणं ममजिकमगेविज्जगदेवाणं पज्जत्ताणं पुच्छा । गोयमा! मह
दस वाससहस्साई, उक्कोसेणं तेत्तीसं सागरोवमाई । होणं पगृतीसं सागरोवमा अंतोमहत्तणाई,उकासेणं तीसं __“भवियदब्वदेवाणं" इत्यादि । (जहमणं अंतामुहुरा ति) सागरोवमाइं अंतोमुत्तूणाई।
अन्तर्मुकतायुषोः पञ्चेन्डियतिरश्चोः, देवेषत्पादाबद्रव्य देवस्य
जघन्याऽम्तमुहर्तस्थितिः । (उकोसेणं तिएिण पनिश्रोधमा उपरिमउवारमगेविज्जगदेवाणं पुच्छा ?। गोयमा !
ति) उत्तरकुर्वादिमनुजाऽऽदीनां देवेष्वेवोत्पादात ते जव्याव्यजहमेणं तीसं सागरोवमाई, नक्कोसेणं एकतीसं सागरोध- देवाः,तेषां चोत्कर्षतो यथोक्ता स्थितिरिति । (सत्स वाससयाई माई। उरिमउचरिमगविज्जगदेवाणं अपज्जत्ताणं पुच्छा।
ति) यथा ब्रह्मदत्तस्य (चरासीतिपुचसयसहस्साई ति) गोयमा ! जहोणं अंतोमुहत्तं, नकोसेण वि अंतोमुटुत्तं ।
यथा भरतस्य । धर्मदेवानाम ( जहमेणं अंतोमुहसं ति )
योऽन्तर्मुहतीवशेषाऽऽयुश्चारित्रं प्रतिपद्यते तदपतमिदम् । (उ. उबरिमउवरिमगेविज्जगदेवाणं पजत्ताणं पुच्छा। गोयमा!
कोसेणं देसूणा पुश्वकोमा ति) यो देशोनपूर्वकोटवायुश्चारित्रं जहएणेणं तीसं सागरोवमा अंतोमुहत्तणाईनकोसेणं ए- प्रतिपद्यते तदपेक्तमिति । छनता च पूर्वकोट्या अष्टाभिकतीसं सागरोवमाइं अंतोमुहत्तृणाई। प्रा०४पद । औ० ।
वः, अष्टवर्षस्यैव प्रवज्याऽहत्वात् । यच्च परवर्षत्रिवर्षी वा
प्रवजितोऽतिमुक्तको वैरस्वामी वा, तत्कादाचित्कमिति न विजयवेजयंतजयंतअपराजिएसुण नंते ! देवाणं केवइ
सूत्रावतारीति । देवाधिदेवानाम् (जहएणेणं वावत्तरि वासाई यं कालं लिई पएणता ? । गोयमा ! जहएणणं एकतीसं ति) भीमन्महावीरस्येव । ( नकोसेणं चउरासीइपुथ्वसयसहसागरोवमाई,नक्कोसणं तेतीसं सागरोवमाई । विजयवेजयं- साईति) ऋषनस्वामिनो यथा । भावदेवानाम (जहएणणं तजयंतअपराजितदेवाणं अपज्जत्ताणं पुच्छा । गोयमा! इस बाससहस्साई ति) यथा व्यन्तराणाम् । (कोसेणं जहोणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेण वि अंतोमुत्तं । विजयवेजयंत
तेत्तीसं सागरोषमाति) यथा सर्वार्थसिदेवानाम् । ज०१२
शए उ०॥ जयंतअपराजितदेवाणं पज्जत्ताणं पुच्छा?। गोयमा! जह
एएसिणं अट्ठविहाणं लोगंतियाणं देवाणं अजहणमणुघोणं एकतीसं सागरोवमाइं अतोमहत्तणाई, नकोसणं ते
कोसेणं भट्ठ सागरोवमाई ठिई पत्ता ॥ स्था० ७ ठा० । तीस सागरोचमाइं अंतोमुहुत्ताधाई ।।
( वेदनीयस्य कर्मणः स्थितिः 'कम्म' शब्दे तृतीयभागे सम्बठ्ठसिद्धगदेवाणं नंते ! केवइयं कालं लिई पएणता ? | २७८ पृष्ठे स्थितिक प्रस्तावे उक्ता ) गोयमा ! अजहएणमणकोसेणं तेत्तीसं सागरोवमाई विई
पुनपुंसकानां स्थितिःपाता। सबढसिद्धगदेवाणं अपज्जत्ताणं पुच्छा ?। गोयमा! पुरिसस्स एंजते केवतियं कालं ठिती पत्ता गोयमा! नहोणं अंतोमुहतं, नकोसेण वि अंतोमुहत्तं । सबसि- जहएणणं अंतोमुहुत्तं, नकोसणं तेतीसं सागरोवमाई। ददेवाणं पज्जत्ताणं केवइयं कालं लिई पमत्ता । गोयमा! निरिक्खजोणिय पुरिसाणं मणुस्सपुरिसाणं चेष इत्यीणं अजहएणमाक्कोसेणं तेत्तीसं सागरोवमाइं अंतामहत्तू- ठिती,सा चेव जाणियव्या। णाई विई पाता। प्रज्ञा०४ पद । नौ०। "पुरिसस्स णं भंते!" इत्यादि । पुरुषस्य स्वभवनावमजहतो (देवस्थितिविपये यथा ऋषिभरूपुत्रः "जहलेणं दस वाससह
भदन्तीकियन्तं कालं यावत स्थितिःप्रज्ञप्ता जगवानाद-जसंसार पिपत्ता । तेण परं समाहिया दुसमाहिया. जाव
घन्यतोऽन्तर्मुहुर्सतत ऊर्द्ध मरणजावात्।उत्कर्षतस्त्रयस्त्रिंशत्सा
गरोपमाणि । तान्यनुसरसुरापेक्षया षष्टव्यानि, अभ्यस्य पताव. दससमाहिया संखेजसमाहिया, असंखेज्जसमाहिया, नको.
त्या स्थितेरसंजवातातिर्यग्योनिकानामाघिकासां जलचराणां स्थसेणं तेत्तीसं सागरोवमट्टिई पसत्ता । तेण परं वोच्चिमा देवा
सचराणांखचराणां यथा स्राणांतितिरुक्ता,तया वक्तव्या। मनुष्य. य,देवलोगा या"इति प्रतिपदे, भगवता वीरजिनेन च सत्याथत्वेन मतः, तथा 'सिभहपुत्त' शब्दे द्वितीयभागे ६३४ पृष्ठे
पुरुषस्याप्यौधिकस्य कर्मचूमकस्य सामान्यतो विशेषतोजस्तैगवत
कस्य पूर्व विदेहापरविदेहकस्याकर्मभूमकस्य सामान्यतो चि. उस्मानिरदर्शि)
शेषतो हैमवतैरएयवतिकस्य हरिवर्षरम्यकदेवकुरुत्तरकुरुकस्य नव्याऽऽदिदेवानां स्थितिः
अन्तरद्वीपकस्य यैवाऽऽत्मीये आत्मीये स्थाने स्त्रियाः,मेव पुरुषजवियदबदेवाणं जंते ! केवइयं कालं लिई पत्ता || स्यापि वक्तव्या। तद्यथा-सामानिकतियम्योनिकपुरुषाणां जघन्ये. गोपया! जहएणोपं अंतोमुहत्तं,उकोसेणं तिथि पवियोव- नान्तसम, उत्कर्षतः त्रीणि पस्योपमानि । जलचरपुरुषाणां
४३३
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(१७३०) अभिधानराजेन्द्रः।
विइठाण अघन्येनान्तर्मुहर्तम, उत्कर्षतः पूर्वकोटी । चतुष्पदस्थाचर- गोयमा ! जहएषणं भंतोमुहत्तं, नकोसेणं तेतीसं सापुरुषाणां जघम्येनान्तमुहर्तम, सत्कर्षतस्त्रीणि पस्योपमानि ।
गरोवमाई॥ चरपरिसर्पस्थलचरपुरुषाणां जघन्यतोऽन्तर्मुहुर्तम, सत्कर्षतः पूर्वकोटी । एवं शुजपरिसर्पस्थलबरपुरुषाणामपि सचरपु- "मपुंसगसणं भंते!" इत्यादि सुगम,मबरमतर्मुहर्स तिर्यक रुषाणां जघन्यतोऽन्तर्मुहर्तम, उत्कर्षतः पल्योपमस्यासंख्येयो मनुष्याक्षपया काव्यम् । प्रतियत्सागरोपमाथि सप्तमपृथिभागः, सामान्यतो मनुष्यपुरुषाणां जघन्यतोऽन्तर्मुहूर्तम, उ. वीनारकापेकया । जी. २ प्रति। "बासाशं चपहाणं, स्कर्वतस्त्रीणि पस्योपमानि । धर्मचरणमधिकृत्य अघन्यतोऽन्तर्मु. पासहगणं महापणं च । दीवाणं उदहीणं, पसिनोवमगाइर्तम् । एतच बाह्यलिङ्गप्रवश्याप्रतिपत्तिमङ्गकृत्य वेदितव्यम् । उपनिणं" ॥१॥ही.शस्थितिप्रतिपादके प्रकापनायाचतुर्थअन्यथा चरणपरिणामस्थैकसामायिकस्यापि सम्भवादेकं समा | पदे, प्रा०४ पद (सत्पमादिजीवानां स्थितिः 'गणप्फर' यमिति यात् । अथवा देशचरणमधिकृत्येदं वक्तव्यम् । देश- शब्दे द्रएण्या)(कपायाणां स्थितिः 'कसाथ 'शम्दे तृतीचरणप्रतिपत्तेर्भङ्गबहुलतया जघन्यतोऽप्यन्तर्मुहूर्त्तसंजवात् ।। यत्नागे ३६७ पृष्ठे प्ररूपिता) तत्र सर्वचरणसम्मवेऽपि देशचरणामधिकृत्योक्तम् । तद्दे
| हिअव्वट्टणा-स्थित्यपवर्तना-श्री. । स्थितिकर्मविषयकाशवरण पूर्वकं प्रायः सर्वचरणमिति प्रतिपयर्थम । तथा
पवर्तनाकरणे, पं० सं०५द्वार । क प्रा('मववणा' शम्दे चोक्तम्-" सम्मत्तम्मि उ सके, पसियपुहुनेण सावत्रो। हो । चरणोवसमखयाणं, सागरसंखंतरा होति ॥१॥"
प्रथमजागे ७६६ पृष्ठेऽस्या म्याल्या) (पं० सू० टी०) अत्र यदायं व्याख्यातं, सत् स्त्रीवेदचिन्ता-विश्मदय-स्थित्युदय-पुं० । प्रवाधाकासापापाः स्थितेः यामपि अष्टव्यम्; यच्च स्त्रीविदचिन्तायां व्याख्यातं, तदत्रा- कयेण उदीरणाकरणस्पेण प्रयोगेण वा कर्मोदयरूपे उदयदे, पीति । उत्कर्षसो देशोना पूर्वकोटी, वर्षाष्टकार्वमुत्कर्षतोऽपि पं० सं०५द्वारक०प्र०।(सब'उदय'शम् द्वितीयभागे पूर्वकोट्यायुष एव चरणप्रतिपत्तिसंभवात् । कर्मभूमिकमनु
यायुष पव चरणप्रतिपातसभवात कमभूमिकमनु- ७७५ पृष्ठे चावातः) ध्यपुरुषाणां जघन्यतोऽन्तर्मुहुर्सम्, उत्कर्षतस्त्रीणि पस्योपमानि ।
विदीरणा-स्थित्युदीरणा-स्त्री० । सितिकविषयकोदीरचरणप्रतिपत्तिमङ्गीकृत्य जघन्यतोऽन्तर्मुहूर्सम,नत्कर्षतो देशोना पूर्वकोटी। भरतैरावतकर्मचूमिफमनुष्याणां पुरुषाणां के प्रती
णाकरणे, पं० सं०५द्वार । क०प्र०। स्व जघन्यतोऽन्तर्मुहर्तम,उत्कर्षतनीणि पस्योपमानि । तानि च विइजम्बट्टणा-स्थित्युदर्तना-स्त्री० । सितिकर्मविषयकोवर्तनासुषमसुषमाऽरके वेदितव्यानि । धर्मचरणमाधिकृत्य जघन्य- | करणे,क००। पं०सं०।(साच' उन्बहणा'शदे द्वितीयतोऽन्तमुहर्तम,उत्कर्षतो देशोना पूर्वकोटी पूर्वविदेहापरविदेह- नागे १९१० पृष्ठे भ्याख्याता) कर्मभूभिकमनुष्यपुरुषाणां के प्रतीत्व जघन्यतोऽन्तर्मुहूर्सम, ठिइकप्प-स्थितिकस्प-त्रिमप्रथमचरमजिनसाधूनां सतताऽsउत्कर्षतो देशोना पूर्वकोटी । धर्मचरणं प्रतीत्य जयन्येनान्तम-
| सेचनेमावखिते वाचेलक्याऽऽदिश्यविधे कस्पे, प्रब०७७वार।
मान हुर्तम.उत्कर्षतो देशोना पूर्वकोटी । सामान्यतोऽकर्मभूमिकमनुव्यपुगपाणां जन्म प्रतीत्य जमन्येन पल्योपमासण्येयजागन्यून
विश्कम्म []-स्थितिकर्मन्-न० । कर्मभेदे, कर्म०५ कर्म । मेकं पस्योपमम, उत्कर्षतस्त्रीणि पल्योपमामि। संहरणमधिकृत्य विश्करण-स्थितिकरण-नासापने, स०१० अङ्ग। जघन्यतोऽन्तर्मुहूर्तम, उत्कर्षेण देशोना पूर्वकोटी। पूर्व विदेहक- |
ठिकवाण-स्थितिकस्याण-न०1 खितिम्रयस्त्रिंशत्सागरोपस्थापरविदेशकस्य वा अकर्मनूमौ संहतस्थ जघन्यत उत्कर्षतश्च एतावदायु प्रमाणसंभवात । हैमवतैरएयवताफर्मभूमिकमनुष्य
मलक्षणा कल्याणं येषां ते । सर्वोत्कर्षस्थितिकेषु, स. ८00 पुरुषाणां जन्म प्रतीत्य जघन्येन पल्योपमं पस्योपमासयभा.
सम। गन्यमम, उत्कर्षतः परिपूर्ण पल्योपमम । सहरण्मधिकृत्य जब- ठिइकारण-स्थितिकारण-न"वातेरिता णया ष, पकंपमान्यतोऽन्तर्मुहूर्तम,उत्कर्षतो देशोना पूर्वकोटी । भावना प्रागिन ।
णाण तरुणमादीणं। होति थिरा बहुंतो, तरुन्ध थिरकरणतेचं हरिवबरम्यकवर्षाकर्मभूमिकमनुष्यपुरुषाणां जन्म प्रतीत्य जघ
तु॥१॥" इति निरूपितायां सप्तदश्यां गौणाऽनुकायाम, पं. न्यतो वे पल्योपमे पत्योपमासङ्ख्थेयभागन्यूने, उत्कर्पतःपरिपूर्थे द्वेगल्योपमे । सदरणं प्रतीत्य अघन्यतोऽन्तर्मुहर्सम,उत्कर्षतो दे.
मा०।नं। शोना पूर्वकोटी देवकुमत्तरकुर्वकर्मभूमिकमनुष्यपुरुषाणां जन्म क्खिय-स्थितिक्षय-० । प्रायुकाऽऽदिकर्मणां स्थितनिधप्रतीत्य जघन्यतः पल्योपमासङ्ख्ययभागन्यूनानि त्रीणि पल्पो- रमे, प्र. ७० ए० । मायुषः स्थितिबन्धक्षये, स्थाo 0 पमानि । सत्कर्षतः परिपूर्णानि त्रीणि पल्योपमानि । संहरणम- ग। वेदने, भ. २०१०।विगमने, बिपा० २०१० धिकृत्य जघन्यतोऽन्तर्मुहूर्तम,उत्कर्षतो देशोना पूर्वकोटी। अन्त- | मास्थितिक्रियशरीरे अवस्थान, तस्याःकयेऽपूरणीकर। रद्वीपकाकर्ममिकमनुष्यपुरुषाणां जन्म प्रतीत्य जघन्येन देशीनः पत्योपमासस्पेयजागः, उत्कर्षतः परिपूर्णः पन्योपमास-शिपाय-स्थितिघात-पुंगवृहत्प्रमाणाचाहानाम्बरणीबाऽऽदि. स्थयभागः, संहरणमधिकृत्व जघन्येनान्तमुहम, उत्कर्षतो प नाकरणेन सण्डने, कर्म०१कर्म.क.प्रा देशोना पूर्वकोटीति । जी०२ प्रतिः ।
पं० सं०1(सब "वसमसेडि"शन्दे द्वितीयभाने १०४४ सम्पति स्थितिप्रतिपादनार्थमाह
पृष्ठे उक्तः) नपुंसगस्स पते ! केवतियं कालं ति पएणचा विगत-स्थितिस्थान-10 । प्रायुपो विभागे, म० १०॥
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विगण अभिधानराजेन्द्रः ।
ठियकप्प १०। कप्र० । पं० सं०। (नरयिकाऽऽदीनां स्थितिस्थानमा- विकसिकि-स्थितिसिकि-श्री.म्यवस्थानसाधने, हा०२॥ श्रित्य दण्डको "जीव" शब्दे चतुर्थजागे १५४२ पृष्ठे उक्तः) | प्रह। छिणामणिहचानय-स्थितिनामनिधत्तायुष-नास्थितियथा
ठिय-स्थित-त्रिका व्यवस्थिते, सूत्र० १७०६०। बस्थिस्थातव्यं तेन नावेमाऽऽयुर्दविकस सैव नाम परिणामो, धर्म
ते, स्या०२ चा उत्त। पञ्चा। उपा० । अप्रयुते, सइत्यर्थः। स्थितिनाम गतिजात्यादिकर्मणां च प्रकृत्यादिभे- तुपामा मिष, उद्यते, अगतिपरिणामे, नि०प्यू.१ देन चतुर्विधानां यःस्थितिरूपो नेदस्त स्थितिनाम, तेन सह
स।कटीस्तम्नेन अवस्थामे, १ स. । वेस्थानमिघत्तमायुः स्थितिनामनिधत्ताऽऽयुः । मायुर्वन्धभेदे, स०।। स्थिते, भ. श. ३३ उ० । सत्रादित प्रारज्य पठनक्रिय स्था०। भ०। प्रशा०॥
यावदम्यदेवाविस्मरणतश्तासे स्थितत्वात स्थितम् । द्वितीये रिपरिणाम-स्थितिपरिणाम-पुं० पायुषो याऽन्तर्मुहर्ताऽऽदि. मागमतो कण्यावश्यकभेदे, ज्ञा० १७०एम० । श्रा० त्रयस्त्रिंशत्सागरोपमान्ता स्थितिर्भवति स स्थितिपरिणामः । चू० । विशे०। प्रथमे कल्पनेदे, “प्रत्ये विणमोषकारिते आयुःपरिणामभेदे, स्था० ६ ।
विवस्स जहा विजाभो फलं पयति ।" नि० ५.१०। विप्पगप्प-स्थितिप्रकल्प-पुं० । स्थिती अवस्थाने बलियञ्चा-ठियकम्प-स्थितकरूप-पुन भवस्थितसमाचारे, पृ. ६४०नि० विषये प्रकल्पः सकल्पः स्थितिप्रकल्पः । भवस्थानविषयके
याप्र. । प्रव० । पश्चा। नि०। (प्रथमवरमयोस्ती
करयोराबेलक्याऽऽदयो दश कल्पा अवस्थिता एवेति 'कप्प" सारपे, भ०३ २०१०ास्थितिप्रकरूपमवस्थान विकल्पनम्-ते. वह विष्ठेयमिति, पते वा मम तिष्ठन्तु स्थिरीभवनिवत्येवरूपे,
शब्दे तृतीयमागे २२५ पृष्ठे दर्शिताः) स्थित्या वा मर्यादया विशिष्टः प्रकल्पः। प्राचाराऽऽसेवायाम,
भयमपरः स्थितकल्पःस्था० ३ ०३ उ०। यानीमानि सुप्रसिरूतया प्रत्यक्वाणि स्थ
ठितकप्पमो तु तत्तो, वोच्छामि गुरूवदेसेणं । विराणां स्थविरकल्पिकानां स्थिती समाचार प्रकल्पानि प्रक- गच्छाणुकंपताए, सुत्तत्यविसारए य भायरिए॥ स्पनीयानि योग्यानि विशुद्धपिएमशय्याऽऽदीनि स्थितिप्रकल्पा- प्रागाढे पढमसंजय-नवगाहिए य कप्पदुए। नि । पिएमाऽदिकानां च कल्पाना मासकल्पाऽऽदिकानां च
गच्छ जदि हीरिज्जा, पायरियं वाऽतिवायते को। स्थितीनां द्वन्द्वे, स्था० ५ ०१ उ० ।
परिसए भागादे, जस्स तु जो होति सद्धीभो । विश्बंध-स्थितिबन्ध-पुं० । अध्यवसायविशेषगृहीतस्य कर्म
सोन पमादेती पढ-मणियंठे पुलागलकीओ।। बलिकस्य स्थितिकालनियमने, कर्म. ५कर्म०। पं० सं०। मष्टानां झानावरणीयाऽऽदिकर्मप्रकृतीनां जघन्याऽऽदिमेदनि
गच्चोबग्गहहे, करणपकपिहितोऽएएणा॥ भावस्थानस्य निवर्तने, स०१ सम । स्था० । मूलोत्तरप्र- सुपए ति साहुसाहुणि, तदवहेतुं तु एव मूलगुणे । कृतीनामुत्कृष्टभेदे, प्राचा०१७०२०१०। कर्मक
भणिता सेवा एसा, सीसो पुच्चति तु मह इणमो । प्र०। पं० सं० । ( एकोन्डियाऽऽदिजीवानाभित्याल्पबदुत्वम् "अप्पाबहुय" शब्दे प्रथमभागे ३१८ पृष्ठे बढ्यते) (अप्रत्यं
जह कारणम्मि भणिता, मूलगुणेसं तु एव पमिसेवा । मर्व “बंध" शब्दे प्रदर्शयिष्यामि)।
तह होज कारणम्मी, पडिसेवा उत्तरगुणे वि? ॥ निबंधपरिणाम-स्थितिबन्धपरिणाम-पुं० । येन पूर्वनवाऽयु:- गुरुयतरएस एवं, मूलगुणेसुंतु नदि भवेऽणुपणा । परिणामेन परजवाऽऽयुषो नियतांस्थिति बन्नाति,स स्थितिबन्ध उत्तरगुणेमु सत्तो, बहुयतरेसुं भवेऽएएणा॥ परिणामः । यचा तिर्यगायुःपरिणामेन देवायुष उत्कर्षतोऽष्य- ठितकप्पो सो भणितो,...................... |पंजा । टादश सागरोपमाणीति । आयुःपरिणामभेदे, स्था.ग०।
" याणि चियकप्पो । तत्थ गाहा-(मच्छाणु०) भायरिया विश्वडिय-स्थितिपतित-त्रि० । कुलक्रमादागते पुत्रजन्मानु- था उबज्झापा पा गच्छो वा हारज्जा, उबगरणं भासिया
भने, नि०१६०१ वर्ग ११०।कुलस्य लोकस्य वा मर्या- वेजा हेमंते, ताहे मारिया चेव भवंति सीएण, एएदि कारके। दायां गतायां पुत्रजन्ममहप्रक्रियायाम, न.१० ११ उ०।
हिमागाडेजा माथि पुलागलकी, भरणं वा सामत्यं, ताहे रा। विपासका।
परिकमइ । मोषमाहिमो नाम-गन्छोपप्राकरः। पकप्पध्यिस्स ठिसंकम-स्थितिसंक्रम-पुं० । म्सप्रकृतीनामुत्तरप्रकृतीनांच
एवमणुपणायं । गाहा-(चंति) साहणं साहणीण यपडिसेस्थितेरुत्कर्षऽपकर्षणे प्रकृत्यन्तरस्थिती नयने, (स्था)
वणा, एवं मूलगुणेहि प्रणिया पडिसेवणा। सीसो पुच्चर-जदा "विसंकमो ति वुन्चर, मयुत्तरपगो बजा हि निई।
मूखगुणसु पमिसेषा भणिया, तदा उत्तरगुणेसु, वि होखा ?। सम्वट्टिया पोष-ट्टिया व पगई नियावर्ष"॥१॥ स्था०४
उच्यते-जाताय गुरुपसु भगुराणाया, उत्सरगुणेसु खदुपसु ठा०२०।०प्र०।पं० सं०। (सच 'संकम शम्दे
पागेच अणुराणाया। ट्ठियकप्पो नाम पसु कारणेसु पत्तेसु बक्ष्यते)
अवस्सं कायम्वं । एस द्विवकप्पो। "पं००। सिंतकम्म-स्थितिसत्कर्म-न । कर्मस्थितिसकमकर्मणि,
कप्पष्ठितमाहिए पुण,वोच्छामऽहुणा समासेणं । ००। पं० सं०। ('सकम्म' शदे प्ररूपवियते)
संघयणवज्जिनो विहु,दुक्खक्खयकारो पणगजाश्रो। विडसाइप-स्थितिसाधन-न । दोकामर्यादाकथने, पक्षा संघयणसमग्गस्स वि, अजातचतुरो प्रमोक्खाए। १२विवः।
पंच तु महब्बयाई, पण गंतेसिं करे पयतं तु ।।
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विग्रकप्प
वीण
जो जो निप्फो, अजातों लियमा अणिष्फो । ठियच्चि - स्थितार्चि- त्रि० । स्थिता शुरुस्वभावाऽऽत्मना भर्चि
श्या यस्य स भवति स्थितार्चिः । सुविशुद्ध स्थिरलेश्ये, सूत्र० १० १० म० ।
वियमपि विकप्पे, संघयणावि जो विहीणो तु ॥ सो कुणति दोक्खमोक्खं, जो पुण न करे पयतं तु । पंचसु महत्र्वरसुं, संघयणं तु जदि वि संपएो ॥ सोच गतिसंसारे, जमती ण य पावती मोक्खं । पं० भा०| " इयाणि नियमट्टिया समा चेव जंति । चोदग माह-अस्मिन् काले समनवर्जितानां साधूनां कीदृशी संयमशुद्धिः ? । तत्थ गाहा - ( संघयण०) उच्यते-वस्ल ! संद्ननवर्जितोऽपि अ पर्याप्तिपणामन्त्रणेषु । यद्यपि ऋषभादि संहननम, अञ्जकाले सेवर्चसंहननिनः साधवः पञ्चमहामतयुक्ताश्च, तथापि दुःखदा यं कुर्वन्ति संहननसंपत्ती तु जर बलबीरियं गूहेर, जश् न करेह पंचसु महत्वपसु पयतं, सो बढसु गइसु श्ररि ग जाइ, न य से मोक्सो अस्थि एवं हियकप्पे अयिकप्पे वि श्रयतो विमुश्वर संसाराओ, इयरो चचगासु अएणयार गई पुष्षषवियाय पर ठिबमविकल्पा । " पं० चू० ।
OF
***
( १७३२ )
अभिधानराजेन्द्र :
वियप्पा - स्थिताऽऽत्मन् पुं० । स्थितो व्यवस्थितोऽशेष कर्मfarastraरूप श्रात्मा यस्य स भवति स्थितात्मा । ज्ञानक्रिययोः प्रधानफलयोगेन मुक्त्खर्दे, सुत्र०१ श्रु०१० अ० महासत्रे, दश० ६ श्र० । ज्ञानाऽऽदिके मोकाध्वनि, श्राचा० १ ० ६ २०५ उ० । सम्यकमार्गे, सूत्र० १ श्रु १० अ० ।
ठीण स्त्यान- न० | "ईः स्त्यानखल्वाटे" || ८|१|७४ || स्त्यानखस्वादयोरादेरात ईर्भवति । "स्त्यानचतुर्थार्थे वा ||८६२|३३|| ए संयुक्तस्य वो वा भवति । 'ठीणं' 'थीर्ण' । प्रा०२ पाद । 'स्त्यै' भावे कः, तस्य नः । स्नेहे, घनत्वे, संहतौ, बालस्ये, प्रतिशब्दे च । कर्तरि कः । संहतिकारके, ध्वनिकारके च । त्रि० । वाच० । कुंठ - पुं० | विनावशिष्टवनस्पतीनां शुष्कावयवे, जं० १ ० ।
स० प्र० ।
इति श्रीमत्सौधर्म बृहत्तपागच्छीय – कलिकाल सर्वज्ञकल्पश्रीमनहारक —— जैन श्वेताम्बराचार्यश्रीश्री १००८ श्री विजयराजेन्द्रसूरिविरचिते 'अजिधाराजेन्द्रे' कारादिशब्द सङ्कलनं समाप्तम् ।
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डकार
।
म-म-पुं० । रुकारो ब्यञ्जन वर्णभेदः चतुर्थ वर्गीयः मूईस्थानीयः स्पर्शसंज्ञः । मी-मः । वारुवानौ, शब्दे, चाचपक्षिति, शिवे, वाच० । प्रयङ्करनादे, चन्द्र, चञ्चल बोषिति, जिह्वायाम, कुएमलिम्यान एका शङ्करे विषये दरे, भा
रौफरसे, ध्वनौ च । एका ॰ । बाचि, सत्तायाम्, प्रज्ञायाम, स्त्री० अवेसी के आन्दोने, डामरे च न० एका मोर - दकोदर - न० । जलोदरनाम्नि रोगे, नि० सू० १३० । डंक - टङ्क - पुं० । वृश्चिकाऽऽदिकण्टके, का० १ ० १६ ० । नि० चू० । जाव० । मेख - संत-धा। संताचे, " संतपेर्डेलः " ८४१४ संतमेख इत्यादेशो वा जबति । 'नंबर' पक्षे 'संतप्पा' प्रा० ४ पाद ! मंद - दशम - पुं० | न० । “दशनदष्टदग्धदोलादण्डदरदाददम्नदर्भ कदनदोहदे दो वा मः " ॥ ८ । १ । २१७ ॥ इति दस्य वा कः । प्रा० १ बाद | दम अच् । निम्रढे, बिपा० १ ० ३ ० । द्वारा ''इति व्यूहभेदे, प्रकार, अश्वे, कोणे, मन्थनदण्डे, सैन्ये च । पुं० । ६भ्यतेऽनेन दम -मः । मस्य च नत्वम् । षष्टिपलाऽऽत्म के काले, 'काठा' इतिप्रति भूमिमानभेदे, सूर्यानुचरे, पुं० । दराम-जावे घञ् । अपार राम्रां बायें कर्तरि अन्यमे, पुं०। रामेषु दे० ना० ४ वर्ग
वाच। सुध्या साटितेषु
म पुं० देशी रथ्यायाम दे० ना०४ वर्ग
(२०३३) अभिधानराजेन्द्रः ।
वाय• । प्र० क०
दिएम कि-पुं० | उत्तरापथे कुम्भकारकृतनगरस्य राहि यत्पुरोहितेन पाकताना पूर्व वादपराजितम्पाराजः एकन्दकः प्रत्यभगिनीं पुरन्दयशसं मागतो मारितः सन् अग्निकुमरेपपः । नि० ० १६०० मंडणगार - दण्डानगार-पुं० खनामपामारे, स्वमुनातीरे यमुनाकोद्याने यमुनाराजेन हतस्य केवले उत्प महिमार्थे शक भागतः । योविं• । श्रा• चू• । आद● | ती संथा० ।
ढंमय - दमक - पुं० | 'मंडग' शब्दार्थे, आचा० २ ० ७ अ० १ ० । नि०
० चू।
*
रुब्भ
डंगया - दएमका - स्त्री० 'फंडगा' शब्दार्थे, चाच० | मा० क० मि [ ए ] दमिन् पुं० | दएमधारक, श्री० । मेमिमण-दमिव एक वसन पुं० [दाभिरूपं यस वस्त्रं येषां ते । दारमखरामरूपवस्त्रवति, प्रश्न० ३ प्राश्र० द्वार । गंज- दम्ज-पुं० । ' दशनदष्ट०- " ॥ ० १ २१७॥ इत्यादिना दस्य मः । ' डंभो' दम्नः । प्रा० १ पाद । दम्भ-घञ्। कपटे, शाठ्ये ख । वाच• । मायाप्रयोगे, प्रश्न० १ संब० द्वार । सूचीप्राये इम्प्रकारके मलिषु प्रये शस्त्रविशेषे, विपा. १ ० ६ ० ।
66
दम्भन
मंजि-पुं० [देशी तारे वर्ग मंचर- पुं० | देशी - धर्मे, दे० ना० ४ वर्ग
कंग - दमक- पुं० | साधूपकरणे दण्डे, श्राचा० २ ० १ | डज्जमाणधूव-दह्यमानधूप- पुं० । भस्मसात् क्रियमाणे अनेकसुगन्धद्रव्यसंयोगसमुद्भूते दशाङ्गाऽऽदिधूपके, कल्प० २ क्षण ।
धू० ७ ० १ उ० । नि० चू० ।
डेमगा दलका श्री० दरका उपथे जनस्थाननामके बने टड दष्ट-शि००
० १
डंस-दंश-धा० । दंशने, स्वा०- पर०- सक० अनिट् । वाच०! "दं शद होः " ॥ | १ | २१८॥ इति धात्वादेवस्य कः । 'सर' । प्रा० १ पाद सूत्र० । अ० म० । 1 डक-दष्ट- त्रि० । “ अनादौ शेषाऽऽदेशयोईित्वम् " ॥ ८ । २ । ८६ ॥ इति पदस्थानादौ वर्तमानस्य द्वित्वम् । 'उक्को' प्रा०२ पाद । " शक्तमुक्तद एरुग्ण मृडुको वा ॥ ८ । २ । २ ॥ इति संयुक्लस्य वा कः । ' मक्को, ' दट्ठो' । प्रा० २ पाद । दशनाऽहते, निम्बू० १० । प्रश्न | श्राव० । दंष्ट्राविषाऽऽदिना दष्टस्य प्रा. णिनः पीमाकारिणि विषपरिणामे, स्था० ६ ० । दन्तगृहीते, दे० ना० ४ वर्ग ।
-
मगण - मगण - न० । थानविशेषे, वृ० १उ० । मगलग-डगलक-पुं० न० 1 अतीब पक्केप्रकासु, घोघ० । लघुपाषाणाऽऽदौ, भोघ० । पक्केष्टकाखण्डे, पिं० । पुरीषोत्लगीनन्तरमपान प्रोच्कूनक पाषाणाऽऽदि ख रामे, पिं० । बृ० । डग्गल पुं० देशी-परदे० ना० ४ वर्ग डज्झमाण- दामान- पुं० । दह क्यच् । " दहो ज्जः " ॥ ८ ४ । २४५ ।। दहो ऽन्त्यस्य कर्मभावे द्विरुको ज्यो वा भवति, तत्सन्नियोगे क्यस्य लुक् च । प्रा० ४ पाद । भस्मसात्क्रियमासे, उत० १४ अ० । श्रब० । प्रति० ज० म० भ० । निο चू० । सूत्र० । प्रश्न० ।
-
॥ १।२।२१७ ॥ ६स्यादिना दस्य वा मः। 'डो' 'दडो' । दशनाऽऽहते, प्रा०१ पाद । दग्ध - त्रि० । भस्मीकृते, भाव० ४ अ० प्रश्न० औ० नि० प्यू० पृ० । संथा० महाटी देशी दवमार्गे दे० ना०४ वर्ग
मपटप पा० संहतो, रा० पा०म०स० सेट् पयति पयते पापेष्ट बाच० । मप रिसंघात मिलन्ति। १ अधि० १ प्रस्ता० ।
.
मप्फ-न० | देशी - सेल्लाऽऽस्ये प्रायुधे, दे० ना० ४ वर्ग ।
पुं०''
"०"
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(१७३४) डम्म अन्निधानराजेन्दः ।
डिंडिम २१७ ॥ इत्यादिना दस्य वा मः । इम्भो''दन्नो'। प्रा. १ नीयस्य भस्मसात्करणे, शेषस्य च दग्धरज्जुतुल्यत्वाऽऽपादने पाद । "कुशा: काशा बन्यजाच, तथाऽन्ये तीक्ष्णरोमशाः । च । आचा०१०१ ०४ उ० । पाटलिपुत्रवास्तव्यस्य मौजाश्व शावलाश्चैव, परदर्भाः परिकीर्तिताः" ॥१॥श्त्युक्तेषु हुताशनब्राह्मणस्य स्वनामख्याते पुत्रे, स च पितृन्यां मात्रा च काशाऽऽविषु षट्सु तृणषु, वाच ।
सह प्रव्राजतः । श्राव०१०। उभग-उनक-पुं० । म्य भेदे, प्रज्ञा०१ पद ।
डहर-महर-पुं० । लघौ, सुत्र.१ ध्रु०१२ अ०। ०। मोघः। उमर-उमर-पुं० । न० । स्वराष्ट्रकोमे, सूत्र. २ भु०१ मा ज्योगदशा पुत्रनपत्रादौ, सूत्र०१६.२०१. उ०। बालके,सत्र परराजकृतोपकावे, जं.२ वक० । स्वचक्रपरचक्रकृते विप्लवे ।
२०१० श्राचा० अप्राप्तवयास, दश०६०१उ.। प्रब.४ द्वार । कलहे, माचा०२ २०२०४ मा विग्रहे,
याधरपरिपूर्णानि पञ्चदशवर्षाणि षोडशवर्षादर्वाक् तावहरकं प्रमा१भामा द्वार। बिरे, प्रौ०। प्रभा राजकुमारादि-|
युवते समयविदः । व्य० ३ ३०। कुल्लके, सूत्र० १ श्रु०१४ अग कृतविमरे, रा.नि. कुमाराsधुत्थाने, स्था०६01/महरयग्गाम-महरकग्राम-पुं०। कुखकग्राम, म्य०७ उ । अशोजने, प्राव. १०। उमरगर-ममरकर-त्रि० । परस्परेण कलहविधायक, सा. १
महरिया-महरिका-स्त्री० । जन्मतोऽशादशवर्षावधिकायां यो.
पिति, जन्मपर्यायेण यावदष्टादशिका अष्टादशवर्षप्रमाणा शु. १ मा विहरकारिणि, न. श. ३३ उ० । औ० ।
तावङ्गवति महरिका । न्य०४ २० । वाकायमनोभिर्विचित्रतामनकरणशीले, प्रा० म०२ अ०।। ममरय-ममरक-पुं० । न० । अशोभने, भाव०१०।
माकुलीनीमेसर-माकुलीनीमेश्वर-पुं० । स्वनामख्याते तीर्थे,
यत्र श्रीपार्श्वनाथः पूज्यते । ती. ४३ कल्प । ('जिजपडमरुग-ममरुक-न० । चूलिकांपैशाचिकेऽन्येषामाचार्याणां म
मिमा' शब्दोऽत्र १४६४ पृष्ठे विवोक्यः) तेन तृतीयस्य स्थाने प्रथमे प्राप्ते " नादियुज्योरन्येषाम् "
माग-माक-पुं० । शाके, पिं०। प्रश्न । स०प्र० । स०। पत्रशा॥७।४ । ३२७ ॥ इति निषेधान रः । 'ममरुगो' प्रा०४ पाद । वाद्यभेदे, वाचा
के. दशा०१०। नि० चू०। मालप्रधाने शाके, आचा०२
शु० २० १२ १०। वास्तुकाऽऽदिनजिंकायाम, भ०७ २०१० उमरुयमणिनाय-ममरुकमाणिन्याय-पुं० । एकस्यैव पदस्य पू
उ० । च० प्र०। वृन्ताकचिभिटिकाचणकाऽऽदयः संस्कृताः पत्रस्मिन् परस्सिँध पदे वाक्ये बा संबन्धद्योतके याये, वि. शाकान्ता माकशब्देन भषयन्ते । प्रब०२बार । आव०। शे..उत्त.।
डागवच्च-माकवर्चस्-न । यत्र पतितो माकः सटनन बोंमर-त्रस-धा। उलेगे, "सेडरबोज्जवज्जाः" ॥18 | १८॥
भवति तादृशे स्थने, प्राचा० २ १०१ चू० १० भ०। असेरेते प्रय आदेशा वा भवन्ति । 'मरइ,' 'बोज, 'बज्जा' 'तसा'प्रा.४पाद।
मागिणी-ढाकिनी-खी। पूतनायाम, सूत्र०१ श्रु०३ अ०४०। दर-अव्य० ।-अप । " रशमदष्ट." ॥ १।२१७॥ इ-डाय-माक-पुं० ।'डाग' शब्दार्थे, पिं० प्रश्नः । सू०प्र०ास.। स्यादिना दस्य वा मः।' मरो, ''दरो'। प्रा०१पाद । ईषदर्थे, डायाल-टायाल-न। हर्मतले, आचा० २ ०१.२ भये, गर्ने । पुं०।न। कन्दरे, पुं०।सी। बीत्ने की । अ०१०। बाच..
मान-माल-न। शाखायाम , पश्चा०१९ विव० । स्था। मस-पुं० । देशी-लोटे, दे० ना० ४ वर्ग।
शाखैकदेशे, प्राचा०२ श्रु०१चू. १०१. उ.। मल्ल-न। देशी-पिटिकायाम, देना.४बर्ग।
माला-माना-सी० । शाखायाम, “लिङ्गमतन्त्रम"।८५। माग-मद्धक-न०। वंशादिराचिते 'मामा' तिच्याते पात्रवि ४४५ ॥ अपभ्रंशे लिङ्गमतन्वं व्यन्निवारि प्रायो जवतीत्यनेम शेष, प्रा०म०१०१खएक । बाच।
"सिरि चमिश्रा खंति फल, पुणु मालहँ मोमंति।
तो वि महद्दुम सउणाहं, अवराहिउ न करंति"॥१॥ मच-पुं०। देशी-वामकरे, दे० ना०४ बर्ग।
इत्यत्र माल ति स्त्रीलिङ्गस्य नपुंसकत्वम् । प्रा०४ पाद । मसण-दशन-न । जावे-ल्युट् । “दशनदष्ट०" ।।१।२१७॥
माली-मानी-स्त्री० । शाखायाम, नि. ०१ उ०। देना। इत्यादिना वस्य मः। मसणं''दसणं ।' दशनाऽऽहते, प्रा. १पाद । करणे ल्युत् । दंष्ट्रायाम, वाच ।
माव-पुं०ादेशी-वामकरे, दे. ना.४ वर्ग। दह-दह-धा० । दाहे, म्बादि०-पर-सका-प्रनिट । वाचमाह-दाह-पुं० । “दशनदष्ट.-" ||८।१ । २१७॥ इत्यादिना 'दंशदहो' ।।१।२१० ॥ इति दहधातोर्दस्य डः। प्रा० १
दस्य वाडः। 'माहो' दाहः। भस्मीकरणे, प्रा० १ पाद । पाद । "दहेरहिकलाऽऽमुंखी"।।४।२०६।" दहेरेताचादेशी
आचा। अनु० । वा भन्दः । 'मदिनक,' 'मालुंख, "इहा।'प्रा०४ पाद।। हिंगर-डिङ्गर-पुं०। पादमूलिके, नि०चू. १५००। महण-दहन-पुं०। दह-ल्युट् । भस्मीकरणे, पृ० १० मिमिम-डिण्डिम-पुं० । 'मिरिम' इति शब्दं मिनोति प्रकाशय. प्राचााअग्नी,चित्रकवृक्के,भल्लातके,दुष्टचेतसि च । पाचनभावे ति।पटहाऽऽदिवादित्रविशेषे,सूत्र०१७०४ अ०२०रा०। ल्युद्दाहे, नाचाचा केवबिसमुद्घारध्यानाग्निना वेद- आ००। प्रथम प्रस्तावनासूबके पणवविशेष, जं०५ षक।
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मोहल
(१७३५) डिडिम
भनिधानराजेन्द्रः। जी० । गर्भ, पृ. ३ उ० । कांस्यभाजने, न० । प्राचा• २ | मुंमुत्र-पु०॥ देशी-जीर्णघण्टे, दे० ना०४ वर्ग। श्रु.१ चू०१ अ०११ उ० ।
मुंव-मोम्ब-पुं० । एकावशतितमे स्वेच्छभेदे, प्रव०६वार । पं. मिमिलिअ-न । देशी-खलिस्खचितवस्त्रे, स्खलितहस्ते च। दे.
| चू० । व्य । ती । श्वपचे. दे० ना०४ वर्ग। ना.४ वर्ग। मिमी-स्त्री। देशी-सूच्या सङ्घटितेषु वखखरामेषु,दे ना०४ वर्ग।
| मुमवण-द्रुमवन-न० । वृत्तसमूहे. प्राप्त । मिमीबंध-हिएडीबन्ध-पुं० । गर्जसम्नवे, नि० चू० ११३० ।
| मुहिल-हिल-पुं० । द्रोहखभावे, विशे।
मेवण-मेपन-पुं।मात्मनः प्रतिक्केपे, व्य०३ उ०मा०मागर्त मिमीर-मिएमीर-पुं० । 'मिएिम' इति शब्दोऽस्त्यस्य ः।।
बराएमादीनां रयेणोल्लबन्ने, जीत। व्य०। महा। गोध। पूर्वपददीर्घः । समुद्रफेने, वाचाफेने, प्रा०म०१ अरखएम। | मिफिअ-न। देशी-जलपतित, दे. ना.४ वर्ग।
मेषमाण-मेपयत्-पुं० । प्रतिक्रामति, न. १ श०७ २०।
भोंगर-मुगर-पुं० । 'मुंगर' शब्दार्थ,, भ०१ श०२ उ० । मिब-डिम्ब-पुं० । डिबि-घम् । शिशौ, भण्डे, प्लीहनि, वि- | प्लवे, शस्त्रे, कलले, परएमे, भयहेतुके ध्वनी, जये, ममरे,
मोंगिली-स्त्री० देशी-ताम्बूलभाजनविशेषे, देना०४ वर्ग। फुप्फुसे, वाच० । वधे, स्था०९गाजाऔ।माचा ।।
डोंब-मोम्ब-पुं०। एकविंशतितमे म्लेच्चभेदे, प्रव० ६ द्वार। नि०। रा० । ज्ञा। स्वदेशोत्थविप्लवे, न० ज०२ वक्ष०ा जी। मोबिलग-मोम्बिलक-पुं० । म्लेच्छजातीये, प्रश्न०१ आक्ष. पराऽऽनीतशृगालिके, पुं०। सूत्र. २ श्रु० २ ० ।
धार। प्रकाश हिंज-डिम्न-पुं० । मिभि-अच् । लघुतरवयसि बालके, वृ०३ टोअ-पुं० । देशी-दारुहस्ते, दे० ना.४ वर्ग। उ० प्रा० म०नि०। प्रा०काशा।
डोल-मोल-पुं० ।तिकाऽऽस्ये प्राणिनि, पृ० १० । जी० । संस्-धा० । अधःपतने, "संसहसमिभौ'।८।४ । १७॥
| उत्त। मधूकफलादौ , पं० व.२ द्वार । प्रव०। इति संसेडिनाऽऽदेशः । 'मिभ' 'संसाप्रा०४ पाद । डोला-दोला-स्त्री.दुस-अच्-टाप। “दशनदष्ट०-" ||८१२२१७॥ मि अली-स्त्री० । देशी-स्थूणायाम्, दे० ना०४ वर्ग ।
इत्यादिना दस्य मः । 'डोला' दोला। प्रा०१ पाद । मोली' मिहर-न० । देशी-भेके, देना.४ वर्ग।
इतिस्याते यानभेदे, उद्यानाऽऽदी क्रीमाऽथ दोलनयन्त्रे च ।
स्वार्थे कन् । पूर्वोक्तार्थे, वाच । डिशी-मिली-पुं०। प्रादभेदे, जी०१ प्रतिः। प्रका।
मोलायमाण-दोलायमान-त्रि०। पुं० । दोला दोलनमयते । डील-क्षीण-त्रि० । ति-कः । "कः स्वः क्वचित्तु ग्डो"॥८ ।
भय्-शानन्। वाचशिविकावाम, दे० ना०४ वर्ग। चनचित्त. २॥ ३ ॥ कस्य सो भवति, क्वचितु छमावपि । ' स्वीणं'।
वृत्ती, नि चु०१० उ०।दोलनं कुर्वति, दोलायन्त्ररूढे चावाचा 'कोणं।' 'मीणं ।' प्रा०५पाद । मुले, कामेच वाच.।
मोक्षणग-दोधनक-पुं०। उदकसंजाते संस्खेदजे जीवे, सूब अवतीर्णे, दे० ना०४ वर्ग।
२ ० ३ ०। डीणोषय-न । देशी-उपरि, देना.४ वर्ग।
मोलिअ-पुं०।देशी-कृष्णसारे, दे० ना.४ वर्ग। डीर-देशी-कन्दले, दे० ना०४ वर्ग ।
मोव-पुं० । देशी-दाम, नं०। डुंग-मुङ्ग-न० । शिलावृन्दे, जं० २ वक।
मोहल-दोहद-पुं०। न० । “दशनदष्ट-"॥ ७।१।२१७॥ मुंगर-मगर-पुं० । शिलोचयमात्ररूपे पर्वते, म.१०२ उन
इत्यादिना दस्य डा। 'डोहलो, दोहदो'। प्रा०१ पाद । मनोरथे, नि० नू । प्रा० चू । “ जिम मुंगर तिम कुट्टरपं"। प्रा०४ झा.१०१०आव०नि००। गर्भिणीतदपत्ययोहद पाद शैले, दे० ना०४ वर्ग।
द्वयमत्र गर्ने दोहमाकर्ष ददातीति दा-कः । गर्जिएयभिलाषे, इंघ-०। देशी-नारिकेरमये उदञ्चनविशेषे, दे० ना.४ वर्ग|| लालसायां च । चिहे, गर्नलकणे च ।नावाचा
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इति श्रीमत्सौधर्मबृहत्तपागच्छीय-कलिकालसर्वज्ञकरूपश्रीमन्महारक-जैन श्वेताम्बराचार्यश्रीश्री १००० श्रीविजयराजेन्द्रसूरिविरचिते 'अनिधानराजेन्डे
मकाराऽऽदिशब्दसकलनं समाप्तम् ।
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ढ
ढकार
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Jain Educatioता । उत्त० २ ० ।
(२०१६) अभिभानराजेन्द्रः ।
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ढक्कर', 'छार' "पर पर वज्जर ढक ढकय-न० देशी-तिलके, दे० ना० ४ वर्ग ।
टंदण लाभपरीसह शब्दे प्रथमनाये ७७२ पृष्ठे कथा
6
ढ-द-पुं० | ढकारो व्यञ्जनवर्णभेदो मूर्खस्थानीयः स्पर्शसंज्ञः ढक्कायाम, निर्गुणे, लास्ये, एका० । शुनि, तल्लागुले, ध्वनी च । वाच० । गोमुखे न० । एका• ॥
।
"
ढंक ढङ्क - पुं० । काकपक्तिविशेषे, जं० २ वश० । सूत्र० । उस० प्रज्ञा॰। आ० ম०। म० चू० । स्था० । म० । श्रावस्त्यां तिन्छुकोद्याने पानि साधूनां स सानां दन कुम्भकारभावकेण जमालि मुवा प्रतिबोधितानीति । आ० क० । आ० म० । विशे० । बायसे, दे० ना० ४ वर्ग । डंका - डडून पुं० चतुरिन्द्रियजीव प्रा० १ पह जी० ढंकग ढङ्कनक- पुं०। विधाने, अनु० । श्राचा० । टंकण ढङ्कनकपुं० शब्दायें अनु डंकणी स्त्री० [देसी-पिधानिकायम दे० ना० ४ वर्ग ढंकत्रत्युल्ल - ढङ्कन्यास्तुल- पुं० । शाकविशेषे, घ० २ अधि० प्रव० कुण - पुं० | देशी मत्कुणे, दे० ना० ४ वर्ग । खरी स्त्री० । देशी वीणानेदे, दे० ना० ४ वर्ग ।
"
- एन०मितीर्थंकरा भरतेश्वर वृतो । ढणी - स्त्री० । देशी-कपिकच्छूरूपेऽर्थे, दे० ना० ४ वर्ग इंदरी-पुं० [देशी प्रामतरी मे दे० ना० ४ वर्ग नंदन - जम-धा० । चलने, पर० अक० सेद् । बाच० । " भ्रमेष्टिरिटिल० " ||८|४|१६१ ॥ इत्यादिना ढण्टाऽऽदेशः । ' ढंढलर ' 'भमइ' । प्रा० ४ पाद । भ्रमति, अभ्रमीत् । फणा० । भ्रमतुः बभ्रमतुः । नहि न ह्रस्वः । ज्वला० । भ्रमः, नामः । वाच• । इंदसि पुं० [देशी प्रामा
-
इंडोल गरेपचा० अन्वेषणे अदा-चुरा० आत्म० सेट् । "गवेषे दुल्ल ढंढोलग मेसघत्ताः" |||४|१८६॥ डंदोलश ।' 'गवेसर।' प्रा० ४ पाद । गवेषयते, अजगवेषत् । दात्र० । हंस-विधा "विस "IDINI २८ बितृस इत्यादे टैंकी श्री देशी बलाकायाय ००४ वर्ग शो वा भवति 'सई' 'विवह । प्र०४ पाद विवर्त्तते पाच० देशियालग देणिकालक-पुं० [पचिविशेषे, प्र०१ द्वार । । श्रश्र । ईसय न० । देशी-अयशसि दे० ना० ४ वर्ग । प्रणु० वर्ग अ० । ढक-छदि-पा०प्रद्-थिन् । आवरणे, "उने मनूमसंगको देखी देशी पतिविशेषे ३१ । § स्वानपात्रालाः” || ८|४ | २१ ॥ इति ढेल- पुं० । देशी-निर्धने, दे० ना० ४ वर्ग ।
पर्यन्तस्य ढक्काऽऽदेशः ।
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ढक्करि - अद्भुत - न० । " शीघ्राऽऽदीनां बहिल्लाऽऽदयः ||४||४२२ ॥ इत्यनेन अद्भुतस्य ढक्करिः । श्राकाश्म के उल्कापातादी दियमा पतिमा सवार फुट्टि पिऍपसंति हउं, भंमय ढक्करि सार ॥ १ ॥ प्रा०४ पाद | ढक्का ढक्का - खी । ढक्क इति कायति । कै-कः । भम्भायाम, जी० ३ प्रति । स्था० । भेर्याम् श्रा० म० १ ० १ खत्म । यशःपटहे, स्वनामख्याते वाचभेदे च । वाच० ।
ढकिय- ढकित - त्रि० । स्थगितद्वारे, ६५० ६ ३० । समारराजते,
व्य० ४ ० । अनु० ।
ढक्केपव्यक्ति त्रिपिधानी, दश० २ ० ।
इति श्रीमत्सौधर्म बृहत्तपागच्छीय — कलिकाल सर्वकरूपश्रीमहारक- जैन श्वेताम्बराचार्य श्री श्री १००८ श्रीविजयराजेन्द्रसूरिविरचिते 'अ निधानराजेन्द्रे' ढकाराऽऽदिशब्दसकलनं समाप्तम् ।
टेल
। प्रा० ४ पाद ।
द-पुं० [देशी मेषाम् देा
वर्ग १०। एकत्रिंशे दर-दर को बन्दनको उच्चसरेणं बंदर, दर एवं तु दोष बोध" उच्चस्वरेन महता शब्देन ब इनकमुच्चारयन् पन्द्रमिति । बृ० ३ उ० | पं० व० अ० ० | प्रब० आ० क० ॥ घ० ।
टिंकण - ढिङ्कन पुं० । चतुरिन्द्रियजीबभेदे, उच० ३६ म० । डिंकु-दिन-२
|
दिंग - ढिङ्ग - पुं० जीवविशेषे, प्रश्न. १ चाश्र० द्वार । ठिक गर्न पा० जनुकस्यादिपर-सक-सेट। वाच० । 'वृषेर्दिकः' ।। ८ । ४ । ६६ ।। वृषकर्तृकस्य गर्जेर्डिकाssदेशः । 'ढिक्क३', वृपो गर्जतीत्यर्थः । प्रा० ४ पाद | कुंदुण - दुदु - न० । नर्थ ती०४ कल्प।
इंदु - गवेष-धा० । श्रन्वेषणे, मदा० चुरा० आत्म० सेट् "" इत्यादिना डुल, "आदेशः। 'इंदुल्लर, गवेसह ।' प्रा० ४ पाद । "ि भ्रम-धा• चलने, पर०- सक० सेट् । वाच० । रिटिल्ल • [" | |४| १६१ ॥ इत्यादिना बुंदुल्लाऽऽदेशः । 'बुंदु
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स्व' । ' भमर' । प्रा० ४ पाद ।
किय - गर्जित-न० । वृषशब्दे, प्रब० ४ प्र० ।
"
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(१७३७) अन्निधानराजेन्डः।
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नकारप्रतिषेधः। यत्र च क्वापि नकारस्योपयोगो भवति तत्रा. मीषां द्वादशानां भेदानामन्यतमः प्रतिषेधः प्रतिपत्तव्य इति ।
भय संयोगाऽऽदिषु यथाक्रमं प्रतिषेधमुदाहरतिनत्थियरे जिणदत्तो, पुन्बपमिछाण तसि दोएडं पि। संजोगो पमिसिज्मइन सव्वसो तेसिँ अस्थित् ॥३३॥ समबाए खरसिंग, सामन्ने नत्थि एरिसो चंदो।
नस्थि मयप्पमाणा, विसेसओ होंति मुत्ताओ ।।२।। HESARI
'नास्ति गृहे जिनदसश्त्यत्र प्रयोगे पूर्वप्रसिद्धयोस्तयोगृहजिनदत्तयोयोरपि संयोगः संबन्धमात्र प्रतिषिध्यते, न पुनः सर्वथैव तयोरस्तित्वमिति संयोगप्रतिषेधः। समवायप्रतिषेधेतु
खरगुङ्गमुदाहरणं, स्वरोऽप्यस्ति, कमप्यस्ति,परं खरशिरसि ण--Kor'इति टबर्गस्य पञ्चमोवों मूर्धन्यः। संस्कृते णेत्ये.
क्ष्णं नास्तीति समवायः, 'एकत्र संश्लेषः भयोरपि' प्रतिकाक्षरभित्रा णकाराऽऽदयः शम्दान सन्ति । ये चोपदेशे 'णम' विध्यते इति समवायप्रतिषेधःः । सामान्यप्रतिषेधो यथा-नाप्रहावे, शब्दे च, इत्यादयो धातवः पठ्यन्ते, तेषामपि "णो नः" , स्स्यस्मिन् स्थानेऽन्य हिशश्चमा इति । विशेषमश्रित्य ॥६।१।६५ ॥ (पाणि) इति नत्वेन नमतीत्यादीनि नकारा. पुनरयं प्रतिषेधान्न सन्ति घटप्रमाणामुक्ताः मुक्ताफलानीस्योः ।
दीन्येव रूपाणि भवन्ति । प्राकृते तु नकाराऽऽदयोऽपि नद्यादयः सन्ति मुक्ताफनानि, परं न घटप्रमाणानीति घटप्रमाणत्वलक्षण. शम्दाः "नो णः" ॥१॥२२७ ॥ इति णत्वे कृते णकारादि- स्य विशेषस्य प्रतिषिध्यमानत्वाद्विशेषप्रतिषेधो भावितः । तां वजन्तीति, अस्माभिनिवेशिष्यमाशा णाऽऽदयः शब्दा भावितः संयोगाऽऽदिचतुष्टयप्रतिषेधः।। नादयोऽपि शुका पवेत्यज्यूह्यम् । णख ' गती मः ।
सम्प्रति कालत्रयविषयं तमेव भावयतिपृषो०-णत्वम् । विन्देवे, भूषणे, गुणवर्जिते, जलस्थाने,
नेवासी न विस्सणेव घडो अस्थि इति तिहा कालो। निर्णये, काने च । वाच । निर्गुणे, जये, योग्य, दुष्टे, कोडे, तस्करे, पशुपुच्छे च । एका।
पहिसेहेइ नकारो, सज्जं तु अकारनोकारा ॥२५॥ " णो निर्गुणे जये योग्ये, पुष्टे कोमे च तस्करे।
नैवाऽऽसीन भविष्यति, नैवास्ति घट इति यथाक्रममपशुपुच्छे श्रियां णा स्त्री, वृहन्माने च णः पुमान् ॥ ५८॥
तोतानागतवर्तमाननेदादू विधा कासविषयं वस्तु नकारः प्रति. संप्रत्यये तथा स्वार्थे, णः कोणे चैकचकुषि ।
षेधयति । भकारनोकारी तु सद्यो वर्तमानकालमेघ प्रायः प्रकीरे रणे धने ध्याने, णी: पुमान् णीर्णियौ णियः॥५६॥
तिषेधयतः। यथा-अकरोषि स्वंनो कल्पते तानप्रलम्ब प्रतिगृसमें स्वरेचये चारे, चरणे णिश्चोनयात्मकः।"
होतुमित्यादि । नाकारस्य द्विविधकालप्रतिषेधकत्वं पूर्वमुक्तमेइति विश्वदेवशम्नुमुनिः । एका।
चेति न पुनरुच्यते । पृ०१ उ०। नि००। सूत्र। उपमायां
बन्धे, प्रस्तुते च । वाच० । नराऽऽदिषु, पका० । "त्रिलियां निर्गुणे गूढे, सौम्ये सव्यापसव्ययोः।
"नो नरे च सनाथेऽपि, नो नाथेऽपि प्रदर्यते । खशम्दः ककटे रागे, भेरावग्नौ ध्वजे पुमार ॥ ३६॥
नृशब्दोऽपि नरे नाथे, ना नरौ नर इत्यपि ॥ ७६ ॥ णा तु स्त्री रजनीशय्या-धेनुनासाकृपास्वपि ।
ननौ इति निपाती द्वौ, नू दऽपि तथोदितः। सं सरोजजले ज्ञाने, गमने चरणे रणे ॥४॥
पृच्चायां नु वितर्केऽपि, निर्निशब्दो तथाऽव्ययम् ॥ ७७॥ शन्दस्त्रिषु लिङ्गेषु,भवेद् णस्तुषवस्तुनि"॥ इतिमाधवः। एका०।
नीवन्तो लक्ष्मीवाच्यः स्या-श्रीनेतरि नियों नियः। न-अन्या 'नह' बन्धने कः। प्रतिषेधे, नि.चू०१3०। न.
नु स्तुती दीर्घडस्वे स्त्री, नेनौश्व तरणी स्त्रियाम 196॥ शम्दवनशब्दोऽप्यस्ति अत एव न एक नैकं,नायं नझ, किन्तु न
नूशब्दः पातके पुंसि, वायौ कीये नुवारिणि ।
नं ब्रह्मणि तथाइनन्ते, सानन्देनं च नन्दने ॥" इति; अन्यथा न लोप: स्यादिति । मा० म०११०२सएम। नि. चू। तत्र क्रियायोगे अभावे, तभिन्नयोगे तु भेदे,
इति विश्वदेवशम्भुमुनिः। एका। "नकारी संजोगमाश्सु पमिसेहे।" नकारः पुनःसंयोगाऽऽदिषु
"नकारस्तु स्त्रियां नाभी, नं नाट्यज्ञानयोर्भवेत् । संयोगसमवायसामान्यविशेषचतुष्टये प्रतिषेध करोति ।
नशब्दखिषु लिङ्गेषु, पठ्यते भिन्नस्दमयोः ॥ ५३॥ पत्रोदाहरणम
प्रस्तुते वा परिश्लिष्टे, शुझे निणेतरि स्मृतः।
नुः स्त्रियां नु स्तुती नावि, नौस्तथैव निरूप्यते । प्रय संयोगाऽऽदिविषयं नकारप्रतिषेधं नावयति
नुनशब्दस्खिलिङ्गः स्या-मिष्टयुक्तार्थवाचकः। संजोगे समवाए, सामन्ने खर तहा विसेसे अ।
अव्ययं प्रतिषेधेऽनकारः स्थिरनिश्चये ॥५५॥ कालतिए पमिसेहो, जत्थुवोगो नकारस्स ॥श्शा
नानाप्रकारे नेदं स्वात, भावे नववधारणे ।" इति माधवः । संयोगे, समवाये, सामान्ये, विशेषे चेति चतुर्का प्रतिषेधो। एका। नकारस्य भवति । स च प्रत्येकमसीतानागतवर्तमानलकणका-३ नम्-अन्य
नव-अन्य० । सर्वनिपेधे, पयुदासे, नं।स्थाकुत्साथै, य. मात्रिकविषयत्वादेकका त्रिविध इति सबैसंख्यया द्वादशषिधो। थाकुत्सितोब्राह्मणोऽब्राझगाधि०१मभिलाकुत्सितं शीख
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( १७३८ ) अभिधानराजेन्रूः ।
मशीनमिति । अनु० दुःशब्दार्थे, यथा मशीला, दुःशीला त्यर्थः । स्पा० ३ वा० ३ उ० । अल्पार्थे, यथाऽयं पुमानइः, स्वल्पज्ञान इत्यर्थः । श्राचा० १ ० ६ ० ६ ० ।
-
इ-इ- अव्य० । अवधारणे, "णश् चेम चित्र व श्रवधारणे" |८|२|१८४॥ इत्यवधारणे णइ इति प्रयोगः । '६' प्रा०२ पाद । नति खी०। नमन प० । खग्गाम-नदीग्राम पुं० "समासे वा ॥ २७॥ इति समासे द्वित्वं वा, द्वित्वे ह्रस्वः । नदीतटस्थे ग्रामे, प्रा०२ पाद । सोच नदीस्रोतम् १०दीर्घस्यो मियो वृती" ॥८१॥ ४ ॥ इति दीर्घेकारस्य वा ह्रस्वः । नद्याः प्रवाहे, प्रा० १ पाद । इसंसार - नदीसन्तार पुं० ईसतार सदायें जीत ई - नदी - स्त्री० । सरिति, सूत्र० २ ० १ ० ५ उ० | नृत० | [झा० । सलिलायाम् भ० ९० २ उ० । प्रश्न० । गङ्गा नहीं पारके रथपथमाया भविष्यति नावेध्यति, तदाऽन्यातुईशसहस्रमिता नद्यः कयास्यन्तीति प्र श्रे ?, उत्तरम् - गङ्गा यथोक्तप्रमाणा भविष्यति, अभ्यास्तु चतुर्दशसहस्रमिता नयः पृथिन्या भूवस्तरतापवत्वेन शोषं यास्यन्तीति जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिवृत्ताविति । ६७ प्र० सेन० १ ० । तथा जम्मूमध्ये पञ्चाशत्सहस्रान्त स्तदा महाविदेदमध्यविजयविभेदविषः पद गया। प्रतिवेतनध्योमन्ना निमन्नाभिचाना गया संख्यामध्ये कथं नामता तसे उत्तर-पुत्रव प्रमाणं जम्बूद्वीपसंप्रकारे तु साधिक सशशलकृमिता नो जम्बूद्वीपमध्ये संकलिताः सन्तीति ६० प्र०व०
प्र० १ उल्ला० ।
(सलिला महानयोस्तरनयथ "जंबूदीव" शब्दे चतुर्थमाये १३७५ पृष्ठे उक्ताः ) ( गङ्गा सिन्धवो कव्यता स्वस्वस्थाने ) राई कच्छ नदीकच्छ-० नदी गहने, ०१०१० ईगाम - नदीग्राम - इम्गाम' शब्दार्थे, प्रा० २ पाद । कईन नदीजलन सामान्यनदीजले गङ्गानदीज यथा लवणान्धौ विश्राम्यति तथा मानुषोत्तर पर्वत संमुखविनि
नदीजलमपि कुत्र विभ्राम्यतीति प्रश्ने, उत्तरम् मानुषो राभिमुखनितनदीजलं पुष्करवर ममुझे विधायतीति स्था नाऽऽदावस्तीति । २६४ प्र० । सेन० प्र० ३ उल्ला० । पाईपमुह - नदीप्रमुख - त्रि । नदीहदाऽऽदिके, प्र० ८२ द्वार । ईमासय १० देखी ०४ वर्ग ाई संवार नदीसम्तार - पुं० नघुसरणे, नदीसन्तार-कादनोदकः, संघट्टस्तदू नाभिद्वय सोदकः, लेपस्तदूर्ध्वजो पोपरि बाश्यामुमुच चतुर्थः सतु प्रायः
1
जनोसर प्रकारा:
जंघातारिम कत्थइ, कत्थइ बाहादि अप्प ण तरेज्जा । कुंने दतिए तुंबे, णावा उडुत्रे य पछी य ।। १५१ ॥ समासतो जनसंतरणं दुविहं- थाई, अथाहं च । जं थाई
संतार
। एवं तिविद्धं पि
) कविदिषु ) कविप्रादिषु
तं तिषिद्धं संघट्टो, सबो लेयोपरियं च यातारिमाण महिये (कथा दशं भवतीत्यर्थः । वितियं (कल्चर अत्थाहं नवतीत्यर्थः । एत्थ य बाहाहिं श्रपणा णोतरेखा, हस्ताऽऽदिप्रक्षेपे बहूदकोपघातत्वात् । जलनाविप इमेहिं संतरणं काय- कुंण, तदजावा दत्तिएण तदभावा तुंबण, तदभावा उडुपेण तदद्भावा पक्षीय, तदद्भावा जावाए । बंध5लामा म सवागणं कसं
एतो एगतरेणं, तरियन्त्रं कारणम्मि जातम्मि | एतेसि विवचासे, चातुम्मासा भवे लहुया ॥ १०२ ॥ गाड़ा कंठा (विपवासे च सति कुंभस्स दक्षिणा सरति तो चल एवं एकेफस्स विवचासे चललयं दब्वं । सम्बते कुंभाती श्माए जयणार घेराव्या । खवं पुण महिकिस प्रतिवाणवे बिनासा तु भाविताऽजाविते त्तिय । दगाभावए चैष, उच्चाऽशोक्ष यमग्गणा ॥ १७३ ॥
सा जावा महाकमेण य जाति, संजयट्ठा वा महाकडाए गंतव्वं । श्रसति महाकमाए संजयद्वाप वि जा जाति, ताप वि गंतव्यं । सा विहा - ( णवाणने विनास ति) एमा पुराणा वा । णबाए गंतव्यं, न पुराणाए, सप्रत्यपायत्वात् । या विवियानादिति उद्गभाविता, भाषि ताय । जा उदगे बूढपुग्धा सा उद्गनाविया । इतरा अ भाविया । जावियाए गंतव्यं, ण इतराए। मा उदगशस्त्रं नविध्यतीति कृत्वा सदभाविया विदा-(पोि ममाणा बना तिता, अणोल्ला सुद्धा बल्लाप गंतव्वं, ण इयरीए. दगाकर्षणयात् । ( मग्गणे ति ) एषा एव मार्गणा, यानिहिता, परिसणावार पुण गच्छति । नि० ० १ ० । ( चत्वारो नौसंतरणप्रकाराः ' णावा' शब्दे वयन्ते ) महार्णवसूत्रम्
-
नो कप्पर निधाण वा निग्गंधीण वा इमाओ पंच महावाच महानदीओ उद्दिद्वाश्रो गणियाओ वंजियाभो
तोमासस्स दुक्खुतो वा तिक्खुत्तो वा उत्तरितए वा संतरिचए था जहा गंगा, जहणा, सरळ, कोलिया, मही । नोकन्तेन सूत्रे एकवचननिर्देश प्रा ग्रन्थानाम, इमाः प्रत्यासन्नाः पञ्च महार्णवा बहुदकतया महासमुद्रगामिन्यो महानद्यो गुरुनिमा उद्दिष्टशः सामान्येनाभिहि ताः, यथा महानद्य इति । गणिता यथा पञ्चेति । व्यञ्जिता व्यक्तीकृता यथा गङ्गेत्यादि । अन्तर्मध्ये मासस्य द्विःकृत्वो यातुं बाहुदिना, संतरी नावादिना । तद्यथा - गङ्गा १ यमुना २ सरयू ३ कौशिक) ४ मद्दी ५ । एष सूत्रार्थः ।
अथ भाष्यकारः कानिचिद्विपमपदानि विवृणोतिइमाओं चि सुतउत्ता, उद्दिट्ठ नदीउ गरिणय पंचेव । गंगादि मंजिताओ, बहुउद्गा महावाओ तु 1७१४॥ (इमा इति प्रत्यचाचिना सर्वनाम्ना सूका उच्यन्ते । बदिष्टा नद्य इति । गणिताः पश्चेति । व्यञ्जिता गङ्गाऽऽदिपदै
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(१७३८) अभिधानराजेन्द्रः ।
बसंतार
कीकृताः, :, यास्तु बहूदकास्ता महार्णवा उच्यन्ते । कृता बिष मपदम्याक्या प्राष्यकृता ।
अथ निर्गुतिविस्तरः
पंच होणं, सेसा वि तु सुश्या महासलिला । तस्य पुरा बिरिंसु ण य ताम्रो कमाइ सुक्संति ॥७१५ ।। पानशेषापि या महासलिला बहु[का] विच्छेदवादिभ्यस्ताः सूचिता मन्तव्याः स्या किमर्थं गङ्गादीनां ग्रहणमा इत्यादि) येषु ग महानद्यो पन्ति तेषु पुरा भयो विष म च ताः काचिदपि शुध्यन्ति, अतस्तासां ग्रहणम् । पंच पऊ णावासंतारिमं तु में जस्य । उतरण विलगा, तस्य वि आणाऽऽदिनो दोसा । ७१६ । पञ्चापि महानदी प्रकल्प या यादी विषये तो तथा स्वा प्रस्तुतमभिचारमं सत्र यः पटुकायबिच प्रामोति तनिष्पत्रं प्रायधिसं यत्रापि जङ्घाऽऽदिनोत्सरणं भवति, तत्रापि चतुर्लघुकाः । अपिशब्दातरपि चतुर्लघुतारने बाहादयो दोषा किं पुनः संतरणे ?, इत्यपिशब्दार्थः । पृ० ४ ० । स्था० । ग० । नि० वृ० ।
सन्तरणे दोषाः । तत्र संतरणे तावदोषानादप्रणुकंपा परिणीया, व होज्ज बहवो य पच्चवायाओ । एतेसिं था, बोच्छामि महापुम्बी ।।७१७।। अनुकम्पादोषाः प्रत्यनीकोषा बढदो वा प्रत्ययाचा नायमा रूढानां भवन्ति । एतेषां च नानात्वं विभागं यथाऽऽनुपूर्व्या बहयामि
तदेवाऽ
भणं जले थलातो, एणे बोचारिता बुभति साहू । उपस्थिता दई पानं आणावी ॥७१०|| साधुं तरणार्थिनं हात्या नोवाणिजो नाविको वा अनुकम्पया नास्थलले प्रपेत् । वे वा पूर्वे नावमारोपिताः, वादके सटे पायतार्थ साधून प्रक्षिपेत् नाथमारोपयेदित्यर्थः । संप्रस्थिता वा नावं साधव उत्तरिष्यन्तीति कृत्वा स्थापयेत् । सापून वापरतानावमानयेत् ।
अत्र चामी दोषा:जापिसांघुदोसा पित्तणत्यंतगा व हरियाऽऽदी । जं तेजसावरहि व, पवहण एणाएँ किष्णणं वा ॥७१८५७ ।। ये बेमिकाया अवतारिता ते नाषिकस्य वा साधून पा प्रद्वेषं मध्छेयुः यद्वा-ते नियमानास्तथैव ततोराराधनामन्यद्वाऽधिकरणं यत् कुर्वन्ति यज्ञास्तेनश्वापदेज्य उपरूवं प्राप्नुवन्ति, अवहन्तीं वा नावं यत्प्रवाहविष्यन्ति, अन्यस्या नावः क्रयणं करिष्यन्ति ते, तनिष्प
म ।
परकुलाचाधानयने तमादमागतो मुमो यावं दल अप्पा थेति ।
कहिया विरुवा, तवि बडगामा ॥१२०॥
पाईसंतार
मनगनः स्नानं कुर्वन्, मुरुडो राजा साधू हा नावमात्मना नयति ततो नावारूढः साधुः कथिकाः कथयितुं लग्नः यावन्तश्च तत्र वल के पास्तावन्ति चतुर्लघूनि, पश्चाच्च साधूनां मार्गणासंयमविराधना १, आत्मविराधना २, उभवविराधना था। यह वा उदकमवतरतः, नावारूढस्य, नाव उत्तरति । तेषांत्रयाणामेकतरस्मिन् बहवः प्रत्यपाया जवन्ति । ठकं संतंरणम् । उधर संघ 55दिदोषाः प्रथचरणमाहउचरण:म्म पढविते, उचरमाणस्म पठत होंति । आणाऽऽदियो व दोना, विराहया संगमाता ॥७२ उतरणं नाम बिनानि प्रकारे रुतीर्यते, तस्मिन्नुतरणे प्ररूपितें सतीदमधियतें, यदि जदिनाऽप्युत्तरति तदा चतुर्दषु भाषाऽऽदयश्च दोषाः, संयमाविराधना भवति ।
I
तस्य चोत्तरणस्यैते भेदाः
धन्दा संघट्टो, संघदुरं तु सेव ना णामी । सेणा परं क्षेत्रोवर, बाऽऽदी नामले ||१३०| यस्मिन् कूले उतरतां पादतलादारज्य जङ्घाया अनुमति स संघट्ट, तस्यैव संघट्टस्योपरि यावन्नाजिरेव तावद्यत् प्रवि शतिस सेवा ततः परं नारोप
भएयते। तथ द्विधा स्ताघमस्ताघं च । यत्र नासिका नरि तत् स्वायं यत्र तु नासिका मुद्दति तदस्ताय तुम्यो आदिवासामाय
सोत्तर पते संयमात्मविराधनादोषाःसंघट्टणाय सिंचण, उनगरणे पण संजये दोमा । चिक्खिखाणुकंटग, सावतजयवाहणे आया ॥ ७३१ ॥ लोकेन साधोः संघट्टनं जवेत, साधुर्वा जनं सङ्घट्टयेत, सङ्घट्टनग्रहणात् परितापनमपद्रावणं च सूचितम् । पतेषु काय निष्पन्तं प्रायश्चित प्रत्यनीकः साधु वा सिवासा घुरात्मानं सिसाधकपकरणस्य जसे पनपते प दोषाः तथा चिखिममध्ये वाचविता स्थामा कटकेन वा य मकरादिश्वापदजयं या भवति, नदीबांहेन वा वाहनम् । एषा सर्वाऽप्यात्मविराधना । देरावतीकुणालायां सूत्रम्
पुण एवं जाणिलाएर कुणाला जत्य चकिया एग पायं जज्ञे किवा एगं पायं यने किया, एव एवं कप्पड़ अंतोमासस्स दुक्तो वा विक्खुतो वा उत्तरित्त वा सं तरिचर वा नो चकिया एवं एवं नो कप्पर तोमासस्स क्खुतो वा विक्खुतो वा उचरिचर वा संतरित वा ।
पुनरेवं जानीयात्रायती नाम नदी कुन गर्योः समीपे जङ्घार्द्ध प्रमाणेनोद्वेधेन बद्धति, तस्यामन्यस्यां वा यत्रैब ( चकिया ) शक्नुयात्, उसरीतुमिति शेषः । कथमिति, आह-एकं पादं जले कृत्या, एकं पादं स्थले आकाशे कृत्यायमिति वाक्यालङ्कारेयचे सरीतुं शक्नुवाद, तत्र कल्पते अन्तर्मासस्य द्विः कृत्वो वा त्रिः कृत्वो वा उसरीतुं तुम संवतुं भूयः प्रत्यागन्तुं यत्र पुनरेवमुततुं मो करपते बना
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सवितुं संतरीतुं भूयः प्रत्यागन्तुम पत्र पुनरेवमुखतं न श
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ईसंतार अभिधानराजेन्द्रः।
गईसंतार पनुयात, तत्र नो कल्पते अन्तर्मासस्य द्विकरयो वा त्रिखरखो अत पवाद-पडिवक्सेसु य गमणंति)अनेकाकिचनपरि. था उत्तरीतुं वा संतरीतुं था। इति सूत्रार्थः ।
शाटिनिरालम्बसमयाऽऽक्यानां पञ्चानां पदानां,ये एकालिकाssभय नाध्यकृद्विषमपदानि ब्याचष्टे
दयः प्रतिपक्काः, तेषु गमनं कर्तव्यम् । अत्र पञ्चभिः पदेद्वात्रिंश
द्रकाः। एकालिका,स्थिरोऽपरिशाटी,सालम्बो,निर्भय इत्यादि । एरवइ जएि चकिय, जलयन्नकरणे इमं तु णाणतं ।
पषु प्रथमो मतः शुरूः, शेषा अशुद्धाः। तेष्वपि बहुगुणतरषु गएगो जलम्मि एगो, थलम्मि हई थलागासं ॥७३॥ मनं,यतना च कर्सव्या ।सएमेवका अपि संक्रमजेदा एव । नद्याऐरावती नाम यत्र. नदी,तस्यां जन्मस्थमयोः पादकरणेमोत्तरीतुं नका,इतरेबा अनुधानकाः सएमेघका नवेयुः। अत आह-तत्रैव शक्यम् । इदमेव चात्र नानारवं,यत्सर्वसूत्रोक्तासु महानदीसुमा- जातास्तवाताः, शिलाऽऽदयः । अन्यतः स्थानादानीय स्थापिता सान्ती श्रीन वारान् न कल्पते। यच्चाको जले,एकच पादः
प्रतजाताः, महासकाऽऽदयः । तेष्वपि चलाचलाऽऽकान्तानास्थले इत्युक्तं, तदिह स्थलमाकाशमुच्यते।
क्रान्ताऽऽदयो जेदाः कर्तव्याः । उक्तः संक्रमः। एरव कुणालाए, वित्थिना अच्छजोपणं वहति।।
अथ स्थझमाहकप्पति तत्य अपुले, गंतुं जा एरिसीएणा ॥७३शा
नदिकोप्परवरणेण व, थलमुदयं णोथलं तु तं चउहा।। पेरावती नदी कुणालानगर्या अरे अर्खयोजनविस्तीर्णा वह
नवलजलवायुगजलं, सुदमहीपंकमुदगं च ।। ७३७॥ ति।सा चोदवेधेन च जवर्द्धप्रमाणा,तत्र ऋतुबके काले मास
नद्या आकुष्टितकूपराऽऽकारजलेन नदीपरमुच्यते । ज. कल्पे अपूर्ण,त्रिकृत्वो भिक्षाग्रहणमेपाऽऽनयनाऽऽदी कार्ये यत
सोपरि कपाटानि मुक्त्वा पानिबन्धः क्रियते, स वरण उच्यते। नया गन्तुं कल्पते, या चेदशी अन्याऽपि नदी, तस्यामपि त्रि:
एताभ्यां यदुदकं परिहत्य गम्यते,तत् स्थलं अष्टव्यम् । अथ नोकृत्वो गन्तुं कल्पते । कता विषमपदव्याख्या भाग्यकृता ।
स्थलं,तचतुर्विधम् । उपलजबम्-अधः पाषाणाः,उपरि जसम। सम्प्रति नियुक्तिविस्तर:
चामुकाजलम-अधो वासुकाः,उपरि पानीयं च । शुद्धोदकम-अधः
शुकामही,उपरि जलम । पङ्कोदकम-अधः कर्दम उपरि जलम। संकमथले य णो-थल पासाणजले य वायुगजले य ।
पङ्कोदकस्य चामूनि विधानानिमुद्धदगें पंकमीसे, परित्तऽयंते तसा चेव ॥७३॥
बत्तगपहे य खल्लुए, तहऽजंघाएँ जाणवरिं च । नदीमुत्तरतस्तु ये पन्थानः। तद्यथा-संक्रमस्थलं, नो स्वच'
लेवो य क्षेवउवरिं, अकंतादी उ संजोगा ॥७३॥ तत्र यदेकानिकाऽऽदिना संक्रमेण गम्यते, तत् संक्रमस्थलं, नद्यां कूपरेण वरणेन वा यद् नदीजलं परिहत्य गम्यते ।नोस्थलं
यावमात्रमलतेनेव पादो रज्यते, तावन्मात्रो यत्र पथि चतुर्विधम्-पाषाणजलं, वालुकाजलं.शुकोदकं,पकमिधजलम् ।
कर्दमः ससक्तकपथः। खलुकमात्रः पादघुपटकप्रमाणः, अर्धपतेषु चतुर्वपि गच्चतां यथासंभवं परीत्तानन्तकायावसाच
जनामात्रो जस्ता यावद् प्रवति, जानूपरि जानुमानं या
बद्भवति, मेपो माभिप्रमाणः, तत कर्द्ध सर्वोऽपि सेपोपरि । विराधनां प्राप्नुवन्ति ।
पते सर्वेऽपि कर्दमप्रकाराश्चतुर्विधे नोस्थले कर्दमे च, भातथा
कान्तानाक्रान्तसभयनिर्नयाऽऽदयः संयोगा यथासंनवंबउदए चिक्खिापरि-सणंतकागतसे यमीसे य ।
कन्या : अकंतमणकते, संजोए होति अप्परहुं ॥७३॥
सदोषः पन्थाः। भमुना दोषेण युक्तः पन्थाः परिहतंव्य:उनके चिक्सिद्वाऽऽदिकः पृथिवीकायो, वनस्पतयश्च परीत्तका.
जो वि पहो अर्कतो, हरियादितसेहि चेव परिहीणो। यिकाः,अनन्तकायिका घा,प्रसाश्च द्वीन्द्रियाऽऽदयो भवेयुः। एते तेण वि तु ण गंतव्वं, जत्थ अवाया इमे होति ॥७३॥ च सर्वेऽपि यथासंभवं मिधाः सचित्ता अचित्ता वा, भाकान्ता
योऽपि च पन्या आक्रान्तो दरमलितो, हरिताऽऽदिभिस्नसैच अनाकान्ता वा,स्विरा अस्थिरा बा,सप्रत्यपाया निष्पत्यपाया था
परिहाणो भवति, ततोऽपि न गन्तव्यम, यत्रामी अपाया मवेयुः। एतेषु बहवः संयोगा उपयुज्य वक्तव्याः। तेषु यत्राल्पर
प्रवन्ति । हुखं भवति,अल्पतरसंयमाऽऽत्मविराधनादोषाः, बहवश्व गुणा
गिरिनदि पुछा बाला-हिकंटगा दूरपारमावत्ता । मयन्तीत्यर्थः । तत्र कारणे समुत्पने गन्तव्यम्।
चिक्खिवकल्लुगाणि य,गारा सेवाल उवला य ।।७४०॥ यत्र च संक्रमो नवति, तत्रामी भाविकम्पा भवेयुःपगंगिचन्नत्थिरपारि-साडिसालंबज्जिए सजए ।
यत्र पथि गिरिनदी पूर्णा तीव्रवेगा वहति । मकराऽऽदयो
व्यासा अहयो वा यत्र जलमध्ये भवन्ति, कण्टका वाssपटियक्खसु तु गमणं, तज्जातितरे य संटेवा ।।७३६॥ रेणाअमीताः,दूरपारम,प्रावतबहुलं वा जवंजवेत । चिक्सिल्लो संक्रमः एकातिको वा स्याद,अनेकानिको बा। एकातिको य बा नदीषु तद्देशो-यत्र पादौ निमज्जति, कल्लुकाः, गाथायां न. एकेन फत्रकाऽऽदिना कृतः । अनेकानिको योऽनेकफनकाऽऽदि
पुंसकरवं प्राकृतस्यात् । पाषाणेषु द्वीन्छियजातिविशेषा भव. निर्मितः। अत्रैकालिकन गन्तब्यम्न अनेकालिकेन । एवं स्थिरेण,
ति, ते पादौ छेदयन्ति । गाराः पाषाणङ्गिकाः, सेवामच चलेन । अपरिशाटिना, नो परिझाटिना । साम्बेन
लः प्रसिका, चपलाः निन्नपाषाणाः। एभिरपायजितेन पूर्व गन्तव्यं, न वजितेन; निरालम्बनेत्यर्थः । सालम्बोऽपि विधा
सजेन गन्तव्यम् , तदभावे संक्रमेण, तदभावे नोखलेनापि । एकतः सालम्बः, द्विधा सालम्बच । पूर्व विधा सालम्बेन, तत
तत्र चतुर्विधे नोस्थले पूर्वममुना गन्तव्यम्पकतः सासम्बनापि तथा निनयन गम्तव्यं, न समयेना। नवलजलेण तु पुवं, अफत निरचएण गंतवं ।
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( १७४१) अभिधानराजेन्द्रः
संतार
तस्मऽसति भणकंते, निरश्चरणं तु गंतन्त्रं ॥ ७४१ ॥ उपजले को न प्रयति, स्थिरन च तद् प्रचति, पूर्व तेनाकामते मित्ययेन निष्यत्यपायेन व्याजावे अनाक्रान्ते निरस्ययेनापि गन्तव्यम् ।
एमेव स चि सिगमनादी होंति संजोगा । पंकमहुचिल चम-खलकमंचा व जंघाय ||७४२ || रूपलाद बालुका अल्पसंहनना, तत उपसजलाभावे बालुकाजलेन गन्तव्यम् । बालुकायाः बुद्धा पृथिवी स्वल्पतरसंहनना, ततो बालानन्तरं गम्यते य
दि. शेषपदेषु एवमेव प्राग्वदाक्रान्तानाक्रान्ताऽऽदयः संयोगा प्रचन्ति बहुप्रत्यपायमतः सर्वेषामुपलजादीनामप्राचेतेन गम्यते स यो मधुलिकाऽऽकृतिकमतबयोरेव केवलं लगति, यो वा अलककमात्रस्तेन पूर्वे गम्यते, पश्चात् खमुकमात्रेण पश्चादजङ्घामात्रेण, ततो जघामात्रेणापि जानुप्रमाजेनेत्यर्थः । यस्तु जानुप्रमाांडुपरि पट्टस्तेन न गन्तव्यम् । यत आह
अद्धोरुगमिचातो, जो खलु उवारं तु कदमो होति । कंटादिजढो विप सो, अत्थाइजलं व सावार्य ॥७४३ ॥ कमात्र जानुप्रमाचादुपरि यः क एटकाऽऽद्य पायवर्जितोऽप्यस्ताघजलमिष गन्तुमशक्यत्वाद सापायो मन्तव्यः । पत्र विधिः सर्वोऽपि सचित्तपृथिन्यामुक्तः । अयाचित पृथिव्यां तमेवाऽऽहजत्य अचिमा पुढवी, तहियं आउतरुजीव संजोगो । मणिपतिथीहि य, अर्थतभिरथ च ॥७४४। यत्र पृथिवी प्रचित्ता तत्राप्कायजीवानां तरुजीवानां च संयोयाः कर्त्ता तथा पृथिवी सर्वाि तु.कि पावनस्पति उच्यते प्राये पिरति तस्मान माशात् । वनस्पतिना गच्छन् तत्रापि परीचयोनिकेन स्थिरसंहननेन प्राकाम्तेन निरत्वयेन निष्प्रत्यपायेन । अत्र बोडश भङ्गाः। तद्यथा प्रत्येक योनिकः स्थिर भाक्रान्तो निष्यत्यपायः। एष प्रथमो भङ्गः । सप्रस्वपायेन द्वितीयः । अनाक्रान्तेऽप्येवमेव द्वौ विकल्पौ । एवं स्थिरे चत्वारो विकल्पा सध्धाः । अस्थिरेऽप्येवं चत्वारः । एते प्रत्येकयोनिकेनाष्टौ जङ्का लब्धाः। अनन्तयोनिकेयेवमेवाही सम्यन्ते । एवं सर्वसंख्या वनस्पतिकाये परीक्षाऽऽदिभिः पदैः षोडश नङ्गा भवन्ति ।
तः
त
अथाष्कायस्थ, प्रसानां च संयोगानाह
एमेव य संजोगा, उदगस्स चउन्विदि तु तसेहिं । अतथिरसरीरे, शिरच्च तु गंत ||७४५॥ चतुखिन्द्रारिद्रया ति । एतैश्चतुर्विधैरापे जसैराक्रान्ताऽऽदिनिः पदैरेवमेव उदकेन सद् संयोगाः कार्याः। तद्यथा माक्रान्ताः स्थिराः सप्रस्वपायाः । एवं विनिः परो न भवन्ति। एते चादिषु चतुवि प्रत्येकाची ज्यन्ते जाता मकान दि अथ सान्तनिरन्तरं विकल्पविवक्षा कियते संयोगा उतिष्ठते । अत्र चाऽऽकान्तस्थिरनिरत्यवैः साम्बरेसैगन्तव्यम, नाष्काये माया
४३६
वाढविला एवं सेसा विसम्बसंभोगा ।
उद्गस्स कायम्या, जेहिगारो उदर ||७४६ ||
गाईसंतार
तेजोवायुकाययोर्गमनं न संभवतीति कृत्वा तेजोवायुविहीनाः । एवं शेषा अपि संयोगाः सर्वेऽपि कर्तव्याः । तत्राप्कावस्य वनस्पतिना प्रलेख सद् भङ्गका उक्ताः । ( वृ० ) "तो मासस्स दुक्खुतो वा" इत्यादिसूत्रं व्याख्यातिपर वह जत्य चकिय, तारिसए उपहम्मती खेचं । पमिसिद्धं उत्तरणं, अमासति खेत्तणातं ॥ ७४७||
可
या पेरावती नदी कुणालाजनपदे योजना के विस्ती जहा जानुमुदकं वहति तस्यां केब्रित्प्रदेशाः शुष्काः, न तत्रोदकमस्ति । सामुसीर्य यदि निशाम्यते तदा तु घट्टान पर प्रचन्ति वर्षासु श दकसंघट्टा
ते
गागतेन चतुर्दशीपहन्यते । इत एकेनाप्यधिके संघट्टे उपहन्यते । अन्यतोऽन्यत्रापि यत्राधिकतर संघट्टाः, तत्रोचरणं प्रतिषिद्धम् । पूर्णे मासकल्पे, वर्षावासे वा धनुषीणांनामपरं मासकल्पप्रायोग्य क्षेत्रमस्ति ततो नोचरणीयम् । अथानुतीर्णानामन्यत् क्षेत्र नास्ति, ततः असति क्षेत्रे उत्तरणमनुकातम् ।
इदमेव व्याडे
सत्त उवासामु भने, दगघट्टा तिएिण होंति उकुबद्धे । जे तु इति स्वेतं भिक्वायरियं वा इति ।७४ | सशोदकसंघट्टाः वर्षासु अपः संघट्टा ऋतु भवन्ति ये पतवन्तं नोपान्त नया भिक्षामुपतन्ति ।
जद कारणम्मि पुने, तो वह कारणम् असिवाऽऽदी । वहिस्स गणपिण-नावोदगतं वि जतणाए ॥ ७४६ ॥ यथाकारखे पूर्वी मासकर, वर्षावासे वा अपरक्षेत्रमा मुत्तरणं, तथा मासस्यान्तरेऽध्य शिवाऽऽदिभिः कारणैः, उप
ग्रहणार्थे पराजयमा सरकार बनाचाप्युदकं तार्यते, तत्रापि यतनया संतरणीयम् । तत्र चायं विधिः
नावयले दिडा, लेवो वा उवरि एव सोयरस | दोदिमेगं, असं यात्राएँ परिहाती ।। ७५० ॥ तत्र पूर्वार्कपश्चापदानां यथासंस्थेन योजना । नानुसरणस्थानाद यदि द्वे योजने वकस्थलेन गम्यते, तेन गन्तव्यं, न च नौरारोढम्या । (लेवहि सि) लेपस्याप्रस्ताद् दकसंघट्रेन यदि साऊंयोजनपरिग्येण गम्यते, ततस्तत्र गम्यतां न च नायमधिरोत्। एवं योजन परिहारेण न नायमधिरोदेन भर्द्धयोजन परिहारेण स्थलेन एकयोजनपरिश्वे संघन योजन परिहारेण वा संपेन गम्यताम न [च] लेपपरिया। पोसरबन्धानादेक योजन परिहारेण स्थलेनार्द्धयोजन परिहारेण वा संघट्टेन गन्तव्यं, न लेपेन । संघट्टो. शरणस्थानादर्द्धयोजनपरिहारेण स्थलेन गम्यतां न च संघट्रेन एतेषां परिमाणानामभावे नावा लेपोपरिला लेपेन संघनायकदोषः ।
अत्र 'नावथल चि' पदं व्याचरे
दो जोषणाएँ तुं, जहियं गम्मति यज्ञेण देण वए ।
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(१७४२) ईसंतार अभिधानराजेन्स:।
पाईसंतार पा य दुरूहे नावं, तत्थाबाया बहू वुत्ता ॥ ७५१ ॥
ख) प्रस्ताघतामनुमीय, तीरात पुनरपि जले प्रतिवरणं क.
रोति, प्रत्यागच्छतीत्यर्थः। मागत्य च तदुपकरणमेकाप्नोग वे योजने गस्था यत्र स्थलेन गम्यते, तेन पया बजेस , मा व|
करोति, पकत्र नियनयतीत्यर्थः। ततस्तद गृहरवा, तेन परीक्षिनावमारोहेत् । यतस्तत्र बहवोऽपायाः पूर्वमेधोक्ताः । कारणे तु
राजसपनोत्तरति । एष खेपे, पोपरौ वाषिधिरुक्ता वृ०४उ०॥ तत्रापि गम्यते। तत्र संघ गच्छता सावयतनामाह
से भिक्खू वा निक्खुणी वा गामाणगामं दृइजमाणे णो थलसंकमणे जयणा, पमोगणा पुच्चिकण उत्तरणं।
परेहिं सादिं परिजविय परिजविय गामाणुगामं दूइजेजा, परिहरिऊणं गमणं, जति पंयो तेण जयणाए ।।७५॥ ।
तो संजयामेव गामाणुगामंदइजेजा[७४०] से भिक्खुवा स्थलसंक्रमणे यतना कार्या, एकंपाद जसे, एकं पादं स्थले
भिक्खुणी वा गामाणुगामं दूइज्जमाणे अंतरा से जंघासंकुर्यादित्यर्थः । प्रलोकना नाम-लोकमुत्तरन्तं प्रलोकयति, य.
वारिमै उदए सिया, से पुवामेव ससीसोबरियं कायं पादे सिन् पावें जश्यामात्रमुदकं तत्र गच्छति । अथोत्तरतोन य पमज्जज्जा, से पुवामेव पमज्जिचा जाव एगं पादं जपश्यति, ततःप्रातिपयिकम, अन्यं वा पच्चति । ततो यत्र नीच
से किया पगं पादं यो किच्चा, तमो संजयामेव जंघासतरमुदकं, तरोत्तरणं विधेयम् । (परिहरिकण) इत्यादि । यदि
तारिमे उदगे प्रहारियंरीपज्जा७ि४१से निकलवा भिक्खतस्योदकस्य परिहारेण पन्था विद्यते, तदा तं परित्यज्य यत
पी चा जंघासंतारिमे उदगे महारियं रीयमाणे णो हनया तेन गन्तव्यम्। अथ स्थनपदे ममी दोषा भवेयुः
त्थेण वा हत्थं पादेण वा पादं कारण वा कार्य प्रासाएसमुदाणं पंथो वा, वसही वा थलपण जति णत्थि। । ज्जा, से अणासादर प्रणासायमाणे तमो संजयामेव जं. सावयतेणभयं वा, संघट्टेणं ततो गच्छे ।। ७५३ ॥
घासंतारिमे उदए अहारियं रीएज्जा [ ७४२] से भिक्खू वा समुदानं भिका तत्र नास्ति, स्थसपथ एव वा नास्ति, व. जिक्खुनी वा जंघासंतारिमे उदए महारियं रीयमाणे णो सासतिर्वा स्थलपयेन यदि न समस्ति, श्वापदभयं, स्तेन जयं बा| यावमियाए णो परिदाहरमियाए महति महालयंसि उदतत्र विद्यते, ततः स्थलपथं मुक्त्वा संघठून प्रथमनो गच्छेत,
गंसि कार्य वितिसेज्जा, तो संजयामेव जंघासंतारिमे उतदभावे लेपन। तत्रेयं यतना
दए अहारियं रीएज्जा, अह पुण एवं जाणेज्जा-पारए निन्जऍडगारत्थाणं, तु मग्गतो चोलपट्टमुस्सारे ।
सिया उदगाओ तीरं पानणित्तए, तभो संजयामेव नदउसजये भत्याचे वा, उत्तिणेसुं घणं पहुं ।। ७५४॥ |
श्रेण वा ससणिण वा कारण नदगतीरे चिढेजा [७४३] यदि स साधुहिसार्थसहायः, तत उदकसमीपं गत्वोर्ध्व- 'से' इत्यादि स्पटमानवरमधेयं सामाचारी-यमुदकावलं तव कायं मुखबनिकया, अधःकायं रजोहरणेन प्रमाज्योंपकरणमे- स्वत एषयावनिप्रगलं भवति,तावदुदकतीर एव स्थ्यमा प्रथ कतः कृत्वा, यदि निर्भयं चौरभयं नास्ति, ततो गृहस्थानां
चौरादिजयाद् गमनं स्यात्, ततःप्रलम्बमानं कायनास्पृशता मार्गतः सर्वतः पश्चादुदकमवतरति, यथा यथा चोएडमुण्डतरं
नेयमिति । तथा 'से' इत्यादि काव्यम । नवरं (परिजविय इ. जलमगादते, तथा तथोपर्युपरि चोलपहकमुत्सारयेत येन म
सि) परैः साई भृशमुज्ञापं कुर्वन गच्छेदिति । इदानी जहासतीभ्यते । अथ तत्र सन्नयम, अस्ताचं वा जलं. ततो यदा
तरणविधिमाह-"से" इत्यादि । तस्य निकोीमान्तरं गच्यतो कियन्तोऽपि गृहस्था अप्रतोऽवतीर्णाः, तदा मध्ये साधुनाs.
यदन्तराले जानुदनाऽऽदिकमुदकं स्यान, तत कर्चकायं मुखवतरणीयम्, चोलपट्टकं च धनं रदं बन्नीयात् ।
बखिकया,अधःकायं च रजोहरणेन प्रमृज्योधकं प्रविशत्प्रविष्श्व एतेन विधिनोत्तीर्णस्य यदि चोसपट्टकोऽन्यद्वा किञ्चिपक
पादमेकं जवे कृत्वा, अपरं स्थले भाकाशे करवा पादावुस्तिरणजातं तीमितं तदाऽयं विधिः
पक्ष गच्नेत, न जनमालोमयता गन्तव्यमित्यर्थः। (अहारियंरी.
येजसि) यथा ऋजु भवति तथा गच्छेद,नावित विकारं षा दगतीरे ता चिडे, णिप्पगलो जाव चोलपट्टो तु ।
कुर्वन् गच्छेदिति । 'से' इत्यादि । स भिक्षुर्यथार्थमेव गटनमसभए पलंरमाणं, गच्छति कारण अफुसंतो ॥१५॥ हत्युदके महाश्रये वकस्थलाऽऽदिप्रमाणे जासंतरणीये नदी दकतीरे स्निग्धपृथिव्यामप्कायरकणार्थ तात्तिष्ठेद् वावचो
बाऽऽदी पूर्वविधिनैव कार्य प्रवेशयेत् । प्रविश्व यधुपकरणं लपट्टकोऽवोपकरणं निष्प्रगलं भवति । मथ तत्र तिष्ठतः
निर्यादयितुमसमर्षस्ततः सर्वम्, असारंवा परित्यजेत । मयैवं सभयं, ततः प्रगलन्तमेष तं चोलपट्टकं कायनास्पृशन पाहा.
जानीयावृतोऽहं पारगमनाय, ततस्तथाभूत एव गच्छेत् । यां प्रलम्बमानं मयन् गच्छति।
उत्तीर्णध कायोत्सर्गाऽऽदि पूर्ववत् कुयोदिति । प्राचा०९४०१ यत्र सार्थविरहित एकाकी समुत्तरति, तत्रायं विधिः
०३७०२ उ०।
अथापबादमाहअसई गिहिणालियाए,प्राणदेउं पुणोऽपि पडियरणं । एगानागं च करे, उवगरणं सेव उवरिं च ॥७५६॥
पंचहिं ठाणोहिं कप्पा । तं जहा-भयंसिवा, इन्जिवं. गृहिणामभावे सर्वोपकरणमवतरणतीरे मुक्ता नालिका
सिवा पबहेजवणं को, दोघंसि वा एज्जमाणंसि मात्मप्रमाणाबतुपालातिरिका यदि गृहीत्वा, तया (साख-। महता वा प्रणारिएहि ।
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संतार
( पंचेत्यादि ) भये राजप्रत्यनीकाऽऽदेः सकाशादुपभ्याद्यपहारविषये सति १, दुर्भिक्षे वा निक्काऽजावे सति २, (पव्हेज चि) प्रत्यथते बाधते, अन्तर्भूतकारितार्थत्वाद्वा प्रवादयेत् कचित् प्रत्यनीकस्तत्रैव गङ्गाऽऽदौ प्रतिपेदित्यर्थः ३ । (दोघसित्ति) उदकौधे वा गङ्गाऽऽदीनामुन्मार्गगामित्वेनावगच्छति सति, तेन प्लाव्यमानानामित्यर्थः । महता वा माटोपेनेति शेषः ४ । (अजारिपहिं ति ) विभक्तिष्यत्ययादनार्यैदिभिर्जीवितचारित्रापहारिभिः, मनिभूतानामिति शेषः । ५ । म्लेच्छेषु वा श्रागच्छस्थिति शेषः। एतानि पुष्टान्यालम्बनानी ति तसरेणेऽपि न दोष इति ।
उक्तश
" सालंबणो पंकतो, विश्रप्पयं दुग्गमे वि धारेछ ।
इस साबणसेषी, धारेह जई मसढजावं ॥ १ ॥
( १७४३) अभिधान राजेन्द्रः ।
बहीणपुण, निवमर खलिम्रो भई दुरुतारे । श्य निक्कारण सेवी, पडर नवोहे भगाहम्मि " ॥ २ ॥ इति । ०५०२ उ० ।
अथ नावं यैः कारणैरारोदेत्, तानि दर्शयतिविश्यपयं तेणसावय- भिक्खे वा कारणे व आगाढे । कज्जु हिमगरण - नाबोदग तं पि जताए || ७५७ ।। द्वितीय पत्रोच्यते । स्थल संघट्टाऽऽदिपदेषु शरीरोपधिस्तेनाः, सिदाऽऽदयो वा श्वापदा नवेयुः, भैश्यं वा न लभ्यते, आगाढं वा कारण महिदष्ट विषविसूचिकाऽऽदिकं भवेत्, तत्र त्वरितमौषधान्यानेतव्यानि कुलाऽऽदिकार्ये वा श्राक्केपेण करणीयमुपस्थितम्, उपधिरुत्पाद के नोदके प्रक्षिप्येत तत एकानोगकृतेषु भाजनेषु बिलग्नस्तरतीति । ( नावोदगतं पि जयणाप सि) यदि बलानियोगेन नावुदकस्योत्सेचापनं कार्यते, तदा तदपि यतनया कर्त्तव्यम् ।
कथं पुनरेकाभोगमुपकरणं करोतीत्यादपुरतोरुमेगं - मिलेह पुत्र पच्छ समगं व । सीसे मग्गतों म, वितियं उबगरण जयपाए ||७५८८ || गृहिणां पुरत उपकरणं न प्रत्युपेक्षते, न वा एकाभोगं करोति, (रुण ति) नावमारोदुकामेन एकान्तमपक्रम्योपकरणं प्रत्युपेक्षणीयं, ततोऽधःकायं रजोदरथेन, उपरिकायं मुखानन्तकेन प्रमृज्य नाजनान्येकत्र बध्नाति तेषामुपरिष्टाधि सुनियन्त्रितं करोति । (पुब्ब पच्छ समगं वत्ति) किं गृहिभ्यः पूर्वमारोढव्यम, उत पश्चात्, उताहो समकम् ?। श्रत्रोत्तरम् - यदि भरू का भाषिकाssदयो, यदि च स्थिरा मौर्न दोलायते, ततः पूर्व समारोढव्यम् । अथ प्रान्तास्ततः पूर्वे नारुहावे, मा अमङ्गलमिति कृत्वा प्रद्वेषं गमन् तेषां प्रान्तानां भावं ज्ञात्वा समकं, पश्चाद्वा आरोहणीयम् । (सौसे ति) नामः शिरसि न स्थातव्यं, देवतास्थानं तदितिकृत्वा, मार्गतोऽपि न स्थातव्यं, निर्यामकपात्रं तिश्रुतीतिकृत्वा, मध्येऽपि यत्र कूपकस्थानं, तत्र न स्यातम्बं तन्मु क्वा यदपरं मध्यखानं, तत्र स्थेयम् । अथ मध्ये नास्ति स्थानं, ततः शिरसि पृष्ठतो वा यत्र ते स्थापयन्ति तत्र निराबाधे स्थीयते साकारं भक्तं प्रत्याक्वाय नमस्कारपरस्तिष्ठति । उत्तरपि न पूर्वमुसरति, न वा पश्चात् किं तु मध्ये उत्तरति । सारोपधिव पूर्वमेवापसागारिकैः क्रियते, यदन्तप्रान्तं चीवरं, तत्प्रावृणोति, यदि च तरपएवं नाविको मार्गयति, तदा धर्मकथा, मनुक्षि
For Private
संतार
टिश्व क्रियते । अथ न मुञ्चति ततो द्वितीयपदे यदन्तप्रान्तमुपकरणं, तद्यतनया दातव्यम् । अथ तनेच्छति, निरुणद्धि वा, ततोऽनुकम्पया यद्यन्यो ददाति तदा न वारणीयः । वृ०४ ० । साम्प्रतं नागमनविधिमधिकृत्वाऽऽद
से जिक्खू वा भिक्खुणी वा गामा गामं दूइजमा अंतरा से प्यावासंवारि उदयं सिया, सेज्जं पुरा एवं जाणेज्जा - अस्संजए भिक्खुप कियाए किशेज्ज वा, पामिच्चेज्ज वा, गावाए वा यात्रापरिणामं कट्टु यलाओ वा णावं जलं सि प्रोगाहेज्जा, जलाओ वा पात्रं थलंसि उक्कसेज्जा, पुष्पं वा पावं ठसि चेज्जा, मं वा णावं उप्पीला वेज्जा, तहप्पगारं णावं अनुगामिणिं वा अहेगा मिलि वा तिरियगामिण वा परं जो मेरा अद्धजो णमेराए वा अप्पतरो वा भुज्जतरो वा णो दुरूहेज्ज गपणाए । [ ७२३]
से जिक्खू ना निक्खुणी वा पुव्वामेव तिरिच्छसंपातिषं णावं जाणेज्जा, नाशित्ता से तमायाए एगंतमत्रकमेचा भंडगं पकिलेहेज्जा, पमिलेदित्ता एगओ जोयणभंडगं करेज्जा, करिता ससीसोबरियं कार्य पाए य पमज्जेज्जा, पमज्जित्ता सागारियनत्तं पञ्चक्खाएज्जा, पञ्चकखाइसा एगं पायं जले किच्चा एवं पायं थले किच्चा, तो संजयामेव णावं पुरूद्देज्जा । [७२४]
सेभिक्खू वा भिक्खुणी वा पावं दुरूहमाणे णो णावार पुरओ दुरूहेज्जा, यो यात्राए अग्ग दुरूहेज्जा, णो गावाए मज्जतो रूहेज्जा, जो बाहाओ परिज्जिय २ अंगुate उदसिय २ रणमिय १ णिज्जाएजा । से णं परो
वागतो यावागयं वएज्जा - ग्राउसंतो ! समणा ! एयं तुमं एवं कसादि वा बोकसाहि वा, खिवादि वा, रज्जुए बा गाय आगसाहिणो सेयं परिष्मां परिजा णिज्जा, तुसिणी ओ उज्जा से परोयावागतो यावागयं वएज्जा आउसंतो! समणा ! णो संचारसि तुमं णावं उकसित्तए वा, चोक्कसि - तर वा, स्विवित्तए वा, रज्जुयाए वा गहाय आकसित्तए,
हर एवं यात्राए रज्जुयं सयं चेव णं वयं एवं ठकसिस्सायो वा जान रज्जुए ना गहाय प्राकसिस्सामो, णो सेयं परिष्ां परिजाणिज्जा, तुसिणीतो उबेहेज्जा से एं परो पावागओ पावागयं वज्जा आउसंतो ! समया ! एवं ता तुमं णावं प्रति वा पीढेण वा वंसेण वा बलपण वा अक्षरण वा बाहेहि, यो सेयं परिष्ां०जाब उवेहेज्जा । से णं परो नावागओ पावागतं वदेज्जा आउसंतो ! समणा ! एतं ता तुमं णावार उदयं हत्थे वा पारण वा मन या परिग्गदेव वा यात्रा उस्सिंचय वा तस्सिचाहि यो सेयं परिष्वं परिजाऐज्जा । से णं परो खावागतो थावागतं वज्जा आउदो ! समया ! एवं ता तुमं शावार
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मा।
(१४) बईसंतार अभिधानराजेन्ः।
पाईसंतार उत्र्तिगं हत्येण वा पाएण पा बाहुणा दा करुणा या कज्जुबहिमगरवुण-नावोदगतं पि जयणाए ॥४॥ नदरेण वा सीसेण वा कारण वा पावारिसचणेण एस वारसमुद्देसे जहा, तहा भाणियब्या। या चेोण वा मट्टियाए वा सपचरण वा कुरुर्विदेण वा
सुत्तदिङकारखा विखभियन्वं, केरिसंपुण णावं विक्षगति,
रिसंवाजविलम्गति', तो सुभएणतिपेहेदि, णो सेयं परिणं परिजाणेजा।
जे निक्खू णावं किणा, किणावेइ, किणावंतं दिजमाणं से भिवायू वा निक्खणी वा गावाए पचिंगेणं उदयं
णावं पुरूहसदुरूतं वाकिणावे,किणावंतं वा साइज्जइ।२। प्रासनमाणं पेहाए सवरुनरिणावं कजलावेमाणं पेहाए
जे निक्खू णावं पामिचेइ, पामिश्चावेश, पामिषियमा यो परं उबसंकमित्तु एवं व्या-उसंतो ! गाहावा !
दिज्जमाणं दुरुहर, दुरुहंतं वा साइजइ॥३॥ एवं ते णावाए उदयं उचिगेण प्रासयति, उबरुवरि वा
ने निक्स्व णावं परियट्टे, परियट्टा, परियट्टियमाह बाबा कजन्मावेति, एतप्पगारं मणं वा वायं वा यो पुरभो
दिज्जमाणं दुरूहा, दुरूस्तं वा साइज ॥४॥ कटु विहरेजा, अप्पुस्सुए अवहिलेस्से एगतिगएवं अप्पा
जे जिक्खू णावं अच्चिई प्रणिसिटुं प्रनिहरमाह ई विपोसेज समाहीए, तो संजयामेव शाबास
दिज्जमाणं दुरूहर, दुसांतं वा साइज्जइ ॥॥ सारिमे उदए महारियं रीएज्जा । एवं लसु तस्स भि
अप्पणा किमह, अमेण वा किणावेति, अगुमायति वा, तथा खुस्स वा निकम्वणी या सामग्गि, जं सम्बोर्डि सहि.
पामिति,पामिच्चाचेति, पामितं मणुमोदति । पामिचितं ते सदा जएज्जासि चि बेमि । (७३२)
पाम उच्छिरणं जोणावं परियति॥३॥ तहा उदरियखानास निकुर्घामान्तरासे यदि मौसतार्यमुद जानीयाचा ए महलनं जावं परिखावेति साहू। वैवंभूतां विजानीयात् । तरथा-प्रसंपतो गृहस्थो भिक्षु. पतेहिं सुत्रपदेहि सम्बे उम्गमुप्पायखेसणादोसाय प्रतिकया नावं क्रीणीयात, अन्यस्माच्छाबा गृहीयात, प
चिता. तेण णावणिति भवति। गाहारिवर्तनं वा कुर्यात् । एवं स्थलायाऽऽनयनादिकियोपेतां नावं णावा उग्गमउप्पा-यणेसणा मुत्तमइया दोसा। कात्वा नारुहेदिति । शेषं सुगमम् । इदानी कारबजाते ना. पारोहणविधिमाह- से' इत्यादि सुगमम । तथा 'से' इत्यादि
जानुत्तरणमकारण, अविहा ताब निमुत्ती॥५॥ स्पष्ट, नवरं नो नाव अनजागमारहंद, मिर्यामकोपद्रवसंत्रवाद।
उम्गमदोसा जे सहलामा, ते जहासंनवं यावं पन्च भावारोहिणां वा पुरतो मारोहेत, प्रवर्तनाधिकरणसंभवा.
वत्तम्बा। है। सत्रस्थच नौव्यापारं नापरेण चोदितः कुर्यात, नाप्य.
गाहा यं कारयेत् । (उत्र्तिगत्ति) र (कजनावमाणं ति)मा. रचननिए वा, इविहा किपणा उ होति जावाए । ग्यमानाम, (अप्पुस्सुपसि) अविमनस्कः शरीरोपकरणाची हीणादियणाचाए, मगुरू तेण पापिच्छे ॥ ६ ॥ मळमकुर्वन् तस्मिस्तूदकेनाचगच्छन् (महारियमिति) यस तार्य जवति, तथा गच्छे शिष्टाध्यवसायो यायादित्यर्थः । पत
साधूमधाए उच्चचाए णावं किणति,सर्वथा भारमीकरोतीस्यसस्य निकोः सामध्यमिति । प्राचा.२.१.३ अ०१० ।
(जतिपति) भारपणं गेएहति मप्पणा, से खाया दाणप. ने भिक्खू अणटाए णावं दुरूहा, दुरूहतं वा साइबइ।
माखा, प्रदियप्पमाया चा। अहवा-(भमगुरुति)जंतस्थ भंम
मारोषिजति, तं गुरू, साहू य णो समिहिति ति, ता एवमाजो अद्याप अणघाए, कहासि, विस्लग्गति प्रारमति ति पगळं । आणाऽऽदिया दोसा बउमडं।
दिकज्जेहिं पावं पामिन्चेति ।। गाहा
परवा-सा पाया स्वयमेव गुरू, गुरुत्वादनशीनगा.
मिनीत्यर्थः । गादाधारममे उद्देसे, नावासंतारिमम्मि जे दोसा।
दोगड विजयहिताणं, जताए महियसिग्घहा। ते चेत्र मणहार, महारसमे निरवसेसा ॥२॥
गाचा परियट्टिना, एवं माह मायरिया ॥७॥ कंठ्या।
दोबालिया जत्ताप जावाहिं सवाहिता,तत्थ य एगस्स हीणा, अणद्वे सेति । गाडा
अपस्स अहिया, तो परोप्परं णाचा परिणामं करोति, नाबा अंतो महा केरिसिया, णावारूदेहि गम्मति करवा| नाव परावर्तयन्तीत्यर्थः। महवा-मन्दगामिनी श अहवा जाणादिजद, दुरूहणं होतऽणहाए ॥३॥ ।
परावर्तयन्ति, पवं सावधमपि । केरिसि अजंतर ति वक्खुमणपडियाए मारहति, गम.
गाड़ाशकुतूहलेण वा पुरुहति । अहवा माखारिजई दुबईतस्स
एमेव सेसएमु वि, उप्पायणएसणाश्दोसेमुं। मेसं सव्वं अणट्ठा।
जंजं जुज्जति सुचे, विभासियनं दुबत्ताए ।। ८॥ अपवादेण भागादे कारणे दुरूहेला थलपदेण संघटा
कीयकमादिणावासुसेसुजं जं जुजाति, तं तंपिंडणिज्नुत्तीर तियजलेण वा जइ इमे दोसा हवेखा । गाहा
भाणियन्वं । दुखचा बायासीसा-सोनस उम्गमदोसा, सोलस वितियपद तेणसारय-विक्खेवा कारणे सभागादे। सम्पायणादोसा, इस पसणादोसा । पते मिंखिया बाताबर
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बाईसंतार श्रानिधानराजेन्द्रः।
पाईसंतार जग्गमउप्पायणेसणा तिपिष दारगता।
मे भिक्खू परिणारिय कहणावाए पुरूहर, दुरूहतं संजोगादिवाण बडएहं श्मा विज्ञासा । गाहा
वा साइज्ज ॥१०॥जे भिक्खू उगामिणा वाणावं संजोए तणमादी, जलेण णाबाएँ होति माणं तु ।
अहेगामिया बाणा दुकाइ, मुरुतं वा साइज्जा मुहवएणो इंगालं, ही खोहाऽऽदिम् धूपो॥ ए॥
॥११॥जे भिक्खु नोयणवेलागामिणी वा अजोयणसाधुअढाए तणमादि किंचि कळं संजोपति, प्रासम्ममज्ज
बेलागामिणी वा णावं पुरूहर, पुरूतं वा साइज्ज दूरगमणा जलप्पमाणसाधुप्पमाणामो यही जुत्तमधियं प. मारोण वा खापा होज (सुहबमोति) रागेणं इंगालसरिसंव
॥राजे निक्खू जावं प्राकसह, भाकसावेइ, भाकसावतं रणं करोति, णावागमखे छड़ी हवइ,ट्टा बाहया वा नावाभएण बा साइज्जइ ॥१३॥जे भिक्खू णावं खेवावे, खेवावंतं वा सरीरसंखोहो प्रवति, कंपो, मुच्छा, सिरतीय । पषमा- साइजह ॥ १४ ॥ ने भिक्व हसावं रज्जुणाबा काबेइ, दिदोसा वरणधूमिधणेण समं करेति ।
कलावंत वा साइजह ॥ १५ ॥ जे भिक्खू णावं असित्तगाहा
एण वा पहिरण वा दंडएण वा वंसेण वा बोण वा वाकारणे विलग्गियध्वं, अकारणे चनलद मुणेयव्वं ।।
हेई, वाईत वा साइज्ज ॥ १६ ॥ जे जिक्खू णावाए उदगं किं पुण कारण होजा,असिवादिथसासति पुरूहे ॥१०॥
हत्थेण वा पमिग्गहेण वा मत्तेण वा णाचाउस्सिचरण वा णापागमणे कारणेण य पुरूदियध्वं, निकारणे चउमडं ।
नस्सिचइ, उस्सिचंतं वा साइज ॥१७॥ मसिवाइकारणे वा गच्छतस्स तं नावातारिम चउम्विहं । गाहा
जे भिक्खू नबपियंणा उत्तिगं वा उदगं प्रासिंचमाणिं नावासंतारपहो, चउनिहो बमितो उ जो पुग्छ । वा उबरुवरि वा फज्जलावेमाणिं पेडाए हत्येण वा पारण णिज्जुत्तीऍ सुविहिए, सो क्षेत्र इहं पि णायब्बो ॥११॥
वा असिपचेण वा कुसपत्तेछ वा मट्टियाए वा चेलेण वा निज्जुसीपेटं इमस्लेव जहा पेढया पाउकावाहिगारेण भा
पमिपिोश, पडिपितं वा साइजइ॥१॥ लिया, तहा भाणियम्वा ।
जलो नावं वेलाए हीरहि ति दोहरज्जुए तरंसिक्ने वा
कोलगे वा पखं वा मुचिता वाहेजा, बुज्झमाधि वा बंधिजा, गाहा
उतिगेण वा भरितं प्ररिखमाणि या जो अपसिंचति सबलतिरिओयाणजाणो, समुहगामी य चेव नावाए। पाणिवस्स, रिया थिमिता गयउ ति पाणियस्स भचनलहुगा अंतगुरू, जोयणमकक जाण पदं ॥१२॥ रेति, तस्स बनाएं। तत्र श्व। गाहा
गाहाबीयपऍ तेणसाव, जिक्खे वा कारणे दागा। उन्वच बाहेती, बंक बुज्जा नरिऍ नस्सिचे। बत्यूब डिमगरवण-नावोदग तं विजयणाए ॥१३॥
रिची वा प्रेती, से दोसा विवियपदं ॥ १५॥ वारसमे पूर्ववत ।
कंग। सुसं
जे णावं मागसति वा प्रत्यादि । जेणाबाए रद हत्येण ने भिक्खू थलाओ णावं जले उकसावे, उकसावंतं पा |
बा. जाध रस्सिचति, बाबाय उतिग. जाब पिहितं या
साज्जा । साइज ॥६॥
पतेसि मुत्ताणं पदा मुत्तसिट बेब, तहा बि कोर पदे स्थलस्थं जखेकारेति।
सुरुफासित्ता फुसति । माहाजे भिक्खु जलाप्रो पावं यले उकसावे, उकसावंतं वा | नावाएँ खिवणवाहन-उस्सिचणपिहणसाहणं वा वि । साइज्ज॥७॥
जे भिक्खू कुज्जाडी, सो पापति आएमादीणि ।।१६।। जलस्थ स्थले कारेति।
ममणाबट्टितोजसहितो तरष्टिनो वाणावपरा विवत्ति, सुतं
बावग्यतरणवणप्पगारेणं नवकं वाहणं प्रयति । उसिंगादिणाजेभिक्ख पुषणावं चस्सिच,उस्सिचंतंबासाइजइ॥
वापविमुदगं अमायरेण कहाऽऽदिला रस्सिचएण उस्सिच. जे भिक्ख सरणं हा उप्पिसाचे उप्पिलावंतं वा
ति । सिंगाऽऽदिणा रदगहत्याऽऽदिखा पिहति, परमप्पणा
करेति, मयस्स बा कहति माखादि, बडबहुंच। साइज ॥ए॥
पतेसु व अमेसु व मुरूपदेसुमं वितिवपदं । गाहा(सम्म सि) कदमे खुत्ता (उप्पिलावे ति) ततो नक्सापति। वितियपऍ तेणसावऍ, भिक्खे बा कारणे व श्रागाढे। माहा
कज्जोवहिमगरवुडण-पाचोदगतं पिजतणाए ॥१७॥ गाहेइ जलाउ थलं, जाब थलाभो जलयमोगाहे।
पूर्वपत् । समं व नाप्पिलावे, दोसा ते तउ वितियपदं ॥१४॥
गाहादोसा जे बारमे भणिता, ने भवंति, वितियपदं जं तत्येव
श्राकरणमाकसणं, नकसणं पेरणं तु जल नदगं। प्रणियंतचेच नापियवं।
उसमहतिरियकरुण, रज्जुएँ कहम्मि वा पेनुं ॥१ना
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(१७४६) पसंतार निधानराजेन्द्रः।
णईसंतार अप्पणो तेण भाककृणमाकसणं, उदगण प्रेरणं उकसणं (उनके __ (से णमित्यादि) अपरो गृहस्थाऽदिन व्यवस्थितः तत्स्थमेव ति)णदीगए समुदे वा बेलापाणियस्स प्रतिकूलं (अहत्ति) | साधुमेब धूवात तिपथा-भायुप्मन् भ्रमण!पतम्मदीयं तावच्चतस्सेव उदगस्स भोतानुकूनम महोभमतिानो प्रतिकूलं,नोमा प्रकाऽऽदि यहाण, तथैतानि शखजातान्यायुधविशेषान् धारय, नुकूलं वि तिरिच्छ तिरियं नाति । एवं उर्छ तिरियं वा । तथा दारकाऽऽधुदकं पायय, इत्येतां परिकां प्राधमां परस्य म रज्जुए कम्मि वा घेर्नु कति ।
शृणुयादिति। गाहा
तदकरणे च परः प्रविः सन् यदि नावः प्रक्षिपेत्, तत्र यत्कतणुयमलित्तं प्रासो, पचे सिरसो पिहो हबति संदो। सम्यं तदाहवंसे णवा उ गम्मति, बलएण बलिज्जतीणावारा सेणं परोणाचागमो प्यावागयं बदेज्जा-आजसंतो! एस तयमदीहं, (अलित्तमिति) अतिसं पासो दो वि पत्तो, तस्स गं समणे गावाए भंडनारिए भवति, सेणं बाहाए गहाय पत्सस्स सिरसो रुंदो पिहो जबति,वंसो बेगु, तस्स भवनेण, णावाश्रो सदगंसि पक्खिवह । एतप्पगारं जिग्घोसं सोचा पादेहिं परितावे णाबा गच्छति,जेण वाम दक्विजंवा वलिनति,
णिसम्म से य चीवरधारी सिया खिप्पामेव चीराणि नवेसो बलतारणं पिजपति ।
ढज्ज वा, णिवेटेज वा,उप्पोसं वा करेज्जा [७१४] अह गाहामले रुंद अवल्ला, अंते तणागा वहविणायव्या।
पुण एवं जाणेज्जा-अभिकंतकूरकम्मा खलु बाला बाहाहिं दची तणुगी लहगी, दोणी वाहिज्ज वीतीयं ॥२०॥ |
गहाय णावाप्रो उदगंसि पक्खिवेज्जा । से पुन्बामेव वएन्जापुवकं कंठं । लहुगी जा दोणी, सा तीए दब्बीए वाहिजति ।।
पाउसंतो! गाहावती! मा मेचो बाहाए गहाय णावाओ गावाउस्सिचणगं च दुगं दब्वगादि वा भवति । उत्तिगं णाम- उदगंसि पक्खिवह । सयं चेव एं अहं पावातो उदगंसि नि, तं इत्थमादीहिं पिहेति ।
श्रोगाहिस्सामि । से णेवं वयंतं परो सहसा बलसा बाहाहिं गाहा
गहाय णावाए उदगंसि पक्खिवेज्जा। तंणो सुमणे सिया, इसिगाइ विपिनती,होति उ उसुमट्टिया य सम्मिस्सा।
णो दुम्मणे सिया, णो नच्चावयं मणं णियच्छेज्जा, यो मोयगुलवंजणाती, अनुबा छझी कुविंदो उ ॥१॥
तसिं वालाणं घाताए बहाए समुद्रुज्जा, अप्पुमुए. जाव महवा सरसछछी ईसिगित्ति, तरसेव उरि तस्स छल्ली,
समाहीए, ततो संजयामेव उदयंसि पवज्जेज्जा । [७२५] सो य मुंजो दम्जो वा; एते विप्पितंति, कुट्टिया पुणो मट्टियाए सह कुट्टिजति । एस उसुमट्टिता, कुसुमहिया पा (से णमित्यादि)स परः, णमिति वाक्यालस्कारे । नौगत. मोरगुलवंजणाती, भादिसदातो वमपिप्पसमासंतयमादिदा. स्तं सुसाधुमुद्दिश्य अपरमेवं ब्रूयात् । तद्यथा-मायुप्मन् ! - णचक्को मट्टियाप सह कुट्टिजति, सो कुविदो जामति । अहवा यमत्र श्रमणो जाएमवनिश्चेष्टत्वाद् गुरुः,भापडेन वा उपकरणेन चेलेण सहमट्टिया कुट्टिया चेन्नमडिया नपति। एवमाश्याहं तं उ. गुरुः, तदेनं स्वबाहुप्राहं नाव उदके प्रक्किपत यूयमित्येचंप्रकारं त्तिगं पिहेति जो, तस्स चलहुं, माणादिया य दोसा । सुतं- शब्दं श्रुत्वा, तथाऽन्यतो या कुतचिनिशम्य अवगम्य, स साधु(जेणावार उदगं पासबमाणं पेदाए श्त्यादि)उसिंगेण णावाए गच्छतो निर्गतो वा,तेन चचीवरधारिणैतद्विधेयं-क्षिप्रमेव चीसदगं पासवति, पेहेति, प्रेक्ष्य उवश्वरि कज्जलमाणे बिनरि- बराणि गुरुत्वानिर्वाहयितुमशक्यानि चोद्वेष्टयत्-पृथक्कुर्यात, जमाणं पक्वित्ता परस्स दापति, प्राणादिया चनलहुंच। तहिपरीतानि तु निर्वेष्टयेत, सुबद्धानि कुर्यात् । तथा (अप्पोसं
था करेज्ज सि) शिरोवेष्टनं वा कुर्यात । येन संवृतोपकरणो निनत्तिंगो पुण छि, तेणासि उचरिएण कज्जलणं ।
ब्याकुलत्वात् सुखेनैव जलं तरति, तांश्च धर्मदेशनया अनुकूल
येत । अथ पुनरेवं जानीयादित्यादि काव्यमिति । वितियपदण मुरूडो, हावाए जंगलतो वा ॥२॥
साम्प्रतमुदकं प्लवमानस्य विधिमारपुवरंगतार्यम् । असिवादिणाणादिकारणेहिं पुरुढोणावं जहा जंमतहाणिवाचारभूतेण भवियन्छ । सन्बसु जाणि चा पमि
से निक्खू वा निक्खुणी वा उदगंसि पवमाणे णो हसिफाणि,ताणि कारणासढो सव्वाणि सयं करेज, कारवेज वा,
त्येण हत्यं पाएष पायं कारण कार्य प्रासादेज्जा, से जो तत्थ साधुणो णिवाबारे टुं कोई परिणीभो जसे - भणासादए अणासायमाणे तो संजयामेव उदगंसि पवे. किनवेज नि० चू०१८301
जा।[७३६]से जिक्खू वा निक्खुणीवा उदगंसि पवनौगतस्य विभ्यन्तरम्
माणे णो उम्मज्जाणिमज्जियं करेजा,मा मेयं उदगं कम्भु वा से गं परोणावागए णावागयं बएजा-पानसंतो!समणा! | अच्छीम का णकसि वा मुहंसि वा परियावज्जेजा, तो एवं ता तुमं छत्तगं वा. जाव चम्च्छे यणगं वा गिराहाहि, संजयामेव उदगंसि पवेजा।[७३७]से जिक्खू वा भिक्खुणी एयाणि तुमं विरूवरूवाणि सत्यजायाणि धारेहि, एयं ता| वा जदगंसि परमाणे दोबलियं पानपज्जा, खिप्पामेव उ. तुमंदारगं वादारियं वा पज्जेहि, णो से तं परिमं परि-| वधि विगिंचेज वा, विसोहज्ज वा, णो चेवणं सातिजायेज्जा, तुसिणीमो उबहेजा।[३३]
जेम्जा । अह पुण एवं जाणेज्जा-पारए सिया बदगामो
गाहा
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पाईसंतार
अभिधानराजन्छः।
खोयएस तीरं पानणित्तए, तो संजयामेव नदनोण चा ससिणि
पटुरसिमामभृतां हितं विधातुम् ॥१॥ देण वा कारण उदगतीरे चिटेज्जा [७३८] से मिक्व वा
हबलु न हिमस्मयोग रोपो,
मच परपुरिपराभवामिलापः। भिक्खणी वा उदउचं वा ससिणिकंवा कायंणो भामजे.
अपितु पितुरिख प्रजाहितस्य, ज वा,पमज्जेज वा, संलिहेज्ज वा, णिनिहेज्ज वा, उठव- प्रथमगुरोर्षचनाऽऽदरो निमित्तम ॥३॥ लेज्ज वा,उन्नदृज्ज वा,पायावेज्ज वा, पयावेज्ज वा। प्रा
नच नयवचनेषु पक्षपाता,
क्वचन समाकलितप्रमाण। पुण एवं जाणेज्जा-विगतोदए मेकाए वोच्चिमासिणेहे तह
अभिमतविषये हि गोपनीयाप्पगारं कायं आमज्जेज्ज वा० नाव पयावेज्ज वा, तो
अनभिमते यदी विगोपनीषा.. संजयामेव गामाणुगाम दुइज्जेज्जा । (७३ए)
मजति फसवति प्रमाणवास्ये, 'से' इत्यादि । स भिक्षुरुदकेप्लवमानो हस्ताऽऽदिकंहस्ताऽऽदिना
नयवचन बहुरूपमझभाषम । नाऽऽसादयेदन संस्पृशेत,मकायाऽऽदिसंरक्षणार्थमिति जावः।
तदिह विविधमाजालयुकं, ततस्तथा कुर्वन् संयत एवोदकं प्लवेदिति। तथा 'स' इत्यादि ।
उसपदिदं न विशनीयमायः ॥ स निकुरुदके प्लवमानो मन्जनोन्मजने नो विध्यादिति सु
प्रथम इहलौकिकोऽर्थबोधगमामिति । किञ्च-'से' इत्यादि । स भिक्षुरुदके प्रवमानो दौर्य
स्तदनु भयात्मक एव मध्यमः स्याद। ब्यात श्रमं प्राप्नुवात्ततःक्षिप्रमेवापाधं त्यजेत,तदेश वा विशोध
तदुपरि परितः प्रसपिंजाबेत त्यजेदिति नैवोपधावाशक्तो भवेत् । अथ पुनरेवं जानीया.
व्यतिकरसंबलितःप्रमाणबोधः॥1 स्-(पारए सिय त्ति) समर्थोऽहमस्मि सोपधिरेवोदकपारगम
भुतमय उदितः किलाऽऽधबोधोडमाय, ततस्तस्मादुदकापुत्तीर्णः स संयत पवोदकाऽऽण गम
मतहतमायचिन्तया रितीवः। द्विन्दुना कायन सस्निग्धेन वा उदकतीरे तिष्ठेत्, तत्र चेर्या
कुमतमदहरः परस्तृतीयः, पथिकांच प्रतिक्रामेन चैतत् कुर्यात् । भाचा.२ ० १ चू०
सकमजगद्धितकाम्यया पवित्रः॥७॥ ३५.१००।
अयमिदमधिकृत्य लोकलोको
सरपथभकभयं नमाश यस्मात् । पउ-ननु-अव्य० । अस्यायाम, आव. .।
गुरुमत व चोपपतिकाथै, पउअ-नि [न्य युत-नः । चतुरशीतियकगुणिते नियुताके, महि परिपन्धि बिरम्य बोधकत्वम् ॥ स्व.२ ग०४न । जी० । अनु । भ०।
अपि च नियतकृतस्पजन्यबोषा
विषमधियो विरहोऽत्र शाब्दबोधे। परग्रंग-नि[न्य] युताग-न। चतुरशीतिसक्षगुणिते प्र
सनियतमनुयायि तत्परत्वं, युते, अनु० । स्था० । जी।
तदिह मतस्तदतज्ञकयोधनेदः॥. उन-नकुल-पुं० । वनौ, उपा०२०। सूत्रः । 'नेवला'
न च शुकवचनादतत्परादइति स्याते जीवे, प्रज्ञा०१ पद । माद्रीजाते पाप/राजपुत्रे, का.
प्यधिगमदर्शनतः प्रतीपमेतत् । १७०१६ अावाद्यन्नेदे, प्रा. चू. १५०रा०। (नकुलो
बुतमयमपहाय बोधियुम्मे, दाहरणम् "अणणुओग" शब्द प्रथमभागे ५८७ पृष्ठे कष्टव्यम)
यदिहन तत्परताधियोऽनपेक्षाः॥१०॥
पतुम्तात्पर्यमझात्वा-ऽप्येतचुन्नीय बास्तवम् । एनलय-नकुलक-पुं• 'नौली' इतिच्याते सायकभरणबखे,
प्रामाण्यमप्रमाणेऽपि, वाक्ये सम्यग्दशां मतम् ॥ ११ ॥ वृ०४०।
सम्यक तस्य मिथ्यात्वं, मिथ्याष्टिपरिग्रहात । उली-न (ना) कुली-बी०। सर्पविद्याप्रतिपक-तापां वि.
मिथ्याभुतस्य सम्यक्रवं, सम्यग्दृष्टिप्रहादतः॥१२॥ पायाम, विशे० । जी०। कल्प० । प्रा०म० । प्रा००।ती। लौकिकाम्यपि वाक्यानि,प्रमाणानि भूतार्थतः।
तात्पर्याय प्रमाणं तु, सप्तभकाऽऽत्मकं वः ॥ १३॥ ओरएस-नयोपदेश-पुं०। जिनप्रबचने, सर्व वस्त्वनन्तधर्माः
माप्रमाणं प्रमाण वा, स्वतः किं स्वतःभुतम् । ऽऽत्मकतया संकीर्णस्वजावमिति तत्परिच्छेदकेन प्रमाणेनापि
इति यत् कल्पभाष्योकं, तदित्यमुपपद्यते ॥ १४॥ तथैव भवितव्यमित्वसंकीर्णप्रतिनियतधर्मप्रकारकम्यवहारसिब्बे समर्थानां नयानां व्युत्पादने, तदर्थगमें प्रत्येकानयो।
तात्पर्य बल्वपेक्षामय इति च समं स्थापितं शाखगर्ने,
तत्काछोलैर्विचिौः समयजलानधौ जायते चिद्विवर्सः । सदविषयच यशोविजयकृतनयामृततरक्रिणीनाम्यां
यत् षेकं निस्तर परमसुखमय ब्रह्म सर्वातिशायि, नयोपदेशटीकायां दर्शितो यथा
स्थाविज्ञानस्वभावं तदिह दहतु बोनस्पसंकल्पजाबम१५॥ "नयोपदेशटीकेयं, नयामृततरक्रिणी।
मिक्षेपा वा नया वातदुभयजनिताः सप्तजामकाबा, सेव्यताममृतप्राप्यै, मिथ्यात्वविषतापहव ॥
धाराः सार्ववारः परगुणरचनाजातरोचिष्णुभाषाः। सबलविषयसन्निविष्टधर्म
यस्थाने भान्ति किश्चिम निरूपधिचिदुदबुष्यबस्वनावात, न्यातकरसरशल्याऽऽविनानाम ।
तपस्वीयमुः प्रकटय भगवन!बाढमात्मरप्रसीद"१६॥ अयति भगवतो मयोपदेशा,
इति महोपासावश्रीकल्याणविजयमलिशियमुख्यपरिकतश्री.
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(१७४०) गोवदेस
अभिधानराजेन्द्रः। लाभविजयगणिशिघ्यावतंसपएिकतजीतविनयगणिसतीर्यति- (हति'दहर'शब्दे वक्ष्यते) परिएनेमेः प्रथमशिच्चे भाषके, करप.
यावजयगांणचरणकमलसविना पण्डितभी-| ७कण। प्रा०यू० । ति०। मा०म० । काशीखे नाविकभेदे,ती०। पविजयगणिसहोदरेणोपाध्यायश्रीयशोबिजयगाणना विरचि
तत्तमताऽमृततरक्रिणी माग्नी नयोपदेशटीका संपूर्णा । नयो ।
काइयां नन्दाभिधानो नाचिकस्तरिपण्यजिघृकया मुमुधणं--प्रव्यानन्यथै, "णं नम्ब ||२०३।। शौरसैन्यां नन्च.
मचि विराज्य तस्य हुङ्कारेण भस्मीभ्य गृहकोकिलहससिंहथे णमिति निपातः प्रयोक्तव्यः। अफलोदया,णं अग्यामिस्सोहि भवान् यथासंख्यं सभामृगाङ्कतीराजनगिरिमवाप्य तस्यैवानपढमस्येव आणतं, भवं मे भगदो चलदि । पार्षे वाक्या- गारस्य तेजोनिसर्गेण विपच चास्यामेव (काश्यां) पुर्वी बमलङ्कारेऽपि दृश्यते-नमोऽन्धुणं । जया णं तया णं ।प्रा०४ पाद । नूत्वा तत्रैव निधनमधिगत्यास्यामेव राजा समजनिष्ट जातितेणं काले ते समपणं । णमिति वाक्यालङ्कारे। सूत्र०१ स्मरसाई लोकमकरोत. अन्येद्यस्तवैवागतं तमनगारं समअ० ११ मा ति० । प्रम० । रा०। औ. कल्प० ।स।
स्थापूरणाद्विलायाभयदानपुरस्सरमुपगत्य च क्षमयित्वा परमाल० प्र०ा विशे० स्था० । प्रो, अभ्युपगमसूचने, सम्म० २ तोऽनत, सिकश्च धर्मचिः क्रमात । कापड । निपातानामनेकार्थत्वात (प्रज्ञा० १५ पद) णमि
सा चेयं समस्या विक्रयात्युपसंहारवाक्यम् । रा० । “णे णं मि अम्मि आम्द मम्ह में
"गंगाए नाविको नंदो, सभाए घरकोसो। ममं मिमं अहं प्रमा"॥८३।१०७॥ इत्यनेन ममासहित
हंसो मयंगतीराप, सीहो अंजणपब्वर ॥१॥ स्पास्मदो णमादेशः । प्रा० ३ पाद । 'शं' इत्यात्मनिर्देशे, निo
बाणारसीए बभुत्रो, राया तस्थेव भागयो। १०२ उ०।
एपसिं घाययो जानो, सो श्त्येव समागो॥२॥" जंगल-लागल-10 "लाहल-लाल-लास्से चाऽऽर्णः "॥
ती० ३७ कम्प । श्रा० काममातं०।(राग'शब्दे ज्दा. ८।१।२५६॥ इत्यनेन सत्रेण मादिलस्य णत्वं पा । षायाम,प्रा०
हरणम्)बीरमोक्षात्पश्चाशत्तमे वर्षे जाते पाटलिपुत्रस्व महा
राजे, ति। नव मन्दा मासन्, तत्र प्रथमस्य यावदशमस्य वृचं गंगलग्गाम-लाङ्गलग्राम-पुं०। स्वनामख्याते प्रामे, या वासु.
कथानुयोगादवसेयम, अन्न नोपन्यते । नवमेन नन्देन चाणदेवगृहे वीरजिनः प्रतिमया स्थितः, तेन सह विहर गोशा- क्यो विप्रो यथा कदर्थितो, यथा च-"कोशैव भृत्यश्च निबद्ध लो डिम्जनापनयाऽक्षिविक्रियां कुर्वन् तत्पित्रादिभिः कुहितो मूलं.पुत्रश्च भृत्यैश्च विवृद्धशास्त्रम् । उत्पाट्य नन्दं परिवर्तयामि, मुनिपिशाच इत्युपेक्षितः । कल्प० ६ क्षणामामामा चू०। | महाबुमं वायुरिवोप्रवेगः" ॥१॥ इति प्रतिक्षाऽनुसारेण नन्दगंगाझिय-लागझिक-पुं० । गलावलम्बितसुवर्णाऽऽविमय- मुन्मूलितवान् । मा० क०। नं। प्राचा०। मा०५०। मा. लालप्रतिकृतिधारिणि भविशेषे, ज० ए श० ३२० । जं०।
मापाव.। (एतच चंदगुत्त' शब्द सतीयभागे १०६८ पृष्ठे द. करूप० । ०।
शिंतम)(चन्द्रगुप्तस्य बिन्दुसार,तस्य चाशोकश्री,तस्य कुणा.
लः, तस्य संप्रतिमहाराज इत्येवं मौर्यवंश्यस्याशोकधिवः भे. गंगुल-लागृल-ना"लाइल-लागल-मास्यूले वादेर्णः"।
णिकापरनामत्वाङ्गीकारे नन्दवंशो वीरजिनाद् पूर्वमेव द्वितीये १।२५६ । इति सूत्रेण मादिलस्य णत्वं वा । पुच्ने, प्रा० तीये या शतके जायते इति युकं स्यात्,तद् न संजाव्यते, तस्मा. १पाद । ०।
मौर्यादशोकभीनाम्नोऽशोकचन्द्रापरनामा वीरजिनसमकालीगंगोलिय-मारगोलिक-पुं०।दिमवसः पश्चिमावां दिशि प- नाणिकोऽन्य इति वीरजिनमोकादागेव नन्दवंशो मायवंशम्भ यन्तादारभ्य पश्चिमोत्तरस्यां दिशि त्रीणि योजनशतानि लब- पाटलिपुत्रराज्यमकार्षीत इति प्रतिनाति) (नवानां नन्दानां समुझमवगाह्मोपरि दंष्ट्रायां चतुर्थेऽन्तरद्वीपे, कर्म०१ कर्मः।
कल्पकवंश्या मन्त्रिण मासन् इति 'कप्पथ' शब्द सृतीयभागे नं० । जी । स्था० । तवासिनि मनुष्ये च । प्रका०१ पद।
२३२ पृष्ठे उक्तम्) (नवमनन्दस्य मन्त्रितां शकटासुतः स्थूलपंतग-नादेशी-बमे.वनवृत्तषु परिहीयमाणेषु भगवता बसो
भद्रोनरीकृत्य प्रवधाजेति 'थूनमई' शब्दे वदयते ) ('नंदराय'
शम्देऽनुपदमेव १७५० पृष्ठेऽस्य संक्षिप्तवक्तव्यतां वक्ष्यामि ) त्पादनिमितं परशिल्पमुत्पादितम । मा. म. १.१
बीरजिनकाने ब्राह्मणग्रामे खनामख्याते प्रधानपुरुषे, कल्प० । खाए। यथा-'मुहणंतर्ग' मुखवालिका। माष०५ मा
ततः स्वामी ब्राह्मणग्राममगात् , तत्र नन्दोपनन्दमातृदय संबद-नन्द-पुं० । नन्दबलि, नन्दतीति वा नन्दः। समरे, का.१| म्धिनी द्वौ पाटकी, स्वामी नन्दपाटके प्रविष्टः, प्रतिलाजितश्च भु.१०।" जय जब गंदा! जय जय नदा!" नन्दति स- मन्दन।गोशालस्तूपनन्दगृहे पर्युषितान्नदानेन रुष्टः, यद्यस्ति मे मुखो भवतीति नन्दः। तस्य सम्बोधनं हे नन्दा! दीर्घन्ध प्रा. धर्माचार्यस्य तपस्तेजस्तदाऽस्य गृहं दह्यतामिति शशाप । तदनु कृतत्वाताकल्प०५क्षण । प्रसास्वनामन्याते राजगहजेम- तगृहमासनदेवता ददाह । कल्प०६ क्षण । आचामा. णिकारभेष्ठिनि,सचमणिकारश्रेष्ठीराजगडे वीरजिनास्तिके भा. म.। श्रेयांसजिनस्य प्रथमनिकादायके, प्रा० म०१ अ. १ घको भूस्वादिमिथ्यास्वंगतःभ्रषिकाया राजगृहस्थबाहिरा- खएक । सः। पाटलिपुत्रे स्वनामक्याते लुब्धवणिजि,मा० म०१ रोग्यशालाऽऽदिशोभितधनसपमचतुष्कपरिवृतां नन्दापुष्करिणी प्र०२ खएर । (उदाहरणं 'लोभ' शब्दे वक्ष्यते)। उत्सपियां निर्माप्य तदश्यवसायेन मृत्वा तत्रैव पुष्करिणयां दर्दुरो जाता। अनिष्यमाणे प्रथमवासुदेवे,सानिका नासिक्यपुरे सुन्दरीजसतो जातिसरणेन वीरसमवसरणमागच्छर श्रेणिकावकिशो. तरि, नापसोहासने.का.१७०१ प्रानका मामा मुहूर्त. रेणाऽऽक्रान्तो मृत्वा सौधर्म कल्पेदईरेऽवतंसके दर्दुरो नामदे- योगभेद, द०५०। नन्दने, कल्प०७क्षण । सप्तमदेवलोकसे बो जाता, सतयुवा-महाविहे सेत्स्यति।का०१०१३०।। विमानभेद, सप्तमदेवलोके नन्दाजधानि विमानानि । स०।
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(१७४१) गंद अनिधानराजेन्दः ।
णंदणवण "जे देवा दणदणदावतं गंदप्पभं खंदकंत पदव ण. जोधणसए नवेगारसभाए जोअणस्स भंतोगिरिविक्खनो। दलेस्सं गंदज्जवं गंदसिंगणंदसिद्ध णंदकूडं गंमुत्तरचर्डसगं
अट्ठावीसं जोमणसहस्साई तिमि य सोलमुत्तरे नोपणविमाणं देवताए उववन्ना। "स० १५ सम० । णंदग-नन्दक-पुं० । समृधिकारके नन्दकाभिधाने बासुदे- सए अट्ठय कारसजाए जोयणस्स अंतो गिरिपरिरयेणं । वखने, स.।
से गं एगाए पउमवरवेदियाए एमेण य वणमंटेणं सबमो गंदण-नन्दन-पुं०। नन्दतीति नन्दनः। 'टुनदि' समृगौ, "नान्दि. समंता संपरिक्खित्ते वरणभोण जाव देवा पासयंति । अहिपचाऽऽदिन्यो ल्युणिन्यचः" ॥३॥१॥१३४॥ इति (पा०)च्युट। | मंदरस्स छ पन्वयस्स पुरच्छिमेणं एत्य एवं महं एगे नं०। पुत्रे, कल्प० ७क्कण । भरतवर्षे जाते सप्तमे बलदेवे, प्रथ. सिकाययणे पप्पत्ते । एवं चउद्दिसिं चत्तारि सिकाययणा, २०९द्वार । ति। ती भाव० स०। पञ्चविंशे जवे श्रीवीरजिने,
विदिसामु पुक्खरिणीमो, तं चेच पमाणं सिखाययणाणं पञ्चविंशतिभवे इहैव भरतकेत्रे उत्रिकायां नगर्यो जितशत्रुनृप
पुक्खारिणीणं च, पासायवमेंसमा तहेब सकेसाणाणं, तेजकादेन्याः कुकी पञ्चविंशतिवर्षत्रताऽऽयुनन्दनो नाम पुत्रः। कल्प. २ क्षण । भा०म० प्रा० चू०। सः श्रेणिकपुत्रवश्वा
तेणं चेव पमाणे। नम्दनाबा अपत्ये,सच वीरजिनान्तिके प्रवज्य द्वौ वषाँ प्रमज्या
“कहिः " इत्यादि प्रमाप्रतीतः । उत्तरसत्रे-गौतम! भमशापर्याय पालयित्वा मृत्वाऽच्युते कल्पे देवो नूत्वा महाविदेहे
बचनस्य बहुसमरमणीयाद् नूमिभागात्पञ्चयोजनशतान्यूर्द्धमुसेत्स्यति । इति कल्पावतंसिकाया दशमेऽभ्ययने पचितम् ।
स्परय गत्वाऽप्रतो, वद्धिष्णुम्विति गम्यम् । मन्दरे पर्वते एकस्मिन् नि०१ ७.२ चर्ग १ अ.। सर्वाङ्गसुन्दर्याः पूर्वनवसत्कभ्रातृजा
प्रदेशे नन्दनवनं नाम बनं प्राप्तम् । पञ्च योजनशतानि चक्रवाययोः साकेतनगरे उत्पमयोः पितरि, प्रा० म०१ १०१सएम।
मविष्कम्भेन-चक्रवातविशेषस्य सामान्ये ऽनुप्रवेशात् सम(सर्वाङ्गसुन्दा लोभे उदाहरणम् ) पूर्वनवे मनीतीर्थकजीवे,
चक्रवालं, तस्य यो विष्कम्भः स्वपरिकेप्यस्य सर्वतः समप्रमास.। मोकाबा नगर्या बहिश्त्ये, "तीसे गंभोगाए नयरीए
णतया विष्कम्भस्तेन, अनेन विषमचक्रवालाऽऽदिविष्कम्भनिबहिया सत्सरपुरच्छिमे दिसीनाए संदणनामं चेश्य होत्था।"
रासः । अत एव वृत्तं, तच्च मोदकाऽऽदिवद् घनमपि स्यादत ज० ३.१ उ०। भृत्ये, दे. ना०४ बर्ग।
माह-वलयाकारं मध्ये गुषिरं यत संस्थानं तेन सस्थितम् । णंदणकर-नन्दनकर-त्रिका वृद्धिकरे, प्रभ०४ भाद्वार।
श्दमेव घोतयति-मन्दरं पर्वत सर्वतः समन्तात् संपरिक्तिशंदणकूम-नन्दनकूट-न० । नन्दनवनकृटे, स०५०. समः । प्स वेष्टयित्वा तिष्ठति । अथ मेरोपहिर्विष्कम्नाऽऽदिमानमाहति। ('कूड' शब्दे तृतीयभागे ६३२ पृष्ठे वर्णक उक्तः)
(णव जोयण इत्यादि) मेखलाविजागे हि गिरीणां वा
याभ्यन्तररूपं विष्कम्भद्यं भवति, तत्र मेरी बाह्यविष्कम्भोणंदणभद-नन्दनज-पुं०। आर्यसंभूतिविजयस्य माउरस
ऽयम्-नव योजनसहस्राणि नवशतानि चतुःपञ्चाशदधिकानि गोत्रस्य प्रथमशिष्ये, कल्प.क्षण।
षट् चैकादश भागा योजनस्य । तथाहि मेरोरूर्द्धमेकस्मिन् पंदणवण-नन्दनवन-म० । मेरोः पञ्चयोजनशतोच्छुितप्रथम- योजने गते विष्कम्भसंबन्धी एकादशभागो योजनस्य गतो मेखनाभाविनि पञ्चयोजनशतोच्छिते स्वनामके द्वितीयवने,
लभ्यते इति प्रागुक्तं, ततोऽत्र विराशिकं यदि पकयोजनास. १७ सम ।ज्यो । का० । सूत्र० । । "दो गंदणव
ssरोहे मेरोफपरि व्यासस्थापचयः सर्वत्रैकादशजागो योखा।" मेरोचत्वारि वनानि
जनस्यैको सन्यते, ततः पञ्चशतयोजनाऽऽरोहे कोऽपचयो "भूमी भहसासं, मेहबजुयसम्मि दोषि रम्मा।
लत्यते । लब्धानि ४५ योजनानि । एतत समजूतलगतभादणसोमणसाई, पंडगपरिमंडियं सिहरं ॥१॥"
व्यासाद् दशयोजनसहस्ररूपात त्यज्यते, जातं यथोक्तं मानम्। इति पचनाद् मेरोत्वेि नन्दनवनस्यापि द्वित्वम् । स्था० २
एतच्च नन्दनवनस्य बहिः पूर्वापरयोरुत्तरदकिणयोर्चा अन्तठा० ३ ०। मोघः।
योः संभवति,प्रतो नन्दनवनाद बहिर्वर्तित्वेन वाह्यो गिरिधिष्क
म्भः । तथा एकर्षिशयोजनसहस्राणि चत्वारि शतानि पकोनन्दनवनवतव्यता
नाशीत्यधिकानि, किश्चिद्विशेषाधिकानि । इत्ययं बाह्यो गिरिपकहि भंते ! मंदरे पवए पंदणवणे णामं वणे पक्ष
रिरयो, मेरुपरिधिरित्यर्थः । णमिति वाक्यालङ्कारे । अन्तर्गिरिने। गोयमा ! जसालवणस्स बहुसमरमणिज्जाओ ज. विष्कम्भो नन्दनवनादर्नाक यो गिरिविस्तारः सोऽष्टायोजनसमिभागानो पंच जोयाणसयाई उठं अप्पइत्ता, एत्थ णं मंदरे हस्राणि नव च योजनशतानि चतुःपञ्चाशदधिकानि षट् व पन्नए पंदणवणे णाम वणे पसत्ते, पंच जोअणसयाई |
एकादश भागा योजनस्येत्येतावत्प्रमाणः । अयं च बाह्यगिरिचकवासविक्खंजेणं बट्टे वलयाकारसंठिए, जेणं मंदरं पव्वयं
विष्कम्ने सहस्रोने यथोक्तः स्यात् । तथा अष्टाविंशतियोजन
सहस्राणि, त्रीणि च योजनशतानि षोडशाधिकानि, भष्ट - सम्बो समंता संपरिक्खित्ता णं चिट्ठ। जव जोमणस.
कादश भागा योजनस्यैतावत्प्रमाणोऽन्तगिरिपरिरय इति । ज. हस्साई व य चनप्पले जोमणसए चेगारसनाए जो- मिति प्राग्वत् । भवात्र पावरवेदिकाऽऽद्याह-" से णं पगाए श्रणस्स बाहिगिरिविक्वंनो। एगतीसं जोअणसहस्साई
पटम"इत्यादि व्यक्तम् । अथात्र सिकायतनाऽऽविवक्तव्यताचत्तारि अप्रउणासीए जोमणसए किंचि बिसेसाहिए वा
मारभते-(मंदरस्स णमित्यादि ) मन्दरस्य पूर्वस्याम, अत्र
मन्दने पञ्चाशत् योजनातिक्रमे महदकं सिहायतनं प्रशाप्तम । हिं गिरिपरिरए णं । अह जोअणसहस्साई एव य चउप्पो (पवामिति) भरशालबनानुसारेण चतसषु दिक्षु चत्वारि
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(१७५०) गंदगावण प्रनिधानराजेन्फः।
गंदराय सिकाऽऽयतनानि,चिदिक्षु पुष्करिएयातदेव प्रमाण सिकाऽऽवत. ताभूताचासेणावेणारेणाऽऽस्याः क्रमादेकादिसप्ताऽऽचारभुतनानां पुष्करिणीनां च यद्रशाले उक्तम । प्रासादावतंसकास्त- पारियोइजनियत । तत्रैव पुरे कोशा वेश्या, तजामिरुपकोश। येव शकेशानयोर्वाच्याः, यथा भरुशाले, दक्षिणदिसंबद्ध- चाताम् । तत्रैव च बाणिक्यः सचिवो नन्दं समूलमुन्मूविदिग्वर्तिनः प्रासादाः शकस्य, तथोत्तरदिसंबरूविदिग- व्य मौर्यवंश्यं श्रीचन्द्रगुप्तं न्वषीविशद्विशां पतित्थे । तबर्तिनस्तु ईशानेन्जस्य,तेनैव प्रमाणेन पश्चयोजनशतोषत्वाऽऽदि. वंशे तु बिन्दुसारोऽशोकश्रीः कुणाससूनुखिखएकमरताधिपः मेति। अत्र च पुष्करिणीनां नामानि सूत्रकारामिखितत्वाद,सि- परमाईतोऽनार्यदेशेवपि प्रवर्तितश्रमणविहारः संप्रतिमहापिप्रमादावा भादशेषु न रश्यन्ते इति । सत्रैशाम्यादिप्रासाद. राजधाभवत् । मूलदेवः सकसकलाकलापको बलसार्थवाहो क्रमादिमानि नामानि बटव्यानि पूज्यप्रणीतक्षेत्रविचारत:- महाधनी, देवदत्ताच गाणिक्यं तत्रैव प्रागमवत् । समास्वातिनन्दोत्तरारनन्दासुनन्दा ३ नन्दिवर्कना ४। तथा नन्दिषेणा वाचकः कोभीपणिगोत्रः पञ्चशतसंस्कृतप्रकरणप्रसिकः तत्रैव १अमोघा गोस्तूपा ३ सुदर्शना४ा तथा सुन्नका १ विशामा २ तरवार्धाधिगमसूत्र सभाध्यं व्यरचयत । चतुरशीतिर्वादशालाच कुमुदा ३ पुएमरीकिणी४। तथा विजया १ बैजयन्ती २ अपरा- तत्रैव विषां परितोपाय पर्यणसिषुः । तत्रैव चोचुगतरङ्गोत्सजिता ३ जयन्तीय इति। जं०४ बङ्कास्थान(अत्र नन्दनाऽब्दी- गितगगनाङ्गणा परिवहति महानदी गङ्गा,तस्यैव चोत्तरादिशि नि नव कूटानि 'कृ' शब्दे तृतीयजागे ६२२ पृष्ठे उक्तानि ) द्वा-1 विपुलं वालुकास्थलं नातिहरे । यत्राऽऽरह्य कल्की,प्रातिपदा35रिकायां रैवताचलपर्वतस्य बने, अन्त०५वर्गरमा "तस्स गं चार्यप्रमुखसाश्च सलिलप्लबात्रिस्तरीता।तत्रैव च भविष्यति रेवयगस्स पब्वयस्स मदरसामंते, पत्य णं गंदणषणे वाम उ- कल्किनृपतिः।धर्मदचाजितशत्रुमेघघोषाऽऽदयश्चतबंश्याः। तत्रैव जाणे होत्या ।" नि०१६०५ वर्ग १०। मा००। प्रा. च बियतेऽन्तर्निहितनन्दसत्ककनकनवतिरूव्यकोटयः पत्र म.।का। विजयपुरनमरसत्कोद्याने, विपा०२४०४०। स्तूपाः, येषु धनाशया भीलदमयावतीसुरत्राणस्तांस्तानुपाकदणीपिया-नन्दनीपित-पुंभावस्तीनगरीषास्तम्ब स्वना.
मतोपक्रमामातेच तसैन्योपलवायवाकस्पन्त । तत्रैव विहतप.
न्तः भीमरूपाहुमहारागिरिसुहस्तिबजास्वाम्पादयो युगप्रवराऽऽगमन्याते गृहपती, सपा०।
माः,विहरिप्यन्ति च प्रातिपदाचार्याऽऽदयः। तत्रैव महाधमध. तवृत्तम्
नभेष्टिनन्दना रुक्मिणी श्रीवजस्वामिनं प्रतीयन्ती, प्रतियोध्या एवं स्वखु जंबू । तेणं कामेणं तेणं समरणं मावत्थी तेन प्रगवता निर्मोनचूमामणिना प्रवाजिता।तत्रैव मुदर्शनमेष्ठी पायरी, कोहए चेइए, जियसत्तू राया । तत्थ णं सावत्थीए
महषिरभयाराश्या न्यन्तरीवृतया यस्तरमुपसर्गितोऽपि न गंदणीपिया णा गाहाबई परिवसइ । प्रचत्तारिहिरम्प
कोभमभवत। तत्रैव स्थूलनद्रमहामुनिः षट्रसाहारपरः को
शायाचित्रशासायामुत्सादितमदश्चकार वारा बतुमासीम् । कोडीओ णिहाणपनत्ता, वुछिपवित्थरपत्ताओ चत्तारि, ब. सिंहगुहापासिमुनिरपि तत्परिणुस्तत्रैव कोशया तदानीतरया दस गोसाहस्सिएणं वएणं, अस्सिणी नारिया । लकम्बलस्य बन्दनिकामकेपेण प्रतियोध्य पुनश्चास्तरां चरणमामीसमोसढो,जहा आरंदो तरेर गिहिधम्म पडिवज्जइ।
भियमनीकारितः। तत्रैव बादशाब्दे दुर्भिके गळे देशान्तर सामी बहिया विहरह। तए से पंदणीपिया समणो
प्रोषिते सति सुस्थिताऽऽचार्यशिभ्यो पुलकावडश्यीकरणाना.
कबहुषौ चन्द्रगुप्तनृपतिना सह बुभुजाते कियन्त्यपि दिनानि । वासए जाए विहर, तए णं तस्स एंदणीपियस्सपर्ट
सदनु गुरुप्रत्युपासम्नाद्विष्णुगुप्त एव तपोनिरिमकरोता तत्रैव सीसव्वयगुणव्वयं० जाव जावेमाणस्स चोइस संवरा भीबजस्वामी पौरनीजनमनःसंकोभरकणार्थ प्रथमदिने सावितिकता, तडेव बेहपुतं वेद । पम्मपणिति वीसं वासाई
मान्यमेव रूपं विकृत्य, द्वितीयेऽहिचाहो मास्य भगवतो गुणापरिभायं पाणित्ता अरुणगबिमाणे उववाए महाविदो
नुरूपं पमिति देशनारसहतहदयजनमुखात संतापार भुत्वा
उनेकसब्धिमान महलमप्रतिरूपं रूपंचिकुर्म्य सौवर्णसहसपत्रे बासे सिकिहि ति। उपा० ए ० । स्था० । निषध देशनां विधाय राजादिजनताममोदयत । तस्यैव पुरस्प मा० म०।
मध्ये सप्रभावातिया मातृदेवता भासन, तदनुभावात् तत्पुरं पदमाण-नन्दव-निका सौयं मुम्जाने, सं० ।
परैराग्रहवद्भिरपि न बलु प्रहीतुमशाकि।चाणिक्यबचसोत्पा
हिते पुनर्जनात्मएकसे गृहीतबातको चकगुप्तचाणक्यौ। एषदराय-नन्दराज-पु. । पाटलिपुत्रमहाराजे मन्दे, ती।
मानेकसंविधानकनिधाने तत्र नगरेऽष्टादशसु विद्यासु स्मृति तयथा
पुराणेषु च शासप्ततौ कमासु भरतवात्स्यायनचाणिक्यसकरपारसीनाम्ना पाटलिपुत्रं पत्तनमासीतामसमकुसुमबहुखतया सत्रयम,मन्त्रतन्त्रयन्त्रविद्यासुरसबादधातुनिधिवादाखनगुटिकाचकुसुमपुरमित्यपि माम बढमा तन्मध्ये श्रीनेमिचैत्यं राजाका- पावप्रोपरत्नपरीकावास्तुविद्यास्त्रीगजाश्ववृषभाऽऽदिसणेन्द्ररि। तत्र पुरे गजाश्वरयशालाप्रासादसौधनाकारगोपुरपुपयशा- जामाऽऽविप्रन्थेषु काव्येषु च नैपुष्पचणास्तेते पुरुषाः प्रत्यूषकीर्तबासत्राऽऽगाररम्ये चिरं राज्यं जैनधर्म चापासयदुदायिनरेन्द्रः।। भीषनामधेया। प्रार्यरक्षितोपि हि चतुर्दशविद्यास्थानानि तो. तस्मिन्नुपासपौषधेण्यदादापिमारकेण स्वर्गाऽऽतिथ्यं प्रापिते | बाधीत्य दशपुरमागमत् । माद्यास्तु तत्रैवविधा पसन्ति कम, तणिकासुतो मन्दः श्रीवीरमोकाच पष्टिवत्सर्यामतीतायां के योजनसहस्रगमने यानि गजपदानि भवेयुस्तानि प्रत्येक कितिपतिरजनि । तदन्वये सप्त नन्दा नपा जाताः । स्वर्णसहस्रोण पूरयितुमीयते । अन्ये च तिखानामाढके प्रकटे नवमनन्दे राजनि परमार्हस्कल्पकान्वयी शकटाबो मन्श्वभूव। मुफलिते यावन्तस्तिमाः स्युः, तावन्ति हेमसहस्राणि पिम्रति तस्य पुत्री स्थूलनकभीयको, सप्त- पुध्यो यकायकरचाभ- गृहेऽपरेऽनवनामकाः प्रवरगिरिनदीप्रवाहपूरस्वैकदिनोत्पनेन
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(१७५१) दराय प्रनिधानराजेन्द्रः।
यदि गवानपनीतेन संवरं विरचय पोरवं स्वखवितुमसम । म. अन्त०७वर्ग १०ज्ञा० । प्रा०म०। कम्प० । पतमे चकदेलाशजात्यनवाकिशोराणा समुद्रतैः स्कन्धकेशैः कौशाम्बोराजशतानीकमन्त्रिणः सुगुप्तस्य नावां शतानीकपाटलिपुत्रं समन्ताद्वेषयितुमचेष्टन् । इतरे च शालिरत्नदवं राजमहिण्या मृगावत्याः सस्थाम, तथा सूर्पकोणस्थकुस्मा. बेश्मनि बिभरांबभूवुः। तत्रैकः शानिनिभित्रशासिबीजप्र
पाभिप्रहवम्तं वीरभनयन्तं प्रतिलालयन्स्या,तबदचपराक्मुकं सूतिमान, अन्यन गर्दभिकाशालियों बनलूनःपुनः पुनः फलति। राष्ट्रवा अमिनहविशेषषामयमिति निश्चिस्व मृगावतीद्वारा छती० ३५ कल्प।
तानीको रामोपाबन्धः । तदनु दधिवाहनभुल्पुया वसुमनंदई-नन्दवती-नी । श्रेणिकमहाराजभार्यायाम, सा च स्वा धनष्ठिना पुत्रीत्वेन क्रीतवा चन्दनानाम्न्या पूरितोऽनिराजगृहे स्वनामस्थाता वोरान्तिके प्रवजिता विशतिवर्षपर्याया
प्रहः । मा. क. । मा०म०।(इति 'वीर'शम्दे वक्ष्यते) सिया । उपा०१ भारतिकरपर्वते शकसामानिकानां द.
पाराणस्यां नन्दभीमातरि भकासनभेडिभाषायाम, मा० ० क्षिसदिकस्थायां राजधान्याम, ही।
११ भम् । तीाभावः। तालफलाऽऽहतपुरुषनागन्यां भी
ऋषनदेवेन परिणीतायां बाबसीसुन्दरीतिमिथुनकमातरि, दसंहिया-नन्दसंहिता-सी०। नन्दनिर्मितप्रन्यपकता, मा.
मा० म० १.१बण्ड। रस्त्वाचकपर्वतस्य द्वितीम.१०१सएक।
बतपनीपटवास्तम्यायां दिककुमार्याम, मा०म० १.२
सारा प्रा.काही.ती स्थाo101 उत्तरपोरस्स्ये दसिरी-नन्दभी-श्री. । धाराणस्यां भद्रसेनजीण श्रेष्ठिनः
रतिकरपर्वते ईशानाप्रमादण्या रुष्णराजराजधान्याम, स्था. सुतायाम, ती"वाणारसीए को, पासे गोचारिभदसणेय।
४०२उती.बी०। प्रा० . । सनामप्रसिकायां मंदसिरी परमदह-रायगिहे सेणिए बीरे " ॥१॥
पुष्करिण्याम, तत्र शाश्वतपुष्करिएयः सर्वा अपि सामान्येन अत्रैव पुर्यो महासनो जीर्णश्रेष्ठी, तस्य भार्या नन्दा । तयोः
मन्देत्युच्यन्ते । विशेषेण तु-१नन्दा नन्दोत्तरा ३ श्रानन्दा ४ पुत्री नन्दीश्वरकरहिता। अत्रैव कोष्ठके चैत्वे अन्यदा पार्श्व
नन्दिधनेति चतस्रोऽजनकपर्वतवर्णके वर्णिताः सा०४ स्वामी समवासरत् नन्दधीः प्रावाजीद गोचारिप याशिष्य.
ग.३०ाजीगरामबाग (राजगृहे नन्देन मणिकारभेष्टिना तयार्पिता।साच पूर्वमुग्रंविहत्य पश्चादवसभीभूता इस्तपादा-1
कारिताया नन्दायाः पुष्करिण्याः वर्षको पदर' शन्दे ऽऽयकालबत,साध्वीभिर्वार्यमाणातु बिजक्तायां बसलौ स्थिता,
वक्ष्यते) गवि, दे. ना.४ वर्ग। तदनालोच्य मृता महिमवति पचहरे श्रीदेवी जके देवगणिका, भगवतः श्रीवीरस्य राजगृहे समवसतस्याने नाट्य
यंदावत-नन्द्यावर्त-पुं०। प्रतिदिनवकोणके खस्तिके, अं०३ विधिमुपदर्य गता । अन्ये त्याहु:-करिणीरूपेण वातनिसर्गम- वहारा। प्रकाश चतुरिन्छियजीवभेदे, जो०१ प्रति । करोत, श्रेणिकेण तस्याः स्वरूपे पृष्टे भगवानास्वत् तस्याः पूर्वजवाबसमतावृतम् । ती. ३७ कल्प । मा०काभावः। शंदि-नन्दि (न्दी)-पुं०।सी। 'टुनदि' धातोः नुमि नन्दन दा-नन्दा-श्री. ज्योतिषसतिते तिथिभेदे तत्र प्रतिपत,
नन्दिः हर्ष, मन्दिहेतुत्वाद कानपत्रके, नन्दन्ति प्राणिनोऽनेना
स्मिन् वेति मन्दिा प्रत्ययः।काते, प्रा.म.१.१ खार। पही, एकादशी व नन्दा।चं.प्र०१०पाहुना सू०प्र०ाद.
मथनन्दिरितिका शब्दार्थः। डब्बते-टुनदि' समृदौ इत्यस्य प०। भीशीतलजिनस्व मातरि, प्रव०१३ द्वार ।तिका भाव।
भातोः "इदितो नुम् -"॥७॥१८॥ शत नुमि विहिते नन्दस० । स्था० । वीरजिनसत्कस्य प्रचलनातुनर्नाम गणधरस्य
मन्दिः, प्रमोदो हर्ष प्रत्ययः। नन्दिहेतुत्वात् शानपश्चकामिमातरि, मा. म.१०२ खपमा प्रा०० । श्रेणिकभार्या
भाषकमध्ययनमपि मन्दिः। नन्दन्ति प्राणिनोऽनेनास्मिन ति बामभयकुमारमातरि, नि. १. १ वर्ग १भा मनु। मावबेचातरनगरे कस्यचित् कोपपनस्य भेष्टिनो ऽहिताऽपि
मन्दिः । श्वमेव प्रस्तुतमध्ययनय माविरलिकत्वाचाभ्यपनेपि अनाssरता भेणिकन तत्र गत्वा परिणीता, क्रमेणाभवकुमार
वर्तमानस्य नन्दिशब्दस्य पुंस्त्वम "सर्वधातुभ्यः" इत्याला. नाम पुत्र अनितवती।वेबसवःप्राप्न साकं राजगृहमाग
दिकप्रत्ययः। अपरेतुनन्दीति परन्ति,ते"
ईशादिभ्यः"ति ता श्रेणिकेन संमानिता राजभोगानुपसिषेवे। नं.। (इति
सवादीकप्रत्ययं समानीय स्त्रीत्वेऽपि वयन्ति । ततश्च "स्तोसप्पसिया' शम्दे द्वितीयमागे ८१७ पूछे खुदकोदाहरणा
अपत्वात्"शा३शाइतिकीप्रत्ययास चनन्दिग्धतुर्धा ।तबसरे प्रस्थपादि)
पचा-नामनन्दिः, स्थापनानन्दिः, कम्यनन्दिः भावनन्दिश्च ।
सत्र नामनन्दिर्षस्य कस्यचिखीवच्या जीवस्य वा नन्दियतदनन्तरम
दार्थरहितस्व नन्दिरिति नाम कियते, स नाम्ना नन्दिनामनएवं खलु जंबू ! तेणं कालेज तेणं समरणं राप
न्दिा यहा-नामनामवतोरनेदोपचाराद नाम चासो नन्दिचना.
मनन्दिा नन्दिरिति नामवान् नाममन्दिः। तथा-सद्भावमाभित्थ गिहे पपरे, गुणसिलए चेइए, सेणिए राया। वमनो।
प्यकर्मादिषु,असद्भावं चाऽऽभित्याशवराटकाऽऽदिषु भावतस्स सेपियस्स रखोशंदा नामं देवी होत्या वयो। मन्दिर्मतः । साम्वादेर्वा सपना स स्थापनानादिः । अथवा द्वा. सामी समोसरे, परिसा जिम्बया, वेसाणंदा देवी:- दशविधतूर्यकपकममन्दिस्थापना स्थापनामन्दिः । बननमीसे कहावेबसमाणे हद्वतुष्हा कोमुंबियपुरिसे सहादेवि,
दिविधा-पागमतो, गोमागमतमा तत्रागमतो भन्दिपदा
यस्य काता, तत्रानुपयुकः, अनुपयोगो कम्पमिति वचनात् । सहावेतिचा जा शं महा पठमावती. मात्र एकारस
मोमागमतस्तु त्रिधा । तपा-कशरीररूपनन्दि, मन्यशरीरगाई पहिनिचाबीसंबासाइं परियाबाब सिब्य । बबनविरोरभन्यशरीरम्यतिरिकदम्बनन्दिया तत्र ब.
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(१७५२) दि अभिधानराजेन्द्रः।
दि प्रन्दिपदार्थवस्थापगतजोषितस्य शरीरं सिद्धशिलातबादि- प इति व्युत्पत्तेः । कदाचित्तद्वाचकशब्दः, अभिलाप्यते वस्वगतं तद् भूतभावतया शरीरद्रन्यनन्दिः । यस्तु बासको ने- | जिलाप्यमनेनेति व्युत्पादनात । तत्र यदा मभिमाप्यमानतोदानी मन्दिशब्दार्थमबबुध्यते, अथ चावश्यमायल्यां तेनैव च्यते, तदाऽभिलाप्यानिमापकयोरभेदो, धर्मधर्मिमावात् । यदा शरीरसमुच्छयेण नोत्स्यते, स भाविभाषनिवन्धनत्वाद् भव्य- तु तवाचकशब्दः, तदा भेदः, शब्दार्थयोभिचदेशत्वादिनस्वशरीरव्यनन्दिः । इह हि यद भूतभावं, भाविभा वा वस्तु, रूपत्वाच । कानशब्देनापि कचिद् केयस्य कानमत्ताच्यते, तद् यथाक्रमं विवक्षिततभाविनावापेकया कन्यमिति तव. कातिछानमिति नाचे व्युत्पादनात् । कदाचिदात्मधर्मों, ज्ञायतेबेदिनां प्रसिद्धिमुपागमत् । उक्तंच-"नूतस्य प्राबिनो प्रावाः, ऽनेनेति ज्ञानमिति करणे व्युत्पत्तेः। तत्र यदा कायमानता, तदा भावस्य हि कारणं तु यलोके । तद् द्रव्यं नत्त्वक, सचेतना- ज्ञानकेययोरजेदो, धर्मधर्मिनावात् ।यदा स्वारमधर्मः,तदा भेदो, चेतनं कथितम्"॥१॥शरीरभव्यशरीरव्यतिरिक्तस्तु . भिन्नस्वरूपत्वात् । एवमिहापि नन्दिशब्दो यदा भाववचनो व्यनन्दिः क्रियाविशिष्टो हादशविधतूर्यसमुदायः । उक्तं च- मन्दनं नन्दिरिति, तदा नन्दनं समृद्धीजवनं वाचितस्याधिग"दन्वे तूरसमुदो ।" तानि च द्वादशविधतूर्याएयनि- तिरिखनान्तरं, मनमपि चैवस्वरूपमिति परस्परमभेदः। "भा १ मुकुंद २ मद्दल, ३ कडंप मारि ५ हक ६ यदा तु प्राचीनावस्थामपेक्ष्य करणसाधनो नन्दिशम्दो, नन्द्यतेकंसामा ७ । काहल ८ तबिमा १ बंसो १०, संखो ११ प. ऽनेनेति नन्दिरिति, तदा नेदः, कालनेदेन दादिति । वृ.१ णवो ११ य बारसमो"॥१॥ भावनन्दिविंधा-भागमतो, नोग्रा. १० प्रा०चू० । नमस्कारत्रयरूपे मङ्गले, प० २ अधिः। गमतश्च । तमाऽऽगमतो नन्दिपदार्थस्य काता, तत्र चोपयुक्तः, विशे० । भावकश्राविकाखां नन्दीसूत्रभावणं "नाणं पंचविदं "उपयोगो भावनिक्केपः" इतिवचनात् । नोमागमतः पाप्रकारो- पएणतं " इत्यादिरूपं, नमस्कारत्रयरूपं वा क्रियते इति शानसमुदयः, " नावम्मि य पंच नाणा" इति वचनात् । नं०।। प्रश्न, उत्तरम-भत्र भावकाधिकाणां नन्दीसूत्र नमस्कारत्रयअथवा पञ्चप्रकारज्ञानस्वरूपमात्रप्रतिपादकोऽध्ययनविशेषो भा. रूपं भाव्यते इति । ३१ प्र०। ही०४ प्रका। वनन्दिः, नोशम्दस्यैकदेशवाचित्वात् , अस्य चाभ्ययनस्य
साम्प्रतं पञ्चमःसर्वभुतैकदेशत्वात् । तथाहि-अयमध्ययनविशेषः सर्वश्रुताज्यन्तरतूतो वर्तते, तत एकदेशः । मत पर चायं
प्रगरुअमोहविरणिय-मुहबोहा के धम्ममगणिता। सर्वश्रुतस्कन्धाऽऽरम्भेषु सकलप्रत्यूहनिवृत्तये मालार्थ- कारोति नंदिमाई, सहीणं संजईहिंतो ॥१॥ मादौ तत्ववेदिभिरभिधीयते । नं० । पा. । विशे० ।।
भतिगुरुकमोहविनितशुभवोधा वृहपरमहताकम्पितप्रधातमुक्तम्-" मंदी चनवदम्चे, संखबारसगतूरसंघातो । नाचम्मि नाणपणगं, पञ्चक्सिबरं च तं विहं ॥१॥" ०१ उ०।
नमतयः, केचनैके, धर्म कास्वादिकम, अगायन्तस्तिर-- " णंदी य मंगला , पंचग दुग तिग दुगे च चोदसए । अंग
स्कुर्वाणा, कारयन्ति विधापयन्ति, मन्यादिक, मकारोगयमणंगगए, का तत्थ परूवणा पगतं। " इति षकन्यार्थन
- प्राकृतप्रभवः । श्रादिशब्दाभिषिकानुष्ठानाऽऽदिग्रहः ।
तत्र नन्दिरूपधानाऽऽदिषु समयप्रतीतो विधिः, भाडीनां भाप्रतिज्ञायाऽऽह कल्पकार:
विकाणां, (संजहितो सि) संयतिनीभ्यो वतिनीभ्यः सनंदी मंगलहेज, न यावि सा मंगना हि वरिता । काशात् । हितो ति' पञ्चम्याः स्थाने निर्देशः, " उहितोकज्जाजिलप्पनेया, अपुढो य पुढो य जह सिका॥३॥
मोपास्तस्यातः पञ्चम्याः " ॥ इति प्राकृतेन । स च दर्शित एव ।
अयमभिप्रायः-स्वयं विदारं वजन्तोऽन्येषु स्वाचार्येषु बहु. नम्दिानपञ्चकरूपो, मङ्गबहे तुमङ्गसनिमित्तं वक्तव्यः ।माह- भुताऽऽदिषु विद्यमानेषु विद्यार्यिकाभिः भाविकाणां नन्द्यादि यदि मलनिमित्तं नन्दिर्वक्तव्यः,ततः स मङ्गलादेकान्तेन भिन्नः
कारयन्ति । यदि पुनरेकोऽप्याचार्यस्तत्र भवति, ततः सामाचाप्राप्तः,अन्यथा तदुत्पादननिमित्तं तस्योपादानमिति व्यवहारानुप- यो अविरुद्धमाप वेदिति गापाऽर्थः ॥१॥ पत्तेः। उपादानं हि तस्य सिकस्य सतो भवति, नत्पाद्यं चाचा- एतस्यापि आगमसंवादपूर्वकप्रतिषेधपूर्व जीवोपदेशमाहप्यसिकं, ततः कथमनयोरजेदः, किंतु नेद पव। तत भाह-न भारेण अजरक्खिय-इच्चाश्चषणो न तं जुत्तं । चापि स नन्दिर्मङ्गलाद् व्यतिरिक्तः, अपिशब्दावन्यतिरिक्तोऽपि स्यात् , व्यतिरिक्ताव्यतिरिक्त इत्यर्थः । कथमेतत् अस्य
रागदोसविमुक्को, रे जीव ! तहिं पिमा मुझ ॥२॥ मिति चेत?। अत पाह-(कज्जेत्यादि) यथा कार्वामिलाप्यके
(भारेणाति) अर्वाक, 'मारोवणं पच्चित्तदाखं चेति ' रश्य, यानि कारणाभिलापकानेज्यः पृथक्त्वापृथक्त्वसिफानि, तथान- सुबोधचा प्रयमजिप्रायः-निगोदजीचविचारार्थोऽऽयातदेषन्चम्देमंडनमपि । तथाहि-कार्य पटः, कारण तन्तषः। तत्र तन्तव
न्दिताअर्यरक्षिताचार्यात् पूर्व सामायिकाऽऽदिषु मार्यिकाणापव पुरुषव्यापारमपेक्ष्य तानवितानभावेन परिणममाना: प
मनुबा, अर्वाद पुनर्मास्ति । सामायिका अदिकं च नन्दिपूर्वक रकार्यरूपतया परिणमन्ते, तेषु च तथा परिणतेषु सत्सु न
क्रियते, अतस्तत्प्रतिषेधादेतदपि प्रतिषिकं बोकव्यम् । अतो कार्यकारणयोदः, किं त्वभेदः । एवमिहावि नन्दिर्कानपश्च
नेति निषेधे, युक्तं संगतम । रागोपविमुक्तोऽनिलमत्सररकाभिधानरूप उत्तरोत्तरशनायवसायविशेष
हितो, जीव! त्यामन्त्रणे, तत्रापि नन्द्यादिकरणेऽपि. नववं तरतमभावेन परिणममानो घाजिताधिगतिलकणमङ्गलरूपत.
पूर्वोक्तषु, इत्यपिशब्दार्थः । मेति निषेधे, मुद्यस्व मोहं विधेदीया परिणमते इति नन्दिमङ्गलयोरभेद, प्राचीनां स्ववस्था
तिगाथार्थः । समाप्तोऽयमाथिकानन्दिवक्तव्यताऽऽस्यः पञ्चमः मपेक्ष्य भेदः। यथा-तन्तुभ्यः पटस्य, तथा अनिलापशब्देन
साध्वीनां पाठः । जीवा०५ अधिक। कदाचिदप्रिलाप्यस्यामिलाप्यमानतोच्यते, अमिलपनमभिला. अवतीर्थीयः कनिदि तुर्यव्रतमुच्चारवति, तदा कि
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यदि
नन्दिं विनाऽप्युच्चारयति उत नन्दिसहितमेष है, इति प्रझे, उत्तरम्-अत्रान्यतीर्थीवः कश्वित्तुर्वव्रतमुच्चारयति, तज्ञ नन्दि विनाऽपि उच्चार्यते, तदाश्रित्य निषेधः कोऽपि ज्ञातो मास्तीति । ३६ प्र० । ६० ४ प्रका० । तपः संयमयोगानां स्फीतौ पृ० १० ।
( १७५३) अभिधानराजेन्द्रः |
नंदति जेण सबसं - जमेसु नेव य दर ति खिज्जंति । जयंति न दीणा वा, नंदी असतो समयसभा ॥ येन रूपेणाभ्यवहृतेन तपः संयमयोर्नदन्ति समाधिमनुजवन्ति चन्दिः । तथा बेन द्रव्येणोप केन नैव (दर सि) हुतं बिद्यन्ते, न कुशीभवन्तीत्यर्थः, तनन्दिः । श्रथ वा येनोपयुक्तेन न दीना जायन्ते तदपि निरुक्तिवशाश्नन्दिः। अत्र पाठान्तरम् - (जामंति नंदिया व सि) नम्या ज्ञानदर्शनचारित्राऽऽत्मकया समृख्या युकाः साधवो यतस्तन द्रव्येण जायन्ते ततस्तस्य नन्दिरिति समयसंज्ञा भ्रागमपरिभाषा । वृ० १४० । नि० सू० । नन्दनं नन्दिः । प्रानन्दे, स्था०५ २००२ ३०/ प्रमोद, माचा० १०३ ०२ उ० ममसस्तुष्टी, आचा०१ भु०३०६ उ । समृकौ, ४०२ अधि०। अनु० 1 "खि जो पयश्रो नमो जिणमए, मंदी सवा संजमें" । आ० ० ५ ० | गौण मोहनीय कर्मणि, स०५१ सम० । द्वादशतूर्याणां घोषे उत्त० ११ ० । ० । ० । जं० प्र० । पञ्चा० । औ० । वृक्षभेदे, ० १ ० १ नन्दिन् - पुं० | महेश्वराऽऽस्यव्यन्तरस्य शिष्ये, प्रा० सू० ४
० ।
अ० आ० क० । प्राय० ।
यदि न० | देशी - सिंहरुते, दे० ना० ४ वर्ग |
दिक्ख- पुं० | देशी - सिंहे, दे० ना० ४ वर्ग ।
1
दिगर - नन्दिकर - ०ि वृद्धिकरे, शा० १० १ ० । दिग्गाम - नन्दिग्राम - पुं० । मङ्गलाबती बिजये स्वनामस्या ग्रामे, आ. खू० १ अ० अ० म० । मगधदेशान्तर्गते प्रामे, यत्र जातो नन्दिषेणो गौतमपुत्रः पित्रोमृतयोर्दीक्कां जगृहे । आ० क० । ० ० वीरजगवत्पितृमित्रनम्दीबासस्थानप्रामे, आ० म० १ ० २ एक । आ० ० ।
दिघोस - नन्दिघोष - पुं० । द्वादशविधतूर्यनिनादे, मं० रा० । झा० । नदीसदृश घोषकारके, तं० । ० । दिचुग-नन्दिचूर्णक- न० । रूव्यसंयोगनिष्पादितैौष्ठकजम्पूर्णे, सूत्र• १ ० ४ ० २४० ।
पं दिज्ज - नन्दीय - न० स्थविरादार्यरोहणा सिर्गतस्य उद्देहगण स्य पञ्चमे कुले, कल्प० ८ कृण ।
दिनमा - नन्द्यमान- त्रि० । जय जय नन्देतिसमृकिमुपनीयमाने, औ० ।
एदिणी - नन्दिनी - स्त्री० । नन्दयति नम्द - खिनिः । वसिष्ठधेनौ, सुतायाम, उमायां, गङ्गायां, मनन्दरि, व्याकिमातरि, रेणुकोषधौ च । वाच० । पार्श्वनाथस्य प्रथमभाषिकायाम, प्रा० सू०१ अ० । गवि, दे० ना०४ वर्ग । दित-नन्दित - त्रि० । । रष्टे, क्षुभिते च । प्रश्न० २ आभ० द्वार । मंदिर - नन्दिसूर्य - न० । युगपद् बाद्यमाने द्वादशविधतूर्थसमुदाये, बृ० १३० । भाष० ।
४३६
दिफल
दिपिणक-नन्दिपिनद्ध- त्रि० । फुलिका युके, ज्यो० २ पाडु | दिपुर - नन्दिपुर - न० । शारिकल्यदेशराजधाम्याम, २७५ द्वार | प्रज्ञा० । नन्दिपुरनगरराजस्य मित्राभिधानस्य श्रीको नाम महानसिकोऽनूस् । स्था० १० ०
दिफल - नन्दिफल - न० । नन्दिवृक्काभिधानतरुफले, तदुदाहरणप्रतिपादके तृतीये हाताऽध्ययने, झा० १४० १ ० । ० ब्यू० । स० । भाव० । प्रश्न० ।
मन्दिफलोदाहरणं वेत्थम
1
एवं खलु जंबू ! तेणं कालेणं तेणं समयं चंपा नाम नपरी होत्था, पुष्पज चेइए, जितसत्तू राया । तत्थ णं चंपाए नगरी नाम सत्यवाहे होत्था | अड्डे जाब अपरिए । तीसे णं चंपाए पयरीए उत्तरपुरच्छिमे दिसीजाए अहिच्छता नाम नयरी होत्था रिवित्थिय समिद्धा, बाओ । तत्थ णं अहिच्छता नयरीए कणगकेऊ नामं राया होत्या, महया व । तेणं तस्स धयस्स सत्यवादस्स अनदा कयाइ पुब्वरत्तावरत्तकालसमयंसि इमे एयावे प्रत्थिए चिंतिए पत्थर मणोगए संकष्पे समुप्प जित्था सेयं खलु मम विपुलं पणितं मायाए अहिच्छा नगरि बाखिजाए गयेचए एवं संपेद्देइ, गणिमंच०४ चउन्विदं भं मं गेएहति, गेएहतिना सगमीसागडं सज्जेति, सगमी सागमं भरेति, कोकुंबियपुरिसे सावे, सहावेता एवं बयासी-गच्छद्द णं तुज्छे देवाणुष्पि
चंपानगरीए सिंघाडग० जाब पहेसु एवं खलु देवाणुपिए ! धो सत्यचाहे विउल्लं पणियं गहाय इच्छति अहिच्छनगरिं बाणिज्जार गमेत्तर । तं जे णं देवाप्पिया ! चरए चाचीरिए वाचम्मखं किए वा भिक्खु वा पंढरागे वा गोतमेवा गोम्बतिर वा गिरिधम्मे वा धम्मचिंतर वा अविरुकबिरुकवुडसाबगर चपट निग्गंथपभितियपास वा गिहत्थे वा षयेण सकिं प्रष्ठि नगरिं गच्छति, तस्स णं से अच्छतगस्स उत्तगं दलयर, अवास्स बाहणं दलयति, अकुंकियस्स कुंकियं दमयति, अपत्ययणस्स पत्थय
दलपति, पक्खेबस्स पक्स्खेवगं दमयति, अंतराविय से परिस वा भग्गलुग्गसाहज्जं दलयति, सुढं सुहेल य प्रवित्ति संपावत कछु दोषं पि तच्च पि घोसेह, घोसेतित्वा मम एयमाणचियं पच्चप्पियह। तर णं ते कोईवियपुरिसा० जाव एवं क्यासी- हंदि ! णिसुत भवतो ! चंपानगरी बस्था, बहवे चरग० जाव पच्चपिर्णिति । तर णं ते कोकुंविपुरिसाएं अंतिए सोच्चा चंपाए बह चर० जाब गिहित्या जेथेव षये सत्यवाहे तेणेव उवागच्छति । तए णं घष्ठे सत्यवादे ते िचरगाण य० जाव गिइत्याण व अनुरागस्स उत्तं दलयति० जाब wari दक्षावि, दलाविया एवं क्यासी- गच्छह
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दिफल अभिधानराजेन्छ।
पादिफल णं तुमे देवाणप्पिया ! चंपाए नगरीए बहिया अणु- यंति, एयम8 सदहमासा रोएमाणा तेसिं एंदिफनाएं जाणमि ममं परिलाभेमाणा पमिसाजेमाणा चिट्ठह । दूरेणं परिहरमाणा, अमेसि रुक्खाणं मूलाणि य० जाव तए णं ते चरगा य धोणं सत्यवाहेणं एवं वृत्ता स- वीसमंति; तेसि णं आवाए नो नद्दए जवति, ततो माणा० जाव चिट्ठति । तए णं ते धमे सत्यवाहे सो- पच्छा परिणममाणा मुहरूवत्ताए य नुज्जो परिणमंहणंसि तिहिकरणणक्खत्तंसि विउलं असणं पाणं ति । एवामेव समणाउसो ! जो अम्हं निग्गंथो वा खाइमं साइमं नवक्खमावेश, उवक्खमावेऽत्ता मित्तं आमं- निग्गंथी वा• जाव पंचसु कामगुणेमुं नो सजति, नो रतेति, लोयणा भोवावेति,भोयावेतित्तापापुच्छति.सगमीमा- ज्जति, से एवं इहनवे चेव बदणं समणाणं समणीयं गर्मजोयावति,जोयावेतित्ता चपाए णगरीए निग्गच्छति,णा- णिग्गंथाणं णिग्गंथीणं अचणिज्जे परलोए नो आगन्छतिविगिद्धेहिं अघाहि वसमाणे २ सुहेहि वसहिपाय- ति० जाव वीतीचतिस्सति,जहा वा ते पुरिसा। तत्थ णं अप्पेरासीहिं अंगजणवयं मऊ मऊोणं जेणेव देसग्गे, तेणेव गतिया पुरिसा घमस्स एयमर्ट नो सद्दहंति, घमस्स उवागच्छइ, नवागच्चइत्ता सगमीसागमं मायावेति,सत्थ- एयम असदहमाणा जागेव ते णंदिफला, तेणेव उवागनिवेसं करे, कोमुंबियपुरिसे सद्दावति, सदाश्त्ता एवं वयश् । च्छंति, तेसि एंदिफलाणं मूलाणि य० जाव वीसमंति, तुज्के णं देवाणुप्पिया ! मम सत्थनिवेसंसि महया मह- तेसिणं आवाए भद्दए जबति, तो पच्छा परिषममाणा या सदं उग्योमेमाणा एवं वयह-एवं खल देवाणप्पिया !| नाव ववरोवेति । एवामेच समणाउसो! जो अम्हं निम्गंइमीसे आगमियाए छिनावायाए दीहमछाए अबीए | थो वा निग्गंथी वा पवइए पंचसु कामगुणेसु सज्जति० बहुमज्देसनाए बहवे शंदिफला णामं रुक्खा पमत्ता नाव अपरियहिस्सति, जहा व ते पुरिसा । तए णं से घले किएहा जाव पत्तिया पुफिया फलिया हरिया रिजमा- सगडीसागमं जोयावति, जेणेव अहिच्छत्ता नगरी, तेणे व णा सिरीए अईव २ उपसोजेमाणा चिति, मणमा व- नवागच्च, नवागच्चत्ता अहिच्छत्ताए नगरीए पडिया मेणं० जाव मणमा फासेणं, मणमा छाया, ते जो णं | अग्गाज्जाणंमि सत्थनिवेसं करेति, सगमीसागडं मोयावेति । देवाणुप्पिया ! तसिं दिफलाणं रुक्खाणं मुलाणि वा। । तए णं से धाणे सत्यवाहे महत्थे रायारिहं पाहमं कंदतयपत्तपुप्फफलवीयाणि वा हरियाणि वा श्राहारेइ, गिएडेति, बहहिं पुरिसेहिं सचिं संपरिवुडे अहिच्छत्तगयाए वा बीसमति, तस्स णं आवाए भद्दए जवति, गरस्स मऊ मकाएं मणप्पविस्तात, जेणेव कणगकेक ततो उ पच्ग परिणममाणा अकाले चेव जीबियाओ राया तेणेव उवागच्छति, उवागच्चतित्ता करयल० जाव ववरोवेति । तं मा णं देवाणुप्पिया ! केइ तेसिं नंदिफबाणं | बचावति, वसावेतित्ता तं मयं पाहुमं उवणेति । तए एं मूलाणि बा. जाव गगए मा वीसमन, माणं सेविय अ- से कणगकेऊ राया हन्तुट्टधएणस्स सत्यवाहस्स तं महकाले चेव जीवियाओ ववरोविजति,तुब्भेणं देवाणुप्पिए! त्यं. ३ जाव पमिच्छति, धरणं सत्यवाहं सकारेंति, सकाअप्लेसिं रुक्खाणं मूलाणि य० जाव हरियाणि य आहा- रेतित्ता संमाणति, संमाणेतित्ता नस्सूकं वियरति, वियररेह, गयासु वीसमहत्ति घोसेणं घोसहजाव पञ्चप्पिणंति।। तित्ता पमिविसज्नेति,पमिविसज्जेतित्ता भंडविणिमयं करोनि, तए पंधशे सत्यवाहे सगडी सागडं जोएता जेणेच एंदिफला करेतित्ता पमिजंगिएहति, सुहं सुहेणं जेणेव चंपा णग. रुक्खा, तेणेव उवागच्छइ, उवागच्चश्त्ता तेसिं णंदिफनाणं री तेणेव नवागच्छति, उवागच्छतित्ता मित्तणातिअनिसमअदूरसामंते सत्यणिवेसं करेति, दोच्चं पि कोमुंबियपुरिसे | सागए विनलाई माणुस्सगाई जोग० जाव विहरति । तेणं सद्दावेति, महावेइत्ता एवं वयश्-तुज्के णं देवाणुप्पिए! मम | कालेणं तणं समएणं येरागमाएं, ध धम्मं सोचा जिसत्यनिवेससि उग्धोसेमाणा२ एवं वयह-एए णं देवाणुप्पिए! | टुपुत्ते कुठंचे ग्वेत्ता पन्चइए सामाइयमाझ्याई एक्कारसंगाई ते णंदिफला किएहा० जाव मामा छायाए, ते जो एं| बहणि वासाणि सामएणमासियाए अप्लयरेनु देवमोगेदेवाणुप्पिए ! एएसिं एंदिफमाणं रुक्खाणं मूलाणि वा| सुदेवचाए उपब महाविदेहे वासे सिफिहिति । कंदपुप्फतयपत्तफल जाव अकाले चेव जीवियाओ वव
अधना पञ्चदशं विधिवते, अस्य चैवं पूर्वेण सह संबन्धःरोवेति । तंमाणं तुम्भे वीसमह, माणं अकालेन्जाव जीविया- पूर्वस्मिन्नपमाननाद्विषयत्यागः प्रतिपादितः, इह तु जिनोपदेओ ववरोविस्सह । अमसिं रुक्खाणं मूलाणि य० जाब बीस
शात । तत्रच सात्यर्थप्राप्तिः, तदभावे त्वनर्थप्राप्तिरभिधीयते,
इत्येषं संबकमिदं सर्वे सुगम, नवरं (चरए वेत्यादि) तत्र च मह त्ति कहु घोसेणं पच्चप्पिणंति। तत्थ णं प्रप्पेगड्या) रको धाटिभिकाचर, चोरिको रयापतितचीवरपरिधानः, चीपुरिसा घमस्स सत्यवाहस्स एयमहूं सदहंति जाव रो. वरोपकरण इत्यन्थे । चर्मखपिकचर्मपरिधानः, चोप
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( १७५५) णंदिफल अनिधानराजेन्षः।
मंदिबडण करण इति चान्ये। निकोरमो भिकाभोजी,सुगसशासनस्थ इत्य- बहुविहं अलंकारियकम्मं करमाणे सध्यहाणेसु सम्बभूमिन्ये । पाएमुरागःशवः गौतमः-लघुतराक्षमाखाचर्चितधिचित्रपा
यासु य अंतउरे यदिपवियारे यावि होत्था। तेणं कालेणं दपतनाऽऽदिशिकाकलापवत्प्रतिवृषभकोपायतः कणभिक्काप्रा. ह।। गोवतिकः-गोचर्याऽनुकारी। उक्तं च-"गाचीहि समं निम्गम
तेणं समएणं सामी समोसढे,परिसा राया य णिग्गोजाव पवेसठाणाऽऽसणाइ पकरिति । भुजंसि जहा गाधी, तिरिक्सषा- गया। तेणं कालेणं तेणं सपएणं समणस्स जेटे जाव रायसं विजार्विता ॥१॥" गृहधर्मा गृहस्थधर्म पर भेयानि- मग्गं प्रोगाढे, तहेव हत्थी मासे पुरिसे । तेसिं च णं पुरिस्वनिसंधाय तद्यथोक्तकारी। धर्मचिन्तको धर्मसंहितापरि
साणं मऊगयं एगं पुरिसं पासह० जाव णरणाझानवान् । सभासद अविरुको बैनयिकः। उक्तं च-"अविरु
रीसंपरिवुमं । तए णं तं पुरिसं रायपुरिसा चच्चरंसि को बिणयकारी, देवाईण य पराएँ भत्तीए । जह वेसियायण. सुभो, एवं अन्ने वि नायब्वा ॥१॥" विरुद्धोऽक्रियावादी, पर•
तत्तंसि अमोमयंसि समजोइयंसि सिंहासणसि णिसोकानन्युपगमात् सर्वबादिज्यो विरुरू एव । वृहस्तापसः,प्र. वेसावे । तयाणंतरं च णं पुरिसाणं मझगयं बहहिं थममुत्पन्नत्वात्प्रायो वृहकाले च दीक्काप्रतिपत्तेः । श्रावको प्रा.
अयकलसेहिं तत्तेहिं समजोइनएहिं अप्पेगइयाणं तंबभीरसणः। अन्ये तु बुरुश्रावक इति ब्याचक्षते । स च ब्राह्मण एव । रक्तपटः परिव्राजकः निर्ग्रन्थः साधुः। प्रभृतिग्रहणात् कपिया.
एहि, अप्पेगइयाणं तनयभारएहि,अप्पेगश्याणं सीसगभऽऽदिपरिग्रह इति । (पत्थयणं ति) पथ्यदनं शम्बलं (पक्खेष रिएहिं, अप्पेगइयाणं कलकलनरिएहिं,अप्पेगइयाणं खाति) अपये त्रुटितसंबलस्य संबन्नपूरणं द्रव्यं प्रक्षेपकः । (प- रतनरिएहि,महया महया रायाभिसेएणं अभिसिंचइ।तडियरस त्ति) वाहनात्पतितस्य, रोगे वा पतितस्य (जग्गबुग्गा.
याणंतरं चणं तत्तअउमयं समजोइनूयं अउमयसमासगंगस्स ति) वाहनात्स्खलनात्पतने जग्नस्य, रणस्य च जीर्णतां गतस्येत्यर्थः । "हंदि त्ति" आमन्त्रणे । (नाइविगिहिं अकार्डि
हाय हारं पिणइ तयाणंतरं च णं हारं श्रद्धहारंजाब पट्टे ति) नातिविकृष्टेषु नातिदीर्घष्यध्वसु प्रयाणकमार्गेपु वसन् मउ चिंता तहेव. जाव वागरेइ । एवं खबु गोयमा! तेणं शुर्जरनुकूलवसतिप्रातराशरावासस्थानः, प्रातनोजनकासश्चे- कालेणं तेणं सपएणं हेव जंबुद्दीवे दीवे जारहे पाले सीहत्यर्थः । 'देसगं ति' देशान्तम् । होपनयस्तत्राभिहित एव ।
पुरे गामं णयरे होत्या रिकत्थि । तत्थ णं सीहपुरे विशेषतः पुनरेवं तं प्रतिपादयन्ति
सीहरहे णामं गया। तस्स एणं सीहरहस्स रखो पुज्जोहणे "चंपा श्व मणुयगती, धणोख भयवं जिणो दपकरमो।
णाम चारगपाए होत्था अहम्मिए० जाव दुप्पमियाणंदे । अहिछत्तानयरिसमं, वह निम्बाण मुयन्वं ॥१॥ घोसणया इष तित्थं-करस्स सिवमग्गदेसणमणग्छ ।
तस्स णं दुजोहणस्स चारगपासस्स इमे एयारूवे चारगनंहे चरगाणो ब्व इत्थं, सिवसुहकामा जिया बहवे ॥२॥ होत्था । तस्स [ दुजोहणस्स चारगपाझस्स बहवे अयकुंमंदिफायब हं, सिवपहपमिवनगाण विसयाओ।
मीओमप्पेगश्याओ तंबभरियाओ, अप्पेगइयाभो तउयतम्भक्खणा न मरणं, जहतर विसपाहि संसारो॥३॥
भरियामओ, अप्पेगश्याओ सीसगनारियाओ, अप्पे० कलतम्बजरोण जह इ-पुरगमो विसयवजण तहा। परमाणंदणिबंधव-सिवपुरगमणं मुखयब्वं" ॥४॥ ज्ञा० १
कलभरियाओ,अप्पे० खारतेलजरियायो, अगिणीकायसि श्रु०१५ १०।
अद्दहियाओ चिट्ठति । तस्स णं दुजारणस्स चारगपालस्स एंदिवच्छण-नन्दिवर्धन-पुंगगौतमस्वामिप्रतिष्ठितस्य बनभ्या- पहवे नट्टियामो श्रासमुत्तभरियाश्रो, अप्पेगइयाश्रो हगतस्य स्वरूपजस्म पूजके, ती ४३ कल्प । पारामवस्थापिते | त्थीमुत्तरियाअो, अप्पेण्डमुत्तरियाओ, अप्पेगोमु, मूबकुण्डग्रामे महावीरस्वामिनो ज्येष्ठत्रातरि, चेटकराजसुता- अप्पे. एलयमुण, अप्पे० महिसमु०, बहुपमिपुष्पाप्रो चियाःचेल्लणास्वसुः ज्येष्ठायाः पत्यौ,मा००४ अाकल्पापा.
छ । तस्स णं दुजोहणस्स चारगपानस्स बहवे हत्यमात्रावाभाचा०। लोकोत्तररीत्या कार्तिकमासे, कल्प ६क्कण । नन्दिषेणमुनेगुरौ, मा० चू०४. । माब० ।।
दुयाण य पायंदुयाण यहडीण य णियाण य संकमाण मथुरायां श्रीदामराजपुत्रे, विपा० ।
य पुंजा य णिगरा य संणिखित्ता चिट्ठति । तस्स णं दुजो तत्कथा
एणस्स चारगपालस्स बहवे वेणुलयाण य चिंचाछिचाम एवं खयु जंबू ! तेणं कालेणं तेणं समरणं महुराणयरी,
य कसाण य वायरासीण य पुंजा गिरा चिट्ठति । तस्स जमीरे उजाणे, मुदरिसणे जक्खे, मिरिदामे राया, बंधु
णं दुम्जोहणस्स चारगपासस्म बहवे सिसाण य लठमाण सिरीजारिया, पुत्ते दिवद्धणे णामं कुमारे अहीण जाव
य मोग्गराण य कणंगराण य पुंजा गिरा चिटइ। तस्म जुवराया। तस्स णं सिरिदामस्स सुबंध णामं अमच्चे होत्या, शं पुज्जोहणस्स चारगपालस्स वरत्ताण य वागरज्जूण य सामदंम्भेय०। तस्स णं मुबंधुस्म श्रमच्चस्स बहमिती पुत्ते बालमुत्तरज्जूण य पुंजाणिगरा संचिट्टइ। तस्स मुज्जोणामंदारए होत्या, अहीण । तस्स एणं सिरिदामस्स रहो हणस्स चारगपासस्स बहवे असिपत्ताण य करपत्ताण य
चित्ते णाम अलंकारिए होत्था । सिरिदामस्स रस्मो चित्ते खुरपचाण य कलंवचीरपत्ताण य पुंजा जिगरा संचिट्ठा।
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पंदिबष्ण अभिधानराजेन्दः ।
मंदिबरण तस्स णं मुज्जोहणस्स चारमपालस्स बहवे लोहखीमाण देवीए कुञ्छिसि पुत्तत्ताए उववछ। तए णं बंधुसिरी पकमसकराण प चम्पपहाण य अलिपत्ताण य पुंजा पावएडं मासाणं बहुपमिपुरमाणं. जान दारगं पयाया। सिगरा संचिट्ठास्स जोहणस्स चारगपालस्स तए पं तस्स दारगस्स अम्मापियरो णिवत्तवारसाहे इस बहवे सूचीण पडणाण य कोहिवाण य पुंजा णिगरा| एथारू णामधेनं करेइ-होन णं अमंदारगे मंदिमेणे संचिहए। तस्स गं दुजोहणस्स चारगपालस्स बहने स- पामेणं । तर यं से मंदिसेणे कुमारे पंचधाइपरिव मे० जाब त्याशय पिप्पलाण यकृहामाण य पाच्छेयणाण य परिवाद । तए णं से एंदिसेणे कुमारे उम्मुक्कबालनावे. दम्भाण य पुंजा जिगरा संचिहइ । तस्स णं से दुज्जो- जाब बिहराइ० जाव जुवराया जाए याचि होत्या । तए हणम्स चारगपालस्स सीहरइस्स रहो बहने चोरे य| णं से एंदिकुमारे रज्जे य० जाव अंतेउरे य मुछिए०४ पारदारिए य गविजेदे परायावकारी य प्रवाहारए य| ए सिरिदामं रायं जीचियाओ ववरोवित्ता मयमेव
यीसंघाते य इकरे य खंगपट्टे य पुरिसेहिं रज्जसिरिं कारमाणे पालेमाणे विहरिउं । तए मं से एंदिगिएडावेइ, गिएहावेत्ता उत्ताणए पामे, लोइदंमेण मुहं सेणे कुमारे सिरिदामस्स रम्पो अंतरं अलभमाणे अध्या विहामह, अप्पेगइए तत्तं तंबं पजेड़, अप्पे तयं पज्जे, कयाइ चित्तं अलंकारियं सहावेइ, सहावेता एवं पयासीअपे० सीसगं पज्जेड, अप्पे. कलकलं पग्जेइ, अप्पे तुर्मण देवाणुप्पिया! सिरिदामं रायं सबढाणेसु सन्मभूमियाखारतेचं पजे, अप्पे० तेणं चेव भनिसर्ग करेइ, अप्पे० सुय भंतेउरेय दिनवियारेसिरिदामं रायं अनिवस्वणं अजिउत्ताणए पाडे, अप्पे० प्रासमुत्तं पजेह, अप्पे०हत्यिमुत्तं |
क्खणं आलंकारियकम्मं करेमाणे बिहरह। तं तु देवापजेइ० जाव एलयमुत्तं पज्जेइ, अप्पे० हिट्ठा मुहं पामेश,
णुप्पिया!सिरिदामं रायं अलंकारियकम्मं करेमामो गीगाए अप्पे० पलस्स बमावेड, अप्पे० तेणं चेव चवीसं दलया, खुरं णिवेसेहि, ताणं अहं तुन्भं प्रकरजियं करेस्मामि, तुम अप्पे० इत्यंडुपाहिं बंधारे, अप्पे० पायंडुयाहिं बंधावेद, अम्हेहि सकिउराले भोगभोगाईगंजमाणे विहरिस्सह। अप्पे हमिबंधणं करेइ, अप्पे० णियमवंधणं करहे,अप्पे तएणं से चित्ते अलंकारिएणंदिसेणस्स कुमारस्म वयणं. संकोटियं करेइ, अप्पे० संकलवंधणं करेइ, अप्पे हत्य- पमई पमिसुणेश,पमिणेत्ता-तए णं तस्स चित्तस्स भलंविएणए करेइ० जाव सत्योचाहिए करेइ, अप्पे० कारियस्स इमे एयारूवेळ जाव समुप्पज्जित्था । जइ णं मम वोएलयाहि य० जार वेयरासीहि य एडाबेइ, सिरिदामे राया एयमई भागमेइ, तए णं ममं ण णजइ अप्पे० उत्ताणए करे, करेइमा उरे सिलं द- केण अमुनेणं कुमरणेणं मारिस्सतित्ति कटु भीए०४, मावेड , दलावरेत्ता लडलं दावेश, पुरिसेहिं उकंपा- जेणेव सिरिदामे राया, तेणेव उवागच्छ, उबागच्चदत्ता बेह, अप्पे. संतीहि य० जाव मुत्तरज्जुहि य इत्येसु सिरिदामं रायं रहसि एवं करयला जाव एवं वयासीय पादेस य बंधावेइ, अगमम्मि प्रोचूलं पाणगं पज्जा, एवं खबु सामी ! पंदिसेणे कुमारे रजे य० जाब मुअम्पे० असिपचेहि य० जाव कलंबचीरपत्तेहि य प- च्छिए०४ इच्छा तुम्भे जीवियाओ ववरोविला सयमेव च्गवे, खारतेझेणं अभंगावेइ, अप्पे. णिलामेष य रज्जासरि कारेमाणे पालेमाणे विहरिउं । तए णं से सिअबदुसु य कोप्परेमु य जाणुसु य वसुपसु य लोहा
रिदामे राया चित्तस्स अलंकारियस्स अंतिप एयम सोचा कोलएमु य कमसकरासु य दसावेद, भलए भंजावे, णिसम्म प्रासुरुते०४ जाव साहड्डु णंदिसेपं कुमारं पु. अप्पे० सूतीनोय दंगणाणि य इत्थंगुलियासु य पायंगुखि- रिसेहिं गिएडानेह, एएणं विहाणणं बज्कं आणवे । तं यामु य कोहिल्लएहि प्रानमावेश, भाउमावेइत्ता जूमि एवं खमु गोयमा ! एंदिसेणे पुत्ते. जाब विहरइ। एंकंड्यावे, अप्पे० सथिएदि प.जावणाच्छेदणएहिया दिसेणे कुमारे जयवं ! इओ चुओ कहिं गच्चिहिति, कहिं अंग पच्चाबे, दम्भेहि य कुसेहि य उवदम्भेहि य | नवबग्निहिति । गोयमा। एंदिसेणे कुमारे सहिवासाई बढावेइ, आयवसि दलयइ, सुके समाणे चमचमस्स उप्पा
परमाउयं पाउणित्ता कालमासे कालं किच्चा इमीसे रयणप्पमेइ । तए णं से दुज्जोरणचारए एयकम्मे० सुबहुपावं स
जाए पुढवीए संसारो तहेच; ततो इथिणाउरे पयरे मन्जिणित्ता एगतीसंबाससयाई परमाउयं पाउणिता कास- मच्चत्साए उववजिहिति । से गं तत्य मच्छिएहिं वधिए मासे कालं किच्चा ग्हीए पुढबीए उकासं बाबीसं सागरोषमाई
समाणे तत्येव सेहिकुने बोहिं पाउणिता सोहम्मे कप्पेमलिईएसु रइएस नववके । से णं तमो अणंतरं उध्वहिता हाचिदेहे वासे सिजिहिति,बुझिहिति,मुचिहिति, परिणिइहेर महुराए एपीए सिरिदापस्स एणो बंधुसिरीप बाहिति । विपा० १ श्रु०६अ।
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( १७५७ ) अभिधानराजेन्रूः ।
दिवदया
इंदिवरुणा - नन्दिवर्द्धना श्री जम्बूद्वीपे मन्दरस्य पूर्वेस | मंदिराव-नन्दिराज पुं० श्रीरस्यामिरे । -
चकवरस्य पर्वतस्य रजतकूटवास्तव्यायां दिक्कुमार्याम्, स्था०] Garo | श्रा० म० प्रा० ० । जं० । प्रा० क० शाश्वतपुष्करिणीजेदे, स्था० ४ ० २ उ० । ती० । जी० । दिभाण-नन्दिजाजन - न० । श्रपग्रहिकोपकरणनेदे, वृ० । तदुपयोग
एकं भरेमि जाणं, अणुकंपा नंदिजाण दरिर्हेति । निति व बासु, गार्जिति वह चम्मकरणं ॥ अथ प्रतिपचानां कोयनुकम्पया पाम युध्यन्यं दिने दिने एक वाजने विरियामि ततस्तत्र विभ तिं पूरयति नदीनाजनं दर्शयन्ति अथवा तद् नन्दि भाजनं निशाचर्यया ब्रजिकाऽऽदिषु नयन्ति । तथा प्रासुकं तद् ष व्यं पानकं चर्मकरकेण गालयन्ति । वृ० १८० । श्रोघ० नि० चू० । इदानीमेतदेव प्राष्यकारो व्याख्यानय शाहयावच्चगरो वा, नंदीभाणं घरे नवग्गहियं ।
सो खलु तस्स विसेसो, पमाणजुत्तं तु मेसाणं ॥ १०५ ॥ वैयावृत्यकरो वा नदीपात्रं धारयत्यौपग्राहिकम्, श्राचार्येण समर्पित, निवास बहुतथैव वैयावृत्यकरस्य विशेषत दुकं यति-यतिरिवाजकधारणम, अयं तस्यैव वैयास्पकरस्य विशेषः क्रियते । शेषाणां साधूनां प्रमाणयुकमेव पात्रकं भवति, उदरप्रमाणयुकमित्यर्थः ॥ १०५ ॥
एतच्च प्रमाणातिरिकेन पात्रकेन प्रयोजनं भवतिदेजाहि भाणपूरं तु रिकिगं को रोमाईसु ।
तत्थ वि तस्वगो, सेमं कालं तु पढिकुट्ठो ॥ १०६ ॥ दद्याद् भाजनपुरं कमा पात्रकरणं कस कुर्यात् कहा है, पचनरोधकाऽदी तत्र पात्रकरणे तस्य नन्दीपात्रस्योपयोगः, शेषकालमुपयोगः तस्य प्रतिकुष्टः प्रतिविद्धः कारणमन्तरेणेत्यर्थः । श्रोघ० । पं० ब० । दिमित नदिमित्र - पुं० [भाविनि द्वितीये वासुदेवे ती २० कल्प | मल्ल्या सह प्रवजित राजपुत्रे, झा०१ ०८ अ० । दिमुरंग - नन्दिमृदङ्ग-पुं० । एकतः संकीर्णे ऽन्यत्र विस्तृते मुरजविशेषे, रा० । श्रा० चू० ।
दिमुह नन्दिमुख पुं० प्रमाणशरीर पक्षिविशेष, प्रश्न ०१ श्राश्र० द्वार । भ० । रा० ।
दिनदिन
समृद्धितरतामुपगते, मी स्वनामख्याते स्थविरे, कल्प" मिउमद्दचसंपर्ण, उचड नाजसं सणचरिते । थेरं च णंदियं पि य, कालवगुप्तं पणिवयामि " ॥ १ ॥ कल्प० ८ क्षण ।
1
दियगपोसण-नन्दितकपोषण - न० । मनोशाऽऽहाराऽऽदिनिर्वध्यपशोः परिपालने, ०१ दिपावस-नन्दयावर्त - पुं० प्रतिदिन कोणके स्वस्तिके,
प्रश्न ०१ आश्र० द्वार। जं० । रा० । श्र० । प्रव० । ब्रह्मलोके कस्पे तदिन्द्रस्य पारियात्रिके विमाने, स्था० १० ० द्वन्द्रयजीवन, प्रा० १ पोतिकुमारेन्द्रस्व घोषस्य महाघोषस्य च लोकपालभेदे, स्था० ४ ० १३० । भ० । सिरुश्रेणिका परिकर्मभेदे, स० १२ अङ्ग
४४०
उ० ।
दिसेय
। नन्दिवर्कने,
कल्प • ५ कप ।
नन्दिराग- पुं० । मृौ सत्यां दवें भ०२० उ० । मंदिरुक्ख नन्दिवृक्ष-पुं
के, पशुधां च । बाख० । प्रज्ञा० । औौ० । ति० ॥ स० । रा० । मंदिर-नन्दिरिपुं० श्रीरामुजयतीर्थोकारकारके स्वनामके सुरौ, ती० २ कल्प ।
दिसे नन्दिषेण मधुरायां श्रीदामराजसुते युवराजे नन्दिवर्धनापरनामके, स्था० १० वा० । विपा० । स्वनामख्याते पार्थापत्य ये आचार्य, यो हि भषिकापुर्वी वीरे भगवत्यागते प्रतिमा स्थितधरभ्रामथारक पुरुषेण हो जाता धिः स्वर्जगाम । कल्प ०५ कृण । श्र०म० प्रा० न्यू०] नन्दिग्रामे गोतमपुत्रे नन्दिवर्धनरिशिष्ये, आ० क०
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" मगधे हि मन्दिमा, गौतम कणवृत्तिका । सत्पत्नी धारणी तस्याः, गर्भे पारामासिके पिता ॥ १ ॥ मृतो माताऽपि जाते मानसः । नन्दिषेणाभिधस्तस्य, गृहे कर्म चकार सः ॥ २ ॥ प्रतारितः स लोकेन, मातुलेन स्थिरीकृतः । मा लोकवाक्यानि, तिस्रः सम्ति सुता मम ॥ ३ ॥ दास्यामि तब नैषुस्ताः, कुरूपमिति तं परम् । निर्विषथः सोऽथ निर्गत्य व कुत्रचित् ॥ ४ ॥ नन्दिवर्धनां सम
स पक्षपकः स्यातः, यशः कीर्तिरभून्मुनिः ॥ ५ ॥ वैयावृत्येऽनिग्रही च, बालग्लानाऽऽदिसाधुषु । शोधानः सुरोऽभ्यवाद ॥ ६ ॥ चक्रे भ्रमरूपे बढिरेको अतिसारकी स्थितोऽगादपरो मध्ये साधूपान्ते मचीदिदम ॥ ७ ॥ प्लानर्थिः पतितोऽयेको, वैयावृष्यकरो ऽस्ति चेत्। सउतिष्ठतु तच्छ्रुत्वा षष्ठपारणकेऽपि हि ॥ ८ ॥ सहसा नन्दिषेणर्षि-मुक्त्वा कवल मुस्थितः । कचेऽर्थः सोऽया जागा सतते ॥ अनेषणां सुरक्ष-नेषणीयं न सोऽग्रहीत् ।
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या शिखि सो गृहसति ॥१॥ मधुकोश स सं ग्लानो, मुनिं निष्ठुरया गिरा । त्वं देवावृष्यकारीति मुतो मानेव वसे ॥ ११० स तद्विरं सुधासारां मन्यमानः क्षमानिधिः । अशोकहालयामास तं विद्याऽऽ सिम ॥ १२ ॥ अपादों यामान्ती त्यां करोमि यत् । मनमा सो पृष्ठमारोह समेि ।। १३ ।। पृष्ठमारोप्य तं देवेन माया नन्दिषेणः पुरीषेण, त्रिप्तोऽतीव विगन्धिना ॥ १४ ॥ कथं वेग-भङ्गाम्मे मृतमारणम् । करोषि भोकामस्त्वं बजत्यन्तरं ॥ १५ ॥ मुनम्पले मनोयनम
को बाऽऽशिषं दथ्यो, कथं स्यादस्य निर्वृतिः ॥ १६ ॥ देवस्तुष्टोऽथ सहस्य, मायां नत्वा च तं मुनिम् । शुक्रप्रशंसां चाssवेद्य, स्वं विमानं जगाम सः ॥ १७ ॥
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दिसे
बसतो मुनिरप्यागा-गुरोरालोच्य चुक्तषान् । पणासमितिः पायसमुनिः ॥ १८ ॥
( 2925) अभिधानराजेन्डः |
आ० क० । श्राष० । तं । नि० चू० । स्था० । श्रेणिकस्य पुत्रे स पूर्व कस्यचिद् धिग्जातिक च स्य दास आसीत् तेन च यज्ञपाटे नियुक्तेन स्वामिनो यज्ञशेषं याचित्वा साधवे दत्वा तत्पुण्येन देवलोके गत्वा ततः इच्युत्वा श्रेणिकस्य पुत्रो जज्ञे (प्रा० ० ४ भ० । ० ) स वीजिनान्ति प्रत साथ श्रेणिकपुत्रस्य दिस्सर नदिस्वर-पुं० द्वादशसंघातस्वरे जी०३ नन्दिषेणस्य स्वशिष्यस्य व्रतमुज्जितुकामस्य स्थिरीकरणाय भगवद्वमावस्था मिचन्दननिमित्तमुक्ताभरणश्येतस्य
च
प्रति० ॥ तं । रा० ।
परिधानरूपणीयताविनिर्जितामरसुन्दरी सरद कारितम् । (सा पारिणामिकी बुद्धिः स हि [नन्दिषेणस्य ] तारशमन्तःपुरं नन्दियेः परित्यकं तरं संयमे स्थिरो ब व | नं० । श्र० क० । प्रा० चू० । ती० आ० म० । शीलावसारणमुनी महा० स वायसोदन मुम् चकार । तद् यथा
"
"ता गोयम ! दिसेोणं, गिरिषमणं जान पत्थुयं । ताव आयासे इमा वाणी, पमित्रो त्रि णो मरेज्ज तं ॥ दिसामहाई जा भोए, ता पेच्छा चारणं मूि अकाले नत्यिते पच्चू विरम विसवादितो गम्रो ।। ताड़े चिहियासेहिं बिसहिं जाब पीडिओो । ताव चिंना समुपपन्ना, जहां किं जीविएण मे १ ॥ कुंदुनिम्बलपरागं, तित्यं पात्रमती आई । उड्डाईितो व सिक्किस्सं कस्य गंतुमणारि ॥ अडवा सण चंदो, कुंदस्स उसका पहा । कलिकमले केहि जयं जिएसासणं ॥ ता एयं सयलदालिद्द - पुढ किले सक्खयं-करं । परसितिकस्य गंतॄण सिद्धिं ॥ ? दुगुकं गिरी रोई, अताणं चुलियो धुवं । जाव विसयवसेणाहं, किंचि उड्डाहयं करे || गिरीत । संचरे किल निरागारं, गयले पुणरवि जाणियं ॥ अकाले नत्यिते मच्चू चरितु इमं । ता व भोगलं, बेड़ता संजयं कुरु ॥ एवं तु जाव बेवारा, चारणसमणोई सेहियो । ताई सोलिंग, गुरुपायमूले निवेदिओ" || महा ०६ २० जरत क्षेत्रजाभिनन्दनतीर्थकृत्समकालीने पेरवतजे तीर्थकरे, ति०] । ती• । शत्रुञ्जयतीर्थे जिनशान्तिविधायके गणेशे, ती० १ [क]। जीपसमुद्रधिशेषाधिपती ३० अजितशान्तिस्तवनन्थकारके आचायें, जै० ६० ।
णं दिसेणा - नन्दिषेणास्त्र ० । पूर्वस्मिन्नञ्जनकपर्वते पूर्वस्यां दि शिमन्दारकायाम, जी०३ प्रति सी० ० स्थान अजनकपर्वतानामुतरस्यां नम्हापुष्करियाम द्वी० नन्दिवर्ध नापरनामिका पूर्वदकरवायायां दिक्कुमाय डी०
दिस्सर
कथा रतिकरपतानामुत्तरदिकस्यास शकसामानिकराज धानीषु, द्वी० ।
दिसेणिया- नन्दिषेणिका - स्त्री० । स्वनामख्यातायां श्रेणिकभार्यायाम, सा च वीरान्तिके प्रव्रजिता सिद्धा, इति अन्तकृद्दशानां सप्तमे वर्गे चतुध्यने सूचितम् अन्त० ६ वर्ग
१६ अ० ।
।
नन्दीश्वर - पुं०
| महेश्वराSSख्यव्यन्तरस्य शिष्यनेदे, श्रा० ० ४ अ० । श्र० क० । नन्दी समृद्धिः, तस्या ईश्वरो द्वीपो नन्दीश्वरः । अनु० ।" जंबू लब्बणे धायर - कालोयपुक्खराइ जुयलाइ । वारुणिखीरघयक्खू, नंदीसर अरुणदीदी ॥ १ ॥ " इति गणनयाऽष्टमे द्वीप, स्था० ४ ठा० २
उ० प्र० । ० ।
तस्कल्पं यथा
" आराध्य श्रीजिनाधीशान्, सुराधीशातिक्रमान् । कल्पं श्रद्वीप-विश्वपादन] ॥ १ ॥ अस्ति नन्दीश्वरो नानापोनिनः । तत्परिकेपणा नदीवरोधिना युतः ॥ २ ॥ चिकने लाशीतिश्चतुर्युगा । योजनानां त्रिषष्टिश्व, कोट्यः कोटिशतं तथा ॥ ३ ॥ असौ विविधविन्यासो-द्यानवान् देवभोगभूः । जिनेन्द्रपूजा-सुरसंपातसुन्दरः ॥ ४ ॥ अस्य मध्यप्रदेशे तु च । अजनवर्णावारपि॥ ५ ॥
दशयोजनसारखा तिरितविस्तृतस्तले। सहस्रयोजनाओोर्द्ध, कुडमेरुच्छ्रयाश्च ये ॥ ६ ॥ तत्र प्रादेषरमणो निस्योद्योतक दक्षिणः । स्वयंप्रभः प्रतीयस्तु रमणीयोदकस्थिरा ॥ ७ ॥ शतयोजनविस्तृतानि च । द्विसप्तति योजना यस्यानि तेषु चाल पृथगद्वाराणि चत्वार्ययोजनम् । प्रवेशो योजनान्यष्ट, विस्तारोऽप्यष्ट तेषु तु ॥ ६ ॥ तानि देवासुरनाग सुपर्णानां दिवौकसाम समाश्रयास्तेषामेव, नामनिर्विश्रुतानि च ॥ १० ॥ बोशयोजनाऽऽयामा स्तावन्मात्राञ्च विस्तृतौ । अयोजन कोरसंघामध्ये मणिपीठिकाः ॥ ११ ॥ देवका परि
3.
पाधिका पामो-यातु १२ ऋषभो वर्तमानस्तु तथा चन्द्राननोऽपि च । चारिषेणो वेति नाम्ना, पर्यङ्कासनसंस्थिताः ॥ १३ ॥ रत्नमथ्यो युताः स्वस्थ परिवार हारिणा । शाश्वतात्प्रतिमाः प्रत्येकमष्टोसरं शतम् ॥ १४ ॥ नागकुण्डति पृथक् । प्रतिमानां पृष्ठतस्तु प्रतिमेकका ॥ १५ ॥ तेषु धूपघटी दाम घटाएमाः। उतोरण पटनाम्यासनाने १६॥ पोश पूर्णकलशाः, दीप्यलङ्करणानि च ।
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(१७५५) गंदिस्सर प्रानिधानराजेन्द्रः।
गांदीसरवर सुवर्णरुचिररजो-बामुकास्तत्र भूमयः ।।१७॥
खत्वारः सर्वदिग्पालाः, कुर्वतेऽष्टाहिकोत्सवम् ॥ ४२ ॥ आयतनप्रमाणेन, रुचिरा मुखमएकपाः।
ईशानेन्द्राधौनराहे-अजनाद्रो विदधाति तम् । प्रेकार्थमरामपा प्रत-बाटिका मणिपीठिकाः ॥ १७ ॥
तल्लोकपालास्तद्वापी-दधिमुबाकि कुर्वते ॥४३॥ रम्याश्च स्तूपप्रतिमा-श्वस्यवृक्षाव सुन्दराः।
चमरेन्को दाक्षिणात्ये-जनासापुत्सवं चरेत् । इन्भ्वजाः पुष्करिपयो, दिव्याः सन्ति यथाक्रमम ॥१५॥ तवाप्यम्तदेधिमुखे स्वस्य दिक्पतयःपुनः॥४४॥ प्रतिमाः षोमश चतु-रिस्तूपेषु सर्वतः।
पश्चिमे जिनशैले तु, बलीका कुरते महम । शतं चतुर्विशमेचं, ताः साष्टशततद्युताः ॥२०॥
तदिक्पालास्तु तद्वाप्य-स्तनाम्दाधिमुस्खाद्रिषु ॥ ४५ ॥ प्रत्येकमलनाडीणां ककुत्सु चतसृष्वपि ।
वर्षद्वीपदिनाऽऽरग्धा-नुपवासान् कुहतिथौ । गते लके योजनानां निर्मत्स्यस्वच्छवारयः॥१॥
कुर्वनन्दीश्वरोपास्त्यै. श्रेयसीं श्रियमार्जयेत ॥४६॥ सहनयोजनोद्वेधाः, विष्कम्भे लकयोजनाः।
भक्त्या चैत्यानि वन्दारु-स्तत्स्तोत्रस्तुतिपाउनाक। पुष्करिण्यः सन्ति तासां, क्रमानामानि षोमश ॥२॥ नन्दीश्वरमुपासीनो-ऽनुपर्वाहस्तदुसरम ॥४७॥ नन्दिषेणा चामोघा च, गोस्तूपाऽय सुदर्शना।
प्रायः पूर्वाऽऽचार्य-प्रथितैरेवायमाचितःश्लोकः। तथा नन्दोसरा नन्दा, सुनन्दा नन्दिवना ॥१३॥
श्रीनन्दीश्वरकल्पो. लिखित इति श्रीजिनप्रभाऽऽचार्यैः" ॥४८ भला विशाला कुमुदा, पुएकरी किणिका तथा ।
इति श्रीनन्दीश्वरकल्पः । ती०४ए कल्प । विजया वैजयन्ती च, जयन्ती चापराजिता ॥२४॥
दी-नन्दी-खी।'णंदि' शब्दार्थे, प्रा. म.द्वि० । गवि, प्रत्यकमासां योजन-पञ्चशत्या परत्र च।
दे० ना०४ वर्ग। योजनानां पञ्चशती, यावद्विस्तारभाजितु ॥२५॥
पंदीचमग-नन्दीचूर्णक-नाणंदिचुष्पग' शब्दायें, सूत्र. सक्षयोजनदीर्घाणि, महोयानानि तानि तु।
१७०४७०२ उ०। अशोकसप्तच्चदक-चम्पकवृतसंकया ॥२६॥ मध्ये पुष्करिणीनां च, स्फाटिकाः कल्पमूर्तयः।
दीसरबर-नन्दीश्वरवर-पुं० । मन्दीश्वर एव वरश्च मनुष्यद्वीललामवेद्युद्यानानि, चिहादधिमुखारूयः॥१७॥
पापेकया बदुतरजिनभवनाऽऽदिसदभावेन तस्य धरत्वादिति । चतुःषष्टिसहस्रोच्चाः, सहस्रं चावगाहिनः ।
अष्टमे द्वीपे, स्था०४ ग०२०।जी। दी। सहस्राणि दशाधस्ता-परिष्टाच्च विस्तृताः॥ २० ॥
तद्वकन्यता चैवमअन्तरे पुष्करिणीनां द्वौ द्वौ रतिकराचली।
खोदोदं णं समुदं नंदीसरवरे णामं दीवे बट्टे वलयागारततो जवन्ति द्वात्रिंश-देते रतिकराचलाः ॥२५॥
संठाणसंहिते तहेवळ जाव परिक्खेवो पनमवरवणसंमे परिशैलेषु दधिमुखेषु, तथा रतिकरादिषु ।
दारा दारंतरपदसा जीवा तहेव से केपटेणं नंते ! एवं शाश्वतान्यहचैत्यानि, सन्स्यअनगिरिविव ॥३०॥ चत्वारोद्वापविदिक्षु, तथा रतिकराचसाः।
वुच्चइ-गंदीसरवरो दीवो गंदीसरवरों दीवो ? । गोयमा ! दशयोजनसाहस्रा-डयामविष्कम्भशालिनः ॥ ३१॥ देसे देसे बहुमो खुट्टा खुडियाओ वावीमो० जाब वियोजनानां सहस्रं तु, यावदुछयशोनिताः।
लपतियानो खेत्तोदगपमिहत्थातो उप्पातपन्वया सन्नसर्वरत्नमया दिव्याऊल्लाकारधारिणः॥ ३२॥
वश्रामया अच्छगन्जाव पमिरूवा.अदुत्तरं च गोयमा! सत्र द्वयोःरतिकरा-बल्लयोपैकिणस्थयोः। शक्रस्येशानस्य पुन-रुत्तरस्थितयोः पृथक् ॥३३॥
एंदीसरदीवचक्कवालविक्खंभरहुममदेसजाए, एत्य णं चअष्टानां महादेवीनां, राजधान्योऽष्टदिषु ताः।
उहिसिं चत्वारि अंजणपबया पएणत्ता। लकोद्वेधा कमानाः, जिनाऽऽयतनभूषिताः ॥३४॥
(खोदोदंण समुहमित्यादि) क्षोदोदंणमिति पूर्ववत् । समुसुजाता सौमनसा चा-चिौली च प्रनाकरा ।
कं,नन्दीश्वरबरो नाम द्वीपो वृत्तो वयाऽऽकारसंस्थानसंस्थितः, पमा शिवाशुभाअने, चूता चूतावतंसिका ॥ ३५ ॥
सर्वतः समन्तात, संपरिविष्य तिष्ठति । चक्रवालविष्कम्नपरिगोस्तूपासुदर्शने अ-प्यमवाप्सरसौ तथा।
केपाऽऽविवक्तव्यता प्राग्वत, यावद जीवोपपातसूत्रम् । सम्प्रति रोहिणी नवमी चाथ, रत्ना रत्नोच्चयापि च ॥ ३६॥ नामनिमित्तमानिधित्सुराह-(सेकेणोणमित्यादि) अथ केन का सर्वरत्ना रत्नसंच-या वसुर्चसुमित्रिका।
रणेन एवमुच्यते-नन्दीश्वरवरो द्वीपः नन्दीश्वरवरदीप इति? षसुभागाऽपि च वसु-धरानन्दोचरे अपि ॥ ३७॥
जगवानाह-गौतम ! नन्दीश्वरद्वोपे बहवः "खुदा खुड़ियाओ नन्दोत्तरकुरुर्देव-कुरुः, कृष्णा ततोऽपि च ।
वाबीनो" इत्यादि प्रागुक्तं सर्व तावद्वतन्यं, बावत् "वाणमंतरा कृष्णराजीरमाराम-किताःप्राक्क्रमादमः॥ ३८॥
देवा देवीमायभासयंति सयंति जाब विहरंति) नवरमत्र या. सर्वद्धयस्तासु देवाः, कुर्वते सुपरिष्दाः ।
प्यादयः कोदोदकप्रतिपूर्णा वक्तव्याः, पर्वतकाः, पर्वतकेवास. बैत्ये ह्यष्टाहिकाः पुण्य-तिथिषु श्रीमदर्हताम् ॥ ३९ ॥ मानि, गृहकाण , गृह केष्वासनानि, भण्डपका, मण्मपकेषु प्राच्येऽजनांगरौ शक्रः, कुरुतेऽवाहिकोत्सवम् ।
शिलापट्टकाः सर्वाऽऽत्मना बनमयाः, शेषं तथैव । (अत्तरंच प्रतिमानां शाश्वतीनां चतुारे जिनालये॥४०॥
ण गोयमा ! इत्यादि) अथान्यद् गौतम ! नन्दीश्वरे चत्वारो सस्य चाने चतुर्दिस्थ-महावापीविचार्चिषु ।
विशः समाहताश्चतुर्दिक, तस्मिन् चक्रवालविष्कम्भेष बहुमस्फाटिकेषु दधिमुख-पर्वतेषु चतुर्वपि ॥ ४॥
ध्यदेशभागे एकैकस्यां दिशि पकैकभागेन चत्वारोऽजनकपचैत्येव ईत्प्रतिमानां, शाश्वतीनां वथाविधि ।
पंताः प्रमाः । तपथा-पूर्वस्वां दिशि एवं पश्चिमायां, दविण
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(१७६०) भनिधानराजेन्द्रः।
गंदीसरवर
गाक्तत्त
स्यामुत्तरस्याम । जी. ३ प्रति० । प्रवाचं० प्र०। सु०
सह संपातविषये पञ्च प्रतिपत्तीरुद्भाव्य भगवन्मतप्र.। स्था. ( अम्जनकपर्वताः स्वस्थाने उक्ताः)"णं
निरूपणम् । दीसरवरदीवस्स संदीवस्स अंतो सत्त दीवा पमत्ता । तं
यानि नक्षत्राणि प्रत्येक वे हे, तेषां प्रतिपादनम् । जहा-जंबुद्दीये, धायासंमे, पुक्सरवरे, बारुणिवरे, खीरधरे, (३)
अष्टाविंशतेनक्कत्राणामष्टार्षिशतिदेवतानां सामान्यघयबरे, खोयबरे । गंदीसरपरस्सणं दीवस्स अंतो सत्त
तो नामनिदर्शनम् । समुद्दा परापत्ता । तं जहा- लषणे, कालोए, पुक्चरोदे, वरु
जभ्यूद्वीपेऽभिजिवर्जितैः सप्तविंशतिनक्षत्रर्व्यवहा-- णोदे, बीरोदे, घोदे, क्खोपोए । स्था०७ मा० ।
रो भवतीति प्रतिपादनम् । हदीसरवरोद-नन्दीश्वरवरोद-पुं० । नन्दीश्वरद्वापस्याजितः (५) येषु नक्षत्रेषु गमनप्रस्थानाऽऽदीनि कार्याणि कर्तव्यासमुझे, जी।
नि, येषु नेति, तदुदाटनम् । णंदीसरवरे ण दीवे गंदीसरवरोदे णामं समुद्दे बट्टे वल
(६) पादोपगमनलोचकर्माऽऽदीनि येषु नक्षत्रेषु कर्तव्या
नि वय॑नकत्राएयुदस्य तेषां निरूपणम् । यागारसंगणसंगिए. जाव सव्वं तहेव अट्ठो, जहा क्खो- (७) किप्रमृसंशकानि स्वाध्यायाऽऽदिनक्कत्राणि । दोदगस्स० जाव सुमणसोमणसा य अत्थ दो देवा महि
(८) तपःकर्मोपकरणगणसंग्रहनक्षत्रप्ररूपणं, करणप्ररूपकिया जाव परिवसंति, सेसं तहेव. जाव तारगं ॥
पंच।
(६) ज्ञानवृद्धिकराणां नक्कत्राणां निदर्शनम् । "णदीसरवरे "इत्यादि । नन्दीश्वरवरं,णमिति पूर्ववत् । नन्दी- (१०) प्रतिनक्क मुहर्तपरिमाणधिचारे चन्द्रेण साई नकश्वरवरोदो नाम समुद्रो वृत्तो बलयाऽऽकारसंस्थानसंस्थितः
प्रयोगप्रतिपादनम्। सर्वतः समन्तात्संपरिक्तिप्य तिष्ठति। ययैव कोदोदकसमुनस्य (११) तथैव सूर्येणापि साकं तदभिधानम् । वक्तव्यता, तथैवास्यापि अर्थसहिता वक्तव्यता, नवरमत्र सु. (१२) मकवाणामादानविसर्गपरिकाननिमित्तनिरूपणम् । मनसौमनसा च द्वौ देवी वक्तन्यौ, तावतिशयेन स्फीताविति । (१३) चन्द्रसूर्ययोगे नक्षत्रशोधनपरामर्शः। जी. ३प्रति०।
(१४) बावन्ति भागानि नक्षत्राणि चन्केण सह युज्यन्ते, उत्तर-नन्दोत्तर-पुं०। जवनपतीन्द्राणां स्थानीकाधिपतिषु,
तेषां प्रतिपादनम्। स्था० ५ ग०१ उ०।
(१५) यानि प्रमदयोगीनि नक्षत्राणि, तेषामन्निधानम् । णंदुत्तरा-नन्दोत्तरा-स्त्री०। उत्तरपौरस्त्ये रतिकरपर्वते शा.
(१६) याचन्ति नकत्राणि याचन्ति भागानि पूर्णिमाऽमान्यां,
तत्परामर्शः। स्य देवेन्द्रस्य कृष्णाया अग्रमदिष्या राजधान्याम, जी. ३
(१७) यद् नक्षत्रं यावत्सारं भवति, तनिर्देशः। प्रति० । स्वनामण्यातायां शाश्वतनन्दापुष्करिण्याम, स्था०४
(१८) पावन्ति नत्राणि स्वयमस्तंगमनाहोरात्रपरिसमाप०२ उ. । मन्दरस्य पर्वतस्य रिष्टकटवास्तव्यायां दिक
कतया यं मा नयन्ति, तन्निरूपणम् । मायांम, जं. ५ वक० । द्वी०। स्था० । ति । ती० ।
(१९) येषां नकत्राणां या देवबास्तासामभिजिन्नवत्रत उजी। प्रा० म० । स्वनामस्यातायां श्रेणिकमहाराजभार्या
तराषाढापर्यन्तं विशिष्य विवेचनम् । याम, सा च वीरजिनान्तिके प्रवत्य सिका, इत्यन्तकृहशानां
(२०) नक्षत्राणां गोत्राणि । सप्तमे वगे तृतीयेऽध्ययने सूचितम् । अन्त०७ वर्ग०१ भाता। (२१) नकत्रेषु यानि भोजनानि, तनिरूपणम् । पकर-नगर-न० । “चूलिकॉपैशाचिके तृतीयचतुर्थयोरायद्धि
(२२) यत्रतत्रं यद्वारिक, तत्प्रदर्शनम् । तीयौ" ॥ ८।४। ३२५ ॥ इति गस्य कः । प्रा० ४ पाद । प्रां- (२३) नक्षत्रविचयनिदर्शनम् । शुप्राकारबद्धे सनिवेशे, प्राचा० १ ० ००६ उ.।
(२४) सायं प्रातच नकषचन्छयोगविचारः। एक-नासिक्य-न० । नासिकान्त ज्याम, विपा० १ ०१
(२५) पूर्णिमासु चन्द्रनकत्रयोगस्य सूर्यनत्तत्रयोगस्य व
प्ररूपणम। भ०। प्रश्न ।
(२६) यस्मिन देशे यन्नवत्रंयावता कालेन भूयश्चन्द्रेण सह नक्र-जा'नाक'इति स्याते जलचरनेदे, प्रज्ञा०१ पद ।
सूर्येण पा साकं योगमुपागच्चति, तावतः कामस्य प्रभ । मत्स्यभेदे, जी. १ प्रति।
प्ररूपणम्। णक्ख-नख-पुं० । “सेवाऽऽदौ वा" शाति सद्धि
(२७) नक्षत्राणां संस्थानानि । स्वमा प्रा०२पाद । कररुदे, जी०३ प्रतिः । औ०। करजे,मद- (90) नकत्राणामन्तवहिश्च चारप्रतिपादनम् । नाडूशे च । पुं० । न० । हैम० । नखषु, दे० ना०५ वर्ग।
(१) तत्संख्याएवमणिया-नखार्च निका-स्त्री० । नखहरणिकायाप, “न- |
ता जोए ति वत्युस्स प्रावलियनिवाते माहिते ति बदेखन्नणं नसकंटाई' नबार्चन नखहरणिका,सा नबच्चेदनार्थ, कण्टकाऽदिशयोद्धरणार्थ वा गृह्यते । १०१ उ.।
जा । ता कहं ते जोगे ति वत्थुस्स प्रावलियनिवाते प्रा. णक्खच-नका-न। ज्योतिष्कभेदे,०५०।
हिते ति वदेज्जा । तत्थ स्वर इमाओ पंच पवित्तीओ विषयसूची
पम्मत्तायो । तत्थेगे एवमाइंमु-ता सव्वे वि णं एक्खत्ता (१) योग इति वस्तुनो नक्षत्रजातस्य क्रमेण बस्यैः । कत्तिनादीश्रा जरणीपज्जवसिश्रा आहितेति वदेजा, एगे
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( १७६१) अभिधान राजेन्द्रः ।
क्खत्त
एबमाइंसु । १ । एगे पुण एवमाहंसु-ता सम्बे विणं एक्खत्ता महाssदा अस्से सापज्जवसिश्रा माहितेति वदेज्जा, एगे एवमाहंसु । २ । एगे पुण एवमाद्वंसु-ता सव्वे विणं णक्खता विद्वाऽऽदिया सणपज्जबसिया आहिता ति वदेज्जा, एगे एवमाहंसु । ३ । एगे पुण एवमाहंसु-ता सच्चेवियां रखता अस्मिणीयादिमा रेवतिपयसिमा प्राहिता ति वदेज्जा, एगे एत्रमाहंसु । ४ । एगे पुण माता सच्चे व एक्खता भरणीआदिमा प्रतिपीपज्जवसिता श्राहितेति वदेज्जा, एगे एवमाहंसु | ए | वयं पुरा एवं बदामोता सच्चे विणं एक्खत्ता अभिजिताssदिश्रा उत्तरासाढापज्जवसिया आहिता ति वर्देज्जा । तं जहाअजिजिए, सवणो, घणिट्ठा, सतजिसता, पुत्र भद्दवता, उत्त राजदवता, रेवती, अस्सिणी, भरणी, कनिया, रोहिणी, मिगसिरं, श्रद्दा, पुत्रम्, पुस्सो, असिलेसा, मघा, पुब्वा - फग्गुणी, उणराफल्गुनी, हस्यो, विद्या, साती, चिसाहा,
राहा, नेहा, झ, पुण्यासाठा उत्तरासादा | अत्र चायमर्थाधिकारः । यथा - योगमिति किं भगवन् ! त्वया समाख्यायत इति ? । ततस्तद्विषयं निर्वचनसूत्रमाह - " ता जोगे ति वत्थुस्स " इत्यादि । इति । प्रास्तां तावत्पदानादेतदेव फध्यते - योग इति वस्तुनो नक्षत्रजातस्य ( श्रावलियनिवासे कि ) धावकिया श्रमेण निपातश्चन्द्रः सदसं
ता
|
पातः, आख्यातो मयेति वदेत् स्वशिष्येभ्यः । पवमुक्ते भगवान् गौतमः पृच्छति " ता कहं ते " इत्यादि । 'ता' इति पूर्ववत् कथं केन प्रकारेण भगवन्! त्वया योग इति योमस्य वस्तुनो नक्तत्रजातस्याऽऽवनिका निपातः, स श्रास्यात इति वदेत् ? । जगवानाह - " तत्थ खलु इत्यादि । तत्र तस्मिन् जातस्याऽऽवनिका निपातविषये खयमाः पञ्च प्रतिपतयः परतीर्थिकाच्युपगमरूपाः प्रज्ञप्ताः । तद्यथा-तत्र तेषां पञ्चानां परतीर्थिकानां मध्ये, एके परतीर्थिका एवमाद्दुः स इति पूर्ववत् । सर्वापयपिनषाणि कृषिका उहीन भरणीपर्यवसानानि प्रसानि कीया पुंस्स्वनिर्देशः प्राकृतत्वात् तत्रैवोपसंहारमाह-ए एवमाहं १ " एवं शेषप्रतिपति चतुष्टयगताम्यपि सूत्राणि परिजानानि । तदे वं परप्रतिपत्ती रुपद संप्रति स्वमतमुपदर्शयति-" वयं पुण इत्यादि । वयं पुनरेवं वदयमान प्रकारेण वदामः । तमेव प्र कारमाह-" ता सव्वे विणं " इत्यादि । ता" इति पूर्ववत् । सर्वाण्यपि नक्षत्राश्यभिजिदादीनि, उत्तराषाढा पर्यवसानानि प्र इप्तानि । कस्मा इति चेत् उच्यते सर्वेषामपि सुषम मादिरूपाणां कामविशेषाणामादिगम्, " एप उसम सुसमादश्राविसेसो जुगारणा सह पवचते, जुगं तेण सह समप्यंति, इति श्रीपादलिप्तसूरिवचनप्रामाण्याद् युगस्य प्रायने मासि बहुल प्रतिपदि तिथी बालयकरणे अनिजिति महत्रे चन्द्रेण सह योगमुपगच्छति । तथा चोक्तं ज्योतिष्कर एडके
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"सावणबटुपडिवप, बालकर अभी ।
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सन्वत्थ पढमसमए, जुगस्ल भाई बिश्रावाहि ॥ १ ॥ " मंत्र (सम्पत्येति मरते पेरयते महाविदेदे च शेषं सुगमम । ततः सर्वेषामपि कालविशेषाणामादौ चन्द्रयोगमधिकृत्याभित्रिप्रवर्तमानत्वादिनि ननि तान्येव तद्यथेत्यादिनोपदर्शयति-"सि" इत्यादि । सू० प्र० १० पाहु० १ पाहु० ।
(२) पतानि नक्षत्राणि प्रत्येकं द्वे द्वे
दो कचिपाओ, दो रोहिणीमो दो मियसिराभो, दो अदाओ एवं जाणियम्वं
“कत्तिय रोहिणि मियसिर, अदा य पुणन्क्यू य पुरसोय । तो वि असलेसा, महा य दो फल्गुणीओ य ॥ १ ॥ त्यो चित्ता साई व बिसाहा होंतिराहा । जेहा मूलो पुव्वा- आसाढा उत्तरा चैव ॥ २ ॥ अभिसापणिका, सयजिसया दो य होति भवया । रेव अस्सिणि जरणी, ऐयव्त्रा आणपुब्बीए " ॥ ३ ॥ एवं गाहाधारेण णायव्वं० जाव दो नरणीओ। हे कृति के नापेकषा, न तु तारकापेक्षा सर्वत्रेति " कति" इत्यादि गाथात्रयेण नक्षत्रसूत्रसंग्रहः ।
(३) कृतिका नाम कृषाणां क्रमेणान्यादयो शादिशतिरेव देवता प्रचन्तिता आद
दो अग्गी, दो पयावई, दो सोमा, दो रुद्दा, दो मई, दो दो बढस्सई, दो सप्पा, दो पिई, दो जगा, दो मा सविया, दो तट्ठा, दो वाऊ, दो इंदग्गी, दो मित्ता, दो इंदा, दो निरई, दो आऊ, दो विस्सा, दो वम्हा दो विशतु दोन दो वरुणा, दो या दो विषि, दो पूसा, दो अस्सा, दो जया ।
द्वावग्नी १, एवं प्रजापती २, सोमो ३, रुद्र, अदिती बृहस्पती ६७ पितरी मी १ अर्थमण १० तारी ११.१२ १२. इन्द्राशी १४१४१६ निर्ऋती १७, आपः १८, विश्वौ १६, ब्रह्माणौ २०, विष्णू २१, वसू २२, वरुणौ २३, अज २४, विवृद्धी (२५) । ग्रन्थान्तरे अदिनाक २५ । पूषणौ २६, अश्विनौ २७, यमाविति २० ।
ग्रन्थान्तरे पुनरशिवनीत आरभ्यता एवमुक्ताः"अश्मदहनकमल राशिददितियफणिपितरः । योग्यर्यमनित्य-पवनशकाग्निमित्राऽस्याः ॥ १ ॥ ऐन्द्रो नैर्ऋतितोऽयं, विश्वौ ब्रह्मा हरित्रेसुर्वरुणः । श्रपादो ऽहिर्बुध्नः पूषा चेतीश्वरा जानाम् " ॥२॥ स्था० २ ० ३ उ० । जं० ।
"
(४) मुदीदीने अमेहिं तापसारणक्खतेहि बहारे वहति ।
जम्बूदीपेन धातकी अभिजि
हारः प्रवर्त्तते, अभिजित्रोसराषाढचतुर्थपा दानुप्रवेशनादिति । स० २७ सम० ।
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(१७६२) णक्खत्त अन्निधानराजन्यः ।
एक्खत्त (५) केषु नक्षत्रेषु कानि कार्याणि गमनप्रस्थानाऽऽदीनि (७)स्वाध्यायाऽऽदिनकत्राणि विप्रमृसंज्ञकानिकर्तव्यानि
पुस्सो य हत्थो अभिई, अस्मिणी य तहेव य । पुस्सऽस्सिणि मिगसिर रे-धई य हत्थो तहेव चित्ता य ।
चत्तारि खिप्पकारीणि, विज्जाऽऽरंजेसु सोहणा ॥श्या अणुराह जिट्ठ मूलो, नव णक्खत्ता गमणसिका ॥११॥
विज्जाणं धारणं कुज्जा, बंभलोगे य साहए । मिगसिर महा य मूलो, विसाह तहचेव होइ अणुराहा ।
सम्झायं च माणुग्नं च, उदिसो य समुद्दिसो ॥ ३० ॥ इत्युत्तर रेव श्र-स्सिणी य सवणे य णक्खत्ते ॥१२॥
अाराहा रेबई चेव, चित्ता मिगसिरं तहा ।
मिऊ णेयाणि चत्तारि, मिनकम्मं तेसु कारए ।॥३१॥ एएमु य अद्धाणं, पत्थाणं गणयं च कायव्यं ।
भिक्खाचरणऽमचाणं, कुजा गहणधारणं । जड य गहुत्थ न चिट्ठ, संकामुकं च ज होई ॥१॥
संगहोवग्गहं चेव, बालबुताण कारए ॥ ३॥ उप्पन्ननत्तपाणो, अघाणम्मि न सया न जो होइ।
(८) अद्दा अस्सेस जिहा य, मूझो चेव चउत्यो । फलपुप्फबग्गुवेमो, गमो वि खेमेण सो एइ ॥१४॥
गुरुणो कारए पडिम, तबोकम्मं च कारए ॥ ३३ ॥ सभ्यागताऽऽदीनि
दिम्बमाणुस्सतेरिच्छ-उक्सग्गेऽहियासए । संकागयं रविगयं, विरं सग्गहं विलंबिं च ॥
गुरूमु चरणकरणं, उग्गहोवग्गहं करे ॥ ३४॥ राहुहयं गहभिनं, च वजए सत्त नक्खते ॥ १५ ॥
महा भरणि पुबाणि, तिनिधो य वियाहिया । अत्यमणे संकागय, रविगय जह पट्टिो उ आइच्चो। ।
एएसु य त कुज्जा, सम्भितरयवाहिरं ।। ३५।। विडेरमविद्दारिय, सग्गह कूरग्गहवियं तु ॥ १६ ॥
तिमि सयाणि सहाणि, तवाकम्मा य आहिया । आइपिओ जं, विलंबि राहहयं जहिं गहणं ।
उग्गनक्खत्तजाएम, तेसुमनतरं करे॥ ३६॥ मझेण गहो जस्स उ, गच्छा तं होइ गहजिन्नं ॥१७॥
कत्तिया य विसाहा य, उएहा एयाणि दुनियो । संकागयम्मि कलहो, होइ विवाओ विलंब नक्खत्ते ।
लिंपणं सिंचणं कुन्जा, संचारग्गहधारणं ॥ ३७॥
उवगरणनंडमाईणं, विवायं चीवराण य । विहेरे परविजओ, पाश्चगए अणिच्चाणि ॥१८॥
उवगरणं विजागं च, पायरियाणं च कारए॥ ३८ ॥ जं सग्गहम्मि कीरह, नक्खत्ते तत्थ निम्गहो हो ।
धणिवा सयनिसा साई, सवणो य पुणव्यम् । राहायम्मि य मरणं, गहभिन्ने सोणि उग्गालो।।१६।। संकागयं गहगयं, आइञ्चगयं च मुबलं रिक्खं ।
एएमु गुरुसुस्मूसं, चेझ्याणं च पूयणं ।। ३५ ॥
सज्कायकरणं कुज्जा, विजाऽऽरम्ने य कारए । संभाऽऽच्चविमुकं, गहमुकं चेव बलियाई ।। ३.॥
चेअोवठ्ठावणं कुज्जा, अानं गणिवायए ॥४०॥ (६)पादोपगमनलोचकर्माऽऽदनि
गणसंगहणं कुज्जा, सेहनिक्खमणं तहा। पुस्सो हत्थो अभिई य, अस्मिणी नरणी नहा। संगहोवग्गहं कुज्जा, गणावच्चेश्यं तहा ॥४१॥ एएमु य रिक्खेसु य, पाओवगमणं करे ॥२१॥ ववश्वालवं चश्तह को-सवं च तेतीलयं गराईच । सवणेण धापिटाई, पुणव्वसू न वि करिज निक्खमणं । पणियं ६ विडीय तहा, मुद्धपमिवर निसाईया ॥४शा सयभिसयस्स न बंभे, विज्जाऽऽरने पवित्तिजा ॥२॥ समणि चउप्पय नागं, किंतुग्धं च करणा धुवा हुंति । हत्याइ पंच रिक्खा, वत्थुस्स पसत्यगा विणि विट्ठा। किन्हचउदसिरति, सउणी पडिवज्जए करणं ॥४३॥ उत्तरतिनिधाणिहा,पुणवसू रोहिणी पुस्सो।शद०प०।। काऊण तिहिं विकएं, जम्हेगो साहए न पुण काले । पुणवसुणा पुस्सेणं, सवणेण धणिया।
सत्तहि हरिज जागं, जं सेसं तं नवे करणं ।। ४४॥ एएहि चनरिक्खेहि, लोयकम्माणि कारए ॥२५॥ ६० ५० स० । स्था०।०प्र०। द०५० । विशे० । व्यापाम.पं..।
(१)ज्ञानवृष्किराणि नक्षत्राणि
दस नक्खत्ता नाणवुलिकरा पत्ता । तं जहाकत्तियाहि विसाहाहिं, मघाहिँ जरणीहि य ।
"मिगसिर अदा पुस्सो, तिनि म पुवाइ मूलमस्सेसा । एएहिँ चनरिक्खहिं, लोयकम्माणि वजए ॥२६॥
हत्थो चित्ता य तहा, दस वुहिकरा य नाणस्स" ॥२॥ तिहि उत्तराहि तह रो-हिणीहि कजान सेहनिक्खमणं।
स. १० सम। द० ५०। सेहोवट्ठावणं कुज्जा, माना गणिवायए ॥२७॥
(१०) चन्द्रनक्षत्रयोगःगणसंगहणं कुज्जा , गणहरं चेव गवए।
ता कहं ते मुहत्तग्गे आहिते ति वदेज्जा ? ता एतेसिणं नग्गरं वसहिहाणं, थावराणि पबत्तए ।। २० ॥ प्रहावीसार एक्खताणं अस्थि णक्खचे,जेणं णव मुहते.
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(१७६३) अभिधानराजेन्
णक्खत्त
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सत्तावीसंच सत्तद्विभागे मुहुत्तस्स चंदे सद्धिं जोयं जोएति । यता, पारस मुले णं चंदे सर्दि जो जोति | क्खित्ता, जे गं तीसं मुहुत्ते चंदे जो जोति । प्रत्थि एक्खत्ता, जेणं पणतालीसं मुदुने चंदे सधि जोगं जोईति । ता एएसि णं अट्ठासाए क्खाणं कबरे एकखचे, जे पां नव मुदुचे, सत्तावीच सचद्विजाए मुहुचस्व चंदेशा सकिं जोये जोएवि ? । रूपरे बाजे पर मुट्टने चंदे सदि जो जोईति ? कपरे क्खना, जे णं तीसं मुदुचे चंद्रेण सकि जोगं जोईति । कपरे क्खत्ता, नेणं पयासीसं मुडुचे चंदे सद्धि जोयं जोइति । ता एतेसि णं अहावीसार एकता तस्य जे ते खाक्खचे, जे मुझे, सत्तावीसं च सत्तट्ठिनागे मृदुत्तस्स चंदे सद्धिं जोयं जोएति से यांएगे अभिनेते क्ला ने पारस मुहुते देण सकि जो जोइति ते तं जहा सतसिया, नरणी, अद्दा, अस्सा, साती, जेट्ठा । तत्य जे णं तीसं मुचं चंदेश सर्फि भोगं जोईति ते पारस तं जहासत्रणो चालडा, पुवाजता रेवती अस्सिी, कलिया, मगसिरं, पुस्तो, महा, पुत्राफग्गुणी, हत्यो, चित्ता, अपुराडा, मूलो, पुण्यासादा तर जे ते याक्खता, ते पतान्झीसं मुहुत्ते चंदे सद्धिं जोगं जोइति, ते णं तं जड़ा-उत्तरादवता, रोहिणी, पुणब्बसू, उत्तराफम्गुणी, बिसाहा, उत्तरासादा |
" इत्यादि ।
-
'ता' इति पूर्ववत् कथं भगवन् ! प्रतिन मु मुहूर्तपरिमाणमाश्यातमिति वदेवमुक्ते भगवानाद-ता इति पूर्ववत् तेषामप्राविंशतिनक्षत्राणां मध्ये, अस्ति तनक्षत्रं, यन्नव मुहूर्तान् एकस्य च मुहूर्तस्य सप्तविंशतिसमष्टिनागर बनायो नति उपेति । तथाति निपातत्वादस्यत्वासन्ति तानि नत्राणि यानि पञ्च सहयोगमुपया न्ति । तथा सति यानि नाणि यानि यावच्चन्द्रेण सह योगमश्नुवते । तथा सन्ति तानि नक्षत्राणि, यानि पारितं हन्याद्वेण सह योगं जन्त पर्व सामान्येन जगतोके विशेषनिरचार्थे भगवान् कृति गौतमः- “ तापासे णं " इत्यादि । 'ता' इति पूर्वषत् । पतेषामाशते कृषाणां मध्ये, तर त, यमु नू, एकस्य व मुहूर्त्तस्य सप्तविंशतिसप्तषष्टिजागान् यावचन्द्रेण सहयोग युनकि ? । तथा कतराणि तानि नक्षत्राणि, यानि पञ्चदश मुहूर्त्तान् यावच्चन्द्रेण सह योगं युञ्जन्ति । तथा कत राणिने यानि शतं मुनाफे सह योगमनुते। तथा कतराणि तानि नत्राणि यानि प रिशतं मुहूर्तान् यावच्चन्द्रेण साई योगमुपयान्ति १ । एवं गौतमेन प्रश्ने कृते जगवानाह " ता एसि णं " इत्यादि । * ता इति पूर्ववत् । पतेषामादिमित्राणां मध्ये यत्र
।
।
पाक्खन्त
-
मय मुद्द्यांत् एकस्य समुद्रस्य सविशतिसप्ताभागान् पा चन्द्रेण सह योगं युनक्ति । तदेकमजिजिनमपसेयम् । कथमिति चेत् ? । उच्यते इद्द अभिजिन्नक्षत्र सप्तषष्टिखमीकृतस्याहोरात्रस्यैकविंशतिभागान् चन्द्रेण सह योगमुपैति । ते वैकविंशतिरपि भागा भागार्थ शितगुरयन्ते जातानि पशतानि विशदधिकानि ६३० तथा तावान् कालमधिकृत्य सीमाविस्तारो निजिक्षस्याप्युक कचैव सया तीसा, जागाणं अभिर सीमविक्खंभो । दिठो सम्ब डहरगो, सवोऽणतणानीहि ॥ १ ॥ " तेषां सप्तषष्टधा भागो हियते, लब्धा नव मुहूर्त्ताः, एकस्य च मुहूर्तस्य सप्तविंशतिः सप्तषष्टिभागाः । ९ । २४ । उक्तं च " अनिश्स्स चंदजोगो, सती कि अोरतो जागा य एते पुण अहिया नव मुहुता १३ ॥ १ ॥ तथा इत्यादि । तंत्र सेवामाविंशतेाणां मध्ये यानि नाति पञ्चदश मुहूर्तान् यावच्चन्द्रेण सह योगमश्नुवते तानि पद् । तद्यथा"सनमिया "स्वादि तथादितेषां निक प्राणां प्रत्येक समीकृतस्वादोरायस्य सत्कान्सा दन्यशिभागान् याय देण सह योगो नयति तो मुहूर्त्तगत सप्तषष्टिभागकरणार्थे त्रयस्त्रिंशत् त्रिंशता गुप्यते, जातानि तानि मत्यधिकानि ६६० सा तदपि त्रिंशता गुणयित्वा द्विकेन भज्यते, लब्धाः पञ्चदश मुहूर्तस्य सप्तषष्टिनागाः, ते पूर्वराशौ प्रक्षिष्यन्ते, जातं पूर्वराशिसहस्रं पञ्चोत्तरम २००५ तथा चैतेषां प्रत्येकं कालमधिकृत्य सीमाविस्तारो मुहूर्व गतसप्तागानां प
66 तस्थ
मुक्त:- "सबसिया भरीव असा जाय। पंचोचरं सहस्सं, भागाणं सीमविक्खंभो ॥१॥" अस्य पञ्चोचरसहस्रस्य सप्तषष्टधा भागो हियते, लब्धाः पश्वादश मुहूर्ताः । उक्तं च "सयभितया भरतीओ, अद्दा अस्सेल साइजिडाय । पर अक्खता, पारस मुहुत्तसंजोगा ॥ १ ॥ तथातत्र तेषामधार्थिले मध्यपान
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मुहूर्तान् पाययामेण सह योगं युञ्जन्ति तानि च । तद्यथा-" सवणो इत्यादि । तथाहि एतेषां कालमधिकृत्य प्रत्येकं सीमाभितपािगानां दशचरे द्वे सहसे २०१० । ततस्तयोः सप्तषष्टधा भागे हुते लब्धात्रिंशन्मुहूर्ताः । तथा-तत्र यानि नक्षत्राणि पञ्चचत्वारिशतं मुहूर्तान् यावच्चन्द्रेण सा योगं युञ्जन्ति, तानि पद् । तद्यथा-उत्तरारूपदा इत्यादि । तेषां हि प्रत्येकं कालमधिकृत्य सीमाविष्कम्भो मुगतनागानां त्रीणि सहखाणि पञ्चदशोचराणि ३०१५ । ततस्तेषां सप्तधा भागे ते सापचारिंशदेव मुहूर्तायन्ते ।
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चकं च"तिथे पुन्य रोहिणी बिसाहा । परता, पणयाल मुडुत संजोगा ॥ १ ॥५ अबसेसा नकला, पनरसर हुंति तीसश्मुहुचा । दम्मि पस जोगो, नकलचाणं समक्लाभो ॥ २ ॥ " तदेवमुको नक्शणां चन्द्रेण सह योगः ।
सितमभिहि
(११) तापतेसि अहावीसाए एक्वत्ता अस्थि एक्सके जे पं चचारि अहोरचे छब मुहुचे णं सूरेण स
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(१७६४) प्रभिधान राजेन्खः ।
क्खत
नोयं जोएति । त्वि शक्वता, जे खंछ अहोरले एगबीच मुहुते सूरेण सद्धिं जोयं जोईति । अस्थि - क्खत्ता, जेणं तेरस श्रहोर ते वारस य मुदुत्ते सूरेण सं जोयं जोड़ति । अस्थि ाक्खत्ता, जेणं बीसं अहोरचे तिथि
-
मुमुचे सूरेण स जोयं नोति । ता पतेसि हावीसाए एक्खभाणं कतरे णक्खत्ते, जं चत्तारि अहोरचे उच्च मुद्दले सूरेण सर्फि जो जोएति ? कतरे णक्खता, भे छ अहोर से एगवीसं च मुदुचे सूरेण सजि जोइति । कतरे णक्खत्ता, जे खं तेरस महोरते बारस य मुहुते मूरेण सर्फि जो जोईति । कतरे क्खता, ? | जे बीस अहोरले तिरिणय मुदुचे सूरेण सकि नो जोईति । ता एतेसि णं अट्ठावीसाए णक्खत्ताणं, तस्थ जे मेक्खते, जे चार अहोरचे मुदुचे सूरेण सद्धिं छ च जो जोति से अनिई तस्य जे ते क्खा, जेणं अहोरचे एमबीसं च मुदुचे सूरेण सद्धिं जो जोइंति, ते णं छ । तं जहा - सताभिसया, भरणी, श्रदा, अस्सेमा, सावी, जेहा सत्य जे ते णक्वचा, जे पणं तेरस महो रालय ने रेण सोयं जोपंति ते यां परस । तं जहा -सवणो, घाडा, पुत्र भद्दवता, रेवती, सिणी, कत्तिया, मग्गसिरं, पुम्सो, महा, पुव्बाफग्गुणी, हत्थो, चिता, राधा, मझो, पुनासादा । तत्य जे ते क्खना, जेबी प्रहारले तिथि मुटु सुरेण सि जो जोइति ते । तं जहा- उत्तराजद्दवता, रोहिणी, पुन्त्रसू, उत्तराफम्गुणी, बिसाहा, उत्तरासाठा ।
"तो" इत्यादि 'ता' इति पूर्ववत् पतेषामनन्तरो दिसानामाविंशतिनामध्ये अस्तितवर्ष यच्चतुरो अहोराधात् षट् च मुन्यात्सूर्येण सार्द्धं योगमुपैति । तथाऽस्तीति सन्ति तानि नक्षत्राणि, यानि षमहोरात्रानेकावेंशची सार्द्धं योगं युति तथा सन्ति तानि नाणि यानि प्रमु यासह योगमुपयान्ति तथा सन्ति तानि नाण यानि विशतिमहोरात्रान् वीन मुहुर्ता पायत्सूर्येण समं योग युञ्जन्ति । एवं भगवता सामान्येनाको विशेषावगमनिमित्तं भूDisha भगवान् गौतमः पृच्छति - "ता पतेसिं" इत्यादि सुगमम् । भगवान् निर्वाचनमाह - "ता पतेसि णं" इत्यादि । 'ता' ति पूर्वामध्ये चतुरो अहोराधान् यदूनायोगं युनकि मभिषिमय सेयम् ।
तथाहि सूर्ययोगविषयं पूर्वाऽऽचार्यप्रदर्शितमिदं करणम" जं रिक्त्रं जावडर, घश्चर नंदेण भाग सतट्ठी । तं पणजागे गई दियस्स सूरेण तावद्दप' ॥ १ ॥ अक्षरगमनिका नक्षत्रं पावतो रात्रदि होरात्रस्य सम्बन्धिनः सान्द्रेण सहयोगं वजति तक्षक्षत्र रात्रिन्दिवस्य पञ्च जागान् तावतः सूर्येण समं व्रजति ।
याक्खत्त
तत्रानिजिदेकविंशतिसप्तषष्टिभागान् चन्द्रेण समं वर्तते, तत एतावतः पञ्चभागानहोरात्रस्य सूर्येण समं वर्तमानमव सेयम् । एकविंशतिध पञ्चभिर्मागे ते सारा होराचा एक पञ्चमी भागोऽतिष्ठते, समुनयनाया जाताशिव तस्याः पनि हुने लया चमुद्र इति। उक्तं च
"अभिमुदुत्ते, चत्तारि य केवले श्रहोरते। सुरेश समं पचरामि ॥ १६" तथा तत्र तेषामामध्ये यानि नत्राणि पोरानेकविंशर्ति मुनयावत् सूर्येण स योग मुपयान्ति । तानि षट् । तद्यथा-"सयनिसया" इत्यादि । तथा दि एतानि नक्षत्राणि प्रत्येकं चन्द्रेण स सान संध्याकान् सप्तभिागानहोरात्रस्य ब्रजन्ति
देतेषाम, तत पतावतः पञ्चनागानहोरात्रस्य सूर्येण समं व्रजन्तीति प्रत्येतव्यं प्रागुक्तकरणप्रामाण्यात् । त्रयस्त्रिंशतश्च पञ्चनिभोगे हुने सच्चा परुद्धोषाः पचादयति पश्चादवतिष्ठन्ते सास्त्रयः पञ्चनागानां जाताः सप्ततिः मुनयनाथ जाने दोरे २१० ते
परिपूर्ण नयनाय दांगो साकि शतिर्मुहूर्ताः । उक्तं च- " सयभितया भरणी ओ, भद्दा अस्सेस लाइ जिट्ठा य । घांति मुहुत्ते इग-वीसं ह्र देवऽहोरले ॥१॥ " तथा तत्र तेषामहावित्राणां मध्ये यानि त्रयोदश महोरा यावत् सूर्वेण समं योग युज्जन्ति, वजन्तीति पाठान्तरे । तानि पञ्चदश । तद्यथा-"सवपो" इत्यादि । तथाहि श्रमूनि परिपूर्णान् सप्तषष्टिभागान् चन्द्रेण सन्ति ततः स तानि पञ्च नागानव्यहो राजस्य सप्तषष्टिसंख्यान् गच्छन्ति । सप्तषष्टे पञ्चभित्र ते लन्धात्रयोदश अहोरात्रा शेष ही भाग
गुणयेते, जाता षष्टिः, तस्याः पञ्चनिर्भागे हृते लब्धा द्वादश मुहूर्ताः। उक्तं च- " अवसेसा नक्खत्ता, पनरस वि सूरसहगया जति । बारस चैव मुडुते, तेरस य समे अहोरचे" ॥१॥ तथा तत्र तेषामध्ये यानि महोरात्रान् षान् महासूर्वे समं योगमनुते, तानि षट् । तद्यथा-" उत्तरभद्दवया" इत्यादि । एतानि हि रुपि नक्षत्राणि प्रत्येकं चन्द्रेण समं सप्तष्टिनांगानां शतमेकस्य च सप्तषष्टिभागस्यार्द्ध व्रजन्ति । तत एतावतः पञ्च भागान् अहोरात्रस्य सूर्येण समं व्रजन्तीत्येवमवगन्तव्यम, शतस्य च पञ्चभिर्भागे हते लब्धा विंशतिरहोरात्राः। यदपि चैकस्य पञ्चभागस्वता गुरुयते जातात वाद मित्रो मुसो ०१-०२पाहु उद्योग
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(१२) तत्राणामादानविपरिज्ञाननि/मेतनिरूपणम्एसिं रिक्खाणं आपणाविसमाकरणं । चंदम्मिय सूरम्मिय, वोच्छामि महापृपुच्चीए ॥ पतेषामनन्तदितानां नक्षत्राणामाविमा चिकारकरण्यास परिकाननविष कि दिने बन्सूर्येण वासवक, तस्य किल चन्द्रेण सूर्येण वा कृतः परिग्रह इत्यादानम् । पाश्वास्यादिनक त्राणि गतानि तानि किल मुक्तानि परित्यक्तानि तेषां परित्यागो विसर्गः। तयोः परिज्ञानं केन नकुत्रेण सह चन्द्रस्य सूर्या वा
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एक्खत्त प्रन्निधानराजेन्छः।
एक्खत्त योगो वर्तते .कानि च प्रागतीतानि?, इति सम्यग्ज्ञान, तनि- सीमासूचक शोधितेषु चामूषु तपरितनेषु यदस्ति तत् त्रिंशता मिकरण,चले सूर्येच प्रत्येक यथाऽनुक्रमेण वक्ष्यामि । गुणयित्वा,सप्तषष्टया भागे ते ये लम्धास्ते मुहूर्ता ज्ञातव्याः।त. सत्र यथोदेशं निर्देश इति न्यायात् प्रथमतः त्राप्यवशेषांशा मुहूर्तस्य सप्तपष्टिभागा अवलेया इति करणगाचकविषयं करणमाह
थाहरार्थः। .. पव्वं पथरसगुणं, तिहिसहियं भोमरत्तपरिहीणं ।
संप्रति भावना क्रियते
युगस्य प्रथमे संवत्सरे दशसु पर्वसु गतेषु पश्चम्यां केन बासीइए विभत्ते, लके असे चियाणाहि ॥
नक्षत्रेण सह योक्तव्यम्, इति जिज्ञासायां पर्वसंण्या दहाजंहा भागलकं, कायध्वं तं च उग्गुणं णियमा । को ध्रियते, ते च दश पञ्चदशन्निगुण्यन्ते, जातं पञ्चाशदधिक अनिइस्स एक्कवीसा, नागे सोहेहि लचम्मि ॥ शतम् १५० । पञ्चम्यां च नवप्रेण सह चन्छस्य योगोशातुमिष्ट सेसाणं रासीणं, सत्तावीसा तु मंडला सोझा ।
इति दशानां पर्वणामुपरितनास्तिथयोऽतिक्रान्ता,ताः प्रतिप्यन्ते, अभिहस्स सोहणाऽसं-नवे तु इणमो विही हो।
जाते चतुष्पञ्चाशदधिकं शतम् १५४ । दशसु पर्वसु द्वावप्यम
रात्रौ,ततस्तौ तस्मात्पात्येते,जातं द्विपश्चादादधिकं शतम् १५२। सेसाओ रासीओ, रूवं घेत्तूण सत्तसहि काळणं ।
तस्य छाशीत्या नागो हियते, लब्धमेक रूपं, तच्च उपरि पक्खिव लहेसु पुणो, अभिजिइ सोडेउ पुनकमा । न्यस्यते, न्यस्य च चतुर्जिगुण्यते, जाताश्चत्वारः ४ । शेष पंच दस तेरसऽट्ठा-रसे य चाचीस सत्तवीसा य । चाधस्तादुद्वति सप्ततिः । तत्रोपरितनो राशिः स्तोकत्वादेसोज्का दिवाखेत्तं, तं नदबई असादंता ॥
कविंशतिरूपं शोधनं न सहते, ततः सप्ततेरेकं रूपं एयाणि सोहरत्ता, जं सेसं तं इविज नक्वत्तं ।
गृहीत्वा सप्तषष्टिसण्डीक्रियते ते च सप्तषष्टिभागा उपरि
तनराशिमध्ये प्रतिप्यन्ते जात उपरितनो राशिरेकसप्ततिः ७१। सोझा तीसगुणाओ, सत्तटिहते मुहुत्तारो॥ अधस्ताश्चकोनसप्ततिः। तत उपरितनराशेरभिजित एकयस्मिन् दिने चन्द्रेण सह युक्तं नक्षत्र कातुमिष्यते, तस्मा- विंशतिः शोध्यते, अधस्तनराशेख नक्षत्रमण्मलं सप्तविंशतिः, द् दिनात् प्राक यानि पर्वाणि युगमध्येऽतीतानि, तानि सं- तत अपरि पञ्चाशत जाताः ५० । अधस्ताद विचत्वारिख्यया परिजाव्य तत्संख्या ध्रियते । सूत्रे च पर्वसंख्या ऽप्युप- शजाताः। ततः पुनरप्युपरितनराशेरेकविशतिः शुद्धा चारात् पर्वेत्यभिहिता । पर्व पञ्चदशतिथ्यात्मकम, मतस्तत् प. अधस्ताच्च सप्तविंशतिः । तत उपरि एकोनत्रिशत २६ ञ्चदशभिर्गुण्यते, गुणयित्वा च तेषां पर्वाणामुपरि विवक्षिता- जाताः, अधस्तात पञ्चदश २६ । ततो भूयोऽप्युपरितनरायास्तिथेः प्रागतीतास्तिथयः, ताभिः सहितं संयुक्तं पञ्चदश- शेरभिजित एकशितिः शोभ्यते ८ । अधस्ताच्च पञ्चदशसु गुणनाऽनन्तरं पर्वोपरिवर्तिन्योऽतीतास्तिथयो मध्ये प्रक्तिप्यन्त त्रयोदशकमकस्थानं पुनर्चसुनक्षत्रपर्यन्तस्तवकम, प्रतः पुनः इति । ततो येऽवमरात्रा अतिक्रान्तेषु पर्वसुगताः, तैः परिहाणं सुपर्यन्ताति नक्षत्राणि शुद्धानि। शेषौ द्वौ तिष्ठतः। तस्य द्वेनक्रियते, ततोऽपनीयत इत्यर्थः। ततो द्वघशीत्या भागो हिय- क्षत्रे शुद्ध। तद्यथा-पुष्यः,आश्लेषा च । उपरिच तिष्ठन्त्यष्टौ। ते ते । तत्र जागे हते यवन्धं, ये चांशा अवतिष्ठमानाः, तदेतत्सर्व त्रिंशता गुपयन्ते,जाते वे शते चत्वारिंशदधिके २४०। तयोः सप्त. विजानीहि, बुद्धया सम्यगवधारयेति भावः । लब्धं चोपरि खा.
पश्या नागे ते लब्धात्रयो मुहर्ताः, एकस्य च मुहूर्तस्य एपय, अंशाँधाऽधस्तात् लन्धश्च राशिरिति व्यवाहियते, अंशाश्च कोनचत्वारिंशत्सप्तपशिनागा। एकस्य च मुहर्तस्य सत्केवेकोशेषो राशिरिति ॥ तत्र यद् भवति वर्तते भागलब्धं, तद् निय
नचत्वारिंशत्संख्येषु सप्तपश्चा भागेषु चन्द्रेण शुक्तेषु पञ्चमाञ्चतुर्गुणं कर्तव्यं, कृते च सति सम्धरूपात राशेरभिजि
म्यां सूर्य उदित इति ॥ तथा युगे प्रथमदिवसे प्रतिपदि केन तो नक्षत्रस्य सम्बन्धिन एकविंशतिभागान् शोधय ॥ शेषाणां
नकत्रेण सह युक्तश्चकः, इति चिन्तायां पाश्चात्ययुगपर्वसंख्या तु राशीनामधस्तनस्थानवर्तिनां मध्यात्सप्तविंशतिसंख्यं नका
ध्रियते चतुर्विशं शतं १२४ । ततः पञ्चदशनिगुपयते, जातानि प्रमएमनं शोध्य, सप्तविंशतिः शोध्या इत्यर्थः। प्रथोपरित- | षष्यधिकान्यष्टादशशतानि १०६०। युगे च त्रिंशदवमरात्रा इति नो राशिः स्तोकतया एकविंशतिरूपं शोधनं न सहते, तत तेभ्यरिवशत्पात्यते,जातान्यष्टादशशतानि त्रिंशदधिकानि १८३०। पाह-"सेसामो" इत्यादि । शेषात् अधस्तनपात्राशेरेकं रूपं तेषां यशोत्या भागो हियते,लब्धा द्वाविंशतिः । सानपरि न्यगृहीत्वा सप्तपष्टिभागीक्रियते, कृत्वा च पुनस्ते सप्तषष्टिभागा | स्यते,न्यस्य च चतुर्भिर्गुपयते,जाता अष्टाशीतिः शेषमधस्तापु. लम्धषु लन्धराशिमध्ये प्रतिपेत् । प्रतिप्य च ततोऽभिजिदष्टा- वरति शितिः । तत्रोपरितनराशेरेकविंशतिरनिजितः दशनकत्रसंबन्धेनेकविशतिनागान , पूर्वक्रमात् पूर्वक्रमानु- शोभ्यते, स्थिता पश्चात् सप्तषष्टिः ६७ । तया च किलक नसारेण शोधय ॥ शोधयित्वा च पञ्चदशत्रयोदशाटादशद्वा. क्षत्रं सभ्यते । अधस्ताच्च शितिरिति सर्वसंकलनया स. विंशतिसप्तविंशतिरूपान् शोध्यान छार्यकेत्रान् खत्रपर्यन्त- प्तविंशतिरपि नत्राण्युत्तराऽऽषाढापर्यन्तानि शुरूानि । तत सूचकान, तानपि शोधय । एतदेव व्यक्तमाचष्टे-जारूपदादीन मागतमुदयसमय पवाभिजिन्नवत्रं चन्द्रेण सह योगमुपयातीप्राषाढान्तान् , उत्तरभारुपदान, उत्तराषाढापर्यन्तसूचकानित्य- ति॥तथा युगे द्वितीयेऽहोरा द्वितीयायां केन नत्रेण सह युक्तर्थः। तथाहि-पश्चकं श्रवणादारभ्योत्तरभाउपदाम्पत्य क्षेत्रपर्य- धन्छ?,इति चिन्तायां पाश्चात्या तिथिरतिक्रान्ता प्रतिपलक्कणा, न्तसूचकः। दशको रोहिणीरूपनार्थकेत्रसीमासूचक प्रयोदश- तत्संख्या एकको धियते, साशीत्या भागं न सहते, ततः कः पुनर्वसुरूपय क्षेत्रपर्यन्त ख्यापकः। अष्टादशक उत्तरफा- सप्तषष्टिभागीक्रियते, तस्मादेकर्षिशतिरनिजितः शोध्यते. ल्गुनीरूपाधक्षेत्रसीमापरिकापकः। द्वाविंशतिर्विशाखारन. स्थिता पश्चात षट्चत्वारिंशत् ४६ । सा मुहूर्तकरणार्यम ३० क्षेत्रसीमासूचिकेत्यर्थः । सप्तविंशतिरुत्तराषाढारूपत्र- त्रिंशता गुश्यते । जातानि प्रयोदशशतान्यशीत्यधिकानि
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(१७६६) याक्खत्त प्रन्निधानराजेन्दः।
गावखत्त १३०० । तेषां सप्तपष्टया जागो वियते, लग्धा मुहूर्ता विंशतिः दिनै दशनिश्च मुहर्स द्वयर्द्धक्षेत्राणि विशत्या दिनस्त्रिभिश्चम १०स्थिताः पश्चात् चत्वारिंशत् ४० । भागतं श्रवणनवत्र सरिति । यत्पुनरुद्धारतंशोधनं न गच्चति, तनकत्र सूर्यगतमबविंशतिमुहूतेषु, एकस्य च मुर्तस्य चत्वारिंशति सप्तष- सेयम् । याऽपि राशिः स्तोकतया षट्पष्टयाधिकशतत्रयभागं न टिभागेषु चन्वेण भुक्तेषु युगे द्वितीये अहोराने द्वितीयायां सूर्य | सहते,तत्रापि यथायोगं शोधन कर्त्तव्यमा नक्तं करणम । उदयते । एवं सर्वत्रापि भावीयम् । ज्यो० ए पाहु.।
संप्रत्येतद्विषया भावना क्रियते
युगस्य प्रथमे संवत्सरे चान्द्रे दशसु पर्वस्वतिकान्तेषु [१३] पव्वं पत्ररसगुणं, तिहिसहियं प्रोमरत्तपरिहीएं।
पशम्यां केन नक्षत्रेण सह योगो दिवसाधिपतेः, इति चि. तिहि गवट्ठसएहिं, भागे सेमम्मि सोहणगं ॥
न्तायां पर्वसंस्था दश ध्रियते,ततः पञ्चदशनिगुण्यते,जातं पञ्चायुगमध्ये विवत्तिता दिनात प्राक यानि पर्वाणि अतीतानि, शदधिकं शतम् १५० । दशानां च पर्वणामुपरि पञ्चम्याः प्राक् सत्संख्या स्थाप्यते,स्थापयित्वा च पञ्चशनिर्गुण्यते,ततो वि- तिथयोऽतिक्रान्ताश्चतस्रः, ततस्तास्तत्र प्रक्षिप्यन्ते, जातं चतुःपतिता दिनात् प्राक् पर्वणामुपरि यास्तिथयोऽतिकान्तास्त- पञ्चाशदधिकं सतम १५४ । दशसु च पर्वसु द्वाववमरात्री। ततरसहिता क्रियते । ततस्तदनन्तरमधिकता दिनादार ये गता स्तौ तस्मात् पात्येते, जातं द्विपञ्चाशदधिकं शतम (५२। भयं भवमरात्रातः परिहीना क्रियते, ते ततः पास्यन्त इत्यर्थः। ततः च राशिः षट्पष्टयधिकं शतत्रयभागं न सहते, ततो यथासंभवं शेषस्य त्रिनिः शतैः षट्पष्टयधिकैर्षिभजेत नागं हरेत् , भागे शोधनकं कर्तव्यम् । तत्र षोडशाधिकेन शतेन विशाखाऽन्तानि चहते यत शेष, तस्मिन् शेषे, शोधनकं वक्ष्यमाणस्वरूपं कु- नकत्राणि शुभानि, शेषाणि षत्रिंशत् । ततोऽनुराधा प्रयोदयात्।
भिरहोरात्रैर्वादशभिर्मुहुः शुका, शेषास्तिष्ठन्ति द्वाविंशतितत्र यस्मिन् शोधनके बाके यन्नक्षत्रं प्रवति, तदेतनिक- दिवसाः, अष्टादश च मुहूर्ताः । पुनः षभिर्दिवसैरेकर्षिश- . पयमाह
त्या च मुदूतज्येष्ठा शुझा, शेषाः पञ्चदश दिवसाः सप्तविं. चवीसं च मुहुत्ता, अटेव य केवला अहोरता। शतिर्मुहूर्ता प्रवतिष्ठन्ते । तेभ्यस्त्रयोदशभिर्दिवादशभिव एए पुस्से सेसा, एत्तो सेसाण बोच्छामि ।
मुहूतैर्मूलनकत्रं शुरूं, शेषौ द्वौ दिवसौ, पञ्चदश मुहर्तास्ति
ठन्ति । एतावान् कालः पर्वदशकातिक्रमे पञ्चम्यां पूर्वाषाढा. चनुशितिर्मुहर्ताः,अष्टौ च केवलाः परिपूर्णा महोरात्रागपते
प्रविष्टस्य सूर्यस्याभूत् ॥ तथा युगस्य प्रथमसंवत्सरपर्यन्ते केएतावतो मुहूर्ताः, अहोरात्राश्व-पुष्ये पुण्यनकत्रे, शोभ्याः। कि
न नक्कत्रेण सह समेतो भास्करः, इति चिन्तायां प्रथममुक्तं नवति?-पतेषु शोधितेषु पुष्यनक्षत्रं शोधितं प्रवति । प्रत
संवत्सरे पर्वाणि चतुर्विशतिः, तानि पञ्चदशभिर्गुण्यम्ते, जा. ऊर्दू शेषाणां नकत्राणां शोधनकानि वदये ।
तानि श्रीणि शतानि षष्टपधिकानि ३६० । संवत्सरे च पडतानि च क्रमेण पाह
बमरात्रा इति षट् तेच्या पात्यन्ते, जातानि त्रीणि शतानि राउंदिया विसट्ठी, य मुत्ता बारमुत्तरा मुका।
चतुष्पञ्चाशदधिकानि ३५४ । अत्रापि त्रिनिः शतैः षट्पसोनमसयं विसाहा, सिंदेवा य तेसीयं ॥
एघधिकांगो न पूर्यते, ततो यथासंभवं शोधनं कर्तव्यम् । द्वापषिष्टिसंक्यानि, रात्रिन्दिवानि, द्वादश च मुहर्ताः, ए
तत्र त्रिभिः शतैरेकविंशत्याधिकैः षनिश्च मुहरैरोहिण्यसावति शोधिते उत्तरफाल्गुनीनक्षत्रं शुकं भवति। तथा पोमश
तानि नक्कत्राणि शुद्धानि, शेषास्तिष्ठन्ति द्वात्रिंशदहोरात्राचशतं षोमशाधिकं शतं, विशाखा विशाखापर्यन्तसूचक, तत
तुपिंशतिश्च मुहूर्ताः। तेभ्योऽपि त्रयोदशभिर्दिवसै दशनिश्च स्तस्मिन् शोधिते विशाखाऽन्तानि नक्षत्राणि शोधितानि नव
मुहमगशिरो नक्कत्र,शेषा अवतिष्ठन्ते एकोनविंशतिरहोरात्राः, म्तीति जावः । तथा इयशीतं ज्यशीत्यधिकं शतं, विष्वग्देवा- द्वादश च मुदूर्ताः । तेभ्योऽपि पम्भिर्दिवसैरेकविंशत्या न विष्वदेवाधिपतिरुत्तराषाढा इत्यर्थः । अत्राऽयं नावार्थ:
मुहूरा नक्षत्रं शुरूं, शेषास्तिष्ठन्ति द्वादश दिवसाः, एकवियशीत्यधिकं शतमुत्तराषाढापर्यन्तसूचकमिति ।
शांतर्मुहूर्ताः । एतावान् का सस्तदानीं पुनर्वसुनक्षत्रप्रविष्टस्य सदो चउपमे बच्चे-ब मुहत्ता उत्तरा उ पोहवया ।
यस्यानवत् । श्ह यन्त्रकत्रमहोरात्रं कालं यावश्चन्छेण सह यो
गमपारूढं वर्तते, तस्य सूर्येण सह यावन्तं कालं योगः, ततिएणेव एकवीसा, उच्च मुटुत्ता उ रोहिणिया ॥ स्थ त्रिंशत्तमभागप्रमाण एकः सूर्यमदूतः । एवं त्रयोदश हे शते चतुष्पश्चाशे चतुष्पञ्चाशदधिके, पद च मुहर्ताः, उ-] मुहर्ताः, एकस्य च मुहूर्तस्य चतुर्विशतिषष्टिभागाः, एकस्य सराप्रोप्ठपदा-उत्तराभाचपदा, उत्सराभारुपदपर्यन्तसचका - |च द्वापष्टिभागस्य सप्तषष्टिधा चित्रस्य किञ्चित्समधिका: सा. त्यर्थः । ततस्त्रीणि शतान्येकविंशत्यधिकानि, षट् च मुहताः,रो- हात्रिपञ्चाशद्भागाः । एवंप्रमाणा मुहूर्ता अर्धक्केत्राणां पञ्चहिणी-रोहिणीसुचका इति योगः।
दश, समवेत्राणां त्रिंशत्, चर्द्धक्षेत्राणां पञ्चचत्वारिंशत् । तत्र तिन्नेगट्ठा वारस, य मुहुत्ता सोधणं पुणब्वमुणो। द्वादशभिर्दिनैरेकविंशत्या च मुहुनै] चतुप्पञ्चाशदधिकशतत्र. जं सोहाणं न गच्छइ, नक्वत्तं तं तु सूरगयं ॥
यस्योपरि द्वादश द्वापष्टिनागाश्चमसंवत्सरसत्काः,ते चाष्टावि.
शतिसंग्याः किञ्चित्समधिकाः सूर्यमुहूर्ता भवन्ति; शेषास्तु प्रोणि शतान्येकपष्टयधिकानि द्वादश मुहर्ताः एतावत् शोधन. किञ्चित्समधिकाः । एवंप्रमाणाः सूर्यमुहूर्ताः षोडश तिष्ठन्ति । के पुनर्वसोः पुनर्वसुनकत्रस्य । एतानि च शोधकानि पुष्यं मुक्ता तदुच्यते सूर्यप्राप्ती-"जे णं दोश्चस्स चनसंवन्धरस्स आई, शेषाणि केवपर्यन्तानामुक्तानि।तत एतेषामपान्तराने यानि सेणं पढमस्स चंदसंबच्चरस्स पजवसाणे, अणंतरपच्चाको नक्षत्राणि,ताम्यात्मीयेन प्रमाणेन शोध्यन्ते । तद्यथा-अर्द्धक्षेत्राणि समय । तं समयं च णं चंदे केणं णक्खत्तेणं जाए३, जोश्त्ता पम्भिरहोरात्रैरेकविंशत्या च नुहः; समकेत्राणि त्रयोदशभि-। उत्तराहिं मासादाहिं उत्तराखं भासाटाणं वन्धीसं मुहता,
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( १७६७) याक्खत्त अभिधानराजेन्द्रः।
पक्रवत्त स्वमिं न वावट्ठिभागा मुहुत्तस्स,वावटिभागं च सत्सदिहा रेता। मुहूर्तकरणार्थ त्रिंशता गुपयते, जातानि त्रीणि शतानि नवत्यचउपमं चुनिषा भागा ससा। तं समयं च णं सूरे केणं णवत्ते. धिकानि ३५०। उपरितनाश्च द्वादश महस्तित्र प्रक्षिप्यन्ते, पं जोपह, जोइता पुणब्बसुस्स सोबस मुहना अ य चाव- जातानि चत्वारि शतानि वपुत्तराणि ४०२। तानि पाभिर्गुण्य. हिभागा मुहुत्तस्स. वावटिभागं च सत्तट्टिदा वित्ता धीसं न्ते, जाते वे सहने दशोत्सरे २०१० तेषां सप्तषणा भागे हते चुमिया नागा सेसा" इति ।
लब्धानिशन्माहताः३० पतावान् समकेत्राणां प्रत्यकं चन्योसंप्रति चाशदधिकेन शतेन जागेहते लब्धाः पमहोरात्राः,
गः।तथा स्याम्केत्राणां सूर्ययोगः विंशतिरदोरात्रात्यो मुहर्ताः, शेष तिष्ठति पञ्चोसरं शतं, ततो महाऽऽनयनाय छेदराशेर- तत्राहोरात्रसंख्या मुहर्तकरणाथै त्रिंशता गुण्यते, जातानि पट बकेत्राऽऽदीनां नक्तत्राणां कालपरिमाणकानार्थ करणमाह- शतामि, उपरितनाच त्रयो महस्तित्र प्रतिप्यन्ते, जातानि षट
शतानि युत्तराणि ६०३। तानि पञ्चभिर्गुण्यन्ते,जातानि त्रीणि नक्खत्तचंदजोगे, नियमा सत्तटिए समुप्पन्ने । सहस्राणि पञ्चदशोत्तराणि ३१५ । तेषां सप्तषटया नागे ते पएणेण सएण भए, लहई सूरस्स सो जोगो ।। सम्धाः पञ्चचत्वारिंशन्मुहूर्चाः ४५ । एतावान् छाकेत्राणां नत्राणां यात्रन प्रमाणो योगः सप्तपटया नियमानिश्चयेन, |
प्रत्येकं चन्केण सह योगः। प्रत्युत्पद्यते इत्यर्थः। तस्मिन् चन्द्र नक्षत्रयोगे सप्तषष्टया प्रत्युत्पने
संप्रत्युपसंहारमाहपञ्चाशेन पञ्चाशदधिकेन शतेन ब्रजेत् मागहारं कुर्यात, भागे नक्खत्ताणं जोगा, चंदाऽऽइच्चेसु करणसंजुत्ता। इते यद् सन्ध, स तावत्कालप्रमाणः सूर्यस्य योगः।
जणिया [ मुणाहि एत्तो, पविजागं मंमलाणं तु]॥ श्यमत्र नावना-कोऽपि पृच्छति-यस्मिन् के पश्चदश मुह ।
नक्षत्राणां चम्बादित्येषु चन्द्रविषये, प्रादित्यविषये च क. सनिवतिष्ठते चन्ः, तत्र सूर्यः कियन्तं कालमवल्यानं करोति ।। |
रणसंयुक्ता योगा जणिताः प्रतिपादिताः। ज्यो. ए पाहु। तत्र पञ्चदश सप्तपटचा गुण्यन्ते, जातं पश्चोत्तरं सहस्रम १०.५। तस्य पञ्चाशदधिकशतरूपस्य विंशताजागहरणं, लब्धाः (१४) कति नागानि नतत्राणि चन्द्रेण सह युज्यन्तेपत्र, तेन पशोत्सरशतस्य भाग हते लब्धा एकविंशतिमुहूर्ताः । ता कहं ते एवंभागा आहिता ति वदेजा। ता एतेसि एतावानक्षेत्राणां प्रत्येकं सूर्येण समं योगः । तथा समके. एं अट्ठावीसाए णक्खत्ताणं अस्थि णक्खत्ता, जे एं त्राणांत्रिशन्मुहूर्ताश्चन्मयोगपरिमारणं, ततत्रिंशत्सप्तषष्टचा गु. पयते, जाते द्वे सहस्र दशोत्तरे २०१० । तेषां पञ्चाशदधिकेन
णखत्ता पुनजागा समक्खेत्ता तीसतिमुहुत्ता पमत्ता । शतेन जागो हियते, लब्धाः त्रयोदश अहोरात्राः, शेषास्तिष्ठन्ति
अस्थि णक्खत्ता, जेणं एक्खत्ता पच्चंभागा समक्खेत्ता पष्टिः, ततो मुद्दाऽऽनयनात् दराशेत्रिंशता भागहरणं, स्थि- तीमतिमुहुत्ता पमत्ता । अस्थि णक्खत्ता, जे पांणक्खताः पत्र तैः षष्टेनर्जागो हियते, लब्धा द्वादश मुहूर्ताः, पतावान
चा णत्तं जागा अवतखेत्ता पसरस मुहुत्ता पमत्ता । समकेत्राणां प्रत्येक सूर्येण सह योगः। तथा केत्राणां पशचत्वारिंशन्महूर्ताश्चन्छयोगः पञ्चचत्वारिंशत्सप्तषष्टपा गुण्यते,
अत्थि णवत्ता, जे णं एक्खत्ता उनयंजागा दिवाजातानि श्रीणि सहस्राणि पञ्चदशोत्तराणि ३०१५ । तेषां
क्खेत्ता पणयालीस मुहुत्ता पम्पत्ता । ता एएसि पं प्रा. पशाशदधिकेन शतेन भागो हियते, लब्धा विंशतिरडो- वीसाए एक्खत्ताणं कतरे णक्खत्ता, जे पं रणवत्ता रात्राः, शेषास्तिष्ठन्ति पञ्चदश, ततो मुहाऽऽनयनाय वेदरा
पुवभागा समक्खेत्ता तीसतिमुडुत्ता पएणत्ता ।। शेत्रिंशता भागहरणं, स्थिताः पश्च, तथा दशानां भागे इते
कतरे णक्खत्ता, जे णं णक्खत्ता पच्छनागा समसन्धात्रयः पञ्च मुहूर्ताः, एतानान् कालकेत्राणां प्रत्येक सूर्येण समं योगः।
क्खेत्ता तीसतिमहत्ता पएणता । कतरे णक्वत्ता, जे साम्प्रतं यथा सूर्ययोगपरिमाणदर्शनतः चन्छयोगपरिमाणका
णं णक्खत्ता एतंजागा अवकखेत्ता पएणरस मुनं भवति, तथा प्रतिपादयति
इत्ता पएणता? कतरे एक्खत्ता, जे ए णखत्ता नक्खत्तसूरजोगो, मुद्दुत्तरासीको उ पंचगुणो। नभयंजागा दिवसक्खेत्ता पणयालीसइमुदुत्ता पमत्ता १ । सत्तहीऍ विजत्तो, बद्धो चंदस्स सो जोगो॥ ता एतेसि णं अहावीसाए णक्खत्ताणं, तत्थ पं जे ते नकत्राणामक्षेत्राऽऽदीनां यः सूर्येण सह योगः स महतरा- णक्खत्ता,जे णं एक्वत्ता पुव्वं नागा समवेत्ता तीसतिशीक्रियते, कृत्वा च पञ्चनिर्गुण्यते, ततः सप्तषष्ट्या भागे हने मुहुत्ता पमत्ता। तेणं छ । तं जहा-पुन्चनद्दवया १, कत्तिता यल्लब्ध, स चन्छस्य योगः। अत्रापीयं भावना-कोऽपि शिष्यः
२, महा ३, पुचफग्गुणी ४, मूलो ५, पुवासाढा ६ । पृच्छति-यत्र सूर्यः षट् दिवसान एकविंशति च मुहर्रान् अव. निष्ठते, तत्र चन्द्रः कियन्तं काझं तिष्ठतीति । तत्र मुहर्तराशि
तत्थ पं जे ते पक्वत्ता, जेणं णक्खत्ता पच्चंभागा करणार्य षट् दिवसाः त्रिंशता गुण्यन्ते, गुणयित्वा चो
समवेत्ता तीसतिमुहुत्ता पण्णत्ता । ते णं दस । तं जहा. परि एकविंशतिर्मुहूर्ताः प्रक्किप्यन्ते, जाते द्वे शते एको- अभिई १, सवणो, धणिहा ३, रेवती , अस्सिणी ५, सरे २०१ । ते पञ्चभिर्गुण्यन्ते, जातं पञ्चोत्सरं सहस्रम १००५॥ तस्य सप्तषटया भागे हुते सम्धाः
मिगसिर ६, पुस्सो ७, हत्यो, चित्ता ए, अाराहा १०
पञ्चदश महत्तो,पता. वानरक्षेत्राणां प्रत्येकं चन्केण समं योगः। तथा समक्षेत्राणां
एवं पच्छंनागा दस हवंति । तत्थ णं जे ते णक्खत्ता, जे ण सूर्ययोमस्त्रयोदशदिवसा द्वादश मुहूयाः, तत्र दिवस संख्या णक्खताणचंभामा प्रवक्खेचा पमरस मुहत्ता पत्ता।
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(१७६८) गावखत्त प्रन्निधानराजेन्द्रः।
नाक्खत्त ते छ । तं जहा-सतजिसया १,जरणी, श्रदा ,। (पमदं ति) प्रमर्दश्चमेण स्पृश्यमानता, तक्षणं योग अस्सेमा ४, साती ए, जेठा ६ । सत्यं णं जे ते णक्खत्ता |
योजयन्ति, प्रात्मनश्चरण साई कदाचिद्, न तु तमेव सदैवे.
ति । उक्तं च-"पुणवसु रोहिणि चित्ता. मह जेट्टऽणुराह जनयंभागा दिवसक्खेत्ता पणयालीसनिमुहत्ता पमत्ता ।
कत्तिय विसाहा । चंदस्स उभयजोगी" इति । यानि च तेणं छ । तं जहा-उत्तरजदया १,रोहिणी, पुणव्य.
दक्षिणोत्तरयोगीनि, तानि प्रमर्दयोगीन्यपि कदाचिद्भवसू३, उत्तराफग्गुणी ४, बिसाहा ५, उत्तरासादा ६। न्ति, यतो लोकश्रीटीकाकृतोक्तम्-एतानि नक्षत्राण्युन्जययोगीनि
चन्मस्य दक्षिणेनोत्तरेण च युज्यन्ते, कथश्विधन्छेण नेदम"ता कहते" इत्यादि । 'ता' इति पूर्ववत्, कथं केन प्रकारेण भगवन् ! स्वया एवंलागानि वक्ष्यमाणप्रकारभागानि मक
प्युपयान्तीति । एतत्फलं चेदम-"एतेषामुत्तरगाः, ग्रहाः मुनिपाणि श्राख्यातानि इति भगवान् वदेत । एवमुक्त प्रगबानाह
क्षाय चन्द्रमा नितराम।" इति । स्था० १० ठा० । "ता पपसिणं" इत्यादि ।'ता' इति पूर्ववत् । पतेषामधि
(१६) कति नक्कत्राणि कति भागानि पूर्णिमामाभ्यामशतेन कत्राणां मध्येऽस्तीति सन्ति तानि नक्षत्राणि, यानि पूर्व
ता कहं ते जोगस्सादी माहिता ति वदेज्जा? ता अभिई, भागानि-दिवसस्य पूर्वभागश्चन्छयोगस्याऽऽदिमधिकृत्य विद्य- सवणो खलु उचे णक्खत्ता पच्छंभागा समक्खेत्ता सातिसे येषां तानि पूर्वनागानि, समक्षेत्राणि-समं पूर्ण केत्रमहोरात्र
रेगउणतालीसमुहुत्ता तं पढमताए सायं चंदेण सदि प्रतीतं चन्द्रयोगमधिकृत्यास्ति येषां तानि समवेत्राणि ; प्रत पच त्रिंशन्मदर्तानि प्राप्तानि। तथा सन्ति तानि नक्षत्राणि, यानि
जोगं जोति । ततो पच्छा अवरं सातिरेगं दिवसं । पश्चाद्भागानि-दिवसस्य पश्चात्तनो भागः चन्मयोगमधिकृत्य एवं खलु अभिई, सवणो दुवे णक्खत्ता एगं राति एगं विद्यते येषां तानि पश्चाद्भागानि, समक्केत्राणि त्रिशमुहर्रानि च सातिरेगं दिवसं चंदेण समि जोगं जोएंति, जोगं जोप्रशतानि । तथा सन्ति तानि नक्षत्राणि, यानि नक्तंभागानि
इत्ता जोगं अणुपरियदृति, जोगं श्रापरियट्टित्ता सायं चंदं नक्तं रात्री चन्द्रयोगस्याऽदिमधिकृत्य भागोऽवकाशो येषां
पणिहाणं समति, समतित्ता धणि खलु एक्खत्ते तानि । तथा अपात्राणीति-अपगतम यस्य तदपार्शम, अमात्रमित्यर्थः । अपार्शममात्र केत्रमहोरात्रप्रतीतं येषां च.
पच्छंभागे समक्खत्वे तीसतिमुहुत्ते तप्पदमताए सायं योगस्याऽऽदिमधिकृत्य ताग्यपाकेत्राणि । मत एवं पश्चरश चंदेण सकि जोगं जोएति । ततो पच्छा प्रवरं दिवसं एवं मुहर्तानि-पञ्चदश चन्मयोगमधिकृत्य मुद्रा विद्यन्ते येषां
खल्ल धणिहाणखत्ते पगंराति एगं च दिवसं चंदेण सचि तानि । तथा सन्ति तानिनवत्राणि,यानि नक्षत्राणि उभयनागा
जोगं जोएति, जोगं जोइत्ता जोगं भापरियट्टति, जोगं नि उन्नयं दिवसं रात्रिः,तस्य जयस्य-दिवसस्य,रात्रेश्चेत्यर्थः । बन्द्रयोगस्याऽऽविमधिकृत्य नागो येषां तानि । तथा धम्क्षेत्राणि
अपरियट्टित्ता सायं चंदं सतजिसता समप्पेति । ता द्वितीयमई यस्य तत सई, साईमित्यर्थः। स साईमहो. सतजिसता खनु णक्खत्ते णतंजागे अवकृखेत्ते तप्पढमताए रात्रप्रमितं के येषां तानि तथा। अत एव पञ्चचत्वारिंशन्- सागं चंदेण सदि जोगं जोएति, णो लजति अवरं दिवसं । महानि प्राप्तानि । एवं सामाम्येनोक्ते विशेषावबोधनार्थ
एवं खलु सतभिसता एक्खत्ते एगं रातिं चंदेण सकि भगवान् गौतमः पृच्छति-"ता पतेसि "श्त्यादि सुगमम् । नगवान् प्रतिवचनमाह-"ता एतेसिणं" इत्यादि । 'ता'
जोगं जोएति, जोगं जोइत्ता अाएपरियट्टति, अणुपरिइति पूर्ववत् । पतेषामष्टाविंशतेनंकवाणां मध्ये यानि नका.
यद्वित्ता पातो चंदं पुव्वाणं पोट्टचयाणं समप्पेति, ता पुन्चा णि पूर्वभागानि समक्षेत्राणि त्रिशन्मुहूर्तानि प्रकलानि, तानि पोहवता खलु णक्खत्ते पुन्नागे समक्खेत्ते तीसतिमुत्ते षट् । तपथा-"पुग्धभइवया" इत्यादि । (एतकानन्तरे एव प्रा- तप्पदमताए पातो चंदेण सकिं जोगं जोएति, पच्छा अ. भृतप्राभृने योगस्याऽऽदी चिन्त्यमाने भावयिष्यते)। तथा तत्र तेषामष्टाविशतेनक्कत्राणां मध्ये यानि नक्षत्राणि पश्चाद्भागा.
वरं राई। एवं खलु पुच्चा पोहवता णक्खत्ते एगं च दिवसं नि समवेत्राणि त्रिंशन्मुहूर्तानि प्राप्तानि । तानि दश । तच.
एगं च रातिं चंदेण सकिं जोगं जोपति, जोगं जोश्त्ता था-"अलिई" इत्यादि । तथा तत्र तेषामधाविंशते कत्राणां अणुपरियति, जोगं अपरियट्टित्ता पातो चंदं उत्तराणं मध्ये यानि नक्षत्राणि नक्तंनागानि अपार्डकेत्राणि पश्चदश पोहवताणं समप्पेति । उत्तरपोट्टवता खलु एक्वते पणमुहर्तानि प्रकलानि । तानि षट् । तद्यथा-" सयनिसया" -
यालीसतिमुहुत्ते तप्पढमताए पातो चंदेण सदि जोगं त्यादि । तथा तत्र तेषामष्टाविंशते तत्राणां मध्ये यानि नकपाण्युभयभागानि वध क्षेत्राणि पश्चचत्वारिंशन्मुहूर्तानि । ता.
जोएति, अवरं च रातिं, ततो पच्छा प्रवरं दिवसं । एवं नि षट् । तद् यथा-" उत्तरभवया" इत्यादि । ५० प्र.
खल उत्तरापोढवताणक्खत्ते दो दिवसे, एगं च राति चं१० पाहु. ३ पाहु । स्था। मं० । सू०प्र०।
देण सादि जोगं जोएति, जोगं जोइचा जोगं भापरिय. (१५) प्रमर्दयोगीनि नक्षत्राणि
दृति,जोगं अपरियट्टित्ता सायं चंदं रेवतीणं समप्पेति । ता भट्ट णवत्ता एं चंदेण सकिं पमई जोगं जोइति । रेवती खलु णखत्ते पच्चंभागे समक्खेत्ते जहा धाणिहा० नहा-कत्तिया, रोहिणी, पुणवस, महा, चित्ता, विसाहा। जाव सायं चंदं अस्तिषीणं समप्पति । जरणी खल णअणुराहा, जिहा।
क्खचे पसंभागे अवमु० जहा सत्तावीसंता जाव पातो चंद
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( १७६६ ) अभिधानराजेन्द्रः ।
णक्वत्त
समप्पेति,
कविता समप्येति० जाव पातो चंदं रोहिणी रोहिणी जहा उत्तरमद्दवया, मिगसिरं जहा पणिट्ठा एवं जहा । सतनिसता, तढ़ा पत्तंभागा णेयब्वा । एवं जहा पुव्बाज - बता, तहा पुजागा बपि ऐयव्वा । जहा घट्ठिा तहा पच्छेजागा अड णेयव्त्रा जाव एवं खसु उत्तरासादा दो दिवसे गं च रावं चंदेश सर्फि जोगं जोएति, जोगं जोड़ता जोगं श्रणुपरियट्टति, जोगं प्रणुपरियट्टित्ता सायं चंद अभिसरणाएं समप्पे ।
"ता कई ते" इत्यादि 'ता' इति पूर्ववत् कथं भगवन्! योगस्याऽऽदिराक्यात इति देवी
योगदिता सर्वेषामपि
प्रतिनियत का प्रमाणा ततः सा करणवशादवगन्तव्या । तथ करणं ज्योतिष्करण्डके समस्तीति भावितमतस्ततो यथा र्यम् । अत्र तु व्यवहार नवमधिकृत्य बाहुल्येन यस्य नक्कत्रस्य यदा चन्द्रयोगस्याऽऽदिर्भवति तमनिधित्सुराह "ता अभिई" इत्यादिता' इति पूर्व द्वे अभिजिच्छूषणास न समक्षेत्रे इहानजिन केवल अवशेन सह संबद्धमुपातमित्यजेदोपचारात् तदपि स मजेत्रमुपकल्प समम् इत्युकम् सातिरेकैकनाशन्मु
प्रमाणे तथादिसातिरेका नय मुर्ता अनिजिता शिशुन्मुहूर्ताः भ्रमणस्येत्युभयमीसने यथोकं मुहूर्त्त परिमाणं भवति । सत्प्रथमतया चन्द्रयोगस्य प्रथमतया, सायं विकाल वेलायाम, हद दिवसस्य कनिमाचरमाद्भागादारज्य यायाः कतितमो नामो यावत्रापि परिस्फुटनक्षत्रमण्डलाऽऽलोक तावान् कालविशेषः सायमिति द्रष्टव्यः; तथा लोके व्यवहारदर्श नात् । तस्मिन् सायं समये, चन्द्रेण साई योगें युक्तः । इहाभिजिन्नक्कत्रं यद्यपि युगस्याऽऽदौ प्रातश्चन्द्रेण सह योगमुपैति, तथाऽपि श्रवणेन सह सम्बमिह तद्विवक्षितम् । श्रवणनक्कत्रं च मध्याह्लादृर्द्धमपसरति, दिवसे चन्द्रेण सह योगमुपाद से । ततस्तत्साहचर्य तदपि सायं समये चन्द्रेण सामाि वक्तितं ततः सामान्यतः सायं चन्द्रेण सार्द्धं योगं युञ्जन्तीस्युक्तम । अथवा युगस्याऽऽदिमतिरिष्याम्यदा बाहुल्यमधित्येवमुक्तं, ततो न कश्चिद्दोषः । "ततो पच्छा" इत्यादि । पश्चात् दुम परमम्यं सातिरेकदिवस या पदेोपसंहा जेन व्यक्तीकरोति एवं लुदितेन प्रकारेण ख विति निश्चये, श्रभिजिच्छ्रवणौ द्वे नक्षत्रे, सायं समयादारभ्य एकां रात्रिमेकं च सातिरेकं दिवस, चन्द्रेण सा युक्तः । एतातं तदनन्तरं परम *यावयत इत्यर्थः । योगं चानुपरिवर्त्य सायं दिवसस्य कतितमे पञ्चाद्भागे चन्द्रं धनिष्ठायां समर्पयतः । तदेवमभिजित श्रवणं धनिष्ठा सा समये चन्द्रेण सह प्रथमती योगं तैना मूनि त्रीपयपि पश्चाद्भागान्यवसेयानि । ततः समर्पणादनन्तरं धनिष्ठा खलु नक्षत्रं पश्चाद्भागं सायं समये तस्य प्रथमतश्चन्द्रे. ण सह युज्यमानत्वात् समक्षेत्रं त्रिंशन्मुहूर्ते तत्प्रथमतया सामानक सहयोगं ततः सा समागतः अपरं च दिवस या योग युनकि तपोपसंहार व्याजेन 55
या
* बहुत्वं प्राकृतानुवादवशात् ।
૪૨
35
गाक्खत्त
इत्यादि सुगमं यावद्योगमनुरिवासा सम शतभिषजः समर्पयति प्राथा परिस्फुटन
तत श्वं नक्षत्रं नकंभागं द्रष्टव्यम् । तथा चाऽऽह (ता इत्यादि) 'सा' इति । ततः समर्पणादनन्तरं शतभिषा न भागमपार्य क्षेत्रं पञ्चदशमुदू तत्प्रथमतया चन्द्रेण साई योगं. युनक्ति । तब तथा युक्तं सन्न लभते अपरं दिवसं, पञ्चदशमुदृप्रमाणत्वात् किन्तु रात्रित एव योगमधिकृत्य परिसमाप्तिमुपैति । तथा बाऽऽह - "एवं खलु" इत्यादि सुगमम् । यावद् योगमनु परिवर्त्य प्रातश्चन्द्रं पूर्वयोः प्रोष्ठपदयोरूपदयोः सम पयति । इह पूर्व प्रोष्ठपदानक्षत्रस्य प्रातश्चन्द्रेण सह प्रथमतया योगः प्रत इतीदं पूर्वभागमुच्यते। तथा चाहता पुण्यादि) ततः समर्पणादनन्तरं पूर्वप्रोष्ठपदा खलु नक्षत्रं पूर्वभागं स मक्केत्रं त्रिंशन्मुदुर्थे तत्प्रथमतया प्रातश्चन्द्रेण सह योगं पुनक्ति । तब तथा युक्तं सततः समयादूर्द्ध तं सकलं दिवनम् श्रपरां रामापदेोपसंहारम्याजेनाऽऽद एवं लघु" इत्यादि सुगमे, याच योगमनुपरिवत्वं प्रातश्चन्द्रमुत्तरयो प्रो
समर्पयति इदं किमोनापायं नक्षत्रमुतप्र कारेण प्राद्रेण सह योगमधिगच्छति, केवलं प्रथमान् प चदश मुनिधि कानपनीय समवेतत्वं कल्पयित्वा यदा यो
स्तनमपि योगो ऽस्तीत्युभयभागमवयम तथा स्वाऽऽह-ततःसमर्पणादनन्तरं प्रोष्ठपदा नक्षत्रं खलूभयन्नागं दूस क्षेत्र पचचत्वारिंशम्मु प्रथमतया प्रातसा योग युनक्ति । तच तथा युक्तं सम्सकलमपि दिवसमपरां चरातितः पश्चादपरं दिवसं यावद्वर्तसे एतदेोपसंहारव्याजेन क रोति - ( एवं खलु) इत्यादि सुगमम, यावद्योगमनुपरिवर्त्य सायं समये चन्द्र रेवत्याः समर्पयति । ततो रेवतीनकृषं सायं समये चन्द्रेण सद योगमधिगच्छति ततस्तत्पश्चाद्भागमवसेयम् । तथा चाss- "ता रेवती" इत्यादि । 'ता' इति । ततः समर्पणादनम्तरं शेषं सुगमकं सव सायं समयार्द्ध सकलां रात्रिमपरं च दिवसं यावदवतिष्ठते, समत्वात् । पत देवोपसंहारत आह" "त्यादि सुगम बायोगमनुपरिवत्यं सायं समये चन्द्रमश्विन्याः समर्पयति । तत इदमव्यश्विनी नक्कत्रं सायं समये चन्द्रेण सह युज्यमानत्वात् पश्राद्भागमच सेवम् । तथाचा"" इत्यादि सुगम, नवर मिदमप्यश्विनी नक्कथं समक्षेत्रत्वात् सायं समयादारज्य तां सकलां रात्रिमपरं दिवस पाचन सह युवतिष्ठते। - तदेोपसंहारयाजेनाऽऽ"एवं खलु" इत्यादि सुगमम । यावद् योगमनुपरिवार्य सायं प्रायः परिस्फुटनमा लामोसमये चन्द्र मरक्याः समर्पयति। मरीना रात्री चन्द्रेण सह योगमुपैति ततो नक्तंप्रागमवलेयम् ! तथान्चाऽऽह"जरणां" इत्यादि पाटलिजम नरमद ।
योग परिसमापयति ततो न लभते च सह युकमपरं दिवसम्पदेोपयामासु गमम्याच योगमनुरिया प्राकृतिक समर्पपनि। मुक्तयुक्त्या प्रातः चन्द्रेण सह योगमुपैति ततः पूर्वभागमवसेयम् । एतदेवोपसंहारुयाजेन व्यक्तीकरोति एवं खलु" इत्यादि सुगमं यावद्योगमनुपरि प्राध रोडियाः समर्पयति इदं रोहिणीन
प्रागुक्केबाजी
1
भवया इति ) रोहिणी यथा प्रागुत्तरभरूपदा उक्ता तथा
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(१७७०) याक्खत्त अभिधानराजेन्द्रः।
पाक्खत्व वक्तव्या । सा चैवम्-"ता रोहिणी खलु णवत्ते उभयं जागे खमु णक्खत्ते पुध्वंभागे समक्खेते तीसमुदत्ते तप्पटदिवठकलेते पणयालीसहमुहूत्ते तपढमयाए पातो चंदेण सद्धि मयाए पातो चंदेण सकि जोगं जोएइ, ततो पच्छा अवरं जोगं जोएक, अवरंच राई, ततो पच्छा अवरं दिवसं । एवं खस्लु राई। एवं स्वबु मघा नक्षत्ते पगं दिवसं एगं च राई चंदण रोहिणी नक्षत्ते दो दिवसे पग च राई चदेव सम्जिोगं जोर- सम्जिोगं जोएइ, जोगं जोइता जोगं अणुपरियट्टर, जोग , जोग जोइता जोग अणुपरियहर,जोगं अणुपरियत्तिा सायं अणुपरियट्टित्ता पातो चंदं पुव्वाफग्गुणीणं समप्पेश" । इदचंद मिगमिरस्स समप्पेश।" इति। "मिगसिरं जहा धणि मपि पूर्वाफाल्गुनी नक्षत्रं प्रातश्चन्छेण सह योगमुक्तनीत्या ससि।" मृगशिरो नत्रं यथा प्राक् धनिष्ठोक्ता तथा वक्तव्यम् । मधिगच्छति, ततः पूर्व नागं प्रत्येतव्यम् । एवं व तत्सूत्रम् "ता तद्यथा-"ता मिगसिरे खलु णक्खत्ते पच्चंभागे समक्खेते ती.
पुष्वाफगुणी णवत्ते पुवभागे समक्खेत्ते तीसइमुहुत्ते तप्पसमुहुत्ते सप्पढमताए सायं चंदेण सद्धि जोगं जोए, जोगं
ढमयाए पातो चंदेण सटि जोगं जोएइ, ततो पच्ग अवरं जोइत्ता ततो पन्छा अवरं दिवसं एवं खस मिगसिरे णक्व
राई, एवं खलु पुब्बाफम्गुणीणक्वते एगं च दिवसमेगं च राई से पग राई पगं च दिवसं चंदेण सकि जोगं जोपह, जोगं
चंदेण सहि जोगं जोपह, जोगं जोश्त्ता जोगं अणुपरियश, जोश्ता जोगं अणुपरियहर, जोग भापरियत्तिा सायं. चंदं जोगं भापरियट्टित्ता पातो चंद मत्तराणं फग्गुणीणं समप्पे।" अदाए समप्पे" इति ।"एवं जहा सयजिसया, महा णतंभागा पतश्चोत्तराफाल्गुनीनक्षत्र केत्रम, अतः प्रागुक्तयुक्तिवशा. सेयन्वा । एवं जहा पुवानद्दवया तहा पुब्र्वभागापि यया। जयजागं वेदितव्यम् ।एचंच तत्सूत्रम्-"ता उत्तराफम्गुणी णक्वत्ते जहा धगिहा तहा पच्छंभागा अट्ट पेयवा" इति । एवमुक्तेन प्र. उभयनागे दिवसोत्ते पणयालीसमुह तप्पढमयाए पातो कारेण यथा शतभिषगुक्ता, तथा सर्वाएयपि नक्तंभागानि नेत- चंदेण सद्धिं जोगं जोएइ, अवरं च राई, ततो पच्छा अवर व्यानि । यया पूर्याभपदा, तथा पूर्वभागानि षडपि नेतव्यानि। च दिवसं । एवं खलु उत्तराफग्गुणी णवत्रत्ते दो दिवसे एग यथा धनिष्ठा तथा पश्चाद्भागानि अष्ट नेतव्यानि । उपलकण- च राई चंदेण सम्जिोगं जोएड, जोगं जोइत्ता जोगं अणुमेतत् । तेन यथोत्तराभपदा, तथा सर्वा एयप्युभयभागानि परियट्टा, जोग अणुपरियट्टित्ता सायं चंदं इत्थस्स समकष्टश्यानि । तानि चैवम्-"ता अद्दा स्वमु णक्वत्ते णसंभागे प्पेश" । पतञ्च हस्तनक्षत्र सायं दिवसावसानसमये चन्द्रेण अवकृक्खेत्ते पारसमुहुत्ते तपढमयाए सायं चंदेण सकि जोगं सहयोगमधिरोहति, तेन पश्चाद्भागमवसेयम् । तरसूत्रं चैवम्जोएति, णो लहर अवरं दिवसं। एवं खलु भद्दा पगं "ता हत्थे खलु णक्वत्ते पच्छंभागे समक्वेत्ते तीसमुहराचंदण सद्धि जोगं जोएक,जोगं जोश्ता जोगं भापरिया, ते तप्पढमयाए सायं चंदेण स िजोगं जोएइ, ततो पच्छा जागं अणुपरियट्टित्ता पातो चंदं पुणब्वमूण समप्पे।" अवरं दिवसं । एवं स्वसु हत्थं नक्षत्ते एग राइमेगं च दिव. इदं पुनर्वसुनक्षत्र व्यर्द्धक्केत्रत्वात् प्रागुक्तयुक्तरुभयनागमवसे- सं चंदेण सम्जिोगं जोए, जोगं जोश्ता जोगं अपरियम् । ततश्चैवं तत्सूत्रम्-" ता पुणब्यसू णक्वत्ते उजयभागे यदृह, जोगं अणुपरियहित्ता सायं चंदं चित्ताणं समप्परे।" दिवाने ते पणयालीसइमुहुत्ते तपढमयाए पातो वंदेण श्दमपि चित्रा नकत्रं सायं समय प्रायो दिवसावसानसमये चस िजोगं जोपा, अवरं च राई, ततो पच्छा अवरं दि. खेण सह योगमुपैति, तत इदमपि पश्चाद्भागमवसेयम् । एवं वसं । एवं खलु पुणव्वसु णक्खत्ते दो दिवसे पगं च राई च तत्सूत्रम्-" ता चित्ता स्वमु पक्वत्ते पच्छंभागे समक्खेत्ते चदेण सम्जिोग जोपर, जोगं जोश्त्ता जोगं अघुपरि- तीसमुहुत्ते तप्पढमयाए सायं चंदेण स िजोग जोपर, ब,जोगं अपरियट्टित्ता सायं चंदं पुस्सस्स समप्पेर" इदं ततो पच्ग अवरं दिवसं । एवं स्खलु चित्ता णवत्ते एग राइ. च पुष्य नक्षत्र सायं समये दिवसावसानरूपे चन्द्रेण सह योग- मेगं च दिवसं चंदेण सकिं जोगं जोए, जोग जोश्त्ता जोगं मधिगच्छति, ततः पश्चाद्भागमवसेयर । तत पवं तत्स्त्रम- अणुपरियश, जोगं अणुपरियट्टित्ता चदं सायं साईए सम"ता पुस्से य खमुणवत्ते पच्चंभागे समक्खेत्ते तीसश्महत्ते प्पेड"। स्वातिश्च सायं समये प्रायः परिस्फुटं दृश्यमाने नतपढमयाए सायं चंदेण सद्धि जोगं जोपर, जोगं जोइत्ता ततो कत्रमण्डलरूपे चन्द्रेण सह योगमुपैति । तत इयं नक्तंभागा पच्छा अवरं दिवसं । एवं खलु पुस्से णक्वते पगं राई पगं च प्रत्येया। तत्सूत्रं चेत्थम-" ता साई खलु णवत्ते णतं. दिवसं चंदेण सीद्ध जोगं जोए, जोग जोरसा.जोग अणुपरि- भागे अवकुक्खत्ते पन्नरसमुहुत्ते तप्पढमयाए सायं चंदण सयहर, जोगं अणुपरियत्तिा सायं च असिसाए समप्पे।" | किंजोग जोप, नो लभ अवरं दिवसं । एवं स्वषु साई णदं चाऽऽश्लेगनकत्रं सायं समये परिस्फुटनकत्रमएकसानोक- क्ससे एग राई चंदेण सद्धिं जोगं जोपर, जोगं जोइत्ता जोग पे प्रायश्चन्द्रेण सह योगमुपैति; तत इदं नक्तंभागमवसयम, अणुपरियहर, जोगं अणुपरियट्टित्ता पातो चंदं बिसाहाणं सअपार्द्ध केत्रत्वाच्च तस्यामेव रात्री योग परिसमापयति । तत एवं मप्पर" । इदं च विशाखानकत्रं द्यक्षेत्र, ततः प्रागुक्तयुक्तितत्सूत्रम्-"ता असिनेसा खलु णक्खत्ते नसभागे अवकुक्खेत्ते वशाभयभागमवसेयम् । एवं च तत्सूत्रम्-" पिसाहा खलु णपारसमुहुत्ते तप्पढमयाए सायं चंदण सम्जिोगं जोएर, जोगं क्लत्ते उभयंभागे दिवकृक्खेत्ते पणयालीसमुहत्ते तप्पदमजोइत्ता नो लभ अवरं दिवसं। एवं खलु भसिलेसा णनते याए पातो चंदेण सहिंजोग जोएइ, अवरं च राई, ततो पच्ग एग राचंदेण सकि जोगं जोप, जोगं जोश्त्ता जोगं प्र- भवरं दिवसं । एवं खन्नु विसाहा णवत्ते दो दिवसे पगं च एपरियहर, जोग अपरियट्टित्ता पातो चंदं मघाणं सम- राइं चंदेण सकिं जोगं जोप,जोगं जोइत्ता जोगं अणुपरियश, प्पेर" इति । इदं तु मघानकरमुक्तयुक्त्या प्राताश्चन्डेण सह यो. जोगं अणुपरियाट्टत्ता सायं चदं अणुरादाए समप्पेह।" इदं चागमश्नुते, ततः पूर्वजागमवसेयमा एवं च तत्सत्रम्-"ता मघा
नुराधानकत्रं सायं समये दिवसावसानरूपे चन्फेण सह योग•अत्र सायमिति प्रायः परिस्फुटनक्षतमएमलाऽऽलोकसमये, मुपैति, ततः प्रागुक्तयुक्तिवशात् पश्चाद्भागमवसेयम । इत्थं प्रत पचैतन्त्रतंभागम् ।
च तत्सूत्रम्-"ता अणुराहा खलु मक्खचे पचनागे स
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(१७७१) एक्खत्व अभिधानराजेन्द्रः ।
याक्खत्त सक्नेले तीसामुहुत्ते तप्पढमयाए सायं चंदेण सम्जिोग | णक्वते कतितारे पत्ते । तितारे पमचे । एवं मब्वे जोपह। ततो पच्चा अधरं दिवसं। एवं खलु अणुराहाणक्वते एगं
पुच्चिज्जति । भरणी तितारे पत्ते । कत्तिया छचारे पाचराई एगं च दिवस चंदेण सरि जोग जोपन, जोग जो. इत्ता जोगं अणुपरियड, जोगं अणुपरियत्तिा सायं चंद
ते। रोहिणी पंचतारे पत्ते । मिगमिरे तितारे पत्ते । जेठाए समप्पे ।" ज्येष्ठायाश्च सायं समये समपयति प्रायः अद्दा एगतारे पलत्ते । पुणवम् पंचतारे पलत्ते । पुस्मे परिस्फुटं दृश्यमाननक्षत्रमाले, तत इदं ज्येष्ठा नक्षत्रं नक्तं
एक्खत्ते तितारे पत्ते । अस्ससा उत्तारे पत्ते । महा भागमवमेयम् । तत्लूत्रं चैवम्-" ता जेठा खमुणवत्ते नत्तं.
सत्ततारे पामते । पुन्नाफग्गुणी दुतारे पाये । एवं - मागे अवकृपलेसे पन्नरसमुहले तप्पढमयाए सायं चंदेण सद्धि जोगं जोपइ, नो बभर अवरं दिवसं एवं स्खलु जे
तरा वि । हत्थे पंचतारे पत्ते । चित्ता एगतारे पाने । ट्ठा पक्वते पगं राई चंदेण सरि जोग जोएड, जोग जो. साती एगतारे पत्ते । बिसाहा पंचतारे पत्ते । अइसा जोगं अणुपरियट्टर, जोग भापरियट्टित्ता पातो चंदं णुराहा चउतारे पत्ते । जेट्ठा तितारे पएणते । मूले मृनस्स समप्पे । " मूअनक्षत्रं चोक्तप्रकारेण प्रायश्चन्ण
एगारसतारे पएणसे । पुवासादा चउतारे पएणते । . सह योगमधिगच्छति प्रातः, तत श्वं पूर्वभागमबसातव्यम् ।
चरासादा एक्खत्ते चनतारे पएणचे । तत्सूत्रं वेदम्-"ता मूलणक्खत्ते पुब्वंभागे समक्खेते ती. समुहृत्ते तप्पढमयाप पातो चंदेण सद्धि जोगं जोपक्ष, त
"ता कहं ते" इत्यादि । 'ता' इति पूर्ववत कथं केन प्रकारेस तो पच्छा अपरं राई । एवं खलु मूलणक्लत्ते एगं च दिव। ते त्वया भगवन् ! नक्षत्राणां तारानं ताराप्रमाणमाश्यातमिति समेगं च राई चंदेण सम्जिोगं जोपह, जोगं जोहत्ता जोगं
बदेत् । एवं सामान्यतःप्रमं कृत्वा संप्रति नक्षत्रं पृच्छति-"ता भापरियड, जोग अणुपरियट्टिता पातो चंदं पुम्वासाढा.
एएसिणं" इत्यादि ।'ता' इति पूर्ववत् । पतेषामष्टाविशते. णं समप्पे । " श्दमपि पूर्वाषाढानक्षत्रं प्रातश्चन्द्रेण सह
नेकवाणां मध्येऽनिजिनकत्र कतितारं प्राप्तमा जगवानाहयोगमुक्तयुक्त्या समुपैतीति पूर्वनागमवसेयम् । एवं च तत्मू
अनिजिनक्वत्रं त्रितारं प्राप्तम् । एवं शेषारयपि प्रमनिर्वचनप्रम्-"ता पुव्वासादा खलु णक्खत्ते तीसश्मुहुत्ते तपढम
सूत्राणि भावनीयानि। याए पातो चंदेण सर्कि जोगं जोएइ, श्रवरं च राई । एवं ताराप्रमाणसंग्राहिके चेमे जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसत्के गाथेखलु पुश्चासादा एक्खत्ते एगं च दिवसमेगं च राई चंदेण "तिग तिग पंचग सय जुग, दुगवतीसं तिगं तह तिग च। सद्धि जोगं जोएर, जोगं जोइत्ता जोगं अणुपरियट्टर, जोगं छप्पंचग तिग एक्कग, पंचग तिग छक्कगं चेव ॥१॥ अणुपरियट्टित्ता पातो चंदं उत्तरासादाणं समप्पे । "म
सत्तग जुग दुग पंचग, इविकग पंच व तिगं चेव । तराषाढा नक्षत्र च धर्धक्षेत्रत्वादुभयभागं वेदितव्यम् । तत्सूत्रं कारसग चनकं, चटक्कगं चेव तारगं"॥२॥ चैवम-" ता उत्तरासाढा खलु णक्वते उभयंजागे दिव
सु०प्र०१०
पापा । स्था। पखेत पणयालीसं मुहुत्ते तपढमयाए पातो चंदेण सद्धि जो- "जेट्टापज्जवसाणाणं पगोणवीसाए णक्खत्ताणं माणसओ गं जोए३, अवरं च राई, ततो पच्छा अवरं दिवसं ।" तारामो तारग्गेणं पएणत्तानो।" स. समः। भत क चैततं सूत्रं साक्कादाह-"जाब एवं खसु उत्त
(१०) कति नक्षत्राणि स्त्रयमस्तंगमनेनाहोरात्रपरिसमापक. रासाढा दो दिवसे” इत्यादि । यावत्करणात् पाश्चात्यन.
तया कं मासं नवन्तीतिकत्रगतानि सूत्राहयनुक्तान्यपि अष्टव्यानि । तानि च तथोपदर्शितानि । तदेवं बाहुल्यमधिकृत्योक्तप्रकारेण यथोक्तेषु काले.
ता कहं ते ऐता आहिते ति वदेज्जा ? । ता वासाणं चुनक्कत्राणि चन्द्रेण सह योगमुपयान्ति, ततः कानिचित्पूर्व
पढमं मासं कति एक्खचा ऐति । वा चत्तारि णखता नागानि, कानिचित्पश्चाद्भागानि, कानिचिन्नक्तंभागानि, का- णेति।तं जहा-उत्तरासाढा, अभिई, सवणो, धणिहाननिचिदुभयभागानि । चं० प्र०१० पाहु०४ पाहु.। सू०प्र०। त्रासादा चोइस अहोरते णेति, अनिई सत्त अहोरत्ते नं०। (अमापूर्णिमाभिनकमचन्हयोगः 'अमावसा' शब्द प्रथमभागे ७४३ पृष्ठे उक्तः ) ( कुलोपकुलकुलोपकुलसंज्ञकानि
णेति, सवणो अह अहोरचे ऐति, पणिहा एग अहोरनक्कत्राणि 'कुल' शन्दे तृतीयभागे ५९२ पृष्ठे उक्कानि)
णेति । तसि च णं मासंसि चउरंगुलपोरिसीए गयाए (१७) किं नक्षत्र कतितारम
मूरिए अपरियति । तस्स एं मासस्स चरिमे दिवसे दो ता कहं ते तारग्गे आहिते ति वदेजा। ता एतेसिणं पदाइं चत्तारि य अंगुलाणि पोरिसी चवति । ता वासाअट्ठावीसाए णक्खनाणं अभिई णक्खत्ते कतितारे प. ए दोचं मासं कति एक्खत्ता ऐति । ता चत्तारिणखहातेतितारे पत्युत्ते । सवणे एक्स्वत्ते कतितारे - चा ति । तं जहा-धणिहा, सतभिसया, पुन्वापाहवया, मात्ते? तितारे पपत्ते । धणिट्ठा णखत्ते कतितारे 4- उत्तरापोहचया। धणिहा चोइस अहोरचे णेति, सयभिसया मते ?। पंचतारे पमत्ते । सतन्निसया एक्खचे कतितारे | सत्त अहोरते णेति, पुन्वाभहवया अह अहोरचे ऐति, पाते। सततारे पाते। पुब्बापोच्चता पक्खत्ते कतितारे | उत्तरापोट्ठवता एग अहोरचं णेति । संसि च णं मासंसि परमत्ते ? । दुतारे पहात्ते । एवं उत्तरा वि । रेवती णक्खचे| अटुंगुले पोरिसीए छायाए मूरिए अणुपरियति । तस्स कतितारे पक्षाचे । बत्तीसइतारे पापचे । अस्सिए मासस्स परिमे दिवसेदो पदाई अडंगुलाई पोरिसी
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( १७७२)
अभिधानराजेन्द्रः ।
एक्खत्त
भवति । ता वासाणं ततियं माझं कति एक्खत्ता ऐति ? | तातिष्ठि एक्वचा ऐति । तं जड़ा-उत्तरापोट्ठवता, रेवती, अस्सिणी । उत्तरापोट्ठवता चोइस अहोरचे णेति, रेवती पारस अहोरचे णेति, अस्सिी एगं अहोरचं ऐति । तंसिचणं मासंसि दुनालसंगुलाए पोरिसीए बायाए सू रिए अणुपरियहति । तस्स णं मासस्म चरिमे दिवसे बेहडाणि तिपदाई पोरिसी जवति । ता वासाणं चनत्यमासं कति णक्खत्ता र्णेति १ । ता गिरीण एक्खत्ता ति । तं जहा - अस्सिणी, जरणी कत्तिया । अस्सिी चद्दस अहोरते णेति । जरणी पन्नरस अढोरते ऐति । कलिया एवं ग्रहोरत्तं ऐति । तासं च णं मासंसि सोलसंगुलपोरिसीए छायाए सूरिए अणुपरियट्टा । तस्स णं मासस्स चरिये दिवसे तिनि पयाई चत्तारि अंगुलाई पोरिमी भवति । ता हेमंताणं पढमं मासं कति एक्खत्ता ऐति । ता तिथि णक्खत्ता खेति । तं जहा कतिया, रोहिणी, संठाणा । कतिया चोदस महोरते णेति । रोहिणी पएयरस अहोरत्ते ऐति । संठाणा एवं अहोरत्तं णेति । तंसि च णं मासंसि वीसंगुन्नाए पोरिसीए छायाए सूरिए अणुपरियइति । तस्स णं मासस्स चरिमे दिवसे तिमि पदा अडगुलाई पोरिसी भवति । ता हेमंताणं दोच्चे मासे कति गक्खता र्णेति १ । चत्तारि एक्खता खेति । तं जहा - संठाणा, अद्दा, पुणव्वसू, पुस्सी । संठाणा चोइस अहोरते ऐति, अद्दा सत्त अहोर ते णेति, पुएव्वसू भट्ट होते ऐति, पुस्सो एगं अहोरत्तं णेति । तंसि च णं मासंसि चडवीसंगुलपोरिर्साए छायाए सूरिए
परियति । तस्मणं मासस्स चरिमे दिवसे लेहडाणि चचारि पदाई पोरिसी भवति । ता हेमंताणं ततियं मासं कति
खत्ता ऐति । ता तिरिए एक्खत्ता ऐति । तं जहापुस्ते, अस्सा, महा । पुस्से चोदस महोरत्तं ऐति, अस्सेसा पंचदम अहोरचे णेति, महा एवं अहोरत्तं ऐति । तंसि च मासंसि बीसंगुलाए पोरिसीए छायाए सूरिए अणुपरियकृति । तस्स णं मासस्स चरिमे दिवसे तिथि पदाई अहंगुलाई पोरिसी भवति । ता हेमंताणं चउत्थमासं कति एक्खत्ता
ति ? | तातिष्ठि एक्खत्ता र्णेति । तं जहा-महा, पुव्वा फग्गुणी, उत्तराफग्गुणी । महा चोद्दस होरचे ऐति । पुव्वा फग्गुणी पनरस अहोरचे ऐति । उत्तराफग्गुणी एगं
होरचं णेति । तंसि च णं मासंसि सोलस गुलाए पोरिसीए छायाए सूरिए अणुपरियदृति । तस्स णं मासस्स चरिमे दिवसे तिथि पदाई चत्तारि अंगुलाई पोरिसी जवति । ता गिम्हाणं पढ मासं कति एक्खत्ता ऐति । ता तिरिख
गाक्खत्त
एक्खचा ऐति । तं जहा - उत्तराफग्गुणी, इत्यो, चित्ता । उत्तराफग्गुणी चोदस महोरते णेति । हत्यो पारस अहोरचे ऐति । चित्ता एवं अहोरत्तं णेति । तंसि च णं मासंसि बालसभंगुलाए पोरिसीए गयाए सूरिए अणुपरियति । तस्स णं मासस्स चरिमे दिवसे लेहट्ठाणि तिमि पदाई पोरिसी जवति । ता गिम्हाणं त्रितियं मासं कति णक्खत्ता ऐति । ता तिरिए पाक्खत्ता ऐति । तं जहा-चिउता, साई, विसाहा । चित्ता चोद्दम अहोरते णेति । साती पएरस होरते णेति । विमाहा एवं अहोरतं ऐति । तंसि च
मासंसि गुनाए पोरिमीए बायाए सूरिए अणुपरियहति । तस्स णं मासस्स चरिमे दिवसे दो पदाई अइंडगुलाई पोरिसी नवति । गिम्हाणं ततियं मासं कति - क्खत्ता र्णेति । ता चत्तारि एक्खत्ता ति । तं जहाबिसाहा, राधा, जेट्ठा, मूलो। त्रिसाहा चोदम - होरत्ते णेति । अणूगद्दा सत्त, जेट्ठा अट्ठ, मूझे एगं - होरत्तं ऐति । तंसि च णं मासंसि चउरंगुलाए पोरिसीए बायार सूरिए अपरियट्टति । तस्स णं मासस्स चरिमे दिवसे दो पदाणि चत्तारि य अंगुल्झाणि पोरिसी जवति । ता गिम्हाणं चउत्थं मासं कति गक्खत्ता ऐति ? । तिम्मि एक्खत्ता ति । तं जहा मूझो, पुव्वासाढा, उत्तरासाढा । मूनो चोइस अहोरचे ऐति । पुन्त्रासादा पनरम अहोर णेति । उत्तरासादा एग अहोरतं णेति । तंप्ति चणं मासि बट्टाए समचरं संठारण संविताएं णग्गोधपरिमंगलाए सकायमणुरंगिणीए बायाए सूरिए अणुपरियट्टति । तस्स णं मासस्स चरिमे दिवसे लेहडाणि दो पदा पोरिमी जवति ।
( ता कहं ते खेता श्रहिते ति वदेजा ) 'ता' इति पूर्ववत् । कथं केन प्रकारेण जगवन् ! ते त्वया स्वयमस्तं गमनेनाहोरात्रपरिसमापको नक्कत्ररूपो नेता आध्यात इति वदेत् ? । एतदेव प्रतिमासं पिपृच्चिषुराह - ( ता वासाणमित्यादि ) ता ' इति पूर्ववत् । वर्षाणां वर्षाकालस्य चतुर्मासप्रमाणस्य प्रथमं मासं श्रवणलक्षणं कनि नक्षत्राणि स्वयमस्तंगमनेनाहोरात्र परिसमापकतया नयन्ति गमयन्ति ? । भगवानाह - ( ता चत्तारीत्यादि ) 'ता' इति पूर्ववत् । चत्रारि नक्षत्राणि स्वयमस्तं गमनेना होरात्र परिसमापकतया क्रमेव नयन्ति । तद्यथा उत्तराषाढा, अभिजित, श्रवणो, धनिष्ठा च । तोतराषाढा प्रथमान् चतुदेश अहोरात्रान् स्वयमस्तंगमनेनाहोरात्र परिसमापकतया नयति, तदनन्तरमभिन्निक्कत्रं स साहोरात्रान्नयति । यतः परं श्रवणनत्रमष्टौ अहोरात्रान्नयति । एवं सर्वसंकलनया भावणमास स्यैकोनत्रिंशद होरात्रा गताः । ततः परं श्रावणमासस्य संबन्धिनं चरममेकमहारात्रं धनिष्ठा नक्षत्रं स्वयमस्तं गमनेनाहोरात्रपरिसमापकतया नयति । एवं चत्वारि नक्त्राणि भाषणमासं नयन्ति ( तंसि च व
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(२०७३) अभिधान राजेन्द्रः ।
क्खत्त
मित्यादि) तस्मिंश्च श्रावणे मासे चतुरङ्गुलपैौरुपया चतुरगुलाधिकपरुध्या छायया सूर्योऽनु प्रतिदिवस परापते कि मुकं भवति ? श्रावणे मासे प्रथमादहोरात्रादारभ्य प्रतिदिनमन्यान्यमण्डल संक्रान्त्या तथा कथञ्चनापि परावर्तते, यथा तस्य श्रावणमासस्य पर्यन्ते चतुरङ्गुलाधिका द्विपदा पौरुषी भवति । तदेवाऽऽह - ( तस्स णमित्यादि ) तस्य श्रावणमासस्य चरमे दिवसे द्वे पदे चत्वारि चाङ्गुलानि पौरुषी जवति । (ता वरसारणमित्यादि ) 'ता' इति पूर्ववत् । वर्षाणां वर्षाकालस्य चतुर्मासप्रमाणस्य द्वितीयं भाद्रपदलक्षणं मासं कति नक्षत्राणि नयन्ति । अस्य वाक्यस्य भावार्थः प्राग्वद्भावनीयः । भगवानाह - ('ता' इत्यादि ) 'ता' इति पूर्ववत् । चत्वारि नत्रचिनयमितताउ चराप्रोष्ठपदा च । तत्र धनिष्ठा तस्मिन् भाद्रपदे मासे प्रथ मान् चतुर्दश अहोरात्रान् स्वयमस्तंगमनेनाहोरात्र परिसमापकतया नयति । तदनन्तरं शतनिष्कू नक्कत्रं सप्ताहोरात्रान् ततः परमष्टावहोरात्रान् पूर्णप्रोष्ठपदा । तदनन्तरमेकमदोरात्रमुत्तरःप्रोष्ठपदाचमेनं भाद्रपदं मासं यवारिणिनयन्ति । ( तंसि च समित्यादि ) तस्मिंश्च ' ' इति वाक्यासङ्कारे गुरूपया अधिक रुपया बायया सूर्यो अनु प्रतिदिवसं परावर्त्तते । अत्राप्ययं भावार्थ:-भाद्रपदे मासे प्रथमादहोदारज्य प्रतिदिवस मन्यान्यम एकल संक्रान्त्या तथा कथमपि परावर्त्तते, यथा तस्य भाऊपदस्य मासस्या अलिका पौरुवात ए वाsse - ( तस्स णामित्यादि ) सुगमम् । एवं शेषमास गतान्यपि आणि भावनयानि न पदाति) रेखा पाद सीमा तानि त्रीणि पदानि पौरुषा भवति । किमु नवति-परिपूर्णानि पदानि भवति एषा चतुरङ्गुला प्रतिमासं वृद्धिस्तावदवसेया यावत्पौषमासः, तदनन्तरं प्रतिमासं चतुराहानिया सा च तायद् यापदायादो मासापर्यन्ते पिदा पीपी प्रवति । परिमाणं व्यवहार उर्फ निश्यतः सि ता घोराङ्गादि ।
ता व पिता पपपरिमाप्रतिपादनार्थमिमाः पूर्वाचार्यप्रदर्शिताः खव्याख्याः करणगाथाः"पये पसरणे, सिहिदप पोरिसीव जेल " ॥ १ ॥ व्याख्यायुगमध्ये यस्मिन् पर्याणि वस्तथी मातुमिष्यते ततः पूर्वयुगाऽऽदित भारज्य यानि प वयतिक्रान्तानि तानि धियते धृत्या च पञ्चदशभिर्गुन्गुणत्वा व वितायास्तियां प्रागतिकातास्तिथयः ताभिः सहितानि शील्य
धिकेन शतेन तेषां भागो हियते । इह एकस्मिन्नयने व्यशीत्यकिमपरमान्नादितानां तिथनां पडशी त्यधिकं शतं भवति, ततस्तेन नागहरणं, भागे च हृते यल्लब्धं तद्विजानीहि सम्यगवधारयेत्यर्थः ॥ १ ॥
"जर होर विसमल, दक्खिणमयणं हविज्ञ नायव्वं । श्रह वह समं ल, नायवं उत्तरं श्रयणं" ॥ २ ॥ तत्र यदि लब्धं विषमं भवति, यथा-एकस्त्रिकः, पञ्चकः, स. तको, नवको वा तदा तत्पर्यन्तवर्ति दक्षिणमपनं ज्ञातव्यम् ।
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णक्खत्त
अथ भवति लब्धं समम् । तद्यथा-द्विकञ्चतुष्कः, पोको, दशको वा । तदा तत्पर्यन्तवर्त्ति उत्तरायणमवसंयम् । तदेवमुको दक्षिणायनोत्तरायणपरिनोपायः ॥ २ ॥
सम्प्रति षडशीत्यधिकेन शतेन भागे हते यच्छेषमवतिष्ठते, यदि वा भागासंभवेन यच्छेषं तिष्ठति, सद्गतविधिमाह"अयणगए तिहिरासी, चउग्गुणे पन्त्रपाय भइन् । जं लद्धमंगुलाणि थ, खयवुडी पोरिसीए उ" ॥ ३ ॥
अयणगए' इत्यादि । यः पूर्वे भागे हृते, भागासंजवे वा शेष| भूतोऽयनगतस्तिथिराशिते स चतुर्नियते सु णयित्वा च पर्वपादेन युगमध्ये यानि सर्वसंख्यया पर्वाणि चतुर्विंशत्यधिकशतसंख्यानि तेषां पादेन चतुर्थेनांशेन, एकत्रिशता इत्यर्थः तथा मागे तेलानि चकाशाश्च पीया यानि दक्षिणायने पराशेरुपरि वृको यानि उत्तराने पदराशे कये ज्ञातम्यानीत्यर्थः ॥ अयेतस्य गुणकारस्य जागहारस्य वा कथमुपपतिः । उच्यते यदि मशत्यधिकेन तिथि चतुर्विंशतिरकुलानि कये वृद्धौ वा प्राप्यन्ते तत एकस्यां तिथै । का वृद्धिः क्षयो वा ? राशित्रयस्थापना - १८६ । २४ । १ । तत्राम्येन राशिना एकत्र झोन मध्यमो राशिय ते, जातः स तावानेव, 'एकेनं गुणितं तदेव जवति' इति वचना त् । तत श्रद्येन राशिना पडशीत्यधिकशतरूपेण जागो हियने तराशेस्तोल
,
श्योपनापर्तनाजात उपरितनो राशि रुपयन्न नः एकत्रिंशत्, लब्धमेकस्यां तिथौ चत्वार एकत्रिंशद्भागाः करे वृद्धौ चेति चतुष्को गुणकार उक्त एकत्रिंशद्भागद्दार इति ||३| इह यल्लब्धं तान्यङ्गुलानि इये वृद्ध वा ज्ञातव्यानीत्युकं तस्मिन्नयने किया प्रमाणभवशेषपरिवृद्धी मि अपने किं प्रमाणवराशे कये? इत्येतनिरूपणार्थमाह"दक्खि बुढी डुपया-व अंगुला तु होइ नायन्या । उत्तरश्रयणे हाणी, कायव्वा चनाह पायाहिं" ॥ ४ ॥ "दखि बुद्धी" इत्यादि दक्षिणायने द्विपद पदस्यो परि श्रङ्गुलानां वृद्धिर्ज्ञातव्या, उत्तरायणे चतुर्भ्यः पादेभ्यः सकाशादङ्गुलानां हानिः ॥ ४ ॥
तत्र युगमध्ये प्रथमे संवत्सरे दक्षिणायने यतो दिवसादारम्य वृद्धि निरूपयति
"साबणबहुलपचिप, डुपया पुरा पोरिसी धुवा हो । चत्तारि अंगुलाई, मासेणं बहुए तत्तो ॥ ५ ॥ इकतीसर भागा, तिहिए पुरा अंगुल चारि। दक्खिणभयणे बुड्ढी, जाव उ चत्तारि उ पयाई” ॥ ६ ॥ "सावण” इत्यादिसाधा इयम युगस्य प्रथमे संवत्सरे प मासि बहुलपक्के प्रतिपदि पौरुषी द्विपदा पदद्वयप्रमाणा धुवा भवति, ततस्तस्याः प्रतिपद आरज्य प्रतितिथिक्रमेण तावद्वर्धते यादमानमान साहाप्रमाणेन मासा पेयैकत्रिशतथिनिश्वर्थ बारि अङ्गानि वर्धते ॥५॥ कथमेतदीयते यथा मायेन सूर्यमासेनाशदोरा प्रमाविशतिध्यात्मकेलि आह
इत्यादि) यत एकस्यां तिथौ चत्वार एकत्रिंशद्भागा वर्द्धन्ते, एतच्च प्रागेव भावित परिपूर्वे तु दक्षिणायने वृद्धिः परिपूर्णत पदानि ततो मासूम साहोरात्र मानत्रिशिध्यात्म केनेत्युक्तम् तदेवमुक्ा वृद्धिः ॥ ६ ॥
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माक्खत्त
संप्रति हानिमाह
"उन्तरवसे हाथी, चढ पायादि जाव हो पाया। पर्वतु पोरिसीप, बुद्धिखाति नायया ॥ ७॥
( १७७४) अभिधानराजेन्द्रः ।
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उत्तर " इत्यादि । युगस्य प्रथमे संवत्सरे माघमासे बहुलपके सप्तम्या आरज्य चतुर्थः पादेभ्यः सकाशात्प्रतितिथ्ये का शुद्भागवतुष्टय हा निस्तायश्वसेया यावदुत्तरायणप पर्यन्ते द्वौ पादौ पौरुषीति । एष प्रथम संवत्सरगतो विधिः । द्वितीये संपत्रे आयणमासि बहुपक्षे त्रयोदशी मादी इत्वा वृद्धिः । माघमासे शुक्लपक्षे चतुर्थीमादि कृत्वा कमः तृतीये संवत्सरे श्रावणमासे शुक्लपक्षे दशमी वृद्धेरादिः। माघमासे बहुलपक्षे प्रतिपतयस्यादि तु वासरे भावसमासे बहुपके स मी डेरादि माघमासे बहुअपके प्रयोदशी पस्यादि । पञ्चमे संवत्सरे वणमासे शुक्लपक्षे दशमी वृद्धेरादिः । माघमासे बहुपक्षे प्रतिपत् रूपस्यादि चतु संवत्सरे धावले चतुर्थी
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रादि माघमासे आपके दशमी कपस्या कर णगाथा अनुपातमपि पूर्वाऽऽचार्यप्रदर्शितम्पाख्यानादवसितम । संप्रत्युपसंहारमाह-"एवं तु" इत्यादि । एत्रमुकेन प्रकारेण पौपोपविषये वृद्धिकर्मणियनेषुतरायणेषु वेदितौ । तदेवमकरार्थमधिकृत्य व्याख्याता करणगाथा ॥७॥ संप्रत्यस्य करणस्य जावना क्रियते कोऽपि पृच्छति-युग श्रादित आरभ्य पञ्चाशीतितमे पर्वणि पञ्चम्यां तिथौ कतिपदा पौरुषी भवति चतुरशीतिवितेतातियो पृष्ठ
मिति । पञ्च चतुरशीति पञ्चदशगुणवते. जातानि द्वादश स तानि षष्टद्यधिकानि १२६०। एतेषु मध्येऽधस्तनाः पञ्च प्रक्षिप्यन्ते, जातानि द्वादश शतानि पञ्चषनुपधिकानि १२६५ । तेषां षमशीत्यधिकेन शतेन भागो हिवते, लब्धाः पद्, श्रागतं षट् श्रयनान्यतिकान्तानि समय तेच शेषमेकोधिकं शतं तिष्ठति १४६। ततश्चतुर्निर्गुण्यते, जातानि पञ्चशतानिवत्यधिकानि ५९६ । तेषामेकत्रिंशता भागहरणे लब्धा एकोनविंशतिः । शेषास्तिति सप्ताङ्गलानि पाद इत्येोनयन सम्म पाणि तिष्ठन्ति सप्त अलापिष्ठं चायमुत्तरायचं मं तु विनं बर्त्तते । ततः पदमेकं सप्ताङ्गलानि पदद्वयप्रमाणे ध्रुवराशौ प्रति व्यन्ते जातानि त्रीणि पदानि सप्ताङ्गलानि ये सप्त एकत्रिंशजागाः शेषीभूतावान् कुर्मः
ले इति ते सप्त श्रष्टनिर्गुण्यन्ते जाताः षट्पञ्चाशत् ५६ । तस्या एकत्रिंशता भागे हुवे ब्रब्ध एको यवः शेषास्तिष्ठन्ति यषस्य पञ्चविंशतिरेकविंशनाः। मागतं पञ्चाशीतितमेपणपणि पानि खानको ययः एकस्य च वयस्य पञ्च का इत्वेनावती पौरुषीति तथा
सप्तनवतितमे पर्वणि पञ्चम्यां तिथौ कतिपदा पौरुषी भवति ?। तत्र यतिप्रियते, तस्याश्चाधस्तात् पञ्च श्रावतिश्च पञ्चदशनिर्गुण्यते तानि चतुर्दश शतानि चत्वारिशद १४४० तेषांमध्येस्तनाः पाच प्रतिप्यन्ते जाताना पारिंशदधिकानि १४४५ तेषां मत्यधिकेन सतेन भागो हियते, लब्धानि सप्त अयनानि । शेषं तिष्ठति त्रिचत्वारिंशदधिकं शतम् १४३। तच्चतुर्भिर्गुण्यते, जातानि पञ्च शतानि द्विसप्तत्यधिकानि ५७२। तेषामेकत्रिंशता जागो हियते, लब्धालानि तेषां मध्ये द्वादशभिर पति
एक्खत्त
लब्धमेकं षडङ्गुलानि, उपरि चांशा उद्धरन्ति चतुर्दश, ते यवाssनवनाथ मन्तिम ११२ तस्ये शता मागे हते लग्धाखयो यथा पारित वयस्यैकोनविंशतिरेकत्रिंशद्भागाः, सप्त चायनान्यतिक्रान्तानि । अष्टमं वर्तते, अष्टमं चायनमुत्तरायणम, उत्तरायणे च पदचतुष्ट्यरूपात् ध्रुवराशनात एकं पदं यस्य च यस्यैकोनविंशतिरेकत्रिंशद्भागा इति पदचतुष्टयात् पात्यते, शेषं तिष्ठति द्वे पदे चत्वारि वाङ्गुलानि चत्वारो यत्राः, एकस्य वयवस्य द्वादश एकत्रिंशद्भागाः । एतावती युगे आदित प्रारभ्य सप्तनवतितमे पर्वणि पञ्चम्यां तियो पौरुषीति । एवं सर्वत्र भावनीयम् ।
संप्रति परिमाणतोऽवनगत परिमाणकानामियं कर
णगाथा
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"बुढी वा हाणी वा जावइया पोरिसीऍ दिठाओ। ततो दिवस गएणं, जं क्षयं तं खु अयणगयं ॥ ८ ॥ " "बुडी वा इत्यादि । पौरुष्यां यावती - वृद्धिहोनित्र हा ततः सकाशाद् दिवगतेन प्रवर्तमानेन वा त्रैराशिककर्मीनुसारतोतयनगतमयनस्य दियम् एप करगाथारार्थः ॥
भावना वियम्-तत्र दक्षिणायने पदद्वयस्योपरि त्वागुखानि की दशनि ततः कोऽपि पृच्छति किगतं निशिकार यदि चतुर स्पेरेका तिथिश्यते सरि कति तिथी भामडे ? | राशित्रयस्थापना-४ । १ । ४ । अत्रान्त्यो राशिरङ्गुलरूप एकत्रिंशद्भागकरणार्थमेकत्रिशता गुरपते, जातं चतुर्विंशत्यधिकं शतम् १२४ । तेन मध्य राशिगुण्यते, जातं तदेव चतुर्विंशत्यधिकं शतम १२४. केन गुणितं तदेव भवति' इति वचनात् । तस्य चतुष्करूपेणाऽऽदिरा शिना जागो हियते, लग्धा एकत्रिंशतिथयः । श्रागतं दक्षिणायने एकत्रिंशत्तमायां तिथौ चतुरकगुला पौरुष्यां वृद्धिरिति । तथा उत्तरायणे पचतुष्पाद तुला एक पौरुपामुपलभ्य कोवि पृथ्वति-किय मनमुराद अपि प्रेराशिकम्। यदि चतुरस्त्र तिथिले ते सतोऽभिर कति थियो लभ्यन्ते । राशिस्थापना अायो राशिका करणार्थमेकविशते जाते राधिके २४८ मध्य राशिरेकरूपोते जाते २४० त योरान राशिना मनुष्ठरूपेण जागरणम लन्धाद्वा ६२ भागतमुत्तरायायां विद्याल यामीति ।
"
" तंसि च गं मासंसि बट्टाए " इत्यदि । तस्मिन्नापादे मासे प्रकाश्यस्य वस्तुनो वृत्तस्य वृत्तया, समचतुरस्रसंस्थानसंस्थितस्य च समचतुरखसंस्थानसंखितया पो रिमण्डल संस्थानस्य न्यग्रोधपरिमण्डलया । उपलकणमेतत्-शेष संस्थान संस्थितस्य प्रकाश्वस्य वस्तुनः शेषसंस्थितया । श्राषाढे हि मासे प्रायः सर्वस्यापि प्रकाश्यस्य वस्तुनो दिवसस्य चतुर्जागेऽतिक्रान्ते शेषे वा स्वप्रमाणा गावा भवति । निश्चयतः पुनराषाढमासस्य चरमम एकले, तत्रापि सर्वान्यन्तरे मएकले वर्तमाने सूर्ये । ततो यत्प्रकाश्यं वस्तु यत्संस्थानं भवति, तस्य छायाऽपि तथासंस्थानोपजायते । तत -
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(१७७५) माक्खत्त अन्निधानराजेन्डः।
पक्वत्त तं वृत्तस्य वृत्तया इत्यादि । एतदेवाऽऽह-खकायमनुरङ्गि.
ইনানঘালদাহিকামাল মনएया-स्वस्थ स्वकीयस्य छायानिवन्धनस्य वस्तुनः कायः
सिका संग्रहणिगाथा:शरीरं स्वकायः, तमनुरज्यते अनुकारं विदधातीत्येवंशीसा स्यकायानुरक्षिणी। “संपृचानुरुधाब्यमास्यसपरिससंसृजप
"बम्हा विरह य वन, वरुणो सह अजो अणंतर हो। रिदेवि संज्वरपरिक्तिपपरिरटपरिषदपरिदहपरिमुबदुपहिष
मनिवकिपूस गंध-व्व चेव परतो जमो होइ॥१॥ गुहा-" ॥३।२।१४२ ॥ (पाणि) इत्यादिना घिनु प्रत्य
अग्गि पयाष सोमे, रुदे अदिई बहस्सई चेव । यातया स्वकायमनुरकिण्वा कायया सर्योऽनु प्रतिदिवसं प
नागे पिड जग अजम, सविया ता य वाक य॥२॥ रावर्तते । एतदुक्तं भवति-आषाढस्य प्रथमादहोरात्रादारभ्य
इंदग्गी मित्तो विय, इंदे निरई य आउ विस्सोभ। प्रतिदिषसमभ्यान्यमएमबसंक्रान्त्या तथा कथञ्चनापि सुर्य:
नामाणि देवयाणं, हवंति रिक्वाण जहकमसो ॥३॥" परावर्तते, यथा सर्वस्यापि प्रकाश्यस्य वस्तुनो दिवसस्य
जं०७ वक। मू०प्र० १० पाहु०१४ पाहुः । चतुर्भागेऽतिकान्ते, शेषे वा स्वानुकारा स्वप्रमाणा गया
(१०) नकत्राणां गोत्राणिजवतीति । शेषं सुगमम । सू० प्र०१० पाहु०१पाहु०। (नक
ता कहं ते गोता आहिता ति वदेजा। ता एतेसि पाण्यधिकृत्य चन्मार्गाः 'चंदमम्म'शम्दे तृतीयभागे १०८५ पृष्ठे उक्काः )
णं अट्ठावीसाए णक्खत्ताणं अभिई एक्खत्ते किंगोचे
पएणते ? वा मोग्गलायणसगोत्ते पएणते । सबणे ण(१६) नत्राणां देवता:
क्खत्वे किंगोत्ते पएणसे ?। संखायणसगोते पएणते । ता कहं ते देवताणं अजयणा माहिता ति वदेजा। ता |
धणिहा णक्खत्ते किंगोत्ते पसत्ते? । भग्गतावसगोत्ते पएएसिणं अट्ठावीसाए णखत्ताणं अनिई पक्खत्ते किं
एणत्ते । सतनिसया णखत्ते किंगोत्ते पएणते ?। कदेवताए पत्ते । ता भदेवताए पत्ते । सवणे णक्खत्ते
एिणयणसगोत्ते पएणत्ते । पुम्बापोटवता एक्खत्ते किंकिंदेवताए पसचे ? । ता विएहुदेवताए पपत्ते । पणिहा
गोते पएणते । जानकलीयसगोते पएणते । उत्तरामक्खने किंदेवताप परमत्ते । ता वसुदेवताए पम्मत । पोढवता णक्खत्ते किंगोत्ते पएणत्ते ? । धणंजयसगोत्ते सयनिसया णखत्ते किंदेवताए पएणत्ते । ता वरुणदे
पपत्ते । रेवती पाक्खत्ते किंगोत्ते पम्पत्ते । पुस्सायणसगोचे वताए पएणत्ते । पुवापोहवया णक्खत्ते किंदेवताए पाय
पप्मत्ते। अस्सिणी एक्खत्ते किंगोत्ते परमत्ते । अस्सायते। अजदेवताए पएणत्ते । उत्तरापोटक्या णक्खत्ते किं
सगोते पएणते । भरणी एक्खत्ते किंगोसे पएणते ?। देवताए पलत्ते । ता अहिवष्टिदेवताए पएणते । एवं
भग्गवेससगोत्ते पक्षाते ? । कत्तिया णक्खत्ते किंगोसे सम्ने वि पुच्छिज्जति । रेवती पुस्सदेवयाए, अस्सिणी
पएणते ?। अग्गिवेससगोत्ते पएणते रोहिणी एअस्सदेवयाए, चरणी जमदेवयाए, कत्तिया अग्निदेवयाए,
खत्ते किंगोत्ते पएणते । गोतमसगोते पएणसे । रोहिणी पयावश्देवयाए, संगणा सोमदेवयाए, अद्दा रुद्द
संगणा पाक्खत्ते किंगोत्ते पएणत्ते । भारदायसगोत्ते देवयाए, पुणवसू अदितिदेवयाए, पुस्सो बहस्सश्देवयाए,
पएणत्ते। अद्दा णक्खत्ते किंगोते पएणते? । लोहिअस्सेसा सप्पदेवयाए, महा पितिदेवयाए, पुनाफग्गुणी
च्चायणसगोते पएणते । पुणव्वसू एक्खसे किंगोत्ते भगदेवयाए, उत्तराफग्गुणी अज्जमदेवयाए, हत्थे सविति
पएणत्ते ? । वासिट्ठसगोत्ते पएणत्ते । पुस्से णक्खत्ते किंदेवयाए, चित्ता तट्टदेवयाए, साती वानदेवयाए, विसाहा
गोत्ते पएणत्ते । ओमजायणसगोत्ते पएणत्ते । अस्सेसा इंदम्गिदेवयाए, अणुराधा मित्तदेवयाए, जेट्ठा इंददेव
णक्खसे किंगोत्ते पएणते । मंगचायणसगोत्ते पएणयाए, मूझे णिरितिदेवयाए, पुनासाढा आउदेवयाए,
से । महा णवत्ते किंगोत्ते पएणते ? | पिंगायणसउत्तरासादा विस्सदेवयाए पएणत्ता॥
गोते पएणते? पुव्वाफग्गुणी णक्खत्ते किंगोत्ते पाते। "ता कहं ते देवताणं" इत्यादि । 'ता' इति । पूर्ववत् । कथं गोवशायणसगोचे पाणते । उत्तराफग्गुणी एक्खसे किंकेन प्रकारेण भगवन् ! त्वया नक्षत्राधिपतीनां देवतानामध्यय
गोत्ते पाते?कासवगोत्ते पएणते। हत्थे एक्खत्ते किंनानि, अधीयन्ते सायन्ते यैस्तान्यध्ययनानि,नामानीत्यर्थः । श्रा. स्वातानीति वदेत् । एवं प्रभे कृते भगवानाह-"ता एपसि एं"
गोने पएणते ?। कोसियगोत्ते पएणते | चित्ता णक्खत्ते इत्यादि । 'ता' इति पूर्ववत् । एतेषामन्तरोदितानामधार्विश.
किंगोत्ते पएणते ? । दन्नायणसगोत्ने पएणते । साई सेनकत्राणांमध्येऽभिजिनकत्रं किंदेवताकं किंनामधेयदेवताकं णखत्ते किंगोत्ते पएणत्ते । चामरत्यगोत्ते पएणत्ते । प्राप्तम् ? भगवानाह-'ता' इत्यादि।'ता' इति प्राग्वत् । ब्रह्मदे
विसाहा णक्खचे किंगोत्ते पएणते?। सुंगायणसगोत्ते पवताकं ब्रह्माभिधदेवताकं प्राप्तम् । श्रवणनक्षत्रं किंदेवताकं प्रज्ञप्तमा नगवानाह-'ता'श्त्यादि । विष्णुदेवताकं विष्णुनाम
एणते। अपराधा एक्खत्ते किंगोत्ते पएणते । गोलदेवताकं प्रवतया एवं शेषारयपि सूत्राणि भावनीयानि । बायणसगोचे पएणत्ते । जेहाणक्खचे किंगोसे पएणते।
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( १७७६) अभिधानराजेन्द्रः ।
याक्खत्त
तिमिच्छायण सगोते पत्ते । मूझे णक्खत्ते किंगोते पत्ते १ । कच्चायणसगोत्ते पत्ते । पुब्वासादा एक्खत्ते किंगोते पत्ते ? | वब्जियायसगोत्ते पष्ठात्ते । उत्तरासाढा एक्खत्ते किंगोते पणत्ते ? । वग्घावच्चसगोत्ते पष्ठत्ते ।
इह नत्राणां स्वरूपतो न गोत्रसंभवः, यत इदं गोत्रस्य स्वरूपं लोके प्रसिद्धिमुपागमत् प्रकाशकाऽऽद्य पुरुषाभिधानस्तदपन्यसन्तानो गनिधानो गोत्रमिति । न चैवस्वरूप नक्षत्राणां गोत्रं संभवति तेषामोपपातिकत्वात् । तत इत्थं गोत्रसंभवो अष्टव्यः - यस्मिन्नकत्रे शुभैरशुभैर्वा प्रहैः समानं यस्य गोत्रस्य यथाक्रमं शुभमशुजं वा भवति, तत्तस्य गोत्रम्, ततः प्रश्नोपपतिः 'ता' इति पूर्ववत्। कथं त्वया नक्कत्राणां गोत्राणि श्र ख्यातानीति वदेत् ? | भगवानाह - "ता एएसिं" इत्यादि । 'ता' इति पूर्ववत् । एतेषामष्टाविंशतेनं क्षत्राणां मध्येऽनिजिन्नक्षत्रं मागधायनसगोत्रं मौलायनेन सह गोत्रेण वर्त्तते यततथा । श्रवणनक्कत्रं सङ्ख्यायनसगोत्रम् । एवं शेषाण्यपि सूत्राणि ज्ञावनीयानि ।
क्रमेण गोत्रसंप्राहिकाश्चेमा जम्बूद्वीपप्रकृतिसत्काश्चतस्रः संग्रह णिगाथा:
" मोग्गल्लायण संस्खा- यणे य तह अग्गताव कमिष्ठे । ततो य जानकक्षे, धणंजय चेव बोधवे ॥ १ ॥ पुरुमायणे अस्ताय - य भग्गवेसे य अगिवेसे य । गोयम भारद्दार, बोहिचे चेव बासिट्टे ॥ २ ॥ श्रमज्जायण मंग-ज्वायण पिंगायणे य गोवरले । कासव कोलिय दन्ना- यण चानरत्या य सुंगा य ॥ ३ ॥ गोव्त्रायण तिमिवा- यणे य कच्चायणे हव मूले । तत्तो य वग्भियायणे, बग्वावच्चे य गोठाई ॥ ४ ॥ " ( जं० ७ वक्क० ) सू० प्र० १० पाहु० १६ पाहु० चं० प्र० । (२१) संप्रति भोजनानि वक्तव्यानि ततस्तद्विषयं प्रश्नसूत्रमाह
ता कहं ते जोया आहिता ति वदेज्जा १ । ता एतेसि अट्ठावीसाए णक्खत्ताणं कत्तियाहिं दधिणा भोच्चा कज्जं साधेति । रोहिणीहिं वसनमंसं भोच्चा कज्जं साहेति । संठाणाहिं मिगमंसं जोचा कज्जं साहेति । दाहिं एवणीतेण जोच्चा क साहेति । पुन्त्रसुला घतें भोच्चा कज्जं साधेति । पुस्सेणं खीरेणं जोबा कज्जं साधेति ।
साहिं दीवगमंसं जोच्चा कज्जं साधेति । महाहिं कसोर । भोच्चा कज्जं साधेति । पुव्वाफरगुणीहिं मेढगमंसं जोच्चा कज्जं साधेति । उत्तरादि फग्गुणीहिं णखीमंसं भोच्चा कज्जं साधेति । इत्येवं वच्चारणीयपलेलं भोच्चा कज्जं साधेति । चिताहिं मुग्गसूवेणं जोचा कज्जं साधेति । सादिया फलाई नोच्चा कज्जं साधेति । विसाहाहिं प्रसितिग्रा नोच्चा क साधेति । अराहाहिं मासाकूरं भोच्चा कज्जं साधेति । हार्दि कोलडिएं जोच्चा कज्जं साधेति । मूलेण मूलगसागेणं भोच्चा कज्जं साधेति । पुन्नाहिं आसादाहिं आमलगसारिएण चोच्चा कज्जं साधेति । उत्तराहिं आसादाहिं
णक्खत्त
विलेहिं भोच्चा कज्जं साधेति । अजिरणा पुप्फेहिं भोच्चा कज्जं साधेति । सवणेणं खीरेणं भोच्चा कज्जं साधेति । घणिहाहिं जूसेणं जोचा कज्जं साधेति । सयजिसयाए तुवओो जोच्चा कज्जं साधेति । पुव्बाहि पोडवयाहि कारि एहिं भोच्चा कज्जं साधेति । उत्तराहिं पोडवताहि वराहमंसं भोच्चा कज्जं साधेति । रेवतीहिं जलयरमंसं भोच्चा कज्जं साधेति । अस्सिणीहिं तित्तिरमंसं जोच्चा कज्जं साघेति । जरणीहिं तिलतंदुलकं भोच्चा कज्जं साधेति । ता कहं ते भोयणा इत्यादि । 'ता' इति पूर्ववत् । कथं केन प्रका रेस नक्त्रविषयाणि भोजनानि आख्यातानीति वदेत् ? । जगवानाह - "ता एसि णं" इत्यादि । 'ता' इति पूर्ववत् । एतेषामनन्तरोदितानामष्टाविंशतेनैक्कुत्राणां मध्ये कृतिकाभिः पुमान् कार्य साधयति दध्ना संमिश्र मोदनं नुक्त्वा । किमुक्तं भवति ?कृत्तिकासु प्रारब्धं कार्य दधिन लुके प्रायो निर्विघ्नं सिद्धिमासादयतीति भावः । एवं शेषेष्वपि सूत्रेषु जावना द्रष्टव्या । सूर प्र० १० पाहु० १७ पाहु० । चं० प्र० ।
(२२) किं नत्रं किं द्वारिकम
ता कहं ते जोतिसस्स दारा आहिता ति वदेज्जा ? | तत्थ खलु इमाओ पंच पमिवत्तीओ पसत्ताओ । तत्येगे एवमाहंसु-ता कत्तियादिया सत्त णक्खत्ता पुन्नदारिया पत्ता, एगे एवमाह । १ । एगे पुल एवमाहंसु-ता
राहादिया सच क्खत्ता पुव्वदारिया पण्णत्ता, एगे एवमादंसु । २ । एगे पुण एवमामु-ता धणिकादिया सत्त एक्खता पुन्नदारिया पलत्ता, एगे एवमाहंसु । ३ । एगे पुण एवमासु-अस्तिणीयादिया सत्त णक्खत्ता पुत्रदारिया पत्ता, एगे एवमाहंसु । ४ । एगे पुण एवमाहंसुता जरणियादिया सत्त पक्खत्ता पुन्नदारिया पात्ता | ए | तत्थ जे ते एवमाहंसु-ता कत्तियादिया सत्त - क्खत्ता पुन्नदारिया पछता, ते एवमाहंसु तं जहा - कलिया, रोहिणी, संठाणा, अद्दा, पुणव्त्रसू, पुस्सो, अस्ससा । महादिया सत्ता एक्खता दाहिणदारिया पचचा । तं जहामहा, पुव्वा फग्गुणी, उत्तराफग्गुणी, हत्यो, चित्ता, साई, विसादा | अणुराधादिया सत्त एक्खता पच्छिमदारिया पत्ता । तं जहा - अणुराधा, जेट्ठा, मूझे, पुन्त्रासादा, उत्तरासादा, अनिई, सवणो । बणिट्टादिया सत्त णक्खचा उत्तरदारिया पण्णत्ता । तं जहा - घण्ट्ठिा, सतजिसया, पुत्रापोहवता, उत्तरापोडवता, खेती, अस्सिणी, भरणी । तत्थ जे ते एवमाहंसु-ता महादिया सत्त एकतापुवदारिया पत्ता, ते एवमादसुतं जहा- पुव्वाफग्गुणी, उत्तराफग्गुणी, हत्थो, चित्ता, साती, विसादा | श्रराधादिया सच एक्खत्ता दाहिणदारिया पत्ता ।
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(१७७७ )
श्रनिधानराजेन्द्रः ।
क्खत्त
तं जहा - राधा, जेट्ठा, मूझे, पुव्वासाढा, उत्तर (साढा, अनिई, सवणो । धणिट्ठाऽऽदिया सत्त एक्खत्ता पछिमदारिया पत्ता । तं जहा - घणिट्टा, सतभिसया, पुव्वापोडवता, उत्तरापोहवता, खेती, अस्सिणी, भरणी । कत्तियाऽऽदिया सत्त णक्खचा उत्तरदारिया पण्णत्ता । तं जहा - कत्तिया, रोहिणी, संठाणा, अद्दा, पुण्व्वसू, पुस्सो, अस्सेमा । तत्थ जे ते एवमाहंसु-ता धणिट्ठाऽऽदिया सच क्खत्ता पुन्नदारिया पएलत्ता, ते एवमासु तं जढ़ा- धणिका, सतभिसया, पुव्बाभद्दवया, उत्तराजद्दवया, रेवती, अस्सिणी, जरणी । कत्तियाऽऽदिया सत्त लक्खसा दाहिणदारिया पण्णत्ता । तं जहा-कतिया, रोहिणी, संत्राणा, अद्दा, पुणव्वसू, अस्सेसा । महाssदिया सत्त एक्खत्ता परिक्रमदारिया पण्णत्ता । तं जहा पहा, पुव्त्राफरगुणी, उत्तर फग्गुणी, इत्थो, चित्ता, साती, विसाहा । अणुराधाऽऽदिया सत्त णक्खत्ता उत्तरदारिया पएलत्ता । तं जहा अणुराधा, जेट्ठा, मूले, पुव्वासाढा, उत्तरासादा, अभिई, सत्रणो । तत् एवमाहंसु-ता अस्सिणीआदिया सत्त एक्खत्ता पुन्त्रदारिया पण्णत्ता, ते एवमाहं तं जहा - अस्सिरणी, नरणी, कत्तिया, रोहिणी, संगणा, अद्दा, पुणन्वसू । पुस्ताssदिया सत्त एक्खत्ता दाहिणदारिया पण्णत्ता । तं जहा - पुस्सा, अस्सेसा, मदा, पुव्वाफरगुणी, उत्तराफगुणी, इत्यो, चित्ता । साती आदिया सत्त एक्खत्ता पच्छिमदारिया पणत्ता । तं जहा-साती, विसाहा, -
राहा, जेट्ठा, मूलो, पुव्वासाढा, उत्तरासादा । अभिईआदिया सत्त एक्खत्ता उत्तरदारिया पण्णत्ता । तं जहा - अभिई, सबणो, घणिट्ठा, सतजिसया, पुब्बाज - वया, उत्तराभद्दवया, रेवती । तत्य जे ते एवमाहंसु-ता नरणीआदिया सत्त एक्खत्ता पुव्वदारिया पएलत्ता, ते एमासुतं जहा - भरणी, कत्तिया, रोहिणी, संठाणा, प्रदा, पुराव्त्रम्, पुस्सी । अस्माऽऽदिया सत्त एक्बत्ता दाहिणदारिया परचा । तं जहा - अस्सेसा, महा, पुव्त्राफग्गुणी, उत्तराफग्गुणी, इत्थो, चित्ता, साई । विसाहाssदिया सत्त णक्खत्ता पच्छिमदारिया पण्णत्ता । तं जहा -विसाहा, अणुराहा, जेट्ठा, मूलो, पुव्वासाढा, उतरासादा, अनिई। साऽऽदिया सत्त एक्खत्ता उत्तरदारिया पता । तं जहा-सवणो, घणिट्ठा, सतनिसया, पुण्वापोडवया, उत्तरापोडवया, खेती, अस्सिणी | एते एत्रमासु । वयं पुरा एवं वदामो-ता अभिआदिया सच णक्खत्ता पुन्नदारिया पण्णत्ता । तं जहा - अभिई,
*
गाक्खत्त
सवणो, घणिट्ठा, सतभिसया, पुम्बापोडवया, उत्तरापोgaur, रेवती । अस्सिणीआदिया सत्त णक्खत्ता दाहिणदारिया पण्णत्ता । तं जहा - अस्सिणी, भरणी, कत्तिया, रोहिणी, संठाणा, प्रद्दा, पुणन्त्रम् । पुस्साऽऽदिया सत्त एक्खत्ता पच्छिमदारिया पण्णत्ता । पुस्से, अस्सेसा, महा, पुब्बाफरगुणी, उत्तराफग्गुणी, हत्यो, चित्ता । सातीयादिया सत्त एक्खत्ता उत्तरदारिया पत्ता । तं जहा - साती, विसाहा, अणुराहा, जेठा, मूले, पुन्नासाढा, उत्तरासादा ||
" ता करूं ते जोइसदारा " इत्यादि । 'ता' इति पूर्ववत् । कथं केन प्रकारण, केन क्रमेणेत्यर्थः । ज्योतिषो नक्षत्रचक्रस्य, द्वाराणि श्राख्यातानीति वदेत् ? । एवमुक्ते जगवानेतद्विषये या वत्यः परतीर्थिकानां प्रतिपत्तयः, तावती रुपदर्शयति- ( तत्थेत्यादि ) तत्र द्वारविचारविषये खल्विमा वक्ष्यमाणस्वरू पाः पञ्च परतीथिकानां प्रतिपत्तयः प्रज्ञप्ताः । ता एव क्रमेणाऽऽड्
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तत्थेगे" इत्यादि । तत्र तेषां पञ्चानां परतार्थिकसंघातानां मध्ये एके पवमाहुः - कृत्तिकाऽऽदीनि सप्त नक्कत्राणि पूर्वधारकाणि प्रशप्तानि । इढ येषु नक्कत्रेषु पूर्वस्यां दिशि गच्छतः प्रायः शुनमुपजायते तानि पूर्वद्वारकाणि । एवं दक्षिणद्वारकाऽऽदीन्यपि वक्ष्यमाणानि नावनीयानि । अत्रैवोपलहारमाह-"एगे एवमाहंसु" । एके पुनरेवमाहुः- अनुराधाऽऽदीनि सप्त नक्षत्राणि पूर्वद्वारकाणि प्रप्तानि । अत्राप्युपसंहारमाद"एगे एवमाहंसु" । एवं शेषाण्युपसंहारवाक्यानि योजना यानि । एके पुनरेवमाहुः- धनिष्ठाऽऽदीनि सप्त नक्कत्राणि पूर्वद्वारकाणि । एके पुनरेवमाहुः - अश्विन्यादीनि सप्त नक्षत्राणि पूर्वद्वारकाणि प्रज्ञप्तानि । एके पुनरेवमाहुः - जरण्यादीनि सप्त नक्षत्राणि पूर्वद्वारकाणि । संप्रत्येतेषामेव पञ्चानामपि मतानां भावनिकामाद" तत्थ जे ते एवमाहंसु " इत्यादि सुगमम् । भगवान् स्वमतमाद - " वयं पुण " इत्यादि पाठसिद्धम् । सू० प्र० १० पाहु० २१ पाहु० ।
(२३) नक्षत्रविचय:
ता कहं ते क्खत्तविचए आहिते ति वदेज्जा ? | ता प्रणं जंबुद्दीवे दीवे०जाव परिक्खेत्रेां । ता जंबुद्दीवेदीवे दो चंदा पचासु वा, पजार्सेति वा, पजासिस्संति वा । दो सूरिया विसुं वा, तर्वेति वा, तविस्संति वा । छप्प ं णक्खत्ता जोयं जोएंसुवा, जोयंति वा, जोइस्संति वा । तं जहादो भई, दो सवा दो घणिट्ठा, दो सतनिमया, दो
पोडक्या, दो उत्तरापोहवया, दो रेवती, दो सिणी, दो भरणी, दो कत्तिया, दो रोहिणी, दो संगणा, दो अदा, दो पुत्र, दो पुस्सा, दो अस्सेसा, दो महा. दो पुत्राफरगुणी, दो उत्तराफग्गुणी, दो हत्या, दो चित्ता, दो साई, दो विसाढा, दो अपराधा, दो जेट्ठा, दो मूला, दो पुत्रासादा, दो उत्तरासादा । ता एएसि एं छप्पर णक्खत्ताणं श्रत्थि एक्खत्ता, जे ां ाव मुदुत्ते, सत्तावीसं
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(2005) अभिधानराजेन्खः ।
णक्खत्त
सत
च सत्तामागे मुहुत्तस्स चंदेश सद्धिं जोयं जोएंति । प्रत्थि क्खा, जेणं पारस मुहुसे चंदे सर्दि जोयं जोएंति । अत्थि एक्खत्ता, जेणं तीसं मुहुत्ते चंदेण सद्धिं जोयं जो एंति । अत्थि एक्खत्ता, जे णं पणयासीसं मुहुते चंदेण सार्द्ध जोयं जोति । ता एतेसि णं उप्पण्णाए एक्खत्ताणं कतरे णक्खते, जेणं एत्र मुहुत्ते सत्तावीसं च सत्तट्ठिभागे मुहुतस्स चंद्रेण स जोयं जोएंति । कतरे णक्खत्ता, जे गं पसारसमुह चंदण सर्फि जोयं जोएंति । कतरे णक्खत्ता, जेणं तसं मुदुत्ते चंदे सर्फि जोयं जोएंति ?। कतरे एक्खत्ता, जेणं पणतालीस मुदुत्ते चंदेगा सद्धिं जोयं जोएंति ।। ता एतैसि णं उपमाए णक्खत्ताणं, तत्थ जे ते एक्खता, जे णं णव मुदुचे सत्तावीसं च हिजो मुहुत्तस्स चंदेण सर्कि जोयं जोएंति । ते दो नई । तस्य जे ते एक्खत्ता, जे णं पारस मुहुत्ते चंदेल सद्धिं जोयं जोएंति । ते णं बारस । तं जहा- दो सतजिसया, दाभरणी, दो अदा, दो अस्सा, दो साती, दो जेठ्ठा । तत्थ जे ते एक्खता, जेएं तीस मुहुत्ते चंद्रेण सद्धिं जोयं जोएंति । ते णं तसं । तं जहा- दो सवगा, दो धणिडा, दो पुवया, दो रेवती, दो अस्मिणी, दो कत्तिया, दो संठाणा, दो पुस्सा, दो महा, दो पुव्वाफरगुणी, दो हत्था, दो चित्ता, दो अणुराधा, दो मूला, दो पुत्रासाढा । तत्य जे ते णक्खत्ता, जेणं पणयालीसं मुहुत्ते चंदे सकि जोयं जोएंति । ते णं बारस । तं जहा- दो उत्तरापोडनया, दो रोहिणी, दो पुत्रसू, दो उत्तराफरगुणी, दो विसाहा, दो उत्तरासादा ।। ता एतेसि णं उप्पमाए एक्खत्ताणं श्रत्थि णक्खत्ता, जेणं चत्तारि अहोरत्ते बच्च मुहुत्ते सूरेण सकि जोयं जोएंति । प्रत्थि एक्खत्ता, जे छ अहोरते एकवीसं च मुहुत्ते सूरेण सद्धिं जोयं जोएंति । प्रत्थि एक्खत्ता, जेणं तेरस अहोरते वारस मुहुत्ते सूरेगा सर्फि जोयं जोति । प्रत्थि एक्खत्ता, जे एं बीसं अहोरते तिनि य मुहुत्ते सूरेण सद्धिं जोयं जोएंति । ता एतेसि गं छप्पसार एक्खताणं कयरे क्खत्ता, जे णं तं चेत्र उच्चारे पच्वं १ । ता एतेसि णं उपाए एक्खत्ताणं, तत्थ जे ते एक्खत्ता, जेणं चत्तारि अहोरते उच्च मुहुत्ते सूरेण सजायँ जोति । ते णं दो अनिई। तत्य जे ते
क्खत्ता, जेणं छ अहोर ते एकत्रीसं च मुहुत्ते सूरेण सद्धिं जोयं जोएंति । ते णं बारस । तं जहा- दो सतजिसया, दो भरणी, दो अदा, दो अस्सा, दो साती, दो जेठा । तत्थ जे ते णक्खत्ता, जे एंणं तेरस अहोरत्ते बारस मुहुत्ते सूरेण सद्धिं जोयं जोएंति । ते एां तीसं । तं जहा- दो सा० जात्र दो पुव्वासाढा । तत्थ जेते -
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गाक्खत्त
क्खत्ता, जे एं बीसं अहोरते तिणि य मुहुत्ते सूरेण स जोयं जोएंति । ते णं बारस । तं जहा- दो उत्तरापोडवया० जाब दो उत्तरासाढा ।
"ता कहं ते " इत्यादि । ता' इति पूर्ववत् । कथं केन प्रका रेण (क्वचिए ति ) विपूर्वश्चिञ् स्वभावात् स्वरूपनिर्णये वर्तते । तथा चोक्तमन्यत्र- " प्राप्तवचनं प्रवचनं ज्ञाता विचयस्तदर्थनिर्णयनम् । " तत्र विचयनं विचयः, नक्षत्राणां विचयो नक्त्रविचयः- नक्कत्राणां स्वरूपनिर्णयः, आख्यात छति वदेत् ? । नगवानाह " ता अयं णं" इत्यादि । इदं जम्बूद्वीपवाक्यं पूर्ववत् परिपूर्ण स्वयं कृत्वा परिभावनीयम् । " ता जंबुद्दीवे णं" इत्यादि । तत्र जम्बूद्वीपे मिति वाक्यालङ्कारे । द्वीपे द्वौ चन्द्रौ प्रभासितवन्तौ प्रभासेते, प्रभासियेते । द्वौ सूर्यो तापितवन्तौ तापयतः, तापयिष्यतः । षट्पचाशन्नक्षत्राणि चन्द्राऽऽदिभिः सह योगमयुञ्जन् युञ्जन्ति, यो. दयन्ति । तत्र तान्येष षट्पञ्चाशन्नक्षत्राणि दर्शयति- ( तंजहा ) इत्यादि सुगमम् । इह भरतक्षेत्रे प्रतिदिवसमर्थाविंशतिरेव नक्कत्राणि चारं चरन्ति । ततः पूर्वमस्य दशमस्य प्रा भृतस्य द्वितीये प्राभृतप्राभृतेऽष्टाविंशतेने कत्राणां चन्द्रमसा सूर्येण च सद् योगपरिमाणं चिन्तितम् । संप्रति पुनः स कलमेव जम्बूदीपमधिकृत्य नक्कत्राणि चिन्त्यमानानि वर्तन्ते, तानि च सर्वसंख्यया षट्पञ्चाशत् । ततस्तेषां सर्वेषामपि चन्द्रसूर्याभ्यां सद योगमधिकृत्य मुहूर्तपरिमाणं विचिन्तयिषुरिदमाह-" ता एसि णं" इत्यादि । एतच्च प्रागुक्तद्वितीयप्रानृतप्रानृतवत्परिभावनीयम् । तदेवं कालमधिकृत्य चन्द्रमसा सूर्येण च सह योगपरिमाणं चिन्तितम् ।
संप्रति क्षेत्रमधिकृत्य तं चिचिन्तयिषुः प्रथमतः सीमावि कम्भविषयं प्रश्नसूत्रमाह
ता कहं ते सीमाविवखंजो श्राहिते ति वदेज्जा १ । ता एतेसि णं छप्पराए एक्खत्ताएं प्रत्थि णक्खत्ता, जेसि एं उसया तीसा सत्तट्ठिभागती सतिभागाणं सीमाविक्खंभो । प्रत्थि एक्खत्ता, जेसि णं सहस्सं पंचोत्तरं सत्तट्ठिनागतीसतिनागाणं सीमाविवखंजो । प्रत्थि णक्खत्ता, जेसि णं दो सदस्सा दसुत्तरा सतट्टिभागती सतिभागाएं सीमाविक्खंभो । प्रत्थि णक्खत्ता, जेसि तिमि सहस्सा परमुत्तरा सत्तडिजागती सतिजागाणं सीमाविक्खनो । ता एतेसि णं छप्परलाए एक्खत्ताणं कतरे एक्खत्ता, जेसि णं बसया तीसा० तं चेत्र उच्चारेयव्वं । ता एतेसि
उपाए एक्खचाणं तत्थ जे ते णक्खत्ता, जेसि णं बसया तीसा सत्तट्ठिभागती सतिजागाणं सीमाविक्खनो । ते दो भई। तत्यजे ते लक्खत्ता, जोसे णं सहस् पंचोत्तरं सत्तद्विभागती सतिभागाणं सीमाविक्खनो । ते णंबारस । तं जहा- दो सतजिसया० जाव दो जेठा । तत्थ जे ते जेसि णं दो सहस्सा दसुत्तरा सत्तट्ठिनागतीसतिपाक्खत्ता, भागा सीमाविवखं जो । ते णं तीसं । तं जहा- दो सबणा० जाव दो पुव्वासाडा । तत्य जे ते एक्खता, नेसि ति
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(१७७९) गाक्खत्त अभिधानराजेन्डः।
पाक्खत्त दिला सहस्सा पएणरमुत्तरा सत्सडिजागतीसतिनागाणं | म्भः । सन्ति तानि नकत्राणि, येषां प्रत्येक वे सहने दशोत्तरे सीमाविक्खंभो। तेणं वारस । तं जहा-दो उत्तरापोच्चता
सप्तषधित्रिंशद्भागानां सीमाविष्कम्नः। सन्ति तानि नक्षत्राणि,
येषां प्रत्येकं त्रीणि सहस्राणि पश्चदशोत्तराणि, सप्तपष्टित्रिशन्नाजार दो उत्तरासाटा।
गानां सीमाविष्कम्भः । एवं जगवता सामान्येनोक्ते भगवान् "ता कहते" इत्यादि । 'ता' इति पूर्ववत्। कथं केन प्रकारेण, | गौतमो विशेषावगमनिमित्तं भूयः प्रसयात-"ता पतेसि ". कियत्या विनागसंख्यया इत्यर्थः। भगवन् ! त्वया सीमावि.]
त्यादि । तत्र एतेषां पद्पश्चाशतो नत्राणांमध्ये कतराणि तानि कम्भ आख्यात इति वदेत् ? । भगवानाह-"ता एसि गं" नक्कत्राणि, येषां षट्शतानि त्रिंशानि सप्तषष्टित्रिंशद्भागानां इत्यादि । इहाटाविंशत्या नक्कत्रैः स्वगत्या स्वकालपरिमाणेन
सीमाविष्कम्भः।। (तं चेत्र सञ्चारेयन्वं ति) तदेवानन्तरोक्रमशो यावत् क्षेत्रं बुद्ध्या व्याप्यमानं संभाव्यते, तावदे.
क्तमुक्तप्रकारेणोच्चारयितव्यम् । तद्यथा-"कयरे समुपक्सकमर्कमएमसमुपकलप्यते, पतावत्प्रमाणमेव द्वितीयममा
सा, जेसि सहस्सं पंचोत्तरं सत्चट्ठिभागतीसभागाणं सीमाएडसम, इत्येवंप्रमाण बुद्धिपरिकल्पितमेकं परिपूर्णमएमलम् । विक्खनो । कयरेणक्वत्ता,जेसिंदो सहस्सा दसुसरासत्ताक तस्य मामलस्य "ममसंसयसहस्सेण अहाणपतीए सपदि
भागतीसहभागाणं सीमाविक्वनो" इति । चरमं तु सूत्र छत्ता इस णक्वत्तखेतपरिभागे णक्वत्तविचए पादुडे
साक्कादाह-"कयरे णक्वत्ता" इत्यादि । एतानि त्रीणि सूत्राणि प्रादिप ति बेमि" इति वदयमाणवचनात् अष्टानव
सुगमानि । भगवानाह-"ता एतसि " इत्यादि । तत्र एतेषां तिशताधिकशतसहस्रविनागैर्विनज्यते । किमेवं संख्यानां भा.
षट्पञ्चाशतो नक्कत्राणां मध्ये यानि तानि नतत्राणि,येषां षट्शगानां कल्पते निबन्धमिति चेत ?। उच्यते-इह त्रिविधा. तानि त्रिशानि सप्तपष्टिनागरिंशद्भागानां सीमाविष्कम्भः। ते हे नि नकवाणि। तद्यथा-समक्षेत्राणि, अर्द्धकेत्राणि, व्यर्ध क्षेत्रा- अभिजिसकत्रे । कथमेतदवसीयते, इति चेत् । उच्यते-ह णि च । तत्र यावत्प्रमाणं क्षेत्रमहोरात्रेण गम्यते नक्षत्रैः, ता. पकैकस्याभिजितो नक्कत्रस्य सप्तषष्टिस्वामीकृतस्याहोरात्रगम्ययत्क्षेत्रप्रमाणं चन्द्रण सद योगमुपयान्ति गच्छन्ति, तानि स- स्य केत्रस्य सत्का एकविंशतिर्भागाश्च योगयोग्या, एकैकमक्षेत्राणि । तानि पञ्चदश । तद्यथा-श्रवणो, धनिष्ठा,पूर्वाभा- स्मिंश्च नागे त्रिंशद्भागपरिकल्पनादेकविंशतित्रिंशता गुण्यते,
पदा, रेवती, अश्विनी, कृत्तिका, मृगशिरः, पुष्यः, मघा, जातानि षट् शतानि त्रिंशदधिकानि ६३० तथा तत्र तेषां षट्पपूर्वाफाल्गुनी, हस्तं, चित्रा, अनुराधा, मुझम, पूर्वाषाढा इति । चाशतो नकषाणां मध्ये यानि तानि नकवाणि, येषां प्रत्येक तथा यानि अहोरात्रप्रमितस्य केत्रस्याई च चन्छेण सह यो- पञ्चात्तरं सहनं सप्तपधित्रिंशद्भागानां सीमाविष्कम्भः । तागमश्नुवते, तान्यर्द्धकेत्राणि, तानि च षट् । तद्यथा-शतभिषक, नि द्वादश । तद्यथा-वे शतभिषजी (जाव दो जेठामो सि)या. भरणी, माझी, आश्लेषा, स्वातिज्येष्ठति । तथा द्वितीयमद्धे बच्चन्दकरणादेवं कष्टव्यम्-"दो भरणीनो, दो अदाओ,दो भ. यस्य तद् द्वाद, साईमित्यर्थः । यमर्धाधिक क्षेत्रमहोरात्र- स्सेसामो, दो साईओ, दो जेट्ठामो" इति। तथादि-एतेषां द्वा. प्रमितं चन्द्रेण योगयोम्यं येषां तानि यईकेत्राणि । तान्यपि दशानामपि नक्षत्राणां प्रत्येकं सप्तषष्टिस्त्र एमीकृतस्याहोरात्रगषट् । तद्यथा-उत्तराभारूपदा, उत्तराफाल्गुनी, उत्तराषाढा, रो- म्यस्य केत्रस्य सत्काः सास्त्रियस्त्रिशद्भागाश्चन्द्रयोगयोग्याः, हिणी, पुनर्वसु, विशाखा चेति । तत्र सीमापरिमाणचिन्ताया. ततस्त्रयस्त्रिंशत त्रिशता गुण्यते, जातानि नवशतानि नवत्यधिमहोरात्रः सप्तषष्टिनागीक्रियते, ति समवेत्राणां क्षेत्र प्रत्येक कानि अर्कस्यापि च त्रिंशता गुणयित्वा द्वाभ्यां भागेहते सप्तषष्टिभागाः परिकल्प्यन्ते । अत्राणां त्रयस्त्रिंशद:च स्व. लग्धाः पञ्चदश १५, सर्वसंख्यया जातं पञ्चोत्तरं सहस्रम दत्राणां शतमेकम; च अभिजिनकत्रस्यैकविंशतिसप्तषष्टि- १००५ तथा तन तेषां षट्पञ्चाशतो नक्षत्राणां मध्ये यानि तानि नागाः। समवेत्राणि च नक्षत्राणि पञ्चदशेति सप्तषष्टिः पञ्चदश- नक्कत्राणि, येषां रे सहस्र दशोत्सरे सप्तषष्टिभात्रिशद्भागानां निर्गुण्यते, जातं सहस्रं पञ्चोत्तरम् १.०५ । मकेत्राणि सीमाविष्कम्नः । तानि त्रिंशत् । तद्यथा-द्वौ श्रवण (जाव दो पमिति । ततः सार्दा त्रयस्त्रिंशत्पम्भिर्गुप्यते, जाते वे शते एको- पुम्वासाढा इति) यावच्छब्दादेवं पाठो फष्टव्यः-"दो धणिट्ठा, सरे ५०१ । दबद्ध केत्राण्यपि षट् । ततः शतमेकम: च पनि- दो पुवाभवया, दो रेवई, दो अस्सिणी, दो कत्तिया, दो मि. स्ताव्यते, जातानि षट् शतानि व्युत्तराणि ६०३। अभिजिन्नक- गसिरा, दो पुस्सा, दो मघा, दो पुब्वाफग्गुणीो , दो दस्था, दो त्रस्य एकविंशतिः, सर्वसंख्यया जाताम्यवादश शतानि त्रिंशद. चित्ता,दो अणुराहा, दो मूला, दोपुवासादा" इति । तथाहिधिकानि १७३०। पतावद्भागपरिमाणमेकममएकलम, पताबद्- एतानि नक्कत्राणि समक्षेत्राणि । तत एतेषां सप्तपाष्टखएकीकृमागमेव द्वितीयमिति त्रिंशदधिकान्यष्टादशशतानि द्वाच्यांग. तस्याहोरात्रगम्यस्य त्रस्य सत्काः परिपूर्णाः सप्तपष्टिभागा: पयन्ते, जातानि षट्त्रिंशतानि षष्टचधिकामि ३६६. ।
प्रत्योकं चन्द्रयोगयोम्याः। तेन सप्तपष्टिस्त्रिंशता गुएयते, आते द्वे पकैकस्मिनहोरात्रे किन त्रिंशन्मुदूर्ता इति प्रत्येकमेतेषु पथ्य- सहस्र दशोत्तरे इति २०१०॥ तथा तत्र तेषां षट्पञ्चाशतो नक्कया. धिकषत्रिंशतसंख्येषु भागेषु त्रिंशद्भागकल्पनायां त्रिंशता णा मध्ये यानि तानि नक्षत्राणि, येषां प्रस्येकं त्रीणि सहस्राणि गुण्यन्ते,जातमेकं शतसहस्रमानवतिशतानि । १०४८००। तत पञ्चदशोत्तराणि सप्तपष्टित्रिंशद्भागानां सीमाविष्कम्भः। तानि इत्थं मएमलस्य जागान् परिकल्प्य भगवान् प्रतिवचनं ददाति- द्वादश। तद्यथा-वे उत्तरे प्रोष्ठपदे (जाच दो उत्तरासादा इति) "ना" इति । तत्र पतेषां षट्पञ्चाशतो नक्षत्राणां मध्ये, म
यावच्चन्दकरणादेवं द्रष्टव्यम्-"दो रोहिणी, दो पुणश्वस. दो म्तीति निपातत्वादावाद्वा स्तः, ते नक्षत्रे, ययोः प्रत्येक घट उत्तराफग्गुणी, दो विसाहा, दो उत्तरासाहा" इति। एतानि हि शतानि धिशानि त्रिंशदधिकानि,सप्तवष्टित्रिंशद्भागानां सीमावि- नकत्राणि बाकेत्राणि । ततः सप्तषष्टिसएडीकृतस्यादोरात्रगकम्भः सीमापरिमाणम् । तथाऽस्तीति सन्ति तानि नकत्राणि, म्यस्य केवस्य सत्काबनायोगयोग्या भागाः, शतमेकमःच से प्रत्येकंपशोचरं सहवं सप्तपचित्रिंशदभायानां सौमाविक- प्रत्येकमवमन्तब्यावर शतं त्रिशा गुण्यते. जातानि त्रीणि
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(१७९०) अभिधानराजेन्दः ।
पक्वत्त
याक्खत्त
सहस्राणि, अर्द्धमपि त्रिंशता गुणयित्वा द्वाज्यां विभज्यते, द्वाषष्टया भागे हते लब्धौ द्वौ, तो त्यक्ती, शेषस्तिष्ठत्येकोनलब्धाः पञ्चदशेति । सू०प्र०१० पादु०१२ पाहु।
पष्टिः ५६ । आगतमेकोनषष्टिापष्टिभागाः, तस्मिन् दिने भ(२४)सायं प्रातनक्षत्रचन्द्रयोगः
मावास्यासु पौर्णमासीषु च नक्षत्राऽऽनयनार्थ प्रागुक्तमेव करता एतेसि उप्पएकाए णक्खत्ताणं किं सता पादो चं- पम् । तत्र ध्रुवराशिः षट्पष्टिमुहर्साः, एकस्य च मुहर्सस्य पञ्च देणं सहिं जोयं जोएति ?। किं सता सायं चंदेण सकिं
द्वापष्टिभागाः, एकस्य च द्वापष्टिभागस्यैकः सप्तपष्टिभागः
६६।।तत्र चतुश्चत्वारिंशत्तमा अमावास्या चिम्तजोयं जोएति ? । किं सता दुहओ पविद्वित्ता पविद्वित्ता
यितुमारब्धा, नताश्चतुश्चत्वारिंशता सा मुण्यते, जातानि मुवंदेण सकिं जोयं जोपति। ता एतेसि णं णक्खत्ताणं णो इनामेकोनत्रिंशतानि चतुरुत्तराणि १९०४ । एकस्य च सया पादो चंदेण सकिं जोयं जोएति, यो सया सायं मुहूर्तस्य द्वापष्टिभागानां द्वे शते विंशत्यधिके २२० । एकस्य च
द्वाषष्टिनागस्य चतुश्चत्वारिंशत् सप्तपनिागाः चंदेण सद्धि जोगं जोएति, णो सया दुहश्रो पविहित्ता
तत्र पुन
वसुप्रभृतिकमुत्तराषाढापर्यन्तं चत्वारि शतानि द्विचत्वारिंपविट्टिसा चंदेण सदि जोयं जोएति । णणत्व दोहिं -
शदधिकानि मुहर्तामाम, एकस्य च मुहूर्तस्य षट्चत्याभिईहिं । ता एतोस गं दो अनिईश्रा पायं चिय पायं
रिंशत् द्वापष्टिभागाः ४४२।१६। इत्येवं प्रमाणं शोभ्यते, जा. चिय चोत्तालीसं अमावासं जोएंति, णो चेव णं
तानि मुहूर्तानां चतुर्विंशतिशतानि द्वाषष्टयधिकानि २४६२ । पुषिणमासिणि॥
एकस्य च मुहूर्तस्य चतुःसप्तत्यधिकं शतं द्वापष्ठिनागानाम “ता एतसि णं" इत्यादि । 'ता'शति । तत्र तेषां षट्प- १७४ । ततो.ऽनिजिदादिसकलनक्षत्रमएमसशोधनकमष्टौ शचाशतो नक्षत्राणां मध्ये किं नक्वत्रं यत्सदा प्रातरेव चन्द्रेण तान्येकोनविंशत्यधिकानि, एकस्य च मुहूर्तस्य चतुर्विशति. सार्क योग युनक्ति, किं नक्षत्रं यत्सदा सायं दिवसाघसा- षष्ठिभागाः; एकस्य च द्वापष्टिनागस्य षट्षष्टिः सप्तपठिनानसमये चन्द्रेण सार्क योग युनक्ति', कि तभवत्रं यत्सदा गाः १९ । २४ । ६६ । इत्येवंप्रमाणं यावत्संजवं शोविधा प्रातः सायं च समये,प्रविश्य प्रविश्य चन्छेण सा योग
धनीयम् । तत्र त्रिगुणमपि शुद्धिमासादयतीति त्रिगुण युनक्ति ? । भगवानाह-"ता एतेसिणं" इत्यादि । ततेषां कृत्वा शोध्यते, स्थिताः पश्चात् पद मुहूर्त्ताः, एकस्य च मुषट्पञ्चाशतो नक्षत्राणां मध्ये न किमपि तनवत्रमस्ति, यत् ।
हर्तस्य सप्तत्रिंशद् द्वाषष्टिनागाः, पकस्य च द्वाषष्टिभागस्य सदा प्रातरेव चन्ऽण सार्द्ध योगं युनक्ति, नापि तनकत्रमस्ति
सप्तचत्वारिंशत्सप्तपष्ट्रिजागाः ६ । ३७ । ४७ ।आगतं चतुलवायत्मदा सायं समये चन्द्रेण सार्क योगं युनक्ति, नापि तदस्ति रिंशत्तमाममावास्यामन्निजिनकत्र, षट्सु मुहर्सेषु सप्तमस्य च नकत्र यत्सदा द्विधा प्रातः सायं समये च, प्रविश्य प्रविश्य मुहर्तस्य सप्तविंशति हापष्टिभागेषु, एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य चन्हेण सा योग युनक्ति। कि सर्वथा?, नेत्याह-"Ms
सप्तचत्वारिंशति सप्तषष्टिभागेषु गतेषु परिसमापयति । पत्थ" इत्यादि । नेति प्रतिषेधे, अन्यत्र द्वान्यामभिजिभ्या
(१५) संप्रत्यमावास्यापौर्णमासीप्रक्रमादेव तत्प्ररूपणां मवसेयः । कस्मात !, इत्याद-"ता पतसिण" इत्यादि। 'ता'
चिकीर्षुरिदमाहइति । तत्र तेषां षट्पञ्चाशतो नत्राणां मध्ये, पते अनन्तरोदिते
तत्य खलु इमाओ चावट्ठि पुलिमासिणीम्रो बावष्टि द्वे अभिजिती, अजिजिनको युगे युगे प्रातरेव प्रातरेव चतुश्चत्वारिंशत्तमाममावास्यां चखेण सह योगमुपगम्य युतः
अमावासाम्रो पत्ताभो । ता एतेसि णं पंचएई संवपरिसमापयतः, नो चैव पौर्णमासीम् । अथ कथमेतदव
छराणं पढमं पुषिणमासिणिं चंदे कंसि देसंसि जोएति ? सीयते-यथा युगे युगे चतुश्चत्वारिंशत्तमाममावास्यां सदैव ता जंसि गं देसंसि चंदे चरिमं वावडिं पुछिमाप्रातः समये अभिजिनक्षत्रं चन्केण सा योगमुपागम्य परि-| सिणिं जोएति, ता एतेणं पुरिणमासिणिहाणातो मंगलं समापयतीति ? । उच्यते-पूर्वाऽऽचार्योपदार्शतकरणवशात् ।
चनब्बीसेणं सतेणं वेत्ता बत्तीसं जागे नवातिणावेत्ता, तथाहि-तिथ्यानयनार्थ तावत्करणमिदम"तिहिरासिमेव वाब-हीभइए सेसमेगसट्टिगुणं ।
एत्य एं से चंदे पढमं पुरिणमासिणि जोएति । ता बाबही विभत्ते, सेसा अंसा तिहिसमती" ॥१॥
एतेसि णं पंचएहं संवच्छराणं दोच्चं पुलिमासिणि चंदे अस्या प्रकरगमनिका- युगमध्ये चन्द्रमासा अतिक्रास्ता,ते | कंसि देमंसि जोएति । ता सिणं देसंसि चंदे पढमं पुतिथेरानयनाथै त्रिंशता गुण्यन्ते, गुणयित्वा च तस्य राशे
लिमासिणिं जोएति,ता एतेणं पुस्लिमासिणिणातो मंझझं भगो द्वापरया हियते, ते च भागे यदवतिष्ठते, तस्मिन्मेकपापा गुणयित्वा द्वाषटया विभक्ते ये मंशा उदरन्ति, सा वि
चनबीसेणं सतेयं छेत्ता दुबत्तीस नागे नवातिणावेत्ता, बक्तिते दिने विवक्तितिथिपरिसमाप्तिः । ततश्चतुश्चत्वारिंश
एत्थ से चंदे दोचं पुम्मिासिणि जोएति । ता एतसि समायाममावास्थायां चिन्तामानायां त्रिचत्वारिंशसमासाः, एं पंचएहं संबच्छराणं तचं पुएिणमासिणि चंदे कंसि देसंएकं च चन्द्रमासस्य पर्वावाप्यते । ततत्रिचत्वारिंशत् त्रिंशता सि जोएति। ता जसि पं देसंसि चंदे दोचं पुएिणमासिणिं पुण्यन्ते, जातानि द्वादश शतानि नवत्यधिकानि १२९० । तत
जोएति, ता एतेणं पुरिणयासिणिटाणातो मंगलं चननपरितनाः पर्वगताः पञ्चदश प्रक्तिप्यन्ते, जातानि प्रयोदश
वीसणं सतेणं छेत्ता वत्तीसं जागे नबातिणावेत्ता, एत्व शतानि पञ्चोत्तराणि १३.५ । तेषां द्वाषटचा भागो हियते, लब्धा एकविंशतिः, सा त्यज्यते, शेषास्तिष्ठन्ति प्रयः, ते
बच्चं चंदे पुएिणमासिणि जोएति। ता एतेसि पंचण्ड एकषष्टया पुण्यन्ते, जातं इयशीत्याधिकं शतम १०३ । तस्य | संवच्चराण वाससम पुएिणमासाण चद कास दसास
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(१७८१) अभिधानगजेन्द्रः ।
एक्खत्त
जोति । ता जंसि णं देसंसि चंदे तच्चं पुमिमासिणि जोएति, ताते पुसिमासिणिट्ठाणातो मंडलं चउच्चीसेणं तेगं बेता दोसि अधासीते भागसते जवातिणावेत्ता एत्य णं से चंदे दुवालसमं पुसिमासिणि जोएति । एवं खलु तेवार ताते पुसिमासिणिहालातो मंगलं चउन्चीसेणं सतेणं छेत्ता दुवत्तीसं पुत्रतीसं भागे उवातिणावेत्ता तंसि तंसि देसंसि तं तं पुरणमासिणिं चंदे जोएति । ता एतेसि एं पंच एवं संच्चराणं चरमं वावडिं पुष्पिमासिणि चंदे कंसि देसि जोएति ?। ता जंबुद्दीवस्स णं दीवस्स पाई
मायतनदीदा हिणाऽऽयताए जीवाए मंडलं चाणं सतां बेत्ता दाहिणिवांस चन्नागमं मांस सत्तावीसं च भागे जवातिणावेत्ता अट्ठावीसति जागं बीसहा बेत्ता अावीसतिजागे उवाविद्यावेत्ता तिहिं जागेि दोहि य कलाहिं पञ्चच्छिमि चनजागमं मक्षं असंपत्ते एत्य णं से चंदे चरिमं वावहिं पुसिमासिटिंग जोएति । ता एतेसि णं पंच एवं संच्चराणं पढमं पुलिमासिरिंग सूरे कंसि देसंसि जोएति ? । ता जंसि णं देसंसि सूरे चार वा
पुलिमामिरिंग जोएति, ताते पुणिमासिणिद्वाणातो मंमनं चव्वीसेणं सतें बेता चउनविभागे उवातिणाबेना एत्थ गं से सूरे पढमं पुमिमासिणि जोए । ता एतोस गं पंच एवं संवच्चराणां दोघं पुसिमासिणि सूरे कंसि देसंसि जो एति । ता जंसि एं दे संसि सूरे पढमं पुमिपासिणि जोए, तावे पुछिमा सिणिपातो मंगलं चउव्वीसेणं सतें बेत्ता चटणउतिजागे जत्रातिणावेता एत्य णं से सूरे दोघं पुसिमासिणि जोएति । ता एतेसि णं पंच रहं संवच्छरणं तवं पुष्पिमासिणि सूरे कंसि देसंसि जोति ? । ता जंसि णं देसंसि सूरे दो पुछिमासिणि जोएति, ताते पुष्ि मासिणिहाणातो मंडलं चनन्त्रीसेणं सतेणं बेत्ता चटएतिभागे उवातिणावेत्ता एत्थ एां से सूरे तच्चं पुलिमासिरिंग जोएति । ता एतेमि णं पंचएहं संवच्चराणं दुबालसहूं पुष्णिमासिणि सूरे कंसि देसंसि जोएति ? । ता जंसि णं देसंखि सूरे तच्चं पुश्मिमासिणि जोएति, तानेपुमासािणातो मंमनं चउच्चीसेणं सतेां छेत्ता भट्ठवत्चाले भागसते उवातिणावेत्ता एत्य णं से मूरे बालममं पुलिपासिणि जोरति । एवं खलु एतेएवाएवं ताने २ पुसमा सिणिहाणातो मंगलं चनन्त्रीसेणं सतेणं बेत्ता चरणनतिचउरा उतिजागे उबातिणावेना तंसि तंसि देसंसि तं तं पुछिपासिणि सूरे जोयं जोएति । ता एतेसि णं पंचरहं संबच्छराणं चरिमं बावहिं पुलिमासिद्धिं सूरे कंसि देसंसि जोएति ? |
४४६
For Private
एव खत्त
ता जंबुद्दीवस णं दीवस पाईएपडीलाऽऽयतनदी दाहि यता जीवाए मंगलं चउन्न्रीसेणं सतेां बेत्ता पुरच्छिमसि चउनागमंमलंसि सतावीसजागे उवातिणावेत्ता श्रधात्रीसतिजागं बीसघा बेत्ता अट्ठारसभागे उत्रातिणावेत्ता तिहिं भागेहिं दोहि य कलाहिं दाहिचिउनागमंगलं असंपत्ते एत्य णं से सूरे चरिमं वावहिं पुप्रमासि जोएति ।
ता एतेसिणं पंच एवं संवच्छराणं पढमं अमावासं चंदे कंसि देसंसि जोएति । ता जंसि णं देसंसि चंद्रे चरिमं वात्रहिं - मात्रासंजोएति, ताते अमावासहाणातो मंडलं चब्बीसे सतेणं छेत्ता दुवतीसं भागे उनातिगावेत्ता एत्य एां से चंदे पद अमावासं जोएति । एवं जेणेव अभिलावेणं चंदस्त पुलिमासिणीय भणिताओ, तेणेव अजिला वेणं - मावासाओ जपितन्त्राओ । तं जहा वितिया, ततिया, 5बालसमी । एवं खलु एतेणुवारणं ताने २ अमावासहालातो मंगलं चउन्नीसेणं सतेणं बेत्ता तीसं दुतीसं भागे उवातिणावेत्ता तंसि तंसि देसंसि तं तं अमावासं चंदे जोएति । ता एतेसि णं पंचहूं संवराणं चरमं बाहिं अमावासं चंदे कंसि देसंसि जोएति ? । ता जंसि णं देसंसि चंदे चरिमं बावहिं पुमिमासिरिंग जोएति, ताते पुमिमासिणिद्वाणातो मंगलं चब्बीसेणं सतेणं लेता सोलसभा कावइत्ता एत्य णं से चंदे चरिमं वावहिं अमावासं जोएति । ता एतेनि एं पंचहूं संवच्छराणं पढमं अमावामं सूरे कंसि देसंसि जो एति १ । ता जंसि णं देसंसि सूरे चरिमं वावहिं अमावासं जो एति, ताते अमावासहाणतो मंद चवीसे सतेणं बेत्ता चउपजवि जागे जवातिला वेत्ता एत्य पं से सूरे पढमं श्रमावा जोएति । एवं जेणेव अनिलावेणं सूरस्त पुष्पिमासिणीओ, तेखेत्र अमावासावि । तं जहा - वितिया, ततिया, दुवालसमी । एवं खलु एतेणुवागुणं ताते अमावासद्वाणातो मंडलं चब्बीसेणं सरणं बेता चरणउतिचरणउतिजागे उवातिरण । वेत्ता तंसि तंसि देसंसि तं तं अमावासं सूरे जोएति । ता एतेसि णं पंचहं संच्छरणं चरिमं वावहिं अमावासं सूरे कंसि देसंसि जोएति । ता जंसि णं देसंसि सूरे चरिमं बाि अमावासं जोएति, ताते पुसिमासिपिद्वाणातो मंडले चन्वसेयं सतेणं बेत्ता सत्तालीसं भागे प्रोसकावइत्ता एत्थ णं से सूरे चरिमं वादहिं अपात्रामं जोएति ।
ता एतेसि णं पंच एवं संच्चराणं पढमं पुरिणमा सिणि चंदे के एक्खत्तेणं जोएति ।। ता पणिद्वाहिं, घणिडाएं
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(१७७२) मक्खत्त अभिधानराजेन्छः ।
याक्खत्त तिलि मुहत्ता, एगृणवीसं च वावहिभागा मुहत्तस्स, वा
परिसमापयति ?। भगवानाह-(ता जंबुद्दीबस्स णं दीयस्स
इत्यादि)'ता' इति पूर्ववत् । जम्वृद्धापत्य, णमिति बा. वहिजागं च सत्तहिहा नेत्ता पम्पहिचुप्रियाभागा सेसा ।
क्यासकारे । द्वीपस्योपरि प्राचीनापाची नाऽऽयतया, प्राचीन "तत्य स्खलु" इत्यादि । तत्र युगे बलु मा वक्ष्यमाणस्व
नग्रहणेनोचरपूर्वा गृह्यते,अपाचीनग्रहणेन दक्षिणापरा । ततोsपाः द्वापतिः पौर्णमास्यो,जाष्टिरमावास्याः प्राप्ताः । एवमुक्ते भगवान गौतमः पृच्छति-" ता" इत्यादि । 'ता' इति । तत्र युगे
यमर्थः पूर्वोत्तरदक्षिणापराऽऽयतया पबमुदीच्यदक्षिणाऽऽयतया,
पूर्वदक्षिणोत्तरापराऽऽयतया जीवया प्रत्यश्चया, दबरिकया इ. एतेषामनन्तरादितान चडाउदीमा पञ्चानां संवत्सराणां मध्ये प्रथमां पौर्णमासी चन्द्रः कस्मिन् देशे युनाक परिसमापयति ।
त्यर्थः। मण्डलं चतुर्विशेन शतेन चतुर्विशत्यधिकेन शतेन नि
खा विभज्य, भूयश्चतुनिर्विभज्यते । ततो दाक्षिणात्ये चतुनाभमवानाह-"ता अंसि णं " इत्यादि । तत्र यस्मिन् देशे
गमएमसे एकत्रिंशद्भागप्रमाणे सप्तविंशतिभागानुपादायाशचन्मश्वरमां पाश्चात्ययुगपर्यन्तवर्तिनी द्वाषाष्टितमा पौर्णमासी
विशतितमं च भागं त्रिशतिधा विषा, तहतानविंशतिभायुनक्ति परिसमापयति,तस्मात् पौर्णमासीस्थानावरमहापाष्टितम
गानुपादाय शेलिभिन गैश्चतुर्थस्थ भागस्व द्वाज्यां कलापौर्णमासीपरिसमाप्तिस्थानात् परतो मएडझं चतुर्विशत्याधिकेन
ज्यां पावाल्यश्चतु गमएफसमसंप्राप्तोऽस्मिन् प्रदेशे चन्छो शतेन निषा विभज्य, तातान् द्वात्रिंशद्भागानुपादाय गृहीत्वा,
द्वापतिमा घरमां पौर्णमासी परिसमापयति । तदेवं चकभत्र द्वात्रिंशद्भागरूपे देशे चकः प्रथमां पौर्णमासी युनक्ति
स्व पौर्णमासीपरिसमाप्तिदेश लक्तः। परिसमापयति । भूयः प्रभं करोति-"ता एतोसणं" इत्यादि। "ता" इति । तत्र युगे पतेषामनन्तरोदितानां पशानां संवत्स- संप्रति सूर्यस्य पौर्णमासीपरिसमाप्तिदेशं प्रतिपिपादयिराणां मध्ये या द्वितीया पौर्णमासी, तां सन्कः कस्मिन् देशे पुस्तहिषयं प्रभसत्रमाद-( ता पतेसि जे इत्यादि ) परिसमापयति ?। जगयानाह-"ता जंसि गं" इत्यादि। 'ता' इति । तत्र युगे एतेषामनन्तरोदितानां पञ्चातत्र यस्मिन् देशे चन्छःप्रथमां पौर्णमासी युनक्ति परिसमापय. नां संवत्सराणां मध्ये प्रथमां पौर्णमासी सूर्यः कस्मिन् ति,तस्मात् पौर्णमासीस्थानात प्रथमपौर्णमासीपरिसमाप्तिस्था- देशे स्थितः सन् युनक्ति-परिसमापयति ? । नगवानादनात् परतो मरमलं चतुर्विंशत्यधिकेन शतेन हिरवा तातान् । (ता जंसि णं इत्यादि) तत्र यस्मिन् देशे खितः सन् सूर्वछात्रिंशद्भागानुपादायात्र प्रदेशेस चम्लो द्वितीयां पौर्णमासी श्वरमां पाश्चात्ययुगवर्तिनी द्वापष्टितमां पौर्णमासी युनक्तिपरिसमापयति । एवं तृतीयपौर्णमासीविषयमपि सूत्रं व्याख्ये. परिसमापयति, तस्मात् पौर्णमासीस्थानात घरमवाषष्टितमयम् । एवं हादशपौर्णमासीविषयमपि। नवरं (दोष्ठि भट्ठासीते पौर्णमासीपरिसमाप्तिनिबन्धनात स्थानात परतो ममलं च. भागसते सि) तृतीयस्याः पौर्णमास्याः परतो द्वादशी किस तुविशत्यधिकेन शतेन छित्त्वा विभज्य, तकतान् चतुर्नवतित्रापौर्णमासी नवमी नवति, ततो नवनिर्वात्रिंशतो गुणने के गान् उपादाय,अत्र प्रदेशे सूर्यः प्रथमां पौर्णमासी परिसमापयशतेऽधाशीत्यधिके प्रवतः २८८। संप्रत्यातिदेशमाह-"पवं समु" ति। किमत्र कारणमिति चेत् ?, उच्यते-इह परिपूर्णेषु त्रिशद. इत्यादि । पचमुक्तेन प्रकारण बनु निश्चितमेतमानन्तरोदितेनोपा- होरात्रेषु परिसमाप्तेषु सत्सु स एव सूर्यस्तमिव देश येन यां पौर्णमासी यत्र यत्र देशे परिसमापयति तस्याः तम्याः पौ. बर्तमानः प्राप्यते, न कतिपयन्नागन्यनेषु : पौर्णमासी च च. णमास्यास्ततोऽनन्तरांपर्णिमासी तस्मातस्मात् पाश्चात्वपाश्चा- समासपर्यम्ते परिसमाप्तिमुपैति । चन्द्रमासस्य च परिमाणत्यपौर्णमासीपरिसमाप्तिस्थानाद् मपम चतुर्विशत्यधिकेन श. मेकोनत्रिंशवहोरात्राः, एकस्य चाहोरात्रस्य द्वात्रिंशत् द्वापतेन विवापरतस्तमतान् द्वात्रिंशद्वाशतं नागानुपादाय त- हिभागाः । ततशित्तमेऽहोरात्रे द्वात्रिंशति द्वापष्टिनागेषु स्मिन् तस्मिन् देशे तां तां पौर्णमासी चकः परिसमापयति । स गतेषु सूर्यश्वरमद्वापष्टितमपौर्णमासीपरिसमाप्तिनिवन्धनात् चैव परिसमापयंस्तावद्वेदितव्यो, यावद भूयोऽपि चरमां द्वापष्टिं सानात् चतुर्मवती चतुर्विंशत्यधिकशतनागेष्वतिकान्तेषु प्र. पौर्णमासी तस्मिन् देशे परिसमापति,यस्मिन् देशे पाश्चात्ययुगे थमां पौर्णमासी परिसमापयन्नवाप्यते । किमुक्तं प्रवति-त्रिचरमांद्वाषष्टि पौर्णमासी परिसमापितवान् । कथमतदवसी- शता भागैस्तमेव देशमप्राप्तः सन्नचाप्यते, त्रिंशतो द्वारयते?,इति चेत्।उच्यते-गणितक्रमवशात्।तथाहि पाश्चात्ययुगे| हिभागानामहोरात्रसत्कानामद्यापि स्थितत्वात् । पूर्वः प्रमयचरमद्वाषष्टितमपौर्णमासीपरिसमाप्तिस्थानात् परतो मण्डल- ति-(ता पतेसि णमित्यादि)'ता' इति । तत्र युगे पतेषां स्य चतुर्विंशत्यधिकशतप्रविभक्तस्य सत्कानां द्वात्रिंशतो भागा
पशानां संवत्सराणां मध्ये द्वितीयां पौर्णमासी सूर्यः कस्मिन् नामतिक्रमे तस्यास्तस्याः पौर्णमास्याः परिसमाप्तिः, द्वापाष्टश्च | देशे स्थितः सन् युनक्ति-परिसमापयति ।। भगवानाहसर्वसंख्यया युगे पौर्णमास्यः। ततो हात्रिंशद्वापष्टया गुएयते, (ताजंसि णमित्यादि)'ता' इति । तत्र यस्मिन् देशे स्थिजाताम्येकोनविंशतिशतानि चतुरशीत्याधिकानि १९८४ । तेषां तः सन् सूर्यः प्रथमां पौर्णमासी परिसमापयति, तस्मात् चतुर्विशत्यधिकेन शतेन नागो हियते, लब्धाः षोमश सकलम- पौर्णमासीस्थानात प्रथमपौर्णमासीपरिसमाप्तिनिवन्धनात् स्था। एमलपरावर्ताः, समस्तस्यापि च राशनिलेपीभवनादागतं-य
नात् परतो मण्मलं चतुर्विशत्यधिकेन शतेन लिखा तास्मिन् देशे पाश्चात्ययुगसंबन्धिचरमद्वापष्टितमपौर्णमासीपरिस.
तान् चतुर्नवतिभागान् उपादाय अत्र देशे स्थितः मन् सूर्यो माप्तिः तस्मिन्नेव देशे विवक्तिस्यापि च युगस्य घरमद्वाषधि
द्वितीयां पौर्णमासी परिसमापयति । एवं तृतीयपौर्णमासीवितमपौर्णमासीपरिसमाप्तिः। संप्रति चरमप्राष्टितमपौर्यमासी
षयमपि सूत्रं वक्तव्यम् । एवं द्वादशौर्णमासीविषयमपि। परिसमातिदेशं पृच्छति-"ता पतेसि गं" इत्यादि । 'ता' इति
नवरं (मट्टचत्ताले भागसते ति) तृतीयस्याः पौर्णमास्याः प. पूर्ववत् । तत्रयुगे पतेषामनन्तरोदितानां पचानां संवत्सराणां
रतो द्वादशी किन्न पौर्णमासी नवमी,ततश्चतुर्नवतिर्नबभिर्गुपवते, मध्ये चरमा बाधितमा पौर्णमासी चकः कस्मिन् देशे युनक्ति
जाताम्यष्टौ शतानि षट्चत्वारिंशुदधिकानि ८४६ । संप्रति शेष
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(१७७२) गक्खत्त प्रनिधानराजेन्दः ।
णक्खत्त पौर्णमासीविषयमतिदेशमाह-(पवं सक्षु इत्यादि) एवमुक्तेन प्र- वासं कसि देसास जोपा ?ता जसि देसंसि बंदे पढम कारण,बइ निश्चिाम,पतेनानन्तरोदितेनोपायेन यां यां पौर्णमा- अमावासं जोएक, बायो अमावासटाणामो ममलंबउन्धीसेसी यत्र बत्र देशे परिसमापयति,तस्यास्तस्याः पौर्णमास्यास्तां णं सपणं कित्ता दुवतीसं मागे उपातिणावेत्ता एत्य पं से तामनन्तरामनन्तरां पौर्णमाप्ती तस्मात तस्मात् पाश्चात्यपाभा- चंदे तथं प्रमावासं जोपर । ता पतमि णं पंचपहं संवचरण स्यपौर्णमासपिरिसमाप्तिीनवन्धनात स्थानाद्मएमलं चतुर्विश. दुषालसमं प्रमावासं चंदे कसि देसंसि जोपा ? । ता अंसि गं त्यधिकेन शतेन निषा परतस्तद्गतान् चतुर्नवतिचतुर्नवतिभा- देसंसि चंदे त प्रमाषासं जोएक, तामीण अमावासद्वानाओ गानुपादाब तस्मिन तस्मिन् देशे सितः सन् सूर्यस्तां तां मंडलं चउम्धीसेणं सपकं रेता दोनि अट्ठासीए नागसए पौर्णमासी परिसमापवति । स चैवं परिसमापयन् तावद उवातिणावेत्ता पत्य सं चंदे दुवालसमं अमावासं जोए।" वेदितव्यो यावद भूयोऽपि वरमां द्वाषष्टितमां पौर्णमासी संप्रति शेषासु ममावास्यास्वतिदेशमाह-"एवं बलु" इत्यादि। तस्मिन् देशे परिसमापयति बस्मिन् देशे पानात्ययुगसंब. एतत् प्राग्वद् व्याव्येयम । संप्रति चरमद्वापष्टितमामावास्याधिनी चरमां द्वापष्टितमा पौर्णमासी परिसमापितवान् । परिसमाप्तिनिवन्धनं देशं पृच्छति-"ता पतसि गं" इत्यादि एतच्चावसीयते गणितक्रमवशात् । तथाहि-पाश्चात्ययुग- सुगमम् । भगवानाह-(ता जासे णमित्यादि) तत्र यस्मिन् चरमद्वापतिमपौर्णमासीपरिसमाप्तिनिवन्धनात् स्थानात
देशे स्थितः सन्चको द्वापष्ठितमा चरमां पौर्णमासी युनक्ति परतो मामलस्य चतुर्विशत्यधिकशतप्रविभक्तस्य सत्कानां परिसमापवति, तस्मात् पौर्णमासीस्थानात-पौर्णमासीपरिचतुर्नवतिनागानामतिक्रमे तस्याः तस्याः पौर्णमास्याः परि- समाप्तिस्थानात मण्डलं चतुरिंशत्यधिकेन शतेन निस्वा समाप्तिः, ततश्चतुर्नवतिहापटचा गुण्यते, जाताम्बाप- वित्रज्य पूर्व घामशभागानववक्य । चरमा हि द्वापष्टितमा शाशच्छतानि भष्टाविंशत्यधिकानि ५८२८ । तेषां चतुर्वि. अमावास्था चरमद्वापष्टितमपौर्णमास्याः पकेण पश्चात्पकेण शत्यधिकेन शतेन भागो हियते, सधाः सप्तचत्वारिंशत् स. च विवक्षितप्रदेशात पोमभिश्चतुर्विज्ञास्यधिकशतनागैः परतः कलमएरलपरावाः । न च तैः प्रयोजनं, केव राशनिपी- प्ररुप्यते, मासने द्वात्रिंशता प्रागैः परतो वर्तमानस्य भवनादागतं-यस्मिन् देशे स्थितः सन् पाश्चात्ययुगसंवन्धि- लभ्यमानत्वात्। ततः षोमशभागान् पूर्वमवध्वक्येत्युक्तम् । चरमद्वापष्टितमपौर्णमासीपरिसमापकः, तस्मिनच देशे विष- अत्रास्मिन् प्रदेशे खितः सन् चन्चरमा द्वापछितमाममावाकितस्यापि युगस्य चरमांद्वापष्टितमां पौर्णमासौं परिसमा- स्यां परिसमापयति । संप्रति सूर्यस्यामावास्यापरिसमाप्तिपयतीति । संग्रति चरमहापाष्टितमपौर्णमासीपरिसमाप्तिनिव- निबन्धनं देशं पिपृच्छिषुराह-(ता पतोस पमित्यादि) पत. धनं देशं पृच्छति-"ता एतोस खं" इत्यादि सुगमम् । भगवाना- स्वाग्वदू ब्यास्ययम । (एपमित्यादि) एवमुक्तेन प्रकारेण येनेह-"ता जंबुद्दषिस्स गं" इत्यादि । ता' इति पूर्वधन् । जम्बूद्वीप. चाभिलापेन सूर्यस्य पौर्णमास्य उका, तेनैवाभिलापनामावास्था स्य दीपस्य प्राचीनापाचीनाऽऽयतया, अत्रापि प्राचीनग्रहलेनो- अपि वक्तव्याः । तद्यथा-द्वितीया, तृतीया, द्वादशी च । ता. तरपूर्वी दिग् गृह्यते। अपाचीनग्रहणेन दकिणाऽपरा। ततोऽय. वम-पतोस णं पंचएहं संवच्चारणं दो अमावासं सूरे मर्थः-उत्तरपूर्वदविनापराऽऽयतया, एवमुदीच्यदाकणाऽऽवत- कंसि देससि जोए ?। ता जंसि णं देससि सूरिए पढम प्र. वा, उत्तरापरदक्षिणपूर्वाऽऽयतया जीवया दबरिकथा, मएमतं
मावासं जोएड, तामो अमावासहाणाम्रो मंमलं चउम्बासेणं चतुर्विशत्यधिकेन शतेन छिपवा विभज्य भूयश्चतुर्भिक्त्वा सपणं नेता चउणउभागे सबाणावेत्ता पत्थ णं से सूरे (पुरस्तिमिजास ति) पूर्वदिग्वर्तिनि चतुर्भागमयमले एक- दो अमावासं जोएड । ता पतेसि णं पंचपहं संवचराणं त्रिंशतभागप्रमाणे सप्तविंशतिभागानुपादाबाहाविंशतितमं च तथं अमावासं सूरे कसि देससि जोपड़ता अंसि गं देसंसि नाग विशतिधा निश्वा ततानष्टादशभागानुपादाब शेर- दो अमावासं जोपर, तानो णं प्रमावासहायानो मंरखंच. निभिर्मागैश्चतुर्यस्थ च भागस्य हान्यां कलाभ्यां विंशति- सब्बीसेणं सपण छेत्ता चउणडश्भागे उबातिवावेत्ता तम्च तमाश्यामित्यर्थः । दाक्षिणात्यचतुर्जागमफलमसंप्राप्तः सनत्र अमावासं जोए । ता एपसिणं पंचण्हं संबच्चराणं दुवालसं प्रदेश स सूर्यश्वरमां द्वाष्टितमां पौर्णमासी परिसमापबति ।। अमावासं सूरेकसि देसास जोपहता जांस गं देसंसि सूरे तदेवं सूचनमसोः पौर्णमासीपरिसमाप्तिदेश उक्तः । तचं अमावासं जोए, तामो प्रमावासट्ठाग्यानो झरनं संप्रति तमोरेवामावास्यापारसमाप्तिदशं प्रतिपिपादयिषुः प्रथ- बउबीसेणं संपणं नेता प्रकृताले भागसप ग्वातिणावेत्ता मतः बकविषयं प्रभसूत्रमार-(ता पतेसि समित्यादि) तत्र
पत्वणं से सूरे वाससमं अमावासं जोश ।" संप्रति शे. बुगे एतेषामनन्तरोदितानां पञ्चानां संवत्सराणां मध्ये प्रथ- पास्थमावास्यासु अतिदेशमाह-(एवं बलिखत्यादि) एतत् प्रा. माममावास्था चन्छः कस्मिन् देशे स्थितः परिसमापयति ।। ग्वद ग्यास्येवम् । संप्रति बरमद्वापष्टितमामावास्थापरिसमाजगवानाह-(ताजास शामित्वादि)ता पस्मिन् देशे स्थितः
तिनिबन्धनं देशं पृच्चति-"ता पतेसि जं"श्त्यादि सुगमम । सन् चरचरमां द्वापार्ट हापष्टितमाममावास्या परिसमापव- भगवानाह-(ता जसि णमित्यादि ) यस्मिन् देशे स्थितः ति, ततोऽमावास्याखानादमावास्यापरिसमाप्तिस्थानात, पर- सन् सूर्यभरमां द्वापष्टितमाममावास्यां परिसमापयति, त. तो मएमसं चतुर्विशत्यधिकेन शतेन निरखा तदता द्वात्रि- स्मात पौर्णमासीस्थानात पौर्णमासीपरिसमाप्तिनिवन्धनाद शतं भागान् उपादाबात्र प्रदशे स चन्द्रः प्रथमाममावास्यां -
देशात मलं चतुर्विमत्याधिकेन शतेन विस्था विभण्यारिसमापयति । (एचमित्यादि) पवमुक्केन प्रकारेण वा
कि सप्तचत्वारिंशतं जागानवष्यमय अत्र प्रदेशे स्थितः जिलापेन चस्व पौर्णमास्यो भणिताः, तेनवाभिमापेनामावा.
सन् सर्यश्वरमां द्वापष्टितमाममावास्यां युनक्ति परिसमापयति । स्या अपि भाणितव्याः । तपथा-दितीया, तृतीया, द्वादशी। भय का पौर्णमासी केन नक्षत्रेण युक्तचन्छः सूबों वा परिताश्व म्-" ता एतेसि गं पंचराहं संबवराणां दो प्रमा- समापवति, इति प्राटुकाम माह-(ता पतेसि समित्यादि)
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(१७८४) गक्खत्त अनिधानराजेन्डः।
पाक्खत्त 'ता' ति । तत्र युगे पतेषामनन्तरोदितानां पचानां संब- अष्टात्रिंश हापष्टिभागा मुहूर्नस्य, एकं च धाष्टिभागं सप्त. सराणां मध्ये प्रथमां पौर्णमासी चन्छः । उपसकणमेतत्-सयों षष्टिधा विश्वा तस्य सत्काः द्वात्रिंशत्रुणिकाभागाः शेषाः । बा; केन नक्षत्रेण सह योगमुपागतः सन् युनक्ति-परिसमाप- तथाहि-स एव षट्पटिर्मुर्साः , एकस्य च मुहूर्तस्य पञ्च वाय. यति ?। भगवानाह-(ता धणिहार्दि इत्यादि) 'ता' इति।। हिभागाः, पकस्य च धापष्टिनागस्य एकः सप्तषष्टिभाग इत्येवंप्र. नत्र तेषां पश्चानां संवत्सराणां मध्ये प्रथमा पौर्णमासी चन्द्र: माणो ध्रुवराशिर्धियते ६६५।। धृत्वा च एकेन गुण्यंत, एकेन परिसमापयति धनिष्ठाभिः, धनिष्ठानक्षत्रस्य पश्चतारत्वात् च गुणितं तदेव भयति' इति तावानेव जातः,ततस्तस्मात् पुष्यतदपेक्षया बहुवचनम् । अन्यथा त्वेकवचनं कटव्यम् । तासां शोधनकमेकोनविंशतिर्मुदूर्ताः, एकस्य च मुहूर्तस्य त्रिचत्वाच धनिष्ठानां त्रयो मुहूर्ताः, एकस्य च मुहूर्तस्य एकोनविंशति- रिंशद् द्वापष्टिभागाः,एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य त्रयस्त्रिंशत्सप्त
पपिजागाः,पकं च द्वाषष्टिभाग सप्तपष्टिधा छित्त्वा पञ्चषष्टि- पष्टिजागाः १९४३३३३॥ इत्येवंप्रमाणं शोध्यते। अथैतावत्प्रमागाचूर्णिकाभागाः शेषाः । तथाहि-पौर्णमासीविषयस्य चन्छ- स्य पुष्यशोधनकस्य कथमुत्पत्तिरिति ? उच्यते-इह पूर्वयुगरनक्कत्रयोगस्य परिकानार्थ करणं प्रागेवोक्तं,तत्र षट्पष्टिर्मुहर्ताः, रिसमाप्तिवेलायां पुष्यस्य प्रयोविंशतिः सप्तषष्टिभागाः परिएकस्य च मुहूर्तस्य पञ्चद्वापष्टिजागा,एकस्य च द्वाषष्टिनागस्य समाप्ताः, चत्वारिंशदवतिष्ठते । ततस्ते चतुश्चत्वारिंशत्सप्तएक सप्ताप भागः ६६। हत्येवरूपो ध्रुवराशिधियते धृत्वा पटिभागा मुहर्तकरणार्थ त्रिंशता गुपयम्ते, जातानि प्रयोभ प्रथमायां पौर्णमास्यां वनक्षत्रयोगो कातुमिष्ट इत्ये केन गु. दश शतानि विशत्यधिकानि १३२० । तेषां सप्तपश्या रयते. एकेन गुणितं तदेव जवति' इति तावानेव जातः.तस्माद. जागो हियते, लब्धा एकोनविंशतिमहतीः । शेषास्तिष्ठन्ति निजितो नव मुहताः। एकस्य च मुहूर्तस्य चतुशितिषिष्टिभा- सप्तवत्वारिंशत् ४७ ते दापष्टिभागाऽऽनयनाथ द्वापटचा गुगा,एकस्य च द्वाषाभागस्य षट्पष्टिः सप्तपष्टिनागाः इत्येवंप्र. पयन्ते, जातानि एकोनत्रिशच्छतानि चतुर्दशोत्तराणि २६१४। माणं शोधनकं शोध्यते । तत्र षट्पटे व मुहूर्ताः शुकाः, स्थिताः तेषां सप्तपष्टया भागो हियते, लब्धानिचत्वारिंशद्वाषटिभागाः पश्चात् सप्तपश्चाशत, तेभ्य एको मुत्तों गृहीत्वा द्वापष्टिभागी- । एकस्य च द्वापष्टिभागस्य त्रयस्त्रिंशत्सप्तप्टिभागाः ।। कृतः, ते च वाष्टिरपि नागा द्वाष्टिभागराशौ पञ्चकरूपे प्रक्ति- एतद् ध्रुवराशेः शोभ्यते । तद्यथा-पट्पष्टिमुहर्तेभ्य एकोनप्यन्ते, जाताः सप्तषष्टिषष्टिभागाः, तेभ्यश्चतुर्विशतिः शुकाः, विशतिमुहर्ताः शुद्धाः, स्थिताः पश्चात्सप्तचत्वारिंशत, तेभ्य स्थिताः पश्चात त्रिचत्वारिंशत,तेज्य एक रूपमादाय सप्तष्टिना- एको मुहतों गृह्यते, स्थिताः षट्चत्वारिंशत् गृहीतम्य च गाः क्रियन्ते । ते च सप्ततिरपि भागाः सप्तपष्टिभागैकमध्ये प्र- | मुहर्तस्य द्वार्षाष्टजागान् कृत्वा द्वाणिभानराशा पञ्चक रूप विष्यन्ते, जाता अष्टषष्टिः सप्तपापभागाः। तेभ्यः षट्पष्ठिः शुद्धा, प्रक्लिप्यन्ते, जाता द्वाषष्टिभागाः सतषष्टिः, तेयास्त्रचत्वारिस्थितौ दो पश्चात्सप्तपटिभागौ, सतविंशता मुहः श्रवणः शन शोध्यन्ते, स्थिताः पश्चाश्चतुशितिः, तेज्य एक रूपमुशुःखिताः पश्चान्नुहूर्ताः पदिशतिः। तत इदमागतम्-धनिष्ठान- पादीयते, जाता प्रयोविंशतिः, गृहीतस्य न रूपस्य सप्तसक्षत्रस्य त्रिषु मुसवेकस्य च मुहूर्तस्य एकोनविंशनिसंख्येषु । एिभागाः क्रियन्ते, कृत्वा न सप्तपप्रिभागेकमध्ये प्रतिमन्ते, द्वापष्टिनागेवेकम्य च द्वापनिागस्य पञ्चषष्टिसंख्येषु स- जाना अष्टषष्टिः सप्तष्टिनागाः। यत्रयस्त्रिंशत् शुद्धाः,स्थिताः साधनागेषु शेषेषु प्रथमपौर्णमासी परिसमाप्तिमुपयाति । पञ्चत्रिंशत् । ततः पञ्चदशनिमहतैश्लेषा, त्रिंशता च मुहुनैसंप्रति सूर्यनक्षत्रयोगं पृच्छन्नाह
मघाः शुझा, स्थितः पश्चादेको मुहूर्तः, एकस्य च मुहने.
स्य प्रयोविंशतिषष्टिभागाः। एकस्य च द्वापटिनागस्य प. तं समयं च णं सूरे केणं णखत्तेणं जोपति ? ता पू-| चत्रिशरसप्तपाष्टभागाः १।३३। तत श्रागत पूर्वाफाल्गु. वाहि फग्गुणीहिं अट्ठावीसं मुहुत्ता, अट्टतीसं च वानटि- नीनवस्याटाविंशतो मुहर्तेषु एकस्य च मुहर्नस्यात्रिंशत जागा मुहुत्तस्स, वावहिनामंच सत्तध्धिा छेत्ता दुबत्तीस
द्वाषष्टिभागस्य द्वात्रिंशति सप्तषष्टिभागेपु शेषेषु मूर्यः प्रथमां मेंचुमियाजागा मेसा । ता एतेसि एं पंचएहं संबच्छराणं
णमासी परिसमापयति । एते न सूर्य मुहता एवं तश्च मू.
यमुहविंशता त्रयोदश रात्रिन्दिवानि, एकस्य प्रगधिन्दिदाचं पुहिमासिणि चंदे केणं णवत्तेणं जोएति । ता
वस्य द्वादश व्यावहारिका मुहूर्ता भवन्ति । तत पनदनुमाउत्तराहिं पोहवताहि, उत्तगणं पाहवताणं सत्तावीसं रेण गतेकदिवसभागगणना, शेषस्थितदिवसगणना च पूर्वामुलुत्ता, चोइस य बावडिभागे मुहुत्तस्स, बावटिभागं च फाल्गुनी नक्षत्रस्य स्वयं कर्तव्या। एवमुत्तरसूत्रेवपि सूर्य नक्ष.
अयोगे परिभावनीयम"ता पतेसिणं" इत्यादि प्रश्नसूत्र मु. सत्तद्विधा छेत्ता च उसाहिचुमियाजागा सेसा ।
गमम । भगवानाह-(ता उत्तराहि इत्यादि)'ता' इति पूर्व(नं समय च णमित्यादि) तं समयमित्यत्र “काला. बत्। उत्तराभ्यां प्रोष्ठपदाभ्याम. अत्रापि द्विवचनम, उत्तराप्रोष्टविनोव्यांनी " ॥२।२।४२॥ इत्यधिकरणत्वेऽपि द्वितीया । पदानकत्रम्य हितारकत्वात, बहुवचनं च सूत्रे प्राकृनत्वात्। ततोऽयमर्थः तस्मिन् समये, यस्मिन् समये धनिष्ठा नक्षत्र उत्तरयोश्च प्रोष्ठपदयोः सप्तविंशतिमहताः, चतुर्दश च द्वापचन्प्रेण युक्तं यथोक्तविशेषं परिसमापयति, तस्मिन् कणे धिनागा मुहूर्तस्य, पकं च द्वापष्टिनागं सप्तषष्टिधा लि. इत्यर्थः । सूर्यः केन नत्रेण युक्तः सन् तां प्रथमां पौर्णमासी स्वा तस्य सत्काश्चतस्पष्टिश्चाणकाभागाः शेषाः । तथाहिपरिसमापयति । भगवानाह-" ता पुवारि " इत्यादि । म एव ध्रुवराशिः ६६ । । ।१ दिनीयपोर्णमासीचिन्तायां 'ता इति । तदा पूर्वांच्या फाल्गुनीन्यां, पूर्वाफाल्गुनी नक्षत्रस्य द्वाभ्यां गुल्यते, मुहूर्तानां जातं द्वात्रिंशतं शतम् १३२। ए. द्वितारस्वात्तदपेकया दिर्वचनम् । द्विवंचने व प्राप्तं प्राकृते कस्य च मुहूर्तस्य दश द्वापष्टिभागाः १० । एकस्य च द्वापबहुवचनम् । तयोश्च पूर्वाफाल्गुन्योस्तदानीमयाविंशतिहः , हिभागस्य द्वी सप्तपष्टिनांगौ २, ततः पूर्वरीत्या अनिजितो
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( १७८५) अभिधान राजेन्द्रः ।
गाक्खत्त
"
म मुहूर्ताः कस्य च मुहूर्तस्य चतुर्दशतिभागाः एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य सत्काः षट्षष्टिः सप्तषष्टिभागाः शोध्यम्ले जातं द्वाविंशं शतं मुहूर्तानाम पकस्य च मुहूर्तस्य स प्रवत्वारिंशद् द्वापष्टिभागाः, एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य त्रयः सप्तषष्टिभागाः १२२ । तमुद्दः श्रवणः, शिता धनिष्ठा, पञ्चदशभिः शतभिषापूर्यापा शुद्धेति स्थिताः पश्चात्सप्तदश मुहूर्त्ताः १७। शेषं तथैव ॥ ४७/३ | तत आगतम् - उत्तराभाषपदानक्षत्रस्य सप्तविंशती मुझसेवेकस्य व मुहूर्तस्य चतुर्दशसु द्वाषष्टिजागेषु, एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य चतुःषष्ठ सप्तषष्टिमागेषु गतेषु शेषेषु या प मासी परिसमाप्तिमुपैति । सू० प्र० १० पाहु० २२ पाहु० । सं० प्र० । संप्रत्यस्यामेव पौर्णमास्यां सूर्यनयोगं चन्द्र योग व पृच्छति
तं समयं च गां सूरेकेणं शक्यते जोति । ता उत्तरा हिं फग्गुणी हिं. उचराणं फग्गुणीणं सच मुहते, तेतीस च वा डिजागा मुहुत्तस्स, वावडिभागं च सत्तट्ठिधा छेता एकतीसं चुमियाजागा सेसा । ता एतेमि णं पंचए संव
राणं तच पुष्पिमासिणिं चंदे केणं लक्खणं जोएति ।। ता प्रसिडिं, अस्मिणीयं एकवीसंमुत्ता, नव पाव हिजागा मुहुत्तस्स, बावट्टिजागं च सत्तट्टिया छेचा तेवि चुचियाभागा सेसा तं समयं च सूरे केणं एक्खणं जोति । ता चित्ताहिं, चित्ताणं एगो मुहतो, अट्ठावीसं च वावडिभागं मुहुरूप वाद्विभागं च सप्तडिया ठेचा तीसं चुलियाजागा सेमा । ता एतेसि णं पंचएवं सवच्चराणं दुवालसमं पुचिमामिति चंदे के क्स जोति ? ता उत्तराहिं प्रासादाहिं, उत्तराणं प्रासादाणं छडवीसं मुहुत्ता, छवी नाडिजागा मुडुचस्स वावद्विभागं चमच डिमा ठेला पप पुचियाभागा सेसा । तं समयं चणं सूरे
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नक्वणं जो ता पुणया पुणस्स सोलस मुहुचा, अ य वापद्विभागा मुहुचस्स, वावद्विभागं च सत द्विधा बेत्तावीस चुलियाजागा सेसा । ता एतेसि णं पंचां संबद्धराणं चरमं बावहिं पुछिमासिरिंग बंदे केणं शक्खचे जाऐति । ता उत्तराहिं प्रासादाहिं, उत्तराणं श्रसादाएं चरमसमए । तं समयं च सूरे के वक्खणं जोति पुस्सेणं, पुस्सस्स गुणावीसं मुहुत्ता तेचालीस च वावडि जागा मुहुचस्स बावहिनागं च सतहिया बेता तेवीस चुटियाभागा सेसा ||
"तं समयं च ' इत्यादि सुगमम् । नगवानाह (ता उत्तरा इत्यादिता इति पूर्ववदम्य फाल्गुनीभ्यां यो उत्तर फाल्गुन्योस्तदानी द्वितीयपीर्णमासी परिस प्राशिखायां सप्तमुतः प्रयत्रिंशद्वानि मुस् द्वात्रष्टिभागं च सप्तत्रष्टिधा हिस्वा तस्य सत्का एकत्रिंशत् कामागाया। नथाहि स एव भव
५ । १ । धृत्वा च द्वितीयस्याः पौर्णमास्याः संप्रति चिन्ता
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याक्खत्त
गुजा नामक मु दश द्वाषष्टिभागाः, एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य द्वौ सप्तषष्टिजागौ । १३२त एतस्मात् पुष्यशोधनकमेकोनविंशतिर्मुहली, मुहस्य त्रिचत्वारिंशद्वाषाभागाः एक
नागस्य प्रष्टिनामा १० इथे परिमाणं पूर्व स्थितं परं शतं गुह तनाम, पकस्य व मुहूर्त्तस्याष्टाविंशतिद्वषष्टिनागाः एकस्य व द्वाष्टभागस्य षट्त्रिंशत् सप्तषष्टिभागाः ११२ । १ई । ६७ ।
दशनिमुंडा माता पूर्वाफाल्गुनी शुद्धा, स्थिताः पश्चान्मुहर्त्ताः सप्तत्रिंशद, शेषं तथैव । तत भागतं - सूर्येण युक्तमुत्तराफाल्गुनी नक्कत्रं सप्तमुहूर्तेषु, एकस्य च मुहूर्तस्य त्रयत्रिंशद्वाषष्टिभागेषु एकस्य च द्वाष्टिभागस्प एकत्रिंशत्सप्तत्रष्टिभागेषु शेषेषु द्वितीयां पौर्णमासीं परिसमापति अधुना तृतीयपौर्णमासीविषयं चन्दन योगं पृष्ठ ति "ता पतेखि णं" इत्यादि सुगमम् । जगवानाह (मस्लिीहिंदी विनामिति त
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तदान तृतीयपौर्णमासी परिसमा शिवेलायामम्मिनक्षत्रस्य एकविंशतिमुर्त्ताः एकस्य च मुहूर्त्तस्य नव द्वाषष्टिनागाः, पर्कामा साविवा तस्य सत्कापाष्टश्यशिंकाभागाः शेषाः । तथाहि स एव ध्रुवराशिः ६६ । ५ । ७ । तृतीया पौर्णमासी चिन्त्यमाना वर्त्तत इति त्रिभिर्गुएयते, जातममुर्त्तानाम, कस्य प षष्टिभागाः, एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य त्रयः सप्तषष्टिभागाः १६८ । १३ । ७ । तत उगुणष्ठं पोठवया" इत्यादिवचनात् कोनाधिकेन शतेन चतुर्विस्य द्वाषष्टिमारेकस्य प शायष्टिप्रागस्य षट्ष्टया सप्तपरिभायैरभिजिदादन्युत भारूपाणि नक्षत्राणि शुद्धानि पादपतन्तेऽष्टा विशन मुहूर्ता, एकस्यस्य द्विपञ्चाशत् द्वाहिजागाः, एकस्य च द्वाषष्टिप्रागस्य चत्वारः सप्तषष्टिभागाः ३८ । ३ । । ततस्त्रिंशता मुहूर्तैः रेवती नक्षत्रं शुद्धं, वितीयमुले नवसु पलायेकस्य तिष्ठन्त्यष्टौ मुहूर्त्ताः, तत भागतं चन्द्रयुक्तमश्विनी नक्षत्रमेक
द्वाषष्टिभागस्य त्रिषही सहपठिमागेषु शेषेषु परिसमापयति । संप्रत्यस्यामेव तृतीयस्यां सूर्यनत्रयोगं पृच्छनि " तं समयं च णं" इत्यादि सुगमम् । भगवानाह " ता चि. चाहिं " इत्यादि । चित्रायुक्तः सूर्यः परिसमापयतेि । तदानीं च तृतीय पौर्णमासी परिसमासिवेलायां चित्रायमेको एक स्य च मुहूर्त्तस्याशविंशतिद्वषष्टिभागाः, एकं च द्वाभा सप्तविधा विस्वा तस्य सत्का त्रिंशच्चूर्णिकानागाः शेषाः । तथाहि स एव भवराशिः ६६ ५१ प्रति तृतीयमासी चिन्तंति त्रिनिर्गुण्यते, जातमष्टानवत्यधिकं शतं मुहूतनाम, एकस्य च मुहूर्त्तस्य पञ्चदश द्वाषष्टिनागाः, एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य प्रथा सप्तपति तस्मात्पुष्यशो धनकम १६ । ४३ । ३३ पूर्वोक्तप्रकारेण शोध्यते स्थितं पश्चादष्टसप्तत्यधिकं मुहूर्त्तीनां शतम् एकस्य च मुस् पत्रिशद् द्वाषष्टिभागाः, एकस्य व द्वापष्टिनागस्य सप्तत्रिंशत्लप्तषष्टिभागाः १७० ततः पञ्चाशदधिकेन मुहूशलेमाश्लेषाऽऽदीनि हस्तपर्यन्तानि पञ्च नक्कत्राणि शुद्धयन्ति। शेषास्तिवृन्त्यष्टाविंशतिर्मुहुर्त्ताः । शेषं तथैव २८। ३३|३७| तत भागतम्सूर्येण मह संप्रयुक्तं विधान मे मुह से पकस्य च मुहू
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याक्खत्त
स्याद्विपट्टिभागेषु एकस्य च द्वापािगस्य त्रिशति सप्तषष्टिभागेषु शेषेसु तृतीयां पौर्णमासीं परिसमापयति । संप्रतिदश्यां पौर्णमास्यां क्षत्रयोगं पृच्छति" ता पतेसि णं" इत्यादि सुगमम । भगवानाह "ता उत्तराहि " इत्यादि । 'ता' इति पूर्ववत् । उत्तराभ्यामापादाभ्यां द्वाद शीं पौर्णमासी चन्द्रः परिसमापयति । तदानीं च तयोरुत्तरयोरापादयोः पविंशतिर्मुहुः एकस्य च मुहूर्त्तस्य पशि तिर्वाषष्टिभागाः, एकं च द्वाषष्टिभागं सप्तषष्टिचा विश्वा तस्य साधनुष्याच्चूर्णिकानागाः शेषाः तथादि स एव राशि:- ६६ ११ द्वादशी किस पौर्णमासी दित्यते ति, जातानि सप्तशतानि द्विनवत्यधिकानि नाम एक स्पषिष्टिजागाः । एकच द्वाषष्टिनागस्य द्वादश सप्तषष्टिभागाः ७६२ । ६० । १२ । तत एतस्मात् मूले सत्तेव चोयाला " इत्यादिवचनात् सतभिश्चतुयत्वारिंशदधिकैर्मुहूर्तानां शतैः एकस्य च मुहूर्त्तस्य चतुर्विंशत्या द्वाषष्टिजागैः, एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य षट्षष्ट्या सप्त मागे रामजिदादीनि मूलपर्यन्तानि नत्राणि यानि,
तामुदुः पूर्वाषाढा, शेष तिष्ठमयष्टादश मुहूतः, यकस्य व मुहूर्त्तस्य पारिनामा, पकस्य चा पष्टिनागस्य त्रयोदश समा १८३५ १३ श्रागतं चन्द्रेण युकमुतरापादानक्षत्रं द्वादशी पौर्णमासी विंशती मुहूर्त्तेषु, एकस्य च मुर्त्तस्य षविंशतौ द्वाषष्टिमा गस्य चतुष्पा नागेषु शेषेषु परिसमापयति । सं प्रत्यस्यामेष द्वादश्यां पौर्णमास्यां सूर्यनक्षत्रयोगं पृष्ठति" तं समयं च णं " इत्यादि सुगमम् । जगवानाह " ता पुणयसुणा" इत्यादिता इति पूर्ववत् पुनर्वसुना युक्ता सूर्यः परिसमापयति । तदानी वादशीपी मासी परिसमाप्तिवेलायां पुनर्वसुत्रस्य षोडश मुहतो, असेच द्वापट्टि जागा मुहूर्त्तस्य, एकं च द्वाषष्टिभाग सप्तषष्टिधा बिस्वा तस्य सरका विकानामाः शेषाः तथादि-स एव ध्रुवराशि०६६।५।१ द्वादशनिश्यते जातानि सप्तशतानि द्वि नवत्यधिकानि नाम एकस्य मुदुस्वपटिषष्टिमा गाः, एकस्य च घाषष्टिजागस्य द्वादश सप्तषष्टिभागाः ७६२ । ६० । १२ । तत एतस्मात्पुष्यशोधनकं ११ । ४३ । ३३ पूचकप्रकारेण शोध्यते स्थितानि पश्चात्सप्तशतानि त्रिसप्तत्य धिकानि मुहूर्त्तानाम, एकस्य च मुहूर्तस्य षोमश द्वाषष्टिभागाः, पकस्य च द्वाषष्टिभागस्य षट्चत्वारिंशत् सप्तषष्टिनागाः । ७७३ । १६। ४६ । तत एतस्मात्सप्तभिः शतैश्चतुश्चत्वारिंशदचिकैनाम, एकस्य च मुहूर्तस्य चतुर्विंशत्या द्वाषष्टिमार्गः एकस्य च द्वाषष्टिजागस्य षट्षष्ट्या सप्तषष्टिभागैरश्लेपादयाद्रपर्यन्तानि नक्षत्राणि शुद्धानि पश्चादवतिष्ठते अष्टाविंशतिर्मुहूर्ताः, एकस्य च मुहूर्तस्य त्रिपञ्चाशद् द्वाषष्टिजागाः, एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य सप्तचत्वारिंशत्ससात भागतं पुनर्वसुन सूर्वेण सह योगमुपागतं बांड मुतेषु शेषेषु एक मुहूर्तस्याष्टसु द्वाषष्टिभागेषु, एकस्य च द्वाषष्टिनागस्य विंशतौ सप्तषष्टिजागेषु शेषेषु द्वादशी पौर्णमासी परिसमापयति । तातो इत्यादि सुगमम् | जगवानाह - " ता उत्तराहि " इत्यादि उत्तराभ्यामापादाभ्यां युक्तश्चन्द्रअरमां द्वाषष्टितमां पौर्णमासी परिसमापयति । तदानीं ब
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( १७८६) श्रभिधानराजेन्द्रः |
एक्खत्त
रमद्वाषष्टितमपौर्णमासीपरिसमाशिवेलायामुखयोरापादयो रमसमयः । तथाहि स एव ध्रुवराशिः ६६ | ५ |१| नरमाद्वाष्टितमा पौर्णमासी संप्रति चिन्त्यमाना वर्तते इति
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गुष्यते, जातानि मुहूर्तानां चत्वारिंशच्छतानि द्विनवत्यधिकानि, एकस्य च मुहूर्तस्य द्वाहिमागानां श्रीणि शतानि दशोत्तराणि, एकस्य च द्वापरयस्य द्वागाः ४०२ । ३१० । ६२ । तत एतस्मात् -" अठसय गुणवीसा, सोहाग उत्तराण साढाणं । चडवीसं खलु भागा, बावी चुलियाओ य " ॥ १ ॥ इत्येवंप्रमाणमेकं सकलनपर्यायशोधनकं पञ्चदशभ्यते । तब पूर्वोन प्रकारेण शोच्यमानं परिपूर्ण शुद्धिमासाक्ष्यतीति न किञ्चित्पश्चादवतिष्ठते । तत श्रागतम्-उत्तरा पादानच सह युकं चरमसमये चरम मि पौर्णमासी परिसमापयति । संप्रत्यस्यामेव पाषष्टितमायां पौर्णमास्यां सूर्यनप्रयोगपृच्छति तं समयं च इत्यादि सुगमम् | जगवानाह " ता पुस्सेणं इत्यादि । पुष्येण युक्तः सूर्यरमतिमा पौर्णमासी परिसमापयति । तदानी द्वाषष्टितमपौर्णमासपिरिसमा शिवेलायामेकोनविंशतिमुहूती -- चित्वारिंशद्वाषशिभागा मुहूर्तस्य भस पटिया हितस्य सत्यपूर्णिकानागाः शेषाः । तथाहि स एव ध्रुवराशिः ६६ । ५ । १ द्वाषष्टधा गुरायते, जातानि मुहूर्तानां चत्वारिंशच्छतानि द्विनवत्यधिकानि, एकस्य च मुहूर्तस्य शाहिनागानां श्रीणि शतानि दशोराणि एकस्य च घाषष्टिभागस्य द्वाषष्टिः सप्तषष्टिभागाः ४०२ ३२०६२। ६ पुष्यस्य वशमुदुर्तेध्येकस्य च मुहूर्तस्याष्टादशसु घाषष्टिभागेष्वेकस्य च द्वाषष्टिभागस्य चतुस्त्रिशक्ति सतपष्टिजागेष्यतिक्रान्तेषु पाश्चात्ययुगं परिसमाप्तिमुपैति तदनन्तरमन्यद्युगं प्रवर्त्तते । पुष्यस्यापि च तावन्मात्रादतिक्रान्तात् परतो यावद् भूयोऽपि तावन्मात्रस्य पुष्यस्यातिक्रमः, एतावत्प्रमाण एकः परिपूर्णो नक्षत्रपर्यायः । तस्य च प्रमाण शताग्वे कोनविंशत्यधिकानि नाम एकस्य च मुहूर्तस्य च तुर्विंशतिद्वष्टिभागाः, एकस्य च द्वाष्टिभागस्य षट्षष्टिःपष्टिभागाः ८१६२४६६मा गुता राष्टिय तथा परिपूर्ण यति पश्चाच राशिलेो जायते तत आगतं पुष्यस्य सूर्वेण युक्तस्य दशसु मुहूर्तेष्वेकस्य च मुहूर्तस्य श्रष्टादशषु द्वाषष्टिभागेषु, एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य चतुस्त्रिंशति सप्तष्टिमाये अतिकान्तेषु एकोनविंशतमु एकस्य मुद्र र्तस्य मिचत्वारिंशति द्वाषष्टिनागेषु, एकस्य च द्वाषष्टिनागस्य प्रविशति नागेषु शेषेषु चरमा द्वातिमा पौर्णभासी परिसमाप्तिमगमदिति । तदेव पीर्णमासीविषय
नयोगःसूर्यनप्रयोग सू० ५० १० पाहु० २२ पाहु० चं०प्र० (अमावास्याविषयश्चन्द्रनक्षत्रयोगः, सूर्यनक्षत्रयोगश्च श्रमावसा ' शब्दे प्रथमजागे ७४३ पृष्ठे निरूपितः ) (२६) प्रति कृत्रं नाम तदेव वा तमिव देखे अन्यस्मिन् वा यावता कालेन भूयश्चन्द्रेण सह योगमुपागच्छति तावन्तं कालं निर्दिदिक्षुराद
या मेणं अन एक्सचेणं चंदे जोयं नोति नंसि देसं सि, सेणं इमाणि एगूवी साणि मुहुत्त सताई, चडवी
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( १७८७) निधानराजेन्द्रः ।
एक्खन्त
संच नावामागे मुहुत्तस्स, वावडिभागं न सतष्ट्ठिधा बेत्ता वावचुिलियाजागे उवातिणावेता पुणरवि से चंदे अणं सरिसएवं चेत्र एक्खत्तेणं नोयं जोएति अंसि देसंसि ता नेणं अन् एक्सचेां चंदे जो जोएनि जंसि देसंसि, सेणं इमाई सोलस श्रद्वतीसं मुडुतसताई अणापं च वात्रट्ठिभागे मुहुत्तस्स, वावहिनागं च मत्तद्विधा छत्ता पर डिचुलियाजागे उवांतिणावेत्ता पुरवि से चंदे तेणं चेन क्सणं जो जोएति असि देसि ता [जे] एक्से चंदे जो जोपति जंसि देसंसि, सेणं इमाई चप्पां मुहुत्त सदस्साई, एब य मुडुतसताई उचातिल बेचा पुरावे से चंदे असेणं तारिसएवं वेब णक्खत्ते जोयं जोएति तंसि देसंसि । ता जेणं प्रज्ज लक्खणं चंदे जोयं जोएति जंसि देसंसि, सेयं इमे एगं मुडुचसय सदस्सं अारति चेव मुडुचसवाई उपाधिणावेता पुरवि से चंदे तेणं चेत्र एक्खचेणं जोयं जोपति सि सि सि ।
" ता जेणं अक्खणं" इत्यादि । 'ता' इति पूर्वषत् । येन नक्कत्रेण सह चन्द्रो अद्य विवक्तेि दिने योगं युनक्ति करोति यस्मिन् देशे स चन्द्र णमिति वाक्यालङ्कारे मानि यमाणानिवाशान्येको शाम्पेकोनविंशत्यधिकानि एकस्य च मुहूर्तस्य चतुर्विंशतिज्ञाच ष्टिभागान्, एकं च द्वाषष्टिभागं सप्तषष्टिधा विश्वा द्वाषष्टिचूविकाभागानुपादाय त्या मतिक्रम्येत्यर्थः पुनरपि स च न्द्रोऽन्येन द्वितीयेन सदृशनाम्ना नक्कत्रेण योगं युनक्ति प्रन्यस्मिन् देशे । श्यमत्र भावना-छह चन्द्रसूर्यनक्षत्राणां मध्ये नत्राणि सर्वशीघ्राणि, तेभ्यो मन्दगतयः सूर्याः, तेभ्योऽपि मन्दगतयश्चन्द्रमसः । ( एतच्चाप्रे स्वयमेत्र प्रपञ्चायिष्यते) पद्मचाशन्नक्षत्राणि प्रतिनियतापान्तरानदेशानि चक्रवालम मलतथा यवस्थितानि सदैवैकरूपतया परिभ्रमन्ति । तत्र फिल युगस्यादावभिजिता नत्रेण सह योगमधिगच्छति Ali, स च योगमुपागतः सन् शनैः शनैः पञ्चादषष्वष्कसे तस्य नक्षत्रेोऽतीव मन्दगतित्वाद ततो नवानां मुहूर्तानामेकस्य च मुहूर्तस्य चतुर्विंशतिज्ञापष्टिनामानाम, एकस्य व द्वाषष्टिभागस्य षट्षष्टिसष्टम गानामतिक्रमे पुरतः अ घणेन सद् योगमायाति । ततस्ततःञ्चन्योऽपि शनैः पश्चादव ध्यमानता मुनेन सह योग समाप्य पुरतो धनिष्ठया सह योगमुपागच्छति । एवं स्वं स्वं कालमपेक्ष्य
रविनः सद्योमस्ताचम्यो बाचदुपादानक्षत्रयोगपर्यन्तः । एतावता च कालेनाष्टौ मुहूर्तशतानि, एकस्य च मुहूर्तस्य चतुर्विंशतिद्वषष्टिभागाः, एकस्य च द्वाषष्टिभागस्य पट्टिभाव तथाहि पत्राणि पञ्चत्वारिंशन् महतोमीति पद पञ्चचत्वारिंशतान् जाते द्वे शते सप्तत्यधिके २७० । पटू च नक्कत्राणि प
दश मुहूर्त्तनीति भूयः पट पञ्चदशनिर्गुण्यन्ते, जाता नपतिः पञ्च विशम्मुतानीति पञ्चदशाते जातानि चत्वारि शतानि पञ्चाशदधिकानि ४५०।
माक्खत्त
अभिजितनी एकस्यस्य चतुर्विंशतिच विभागाः, एकस्य व द्वाषष्टिनागस्य षट्षष्टिः सप्तषष्टिजागा इति भवति सर्वेषामेकत्र मोलने यथो का मुख्या एप एतावा नू नक्षत्रमासः । ततस्तदनन्तरं यदभिचित्रमतिक्रान्तं तद्परेण द्वितीयेनाभिजिता न स नयां 55 विका योगमुपागच्छति, ततः परमपरेण द्वितीयाशविंशतिसंबन्धिमा श्रवणेन सद्योगमनुते, एवं पूर्ववत् तावद्वाच्यं यावदुत्तराषाडा. नन्तरं यः प्रथमेवमेताम सहयोगं बाति । ततः प्रागुक्रमेण भवादिभिः एवं सकलकालमपि ततो विवक्षिते दिने यस्मिन् देशे येन नकुत्रेण सद् योगमगम चन्द्रमाः सबथोक मुद्संक्याऽतिक्रमे भूयस्तादृशेनैवापरेण नक्षत्रेण सह अन्यस्मिन् देशे योगमा से न तेनेवादि तस्मिमेव देश इति । तथा (ता जेणमित्यादि) अथ विवाह दिने येन नकत्रेण सह योगं युनक्ति यस्मिन् यस्मिन् देशे चन्द्रमाः, स इमानि माणसंश्याको मुनानि मष्टाधिकानिएकोनपञ्चाशतं द्वापट्टिभागान् मुर्त्तस्य, एकं च द्वाषष्टिभागं सप्तषष्टिधा छिया तस्य सत्कान् पञ्चषष्टिपूर्तिकामायानुपादायातिकाय पुनरपि सस्तेनैव सहयोगं युनक्ति, परमन्यस्मिन् देशे, न तु तस्मिन्नेव । कुतः, इति चेत् । उच्यते-इह भूयस्तस्मिन्नेव देशे तेनैव नकुत्रेण सह योगः, युगद्वयकालातिक्रमे तथा केवल वेदसा ज्योतिश्चक्रगतेरुपलब्धेः । जम्बूद्वीपे च पाषाणि ततो विि
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सति तत श्रारभ्य षट्पञ्चाशतत्रातिक्रमेण तेन नक्कत्रेण सह योगमा पचास शातिक्रम प्राक्काहानि मुहूर्त्त संख्यया तत उत्तम सोलस अडतीस मुदुसया इत्यादि । तदेवं तादृशेन तेन वा नक्षत्रेण सह अन्यस्मिन् देशे बाबा कालेन भूयोऽपि योग उपजायते तावान् विशेष उक्तः । संप्रति तस्मिन्नेव देशे तादृशेन तेन वा नक्षत्रेण सह भूयोऽपि थेगो बायता कालेन भवति तान्तं काल- ताजे इत्यादि) पहिले दिने येन नक्षत्रेण सह योगं चन्द्रो युनकि पश्मिन् देशे समा इमानि पद्ममाणसंक्यानि सान्या चतुःपञ्चाशन्मुसहस्राणि मुशतान्युपादायातिकाय पुनरपि स चन्द्रोऽन्येन तानेव नक्षत्रेण सह योगं युनकि देगे। मानव युगे विमा क्षत्राणां मध्ये येन नक्कत्रेण सह यस्मिन् देशे यदा चन्द्रमसो योगो जातो, भूयस्तमिव देश तदेव तेनैव सद् योगो विहितगादारभ्य युगे, न तु द्वितीये। कुति त्यते युऽऽदित आरभ्य प्रथमे नत्रमासे याम्येका स्पष्टाविंशतिपाणि समतिक्रामन्ति दितीयेन मासेन,
"
योऽपराणि द्वितीयानि ततो यस्तृतीयेन म्येच प्रथमायाविशतिनाणि चतुर्येन सुस्तावलीयानि । एवं सकलकालं युगे व नक्षत्रमासाः सप्तषष्टिः । सा च सप्तषष्टिसंख्या विषमेति विवचितयुगपरिसमाप्तौ सत्यामन्यस्य युग प्रारम्भे यानि विवहितस्याऽऽदी ि नक्कत्राणि, तेभ्यो ऽपरापयेव द्वितीयानि भोगमायान्ति न तु तान्येच युगद्वये चतुखितं प्रयति । सा तुमच्या समेति द्वितीययुगपरि समाप्ती पाप महान समाप्तिमुपयान्ति ततोच. तिहार तीचे मत दे
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(१७) अभिधानराजेन्द्रः।
गक्खत्त
गक्खत्त
तदा चमसो योगः, युगे साहोरात्राणामष्टादश शतानि त्रिं- त्रीणि षट्पट्याधिकानि रात्रिंदिवशतानि उपादाय अतिक्रम्य, शधिकानिएकैकस्मिश्चाहोरात्रे मुहताशित्ततोऽटादशानां | पुनरपि ससूर्यस्तस्मिन्नेव देशे ताहशेमैवान्येन नक्षत्रेण सह योगं शतानां त्रिंशदधिकानां त्रिंशता गुणने प्रषति यथोक्ता मुह- युनक्ति, न तु तेनैव । कुतः, इति चेत् । उच्यते-इह चन्नी नक्षत्रतैसंख्या, यथोकमुहर्त संख्याऽतिक्रमे च तारशेनैव नक्केण सह मासेनकेनाष्टाविंशतिनक्षत्राणि ले। सूर्यस्तु त्रिभिरेषाहोरात्रयोगः चन्मसस्तस्मिन्नेव देशे,न तु तेन नकत्रेण, अन्यस्मिन्बा शतः षट्पष्टयाधिकैः त्रीणि चाहोरात्रशतानि षट्पष्ट्यधिकानि देशे इति। (ता जेणमित्यादि) सूत्रमतरार्थमधिकृत्य एकः सूर्यसंवत्सरः। ततोन्यैखिभिरहोरात्रशतैः घट्दष्ट्यधिकै. सुगमम् । भावना तु प्रागेव कृता, नवरं युगदयकालं पत्रिंश- रन्यानि द्वितीयान्याविंशतिनक्षत्राणि परिभुते तदनन्तरं नूय.
कृतानि पश्चधिकानि अहोरात्राणाम्, एकैकस्मिश्चाहोरात्रे स्तान्येव प्रथमान्यष्टाविंशतिनकत्राणि तावत्याऽहोरात्रसक्यया विशन्मुहर्ना इति षट्त्रिंशच्चतानां षष्टयधिकानां त्रिंशता गु- क्रमेण युनक्ति । ततः षट्पष्टयधिकरात्रिदिवशतत्रयातिक्रमेण बने यथोक्ता मुहूर्त संख्या भवति । तदेवं ताशेन तेन वा | सूर्यस्य तस्मिन्नेव देशे तारशेनवापरेण नक्षत्रेण सह योगः, नकत्रेण सहान्यस्मिन् तस्मिन् वा देशे चन्मसो योगेका- न तु तेनैव । (ता जेणं इत्यादि ) इदं सूत्रमकरार्थमधिकृत्य लप्रमाणमुक्तम।
सुगमम, भावना च प्रागेव कृता। (ताजेणमित्यादि) 'ता' इति संप्रति सूर्यविषये तदाह
पूर्ववत् । अद्य विवक्रिते दिने येन नकरण सह सूर्यो यस्मिन् ता जेणं भज्ज णक्खत्तेण सूरे जोयं जोएति जंसि देसं
देशे योगं युनक्ति, स इमानि अष्टादश रात्रिंदिवशतानि त्रिंशद
धिकानि उपादायातिक्रम्य,पुनरपि तस्मिन्नेव देशेऽन्येनैव ताहसि, से इमाई तिरीण गवट्ठाई राईदियसताई उवाति
शेन नक्षत्रेण सहयोग युनक्ति,न तु तेनैव । कस्मात्, इति चेत् । णावेत्ता पुणरवि से सूरिए अमेणं सारिसएणं चेव उच्यते-रह रात्रिदिवानामष्टादशशतानि त्रिंशदधिकानि युगे णवत्तणं जोयं जोएति संसि देसंसि । ता जेणं अज्ज भवन्ति । तत्र सूर्यो विवक्तितदिनादारभ्य तस्मिन्नेव देशे तदैव एक्खत्तेणं सूरे जोयं जोएति जंसि देसंसि, से गं इमाई
दिने तेनैव नक्षत्रेण सह योगमागच्छति । तृतीये संवत्सरे युगे
व सूर्यवर्षाणि पश; ततस्तृतीये पचमे वा सूर्यसंवत्सरे सूर्यः सत्तदुवतीसं राइंदियसताई जवातिणावेत्ता पुणरवि से सूरे
तेनैव नकत्रेण तस्मिन्नेव काले योगमादत्ते, न तु युगातेणं चेत्रणखत्तणं जोयं जोएति तंसि देसंसि । ता जेणं | तिक्रमे षष्ठे वर्षे इति । "ता जेणं" इत्यादि सुगम, नवरं षअज एक्वत्तेणं सूर जोयं जोएति सि देसंसि,सेणं इमाई| दत्रिंशकात्रिंदिवशतानि पश्यधिकानि युगवये भवन्ति,युगद्वये अट्ठारस तीसाईराइंशदयसताई उपातिणावेसा पुणरवि सरे
च दश मर्यवर्षाणि । ततो युगद्वयातिक्रमे एकादशे वर्षे सूर्यस्य
तेनैव नक्षत्रेण सह तस्मिमेव देशे योग उपपद्यत इति । इह जअमेणं तारिसरणं चेव एक्खतेणं जोगं नोएति तसि दे
मद्वीपे चन्द्रमसौदी सूर्यो,एकैकस्य चन्द्रमसोनियो ग्रहासंसि । ता मेण अज्ज पक्वतेयां सूरे जोयं जोपति जंसि |
विका परिवार इति भुत्वा कश्चिदेयमपि मग्यत-यथा निनदसंसि, ते णं इमाई छत्तीसं सहाई राईदियसयाई - कालं मण्डसेषु चन्याऽऽदीनांगतिः,मित्रकालं च तेषांनकत्राऽऽ- . वातिणावेचा पुणरवि से सूरे तेणं चेव णवत्तेणं जोयं दिभिः सह योग इति । ततस्तदाशकाऽपनोदार्थमाह-(ता जया मोएति तंसि देसंसि । ता जया णं इमे चंदे गतिसमावस्मए
णमित्यादि)'ता' इति पूर्ववत् । यदा यस्मिन् काले, अयं प्रत्य
तत उपसभ्यमानो जरतक्षेत्रे प्रकाशयन् विवक्तितश्चन्डः, बिषजवति, तता ण इतरे वि चंदे गतिसमावठाए जबति,
क्कितेमपमले इति गम्यते। गतिसमापनो गतियुक्तो भवति, तदा जता णं इतरे वि चंदे गतिसमावएणए भवति, तताएं इमे तस्मिन् काले इतरोऽपि ऐरावत केत्र प्रकाशयन् तस्मिन्नेव विववि चंदे गतिसमावसए नवति । ता जया णं इमे सारए ग-|
किते मएमसे मतिसमापनो भवति। एवं शेषायपि सूत्राणि भा. तिममावएणे नवति, तया णं इयरे विसरिए गतिसमावसे |
बनीयानि । नवरम (एवं गहे वि, एवं जानते बित्ति) एवमुक्तन
प्रकारेण आहेऽपि द्वावालापको बक्तव्यो, नक्षत्रेऽपि च । तद्यथाभवति, जता णं इतरे मूरिए गतिसमावएणे भवति,तया |
"ता जया णं श्मे गहे गइसामावो नवद, तयाणं इतरे विगहे इमे वि मूरिए गतिसमावो नवति । एवं गहे वि, णक्वते गइसमावसे भवर, ता जया णं इतेरे गहे गसमावो प्रवक, वि । ता जताणं इमे चंदे जुत्ते जोगेणं जवति, तताणं इतरे तया ण इमे विगहे गसमावसे भवह । " एवं नक्तरेऽपि विचंदे जुत्ते जोगेण नवति, जया एं इयरे चंदे जुने जोगेणं |
बाच्यमा"ता जया णं श्मे चंदे जुत्ते जोगणं" इत्यादि सुगम,
नवरं ( दुहतो वित्ति) उभयतोऽपि दक्तिोसरयोः, पूर्वपभवति, तताएं इमेवि चंदे जुत्ते जोगेणं नवति । एवं मरे नि,
च्छिमयोर्वा । सू० प्र०१. पाहु० २१ पाहु. । (संवत्सरान्ते. गहे वि, णक्खत्ते वि।सया विणं चंदा जुत्ता जोएहिं, सता वि पुनकत्रचन्मयोगः 'संवच्छर' शब्दे वश्यते)(संवत्सरेषु चन्छः पसरा जुत्ता जोगहि, सया विगहा जुत्ता जोगडिं, सया
केन नक्कणाऽऽवृति योजयतीति 'माउट्टि' शब्दे द्वितीयविणक्वत्ता जुत्ता जोगेटिं। मुहतो वि णं चंदा जुत्ता
भागे ३३ पृष्ठे उक्तम ) (अर्द्धमासे केन नक्षत्रेण सन्चार
वरतीति 'चंदमंडल' शब्दे तृतीयभागे १०८१ पृष्ठे उकम) मोगेहि, दुतो विणं सूरा जुत्ता जोगहि, मुहतो वि एं
(२७) नक्षत्राणां संस्थानानिगद्दा जुत्ता जोगेडिं, पुहतो वि णं णक्खसा जुत्ता जोगेहिं । "ता जेणं" इत्यादि । 'ता' इति पूर्ववत् । अद्य विवक्षिते दिने |
ा ता कहं ते णवत्तसंठिती आहिता ति पदेजा। ता एते. येन नकत्रेण सह सूर्यो बस्मिन् देशे योगं युनक्ति, समानि सिगं अजाबीसाए पाक्रवत्ताणं अभिई सक्खत्ते गो
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(2002) अभिधानराजेन्द्रः ।
याक्खन्त
सीसाssवनिसंविए पण त्ते १, सबणे णक्खते काहारसं ठिएपए से 2, णिडा एक्स्खते सडणिपनी गतिए प२, सतसिया एक्खते पुप्फोबयारसंठिए पत्ते ४, पुवापोवा लक्खसे ए, उत्तरनडवया एक्खने प्रवावीसंगिए पते ६, रेवती एक्खत्ते पात्रासंठिए पत्ते 9, अस्सिणी लक्खते अस्सखंधगसंत्रिए पत्ते ८, जरणी एक्खते जगसंठिए पत्ते ए. कलिया णक्खसे बुरघरसंठिए पणचे १०, रोहिणी णक्खते सगमसंठिए पत्ते ११, मगसिरे लक्खते मगसीसाऽऽवलिसंगिए पते १२, अद्दा क्खते रुद्धिरबिंदुठिते पत्ते १३. पुन्नसू क्खते तुलासंगिए पत्ते १४, पुस्से एक्खते वकमा गठिए पण ते १५, सिलेसा णक्खत्ते पडागसंत्रिए पत्ते १६, महा एक पागारसंत्रिए पत्ते १७, पुन्त्राफग्गुणी - क्खते श्रपलिय संठिए पासे १८, उत्तरा वि एवं चेब १५,इत्थे इत्यसंठिए पष्पत्ते २०, चिचा णक्स्वत्ते महुफुल्लगसंविपणचे २१, साई णक्खते खीलगसंविए पए
२२. विसाहा लक्खत्ते दामणिसंठिए पते २३, अरादा क्खते एङ्गावलित्रिए पाते २४, जेठ्ठा एक्खसे गजदंतसंठिए पत्ते २५, मूझे एक्खते बिच्छु लंगूल संठिए पपते २६, पुत्रासादा णक्खत्ते गयविकमसंगिए पाले२७, उत्तरासादा एक्खते सीइणिस्साहसंविए पक्षले २८ ।
नत्राणां संस्थानं वक्तव्यमिति ततस्तद्विषयं प्रश्नसूत्रमाद"ता कई ते" इत्यादि । 'ता' इति पूर्ववत् । कथं केन प्रकारेण भगवन् ! नत्राणां संस्थितिः संस्थानमा ख्यातमिति वदेत् ? । एवमुक्ते भगवानाह - "ता पतेसि णं" इत्यादि । 'ता' इति पूर्ववत् । एतेषामनन्तरोदितानामष्टाविंशतेर्नक्षत्राणां मध्येऽभिजिनक्षत्रं गोशीess सिंस्थिति प्रप्तम् | गोः शीर्ष, तस्याऽऽवली तत्पुद्गलानां दधिरूप श्रेणिः, तत्समं संस्थानं प्रकृतम् । श्रवणनक्षत्रं कासारसंस्थितं प्रशप्तम् । एवं शेषाण्यपि स्वस्वसंस्थानानि नक्त्राणि भावनीयानि, नवरं दामनी पशुबन्धनं, शेषं प्रायः सुगमम । संस्थान संग्राहिकाचेमा जम्बूद्दी पप्रकृप्तिलत्कास्तिस्रो गाथा:"गोसीलाऽऽवनिकाहा-र सउणि पुप्फोबयार बाबी व । नावा आसक्बंधग, भग तुरवरए व सगद्धी ॥ १ ॥ मिगसीसाssवलिरुदिर-स्ल बिंदु तुल वरूमाणम पडागा । पागारे पलके हत्थे महुकुञ्जए बेव ॥ २ ॥ खीलग दामणि पगा- वली म गयदंत विन्तु अमले य । गयधिकमेव ततो, सीहनिलाई य संठाणा " ॥ ३ ॥ इति । जं० ७ वक्क० । चं० प्र० १० पाहु० ७ पाहु० (नत्राणां पट्ट्यः ' जोइसिय' शब्देऽस्मिन्नेव भागे १४६३ पृष्ठे उक्ताः ) (२८) (नक्षत्राणामन्तर्बहिश्च बार: ' जोरसिम' शब्देऽस्मिन्नेव जांग १६०३ पृष्ठे प्रत्यपादि ) ष्णवखतचंद जोग-नक्षत्रचन्द्र योग- पुं० । सप्तविंशत्या नक्षत्रैः साकल्येन चन्द्रस्य योगे, ज्यो० २ फादु० । (नक्त्रस्य चन्द्रेस योगो' क्लस' शब्दे १७८० पृष्ठे समुक्तः )
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वक्त्त मंगल णक्वत्तणाम [ ण् ] - नक्षत्रनामन् - न० । नत्राणामभिधायके शब्दे, अनु० ।
नत्राण्याश्रित्य यन्नाम स्थाप्यते तद्दर्शयति
से किं तं क्वणामे ?। लक्खता मे अणेगाव पछने । तं जहा - कतिआहिं जाए कत्तिए, कत्तियादिमे, कत्तियाधम्मे, कत्तियासम्मे, कत्तियादेवे, कतियादासे, कत्तियासेणे, कतियारक्खिए। रोहिणीहिं जाए रोहिणीए, रोहिणीदिये, रोहिणीधम्मे, रोहिणीसम्मे, रोहिणीदेवे, रोहिणीदासे, रोहिणीसेणे, रोहिणीरक्खिए । एवं सन्दक्खत्तेसु लामा जाणियन्त्रा ।
एत्य संगहणिगादाओ -
ततो
रोहिणेि मगसिर, अदा य पुत्रसू पुस्से । अस्सिलेसा, महा उ दो फग्गुणीओ अ ॥ १ ॥ हत्यो चित्ता साती, होइ बिसाहा तहा य अणुराहा । जेट्ठा मूला पुब्बा - साठा तह उत्तरा चैव ॥ २ ॥ अभिई सवण घट्ठिा, सतजिसया दो ग्रहोंति जहवया । रेव अस्सिणि जरणी, एसा यक्खत्तपरिवामी " ॥ ३॥ सेतं कखराणामे |
“ कति
कृतिकासु जातः कार्त्तिकः, कृतिकाभिर्दतः कृतिकादतः । एवं कृतिकाधर्मः, कृत्तिकाशर्मः, कृत्तिकादेवा, कृत्तिकादासः, कृतिकासेनः कृतिकारक्षितः । एवमन्यान्यापे रोहिण्या दिसप्तविंशतिनकाण्याश्रित्य नामस्थापना द्रष्टव्या । तत्र सर्वनत्रसंग्रहार्थे " कतिया रोहिणी" इत्यादि गाथात्रयं सुगमम् । नवरमजिजिन्नकुत्रेण सह पठ्यमानेषु नक्कत्रेषु कृत्तिकाऽऽदिरेव क्रम इत्यश्विन्यादिकममुत्सृज्येत्यमेव पठितव्यानीति । अनु० । एक्खत्तमी - देशी- विष्णौ, दे० ना० ४ वर्ग । णक्खत्तमंगल - नक्षत्रम एकल- न० । नक्षत्राणां संबन्धिनि मष्मले, जं० ।
नक्षत्रमण्डलस्य अष्टनिद्वारैः प्ररूपणा – तत्राष्टौ द्वाराणि यथा - मण्डल संख्याप्ररूपणा १, मएमलचारकत्रप्ररूपणा २, अभ्यन्तराऽऽदिमण्डलस्थाविनामष्टाविंशतेनं क्षत्राणां परस्परमन्तरनिरूपणा ३, नक्षत्रविमानानामायामाऽऽदिनिरूपणम् ४. नक्षत्रमएमलानां मेरुतोऽबाधानिरूपणम् ५, तेषामेवाSSयामाऽऽदिनिरूपणम् ६, मुदुर्तगतिप्रमाणनिरूपणम् ७, नक्षत्रमण्डलानां चन्द्रमरुलैः समवतारनिरूपणम्
।
तत्राऽऽदौ मण्डल संख्याप्ररूपणाप्रश्नमाह १
कड़ णं जंते ! णक्खत्तमंगला पण्णत्ता ? । गोयमा ! अड्ड एक्खत्तमंडला पाता ।
" करणं भंते !" इत्यादि । कति नदन्त ! नक्षत्रमएमसानि प्रकृतानि । भगवानाह - गौतम ! अष्ट नक्षत्रमएमसानि प्रकृतानि, अष्टाविंशतेरपि नक्षत्राणां प्रतिनियतस्त्वस्वम एमले वेतावदस्वेव संचरणात् ।
एतदेव क्षेत्रविभागं प्रश्नयति
जंबुद्दीचे दीवे केवइयं भोगाहिता केवइया लक्खत्तमेमला पयचा ?। गोषमा ! जंबुद्दीचे दीवे असीयं जोपण
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(१७ए.) याक्खत्तमंडल अनिधानराजेन्छः।
क्खत्तमंडल सयं भोगाहित्सा एत्य णं दो एक्खत्तमला पसत्ता।सव- वइयं परिक्खेवेणं, केवश्यं बाहणं पामते ?। गोयमा ! णे णं समुद्दे केवइयं ओगाहेत्ता केवइया णक्वत्तमंमला गाउयं आयामविक्खंजणं, तंतिगुणं सविसेसं परिक्खेपसत्ता । गोयमावणे णं समुहे तिमि तीसे जोयणसए वेणं, अफगानयं बाहोणं पसत्ते। भोगाहित्ता एत्य णं णक्खत्तमंगला पसत्ता । एवामेव __ "एक्खत्त" इत्यादि । नक्षत्रमएमबं भदन्त ! कियदायाम
विष्कम्भाच्यां, कियत् परिक्षेपेण,कियद बाहल्यनाचस्त्वेन प्रकसपुब्बावरेणं जंबुद्दीवे दीवे लवणसमुद्दे अट्ठ णक्खत्तमंड
प्सम ?। भगवानाह-गौतम गव्यतमायामविष्कम्भाम्यां, तत्त्रलाजवंतीति मक्खायं ।
गुण्यात् विशेषात् परिकेपेण, अर्द्धगव्यूतं बाहल्येन प्रक्षप्तमिति । जम्यूजीपे द्वीपे कियत्केत्रमवगाह कियन्ति नकत्रमएकलानि संप्रत्येषामेव मेरुमधिकृत्याबाधाप्ररूपणा ५प्रकप्तानि ?। भगवानाह-गौतम ! जम्बूद्वीपे द्वीपे अशीतमशीत्यधिकं योजनशतमवगाह्यात्रान्तरे दे नक्कत्रमण्डले प्रशप्ते ।
जंबुद्दीवे ण भंते ! दीवे मंदरस्स पच्चयस्स केवाए लवणसमुद्र कियदबगाह्य कियन्ति नक्षत्रमरामलानि प्रशप्ता- अबाहाए सव्यभंतरे एक्वत्तमंमले परमत्ते ? । गोयमा! चोनि ?। भगवानाह-गौतम! लवणसमुद्रे त्राणि त्रिंशदधिकानि आनीसं जोयणसहस्साई अट्ठ य वीसे जोयणसए अयोजनशतान्यवगाह्यात्रान्तरे षट् नत्रमण्डलानि प्राप्तानि ।
बाहाए सबब्नंतरे णक्खत्तममले पहाचे । अत्रोपसंहारवाक्येनोक्तसंख्यां मीलयति-एवमेव सपूर्वापरण जम्बूद्वीपे द्वीपे लवणसमुद्रे चाष्टौ नवत्रमएमक्षानि भवन्ति,
जम्बूद्वीपे भदन्त ! ही मन्दरस्य पर्वतस्य कियत्या अबाश्त्याख्यातम् । मकारोऽत्राऽऽगमिकः।
धया सर्वाभ्यन्तरं नकत्रमण्मसं प्राप्तम्। भगवानाह-गौतम!
चतुश्चत्वारिंशद्योजनसहस्राणि, अष्ट च विंशत्यधिकानि योअथ मण्डनचारकेत्रप्ररूपणा २
जनशतान्यबाधया सर्वाज्यन्तरं नक्षत्रमगमलं प्रज्ञप्तम । सम्पन्नंतराभो णं भंते ! एक्खत्तमंमलापो केवाए
अथ बाह्यमएमवाऽबाधां पृच्छतिप्रवाहाए सबबाहिरए णक्खत्तममले पमत्ते । गोयमा!
जंबुद्दीवे ते ! दीवे मंदरस्स पन्धयस्स केवाए पंचदमुत्तरे जोयणसए अवाहाए सम्बबाहिरए एक्खत्त- अबाहाए सन्चबाहिरए णक्खत्तमएमले पम्मत्ते । गोयमा! मंमले परमत्ते ॥
पणयालीसं जोयणसहस्साई तिमि अतीसे जोयणसर्वाच्यन्तराद् भदन्त! नक्षत्रमएमलात कियत्या प्रवाधया सए अबाहाए सव्वबाहिरए णक्खत्तमंडले पएणत्ते ।। सर्वबाचं नवत्रमरामसं प्राप्तम् जगवानाह-गौतम! पञ्चदशो
जम्बूद्वीपे नदन्त !ीपे मन्दरस्य पर्वतस्य कियत्या अबासराणि योजनशतान्यबाधया सर्वबाचं नक्कत्रमएमलं प्राप्तम् । धया सर्वबाचं नकत्रमएमलं प्राप्तम् ?। नगवानाह-गौतम!
दं च सूत्र नक्षत्रजात्यपेक्षया बोद्धव्यम, अन्यथा सर्वाभ्यन्त- पञ्चचत्वारिंशद्योजनसहस्राणि, श्रीणि च त्रिंशदधिकानि योरमपमलस्थायिनामभिजिदादिघादशनक्षत्राणामवस्थितमएम
जनशतान्यबाधया सर्वबाह्यं नक्कत्रमएमलं प्राप्तम् । सकत्वेन सर्वबाह्यमएमनस्यैवाभावात् । तेनायमर्थः संपन्न:
मथ तेषामेघाऽऽयामाऽऽदिनिरूपणम ६सर्वाभ्यन्तरनक्षत्रमएमसजातीयात सर्वबाह्यं नक्षत्रमएडलजातीयमियत्या प्रवाधया प्राप्तमिति बोध्यम् ।
सबब्जंतरेणं भंते ! एक्खत्तमंमले केवश्यं प्रायामअथाभ्यन्तराऽऽदिमण्डलस्थायिनामष्टाविंशतेनकत्राणां
विखंभेणं, केवइयं परिक्खेवेणं पश्यत्ते । गोयमाणवणपरस्परमन्तरनिरूपणा ३
नतिजोयणसहस्साई छच चत्ताले जोयणसए आयाणक्रवत्तमंडलस्स एं भंते ! णक्खत्तमंडलस्स य एस णं | मविक्खंभेणं तिमि अजोयणसयसहस्साईपएणरम सहकेवड्याए अबाहाए अंतरे पहाते। गोयमा! दो जोयणाई स्माई एगृणणवतिं च जोयणाई किंचि विसेसाहिए परिणक्खत्तमंमलस्स एक्खत्तमनस्स य अबाहाए अंतरे
क्खेवेणं पसत्ते । पपत्ते ॥
'सबभतरेणं' इत्यादि प्राग्वत् । "णक्खत्त" इत्यादि । नक्षत्रमण्डलस्य नक्वत्रधिमानस्य, नक्क
अथ सर्वबाह्यममलं पृच्चतिप्रमएमलस्य नवत्रविमानस्य च भदन्त ! कियत्या अबाधया सब्बबाहिरए णं भंते ! णक्खत्तममले केवश्यं प्राअन्तरं प्राप्तम जगवानाह-गौतम! द्वे योजने नक्वत्रविमान
यामविखंभोणं, केवड्यं आयामपरिक्खेवणं पप्यते । गोस्य नक्कत्रविमानस्य च अबाधया अन्तरं प्राप्तम् । अयमर्थः-प्र
यमा ! एगं जोयणसहस्सं उच्च सट्टे जोयणसए श्राटास्वपि मएमलेषु यत्र यत्न मण्डले यावन्ति नक्षत्राणां विमानानि, तेषामन्तरबोधकमिदं सनम । यथा अभिजिनक्षत्रविमानस्य
यामविक्खंजणं, तिमि अजोयणसयसहस्साइं अट्ठारस श्रवणविमानस्य च परस्परमन्तरं दे द्वोजने, न तु नक्त्रसत्क- य सहस्साई तिरुण अपएणरमुत्तरे जोयणसए। सर्वाभ्यन्तराऽऽदिमएमलानामन्तरसूचकम, अन्यथा नक्षत्रमण्म- “सव्वबाहिरप" इत्यादि प्राग्वत । मध्यमेषु षट्सु मरामलानां वक्ष्यमाणचन्द्रमामलसमवतारसूत्रेण सह विरोधात् ।। लेषु तु चन्जमएमक्षानुसारेणाऽऽयामविष्कम्भपरिकेपाः परिजा
अथ नवत्रयिमानानामायामाऽदिप्ररूपणा ४- । व्याः, अष्टावपि नक्षत्रमएमलानि चन्मएमले समवतरम्तीति एकावत्तमंमले णं भंते ! केवइयं आयामविक्खंजेणं,के. भणिध्यमाणत्वात् ।
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(१७५१) णक्खत्तमंडल अभिधानराजेन्द्रः ।
क्खत्तमास अथ मुहगतिद्वारम ७
षष्टयधिकैः भागे लब्धानि ५३१६ योजनानि । शेषम् जया णं परिक्खेवेणं भंते ! णक्खत्ते सव्वग्नंतरं मं
१६३६५११४६० जागाः। एतावती सर्वबाह्यनक्षत्रमएमले मृगशी.
प्रभृतीनामष्टानां नक्षत्राणां मुहूतगतिः । उक्ता तावत् सर्वा. मलं उबसंकमित्ता चारं चरम, तया णं एगमेगेणं मुहुत्तेणं
भ्यन्तरसर्वबाह्यमरामनवर्तिनां नकत्राणां मुहूर्तगतिः । केवइयं खेत्तं गच्छइ । गोयमा! पंच जोयणसहस्साइ दो
अथ नकवतारकाणामबस्थितमामलकत्वम प्रतिनियमि अपमाटे जोयणसए अट्ठारस भागसहस्से दोषिण अ तगतिकत्वने चावशिष्टेषु षट्षु मएमसेषु मुहूतेवढे जागसए गच्छइ मंमलं एकवीसाए नागसहस्सेहि
तगतिपरिज्ञानं दुष्करमिति तत्काणवहि असहोहिं सएहिं वेत्ता।
रणभूतं मएमलपरिकानं:करें
नकत्रमएडवानां चन्"जया " इत्यादि। यदाभदन्त ! परिकेपेण नक्षत्रं सर्वाभ्यन्तरं
मएमलेषु समवतार• मएमनमुपसंक्रम्य चारं चरति, तदैकेन मुहतेन कियत् क्षेत्रंग
प्रश्नमाहच्छति । नत्रमित्यत्र जात्यपेक्षयैकवचनम्, अन्यथाऽज्यन्त- एते णं जंते ! अट्ठ णक्खत्तमंडला कतिहिं चंदमंमलेहिं रमएमलगतिचिन्तायां द्वादशानामापि नक्षत्राणां संग्रहाय बहु
समोअरंति । गोयमा! अहहिं चंदममलेहिं समोअरंति । तं वचनस्यौचित्यात् । भगवानाह-गौतम ! पञ्च योजनसहनाणि, द्वे च पञ्चपट्यधिकयोजनशते, अष्टादश च भाग
जहा-पढमे चंदमंडले, ततिए, व्हे, सत्तमे, अट्ठमे, दसमे, सहस्राणि, द्वे च त्रिषष्ट्यधिके जागशते गच्छति मएमलमेक- कारसमे, पगएरसमे चंदममले। विंशत्या भागसहनैनवनिश्च षष्टयधिकैः शतैः लिखा इति ।। "एते गं" इत्यादि । एतानि भदन्त ! अष्टौ नकत्रमण्डलानि अत्रोपपत्तिः-इह नक्षत्रमएकल काल एकोनष्टिर्मुहूर्ताः, प. कतिषु चन्मएडब्लेषु समबतरन्ति अन्तवन्ति ?, चन्जनककस्य च मुहूर्तस्य सप्तपश्यधिकत्रिंशभागानां त्रीणि शतानि त्राणां साधारणमण्डलानि कानीत्यर्थः।भगवानाह-गौतम! सप्तोत्तराणीति ५६।३। इदानीमेतदनुसारेण मुहूर्तगतिश्वि. अष्टासु चन्द्रमामलेषु समवतरन्ति । तद्यथा-प्रथमे चन्द्रमत्यते-तत्र रात्रिंदिवे त्रिशन्मुहूर्ताः, तेषु उपरितना एकोनत्रि- एमले प्रथम नक्षत्रमपम चारकेत्रम, संचारिणामनवस्थितचाशन्मुहूर्ताः प्रतिप्यन्ते, माता एकोनषष्ठिमुहूर्तानाम् । ततः सब- रिणां च सर्वेषां ज्योतिष्काणां जम्बूद्धीपे अशीत्यधिकयोजनर्णनार्थ त्रिनिः शतैः सप्तषष्टयधिकैर्गुणयित्वा उपरितनानि शतमवगायव मण्डलप्रवर्तनात् । तृतीये चन्द्रमण्डले द्वितीय त्रीणि शतानि सप्तोत्तराणि प्रतिप्यन्ते, जातान्येकविंशतिस- नत्तत्रमण्डलम् । एते च द्वे जम्बूद्वीपे। षष्ठे लवणे भाचिनि चन्हस्राणि नव शतानि षष्टयधिकानि २१९६० । अयं प्रति- मएमले तृतीयम् । तत्रैव भाविनि सप्तमे चतुर्थम । अष्टमे पश्च. मण्डलं परिधेः नेदकराशिः। तत्र सर्वाभ्यन्तरमण्डलपरिधिः मम् । दशमे षष्ठम् । एकादशे सप्तमम् । पञ्चदशे अष्टमम् । शेषा३१५०८६ । अयं च योजनाऽऽत्मको राशिभांगाऽऽत्मकेन राशिना णि तु द्वितीयादीनि सप्त चन्मएमलानि नवौर्विरहितानि। जजनार्थः त्रिभिः सप्तषष्टपधिकैः शतः ३६७ गुण्यते । जा- तत्र प्रथमे चम्मएमले द्वादश नक्कत्राणि । तद्यथा-अनि जित, तम ११५६३७६६३ । अस्य राशेरेकविंशत्या सहस्रनवभिः भवणः, धनिष्ठा, शतभिषक, पूर्वानारूपदा, उत्तराभारुपदा, शतः षष्टवधिकैर्भागे हते लब्धानि ५२६५। शेषम् १८२६३२ रेवती, अश्विनी, भरणी, पूर्वाफाल्गुनी, उत्तराफाल्गुनी, स्वाति१९६० भागाः । एतावती सर्वाज्यन्तरमपमलेऽभिजिदादीमांश्च । द्वितीये पुनर्वसु, मघा च । तृतीये कृत्तिका । चतुर्थे द्वादशनकत्राणां मुहूर्तगतिः।
रोहिणी, चित्रा च । पञ्चमे विशाखा । षष्ठे अनुराधा । सप्तमे अथ बाह्यनकत्रमण्मले मुहूर्तगतिं पृच्चति
ज्येष्ठा । अष्टमे मृगशिरः, आर्जी, पुष्यः, अश्लेषाः, मूलो, हस्तजया णं ते! एक्खत्ते सव्वबाहिरं मंडलं नवसंकमि
व । पूर्वाषाढोत्तराषाढयो वे तारे अन्यन्तरतो, द्वे द्वे बाह्यत
इति । एवं स्वस्वमएमलावतारसत्कचाजमण्डलपरिभ्यनुसा. त्ता चारं चरश्, तया एणं एगमेगेणं महत्तेणं केवड्यं रेण प्रागुक्तरीत्या द्वितीयाऽऽदीनामपि नक्षत्रमरामलानां मुहूर्तखेत्तं गच्छद गोयमा! पंच जोयणसहस्साई तिहिण अ गतिः परिभाबनीया। उक्ता प्रतिमण्डलं चम्बाऽऽदानां योजएगूणवीसए जोयणसए सोलस य नागसहस्से तिएिण
नाऽऽत्मिका मुहूर्त गतिः । जं. ७ वक० । अपएणढे जागसए गच्छद मंडलं एगवीसाए भागसहस्सहिं
णक्खत्तमास-न (ना)कत्रमास-पुं० । चन्द्रस्य नक्कत्रमएमने ए वहि असटेहिं मरहिं छेत्ता।
परिवर्तमाने निष्पन्न इत्युपचारतो मासोऽपि नकत्र,नकत्रेषु नवो
नावत्रः, सचासौ मासश्च । चन्द्रश्चारं चरन् यावता कासेना"जया णं" इत्यादि । यदा भदन्त ! नत्रं सर्ववाहां मरामलमु- भिजित प्रारभ्योनाराषाढानक्षत्रपर्यन्तं गच्छति तत्काल प्रमाणे पसंक्रम्य चारं चरति, तदा एकैकेन मुहूर्तेन कियत् क्षेत्रं गच्छ- मासभेदे, व्य. १ च । नि० चू० । स्था० । तम्मानम्-नकत्रति। अत्राप्येकवचनं प्राग्वत् । नगवानाह-गौतम! पञ्च यो- मासः-सप्तविंशतिरहोरात्रः, एकविंशतिश्च सप्तपष्टिजागा अ. जनसहस्राणि त्रीणि चैकोनविंशत्यधिकानि योजनशातनि पोमश होरात्रस्य । नत्रसंवत्सरे ह्यहोरात्रास्त्रीणि शतानि सप्तविंशच भागसहस्राणि त्रीणि च पञ्चषष्यधिकानि भागशतानि ग- त्यधिकानि, एकपञ्चाशच सप्तषष्टिभागा अहोरात्रस्य । ततस्त्रच्चति मामलमेकविंशत्या भागसहस्रनवभिश्च षटवधिकैः याणां शतानां सप्तविंशत्यधिकानां द्वादशजिनागो ह्रियते, लशतैः विश्वा इति । अत्रोपपत्तिः-अत्र मरामले परिधिः ३१. ग्धाः सप्तविंशतिरहोरात्राः, शेषात्रयस्तिष्ठन्ति । तेऽपि सप्तष८३१५ । अयं त्रिभिः सप्तपष्टयधिकैः शतैः ३६७ गुगयते, जा- विभागकरणार्थ सप्तपष्टया गुण्यन्ते, जाते द्वेशते एकोत्तरे । तम-११६८२१६०५॥ अस्य राशेरेकविंशत्या सहनवनिःशतः १०१। येऽपिच उपरितना एकपञ्चाशतसप्तपष्टिभागा, ताप
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वक्खतमास
(१७२) अभिधानराजेन्द्रः | तत्र प्रशिष्यन्ते जाते दधि २५२ । तेषां द्वादशमिभांगे हते खम्भा एकविंशतिः सप्तषष्ठिनागाः, बागतं यथोक्तं नक्षत्रमासपरिमाणम् । ज्यो० २ पाहु० । नि० चू० । नृ० । “एगमेगेखं जक्स समासे सत्तावीसाहि राईदियाहि रादियम्गेयं पचता" । ल० २७ सम० । ( 'मास' शब्देऽन्यद्यते) क्खसमुह-नक्षत्रमुख-न० । चन्द्रे, taar मुहं ब्रूहि, क्वाण मुहं चंदो ।" उत्त• २५ अ० ।
66
एक्वतविचय-नक्षत्र विचय- पुं० । विपूर्वश्चिक स्वभावात् स्वरूपनिर्णये वर्तते । तथा चोक्तमन्यत्र- "आप्तवचनं प्रवचनं, शास्यावियदनिन" तत्र विषय
विषयो नक्षत्रविचयः। नकुषाणां स्वरूपनिर्णये सुप्र०१ पाहु• । ( स च 'एक्खस' शब्देऽत्रैव भागे १७७७ पृष्ठे बक्तः ) एक्स्खच संगच्छर-न [ ना ] क्षत्रसंवत्सर-पुं० | नक्षत्रेषु भवो नाक्षत्रः । किमुक्तं भवति ? - चन्द्रश्चारं चरन् यावता कालेनाभिजित आरभ्योत्तराषाढा नक्षत्रपर्यन्तं गच्छति तत्प्रमाणो नाकजो मासः । यदि वा बन्दस्य नक्षत्रम एकले परिवर्तनतानिपन्न इत्युपचारतो मासोऽपि नक्षत्रम् । स च द्वादशगुणो नक्क संवत्सरः ! जं० ७ वक्ष० । चन्द्रस्य नक्षत्रम एकलभोगकालो नक्षत्रमासः, स च सप्तविंशतिर्दिनानि एकविंशतिः सप्तषष्टिभागा दिवसस्येत्येवंविधादशमासमिते संवत्सर, ०५ aro ३ उ० । स चायं त्रीणि शतानि ग्रहां सप्तविंशत्युसराणि एकपञ्चाशश्च सप्तषष्टिभागा इति । स्था० ८ ठा० ३३० ।
संप्रति नक्षत्रसंवत्सरमाह
क्वत्तचंद जोगो, बारसगुणिओ उ णक्खतो । नत्रखन्द्रयोगः सप्तविंशत्या नत्रैः साकल्येन व एकत्र चन्द्रेण योगः, एष द्वादशभिर्गुणितो नकत्रो नक्षत्र संवत्सरो भवति । अत्र पुनरेकः समस्तनक्षत्र योग्यपर्याय एव नक्षत्रमासः । सव सप्तविंशतिरोराजा, एकविंशतिका सम्पष्टिभागा हो राजस्य एवं राशिर्यदा द्वादशभिर्गुण्यते तदा श्रीएयहोरात्रशतानि सप्तविंशत्यधिकानि, एकपञ्चाशच्च सप्तषष्टिभागा अहोरात्रस्य । एतावत्प्रमाणो नक्षत्रसंवत्सरः। ज्वो• २ पाडु० ।
नामनिरुक्तिमुक्त्वाऽथ तेषां भेदानाह
क्खत्तसंवरे णं भंते ! कविढे पत्ते ?। गोयमा ! दुवालसवि एणते । तं जहा - साबणे, भद्दवए, आसो ५० जाव असावा मिडकई महमाई दुवाल सेहि संदरेहिं सम्यक्चमं समाने सेतं क्वतसंबच्चरे ॥
"जात" इत्यादि । नक्षत्रसंवत्सरो भगवन्! कतिविधः प्रह सः ? | जगवानाद - गौतम ! द्वादशविधः प्रज्ञप्तः । तद्यथा- भावखः, भाऊपदः, आश्विनः। यावत्पदात् कार्तिकाऽऽदिसंग्रहः । द्वादशस्त्वाषाढः। अयं भावः - इदैकः समस्तमक्कत्रयोगपर्यायो द्वादशनिर्गुणित संवत्सरः ततो मे नत्रसंवासरस्य पूरका
देश समस्तनक्षत्र योग्य पर्यायाः भ्रावण भाद्रपदाऽऽदिनामानः, तेऽध्यवयवे समुदायोपचाराद् नक्षत्र संवत्सरः । ततः भाषणाऽऽ
यगर दिद्वादशविधो नत्र संवत्सरः । वा इति पक्कान्तरसुचने। अथवा बृहस्पतिमदादो द्वादशनिः संवत्सरैयागमधिकृत्य यत् सबै नक्षत्रमण्डलमनिजिदादन्याविंशतिनक्षत्राणि परिसमापयति तावान् कालविशेषो द्वादशवर्षप्रमाणो नत्रसंवत्सरः । जं० ७ ० चं० प्र० । उक्तस्वरूपे प्रमाण संवत्सरनेदे, वक्ष्यमाणस्वरूपे प्रमाण संवत्सर, मल संवत्सरभेदे च ।
तत्स्वरूपं च
ताणक्खणं संवरस्स पंचवि लवखणं पाचे तं जहा - " समगं एक्खता जोगं, जोएंति समगं उऊ परिधमंति । डच्चुएह पातिसीते, बहुउदो होति एक्खफो" ।। १ ।।
"ता णक्खस" इत्यादि । 'ता' इति । तत्र नत्र संवत्सरस्य लक्क णमधिकृत्य पञ्चविधः किमुतं मतिसंवत्सरस्व पञ्चविधं लक्षणं प्रप्तमिति । तदेव गाथयाह- (समग लक्
जोग जोपंति ति) यस्मिन् संवत्सरे समके समकमेव एककालमेव, ऋतुजिः सहेति गम्यते । नक्षत्राणि उत्तराषाढाप्रभृतीमि. योगं युजन्ति सहितां मास परिसमापयन्ति तथा समकमेव - एककालमेव, तया तया परिसमाप्यमानया पौर्णमास्वा सह तो निदायाद्याः परिणमति परिसमाप्पाम्ति इयमत्र नाचना-पश्मिन संवत्सरे न
स्तस्य तस्य ऋतोः पर्यन्तवर्ती मासः परिसमाप्यते तेषु च तां तां पोर्णमासी परिसमापयन्त्सु तथा तथा पौर्णमास्या सह ऋतवोपमायाऽऽदि का परिसमाप्तिमुपयान्ति यथा-उत्त
पादानत्रे आषाढी पौर्णमासीं परिसमापयति, तया आषाया पौर्णमास्या सह निदाघोऽपि ऋतु परिसमाप्तमुपैति स नवसंवत्सरः नानुरोधेन तथापरिणममानत्वात् तेन चलकणद्वयमभिहितं इष्टव्यम् । तथा न विद्यते अतिशयेन उष्णम् वरूपः परितापो यस्मिन् स नात्युष्णः, तथा न विद्यतिशयेन शीतं यत्र स नातिशीतः बहु उदकं यस्मिन् समद्दकः। एवंरूपैः पञ्चनिः समरुतो भवति न संवत्सरः । वं० प्र० १० पाहु० २० पा० । स्था० । क्खि [ ण् ] - नखिन - त्रि । नखाः करजा विद्यन्ते येषां ते नखिनः । प्रशंसायामत मतुर, बधा रूपवती कन्येत्यादिषु । "द्वितीययोरुपरिपूर्वः " २ ० द्वितीयतुर्थबोद्वित्वप्रस उपरि पूर्वी भवतः । * इति लकारस्य ककारः, द्वित्वं च । सुनखेषु, दृ० १३० ।
राग- नग - पुं० 1 पर्वते, औ० जी० । तं० । सूत्र० । ज्ञा० प्रश्न० ।
जड़ा से लगाणं पवरे सुमहं मंदरो गिरी ।" उत्त० ११ अ० । वृक्के च । वाच० ।
जगय - नाग्न्य- न० । ननस्य भाबो नाम्यम् । सरजस्कत्वे, "तूइगहरां जड़ नगबाणं " । संधा० । नगर-नकर - न० | नास्मिन् करोऽस्तीति नकरम् । नखाऽऽदिस्वान्नोऽकारानायः । बृ० १ उ० । उत० | आचा० नि० खू० । कल्प० । स्था• अष्टादशकररहिते, प्र० १ ० १ ० । प्रका | स्था० । उत्त०] व्य० का० ग० करदायिलोकाssवासे, प्रश्न० ३ श्र० द्वार ।
* यथा-'बक्लाएं, बग्धो, मुच्छा, णिक्करो," इत्यादि ।
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(१७ ) णगर अभिधानराजेन्षः।
गरी नगर-न। चतुर्गोपुरोभासिनि पत्तने, औ० । ।
रुबद्दवा, मुनिक्खा, पासंमिनिहत्थवीसत्यमुहावासा, "ग्रामो वृत्यावृतः स्याद्, नगरमुरुचतुर्गोपुरोद्भासिशोभम् , प्रणेगकोमिकुटुंबियाऽऽइएणणिव्बुयमुहा, णमणदृगजबखेटं नद्यषिवेष्टं, परिवृतमनितः खर्वट पर्वतेन । ग्रामैर्युक्तं मट (ड) म्बं, मिलितदशशतैः पत्तनं रत्नयोनि,
मसमुट्टियवेलंवयकहगपवगलासगाइक्खगलंखमंखतूणइ. खोणाऽऽस्य सिन्धुवेलावलयितमय संबाधनं वावा "॥१॥
व्रतुंबवाणियश्रणेगतामायराणचरिया, मारामुजाणअगहसूत्र०२७०२० ।
तलागदीहियवप्पिणगुणोववेवा, * विद्धविउलगंभीरखा. "पुण्यक्रियाऽदिनिपुणे-चातुर्यजनैर्युतम् ।
यफनिहा, चकगयत्नुसूढिोरोडसयग्घिजमलकवाडघणअनेकजातिसंबक, नैकशिस्पिसमाकुलम् ॥ सर्वदैवतसंनदं, नगरं त्वभिधीयते।" वाच।
सुप्पवेसा,धणुकुमिलकपागारपरिक्खित्ता, कविसीसयवनगरवासिषु प्रकृतिषु, का. १ श्रु.१०।०। सैन्यनिवा- हरक्ष्यसट्ठियविरायमाणा, अट्टामयचरियदारगोपुरतोरणउ. सिप्रकृतिषु, ज०७श०१०।
हायसुविभत्तरायमग्गा, व्यायरियरइयदढफलिहदकीला, गरगुत्तिय-नगरराप्तिक-पु.नगररकके, का.१९०२ मा विवाणिवणियछेत्तसिप्पियाऽऽइणिव्वुयमुहा, सिंघामगकोट्टपाले, प्रश्न०५ आश्रद्वार।
तिगचउक्कचच्चरपणियाऽऽवणविविहवत्युपरिमंडिया,सुरम्मा, मगरहाण-नगरस्थान-न०। उरुसग्रामस्थाने, कल्प०४ कण । नरवइपविशएणमहिवइपहा, अणेगवरतुरगमत्तकुंजररहपणगरणिकपण-नगरनिर्धमन-० । नगरजलनिर्गमने, भ.३ करसीयसंदमाणीयाऽऽइम्मजाणजुग्गा विमुनसणवणलिश.७ उ० । नगरजलनिर्गमनकाले, का०१ श्रु०२५०। णिसोनियजला, पंडुरवरभवणसमिमहिया, उत्ताणणयणणगरणिवेस-नगरनिवेश-पुं० । नगरवासकल्पनायाम, स० पेच्छणिज्जा, पासाईया, दरिसणिज्जा,अभिरूवा पमिरूवा। ७२ सम।
तत्र योऽयं गंशब्दः स वाक्यालङ्कारार्थः । 'ते' इत्यत्र च य ए. एगरधम्म-नगरधर्म-पुं० । नगराऽचारे, स्था० १० ठा० । कारः, स प्राकृतशैत्रीप्रभवः। यथा-"करेमि ते!" इत्यादिषु ।
ततोऽयं वाक्यार्थों जातः-तस्मिन् काले तस्मिन् समये, य. सगरमाण-नगरमान-न० । नगरस्य द्वादशयोजनाऽऽयामनव
स्मिनसो नगरी बभूवेति । अधिकरणे चेयं सप्तमी । अथ योजनव्यासाऽऽदिपरिझाने, कलशाऽऽदिनिरीक्षणपूर्षकसूत्रन्या.
काससमययोः कः प्रतिविशेषः । नच्यते-काल इति सामान्य सयथास्थानवर्णाऽऽदिव्यवस्थापरिकाने, जंग पचचत्वारिंशोऽयं
कालः वर्तमानावसर्पिएयाश्चतुर्थविभागलकणः । समयस्तु-त. कलानेदः । जं. २ वक।का।स।
द्विशेषः, यत्र सा नगरी, स राजा, वर्षमानस्वामी च पभूव । णगरमारी-नगरमारी-स्त्री० । नगरवासिलोकानां मारिकृते
अथवा-तृतीयवेयम्। ततश्च तेन कालेन अवसर्पिणीचतुर्थाऽऽर. प्राणकये, जी. ३ प्रति०।
कलकणेन हेतुभूतेन, समयेन तधिशेषन्तेन हेतुना चम्पा गररक्खिय-नगररक्षिक-पुं० । नगरं रक्षति यः स नगरर- नाम नगरी (होत्थ त्ति) अभवदासीदित्यर्थः । ननु चेदाविकः । कोहपाले, नि० चू०४ उ.।
नीमपि साऽस्ति, किं पुनरधिकृतप्रन्थकरणकाले, तत्कथमुक्त
मासीदिति ?। उच्यते-भवसर्पिणीत्वात्कालस्य वर्णकप्रन्यवर्णिणगरवह-नगरवध-पुं० । सर्वेषां नगरवासिनामपराध्यनपरा
तविभूतियुक्ता सा इदानीं नास्तीति । (ऋद्धस्थिमियसमिका) ध्यविवेकेन प्रत्यनीकराजाकया मारणे, “से सुच्चाई नगरवहे
ऋद्धा जवनाऽऽदिनिर्वृकिमुपगता, स्तिमिता भयवर्जितत्वेन स्थिघ सहे।" अथ तेषां नारकाणां भयानकशब्दो नगरवध इव
रा, समृदा धनधान्याऽदियुक्ता।ततः पदत्रयस्य कर्मधारयः। श्रूयते । यथा नगरसंबन्ध महानाकन्दः स्याताशे, सूत्र.१|
(पमुश्यजणजाणवया) प्रमुदिता , प्रमोदकारणवस्तूनां श्रु० ५०१०॥
सद्भावात् जना नगरीवास्तव्यहोकाम, जानपदाच जनपदभगराय-नगराज-पुं० । मन्दरे, मेरौ च,
स्थान
वाः, तत्राऽऽयाताः सन्तो यस्याम्, सा प्रमुदितजनजानपदा । पागरावास-नगराऽऽवास-पुं० । नगराणामावासेषु, नगरक- वान्तरे-“पमुश्यजणुजाणजणवया"। तत्र प्रमुदितजनान्युद्यापेषु वा आवासेषु, स.
नानि जनपदाश्च यस्यां सा तथा। (आश्मजणमणुस्सा) मनुणगरी-नगरी--स्त्री० पुर्याम, औ०।
ध्यजनेनाऽऽकी संकीर्णा, मनुष्यजनाकोणेति वाच्ये राजतवर्णकः
दन्ताऽऽदिदर्शनादाकीर्णजनमनुष्यत्युक्तम् । पाकीणों वा गुणते ए काले णं ते णं समए णं चंपा नाम नयरी होत्या
व्याप्तो मनुष्यजनो यस्यां सा तथा। (हलसयसहस्ससंकि
टुविकिहलटुपयत्तसेउसीमा) हलानां लाङ्गलानां शतैः, सरिद्धत्यिमियसमिछा, पमुइयजाएजाणवया, आइस्मजणम- हौश्च शतसहस्त्रैर्वा लकैः, संकष्टा विसिखिता विकृष्ट दरं गुस्सा, इलसयसहस्ससंकिटविकिट्ठनपछत्तसेउसीमा, कु- यावत, भविष्टा चापासना, ला मनोका, कर्षकाभिमतफ. कुमसंमेयगामपउरा, उच्चुजवसालिकलिया, गोमहिमग
लसाधनसमर्थत्वात् । (पपत्त ति) योग्यीकृता बीजवपनस्य
सेतुसीमा मार्गसीमा यस्याः सा तथा । अथवा संकृष्टा55बेलगप्पजूता,आयारवंतचेइयजुवावि विहसंणिविट्ठबहुमा,*
दिविशेषणविशिष्टानि सेतूनि कुल्या जलसेककेत्राणि सीउक्कोमियगायगठिभयजमतकरखंरक्खरहिया, खेमा,णि
| मासु यस्याः सा तथा । अथवा-हलशतसहस्राणां सं*'अरिहंतचेश्यजणवयविससिविट्टबहुला' इति पागन्तरम। *'णंदणवणसचिनप्पगासा' इति कचित् पाठः।
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(१७९४) अभिधानराजेन्द्रः ।
णगरी
कृष्टेन संकर्षणेन विकुश दूरबर्तिम्यो लष्टाः महषिता । कथिताः सेतुसीमा यस्याः सा तथा; अनेन तज्जनपदस्य लोकबाहुल्यं, क्षेत्रबाहुल्यं चोक्तम् । ( कुक्कुम संमेगापड) कुक्कुटा ताम्रचूडा परमेयाः पण्डपुत्रका euमा एव तेषां प्रामाः समूहास्ते प्रचुराः प्रभूताः यस्यां सा तथा अनेन लोकप्रमुदितत्वं व्यक्तीकृतमः प्रमुदितो दि लोकफीमा कुपोषयति परां करोतीति। (उजवसालिकमिया) पाठान्तरेच" ब्लुजवस्त्रानिमालिया।" तदध्यामेत्यर्थः अनेन च जनप्रमोदकारणमुकं, न शेवंप्रकारवस्त्वनावे प्रमोदो जनस्य स्यादिति । (गोमहिसगवेल गप्प भूता) गवादयः प्रभूताः प्रचुरा यस्यामिति वाक्यमगधेशका उरता ( भायारवंतचे पाविविस
बहुला ) भाकारवन्ति सुन्दराऽऽकाराणि आकारचित्राणि वा यानि यानि देवतायतनानि युवतीनां च प मीनामिति हृदयम्। यानि विविधानि सनि नाति पाटकाः तानि बहुलानि यस्यां सा तथा । " अरिहंतचेश्यावदविधिविषहुआ" इति पाठान्तरम्
जनानां व्रतिनां च विविधानि यानि सन्निविष्टानि पाटकास्तैर्बहुलेति विग्रहः।" जागबिराचे वय चिचिविषहुआ इति च पाठान्तरम् । तत्र च सुयागाः शोभनयज्ञाः, चित्रत्यानि प्रतीतानि, यूपचितयो यज्ञेषु यूपचयनानि, धूतानि वा श्रीमाविशेषाधित यस्तेषां निनिवेशा, बेहुला या सा तथा । ( उक्कोमियगायगंविज्ञे यजकतकरखंड रक्बरहिया) रको उरकोचा, लत्यर्थः तथा व्यवहरन्ति तेरो. का, गात्रात् मनुष्यशरीरावयवविशेषात् कदे सकाशा प्रन्थिकार्षापणाऽऽदिपुट्टलिकां जिन्दम्स्याच्चिन्दन्तीति गात्रग्रन्थि भेदकाः ।" टक्कोडिगार गंविजेय " इति च पाठान्तरं व्यक्तम् । भटाचारजटाः बलात्कारप्रवृत्तयः, तस्करास्त एव चौये कुर्वन्तीत्येवंशीलाः, खण्डरका दण्डपाशिकाः, शुल्कपाला वा, पभीरहिता या सा तथा अनेन तत्रोपद्रव कारिणाम भावमाह । (सेना) शिवाभावादनिरुपा विद्यमा नराजाऽऽदि कृतोपवेत्यर्थः । (सुजिक्वा) सुष्ठु मनोका प्रचुरा भिका निक्षुकाणां यस्यां सा सुनिका, अत एव पाषण्डिनां गृहस्थानां च (सत्यमुदायासा) विश्वस्त निर्जयानामनुत्सुकानां वा सुखः सुखस्वरूपः गुनो वाssवासो यस्यां सा तथा (भरोगकोमि कुटुंबियाच निष्युवसुदा) अनेकाः कोटयो यसयानां स्वरूपपरिमाणे वा येषां ते अनेकको
در
यः तैः कौटुम्बिकुटुम्बिभिराकी सकुला या सातया । सा बासी निर्वृता च सन्तुष्टजनयोगात्सन्तोषपतीति कर्मधारयः : अत एव सा चासौ सुखा च गुना वेति कर्मधार
यः नगजवक गलामा
गलंखमंातूरलतुंववीणिय भणेगतालायराचरिया ) नटाः नाटकानां नाटयितारः, नर्तका ये नृत्यन्ति, अङ्किल्ला इत्येके । अद्वापरकारास्तोत्रपालका इयम्बे मला प्रतीताः । मौहिका मला एव मे मुभिः प्रहरन्ति विरुका वि बकाः, कथकाः प्रतीताः, सबका ये उत्सवन्ते, नद्यादिकं वा तरन्ति । झासका ये रासकान् गायन्ति, जयशब्दप्रयोकारो वा, जाण्डा वा इत्यर्थः । आख्यायका बे बुजाशुनमायान्ति । लङ्क महावंशाप्रखेल काः, महाश्चित्रफलक हस्ता निक्षुकाः, 'तूणरखा 'तूलाभिधानवाद्य विशेष षन्तः, तुम्ब वीणका वीणावाद
या गरी
1
.
काः अनेके च ये दानेन मेाकारिणः तैर चरिता सेविता या सा तथा । ( धारामुजाणअगमतलागदीहियवप्पिणगुणोधवेया ) भारमन्ति बेषु माधवीसहादिषु यानि कीमति आरामा उद्यानानि पु ess दिसद्वृक्षस कुलान्युत्सवाऽऽौ बहुजनभोम्यानि ( अंगड (स) अवटाः कूपाः, तमागानि प्रतीतानि दीर्घिका सारणी, (वपिति केदार पतेषां ये गुणाः रम्यता पा का या सा तथा । उप अप इत इत्येतस्य शब्दत्रयस्य स्थाने शकन्ध्वादिदर्शनादकारलोपे उपपतेति भवति । कचित्पउपते-" मंदणचणचिभव्यवासा " नन्दनवनं मेरोद्वितीयवनं तत्प्रकाशसन्निभः प्रकाशो यस्यां सा तथा । इह चैकस्य प्रकाशशब्दस्य लोप उष्ट्रमुख इत्यादाविवेति । (उविकि गंभीरायफलदा) अधिक विपुलं विस्तीर्ण ग नीरमसमध्ये बातमुपरि विस्तीर्णमः सङ्करं परिवा अध उपरि व समा खातरूपा यस्यां सा तथा । (चक्कगभुसुंदिभोरोह सन्धिजमकवाण्यवखा चाणि रथाङ्गानि भरघट्टाङ्गानि या गाः प्रहरविशेषाः षडयो ऽच्येव । अवरोधः प्रतोषिकार संजायते । शतथ्यो महायष्टयः, महाशिला वा, या उपरिष्टात्पातिताः सत्यः शतानि पुरुषाणां प्रतीति यमज्ञानि समसंस्थितरूपाणि यानि कपाटानि धनानि च निश्ािणि देश या सा तथा ( कुक्षिक पगारपरिचिता) धनुः कुटिलं कुटिलधनुः, ततोऽपि वक्रेण प्राकारेण परिचिप्ता या सा तथा । (कविसीसय वट्टरइयसंठियविरायमाणा ) कपिशीर्षकेर्वृत्तिरचितैर्वर्तुलकृतैः संखितैर्विशिष्ट संस्थानवद्भिविराजमाना शोभमाना या सा तथा । (अट्टालयचरियदारगापुर तोरणयसुविभचरायमग्गा ) महालका प्राकारोपरित्यचय विशेषाः, चरिका अष्टहस्तप्रमाणा नगरप्राकारान्तरालमार्गाः, द्वाराणि प्राकारद्वारिका, गोपुराणि पुरद्वाराणि तोरणनि प्रतीतानि, उचतानि गुणवन्ति चानि पस्यां सा तथा सुचना विविक्ता राजमार्ग यस्यां सा तथा । ततः पदद्वयस्य कर्मधारयः (ग्वायरियरस्याहीमा टेकेन निपुणेनाचार्येण शिक्षिपना रचितो दो बलवान् परिघा, इन्द्र गोयुरावयवविशेषो यस्यां सा तथा विषय जिवच्छेसिपियाऽऽपिल्युपसुहा) विपणीनां वणिक्पथा
व
नां मागां बचि च वाणिजकानां क्षेत्र स्थानं या सा तथा शिक्षित कुम्भकाराऽऽदिभिराको अत एव जनप्रयोजनसंखनिनां सुनि र्वृतसुखा च या सा तथा । वाचनान्तरे-बेतशब्दस्य स्थाने बेयशब्दोऽधीयते। तत्र च शिपिकाकीर्णेति व्याधेयम्। (सिं घामगतिगचडकचच्चरपणियाॐवणविधिवत्परिमंडिया) शृङ्गाटकं त्रिकोणं स्थानं, त्रिकं यत्र रध्यात्रयं मिलति, चतुष्कं याच चत्रं बहुपातस्थानं पचितानि एकानि प्रधाना आपणा हा विविधवस्तूनि अनेकविध इम्यादिभिः परिमरिता या सा तथा पुस्तकान्तरेऽधीयते "सिंघारगातंग यचरचरम्हमहापड पसु पचियाऽपण विविहवे सपरिमंभिया ।" तत्र चतुर्मुखं चतुर्द्वारं देवकुलादिमहायपो राजमार्गः पन्थास्तदितरः शृङ्गाटकादिषु पणि जनविधिश्यामि परिता या सा तथा सुखमा रमणीया (नरवरपश्चिमविश्
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(१७६५) गागरी अभिधानराजेन्धः।
णग्गइ नरपतिना राज्ञा प्रविकीणों गमनागमनाभ्यां व्याप्तो मही
सनं ददौ । राज्ञा कचे-का स्वम् ?, कोऽयमजिनिवासः,किमिदं पतिपथो राजमागों यस्यां सा तथा । अथवा-नरपतिना
रम्यं धामसा प्राहु-भूपास!प्रथमं मत्पाणिग्रहणं कुरु,साप्रविकीर्णा विक्षिप्ता निरस्ताऽन्येषां महीपतीनां प्रभा यस्यां
म्प्रतं सिंहविशिष्टं लग्नमस्ति, पश्चात्सर्व वृत्तान्तमहं कथयिसा तथा । अथवा-नरपतिभिः प्रविकीर्णा महीपतेः प्रभा
प्यामि । तयस्युक्ते नरपतिस्तत्र कन्यया समं पूजितं जिनबिम्ब
प्रणम्योहाहमाइल्यमलञ्चकार । तुपतिना परिणीता सा क. यस्यां सा तथा । ( अणेगवरतुरगमत्तकुंजररहपकरसीयसंदमाणियाऽऽइमजाणजुग्गा ) अनेकवरतुरगैर्मत्तकुञ्जरैः (र
म्या विविधान् भोगोपचारान् चकार, विचित्राश्च भक्तीर्दहपकरे ति) रथनिकरैः शिविकाग्निः स्यन्दमानाभिराकीर्णा
शयामास । अवसरे राजा तां प्रत्येवमाह-विमलः पुण्यैरावयोः व्याप्ता यानयुग्यैश्च या सा तथा। अथवा-अनके बरतुरगा
संबन्धो जातोऽस्ति,परं त्वं स्ववृत्तान्तं वद-कासि त्वम?, कथऽऽदयो यस्यामाकीर्णानि च गुणवन्ति यानाऽऽदीनि यस्यां
मौकाकिनी वससि | स्वभत्रैवमुक्तेसा स्वसंबन्धं मूबतो वक्तसा तथा । तत्र शिविकाः कूटाऽऽकारेण गदिताः 'जम्पान'
मारेभे-क्षितिप्रतिष्ठे नगरे जितशत्रुनूपोऽस्ति, सोऽन्यदा परदेशाविशेषाः, स्यन्दमानिकाः पुरुषप्रमाणा जम्पानविशेषाः, यानानि
ऽऽयातचरानेवमाह-अहो! माज्ये किञ्चिद् न्यूनमस्ति । ते शकटाऽऽदीनि, युग्यानि गोल्लविषयप्रसिकानि द्विहस्तप्रमाणा
प्राऽऽहुः-सर्वमस्ति तब राज्ये, परं विचित्रचित्रा सभा नास्ति। नि वेदिकोपशोभितानि जम्पानान्येवेति । (बिमुरलणवण
ततो नृपतिश्चित्रकरानाकार्य सभागृहभित्तिभागास्तेषां सर्वेषां लिणिसोभियजला ) विमुकुलाभिर्विकसितकमलाभिर्नवा.
समाश्चित्रयितुं दत्ताः। सर्वेऽपिचित्रकरा:स्वस्खभित्तिनागान् गा. निनलिनीभिः शोभितानि जबामि यस्यां सा तथा । (पंमु
ढोयमेन चित्रयन्ते। तत्रैको वृद्धश्चित्रकरः सकलचित्रकलावे. रवरभवणसमिमहिया ) पारामुरैः सुधाधवः वरभवनैः
दी स्वभित्तिभागं चित्रयितुमारब्धवान् । सहायशून्यस्य तस्य प्रासादः सम्यक् निरन्तरं महितेव माहेता पूजिता या सा|
निरन्तरं गृहतः कनकमञ्जरी रूपवती तत्पुत्री भक्तं तत्राऽऽनतथा । ( उत्ताणणयणच्छणिज्जा ) सौभाग्यातिशयाकुत्ता
यति। अन्यदा सा स्वगृहाजक्तमानयन्ती राजमार्गे गच्छन्त्यनिकैरनिमिषितर्नयनैलॊचनः प्रेवणाया या सा तथा । (पा- श्ववारमेकं ददर्श। स च बालस्त्रीवराकाऽऽदिजनसङ्कीर्गेऽपि साईया) चित्तप्रसन्नकारिणी । (दरिसणिज्जा)यां पश्य- राजमार्गे त्वरितमश्वमवाहयत्। लोकास्तु तद्भयादितस्ततो नचक्षुः श्रमं न गच्चति । (अभिरूवा) मनोइम्पा। (पझिरुवा)। । सापिकचिनंष्ट्वा स्थिता, पश्चात् तत्राऽऽयाता । भक्तपात्र. षष्टारं पारंप्रति रमणीय' रूपं यस्याः सा तथेति । औ.। हस्तां तामागतां वीक्ष्य स वृश्चित्रकरः पुरोषोत्सर्गाथै बचं० प्र० । ज्ञा०रा०।
हिर्जगाम । एकत्राऽऽहारपात्रमाच्छादयित्वा सा कचिद्भिक्तिणगाहिराय-नगाधिराज-पुं० श्रीशत्रुजयपर्वते,ती०१कल्प। देशे वर्णकैमयूरापिच्छमालिलेख। अथ तत्र राजा संप्राप्तः । भिणगिंद-नगेन्द्र-पुं० । पर्वतप्रधाने मेरौ, सत्र०१ श्रु• ६ म०।
तिचित्राणि पश्यन् कुमार्या लेखिते केकिपिच्चे साकारिपच्छं
मन्यमानः कर चिकेप । जिस्यास्फालनतो नखन्नतेन बिलकीभूणगिण-नग्न-त्रि०ा भावतो निर्ग्रन्थे, आचा.११.६५०१ 31
तं तं नृपं सामान्यपुरुषमेव जानन्ती सा चित्रकरपुडयेषमादएग्ग-नग्न-त्रि०ा नज-क्तः । “अधो मनयाम"1८।२।७०।
चतुर्थः पादस्वं मया सम्धः। नृपः प्राऽह-पूर्व त्वया केन बयः इति संयुक्तस्य नस्य लुक । प्रा०२ पाद । "अनादौ शेषाऽऽदेश- पादा मम्धाः,साम्प्रतमहं कथं त्वया चतुर्थः पादो लब्धः? सा योईित्वम" ।।३। ०९ ॥ इत्यनादो वर्तमानस्य गस्थ प्राऽऽह-श्रयताम्-योज्य राजमार्गे त्वरितमश्वं वाहयन् पालखी. हित्वम् । प्रा. २ पाद । दिगम्बरे, नं। प्राम।
प्रमुखजनानां आसमुत्पादयन् दृष्टः, स मूर्खत्वे प्रथमः पादः । णग्गइ-नग्नजित्-पुं० । गन्धारविषये पुरुषपुराधिपती स्वना- द्वितीयः पाद इतो राजा, यः कुटुम्बसोकसहितैश्चित्रकरैः समं मस्याते राकि, भाव०४०।" नमी राया विदेरेस, गंधा- नितिभागं जराऽऽतुरस्यैकस्यैव मम पितुर्ददौ । तृतीयः रेसु बग्गई ।" प्रत्रजित इति शेषः । उत्त०१०म०। पाचो मम पिता, यो नित्यं भक्ते समायात बाहिर्याति।चतुर्थस्तु अथास्य पूर्वभवचरितनिवदं वृत्तमुभाव्यते
त्वम, योऽस्मिन् भित्तिदेशे मल्लिखिते मयूरपिच्छे कर चिकेप। अस्मिन् भरते पुएमवर्द्धनं नाम नगरमस्ति । तत्र सिंहरथो किमित्वेवं त्वया न विमृष्टम् यदत्र सुधाघृष्टे त्रित्तिदेशे निराधारा राजा वर्तते गन्धारदेशाधिपतिः । तस्य राज्ञोऽन्यदा द्वाबश्वी
मयूरपिच्चस्थितिः कथम'। पचं तस्या बचश्चातुरीरजितो प्राभृते समायाती । तयोः परीकाधमेकास्मिन् तुरले राजा
राजा तस्पाणिग्रहणवाचकासन् तस्याः पितुः समीपे स्वमत्रिणं धिरूढः, द्वितीये तुरङ्गेऽपरो नर मारूढः । तेन सममप- प्रेषयित्वा तांप्रार्थितवान् । पित्राऽपि सारत्ता, सुमुह परिणीरैश्वाश्ववारशतैः परिवृतो भूपतिर्बाह्यामिकायां गतः । परीकां ता, राकः प्रकामं प्रेमपात्रा बजूव । सर्वान्तःपुरीषुच मुख्या जा. कुर्वताच राज्ञाऽश्वः प्रधानगत्या विमुक्तः । सोऽपि बलवता घे. ता। विविधानि दृष्याणि,रत्नाऽऽभरणानि चाऽऽससाद । एकदा गेन निर्ययो। बथा यथा राजा वस्गामाकर्षयति, तथा तथा स
तया मदनाभिधाना स्वदासी रहस्येवंबभाषे-भो ! यदा वायुवेगोऽभवत् । पुरोपवनान्यतिक्रम्य सोऽयो राजानं लाया
मदनशाम्तो तूपतिः स्वपिति, तदा त्वयाऽहमेचं प्रष्टव्यामहाटव्यां प्रविष्टः। भान्तेन नूपेन तदाऽस्य वस्गा विमुक्ता । स्वामिनि! कथां कथयति । तयोक्तम्-भवश्यमहं तदानी प्रश्नअथ यदा बस्मामोचनेऽश्वः स्थिरीबभूव तदा राजैनं विपरीतम- विष्ये । मय रात्रिसमये राजा तगृहे समायातः, तां भुक्त्वा वं मन्यते स्मः ततस्तस्मादुत्तीर्य राजा भूमिश्चरो बभूव । तं - रतभान्तो यावत स्वपिति, तावता दास्था स्यं पृटा-स्वामिनि! पानीयं पाययित्वा वृके बबन्ध, स्वप्राणर्ति व फलैबिंदधे । तत कथां कथयाराची प्राऽऽह-पावाजानिकांनाऽऽमोति तावम्मीएकं नगमारुह्य कचित्प्रदेशे सुन्दरमेकं महावासं ददर्श । राजा नं कुरू, पश्चात् त्वदने यथेष्ट कयां कथयिष्यामि। राजाऽपि तां कुतूहलात्तस्मिन्नावासे प्रविष्टः । तत्रैकाकिनी पवित्रगात्रा | कां श्रोतुकामः कपटनिच्या सुम्बाप। पुनस्या साम्प्रतं कथा कम्यां भूपतिरष्टवान् । सा राजानमागच्छन्तं राष्ट्रवा भूरिह. | कथयेति पृष्टा बित्रकरपुत्री कयां कथयितुमारेभे
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(१७५६) गाग्गइ अनिधानराजेन्द्रः।
गाग्गइ मधुपुरे वरुणश्रेष्ठचेककरप्रमाण देवकुलमकारयत्, चतुःकरप्र. तथैवान्यरात्रौ नृपे सुप्ते दासीपृष्टा राझी प्राऽऽद-कश्चिद् माणो देवस्तत्र स्थापितः,स तस्मै देवश्चिन्तितार्थदायको बजूब। | नृपः स्वपल्यै दिव्यमलङ्कारवरं सुगुप्तमिगृहे रत्नाऽऽलोकात् अथ दासी प्राऽऽह-एकहस्ते देवकुले चतुःकरप्रमाणो देवः कथं | सुवर्णकारैरजीघटत् । तत्रैकः सुवर्णकारः सन्ध्यां पतितां माति, इति तया पृष्टे सा राशी प्राऽऽद-इमं रहस्यं तय ज्ञातवान् । राझी प्राऽऽद-हे सस्त्रि! तेन रत्नाऽऽलोकसहिते कल्यरात्रौ कयिष्यामि, अद्य तु निद्रा समायातीति प्रोच्य सुगुप्तनूमिगृहे यामिनीमुखं कथं ज्ञातमदासी प्राऽऽह-नाहं सा राक्षी राज्ञः शय्यायाः पुरो नृमा सुप्ता । सा दासी तां घोषि, स्वमेव ब्रूहि । राझी प्राऽऽह-साम्प्रतं निद्रा समायातीत्युतथा दृष्टा स्वगृहे गता। राजा मनस्येवं चिन्तयामास-कल्य- क्त्वा सुप्ता । द्वितीयदिनरात्रौ दासीपृष्टा सा प्राऽऽह-स सुवर्णरामाबपीदं कथानकं मया श्रोतव्यमिति निश्चित्य सुप्तः सुखान- कारोराड्यन्ध पासीदिति शातं तेन । इति पश्चमीकथा ५। द्रामबाप । द्वितीयदिनेऽपि राजा तस्या एवं गृहेरात्री समाया- पुनरेकदारात्रौ सुप्ते नृपे दासीपृष्टा साप्राऽऽद-केनापि राका द्वा तः, राज्य यावत् सुखं भेजे, पश्चातश्रान्तोऽपि पूर्वकथा- मनिम्लुचौ निच्छिद्रपेट्यां किप्ता समुद्रमध्ये प्रवाहिती,क्वापि तटे नकश्रवणाय कण्टनिरूया सुप्तः । दासी प्राऽऽह-स्वामिनि! | सा पेटी लग्ना केनचिद् नरेण गृहीता, उद्घाट्य तौ दृष्ट्वा पृटौकल्यकथितकथानकरहस्यं वद । राशी प्राऽऽह-एकहस्ते देव- | प्रो! युवयोर किप्तयोः कतमो दिवसोऽयम् । तयोर्मध्ये चैकः कुले चत्वारः करा यस्य स चतुःकरो देवो नारायणादि- प्राऽऽह-अद्य चतुर्थो दिवस राशी प्राऽऽद-हे सस्त्रि! तेन चतुर्थों स्तत्र स्थापित इति रहस्यम् । इति एका कथा १ ।
दिवसः कथं शातः । दासी प्राऽऽह-अई न वेद्य, त्वमेव ब्रूहि । अथ तृतीयदिनरात्रावपि राजा तथैव कपटनिध्या सुप्तः । राशी तु साम्प्रतं निज़ा समायातीत्युक्त्वा सुप्ता । द्वितीयदिने पुनः कथामद्य कथयति दासी तामाह | सा प्राऽऽह-विभ्या
रात्री दासीपृष्टा राझी प्राऽऽह-स चतुर्थदिनवक्ता पुरुषस्तुचझे पर्वते कोऽपि रक्ताशोकद्रुमः प्रौढोऽस्ति, तस्य घ
ज्वरी यतते स्मेति तेन तथा प्ररूपितम् । इति षष्ठी कथा ६ । नानि पत्राणि सन्ति, परं गया नास्ति । दासी प्राऽऽह-पत्रा
पुनरन्यदा दासीपृष्टा सा राजी रात्रौ कथामाचल्यो-काचित्
स्त्री सपत्नीभयेन निजाङ्गभूषणानि पेट्यां निक्तिप्य मुहां च ऽऽवृतस्य तस्य गया कथं न जायते । राझी प्राऽऽह-एतकहस्यं तब कल्यरात्री कथयिष्यामि, अद्यारतश्रान्ता निद्रासुला
दवालोकनूमौ मुमोच । अन्यदा सा स्त्री सखीनिवासे मनुजविण्यामात्युक्त्वा सुप्ता ।सा दासी तु स्वगृहे गता। अपर
गता, सपत्नी च बिजनं विलोक्य तां पेटीमुद्धाट्यानेकाऽऽभर
णश्रेणिमध्यादेकं हारं निष्कास्य स्वतनयाये ददौ । तनया च रात्रावपि राजा नोगान् नुक्या तयैव तत्र सुप्तः। दासी प्राऽऽदस्वामिनि! कल्यसत्ककथारहस्यं कथनीयम् । राकी प्राऽऽद
खपतिगृहे तं गुप्तं चकार । कियत्कानानन्तरं सा स्त्री तस्य वृत्तस्य सूर्याऽऽतप्तस्य मूर्ति छाया नास्ति, किन्त्वध
तत्राऽऽयाता, तां पेर्टी दुरावलोक्यैव ज्ञातवती-यदस्याः एब गयाऽस्ति । इति द्वितीया कथा २।
पेट्या मध्यान्मम हारोऽनयाऽपहृत इति सपत्नी चौर्येण पया. भथ पुनस्तथैव रात्रौ नृपे सुप्ते दासीपृष्टा गकी प्राऽऽह
मास । सपत्नी शपथान् कुर्वती हारापहारं न मन्यते स्म । तदा कचिम्निवेशे कश्चिऽष्ट्रश्चरन् कदापि बन्चूनतरं ददर्श । तद
सा स्त्री तां सपत्नी दुटदेवपादस्पर्शशपथायाऽऽकर्षितवती।
तदानी भयभ्रान्ता सपत्नी तं हारं तनयागृहादानीय तस्यै ददौ । निमुखां प्रीवां कुर्वन्नप्राप्तशाखः प्रकामं खिन्नस्तस्यैव बन्ध लतरोरुपरि पुरीपोत्सर्ग कृतवान । दासी राक्षी पपच्छ-हे
दासी प्राऽऽद-हे स्वामिनि ! तया कथं झातो हारापहारः? । स्वामिनि ! कथमेतद् घटते, स्वग्रीवया बलतरुन प्राप्तः
राशी प्राऽऽह-कस्ये रात्रौ कथयिष्यामीत्युक्त्वा सुप्ता। द्वितीय.
दिनरात्री पुनस्तया पृष्टा राकी प्राऽऽह-सा पेटी स्वच्छकातदुपरि कथमसावुत्सर्ग चकार? । राझी प्राऽऽह-मध निका
चमयी बतूवेति ज्ञातं तया । इति सप्तमी कथा ७ । समायाति, तेनैतत्कयारहस्यं कल्यरात्राववश्यं कथयिष्या
कस्यचिहाइः कन्या केनापि खेऽटेनापहृता । तस्य राश्चत्वामीत्युक्त्वा सुप्ता । कल्यदिनरात्रावपि तथैव नृपे सुप्ते दासीपृश राझी तत्कथातत्वं प्राऽऽह-स उष्टः कृपमध्यस्थं तं
र पुरुषाः सन्ति-एको निमित्तवेदी, द्वितीयो रथकृत, तृतीयः
सहस्रयोधा, चतुर्थो वैद्यः । तत्र निमित्तवेदी दिशं विवेद । बम्बूलतरुं ददर्शति घटत एवेदम् । इति तृतीया कथा ३॥
रथकृहिव्यं रथं चकार । खगामिनं तं रथमारुह्य सहस्रयोधा, पुनस्तथैव नृपे सुप्ते रात्री दासीपृशा सा राशी कथामाचस्या
वैद्यश्च विद्याधरपुरं गता। सहस्रयोधी तं सेट हतवात् । हन्यकस्मिचिन्नगरे काचित्कन्या नृशं रूपसौनाम्यवत्यासात, तद्व
मानेन तेन बेटेन कन्याशिरश्छन्नम, तदेव तेन वैद्येनौषधेन रणार्थ तन्मातापितृभ्यां त्रयो नरा आइता:समायाताः । तदानी शिरः संयोजितम् । राजा तु पश्चादागतेज्य एज्यश्चतुभ्य॑स्तां फणिना दष्टा सा कन्या मृता । तया समं मोदादेको वरस्त
सुतां ददौ । कन्या प्राऽऽह-एषु मध्ये यो मया सह चिताप्रवेश चितायां प्रविष्टो नस्मसाद पनुव । द्वितीयस्तद्भस्मपिएमाऽऽदाता करिष्यति, तमहं वरिष्यामि । इति प्रोच्य सा कन्या सुरङ्गाद्वारि तद्भस्मोपरि वासं चकार । तृतीयस्तु सुरमाराभ्यामृतं प्राप्तः।। रचितायांचितायां प्रविष्टा । यस्तया सह तत्र प्रविष्टः, स तांकतदमृतेन तच्चितायां सिक्तायां कन्यां. प्रथमं वरं च सद्यो
न्यामूढवान् । दासी प्राऽऽह-हे स्वामिनि ! चतुषु मध्ये कोत्र ऽजीवयत् । कन्याऽप्युत्थिता तान् त्रीन् वरान् ददर्श। राकी
प्रविष्टः। राझी प्राऽऽह-अध रतिश्रान्ताया मे निश्रा समायातीदासी प्राऽऽह-हे सखि! बहि, तस्याः कन्यायाः को बरो युक्तः। त्युक्त्वा सुप्ता । द्वितीयवासररात्री पुनदासीपृष्टा राझी प्राऽऽददासी प्राऽऽह-अहं न वेझि त्वमेव हि । राझी प्राऽऽद-प्रधा निमित्तवेदी-'श्यं न मरिष्यति' इति मत्वा चितां प्रविष्टस्ततस्तानिद्रा समायाति, कल्यरात्रौ कथयिष्यामीत्युक्त्वा सुप्ता । द्वि- मूढवान् । इत्यष्टमी कथा छ । तीयदिनरात्री दासीपृष्टा सावदत्-यस्तस्याः संजीवकः स | पुनरपि रात्रौ दाप्तीपृष्टा राको कथामाह-जयपुरनगरे सुन्दरपिता, यः सहोद्भूतः स बन्धुः । यो भस्मपिएमाऽऽदाता, स नामा राजाऽऽसीत् । स चान्यदा बिपरीताश्वेनैक पवाटव्यां तत्पतिरिति ! इति चतुर्थी कथा ।।
नीतः, ततो वल्गां शिथिलीकृत्याश्वात् स राजा समुत्तीर्णः ।
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(१७७) गाग्गइ अन्निधानराजेन्दः।
एग्ग तमश्वं क्वचित्तरी बद्धा स्वयमितस्ततो भ्रमन् स कस्मिश्चित चार्याः समायाताः। राण्या सह नृपस्तद्वन्दनाय तत्र गतः, नग. सरसि जलं पपौ। तत्रैका सुरूपां तापसपुत्री ददर्श । तापसपु- रलोकोक्तिद्वन्दनार्थ गतः। तदाविमलाऽऽचार्यों देशनां चकार । व्याहूतः स तापलाऽभमं प्राप । तत्र तापसास्तस्य भृशं स- चित्रकरसुता, नृपश्च द्वावपि प्रतिबुको श्रावकधर्म गृहीतवन्ती, कारं चक्रुः । सा कन्या तापसर्दत्ता, राज्ञा च परिणीता। तां परस्परमनाबाधया त्रिवर्गसाधनं कुरुतः। अन्येास्तया दत्तपञ्चनवोढा कन्यां गृहीत्वा तमेवाश्वमधिरुह्य पश्चाद्वमितोऽन्तराम- परमेष्ठिधीनमस्कारस्तत्पिता मृतो व्यन्तरो जातः । कालान्तरेमार्गे कचित् सरपाल्यां राजा सुप्तोऽपि जाननेवाऽऽसीत् । णाऽऽदंतं धर्ममाराध्य चित्रकरसुता राशी मृता देवीत्वं प्रापातत. राही तु निकाणा । केशरिरावसेन तत्राऽऽगत्य नृपस्यैवं क- इचुत्वा वैतात्ये तोरणाभिधेपुरे रदशक्तिस्त्रेचरस्य पुत्री कनकमाथितम्-पएमासान् यावद् बुभुक्कितोऽहं त्वां भक्ष्यं प्राप्या- मा बनूव । प्राप्तयौवनां तामेकदा वीक्ष्य कन्दर्पतप्तो बासतनामा ध तृप्तो भविष्यामि, अन्यथा महाग्छितं देहि । राज्ञो- कश्चित् खेचरोऽपहत्यात्रमहाद्री मुक्त्वा स्वचित्ते प्रमोदं षभार। कम-बृदि स्वघानितम् । तेनोक्तम्-कश्चिदष्टादशवर्षीयो प्रा. भत्र विद्याबलात् समग्र सामग्री विधाय स वासवविद्याधरो ह्मणपुत्रः शिरसि पितृदत्तपदस्वया बड्रेन इतः सप्तदिनमध्ये यावान्धवाद्वाहाय समुत्सुकोऽभवत, तावत् कनकमासाऽप्रजः चेद्वलिदीयते, तदाऽहं त्वां मुञ्चामि, नान्यथा इति। राका प्रति- सुवर्णतेजास्तदनुपदिकस्तत्राऽऽयातस्तं वासघं विद्याधरमधिपन्नम्।प्रमाते राजा चलितः कुशलेन स्वपुरं गतः। सैनिकाःस- क्षिप्तवान्।तो द्वावपि कोपाघोरं युकं कुर्वाणौ परस्परप्रहाद् वेऽपि मिमिताः। राझा स्वमन्त्रिणं प्रति राकसवृतान्तः कथितः। मृतौ। कनकमाला तु नृशं भ्रातृशोक चकार। तदानी कश्चिद्देवमन्त्री सुवर्णपुरुषं निर्माय पटहवादनपूर्व नगरे भ्रामयामास । स्तत्राऽऽगत्य कनकमान प्रत्येवमवदत-पुषि!भ्रातृशोक मुश्च, तेनैवं चौघोषितम्-यो दिब्राह्मणपुत्रो राक्षाय स्वजीवितदानेन चित्तं स्वस्थं कुरू, ईदक्ष एष संसारोऽस्ति, त्वं मम पूर्वभवे नृपजीवित रकते, तस्य पित्रोरयं सुवर्णपुरुषो दीयते । इयमुद्
पुख्यभूः, तिष्ठ त्वमत्रैच गिरौ । अत्र स्थितायास्तव सर्वे भव्यं घोषणा पर दिनानि यावत् तत्र जाता। सप्तमदिने एकत्र प्राझो
जविष्यति । एवं देववचनमाकये कनकमाला चिन्तयाब्राह्मणपुत्रस्तां निर्घोषणां श्रुत्वैवं मातापितरावबोधयत्-प्राणा मास-कोऽसौ देवः१, कथमस्याहं पुत्री ?, असौ मयि निहते, गत्वसः सन्ति, मातापित्रोतकणं मम प्राणैः कृत्वा नवेत,तदा अहमप्यस्मिन् स्निह्यामिायावदेवं कनकमाला चिन्तयति-ताववरं, तेनादं नृपजीवितरक्वाऽर्थ स्वजीवितं राक्षसाय दवा
त्तजनको विद्याधरेन्द्रो हदशक्तिनामा धावन् तत्राऽऽयातः,स्वपत्रं सुवर्णपुरुषं दापयामि । एवं भृशमाग्रहेण मातापित्रोरनुमति स्वर्णतेजसं, विरोधिनं चासघविद्याधरं च मृतं दृष्ट्वा विन्नमगृहीत्वा रामः समीपे गतः । राजा तु तस्पितुः पादौ शिरसि स्तकां च तां पुत्री इदैवं विचारयामास-अयं सुतः, इयं दापयित्वा स्वयमाकय सनहस्तस्य पृष्ठतो भूत्वा राकसस्य सुता, अयं शत्रुस्त्रयोऽप्यमी ईगवस्थां प्राप्ताः। वनोपमं जगसमीपमानीतः। वावता राक्सो रष्टस्तावता नृपेणोक्तम-भोप्रा- सर्व श्यते । एवं ध्यायतस्तस्य रढशक्तिविद्याधरस्य जातिह्मणपुत्र! स्मर । एवं नृपेणोक्तः स ब्राह्मणपुत्र इतस्ततो नेत्रे स्मरणमुत्पन्नम्। ततोऽसौ शासनदेवीप्रदत्तवेषश्चारणश्रमणो निकिपर जहास। तदानीं राकसस्तुष्टः प्राऽऽह-यदिष्टं तन्मार्ग- यतिरजूत । अथ स व्यन्तरस्तया पुच्या सह तं श्रमण ननायेति । स प्राऽऽह-यदि त्वं तुष्टस्तदा हिंसां त्यज, जिनोदितं द. मा जीवन्ती तां पुत्री वीक्ष्य स चारणश्रमणस्तं व्यन्तरं नमन्तयाधम कुरु । राकसेनापि तवचसा दयाधर्मः प्रतिपन्नः राजा.
मपृच्छत-किमिदमिन्द्रजातं मया एम ? व्यन्तरःप्राऽऽह-तव दयोऽपि तं दारकं प्रशंसितवन्तः। अथ दासी प्राऽऽह-हेराकि! पुत्रः शत्रुश्च मिथो नियुध्य मृतौ । इयं च कन्या जीवन्त्यपि तस्य ब्राह्मणपुत्रस्य को हास्यहेतुःतयोक्तम-साम्प्रतं मे निका मया तव मृता दर्शिता । मुनिः प्राह-कथं त्वया मृता कृता । समायातीत्युक्त्वा सा सुप्ता । द्वितीयदिने दासीपृष्टा सा राकी स व्यन्तरः स्मृत्वैवमाह-हे मुनिनायक ! एतद्वाती शृप्राऽऽह-हे हले! अयं तस्य हास्यहेतुः-नृणां हि माता, पिता,नृपः गु-वितिप्रतिष्ठनृपतेर्जितशत्रोरियं प्राग्भवे पत्ल्याजवत्, चि. शरण,ते प्रयोऽपि मत्पावस्था,प्रदं पुनः कमन्यं शरणं श्रया- त्राङ्गदनाम्नश्चित्ररुतो ममैषा पुध्यभवत्, एतया प्राग्भवे मि?,ति विचिन्त्व तस्य हास्यमुत्पन्नम् । इति नवमी कथा है। उन्स्यसमये मम नमस्कारा दत्ताः, तत्प्रभावादहं व्यन्तरो एवं सा चित्रकरसुता कथाभिमुहुर्मुहुमोहयन्ती राजानं वशी.
जातः । एषा अपि मृता देवी जाता, देवीत्वमनुनय तव सुताचकार । राजा तु तस्यामेवाऽऽसक्तोऽन्यासां राझीनां नामापिन ऽत्र नवे जके । तेन विद्याधरेणापहत्यात्र चैत्ये मुक्ता, याजग्राह । ततस्तस्याविषाणि पश्यन्त्यः सर्वा अपि सपल्यः पर- त्रार्थमायातेन मया दृश , एतस्या बन्धौ चौरे च मृते यामद्वेष वहन्ति स्म । चित्रकरसुता तु निरन्तरं मध्याहे रहस्येका पदिमामहमाश्रयामि तावद्भवन्तोऽत्र प्राप्ताः । मया विमष्टम्किनी कपाटयुगलं दत्त्वा गृहान्तः प्रविश्य पूर्ववस्त्राणि प्रावृत्य- इयमनेन जनकेन सम मा यात्विति मधेतस्या गोपनमा35त्मानमेवं शिक्रयामास-प्रात्मन् !तवार्य पूर्ववेषः,साम्प्रतं रा- या विदिता। यत्तव निराशत्वं मया तदानीं कृतं, तत् क्वन्तव्यम्। जप्रसादाकुत्सरामवस्थां प्राप्य गर्व मा कुर्याः। एवमात्ममः शि- मुनिरूचे-भहो! व्यन्तर! या स्वया तदा माया कृता, सा ममका ददतीं दृष्ट्वा सपन्यो राजानमेवं विकपयामासुः-स्वामिन् ! त्वमायापहारिणी जाता, तेन मम जवतोपकृतं, न किमएषा तुझा तबाहनिशं कार्मणं कुरुते, यद्यस्माकं वचनं नम- प्यपराधः । एवमुक्त्वा स मुनिर्धाऽऽशिषं दवाऽन्यत्र विजन्यसे, तदा मध्याह्ने स्वयं तदूगृहं गत्वा तस्याः स्वरूपं विलो. हार । अथ प्राग्नववृत्तान्तं श्रुत्वा सा कन्या जातिस्मृतिभाकय। पतिस्तासां वाक्यं निशम्य मध्याह्ने तस्या गृहं गतः।सा गनूत्, प्राग्जन्मजनकं व्यस्तरं प्राऽऽह-तात! तं पूर्वनवपति मेतु तथैव पूर्वनेपथ्यं परिधायाऽऽत्मनः शिकां ददती नृपतिना सय । व्यन्तरःप्राऽऽह-स ते प्राग्जवनर्ता जितशत्रुनृपतिर्देवीय दृष्टा । सवाणिताचांस्यपि भुतामि । राजा तस्या निगर्वतां च्युतः साम्प्रतं सिंहस्थो नाम राजा जातोऽस्ति । स गम्धारज्ञात्वा परमं प्रमोदमवाप।मांच पट्टराशी चकार ।राको विशे- देशे पुपमूवर्द्धननगरादश्वापरतोऽध समायास्यति । स हि त्वाषान्मनो विनोदमियं व्यधात् । अन्यथा तनगरोद्याने विमला- मत्रैव सकलसामन्या परिणेष्यति । यावत् स इहाभ्येति ता
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( १७१८) अभिधानराजेन्द्रः ।
यग्गइ
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त्वत्रैव तिष्ठेत्युक्वा स व्यन्तरः पुराचले शाश्वतजि- एच्च-नृत-धा० । गात्रविशेपे, "वजनृतमदां चः ॥ ८४ ॥ २२५॥ नबिम्बानि नन्तुं गतवान् ।
एषामन्त्यस्य द्विरुक्तः ' कच ' इति उचः । ' णच, ' नृत्यति । प्रा० ४ पाद ।
नृत्यन०कट लिननयनम्रमुखदिविकारकरले, नि० खू० १७ ३० । नाटये, स्वा० ६ ० । एश्चंत नृत्यत्-- त्रि० । अङ्गविकारकारके, औ० । मि० ० । " जयंताणि वा हसंतासि वा रमताणि वा । 'आचा० २० २०४" "नृत्यन्ति रहितकलेवराणि प्रचुराणि यत्र स तथा । प्रश्न०२ मान० द्वार । यम-नर्तक पुं० नानां नायके व्य०६०
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इदं सर्व वृत्तान्तं कथयित्वा सा कन्या राजानं प्रत्याह - स्वामिन् ! त्वमत्र मद्भाग्याऽऽकर्षितः समायातः । सिंदरराजा पूर्वभवकर्या या पूर्वभव व्यन्तरमस्मरत् । तेन स्मृतः स व्यन्तरस्तत्राऽऽगंत्य, दिव्यवादित्रनिर्घोषं कृतवान् । मध्याह्ने जिनबिम्बान्यज्यच्यं नृपो भुङ्क्ते स्म । ततस्तेन व्यन्तरेण पूरिताशेषवातोऽसौ नृपतिस्तत्र मासमेकं स्थितवान् । चिरकालेन स्वराउद्यानिष्टशङ्कया राजा तां तां प्रतीदमाद प्रिये ! प्रलो वैरिवजों में राज्यमुपयति ततोऽहं स्वपुरं यामि दयिता जगाद यदि राज्यं मोतुं न शक्यते तदा व्योमगमनस्त्राधिकां प्रकृतिविद्यां मन्मुखाद् गृढाण, यतस्ते व्योमगतिर्यथासुखं स्यात् । प्रियायां तां विद्यानासाथ सिहरयो राजा विद्याधराणीबेभूव प्राग्वप्रेमपूर्ण तां त्रियामापृच्छय स राजा स्वपुरे ब्योममार्गेण समागतः । तत्र पुरे कियद्दिनानि स्थित्वा सिंहरथनृपतिस्तं पर्वतं पुनर्गतः । एवं स्वनगरात् तस्मिन नित्यं गताऽऽ गतं कुर्वन् नृपतिः सिंहरथो लोकाअग्गतिरितिनाम प्रसिद्धि प्राऽऽप । अन्यदा तत्र नगे तं नृपं स व्यन्तर पवमाह-अहं मत्स्यामिनिदेशाद्देशान्तरं गमिष्यामि त्वं पुत्री स्वनगरे नीश्वेमं नगं शून्यं मा कार्षीः। एवमुक्त्वा स व्यन्तरः स्थानान्तरम गात्। नृपस्त महरं धात् तस्य नगतिपुरमिति नाम कृतवान् । तत्रस्यो राजा तथा राज्ञ्या सह भोगान् नुजानः सुखेन का निगमयति स्म । तत्र राज्यं पालयतस्तस्य बहुतरः कालो यथैः । अन्यदानगतिर्नृपः पुरपरिसरे बसतोस जगाम, मार्गे च मध्जरीपुष्जमलमा वृकमासीत् । तत कां मज नृपतिखया स्वकरे माह ततो गतानुगति काः प्रायो, दृश्यन्ते बहवो नराः। स्वभूपमनुवर्त्तन्ते यथा राजा तथा प्रजाः ॥ १ ॥ " इति न्यायात् सर्वे तस्य मज्जरी पत्राऽऽदिकं जगृहु: । भूमिपालः श्रीमां कृत्वा ततः पश्चाद्वलितस्तमात्रवृ काष्ठशेष मानोयैवं चिन्तितवान् श्रयमाम्रवृक्षो नेत्रप्रीतिकरो, यो मया पूर्व गच्छता दृष्टः, सोऽयं काष्ठशेषो विगतशोभः यथा तथा सर्वोऽपि जीवः कुटुम्बधनधान्यदेहाssदि सौन्दर्यष्टो नैव शोभां प्राप्नोति । एतच सर्व विनश्वरं यावन्न क्षीयते तावत्संयमे यत्नः कार्य इति चिन्तगतिः प्रतियुको जाता, शासनदेवीप्रसवेचा संयममाददे उत अ० । आव० । ম० चू० । कत्रियपरिवाजकनेदे, औ० । णग्गयमग्ग- नगगतमागे-पुं विषमपर्वतमा ०। णग्गजाव- नग्ननाव-पुं० । अचेलत्वे, "समणाणं णिमथाणं नग्गजावे मुंरुजावे । " स्था० ६ ० । सग्गिया- नग्निका- स्त्री० । श्रवस्त्रायाम्, विशे० । राग्गो-योध-पुं० पदे १ पद ० चू० । नि० जग्गोहपरिमंडल - न्यग्रोधपरिमएमल - न० । न्यग्रोधवत्परिमएकलं यस्य स तथा । यथा न्यग्रोध उपरि संपूर्ण प्रमाणोऽवस्तु हीनः, तथा यत् संस्थानं नाभेरुपरि संपूर्णम, अधस्तनु, नवे तं गोहरपायव- न्यग्रोधवरपादप-पुं० 1 बटरधानवृक्के, अन्त १०५ वर्ग १० ।
गच्चा - ज्ञात्वा - अभ्य० । "त्वश्वध्वां यजझाः क्वचित् " ॥ ८ । २ । १५ ॥ प्रा० २ पाद । अवगम्येत्यर्थे, सूत्र० १ ० ४ अ० १ ० क्युध्येत्वर्थे, सूत्र० १० ८ श्र० । दर्श० । आचा० । उत्त०] "सध्वं बच्चा अहिट्टिए ।" सुत्र० १० २ ० ३७० । णाविय- नर्तित न नृत्यवादिव कृते, स्था० ६ ठाot एचिर- पुं० । देशी-रमणशीले, दे० ना० ४ बर्ग । जयाय्यत्र न्यायोपपत्रे अंत-ज्ञायमान- त्रि० । “ को
०२६
जो " ॥ ८ । ४ २५२
इति जानातेः कर्मणि नावे वा 'गज' इत्यादेशः । अवगम्यमाने, प्रा० ४ पाद। मि० ।
जर पुं० [देशी मनिने देव
ऊर-पुं० [देशी विमले दे००४ वर्ग
| ।
खट्ट-नाटच-न० | नटस्य भावः कर्म वा । करचरणादिविशिटपरिस्पन्दाबेशेषे, आव० ३ ० नृत्ते, शा० १० १म० । प्रश्न० | जं• । जी॰ । स्था० । करपाद भूशिरोऽदयोऽऽदीनां विकारे चलने, ध० ३ अधि० । नृत्ये, ज० १४ ८० ६ ० । साभिनयनिरभिनय भेदनिने ताएकवे, जं• ॥ वक्ष० । उच० । पछतं जहा अंचिए, रिभिर भारभने, न सोले ।” एतच संप्रदायानावास विवृतम् । स्था० ४ ठा०४ उ० आ० ० । एतेऽञ्चिताऽऽदयश्चत्वारोऽपि नेदा नाट्यशास्त्रत्रसिकाः । अथवा "नहं होइ अगीयं, गीयजुयं नामयं तु नावव्वं । वृ० १ ३० । पते नाट्यविधयो भरताऽऽदिशास्त्रम्बोवसेयाः । जं० ५ वक्क० । “ बत्तीसतिविहे गड्ढे बसे । 31त्रिंशद्विधं नाट्यमभिनयविषयवस्तुभेदाद्, यथा राजप्रश्नकृताभिधानपति द्वात्रिंशतिमिति
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केचित् । स० ३३ सम० ।
तते से सूरिया देते समय जगवं महावीरं दो प तवं पि एवं बबासी - तुब्भेणं जंते ! सव्वं जाएह उबदंसिकसि कहु समर्थ जगवं महावीरं तिक्त आयाहिपाहि करे,करेइत्ता बंदर, नर्मस, वेत्रिय समुग्याएणं समोहति, समोहेतित्ता संखिज्जाई जोयणाई उच्च दंडे निस्सर, निस्सरचा हमे दोषं पिबेसि मुग्याए० जाव बहुसमरमणि भूमिजावि से
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( १७९९) अभिधानराजेन्द्रः ।
पट्ट
फासो ।
जहानामए आलिंग पुक्खरेति वा० जात्र मणी तस्स ं बहुसमरमणिज्जस्स भूमिभागस्स बहुमज्जदेसना - पेच्छाघरमंडवे विजच्व, अणेगखंभसयसमिविहं वयो। तो बहुसमरमणि जं भूमिभागं विद्यन्न, उल्लोचं प्रक्खामगं मणिपेढिपं विव्वइ । तीसे गं मणिपेढियाए उबरिं सीहासणं सपरिवारं जाव दामो चिट्ठेति । तए गं से सूरिया देवे समस्स भगवओो महावीरस्स झालोए पणामं करोति, प्रणामं करेतित्ता अणुजान मे जगत्रं ति कट्टु सीहासणवरगयतित्थ यराभिमुद्दे सन्निसन्ने । तर गं से सूरिया देवे तप्पढमयाए खाणामणिकणगरय विमलमढ़रिहणिउणोवचियमिसमिसंतविरतियमहानरण क मगतुमिवरसज्जलं पीवरपलंबं दाहिणन्नुयं पसारेति । तो सरिसवाणं सरिसतयाणं सरिसवयानं सरिसलावा रूवजोव्वणगुणोवनेयाणं एगाजर वसणगहिय णिज्जोगाणं दुहतो संविविग्गणि त्यानं श्राचिद्धतिलयामेलाणं पिणवगेविज्जकंचुयाणं उपीनियचित्तपट्टपरियरसफेणगावत्तरइयसंग पंचवत्यंत चित्तविह्ननगनिवसणाणं एगावलि - कंरइयसोभंतवच्छ परिहत्वनूसणाएं असयं एट्टसज्जादेवकुमाराणं विग्गच्छइ । तयाांतरं च णं पापामणि जाव पीवरपलंवं वामनुयं पसारे । तो सरिसयाणं सरिसतयाखं सरिसवाणं सरिमला वारू व जोन्त्रणगुणोबत्रेयाणं एगाभरणवसणमहियनिज्जोयाणं दुहतो संविलि यग्गनियत्वाणं श्रविवलियामेनाणं पिणक गेविज्जकंचुया खायामणिकणगरयण नसणविराइयंगुषं गाणं० जाव असयं नट्टसज्जाणं देवकुमारियाणं विग्गच्छइ । तते से सूरिया देवे असयं संखाणं विव्व, सयं संख्याययाणं विजब्बर, असयं संग विउब्बा, श्रहसयं संगवायाणं विवश, असयं संखियाएं विजब्बर, सयं संखियावाययाणं विउव्वर, असयं खरमुहीनं विज्ञ, सखरमुढीवाययाणं विजब्बर, असमं पेयाणं विव्व, असयं पेयात्रायमाणां विम्ब, अट्ट सयं परिषिरियाणं विजन्त्र ० एवमादियाणं एगूपद श्राज्ञ्जविहाणाई विउन्नति, विजच्चित्ता ते बहवे देवकुमाराय देवकुमारीओ य सदावेइ । तते णं ते बहवे देवकु मारा य देवकुमारी ओय सूरियाभेनं देवणं सहाजिया समाया हट्ट जाव हिवया जेणेव सूरिया देवे तेथेच जवागच्छ, उवागच्छिता तेथेन सूरियाजं देनं करयलपारंगहियं० जाव बकामे, बाइला एवं बयासी - संदिसंतु मे देवाणुपिया ! जं अम्देहिं कायन्त्रं । तए से सूरिवाजे देवे बह देवकुमाराय देवकुमारी य एवं बयासी-ग
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पट्ट
छहणं तुन्भे देवाप्पिया ! ममयं भगवं महावीरं तिक्खु आयाहिणपवाहिणं करेह, करेतित्ता बंद, मह, वंदिता एवं सित्ता गोयमाऽऽझ्याणं समणाणं निग्गंथाणं तं दिव्वं दिव्वं देवजुई दिव्वं देवानावं दिव्वं वसीसविडं नट्टविहिं उपदंसेह, उवदंसित्ता स्विप्पामेव एवमाजत्तियं पञ्चपि । तते शं ते बहवे देवकुमारा व देवकुमारीओ य सूरियाणं देवेणं एवं वृत्ता समाला हट्टतुट्टकरयल० जान परिसुर्खेति, जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव जवागच्छति, उवागच्छंतिता समणं जगवं महावीरं० जाव णमंसित्ता जेणेव गोयमाऽऽड्या समला लिग्गंथा, तेणेव णिग्गच्छंति। तते नं ते बहवे देवकुमाराय देवकुमारीओ य समामेव समोसरणं कति,समामेव समोसरणं करेता समामेव पंती बंधंति, समामेव पंती बंधेत्ता नमसंति, नर्मसित्ता समामेव लवणमंति लवणमंतित्ता समामेव उद्यमंति, समामेव जलमंतित्ता, एवं सहितामेव उवणमंति, उवलमंतिता थिमियामेव टसमंदि, उष्ममंतित्ता संगयामेव उमंति, उपण मंतित्ता • जाव समामेव प्रज्जविहालाई गिएइंति, समामेव य वाइंसु, पगाइंसु, पखचिंसु । किं ते उरेणं मंद निरेणं तारं कंठे व तारं समयरेयगर मुंजाचककुहरोबगूढं र तिष्ठाण करणसुकं सकुड़ मुंजंत वंसतं तीतलताल लय गढसुसंपत्तं महुरसमसुललितं मणहरं मिडरिजितपय संचारं सुरसुनतिवरचारुरूवं दिव्वं नट्टसज्जं गेयं पगिया कि होत्या । किं ते उपमंताणं संखाणं संगाणं संखियाणं खरमुहीनं नेयाणं पिशिपिरिवार्थ, माहसंतानं पणवाणं परुहाणं, विनंती भंभाएं होरंभारलं, ताचिंतीणं मेरीचं जलरीखं एंडुनी, प्रासवंताणं मुरजाणं मुगाणं मंत्रिभुइंगावं, उत्तालिएं श्रालिंग कु.तुंवीणं गोमुहीयं मद्दन्नाणं, मुच्छिज्जंताणं बीनाथं विपंचीणं की, कुट्टांतीणं महत्तीणं कच्ची लिवशायं सारिांतीनं बन्दीसाणं सुघोसालं बंदिघोसायं कुरिजंतीणं भामरीणं परिवाइलीणं, फासंतीचं तू पाणं तुंबवी नाणं, आमोडिजंतीणं जलाएं, मृछि
तीय मुकुंदाचं दुरुकीणं चिच्चिकीणं, बाइअंताणं करमाणं डिंकिमाणं किखियाणं कर्मत्राणं, उता मिडताणं दक्राणं दद्दरियाणं कुटुंबरूपणं कल सियाखं मदयाणं, आता माणं तत्राणं तात्राएं कंसला लक्ष्णं, घट्टिज्जंताणं गिरिसयाखं वत्तिरयाणं मगरियाणं सुखमारियाणं, फूमिज्यंताणं वंसाणं वेणू चालीणं पिरिनीसं वाणं ततेां से दिवे खट्टे दिव्वे गीर दिन का
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(2000) प्रनिधानराजेन्द्रः 1
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इए, एवं अन्भुए सिंगारे उराले मणूणे मलहरे गीए बाइए | ट्टे, उपिजलनूए कहकहतूए दिव्वे देवरमणे पवते यावि होस्था । तए णं ते बढ़ने देवकुमारा य देवकुमारीभो य समणस्स भगवो महावीरस्स सोत्थियसिरिवत्थनंदियावतवद्धमाण भद्दासणकझसमच्छदप्पण मंगलभत्तिचित्तं धामं दिव्वं विद्धिं उवर्सेति १ । तते णं ते बहवे देवकुमारा य देवकुमारीयाश्रो य समामेव समोसरणं करेंति, समोसरणं करेत्ता तं चैव जाणियव्वं जाव दिव्वे देवरमणे पबत्ते यावि होत्या । तते णं ते बहवे देवकुमारा य देवकुमारीयाश्रो यस मणस्स भगवओ महावीरस्स आवडपच्चावमसेढिप से ढिसोत्थियसिरिवत्थिपूस माणगवमाण गमच्छं मामकरं माजारामारा पुलावलिप मपत्तसागर तरंगवासंतीलय पठमलयभक्तिचित्तं णामं दिव्वं विहिं उनसेति २ । एवं एकेकियाए
विदीए समोसरणादिए सा वतव्वया० जाव देवरमणे पवत्ते यावि होत्या । तते णं ते बहवे देवकुमारा य देवकुमायाओ य समणस्स भगवओ महावीरस्स ईहामियउसनतुरगरमगर विहगवालगकिष्ा र रुरुसर भच मरकुंजरवणलयपनमलयजत्तिचित्तं णामं दिव्वं णट्टविहिं नवदंसेंति ३ । एगमचंकं दुहत्र्योचकं एगभोचक्कवालं दुइअोचकवालं च
चकवा णामं दिव्वं पट्टविहिं नवदंसेंति ४ । चंदावलिपविना सूरावलिपविभक्तिं च वलयावलिपविजत्तिं च सावलिपविजति च एगा लिपविजत्तिं च तारावलिपचिमतिं च मुत्ताक्षिपविभत्तिं च कणगावलिपविभत्तिं च रयणा
विभत्तिं च आवलियापविभत्तिणामं दिव्वं हविहिं उ वदंसेंति५ । चंडुग्गमणपत्रिजातं च सूरुग्गमणपविनतिं च न
गणपविभर्त्तियामं दिव्वं हविहिं जवदं सेंति ६ । चंदागमणपविभर्त्तिच सूरागमण पविनतिं च श्रागमणागमणपविज्ञात्तं णामं दिव्वं दृविहिं जबदर्सेति । चंदावरणपविजत्तिं च सूरावरणपविजत्तिं च प्रावरणावरणपविभत्तिं णामं दिव्वं हविर्हि उवदंति छ । चंदत्यमण विज्ञात्तं च सूर त्यमणपविभत्ति च प्रत्यमणत्थमरणपविभत्तिं च णामं दिव्वं विहिं जबदर्सेति चंदमं लपविभासं च सूरमंमलपविजति च नागमंगल पविनति च जक्खमं मलपविजति च नूपमंकलपविजत्तिं च रक्खसमहोरगगंधव मंमलपविजति च मंझपविजति णामं दिव्वं विहिं उबदंसेति १० । उमभनन्नियविकतं सीहझलियविकतं हयविनंबियं गयषिचियं व्यलिसियं गयविलसियं मत्तहयविलासयं मत्तगयविलसियं मत्तयविलंवियं मत्तगयविलंविपरिबियं णामं दिव्वं पट्टविहिं नवदंसेति ११ । सागरपविजत्तिं च नागरपविनतिं च सागरनागरपविभत्तिं चामं दिव्वं विहिं नवदंसेति १२ । पंदापविभत्ति व
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याट्ट
चंपापविनति च णंदाचपापविभत्तियामं दिव्वं विहिं वदति १३ । मच्छंकापविजत्तिं च मगरंकापविजत्ति च जारापविनाचं च मारापविज्ञातं च मच्छंकामगरंगाजारामारापविभत्तिं च पामं दिवं विद्धिं जबदर्सेति १४ | कति ककारपविजारं च वत्ति खकारपाजात चंग ि कारपविभर्त्तिच घत्ति घकारपविभत्तिं च ङति उकारपबिभर्त्ति च ककारखकारगकारघकार डकार पविज्ञातं च पामं दिव्वं विहिं उवदंसेति १५ । एवं चकारवग्गो वि १६ । कारवग्गो वि १७ । तवग्गो वि १८ । पबग्गो वि १६। - सोपवावाच अंबपात्र पविनति च जंबुपल्लव पनि - भति च को संवपचवपविभत्तिं च पल्लवपविभत्तिं च सामं दिव्वं विहिं उवदंसेति २०| पडमलयापविभत्तिं च नागलयापविभर्त्ति च०जाब सामलयापविजत्तिं च लयापत्रिभि चणामं दिव्वं विद्धिं उवर्सेति २१ । यणामं णट्टविहिं नवदंसेति २२॥ विलंवियं णामं विद्धिं उवदंर्सेति २३ । 5संवियं णामं विहिं उवदंसति २४ । चियं णामं हावहिं नवदंसेति २५ | रिभियं कामं हविहिं उवदंसेंति २६ | अंचिपरिभियं णामं ० उवदंसेति २७ । प्रारंभमं णाम
विहिं उपदंसेति २८ । सोलं णामं हविहिं उबदर्सेति २९। प्रारंजक भसोलं० उवदेर्सेति ३० | उप्पायणिवायपरिणिवायपसतं संकुचियं पसारियं रेवयारचियंजंतं संनंतं णामं दिव्वं विद्दि उवदर्सेनि ३१ । तते णं ते बहवे देवकुमारा य देवकुमारीओ य समामेव समोसरणं करेंति० जाव दिव्बे देवरमणे पत्ते यावि होत्या । तए णं ते बहवे देवकुमारा य देवकुमारी य समणस्स भगवो महावीरस्स पुण्बभवचरियणिबद्धं देवलोयचरणिबन्धं चत्रणचरियाणिबरूं च गन्भसंहरणचरियबिऊं च जम्मणचरियणिबद्धं च अभिसेयचरियणिबन्धं च बालजावचरियणिवद्धं च जोन्वणचरियणिबन्धं च कामभोगचरिमणिबन्धं च क्खिमणचरियरिणबद्धं च तवचरणचरियणिबन्धं च पापुष्पायच - रियलिबद्धं च तित्थपवत्तणचरियणिबद्धं च परिणिव्वाणचरियणिबद्धं च चरमचरियणिबरूं च णामं दिव्वं एहविहिं नवदंति ३२ । तते णं ते बहवे देवकुमारा य देवकुमाओय चन्विहं वाउत्तं वार्यति । तं जहा- ततं, विततं, घणं, सिरं । तते णं ते बहवे देवकुमारा य देवकुमारीओ य चलन्विहं गेयं गायंति । तं जहा - उक्खित्तं, पायंतं, मंदायं, रोइयावसाणं च । तते णं ते बहवे देवकुमारा य देवकुमारी ओ यचडव्हिविहिं उवर्सेति । तं जहा अंचियं १, रिजियं २, प्रारंजर्ड ३, जसोलं च ४ । तते णं ते बहवे देत्रकुमारा
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(१७.१)
अभिधानराजेन्द्रः । य देवकुमारीश्रो य चउन्विहं अजिणयं अनिणयंति। तंज- संगता नात्यविधाबुपपनाः प्रसम्बा वस्त्रान्ता यस्य निवसनस्य डा-दिहतियं, पामियंतियं, सामंतोबायणिवाइयं, अंतोम
तत्तथा तत् वित्रं वर्ण 'बिल्लालगं' देदीप्यमानं निवसनं परि
धानं येषां ते तथा ततः पूर्वपदेन विशेषणसमासः। तेपाम, (ए. जमावसाणियं । तते णं ते बहने देवकुमारा य देवकुमारीमो य
गावलिकंरस्यसोभंतवपपडिहत्य नसणाणमिति ) एकावगोयमाऽऽदियाणं सपणाणं णिग्गंया दिन्नं देवहिं दिव्वं
लीपा करा रचिता तया शोनमानं वक्को येषां ते तथा । '4देवजुतिं दिव्वं देवाणुभावं दिव्यं रत्तीसइविहंणारयं उपदं- मिहत्थ' शब्दोदेश्यः परिपूर्णवाचकः । पमिहत्थानि पूर्णानि सित्ता सपणं जगवं महावीरं तिक्वुत्तो प्रायाहिणपया- मणानि वेषां ते तथा । ततः पूर्वपदेन कर्मधारयः, तेषां (न. हिणं करेइ, करेइत्ता बंद, एमंसह, बंदित्ता णमंसित्ता जेणेब
सजाज) नृत्ये सजाःप्रगुणीजूता नत्यसजाः,तेषामा तदनन्तरं
यथोक्तविशेषणविशिष्टं चामं तुजं प्रसारयति, तस्मात् वाममरियाने देवे तेणेव उवागच्छति, उबागच्छतित्ता सूरिया |
भुजारातंरेजकुमारिकाणां विनिर्गच्छति । कथंभूतम,1देवं करयलपरिग्गहियं सिरसावत्तं मत्थए अंजलिं का स्थाह-"सरिसवाणं सरिसतवाणं सरिसबयाणं सरिसलावारूजएणं विजएणं वसावेंति, वकातित्ता एबमाणत्तियं
बजोवणगुणोचवेयाणं गाजरणवसणगहियनिजोगाणं दुहतो
संविलियम्गानिवस्थासं" इति पूर्ववत् । (भाविरूतिलयामेलापच्चप्पिणंति।
णमिति)माविरस्तिलक आमेलच शेखरको यकानिस्ता प्रा. "तपण" इत्यादि । ततः सूर्याप्नो देवस्तीर्थकरस्य प्रगवत विकतिलका मेला, तासां (पिणरूगेविज्जकंचुयाणमिति) मालोके प्रणामं करोति । कृत्वा चानुजानातु भगवान् मामित्य- पिन वेयकं प्रीजर काचुकच यकाभिस्तथा, तासां नुमापनां कृत्वा सिंहासनवरगततीर्थकराभिमुखः सनिषमः। (याणामणिकरणगरयणजूसणबिराश्यंगुवंगाणमिति ) ना'तर 'त्यादि । ततः सूर्याभो देवस्तत्प्रथमतया-तस्य ना. नाविधानि मविकणकरत्नानि येषु भूषणेषु तानि नानामणिव्यविधेः प्रथमतायां दक्षिणं तुजं प्रसारयति। कथंभूतम,इत्या. कनकरत्नभूषणानि, तैर्विराजितान्यतोपाङ्गानि यासा तास्तथा, ह-(जाणामणिकणगरयणविमलमहरिहणि उणोपनियमिस- तासाम । यावत्करणात्-" चंदाजणाणं चंदरूसमनिमालाणं मिसंतचिरतियमहाजरणकडगतुमियवरनुसणुज्जलामति) ना- चंदाहियसोमदंसणाणं उक्काए मोचेमाणीगं" इति सुगनाविधानि मणिकनकरत्नानि येषु तानि नानामणिकनकरत्ना- मम् । तथा-"सिंगारागारचारुवेसाणं हसियनणियचिहिनि, मणयो नानाविधाइचन्द्रकान्ताऽऽदयः | कनकानि ना- पविनासललियसंसायनित एजुत्तोवयारकुसलाणं गहियाउज्जा. मावर्णतया, रत्नानि नानाविधानि कतनादीनि, तथा विम- णं नसज्जाणं" इति पूर्ववत् । 'तपणं से सूरियाभे देवे'इत्यालानि निर्मलानि, तथा महान्तमुपनोक्तारमईन्ति, यदिषा मह. दि। ततः सूर्षानो देवोऽशतं शबानां विकुर्वति, अष्टशतं शावादुत्सव कणमहन्तीति महााणि, तथा निपुणं निपुणबुद्धिगम्य दकानाम, अपातं शुमाणामष्टशतं शृङ्गवादकानाम् १, एशतं यथा नवति (पवमुवचिय ति) परिकर्मितानि । ( मिस- शशिकानामएशतं शशिकावादकानाम, स्वः शङ्को जात्यन्तरामिसंत इति) दीप्यमानानि,विरचितानि महाभरणानि यानिक ऽऽत्मकः शशिका, तस्या दिस्वरो मनाक् तीक्ष्णो जवति, न तु टकानि कनाचिकाऽऽभरणानि, ऋटितानि बादुरकिकाः, अन्यानि शवदतिगम्भीरः२,तथाऽएशतं स्तरमुखीणाम-काहसानाम, च यानि बरभूषणानि, तैरुज्ज्वलं भास्वरम् । तथा पीवरं स्थूलं मष्टतंबरमुजीवादकानाम ३, अष्टशतं पेयानां, पेया नाममप्रलम्ब दीर्घ ( तो ण त्यादि)। ततस्तस्माद् दकिणभुजान।
हती काहसा, भशतं पेयावादकानाम ४, अष्टशतं पिरिपिरिप्रएशतमधिकं शतं देवकुमाराणां निर्गवति। कथभूतानाम्। काणां कौलिकपुटावनकमुखबायविशेषरूपाणाम,(पवमादिया. श्त्याह-सरशाना,समानाऽऽकारावामित्यर्थः। तत्राऽऽकारेण कस्व- णमिति) अष्टशतं पिरिपिरिकावादकानाम् ५, अएशतं पणवानां, बित सरशोऽपि वर्णत: सरसो न भवति, ततः सरग्वर्णत्वप्र- पणचो नाप पटहो का, महशतं पणववादकानाम् ६, अरशतं तिपादनार्थमाद-(सरिसतयाणमिति) सरशी सहग्वर्णा स्वम् पटानामशतं पटवादकानाम् ७, महशतं भम्मानां, भम्ना
पांते तथा । सरकत्वगपि कश्चिद् वयसा विसरशः संना- बक्का भएशतं नम्भावादकानाम् ८, अएशतं होरम्भाणां, व्येत, तत पाह-(सरिसबमा) सरक समानं वयो येषां ते। दोरम्ना महाक्का , अष्टशतं होरम्नावादकानास , अएशतं (सरिससावमकवजोबणगुणावयाणमिति) सारश्येन मा. मेरीणां रक्काकृतिवाद्यविशेषरूपाणाम, अष्टशनं भेरीवादकावएवेन सवशिम्ना, भतिसुजगया शरीरकान्त्येति भावः । - नाम १०, अष्टशतं झपुरीणां, मल्लरी नाम चर्मावनका बिस्तीपेण प्राकृत्या यौवनेन बोधनिकया गुणैर्दकत्वप्रियंवदत्वाऽऽदि. बमबाऽऽकारा, प्रशतं मल्लरीवादकानाम् १९, अशतं. निरूपपेताः सरशनावरबम्पयौवनगुणोपपेता, तेषाम् । (पणा- कुनीनाम, अरशतं भिवादकानां, दुन्दुभिर्याकारा भरणवसणगहियनिज्जोगामिति) । एकः समान माजर- संकटमुखी देवाऽऽतोचविशेषः १५, अष्टशतं मुरजानां, महाप्रणवसनसणो गृहीतो नियोग उपकरणमर्थाचाव्योपकरणं माछो मर्दलो मुरजः, महशतं मुरजबादकानाम १३, अष्टशनं यस्ते तथा, तेषाम। ( दुहतो संविलियम्गनिवस्थाणं तिकि- मृदानां, मधुमईलो मृदाः, अरशतं मृदावादकानाम १४, धातो योः पार्श्वयोः संबंशितानि प्रमाणि यस्य तत् द्विधातः मरशतं नदीमृदङ्गानाम, नन्दीमृदको नाम एकतः संकीणोंडसंवेल्लिता, निवसनं सामर्थ्याऽत्तरं यैस्ते सथा, तेषाम् । न्यत्र विस्तृतो मुरजबिशेषः, अष्टशतं मन्दीमृदावादकामाम तथा-( पीलियचित्रपट्टपरियरसफेणगावत्सरश्यसंगयपनं- १५, मष्टशतमालिकानाम्, प्रालिको मुरजबाधविशेष एव । अष्टबवत्तचित्तविलासगनिवसणाणमिति ) उत्पीमित अत्यन्त- शतमालिनवादकानाम् १६, प्रशतं कुस्तुम्बीनां, कुस्तुम्बीबचित्रपटोविचित्रवर्णपद्यरूपः परिकरो यैस्ते तथा, तथा यनि- चर्मावनपुटो बाविशेषः प्रशतं कुस्तुम्बीवादकानाम १७, बावर्चेनैव फेनविनिर्गमो भवति स फेनकाऽऽवतः, तेन रचिताः। प्रशतं मोमुखीनां, मोमुखी बोकतोऽवसेथा, अष्टशतं गोमुखी
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(१९०१) गट्ट अभिधानराजेन्कः।
गट्ट वादकामाम १०, प्रशतं मर्दबानां, मर्दसउभयतः समः | शब्दिताः सन्तोतुशासनन्दितषिताः सोमसमीपमागप्रशतं मर्द लवादकानाम् १६, अष्टशतं विपश्चीमा, विपक्षी छन्ति,मागत्य च करतलपरिगृहीतं दशनखं शिरसावत मस्तत्रितन्त्री वीणा, अष्टशतं विपञ्चीवादकानाम २०, प्रशतं .
के अनि कृत्वा जयेन विजयेन पर्यापयित्वा पवमवादिषुः सन्दिशकीनां, बरकी सामान्यतो बीणा । अष्टशतं वाकीवादका
शन्तु देवानां प्रियाः यदस्माभिः कम्यम्। ततःस सूर्याजो देवनाम २१, अष्टशतं भ्रमरीणाम् , अष्टशतं भ्रमरीबादकाना- स्तान देवकुमारान् देवकुमारिकापवमबादीत-गवत यूयं देवाम २१, मष्टशतं वामरीणाम, अरशतं भ्रामरीवादकानाम २३, नां प्रियाः!भमणं जगवन्तं महावीरं त्रिकत्वा, भादविणप्रदक्विणं प्ररशतं परिवादिनीनां परिवादिनी सप्ततन्त्री बीणा। अष्टशतं कुरुत,करवा वन्दध्वं,नमस्यत,वन्दित्वा नमास्थित्वा गौतमाऽऽदीपरिवादिनीवादकानाम् २४, अष्टशतं चर्चसानाम, भष्टशतं नां श्रमणानां निग्रन्थानां तां देवजनप्रसिद्धां दिव्यां देवा दियां ससाबादकानाम २५, अष्टशतं सुघोषाणाम, अष्टशतं सु.
देवद्युतिं दिव्यं देवानुभावं दिव्यं द्वात्रिंशद्विधं नारपविधिमुपघोषाधादकानाम् २६, अटशतं नन्दीघोषाणाम्, प्रशतं नन्दी
दर्शयत, उपदर्य चैतामाप्तिकां क्तिप्रमेव प्रत्यर्पयत । “तपणं"
इत्यादि । ततस्ते बहवो देवकुमारा देवकुमारिकाच सूर्याभेन घोषावादकानाम् २७, अष्टशतं महतीनाम, अरशतं महती
देवेन पवमुक्ताः सन्तो दृष्टा यावत्प्रतिशएवम्ति, अभ्युपगबादकानाम् २०, अष्टशतं कच्चजीनाम, अष्टशतं कच्चनीया.
छम्तीत्यर्थः । प्रतिश्रुत्य च यत्र भ्रमणो भगवान् महावीरदकानाम् २ए, अष्टशतं चित्रवीणानाम् , अष्टशतं चित्रवी
स्तत्रोपागच्छन्ति, नपागत्य च श्रमणं भगवन्तं महावीर णावादकानाम् ३०, अरशतमामादानाम्, भएशतमामोद
त्रिःकत्व भादक्विणाप्रदाकिणं कुर्वन्ति, कृत्वा च वन्दन्ते, नमस्यबाद कानाम् ३१, अष्टशतं दएकानाम् , भष्टशतं दण्मावाद
न्ति,वन्दित्वानमस्यित्वाच यस्मिन् प्रदेशे गौतमाऽऽदयःभमणा. कानाम् ३२, अरशतं नकुलानाम् , अष्टशतं नकुलवादकानाम्
स्तत्र समकालमेव एककालमेव समवसरान्त, मिलन्तीत्यर्थः। ३३,अधशतंतूणानाम,महशतं तूणावादकानाम् ३४, अष्टशतं तु
समवसृत्य च समकमेव एककालमेव अवनमन्ति, अधो नीचा म्बीणानां, तुम्बयुक्ता बीखा बाऽद्यकल्यप्रसिका । प्रशतं तु.
नवन्ति । प्रवनम्य च समकमेव उन्नमन्ति, ऊर्द्धमवतिष्ठन्त इति म्बवीणावादकानाम् ३५, प्रशतं मुकुन्दानां,मुकुन्दो मुरजो बा.
भावः । तदनन्तरं चैव क्रमेण सहितं संगतम, स्तिमितं चावयधिशेषो योतिसीमं प्रायो वाचते,अष्टशतं मुकुन्दवादकानाम३६,
नमनमुन्नमनं च वाच्यम् । अमीषांचसंहिताऽऽदीनां भेदः सम्यअष्टशतं मुक्तीनाम,मष्टशतं हुरुक्कीवादकानाम,बाकी प्रतीता।
कौशनोपेतनाटयोपाध्यायादवगन्तव्यः । ततः स्तिमितं समकमु३७,अष्टशतं चिधिकीनाम,अप्रशतं चिश्विकीयादकानाम् ३८,त्र
नम्य समकमेव प्रसरन्ति, प्रसृत्य च समकमेष यथायोगमातो. एशतं करटीनाम्, अष्टशतं करटीवादकानाम, करटी प्रतीता
धविधानानि गृहन्ति । गृहीत्वा च समकमेव बादितवन्तः, स३९,अष्टशतं डिरिकमानाम,अष्टशतं मिनिममवादकानाम, प्रथ
मकमेच प्रगीतवन्तः, समकमेव प्रनर्तितवन्तः । किं तेश्स्यामप्रस्तावनास्तवका पणवविशेषो मिण्डिमः ४०, अष्टशतं
दि। केचिद् देवकुमारा देवकुमारिकाश्च एवं प्रगीता अप्य. किणितानाम, अरशतं किणितवादकानाम् ४१, अष्टशतं कम
भवमिति योगः कथम्, इत्याह-बिरेण मंदमिति)सर्वत्र स. म्बानाम, अरशतं कमम्बाबादकानाम, कमभ्या करटिका ४२,
सम्यर्षे तृतीया । उरसि मन्दं यथा भवति एवं प्रगीताः । अष्टशतं दर्दरकाणाम, अरशतं दर्दरकवादकानाम, दर्दरकः
(सिरेण तारं कणब तारमिति) शब्देन यथावमणोपेतम। प्रतीतः४३,मष्टशतं ददरिकाणाम,मष्टशतं ददरिकाबादकानाम,
किमुकं भवति?-हरसि प्रथमतो गीतमुरिक्षप्यते, उरकेपकाले लघुर्दरी दर्दरिका ४४, प्रशतं कुरुम्बरमाम, अष्टशतं कुमु- गीतं मन्द जयति । “आदिमिउमारजंता," इति वचनात् । म्बरुवादकानाम ४५ मष्टशतं कलशिकानाम, अक्षतं कलशि
अन्यथा गीतगुणवतेः, तत उक्तमुरसि मन्दामिति । ततो गायकावादकाम ४६,भष्टातं तमानाम्, प्रशतं तलवारकानाम् ४७,
तां मूनिमाभिनन स्वर उच्चस्तरो जवति । स्थानकं च द्वितीय अष्टशत तालानाम, अष्टशतं तालवादकानाम् ४८, शतं
वृतीयं वा समधिरोहति । ततः शिरासे तारमित्युक्त, शिरसश्च कांस्यतालानाम्, भष्टशतं कांस्थतालबादकानाम ४६, अष्टशतं गिरिशिकाना, अष्टशतं गिरिशिकाबादकानाम ५०, मर
प्रतिनिवृत्तः सन् स्वरः करके घुलति,घुलंचातिमधुरोभवति ।
(समयरेबगरश्यमिति) (गुंजाचवकुदरोवगूढं) गुम्जन शतं मकरिकाणाम, अष्टशतं प्रकरिकावादकानाम ५१.
गुम्जा, तत्वधानानि बानि चकाणि शब्दमार्गाप्रतिकूलानि कुहअएशतं शिशुमारिकाणाम, अष्टशतं शिशुमारिकावादकानाम ५२, अष्टशतं वंशानाम, अष्टशतं वंशवादकानाम ५३, अरशतं
राणि तेचूपगढं गुजाचक्रकुहरोषगूडम् । किमुक्कं जबति?-तेप बालीनाम,अष्टशतं चालीवादकानाम,बासी तृणविशेषः, सहि
देषकुमाराणां देवकुमारिकाणांब तालिन् कागृहमाम गायतां मुस्ने दवा वाद्यते ५४ा अष्टशतं वेगनास, अष्टशतं वेणुवादका
गीतं तेषु प्रेकागृहमएमपसत्केषु च हरेषु स्वानि रूपाणि माम ५५,अष्टशतं पिरिबीनाम् महशतं पिरिशीवारकानाम ५६,
प्रतिशब्दसहस्राएबुत्यापयवर्तते इति । (रत्तमिति ) रकम,
शह यद् गेयरागरकेन गीतं गीयते तत रक्तमिति । तद द्विधा अष्टशतं बद्धकानाम्, अष्टशतंबद्धकवादकानाम्, सवारसूर्यवि.
प्रसिदं (तिठाणकरणसुद्धमिति) त्रीणि स्थानानि उरम्प्रभृमेषः५७,अव्याख्यातास्तु भेदा लोकतः प्रत्येतव्याः। एवमादीनि
तीनि तेषु करणेषु क्रियया शुरू त्रिस्थानकरणशुद्धम । बहन्यातोच्चानि, पातोद्यवादकाँश्च विकुर्वति । सनसंख्यया तु
तद् बथा-बरःशुरू, करग्गुकं, शिरोबिबाखं च । तर यदि मूलभेदापेकयाऽऽतोचभेदापेकया मातोयभेदा एकोनपञ्चाशत,
उरसि स्वरः स्वमिकाऽनुसारेण विशालो भवति, तत शेषास्तु दा एतेष्वेवान्तर्जवन्ति । यथा बंशाऽऽतोचविधाने उरोविशुरूं, स एव यदि कण्ठे वर्तितो जयति अस्फुटितच, चालीवेणुपिरखीवरूका इति । यथा चाऽऽह-"एवमाश्याई पशू: ततः कराविशुद्ध, यदि पुनः शिरप्राप्तः सन सानुनासिको पपनं प्राउजविहाणाई बिउञ्चति"ाविकुळ सतावत स्वयं भवति, ततः शिरोविशुरुम् । यदि वा यव उरःकएनशिभिः विकुर्षितान बन् देवकुमारान देवकुमारिकाच शम्दयति। तेवा मेमषाऽन्याबिर्गीियते तत्रस्करशिरोविशुद्ध
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(१८०३)
भाभिधानराजेन्दः। त्वात् त्रिस्थानकरणपियुशम । तथा सकुहरो गुजन् यो वंशो,ये
क्वचिदपि हीनं, (मणुले गीए मणुरखे वाइए मणुषणे णहे) च तन्त्रीतलताललयग्रहाः, तेषु सुप्चु भतिशयेन सम्प्रयुकंसा
मनोई मनोज्नुकूलं कणां भोतृणां च मनोनिवृत्तिकरमिति हरगुजबंशतन्त्रीतताललयग्रहसुसम्पयुक्तम्।किमुक्तं भवति!
भावः । तत्तु मनोनिवृत्तिकरत्वं सामान्यतोऽपि स्यादतः प्रकसकुहरे वंशे गुजति तन्यां च बापमानायां यत् शत-त्री- विशेषप्रतिपादनार्थमाह-(मणहर इति) ( मणहरे गीप स्वरेणाविश्यं तत सकुहरगुजबंशतन्त्रीसुसम्प्रयुक्तं, तथा मणहरे बाइप मणहरेण) मनो हरति आत्मवशं नयति, त. परस्परहतहस्ततलस्वरानुबर्ति यत् तत् तलसुसम्प्रयुक्त,
द्विधमप्यतिचमत्कारकारितयेति मनोहरम् । एतदेवाऽऽह-(उमुरजकंशिकादीनामातोचानामाहतानां यो भवनिः पर नृत्य
पिजलभूए) उत्पिजसमाकुलम, प्राकुलभूते । किमुक्तंत्रपादोरकेपा, तेन समं यत् तत् तामसुसम्प्रयुक्कम, तथा गृङमयो
बति -महर्दिकदेवानामप्यतिशायितया परमकोभोत्पादकत्वेन दारुमयो दन्तमयोहलिकौशिकस्तेनाऽऽहतायास्तम्व्याः स्व.
सकलदेवासुरमनुजसमूदचित्ताकेपकारीति । (कहकहभूते रप्रकरो लयस्तमनुसरद् गेयं सयसुसम्प्रयुक्तम, तथा यः
इति)कहकदेत्यनुकरणं, कहकहतिजूतं प्राप्त कहकहतूतम् । प्रथमं वंशतन्यादितिः स्वरो गृहीतस्तन्मार्गानुसारि प्रहसुस
किमुकं जवति ?-निरन्तरं तत्तद्विशेषदर्शनतः समुद्वलितप्रम्प्रयुक्तम, तथा (महुरामिति) मधुरस्वरेण गीयमानं मधुरं |
मोदभरपरवशसकलदिकचक्रवासवर्तिप्रेक्षकजनकृतप्रशंसावकोकिलारुतवत्, तथा (सममिति) तलवंशस्वराऽऽदिसम
चनबोसकोलाहलब्याकुलीनूतामिति । अत एवं दिव्यं देघरमणनुगतं सम ( सनलियं ति ) यत् स्वरघोजनाप्रकारेण सन्नतीव,
मपि देवानामपि रमणं क्रीमनं प्रवृत्तमनूब । रा० । प्रा० म०। सह ललितेन ललनेन वर्तते इति । श्रोत्रेन्द्रियस्य शम्दस्पर्श
इह द्वात्रिंशद् नाट्यविधयः । ते च येन क्रमेण भगवतो वर्द्धनमतीव सदममुत्पादयति सुकुमारमिव च प्रतिभासते तत
मानस्वामिनःपुरतः सूर्याभदेवेन भाविताः राजप्रभीयोपानेच द. सललितमिति। अत एव मनोहरम । पुनः कथंभूतम, इत्याह
शिंता,तने क्रमेण विनेयजनानुग्रहार्थमुपदयन्ते-तत्र स्वस्तिक(मिरिभितपदसंचार) तत्र मृदु मृदुना स्वरेण युक्तो नि.
श्रीवत्सनन्द्यावर्तवद्धमानकभासनकलशमत्स्यदर्पणरूपाष्टमछुरेण, तया यत्र स्वरोऽकरेषु घोलनास्वरविशेषेषु च संचरन्
अलाऽऽकाराभिनयाऽऽत्मकः प्रथमो नाट्यविधिः। द्वितीय आवर्तरङ्गतीव प्रतिभासते,स पदसञ्चारो रित्रित उच्यते। मूदुःरिनिता
प्रत्यावर्तश्रेणिप्रतिश्रेणिस्वस्तिकश्रीवत्सपुष्पमावकवर्द्धमानकपदेषु गेयनिबकेषु संचारो यत्र गेये तत् मृदुरिभितपदसंचारं,
मत्स्याबमकमकराएमकजारमारपुष्पावलिपनपत्रसागरतरङ्गतथा (सुरक इति) शोजना रतियस्मिन् श्रोतृणां तत सुरति,तथा
वासन्तीलतापमलताभक्तिचित्राभिनयाऽऽत्मकः। तृतीय ईहामृशोजना नतिरवनामोऽवसानो यस्मिन् तत् सुनति, तथा वरं
गऋषभतुरगनरमकरविहगव्यासकिन्नररुरुसरभचमरकुअरवनप्रधानं चारु विशिष्टचलिमोपेतं रूपं स्वरूपं यस्य तदू सरचारुरूपं
लतापमलतानाक्तिचित्राऽऽत्मकः । चतुर्थ पकतश्चविधातश्चक दिव्यं प्रधानं नृत्तसज गेयं प्रगीता अप्यभवन् । “किते"
एकतश्चक्रबामद्विधातश्चक्रबालचक्राऊंचक्रवामानिनयाऽऽत्मकः। इत्यादि । किश्च-ते देवकुमारा देवकुमारिकाच प्रगीतवन्तः,
पञ्चमः बन्डाऽऽवनिप्रविभक्तिसूर्याऽऽवसिप्रविभक्तिबलयाऽऽव. प्रनर्तितवन्त (उद्धमंताणं संत्राणमित्यादि) अत्र सर्वत्रा.
मिप्रविनक्तिहंसाऽऽअलिप्रविभक्तिएकाऽऽवसिप्रविनक्तिताराऽऽव पि षष्ठी सप्तम्यर्थे । ततोऽयमर्थः-यथायोगमुमायमानाऽऽदिषु
सिप्रविभक्तिमुक्ताऽऽवसिप्रविभक्तिकनकाऽऽवलिप्रविनक्तिरनाऽऽ
बलिप्रविभक्तियुक्ताऽऽबलिप्रविभक्तिनामा । षष्ठश्चन्डोमप्रशङ्खाऽऽदिषु, इह शवगृङ्गशखिकास्वरमुहापयापिरिपिरिकाणां
विभक्तिसूर्योकमप्रविभक्त्यभिनयाऽऽत्मक उझमौसमविभक्तिवादनमुळातमित्ति प्रसिद्धम् । पणवपटहानामाहननम,
नामा । सप्तमश्चकाऽगमनप्रविभक्तिसूर्याऽगमनप्रचिभक्य. भम्भाहोरम्नाणामास्फालनम, भेरीझल्लरीदुन्दुभीनां ताइनस.
भिनयाऽऽत्मक आगमनागमनप्रविनक्तिनामा । अष्टमश्चकाssमुरजमृदानन्दीमृदशानामालपनम् , मालिस्गकुस्तुम्बगोमुनीमर्दलानामुत्सामनम, वीणाविपञ्चीवल्लकीनां मूर्छनम् ,
वरणप्रविभक्तिसूर्याऽऽवरणप्रविनक्त्यभिनयाऽऽत्मक आवरणामदतीकम्पीतन्त्रिवीणानां कुट्टनम, वचीसासुघोषानन्दिघोषाणां
वरणप्रचिनक्तिनामा । नवमश्चन्द्रास्तमनप्रविभक्तिसूर्यास्तमनप्र
विभक्त्यभिनयाऽस्मकोऽस्तमयास्तमयप्रविभक्तिनामा । दशम. सारणं, भ्रामरीपरिवादिनीनां स्पन्दनम, तुणतुम्बवीणानां स्प.
चन्द्रमएमसप्रविभक्तिसूर्यमण्डलप्रविभक्तिनागमण्डअप्राविभक्तिर्शनम्, नकुलानामामोटनम्,मुकुन्दहुरुक्कचिधिकीनां मूनिम, क
यक्षमएमलप्राविनाक्तभूतमण्डलप्रविभक्तिराक्षसमहोरगगन्धर्वरडिएिकमकिणिककडम्बानां वादनम, दर्वरदर्द रिकाकुसुम्बर- मण्डलप्रविभक्त्यभिनयाऽऽत्मको मएमलप्रविभक्तिनामा । ३. फल शिकामईकानामुत्तामनम, तलतानकांश्यतालानामाताम
कादश ऋषभमएमलप्रविभक्तिसिंहमरामलप्रविनक्तिहयविल. नं, गिरिशकालत्तिरकामकरिकाशिशुमारकाणां घट्टनं, वंशवे- म्बितगजविलम्बितहयविलसितगजविलसितमत्तहयविलसित. णुचालीपिरिलीवश्वकानां फुक्कनम् । अत नक्तम्-"उद्धमंताणं मनगजविलसितमत्तदयविम्बितमत्तगजविलम्बिताभिनयो ससाणं" इत्यादि । (तए णं से दिवे हे दिवे गीप इत्या- द्रुतविलम्बितनामा। द्वादशः सागरप्रविनक्तिनागरप्रविभक्त्याभदि) यत पर्व प्रगीतवन्त इत्यादि, ततो गमिति पूर्ववत् । नयाऽऽत्मकः सागरनागरप्रविभक्तिनामा। त्रयोदशो नन्दाप्रविभतद् दिव्यं गीतं, दिव्यं वादितं, दिव्यं नृत्यमभूदिति योगः। क्तिचम्पाप्रविनत्यभिनयाऽऽन्मको नन्दाचम्पाप्रविजक्त्यात्मकः। दिव्यं नाम प्रधानम् । एवम (अग्नुपगीए अम्भुप वाश्य प्रस्तुए चतुर्दशो मत्स्याण्डकप्रविभक्तिमकरायमकप्रविभक्तिजारप्रविनहे) अनुतमाश्चर्यकारि, (सिंगारे गीप, सिंगारे वाइप, भक्तिमारप्रविभक्त्यभिनयाऽऽत्मको मत्स्याराडकमकराएमकसिंगारे गट्टे) कारं राजाररसोपेतत्वात् । अथवा शुल्गार जारमारप्रविनक्तिनामा । पञ्चदशः क इति ककारप्रधिनक्ति नामाल तमुच्यते, तत्र यदन्यस्य विशेषकरणेनासकृतमिव स्त्र इति खकारप्रविभक्ति ग इति गकारप्रविनक्ति घ इति घगीतं वादनं नृत्यं वा तत शृङ्गारामिति । ( उराझे गीप उराले कारप्रविभक्ति ऊ इति कुकारप्रविभक्तिरित्येवंक्रमनाबिकवाश्य उराले गद्दे) दारं स्फारं परिपूर्णगुणोपेतत्वात, नतकाराऽऽदिप्रविभक्त्यभिनयाऽऽत्मकः ककारखकारगकारधकार.
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(१८०४) गट्ट अभिधानराजेन्षः।
गडपिडय जकारप्रविनक्तिनामा । एवं बोमशधकारककारजकारऊकार णमालय-नृत्यमालक-पुं० । सएडकापातगुहानां स्वामिषु अकारप्रविभक्तिनामा । सप्तदशः-टकारकारडकारढकारण- देवेषु, बावस्यः सपरकप्रपातगुहास्तावन्तो नृत्यमालकाः । कारप्रविभक्तिनामा । अष्टादशस्तकारथकारदकारधकारनकार- स्था०५ग.३.मा.म० । सुषमसुषमभाविनि कल्पप्रविभक्तिनामा। एकोनविंशतितमः पकारफकारबकारजकारम- एमविशेष, अं.१००। कारप्रविक्तिनामा । विंशतितमोऽशोकपचवप्रविनक्रयाघ्रप. लवप्रविभक्तिजम्बूपल्लवप्रविभक्तिकोशाम्बपल्लवप्रविभक्त्याननि
| बवत्यु-नाटयवस्तु-१. नृत्यप्रतियार पापभुते, प्रभ यात्मकः पल्लवप्रविभक्तिनामा । एकविंशतितमः पद्मलताप्रवि
सम्बद्वार भाषा अक्तिनागसताप्रविनत्यशोकलताप्रविभक्तिचम्पकलताप्रवित्र-- | जट्टवाइस-नाटयवादित्व-1.गर्तकीत्वे,.५ उ०। क्तिचूतलताप्रविनक्तिवनलताप्राविभक्तिवासन्तालताप्रविनत्य- विदि-नाटयविधि-पुं०।६०ा नृत्यकरणप्रकारे, स्था०६ तिमुक्तकलताप्रविभक्तिश्यामलताप्रविभक्त्यभिनयाऽऽत्मको
ठागनायकचरिताभिनये,म०११ सामान्यतो नर्सममताप्रविभक्तिनामा । द्वाविंशतितमो ठुतनामा । प्रयोविंशतितमो
विधौ, जी. ३ प्रति०। (तस्य द्वात्रिंशत्प्रकाराः 'जट्ट' शम्मे विलम्बितनामा। चतुर्विंशतितमो दुतविलम्बितनामा । पञ्चविशतितमस्त्वश्चितनामा। पविशतितमो रिजितनामा । सप्तर्वि
१८०३ पृष्ठे दर्शिताः) शतितमोऽश्चितरिनितनामा । अष्टाविंशतितम प्रारभटनामा। ए
पहाणीय-नाटधामीक-पुं०।०। नारचकारकजनसमूहे, भ० कोनत्रिंशत्तमो भसोलनामा । त्रिंशत्तम आरनटभसेलिनामा।ए- १४ श.६ उ०। कत्रिंशत्तम उत्पातनिपातपानिपातप्रसक्तसंकुचितप्रसारितरे ह-नष्ट-त्रिका सर्वथायीजूते, मा०म० १.१ खण्ड। वकारचितन्त्रान्तसंचान्तनामा । क्षत्रिंशत्तमस्तु चरमनामनिब
व्यापगते, सूत्र. १ २ ३०३०। हारिते, वृ०३ उ०। द्धनामा । स च सूर्याऽऽभदेवेन भगवतोवर्कमानस्वामिनः पुरतो
"णद्देति वा विगए ति वा अंतद्धानुए ति वा एगहा।" प्रा. जगवतश्वरमपूर्वमनुष्यभवचरमदेवलोकभवचरमच्यवनचरम- ।
चु०१०।"णसप्पहसजावे"मष्टोऽपगतः सत्पथः सद गर्भसंहरणचरमभरतक्षेत्रावसर्पिणीतीर्थकरजन्मानिकचरम
जावः सन्मार्गः परमार्थो येभ्यस्ते। सूत्र. १७०३ ० ३ ००। बालनावचरमयौवनचरमकामभोगचरमनिष्क्रमणचरमत पश्च
रात्रिन्दिवस्य सप्तदशे मुह, स०३० सम। रणचरमज्ञानोत्पादचरमतीर्यप्रवर्तनचरमनिर्वाणाभिनयाऽऽत्मको प्रावितः ३२। तत्रैतेषां द्वात्रिंशतो नास्यविधीनां म ण्ड मड्य-नष्टपतिक-त्रि० । मत्या स्वविषयकानिश्चायके, काँश्वन नाट्यावधान् उपन्यस्यति-अप्येकका देवा द्रुतं द्रुतनामकं | शा०१ ध्रु. १६ मा द्वाविंशतितम नाट्यविधिमुपदर्शयन्ति । एवमप्येकका विलम्बित हरय-नष्टरजम्-त्रि०ान सर्वथाश्यीनुतं रजो यत्र स नाट्यविधिम,अध्येकका अश्चितं नाट्यविधिम,अप्वेककारिभितं
| तथा । जी. ३ प्रति० । प्रहश्यमानरजस्के, आ० म०१ भ०१ नाट्यविधिम, अप्येकका अश्चितरिभितं नाट्यविधिम, अप्ये- खएम। कका प्रारभट नाट्यविधिम, अप्येकका भसोलं नाट्यविधिम, णट्ठवं-नष्टवत-तिका अहोरात्रस्य पार्विशे मुहूर्ते, स. ३० मप्येकका प्रारभटभसोलं नाट्यविधिमुपदर्शयन्ति। अप्येकका सम। देवा उत्पातनिपातम, उत्पातपूर्वो निपातो यस्मिन् स उत्पात- | णट्ठसपण-नष्टसंझ-त्रि०। मनसा भ्रान्ते, का०१६०१६ मा निपातः, तम् । एवं निपातोत्पातं, संकुचितं प्रसारितं, रेव. कारचितमिति गमनागमनं भ्रान्तं संभ्रान्तं नाम नाट्यविधि
|पडसुइय-नष्टश्रतिक-पुंग निर्यामके, शास्रण दिगादिविवेचन. सामान्यतो मनविधि द्वात्रिंशाधुत्तीर्णमुपदर्शयन्ति । अप्ये.
स्य करणे शक्के, शा० १९०१६अ। कका देवाश्चतुर्विधं वाचं वादयन्ति । तद्यथा-ततं मृदङ्गप- |एम-नट-पुं० । “टोडः" ||८१६॥ इति टम्य माप्रा.१ टहाऽऽदि, विततं वीणाऽऽदिकं, घनं कंसिकाऽऽदि.शुषिरं काह- पाद । नाटकानां नाटयितरि, का० १ ० १ ० राका अनु। लाऽऽदि । अध्येकका देवाश्चतुर्विधं मेयं गायन्ति । तद्यथा-प्र. नटा ये नाटकानि नत्तयन्ति । व्य. ३ उ०। निचल। कम्प० । थमतः समारज्यमाणमुरिकप्तम, उत्क्षेपावस्थातो विक्रान्तं मना. औ०।"णमा विहा-संखका, बग्गुरिया य ।" पं.पू.। कभरेण प्रवर्तमानं पादान्तम् । (मंदायमिति) मध्यभागे मूर्छना. नटति नट् अन् । नाटकाऽऽदिदृश्यकान्याजिनयकतरिमतर्कऽऽदिगुणोपेततया मन्दं मन्दं घोलनाऽऽत्मकम् । रोचितावसान- भेदे, जायाजीधिनि वर्णसरकरभेदे, अशोकवृके, शोनाकवृक्के, मितिरोचितं यथोचितलकणोपेततया भावितं, सत्यापितमिति नले, किकुपर्वणि, गोदन्तहरिताले चावाच.। यावत् , अवसानं यस्य तत् रोचितावसामम । जी० ३ प्रतिः ।
गव-धा० । व्याकुलीजावे, दिवा-पर०-सक०-सेट् । "गुपे. नट-धा। नृत्ते, ज्यादि०-परस्मै०-सेद । “शकाऽऽदीनां द्वि. स्वम"॥४॥२३०॥श्त्यन्त्यस्य द्वित्वम । णश, 'नट
विरणमौ ॥८।४।१५०॥ इति गुप्यतेनमाऽऽदेशः । 'नमा' ति । प्रा.४पाद।
'गुप्पति' । प्रा०४ पाद । पग-नर्तक-पुं० । स्वयं नृत्यकर्तरि, कल्प. क्षण। औ०। एडखाश्ता-नटखादि
पडखाश्ता-नटखादिता-स्त्री० । नटस्येव संवेगविकलधर्मरा का प्रश्न अनु०।
कथाकरणोपार्जितभोजनाऽऽदीनां खादितं भक्षणं यस्यां सा णहपाल-नाटयपाल-पुं० । नाट्यस्वामिनि सुत्रधारे, “नट नटखादिता । प्रवज्यानेदे, स्था०४ ग०४ २० । पालोणिउत्तो तेण गीतवाउत्तकधाऽऽदीहि श्रावजिभो। " | णमपिमय-नटपिटक-पुं० । स्वनामस्याते नगुकच्छावन्त्यन्तरा. मा० चू०१०।
लग्रामे, यत्र कश्चिद् गुरुप्रेषितः साधुः वर्षापातेनावरुषः
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गा
(१७०५) एमपिडय अभिधानराजेन्त्रः।
पत्थिन सामाचारीमुपयुक्त एवाऽऽचरन् सवालवे उदाहरणम। भाणास्थि-नास्तिक-jo नास्ति जीवः परलोको घेत्येव म. का प्राव णमपेहा-नटपेक्षा-स्त्री० । नटा नाटकानां नारयितारः, तेषां
तिर्यस्य सः। प्रक्रियावादिनि,स्था०४ा०४ उ० । प्राचा
सूत्र.। (८४ भेदाः 'प्रकिरियावाड (ए)'शब्दे प्रथमभागे १२७ प्रेका नटप्रेका । नटप्रेकणके, जी. ३ प्रतिः । वीरसाधूनामृ- पृष्ठे उक्ताः) नास्तिकवादिगणमतम्-न सन्ति सप्त स्वपरसंजुजमत्वे,कल्प. १क्षण । ०।(नटप्रेक्कोदाहरणम् 'कप्प' शब्दे स्थाः। स्था०४०४ उ०। सूत्र। तृतीयभागे २२६५ पृष्ठे गतम्)
तद् यथाप्पमाणाय--नटाऽऽदिशात-न० । नर्तकप्रनृत्युदाहरणे, पञ्चा०
नत्थि जीवो, न जाइ, इह परे वा लोए न य किंचि वि १६ विव। हामाल-ललाट-न०। "ललाटे च"।।८।१।२५७ इति सस्य णः।
फुसइ पुरणपावं, नत्थि फलं सुकयदुक्कयाणं, पंचमहन्तृतिय "पकाऽऽङ्गारललाटे वा" ८।१।४७ ॥श्त्यादेरत इवाभाव
सरीरं जासंति हं वातजोगजुनं, पंच य खंधे भणंति पक्षे । मस्तके, प्रा०१पाद ।
केश, मणं च मणजीविका वदंति, वाउजीवो त्ति एवमासु, णमिय-नटित- त्रिविडम्बिते, का०१७०६ म०।
सरीरं सादियं सनिधणं इहभवे एगे भवे तस्स विप्पणाहामी-नटी-स्त्री० । नर्तक्याम्, वृ. ३ उ० । नटनार्यायाम, संसि सम्बनासो त्ति एवं जपंति मुमाबाई ॥ स्था०६ ठा।
शन्यमिति,जगदिति गम्यते, कथम् ?, आत्माऽऽद्यभावात,एत. मीरंग-नटीरङ्ग-पुं० । नर्तकीरङ्गे नाटयस्थाने, वृ० ३०।
दाह-नास्ति जीवः, तत्प्रसाधकप्रमाणाभावात् । स हिन प्रत्यणमुरी-देशी-नेके, देना०४ वर्ग।
कप्रायः, प्रतीन्धियत्वेन तस्याभ्युपगमत्वात् । नाप्यनुमानग्राह्यः, ण मुल-नान-निक नमाः सन्त्यत्र इलच्। नडयुक्त देशे,वाचा प्रत्यक्काप्रवृत्तावनुमानस्याप्यप्रवृत्तेः। आगमानां च परस्परतो कारणे कार्योपचाराद् नमूलः पादरोग इति विशेामाचाo। विरुकत्वेनाप्रमाणत्वादिति । प्रसस्वादेवासौ न याति न गच्चणमुली-स्त्री० । देशी-कच्छपे, दे० ना०४ वर्ग ।
ति। हेति मनुष्यापेक्षया मनुष्यलोके, 'परे वा' परस्मिन् तदणणु-ननु-अन्य० । प्राशङ्कितावधारणे, नि० चू० १ उ० ।
पेकयैष देवाऽऽदिखोके,न च किञ्चिदपि स्पृशति बध्नाति पुण्यवितर्के, षो०१६ विव० । भक्कमायाम, दश० १० । जी ।
पापं शुभाशुभं कर्म, नास्ति फलं सुकृतकृतानां पुण्यपाप
कर्मणां, जीवासवेन तयोरप्यसवात् । तथा पश्चमहाभौतिक विशे० । प्रति० । अस्यायाम, विशे।
शरीरं भाषन्ते । '' इति निपातो वाक्याङ्कारे । वातयोगयुक्तं णमसूरि-नन्नमूरि-पुं० । चन्गच्छोद्भवे श्रीवप्पनहिरि
प्राणवायुना सबक्रियासु प्रवर्तितमित्यर्थः । तत्र पञ्चमहाशिष्ये सर्वदेवसूरिगुरौ, स च विक्रमसंवत्सरे ५०० मिते वि- भौतिकमिति, महान्ति च तानि लोकव्यापकत्वाद् भूतानि च धमान श्रासीत् । जै०३० ।
सनूतवस्तूनि महानूतानि तानि चामूनि-पृथिवी कग्निरूपा, एणत-नक्त-न । रानी, चं० प्र०१. पाहु. ३ पाहु।
प्रापो द्रवलकणा, तेज उष्णरूपम, वायुश्चलनलकणः, श्राका. णतंदिव-नक्तन्दिव-न० । अहोरात्रे, मष्ट०६ अष्ट।
श शुषिरलकणमिति । एतन्मयमेव शरीरं,नापरः शरीरवर्सी त. पतंजाग-नक्तम्भाग-पुं०। नक्तं रात्रौ चन्छयोगस्याऽऽदिमधि
निष्पादकोऽस्ति जीव इति विवक्षा । तथाहि-नूतान्येव सन्ति, कृत्य विद्यन्ते येषां तानि नकवाण तथा । च०प्र०१०पाहु. ३
प्रत्यकेण तेषामेव प्रतीयमानत्वात् । तदितरस्य तु सर्वथाsपाह०। चन्द्रस्य समयोगिषु नक्षत्रेषु, "अहाउसेसा साई,सय
प्रतीयमानत्वात् । यत्तु चैतन्यं जूतेषूपसज्यते, तद् नूतेष्वेव भिस अभिई य जेठसमजोगा।" स्था०६०।।
कायाऽऽकारपरिणतेचभिव्यज्यते, मद्यानेषु समुदितेषु मदश
क्तिवत् । तथा न तेभ्योतिरिक्तं चैतन्यं, कार्यत्वात, मृदो घ. णत्तिअ-नप्तृक-पुं० ।" इदुतौ वृष्टवृष्टिपृथक्मृदङ्गनप्तृके"
टवदिति । ततो भूतानामेव चैतन्याभिव्यक्तिर्जलस्य बुदबुदाभि1८।१।१३७। इति ऋव कारोकारौ । प्रा०१ पाद । पुत्रस्य
व्यक्तिवदिति। अलीकवादिता चैवामात्मनः सखात,सत्वं च प्र. दुहितुर्वा पुत्रे, नि० चू०२ उ०। प्रा० म० । वृविशे०।।
माणोपपत्तेः।प्रमाणं च सर्वजनप्रतीतं जातिस्मरणाऽऽद्यन्यथा. णत्तिा :नप्तका-स्त्री०। पौत्र्यां, दौहियां च । विपा० १
नुपपत्तिलक्कणमनेकधा शास्त्रान्तरप्रसिहमिति । नच नृतधर्मश्रु. ३०।ग।
चैतन्यं, तद्भावेऽपि तस्यानावाद,विवक्कितनूताभावेऽपि प्रेताऽऽ. पत्त-नप्तक-पुं० ।'णतिभ'शब्दार्थ, नि. च.२० । द्यवस्थायां चैतन्यसद्भाबाच्चेति । (पंच य खंधे भणंति के प्रा०म० । वृ०। विशे०।
ति) पञ्चच स्कन्धान रूपवेदनाविज्ञानसंहासंस्काराऽऽस्थान, णत्तुमा-नप्तका बी०।"णत्तिा " शब्दाथै, विपा० ११० । भणन्ति कचिदिति बौद्धाः। तत्र रूपस्कन्धः पृथिवीधात्वादयो, ३ अाग।
रूपाऽऽदयश्च । वेदनास्कन्धःपुनःसुखदुःखासुखदुःखेति त्रिविध. णत्तुपावइ-जप्तकापति-पुं०। पौत्रीणां दौहित्रीणां वा भर्तृषु,
वेदनास्वभावः। विज्ञानस्कन्धस्तु रूपाऽऽदिविज्ञानलकणः। संज्ञा
स्कन्धश्च संज्ञानिमिसोद्ग्रहणाऽऽत्मकः प्रत्ययः। संस्कारस्कन्धः वृ.१ उ०।
पुनः पुण्यापुण्याऽऽदिधर्मसमुदाय इति । न चैतेभ्यो व्यक्तिरिक्तः णतणी-नप्तकिनी-स्त्री० । पौत्रदौहित्रभार्यायाम, विपा० १
कश्चिदात्माऽऽख्या पदार्थोऽध्यक्काऽऽदिभिरवप्लीयत इति। तथाश्रु० ३ ०॥
(मणं च मणजीविया वयंति त्ति)न केवलं पञ्चैव स्कन्धान्, पत्थ-न्यस्त-त्रि० । साध्वर्थमुपकल्पिते, सूत्र० १७०४ अ०१
मनश्च मनस्कारोरूपाऽऽदिज्ञानलकणानामुपादानकारणभूतः,यउ.। स्थापिते, अष्ट. ३० अष्ट।
माश्रित्य परलोकोऽभ्युपगम्यते बोमन एव जीवो येषां ते म. ४५२
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(१७०६) पत्थिन अभिधानराजेन्डः।
यापुंसग नोजीवाः,त एव मनोजीविकाः। मलीकवादिता चैषां सर्वथाs. | णहिय-नर्दित-न । घोषे, का० १०एम. ननुगामिनि मनोमात्ररूपे जीवे कल्पितेऽवि परलोकासि तद
पाद-नक-त्रि.। नियबिते, तं०। प्रारुढे दे. मा०४ वर्ग। सिडिव-अवस्थितस्यैकस्याऽऽत्मनोऽसवात, मनोमात्राऽऽत्म
णपुंसग-नपुंसक-पुं०। नन स्त्री न पुमान् नपुंसकम् । ग०१ नः कणान्तरस्यैवोत्पादादकृताभ्यागमाऽऽदिदोषप्रसङ्गात । कथ. चिदननुगामिनि तु मनसि जीवत्वाभ्युपगमः सम्यक् पक्क एवे.
अधिः। स्त्रीपुरुषोभयाभिलाषिणि पुरुषाऽऽकृती पुश्षे, ध०२ ति। तथा (वाउजीवो त्ति एवमाहंसुत्ति)वात उच्चासाऽऽदिलक्ष
मधिः । " स्तनाऽऽदिश्मश्रुकेशाऽऽदि-भावाभावसमन्वितम् । णो जीव इत्याहुरेके । सद्भावाभावयोर्जीवनमरणव्यपदेशाद ना.
नपुंसकं बुधाः प्रादु-मौहानलसुदीपितम् ॥१॥"तं.। न्यः परलोकयाय्यात्माऽस्तीति । अलीकवादिता चैषां वायोजक
तिविहा पुंसगा पम्मत्ता। तं जहा-णेरड्यणपुंसगा, तित्वेन चैतन्यजीवरूपत्वायोगात् । तथा शरीरं साऽऽदि उत्पन्नत्वा. रिक्खनोणियणपुंसगा, मास्सणपुंसगा । तिरियणपुंसगा त,सनिधन,क्षयदर्शनात् । (इह भवे एगे भव त्ति) ह भ एव ।
तिविहा पत्ता । तं जहा-जलचरा, थलचरा, खाचरा । प्रत्यकजन्मैव एका नव एकं जन्म, नान्यः परलोकोऽस्ति, प्रमा.
मायणपुंसगा तिविहा पम्पत्ता । तं जहा-कम्ममिया, णाविषयत्वात, तस्य शरीरस्य, विविधैः प्रकारैः प्रकृष्टो नाशः प्रणाशस्तस्मिन् सति सर्वनाश इति नाऽऽत्मा शुनाशुन्नरूपं वा
अकम्ममिया, अंतरदीवया । स्था० ३ ग.१ उ० । कर्माविनष्टमवशिष्यते । एवमेव उक्तप्रकारंजंपंति' जल्पन्ति "स्तनकेशवती स्त्री स्या-कोमशः पुरुषः स्मृतः । उनयोरन्सर मृषावादिनः । मृषावादिता चैषां जातिस्मरणाऽऽदिना जी- या, तदभावे नपुंसकम । १॥" खा० ३ ठा• १२० । नपुंवपरसोकसिके। प्रभ०२ मा द्वार । दश । यथावस्थितं सकः पण्डक इति पर्यायौ । १०४ उ० । भाव । (पण्डकल. हि वस्त्वनेकान्ताऽऽत्मक, तनास्त्येकान्ताऽऽत्मकमेव चास्तीति
कणानि 'पंडग' शब्दे वक्ष्यन्ते) “प्रज्जवसायविसेसं तं यह प्रतिपत्तिमन्तः सर्वेऽपि नास्तिकाः । स्था० ग० ।
ते टुति णपुंसगे।" महा० १ अ.। एकान्ताभिनिवेशे तु जास्या सर्वेषां तुल्यत्वमेवेत्याह
दश नपुंसका:स्वरूपतस्तु सर्वेऽपि, स्युर्मियोऽनिश्रिता नयाः।
पंकए १ वाइए २ की, ३ कुंजी ४ ईसासुए एत्ति । मिध्यात्वमिति को भेदो.नास्तित्वास्तित्वानिर्मितः ॥१२॥
सनणीतकम्मसेवी , पक्खिापक्खिए इ2001 स्वरूपतस्त्विति स्पष्टः । (मिथोऽनिश्रिता इति) स्यावादमु
सोगंधिए भए भासते १०, दस एए नपुंसगा। रूया परस्पराऽऽकाङ्कारहिता इत्यर्थः ॥१२५॥
संकितिहि ति साहणं, पचावेनं अकप्पिा ॥८०१॥ ननु नास्तिकास्तिकव्यवहारप्रयोजकतयैवैतेषां भेदो भविष्य- प्रद० १०॥ द्वार। तीत्यत पाह
पएमकाऽऽदयो दश नपुंसकाः संक्लिष्टचित्ता तिकृत्वा साधूनां धयंशे नास्तिको होको, बाईस्पत्यः प्रकीर्तितः।
प्रवाजयितुमकल्या। संक्लिष्टत्वं चैषां सर्वेषामप्यविशेषतो धर्माशे नास्तिका झेयाः, सर्वेऽपि परतीर्थिकाः ॥१२६॥ नगरदाहसमानकामाभ्यवसायसंपन्नत्वेन श्रीपुरुषसेवामाभित्य (धयंशे ति) धर्मिण मात्मनोऽशे नास्तित्वभागे, एको
विकेयम् , उभयसेविनो ह्यते । ध०३ अधि। बाईस्पत्यश्चार्वाको नास्तिकः प्रकीर्तितः। धर्माणामात्मनः शरी
नपुंसकानामिमे पडू भेदाधान्येऽपिरप्रमाणत्वनानात्वपरिणामित्वध्रुवत्वसर्वजातीयत्वाऽऽदीना--
.....................", बकिए विप्पितत्तिए । मंशे नास्तित्वपके सर्वेऽपि नैयायिकवैशेषिकबेदान्तिसाव्यपा- मंतोसहिनवहतर, इसिसत्ते देवसत्ते य ॥१७॥ तम्जलजैमिनीयाऽऽदयः परतीथिका नास्तिका क्षेयाः। यत्र यथा- नि० चू. १९७०।०भा० । पं० चू० । भाव । पदस्तित्वं तत्र तथा तदनभ्युपगमस्य, स्वरसतो भगवद्वचनाभ- नपुंसका द्विविधाः-सीनेपथ्यकाः, पुरुषनेपथ्यकाच। दानस्यैव वा नास्तिकपदप्रवृत्तिनिमित्तत्वादिति भावः । चा.
तदू क्याकादिभिन्नदर्शनस्वीकर्तृत्वमेवास्तिकत्वमिति रूढिस्त्वनुक- एमेव होति विहा, पुरिसनपुंसा वि सभि मस्सभी। म्पामात्रम् । नयो । मा0 म0 1 ('उसन' शब्दे द्वितीयनागे ११३४ पृष्ठे ललितादेववक्तव्यतायां नास्तिकवादिनं सुर्ति
मझत्याऽऽजरणपिया, कंदप्पा काहिया चेव ॥४३शा प्रति स्वयंबुष्कृत उपदेशो कष्टव्यः)
पुरुषसागारिकामाभे कदाचिन्नपुंसकसागारिकः प्रतिभयो णत्थिनाव-नास्तिनाव-पुं० । अविद्यमानभावे, “णत्यिभावो
लन्यते, तत्राप्येवमेव भेदाः कर्तव्याः । तत्र नपुंसका विधा
स्त्रीनेपथ्यकाः, पुरुषनेपथ्यकाः। ये पुरुषनेपथ्यकाः ते विधाति वा अविजमाणभावो ति वा एगा।" मा०चू०१०।
प्रतिसेविनः, अप्रतिसेविनश्च । ये तु स्त्रीनेपथ्यकास्ते नियमाणत्यून-नष्ट्रा-अव्य० । नश-क्त्वा।" सुनत्थूनौ ष्वः" ।।४। प्रतिसविनः । तत्र पुरुषनपुंसका अपि, न केवलं पुरुषा इत्यपि३१३ ॥ इति ष्ट्वा श्त्यस्य स्थाने त्थूनाऽऽदेशः। प्रहश्यीयेत्यर्थे, शब्दार्थः। संझिना, भसंझिनश्चेति द्विविधाः। उभयेऽपि चतुप्रा.१पाद।
विधा:-मध्यस्थाः, भाभरणप्रियाः, कान्दपिकाः, काथिकाच । णदियाययण-नद्यायतन-न० । नयाः प्रधानस्थाने, या तीर्थ- एकेका ते तिविहा, थेरा तह मज्झिमा य तरूपाय। स्थानेषु लोकाः पुण्याथै खानाऽऽदि कुर्वन्ति । आचा०२६०५ एवं सन्नी वारस, प्रसन्निपो होति एकेके ॥४३॥ च०३७०।
ते मध्यस्वाऽऽदयस्त्रिविधा:-विराः,मध्यस्थाः,तरुणाचा एवं पदी-नदी-स्त्री० । गङ्गासिन्धुमहीकोशीप्रवृतिषु सरित्सु, स० संकिनो द्वादश भिसंझिनोऽपि द्वादश भवन्ति । ०१उ०। ३ मा प्रका० । गिरिनद्यादिषु, प्रशा० ११ पद ।
नि० चू०।
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(१९०७) णपुंसग अभिधानराजेन्द्रः।
हामि 'नपुंसकोभवति' इति महानाध्यप्रयोगात अस्य पुंस्त्वमाणि । लिङ्ग- म-नमस्-न०। न नाति न दीप्यते इति नभः । ज. २० स्य शब्दगतत्वेऽपि शब्दार्थे तद्व्यवहारस्तु अनेदाऽऽरोपात्। तद् श. २ उ० । " खघयधभाम"॥८।१।१८७॥ इत्यस्य प्रायथा-लिङ्गत्वं च प्राकृतगुणगतावस्थाऽऽत्मको धर्म एव,तद्विशे- यिकत्वाद् न हः । प्रा० १पाद । “ स्नमहामशिरोननः" षश्च पुनपुंसकत्वाऽऽदिः । तथाहि-सर्वेषां त्रिगुणप्रकृतिकार्यतया ॥८।१। ३२ ॥ इति नभःपयुदासान्न पुंस्त्वम् । प्रा० र पाद । शब्दानामपि तथात्वेन गुणगतविशेषाच्चन्देषु विशेष इति क-|
| आकाशे, औः । सूत्र। प्यते । स च विशेषः शास्त्रे इत्थमन्यधायि । विकृतसरवा-नव-नापटीप- नन आकाश प्रदीपयति यत्तत्त. ऽऽदीनां तुल्यकपणावस्थानाद् नपुंसकत्वं, सवस्या55धिक्ये पुंस्त्वम्, रजप्राधिक्ये स्त्रीत्वमिति । एवं च निक
था । सूर्ये, कल्प० ३ कण। स्य शब्दधर्मत्वेऽपि शब्देन सहार्थाभेदारोपादसति बाधके-एजसूर-नभःमूर-पुं० । चन्ऊं सूर्य वा गृहतो राहोः कृष्णपुऽर्थेऽपि साकात तत्पारतव्येण वा सर्वत्र तस्य विशेषण- | दुगनभेदे, सू० प्र०२० पाहु। त्वम, शाब्दबोधे शब्दज्ञानस्येष्ठत्वाच, शब्दस्य नामार्थतावत्m भमेगा-भासेन-पुं०। अष्टचत्वारिशे ऋषभदेवपुत्रे, कल्प. सदगतलिङ्गस्यापि नामार्थतौचित्यात् “ न सोऽस्ति प्रत्ययो
७वण । लोके, यः शब्दानुगमारते।" इति हर्युक्तेः, "शब्देऽपि यदि देन, विवका स्यात्तदा तथा । नो चेत् श्रोत्राऽऽदिभिः सिको.
णमंसण-नमस्यत-न० । नमसित्यव्ययस्य " नमोवरिवचित्र ऽप्यसावर्थेऽवभासते॥१॥" इति युक्तेश्च,शब्दानां तदर्थताञ्च
क्यच १२।१।१६॥ शति क्यच् । दर्श० १ अ०। प्रणमने, शा०१ गतः। तथा प्रातिपदिकार्थः । अनेदविवकायांत श्रोत्रादि- श्रु०१०। भ० । नि०। औ०। आप० । संथा। स्था। भिरेव सिको शातः सन् अर्थे प्रकारतया नासते इति तदर्थः। णमंसित्तए-नमस्यितुम्-अव्य० । प्रणामपूर्वकप्रशस्तध्वनिनियुक्तं चैतत्-'पुंलिङ्ग शब्दः' इति व्यवहारात् " स्वमोनपुंसका- गुणोत्कीर्तनं कर्तुमित्यर्थे, उपा०१०। स्था०रा०प्रति। त्"।७।१।२३॥ इति पाणिनिसूत्रे शब्दस्यैव नपुंसकत्व- आ. चू। व्यपदेशात् ।दारानित्यादौ पुंस्त्वान्वयवाधाश्च लिङ्गस्य शब्दधर्मत्वस, अन्ययैतेषु लिङ्गानन्वयाऽऽपत्तेववहारसूत्रनिर्देशास
णमंसित्ता-तमस्यित्वा-भव्य । प्रणम्येत्यर्थे, स्था• ३ ग०१ त्यापतेश्च । तथा अर्थभेदाच्चन्दभेदवद् लिङ्गभेदादपि शब्द. भेद ति कल्प्यते,प्रागुक्तधर्मविशेषरूपभेदकसद्भावात । उक्तंच णमण नमन-न० । शिरसा प्रणाममात्र, वृ०१ उ० । नि० । भाध्ये-"एकार्थे शब्दाम्यत्वाद् दृष्टं लिङ्गान्यत्वम्" इति एवं च | पं०भा० नमस्कारे, उत्त०१० । विनयकरणे, उत्त० ५ तटाऽऽदिशब्दानामनेकलिङ्गत्वव्यवहारः समानानुपूर्वीकत्वेनै म०। प्रहीकरणे, सूत्र०१ श्रु०४०१ उ०। च । वस्तुतस्तेषां भिन्नानामेव सिङ्गत्वमिति दिक् । वाच। जीवाभिगमाऽऽदिषु नपुंसकस्य धर्मचरणमुक्तं, तत्सम्यक्त्वं दे
मणी-नमनी-स्त्री० । “गिदिसाधूहि णमिज्जति, तम्हा जं शसंयम, सर्वसंयम वा । पञ्चदश नेदाः सिकानां प्रोक्ताः, तत्र
होति णमणि त्ति।" पं० जा। तृतीयगौरणानुझायाम,नं। मूलनपुंसकत्वे, कृत्रिमत्वे वा मोकः?, तत् साकरं प्रसाच- णमत-नयतमिति प्रभे, उत्तरम-जातिनपुंसकस्य सम्यक्त्वं देशविरतिं च ६०४ उ01 यावत्प्रतिपत्तिनेवति,न तु परतस्तेन न मोकाऽऽप्तिः,मोकावाप्ति-प्रति-नमि-पुं०। स्वनामख्याते विदेहराजे, उत्त। रपि कृत्रिमनपुंसकानामिति । १६६ प्रासेन. ३० ३ उछा० ।
अत्र नियुक्तिकृतमगपमवणी-नपुंसकमज्ञापनी-स्त्री० । स्तनाऽऽदिश्मश्रुके- णिकखवो न नमिम्मी,चनबिहो दुविहोउ हाई दवम्मि। शादिभावाभावाऽऽदिसमन्वितमित्यादिक्षणायां नपुंसकल- आगम-नोआगमओ, नोआगमओय सोतिविहो॥६॥ कणानिधायिन्यां भाषायाम,शब्दव्यवहारानुगतं नपुंसकलक्कणमाभित्यैतलकणाऽघटनेऽपि उच्यमाना वाइन मृषेति भाषाशब्दे,
जाणगसरीर भविए, तब्बइरित्ते य से नवे तिविहो । प्रका० ११ पद।
एगनविय बद्धाउय, अनिमहो नामगोत्ते य॥१६॥ णपुंसगलिंगसिक-नपुंसकलिङ्गमिछ-पुं० । तीर्धकरप्रत्येक- नमिआननामगोयं, वेयंतो जावो नमी होइ (ए७) बुद्धवर्जिते नपुंसकलिङ्गशरीरनिर्वृत्तिरूपे व्यवस्थिते सति निकेपो न्यासः, तुः पूणे, नमो नमिविषयश्चतुर्विधश्वसिदे, नं0 1पा
तुदो नामाऽदिः। तत्र च नामस्थापने सुगमे । द्विविधो नवणपुंसमवयण-नपुंसकवचन-न० । पीठं देवकुलमित्यादिके तिव्ये व्यविषयः। तमेवाऽऽह-प्रागमनोागमतः। तत्राssनपुंसकलिङ्गे शन्दे, आचा०२ १०१ चू. ४ म०१ मा प्रज्ञा गमतो ज्ञातानुपयुक्तो, नोप्रागमतश्च स त्रिविधः-(जाणगस. अनु० श्रव्यक्तगुणसंदोहे नपुंसकलिङ्गं प्रयुज्यते । जी०१प्रतिः। रीरभविए तव्वरित्ते य ति )नमिशब्दस्य प्रत्येकमभिसंबसपुंमगवेय-नपुंसकवेद-पुं० वेद्यत इति वेदः, नपुंसकस्य वेदो ग्धाद शरीरनमिर्भव्यशरीरनमिः, तद्व्यतिरिक्तनामश्च । स नपुंसकवेदः । प्रशा०२१ पद । स्त्रीपुंसयोरुपर्यभिलाषे, तद्
तद्व्यतिरिक्तनमिर्भवेत् त्रिविधः-एकनविको, बद्धाऽऽयुष्कोधेतुके वेदनीयकर्माण, यदुदये नपुंसकस्य स्त्रीपुंसयोरुभयो
उऽभिमुखनामगोत्रश्च । एतत्स्वरूपं च प्राम्बत् । तथा नम्यायुरमिलापः पित्तश्मप्मणोरुदये मजितामिलाषवत, स महान- नामगोत्रं वेदयन् भावतो नमिर्जवति । उत्त० ए०। गरदाहानिसमानो नपुंसकवेदः । स्था० ठा। कर्म०। १०।। अथ तृतीयप्रत्येकबुरूनमिचरित्रमुच्यतेपं० स०।जी।स।
मालवमण्डलमण्डनं सुदर्शनपुरमस्ति; तत्र माणिरथो
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यामि
(१०)
अनिधानराजेन्द्रः। राजा, तस्य भ्राता युगबाहुर्वर्तते स्म । तस्य नार्या सुशीला दरमेन गृहीता नभसि सतक्विता । ननसोऽपि पतन्ती च तांकसुरूपा मदनरेखा वर्तते स्म । सा बाल्यावस्थात भारभ्य स- चित्तरुणविद्याधरो चेताव्यं निनाथ।सा विद्याधरं प्राइह-बन्धो! म्यक्त्वमूमहादशवतानि जमाद । तस्याः पुत्रश्चन्छयशा वर्तते अहमद्य निश्यटव्यां पुत्रमजीजनम् । स तु रत्नकम्बलबेष्टितो स्म । अन्यदा मणिरथेन मदनरेखा दृष्टा, तद्रूपमोहितो नृप पवं मया तत्रैव मुक्तोऽस्ति। अहं तु सरास स्नानं कुर्वती जलचिन्तयति स्म-श्यं मदनरेखा मम कथं वशवर्तिनी भवतु । करिणोतकिप्ता स्वया गृहीतानाssनीता । अथ त्वं ततो अवतु, प्रथमं तावत् साधारणैः कृत्यस्ता विश्वासयामि, पश्चा- मत्पुत्रमिहाऽऽनय, मां वा तत्र नय। अन्यथा बालस्य तत्र मरकामानिलायमपि तस्याः समये कारयिष्येऽहम् । पुष्कर कार्य णाऽऽपद्रविष्यति, त्वं प्रसीद, मां पुत्रेण मेलय, पुत्रभिक्षाप्रबुरुधा किन सियति । एवं चिन्तयित्वा राजा तस्यै ताम्बूल- दानेन त्वं मे दयां कुरु । सोऽपि युवा विद्याधर एतस्वां सरागं कुसुमवस्त्रालङ्काराऽऽदिकं प्रेषयति स्म । साऽपि निर्विकारा ज्येष्ठ. चक्षुः क्षिपनेवमुवाच-गन्धारदेशे रत्नवाहं नाम नगरमस्ति । प्रेषितत्वात् सर्वगृह्णाति स्म । एकदा मणिरयस्तामेकान्ते स्वय. तत्र विद्याधरेन्द्रो मणिचूडो वर्तते । तस्य प्रिया कमलावती मित्युवाच-भजे! त्वं मां भर्तारं विधाय ययेष्ठं सुखं नुक्दव । मणिप्रत्रनामानं पुत्रं मामसूत । यौवनावस्यां च गतस्य मे सा जगौ-राजन् ! तव लघुबन्धुकसत्रे मय्यतारशं वच. श्रेणिवयं राज्यं दत्वा मणिचूडः स्वयं प्रव्रज्यां जग्राह । स नमयुक्तम; त्वं निष्कलङ्कने भूरिसत्वश्च पञ्चमो लोकपालोऽ- चारणमुनिश्चतुर्मानीभूत्वा साम्प्रतमष्टमे द्वीपे जिनविम्बानि सि, एवं वदस्त्वं किं न लजसे ?, शस्त्राग्निविषयोगैमृत्युसाधनं नन्तुं समायातोऽस्ति । अहं तत्र वन्दितुं गच्छन्नभूवम् । अ. वरं,निजकुमाऽऽचाररहितं जीवितं न श्रेयः। परस्त्रीलम्पटाः स्वजी- न्तराले त्वां दृष्टा लात्वा चाहं पुनरत्रामा। अतः परं त्वं मे वितं यशश्च नाशयन्ति । तयैव प्रतिबोधितोऽपि नृपः कदान- प्रिया भव, तबाऽऽदेशकरोऽहमस्मि, तव पुत्रसंबन्धो मया प्रकहेन मुमोच । एवं च व्यचिन्तयत्-यदाऽस्याः प्रीतिपात्रं मद- प्तिविद्यया ज्ञातः, प्रश्वापहतो मिथिइधरः परथाऽऽख्यस्तत्राधुर्युगबाहुव्यापाद्यते,तदेयं मम वशीभविष्यति । अभ्यदा मदन- ऽऽयातः,तं बालं सुरूपं दृष्ट्वा गृहीत्वा च स्वपल्यै दत्तवान्, तत्रायं रेखा स्वप्ने पूर्णेन्दुं ददर्श । तया युगबाहवे निवेदितः स्वप्नः ।
प्रकामं सुखनागेवास्ति । एवं तद्वचः श्रुत्वा मदनरेखाऽचियुगवाहुना कथितम्-तवसुलक्षणः पुत्रो नविष्यति । तस्या गुरुदे
न्तयत्-असौ स्वतन्त्रो युवा हप्तः शीलभनं मे फरिष्यति, तावववन्दनार्चनदोहदमुत्पन्नं युगवाहुरपूरयत् । अन्यदा युगवाहु
काल मे बिलम्बः श्रेयान, यावदस्य पिता साधुन वन्द्यते, तदुवसन्ते मदनरेखया सममुद्याने रन्तुं गतः, तत्रैव रात्री कदलीगृ
पदेशात् सर्व भविष्यतीति ध्यावा मदनरेखाऽवदत्-दे भद्र! हे सुप्तः। परिवारः समन्तात्तद्गृहं वेष्टयित्वा स्थितः । तदाऽवसरं त्वं मां प्रथमं नन्दीश्वरे नय,यथाऽहं तजिनबिम्बानि बन्दे,पश्चाकात्वा मणिरथनृपस्तत्रैकाकी समायातः। अद्य युवराजा- तू कृतकृत्याऽहं तवेप्सितं करिष्यामि । एवं तयोक्ते सहर्षों मऽत्र कथं सुप्तः?' इति यामिकान् प्रत्युवाच । युगवाहुरपि कद
णिप्रनस्तां विमानान्तर्निधाय नन्दीश्वरद्वीपे गतः। तत्र शाश्वत. बीगृहाद् बदिरागत्य मणिरथपादौ ननाम । नमतोऽस्य स्कन्धदेशे जिनबिम्बानि नत्वा मदनरेखाऽऽत्मानं कृतार्थ मन्यमाना मणिप्रजेण मणिरथः खनं चिकेप । उवाच चैवम्-धिग् मे प्रमादतः करात समं चतुझानधरं चारणश्रमणं प्रासादमएमपोपविष्टं मणिचूममुनि खनं पतितं, मणिरथेगिताऽऽकारेण तद्दुष्कर्म ज्ञात्वाऽपि प्रणनाम । स मुनिस्तां सती मत्वा स्वसुतं च सम्पटं ज्ञात्वा तथा स्वामिन्युपेक्तितः । इतोऽवसरे मणिरथः सद्यस्ततो गतः । देशनां विस्तारयामास, यथाऽसौ विद्याधरः स्वदारसन्तोषवतं पितृघातवार्ता निशम्य चन्मयशाः पुत्रो घातचिकित्सकैः जग्राह । मदनरेखां च स्वां भगिनी मेने। दृष्टमानसा सती परिवृतस्तत्राऽऽयातः। चिकित्सकैरन्त्यावस्थागतं युगवाहूं निरी.
स्वपुत्रस्य कुशलोदन्तं पप्रच्छ । मुनिराह-महानुभावे ! शोक दय धर्म पवास्योपमिति प्रोक्तम्।मइनरेखा स्वभतुरन्त्यावस्था मुक्त्वा सर्व सुतवृतान्तं शृणु-जम्बूद्वीपे पुष्कलावतीविजविलोक्य विधिनाऽऽराधनां कारयामास-हे दयित! मे विज्ञप्ति योऽस्ति, तत्र मणितोरणपुरी, तस्यां मितयशा राजा । स च शृणु, धनाङ्गनाऽऽयेषु मोहं त्यज, जैनधर्म स्वीकुरु, हितं भजस्व, चक्रवर्त्यभूत् , तस्य पुष्पवती कान्ता, तयोः पुष्पसिंहरत्नसिंधर्मपसादादेव प्रधानं कुटुम्बदेहगेहाऽऽदिकं भवान्तरे प्राप्स्यसि,
हाभिधानी पुत्रावनूतां, तो सदयौ धर्मकर्मरतो विनीता स्तः। सारयपि पापानि सिम्साक्षिकमालोचय, पुण्यान्यनु
अन्यदा तौ राज्ये स्थापयित्वा चक्रवर्ती तपस्यां जग्राह । तो मोदय, सर्वजीवान् कामय, अष्टादश पापस्थानानि व्युत्सृज,
द्वावपि भ्रातरौ चतुरशीतिलकपूर्व यावत्राज्यं प्रपालयतःस्म । एअनशनं च कुरु, शुभभाधनां भावय, चतुम्शरणान्याश्रय,
कदा च तो दीका गृहीतवन्तौ, षोमश पूर्वलक्षाणि यावद्दीका परमेष्ठिमन्त्रस्मरणं कुरु, मनसा सम्यक्त्वमाश्रय । इत्येवं मदनरे।
पानयतःस्म,अन्ते समाधिना मृत्वाऽच्युतकल्पे सामानिकी देवी खावचनानि श्रद्दधानः पञ्चपरमेष्ठिमन्त्रं स्मरन् युगबादः परलो
जातौ । ततश्च्युचा धातकीखएमजरते हरिषेणराक्षः समुककमसाधयत् । मदनरेखा मनस्येवं व्यचिन्तयत्-अप स्वतन्त्रो
दत्ताजार्यासुतौ सागरदेवदत्ताभिधानी धार्मिको जाती । अज्येष्ठो मम शी विध्वंसयिष्यति, ततो निःसरणावसरो
न्यदा तो हादशतीर्थङ्करस्य रढसुव्रतस्य यदुव्यतिक्रान्ते ती. मम साम्प्रतमेवास्तीति निश्चित्य मदनरेखा वेगतो निर्गता, सच
थे सुगुरुसमीपे दीक्षामगृहीताम् । तृतीये दिवसे तो द्वावपि एकाकिन्येव वजन्त्युत्पथमाश्रित्य क्वापि महादव्यां प्राप्ता, विद्युत्पातेन मृत्वा शुक्रदेवलोके मर्द्धिको देवावताम् । विभावरी विरराम, जातं प्रभातं, देवगुरूणां स्मरणं चकार,
अन्येधुस्तौ देवावत्रैव भरते श्रीनेमिजिनेश्वरमिति पृथ्वन्तीमध्याहे सा प्राणयात्रां फलैरेवाकरोत् । तस्यामेवाटव्यां
भगवन् ! नावद्यापि कियान् संसारस्तिष्ठति । स भगवान् रात्रौ सुप्तायास्तस्याः शीलप्रभावेण न किञ्चिद्भयं बभूव । सा प्राइ-युवयोमध्ये एकोऽत्रैव जरते मिथलापुर्या विजयसेसती चारात्री पुत्रं सुषुवे, पितृनामाङ्कितमुखिका तस्याङ्कलौ नस्पतेः परथाऽऽस्यः पुषो भावी, एकस्तु सुदर्शनपुरे युगकिप्त्वा रत्नकम्बलेन वेष्टयित्वा शुचिभूमौ निक्षिप्य मदनरेखा बाहुपुत्रो मदनरेखाकिसंसूतो नमिनामा भविष्यति । त. शौचाथै सरासे गता। तत्र स्नानं कुर्वती जनकरिणा एमा-| सिन् भवे शवपि युवां शिवपदं प्राप्स्यथ । एवं नेमिजिनवचा
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मि
(१८०९) णमि
अन्निधानराजेन्दः। नं निशम्य निजमायुः पूर्ण विधायैको मिथिलापुर्या पक्ष- पुरान्तरेऽवस्थातुं युक्तम, कालविसम्बनैतत्कार्य कर्तब्यम । रथो नृपोऽभवत् । तेन पारथेनाश्वापहतेन तस्मिर बने ततश्चन्छयशाः कोई शतप्रीभिर्जलाशुपस्करैश्च सज्जीसमायातेन हे महानुभावे ! स पुत्रो दृष्टो, गृहीतश्च, कृतवान. नमिस्तं कोई स्वसैन्यरवेष्टयत् । अधवैः सनिमिथिलायां नीत्वा स्वपल्यै च समर्पितः। तज्जन्ममहोत्सबो केः सहोईस्थानां सैनिकानां महान् संग्रा प्रववृते स्म । महान विहितः ॥" अत्रान्तरे तत्र नन्दीश्वरप्रासादेऽन्तरिका- नमिः कोहनके विविधानुपायान् विदधाति स्म । चन्छयशा देकं विमानमवततारतम्मध्यादेको दिव्यविभूषाधरः सुरो नि.
नृपस्तु कोहरक्षणे विविधानुपायान् करोति स्म । अस्मिन्नगैत्य मदनरेखां त्रिःप्रदक्किणीकृत्य प्रथम प्रणनाम, पश्चाद
वसरे तयोर्माता साध्वी मदनरेखा प्रतिनीमनुशाप्य तत्मुर्वि प्रणम्या निविष्टः सुरः । मणिरथविद्याधरेन्द्रोण विन- संग्रामवारणार्थे प्रथम नमिरानसैन्ये समायाता । नमिरपि तां यविपर्यासकारणं पृष्टम् । स सुरः प्राऽऽह-महं पूर्वभवे युगवा- साध्वीं ननाम । आसने चोपविश्य नमेः पुरः सा साध्वी दुर्मणिरचनामा वृहद्मामा निहतः, अनया ममाऽऽराधनानश- एवं वाचं विस्तारयामास-अनन्तःबैकभाजनेऽस्मिन् संसानाऽऽदिकृत्यानि कारितानि, तत्प्रभावादहमीहशो देवो ब्रह्म- रे नृनवं प्राप्य पापस्त्वं किं मुह्यसे? , राजन् ! तव बन्धुना देवलोके जातः। ततो धर्माचार्यत्वादहमिमा प्रथम प्रण- चन्द्रयशसा स्वयमागतो हस्ती चेद् गृहीतः, तर्हि तेन समं कि तः। एवं स्नेचरं प्रतिबोध्य स सुरो मदनरेखां जगौ-हे सति ! युकं करोषि ?, क्रुरुस्त्वं न किञ्चिद्वेस्सि । यदुक्तम-" लोभी प. वं समादिश,किं ते प्रियं कुर्वे सा प्राऽऽह-मम मुक्तिरेष प्रिया, श्येद् धनप्राप्ति, कामिनी कामुकस्तथा । म्रमं पश्येदयोन्मत्तो, नान्यत्किमपि, तथाऽपि सुताऽऽननं कटुमुत्सुकां मां स्वमितो मि. न किञ्चिच कुधाऽऽकुलः॥१॥"दं साध्वीवचो निशम्य थिलांपुरी नय, तत्राहं निर्वृताऽऽत्मना परलोकहितं करिष्यामि। नमिश्चिन्तयामास-'अयं चन्द्रयशा युगबाहुभवोअस्ति, मई तु इत्युक्तवती तां देवो मिथिला पुरी निनाय । तत्र प्रथमं मद. पसरथपुत्रोऽस्मि, श्यं साध्वी सत्यवादिनी सती कथं मम नरेखा जिनचैत्यानि नत्वा भमणीनामुपाश्रये जगाम । वन्दि- चानेन समं भ्रातृत्वं वदति' इति विमृश्य साध्वी प्रत्येवं भाषते त्वा पुरोनिविष्टां तां प्रवर्तिन्येवं प्रतिबोधयामास-मुढच- स्म-हे पूज्ये! असौ क', अहंक! भिन्नकुलसंनवयोमदेतयोः तसो जना धर्माद्विना प्रवक्तयमिच्छन्तोऽपि मोहवशेन पुत्रा- कथं चातृत्वं वदसि । इति नमिनोक्ता साध्वी प्राऽऽह-वत्स! उदिषु स्नेहं कुर्वन्ति । संसारे दि मातृपितृषन्धुनगिनीदयि- यौषनैश्वर्यनवं मदं मुक्ता यदि ऋणोषि, तदा सकलं स्थ. तावधूप्रियतमपुत्राऽऽदीनामनन्तशः संबन्धो जातः । समीकु- रूपं कथ्यते । अथ श्रोतुमुत्मकाय नमिनृपाय सर्व पूर्वस्वरूपं टुम्बदेहाऽऽदिकं सर्व विनश्वरम, धर्म एवैकः शाश्वतः इत्यादि साध्वी जगाद । पुनरेवं बभाषे-सुदर्शनपुरस्वामी युगवादुसाध्वीवाक्यः प्रतिबुका सा सती देवेन पुत्रदर्शनार्य प्रार्थिते. स्तवास्य च पिता, अहं मदनरेखा तव मातेति । पद्यरथस्तु तव वमाह-भववृकिकरेण प्रेमपूरेण ममालम, अतः परं तु सा- पालका पितेति । अनेन चात्रा समं मा विरोधं कुरु, बुद्ध्यचीचरणा एवं शरणमित्युक्त्वा साध्वीसमीपे सा प्रवज्यां स्व हितमिति साध्वीप्रोक्तं युगबाहुनामाकितकरमुकादशजग्राह । देवस्ता बन्दित्वा स्वस्थाने जगाम । पारथस्य गृहे
नतः सर्व नमिः सत्यं विवेद । तां साध्वी प्रकामं चित्तोल्लायथा यथाऽयं बालो बर्द्धते, तथा तथा तस्यान्ये राजानोऽनमन् ।
सेन स्वमातरं मत्वा विशेषानिमिः प्रणनाम। उवाच च-मातः! तनः पद्यरथराजा तस्य बालस्य ममिरिति नाम कृतवान्।
यत् त्वया प्रोक्तं, तत् सर्वे तथ्यमेव । नात्र काचिहिचारणावृजितस्तस्य बालस्य कलाऽचायसेवनात् सर्वाः कला:
ऽस्ति, ममेयं करमुद्रा युगबाहुसुतत्वं कापयति । अयं चन्द्रयशा समायाताः, सकललोकलोचनहरं यौवनमप्यस्याऽऽयातम् ।
मे ज्येष्ठनाता जवत्येव, परं लोकः कथं प्रत्याश्यते । अघुम्रापिना चाष्टाधिकसहस्रराजकन्यानां पाणिग्रहणं कारितम् । प
तृवात्सल्यतो ज्येष्ठश्चेव संमुखमायाति, तदाऽहमुचितं विनय भरपोऽस्मै राज्यं दत्त्वा स्वयं तपस्यां गृहीत्वा केवलज्ञान
कुर्वन् शोभामुम्हामि । एवं नमिनपोक्तमाकर्ण्य सा साध्वी प्राप्य मोकं गतवान् । नमिराजा प्राज्यं राज्यं पालयामास,
दुर्गद्वारवर्मना प्रविश्य राजसौधे जगाम । चन्छयशा नपस्तु न्यायेन यशःपानमभृत् ॥ अथ पूर्व युगबाहुं हत्वा मणिरयो
तामकस्मादागतामुपलक्ष्य स्वमातरं साध्वीं विशेषादभ्युत्थाय नृगोऽसिकमनारथः स्वधाम प्राप्तस्तत्र तदानीभेव प्रचएमस
नतवान्, उचितासनोपविष्टां तां साध्वीं वृत्तान्तं पृष्टवान् । ण दस्तुर्ष नरकं जगाम । द्वयोम्रात्रोरौ दैहिकी क्रियां कृत्वा
साध्वी सकलं वृत्तान्तं नमिराजमिननं यावत् कथयामास । मन्त्रिभिर्युगबाहुपुत्रश्चन्छयशा राज्येऽभिषिक्तः । स न्यायेन
चन्द्रयशा नृपस्तं नर्मि निजलघुम्रातरं मत्वा सभासोकान् राज्यं पालयति स्म। अन्यदा नमिराको धवसकान्तिर्गजो मदो.
प्रत्येवमुबाच-" सुननाः सन्ति सर्वेपा, पुत्रपम्यादयः शुन्मत्त भालानस्तम्भमुन्मूल्यापरान् हस्तिनोऽश्वान्मनुष्यानपि
भाः। दुर्लभः सौदरो बन्धु-संभ्यते सुकृतैयदि ॥१॥" इत्युक्ता त्रासयन् चन्मयशोनृपनगरसीनि समायातः । चन्द्रयशा
चन्छयशा नृपोऽपि पुराद् बहिनिर्गतः । नमिरपि तं ज्येष्ठतातरनृपस्तमागतं श्रुत्वा समन्तात्सुनटेर्वेष्टयित्वा स्वयं वशीकृत्य
मच्यागच्छन्तं रष्ट्वा सिंहासनादुत्थाय नूतलमिलच्छिरः प्र. च जग्राह । नमिराजाऽष्टभिर्दिनस्तां वाती श्रुत्वा च
णनाम । चन्छयशा नृपोऽपि स्वकराज्यां भूतलापुत्थाय भृशन्छयशोऽन्तिके दूतं प्रेषितवान् । दूतोऽपि तत्र गत्वा धवझक- मालिसित तुल्याउकारी तुल्यवर्णी तावेकमातृपितृसंक्तत्वेन रिणं मार्गयामास । कुपितश्चन्छयशा दृतं गले धृत्वा नगरादू तदा परमप्रीतिपदं जाती, लोकैः सहोदरौकाती । चन्द्रयशा बहिनिष्कासयामास । दूतोऽपि नमः पुरोगत्वा स्वाऽपमा. नृपस्तु तदानीमेब नमिबन्धधे सुर्दशनपुरराज्यं ददौ, स्वयं संनं जगौ । कुपितो नमिराजाऽतुलसैन्यैर्वेष्टितोऽचिन्नप्रयाणैः प्रामाङ्गणमध्ये दीका लसी । क्रमेण राज्यद्वयं पालयनमि: सुदर्शनपुरसमीपे समायातः । चन्छयशा नूपतिः स्वसैन्य- क्षिती प्रचण्डाऽऽझो जज्ञे। अन्यदा नमेवपुषि दाघज्वगे जाता वेष्टितो यावदनिमुखं युरूाय चलितः, तावदपशकुनवारितो पर्वकर्मदोषेण तस्य पारमासिकी पीमा महती उत्पन्ना, तया नि. मन्त्रिनिरेषमूचे-स्वामिन् ! कोई सज्जीकृत्य तव साम्प्रतं कामपिन लेभे, अन्तःपुरीनूपरशब्दा अपि कर्णशूलायाऽऽसन् ।
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( १८१० ) अभिधानराजेन्द्रः ।
मि
नमिराको दाघज्वरशान्तये स्वयं चन्दनं घर्षयन्तीनामन्तःपुरीणां बलयशब्दाः रोमसु भल्लप्राया बनूवुः। तत्र ताभिर्वलयानि समवान्तारितानि केवलमेकैकं मा रक्षितम तदानीं नूपुशब्दाश्रवणेन नमिना निकटस्थ सेवा पृष् कथमधुना कङ्कणशब्दा न भ्रयन्ते ? । तेनोक्तम-स्वामिन्! भवपीडाःपुभिः कङ्कणान्युक्तारितानि, केवलमेकं म जातमिति तेन नैकैकदा भूपते परस्परप जावात् । एवं तद्वचः श्रुत्वा प्रतिबुद्धो नमिरेवं चिन्तयामास यथा संयोगतः शुभा शुभाः शब्दा जायन्ते, तथा रागाऽऽदिका दोषाः संयोगत एव भवन्ति । यद्यस्माोगादहं मुक्तः स्यां, तदा सर्वसङ्गं विमुच्य दक्कििां ग्रहीष्यामि । तस्योतिध्यायमानस्य रात्री सुखेन निद्रा समायाता । निद्रायां स्वप्नमेवं ददर्श-गजमारुह्यादं मन्दरगिरिमारूढः । प्रातः प्रतिबुद्धो नीरोगो जातः । स एवं व्यचिन्तयत् श्रमुं पर्वतं वाप्यहमपश्यम् एवमूहापोई कुर्वतस्तस्य जातिस्मरणमुत्पन्नम्। एवं च पूर्वभवमपपदा पूर्वन शुक्रल्ये सुरोऽनवम्, तदाऽई जम्मा भिषेक करणायाहमस्मिन् मेरावगमम् अप कक्कएर शान्तेनेका सुखकारीति चिन्तयत् प्रत्येकबुद्धत्वं प्राप्य भवति नमः | तदा राज्यमन्तःपुरमेकपदे त्यजन्तं नमि ब्राह्मणरूपधरः शक्रः समागत्य परीक्षितवान् प्रणतवांश्च ।
परीक्षासमये नमिराजसत्कचक्रम अन मिराजतररूपमुतराध्ययनान्तर्गतं नवममध्ययनं संजातम् । उत्त० अ० इह हि करकराद्विमुखनमिनापतिराजानश्वत्वारोऽपि प्रत्येकबुद्धाः संयमिनो विरहन्ति स्म । एकदा ते क्षोणीप्रतिष्ठनगरं प्राप्ताः, तत्र चतुर्मुखदेवकुले क्रमतः पूर्वाऽऽद्येषु चतुर्दिग्द्वारेषु युगपत्प्रविष्टाः तेषामादरकरणार्थे चतुर्मुखो यतः समन्तात् संमुखोऽभवत् । तदान करकण्डूः स्वदेइक एरोगोपशमनाथ कर्णवृत शलाकां गोपयन् द्विमुखेन संपमिनोका पुरमन्तःपुरं राज्य देश व विनुध्य पुनस्त्वं किं यं कुरुषे । करकरामुनिच तं प्रति पतिता ग वनमिराजर्षिणा द्विमुखं प्रत्येवमुक्तम्- सर्वाणि राजकार्याणि मुक्त्वा पुनस्त्वया किमिति शिक्कारूपं कार्य वक्तुमारब्धम् । याचद् विमुख मुनिमिराजर्षिं प्रति प्रत्युतरं इसे वागति राजमुवाच यदा राज्यं परित्यज्य भवान् मुकाबुल्सहते, सदस्यमा नाईति अथ करकण्मुनिस्ता त्रीन् प्रत्येवमुवाच - साधुषु साधुर्हितं वदन् न दूषणाच जवति, कण्डूपशमनाय कर्णधृतशलाकालञ्च योऽयुक्त एव परमसद्दता मधेयं घृताऽस्तीति एवं चत्वारोऽपि परस्परं संयुका सत्या दिनः सर्वा संयमाराधकाः केवलहानमासाद्य शिवं जग्मुः । उत्त० ६ ० (करकपकादीनामुत्पत्तिकथा, ज्याकारण करकहमादीनामवसरे भागे २५७ पृष्ठे चतुर्थभागे १७५५ पृष्ठे प्रतिपादितम्, द्विमुखस्य 'दुमुख' शब्दे बक्ष्यते )
तथा च नमिचरित्रं क्रमाडुपन्यस्यतेमहिलावइस्स मो उम्मासाssतंकवेज्जपभिसेहो । कषिण, अमिंदर सदियों से य ॥ १ ॥ दोशिवि नमी विदेहा,
रजाई पति पचया । एगो नमि तित्थयरो, एगो पत्तेपबुको उ ॥ २ ॥ जो से नमितित्यपरो,
सो साइस्सीपरिवृमो जगवं । गंधा पऍ, पुतं रज्जे उ ।। ३ ।। विवि नमी राया,
रजं चक्षण गुणगणसम गंधमवहाय पव्वऍ,
अहिगारो एत्य विषणं ॥ ४ ॥ पुप्फुतराचवणं,
पव्वज्जा होइ एगसमपणं । पत्तेयबुद्ध के लि
सिकिगपा एगमणं ॥ ए ॥ सेयं सृजायं सुविभत्तसिंगं, जो पासिया बसई गोडमके । रिद्धिं रिद्धिं समुपेहिया णं, कलिंगराया व समिवख पम्यं ।। ६ ।। वुद्धिं च हाणि वसनस्स दहुँ, पूरावरेगं च महाराणं ।
मि
अहो अणिच्चं अधुवं च एच्चा, पंचानरायावि समिक्ख धम्मं ॥ 9 ॥ जा इंदकेडं सुचलंकियं तु, दडुं पटतं विविलुप्यमाणं । रिद्ध रिद्धिं समुपहिया एं, पंचाल या वि सक्खि धम्मं ॥ ७ ॥ बहुयाण सद्दयं सोच्चा, एगस्स य असद्दयं । वलयाणं नमी राया, निम्तो महिलाहिवो ॥ ए ॥ जो चूपश्वखं तु मणाजिरामं, समंजरीपल्लवपुप्फचितं । रिद्धि अरिद्धिं समुपेडिया,
गंधारयावि समिक्ख धम्मं ॥ १० ॥ जहा रनं च रहुं च पुरं अंडरं तहा रज्जं I सब्वमेधे परिचज, संचयं किं करेसिमं ।। ११ ।।
जया ते पेइए र कथा किसकरा बहू।
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तेर्सि कियं परिच, अन किच्चको पर्व है ।। १२ ।।
जया सव्वं परिचज्ज, मोक्खाय घमसी भवं ।
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(2028) अभिधानराजेन्द्रः ।
एमि
परं गरिहसी कीस, अनिस्सेसकारण ? ॥ १३ ॥ मोसम परमेसु साहू बंजवारिषु ।
अहियस्यं निवारितो न दोसं वतुमारहसि ॥ १४ ॥ एतदर्थस्तु प्रायः संप्रदायादवसेय इति तावत् स एवोच्यते । अकरार्थस्तु स्पष्ट एव । नवरं मिथिला नाम नगरी, तस्याः पतिः स्वामी मिथिलापति, तस्य धनेनान्येषामपि नीनां संभाध्यय छेदार्थमानमिनाना, (जम्मासाऽऽयंक ने अपने सेहो लिपरामासानातङ्को दाहज्वराऽऽत्मको रोगः षण्मासाऽऽतङ्कः, तत्र वैद्यै
प्रतिषेधनिराकरण अधिकियो यमित्यभिधानक पापमातङ्कवैद्यप्रतिषेधः (कलिए सि) कार्तिक मासे (सुवि नगद समिति) स्वप्न एव स्वप्नकः, तस्मिन् दर्शनं स्वप्नकदर्शनम्, अनुदिति शेषः कयो: (महिमंदर) अहिमन्दरयोनीगराजा
"
राजयोः घोसे यादसंघातो नम्दी, तस्था घोषः, स च स्वप्नमवलोकयतो जातः, तेन चासौ प्रतिबोधित इत्युपस्कारः॥ ३८ मिथिनापतिनं मिरित्युको माथि धस्य तीर्थकरस्यापि नमः संभवाद् व्यामोह इति द्वौ नमी हैदेहादित्याद्युक्तम ||२|| तथा [पुप्फुत्तर चि] पुष्पोत्तर विमानात् च्यवनं सनम, एकसमयेनेति योज्यते । प्रव्रज्या व निष्क्रमणं भवत्वेकसमयेनैव तथा प्रत्येकमिति पकैकं हेतुमाधित्यका श्रवगततस्याः प्रत्येकबुद्धाः, केबलिन उत्पन्नकेवलज्ञानाः, सि गता मुतिपद्मासाः त्रयाणामपि कर्मचारयः एकसमयेनेव इति; चतुर्णामपि समसमय संभवात् ॥ ५॥ तथा [सेयं सुजायं ति] तं वर्णता, सुजातं प्रथमत एवाहीनसमस्तापाता, ए सुष्ठु शोभने बम विभागेनावाले गृहे विषाणे यस्य स तथा तम, ऋद्धिं बसोपचयाऽऽरिमकाम, आराद्धं तस्यैव बलापचयातदिपक (समुपेडियानं विप पानान्तरतः समुदयमाणो वा कलिङ्गराजोऽपीत्यत्रापि शब्द उत्तरापेवा समुचये ॥६॥ तथा प्रावरेषं ति) पूरः पूर्णता, अवरेको रिक्तता, अनयोः समाहार पुरावरकम्॥७॥ तचेन्द्रकेतुमिन्द्रध्वजं, प्रविबुध्यमानम् इति, जनैः स्वस्त्रवखालङ्काराऽऽदिग्रहयत इतधेत विक्षिप्यमाणमतथा समंजरीवपुष्प ति सहमतिः प्रतीताभिः पवेलियोनि पुण्या णि कुसुमानि त्रिः करः समम्जरीपबपुष्प चित्रः तम यद्वा-सद मञ्जरी पल्लवपुष्पैर्वर्तते यः स तथा चित्र योविंशेषणसमासः । [ समिक्स ति] भाषेत्वात्समीक्ष्यते पर्यासोचयत्यनेकार्थत्वादङ्गीकुरुते वर्तमान निर्देशः प्रभ। यज्ञश (समिति समेटिसमा धर्म पतिर्मम ॥१०॥ यह पितुराग राज्ये कृता विहिता कृत्यानि कुष्ठायकरा नियोगिनः बय प्रभूताः तदेव त्य करत्वं स्वयं तथा तब कर्तुमुचितमासीदित्युपकारः तेषामिति कृत्य कराणां कृत्यं परापराधपरिजावनाऽऽदिकर्त्तव्यं परित्यज्य नाङ्गीकारादपद्दाय, श्रद्य कृत्यकरो नियुक्तको ऽन्यदोष चिन्तो
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किमिति ज्ञात इति शेषः ||१२|| तथा मोवा घ सीतामाया घटते ते, तथा (अनिस्सेसकारण ति ) आत्मनो निःशेषमिति शेषाभावं प्रक्रमात् कर्मणः करोति विधते त्यामपिकारकः । यद्वा-(निश्सेस त्ति ) निःश्रेयसो मोक्तः, तत्कारकः ||१३|| मोकमार्ग मुक्त्यवानं प्रतिपन्नेष्वङ्गीकृतवत्सु साधुषु ब्रह्मचारिषु ( अहियत्थं
मि
ति) अहितार्थ, निवारयन्निषेध्धयन्, न दोषं परापवादलक्षणम्, अस्पेति शेषः भिधातुमर्हसि यथा हि नाहिताशिवार
यन् कथमईतीत्याह एवं नमिरपि अद्य कृत्यकरो भवाधिति कृत्य करवणावहितानिवारयति तथा दुर्मुखोऽपि संवयं किं करोति सञ्चयत एवाहिताभिषेधतीति नायं परापवाद इति वक्तुमुचितम् यज्ञा-अहिवरथं निवातोति ) सुय्यत्वादहितार्थानि दोसमिति ) मनुम्लोषाच दोषमिति न दोषयन्तं वकुमईसि ॥ १४ ॥
संप्रति सुबाऽऽनाचकमिष्पन्नस्यावसरः, स च सूत्रे क्षति जवतीति सूत्रानुगमे सुत्रमुच्चारणीयम् । तथेदमचक देवलोगा, उपवन्तो मसम्म लोगम्मि | वसंतमोहणिज्जो, सरई पोरालयं जाई ।। १ ।।
युवा देवलोकात् प्रतीतात, उत्पन्नो जातो, मानुषे मानुषसंबन्धिनि, लोके प्राणिगणे, उपशान्तमनुदयप्राप्तं मोहनीयं द नमोदनीयं यस्यासायुपशान्तमोहनीयः सारति चिन्त यति, स्मेति शेषः । वर्तमाननिर्देशो वा प्राग्वत् । कामित्याद( पोराण ति) पुराणामेव पौराणिक, विनयाऽऽदित्वात् क् चिरन्तनी मिरयर्थः । जातिमुत्पत्ति देवलोकाहाचिति प्रक्रमः । तफत सकल चेष्टोपलक्षणं चेह जातिरिति सुत्रार्थः ॥ १ ॥ ततः किमित्याहजाई सरित जयवं, सहसंबुको अत्तरे धम्मे । पुतं वनेषु रजे, अभिक्खिमई नमी राया ॥ २ ॥ जातिमुकरूप स्मृत्वा शब्दो यद्यपि योऽऽदिनेकार्येषु वर्तते । कम-" पेसीनान्यमाहात्म्य-शोभुतिधीश्रियः। तपोऽर्थोपस्य पुपये प्रचनतनयो नगाः ॥ १॥" इति । तथाऽपीह प्राप्तस्तावद् बुद्धिवचन एव गृह्यते, ततो नगो बुद्धिर्यस्यास्तीति भगवान्, ( सह चि) स्वयमात्मनैव संबुद्धः सम्यगवगततत्वः सहसंबुरू, नान्यप्रतिबोधित इत्यर्थः । अथवा - (सहसं ति) भार्षत्वात् सह जातिस्मृस्यनन्तरं झगित्येव, बुद्धः क ?, इत्याह- अनुचरे प्रधाने, धर्मे
धर्मे पुत्रं सुतं खापयित्वा निवेश्य क, राज्बे, अनिनिष्कामति धर्माभिमुख्येन गृहस्थपर्यायानिति स्मेतीहा पि शेषः । ततश्च प्रब्रजितवानित्यर्थः । प्राग्वतिव्यत्ययेन वा ध्यायेयम् । नमिमिनामा, राजा पृथ्वीपतिरिति सूत्रार्थः ॥२॥ स्वादेव कुत्रावथितः कीदृशान् वा भोगान् भुक्त्वा संबुद्धः कि वाइमिनिष्कासन करोतीत्याद
सो देवलोगसरिसे, अंतेतरवरगो परे जोए ।
जित्तु नमी राया, बुद्धो जोगे परिच्चयइ ॥ ३ ॥ स इत्यनन्तरमुद्दिष्ट (देवलोगसरिस सि ) देवलोक भोगे सहशा देवलोक सदृशाः, मयूराका देवान्मध्यमपदलोपी समासः । ( अंडरवरगओ त्ति ) वरं प्रधानं तच्च तदन्तःपुरं च वरान्तःपुरं तत्र गतः स्थितो वरान्तःपुरगतः । प्राकृतत्वाच वरशब्दस्य परनिपातः । वरान्तःपुरं हि रागडेतुरिति तद्गनस्यास्य जोगपरित्यागाभिधानेन जीववीर्योल्लासातिरेक उक्तः। तत्रापि कदाचिद्वराः शब्दाऽऽदयो न स्युः, तत्संनवेऽपि वा सुबन्धुरिव कुतधिनिमिताब जीताऽपीत्याह बाद प्रधाना भोगान् मनोदय नमिनामा राजा.
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( १८१२)
अभिधानराजेन्द्रः ।
एसि
बुद्ध विज्ञातस्वरूपा परित्यजति स्मेति शेषः । इह पुन भगमणमतिविस्मरणशीला अप्यनुप्राद्या पति हा पनार्थमिति सूत्रार्थः ॥ ३ ॥
कि मोगानेच स्वत्वाभिनिष्कान्तवान् तान्यदपि इत्याहमिलिं सपुरायं बलमबरोहं च परियणं सव्वं । चिच्चा अनिणिक्खतो, एगतमहिडिओ जयवं ॥ ४ ॥ मिथिलां मिथिलानाम्नी नगरी, सह पुरैरन्यनगरैर्जनपदेन च वर्तते या सा तथोक्ता, तां, न त्वेककामेब, बलं हस्त्यश्वाऽऽदिचतुरङ्गम, अवरोधं चान्तःपुरं, परिजनं परिवर्ग, सर्वे निरवशेषं, न तु तथाविधप्रतिबन्धानास्पदं विशेष त्यत्वा हाय, अनिनिकान्तः प्रवजितः पत) को द्वितीयः कर्मणामन्ती पि चिति मयूरव्यंसकादित्वात्समासः तत एकान्तो मोलम पिठितातियानाधिष्ठितः पायसम्यग्दर्शनाध्यावनापि वादेव जीवनमुल्य वातेः। यद्वा-एकान्तं व्यतो विजनमुद्यानाऽऽदि । भावतञ्च “ एकोऽहं न मे कविनाहमन्यस्य कस्यचित्। तं तं पश्यामि यस्याहं, नासौ दृश्यअस्ति यो मम ॥ १ ॥ " इति भावनात् एक एवाहमित्यन्तो निश्चय एकान्त, प्राम्यत्समासः समधिष्ठितो भगवानिति धैर्यवान् श्रुतवान् बेति सुत्रार्थः ॥ ४ ॥
तत्रैवमनिनिष्कामति पदभूतदाह यदि वा पक्र ज्यानिनिष्कासः इति तत्र का रक् तस्यस्यमानमासीय इत्याहकोलाहलगसंजू, प्रासी मिहिलाऐं पचतम्मि ।
तइया रायरिसिम्मी, नमिम्मि अभिक्लिमंतमि ||२|| कोलाहल लिपिकन्दिक को बास पथ को साहसकः खंभूत इति जातो यस्मिन् तत् कोलाहल कसंजुतम् आहिताऽऽदेरा कृतिगवत्या निष्ठान्तस्य परनिपातः यदि वा भूतशब्द उपमार्थः, ततः कोलाहलकसंभूतमिति कोलाहलकरूपतामिवाऽयम् हा तात! हा मातरित्यादिककाकुलितम, आसीदभूत् यांखगृविहाराऽऽयमाहीति प्रक्रमः सति प्रमाददामि काले, राजा बासी राज्यापत्य अधिका तत्कालापेका राजर्षिः, यदि वा राज्यावस्थायामपि ऋषिरिब ऋषिः, कोगंजवात् । तथा च राजनीतिः कामः को यस्ता लोभो, यो मानो मदस्तथा । पगंजे
त्यक्ते सुखी नृपः ॥ १ ॥ " तस्मिन्नमौ नमिनाम्बभिनिष्कामति गृहात्कषायाऽऽदिभ्यो वा निगच्छति । इति सूत्रार्थः ॥ ५॥ पुनरजान्तरे यदनुतदाह ( शक्रसंवादः) - अन्जुट्टियं रायरिसिं, पन्नज्जावाणमुत्तमं । सको माइवेसेण, इमं वयमन्यवी ।। ६ ।। अभ्युत्थितमभ्युदितं राजर्षिय येवस्थानं त सम्यग्दर्शनाssदो गुणा अस्मिन्निति कृत्वा प्रव्रज्यास्थानं, प्र'तीति शेषः प्रधानं सुयत्ययेन सप्तम्यर्थे वा द्वितीया । ततः प्रब्रज्यास्थाने उत्तमेऽभ्युद्यतं तद्विषयोद्यमवन्तं शक्र इन्फो माहनवेषेण ब्राह्मणचेपेण, भागस्येति शेषः । तथा हि तस्मानियां ग्रहीतुमनसि तदा परीक्षिका मः स्वयमिन्द्र प्राजगाम ततः स इदं वक्ष्यमाणम, उच्यते इति वानिति सुषार्थः ॥५॥ यदुक्तवस्तवाद
किं णु जो भन्न मिहिसार, कोसाइलगसंकुला ।
मि
1
सुच्चति दारुणा सदा, पासाएसु गिइसु य ॥ ७ ॥ किमिति रितु इतिमन्त्रणे प्रत्यस्मि नू दिने, मिथिलायां नगर्यो कोलाहल केन बद्दल कलकलामकेन संकृता व्याकुलाः कोलाहल कसंकुलाः श्रूयन्ते इत्याकयन्ते, शब्दावनय इति संबन्धः । ते च कदाचिद्वन्दिवृन्दोदीरिता अपि स्पुतनिकरणाचा उद्द- दारयन्ति जनमनांसीति वि पिताऽक, दताऽऽज्यः, क पुनस्ते ?, प्रासादेषु सप्तभूमाऽऽदिषु,
पुन्येन वेश्मसु तथा 'प्रासादो देवतानरेन्द्राणाम' इति वचनात् प्रासादेषु वानरेन्द्रसंबन्धिन्यास्पदेषु गृहेषु त दितरेषु, चशब्दात् त्रिकरतुष्कचत्वराऽऽदिषु चेति सूत्रार्थः ॥७॥
ततब्ध
एयम निसामित्ता, हेककारण चोरेओ । तो नमी रायरिसी, देविंदं इणमव्ववी ॥ ८ ॥
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एवमनन्तरोक्तम, अर्थमिति, उपचारादर्थाभिधायिनं ध्वनि, निशम्याsssय, हिनोति गमयति विवचितमर्थमिति हेतुः, स च पञ्चावयववाक्यरूपा, कारण चान्यथाऽनुपपतिमात्रं ताभ्यां चोदितः प्रेरितो हेतुकारणचोदितः, कोलाहलकसंकुलाः दारुणाः शब्दाः श्रूयन्त इत्यनेन हि उभयमेतत् सूचितम् । तथाहि अनुचितमिदं यतोऽभिनिष्क्रमणमिति प्रतिज्ञा भा कन्दाऽऽदिदा देतुत्वादिति हेतुः प्राणव्यपरोपणादिवदिति दृष्टान्तः, यद्यदाक्रन्दाऽऽदिदारुणशब्द हेतुस्तत्तद् धर्मार्थिनोऽनुचितं यथा प्राणव्यपरोपणाऽऽदि, तथा वेदं भवतोनिनिष्क्रमण मित्युपनयः तस्मादाकन्दाऽऽदिदाम्यहेतुस्वादनुचितं भवतोऽभिनिष्क्रमणमिति निगमनमिति पञ्चावययं वाक्यमिह हेतुः पाययविज्ञाविरहितं स्याकन्दा35दिदारुणशब्दहेतुत्वं भवनिष्णमुचित चिनाउनुपपमि त्येतावन्मात्रं कारणम्, अनयोस्तु पृथगुपादानं प्रतिपाद्यनेइतः साधनवाक्यवैचित्र्यसूचनार्थम् । तथा च श्रुतकेवली - "कत्थ वि पंचावयवं दसहा वा सव्वा ण पमिसिद्धं । न य पुरा स जम्पति,हंदी सवियारमक्वायं ॥१॥ " तथा " जिणवणं सिर्फ चिम, भाति कत्थ वि उदाहरणं । श्रासज्ज उ सोतारं देऊ वि कवियो॥१॥" (नि०) अथवाऽन्वयव्यतिरेकलकृष्णो हेतुः उपपत्तिमा तुरन्ताऽऽदिरहितं कारणम् । यथा निरुपमसुखः सिको प्रकर्षात अन्यत्र हि नि दाहरणमस्ति । दृष्टाश्च प्रकृष्टमत्यादिज्ञानानाबाधाः परमसुखिनो मुनय इति ज्ञानानाचा निरुपमसुखत्वे देतुरुच्यते । तथा पूज्याः देऊ अगमसिरे गलक्मणो सज्जपखाओ। चाहरणं दितो, कारण मुवव सिमेतं तु ॥ १०७७॥ ” (विशे०) इहापि दिवाण शब्द देतुत्वमेव हेतु न्यायेनान्यान्तरात्सति चान्ये व्यतिरेकस्यापि संजयात्। दमेव यान्वयव्यतिरेक विकलतथा विवचितमुपपत्तिमात्रं कारणम् । एवं सर्वत्र कारणभावना कार्येत्यलं प्रसङ्गेन । प्रकृतमेष सूत्रमनुश्रियते ततः प्रेरणानन्तरं नमिर्नमिनामा, राजर्षिर्देवेन्द्रं शक्र मिदं वच्यमाणमीकवानिति सुत्रार्थः ॥ ८ ॥
किं तदुक्तवानित्याह
मिहिसाए वे बच्चे सीषधवार मणोरमे । पचपुप्फफलोवेए, बहूणं बहुगुणे सपा ॥ ए ॥
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(१८१३) अभिधानराजेन्द्रः ।
यमि
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मिथिमा पुरि चितिरिद्द प्रस्ताचात्पत्र पुण्यापचय रात्र साधु विश्यं ततः प्रज्ञाऽऽदेशकृतिगणत्वात् स्वार्थिकेऽणि चैत्यमु नम्मद (लोकेशीता थीतला गया यस्य तच्छीतखच्दार्थ तस्मिन् मन रमते तिमवाप्नोति पस्मिन् मनोरम मनोरमा निधानं तस्मिन् प पुष्पफानि प्रतीतानि तैपेतं युकं पत्रपुष्पफलोपेतं तस्मि न्, बहूनां प्रक्रमात् लगाऽऽदीनां बहवो गुणा यस्मात्तत्तथा त स्मिन्कोऽर्थादिजः प्रयुरोपकारकारिणि सदा स कालमिति सूत्रार्थः ॥ ६ ॥
तत्र किम ?, इत्याहवारण हीरमाणम्पि, चेश्यम्मि मनोरमे ।
हिया असरणा अत्ता, एए कंदंति जो ! खगा ॥१०॥ वातेन वायुना हियमाणे इतस्ततः क्षिप्यमाणे वाश क्रेणैव कृत इति संप्रदायः । चितिरिद्देष्टकाऽऽदित्रयः, तत्र साधुयोग्यश्चित्यः प्राग्वत् स एव चैत्यः, तस्मिन् । किमुक्तं नवतिः-भघो पीठिके उपरि बोकृतपता के मनोरमे मनोऽभिरविती, वृके इति शेषः । दुःखं संजातं येषां ते दुःखिताः, अशरणास्त्राणरदिताः अतएवा पीडिताः कन्दन्त्यादसम् कुर्वन्ति भो इत्यामन्त्रणम्, खगाः पक्षिणः । 'इह च किमद्य मिथिवायां दारुणाः शब्दाः श्रूयन्ते ?" इति यत् स्वजनजनाऽऽक्रन्दनमुकं, तत् खगक्रन्दनप्रायम्, भ्रात्मा च वृककल्पः, ततो हि नियतकालमेव सदावस्थितत्वेन उत्तरकालं व स्वस्यगतिगामितया डुमाऽऽतिखोपमा पचामी स्वजनाऽऽयः ।
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यह मे महति पचिगणा विचित्रा
कृत्वाऽऽयं हि निशि यान्ति पुनः प्रभाते ।
जगत्सदेव कुटुम्बजीबा
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सर्वे समेत्य पुनरेव दिजन्ते ॥१॥ इति । ततश्चाऽऽकन्दाऽऽदिदारुणशब्द हेतुत्वेनाभिधीयमानमसिद्धम् । पते हि स्वजनाऽऽदयो वातेन प्रेर्यमाणा द्रुमविलिप्यत्खगा इव स्वस्वप्रयोजनहानिमेषाऽऽशङ्कमानाः क्रन्दन्ति ।
ग्रह च
" आत्माथै सीदमानं स्वजनपरजनो रौति हा हा कुलाऽऽतों, भय चामोपभोगं गृहविजय एवं वयस्यास्थ कार्यम कन्दन्योऽन्यमन्यचि हि बहुजन लोकपात्रानिमित्तं यवान्यस्तत्र कश्चिद मृगयति दिगुणं रोदितीष्टः स तस्मै ॥१॥ एवं चाकन्दाऽऽदिदा रुगदानामभिनिष्क्रमणहेतुकत्वम सिरूम, स्वप्रयोजन देतुकत्वात्तेषाम, तथा च भवडुक्तहेतुकारमे असिद्धेत्युकं भवतीति मुत्रार्थः ॥ १० ॥
ततश्च
एयम निसामित्ता, देऊकारण पोश्रो । तो नाम रायरिसिं, देविंदो इणमव्ववी ॥ ११ ॥
नमर्थ निशम्य देतुकारणयोरनन्तर सूत्रसूचितयोः, चोदितः सिद्धोऽयं नवद्भिहितो हेतु कारणं चेत्यनुपपच्या प्रेरितो तुकारण चोदिता ततो नाम राजा देवेन्द्र पाण मनवीदिति सूत्रार्थः ॥ ११ ॥
किं तत् ? इत्याहएस अग्गी य वाऊ य, एयं मज्जइ मंदिरं । जयवं! अंतउरते, कीस एां नावपेक्खड़ ? ॥ १२ ॥
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एष इति प्रत्यक्कोपलभ्यमानोऽग्निश्च वैश्वानरो वात पवनः, संततिप्रत्यभात्का झिनेव मन्दिरं वेदमभवत्त शेषः भगवत्रिति पूर्ववत् । (ति) अन्तःपुरानिमुखं (कोस चि) कस्माद, णमिति सारे मासे नाव लोकसेव दात्मनः स्वं तत्तप्रकणीयं यथा ज्ञानाऽऽदि स्वं वेदं भवतो अन्तःपुरमित्यादिदे तुकारणभावना प्राग्वदिति सूत्रार्थः ॥ १२ ॥
तसा-
एम निसामित्ता, ऊकारचोथो । तो नमी रायरिसी, देविंदं इएमव्ववी ॥ १३ ॥ किमब्रवीत् ? इत्याह-
शग्वत् ||१३||
सुहं वसामो जीवामो, जेसि मो नत्यि किंचण । मिहिलाएँ माथी, न मे मक्कड़ किंचय ॥ १४ ॥ सुखं यथा जवत्येवं व सामस्तिष्ठामो, जीवामः प्राणान् धारयामः, येषां (मो इति) अस्माकं नास्ति न विद्यते न वस्तुतम् । यतः-- " एकोऽहं न मे कश्चित् स्वः परो वाऽपि विद्यते । यको जायते जन्तु कि एहि १॥" इति न कि विदन्तःपुराऽऽदि मरसरकं यतयतो मिथिलायामस्यां पुरि दह्यमानायां न मे दाते किंचित स्वयमिति । मिथिल तु न केवलमन्तः पुराऽऽद्येव न मत्संबन्धि, किं त्वन्यदपि स्वजनाऽऽदि, स्वस्वकर्मफलनुजो हि जन्तवस्तथा तथाऽस्मिन् भ्रा इयन्तीति किमत्र कर स्वं परं वेति क्यापनार्थम् ॥ ततखानेन प्रागुकतोरसित्यमुकं तप्यतो कानाऽऽदिव्यतिरिकस्प सर्वस्यास्वकीयत्वादित्यादि प्राम्यदिति सुषार्थः ॥ १४॥
एतदेव प्रावयितुमाहचतपुचकझसस, निव्वावारस्स भिक्खुणो । पियं न विज्जए किंचि, अप्पियं पि न विज्जए ।। १५ ।। बहुं खुशियो जर्द, अणगारस्स चिक्खुणो । सो विप्पमुक्कस्स, एगंतमणुपस्स ।। १६ ।। त्यक्ताः परिहृताः पुत्राश्च सुताः, कलत्राणि च दाराः, येन स तथा, तस्य, अत एव निर्व्यापारस्य परिहृत कृषि पाशुपाख्याssदिक्रियरूप, भिक्कोकरूपस्य प्रियमिषं न विद्यते नास्ति, किदिल्पमपि अनि विद्यते नास्ति प्रियाप्रियविनास्ति हि सति पुत्र न कुर्यात् एतयोरेवातिप्रतिबन्धविषयत्वादिति प्रायः एतेन पति तत्समर्पितं तत् स्वकीयत्वं हि पुत्राऽऽद्यत्यागतो ऽभिष्वङ्गतः स्यात् स च निषिद्ध इति । एवमपि कथं सुखेन वसनं जीवनं च, त्याह-बहुविपुलं, खुरवधारणे, बहेव, मुनेस्तपस्विनो, भद्रं कल्याणं सुखं च अनगारस्य भिक्कोरिति च प्राग्वत् । सर्वतो वाह्याभ्यन्तराच्च । यद्वा-स्वजनात्परजनाश्च विप्रमुक्तस्येति पूर्ववत् । एकान्तमेव कोऽहमित्यारूपेकर भावनाऽस्म कम अनुपश्यतः पर्यालोचयत इति सूत्रद्वयार्थः ॥ १५ ॥ १६ ॥ पुनरपि
एप निसामिता देऊकारण चोथो ।
तो नमिं रायरिसिं, देविंदो इणमव्ववी ॥ १७ ॥ प्राग्वत् ॥। १७।। पागारं कारसा
गोपुरऽहालमाणि य ।
"
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ग्रामि
(२०२४) अभिधानराजेन्द्रः ।
सुलगन्धीभो, तो गच्छसि खत्तिया ! ॥ १० ॥ प्रकर्षेण कुर्वन्ति तमिति प्राकारः, तं धूलीष्टकाऽऽदिविरचितं, कारविधाय गोपुराट्टालकानि च तत्र योनिः पूर्यन्ते इति गोपुराणि प्रतीकाराणि गोपुरबहणमलापाप
मासकानि प्राकारकोको परिवर्तम्योधनस्थानानि, (उलग बालिका परचमपातामुपाति, शतं प्रति शतन्यः साधयन्त्रविशेषरूचाः, तत एवं सफलं निराकुनीकृत्य (गच्छसि इति ) तिव्यत्ययाद् गच्छ कृतात् जायत इति यः संबोधनं ग्रहणं चेदम् । स चायम् यः क्षत्रियः स पुररक्षं प्रत्यवहितो यभिवान् शेषं प्राम्यदिति सुत्रार्थः॥१८
खूप
ततः
एयमहं निसामित्ता, हेककारणचोइ
।
तो नमी रायरिसी, देविंदं इणमव्बची ॥ १५ ॥ प्राभवत् ॥ १९ ॥
सच नगरं किच्चा, तवसंवरमभ्गलं ।
खंतिं निज-पागारं तिगुत्तं दुप्पवंसगं ॥ २० ॥ धणू परकर्म किच्चा, जीवं च इरियं सया । धिरं च केयरणं किच्चा, सच्चेणं पतिमंथर ॥ २१ ॥ तवनारायजुचेणं, मेत्तृणं कम्पकंचुषं ।
मुणी विगयसंगामो, जाओ परिमुच्व ।। २२ ।। श्रद्धां तत्त्वरुचिरूपाम, अशेषगुणगणधारणतया नगरीं पुरीं कृत्वा हृदि विधाय, अनेन च प्रशमसंवेगाऽऽङ्गीनि गोपुराणि कृत्वेत्युपजयते, अलापारं तहिं किम इत्याह तपोवनादि बाह्यान्तरप्रधान संरवनिरोधलक्षणस्तपः संवरः सं. मिध्यात्वादिनिवारकत्वेनाला परिधानं कपाट मप्यर्गलेत्युक्तम्, ततो नामर्गला कपाट, कृत्वेति संबन्धः। प्राकारः कः?, इत्याह- कान्तिः कमा, निपुणमिव निपुणं शरणं प्रति श्रद्धाविशेष्यन्धकपापरोधितया प्राकारत्वेति सं
मानाऽऽदिनिरोधनांमादेवादीनामतिभिर कोतवानीयानिमनोगुप्यादिगुप्तिनिर्गुलम्। मयूव्यंसकाऽऽदित्वात्समासः। प्राकारस्य विशेषणम् । अत एव दुःपरैरनियत इति व प्रधर्षकः तम् । "च-पागारं तिगुति दुप्पर्थसर्व" इति रूपम् इत्थं यदुक्तं प्राकारा ऽऽदीन् कारयित्वेति तत्प्रतिवचनमुकम् ॥ संप्रति तु प्राकाट्टाल के व्यवश्यं दोषव्यम्, तच्च सत्सु प्रहरप्रच वैशिण संभवति तद धनुः कोदधर्मपराक्रमजीवीयासमुत्सादा जी समितिमा उपलक्षणत्वाच्छेषसमिती सदा सर्वहितस्य वीर्यस्याप्यादिति च धर्मानं धर्मध्ये कायमुकायमकम तदुपरि स्नायुना निबध्यते, इदं तु केन बन्धनीयम ?, इत्याह-सत्बेमनःसत्यादिना (पालघर) बनीबाद ततः किम् स्याह तपः बडूविधमान्तरं परिगृह्यते, तदेव कर्मप्रत्यभिमदत्तया नाराचः - अयोमयो वाणः, तद्युक्तेन प्रक्रमानुषा, भिस्वा बिदार्थ, कर्म ज्ञानाssवरणाऽऽदि, कञ्चुक इब कर्मकम्बुकः, तम् । इह कर्मकञ्चुकग्रहणेनाऽऽत्मैवोद्धृतो वैरीत्युकं भवति । वक्ष्यति - मिचममितं पट्टि सुतिदिए।" कर्मणस्तु क
मि
नुकत्वं तद्गतमिथ्यात्वाऽऽविप्रकृत्युदयच र्तिनः अकानगरमुपदुर्निवारत्यात् मुनिः प्राग्वत् कर्ममे जिनत्वाद विगतः संग्रामो यस्य यस्माद्वेति विगतसंग्राम उपरलायोधनः सन् भवनयस्मिन् शारीरमानसानि दुःखामीति भवः संसारः तस्म त्परिमुच्यते । एतेन च यदुक्तम्- प्राकारं कारयित्वेत्यादिनानगरकणाभिधानाद्भवता ततो भवति न भवतिप्राकारादिकरणे कलशामानस क्लेश बियुकिला मुक्तिरचाप्य ते वस्तु दारिपीति वार्थः ॥२० २१ २२ एवं च तेनोके
एयम निसामित्ता, हेऊकारण चोइओ । तो नर्म यरिसिं देविंद
प्राभ्वत् ||२३||
पासार कारइता, वमाणगिहाणि य । बालग्गपोइया य, तत्र गच्छसि खत्तिया ! ||२४|| प्रसीदन्ति नवमनांसि येषु ते प्रासादा, सानुरूपाद बर्द्धमानगृहाणि चानेकधा वास्तुविद्याऽभिहितानि । (बागप इ) देशी बलाम ततो वारयित्वा अम्बे रागमाला सादमेव "बालागोहयादेपदाभिषमा ततस्तामानभूता
कारयित्वा ततत्रियावाद अतिसामध्यें प्रासादादि कारयिता, यथा ह्मद कार्याश्व सति सामर्थ्यं भवानित्यादिदेतु कारणयोः सूचममकारीति सूत्रार्थः ॥ २४ ॥
॥ २३ ॥
एवं च शक्रेणोकेएयम निसामित्ता, हेककारणचोइयो ।
तो नमी रायरिसी, देबिंदं इणमन्त्रवी ॥ २५ ॥
प्राग्वत् ॥ २५ ॥
संसयं खलु सो कुणइ, जो मग्गे कुई घरं |
जत्थेव गंतुमिच्छेजा, तत् कुब्बे सासवं ॥। २६ ।। संतः संशयः इदमित्यं भविष्यति न सम्प्रत्ययः तं चतुरेवकारार्थः ततः संयमेव कुरुते यथा-मम कदाचिद् गमनं प्रविष्यतीति । यो मार्गे कुरुते गृहं । गमननिश्वये तु करण्यायोगातुन संशयि मनमुनिया
-
- सत्याच्च यदि नाम व संशयितस्यापि किमिदेव गृहं न कुरु। विदे अभिपेत्। तथेतियास्य-जिगकुर्वीत विदधीत खात्मनः
श्रयः, तम । यद्वा शाश्वतं नित्यं प्रक्रमाद् गृहमेव । ततोऽयमर्थः इदं तावदिहानं मागांव स्थानप्रायमेव पत्र तु जिगमिति प्रदशे कुर्वीत विदधीतास्मान्निस्तन्मुक्तिपदं तदाश्रयबिधाने व प्रवृत्ता एव वयम्, ततस्तत्करणप्रवृत्तत्वात् कथं मेक्कावrवक्कतिः । तथा च यः प्रेक्षावानित्याद्यपि तत्वतः सिद्धसागवावस्थितमिति सुत्रार्थः ॥ २६ ॥
ततः पुनरपि एवम निसारिता, देकारण चोओ।
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यामि
(२०१५) अभिधानराजेन्दः।
णमि तो नमि रापरिसिं, देविंदो इणयवधी ॥७॥
ये केचिदिति सामसत्योपदर्शकम,पार्थिवा भूपालाः,(तुभति) प्राम्बत् ॥२७॥
तुल्यं, मानमन्ति न मर्यादया प्रीभवन्ति, तुभ्यमिति नमतीतिआमोसे लोमहारे य, मंजिनेए यसकरे।
योगेऽपि चतुर्थी,"मात्रेपित्रे सवित्रेच,नमामि" इत्यादिवददुरै
वा वाचनान्तरे पठ्यते ब-(तुज्झति) तत्र च तवेति शेषविव. नगरस्स खेमं कालणं, तो गच्छसि खत्तिा !॥२०॥
कया षष्ठी। नरादिवा!' इत्यत्राऽऽकारो "हस्वदीर्ण मियो वृत्ती" मा समन्ताद् मुष्णन्ति स्तैन्यं कुर्वन्तीत्यामोषाः, तान, मो-1 ।।८।१४॥ इति लक्षणात *। ततश्च हे नराधिप! नृपते!, मानि हरन्ति व्यपमयन्ति प्राणिनां ये ते सोमहाराः। किमुक्तं पशे इत्यात्माऽऽयत्ते, तानित्यन्यापार्थिवान्, स्थायित्वा निभवति?-निस्त्रिंशतया, आत्मविघाताऽऽशङ्कया च प्राणान निह- वेश्य, कृस्वेति यावत् । ततो गच्छ क्षत्रिय इहापि यो नृपतिः स्यैव ततः सर्वस्वमपहरन्ति । तथा च वृक्षा:-" लोमहाराः |
सनानमस्पार्थिवं नमयिता, यथा भरताऽऽदिरित्यादिहेतुकाप्राणहाराः" इति । तांश्च, ग्रन्धि व्यसंबन्धिी भिन्दन्ति घु.
रणे अर्थत प्राक्षिप्ते, इति सूत्रार्थः ॥ ३२ ॥ घुरुकतिकर्तिकाऽऽदिना विदारयन्तीति प्रन्थिभेदाः, तान्, चश
एवं तु सुरपतिनोक्तेब्दो भिन्नक्रमः। तदेव कुर्वन्ति तस्कराः, सर्वकास चौर्यका
एयमहुँ निसामित्ता, हेऊकारणचोइओ । रिणः, तांश्च । यत पाहुयाकरणा:-"तबृहतोः करपत्योश्चोर. देवतयोः सुद तलोपश्च।" (वार्ति०) श्ह चोत्साचेति गम्यते,प्र.
तो नमी रायरिसी, देविंदं इणमब्ववी ॥ ३३ ॥ विश्य पिएलीमित्युक्तौ भक्तयेतिवत्।यहा-सप्तम्येवेयं,बह्वर्थे चैक- सूत्रं प्राग्वत् ॥३३॥ वचनम,ततश्चाऽऽमोषाऽऽदिषूपतापकारिषु सत्सु,नगरस्य पुरस्य जो सहस्सं सहस्साणं, संगामे दुज्जए जिणे। केमं सुस्थं, कृत्वा विधाय, ततस्तदनन्तरं,गच्च कृत्रिय!। एते
एगं जिणेज अप्पाणं, एस से परपो जो ॥ ३४॥ नापि यः सधर्मा नृपतिः, स हाधर्मकारिनिग्रह कृत्, यथा भरताऽऽदिः, सधर्मनृपतिश्च भवानित्यादिहेतुकारणसुचना कृते
अप्पाणमेव जुज्काहि किं ते जुज्केण बज्यो । वेति सूत्रायः ॥२८॥
अप्पणा चेव अप्पाणं, जश्त्ता सुहमेहए ॥ ३५।। इत्थं शक्रोक्तो
पंचिंदियाणि कोह, मायं माणं तहेव लोनं च । एयमढे निसामित्ता, हेजकारणचोइभो।
सुजयं चेव अप्पाणं, सबमप्पे जिए जियं ॥ ३६ ॥ तश्रो नमी रायरिसी, देविंदं इणमव्यवी ॥२६॥ य इत्यनुद्दिष्टनिर्देशे,सहस्रं दशशताऽभम, सहस्राणां प्रक्रमासई तु मास्सेहिं, मिच्छा दंमो पउंज ।
त सुजटानाम,संग्रामे युद्ध, पुजये दुरापपरपरिभवे, जयेदभि. अकारिणोऽत्थ बज्जंति, मुच्चाई कारओ जणो॥३०॥
भवेत् । संनावने लिछ।एकमद्वितीय,जयेद् यदि कथञ्चिज्जीवअसकरनेकधा, तुरेवकारार्थः, ततश्वासकदेव,मनुष्यैर्मनुजैः,मि
वीर्योल्लासतोऽभिभवत्, कम!,मात्मानं खं,पुराचारप्रवृत्तमिति ध्या व्यनीकः। किमुक्तं जपति-मनपराधिष्वप्यज्ञानाहङ्काराss
गम्यते । एषोऽनन्तरोक्तः,(से इति)तस्य जेतुः, सुभटदशशत. दिहेतुभिरपराधिषिय, दएमनं दएको देशत्यागशरीरनिग्रहाऽऽ.
सहजयात्परमः प्रकृष्ठो, जयः परेषामनिभवः,तदनेनाऽऽत्मन दिः,प्रयुज्यते व्यापार्यते।कथमिदम?,श्त्याह-अकारिण पामोष
एवातिदुर्जयत्वमुक्तम् ॥ ३४॥ तथा च (अप्पाणमेव सि) तृतीमाधविधायिनः, अत्यस्मिन् प्रत्यकत उपलभ्यमानमनुष्य
यार्थे द्वितीया । ततश्चारमनैव सह, युदयख संग्रामं कुरु । यद्वा. सोके,बभ्यन्ते निगडाअदिभिर्नियकान्ते; मुच्यते त्यज्यते,कारको
युधेरन्त वितण्यर्थत्वाभ्यस्वेति योधयख । कम, पास्मानम, विधायक, प्रकृतत्वादामोषणाधीनाम । जनो सोकः। तदनेन
दहाप्यात्मनैव सहेति शेषः । किम् ?, न किञ्चिदित्यर्थः। ते तव, यदुकम्-प्रागामोपकाऽऽद्युत्सादनेन मगरस्य क्षेमं कृत्वा गच्छेति,
युकेन संग्रामेण, बाह्यत इति बाह्य पार्थिवाऽऽदिकमाश्रित्य, यदि सबसेषांशातुमशक्यतया केमकरणस्याप्यशक्यत्वमुक्तम् ।
वाबाह्य इति तृतीयार्थे तसिः,ततो बाह्येन युद्धेनेति संवध्यते। एवं ययः सधर्मेत्यादि सचितम, तत्रापरिकामतोऽनपराधिनामपि
च (अप्पणा चेव ति)मात्मनैवान्यव्यतिरिक्तेन, आत्मानं स्वं, दएकमावदतां सधर्मनृपतित्वमपि तावचिन्स्यमित्यसिकता है। [जश्त्त ति] जित्वा, सुखमैकान्तिकात्यन्तिकमुक्तिसुखात्मक बोरिति सूत्रार्थः।। २४ ॥३०॥
म, एधत इति-अनेकार्थत्वासातूनां प्राप्नोति । (महवा सुहमेहए एयमटुं निसामित्ता, हेजकारणचोश्यो।
सि) शुभं पुएवमेधते-अन्तर्भावितण्यर्थत्वाद् वृद्धि नयति॥३५॥ तो नमि रायरिसिं, देविंदो इलामम्बनी ॥३१॥
कथमात्मन्येव जिते सुखावाप्तिः,श्त्याइ-पञ्चेन्द्रियाणि श्रोत्रा
ऽऽदीनि, क्रोधः कोपो,मानोऽहङ्कारो,माया निकृतिः,तथैव लोभश्च प्राग्वत् ॥३१॥ नघरमियता स्वजनान्तःपुरपुरप्रासादनपतिधर्मविषयः
गायलकणो, पुर्जयो दुरभिभवः, चः समुश्चये। पवेति पूणे ।
अतति सततं गच्छति तामि तान्यभ्यवसायस्थानान्तराणीति व्युकिमस्याभिष्योऽस्ति, मेति वेति विमृध्य, सं. प्रति द्वेषाभावं विवेक्तुमिबुर्विजिगीषुतामूख
त्पत्तरात्मा मनः, सर्वत्र च सूत्रत्वानात्मना निर्देशः।सर्वमशेष
मिरिष्यादि, उपलक्षणस्वाद मिथ्यात्वाऽऽदिच,भास्मनि जीवे, स्वात् द्वेषस्थ, तामेव परीक्षितुकामः शक्र
जितेनिभूते, जितमित्यभिनूतमेव । ननु मनसि जिते जितानि इदमुक्तषान्जे के पस्थिवा तुन्नं, नाणमंति नराहिवा!।
*अयं तु प्रमादेनोझेखः, यतो हि 'मोदी? वा ॥३॥३०॥
इतिसुत्रं विवेचयता हेमचरिणा प्राप्ताप्राप्तविभाषात्वमस्य बसे ते गवस्त्ता णं, तमो गच्छसि खत्तिया! ॥३॥
सूत्रस्य समर्थितमालदू यथा-डे गुरू, हे गुरु, हे पहू. हे पहु, पषु *तुज्झमिति पामम्वरम् ।
प्राने विकल्पः । हे मोयमा,हे मोघमहत्वप्रा विकल्पः ।
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हामि
यामि
अभिधानराजेन्द्रः। पञ्चेन्द्रियाऽऽदीनीति,किं पृथक तज्जयाभिधानेन ? सत्वम्-तथा- पाह-"प्रशनादीनि दानानि, धर्मोपकरणानि च । साधुभ्यः ऽपि प्रत्येकं उर्जयस्वल्यापनाय पृथगुपन्यास इत्यदोषः। यद्वा- साघुयोम्यानि, देयानि विधिना बुधैः" ॥१॥ शेषाणि तु सुवर्ण[दुक्षयं चेव अप्पाणं ति] चकारी हेत्वर्थः,पयोऽवधारणे, जिन्न- | गोभूम्यादीनि. प्राण्युपमर्दहेतुतया सावद्यान्येव, नोगानां तु क्रमश्व-प्रारमशब्दानन्तरं षष्टव्यः। ततश्च यस्मादात्मैव जीव पव सावचत्वं सुप्रसिरूम तथा च प्राणिप्रीतिकरत्वादित्यसिको हेपुर्जयस्ततःसर्वमिन्छियाऽऽद्यात्मनि जिते जितम् । अनेन चेम्बि- तुः। प्रयोगश्च-यत्सावधं तत्प्राणिप्रीतिकरं न, यथा हिंसाऽऽदि, याऽऽदीनामेव दुःखहेतुत्वात्तज्जयतः सुखप्राप्तिःसमर्थिता भव- सावधानि च यागाऽऽदीनीति सूत्रार्थः ॥४०॥ ति। एवं च फलोपदर्शनद्वारेणैवंविधैव जिगीषुता श्रेयसी- एयमढे निसामित्ता, हेऊकारणचोइयो। त्याचष्टे । ततश्च यो नृपतिरित्याद्यपि तवतो विजिगीषुत्वद
तो नमि रायरिसिं, देविंदो इणमब्बवी ॥ ४१ ।। र्शनात् सिद्धसाधनतया प्रत्युक्तमिति सूत्रनयार्थः ॥३६॥
'एयमटुं' सूत्रं प्राग्वत् ॥४१॥ भूयोऽपि
नवरम् , इत्थं जिनधर्मम्धैर्यमवधार्य, प्रवज्यां प्रति एयमझु निसामित्ता, हेऊकारणचोओ।
हढोऽयमुत नेति परीकणार्थ शक्र श्दमब्रवीततो नमि रायरिसिं, देविंदो इणमवत्री ॥ ३७॥
घोराऽऽसमं चइत्ता एं, अन्नं पत्थेसि आसमं । प्राग्वत ॥३७॥ नवरमनन्तरपरीकातो द्वेषोऽप्यनेन परिदुत शति निश्चित्य,
श्हेव पोसहरओ, जवाहि मायाहिवा!॥४२॥ जिनप्रणीतधर्म प्रति स्थैर्य परीक्कितुकामः शक्र
घोरोऽत्यन्तपुरनुचरः, स चासावाश्रमश्च, श्राडिति स्वपरइदमवोचत्
प्रयोजनानिव्याप्या,श्रामन्ति खेदमनुभवन्त्यस्मिन्निति कृत्वा घो. जइत्ता विउले जमे, जोएत्ता समणमाहणे ।
राऽऽश्रमो गाहyम,तस्यैवाल्पसवैः दुष्करत्वात्।यत आहुः
"गृहाऽऽश्रमसमो धर्मों,न जूतो न भविष्यति । पालयन्ति नराः दचा भोच्चा यजिहा य, तओ गच्छसि खत्तिया! ॥३०॥
शूरालीबाः पाखण्डमाश्रिताः ॥१॥" तं,त्यक्त्वाऽपहाय, "ज[ जश्त्त ति] याजयित्वा विपुत्रान् विस्तीर्णान् , यज्ञान या- हित्ता णं ति" क्वचित्पाठः । तत्र च हित्वा, अन्यमेतद्व्यतिरिक्तं गान्,भोजयित्वा-अभ्यवहार्य, श्रमणाश्च निर्ग्रन्थाऽऽदयो,ब्राह्म- कृषिपाशुपाल्याऽऽद्यशक्तकातरजनाभिनन्दितं,प्रार्थयसेऽभिलष. णाश्च द्विजाः,श्रमणब्राह्मणाः,तान्,द्विजाऽऽदिन्यो गोभूमिसुवर्णा- सि,आश्रमं प्रवज्याबकणं,नेदं क्लीबसवानुचरितं भवाहशामुचि. ऽऽदीन दत्वा,भुक्त्वा च मनोशशब्दाऽऽदीन्,इष्ट्वा च राजर्षित्वात् तमित्यभिप्रायः। तर्हि किमुचितम्?,इत्याह-इहैवास्मिन्नेव गृहास्वयमेव यशान्, ततो गच्च कत्रिय! अनेन यद्यत्प्राणिप्रीतिकरं | मेखित इति गम्यते । पोषं धर्मपुष्टि धत्त इति पोषधः,अष्टम्यातत्तद् धर्माय,यथा हिंसोपरमाऽऽदि, प्राणिप्रीतिकराणि चामूनि दितिथिषु यतविशेषः, तत्र रत प्राशक्तः पोषधरतो, (जवादि यागादानीत्यादिनीत्या हेतुकारणे सूचिते एवेति सूत्रार्थः॥३८॥ त्तिभव.अणुव्रताऽऽधुपलकणमेतत्, अस्यैवोपादानं पोषधदिनेशक्रवचनानन्तरम्
ववश्यंभावतस्तपोऽनुष्ठानख्यापकम् । यत प्राइ आश्वसेनःएयमढे निसामित्ता, हेजकारणचोइओ।
"सर्वेष्वपि तपोयोगः, प्रशस्त कालपर्वसु । अष्टयां पञ्चदश्यां तो नमी रायरिसी, देविंदं णमव्ववी ॥३॥
च,नियतः पोषधं चरेत ॥१॥" इति।मनुजाधिप!नृपते!,अत्रच
घोरपदेन देतुराक्किप्तः । तथाहि-यद्यद घोरं तदतकार्थिनाऽपि सूत्रं प्राग्बत् ॥३६॥
अनुष्ठेयं, यथाऽनशनाऽऽदि, तथा चायं गृहाऽऽश्रमः, शेषमेतजो सहस्सं सहस्साणं, मासे मासे गवं दए ।
दनुसारतोऽन्यूह्यमिति सूत्रार्थः ॥४॥ तस्सा वि संजमो सेरो, अदितस्स वि किंचण ॥४॥
ततश्वयः सहस्रं सहस्राणां दशलकाऽऽत्मकं, मासे मासे, गवां एयमढे निसामित्ता, हेऊकारणचोओ। प्रतीताना, (दए त्ति) दद्यात्,तस्याप्येवंविधस्य दातुर्यदि कथ- तो नमी रायरिसी, देविंदं श्णमब्ववी ॥४३॥ चिचारित्रमोहनीयतयोपशमेन संयम आश्रवाऽऽदिविरमणाऽs
प्राभ्वत् ॥४३॥ त्मकः स्यात,तदास पव श्रेयानतिशयप्रशस्यः। कथंभूतस्यापि?,
मासे मासे उ जो बालो, कुसग्गेण उ भुंजए । अददतोऽप्ययच्चतोऽपि, किश्चन स्वल्पमपि वस्तु । यद्वा-(तस्सा वित्ति)तस्मादप्युक्तरूपाद् ददतुरबधित्वेन विवक्वितासंय
न सो सुक्खायधम्मस्स, कलं अग्घा सोलसिं ॥४॥ छति प्राणिहिसाऽऽदिभ्यः सम्यगुपरमतीति,सर्वधातूनां पचा
" मासे मासे " शति वीप्सायां द्विवचनम् , तुरिहोउदिषु दर्शनादचि संयमः संयमवान्, साधुरित्यर्थः । श्रेयान तरत्र चैवकारार्थः, ततश्च मासे मास एव, न त्वेकप्रशस्थतरः । अथवा तस्यापि दातुः, प्रक्रमाझोदानधर्मात,संयम
स्मिन्नेव मासे, अर्समास ऽऽदौ नेति, यः कश्चिद् बानोऽविवेतक्तरूपः, श्रेयान्। शेषं पूर्ववत् । गोदानं चेह यागाऽऽधुपझवण.
कः, कुशाग्रेणैव तृणविशेषमान्सेन, भुते । एतदुक्तं भवतिमतिप्रभूतजनाऽऽचरितमित्युपात्तम् । एवं व संयमस्य प्रशस्य- यावत कुशाग्रेवतिष्ठते तावदेवाभ्यवहरन्,नातोऽधिकम् अथवा तरस्वमभिदधता यागाऽऽदीनां सायद्यत्वमर्थादावेदितम् । तथा कुशाग्रेणेति जातावेकवचनम् । तृतीया तु श्रोदनेनासौ भुङ्क च यज्ञप्रणेतृभिरुक्तम-"षद् शतानि नियुज्यन्ते, पशूनां मध्यमे- इत्यादिवत् साधकतमत्वेनात्यवहियमाणत्वेऽपि विवक्तिउहनि । अश्वमेधस्य वचनाद, न्यूनानि पशुभित्रिभिः॥१॥"
स्वात् । नेति निषेधे । स इति यः कुशाग्रैजुले स एवंविधकहाश्यस्यस्तु वधे च कथमसावद्यता नाम तथा दानाम्यप्याना- नुष्ठाय्यपि, मुष्ठ शोभनः सर्चसावद्यविरतिरूपत्वात,आडिस्यनिऽऽदिविषयाणि,धर्मोपकरणगोचराणि च धर्माय वर्ण्यन्ते । यत व्याप्त्या, ख्यातस्तीर्थकराऽऽदिनिः कथितः स्वास्यातः,तथाविधो
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गामि
णमि
अभिधानराजेन्द्रः । धो यस्य सोऽयं स्वाक्यातधर्मा, तस्य, चारित्रिण इत्यर्थः। पब, मरस्य पुरुषस्य, उपलकणत्वात स्त्रियः, पण्मकस्य पान कला भागमपि,मईति षोशी षोडशपूरणीम् ॥ इदमुक्तं प्रवति ।
| तैः कैलाशसमैरसंक्यैरपि सुवर्णरुप्यपर्वत, किश्चिदप्यल्पमपि, स समोऽपि न प्रवति, किं पुनस्तुल्यः, अधिको वा । ततो यदु- परितोषोत्पादनं प्रति क्रियत इति शेषः। वाचनान्तरे पठ्यते कं-यपद घोरं न तत्तकार्षिनाऽनुष्ठेयम,अनशनाऽऽदिबदित्यत्र स्व-[न तेण ति] अत्र च सूत्रत्वाचनव्यत्ययः । कुतः पुनरिदघोरत्वादित्यनैकान्तिको देतुः घोरस्थापि व्याख्यातधर्मस्यैव म,इत्याह-इच्छा अभिलाषो,दुरिति यस्मात्, आकाशेन समा धर्मार्थिनाऽनुष्ठेयत्वात्, अन्यस्य स्वात्मविघातादिवान्य. तुल्या भाकाशसमा, अनन्तिका अन्तरहिता । तथा चैतदनुथात्वात । प्रयोगश्चात्र-यत् खाण्यातधर्मरूपं न भवति घोरम- बादी वाचक:-"न तुष्टिरिह शताज्जन्तो-नै सहस्रान कोटितः। पिन तार्थिनाऽनुष्ठेयम्, यथा-आत्मवधाऽऽदिः, तथा च न राज्यामेव देवत्वा-न्द्रत्वादपि विद्यते ॥१॥"॥४८॥ गृहाऽऽश्रमः, तडूपत्वं चास्य सावत्वाद् हिंसाऽऽदिवदित्यसं किं सुवर्णरूप्ये केवले एव नेच्चापरिपूर्तये?,इत्याशक्याऽऽहप्रसझेन । शेष प्राग्वदिति सूत्रार्थः ॥४४॥
पृथ्वी मही, शासयोलोहितशाल्यादयः,यवाः प्रतीता, चःशेष. ततध
धान्यसमुच्चयार्थः। एवोऽवधारणे,स च भिन्नक्रमो नेत्यस्यान्तर एयमढे निसामित्ता, हेककारणचोइयो ।
योज्यते। हिरण्यं सुषणे, ताम्राऽऽधुपलक्षणमेतत, पशुनिर्गवा. तो नमि रायरिसिं, दोविंदो इणमबबी॥४५॥ श्वादिनिः,सह साई,प्रतिपूर्ण समस्तम् । वाचनान्तरे पठन्ति 'एय' सूत्रं प्राग्वद ॥ ४५ ॥
च-(सव्वं तंति) सर्वमशेष, न तु कियदेव, तत् पृथिव्यादि। नेति नवर यतिधर्म हढोग्यमिति निश्चित्य, पुरन्तोऽ- नैव,प्रलं समर्थ, प्रक्रमादिच्चापरिपूर्तये । एकस्याद्वितीयस्य,ज. यमनिवा इति तद्भावं परीक्कितमपि पुनः न्तोरिति गम्यते । इत्येतत श्लोकद्वयोक्तम, (विजत्ति)सूत्रत्वादि. परीकितुमिन्छ उवाच
दित्वा। यद्वा-इतीत्यस्माकेतोः, विद्वान् पशिमतः,तपो द्वादशविध, हिरमं मुवहां मणिमुचं, कंसं दूसं च वाहणं ।
चरेदासेवेत । तत एव निस्पृहतयेच्छापरिपूर्तिसंभवादिति
भावः। अनेन च संतोष एव निराकाहतायां हेतुर्न तु हिरण्याss. कोसं वलावइचा, तो गच्छसि खत्तिया || ४६॥
दिवईनमित्युक्तम् । तथा च हिरण्याऽऽदि बर्द्धयित्वेत्यत्र यदहिरण्यं सुवर्ण, स्वर्ण शोजनवणे, विशिषर्णकमित्यर्थः ।
नुमानमुकं, तत्र साकाक्षत्वलकणो हेतुरसिद्ध नखाऽऽका यद्वा-हिरण्यं घटितस्वर्णम,इतरतु सुवर्ण,मणयश्वेन्द्रनीलाऽऽद
णीयवस्त्वपरिपूसेस्तस्य सिम्त्वं, संतुष्टतया ममाऽऽकारवणीयः, मुक्ताश्च मौक्तिकानि, मणिमुक्तम् । तथा कांश्यं कांश्यभाज
यवस्तुन पवाभावादिति सूत्रार्थः ॥४।। नाऽऽदि, दृष्यं वस्त्राणि, चः स्वगतानेकभेदसंसूचकम् । वाहनं
नयोऽपिरथाश्वाऽऽदि।वाचनान्तरे पठन्तिच-(सवाहणं ति)सह वाहनैर्वर्तत इति सवाहनम,हिरपयाऽऽदीतिसंबन्धः। काशं भाण्डा.
एयमढे निसामित्ता, हेऊकारणचोइनो। गारं धर्मलाभाऽऽधनेकवस्तुस्वरूपं [बकावरत्ताणं ति] वृद्धि तओ नमि रायरिसिं, देविंदो णमबवी ॥ ५० ॥ प्रापय्य, ततः समस्तवस्तुविषयेच्छापरिपूर्ती, गच्च क्षत्रिय !।
'एयमहं' सूत्रं प्राग्वत् ।।५०॥ अयमाशया-यः साऽऽकालो, नासौ धर्मानुष्ठानयोग्यो भवति, यथा मम्मणवणिक, साऽऽकारकश्च भवान, प्राकाणीयहिर
मवरम, अविद्यमानविषयेषु विषयवावानिवृत्तोऽयमिति ण्याऽऽदिवस्त्वपरितः, तथाविधम्मकवदिति। शेष प्राम्वदिति
निश्चित्य,सत्सु तेष्वनिषङ्गोऽस्तु,न वा?,इति सूत्रार्थः॥ ४६॥ [तत्कथा 'मम्मण' शब्दे पक्ष्यते ]
विवेचयितुमिन्छ उवाचसत:
अच्छेरयमन्तुदए, जोए जहसि पत्थिवा!। एयमझु निसापित्ता, हेजकारणचोइओ।
असते कामे पत्थेसि, संकप्पेण विहमसि ।। १ ।। तमो नमी रायरिसी, देविंदं णमचवी ॥४॥ (अच्छेरयं ति) आश्चर्य वर्तते,यतत्वमेवविधोऽपि (भभुवए प्राग्वत् ॥४७॥
त्ति) अढतकानाश्चर्यरूपान्, भोगान कामान्, जहासि त्यज. मुवमरुप्पस्स 7 पन्बया जवे,
खि। वाचनान्तरे पठ्यतेच-(चयसि सिपार्थिव ! पृथिवीपते ! सिया हु केलाससमा असंखया।
पाठान्तरश्च-क्षत्रिय ! अथवा-(भन्नुभा ति) अच्युदये, तनरस्स बुकस्स नै तेहि किंचि,
तश्च यदभ्युदयेऽपि नोगाँस्त्वं जहासि तदाश्चर्य वर्तते । तथाइच्छा हु आगाससमा भणंतिया ॥ ४ ॥
तस्यागतश्व-असतोऽविद्यमानान्, कामान्, प्रार्थयसेभिलपसि
यत,तदप्याश्चर्यमिति संबन्धः । अथवा-कस्तवात्र दोषः, पुढवी सासी जवा चेव, डिरहं पमुहिं मह।
संकल्पेन उत्तरोत्तराप्राप्तनोगानिलाषरूपेण बिकल्पन, बिपमिपुर्ण नालमेगस्स, इ विज्जा तवं चरे॥४॥ हन्यसे विविधं वायसे, एवंविधसंकल्पस्यापर्यवसितत्वासुवर्ण रुप्पं च सुवर्णरुप्यमिति समाहारः । तस्य, तुः पूरणे ।
कम; अमीषां स्थूलसूदमाणामिन्छियायेंविधायिनां शकाss. यद्वा-मार्षवाहिनक्तिलोपा, तुम्दश्च समुचये, ततः सुवर्णस्य
दयोऽपिनो तृप्तिविशेषाणामुपागताः। यद्वा-(अरगमम्भुकप्यस्य च पर्वताश्व पर्वताः पर्वतप्रमाणा राशया,(भवे सि) दए ति)मकारोऽलाकणिकः। ततश्चाऽऽश्चर्यातयोरेकार्थभवयुः स्युः,पर्वतप्रमाणत्वेऽपिच लघुपर्वतप्रमाणा एव स्युः,प्रत स्वेऽप्युपादानमतिशयल्यापनार्थम । अतिशयाद्भुतान भोगान् माह-[सिया हुचि] स्यात् कदाचित, हुरवधारण, निचक्रमः | जहासि पार्थिव!, असताच कामान् प्रार्थयसि यत,तत्संकल्पेभततः कैखाशसमा एच कैलाशपर्वततुल्या एष, न त्वन्य-नैवोक्तरूपेण,विहन्यसे वाध्यसे। कथं ह्यन्यथा विवेकिनस्तवैत. घुपर्षतप्रमाणा, तेऽप्यसंख्याकाःसंख्याविरहितानतु द्वित्रा संभवेतपतेनेच यः सद्विवेको, नासी प्राप्तान विषयानप्राप्ता5
४४५
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(१८१८) पमि अन्निधानराजेन्छः।
मि कारकया परिहरति; यथा ब्रह्मदच्चक्रवत्यादिः, सद्विवेकश्च अहो!निरकिया माया, प्रहो! मोनो वसीको॥२६॥ भवानिस्यादिहेतुकारणे सचिते इति सूत्रायः ॥५१॥ (त.
ब्रहो ! ते प्रज्जवं साह, महो! ते साह महवं । स्कथा 'यंत्रवत'शब्द)
ग्रहो! ते उत्तमा खंती, अहो! ते मुत्ति उत्तमा ॥३॥ एयम निसामित्ता, हेककारणचोइओ।
(भवाळण ति)अपोहा त्याचा,प्राह्मणरूपं धिम्वर्णवेष,
(विउन्धिऊणं ति) विकृत्य, इन्द्रत्वमुत्तरवैक्रियरूपमिन्छभार्क, समो नमी रायरिसी, देविंदं इणमन्नवी ।। १२॥
वन्दतेऽनेकार्थत्वात् प्रणमाति, मनिष्टुवनानिमुखेन स्तुति कुर्वन, प्रास्वत ५२॥
इमाभिरनन्तरवक्ष्यमाणाभिः,मधुराभिः श्रुतिसुखाभिः,(वम्यूहि सनं कामा विसं कामा, कामा प्रासीविसोवमा। ति)आर्षस्वाद वाग्निर्वाणीभिः ॥५५॥ तद्यथा-महो। इति विस्मये, कामे पत्येज्जमाणा य, प्रकामा जति पुग्गई॥५३॥ (ते ति) त्वया,नितरामतिशयन जितोऽभिजूतो निर्जितः, कोषः
कोपः, यतस्वमनानमत्पार्थिववशीकरणप्रेरणायामपिन वनित (सल्लं ति)देहान्तश्चलतीति शव्यं शरीरान्तःप्रविष्टं तोमराऽऽदि,
इत्यभिप्रायः । तथा अहो! त्वया मानोऽहमितिप्रत्ययहेतुः, शल्यमिव शस्यमा के ते?,काम्यमानत्वात् कामाः, मनोकशब्दाऽऽदयः । यथाहि-शल्यमन्तश्च सद्विविधवाधाविधायि,तथैतेऽपि,
पराजितोऽभिनूतः,यस्त्वं मन्दिरं दह्यत इत्याधुक्तेऽपि कथं मयि
जीवतीदमिति नाहस्कृतिं कृतवानिति ।५६ तथा-(अहो निरतत्वत पषामपि सदा वाधाविधायित्वाता तथा वेवेष्टि व्यापोतीति विषं तानपुटाऽऽदि, विषमिव विषं कामाः, यथैव हि तपभु.
किय सि) प्राकृतत्वानिराकृतापास्ता माया, यस्त्वं पुनः रकाहेम्यमानं मधुरमित्यापातसुन्दरमिवाभाति, अथ परिणतावति
तुप्राकाराहालकोवूलकाऽऽदिषु निकृतिहेतुकेवामोषकोत्साददारुणम, एवमेते अपि कामाः, तथा कामा:-आइयो दंड्राः,तासु
नाऽऽदिषुचन मनो निहितवान् । तथा-अहोते लोनी वशीकृत इविषमस्येत्याशीविषः, तदुपमाः । यथा ह्ययमहरवलोक्यमानः
ति नियन्त्रितः,यस्त्वं हिरण्याऽऽदि बर्द्धयित्वा गच्छेति सहेतुकमस्फुरन्मणिफणानुषित इति शोभन इव विभाव्यते, स्पर्शना
भिहितोऽपिश्च्छाया आकाशसमत्वमेवोदाहतवान् अत एव अऽऽदिभिरनुजूयमानश्च विनाशायैव नवति, तयैतेऽपि कामाः?।
होते तबाऽऽर्जव विनयवरवं,साधु शोभनम,अहो ते साधुमार्दकिच-कामान् प्रार्ययमाना अभिलषन्तः, अपिशब्दस्य लुप्त
घं मृदुत्वम्,महो! ते उत्तमा प्रधाना कान्तिः कोपोपशमसक्षणा, निर्दिष्टत्वात्प्रार्थयमाना अपि, अकामा इष्यमाणकामाभावाद,
महो! ते मुक्तिनलाभता, उत्तमा, व्यत्ययनिर्देशस्त्वनानुपूर्घ्यपि यान्ति गच्चन्ति, दुर्गति ऽष्टां नरकाऽऽदिगतिम् । तदनेन न के
प्ररूपणाङ्गमितिकृत्वेति सूत्रार्थः॥५॥ घवं शल्याऽदिवदनुसूयमाना एवामी दोषकारिणः, किंतु प्रा. इत्थं गुणोपवर्णनद्वारेणानिष्टुत्य संप्रति फसापदर्शनद्वारण य॑माना अपात्युक्तं भवति । तथा यः सम्वेिको, नासौ प्राप्तम- प्रस्तुवन्नाहप्राप्ताऽऽकारकया जहातीत्यादौ सद्विवेकत्वमनैकान्तिको पेतुः।
इहं सि उत्तमो भंते !, पच्छा होहिसि उसपो । मायमेकान्तः, यथा-प्राप्तमप्राप्तार्थेन, प्राप्तस्याप्यपायहतोस्तदुच्छेदकाप्राप्ताथै विवेकितिः परिहियमाणत्वात अनभ्युपगतो.
लोगुत्तमुत्तमं गणं, सिद्धिं गच्छसि नीरो ।। ५८॥ पालम्भश्वायम्,मुमुकूणांकचिदाकाङ्काया पवासंभवात् । उकंहि- शहास्मिन् जन्मनि,असि भवसि,उत्तमःप्रधानः,उत्तमगुणान्वित"मोके प्रवे च सर्वत्र,निःस्पृहो मुनिसत्तमः।" इति सूत्रायः।५३।। स्वात्। (भते त्ति)पूज्यानिधानमा पश्चात प्रेत्य परलोके भविष्यकथं पुनः कामान् प्रार्थवमाना दुर्गतिं यान्ति, मत माह
स्युत्तमः। कथमित्याह-लोकस्य चतुर्दशरज्ज्वात्मकस्य,सममु. अहे वय कोहेणं, माणेणं अहमा गई।
परिवर्ति लोकोत्तमम् । उत्तम-दर्वलाकोऽऽधपेक्कथा प्रधानम्।
अथवा-(मोगुत्तममुत्तम ति)मकारोऽलाक्षीणकः, ततो साकस्य माया गइपमीघाओ, सोनाओ दुही जयं ॥ ५४॥
सोके वा,उत्तमोत्तममतिशयप्रधानं लोकोत्तमम्,तिष्ठन्स्यस्मिनाअधो नरकगती,जति गच्छति,क्रोधेन कोपेन,मानेनाइक्का
तःपरंगचन्तीति खान,किं तत्,श्त्याह-सिा मुक्ति,गच्छसि रेण,मधमा नीचा गतिः, भवतीति गम्यते । (माय सि) सुव्य- सूत्रत्वाद् गमिष्यसि, निर्गतो रजसः कर्मणः इति सूत्रार्यः ।५८। स्ययात् मायया परवञ्चनाऽऽस्मिकया, गतेः-प्रस्तावात् सदगते,
उपसंहारमाहप्रतिघातो विनाशो गतिप्रतिघातो भवति । सोभामाध्यमक्षणातं, (दुहमोति) द्विधा द्वि:प्रकारम् ऐहिक, पारत्रिकं च । विभ्य
एवं भाभित्युणतो, रायरिसिं उत्तमाएँ सवाए। त्यस्मादिति भयं दुःख,तदाशङ्कने सास्वसं च । कामेषु प्रार्थ्यमा
पायाहिणं करेंतो, पुणो पुणो वंदई सक्को॥ एए॥ नेवपश्यंभावी क्रोधसंजयः, स चेरगिति कथं न, तत् एवममुनोक्तन्यायेन,मभिष्ट्रवन् राजर्षिमुक्तरूपं, प्रक्रमासमिम, प्रार्थनातो दुर्गतिगमनमित्यभिप्रायः । यद्वा-सर्वमपि यदि- उत्समया प्रधानया, श्रद्धया नक्त्या, (पायाहिणं ति) प्रदक्षिणां, न्द्रेणोक्तं तत्कषायानुपातीति तद्विपाकानुवर्णनमिदमिति कुर्वन् विदधत, पुनः पुनः बन्दते प्रणमति, शक्रः पुरन्दरः, शति सत्रार्थः॥ ५४॥
सूत्रार्थः ॥५६॥ एवं बहुभिरप्युपायैस्तमिन्छः खोजयितुमशक्तः किमकरोत?,
अनन्तरं च यत् कृतघाँस्तदाहश्त्याह--
तो वंदिऊण पाए, चकंकुसमक्खणे मुणिवरस्स । अवउझिकण माहण-रूलं च विजबिऊण इंदत्तं ।
आगासेाप्पडओ, ललियचवलकुंमलीतरीमी ॥६॥ वदा अजित्युणतो, माहि महराहि वग्गूहिं ।। ५५ ॥
__ ततस्तदनन्तरं, पागन्तरतश्च-(म इति) शक्रः, वन्दित्वा, पादौ अहो ! ते निज्जितो कोहो, अहो! माणो पराजितो। " चरणौ, चक्रं चास्कुशश्च प्रतीतावेत्र, तत्प्रधानानि बनणानि
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णमि
णमोकार
(१८१९"
भनिधानराजेन्छः। ययोस्ती, तथा मुनिबरस्य, नामिनाम्न इति प्रक्रमः। तत माका- इय्या महर्षीला,सहितौ सिकिमीयतुः ॥१॥"ती०१ कल्पामस्थाशेन मनसा, उदिति ऊई-देवलोकाभिमुखं, पतितो गत मषसर्वियां भरतकेत्रजे एकविंशेतीर्थकरे,परीषहोपसर्गाऽऽदिसत्पाततः, ससिते च ते सबिलासतया, चपले चचत्रल- नाममा "नमेस्तुधा"इति विकल्पेनोपान्त्यस्याकाराभावपक्केनतया ललितचपलं, तथाविधे कुएमले करणाऽऽरणे यस्यासो मिधर्म०२ प्रधिका प्राकृतशल्या गन्दसत्वाशकणान्तरसंभवाललितचपसकुरामलः, सचासौ तिरीटी व मुकुटवान्, असित- -"तस्थ सम्वे विपरीसहोवसग्गा जामिया कसायसिसामनं, चपलकुपडलातरीटीति सूत्रार्थः ॥ ६०॥
विसेसो पुण-"पणया पचंतनिबा, दंसिनमित्ता जिणम्मि तेण स एवंविधः स्वयमिजेणाभिष्ट्रयमानः किमुत्कर्ष
णमी।" (५१) भाव.२० तथा गजस्थे जगवति परच.
कनृपैरपि प्रणातः कृतेति नमिः । ध०२ अधिक। अनु.। मनस्याप्तवान्, उत न ?, इत्याह
('तित्थयर'शमे सर्व वक्ष्यते)" नवरं नमीणं भरहा द. नमी नमेइ अप्पाणं, सक्खं सकेण चोलो।।
सवाससहस्साई सम्वाउयं पालश्त्ता सिद्धे. जाव पणेि।" चइऊण गेहं वदेही, सामाणे पज्जुवहिए ॥६१॥ स्था०१०म०कल्प० । “नमिस्स णं अरहमो पगूणचत्सालीनमिनमयति भावतः प्रतीजवन्तमात्मानं स्वं तस्वभावनया
सं आहोदियसया होत्था।" स०३९ सम | "नमिस्स णं भरविशेषतः प्रगुणयति तत्तच्छिकतां नयति। तत्कालापेकया लट् ।
हमो एगचत्तालीसं अज्जियासाहस्सीलो होत्था।"स०४०समा कधनूतः सन् ,साक्षात् प्रत्यक्षतामुपगम्य, शक्रेणेन्द्रेण,(चोर
| प्रव० प्रा०पू०। अन्तकृदशानां प्रथमाऽऽध्ययनोक्तवक्तव्यताश्रो ति) प्रेरितः,त्यक्त्वाऽपहाय,गेहं गृहं, (वइदेहित्ति)सूत्रत्वाद्
केऽन्तकत्साधी, स्था० १० ठा। विदेहनामा जनपदः,सोऽस्यास्तीति वैदेही,विदेहजनपदाधिपः, णमिकण-नत्वा-अव्य० । प्रणम्येत्यर्थे, दश०१०। “णमिऊन त्वन्य एव कश्चिदिति भावः। यद्वा-विदेहेषु भवा वैदेही मिथि
जऽरहताणं, सिद्धाणं कम्मचकमुक्काणं ।" नि० चू० १ उ० । सापुरी, सुपव्यत्ययात् तांच, त्यक्त्वेति संबन्धनीयम । श्रामण्ये
पञ्चा० । पं० सं०। श्रमणभावे पर्युपस्थिते, उद्यतोऽभूदिति शेषः । यद्वा-नमिर्नम
पमिपञ्चज्जा-नमिमव्रज्या-स्त्री. । नमः प्रवज्याऽत्राभिधीयते यति संयम प्रति प्रवणीकरोत्यात्मानम,कीरशः, शक्रेण प्रेरितः, कथम, साक्षात् स्वयं, न स्वन्यपावप्रदितसंदेशकाऽऽदिना,
इति नमिप्रवज्या । मिथिलाराजस्थ नमेः प्रवज्यायां शकसंवाभामराये पर्युपस्थितः, न तु तत्प्रेरणतोऽपि धर्म प्रति विप्लुतो
दरूपे नवमे उत्तराध्ययने, उत्स०६ म0 ( स०। ("णमि" शब्दे ऽभूदिति भावः । इति सूत्रार्थः ॥६१॥
चैतद्वक्तव्यतोक्ता)
णमिय-नमित-त्रि० । नळे, जी. ३ प्रतिः । कुसुमफलभारकिमेष एवैविधा, उतान्ये ऽपि ?, इत्याह
नमियसाला।" जी०३ प्रति। नीचैर्भावं प्रापिते,ज०१ वकः । एवं करंति संबुच्छा, पमिया पवियखणा ।
. नत्वा-अव्य०। प्रणम्येत्यर्थे, कर्म०४ कर्मः। विणियटृति जोगेसु, जहा से नमी रायरिसी।६शत्ति वेमि ।
हामियणमिय-नमितनमित-त्रिका देवर्षिवन्दिते, पं०सू. १ सूत्र । (पवमिति) ययतेन नमिमा निश्चलत्वं कृतं, तथाऽन्ये ऽपि कुर्वन्ति, उपलक्षणत्वादकाषुः, करिष्यान्ति चान त्वयमेव, निदर्शनतयैवा
एमिसाहु-जमिसाधु-पुं० । थारापपुरीयगच्छीयश्रीशान्तिभस्योपात्तत्वात् । कीरशाः पुनरन्ये ऽप्येवं कुर्वन्ति !, सबुका मि
सूरिशिष्ये, अनेन रुद्रटरचितकाव्यालङ्कारप्रन्थोपरि टिप्पणं ध्यात्वापगमतोऽवगतजीवाजीवाऽऽदितत्त्वाः। परिमता:सुनिश्चि
कृतम् । अयं च ११२५ वि० वर्षे विद्यमान मासीत् । १.१०. तशास्त्रार्थाः, प्रविचकणा अभ्यासातिशयतःक्रिया प्रति प्रावीण्य- णमुदय-नमुदय-पुं०।भाजीविकोपासक, प्र०७ २०१० वन्तः,तथाविधाश्च सन्तः किं विदधति?, विनिवर्तन्ते विशेषेण तदनासेवनापरमन्ति, केभ्यः?,(भोगेसुत्ति) प्रोगेन्यः, किंवत्', णमोकार-नमस्कार-पुंo नमस्करणं नमस्कार नमस्क-घञ्। यथास नमिन मिनामा राजर्षिनिश्चलो भूत्वा तेभ्यो निवृत्त इति॥ "नमस्कारपरस्परे द्वितीयस्य" ।।८।१।६२ ॥ अनयोद्धितीयद्वा-उपदेशपरमेतद्,यत एवं कुर्वन्ति संबुझाापएिमताःप्रविक
यस्यात मोत्वम, इत्योस्वमतः। प्रा०१पाद । " कस्कयो - णाः। एवमिति कथम्?,श्त्याह--नोगेज्यो विनिवर्तन्ते विशेषेणा- मिन"।।१४॥ इति नाम्नीति निर्देशान खः । प्रा०२ त्यन्तनिश्चलतासकणेन, निवर्तन्ते, यथा स नमिनामा राजर्षिः, पाद । मजालबन्धशिरोनमनाऽऽदिलकणे प्रणाममात्रे, कायेन ततो भवद्भिरप्येवंविधरित्यमेव विधेयामिति सत्रार्थः ॥ ६२।। प्रामने, बा.१७.१००। अहंदादिप्रणतो, विशे० सला। शति बीमीति पूर्ववन्नयाश्च प्राग्वदिति । उत्त० ९ म. । (१) नमस्कारस्य व्यास्यानं चोत्पन्नाऽऽद्यनुयोगद्वारैसूत्र० । मा०चू० । आव । अषनजिनसहप्रवजितस्य क
बिज्ञवम्, तानि चामूनियस्य सुते विनमिभ्रातरि, यो हि कुसुमोच्चयेन भगवन्तं
उप्पत्ती निक्खेवो, पर्य पयत्यो परूवणा वत्यु । प्रसाद्य धरणेन्छादेशाद् विद्याधरसिंप्राप्तो बैताख्ये नगे दक्षिणश्रेयां राज्यं चकार । (मा०म०१ १०१ खरम ।कल्प।
भक्खेव पसिफिकमो, पभोयण फलं नमोकारो।२७०५॥ पाचू.) ततो विजयप्रवृत्तेन जरतचक्रिणा पराजितो रत्नानि सत्पदनमुत्पत्तिः-प्रसूतिः, साचास्य नमस्कारस्य नयानुसारेण दत्त्वा कमयांचनुवा भाष०१०मा०म०। (शत्रुक्षयेऽस्य प्रति- चिस्या । तथानिक्षेपणं निकेपो न्यासा, स चास्य कार्यः। माः)"प्राचासिना विनामिना, नमिना चनिषेवितः। स्वर्गाऽऽरो- पद्यते गम्यतेऽर्थोऽनेनेति पदं नामिकाऽऽदितच्चेह चिन्तनीय. हणचैत्ये च, श्रीनाजयः प्रभासते ॥१॥" ती०१कल्प। स्वनामके- मापदस्यार्थः पदार्थः,सचास्य वक्तव्यः। प्रकृष्टा रूपणा प्ररूपणा, बरौ, "अस्मित्रमिविनम्यास्पो, खेचरेबमहाऋषी। कोटि- परमस्वान्तादशासु नामापि न भूयते ।
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(१२." णमोकार माभिधानराजेन्ः।
णमोकार सा चास्य द्विविधाऽऽदिभेदतो विधेया।बसन्स्यस्मिन् गुणा इति | येन यस्मात्कारणात, आद्यनैगमःसत्तामात्रमाही, ततस्तस्याऽ. बस्तु, तच्च नमस्काराई वाच्यम् । माक्षेपणमाकेपः पूर्वपक्को | घनैगमस्य मतेन सबै वस्तु नाभूतं नाविद्यमानं, किंतु सर्वदैव पाच्या प्रसिद्धिस्तत्परिहाररूपा वक्तव्या। क्रमोहदादिरभिधे- सर्व सदेव । ततः किम् ?, इत्याह-( उप्पजश्न ) इत्येवयः। प्रयोजनमईदादिक्रमस्य कारणं चाव्यम् । अथवा-येन मिहापि न संबध्यते, आवृत्तिव्यास्यानात् । इदमुक्तं भवतिप्रयुक्तः प्रवर्तते तनमस्कारस्य प्रयोजनमपवर्गाऽऽक्ष्यं वाच्यम्।। यत्सर्वदेव सत्, तन्नोस्पद्यते। यथा-नजः, तस्याप्युत्पादान्युतथा-फलं च नमस्करणाऽऽदिक्रियाऽनन्तरभाबि स्वर्गाऽऽदिक पगम उत्पन्नस्याप्युत्पादप्रसङ्गेनानवस्थाप्राप्तेः । तथा-यद् नूतं निरूपणीयम् । अन्ये तु व्यत्ययेन प्रयोजनफलयोर प्रति- विद्यमानं सर्वदैव सवस्तु, तन्न नश्यति, सर्वथा सर्वदैव सतो पादयन्ति-( नमोकारो ति ) नमस्कारः खल्वेभिर्वाचिन्त-| विनाशायोगादिति ॥ २८०८ ॥ नीयः। इति नियुक्तिगाथासक्केपार्थः ॥२८०५॥
तो तस्स नमोकारो, वत्युत्तणो नई व सो निच्चो । (२)श्रय नियुक्तिकार पयोत्पत्तिद्वारं विस्तरेणाऽऽह- |
संतं पिन तं सम्बो, मुण सरूवं व वरणाओ ।२००। नप्पमाऽणुप्पएणो, इत्थ नया णेगमस्सऽणुप्पएणो।
बत पवम, ततस्तभ्याऽऽधनगमस्य, स नमस्कारो नित्य एष, सेसाणं नप्पएणो, जइ कत्तो तिविहसामित्ता ॥२०६॥ बस्तुत्वात्, नजोवत्, नोत्पद्यते, नाऽपि विनश्यतीत्यर्थः । अत उत्पन्नश्वासावनुत्पन्नश्चेत्युत्पन्नानुत्पनो नमस्कारो मन्तव्यः ।। पवैतन्मतेनानुत्पन्नोऽसावनिधीयते । आइ-ननु यदि नममाह-कथमेक एवोत्पन्नोऽनुत्पन्नश्च भवति, विरोधाद, इ. स्कारः सर्वदैव संस्तदा मिथ्यादृष्ट्यवस्थायां किमित्यसो नलत्याह-(इत्थ इत्यादि) अत्र नयाः प्रवर्तन्ते। ते च नैगमाऽऽद- श्यते', इत्याह-(संतं पीत्यादि) सर्वावस्थासु सन्तमपि यः सप्त । नैगमो द्विविधा-सर्वसंग्राही, देशसंग्राही च । तत्रा- नमस्कारमतिशयज्ञानिनं विहाय न सर्वोऽपि ' मुणति '
दिनैगमस्य सामान्यमात्रावलम्बित्वात, तस्य चोत्पादव्ययर- जानातीति प्रतिक्षा । (वरणाश्रोत्ति) आवरणकर्मसद्भावाहितत्वाद् नमस्कारस्यापि तदन्तर्गतत्वादनुत्पन्नः । (सेसा । दिति हेतु, आत्मनः स्वरूपवदिति दृष्टान्तः । इदमुक्तं भव. नप्पराणो ति) शेषा विशेषग्राहिणः, तेषां शेषाणां विशेषग्रा- ति-मिथ्यारष्टयवस्थायामपि व्यरूपतया नमस्कारोऽस्ति । स. दित्वात, तस्य चोत्पादव्ययवस्वाद, उत्पादव्ययशून्यस्य वान्धे- र्वथाऽसतः खरविषाणस्येष पश्चादप्युत्पादायोगात, केवलं याऽऽदिवदवस्तुत्वात, नमस्कारस्य तु वस्तुत्वादुत्पन्न इति । कानाऽऽवरणेनाऽऽवृतत्वाद् छमस्थजन्तवस्तद्रूपतया सन्तमपि (जा कत्तो ति) यद्युत्पन्नः कुतः, त्याह-(तिविदसामित्ता) तं नमस्कारंन लकयन्ति,यथाऽऽत्मनः स्वरूपम् । न हि आत्मनः त्रिविधं च तत्स्वामित्वं चेति समासः। तस्मात्त्रविधस्वामि- स्वरूपं नास्ति, केवलममृर्तत्वात सर्वदा सदपि तत्केवलिन त्वात विविधस्वामिभावास्त्रिविधकारणादित्यर्थः।। २८०६॥ विहाय न कोऽपि लक्कयति । एवं नमस्कारोऽपि । इत्यतःसर्वदेव तदेव त्रिविधस्वामित्वं दर्शयति
सरवादसावादिनैगमानिप्रायेणानुत्पन्न नच्यत इति ॥२८०६॥ समुगणवायणान-किओ य पढमे नयत्तिए तिविहं। "सेसाणं उप्पलो" [१८०६] इत्येतदू गाथावयवं नज्जुसुयपढमवज्ज, सेसनया चिमिच्छति ॥२८०७॥
व्याचिख्यासुराद( समुगणेत्यादि ) समुत्थानतः, वाचनातः, लब्धितश्च । सेममयं नत्थि तो-ऽणुप्पायविणासो खपुप्फंव। 'नमस्कार उत्पद्यते' इति चाक्यशेषः । तत्र सम्यक जमिहत्यि तमुप्पाय-व्वयधुवधम्म जहा कुंनो।२०१० सतं वोत्तिष्ठतेऽस्मादिति समुत्थानम्, निमित्तमित्यर्थः । किं पुनस्तदिह, शति । उच्यते-अन्यस्याभुतत्वात, तदाधा
शेषाणां विशेषवादिनयानाम,एतन्मतम-तकोऽसौ पराजिमतो
ममस्कारो नास्ति, इति प्रतिक्षा । अनुत्पादविनाशा-उत्पादरतया प्रत्यासन्नत्वादेदोऽत्र परिगृखते; देहो हि नमस्कार
विनाशाभावादिति हेतुः । खपुष्पवदिति रष्टान्तः । शह यदस्ति कारणम, तद्भावमावित्वाद्, वीजवदरस्य, इत्येवं देहल
तत्सर्वमुत्पादव्ययधुवधर्मकम, यथा कुम्भः; यस्य पुनरुकणात समुत्थानाद् नमस्कार उत्पद्यते। तथा-वचनं वाचना
त्पादाऽऽदयो न सन्ति, तत्सदपि न भवति; यथा खरविषागुरुभ्यः श्रवणमधिगम इत्यर्थः, तस्याम वाचनाया: सकाशाद नमस्कारो जायते । तथा-लब्धिस्तदाबरणकयोपशम.
णम, सत्पाद-विनाशशून्यश्च परैर्नमस्कारोऽज्युपगम्यते; ततो लकणा, तस्याश्चायमुपजायते । इत्येतस्त्रिविधं कारणं, प्रथमे
नास्त्यसावपि ॥१५१.॥ नैगमसंप्रदव्यवहारलक्षणे त्रिके, नैगमाऽऽदिनयत्रयमतनाव
यदुक्तम्-मावरणात्सतोऽप्यस्याग्रहणम्, तत्राssहगन्तव्यमित्यर्थः। तथा-ऋजुसूत्रस्य प्रथमवर्ग वाचनासन्धि- प्रावरणादग्गणं, नाभावाउ ति तत्थ को हेक। द्वयं नमस्कारस्य कारणम, तब्बून्यस्य जन्तोहमात्रसद्भावे.
जत्तीरें नमोकारो,कहमत्थि य सा नयग्गहणं ।।२८११॥ पिनमस्काराऽऽक्यकार्योत्पत्तिव्यभिचारात् । शेषनयास्तु शब्दाअजयो लब्धिमेवैकां नमस्कारकारणत्वेनेच्चन्ति, वाचनाया -
नन्यावरणाद् ज्ञानाऽऽवरणोदयात् सन्नपि नमस्कारः सर्वेण न पिलब्धिशून्येश्वजव्यादिषु नमस्काराजनकत्वात्, सब्धियु
गृह्यते, न पुनरजावादित्यत्र को हेतुः-कि नियामकम् !, न कि
चिदित्यर्थः । अनावादेवायं सर्वेण सर्वदा न गृह्यते, न पुनकेषु तु प्रत्येकबुखादिषु तदभावेऽपितत्सद्भाबतो बभिचारिस्वात् । इति नियुक्तिगाथाद्वयार्थः॥२८०७॥
राबरणोदयादिति शेषनयानिप्रायः । किञ्च-तीर्थकराऽऽदिषु " उप्पण्णाऽणुप्पएणो" (२००६) इत्यत्र प्राप्यम्
भक्तिनमस्कारोऽभिधीयते, सा च सर्वदाऽस्ति, न च मि
प्यारएयवस्थायां गृह्यत शति परस्परव्याहतमिदम् । तस्मा. सचामेत्तग्गाही, जेणाऽऽइम-नेगमो तो तस्स ।
दुत्पन्नोऽसौ गृह्यते, अनुत्पन्नस्तु न गृह्यते, इत्येतदेव सुन्द. नप्पज्जनातयं, जूयं न य नासए वत्यु ||१८०८॥ रम. किमावरणाऽऽदिकल्पनया , इत्यभिप्रायः ॥ २०११॥
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(२२१) णमोकार अभिधानराजेन्द्रः।
णमोकार अथाऽऽधनगमनयमतमाशङ्कष परिहरमाह
शब्दो बा, शिरोनमनकरकुळालमीलनविवक्षितावयवसकोअह परमंतो तितो , संतो किं नाम कस्स नासंतं ?।
बनाउंऽदिलक्षणा कायक्रिया बा, द्विकाऽऽदिको वा कानाऽऽदि.
संयोगो भवेदिति चत्वारः पक्काः । किशातः, इत्याह-(न अहणाऽऽइव्ववएसो, नेवं न य परधणाफलया ॥२०१२।।।
सबदा सो अणुप्पचिति)सर्वथा सर्वैरपि प्रकारै यमनुत्पअथैध ब्वे-(परसंतो तितो संतो ति) परसन्ताने सर्व
त्तिनांनुत्पशे घटत इत्यर्थः। ज्ञानादीनां चतुर्णामप्युत्पादाऽऽदिदेवास्ति नमस्कारः, नानाजीचेषु तस्य सर्वकालमव्यवच्छेदात । धर्मकत्वादिति ॥ २८५ योऽयमत्र नोपलभ्यते, तत्राप्यसौ [संतो ति] सन्नुच्यते ।
अथ नैगमःप्राऽऽह-जनु ज्ञानाऽऽदीनामुत्पादादिधर्मकरव. अत्रोत्तरमाह-[ किं नाम कस्स नासंतं ? ] यदि हि
मसिकं, नित्यत्वाद, भाकाशवत । तत्र कानस्य तावनित्यत्वं अन्यसन्तानवर्त्यपि वस्त्यन्यस्य सदुच्यते, तर्हि किं नाम व
साधयन्नाहस्तुधनाऽऽदिकं कस्य नासद् ?, अपि तु सर्व सर्वस्यासत्याप्रोति । अस्य चोपलक्षणत्वात्-' इत्थं सर्व सर्वस्य स
नणु जीवाश्रोऽणन्न, नाणं णिच्चो यसो तो तं पि। त्प्राप्नोति' इत्यपि कष्टव्यम् । ततश्चैवम्-ईश्वरधनेन दरिका- निच्चुग्धामो य सुए,जमक्खराणंतनागो त्ति ॥२८१६॥ णामधनानामपि धनववादधनव्यपदेशः कस्यापि न स्यात् । ननु जीवादनन्यदनिम्नं ज्ञानं, नित्यश्वासौ जीवः,ततस्तदव्यतिरेन चेत्थं परधनस्याफलता भवेत, अन्यधनस्थान्यत्रापि स- का सदपि, 'नित्यम्' इति शेषः। ततो नोत्पादाऽऽदिधर्मकं ज्ञानम, खात्, तथा च तत्फलस्यापि सावादिति २८१२॥
नित्यस्वात्, नभोषदिति भावः। एवमुत्तरत्रापि नावार्थो वक्तततः किं भवेद् ?, इत्याद
व्यः । किञ्च-"सबजीवाणं पि य णं अक्सरस्स अणतजागो सबधणं सामन्नं, पावइ भत्तीफलं व सेसं च ।
निच्चुग्धामियो" इति बचनाद न करति न विनश्यतीत्यक्कर किरियाफलमेवं चा-ऽकयागमोकयविणासोय ॥२८१३॥
केवल कानम, तस्यानन्तभागो नित्योद्घाटो नित्यापस्थि
तोऽनावृत एव सर्वदा तिष्ठतीति यद्यस्माच्छुतेन्निहितम्, त. एवं सति यदेकस्येश्वरस्य संबन्धि तत्सर्वेषां दरिहाणामपि
स्माच्च नित्यं ज्ञानं, नित्यानावृतत्वाद्, नभोवदिति ॥ २८१६ ॥ धनं सामान्यं साधारणं प्राप्नोति । यद्वा-यदकस्य नमस्कारवतोददादिभक्तिफलं, तन्मिथ्यादृशामपि नमस्कारशून्यानां
अहवा भरूवगुणो, नाणं निच्चं नहावगाहो ब्व | सामान्य प्रामोति; तथा शेषं च यद्दान-ध्याना-हिंसा-ऽमृषाबा
सयणप्पयासपरिणा-मओय सव्वं जहा अणवो।२०१७। दाऽऽदिक्रियाफलं, तत्सर्वेषां सामान्यं प्राप्नोति । एवं च सत्यक- अथवा-नित्यं ज्ञानम्, अरूपलव्यगुणत्वाद्, यया नभोगव्यतस्यापि पुण्य-पाप-सुखदुःखाऽऽदेरागमः, कृतस्यापि च पुण्य- स्थावगाहगुणः। अथवा-समपि शानशब्दाऽऽदिकं नित्यं, सय. पापाऽऽदविनाशः स्यादिति ॥ २०१३ ॥
नप्रकाशपरिणामत्वात्, तिरोभावाऽऽविर्भावधर्मकत्वादित्यर्थः, पुनरपि नैगममतमाशङ्कय परिजिहीर्षवः शेषनयाः प्राहु:- यथा परमाणव इति ॥१८१७ ॥ अह जत्तिमंतसंता-एओ स निच्चो ति कहमणुप्पयो ?।
अथ विशेषतोऽपि शब्दस्य नित्यत्वं साधयन्नाहनणु संताणितणओ, स होइ बीयंकुराइब ॥२२॥
दरिसाणपरत्थयाओ, अइंदियत्यत्तोडणवत्याप्रो । अथानुत्पन्ननमस्कारवादिन् ! एवं घूषे-भक्तिमतां सम्यग.
संबंधनिच्चयाओ, सदावत्थाणमणुमेअं ॥२८१० ॥ रष्टीनां यः सन्तान: प्रवाहः, तस्मात् तमाश्रित्य, नित्यो नमः
बह रावस्यावस्थानं सदाऽवस्थितत्वं नित्यत्वमनुमेयं साध्यस्कारः। सम्यग्दृष्टीनां हि सन्तानो न कदाचिद व्यवविधते। म। (दरिसणपरत्थयाभो ति) दर्शनं प्रकटग शब्दस्योच्चाअव्यवचित्रत्वाच नित्योऽसौ, यच नित्यं तदाकाशवनोत्पद्यते। रणं व्यापारणं प्रयोग इति यावत , तस्य दर्शनस्य शततः किलानुत्पत्रो नमस्कार इति परस्याऽऽकृतम् । अत्रोत्तरमा
प्दप्रयोगस्य परार्थत्वं परप्रत्यायकत्वं, तस्माद्दर्शनपरार्थत्वाह-(कहमणुपम्मो ति) नन्वेवमपि कथमनुत्पनो नमस्कारः', दिति हेतुः । इदमुक्तं भवति-न खलु वक्तृभिः शब्दोत्पा. न कथश्चिदित्यर्थः । कुतः१. इत्याह-(नणु इत्यादि)ननु यद्य- दनमात्रायमेव शब्दप्रयोगः क्रियते, किं तु परार्थत्वात् पर. पि सम्यग्दृष्टीना सन्तानो नित्यः, तथापि सम्यम्हएयः स.
प्रत्यायननिमित्तत्वादिति; या पराथै व्यापार्यते तत् त. न्तानिनो नित्या एव, मनुष्याऽऽदिभावेन तेषामुत्पादविनाशादि- व्यापारकालात् प्रागप्यस्ति, यथा-वृक्काऽऽदिच्छेदनक्रियानिति । सम्पम्हष्ट्यव्यतिरेकाच्च नमस्कारोऽपि सन्तानी, स- मितं व्यापार्यमाणः कुवारः छेदनक्रियाच्यापारकालाप्रागप्वतानित्वाच्च (स दोशत्ति)स नमस्कारो प्रवत्युत्पते, बी- स्ति; ततः शब्दः सदाऽऽवस्थितत्वानित्यः सिद्धः। जादूराऽऽदिसम्तानिवदिति । इह यः सन्तानी स उत्पद्यते, य. अत्रैव द्वितीय हेतुमाह-(अदियत्वत्तो स्ति) अतीन्छिया मेरुथा बीजादूरादिः, सम्यग्दृष्टिसन्तान्यव्यतिरेकात,सन्तानीच स्वर्गाऽऽदयोऽा अभिधेयन्वेन यस्यासावतीन्द्रियार्थः,तद्भावो. नमस्कार इति उत्पद्यत एव । ततः कथमनुत्पमोऽसौ १,
ऽतीन्द्रियार्थत्वं,तस्मादतीन्छियार्थत्वान्नित्यः शब्दः,केवलकानब. इति ॥२८१४॥
वाइदमुक्तं भवति-ये शन्धियप्राह्या घटाऽऽदयोऽर्थाः,तेषु संकेत. किच
वशास्कृतक एवकिल वाच्यवाचकवसंबन्धः,प्रतस्तस्माच्छन्दहोजाहि नमोकारो, नाणं सहो व कायकिरिया वा।
स्य नित्यत्वं न सिध्यति; ये त्वतीन्छिया मेरुस्वर्गाऽऽदयोऽर्थाः,
तेषामतीन्छियत्वेनेव किल संकेतः कर्तुं न शक्यते, अतोऽनादिअहवा तस्संजोगो,न सम्बड़ा सो प्राप्पची ॥२०१५॥
कालसंसिद्धोऽकृतक एव शब्दस्य तेषु वाच्यवाचकमावसंबन्धः। नमस्कारो हि शान वा प्रवेत, “ नमो अरिहंताणं " इत्यादि-1 अतोऽतीन्छियायः सहानादिकालसंसिकादकृतकत्वेन नित्याद्
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(२०२५) णमोकार अभिधानराजेन्डः।
णमोकार पाच्यवाचकभावसंबन्धारिसर किलशम्दस्य नित्यत्वम् । न सताऽदिगुणवएवं जीवगुणा अपि नमस्काराऽऽदय उत्पादाहि स्वयमनित्यस्यानादिकालसंसिनित्यमेादिनिरर्थैः सह 3ऽदिधर्मका एव, गुणत्वात, पत्रधर्मवत, इत्यपि त्वदुक्तविपबाच्यवाचकजाबसंवन्धः सिद्भयतीति जावः । तर्हि घटाऽऽदि. रीतं ब्रुवतां को दोषः, न कश्चिदिति ॥२८२१॥ वाचकशब्दानां कथं नित्यत्वं सिम्पति,इति चेत् । उच्यते-में
किञ्चधादिवाचकशब्दानां नित्यत्वे सिद्ध तेषामपि तत्साध्यते तद्यथा
अवगाहारं च विणा, कुभोऽवगाहो ति तेण संजोगो ? नित्या घटाऽऽदिवाचकशब्दाः, शब्दत्वाद, मेर्वादिशब्दवदिति ।
उप्पाई सोऽवस्सं, गच्चुवगाराऽऽदो चेवं ।। २२॥ भत्रैव तृतीयहेतुमाह-(अणवत्थामो ति) अयं च विप
अवगाहारं बाबगाहकं जीव-परमागवादिकं विना विचार्यमाणः येये बाधक पव हेतुः।मूलहेतुसित्वत्थं व्यः-नित्याः सर्वेऽपि
कुतोऽन्योऽचमाह इति वक्तव्यम् ? | तेनावगाथेन नभसा सहाघटाऽऽदिवाचकाः शब्दाः, अनादिशाक्षात् तद्वाचकत्वेन तेष
वगाहकस्य जीवादे, तेन चावगाहकेन जीवाऽऽदिना स. सिद्धत्वाद, यह यदनादिकालखि तभित्थं हम, यथा चन्छा।
हाबगाह्यस्व नभसः संयोगोऽवगाह शाति चेत् । ननु यद्येवं, विमानाऽऽदया, अनादिकालसिद्धाश्च घटाऽऽदिवाचकशब्दाः,
जितमस्माभिः, यतोऽवश्यभुत्पाही असो, संयोगत्वात, बङ्गला. तस्मानित्या इति। ननु साङ्केतिका पत्र घटा दिवाचकशब्दास्त
ऽऽदिसंयोगवदिति । एवं गतेरुपकारो गत्युपकारः, स आदितोऽसिद्धममीषामनादिकालसिम्त्वमिति चेत् । तदयुक्तम् । स.
र्येषां स्थित्युपकाराऽऽदीनां ते गत्युपकाराऽऽदयो धर्मास्तिकेतस्थ कर्तमशक्यत्वात् । कृतः?, इत्याह-श्रनवख्याता, अन
कायाऽऽदिगुणाः, तेऽप्येवमेवोत्पादवन्तो कष्टव्याः, गुणत्वाद, वस्थाप्रसङ्गोऽत्र बाधकं प्रमाणमित्यर्थः । तथाहि-येन शब्देन
अवगाहणवदिति ॥२८२१॥ सङ्केतः क्रियते, तत्रापि सकेतकारक शब्दान्तरमपेक्वणीयम,
अपि च, आकाशपरमारवादिष्टान्ततो जवता नित्यत्वं तत्राप्यन्यत, पुनस्तत्राप्यपरमिति, एवमनवस्थाप्रसङ्गतोऽशक्य |
साध्यते, तचाऽऽकाशाऽऽदीनां नित्यत्वमा सक्केतकरणम् । अथ पर्यन्ते कश्चिदकृतसङ्केतोऽपि ध्वनिरिष्य
स्माकमसिरूम; कुतः, इत्यादते, तर्हि प्राक्तनामपि सर्वे ध्वनयोऽकृतसकेता, शब्दत्वात, पर्यन्तध्वनिवत, इत्यसाङ्केतिकत्वात्तिखं घटाऽऽदिवाचकशब्दा
न य पवनो भिन्नं, दवमिहेगंतो जो तो। नामनादिकाझसिकत्वमिति।
तन्नासम्मि कई वा, नहाऽऽदो सव्वहा निच्चा २०३३॥ चतुर्थ हेतुमाह-(संबंधनिश्चयानो सि) नित्यः शम्दः, उक्त
नच पर्यायाद् घटाऽऽदिसंबोगवर्णगन्धासकाशादायतो न्यायेन तस्य घटाऽऽविभिः सह वाच्यवाचकभावसंबन्धस्य
यस्माद,कव्यमेकान्ततो भिन्नम,किन्त्वाग्निसमपि तत्तमादिष्यते, नित्यत्वात; तस्यानित्यत्वे वाग्यवाचकभावसंबन्धनित्यत्वा
तेन तस्मात्कारणात,तना पर्यायविनाशे, कथं वा केन वा प्रकानुपपत्तेरिति । इत्थं च ज्ञानाऽऽदीनां नित्यत्वे सिके सिषोऽनु
रेण, नभःपरमाएबादः सर्वया नित्याः । कश्चिद्यदि नित्या त्पन्नस्तदात्मको नमस्कार इत्वाद्यनैगमाभिप्राय इति ॥२०१७।।
भवन्ति, तहिं भवन्तु । बसु सर्वथा निस्वत्वं, ततेषां न घटते, अथ शेषनया एतैरेव जीवामन्यत्वाऽदिहेतुनिनाऽऽदी
पर्यायविनाशेतपतबा तेषामपि बिनाशादिति भावः । तत ए.
कान्त मिस्वत्वे साध्ये नैसेषां रष्टान्तत्वं युक्तमिति ॥२८१३।। नामनित्यत्वं साधयन्तिजेणं चिय जीवाओ-ऽणनं तेणेव नाणमुप्पाइ।
बदुकम्-"दरिसरूपरस्थवानो" (२८१७) इत्यादि, तत्र
दुषणातिदेशमाहउप्पज्जइ जं जीवो, बहुहा देवाऽऽइजावेण ॥ २०१५ ॥ निश्चत्तसाहणाणि य, सहस्सासिफयाऽऽइट्ठाई। येनैव कारणेन जीवादनन्यदभिन्नं ज्ञानं, तेनैव तदुत्पद्यते,बद्य- संजरो वच्चाई, पक्खोदाहरणदोसा य ॥ श्श्व ॥ स्माद्, बहुधा जीवो देवाऽऽदिभावेनोत्पद्यते, तत्पादेवज्ञान
दर्शनपरार्थत्वाऽऽदीनि सदस्य नित्यत्वसाधनानि यानि - स्याप्युत्पादादिति ॥ २०१६ ॥
कानि,तानि न्यायमार्गानुसारिनिःस्वबमेवाभ्या यथासंभवमयदुक्तम्-"निच्चुग्घाडो य सुर"(२८१६) इति तत्राऽऽह- |
सिम्ताऽऽदिदोषानि वाव्यानि । तथाहि-दर्शनपरार्थत्वादिअविसिट्टऽक्खरभागो,मुत्तेऽनिहिनो न सम्मनाणं ति। त्यसिद्धो हेतुः, स्वावयोधार्थमपि क्वचिचन्दप्रयोगदर्शनात; कोऽवसरो तस्स झं, सम्मंनाणाहिगारम्मि ॥२८३०॥ तथाऽनैकान्तिकच, विपर्यये बाधकप्रमाणाभावात् । विरुको प्रकरस्य योऽनन्ततमो भागो नित्योडाटः श्रुतेऽभिहितः,
वा, प्रयोगानन्तरमेव विशरारुत्वदर्शनात; कृतकत्वाद्धा शब्देऽ. सोऽविशिष्ट एवं सम्यगमिथ्याविशेषरहित एवोक्तः,न तु सम्य
नित्यत्वस्यैव दर्शनात् । इत्यादिषणानि सर्वत्रान्यूह्य वक्तगज्ञानरूपः । ततः सम्यगानविचारेऽत्र प्रस्तुते कस्तस्याधि.
व्यानि । तथा-पक्षोदाहरणदोषाश्च वास्थाः, वयं तु साकान कारः। श्दमुक्तं भवति-यद्यविशिष्टज्ञानरूपोऽकरानन्तभागो
अमः, अन्धविस्तरभयात् । तत्र प्रत्यक्काऽऽदिवाधितःपक्षः, सा. नित्योदाटत्वेन नित्यः, तहिं नमस्काररूपस्व सम्यग्ज्ञानस्य
स्वसाधनधिकलमुदाहरणम् । इत्यादिदोषाः स्वयमेव द्रष्टव्या नित्यत्वे किमायातम?, मतो यत्किञ्चिदेतदिति ।। २८२०॥
इति ॥ १८२४॥
तदेवं नैगमोक्तं दुषयित्वा स्वपक्कसिध्यर्थ शेषनयाः प्राऽऽहु:यदुक्तम्-"महवा भरूवगुणओ नाणं नियं" (२०१७)
धणिरुप्पाई इंदिय-गज्त्ताओ पयत्तजत्ताओ। इत्यादि तत्राऽऽहअवगाहणाऽऽदओ नणु, गुणत्तमो चेव पत्तधम्म च । ।
• पुगलसंतूईओ, पच्चयभेए य याओ || २०२५॥ उप्पायाऽऽसहावा, तह जीवगुणा विको दोसो।११।।
उप्पाइ नागमिळं, निमित्तसन्नावो जहा कुंजो। नम्बवसाहनाऽऽदय उत्पादादिधर्भका एव,गुणत्वात, पत्रनी।
तह सहकायकिरिया,तस्संजोगो य जोऽनिमो।२०२६।
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मोक्कार
पर
उत्पद्यत इत्युत्पादयनिरिति प्रतिज्ञा, इन्द्रि बदिति । तथा प्रयत्नाज्जायत इति प्रयत्नजः, तद्भावः प्रयत्नजत्वं तस्मात्प्रयत्नजत्वात् । तथा पुफलेभ्यः संभूतेः । तथा ताल्वादिप्रत्यय भेदभेदित्वादुत्पादी शब्दः घटवदिति सर्वत्र रूष्टन्त्रम् । योत्पादी सविनाशित्वात् इति सिद्धमेवेति ॥२०२५|| तथा उत्पादन नमस्कारानमिष्टमिति प्रतिज्ञा निमित्तदिति हेतुजिनाऽऽदिविषयाञ्जायमानस्यादित्यर्थः । यथा कुम्भ इति दृष्टान्तः । न केवलं ज्ञानं तथा शब्दशिरोनमनाssदिका कार्यक्रिया, तेषां च ज्ञानाऽऽदीनां यो द्विकाssदिसंयोगो नित्यत्वेनानिमतः परम्य, एतत्सर्वमुत्पादि, निजनिजनिमित्ताज्जायमानत्वात्, यथा कुम्भः । ततो ज्ञानाऽऽद्यात्मको नमस्कार उत्पन्न इति सिद्धम् । तदेवं "सेसाणं उप्पो" (२००६) इति व्याख्यातम् ॥ २७२६ ॥
66
जस्को तिविदामि (२००६) इत्येतद्व्याचि
ख्यासुराह
( १८२३ ) अभिधान राजेन्द्रः ।
उप्पत्तिमोऽवस्सं निमिनमस्स उ णयत्तियं तिविद्धं । इच्छइ निमित्तमेत्तो, जमाहा नत्थि संनूई ||२८२७॥
यदि नामोत्पन्नो नमस्कारस्ततः किम् ? अत्रोच्यते- उत्पत्तिमता वस्तुनोऽपश्यं निमित्तम् अस्ति इति क्रियाद्वारः । तथा च सत्यस्य नमस्कारस्योत्पत्तिमत्वादबिशुरूमसंग्रद्व्यवहारलक्षणं प्रथमनयत्रिकं समुत्थान-वाचनालfoधस्वरूपं त्रिविधं निमित्तमिच्छति । कुतः १, इत्याह( पत्तो इत्यादि) यद्यस्माद्यतस्त्रिविधाद् निमित्तादन्यथाऽन्येन प्रकारेण नमस्कारस्य नास्ति संभूतिरुत्पत्तिरिति ॥ २८२७ ॥
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तसमुत्थान निराह देहसमुत्या चिप देऊ भवपच्चयावहिस्सेव | पुष्प वि से, हभवभावो समुत्थाणं ॥ २८३८ ।। सम्म सङ्गतं वा उतिष्ठति जायतेऽस्मादिति समुत्यानम देव समुत्थानं तदेव तावद्धेतुर्निमितम्, 'से'
तस्य नमस्कारस्य । श्रह- यदाऽयमन्यभव एव स्वाऽऽबरणकयादुत्पन्नः स्यात्तदा कथमयं देहो हेतुः ?, इत्याशङ्कयाsse - ( पुव्युत्पन्नस्स वि से इहभवभावो समुत्थाणं ति ) प्राग्भवे उत्पन्नस्यापि नमस्कार स्येहभवनाब इहभवशरीरं समुत्थानं कारणं भवति, एतद्भावभावित्वान्तस्य । दृष्टान्तमाह - (भवपश्चयावहिस्लेव ति ) यथा हि भवप्रत्ययोऽवधिस्तीकराऽऽदिसंबन्धी प्रागुत्पन्नोऽप्येतद्भवशरीरमन्तरेण न भवति । ततश्चेदभवशरीरं तस्य समुत्थानमेत्रं नमस्कारस्यापीति । एतदुक्तं नवति यथा पूर्वोत्पन्ना अपि घटाssदबो दीपेनामिध्यते तथा पूर्वोत्पन्नोऽपि नमस्कार नवदेनाभिव्यज्यते इत्यस्त्री तस्य निमित्तं व्यपदिश्यत इति ॥ २८२ ॥ अत्र परमतमाशक्य परिहरन्नाहसयमुत्थाणं, सविरियमो वगारविमुहं ति । तदजुचं तदवत्थे, चुपके लदियो । २०२६ ॥ अन्ये सूरयः स्वकमुत्यानं त्यानं स्वर्यमित्याचचते। कुतः ?, इत्याह - ( सोबगारविमुहं ति ) अन्येनापान्तरालवर्तिना कारणान्तरेण कृत उपकारोऽन्योपकारः, तद्विमुखं निरपेक्षं यतोऽनन्तर कारणमित्वर्थ, तस्मादम्योपकारवि
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मोकार
मुखत्वादनम्वरकारणत्वरस्यची नमस्कारस्य समुत्थानं कार णमिति । पतनिरासार्थमाह (स) तीर्थमयुतम, नमस्कारानन्तरकारणतया व्यभिचारित्वात् । कुतः ?, इत्याह(तत्ये इत्यादि) यतस्तदवस्थेऽपि विद्यमाने वीर्ये कस्या पि लब्धोऽपि नमस्कारः स्वाऽऽवरणोदयात्पुनरपि व्ययते भ्रस्वति; च्युतोऽपि कदाचित् तदावरणक्षयोपशमात्पुनरपि लभ्यते । तत एवं तदवखेऽपि वीर्ये च्युतलब्धे नमस्कारे सति विज्ञायते - लब्धितो नान्यद्वीर्ये किमपि नमस्कारकारणमस्ति, व्यभिचारित्वात् । व्यभिचारित्वं च नमस्कारस्य तदवयस्यतिरेकानुविधावित्वात् वस्तु तस्याव्यभिचारि कारणम्, तदन्वयव्यतिरेकानुविधायित्वादिति ॥ २८२६ ॥ तदेवं समुत्थानं व्याख्याय वाचनालब्धिस्वरूपं व्याविख्यासुराद
परम सवणमद्दिगमो परोबएसोसि बायकाऽभिमया । लकीय तयाssवर ओवसमझो सर्व लाभो । २८३०|
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परतो गुरुज्यो बच्चन तथा-अधिगमः, परोपदेशध, सा वाचनाऽभिधीयते । लब्धिस्तु का ?, इत्याह-परतो वाचनामन्तरेल नमस्कारस्य यः स्वयं लाजः । कुतः पुनर्या लब्धिः १, इत्याह तदाचरणक्षयोपशमात्- नमस्काराऽऽवरल कर्मकयोपशमादित्यर्थः । आइ- ननु तदावरणक्षयोपशम एव लब्धिरन्यत्र प्रसिद्धा, तत् कथमिह तत्कार्यभूतो नमस्कार लाभो लब्धित्वेमोच्यते, नमस्कारकारण स्वेद चिन्तयितुं त्वधोकाया एव च लब्धेर्नमस्कारकारणत्वात् ? । सत्यम्, किन्तु तकार्यभूतोऽपि नमस्कारलामो लब्धिरका, कारले कार्यो पचारादिति । तदविशुनैगमसंप्रदयवहारनयमन त्रिवि नमस्कारकारणं मन्तव्यमिति ॥ २८३० ॥
ऋषमतेन तु द्विविधमेव कारणमिति दर्शयचादउज्जुसुयणयमयमिणं, पुम्बुपास्त किं समुत्थाएं १ | अ संपमुप न वापशालकिन तं ॥। २०३१ ।। ऋजुनयस्येदं मम यदि पूर्वजोत्यत्रो नमस्कार दे हमवदेहलं समुत्थानं तस्य किं करोति नदि त्यभिप्रायः; उत्पन्नस्व कारणापेक्षायोगादिति । श्रथ साम्प्रतमिदभवे समुत्पद्यते नमस्कारः, तर्हि यस्तस्य कारणं तद्वाचनालब्धिभ्यां भिन्नं व्यतिरिक्कं न किञ्चित्पश्यामः; अत इदमेवं द्विविधं तस्य कारणमिति ॥ २८३१ ॥
इदमेव जावयन्नाह -
परओ सयं व लाजो, जइ परओ वायला सयं सकी । जं न परओ सयं ना, तो किमयं समुत्याएं १ ॥ २८३२९|| नमस्कारस्य हि सानो जायमानः परतोऽपि भवेत्, स्वयं वा ?, इति द्वयी गतिः, तत्र यदि परत इति पक्षः, तर्हि (वायणति) गुरूपदेशलक्षणा बाचनैव तत्र कारणम् । अथ स्वयमिति पक्क, तर्हि (लद्धि त्ति ) तदावर सक्कयोपशमलकखा लब्धिरेव तत्र कारणं, नापरम् । यच परतः स्वयं वा नोत्पद्यते, तत्खरविषाणकल्पमनस्त्वेवेत्यध्याहारः वस्तुन उत्पत्तौ यथोक्तप्रकारयस्यैव संभवाद, अनुत्पन्नस्य चास्तुत्वादिति तस्तस्थाद्वाचनालयामन्यरिक नाम समुत्थानं परस्ययं परतो चानुत्पन्नस्यावस्तुनः कारणं भवेदिति ? ॥ २८३२ ॥
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(१७२४) अभिधानराजेन्द्रः ।
णमोकार
अथ परभवे समुत्पन्नस्य नमस्कारस्येहनवे स्वतः परतो बाअनुत्पन्नस्य तस्यान्निम्यचिलणाया उत्पतेः कारणं समुत्थानं भविष्यति । तदप्ययुक्तम् । कुतः ?, इत्याह
प्पज्जइ नाईयं, तक्किरिओवरमयो कघडो व्व । अहवा कयं पिकीर, कीरज निञ्चं को शिट्ठा १ । २८३३ । त्या वस्तीतमभिप्रेतम् देवंभूतं पूर्वभ बेऽतीतोत्पादकिय नमस्कारलक पास्तव भवे पुन रपि नोत्पद्यत इति प्रतिज्ञा । ( तक्किरिओवरमभो त्ति ) तस्य नमस्कारस्योत्पाद अदा किया तकिया, तस्था उपरमो वि रामः तत्कियोपरमः तस्मादिति देतुः कृतपदिति मतः । इह पस्योत्पतिक्रियोपरता तत्पुनरविनोत्पद्यते यथा पूर्वकृती घट उपरतोत्पचिकिय पूर्वभवोत्पत्रो नमस्कार इष्यते, तत श्भवे पुनरपि नोत्पद्यत इति ॥ अथवा मपि पुनः कियते वर्दि पुनः पुनर्नित्यमेव किवतामं पूकृत्वाविशेषात् तथाच सति कुतः करणक्रियाया निहा इति तदेवं च होत्पद्यते नासी पूर्वोत् इति सामर्थ्यादुक्तम् || २८३३ ॥
कृत
श्रथवा भवतु पूर्वोत्पन्नः, तथाऽपि मत्पक्कसिद्धिरिति दर्शयन्नाह
होउ व पुष्युपाओ, तह विन सो किवाणाभिन्नो । जेवा पुरा विसयं वा परओ वा होज से लाभो ।।२८ २४|| भवतु वा नमस्कारस्य पूर्वजन्मन्युत्पादः, तथाऽपि न स तदुत्पादो] सधियाचनाय मिश्रन लब्धिवाचनालय कारणद्वयव्यतिरेकेय समुत्यानज्ञवेन कारयेन नमस्कारो जन्यतइत्यर्थः । कुतः स्यादयेन यस्मात्पुरा परनवेऽपि ?, प्रष्टव्योऽसि त्वं स्वयं वा परतो वा (से) तस्य नमस्कारस्य लाभ इति वक्तव्यम् १ | यदि स्वयं, तर्हि लब्धिरेव तत्कारणम् । अथ परतः तर्हि वाचना तकेतुरिति न किमप्येतत्कार
यस्यतिरिकं समुत्यानाच कारणं पश्याम इति ॥२०३७॥ अथ " सेसनया किमिच्वंति " (२००७) इत्येतव्याधिक्यामुराहू
समयं न स जं गुरुकम्पा पायणार वि
पाव व तयावरण- क्खमोसमध्य जनोऽवस्सं | २०३५| शब्द समभिदेवंभूतनयानामेतन्मतम् पद्यात्कारणाद् गुरु कर्मा प्राणी गुरुभ्यः प्रवाचनायां सत्यामपि नमस्कारं न लभते, लघुकर्मा तु वाचनामन्तरेणाऽपि तदाचरण कर्मक्कयोपशमाद् यतोऽवश्यमेव नमस्कारं प्राप्नोति ॥ २८३५ ॥ तो देऊ लखि चिय, न वायणा जइ मक्खोवसमो । कारोचितम् विना सायमंतिनी दिट्टा । २०३६ । ( तो हेऊ लखि चिय चि) ततस्तस्माद्वाचनाया नमस्कारजनने व्यभिचारित्वादावरणमा - धिरेव तद्धेतुर्न वाचनेति । यदि तु ऋजुसूत्रः कथमप्येवं वाद अनुमतिकानाऽऽ राऽऽदि कर्मकयोपरामस्तत्कारणो बा चनाजन्यः, तथा च सति तत्कयोपशमजन्यस्य नमस्कारस्य पारम्यथैव वाचनापि कारणं भवति। अत्रो मतिकानाऽऽबरबाऽऽदिकर्मोपमे जन्मे था बाचनाउने
णमोकार
कान्तिकी दशा, गुरुकर्मणां वाचनातोऽपि यथोयोपशमादशनादिति || २०३६ ॥
अथ कस्यापि तावद्वाचनातः कर्मक्षयोपशमो नवमनुपलभ्यते, तमाश्रित्य वाचना नमस्कारकारणं भविष्यति । तद्भ्ययुक्तम् । कुतः ?, इत्याद
जस्स वि स तमिचो तस्स वि तम्मचकारणं डोला । न नमोकारस्स तई, कम्यक्खओवसयसम्जस्स ।। २८३७।। यस्यापि जीवस्व समतिहानाऽध्वरा55दि कर्म स्वनिमित वाचनादेको श्यते तस्यापि सम्मकारणं वयोकक्कयोपशमनिमित्तं ( तर शि ) सा बाचना भवेत्, न तु नमस्कारस्य कारणं सा युज्यते । कथंभूतस्य ?, इस्बाहकर्मक्षयोपशमप्यस्यमुक्तं भवति एवममितिज्ञानवरयविक्रयोपशमादेवानन्तरं नमस्कार सत्तेतुवाच नातः, ततोऽसावेष तत्कारणं युज्यते, न तु वाचना, तस्वा यथोकक्षयोपशमजन करवेनाभ्यकारणत्वादिति ।। २८३७ ॥
पुनरपि परमतमाशक्य परिहरन्नाह
अह कारोबारि चि कारणं तेण कार सवं । पाय वजवत्युं को नियमो सदमेशम्मि १ ।। २०३८ || अह पचासमातरं कारणमेति तम्रो ल । परिवा न चेदेवं न बायकामे तनियमो ते ॥ २८२॥ अथ कारणस्य यथोक्तक्षयोपशमस्योपकारिणी वाचनेति, अतः कारणकारणत्वादसौ नमस्कारस्य कारणमिष्यते । अते-तेत्यादि) तेन हि प्रावेण सर्वमपि हितिश य्याऽऽसनाऽऽहार-वस्त्र- पात्राऽऽदिकं बाह्य वस्तु नमस्कारकारणस्य यथोक्तक्षयोपशमस्योपकारित्वात्परम्परया नमस्कारस्य कारणं प्राप्नोति । अतः को नाम वाचनालक्षणे शब्दमात्रे तत्कारणत्वनियमः १, इति ॥ २८३८ || अथ परम्परया सर्वस्य बाह्यवस्तुनो नमस्कारकारणोपकारित्वे सत्यपि यदेव प्रत्यासन्नतरं वाखनालक्षणं वस्तु तदेवाऽऽसन्नोपकारित्वान्नमस्कारस्य कारणमिष्यते। मनु तथाऽपि नमस्कार जनने तदेवैकान्तिकमि
तत कान्तिमानन्तर्ये यातिप्रस्थासमेत कारणं प्रतिपद्यस्व । न चेदेवं प्रतिपद्यसे, तर्हि न बाचनामाअस्य नमस्कारकारणत्वमभ्यरि
पि पूर्वोक्तनीत्या तत्कारणत्वमाप्तेः । तदेवं प्रथमनयत्रवस्य त्रिविधं कारणम, ऋजुसूत्रस्य द्विविधं शब्दनयास्तु नमस्कारकारणमिच्छन्तीति तम इति द्वात्रिंशुचार्थः ॥ २८३५ ॥ देषममितिमुत्पत्तिद्वारम् । (३) हानी निपद्वारमुच्यते तत्र नमस्कारस्य निक्षेपतुर्का नामनमस्कारः, खापनानमस्कारः, अव्यनमस्कारः, प्रावनमस्कारश्चेति । तत्रनामखापने क्षुषणे, समन्वशरीरव्यतिरिकद्रभ्यनमस्काराभि
।
धित्सया पुनराह - निहाऽऽ दब्व जावो वह नं कुल सम्पदिष्ठी नेवाश्यं पयं दव्जावसंकोपण पयत्यो । २०४० ॥ नमस्कारद्वतोरनेदोपचारामिवाऽऽद्रिश्यनमस्कार, मा.
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(१९२५) णमोकार अन्निधानराजेन्द्रः।
णमोकार दिशब्दादयोव्यार्थ विद्यामन्त्रदेवताऽऽदीनां नमस्कारः क्रियते, मिथ्यात्वोपहता निवाऽऽदयो जावतोऽपि य नमस्कारं कुर्वसोऽपि व्यनमस्कारः । निवाऽऽदिनमस्कारस्य च व्यत्व. न्ति, स शरीर-भव्यशरीरव्यतिरिक्तोऽप्रधानत्वाद् द्रव्यनममप्राधान्यात, अप्राधान्यं च तेषां मिथ्यात्वाऽऽदिकलुषितत्वादि. स्कार तथा सम्यम्हष्टिरप्यनुपयुक्तो य नमस्कारं करोति स ति । भावनमस्कारस्वागमतः स विशेयो, यमुपयुक्तः सम्यग्- तव्यतिरिक्तो व्यनमस्कार इति ॥ २८४३॥ दृष्टिरहदादीनां कुर्यादिति हारम् ॥
आह-जनुनावतोऽपि कुर्वतां निवाऽऽदीनां किमिति द्रव्यन(४) अथ पदद्वारमुच्यते-पद्यते गम्यतेऽर्थोऽनेनेति पदमातच मस्कारः ? । अत्रोच्यते-अजानित्वात् । अज्ञानिस्वं च तेषां पञ्चधा-नामिकम, नैपातिकम, औपसर्गिकम्, आख्यातिकम, मिथ्याष्टित्वात, 'मिथ्यादृष्टरज्ञानम् ' एतदपि कुतः, - मिश्रं चेति । तत्र 'अश्वः' इति नामिकम् । 'खलु' इति
त्याहनेपातिकम, 'परि' इत्यौपसर्गिकम् । ' धावति' इत्या- सदसदविसेसणामो, जबहेक जदिचिोवलंभाओ। ख्यातिकम् ।संयतः' इति मिश्रम् । एवं नामिकाऽऽदिप- नाणफनाभावाप्रो, मिच्छद्दिहिस्स अन्नाणं ॥२४॥ चप्रकारपदसंभवे सत्याह-(नेवाश्यं पयं ति) निपतत्यई
प्रागसकृद् व्याख्यातार्या ॥ २८४४॥ दादिपदानामादिपर्यन्तयोरिति निपातः, निपातादागतं, तेन वा निर्वृत्तं, स एव वा स्वार्थिकप्रत्ययविधानान्नैपातिकम् 'नमः'
प्रकारान्तरेणापि द्रव्यनमस्कारमाहइति पदम । इति पदद्वारम ।
जो वा दव्वत्थमसं-जयस्स व भयाइणाऽहवा सो वि। (५) अथ पदार्थद्वारमुच्यते-(दव्वभावसंकोयण पयत्यो ति)
दवनमोकारो चिय, कीर दमरण रमो व्यान्।। इह 'नमोऽहंग्यः ' इत्यादिषु यत् 'नमः' इति पदं, तस्य यो वा व्याथै क्रियते स द्रव्यनमस्कारः। अथवा-यलाभ नम इति पदस्यार्थः पदार्थः, स च पूजालकणः। सा च का विनापि योऽसंयतस्य राजाऽऽदर्भयाऽऽदिकारणतो द्रमकाss१. इत्याह-(दब्वभावसंकोयण त्ति) व्यसंकोचनम्, भावसं. दिना क्रियते, सोऽपि तद्व्यतिरिक्तो द्रव्यनमस्कार इति।२८४५॥ कोचनं च। तत्र व्यसंकोचनं करशिरःपादाऽऽदिसंकोचः,भा.
अथाऽऽगमतो नोप्रागमतश्च द्विविधं नाचनमस्कारमाहवसंकोचनं तु विशुरूस्य मनसोईदादिगुणेषु निवेशः। अत्र च प्रकचतुष्टयम् । तद्यथा-व्यसंकोचो न भावसंकोच:, यथा
आगमनो विन्नाया, तच्चित्तो जावो नमोकारो। पालकाऽऽदीनाम, भावसंकोचोन व्यसंकोच इत्यनुत्तरसुरा
नोआगमओ सोच्चिय, सेसयकरणोवनत्तोत्ति ॥२०४६॥ ऽऽदीनामा व्यसंकोचोनावसंकोचश्व, यथा शम्बस्थान व्य
तस्मिन् नमस्कारार्थे चित्तमुपयोगो यस्य नान्यत्र-असो संकोचो न जावसकोच इति शून्यः। इह च भावसंकोचप्र
तच्चित्तो विज्ञाता आगमतो भावनमस्कारः, स एव मनधानो द्रव्यसंकोचोऽपि तच्छुकिनिमित्तः ।। इति नियुक्तिमाया- स्करणेनोपयुक्तो नमस्कारका यदा शेषकाभ्यामपि वाकासंक्केपार्थः ॥ १८४० ॥
यकरणाज्यामुपयुक्तो नमस्कार करोति-वचनेन 'नमोऽहंश्रथ नमस्कारस्य जाप्यकारो नामाऽऽदिनिकेपं विस्तरतो |
दूज्यः' इति खुवाणः, कायेन तु संकोचितकरचरणो यदानव्याचिख्यासुराह
मस्कारं करोतीत्यर्थः, तदाऽसौ नोश्रागमतो जावनमस्कार नामाऽऽइचउन्भेओ, निक्खेवो मंगलं च सो नेप्रो।
उच्यते, उपयोगलक्षणस्याऽऽगमस्य वाकायकरणक्रियामिनाम नमोऽभिदाणं,ग्वणा नासोऽहवाऽऽगारो॥२०४२॥ भत्वात, नोशब्दस्य खेह मिश्रवचनत्वादिति ॥ २८४६॥ नामस्थापनाऽऽदिचतुर्भेदो नमस्कारस्य निक्षेपः। स चाध
अथामुं नामाऽऽदिनिक्केपमपि नवैर्विचारस्तायुक्तमाल स्पेव विस्तरतो विझेयः । संकेपतस्त्विहाप्यु
यम्नाहच्यते-( नामं ति ) नामनमस्कारो नमः' इत्यभिधानम् । जावं चिय सद्दनया, सेसा इच्छंति सम्वनिक्खेवे । स्थापनानमस्कारस्तु- नमः' इत्यकरयस्य विन्यासः ।
उवणावजे संगह-ववहारा केइ इच्छंति ॥२०४७॥ अथवा-नमस्कारकरणप्रवृत्तस्य संकोचितकरचरणस्य काष्ठपुस्तकचित्राऽऽदिगतस्य साध्वादेराकारः स्थापनानमस्कार
नावमेव भावनमस्कारमेव इच्छन्ति प्रयोऽपि शब्दनयाः, शु. शति ॥ १८४१ ॥
कत्वात् । शेषास्तु ऋजुमुत्रान्ताश्चत्वारो नया:, सश्चितुरीद्रव्यनमस्कारमाह
ऽपि निकेपानिच्छन्ति, अविशुरूत्वात् । केचित्तु व्याचक्षते-सं
ग्रहव्यवहारौ स्थापनायजाँस्त्रीन्निकेपान्निच्छता, सद्भावासआगमयोऽणुवउत्तो, अज्या दवो नमोकारो।
दाबस्थापनायाः किल साकेतिकनामाभिधेयत्वेन नामनिकप नोभागमो जाणय-जव्यसरीराइरित्तोऽयं ॥४॥ एवान्तावादिति ॥१८४७॥ द्रव्यनमस्कारो द्वेधा-मागमतः, नोवागमतश्च । तत्रानुपयुक्तो
तथानमस्कारस्याध्येता-प्रागमतो बन्यनमस्कारः । नोप्रागमताभ्यं दबटवणावज्जे, उज्जुमुश्रो तं न जुजए जम्हा । सन्यनमस्कारो शरीर-भव्यशरीर-तव्यतिरिक्तभेदाविविध
इच्छइ सुयम्मि भणियं, सोदव्यं किंतुन पुहत्तं ॥२४॥ इति । तत्र शरीर-नव्यशरीर-वक्तव्यता कुम्मा ।। २८४२॥ तव्यतिरिक्तं तु कन्यनमस्कारमाह
व्यस्थापनावजी शेषौ दावेव नामभावनिकेपाविच्छति व.
तुसत्रः । तदेतद् व्याख्यानं न युज्यते, यस्मादसौ ऋजुमिच्छोवहया जंजा-बमोवि कुवंति निन्हवाऽऽईया।
सूत्रो द्रव्यमित्येव, केवलं पृथक्त्वं नेच्चति-बहूनि द्रव्याss. सो दव्बनमोकारो, सम्माणुवउत्तकरणं च ॥ ८४३॥ वश्यकाऽऽदीनि नेच्चतीत्यर्थः । एतच सूत्रेऽनुयोगद्वारलकणे,
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(१८२६ ) निधानराजेन्द्रः 1
मोक्कार
भणितं प्रतिपादितम् । तद्यथा-" उज्जुसुयस्स एगे अणुवनले श्रागमश्र एंगे दव्वावस्सए पुहत्तं नेच्छ ” इति ॥ २८४८ ॥ स्थापनेच्या मध्यस्याऽऽद
इच्छंतो यस दव्वं, तदणागारं तु जावई त्ति | नेच्छेज्ज कहं णं, सागारं भावहेन त्ति १ ॥ २८४॥
ऋतुसूषस्तत्प्रसिद्धं सुवर्णाद्विकं रूपमाय स्थायामनाकारं तथाविधक टककेयूराऽऽद्या काररहितम, बि शिघ्रेन्द्राऽऽद्याकाररहितं वा । कुत इच्छन् ?, इत्याह-भाव देतुर्यत - तद्भविष्यत्कुरुलादिपर्याय प्रकृणभावद्धेतुत्वादित्यर्थः क यं नाम नेच्थापनाम है। कथंभूताम्साकार्य विशिष्टेन्द्रा55याकारसहितामपीत्यर्थः । पुनरपि विविशिष्टाम, इत्याहभावहेतुभूतां साकारराथेन विशिष्टेन्द्राऽऽद्यभिप्रायकारणभूतामित्यर्थः । इदमुकं नयति-यो हानाकारमपि भावहेतुत्वाद इत्यमिच्छति ऋतुसुत्रः स साकारामापे विशिऐाऽईनावहेतुत्वात् स्थापनां किमिति नेच्छेत् ?, इच्छेदेव, नात्र संशय इति ॥ २८४६ ॥
उपपश्यन्तरेणापि व्यस्थापनेच्छामस्य साध
यन्नाह
नापि दोन सभा सम्ययं वा तदत्यपरिमुभं । देव चिदिच्तो व्यहवणा कई नेच्छे? || २०५० || ननु ऋजुसूत्रस्तावन्नाम निर्विवादमिच्छति । तच्च नाम इन्द्रमाया भवेत्सा या परिमि शब्दवाच्यं वा इन्द्रार्थरहिया गोपाल दारकाऽऽदि वस्तु भवेदिति । इदं चोनवरूपमपि नामदेवका रणमिति कृत्वा जुषो द्रव्यस्थापने] कथं नाम नेच्छेत् ?, भावकारणत्वाविशेषादिति भावः ॥ २८५० ॥ अ नाम भावम्मि विते तेराव्या वि भावस्साऽऽसअपरा, हेऊसो व बझयरो || २०५१ ।। अादिकं नाम भावेऽपि भवेन्द्र मिति तेन तस्मादिच्छति तरजुमुत्रः । तेन तर्हि जितमस्माभिः श्रस्य न्यायस्य द्रव्यस्थापनापके सुलभतत्वात् । तथाहि व्यस्थापने अपि भावस्येन्द्रपर्यायस्यासन्नतरी हेतू शब्दस्तु रानामनकणो कातर इति तदुकं नयति इन्द्रमूर्ति विशिष्टताकाररूपा तु स्थापना, पते से अपर्यायस्व शाययसंबन्धेनातिवाद सचितितरे शब्दस्तु नामल कृणो वाचकभावसंच मात्रेव खिति । अतो नावे सन्निहितत्वान्नामेच्छन् ऋजुत्रो व्यस्थापने सन्निहिततरत्वात्सुतरामिच्छेदिति । तदेवमृजुसूत्रस्य चतुर्वि धनिक्केपेच्छा साघनेनानन्तरो कत्वात्परिहृतं तद्विषयं दुर्व्याख्यानम् ॥ २८५१ ॥
अथ प्राप्यकम्-"
साजेसंगद्वारा " [२०४७] इत्यादि पहिराह संगहि असंगहि सच्चो वा नेगमो उवणमिच्छे |
इच्छा जड़ संगहियो, तं नेच्छे संगदो कीस १ । २८५२।। द संग्रहिकोऽसंग्रदिका सर्वो वा नेगमस्तावभिर्विवाद स्थापनामिच्छत्येव । तत्र संग्रहिकः संग्रह मतावलम्बी, सामाम्यवादीत्यर्थः । संग्रदिकस्तु व्यवहारय मतानुसारी, विशे
मोक्कार
पवादत्यर्थः सर्वस्तु समुदितः । ततब्ध यदि संघका संग्र मागमस्तां स्थापनामिष्यति तर्हि संग्रहस्तत्स मानमतोऽपि तां किमिति नेच्छति ?, इच्छेदेवेत्यर्थः ॥ २८५२॥ अत्र मयमसंगहियो, तो ववहारो वि किं न तम्मा ? | अह सम्वो तो तम-पम्माणो दो वि से जुता । २८५२६ ( अहव मयमित्यादि अथवा इस्योऽथायें अथ परस्य मतम् - यद्यपि सामान्येन सर्वो नैगमः स्थापनामि च्छति, तथापि व्याख्यानतो विशेषत संग्रहकोसो तामिच्कृतीति प्रतिपत्तव्यम | न संग्रहिकः' इत्यध्याहारः, न ततः संग्रहस्य स्थापनेच्या निषिध्यत इति भावः । श्रत्रोस्तरमाह 'तो' इत्यादि । तह्येकत्र संधित्सतोऽन्यत्र प्रयवते, एवं हि सति व्यवहारोऽपि स्थापनां किमिति 'नेच्छति' इति षः इत्याह-यतस्तमसी-संग्रहकगमसमानधर्मा व्यवहारनयोऽपि वर्तते विशेषादिरया तषोऽपि स्थापनामिच्च देवेति निषिद्धा चास्यापि त्वया, "उ बणावजे संगहववहारा " इति वचनादिति । अथ सर्वोऽखएकः परिपूर्ण नैगमः स्थापनामिति न तु संग्रहको को वेति भेदान् अतस्तद्दृशस्तात्संग्रहव्यवहारयोर्न था पने साधयितुं युक्तेति भावः । श्रत्रोच्यते-' तो ' इत्यादि । तत तत्सम धर्माणी नेगमसमानधर्माणी द्वासि मुदितौ ताविति संग्रहव्यवहारौ युक्तावेव । इदमत्र हृदयम्तां प्रत्येक तयोरेकतरनिरपेक्षयोःस्थापनाऽयुपगमो मा भूदिति समुदितयोस्तथ संपूर्णनिगमरूपत्वादभ्युगमा केनवा विभागस्याद् नैगमात्प्रत्येकं तदेकेकताग्रहणात् इति ॥ २८५३ ॥
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इस
स्थापनाऽभ्युपगमः संग्रहम्यवदारयोर्युक्तः कुतः १,
इत्याह
तो
पत्रेसो नेगम- नयस्स दोसु बहुसो समक्खाओ। पिजि मयमियरेसि विभिन्ना ॥ २८५४ ॥ यच यस्मात् प्रवेशोऽन्तर्भावः " जो सामनगाही सो नेगमो संग गो" इत्यादिना ग्रन्थेन प्रागत्रान्यत्र च नैगमनयस्य द्वयोः संग्रहयवहारयोर्थ हुशो ऽनेकधा समस्याः प्रति पादितः । ततस्तन्मतमपि स्थापनाऽन्युपगमलकणं नैगमनयमतमपीतरयोः संग्रहव्यवहारयोर्विभिन्नयोर्भेदवतोर्जिनं पृथमतं सम्मतमिति । इदमुक्तं भवति यथा विभिन्नयोः संग्रहव्यवहारयनिंगमो तथा स्थापनाभ्युपगमलक सम्म तमपि तयोरन्तमेव ततो भिषं भेदेन तो दिव स्थापना सामान्यं संग्रह इच्छति, स्थापनाविशेषस्तु व्यव हार इत्येतदेव युकं तदभिच्छा तु सर्वथागाने युकेति ॥ २८५४ ॥
च
अत्रैवोपचयमाद
सामणाऽऽइविसिहं, बज्छं पि जमुज्जुमुत्तपज्जंता । इतिवत्युधम्मं तो तेर्सिसम्वनिक्वेवो ॥ ३८५५ ।। यस्माच्च सामान्याऽभदविशिष्टं बाह्यमपि विचित्रं बहुकारमृजुनपर्यन्ता नया वस्तु ततस्तेषां सर्वेपिनामाऽऽदयो निक्षेपाः संमता एवेति । श्रतः " उवणावजे संगहववहारा " ( २८४७ ) इत्यादिना यत्केषाचिन्मतं तदसंगतमेवेति ।। २८५५ ।।
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णमोकार
(१८२७) अभिधानराजेन्फः।
गामाक्कार
'नेवाश्यं पयं'[२४] इत्येतद्
किं वस्तु नमस्कारो भवेत् ?-जीवः, अजीवो वा । व्याचिख्यासुराह
जीवाजीवत्वेऽपि किं गुणो, व्यं वा नमस्कारः, इति प्रश्ने निवयइ पयाऽऽइपज्ज-तो जो तो नमो निवाउत्ति।। नैगमाऽऽद्यविशुद्धनयमतमङ्गीकृत्याऽऽह-जीचो नमस्कारः, ना. सो चिय निययस्थपरो, पयमिह नेवाश्यं नाम ॥२०५६।।
उजीवः । स च संग्रहनयापेक्कया मा भूदविशिष्टः पञ्चास्तिका.
यमयः स्कन्धः। यथाऽऽहुस्तन्मतावम्बिनः-"पुरुष एवंदं नि पूयत्थमिणं सा पुण. सिरकरपायाऽऽइदम्बसंकोओ।
सबै यद् तूतं या भाव्यम् । तामृतत्वस्येशानो यदन्ननातिजावस्स य संकोओ,मणसा सुधस्स विणिवेसो।२०५७/ रोहति " इत्यादि । तथा संग्रहनयविशेषापेक्षयैव मा यतो यस्मानिपतति पदाऽऽदिपर्यन्तयोस्ततो 'नमः' इति पदं भूदविशिष्टग्राम इति, 'अतो नो स्कन्धो नो ग्रामः' इति नियुक्तिनिपातो भएयते । स एव ' नमः' इति निपातो निजकार्थपरः गाथायां वाक्यशेषः । पञ्चास्तिकायमयस्कन्धैकदेशत्वानोशस्वार्थिकप्रत्ययोपादानो नैपातिक पदमित्युच्यत इति ॥ २०५६॥ ब्दस्य च देशवचनत्वानोस्कन्धो जीवो नमस्कारः, तथा-चइदं च ' नमः' इति पदं पूजार्थम्, शेषं सुगमम् ।। २०५७ ।। तुर्दशविधतग्रामैकदेशत्वाद् नोशब्दस्य च देशवचनत्वाद् अत्र च नावसंकोचलक्षणं जावकरणमेव प्रधानमिति
नोग्रामरूपः प्रतिनियतः कोऽपि जीवो नमस्कार इति ।२०६३। दर्शयन्नाह
ननु कस्माज्जीवो नमस्कारः, नाऽजीवः?, इत्याहएत्थं तु भावकरणं, पहाणमेगंतियं ति तस्सव ।
जं जीवो पाणमो-ऽणन्नो नाणं च जं नमोकारो। बज्कं मुछिनिमित्तं, नावावेयं तु तं विफझं ॥२५॥
तो सो जीवो दव्वं, गुणो त्ति सामाइएऽनिहियं श्०६।। जं जुज्जंतो वि तयं, न तप्फलं लहइ पालगाइ व्य ।
यद्यस्माद् ज्ञानमयो जीवः, ज्ञानं च यस्मात् श्रुतज्ञानरूपोनम
स्कारः, अनन्यश्चाव्यतिरिक्तश्च शानाज्जीवः । ततः स नमतन्निरहिया महंति य,फनमिह जमणुत्तराऽऽईया।२८एएण
स्कारो 'जीवो त्ति' जीव एब, नाजीवः, तस्य ज्ञानशून्यत्वातह विविसुधी पाए-ए बसहियस्स जान साइहरा।। दिति । जबतु जीवो नमस्कार, केवलं द्रव्यमसौ, गुणो वा', संजायइ तेणोनय-मिट्टं संवस्स वा नमो ॥२०६०॥ इति वक्तव्यमित्याह- व्यं गुणो वा नमस्कारः' इत्येतसुगमा,गतार्थाश्च । नवरं भावापेतं भावरहितं तद् बाह्यकरणं
सामायिके'कि सामायिक ' इति द्वारे-"जीवो गुणपमिवन्नो, विफलमेव । इति विंशतिगाथार्थः ॥ २८५।२८५६।२०६०॥
नयस्स दबहियस्स सामइयं । सो चेव पज्जवठिय-नयस्स
जीवस्स एस गुणो ॥१॥" (१६४३) श्त्यादिना प्रन्येना(६) अथ प्ररूपणाद्वारमाह
निहितमेव, केवलं सामायिकस्थाने नमस्कारो वाच्य इति । सुविहा परूवणा -प्पया य नवहा य उप्पया णमो।
॥ २०६४। किं कस्स केण व कहि,केवचिरं कइविहोव नवे ॥२०६१॥
नवतु जीवो नमस्कारः, किन्तु नोस्कन्धो नोग्रामश्च कथद्विविधा द्विप्रकारा, प्रकृष्टा प्रधाना, प्रगता वा रूपणा वर्णना | मसौ?, इत्याहप्ररूपणेति । तदेव द्वैविध्यमाह-षट्पदा च षट्प्रकारा,नवधा च सव्वत्थिमओ खंधो, तदेकदेसो य जं नमोकारो । नवप्रकारा, चशब्दात्पश्चपदा, चतुष्पदा च । तत्र षट्पदा
देसपमिसेहवयणो, नोसद्दो तेण नोखंधो ॥२०६५॥ 'णमो' इति पदं कि, कस्य, केन वा, कवा, कियच्चिरं, कतिविधो वा नवेन्नमस्कार। इति नियुक्तिगाथासंक्षेपार्थः॥२०६१॥
लूयग्गामो गामो, तदेकदेसो तउ त्ति नोगामो । तत्र किंधारव्याख्यानार्थमाह
देसोत्तिसो किमेको-ऽणेगो नेओ नयमयाभो॥२८६६॥ किं जीवो तप्परिणओ, पुवपमिवन्नो य जीवाणं ।
सर्वे पश्चास्तिकायाः, तन्मयस्तैर्निवृत्तः परिपूर्णः, स्कन्ध
उच्यते । तदेकदेशश्च यस्मान्नमस्कारवान् जीवः, नमस्कारजीवस्स य जीवाण य,पमुच्च पमिवज्जमाणं तु ।२०६। तद्वतोश्चाभेदोपचारान्नमस्कारोऽपि तदेकदेशः । देशप्रतिषेधकिं वस्तु नमस्कारः१, इत्याद-(जीवो त्ति) सामान्येन भवि- बचनश्च नोशब्दः, तेन तस्मात्स्कन्धैकदेशो जीवः, अभेदोपबारुनैगमाऽऽदिनयानां जीवः,तज्ञानलब्धियुक्तो योग्यो वा नम. चारान्नमस्कारच नोस्कन्ध इति । तथा-"पगिदिय सुहुमियरा, स्कारः। शब्दाऽऽदिशुद्धनयमतंत्वधिकृत्याऽऽह-(सप्परिणश्रोत्ति) सन्नियरपणिदिया सवितिचक । पज्जत्तापज्जत्ता, नेपणं चनशब्दाऽऽदिविशुद्धनयमतेन तु जीवः, तत्परिणतो नमस्कारपरि- दसग्गामा।" इति वचनाचतुर्दश विधी भूतप्रामो ग्राम उच्यते । णामपरिणत पव नमस्कारो,नापरिणत इति । उक्तं किंद्वारम। तदेकदेशश्च यस्मात्तकोऽसौ नमस्कारवान् देवमनुष्याऽऽदिजी
अथ कस्पतिद्वारमुच्यते-तत्र च यदा पूर्वप्रतिपनो नमस्कारः वो मेदोपचारानमस्कारोऽपि तदेकदेश इत्यतोऽसौ नोग्रामोऽचिन्त्यते, तदा जीवानामसौ विज्ञेयः, बहुजीवस्वामिक इत्यर्थः। भिधीयते। 'देसो त्ति' पृच्कृति विनेयः भूतग्रामस्य देशःसन् स प्रतिपद्यमानं तु नमस्कारं प्रतीत्य यदा एको जीवस्तं प्रतिपद्य- नमस्कारः, किमेकोऽनेको वा १, इति वक्तव्यम् । गुरुराहते, तदा जीवस्यासौ विज्ञेयः, एकजीवस्वामिक इत्यर्थः । यदा केयो नयमतात-एकत्वममेकत्वं च तस्य नयमताद्विज्ञेयमितु बहवो जीवास्तं प्रतिपद्यन्ते, तदा जीवानामेष ज्ञातव्यः, त्यर्थः । तदेतावता 'किं जीवो' (२८६२) इति व्याख्यातम् बहुजीवस्वामिक श्त्यर्थः। इति नियुक्तिगाथासंकेपार्थः ।२०६२। ॥२८६५। २०६६॥ अथ किंधारविषय भाष्यम्
अथ तप्परिणो' (२८६२) इत्येतद् व्याचिस्यासुराहकिं होज नमोकारो, जीवोऽजीवोऽहवा गुणो दव्यं । । तप्परिणो चिय जया, सदाईणं तया नमोकारो । जीवो नो खंधो ति य,तह नोगामो नमोकारो॥२६॥ । सेसाणमणुव उत्तो,वि अधिसहिमोऽहवा जोग्गो।।२०६७॥
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( १८२८ )
अभिधानराजेन्:
पामोकार
जीवो
तत्परिणत एव नमस्कारपरिणामपरिणत एव, यदा भवति तासी शब्दाऽनियमन नमस्कारोऽभिधीयते । शेषाणां तु नैगमाऽऽदिनयानामनुपयुक्तोऽपि नमस्कारो जीवो नमस्कार उच्यते । किं सर्वः ?, नेत्याह-लब्धिसहितस्तदावरणकर्मक्षयोपशमयुक्तः अथवा योग्यो प्रम्यशरीराऽऽदिको राज्यार्हकुमारराजवदिति ॥ २८६७ ॥
अथ कथं पुनर्नयमतेन नमस्कारस्यैकत्वमनेकत्वं च यम,
इत्याह
संगठनओ नमोका - रजाइसामन्नो सवा एनं । इच्छवषहारो पुण, एगमिगं बहू बहवो || २०६०। उज्जुसुयाऽऽई पुल, जेण सयं संपयं न वत्युं ति । पत्तेयं पत्तेयं, तेण नमोक्कारमिच्छंति ।। २८६ए ॥
सुगमे, नवरं व्यवहारयः पुनरेकं नमस्कारयन्तं जीयमेकं नमस्कारमिति बस्ती बनमस्कारानिच्छति, लोकव्यवहारपरत्वात् लोके
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यस्तु बहुत्वं नेच्छन्ति, वर्तमानसमयवर्तिनः स्वकीयस्यैव कस्य प्रत्येकं प्रत्येकमभ्युपगमादिति ॥ व्याख्यातं किमितिप्ररूपणाड्रारम् || २८६६ ॥। २८६६ ॥
अथ कस्येतिधारे " पुण्वपडिवरणओ य जीवाणं " (२०६२) इत्यादि व्याचिख्यासया प्राऽऽदपमिवज्जमाओ पुष, एगोऽगे व संग मोत्तुं । इट्टो सेसनयाणं, परिवन्ना नियमो ऽयेगे || २०७० || प्रतिपद्यमानको नमस्कारस्यैको उनके वा जीवा भक्तीययं पकः संग्रहन मुक्त्या शेषनयानामिह संमतः पूर्वतिपक्षास्तु नियमेनानेके तेषामिक्षा गतिचतुष्टयेवि पूर्व तिपन्नस्य सम्यग्दृष्टीनामसंख्येयानां सदैव खानात् । संग्रह - नयस्तु सर्वत्र नेतीति सर्जनमिति । तदेवं कस्य नमस्कारः ?', इति पृष्टे एकाने कजीवस्वामिको नमस्कार इति निर्णीतम् ॥ २८७० ॥
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अथ जीवखामिके सत्यपि किं नमस्कार्यजीव स्वामिको नमस्कार, नमस्कीमा इति जिज्ञा सायां नयनियमादकस्स ति नमोकारो, पुज्जरस य संपयाणजाबाओ। नेगमववहारमयं, जह भिक्खा कस्स जइणोति ॥ २८७१ ॥ कस्य नमस्कार:- किस्वामिकोऽसी है, इति पृष्टे गुरुराद-मेग मध्यवदारमयमतमिदम-पूज्यस्य नमस्कार्यस्य नमस्कारा, न पुनस्तत्कर्तु कुतः संप्रदानभावतेन पूज्यश्वेव संप्रीय 1 ?; मानवलोकेऽपि वकारो भयन्तिकस्य मिका, 'बते' इति, न पुनस्तद्दातुः ॥ २८७१ ॥ देस्यन्तरेणापि नमस्कार्थस्यामिकत्वं नमस्कारस्यैती समर्थयतः । कथम् ?, इत्याह
जस्स व पनाओ, तत्पचयओ पमाऽऽयथम्य व । तनाव वा पदविणाणामिदा व ।। २०७२ || अथवा पूज्यश्व पर्यायो नमस्कार इति प्रति (सप्य वो पूज्ये पूज्योऽयमितिजनकत्वादिति हेतु घ
पामोकार
sisseधम्म वत्ति) घटस्यात्मीयरूपाऽऽदिवदिति दृष्टान्तः, यथा-घटें घटप्रत्ययजनकत्वात्तद्रूपाऽऽदय स्तत्पर्याया इत्यर्थः । अथवा अस्यामेव प्रतिज्ञायां तदेवादिति हेतुः नमस्का रोत्पत्तिहेतुत्वादित्यर्थः । घटविज्ञानानिधानवदिति दृष्टान्तः । स्यमत्र भावना नमस्कार्येऽदादी रहे प्रत्यजन्तो विशिष् लासो नमस्कारकरणाभिप्राय उत्पद्यते, ततस्तन्नमस्कारस्य नमस्कार्यो हेतुः ततस्तद्धेतुज्ञावान्नमस्कार्यस्यैव पूज्यस्यैव पयो नमस्कारः यथा घटविषयविज्ञानानिधाने घटकत्वाद् घटपर्यायाविति ॥ २८१२ ॥
किञ्च युक्तयन्तरेणापि पूज्यस्वामिक एव नमस्कारः; कथम् ?, इत्याह
हवास करें तो चैव तस्म जं निचनावमाचएो। का तस्स नमोकारे, चिंता दासक्खरोवम्मे || २८७३ ॥ अथवा यद्यस्मात् स नमस्कारकर्ता नमस्कारं कुर्वाण एव तस्य नमस्कार्यस्याऽईदादेभृत्यभावं दासत्वमापन्नः; ततस्तस्य नमस्कारकर्तुर्नमस्कारे का चिन्ता ? - किं ममत्वम् 21 ननु नमस्कारस्ता दूरे तिष्ठतु तस्याऽऽत्मादिनामयः, पृज्यस्य नृत्यभावेन समर्पणाशिनमस्कारे चिन्ता न विधेया इत्याह- ( दासक्खरोवम्मे हि ) दाससंबन्धिना खरेणौपम्यमुपमानं ग्रस्य तस्मिंस्तथाभूते । इदमुक्तं जवति-" दासेण से खरो कीओ, दासो बी से खरो बी से "इति यायादासकल्पो नमस्कारकर्ता, खरकल्पस्तु नमस्कारः, द्वावप्ये तो नमस्कार्यवादादेरेव न पुनर्नमस्कारः किञ्चिदिति किं तस्य लिया है, इति तदेषं पूज्यस्यैव ममस्कार इति नैगमव्यवहारनयमतेन प्रतिष्ठित ॥ २६७३ ॥
पूज्यं च वस्तु द्विविधं - जीवरूपं जिनाऽऽदि, श्रजीवरूपं च तत्प्रतिमा5दि । अस्य च जीवाजीवपद्वयस्यैकवचनबहुवच नाभ्यामष्टो जङ्गा भवन्ति । तद्यथा - जीवस्य १, अजीवस्य २, जीवानाम् ३, अजीवानाम् ४, जीवस्याऽजीवस्य च ५, जीवस्वाजीवानां च ६, जीवानामजीवस्य च 9 जीवानामजीवानां च ८ । इमामेवाष्टङ्गीं सोदाहरणां जाष्यकारः प्राऽऽहजीवस्स सो भिणस्स अलीक्स्स निदिपमिमाए । जीवाण जई पिव, अजीवाणां तु परिमाणं ॥ २८७४ ॥ जीवाजीवरस य जइयो विस्स वेगभो समयं । जीवस्सामीण जइयो परिमाण चेगत्वं ॥ २८७५ || जीवाणमजीवस्स य, नइयां विवस्स गो समयं । जीवाणमजीवाण य, जईए परिमाण वेगत्यं ॥ २८७६ ॥ तिस्रोऽपि गतार्थाः || २०७४।२८७५२८७६ ॥
अत्र परमतमाशङ्क्य परिहरन्नादजीवो चि एमोकारो, नणु सम्बमयं कई पुणे नेप्रो ?। इह जीवस्सेव सो भइ सामित्तचितेयं ॥ २८७७॥
"
मनु " किं जीवोतपरी ” (२०६२) इत्यत्र पूर्व जीवो नमस्कार इति सर्वनयसंगतं समानाधिकरणमुक्तम् इद तु " जीवस्त्र सो निणस्स व " ( २८७४ ) इत्यादिषष्ठीनिदेशात्कथं भेदोऽभिधीयते ? अभोच्यते-- इत्यादि ) इहास्यामष्ट्रनङ्ग्भ्यां जीवस्यैव सतो नमस्कारस्य तथैव समाना
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(१८२९) पामाकार अनिधानराजेन्डः।
णमोकार धिकरणभाजः सतो नमस्कारस्येत्यर्थः । किम , मत पाह
कुतः?, इत्याहस्वामित्वचिन्तेयं भएयते-'स जीवरूपो नमस्कारः किं नमस्का.
नाणं जीवाणऽन्न, तं कहमत्यंतरस्स पुजस्म ?। यस्य संबन्धी, नमस्कर्तुर्वा ?,' इत्येतदिह चिन्स्यत इति भावः ।
जीवस्म होन कहवा,पमिमाए जीवरहियाए? ॥२ ॥ पतच्च नैगमव्यवहारनयमतेन चिन्तितम् ॥ २८७७॥
(नाणमित्यादि ) यदि ज्ञान नमस्कारस्तदा गुणत्वेन तन्न अथ संग्रहनयमतेन चिन्तयन्नाह
मस्कर्तृजीवादनन्यदव्यतिरिक्तं वर्तते, तत्कथमान्तरस्य पू. सामसमेत्तगाही, सपरजिएयरविसेमनिरवेक्खो।
ज्यस्य नमस्कार्यस्याईदादेः संबन्धि वक्तुं युज्यते । यदि संगहनोऽजिमझाइ, तमिहेगस्साविसिट्ठस्स ॥७॥
वा-अघटमानकमप्यभ्युपगम्य बना-जीवस्य पूज्यस्यापि सं. सामान्यमात्रग्राही संग्रहनयोऽनिमन्यते तमिह नमस्कार,
बन्धि तद् भवत्, जीवरहितायास्त्वचेतनायाः प्रतिमायाः कय संबन्धितया कस्य ?, इत्याह-एकस्य । कयंतृतस्य?, अ.
वा केन प्रकार तद्भवेत् ?, तस्याः सर्दथा ज्ञानशून्यत्वेन विशिष्टस्य जीवाजीवविशेषणरहितस्यैकस्यैवाविशिष्टस्य स
कष्टतरं महासाहसमिदमित्यभिप्रायः ॥ २८८२॥ तामात्ररूपस्य संबन्धितया नमस्कारमसौ मन्यते, न तु |
एवं सदो किरिया, य सद्द-किरियावो जो धम्मो । द्वयोः, बहूनां चेत्यर्थः । अत्रोपपत्तिमाह-" सपरजिएयरविसेमनिरवेक्खो त्ति ।" स्वश्च परश्च स्वपरौ, स्वपरौ च ती
न य धम्मो दव्वंतर-संचारी तो न पुज्जस्स ।। २०३।। जीवौ च स्वपरजीवौ, तौ चेतरेऽजीवाश्च स्वपरजीवेतराः, एवं शब्दः क्रिया च यस्माच्छन्द क्रियावतो नमस्कर्तुधर्मः, तेषां विशेषा एकद्वियादयः, स्वपरजीवेतराश्च ते विशेषाश्च धर्मश्च न व्यान्तरसंचारी, ततो न पूज्यस्य नमस्कार्यस्य स्वपरजीवेतरविशेषाः, तन्निरपेको एतोऽसौ, ततस्तनिरपेक- नमस्कार इति ॥ २८८३॥ स्वात् सामान्यमात्रस्यैव संग्रहो नमस्कार मन्यत इति ॥१८७७॥ कुतः पुनर्धों यान्तरसंचारी न स्याद् ?, इत्याहएतदेव नावयति
एवं च कयविणासा-उकयागमेगत्तर्सकराऽऽया। जीवस्साऽजीवस्स व,सस्स परस्स व विसेसणेऽजिलो। अन्नस्स नमोकारे, दोसा बहवो पसजति ॥ २४ ॥ नय भेयमिच्छइ सया, स नमोसामसमेत्तस्स ॥२८७।। एवं धनेन पूजकेन कृते नमस्कारे, अन्यस्य पूज्यस्यान्युप. (जीवस्सेत्यादि ) जीवस्याऽजीवस्य वा स्वस्य परस्य वी गम्यमाने बहवो दोषाः प्रसजन्ति । के ?, इत्याद-कृतनाशाकृतानमस्कारस्यैत्यवं विशेषणे कर्तव्येऽनिन्नोऽभेदवानसौ एतेनें. 35गमैकत्वसङ्कराऽऽदयः । तत्र येन कृतस्तस्थानभ्युपगमात्कृदैनमस्कारं न विशेषयति, किं तु सामान्यमात्रग्राहित्वात् सा. तनाशा, येन च न कृतः पूज्यम, तत्स्वामित्वाभ्युपगमे ऽकृतामान्यमात्रस्यैव नमस्कारमसौ मन्यत इत्यर्थः । नवत्वेवं, किंतु उगमः । तथा-द्वयोरप्यन्निन्ननमस्कारधर्मकत्वादकत्वं, सङ्करो नमःशब्दरूपं नमस्कारं स्वस्वरूपेणाऽऽधाराऽऽदिनेदाद्भिन्नम- वा । आदिशब्दात्सहोत्पत्तिविनाशाऽऽदय इति ॥ २८८४ ॥ सौ मन्यते, अभिन्नं वा, इत्याशझ्याऽऽह-न च नमस्कार
नेगमाऽऽदिनयवादी पूर्वपक्कयन्नाहसामान्यमात्रस्याऽऽधाराऽऽदिभेदेऽपि सदा सर्वकाझं स संग्रह- जइ सामिभावो हो-ज पूयणिजस्स सो तॉ को दोसो। नयो भेदमिच्छति, सर्वतः सामान्यमात्रग्राहित्वादिति ॥२८७६॥
अत्यंतरचूयस्स वि, जह गावो देमदत्तस्प्त ॥२८॥ अथवा जीवस्य नमस्कार इति षष्ठया नेदनिर्देशं मूलतः
यदि पूजकादर्यान्तरभूतस्यापि पूजनीयस्य पूजके स्थितोऽ. संग्रहो न मन्यत एव, किमनया तस्य स्वामित्वचिन्तया ?, इति दर्शयन्नाह
पि स्वामिभावेन स नमस्कारो भवेत, तर्हि को दोषः स्यात् ?जीवो नमु त्ति तुल्ला-हिगरणयं वेइ न न स जीवस्स ।
धर्मस्य व्यान्तरे संचरणाभ्युपगमान्न कश्चिदित्यर्थः । यथा
ऽन्यत्र स्थितानामपि गवां देवदत्तः स्वामीति ॥२७॥ इच्छइ वाऽसुषयरो, तं जीवस्सेव नमस्स ॥२०॥
ऋजुसूत्र उत्तरमाह(जीवो इत्यादि) संग्रहः "जीवो नमस्कारः" इति तुल्याधिकरणतांसमानाधिकरणतामेव प्रवाति,न पुनरसौ जीवस्य नमस्कार
अस्सेदं ववएसो, हवेज दबम्मिन न गुणे जुत्तो। इति व्यधिकरणमिति, जीवनमस्काराऽऽद्यर्थानां सर्वेषामप्य
पमयस्स सुक्कभावो, जन्नइ न हि देवदत्तस्स ॥२८०६॥ दवादित्वादिति । किमयमेक व प्रकारस्तस्य, नेस्याह-(इ.
अन्यत्र स्थितेऽपि गवादिके व्ये, अन्यत्र स्थितस्यापि देवघर इत्यादि)च्चति वा शुरुतरः संग्रहनयस्तं नमस्कार संब
दत्ताऽऽदेरस्येदमिति स्वामित्वव्यपदेशो भवेयुज्यते, गुणे त्वयं न्धितया, कस्य ?, जीवस्यैव जीवप्तामान्यस्यैव, न पुनरन्यस्या- न्यायो न युक्तः, न हि पटस्य शुक्लनावः शुक्लगुणो देवदत्तस्य ऽऽधभहितस्य शेषसप्तभङ्गीगतस्थाजीवाऽऽदेरिति ।२०८०। भण्यते, सायकत्वाऽऽदिदोषप्रसङ्गादिति ॥ २०८६ ॥ अथ ऋजसूत्रमधिकृत्याऽऽह
पुनरपि परः प्राऽऽहउज्जुसुयमयं नाणं, सदो किरिया च जं नमोकारो। । ववएसानावम्मि वि, नणु सामित्तमणिवारियं चेव । होज न हि सन्बहा सो, जुत्तो तक्कत्तुरबस्स ॥२८॥ भन्नाधाराणं पि हु, सगुणाण वजोगभावामो॥२८॥
जुसूत्रनयस्येदं मतम्-यद्यस्माज्जानमुपयोगरूपं, शब्दो वा ननु गुणेष्वप्ययं न्यायो रश्यते एव; तथाहि-अन्याधाराणाम" नमोऽहंदून्यः " इत्यादिकः, क्रिया वा शिरोनमनाऽऽदिरूपा पि देवदत्तसंबन्धिपटाऽऽदिगतानामपि, शुक्लाऽऽदिगुणानामिति नमस्कारो नवेद्, इति प्रयी गतिः । ततो न हि नैव, स- शेषः । देवदत्तस्यैते शुक्लाऽऽदिगुणा इति बपदेशाभावेऽपि र्वथा सर्वैरपि प्रकारः, तत्कत्तारं विना ऽन्यस्य युक्तः स नम- ननु तस्य तत्स्वामित्वमनिवारितमेव । कुतः, इत्याह-जोगमास्कारः । तस्मान्नमस्कर्तृस्वामिक एबासौ युज्यते, न तु नम- वादिति, निजपटाऽऽदिगतशुक्लाऽऽदिगुणानां देवदत्तेन चुज्यस्कार्यस्वामिक इतीह भावार्थः ॥ २०७१ ॥
मानस्वादित्यर्थः । केषां यथा कस्य स्वामित्वम् ! इत्याह४५७
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(१९३०) णमोकार अभिधानराजेन्द्रः ।
णमोकार यथा-स्वगुणानां रूपाऽऽदीनां देवदत्तस्य स्वामित्वम् । ततः विशेषत एव तं नमस्कारं ते शब्दाऽऽदयो बाह्यस्य जिनेन्डाऽऽदे. पूजके स्थितस्यापि नमस्कारस्य यदि पूज्यः स्वामी भवेत्, स्तत्प्रतिमाऽऽदेर्वा नाऽनुमन्यन्ते नेच्छन्ति,किं तु तदुपयोगवतो. तदा को दोषः १, इति प्रकृतम् ॥ २८८७ ॥
अन्तरङ्गस्यैव पूजकजीवस्य ते तमिच्छन्ति । ति त्रिंशदगाऋजुसूत्रः प्राऽऽह-तथाऽपि पूज्यस्य नमस्कार इति थार्थः ।। २०१२ ॥ गतं कस्येति प्ररूपणाद्वारम । न मन्यामहे । कुतः ?, इत्याह
अथ केनेति द्वारमाहएवं पि न सो पुज-स्स तप्फनाजावो परधणं व ।
नाणाऽऽवरणिज्जस्स य, दंसणमोहसा जो खोवसमो। जुत्तो फालावाओ, सधणं पिव पूजयंतस्स ॥श्नन्न।
जीवमजीवे भट्ठसु, भगेसु य होइ सव्वत्थ ।। नए३ || . पवमपि न स नमस्कारः पूज्यस्य युक्तः, तत्फलस्य स्वगीss. देरभावात्परधनवदिति । युक्तः पुनरसौ पूजकस्य, स्वर्गाऽऽदे।
ज्ञानाऽऽवरणीयस्येत्यनेन मतिश्रुतझानाऽऽवरणद्वयं गृह्यते, नमफलस्य सजावात, स्वधनवादति ॥ २८०० ॥
स्कारस्य मतिश्रुतज्ञानान्तर्गतत्वाद् ज्ञानस्य च सम्यक्त्वसहचपुनरपि नैगमाऽदिनयमतमाशझक्य
रितत्वादशनमोहनीयमप्याक्तिप्यते । ततो मतिश्रुतझानाऽऽधरऋजुसूत्रः परिहरन्नाह
णद्वयस्य, दर्शनमोहनीयस्य च कर्मणो यः क्षयोपशमः 'तेन
हेतुन नमस्कारो सभ्यते' इत्यध्याहारः । तस्य चाऽऽवर. नणु पुज्जस्सेव फलं, दीसइ पूया न पूजयंतस्स ।
णस्य द्विविधानि स्पर्फकानि जवन्ति-सर्वोपघातीनि, देशोप. नाणुवजीवित्तणमो,तं तस्स फलं जहा नभसो।श्न घातीनि च । तत्र सर्वेषु सर्वघातिषु हतेषु देशोपघातिनां ननु पूज्यस्यैव पूजासकणं फलं प्रत्यक्कतो दृश्यते,न तु पूजकस्य, च प्रतिसमयमनन्तैर्भागैर्विमुच्यमानः क्रमेण नमस्कारस्य ततः तत्फलाभावादित्यसिद्धो हेतुः । एवं नैगमाऽऽदिवादिना प्रथमं नमस्कारलकणमकर लभते । एवमेकैकवर्णप्राप्त्या प्रोक्ते ऋजुसूत्रः प्राऽऽह-न तत्तस्य पूज्यस्य पूजालवणं फलम, समस्तनमस्कारं प्राप्नोतीति । गतं केनेतिद्वारम् । अनुपजीवित्वात, यथा नभसः। शह यो यस्यानुपजीवी न तत्त.
अथ कस्मिन्नितिद्वारमानिधित्सुराह-[जीवमजीवे इत्यादि ] स्य फलं,यथा ननसो दह्यमानागुरुकर्पूराऽऽदिधूमपटनप्रसरत्सु
मकारोग्याकणिकः । नमस्कारस्य जीवगुणत्वाजीवः, ततो न. मनोगन्धाऽऽदिफसं न जवति,किं तु तदुपजीवकस्य देवदत्ताऽऽ
मस्कारवान् जीवो यदा गजेन्डाऽऽदो जीवेऽधिकरणे बर्तते देरेध, अनुपजीधी च पूजाया वीतरागः, अतो न तस्य तत्फलं
तदा जीवे नमस्कारोऽभिधीयते, यदा तु कटाऽऽद्यजीचे तदाकिंतु पूजकस्यैवेति ॥ २०१९॥
ऽजीवेऽसौ व्यपदिश्यते । यदा तु जीवाजीवोभयाऽऽत्मके नय दिफनत्थोऽयं, जुत्तो पुज्जस्स बोवगाराय।
वस्तुनि तदा जीवाजीवयोः । इत्येकबहुवचनाभ्यां प्रागुकिंतु परिणाममुद्धी, फलमिटुं सा य पूजयो।श्जए। तेष्वष्टसु भङ्गेषु सर्वत्रायं भवति ॥ इति नियुक्तिगाथासंपा. न च रटमेव प्रत्यकं पूजाऽऽदिकं फलमयः प्रयोजनं यस्याऽसौ
थेः॥ २०॥३॥ रएफलार्थोऽयं नमस्कर्तुः नमस्कारो युक्त, नापि च पूज्योपका. विस्तरार्थ त्वभिधित्सु ष्यकारः प्राऽऽहरायासौ, किं त्वनन्तरं परिणामविशुभिः फलभिष्टं नमस्कार
केणं ति णमोकारो, साहिज्जइ लब्भए व जणियम्मि । स्य, परम्पराफलं तु स्वर्गापवर्गाऽऽदि । सा च परिणामशुद्धिः, तच्च स्वर्गप्राप्त्यादिकं फलं पूजयतः पूजकस्वैव भवति,
कम्मक्खओवसमओ, किं कम्मं को खोवसमो? ॥जए|| न तु पूज्यस्येति । तस्मात्स नमस्कारस्तस्य नमस्कर्तुरेव,
केन हेतुना नमस्कारः साध्यते, लभ्यते चा?, इति नणिन नमस्कार्यस्येति ॥ २८६०॥
ते गुरुराह-कर्मक्षयोपशमतोऽसौ लभ्यते । विनेयः प्राह-कि__ ऋजुसूत्रनयप्रतिक्षाहेतुनाऽऽह
सत्कर्म, कश्च कयोपशमः ?, इति ॥ २८६४॥
तत्र कर्म तावदाहकत्तरहीणतणाओ, तग्गुणमो तप्फलोबजोगाओ। तस्स क्खोवसमओ, तज्जोगायो यसो तस्स २८७१
मासुयनाणाऽऽवरणं, सणमोहं च तदुवाईणि । कर्तुरेवाधीनत्वात् , तदधीनत्वं च तेनैव क्रियमाणत्वादि
तप्फडया दुविहा- सव्वदेसोवधाईणि ।। २७एए । ति । तथा तद्गुणत्वाद, ज्ञानशब्द क्रियारूपत्वन नमस्कारस्य सव्वेसु सम्बधाई-सु हएम देसोवघाइयाणं च । कर्तुर्गुणत्वादित्यर्थः । तथा--तस्य नमस्कारस्य यत् फलं भागेहिँ मुच्चमाणो, समए समए अणंतेहिं ॥श्नए६ ॥ स्वर्गादिकं तपभोगादिति । तथा-तस्प नमस्कारस्य य:
पढमं लह नकारं, एकेकं वन्नमेवमन्नं पि । कारण नूतः कर्मकयोपशमः, तस्व कर्तयेव सद्भावात् , कारणपरित्यागेन च कार्यस्यान्यत्रायोगादिति । तथा-तद्योगात्-त
कमसो विमुज्माणो, सहइ समत्तं नमोक्कारं ॥२०६७।। त्परिणामरूपत्वादिति । दृष्टान्तास्तु पश्चस्वपि हेतुषु स्वधनब
तिम्रोऽपि गतार्थाः, नवरं मतिज्ञानाऽऽवरणाऽऽदिस्पर्द्धकानि दित्यादयः स्वयमभ्यूह्या इति ।। २८५१ ।।
तीजमन्दमध्यमाऽऽदिभेदभिन्नरसविशेषरूपाणि स्थानान्तरादवअथ शब्दाऽऽदिनयत्रयमतेन स्वामित्वचिन्तामाह- सेयानीति ॥ २८४५ ॥ २८५६ ॥ १८ ॥ जं नाणं चेव नमो, सदाऽऽईणं न सदकिरियाओ।
यमुक्तम्-'कश्च क्षयोपशमः ? ' इति, तत्राऽऽहतेण विसेसण तयं, बज्मरस न तेऽणुमति ॥२६॥
खीणमुन्न सेसय-मुवसंतं भप खोवसमो । यद यस्माद् नमो नमस्कारःशब्दाऽऽदिनयमतेनोपयोगरूपं ज्ञान- उदयविधाय उवसमो,जा समुन्नस य विसुद्ध॥२८ मेव,न तु शब्दकिये,शुद्धत्वेन ज्ञानवादित्वात् तेषामिति भावः। तेन । पूर्वार्थमेवोत्तरार्द्धन व्याचष्टे-अनुदितस्योदयविधात उपशमः,
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णमोकार
(१९३१) अभिधानराजेन्डः।
गामोकार
समुदीर्णस्योदितस्य पुनर्या विशुकिः कपणं, स कय इति शेषः। न य भेदमिच्छइ सया, नमोसामअमेत्तस्स ॥ २००४॥ कयेणोपलकित उपशमः क्षयोपशम इति समासः ॥२८॥
आधारस्य जीवाऽऽदिविशेषणे कर्तव्ये सामान्यचादित्वाय. अथ मतिश्रुताऽऽवरणष्यस्य, दर्शनमोहनीयस्य च क्षयो
स्मादजिन्नोऽभेदतत्परोऽसौ, तस्मादविशिष्टे आधारे नमपशम इह किमिति गृह्यते ?, इत्याह
स्कारं मन्यत इति न चाऽधाराऽऽदिनेदेन नमस्कारसामासो सुयनाणं मइमणु-गयं च तंजं च सम्मदिहिस्स। न्यमात्रस्यापि सदा दमिच्छत्यसौ, किं स्वभेदमेवेच्चति, तो तबाने जुगवं, मइसुयसम्मत्तलाभो ति ॥ एए॥ सामान्यवादित्वादेवेति ॥ २६०४॥ स नमस्कारस्तावत्स्वयं श्रुतज्ञानं, तच भुतज्ञानम् "मपु. अथवा-अन्योऽन्यत्र वर्तत ति व्यधिकरणं संग्रहो व्वं जेण सुयं" इत्यादिवचनान्मत्यनुगतं मतिपूर्वमेव भवति । मूलत एव नेच्छति, इच्छति चा कोऽप्यशुद्धएते च मतिश्रुते यस्मात्सम्यग्दृष्टरेव नवतः । ततस्तल्लाभे न.
तरो नमस्कारं जीव एव, नाजीवे, इत्येमस्कारलाभे, युगपत्समकालं, मतिश्रुतसम्यक्त्वानां क्षाभो भ.
तदर्शयन्नाहवतीति । अतो मतिश्रुतज्ञानाऽऽवरणीयद्वयस्य, दर्शनमोहनी- जीवो नमो ति तुझा-हिगरणयं वे न न स जीवम्मि । यस्य च वयोपशमोऽत्र गृह्यत इति ॥ २८९९॥ तदेवं व्याख्यातं
इच्छा वाऽमुदयरो, तं जीवे चेव नन्नम्मि ॥ २००५॥ केनेति द्वारम् । अथ कस्मिन्निति द्वारं व्याचिख्यासुराह
गतार्था ॥२६०५॥ कम्हि नमोकारोऽयं, बाहिरवत्युम्मि कत्तुराहारो।
अथ ऋजुत्रनयमतेनाऽऽधारचिन्तामाहनेगमववहारमयं, जीवादावट्ठभेयपि ॥२०॥
नज्जुमुयमयं नाणं, सद्दो किरिया च जं नमोकारो। जं सो जीवाणन्नो, तेण तो जत्थ सो वि तत्थेव । । होन्ज न हि सव्वहा सो,मो तदत्यंतरन्तो ।२।०६। एगम्मि अणेगेसु य, जीवाजीवोजएमुं च ॥ २०१॥ प्रागुक्तार्था, नवरं न खलु सर्वथाऽसौ नमस्कारः, तस्मात्क - कस्मिन् वस्तुन्याधारजूते नमस्कारोऽयं भवतीति विनयेन रन्तरतूतो मतः, किं तु कर्तर्यवाऽऽधारे नमस्कार इति पृष्टे गुरुराह-जैगमव्यवहारमतं ताबदिदम-अष्टभेदे पूर्वोक्तभ- भावः ॥ २६०६॥ ङ्गाष्टकनिर्दिथे नमस्कर्तृजीवस्याऽऽधारभूते जीवाऽऽदौ बाह्यव.
एतदेव समर्थयतिस्तुनि नमस्कारो जवतीति ॥ २६००॥ कस्मात्पुन मस्कर्तृजीवाऽऽधारे वस्तुन्ययं प्रवति ?,इत्याह-(जमित्यादि) यस्मादसौ
सगुणम्मि नमोकारो, तग्गुणो नीलया व पत्तम्मि । नमस्कारो नमस्कर्तृजीवादनन्यः,तेन तस्मात्तकोऽसौ नमस्क
इहरा गुणसंकरो, सव्वेगत्ताऽऽदो दोसा ॥२०७॥ तेजीचो यत्रैकस्मिन्-जीवे, अजीवे, उभयस्मिन् चा; अनेकेषु- स्वस्याऽऽत्मनो गुणी स्वगुणी, तस्मिन् स्वगुणिनि कसरि जीवेषु, अजीवेषु, उभयेषु वा भवति, सोऽपि नमस्कारः, तत्रैव नमस्कारः,नान्यत्रेति प्रतिज्ञा । तद्गुणत्वादिति हेतुः। पत्रे नीलस्थाद्, अन्यथा-अन्जेदायोगादिति ॥ २६०१ ॥
तावदिति दृष्टान्तः । विपर्यये बाधकमाह-इतरथा-अन्यगुणस्य एवमुक्त पूर्वापरविरोधमुद्भावयन्नाह
अन्यत्र गमने, गुणानां परस्परं साकर्याद, गुणिनां सर्वेषामपि नणु नेगमाऽऽश्चयणं, पुजस्स तो कहं न तत्थेव। साङ्ककत्वाऽऽदयो दोषा भवेयुरिति ॥२९०७॥ तस्स य न य तम्मि तो, धन्नं व नरस्स खेत्तम्मि ।।१०।
__ अत्र कश्चित्प्रेरयतिननु नैगमाऽऽदिवचनं पूर्वमेवं व्याख्यातम्-पूज्यस्य संबन्धी जिनाऽऽधारं पीच्चइनणु रिनसुत्तो जहा वसा खम्मि । तकोऽसौ नमस्कारः, तत्कथमसौ तत्रैव पूज्ये न प्रवति । दव्वं तत्याहिगयं, गुणगुणिसंबंधचिंतेयं ॥ २६०० ॥ सत्यम्-(तस्स यत्ति)तस्यैव पूज्यस्व नैगमाऽऽदिमतेन न. मस्कार इति मन्यामहे, न हि किञ्चिद्विस्मृतमिदम, केबलस्
ननु भिन्नाऽऽधारमपि भन्यस्यान्यमप्याधारमृजुसूत्र इच्छत्येव,य(न य तम्मि तोत्ति)तस्मिन्नेव पूज्ये तकोऽसौ नमस्कार
था-अनुयोगद्वारेषु वसतिदृष्टान्तमृजसूत्रमतनाभिदधता प्रोक्तइति न नियमः। न हि यद्यस्थ संबन्धि तस्य स एवाss.
म्-'क वसति जबान् ?' 'खे प्राकाशे घसामीति' । तत्कथमिह धारः, अन्यथाऽपि दर्शनात्, यथा-धान्यं जवति देवदत्ताऽऽदि
निभाऽऽधारता निषिभ्यते, शति । अत्रोत्तरमाह-(इव्वमित्यामरस्य संबन्धि, न च तत्तत्रैव, किं तु केत्रे आधारभूते त
दि) श्दमत्रहदयम्-द्रव्यं देवदत्ताऽऽदिकं व्यान्तरे आकाशे दिति ॥ २४०२॥
घर्तत इति मन्यत एव ऋजुसत्रः । इह तु गुण-गुणिसंबन्धसंग्रहमतेन नमस्कारस्याऽऽधारमाह
चिन्ता प्रस्तुता । ततोऽन्यगुणोऽन्यत्र वर्चत श्तीहासौ न मन्यत सामन्नमेत्तगाही, सपरजिएयरविसेसनिरवक्खो।
इति न कश्चिविरोथ इति ॥२६०८॥ संगहनोऽनिमन्नई, आहारे तमपिसिट्टम्मि ॥२०॥
एतदेव व्यक्तीकरोतिव्याख्या पूर्ववत्, नवरमविशिष्टे सामान्यमाने आधारे संग्रहस्तं
सो संमन्ना न गुणं, निययाहारं तया सयं इहरा। नमस्कारं मन्यत इति ॥२००३॥
को दोसो जदव्वं, हव्वेज दव्वंतराऽऽहारं ? ॥२६ ॥ एतदेव जावयति
गतार्था, नवरं निजादाधारादाधारान्तरमाश्रयो यस्य स तथा, जीवम्मि अजीवम्मि व,सम्मि परम्मि व क्सेिसणेऽजिनो।। तमेवंतं गुणं न संमन्यतेऽसाविति ।। २९०६ ॥
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(१७३१) णमोकार अभिधानराजेन्मः।
णमोकार शब्दाऽऽदिनयमतमधिकृत्याऽऽह
नेपातिकमिति, सान्वानिधानेनैव प्रागपि तस्यानेकविधत्वनं नाणं चेव नमो, सदाऽऽईणं न सहकिरिया वि।
सूचनाऽऽदिति दर्शयन्नाह
अहवऽन्नपयाइनिवा-यणा हि नेवाइयं च ताई च । तेण बिसेसेण तयं, बज्झम्मि न तेऽणुमनति ॥२६१०॥
पंचारुहयाऽऽईणि य, पयाणि तं निवयए जेसु ॥२॥१५॥ इच्छइ अवि उज्जुसुओ,किरियं पिस तेण तस्स काए वि ।
अथवा-अन्यपदानामादौ निपातनान्नैपातिक पदमिदं प्रागु. इच्छंति न सहनया, नियमा तोतेसि जीवम्मि २०११॥
कम् । तश्च येवन्यपदेष्वादौ निपतति तान्यहत्सिकाऽऽदीनि यद् यस्माच्चन्दादिमते नमो नमस्कारो ज्ञानमेव, न तु श- पञ्च पदानि, अतः पञ्चानामन्यपदानामादौ निपतनान्नैपातिदक्रिये मपि, तेन विशेषत एव तं नमस्कार तत्कर्तुर्जीवाद् बाह्य कमित्यन्वर्थत एव पञ्चविधमिदं सामर्थ्यात्प्रागप्युक्तम । अत्र वस्तुनि ते शब्दाऽऽदयो नानुमन्यन्त इति ॥२॥१०॥ तर्दि - तु कतिविधो नमस्कार इति द्वारे स एवार्थों व्यक्तीकृत जुसूत्राच्छब्दाऽऽदीनां न कश्चिद्भेदः, सर्वैरपि कर्तरि नमस्कार. इति ।। २६१५॥ स्याभ्युपगमात् । तदयुक्तम् । यत श्च्चत्यपि ऋजुसूत्रः (कि. अथवा-पूर्व पदघार एव पञ्चविधो नमस्कार लक्ला, इह तु रियं पि ) क्रियारूपमपि, अपिशब्दाचब्दरूपमपि नमस्कार,
कतिविधो भवेत् !, इति द्वारे पञ्चविधानामईदादिपदानामर्थः तेन तस्य मते “ नमोऽर्ददन्यः" इत्यादिशब्दमुचारयतःशि
कश्यत इत्येतदर्शयन्नाहरोममनाऽऽदिक्रियां च कुर्वतः कर्तुः कायेऽपि स नमस्कारो
अहवा नेवाश्यपय-पयत्यमेत्तानिहाणो पुव्वं । भवति । शब्दनयास्तु शब्दक्रियारूपं नमस्कारं नेच्छन्त्येव ।। किं तुपयोगरूपं ज्ञानमेव तमिच्छन्ति । अतस्तेषां मते निय
शहमरिहदाइपंचवि-धपयपयत्योबदेसणया ॥ २०१६ ॥ मात् तदुपयोगवति कर्तृजीव पव नमस्कारो, न काये इति
अथवा-नेपातिकं यत्पदं तस्य यरपदार्थमात्रं पञ्चानामईदाविशेषः । इत्यष्टादशगाथार्थः ॥२६११ ॥ व्याख्यातं कस्मि
दिपदानामादौ निपतनाद् नैपातिकमित्येवस्वरूपं तस्य यदभिन्निति द्वारम् ।
धानं कथनं तस्मान्नैपातिकपदपदार्थमात्राभिधानात्पूर्वमेव पद
द्वारे सामर्थ्यात् 'पञ्चविधो नमस्कार उक्तः' इति शेषः । अथ कियचिरं कालं नमस्कारो भवतीति द्वारम, तत्राऽऽह
शह तु 'कतिविधो नमस्कारः?' इति द्वारे तेषामेव पश्चाउवोग पच्चंतो, मुहुत्त लचीऍ होइ उ जहन्ना ।। नामईदादिपदानां “ नमोऽहंदन्यो, नमः सिद्धेन्यो, नम आचानकोसहिया गव-हिसागरा अरिहाऽऽsपंचविहो।२११ येन्यः" इत्यादिको यः पदार्थस्तस्यैवोपदेशना कथना कार्या, उपयोग प्रतीत्य जघन्यतः, उत्कृष्टतच नमस्कारस्यान्तर्मुह
तस्या एव प्रागनुक्तत्वादिति ॥२६१६ ।। स्थितिर्भवति । लब्धेस्तु तदावरणकयोपशमरूपाया जघ
अत्र परस्य प्रेर्यमाशक्य परिहरन्नाहन्याऽन्तर्मुहर्तमेव स्थितिः । उत्कृष्टतस्तु साधिकानि पट्- नणु वत्थुम्मि पयत्यो, न जभो तच्चकहणं तहिं जुत्तं । पष्टिः सागरोपमाणि स्थितिभवति । इयं च-"दो बारे वि. तह वि पयत्यं तत्थे-वलाघवत्थं पवोच्छिहिद ॥२॥१७॥ जयाइसु" (२७६२) श्त्यादिना मतिकानाऽऽदीनामिव भाव
नन्वने वस्तुद्वारेऽईदादिपदानामों वक्ष्यते, तत्कथमुच्यतेनीयेति हारम।
'हाईदादिपदानामर्थोपदेशनात्' इति ? । तदेतत् परोक्तं न, अथ कतिविधो नमस्कार ति द्वारमाह-(परिहाऽऽह इत्यादि) यतो यस्मादिह 'नमोऽहंद्भ्यः' इत्यादिके पदार्थे कथिते सति अर्हत्सिद्धाऽऽदिपञ्चपदानामादौ नम इति पदस्य निपातात्पञ्च- ततस्तत्र वस्तुद्वारेऽहंदादीनां " देवासुरमयुपसुं, अरिहा पूयंविधो नमस्कारः। इति नियुक्तिगाथाऽर्थः ॥ २६१२॥
सुरुत्तमा जम्हा । अरिखो हंता रयं देता, अरिहंता तेण बुच्चअत्र जाप्यम्
ति"॥१॥ इत्यादिकं, (तच्चकहणं ति) तस्वकथनं स्व. सो कइविहोत्ति भणिए, पंचविहो भणना पुराऽभिहियं ।
रूपनिवेदनं युक्तं प्रवति । क्रियतां तो, कथ्यतामत्र पदार्थ
इति चेत । अत्राह-(तह वि इत्यादि ) यद्यप्यत्र पदार्थे क. कं नमोऽजिहाणं, केण विहाणेण पंचविहं ॥११॥
थिते सति तत्र स्वरूपकथनं युज्यते, तथाऽपि नेह पदार्थः स नमस्कारः कतिविधः१, शति भणिते पृष्टे गुरुराह-पञ्च- कथ्यते, किं तु ग्रन्थलाघवार्थ तत्रैव वस्तुद्वारे पदार्थ वक्ष्यविध इति । अत्र भणति प्रेरका-ननु पुरा पूर्व "नेवाश्यं पदं" तीति; अन्यथा यत्राईदादिपदानामर्थः, तत्र न्वईदादीनां स्व. ( २८४०) इत्यत्रानिदितं प्रतिपादितम, एकमेव 'नमः'। रूपकथनमिति अन्धगौरवमेव स्यादिति गाथापञ्चकार्थः। तइत्यभिधानम् । तत्केन विधानेन केन भेदेन पञ्चविधमुच्यते !, देवमुक्ता षड्विधप्ररूपणा ॥२६१७ ॥ इति ।। २५१३ ।।
अथ नवविधां तामभिधित्सुराहभत्रोत्तरमाह
संतपयपरूवणया, दव्यपमाणं च खत्त फुसणा य । एगं नमोऽभिहाणं, तदरुहयाईयसन्निवायाभो।
कालो य अंतरं भा-गजावभप्पाबहुं चेव ॥२॥१८॥ जायद पंचविगप्पं, पंचविहत्थोवमोमाओ ॥ १९१४॥ इति द्वारगाथा। पतैः सत्पदप्ररूपणतादिनिनवभिारैर्नमसत्यम, एकविधमेव ममोनिधानं, कि वहंदादिपपदाना...स्कारस्य नवविधेयं प्ररूपणा प्रोच्यते ॥२६१८॥ मादौ सन्निपातात्पञ्चविधेर्ददादिकज्थें उपयोगाम्नमस्करण
तत्र प्रथमद्वारमधिकृत्याहक्रिययोपयुज्यमानत्वात्पशविकल्पं पामेदं जायत इति।२९१३॥
संतपयं पमिवने, पविजेते य मम्गणा गइसु । अथवा " एकं नमोऽभिधानम् ” (२०१४) इत्यसिर्फ
इंदिय काए जोए, वेए य कसाय-लेसासु॥श्रा
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णमोकार
( १८३३ )
अभिधानराजेन्द्रः ।
सम्मत्तनादंसण-संजयउवओोगो य माहारे । नागपरिचपञ्च चमुदुम सभी प भवचरिमे ॥ २ए२०|| सत्यं सत्पवं विद्यमानाचे पदमिन दकारलक्कणम् । तस्य नमस्कारलक्षणस्य सरपदस्य पूर्वप्रतिपन्नान् प्रतिपद्यमानकांचा (मास) मार्गणा - न्वेषणा कर्तव्या । कासु ?, चतसृष्वपि गतिषु । तद्यथा-नमस्कारः किमस्ति न वा १ । अस्तीति ब्रूमः । तत्र चतुष्प्रकारायामपि गती नमस्कारस्य पूर्वप्रतिपन्ना नियमतो विद्यते प्रतिपद्यमानास्तु विवक्षितकाले भाज्या-कान्तिक दातिनेति । एवमिन्द्रियादिष्वपि चरमान्तेषु द्वारेषु वचा पीठिकायां मतिज्ञानस्य सत्पदप्ररूपणता कृता, तथा नमस्कारस्यापि कर्त्तव्या तयोरभिन्नस्वामित्वेनैक वक्तव्यत्वादिति । तदेवं गतं सत्पदप्ररूपणताद्वारम् || २३१६ ।। २६२० ॥ संघ इज्यप्रमाणद्वारमुच्यते तत्र नमस्कारवज्जीवद्रव्यप्रमाणं वक्तव्यम् । एकस्मिन् समये कियन्तो नमस्कारं प्रतिपद्यन्ते सर्वे वाकियन्तइति मिति क्षेत्र किपति क्षेत्रे नमस्कार सं अपिनाम्या किय नमस्कारवन्तः स्पृशन्ति । इदं च द्वारत्रयमधिकृत्याऽऽद्द
पलियमसंखेज्जइमो, पमिवन्नो होज्ज खेत्त लोगस्स । सचसु चोदसजागे-सु होज्ज फुसला वि एमेव ॥ २ए२१ ॥ (पलिया) पद सूचनात्सूत्रायमर्थः- नमस्कारा प्रतिपतिमलोके कदाचित कदाविति । यदि प्रयन्ति जघन्यत एको हो भयो था, उत्कृस्तुम पस्योपमासं वयेय भागप्रदेशराशितुष्या इति । पूर्वप्रतिपन्नास्तु जघन्यतः साकेत्रपययोपमा संश्ये पन्नापप्रदेशराशिपरिमाणा एव, उत्कृष्टतस्तेभ्यो विशेषाधिका इति । (च) क्षेत्रद्वारमुच्यते तत्र नमस्कारवान् जीव ऊर्द्धमनुरग
लोकस्य सप्तसु चतुर्दशभागेषु भवति, अधस्तु षष्ठपृथिगच्छन् पञ्चसु चतुर्दशभागेषु भवतीति प्रष्टव्यम् । स्पर्शनाद्वारमध्येचं चतव्यम क्षेत्रस्पर्शनयोस्तु प्रागुको विशे ष इति ॥ २६२२ ॥
कालान्तरभावलक्षणं द्वारत्रयमधिकृत्थाऽऽहएग पडुब हेट्ठा, जहेब नाणाजियाण सव्वका । अंतर पचमेगं, जहन्नमंतोषं तु ।। २६२२ ॥ उक्कोऽतकालं, अवढ्नुपरियट्टगं च देसूणं । शाणाजीने स्थिउ जावे य भवे स्वभोवसमे ॥ २२२॥ एक नमस्कारयन्तं तदेा जब सि पयैवाघस्तादनन्तरमिदेव "उपयोग पहुचतो, तो ज ना।” (२१२ ) इत्यादिना काल उक्तः, तथेहापि वक्तभ्यः । नानाजीवानां तु नमस्कारः सर्वाद्धा सर्वकालं भवति, सोके तस्य सर्वदा विष्वादिति प्रतिपत्तिः । तस्य पुन रमध्ये जीवं प्रतीत्य जघन्यतोतर्मुहूर्त मयति ॥ २२२ ॥ उत्कृष्ट पाईपुराना इति नानाजी यस्तु प्रतीत्य नाशयन्तरं तरिवेति भावे तु कायो
४५६
णमोकार
पशमिके नमस्कारो भवेदिति प्रार्वमत अन्य थाहाथिकोपशमिकयोरप्येके वदन्ति क्षायिके यथा-प्रेणिकानाम श्रीपशमिके ओश्यन्तर्गतानामिति ॥ २९२३ ॥
भागद्वारमाह-
जीवाण भागो परिवन्नो सेसगा अतगुणा । बत्थं तरहंताई, पंच भत्रे तेसिमो हेऊ || २७२४ | जीवानामनन्ततमो भागो नमस्कारस्य प्रतिपन्नः प्राप्यते । शेषकास्तु तमप्रतिपद्मा मिध्यादयोऽनन्तगुणः इदं च नागद्वार गाथार्थ भावधारात्पूर्वमुपम्यस्तमनि दियं विचित्रत्वात्पुत्रगतेः । अल्पबहुत्यद्वारमपि नेद वि तम् । पीठिकायां मतिज्ञानस्येष च भावनीयमिति । साम्प्रतं शब्दाऽऽक्कतां पञ्चविधाऽऽदि प्ररूपणामनभिधाय वस्तुद्वारं तावदाह - (वत्युमित्यादि ) वस्तु सव्यं दक्षिकं नमस्कारस्य योयममित्यनर्थान्तरमताराम ourः । तेषां च वस्तुत्वेन नमस्कारार्हस्वेऽयं वक्ष्यमाणमपण देतु इति नियुकिगाथा सहकार्यः ॥ २२४ ॥
" एवं पच हेट्ठा जडेव " ( २६२२ ) इत्यादिना नम हकारस्य कालद्वारं निरूपितम् । अथवा श्रन्यथा त
चिन्तनीयं कथम् १, इत्याह भाष्यकार:अवसप्पणि-कालो नियमो य तब्बिसिहो प । तत्थऽत्थि नमोकारो, न वत्ति ऐयं जहा सुतं ॥ २२५॥ अथवा सर्विस का सच भरतैरयतेषु नियतः प्रतिनियतेन निजस्वरूपेण वर्तते, मतद रिखर्चदेषकुकुरुमहाविदेदरम्य के रचतेषु पुनस्तद्विशिषः। तस्मात्सर्पिएयवसर्पिणीकालाद्विशिष्ट विशेषतस्तमगरूप एव कालोऽस्ति । तत्र द्विविधेऽपि काले नमस्कारोअस्ति न पा है, इति चिन्तायां पथा भुतं सामाचिकं पूर्वमुक्तं तथाऽत्रापि ज्ञेयं, नमस्कारस्यापि विशेषरूपत्वादिति ॥ २२५ ॥
इदच "संतपयपकपणा" (२३१८) इत्यादिनवराणां कि खिलायातं किति मायकारोति देशमाद
सुचना नवा, नंदीए जड़ परूवियं पुरुषं । तह चैव नमोकारो, सो वि सुयन्नंतरो जम्हा || २७२६ ॥ सुगमा ||२५|२६|| विशे० । ० म० । (प्रतिनिधिक नाचलो कनावसेवा चेयम्) अथ शब्दसूचितां पञ्चविधप्ररूपणामाहआरोवणा व जपणा, पुच्छा वह दायणा व निजवणा । एसा वा पंचविहा, परूवणा रोवणा तत्थ || २०२७ ॥ मारोपणाच प्रजना, पृच्छा तथा दायना दर्शना दापना वा निर्यापना वक्ष्यमाणरूपा, पपा वा प्ररूपणा पञ्चविधा ज्ञेया इति ॥ २६२७ ।।
तत्रारोपण का स्वाद
किं जीवो होज्ज नमो नमो व जीवोति जं परोप्परओ । अज्जारोवणमेमो, पजणुजोगो मया करणा ।। २५२० ॥ किं जीव एव भवेन्नमस्कारः, नमस्कार पत्र वा जीव इति यत् परस्परावधारणादध्यारोपणं पर्यनुयोजनमेष पर्यनुयोग आरोपणा मता संमतेति ॥ २६२८ ॥
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(१९३४) पमोक्कार अभिधानराजेन्द्रः।
णमोकार भजनाव्याख्यानमाह
धार्यते । कुतः,श्त्याइ-अनन्य इति कृत्वा,अनन्यत्वादभिन्नत्वाजीवो नमोऽनाबा, नमो उ नियमेण जीव इति जयणा।
दित्यर्थः । इदमुक्तं भवति-यथाऽन्युपयुक्तो माणवकस्तदुप
बोगानन्यत्वादग्निरेव भवति, तथा नमस्कारपरिणतो जीजह चूसो होइ दुमो,दुमो उ चूमो अचूओवा॥१२॥
बस्तदुपयोगानन्यस्वाम्नमस्कार एव निर्धापनायां भवति । जीवस्तावदनवधारित एव नमो नमस्कारो वा स्वात्सम्यम्ह. इति दापनानिर्यापनबोर्विशेष इति । तदेवमभिहिता पश्चविधाष्टिः, अनमोऽनमस्कारो वा स्यान्मिथ्यारहिः । नमो नमस्कार- पि प्रकपणा ॥२६३३॥ स्ववधारितो नियमेन जीव एव प्रवति, प्रजीवस्व नमस्कारा
अपवा चतुर्विधा प्रापणा सा, कथम, श्त्याहसंभवात । यथा चूतो एम एव प्रवति,युमस्तु चूतोऽचूतो चाबदिराऽऽदिः स्यादिति । एषा एकपदव्यभिचाराद्भजनेति ।२९२६।
पई प्रगारेण य, नोगारोनयनिसेहो वा वि । पृच्छास्वरूपमाह
श्ह चिंतिज्जइ जुज्जो, को होज्ज तो नमोकारोवा तो जइ सम्बो जीवो, न नमोकारो न तो मया पुच्छा। प्रकृत्या स्वभावेन, मकारेण च प्रनिषेधवाचकेन, नोकारण, सो होज किंविसिहो,कोवाजीवो नमोकारो॥२॥३०॥
निषेधोजयेन च सहितोऽत्र भूयोऽपि नमस्कारश्चिन्त्यते ।
तत्र प्रकृतिपके नमस्कारः, अकारसहितस्त्वनमस्कारः, नोततो यदि सर्वोऽपि जीवो न नमस्कारः,किंतर्हि ,कभिदेव ।
कारयुक्तस्तु नोनमस्कारः, निषेधोभवसहितस्तु नोअनमस्काततः पृच्छा मता पृच्छामो भवतः-यो जीवो नमस्कारः, सकि
रति । एवं च चिन्त्यमाने ततः कः किं वस्तु नमस्कारो विशिष्ट प्रवेदिति कथ्यतां',को वा जीवो नमस्कार, इत्य
भवेत्।। उपलकणं चेदं, को बाउनमस्कारः, कश्व नोनमपि निवेद्यतामिति । एषा पृच्छति ॥२६३०॥
स्कार, को वा नोभनमस्कार श्त्यपि कष्टव्यमिति ॥ २४३४॥ दापनानिर्यापनयोाख्यानमाह
एवं च जिज्ञासिते सति जाध्यकारः प्राहअहदायणा नमोका-रपरिणो जो तो नमोकारो।
पयति नमोकारो, जीवो तप्परिणोस चाभिहिमो। निजवणाए सो च्चिय,जो सो जीवो नमोकारो।२।३।। अथानन्तरोक्तप्रश्नस्य निर्वचनरूपा दापनोच्यते-किं पुनस्त
अनमोकारो परिणइ-रहिमो तवकिरहियो वा ।२६३५॥ निर्वचनम् ?,यो नमस्कारपरिणतो जीवस्तकोऽसौ नमस्कारः,
प्रकृतिस्ताबग्नमस्कारः । स च कः १, इति यदि पृच्छपते, यस्तु तदपरिणतःस बल्वनमस्कार शति निर्यापनायां स पव
तदाऽसौ जीवस्तत्पारणतो नमस्कारपरिणतो नमस्कार इति नमस्कारपरिणत पव, योऽसौ जीवः स एव नमस्कारस, नम
प्रागनिहितमेव । अनमस्कारस्तु परिणतिरहितो नमस्कारपस्कारोऽपि जीवपरिणाम एव नाजीवपरिणाम इति ॥२६३६॥
रिणतिवर्जितोऽनुपयुक्तः सम्यग्दृष्टिः । तल्लब्धिविरहितो वा अथ दापनानिर्यापनयोः को विशेषः, इत्याद
नमस्कारकारणकर्मक्षयोपशमशून्यो वा मिथ्याधिरिति ।२६३५॥ दायणनिज्जवणाणं, को जेभो दायणा तयत्थस्स?
नोनमस्कारस्तहि कः , हत्याहवक्खाणं निजवणा, पञ्चन्नासो निगमणं ति ॥२३॥
नोपुचो तप्परिणय-देसो देसपमिमेहपक्खम्मि । दापनानिर्यापनयोः को भेदः कः प्रतिविशेषः ।मत्रोच्यते
पुणरनमोकारोच्चिय, सो सम्बनिसेहपक्खम्मि ॥१६३६॥ दापना तदर्यस्य " सो दोज किंविसिहो, को वाजीचो नमो.
नोपूर्वस्तु नोशब्दोपपदो नमस्कारो, मोनमस्कार इत्यर्थः । कारो।" (२६३०) इत्येवं पृच्वापृष्टस्य तस्य नमस्कारस्यार्थ
(तप्परिणयदेसो ति) देशप्रतिषेधवचने नोशन्दे तत्परिणस्तदर्थों भण्यते। यथा-"नमोक्कारपरिणमो जो तमो नमोकारो
तस्य नमस्कारपरिणामयुक्तस्य सम्यग्रष्टिजीवस्य देश एकति । " निर्यापना तु दापनादर्शितस्यैवार्थस्य प्रत्याभ्यासः
देशो भएयते । सर्वनिषेधवचने तु नोशब्देस नोनमस्कार: प्रत्युच्चारणं निगमनं, यथा-स एव नमस्कारपरिणत एव योऽसौ
पुनरप्यनमस्कार एवं गम्यत इति ॥ २६३६ ॥ जीवः स एव नमस्कार,नमस्कारोपि जीवपरिणाम एव नाs.
नोअनमस्कारः कः, श्याहजीवपरिणाम इति । एवं च निगमनीपम् । निगमनकृत एव च। नोअनमोकारो पुण, मुनिसेहपगइगमयभावाप्रो । दापनानिर्यापनयोनेंदः, न त्वात्यन्तिक इति भावनीपमा२६३० होइ नमोकारो चिय, देसनिसेहाम्म तद्देसो॥२३७॥
अथवा अन्यथाऽनयो)दो दर्श्यते । कयम,इत्याह- नोमनमस्कारः पुननाशब्दस्य सर्वनिषेधपके नमस्कार एवं तप्परिणाय एव जहा, जीवो अवहिनो वा तहा जुज्जो।
भवति, योनिषेधयोः प्रकृतिगमकन्नाचात् "द्वौ नौ प्रकृत्वर्थ तप्परिणओस एव हि,निजवणाए पोऽनो ए|
गमयतः" इति न्यायादित्यर्थः । देशनिषेधवचने तु नोशन्दे तस्य
पूर्वोक्तस्वरूपस्य नमस्कारस्यैकदेशः प्रतीयत इति ॥२६३७॥ अथवा-यथा दापनायां जीवो ( अवहिश्रो ति) जी. वोऽवधृतो नियमितः । तद्यथा-तत्परिणत एव नमस्का
यह च "नमस्कारोऽनमस्कारः" इत्यादिनचतुष्टये प. रपरिणत एव जीवो नमस्कारो नान्य इति । (तदा
दुपचरितं, बच वास्तवं, सन्नि रवन्नाह. जो त्ति)तथा तेनैव प्रकारेण निर्यापनायां योऽपि
उवयारदसणाओ, देस पएस त्ति नोनमोकारो। प्रकारान्तरतोऽवधार्यते । कथम,इत्याह-(तप्परिणो स एव नोअनमोकारो वा, पयशनिसेहाउ सन्नूया ॥२॥३॥ हि त्ति) यथा दापनायां नमस्कारपरिणत एव जीवो नमस्कार | (देस पएस ति) ह बथासंख्येन संबन्धः । तृतीयभने इत्यवधृतं, तथाऽत्र निर्यापनायां तत्परिणतो नमस्कारपरि- वो देशो नमस्कारैकदेशो (नोनमोकारो ति) नोनमस्कार णतो जीवः स एव मतो नमस्कार एव मत इति नूयोऽव.] वक्ता, यक्ष चतुर्थभके प्रदेशोऽनमस्कारैकदेशो (नोमन
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(१०३५) णमोकार अभिधानराजेन्सः।
णमोकार मोकारो ति ) नोअनमस्कार उक्तः, स उपचारदेशनादिति संजयाणं च नावो।" इत्याद्युत्तराध्ययनोक्तं संगच्छत इति । संबन्धः । औपचारिकत्वं चेह नोनमस्काररूपस्य, नोअनम- पञ्चपदनमस्कारश्च सर्वभुतस्कन्धाज्यन्तरनतो, नवपदश्च समू. स्काररूपस्य च देशप्रतिषेधवचने नौशब्दे संपूर्णस्य बस्तुनो. लत्वात् पृथक श्रुतस्कन्ध इति प्रसिकमानाये। अस्य हि निर्युऽभावादिति। अथ सदनूतनङ्गकप्रतिपादनार्थमाह-पियईत्या | क्तिचयोदयः पृथगेव प्रजूता प्रासीर , कालेन तव्यदि) प्रकृतिः प्रथमो भङ्गः, निषेधस्तु द्वितीयनङ्गः, एतौ द्वाव- घच्छेदे मुससूत्रमध्ये तल्लेखनं कृतं पदानुसारिणा बजास्वामिपि सद्भूती निरुपचरिती, एतद्भवाच्यस्य नमस्कारानम- नेति महानिशीथपक्षमाध्ययमे व्यवखितम् । प्रति। स्काररूपस्य वस्तुनः संपूर्णस्य सद्भावादिति । तुशब्दाप
तथा च तद्ग्रन्थःरिमावपि वा भनौ सर्वनिषेधवचने नोशब्दे सति सदूता- एवं तु जं पंचमंगलमहासुयकवंधस्स बक्खाणं, तं माया पबविति द्रष्टव्यम, तद्वाच्यस्यापि नमस्काराउनमस्काररूपस्य
घेणं अणंतगमपज्जवेहिं सुत्तस्स य पियजयाहिं णिज्मुत्तिभा. वस्तुनः संपूर्णस्य सद्भावादिति ॥ २६३८॥ अथैताश्चतुरोजान्नयनिरूपयन्नाह
सचुनीहिं जहेव अर्थतनाणदसणधरेहिं तित्थयरेहिं बक्खासम्वो वि नमोकारो, अनमोकारो य वंजणनयस्स ।
णियं, तहेव समासओ वक्खाणिजं तं मासि, अहऽन्नया
कालपरिहाणिदोसेणं ताो णिज्जुत्तिनासचुनीओ बुहो चउरूवो वि हु, सेसाणं सबजया वि॥२॥३॥
चिन्नाभो । ओ य वच्चंतेणं कामेणं समएणं महिलप्रहशन्दनयास्त्रयोऽपि शुरुत्वादखण्डं संपूर्ण देशप्रदेशरहितमेष वस्तु इच्वन्ति । शेषास्तु नैगमाऽऽदयो विशुरुत्वाद्देश
पत्ते पयाणसारी बइरसामी नाम दुवालसंगमुग्रहरे प्रदेशरूपमपि मन्यन्त इति । एवं च खिते व्यञ्जननयस्य त्रि- समुप्पन्ने । तेण य पंचमंगनमहामुयक्खंधस्स उघारी विधस्यापि शन्दनयस्य भङ्गकारूणामात्रेण प्रकृत्यकारनो- मूलसुत्तस्स मजके लिहियो । मलमुत्तं पुण मुत्तत्ताए गकारतदुलययोगाचतूरूपोऽपि नमस्कारो भूत्वा परिशिष्टः
पहरेहिं अत्थत्ताए अरिहंतेहिं जगवंतोहैं धम्मतित्यसर्वोऽपि नमस्कारोऽनमस्कारश्चेति द्विरूप एवावशिष्यते, प्रथमद्वितीयननवाच्य एवावतिष्ठते । तृतीयचतुर्थभनको तु
यरेहिं तिलोगपहिएहिं वीरजिणिदेहिं पनवियं ति एस - तन्मतेन शून्यावे, तहाच्यस्य देशस्य प्रदेशस्य चास- कृसंपयायो । महा० ५ । स्वादिति । शेषाणां तु नैगमाऽऽदिनयानां सर्वं चत्वारोऽपिन- (तद्विषयोपधानाध्ययनविधिश्च 'उबहाण' शन्दे हितीङ्गरूपा भेदाः सद्भूतार्था एव, तन्मतेन देशस्य प्रदेशस्य च भागे १.५० पृष्ठे बक्ता) सवादिति । तदेवमुक्ता चतुर्विधाऽपि प्ररूपणा, तद्भणने च जदुत्तविहाणेणं चेव पंचमंगनपभिइमुयनाणस्स वि उवगतं सप्रसङ्गं प्ररूपणाद्वारम् ॥ २६३६ ॥ विशे। मा० म०।। हाणं करेजा, से गं गोयमा! नो हीलिजा मुत्तं,नो हीमा० चू० । “णमो अरिहंताणं, णमो सिकाणं, णमो पाय- लिजा अत्यंणो हीलिज्जा मुत्तत्थोनए,सेणं नो आसारियाणं, णमो उबझायाणं, पमोबनीए लिवीए । " भ०
इज्जा तिकालभावी तित्ययरे, यो प्रासाइज्जा तिनोगसि११०१उ०।दशा० । (७) नमस्कारस्याऽऽर्षत्वम्
हरवासी वियरयमले सिके, णो प्रासाइजा प्रायरियये तु वदन्ति-नमस्कारपाठ एव नाऽऽर्षः, युक्तिरिक्तत्वात-सिद्धा- उवाकायसाहुणो, सुट्टयरं चेत्र जवेज्जा पिषधम्मे दधम्मे नामज्यस्त्वेिन पूर्वमहन्नमस्कारस्याञ्घटमानत्वात्प्राचार्याss. भत्तिजुत्ते, पसंतेषं भावेज्जा मुत्तत्थाणुरंजियमाणुससकादिना सर्वसाधवो न वन्दनीया इति तथास्थितपञ्चमपदानुप
संवेगमावन्नो, से एसणं ण लभेजा पुणो पुणो नववारगे पत्तेश्चेति । पापिष्ठतरास्तेऽप्यनाकर्णनीयबाचोजष्टव्यमुखाः । स्वकपोलकल्पिताऽऽशङ्कया व्यवस्थितसूत्रत्यागायोगात, शशकदा
गन्जवासाश्यं भणेगहा जंतणं ति। वरं गोयमा! जे णं शङ्कानिराशपूर्वमसक्किप्तविस्तृतस्य नमस्कारपाठस्य सितक- बाले जाव अविनायपुनपावाणं विसेसो, ताव से पंचमस्य नियुक्तिकरीच व्यवस्थापितत्वाच ।
मंगलस्स णं गायमा! गतेणं अउग्गे, तस्स पं पंचमंगलतदाह
महासुयक्खंधस्स एगमवि पालावगं ण दायव्वं, जो "न बि संखेवो न वित्थारो, संखेवो दुबिद सिर-साहूणं । । अणाभवंतरसमज्जियाऽसुहकम्मरासिदहणमिणं सभित्ता वित्थरोऽणेगविहो, पंचविहो न जुञ्जए तम्हा ॥ ३२.१॥ मरिहंताऽऽ नियमा, साह साहू उ तेसु भश्यया ।
णं न बाले सम्ममाराहेज्जा । बहुत्तं च जणइत्ता तस्स तम्हा पंचविहो बलु, हेउनिमित्तं हवा सिद्धो" ॥ ३३०२॥
केवलं धम्मकहाए गोयमा ! जत्ती समुप्पाइज्जा । तभो "पुवाणुपुम्वि न कमो, नेव य पच्चगणुपुन्विप सप्रने। नाकण पियधम्मं दधम्मं जत्तिजुत्वं, ताहे जावश्यं पच्चसिकाऽऽआ पढमा, बीयाप साहुणो आई" | ३२१०॥ क्खाणं निव्वादेउं समत्यो नव, तावइयं कारवेज्जइ, भरिदंतुवएसेणं, सिद्धा नजंति तेण परहाऽऽई।
राईभोयणं च सुविहतिविहचनबिहेणं वा जहासरीए नवि कोई परिसाए,पणमित्ता पणमए रनो॥३२१३॥विशे। इत्यादिना सामान्यतः सर्वसाधुनमस्करणेन च नास्था
पच्चक्खाविज्जा, गोयमा ! णं पणयालाए नमोकारसहिनविनयकरणाऽऽदिदृषणम् । अत पव-"सिसाण णमो किया याणं चउत्थं चनवीसाए परिसीहिं वारसहिं पुरिमहिं * एतदर्थस्त्वस्मिन्नेव शब्दे पाकेपधारे स्पष्टीभविष्यति। दसहिं अवहरि छहिं निधिइएहिं चउहिं एगहाणगेहिं
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(१७३६) णमोकार अन्निधानराजेन्डः।
यामोक्कार दोहिं आयंबिलेहिं एगणं सुदत्यायंविक्षणं भव्वावारत्ताए संप्रति भाष्यगाथा व्याख्यायते-वर्णा अकराण प्ररोइज्माणविगहाविरहियस्स सकाएगग्गचिचस्स गोयमा!
पृषष्टिः, नमस्कारे पञ्चपरमेष्ठिमहामन्त्ररूपे भवन्तीति
शेषः । उक्तं च-" पंचपयाणं पणती-स बम चूमाएवमाविमं मासक्खमणं विसेसेज्जा, तो य जावश्य
इवल्य तित्तीसं । एवं इमो समप्पड़, फुममक्खरमट्ठसट्ठीतबोवहाणमवि समंतो करेजा, तावइयं अणुगणेऊणं ए"॥१॥ तथा नषपदानि विवकितावधियुक्तानि " नमो. जाहे जाणेजा-जहा णं जत्तियमित्तेणं तवोवहाणेणं अरिहंताणमित्यादीनि, न तु स्त्याचन्तानि । नणितं च-"सत्तर पंचमंगलस्स जोग्गीरो, ताहे प्रानत्तो पढेजा,ण अमह पण २ सत्त ३ सत्त य, ४ नव ५ भट्ट य ६ अट्ठ ७ अट्ठ 6 त्ति । से जयवं! पनूयं कालाइकम एय, जइ कहमवि अंत.
नबह पहुति । श्य पयअक्सरसंखा, असहू पूरेक अडसट्ठी
॥१॥" तथाऽष्टौ संपदो विश्रामस्थानानि (तत्थ त्ति ) ता. राले पंचत्तमुवगच्छे, तमो नमोकारविरहिए कह मुत्तिमढे
स्वष्टासु संपत्सु मध्ये क्रमेण सप्त संपदः-पदैः पूर्वोक्तस्वरूपैसाहेज्जा । गोयमा ! समयं चेव मुत्तोवयारानिमित्ते स्तुव्याः समानाः। अष्टमी पुन: संपत् सप्तदशाऽकरप्रमाणा, असहनावत्ताए जहासत्तीए किंचि तवमारभेज्जा, तं समय- पर्यन्तपदवर्तिपदद्वयाऽऽस्मिका च । यथा-"मंगनाणं च सम्वेमेवमहीयमुत्तत्योभयं दहव्वं । जो णं सो तं पंचनमोकारं सिं, पढम हवा मंगलं । " यमुक्तं चैत्यवन्दनाभाष्यप्रवचनसुत्तत्योभयं ण अविहीए गिएहे, किं तु तहा गेएहे,जहाज
सारोद्वाराऽऽदिषु-"पंचपरमिहिमते, पएँ एए सत्त संपया क
मसो । पञ्जंते सत्तर उक्चर-परिमाणा अटुमी भणिया ॥१॥" वंतरेसुविण विप्पणस्से,एयस्सेव अज्कवसायत्ताए पारा
तथा एवं वा चतुर्थपदस्य पान:--" नवऽक्सर हमी उपहगोनवेजा।से जयवं! जेण उण अमेसिमहीयमाणाणं यन्ट्ठी" ॥ अष्टमी संपत्-" पढमं दवा मंगलं " इति सुयावरणखोवसमेण कमहारितणेणं पंचमंगलमहियं नवाऽक्करप्रमाणा केया । षष्ठी पुनः- एसो पंचनमुक्कारो नवेज्जा, से वि य किं तवोवहाणं करेज्जा । गोयमा ! सम्वपावप्पणासणो।" इति । द्विपदमाना । अभ्यधायि--"अंकरजा । से जयवं केणं अटेणं । गोयमा ! मुसनबोहि
तिमचलाशतियं, सोल १ २ नवक्तरा तयं चेव १। जो
पढह भत्तिजुत्तो, सो पाव सासयं गाणं ॥४॥" एवं च त्रयलाननिमित्तणं । एवं चेइयाश्यकुब्नमाणे नाणकुसीने णेए
ख्रिशदकरप्रमाणचूलिकासहितो नमस्कारो भणनीय इत्युक्तं तहा गोयमा ! पन्चज्जादिवसप्पभिइए जहुत्तविणओव
प्रवति। तथा चोक्तं वृहन्नमस्कारफले-"सत्त पण सत्त सत्तय, सणेणं ।। महा० ३ ०।
नवऽक्खरपमाणपयरूपंचपयं । तित्तीसऽक्खरचलं, सुमिरह "एसोपंचणमुक्कारो, सब्वपापप्पणासणो।
नवकारवरमंतं ॥१॥" सिद्धान्तेऽपि स्फुटाकरैः-"हवा मंगलं" मंगलाणं च सम्वसिं, पढम हवा मंगलं" ॥१॥
इति भणितम् । तथाहि महानिशीथचतुर्थाऽध्ययने सूत्रम्(७) नमस्कारसूत्रसंपदः । अक्षराणि च पदसंपतानीत्यतो- "तदेव च तदत्थाणुगमियं कारसपयपरिच्छिन्नं ति बालाघऽक्करपदसंपदिति द्वारत्रयं प्रस्तावाऽऽयातम, तत्र गतित्तीसऽक्खरपरिमाणं।"एसोपंचनमुक्कारो,सब्वपावप्पणासच प्रथमं तावत्पञ्चपरमेष्ठिनमस्कारमा
णो । मंगलाणं च सव्वेसि,पढम हवा मंगलं ॥१॥श्य चूल सि भित्य तदाह
अहिजंति ति।" तत्र प्रकृतं तदेवम्-"हब मंगवं" इत्यस्य वयाऽसहि नवपऍ, नवकारे अट्ठ संपया तत्थ ।
साक्कादागमे मणितत्वात, प्रनुश्रीबनस्वामिप्रभृतिसुबहुश्रुतसुसगसंपय पयतुह्मा, सतरऽक्खर अट्ठमी दुपया ॥२॥ विहितसंविमपूर्वाऽऽचार्यसंमतत्वाच "पढम हबह मंगलं". अथ कोऽत्र व्याख्यानेऽवसरः, चैत्यवन्दनाविधानस्याधिकृत- तिपान अष्टपष्टचक्करप्रमाण एव नमस्कारः पठनीयः । तस्वात् ? । सत्यम् । यदा जिनाबम्बाभावे स्थापनाऽऽचार्य पुरतश्चै- था च मदानिशीथे-“पयं तु जं पंचमंगलमहासुयक्वंधस्स त्यवन्दना विधीयते, तदाऽनेन पञ्चपरमष्ठिमन्त्रेणाऽनाकार- वक्खाणं तं महया पबंधेण अणंतगमपजवोहि सुत्तस्स य स्थापनयाऽक्काऽऽदिषु जिनाऽऽदयःस्थाप्यन्ते। यमुक्तं बृहद्भाध्ये- पियभूयाहिं निज्जुत्तिभासचुन्नीहिं जहव अणंतनाणदंसणधरे"जिणबिंबानावे पुण, ग्वणा गुरुसक्खिया विकीरति । चिह- हि तित्थयरोहिं धक्वाणियं, तदेव समासो बक्खाणिज तं बंदण बियरमा, तत्थ वि परमेग्विणा उ" ॥१॥ इति । यथा मासि । अहऽनया कालपरिहाणिदोसणं सानो निज्जुत्सिनाश्रेयोभूतं चैतत् स्तुतिस्तोत्रादिप्रधानं चैत्यवन्दनाविधानं स्व- सचुनीयो वुचिनामो,इओ य वचतेणं कालेणं समएणं महिगर्गापवर्गाबन्ध्यनिबन्धनसम्यग्दर्शनाऽऽदिहेतुत्वात तथा चाऽऽग- हिपत्ते पयाणुसारी वरसामी दुवालसंगसुयहरे ममुप्पो, मा-"थयत्थुइमंगलेणं भंते! जीवे किं जणय ?। थयथुश्मंग- तेणेसो पंचमंगलमहासुयक्खंधस्स उद्धारो मूलसुत्तस्स मज्झे सेणं नाणदसणचरितं, बोहिनाभं च जणय । नाणदंसणच. लिहिलो, मूलसुतं पुण सुत्तत्ताप गणहरोहिं प्रत्यत्ताए अरिहंरित्तसंपन्नेणं जीवे अंतकिरियं कम्पविमाणोववत्तियं पाराहे"] तेहिं भगवतेहिं धम्मतित्थगरोहिं तिलोयमहिणाई वीरजिणिदेदि इति । अतो निर्विनेनैतद्विधानसिस्वर्थ प्रथम पञ्चमङ्गलमेव पनविनंति,एस वुसंपयाओ पत्थय । जत्य य पयंपएगाणुव्याबरावते । तथा चोक्तं महानिशीथचतुर्याध्ययने- "तस्स य| लग्ग सुत्तालावगंन संपज्जातत्थ तत्थ सुयहरो तिमोग्गए सयनसुक्खाहेउभूखस्स न ठदेवयाणमुक्कारविरहिए के वि कुलिहियदोसो म दायव्युत्ति, किंतु जो सो एयस्स अचि. पारं गमिछज्जा, टुदेवयाणं च नमुक्कारो पंचमंगलमेव गोय. तचिंतामणिकप्पभूयस्स महानिसीहसुयक्खंधस्स पुवायमा! नो णमम्मं ति, ता नियमो पंचमंगलस्सेध पदणं ताव वि.] रिसो पासि महुराए सुपासनाइव्हे पन्नरसहि उववासेहि गोचहाणं कायव्वं ।" इत्यलं विस्तरेण ।
विहिएदि सासणदेवीए मम अपित्रो ति तर्हि चेव स्वं. * तृतीयाध्ययमे इति पागे रश्यते।
डासंमोप उद्दिहियापदि हेऊदि बहवे पन्नगा परिसमिया,
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(१९३७) णमोक्कार भनिधानराजेन्द्रः।
णमोकार तहा वि अञ्चतसुमहत्यासयं ति इमं महानिसीहसुयसंध | अरिहंति पूयसकारं सिद्धिगमणं च भरिडा, मरिहता तेण कसिणपषयणस्स परमसारभूयं परं तसं महत्थं तिक- बुति" ॥१॥ (मा०म०बि०) सघा१ अधि०३ प्रस्ता० । लिकण पषयणवच्चबत्तणेणं बहुभवसत्तोवयारयं च काउं
(६) वस्तुद्वारम्तहा य आयहियट्टयाए आयरियहरिभदेणं जं तस्थायरिसे
अथ यदुक्तम्-"वत्थु तरहंता, पंच भवे तेसिमो देक ।" दिटुं, तं सम्बसमतीए सोडिऊणं लिहिलं ति अम्नेहिं पिसिन- (२६५४) इति तदेतत्प्ररूपणायामसमर्थितायामन्तराले प्रागुपन्यसेणदिवायरवुवाश्जक्वसेणदेवगुत्तजसबद्धणखमासमण
स्तत्वात्सांन्यासिकं कृतमासीत् । तदानीं प्ररूपणायाः समधिसीसरविगुत्तनेमिचंदजिणदासगणिखवगसञ्चसिरिपमुहोहिं जु
तत्वाधयाऽवसराऽऽयातं वस्तुद्वारं विस्तरेण व्याचिस्यासुराहगप्पहाणसुयहरोहिं बहु मन्नियमिणं ति॥"(महा. ३०) अन्यत्र तु संप्रति वर्तमानाऽऽगमः, तत्र मध्ये न कुत्राऽप्येवं नवपदा
वत्थु अरहा पुजा, जोग्गा के जे नमोऽनिहाणस्स | अष्टसंपदादिप्रमाणो नवकार उको दृश्यते । यतो भगवत्यादा- संति गुणरासओ ते, पंचारुहयाऽऽऽजाईया ।। २०४॥ वेवं पञ्चपदान्युक्तानि-"नमो अरिहंताणं, नमो सिकाणं, न-1
वस्तु दनिकम, अहोः पूज्याः योग्या नमोऽभिधानस्य के ?, मो पायरियाणं, नमो उवज्झायाणं, णमो बंनीए लिवीए" इ.
इति पृष्टे गुरुराह-ये नमोऽभिधानस्य योग्यास्ते पश्च सन्तीति त्यादि । क्वचिदू-" नमो लोए सम्बसाहूर्ण" इति पाठ इति ।
संबन्धः। किंविशिष्टास्ते !, गुणराशयो गुणसमूहाः । पुनः किं तसिप्रत्याख्यानपारणाप्रस्तावे चूर्णावित्युक्तम्-" नमो अरि
प्रकाराः?.इत्याह-महदादिजातीया अहंदादिप्रकारा:-अर्हसि हताण ५ " नणित्वा पारयति । नवकारनियुक्तिचूर्णी स्वेवमु- काऽऽचार्योपाध्यायसाधय इत्यर्थः । तदेवमत्र वस्त्वई दादयो गु. कम-“ सो नमुक्कारो कमा पयाणि उचा, दस वा । तत्थ - णराशयः सन्ति, इतिगुणगुणिनोरभेद उक्तः ॥ २६४० ॥ प्पयाणि-नमो १ अरिहंत २सिक ३ श्रायरिय ४ उव.
अथ तयोर्नेदोपचारादिदमाहज्झाय ५ साहणं ६ ति। दश त्वेवम्-" अरिहंताणं नमो ३ सिद्धाणं ४" इत्यादि । यत्पुनर्नमस्कारनियुक्तावशीतिप
भेोवयारोवा, वसंति नाणाऽऽदओ गुणा जत्थ । दमाना विशतिगाथाः सन्ति । यथा-" अरिहंतनमुक्कारो, जीवं तं वत्थुमसाहारण-गुणानो पंचजाईयं ॥ २४१ ।। मोए नवसहस्साओ। " ( ३५७) इत्यादयस्ता नवकार- सुबोधा । नवरं "घटे रूपाऽऽदयः" इत्यादिष्विव गुणगुणिनो. माहात्म्यप्रतिपादका न पुनर्नवकाररूपं भवितुमर्हन्ति, बहु- जेंदोपचारादिदेवमुच्यते-वसन्ति ज्ञानाऽऽदयो गुणा यत्र तत्पपदखात तासाम, नवकारस्य तु नवपदाऽऽत्मकत्वात् । किश्च- प्रकारं वस्त्वस्तीति ॥ २५४१॥ सास्वपि गाथासु वर्षशतात् तद्वयाश्च पूर्वपूर्वतरप्रतिषु "हबर"
अथ तानेर विशेषेणाऽऽहइति पागे दृश्यते । श्रीमलयगिरिणाऽप्यावश्यकवृत्तिं कुर्व. ते अरिहंता सिफा-ऽऽयरिग्रोवज्कायसाहवो नेया । ता वृत्तिमध्ये ता गाथा " हवा " इति पाउत एव लिखि
जे गुणमयभाषाओ, गुणा व पुजा गुणत्थीणं ।।६।। ताः; पतनिश्चयार्थिना तवृत्तिनिरीक्षणीया; इति परमार्थ
ते पञ्चविधवस्तुरूपा महत्सिकाऽऽदयो क्षेयाः, ये ज्ञानाऽऽदि. झावा कदाग्रहाभिनिवेशाऽऽदिविलसितकल्पितमागमानुक्तं
गुणसमूहमयत्वान्मूर्तज्ञानाऽऽदिगुणा श्व गुणार्थिनां ज्ञानाऽऽ. "होई" इति मुक्त्वा साक्षात्परमागतसूत्रान्तर्गतं श्रीवजस्वामि
दिगुणाभिलाषिणां भव्य जीवानां पूज्या इति । तदत्राईदादीनां प्रभृतिदशपूर्वधराऽऽदिबहुश्रुतसंविग्नसुविहितव्याख्यातमाहतं
पूज्यत्वे " गुणमयत्वात्" इति हेतुरुक्तः ॥ २६४२॥ " हवा" त्ति पातोऽष्टिवर्णप्रमाणं परिपूर्ण नवकारसूत्रम.
अथवा हेत्वन्तरमप्याहभ्यतव्यम् । तचैवम्-"नमो अरिहंताणं १,नमो सिकाणं २, नमो
मोक्खत्थिणो व मो-क्खडेयमो दसणाऽऽदितियगं व । आयरियाणं ३, नमो नवज्झायाणं ४, नमो लोए सब्यसाहणं । एसो पंचनमुक्कारो ६, सव्वपावप्पणासणो ७ । मंगलाणं च
तो तेऽभिवंदणिज्जा,जद व मई हेयो कहते ॥२६४शा सम्वेसिं८, पदम हव मंगलं९"॥१॥ अस्य च व्याख्यानं यदेव 'यस्माद्वा मोक्तांर्थिनो व्यसत्त्वस्य मोक्षहेतवोऽर्डदादयः, त. श्रीवज्रस्वाम्यादिभिः छेदग्रन्थाऽऽदिमध्ये लिखितं, तदेव भक्तिब- | तस्तेअनिवन्दनीयाः पूज्याः,मोकहेतुत्वात, दर्शनाऽऽदित्रिकवदिहुमानातिशयतो विशेषतश्च जव्यसवोपकारकमिति दयते। ति। यदि वा-हवंतता परस्य मतिः स्यात्कथं न देतुना तथाहि-" से जयवं ! किमेयस्स अचितचितामणिकप्पनूय- ते मोक्षहेतवः ?, तदा तमपि हेतुं कथयामः । इति सप्तदश स्स णं पंचमंगलमहासुयक्खंधस्स सुत्तत्थं पमतं । तं जहा- गाथार्थः ॥२६४३३ जे णं एस पंचमंगलमहासुयक्खंधे से णं सयलागमंतरोववत्ती
यथा ते हेतवस्तथाऽऽह.. तिलतेल्लकमलमयरंदसम्बलोयपंचत्थिकायमिव जहत्थकिरि- मग्गो अविप्पणासो, आयारे विण यया सहायनं । याऽणुरावसयूयगुणकित्तणे जहिच्छिए य फलप्पलाहगे चेव
पंचविहनमोकारं, करेमि एएहि हेहिं ॥ २४ ॥ परमत्पुइवाए। सा य परमत्युई केसि कायवा? सम्बजगुत्तमाणं। सञ्चजगुत्तमुत्तमे व जे के यूए, जे केह भवंति, जे के
महतां नमस्कारार्दत्वे मार्गः सम्यग्दर्शनाऽऽदिलकणो देतुः, भविस्संति, ते सब्वे चेव अरिहंतादो चेव मोजमसि ।
यस्मादसौ तैः प्रदर्शितः, तस्माच्च मुक्तिः, ततश्च पारम्पर्येण ते य पंचहा-अरिहते १, सिद्धे२, पायरिए ३, उवज्काए४,
मुक्तिहेतुत्वात्पूज्यास्त इति । ( अविपणासो ति) सिका. साहूणो । तत्य एपसिं चेव गम्भस्थसम्भावो इमो। तं जहा- नां तु नमस्काराहत्वे अधिप्रणाशः शाश्वतत्वं देतुः । ससनरामरासुरस्स गं सम्बस्सेव जगस्स प्रहमहापाडिहेराइ. थाहि-तदविप्रणाशमवगम्य प्राणिनः संसारवैमुख्येन मोकाय पुयाइसोवलक्खियं अणनसरिसमचितमप्पमेयकेवलाहि- घटन्त इति । (आयारे ति) प्राचार्याणां तु नमस्काराईत्वे ट्ठियं पचरुत्तमत्तं । (महा०३०) “अरिहंति वंदणनम सणाणि प्राचार एव देतुः । तथाहि-तानाचारवत प्राचारख्यापकांच
४६०
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राह
(१७३७) णमोकार भनिधानराजेन्द्रः।
सामोकार प्राप्य प्राणिन आचारस्य विज्ञातारोऽनुष्ठातारश्च भवन्तीति । प्तिहेतुत्वात, मतोकानाऽऽनिमार्गदातृत्वात्, स्वयमपि च मार्ग(विणयय त्ति) उपाध्यायानां तु नमस्काराईत्वे विनयता त्वाऽईन्त एव पूज्याः, न तु गृहलाऽऽदयः, इति नातिप्र. बिनयो देतुः, यतस्तान् स्वयं विनीतान प्राप्य कर्मविनयनसम- सः ॥ २९४०॥ धंस्य ज्ञानाऽऽदिविनयस्यानुष्ठातारो भवन्ति ।( सहायत्तं ति)
एतदेवाऽऽहसाधूनां तु नमस्कारार्हत्वे सहायत्वं हेतुः, यतस्ते सिझिवधू. नत्ताई-बज्झयगे, हेऊ न य नियमो सिवस्सेव । सामकलालसानां जन्तूनां तदवाप्तिक्रियासाहाय्यमनुतिष्ठन्ती- तदायारो गिहिणो, सयं न मग्गोत्ति नो पुजा ।।२एपणा ति । अत एवाऽऽह-पञ्चविधं नमस्कार करोम्येनितुभिरिति नियुक्तिगाथासंक्षेपार्थः ॥ २६४४ ॥
भक्तपानवखाऽऽदिभिर्वाह्यतरो दूरवर्ती परम्परया मोक्तस्य विस्तरार्थ त्वभिधित्सुर्भाध्यकारः प्राऽऽह
हेतुः । न च ज्ञानादित्रयवदसावेव नियमतः शिवस्य
मोकस्य हेतुः, तमन्तरणाऽप्यन्तकृत्केवल्यादीनां तत्सिद्धेः । मग्गोवएसणाओ, अरिहंता हेयो हि मोक्खस्स ।
अतस्तस्य वाह्यतरानैकान्तिकहेतोभक्तपानाऽऽदेदातारः,तदातातब्भावे भावो, तयभावेऽनावो तस्स ।।श्ए४॥ रो गृहिणो न पूज्याः, अईतामिव तेषामन्तरलैकान्तिकमोकभईन्तो यस्माद् मोकहेतवस्तस्मात् पूज्या इति प्रक्रमः। सम्यग्
हेतुझानाऽऽदित्रयदातृत्वाभावादिति । न च तेऽर्हन्त इव स्वयं दर्शनाऽऽदेस्तन्मार्गस्योपदेशनादिति हेतुः । श्रुतज्ञानवदिति
मोक्षमार्गः, तदर्शनाऽऽदिना मुक्त्यनवाप्तेः, इत्यतोऽपि न ते रष्टान्तः स्वयं अष्टव्यः। यदि नाम ते तन्मार्गमुपदिशन्ति तथाs- पूज्या इति ॥ १९४६ ॥ पि कथं मोक्षहेतवः?, इत्याद (तम्भावे इत्यादि) तस्य सम्यम्द- अथाविप्रणाशलक्षणं सिद्धनमस्काराईवे हेतुं व्याचिस्यासु. शनाऽऽदिमार्गस्य जावे भावात, तदनावे चाभावात् तस्य मो. कस्येति ॥ १६४५ ॥
मग्गेणाणेण सिर्व, पत्ता सिक्का जमविप्पणासणं । यो, तहिं सम्यग्दर्शनाऽऽदिमार्ग एवं मोकहेतुः, तदन्वय
तेण कयत्यत्तागो, ते पुजा गुणमया जं च ॥
२०॥ व्यतिरेकानुबिधायित्वात् तस्य, ये तु तमुपदेशकत्वेन तस्य मार्गस्य हेतवोऽन्तस्ते कथं मोक्षहेतबो
यद्यमात्सिद्धाः संप्राप्तनिर्वाणसुखा अनेन मार्गेण ज्ञानदर्शनन युक्ताः, इत्येतत्प्रेर्थमाशक्य
चारित्रलकणेन शिवं मोकं प्राप्ताः । कथम, अविप्रणाशना. परिहरनाह.
नुच्छिन्नसन्तामजावेन,तस्मात्कृतार्थत्वाते पृण्याः । अत्र प्रयोगःमम्गो च्चिय सिबहेऊ, जुत्तो तयो कहं जुत्ता।
पूज्पाः सिकाः, अविप्रणाशबुकिजनकत्वेन मागोपकारित्वात्,
जिनेन्द्रवदिति । (गुणमया जं च सितश्च ते पूज्या:-कातदहीणतणमोऽहव,कारण कज्जोक्याराओ॥श्ए।६।।
नाऽऽदिगुणसमूहाऽऽत्मकत्वात् , जिनाऽऽचार्याऽऽदिवदिप्रेरकोपन्यस्तं पूर्वार्धमुक्तार्थमेव । उत्तरमाद (तदहीणत्तणमो
ति ॥२६५०॥ इत्यादि) सत्यम, मार्ग पव मोतहेतुः, केवलमहन्तोऽपि तकेतव
अत्र प्रेरकः प्राऽऽहएव, तस्यापि मार्गस्य तपदेशझेयत्वेन तदधीनत्वादिति । अथवा-मोकदेतवोऽहन्तः, कारणेऽहलकणे मार्गलकणकार्यधर्म
गुणपूयामेत्ताओ, फनं ति तप्पूयणं परजामो । स्य मोकदेतुत्वस्योपचारादध्यारोपादिति ॥ २॥४६॥
जं पुण जिणु च मग्गो-वयारिणो ते तयं कत्तो॥२॥५२॥ आह-नन्वेतावता मार्गस्योपदेशकत्वेनोपकारिणोऽहन्त. गुणानां सम्यग्ज्ञानाऽऽदीनां पूजामात्रतोऽपि फनं विशिष्टं स्व. स्ततो मार्गजन्यस्य मोकस्य तेऽपि हेतवोनि
र्गापवर्गाऽऽदिकमस्तीति तत्पूजनं तेषां गुणवता सिद्धानां पूजन धीयन्त एव इत्युक्तम, एवं चातिप्रस
प्रतिपद्यामहे । यत्पुनरुच्यते-जिनवरी सिद्धा अपि मार्गोपका. । कथम, इत्याह
रिणः' इति, तसेषां सिकानां कुतः १,न मन्यामहे एतदित्यर्थः, मग्गोवयारिणो जई, पुज्जा गिहिणो वि तो तदुवगारी ।। इह तेषामजावात,असतश्चोपकारायोगादित्यभिप्रायः॥२९५१॥ तस्साहणदाणाओ, सव्वं पुज्ज परंपरया ॥२४॥
अत्रोत्तरमाह(तस्साहणदाणाम्रो ति) तस्य मार्गस्थ साधनानि यानि
जद तग्गुणपूयाओ, फनं पवन्नं नवगारो सो। वस्त्रपात्राऽऽहारशय्याऽऽसनाऽऽदीनि तहानादिति । शेषं सुग- तेहिंतो तदलावे, का पूया किं फलं वा से ? ॥२५॥ मम् ॥ १७॥
यदि तद्गुणपूजातो गुणवत्सिगुणपूजनात्फलमस्तीति त्वचा अत्रोत्तरमाह
प्रतिपत्र, तहिं नम्बसावेव तेज्यः सिद्धेभ्य अपकारस्वयाऽपि जं पञ्चासन्नतरं, कारणमेगंतिय च नाणाई।
प्रतिपन्नः, अन्यथा तनावे सिकाभावे का तेषां पूजा, किं मग्गो तदायारो, सयं च मग्गो त्ति ते पुज्जा ॥४॥
वा 'से' तस्य पूजकस्य फलम् । एवं च सति निवृतावधिसत्यपि विश्वत्रयस्य परम्परया मार्गोपकारित्वे यत्प्रत्यासत्र
प्रणाशबुद्धिरपि सिकाभावे न भवतीस्थयमुपकारस्तेभ्यः कि तरमैकान्तिकं च मोक्षस्य कारणं कानाऽऽदित्रयं मोकस्य मार्ग
नेष्यते?, इति ॥ २६॥२॥
अथवा "अविप्रणाशबुद्धिहेतुत्वान्मार्गोपकारिणः सिद्धाः" पति, तस्य दातारस्तावदहन्त एव, न तु गृहस्था, नापि बनाss. हारशय्यासनादीनि तत्साधनानि, तेषामदभ्यो लन्ध
इत्ययमोऽन्यथाऽपि साध्यते । कथम, इत्याहस्य ज्ञानाऽऽदित्रयस्योपकारित्वमात्र एवं वर्तनादिति । स्वयम
गंतुरणासाओ वा, सम्मग्गोऽयं जहिच्चियपुरस्स। पिच मोकस्य मार्गोता, वर्शनमात्रेणैव जव्यजन्तूनां तत्प्रा
सिछो सिहिंतो, तदनावे पञ्चो कत्तो ॥५५॥|
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( १८३५) अभिधानराजेन्द्रः ।
मोक्कार
अथवा सम्यग्दर्शनचारिवल कणी मार्गों यथेप्सितपुर स्व मोकनगरस्य सम्मार्ग इत्येवं सिद्धेय एव निश्चितः, नान्यस्मात् । कुतः ?, इत्याह- (गंतुरणासाश्रोति) मोक्षपुरं गतुर्मुरायाभावतो. स्मार्गेष्वं सम्यदर्शनाऽऽदिको मोहपुरस्य मार्ग इत्येवं मु णां प्रत्ययोत्पादात् । तदभावे तु सिद्धविप्रणाशे कुतोऽयं प्रत्ययः स्या है, यदित्यर्थः इदमत्र हृदयमा पारसपुत्रा 55दिनगरमार्ग। कचिद्यः सार्थवाहस्य निर यगमनेनाधिप्रणाशासनमागौयमिति निश्चीयते एवं सम्नामपुरमागपि तदभीष्टं मोकरंजन्तु सार्थस्य निरपाय गमनेनाविप्रणाशात्सन्मार्गोऽयमिति निश्चीयते । भूतनिश्चयजनकत्वान्मागपकारिणः सिद्धा ततः पूज्या इति ।। २६५३ ॥
अपि चमम्मि रुई तदवि-पणासच तप्फलोबलंजाओ । जं जाय तेहितो, नेयरहा तपुत्रगारो से || २०५४ ॥ यद्यस्मात्सम्यग्दर्शनाऽऽदिको मोम यथापश्यमित्येवं रुचिः प्रीति उत्पन्न तेहिंतो सि) सि द्वेज्य एव, नेतरथा नाऽन्यथा । कुतः ?, इत्याह-- तदविप्रणाशात्तेषां निशाश्वतभाबोपगमादः तथा-तफ पामेव सिद्धानां शाश्वतानुपम सुख लक्षणस्य फलस्योपलम्भात् । ततस्तदुपकारोऽसौ मार्ग रुच्याविर्भावलक्षणः सिद्ध कृतोऽसावु पकार इति ।। २५५४ ।।
अत्र परमतमाशङ्क्य परिहरन्नाहनए जिणवणाउ च्चिय, तदत्थिया तप्फोनो सच्च तहा वि तष्फल-सब्जावाओ रुई होई ॥२६५॥ ननु जिनवचनाजिनोपदेशादेव, तदर्थिता तत्र मार्गे रुचिह्नकणार्थिता, तस्य मार्गस्य यत्फलं सिद्धिसुखलक्षणं तदुपलम्न
सर्वमिदं जायते तत्किमप्रियाशदेपन्यासेन ? सत्यम् । तथाऽपि तस्य मार्गस्य यत्फलं विकणं सम्प सद्भावादविप्राशाद्वारवतभावाद्विशेषिततरा मार्गे भवति इति । अतो वक्तव्य एव सिकानामविप्रणाशलक्षणो हेतुरिति ॥ २९५५ ||
पुनरपि परमतमाशक्य परिहरन्नाहपच्चिय सिवमग्गो, निच्छपत्र तह रुई समचं ति । मग्गोवारिणो जह, जिला तहा खीणसंसारा || २६९६ || ननु यथो मिसं गप्पा सुत्थिय हव मित्तं।" इत्यादिवचनःशिकायतो नियमयमलेगा 55 मेव शिषमाग मोक्षमार्गः तथा सचिव सम्यक्त्वमात्मैव नापर इति, अतः किमत्र बाह्यनाविप्रणाश देतुनोपन्यस्तेन है। सत्यम् । तचापि व्यव हारनयमतेन यथा मार्गोपदेशनाज्जिनास्तीर्थकरा मार्गोपिकारिण उच्यन्ते तथा कसारा अपि सिका अविप्रणाशेन मार्गेपकारिणोऽभिधीयन्त इति न दोषः || २६५६ ॥
5
ressचायीणामुपाध्यायानां च नमस्काराहं हेतुत्वं स्याविन्यासुराह आपारदसथाओ, पुश्मा परमोपमारियो गुरवो । विमाऽऽइगाहणा वा उत्रकाया सूत्तदा जं च ॥ १ए९७||
।
णमोकार
पूज्याः परमोपकारिणो गुरवः स्वयमाचारपरत्वात् परेभ्या 33 वार देशनादिति । तथा पूज्या उपाध्यायाः स्वयं विनययात्, शिष्याणां च विनयग्रहणाद्विनयशिक्षणात् । यता सूत्रपाठदास्ते, अतोऽपि पूज्या इति || २६५७ ॥
अथ साधूनां पूज्यार्हत्वकारणम्, तथा पञ्चानामप्यदादीनां सामान्यं तत्कारणमुपदर्शनाहश्रायारविणयसाइण-साहजं साहओ जो दिति । तो पुजा ते पंच वि, तग्गुणप्याफलनिमित्तं ॥। २७५० ।। ततः साधवः पूज्याः; यतः किम् ?, इत्याह- (आयार इत्यादि) आचारवानिया मोसा साध्यानात्यास्ते इति भावार्थः तथा सामान्येन पश्चापदादयः पूज्याः नगुणानानानां या पूजा तथा यत्फलं स्वर्गाद त्रिमितं ते भवन्तीति कृत्वा पूजनसत्वादित्यर्थः ।
इति चतुर्दशगाथार्थः ॥ २६५८ ।।
एवं तावत्समासेनादादीनां नमस्कारार्द्धत्वद्वारेण मार्गदेशकत्वाऽऽदयो गुणा तक्ताः । साम्प्रतं संसारावी मार्गदेशकत्वभवसमुनियमकत्वम् विश्वजीवनका यगोपनत्वप्ररूपणाऽऽदिना प्र पञ्चेनायां गुणानुपदर्श
यन्नाद
अमवी देसयतं तदेव निलामया समुदम्पि कापरक्खणड्डा, महगोवा तेा दुर्बति ।। २७९५६ ॥ नवम्यां देश का मार्गोपदेशकत्वं कृतमनिर्वा मका संसारसमुद्रे भगवन्त एव पटूवरणाचे यतः प्रयत्न च क्रुर्महागो पास्तेनोच्यन्ते ॥ इति नियुक्तिगाथासंक्षेपार्थः ॥२६५६ ॥ अथ "जद निन्दुपुरममां इत्यादिका विस्तरार्धप्रतिपाद नपराः सप्तदश गाथाः सुगमाः । सति च वैषम्ये मूलाऽऽवश्यकटकानुसारतो नावनीया इति न प्रतिपादितः ।
"
सदेवमुक्तप्रकारेणाईयां नमस्कारावे तो गुणाः प्रतिपादिताः, साम्प्रतं तु प्रकारान्तरेण तकेभूतामेव गुणान् प्रतिपादयारागद्दोसकसाए, य इंदियाणि य पंच वि परीसहे । उवसग्गे नामयंता, नमोऽरिहा तेण वच्चति ॥२७६० ॥ रागद्वेषकषायान् इन्द्रियाणि च पञ्चाऽपि परोषहान् उपसर्गाअमयन्तोन्तो नमो इति निकगाथास के पार्थः ॥ २४६ ॥
क्यानरूपं भयं तु ने पतिं विस्तरयात् किन्तु रागादिसम्देषु यथास्थानेषु द्रम्यम्) अथ "नामयंता नमोऽरिहा" (१९६०) इत्येतद् व्याचिख्यासुराहू
पहवीकरणं नामा - महवा नासयमयो जहाजोगं । नेयं रागाई, तम्मामाओ नमो अरिहा || २००८ ॥ रामादीनां करणं वश्यमावापादनं नमनमुच्यते सूतो नाशनं वा । अतो रागाऽऽदीनामेवंविधं नमनं यथायोगं यघाघटमानकं ज्ञेयम् । तथामनाच्च नमो नमस्कारस्याही भईन्त इति । ३००८ ॥
साम्प्रतं प्राकृतल्या अनेकथाऽई निकसंभव इति
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णमोकार
दर्शनादिस्त्यादि तखी गाथा, पता अपि तथैव। इदानीममोधतापनार्थमपान्तरानिक नमस्कारफलमुपद
(१८४०) अभिधानराजेन्द्रः ।
शयति
अरहंतनमोक्कारो, जीवं मोएइ जवसहस्सायो । जावेण कीरमाथो, होइ पुणो बोहिलाजाए ।।३०० ।। इह नामस्थापना द्रव्यज्ञायलकपनमस्कारम्धतुर्विधगृहीतः त बाईच्म्देन बुकिखा भईदाकारवती स्थापना गृहाते तस्या नमस्कारः स्थापना नमस्कार इति व्युत्पच्या स्थापनाममस्कारः संगृहीतः । ( नमोक्कारो त्ति ) इत्यनेन नामनमस्कारः । ( कोरमाणो सि) अञ्जलिमहादिना क्रियमाण इत्यनेन द्रव्यनमस्कारः । ( भावेण सि ) अनेन तु भावनमस्कार इति । तत्रार्हनमस्कारः क्रियमाणो जीवं मोचयति भवसहस्रात्, प्रस्तावादनन्तजवेज्य इत्यर्थः । अनन्तभवमोचनाच्च मोकं प्रापयतीत्युक्तं भवति । यद्यपि च कांश्चित्तद्भव एव मां न प्रापयति, तथाऽपि भावेनोपयोगविशेषेण क्रियमाणो भावनाविशेषत पचान्यस्मिन्नपि जन्मनि पुनरपि बोधिलाभाव नवति । बोधिलाभश्च निश्चितोऽचिरान्मोक्ष देतुरिति । एवं बाह्याज्यन्तरेण नामाऽऽदिचतुर्विधविधानेन नमस्कारः क्रियमाणो जीभवमोचयति पुनर्योधियजं च जायते इति निक्तिगाथार्थः ॥ ३००६ ॥
अत्र जाप्यम् -
अरहंता गारवई, वा नामं मयं नमोकारो । भावेति य जावो, दव्वं पुरण कीरमाणो त्ति ॥ ३०१०|| इय नामाऽऽचब्बिनंतर विद्वाण करणाओ । सो मोह भवाच्यो, होइ पुछो कोहिवीयं च ।। २०११ ।।
गतार्थे ||३०२०।३०११
तथा चाऽऽह
रतनयो कारो, धन्नाण नवक्स्वयं करंताणं । पितो विसोतियावारओ होई ॥। २०१२ ।। धनं ज्ञानदर्शनचारित्रलक्कणमर्हन्तीति धन्याः साध्वादयः, तेषां यद्भवणं कुर्वतां याची हृदयम तुम्मुञ्चन् विनोतिकाया विमार्गगमनस्यापध्यानस्य चाश्वारको उनमस्कारो भवति इति नियुक्किनाथार्थः ॥ ३०१२
भाष्यम्
धन्नानाssधणा, परित्तसंसारिणो पयणुकम्मा । नवजीवियं पुरानो तस्सेह स्वयं करिंताएं ।। ३०१२ ।। इह सिगमणं, चित्तस्स विसोत्तिया प्रवज्जाएं । अरहंतनमोकारो, हिययगओ तं निवारे || ३०१४ ॥
गतार्थे ॥ ३०१३ | ३०१४ ॥
अथाईनमस्कारस्यैव महार्थतां दर्शयतिअरहंतनमोकारो एवं खलु वमओ महत्यो ति । जो परसम्म बगे, अक्खिणं कीरई बहुसो २०१५।
नमस्कार एवं खलु वर्णितो महार्थ इति महान् वर्षो यस्य स महार्थोद्वादशादित्वात्मार्थः । कथं पुनरेवदेवम ? इत्यादयो नमस्कारो मध्ये प्रायोपर
मोकार
मखकणे उपाये समीप भीमनवरतं क्रियते बहुशोऽनेकशः । ततश्च महत्यामापदि द्वादशाङ्गीं मुक्त्वा तत्स्थानेऽनुस्मरणान्महार्थः ॥ इति नियुक्तिगाथार्थः ॥ ३०१५ || कथं पुनद्वादशाङ्गार्थो नमस्कार: १, इत्याशङ्कच युक्तिमाह
भाष्यकार:
जलथाऽऽमर मे, मोतुं पगरचार्थ महामोन्सं । जुधि वाऽतिभए पेप्पर, अमोहमत्यं जह तद्देह ।।२०१६ ।। मोतुं पवारसंगं, मरणाऽऽप कीरए जम्दा | अरहंतनमोकारो, तम्हा सो बारसंगत्यो । ३०१७ ।। सव्यं पि बारसंगं, परिणामविमुकितमिनागं । सकारणभावाओ कह न तयत्यो नमोकारो || २०१८ || न हु तम्मि देसकाले सको बारसविहो सुषक्खंचो । सोते तं पि समत्वचिंतेशं ॥ ३०१ ।। चतस्रोऽपि सुगमाः, नवरं ( देसकाले त्ति ) देशः प्रस्तावः, रायः कालो देशकाल तस्मिमरणलकने देशकाल इति । ( तं पित) धनितमत्यर्थमिति ॥ ३०१६ । ३०१७ । ३०१८ । ३०१९ ॥
एकस्मिन्नपि यत्र वीतरागोते पदे सति जीवः संवेगं गच्छ ति, येन च पदेन विरागत्वं भवति निर्वेदमुपैति तत्तस्यैकमपि पदं समस्तमोहजालोच्छेदहेतुत्वात्सं पूर्ण द्वादशाङ्गरूपं ज्ञानमेभवति तत्कार्यकर्तृत्वात् किं पुनरनेकपाको नमस्का रः सम्पूर्ण द्वादशाङ्गज्ञानं न भविष्यति ?, इत्यन्या महम्या नमस्कारस्य द्वादशाङ्गरूपतां साधयन्नाह
एगम्मिविजम्मि एम्पि विजमि पर संवेगं कुछ बीयरायमए । तं तस्स होई नाम, जेण चिरागचणमुवे ||३०२०|| एम्पिवि जम्म पर, संवेगं कृाइ बीपरागमए । सो तेण मोहजासं, जिंद अप्पणं ॥। २०२२ ॥ बवद्वारा मरणे, तं पयमेकं मयं नमोकारो । अन्नं पि निष्याओ तं चैव य वारसंगस्थो ।। ३०२२ ॥ गतार्था एव, नवरं किं पुनः प्रस्तुते तदेकं पदम् ? इत्याह" बवहाराओ " इत्यादि । यथा लोकव्यवहारे 'साम्प्रतमल्पस्तन्डुलः, प्रचुरो गोधूमः, संपन्नो यवः, ' इत्यादावने कमप्येकमुच्यते, तथा मरणसमये क्रियमाणः " पंच नमोकारो " श्रनेकपदाss कोऽपि व्यवहारत एकं पदमत्रानिमतः । निश्चयनयमतेन तदम्यदपि सुबन्तं तं वापि संवेगकरं निर्जराफलं पदं तदेतद् द्वादशाङ्गार्थ इति ॥ ३०२० / ३०२१ | ३०२२ ॥
यदुक्तं निर्युक्तिकृता-' अनिक्खणं कीरई बहुसो ' । ( ३०१५) इति । तत्र किं कारणम् ?, इत्याशङ्काऽऽड्
जं सोऽतिनिज्जरत्थो, चिंमयत्यो वन्नियो महत्यो वि । कीरह निरंतरमक्खिणं तु बहुसो बहू वारा ।। २०२३ ।। यह यस्मादसो नमस्कारोऽतिनिधी तथा द्वादशपिटका महार्थश्वोक्तप्रकारेण वर्णितः, तस्मादभीक्ष्णं निरन्तरं बहुशो बघो वाराः क्रियते ॥ इति गाथाऽष्ट्रकार्थः ॥ ३०२३ ॥ अथ निर्युपसंदरबादअरहंतनमोकारो, सव्वपात्रप्पणासो ।
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(१९४१) णमोकार अभिधानराजन्ः।
गामोकार मंगलाणं च सन्वेसिं, पदमं हवइ मंगलं ॥ ३० ॥
गाथाचतुष्टयमप्यनमस्कारषदवसेयम, विशेषस्तु सुगम अत्र "सबपावप्पणासणो" इत्यस्य व्याख्यानमाद
एव इत्युक्त आचार्यनमस्काराधिकार । आ० म. १०२ पंसे पिवइ व हियं, पाइ नवे वा जियं तो पावं ।।
खण्ड ।(आचार्यशब्दार्थस्तु 'पायरिय' शब्दे द्वितीयभागे
३.२ पृष्ठे निरूपितः) तं सन्यमसाम-बजाइभेयं पणासे ।। ३०२५॥ पांशयति मलिनवति जीवमिति पापम, पिवति वा हित
साम्प्रतमुपाध्यायनमस्कार:मिति पापम् , पाति वा भव एव रकृति जीवं, न पुनस्त- उबकायनमोकारो, जीवं मोए जवसहस्सायो। स्मान्निास ददातीति पापम; तथ सर्व, कर्मेहाभिप्रेतम् । नावण कीरमाणो, होइ पुणो बोहिलाभाए । कथंजूतम् ? , इत्याह-(अट्ठसामन्नजाश्भेयं ति ) भ्रष्टौ
उवझायनमोकारो, धन्नाण जवक्खयं करेंताणं । सामान्येन शानाऽवरणीयाऽऽदयो जातिभेदा यस्य तदष्टसामान्यजातिभेदं प्रणाशयत्युच्छेदयतीति सर्वपापप्रणाशन
हिययं अणुम्मुयंतो, विसोत्तियाऽऽचारो हो । इति ॥ ३०२५ ॥
नवझायनमोकारो, एवं खलु वन्निओ महत्थो त्ति । " मंगलाण च सवसि" ( ३०१४ )
जो मरणम्मि उवग्गे, अनिक्खणं कीरए बहुसो। इत्यादेव्याख्यानमाह
जवझायणमोकारो, सव्वपावप्पणासणो। नामाऽऽमंगलाणं, पढमं ति पहाणमहव पंचएहं।
मंगलाणं च सम्बेसि, चनच्छ हवइ मंगलं ॥ पढम पहाणतरयं, व मंगलं पुधभणियत्यं ॥३०२६॥
गाथाचतुष्टयमपि सामान्याईनमस्कारवश्वसेयम् । विशेषस्तु अर्हन्नमस्कारलक्षणं मङ्गलं नामस्थापनाऽऽदिमङ्गलानां मध्ये प्र.
सुगम एवेत्युक्त उपाध्यायनमस्काराधिकारः। प्रा०म०१० थम प्रधानम, मोकलवणप्रधानपुरुषाऽर्थसाधकत्वात् । अथवा
२ खण्ड। (उपाध्यायशन्दार्थस्तु 'उज्काय'शब्दे द्वितीयप्रस्तुतानामेव पञ्चानामईसिद्धाऽऽदिनावमङ्गमानामेतत्प्रथममा
भागे ८८२ पृष्ठे गतः) चम, आदावेव निर्दिष्यत्वात् । अथवा-प्रधानतरं प्रथम, सिकाऽऽ.
अथ साधुनमस्कार:धपेकयाऽहंतां प्रधानतरपरोपकारार्थसाधकत्वादिति । "मंगासय जवाओ," (२४) इत्यादिना च मङ्गलं पूर्वजणितशब्दा
साहूण नमोकारो, जीवं मोएइ जवसहस्सायो। र्थमेव । ति गाथात्रयार्थः॥३०२६।। इत्यर्हन्नमस्कारः समाप्तः। भावेण कीरमाणो, होइ पुणो बोहिलालाए॥ विशे०। (सिकनमस्कारशब्दार्थः 'सिद्ध 'शब्देऽभिधास्यते) साहूण नमोकारो, धन्नाण नवक्खयं करेंताणं । संप्रति सिरुनमस्कारवक्तव्यतामाह
हिययं अम्मुयंतो, विसोत्तियाऽऽवारो होइ । सिकाण नमोक्कारो, जीवं मोए भवसहस्साओ।
साहूण नमोकारो, एवं खनु वन्नितो महत्थो ति। . जावेण कीरमाणो, होइ पुणो बोहिलाजाए ।
जो मरणम्मि नवगए, अभिक्खणं कीरए बहुसो।। सिघाण नमोकारो, धन्नाण भवक्खयं करेंताणं ।
साहूण नमोकारो, सबपावप्पणासणो।। हिययं अणुम्मुयंतो, विसोत्तियाऽऽवारो हो । मंगलाणं च सव्वेसि, पंचमं हवइ मंगलं ॥ सिकाण नमोक्कारो, एवं खयु वन्नितो महत्थोत्ति।
दं गाथाचतुष्टयमप्यहनमस्कारबदवसयम, विशेषस्तु जो मरणम्मि नवग्गे, अभिक्खणं कीरए बहुसो॥ सुखोनेयः। सिदाण नमोक्कारो, सव्वपावप्पणासणो।
एसो पंचनमोकारो, सव्वपावप्पणासो। मंगलाणं च सम्बोसि, बीयं हवइ मंगलं ।।
मंगलाणं च सव्वेसिं पढमं हवइ मंगसं ॥ गाथाचतुष्टयमप्यनमस्कार श्व वेदितव्यम् । उक्तः सि
पाठसिका। तदेवं गतं वस्तुद्वारम् । प्रा० म०१ म०२ सएम। कनमस्काराधिकारः ।प्रा. म.१०२खएका (सिद्धश. ब्दार्यः 'सिद्ध' शब्दे वक्ष्यते)
(१०) अथाऽऽक्षेपद्वारं वक्तव्यम् । तत्र परः प्राऽह___ साम्प्रतमाचार्यनमस्कारावसरः
न वि संखचो न वित्थारो, संखेवो दुविह सिसाहूणं । आयरियनमोक्कारो, जीवं मोए जवसहस्साओ।
वित्थरोऽणेगविहो,पंचविहो न जुज्जए तम्हा ।३२०१॥ जावेण कीरमाणो, होइ पुणो बोहिलाभाए॥
यह किल सूत्रं संकेपविस्तरावतिक्रम्य न वर्तते । तत्र पायरियनमोकारो, धनाण भवक्खयं करेंताणं ।
सकेपचद् यथा सामायिकसूत्रम, विस्तरषद् यथा चतुर्दश हिययं प्रणम्मुयंतो, विसोत्तियाऽऽवारो होइ ।। पूर्वाणि । इदं पुनर्नमस्कारसूत्रमुभयातीतम, यतोऽत्र न संपायरियनमोकारो, एवं खलु वमितो महत्थो त्ति । केपो, नाऽपि विस्तरः । तथा-( संखेवो दुविह त्ति ) यद्ययं जो मरणम्मि नबग्गे, अजिक्खणं कीरए बहुसो ।
संक्षेपः स्यात्ततस्तस्मिन् सति द्विविध एव नमस्कारो भवेस्सि
साधुज्यामिति, परिनिर्वृताऽईदादीनां सिकशब्देन प्रहणात, आयरियनमोकारो, सव्वपावप्पणासणो ।
संसारिणां तु साधुशब्देनोति । संसारिणो ह्यहंदाचार्याऽऽदयो न मंगलाणं च सम्वसि, तश्यं हवइ मंगलं ॥
साधुत्वमतिवर्तन्ते । अथायं विस्तरतः। तदप्ययुक्तम् । यतो वि. ४६१
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(१८४२) णमोकार भन्निधानराजेन्दः ।
मोक्कार स्तरतोऽनेकविधो नमस्कारः प्राप्नोति । तथाहि-ऋषनाजित- जा एवं वित्थरो, जुत्तो तदणंतगुणविहाणाओ। संभवाऽऽदियो नामग्राहं सर्वतीर्थकरेज्यः; तथा-सिकेज्योऽ.
जप तदसज्मो , पंचविहो हेउभेयाओ ॥३२०॥ प्येकद्वित्रिचतुष्पश्चाऽऽदिसमयसिभ्यो यावदनन्तसमयासके.
मग्गोवएसणाई, सोऽनिहिओ तप्पमेयो नेश्रो। भ्यः,तथा-तीर्थलिङ्गप्रत्येकबुझाऽऽदिविशेषणविशिष्टेज्य इत्यादि. निर्भदेविस्तरतोऽनन्तन्नेदो नमस्कारःप्राप्नोति । यतश्चैवं, तस्मा
जह लावगाऽऽभेओ,दिट्टोबवणाऽऽइकिरियाओ।३२०॥ दमुं पकद्वयमङ्गीकृत्य पञ्चविधोऽयं नमस्कारो न युज्यत एता अपि गतार्था एव ॥३२०५३३०६|| नवरं (तह जईत्यादि) इति ॥ ३२०१ ।। तदेवमुक्तमाकेपद्वारम् ।
तथा तेनैव प्रकारेण, यतेः साधोः सामान्यं, तद्ग्रहणे सति (११) अथ प्रसिद्विारम् । तत्र प्रसिद्धिराकेपस्य प्रतिवि- नाईदादिविशेषवति बुछिरुत्पद्यत शति ।। ३२०७॥ धानमभिधीयते। इह चेदं प्रतिविधानम्-'न सकेपो,
(तदनंतगुणेत्यादि) तेषामहदादीनां ये अनन्ता गुणाः प्रत्येनाऽपि विस्तरतः' इत्येतदसिम, संक्षेपत्वादस्य। कं केत्रकालजातिगोत्रप्रमाण'ऽऽकृतिववःसंयमाऽऽदिविशेषरूपा अथ संकेपकारणवशात्कृतार्थाकृतार्थपारग्रहण
उपाधयस्तैः कृत्वा विधानाद् नमस्कारस्थ करणादिति ॥३२०८॥ सिमसाधुमात्रक एवोक्त इति चेत् ।
(जह लावगाऽऽईत्यादि) यथा लावक-प्लावक-पाचक-पाठतदयुक्तम् । कारणान्तरस्यापि
क-याचकाऽऽदीनां लवन-प्लवन-पचन-पठन-याचनाऽऽदिसनावात् । तथा चाऽऽह
क्रियातो भेदो दृष्टः ॥ ३२०६ ॥ अरिहंताऽऽई नियमा, साढू साहू उ तेसु नस्यव्वा ।
(१२) अत्र क्रमद्वारविचारमाह
पुवाणुपुब्धि न कमो, नेव य पच्छाणुपुधिए सजवे । तम्हा पंचविहो खल,हेउनिमित्तं हवइ सिछो ॥३०॥
सिघाऽऽईया पढमा, विइयाए साहुणो आई ॥३३१०॥ इहाईदादयो नियमात्साधवः, तद्गुणानामपि तत्र भावात् । साधवस्तु तेष्वहंदादिषु जक्तव्या विकल्पनीयाः, यतस्ते न
शह क्रमस्तावद् द्विविधः-पूर्वानुपूर्वी या, पश्चानुपूर्वी सर्वेऽप्यहिदादयः, किं तर्हि ?, केचिदहन्तः, येषां तीर्थकरनाम
वेति । अनानुपूर्वी किल क्रम एव न भवति, असमकर्मोदयोऽस्ति,केचित्तु सामान्यकेवझिनः, अन्ये त्वाचार्या विशि
जसत्वात् । तत्रायमहदादिक्रमः पूर्वानुपूर्वी न भवति, प्रसूत्रार्यदेशकाः, अपरे तूपाध्यायाः सूत्रपाठकाः, अन्ये त्वेतद
सिकानामादावननिधानादेकान्तकृतकृत्यत्वेन । तथा-"सि. विशिष्टाः सामान्यसाधव पव शिवकाऽऽदयो,न पुनरहदादयः।
द्धाण नमोकारं, काऊण-मभिम्गहं तु सो गिरहे।" इति तदेवं साधूनामहदादिषु व्यजिचारातू तन्नमस्करणेऽपि नाऽहंदा
वचनादनमस्कार्यत्वेन च सिद्धानां प्रधानत्वात, प्रधानस्य दिनमस्कारसाध्यस्य विशिष्टस्य फासिद्धिः। ततश्च संकेपेण
चाउज्यस्तित्वेन पूर्वाभिधानादिति भावार्थः । तथा-नैव च द्विविधनमस्करणमयुक्तमेव, श्रव्यापकत्वादिति । अत्र प्रयोगः
पश्चानुपूर्येप क्रमोनवेत, साधूनां प्रथममनाभधानात्, इहा
प्रधानत्वात्सर्वपाश्चात्या हि साधवः। ततश्च तानादौ प्रतिपाद्य साधुमात्रनमस्कारो विशिष्टोऽहंदादिगुणनमस्कृतिफलप्रापणस. मर्थो न जवति,तत्सामान्याभिधाननमस्कारकृत्यात्,मनुष्यमात्र
यदि पर्यन्ते सिमाभिधानं स्यात,तदा भवेत्पश्चानुपूर्वी । तस्मा. नमस्कारवद्, जीवमात्रनमस्कारवद्वेति । तस्मात्संक्वेपतोऽपि
प्रथमायाः सिद्धाऽऽदित्वात्, द्वितीयायास्तु साध्वादित्वाद नेयं पञ्चविध एव नमस्कारो,न तु द्विविधः, अव्यापकत्वात विस्तर.
पूर्वानुपूर्वी, नापि पश्चानुर्वी ॥ इति नियुक्तिगाथार्थः ॥३२१०॥ तस्तु नमस्कारो न विधीयते, अशक्यत्वात् । तथा--"मग्गे अ.
एतदेव भाध्यकारः प्राऽऽहविपणासो" इत्यादिको यः पूर्व पञ्चविधो हेतुरुक्तः, तनिमित्त. जेण कयत्या सिघा, न जिणा सिघाऽऽइओ कमो जुत्तो । मप्ययं पञ्चविधः सिझो भवति । इति नियुक्तिगाथार्थः॥३२०२॥ पच्छक्कमो व जइसं-जयाऽऽइसिहावसाणा तो ।३११॥ ___ अथ भाष्यकार आकेपविवरणमाह--
जं च जिणाण वि पुजा, सिद्धाजंतेसि निक्खमणकाले । निव्वयसंसारिकया-कयत्थबक्खाग विहाए ो जुत्तो।। कयसिछनमोकारा, करेंति सामाइयं सव्वे ॥ ३२१२ ॥ संखेवनमोकारो, दुविहोऽयं सिसाणं ॥ ३२०३ ।। गतार्थे । ३२११ ॥ ३२१२॥ उसजाईणमणंतर-सिछाऽऽईणं जिणायाणं च ।
अत्रोत्तरमाह-- वित्थरओ पंचविहो, न विसंखेवो नवित्यारो॥३२०४।।
अरहंतुवएसेणं, सिद्धा नजति तेण अरहाऽऽई। गतार्थे ॥ ३३०३।३२०४॥
न वि कोई परिसाए, पणमित्ता पणमई रन्नो ॥३२१३॥ अथ प्रसिद्धिविवरणमाह
इह तावदयं पूर्वानुपूर्वीक्रम एव । यदप्युक्तम्-" सिकादिरयं
प्राप्नोति"। तदयुक्तम् । यतोऽह दुपदेशेनैव सिहा अपि झायन्ते, जवि जग्गहणाओ, होइ कयं गहणमरुहयाऽऽईणं।
प्रत्यक्ताऽऽदिगोचातीतत्वेनाऽऽगमगम्यत्वात् तेषाम् । तेन तस्मादतह वि न तग्गुणपूया, जश्गुणसामप्पूयाअो॥३०॥ हदादिरेव, पूर्वानुपूर्वीफम इति गम्यते । अत एव चाहतापरिणाममुछिउं, व पयत्तो सा य बज्झवत्यूप्रो।
मभ्यहितत्वमवसेयम् । कृतकृत्यमप्यल्पकाअव्यवइितत्वात प्रायः पायं गुणाहिआओ, जा सा न तदूणगुणझब्जा।३२०६।।
समानमेव । तथा-नमस्कार्यत्वमप्यसाधकमेव,अहन्नमस्कारपू
कमेव सिद्धत्वप्राप्तेरई तामपि वस्तुतःसिझनमस्कार्यत्वादिति । जह मणुयाऽऽइग्गहुणे, होइ कयं गहणमरुहयाऽऽईणं ।
आह-यद्यवं तचार्याऽऽदिभिः क्रमः प्राप्तः, अहंतामप्यान य तबिसेसबुखी, तह जइसामगहणम्मि ।३२०७।। चार्योपदेशेन परिज्ञानादिति । तदयुक्तम् । यस्मादहतसि
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(२०४३) णमोकार अभिधानराजेन्धः।
णमोकार ब्योरेवायं वस्तुतस्तुल्यबझयोर्विचारः धेयान, परमनायकप- टमहाप्रातिहार्याऽऽधतिशययोगादर्हन् स एव तत्वोपदेशाऽऽदिदवर्तित्वात्तयोः। अचार्यास्त्वहंतां परिषत्कल्पा एव वर्तन्ते। ना- भ्यो गुरुराचार्यः, स एव चेन्द्रियकषाययोगाऽऽदिविनयनादुपाऽपि कश्चित्परिषदे (पणमित्ता) प्रणामं कृत्वा, ततः प्रणम
ध्यायः, ततश्चाऽऽचार्यादिक्रमेऽपि परेणाऽऽपाद्यमाने सामथ्याति राजे इत्यतोऽप्रेयमेवेदम् । इति नियुक्तिगाथार्थः ॥ ३२१३॥
दहदादिरेव क्रमः संपद्यत इति भावः ॥३२१जान चाऽयं गु. भाष्यकारः प्राऽऽह--
रुराचार्य श्त्यतो जिनोईन भवेत्, किं तु भवेदेव, जिनातिशयजा एवं आयरिश्रो-वएसो जं जिणाऽऽइपमिवत्ती।
योगादिति । एतदेवाऽऽह-(स जिणो इत्यादि) गतार्था ।३२१६॥
अथ यमुक्तम्-"जं च जिगाण वि पुज्जा सिका" (३२१२) तोणाऽऽयरियाऽऽइकमो, जुत्तो नो चेदणेगतो॥३१॥
इत्यादि तत्राऽऽहयद्यर्हबुपदेशेन सिका झायन्त श्याहतामादौ नमस्कारः, जइ सिकनमोकारं, छउमत्थो कुणा न य तदाईप्रो। तवं सत्याचार्योपदेशत एव यस्माज्जिनाऽऽदीनामहदाऽऽदीनां तं पइ तया न दोसो, न हि सोतकाअमरुहंतो ॥३२२०॥ प्रतिपत्तिव्यलोकस्योपजायते, तस्मादाचार्यादिरेव क्रमो यु.
यदि निष्क्रमणकाले भगवाँइच्छमस्थो गुणाधिकानां सिहाक्तः, न चेदेवमिष्यते, तयनैकान्तोऽयं-यमुपदेशेन यो कायते
मां नमस्कारं करोति, करोतु नाम तदा, न कश्चिद्दोषः। कं तस्व प्राधान्यामितरस्य च गुणभाव इति ।। ३२१४॥
प्रति न दोषः, इत्याह-तं कृमस्थतीर्थकरं प्रति । न ह्यसौ पर एवाऽऽह--
तत्कालमर्हन् , केवलोत्पत्तावेव तद्भावादिति । यदि यस्थजुत्तो वगणहराणं, जिणाऽऽयो जं जियोवएसेणं ।। तीर्थकरापेक्वया गुणाधिकाः सिद्धा भवद्भिरपीध्यन्ते, तर्हि कजाणंति ते विसेसे, सेसा उ गुरूवएसेणं ॥ ३१५॥
थं उमस्थतीर्थकराऽऽदिनमस्कारः?,शति चेत् । तदयुक्तम् । कु.
तः?,इत्याह-नच तदादिश्छद्मस्थतीर्थकराऽऽदिनमस्कार इष्यकाका वदति-युक्तोवा गणधराणां गौतमाऽऽदीनामयं जिना
तेऽस्माभिः, किंतु समुत्पन्नकेवलज्ञानाईदादिरेव । स च केवदिरईदादिक्रमः, यस्मात्ते गौतमाऽऽदयो जिनस्याऽईत एवोपदेशे.
ल्याई सिद्धाऽऽदिवस्तुस्तोमस्वरूपोपदेशदानतः सिकेन्यो गुणानावशेषान् सिद्धाऽऽचार्याऽऽदीन् जानन्ति, शेषास्तु गणधरशि
धिक इत्युक्तमेवेति, अतोऽईदादिरेव नमस्कार इति ॥३२२०॥ व्यप्रशिष्याऽऽदयो निजनिजगुरूपदेशेन सिकाऽऽदीनईतश्च
अत्राऽऽकेपपरिहारौ प्राऽऽह.. जानन्ति, ततः केषाञ्चिदहंदादिः, केषाञ्चिदाचार्याऽऽदिः क्रम
एवमकयत्थकाले, सिचाई होउ भाइ तया वि। स्त्वदभिप्रायतोऽनियमेन भवत्विति ॥ ३२१५ ॥
अन्ने संतरुहंता, तो तयाई तो निच्चं ॥ ३२२१ ॥ तथा पर पवाऽऽहअहवा प्रायरिउ चिय, सो तेसिं म तो पसत्तो भे।।
यदि बद्मस्थतीर्थकरापेक्षया गुणाधिकाः सिकाः, तब स
त्यकृतार्थमस्थतीर्थकरकाले सिकाऽऽदिनमस्कारो भवतु, न्याआयरियाऽऽइउ चिय, एवं सइ सबसाहणं ॥३२१६॥
योपपन्नत्वादिति । जएयतेऽत्रोत्तरम-हन्त ! यदाऽत्र जरताअथवा मतिः-स जिनो भगवानाचार्य एव तेषां गणधरा- ऽऽदौ छद्मस्थतीर्थकरस्तदाऽपि महाविदेहेच्चन्ये केवलिनोहणामाचारप्रवर्तकत्वमाश्रित्येति भावः । ततश्चैवं सति-'ने'
न्तःसन्ति, ततस्तदादिरहदादिरव, तकोऽसौ नमस्कारो, नित्यं भवतामाचार्याऽऽदिरेव सर्वसाधूनां गणधराऽऽदीनां क्रमः | सर्वदा ।। इति गाथाऽष्टकार्थः ॥ ३२१ ॥ तदेवमुक्नं क्रमद्वारम् । प्रसक्तः प्राप्त इति ॥ ३२१६॥
(१३) अथ प्रयोजनफलयोर्दर्शनार्थमाहअत्र सूरिरुत्तरमाह
एत्थ य पोयणमिणं, कम्मक्खयमंगलाऽऽगमो चेव । पढमोवएसगहणं, तं चारुहो न सेसएहिंतो।
इहलोयपारलोझ्य-दुविहफलं तत्य दिटुंता ॥३२॥ गुरवो वितवट-स्स चेव अणुभासया नवरं ।।३२१७।। अत्र च नमस्कारकरणे प्रयोजनमिदम् । यदुत-करणकाल श्ररहतगुरूवज्का-यभावो तस्स गहराणं पि।
पवाऽऽक्केपेण ज्ञानाऽऽवरणाऽऽदिकर्मक्तयः, अनन्तकर्मपुद्गलापग
ममन्तरेण भावतो नमस्कारस्याऽप्यप्राप्तेरित्युक्तमेव । तथा-मनजुत्तो तयाइन चिय, न गुरु त्ति तओजिणे न ज॥३२१।।
लाऽऽगमश्चैव यःकरणकालनावीति,तथा-कालान्तरभावि पुनस जिणो जिणाऽऽइसयो, सो चेव गुरू गुरूवएसाओ। रैडबौकिकपारलौकिकनेदभिन्न द्विविधं फलम् । तत्र दृष्टान्ता करणाऽऽऽविणयणाओ,सोचेव मो उवकाो ।३२१।। वक्ष्यमाणलक्षपा इति ।। ३२२२ ॥ इह यद्यप्याचार्याऽऽदयोऽयहंदादीनुपदिशन्ति, तथाऽपि यत्प्र.
तदेव द्विविधं फलं तावधिवृण्वन्नाहथममुपदेशग्रहणं गणधराणां तदधिकृत्योच्यते । तचात इहलोएँ अत्यकामा, आरोग्ग अनिरय निष्फत्ती। एव सकाशाद्, न शेषेभ्य आचार्योपाध्यायाऽऽदिभ्यः । येऽपि सिच्ची य सग्गसुकुल-प्पञ्चायाऽऽई य परसोए ।।३।२३।। गुरव आचार्याऽऽदयोऽर्हदादीनुपदिशन्ति, तेऽपि तदुपदिष्ट- इहलोके नमस्कारादर्थकामौ भवतः, श्रारोग्यं नीरुजत्वमुस्याहदुपदिष्टस्यैव, केवलमनुभाषकाः, न पुनः स्वातन्त्र्यण देश- पजायते । पते चाऽऽर्थादयः शुभविपाकिनोऽस्माद्भवन्ति । का इति ॥३२१७॥ अथवा यद्यप्याचार्याऽऽद्युपदेशेनाऽर्हन्तो शाय- तथा चाऽऽह-श्राभिमुख्यन रतिरभिरतिः, सा चेहलोकेऽप्यर्धान्स इत्यभ्युपगम्यते, तथाऽप्यहदादिरेव क्रमः। कुतः१, इत्याह- दिभ्यो भवति, परलोकविषया तु तेच्य एव, शुभानुबन्धि(अरहतेत्यादि) गणधराणाम, अपिशब्दाच्षाऽऽचार्याऽऽदीना- त्वात् निष्पत्तिः 'पुण्यस्य' इति गम्यते। प्रथया-अभिरतेश्व मपि तदादिरहेदादिरेव क्रमो युक्तः। कुतः?, इत्याह-तस्याऽहत निष्पत्तिः' इत्येकवाक्यतेव। तथा-सिद्धिश्च,मुक्तिश्च,स्वर्गः,सुकएवाइद्गुरूपाध्यायभावतः। स एव हि महावीराऽऽदिर्भगवान- अप्रत्ययाऽऽदिश्व परलोके इत्यस्याऽऽमुष्मिकफसमिति ॥३२२३॥
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(१८४४) अभिधानराजेन्द्रः ।
णमोकार
(१४) अथाऽत्र द्विविधेऽपि फल्ले पूर्वोपक्किप्तान् दृष्टान्तानाह इहलोयमितिदंडी, सा दिव्वं मागवणमेव | परोए पिंगलमय जम्वो य दिहंता । ३२२४। विशेष इहलोके नमस्कारार्थमुदाहरणं विदमी"एगस्त सावगस्स पुतो धम्मं न य लेइ । सो य साबगो का लगतो । सो विबाहिरा हो ( चित्राहिओ ) एवं चैव विद्राह । अनया तेसिं घरसमीवे परिव्वायगो आवासितो । सो तेण समं मेति करे । अन्नया भणइ श्राणेह निरुवहयं श्रणाहं मयं सरियं करेमि । तेण मणिको उदो मस्सो । सो मसाणं नीतो । जं च तत्थ पाउग्गं तं च नीयं । सो य दारगो पियरे नमोक्कार विती भवतोय-जादेवीजासिता एयं पढिजासि, विजा एसा । लो य तस्स मयगस्स पुरतो विओ । तस्स व मयगस्स इत्थे असी दिन्नो । परिब्वायगो विज्जं परियट्टे । सङ्केतुमारो वेयालो । सो दारगो जीतो हियर नमोक्कारं परियट्टेश् । सो वेयालो पमितो । पुणो विजयति पुयो विडियो सुहूतरगं परियो पडित | तिदंडी प्रश्-किं वि जाणसि ? । जण न किंपि जाणामि | पुणो वि जव तयचारं पुणो वि उद्वितो पुणो नमोक्कारं परियह। ताहे वाणमेतरेण कणितं महा यसो तिरंगी दो कंडा को सुषक्षकोमी ( बाडी ) जातो ।
गोवंगाणि य से जुजुत्ता काचं सव्वरति छूटं । इस्सरो नमोक्कारभावेण जातो जर न होतो नमोकारो, तो वेषात्रेण मारितो सो सुवयं होतो "।
कामनिष्फली नमोक्कारतो कहूं ?
“गा साविगा झाली, तीखे भत्ता मिच्ाविट्टी मां भजे आ डं मग्गर, तीसे तराप न लग्न ति । स सबचगं ति चिंतेशकई मामि भरणा करण्यो घम मिला तो संगोवितो ब । जिमितो भइ आणेह पुष्पाणि अमुगे वरुप उ वियाणि । सा पविठा अंधकारं ति नमोक्कारं परिहंती चिंतेजर वि मे कोइ खाजा, तो पि मे मरतीए नमोक्कारो न नस्सिदिति ता दोहरो सप्पो देवया अवदितो पुण्फमाला कया । सा गहिया, दिशा व से। सो संभतो वितेशअाणि याणि । पुच्छर व ती काहियं ततो चेव घडातो आणीयाणि एवाणि । गतो तत्थ पेच्छर घडगं, पुप्फगंधं न वि तत्थ को सप्पो । ततो आउट्टो पाए पमितो सम्बं कदेश, खामे य । पच्छा सा चैव घरसामिणी जाया । एवं कामावदो नमोकारो " ।
आरोग्याभिदाहरणं
" एगं नगरं नदीतीरे । खरकम्मिरण सरीरविताए निमानदीप बुन्तं माउसुंगं दिनं । रामाए उषणीयं । रना सूयरस हत्थे दिनं । तेण जिम्मियंतस्स उवणीयं पमाणेण वषेण गंधेण व अहरितं । तस्स मसल्स राया तुो । दिष्या नोगा। राया भएर अरनदीप मग्गह जाव स भवे । पत्थयणं गाय पुरिसा गया । दिठो वणसंभो । जो फलाणि पद सो मर | रोकड़ियं । भणइ श्रवस्लं आणेयव्वाणि, गोलग(ख) पडिया वतु । एबं गया प्राणोंते । तत्थ जस्स गोलगो आगतो सो एगो बणे पविलइ । पविसित्ता फलाणि बाई भइ ततो असे आणेति । जो छुइइ सो मरद । एवं काले वयं सावग्रस्त परिवाडी जाया । तत्थ गतो चिंतेश् मा चिरादिय
णमोकार
सामसो को वि होऊज प्ति निसीदियं प्रणिता नमोकारं पदंतो दुक्कर |' घाणमंतरस्स चिंता जाया- कत्थ मए एयं सुपुब्वं ?, णायं संबुको बंदर, प्रणश् य अहं तत्थेव साहरामि । गतो रो कहियं । रक्षा संमाणितो । तस्स उस्सीसर दिने दिने ठवेश | एवं तेण अनिरई, भोगा या । जीवियातो य किं श्रनं आरोमां ? । राया वि परितुहोति " ।
परहोगे वि नमोकारफलं
"वसंतपुरे नयरे जियसत्तू राया । तस्स गणिया साविषा । सा चंडपिंगलेण चोरेण समं वसति । अन्नया कयाइ तेण रनो घरं दयं (खायं), हारो प्रणीतो, भीपहिं संगोविज्जर। श्राया उज्जाथियाए गमं । सग्वाम विजूसियाभो गणिया षञ्चति । तीर सवात अतिसयामित्ति सो हारो नाविको । जीसे देवीए सो दारो, ती दासीए सो नातो। कहियं रखो। सा केण समंवलइ? | कहिए पिंगलो गहितो सूले भिनो । ती विचित यं मम दोण मारियो ति सा सेनमोक्का दे, मग य निक्षणं । करेहि जहा एयस्ल रो पुतो श्रायासि सि । कयं निद्राणं । अगमहिसीय उदरे उपवनो दारयो जातो। सा साबिया की लावणधाती जाया । अन्नया चिंतेश्-कालो समो गन्जस्स मरणस्ल य होज्जा । कयाइ रमावती भण मा रोष पिंगल सि आई सरिया संबुको पातो सो राया जातो। सुचिरण कालेणं दो बि पच्चश्याणि " । एवं सुकुल परचायातीतं समागमणं सिद्धिगमणमिति । मह वा वितियं उदाहरणं
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" महुराए नवरीप जिनदतो सावगो तत्थ इंडियो चोरो नगरं परिमुसद्द। सो कयाइ गहिश्रो सूले जिन्नो । रन्ना - पिचर बितिया विसेति । ततो रायमा पडिचरंति । सो जिणइत्तो सावगो तस्स नाइदूरे वीतवियश् । सो चोरो जण सावग ! तुममणुकंपगो सि सि साइतोऽहं देह मम पाणियं जामरामि । सावगो भणइ - श्मं नमोक्कारं पढेजा, ते आणेमि पाणियं । जइ विस्तारसि तो ते माणीयं पिन देमि । सो ताप बोलयाए पढइ । सावगो वि पाणियं गहाय आगतो । ता बेला पयाय ( पचेलं पादामि ) सि णमोकारं घोसंतरसेव निम्तो जीयो जनसाहि तो चोरासि रखो निवेदर्थ वा मण- पिले मिंदह । श्रघाणं दिखा। जक्खो मोहिं परंजपे लावग अप्पणी य सरीरं । ततो पव्वयं उप्पामेऊण नयरस्स उवरि वे । भणय - सावगं भट्टारयं न याणह, स्वामेह, मा भे सब्वे रेहामि । ततो मुकको स्वामितो विनूईए नयरं पवेसितो । नयरस्स पुत्रेण जक्खस्स आययणं कथं । एवं नमोक्कारेण फलं सब्जइ । ” उक्ता नमस्कारनिर्युक्तिः । प्रा०म० १ ० २ एम ।
अथ प्राप्यकार प्रयोजनफल पोर्विवरमाहसपोभोगकिरिया गुणलाजो तपश्रयणमिहेन । कालंतर निष्कासं, फलमिह पर लोगमोक्खेसु || ३२२५ ॥ कम्मवख समयं तल्लाभे चैव तवोगाओ । सम्बत्सु य मंगल-मविग्घदेऊ नमोकारो || ३२२६ ॥
"
तस्य नमस्कारस्य प्रयोजनं तत्प्रयोजनमिहैवेहलोक पत्र । किमिति । मत्रोच्यते तद्विषयस्ततोपयोगक्रियया या कर्म कय-कयोपशमादिगुणस्य लाभः फलं तु नमस्कारस्य (का
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णमोकार अभिधानराजेन्डः।
णमोकार लंतरनिष्फतिं ति)। कालान्तरे निष्पत्तिर्यस्थ तत्काला- स्याऽऽगमः स्यात्, प्रसन्ना वा यदि कस्याऽप्याकस्मिकं धर्म स्तरनिष्पत्ति, कालान्तरभावीत्यर्थः। तच (हति) हलो- प्रयच्छेयुः,अधर्म चापहारयुः,तदाऽकृतस्य धर्मस्यागमः,कृत. के,अर्थकामाऽऽदिकम् । (परलोए ति) परलोके स्वर्गाऽऽदिकं, स्य चाधर्मस्य नाशो नबेदिति एवं यदा ते प्रसन्नाः कुपिता या मोक्षे तु जरामरणाभावाऽऽदिकमिति । तदेवं सामान्यतः प्र- कस्यापि संबम्धिनी धर्माधर्माबाच्चिद्यान्यस्य दयः, अन्यस्य योजनं फलं चोपदर्शितम् ॥ ३२५५॥ अथ प्रयोजनं विशेष. संबन्धिनौ चापरस्य, तदा प्राणिनां परस्परं धर्माधर्मयोः संकतो दर्शयति-(कम्मेत्यादि) (तम्साभे चेव सि) तस्य नमः र:, एकत्वं वा स्यात् । एवं स्वर्गनरकाऽऽदिके धर्माधर्मफलेऽपि स्कारस्य लाजकाल एव , तऽपयागानमस्कारोपयोगादनु- कृतनाशाऽऽदिभावना कार्येति ॥ ३२३० ॥ ३२३. ॥ समय कर्मक्रयो भवति । तथा-सर्वार्येषु च सर्वकार्येषु प्र.
अपि चवृत्तानां मङ्गलमविघ्नहेतुनमस्कारः संपद्यत इति ॥ ३२२६ ॥ । नाणानाबाहसुहं, मोक्खो प्याफलं जोऽजिमयं । अत्र कश्चिदाह-"मनु नमस्कारोपयोगात्कर्मक्कयो न. तं नाऽऽयपज्जयाओ, देयं जीवाऽऽइभावोब्ब ।।३२३।। वति" इत्येतत्कुतः, इत्याह
ज्ञाने सत्यनाबाधस्य यत्सुखं तपो यो मोकः, स एव य. सुयमागमो त्ति यतो, सुमोवमोगप्पोयपोतं च। स्मानमस्कारलक्षणायाः पूजायाः परमार्थतो मुण्यं फलम
आयहियपरिमाभा-वसंवराऽऽइ-बहविगप्पं च ॥३२२७।। भिमतं,स्वर्गाऽऽदरानुषङ्गिकफलत्वात् । तच यथोक्तं सुखं न कतकोऽसौ नमस्कारः श्रुतमागम इत्यर्थः । स च धुतोपयोगप्र.
स्यापि देयं दातुं शक्यम, आत्मपर्यायत्वात, जीवचैतन्याऽऽदि. योजनः श्रुतोपयोगः प्रयोजनं फलमस्येति कृत्वा । तच श्रुतो
भाववत् । ततश्च पूजाफादाननिषेधे सिरूसाधनमेवेति ।३२३२। पयोगप्रयोजनमात्महितभावसंवराऽऽदिभेदेन बहुविकल्पं बहु
यदि पूजाफर्स न देयं, तर्हि किं देयमिह भवेट ?, इत्याहनेदम् । उक्तं च-" आयहियपरिप्लाना-वसंबरो नवनवो य भत्ताऽऽइ होज देयं, न तदत्यो पूयणप्पयत्तोऽयं । संवेगो । निक्कंपया तभो नि-जरा य परदौसियत्तं च ॥१॥" तं पि सकश्रोदयं चिय, बज्कनिमित्तं परो नवरं ।३२३॥ इत्यादि । अतो नमस्कारस्य धुतरूपत्वाद्भवत्येष तदुपयोगाकर्मवय इति ॥ ३२२७॥
शाल्योदनाऽऽदिरूपं भक्ताऽऽदिकं परस्मै देयं भवेत, स्थूलपु
दलस्कन्धमयत्वात् , घटाऽऽदिवत् । केवलं तदर्थों भक्ताऽऽध(१५) अत्र प्रेरकः प्राऽऽह
थोऽयं पूजनप्रयत्नो न जबति, किं तु मोकाऽर्थः। किश्च-तदपि पूयाफलप्पया न हि, नहंघ कोवप्पसायविरहाश्रो। भक्ताऽदिकं स्वकृतारकर्मण उदय उत्पत्तिर्यस्य तत्स्वकृतोदयं, जिणसिका दिईतो, वधम्मेणं निवाऽऽईया ॥३२२०॥ स्वकृतकर्मजनितमेवेत्यर्थः । यस्तु परः कश्चिदाता रश्यते, स नमस्कारलक्षणायाः पूजायाः फलं पूजाफलं तत्पदा न हि
केवलं बाह्यनिमित्तमानमेव । निश्चयतस्तु बाह्योन कोऽपि क. नैव जिनसिकी, कोपप्रसादरहितत्वात्, नभोवदिति । ये तु
स्यापि दाता, अपहर्ता चेति ॥ ३२३३ ॥ पूजाकलदाः ते कोपप्रसादरहिता न भवन्ति, यथा नृपाऽऽदय
एतदेव समर्थयन्ताहइत्येष वैधयेण दृष्टान्त इति ॥ ३२२७ ॥
कम्मं सुहाऽऽइहेक, बजायरं कारणं जया देहो। एतदेव समर्थयन्नाह
सदाऽऽऽ बज्तरयं, जइ दायरि कहा का णु?॥३३॥ पूयाऽणुवगाराओ, अपरिगहाम्रो विमुत्तिजावाश्रो। तम्हा सकारणं चिय, सुहाऽऽड़ बऊ निमित्तमेत्तायं । दूराऽऽश्भावोवा, विफला सिचाऽऽप्यत्ति ॥३२९६।। को कस्स देइ हरइव,निच्छयो का कहा सिद्धे।३२३५॥ विफमा सिद्धाऽऽदिपूजेति प्रतिज्ञा।देतूनाह-पूजाया अनुपक्रि- यदि हन्त ! सुख दुःखानामन्तरङ्गं कर्मैव हेतुः, देहस्तु यदा यमाणत्वात्, तदपरिग्राहित्वाद्, अमूर्तत्वात, दुराऽऽदिन्नावात, तेषां बाह्यतरं कारणं, शब्दरूपाऽऽदिकं तु शुभाशुभमपि बाह्यनभावदिति ॥ ३२२६ ।।
तरं कारणं, तदाऽतिबाह्यतरादपि परभूते दातरि कात्र अत्र प्रतिविधानमाह
किल कारणत्वकथा , इति ॥३१३४|| तस्मात्स्वमारमीयं कर्म
व कारणं यस्य तत्स्वकारणमेव सुखाऽऽदि, बाह्यं तु देहशब्दरू. जिणसिका दिति फलं, पूयाए केण वा पवम्यामिणं ।
पाऽऽदिकं निमित्तमात्रकमेव । ततो निश्चयतः कः कस्मै ददाति, धम्माऽधम्मनिमित्तं, फलमिह जं सन्यजीवाणं ॥३२३०॥ अपहरति वा?, न कश्चिदित्यर्थः । तथा च सति क्कीणरागद्वेषे ते य जो जीवगुणा, तो न देया न वा समादेया। । सिकेका नमस्कारफलदातृत्वकथा, इति ॥ ३५३५ । कयनासाऽकयसंजो-गसंकरेगत्तदोसाओ ॥३३॥
अत्र परप्रेथ परिहारं चाऽऽहनन्ययमनुक्तोपानम्नः सर्वोऽपि पूर्वोक्तः, यस्माद "जिनसिद्धाः
जा सव्वं सकय चिय, नदाहरणासइफलमिहाऽऽवयं । पूजायाः फलं ददति" इति केनेदं प्रपन्नम ?। धर्माधर्मनिमित्त- णणु जत्तो चिय सकयं,तत्तोच्चिय तप्फलं जुत्त।३२३६। मेव हि यस्मात् स्वर्गनरकाऽऽदिक फलमिह सर्वजीवानामिति ॥ दाणाऽऽइपराणग्गह-परिणामविसेसओ सओ चेव । तौ च धर्माधर्मों यतो जीवगुणौ, ततो न कस्यापि देयौ दातव्यौ,नापि कुतश्चित्समादेयौ ग्राह्यौ,झानाऽऽदिगुणवत् । कुतः?,
पुर्व हरणापरो-बघायपरिणामोपावं ।। ३२७।। इत्याह-(कपनासेत्यादि) यदि ह्येते जिनसिकाः कुपिताः सन्तः
तं पुन्नं पावं वा, छियमत्तणि बज्रुपच्चयावेकवं । कस्यापि धर्ममपहरेयुरधर्म च प्रयच्छेयुः, तदा कोपविष- कालंतरपागाओ, दे फलं न परो लब्भं ।। ३३० ॥ यनूतस्य प्राणिनः कृतस्य धर्मस्य नाशः, अकृतस्य चाऽधर्म- । ययुक्तप्रकारेण यलोकः शुलमशुभं वा फलमनुनवति, तत्त
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(१८४६) णमोकार अभिधानराजेन्द्रः।
गामोकार र्व स्वकृतमेवेष्यते, न पुनः कोऽपि कस्याऽपि किमपि ददात्य. हणं, पुनरपि चान्यस्मै दान, पुनरपि तस्माद् ग्रहणमित्यादि । पहरति वा; तहि दानापहरणाऽऽदीनामिह दातुरपहर्वा न कि- ततश्च दानग्रहणपरम्पराव्यापृतस्य मोक्षाभावप्रसङ्गः, दानफलश्चित्फलमित्यापन्नं, स्वकृतस्यैव फलेन तस्य प्राप्तत्वादिति । स्य च स्वयमपरिभोगः प्राप्नोति, अन्योन्यदानग्रहणाभ्यामायसूगिराह-ननु यत एव तत्स्वकृतं, तत एव तत्फलं दा- व्ययविशुद्धत्वादिति ॥ ३२४२ ।। तुरपहर्तुश्च युक्तम् । दाता हि दानसमये परानुग्रहपरिणा- तदेव ताधिकविशेषाणां सौम्मातिका ऽऽदीनां मतमपामविशेषात्म्वत एव पुण्यं बध्नाति; अपहतो तु परोधातपरि
कृत्योपसंहारपूर्वक स्वाऽभिमतमुपदर्शयन्नाह.. णामात स्वत एवं पापं बध्नाति । अतस्तयो
तम्हासपराणुग्गह-परिणामाप्रो मुपत्तविणि श्रोगा। स्तत्पुण्यपापलक्षणं फलं स्वकृतमेवेति कथं न युक्तम् ?, युक्तमेवेति ॥३२३६।। एतदेवाह-(दारपाऽऽईत्यादि) आदिशब्दाइया
दाया पुस्मं पावा, जं तत्तो से फलं होइ ।।३२४३।। ऽऽदिपरिग्रहः । (सओ चेव त्ति) स्वत एव स्वकृतमेव दातुः तस्मात्स्वपरानुग्रहपरिणामेन सुपात्रेषु वित्तविनियोगादाता पुण्यं, स्वत एव चापहर्तुः पापम् । शेषं गतामिति ॥३२३७।। यत्पुण्यं प्राप्नोति, ततः (से) तस्य दातुः फवं स्वर्गाऽऽदिकं भवतच पुण्यं पापं वा स्वपरिणामजनितमात्मन्येव स्थितं, किंतु तीति ॥ ३२४३।। बाह्यनिमित्तमात्रापेक्ष कालान्तरे विपाकाच्नमशुभं वा फलं तदेवमुक्तनीत्या दाता स्वत एवेदं स्वर्गाऽऽदिफलं लनते,न ददानीति " परकृतम्" इति व्यपदिश्यते, न पुनः परमार्थतस्त- __ तु परतः, गृहीताऽप्येवमेव द्रष्टव्य इति दर्शयन्नाहतत् पुण्यपापफ परतो बज्यमिति ।। ३२३८ ।।
जह सो पत्ताणुग्गह-परिणामाओ फलं सोलहइ । ननु परतस्तद्वाभे को दोषः, इत्याह
तह गेएइंतो वि फलं, तदणुग्गहओ सो लहइ ।३२४४। जड़ वा परसहियच्चं, तत्तोच्चिय जेण तप्परिग्गहियं ।
गतार्था ॥ ३५४४॥ तो तम्मि सिवं पत्ते,कुगइगए वा कुओ लन्भं ॥३२३६।।। एवं परधनापहार्यपि स्वत एव वधबन्धननरकाऽऽदिकं पापस्पष्टा ॥३२३४॥
फलं लभते, न परत इति दर्शयतिअपि च-यदि येन यदत्तं तस्मै तद्देयम, यस्य चाऽऽ. हारी विहरणपरिणा-मसियो बकपच्चयावेक्खं । पहृतमसावपि तस्याऽऽहरति, तहदि दूषण
पावो पावं पावइ, जं तत्तो से फलं होइ ।। ३२४५ ॥ म । किं तत् ?, इत्याह
श्यमप्युक्तार्थप्राया ॥ ३२४५ ॥ लहइ अदितो व को, साहू जं देज पुबदायस्स। कत्तोऽवहारिणोतं, पमिहीरिज से धणिणो॥३२४०॥
अथ प्रकृतयोजनामादअहव मई जं तेण वि, दिन्नं अएणस्स तं तो लर्छ।
जह सायत्तं दाणे, परिणामाओ फलं तहेहावि ।
निययपरिणामओ चिय,सिचं जिणसिद्धप्याए।।३२४६।। पमिदेश तहाऽऽहारी, हारीओ अन्नो लर्छ ।।३२४१॥ |
प्रकटार्थप्राया ॥ ३२४६॥ वा अथवा, इह निर्ग्रन्थत्येन साधुनमदददप्रयच्चन्मृत्वा
(१६) अथ जिनाऽऽदिपूजाप्रतिष्ठार्थ प्रमाणयन्नाहभवान्तरं प्राप्तः पूर्वमदत्तत्वात्कृतः कस्मादाहाराऽऽदि तल्ल
कज्जा जिणाऽऽइपूया, परिणामविसुछिउपओ निच्चं । जते, यत्पूर्वभवसंबन्धिन आहाराऽऽदिदातुस्तदानीं दद्यात ?, इति । यो वा पूर्वभवे कस्याऽपि संबन्धिनमपहृत्य मृतो
दाणाऽऽदन व मग्ग-प्पजावणाओ य कहणं व ३२४७ जन्मान्तरे निःस्वो जातः (से) तस्य परधना उपहारिणः कु.
कार्या नित्यं जिनाऽऽदिपूजेति प्रतिज्ञा,स्वपरिणामविशुद्ध हेतुतस्तद्धनं यत्पूर्वभवनिना प्रतिहियते ?, ति ॥ ३२४.॥
त्वादिति हेतुः, दानाऽऽदिवदिति दृष्टान्तः । अथवा-कार्या निअथ मतिः परस्य भवेत् तेनापि साधुना यदनेकभवेष्वन्य
त्यमेव जिनाऽऽदिपूजा, मोकमार्गप्रजावकत्वात, धर्मकथनवम्याऽऽहाराऽऽदिक दत्तं तत् ततो लब्ध्वा पूर्वभवदातुः प्र.
दिति ॥३२४७॥ तिददाति । तथा-योऽपि पूर्वभवे परधनमपहृत्येहभवे निः
"कोपप्रसादरहितत्वात्" इति परोक्तहेतोरनैकान्तिकतां
दर्शयन्नाहस्वो जातस्तस्यापि संबन्धिनं नानाभवेष्वन्येनान्येन वाs. पहृतमास्ते, ततश्चासौ ततः स्वधनापहारिणोऽन्यतः स.
कोवप्पसायरहियं, पि दीसए फलदमन्नपाणाऽऽ। काशात्स्वापहृतं लब्ध्वा यस्य सत्कं तेन पूर्वप्रपहृतं तस्मै, प्रति. कोवप्पसायरहियं, ति निप्फनं तो अणेगंतो ।।३श्वना दद्यात्', इति शेषः ॥ ३२४१ ।।
पूर्वाः सुबोधम् । ततः "कोपप्रसादरहितं वस्तु निष्फलम्" तदेतत्सर्वमयुक्तम, कुतः ?, श्त्याह
इत्यनेकान्तः, अन्नपानादिनियनिचारादिति ।। ३२४८।। एवं होउगवत्या, दाणग्गहणाणमपरिनोगो य।
अपि च-विरुद्धोऽव्ययं हेतुरिति दर्शयन्नाहजइ परमो लछन्न,दिन्नं वा तस्स तं चेव ॥३२॥
कोवाऽऽऽविरहियं चिय,सव्वं जमणुग्गहोवघायाय । यदि दानाऽऽदिविषयस्वपरिणामवशात्पुण्यपापे नेष्येते,किंतु
दीसइ तेण विरुई, फन्नमिह कोवप्पसायाभो ॥३२४ाणा यद्यस्मै दत्तं तत्तस्मादेव परतो लज्यमित्यभ्युपगम्यते । यस्मा- दाऽऽकाशानपानपीयूषविषचिन्तामण्यन्धोपल कल्पद्रुमविषद्वा यदादारादिकं कदापि लब्धं, तस्यैवाऽन्यदा दत्तं, न पुन- वृक्कगुडनागरहरीतकीमरीचाऽऽद्यौषधाऽऽदिकं सर्वमपि वस्तु
यकेन ग्राहकस्य किमप्यधिकं कृतमिति चेष्यते, तदैवं स. कोपप्रसादविरहितमेघ यस्मादनुग्रहोपघातयोः प्रवर्तमानं दृश्यते, ति दानग्रहणयोरनवस्था प्राप्नोति; यस्मै दानं तस्मात्पुन- तेन तस्मादिह कोपप्रसादतः सकाशारफलमुच्यमानं विरुद्धमेव
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(१८४७) णमोकार अनिधानराजेन्द्रः।
णमोकार संलक्ष्यते । तथाहि-कोपाऽऽदिरहितादेवाऽऽकाशाऽऽदेवण उपघा- तो जो जस्स पसन्नो, स तस्स देज्जा जगद्धम्म ।३२५५। तः, पट्टकबन्धाऽऽदेस्वनुग्रहः, हितमितानपानाऽऽदरनुग्रहः, स
कुपिनो हरेज सव्वं, दिजा धम्म व तह य पावं ति । स्माद्विपरीतात्पुनरुपघातः। एवं पीयूषविघाऽऽदेरापि सकाशाकोपाऽऽदिविरहितादेवानुग्रहोपघाती दृश्यते । ततो विरुद्धोऽ. अकयाऽऽगमकयनासा, मोक्खगयाणं पि चापडणं ।३२५६। यं हेतुः, विपक्क एव वृत्तिदर्शनादिति ॥ ३२४५ ॥
वाशब्दः प्रस्ताबनायां, सा च कृतैव । तस्य धर्मस्य दयाअथ राजाऽदिनां हरणप्रदानहेतवः कोपप्रसादा भवन्तीति
दानप्रशमब्रह्मचर्याऽहंदादिपूजाऽऽदीनि साधनानि, तैः शून्यप्रत्यक्कत पव दृष्यमिति परस्य मतिर्भवेत; ननु तदपि सर्वस्वा- स्यापि यदि धर्मः परप्रसादमात्रादेवेष्यते. ततस्तहि य ईश्वराऽऽहरणं, प्रदानं वा स्वपापपुण्यकृतमेव । यस्तु परः, स तत्र ऽऽदिर्यस्य देवदत्ताऽऽदेः प्रसन्नःस ईश्वराऽऽदिर्जगतोऽपि संबकेवलं निमित्तमात्रमेवेति प्रागेव भणितमिति दर्शयन्नाह- न्धिनं धर्ममपहृत्य तस्यैवैकस्य देवदत्ताऽऽदेःसर्व दद्यात्। तथाहरणप्पयाणदेऊ, हवेज कोवाऽऽदओ मई तं पि । कुपितः स एव तस्य देवदत्ताssदेसंबन्धिनं सर्व धर्ममपनणु सकयं चिय नणियं, निमित्तमेत्तं परो नवरं ।३२५०।। हरेत, अधर्म वासर्वमपिप्रयच्छेत् । तथा च सत्यकृताऽऽगमकगता ॥ ३२५० ॥
तनाशौ प्राप्नुतः, एकस्याकृतयोरपि धर्माऽधर्मयोरागमाद, अ. अथवाऽपहरणप्रदानाऽऽदिकं स्वकृतं नेष्यते, तत्राऽऽह
न्येषां तु स्वयंकृतयोरपि तयो शादिति । मोक्कगतानामपि च जइ वा न सकयहेन, तं तो कोवप्पसाययं राया ।
सिमानामेवं पतनं स्यात्तदीयपूर्वसुकृतस्यान्यत्र संचरणात्,
अन्यदीयाधर्मस्य च तेषु प्रहपादिति ॥ ३२५५॥ ३२५६॥ सो सबसेवयाणं, समानफलदो कहं न नवे ॥३२५१॥
किञ्च-परकीयकोपप्रसादाभावेऽपि धर्माऽधर्मों तथापि पासिका ।। ३२५१॥
प्रसिझौ । कथम् ?, श्त्याहअपि च
जइ वीयरागदोस, मुणिमक्कोसिज कोई दुदृऽप्पा । दीसइ य विसमफलदो, विफलो य समाणसेवयाणं पि ।
कोवप्पसायरहिओ, मुणिति किं तस्य नाधम्मो १।३२५७। भन्मइ य सुकयपुस्लो, तो से रायप्पसाउ त्ति ॥ ३५॥
सवओ तस्साऽधम्मो, जइ वंदंतस्स तो धुवं धम्मो । समानसेवकानामपि विषमफलदः केषाञ्चिद्विफलश्च दृश्यते राजा । ततो ज्ञायते-स्वकृतपुण्यपापकृतमेवेदं सर्वमपि वैचित्र्य
कोवप्पसायरहिए, तह जिणसिके वि को दोसो १।३२५७। म, राजाऽऽदिस्तु तत्र निमित्तमात्रमेवेति। अपरं च लोकेऽपि न. वातावपगतौ रागद्वेषौ यस्य तं वीतरागद्वषं मुनि यदि दुष्टाऽsरयते लोकेऽप्येवं वक्तारो भवन्ति-"सुकृतपुण्यः स देवदत्ताऽऽ. त्मा कश्चिदाकोशेत, तदा"चीतरागद्वेषत्वात्कोपप्रसादरहितास दिः (तो से त्ति) ततः 'से' तस्यैव राजप्रसादो जातः" इति । तत मुनिः" इत्येतावन्मात्रेण कि तस्याऽऽकोटुर्नाऽधर्मः स्यात् ?, एवमादिलोकोक्तेश्च स्वकृतपुण्यपापानुमानं प्रवर्तत इति।३२५२। ननु स्यादेवाऽसौ, सकलशास्त्रलोकप्रतीतत्वादिति ॥ ३२५७ ॥ अपि च
ततश्च (सवओत्ति) मुनि शपमानस्य तस्याऽऽक्रोष्टर्यद्यधकोवप्पसायहे उं, च जं फलं न हि तदत्थमारंभो। मोऽन्युपगतस्त्वया, ततस्तयन्यस्य कस्यापि शुनपरिणाम. न परप्पसायणत्थं, किं तु निययप्पसायत्यं ॥ ३२५३ ॥
स्य तमेव मुनि वन्दमानस्य ध्रुवं निश्चितं धोऽप्येष्टव्य एव,
स्वपरिणाममात्रनिबन्धनत्वस्यहाऽपि समानत्वादिति । यदि कोपप्रसादहतुकं च यत्किमपि फलं तदर्थो नैवायमस्माकम- नामवं, ततः प्रकृते किम ?, इत्याह-तथा तेनैवोक्तप्रकारेण को. ईदादिनमस्कारपूजाऽऽरम्भः, नाऽवि परप्रसादनार्थ, किं तुनि
पप्रसादरहिते जिने सिकेच नमस्कर्तुर्निजशुभपरिणामवशाजकचित्तस्य यः प्रसादः प्रससिरहंदादिगुणबहुमानेन शुभ- पथोक्तफलप्राप्तौ को दोषः ?, न कश्चिदिति ॥ ३२५८ ॥ रूपता, तदर्थोऽयमारम्भ इति ॥ ३२५३ ॥
(१७) रष्टान्तान्सरेणाऽप्यहंदादित्यः फलप्राप्ति परप्रसादनार्थ नाऽऽरम्भ इत्याह
समर्थयन्नाहधम्माऽधम्मा न पर-पसायकोवाणुवत्तिणो जम्हा ।
हिंसामि मुसं जासे, हरामि परदारमाविसामि ति । तोन परोत्तिप्रसाणो, धम्मो कुर्विन तिवाऽधम्मो ।३२५४ा
चिंतेज कोइ न याचिं-तियाण कोवाऽऽऽसंतूई॥३२५॥ धर्माधों ह्ययमारम्भः । धर्माऽधौं च यस्मान्न परप्रसादकोपानुवर्तिनी, किं तर्हि ?, जीवगतशुभाशुनपरिणामानु
तह वि य धम्माधम्मो-दयाऽऽइ संकप्पो तहेहावि । यायिनी, ततः परः प्रसन्नः' इत्यतावता न धर्मः, नापि
वीयकसाए सवो-ऽधम्मो धम्मो य संयुणो॥३५६०॥ 'परः कुपितः' इत्येतावन्मात्रेणाऽधर्मः, किंतु निजशुभाशुभप. "दिनस्मि हरिणाऽऽदीन्, मृषा भाषेऽहं, तद्भाषणाच वश्चयामि रिणामवशाद्धर्माधर्मों । तत्र च शुनाशुभपरिणामस्याss
देवदत्ताऽऽदीन् ,धनमपहरामि तेषामेव,परदारानाधिशामि निलम्बनमहदादयो नमस्क्रियमाणाः संपद्यन्ते । शुभपरिणामाच
वेऽहम," इत्यादि कश्चिश्चिन्तयेत् । न च तेषां चिन्तितानां हिधर्मः । तस्माच्चार्थकामाऽऽदयः, स्वर्गापवर्गों च भवतः ।
साऽऽदिचिन्ताविषयभूतानां हरिणाऽऽदीनां तत्कालं कोपाऽऽदि. इति संपद्यत एचाहन्नमस्कारस्य यथोक्तं फसमितीह ता
संभूतिः कोपाऽऽदिसंभवोऽस्ति ॥३५५६।। तथापि हिंसाऽऽदित्पर्य मिति:: ३२५४॥
चिन्तकस्याधर्मः, दयाऽऽदिसंकल्पतस्तु तद्वतो धर्मो भवति । यदि परप्रसादकोपाऽनुवर्तिनी धर्माधमौ स्यातां,
इत्यावयोरविगानेन प्रसिझमेव, तधेडापि प्रस्तुते वीतकषाततः को दोषो भवेत ?, इत्याह
यानप्यहत्सिद्धाऽऽदीन शपमानस्याऽधर्मः, संस्तुवतस्तु धर्म तस्साहणमुन्नस्से वि, जइ वा धम्मो परप्पसायाओं
इति किं नेष्यते ?, ति । ३२६० ॥
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(१०४०) णमोकार अभिधानराजेन्द्रः ।
णमोकार अथोपसंहारपूर्वकं प्रस्तुतमुपदर्शनाद
अथ पश्चानामपि पूज्यत्वसमर्थनार्थ प्रमाणमाहतम्हा धम्माऽधम्मा, जुत्ता निययप्पसायकोवाश्रो।
पूया परोवयारा-भावे वि सिवाय जिणवराऽऽईणं । धम्पत्थिणा पयत्तो, कज्जो तो सप्पसायम्मि ||३२६१॥ । परिणाममुकिहेजें, सुजकिरियाओ य बंजं व ॥३२६७॥ सो य निययप्पसाओ-वस्सं जिणसिकपूयहाउत्ति। शिवाय मोकार्थे भवति पूजा, परोपकाराभावेऽपि पश्चानाजस्स फलमप्पमेयं, तेण तयत्यो पयत्तोऽयं ॥३६॥
मपि जिनवराऽऽदीनामिति साध्यम, पूजकपरिणामशुद्धिहेतु.
त्वात, तनमस्कारक्रियायाश्च नानाऽऽविगुणविषयबहुमानत्वेन सुगमे, नवरं यस्य निजमनःप्रसादस्याप्रमेयमनन्तं फलं
निरवद्यत्वेन च हानत्वाद, ब्रह्मचर्याऽऽदिवदिति ॥ ३२६७ ॥ येनानन्तफलोऽसौ, तेन कारणेन तदर्थो निजमनःप्रसादार्थ
अथ सुप्रसिकदृष्टान्तोपदर्शनेनापि जिनाऽऽदिपूजा परोपएवार्हदादिनमस्कारप्रयत्न इति ।। ३२६१ ।। ३२६२॥
काराभावेऽपि शिवायेति समर्थयन्नादअस्यैवार्थस्य साधनार्थ प्रमाणयन्नाह
परहिययगया मेत्ती, करे। जूयाण कमुवयारं सा । नाणाऽऽइमयत्ते सइ, पुज्जा कोवप्पसायावरहायो ।
अवयारं दूरत्थो, कं वा हिंसाऽऽइतंकप्पो ॥३६॥ निययप्पसायहेउं,नाणाऽऽतियं व जिणसिद्धा॥३२६३॥ धम्माऽधम्मनिमित्तं, तहा वि तह चेह निरुवगारो बि । निजमनःप्रसादहेतोः पूज्या जिनसिका इति प्रतिज्ञा, ज्ञानाऽऽ. पूयासुहसंकप्पो, धम्मानिमित्तं जिणाऽऽऽणं ॥ ३२६५ ॥ दिमयत्वे सति कोपप्रसादविरहादिति हेतुः, झानाऽऽदित्रि
परहृदयगता साधुहृदयस्थिता सर्वभूतेषु या मैत्री सा तेषां कवदिति दृष्टान्तः । कोपाऽदिविरहिता लेटकाष्ठाऽऽदयोऽपि
पृथिव्यादिनूतानां कमुपकारं करोति?, न कश्चित् । तथा-कंवा विद्यन्ते, अतस्तव्यवच्छेदार्थ शानाऽऽदिमयत्वे सतीति हेतोर्वि.
देवदत्ताऽऽदिहृदयगतो दूरस्थहरिणाऽऽदिनूतग्रामविषयो दूरस्थशेषणमिति ॥ ३२६३॥
दरिणाऽऽद्यपेकया दूरस्थो हिंसास्तेयाऽऽदिसंकल्पोऽपकारं कुर्या. (१८) परः प्राऽऽह
त?, न कश्चित; तथापि मैत्री हिंसाऽऽदिसंकल्पश्च भूतानामुपपुज्जा जिणाऽऽश्वज्जा, न हि मोक्खत्थं सरागदोस त्ति । काराऽपकारविरहेऽपि द्वावपि यथासंख्यं धर्माऽधर्मनिमित्तं अकयत्थनाव ओ वि य, दबढाए दरिद्द व्व ॥२६॥
प्रवत एव । तथा चैवं चोक्तप्रकारेण निरुपकारोऽपि जिनाऽऽदी
नामुपकारमकुर्वन्नपि भूतानांसाधुगतभैत्रीसंकल्पवर्जिनाऽऽदीनां जिनसिद्धान्वर्जयित्वा शेषा आचार्योपाध्यायसाधवो, न हि
पूजा शुनसंकल्पः पूजकस्य धर्मनिमित्तं नवतीति ॥ ३२६ए । नैव, मोक्वार्थ पूज्या इति प्रतिज्ञा, सरागद्वेषत्वाद्, अत एवाs. कृतार्थभावाच, व्याथै दरिका श्वेति ।। ३२६४ ॥
(१५) आह-ननु यथा दामं साध्वादीनामुपकारं करोति, नैवं
जिनाऽऽदीनां नमस्कारपूजा, तत्कथमसी धर्मनिमित्तं अत्र प्रतिविधानमाह
भवति ?, इत्याशयाऽऽहकबुसफलेण न जुज्जइ, किं चित्तं तत्थ जंगियरागो। दाणे विपराऽणुग्गह-लक्खणसंकप्पमेतो चेव । संते वि जो कसाए, न गिएहई सो वि तत्तुदो ॥३३६॥ फलामिह न न पच्गत-कोवगाराऽवगाराओ।३२७०। किं तत्र चित्रं किमाश्चयं, यद्विगतरागः कलुषफोन कषाय- शहरोवउत्तभत्ता-जिनाऽऽइ वहम्मि दक्खिणे यस्स । जनितेन चित्तकालुष्येण न युज्यते, विगतकषायोदयत्वात्तस्व । दितस्स वहावत्ती, तेणाऽऽदाणप्पसंगोऽयं ।। ३२७१ ॥ ननु सोऽपि तत्तुल्यो वीतरागसमान एव यः सतोऽपि कषा
साध्वादिदानेऽपि पराऽनुग्रहलकणसंकल्पमात्रत पवेह यान्न गृह्णाति । ततश्चास्मात्परमगुरुवचनादाचार्याऽऽदयोऽपि वीतरागतुझ्या एव, सतामपि कषायाणां निग्रहात् । ततः स.
दातुः फलनिष्पत्तिः, न पुनः पश्चात्तत्कृताद् दानकृता
पकारादपकाराद्वेति ॥ ३२७०॥ इतरयोपयुक्त साध्यादिना रागद्वेषत्वादित्यसिको हेतुरिति भावः। इयं च गाथा केषुचिदादर्शेषु न दृश्यते; पूर्वटीकाकारैरपि न व्याख्याता, अस्माभिस्तु
भुक्ते योऽजीर्णाऽऽदिदोषस्तेन दाक्षिणेयस्य-दक्षिणा दानं बहुष्वादशेषु दर्शनात्सोपयोगत्वाञ्च लिखितेति ॥ ३२६५ ।।
तद्विषयभूतस्य साध्यादेवधे मरणे सति दातुर्वधाऽऽप
तिहिंसाऽऽदिदोषसमापत्तिःतेन च हिंसाऽऽदिदोषेणाऽऽदानप्र'अकृतार्थत्वात्' इत्यवमपि हेतुरनैकान्तिकः, अकृतार्थत्वे स
सङ्गोऽयं प्राप्नोति; अनिष्ट चैतत, दातुर्विशुरूपरिणामत्वात् । न त्यपि कारणान्तरतोऽपि पूजासंभवादिति दर्शयन्नाह
हितेन साध्वादिजिघांसया दानं दत्तं, कि तु तद्गुणबहुन परोवयारो चिय, धम्मो न परोवयारहेउं च ।। मानाऽऽदिपरिणामेन । न चैवं विशुरूपरिणामस्यापि पापसं. पूयाऽऽरंजो नणु सप-रिणामसुखत्यमक्खाओ।३।१६। बन्धो घटते, अन्यथा मातृस्तन्यपानादजीर्णाद् बालस्य मरणे 'अकृतार्थभावात्' इति ब्रुवतस्तव किवायमभिप्रायः-'स्वयम.
मातुस्तधकृतपापप्रसङ्गादिति । तदेवं प्राग् यमुक्तं "प्रयाऽणुकृतार्थाः सन्त श्राचार्याऽऽदयो न परोपकारक्षमाः, अतस्तदसा
वगारापोऽपरिमगहाओं"(३२२६)इत्यादि, तत्र पूजाऽनुपकारामर्या दरिकाश्च न ते नमस्करणीयाः' इति । एतच्चायुक्तम् । दित्ययं हेतुरपाकृतः ॥ ३२७१ ॥ यतो न परस्मादर्हदादेरुपकारत एव धर्मो नमस्कर्तुः, नापि अथ "अपरिग्रहात्" इत्यमुं निराचिकीर्षुराहपरस्याईदादेरुपकारहेतोस्तस्य नमस्कारपूजाऽऽरम्नः । ननु
न परपरिग्गहउ च्चिय,धम्मो किं तु परिणामसघीयो । स्वपरिणामशुद्धयर्थमाख्यातोऽसौ । ततः किञ्चिदकृतार्थत्वे सत्यपि स्वशुभपरिणामनिबन्धनत्वात्पूज्या पवाऽऽचार्याऽऽदय
पूया अपरिगहम्मि वि, सा य धुवा तो तदारंनो ।३२७२। इति ॥ ३५६६ ॥
न खलु पूजायाः परेण पूज्येन परिग्रहादेव स्वीकारादेव ध
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(१४) णमोकार अनिधानराजेन्डः।
गामोकार मः, किं तु स्वपरिणामशुद्धितः । सा च परिणामबुद्धिः पूजा- पृया मुत्तिगुणाणं, संबंधे फलमितीह को हेऊ ? । याः परेणापरिग्रहेऽपि ध्रुवा निश्चिता स्वसंवेदनसिद्धा सम
अन्नो परिणामाश्रो, तस्स य को केण मंबंधो ? ॥२०॥ स्ति, ततस्तदारम्भो नमस्कारपूजाऽऽरम्न इति ॥ ३२७२ ॥
हिययत्यो * परिणामो, बज्झत्थावंबणनिमित्तमिसागो । किश्व-दानस्यापरिग्रहत्वमन्युपगम्योक्तं,
दे फलं सब्बो च्चिय, सिकगुणाऽऽश्रवणो चेवं ॥३५८१।। वस्तुतस्तु तन्नास्त्येवेति दर्शयन्नाह.
सुगमाः ॥ ३२७६ ॥ नवरम (प्येत्यादि ) परिहारवचन, यह चोयगमाणुमोयग-मणिसेहगमेव संपयाणं ति ।
पूजा च मूर्तिश्च गुणाश्च, तेषां पूजामूर्तिगुणानां त्रयाणामपि, वडुमणिपडिमाsss जमो,न दाणमपरिग्गहं तेण ।३२७३। संबन्ध एवाभिमतं फलमबाप्यत इतीह स्वगतविशुद्रप.
द यतो यस्मात्सतकृत्य सम्यग्वा प्रदीयते यस्मै तत्संप्रदा- रिणामादन्यः को देतुः?, न कोऽपीति । तस्य च स्वगतप. नम । तच्च त्रिविधम । तद्यथा-' दीयतां मां, बहुफलं
रिणामस्य का संबन्धः केनचिद् बाह्येन ? , न कश्चिदिति जवतां भविष्यति' इत्यादिवचनप्रपञ्चम किश्चित्प्रेरकं,यथा बटु
॥ ३२८० ॥ केवलं निजहृदयस्थानपरिणामो यथा बाह्याहब्राह्मणः, अपरं त्वित्थमप्रेरकमपि दानस्य ग्रहणपरिभोगाच्या
दाद्यालम्बननिमित्तमात्रकः सर्वोऽपि ददात्यभिमतफहमेवमनुमोदकं भवति । यथा मुनिः साधुः; अन्यत्तु पुष्पाऽऽद्यनिषे.
ममूर्तसिद्धगुणाऽऽलम्बनोऽपीति ॥ ३२८१॥ धादनिषेधक,ययाऽहत्प्रतिमाऽऽदि,सर्वत्र संप्रदानाऽर्थस्य विद्य- अथ यदुक्तं-"दूराऽऽभावसोवा,विफला सिद्धापूयत्ति" मानत्वात् । तेन तस्मान्न क्वचिदानमपरिग्रहमस्तीति ॥३२७३ ।। (३२२६) तत्र दराभावादित्यस्य तोनिराकरणार्यमाहअपि च-किमनया दानस्य परिग्रहापरिग्रहचिन्तया ?,
जह दुरत्थे वि घिई, बंधुम्मि सरीरपुबिलहेछ । __कार्यस्यान्यथैव स्थितत्वात; कथम् ?, इत्याह
ताणदोब्बवाइफलो, कत्थइ सोगाऽऽइमंकप्पो ॥३२८२।। दाणमपरिग्गहम्मि वि, धम्मो निययपरिणामसुखीयो ।
तह परिणामो सुच्छो, धम्मफलो हि दूरसंथे वि । अपरिग्गहे वि जइ सा,को नाम परिग्गहग्गाहो ?।३२७४।।
अविमुद्धो पावफलो, दुरासन्नं ति को भेओ ? ॥३२०३।। किं च परहिययनियया, मेत्ती नएहिँ संपरिग्गहिया।
अहवाऽऽयसनावोऽयं, परिणामो तेण सव्वमेवेह । हिंसासंकप्पो वा, जं धम्माधम्महेन त्ति ॥३२७५।।
दूरमहाऽऽलंबणओ,तस्साऽऽसन्न तो सव्वं ।।३२०४।।
यथा दूरस्थेऽपि बन्धौ बान्धवजने सुखिनि श्रुते तमुखवाएवं जिणाऽऽइपूया, सछासंवेगसुद्धिहेकओ।
तसिंकल्पजनिता धृतिः कस्याऽपि तद्वान्धवस्य दूरस्थअपरिग्गहा वि धम्मा-य होइ सीलव्वयाऽऽई व ।३२७६।। स्यापि शरीरपुबिबहतुवति, क्वचित्तु प्रस्तावे तस्मिन्नीप तिस्रोऽपि व्यक्तार्थाः ।। ३२७४।३२७५।३२७६ ॥
पुखिनि श्रुते शोकाऽऽदिसंकल्पस्तनुदौर्वव्याऽऽदिफलः संपद्य__ अथ "विमूर्ति नावात्" इत्यस्य हेतोनिरासार्थमाह
ते ॥३२८२।। तथा तेनैव प्रकारेण दूरसंस्थेऽपि सिकाऽऽद्यालम्बजं चिय मुत्तिविनत्ता, मुत्ता गुणरासो विसेसेएं ।
ने तद्गुण बहुमानरूपत्वाच्युद्धपरिणामः सद्धर्म फलोऽविशुद्धस्तु तेणं चिय ते पुज्जा,नाणाऽऽइतियं व मोक्खत्थं ।३२७७।
पापफलः संजायते । अतो दरस्थमासनं था सिकाऽऽद्या
लम्बनमिति को भेदः केय निष्फला तद्भेदचिन्ता ?, इत्ययस्मादेव मूर्तिवियुक्ता प्रमूळ मुक्ताः सिद्धाः, तेनैव ते श
धः ॥ ३२०३ ॥ अधना-आत्मस्वभावोऽयं तद्गुणबदमानरीरसंबन्धजनितसकल क्लेशविमुक्तत्वाद् गुणराशयः सन्तो
सक्कणशुनपरिणामस्तेन तस्मादिह यदनात्मस्वनावं किमपि विशेषेण मोक्वार्थ पूज्याः, झानाऽऽदित्रिकवदिति ।। ३२७७ ।।
वस्तु तत्सर्वमप्यस्य विपरीतरूपत्वाद् दरस्थमेव । अधाss. अपि च
सम्बनत आलम्बनभावमाश्रित्य चिन्स्यते, ततस्तहिं सर्वमप्यमुत्तिमश्रो दिन मुत्ती, पूइज्ज किंतु जे गुणा तस्स । ईत्तिकाऽऽदिक वस्तु तस्य यथोक्ताऽऽत्मपरिणामस्या 55सते मुत्तिविउत्तच्चिय,नणु सिकगुणा विसेसेणं ॥३२७॥ नमेवेति; अतः का सिकेषु दूरस्थता ?, इति ॥ ३२८४ ॥ मूर्तिभतोऽपि संबन्धिनी मूर्ति पूज्यते, किं तु गुणाः, ते च
अत्राऽऽक्केपपरिहारावादमूर्तिवियुक्ता एवामूर्ता एव । ततश्च “ न पूज्याः सिद्धाः, अमू- जइ सपरिणामउ चिय, धम्मोऽधम्मो न कित्य बज्केण । सत्वात्, नभावत," इति त्वदुक्तप्रमाणे विरुद्धाव्यभिचारित्वाद् जं बज्काऽऽलंबणओ,सो होइ तो तदत्यं तं ।।३२०५।। विरुद्धो हेतुः । तथाह्येतदपि शक्यते वक्तुम-पूज्याः सिद्धाः,भ
मनु यदि स्वगतपरिणामादेव धर्मोऽधर्मश्च भवति, तर्हि कि. मूर्तत्वास, मूर्तसाधुसंबन्ध्यमूर्तझानाऽऽदिगुणवदिति । अथ
मत्र बाहनाऽईसिकाऽऽद्याम्बनेनापेक्कितेन, स्वपरिणामत एव सिद्धगुणा अमूर्ती न भवन्तीति चेदित्याह-ननु सिकगुणाः
कार्यसिद्धेः तदपेकाया निष्फलत्वात् १, इति । सूरिराहविशेषेणैवामूती; मूर्तसाधुगुणा दिशानाऽऽदयो मूर्तीद- यस्मात्सोऽपि परिणामो बाह्याऽऽलम्बनत पच भवति, नाऽन्यव्यतिरिक्तत्वात् कथञ्चिन्मूर्ता अपि शक्यन्ते वक्तुम; सिगु- था, ततस्तदर्य स्वपरिणामोत्पादनाथै तद् बाह्याऽऽलम्बनमपेणास्तु नैवम, ततो विशेषेण ते अमूत्ती एव इति न तेषां पूजा- स्यत इति ॥ ३२८५॥ बिरोध इति ॥ ३२७८ ॥
एतदेव भावयतिअथ परमतमाक्किप्य परिहरनाह
परिणामो बज्झाउल-बणो सया चेव चित्तधम्मो त्ति । अहव मई मुत्तिमम्रो, गुणपूया होइ मुत्तिपूयाओ। विमाणं पि व तम्हा,सुहबज्काऽऽलंबणपयत्तो ॥३६॥
तग्गुणसंबंधाओ, सिद्धगुणाणं तु सा नत्थि ॥३७॥ ___ *'नियत्थो ' इति पागन्तरम् । Jain Education Internatio & 3
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(१०५०) यामोक्कार अनिधानराजेन्द्रः।
सामोक्कार भोऽशुभो वा परिणामः सदैव बाह्याऽऽलम्बनत एष प्रवर्तते । ननु मुनेवेषो मुमिवेषस्तेन छनोविज्ञातो य उदायिनृपमारकाचित्तधर्मत्वात,विकानवदिति। यथा विज्ञानं बाह्यं नीसपीता35. दिस्तस्मिनिःशीलेऽपि मुनिबुद्ध्या दानं दददाता मुनिदानफलं दिकं वस्तु विना न प्रवर्तते, एवं परिणामोऽपाति नावः । त. स्वाऽऽदिकं प्राप्नोति, इत्येतद्भवतामपि तावत्संमतम, तथा स्मादिड मोक्षाधिकारे शुजवाहाऽऽलम्बनप्रयत्नो मोकार्थिना- तेनैव प्रकारेण कुत्सितलिङ्गी कुलिङ्गी सरजस्काऽऽदिस्तस्मै मिति ॥ ३२८६॥
दाता कुलिङ्गदाता, सोऽपि किं न मुनिफलं प्राप्नोति, मुनिबुद्धअत्र परःप्राऽऽह
स्तस्यापि तत्र सझावात् ?, शति ॥ ३५६१॥ जत्तो तत्तो व मुभो, होइ किमा-लंबणप्पजेएण ।
गुरुराहजह नाऽणाऽऽश्रवण ओ,विवरीयानो विसोन तहा।३२७७। जं थाणं मुणिलिंग, गुणाण मुन्नं पि तेण पमिम व्व । ननु यतस्ततो वाऽऽसम्बनात शुभपरिणामो प्रवतु, किमिह शु
पुज्ज थाणमईए, वि कुझिमं सव्वहा जुत्तं ॥ ३२ ॥ प्राशुभनेदत प्रासम्बनप्रभेदेन-किमिति शुनाऽऽसम्बनादेच शुभः परिणाम इष्यते !,इति भावः। गुरुराह-(जहणाऽणाऽऽसंवणश्रो
यस्मान्मुनिलिङ्ग कानाऽऽदिगुणानां स्थानमाश्रयः, तेन तस्माति) यथाऽनासम्बन मालम्बनरहितः शुभपरिणामोन प्रव
कस्याऽपि मायाविनः संबन्धि तच्चून्यमपि गुणरविकातं पातते, तथा विपरीतादप्यशुभाऽऽलम्बनादसौ न भवति, अन्यथा
पाणाऽऽविनिर्मिताऽहत्प्रतिमावत्स्थानमत्यापि पूज्यम् । कुलिङ्गं नीलादेरपि ालाऽऽदिशानोत्पत्तिप्रसादिति ॥ ३२०७॥
तु सर्वथा पूजयितुं न युक्त, कानाऽऽदिगुणानां सर्वथैवाऽनाश्रययदि विपरीताऽऽलम्बनान्न शानः परिणामः,ताकतोऽसौ | त्वादिति ॥ ३२९२ ॥ प्रवति', इत्याह-
पुनरपि परः प्राऽऽहकिं तु मुजाऽऽवणो,पारण मुभो वि धम्मो इयरो।। नणु केवलं कुलिंगे, वि होइ तं भावझिंगो न तो । जं होइ तं पयत्तो, सुजासुनाऽऽदाणवोसग्गो ॥३२॥ मुणिलिंगमंगजावं, जाइ जो तेण तं पुजं ॥३२॥३॥ सुगमा, नवरं शुभस्याऽऽलम्बनस्याऽऽदाने,अशुभस्य तु त. ननु केवल केवलकानं कुलिङ्गेपि वर्तमानानामन्यतीथिकानां स्य ग्युत्सर्गे शुनपरिणामार्थिना प्रयतः कर्तव्य इति ॥३२॥ भवतीत्यागमे भूयते, तकिमिति स्थानबुद्ध्या तत्पूज्यं नेप्यते । प्रायोग्रहणस्य व्यवच्छेद्यमाह
गुरुराह-तत्केवलज्ञानं भावलिङ्गतो भवति, न पुनस्ततः कुअन्नाणिणो मुणिम्मि वि,न सुभो दिट्ठो सुनोय निस्सीले । लिङ्गात्, तस्य केवलकानानत्वात् । मुनिलिङ्ग पुनर्यस्मादना. जइ परिणामाउ चिय,फलमिह किं पत्तचिंताए३२॥
वं केवलज्ञानस्य कारणतां याति, तेन तस्मात्तत्पूज्यमिप्रज्ञानिनोऽभव्यस्य दुरभव्यस्य वा शुभाऽऽलम्बनरूपे मुना
ति ॥ ३२६३ ॥ पिन शुजपरिणामो दृष्टः, शुनश्चाऽसौ तस्य निःशीले नास्ति
(२०) तदेवं कोपप्रसादविरहाऽऽदीन् पञ्चापि परोपन्यस्तहेकाऽऽदौर,ततोऽनन्तरगायायां "सुभालंबणोपारण सुभो तून्निराकृत्योपसंहरमाहवि" (३२८८) इत्यत्र "प्रायेण" इत्युक्तमिति भावः। प्रेरकःप्रा- तेण मुहाऽऽलंबणओ, परिणामविमुकिमिच्छया निच्चं । ह-ययेवं, त_न्यत प्रेर्यमापन,परिणामादेव भवद्भिस्तावत्फ
कज्जा जिणाऽऽइपया, जव्वाणं बोहणत्थं च ॥
३४॥ लमिभ्यते, ततः किं पात्रापात्रचिन्तया !, इति । अयमत्र भा. धार्थ:-यदि निःशीलेऽपि पात्रे शुनपरिणामो हष्टः,'शुनपरि
येनैवं, तेन तस्मात्परिणामाविशुलिमिच्छता कार्या विधेया णामाच शुनं फलं भवति' इति भवद्भिरपि प्रागसकूद समर्थि
जिनाऽऽदीनां नित्यमेव पूजा । कुतः?, इत्याह-शुभाऽऽलम्बनतः तं, ततः किं सुशीलनिःशीलपात्रचिन्तया, निःशीलेऽपि पात्रे शुभाऽऽलम्बनरूपत्वात् । न केवल स्वपरिणामषिद्धिनिमित्तं, राजपरिणामदर्शनात, तस्माश्च शुभफलभावात, इति ॥३२८६॥ प्रन्यजनावबोधनार्थ च विधेथा जिनाऽऽदिपूजा । तदर्शने घभत्रोत्तरमाह
नेके व्याः प्रतिबुध्यन्ते, जिनधर्ममासादयन्ति, समासादिते च मुहपरिणामनिमित्तं, होज मुहं जइ तो मुहो होज । स्थिरीनवन्ति । अत एव सत्करणकारणानुमोदनाऽऽदिप्रवृत्त. नम्पत्तस्सव न उसो,सुहो विवज्जासनावाओ॥३२॥
संवेगातिशयाक्षपितकर्मणोऽन्तकृत्केवलिनोभूत्वाऽनन्तेन काननु तस्य मिथ्याष्टः शुभपरिणामनिमित्तं शुभपरिणामहे
लेनाऽनन्ताः सिकान्ते सिकाः श्रूयन्ते ॥ इति सप्ततिगाथार्थः सुकं शुभं फलं स्वर्गाऽऽदिकं प्रवेत, को वैन मन्यते, यदि त
॥३२॥ तदेवमवसितः पञ्चनमस्कारः। विशे। ल । ध०। स्याऽऽदित एव तकोऽसौ निशीलपात्रविषयपरिणामः गुभो
("णमोऽत्यु ण अरिहंताणं भगवंताणं " इति शक्रस्तवः भवेत् । न चोम्मत्तस्येव तस्याऽसौ शुनः। कुतः, इत्याह-वि.
'चेइयवंदण' शब्दे तृतीयन्नागे १३१७ पृष्ठे, “णमो जिणाण पर्यासभावानिःशीलेऽपि सुशीलाध्यवसायादिति कुतस्तस्य
जियनयाणं" इति च तस्मिनेष शब्दे १३१७ पृष्ठे " सिका. फवं शुभम् , इति । यदप्यस्मानिरुक्तम्-"सुनो य निस्सीझे"
ण बुझाणं " इत्यपि तस्मिन्नेव शब्दे १३१५ पृष्ठे (३२८४) इति, तदपि तदपेक्यैव । स हि मिथ्यारष्टिस्तं शुभप
सूत्रपारक्रमेणोक्तः । व्याख्या चैषां प्रतिपदं तत्तत्स्थानेषु । रिणाम मन्यते, तस्ववेदिनस्तु तस्य शुभत्वं नेच्छन्त्येव, विपर्या
"क्को वि णमुक्कारो, जिणवरवसनस्स बरूमाणस्स । सादिति ॥३२१०॥
संसारसागरात्रो, तारे नरं व मारि व ॥१॥" इत्यपि पुनरपि परः प्राऽऽह
"चेयचंदण" शब्द तृतीयत्नागे १३५० पृष्ठे उपपादितम् । ना मुणिवेसच्चन्ने, निस्सीले वि मुणिबुछिए देवो। ।
" जो देवाण वि देवो " इत्यपि तत्रैव पृष्ठे निरूपितम)
“सर्वान देवान्नमस्यन्ति, नैक देवं समाश्रिताः । जितेन्द्रिया पावइ मुणिदाणफलं, तह किं न कुलिंगदाया वि॥३२॥१॥ जितक्रोधाः, दुर्गाण्यतितरन्ति ते ॥ ९ ॥" द्वा ०१२ द्वा०।
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(१८५१) एमोक्कार
भनिधानराजन्यः ।
णमोकारसहियपच्चक्खाण विषयसूची--
तद्वतो धमः, तथेहापि तीर्थकरसिद्धाऽदीन शपमा(१) नमस्कारस्य व्याख्यानार्थमुत्पत्ति-निक्षेप-पद-पदा
नस्याधर्मः, संस्तुवतस्तु धर्म इत्यहंदादिभ्यः फलर्थ-प्ररूपणा-वस्त्वाक्षेप-प्रसिद्धि-क्रम-प्रयोजन-फल
प्राप्तिसमर्थनम्। रूपाणां द्वाराणां संग्रहः।
(१७) सरागद्वेषवात कृतार्थाजावाबाऽऽचार्योपाध्यायसा(२) नमस्कारोत्पनिद्वारविस्तरे ज्ञानशब्दयोनित्यत्वानि
धवो वन्दनीया न वेत्याक्षेपपरिहारौ। त्यस्वविचारः।
(१६) साध्वादीनां दानमुपकारं यथा करोति नैवं जिनाऽ5(३) निक्षेपद्वारे नाम-स्थापना-व्य-जावनेदेन निकेप
दीनां नमस्कारपूजा, तत्कथमसौ धर्मनिमित्तेतिशस्य चातुर्विध्यम।
कानिरासाय युक्तिप्ररूपणम् । (४) पदद्वारे नामिक-नैपातिकोपसर्गिकाऽऽख्यातिकमिश्रोदेन पदस्य पञ्चविधत्वम ।
(२०) परिणामविशुद्धिमिच्छता जिनाउदीनां नित्यमेव व्यसंकोचो न भावसकोचः, नावसंकोचो न
J पूजा विधेयेत्युपसंहारः । छत्र्यसंकोचः. व्यसंकोचो भावसंकोचश्व, न णमोकाराणज्जात्त-नमस्कारनियुक्ति-स्त्री. । नमस्कारप्रतिव्यसकोचो न नावसंकोच इति भङ्गचतुष्टयप्रतिपा. पादकाऽऽवश्यकनियुक्तिगाथाकदम्बे, आ० क० । दनपुरस्सरं पदार्थहारम्।
णमोकारसहियपच्चक्खाण-नमस्कारसहितप्रत्याख्यान-न। (६) प्ररूपणाद्वारे "किं कस्य केन क्व कियश्चिरं कतिविधो वा नमस्कारः," "इन्द्रिय काययोगवेदकषायलेश्या
प्रद्धाप्रत्याख्यानभेदे, (ध.) ऽऽहाराऽऽदिचरमान्तः," इत्यादिषट्प्रकारनवप्रका
साम्प्रतं सूत्रार्थोंराभ्यां प्ररूपणाया द्वैविध्यम्।
उम्गए सूरे नमुकारसहियं पच्चक्खाइ, चउन्विहं पि नमस्कारपाठस्य युक्तायुक्तत्वे विद्यार्यमाणे पञ्चपद.
आहार-असणं पाणं खाश्मं सामं, अन्नत्यागानोगेस्य सर्वश्रुतस्कन्धाज्यन्तरजूतत्वं, नवपदस्थ पृथक
णं सहसागारेणं वोसिरह। श्रुतस्कन्धत्वमित्यत्र श्रीमहानिशीथसूत्रसंवादः। नमस्कारसुत्रसंपत्स्वष्टषष्टिवर्ण-नवपदविवेचनम् ।
उगते सूर्य, सूर्योमादारभ्येत्यर्थः । नमस्कारेण परमे
ष्ठिस्तवेन सहितं युक्तं नमस्कारसहितं, प्रत्याख्याति " सर्वे (६) बस्तुधारे गुणगुणिनोभेदाभेदपकनिरूपणपुरस्सरम
धातवः करोत्यर्थेन व्याप्ताः" इति न्यायाद् नमस्कारसहित हत्सिद्धाऽऽचार्योपाध्यायसाधूनां नमस्कारार्हत्वे मा
प्रत्याख्यानं करोति, विधेयतयाऽभ्युपगच्छतीत्यर्थः । इदं गुरो. गंदेशकत्वाऽऽदिगुणनिरूपणानन्तरं संसाराटबीमार्ग.
रनुवादभनया वचनम् । शिष्यस्तु 'प्रत्याख्यामि' इत्याह । एवं देशकत्व-जनसमुननिर्यामकत्व-वविधजीवनिकाय
व्युत्सृजतीत्यत्रापि वाच्यम् । कथं प्रत्याख्याति ?, इत्याह-चतु. गोपनत्वं प्ररूपयाईदादीनां नमस्कारफलप्रदर्शनम् ।।
विधमप्याहारमिति न पुनरेकविधाऽदिकम, आहारमभ्यव(१०) आक्केपधारे सिद्धसाधुज्यामेव द्वाभ्यां नमस्कारः कथं
दाय, व्युत्सृजतीत्युत्तरेण योगः। इदं चतुर्विधाऽऽहारस्यैव भ. न?,परिनिर्वृतादादीनां सिम्शब्देन, आचार्याऽऽदी
बतीत्युक्तमेव, रात्रिभोजनतीरणप्रायत्वादस्य, तथा मुहूर्तमान नां संसारिणां साधुशब्देन ग्रहणात् । तथा ऋषभाजि
नमस्कारोचारणावसानं च । ननु काबस्यानुक्तत्वात्सङ्केततसंभवाऽऽदिभ्यो नामग्राहं तीर्थकरेज्या, सिकेभ्यो
प्रत्याख्यानमेवेदम् । मैवम् । सहितशब्देन मुहूर्तस्य विशेषणात् । ऽपि एकद्वित्रिचतुष्पश्चाऽऽदिसमयेभ्यो यावदनन्तसि
अथ मुहूर्त शम्दो न श्रूयते तत्कथं तस्य विशेष्यत्वम् । सच्यतेडेज्यस्तीलिङ्गप्रत्येकबुद्धाऽऽदिविशेषणविशिष्टज्य
अमाप्रत्याख्यानमध्येऽस्य पाठबलात्,पौरुषीप्रत्याख्यानस्य च बइत्यनन्तभेदस्य नमस्कारस्य पञ्चविधत्वं न युज्यते
क्ष्यमाणत्वादवइयं तदाग्मुहूर्त एवावशिष्यते । अथ मुहूर्त. इति पञ्चविधनमस्काराऽऽक्षेपः।
द्वयाऽऽदिकमपि कुतो न लभ्यते? उच्यते-अल्पाऽऽकारत्वादस्य, (११) प्रसिद्धिद्वारे तदाकेपस्य प्रतिविधानम् ।
पौरुष्यां हि षमाकाराः, तदस्मिन् प्रत्याश्याने आकारद्धयबति (१२) महारेऽहंदादीनां नमस्कारे पौवापर्यक्रमव्युत्कमा
स्वल्प एव कालोऽवशिष्यते, स च नमस्कारण सहितः, पूर्णेऽ. केपप्रतिविधानविस्तरः।
पि काले नमस्कारपारमन्तरेण प्रत्याख्यानस्याऽऽपूर्यमाणत्वात, (१३) प्रयोजनफलद्वारयोरैहलौकिकपारलौकिकफलप्रद-- सत्यपि नमस्कारपाठे मुहूर्ताभ्यन्तरे प्रत्याख्यानभङ्गात् । त. शनम्।
रिसमेतत्-मुहुर्तमानकालं नमस्कारसहितप्रत्याख्यानमिति । (१४) द्विविधेऽपि फले दृष्टान्तपञ्चकप्रदर्शनम् ।
अथ चतुर्विधाऽऽहारमेव व्यक्त्या प्रदर्शयति-अशनम् १,पानम्
२, स्वादिम ३, स्वादिम चेति ४ातत्राश्यते इति अशनम, 'अश (१५) अर्हतां पूजाफलदत्वं किमस्ति,न वेति विचारविस्तरः।
प्रोजने' इत्यस्य ल्युमन्तस्य नवति । तथा-पीयत इति पान(१६) जिनाऽऽदिपूजाऽर्थ सोपपत्तिकप्रमाणोपन्यासः ।
म, 'पा' धातोः। तथा-खाद्यत इति खादिमम, 'खारज. (१७) "हिनस्मि हरिणाऽऽदीन, मृषा नाषेऽहं, तभाषणा- करणे'श्त्यस्य वक्तव्यादिमत्प्रत्ययान्तस्य । एवं स्वाद्यत इति
सच बञ्चयामि देवदत्ताउदीन, धनमपहरामि ते- स्वादिम, 'स्वद आस्वादने' इत्यस्य च रूपम् । अथवाषामेव, परदारान् निषेवेऽहम्" इत्यादिचिन्तयान हि
स्वाद्यं स्वाधं चेति । भशनाऽऽद्याहारविभागश्चैवं श्राडवि. तेषां चिन्तितानां तत्काल कोपाऽऽदिसंभूतिः, तथापि धिवृत्तौ-"प्रशन-शाल्यादि सक्त्वादि पेयाऽदि मोदकाऽऽदि
हिंसाऽऽदिचिन्तकस्याधर्मः, दयाऽऽदिसकल्पतस्तु] कीराऽऽदि सूरणाऽऽदि मएमाऽऽदि च ।
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मोक्कारसहियपच्चक्खाण
यदाह
" असणं मोह्मणसजुग मुमाजगाराऽऽ
जगविही
श्री
सुरणा55, मंडपनि विशेषं ॥ १ ॥ " पानं सौवीरयवादिधावनं सुराऽऽदि सर्वश्वापकाया कर्कट जादिकं च ।
( १८५२ ) अभिधानराजेन्द्रः ।
यदाद
"पाणं सोचीरजयो दगा 555 बिसुरा55
बेव
आउक्काओ सम्वो, कक्करुगजलाऽऽश्चं च तहा ॥ २ ॥ " खायं पृष्टवान्यशुमपर्यटकाखर्जूरनालिकेराका ट्याम्र पनसाऽऽदि ।
यदाद
39
" भत्तोसं दंताऽऽई, खज्जूरगनालिकेरदक्खाऽऽई । कक्कमिश्रं बगफणसाऽऽ-इ बहुविहं वाइमं श्रं ॥ ३ ॥ खाद्यं दन्तकाष्ठताम्बूल तुझसि कापिएडार्जक मधुपिप्पल्यादि ।
यदाद"चितं तुलसी कुमगाई।
पिप्पला भगदा साइमं होइ ॥ ४ ॥" (गति) सुण्डी हरीतकी पिप्पली मरीच जीरक अजमक जातिफल जात्रा-पेष्टीमधुतमालपत्र पञ्जा-लय-कालीविम-मि-अजमोद कुणी विणीबाबा फरक मुस्ता-कराटाचेि कर्पूर-सौवन-हरका बिभीतक कुन हो - बब्बूल-धव खदिर. rassदिच्छलीपत्र- पूग-हिङ्गु-लाष्टक - हिङ्गुत्रेवी सु-पञ्चकूल जवासकमूल यायची-तुलसी कपूरी कन्दादिमीर भाग्यप्रवचनसारोकाराभिप्रायेण स्वाद्यम, कल्पवृत्यनिप्रायेण तु खाद्यम, अजमकं खाद्यमिति केचित् । सर्वे स्वाद्यम् एलाकराऽऽदिजसं च द्विविधाऽऽदारप्रत्याख्याने कल्पते । वेसण-विरहाली-सोना-कोटमी श्रामला-गराठी - बागोली-कचचिलीचूरपत्रप्रमुखं खाद्यत्वाद् द्विधाऽऽहारे न कल्पते । त्रिविधाउदारे तु जलमेव कल्पते। शाखेषु मधुगुडशर्कराखण्डद्यपि खाद्या शर्करादिजलं कादिच मानकतयोकमपि द्विविधाद्वारा न ते उदयापणारे, पण वह साइमं गुमाईचं पढिचं अम्मित चिि श्री जणगंति नाऽऽयरिश्रं " ॥ १॥ अनाहारतया व्यवहियमाणान्यपि प्रसङ्गतो दर्श्यन्ते । यथा-पञ्चाङ्गनिम्ब- गुडूची- कमूकिरि धातुं प्रतिविस-वीमि कडिका-हरिद्वा-रोहिणी उपलोड
1
वज्र-कला-मासो-नाहीपीओ-दर मील उणि बदरी-कंधेरिकरीरमूल-पुंग्राम-मजीटोलकुंबर- त्रिककुद प्रभूत्यनित्वादानि रो गाऽऽद्यापदि चतुर्विधाहारेऽप्येतानि कल्प्यानीति कृतं प्रसङ्गेन ।
निजयादाकारावाह· (अन्नत्थग्णाभोगेणं सहसागारे) श्रत्र पञ्चम्यर्थे तृतीया, अन्यत्रेति परिवर्जनार्थ:, यथा-'श्र न्यत्र द्रोणभीष्माभ्यां सर्वे योद्धाः पराङ्मुखाः ।' इति । ततोs न्यत्राना भोगात् सहसाकाराश्य, एतौ वर्जयित्वेत्यर्थः । तत्रानाभागोऽत्यन्तविस्मृतिः, बहसाकारोऽतिप्रयोगानवर्धनमि ति । ध० २ अधि० | पं० ब० । अन० । प्रच० । ल० ।
परिमानन्दसागरगतिप्रश्न यथा
नमस्कारसहित प्रत्याख्यानं प्रत्याख्यानमध्ये पृथरा वा है। तेन प्रत्याख्यानेन श्राद्धः पौरुषीं यावत्स्थितस्तस्य पौरुष्या लामो द्विघटिसको वा ? इति प्रश्ने, उत्तरम् - नमस्कारसहि
गय
प्रत्याख्यानं दिनमध्ये श्रायाति, न तु रात्रिमध्ये, तथा तत्प्रया पौरुषी यावदनुपयोगेन स्थीयते तदा न ला भाय, उपरंगपूर्व तु बाजायति । २ प्र० डी० ३ उल्ला० । मोरिहनमोऽई पुंजिने, ०म०
पाति महागाव, गोवा अहिसात्रयाऽऽऽडुग्गेहि । परतपाणियाणि य, वाणि पार्श्वेति तह चेव ॥ जीवनिकाया गावो, ते पार्लेति ते महागोवा । मरणाsssयाहि जिणा, निव्वाणवणं च पार्श्वेति ॥ ते नवगारित्तणतो, नमोऽरिहा जवियजीवलोगस्स । सव्वस्सेह जिविंदा, लोगुत्तमभावतो तह य ॥
S.
यथा गोपाः गाः पालयति रक्षन्ति अहियापदाऽऽदिदुर्गेच्या बनानि च पानीयानि प्रापयन्ति तथैवा
एव गावः जीवनिकायगावः, तान् ते नगवन्तोऽर्हन्तो जिना महागोपाः पालयन्ति रहन्ति मरणाऽऽदिनयेभ्यो, निर्वाणवनं च प्रापयन्ति । एवं ते जिनेन्द्रा इढ अस्मिन् जीवलोके उपकारित्वतो देतो। सर्वस्य भन्यजीवलोकस्य नमोऽदीः ।
एवंप्रकारेण नमोऽस्तो गुणाः प्रतिपादितः । साम्प्रतं प्रकारान्तरेण नमोस्तु गुणानिधाऽउद्द रागोसकसाए, इंदियाणि य पंच वि ।
परीस उवसग्गे, नामर्थता नमोरिहा ।। रागद्वेषकपायानिन्द्रियाणि पञ्चापि परीचहानुपन नम यन्तो नमोऽर्हाः। इति गाथासमासार्थः । श्र०म०१ अ०२खएम । - स्त्री० । श्रौचित्येन नमनशीलतायाम, द्वा० एम्मया-नम्रता१२ द्वा० ।
नर्मदा श्री रेवायचे अमरकारकाद्गस्य पश्चिमसमुई प्रविष्टे नदीभेदे, " दिवा काकरचादू भीता, रात्रौ तरति नर्मदाम् | आव० २ श्र० ।
"
णय - नत - त्रि० । प्रीभूते, सुत्र० १० २ अ० २ उ० । शा० ।
प्राचा० ।
नय - पुं० । नयत्यनेकांशाऽऽत्मकं वस्त्वेकांशावलम्बनेन प्रतीतिपथमारोपयतीति, नीयते वा धनेन तस्मिन् ततो वा नयनं नयः । ४० १ ० ० ० नीयते परिष्पितेनेनास्मादिति वा नयः । श्रनन्तधर्माऽऽत्मकस्य वस्तुन एकांशपरिच्छितौ, अनु० । स्था० आ० म० । अनन्तधर्माऽऽत्मकस्य वस्तुनो धमकावलम्बनेन प्रतीत प्रापणे, उत्त० १ श्र० । "नयंतीति नया वत्युतत्सं अवचोमोयरं पावयति ति” । अन्ये भणन्ति-नयन्तीति नयाः कारकाः, व्यज्जकाः, प्रकाशका इत्यर्थः । श्र० चू० १ उ० । नि० चू० । बिशे० ।
विषयसूची
(१) नयनिकिः ।
(२)
नयलकणनिरूपण पुरस्सरं नयतत्वप्ररूपणम् । (३) नयस्वरूपोपपत्तिः ।
(४) वस्तूनामनन्तधर्माऽऽत्मकत्वनिरूपणम् । (५) नय इति यदुच्यते, यावद्भागश्चायं तन्निरूपणम् । (६) नयार्थी आपेक्षिकाः। (3)
अपेक्षा 53/मकं चाक्यं नमः ।
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________________
एय
(८) सामान्यविशेषविचारः । (२) सप्तम्यां नयविज्ञागोपदर्शनम्। (१०) एकत्रानेकाऽऽकारा प्रमाणधीः । (११) नयानां प्रमाणाप्रमाणत्वनिर्णयः । (१२)
यादी नमनं तत्साधनंनिमित्तं बौद्धाऽऽदिनयपरिग्रहा अपि गुरूपर्यायाऽऽदिव स्तुप्राया फोन मिष्यारूपा इत्यादिनिरूपणम् । (१३) विभाग द्रव्यपर्यायार्थिकतथा नयस्य संपतो दैविध्यम् ।
(१४)शेष व्यय सामान्यविशेषशयाच्यावित्यत्र विचारः । (x)र्थिकपर्यायार्थिकनयोगमा दिनानामन्त
र्भावः ।
(१६) सप्तसु नैगमादिषु भूलनयेषु विचा
मतसंग्रहः ।
(१७) सिद्धसेनदिवाकरमते पम् नयाः, नैगमस्य संग्रहव्यवहारयोरन्तर्भावात् ।
(१०) प्रस्थकसतिप्रदेशान्तेन नयप्रमाणपरामर्शः । (१६) तत्र प्रस्थकदृष्टान्तः ।
(२०) वसतिदृष्टान्तः ।
(२१) प्रदेशदृष्टान्तः ।
(२२) सर्वे नयाः स्वस्वस्थाने शुरूाः ।
(१८५३)
अभिधानराजेन्द्रः ।
(२३) १०० सप्त शतानि नयाः ।
( २४ ) असंख्याता नया इति मतान्तरनिरूपणम् । (२५) निक्षेपनययोजना |
(२६) पर्यायार्थिकनवयोनियो विचारः । (२७) तौ सव्यपेक्षौ प्रमाणम । (२०) यदू दर्शनं यस्मान्नयाद् जातं सामान्यतस्तनिरूपणम् । (२९) निकायव्यवहारयोः सर्वनयान्तनवः । (३०) दिगम्बरमते नयाः ।
(३१) व्यवहारनयात् साङ्ख्यं प्रवृत्तम् । (३२) वेदान्तिसात्यदर्शनयोः शुका (३३) नैगमस्व संग्रहम्यवहारयोरन्तमांकः ।
( ३४ ) ये शब्द नया ये चार्धनयास्तेषां निरूपणम् । (३५) नयत्यादिष्वपरिमितेषु दर्शनेषु यस्य मिध्यात्वं यस्य च सम्यक्त्वं तनिरूपणम् । (३६) नयफलविमर्शः । (३७) ज्ञानक्रियानयद्वारे संग्रहाऽऽदीनां समवतारो भवतीति तत्स्वरूपनिरूपणम् ।
(३०) नयानां पार्थक्ये यैः समवतारः, यत्र धाऽनवतारस्त त्रिरूपणम् ।
(३६) आलोचनाऽऽघटनानां निरूपणम् ।
(१) अथ नयनितिमादसनत वातोऽहना वत्पुणो व में नवणं । बड़ा पञ्जायाणं संभवओो सो नमो नाम ॥ १४ ॥ स एव बक्ता संभवद्भिः पर्यायैर्वस्तु नयति गमयतीति नयः । अपना नीयते परिच्यिते अनेन अस्मिन् मा बेति नयः अनन्तधर्माध्यासिते वस्तुन्खेकांशग्राद को बोध इत्यर्थः । यदि वस्तुनः पर्यायाणां संभवात
४६४
य
यवनमधिगमनं परिच्छेदनमसौ नयो नाम ॥ ११४ ॥ बिशे० । द हि जनमत संक प्रायमिति तत्परिच्छेदकेन प्रमाणेनापि तथैव भवितव्यमि त्यसंकीर्णप्रतिनिधतधर्मप्रकारकम्यवहारसि नयानामेव सा मर्थ्यम् । नयो० ।
(२) नयतस्वं प्ररूपयन्तिनीयते येन श्रुताऽऽरूपप्रमाणविषयीकृतस्यार्थस्यांशस्तदितरांशीदासीन्यतः स प्रतिपतुरभिप्रायविशेषो नयः ॥ १ ॥
कवचनमत तेनांशाचा या येन परामर्शविशेषेण भुतप्रमाणप्रतिपद्यवस्तुनो विषयक्रियन्ते तदितरांशीदासीन्या पेक्षया सनयोभिधीयते प्रतिक्षेपे तु तदानास ता प्रणिष्यते ( 'णयाभास' शब्दे ) ।
प्रत्यपादयाम च स्तुतिद्वात्रिंशति" अहो ! चित्रं चित्रं तब चरितमेतन्मुनिपते !, काना विविधविषयष्यतियश्चिताम् । विपक्कापेक्षाणां कथयसि नयनां सुनयतां, विपक्षेष्तृणां पुनरिह विभो ! दुश्नयताम् ॥९॥"
66
निःशेषांशजुषां प्रमाणविषयीचूयं समासेडुषां, वस्तूनां नितांशकल्पनपराः सप्तताऽसाि औदासीन्यपरायणास्तदपरे चांशे भवेयुर्नयाखेदेकान्तकलपकतुपास्ते स्युस्तदा दुर्जयाः १" रत्ना० ७ परि० ।
,
(३) नयलॠणे नयस्वरूपोपपत्तिमाहसच्चाऽसच्चाऽऽयुपेतार्थे व्यपेक्षावचनं नयः । न विवेचयितुं शक्यं विनाऽपेक्षां हि मिश्रितम् ॥ २ ॥ ( सच्चाऽसच्चेति ) सवाऽसच्चाऽऽदयो ये धर्माः, आदिना नि त्यानित्यस्वजेामेाऽऽदिरिति परिग्रहः । तैरुपेतास्तदात्मका येथाः जीवयः तेष्वपेज्ञावचनं प्रतिनियतधर्मप्रकारकापेक्काऽशाब्दबोधजनकं वचनम, नयवाक्यमित्यर्थः । इदं वचनरूपस्य नयस्य लक्षणं, ज्ञानरूपस्य तु नवस्य अपेक्काऽऽत्मकशाम्यत्वमेवेति अपेक्षात्वं च क्षयोपशमजभ्यतावच्छेदको जातिविशेषो विषषताविशेषो वेत्यन्यदेतत् ॥ मनु घटोऽस्तीत्यादिवाक्यश्रवणादू घटविषयकं शाब्दानं मम जातमित्येव लोकाः प्रतियसि तु तत्रापेक्षा 33त्मकनयज्ञानसत्वे किं प्रमाणम् ?; अत श्राह-दि निश्चितं, मिश्रितं विरुद्ध प्रतीयमानेननाधर्मैः करम्बितं यस्तु अपेक्षांविना विवेचयितुं विवदितिधर्मप्रकार कनिक्षेपविचीकर्तु न शक्यम् तषिद्धधर्मवत्ताज्ञानस्यानपेक्का सम कस्या [स्वा]नुपपतेर्वाध तिबद्ध्यताऽभ्यच्छेदककोटी लाघवेनानायकस्यैव निवे शात, अव्याप्यवृतित्वज्ञान कालीनाऽऽहार्षदोषविशेषजन्याऽऽद्दीनामपेक्ष कल्प्रेनैव तारक विशेषानुपादानात । तथा चत कर्मप्रतिपक्षधर्मवत्तया तेऽपि तयाायमानस्य। [35हा
शेषजन्या] अदीनामपेक्षा मकतयान्यथानुपपत्तिरेवाsपेक्कार मानम्, तस्या एव सर्वतो बलवत्प्रमाणत्वात् । तदाह श्रीहर्ष"अन्यथानुपपतिको स्तु वस्तुप्रसाधिकाका विनश्वरवैमत्वं यतः साधिका |१| इसिन यापेक्षां विना अकिकोऽपि व्यवहारः संगच्छते, अप्राऽऽद्यवच्छेदेन कपिसंयोगान्नाववति 'दस्त्व पेक्षाप्रसाधिकेति पाठः स्यात् ।
.
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गाय
(१८५४) अभिधानराजेन्दः ।
गय
वृक्षे शाखापेक्तयैव कपिसंयोगवश्वव्यवहारात्।न चाऽवच्छेद- चरः प्रत्यक्षाऽऽदिप्रमाणविषय एकस्मिन् घटाऽऽदौ गृह्यमाणे कावगा वायव्यवहारोन स्वपेक्काऽऽस्मक इति वाच्यम,शाखा- गृह्यमाणधर्मोपरागण व्यार्धातिदेशेनातीतानागतवर्तमानामां वच्छिन्नो वृत्तः कपिसंयोगवान् न तु संपूर्ण इति प्रत्ययस्य स्क- सवृत्तिधगलां यावतामेव ग्रहात् परेषां सामान्यलक्करणप्रत्यान्धदेशापेकां बिनाऽनुपपत्तेः । कथं चैवं सामान्यविशेषापेक्षा सत्तिस्थाभिषिक्तस्य घटविषयकतिर्यमामान्योपयोगस्य विना "घटपटयोः रूपं,घटपटयोन रूपम"इत्यादयो विचित्रनया- घटताया वापकविषयताकप्रत्यकत्वं तादृशज्ञानत्वं वा यथा पेकाप्रत्ययाः समर्थनीयाः। संग्रहनयाऽऽश्रयणेनैव हि घटपटोभय- कार्यताऽवग्छेदकत्वं तथा तद्विषयकोद्धतासामान्यस्य तादारूपसामान्योदूनूतन स्वविवकया घटपटयो रूपमिति प्रत्यय. म्यसंबनिनाऽऽधेयत्वसंबन्धेन वा घटव्यापकविषयताकप्रत्यक्कस्योपपत्ते,द्वयोर्भेदविवक्तायां प्रत्येकाऽन्वयस्य धर्मद्वयावच्छिन्न- स्वस्य त.दशज्ञानत्वस्य वा कार्यताऽवच्छेदकताया न्यायसिपाचकपदोपादानस्थन एव व्युत्पन्नत्वात् । व्यवहाराऽऽश्रयणातु द्धत्वात् । अत पव-“जे एग जाणइ, से सव्वं जाण" इति प्रकृतप्रयोगोऽनुपपन्न एव,मिलितवृत्तित्वान्बय एव तस्य साका. पारमर्षवचनानुरोधोऽपि, एकवस्तुग्रहे तद्गतस्वपरपर्यायकुइन्त्वाद् घटपटयोन रूपमिति बोधस्यैव तस्मादुत्पत्तेः । यत्तु विप्रवेशेन सर्वेषां ग्रहादनुवृत्तिव्यावृत्तिसंबन्धपर्या लोचने ताघटपटयोन रूपमिति वाक्यं तात्पर्यभेदेन योग्यायोग्य-घटप- वत्प्रमाणस्यैव वस्तुनोऽनुजवात् । तदाह महावादी सम्मतीटयोः रूपत्वावच्छिन्नाभावान्वयातात्पर्येऽयोग्य मेष, रूपत्वावच्छे. " एगदबियम्मि जे अ-स्थपज्जवा बयणपज्जबा वा वि । देन घटपटोनयवृत्तित्वाजावान्वयतात्पर्ये च योग्यमेव, घटप- तीयाणागया , तावश्यं तं हव दव्वं ॥ ३१ ॥"(सम्म०१ टयो रूपमित्यादौ च घटपटोभयवृत्तित्वस्यापि रूपत्वाऽऽदिसा. काण्ड) इति । नन्वेवं सर्वस्य सार्वज्ञाऽऽपत्तिरिति चेत् ।नामानाधिकरण्येन अन्वयबोध एव साकाङ्कत्वाद् न तयोघंट- ब्याथें इष्टत्वात; उक्तभगवदचनरुच्यनुवेधेन सम्यक्संपन्नरूपमित्यपि स्यादिति कैश्चित्कल्प्यते । तदसत । प्रतिवस्तु. त्वानतिप्रसङ्गाद् यद्यप्येवं, तथापि स्पष्टबोधः सवासरयाऽऽदि. न्याकाङ्कावैचित्र्यस्यापेकाबोधाऽऽत्मकफनबैचिध्यार्थमेवाऽऽश्र- प्रतिनियतधर्मप्रकारको बोधः, सदसदाद्याकारको वा बोधः यणातू, उजयरूपसामान्यस्य प्रत्येकरूपविशेषात्कथश्चि दान- सापेकः शाब्दस्थले नयापेकया जनितः, प्रत्यकस्थले चावभ्युपगमे त्वदुक्तान्यव्युत्पत्तिग्रहाद् घटपटयोघंटरूपमिति जाय. भ्यवच्छेदकाऽऽदिज्ञानापेक्तः स्यात् । किंवत् ,दीर्घताऽऽदिवत्मानस्थ बोधस्य प्रामाण्याऽऽपत्तेश्च; अस्माकं तु स्यादर्यानुप्र. श्रादीयतेऽनेनेत्यादि ज्ञान, दीर्घताप्रत्यकवदित्यर्थः । यथा दि वेशस्यैवातिप्रसङ्गमञ्जकत्वान्न दोषः। किश्चैवम्-द्वयोगुरुत्वं न दरामाऽऽदिज्ञानकाले तत्परिमाणग्रहेऽध्ययमस्माद्दीर्घ इति दीगन्ध इत्यादी का गतिः?,गुरुत्वसामानाधिकरण्येनेव गन्धत्व. र्घत्वप्रकारकं ज्ञानं नियतावध्यपेकयैव, तथा सदसदाद्यासामानाधिकरगयेनाऽपि पृथिवीजनोजयत्वा [ऽऽश्रयवृत्तित्वात स्मकवस्तुग्रहेऽपि सवाऽऽदिप्रकारकं ज्ञानं खद्रव्याऽऽद्यपेक्कयचे. विधिनिषेधविषयार्थानिरुक्तः। अत्र सप्तम्याः स्वार्थान्वयिताऽव- त्यर्थः; अयमेव तदपेकया दीर्घ इतिवत् स्वयाऽऽद्यपक्कया सन् च्छेद कस्वरूपत्वादुन्नयाख्यातिरिक्तवाऽऽधेयताऽधः (१)। तत्र च परदव्याऽऽद्यपेकयाऽसन्नित्येव व्यवहारात् । नन्वेवं व्यवहार एवं प्रकृत्यर्थस्य तनिष्ठनिरूपितत्वविशेषणान्वयात्पृथिवीजलोनय- सापेको,न तु बोध इति चेत् । न । व्यवदर्तव्यज्ञाने सति सत्यां विशिष्टाऽऽधेपतात्वेन गुरुत्वं विधेयतया, गन्धश्च निषेध्य- चेच्चायां व्यवहारेऽपि तदपेक्कणात् । अन्यथा उभारझानेऽपि प्रतया प्रतीयते, इत्युक्ती च नामान्तरेण गुरुत्वसामान्य- तियोग्यपेका न स्यात,तव्यवहार एव सप्रतियोगिकवस्थितः। म्यैव विधेयत्वं, गन्धसामान्यस्यैव च निषध्यत्वमायुष्मताम- अथ दी? दपम इति ज्ञानचक्षुःसन्निकर्षमात्राज्जायत एवातिरिक्ताऽऽधारताया भनिरूपणात् । अन्यथा घटपटयोन घटरूप- मुकापेक्या दीर्घ इति दीर्घत्वत्वावान्तरजात्यवगाहिज्ञान एवं मित्यादौ जातिघटयोन सन्नित्यादाविव घटपटोभयनिरूपित. चावधिज्ञानापेकेति चेत् । न । ह्रस्वत्वेन ज्ञाने दीर्घवेन ज्ञानस्यैस्वाभाववदाधेयतावद् घटरूपमित्यन्वयोपपादनेऽपि घटपटरूपे वापेकां विनाऽनुपपत्तेः । तदिहापि पररून्याऽऽदिनाऽसस्वेन इत्यस्योपपादयितुमशक्यत्वाद् घटरूपत्वाऽऽदिस्वरूपाया श्रा- स्वद्रव्याऽऽद्यपेक्कयैव सत्त्वज्ञानमिति प्रतिपत्तव्यम् । अवच्छेदकाधेयताया उभयानिरूपितत्वात् । तत्र द्वित्वाऽऽदिस्वरूपैवाऽऽधेय. नवगाहिनस्तु अनवधारणरूपत्वादेवानुपयोगः, द्विहस्ताऽऽदितेति चेद, द्वयोः प्रत्येकरूपावच्छेदेन द्वित्वाभावान्निषेधस्याऽपि मात्रेऽनुवृत्तकहस्तावच्छेदेन महत्वग्रहस्तु देशापेक्षयवेति तस्य प्रवृत्तिः स्यात् । अनुयोगिताऽवच्छेदकावच्छेदेनैव सप्तम्यर्थाऽऽधे- निरपतित्वम् । अत पवाऽऽवरगापगमे स्कन्धापेवया परिणामे द्वियत्वान्वयव्युत्पत्ते ऽयं दोष इति चेत,तथाऽपि घटरूपाकाशे हस्तत्वग्रहेऽपि तावदवच्छेदेन हस्तत्वग्रहस्थ नाप्रामाण्यं, देशइत्यादिकं कथम ?, एतद्वित्वाऽऽदिस्वरूपाया आधेयताया स्कन्धभेदेनोजयोपपत्तेः। एतेन जयोऽवयवावच्छेदेन चक्षुःसंयोउभयानिरूपितत्वात, तत्र तात्पर्यवशाद् हित्वान्वयेऽप्युनय
गाभावानार्द्धनिखातशाऽऽदेद्धिहस्ताऽऽदेः परिमाणग्रह इति स्यानाधेयत्वाभावात् ; तस्मान्नयापेक्वानेदेनाऽत्र विचित्र पव प्राच्यनैयायिकानां प्रलापो निरस्तः । यावंति भागे नातावरणं बोधः स्वीकार्यः ॥२॥
तावति भागे परिमाणवत श्च परिमाणस्य प्रहादेव स्कन्धपर्या(१) नम्वनन्तधर्ममिश्रितं वस्तु कथं विवेचयितुमशक्यम,
सपरिमाणग्रहे तत्पर्याप्त्यवच्छेदकयाबदवयवाबच्छेदेनाऽऽवरअनन्तानामपि धर्माणां धर्मि [H] भिन्नत्वेन धर्मिग्राहक
णाभावलक्षणयोग्यताया एव हेतुत्वे दोषाभावात् । किश-भूयोप्रत्यावाऽऽदेरेव तद्विवेकरूपत्वात, सति च तद्वि.
उवयवावच्छेदेनेत्यस्य कोऽर्थः ?, यावदवयवसन्निकर्षस्य तत्रावेके किमपेक्षाऽऽश्रयणन?, इत्याशङ्कयाऽऽह
प्यसंजवात, अनेकतस्तयोगस्य चातिप्रसजकत्वाद भयोऽव
यबावच्छिन्नत्वोपसक्तिताऽऽधारताविशेषस्य च देशस्कन्धापकायद्यप्यनन्तधर्माऽऽत्मा, वस्तु प्रत्यक्षगोचरः।
वैचित्र्यमुखनिरीककत्वादिति न किञ्चिदेतत् । यत्तु विषयतातयाऽपि स्पष्टबोधःस्यात, सापेक्षो दीर्घताऽऽदिवत ॥शा
संबन्धेन परिमाणसाकात्कारित्वावच्छिन्नं प्रति स्वामयसमयद्यपि वस्तु घटपटाऽऽदिकम् भनन्तधर्माऽऽत्मकं सत् प्रत्यकगो. बेतत्वसंबन्धेन तत्तदावरकसंयोगत्वम प्रतिबन्धकत्वाद् ना.
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एय
( १९५५) अभिधानराजेन् ।
ईनिखावंशादिपरिमाणमदः प
प
assदिकं गृह्यत एव महानयं वंश इति प्रतीतेः । तद्वान्तरवैजात्यं तु नानुभूयत इति तत्तद्वैजात्यग्रहं प्रत्या वरक संयोगस्य विरोधिता । न च निखाताऽनिखातसदृशवंशबोः सन्निकर्षकतायां तन्मयाऽऽदिवृत्तिवेषयानुभवा वैजात्यप्रत्यकं [ प्रत्यकं ] प्रत्यावरक संयोगानां प्रतिबन्धकत्वासंभव इति वाच्यम; तादृशबैल पत्रकारकं प्रत्यकं प्रत्येव तेषां विरोधित्वात् । विशेष्यत्वं प्रतिबध्यताऽवच्छेदकः संबन्धः, स्वाश्रयमेव तवं प्रतिबन्धताबच्छेदकमन्यमतिप्रसङ्गात्मनिखातसंनिकर्षात्ता पयविशेष्य कसा कास्काराऽऽय सेवा वमावृचैकपायविच्छेदेन यस्वःसंयोगाचे जात्यस्य प्रदः, तस्यैवान्यदा पुरुषान्तरस्य या सदानी पाबतिरावच्छेदेन चक्षुः संयोगेऽप्यग्रहः स्यात्, श्रवरक संयोगस्य विरोधिनः सध्वात् । ततकालीन सत्पुरुषीयमादित्य प्रत्येक तिबन्धकत्वे त्वनावरणकालीनस्य विलक्षण महत्वाऽऽदिप्रत्यकस्वाऽऽवरणदाबामुत्प्रसङ्गः न हि तथापि सन्निकर्ष विना अन्यद्विशिष्टकारणं जिस पेन लिम्बाद्विलम्बः स्यात् । अपि च पवमावृत्तादृटनस्थले प्रतिबळ्या प्रसिद्धिः स्वप्राची स्थपुरुषीयोक्तवैजात्य साक्षात्कारणत्वावच्छिन्न एव स्वप्रतयाऽवरक संयोगत्वेन प्रतिबन्ध - ध्येयमित्यादिसंयोगप्रतिबन्धकत्वेन निर्धा हितार्थादर्शनायथाऽनुपपच्या चक्षुः प्राप्यकारित्वसाधनप्रवासस्य 33पतिरिति न किचिदेतत् । पतेन तारवेल साक्षात्कारम योजकतया चतुरादिसंयोगनिष्ठवै जात्यान्तरस्वीकारणेच निचद इति कल्पनाऽपि तेषामपास्ता, तद्वतोरिति न्यायेनाऽऽनिमुख्यविशेषेणाऽऽवरणाभावविशेषेण वा निवहे तावेजा स्वकल्पनायां महागौरवाद, मन्यापेकवेच स्वदेशापेक्षयाऽपि न्यूनाधिकनावरूपवै जात्यानुभवस्यापेक्षां विनाऽनुपपचेचेति दिक् ॥ ३ ॥ नयो० । व्या० ।
(५) तत्र नय इति किमुच्यते ?, कतिभेदश्चायम् १, इत्याहएगेखत्युणोऽणे-गधम्मृणो जमनधारणेणेव । नणं धम्मेण प्रो, होइ नओ सत्तहा सोय ॥ २१८०॥ अनेकधर्मणोऽनन्तधर्माऽऽत्मकस्य वस्तुनो यदेकेन नित्यत्वाssदिना नित्यत्वादिना या धर्मेणावधारथेनैव सावधारणं नयनं प्ररूपणं तकोऽसौ नयो भवति । अनन्तधर्माऽऽत्मकं वस्त्वेकांशेनैव नयति प्ररूपयतीति नयः । कथं पुनरेकस्य वस्तुनो युगपदन्तधर्मामकत्व अत्रोच्यते सर्वमेव वस्तु तात्पययम्। ते च पर्याया द्विविधाः रूपरसादयो युगपद्भाविनः नयपुराणादयस्तु कमनाचिनः पुनः शब्दार्थपर्या यदा सर्वेऽपि द्विविधाः इन्द्रो दुश्च्यवनो हरिः " 66 । तत्र इत्यादिशब्देऽनिष्यन्ते ते सर्वेऽपि शब्दपर्यायाः । ये त्रिलपितुं न शक्यन्ते श्रुतज्ञानविषयत्वातिक्रान्ताः केवलाऽऽदिज्ञानविषयास्तेयपर्यायाः पुनरेते द्विविधाः स्वपर्याचा पर पर्याया पुनस्तेऽपि केचित्स्वाभाविकाः केचित्तु पूरा देशब्दचदापेक्षिका पुनरेते सर्वेऽभ्यतीतानागतवर्तमानकालभेदात्रिविधा इत्यादिना प्रकारण समयानुसारतः सु धिया वस्तुनो युगपदनन्तधर्मकत्वं भावनीयम् । स च नयः सप्तविधः सप्तप्रकार इति ॥ २१०० ॥ विशे० आ० म० । ननु नवश्य प्रमाणाद्भेदेन स्वार्थम्यव
।
न
गय
सायाऽऽत्मकत्वेन तस्य प्रमाणस्वरूत्वात् । तथाहि नयः प्रमाणमेव, स्वार्थव्यवसायकत्वादिष्टप्रमाणवत्, स्वार्थव्यत्र सायकस्याप्यस्य प्रमाणत्वानभ्युपगमे प्रमाणस्यापि तथाविधस्य प्रमाणत्वं न स्यादिति कश्चित् । तदसत् । नयस्य स्वार्थैकदेशनितिरुत्वेन स्वार्थव्ययसायकत्वासिद्धेः । ननु नयविषयतथा सम्मतोऽर्थकदेशोऽपि यदि वस्तु तदा तत्पर नया प्रमाणमेव वस्तुपरिच्छेद कणत्वात्यमाणस्य स न चेद्रस्तु तर्हि तद्विषयो नयो मिथ्याज्ञानमेव स्यात्, तस्वात्रस्तुविषयत्वत्यादिति चेत् । तदयम् अर्थैकदेशस्य वस्तुवावस्तुस्वपरिहारेण वस्त्वंशतया प्रतिज्ञानात् ।
तथा चाऽवाचि
" नाऽयं वस्तु न चाऽवस्तु, वस्त्वंशः कथ्यते बुधैः । समुद्रः समुद्रो वा समुद्रांचे हि ॥ १ ॥ सन्माषस्य समुरवे दोपांसस्थासमुझता । समुद्रबहुता वा स्यात्, तथ्ये कास्तु समुद्रवित् १ ॥ २ ॥ " यथैव हि समुद्रांशस्य समुद्रत्वे शेषसमुद्रांशानामसमुद्रत्वप्रसङ्गात् समुद्रत्वाऽऽपतेव तेषामपि प्रत्येकं समुत्याद तस्याऽसमुद्रत्वे वा शेषसमुद्रांशानामप्यसमुद्रत्वात् क्वचिदपि समुद्रव्यवहारायोगात् समुद्रांशः समुषांश एवोच्यते, त था स्वार्थकदेशी नवस्य न वस्तु, स्वार्थकदेशान्तराणामवस्तुस्वप्रसङ्गादपस्तुचानुपायवस्तु शेषांशानामध्य वस्तुत्वेन क्वचिदपि वस्तुव्यवस्थाऽनुपपत्तेः । किं तर्हि वस्त्वंश प्रवासी वाहवा ततो ववंशे म नो नयः स्वार्थैकदेशव्यवसाय न प्रमानापमा ज्ञानमिति ॥ १ ॥ ( रत्ना० )
नयप्रकारसूचनाया ऽऽडुः
स व्याससमासाच्यां द्विप्रकारः ॥ ३ ॥
स प्रकृतो नयः व्यासो विस्तरः, समासः संक्षेपः, ताभ्यां द्विभेदः - व्यासनम्रः, समासनयश्चेति ॥ ३ ॥
व्यासनयप्रकारान् प्रकाशयन्तियतोऽनेकविकल्पः ॥ ४ ॥
एकांशगोचरस्य हि प्रतिपत्त्रभिप्रायविशेषस्य नयस्वरूपत्वमुक्तं, ततश्चानन्तांशाऽऽत्मके वस्तुन्येकैकांश पर्यवसायिनो याव स्वः प्रतिपनृणामभिप्रायास्तावतो नया ते च नियतसंख्या संख्यातुं न शक्यन्त इति व्यासतो नवस्यानेकप्रकारत्वमुक्तम् ॥ ४ ॥
समानयं भेदतो दर्शयति
समासतस्तु द्विजे दो- द्रव्यार्थिकः, पर्यायार्थिकथ ॥२॥ नय इत्यनुवर्तते; रुवति द्रोष्यति अदुदुवत् तांस्तान् पर्यायानिति इव्यं तदेवार्थः, सोऽस्ति यस्य विषयत्वेन स सव्याकिः पादविनाश प्राप्नोतीति पर्यायः स एवार्थः सोस्त स्वासी पर्यायार्थिकः एतावेव च द्रव्यास्तिकपर्यायातकाविति इव्यस्थित पर्यावस्थिताविति व्याप र्यायार्थाविति च प्रोच्येते । ननु गुणविषवस्तृतीयो गुणार्थि कोsपि किमिति नोक शर्त चेत्, गुणस्य पर्याय एवान्तर्भूतत्वेन पर्यायार्थिकेनेन संग्रहात् पर्यायो हि द्विविधः क्र मभावी, सहजावी च । तत्र सहभावी गुण इत्यभिधीयते; पर्यायशब्देन तु पर्यायसामान्यस्य स्वपापिनोऽनघा नाम दोषः ननु कम्पयम्यतिरिकी सामान्यविशेष
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पाय
(१८५६) पाय
अभिधानराजेन्द्रः। येते ततस्तत्रोचरमपरमपि नयद्यं प्राप्नोतीति चेत् । नैतद
तत्र परसंग्रहमाहु:नुपरुवम । द्रव्यपर्यायाभ्यां व्यतिरिक्तयोः सामान्यविशेषयोर- अशेषविशेषष्बौदासीन्यं भजमानः शुरुषव्यं सन्माप्रसिः । तथादि-हिप्रकारं सामान्यमुक्तम्-कर्द्धतासामान्य,
अमभिमन्यमानः परसंग्रहः॥ १५ ॥ तिर्यक्सामान्यं च । तत्रो तासामान्य रून्यमेष; तिर्यकसा
परामर्श इत्यप्रेतनेऽपि योजनीयम् ॥ १५ ॥ मान्य तु प्रतिव्यक्तिसहशपरिणामलकणं व्यन्जनपर्याय एव।
उदाहरन्तिस्चूलाः कालान्तरस्थायिनः शम्दानां सङ्केतविषया व्यञ्जनप:या ति प्रावचनिकप्रसि।विशेषोऽपि वैसहश्यविधमकणः
विश्वमेकं सदाविशेषादिति यथा ॥ १६ ॥ पर्याय एवान्तर्भवतीति नैताम्बामधिकनयावकाशः॥५॥
अस्मिन् उके हि सदिति हानाभिधानानुवृत्तिलिङ्गानुमितसम्यार्थिकभेदानाहु
ताकत्वेनैकत्वमशेषार्थानां संगृह्यते ॥१६॥ (रक्षा) प्रायो नैगमसंग्रहव्यवहारजेदात् त्रेधा ॥६॥
_ मघापरसंग्रहमाहुःश्राद्यो च्यार्थिकः॥६॥
घव्यत्वाऽऽदीन्यवान्तरसामान्यानि मन्वानस्तक्षेदेषु गतत्र नैगमं प्ररूपयन्ति
जनिमीलिकामवलम्बमानः पुनरपरसंग्रहः॥ १५॥ धर्मयोधर्मिणोर्मधर्मिणोश्च प्रधानोपसर्जननावेन यद्विर- कव्यत्वमादिर्वेषां पर्यायत्वप्रभृतीनां तानि तथा, अवान्तरक्षणं स नैकगमो नैगमः ॥७॥
सामान्यानि सत्ताऽऽस्यमदासामान्यापेक्षया कतिपयव्यक्तिनिपर्यायवोर्डव्ययोर्डव्यपर्याययोश्च मुल्यामुस्वरूपतया यद्विव
ष्ठानि तद्भेदेषुरूव्यत्वाऽऽद्याश्रयभूतविशेषेषु फव्यपर्यायाऽऽदिषु क्षणं स एवंरूपो नैके गमा बोधमार्गा यस्याऽसौ नैगमो नाम गजानमासिकामुपेकाम ॥ १॥ नयो क्षेवः ॥७॥
उदाहरन्तिअथास्योदाहरणाय सूत्रत्रयीमाहुः
धर्माऽधर्माऽऽकाशकाल पदलजीवव्याणामैक्यं छव्यसच्चैतन्यमात्मनीति धर्मयोः॥॥
त्वानेदादित्यादिर्यथा ॥ २०॥ प्रधानोपसर्जनभावेन विवक्षणमितीदोत्तरत्र च सूत्रद्वये योज
मत्र व्यं द्रव्यमित्यजिन्नानाभिधानलक्षणविनानुमितद्रव्य. नीयम् । अत्र चैतन्याऽऽख्यस्य व्यजनपर्यायस्य प्राधान्येन बिपक्कणम, विशेष्यत्वात्। सत्वाऽऽण्यस्य तु म्यानपर्यायस्यो
स्वाऽऽत्मकत्वेनैक्यं पराणामपि धर्माऽऽदिरूव्याणां संगृह्यते । पसर्जनभावेन, तस्य चैतन्यविशेषणत्वादिति धर्मद्वयगोचरो
मादिशब्दाचेतनाचेतनपर्यायाणां सर्वेषामेकत्वम् ; पर्यायत्वा
विशेषादित्यादि दृश्यम् ॥१०॥(रना) नैगमस्य प्रथमो भेदः॥८॥ वस्तुपर्यायवद द्रव्यमिति धर्मिणोः ॥ ए॥
अथ व्यवहारनयं व्याहरन्ति
संग्रहण गोचरीकृतानामर्थानां विधिपूर्वकमवहरणं येनाअत्र हि पर्यायव द्रव्यं वस्तु वर्तत इति विवक्षायां पर्या
लिसन्धिना क्रियते स व्यवहारः॥ २३ ॥ यवद् द्रव्याऽऽख्यस्थ धर्मिणो विशेष्यत्वेन प्राधान्यम, वस्त्वा. ख्यम्य तु विशेषणत्वेन गौणत्वम् । यद्वा-किं वस्तु पर्याय. संग्रहगृहीतान् सत्वाऽऽद्यर्यान विधाय, न तु निषिध्य यः प. बद् व्यमिति विवक्षायां वस्तुनो विशेष्यत्वात् प्राधान्यम, रामर्शविशेषः, तानेव बिभजते, स व्यवहारनयस्तः कीपर्यायवद् व्यस्य तु विशेषणत्वाद् गौणत्वमिति धर्मियु. यते ॥१३॥ ग्मगोचरोऽयं नैगमस्य द्वितीयो भेदः ॥ ए॥
। उदाहरन्तिक्षणमेकं सुखी विषयाऽऽसक्तजीव शति धर्मधर्मिणोः॥१०॥ यथा यत्सत्तद् व्यं पर्यायो वेत्यादिः॥४॥
अत्र दि विषयाऽऽसक्तजीवाऽऽस्यस्व धर्मिणो मुख्यता, विशे- मादिशब्दादपरसंग्रहगृहीतार्थगोचरव्यवहारोदाहरणं ह. ध्यत्वात्, सुखसकणस्य तु धर्मस्वाप्रधानता, तद्विशेषणत्वेनो
श्यम् । यद् द्रव्यं तज्जीवाऽऽदि षट्विध, यः पर्यायः स द्विविधःपात्तत्वादिति धर्मधालम्बनोऽयं नैगमस्य तृतीयो भेदः । न
क्रमजावी, सहन्नाची चेति । एवं यो जीवः स मुक्तः संसारी चास्यैवं प्रमाणाऽऽत्मकत्वानुषङ्गो धर्मधर्मिणोः प्राधान्येनात्र
च, यःक्रमभावी पर्यायः स क्रियारूपः, प्रक्रियाम्पत्याक्षप्तेरसंभवात् तयोरन्यतर पव हि नैगमनयेन प्रधानतयाऽनु
दि॥२४॥ (रत्ना) नूयते। प्राधान्येन कन्यपर्याययाऽऽत्मकं चार्थमनुभवविज्ञानं
ग्यापिकं त्रेधाऽभिधाय पर्यायार्थिकं प्रपञ्चयन्तिप्रमाणं प्रतिपत्रव्यं नान्यत् ॥ १०॥(रता.)
पर्यायार्थिकश्चतुर्का-ऋजुसूत्रः, शब्दः, समनिरूढः, एअथ संग्रहस्वरूपमुपवर्णयन्ति
वंतृतश्च ॥२७॥ सामान्यमात्रग्राही परामर्शः संग्रहः ।। १३॥ सामान्यमात्रमशेषविशेषरहितं सवकन्यत्वाऽऽदिकं गृहाती
एषु ऋजुसूत्रं तावद्वितन्वन्तिस्येवंशीलः, समेकीभावेन विएमीभूततया विशेषराशिं गृह्णा |
ऋजु वर्तमानकणस्थायि पर्यायमात्र प्राधान्यतः मूत्रयनतीति संग्रहः । अयमर्थ:-स्वजारष्टान्यामविरोधेन विशे- जिमाय ऋजुसूत्रः ।। २८॥ षाणामेकरूपतया यद् प्रहणं स संग्रह इति ॥ १३॥
ऋजु अतीतानागतकालकणकणकौटिल्यवैकल्यात प्राजअमुंजेदतो दर्शयन्ति
लम अयं हि द्रव्यं सदपि गुणीभावान्नार्पयति, पर्यायांस्तु कअयमुभयाविकल्प:-परोऽपरश्च ॥ १४॥
रणध्वंसिनः प्रधानतया दर्शयतीति ।। २८॥
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(१८५७) पाय भन्निधानराजेन्सः ।
पाय उदाहरन्ति
__ उदाहरन्तियथा मुखविवर्तः सम्पत्यस्तीत्यादिः ॥२५॥
यथेन्दनमनुजवन्निन्छः, शकनक्रियापरिणतः शक्रः,पूर्दाअनेन हि वाक्येन क्षणस्थायिसुखाऽऽयं पर्यायमा प्राधा- |
रणप्रवृत्तः पुरन्दर इत्युच्यते ।। ४१ ।। रत्ना०७ परि० । न्येन प्रदश्यते, तदधिकरणभूतं पुनरात्मव्यं गौणतया नाl.
(६) ननु सर्वत्र वास्तव्येवापेक्षा नयप्रवृत्तिहेतुः, उत वैते, आदिशब्दाद् दुःस्वपर्यायोऽधुनाऽस्तीत्यादिकं प्रकतनय.
सानिक्यपि? । उच्यते-कचिद् वैज्ञानिक्यपि, यत्र मतनिदर्शनमज्यूहनीयम् ॥ २॥ रत्ना०)
भेदोऽयवसायः । तथा चाऽऽह-- शब्दनयं शनयन्तिकालाऽऽदिनेदेन ध्वनेरथजेदं प्रतिपद्यमानः शब्दः॥३॥
नानानयमयो व्यक्तो, मतनेदो ह्यपेक्षया । काखाऽऽदिभेदेन कामकारकलिङ्गसंख्यापुरुषोपसर्गदेन ॥३२॥
कोटयन्तरनिषेधस्तु, प्रस्तुतोत्कटकोटिकृत ॥४॥ उदाहरन्ति
( मानेति ) हि निश्चित मतभेदः-बौद्धोपनिषदादिदयथा बनूव भवति नविष्यति सुमेरुरित्पादिः॥ ३३ ॥ शेनजेदः, नानानयमयः-स्वेच्छानिवेशितत्वेनाऽनेकनयविकाररू. अत्राऽतीतवर्तमानमाविष्यवकणकालत्रयदात् कनकाऽचस
पः, वस्तुत्वप्रकृतिरूपो वा; अपेक्षया व्यक्तः, शुरूपर्यायशुद्धता स्य भेद शब्दनयः प्रतिपद्यते । व्यरूपतया पुनरभेदममुष्योपे
व्याऽऽधपेक्यैव तत्तदर्थव्यवस्थितः । नयविशेषतात्पर्यमेतद,न क्षते । एतच कालभेदे उदाहरणम् । करोति क्रियते कुम्भ
स्वपेरोति चेत् ।न। तात्पर्यस्यापि वस्तुसंबन्धरूपापकामासम्न्य इति कारकभेदे, तटस्तटी तटमिति सिङ्गमेदे, दाराः कलत्र
प्रवृत्तः, असति संबन्धे तात्पर्यस्य प्रामाण्याप्रसरात् । सा चे. मित्यादि संख्याभेदे, पहि मन्ये रथेन यास्यसि न हि यास्व.
यमपेक्षा वैजातिकः संबन्धः; अत एव विकल्पसिद्धस्य धर्मिणः सि यातस्ते पितति पुरुषभेदे, सतिष्ठतेऽवतिष्ठत इत्युपस
प्रतिषेधाऽऽदिसाधनमामनन्ति साम्प्रदायिकाः। ईश्वरो नास्ति, गंदे ॥ ३३ ॥ ( रत्ना०)
प्रकृतिनास्तीत्यादौ विशिष्टज्ञानाऽऽकारविषयत्वेन तत्र धर्मिणो समभिरूढनयं वर्णयन्ति
विकल्पसिकत्वाद्विशिष्टवस्तुसिद्धौ कथं विशिाऽऽकारो भ. पर्यायशब्दषु निरुक्तिभेदेन जिन्नमर्थ समभिरोहन सम
वेदिति चेत् ?; यथा तब विशिष्टानतिरेकेऽपि विशिष्टान्नावोति
रिक्तः प्रतिबिम्बबलात् सिमः, तथा मम विशिष्टाऽऽकारोऽपीति निरूढः ।। ३६ ॥
किं बाधकम् ?; खएडशः प्रसिद्धधर्मर्मिरूपसपरागणासदा. शब्दनयो हि पर्यायानेदेऽप्यर्थाभेदमनिप्रैति, समभिरूढस्तु
कारोत्पत्तेनास्त्यस्यातिप्रसङ्गः[?] । यद्वा-मालयविज्ञानसन्तपर्यायनेदे जिन्नानर्थाननिमन्यते, अभेदं त्वर्थगतं पर्यायशन्दा |
तिरूप प्रात्माजपि यदि क्वणिकः, किं पुनर्वाच्यं बाह्यवस्तुध्विति नामुपेक्षत इति ॥ ३६॥
वैराग्यप्रतिपन्थितृष्णोच्छेदकानित्यभावनादेशेन चौकदर्शनस्य ?; उदाहरन्ति
मुमुकुणा सर्व परित्यज्य स्वात्मनिष्ठेन भवितव्यम; स च इन्दनादिन्छः, शकनाच्छकः, पूर्दारणात पुरन्दर इत्या- एक एवेति शोकद्वेषाऽऽदिनिबन्धनानेकसंबन्धबुद्धिमलप्रतादिषु यथा ।। ३७॥
लनगङ्गाजलसमानिकत्वनावनोद्देशेन च वेदान्तिकदर्शनस्य इत्यादिषु पर्यायशब्देषु यथा निरुक्तिभेदेन भिन्नमर्थ समनि- प्रवृत्तः : तत्तदर्शनार्थानेषु तत्तद्भावनोदेशप्रयुक्तमेवापेक्कारोहनभिप्रायविशेषः समभिरूढः, तथाऽन्येष्वपि घटकुटकुम्भा
त्वं, तेनैव तस्य सुनयत्वव्यवस्थिते । अन्यथा बौद्धसिकान्ते ऽऽदिषु कष्टव्यः ॥ ३७ ।। (रत्ना)
बाह्यार्थज्ञानाऽऽदिवादाना, वेदान्तिसिद्धान्ते च प्रतिबिम्बाभाएवंभूतनयं प्रकाशयन्ति
सावच्छेददृष्टिसृष्टिवादाऽऽदीनामन्योन्यविप्रतिषिद्धत्वेन जा. शब्दानां स्वप्रवृत्तिनिमित्तनुतक्रियाऽऽविष्टमर्थं वाच्यत्वे
त्या दुर्नयत्वं सम्यग्दृष्टिपरिग्रहणाऽपि निराकर्तुमशक्यत्वात् ।
न हि जात्या इलाहसं सवैद्यहस्तोपादानमात्रेणाऽमृतायते, र. नाऽभ्युपगच्छन्नेवनूतः॥ ४० ॥
सायनीकरणं तु तस्षोक्तापेक्वयैवेति रदतरमवधेयम् । समभिरूढनयो हीन्दनाऽऽदिक्रियायां सस्यामसत्यां च वासवा- ननूक्तापेक्षयातिशुष्र्जुसुत्राऽऽदीनामितरनयार्थप्रतिषेधवृत्ती
देरर्थस्येन्डाऽऽदिव्यपदेशमनिप्रेति, पशुविशेषस्य गमनक्रि. कथं न दुर्नयत्वम?,इतरांशौदासीन्यस्यैव सुनयलकणत्वात्।.. यायां सत्यामसत्यां च गोव्यपदेशवत तथा रूढेः सद्भाबात ।। श्यन्तेचते नयाः स्वसमये,परसमयेच स्वेतरनयार्थबाधेनेव प्रग. पवम्नूतः पुनरिन्दनाऽऽदिक्रियापरिणतमथै तरिक्रयाकाले इन्का- ल्भमाना इत्याशक्क्याऽऽह-कोट्यन्तरस्येतरनयार्थस्य, निषेधो
दिव्यपदेशभाजमनिमन्यते; नदि कश्चिदक्रियाशब्दोऽस्यास्ति, निराकरणं, प्रस्तुता या सत्कटकोटिस्तत्कारी,विशिष्टविधर्विशेगौरश्व इत्यादिजातिशब्दानिमतानामपि क्रियाशब्दस्वाद- षणविधामेण प्रस्तुतकोटेरुत्कटत्वकदित्यर्थः। अयं जावा-यदीगच्छतीति गौः, आशुगामित्वादश्व इति। बाक्लो नील इति तरनयार्थप्रतिषेधो द्वेषबुद्ध्या तदा दुर्नयत्वमेव, यदि चोक्तभागुणशन्दाभिमता अपि क्रियाशब्दा एव-शुचिभवनात् शुक्लो, बनादाव्यानुगतस्वविषयोत्कर्षाऽधानाय, तदा सुनयत्वनीलनात्रीत्व इति । देवदत्तो यज्ञदत्त इति यहचाशदा. मेव, जात्या धुनयस्याऽपि चिन्ताझानेन फलतः सुनयीकरणाद्, भिमता अपि क्रियाशना एव-देव एनं देयात्, यज्ञ पनं देया- नावनाकानमे ऐदम्पर्यार्थप्रधानकरणप्रमाण वाक्कदेशत्वादिति । संयोगिकन्यशब्दाः समवायितव्यशब्दाश्वाभिमता: ऽऽपादनाच। क्रियाशम्दा एव-दएमोऽस्याऽस्तीति दामी, विषाणमस्यास्ती.
तदाहुः श्रीहरिभसूरयः षोडशप्रकरणेति विषाणीत्यास्ति क्रियाप्रधानत्वात् । पञ्चतयी तु शब्दानां “ऐवम्पर्य शुद्ध्यति, यत्राऽसावागमः सुपरिशुद्धः।
व्यवहारमात्राद् न निश्चयादित्ययं नयः स्वीकुरुते ॥४०॥ I तदनावे तद्देशः, कश्चित् स्यादन्यधाग्रहणात् ॥ १२॥"
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(१८५७)
माभिधानराजेन्ः। अस्य व्याख्या-ऐदम्पर्य तात्पर्य पूर्वोक्तं.शुभ्यति स्फुटीभवति या वस्थेति ध्येयम । अत एव-"दबध्याए एगे महं, नाणदंसपाऽभामे,मसाबागमः सुपरिपुरःप्रमाणतः तदनाये ऐदम्पर्य- | णच्याए हुवे महं।" इत्यादि पारमर्षम। सामनाये,तदेशः परिशुभागमैकदेशः,कश्चिदन्य भागमः स्यात, दमप्यत्र विचार्यते-द्वित्वाऽऽदिकमपेकाबुच्या जन्यं वा,व्याय न तु मूलाऽऽगम पच,मन्यचाग्रहणाद मूनाऽऽगमैकदेशस्य सतो वेति तत्रजन्यमेवेति नैयायिकाः।व्ययमिति प्राभाकराः। तत्र विषयस्याऽन्यथाप्रतिपत्तेर्यतः समतामवलम्बमानास्तेऽपि तथे
नैयायिकानमयमाशयः-द्वित्वस्य व्यङ्गचत्यनये अपेक्काबुकद्वित्वत्वसक्छन्ति ॥१२॥(पो०१६ विव.)तत्रापिचनद्वेषः कार्यों,विषयस्तु प्रकारकसौकिफप्रत्यक्तत्वकार्यतावच्छेदकत्वं वाध्यम, जन्यत्वयवतो मृग्यः,तस्यापि न सद्वचनं सर्वं यत्प्रवचनादन्यदिति ।
नये तु द्वित्वमेवेति लाघवमान च व्यपवनयेऽपि लौकिकानन्वयं स्वसमयनयवाक्येभ्यः परसमयनयवाक्यानां को
कारतासंबन्धेन बित्वमेव तत्कार्यतावच्छेदकं वक्तुं शक्यम,गुविशेषः, फलतो जातितश्च शुद्ध्यशुयोरविशेषात ?। न णत्वसंख्यात्वतव्यक्तित्वाऽदिना विनाऽप्यपेक्षाबुझिं तत्प्रत्यक्षप्र. हि शानदर्शनलिङ्गचारित्राऽऽदिवादेषु स्वसमये स्थितप- सनात,तेन रूपेण तत्प्रस्यकं प्रति तस्यादेतुत्वकल्पने चातिगौर. क्षोऽपि स्वविषये प्राधान्यं विदधानः ज्ञानाऽदिनयवि. वात् । न च स्वाश्रयविषयतया द्वित्वत्वस्य कार्यताऽवच्छेदकतया पये च तन्निराकुर्वाणो जात्या शुभत्वमङ्गीकुरुते । तथा न दोष इति वाच्यम् । तथापि व्यङ्गयत्वनये स्वाश्रयविषयत्वं च स्थितपकवचनम-"जम्दा दंसणनाणा, संपुष्यफलं न दिति कार्यताऽवच्छेदकताऽवच्छेदकः संबन्धः,जन्यवनये तु समवाय पत्तेयं । चारिसजुआ दिति, विसिस्सए तेण चारितं" ॥१॥ शति जन्यत्वपक्क एव श्रेयान,साघवात् । अथ द्वित्वप्रत्यक्षेपि प्रत्यइति । अत्र हि कानाऽदिनये नैतवक्तुं शक्यम, यथा स्वया सं. कत्वमेव कार्यताऽवच्छेदकम, द्वित्ववृत्तिविषयतायाः कार्यताऽवपूर्णफलप्रापकत्वेन चारित्रमुत्कृष्यते, तथा मया तपनायक- च्छेदकसंबन्धवेनैवानतिप्रसङ्गात् । अन्यथा द्वित्वप्रत्यकस्य वि. स्वेन "दासेण मे *" इत्यादिन्यावाद् व्यापारतया चारित्रान्य- षयतया हित्वत्वाऽऽदावपि जायमानत्वेन व्यभिचारात् अपेथासियापादनाच्च ज्ञानाऽदिकमेवोस्कर्षमारोपणीयमिति । क्षाबुद्धित्वं कारणताऽवच्छेदक, तश्च मानसत्वब्याप्यो जातिविविजृमिजतं चेदमध्यात्ममतपरीक्षायां बहुधाऽस्माभिः। तथा च शेषः,कारणताऽवच्छेदकः संबन्धः स्वविषयपर्याप्तत्वमातेन घटप्राधान्यस्याप्यव्यवस्थितत्वात कुत्र केन मयेन जात्या व्यवस्थे- पटैकत्वबुद्धित्वेनापेक्षाबुद्धेर्घटपटद्वित्व प्रत्यकहेतुत्वेऽनन्तकार्ययम,फलतः शुद्धिस्तु स्वपरसमययोरविशिष्टेति चेत्,अत्रास्मा- कारणभावाऽऽपत्तिः, द्वित्वप्रत्यकताऽवच्छिन्नेऽपेकाबुकित्वेन साकमाभाति-यथा देशप्रदेशस्त्रएकपरमाणुवादीनां स्कन्ध[संबन्ध-] मान्यतो देतुत्वेऽपि घटपटद्वित्वप्रत्यककाले घटकुड्यद्वित्वप्रसंबन्धाच्यां नेदः, तथा स्वसमयपरसमयस्थविचित्रनयानां प्र- त्यवाऽऽपत्तिः,स्वविषयवृत्तित्वसंबन्धेनापेक्ताबुरेस्तत्रापि स. माणवाक्यान्तनावबाहिभावाभ्यामातौ च पदार्थवाक्यार्धाऽऽदि- स्वादित्यादिदूषणानवकाशः। घरपटैकत्वबुरुर्घटकुम्पद्वित्वे स्वजावेन साकाङ्कतया,स्वातन्त्र्येण निराकातया चेति न जातिभे
विषयपर्याप्तत्वसंबन्धेनाऽप्तस्वादिति व्यङ्गयत्वनयेऽपि न गौरवदाज्नुपपत्तिः। स्वसमये नयेषुनिराकाङ्कप्रमाणबोधपर्यवसाने तद।
मिति चेत् । न । एवं सति प्रत्यक्त्वं वा कार्यताऽवच्छेदकं,ज्ञानत्यन्तोत्कर्षरूपकेवलज्ञानफलोद्देशः, परसमये नयेषु च उतनाव
त्वं वाऽनुभवत्वं वेत्यादौ विनिगमकाभावात् । किश्व-व्यङ्गय. नामात्रफलोद्देश इति फनतोऽपि भेदोव्यक्तएवेति सर्वमवदातम। स्ववादिना मैत्रीयापेक्काबुद्ध्या संनिकर्षाऽऽविवशाद चैत्रीयप्रत्यननु ययेवं नया आपेक्षिकाः, तदा अवयव्येकत्व- कोत्पत्तिवारणाय चैत्रीयापेकाबुमित्वस्य चैत्रीयप्रत्यकत्वाऽऽदिना मपि द्वित्वाऽऽदिवदुरिजन्यमेव स्यात; उभयमपि वा का- कार्यकारणभावो वाच्य इति गौरवमेव । अथ तव पुरुषान्तनाऽऽकारमात्रं इति चेत् । न । एकत्वद्वित्वाऽऽदीनामन- रापेकावुद्धिजनितद्वित्वस्य पुरुषान्तराप्रत्यवत्वाय द्वित्वनिष्ठवि. न्तानां संख्यापर्यायाणामेकरून्यवृत्तीनामेध सतां यथा कयो- षयतासंबन्धेन चैत्रीयप्रत्यके मैत्रीयद्वित्वाऽऽदिभेदस्याऽपि हेतु. पशमबुक्तिविशेषण प्रतिनियतानामेव ग्रहणमित्यच्युपगमात् । त्वं कल्पनीयम । यद्वा-चैत्रीयद्वित्वप्रत्यकं प्रति चैत्रापेक्काबुयुक्तं चैतत् । अन्यथा एकत्रैव घटे तद्रूपतरूसमतोक्यमि- सिजन्यद्वित्वेन हेतुता कल्पनीया, कार्यताऽवच्छेदकः संबन्धो त्यादिना द्विवचनप्रयोगस्य , बहुषु करि-तुरग-रथ-पदातिषु द्वित्वनिष्ठविषयताकारणताऽऽवच्छेदकस्तादात्म्यम् । अत एव-चैसेनेत्येकवचनप्रयोगस्याऽनुपपसेः। अथैकत्वद्वित्वाऽदितत्सद्ध
मैत्रापेक्काबुकिभ्यां तुल्यविषयाभ्यां युगपदुत्पन्नाभ्यामुत्पादितं मैप्रकारकबुझिविषयत्वाऽऽदिक गौणमेव द्वित्वाऽऽदिन्यबदार- धित्वमेकमेवेति मतेऽपि न क्षतिरिति कल्पनायामधिकं निमित्तं तच तत्तविच्छेदेन पर्याप्तमिति नैको द्वावित्यादेः
गौरवमिति चेत् । न। तौरवस्य फरमुखत्वेनाऽदोषत्वात् । यप्रसङ्गामुख्यं तु द्वित्वम् अपेकाधुटिजन्यं द्वित्वमन्यदेवेति न दोष
चपि द्वित्वाऽऽदावपेक्षावुद्धे कत्वावगाहिबुद्धित्वेन हेतुता, अयं इति चेत् । न । उक्तविषयतारूपद्वित्वाऽऽदेरप्येकत्वपर्याप्तत्वात
घट एक ति बुद्धितोऽपि द्वित्वोत्पण्यापत्तेः; नाऽपि नैकत्वातत्तमप्रकारतानिरूपितत्वविशिष्टविषयताया अपि क्वचित्सं.
घगाहिबुद्धित्वेन,अयमेकश्चिरनो घटश्चैक इति बुद्धितोऽपि तबधाऽऽदिभेदेन प्रकारताभेदादेकस्या अभावातभावेऽपि च द.
दापत्तेः तयाऽपिहित्वाऽऽदिजनकतावच्छेदका मानसत्वव्याप्या यस्य प्रत्येकानतिरिक्तत्वेन एकधर्मावच्छेदेन द्वित्वाऽऽदिपर्याप्ति
नानाजातयो वाच्याः, अन्यदा कदाचिद् द्वित्वं कदाचित्रित्व. प्रसङ्गादू.धर्मगतद्वित्वस्यैव तत्पर्याप्त्यवच्छेदकताऽवच्छेदकत्व- मिति नियमो न स्यात्। न च स्मृतित्वव्याप्यत्वमेव तासांन कुतः, स्वीकारे च तत्राऽपि द्वित्वस्य वास्तवस्यानावाद रूपत्वरसत्वाऽऽ. शति वाच्यम्; यद्यक्तिविशेष्यत्वैकस्मरणं कस्याऽपि न जादिप्रकारकबुयिविषयत्वस्यैव गौणस्य स्वीकारे,तत्पर्याप्स्यवच्छे
तं, तत्र स्मरणाऽनुभवकार्यकारभावकल्पने संस्कारव्यवधादकाऽऽदिगवेषणेऽनवस्थिते वास्तवद्वित्वाऽऽद्यभावे ज्ञानाऽऽकार- नेन क्षणविलम्बे च गौरवात,म्मृतित्वव्याप्यत्वेऽपि स्मरणात्मतापर्यवसानेन साकारवादप्रसङ्गात् । तस्माद व्यत्वाव- कैकत्वबुद्धिकल्पनाक्षणे मानसोत्पत्तौ बाधकाजावादुपनायका. च्छिकरवाऽऽदेः पर्याप्तिस्वीकारेऽनेकान्तवाद पचानाविला व्य- नघटितसामग्रीसत्त्वात् मानसं प्रति तत्तत्म्मृतिसामच्या प्र*"दासेण मे नरोकीमो,दासो वी मेरो वि में" इतिन्यायः ।। तिबन्धकस्वकल्पने च महागौरवात् । सन्तु वाचाक्षुषत्वाऽऽदि
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(२०५९) अभिधानराजेन्द्रः ।
गाय
व्याप्या नानाजातयः, द्विस्वाऽऽ मामाजाबाद द्वौ श्रय इत्यादी वेलक्षणबुर्विज्ञानयज्ञानं प्रकारजे बिना मचात्। अन्यथा मर्चत्र विषयनिरपेक्षैरेव ज्ञानस्तद्व्यवहारजननप्रसत् न च द्वाबिचश्म
त्यादिविजातीयाविषयत्वापतेः
मधुप पतेः कमलद्वारकाः" इत्यादी युगपदेव द्विस्वप्रतीतपत्र की जिनकनाऽबच्छेदकजात्यभ्युपमेजातिसङ्ग इति वाच्यमद्विपादकापेक्षादे उत्पाद सूक्ष्मकाल मे कल्पना 'गिरिरयं म
वान्' इत्यमितिप्रत्यक्योरिव । अथ तत्र भिन्नविषयेऽनुमितिसा" मचा प्रतिबन्धकत्वादस्तु तयोर्युगपदनुत्पादः, न तु प्रकृते इति खे व, तर्हि प्रतिबन्धकं किञ्चिदत्राऽपि कल्प्यताम् श्रन्यथानुपपतेअस्तु वा तद्वा बुद्धायुभयजनकता को जातिविशेषः; स च द्वित्वत्रित्वयोस्तज्जन्यताऽचच्छेद को जातिविशेषः । एतेन समवाय्य समधायिनिमित्तकारणानामविशिष्टत्वे पतिनियमे किं कारणम्, द्वाभ्यामेकत्वाद्वि त्वं त्रिविमारयते इति कुमशक्यत्यात्, एकस्येषु द्विस्वा देरभावात् न च शुद्ध नया पेक्षा बुद्ध्या द्वित्वं द्वित्वसहितया च तथा
मुत्पाद्यते इत्यपि सुवचम् द्वित्वत्रित्ययो युगपदेव तत्प्रत्य निरवेष्विव फिरवाऽऽदिजनकतावच्छका जातिविशेषामभ्युपेयाः तत एव द्वित्वादिव्यवहारोपपत द्वित्वाऽऽच्छेदप्रसङ्गादित्यादिपर्यनुयोगो निरस्त अपेक्षा
निष्ठद्वित्यादिजनकतावच्छेदकजातिभेदेवतामग्रीभेदात यापैकी जन्यद्वित्वत्वियोरप्यन्यत्र परिपुष्टमे दयजातीयत्वेनैव भेदात् नाऽऽचय-तद्वमागमा बग सामग्री, विश्वमागनायगर्भावसामधीति यो दिन तयोर्विशेषो न या पर्याशिसंबन्धेन द्वित्वादिकं प्रति पर्याप्तिसंबन्धेन तत्प्रा गभाव एव नियामक पतिसंबन्धेन वादिप्रत्ययः तत्प्रागभावस्यैकस्मिन्पर्याप्तभावेन तस्याऽपि तदनावादित्याहुः ॥ अथापेक्षा बुकिजन्यत्वे द्वित्वस्य 'द्वे रूव्ये' इति लौकिकत्वानुपपति अपेक्षा बुद्धिरथ द्विवद्विस्वं निर्विकल्पकं ततो द्विविशिष्टं प्रत्यदेव निर्विकयकेन स्वोरवृतिविशेषगुणविधवा जनिता
विनाशः ततब्धकप्रत्यचं तदेव बापेक्षा बुद्विविनाश इति द्वित्वाऽभिमता व्यवस्था, सायानुपपच अपेक्षायुस्तन्यसंस्कारेण द्वित्वनिर्दिकउपकारपचिकण पत्र नाशात् योग्यविशेषप्रति स्वोत्तरवृत्ति योग्यजातीय विभुविशेषगुणत्वेन हेतुत्वात् सुषुप्तिप्राक्कालवर्त्तिज्ञाननाशकत चैत्र तत्सि से:, अन्यथाऽनुबध्वंसेनेव संस्काराऽन्यथासिद्धेरिति चेत् न प्रायुसंस्काराज [[नत्यादावुद्धिजित्वस्यापि संस्कारजनकतावच्छेदकको
प्रदेश न वैवमध्यपेक्षा बुद्धिजनितेावादिविशि अपेकाबुद्धिनाशमसङ्गः। तदुक्तम्- "अपेक्षा बुद्धिः संस्कारान् माकार्यात् विशिष्बुद्धिस्तु कुर्यादेव" इति विशिष्ट बुद्धजनामध्यादैरेव फलवक्षेन प्रतिक पावस्तुनिकिकप्रत्यस्य विशिष्य कारखान्मदोषः न च तथाऽपि पूर्वाजनि निर्विकल्पकेन स्वद्वितीया सोन्नेनापेक्षा तीनशमसङ्ग प्रतियोगिता बुद्धिनाशे स्वविषयजनकत्व
जय
संवेग द्विबली कि
कम्ये' इति किम् कर्म तत्पादित मैयम्। विस्व हि तत्त्व विषयातु कार्यसहचर्तितयेति दोषाभावात् । न हि सर्वेषां कारणानां कासवर्तितयैव हेतुत्वम्, प्रागभावपक्कताऽऽदेरहेतुत्वप्रसङ्गादिति ॥ प्राभाकरवृद्धानुसारिणस्तु सोऽयं नैयायिकाशन यु
तुम्बा म
अनन्तद्वित्यादिध्वंसप्रागभावाऽऽदि कल्पनागैरवात् तद्व्यङ्ग्यत्वपक्षस्यैव युक्तत्वात्। अन्यथा नानापुरुषीयक्रमे का पेका बुद्धि:, समसंख्य तुल्यव्याक्तिकनानाद्वित्वाऽऽदि कल्पने ऽपि महागौरवात् मम तु नानामेतेषां तास्वाद दोषाभावात् । न चैवं तेषां जातित्वाऽभ्यत्तिः समवायित्वे सत्यने कसमवेत स्य समयेतस्यस्य या जातिभ्यवहारानिमिचत्वात् । न च विशेषेऽतिप्रसङ्गः, तत्र मानानावात् । किञ्चद्वित्वाऽऽदेर्जन्यत्वे प्रतियोगितया नाशाजन्यतन्नाशे स्वप्रतियोगिअन्यत्व संबन्धेना पेक्का बुद्धिनाशत्वेन देतुता वाच्या; तथा चझणुकपरिमाणहेतुपरमात्मसमरापेक्षा बुद्धिजन्यस्य नाशानुपपत्तिः न त्रीयद्वित्वनाशे वेत्रापेक्षा नाश हेतुरि त्येवं विशेष्येव ते परतु परोपाधिविशिटाया ईश्वरापेायुपधनाशादेव,
विशिष्टायातस्थातुसाि
व्यम ; स्वाव्यवहितपूर्वक्षणावविश्नत्वेनैव तस्यापेका बुद्धिवमिति तन्नाशात्परमाणुद्विस्वनाशे तस्य कणिकत्वप्रसङ्गात, अतिरिकानुगतोपाखानिचनात् । अपि च पर्वतविनाशे ततदपेक्षा बुद्धिनाशत्वेन हेतुत्वे महागौरवम् । न च फलमुखस्वास्यादोषत्वम् अस्य कल्पनायामेव तावद् गुरुतरं कल्पनी यमिति प्रागेवति तद्दोषताया सदोषत्वेप्रागनुपस्थितेरेव बीजत्वात् । अपि च-मानसत्वाऽऽदिव्याप्यजातिविशेषेाका बुद्विस्वाऽऽदिहेतुत्वे ईश्वरापेका बुद्ध्या परमा
ग्वादिजननापति ईश्वरज्ञान साधारण द्वित्वादिजनक. ज्योतीकारे च जन्यसाकात्कारित्वादिना साहूधर्मविपकाले विद्यापति दुर्निवारा पतेन द्वित्वाऽऽदिजनकतावच्छेदकतयापेक्षा बुद्धिनिमीकि कविषय स्वीकारोऽपि निरस्तः परादिसंख्यात्पत्तिप्रसतदाश्रययावद्रयवृत्तिलोककविता संवाद ईश्वरीयापैकायैव तदुत्पण्यङ्गीकारे वाऽन्यत्रापि कारणान्तरोच्छेद इति न किञ्चिदेव दित्याहुः केचिद्वित्वादिकं तु व्यय कि वृष्टिकमेव सामान्यम् अनित्यस्य संयोग देखि नित्यस्यापि द्वित्वाऽऽदेर्यासज्यवृतित्वे विरोधाभावात्, जिम्नेन्द्रियग्राह्याणां कपरसादीनामिव समानेन्द्रियमाह्माणामपि सत्यध्येका बच्चेदेन समानदेशत्वे प्रतिनियतव्यञ्जकन्यङ्गवेविरोधाभावाद, सहचारदर्शनमात्रस्याकिरत्वात् विरुद्धधर्माध्यासात् स चन्यूनाधिक पर्यावृत्तिका परे तु घटकुटकुळ्यकुशस्त्रेषु द्वित्ववित्वाऽऽदिप्रतीता वेकतरनाशे तसे द्विवादेरपि संयोगाऽऽदेरिव विनाशप्रत्ययादनित्यवृत्तिनानाव्यक्तिकमेव द्वित्वाऽऽदिकम् श्राश्रय बिनाशोत्पादाभ्यामेव तस्योस्वादविनाशी समवायिकारणं तु बाउ परिणाम
बापकवृत्तिकमेकत्वमिव तुल्यत्यकिवृत्तिकं ि कम्, तुल्य व्यकिवृति का वाऽऽदेः प्रतिबन्धकस्यात् । बुद्धिविशेपस्तद्व्यज को, न तूत्पादको मित्येषु चैकव्यक्किम नेकव्यक्तिकं नित्यमित्याहुः वयं तु भूमः जन्यत्वनये अपे
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(१८६०) गाय अभिधानराजेन्धः।
गाय बच्छेदकमेकत्वान्यसंख्यात्वं वाच्यम् । यद्वा-एकत्वजन्यता- विधेरप्रतियोगिकत्वात्। अत एवाऽऽह-विधायपि अस्तित्वाऽ5पच्छेदकतया द्वित्वमारज्य पराईपर्यन्तमका जातिः सिध्यति, दिभावेऽपि, अभावाभावरूपत्वान्नास्तित्वाऽऽधभावरूपस्यात्तन लाघवात । ननु जन्वसंख्यात्वमेवैकत्वजन्यताऽवच्छेदकं,कार- रूपेण प्रतियोगिनिरूपणाधीननिरूपणतया सापेक्षत्वमस्त्येव । णकार्यैकार्यप्रत्यासत्तिभेदात् इति तस्यैव द्वित्वाऽऽदिपराईपर्यः | अयं जावः-अनावशानेऽपिन सर्वत्र प्रतियोगिज्ञानापेका,प्रतिन्तसंस्थावृत्तिजातिविशेषितस्य तथात्वम् । वचत्वनये चैक- योगिहान विनाऽपीदन्त्वप्रमेयत्वाऽऽदिनानाभावभानस्य सार्वज. स्वाऽन्यसंख्याप्रत्यकत्वम, उक्तजातिविशेषप्रत्यकत्वं वाउपे- नीनत्वात्। घटाभावत्वाऽऽदिमा घटाऽभावाऽऽदिशाने घटज्ञानाऽऽ. क्षाबुकेर्जन्यतावच्छेदकं वाच्यम्।योरप्यनयोर्मतयोरेको धान्य- चपेवाप्रतियोगिनिरूपणेन तेषां सप्रतियोगिकत्वं ग्रहीयते, तर्हि राशिरित्यादिप्रत्ययसिके सामूहिकैकत्वे व्यभिचारः। न च त- नास्तित्वाभावत्वाऽऽदिनाऽस्तित्वाऽऽदीनां तेन रूपेण तथात्वेतुअकत्वं गौणमेव; वस्तुतस्वपेक्षाबुद्धया राशि-सेना-बनाऽऽदी ब. त्यमभावाभावःप्रतियोम्येति परेषामपिमूत्रसिद्धान्तात संयोहुत्वविशेष एवोत्पाद्यते,व्यज्यते बोते वाच्यम स्वारसिकैकत्वानु- गाऽऽदावेव विशेषणतात्वकल्पनया निर्बादेण नास्तीति प्रतीतिवभवविरोधात्। पते बहवः कणाः,पते बहवः करि-तुरग-रथ-पदा. लादतिरिक्त पब स इति नव्यमतनियुक्तिकत्यात । तस्मात्स्वरूपतयः, पते बहव मान-निम्ब-धव-खदिरा इत्यादी राशित्व-से- तोऽनावाभावत्वयोरपि निष्प्रतियोगिकत्वं, विशिष्टतया तुद्वयोरनात्व-वनस्वाऽऽचनापत्तेश्च । अपेक्षाबुद्ध्या तत्र राशिस्वादिरूप. पिसप्रतियोगिकत्वमिति स्याद्वाद एव श्रेयान्। अथ निष्प्रतियोस्यैव बदुत्वत्वमेकत्वद्वित्वान्यसंख्यात्वं त्रित्वमारज्य परापर्य- गिकानावपते प्रतियोगिझानस्याऽभावं प्रत्यहेतुत्वे धिना प्रतियोन्तवृत्ति जातिविशेषो वा,राशित्वाऽऽदिरूपबहुत्वे चापेक्षाबुझिवि.
गिज्ञानेनेत्याकारकप्रत्ययाऽऽपत्तिः। न चाभावत्वस्याऽपीदन्त्येशेषजन्यतावच्छेदकस्तव्याप्य एव जातिविशेषाबहुत्वं च त.
न प्रहादापादकाभावः प्रथममभावाभावत्वयोनिर्विकल्पके भाव दवचिन्नोपस्थितिश्चैकवचनान्तराश्यादिपदं वेति शाब्दबोधखले
श्त्याकारकप्रत्यक्काऽऽपत्तेपुरत्वादिन्द्रियस्य चक्षुस्त्वगादिनेदनानुपपत्तिः । प्रत्यके च बहव इत्यादी क्वचिद् दोषवशात्तदप्र. भिन्नत्वेन महागौरवम्। न च पृथप्रतियोगिधीहेतुत्वेऽपि नेत्याकाहान्नानुपपत्तिरिति वाच्यम; अनुभूयमानैकत्वप्रतीतेबदुत्वविशे- रकप्रत्यक्काऽऽपत्तिः, उपस्थितस्य प्रतियोगिनोभावे वैशिएचाभाषेण समर्थने द्वित्वाऽऽदिप्रतीतेरप्यकत्वविशेषेणैव समर्थयितुं श. ने बोधकाभावात् । न चाऽभावो न घटीय इत्यादिवाधीदशाक्यत्वावास्तवाभावे गौणानुपपत्तेरप्युक्तत्वाच। न च 'ताविमौ यां तदापत्तिः, अनावत्वावच्छेदेनाभावे तादृशबाधधिय प्रा. नीलपीती' इति गौणद्वित्वाऽऽदिलक्षणं द्वाविमौ घटपटाविस्यत्र हार्यत्वात्, अन्नावत्वसामानाधिकरण्येन च तदशायामपि प्रतिद्वित्वमनुभूयते।न चैकत्रज्ञाने द्वित्वं प्रकारः, अन्यत्र तु नेत्यपि वि. योगिवैशिष्टयाभानसंभवात् । यद्वा-घटत्वाऽऽद्यच्चिन्नप्रकारनिगन्तुं शक्यम्, विजातीयज्ञानविषयत्वसंबन्धेन स्वस्थितस्वप्रा तानिरूपिताभावविषयताकस्य प्रत्यके घटाऽऽदिधियो हेतुत्वम, कारतया बुकिलकण्योपपादनमप्युभयत्र तुल्पयोगक्षेममा एक. अन्यथा घटाऽऽद्यभाव इत्याकारकप्रत्यकं च न जायते, निसित्रापिच घटेनीसत्वघटत्वाभ्यां द्वित्वमनुभूयत पब,अनुभूयते ए. लप्रतियोगिझानकार्यताऽवच्छेदकाऽऽक्रन्तिदृशप्रत्यकं यत्किति. बचैते वृका वनमिति बहुत्वाऽवच्छिन्नेऽपि केनचिदुपाधिना एक- प्रतियोगिझाने असंजवात, यावत्प्रतियोगिज्ञानस्य चाऽसंभकारत्वमिति स्वसामग्रीप्रभवैकत्वंद्वित्वानन्तपर्यायोपेतद्रव्य पचा- बात, अभावत्वांशे निर्विकल्पकत्वं, भावांशे यत्किञ्चित्प्रतियोगिकाबुद्धिहेतोरपेकाऽऽत्मकनावपथा कयोपशमं कदाचिदेकत्यप्र. विशिधविषयत्वादयत्किञ्चित्प्रतियोगित्वात् साध्यमेवेति नानुप. कारकंकदाचिद्वित्वादिप्रकारकंज्ञानं जायते,श्त्यपेक्काबुद्धि- पत्तिरिति चेत्। न । प्रतियोगिज्ञानानावेऽप्यभावत्वमात्रेण प्रत्यकगम्यत्वमेव द्वित्वाऽऽदर्युक्तम् । अत एव नयरूपत्वादस्या नयान्तर- स्येष्टत्वात, शून्यमिदंदश्यते इत्यादिप्रत्ययात् तवस्वमेवानावसंयोजनया सप्तनलीरीतिरपि संगता।यारशविषयताविशिष्टाया त्वस्य भावभेदस्य पिशाचाऽऽदिभेदवद् योग्यम्य घटो नाअपेक्काबुद्दे परैर्जनकत्वं व्यजकत्वं वा स्वीक्रियते, तारशविष. उस्तीत्यादौ स्वरूपतो भानमिति प्राचां बचनस्योपपत्तेः । न तानिरूपितापेकात्वाऽऽस्यविषयता हित्वाऽऽदौनाऽस्माकमसु. नल्लेखस्तु प्रतियोगिवाचकपदनियतो न सार्वत्रिकः। किश्च उक्तलभा। सामान्यविशेषत्वाऽऽदेरापक्किकत्वेऽपीयमेवरीतिटनुस. रीत्या प्रतियोगिज्ञानस्य हेतुत्वे केवातावत्वनिर्विकल्पकाss. तव्यानचैवमनपेकैकत्वद्वित्वाऽऽदिप्रत्यक्षाऽनुपपत्तिः,द्रव्यनया- पत्तिः, प्रभावत्वस्थास्वएमत्वात् । अन्यथाऽभावविशिष्टबुकावपि वलम्बनेनानपेक्काऽऽत्मकविषयतान्तरस्याऽपि स्वीकारात्। प्रत तनिर्विकल्पकायोगात् । अपि च-घटपटौ नेत्यादि प्रत्यकं घटपब सापेक्वत्वमपि स्याहादः, अस्मदुक्तपक्ष पवापेनाबुरिति- कानपटज्ञानादिकार्यताऽवच्छेदकाऽनाऽऽक्रान्ततया तद्विरहेs. स्वबुध्योः पौर्वापर्यानवभासोपपत्तिः, अनन्तकार्यकारणभावप्र- पिस्यात्, तस्माद् घटपटत्वाऽऽद्यवचिन्नप्रकारतानिरूपितविषयतिवध्यप्रतिवन्धकनावाऽऽदिकल्पनागौरवपणानवकाशति ताकप्रत्यक्वत्वमेव लाघवाद् घटाऽऽदिधीकार्यताऽवच्छेदकं युक्तसनमवदातम।
मिति घटास्तित्वनास्तित्वयोः सप्रतियोगिता प्रतियोगिकत्वे (७) तस्मात्स्वसमये परसमये एकत्ववित्वाऽऽदिप्रकार
तुल्ययोगकेमे; त्वदुक्तहेतुसद्भावेऽपि लाघवाद् जावांशत्यागेन कनानाविधलौकिकव्यवहारेच नयापेक्तयैव विविक्तो बोध शति
केवनाऽभावस्येव केवनभावस्याऽपि न भानमिति वक्तुं शस्थितम् । फलितमाह
क्यत्वात्, निर्विकल्पके प्रमाणाभावात् वयोपशमविशेषेचैव त.
सद्विशिष्टज्ञानोपपत्तौ तस्य तदकल्पकत्वात् । अत एव "द्रव्य तेन सापेक्षजावेषु, प्रतीत्यवचनं नयः।
पर्यायवियुत, पर्याया द्रव्यवर्जिताः क कदा केन किंरूपाः, स्टा अनावाऽनावरूपत्वात, सापेक्षत्वं विधावपि ॥५॥ मानेन केन वा ?"॥१॥ इत्यस्मसंप्रदायवृद्धाः संगिरन्ते । शुका(तेनेति) तेनोक्तहेतुना सापेक्षत्वजावेषु परस्परप्रतियोगिषुधर्मे- जावप्रत्यक्षप्रतियोगितासंबन्धावच्छिन्नप्रकारतानिरूपिताभावषु प्रतीत्यवचनमपेकात्मकं वाक्यं नव इति सिद्धम् । नन्ववं विषक्ताकप्रत्यक्ष एव विशेषणताया हेतुत्वान्न भवतीत्यपि रिस्यात्राऽस्त्येवेत्येकवचनं नयाभ्यात, न तु स्याहस्स्यैवेति तदयस्य तं वचः प्रतियोगितामात्रेण व्यं नास्ति, मेयं नास्तीत्यादे.
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मय अभिधानराजेन्द्रः ।
गाय रापत्तेः; प्रकारीभूतकिञ्चिधर्माऽवच्छिन्नस्यैव प्रतियोगिताविशे-| प्रादित्वादप्रत्ययो, न तदन्ययेत्यर्थः । पुर्नयानिशान्नयापणेऽपि न विस्तारः, घटाऽभावपटाऽभावयोरुभयोः सनिकर्षे | स्वाहा संपूर्णानेकाम्तवस्तुस्वरूपापरिच्छेदादिति रहस्यम् । घटाऽभावांशे प्रतियोगिविशेषितस्य पटानायांशे च तदषिशे- तदेवं निषेधवद विधावपि पक्ष प्रतिपादितम् । एवं स्वरूया. षितस्य समूहाऽऽलम्बनस्य प्रमाणात् । किञ्चैवमिदन्या- चपेक्षया सन् पररूच्याऽऽद्यपेक्षयाऽसन् इति तृतीयोद्विस्यदिनाऽभावप्रत्यकं न स्यात्, न स्याचाभावप्रतियोगिघट मानावच्छेदकप्रतीत्याऽपि सापेकत्वं प्रावनीयम् । अत एव पइत्याद्याकारं, ताशप्रत्यक्षेष्वपि पृथकारणत्वकल्पने चाs. रेऽपि व्याप्यवृत्तावव्याप्यवृत्ताविव प्रतीतिवसात तत्सदवच्छिन्नतिगौरवम् । तस्मात्सन्निकर्षमात्रस्यैव किञ्चिवर्मावचिनवि- वृत्तिकल्पनं स्वीकुर्वते इति दिक् । नयो । रत्ना। षयतानिरूपितविषयताकप्रत्यक्षवाऽचनिने, विशिष्टाऽऽकार- (0) सामान्यविशेषः। एवं निर्विकल्पसविकल्पस्वरपे प्रति. प्रत्यक्षस्वाचिने वा हेतुत्वम् । अतो नापायमात्रस्य विचार- पाचैव पुरुषाऽऽदिवस्तुनि तद्विपर्ययेण तद्वस्तु प्रतिपादयन् वस्तुजन्यचरमशुद्धाव्यापयोगितुल्यतेति भावांशेऽभावांशे वा न स्वरूपानबोधस्वात्मनि ख्यापयतीति दर्शनार्थमाहशुरुविषयकं प्रत्यक्वमित्यभाव एव सापेको, न भाव इति सविअप्पणिबिअप्पं, इय पुरिसं नो जणेज अविअप्पं । किमिदमजरतीयम् । एतेनाऽनावलौकिकप्रत्यक्षस्थ घटा55
सविअप्पमेव वाणि-च्छएणण य निच्छिओ समए॥३५॥ धन्यतमविशिष्टविषयकत्वनियमाद्विशेषसामग्री विना सामान्य
सविकल्पनिर्विकल्पं स्यात्कारपदवाचितं पुरुषं व्यं यः प्र. सामग्रीमात्रात कार्यानुत्पत्ते जावनिर्विकल्पक, नेस्याकारकप्र. त्यक्ष वा विशेषणाऽऽदिशानरूपविशेषसामग्यतावातान चाना
तिपादकस्तवस्तु ब्रूयादबिकल्पमेव सविकल्पमेव वा, निश्चयेने. वौकिकमत्यवत्वघटत्वाऽऽदिविशिष्टविषयकप्रत्यवत्वयोव्याप्य.
त्यवधारणेन, स यथाऽवस्थितवस्तुप्रतिपादने प्रस्तुतेऽन्य.
याभूतं वस्तुतस्त्वं प्रतिपादयन्ननिश्चित इति निश्चितं तदस्यास्तीव्यापकभावाभावात्कथं विशेषसामग्रीत्वमिति वाच्यम कार्यताऽवच्छेदकीनूततधर्माऽऽश्रययत्किश्चिदश्यक्तिनिष्ठ कार्यतानिरू--
ति निश्चितः,अर्श आदित्वादच । समये परमार्थिनो वस्तुसवपितकारणताऽवच्छेदकयावत्प्रत्येकतत्तदवच्छिन्नसामग्रीस्वादवश्य
स्य परिच्छेत्तति यावत् । तथाहि-प्रमाणपरिच्छिन्नं तथैव वाकार्यतकांवधिनोत्पत्तिरित्यव नियमात, तद्धर्मव्याप्यधर्माऽव
दिसुसंवादि वस्तु प्रतिपादयन् वस्तुनः प्रतिपादक इत्युच्यते ।
नच तथाभूतं वस्तु केनचित्कदाचित् प्रतिपन्नं प्राप्यते वा, येन चिन्नयत्किञ्चिव्यक्तिनिष्ठकार्यतानिरूपितेत्यायुक्तौ व्याप्तिकानप
तथा नूतं तद्वचस्तत्र प्रमाण जवेन्। तथाभूतवचनानिधानात् । रामर्शयोः सत्वे बाधधीसत्वेऽप्यनुमित्यापत्तौ [सर्म] तकर्म
न चाप्रमाणतया लोके व्यपदेशमासादयेत् । व्याप्यव्यापकधर्माऽवछिन्नयत्किञ्चिव्यक्तिनिष्ठकार्यतानिरूपि
परस्पराक्रान्तभेदाभेदाऽऽस्मकस्य वस्तुनः सदसदनावमभितेत्यायुक्ती गौरवात् । घटत्वाऽऽदिविशिष्टवैशिष्टयविषयकप्र--
धायकस्य वचसः पुरुषस्यापि तदभिधानद्वारण सम्यग स्यकत्वस्याऽभावलौकिकप्रत्यक्षवव्याप्यतत्सदभावालीकिकप्र:
मिथ्यावादित्वं प्रतिपाद्याधुना प्रावविषयं तत्रैवैकान्तानेकान्तात्यवत्वव्याप्यतत्तदन्नावलौकिकप्रत्यवत्वव्यापकत्वात्प्रकृतसि--
ऽऽत्मकमंशं प्रतिपादयतो विवकया सुनयनयप्रमाणरूपता श्वेत्यादि नव्यकल्पनाऽपि निरस्ता । एवं सति व्यविषयकप्र
तत्प्रतिपादकं वचो यथाऽनुनवति, तथा प्रपञ्चतः प्रतिपादत्यत्तस्य,वस्तुविषयकप्रत्यकस्य वा यत्किञ्चित्पर्याप्तिविशिष्टावि
यितुमाद । यद्वा यथैव तद्वस्तु व्यवस्थितं तथैव वचनात्प्रषयकवनियमेन भावनिर्विकल्पकस्य शुद्धजावप्रत्यकस्यापि
तिपादयतो निपुणत्वं जयति । अन्यथा सायबौद्धकणतुजाचाऽसंभवात्। अत एव सविचारया सामान्यदृष्ट्या सर्व निर्विक
मिव निम्नचिन्नपरस्परनिरपेकोभयवस्तुस्वरूपाभिधानाया. ल्पकम, विशेषरष्टया च सर्व सविकल्पकमित्यनेकान्तः पुरुष
घस्तुधर्ममहन्मतानुसारिणामपि स्यादस्तीत्यादिसप्तविकल्पदृष्टान्तेन सम्मती प्रतिपादितः।।
रूपतामनापन्नवचनलकणस्यात्कारपदालाभितवस्तुधर्मप्रति-- तथाहि
पादयतामनिपुणता भवेदिति प्रपञ्चतः सप्तविकल्पोत्थाननि"वंजणपज्जायस्स ब, पुरिसो पुरिसो सि नियमविप्रप्पो।। मित्तमुपदर्शयितुं गाथासमूहमाहबालाऽऽवियप्पं पुण, पास से प्रत्यपज्जारो ॥ ३४ ॥ अत्यंतरजूएहि अ, नियएहि य दोहि समयमाईडिं। सविअध्य णिविअप्पं, इय पुरिसं जो भोज अवियप्पं । वयणविसेमाऽऽयं, दन्चमवत्तवयं पमड़ ॥ ३६॥ सविअप्पमेव वा णि-कृपण ण य णिचित्रो समए ॥३५॥" ] अत्यास्तास्पर्मयः-अर्थान्तरनूतः पदादिः,निजो घटः,ताभ्यां व्यास्था-व्यञ्जयति न्यनाक्ति अर्थानिप्ति व्यञ्जनं शब्दः, न निजार्थान्तरनूतान्यां सदसवं घटवस्तुनः प्रथमाद्वितीयभापुनः शब्दनयः, तस्य ऋजुसूत्रसमानपर्यायविषयत्वात् । तस्य निमित्तं प्रधानगुणभावने भवतीति प्रथमद्वितीयौ भनौ । यदा तु पर्यायो बाध्यता तबाहकनयेन पुरुषः पुरुष शति पुरुषत्वप्रकारक- काभ्यामपि युगपत्तद्वस्त्वभिधातमभीष्टं भवति, तदाऽवक्तव्यत्रज्ञानविषय इति नित्यमाजन्मनो मरणान्तं यावदविकल्पः पुरुष- कनिमित्तं तथाभूतस्य वस्तुनोऽभावात तत्प्रतिपादकवचनातीस्वाऽतिरिक्ता प्रकारकशानविषयः। दमुपलकणम-द्रव्यवस्तुत्वाऽ. तवत तृतीयभासद्भावो, वचनस्य वा तथानृतस्याभावादवक्त. ऽदिमाऽप्यविकल्पत्वस्य शुद्धष्व्योपयोगे तु पदवयस्य निर्धर्म- व्यं वस्तु तथाहि-प्रसवोपसर्जनसवप्रतिपादने प्रथमो भङ्गः, कत्वलकणया शुरुधर्मिविषयकभानविषयत्वमेवाबिकल्पकत्वं तद्विपर्ययण तत्प्रतिपादने द्वितीयः, द्वयोस्तु धर्मयोः प्राधापष्टव्यम् । से' तस्य पुरुषस्याऽर्थपर्याय ऋजुसूत्राद्यर्थग्राहकनयः न्येन गुणभावन च प्रतिपादने न किञ्चिद्वचः समर्थ, यतोन पुनर्वालाऽऽदिबिकल्पमेव वा,निश्चयमविकल्पं स्यात्काराट- तावत्समासवचनं तत्प्रतिपाइकमा नापि वाक्यं संभवति । ततदुजयपदघटितमदाबाक्यबोधस्वरूपपुरुषद्रव्यं यो भणेद-अ. समासः पधिः । तावन्न बहुब्रीडिरत्र समर्थः,तस्याऽन्यपदार्थविकल्पमेव सविकल्पमेव वा निश्चयेनकान्तन स्वसमये पर-! प्रधानत्वात, अत्र चोभयप्रधानत्वात । भव्ययीनाबोऽपि मात्र
माय न निश्चित:-निश्चयो निश्चितं तदस्यास्तीति निश्चितः, असे प्रवर्तते, तस्यात्रा संभवात् । हलमासे तु यद्यप्युजयपद
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(१८६१)
प्रनिधानराजेन्कः। प्राधान्यं,तथाऽपि कन्यवृत्तिम्तावन्न प्रकृतार्थप्रतिपादक,गुख- | एवं सति सर्वदा तस्याभावप्रसक्तिः, एकान्तपक्केऽप्ययमेष दोष वृत्तिरपि कन्याऽधितगुणप्रतिपादको,द्रव्यमन्तरण गुणानां ते. इत्यनाबादेवावाच्यः॥५॥ यदा-कणपरिणतिरूपे घटे लोचन. वृत्पादादिक्रियाऽधारत्वासंजवातस्या हव्याऽऽश्रित्वादन प्र. अप्रतिपत्तिविषयत्वाभ्यां निजार्थान्तरमृताभ्यां सदसवात् प्र. धानाऽश्रितयोर्गुणयोः प्रतिपाद्यत्वम । तत्पुरुषोऽपि नाच वि. थमद्वितीयौ भनौ,ताभ्यां युगपदभिधातुमशक्योऽवाच्यः। तथाषये प्रवर्तते, तस्याऽत्युत्तरपदार्थप्रधानत्वात् । नाऽपि विगुः, हि-लोचनजपतिपत्तिविषयत्वेनेव यदीन्द्रियान्तरजप्रतिपत्तिविष. संख्यावाचिपूर्वपदत्वात्तस्य । कर्मधारयोऽपि न, गुणाऽऽधा- यत्वनाऽपिघटः स्यादिन्छियान्तरकल्पनावैयर्थ्यप्रसक्तिः, इन्छि. रमन्याऽऽश्रयत्वात । म च समासान्तरसद्भावः,वेन युगपदणद्वयं यसरप्रसक्तिश्च । अथेन्द्रियान्तरजप्रतिपत्तिविषयत्वेनेव चप्रधानभावेन समासपदवाच्यं स्यात् । अत एव न वाक्यमपि पुर्जप्रतिपत्तिविषयत्वेनापि न घटः,तर्हि तस्याऽरूपत्वप्रसक्तितथानृतगुणद्वयप्रतिपादकं संभवति, तस्यापि पृश्यभिन्नार्थ- रेकान्तबादेऽपि तदितराभावे तस्याप्यभावादवाच्य एव । अत्वात् । न च केवलं पदं वाक्यं वा लोकप्रसिद्धम, तस्याऽपि थवा-सोचनजप्रतिपत्तिविषये तस्मिन्मेव घटे घटशब्दपरस्परापेक्वान्याऽऽदिविषयतया तथातार्थप्रतिपादकत्वायो. बाध्यता निजं रूपं, कुटशब्दाभिधयत्वमर्थान्तरनूतं रूप, गातानच."तो सत्" ॥३२११७॥ (पाणि) इति शतृशानचो- ताभ्यां प्रथमद्वितीयौ, युगपत्ताभ्यामभिधातुमिष्टोऽवारिख साङ्केतिकपदवाच्यत्वम,विकल्पप्रभवशब्दवाच्यत्वप्रसक्तः, च्यः। यदि हि घटशब्दवाच्यत्वेनेव कुटशब्दवाच्यत्वेनापि विकल्पानां च युगपदप्रवृत्तनकदा तयोस्तद्वाच्यतासंभवः,न च घटः स्यात्तर्हि त्रिजगत एकशब्दवाच्यताप्रसक्तिः, घटस्थ तेनार्थान्तरेकान्ताभ्युपगमेऽप्यस्य पाच्यता, तथा तृतस्या- वाऽशेषपटाऽदिशब्दवाच्यत्वप्रतिपत्ती समस्ततकाचकशब्दत्यन्तासयात, सर्वथा सवेऽनयोावृत्तस्वान्महासामान्यव. प्रतिपत्तिप्रसङ्गश्च । तथा घटशब्देनाऽपि यद्यवाच्यः स्याद्, बटार्थत्वानुपपत्ते, अर्थान्तरत्वे पररूपादिव स्वरूपादपि व्यावृ. घटशब्दोच्चारणवैयर्थ्यप्रसक्तिः । एकान्ताच्युपगमेऽपि घटस्यैव सौ वरविषाणवदसवादवाच्यतैव । न च घटत्वे घटशब्दप्रवृ. सवात्सङ्केतद्वारणाऽपि न. तद्वाचकः कश्चिच्छन्द इत्यवाच्य तिनिमित्ते विधिरूपे सिद्धे असंबद्ध पव अर्थान्तरत्वे पररूपाद- एव । अथवा-घटशब्दाभिधेये तत्रैव घटे हेयोपादेयान्तराबपितत्रपटाऽऽद्यर्थप्रतिषेध इति वाच्यम, पटाऽऽदेस्तत्राभावा- हिरकोपयोगायोगरूपतया सदसवात्प्रथमद्वितीयौ, ताभ्यां युगभावत्वे घटशम्दप्रवृत्तिनिमित्तस्य घटत्वस्यैवासिखे, शम्दानां पदादिष्टोऽवाच्यः। यदि हि हेयबाहिरबानर्थक्रियाकार्यसमिति चार्यज्ञापकत्वं न कारकत्वमिति तथाभूतार्थप्रकाशेन तथाभूतेन तरूपेणार्थक्रियाक्रमादिरूपेणेव घटः स्यात,तदा पटाऽऽदीनाशब्देन विज्ञेयमिति नासंबरूस्तत्र पटाऽऽद्यर्थप्रतिषेधः। अथवा. मपि घटत्वप्रसक्तिः, तहिं घटोपादेयसनिहितादिरूपेणाप्यघटः सर्व सर्वाऽऽत्मकमिति साह्मयमतव्यवच्छेदाथै तत्प्रतिषेधो विधी. स्यात् । मन्तरतस्य वक्तगतहेतुफलभूतघटाकारावबोधकत्वेत. यते, तत्र तस्य प्रतीत्यभावात् । यद्वा-नामस्थापनामध्यजावभि- स्योपयोगस्याऽप्यन्नावे घटस्याऽप्यभावप्रसङ्गश्त्यवाच्या एकाभेषु विधिरिप्तताविधित्सितप्रकारेण प्रथमतृतीयौ नलीन च तत्प्र. म्ताच्युपगमेऽध्ययमेव प्रसा इत्यवाच्यः । अथवा-तत्रैवोपकाराभ्यां युगपदादिष्टोऽयम, तथाऽभिधेयपरिणामरहितत्वात्त- योगवदर्थावबोधकत्वानभिमतार्थाऽनवबोधकत्वेन सदसवात स्य,यतो यद्यपि विधित्सितरूपेणाऽपि घटः स्याता प्रतिनियतना.
प्रथमद्वितीयौ, तान्यां युगपदादिष्टोऽवाच्या, विवक्षिमाऽप्रदिभेदव्यवहाराजावप्रसक्तिः । तथा च विधिस्सितस्याऽपि
तार्थप्रतिपादकत्वेनेवेतरेणापि यदि घटः स्यात्प्रतिनियतोपयो. नाऽमलान इति सर्वाजाव एव भवेत् । तथा यद्यविधित्सित- माभावः, तथाऽभ्युपगमे प्रतिनियतरूपोपयोगप्रतिपत्तिन भप्रकारेणाऽप्यघटः स्यात,तदा तनिबन्धनव्यवहारोच्छेदप्रसक्ति- बेत् । तदुपयोगरूपेणापि यद्यघटो नवेत्तदा सर्वांनावो, वि. रेव,एकपक्काऽभ्युपगमेऽपि तदितराभावे तस्याप्यभाव इत्यपि शेषप्रसको वा। न चैवम, तथाऽप्रतीते, एकान्तपकेऽप्ययमेव वाच्यः । अथवा-स्वीकृतप्रतिनियतप्रकारे तत्रैव नामाऽऽदिके यः प्रसन्यवाच्यः॥6॥ अथवा सवमसत्वं वाऽधान्तरभूतं, संस्थानाऽऽदिस्तत्स्वरूपेण घटः, इतरेण चाघट इति प्रथमद्विती.
निजंघटत्वं,ताभ्यां प्रथमद्वितीयाचभेदेन,ताभ्यामनिर्दिष्टो घटोयौ, ताभ्यां युगपदभिधातुमशक्तरवाच्यः। विवक्षितसंस्थाना
ऽवक्तव्यो भवति । तथाहि-यदि सवमासाच घटत्वं विधीयते ऽऽदिनेव यदीतरेणाऽपि घटरूपादेकस्य सर्वघटाऽऽस्मकत्वप्रस
तदा सस्वस्य घटत्वव्याप्तेघेटस्य सर्वगतत्वप्रसा, तक्तिः। अध विवक्तितेन, अघटे पटाऽऽदाविव घटार्थिनस्तत्राऽप्य
थाऽज्युपगमे प्रतिभासवाभ्यव्यवहारविलोपश्च । तथा-- वृत्तिप्रसक्तिः । एकान्ताज्युपगमेऽपि तथाभूतस्य प्रमाणाऽवि.
सवमार्थमध्यन्द्य यदि घटत्वं विधीयते, तहिं प्रागनावाऽऽदेशषयत्वतोऽसवादवाच्यः ॥३॥ यदि वा-स्वीकृत प्रतिनियतसं
तुर्विधस्याऽपि घटेन व्याप्तरघटत्वप्रसा, भघटत्वमन्च सत्वं स्थानाऽऽदो मध्यावस्थायां निजरूपम,कुशूलकपासाऽऽदिलकणेपू.
विधीयते तदा घटत्वं यत्तदेव सदसवे प्रसज्येत । तथा च-पपोत्सरावस्थेऽन्तररूपम, ताभ्यां सदसवे प्रथमहितीया, टाऽऽदीनां प्रागभावाऽऽदीनां वा नावप्रसक्तिरिति प्राक्तनन्यायेन युगपत्ताज्यामनिधातुमसामर्थ्यादवाच्यसकणस्तृतीयो भतात. विशेषणविशेष्यलोपास न घट इत्येवमवक्तव्योऽघट प्रत्येथाहि-मभ्यावस्थावदितरावस्थायामपि यदि घटः स्यात्तस्या- वमध्यवक्तव्यः; न चैतत्तो पाव्यः, अनेकान्तपक्के तु कथानाऽऽद्यनन्तत्वप्रसक्तिः। अथ मध्यावस्थारूपेणाऽप्यघटः, सर्वदा दवाच्य इति न कश्चिदोषः॥ १०॥ यद् व्यञ्जनपर्यायोऽऽर्थाघाजायप्रसक्तिः। अतीतानागतवर्तमानक्षणरूपतया सदसवात न्तरभूतस्तदतद्विषयत्वात्तस्य घटार्थपर्यायस्त्वन्यत्राप्रवृत्तनिप्रथमद्वितीयभर,ताभ्यां युगपदभिधातुमशक्तरवाच्यलकणस्तृ. जः, ताभ्यां प्रयमद्वितीयास्यां भेदेन ताभ्यां निर्देशो वक्तव्यः, तीयः । तथाहि-यदि वर्तमानकणवत्पूर्वोत्तरक्षणयोरपि घटः यतोऽत्रापि यदि व्यञ्जनमत्तांघटपर्यायविधिः,तदा तस्याऽशेस्याद्वर्तमानक्कणत्वमेवाऽसौ जातः, पूर्वोत्तरयोर्चर्समानताप्रा. पघटाऽऽत्मकताप्रसक्तिरिति मेदनिबन्धनतव्यवहारवितोपः। ः। न च वर्तमानकणमात्रमपि, पूर्वोत्तरापेक्कस्य तदभावेऽ. | अथार्थपर्यायमनूद्य व्यञ्जनपर्यायविधिः, तत्रापि कार्यकारणभावात् । अथाऽतीतानागतवमानक्षणम्पतयाऽप्यघटः, व्यतिरेकाभावप्रसक्तिः, सिद्धविशेषानुवादेन घटत्वसामान्य
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अभिधानराजेन्सः ।
गय
विधाने तस्याकार्यवाता एवं चघटस्याभावादबाच्यः,भनेका- | चत्वारो बक्ष्यमाणका विकलादेशाः-स्यादस्ति च नास्ति घट तपकेऽपि युगपदनिधातुमशक्यत्वात् कशिदवाच्यः सिका शति प्रथमो विकलाऽऽदेशः, स्यादस्ति चाऽवक्तव्यच घट इति ॥१२॥ यहा-सर्वमर्थान्तरभूतं.तस्य विशेषवदेकस्वादनम्बयिरूप. द्वितीयः, स्थानास्ति चाऽवक्तव्यच घट इति तृतीयः, स्यादस्ति ता,मत पर न तावद्वाच्यमन्त्याविशेषवत,मस्यविशेषस्तु निजः च नास्ति बावक्तभ्यश्च घट इति चतुर्थः । एत एव सप्त भनाः सोऽप्यवाख्यः, अनन्वयात । प्रत्येकवक्तव्याभ्यां ताभ्यामाविष्टो स्यातपदबाचनविरहिणोऽवधारणैकखजाबा विषयाजावतो. घटोऽवक्तव्यः, अनेकान्तपके तु कशिदवक्तव्यः । अथवा-स. नया भवन्ति । धर्मान्तरोपादानप्रतिषेधाकरणात स्वार्थमात्रप्रतिभूतरूपा:सरवाइयो घट इत्यत्र दर्शने भर्थान्तरजूताःसरवा. पादनप्रवणा एत एव सुनयरूपतामासादयन्ति स्यात्पदनाम्छन. ऽऽदयो मिजसतरूपस्वाभ्यामादिशे घटोऽवक्तव्यः, यतःसद् विवक्षितकधर्मावधारणवशाहा सुनयाः। व्यादेरेकदेशस्य
तरूपस्य सरवरजस्तमःस्वरूपत्वे रजस्तमसामभावप्रसक्तिः, व्यवहारनिबन्धनत्वेन विवक्तितत्वाद् धर्मान्तरस्य वा निषिक. तेषां परवैसकरायेनैव सस्वासतरूपत्वे च वैलकण्यभावाद- स्वादतः स्यादस्तीत्यादिप्रमाणमस्त्येवेत्यादिपुर्नयः, मस्तीत्याभाव इति विशेष्याभावादवाच्यः। असवे स्वसत्कार्योत्पादप्रस- दिकः सुनवः। अनि चैतदभ्युपगम्यते,अभ्युपगमेऽपि विशेषणानावादवाच्यः। ननु संव्यवहारात स्थावस्त्येवेत्यादिः सुनय एव व्यवहारप्रथैवं रूपाऽऽदयोऽर्थान्तरजूता भासदतरूपमेवं निजं,ताभ्यामा- कारणम, स्वपराव्यावृत्तवस्तुविषयप्रवर्तकवाक्यव्य. दिशोऽवक्तव्यः,यथा घरूपाऽऽदिव्यावृत्तारूपाऽऽदयः,तएव च रू- बदारकारणत्वात. अन्यथाऽतयोगादेवं निरवयपाऽऽदीनां घटतामवाच्याः,रूपाऽऽदित्वाद् घटस्य,न हि परस्परवि.
ववाक्यस्वरूपं दर्शयितुमाहसक्कगाबुकिग्राह्या रूपाऽऽदय एकानेकाऽऽत्मकप्रत्ययग्राह्यरूपाऽऽदि.
प्रह देसो सन्नावे, देसोऽसन्नावपजवे णियो। रूपघटतां प्रतिपद्यन्ते, श्यं घटता अवाच्यरूपाऽऽदित्वाद् घटस्य नदि परस्परविसकणेति विशेष्यत्रोपादवाच्यः। यदि वा-कपा.
तं दवियमत्थि नत्थि य, पाएमविसेसियं जम्हा ॥३७॥ उदयोऽर्धान्तरजूताः, असद्भतार्थों निजः, ताभ्यामादिष्ठो घटो- | (अथेति) यदा देशो वस्तुनोऽवयवसद्भावेऽस्तित्वे नियतः ऽवक्तव्यः, रूपाऽऽद्यात्मकैराभासप्रत्ययविषयम्यतिरेकेणापर- सनेवायमित्येवं निश्चितोऽपरच देशोऽसजावे एवं पर्याये नासंबन्धानयगतेर्विशेष्याभावापाऽऽदिमान् घट इन्यवाह्यगतषा- स्तित्व एव नियतोऽसनेवायमित्यवगतः, अवयवेज्योऽवयकारप्रतिज्ञासाद् व्यतिरेकेणापररूपाऽऽदिप्रतिनास प्रति वि- विनः कथञ्चिदभेदादवयवधर्मस्तस्याऽपि तथाव्यपदेशो यथा शेषणानाबादप्यवाच्यः, अनेकान्ते तु कश्चिदवाच्यः ॥ १५ ॥ कुण्डो देवदत्त इति; ततोऽवयवसवासस्वाभ्यामवयव्यपि अथवा-बाह्योऽन्तरजुतः,उपयोगस्तु निजः,ताज्यामादिष्टोऽव- सन् न संभवति । ततस्तद्व्य मस्ति च नास्ति चेति भवत्युकन्यः। तथाहि-य उपयोगः स घट इति यापेतः,तीपयोगमात्र. भयप्रधानावयवभागेन विशेषितं यस्मात् । तथाहि-यदवयवो न कमेष घट ति सखोपयोगस्य घटत्वप्रसक्तिरिति प्रतिनियत- विशिष्टधर्मिणोऽस्ति, परफव्याऽऽदिरूपेण च स एव नाऽस्ति। स्वरूपाभावादवाच्यः । अथाऽयं घटस्थ उपयोग इत्युच्यते, | तथा च पुरुषाऽऽदिवस्तुविवक्तितपर्यायेण बाझाऽदिना परितथाऽप्युपयोगस्थार्थत्वप्रप्ततिरित्युपयोगाभावे घटस्थाऽप्य- णतं, कुमाराऽऽदिना वा परिणतमित्यादिष्टमिति योज्यम् । भावः, ततश्च कशिदवायः॥१६॥ एते च यो भका पूर्वभाकप्रदर्शितन्यायेन पञ्चमभक्तकप्रदर्शनमाहगुणप्रधानभावेन सकलधर्माऽऽत्मकैकवस्तुप्रतिपादकाः स्वयं सन्नावे आइहो, देसो देसो य जयहा जस्स । सथाभूताः सम्तो निरवयवप्रतिपत्तिद्वारेण सकलादेशाः। वक्ष्य
तं भत्थि अवत्तव्यं, च होई दविरं वियप्पवसा॥३८॥ माणास्तु चत्वारः सावयवप्रतिपत्तिद्वारेणाशेषधाऽऽकान्तं वस्तु प्रतिपादयन्तोऽपि विकलादेशा इति केचिन्प्रतिप
सद्भावेऽस्तित्वे यस्य यस्य संभवति घटाऽऽदेधर्मिणो देशो माः। वाक्यं सर्वमेकानेकाऽऽत्मकं सत्स्वाभिधेयमपि तथा
धर्म मादिष्टोऽवक्तव्यानुविद्धस्वभावः,अन्यथा तदसवात,न खजूनमवबोधयति,यतोन तावनिरवयवेन वाक्येन वस्तुस्वरूपा.
परधर्माप्रविभक्ततामन्तरेण विवक्तितधर्मास्तित्वमस्व संनिधानं संभवति। अनन्तधर्माऽऽक्रान्तकाऽऽमकत्वाद्वस्तुनो निर.
प्रवति । खरविषाणाडोरिव तस्यैवापरो देश उभयथाऽस्तिबयवाक्यस्य त्वेकखभाववस्तुविषयत्वात्तथाभूतस्य च वस्तु.
त्वनास्तित्वप्रकाराज्यामेकदैव विवक्तितोऽस्तित्वानुषिक एवानोऽसंभवानिरवयवस्य तस्य वाक्यमभिधायकम,नापिसाब- वक्तव्यस्वभाव,अन्यथा तदसवप्रसक्तिः। न हस्तित्वाभावे उन्नयवं वाक्यं वस्त्वनिधायकं संभवति, वस्तुन एकत्वात् । न च यानिरिक्तता शशक्षाऽऽदेरिव तस्य संभवति, प्रथमतृतीयकेबस्तुनो व्यतिरिक्तास्तदेशाः, तव्यतिरेकेण तेषामप्रतीतेरेकस्ख- वलजङ्गब्युदासम्तधाविवकावशात्कृतो एव्या, तत्र प्रथमसपण्याप्याऽनेकांशप्रतित्रासः,नच तदेकान्मकमेव,अनेकांशानु
तृतीययोर्भङ्गकयोः परस्पराविशेषणभूतयोः प्रतिपाद्येनाधिरक्तस्यैवेकाऽऽस्मनःप्रतिज्ञासात,तो वस्तुन एकानेकस्वनावत्वा
गन्तुमिष्टत्वात्, प्रतिपादकेनाऽपि तथैव विवक्तितत्वाद, तत्र तु तथाभूतवस्त्वभिधायकाः शन्दा अपि तथालता एव,नेकान्ततः
तद्विपर्ययाइतकाऽऽत्मकस्य धर्मिणः प्रतिपाचानुरोधेन तसावयवाः,उत नैकान्ततोविरवयदरूपावातत्रविकारुतप्रधा.
थाभूतधर्माऽऽक्रान्तत्वेन च वक्तुमिष्टत्वाचव्यमास्ति चाऽवक्तननावः सदेकधर्माऽऽत्मकस्यापेक्कितोऽपराशेषधर्मकोडीकृतस्य
व्यम, तदर्मविकल्पनवशान् । बाक्यार्थस्य स्यात्कारपदलातिवाक्यताप्रतीतेः,स्यादस्ति घटः,
धर्मयोस्तथापरिणतयोस्तथा व्यपदेशे धोऽपि तद्वारेण स्थामाऽस्ति घटः,स्यादवक्तव्यो घटः,श्त्येते त्रयो जना इति स.
तथैव व्यवदिश्यतेति षष्ठभाकं दर्शयितुमाहकलादेश विववाविरचिताद्विचित्रधर्मानुरक्तस्य स्यात्कारपद- आइट्ठोऽसम्भावे, देसो देसो अभपहा नस्स । संसूचितसकलधर्मस्वभावस्य धर्मियो वाक्यार्थरूपस्य प्रतिपर
तं पास्थि अवतलं, च होइ दवियं वियप्पवसा ।।३।।
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य
आदेशमन्तरेण विवक्षितधम्मस्तित्वमस्य न संभवति, यस्य वस्तुनो देशोऽख वे निश्चितोऽसचायमित्यच कन्याऽनुविकोप रनुविद्ध उभयथा सत्येवं युगपनिश्चितस्तदा तद्द नास्ति खावतव्यं च भवति, विकल्पवशाद् व्यपदेशाद् अभ्यमपि तद्व्यपदेशमासादयति । केवल द्वितीयतृतीयभङ्गकव्युदासेन नङ्गः प्रदर्शितः ।
( १८६४ ) अभिधानराजेन्द्रः ।
सप्तम प्रदर्शनायाऽऽह
सम्भावास भावे, देसो देसो य उजयहा जस्स । तं त्वि गत्विऽवच-ज्वयं च दवियं विवप्यक्सा ||४०|| यस्य देशिनो देशोऽवयवो देशो धर्मो वा सद्भावे नियतो निश्चितोsपरस्त्वसद्भावाद नावेऽसरवे, तृतीयश्वोभययेत्येव देशानां सदसन्न वक्तव्यः व्यपदेशाश्चदपि इव्यमस्ति च नास्ति चावक्तव्यं च भवति,विकल्पचशाद; तयाभूत विशेषणाध्यासितस्य व्यस्थानेन प्रतिपादनाद परसङ्गव्युदासः । एते च परस्पररूपापेक्क्या सप्तभङ्गाऽऽत्मकाः प्रत्येकं स्वार्थे प्रतियन्ति नान्यथेति प्रत्येकं तत्समुदाय वा सप्तमामकः प्रतिपाद्यमपि तथाभूतं दर्शय सीति व्यवस्थितमातियो त्रीयो दधातु चैव पञ्चास्तुशिधिकशत परिमाणाः । प्रत्येकं श्रीमन्मन्वादिप्रभृतिनिदेर्शिताः; पुनका पाईशत्यधिकाः चतुर्दशशतपरिमाणास्त एव ययादिसंयोगकल्प नया कोटिशो भवन्तीत्याभिहितं तैरेव । श्रत्र तु प्रन्थविस्तरभयातथा न प्रदर्शिताः, तत एवावधार्याः । अथानन्तधर्मात्मके वस्तुनि तत्प्रतिपादकवचनस्य सप्तधा कल्पने ऽमवचनविक रूपपरिकल्पनमपि किं न क्रियते इति न वक्तव्यम्, तत्परिकल्पननिमित्ताभावात् । तथाहि नैतत् साऽवयवाऽऽत्मकादपरं निमित्तं तत्परिकल्पयितुं युक्तम्, चतुर्थाऽऽदिवचनविकल्पेषु तस्यान्तर्भा बसकेः । नापि नियामकमन्योन्यनिमित्तकं तत्परिकस्वनामईति प्रथमादिषु तत्पूर्वप्रस केः न च गत्यन्तरमस्तीति नामपरिकल्पना युका। किञ्चाम्सो क्रमेण वीतधर्मद्वयं प्र तिपादयति यौगपद्येन या प्रथमपचे गुणप्रधानभावेन सतिपाद ने प्रथमद्वितीययोरधनभावेन तत्पादने - पतिपादने तृतीये संयोगान्तरक रूपनायां प्रथमद्वितीयजङ्गक एव प्रसज्यते । प्रथमतृतीय संयोगापचप्रतिपतयसंयोगात् पतिः प्रथमयतृतीय संयोगात्सप्तमः, प्रथमसंयोगे द्विसंयोग कल्पनायां पुनरुक्तदोषः, तस्मान्न कथञ्चिदष्टमभङ्गसंभव इत्युक्तन्यायाद्वस्तुप्रतिपादने सप्तविध एव वचनमार्गः ।
अन्योन्यापरिगम्यवस्थितस्वरूपवाक्यानां य विभागेन । दिव्यपदेशमासादयतां द्रव्यार्थिकपा चिकनयादेव साचार इति प्रदर्शनार्थमाह
एवं सचवियो वयपो हो अत्यपनाए । बंजणपज्जा पुग, सवियप्पो णिब्वियप्पो उ ॥ ४१ ॥ एवमित्यनन्तप्रकारेण सप्तविकल्पः सप्तभेदः व-वमपो भवत्वर्थपयांवेऽनये संयवहारसूत्र लकणे सप्ताप्यनन्तरोका भङ्गका नवन्ति । तत्र प्रथमः संग्रहे सामान्यप्राहिणि, द्वितीयस्तु नास्तीत्ययं तु व्यवहारे विशेषग्राहिणि, ऋजुसूत्रे तृतीयः, चतुर्थः संग्रह व्यवहारयोः, पञ्चमः पो व्यथामुषयोः सप्तमः
चनमा
,
णय
1
संग्रहव्यवहारऋजु सूत्रेषु व्यञ्जनपर्याचे शब्दनये विकल्पा प्रथमे पयायवाच्यताधिकरपसद्भावेऽप्यर्थस्यैकत्वात् द्वितीयतृतीये निर्विकल्प स्वार्थ सामान्य सातपर्यायधानिकस्व पर्याय नैनिनवाद एवंभूतउपि विवचितक्रियाकालार्थत्या लिहाकियामेदेन मिक शब्दवाच्यत्वात् शब्दाऽऽदिषु तृतीयः, प्रथमद्वितीयसंयोगे - तुर्थः तेप्येव चाननियोगे पञ्चमषष्ठसप्तमा बननमार्गा भवन्ति । अथवा- प्रदर्शितस्वरूपा सप्तभङ्गी संग्रहव्यवहारर्जुसूत्रेषु चार्थमयेषु भवतीत्याह-"एवं सतत्यिादि गाथाम् । अस्यास्तात्पर्यार्थः श्रर्थनय एव सप्तभङ्गाः, शब्दाऽऽदिषु त्रिषु येषु प्रथमतयावेव मनो यो घ स्थसंग्रह व्यवहारसूत्रा रूयत्ययः प्रादुर्भवति सोऽनयः अवन तदुत्पते अर्थप्रधानतया व्यवस्थापयतीति करवा शब्दं तु स्वप्रभवमुपसर्जनतया व्यवस्थापयति तत्प्रयोगस्प परार्थत्वात् । यस्तु श्रोतरि तच्कुन्दश्रवणादुच्छति शब्दसममिरूद एवं यः प्रत्ययस्तस्य शब्दप्रधानं तद्वशे रः प्रधानं तथायुपसर्जन तत्पचायनिमित्य उच्यते तत्र च वचनमार्गः सविकल्पनिकिता द्विविध:विकल्पं सामान्यनिपिपर्यायः तदभिधानाद्वचनमि तथा व्यपदिश्यते । तत्र शब्दसमनिरूढौ संज्ञाक्रियाभेदेऽप्यभिसमर्थ प्रतिपादयत इति तदभिप्रायेण सविकल्पो वचनमार्गः प्रथमभङ्गकरूपः । एवंभूतस्तु क्रियाभेदाद्भिन्नमेवार्थे तत्क्षणे प्रतिपादयतीति निर्विक द्वितीयभङ्गकरूपस्तद्वचनमार्गः । अवक्तव्यनङ्गकन्तु व्यजननये न संभवत्येव यतः श्रोत्रभिप्रायो व्यजननयः, स च शब्दश्रवणादर्थे प्रतिपद्यते, न शब्दाश्रवणात् । अवक्तव्यस्तु शब्दाभावविषय इति नावक्तव्यभङ्गको व्यजनपये संभवतीत्यभिप्रायवता व्यज्जनपर्याये तु सविकल्पनिविकल्पौ प्रथमद्वितीयावेव भङ्गावनिहिताचाचार्येण । तुशब्दस्य गाथायामेवकार्यत्वात्।
इदानी
परस्पररूपापरित्यागप्रवृत्त संग्रहाऽऽविनयप्रादुर्भूततथाविधा एव वाक्यनयास्तथाविधार्थप्रतिपादका इत्येतत्प्रतिपाद्यान्यथाsयुपगमे तेषामप्यध्यक्कविरोधतोऽभाव एवेत्येतपदर्शनाय केवलानां तेषां तावन्मतमुपन्यस्यति -
जह दवियमप्पियं तं तत्र अस्थि ति पज्जवण्यस्स ।
यस समयपन्नवा, पज्जत्रणयमेनपमिपुष्पा ॥ ४२ ॥ यथा वर्तमानकालसंबन्धितया यह स्यमति तुमभीष्टं तवास्ति या अनुपचय जातियोरविद्यमानत्वेनाप्रतिपत्तेः प्रतीयमानयो प्रतिि मातेरिति प्रसङ्गात् वर्तमानसंबन्धेनैव तस्य प्रतीतेरिति पर्यायार्थिकनयवाक्यस्याऽभिप्रायः । एतदेकान्तवादी दूषियितुमाह-नेति प्रतिषेधे, स इति तथाविधो वाक्यनयः परामृश्यते, समय इति सम्य मीयते परिच्छिद्यत इति समयोऽर्थः, तस्य प्रज्ञापना प्ररूपणा पर्यायनयमात्रे द्रव्यनयनिरपेके पर्यायनये प्रतिपूर्णा पुष्कला संपद्यते । न स वाक्यनयः सम्यगर्थप्रत्यायनं पूरयतीति पर्यायनवस्य साधारकान्तप्रतिपादनरूपस्याध्यवाधनात् । तद्वाधां चाग्रतः प्रतिपादयिष्यते ।
व्यार्थिक वाक्यनयेऽप्ययमेच भ्याय इति तदभिप्रायं तावदाह
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(१८६५) अनिधानराजेन्डः।
गणय पडिमाजोवणगुणो, जह जइ बालनावचरिए हिं।
अनन्तस्य प्रसाधितत्वात् । तथाहि-मरणचितं भावाऽऽद्युत्पाद.
स्थित्यात्मक, मरणचित्तस्वात, जीवदवस्थाविनाशचित्तवत् । कुगः य गुणपणिहाण, प्रणामयमुहोवहाणत्यं ॥४३॥
तथा जन्माऽऽदो चित्तप्रादु शेऽतीतचित्तस्थितिविनाशाss. प्रानयोवनगुणः पुरुषो लज्जते बालभावसंवृत्ताऽऽत्मीयानुष्ठान
त्मकः,चित्तप्रापुर्नावत्वात,मध्यावस्थाचिसप्रादुर्भाववत । अन्यथा स्मरणात-पूर्वमहमम्वस्पृश्यसंस्पर्शाऽऽदिव्यवहारमनुष्ठितवान् ।
तस्याप्यभावप्रसक्तिःनि चास्वाभावः,हर्षविषादःचनेकविवयथेन्युदाहरणार्थो गाथायामुपन्यस्तः,वथैवं ततोऽतीतवर्तमान
ऽिऽत्मकस्यानन्यत्वात बाह्यस्यान्तर्मुखाऽऽकारतया स्वसंवेदना:योरेकत्वमवसीयते । करोति च गुणेषसाहाऽऽदिषु प्रणिधान
ध्यकतः शरीरवैवकण्यतोऽनुनतः। न च तथा प्रतीयमानस्याप्य. मेकाम्यम,अनागतं यत्सुखं तस्योपधान प्राप्तिः, तस्य तदर्थमपि,
नावः,शरीराऽऽदेरपि बहिर्मुखाऽऽकारतया प्रतीयमानस्याऽभावतस्मात्सुखसाधनात्सुखं प्राप्तव्यमिति, यतश्चैवमतोऽनागतवर्त
प्रसक्तेः । न च नित्यैकान्तरूपे आत्मनि जन्ममरणेऽप्यसभने, मानयोरेक्यम् ।
कुतो बन्धमोक्षप्रसक्तिः । न च नित्यस्याऽप्यात्मनोऽजिनवयुअत्राऽपि मते यथाऽवस्थितवस्तुस्वरूपप्ररूपणा न प्रतिपूर्यत
किशरीरोन्द्रयैर्योगो जन्म, तद्वियोगो मरणमितिकल्पना संगता, इति सूचान्तरेण दर्शयति
अस्याः पूर्व निषिकत्वात् । न चैकान्तोत्पादविनाशाऽऽत्मके विषये ण य हो जोव्वरपत्थो, बालो अमोवि लज्जा ए तेण । इहलोके परलोके च परलोकव्यवस्था,बन्धाऽऽदिव्यवस्था वा युक्ता। एण वि य अणागयवयगुण-पसाहणं जुज्जइविभत्ते ॥४॥ यत ऐहिककायत्यागेनाऽऽमुष्मिकतदुपादानमकस्यापरझोकः, पू. न च भवति यौवनमः पुरुषो बालः,अपि त्वन्य एव,अन्योऽपिन वेग्रामपरित्यागादथ तदितरकपुरुषरूपवत्। न च दृष्टान्तेऽप्येकत्व. लजते बालचरितेन पुरुषान्तरवत् , तेनाऽन्येन । अथाऽनागतवृ- मसिरूम,उभयावस्थायास्तस्यैकत्वेन प्रतिपत्तेजनचेयं मिथ्या,पाकावस्थायां सुखप्रसाधनार्थमुत्साहस्तस्य युज्यते अत्यन्त दे ।
धकामावात, विरुरुधर्मसंसर्गाऽऽदेबाधकस्याऽध्यक्षबाधाऽऽदि. एतदेवाऽऽह-विजक्त इति । बिजक्तिर्भेदः। अकारप्रश्लेषादवि
ना निरस्तत्वात्। न च पूर्वावस्यात्याग एकस्योत्सरावस्थोपादानभक्ते भेदाजावे अविचलितस्वरूपतया तत्प्रसाधकगुणयनासंभ
मन्तरेण उपः पृथुबुनोदराऽऽद्याकारविनाशवन्मृद्रव्यस्थ कपावात्तस्मात्राभेदमा तत्त्वं, कथञ्चिद्भेदव्यवहतिप्रतिजासचाधि
लोत्पादनमन्तरण दर्शनात न च कपालोत्पादनमन्तरेण घटवि. तत्वात, नापि दमात्रम, एकत्वव्यवहारप्रतिपत्तिनिराकृतत्वा
नाश पर न सिका, घटकपालव्यतिरेकेणाऽपरस्य नाशस्याप्रदिति भेदाभेदाऽऽत्मके तत्वमभ्युपगन्तव्यम् । अन्यथा सकल
तीतेरिति वक्तव्यम् , कपालोत्पादस्यैव कश्चिद्घटविव्यवहारोच्छेदप्रसक्तिः ।
नाशात्मकतया प्रतिपत्तेः। अत एव सहेतुकत्वं विनाएवमजेदजेदाऽऽत्मकस्य पुरुषतत्वस्य यथाऽतीतानागतदोष
शस्य,कपालोत्पादस्य सहेतुकत्वात् । न च कपालानां जावरूपगुणनिन्दाऽभ्युपगमाज्यां संबन्धः, तथैव भेदाभेदाऽऽत्मक- तेव केवला, घटानिवृत्तौ तद्विविक्तताया नेष्टभावप्रसक्तः।न चै. स्य तस्य संबन्धाऽऽदिभियोग इति दृष्टान्तदान्तिकोपसं- कस्बोनयत्र व्यापारविरोधः, दृष्टत्वात् । न च घटनिवृत्तिकहारार्थमाह
पालयोरेकान्तेन भेदः,कथञ्चिदेकरवप्रतीते। न च मुझराऽऽदे - जाश्कुलरूवलक्खण-समासंबधो अहिगयस्स । शं प्रत्यच्यापारे कचिदभ्युपयोगे कशलेषु न तदुपयोगः,अन्त्या. बामाऽऽइभावदिकवि-गयस्स जह तस्स संबंधो ॥४॥
वस्थायामपि घटक्षणान्तरोत्पत्तिप्रसक्तः, तस्य तमुत्पादनसा
माविनाशात,तस्य स्वर[स]ो विनाशात्तदव्यतिरेकसामर्थ्यजातिः पुरुषत्वाऽऽदिका,कुवं प्रतिनियतपुरुषजन्यत्वम,रूपं सुरू.
स्याविनाशःन पूर्वेतद्विनाशेऽपि तस्याविनाशो विरोधिमुरस. पकुरूपाऽऽदित्वं,लकणं तिसकाऽऽदि सुखाऽऽदिसूचकम,संज्ञा
निधानात् । ननु समानातीया कणान्तरं जनयतीति चेत् ।न । प्रतिनियतशब्दाभिधेयत्वम् । एभियः संबन्धस्तदात्मपरिणा.
घटविरोधी न च तद्विनाशयतीति न्याहतत्वात् । न च तत्वमः, ततस्तमाश्रित्याधिगतस्य ज्ञानस्य तदात्मकत्वेनाभि
भावात्सामाभावः,तथाविधकार्यजननसमर्थहेतो वात् । श्र. बायभासविषयस्य । यद्वा-संबन्धो जन्यजनकभावः, पभिरधि
भ्यथा प्रागपि तथाविधफलोत्पसिन जबेत् । न च स्वहेतुनिर्वगतस्थ लक्षणतत्स्वभावस्यैकात्मकस्येति यावत् । बाला55. दिभाईष्टविगतस्य तैरुत्पादविगमाऽऽत्मकस्य तथा नेदप्रतीते
सिंत एव दरामाऽऽदिसन्निधौ सामर्थ्याभावः,दएकाऽऽदिसनिधिस्तस्य,यथा तस्य संबन्धो भेदाभेदपरिणतिरूपो,भेदाभेदाऽऽत्म.
मपेक्षमाणस्य तस्य तद्धेतुत्वोपपत्तेः, अन्यत्रापितझावस्य तन्मा. कत्वप्रतिपत्ते ह्याध्यकेणाध्यामिकाऽध्यकतोऽपि तथा प्रतीतेः।
निबन्धनत्वात्। न च तव्यापारानन्तरं तदुपसम्भात्तस्य सत्का. तथारूपं तस्विति प्रतिपादयन्नाह दृष्टान्तदान्ति
यत्वे मृदाव्यस्याऽपि तत्कार्यताप्रसक्तिः, तस्य सर्वदोपलम्नाकोपसंहारेण
त. सर्वदा तस्यानभ्युपगमे उत्पादविनाशयोरजावप्रसक्तिश्चेति तेहिँ अतीतानागय-दोसगुणगंग्णन्नुवगमेहिं ।
प्रतिपादितत्वाच्च तस्यैव तद्रूपतया परिणती कथञ्चिदुत्पाद.
स्थापीत्वात्।यदि च पूर्वोत्तराऽऽकारत्यागोपादानतयैकं मृदातह बंधमोक्खसुह-क्खपत्थणा हो जीवस्स ॥४६॥ विवस्त्वस्यकतोऽनुसूयते, तदा तसदपेक्वकारणं कार्यविनष्ट तान्यामतीतानागतदोषगुणजुगुप्साऽन्युपगमायां यथा भे- च उत्पत्रमनुत्पन्नं चैककालमनककालं च निन्नमन्निन्न चति दानेदाऽऽत्मकस्य पुरुषत्वस्य सिकिः, सदा दार्शन्तिकेऽपि (त. कथं नाभ्युपगमाविषयः ।न चाऽत्र विरोधः, मृदयतिरिक्ततया हबंधमोक्खसुरमु-पखपत्थणा होइ जीवस्स इति) तथा ब- घटकपालयोरुत्पन्नविनस्थितिस्वभावतया प्रतीतेः । न च प्र. धमाकसुखदुःखमार्थना; तत्र च बन्धनोपादानपरित्यागद्वा- तीयमाने वस्तुस्वरूपे विरोधः, अन्यथा प्राह्यग्राहकाकाराभ्यारेख मेदानेदाऽऽस्मकस्यैव जीवाव्यस्य जबति, बालाऽऽद्या. मेकत्वेन स्वसंवेदनाध्यक्तःप्रतीयमानस्य संबेदनस्य वित्मकपुरुषव्यवत् । ततो जीवस्य पूर्वोत्तरजावानुभवितुर- रोधप्रसक्तेः । न च संशयदोषप्रसक्तिरिति, उत्पत्सिस्थिनावाद्वन्धमोक्षनाचाजावा, उत्पादन्ययाव्याऽऽस्मकतयाऽना । तिनिरोधानां निश्चितरूपतया वस्तुन्यधिगमात्। न च स्थाणुवो
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(१०६६), गाय प्रनिधानराजेन्द्रः।
वाय पुरुषो वेति प्रतिपक्षादिव प्रकृतानिधये सामान्यप्रत्यकाविशेषा- | ते अमोबाणगया, पक्षणिज्जा जवत्थाम्म ।। ४०॥ प्रत्यका विशेषस्मृतेश्च संशय इति निमित्तमस्ति । न च प्य. रूपरसगन्धस्पर्शाऽऽदयो ये पर्याया देहाऽऽश्रिता जीधिकरणेनादोषप्रसक्तिरिति, घटकपालविनाशोत्पादयोमुंदक- बरूव्ये विशुरूपे च ये ज्ञानाऽऽदयस्तेऽन्योन्यानुगता व्याऽऽधिकरणतया प्रतिपत्तेन चोभयदोषानुषतः, यात्मकस्य जीवे पादयो देहे कानाऽऽदय ति प्रापणीया वस्तुनो जात्यन्तरत्वात् । सकरदोषप्रसक्तिरपि नास्ति, अनु- जवस्थे संसारिणि, भकारप्रश्लेषाद्वाऽसंसारिणि।नव संसारा. गतम्यावृतेस्तदात्मके वस्तुनि स्वस्वरूपेणव प्रतिभासनात् । वस्थायां देहाऽऽत्मनोरन्योन्यानुबन्धाद्रूपाऽऽदिनिस्तद्व्यपदेशः, अनवस्थादोषोऽपि न संनवी, भिन्नोत्पादव्ययधौग्यव्यतिरेकेण मुक्तावखायां तु तदनावानासौ युक्त इति वक्तव्यम, तद. तदात्मकस्य वस्तुनोभय के प्रतिभासनात स्वयमतदात्मकस्या:- वस्थायामपि दहाऽऽद्याश्रितरूपाऽऽदिग्रहणपरिणतकानदर्शनपपरयोगेऽपि तदात्मकताऽनुपपत्तेः,अन्यथाऽतिप्रसङ्गात् । तथा र्यायद्वारणाऽऽत्मनस्तथाविधत्वात्, तथा व्यपदेशसभवादात्मप्रतिभासादेवाभावाद्दोषोऽपि न संनवी, अवाधितप्रतिभासस्य पुद्रलयोश्च रूपाऽदिज्ञानाऽऽदीनामन्योऽन्यानुप्रवेशात्कथाशदेतदनावेऽभावाद्,भाषे वा न तावदवस्तुव्यवस्थितिरिति सर्वव्य
कत्वमनेकत्वं च मूर्तत्वमम्त्तत्वं वा व्यतिरेकात्सिमिति । वहारोच्छेदप्रसक्तिः। न च यात्मकत्वमन्तरेण घटस्य कपालद
एतदेवाऽऽदशनाद्विनाशानुमानं संनवति,तत्र तेषां प्रतिबन्धानवकाशातान हि तद्विनाशनिमित्तानि मुझराऽऽदीनि,हेतुत्वाद् जावस्य कारणत्वा.
एवं एगे आया, एगे दंमो य हो किरियाए । सवासत्त्वाच्च यद्यपि घटहेतुका नि तानि,तथाऽपि घटसगाव
करणविसेसण यतिवि-हजोगसिकी उ अविरुद्धा॥४ा मेव गमयेयुनं तदनावम, न हि धूमः पावकहेतुकस्तदभाव. एवमित्यनन्तरोदितप्रकारेण मनोवाकायद्रव्याणामात्मन्यनुप्रगमक उपलब्धः, न वा निम्ननिमित्तजन्यता तयोः प्रति
वेशादात्मैव, न तद्व्यतिरिक्तास्त इति तृतीया.कस्थान बन्धः, भावस्यांशकार्यताऽज्युपगमात् । नाऽपि तादात्म्यलक- (एगे पाया इति)प्रथमस्तत्र प्रतिपादितः सिद्ध एक माणः, तयोस्तादात्म्यायोगात्। नच घटस्वरूपव्यावृत्तत्वातेषांत- त्मा पको दण्ड एका क्रियेति भवति,मनोवाकायेषु दरामक्रियादभावप्रतिपत्तिजनकत्वम, सकलत्रैलोक्याभावप्रतिपत्तिजनक- शब्दो प्रत्येकमभिसंबन्धनीयौ, करणविशेषेण च मनोवाकाय. स्वप्रसक्तः,तेषां ततोऽपि व्यावृत्तस्वरूपत्वात्।न च घटविनाशरूप- स्वरूपेणाऽऽत्मन्यप्रवेशावाप्तविविधयोगस्वरूपत्वात्त्रिबिधयोगस्वात्तेषां वायं दोषः,तेषां वस्तुरूपत्वाद्विनाशस्य च निःस्वनावत्वा- सिद्धिरपि प्रात्मनोऽविरुकैवेति । एकस्य सतस्तस्य त्रिविध. त्,तथा च तादात्म्यविरोधः,अन्यथा घटानुपलम्भवत्तेषामपि त. योगात्मकत्वादनेकान्तरूपता व्यवस्थितव, न चाऽन्योन्यानुदनुपलब्धिर्भवेत.तस्मात्प्रागनावाऽऽत्मकः सन घटःप्रध्वंसानावा- प्रवेशादेकाऽऽत्मकत्वे बाह्याच्यन्तरविभागाभाव इति । अत्र उत्मकतां प्रतिपद्यत इत्यभ्युपगन्तव्यम् । अन्यथा पूर्वोक्तदोषान- हर्षविषादाऽऽद्यनेकचिवाऽऽत्मकमेकं चैतन्यं, यथेह बालकुमातिवृत्तिःसावकणस्यापि देतोगमकत्वमनेनैव प्रकारण संभ- रयौवनाऽऽद्यनेकावस्यैकाऽऽत्ममेकं शरीरमध्यकतः संवेद्यत इ. वति। अन्यथोत्पत्यजातादस्त्वित्वानावः,तदभावे विनाशस्याऽप्य- स्यस्याविरोधः, बाह्याज्यन्तरविभागावपि निमित्तान्तरतवन्यप. भावः,असतो विनाशायोगादिति यात्मकमेकं वस्त्वज्युपगन्त- देशसंभवात । ज्यम,अन्यथा तदनुपपत्तेरिति प्राक् प्रदर्शितत्वाद्न पुनरुच्यते।
पतदेवाऽऽदयथा चाऽऽत्मनः परलोकगामित्वं शरीरमात्रव्यापकत्वं च तथा
ण य बाहिरभोजावो,अनितरो य अस्थि समयम्मि। प्रतिपादितमेव । नन शरीरमात्रव्यापित्वे तस्य गमनाभावारेशान्तरे तद्ग्रहणोपलब्धिनं भवेत, न च तदधिष्ठितशरीरस्थ
णोशंदयं पुण पडु-स्च होइ अम्भितरोनाचो॥५०॥ गमनाविरोधात्पुरुषाधिष्ठितदारुयन्त्रवत्। न च मूर्तीसूर्तयाघ
मात्मपुजलयोरन्योऽन्यानुप्रवेशामुक्तप्रकारेणाईतप्रणीतशा-- टाकाशयोरिव प्रतिबन्धाभावान्मूर्तशरीरगमनेऽपि मामूर्त
सनेन बाह्योभावोऽभ्यन्तरोवासंभवति,मूर्तामयुत्पादितत्वादस्याऽऽत्मनो गमन मिति वक्तव्यम, संसारिणस्तस्यैकान्तेनामूते
नेकाऽऽत्मकत्वाच,संसारोदरवर्तिनःसकलवस्तुनोऽज्यन्तर इ. त्वासिद्धेस्तव प्रतिषस्यत्वाभावासिके।
तिव्यपदशेस्तु नोइन्द्रियमनःप्रतीतस्याऽऽत्मपरिणतिरूपस्य परापतदेवाऽऽह
प्रत्यकत्वाच्छरीरवानिव । न च शरीराऽऽत्मावयवयोः परस्परा
नुप्रवेशातू शरीरादे पात्मनोऽपि तद्वत्परप्रत्यक्ताप्रसक्ति, इअमोणाणगयाणं, इमं व तं वत्ति विभयणमजुत्तं ।
छियज्ञानस्याशेषपदार्थस्वरूपग्राहकत्वायोगादित्यस्व प्रतिपाजह पुलपाणियाणं, जावंतविसेसपजाया ।। १७॥ दयिष्यमाणत्वात् । अतःशरीरप्रतिवत्वमात्मनोन नवनि,मम् अन्योन्यानुगतयोः परस्परानुप्रविष्टयोरात्मकर्मणोरिदं वा तवे |
तत्वात्। अत्र योगे हेतुरसिद्धः,यदि चात्मपरिणतिरूपमनसः श. तीदं कर्म अयमात्मेति यद्विजनं पृथक्करणं तदयुक्तमघट
रीरादास्यन्तिको नेदः स्यात्तद्विकाराविकाराज्यां शरीरस्य तवं मानकम, प्रमाणाभावेन कर्तुमशक्यत्वात्, यथा दुग्धपानीययोः
न स्यात, तदुपकारापकाराभ्यां वा प्रात्मनः सुखदुःखानुजयश्च परस्परप्रवेशानुप्रविष्टयो। किंपरिमाणोऽयमविभागो जीवकर्मप्र.
नभवेत्, शरीरविघातकृतश्च हिंसकत्वमनुपपन्नं भवेत् । शरी. देशयोरित्याह-यावन्तो विशेषपर्यायाः, तावान्,अत एवमवस्तु
रपुटचादेरागाऽऽद्युपचयहेतुत्वं शरीरस्य कृशोऽहंम्यूलोऽऽहमिस्वप्रसक्तेरन्त्यविशेषपर्यन्तत्वात्सर्वविशेषाणाम ।
तिप्रत्ययविषयत्वं च दूरोत्सारितंत्रवेन् । पुरुषान्तरशरीरस्येव
घटाऽऽकाशयोरपिप्रदेशोऽन्योन्यप्रदेशलकणो बन्धोऽस्त्येवेत्ययुभन्त्य इति विशेषणाऽन्यथाऽनुपपतेर्जीवकर्मणोरन्योऽन्यानु
को रष्टान्तः,अन्यथा घटस्यावखितिरेव न प्रवेतन वाऽन्योन्या. प्रवेश इत्याह
नुप्रवेशसद्भावेऽप्याकाशवच्छरीरपरतन्त्रताऽऽत्मनोऽनुपपना, रूवाऽऽइपजवा जे, देहे जीवदवियम्मि सकम्मि । मिथ्यात्वाऽऽदे पारतन्व्यानिमित्तस्याऽऽत्मनि नाबा, भाकाशे
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(१०६७) अभिधानराजेन्द्रः ।
णय पाय च तनावात । न च शरीराऽऽयत्तत्वे सति तस्व मिश्यात्याऽऽ. प्रतिपादनार्थमाद-( दबहियस्सेत्यादि) अथवा परस्परसादिबन्धदेतुभियोगः, तस्माच तत्प्रतिबरूमितीतरेतराश्रप- पेक्कद्रव्यास्तिकपर्यायास्तिकयोः प्ररूपणा प्रदर्शितन्यायेन संभत्वम,अनादित्वान्युपगमेनास्य निरस्तत्वात् । न च शरीरसंब- बिनी, निरपेक्षयोः कथंसा?, इत्याहधात प्रागात्मनोऽभूत्वम, सदा तेजसकार्मणः शरीरसं- दवष्ट्रियस्स आया, बंध कम्मं फलं च वेए । बन्धात् संसाराषस्थायां तस्यान्यथाभावात् स्थूलशरीरसं
विइयस्स जावमेतं, ण कुण ण य कोइ वेएइ ॥५१॥ बन्धित्वायोगात । पुलोपष्टम्तव्यतिरेकेणार्द्धगतिखजावस्यापरदिम्गमनासंभवात्स्यूलशरीरेणातिसूक्ष्मस्य रज्वादिनवाऽऽका.
सन्यास्तिकस्येयं प्ररूपणाऽऽत्मैकस्यायो कर्म ज्ञान दिनिबन्धक
बध्नाति स्वीकरोति, तस्य कर्मणः फलं च कार्यभूतं वेदयते शस्य संबन्धायोगात् संसारिशून्यमन्यथा जगत्स्यादिति संसार्या. स्मनः सूदमशरीरसंबन्धित्वं सर्वदाऽभ्युपगन्तव्यमामय शरी
भुङ्गे प्रात्मैव । द्वितीयस्य तु पर्यायाधिकस्येय प्ररूपणा-नैवाऽऽरात्मनोस्तादात्म्ये शरीरावयवच्छेदे मारमावयवस्थापि छ
त्माप्यस्ति, किं तु भावमात्रं विज्ञानमात्रमिति न करोति, न च दप्रसक्तिः, अच्छेदे तयोर्जेदप्रसनः । न । कथञ्चिच्छेदस्याभ्युप
कश्चिदयते, उत्पत्तिक्कणानन्तरध्वंसिनः कर्तृत्वानुभवितृत्वा
योगात्। गमाद, अन्यथा शरीरात्पृथग्भूतावयवस्य कम्पोपलब्धिर्म भ
तथेयमपि तयोतयोः प्ररूपणत्याहघेतान च मिन्नावयवानुप्रविष्टस्य पृथगात्मत्वप्रसक्तिः, तत्रैव प. वादनुप्रवेशाचिन्ने हस्ताऽऽदो कम्पादितलिङ्गदर्शनादियं दव्चट्ठियस्स जो चे-व कुणा सो चेव वेयई णियमा । कल्पना।न चाऽन्यत्र गमनात् तस्य तद्विजानुपलब्धिरकत्वादात्म- अमो कर अयो, परिज पज्जवणयस्स ॥५॥ नः,शेषस्थाऽपि तेन सह गमनप्रसक्तावेकत्र संततावनेक प्रा- य एवं करोति स एव वेदयते, नित्यत्वात्, व्यास्तिकस्यैतस्मेत्येकज्ञानवशानिनामेकत्रानुजवाधारे प्रतिजासप्रसक्तः,शरी
मतमा अन्य करोत्यन्यश्च शुत्तणिकत्वात,पर्यायस्य नयम्यैत. रान्तरव्यवखितात्मान्तरवत्।नच पृथग्नूतहस्ताऽऽद्यवयवव्यव.
मतम् । ननु पूर्वगाथोक्तमेव पुनरपि तदेव तावस्पिष्टपेषणमाचा. खितोऽसौ,न तत्रैव विनष्ट इति कल्पनाऽपि युक्तिसंगता,शेषस्या- र्येण कृतंजवेतन । उत्पत्तिसमनन्तरमेव करणं भोगो वा संभऽप्येकत्वेन तद्विनाशप्रसक्तेः । ततोऽन्यत्रागतेस्तवासस्वादविन- वीति प्राक प्रतिपादितम, इहोत्पत्तिक्कण एवं कर्ता तदनन्तरप्रत्वाच तदभुप्रवेशोऽवसीयते,गत्यन्तराभावात् ।म चकत्वे प्रात्म
कणश्च भोक्तेति न पुनरुक्तम । नोक्तृत्वं च परैः भुक्तियेषां किनो विभागाभावात् छेदानाव इति वक्तव्यम,शरीरद्वारेण तस्या- या सैव कारकः सैव चोचित इति । पि सविभागत्वात् । अन्यथा सावयवशरीरव्यापिता तस्य श्यमसंयुक्तयोरनयोः खसमयप्ररूपणा न भवति, बा तु कथं भवेत् । न चामूर्तद्रव्याऽऽदिव्यवच्छिन्नावयवस्य स
खसमयप्ररूपणा, तामादबेदैव तस्य तथाभावः, उत्तरकालमपि तदषयवोपष्टम्भोपलब्धस्यार्थस्य तथैव स्मरणादन्यथा त्वतदर्शनात्। न चासा.
जं वयणिज्जवियप्पा, संजुज्जतेसु होति एएसु । बारभ्य मूर्तधन्यवयाएकाऽऽदिप्रक्रमेणावस्थितसंयोगैस्तैरभा- सा ससमयपएणवणा, तित्ययरासायणा अन्ना ॥ ३ ॥ बः, येन तवत्वस्य तथैव जावप्रसक्तिः । न चानारत्नत्वात्तस्य ये पचनीयस्याभिलापस्य विकल्पास्तत्प्रतिपादका अभिधाननिरवयवत्वं, शरीरसवंगतत्वानावप्रसक्तः । न च शरीरासर्व- भेदाः, संयुज्यमानयोरन्योऽन्यसंबस्योभवन्त्यनयो:व्यास्तिकगतोऽसौ, तत्र सर्वत्रैव स्पर्शोपलम्भात् । न तस्यापकस्य पर्यायास्तिकवाक्यनययोः, ते च कशिन्नित्य भारमा कथश्चितच्छेदे छेदः, अतिप्रसगात् । न च तदवयवच्छेदेन जिन्ना, तत्र दमूर्त इत्येवमादयः, सैषा स्वममयस्येति तदर्थस्य प्रज्ञापना नि. कम्पाऽऽधुपलब्धेरतस्तत्रैवानुप्रविष्ट एकत्वादिति कायते कथं दर्शना । भन्या तु निरपेक्तयोरनयोरेव नयोर्या प्ररूपणा तीविनाग्नियोः संघटनं पश्चादिति । न चैकान्तेन च्छेदानावा- र्थकरस्याऽसादनाऽधिकपः । “पगमेगेसं जीवस्य पएसे भत्पननालतन्तुवद् विच्छेदाभ्युपगमाद् विघटनमपि तपाभूतारए- णतेहिं जाणावरणिजपोम्गलोहं भावेदिए पवेटिए" इति ती. वशादविरुरूमेवान चाऽऽत्मनः शरीरमात्रव्यापकत्वेऽन्यशरी- थंकृष्चने प्रमाणोपपन्ने सत्यपि “नाम मूर्ततामेति, सूर्स नारगत्यन्तरसंबन्धान्यथानुपपच्या गतिफियाप्रसक्तेरनित्यत्वप्रस- यात्पमूर्तताम् । बन्यं कालत्रयेऽपीत्थं, व्यवते नात्मरूपतः" ॥१॥ किर्दोषः,कश्चित्तस्येष्टत्वात,गृहान्तर्गतप्रदीपप्रनावत संकोचवि.
इति तीर्थतन्मतमेवैतन्यवादनिरपेयमिति कैश्चित्प्रतिपादयाद्रकाशाऽऽत्मकत्वेन तस्य न्यायप्राप्तत्वातानचदेहाश्मनोरन्योन्या- स्तस्याधिक्षेपप्रदानात परस्परनिरपेक्षयोः नययोः प्रथापना नुबरूत्वे देहे जस्मसाजाचे प्रात्मनोऽपि तथावप्रसक्तिः, कीरोद- तीर्थकरासादनेति। कवृत्तयोकणभेदाचामेदात्। न विजिनस्वरूपयोरन्योन्यानुप्रवे.
अस्यापवादमाहशे सत्यप्येकक्षयोऽपरस्य कयाय,यचा पच्यमाने कीरे प्रथममुरक- पुरिसज्जायं तु पमु-च जाणो पएणविज्ज अपयरं। क्षयोऽपि न कीरक्षयाय । न चेह लक्षणभेदो नास्ति । तथाहि-रूप
परिकम्मणानिमित्तं,दाएहा सो विसेसं पि ॥ १४ ॥ रसगन्धस्पर्शाऽऽदिधर्मवन्तः पुत्राः, चेतनासकणश्चाग्मेति सिम्स्तयोलकणमेदः । यथा चैकान्तामूताऽऽदिरूपत्वेऽर्थकि
पुरुषजातं प्रतिपक्षपर्यायान्यतरस्वरूप श्रोतारं वा प्रतीत्याऽऽयादेव्यवहारस्याभावस्तथा प्रतिपादितमनेकधेति मूर्चाम -
श्रित्य ज्ञायकः स्यादवादवित् प्रज्ञापयेदवकीत, अन्यतरत पर्यायं धनेकान्ताऽऽत्मकत्वमात्मनोऽभ्युपगन्तव्यम् ।
कव्यं वाऽभ्युपेतपर्यायं फव्यमेवाङ्गीकृतरुच्याथै च पर्यायमेव क.
ययेत् । किमित्येकमेव कथयेत?,परिकर्मनिमित्तं बुद्धिसंस्काप्रस्य च मिथ्यात्वाऽऽदिपरिणतिवशोपासपुदगवान्ताद् वि.] राय,परिकर्मितमते दर्शयिभ्यते। सःस्थावादामिशः विशेषमपि भागलक्षणो बन्धः, तशोपनतसुखदुःखाऽऽचनुभवस्वरूपश्च | द्वन्यपर्याययोः परस्पराविनिभांगरूपम्,पकांशविषयविज्ञानस्यालोगोऽनेकान्ताऽऽत्मत्वे सत्युपपद्यते । अन्यथा तयोरयोग रति न्यथा विपर्यवरूपताप्रसक्तिः स्यात, तदितराभावे तद्विषयस्या
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गाय
ध्वजाधात् । सम्म० १ काण्ड । स्था० । ( सप्तजीवकव्यता तु सतीशब्दे श्यते)
(ए) अथ सप्तभङ्गयामित्यं नयविभागमुपदर्शयन्ति सिद्धसेनदिवाकरपादा
"पयं सप्तविभप्पो, वयणपड़ो होश अत्थपजाए । वंजणपचाप पुण, सविअप्पो जिन्वि अप्पो उ" ॥४१॥ (स०१ का०)
( १८६० ) अभिधानराजेन्द्रः ।
पवमनन्तरोक्तप्रकारेण सप्तविकल्पः सप्तभेदो बचनपथो भ बत्यर्थ पर्यायेऽर्थनये संग्रहव्यवहारर्जुसुत्रलक्षणे । तत्र प्रथमो भङ्गः सामान्यादिषि द्वितीयस्तु नास्तीत्ययं व्यवहारे विशेषग्राहिणि, ऋजुसूत्रे तृतीयः, चतुर्थः संग्रहभ्यवहारयोः, पञ्चमः संग्रहर्जुसुत्रयोः, षष्ठो व्यवहारर्जुसुत्रयोः सप्तमः संग्रहव्यवहारर्जुनोति । प्रयोगश्चतैश्चतुर्थतृतीययोर्व्यत्यये नेष्यते इति न तृतीये ऋजुसूत्र योजना ऽनुपपत्तिः । श्रत्र यद्धर्मप्रकारकः संग्रहाऽऽख्यो बोधः प्रथमभङ्गफलत्वेनाभिमतः, तरूर्मानावप्रका रको व्यवहाराSSख्यो बोध एव द्वितीयभङ्गफङ्गत्वेनेष्टव्यः । तेन या घटः स्पट इत्यादिसामान्यविशेषयद्वारा प्रवृत्ति न वैकवचनबहुवचनादिना भङ्गा न्तरवृद्धिरित्यवयम् अथ तृतीयभङ्गस्यनिमित्तकताय कि बीजम् युगपत्साज्या हि सम्पदाध्यव क्तव्यमेवव्रतः, संग्रहव्यवहारौ युगपदुभयथा दिशत एव नेति चेत्, ऋजुसूत्रोऽपि कथं तथा देष्टुं प्रगल्भताम ?, मध्यमकृणरूपायाः सत्तायास्तेनाप्यभ्युपगमात् सङ्ग्रहाजिमतयावदनुवृत्तसामान्यानभ्युपगमात् जुइति चेत् सोऽयं प्रत्येकावायत्यकृतोत्थापनेच सङ्ग्रहोऽपि
"
समर्थः। सुषाभिमतमध्यमकृणपससानम्युपगन्त्रासंगाि तदुत्थापनस्य सुकरत्वादिति चेत् । अत्रेदमाभाति संग्रहव्यवहा रौ युगपन्न भयथा देष्टुं प्रगल्भेते, स्वाननिमत्तांशादेशेऽनिष्टसाध
प्रतिसंधानात्त्रस्तु वर्तमानपत्रात यंगूनाचासान्तररूपं सामान्य रूपो विशेष तिद्वापि तावेवेति सद्या युगपदुभयथाऽऽहासा असंभवादयामोत्थानमनायाम् नमनितो. धस्य प्रसङ्गरूपत्वाद् विपर्ययपर्यवसाने संग्रहव्यवहारान्यतरसामान्यमिति वाच्यमपिबामितिरिव
प्रकृतिप्रत्ययानक नायका शान् व्यञ्जनपथे शब्द नवे पुनः सविकल्पः प्रथमे पर्यायवाद वाच्यताविकल्पसद्भावास्येकत्वाथ द्वितीययनिर्वि सामान्य लक्षणाभिगतस्य विक रूपस्याभिधायकत्वात्तयोः । तथा च घटो नाम घटवाचकयाव शब्दवेत्येव समनिरूदैवं नृपतिश्री नङ्गीन सिंक्रिया मिस्त् शब्दाऽऽदिषु तृतीयः, प्रथमद्वितीयसंयेोगाश्चतुर्थः, तेष्वेव चानभिधेयसंयोग पञ्चमषष्ठप्तमा वचनमार्गा भवन्ति । अथवा शमनये पर्यायान्तरसहिष्यो सविकल्पो वचन तस द्विष्णी निर्विकल्प इति द्वावेव भी वस्तु तु संवत्येव तर दोपरार्थबोधनस्य त स्प्रयोजनत्वात्. अवक्तव्यबोधनस्य च तनये संप्रदायविरुद्धत्वेन तथा बुबोधयिषाया एवासंभवादिति । श्रधिकमस्मत्कृतानेकान्तव्यवस्थायाम | तदेवं प्रतिपर्यायं सप्तप्रकारक बोधजनकताप
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णय
र्याप्तिमद्वाक्यं प्रमाणवाक्यमिति लक्षणं सिकम् ॥ इत्थं न त दन्तर्भूतस्य तद्वाईर्भूतस्य पापतरमस्य प्रदेशपरमाणु इम्तेयापरमेवेत्यर्थयते तु न यो नयाभासो, यो । मलयगिरिधरणा-य नयः सुनयश्चेति दिगम्बरस्थानत्वस्माकम रर्थाविशेषात्स्यान्देन विवक्तिधर्मोपरागेण कालाऽऽदिभिरेतदूवृष्याभेदोपरागाछानन्तधर्माऽऽत्मक वस्तुप्रतिपादने प्रमागवाक्यस्य व्यवस्थित एव स्याद
ar साधूनां जापानियो विहितः । अवधारणीयभाषा चनिविद्धा; तस्या नयरूपत्वात्, नयानां च सर्वेषां मिथ्यादृष्टित्वात् । त था चानुस्मरन्ति-" सव्वे गया मिच्छावाइणोति । " न च सतनङ्ग्यात्मकं प्रमाणवाक्यम्, एकभहग्यात्मकं च नयवाक्यमित्यपि नियन्तुं शक्यम्, सप्तजङग्याः सप्तविधजिज्ञासोपाधिनिमित्तत्वात् । न च तासां सार्वत्रिकत्वम्'को जीवः ?' इति प्रश्ने लक्षणमात्र जासया "स्वाद कामाऽऽदिजीवः" इति प्रमाणवाक्यरूपस्योत्तरस्य सिद्धान्तसिद्धत्वात् । स्यात्पदस्य चात्राऽनन्तधर्माऽऽत्मकत्व द्योतकत्वेन प्रमाणाङ्गत्वम् । द्योतकत्वं चात्रोपसंपादनकी शक्तिर्लक्कणा वेत्यन्यदेतत् । तत्र च भुतपद्मपादधमा लोकिको विषयता स्यात्पदोत्या. ssत्मकत्वांशे च लोकोत्तरेति विशेष इत्यपि निःसंदधेते। तन्मतमनुरुरूप्रमाणलक्षणान्तरं समुच्चिनोति च पुनर्वाक्य मे कधर्मकं प्रतिनियतधर्मप्रतिपिपास्यास्पदादपरे उनन्ता धावपि प्रमाणा त्यर्थः अयं समुत्यन्यमपि संयमन मिति कृत्य सीमाविभागेनेवा एव। हेमसुरिभिरपि "सदेव सत्स्यात्सदिति त्रिधाऽर्थो, मीयेत दुनियप्रमाणे: २०” (स्वा० ) इत्यादि विभज्याभिधानात धाकरे नयतदाभासानां व्यक्तेरुदाहृतत्वाच्च । अवधारणां च भाषा एका स्वादम निषिद्धातुरूपाणि तस्याः प्रमाणपरिकस्पितत्वेन तत्राव धारणीयत्वस्य निश्चायकत्वरूपनापास कणान्वयेनैव सिद्धाय निराका शाब्दसमानाकारमानसस्वीकारे किमपराद्धं शाब्दबोधनेति पर्यनुयोगो मानसस्य संशयाऽऽकारस्यापि संनवान्निश्चायकरूपशाब्दबोधानुपपत्तेरेव यौक्तिकैर्निराकृतः । न च भाषामात्रस्यावधा रणीयत्वेऽध्याराध करना दचतुष्टयोपदेशाश्रयभाषाया देशाचकत्वेन तृतीयभङ्ग निपात्साधूनामनाम चतुर्थी विभागस्य
I
s.
भावभाषायामेवोपदेश व परिगणितदशकानामभयादेव भाषायां दोषाभावात् भावभावा यां च तृतीयभाषायामेवानांचतत्वाचारिभावभाषयामा
धन्ययोरधिकृतस्यायुक्ता चतसृणामपि भाषणे ऽपराधकत्वात्रिरोधस्य प्रज्ञापनाऽऽदावुक्तत्वात् । किञ्च प्रतीत्यसत्यात्वलत्क्षणमत्र स्फुटमेव किं नोनीयते, न च सप्तभङ्गयात्मकवाक्यस्यैव प्रतीत्य सन्धारयमः अपेक्षाऽऽत्मक बोधजनकवाक्यत्व अधा स्वदीदिलोकिय चनस्यालक्क्ष्यत्वाऽऽपत्तेः । न च सत्या सर्वत्रालौकिक्येव लक्ष्या, जनपद सत्याऽऽद्दिनेदानामसंग्रहाऽऽपत्तेः ननु तथाऽप्युत्सर्गतोनादरणीयनयदुर्नयभाषयोरावेशेषः । तथोक्तं वादिना-"सीसमवित्थारण- मित्तत्थोऽयं को समुल्लावो । इहरा कढामुहं चे व णत्थि एवं ससमयम्मि ||२५|| (सम्म०३ काएम ) इति चेत् । न ।
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(१८६९) णय अन्निधानराजेन्द्रः।
गाय शिष्यमतिविस्तारकत्वं हि नयवाक्यस्य प्रमाणाऽऽत्मकमहावा- पीताऽअदिभिरेकं संभ्य चित्ररूपमारज्यते। न बसामग्रीसत्वा क्यजन्यशाब्दबोधजनकावान्तरवाक्यार्थशानजनकन्वं, तदनुकू. श्रीमाऽऽदिजिनीबाऽऽदेरपि तत्र जननाऽऽपत्तिः, अगत्या नोलेसाकाङ्कोत्थापकत्वं वा, तेन तस्याऽऽदरणीयत्वस्यैव सिकात तररूपादे लाऽऽदिकप्रतिबन्धकत्वकल्पनात प्रतिबन्धकता. मुक्तंवादिनैव "पुरिसज्जायं तु पाच जाणोपनविज अमयरं। बच्छेदकः संबन्धः स्वप्समवायिसमवेतत्वम् , प्रतिबद्ध्यतावच्छेपरिकम्मणानिमित, दापहा सो विससं पि" ॥५४॥ (सम्म०१
दकश्च समवायःचित्रत्वावचिन्नेअपनीलेतरपीतेतररूपत्वाऽऽ. का०)इति । प्रमाणवाक्यमपि ह्यनेकान्तरुचिशालिनं पुरुषविशेष- दिनैव हेतुता, तेन न केवलनोसकपालाऽऽरन्धे चिनोत्पतिमधिकृत्यैव प्रयुज्यते; तदनयोद्वयोरपि कारणिकत्वे प्राप्ते स्व- प्रसनः। यश्ववयवनिष्ठनीलानावाऽऽदिषट्रस्यैव चित्रं प्रति हे. स्वकाले श्रौत्सर्गिकत्वमेव न्यायसिद्धम्; विप्रतिषिरुकारणवि- तुत्वमिति । तम। नीलपीतोभयकपालाऽऽरव्ये घटपाकनाशिताधिस्थले तथाव्युत्पत्तेः। तस्मात् "स्याद् शानाऽऽदिसतणो जीवः"
वयवपीते स्वचित्रेऽवयवे व्याप्यवृत्तिनौलोत्पत्तिकाने चित्रोपइत्यपि सुनयवाक्यमेव,एकभङ्गरूपत्वात प्रमाणवाक्यता तत्राऽ.
स्यापत्तेन च कार्यसहभाचेन नोलाभावाऽऽदीनां तहेतुत्वादप्युत्थाप्याऽऽकाङ्गाक्रमेण भङ्गषटूसंयोजनयैव । सकलाऽऽदे- यमदोषः, नीलपीतश्वेतत्रितयकपालाऽऽरम्धे पीतश्वेतयोः क्रमेण शत्वं च प्रतिभनमनन्तधर्माऽऽत्मकत्वद्योतनेन; अन्यथा च नाशे श्वेतनाशकालेऽपि तदापत्तेरिति; पाकचित्रे च न व्यभिविकलाऽऽदेशत्वमित्येके ॥ नखरामवस्तुविषयत्वेन त्रिबेवाऽऽ. चारः। पाकादवयवे नानारूपः, अन्यत्रानन्तरमेवावयविनि चि. परषु तत, चतुर्यु चोपरितनेषु एकदेशविषयत्वेन विकला- अस्वीकारात पाकचित्रस्वीकारेच विजातीयचित्रं प्रति नीलेतरऽऽदेशत्वमित्यन्ये । अयं व्युत्पत्तिविशेषः सर्वसप्तनङ्गीसाधा- स्वाऽऽदिना हेतुता, अद्मिसंयोगजचित्रे चावच्छेदकत्वसंबन्धावरणः, स्याच्चन्दलामिकमात्रेण तु न प्रमाणवाक्यविश्रामः, चिन्न प्रतियोगिताका नीलजनकाग्निसंयोगाऽऽदेरजावरूपजसुनयवाक्याथस्यैव ततः सिकेः। अत एव कृष्णः सर्प इत्या- नकविजातीयाग्निसंयोगाश्च हेतवः । अस्तु वा तेजःसंयोगमात्रजदिविशेषणविशेष्यभावबोधकवाक्येऽपि सर्पमात्रे कृष्णत्वस्या- न्ये विजातीय चित्रेविजातीयतेजः संयोगस्य हेतुत्वं, पाकयोरुजनावादनन्ते व्यभिचारात् पृष्ठावच्छेदेन कृष्णोऽप्युदरावच्छेदेन
यजन्ये विजातीये चित्रे चोजयोरेव रूपमात्रजातिरिक्त पच वा बाक्लचोपलम्बात् स्याच्छब्दसंयोजनया नयवाक्यत्वमित्याद
विजातीयतेजःसयोगो देतुः.फलबलेन वैजात्यकल्पनातान चासमन्तभः । लक्ष्यलकणाऽऽदिव्यवहारोऽपि नयवाक्य रेष सि.
निसंयोगजमात्रातिरिक्त रूपमेव हेतुरस्तुति विनिगमकाजावः। यति, उद्देश्यलौकिकबोधस्यानतिप्रसक्तस्य तेज्य एव सिद्धेः । उभयस्थले नीलेतराऽऽदिसमाजानावस्यैव विनिगमकवादित्याप्रमाणवाक्यत्वं लौकिकबोधार्थ सप्तभधात्मकमेवाऽऽधयणी
दुः॥ शिरोमणिजहाऽऽचार्यमतानुसारिणस्तु-चित्रघटेऽव्याप्यवृ. यम् । अत एव तदुव्यापकत्वं सम्मत्यादी महता च यत्नेन सा
न्येव नीलपीताऽऽदीनि नानारूपाणि, एकरूपमितिप्रतीतेरेकोऽनधितमिति किमतिविस्तरेण?॥६॥
राशिरितिवत्समदकत्वविषयत्वात्; सविषयावृत्तिव्याप्यवृत्ति
जातेरव्याप्यवृत्तित्वविरोधस्तुप्रामाणिकपवाअत एव लोहितो (१०)नन्धेकत्र वस्तुन्यनेकाऽऽकारा प्रमाणधी, एकाsकाराच नयधीः कथमुत्पद्यते ?, इति जिज्ञासायामाद
यस्तु वर्णेन, मुखे पुच्छे च पागलुरः । श्वेतः खुरविषाणान्यांस
नीलो वृष उच्यते" ॥१॥ इति स्मृतिरप्युपपद्यते। अथाऽव्याप्ययथा नैयायिकैरिया, चित्रेऽनेकैकरूपधीः ।
वृत्तिनीलाऽऽदिकल्पने गौरवम्। तथादि-अबच्चेदकतासंबन्धेन नयप्रमाणनेदेन, सर्वत्रैव तथाऽऽईतैः ॥ ७॥ नीलाऽऽदिकं प्रति समवायेन नीलेतररूपाऽऽदीनां प्रतिबन्ध
कत्वमस्मिन् पक्षे वाच्यम, अन्यथा पीतावयवावच्छेदेन नीलो(यथेति) यथा नैयायिकैचित्रे नीलपीतादिना शबले घटाऽ5.
त्पत्तिप्रसंगात् । न च नीलस्य स्वाश्रयावच्छेदेन नीलजन्यत्वदावनेकरूपा नीलपीताऽऽद्याकारा, एकरूपा च चित्राऽऽकारा
स्वानाध्यादेव न तदापत्तिः, विनैतादृशप्रतिवध्यप्रतिम्धकधारियाऽज्युपगता, तथाऽनुभत्वात्, स्याम्मतभेदाश्रयणाचा;
भावं तथा स्वाजाव्यानिर्वाहात् । ननु समवायेन नीलं जायत तथा सर्वत्र वस्तुन्येकानेकरूपतया चित्रे प्रमाणनयभेदेन द्वि
पर पीतावयवावच्छेदेनेत्यत्र चापादकानाव इति चेत् । न । विधा बुकिराहतैरिष्टा, अनुभवसिद्धेऽथे विरोधानाचादिति भावः। यथा च सर्वस्य वस्तुनश्चित्रत्वं तथोक्तमस्माभिरात्म
समवायस्येवावच्छेदकताया अपि कारणनियम्यत्वात् । एवं च ख्याती, विस्तरनिया नेद प्रतन्यते।
नीलाऽऽदौ नीलेन रूपाऽऽदीना, नीलेतररूपाऽऽदौ वा नीलाऽऽ.
दीनां प्रतिबन्धकत्वे विनिगमकाभावः। मम नालेतररूपाऽऽदौनीचित्ररूपे तु मतभेदं तर्करसिकम्युत्पत्यर्थमुपदर्शयामः-तत्र
लाउदीनां न प्रतिबन्धकत्वम् । नीलपीताऽऽरम्धे नीलरूपत्वनीनं नीलान्यरूपासमवायिकारणं न वेति चित्ररूपे विप्रति
प्रसङ्गस्य बाधकरवादिति चेत् । मैवम् ।ममाऽपि नीलस्वा-55पसि,विधिकोटिःसामानाधिकरण्येन,निषेधकोटिरवच्छेदकाव
दिकमेव प्रतिबध्यताऽवच्छेदक,न तु नीलेतररूपत्वाऽऽदि गौरवाच्छेदेन । तेन नांऽशतो बाधः, सिरसाधनं वा । यत्तु नील- दिति वक्तुं शक्यत्वात् । न च नीलत्वेन प्रतिबन्धकत्वं, न तु नीरूपासमवायिकारणकं पीतरूपासमवायिकारणकं न बति
लेतरत्वेन, गौरवादित्येव किं न स्यादिति वाच्यमा प्रतिबन्धप्रतिपत्तिरिति । तत्र। नीमरूपासमवायिकारणस्य नीलस्य कतावच्छेदकगौरवस्थादोषत्वात । प्रस्तु बाऽवच्छेदकतया पक्वत्वे वाधात् । चित्ररूपस्य पक्षवे प्राश्रयासिके। यदापि नीलाऽऽदी समवायेन नीलाऽऽदीनामेव हेतुस्खमानच नानारूपनीलरूपासमवाधिकारणकवृत्तित्वविशिष्टरूपत्वं पीतरूपास- वत्कपालाऽऽरग्धघटनालस्य तत्कपालावच्छदेनोत्पत्तिप्रसङ्गः, मवायिकारणवृत्ति न वेति केषाश्चिधिप्रतिपयुद्भावनम् । त- केबलनीमत्वाऽऽदिनैव तदेतुत्वात् । न चकेबलत्वं नीलाभविदपि न रमणीयम् । विशिष्टस्य, विशिष्टाऽऽधेयताया बाउनति- समानाधिकरणस्वमिति गौरवम, प्रनवच्छिन्नसमवायेन नी. रिक्तत्वादिति दिक्।
लाऽऽदिहेतुत्वस्यैव तदर्थत्वात् । समवायेन नीलाऽऽदौ च तत्र साम्प्रदायिका:-नानारूपवदवयवाऽऽरम्धे वस्तुनि नीखस्वसमवायिसमवेतत्वसंबन्धेन नीलाऽऽदीनां हेतुत्वं, व्याप्यव.
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(१०७.) अन्निधानराजेन्डः।
पाय त्तिनीलस्थलेऽव्याप्यवृत्तित्ववारणाय चावच्छेदकतया नीला
उक्तसंबन्धेन हेत्वभावादेव न त नीलोत्पत्तिीरति विभाव्यते,
तवा नीसं प्रति नीले तररूपाऽऽदेः प्रतिबन्धकवे चित्ररूपत्वाऽऽ. दो स्वसमयायिसमवेतव्यसमवायित्वसंबन्धेन नीलेतररू
दिना न कस्पनीयमित्यतिमाघवम् । एवं च सामानाधिकरण्यपादीनां हेतुत्यमित्यव्याप्यवृत्तित्वपक्षेऽष्टादश कार्यकारण
संबन्धावनिप्रतियोगिताको नीलेतराभावः समानावच्छेदभाषाः, चित्ररूपपकेऽप्येतावन्त एव । चित्ररूपे नीलेतररूपाऽऽदीनां पटूस्य, नीलाऽऽदौ च नीलाऽऽदिषस्य हेतुत्वम, नीले.
कत्वप्रत्यासत्या नीसहेतुरित्यपि निरस्तम; समानाधिकरणस्य
ज्याप्यवृत्तित्वेन तत्संबन्धावच्छिन्नप्रतियोगिताकनीलेतराजावातराऽऽदिषट्कस्य च नीलाऽऽदो प्रतिबन्धकत्वमित्यादिनाऽऽ. धिक्यानावात् । वस्तुतोऽरच्छेदकतया नीलाऽऽदी स्वसमवा
सत्याति बहवः संप्रदायं समादधते । केचित्तु-विजातीयचित्र
प्रति स्वविजातीयत्वस्वसंयमितत्वोनयसंबन्धेन रूपविशिष्टरूयिसमवेतव्यसमवायिसमवेतत्वसंबन्धेन नीलेतररूपाविशि
पत्वेनैव हेतृत्वम् । स्वबैजात्यं च चित्रत्वाव्यतिरिक्तं यत्स्ववृत्ति एनालस्वाऽऽदिनैव हेतुत्वम् । न च नीले तरत्वाऽऽधवच्छिन्नं
तद्भिनधर्मसमवायित्वम, स्वसंबलितत्वं च स्वसमवायिसमप्रति नीलविशिष्टनीसेतरत्वाऽदिना हेतुत्वे विनिगमकाभावः,
वेतद्रव्यसमवायिवृत्तित्वम् । न च सत्वाननुगमः, संबन्धमध्ये नीत्वापेक्वया नीलतरत्वस्य गुरुत्वात इत्थं चाभिनिष्कर्षऽस्मा
तत्तत्प्रवेशासंबन्धावच्छिन्नप्रतियोगिताकानां हेतुत्वादित्याहुः॥ कं द्वादशैव कार्यकारणनाबा इति साघवादित्याहुः । तदसत् । चित्ररूपस्वीकारपकेऽपि नीलाऽऽदी नीलेतराभादप्रतिबन्धक
परे तु नीलपीतोभयाभावपीतरक्तोभयाभावाऽऽदीनां स्वसम
बाविसमवेतत्वसंबन्धावचिन्नप्रतियोगिकानां समवायावच्छिस्वेनैव शुक्लावयवमात्राऽऽरब्धे नीबाऽऽद्यतुत्पत्तिनिर्वाहात,
अप्रतियोगिताकानां विजातीयपाकोभयानावादीनां यावश्यानामाऽऽदी नीलाऽऽदिहेतुत्वाकल्पनात, कार्यकारणभाव
वचिन्नप्रतियोगिताक एकोनावचित्रत्वावच्छिन्नं प्रति हेतुरिसंण्यासाम्यादब्याप्यवृत्तिनानारूपतत्प्रागभावभावावध्वंसा
त्याहुः ॥ रूपत्वेनैव चित्रं प्रति हेतुत्वम, कार्यसहनावेनाचत्रतरा. दिकल्पने परं परस्यैव गौरवात् । किश्च-श्रव्याप्यवृत्तिरूपप
भावस्थाहेतुत्वेनानतिप्रसङ्गादित्यन्ये॥ परे तु-चित्रत्वावचिन्नेरूक्षेऽवच्छेदकतासंबन्धेन रूपे उत्पन्ने पुनस्तेनैव संबन्धेना-
पत्वेनैव हेतुत्वम, नीलपीतोभयाऽऽरब्धवृत्तिचित्रत्वावान्तरबैलवयवे रूपोत्पत्तिवारणायावच्छेदकतासंबन्धेन रूपं (प्रत्यवच्छेद
तण्यावचिन्ने च नीपीतोभयत्वेन हेतुता। एवं तत्रितयाऽऽरब्धे कतासंबन्धन रूप) प्रतिबन्धकं कल्पनीयमिति गौरवमान चाव
तत्रितयत्वेन,नीमपीतोभयाऽऽदिमात्रारब्धेच नीमपीतान्यतरा. यविनि समवायेनोत्पद्यमानमवयवेऽवच्छेदकतयोत्पत्तुमाईतीत्य
दितररूपत्वेन प्रतिबन्धकत्वात्रत्रितयारब्धचित्रवति द्वितयारवयविनि रूपस्य प्रतिबन्धकस्य सत्येन रूपसामध्यभावादेव
ग्धसंप्रयोगगन चै गौरबम,प्रामाणिकत्वात् । वस्तुतः समवायेन नावयवेऽवच्छेदकतया तदा रूपोत्पण्यापत्तिरिति वाच्यम् । एवं
द्वितयजचित्रादा स्वाधिकरणपर्याप्तवृतिकत्वसंबन्धेन द्वितयाऽ. यवयविनिष्ठरूपानावोऽवच्छेदकतासंबन्धेन रूपं प्रति हेतुबाच्या,
ऽदानीहेतुत्वम, नातःप्रागुक्त प्रतिबन्धकत्वकल्पनागौरवमित्याहु। तथा च नानारूपवत्कपालाऽऽरब्धघटस्य नीलरूपाऽऽदेनी लक
उच्चडमास्तु नीलपीतरक्ताऽऽद्यारन्धघटाऽऽदौ नीलपीतरक्ताऽऽदि पालिकाऽवच्छेदेनानुत्पत्तिप्रसाद, तदवयविनि कपाले रूपस
बेचनीलपीतोभयजपातरक्तोभयजतस्त्रितयजादीनामुत्पत्ति,सवात् । भपिच-नीलपीतवत्यग्निसंयोगात्कपालनीलनाशात्तदव.
बैषां सामग्रीसत्वात् । नात्र चरमं व्याप्यवृत्तिश्तराणि स्वव्याप्य. चेदेनानुत्पत्तिर्न स्यात्, समवायेन रूपं प्रति तेन रूपस्य प्रतिबन्ध.
वृत्तीनीति विशेषःनि चैकमेव तदस्त्वितिवाच्यम, तत्तदवयवद्धकत्वात्, तदवचित्ररूपे तदवच्छिन्नरूपस्य प्रतिबन्धकत्वकल्प.
यमात्रावच्छेदमनियसन्निकर्षेविसवणविसवणचित्रोपलम्भात। ने चातिगौरवम् । अथावच्छिन्ननीमाऽऽदौ नीलानाबाऽऽदिषटक
नचनीलपीतादिविशिष्ठचित्रेणावान्तरचित्रप्रतीतिसंभवोडमघयवगतमययविगतं च हेतुः,रक्तनीसाऽऽरब्धे रक्तनाशकपाकेन
सएमोऽत्र, सामान्यचित्रत्वेनाखएमावान्तरचित्रवानांसामानाव्याप्यवृत्तिनीलोत्पत्तौ चावयविनि नीलाभावाजावानवच्छिन्न
धिकरण्यप्रत्ययात् । न चेदेव तदा नीमाऽऽद्यविशेषिता ये नी. नीलोत्पत्तिः, केवलनीले पाकेन क्वचितोत्पत्तौ च प्राक्कन
साऽऽदिभेदास्तत्तदाश्रयरूपसमुदायेनानुगतचित्रप्रतीतेचित्रत्वं नीलनाशादेवावच्छिन्ननीलोत्पत्तिरिति चेत् । न । नीलपीतश्वेता
नीमाऽऽदिलेदसमुदायन नीलाऽऽद्यनुगतप्रतीतिसम्जवासीसअद्यारब्धेश्वेताऽऽद्यवच्छेदेन नीअजनकपाके सति प्राक्तननीन- स्वाऽऽदिकमपिचविलीयेतेति जातेरव्याप्यवृत्तित्वे पुनरस्खकनाशेन तत्तदवच्छिन्ननानानीलकस्य नाशापेक्वया पफचित्रकल्प
मेव यत्किश्चिनबच्छेन तत्रनीलत्वपीतवरक्तस्ववित्रकणचित्रत्वानाया एव लघुत्वात् । अथ व्याप्यवृत्तिरूपस्या[व्यवच्छेदकस्वी
दिसंभवादित्याहुः। तदिदमस्त्रिलमशिक्षितप्रलापमात्रम॥चि. कारादवच्छेदकतया नीबाऽऽदिकं प्रत्येव समवायेन नीबाऽऽदेहे
त्रपटोचितेच रूपाप्रतिपत्तेरनुभवविरुद्धदात, शुक्लाऽऽदिरूपातत्वम् । न चैवं घटेऽपि तथा नीलाऽऽद्युपपत्तिः, अवयवनोलत्वेन, णामपि परस्परभिन्नानां साकासंबन्धेन निर्षिगानं तत्र प्रतीते, दयविशिष्टनीसत्वेन वा तद्धेतुत्वात नचनीसमात्रपीतमात्रक
प्रत्येतव्यकल्पनागौरवेण प्रतीतिवाधे रूपाऽऽदेस्तु तन्मात्रगतपालिकाद्वयाऽऽरधनीलपीतकपाले तदापत्तिः, नीलकपालिका
स्वाऽऽपत्तेः। तदिदमाहुःसंमतिटीकाकुन:-"नच चित्रपटाऽऽदाबऽवच्छिन्नतदवच्छेदेन तदुत्पत्तेरिकृत्वात,अस्तु वातया नीलाऽऽदौ
पास्तशुक्लाउदिविशेषरूपमात्रं तदुपनम्नान्यथानुपपस्याऽस्तीत्यनीबेतररूपाटेरेव विरोधित्वमिति चेत् । नानीबाऽऽदो नीखेत
भ्युपगन्तव्यम, कय चित्ररूपः पट इति प्रतिभासाभावप्रसक्तेररूपाऽऽदिप्रतिबन्धकतयैवोपपत्तौ तत्र नीबाऽऽदिहेतुतायां मा- रिति, एकाधिकरण्यावचित्रशुक्माऽऽद्यवयवावच्छेदः,एवं कथनाजावान्नानारूपवदवयवाऽऽरब्धे चित्ररूपस्यैव प्रामाणिकत्वाद् श्चित्समुदाय्यतिरिक्तचित्रमिति, तत्र शुक्लाऽऽद्यग्रहे चित्राग्रह. व्याप्यवृत्तेरवच्छेदकायोगाननितराऽऽदौ नीलाऽऽदेः प्रतिबन्धक
प्रसक्तिरित्येव तात्पर्यमा किश्चिच्छुक्मावयवावच्छेदेनाऽपिचक्षुःवेविनिगमाचा यदि च-स्वाऽऽश्रयसंबन्धेन नीनं प्रति स्वव्यापक- सनिकषेण चित्रोपनम्नःस्यात;अथ चित्रत्वाहे परम्परयाऽवयवसमवायेन नीमरूपं हेतुरुपेयते,नीलपीताऽऽद्यारन्धस्थले च स्वाऽऽ- गतनीलेतररूपपीतेतररूपाऽऽदिमश्वग्रहो हेतुः,अतएव ध्यणुकचि. श्रयसबन्धेन नीलरूपस्य पीतकपालेऽपि संभवेन व्यभिचारात चतुषान गृह्यत इत्याचार्यासन चचित्रत्वनिष्ठविषयतया चित्र
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(१८७१) पाय प्राभिधानराजेन्ः।
गाय त्यग्रहे स्वविशेषसमवेतवसंबन्धेनोक्तस्य हेतुत्वे घटावयवगत- । सामग्रीवशादर्थादनवच्छिन्नस्य नीलस्योत्पत्तिप्रसकोऽवयतद्ग्रहात् शुक्लावयवावच्छेदेन चित्रपटसन्निकर्षेऽपि तपचि- बिनालेतरत्वाऽऽद्यच्छिन्न एवावयवनालेतरत्वाऽदिना हे. त्रत्वप्रत्यक्काऽऽपत्तिरिति वाच्यम्,विशेष्यतया चित्रत्वप्रकारक- तुत्वे नीलत्वावच्छिन्नस्याऽऽकस्मिकत्वप्रसङ्गः। किमाकस्मिप्रत्यक एव चरमसमवेतत्वविनिर्मुक्तसंबन्धेन तहेतुत्वात् । स्वमिति चेत् , तद्धविच्छिन्नार्थे तयाप्रवृत्तिविरहः, पतत्कान च नीलेतररूपत्वाऽऽद्यवग्निप्रकारताग्रहो न हेतुर्नी- रणसवे नीलत्वावच्छिन्नस्यावश्यमुत्पत्तिरित्यनिश्चयश्च प्रसपीतत्वाऽऽदिनाऽवयवगतनीलपीताऽऽदिग्रहेऽप्यवयविचित्र- तीयते । तत्र नीलसामान्यमनवच्छिन्नम, अवचिकृन्नाश्च तद्धिप्रत्यकोत्पादादिति वाच्यम, बिलकणचित्रप्रत्यके तेन तेन शेषाः । केवलशुक्लेऽपि च स्वल्पबसवयवावच्छेदेनेन्द्रियसरूपेण तत्तदृग्रहस्यापि हेतुत्वात् । वस्तुतो नीलेतररूपत्वा- निकषेऽमहत्वोपेतशुक्नविशेषाः, तदनुषक्तं शुक्वसामान्य ऽऽदिव्याप्यत्वेन नीलेतररूपत्वपीतत्वाऽऽद्यनुगमान्न कतिरिति चेत्येकानेकवणीवशिष्टव्यपारणामाभ्युपगमं बिना न कथमपि चेत् । न । उयणुकचित्ररूपाग्रहे चतुरशुकचित्रप्रत्यवानुपपत्तेः, विस्तारः। एतेनाऽज्याप्यवृत्तिनीलाऽऽदिकल्पने ग्राहकान्तरकल्पचित्रावयवाऽऽरब्धे चित्रग्रहेऽवयवविषयकनीलेतररूपत्वा55- ने अव्याप्यवृत्तिव्यसमवेतप्रत्यक्षत्वाऽवच्छिन्नं प्रति चतुःसंयोदिव्याप्यचित्रत्वावच्छिन्नप्रकारकग्रहस्यैव हेतुत्वात् । यदि च गकाबच्छेदकावन्निसमवायसंबन्धावांच्छन्नाऽऽधारतासमि--- नोतररूपपीतेतररूपाऽऽदिमदवयवावच्छिन्नेन्द्रियसंनिकर्ष- कर्षण संयोगाऽऽदिप्रत्यक्तस्थले क्लुप्तेनैवानतिप्रसङ्गात् ।नीलस्यावयवनीलाऽऽदिगतनीलत्वाऽऽदिग्रहप्रतिबन्धकदोषाभावा- पीतोभयकपालाऽऽरब्धघटीयनोले च नीबकपाझिक्येव परम्प. नांच चित्रप्रत्यके हेतुत्वम,अतस्त्रसरणुचित्रस्याऽपि चक्षुषा ग्रह रया ऽवच्छेदिकेत्यच्युपगमादित्यादि निरस्तम् । शाखामूलोभइत्युद्भाव्यते, तदाऽनन्तहेतुहेतुमद्भावकल्पनागौरवात्, चित्रत्वं यावच्छिन्नदीर्घतन्तुतरुसंयोगवनीलेतरोभयाऽऽद्यवयवावाछिव्यासज्यवृत्यैव, तत्र च समानाधिकरणनानारूपग्रहव्ययत्व अविलकणपस्याऽनुभवसिद्धत्वेन तग्राहकोभयाऽऽदिपर्यामित्येव कल्यमानं शोनते।न खेवं गौरव,चित्रत्वग्रहे सामानाधि. तावच्छेदकताकाऽधिकरणतागर्भसंनिकर्षाऽऽदिकल्पनाया अकरण्येन रूपविशिष्टरुपमहत्वेनैव हेतुत्वामुक्तहेत्वनावे चित्रत्व- प्यावश्यकत्वादुपदर्शितसंयोगस्थलेऽपि एकैकावच्छिन्नसंयोविनिर्मुक्तचित्रप्रत्यक्तस्य चोभयोस्तुल्यत्वात् । यदि च नानाs- गद्यस्वीकारे च तद्वत्तिकृता सर्वेश्च नीबेतराऽऽरम्धेश्वर्यावनि वयवावच्छिन्नपा [य] प्रवृत्ति पकं चित्रमप्यनुभूयतेऽत एवै- मासानौवं स्वस्वावच्छेदेन समुत्पद्यमानं रूपमविरोधाद् व्याप. कावयवावच्छेदेन चित्रानावप्रतीतेरप्युपपत्तिरिति स्वीक्रियते, कमेवोत्पद्यते, सजातीयविजातीयेषु नानापदार्थेषु जायमान तदैकानेकचित्राव्य स्वभावाभ्युपगम विना न काऽप्युपपत्तिः, समूहाऽऽसम्बनमिवैकं ज्ञानमिति स विलूनशीणे स्यात, यथा देशस्कन्धनियतधर्माणां तद्ग्राहकसामग्रीग्राह्यत्वेनैवोक्तोप- दर्शनसंस्कारतात्पर्यायां नानकसंयोगरूपान्युपगमे व्यञ्जितं पत्तेः । देशस्कन्धपरिमाणविशेषग्रहेऽपीयमेव गतिरिति दिक । स्याद्विनैव (१)। एतेन नानारूपबदवयवाऽऽरब्धे व्याप्यावृत्तीन्येकिश्च-नीलेतररूपाऽऽदिषटूस्यैव चित्ररूपे हेतुत्वमित्येतावतंत्र व नीलपीताऽऽदीन्युत्पद्यन्ते, नीलाऽऽदिकं प्रति नीलेतराऽऽदिनोपपत्तिः,अवयवगतोत्कृष्टापकृष्टनोलाज्यामपि चित्रसंजवात् । प्रतिबन्धकत्वनीलाऽऽदिकारणत्वकल्पनापक्रया व्याप्यवृत्तिते चोत्कर्षाकर्षा विचार्यमाणा अनन्ता एव ।
दीक्षपीताऽऽदिकल्पनाया एवं न्याय्यत्वादित्यपि परेषां मतं तदाह श्रीसिहसेनः
निरस्तम, नीलकपालाबच्छेदेन चक्षुःसन्निकर्षे पीताऽऽदे"पच्चुप्पम्मम्मि वि प-जयाम्म जयणागई पम दव्वं । रुपलम्नाऽऽपत्तेरपि तत्र दोषत्वात । तदाह सम्मतिटीजं एगगुणाऽऽईया, अणतकप्पा गुणविसेसा" ५६॥(स०३का०) काकार:-"आश्रयव्यापित्वेऽप्येकावयवसहितेऽप्यवयविन्युपलव्याख्या-प्रत्युत्पन्ने वर्तमानेऽपि पर्याये भजनागर्ति नेदाभेदप्र. ज्यमानेऽपरावयवानुपरब्धावप्यनेकरूपप्रतिपत्तिः स्यात, सकारं पतत्यासादयति हव्यम, यस्मादेकगुणाऽऽन्यः कृष्णत्वाऽऽ. रूपाणामाश्रयव्यापित्वादिति।" नच नीलाऽऽरावयवावधि. दयोऽनन्तप्रकारास्तत्र गुणविशेषाः प्रकारवाधिनः।
असन्निकर्षस्य नीबाऽऽदिग्राहकत्वकल्पनाददोषः, पीतकपातेषां च मध्ये केनचिदेव गुणविशेषेण युक्तं तदिति लिकाऽवच्छिन्ननीलपीतोभयकपालावच्छेदेन संनिकषेऽपि नी. कृष्णं दि व्यं 5व्यान्तरेण तुल्यमधिकमूनं वा भवेत्, सग्रहप्रसङ्गात् । न च केवलनीबावयवावच्छिन्नसन्निकर्ष एव प्रकारान्तराभावात् । आधे सर्वतुल्यत्वे तदेकताऽऽपातः । प्राइक इति वाच्यम् , नीलपीतोभयपणुकाऽऽरब्धत्रसउत्तरयोः संख्येयाऽऽदिभागगुणवृकिहानिभ्यां षट्स्थानकप्र- रेणुनीलप्रत्यक्षाऽपत्तेः । परमाणुसंनिकर्षेऽस्यैव परमारववतिपत्तिरवश्यंभाविनी । तथा च प्रतिनियतहानिवृझियुक्तक- चिन्नसंनिकर्षस्याऽपि च्याग्राहकत्वेन तातरूपाप्राहकठणाऽऽदिपर्यायव सवं, नाऽन्येनेति । इत्थं च नीलत्वाऽऽ- तया चित्रस्वभावत्वमानुजविकम, तथा ग्राहके ज्ञानेऽपि धवान्तरजातीनामनन्तत्वात् तरतमशब्दमात्रेण तदनुगमस्य तत्राखएमाया एकाऽऽकारतायाः, सखएमानां च नानाssकर्तुनशक्यत्वात् । तत्तदबान्तरजातीयनीलपीताजीनामन- कारताविशेष्यतासांसर्गिकविषयतानां नयनिरूपितानां शुद्धास्तचित्रहेतुत्वकल्पने गौरवमिति षट्स्थानपतितवर्णपर्यायण नां चानुलोमप्रतिलोमभावेन समानम, सवितसंवेद्यतानयामचित्रद्रव्यमेव स्वसामग्रीप्रभवमभ्युपगन्तव्यम; भार्यसमाज- कवैचित्र्यशालिनीनां च बहीनामनुभवात् । अत एव "सावज्जसिधर्मस्याऽपि तथा नव्यत्वकार्यतावच्छेदकत्वस्वीकारात् । जोगविरो, तिसु गुत्तो ग्सु सुसंजुतो। बउतो जयमाणो, एतेन चित्रप्रत्यक्वमनेकताऽवच्छेदकमपि चक्षुःसंयोगनिष्ठं वै- माया सामाश्यं हो ॥१॥" इति सप्तनयाऽऽत्मकमहावाक्यार्थजात्यं स्वीकर्तव्यमित्यपि निरस्तम् । सदमेक्तिकयाऽनन्ता- जज्ञाने एकाऽवशिष्टा प्रमाणाऽऽकारता, अनेकाश्वांशिक्यो नयवान्तचित्रानुजवादनन्तबैजात्यकल्पनाऽऽपत्तेरस्यन्ताप्रामाणि- विषयतापरस्परसंयोगजाश्च बयोऽनुभयन्ते। नैयायिकास्तुस्वादिति रुष्टव्यम् । अव्याप्यवृसिरूपपकेऽप्यवयवगतोक-। विशेषण, तत्र च विशेषणान्तरम १, बिशिष्टस्य वैशिश्चम २, टापकृष्टनीलाच्यामववविर्मालेतयोरवरिकन्नयोः सामान्य- एकविशिष्टेऽपरवैशिष्टयम् ३, एकत्र द्वयम् ४, इत्येवं चतुर्को
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(१७७२) णय अभिधानराजेन्द्रः।
गय विशिष्ट वैशिष्टयबुदिः । तत्र मध्यमद्वये विशेषेण विशेष्यताऽ- पादकाजावाविशेध्ये विशेषणमिति विषयितायाः वैशिष्टयविपच्छेदकप्रकारकनिश्चयस्वान्यां हेतुता, इतरखये तु विशेषणाका- पयिनाकबोध एव हेतुत्वात, तारशबुहरापादकाभावाद्विशेष्ये नासंसर्गप्रहयो,विशेष्ये विशेषणामितिरीत्या बुद्धिवं रक्तत्वाऽऽ. विशेषणमिति विषयिताया विशिष्टवैशिष्टयविषयिताव्यापकत्वे
बचित्रप्रकारतानिरूपितदएकत्वाऽऽध्वनिप्रकारकबुकि-- दयमानाववदिति ज्ञानेऽपि तस्याः सम्येन तदवच्छिन्नं प्रति प्रतिस्वम, तेनदएको रक्तोदएमवान्पुरुष इति समूहाऽऽलम्बने नाति- बन्धकत्वसंभवाचा अत एव दरामो रक्तो न वेति संशयकाले प्रसा, तत्र दएकत्वावचिन्नप्रकारतायाः रक्तत्वाधाछिन्नप्र- यदि विशेष्ये विशेषणमिति रीत्यापि रक्तदएमवानिति धियो कारतानिकापितत्वात् । न च विशिष्टवैशिष्टचाविषयतास्वीकारे र. नोत्पनि, तदा तत्र दएमो रक्त इत्यादिनिश्चयानावविशिष्टो कदण्डवानित्यत्र विशेष्ये विशेषणामतिविषयितायां दण्डो दएमो रसोन वेत्यादिसंशयः प्रतिबन्धकः स्वीक्रियते। इत्थं रक्को दएमवान्पुरुष इति समूहासम्बनण्यावृत्तायां मानाजावः । च व्यापकत्वाद् विशिष्ये विशेषणमिति रीत्या विषयतैवानुरक्तरूपदएकत्वोजयावच्छिन्नदण्डनिष्ठप्रकारतानिन्माया र- मितिप्रवृश्यादिजनकतावच्छेदिका । विशिष्टवैशिष्टयबुकित्वं तु करूपत्वाऽवच्छिन्नप्रकारतानिरूपित शुखदएकत्वावच्छिन्नप्र- रक्तदएमास्वाऽऽदिविशिष्टपर्याप्तिप्रकारताकबुफित्वं रक्तदए मेन कारताया प्रानुभविकत्वम । किश्च-रक्तदएमयानित्यादि- जानामीति प्रतीतेरिति संप्रदायविदः। तदसत् । अस्या एवाईवाक्यादयुगपपस्थितस्वघटकाखिलपदार्थोजायमानाया अन- नुमित्यादिजनकतावच्छेदकत्ये विशिष्टवैशिष्टपविषयितायां विताम्वयबुद्धेः रक्को दण्डो दपमवान्पुरुष ति वाक्यजसमूहा- मानस्य दुरापास्तत्वात् । रक्तदण्डवानित्यादिज्ञानेऽपि रक्तत्वाऽऽलम्बनविलकण्ये रक्तदएडानाववानित्यादिबाधधीकाले- ऽऽदिप्रकारतानिरूपितदएमाऽदिनिष्ठविशेष्यताया एवानुनवान् प्युस्पस्यापत्तिरिति तत्प्रतिवध्यताऽवदेकतयैव तसिकिरु- रकाऽऽदेईएमा प्रदिविशेष्य इत्येव प्रतीते। तस्माद्विशिष्टवैशिष्टपतबाधधिया रक्तरूपत्वावच्छिन्नप्रकारतानिरूपितशुद्धदएकत्वा- विषयताकवुमित्वमेवानुमित्यादिजनकताऽबच्छेदकम् । विशेष्ये पच्चिन्नप्रकारतानिरूपितपुरुषत्वाऽवच्छिन्नविशेष्यताकधियैव प्र- विशेषणमिति बुरुित्वं तु विशेषणताचच्छेदकसंशयकालीनज्ञानतिबद्धयत्वाविशिष्टवैशिष्टयविषयताया बाधप्रतिबध्यतावच्छेद- | साधारणमित्यलं संशयप्रतिबन्धकत्वेन, विशिष्टपर्याप्तप्रकारत्वा. कत्वे उक्तस्थल एवानुपपत्तेः। अपि च-विशकलितकानाद् व्या- संभवभिया परामर्शवैशिष्ट्यबुफित्वमित्यापन युक्तम् । वहिव्या. पकविषयताशानिमानसस्वीकारेण तत्साधारण्येनैव प्रतिपय प्ये धनवानित्यादौविशिष्टव्याप्तेरसिद्धत्वेन प्रकारत्वासंभवभिवा त्वं युक्तिमत् । मथैवं दएको रक्तो न वेति संशयकाखे उक्तवा. परामर्शः,दीधितौसएमशो निरुक्लेरानर्थक्याऽऽपातात् । अनेन वै. क्याविशेष्ये विशेषणमिति रीत्याऽन्वयबोधाऽऽपत्तिरिति चेत् ।। शिष्ट्य व वैज्ञानिकम,तेन लोहितवहिमानित्यादौ न विशिष्टवै. न। प्रथममिष्टत्वात, अनन्तरं च विशिष्टस्य वैशिष्टयमिति रीत्याऽ- शिष्यबोधानुपपत्तिरितिमपुरानाथायुक्तमपास्तम् । विशिष्टवै. वधियः संभवात् । तदनुभवोऽप्यविरुखः, प्रात्यक्तिकी बुकिर. शिष्ट्यविषयताविशेषणताउवच्छेदकसंबन्धभेदेन भिति सः प्युक्तसंशयकाले रक्तवांश संशयाकाराष्टैष । यत्तु घटघटत्वाऽऽ- स्वीकारेण समवायाऽऽदिघटिततदसंभवस्य वैज्ञानिकसंबन्धेन दिनिर्विकल्पकोत्तरं घटवदित्याकारा धीशिध्ये विशेषणमिति समाधातुमशक्यत्वाचा, तत्तत्संबन्धेन विशेषणताऽवच्छेदकप्ररीत्या जायत इति। तत्र घटाऽऽयंशे तद्धीप्रकारताया निरवधि- कारकनिश्चयस्य तत्तत्संबन्धनिरूपितवैज्ञानिकसंबन्धेनैव विप्रत्वेऽपसिद्धान्तः, जात्यतिरिक्तस्य किञ्चित्प्रकारेणैव भानात । शिष्टवैशिष्ट्यबुद्धित्वाऽवच्छिन्न प्रति देतुत्वकल्पने त्वतिगौर. तारशीविरोधिनोऽसंसर्गप्रहस्यासंभवात्तथा विशेषणधियो- षम, संशयवशायामपि शुद्धसंबन्धेन कार्याऽऽपत्तिश्चान चेष्टाप. देतुत्वाञ्च । तस्या घटत्वाऽऽधवचित्रत्वे तु तहियो घटो सि,मनुजवविरोधात्।अन्यथा विशिष्टवैशिष्ट्यंन कार्यतावच्छे. नास्तीत्यादिबुद्धिवद्विशिष्टवैशिष्टयधीत्वस्यैवाभ्यवसितप्रकार- दकम्, अर्थसमाजसिकत्वाद्विशेषणशानद्वयादेव तादृशबोधाऽऽकहानमेवोपनायकम, तस्य च कार्यतावच्छेदकं लौकिकविषय पत्तिरिति मिश्रमतसाम्राज्याऽऽपत्तिा,दण्मी रक्तोन वेति सशयाताशून्यम, तद्विषयिकज्ञानत्वापेक्षया लाघवाद्विशिववैशिष्टया- नन्तरमजायमानस्य, दण्मो रक्त इति निश्चयानन्तरं च जा
स्यविषयताशालिप्रत्यकत्वमेवेति घटत्वप्रकारककानोत्तरं यमानस्य बोधस्याऽनुनवसिखत्वातापवंदितत्रोक्तकार्यकारणजायमानायां घटवदिति बुद्धौ विशिष्टवैशिष्ट्यधीत्वमेव निर्वि- भावेन तन्मतं निराक्रियते, नियतसंबन्धगर्भत्वेऽपीयमेव युकल्पकोत्तरं तु विशेष्ये विशेषणमितिरीत्या लौकिकविषयताशा- क्तिरिति । श्वं तु स्याद्रक्तदएकवानित्यत्र दण्डाधितैव प्रकालिशानस्यैव स्वीकारात्। न च दगम इत्याद्यात्मकमानसबोधासं. रता, तदवच्छेदकता च रक्तदएमत्वे व पर्याप्ता, रक्तेन दएडत्वेन प्रहः, तत्रज्ञानांशेदएमस्य प्रकारकत्वात् म चात्मन्यपनीतभावे । चामुमत्र जानामीति प्रतीतेय॑धिकरणस्याप्यवच्छेदकत्वात्। त. च कानाजावेऽपि तत्रागत्या लौकिकविषयाशून्यत्वं निवेशनीयम स्ववच्छेदकत्वाऽऽदिकम इदं रजतमित्यादि पातशकवदित्यादि. तादात्म्येन स्वस्मिन् स्वप्रकारकत्वान्युपगमादित्यादिनिरस्तम् ।। भ्रमबदविरुकम् । साऽवच्छेदकतातत्तहमांशे समानाधिकरणनव्यनये निर्विकल्पकसाधारणप्रत्यासत्तिस्वीकारेणोपनयका- व्यधिकरणतत्तत्संबन्धावच्छिना, तत्र निरूपकबुलित्वं विशिष्टयतावच्छेदके लौकिकविषयिताशून्यत्वस्यैव निवेशात घटव. वैशिष्ट्यबुमित्वं वहिन्याप्ये धनवानित्यादावपि संभवतीदित्यादौ सर्वत्र विशेष्ये विशेषणमितिरीत्या विषयतायां त्वलं दीधितिकृतः खरमशो निरुक्का, श्यमेवानुमित्यादिप्रागसमुक्तबाधकस्येव न साम्राज्यावेति(१)भावः, दण्डीन जनकताऽऽवच्छेदिका नानाप्रकारताऽऽदिघटितधर्मस्य जनकनावेति संशयकाले दण्डाभाववदितिधीर्विशिध्ये विशेषणमिति ऽऽद्यवच्छेदकत्वे गौरवादिति । अथ दण्डो रक्त इति निर्णयरीत्या स्यात्, तयाऽमाले प्रतियोगिताऽवच्दकविशिष्ठप्रतियो- स्य रक्तत्वदयमत्वोजयधर्माऽवचिन्नप्रकारताकत्वं जन्यताऽव. गिनो बुद्धरममिद्ध्या तत्प्रतिबन्धकत्वस्याप्ययोगादिति चेत् नि। वेदकमित्यज्युपगमेऽपि रक्तत्वधर्मितावच्छेनकदपमत्वप्रकातारशबुकेरप्रसिद्धत्वे दपमाभावसंसर्गाप्रहाऽऽदिसामान्यसाम- रकनिणयजन्ये दपरक्तवानिति विशिष्टवशिष्ट्यवोधे व्यभिम्या विशिएवेशिएचविषयिताबोधपर हेतुत्वात, तारशहरा। चार इति चेत् मारकरवप्रकारतानिरूपितदण्डत्वापचिख
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(१८७३)
अनिधानराजेन्मः। विशेष्यताशालित्वस्यापि तादृशनिर्णयजन्यतावच्छेदके प्रवे- स्कारादिमानसताऽऽपरिति विशिष्टवैशिष्टयानुनवत्वमेव च शात, उक्तस्थले दपत्वप्रकारतानिरूपितरक्तरवावच्छिन्त्राविशे- अन्यतावच्छेदकमास्थीयते, स्मरणे व ताहशविषयतानियामक प्यताया एव सत्वात । उभयधर्मावच्छिन्नप्रकारतां परित्यज्योन- इति बहवः । केचितु अनुभवत्वजाती मानाभावेन शानत्वस्यायपर्याप्तप्रकारतानिवेशेन हेतुत्वस्वीकारे तु पर्वतो लौहित्या- ऽपि नित्यसाधारणतया जन्यताऽवच्छेदकत्वाजन्यप्रत्यक्ववृत्ति भाववानिति ज्ञानकाले लोहितबडिमानिति विशिष्टवैशिष्टय- जातिविशेष एव विशेषणताऽवच्छेदकप्रकारकनिर्णयजन्यता:बुधवगमाऽऽपत्तिः, पर्वतो नलोहित इति ज्ञानस्य लौहित्य- बच्चेदकोऽनुमित्यादौ च परामर्शाऽऽदिरेव तारशविषयतानिप्रकारकपर्वतविशेष्यकज्ञान पर प्रतिबन्धकत्वात न च रक्त- यामकः, एवं शाब्दबोधेऽवान्तरवाक्यार्थबोध एव, तथाऽप्यवि. स्वावच्छिन्नविशेष्यताकरक्तप्रकारकस्य रको रक्त इति स्मरण- जातीयप्रत्यक्तत्वस्य तजन्यताऽवच्छेदकत्वे इतरव्यापकीभूतास्य प्रसङ्गः, तत्र तथा निर्णयस्य हेतुत्वादिति वाच्यम; रक्त- जावप्रतियोगिपृथिवीत्ववति पृथिवीत्याकारकपरामर्शादितरस्वावच्छिन्नविशेष्यतायास्तत्र रक्तत्वप्रकारतानिरूपितत्वेऽपि भेदत्वप्रकारकशानदशायामिव तच्चून्यदशायामपि पृथिवीत. रक्तत्वावच्छिन्नविशेष्यतात्वे तस्यास्तादृशप्रकारतानिरूपित- रजेदवतीत्याकारकविशिष्टवैशिष्टयविषयताशालिनाऽनुमितेरा-- त्वानज्युपगमात् , तेन रूपेण रकत्वप्रकारतानिरूपितत्वेऽपि र पत्तिः, तारशानुमितान्वयव्याप्तिकानस्यैव हेतुत्वान्नापत्तिरित्युतत्वावच्छिन्नविशेष्यतात्वे तच्चालिन्यं ज्ञानस्यैव, रक्तो रक्त कौ च स्वातन्त्र्येणेतरनेदत्वप्रकारकज्ञानस्य सखे तादृशानुमित्यइत्याकारकस्मृतिजनकतया तादृशस्मरणाऽऽपश्यसंभवात् । नुदयाऽऽपत्तिः।नच पृथिव्यामितरभेदविशेष्यकानुमितेरेव स्वीदण्डो रक्तो न वेति संशयानुव्यवसायस्तु वस्तुत्वविशि- कारानेयमापत्तिः,साध्यविशेष्यकानुमिती साध्यप्रसिकेपिरोधिटद एमबैशिष्टयावगाही रक्तदग्मेन संदेरीत्यप्रत्ययात् , किंतु जया तत्र ताशानुमित्युत्पादासंभवात् । न च विशेष्ये विशेषणरक्तत्वतदनावप्रकारकत्वदण्डविशेष्यकत्वावगाही रक्तत्वेन त- मिति रीत्या पृथिवीतरभेदेवतीत्याकारानुमितिस्तत्र जायत ए. दभावेन च दण्डं संदेहीति प्रत्ययादिति न तत्र व्यलिचार वेति वाच्यम, तथा सति साध्यज्ञानशून्यकाले ताशपरामर्शा. इति केचित् । तचिन्त्यम । समुघयानुव्यवसायवत्तत्तविशे- त्पृथिव्यामितरभेदः पृथिवीतरभेश्वतीत्याद्याकारकधिविधविषषणद्वयनिरूपितवैशिष्टयविषयताशालित्वस्यैव वक्तुं शक्य- यताशालिन्या भनुमितेरापत्तः । न च विशिवुद्धि प्रति विशेत्वात्। रक्तदण्डे न संदेखीत्यनन्निवापस्य दहिमनं जानामीत्यन
षणकानस्य हेतुत्वान्नेयमापत्तिः, एवमपि प्रमेयत्वेनेतरजेदशाजिलापवदेवोपपत्तेओनत्वेन संदेहाऽनुन्यबसाये चोक्तप्रका
नकाले तथाविधानुमितेरापत्तिसंभवात् । न च प्रमेयस्याऽऽदिना राभावाद्विशकोपयुवल्यमानस्य विशेषणतावच्छेदकस्य वि
साध्यक्षानकाले साध्यविशेष्यकानुमितिप्रतिबन्धकीचूतशेष्यनिष्ठसंबधावगाहिताया परोक्तकाने समर्थने चान्यत्रा
साध्यसिकिसवे तत्र तथाविधविषयताशाल्यनुमिस्यापत्तिरिति सात् । तस्माद्विशेष्ये विशेषणमिति रीत्यैव संश
वाच्यम,साध्यतावच्छेदकप्रकारकसिकेरेव साध्यविशेष्यका. यानुनयवसाय इति न व्यभिचार इति बहवः। न च संदेही
नुमितिबिरोधित्वात् । भन्यश्चेतरभेदस्वरूपेण दास्तरावगाहित्यनुव्यवसायम्य विशेषणमिति रीत्याऽभ्युपगमे रक्तदएडो सिद्धिकाले तारशानुमितिवारणाय तत्र पक्षविषयतानिवेश्यासद्रव्यामति व्यवसायानन्तरमपि रक्तदळं जानामीत्यनुव्य- खेप्रतिवध्यप्रतिबन्धकनावान्तराऽऽपत्तेः, तस्मादितरभेदत्व
सायप्रस इति वाच्यम, रक्तविशिष्टप्रकारतानिरूपितविष. प्रकारकज्ञानकालीनव्यतिरेकव्याप्तिहानजन्यानुमितिविशिष्टच यित्वसांसर्गिकविषयितानिरूपितविशेष्यतासंबन्धेनाऽव्यवसा
शिष्ट्यविषयतास्वीकार मावश्यका तत्साधारण्यं च विशेषयं प्रति रक्तत्वप्रकारतानिरूपितदएमत्वावच्छिन्नविशेष्यता- णताऽबच्छेदकप्रकारकमानजन्यताऽबच्चेकस्यावश्यकम् । तथा कत्वेन व्यवसायहेतुताया आवश्यकत्वात् । अन्यथा रक्तो दहम वसतीतरभेदत्वप्रकारकज्ञानशून्यकाले विशेष्ये विशेषणइति प्रत्यन्नानन रक्तवान् दएकति सम्हाऽऽसम्बनस्मर- मिति रीत्यत्तरभेदत्वप्रकारकद्विविधविषयताशाल्यनुमित्यापणाऽऽदिस्थले र एमं स्मरामीत्यनुव्यवसायोपपत्तेः । न च त्तिः,विशिष्टवैशिष्ट्यानवगाहिन्या विशेष्ये विशेषणमिति रीत्या दएमो रक्त इति इनोपरमेऽपि रक्तदए; कमीत्याकारक- जायमानाया अनुमितेरप्रसिदेः । विशिष्टवैशिष्ट्याबगाहिन्यां तिसाकात्कारोत्पश्या व्यभिचारः, हेतुताऽबच्छेदके कानहानि- चविशेषणताऽवच्छेदकप्रकारकनिर्णयस्य हेतुत्वादिति चेत,एवनिवेशे च रक्तदराम श्त्यनुदबुद्धसंस्काराद्रक्तत्वनिर्विकल्पक
मप्यनुमितौ स्वातन्त्र्येणेव हेतुत्वम, अनुमितिसाधारणजन्यता:दशाया विशिष्टबोधाऽऽपत्तिः, उद्बोधकानां संस्कारजवि- वच्छेदकत्वे नित्पव्यावर्तनाय जन्यत्वनिवेशस्यावश्यकत्वम,मियो शिष्टवैशिष्टयबोधहेतुत्वेऽपि तदभावे सामान्यसामध्या विशेषणविशेष्यनाधे विनिगमनाविरहेण नानाकार्यकारणाभाफलजननमाबाधकमावादिति वाच्यम, कृतिसाक्षात्कारपूर्व। वस्याऽऽवश्यकत्वादवच्छेदकप्रकारकशानशून्यकालीनस्मरणे ईनियमतो दरमा रत इति स्मरणानभ्युपगमात् । वस्तुतः श्वरकाने च विशेष्ये विशेषणमित्येताविषयतामात्रमन्युसंस्कारव्यावृत्तहानेच्याकृतिवृत्तिजातिविशेषं कल्पयित्वा -वि. पेयते, अतो न व्यभिचारः, न वा नित्यसाधारणमित्याहुः । शेषणताऽवच्छेदकप्रकारकविजातीयगुणत्वेनैव हेतुत्वं स्वीकि- केचित्त-विशेषमाताऽवछेदकसंशयकाले विशिष्टवैशिष्ट्यबोधं यते, अनन्तस्मृतिव्यक्तितकेतुत्वकल्पनापेक्षया ताशजाति- स्वीकृत्य विशेषणताऽबल्लेदकप्रकारकहानत्वेनैव हेतुत्यमाहुः । कल्पानाया पवोचितत्वात । न च कृतिसाक्षात्कारपूर्व विषय | तदसत । संशयसाधारणज्ञानस्य हेतुत्वेऽप्रामाण्यनिर्णयस्येवो. स्मृतिकल्पनमावश्यकम,अन्यथोपनायकज्ञानविरहेण विषयना- तेजकतया निर्णयत्वेन हेतुत्वे स्वप्रामाण्यवानस्यैव तथात्वे नासंभवम कृतिसाक्षात्कारानुदयप्रसादिति वाच्यमकान- निर्णयत्वेन देतुत्वकल्पनाया एवोचितत्वात् । अन्यथा विशेष. सकणप्रत्यासत्तेरपीच्चाकृतिसाधारणतद्विषयकविजातीयगुण- पताऽवच्छेदप्रकारकहानीयनिर्णयत्वापेकया गुरुशरीरस्याप्रामा त्वेनैव हेतुत्वोपगमात् । अवश्यं च गुणमानसजनकावच्छेदकत- | एयज्ञाननिर्णयत्वस्य निषेशने महागौरवप्रसलात । अथ विशे या संस्काराऽऽदिव्यावसजातिविशेषकल्पनम् । अन्यथा सै- णताऽवच्छेदकसंशयकाले तत्र चाप्रामाण्यशङ्कायां भषम्मत
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(२०७४) णय अनिधानराजेन्द्रः।
যথ श्व ममापि विशिष्टवैशिष्ट्यबाधो न जावते. श्त्यप्रामाण्या- त्युभयत्र सम्वादुद्देश्यतावच्छेदकरवविधेयत्वयोः प्रकारताविनत्यावचिन्नाभावस्यैष निवेशेक दोषः १, इति चेत्, पबमपि शेषत्वात ताशबाधधीप्रतिबद्ध्यतावच्छेदकत्वादेष चास्याइससंशयसाधारणकानस्य विशिष्टवैशिष्ट्यबोधहेतुत्वेऽनुमित्यादिकं प्रत्वेन शरीरद्वयमेदं कुएमलग्रहादेकत्र चैत्रोदएकी कुरामली चेति प्रति परामर्शदेतुत्वे व्यापयाद्यशे निर्णयत्वनिवेशे महागौरवाहित विधियो विशेषो रक्तदएकामावधियः समूहासम्बनादिव , शेषणताऽवच्छेदकप्रकारकनिमयस्य चानाहार्यस्यैव हेतुत्व. इयं चैकाविशिष्टेऽपरवैशिष्ट्यविषयिताव्यापिका दएकी कुस्वीकारादाहायंतदुत्तरोत्पन्नशाने व्यापयंशे निर्णयत्वनिवेशाना- रामनी चैत्रो द्रव्यमित्यत्रेव दामी कुरामली चैत्र इत्यत्राऽगि वश्यकत्वात । ननु तयाऽपि विशेष्ये विशेषणमितिका- सवात्तत्ययोजकसामग्रीव्यापकसामकित्वाचति वदन्ति । त. नसाधारण्ये चाऽतिरिक्तप्रकारिताऽस्तु, तदवच्छिन्नेऽप्रामा- दसत । सामाम्यविशेषापेक्कयैकानेकात्मकवस्वनच्युपगमे पयनिश्चयाभावकटविशिष्टसंशयाभावस्य नियामकस्या
एकान्तवादस्य कुत्राप्यघटमामत्वात्। विशिष्टषुस्विपिदिसाप्रामापयज्ञानानावटविशिष्टनिश्चयत्वापच्चिन्नतो लघुत्वा
मान्यत पका, विशेषतश्च परनिरूपितत्वेन बहुतरा भपि विषदियमेव योग्यता कानाऽऽदिनिष्ठहेतुताऽवच्छेदिका, बाधाऽदिप्र
यता अनुभूवन्त इति चतुर्दैवेति कोऽभिनिवेशः। अत एकत्र तिबन्धकताऽवच्छोदिका च । मत एवानन्वितान्वयबुद्धर्षाधाऽऽ.
द्वयस्थलेऽप्येकत्र भासमानयोर्विशेषणयोः परस्परमपि सामादिप्रतिबध्यत्वप्रतिबन्धकत्वे, अत एव च व्याप्तिप्रकारकं निश्च
माधिकरपयेन वैशिष्यभानाद्विषयताभेदः,यदि च तत्र प्रकार योत्तरमपि व्याप्यभावांशे आहार्यसंशयाऽऽत्मकतथाविधका- कतया तयोनिरूपितत्वविशेषान्नातिरेकः, तदा विशिष्टवैशिष्टनादनुमित्यनापत्तिः, कार्यतासहनाबेन तथाविधसंशयस्य प्रति
स्थलेऽपि एकप्रकारताऽवच्छिमापरप्रकारतयोपपत्तावतिरेके बन्धकत्वादिति चेत् । न । अप्रामाण्यनिश्चयत्वावच्छिमाभाववि- किंमानम विशेष्ये विशेषणमिति स्थने हिरक्तत्वप्रकारतानिशिष्यनिरुक्तसंशयाभावत्वेन हेतुत्वे गौरवात,प्रतियोगिताऽवच्चे. पिता दएमत्वावच्छिन्ना प्रकारता, विशिष्टवैशिष्टपस्थले । एकप्रकारकनिश्चयस्य प्रतियोगिताऽवच्छेदकविशिष्टविषयके- रक्तप्रकारताऽवच्किचा दण्मत्वावचिना प्रकारतत्यवं विशेउन्जाबस्य प्रत्यके हेतुत्वं कल्पमानमजावांशाप्रवेशेन लाघवा- पसनवात् । स्वीक्रियतां वा तत्रावच्छेदकत्वाऽऽदेरित्येच प्र. सारशज्ञान एवं युक्तमिति तदलेन निश्चयजन्यताऽवच्छेदक- कारताप्रकारताद्वयघटितरूपेण तु बथा हेतुतावच्छवकत्वं तथा विशिष्टवैशिष्टयविषयतासिच, शाकपाकजत्वाऽऽदौ साध्य. प्रागुक्तमेव, यथा संनिवेशध्रौव्येणेति न रक्तत्वदपमखोजयावव्यापकत्वसंदेदेनाहिते हेतौ साध्यव्यापकत्वव्यभिचारसंदेहः, चिन्नप्रकारतयैव रक्तद एमस्यैव विशिष्टवैशिष्पविषयता। म. उपाधिदीधित्युक्तस्तु फलीभूतसंदेहे शाकपाफजत्वविशिष्टे न्यथा रक्तदएकव्यवानित्यतो रक्तदएडवानित्यस्य सक्षम्यात साध्यव्यापकस्याविशेषणात् । अन्यथा तु ध्यत्वाऽऽदौ तस्व रक्तत्वदएमस्यैव त्वनिष्टद्वित्वावच्छिषपर्याप्तधीरनाकारवनवेदनिश्चयात्तत्र तद्विशेषणे तु साध्यव्यापकत्वांशे विशेष्ये विशेष- कताकप्रकारताऽऽश्रयण तिगारषात । गुणवान दण्मयानित्यतो णमिति रीत्या संशयाऽऽकार एव स रक्तो दपमो न घेति संशय
बैलकण्यसंपादनाय रक्तत्वत्वविशिष्टदरामत्योभयापर्याप्तावच्छेकालीनो रक्तो दरामवानिति प्रात्यक्षिकबोध दच रक्तत्वांश इति दताकप्रकारकतानुधावनेरक्तत्वेन दण्डो,पीताबगाहिनि तारशपष्टव्यम् तु बोध्यम-किश्चिद्धर्मापच्चिन्ने यविशेषणताऽव- बोधेऽवगतेश्च तस्मादू रक्तवावच्छिनाबच्छेदकतानिरूपकदवेदकं तत्प्रकारकनिश्चयत्वेनैव देतुत्वमन्तरा धर्मिताऽबच्छेद
पडत्वावचिन्नप्रकारताकबुद्धित्वमेव रक्तदएमचामिति विशिषकानियन्त्रितस्थले दएमवदित्यादौ तु दएमत्वाऽऽदिप्रकारकहा
वैशिष्टधबुद्धित्वमाश्रयणीयम् अनुमितिहेतुपरामर्शोऽपि हेतुतानत्वनैव निर्मिताऽबच्छेद कनिश्चयत्वस्य पुर्चचत्वात्, तत्प्र.
ऽवच्छेदकतानिरूपित प्रतियोगित्वनिष्ठावच्छेदकतानिकापताधिपेशे वैययाति। विशिष्टवैशिष्टयमिति दुक्रित्वं तु रक्तदण्ड
करणनिष्ठाबध्दकतानिरूपिताधेयत्वाबाच्चावच्छेदकतानिस्वोभयधर्मावच्छिन्नविशेष्यतानिरूपितप्रकारताशानिबुफित्वम् । रूपितहेतुताऽवच्छेदकावच्छिन्नप्रकारताकत्वमेव निवेश्यताम। कारणता च तत्र दण्डत्वावच्छिन्नविशेभ्यतानिरूपितरक्तत्वप्र
न च यत्र व्याप्तिधूमत्वयोरेकत्वे वयमिति रीत्यैव हेतुनिष्ठप्रकारताशालिनिर्णयत्वेन । कार्यता च रक्तत्वविशिष्टदण्डत्वाव. कारताऽवच्छेदकत्वे तारशपरामर्शीदनुमित्यापत्तिः, इष्टापत्तीच चिनविशेष्यताशालिकानत्वेनैव । तेनैकद्वयमिति रीत्या दग्मो विरोधव्यभिचारयोहत्वानासत्वानुपपत्तिः, तारशज्ञानस्य तद. रक्तोऽप्रमेयश्चेति ज्ञानेन व्यनिचारः,तत्र दण्डत्वविशिष्टविशेष्य. कानाप्रतिवध्यत्वादिति तत्साधारणाय व्याप्तिप्रकारतानिलपिताया रक्तवानवमित्वेन, रक्तत्वं धर्मितावच्छेदकीकृत्य प्रमे- तविशेष्यतात्वेन धूमत्वावचिन्नप्रकारता निवेशनीया तिखेन यस्वाऽऽदिबाधकालेऽपि तथाविधज्ञानाऽऽपत्तिरिति तारशषिशे- धूमत्वावच्छिन्नत्वं च धूनप्रकारतायां तत्रैव यत्र धमत्वस्थ प्यताया रक्तवावच्छिणत्वमावश्यकमिति वाच्यम् | एकाऽपिप्र. व्याप्तिधर्मिताऽवच्छेदकत्वमा अन्यत्र तु धूमप्रकारकत्वेनैवेति ना. मेयत्वाऽऽदिप्रकारतानिरूपितदएमत्वावच्छिन्नविशेष्यताभित्रा- ऽतिप्रसङ्गः । तथा च-प्रागुक्तरीत्या व्याप्यत्वाऽवभिन्ननिवेशबा एव रक्तवावचिन्नावशेष्यताया अभ्युपगमादेकस्याविशेष्य. स्यैवौचित्यात् । न चाऽयमेकाम्ताऽपि युक्तः,परस्परनिरूपिताताया रक्तद एडवोजयानवचिन्नत्वेनाध्यानिचारात तत्रापि रक्त- बान्तरावयः स्थानीयविषयताया अप्यनुभवात् । न च विशित्वधर्मिताऽवच्छेदकदण्डत्वप्रकारकनिर्णयजन्ये दण्डो रक्तः प्र. पर्याप्तप्रकारतकान्तपक्षोऽपि युक्तः, विशिष्टविशिष्टपतिप्रकामेय इत्येताहशबोधे व्यभिचारवारणाय तारशविशेष्यतायां रक्त- रतान्तरस्याऽपि सिद्ध्यापत्ते,तसिमाविष्टापारीः । बरामवि. प्रकारकताऽऽदिनिरूपितदएमत्वावच्छिन्नविशेष्यताभिन्नत्वं नि. शिघ्पुरुषविशिष्टजूतलपर्याप्तप्रकारताकबुकौ च दमाशे निश्चः
शनीयम् । एकत्र घ्यमिति विषयिता च प्रकारिताद्वयावधि- याऽऽत्मकदण्डविशिष्टपुरुषपद भूतसमिति निश्चयो देतुः,प्रतए. अविशेष्यतारूपा । यथा-चैत्रो दरामी कुएमलीत्यत्र । न चैकमे- बदएमांशे पुरुषांशे च संशयनिश्वयाऽऽस्मकतारशहानाइएमांश का प्रयादिकमप्यतिरिक्वेत, एकत्र द्वयमिति संजयैष संप्र. विशेष्ये विशेषणामति रीत्या पुरुषांशे विशिष्टनिरूपितवैशिष्टय. हाताभयं व दरामी चैत्रोन कुरामली, दएकी वैत्रः कुण्डली. विषयताशालिकानापत्तिरित्यज्युपगमे च विशेषणविशिष्टवै.
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पाय
(१०७५)
अभिधानराजेन्दः । शिष्टयबुफियालेनवत्यंशे निश्चयाऽऽरमकमेकंज्ञान हेतुभूतं कल्प-नयाः समुदिताः सम्यक्त्वं प्रतिपद्यन्त इत्यत्र मयसमुदायाय जीवमा ततः पूर्व कहासेनाष्टानवतिकानानि पश्चानुा है. रष्टे प्रत्येकमरष्टत्वाद् जात्यन्धसमूहवादिस्येतभिरस्तम, भसुजूतानि कल्पनीयानीति सर्वमिदमनुभवसिकमा तत्र विगृह- इष्टतत्समूहसम्यक्त्वानभ्युपगमार। स्वविषयपरिच्छेदकत्वाथ सोपस्थितवद्विशेषणमिति रीत्या बोधस्वीकारेबदएमांशे- मयानामष्टत्वाच । नयानामहष्टत्वादिति हेतुरसिकः, परिमुज्यमानम्य निश्वयाऽऽकारस्य नियामकः, तत्र संशयसाम- पूर्णवस्त्वनधिगन्तृत्वाऽऽदिहेती प्रतिक्षार्थकदेशाऽसिकिसिध्यभाव एवाऽवाच्यः । तथा च विशिष्टवैशिष्टपविषायता साध्यता च समुदायिनो दृष्टत्वनिषेधे साध्ये, पथ तत्समुवहिव्याप्यतदभाववधूमवानित श्व पर्वतो वहिव्याप्यधूमपाल दायस्य रष्टत्वनिषेधः साभ्यः, तदाऽध्यक्षविरोधः, समुदाण्यबेत्यादितोऽपि व्यावृत्ताऽस्तु,तदवच्छिन्ननियामकश्च तत्तत्संशय. तिरिक्तस्यैकान्तेन समुदायस्याभावात् धर्मिणोऽप्रसिदिः, सासामध्यनाद एवेति विषयताविशेषपर्यनुयोगे किमुसरम् ?, ध्यतावचनसमुदायाभावे नया एव परस्परण्यावृत्तस्वरूपा इति तस्मात् क्षयोपशमविशेषजन्यताऽवच्छेदिकाः समनियता एवै- न क्वचित् सम्यक्त्वम, नयप्रमाणाऽऽस्मकैफवैषम्यप्रतिपये, ता विषयिताः, अत्रापेक्षानेदेन प्रतीयमाना असमुदितपर्याप्ता रक्षावलीपदिति । अनेकाः प्रतिपत्तव्याः, ग्राह्यस्येव प्राहकस्य चित्रस्वभावस्या
एतदाहतयैव विवेचयितुं शक्यत्वात् । हन्तवमखण्डोऽपि विषयताविशे- जहणेगमक्खणगुणा, वेरुलियाऽऽईमणी विसंजुत्ता। पः सिद्धचेत, सामान्यरष्टया तथाऽप्यनुभवात्।तथा च-पतेनैव
स्यणावविववएसं, न बहंति महग्घमुन्द्रा वि ।। २२॥ परामाऽऽदेहेतुत्वाऽऽपत्तिरिति चेत् सत्यम भावसंप्रदेण विपताविशेषणे शक्तिविशेषणे वा देतुत्वेऽनावसंप्रदेण चाभाव
यद्वा-यत् प्रत्यकं न नयेषु सम्यक्त्वं तत्तेषां समुदायेऽपि न विशेषणे तथात्वे वाधकानावाद् व्यवहारोच्छेदस्य व्यवहा. नवति, यथा सिकतासु प्रत्येकमभवत् तेलं तासांसमुदायेऽपि रनयसिहकार्यकारणभावे तैरेव निराकरणात्। अनुभवसिमास्तु | नजवति। अत्र देतोरनैकान्तिकताप्रतिपादनार्थमाह-(जहऽण. ग्राह्यप्राहकनिष्ठाःसामान्यविशेषधर्मा न कल्पनामात्रेणापा- गनखणत्यादि) यथाऽनेकप्रकाराः-विविधानि हेतुत्वाऽऽदीनि दितुं शक्या इति दिक ।
लकणानि नीलस्वाऽऽदयश्च गुणा येषां ते,वैमूर्याऽऽदयोऽनध्यम"उत्तिष्ठन्तु विकल्पवाचिनिचयाः पर्यायमर्यादया,
णयः पृथग्भूता रत्नावनीव्यपदेशं न लभन्ते महाघमूल्य अपि । कन्यार्थाऽऽदियुते तु चेतीस चिर शाम्यन्तु तत्रैव ते ।
तहणियपवायसुविणि-च्छियावि अधोम्पपक्खणिरवेक्खा। वस्तु प्रस्तुतमस्तु सागरसमं सर्वोपपासक्षमं,
सम्मईसणसई, सव्वे वि णया ण पार्वति ॥ ३॥ बाह्यं वा स्फुटमान्तरं समुचितस्याद्वादमुखावितम् ॥१॥ तथा प्रमाणावस्थायामितरसम्यपेक्कस्वविषयपरिच्छेदकाले हाऽपायपरम्परापरिचयः सोऽव्ययं युज्यते,
वा स्वविषयपरिच्छेदकत्वेन सुनिश्चिता अध्यन्योऽन्यपकवस्त्वंशेऽप्युपयोगमाकलयतामन्तर्मुहावधि।
निरपेक्षाः प्रमाणमित्यास्यां सर्वेऽपि नया न प्राप्नुवन्ति निअन्येषां तु विकल्पशिल्पघटितो बोधस्तृतीयकण
जकवादनिरपेक्काः, सामान्याऽऽदिवादे सुविनिश्चिता हेतुप्रदर्शबसी ध्वस्तसमस्तहेत्वमिसितः कस्मिन् विचारे कमः? ॥२॥ नकुशला अन्योऽन्यपकनिरपेकत्वात् सम्यग्दर्शनशन्दं मु. सदेवमेकानेकरूपा नयप्रमाणप्रतिपत्तयः प्रामाणिका इति नया इत्येवं पं सर्वेऽपि संग्रहाऽऽदयो नया न प्राप्नुवन्ति। स्थितम ॥७॥नयो ।
जह पुण ते चेव मणी, नहा गुणविसेसभामपमिबदा । (११) ननु यदि प्रमाणं नयाः तर्दि 'प्रमाणनयरधिगमः' रयणावलित्तिजएण, जहंति पामिक्कसएणाओ॥२४॥ इति प्रमाणनयनेदकल्पनावैयर्यप्रसक्तिः । अथाप्रमाणं, तथा- यथा पुनस्त एव मणयो यथा गुणविशेषपरिपाट्या प्रतिबऽप्याधिगमानुपपत्तिः, तत्पृथग्भूतस्यापरस्यासंवेदनात, प्रमाणा- या रत्नावलीत्याख्यामासादयन्ति, प्रत्येकाभिधानानि च त्या भावाप्रसक्तिश्च । असदेतत् । यतोऽप्रमाणं नयाः, नयन्तीतर- जन्ति, रत्नानुबिरूतया रत्नावल्यास्तदनुबिरुतया च रत्नानां रूपसापेकं स्वविषय परिच्छिन्दन्तीति नया इति युत्पत्तेः । न प्रतीतेः रत्नावनीति तत्र व्यपदेशः, न पुनःप्रत्येकाभिधानचापरिच्छेदकाः, नयतर्गत्यर्थत्वेन ज्ञानार्थत्वात्, कानस्य च परि- म ॥२४॥ जेदाऽऽत्मकत्वात् । न च परिच्छेदाऽऽत्मकत्वेऽपि प्रमाणता, समस्तनयविषयोकृतानेकान्तवस्तुग्राहकत्वेन प्रकृष्ट मानं प्रमाण
तह सम्बे एण्यवाया, जहाऽणुरूवं णिउत्तवत्तव्या । म, श्तरांशसव्यपेक्कस्वांशमाही नव इति, ततस्वतस्त्वव.
सम्मईसणसई, लहंति ण विसेससष्ठाओ ॥ १५ ॥ स्थितेः । न चाऽनेकान्ताऽऽत्मकवस्तुप्राहिणो नया न भवन्ति, तथा सर्वे नयवादा यथाऽनुरूपं विनियुक्त वक्तव्या इति। यथेति प्रत्येकं स्वविषयनियतत्वात् तेषां तद्व्यतिरिक्तस्य चाऽन्य- चीप्साउथें, अनुरिति सादृश्ये, रूपमिति स्वभावः, तेनास्य तद्विषयस्याऽननुनवात् । प्रमाणाभावोऽपि न पात्मनः | नुरूपमित्यव्ययानावः । पुनर्यथाशब्देन स एव "यथा सा कश्चित् तदुव्यतिरिक्तस्य प्रमाणत्वेनानुभवसिकत्वात् । दृश्ये" ।।१।७। (पाणि) इत्यनेन । यद्यदनुरूपं तत्र तसत्रयविषयी कृताशेषवस्त्वंशाऽऽत्मकैकमव्यग्राहकत्वस्य तत्र विनियुक्तं वक्तव्यम, उपचाराद्वाचकः शन्दो येषां ते तया, प्रतीतेः । न च संशयाऽऽदिशानरात्मनः प्रमाणात्वेऽति- यथाऽनुरूपं व्यध्रौव्याऽऽदिषु प्रमाणाऽऽत्मकत्वेन व्यवस्थिताः प्रसङ्गः, प्रमीयतेऽनेन प्रमिणोतीति का प्रमाणमिति प्रश- सम्यग्दर्शनं प्रमाणमित्याख्यां लभन्ते, न विशेषसंशाः पृथग्भूदेन तस्य निरस्तत्वात् । न चाऽऽस्मनः कर्तृत्वात करणप- ताभिधानानि, पकाऽऽत्मकत्वेन चैतन्यप्रतिपत्ते; अन्यथा चाडप्रमाणताऽनुपपत्तिः,उत्पादव्ययभ्रौव्याऽऽत्मकस्य तस्याउनेक- प्रतिपत्तेरिति । ननु नयप्रमाणात्मकचैतन्यस्याध्यकसिद्धत्वेन रूपत्वेन कर्तृकरणभावाविरोधात । पतेन प्रत्येकं मिण्यारयो रखावलीतिरष्टान्तोपादान व्यर्थम्, न। अध्यातिकमप्यनेका
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(२००६) गय अन्निधानराजेन्फः।
गय म्तममन्युपगम्यन्तं प्रति व्यवहारसाधनाय रशन्तोपादानस्य (अयमिति) अयं सामान्यझकणलक्वितो नयः संकेपतोऽवासाफल्यात् । प्रतितश्च तेनाऽपि तत्रानेकान्तम्यवहारः। न्तरभेदापरिग्रहेण अव्यपर्यायतया व्यार्थिकः पर्यायार्थिकष्ठान्तगुणप्रतिपादनायाऽऽह
इचेति विधा द्विप्रकारः, तीर्थकरवचनसंग्रहविशेषप्रस्तारमूललोइयपरिजियमुहो-निकृयवयणपमिवचिमग्गो य ।
त्वेनेत्यमेव मूलनयविभजनात । तदाह वादी-"तित्थमरवयण
संगह-बिसेसपत्यारमूलवागरणी । दबहिओ व पज-वणश्रो अह पएणवणाविसओ, ति तेण वीसत्थमुवणीम।२६।।
यसेसा विगप्पासिं ॥३॥” इति। (सम्म०१ काण्ड) तत्राऽऽदौ व्युत्पत्तिकानाद युक्तं प्राणिसमहसुखग्राह्यत्वमेकानेकाऽऽत्मक- सन्याथिकमत आह-व्यार्थिकस्य मते व्यं तवं परमार्थ भावविषयवचो वागमजनकत्वं वा । अथेत्यवधारणार्थः,मन- सदतव्यात पृथा निम्नं विकल्पसिकं गुणपर्यायस्वरूपं तवं न्तधर्माऽऽत्मकवस्तुप्ररूपकवाक्यविषयत्वं हटान्तस्यैव तैः कार- नष्टम् संग्रति सतोऽपि तस्य परमार्थतोऽसरवादिति भावः॥१२॥ गः शङ्काव्यवच्छेदेनायमुपदर्शित इति गाघातात्पर्यार्थः । नयो । व्या०। न चाऽऽवल्यवस्थायाः प्रागुप्तरकासं च रक्षानां पृथगुपल
(१४) अत्र कुएनधियोऽप्यन्तेवासिनो योग्यताप्रतिपादनार्थः म्नादिह च सर्वदा तथोपलम्भानावाद्विषममुदाहरणमिति
प्रकरणाऽऽरम्भः प्रतिपादितः । सा च विशिष्टसामान्यविशे. वक्तव्यम,अवस्थाया बदाहरणत्वेनोपन्यासात् । न च रष्टान्तदाट- षाऽऽत्मकतमुपायनूतार्थप्रतिपादनमन्तरेणातः प्रकरणानसंपद्य. न्तिकयोःसर्वथा साम्यम, तत्र तदभावानुपपत्तेः। रमाऽऽदिका
त इति प्रकरणाभिधेयं योग्यतोपायचूतमर्थम्रणेवावल्यादि कार्य सदैवेति साङ्ख्यः, तेषामेवानेन रूपेण
तित्ययरवयणसंगह-विसेसपत्यारमूनचागरणी। व्यवस्थितत्वात् । तदध्यतिरिक्तं विकारमात्रं कार्य तदेवेति दवडिओ य पज्जव-णो य सेसा विगप्पा सिं ॥३॥ सांग्यविशेष एव । न कार्य कारणे विद्यते इति तेभ्यस्तत् पृ. इत्यनया गाथया निर्दिशति । अस्याश्च समुदायार्थः पातथम्भूतं, न हि कारणमेव कार्यरूपेण व्यवतिष्ठते परिणमते शति
निकयैव प्रतिपादितः । अवयवार्थस्तु-तरन्ति संसारार्णवं येन वैशेषिकाऽऽदयः । न च कार्य कारणं वाऽस्ति, सध्यमात्रमव त.
ततीर्थ द्वादशाङ्गम्,तदाधारोवा सङ्घ तत्कुर्वन्त्युत्पद्यमानमुत्पास्वमित्यपरः। एवंभूताभिप्रायवन्त एकान्तबादिनो दृष्टान्तस्य
दयन्ति तत्स्वाभाब्यातीर्थकरनामकर्मोदयाद्वेति हेत्वाद्यथै टच् । साभ्यसमतां मन्यन्ते । नान प्रत्याह
तीर्थकराणां वचनमाचाराऽदि, अर्थतस्तस्य तदुपदिष्टत्वात, शहरा समूहसिको, परिणामकन व्ब जो जहिं अत्थो । तस्य संग्रहविशेषौ व्यपर्यायौ सामान्यविशेषशब्दवाच्यावते तं च ॥ तं तं चे-व वत्ति नियमण मिच्चत्तं ॥२७॥
भिधेयो, तयोः प्रस्तार:-प्रस्तार्यते येन नयराशिना संग्रहाऽऽदिइतरथोक्तप्रकारादन्यथा, समूहे रत्नानां, सिको निप्पन्नः
केन स प्रस्तारः, तस्य संग्रहव्यवहारप्रस्तारस्य मूलव्याकरणी परिणामकृतो वा मण्यादिश्वावल्यादिः, कीराऽऽदिषु दध्या
आद्यवक्ता ज्ञाता चा हव्यास्तिकः द्रुति वनं व्यं सत्तेति यादिवा । यो यत्राऽर्थः सं ते मण्यादय प्रावल्यादिकार्य, कीर
वत् । तत्राऽस्तीति मतिरस्य द्रव्यास्तिकः "सह सुपा"।२ दध्यादिक, तत्र तत्सद्भावात, तस्य तत्परिणामरूपत्वात समू
।१।४। इत्यत्र “सुपा सह " इति योगविनागाद्, मयूरव्यंहासिकः परिणामकृतो वेति च योरुपादानं लौकिकव्यवहारा.
सकाऽऽदित्वाद्वा द्रव्यास्तिकशब्दयोः समासः । द्रव्यमेव वापेकया। परमार्थतस्तु परमाणुसमूहपरिणामाऽऽत्मकत्वात् सर्व
ऽथोऽस्योति व्यार्थिकः, अव्ये वा स्थितो द्रव्यस्थितः। परि एव समूहकृतः, परिणामकृतो वेति न भेदः। भयं चान्युपगमो
समन्तादवनमवः पर्यवो विशेषः, तद् शाता वक्ता वा यो नयः मिथ्या (मिथ्यात्वं च सम्मती विवृतम)। सम्म०१काएक ।
नीतिः स पर्यवनयः। अत्र ग्न्दोलङ्गभयात्पर्यायास्तिक इति वक्त
व्ये पर्यवनय इत्युक्तम्, तेनाऽत्राऽपि पर्याय एवाऽस्तीति (१२) ननु नयग्रन्ये सम्मत्यादी बौद्धाऽऽदिदर्शनपरिग्रहण
व्यास्तिकवद् म्युत्पतिर्द्रष्टव्या। स च विशेषप्रस्तारस्य . नैयायिकाऽऽदिदर्शनखण्डनं भूयते, तत्र पुर्नयपरिग्रहे किं न
जुसूत्रशब्दाऽऽदेराद्यो वक्ता । ननु च मूलव्याकरणीति.अस्य क. मिथ्यात्वैकान्त प्रत्याशङ्कयाऽऽह
व्यास्तिकपर्यायनयाघभिधयाविति द्विवचनेन भाव्यं, न प्रत्येक, बौछाऽऽदिदृष्टयोऽप्यत्र, वस्तुस्पर्शेन नाममाः। वाक्यपरिसमाप्तः । अत एव चकारद्वयं सूत्रनिर्दिष्टम् । शेषाउद्देश्यसाधने रत्न-पत्तायां रत्नबुधिवत् ॥ ११ ॥ स्तु नैगमाऽऽदयो विकल्प्या भेदाः, अनयोऽव्याधिकपर्यायार्थि(बौद्धादीति) भत्र नयप्रन्ये उद्देश्यं यदपि निविष्टेतरन
कयोः (सिमिति) प्राकृतशैल्या "बहुबयणेण दुवयणं" इ. यखपमनं, तत्साधने ततसाधननिमित्तं, बौकाऽऽदिष्टयोऽपि
ति स्विचनस्य बहुवचनम् । तथाहि-परस्परविविक्तसामान्यबीकाऽऽदिनयपरिग्रहा अपि, वस्तुस्पर्शेन शुरूपर्यायाऽऽदिवस्तु
विशेषविषयत्वाद्यार्थिकपर्यायाथिकावेव नयौ । न च तृतीयं प्राप्त्या, नाप्रमाः फलतो न मिथ्यात्वरूपा इत्यर्थः । किंवत् ?,
प्रकारान्तरमस्ति, यद्विषयोऽन्यस्ताच्या व्यतिरिक्तो नयः स्यारत्नप्रभायां रत्नबुद्धिवत् । यथा हि तत्राऽरत्ने रस्नायगादितया
त् । तृतीयविषयस्य चाऽसंभवः, भेदाभेदविनिर्मुक्तस्य ना
पात् प्रकृतविकल्पानतिवृत्तेः, तत्वजावातिकमे बा सपुष्पस्वरूपतो न प्रामाण्यम, दूरषिप्रकर्षातु वस्तुप्रापकतया फलतः प्रमाण्यम, तथा दुर्नयान्तरच्छेदाय मुर्मयान्तरपरिप्रहे
सरशत्वप्रसको, ताभ्यां तद्वतोऽर्धान्तरस्व सर्वथा संबन्धप्रऽपीति न कश्चिदोषः ॥ ११॥
तिपादनापायासंनवात्समयस्य तैरसंबन्धे तव्यपदेशानुपप
सो समवायान्तरकल्पनायामनवस्थाप्रसत्तेर्विशेषणविशेष्यसं(१३) पषं सामान्य लक्षणं विचिन्स्य तहिभागमाह
बन्धकल्पनायामप्यपरापरतत्कल्पनाप्रसक्तन संबन्धसिद्धिः । अयं संपतो घन्य-पर्यायार्थतया द्विधा ।
ततः स्थितमेतत्र किञ्चिन्नयद्वयबहिर्भाविभावस्वभाषान्तरधिक. व्यार्थिकमते घव्यं, तवं नेष्टमतः पृथक् ॥ १३॥ ल्पनाऽऽविविन्नम्बि प्ररूपणान्तरमिति । केवलं तयोरेव शुद्धय
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(१७७७) गाय धाभिधानराजेन्दः ।
याय शूमिभ्यामनेकधा बस्तुस्वनाबनिरूपणविकल्पाऽनिधानवृत्तयो
(नेगम इति) स्पष्टः, ते मूलनयप्रभेदाः ॥ १६ ॥नयो । व्यवतिष्ठन्ते । तत्र शुद्धो द्रव्यास्तिको नयग्रहनयाभिमतीव- अनु० । विशे० । दश । स्था० । का० । गाम । षयप्ररूपकः । तथा च-संग्रहनयाभिप्रायः-सर्यमेव सत, अवि. प्रव०। प्रा० म० । शंषात् । सम्म०१ काएक । विशे। (ब्यास्तिकपर्यायास्ति- तत्र नेगमनयस्य संग्रहव्यवहारयोरन्तायात, शेषाणा कयोमतम् 'दव्वाध्य-पजठिय' शब्दयोईष्टव्यम् )
संग्रहाऽऽदीनां बयां नयानां संक्षिप्य मतं (१५) तदेवमुक्तौ व्यार्थिकपर्यायार्थिकलक्षणो मूलनयभेदी,
तावमुपदर्शयन्नाह.. अनयोनँगमाऽऽदिषु मतभेदेन यथाऽन्तर्भावस्तथाऽऽह
सामनमह विसेसो, पच्चुप्पन्नं च नावमेत्तं ।। तार्किकाणां त्रयो नेदाः, आद्या व्यार्थतो मताः। पइस च जहत्थं, च वयणमिह संगहाऽऽईण ॥३५०६।। सैघान्तिकानां चत्वारः, पर्यायार्थगताः परे ।॥ १० ॥
श्ह सामान्यमेवास्ति न विशेष शति संग्रहस्य वचनम, ( तार्किकाणामिति ) तार्किकाणां वादिसिद्धसेनमतानुसारि
विशेषा एव सन्ति न सामान्यमिति ब्यवहारस्य वचः । प्रणामाद्यास्त्रयो भेदाः नेगमसंग्रहव्यवहारलकणाः द्रव्या
त्युत्पन्नं च वर्तमानमेव धस्त्वस्ति न त्यतीतमनागतं चेति ऋर्थतो मता 5व्यमेवार्थ विषयीकृत्याभिप्रेताः, भाद्या स्त्रयो ने
जुसूत्रस्य वचनम् । नामाऽऽदिनिक्षेपाणां मध्ये भावेन्डाऽऽदिदास्तार्किकमते द्रव्यार्थिका इति संमुखोऽर्थः । सैद्धान्तिकानां
कं भावनिक्केप एवास्ति, न नामाऽऽदिक्केपा इति शब्द नयस्य जिनमगणितमाश्रमणवचनानुसारिणां चत्वार आधा ऋजु
वचः । इशक्रपुरन्दराऽऽदिशब्दानां प्रतिशब्दमन्यान्य ए. सूत्रसहिताः, व्याथिका इति शेषः । परे तु उक्तशेषाः, उभ.
वाऽर्थो वाच्यः, न त्वेक एवेति समभिरूढस्य वचः । यथायेषामपि पर्यायागताः पर्यायार्थिकाः-ऋजुसूत्राऽऽदयश्चत्वा
थैमेव स्वानिधायकशब्दवाच्यमर्थ कुर्वदेव घटादिकं रः पर्यायाथिका वादिनः; शब्दाऽऽदयाय एव च कमाश्रमणा
वस्तु जबति, नाऽन्यथा, इत्येवंभूतनयस्य वचनम् । इत्युक्तनामिति निर्गवितोऽर्थः। ऋजुसूत्रो यदि द्रव्यं नान्युपेयात्, तदा
प्रकार संग्रहाऽऽदीनां वचनं मतं संक्षेपेणावगन्तव्यमिति " उज्जुसुयस्स एगे अणुवनत्ते एगं दवावस्मयं पुहत्ते क.
॥ ३५७६॥ विशे० । " इति मत्रं विरुध्यतेति सज्ञान्तिकाः। ताकिंकानुसारिण
स्वरूपमाहस्तु-अतीतानागतपरकीयभेदपृथक्त्वपरित्यागादनु स्त्रेण स्वका. र्यसाधकत्वेन स्वकीयप्रवर्तमानवस्तुन पचोपगमानास्य तु- नैगमो देशसंग्रही, व्यवहारर्जुसूत्रको । ल्यांशध्रुवांशल कणच्याभ्युपगमः; अत एव नास्यासटितनूत. शब्दः समभिरूढश्चे-त्येवमेते प्रचक्षते ॥४५॥ जाविपर्यायकारणत्वजव्यत्वाभ्युपगमोऽपि, अनवधर्माऽऽधारांशे द्रव्यमपि नास्य विषयः, शब्दनयेप्वतिप्रसङ्गात्। उक्तसूत्रं त्वनुप
(नैगम इति) नैगमो नैगमनयः देशसंग्राही अवान्तरसंयोगांशमादाय वर्तमानाऽऽवश्यकपर्यायद्रव्यपदोपचारात्समाधे.
प्रहः, सर्वसंग्रहस्य सन्मात्रार्थत्वात् तस्यागः। व्यवहार - यम,पर्यायार्थिकन मुख्यद्रव्यपदार्थस्यैव प्रतिपात । यदि चैवम- सूत्रको व्यवहारनय ऋजुत्रनयश्च शब्दः समभिरुढश्वत्येते प्येकोऽनुपयुक्त एकं व्यावश्यकमित्यत्रानुपयोगस्य विषयनि
नया एवं प्रचक्षते ॥ ४५ ॥ यन्त्रितत्वेनार्थक्यादुद्देश्यविधेयजावानुपपत्तिरिति विभाव्यते,
भावमौदयिकं गह-वंजतो जवस्थितम् । यथा व्याऽऽवश्यकपदं द्रव्यावश्यकत्वेन व्यवहर्तव्यम, परं विवरणपरतया चैतदयोजनीयमिति न कश्चिद दोष इत्यालो
जीवं प्रवक्त्यजीवं तु, सिद्धं वा पुरयाऽऽदिकम् ॥४६॥ चयामः ॥१८॥ ( नयो० ) सर्वधर्मबिरहः शून्यतोत शुरुतरप
(भावमिति ) एवंभूतनयस्तु प्रौदयिक भावं व्युत्पत्तिनिमियायास्तिकमतावलम्बी ऋजुसूत्र एवं व्यवस्थितः, अथवा
समेव प्रवृत्तिनिमित्ततया गृहन् भवस्थितं संसारिणं जीवं सौत्रान्तिकवैनाषिको बाह्यार्थमाश्रितावृजसूत्रशब्दा, यथाक्रम
प्रबक्ति-जीवशब्देन व्यपदिशति, अजीवमजीवपदार्थ तु वैभाषिकेण नित्याऽनित्यशब्दवाच्यपुमलस्याऽभ्युपगमात् ।
सिद्धं वा पुलाऽऽविद्रव्यं बेच्छत्यसो ४६ ॥ शब्दनये तु प्रवेशः, तस्य चार्थप्रतिकेपेण विज्ञानमात्रसमनिरुढो नो अजीवश्च नो जीवो, न जीवाऽजीवयोः पृथक् । योगाचारः, एकानेकधर्मविकलतया विज्ञानमात्रस्याप्यभाव
देशप्रदेशौ नास्येष्ठा-विति विस्तृतमाकरे ।। १७ ॥ इत्येवंभूतो व्यवस्थितः, एवंनूतो माध्यमिक इति व्यवस्थितमेतत् । तस्य तु शब्दाऽऽदयः शाखाः सदमभेदा इति न
(नो इति) नो जीवो नो अजीवश्व पतन्नये जीवाजीवयोर्वक्त. योगद्वारवत्, शेषास्तु योगद्वारेष्वपि द्रव्यार्थिकपर्यायाथिको
व्ययोः सतोः पृथगन पार्थक्यं नापद्यते, यतोऽस्य नयस्य . मूलव्याकरणिनाविति दर्शयत्यनयोापकताम् । सम्म० १
शप्रदेशौ नेष्टविति, नोशब्दः सर्चनिषेधार्थ एव घटते, इत्येतदाकाण्ड । अनु । विशे।
करेउनुयोगद्वाराऽऽदौ विस्तृतम् ॥ ४७ ॥ (१६) नैगमाऽऽदयो मूबनया:
इथं स्वसमयसिद्धामेवभूतनयार्थप्रक्रियामुपपाद्य,तया दि.
गम्बरोक्तप्रक्रियां दूषयतिसे किं तं णए । सत्त मूक्षणया पमत्ता। तं जहाणेगमे,
सिको निश्चयतो जीवः, इत्युक्तं यदिगम्बरैः। संगहे, ववहारे, उज्जुमुए, सद्दे, समभिरूढे, एवंए।।अनु।
निराकृतं तदेतेन, यन्नयेऽन्त्येऽन्यथा प्रथा ॥ ४ ॥ नैगमः संग्रहश्चैत्र, व्यवहारर्जुसूत्रको।
(सिद्ध इति) पतेन पूर्वोक्तेन सिद्धो निश्चयतो जीव इति शब्दः समनिरूदाऽऽख्यः, एवंचूतश्च सप्स ते ॥१॥। यदिगम्बरैरुक्तम-"तिकानेच पाणा, इंदियवसमान आणपा
४७०
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(155) अभिधानराजेन्डः।
गाय
णा य । ववहारा सो जीवो, गिच्चयदो चेदणा जस्स ॥१॥" | हात परोकं निश्चयतः सिक एव जीव ति दिगम्बरोक्तं नच इत्यादिना, तभिराकृतम् । यद् यस्मादन्त्ये एवंभूतमयेऽन्यथा प्र- नैव युक्तिमत् । यद् यस्मात्मासकोऽनादिधातुपाठाऽऽदिप्रतीयथाऽप्रसिद्धो जीव इत्येव प्रसिकिः, शनिश्चयश्च स पवेति मानो योऽर्थस्तदनुरोधेन नयान्तरस्य मार्गणा विचारणा कथं निश्चयतः सिद्धो जीव इति वक्तुं शक्यमिति ? ॥४॥ भवति । तथा च याशधात्वर्थमुपलकणीकृत्येतरनयार्यप्रतिनम्वेवंनूतः पर्यायाधिवेव शुरुनिश्चयस्तेनाऽस्मयुक्तावनु
सन्धानं तारशधात्वर्थप्रकारकजिज्ञासयैवंभूताऽभिधानस्य सांपपत्तावपि व्यार्थिकप्रभेदन सर्वसंग्रहनयेन शुक
प्रदायिकत्वान्न तत्र भावनिकेपाऽऽश्रयणं युक्तमित्यर्थः । अन्यथा निश्चयेन तदुपपादयिष्याम इत्याकाङ्कायामाह
तत्राऽपि निकेपान्तराऽऽश्रयणेऽनवस्थानात्प्रकृतमात्रापर्यवसानापात्मत्वमेव जीवत्व-मित्ययं सर्वसंग्रहः ।
दन्ततो ज्ञानाद्वैते शून्यतायां वा पर्यवसानात् । किश्चैतागुपरित
नैवंभूतम्य प्राक्तनैवभूताभिधानात पूर्वमेवाभिधाम युक्तम,अन्य जीवत्वप्रतितूः सिकेः, साधारण्यं निरस्य न ॥४६॥
थाऽप्राधकालवप्रसङ्गात् । तस्माद् व्यवहाराऽऽद्यनिमत(प्रात्मत्वमिति) श्रात्मत्वमेव जीवत्वं जीवपदप्रवृत्तिनिमित्तं,
व्युत्पश्यनुरोधेनौदायिकभावनाहकत्वमेवास्य सूरिभिरुक्तं युक्तपारिणामिकभावस्य कालत्रयानुगतत्वेन सस्यत्वात्, मौद- मिति स्मर्तव्यम् । न चेन्कियरूपप्राणानां वयोपशमिकत्वात्कथयिकनावस्य चौपाधिकत्वेन कालत्रयानुगतत्वेन च तुच्छत्वा- मेवंभूतस्यौदधिकभावमात्रग्राहकत्वमित्यप्याशङ्कनीयम, प्रादित्यर्थः । सर्वसंग्रहन यस्तु सिद्धिसाधारण्यं भवस्थतास्यं नि
धान्येनायुःकर्मोदयल कणस्यैच जीवनार्थस्य ग्रहणात् । नरस्य जीवत्वसाधने न प्रतिभूः, सर्वत्र तुल्यजीवत्वादेवैको व्य
पहतेन्कियेऽप्यायुरुदयेनैव जीवननिश्चयादिति दिक ॥५१॥ वहारतो जीवोऽन्यश्च निश्चय इति विभागकरणमसमीक्किता
शङ्काशेषमुपन्यस्य परिहरतिमिधानमेवाऽऽपोत, सर्वसंग्रह एव हि कर्मोपाधिनिरपेक्कशुद्ध
शैलेश्यन्त्यक्तणे धर्मो, यथा सिधिस्तथाऽसुमान् । द्रव्यार्थिकः,तेन च संसारि चैतन्यमपि निरुपरागं शुकमिति परिणेष्यत एव । तदुक्तं व्यसंग्रहे-" मम्गणगुणगणेहि अ,
वाच्य नेत्यपि यत्तत्र, फले चिन्तेह धातुगा ॥५शा चउ दस य हवंति तह असुरुणया। विप्लेया संसारी, स. (शैलेश्यन्त्यक्तण इति)शैलेश्या अयोगिगुणस्थानस्यान्त्यकणे ब्ये सुद्धा उ सुद्धणया ॥१॥" इति । न च संसारिचैतन्य- च चरमकणे यथा निश्चयतो धर्मस्तदाक्तनकाल जाधी तु म्य संग्रह नयेन शक्त्या शुद्धचैतन्यं, निश्चयेऽपि व्यक्त्या शुरू. व्यवहारत एव । तदुक्तं धर्मसंग्रहरायां हरिजकाचार्य:-"सो चैतन्यम्य सिद्ध एव निश्चयान्न साधारल्यमिति शङ्कनीयम, उभयक्त्रयक, सेलेसीचरमसमयभावी जो। सेसो पुण णिसंग्रहस्य शक्तिग्राहकत्वेन शक्तिवाहकताया व्यवहार एव च्यो , तस्सेद पसाहगो जणिओ"॥१॥इति । तथाऽनुमान विश्रान्तेनिश्चयतो हि चेतनाशायी सिद्ध एव जीव इत्यस्य जीवोsपि निश्चयतः सिर पव भविष्यतीत्यपिन वाच्यम् । यतव्याघातात् ॥ ४ ॥
स्तत्र "सो उभयक्वय" इत्यादिगाथायां धारयति सिद्धिग. नन्वेवं निश्चयतः सिद्धस्याऽजीवत्वे भवद्भिरिप्यमाणे भव
तावात्मानमिति धर्मः, इति फले फलरूपे धात्वर्ये चिन्ता।साब तामेव प्रन्थे संसारिसिद्धसाधारणजीवपदार्थाभिधानं कध
कुर्वदूपत्वेन कारणत्वं वदत एवंनूतनयस्य मते शैलेश्यन्त्यकण मित्याशङ्कायामाह
पव धर्मपदार्थसिद्धिसाक्विणि तदनन्तरं सिकिसाधारणरूपसायजीवत्वं क्वचिद् व्य-नावमाणान्वयात स्मृतम् । फल्यव्यवधानात्,यह तु धातुगा धात्वर्थावच्छिन्नस्वरूपविषयि. विचित्रनैगमाऽऽकूतात् , तद् डेयं न तु निश्चयात् ॥५०॥
णी चिन्तामा चकेन सहाव्यवधानं गवेषयत् । स्वरूपं तु प्र( यदिति) यजीवत्वं क्वचिद् ग्रन्थे सन्यप्राणानां भावप्रा
सिश्चनुरोधेन संसारिणयेव पर्यवसाययेन तु सिक इति णानां चान्वयादेवीकरणात स्मृतं, संसारिसिद्धसाधारएयमि.
महान् विशेषः । स्यादेतत् । धर्मपदेऽपि धात्वों धारणसाति विशेषः। तहिचित्रो विविधावस्थो यो नैगमस्तस्याउकु
मान्यमेव, तश्च यतो विशेषतात्पर्यवशासिकिसाधारणरूपविशेषे तादभिप्रायाद् ज्ञेयं, न तु निश्चयादेवभूतनयात, तथा चैव
पर्यवस्यति,तथा जीवपदार्थोऽपि विशेषे पर्यवस्थति, सिद्ध एव नूतन नव सिद्धमजीवं वयं प्रतिजानीमहे, न तु नयान्तरा
दत्तपदो भविष्यति । भवम् । 'जीव' प्राणधारणे इत्यत्र प्राणपदनिमतेन जीवत्वेऽपि विप्रतिपद्यामहे, इति शुफागुन नैगम
समभिव्याहृतसाधारणस्य नूरिप्रयोगवशादौदयिकप्राणधानयेन साधारणजीवत्वाभ्युपगमेऽपि न वतिः। श्यांस्तु विशेषः
रण एव पर्यवसानात् । अत एव गोपदस्य नानाऽथत्वेऽपि ततो प्रसिझनैगम श्रादायकनावोपलक्वितमात्मत्वाऽऽख्यं पारिणा
रिप्रयोगवशात्मास्नाऽऽदिमत पवोपस्थितः,अश्वाऽऽदेस्तु पदामिक नावमेव जीवपदप्रवृत्तिनिमित्तमन्युपैनि, तधिशेषश्चक
स्तरसमनिव्याहाराऽदिनेति तान्त्रिकाः। तदेवमेवभूतनयाभिचिदपचारोपजीवी जयनावप्राणान्यतरवत्वेनानगतमीदाय.
प्रायेण सिद्धो न जीव इति व्यवस्थापितम । यदि पुनः प्रस्थकतायिकभावयमिति ने सिद्धान्तार्णवे नयविकल्पकल्लो
कन्यायाद्विशुद्धतरनैगमभेदमाश्रित्य प्रागुक्तस्वग्रन्थगाथाव्या. लवचिध्यतासंप्तवव्यसनधिकोनाऽऽवहम् ॥५०॥
ख्यायते परैः तदा न किञ्चिदस्माकं पुष्यतीति किमलपायसि
दृढतरकोदेन ?। ननु जीव 'प्राण'धारणे इत्यत्र भावप्राणधारणत्यमेव धात्व. थेम्य विद्याक्ति तत्वाद, निश्चयतः सिद्धस्य जीवत्व समर्थथि
"पेन्डी नतिः प्रणयिपुण्यमिशङ्करायेप्याम इत्याकाड़ायामाह
यत्पाद पद्मकिरणैः कलयत्युदीनम् ।
स्नात्राम्जसा दलितयादवनुष्कएं. धात्वर्थे जावनिया-त्परोक्तं न च युक्तिमत् ।
राखेश्वरप्रनुमिमाणीकरोमि। " प्रसिकार्योपगेधेन, गन्न यान्तरमार्गणा " || ('जीव'
ठेय विषय: हाजिकत्वेनोक्तोऽपि (धावध इनि) जीवनचनिषादबस के लमजयपरत्तोमा )
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(१७७९) अन्निधानराजेन्द्रः।
गय
गय
(१७) सिहसेनीयाः पुनः षमेव नयानच्युपगतवन्तः, मै- सोपतो नैगम उच्यते । अतो यद्यप्यत्र प्रस्थककारणभूतकाष्ठगमस्य संग्रहन्यवहारयोरम्तावविवक्षणात् । तथाहि-बदा। निमित्तमेव गमनं,न तु प्रस्थकनिमिसम, तथाऽप्यनेकप्रकारव. नैगमः सामान्यप्रतिपत्तिपरस्तदा संग्रहे ऽन्तर्नयति, सामान्या- स्त्वन्युपगमपरत्वात्कारणे कार्योपचार तथा व्यवहारदर्शनाम्युपगमपरत्वान् । विशेषाभ्युपगमनिष्ठस्तु व्यवहारे । देवमप्यनिधतेऽसौ-प्रस्थकस्य गच्यामि इति । तं च कथित
अाह च सिद्धसेनीयमतमुपसंजिघृतुर्माध्यकृत- छिन्दन्तं वृकं पश्येद, दृष्ट्वा च वदेत् किं प्रवाँश्विनत्ति । ततः जो सामनग्गाही, स नेगमो संगहं गतो अहवा।
प्राक्तनात्किञ्चिद्विशुद्धनैगमनयमतानुसारी सनसौ भणति-प्र.
स्थकं दिनदमि । अत्रापि कारणे कार्योपचारात तथा व्यवइअरो बवहारमितो, जो तेण समाणनिदेसो ।। ३ ।।
हतिदर्शनादेव काष्ठेऽपि विद्यमाने प्रस्थक छिनमीत्युत्तरं, केवलं आ० म० १ ० १ खएम। विशे०
काष्ठस्य प्रस्थकं प्रति कारणताभावस्याऽत्र किञ्चिदास(नेगमाऽऽदीनां नयानां पृथक् पृथछ मतं स्वस्वस्थाने अष्टव्यम) नत्वाद्विशुद्धत्वं प्राकपुनरतिव्यवहितत्वात् मलीमसत्वम, एवं (१८) शुख्यशुद्धी नयानां, प्रस्थकाऽऽदिदृष्टान्तश्च
पूर्वपूर्वापेकया यथोत्तरस्य विशुद्धता नाबनीया, नवरंसे किं तं पायप्पमाणे?। णयप्पमाणे तिविहे पामते । तं
तणन्तं सनूकुर्वन्तम्, उत्किरन्तं वेधनकैन मध्या द्विकिरम्तं
लेखन्या मृष्टं कुर्वाणम् । एवमेतेन प्रकारेण तावन्नेयं यावद्विजहा-पत्थगदिहतेणं, वसहिदिटुंतेणं, पएसदिट्टतेणं ।।
शुफ्तरनगमस्य (नामाउहियो त्ति ) आकुट्टितनामा प्रस्थ. (से किं तं णयप्पमाणे इत्यादि) अनन्तधर्मणो वस्तुन पकां. कोऽयमित्येव नामाइकितो निष्पन्नः प्रस्थक इति । एवमेव शेन नयन नया, स एव प्रमाणं नयप्रमाणं त्रिविधं प्रज्ञप्तमिति । व्यवहारस्थाऽपीति लोकव्यवहारप्राधान्येन यो व्यवहारनयः, यद्यपि नैगमसंग्रहाऽऽदिभेदतो बहवो नयाः, तथाऽपि प्रस्थका- लोके च पूर्योक्तावस्थासु सर्वत्र प्रस्थकव्यवहारो दृश्यते, अतो उदिदृष्टान्तत्रयेण सर्वेषामिह निरूपयितुमित्वात् त्रैविध्यमु- व्यवहारनयोऽप्येवमेव प्रतिपद्यते इति भावः। (संगहस्सेत्याच्यते । तथा चाऽऽह । तद्यथा-प्रस्थकदृष्टान्तेनेत्यादि प्रस्थका- दि) सामान्यरूपतया सर्व वस्तु संगृह्णाति कोडीकरोतीति ऽऽदिदृष्टान्त त्रयेण हेतुनूतेन विविध नयप्रमाणं नवतीत्यर्थः । संग्रहः, तस्य मतेन चिताऽऽदिविशेषणविशिष्ट एव प्रस्थो
भवति, नान्यः । तत्र चितो धान्यन व्याप्तः । स च देशतोऽपि (१६) प्रस्थकदृष्टान्तं दर्शयति
जवत्यत आह-मितः परितः। अनेनैव प्रकारेण मेयं समारूढं से किं तं पत्थगदिटुंतणं? । पत्थमदिटुंतेणं से जहानामए
यत्र स आहिताऽऽदेराकृतिगणत्वाद् मेयसमारूढः । अयमत्र केड पुरिसे परसुं गहाय अमवीसंमुहत्तो गच्छेज्जा,तं पासि- भावार्थ:-प्राक्तननयद्वयस्याऽविशुरूत्वात्प्रस्थककारणमपि प्रत्ता कोई वएजा-कहिं नवं ! गच्छसि । अविमुछो ने
स्थक उक्तो निष्पन्नः प्रस्थकोऽपि स्वकार्याकरणकालेऽपि प्रस्थ.
क इष्टः, अस्य तु ततो विशुरुत्वाद्धान्यमान सकणं स्वार्थ कुर्वगमो भणइ-पत्थयस्स गच्छामि । तं च कोई चिंदमाणं पा
नेव प्रस्थकः, तस्य तदर्थत्वात् । तदनावे च प्रस्थकव्यपदेशेऽतिसित्ता वएज्जा-किं नवं! छिदमि । विमुद्धो नेगमोजणइ
प्रसङ्गादिति यथोत. एव प्रस्थकः । सोऽपि प्रस्थकसामान्याटु पत्थयं जिंदामि । तं च कोइ तच्छमाणं पासिना वए जा-किं व्यतिरेका व्यतिरेकप्रस्थकत्वप्रसङ्गात्सर्व एक एव प्रस्थकजवंतच्छसि।विमुखतराओणेगमोजण-पत्थयं तच्छा
इति प्रस्तुतनयो मन्यते,सामान्यवादित्वादिति । ( उज्जुसुयस्से
त्यादि) ऋजुसूत्रः पूर्वोक्तशब्दार्थः,तस्य निष्पन्नस्वरूपोऽर्थकिमि। तं च को उकीरमाणं पासित्ता वएजा-किं नवं! नकी
यादेतुः प्रस्थकोऽपि प्रस्थकः, तत्परिच्छिन्नं धान्याऽऽदिकमपि रसि। विस्त रात्रोणेगमो भाइ-पत्ययं उत्कीरामि । तं च
वस्तु प्रस्थकः, उभयत्र प्रस्थकोऽयमिति व्यवहारदर्शनात्तधा कोइ तिहमाणं पासित्ता वएजा-किं नवं ! त्रिहसि विसुछ- प्रतीतेः । अपरं चाऽसौ पूर्वस्माद्विशुद्धत्वाद्वर्तमाने एव मानमेये तराअोणेगमो भण-पत्ययं लिहामि । एवं विमुचतरोग
प्रस्थकत्वेन प्रतिपद्यते, नाऽतीताऽनागतकाले, तयोविनष्टा
नुत्पन्नत्वेनासरवादिति । (तिराहं सदनयाण इत्यादि ) शब्दमस्स नामानहिओ पत्थओ। एवामेव ववहारस्स वि संग
प्रधाना नयाः शब्दनयाः शब्दसमभिरूद्वैवंभूताः, शब्देऽन्यथा हस्स मिउमेजसपारूढो पत्थो। उज्जुमुयस्स पत्यो
स्थितेऽर्थमन्यथा नेच्छन्त्यमी, किंतु यथैवशब्दो व्यवस्थित. वि पत्थो , मेज पि पत्थो , तिएई सदनयाएं पत्थयस्स स्तथैव शब्देनाथ गमयन्तीत्यतः शब्दनया उच्यन्ते । श्राद्याअत्याहिगारं जाए ओ, जस्स वा बसेणं पत्थओ निप्फजइ, स्तु यथा कथञ्चिच्छब्दाः प्रवर्तन्तामर्था एवं प्रधानमित्यभ्युसे तं पत्थयदिढतेएं।
परमपरत्वादर्थनयाः प्रकीर्त्यन्ते । अत एषां त्रयाणां शब्दन
यानां प्रस्थकार्थाधिकारज्ञः प्रस्थकस्वरूपपरिज्ञानोपयुक्तः प्रतद् यथा नाम-कश्चित्पुरुषः परशुं कुठारं गृहीत्वा, प्र- स्थकः। भावप्रधानात्तु ते नया इत्यतो भावप्रस्थकमेवेच्वन्ति, टवीसंमुखो गच्छेदित्यादि । इदमुक्तं भवति-प्रस्थको मागध. भावप्रस्थकोपयोगोऽतः स प्रस्थक,तपयोगवानपि च, ततो. देशप्रतिको धान्यमानविशेषः । तकेतुनूतकाष्ठ कर्तनाय कु- ज्यतिरेकात्प्रस्थकः। यो हि यत्रोपयुक्तः सोऽमीषां मते स चारव्यग्रहस्त तकाऽऽदिपुरुषमटवीं गच्छन्त दृष्पा कश्चिदन्यो एव भवति, उपयोगलक्षणो जीवः, उपयोगश्चत्प्रस्थका अदिकिवदत्-क भवान् गच्छति ?। तत्रावद्धनैगमो जाति, षयतया परिणतः किमन्यजीवस्य रूपान्तरमस्ति? यत्र व्यपदेअविशुद्धनैगमनयमतानुसारी सन्नसो प्रत्युत्तरवतीयः । शान्तरं स्यादिति जावः । ( जस्स वा बसेणेत्यादि ) यस्य किमित्याह-प्रस्थकस्य गच्छामि। टमक्क भवति-नेको गमो! व प्रस्थककर्तृगतस्योपयोगस्य शेन प्रस्थको निष्पद्यते, तबस्तपरि दो यस्यापि तु बहवः, समिरुकवशाककार- प्रोपर वर्तमान का प्रस्थान हि प्रस्थग्नुपयुधाः
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(१९८०) ण्य अन्निधानराजेन्छः।
णय प्रस्थ निर्तयितुं कर्ता समर्थः, ततस्तदुपयोगानन्यत्वात्स (तमिति) भतिशुद्धौ त्वेतौ नैगमन्यवहारनौ तं प्रस्थकएव प्रस्थकः । श्मांच तेऽत्र युक्तिमाभिदधति-सर्व वस्तु स्वा- मत्कीर्णनामानं प्रस्थकपर्यायवन्तं प्रस्थकमाइतुः, अनुत्कीणना. स्मन्येव वर्तते, न स्वात्मन्यतिरिक्त प्राधारे वक्ष्यमाणयुक्त्या, म्नोऽन्यादविशेषादिति भावः । संग्रहनयस्तु चितमासादितं पतन्मतेनाऽन्यस्याऽन्यत्र वृश्ययोगात्,प्रस्थकश्च निश्चयात्मकं प्रस्थकपर्याय, मितमाकुट्टितनामानं, मेयं धान्यविशषम, आरुढ मानमुच्यते, निश्चयश्च ज्ञानम, तत्कथं जडाऽऽत्मनि काष्ठभाजने प्रस्थकमाह, मेयारूढपदेन तवनारुढस्यान्यन्याविशिमस्यासंवृत्तिमनुनविष्यति,चेतनाचेतनयोः सामानाधिकरण्यानावातू, प्रहाद् नैगमापदर्शितार्थसंकोचकत्वेन स्वनाम्नोऽन्वर्थत्वसिः । तस्मात्प्रस्थकोपयुक्त एवं प्रस्थकः । “से तं" इत्यादि निगम- अयं हि विशुधत्वात् कारणे कार्योपचारं कार्यकारणकाले प्र. नम् । अनु।
स्थकं च माडीकुरुते । न च तदा तस्य घटाऽऽद्यात्मकत्वप्र. प्रस्थकदृष्टान्तं विवेचयति
सङ्गः,तदर्थक्रियां विना तवायोगात् । घटाऽऽदिशब्दार्थक्रिया प्रस्थकार्थ व जामीति, बने गच्छन् ब्रवीति यत् ।। यथा कथञ्चित्तत्रास्त्येवेति चेत्, साधारणतदर्थक्रियाकारि
त्वस्यैव तदात्मकत्वप्रयोजकत्वात्, तथापि प्रस्थकक्रियाविरहे आदिमो ह्यपचारोऽसौ, नैगमव्यवहारयोः ।। ६ ॥
नाऽयं प्रस्थको घटाऽऽद्यनात्मकत्वाच्च नाप्रस्थक इत्यनुभयरूपः (प्रस्थकार्थमित्यादि) प्रस्थको मगधदेशप्रतिको धान्यमान
स्यान्न स्यात.प्रतियोगिकोटी स्वस्थाऽपिप्रवेशेन यावद्द्घटाऽऽहेतुईव्यविशेषः, तदर्थ बजामीति बने गच्छन् यद् वधीति क
धनात्मकत्वासिके । अर्थक्रियाभावाभावाच्यां द्रव्यभेदान्युपचिव,असा मैगमव्यवहारयोर्हि निश्चितमादिम उपचारः ॥६२॥
गमे ऋजुसूत्रमतानुप्रवेश इति चेत् । न। नैगमनयोपगतार्थासकोनन्वत्र प्रस्थकार्थ बने गच्छतः प्रस्थकेच्छाया मुख्या.
चनाय कादाचित्कतयोपगमेऽपि सर्वत्र तथाऽभ्युपगमाभावेन तदर्थस्याबाधितत्वात्कथं प्रस्थकपदस्योपचार इति ?
ननुप्रवेशात,थं चार्थक्रियाकारितदकारिप्रस्थकव्यक्तिभेदादअत्र आह
यक्रियाजनकप्रस्थकव्यक्तौ प्रस्थकत्वसामान्यमपि नास्तीत्यभ्यु. अत्र प्रस्थकशब्देन, क्रियाऽऽविष्टवनकधीः।। पगमेऽपि न कश्चिद्दोषः । वस्तुतो व्यावृत्तिविशषाऽऽद्यतिप्रस्थ केऽहं ब्रजामीति, ह्यपचारोऽपि च स्फुटः॥ ६३ ।।
रित्तन नैयायिकाऽऽदिकल्पितसामान्ये न क्वचिदपि निर्वाहः, त. ( अत्रेति ) अत्राधिकृतप्रयोगे केत्यधिकरणाकाया, प्रस्थ
न्मते घटत्वाऽऽदिसामान्यस्याऽपि समर्थयितुमशक्यत्वात्। मृत्
स्वर्णरजतपाषाणाऽऽदिघटेषु मृत्वस्वर्णत्वाऽऽदिना सार्येण त. कार्थमिति चतुर्थी, प्रकृतार्येनैव निवृत्तेः प्रस्थकदझयोग्यवृ
दसिके,अस्तु मृत्त्वे वर्णत्वाऽऽदिव्याप्यता,नै घरत्वम्।कुतात्र. वयाप्तिरूपक्रियाऽऽविष्टवनस्यैकाऽहितीया धीरिति, तत्रोपचार
स्वर्णकारजन्यताऽऽद्यवच्छेदकतया तन्नानात्वस्याऽऽवश्यकत्वात्। आवश्यक इत्यर्थः । ननु तथाऽपि सप्तम्यन्तप्रश् सप्तम्यन्तमेवोत्तरमुचितमित्यत आह-क भवान् गच्छतीति प्रोप्र
नहि स्वर्णघटाऽऽदौ चक्राऽऽदिकं मृद्घटाऽऽदौ च लोहवत्तुनाऽऽ.
दिकं हेतुः,अननुगतधीस्तु कथञ्चित् सौसादृश्यात,घटपदं तु ना. स्थकेऽहं ब्रजामीति सप्तम्यन्तप्रस्थकपदस्योपचारोऽपि बने
नार्थकमित्यभ्युपगमे कथचिदित्याद्यनिर्वचनेनवाशक्तिराविधिस्फुट पब दृश्यत इत्यर्थः । तथा च वनगमने प्रस्थकशब्देन बनानिधानं नैगमव्यवहारयोः प्रथम उपचार इति
यते । अननुगतानां जातीनामिव व्यक्तीनामपि सौसादृश्येनेवासिरूम ॥ ६३॥
नुगमसंभवेन जात्युच्छेदाऽऽपत्तिः,घटपदस्य नानार्थत्वे स्पष्ट एव
लौकिकव्यवहारवाधश्च,घटत्वाऽऽदिकमेकत्ववृस्यैव मृत्वाऽऽदि. छिनधि प्रस्थकं तहणो-म्युत्किराम्युद्विखामि च।
कमेव वा, तथा कुम्नकारस्वर्णकाराऽऽदेर्षिजातीयकृतिमरखेन करोमि चेति तदनू-पचाराः शुचतानृतः॥ ६४।। चक्राऽऽदिवर्तुलादेश्व कथञ्चिद्विजातीयव्यापारकत्वेन हेतुत्वमि(ग्निप्रीति ) किं जवान् ग्नित्तीति प्रश्ने प्रस्थकं निमग्री- त्यादिनबीनकल्पना तु(१)दोषादेकत्वाग्रहेऽपिघटत्याऽऽदिमहादे. युसरे प्रस्थकपदस्य च्छेदकयोम्ये काष्ठे उपचारः, स पूर्वस्मात् | कत्वस्यैकत्वात्प्रसिद्धरूपेण कार्यकारण जावोच्छेदे व्यवहारविलोशुकः। एवं क्रमेण कि जवान तहणोति, उस्किरति, उलिखति, पाश्चानुपपत्तेरिति नविशेषेण तत्र तत्र व्यावृत्तिविशेषरूपकरोतीति प्रमेषु, प्रस्थकं तक्ष्णोमि, उस्किरामि, उल्लिखामि, सामान्यान्युपगमं विना न निर्वाह इति प्रकृते कार्याकरणकरोमीयुत्तरेषु प्रस्थकपदस्य तदणाऽऽदिक्रियायोग्यकाष्ठेषुपचा- काले व्यावृत्तिविशेषरूपप्रस्थकत्वसामान्यानावाभ्युपगमेनकराद यथोत्तरं जयन्तः क्रमेण शुद्धताभृतो भवन्ति । ननु सर्वत्र तिरिति किमति प्रपश्चितेन ? ॥६५॥ प्रस्थकपदस्य प्रस्थकयोग्य काष्ठ एक एवोपचारः, तरिक्रयाविशेषितार्थधीश्च तत्तक्रियावाचकपदसमनिव्याहारादेव अविष्य
प्रस्थकचर्जुसूत्रस्य, मानं मेयमिति द्वयम् । तीति कथमेतावन्त उपचारा यथाक्रमशुका उच्यन्त इति चेत् ।
न कर्तृगताजावा-छब्दानां सोऽतिरिच्यते ॥६६॥ सत्यमा पुग्धमायुर्दभ्यायुघुतमायुरित्यादौ दुग्धाऽऽदिकारणे आ
(प्रस्थकश्चेति) ऋजुसूत्रस्य मानं मेयं चोट द्वयमेव प्रस्थकयुःकार्योपचारस्यातिशयवशेषेण तारतम्यवत् प्रकृतेऽपिदना
स्वरूप, तन्मेयधान्ये च समवहित एव प्रस्थकव्यवहारादेकतअदिक्रियाव्यापाराऽऽवेशेन तज्जन्यावयवसंयोगाऽऽदिविशषज
रविनाशभावे तत्परिच्छेदासंभवात् । किञ्च-मेयाऽऽरूढः प्रस्थ. न्यतया वा विलकणेषु काष्ठकव्यषु काष्ठप्रस्थकपर्यायात्पत्ति
का प्रस्थकत्वेन व्यपदेश्य इति संग्रहनयमते मेयारूढः प्रस्थकः, व्यवधानाऽन्यवधानाज्यां प्रस्थकपदोपचारतारतम्यस्यानुजब
प्रस्थका रूढं मेय वातयेत्यत्र विनिगमकाभावादुनयत्रैव प्रस्थसिम्त्वात ॥ ६४॥
कपदशक्तेासज्यवृत्तित्वं युक्तम् । कथं तर्हि प्रस्थकेन धान्य तमेतावतिशुदौ तू-त्कीर्णनामानमाइतुः।
मीयत इति प्रयोग पकोत्तरोभयवाचकपदेनैकस्यानुपस्थाप
नादिति चेत् । न । एतन्नयेन कश्चित्प्रस्थकपदशक्यतावच्छेदचितं मितं तथा मेया-रुद्धमेवाऽऽह संग्रहः ।। ६५॥ कस्य व्यासज्यवृत्तित्वेन विवकान्जेदात करणरूपानुप्रवेशस्या
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गाय
ऽपि संभवान्न तदनुपपत्तिरिति षष्टव्यम् । शब्दानां शब्दसमभिभूतानां त्रयाणां नयानां मते स प्रथक कर्तृगताद्भावान्नातिरिच्यते न भिद्यते इश्व कर्ता च शकतीरी, इकत्र
तो इकर्तृगतः तस्मादिति समासः । प्रस्थकाद् इगतात् प्रस्थककतृगनाद्वा प्रस्थकोपयोगादतिरिक्तं प्रस्थकं ते न सहन्ते निश्चयज्ञानात्मक प्रस्थकस्य जडवृत्तित्वायोगाद् बाह्यप्रस्थकस्याप्यनुपलम्भकालेऽसत्वेनोपयोगानतिरेका
नद्वैताय पर्यवसानाद्वा । न च ज्ञानात्मकत्वोजयनय विषयसमावेशविरोधात्प्रत्येकमनयत्याशी तादात्म्येगोभय
(502) अभिधानराजेन्ऊ |
पासमावेशेऽपि विषादापायांव षयत्वमपि कथञ्चित्तादात्म्यमिति तु नयान्तराऽऽकृतम्, यदाश्रयेण 'अथनिधनप्रत्ययास्तुस्वनामधेयाः' इति प्राचीनगयत इति दिग् ॥ ६६ ॥ विवोचितः प्रस्थकदृष्टान्तः । नयो० । विशे० । (२०) वसतिरन्तः
से किं तं वसहिदिट्टंतेणं १ । वसहिदिट्ठतेणं से जहानामए के पुरिसे किंचि पुरवा कई जर्व बससि । सु द्धो गमो भइ-लोगे वसामि । लोगे तिविहे पत्ते । तं जहा झोप, महोबोए तिरिअलोए तेतु सच्चे ज ससि । विसुको गमो जणइ - तिरिअलोए वसामि । तिरिअलोष जंबुद्दीवाऽऽद्य सर्वभूरमणपावसाथा - संखिज्जा दीवसमुद्दा पत्ता, तेसु सब्बे जवं वससि ? | विद्युतराओ गमो जाइ जंबुवे वसामि । जंबुदीवे दस खेत्ता पत्ता । तं जहा-नरहे, एरवए, हमेवए, एरणवए, हरिवस्से, रम्मगवस्से, देवकुरू, नत्तरकुरू, पुब्वविदेढे, वरविदेहे । तेसु सच्चे भवं वससि १ । विसुद्धवरात्र गमो भए नरहे वासे वसामि जरहे वासे
विपते । तं जहा-दादिजरहे, उत्तरजरहे अ । ते सब्बे जवं वससि ? | विसुतराम्रो ऐगमो जणइ-दाहिरहे बाप | दाढिकुमरहे अगाई गामागरएगरखे कव्त्ररूपडंबदोमुह पहला ममसंत्राहसमिवेसाई, तेभवससि ? सुतराओ रोगमो - पालिपुत्ते वसामि | पालिपुत्ते अगाई गिहाई, तेसु सम्मेजयं वससि । विसुको गमो इ-गव्यरे ? वसामि । एवं विसुद्दस्त ऐगमस्स वसमाणो वसई । एवमेववहार सिंगहस्स संचारसमारूडो बस । ज्जुसुस्त आगासपएसेसु ओगादो तेसु बसई तिराह सदनार्थ आयभावे बस से सहिदिणं ।
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(से किं तं सत्यादि ) वसतिर्निवासः तदृष्टान्तेन न यविचार उच्यते । तद्यथानामकः कश्चित्पुरुषः पाटलिपुत्राssदोसतं वदे नया बसाते है। विशुद्ध गैंगमो भणति प्रविवेगमनयमतानुसारी सी प्रत्यु प्रयच्छति लोके वसामि निवास क्षेत्रस्यापि चतुर्द शरयात्मकोका दनर्थान्तरत्वात इत्यमा च व्यवहारदर्श विशुद्ध नैगमस्त्वतिव्याप्तिपरत्वादिदमसङ्गतं मन्यते । ततः ४७१
गय
सामीति सहिष्योत्तरं ददाति विशुरू स्व दम् । अथातिविशूरूतर स्त्विदमप्यतिव्याप्तिनिष्ठं मन्यते । ततो जम्बूद्वीपे वसामीति संमितरमाह । एवं भारतवर्षदकिणाईजरतपाटत्रिपुत्रदेवदत्तगृह गर्भगृहेष्वपि भावनीयम् । ( एवं विसुरूस्स रोगमस्स वसमाणो वसत्ति ) पवमुत्तरोतर नेपा विशुरगमस्य नान्यथा । इदमुकं भवति-पत्र गृदा सर्वदा निवासानाउसी विवचितत्र तिष्ठशेष एवं तत्र यतीति उपादेय ते । यदि पुनः कारणवसतोऽन्यत्र रथ्यादौ वर्तते तदा तत्र विद्यते गृहातिन
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भावः । ( एवमेवेत्यादि ) लोकव्यवहारनिष्ठो दि व्यवहारनयः, लोके च नैगमोक्तप्रकाराः सर्वेऽपि दृश्यन्ते इति ज्ञावः । अथ चरमनैगमोक्तप्रकारो लोके नेप्यते, कारमतो ग्रामाऽऽदो वर्तमानेऽपि देवद पटलिपुत्रे वसतीति व्यपदेशदर्श नादिति चेत् । नैतदेवम् । प्रोषिते देवदत्ते स इद्द वसति न वेति केनचित् पृषो प्रोषितोऽसीत्यस्याऽपि लेोकव्ययहारस्य दर्शनादिति । ( संगहस्सेत्यादि ) प्राक्तनाविशुद्धत्वारसंग्रहनयस्त गृहाऽऽदौ तिष्ठन्नपि संस्तार काऽऽरूढ एव शयनक्रियावान् सतीत्युकं भवति संस्तरेऽवस्थानाद म्यत्र निवासार्थ एवं घटते चलनादिक्रियावश्वात्मा गांऽऽदि प्रवृत्तवत् । संस्तार के च वसतो गृहाऽऽदौ वसतीति व्यपदेशायोग एव, अतिप्रसङ्गात् । तस्मात् काऽसौ वसतीति निवासजिज्ञासा संस्तार के शय्यामात्रस्वरूपे वसती वास्य मतेनोच्यते, नान्यदिति भावः स च नानादेशाऽऽदिगतोऽप्येक एव, संग्रहस्य सामान्यवादित्वादिति । ऋजुसूत्रस्य तु पूर्वमाद्विकाशप्रदेशेष्यादतीत्युच्य तेन संस्तारको सस्यापि वस्तुच्या नमो वावगाहाव येषु प्रदेशेषु संस्तारको पर्शने संस्तार केकस्तो प्रदेशेषु स्वयमवाहस्ते वसीयते वर्तमान
यात अतीतानागोनियमवादति शयानामभावे स्वस्वरूपे सर्वोऽपि वसति, अन्यस्याऽन्यत्र वृत्ययोगात् । तथाहि श्रन्योऽन्यत्र वर्तमानः किं सर्वाऽऽत्मना वर्त्तते?, देशाऽऽत्मना वा ? | यद्याद्यः पक्कस्तर्हि त स्याssधारव्यतिरेकिणा स्वकीयरूपेणाप्रतिज्ञासनप्रसङ्गः । यथा दि-संस्तारकाऽऽथाधारस्य स्वरूपं सर्वाऽऽत्मना तत्र वृत्तं न तदृष्यतिरेकेोपलभ्यते एवं वादिरा श्रीयमानस्यतिरेकेण नोपलभ्यते। अथ द्वितीय विक तथाऽपि देशेऽनेन पतितः पुनरवि विकल्पक समावर्तने देशानाति है। सर्वात्मके देशिनो देशरूपताऽऽपत्तिः । देशाऽऽत्मपक्षे तु पुनतत्रापि देवदेशिनः पुनरपि तदेव विकल्पः तदेव दूषणमित्यनवस्था । तस्मात्सर्वोऽपि स्वस्वभाव एव निवसति तत्परित्यागेनान्यत्र निवासे तस्य निःस्वभावताप्रसशादित्य तथा" से " इत्यादि नि
नयो० । ननु वसनं नाम वर्त्तनमुच्यते । तथा च-देवदत्तो गृहे व खतीति किमुक्तं भवति देव वर्तते स्याऽपि वस्तुनः स्वस्वरूप एव, नाऽन्यत्र तथा प्रत्यक्क्त उपलभ्यमानत्वात् । तथाहि यदू घटगतं स्वरूपं तत् घटे एव वर्त्तते, नान्यत्र भूतले पटाऽऽदौ बेति । प्रसिकमेतत्, देवद
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(१२) गाय अनिधानराजेन्द्रः ।
णय ताऽऽदिशक्षणं वस्तु स्वरूपम्पहाय कथमन्यत्र विलक्षणस्वरूपे एवं वक्तव्यम्-धर्मास्तिकायः प्रदेशः प्रदेशोऽधर्मास्तिकायः, अ. वस्तुनि आकाशलकणे वर्तितुमुत्सहते । तथा चात्र प्रयोगः- धर्मास्तिकायः प्रदेशः प्रदेशो धर्मास्तिकाय इत्यादि । एवं हि यवस्तु सत् तत् सर्वमात्मस्वरूपे वर्तते, यथा चेतना जीव, वदतः शब्दनयस्यायमभिप्रायः-य एव धर्मास्तिकायाऽऽदिकवस्तु च देवदत्ताऽदिकमिति तदपि स्वस्वरूप एव वर्तते, पो देशी स एव देशः प्रदेशो वा न स्यात्, तदन्यतिरिक्तवामान्यत्रीत । अथवाऽयं व्यतिरेकमुखेन प्रयोगः-विवादास्पदी. त् । न खलु देशिनो भिन्नो देशः प्रदेशो वा भवितुमर्हति, भूतो देवदत्तो नाऽऽकाशप्रदेशेष्ववतिष्ठते, ततो विलकणवान, भेदे सति तस्याऽसौ देशः प्रदेशो वेति संबन्धानुपरत्तेः। न यद् यतो विलक्षण न तत्तत्र वर्तते, यथा गया श्रातपे, विलक्ष- हि घटः पटस्येति सचेतसा वक्तुं शक्यम् , संबन्धचेतहिं णाश्चाचेतनत्वेन देवदनादाकाशाप्रदेशा इति नासौ तत्र वर्तते । संबन्धस्याऽन्यथाऽनुपपद्यमानस्वाद्देशः प्रदेशो वा देशिनः उक्तं च भाष्यकारैः
सकाशादभिन्नः प्रतिपत्तव्यः, तथा च सति य एव देशी स "पागासे वसत्ति य, जणिए जण किह अनमन्नम्मि । एव देशः प्रदेशश्चेति सिद्धं सामानाधिकरण्यम् । पतदेब मोतु पाऽऽयसहावं, वसेज वत्थु विहम्मम्मि ॥२२४१॥ च सामाधिकरण्यं समभिरूढोऽनि मन्यते । एवंभूतस्तु प्रदेबन्धुं वसा सहावे, सत्ताओ चेयणा व जीवम्मि ।
शवस्तुनो देशः प्रदेशोवा, युक्त्ययोगात् । तथाहि-देशः प्रदेशो न विलक्षणतणाओ, भिन्ने छायात चेव ॥ २२४२॥ वा देशिनो जिन्नोऽभिन्नो वा, गत्यन्तराभावात् । यदि नेदएष वसतिदृष्टान्तः।
स्तस्येति संबन्धानुपपत्तिः। अथाभेदस्ततो देशः प्रदेशो वा दे(१) संप्रति प्रदेशरणान्तभावना
श्येव, तदव्यतिरिक्तत्वात, स्वरूपवत् । तथा च सति यो देशतत्र प्रकृष्टो देशः प्रदेशः, स एव दृप्रान्तः प्रदेशष्टान्तः।
प्रदेशशब्दो तो परमार्थतो धर्मास्तिकायाऽऽदिदेशप्रतिपादकौ, स चायम्-नैगमो बदति-पमा जगति प्रदेशः। तद्यथा-ध
ततो यथा पर्यायशब्दत्वादेककालमेकस्मिन् वस्तुनि घटकुटी मास्तिकायप्रदेशः, अधर्मास्तिकायप्रदेशः, आकाशास्तिकाय.
नोचायते, एकेनाऽपि शब्देन तदर्थस्य प्रतिपादने हितीयप्रदेशः, जीवप्रदेशः, स्कन्धप्रदेशः, स्कन्धगतैकदेशप्रदेशश्च ।
शब्दप्रयोगस्य नैरर्थक्यात् । एवमिहापि धर्मास्तिकायाऽऽदिसर्वत्र षष्ठीतत्पुरुषः समासः । यथा धर्मास्तिकायस्य प्रदेशो रूपे वस्तुनि धर्मास्तिकायाऽऽदिशब्दो देशप्रदेशाऽऽदिशब्दश्च धर्मास्तिकायप्रदेशः । एवं सर्वत्रापि । स च धर्मास्तिकायप्र- नैककालमुशारणमहंतः,दयोरप्यकार्थतयैकेनापि तदर्थस्याऽभिदेशादि: सामान्यविवक्षया एको, विशेषविवक्कयाऽनेक इति । धानत्वेऽपरशब्दप्रयोगस्य वैयात् । तथा च सति धर्मास्तिकाएवं बदति नैगमे संग्रहो वदति-यद् बवे-पयां प्रदेश इत्यादि।
यप्रदेशः,अधर्मास्तिकायप्रदेश इत्यादि वचनजातं सर्वमुपपन्नतन्न भवति । यस्माद् यः स्कन्धगतैकदेशप्रदेशः, स तस्यैव
म्। देशप्रदेशशब्दयोः परमार्थतो धर्मास्तिकायादिरूपदशिस्कन्धस्य प्रदेशः, देशस्य स्कन्धाव्यातरिक्तत्वात् । तथा च लो
वाचकतया पौनरुक्त्यदोषानुषकात्।योऽपि च नोशन्द एकदेशबकेपि वक्तार:-"दासेन मे खरः क्रीतो, दासोऽपि मे खरोऽपि
चनः,सोऽप्येतन्मते सर्वथाऽनुपपन्नः तत्राप्युक्तदोषानतिक्रमात् । मे । ' एवं यत्स्कन्धस्य संबन्धिनो देशस्य प्रदेशः, स त.
तथाहि-नोशब्दः सम्पूर्ण वस्त्वनिदायात,वस्त्वेकदेशं वा ? यदि स्यैव स्कन्धस्य । ततो मैव वादी:-यपुत पम्मा प्रदेश इत्यादि,
सम्पूर्ण, ततस्तस्य प्रयोगो निरर्थकः,धर्मास्तिकायाऽऽदिपदेनैव कि वेवं वद-यथा पश्चानां प्रदेशः। तद्यथा-धर्मास्तिकायप्रदेशः, तस्याऽनिधानात् । अथ वाऽस्त्वेकदेशमिति पकः । सोऽप्यअधर्माऽस्तिकायप्रदेशः, आकाशास्तिकायप्रदेशः, जीवप्रदेशः,
समीचीनः,वस्तुनो देशाभावात् । न हि वस्तुनो जिनो देश उपस्कन्धप्रदेश इति । अयं च धर्मास्तिकायप्रदेशः स्वस्वधर्मा
पवते, तस्येति संबन्धाऽभावात् । भदे तु देश्येव, न देश स्तिकायाऽऽधनुगतः सर्वोऽप्येक एव एव्यः, सामान्यविवक्त
श्त्युपपादितमेतत् । णात् । एवं च संग्रहोऽविशुद्धः प्रतिपत्तव्यः, अपरसामा
उक्तं च भाष्यकारैःन्यान्युपगमात । एवमभिदधानं संग्रहं प्रति व्यवहारोऽभिधत्ते- "नो सदो वि समतं, देसं व भणिज्ज ज समत्तं तो। यदति भवान् पञ्चानां प्रदेश इति, नान्यथा । न चैतदस्ति ।
तस्स पोगोऽणत्यो, मह देसो तो न सो वत्थु ॥२२५६॥" तस्मादेवं वक्तव्यम्-पञ्चविधः प्रदेशः। तद्यथा-धस्तिकाय.
अत्र (न सो वत्यु |त्त)न स देशो वस्तु, नेदपतेऽनेदपके प्रदेशो यावत् स्कन्धप्रदेश इति । एवमुक्के व्यवहारेण -
वा, तस्यासंभवादिति । येऽपि च नीलोत्पल।ऽऽदयः शब्दाखोजुसूत्रो बदति-यद्भाषते भवान-पञ्चविधः प्रदेश इत्यादि ।।
कप्रसिद्धा,तेऽप्येतन्मतेन विचार्यमाणाः सर्वथाऽनुपपन्नाः। त. तदसम्यका तत्रापि शब्दार्थे विचार्यमाणेऽतिप्रसङ्गदोषापत्ते।। थाहि-त-मतेन सर्व वस्तु प्रत्येकमखरामरूपं, न तस्य गुणाः तथादि-पञ्चविधा प्रदेश इत्युक्ते शब्दार्थपर्यालोचनायां यो यः । पर्याया वा देशाः प्रदेशा वा सर्वथा कश्चिद्वा वस्वन्तररूपा प्रदेशः स पञ्चविध इति प्राप्तम्, एवं च सत्येकैकः प्रदेशः पञ्च- वर्तन्ते, ततो नील शब्देनाऽपि तदेव वस्त्वखराममभिधीयते, विशतिविधः प्रदेशः प्रसक्तः । न चैतदस्ति । तस्मादेवमत्र च. उत्पलशब्देना ऽपि तदेवेति, नीलोत्पल शब्दयोरम्यतरशब्दन ततम्यम्-नाज्या प्रदेशः। तद्यथा स्याद्धर्मास्तिकायप्रदेशः, स्या- दर्थस्याऽभिधानात्। द्वितीय शब्दप्रयोगोव्यर्थ श्त्ययुक्ता नीलोत्पवधर्मास्तिकायप्रदेशः, स्यादाकाशास्तिकायप्रदेशः, स्याजीवप्र- लाऽऽदयः शब्दाः। प्रकृते प्रदेशदृष्टान्तभावनाऽपि तथैव । तदे. देश, स्यात् स्कन्धप्रदेशः । एवमाचक्षाणमृजुसूत्रं शब्दनयः चमुक्ता नयाः। एतेषां च नयानामाद्याश्चत्वारो नया अर्थनया:, प्रत्याचष्टे-यद्वदसि नाज्यः प्रदेश इत्यादि । तन्न भवति । कथा मरुपवरया जीचाऽऽद्यर्थसमाश्रयणात् । शेपास्त त्रयः शब्दामुच्यते । यदि भाज्यः प्रदेश इति समं ततः स्यात्पदनाचने उदयो मयाः शब्दनया:, शब्दत एवार्थ दोपयोगात् । प्रतिनियते धस्तिकायाऽऽधनुगतप्रदेशस्वरूपावधारणासंभ
उक्तं चवाद, धर्मास्तिकायप्रदेशोऽपि स्याइधर्मास्तिकायप्रदेशः, अध- " चत्वारोऽर्थनया ोते, जीवाऽऽर्थविनिश्चयात् । स्तिकायप्रदेशोपि स्याद्धर्मास्तिकायप्रदेश इत्यादि । तत | अयः शब्दनया सत्य-पदविद्यां समाश्रिताः "१॥
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(१८८३ ) निधानराजेन्द्रः ।
गाय
तत्र ( सत्यपदविद्यां समाश्रिता इति ) सत्यानि अविपरीतानि शब्दानुशासनोपदर्शितयथोक्तल कृणोपेतानीति भावः । तानि च तानि पदानि सत्यपदानि तेषां विद्या परिज्ञानं कालकारकाऽऽदितोऽवगमः । तां समाश्रिताः, तद्वशादर्थजेदमभ्युपगतवन्त इत्यर्थः ।
संप्रत्येतेषामेव नयानां प्रभेदसंख्या प्रदर्शनार्थमाह निर्युक्तिकार:
इhar य समविहो, सत्त नयसया हवंति एमेव ।
अन्नो विय आएसो, पंचेब सया नयाणं तु ॥ २२६४|| नया मूलभेदापेकया यथोकरूपा नैगमाऽऽदयः सप्त, एकै कश्च प्रभेदतः शतविधः शतन्त्रेदः, ततः सर्वप्रभेदगणनया स स नयशतानि भवन्ति । एवमन्येऽपि च श्रादेशाः पञ्चशतानि भवन्ति नयानां शब्दाऽऽदीनामेकत्वादेकैकस्य च शतबिधत्वादिति हृदयम् । अपिशब्दात् षट् चत्वारि द्वे वा शते । तत्र षट् शतान्येवम्-नैगमः सामान्यग्राही संग्रहे प्रविष्टशे, विशेषग्राही व्यवहारे । उक्तं च नाध्यकारै:- "जो सामग्गाही, स नेगमो संगहं गतो श्रद्धवा । श्यरो ववहारमितो, जो तेण समाण निदेसो " ॥ ३६ ॥ ततः षमेव मूलनयाः, एकैकश्च प्रजेदतः शतभेदः, इति षट् शतानि । अपरादेशाः संग्रह व्यवहारसूत्रशब्दा इति चत्वार एव मूलनयाः, एकेकश्च शतविध इति चलारि शतानि । शतद्वयं तु नैगमाऽऽदीनामृजुसूत्रपर्यन्तानां रूव्यास्तिकत्वात् शब्दाऽऽदीनां तु पर्यावास्तिकत्वात् तयोश्च प्रत्येकं शतनेदत्वात् । अथ वा या बन्तो वचनपथाः, तावन्तो नया इत्यसंख्याताः प्रतिपत्तव्याः । अ०म० १ ० २ खण्ड ।
प्रदेशदृष्टान्तस्तुसे किं तं परसदितेणं । पएसदितेणं रोगमो भण्ड़हे परसो । तं जहा धम्मपरसो, अधम्पपरसो, श्रागासपरसो, जीवपरसो, खंधपणुसो, देसपएसो । एवं वयंत ऐगमं संगहो जणइ-जं भएसि बएहं परसो, तं न भवइ, कहा, जम्हा देसपएसो, सो तस्स दव्बस्स एव, जहा को दिहंतो - " दासेण मे खरो की ओ, दासो वी मे खरो विमे । " तं मा छ परसो, भाहि-पंचएढं पएसो । तं जदा-धम्मपरसो, अधम्मपरसो, भागासपरसो, जीवपएसो, परसो । एवं वयंतं संग वत्रहारो जणइ-जं नएसि-पंचएहं पएसो,तं न जबइ, कम्हा १, जइ जहा पंचए गाणं रिसाएं केइ दव्बजाए सामसे भवइ । तं जहाहिरवा, सुवच्छे वा, धणे वा, धणे वा, तहा पंचाई
सो, तं मा जणिहि पंचण्डं परसो, जणादि - पंचविहो परसो । तं जहा - धम्मपरसो, अधम्मपएमो, आगासपएसो, जीव एसो, खंधपरसो । एवं वयंतं ववहारं उज्जुसुत्रो जणइ - जं जणसि - पंचत्रिहो परसो, तं न भबइ, कम्हा?, जर ते पंचत्रिदो परसो, एवं ते एकेको परसो पंचविहो, एवं ते पणवीसविहो परसो भव, तं मा भलापरसो, जाहि-यन्त्रो परसो, सिम -
पंच
For Private
गाय
म्मपरसो, सिम अधम्मपरसो, सिश्र आगासपएसो, सिअ जीवपरसो, सिग्र स्वधपरसो । एवं वयंतं नज्जुसुयं पर सद्दन जण - जं जणसि - भश्यब्बो परसो, तं न जवर, कम्हा ?, जड़ भइअव्वो परसो, एवं ते धम्मपरसो विसि धम्मो सिग्र आगासपएसोसिअ जीपरसो सिम खंधपरसो; अधम्मपरसो बि सि धम्मपरसो० जान खंधपरसो । जीवपएसो चिसिन धम्मपएसो० जाव सिश्र खंधपरसो, खंधपरसो वि सि धम्म एसो० जान सि खंधपरसो । एवं ते अणवत्था भविस्सर, तं मा जणादि नश्यन्वो परसो, भणादि धम्मे परसे से पसे धम्मे हम्मे परसे से परसे हम्मे आमासे परसे से पसे आगासे, जीवे पपसे से पए से नो जीवे, खधे परसे से पसे नो खंधे । एवं वयंतं सहनयं स - मनिरूढो जल-जं भणसि धम्मे परसे से परसे धम्मे, जीवे परसे से पसे नोजीवे, खधे परसे से परसे नोखने, तं न जवइ, कम्हा १, इत्थं खलु समासा जवंति । तं जहा तप्पुरिसे, कम्मधारए अ । तं ग णज्ज कयरे समासेणं जसि, किं तप्पुरिसेणं १, किं कम्पधारणं । जइ पुरिसेां भणसि, तो मा एवं जणाहि, ग्रह कम्मधारएभणसि, तो विसेस भाहि-धम्मे से परसे मे से परमे धम्मे हम्मे अ से पएसे अ मे से परसे अहम्मे, आगासे से परसे मे से पर से आगासे, जीवे से पसे मे से पएसे नो जीवे, खंधे असे परसे मे से पर नो खंधे । एवं वयंतं समभिरूढं पड़ एवं ओ इ-जं जं जणसि तं तं सव्वं कसिणं पडिपुष्यं निरवसेसं एगगहण गहितं, देसे वि मे अवत्थू, परसेवि मे अवत्थू । से तं परसादहंतेणं । से तं नयप्पमाये ॥
( से किं तं परसदितेणमित्यादि ) प्रकृष्टो देशः प्रदेशो, निविभागो जाग इत्यर्थः । स पत्र दृष्टान्तः तेन नयमतानि चिस्यन्ते । तत्र नैगमो भणति षष्ठां प्रदेशः । तद्यथा - ( धम्मपएस इत्यादि ) धर्मशब्देन धर्मास्तिकायो गृह्यते, तस्य प्रदेशो धर्मप्रदेशः । एवमधर्माऽऽकाशजीवास्तिकायेष्वपि यो ज्यम् । स्कन्धं पुफ़लव्य निचयः, तस्य प्रदेशः स्कन्धप्रदेशः, देश एषामेव पञ्चानां धर्मास्तिकायाऽऽदिव्याणां प्रदेशmissदिनिर्वृतोऽवयवः, तस्य प्रदेशो देशप्रदेशः । श्रयं च प्रदेशसामान्यान्यनिचारात् षष्ठां प्रदेश इत्युक्तम, विशेषविवकायां तु षट् प्रदेशाः एवं वदतं नैगमं प्रति निपुणतरः संग्रहो भणति, यद्भणसि-पयां प्रदेश इति, तन्न भवति तन्न युज्यते । कस्माद् ?, यस्माद्यो देशप्रदेश इति षष्ठे स्थाने भवतां प्रतिपादितं तदसङ्गतमेव । यतो धर्मास्तिकायाऽऽदिव्यस्य संबन्धी यो देशस्तस्य यः प्रदेशः, स वस्तुनृष्या तस्यैव इव्यस्य यत्संबन्धी देशो विवक्ष्यते, व्याभ्यतिरिक्तस्य देशस्य यः प्रदेशः स द्रव्यस्यैव भवति । यथा कोऽत्र दृष्टान्त इत्याह-" दासेणेत्यादि " लोकेऽ
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पाय
(१८०४)
अनिधानराजेन्डः। प्येवं व्यवहतिश्यते । यथा कश्चिदाह-मदीयदासेन खरः। वाऽऽत्मक इत्युच्यते । अत्र तु धर्मास्तिकाय एकमेव व्यं, क्रीतः, तत्र दासोऽपि मदीयः, खरोऽपि मदीयः, दासस्य म. ततः सकलधर्मास्तिकामाव्यतिरिक्त पत्र संस्तरप्रदेशो दीयत्वात् ततक्रीतः स्वरोऽपि मदीय इत्यर्थः । पच- धर्मात्मक च्यत इति नाबः। अधर्माऽऽकाशास्तिकाययोरप्येमिहाऽपि देशस्य व्यसंबन्धित्वात् तत्प्रदेशोऽपि व्यसं- कैकद्रव्यत्वादेवमेव जावनीयम् । जीवास्तिकाये तु (जीवे पपसे बनभ्यवेति भावः । तस्मान्मा भण-पमा प्रदेशः, अपि त्वेव पपसे नो जीवे ति) जीवः प्रदेश इति, जीवास्तिकायाऽऽत्मकः भरण-पश्चानां प्रदेश ति, त्वदुक्तषष्ठदेशस्यैवाऽघटनादित्यर्थः। प्रदेश इत्यर्थः। स च प्रदेशो नोजीवः, नौशब्दस्येह देशवचनतदेव दर्शयति-तद्यथा-धर्मप्रदेश इत्यादि । एतानि पञ्चक स्वात, सकलजीवास्तिकायैकदेशवृत्तिरित्यर्थः । यो धेकजीव्याणि, तत्प्रदेशश्चेत्येवमविशुद्धसंग्रह एवं मन्यते, अवान्तरक- वोडब्यात्मकः प्रदेशः स कथमनन्तजीवाव्यात्मके सम. व्यसामान्याऽऽद्यज्युपगमात् । विशुरूस्तु भव्यबाहुल्य प्रदेशक- स्तजीवास्तिकाये वर्तेत इति भावः । पवं स्कन्धाऽऽत्मकः
प्रदेशोनोस्कन्धः, स्कन्धद्रव्याणामनन्तत्वादेकदेशवसिरित्यल्पनां च नेत्येव,सर्वस्यैव वस्तुसामान्यक्रोडीकृतत्वेनैकत्वा
र्थः। एवं वदन्तं शब्दनयं नानार्थसमभिरोहणात्समनिरूदः दित्यलं प्रसङ्गेन । प्रकृतमुच्यते-एवं वदन्तं संग्रहं ततोऽपि
प्रा.डह-यद्भणसि-धर्मः प्रदेशो धर्म इत्यादि, ता भवति न निपुणो व्यवहारो भणति-यद्भणास-पञ्चानां प्रदेश ति, तन्न
युज्यते, कस्मात?,श्त्याहदह खलु द्वौ समासौ भवतः। तद्यथाजबति न युज्यते, कस्मात् ?, यदि यथा पञ्चानां गोष्ठिकानां
तत्पुरुषः, कर्मधारयश्च । श्दमुकं भवति--"धम्मे पपसे से पपसे पुरुषाणां किञ्चित् कन्यं सामान्यमेकं भवति । तद्यथा-हिरण्यं
धम्मे" इत्युक्ते समासद्वयाऽऽरम्भकवाक्यघ्यमत्र संभाव्यते । वेत्यादि । एवं यदि प्रदेशोऽपि स्यात्ततो युज्यते वक्तुं पञ्चानां प्र
तथाहि-यदि धर्मशम्दात् सप्तमीयं तदा सप्तमीतत्पुरुषस्याऽऽ. देश इति । इदमुक्तं भवति-यथा केपाश्चित्पश्चानां पुरुषाणां
रम्नकमिदं वाक्यम । यथा बने इस्तीत्यादि । अथवा-प्रथमा, साधारण किश्चिकिरण्याऽऽदि भवति, एवं पञ्चानामपि धर्मा
तदा कर्मधारयस्य । यथा-नीलमुत्पलमित्यादि । ननु यदि स्तिकायाऽऽदिरुव्यणां योकः कश्चित्साधारणप्रदेशः स्यात्तदेयं पाचो युक्तिघटेत; न चैतदस्ति, प्रतिद्रव्यं प्रदेशभेदात् ।
वाक्यद्वयमेवाऽत्र संन्नाव्यते, तर्हि कथं द्वौ समासौ भवत तस्मान्मा जण-पञ्चानां प्रदेशः। अपितु पश्चविधः पश्चप्रकार:
इत्युक्तम १। उच्यते-समासाऽऽरमनकवाक्ययोः समासोप्रदेशा, व्यलक्षणस्याऽऽश्रयस्य पश्चविधत्वादिति भावः ।
पचारात । अथवा-अलुकसमासविवक्कया समासावप्येतो भतदेवाह-धर्मप्रदेश इत्यादि । एवं वदन्तं व्यवहारमृजुसूत्रो
वता, यथा-कएठे काम इत्यादीत्यदोषः । यदि नाम दी
समासावत्र भवतः, ततः किमित्याह-तम ज्ञायते कतरेख भणति-यद्भणसि-पञ्चविधः प्रदेशः, तत्र नवति, कस्मात् ?, यस्मादेष पञ्चविधः प्रदेशः, पवमेकैको धर्मास्ति
समासेन मणसि-किं तत्पुरुषेण, कर्मधारयेण वा । यदि
तत्पुरुषेण भणसि, तम्मैवं प्रण, दोषसंभवादिति शेषः । स कायाऽदिप्रदेशः पञ्चविधः प्राप्तः, शब्दादत्र वस्तुव्यवस्था, शब्दे वेवमेव प्रतीतिर्भवति । एवं च सति पञ्चविंशतिविधः
चाऽयं दोषः-धर्म प्रदेश इति भेदाऽऽपत्तिः, यथा कुएम पदराप्रदेशः प्राप्नोति । तन्मा नण-पञ्चविधा प्रदेशः, किं त्वेवं
णीति । ३ च प्रदेशप्रदेशिनौ देनोपलत्यते । मथ अभेभण-भाग्यः प्रदेशः स्याद्धर्मप्रदेश इत्यादि । इदमुक्कं भवति
देऽपि सप्तमी रश्यते । यथा-घटे रूपमित्यादि । एवमुभाज्यो विकल्पनीयो विभजनीयः प्रदेशः कियद्भिर्विभागः
भयत्र दर्शनारसंश्शयलकणो दोषः स्यात् । अथ कर्मधारयेण स्थादर्मप्रदेश इत्यादि पञ्चभिः, ततश्च पञ्चभेद एवं प्रदेशः
भणसि, ततो विशेषण (धम्मे असे पपसे असे सि) धर्मच सिकवति । स च यथा स्वमात्मीयमात्मीय एवाऽस्ति, न पर
स प्रदेशश्च स इति समानाधिकरणः कर्मधारयः । एवं बसकीयः, तस्यार्थक्रियासाधकत्वात, प्रस्तुतनयमतेनासस्वादिति ।
तम्याशा भावतोन तत्पुरुषसंनव इति भावः। पाह-नम्वयं पर्व जन्तमृनुसूचं प्रति शब्दनयो भपति-यद्भणसि-जाग्यःप्र
प्रदेशः समस्तादपि धर्मास्तिकायादव्यतिरिक्तः सन् समादेशाता भवति, कुतः,यदि भाज्यः प्रदेशः, एवं ते धर्मास्तिका
नाधिकरणतया निर्दिश्यते, उत तदेकदेशवृत्तिः सन् , यथा पप्रदेशोऽपि कदाचिदधर्मास्तिकायादिप्रदेशः स्यात, अधर्मा
जीवास्तिकायैकदेशवृत्तिर्जीवप्रदेश इत्याशङ्कयाऽऽह-(मे से प. स्तिकायप्रदेशोऽपि कदाचिद्धर्मास्तिकायाऽऽदिप्रदेशः स्यात् ,
एसे धम्मे ति) सच प्रदेशः सकलधर्मास्तिकायाऽऽदिव्यस्थमपि भजनाया अनिवारितत्वात, यथा एकोऽपि देवदत्तः
तिरिक्तो, न पुनस्तदेकदेशवृत्तिरित्यर्थः । शेषभावना पूर्ववत् । कदाचिकाको मृत्यः कदाचिदमात्याऽऽदेरिति । एवमाकाशास्ति
"से पपसे नो जीवे से पएसे नो खंधे" इत्यत्रापि पू. कायाऽऽदिप्रदेशेऽपि वाच्यमा तदेवं नयत्याभावादनवस्था प्रप
पंचदेवार्थकथनम् । एवं बदन्तं समभिरुढं प्रत्येवंभूतो भणतिगते। तन्मैवं भण-भाज्यः प्रदेशः,अपितु इत्थं भण-"धम्मे पपसे
यचद् धर्मास्तिकायादिकं वस्तु प्रणसि, तत्सत्सर्वं समस्तं से पपसे धम्मे"स्वादि।श्दमुक्कं भवति-धर्मप्रदेश शति,धर्मा.
कृत्स्नं देशप्रदेशकल्पनारहितं प्रतिपूर्णमात्मस्वरूपेणाऽविकसं रमका प्रदेश इत्यर्थः। अत्राऽऽद-नन्वयं प्रदेशः सकलधर्मा
निरवशेषं तदेवैकत्वानिरवयवम्, एकग्रहणगृहीतम एकाभिस्तिकायादव्यक्तिरिक्तः सन् धर्माऽऽत्मक इत्युच्यते,माहोखित
धानाभिधेयं, नामानि होकस्मिन्नयें नेच्छन्ति, अनिधान देव
स्तुभेदान्युपगमात् । तदेवंभूतं तद धर्मास्तिकायाऽऽदिकं वस्तु तदेकदेशाव्यतिरिक्तः सन् , यथा सकसजीवास्तिकायकदेश
भण, न तु प्रदेशाऽदिरूपतया, यतो देशप्रदेशौ ममाप्रदेशी - कजीवजन्याव्यतिरिक्तः संस्तत्प्रदेशो जीवाऽमक इति व्यपदि
वस्तुभूती, अखण्डस्यैव वस्तुनःसवेनोपगात् । तथाहि-प्रदेशश्यत इत्याह-(से पपसे धम्मे तिस प्रदेशो धर्मः, सकलधमास्तिकायादन्यतिरिक्त इत्यर्थः । जीवास्तिकाये हि परस्परं
प्रदेशिनो दोऽमेदो बा?। यदि प्रथमः पक्षः, तर्हि भेदेनोप
लब्धिप्रसङ्गः, न च तथोपलब्धिरस्ति । अथाऽदस्तहि जिन्नान्यवानन्तानि जीवद्रव्याणि भवन्त्यतो य एकजीवाव्य- धर्मप्रदेशशब्दयोः पर्यायतैव प्राप्ता, एकार्थविषयत्वात् । न च स्य प्रदेशः, स निःशेषजीवास्तिकायैकदेशवृत्तिरेव सन जी। पर्यायशम्दयोयुगपदुचारसं युज्यते, एकेनैव तदर्थप्रतिपादने
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(१७ ) पाय अभिधानराजेन्द्रः।
एय द्वितीयस्य वैयर्यात्, तस्मादेकाभिधानाभिधेयं परिपूर्णमेकमेव | एतेषां मूलजातिभेदतः सप्तानां नैगमाऽऽदिनयानामेकैकः प्रो. बस्त्विति । तदेवमेते निजनिजाथसत्यताप्रतिपादनपरा विप्रति- दतः शतविधः शतनेदः । एवं च सर्वैरपि प्रजेदैः सप्त नयपद्यन्ते नयाः। एते च परस्परं निरपेका पुर्नयाः सौगताऽऽदि- शतानि भवन्ति । अन्योऽपि चाऽऽदेशःप्रकारः, तेन पञ्च नय. समयवत, परस्परसापेक्तास्तु सुनयाः, तैश्च परस्परसापेकैः शतानि भवन्ति । शब्दाऽऽदिभित्रिभिरपि नयैर्यदा पक पव समुदितैरेष संपूर्खजिनमतं भवति, कैकावस्थायाम।
शब्दनयो विवक्ष्यते तदा पञ्चव मूलनया भवन्ति, एकैकस्य उक्तं च स्तुतिकारण
च शतविधत्वात्पञ्चशतविधवं नयानाम । ( अशी वि यत्ति) "उदधाविव सर्वसिन्धवः समुदीर्णास्त्वयि नाथ! रष्टयः।
अपिशब्दात्षद्, चत्वारि, द्वे वा शते नयानाम् । तत्र यदा सान च तासु भवान् प्रदश्यते,प्रविनकासु सरिस्विबोदधिः"॥१॥
मान्यग्राहिणो नैगमस्य संग्रहे, विशेषग्राहिणस्तु व्यवहारेऽन्त
यो विवच्यते, तदा मूलनयानां परिधत्वादेकैकस्य च शपतेच नयाज्ञानरूपा,ते जीवगुणत्वेन यद्यपि गुणप्रमाणेऽन्तर्जव
तभेदत्वात्पट् शतानि नयानाम; यदा तु संग्रहव्यवहारऋजुन्ति, तथाऽपि प्रस्यकाऽऽदिप्रमाणेज्यो नयरूपतामात्रेण पृथक
सूत्रलकणास्त्रयोऽर्थनयाः विवक्ष्यन्ते, एकस्तु शब्दनयः पसिकत्वाद् बहुविचारविषयत्वाजिनाऽऽगमे प्रतिस्थानमुप
र्यायास्तिकस्तदा चत्वारो मूलनया प्रयन्ति, प्रत्येकं च शतनेयोगित्वाच गुणप्रमाणाः पृथगुक्ताः, तदेतत्प्रदेशरष्टान्तेनेति नि
दत्वाच्चत्वारि नयशतानि । यदा तु नैगमाऽऽदयश्चत्वारोऽ. गमनम् । प्रस्थकाऽऽदिष्टान्तत्रयेणैव नयप्रमाणे प्रतिपाद्योपसंह
प्येको द्रव्यास्तिकः, शब्दनयास्तु प्रयोऽप्येक एव पर्यायारति-तदेतनयप्रमाणमिति । अनेन च दृष्टान्तत्रयेण दिगमात्रद
स्तिक श्त्येवं द्वावेव नया विवक्ष्येते, तदा अनयोः प्रत्येक शनमेव कृतं, यावता यत्किमपि जीवाऽऽदिवस्त्वस्ति, तत्र सर्वत्र
शतभेदत्वाद्धे नयशते भवतः । इति नियुक्तिगाथार्थः ॥११६४॥ नयविचारःप्रवर्तते, इत्यलं बहुजल्पितेनेति । अनु।
(२४) अथवा किमनेन स्तोकनेददर्शनेन ?, उत्कृष्टतो - (१२) एतटेष्टान्तरयमस्मानयाच्बुरू इप्ति कथं हेयम?,श्त्याह
संख्याता अपि नया जवन्ति, तेऽपि चापिशब्दाद शुका ह्येतेषु सूक्ष्मायोः, अशुकाः स्थूझगोचराः।
रुष्टच्या इति दर्शयन्नाहफलतः शुरुतां त्वाहु-र्व्यवहारे न निश्चये ॥ ७ ॥ जावंतो वयणपहा, तातो वा नया विसदाओ । (शुद्धा हीति) एतेषु नयेषु उक्नदृष्टान्तरीत्या ये यतः सदमार्याः। ते चेव य परसमया, सम्मत्तं समुदिया सव्वे ॥१६॥ ते ततः शुद्धाः, ये च यतः स्थूलगोचराः ते ततोऽशुखाः, सूक्ष्म
'वा' अथवा, यावन्तो वचनपधा वचनमार्गाः वचनप्रत्वं स्थूलत्वं चार्थानां तारशताशबुद्धिविषयत्वेनानुगमनीय
कारास्तेऽपीहापिशन्दात्संगृहीताः । य एव च नयास्त म, न तु बह्वल्पविषमजावेन, तथासत्युत्तरोत्तरेभ्यः पूर्वपूर्वेषां
एव च सावधारणाः सर्वेऽपि परसमवास्तीर्थिकसिद्धासूदमार्थत्वप्राप्तः। यत उलम -'पूर्वः पूर्वो नयः प्रचुरगोचरः,
न्ता, समुदितास्तु निरवधारणाः स्याच्छब्दलामिछताः परः परस्तु परिमितविषयः ॥ ४६ ॥ सन्मात्रगोचरात् सं
सर्वेऽपि नयाः सम्यक्त्वं जिनशासनभावं प्रतिपचन्त श्त्यर्थः। प्रहाबैगमो जावाभावभूमिकत्वाद् भूमविषयः ॥ ४७ ॥ सदिशे
आह च स्तुतिकार:-" उदधाविष सर्वसिन्धवः समुदीर्णापप्रकाशकाद् व्यवहारतः संग्रहः समस्तसतसमूहोपदर्श
स्त्वयि नाथ!ष्टयः । न च तासु प्रवान् प्रहश्यते, प्रविभक्काकत्वाद् बहुविषयः ॥ ४॥ वर्तमानविषयाजुसूत्राद व्यव
सुसरित्स्विधोदधिः"॥१॥ति ॥ १२६५ ॥ हारस्त्रिकालविषयावम्बित्वादनल्पार्थः ॥ ४६॥ कालाऽदि. भेदेन जिन्नार्थोपदर्शिनः शम्दारजुसत्रस्तविपरीतवेदकत्वान्म
एतदक्षममाणः परप्राऽऽहहार्थः॥५०॥ प्रतिपर्यायशब्दमर्थनदमनीप्सतः समभिरूढा
न समेंति न य समेया, सम्मत्तं नेष वत्युणो गमगा। धम्दस्तद्विपर्वयानुयायित्वात्प्रतविषयः॥५१॥ प्रतिक्रियं वि. बत्युविधायाय नया, विरोहरो बेरिणो चेव ॥१६॥ निश्चमथै प्रतिजानानादेवभूतात् समजिसनस्तदन्यथाऽर्थस्था- न समयन्ति न समुदायभावमापद्यन्ते नयाः, नाऽपि समेपकत्वाद् महागोचरः ॥५॥” इति । एवं सहजुत्राऽऽदेय॑व. तास्ते सम्यक्त्वं भवन्ति, प्रत्येकावस्थायां मिथ्याष्टित्वात् ,त. हारस्य बर्थत्वेन सदमार्थत्वं स्यादिति बहुविचारसहत्वं स. त्समुदाये महामिथ्यात्वप्रसन्नात्, प्रचुरविषलवसमुदाये वि. मार्थत्वम, अल्पविचारसहत्वं च स्थूलार्थत्वमित्यादिकं वा षप्राचुर्यत्रत् । नाऽपि ते समेता वस्तुनो गमकाः, प्रत्येकावयथासमयं परिजाषणीयम, इत्थं च निश्चयनया पवतेषु शुकाः, स्थायां तदगमेकत्वात् । समुदिताच ते विवदमानाः प्रत्युत व्यवहारनयाचाशुका इति फलितम् । निश्चयत्वं च व्यबहारत- वस्तुविधातायैव भवन्ति, न पुनस्तमकाः। कुतः पुनस्ते न उपजीवनयान्यनयत्वं व्यवहारतमुपजीवितयाऽन्यत्तरत्वमिति समयन्ति?,न च समुदिताः सम्यक्त्वं, नाऽपि वस्तुगमकाः?, विवेकः । श्रहवा सव्वणयमयं, विणिच्यो गमयं च नव- इत्याह-विरोधित्वाद्वैरिवदिति ॥ २२६६ ॥ दारो (विशे०)" इति भायोक्कं पक्वान्तरं च निश्चयस्य सप्तभड़
अत्रोत्तरमाहग्यादिविशेषिततयोपपादनीयम् । अयं च निश्चयव्यवहा- | सब्ने समयति सम्म, चेगवसाओ नया विरुका वि। रयोः शुद्धाशुरूत्वोपन्यासः स्वरूपतः फलतः शुद्धतांवभियुक्तां
भिचववहारिणो इच, राोदासीणवसवत्ती ।।२२६७॥ च व्यवहारनये प्रार्न तु निश्चये ॥ ७४।नयोाव्य.॥ (२३) के पुनस्ते प्रभेदाः१, श्त्याह
परस्परविरुका अपि नयाः सर्वेऽपि समयन्ति समुदिता जाय. इकिको य सयविहो, सत्त नयसया हवंति एमेव ।
म्ते, सर्वे च सम्यक्त्वं भवन्ति । कुतः ?, त्याह-एकस्य जिनअन्नो वि य पाएसो, पंचेच सया नयाणं तु ॥२३६४॥
साधोर्वशवर्तित्वाद्, राजवशतिनानाऽनिप्रायभृत्यवर्गवत् ।
अथवा-व्यवहारिण श्वोदासीनवशवर्तिनः । इदमुक्तं भवति*प्रमाणनयतवालोकालङ्कारे ।
यथा नयदर्शिना साशासारेण एकेन राका विरोधाऽदिनावमा
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(१७८६) प्राभिधानराजेन्ः।
पाय
गाय
पन्ना बहवोऽपि नृत्याः सम्यगुपायतो विरोधाऽदिकारणान्यप- ठान्तान्तरणाऽपि समुदितानां समस्तवस्तुगमकत्यं नीय एकत्र मौल्यन्ते, सत्प्रवृत्ति च कार्यन्ते, यथा वा धन
समथर्यवाहधाम्यभूम्याचर्थे परस्परं विवदमाना बहवोऽप्यर्थिप्रत्यर्थि- न समत्तवत्युगमगा, वीमुं रयणाऽऽवन्नीऍ मणो ब्व । लकणा व्यवहारिणः सम्यम् न्यायदर्शिना केनाऽप्युदासीनेन
सहिया समत्तगमगा,मणो रयणाऽऽवलीएव्व ॥२२७१।। युक्तिभिर्विवादकारणान्यपनीय मील्यन्ते, सन्मार्ग च प्राह्यन्ते, तयेदापि परस्परविरुकान्बहूनपि नयान सम्यगका
न समस्तवस्तुगमकाः पृथग्नता नयाः, परस्परनिरपेकत्वानी जैनसाधुस्तेषां सावधारणतालकणं विरोधकारणमपनीय
त, पृथस्थितरक्षावनीव्यपदेशानहमणय श्व । त एवं समु. एकत्र मीसयति, सावधारणत्वे च मिथ्यात्वकारणेऽपनी
दिताः समस्तवस्तुगमकाः, यथास्थानविनियोगेन परस्परसा. ते तान् सम्यग्रूपतां ग्राहयति । प्रचुरविषलवा अपि दिौ- पेकत्वाद्, एकसूत्रक्रमप्रोतरत्नावलीमणय इति ॥ २२७१ ॥ दमन्त्रवादिना निर्विषीकृत्य कुष्ठाऽऽदिरोगिणो दत्ताअमृतरुपतां अथ परस्परं विवदमानानयान्समीक्ष्य ये मुह्यन्ति, 'नकि प्रतिपद्यन्त एवेति ॥२२६७॥
शिदिह परस्परं मिलति' इत्यादि नाषणतः समयाssप्रत्येकावस्थायामेकैकांशप्रादित्वात्समुदिता अपि कथं तेव- सातनां च कुर्वन्ति तदुपदेशगर्भमुपसंहरमाहस्तुगमकाः, इत्याह
एवं सविसयसच्चे, परविसयपरंमुहत्तए नाउं । देसगमगत्तणाभो, गमग च्चिय वत्युणो सुयाऽऽs व्व।
नेएसुन संमुज्म,न य समयाऽऽसायणं कुणइ॥२२७२।। सव्वे समत्तगमगा, केवलमिव सम्मन्नावम्मि ॥१६॥
पवमुक्तप्रकारेण यो यस्य व्यास्तिकायाऽऽदिनयस्याऽऽत्मीयो इह नया वस्तुनस्तावत्सामान्येन गमका अवबोधकाः, प्राप
नित्यत्वाऽऽदिको विषयस्तन्मात्रप्रतिपादने सत्योऽपितयो नया, का इति पक्कः, तद्देशगमकत्वात् । ननु वस्तुनो देशमात्रमेष प्र
परम्य तु पर्यास्तिकाऽऽदिनयस्य योऽनित्यत्वाऽऽदिको विषयस्तत्येकममी गृहन्ति, तत्कथं वस्तुगमका उच्यन्ते ?, इत्याद-श्रुता.
त्र पराङ्मुखः,न तं निराकरोति,निरवधारणत्वेन सम्यग्नयत्वाऽऽदिवत् । श्दमुक्तं भवति-घटाऽऽदीनां रूपमात्रमेव चक्षुलाति,
त, नाऽपि तं स्थापयति, नयत्वेनैकांशग्राहित्वादित्यर्थः । एवं. न रसादिधर्मान् पर्वताऽऽदीनां चार्वान्देशमात्रमेव गृह्णाति,
तान् सर्वानपि नयान शात्वाऽन्योऽन्यरूपतया तेषां स्खविषयन परभागमिति । एवं देशग्राहकमपि सद्वस्तु गमयत्येव, एवं
प्रतिपादनेऽपि नर्यावधिज्ञः साधुइँयेषु वस्तुषु न संमुखति,न दो. नया अपि । किञ्च-एत एव सर्वे नयाः मिथ्यात्वापगमेन स.
बायमानमानसो जवति। नाऽपि निन्दाऽऽदिनिः समयाऽऽशातनां म्यक्त्वसद्भावे क्रमेण विशुद्ध्यमानाः सर्वाssवरणप्रतिबन्धाभा
विधाय मिथ्यात्वमुपगच्छति, किंतु 'कथञ्चिदेतदप्यस्ति, कवात्समस्तवस्तुगमका भवन्ति, केवलज्ञानमिवति ॥२२६॥
थश्चिदिदमपि च घटते' इत्यादिरूपतया नयाविषयविभागेन आह-ननु यदि ते प्रत्येकमपि वस्तुगमकाः, तर्हि मिथ्या- | व्यवस्थाप्य वस्त्वर्थ गमयतीति ॥२२७२॥ विशे० उत्तास्थान दृष्टयः कथम्?, इत्याह
(२५) वस्तुनिबन्धनाऽध्यवसायनिमित्तव्यवहारमूलकाजमणेगधम्मणो व-त्थुणो तदसे च सवपमिवती । ।
रणतामनयोः प्रतिपाद्याधुनाऽध्यारोपितानध्यारोपिअंध व्व गयावयवे, तो मिच्छद्दिहिणो वीमुं ॥२६॥ तनामस्थापनाव्यभावनिबन्धनव्यबहासनिकधयद्यस्मादनेकधर्मस्यानेकधर्माऽऽत्मकस्य वस्तुनस्तदंशेऽपि गृ.
नतामनयोरेव प्रतिपादयमाहाऽऽचार्य:होतेऽनित्यत्वादेकधर्ममात्रेऽपि परिच्छिन्ने बौहाऽऽदेयवादिनः नाम ठवणा दविए, तिएसु दन्चट्ठियस्स निक्खेवो । " समस्तं वस्तु मया गृहीतम्" इत्येवंभूता प्रतिपत्ति वति;
जारो उ पज्जवडिअ-परूवणा एस परमत्थो ॥ ६ ॥ ततस्तस्माद्विष्वक्पृथगेकैकशो मिश्यादृष्टयः, विपर्यस्तबुकित्वात, एकस्मिन्पुच्कृपादाऽऽद्यवयवे समस्तगजप्रतिपत्तारो
(नाम ग्वणेत्यादि) अस्याश्च समुदायार्थः-नामस्थापनाऽन्धा श्वेति ॥ २२६॥
व्यमित्येष द्रव्यार्थिकस्य निकेपः। जावस्तु पर्यायार्थिकनिक
पणाया निक्केप श्त्येष परमार्थः। सम्म०१ काएड । (नामासमुदिता अपि तर्हि कयं ते सम्यग्दृष्टयः ?, श्त्याह
ऽऽदीनां व्याख्या स्वस्वस्थाने । नामस्थापनाव्यभावनयानां जं पुण समत्तपज्जा-यवत्थुगमग त्ति समुदिया तेणं। स्वस्वस्थाने मतानि) सम्मत्तं चक्खुमो, सव्वगयावयवगहणे व ॥२२७०॥ तदेवं नामाऽऽदिनयानां परस्परविप्रतिपत्तिमुपदश्योंयस्मात् तु समुदिता नयाः समस्तपर्याया यस्य वस्तुनः, त.
पसंहारपूर्वकं मिथ्येतरजावं दर्शयितुमाहसमस्तपर्यायं वस्तु, तस्य गमकाः प्रापकाः भवन्ति । तेन
एवं विवयंति नया, मिच्छाऽभिनिवेसओ परोप्परो । ते सम्यक्त्वं सम्यग्वादिनो व्यपदिश्यन्ते । यथा समस्तग- श्यमिह सबनयमयं, जिणमयमणवज्जमच्चंतं ॥७२॥ जावयवग्रहणे सर्वगजावयवसमुदायाऽऽत्मकगजवादिनश्चक्षुष्म- एवमुक्तप्रकारेण परस्परतो मिथ्याभिनिवेशाद् विवदन्ते न्तः। निरवधारणोऽपरनयसापेक्षः स्यात्पदलावित एकोऽ- | विवादं कुर्वन्ति नामनयाऽऽदयो नयाः । ततश्च मिथ्यारध्य पि नयः सम्यग्वादी, ये तु सावधारणा अन्योन्यमनपेकाः एते, असंपूर्णार्थवाहित्वात् , गजगात्रनिन्न देशसंस्पर्शने बहुस्यात्पदलाञ्चिताः ते बहवोऽपि समुदिता मिथ्यादृष्टय एवे. विधविवादमुखरजात्यन्धवृन्दवत् । यदि नामते मिथ्याएया, तीह तात्पर्यम् । अत एव ये सावधारणास्ते बहवोऽपि तर्हि निर्मिथ्यं किम् ?, इत्याह-दमिहैव लोके वर्तमानमसमुदितव्यपदेशं न लभन्ते, तत्त्वतस्तेषामसमुदितत्वात् । नि- नुभवप्रत्यकसिद्धं जिनमतं जैनाऽभ्युपगमरूपम् । कथंभूतरवधारणास्तु नयाः पृथगपि स्थिताः परस्परं सापेक्तत्वेन म:, सर्वनयमयं निःशेषनयसम्हान्युपगमनिर्वृत्तम, अत्यसमुदिता भयन्त इति ॥२२७० ।।
न्तमनवयं नामाऽऽदिनयपरस्परोद्भाविताऽविद्यमाननिःशेष
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(१९७७) गाय अनिधानराजेन्द्रः।
णय दोषम, सम्पूर्णाऽर्थवाहित्वात, चक्षुष्मतां समन्तात् समस्त- नन्ततमसमयजावी, असख्याततमसमयजावी. संख्यातनम. हस्तिशरीदर्शनोखापवत् ॥ इति गाथार्थः ।। ७२॥
समयभावी वा?, इत्यादि । भावतोऽपि किं कृष्णवर्णः, गौरव. तथा च सम्पूर्णाऽर्थग्रहरूपं जिनमतमेव दर्शयति
र्णः, दीर्घः, मन्थरो वा ? इत्यादि । तदेवमेकोऽपि नामेन्द्रस्याऽ. नामाऽऽश्लेअसद्द-त्थबुछिपरिणामभावओ निययं ।
ऽश्रयभूतोऽर्थस्तावद् भव्य-केत्रकालभावभेदाऽधिष्ठितोऽनन्त
भेदत्वं प्रतिपद्यते । तथा स्थापना-द्रव्य-भावाऽऽश्रयस्याऽप्युक्ताsजं वत्युमत्थि लोए, चउपज्जायं तयं सव्वं ।। ७३ ॥
नुसारतः प्रत्येकमनन्तनेदत्वमनुसरणीयमा इत्येवमेने नामाssघटपटाऽऽदिकं यत् किमपि वस्त्वस्ति लोके,तत् सर्व प्रत्येक दयो भेदकारिणः। अभेदकारिणस्तहिं कथम् ?,इति चेत् । नमेव नियतं निश्चितं चत्वारः पर्याया नामाऽऽकाररव्यभाव
च्यते-यदैकस्मिन्नपि वस्तुनि नामाऽऽदयश्चत्वारोऽपि प्रतीयन्ते, लक्षणा यत्र तच्चतुष्पर्यायम; न पुनर्यथा नामाऽदिनयाः
तदाऽभेदविधायिनः। तथाहि एकस्मिन्नवि शचीपत्यादौ 'इन्छ' प्राहुः, यथा-केवलनाममयं वा, केवसाऽऽकाररूपंवा, केव
इति नाम, तदाकारस्तु स्थापना, उत्तरावस्थाकारणत्वं तु 5. व्यत श्लिष्टं वा, केवलभावाऽऽस्मकं वेति भावः । कुतश्चतुष्पर्या
व्यत्वम, दिव्यरूप-सम्पत्तिकुलिशधारण-परमैश्वर्याऽऽदिसंपन्नयमेव ?, इत्याह-(नामादिभेअ इत्यादि) नामाऽऽदिभेदेष्वेकत्व.
त्वं तु भाव इति चतुष्टयमपि प्रतीयते । तस्मादेवं सर्वस्य स्वापरिणतिसंवलितनामाऽऽकार-5व्य भावेष्वेवेत्यर्थः। शब्दश्चाs
ऽऽश्रय नूतस्य वस्तुनो भेदसवातकारिणो भिन्नलकणा पते यश्च बुद्धिश्च शब्दाऽर्थबुरुयस्तासां परिणामस्तस्य भावः
नामाऽऽदयो धर्मा उत्पादव्ययध्रौव्यत्रिकवत् प्रतिवस्तु प्रायोसद्भावस्तस्मात,नामाऽऽदिभेदेषु समुदितेष्वेव योऽयं शब्दार्थ
जनीयाः परस्पराविनानाविनः प्रतिवस्तु अष्टव्या इति तात्पबुद्धीनां परिणामसद्भावस्तस्माद्धेतोः सर्व चतुष्पर्यायं बस्वि
र्यम् । इति गाथार्थः ॥ ७॥ त्यर्थः । प्रयोगः- यत्र शब्दार्थबुछिपरिणामसद्भावः, तत् सर्व “नथि नएहिँ विकणं, सुतं अत्यो प्रजिणमए किंचि । चतुष्पर्यायम, चतुष्पर्यायत्वाभावे शब्दाऽऽदिपरिणामजावोऽपि श्रासजउ सोयारं, नएण य विसारओ बूया " ॥१॥ न दृष्टः, यथा शशशके, तस्माच्छब्दाऽऽदिपरिणामसद्भावे स. इति वचनाजिनमते सर्व वस्तु प्रायो नयैर्विचार्यते, वत्र चतुष्पर्यायत्वं निश्चितमिति जावः । इदमुक्तं भवति-अन्यो
अतो नामस्थापनाऽऽदीनपि प्रस्तुतान् ऽभ्यसंबक्षितनामाऽऽदिचतुष्टयाऽऽत्मन्येव वस्तुनि घटाऽऽदिश
नयैर्विचारयन्नाहब्दस्य तदभिधायकत्वेन परिणतिरष्टा, अर्थस्याऽपि पृथुबुध्नो
नामाऽऽइतियं दव्व-ट्ठियस्स भावो य पज्जवनयस्स | दराऽऽद्याकारस्य नामाऽऽदिचतुष्टयाऽऽत्मकतयैव परिणामः
संगहववहारा पढ-मगस्स सेसा य इयरस्स ।।७।। समुपलब्धः, बुद्धरपि तदाकारग्रहणरूपतया परिणतिस्तदात्मन्येव बस्तुन्यवलोकिता । न चेदं दर्शनं प्रान्तम,
एतेषु नामाऽऽदिषु मध्ये मामस्थापना-द्रव्यनिक्षेपत्रयं कन्याबाधकाऽभावात् । नाऽप्यरष्टाऽऽशङ्कयाऽनिष्टकल्पना यु
स्तिकनयस्यैबाऽभिमतं, न पर्यायास्तिकस्य, नामाऽऽदिक्तिमती, मतिप्रसकात्, न हि दिनकराऽस्तमयोदयोपलब्ध
निक्षेपत्रयस्य विवक्षितभावशून्यत्वात, पर्यायास्तिकस्य तु रात्रिन्दिवाऽऽदिवस्तूनां बाधकसम्भावनयाभ्यधात्वकल्पना
भावग्राहित्वादिति । भावो भावनिकेपः पुनः पर्यायास्तिसङ्गतिमावहति । न बेहाऽपि दर्शनाऽदर्शने विहायाऽन्यद् नि. कनयस्यानिमतो नेतरस्य, तस्य व्यमात्रग्राहित्वेन भाषाश्वायकं प्रमाणमुपलभामहे, तस्मादेकत्वपरिणत्यापन्ननामा. इनवलम्बित्वादिति । आह-ननु नया नैगमाऽऽदयः प्रसिका, ऽऽदेनेदेवेव शब्दाऽऽदिपरिणतिदर्शनात् सबै चतुष्पर्याय
ततस्तैरेवाऽयं विचारो युज्यते, अथ तेऽत्रैव भव्य-पर्यायावस्त्विति स्थितम् । इति गाथार्थः॥७३॥
स्तिकनयतपेऽन्तर्भवन्ति, तहयुच्यतां कस्य कस्मिन्नन्तआह-ननु यदि नामाऽऽदिचतुष्पर्यायं सर्व वस्तु, तर्हि किं ना.
विः १, इत्याशश्क्याऽऽह-( संगहेत्यादि) नैगमस्तावत्
सामान्यग्राही संग्रहेऽन्तर्भवति, विशेषग्राही तु व्यवहारे, स. माऽऽदीनां नेदो नास्त्येव ?, श्त्याह
ग्रहव्यवहारौ तु प्रस्तुतनयद्वयस्य मध्ये प्रथमकस्य ब्याइय सबभेमसंघा-यकारिणो जिन्नसक्खणा एते।
स्तिकस्य मतमन्युपगच्छतः च्यास्तिकमतेऽन्तर्भवत इति उप्पाया इति जंपिव, धम्मा पश्वत्थुमानज्जा ॥७४॥ तात्पर्यम् । शेषास्तु ऋजुसूत्राऽऽदय इतरस्य हितीयस्य पर्याइत्येवं ये पूर्व जिन्नलक्षणा जिन्नस्वरूपा धर्मा मामाऽऽदयः यास्तिकस्य मतमभ्युपगच्छन्तोऽत्रैवाऽन्तवन्तीति हृदयम् । प्राक्ताः, ते प्रतिवस्त्वायोज्या आयोजन या इति सम्बन्धः कथ- माचार्यसिम्सेनमतेन चेह ऋजुसूत्रस्य पर्यायास्तिकेतभावो मनूताः सन्तः१, इत्याह-भेदश्च सातश्च भेदसलाती, सर्वस्य दर्शितः, सिद्धान्ताऽग्निप्रायेण तु संग्रहव्यवहारवद् ऋजुसू. स्वाऽऽयनूतवस्तुनो भेदसलाती, तौ कर्तुं शीलं येषां ते सर्व- त्रस्याऽपि च्यास्तिक एवान्त वो द्रष्टव्यः । तथा चोक्तं नेदसतकारिणो, निजाश्रयस्य सर्वस्याऽपि वस्तुनः कथा सूत्रे-" सज्जुसुयस्स एगे अणुवउत्ते आगमओ एग दबाव. चिद् नेदकारिणः,कथश्चिवजेदकारिण इत्यर्थः । तथाहि-केन-| स्सयं पुह ने " इति । चिदिन्छ इत्युश्चरिते अन्यः प्राऽऽह-किमनेन नामेन्छो विवक्कितः, [अस्याऽर्थः-ऋजुसूत्रस्यैकोऽनुपयुक्त आगमत एकंद्रव्यावश्यआहोस्वित् स्थापनेन्कः, द्रव्येन्कः, भावेन्को वा । नामेन्छोऽपि कंपृथक्त्वं नेच्छति । अनुयोगद्वारसूत्रस्थोऽयं पाठः । तट्टीद्रव्यतः किं गोपालदारकः, हासिकदारकः, कृत्रियदारकः, ब्रा- का चेयम्-" उज्जुसुयस्सेत्यादि "-ऋजु अतीताऽनागतपरह्मणदारकः, वैश्यदारकः, शूजदारको चा? इत्यादि । तथा के कीयपरिहारेण प्राजलं वस्तु सूत्रयत्यच्युपगच्छतीति ऋजुतोऽपि नामेन्छः किं भारतः, ऐरवतः, महाविदेढजो घा', सूत्रः, अयं हि वर्तमानकालजाव्येव वस्तु अभ्युपगच्छति, इत्यादि । कालतोऽपि किमतीतकालसंभवी, वर्तमानकाल- नाऽतीतम; विनष्टत्वात् नाऽप्यनागतम, अनुत्पन्नत्वात्; 4. भावी, भविष्यन् वा ? श्त्यादिः अतीतकासनाव्यपि किमितोऽ-] तमानकालभाव्यपि स्वकीयमेव मन्यते, स्वकार्यसाधकत्वा
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(१८८८) अन्निधानराजेन्दः ।
त्, स्वधनवत्, परकीयं तु नेच्छति, स्वकार्याऽप्रसाधका पस्तुनो न भेदः, तहिं घट-पटाऽऽदीनामपि स म स्यादिस्वात, परधनवत् । तस्मादेको देवदत्ताऽदिरनुयुक्तोऽस्य। स्यादियुक्तः पर्यायभेदेन भिन्नमेव भावमङ्गसमभ्युपगच्छत इति मते प्रागमत एक द्रव्याऽऽवश्यकमिति । " पुहसं नेच्छा प्रायः। इति गाथाद्वयाऽर्थः ।। ७६॥ ७७ ॥ विशे। ति" अतीताऽनागतनेदतः परकीयभेदतश्च पृथक्त्वं पार्थक्यं
(२६) परस्परं व्यार्थिकपर्यायार्थिको-- नेच्छत्यसौ, किं ताई , वर्तमानकालीनं स्वकमेव चाऽभ्यु- तरकणक्यप्रधाने प्रत्यकाऽऽदेः प्रमाणस्यानवताराद्वाधकत्वेन पैति, तथैकमेवेति ।
च तस्यैकत्वाध्यवसायिनः प्रवृत्तिप्रतिपादनाद् न पर्यायास्तितदनेनाऽस्य द्रव्यवादित्वं दर्शितम, इति कथं पर्यायास्ति- काभिमतपूर्वापरकणावविक्तमध्यकणमात्रं वस्तु, किं त्वतीताsकेतनावः स्यात् ।। इति गाथाऽर्थः॥ ५ ॥
नागतपर्यायाऽधारमेकं व्यं वस्त्विति व्याधिकनिक्केपः सिद्धः, माह-ननु संग्रहाऽऽदिनया नामनिकेपं सर्वमप्येकत्वेने
द्रव्यं वान नूतपर्यायमनुभविष्यत्, पर्यायं चैकमेव, तेनाऽनुच्छन्ति, इन वा !, एवं स्थापनाऽऽदिनिक्षेपे
तपर्यायशब्देन तत्कदाचिदभिधीयते, कदाचिहानुभविष्य. स्वपि प्रत्येक वक्तव्यम्, इत्याशक्क्याह
त्पर्यायशम्देन, ययाऽतीतधृतसंबन्धो घटो घृतघट इत्यानिधीजं सामनग्गाही. संगिएडइ तेण संगहो निययं ।
यते भविष्यत्तत्संबन्धोऽपि तथैवानिधानगोचरचारी, शुरुतर.
पर्यायास्तिकेन च निराकारस्य कानस्याऽर्थग्राहकत्वासंत्रवात, जेण विसेसग्गाही, ववहागे तो विसेसेइ ॥ ७६ ।।
साकारस्य झानार्थग्राहकत्वासंनवात् साकारं ज्ञानमन्युपगतं, सदुज्जुमुया पज्जा-यवायगा जावसंगई वेति ।
तत्संवेदनमेव वाऽर्थसंवेदनं ज्ञानाऽनुभवव्यतिरेकेणाऽपरस्याऽ. उपरिमया विवरीया, भावं भिंदंति तो निययं ॥ ७ ॥ नुभवस्याभावाद् घटोपयोग पर घटः, तन्मतेन तत्पर्यायेणायद् यस्मात् कारणात संग्रहनयः सामान्य प्राही सामान्य
तीतेन परिणश्यद्वा कव्यं तब्वन्दवाच्यं कव्यार्थिकमतेन व्यववादी, तेन कारणेन संगृह्वात्येकत्वेनाऽभ्यवस्यति प्रत्येकं त्रि.
स्थितं पूर्ववत, अत एव घटाऽऽद्यर्थाभिस्तत्र चानुपयुक्तो कव्यतयं नामस्थापनाव्यनिक्षेपसवणं यानि कानिचिद नाम
मिति प्रतिपादितो द्रव्याथिकनिकेपश्च, ग्यमागमे वाच्यमनेमङ्गलानि तत् सर्वमप्येकं नाममङ्गलम, तथा स्थापनामा
कधा प्रतिपादितम.ह तु युक्तिसंस्पर्शमात्रमेव प्रदश्यते । तदर्थसान्यशेषाण्यप्येकं स्थापनामसम, एवं द्रव्यमसान्यप.
स्वात्प्रयासस्य । भवति विवक्षितवर्तमानसमयपर्यायरूपेणोत्यरिशिष्टान्यप्येक कव्यमालमित्यर्थः। व्यवहारनयस्तु येन का
चत इति भावः "विभाषा प्रहः" ॥३।१।१४३॥ (पाणि) रणेन विशेषनाही, ततो नामाऽऽदिनिकेपान् विशेषयति भे
इत्यत्र सूत्रे केचिद्भवतेश्चेत्यपीप्यते । अथवा-जूतिर्भावो बज्रदेनेच्छति-नाममालानि सर्वापयपि पृथक नाममालत्वेने.
किरीटाऽऽदिधारणवर्तमानपर्यायण इन्काऽऽदिरूपतया वस्तुनो च्छति, पवं स्थापनाऽदिनिक्केपेवपि वाच्यम् ॥ ७६॥ (सद
भवनं, तद्ग्रहणपर्यायेण वा ज्ञानस्य भवनं, यथा चायं पर्या
याधिकप्ररूपया तथा प्रदर्शित पव प्राक्, न पुनरुच्यते । एष मुज्जुसुयेत्यादि ) शब्दर्जुसूत्रनयो पुनः पर्यायरेकार्थ भित्राउ. भिधानर्वस्तु वक्तुं शीख ययोस्ती पर्यायवाचिनी सन्तो ना.
पब नयनिकपानुयोगः प्रतिपादितः, उभयप्रविजागः परमार्थः, मस्थापनाद्रव्यनिकेपपरिहारेणैकस्यैव प्रावस्य भावनिकेप
परमं दयमासमस्यैतदव्यतिरिक्तविषयत्वात्सर्वनयवादानाम, न स्य संगृहीतिः संप्रदोऽभित्रत्वमेकरवं प्रावसंग्रहस्तं -
हिशाखपरमहदयनयव्यतिरिक्तः कश्चिनयो वियते । सामातः प्रतिपादयतः । श्दमुक्तं प्रवति-जुसूत्रशम्दनयों
न्यविशेषस्वरूपविषयवयव्यतिरिक्तविषयोऽस्तराभावाद्विषयिणोपूर्वनयेभ्यो विशुरुत्वाद् नाम-स्थापना-द्रन्यनिक्षेपं ता
ऽप्यपरस्य नयान्तरस्याऽनाव इति प्राक् प्रतिपादितम् ।। बदू नेता, किन्त्वेकमेव भावनिक्षेपमभ्युपगच्छतः, के.
पतदपि नयद्वयं शास्त्रस्य परमहृदयम-व्यं पर्यायाशून्यं, पलं समनिरूढेचनुतनयाऽपेक्षयाऽविशुद्धत्वाद् विनिनाऽनेक
पर्यायाश्च द्रव्याविरहिण इत्येवंततार्थप्रतिपादनपरम, नाऽन्यपर्यायाऽभिधेयत्वेऽपि भावनिकेपस्य संग्रहमेकत्वमेव प्रतिप
येत्येतस्याऽर्थस्य प्रदर्शनार्थमाहचते, न भिन्नत्वमिति नावः । ततश्चैतन्मतेन यदेव मालश- पज्जवनिस्सामवं, वयणं दबट्रियस्स अस्थि त्ति । ब्दवाच्यं नावमङ्गलं प्रत्यूहोपशमकाऽनिष्टविघातकद विनाप- अवसेसो वयणविही, पजवजयणा सपडिवक्खो ॥७॥ हरणाऽऽदिशब्दानामपि तदेव वाच्यम, न भित्रम.इति तात्प
परस्परनिरपेकस्य नयस्यस्य प्रत्येकमेवं बचनविधिः-द्रव्यायम् । (उवरिमया विवरीआ इत्यादि) उपरितनौ तु समभिरुदै.
स्तिकस्यानुषक्तविशेष बचनमस्तीत्येतायन्मानं पर्यायास्तिकबंजूतौ नयौ ऋजुसूत्रशन्दनयाऽपेक्षया विपरीतौ भिन्नाऽनेक
स्य स्वपरामृष्ठसत्तास्वन्नावं व्यं पृथिदी घटः शुक्क इत्याद्या. पर्यायाऽभिधेयस्य मावस्यैकत्वं नेच्कृतः, किन्तु भिन्नत्वम- श्रितपर्यायं परम्परनिरपेकं चोभयनयवचोऽसदेव,वचनार्थासज्युपगतः। तथाहि-समभिन्दमतेनाऽन्यदेव मङ्गलशब्दवा- त्वाचनमसदमिति तदर्थस्थाऽप्यसत्वमावेदितं भवतीति व्यं जावमङ्गलम, अन्या प्रत्येकं प्रत्यहोपशमकाऽदिपर्याय
समुदायार्थः। वाच्यम् । एवम्न्तस्थाऽप्येवमेव, केवलमयं पूर्वस्माद विशु- अवयवार्थस्तु-पर्यायनयेन सह निःसामान्यमसाधारणं चदत्वानेकपर्यायानिधेयमपि भावमङ्गलं भावमङ्गलकार्य कुर्व- चनं व्यास्तिकस्याऽस्तीत्येतद् भेदवाद्यभ्युपगतस्य, विशेषस्य देव मन्यते, नाऽन्यदा, यथा धर्मोपकरणाऽश्चितः सम्यक् चा- त्वनुरूपानुप्रवेशात, पतव वचो निर्विषयं निर्विशेषत्वाद् विथ. रित्रोपयोगे वर्तमानः साधुरिति । तदेवमृनुसूत्रशम्दनयाs. सकुसुमानिधानवत् । “निर्विशेष हि सामान्य, भवेत् शशविषाक्युपगमापेकया विपरीताऽभ्युपगमपरत्वाद् विपरीतावेतो (तो | णवत।" इति प्रसाधितत्वात् नाव्याप्तिः, हेतोरसिरिः पराति) तस्माद भावं भावमङ्गलादिकमर्थ नियतं निश्चित ऽभ्युपगमादेव परिहता तन्ना पकान्तभावनाप्रवृत्तस्य द्रव्यास्तिपर्यायभेदाद जिन्तः-जेदेनेच्छत इत्यर्थः। यदि हि पर्यायभेदेऽपि कनयस्य परमार्थिता, पर्यायास्तिकस्याऽप्येवंप्रवृत्तस्य न सेवि
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(१७७९) अनिधानराजेन्डः।
णय
गाय
पश्चान प्रतिपादयति-अवशेष इति शेषः, स चोपयुक्तादन्यः; तद्विरुध्यते इत्याह-(जयणाय न विसेसो ति) भजनायास्तु बचनबिधिर्वचननेदः सत्ताविकलविशेषप्रतिपादक: पर्यायेषु विवक्षाया एव विशेष इदं द्रव्यमयं पर्याय इत्ययं भेदः, तथा सत्ताव्यतिरिक्तेष्वसत्सुनजनात् सत्ताया भारोपणात्,सत्प्रतिप. तद्भेदाद्विषयिणोऽपि तथैव भेद इत्यभिप्रायः । भजना च काति-सतः प्रतिपको विरोध्यसन भवति ॥तथादि-प्रतिपादको | सामान्यविशेषाऽऽत्मके वस्तुनत्त्वे नपसर्जनीकृतविशेष यदन्व. वचनविधिरवस्तुविषयो, निःसामान्यत्वात, खपुष्पवत । भाव- यिरूपं तद्व्यम् इति विवक्ष्यति यदा तदा व्यार्थिकविषयः, ना तु च्याथिकवचनविपर्ययेण प्रयोगस्य कार्या । अथवा- यदा तूपसर्जनीकृतान्वायरूपं तस्यैव वस्तुनो यदसाधारणं प्रोभिधानप्रत्ययास्तुल्यनामधेया इत्यनयोः स्वरूपमभिधा- रूपं तद्विवक्ष्यते तदा पर्यायनयविषयस्तद्भवतीति । यानिधानस्य व्यास्तिकस्वरूपस्य तदनिधायकस्य प्रति
एवंरूपभजनाकृतमेव भेदं दर्शयितुमाहपादनार्थमाह-(पजवणिस्सामममित्यादि) पर्यायानिकान्त दवष्टियवत्तव्यं, अवत्यु णियमेण होइ पज्जाए। तद्विकलं, सामान्य संग्रहस्वरूपं यस्मिन् वचने तत्पर्यायनिःसा
तह पन्जव वत्यु अव-त्युमेव दवट्टियनयस्म ।। १० ॥ मान्य वचनम किं पुनस्तदित्याह-अस्तीति,तश्च न्याथिकस्य
पर्यायास्तिकस्य व्यास्तिकाभिधेयमस्तित्वमवस्त्वेव, भेदरूपं,प्रतिपादकं वा । यद्वा-पर्यायऋजुसूत्रनयविषयादन्यो द्रव्य-|
रूपापनत्वात, व्यास्तिकस्वाऽपि पर्यायास्तिकाभ्युपगता भेदा त्वाऽऽदिविशेषः स एव च निश्चितं सामान्यं वचनं,व्यत्वाऽऽदि
अवस्तुरूपा एच जवन्ति, सत्तारूपाऽऽपन्नत्वान् । अतो भजनामसामान्यविशेषानिधायीति यावत । तचाशुरुद्रव्याथिकसंबन्धि
न्तरणकत्र सत्ताया अपरत्र भेदानां नत्वादिदं ऽव्यमेत च तत्प्रतिपादकत्वेन तत्स्वरूपत्वेन वा अवशेषो वचनविधिर्वर्णप
पर्याया इति नास्ति भेदः । न च प्रतिभासमानयो:व्यपर्याय. द्धतिः, स प्रतिपक्कोऽस्य वचनस्य पर्यायार्थिकनयरूपः, तत्प्रति
योः कथं पर्यायास्तिकद्रव्यास्तिकाभ्यां प्रतिवक्तव्यम् ', यतः पादको वा पर्यायमेव, अन्यथा कथमवशेषबचनविधिः स्यात, ।
प्रतिभासोऽप्रतिभासस्य बाधकः, न तु मिथ्यात्वस्य, मिथ्यायदि विशेष नाऽश्रयेत् ।।
रूपस्यापि प्रतिनासनात् । तथाहि-पर्यायास्तिकः प्राऽऽहएवं तावद् व्यार्थिकभेदेन भेदमनुभवतां नयानां स्वरूपं
न मया व्यप्रतिभासो निषिध्यते, तस्याऽनुभूयमानत्वात, कि प्रतिपाद्यानेकान्तभावाभावतयैवैषां सत्यता नास्त्येतत्प्रतिषा- तु विशेषयतिरेकेण व्यस्याप्रतिभासनादब्यतिरेके तु व्यदनार्थ ज्ञानानेकान्तमेव तावदाह
क्तिस्वरूपवत्तस्यानन्वयात्, उभयरूपतायाश्चैकत्र विरोधाऽऽदिपज्जवण यवोकतं, वत्युं दबहियस्स वणिज ।
गत्यन्तराभावाद् व्याऽप्रतिभासस्तत्र मिथ्यैव, विशेषप्रजाव दविप्रोवोगो, अपच्चिमवियप्पनिव्वयणो || तिभासस्स्वन्यथा, बाधकाभावात, यतः प्रतिकणं वस्तुनो वृत्ते.
व्यास्तिकस्य वक्तव्यं परिच्छेद्यो विषयो, निश्चयकर्तृवचनं नाशोत्पादौ पर्यायलकणं न स्थितिः। द्रव्यार्थिकस्तु भजनोरथाच विकल्पनिर्वचनं, विद्यते पश्चिमं यस्मिन् बिकल्पनिर्वचने
पितास्वरूपः प्राऽऽह-अस्माकमप्ययमेवाभ्युपगमः, न विशेषप्र. तत्तथा, ततः परं विकल्पवचनाप्रवृत्तेः, यावदपश्चिमविक
तिनासप्रतिकेपः, किंतु तस्य दोभयविकल्पैर्वाध्यमानत्वाद् स्पनिर्वचनो व्योपयोगः प्रवर्तते, तावद् व्यार्थिकस्य वि.
मिथ्यारूपतव, अभेदप्रतिजासस्त्वनुत्पादव्ययलक्षणस्य व्यतषयो वस्तुतवपर्यायाऽऽक्रान्तमेव । अन्यथा ज्ञानार्थयोरप्रतिप. द्विषयसर्वदाऽवस्थितरबाध्यमानत्वात् सत्य ति कल्पना । तेरसवप्रसक्तिः। न हि पर्यायानाक्रान्तसत्तामात्रसद्भावमादक
व्यवस्थापितपर्यायास्तिकाव्यास्तिकयोरेवंबकणप्रदर्शितस्वरूप्रत्यकमनुमान वा प्रमाणमस्ति, व्याऽऽदिपर्यायाऽऽक्रान्तस्यैव | पयोमिथ्यारूपताप्रतिपत्तिः सुकरा भविष्यतीत्यादसर्वदा सत्तारूपस्य ताभ्यामवगतः। यद्वा-यद्वस्तु सकातरतमा- नप्पजति वयंति अ, भावा निअमेण पज्जवणयस्स । अदिबुझिना पर्यायनयेन स्यूलरूपत्यागेनोत्तरतत्तत्सदारूपाss. दवाट्ठियस्स सव्वं, सया अप्पमपविणटुं ॥ ११ ॥ श्रयणाद् व्युत्क्रान्तं गृहीतत्यक्तम, यथा किमिदंभूतसामान्यं घ. उत्पद्यन्ते प्रागभूत्वा भवन्ति,विशेषेण निरन्वयरूपतया वजन्त टाऽऽदिभिर्विना प्रतिपत्तिविषयः, तावत शुक्लतमरूपस्वरूपोऽन्यो गच्छन्ति नाशमनुभवन्ति भावाः पदार्था नियमेन इति अवधाविशेष एव, न कव्यार्थिकस्य वस्तुविषयो, यतो यावदपश्चिम- रणे । पर्यायनयस्य मतेन प्रतिक्षणमुत्पादविनाशस्वजावा एव विकल्पनिर्वचनोऽन्यो विशेषस्तावद् व्योपयोगो द्रव्यशानं नावाः पर्यायस्याऽभिमताः, व्यार्थिकस्य सर्व वस्तु सदाऽनुप्रवर्तते । न हि व्याऽऽदयो विशेषान्ताः सदादिप्रत्यया त्पन्नमविनष्टम,आकालं स्थितिस्वभावमेवेति मतम् । एतच्चन. विशिकान्तव्यावृत्तिबुझिग्राह्यतया प्रतीयन्ते, तथा उप्रतीयमा- यदयस्याऽनिमतबस्तुकस्य सर्व वस्तु सदाऽनुत्पन्नमिति प्राक नास्तथाऽज्युपगमार्दाः, अतिप्रसङ्गात् ।
प्रतिपादितमिति न पुनरुच्यते। तदेवं न सत्ता विशेषविरहिणी, नाऽपि विशेषाः सत्तावि- परस्परनिरपेके च उन्नयनयप्रदर्शितं वस्तु प्रमाणानावतो कना इति प्रदोपसंहरनाह
न सनबतीत्याहदवष्टिओ त्ति तम्हा, नत्यि णो नियम मुघजाईओ।। दव्वं पज्जवविजुयं, दवविनुत्ता य पज्जवा पत्थि । न य पज्जवढिो णा-म को यजयणाय उ विसेसो ॥६॥ उप्पायहिनंगा, हंदि दवियनक्खणं एयं ।। १॥ नस्माद् अव्यार्थिक इति नयः शुरुजातीयो विशेषविनिर्मु- द्रव्यं पर्यायविमुकं नास्ति, मृत्पिण्डपासकोशकुशूलाऽऽधनुतो नास्ति नियमेनेत्यवधारणाऽर्थः, विषयानावेन विषयिणो:- गतमृत्सामान्यप्रतीतेः। व्यविरहिताश्च पर्याया न सन्ति, अनुप्यनाचात ! न च पर्यायार्थिकोऽपि कश्चिन्नयो मामेति प्रसिकाs-1 गतेकाऽऽकारमृत्सामान्यात तु विरुकतया मृत्पिएमस्थासकोशकुथों नियमेन शुरूस्वरूपः संत्रवति, सामान्यविकलात्यन्तध्या- सूत्राऽऽदीनां विशेषाणां प्रतिपत्ते। अतो च्यार्थिकानिमतं वस्तु वृत्तविशेषविषयानावेन विषायणोऽप्यभावात् । यदि विषयाभा- पर्यायाऽऽक्रान्तसेवन तद्विविक्तं पर्यायाभिमतमपि जव्यार्थानुषबादिमा नयौ न स्तः, यदुक्तम-'तीर्थकरवचनसंग्रह' इत्यादि, तं तद्विकलं,परस्परविविक्तयोः कदाचिदप्यप्रतिभासनात कि
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( १८६०) अभिधानराजन्छः ।
गाय
गाय
भूतं पुनव्यमस्ति?, इत्याह-उत्पादस्थितिनङ्गा यथा व्यावाणेन
मूक्षणयाण उ आणं, पत्तेयविसेसियं विति ॥ १६ ॥ स्वरूपाः परस्पराविनि गवर्तिनः,हन्दीत्युपप्रदर्शने । द्रव्यलकणं
संग्रहाऽदिसकलनयसमूहे ऽपि नास्ति कश्चिन्नय उजयवाजन्यास्तित्वव्यवस्थापको धर्म एव रश्यताम् , यतः पूर्वोत्तर
दप्ररूपकः, यतो मूलनयाध्यामेव यत प्रतिज्ञातं वस्तु तपर्यायपरित्यागोत्पादाऽऽत्मकैका स्वयं प्रतिपत्तिः तथाभूतभव्य
देवाऽऽश्रित्य प्रत्येकरूपाः संग्रहाऽऽदयः पूर्वपूर्वनयाधिगतांशसत्वं प्रतिपादयतीति उत्पादव्ययध्रौव्य लक्षणं वस्त्वज्युपगन्त
विशिष्टमंशान्तरमधिगच्छन्तीति न विषयान्तरगोचरः। व्यम् । एतच्च त्रितयं परस्परानुबिछम,अन्यतमाभावे तदितर
अतोऽवस्थितं परस्परात्यागप्रवृत्तसामान्यविशेषविषयसंग्रहाऽऽ. योरप्यनावात् । सम्म०१ काएमा
द्यात्मकनयद्वयाधिगमाऽऽत्मकत्वात् वस्वप्युभयाऽऽत्मक न (२७)पते च परस्परसव्यपेक्षा व्यलकणं न स्वतन्त्रा इति
केवलं बाह्यघटाऽऽदि वस्तु उभयात्मकं,तथाविधप्रमाणग्राह्यत्वाप्रदर्शनायाऽऽह
तू,किन्वान्तरमपि, हर्षशोकभयकरुणौदासीन्याऽधनेकाऽऽकाएए पुण संगहओ, पामिकममक्खणं सुविएहं पि।
रविवर्ताऽऽत्मकैकचेतनास्वरूपं तदात्मकहर्षाऽऽद्यनेकवितम्हा मिच्छद्दिट्टी, पत्तेयं दो वि मन्नणया ।। १३ ।। काराऽनेकाऽऽत्मकंच स्वसंवेदनाध्यक्प्रतीतं, तस्य भेपते उत्पादादयः संग्रहतः शिविकोचाहिपुरुषा श्व परस्परस्व- दकान्तकरूपताऽभ्युपगमे दृष्टाऽदृष्टविषयसुखपुःखरूपोपादानेनैव सकणं,प्रत्येकमेकका उत्पादादयो द्वयोरपि द्रव्या
साधनस्वीकारत्यागार्थप्रवृत्तिनिवृत्तिस्वरूपस्तिकपर्यायास्तिकयोरखकम,उक्तवत्तषाचूततद्विषयाभावे त
सकलव्यवहारोच्छेदप्रसक्तिरिति प्रतिपाददृग्राहकयोरपि तथाभूतयोरभावात्, उत्पादादीनां च परस्प
यितुमाहरविविक्तरूपाणामसंनवात्। तस्मास्मिथ्यारष्टी एव प्रत्येक परस्प.
ण य दवट्टियपक्ख, संसारो व पज्जवणयस्स । रविविक्तौ द्वावयेतो व्यार्थिकपर्यायार्थिकस्वरूपी मूलनयो
सासयवियत्तिवाई, जम्हा उच्छेप्रवाईपा॥ १७ ॥ समस्तनयराशिकारणनूतस्योत्पादे। तद्भवतु परस्परनिरपेक्षयोमिथ्यात्वम, उभयनयाऽऽरन्ध
सव्यार्थिकपर्यायाथिकनयध्याऽभिमते वस्तुनि न संसार: स्त्वेकः सम्यग्दृष्टिभविष्यतीत्याह
संजवति, शाश्वतव्यक्तिप्रतिकणान्यत्वैकान्ताऽऽत्मकचैतन्य ग्राण य तइओ अत्यि एओ, ण य सम्पत्तं ण तेसु पडिपमं ।
हकविषयीकृतत्वात, पायकज्ञानविषयाकृते उदकवत् । तथाजेण चे एगंता, विजजमाणा अणेगता ॥ १४॥
हि-संसार: संसृतिः, सा चैकान्तनित्यस्य पूर्वावस्थापरित्यागे
सति न संभवति तत्परित्यागेनैव गतेभवान्तराऽऽपर्धा संसतेः न च तृतीयः परम्परसापेक्षोभयथाऽस्ति नयः कश्चित, तथाभू
संभवात् ।नाऽप्युच्छेदे उत्पश्यनन्तरनिरन्वयध्वंसलकणे संसृतिः तार्थस्यानेकान्ताऽऽत्मकत्वात्तदग्राहिणःप्रत्ययस्य नयाऽऽत्मकत्वा
संभवति, गतेावान्तरापत्तेर्वा कथञ्चिदन्वायम्पमन्तरेणायोनुपपत्तेः। न च सम्यक्त्वं न तयोः प्रतिपूर्णम, प्रतिषेधद्वयेन प्रकृ.
गात् । अथैकस्य पूर्वापरशरीराभ्यां वियोगयोगगी संसारः, तार्थविगतः, अशेष हि प्रामाण्य सापेक्कं गृह्यमाणयोरेव विषय
असावपि सदाऽविकारिणि न सनवति, नित्यस्य पूर्वाऽपरशयोर्व्यवस्थितम,येन द्वावप्ये कान्तरूपतया व्यवस्थितौ मिथ्यात्व
रीराच्यां वियोगयोगाऽनुपपत्तेः । निरन्वयकणचंमिनोऽप्येकानिबन्धनतरपरित्यागेनान्वयव्यतिरेको विशेषेण परस्परात्यागरूपेण भज्यमानौ गृह्यमाणाचनेकान्तौ जवत इति सम्यक्त्वहेतु
धिकरणत्वाऽसंभवान्न तवकणः संसारः,न चाऽमूर्तस्याऽऽत्मनः त्वमेतयोरिति । एवं सापेक्वद्वयग्राहिणो नयत्वानुपपत्तेस्तृती.
सर्वगतैकमनोऽनिध्वक्तशरीरेण विशिष्टयोगयोगौ संसारो, म. यनयाभावः।
नसोऽकर्तृकत्वेन शरीरसंबन्धस्याऽनुपपत्तेः ।यो घरष्टस्य वि. प्रदर्शितनिरपेकग्राहिणा तु मिथ्यात्वं दर्शयितुमाह
धाता स तन्निवर्तितशरीरेण सह संबध्यते, न चैवं मनः।न
च मनसः शरीरसंबन्धेऽपि तत्कृतसुखदुःखोपभोक्कृत्वमाजह एए तह अएणे, पत्तेयं मुए।ाया गया अन्ने ।
स्मान तस्याउपगमात, तदर्थ च शरीरसंबन्धोऽभ्युपगम्यत हंदि हु मूलणयाणं, पाणवणा वावमा ते वि ॥१५॥
इति तत्संबन्धपरिकल्पनं मनसो व्यर्थम, मनसि सुखदुःखोययैतौ निरपेक्षद्वयग्राहिणौ मूलनयौ मिथ्यादृष्टी, तथा उन्नय.
पभोक्तृत्वाभ्युपगमे वा आत्मनः कल्पनावैयर्यम, मनस श्रावादरूपेण व्यवस्थितानामपि परस्परनिरपेक्षत्वस्य मिथ्यात्वनिबन्धनस्य तुल्यत्वात् प्रत्येकमितरानपेका अन्येऽपि दुर्नयाः। न
त्मसिकः ॥ १७ ॥ च प्रकृतनयायव्यतिरिक्तनयान्तराऽऽरब्धत्वाऽभयवादस्य न
मुहमुक्खसंपोगो, ण जुन्नई णिचवायपक्खम्मि । यानामपि चैचियादन्यत्राऽऽरोपयितुमशक्यत्वात् तद्रूपस्या- एगंतच्छेयम्मि वि, महउक्खवियप्पण मजुत्तं ॥१०॥ न्ये सम्यक् प्रत्यया भविष्यन्तीति वक्तव्यम,यतः हन्दीत्येवं गृह्य- सुखेनाऽबाधस्वरूपेण , दुःखेन वाधनालक्षणेनं , संप्रताम, हुरिति हेतो,मूलन यद्यपरिच्छिन्नवस्तुनि ये व्यापृतास्तेऽपि योगः संबन्धो, न युज्यते न घटते प्रात्मनः, नित्यवादपने तद्विषयव्यतिरिक्तविषयान्तराऽभावात् सर्वनयवादानां च सा- व्यास्तिकाच्युपगमे सुखस्वनावस्याऽविचलितरूपत्वात् सदा मान्यविशेषोभयकान्तविषयत्वात् तन्न नयान्तरसद्भावः, यतस्त
सुखरूपतैवात्मनो न दुःखसंप्रयोगः,पुःखस्वभावत्वे तद्रूपतव, दारब्धोनयवादे नयान्तरं भवेत्।
तत्वादेव,एकान्तोच्छेदे च पर्यायास्तिकपदे सुखदुःखसंप्रयोगो नन संग्रहाऽऽदिन यसद्भावात् कथं तद्यक्तिनयान्तरानावः ? | न युज्यत इति संबन्धः । तथा पक्षद्वयेऽपि सुखार्थे पुःखविमत्यम् । सन्ति संग्रहाऽऽदयः, किं तु तद्विषयव्यतिरिक्तविषया- योगार्थ च विशिष्टनयनं कल्पतेरत्र यतनार्थत्वात् , अयुन्तरानावतस्तदतियविषयास्तेऽपि तद्पणेनैव दृषिता यतो तमघटमानकं सुखदुःखोपादानत्यागार्थप्रयत्नस्याप्ययुक्तत्वम, न मूलच्छेदे तन्नमस्त्रास्तदवस्था संभवन्तीत्याह
उक्तन्यायात । संसरति निरुपनोगभावैधिवासितं लिङ्गमिति सवणयसमहम्मि वित्यिो उत्जयवायपपवभो।। सारख्यमतमपि निरस्त, न्यायस्य सर्वकान्तसाधारणत्वात् ।
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(१८६१) ण्य अभिधानराजेन्द्रः।
णय एकान्तपके आत्मसुखकुरोपभोगनिवर्तकशरीरसंबन्धहे- मोकस्याऽनुपपत्ती निरपराधपुरुषबदबद्धस्य मोक्षसंभवात, त्वदृष्टोत्पादकनिमित्तानामप्यसंभवं दर्शयन्नाह
बन्धाभावश्च योगकषाययोः, प्रकृतिस्थित्यनुभागप्रदेशाऽऽत्मककम्मं जोगनिमित्तं, बज्मइ बंधट्टिई कसायवसा ।
बन्धहेत्वारकान्तपक्षे विरुद्धत्वात् । न चैकरूपत्वाद् ब्रह्मणो 4
न्धाऽऽद्यभावप्रेरणा न दोषाय, चेतनाऽचेतनाऽऽदिभेदरूपतया अपरिणउच्छिमेसु य, बंधटिइकारणं णस्थि ।। १५॥
जगतः प्रतिपत्तेः । न च वेदप्रतिपत्तिमिथ्याऽविद्यानिर्मितत्वाकर्मादृष्टं योगनिमित्तं मनोवाक्कायव्यापारानिमित्तं,बध्यते प्रा- दिति वक्तव्यम, अविद्यायाः प्रतिपत्तिजननविरोधात, अदीयते, बध्यत इति बन्धोऽदृष्टमेव, तस्य स्थितिः कालान्तरफल- विरोधे विद्यारूपताप्राप्तः द्वैतप्राप्तिरिति प्रतिविहितश्चाद्वैतदातृत्वेनाऽऽत्मन्यवस्थानम्,सा कषायवशात्क्रोधाऽऽदिसामर्थ्या- बाद इति न पुनः प्रतन्यते । त । एतभयमप्येकान्तवाद्यन्युपगत आत्मचैतन्यलक्षणे नावे
तदेवमेकान्तान्युपगमे बन्धहेत्वाद्यनुपपत्तैरहिकाऽऽमुष्मिक. अपरिणते उत्सन्ने च बन्धस्थितिकारणम्,नास्ति। न ह्यपरिणामि- सर्वव्यवहारविलोप इत्येकान्तव्यवस्थापकाः सर्वेऽपि मिथ्यारन्यत्यन्तानाधेयातिशये प्रात्मनि क्रोधाऽऽदयःसंभवन्ति । ना. टयो नयाः, अन्योऽन्यविषयापरित्यागवृत्तयस्तु त एव सम्यक्त्वं प्येकान्तोत्सन्नेऽनुसन्धानविकले अहमनेनाक्रुष्ट इति द्वेषसंभवः।। प्रतिपद्यन्त इत्युपसंहरन्नाहतथा चाऽन्य आक्रुष्टोऽन्यो व्यापृतोऽपरो बद्धोऽपरश्च मुक्त तम्हा सम्बे वि णया, मिच्छादिही सपक्खपमिबछा। इति कुशला कुशलकर्मगोचरप्रवृत्याद्यारम्भवैफल्यशक्तिः, ना
असोयाणिस्सिमा नण, हवंति सम्पत्तसम्भावा ॥२१॥ घेकसन्ततिनिमित्तोऽयं व्यवहारः, कणिकैकान्तपक्षे सन्ततिक
यस्मादेकान्तनित्यानित्यवस्वभ्युपगमो बन्धाऽऽदिकारणलपनाबीजभूतोपादानोपादयभावस्यैवाऽघटमानत्वात् । न चे.
योगकषायाऽज्युपगमबाधितः, तदन्युपगमोऽपि नित्याऽऽधेकायमनुसन्धानप्रतिपत्तिः, मिथ्याद्वेषगर्वशाठ्यासन्तोषाऽऽदीनाम
न्ताऽभ्युपगमप्रतिहत इत्येवंभूतपूर्वोत्तराभ्युपगमस्वरूपाः, त. न्योन्यविरुरूस्वभावानां क्रमवनिनां चिचिर्तानां स्वसंवेदना
स्मान्मिध्यादृष्टयः सर्वेऽपि नयाः स्वपक्षप्रतिबद्धाःस्व प्रा. ध्यकसिद्धानां तथा तथाऽनुभवितुश्च संशयविपर्यासाहदशाना
स्मीयः पकोऽन्युपगमः, तेन प्रतिबद्धाः प्रातहता येते शति, गोचरीकृतस्यैकस्य चैतस्यानुनवात्। न च बाधारहितानुभववि
नयज्ञानानां च मिथ्यात्वे तद्विषयस्य तदभिधानस्य च पयस्यापहवा,सुखाऽऽदेरप्यनुजवविषयस्यापतिप्रसङ्गात । तथा
मिथ्यात्वमेव । तेनैवं प्रयोगः-मिथ्या सर्वनयवादाः, स्वपचप्रमाणप्रमेयाऽऽदिव्यवहारोब्दप्रसक्तिः। यदपि मिथ्याऽज्या
कैणव प्रतिहतत्वात, चौरवाक्यवत् ॥ अथ तेषां मिथ्यात्वे रोपादानार्थ यत्ने सत्यपि नोक्तरीत्युक्तं,तदप्यनेनैव प्रतिविहितम,
बन्धाऽऽधनुपपत्ती सम्यक्त्वाऽनुपपत्तिः सर्वत्रेत्याह-अन्योयधोक्तप्रतिपत्तमिथ्यात्वासिकेन चाऽनुमाननिश्चितेऽर्थे प्रारो
उन्यनिःसृताः परस्परापरित्यागेन व्यवस्थिताः, पुनरिति त पवुकेरुत्पत्तिधूमनिश्चयावगतधूमध्वज श्व । न च मिथ्याका- एवं सम्यक्त्वस्य यथाऽवस्थितवस्तुप्रत्ययस्य, सद्भावा भनस्य सहजत्वाविपरीतार्थोपस्थापकानुमानप्रवृत्तिः,तथाऽज्युप- वन्तीति न बन्धाऽऽद्यनुपपत्तिः । ननु यदि नयाः प्रत्येक गमे बोधसन्तानवत्तस्य सर्वदाऽनिवृत्तिरित्यनुमितिप्रसक्तिः, सन्ति, कथं प्रत्येकावस्थायां तेषां सम्यक्त्वाभावः?, स्वरूप. असहजं तु तत्वज्ञानप्रादुर्भावोऽवश्यं निवर्तते शक्तिकावगमे व्यतिरेकेणापरसम्यक्त्वाभावात् , तस्य च तेष्वभ्युपगमारजतन्नम इव, अनिवृतौ वा न प्रमाणबाधकं नवेत् । न च क- त् । भय न सन्ति, कयं तेषां समुदायः सम्यक्त्वनिबन्धनो णकनिश्वये स पवाऽहमितिप्रत्ययो युक्तः, अपि तु स वेति भवेत, असतां समुदायानुपपत्तेः । न चाऽसतोऽपि सम्यक्त्वं, स्थात्, न हि गवयनिश्चये गौरेवेति प्रत्ययो दृष्टः, अपि तु गोरि- जयवादिष्वपि सम्यक्त्वप्रसक्तः। न च प्रत्येकं तेशं सतावेति । न च क्रमवत्तेष्वभिष्वङ्गद्वेषाऽऽदिपर्यायेषु चैतम्याऽनुस्यू.
मसम्यक्त्वेऽपि तत्समुदाये सम्यक्त्वं भविष्यति, " दवहिओ तिप्रत्ययस्य मानसत्वमात्मनि कण कयम, अनुमानानिश्चितत्वे.
सितम्हा, णस्थि णो" (8) इत्याधुपसंहारः, तत्र विरोधातान अपि तदेव स्पष्टमनुभूयमानत्वादू, विकल्पवयस्य युगपदुत्पत्तिः च प्रत्येकमेकैकांशप्राहिणः संपूर्णवस्तुग्राहकाः समुदिता इति परैनष्टेति विकल्परूपत्वे एकत्वप्रत्ययस्य कणिकत्वनिश्चयसमये
सम्यक्त्वव्यपदेशमासादयन्ति,तत्तत्स्वगोचरापरित्यागेन तत्रासद्भावो न भवेदित्येकान्तनित्याऽनित्यच्युतोजयपक एव बन्धः
ऽपि विषयान्तरे तेषामप्रवृत्तेन च प्रत्येकमसम्यक्त्वे समुदायेऽ. स्थितिकारणं युक्तिसङ्गतम् ।
पिसम्यक्त्वं युक्तम,सिकतासु तैलवत असतःसपुत्पत्तेर्विरोधाकिश्चैकान्तवादिनांसंसारनिवृत्तिस्तत्सुखमुक्तिप्राप्त्यर्या प्रवृ. चामत्राऽभिधीयते-प्रत्येकमप्यपेक्षितेतरांशस्वविषयग्राहकतयैव निश्चासङ्गतेत्याह
सन्तो नयाः, तद्व्यतिरिक्तरूपतया त्वसन्त इति सतां तत्समुदाये
सम्यक्त्वे न कश्चिद्दोषः । नन्वितरेतरविषयापरित्यागवृत्तीनां बंधम्मि अपूरते, संसारजोहदंसणं मोहूं।
कानानां कथं समुदायः संजवी ?, येन तत्र सम्यक्त्वमभ्युपग. बंधं च विणा मोक्खसु-हपत्थणा णस्थि मोक्खो य ॥२०॥ म्यत,अनुक्तोपालम्भ एवः न ह्येकज्ञानोत्पादतस्तेषां समुदायो बन्धे चासति संसारो जन्ममरणाऽऽदिप्रबन्धः, तत्र तत्का
विवक्षितोऽपितु स्वपरित्यक्तेतररूपविषयाध्यवसाय एव समुरणे वा मिथ्यात्वाऽऽदावुपचारात् तच्छन्दवाच्ये जयाची भीति
दाया, "अन्योऽन्यनिश्रिताः" इत्यनेनानेकार्थः प्रतिपादितः। न प्राचुर्य,तस्य दर्शनम्-सर्व चतुर्गतिपर्यटनं दुःखाऽऽत्मकमिति
हि द्रव्यार्थिकपर्यायार्थिकाभ्यामत्यन्तपृथग्नुताभ्यामगुनिदपर्या लोचनं, मौव्यं मूढताऽनुपपद्यमानं ससारपुःखोऽप्यविषय
यसंयोगवदुभयवादोऽपरप्रारब्धः। सम्म० १ काए । स्वाद मिथ्याशानं बन्ध्यासुतजनितबाध्यगोचरभीतिविषय
(२७) अथ दर्शनयोजनामभिधिरसुराहपर्यालोचनविद्, मिथ्याज्ञानपूर्विका च प्रवृत्तिर्विसंवादिन्येव जातं व्यास्तिकाच्नुका-दर्शनं ब्रह्मवादिनाम् । बन्धं विना संसारनिवृत्तिः, तत्सुत्रप्रार्थना च भवत्येव । अथ | तत्रैके शब्दसन्मात्रं, चित्तन्मात्रं परे जगुः ।। ११०।।
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(१८९२) अभिधानराजेन्छः।
गय (जातमित्यादि । शुरुाद व्यास्तिकाद् ब्रह्मवादिनां दर्शनं दूनतम्यवहारः। परः परविषयः पररुग्याऽऽधितोऽसदनुतन्यजातम् । तदाह वादी-"दब्बहियनयपयमी सुद्धा संगहपरूषणा वहार इति ॥३॥ विसओ॥" (४) इति।तत्रैके ब्रह्मवादिनःशब्दसन्मात्रमिध्वन्ति,
उपचरितसद्जूता-नुपचरितभेदतः। अन्ये च चित्सन्मात्रम् । तत्राऽऽद्यमतावलम्बी शब्दखनाचं ब्रह्म सर्वेषां शब्दानां सर्वेषां चार्धानां प्रकृतिरित्यज्युपैति।
आयो द्विधा च सोपाधि-गुणगुणिनिदर्शनात् ॥४॥ नयो। सम्म० । सर्वमेकं सत्, अविशेषादिति कव्यास्तिकाs- उपचरितमतभेदेन, अनुपचरितसनूतभेदेन च प्राद्यः भिप्रायः। सम्म. ३ काएक । स्या०। (शब्दब्रह्मवादिनां मतम
पकाच्याऽऽधितसदूनूतव्यवहारो द्विधा द्विप्रकारः। तत्र च 'सह' शब्दे वक्ष्यते)
सोपाधिकगुणगुणिनेदात प्रथमो नेदो जवति ॥४॥ (२९) अथवा व्यवहारनिश्चयनयन्वये तेषां समवतारो.
यथोपचारतो लोके, जीवस्य मतिरुच्यते। इतस्तस्यैव व्यवहारनिश्चयनयध्यस्य
यथा जीवस्य मतिज्ञानम् । अत्र हि मतिरुपाधिः कर्माऽऽवरस्वरूपमुपदर्शयन्नाह
एकमुषिताऽऽत्मनः सकलज्ञानत्वेन ज्ञानमिति कल्पनं सोपाधिलोगव्यवहारपरो, ववहारो भणइ कालो भमरो। कम, उपचारतो जातमिदम् ।
अथ द्वितीयभेदमाहपरमत्थपरो ममइ, निच्छश्ओ पंचवमोत्ति ॥३५॥
अनुपचरितसद्भुतो-अनुपाधिगुण तद्वतोः॥ ५ ॥ लोकव्यवहाराऽभ्युपगमपरो नयो व्यवहारनय उच्यते । स च
सपाधिरहितेन गुणेन अनुपाधिक श्रात्मा यदा संपद्यते, तदा कालवर्णस्यैव उत्कटत्वेन बोके व्यवहियमाणत्वाद्भणति प्रति
अनुपाधिकगुणगुणिनो दानिनोऽनुपचरितसदनूतोऽपि द्वितीयो पादयति कालको चमर इति। परमार्थपरस्तु पारमार्थिकार्थवादी
भेदः समुत्पद्यते इति ॥५॥ नैश्चयिको निश्चयनय उच्यते । स पुनर्मन्यते-'पञ्चवर्णो भ्रमरः' बादरस्कन्धत्वेन तच्चरीरस्य पञ्चवर्णपुलैनिंपन्नत्वात्, शु
मथास्योदाहरणं श्लोकार्द्धनाऽऽहक्लाऽऽदीमां च न्यग्भूतत्वेनानुपलवणादिति ॥ ३५ ॥
केवलाऽऽदिगुणोपेतो, गुण्यात्मा निरुपाधिकः । विशे।
केवलाऽऽदिगुणोपेतः केवलज्ञानसहितः कर्मकयाविर्भूतप्रनता. निश्चयव्यवहारौ हि, द्वौ च मूलनयौ स्मृतौ ।
नुभवभावाऽऽत्मको जीवो निरुपाधिकगुणोपेतो निरुपाधिको
गुणी भवति । आत्मा हि संसारावस्थायाम् अष्टकर्मजानताऽऽत्रनिश्चयो द्विविधस्तत्र, शुघाऽशुपविजेदतः ॥१॥
रणपरिस्फुटप्रनावभाचितः सोपधिकगुणैर्मत्यादिनिस्तद्वानिति (निश्चय इति ) हि निश्चितम, अध्यात्मभाषायां मूलनयो द्वी सोपाधिक पात्मेति व्यपदेशभाग नवति। अत्र तु तदभाव तद. स्मृतौ । तौ च निश्चयव्यवहारौ, निश्चिनोति तत्वमिति नि- भावाद निरुपाधिकगुणगुणिभेदनावनासमुत्पादादनुपचरिश्वयः।१। व्यवहियते इति व्यवहारः। तत्राऽपि निश्चयो
तसदनुतभेदोऽपि समुत्पन्नः। केवलाऽऽदिरित केवलस्यैकत्वात नाम द्विविधोः द्विप्रकारः, एकः शुद्धनिश्चयनयः, द्वितीयोऽ- |
मादिरिति तदुत्थानन्तगुणोदयात् केवमादिरित कथनम् । शुरुनिश्चयनयः । एवं द्विप्रकारो केयः ॥१॥
अथाऽसद्भूतव्यबहारस्यापीत्यमेव नेदद्वयं प्रकटयन्नायथा केवलज्ञानाऽऽदि-रूपो जीवोऽनुपाधिकः ।
हश्लोकार्बेनशुच्छो मत्यादिकस्त्वात्मा-अशुद्धः सोपाधिकः स्मृतः॥२॥
असद्भूतव्यवहारो, द्विधैवं परिकीर्तितः॥६॥ यथा हि केवलज्ञानाऽऽदिरूपो जीवोऽनुपाधिकः, उपाधिः कर्म- (असदनूतेति) असतव्यवहारोऽपि एवं पूर्वोक्तसतक्द जन्यः, तेन विहीनोऽनुपाधिकः, शुरु इति शुरुनिश्चयभेदेन प्र. द्विधा द्विप्रकारः परिकीर्तितः कथित इति ॥ ६॥ थमः । अत्र हि केवलज्ञानमासाद्य शुद्धगुणमयाऽऽस्मकरूपेण
अर्थतस्यासदतव्यवहारस्य भेदद्वयं सोदाहरणजीवस्याऽभेदो दर्शितः । तथा च मतिज्ञानाऽऽदिक प्रारमा भ.
पूर्वक प्रकटयन्नाहशुरुनिश्चयभेदेन द्वितीयः । अत्र हि आत्मनः सोपाधिकस्या
असंश्लेषितयोगेऽग्यो , देवदत्तधनं यथा । ऽऽवरणक्यजनितज्ञानविकल्पेनाऽऽरमा मतिज्ञानी प्रशुरु - पलक्ष्यते । सोपाधिकत्वात् केवलज्ञानाऽऽख्यो गुणः शुद्ध
स्वात्संश्लेषितयोगेऽन्यो, यथाऽऽस्ते देहमात्मनः ॥७॥ गुणस्तदुपेत आत्माऽपि शुरूस्तन्नामनयोदयात् शुरुनिश्चयनयः (असंश्लेषितेति) अत्र द्वयोरपि भेदयोमध्ये, अध्यः अप्रे ।१।मतिज्ञानाऽऽदिगुणोऽशुरूस्तमुपेत आत्माऽप्यशुद्धस्तदाख्य- भबोऽन्यो मुख्यः प्रथमः, असंश्लेषितयोगे कल्पिसंबन्धविषये या नयोऽपि अशुद्धनिश्चय इति । निश्चयशब्द आत्ममात्रपरः, उपचरितासनूतव्यवहारो जवेत् । यथा-देवदत्तधनम् । इह शुरूशब्दः कर्माऽऽवरणविशिष्टः । श्रावणक्वये शुरूः, सति त. धनेन देवदत्तस्य संबन्धः स्वस्वामिभावरूपश्च जायते, तदपि स्मिन्नशुद्धः॥२॥
कलिपतत्वात् उपचरितम । यतो देवदत्तः पुनधनं चैकलव्यं, न अथ व्यवहारस्य भेदं दर्शयति
हि तस्माद्भिन्नद्रव्यत्वादसतनावनाकरणेनासदूतूतव्यव
दार इति । तथा द्वितीयोऽन्यः संश्लेषितयोगे कर्मजसं. सदनूतश्चाऽप्यसद्तॄतो, व्यवहारो हिधा नवेत् ।
बन्धे जवति । यथा आत्मनो जीवस्य देहमिति आस्ते तत्रैकविषयस्त्वाद्यः, परः परमतो मतः॥३॥
तिष्ठति । अत्र हि प्रात्मदेहयोः संबन्धे देवदत्तधनसंबन्धमिव व्यवहारोऽपि सद्भुतः पुनरसद्भूत इति भेदाभ्यां विधा कल्पनं नास्ति विपरीतभाबनानिवर्त्यत्वाद यावज्जीवस्थायित्वाद्विप्रकारः। तत्र श्राद्यः प्रथम एकविषय एकान्याऽऽधितः स. नुपचरितं, तथा भिन्नविषयत्वादसद्भूतव्यवहार इति ॥७,
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(१८९३) अभिधानराजेन्षः।
णय अथोक्तविषयस्वामित्वमाह
अर्पितानर्पिताच्या तु, स्युनैकादश तत्कथम् ॥११॥ नयाधोपनयाश्चैते, तथा मूत्रनयावपि ।
(यदीति) यदि पर्यायार्थद्रव्यार्थनयौ निनौ विलौकितौ पृथक इत्यमेव समादिष्टं, नयचक्रेऽपि तत्कृता ॥७॥
रष्टा, तत्तस्मानव नया इति कथम?, अपितानर्विताभ्यां सह
एकादश नया इति कथं न स्युः, अपितु स्युः । जावार्थस्त्वय(नयेति ) एते नया उक्तबकणा, च पुनरुपनयास्तथैव द्वौ
मगमसंग्रहव्यवहारभेदाद् आद्यो हव्यार्थिकस्निधा, पर्या. मूलनयो, अपि निश्चयेन इत्थममुना प्रकारेण एव, नय
यार्थिकश्चतुर्दा-जुसूत्र, शब्दः, समभिरूढः, पर तश्चति । चक्रेऽपि दिगम्बरदेवसेनकृते शास्त्रे नयचक्रेऽपि, तस्कृता
भर्पितानर्पितभेदावपि सामान्यविशेषपर्यायौ, तौ च द्रव्यप. तस्य नयचक्रस्य कृता उत्पादकेन समादिष्टं कथितम ।
र्याययोश्चेति । तथाहि-सामान्य द्विप्रकारम, अर्द्धतासामान्यं, पतावता दिगम्बरमतानुगतनयचक्रग्रन्थपाठपठितमयोपनयमू
तिर्यक्सामान्यं च । तत्र कर्द्धतासामान्य व्यमेव, तियक्साबनयाऽऽदिकं सर्वमपि सर्वज्ञप्रणीतसदागमोक्तयुक्तियोजनास
मान्यं तु प्रतिव्यक्ति सरशपरिणतिलकणं व्यजनपर्याय एव, मानतन्त्रत्वमेवाऽऽस्ते, न किमपि विसंवादितयाऽस्तीति ।।
स्थूलाः कानान्तरस्थायिनः शब्दानां सङ्केतविषया व्यञ्जनपर्याया अथ पुनरपि श्वेताम्बरदिगम्बरयोः समानतन्त्रमा इति प्राचचनिकप्रसिकेः। विशेषोऽपि वैसरश्यविवर्तल कणः मुपदिशश्नाह
पर्याय पचान्तर्भवतीति, नैताभ्यामधिकनयावकाशः ॥११॥ यद्यपीहाथेनेदो न, तस्याऽस्माकमपि स्फुटम् ।
संग्रहे व्यवहारे च, यदीमौ युड्क्य केवलम् । तथाऽप्युत्क्रमशैल्याऽसौ, दह्यते चाऽन्तराऽऽमना ।
तदाद्यन्तनयस्तोके, किं न युक्थ हि तावपि ॥१॥ यद्यपि तस्य देवसेनस्य दिग्वाससोऽपि, तथा अस्माकं
अथ संग्रहे च पुनर्व्यवहारे यदि इमो अर्पितानर्पिती युक्थ, श्वेतभिखूणां स्फुटं प्रकटं यथा स्यात्तथा,इह व्याऽऽदिपरिक्षा
तर्हि प्राचन्तनयस्तोके तापि[व्यपर्यायौ] किं न युक्य इति । नोपयोगिनि नयविचारे, अर्थनेदो विषयभेदो नास्ति, उजयो
यदि एवं कथयथ अर्पितानर्पितसिरित्यादिसत्रेषु अर्पिता वि. रप्यर्थाऽऽदेशे विषयानेदत्वमेव,शब्दाऽऽदेशे किमपि पागन्तर
शेषाः,मनर्पिताः सामान्याः । तत्र अर्पिता व्यवहाराऽऽदिविशेषत्वाद् न किमपि दोषः । यथा हि अर्थ प्रयोजनवन्तस्तार्किकाः,
नयेषु भन्तर्भवन्ति, अनर्पिताः संग्रहे ऽन्तवन्ति, तदा याद्येषु शब्दस्याउप्रयोजकत्वात् । तथाऽप्यसौ देवसेनो दिगम्बर उ.
प्रथमेषु, अन्येषु पाश्चात्येषु नयस्तोकेषु इमौ व्यपर्यायौ कमशैल्या विपरीतपरिभाषया अर्थस्य तारशत्वेन शब्दस्या
कथं न युजीत सप्तनयसंबन्धसिद्धोरेति विचारणीयम् । सि. ताशत्वेन च उत्क्रमशैव्या कृत्वा, अन्तराऽऽत्मना अन्तरापरि
कान्ते श्रीजिनवाणी सप्तनयाऽवतारिका एवाऽस्ति, न न्यूना. णामेन ईर्ष्यामुत्वाद, दह्यते विद्यते । ईर्ष्या लवो हि अन्तरुपता
धिका। यतः-"से किं तं नए । सत्त मूत्रनया पत्ता । तं जड़ापपरा एव भवन्ति निष्कारणमेवेति । यत:-" यद्यपि न भवति
णेगमे १, संगहे २, व्यवहारे ३, उज्जुसुए ४, सद्दे ५, सम. हानिः,परकीयां चरति रासभो बावाम्। असमञ्जसं तुरवा,
निरूढे ६, एवंनुए।" इत्यादिसुत्रपातोऽपि शेयोऽतस्तत्सूत्रतथाऽपि परिखद्यते चेतः ॥१॥" इति वचनाद् यथोक्तनागवतसिदान्तशुद्धपरिभाषां त्यक्त्वा स्वकपोलकल्पितसंस्कृतनापया
मार्ग त्यक्त्वा नया नव इत्यधिकयोजना न साधीयसी ।
अथ अन्तर्जुतानां पृथक्करणमपि पिष्टपेषणमेवेति ।।१२।। द्रव्या. श्रीवीतरागोक्तार्थविषयमङ्गीकृत्य नवीनग्रन्थं बिरचस्य प्रभावं
अध्या । ख्यापयतीत्यर्थः ॥६॥ (३०) अथ बोटिकमताऽनिमतविपरीतपरिभाषां दर्श
(३१) व्यवहारनयात्सास्यम्यन्नाह
अशुखाद् व्यवहाराख्या-त्ततोऽनत्साङ्ख्यदर्शनम् । तत्त्वार्थेऽपि नयाः सप्त, पञ्चाऽऽदेशान्तरेऽपि वा। चेतनाऽचेतनद्रव्या-ऽनन्तपर्यायदर्शकम् ॥ १११ ॥ अन्ततो समुकृत्य, नवेति किमु कस्पते ॥१०॥ (पशुकादिति) व्यवहाराऽऽख्याद् व्यवहारनामधेयादगुद्धात्ततत्वार्यसूत्रे नयाः सप्त उक्ताः, पुनरादेशान्तरे मतान्तरे तव |
तो व्यार्थिकनयात् सारख्यदर्शनमनूत् । कीदृशं तत् ?, नयाः पञ्च प्रतिपादिताः। तथा च तत्सूत्रम्.-"सप्त मूलनया,
चेतनश्वाचेतनव्यं चानन्तपर्यायाश्चाविर्भावतिरोभावा55पञ्च इत्यादेशान्तरे" इति । शब्दः, समभिरूढः, एवंभूत इति
स्मकास्तेषां दर्शकं प्रतिपादकमिति । (१११) नयो । नयत्रिकं शब्दनय इति नाम्ना संगृहीतानां त्रयाणामेवैकं नाम
अशुरूस्तु द्रव्यार्थिको व्यवहारनयमतावलम्बी एकान्तनि.
त्यचेतनवस्तुद्वयप्रतिपादकसाङ्ख्यदर्शनाश्रितोऽत एव तन्मता. शब्दनय शति जायते, ततः प्रथमे चत्वारोऽतस्तैः सह पञ्चनया इति । अथकैकस्य भेदानां शतमस्ति, तत्र च सप्तशतं तथा
अनुसारिणः साया। सम्म० १ काएक। पश्चशतम,एवं मतद्वयऽपि भेदकल्पनम् । तथोक्तमावश्यके-"इ.
(३२)अथ वेदान्तिसाङ्ख्यदर्शनयोः शुदायद्धद्रव्याकिको य सयविदो, सत्त णयसया हवंति एमेव । अझो वि
र्थिकप्रकृतिकत्वं यदुक्तं, तत्राऽविशेष-- हु आएसो, पंचेव सया णयाणं तु"॥ (२१६४) पता
____ दृष्टया भेदबीजाभावमाशङ्कतेही शास्त्रपरिभाषां त्यक्त्वा द्रव्यार्थिकपर्यायार्थिकनामानी यद्यप्येतन्मतेऽप्यात्मा, निर्लेपो निगुणो विभुः। एप्वन्तर्जावितावेव उद्धृत्य दूरे कृत्वा नव नयाः कथिताः, शति
अध्यासाद् व्यवहारश्च, ब्रह्मवादेऽपि संमतः ॥ ११ ॥ किमु कल्पते देवसेनेन का प्रपञ्चः क्रियते ॥१०॥
( यद्यपीत्यादि ) यद्यपि एतन्मतेऽपि सारख्यमतेऽप्यात्मा पुनश्च! कथयन्नाह
निलेपः कर्तृत्वाऽऽदिखेपरहितो निर्गुणो गुणस्पर्शगुन्यो विनुथदि पर्यायव्यार्थ-नयो जिनौ विलोकिती।
ापकश्चेति शुभाऽऽत्माऽज्युपगमेनोभयत्र शुमितौल्यम । न च ४७४
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(२०१४) भनिधानराजेन्द्रः।
वाय मोक्तृत्वस्योपचरितस्याऽऽत्मन्यन्युपगमेन सास्यदर्शने बेदा- इत्येतावत्पुरस्कृत्प, विवेकः संमतावयम् ।। ११६ ॥ तदर्शनापेक्षयात्वस, यतोऽभ्यासाद ग्यवहारो ब्रह्मवादेडपि संमतः, प्रह्मवादिनोऽपि हि बुद्धिगुणान् बानाऽधीनारमनि
(साइल्येति) सायशानेच नानाऽऽत्मनां व्यवस्था प्रति.
नियतजन्ममरणाऽऽदि व्यवहारकद्भवति इत्येतावत्पुरस्कृत्य ता. करिपतानेवाऽभ्युपयन्ति, पारमार्थिकानिति नायमपि प्रकार
स्पर्यविषयीकत्याऽयं विवेका सम्मती। यदुत-व्यवहारप्रकअजयोः पति विशेषः॥ ११२॥
तिकं सास्यदर्शन,संग्रहप्रकृतिक च वेदान्तदर्शनामिति बेदाप्रत्युताऽऽत्मनि कर्तृत्वं, साख्यानां प्रातिनासिकम् । म्सप्रकृतिभूतसंग्रहमयेनेव तथाविषयीकृतस्याऽऽत्मनो भेदकवेदान्तिनां त्वनिवर्वाच्यं,मतं तद् व्यावहारिकम् ॥१२॥ रणेन संग्रहविषयजेदकत्वलक्षणसमन्वयाद न्यवहारप्रकृतिकत्वं (प्रत्युतेति) प्रत्युत वैपरीत्येन सास्यानां मते कर्तृत्वम, उप- सामयदर्शनस्य विवक्कितमिति तात्पर्यम्। तेन सत्कार्याऽऽद्यशे मकणाभोक्तृत्वादि च, प्रातिमासिकमन्यस्थमेवान्यत्रारो- व्यवहारप्रकृतित्वाऽभावेऽपि न कतिः, पात्मन एव सकलशा. पितमाबेदान्तिनां तु मतेमान्तःकरणधर्माणां कर्तृत्वाऽऽदीनां सप्रयोजनभागित्वेन मुख्यत्वात् , मुस्योदेशेनैव च मयामा प्र. कर्तव्यम,तच परमार्थतोऽसदपि व्यवहारतः सदिति स्यूल- कृतिविकृतिचिन्ताया युक्तवादिति प्रायः॥ ११६॥ नयो । व्यवहाराऽनुरोधावेदान्तदर्शन पवागखत्वं स्यात, अविद्यया प्रत्र व नैगमसंग्रहव्यवहारलकणास्त्रयो नयाः राखशुद्धिभ्यां ऽप्यन्यधर्ममात्मन्यस्पर्शयत्युपचारेण च व्यवहारबलं कुण्ठ- फव्यास्तिकमतमाभिताः, ऋजुत्रशब्दसमभिरबंभूतास्तु गतिनिश्चयवलं चोत्तेजति सारस्यदर्शन एव शुरुत्वं स्यादिति अस्तिारतम्यतः पर्यायनयनेदाः। तथाहि-संग्रहमतं तावत्प्रद. प्रायः॥ १३॥
शितमेव । येषां तुमते न नैगमनयस्य सद्भावस्तस्य स्वरूपमेव किा-सत्कार्यवादित्वादपि सायस्थ न व्यवहाराऽनुरो.
वागतम्, राश्यन्तरोपलब्धं नित्यत्वमनित्यत्वं चनयतीति निगधित्वम, व्यवहारमयो हि कारणब्यापारानन्तरमेव कार्योत्पात
मव्यवस्थान्युपगमपरो नंगमनयः। निगमो हि नित्यानित्यपश्यत्र सत्कार्यपकमेवाऽऽश्रयते, न च कणिकासत्कार्यानभ्युप- सदसत्कतकाकृतकस्वरूपेषु जावेवपास्तसाकार्यस्वनावः सर्ष. गममात्रेणास्य व्यवहारपक्षपातित्वम्, सदनन्युपगमेऽप्युस्प- थैव धर्मधर्मिनदेन संपद्यत इति । स पुनर्भेगमोऽनेकपा व्यवत्यनज्युपगमेन व्यवहारबहिर्भावादित्यभिप्रायस्पष्टीकरणपूर्व
स्थितः, प्रतिपत्तुरभिप्रायवशाखयम्यवस्थामात । प्रतिपत्तारच निगमयमाह
मानानिप्रायाः। यतः केचिदाहु:-"पुरुष पवेदं सर्वमित्यादि"
यदाभियोक्तम्-“कर्द्धमूलमधः शाख-मश्वत्थं प्रादुरव्ययम् । अनुत्पन्नत्वपक्षश्च, नियुक्तौ नैगमे श्रुतः ।
छन्दांसि यस्य पर्णानि, यस्तं वेद स वेदवित ॥१॥" पुरुषोऽप्ये. नेति वेदान्तिसारूयोक्त्योः , संग्रहव्यवहारता ॥१२॥ कत्वनानात्मभेदात्कैश्विदभ्युपगतो वेधा,नानात्वेऽपि तस्य कर्तृअनुत्पत्रपक्क नियुक्ती नमस्कारभिर्युक्ती नैगमे नैगमनये
स्वाऽकर्तृत्वभेदोऽपरैराश्रितः। कर्तृत्वेऽपि सर्वगतेरभेदः,असर्वअतः " उप्पत्राणुप्पो, इत्थ जया नेगमस्सऽणुप्पो । से.
गतऽपि शरीरव्याप्त्ययासिन्यां भेदः, यापिमूततरविकस्पासाणं सपनो, जाकतो त्तिविहसामिला?॥१७०६॥" इति नेद एव । अपरैस्तु प्रधानकारणिकं जगदन्युपगतं,तत्रापि से(भावश्यकनियुक्ति-) वचनात् । तथा चानुत्पत्तिबादी श्वरनिरीश्वरभेदाभेदोग्न्युपगतः, अन्वैस्तु परमाणुप्रभवत्वमसाख्यो नैगमनयमेवोपजीवी, व्यावहारिकोत्पत्तिवादी - भ्युपगतं जगतः, तत्रापि सेश्वरनिरीश्वरभेदानेदोऽन्युपगतः,से. दान्ती च व्यबहारनपमिति भावः । इति हेतोर्वेदान्तिसाक्ष्यो- श्वरपकेऽपि स्वकृतकर्मसापेकानपेतत्वाज्यां तदवस्थ पब मे. पत्यास्तदर्शनयोः संग्रहन्यवहारता संग्रहव्यवहाराऽऽस्या
दाभ्युपगमः कैश्चित्स्वनावकालयाच्या दिवादा:समाश्रिताः, सागुमण्यार्थिकप्रकृतिकता न भवति । तथा च संमती तथो- तेष्वपि सापेकवानपेक्षत्वान्युपगमादू भेदव्यवस्थाऽभ्युपगतैय। केः का गतिरिति भावः ॥ ११४ ॥
तथा कारणं नित्यं कार्यमनित्यमित्यपि द्वैतं कैचिदम्युपगतम, समाध तथापीसियन
तत्रापि कार्य स्वरूपं नियमेन त्यजति, न वेत्ययमपि भेदाभ्यु
पगमः । एवं मूतैरेव मूतमारज्यते, मूमने तरमूर्तमित्याच तथाऽप्युपनिषद् दृष्टि-मृष्टिवादाऽऽत्मिका परा। नेकधा प्रतिपत्त्रभिप्रायतोऽनेकधा निगमनागमोऽनेकभेदः । तस्यां स्वप्नोपमे विश्वे, व्यवहारलवोऽपि न ॥ ११५॥ व्यवहारनयस्वपास्तसमस्तभेदादेकमन्युपगच्चतोऽध्यक्षीकृततथाऽपि उपमिषवेदान्तदर्शमप्रवृत्तिः दृष्टिष्टिवादाऽऽत्मिका
भेदनिबन्धनव्यवहारविरोधप्रशक्त कारककापकनेदे परिकपरा उस्कृष्टा मूलाभियुक्ता, अभ्युपगतत्वात, तस्यां चाकातस
रूपनाऽनुरोधेन व्यवहारमारचयन प्रवर्तते इति कारणस्यापि न
सर्वदा नित्यत्वं, कार्यस्याऽपि नैकान्ततः प्रकय इति । ततश्च स्वानविन स्वनोपमे विश्व जगति सति व्यवहारस्य लषोऽपि ले।
मकदाचिदनीहशं जमदिति प्रवृत्तोऽयं व्यवहारो न केाऽपि शोऽपिनाऽस्ति, तम्मते जाग्रव्यवहारस्य स्वमग्यपहारतुल्य
प्रवपते, अन्यथा प्रवर्तकावस्थाप्रसक्तिः, ततो व्यवहारशून्य त्वात् । तथा च मौलस्य घेदान्तदर्शनस्य व्यवहारापेतत्वे न व्यवहारप्रकृतिता, कित्येकाऽऽत्मसंग्रहप्रवखतया संग्रहप्रक
जगत न च प्रमाणाविषयीकृत पक्षोऽन्युपगन्तुंयुक्तः,प्ररपरि
कल्पमाप्रसक्तेः। रष्टानुरोधेन बडष्टमपि वस्तु कल्पयितुं युक्तम, तितैवाऽऽकाशोदकपातकल्पमूलदर्शनप्रवृत्तावेष अयं मयप्रक
अन्यथा कल्पनासंभवादिति। संग्रहनेगमान्युपगतवस्तुविवेतिचिन्तेति नावांचीमवेदान्तिनां मिथो बिरुद्धकल्पनाकोटिक्नेशपराहतानां व्यवहारान्याससमर्थनेनापि प्रतिभूतव्यादति
कालोकप्रतीतपथाऽनुसारेण प्रतिपत्तिः,गौरवपरिहारेण प्रमाणरिति हदयम् । ११५॥
प्रमेयप्रमितिप्रतिपादनं व्यवहारप्रसिबथै परीककैः समाश्रित.
मिति व्यवहारनयाभिप्रायः। ततः स्थितं गमसंग्रहव्यवहाराणां साररूयशाखे च नानाऽऽत्म-व्यवस्था व्यवहारकर । च्यास्तिकनवप्रभेदत्वं विषयभेदयं प्रविशदिखा।
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तदुकम्
(१७५) अभिधानराजेन्द्रः।
पाय
ननु संग्रहन्यवहारयोरेव विषयविवेकेन नैगमस्यान्तावे "कं वयं समाधिस्य, संग्रहस्तदशुद्धितः।
तस्य पार्थक्ये किं बीजम् अदर्शनेऽपि किञ्चित्कल्पयिभ्याम मैगमव्यवहारौ स्तां, शेषाः पर्यायमाभिताः ॥१॥
इति चेततर्दिष्ट स्वतन्त्रव्यपर्यायोभयविषयत्वमेव तथाऽस्तु। अन्यदेव हि सामान्य-मजिन्नशानकारणम् ।
तथा च तत एव कणादमतोत्पत्तियुक्तति परीक्षापूर्वमाहविशेषोऽप्यन्य एबेति, मन्यते नैगमो नयः॥२॥
स्वतन्त्रव्यक्तिसामान्य-ग्रहा येऽत्र तु नैगमे । सपताऽनतिक्रान्त-स्वस्वनावमिदं जगत ।
भौझुक्यसमयोत्पत्ति, भूमहे वत एव हि ॥ ११ ॥ सत्तारूपतया सर्वे, संगृहन् संग्रहो मतः॥३॥
(स्वतन्त्रति) स्पः अत्र चार्थे प्रदर्शितम्यावेन द्रव्यपर्यायव्यवहारस्तु तामेव, प्रतिवस्तुम्बवस्थिताम् ।
रुपमुभयमपि परस्परविविक्कमेकत्र विद्यत इत्यभिप्रायो नैगमो. तथैवश्यमानस्वाद, व्यवहारयति देहिनः" ॥४॥शति।
वायरुग्यास्तिकप्रतिरिति सम्मतिवृत्तिखरसोऽपीति ध्येपर्यायनयभेदा अजनाऽऽदयः।
यम् ॥ ११ ॥ "तबर्जुसूत्रनीतिः स्या-दुरूपर्यायसंश्रिता।
अजुसूत्राऽऽदितः सौत्रा-न्तिकवैज्ञाषिको क्रमाव । मेश्वरस्यैव भावस्य, भावस्थितिवियोगतः"१७ सम्म०१ |
अभवन् सौगता योगा-चारमाध्यमिकाविति ॥१३॥ काए। (३३) ययेष संग्रहव्यवाहारी वेदान्तिसारयदर्शनप्रव
(जुसूत्राऽऽदित इति) ऋजुसूत्राऽऽदित ऋजुसत्रशब्दसमत्रि. तकी, नैगमनयस्तहिं कस्य दर्शनस्य प्रवर्तकः १. इति
सदैवतेज्या क्रमात सौत्रान्तिकवैभाषिकयोगाचारमाध्यमिका जिज्ञासायामाह
इति चत्वारः सौगता प्रबन्नुदपद्यन्ते।
पतेषां स्वरूपमेतेन काव्येन केयमहेतुर्मतस्य कस्याऽपि, शुदाऽशुको न नैगमः।
"अों ज्ञानसमन्वितो मतिमता वैभाषिकेणेक्ष्यते, अन्तर्भावो यतस्तस्य, सम्प्रहव्यवहारयोः ॥ ११७ ॥ प्रत्यको न हि वाद्यवस्तुविसरः सौत्रान्तिकैराश्रितः। (तुरिति) सामान्यविशेषाऽऽद्युनयमादित्वेन वाशुको नेग.
योगाचारमतानुगरनिमता साकारबुकिः परा, मनयः कस्यापि मतस्य दर्शनस्य न हेतुर्न प्रकृतिः,यत:सामा
मन्यन्ते बत मध्यमाः कृतधिया स्वच्गंपरां संविदम"॥१॥इति। म्यग्रहाय प्रवृत्तस्य संग्रह पव, विशेषग्रहाय च प्रवृत्तस्य व्य
पतद्विशेषाऽवगमपुष्पमदार्थिना तु मतकृतलताद्वयं परिशील. बहार एवान्तर्भाव शति । तमुनयनि स्वात्माममेवालममा
नीयम । अत्र वैभाषिकस्य शब्दनयपकपातित्वं, नित्यानित्यशमस्य न जिनदर्शनप्रकृतित्वमभिधातुं युज्यत इति । ११७॥
ब्दवाच्यपुभलाभ्युपगमात् , कानार्थक्षणयोगपद्यरूपत्वं जनपकुतस्तहि वैशेषिकदर्शनमुत्पन्नं, कथं वा तस्य न सम्य
यिप्रधानत्वाचाबगन्तव्यम् । योगाचारमाध्यमिकयोश्च शुद्धक्त्वम् ?, इत्याकाङ्खायामाह
अखतरत्वेन समभिस्वं भूतपकवतित्वमिति ॥ १२ ॥
नयसंयोगजः शब्दा-लङ्काराऽऽदेश्च विस्तरः । द्वाच्या नयान्यामुनीत-मपि शास्त्रं कणाऽशिना ।
कियान् वाच्यो वचस्तुल्यसंख्या ह्यभिहिता नयाः॥११॥ अन्योऽन्यनिरपेकत्वा-मिथ्यात्वं स्वमताग्रहात ॥११॥
(नयेति) शब्दासकाराऽऽदेव्याकरणसाहित्याऽऽदिशास्त्रस्य (काभ्यामिति) द्वाभ्यां सामान्यविशेषग्राहियां संग्रहव्य- चबिस्तरो नयसंयोगजो नानानयमयः, पादित एष तत्मवृत्ती महाराज्यां नयाच्यामुनीतं पृथग् व्यवस्थापितमपि कणा- नानावयविवकामामुपजीवनात् । अन्यथा सार्वपार्षतत्वानुपशिना कणादमुनिना शाखम, अन्योन्यनिरपेकत्वात्परस्पर- पतिः। अत एव मीमांसका अपि सभ्यपर्याययोः सार्वजनीनविविकाव्यपर्यायोभयावगादित्वात् स्वमताप्रहात् स्वकल्प- नेदाभेदाऽऽयुपपतये व्यवहारनयमानन्त्यव्यभिचाराभ्यांविभ्यनाऽभिनिवेशान्मिध्यात्वम् ॥ नहि नयद्वयावलम्बनमेव शास्त्र- तो व्यक्तिशक्तिमपहाय जातौ शक्तिव्युत्पत्तये संग्रहनयं चाहिस्य सम्यक्त्वप्रयोजकं, किंतु यथास्थाने तद्विनियोगः। स च यमाणाः स्वमतप्रवृतौ नयसंयोगमेवाऽऽदावपेकन्ते । यतु मीमांस्वप्रयुक्तनावयेतरयाबद्भङ्गानां स्याद्वादलाञ्छितानां परस्पर- सकमतस्थाद्धम्ब्यास्तिकव्यवहारनयप्रकृतित्वं सम्मतिवृत्ती साकाहाणां तात्पर्यावषयतया संपद्यते, एकतरस्याऽस्यता- नामनिकेपावसरे जाषितं, "तच्छदार्थयोनित्यसंबन्धमात्रबादात्पर्य सिमान्तविराधनाया अपरिदारात् । तदाह-" जे वय- पेकया, औत्पत्तिकस्तु शब्दस्यार्थेन संबन्धः" इति, तत्सूत्रे औ. णिज्जविअप्पा, संजुजतेसु दौति एपसु । सा ससमयपम्पवणा, त्पत्तिक इत्यस्य विपरीतलकणया नित्य इति व्याख्यानात सिखंतविराहणा अमा" ॥१॥ इति । तदिह सामान्यविशेषयो. पूर्वपूर्वसंकेतापेक्कायामनवस्थानां नित्यपदसंबन्धान्युपगम एव । गः कुतस्तरामन्येषां जानामिति स्फुटमेव मिथ्यात्वम,मतिरि- प्रवृत्तिमूलव्यवहाराऽऽद्यन्तशुद्धशास्त्रैदम्पर्यपर्यासोचमायां तु तस्य तखामाम्यविशेषापेक्षां विना महाप्सामान्यान्त्यविशेषयोरिव व. नयसंयोगस्वमेवमुक्तम् । अन्यथा-शब्दानुशासनेऽपि स्फोटस्तुमात्रस्य स्वत एव सामान्यविशेषाऽऽत्मकत्वमित्यर्थस्यैव य-। विचारे शब्दसन्माचसंग्रहप्राधान्येन नयसंयोगजत्वं न स्यातून थावत्रायद्वयविनियोगरूपस्वात, अभ्यथाऽनवस्थानात् । तदिदमुक्त- पसंयोगजत्वे शन्दादीनां कथंन स्वसमयतुल्यत्वमिति चेत्,मूम-"खतोऽनुवृत्तिव्यतिवृत्तिभाजो, भावान भावान्तरनेयम्पाः । दनयानां तेषांयथावद्विभागाकरणातात एव यथावनयविभा. पराऽऽत्मतत्वादतथाऽत्मतवाद्, द्वयं बदन्तोऽकुशमाः स्वाक्ष- गचिकीर्षया“सिद्धिः स्याद्वादात्"॥११॥२॥ इति (हम०)सूत्रमुप. न्ति mea" (स्था.) इति । एतेन नेयायिकदर्शनमपि व्याक्यातम, न्यस्य श्रीहेमसूरयः खोपकशब्दानुशासनस्य स्वसमयान्तर्भावन पदार्थप्रमाणाऽऽदिनेदं विना प्रायस्तस्य वैशेषिकदर्शनसमाब. हद्धप्रामाण्यमाविश्वः। संकेपमनिप्रेत्याह उक्को विस्तरः किविषयत्वादिवि दिम् ॥ ११८।।
या वाच्यो, हि यतः, वचस्तुल्यसंख्या नया अनिहिताः॥१२१॥
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एय
( १८६६ ) अभिधानराजेन्द्रः ।
स्याद्वादनिरपेक्षैथ, तैस्तावन्तः परागमाः । ज्ञेयोपयुज्य तदियं, दर्शने नययोजना ॥ १२२ ॥
(स्याद्वादोत ) तैर्नयैः स्याद्वादनिरपेक्कैः स्याद्वादैकवाक्यतारहितैस्तावन्तो वचस्तुल्यसंख्या एव परागमाः परसिद्धान्ता नवन्ति, अभिनिवेशान्वितनयत्वस्यैव परसमय लक्षणत्वात् । इदमुकं सम्मतितृतीय काण्डे " जावश्या वयणपहा, तावइआ चेव हुति णयवाया। जावश्या ण्यवाया, तावइया वेव परसमया " ॥ ४७ ॥ एतावत्सु नयेविच्छा कल्पितयोगजभेदेऽपि समवायान्तराकेपकः सुलन एव, इयं दर्शने नययोजनोपयुज्य ज्ञेया, न त्वापातत एव आपातज्ञानस्य स्वसमय पर समयविपर्यासफलत्वात् । अत एव वस्तुस्थितिविचारे " जे पज्जवेसु णिरक्षा, जीवा परसमयगतिविणिद्दिट्ठा । श्रावसहावम्मिठिया, ते सगलमया मुणेयब्बा " ॥ १ ॥ इति दैगम्बरं वचनं वक्तुः सम्यकू स्वसमयनिष्णात तामनिव्यञ्जयति । द्रव्यास्तिकाभिप्रायः स्वसमयः, पर्यायास्तिकाजिप्रायः परसमय इत्यस्थ स्याद्वादनिरपेक्षत्वान्नयवाक्यमेवैतदिति चेत्, तर्हि प्रवचनप्रक्रियान्युत्पादने क इवास्योपयोगः ?, स्थूलसूक्ष्मनयार्थानां क्रमव्युत्पादनस्यैव शास्त्रार्थत्वादिति मुग्धबन्धनमात्रमेतत् । यदपि प्राचचनिकानां जिननकि सेनप्रभृतीनां स्वस्वतात्पर्यविरुरुविषये सूत्रे परतीर्थिक वक्तव्यताप्रतिबन्धप्रतिपादनं तदप्यभिनिवेशेन चेतदा प्रावचनिकत्वक्षतिरिति । तत्र परतीर्थिकपदं भिन्नपरम्परायाततात्पर्यानुसारिपदम; अत एव नयाभिप्रायेण प्रवृत्त त्वादिति हेत्वनिधानोपपत्तिः । अत एव च नयाभिप्रायेणोजयसमाधानमस्माभिर्ज्ञानबिन्दौ विद्दितमिति । एवमन्यत्राऽपि दर्शनप्रयोजनाभ्यामुपयोगो विधेयः समयनिष्णातैः ॥ १२२॥नयो० | (३४) के पुनरेषु नयेष्वर्थप्रधानाः के च शब्दनया इति दर्शयन्ति
एतेषु चत्वारः प्रथमेऽर्थनिरूपणप्रवणत्त्रादर्थनयाः ॥४४॥ शेषास्तु त्रयः शब्दवाच्याऽर्थगोचरतया शब्दनयाः || ४५॥ कः पुनरत्र बहुविषयः, को वाऽल्पविषयो नय इति विवेचयन्तिपूर्वः पूवो नयः प्रचुरगोचरः परः परस्तु परिमितविपयः ।। ४६ ।।
तत्र नैगम संग्रह योस्तावन्न संग्रहो बहुविषयो नैगमात्परः, किं तर्हि नैगम एव संग्रहात्पूर्व इत्याहु:--
सन्मात्र गोचरात्संग्रहान्नैगमो
जावा जावचूमिकत्वाद्
नूमविषयः ॥ ४७ ॥
भावाऽभाव भूमिकत्वाद्भावानावविषयत्वाद्, भूमविषयो बहुविषयः ॥ ४७ ॥
संग्रहाद् व्यवहारो बहुविषय शते विपर्ययमपास्यन्तिसद्विशेषमकाशकाघयवहारतः संग्रहः समस्तसत्समूहोपदशेकत्वाद बहुविषयः ॥ ४८ ॥
व्यवहारो हि कतिपयान् सत्प्रकारान् प्रकाशयतीत्यल्प विषयः, संग्रहस्तु सकल सत्प्रकाराणां समूहं व्यापयतीति बहुविषयः ॥ ४८ ॥
गाय
व्यवहारात ऋजुसूत्रो बहुविषय शर्त विपर्यास निरस्यन्तिवर्त्तमान विषयादृजुसूत्राद्वयवहार निकाल विषयाऽवलम्बिवादनार्थः ॥ ४० ॥
वर्तमानकणमात्रस्थायिनमर्थमृजुसुत्रः सूत्रयतीत्य सावल्पावेचयः, व्यवहारस्तु कासत्रितयवत्यर्थजातमवलम्बत इत्यघमनरूपार्थ इति ॥ ४६ ॥
ऋजुसुत्राच्छन्दो बहुविषय इत्याशङ्कामपसारयन्तिकालाऽऽदिनेदेन भिन्नार्थे पदर्शिनः शब्दादृजुसूत्रस्तद्विपरीतवेदकत्वान्महार्थः ॥ ५० ॥
शब्दनयो हि कालाऽऽदिनेदाद्भिन्नमर्थमुपदर्शयतीति स्तोकविषयः, ऋजुसुत्रस्तु कालाऽऽदिभेदतोऽप्यनिन्नमर्थ सूचयतीति बहुविषय इति ॥ ५० ॥
शब्दात्समभिरूढो महार्थ इत्यारेकां पराकुर्वन्तिप्रतिपर्यायशब्दमर्थभेदमनप्सतः समभिरूढाच्छन्दस्तद्विपर्ययाऽनुयायित्वात् प्रत्तूतविषयः ॥ ५१ ॥
समभिरूढनयो हि पर्यायशब्दानां व्युत्पत्तिभेदेन भिन्नार्थतामयत इति तनुगोचरोऽसौ शब्दनयस्तु तेषां तद्भेदेनाऽप्येकार्थतां समर्थयत इति समधिकविषयः ॥ ५१ ॥ समभिरूढादेवम्भूतो भूमविषय इत्यप्याकूतं प्रतिक्षिपन्तिप्रतिक्रियं विभिन्नमर्थ प्रतिजानानादेवं नृतात्समनिरूदस्तदन्यथाऽर्थस्यापकत्वान्महागोचरः ॥ ५२ ॥
एवंभूतनयो हि क्रियानेदेन भिन्नमर्थ प्रतिजानीत इति तुच्छविषयोऽसौ समनिरूढस्तु तद्भेदेनाऽप्यभिक्षं भावमनिप्रतीति प्रभूतविषयः ॥ ५२ ॥
अथ यथा नयवाक्यं प्रवर्त्तते तथा प्रकाशयन्तिनयवाक्यमपि स्वविषये प्रवर्त्तमानं विधिप्रतिषेधाज्यां सप्तङ्गीमनुव्रजति ।। ५३ ॥
नयवाक्यम् प्राग्लक्कितविक लाऽऽदेशस्वरूपं न केवलं सकलाऽऽदेशस्वभावं प्रमाणवाक्यमित्यपिशब्दाऽर्थः । स्वविषये स्वाऽभिधेये प्रवर्तमानं विधिप्रतिषेधाभ्यां परस्परविभिन्नार्थनययुग्मसमुत्थावधाननिषेधाभ्यां कृत्वा सप्तभङ्गीमनुगच्छति, प्रम्भसप्तभङ्गीव देतद्विचारः कर्त्तव्यः, नयसप्तभङ्गोष्वपि प्रतिभङ्ग स्यात्कारस्यैवकारस्य व प्रयोगसद्भावात् । तासां विकलाssशत्वादेव सकलाssदेशाऽऽत्मिकायाः प्रमाणमप्तनङ्ग्या विशे
व्यवस्थापनात् । विकलाऽऽदेशस्वभावा हि नयसप्तभङ्गी, बस्त्वंशमात्र प्ररूपकत्वाद; सकलाऽऽदेशस्वभावा तु प्रमाणससनङ्गी सम्पूर्ण वस्तुस्वरूपप्ररूपकत्वादिति ॥ ५३ ॥ रत्ना० ७परि० । यावदेव भेदाभेदरूपं वस्तूपदर्श्य भेदस्य पर्यायार्थिकविषयस्य द्वैविध्यमाह-
सो समास चिय, वंजणणियओ य अत्यणिय ओय । प्रत्यगभ य अभिष्यो, नइयन्वो वंजणवियप्पो ॥ ३० ॥
स पुनर्विभागः समासतः संपतो व्यजननियतः शब्दनयनिबन्धनोऽर्थ नियतश्चार्थनयनिबन्धनश्च तत्राऽर्थगतस्तु विभा• गोऽभिन्नः संग्रहष्य वहा रर्जुसूत्रार्थप्रधाननया विषयोऽर्थ पर्यायो. ऽजिन्नोऽसद द्रव्यातीतानागतव्यवच्छिन्नाभिन्नार्थ पर्यायरूपत्वा-. चद्विषया नया अव्यर्थगतो विनागोऽभिन्न इत्युच्यते ।
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(१९५७) याय
अन्निधानराजेन्द्रः। भाज्यो व्यजनविकल्प इति विकल्पितः शब्दपर्यायो भि- यशकथं शब्दोवस्वन्तरत्वात्पुरुषाऽदेवस्तुनो धर्मः, येनाऽसौ भोऽनिनवानेकानिधान एकः, एकाभिधानाधैक इति कृत्वा तस्य व्यअनपर्यायो भवेदित्युक्तम् । तत्र नामनयाऽभिप्रायात् समाननिसंख्याकालाऽऽदिरनेकशब्दोघटःकुटः कुम्भ इत्यादि. "नामनामवतोरभेदात्"पुरुषशब्द एव पुरुषार्थस्थ व्यञ्जनपर्याकएकार्थ इति शब्दनयः। समजिसढस्तु-भिन्नान्निधेयो घट- यः। यद्वा-पुरुष इति शब्दो बाचको यस्याऽर्थगततद्वाच्यधर्मस्याकुटशदी भित्रप्रवृत्तिनिमित्तत्वापरसाऽऽदिशब्दवदित्येकार्थ | सौ पुरुषशब्दस चाभिधेयपरिणामरूपोव्य अनपर्यायः कथं नाsपकशम इति मन्यते । पर्वतुतस्तु चेासमय पव घटो घट- थंधर्मः, सच व्यञ्जनपर्यायः पुरुषोत्पत्तेरारभ्याऽऽपुरुषविनाशाशब्दवाच्यः, अन्यथाऽतिप्रसङ्गात ।
द्भवतीति जन्माऽऽदिमरणसमयपर्यन्त उक्तः, तस्य तु बालाऽऽद. तदेवमभिन्नोऽर्थो वाध्योऽस्य त्वजिन्नार्थो घटशब्द इति यःपर्याययोगा बहुविकल्पा,तस्य पुरुषानिधेयपरिणामवतोबामन्यते यत्तदन्यतो बिन्नक्तेन स्वरूपेणैकमनेकं च लकुमाराऽदयस्तत्रोपलभ्यमाना अर्थपर्याया भवन्त्यनन्तरूपाः। वस्तूक्तं तदनन्तप्रमाणमित्यास्यातुमाह
एवं च पुरुषो व्यञ्जनपर्यायेणेको, बासाऽदिभिस्त्वर्थपर्याएगदवियम्मि जे अ-स्थपजवा वयणपज्जवा वा वि । यैरनेको, यथा पुरुषस्तथा सर्व वस्त्वेकमनेक बा, सर्वस्य ततीयाऽणागयत्जया, तावश्यं तं हवा दव्यं ।। ३१॥
पैवोपलब्धेः, अन्यथाऽन्युपगमे एकान्तरूपमपि तत्र भवेदिति
दर्शयन्नाहएकस्मिन् जीवाऽऽदौ कन्येऽर्थपर्याया अर्थग्राहकाः सनद
अस्थि सिणिब्बियप्पं, पुरिसं जो भणड पुरिसकामम्मि । व्यवहारर्जुसूत्राख्यास्तग्राह्या वार्थभेदा वचनपर्यायाः श
सो बालाऽऽइवियप्प, न बहड तुझं वयावेज्जा ॥३३॥ मदनयाः शन्दसमभिरुदैवंनूतास्तत्परिच्छेद्या वस्त्वंशावा, ते चातीताऽनागतवर्तमानरूपतया सनदा विवर्तन्ते, विवृता.,बिव
अस्तीत्येवं निर्विकल्प निष्क्रान्ताशेषनेदस्वरूपं पुरुषमेकरूपं पुरुतिप्यन्त इति, तेषामानन्त्यावस्त्वपि तावत्प्रमाणं भवति ॥ तथा
पद्व्यं यो प्रवीति पुरुषकाले पुरुषोत्पत्तिक्षण एवाऽसौ बालाऽऽदिहि-अनन्तकालेन सर्वेण वस्तुना सर्वावस्थानां परस्परानुगमे
भेदं न मानते, बालाऽऽविभेदरूपतया नाऽसौ स्वयमेव व्यवस्थिति मासादितत्वावस्थातुश्चावस्थानां कश्चिदनन्यवाद् घटाऽऽ
प्राप्नुयात्, नाऽपि तद्रूपतया अपरमसौ पश्येदेवं वा भेदरूपमेव दिवस्तु कुटपुरुषाऽऽदिरूपेणाऽपि कथञ्चिद्विवृतामिति सर्व सर्वा
तत् पुरुषवस्तुप्रसज्यते,तुल्यं वा प्राप्नुयात,तदप्यन्जेदरूप वालाअत्मकं कथञ्चिदिति स्थितम् । रश्यते चैक पुलद्रव्यमती.
ऽऽदितुल्यत्वमेव भावरूपतया प्राप्नुयाद्भेदाप्रतीतावनेदस्याप्यम. तानागतवर्तमानजव्यगुणकर्मसामान्यविशेषपरिणामाऽऽत्मकं
तीतेरभाव इति भावः। यद्धा-अस्तीत्येवं निर्विकल्प-निश्चिनोति युगपत्क्रमेणापि तत्तथान्तमेव, एकान्तासत उत्पादायोगात्,
विकल्पो भेदो यस्मिन् पुरुषव्ये तनिर्विकल्प भेदरूपं पुरुषं सतश्च निरन्वयविनाशासंजवादिति प्रतिपादितत्वात।
तत्स्वरूपलाभकाले नणत्यसौ बालाऽऽदिविकल्पं न लभेत पर्व तावद् बाह्याभ्यन्तरभेदेन द्विविधस्याऽपि वस्तु
तुल्यमिति व्यतुल्यतामेवाऽसौ प्राप्नुयात् , अत्राऽपि पूर्ववत् नोऽनेकान्ताऽत्मकत्वं प्रतिपाद्य तत्प्रतिपा
तदग्रहे तबग्रहानेदरूपताया अप्यभाव इति भावः । न चैवमेदनवाक्यनयानामपि तथाविधमेव स्व
वास्तीति वक्तव्यम्, सर्वव्यवहारोछेदप्रसक्तरिति भेदाभेदरूपं नान्यारग्नूतमस्तीति प्रति
रूपमेव वस्तु ।
अस्यैवोपसंहारार्थमाहपादयत्राहपुरिसम्मि पुरिससहो, जम्माऽऽई मरणकालपज्जंतो।।
वंजणपज्जायस्सन, पुरिसो पुरिमो त्ति णिच्चमवियप्पो। तस्स उबालाऽऽईया, पज्जवजोया बहुवियप्पा ॥ ३२ ॥
बाझाऽऽवियप्पं पुण, पास से अत्यपजाओ ॥ ३४ ॥ अथवा अर्थव्यञ्जनपर्यायैः शक्तिब्यक्तिरूपैरनन्तरैरनुगतोऽर्थः
शब्दपर्यायेणाचिकल्पः पुरुषः, बालाऽऽदिना त्वर्थपर्यायेण स. सविकल्पो, निर्विकल्पकचा प्रत्यक्षतोऽवगत इति इदानी पुरुष.
विकल्पः सिद्ध इति गाथातात्पयार्थः। व्यजयति, व्यनक्तिवाऽ. रटाद्वारेण व्यञ्जनपर्यायं तदविकल्पत्वनिबन्धनमर्थपर्यायं च।
निति व्यञ्जनं शब्दो,न पुनः शब्दनयः, तस्य ऋजुस्त्रार्यनयतत्र सविकरूपत्वनिमित्तमाह-"पुरिसम्मि" इत्यादिना सूत्रेण,
विषयत्वादिति केचित्तस्य पर्याय मा जन्मनो मरणान्तं याव. प्रतीतानागतवर्तमानानन्तार्थव्यञ्जनपर्यायाऽऽत्मके पुरुषवस्तुनि
दनिनस्वरूपपुरुषव्यप्रतिपादकत्वं, तवशेन ततप्रतिपाद्यं वपुरुष इति शब्दो यस्याऽसौ पुरुषशम्दस्ताच्योऽर्थो जन्माss.
स्तुस्वरूपमत्र ग्राह्यम्, उपचारात । एवं च द्वितयमप्येतत्पुरुषः दिमरणपर्यम्तोऽभिन्न इत्यर्थः, पुरुष इत्यभिन्नाभिधानप्रत्य.
पुरुषश्त्यनेदरूपतया न भिद्यते,व्यञ्जनपर्यायमतेन पुरुषवस्तु म. यव्यवहारप्रवृत्तेः । तस्यैव बानाऽऽदयः पर्याययोगाः परिणति
दाऽविकल्म, भेदन प्रतिपद्यत इति यावत् । बालाऽऽदिविकल्प संबन्धा बहुविकल्पा अनेकभेदाः प्रतिक्षणसमपरिणामान्त
बाबाऽऽदिभेदं पुनस्तस्यैव पश्यत्यर्थपर्याय ऋजुसूत्राऽऽद्यर्थनयः। जूता भवन्ति, तत्रैव तथा व्यतिरेकज्ञानोत्पत्तेः । एवं च स्यादेक
अत्रापि विषयिणा विषय ऋजुसत्राऽऽद्यर्थनयविषयेऽभिन्ने पुरुइत्यविकल्पः, स्यादनेक इति सविकल्पः सिकः। अन्यथाऽभ्युप
षरूपे दे स्वरूपो निर्दिष्टः, उपचारात। एवं चाभिनं पुरुषवस्तु गमे तदनाव पवेति विपकः " अस्थि ति णिम्वियप्पं (३३)"
नेदं प्रतिपद्यत इति यावत् । सम्म. १ काण्ड । स्था। त्यनन्तरगाथया बाधां दर्शयिष्यति, द्वितीयपातनिकया न ।
(३५)नयेषु मिथ्यात्वसम्यक्त्वे । अथ नयोत्पादितेष्वपगाथार्थस्तु-पुरुषवस्तुनि पुरुषश्वनियंजनपर्यायः, शेषो
रिमितेषु दर्शनेषु कस्मिन् मिथ्यात्वं, कस्मिंश्च सम्य. बालाऽऽदिधर्मकसापोऽर्थपर्याय इति गाथासमुदायार्थः। ननु
क्वमिति जिज्ञासायामाहकोऽयं पुरुषशब्दः, कथं वा शब्दोऽर्थस्य पर्यायः ततोश्यन्तभिः
नास्ति नित्यो न नो कर्ता, न भोक्ताऽऽत्मा न नितिः। मात्याद् घटस्येष पटः॥(३२) सम्म १काएड ।
तदुपायब नेत्याहु-मिध्यात्वस्थानकानि पद ।।१२३॥
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(२ ) प्रन्निधानराजन्मः।
ण्य (नास्तीत्यादि) नाऽस्त्यात्मेति चार्वाकमते, न नित्य इति क्षणिक- प्रतिष्ठां प्राप्नुवन्ति अस्मिनिति समय आगमः । न पक्षवादिमते,न कर्ता न भोक्तेति साङ्ख्यमते। यहा-न कर्तेति सा पाती नेकपक्वानुरागी । पकपातित्वस्य हि कारणं मत्सरित्वं ख्यमते, न नोक्तेत्युपचरितभोक्तृत्वस्यानन्युपगमात वेदान्तिम- परप्रवादपूक्तम् । स्वत्समयस्य च मत्सरिस्वाभावास पक्कपातिते. नास्ति निर्वृत्तिः सर्वदुःस्वविमोक्षलकणेति नास्तिकमायाणां त्वम् । पक्षपातित्वं दि मत्सरित्वेन व्याप्तम् । व्यापकं च सर्वज्ञानज्युपगन्तृणां यज्वनामते, अस्ति मुक्तिः परं तदुपायो ना.
निवर्तमानं व्याप्यमपि निवत्यतीति मत्सरित्वे निवर्तमाने स्ति, सर्वभावानां नियतत्वेनाकस्मादेव भावादिति नियतिवादि
पक्कपातित्वमपि निवर्तत शति भावः । 'तव समयः' इति वाच्यमते । इत्येतानि षट् मिथ्यात्वस्थानकान्याहुः पूर्वसूरयः। १२३ ॥ |
वाचकनावलकणे संबन्धे पष्ठी । सूत्रापेकया गणधरकर्तृकत्वे
पि समयस्याऽर्थापेक्षया भगवत्कतकत्वाद्वाच्यवाचकभावो न पमेतद्विपरीतानि, सम्यक्त्वस्थानकान्यपि ।।
विरुध्यते-"अस्थं भासद अरहा, सुत्तं गंधंति गणहरा निनणं।" मार्गत्यागप्रवेशाच्यां, फनतस्तत्त्वमिष्यते ॥ १४॥ (१११६) इति (भाष्य) वचनात् । अथवा-उत्पादव्ययधी(यमेतदिति) एतेभ्यः प्रागुतेभ्यो विपरीतानि षट् सम्य
व्यप्रपश्चः समयः, तेषां च जगवता साकान्मातृकापदरूपतयाऽ. कत्वस्थानकान्यपि भवन्ति-अस्त्यात्मा नित्यः कर्ता साकागो
निधानात् । तथा चार्षम--" उप्पन्ने वा, विगमेश् वा, धुवे ता, अस्ति मुक्तिरस्ति च तत्कारणं रत्नत्रयसाम्राज्यमिति ।
वा" इत्यदोषः । मत्तरित्वाभावमेव विशेषणद्वारेण समर्थयतदिदमुक्तम्-" अस्थि जिनो तह णियो, कत्ता भुत्ता स पुनः
ति--" नयानशेषानविशेषमिच्छन्" इति । अशेषान् समस्तानपावाणं । अस्थि धुवं णिवाणं, तस्सोवाओ अ छहाणा ॥१॥"
यान् नैगमाऽऽदीन् अविशेष निर्वेशेषं वथा जवत्येवामिच्छनाइति चार्वाकाऽऽदिपकनिरासश्चातिभूयानिति लताऽऽदित एव |
कान्, सर्वनयाऽऽत्मकत्वादनेकान्तवादस्य । यथा विशकतदवगमो विधेयः।नयो।
लितानां मुक्तामणीनामेकसूत्रानुस्यूतानां हारव्यपदेशः, एवं पृ.
थगभिसंधीनां नयानां स्याद्वादलकणैकसूत्रप्रोतानां श्रुताऽऽल्यनयाः समुदिताः सम्यक्विनः । श्राद्यस्तुतिकारोऽप्यवोचत
प्रमाणव्यपदेश इति । ननु प्रत्येकं नयानां विरुरूत्वे कथं समु. "नयास्तव स्यात्पदबावना इमे,
दितानां निर्विरोधिता?। उच्यते--यथा हि समीचीनं मध्यस्थं रसोपविष्टा श्व लोहधातवः।
न्यायनिर्णतारमासाद्य परस्परं विवदमाना अपि वादिनो भवन्त्यभिप्रेतफबा यतस्ततो,
विवादाद्विरमन्ति, एवं नया अन्योऽन्यं वैरायमाणा अपि सार्व भवन्तमार्याःप्रणता हितैषिणः ॥१॥" प्रा०म०१म.१वएड। अधुना परदर्शनानां परस्परविरुकाऽर्थसमर्थकतया मत्सरि.
शासनमुपेत्य स्याच्कन्दप्रयोगोपशमितविप्रतिपत्तयः सन्तः त्वं प्रकाशयन् सर्वज्ञोपासिकान्तस्यान्योऽन्यानुगतसर्वनयम
परस्परमत्यन्तसुहबूपतयाऽवत्तिष्ठन्ते । एवं च सर्वनयाऽऽत्म
कत्वे भगवत्समयस्य सर्वदर्शनमयत्वमविरुकमेव, नवरूपयतया मात्सर्यानावमाविर्भावयति
त्वाद्दर्शनानाम । न च वाच्यम्, तर्हि भगवत्समयस्तेषु कथ अन्योन्यपक्षप्रतिपदनावाद,
नोपसयत इति ?, समुद्रस्य सर्वसरिन्मयत्वेऽपि विभक्तासु यथा परे मत्सरिणः प्रवादाः।
तास्वनुपलम्भात् । नयानशेषानविशेषमिच्च -
तथा च वक्तृवचनयोरेक्यमभ्यवस्य श्रीसिद्धसेनदिवाक
रपादाःन पक्षपात। समयस्तथा ते ॥ ३० ॥
"उदधाविव सर्वसिन्धवः, प्रकर्षणोद्यते प्रतिपाद्यते स्वान्युपगतोऽर्थो यैरिति प्रवादाः। समुदीर्णास्त्वयि नाथ! दृष्टयः। यथा येन प्रकारण, परे भवच्चासनादन्ये, प्रवादाः दर्शनानि न च तासु नवान् प्रदृश्यते, मत्सरिण:-अतिशायने मत्वर्थीयविधानात् सातिशयाऽसह- प्रविभक्तासु सरित्स्विवोदधिः " ॥१॥ नताशालिनः क्रोधकषायकषितान्तःकरणाः सन्तः पक्षपाति- भन्ये व व्याचकते-यथा--'अन्योऽन्यपक्षप्रतिपकनादात्परे नः इतरपततिरस्कारेण स्वककीकृतपकव्यवस्थापनप्रवणा वर्त- प्रवादा मत्सरिणस्तथा तव समयः सर्वनयान् मध्यस्थतयान्ते । कस्मातोमेसरिणः ?,इत्याह-अन्योऽन्यपकप्रतिपकभावा
ऽकीकुर्वाणो न मत्सरी । यतः कथं नूतः?, पक्षपाती, पकमेकतापच्यते व्यक्तीक्रियते साध्यधर्मवैशिष्टयेन हेत्वादिनिरिति पक्काभिनिवेशं पातयति तिरस्करोतीति पक्षपाती, रागस्य पकः-ककीकृतधर्मप्रतिष्ठापनाय साधनोपन्यासः। तस्य प्रतिक- जीवनाशं नष्टत्वात् । अत्र च व्याख्याने मत्सरीति विधेयपदं, सः पकः प्रतिपका पक्षस्य प्रतिपक्षो विरोधी पकः, तस्य | पूर्वस्मिन पकपातीति विशेषः। अत्र च क्लिष्टाक्लिष्टव्याख्यानभावः पकप्रतिपक्षजावः । अन्योऽन्यं परस्परं यः पकप्रतिपक्ष- विवेको विवेकिमिः स्वयं कार्य इति काव्यर्थः ॥ ३० ॥ भावः पकप्रतिपकत्वमन्योऽन्यपकप्रतिपक्षभावस्तस्माता तथा- स्या । अष्ट० । सम्म० । न कारणमेव कार्य परिणामो वा, हि-य पव मीमांसकानां नित्यः शब्दः इति पक्कः, स एव | परिणामोन कार्य नापि कारणम,अपितु अव्यमा तत्त्वमिति, सौगतानां प्रतिपकः, तन्मते शब्दस्यानित्यत्वात् । य एव सौ.। तदेव चेति नियमेनकान्ताज्युपगमे सर्व पवैते मिथ्यागतानाम-अनित्यः शब्दः इति पक्षा, स एव मीमांसकानां प्र. बादाम, उक्कन्यायेन नियमेन मिथ्यात्वमित्यनिधानात् । कथ. तिपक्कः । एवं सर्वप्रयोगेषु योज्यम् । तथा तेन प्रकारेण, ते श्चिदभ्युपगमे सम्यवाद एवैते । इत्युक्तं जबति-यत उत्पातव, सम्यग् एति गच्चति शब्दोऽर्थमनेनति “पुनाम्नि घः" दव्ययध्रौव्याऽऽत्मकत्वे वस्तुनः स्थिते, तद्वस्तु तत्सदपेक्षया ॥५॥३।१३०॥ समयःसङ्केतः। यश-सम्यगवैपरीत्येनाऽऽस्य- कार्यमकार्य च कारणमकारणं च कारणे कार्य सचासचकान्ते झायन्ते जीवाजीवाऽऽदयोऽर्था अनेनेति समयः सिकान्तः।। रणं कार्यकाले विनाशवदविनाशवच, तथैव प्रतीतो, अन्यथा अथवा-सम्यगयन्ते गच्छन्ति जीवाऽऽदयः पदार्थाः स्वस्मिन् रूपे | चाप्रतीतेः । अत एकान्तरूपस्य वस्तुनोऽभावात् सर्वेऽपि नया:
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(१८६६) गय भाभिधानराजेन्छः ।
गाय स्वविषयपारच्छेदसमर्था अपीतरनयविषयव्यवच्छेदेन स्व
तस्साजुत्तं जुत्तं, जुत्तमजुत्तं व पमिहाइ॥५२७३ ।। विषये वर्तमाना मिथ्यात्वं प्रतिपद्यन्त इत्युपसंहरबाह
परसमएगनयमयं, तप्पमिवक्खनयो निवत्तेज्जा। णिययवयणिजसच्चा, सम्बनया परवियालणे मोहा ।
समए व परिग्गहियं, परेण जं दोसबुझीए ॥२७॥ ते पुण ण दिट्टसमो ,विनइ य सच्चे व अलिए वा ॥३॥ यो नामस्थापनाऽऽदिद्वारेण, तथा नैगमाऽऽदिनयैः, प्रत्यनिजकवचनाये स्वांश परिच्छेद्य सत्याः सम्यगज्ञानरूपाः काऽऽदिभिश्च प्रमाणैरथै सदमेक्विकया विचार्य न समीक्कते सर्व एव नयाः संग्रहाऽऽदयः परविचालने परविषयोत्स्वनने न परिभावयति, तस्याऽविचारितरमणीयतया अयुक्तं युक्तं मोहाः मुह्यन्तीति मोहा मिथ्याप्रत्ययाः, परविषयस्याऽपि स. प्रतिनाति, युक्तमपि वाऽन्यतयाऽयुक्तं प्रतिनाति, अतः कत्यत्वेनोन्मूलयितुमशक्यत्वात् तदभावे स्वविषयस्वाऽप्यन्यब- तव्यो नविचारः ॥ २२७३ ॥ किञ्च-बौद्धाऽऽदिपरसमयरूस्थितेस्ततश्च परविषयस्यासचे स्वविषयस्याप्यसत्वात् । त- पमनित्यत्वाऽऽदिप्रतिपादकस्य ऋजुसूत्राऽऽदिकनयस्य यन्मतं प्रत्ययस्य मिथ्यात्वमेव, तव्यतिरिक्तग्राह्यग्राहकप्रमाणस्य वा समयविधिः साधुः ( तप्पमिवक्खनयो त्ति) तस्यानित्यभावात्तानेव नयान् पुनःशब्दस्यावधारणार्धवात, नेति प्र- त्वाऽऽदिप्रतिपादकनयस्य प्रतिपक्कभूतो नित्यत्वाऽऽदिप्रतितिषेधे, विभजनक्रियाया दृष्टः समयः सिकान्तवाच्यमनेका- पादको यो व्यास्तिकाऽऽदिनयस्तस्मात्ततो निवर्सयेनिरा. ताऽऽत्मकं वस्तुतस्वं येन पुंसा स तथा सन् विनजते सत्ये. कुर्यात् । अथवा-समये स्वसिकान्ते, जैनागमेऽपीत्यर्थः । यतरतया स्वेतरविषयमवधारयमाखोऽपि तथा तत्रैव विभजते । दशानद्वेषाऽऽदिदोषकलुषितेन परेण दोषवुच्या किमपि जी. अपि वितरनयविषयसव्यपेकमेव स्वनयाशनिप्रेतं विषयं स. वाऽऽदिकं वस्तु परिगृहीतं भवति, तदपि नयविधिको निवर्तत्यमेवावधारयतीति यावद् ग्राह्यसत्यासत्ये इत्येवमनिधानम् । येत-जयोक्तिनिर्गुणरूपतया तत्स्थापयेदित्यर्थः। अस्मारकर्तभ्यो तच्च दृष्टाऽनेकान्तत्वस्य विभजनम, स्यादस्त्येव व्यार्थत नयविचार शति गाथा (ध्या) ऽर्थः ॥ २२७४ ॥ इत्येवंरूपः।
माह-किं सर्वत्र सर्वदा सर्वोऽपि कर्तव्यो नयविचाअतो नयप्रमाणाऽऽत्मकैकरूपताव्यवस्थितमास्मस्वरूपमनु
रः१, न, इत्याहगतव्यावृत्ताऽऽत्मकमुत्सर्गापवादरूपायप्राहकाऽऽत्मकत्वाद ब्य
एएहि दिहिवाए, परूवणा सुत्त-अत्थकहणा य । बतिष्ठत इत्यर्थप्रदर्शनायाऽऽह
इह पुण अएन्नुवगमो,अहिगारोतीहिँ मोसनं २२७५ दव्चट्ठियचत्तव्यं, सव्वं सब्वेण णिच्चमवियप्पं ।
एभिनंगमाऽऽदिभिर्नयः सप्रने दृष्टिवादे सर्ववस्तुप्ररूपणा सू. भारको अविभागो, पजववत्तब्वमग्गो य ।।३।। पाऽधकथना च, क्रियते इति शेषः । इद पुनः कालिकश्रुतेयत् किञ्चिद् व्याथिकस्य संग्रहाऽऽदेः सदादिरूपेण व्य- नभ्युपगमो, नावश्यं नयाख्या कार्या । यदि च-श्रोत्रपेकबस्थितं वस्तु वक्तव्यं परिच्छेद्यं तत्सर्व सर्वेण प्रकारेण नित्यं या नयविचारः क्रियते, तदा त्रिभिराद्यैरुत्सनं प्रायेणात्राधि. सर्वकालमविकल्पं निर्भेद,सर्वस्य सदविशेषात्मकत्वात् । तथा कार इति नियुक्तिगाथार्थः ॥ २२७५ ॥ नेदेन संपृकमिति दर्शयितुमाह-आरब्धवाविनागः, स एवावि- किमिति त्रिभिरेवाऽऽद्यनयैरिहाधिकारो, न शेषैः ?,श्त्याहजागः सत्तारूपो यो व्याऽदिनाऽऽकारेण प्रस्तुतः, चशब्दस्य
पायं संववहारो, ववहारं तेहिँ तिहिँ य ज बोए। प्रक्रान्ताविभागान कर्षणार्थत्वात; पर्यायवक्तव्यमार्गश्च पर्यापाधिकस्य यद्वक्तव्यं विशेषस्तस्य मार्गः पन्थाः जातः पर्याया
तेण परिकम्मणत्यं, कालियमुत्ते तदहिगारो ॥२२७६॥ र्थिकपरिच्छेद्यस्वभावो विशेषः संपन्न इति। सम्म०१कापरू । सुगमा । नवरं शिष्यमतिपरिकर्मणार्थ तैः स्थूलसंव्यवहारा(३६) एवं नवस्य बकणसंख्याविषयान् व्यवस्थाप्येदानीं र्थप्रतिपादकैरेव नैममसंग्रहव्यवहारनयरिहाधिकार इति गाफलं स्फुटयन्ति
थार्थः ॥ २२७६॥ प्रमाणवदस्य फझं व्यवस्थापनीयम् ।। ५४ ।।
आह-जन्विह पुनर्नाभ्युपगम इत्यनिधाय पुनस्त्रिनयानुका प्रमाणस्येव प्रमाणवत, अस्यति नयस्य, यथा खल्वानन्तर्येण
किमर्थम् ?, श्त्याहप्रमाणस्य संपूर्णवस्त्वज्ञाननिवृत्तिः फलमुक्तम्, तथा नयस्या- नत्थि नएहि विहणं, सुत्तं अत्यो य जिणमए किंचि । ऽपि वस्त्वेकदेशाज्ञाननिवृत्तिः फलमानन्तयेणावधार्यम् । प्रासज्ज उ सोयारं, नए नयविसारो बूया ॥२२७७।। यथा च पारम्पर्येण प्रमाणस्योपादानहानोपेकाबुरुयः संपू- सूत्रमों वा नास्ति जिनमते नयैर्बिहीनं किञ्चिदपि, तथावस्तुविषयाः फसत्वेनाभिहिताः, तथा नयस्याऽपि वस्त्वंश
ऽप्याचार्यशिष्याणां मतिमान्यापेक्कया सर्वनयविचारमिषेधः कुविषयाः, ताः परम्पराफलत्वेनावधारणीयाः। तदेतद द्विप्रकार.
तः। विमलमति श्रोतारं पुनरासाद्य मयविशारदः सरिः स. मपि नयस्य फलं, ततः कथचिद्भिवमभिन्नं बाऽवगन्तव्यम,
मनुकातमायनयत्रयं शेषान् वा नयान यादिति नियुक्तिगानयफलत्वान्यथाऽनुपपत्तेः। कशिद्भेदानेदप्रतिष्ठा च नयफ
थार्थः॥ २२७७॥ लयोः प्रागुकप्रमाणफयोरिव कुशबैकर्सम्या । रस्ना०७ परि०।
भत्र माध्यमनन्वनेन समोहहेतुना जयविचारेण मयत एव किं
नासिज्ज वित्थरेण वि, नयमयपरिणामणासमत्थम्मि । प्रयोजनम् !, इत्याह
तदसचे परिकम्पण-मेगनएणं पि वा कुज्जा ॥२२७०।। प्रत्थं जो न समिक्खर,निक्खेवनयप्पयाणमो विहिणा। सगमा । नवरं बाशब्दायहवेगवेज वा शिवमतिपरिक
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( १५००)
पय
मेां कुर्यात् तथाविधमतिमान्तु मन भाषेत इत्येत दपि षष्टव्यमिति ॥२२७८॥ तदेवमुक्तं नयद्वारम् । विशे० | अनु० । ( ३७ ) अथवा ज्ञानक्रिग्रानयद्वये संप्रहाऽऽदीनां समवतारोऽतस्तत्स्वरूपमाह
अभिधानराजेन्द्रः ।
नाणाहणं सव्वं, नागनम्रो जाइ किं व किरियाए । किरियाप करणनओ, तदुभयगाहो य सम्पतं । १५७१। कामाधीनमेव सर्वमैहिकामुष्मिकं सुखम् किमय किया क संध्यम ? युक्तिहानन्तरमेव पयांत करनयस्तु किया नयो वक्ष्यमाणयुक्तेरेव सर्वमैहिकाऽऽमुष्मिकं सुखं क्रियाया एषाऽऽधीनमिति नणति । उजयग्राहकचेह सम्यक्त्वं स्थितपक्ष इति || ३५११ ॥ विशे० । श्राव० । सूत्र० । सम्म० । नि० चू० । अनु० । श्राचा० । ना० म० । विपा० आ० चू० । (ज्ञानक्रियानयशब्दयोर्भतमनयोरवलोकनीयम' अशप्रथमनागे ३५८ पृष्ठे, ' अजरक्खिय' शब्दे २१४ पृष्ठे च नयानां यायेयमार्थवेरेगा कृ
(३०) कैतेषां नयानां समवतारः, क वाऽनबतारः १, इति संशयापनोदार्थमाह
मूढनइयं सुयं का लियं तु न नया समोयरंति इहं । पुहते समोयारो, नत्थि पुहत्ते समोयारो ॥२२७७ || मृदा विज्ञाया नया यत्र न तदेव नविक्रम किं तत् ?, कालिकं श्रुतम् - काक्षे प्रथमचरमपौरुषीलकणे फालप्रहमपूर्वकं पठ्यत इति कालिकं तत्र न नयाः समवतरम्यत्र प्रतिपदं न भरायन्त इत्यर्थः । क्व पुनस्तमीषां समवता[र] मासी कदा चाऽयमनवतारस्तेपाम, इत्याह- अपुइत्ते इत्यादि) चरणकरणाऽनुयोगधर्मकथाऽनुयोगगणिताऽनुयो
गव्याऽनुयोगानामपृथग्नावोऽपृथक्त्वं प्रतिसुत्रमविभागेन वयमान विनागाभावेन प्रवर्तनं प्ररूपणमित्यर्थः ि पत्वे मयानां विस्तरेणाऽऽसीत् समवतारः । चरणकरणाssधनुयोगानां पुनर्वक्ष्यमाणे पृथकत्वेनाति समवतारो नयानाम, प्रवति वा चिरुषापेोऽसी इति नियुक्तिमाथार्थः ॥ २२७ ॥
भाष्यकारव्याख्या
अविभागत्या मूढा, नयति मूढनइयं सुयं तेषा । न समोयरंति संता पप्ययं मे न जयंति ||२२८०|| अमेगभावो सुने सुने सवित्यरं जत्थ । अंतोगा चरणधम्मसंखाण दव्वाणं ॥ २२८१ ॥ तत्येव नयाणं पिडु, पत्रत्युं वित्थरेण सब्वेसिं । देसिंति समोवारं, गुरवो नयना पुढचम्मि ||२२८२|| गोदेसिन जस्य अणुओोगो न सेसया तिथि । संता वितं पुचं तत्य नया पुरिसमासन्न ॥ २२८३ ॥ चतस्रोऽपि गतार्थाः, नवरं प्रथम गाथोत्तरार्द्ध यद्यस्मात्सन्तोऽपि प्रतिपदं न जयन्ते, अपृथक्त्वं किमुच्यते ?, इत्याह-एकभावः । मामेव विवृयोति (सुने सुख इत्यादि) यत्र सूत्रे सूचेऽनुयोगा क्यानानि भयन्ते केपास इत्याह-परत्यादि) संख्यानं गणितमुच्यते । ततश्चेदमत्र हृदयम-यत्रैकैकस्मिन्
गय
सूत्रे चरण करणानुयोगः, धम्मंकथानुयोग, गणितानुयोगः इम्यानुयोग सविस्तरं व्याख्यायते न तु पक्ष्यमाणेन पार्थयेन तदत्यमिति शेषः पृथकत्वं तु किमुच्यते- गोय इत्यादि) इवं "कालिय च" (२२१४) इत्यादि माणगाथायां व्यक्तीविष्यतीति ॥ २२६० ॥ २२८१ ॥ २२८२ ॥ २२८३ ॥ आद-कियन्तं कालं यावत्पुनरिदं पृथक्त्वमासीत ?, कुतो वा पुरुषविशेषादारज्य पृथक्त्वमभूदित्याहजाति अज्जवरा, असं कालियाऽयोगस्स । तेणाssरेण पुहतं, कालियसुय दिडिवाए य ॥२२८४॥ पादार्थमेश गुरवो महामतयस्तावत्कालिकताऽनुयोगस्वापृथक्त्वमासीत् तदा व्यास्यानां श्रोतॄणां च तत् तू । कालिकग्रहणं च प्राधान्यख्यापनार्थम्, अन्यथा कालिकेऽपि सर्वत्र प्रतिसुत्रं चत्वारोऽप्यनुयोगास्तदानीमासन्नेवेति । तदारतस्त्वार्यरक्विितेभ्यः समारभ्य कालिकश्रुते दृष्टिवादे चाऽनुयोगानां पृथक्त्वमभूत् । इति नियुक्तिगाथार्थः ॥ २२८४ ॥ भाष्यम्
अपुतमासि बरा, जावं ति पुनमारओ जिहिए । के वे आसि कथा वा, पसंगओ देसिनुष्यतं ।। २२८५|| आर्यवैशद्यावदपृथकत्वमासीव तदारतस्तु पृथकत्वमुक्तम; तस्मिंश्राम करते आवेश, कदा ते आ सन् ? इति विनेयपृच्छ्रायां प्रसङ्गत प्रार्थवैराणामुत्पत्तिरुच्यत इति गाथार्थः || २२८५|| विशे० । ( 'अज्जरक्खिय' श दे २१२ पृष्ठे सर्व वृत्तम् )
नयविभागे विशेषतः कारणमाद्सविसयमसद्दता, नयाण तम्मत्तयं च गिएहंता । मांता य विरो, अपरीणामाऽतिपरिणामा ||२२०२ ॥ गच्छेज्ज मा हुमिच्छं, परिणामा य सुहुमाइ बहुजेए । होज्जाsसते घेत्तुं न कालिए तो नयविभागो ॥२२७३ ॥ (सविसयेत्यादि) शिवायथा अपरिणामाः अतिपरिणामाः परिणामाचेति । तत्राऽवित्रमतयोगीतार्थी अपरिणत जिनवचन रहस्या अपरिणामाः । प्रतिव्यादयाउपवादष्टोऽतिपरिणामाः । सम्यकपरिणतजिनवचनास्तु मध्यस्थवृत्तयः परिणामाः । तत्र ये अपरिणामास्ते नयानां यः स्वः स्व आत्मीय आत्मीयो विषयो “ज्ञानमेव श्रेयः क्रिया चाश्रेयः" इत्यादिकः, तमश्रद्दधानाः । ये त्वतिपरिणामास्तेऽपि यदेबैकेन नयेन क्रियाऽऽदिकं वस्तु प्रोक्तं तदेव तन्मात्रं प्रमाणतया गृहन्त एकान्त नित्याऽऽदिकवस्तुप्रतिपादकन यानां व परस्परविरोधं मनामध्यात्वमा गच्छेयुः, बेऽप्युक्तस्वरूपाः परिणामः शिष्यास्ते यद्यपि मिथ्यात्वं न गच्छन्ति, तथाऽपि विस्तरेण नयेर्याख्यायमानैयें सूक्ष्माः सूक्ष्मतराश्च तद्भदेशः, तान् गृहीतुमशक्ता समर्था भवेयुरिति माया त रहित सूरिनि कामिक इत्युपलक्षणत्वास ने नयविभागो विस्तरव्याख्या रूपो न कृत इति गाथा (द्वया) र्थः ॥ २२६२|| || २२६३॥ विशे० । प्रा० चू० । मा० क० । ० म० । श्रभिप्रायविशेषे, चं० प्र० १ पाहु० आ० म० । न्याये, श्री०। नीतौ च । विशे० ।
+ श्यं च गाथा प्रन्थतोऽवसेया, नेह गृहीता ।
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अन्निधानराजेन्षः।
गायकप्प (३६) तमेव नयमष्टप्रकारमाह
पज्जवकसिण समासो,पज्जवकसिणं तु चोदसं पुब्बा । आलोयणा य विणए,खत्त दिसाऽनिग्गहे य काले य। सामासियं पकप्पो, होति समासो मुणेयन्वो ॥ रिक्खगुणसंपदा विय,अभिवाहारे य अट्ठमए (३३७६। पजवकसिगं तिविहं, सुत्ते अत्ये य तदुलए चेव । इहाऽऽभिमुख्येन गुरोरात्मदोषप्रकाशनमालोचना विनयश्व बाह्य एमेव समासो वि हु,तेहि तु पानिज्जए चरणं ।। आसनदानान्युत्थानाऽऽदिः, अन्तरङ्गस्तु बहुमानाऽऽदि, तथा तस्स णएहिं मग्गा, ने उ समासण होति दुविहा तु । केत्रमित्केत्रादि, तथा दिगभिग्रहश्च वक्ष्यमाणल कणा, का. लश्व दिवसाऽऽदिः, तथा ऋतसंपन्नक्षत्रसंपदिति, गुणाः प्रिय
दबढपज्जवट्ठिय-या उ अविसे सियविसिट्ठा ।। धर्मत्वाऽऽदयः, तत्संपत्प्राप्तिरिति, अभिव्याहरणमनिव्याहारः
वाहादिसमुदियंत, दनछी दवमिच्छते णियमा । कालिकाऽऽदिश्रुतविषय उद्देशसमुद्देशाऽऽदिरिति । अयं चाऽष्टमो तं चेव पज्जवणो , दवाइविमेसियं इच्छे । नय इति नियुक्तिगाथासंकेपार्थः ॥३३६६॥ विशे० । श्रा० म०। अहवावि तिएिह विणया, दवष्टिय-पजवट्ठिय-गुणही। औ०। (आलोचनाऽऽदिनयानां विवरणं 'सामाइय' शब्दे दर्शयि
पज्नायविसेस चिय, सुहुमतरागा गुणा होति ।। प्यामि) द्यूतभेदे, कर्तरि अच्। नेतरि,न्याय्ये च । त्रि० । बाच ।
एगगुणकालगाऽऽदिसु, परिसंखगुणहितो तु णायव्यो। पायकप्प-नयकल्प-पुं० । नयतवसमाचारे, पं० चू।
दवा उ गुणा णएहे, गुणा विसेसत्ति एगट्ठा ।। ............,णयकप्पमियाणि वोच्छामि ॥ सम्वेसि पिणयाणं, आदेमणयंतरं पि सहाणे।
आदिएह तिएिह तु णया,एको विति भोय होति उज्जुमुओ।
सदादि तिएिह चेको, तिएिह ण या होति एवं वा ।। एस णयंतरकप्पो, पुवणऍ विसालमादीसुं ॥ सव्वे विणेगमाऽऽदी,आदिस्सति जो यो स आदेसो।।
अहवा णिग्गमसंगह-ववहारुज्जुस होति चउरेते ।
सद्दणया तिदिह एक्को, पंच गया होंति एवं तु ॥ णयतो एहो वि एओ, णयंतरं होति णायव्यं ।।।
अहवा वि होज छकं, णेगमों संगाहिगो असंगाही। सटाणे सहाणे, सव्वे वलिया हवंति सविमए । एसो णयकप्पो तू, पुब्बगतम्मी समक्खाओ ।।
संगहिगो संगहं तु, ववहारपविठ्ठऽसंगाही ।।
तम्हा तु संगहणो, ववहारो चेव होति नज्जुसुप्रो । उप्पयपुव्व विसालं, तमादि काउं तु सवपुव्वेसु ।
सद्दो य समनिरूढो, एवंजूतो य छ त्तु गया ॥ जण तो तु णयविनागो, पच्छं चोदति अहसीसो ॥ कम्हा कालियमुत्ते, ण णया तु समोयरति हु कहं वा ।
एतेहिं पुण सब्बे, वी दुग-तिग-पगण-छक-मेनिया संता। नयविगो होति साहण-मोक्खस्स तु भण्हति सुणाहि ॥
सोलस यंतराई, समास ओ होंति एया। णयवज्जिओविहु अन्न,दुक्खक्खयकारो जतिजएस्स।
जदि कुणति दवियकप्पं, एतेहि णयंतरेहि तु विमुछ। चरणकरणाणुओगो, तेण उ पढमं कयं दारं ॥
करणट्ठाणे पसत्या, ते खलु होंती मुणेयव्वा ।।
अकरते अपसत्था,कप्पेस णयंतरे समक्खाओ।पं०भा०। प्रायारपकप्पधरो, कप्पचवहारधारओ अजो!।
इयाणि नयंतरकप्पो-गाहा-(सब्वेसि पि नयाणं) श्रादेसनओणयमुत्तवन्जिओ वि हु, गणपरियट्टी अाएहातो॥
जो जाणो श्राश्स्सर । नयंतरं नाम-नयाो नयस्स अंपच्छित्तकरण अणुपा-लणा य नणिता न कप्पवहारे। तरं । एस जयंतरकप्पो पुवनए भणि प्रो विसालासु, एतेण सत्यधारी, गणधारी जो चरणधारी ।।
उप्पयपुब्धमेव विसावं । तत्थ किर सवाणि वि पाकअजो!त्ती भामंतण-णिदेसे वा यस्स मुत्ताई।
रिसिज्जंति। श्राह-कालियसुत्ते कम्हा नया न समोयरति ?। जातिं तु दिहिवाते, पच्छित्तं दिज्जते तह तु ॥
उच्यते-(नयवन्जिो वि हु अन्वं गाहा) सिद्धम, नया.
इति कोऽर्थः ?, नयन्तीति नयाः । अथवा-नयः नीतिमार्गः, तेहिं विणा विजापति, आयारपकप्पधारो जम्हा।
पन्था, दृष्टिग्राहक इत्यर्थः । ते च नैगमाऽऽद्याः जीवाऽऽदयः तम्हा तु अणुएहातो, गणपरियट्टी तु सो णियमा । पदार्थाः विविधैः प्रकारैः नयन्ति उववादयंति उपद. करणाऽपालयालं, पजवकसिणं समासतो णाणं ।
शयन्तीत्यर्थः । तेषां च दृष्टिवादे समवतारः। श्राह-अस्मि
न चरणकरणाऽनुयोगनयवादेऽप्यनभिज्ञानां कथं चरण विशुकरणाऽपालणजुतं, पज्जवकसिणं जवे तिविहं ।।
द्धिर्भवति । उच्यते-भ्रूयताम् । (आयारपकप्पधरो गाहा) प्रा. दु-त्ति-पण-उक्ककणयं-तरेमु सोलस हवंति गणाई।
चरणमाचारः, क्रिया इत्यर्थः। स चाऽप्रकार:-पञ्चसमितया, करणाणपमत्था, करणटाणा उ अपमत्था ।
गुप्तित्रयम् । एष चारित्राचारः । भाचारप्रकल्पधरो नाम-निएयाई गणाई, दोहि विगाहाहि जाइँ भगिताई। शीयेषु सूत्रार्थधर इत्यर्थः । किं च-कल्पव्यवहारधरश्च । अ. तेसि परूवणमिणमो, समासतो होति बोधया ।।
ज्जो! ति आमन्त्रणे निर्देशो वा (नयसुत्तबज्जिो ति)
नयन्तीति नयाः,हुः पादपूरणे । सुक्खक्वयकारो जम्दा पपकरणं तु किया होती, पहिलेहणमादि सामयारी तु ।
ण गणपरियट्टी अणुए हाम्रो । पाह-कहमनुज्ञातः? गाहा.( तं पालेज तुणाणे-ण तं च दुविहं मुणेयन्नं ।। दारं । । चित्तकरण)जम्दा पायत्तिकरणं अणुपालयंतितम्हारा
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(१५.२) पायकप्प अभिधानराजेन्द्रः।
गयामास अणुपालिज, तं पकप्पयकप्पववहारेसु भणियं,एएण सत्थधा
प्पवचहारसु भाणय,पएण सत्थधा- यपामय-नयनामय-पुं० कामनाऽऽदी नेत्ररोगे, व्य०६००। री जो सो गणपरियट्टी अणुबहाश्रो चरणजुत्तो जह भव. ३ । गादा-( करणापालगाणं) तं विहं-पज्जवकसिणं,
जयणिउण-नयनिपुण-त्रि० । नैगमाऽऽदिषु नयेषु निपुणे, ससमासतश्च । पज्जवकसिणं नाम-चोइसपुवाणि समासो
म्म । नयनिपुणतया नयवक्तव्यताऽवसरे सम्यक्सप्रपञ्चवैमायारपकप्पो, समासः संक्षेप इत्यर्थः । यथा समुरुभू
विक्त्येन नयानभिधते । सम्म०१ काण्ड । तस्तडागः, चन्द्रमुखी देवदत्ता, सिंहो माणवकः; एकदेशेना- गया-नयज्ञ-वि० । सर्वनयरहस्यविशे, अष्ट ३२ अप। प्यौपम्यं क्रियते । चतुर्दशपूर्वधरः, सर्वपर्यायेषु सूत्रार्थेषु ये च
णयप्पमाण-नयप्रमाण-न। नया नैगमाऽऽदयः सप्त, द्रव्यारणकरणाऽऽदयः पदार्थाः, तान् प्रज्ञापयितुं समर्थः । प्राचारक
स्तिकपर्यायास्तिकभेदात् । शाननयक्रियानयभेदाद वा द्वौ तौ ल्पधरस्त्वेकदेशतः। दोराहवि चरणकरणं अणुपालेउं समत्था।
एतावेव वा प्रमाणं वस्तुतत्वपरिच्छेदनं नयप्रमाणम् । आपेतेनैकदेशाऽभिज्ञत्वं प्रतीत्य यथा समासतोऽप्यर्थधराः कल्प.
किकप्रमाकरणे, स. ५ अङ्ग । (प्रस्थाऽऽदिदृष्टान्तैर्नयप्रमाणं व्यवहाराऽऽदयो गणपरिपालनसमर्था भवन्ति । (पज्जवकसिणं
'णय' शब्दे १८७६ पृष्ठे उक्तम) तिविह, सुत्ते अत्थे य तदुजए चेव) गाहा-(तिग-पणग) तिगं ति दब्वट्ठियपज्जवट्ठियगुणट्ठिया। अहवा-नेगमसंगहववहा
एणयप्पहाण-नयप्रधान-त्रि० । नेगमाऽऽदिभिः सप्तग्निः प्रत्येक रा एगं चेव, नज्जुसुश्री विश्ओ, तहभो सहो । अहवा पंच
शतविधैर्नयैः शषजनप्रधाने, यस्य वा मयाः प्रधानास्तस्मिन्, नेगमसंगहववहारा, उज्जसुश्रो, सहो (छक्को त्ति) नेगमो
रा। ओ, असंगहिरो य । संगहिश्रो संगहं पविद्रो, | णयररक्खणपुर-नगररक्षणपुर-न० । नासिक्यपुरस्थानभेद, असंगहियो ववहारे। पए छ जति । परसु नयंतरेसु सो. ती०१७ कल्प। लस ठाणाईनवति । कयराताई सोलस?। उच्यते-बियरवनीवह-नगरवल्लीवद-पुं०। वतिगवे, विपा. १ श्रु० हकप्पे सोलस सोलसविहो अजीवदबियकप्पो । माहारा २०। जीव कप्पं न सोहणे त्तिा एया जा करेंतो फरणहाणाई पस
करता करणघाणा पस-एयरी-नगरी-स्त्री०।राजधानीकल्पे नगरे,यथा-आमलकल्पा। स्थाई, अकरेतस्स ताणि चेव अपसन्थाणि । एस नयकप्पो । पं० चू।
(रा.)चम्पा । नौ । मू०प्र०।
ण्यविजय-नयविजय-पुं० । तपागच्छे श्रीविजयदेवसूरिबराणां एयगइ-नयगति-स्त्री० । नयानां सर्वेषां परस्परसापेक्षाणां प्र
शिष्ये यशोविजयोपाध्यायगुरौ, श्रीहीरविजयसूरिशिष्यकमाणावाधितवस्तुव्यवस्थापने,नैगमाऽऽदीनां नयानां स्वस्वमत- व्याणविजयशिष्यलाभविजयशिष्यजीतविजयसतीयें स्वनाम: पोषणे च । प्रज्ञा० १६ पद ।
ख्याते प्राचार्य, घा०। एयचंदसरि-नयचन्द्रसरि-पुं० । दम्मीरमहाकाव्यरम्नामञ्ज- "प्रकाशार्थ पृथ्व्यास्तरणिरुदयारिह यथा, ाद्यनेकग्रन्यकर्ताचार्ये, जै० ३०।
यथा वा पाथीभृत्सकल जगदर्य जलनिधेः । णयचक-नयचक्र-न० । दिगम्बरदेवसेनकृते नयप्रतिपादके |
तथा वाराणस्याः सविधमनजन् ये मम कृते, शास्त्रे, व्या० ८ अध्या० । पूर्वविद्भिः सकलनयसंग्राहीणि
सतीास्ते तेषां नयविजयविज्ञा विजयिनः" ॥५॥ (इति
यशोविजयोक्तेः)द्वा०३२ द्वा० । प्रति । अष्ट० । नय। सप्तनयशतान्युक्तानि, यत्प्रतिपादकं सप्तशतारं नयचक्राध्ययनमासीत् । उक्तं च-"इकेको य सयविहो,सत्त नबसया हवंति ए
णयविहि-नयविधि-पुं० । नैगमसंग्रहव्यवहार सूत्रशब्दसममेव।" (२२६४) इत्यादि । सप्तानां च नयशतानां संग्राहकाः
निरूद्वैवंभूतेषु नयभेदेषु, उत्त०२८ अ०। पुनरपि विध्यादयो द्वादश नयाः, यत्प्ररूपकमिदानीमपि द्वाद
यनिहिस-नयविधि-त्रि० । नैगमाऽऽदीनां नयानां नीतीशार नयचक्रमस्ति । अनु !
नां वा प्रकारके, शा० १ श्रु० १ अ.। यण-नयन-न० । नील्युट । प्रापणे,प्रा०म०१ अ०१खएम । पयसार-नयसार-पु० । प्रथमभवे पाश्चमम उत्त० । करणे ल्युट् । नीत्वा निवेशने,पं० सं०५चार | विशे०।। ख्याते वीरस्वामिजीवे, कल्प० २ कण । श्रा० क० । लोचने, प्रश्न०१ श्राश्र० द्वार । को०। "वाक्ष्यर्थवचनाऽऽद्याः" यानास-नयाऽऽभास-पुनियान्तरानरक्षप नय ॥८॥१॥३३॥ इति नयनशब्दस्य प्राकृते नीत्वमपि-"नयना म.१०२खएक । स्वाभिप्रेतादशादितराशापलापि नयनाई" प्रा०१ पाद ।
ये, स्या। णयणकीया-नयनकीका-स्त्री० । नेत्रमध्यतारायाम, रा० ।।
नयाभासं दर्शयन्तिशा। औः।
स्वानिपतादशादितरांशापलापी पुनर्नयाऽऽभासः ॥२॥ यणभूसणकर-नयननूषणकर-त्रि०।६ त० । नेत्राऽऽनन्द
पुनःशब्दो नयाद् व्यतिरेक द्योतयति । नयाऽऽभासो नयप्रतिकरे, नयनयोहि आनन्द एव भूषणम् । कल्प० ३ क्षण। । बिम्बाऽऽत्मा पुर्नय इत्यर्थः । यथा तीथिकानां नित्यानित्याss. णयणमाला-नयनमाला-स्त्री. । श्रेणीभूतजननेत्रपक्ती, भ०। येकान्तप्रदर्शकं सकलं वाक्यामिति ॥२॥ (रत्ना.) श०३३ उ०।
अथ नैगमाऽऽभासमाहुःयणविस-नयनविष-न । दृष्टिविषे, रोपे, का० १ ० १ धर्मद्वयाऽऽदीनामैकान्तिकपार्थक्यालिसन्धि गमाऽऽभाभ० म०।
सः ॥ ११ ॥
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(१०३) अन्निधानराजेन्कः।
यानास
पारकंतप्पवाय
श्रादिशब्दादू धर्मिद्वयधर्मधर्मिद्वययोः परिग्रहः । ऐकान्तिक
उदाहरन्तिपार्थक्याभिसन्धिरैकान्तिकजेदाऽनिप्रायो नैगमाऽऽनासो नैगम- यथा बनूव जवति नविष्यति सुमेरुरित्यायो तिनकाला: दुर्नय श्त्यर्थः ।। २१ ॥
शब्दा जिनमेवाऽर्थमनिदधति, जिबका ब्दत्वाद, ताहा अत्रोदाहरन्ति
सिकान्यशब्दवदित्यादिः ॥ ३५॥ यथाऽऽत्मनि सत्त्वचैतन्ये परस्परमत्यन्तं पृथग्जूते इत्या
अनेन हि तथाविधपरामर्शोत्येन बचनेन कत्तनावदिनेदादिदिः॥ १॥
नस्यैवाऽर्थस्याऽभिधायकत्वं शब्दानां व्यजितम् । एतप्र. मादिशब्दाद्वस्त्वाख्यपर्यायवद् द्रव्याऽऽख्ययोधर्मिणोः सुखजी- माणविरुकमिति तद्वचनस्य शब्दनयाऽऽभासत्वम्। मादिशब्देबसकणयोर्धर्मधर्मिणोश्च सर्वथा पार्यक्येन कथनं तदाभास- न करोति क्रियते कट इत्यादिशब्दनयाजासोदाहरणं सूचित्वेन द्रष्टव्यम् । नैयायिकवैशेषिकदर्शन चैतदाभासतया के- तम ॥ ३५ ॥ (रक्षा) यम् ॥ १२॥ (रत्ना०)
समभिरूढनयाऽऽभासमाभाषन्तेसंग्रहाऽऽनासमाहुः
पर्यायध्वनीनामभिधेयनानात्वमेव कत्तीकुर्वाणस्तदाभासत्ताऽद्वैतं स्वीकुर्वाणः सकलविशेषाभिराचदाणस्तदाभा
सः॥३७॥ सः ॥१७॥
तदाभासः समभिरूढाऽऽभासः ॥ ३० ॥ अशेषविशेषेप्यौदासीन्यं जजमानो हि परामर्शविशेषः सं.
उदाहरन्तिग्रहाख्यां बनते, न चाऽयं तथेति तदानासः ॥१७॥ उदाहरन्ति
यथेन्छः शक्रः पुरन्दर इत्यादयः शब्दा जिन्नाऽभिधेयथा सत्तैव तत्वं ततः पृथग्जूतानां विशेषाणामदर्शना- |
या एव, जिन्नशब्दत्वात् , करिकुरङ्गतुरङ्गशब्दवदित्यादिः त् ॥ १० ॥
॥ ३५॥ [रना] अद्वैतवादिदर्शनान्यखिलानि सास्यदर्शनं चैतदाभासत्वेन
एवंजूताऽऽनासमाचक्षतेप्रत्येयम् । अद्वैतवादस्य सर्वस्याऽपि दृष्टेष्टाज्यां विरुभ्यमा. क्रियाऽनाविष्टं वस्तु शब्दवाच्यतया प्रतिक्षिपस्तु तदानानत्वात् ॥१८ । (रत्ना०)
सः ।।४ ॥ व्यवहाराऽऽभासं वर्णयन्ति
क्रियाऽऽविष्ट वस्तु ध्वनीनामभिधेयः प्रतिजानानोऽपि यः यः पुनरपारमार्थिकाव्यपयायविभागमाभप्रेति स व्यव- परामर्शस्तदनाविष्ट तत्तेषां तथा प्रनितिपति न तूपेक्षते, स हारानासः ॥ २५ ॥
एवंनूतनयाऽऽभासः, प्रतीतिविघातानाऽपि२ ॥ यः पुनः परामर्शविशेषः कल्पनाऽऽरोपितहव्यपर्यायप्रविवेक
उदाहरन्तिमन्यते, सोऽत्र व्यवहारदुर्नयः प्रत्येयः॥ २५ ॥
यथा विशिष्टचष्टाशून्यं घटाऽऽख्यं वस्तु न घटशब्दवाच्यं, उदाहरन्ति
घटशब्दप्रवृत्तिनिमित्तलतक्रियाशून्यत्वात, पटवदित्यादिः यथा चार्वाकदर्शनम् ॥ २६ ॥
॥ १३ ॥ चार्वाको हि प्रमाणप्रतिपन्नं जीषाव्यपर्यायाऽऽदिप्रविनाग कल्पनाऽऽरोपितत्वेनापहते, अविचारितरमणीयं भूतचतुष्टयप्रवि.
अनेन दि वचसा क्रियाऽनाविष्टस्य घटाऽऽदेवस्तुनो घटाऽऽदि
शब्दवाच्यतानिषेधः क्रियते, सच प्रमाणबाधित इति तद्वचनभागमात्रं तु स्थूललोकव्यवहारानुयायितया समर्थयत इत्य
मेबंभृतनयाऽऽभासोदाहरणतयोक्तम् ॥४३॥ रत्ना०७ परि०॥ स्य दर्शन व्यवहारनयाऽऽ नासतयोपदार्शतम् ॥ २६ ॥ (रत्ना०) ऋजुसूत्राऽऽभासं ब्रुवते
पर-नर-पुं० । नृणन्ति विवेकमासाद्य नयधर्मपरा जबन्तीति सर्वथा व्यापलापी तदाभासः॥३०॥
नराः । कर्म०४ कर्म । “वाऽऽदौ"।८।१।२२६ । असंयुक्तसर्वथा गुणप्रधानभावाभावप्रकारेण तदानास ऋजुसूत्रा
स्याऽऽदी वर्तमानस्य नस्य णः। ति नस्य णः। प्रा०१पाद । भासः॥३०॥
मनुष्ये, प्रा०म०११०२ खण्ड । आचा। औ०। प्रश्न कर्म। उदाहरन्ति
रा० । नराश्चतुर्विधाः-सम्मूर्छिमाः, कर्मभूमिकाः, अकर्मभूमि यथा तथागतमतम् ।। ३१॥
काः, अन्तभूमिकाः। प्रा० म०१ अ.१ खएम। सामान्यमनुष्ये, तथागतो दि प्रतिक्षणविनश्वरान् पर्यायानेव पारमार्थिकतया
सूत्र.१श्रु०२०१०रा०। प्राकृतपुरुष, शास्त्रावबोध
विकले, सूत्र०१ श्रु० १ ० ३ उ० । पुरुषे, सूत्र. १ श्रु. १ समर्थयते, तदाधारभूतं तु प्रत्यनिझाऽऽदिप्रमाणप्रसिद्धं त्रिका
अ. ३ उ०। पुंसि, ध०१ अधि० । औ०। लस्थायि व्यं तिरस्कुरुत इत्येतन्मतं तदाभासतयोदाहृतम् ॥ ३१ ॥ (रत्ना०)
परउसन-नरकृषन-पुं० । अङ्गीकृतकार्यभरनिर्वाहकत्वाद् वृ__शब्दाऽऽभासं बुवते
पनोपमिते नरे, औ०।। तभेदेन तस्य तमेव समर्थयमानस्तदानासः॥ ३४॥ णरकंतप्पवाय-नरकान्तप्रपात-पुं० । जम्बूद्वीपे मन्दरस्योतद्भेदेन कालाऽऽदिभेदेन तस्य भवनेस्तमेवार्थदमेव, तदाभा- सरतो रम्यकर्षे नरकान्तानद्या उद्मप्रपातहदे, स्था० २ सः शन्दाभासः॥३४॥
ग. ३ उ०।
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(१९०४) मरकंता अभिधानराजेन्द्रः।
गारग णरकता-नरकान्ता-स्त्री० । रम्यकवर्षे पूर्वाऽर्णवगामिन्यां म- (३) साम्प्रतं पृथ्वीनामगोत्रं वक्तव्यम्हानघाम, ०४ वक। नरकान्ता महापुरागरीकहदाहकिण- पढमा जते! पुढवी किंनामा?, किंगोत्ता पमत्ता। गोयमा! तोरणेन विनिर्गत्य रम्यकवर्ष भजतीति हरिकान्तातुल्यब
घम्मा नामणं, रयणप्पभा गोत्तेणं । दोच्चाणं ते! पुढवी किंकन्या पूर्वसमुरुमधिगता । स्था० १ ठा० ३ उ० । रा० ।
नामा किंगोत्ता पमत्ता ?। गोयमा! वंसा नामेणं, सक्करप्पभा जं०।स।
गोत्तणं । एवं एतेणं अजिमावणं सव्वासिं पुच्गानामाणि पारकताकम-नरकान्ताकूट-न। जम्बूद्वीपे मन्दरस्य पर्वत
इमाणि-सेला तचा, अंजणा चनत्था, रिट्ठा पंचमा, मघा स्योत्तरेण रुक्मिवर्षधरपर्वतस्य चतुर्थे कूटे, स्था० ठा।। परकिंदग-नरकेन्धक-पु. । सीमान्तकाऽऽदिषु नरकवरेषु,
हा, माघवती सत्तमा । बाबुयप्पभाऊ जाव तमतमप्पभा स्था०६०।
गोत्तेणं पाता। णरग-नरक-पुं० । नरान् कायन्ति शब्दयन्ति योग्यताया अ- तत्र नामगोत्रयोरयं विशेषः-अनादिकालप्रसिद्धमन्वर्थरहि
तं नाम, सान्वथै नाम गोत्रमिति । तत्र नामगोत्रप्रतिपादनार्थ. नतिक्रमेणाऽऽकारयन्ति जन्तून् स्वस्वस्थाने रति नकाः। नं0 श्रा०म० कै'गै' रै'शब्दे इति धातोः नरान् शब्द.
माद-(इमा ण नंते! इत्यादि) इयं जदन्त! रक्षप्रभा पृथि.
वी किनामा किमनादिकालप्रसिकान्वर्थरहितनामा १, किंयन्तीत्यर्थः । श्राव. १ अ । पापकर्मिणां यातनास्थानेषु,
गोत्रा किमन्वर्थयुक्तनामगोत्रा? । भगवानाह-गौतम ! नाम्ना सुत्र०२६०१०। निरये, स्था०४०१०। रत्नप्रभा
घर्मेति प्राप्ता, गोत्रेण रत्मप्रभा। तथा चात्रान्वर्थमुपदर्शयउदिषु नारकोत्पत्तिस्थानेषु, उत्त. ३ अ०।
न्ति पूर्वसूरयः-रत्नानां प्रभा बाहुल्यं यत्र सा रत्नप्रना, रत्नव(१) नरकपदनिक्षेपार्थ नियुक्तिकृदाह
हुले ति भावः। एवं शेषप्सूत्राएयपि प्रतिपृथिवीप्रश्ननिर्वचनरूपा. णिरए नकं दव्वं, णिस्याउ इहेव जे नवे अमुभा।
णि जावनीयानि। नवरं शर्कराप्रभाऽऽद।नामियमवर्थभावनाखेत्तं णिरोगासो, कालो पिरपमुचेव विई ॥६४॥
शर्कराणां प्रभा बाहुल्य यत्र सा शर्कराप्रना। एवं बालुकाप्रभा, भावे उणिरयजीवा, कम्मुदयो चेव णिस्यपाओग्गो। पङ्कप्रभा इत्यपि भावनीयम । तथा धूमस्येव प्रभा यस्यां सा सोऊण णिस्यमुक्खं, तवचरणे होई जश्यव्यं ॥६५॥
धूमप्रभा । तथा तमसः प्रभा बाहुल्यं यत्र सा तमःप्रभा, तमस्त
मसः प्रकृष्टतमसः प्रजा बाहुल्यं यत्र सा तमस्तमःप्रना। "णिरए ग्" इत्यादि गाथाद्वयमा तत्र नरकशब्दस्य नाम
अत्र केचित् पुस्तकेषु संग्रहणी गाथेस्थापनाजव्यकेत्रकालभावभेदात् षोढा निकेपः तत्र नामस्था
"घम्मा बंसा सेला, अंजण रिट्ठा मघा य माघवती । पने खुराणे । द्रव्यनरक पागमतः, नोागमतश्च । आगमतो
सत्तएहं पुढवीणं, एए नामा उ नायब्वा ॥१॥ शाता, तत्र चाऽनुपयुक्तः। नोश्रागमतस्तु शरीरभव्यशरीर
रयणा सहर-वालुय-पंका धूमा तमा तमतमा य । व्यतिरिक्तःवि मनुष्यभवे, तिर्यग्भवे, केचनाऽशुनकाारस्वा
सत्तएडं पुढवीणं, एए गोत्ता मुणेयब्वा" ॥२॥ दाभाः सवाः कासकसौकरिकाऽऽदय इति । यदि वा-यानि
(४) अधुना प्रतिपृथिवीवाहल्यमभिधित्सुराहकानिचिदशुभानि स्थानानि चारकाऽऽदीनि,याश्च नरकप्रतिरूपा
इमा णं ते! रयणप्पना पुढवी केवतिया बाहोणं पलदनाः, ताःसर्वा व्यनरका इत्यभिधीयन्ते । यदि वा-कर्मव्यनोकर्मभव्यभेदाद् व्यनरको द्वेधा-तत्र नरकवेद्यानि
त्ता ? | गोयमा !इमा णं रयणप्पना पुढवी असीउत्तरं या बहानि कर्माणि तानि चैकजविकस्य बद्धायुष्कस्यानि- जोयणसयसहस्सं बाहवेणं परमत्ता । मुखनामगोत्रस्य चाऽऽधित्य कन्यनरको जवति । नोकर्मव्य. एवं एतेणं अभिलावेणं इमा गाया अणुगंतवानरकस्त्विहेव येऽशुभा रूपरसगन्धवर्णशब्दस्पर्शा इति॥केत्र. " आसीतं बत्तीसं, अट्ठावीसं तहेव वीसं च । नरकस्तु नरकावकाशकालमहाकालरौरवमहारौरवप्रतिष्ठानाऽभिधानाऽऽदिनरकाणां चतुरशीतिलकसंख्या विशिष्टो नू.
अट्ठारस सोझसगं, अट्टत्तरमेव हेट्ठिमया" ॥१॥ भागः ॥ कालनरकस्तु यत्र यावती स्थितिरिति ॥ भावनरकस्त
(श्मा णं ते ! इत्यादि) इयं भदन्त ! रत्नप्रभा पृथिवी किये जीवा नरकाऽऽयुष्कमनुभवन्ति । तथा नरकप्रायोग्यः कर्मोदय
यदूबाइल्येन प्रकप्ता ? । अत्र गोत्रेण प्रश्नो नाम्नो गोत्रं प्रधाइति । एतदुक्तं भवति-नरकान्तवर्तिनो जीवास्तथा नरकाऽऽय.
नम, न च प्रश्नोपपन्नमिति न्यायप्रदर्शनार्थः । उक्तं च-"न कोदयापादिताऽसातावेदनीयाऽऽदिकर्मोदयातद् द्वितय.
हीना बाग् सदा सतामिति ।” भगवानाह-अशीत्युत्तरम्मपि भावनरक इत्यभिधीयते । तदेवं श्रुत्वाऽवगम्य तीवमसा
अशीतियोजनसहनाभ्यधिक योजनशतसहस्रं बादल्येन प्र. नरकदुःखं कचपाटनकुम्भीपाकाऽऽदिक परमाऽधार्मिकाss.
ज्ञप्ता । एवं सर्वापयपि सत्राणि जावनीयानि । पादितं परस्परोदीरणाकृतं स्वाभाविकं च,तपश्चरणे संयमा
अत्र संग्रहणी गाथाऽनुष्ठाने नरकपातपरिपन्धिनि स्वर्गापवर्गगमनैकहेतोर्वाss
" बासीयं बत्तीसं, अहावीसं तहेव वीसं च। महितमिच्छता प्रयतितव्यम-परित्यक्तान्यकर्तव्येन यत्नो वि
महारस सोलसगं, अत्तरमेव हेमिया ॥१॥" धेय इति । सत्र. १ श्रु. ५०१ उ. नरकविभाक्तिः समाप्ता।
(५)काएमानि(५)नरकपृथिव्यः सप्त
इमा णं जंते ! रयणप्पना पुढवी कतिविधा पत्ता । रयणप्पना, सकरप्पभा,वाबुकप्पभा, पंकप्पना,धूमप्पना, | गोयमा ! विविधा पसत्ता । तं जहा-खरकंमे, पंकबहले पप्पभा. नमतमरपजा। प्रशा०.२ पाद ।
कंमे, प्राबबहुले कंमे।
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( १००५) अभिधानराजेन्द्रः |
यारग
( श्मा णं भंते ! इत्यादि ) इयं भदन्त ! रत्नप्रभा पृथिवी कतिविधा कतिप्रकारा- कतिविभागाप्रत नगवानाह गी तम ! त्रिधा त्रिविभागा प्रप्ता । तद्यथा - ( खरकंडमित्यादि ) कामं नाम - विशिष्टो नूनागः, खरं कठिनं पङ्कबहुबहु चान्यर्धतः प्रतिपत्तव्यम् । कमयेतेषामेवमेव । तया प्रथमं सरकारनं तदनन्तरं पङ्कबद्दलं यतोऽन्यहुलमिति ।
(६) खरकाण्मवक्तव्यतामाहइमीसे णं जंते ! रयणप्पभाए पुढवीए खरकंमे कतिविधे पणाने ? गोयमा ! सोझसविधे पणते । तं जहारयणे, वरे, वेरुलिए, लोहितक्खे, मसारगले, हंसगन्ने, पुल, सोधिए, जो तिरसे, अंजणे, अंजण पुनए, रयते, जातरूवे, अंके, फरिदे, रिट्ठे कंमे ॥
सेमं ! इत्यादि ) अस्यां भदन्त ! रामप्रभायां पृथिव्यां खरकामं कतिविधं प्रशतम् ? । भगवानाह - गौतम ! पोशविधं षोडशविभागं प्रकृतम् । तद्यथा ( रणे इति ) पदैकदेशे पदसमुदायोपचारात् रत्नकाण्डम् तश्च प्रथमम, द्वितीयं वज्रकाण्डम्, तृतीयम-वैडूर्यकाण्डम, चतुर्थम-लोहिताककारकम् । पञ्चमम्-मसारगल्लुका एकम, षष्ठम्-हंसगर्भकाण्डम्, सप्तमम् पुलकका एकम्, अष्टमम् सौगन्धिककाण्डम्, नवमम् ज्योतीरसकाएडम, दशमम् अञ्जनकाण्कम्, एकादशमम् श्रञ्जनपुलाककाण्डम, द्वादशम् - रजतकाण्डम्, त्रयोदशम्-जातरूपकारकम्, चतुर्दशम- अङ्कका एकम्, पञ्चदशम-स्फटिककाण्डम्, षोडशम् - रिष्टकारकम् ॥ तत्र रत्नानि कर्केतनाssदीनि तत्प्रधानं काश्मं रत्नकारामम्, वज्ररत्नप्रधानं काएम वज्रकारमम् । एवं शेषाण्यप्येकैकं च काएम योजनसह स्रबाहुल्यम् ।
( 9 ) रत्नकाण्डवक्तव्यतामाह-
इमीसे णं भंते! रयणप्पभाए पुढवीए रयणकंमे कतिविहे पण १ । गोयमा एमामारे पते । एवं० जाव रिट्ठे ।
इमीसेां अंते! स्वप्यनाए पुडवीए पंकबहुले कंकतिविहे पण ते १ । गोयमा ! एगागारे पएलते । इमसे णं जंते ! रयणप्पजाए पुढवीए आवबदुले कंमे कतिविद्धे पणत्ते ? । गोयमा ! एगागारे पपण ।
( इसी से मं णं ! इत्यादि ) सुगमम् नवरमियमत्र सङ्ग्रहणी गाथा-" तीसा य पावीखा, पराणरस दसेव लयसहस्साई तिराणेगं पंचूर्ण, पंचेघ श्रत्तराणिरया ॥ १ ॥ " अधः सप्तम्यां च पृथिव्यां कालाऽऽदयो महा नरका अप्रतिष्ठानाऽभिधानकस्य नरकस्य पूर्वाऽऽदिक्रमेण । वक्तं च - " पुत्रेण होइ कालो, अवारणा अप्प महकाली । रोक दाहिणपासे, उत्तरपाले महारो ॥ १ ॥ " रत्नप्रभाऽऽदिषु च तमः प्रजापर्यन्तासु षट्सु पृथिवीषु प्रत्येकं नरकाऽऽवासा - विधाः । तद्यथा श्रावलिकाप्रविष्टाः प्रकीर्णकरूपाश्च ।
तत्र रत्नप्रभायां पृथिव्यां त्रयोदश प्रस्तटाः । प्रस्तटा नाम. पेश्मभूमिकाकल्याः तत्र प्रथमे प्रस्तदे पूर्वादेषु दिक्षु प्रत्येकमेकोनपञ्चाशत् नरकाऽऽवासाः चतसृषु च विदितु प्रत्येक मष्टचत्वारिंशत्, मध्ये च सीमान्तकाऽऽख्यो नरकेन्द्रकः, सर्वसंख्यया प्रथमप्रस्तटे नरकाऽश्वासानामावलिकाप्रविष्टानामेकोननवत्यधिकानि त्रीणि शतानि ३७६, शेषेषु च द्वादशत्रु प्रस्तदेषु प्रत्येकं वचोदि विदितु च एकेकनरकाssवासहानिनावात् अष्टकाष्टक हीना नरकावामा व्याः । ततः सर्वसंख्यया रत्नप्रभायां पृथिव्यामावलिकानरकाऽज्वालात्वरित शतानि कानि ४४३३षा एकोनत्रिशल्लकणानि पञ्चनवतिसहस्राणि पञ्चशतानि सप्तट्यधिकानि २६६५५६७ प्रकीर्णकाः । तथा चोक्तम्- "सत्तट्टी पंच सया, पणनउ सहस्स लक्ख गुणतीसं । रयणाए सेढि - गया, चोयालसया उ तेत्तीसं ॥ १ ॥ उभयमीलने त्रिशस्त्रक्षा नरकाऽऽवासानाम् ३०००००० | शर्कराप्रभायामेकादश प्रस्तटाः; नरकपटलानि अधोऽधो द्व न्द्रहीनानीति वचनात् प्रथमे प्रस्त
शत्रू आलावा नरकायाः विदिशमध्ये बेको नरके:
शेषेषु दशसु प्रस्तटेषु प्रत्येकं क्रमेणाधोऽधोऽष्टकाक दिक् २ के कवर कावासाने त लख्यया श्रावलि काविश नरकाशितशतानि पञ्चक २६६५, वायु उतिताः सप्तनवतिसहस्राणि त्रीनि उनि २४२७३०२ पुष्पावकीर्थकाः उकं चइस्सा, चलवीलक्ख तिसयपंचविहं । वीयाए ससया उ पणनउया " ॥ १॥ उजयमीलने पश्च | विशतिलक्का नरकाऽऽवासानाम् २५००००० |
शतानि "सत्ताणउ
सक्कर पचाए णं भंते ! पुढवी कतिविधा पण्णत्ता ? | गोषमा ! गागारा पएलता एवं० जाव अस
तमाए ।
( इमी से णं भंते ! इत्यादि ) अस्यां जदन्त ! रत्नप्रभायां पृथिव्यां रत्नकाएवं कतिविध कतिप्रकारं कतिविज्ञागमिति जावः । प्रशप्तम् ? । नगवानाह एकाकारं प्रप्तम् । एवं शेषकारामविषयाण्यपि प्रश्ननिर्वचनसूत्राणि क्रमेण भणनीयानि । एवं पटुलाला जी०३ प्रति प्रज्ञा० ।
O
४७७
गरग
(c) संप्रति प्रतिपृथिवीमरकाऽऽयाससंस्याप्रतिपादनार्थमादइमीसे णं भंते! रयद्यप्यभाए पुढवीए केवतिया शिरयावाससयसहस्सा पत्ता ? गोयमा ती निरयाबाससतसहस्सापाचा एवं एतेणं अभिलावेणं सच्चासिं पुच्छा |
इमा गाथा गंतव्या
"तीसा य पछवीमा, पारस दसेव तिथि य हवंति पंचूण सतसहस्से, पंचैव अणुत्तरा एरमा || १ || " ० जाव अहे सत्तमाए पंच अणुत्तरा महतिमहालया महागरगा पत्ता । तं जहा - काले, महाकाले, रोरुए, महारोरुप, अपतिद्वाणे ||
I
२०५ प्रति
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(१९०६) भाभिधानराजेन्ः।
पारग
बालुकाप्रज्ञायां नव प्रस्तटाः। प्रथमे च प्रस्तटे एकैकस्यां दिशि अवकाशान्तरं नाम-शुद्धमाकाशम् ?। भगवानाद-हन्त अ. श्रावलिकाप्रविष्टा नरकाऽऽक्षासाः पञ्चविशतिः २.विदिशिचतु- स्ति; एवं प्रतिपृथिवी तावद्वाच्यं यावदधः सप्तम्याः। विंशतिः, मध्ये चैको नरकेन्द्रक इति । सर्वसंख्यया सप्तनवति- इमीसे णं भंते ! रयणप्पभाए पुढवीए खरकमे केवतियं बाहशतम् । शेषेषु चाष्टमु प्रस्तटेषु प्रत्येक क्रमेणाऽधोऽधोऽटक
ल्लेणं पएणत्तागोयमा! सोझस जोयणसहस्साईबाहहानिः । तत्र च कारणं प्रागेवोक्तम् । ततः सर्वसंख्यया तत्राऽऽवलिकाप्रविष्टा नरकाऽऽवासाश्चतुर्दश शतानि पञ्चाशीत्यधि
द्वेणं पलत्ते । कानि १४०५ । शेषास्तु पुष्पावकीर्णकाः चतुर्दशनका अधान
(श्मीसे गं ते! इत्यादि) अस्या नदन्त ! रत्नप्रभाया: वतिसहस्राणि पञ्च शतानि पञ्चदशाऽधिकानि १४९८५१५।
पृथिव्याः संबन्धि यत् प्रथमं खरं खराऽभिधानं काएमं तत नक्तं च-" पंचसया पन्नरसा, अष्ठमवर सहस्स सक्स चो|
किय पाहव्येन प्राप्तम् ?। नगवानाह-गौतम ! षोडशयो. इसया । तइयाए सेढिगया, पणसीया चोइससया उ॥१॥" जनसहस्राणि बाहल्यन प्रशप्तम् । उभयमीलने पञ्चदश बक्षा नरकाऽऽवासानाम् १५०००००।
(१०) रत्नकाएलमपप्रज्ञायां सप्त प्रस्तटाः। प्रथमे च प्रस्तटे प्रत्येक दिशि इमीसे णं नंते ! रयणप्पनाए पुढवीए रयणकंडे केवनियं पोडश आबलिकाप्रविष्टा नरकाऽऽवासाः,विदिशि पञ्चदश,मध्ये
बाहदेणं पएणते ? । गोयमा ! एक्कजोयणसहस्सबाहवेणं चैको नरकेन्द्रकः । सर्वसंख्यया पञ्चविंशं शतम् १२५ । शेषेघु पट्सु प्रस्तटेषु पूर्ववत् प्रत्येकं क्रमेणाधोऽधोऽटकाष्टकहानिः,
पसत्ते, एवं० जाव रिहे। ततः सर्वसंख्यया तत्राऽऽचलिकाप्रविष्टा नरकाऽऽबासा:सप्त श
(श्मीसे णं इत्यादि ) अस्या भदन्त ! रत्नप्रभायाः पृथितानि सप्तोत्तराणि ७०७ । शेषास्तु पुष्पाऽवकीर्णका नव
व्या रत्नं रत्नाऽभिधानं काण्ड तत कियत बाहल्येन प्रकप्तम् । सक्षा नवनवतिसहस्राणि द्वे शते त्रिनवत्यधिके एएएए ।
भगवानाह-गौतम! एक योजनसहनम । शेषाएयपि काण्डाउक्तं च-" ते उया दोन्नि सया, नवननयसहस्स नब यब- नि वक्तव्यानि, यावत् रिष्टं रिष्टाऽभिधानं काएमम् । एवं पङ्कक्खा य । पंकाए सेढिगया,सत्त सया दोतिसत्तदिया ॥१॥" बहुलाब्बहुलकाएमसूत्रे अपि व्याख्येये। उभयमीलने नरकाऽऽवासानां दश लक्षाः १०००००० ।
(११) पङ्कबहुलमधूमप्रभायां पञ्च प्रस्तटाः प्रथमे चप्रस्तटे पकैकस्यां दिशि
इमीसे गंजते ! रयणप्पभाए पुढवीए पंकबहुले कंडे के. नव नव प्रालिकाप्रविष्टा नरकाऽऽबासाः, विदिशि अष्टौ,मध्ये
वतियं बाहल्लणं पपत्ते। गोयमा ! चतुरसीतिजोयणचैको नरकेन्कः । इति सर्वसंख्यया एकोनसप्ततिः ६९ । शेषे धु च चतुषु प्रस्तटेषु पूर्ववत् प्रत्येक क्रमेणाधोऽधोऽएकहा
सहस्साई बाहवेणं पएणत्ते। निः,ततः सवसंख्यया तत्राऽऽवत्रिकाप्रविष्टा नरकाऽऽवासाद्वेश- पङ्कबहुसं काएमं चतुरशीतियोजनसहस्राणि बाहस्यम। ते पञ्चषष्टयधिके, शेषाः पुष्पाऽऽवकीर्णकाः द्वे लके नवनवति
(१२) अब्बहुलं काएडम्सहस्राणि सप्त शतानि पञ्चत्रिंशदधिकानि २६६७३५ । उक्त । इमीसे ए जंते ! रयणप्पनाए पुढवीए अब्बहुले कमे - सत्त सया पणतीसा, नवनव सहस्स दो य ल- अतिािरले m गोयमामीति जोयाक्खा य । धूमाए सेढिगया, पमहा दो सया होत॥१॥" |
सहस्साई बाहल्लेणं पएणत्ते । सर्वसंख्यया तिम्रो बका नरकावासानाम् । तमःप्रभायां त्रयःप्रस्तटाः। तत्र प्रथमे प्रस्तटे प्रत्येक दिशि चत्वा
अशीतियोजनसहस्राणि सर्वसंख्यया रत्नप्रजायां बाहल्यर श्रावलिकाप्रविष्टा नरकाऽऽवासाः, विदिशि त्रयः त्रयः, मध्ये
मशीतिसहस्राधिकं सकम् । चैको नरकेन्डक इति । सर्वसंख्यया एकोनत्रिशत् २६, शेषयो
(१३) घनोदधिधनवातयो हल्यम्स्तु प्रस्तटयोः प्रत्येक क्रमेणाधोऽधोऽष्टकहानिः, ततः सर्वसं. इपीसे णं भंते ! रयणप्पभाए पुढवीए घणोदधि केवतियं ख्यया भावनिकाप्रविष्टा नरकाऽऽवासास्त्रिषष्टिः । शेषास्तु नव- बाहवेणं पाणते । गोयमा ! वीसं जोअणसहस्साई बाहनवतिसहस्राणि नव शतानि द्वात्रिंशत्यधिकानि पुष्पावकीर्ण
वेणं पाणते । काः ६६३२ । उक्तं च-"नवन उसयसहस्सा, नव चेव स. या हवंति बत्तीसा । पुढवीए बहीए, पश्मागाणेस संस्ने
इमीसे ते! रयणप्पभाए पुढवीए घणचाते केवतिय वो ॥१॥" उन्नयमीलने पञ्चोनं नरकाऽऽवासानां लक्षम् ।
बाहलेणं परमत्ते । गोयमा! असंखेज्जाइं जोअणसहस्साई ELELI
बाहोणं पएणत्ताई । एवं तणुवाते वि , एवं उवासंतरे वि। (९) संप्रति प्रतिपृथिवीधनोदभ्यस्तित्वप्रतिपादनार्थमाह
सकरप्पभाएणं ते ! पुढवीए घणोदधि केवतियं बाहोअत्थि णं ते ! इमीसे रयणप्पनाए पुढवीए अहे णं पण्णत्ते । गोयमा! वीसं जोमणसहस्साई बाहन्लयं घणोदधि त्ति वा घणवाते ति वा तणुवाते ति वा उवासं- पएणत्ताई। तरे ति वाहंता अत्यि एवं० जाव अहे सत्तमा ।
सकरप्पनाए पुढवीए घणवाते केवइए पसत्ते। गोयमा ! (अत्यि ण भंते! इत्यादि) अस्ति जदन्त! अस्याः प्रत्यक-।
असंखज्जाई जोअणसहस्साई बाहोणं पाताई। त उपलज्यमानाया रत्नप्रजायाः पृथिव्या अधो धनः स्यानीभूतोदक उदधिर्धनोदधिरिति वा, घनः पिएमीभूतो वातो
I एवं तणुवाए वि,उवासंतरे वि,जहा सकरप्पनाए पुढवीए। धनवात इति वा, तनुवात इति बा, अवकाशान्तरामिति वा । एवं० जान अहे सत्तमाए।
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(२००१) निधानराजेन्द्रः ।
यारग
तस्या अथो धनोदधिः विंशतियोजनसहस्राणि बाल्येन सस्था अधी घनवातोऽसंवेद्यानि योजन सहस्राणि बाहन तस्या मध्यसंवेयानि योजन सदखाणि तनुवातो बाद स्पेन तस्या अभ्यधोऽधेयानि योजनसहस्राणि बाये नावकाशान्तरम् । एवं शेषाणामपि पृथिवीनां घनोदध्यादयः प्रत्येकं तावद्वक्तव्या यावदधः सप्तम्याः ।
(१४)
नद्यमानायाः पृथिव्या:इसे अंते! रणप्पना पुढवीए असीटचरजोयणसतसहस्सबाहल्लाए खेतदित्ते छिजमाणाए अस्थि दब्वाई वणतो -कालनीललोहितहालि इसुकिलाई, गंधतोसुन्जिगंधाई पुन्निगंधाई, रसतो - तित्तक डुयकसायांचिलमहुराई, फासो- कक्वडम उपगस्तहुपसी उसिद्धिसुक्खाई, संठाणतो- परिमंडल सच ठरंप्राययसंज्ञा
परिणयाई ममाबाई एमएणपुट्ठाई अएण मसओगाढाई एमएणासि हपकिनकाई अमरणपमचाए चिति । हंता ! श्रत्थि ।
हमसे
बहुवचनार्थ तानि हारि
इत्यादि) अस्यां] मदन्त ! प्रभायां पृथियाम शीत्युत्तरयोजनशतसहस्रबाहल्यायां क्षेत्रच्छेदयामतरकाकविभागेन च्यमानायाम् अस्तीति निपातो गर्भः सन्ति विमाननानि शाणि कानि गन्धतः सुरभिगन्धीनि दुरभिगन्धीनि च रततिकरसानि कटुकानि कषायाणि, अम्लानि, मधुराणि, स्पर्शतःकर्कशानि, मृदूनि, गुरुकाणि, लघूनि, शीतानि, उष्णानि, स्निग्यानिक संस्थानतः परिमखानि तानि नायि चतुरखाणि श्रायतानि कथंभूतान्येतानि सर्वा
माइत्यादि) प्रयोभ्यं परम्परं स्पृष्टानि स्पर्शमा श्रोपेतानि तथा अन्य परस्परमवगाढानि पत्रकं द्रव्य मवगाई तत्राभ्यपि देशतः कचित्सर्वतोऽवगादमित्यर्थः । तथाऽन्योऽन्यं परस्परं स्नेदेन प्रतिबद्धानि येनैकस्मिन् चाल्यमाने गृह्यमाणे वा अपरमपि चलनाऽऽदिधर्मोपेतं भवति । पवमोऽघमत्ताप चिठंति इति ) अन्योऽन्यं परस्परं घटते संबध्नन्तीति सम्योज्यघटाः तद्भावोऽभ्यो घटता त या परस्परं संवतया तिष्ठन्ति । भगवानाह - ( हंता ! अस्थि ) इन्तेति प्रत्यवधारये सत्येवेत्यर्थः ।
(१५) खरकाण्डस्य
मीसे णं जंते ! रणप्पा पुढवीए खरस्स कंमस्स सोलस जो यणसहस्स वाइल्सस्स खेतद्विणं छिज्जतं चैव ० जाब हंता प्रत्थि एवं ० जाव रिट्ठस्स ||
एवमस्यामेव रत्नप्रज्ञायां पृथिव्यां स्वरकाण्डस्य षोमशयोजन सहस्रप्रमाणबादल्यस्य, तदनन्तरं रत्नकाण्डस्य योज नसहस्रबाहल्यस्य ततो वज्रकारमस्य० यावशिष्टका एकस्य । (१६) बहुलस्य
इमीसे णं भंते! रणभार पुढवीए पंकबहुलस्स कंडस्स चनरासीति जोयणसहस्सवाहनस्स खेत्तं तं चैव । एवं आवडलस्स विप्रसीतिजो अणसहस्सवादस्स ||
बरग
तदनन्तरमस्यामेव रत्नपनायां पृथिव्यां पहुचकारामस्य चतुरशीतियोजनसद्वाहत्यस्य तदनन्तरमध्यहुल का एमस्य
अशीतियोजनसह दाहस्वस्य ।
इमीसे णं भंते! रयणप्पभाए पुढवीर घणोदहिस्स बीसं जोगणस्स बाइसेस्स खेचच्छेदे तहेव । एवं घणवातस्स असंखेज जोयणस्स बास्स तं चैव ।
तदनन्तरमस्या एव रत्नप्रभाया घनोद धेर्योजन विंशतिसहस्रप्रमाणबाहल्यस्य ततोऽसंख्यातयोजनप्रमाणबाहस्यस्य घनवातस्य तत एतावत् प्रमाणबाहस्यस्य तनुवातस्य ततोऽवकाशान्तरस्य तावत्प्रमाणस्य |
सकरप्पभाषणं ते! पुढवीए बतीमुत्तरजोयच सयसइस्सबाहल्लाए खेत्तच्छेदेणं बिज्जमालाए अत्थि दव्वाई,
तो जाव घमत्ताए चिट्ठति ।। हंता ! प्रत्थि । एवं घणोदहिस्सा बीस जोभणसहस्वास्स पणवातस्स प्रसंखेज्जजोय एस इस्सबादलस्स । एवं० जाव उवासंतरस्स जहा सक्करप्पभाए, एवं० जाव आहे सत्तमाए ।
ततः शर्कराप्रभाया। पृथिव्याः द्वात्रिंशत्सहस्रोसरयोजनसतसहस्रबाहुल्यपरिमाणायाः तस्या दवाधस्ताद बचोकबादल्यानां घनवाततनुबाता ऽवकाशान्तराणामेचं यावदधः सप्तम्याः पृथिव्या अष्टसहस्राधिकयोजनशतसहस्रपरिमाणबाढल्यायास्ततः तस्या एवाऽधः सप्तमपृथिव्या अधस्तामध्ये घोघनवाततनुयातावकाशान्तराणां प्रश्ननिबंधनसूत्राणि यथोपविषयाणि भावनीयानि ।
( १७ ) सम्प्रति संस्थानप्रतिपादनार्थमादइमाणं भंते ! रयणप्पभा पुढवी किंसंविता पएलता || गोपमा ! ऊनरित्रिया पछता ।
इमीसे णं जंते ! रयणप्पभार पुढवीए खरे कंमे किंसठिते पण १ गोषमा! ऊसरिसंहिते पणाचे ।
1
इमी से णं भंते ! रयणप्पजाए पुढवीए रयणे कंमे किंठिते पण ? । गोषमा ! ऊसरिसंठिते पण । एवं जान रिठे । एवं पंकबहुले आबबहुले वि । घणोदपि विवाद, उवासंतरे वि, सच्चे जलसिंधिया
पात्ता ।
सकरप्पजाए णं भंते! पृडवी किंसंलिया पणाचा ? | गोयमा ! ऊल्लारिसंठिया पत्ता |
सक्करपनाए णं भंते! पुढवीए घणोदधि किंसंठिए पाते । गोषमा ! ऊरिसंठिए पछते । प० जाव उवासंतरे जहा सकरप्पजाए वत्तव्वता, एवं० जाव हे सतमाए वि । (इमा णं भंते ! इत्यादि ) श्यं प्रत्यक्कृत उपलभ्यमाना, णमिति वाक्यासकृतो रत्नप्रभा पृथिवी, किमिय संस्थिता प्रशप्ता ? । भगवानाह - गौतम ! ऊल्लरीव संस्थिता प्रप्ता; विस्तीर्णाकारत्वात् । एवमस्यामेव रत्नप्रभायां पृथिव्यां खरकाएगं, तत्राऽपि रत्नकाएम, ततो वज्रका एकम, ततो यावत
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( १९०८ )
परग
रिष्टका एकम् तदनन्तरं पबहु काण्डम् ततो जसका एममत दनन्तरमस्या एव रत्नप्रभायाः पृथिव्या अधस्तात् क्रमेण घ मोदधिधनवाततनुचातावकाशान्तराणि, एवं यावदधः सप्तमी पृथिवी । तस्या अस्तात क्रमेण धनोपिनचानुवा तावकाशान्तराणि भारीसंस्थानानि वक्तव्यानि ननु चैताः सप्तापि पृथिव्याः सर्वासु दिनु किमलोकस्पर्शिन्यः ? उत नेति ब्रूमः । यद्येवं ततः ।
अभिधानराजेन्ः |
(१८) लोकान्तादबाधाइमीसे णं ते! रणपनाए पुरवीए पुरच्छिमिलाओ चरिता केवतियं अवाधाए लोयंते पएलते ? । गोयमा ! बालसाहिं जोयणेहिं अबाधाए लोयंते पण्णत्ते । एवं दाहिणिद्वातो पञ्चच्छिमिल्लातो उत्तरिल्लाओ । सकरप्पभाष अंते पुडवीए पुरच्छिमिलाओ परिमं ताम्रो केवति अवाहाए लोयंते पण्णत्ते १ । गोयमा ! तिभागूणेहिं तेरसहिं जोयणेहिं अवाहाए लोयंते पत्ते, एवं चउद्दिसिं । बालुपनाए णं भंते ! पुढवीए पुरच्छिमिल्ला पुच्छा ।। गोयमा ! सतिजागेहिं तेरसेहिं बाधाए लोयंते पत्ते । एवं चद्दिर्सि पि एवं सव्वासिं चनसु विदिसासु पुच्छ्रियव्वं । पंकल्पभाए चोदसा जोयणेहिं अवाहा लोयंते पएणचे । धूपप्पजाए तिजागणेहिं परणरसेोहं जोयणेहिं अवाहाए झोयंते पचे । उही सतिजागेहिं परमेहिं जोयरोहिं अवाहाए लोयंते पत्ते । सत्तमाए सोलसएहिं जोयणेहिं अबाधा बोयंते पण त्ते, एवं० जाव उत्तरिद्वातो ॥ (श्मी से णं नंते ! इत्यादि) अस्या भदन्त ! रत्नप्रभायाः पृथिव्याः ( पुरच्छिमिल्लाओ इति) पूर्वदिग्भाविनश्चरमान्तात् (केवइयाए इति) कियत्या अबाधया अपान्तरालरूपया लोकान्तोऽनोकावधिपरिच्छिन्नः प्रशप्तः ? भगवानाह द्वादशयोजनानि, द्वादशयोजनप्रमाणो य इत्यर्थः । अबाधया लोकान्तः प्रइप्तः । किमुक्तं भ बति ? रत्नप्रभायाः पृथिव्याः पूर्वस्यां दिशि चरमपर्यन्ताय प रतो लोकादग् ग्रपान्तरात्रं द्वादशयोजनानि, एवं दक्षिणस्यामपरस्यामुत्तरस्यां चापान्तरालं वक्तव्यम् । दिग्ग्रहणं चोपलकणम, तेन सर्वास्वपि विदिवपि यथोक्तमपान्तरालमवसातम्यम् । शेषाणां तु पृथिवीनां सर्वासु दिक्षु च चरमपर्यन्ताद लोकः क्रमेणाची गोमेन योजनेनाधिकेद्वादशभियअनेरचगन्तस्यः तद्यथा शरानायाः पृथिव्याः सर्वासु दिक्षु विदिषु च परमपर्यन्तादओकाद योगपान्तरालं त्रिभागोनानि त्रयोदश योजनानि । बालुकाप्रभायाः सत्रिभागानि त्रयोदश योजनानि पशुप्रभायाः परिपूर्णानि चतुर्दश योजनानि धूमप्रभावात्रिभागोमानि पञ्चदश योजनानि । अधः समधिव्याः परिपूर्णनि षोमश योजनानि । सूत्राकराणि पूर्ववद् योजनीयानि । जी० ३ प्रति० ।
(११) प्रभादीनामध:
-
प्रत्थि जंते ! इमीसे रयणपचार पुढवीए हे गेहार बा, गेडावणा वा ? गोयमा ! णो इण्डे समहे । अ
परग
णं भंते ! रयणप्पभार पुढवीए इमीसे आहे गामाइ वा० जाव समिवेसाइ वा । यो इण्डे समट्ठे । अस्थि भंते! इमसे रवणप्पनाए पुदवी आहे उराला चलाइया संसेयंति संमुच्छंति वासं वासंति ?। हंता ! अत्थि, तिमि वि पकरेश, देवो विपकरे, असुरो पि नागो वि अस्थि गं जंते! इमी से रयणप्पजाए पुढवीए बादरे परिणयसदे ? | हंता प्रत्थि तिमिवि करेंति । अस्थि णं भंते ! इमीसे रयणप्यार पुढची बादरे अधिकार है। गोयमा यो इण्डे सम, सत्य विग्गहगइ समावणं । अत्थि णं भंते ! इमीसे रयणप्पजाए पुढवीए चंदिम० जाव तारारूवा ? । णो इहे समझे। अस्थि भंते! इमीसे स्वणप्पभाए चंदाभाइ वा ? | णो इट्टे समहे । एवं दोच्चाए पुढवीए जाणियन्नं, एवं तच्चाए वि जाणियव्वं । णवरं देवो वि पकरेश, असुरो वि पकरे, नो नाओ पकरेइ, चउत्थीए वि, नवरं देवो एक्को पकरेइ, नो असुरो, नो नाओ, एवं हेटिल्लास देवो एको पकरेइ ।
( बादरे श्रगणिकाए इत्यादि ) ननु यथा बादराग्नेर्मनुष्यक्षेत्र एव तद्भावानिषेध इहोच्यते, एवं बादर पृथिवी कायस्थाअपि निषेधो वाच्यः स्यात् पृथिव्यादिष्वेव स्वस्थानेषु तस्य जावादिति । सत्यम् । किं तु नेह यद्यत्र नास्ति तत्तत्र सर्व नि षिध्यते मनुष्याऽऽदिवस, विचित्रत्वात् सुगतरतोऽतोऽपी ह पृथिवीकायस्य न निषेध उक्तः अप्कायवायुवनस्पत वि घनोदयादिजावेन नायाभिषेधाभावः सुगम एवेति (नो नाथ सि) नागकुमारस्य तृतीयायाः पृथिव्या अधोगम नास्तीत्यत एवाऽनुमीयते । ( नो असुरो नो नागो सि ) इदा व्यत एव वचनाचतुष्यादी नामचो ऽसुरकुमारनागकुमारयोगम नास्तीत्यनुमीयते । भ० ६ ० ८ ० ।
(२०) यानि रत्नप्रभा । न द्वादशयोजन प्रमाणा 5दीनि अपान्तरालानि किमाकाशरूपाणि, उत घनोदध्यादिव्या निघतोयादिव्यानि कपान्तराले कियान घनोदध्यादिरिति प्रतिपादनार्थमाह
इमीसे णं नंते ! रयणप्पना पुढवी पुरच्छिमिले चरिमंते कतिविधे पणते ? । गोयमा ! तिविहे पणते । वं जहा- यणोदविल, घणवायला
इमीसे णं भंते ! रयणप्पजाए पुढवीए दाहिणिले चरिमंते कतिविधे पण १ गोयमा ! तिविधेपासे तं 1 जहा एवं चैव जान उत्तरि एवं सम्वासिं० जात्र अहे सत्तमाए उत्तरिले ।
( इमी से णं भंते ! इत्यादि ) अस्या नदन्त ! रत्नप्रमायाः पृथिव्याः पूर्वदिम्यावी परमान्तो ऽपान्तराललयः कतिथि धः कतिप्रकारः, कतिविभाग इत्यर्थः । प्राप्तः ? । भगवानाह - गौतम ! त्रिविधः प्रशप्तः । तद्यथा घनोदधिवलयो वलयाssकारघनोदधिरूप इत्यर्थः । एवं घनवातवलयस्तनुवातबलयश्च । इयमत्र भावना सर्वासां पृथिवीनामयो यत् प्राकू बाहुल्येन
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( १०७ ) अभिधानराजेन्ऊः ।
पारंग
घनोदध्यादीनां परिमाण समयमा यम ते हि मध्यभागे यथोक्तप्रमाणबाढल्याः, ततः प्रदेशहान्या प्रदेशहान्या हीयमानाः स्वस्वपृथिवीपर्यन्तेषु तनुतरभूता; तनुतरीभूत्वा स्वस्वपृथिवीकारेण वेष्टयित्वा स्थिताःपासून
याम्युच्यन्ते तेषां वलयानामुध्येत्वं सर्वत्र स्वस्वपृथिव्यनु सारेण परिभावनीयम् तिर्यग्बाहल्यं पुनरग्रे वक्ष्यते । इदान तु विभागमात्रमेवापान्तरालस्य प्रतिपादयितुमिष्टमिति तदेवोक्तम, एवमस्या रत्नप्रज्ञायाः पृथिव्याः शेषासु दिक्कु, एवं शेषाणामपि पृथिवीनां चतवपि दिल प्रत्येक विभागसूत्रं भणितव्यम् । (२१) संप्रतिघनोविश्यस्य तिर्यग्वाहत्यमानमादइमीसे णं भंते ! रयणप्पजाए पुढवीए घणोदधिवलए केवलियं बारणं पणाचे ? गोयमा उज्नोषणाई बाहलेणं पण ते ।।
( श्मी से खं भंते ! इत्यादि) भस्या भदन्त ! रत्नप्रभायाः पृथिव्याः सर्वास दिक्षु चरमान्ते मनोचिकियवाह ब्येन तिर्यगू बाहल्येन प्रकृप्तः ? | जगवानाह - गौतम ! पम् योजनानि बाइल्येन प्रज्ञप्तः ।
तत ऊर्ध्व प्रतिपृथिवि योजनस्य त्रिभागो वक्तव्यः । तद्यथासक्करप्पभाए णं भंते ! पुढवीए घणोदधिवलए केवतियं बाहणं पण ते १। गोयमा ! सतिजागाई बज्जोयलाई वाढल्लेणं पण्णत्ते । वाबुयप्पभाए पुच्छा ।। गोयमा ! तिजागूणाई सत्त जोयाई बाहल्लेणं पएलते । एवं एतेणं - जिल्लावेण पंकप्पजाए सत्त जोयणाई बाहल्लेणं, धूपभार सतिभागाई सच जोयलाई पत्ते । तमप्पजाए विजागूणाई भट्ट जोपलाई बाइलेणं पाते । अ सत्त मार जोयणाई वाहणं पसे ।
पंकप्पभाए सकोसाई पंच जोयणाई बाइलेणं पयते ॥ धूमप्यभार अडाई जोषणाई बाहल्ले
पचने ।
४७
परग तमप्यजार कोसूणाई व जोयणाई वाटणं पहनते । अहे सत्तमा छ जोयणाई बाहल्लेणं पण्णत्ते ॥
( श्मीले णं भंते! इत्यादि ) अस्या रत्नप्रजायाः पृथि याः घनवायला तिथे वाहन मानिन चत्वारि योजनानि प्रज्ञप्तः । श्रत ऊर्ध्वं तु प्रतिपृथिवि गव्यूत
नीम तथा चार द्वितीयस्याः पृथिव्याः कोशोनानि पञ्च योजनानि तृतीयस्याः पृथिव्याः परिपूर्णानि पञ्च योजनानि चतुः पृथिव्याः सकाशानि पञ्च योजनानि पञ्चम्याः पृथि व्या अर्कषष्ठानि सार्द्धनि पञ्च योजनानि, षष्ठयाः पृथिव्याः शोनानि षड् योजनानि सप्तम्याः पृथिव्याः परिपूर्णानि प म् योजनानि ।
(२३) संप्रतितनुपातस्य तिथे बादल्पपरिमाणप्रति तिर्यग् पादनार्थमाद
इसे भंते! रयपनाए पुढवीए तवातवलए केतयं बाहरले पत्ते ? । गोयमा ! छकासेणं बाहल्लेपचे ।
एवं एते भिलावणं सकरप्पनाए सतिनागे छको से बाहरुलेणं पाये ।
शर्कराभायाः सत्रिनागानि वालुकाप्रभावानागोनानि सप्त योजनानि पारस योजनानि न. धूमप्रभाषाः सत्रिनागानि सप्त योजनानि, तमः प्रज्ञायाः त्रिभागोनानि योजनानि श्रभ्रः सप्तमपृथिव्याः परिपूर्णानि अष्टौ योज नानि । सूत्राक्षराणि तु सर्वत्र पूर्ववद् योजनीयानि ।
,
(२२) संप्रति घनवातबलयस्य तिर्यग् बादल्यपरिमाणप्रतिपादनार्थमाह
इसे णं भंते ! रयणप्पभाए पुढत्रीए घावातबलए केवतियं वाढणं पणते ? गोवमा ! अरूपंचमाई जोयणाई बाइलेणं पाते ॥ सकरण्पनाए पुच्छा है। गोयमा ! कोई पंच जोयणाई प्रतिपृथिवि यथोकमपान्तराज्ञमानं भवति । बादले पर
॥ एवं एवं अभिन्नात्रेणं वालुयप्पभाए पंच जोयणाई वाहणं पणचे |
बाबुभारताने सत्तको से बाहस्तेयं पचे। कण्णभार पुढवी सचको बाटुले । धूमप्पजाए सतिजागे सत्तकोसे बाहस्त्रेणं पत्ते । तमप्पा तिभाग अकोसे बाहुल्यं पाते । हे संतमार पुढवीए कोसे बाहल्लेणं पण ते । (इमी से णं जंते ! इत्यादि) अस्या भदन्त ! रत्नप्रभायाः पृथि व्यास्तनुवातबलयः कियत् किंप्रमाणं बादल्येन प्रशप्तः ? | भगवानाह षट्को बाइल्येम प्रशप्तः । श्रत ऊर्ध्व तु पृथिवीक्रोशस्य त्रिभागो तथा चाऽऽद्वितीयस्याः पृथि दयाः सत्रिभागोनान पर कोशान बाहल्येन प्रकृतः । तृतीय
पृथिया विभागानान् सम कोशान चतुः पृथिव्याः परिपून् सप्त कोशान, पञ्चम्याः पृथिव्याः सनिमान् सप्तकोशाचाः पृथिव्याः शिलागोना ही क्रोशान् अधः सप्तम्याः पृथिव्याः परिपूर्ण कोशान् ।
उक्तं च
छबेव श्रद्ध पंचम, जोयणसद्धं च होइ रयणाए । उघा जहसेवेनं विदिट्टा ॥१॥ तिभागो गाउयं चेव, तिजागो गाउयस्स य ।
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आइ धुत्रे पक्लेवो, अम्हें अहो जाब सचमिया ॥ २ ॥” पतेषां त्रयाणामपि घनोदध्यादिविभागानाम् एकत्र मीने
(२४) संप्रति एतेष्वेव घनोदभ्यादिवलयेषु क्षेत्रच्छेदेन कृष्णassपेत व्यास्तित्वप्रतिपादनार्थमाहइमीसे णं जंते ! रणभार पुढवी
घणोदविलयस वज्जोय बाहलस्स खेत्तच्छेरणं बिजमाणस्स - त्थि दव्बाई एओ काल० जाव हंता अस्थि । सकरपभाए थे जेते ! पुढवी पद्योदविलयस्स सतिनाग
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परग अभिधानराजेन्द्रः।
गरग उज्जायणवाहल्सस्स खेत्तच्छेएणं बिजमाणस्स.जाव हंता | ज्यां प्राप्ता । प्रगवानाद-असंख्येयानि योजनसहस्राण भा
यामविष्कम्भेन । किमुक्तं भवति?-असंख्ययानि योजनसहखाणि अत्थि, एवं० जाच अहे सत्तमाए जं जस्स बाहवं ।
आयामतोऽसंख्येयानि योजनसहस्राणि विष्कम्भम,प्रआयामविइमीसे पं भंते ! रयणप्पभाए पुढवीए घणवायवलयस्स
कम्भयास्तु परस्परमपबहुत्वचिन्तने तुव्यत्वम्, तथा असंअपंचमजोयणवाहल्लस्स खेत्तच्छेदेण बिज्जल जाव हंता क्येयानि योजनसहस्राणि परिकेपेण परिधिना प्रकप्ता । एवमे-- अस्थि एवं० जाव अहे सत्तमाए जं जस्स बाइलेणं, एवं कैका पृथिवी ताचवक्तव्या यावद्धः सप्तमी पृथिवी। तणुवातवलयस्स वि० जाच अहे सत्तमा जं जस्म बाहल्लं ।
(१६) अन्तर्बहिर्वा समाः पृथ्ख्यःइमीसे णं भंते ! रयणप्पभाए पुढवीए घणोदाधिवलए इमा पंजते ! रयणप्पभा पुढवी अंते य मजो य सकिंसंगिए पत्ते । गोयमा ! वट्टवलयागारसंगणसंविते व्वत्थ समा बाहलेणं पएणत्ता:। इंता गोयमा इमा एं पएणते । जणं इमं रयणप्पभं पुढविं सव्वतो समंता सं- रयणप्पत्ता पुढवी अंते य मज्के य सम्वत्थ समा बापरिक्खिवित्ता णं चिट्ठति । एवं० जाव हे सत्तमाए पुढ- हल्लणं एवं० जाव अहे सत्तमा । वीए घणोदधिलए, पावरं अप्पाणं पुढचं संपरिक्खिवि- (श्मा ण नंते ! इत्यादि) इयं भदन्त ! रत्नप्रभा पृथिवी
अन्ते च मध्ये च सर्वत्र समा बादल्येन पिएमनावेन प्रश्नप्ता ? त्ता णं चिट्ठति ।
नगवानाह-( गौतम! इत्यादि) सुगमम । एवं क्रमेणकैका पृ. इमीसे ते ! रयणप्पनाए पुढवीए घणवातबलए
थिवी तावद्वक्तव्या यावत्सप्तमी। किंमंठिते पएणते ? । गोयमा ! वट्टवलयागारे तहेव०
(२७) पृथिवीषु जीवाः सर्वत्र उपपन्नपूर्वाःजाव जेणं मीसे पं रयणप्पजाए पुढवीए घणोदधिवलयं
इमीसे णं भंते ! रयणप्पनाए पुढवीए सव्वजीवा उत्रसबतो समंता संपरिक्खिवित्ता णं चिट्ठ । एवं०जाव अ
वन्नपुव्वा सव्वजीवा उववन्ना। गोयमा! इमीसे प रयहे सत्तमाए घणवातबलयं । इमीसे गं ते ! रयणप्प
णप्पनाए पुढवीए सव्वजविा उववामपुव्वा, नो चेव णं भाए पुढवीए तणवातवलए किंसंविते पणते ?। गो
सव्वजीवा उववमा, एवं० जाच अधे सत्तमाए पुढवीए । यमा ! बट्टवलयागारसंगणसंठिए० जान जेणं इमीसे
(श्मीसे णं ते! इत्यादि) अस्यां भदन्त ! रत्नप्रजावां पृ. एं नंते ! रयणप्पनाए पुढवीए घणवातबलयं सव्वतो
थिव्यां सर्वजीवाः सामान्येन उपपन्नपूर्वाः कालक्रमेण तथा स. समंता संपरिखिवित्ता पं चिट्ठति । एवं जाव अहे सत्त- बंजीवा उपपन्ना उत्पन्ना युगपत् । भगवानाह-गौतम! अस्यां माए तणुवातबलयं ॥
रत्नप्रभायां पृथिव्यां सर्वजीवाःसांव्यवहारिकजीवराश्यन्तर्गताः
प्रायो वृत्तिमाश्रित्य सामान्यन उपपन्नपूर्वा उत्पन्न प्वाः कालक(इमीसे गं भंते! इत्यादि) अस्या भदन्त ! रत्नप्रभायाः
मेण संसारस्याऽनादित्वात, न पुनः सर्वजीवा उपपन्ना उत्पन्ना पृथिव्याः घनोदधिबलयः किमिव संस्थितः किंसंस्थितः प्रकतः। भगवानाह-गौतम! वृत्तः चक्रबालतया परिवतुलो बलय
युगपत,सकलजीवानामेककाझं रत्नप्रजापृथिवीत्वेनोत्पादे सकस्य मध्ये शुपिरवृत्तविशेषस्याऽकार आकृतिबलयाऽऽकार इव
लदेवनारकाऽऽदिनेदाभावप्रसक्तः। न चैतदस्ति, तथा जगत्स्वासंस्थान बनयाऽऽकारसंस्थानं,तेन संस्थितो बनयाऽऽकारसंस्था
भाव्यात् । एवमेकैकस्याः पृथिव्यास्तावद्वक्तव्यं यावदधः नसंस्थितः । कथमेवं गम्यते ?-बलयाऽऽकारसंस्थानसंस्थित
सप्तम्या:। इति । तत श्राह-(जेणमित्यादि) येन कारणेन इमां रत्नप्रनां
इमा णं भंते ! रयणप्पभा पुढवी सव्वजीवहिं विजढपृथिवीं सर्वतः सर्वासु दिक्षु विदितु च संपरिक्षिप्य साम- पुवा सम्बजीवेहिं विजढा ?। गोयमा !इमा भंते ! रस्त्येन पेष्टयित्वा तिष्ठति वर्तते,तेन कारणेन पलयाऽऽकारसंस्था.
यणप्पना पुढवी सबजीवहिं विजदपुवा, नो चेव एवं सनसंस्थितः प्राप्तः।
व्वजीवेहिं विजढा, एवं जाव अहे सत्तमा । एवं घनवातबलयसुत्र, तनुवातबलयसूत्रं च परिभावनीयम् ।
(इमा ए इत्यादि ) इयं नदन्त ! रत्नप्रना पृथिवी (सव्वनवरं घनयातबलयो घनोदधिबलयं संपरिक्तिप्यति वक्तव्यम।
जीवेहिं विजदपुवा इति) सर्वजीवैः कालक्रमेण परित्यक्ततनुवातबलयो घनवातबलयं संपरिक्षिप्येति । एवं शेषस्वपि पृ
पूर्वा; तथा सर्वजीवैर्युगपद् विजमा परित्यक्ता । भगवा. थिवीषु प्रत्येकं त्रीणि त्रीणि सूत्राणि भावनीयानि ।
नाद-गौतम ! श्यं रत्नप्रभा पृथिवी प्रायो वृत्तिमाश्रित्य सधे जी(२५) आयामविष्कम्भी पृथ्वीनाम्
वैः सांव्यवहारिकैः कासक्रमेण परित्यक्तपूर्वा, न तु युगपत्, प. इमा णं जंते ! रयणप्पना पुढवी केवतियं अायाम- रित्यागस्यासंजषात् तथानिमित्तानावात,एवं तावद्वक्तव्यं यावविवभेणं पएणता ? । गोयमा ! असंखेन्जाइं जोअण- दधः सप्तमी पृथ्वी। सहस्साई मायामविखंनेणं. असंखेज्जाई जोयणसहस्साई
(२८) पृथ्वीषु सर्वे जीवाः प्रविष्टपूर्वाःपरिक्खवणं पाणत्ता । एवं० जाव अहे सत्तमा ।
इमीसे णं भंते ! रयणप्पभाए पुढवीए सवपोग्गला (इमाण भंते ! इत्यादि ) श्यं भदन्त ! रत्नप्रभा पृथिवी फि
पविठ्ठपुव्वा, सव्वपोग्गला पविट्ठा। गोयमा ! मीसे गं यता आयामविष्कम्भेण, समाहारो चन्द्वः। आयामविष्कम्ना- रयणप्पनाए पुढवीए सबपोग्गला पविपुवा, नो चेव
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पारग
(२०११)
अभिधानराजेन्द्रः ।
सम्बपोग्गला पविडा, एवं० जाव आहे सतमा पुढ बीए ॥
(श्मीसेणं इत्यादि) अस्यां] भदन्त ! राननायां पृषि व्यां सर्वे पुला लोकोदरविवरवर्तिनः कालक्रमेण प्रविष्टपूर्वाः, तद्भावेन परिणतपूर्वाः; तथा सर्वे पुद्गलाः प्रविष्टा एककालं तद्भा चेन परिणताः । भगवानाद गौतम! अस्यां रत्नप्रभावां पृथिव्यां सर्वे पुलाः लोकवर्तिनः प्रविष्टपूर्वा-सद्भावेन परितपूर्वाः संसारस्यानादित्वाद्, न पुनरेककालं सर्वपुलाः प्रविष्ठाः त द्भावेन परिणताः सर्वज्ञानां तद्भावेन परिणती रत्नप्रजाम्यतिरेकेणा पत्र सर्वत्रापि पुत्रवानावप्रसन तथाजगत्स्वानान्या एवं सर्वासु पृथिवीषु क्रमेण पचम्यं, यावदधः सप्तम्यां पृथिव्यामिति ।
(२६) सर्वे पुलाः त्यक्तपूर्वा:
इमाणं भंते! रणप्पभा पुढवी सब्बपोग्गलेहिं वि जदपुब्वा, सव्यपोग्गले बिना है। गोयमा ! इमाणं भंते! एप्पमा पुढवी सव्यपोग्गलोई विजपुरवा, नो चेव णं सव्वपोग्गले विजढा, एवं० जाब आहे सत्तमा ।
(इमा णं भंते ! इत्यादि ) श्यं नदन्त ! रत्नप्रभा पृथिवी स फाल (विजढपुचा इति ) परिपूर्वा तथा सर्वीरेकाले परित्यकता है। गदानाद गौतम ! श्यं रलप्रभा पुचियाँ सर्वपुः कालक्रमेण परित्यक्तपूर्वा, संसार स्याऽनादित्वात्, न पुनः सर्वपुद्गलैरेककालं परित्यक्ता, सर्वपुद्गलैरेककालं परित्यागे तस्याः सबंधा स्वरूपाभावप्रसक्तेः । न चैतदस्ति, तथा जगत्स्वानान्यतः शाश्वतत्वालू । पतश्चानन्तरमेव वक्ष्यति । एवमेकैका पृथिवी क्रमेण तावद्वाच्या, यावदधः सप्तमं पृथिवी ।
(३०) शाश्वती शाश्वती वा रत्नना १इमाणं ते! रणप्पा पुढची किं सासता, असासता ? गोवमा !सिय साता, सिय असासता से केणद्वेणं ते! एवं बसिय सासता, सिय प्रसासता ? | गोमा ! दवाए सासता, वएणपज्जवेदिं गंधपज्जवेदि रसपज्जवेहिं फासपज्जवेहिं असासता से एएसडेणं गोया एवं बुच्चति तं चैव नाव सिय असासता, एवं० जाव हे सत्तमा ।
3
( श्मा णं भंते ! इत्यादि ) श्यं मदन्त ! रत्नप्रजा पृथिवी किं शाश्वती, अशाश्वती । नगवानाह - गौतम ! स्यात् कथञ्चित कस्यापि नयस्याऽभिप्रायेत्यर्थः । शाश्वती । स्यात् कथञ्चित् देव सविशेष जिहासुः पृच्छति (सेकेण भित्यादि ) से शब्दोग्यशब्दार्थः सच प्रश्ने, केन अर्थेन कारणेन भदन्त ! एवमुच्यते यथा स्यात् शाश्वती स्वादशास्तीति है। भगवानाह - गौतम! (दम्बया इत्यादि) इयातशातील सर्वाधि सामान्यमुच्यते इति गच्छति तान् तान् पर्यायान् विशेषामिति वा भ्यमिति व्युत्पतेः व्यमेवाऽर्थः तात्विक पदार्थों यस्य, न तु पास ज्या इज्यमात्रास्तित्वप्रतिपादको नयविशेषः तद्भावो इज्याचा तथान्यमात्रास्तित्वमतिपादकतयाऽभिप्रायेति यावदसा
वारंग
ती किन यमतपर्यालोचनायामेवंविधस्य रत्नप्रभायाः पृथिव्या आकारस्य सदाभाषा पयः कृष्णादिभिः गन्धपर्यायैः सुरज्यादिभिः, रसपर्व्यायैस्तिक्ताऽऽदिनिः, स्पर्शपर्याः कठिनत्वाऽऽदिभिः, अशाश्वती अनित्या, तेषां वर्णाऽऽदीनां प्रतिक्षणं कियत्कालानन्तरं वाऽन्यथान्यथाभवनात, श्रतादवस्थ्यस्य खाऽनित्यत्वात् । न चैषमपि निन्नाधिकरणे नित्यत्वानित्यत्वे व्यपयययोजदाभेदोपगमात् पयोभयो[रप्यसवापतेः तथापि वकुं परपरिकल्पितं यम
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पर्याप्तरित्वादयशून्यबध्यातव तथा परपरिकल्पिताः पर्याया अतः रूप्यत्यव्यतिरित्वात् बन्ध्यासुतगतबाङ्गत्वादिपर्याययत् उकं च-रूयं पर्यायवि युतं, पर्याया अव्यवर्जिताः । क्व कदा केन किंरूपाः, दृष्टा मानेन केन वा ? ॥१॥" इति कृतं प्रसङ्गेन विस्तराधिना धर्मसंपणिटीका निरूपणीया । ( से पपण ठेणमित्यादि ) उपसंहारमाह-' से 'शब्दोऽयशब्दार्थः स चाऽत्र वाक्योपन्यासे, अथ एतेनाऽनन्तरोदितेन कारणेन गौतम ! पवमुच्यतेस्यात् शाश्वती, स्यादशाश्वती । एवं प्रतिपृथिविताबद्वक्तव्यं यावदधः सप्तमी पृथिवी । इह यद् यावत्संभवाssस्पदं तच तावन्तं कालं शश्वद्भवति, तदा तदपि शाश्वत मुच्यते । यथा तन्त्रान्तरे-" आकष्पट्ठाई पुढवी सासया इत्यादि । ततः संशये किमेषा रत्नप्रभा पृथिवी सकलकानावाचिन्तया शाश्वती ? उताऽन्यथा । यथा तन्त्रान्तरीयैरुच्यते इति, ततस्तदपनोदार्थं पृच्छति ।
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(३१):
इमाणं ते! रणप्पा पुढवी कालतो केवचिरं होति ? | गोषमा ! कदा वि आसि ण कदा बित्यिण कदावि नविस्मति जुर्वि य, जयति य, भविस्सति य, धुवाणियता सासता अक्खया अन्या अवहिता णिचा एवं० जाव भडे सत्तमा ।
"
(इमा णं जंते ! इत्यादि ) इयं भदन्त ! रत्नप्रभा पृथिवी कालतः कियचिरं कियन्तं कालं यावद्भवति । जगबानाह-गौतम ! न कदाचिप्रासीत् देवासीदिति नावः अनादिखात् । तथा न कदाचिन भवति, सर्वदेव बर्तमानकाळातायां भवतीति प्रावः । अत्रापि स एव हेतुः सदा भावादिति । तथा न कदाचि प्रचिष्यति भविष्यचिन्तायाः सर्वदेव भविष्यतीति नाव:, अपर्यवसितत्वात् । तदेवं कालत्रयचिन्तायां नास्तिस्वप्रतिषेधं विधाय संप्रत्यस्तित्वं प्रतिपादयति-(नचियादि) अभूत भवति, भविष्यति य एवं त्रिकासावित्वेन वा अस्वादेव नियता नियताचस्थाना, धर्मास्तिकायाऽऽदिवत् नि यतत्वादेव च शाश्वती शश्वद्भावे प्रलयाभावात् शाश्वतत्वादेव च सततं गङ्गासिन्धुप्रवाह प्रवृत्तावपि पौएमरीकहद इवान्यतरपुमचिचटनेऽप्यन्यतर पुसोपचयजावादक्कया, अक्षयत्वादेव चाम्यया मानुषोत्तरादिः समुद्रत्वादेवावस्थिता स्वप्रमाणावस्थिता सूर्यमण्डनाऽऽदिवत् एवं सदाऽवस्थानेन चि न्त्यमाना नित्या जीवस्वरूपवत् । यदि वा ध्रुवाऽऽदयः शब्दा ६
शादिवत् पर्यायशब्दानामादेशजविनेयानुग्रहार्थमुपन्यस्ता इत्यदोषः । एवमेकैका पृथिबी क्रमेण तावद्वक्तव्या, या
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( १९१२)
अभिधानराजेन्द्रः
परग
दधः सप्तमी । ( पृथिवीषु बिजागतोऽन्तरवक्तव्यता 'अंतर ' शब्दे प्रथमनाये ७१ पृष्ठे गता )
(३२) पृथिव्यो बाल्येन तुल्य
इमा तेरवणप्पना पुढवी दोघं पुढविं पणिहाय वाढणं किं तुझा विसेसाहिया संखेज्जगुणा, वित्थारेणं किं तुल्ला विसेसहीणा संखेज्जगुणहीणा ।। गोयमा ! इमा भंते! या पुढनी दोघं पुढविं पथिहाय बाइलेणं णो तुला, विसेसाहिता, नो संखेज्जगुणा, वित्थारेणं णो तुला विसेसहीणा, यो संखेज्जगुणडीए। दोचा वां भंते! पुढवी तचं पुढविं पणिहाय वाढह्मणं किं तुला, एवं चैव जापिन्या एवं तच्चा चढत्थी पंचमी छडी उडी नंते ! पुढवी सत्तमं पुढविं पलिहाय बाहल्लेणं किं तुम्ला विसेसाहिया संखे जगुणा, , एवं चैव जाणियव्वं, सेवं भंते! भंते ! त्ति । (इमा णं भंते ! इत्यादि ) श्यं भदन्त ! रक्षप्रभा पृथिवी द्वितीयां शर्कराप्रभां प्रणिधायाऽऽश्रित्य बाहल्येन पिएमभावेण किंतु विशेषाधिका, संख्येयगुणा, वाश्वमधि स्वेदं प्रश्नमपकाशीत्युत्तरयोजनकमाना, अपरा द्वात्रिंशदुत्तरयोजनल माना इत्युक्तम तदर्थावगमे सम्युक्तकणं प्रश्नत्रयमयुक्तम, विशेषाधिकेति स्वयमेवार्थपरिज्ञानात् । सत्यमेव केवलोऽयं तद्यदापोहाच पतदपि यमवसीयते इति चेत्, स्वावबोधाय प्रश्नान्तरोपन्यासात् । तथाचा विस्तरे किन कि तुल्या, विशेषहीना, रूपे यगुणदीनेति ?| जगवानाह - गौतम ! इयं रत्नप्रभा पृथिवी द्विती
पृथिवीं प्राय बास्तुल्या किं तु विशेषाधिका नापि संख्येयगुणा । कथमेतदेवमिति चेत् ? । उच्यते-दर
ना पृथिवी अशी त्रयोजनकमाना, शर्कराप्रमाद्वात्रिशदुतरयोजनकाना सान्तरमाचत्वारिशद योजनस हस्राणि ततो विशेषाधिका घटते, न तुल्या, नाऽपि संख्येयगुणा विस्तरेण तुल्या, किंतु विशेषहीना, नाव संच गुणा, प्रदेशाऽऽदिवृद्ध्या प्रवर्द्धमाने तावति क्षेत्रे शर्कराप्रभाया
वृद्धिसंपात् एवं सर्वत्र मायनीय जी०३ प्रति ०१० (३३) संप्रति कस्यां पृथिव्यां कस्मिन् प्रदेशे नरकाऽऽबासा इत्येतत् प्रतिपादनार्थं तावदिदमाद
कइ णं भंते ! पुढवीओ पणत्ताओ ? । गोयमा ! सत्त पुढीओ पत्ताओ । तं जहा - रयणप्पभा० जाव आहे
सत्तमा ।
(करं भंते! इत्यादि) कति भदन्त ! प्रि
ति विशेषाऽभिधानार्थमेतदनिहितम् । उक्तं च- "पुण्वभणियं जं भरणइ तत्थ कारणं श्रत्थि पडिसेहो अणुमा कारणविसेसोवलंजो वा " । जगवानाह - गौतम ! सप्त पृथिव्याः प्रज्ञप्ताः ।
तद्यथा-रत्नप्रजा, यावत्तमस्तमः प्रभा ।
इमीसे णं जंते ! रयणप्पजाए पुढवीए असीउत्तरजोयणसतसहस्सा हस्याए डवरिं केवतियं श्रगाहिता, हैडाकेपनि वज्जेता, मजे केवलिए केवतिया निरवाना
यारग
ससयसद्स्सा पण्णत्ता ? । गोयमा ! इमीसे णं रयणभाए पुढवीए असीउत्तरजोयणसय सहस्सबाहल्लाए उबरिं एवं जोयणसहस्सं ओगाहिता हा वि एवं जोवणसहस्वमेता मन्छे अत्तरे जोयस्यसहस्से, एत्थ स्यणप्पभाष पुढवीए नेरतियाणं तसं निरयावास ससस्सा भवतीति मक्खायं ।
( इमी से गं इत्यादि ) अस्या नदन्त ! रत्नप्रभायाः पृथ्विव्या उपर कियत् किंप्रमाणमवगाह्य उपरितननागात् कियत् श्रतिक्रम्येत्यर्थः । श्रधस्तात् कियत् किंप्रमाणं वर्जयित्वा मध्ये कियति किंप्रमाणे कियन्ति नरकाऽऽवासाः शतसहस्त्राणि प्रज्ञताः ? | जगवानाह - गौतम ! श्रस्याः रत्नप्रभायाः पृथिव्या श्रशीत्युत्तरयोजनशतसहस्रबाहल्याया उपरि एकं योजनसहस्रमवगाह्य, अधस्तादेकं योजनसहस्रं वर्जयित्वा मध्ये मध्यनागे सप्तत्युतरे सप्तसाधिके योजनशतसहस्रम अत्र एतस्मिन् रत्नप्रभायां पृथिव्यां नैरविकाणां योग्यानि त्रि शश्नरकाऽऽयालशतसहस्राणि नवन्तीत्याख्यातं मया, शेषश्च तीर्थकृद्भिः अनेन सर्वतीर्थकृतामविसंवादिवचनता प्रवेदिता । (२४) वर्णकः
लेणं रमा तो वहा वाहिं चठरंसा० नाव अमृता रसुवेयणा, एवं एएवं अभिलावेणं नववज्जिऊण जाणियापासारणं जत्थ जं बाइलं जलियावा रियावास सय महस्सा० जाव हे सत्तमाए पुढवीए, हे सतमा म केति कति अनुत्तरा महतिमहालया महाणिरया पत्ता ; एवं पुच्छियन्वं वागरेयव्वं पितहवे उडी सत्तमा काभोगविण्याचा भाणिया ।
( ते परगा इत्यादि) ते नरका अन्तर्मध्यभागे वृत्ता वृताकारा बहिहिमांगे चतुरस्राः चतुराकाराः पी
परिवर्तिनं मध्यभागमधिकृत्य प्रोच्यते
तु भावलिकाप्रविष्टा वृत्तभ्यस्त्रचतुरस्र संस्थानाः, पुष्पावकीमांस्तु नानासंस्थानाः प्रतिपसभ्याः । एतवा स्वयमेव
पति [ खुरप्पाणसंठिया इति] बधो भूमितले भु रप्रस्थेच प्रहरणविशेषस्य यत् संस्थानमा कारविशेषसीण वाणः तेन संस्थिता। प्रधानसंस्थिताः । तथादि तेषु नरकायासेषु भूमितले शर्करले पादेषु न्य स्यमानेषु शर्करामात्र संस्पर्शेऽपि क्षुरप्रेच पादाः कत्यन्ते[कृत्यन्ते] [ निबंधकारतमसा इति ] नित्यान्धकारा उद्योताजावतो यत्तमस्तेन तमसा नित्यं सर्वकालमन्धकारो येषु नित्यान्धकाराः। तत्रापवरकाऽऽदिष्वपि नामान्धकारोऽस्ति केवलं यदिः सूर्यप्रकाशे मन्दं तमो भवति नरकेषु तु तीर्थकरजन्मादिका लव्यतिरेकेणान्यदा सर्वकालमपि उद्योतलेशस्याऽप्यभावतो जात्यन्धस्येव मेघच्छन्नका लाऽर्द्धरात्र श्वातीव बहलतरो भवति । तत उक्तं-तमसा नित्यान्धकाराः, तमश्च तत्र सदावस्थितम्, उद्द्योतकारिणामभावात् । तथाऽऽह - [ ववगयगढ़ चंद सूरनकखत्तजो पहा ] व्यपगतः परिभ्रष्ट ग्रह चन्द्रसूर्यन कत्ररूपाणाम्, उ पलक्षणमेतत्-तारारूपाणां ज्योतिष्काणां पन्थाः मार्गो यत्र व्य पगतग्रह सूर्यनत्रज्योतिष्कपथाः तथा [मेयबसायहरमंत्र
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परग
"
चिविलेयणता इति] स्वभावतः संपदा प्रतिरुधिरमांसह कर्दमस्तेन लिप्तमुपदिश्यमनुखेपनेन
तस्य पुनःपुनरुपलेपनेन तलं भूमिका येषां ते मेदो शापतिरुधिरमांस चिकियानुपनतला अत एवाशुच योऽपवित्राः, बीभत्सा दर्शनेष्वतिजुगुप्लोत्पत्तेः परमदुरभिगन्धा मृतगवादिकमेवरेभ्यो ऽप्यतीवानिष्टदुरनिगन्धाः (काश्रगणिवा इति ) लोहे पम्पमाने वाहकपोतो बहुकृष्णरूपणं किमुक्कं भवति! पादशी बहुकृष्णवर्णरूप अझ ज्वाला विनिर्गच्छतीति तादृशी आभा वर्णस्वरूपं येषां ते क पोतादिवर्णाभा तथा कर्कशोऽतिदुस्सहोपत्रस्येव पश येषां ते कर्कशः, अत एव [ दुरदियासा इति ] दुःखेनाध्यस्यन्ते दुरध्यासाः, अशुभा दर्शनतो नरकास्तथा गन्धरसस्पर्शशब्देरभा अतीवासातरूपाः नरकेषु वेदना, एवं स स्वपि पृथिवीवालापको वक्तव्यः । जी० ३ प्रति० । ('गण' शब्दे भागे १७०० पृष्ठे दर्शित आलाप) (नरका 33वा ससंख्या उपर्यधभैकैकं योजनसहस्रं मुक्त्वा यावत्प्रमाणं नरकवासयोग्यं पृथिवीवादस्यं तत्सर्वे संग्रदयीगाथाभिः गण' शब्दे १७०२ पृष्ठे प्रतिपादितम् )
(२०१३) अभिधानराजेन्द्र
(३५) संप्रति नरयास संस्थानप्रतिपादनार्थमाहइमीसे णं ते! स्यणप्पना पुढची धारणा किंसंधिता पत्ता । गोयमा ! दुविधा पत्ता । तं जहा-वलियपविट्टा य, आवलियबाहिरा य । तत्थ णं जे ते याव लियपविष्ठा ते तिविडा पत्ता । तं जहा वट्टा, तंसा, चजरंसा । तस्य गंजे ते आवलियवाहिरा, ते णाणासंाणसंतापसत्ता । तं जहा-अयकोट्टसंडिया, पिट्ठपय लगसंविया, कंडूसंत्रिया, लोही संविया, कमाहसंविया, थालीसंठिया, पिहडगसंठिया, किएडगसंठिया, उडजमंठिया, मुख्यसंठिया, मुगसंठिया, दिमुरंग संविया, आलिंगसंविया, सुघोस संविया, दद्दरसंठिया, पणवसंठिया, परहसंडिया, भेरी संविया, जल्लरिसंठिया, कुत्युंबक संविया, नाली संविया, एवं जाव तमाए ।
-
( इमीसे णं भंते ! इत्यादि ) अस्यां जदन्त ! रत्नप्रभायां पृथिव्यां नरकाः किमिव संस्थिताः प्रज्ञप्ताः १ । भगवानाह गौतम ! नरका द्विविधाः प्रज्ञप्ताः । तद्यथा-श्रावलिकाप्रविष्टाश्च, श्रवल्लिकाबाह्याश्च । चशब्दावुभयेषामप्य शुभता सूचकौ । आवलिकाप्रविश नाम सुदिक्षु समश्या व्यवस्थिताः, श्रावलिकासु श्रेणिषु प्रविष्टा व्यवस्थिता आवलिकाप्रविष्टाः, ते संस्थानमधिकृत्य त्रिविधाः प्रज्ञप्ताः । तद्यथा-वृत्ताः व्यखाः, चतुरस्राः । तत्र ये ते श्रावलिकाबाह्याः, ते नानासंस्थानसंस्थिताः प्रकृताः । तद्यथा-अयकोष्ठो सोमयकोष्ठस्तत् संस्थिताः (पिठपयणगसंठिया इति ) यत्र सुरासंधानाय पिष्टं पच्यते तत् पिष्टपच्चनकं, तद्वत् संस्थिताः । अत्र संग्रहणीगाथे
"यको पिट्ठपयणग-कंडूलोही कमाहसंगाणा | थालीपिडगफिरहग-उडर मुरए मुइंगेसु । मंदिरंगे सुधां दहरे व पराये । पहगरिनेरी कुडाणा " ॥ करमू: पाकसंस्थानं काही प्रतीत नत्संस्थानान
४७६
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गारग
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स्थानी उषा, पिहमगं यत्र प्रभूतजनयोग्यं धान्यं पच्यते, उटज स्तापसाऽऽश्रमः, मुरजो मर्दलविशेषः, नन्दीमृदङ्गो द्वादशवि धतूर्यान्तर्गतो मृदङ्गः । स च द्विधा । तद्यथा-मुकुन्दो, मईलश्च । तत्रोपरि संकुचितोऽधो विस्तीर्णो मुकुन्दः, उपर्यध श्च समो मर्दजः । अन्मियो मुरजः सुघोषो देवलो प्रसिद्ध घाविशेषः तोयविशेषा वाद्यविशेषः, पणवो भाएकानाम, पटहः प्रतीतः, मेरी ढक्का, ऊल्लरी चर्माव नद्धा विस्तीर्णवलयाऽऽकारा, कुस्तुम्बकः संप्रदायगभ्यः, नामी घटिका एवं शेषास्वपि पृथिदषु तावद्य यात् षष्ठद्याः सूत्रपाठस्त्वेवम्- "सकरप्पभाषणं नंते ! पुढवीप णरगा किंसंठिया पत्ता ? गोयमा ! दुविहा पत्ता । तं जड़ाआलियाविट्ठा याहि य" इत्यादि । (३६) अथ सप्तमी सानुपदर्शयतिअहे सत्तमा णं भंते ! पुढवीए नरगा किंसंविया पएकता ? | गोषमा ! डुविहा पणना। तं जहा-पट्टे य तंसा य ।
|
।
( हे सत्तमा णं नंते ! इत्यादि ) अधः सप्तम्यां भदन्त ! पृथिव्यां नराः किमिव संस्थिता है। भगवान गौतम! द्विवि धाः प्रशप्ताः । तद्यथा - ( वट्टे य तंसा य इति ) अधः सप्तम्यां हि पृथिव्यां नरका श्रावलिकाप्रविष्टा एव, नावलिकाबाह्याः, आवलिकाप्रविष्टा अपि पञ्च, नाधिकाः, तत्र मध्ये अप्रतिष्ठानाभिधाननर केन्द्रको वृत्तः, सर्वेषामपि नरकेन्द्रकाणां वृत्तत्वात् । शेषास्तु चत्वारः पूर्वाऽऽदिषु दिक्षु ते त्रयरुयनाः, तत उत्कं
वृत्ताश्च व्यस्त्राश्च ।
(३७) संप्रति नरकावखानां हयप्रतिपादनार्थमाहइमीसेां जंते ! रयणप्पनाए पुढवीए नरया केवतियं बाहल्लेणं पत्ता ? । गोयमा ! तिरिण जोयणसहस्साई बाहल्लेणं पष्मत्ता । तं जहा - हेहिले चरिमंते घणा सदस्सं, के सुमिरा सहस्से, पिया सहस्से एवं जाव अहे समाए ।
अस्यां भदन्त ! रत्नप्रभायां पृथिव्यां नरकाः कियद् बाहल्येन बहलस्य भावो बाल्यं पिएमजावः, उत्सेध इत्यर्थः । तेन प्रकृताः ? | जगवानाह - गौतम ! त्रीणि योजनसहस्राणि बाढल्येन प्रकृप्ताः। तद्यथा श्रधस्तात् पादपीठे घना निचिताःसइस योजनसह उपरि मध्यमागे सुपा सहस्रं योजनसह ( तत उ ति ) उपरि संकुचिताः शिखरीकृत्य संकोचनमुपगता योजनसहस्रं तत एवं सर्वसंध्या नरका ssवासानां त्रीणि योजनसहस्राणि बाहल्यतो भवन्ति, एवं पृधिन्यां पृथिव्यां तावद्वर्य बाबधः सप्तम्याम् । तथा चोकमन्यत्रापि -
" हेठा घणा सदस्सं, उपि संकोचतो सहस्सं तु । मज्जे सदस्य सुसिरा, तिष्ठि सहस्सूसिया परया ॥१॥ " (३८) संप्रति नरकाऽऽवासानामायामविष्कम्नप्रतिपादनार्थमाह
इमीसे णं भंते ! रणपजार पुढबीए नरगा केवतियं आयाम विक्खंनेणं, केवतियं परिक्खेवेणं पत्ता ! । गोयमा ! दुविधा पण्णत्ता । तं जहा - संखेज्जवित्थडा य, असंखज्ज
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(१९१४) पारग
अनिधानराजेन्मः। वित्थमा य । तत्थ णं जे ते संखेज्जवित्थमा ते णं संखेजाई (३९) संप्रति नरकाऽऽवासानां वर्णप्रतिपादनार्थमाहजोयणसहस्साई आयामविक्खंनेणं, संखेज्जाइं जोयणसह- श्मीसे गं रयप्पनाए पुढवीए नरया केरिसया वशेणं स्साई परिक्खेवणं पसत्ता । तत्थ णं जे ते असंखेजवि- पएणता। गोयमा! काला, कालावजासा, गंभीरलोस्थमा तेणं असंखेज्जाई जोयणसहस्साई आयामविक्खं- महरिसा जीमा उत्तासणया परमकिएहा वणं पसत्ता, नेणं, असंखज्जाइं जोयणसहस्साइं परिक्खेवेणं पसत्ता । एवं० जाव अहे सत्तमाए । एवं० जाव तमाए ॥
(इमीसे णं भंते ! इत्यादि) अस्यां भदन्त ! रत्नप्रजायां पृ.
थिव्यां नरकाः कीदृशा वर्णेन प्राप्ताः? । भगवानाह-गौतम! (इमीसे ण भंते! इत्यादि) अस्यांनदन्त! रत्नप्रभायां पृथिव्यां
कामाः, तत्र कोऽपि निष्प्रनतया मन्दकालोऽपि प्राशयेत, ततनरकाः किंप्रमाणमायामविष्कम्भेन, समाहारो द्वन्द्वः, आयाम
स्तदाशङ्काब्यवच्छेदार्थ विशेषणान्तरमाह-काबाऽवभासा: विष्कम्भाभ्यामित्यर्थः । कियत् परिक्षेपेण परिरयेण प्राप्ताः।
कालः कृष्णोऽवनासःप्रतिभाविनिर्गमोयेभ्यस्ते कालावभासाः, भगवानाह-गौतम!द्विविधाःप्राप्ताः। तद्यथा-संख्येयविस्तृता
कृष्णप्रभापटलोपचिता इति भावः। अत एव गम्भीररोमहध,असंख्येयविस्तृताश्च । संख्येयं संख्येययोजनप्रमाणं विस्तृतं
K:-गम्भीरोऽतीवोत्कटो रोमहर्षों जयवशाद येभ्यस्ते गम्भीविस्तारो येषां ते संख्येयविस्तृताः; पबमसंख्येयं विस्तृतं येषां
ररोमहर्षाः। किमुक्तं जवति ?-एवं नाम ते कृष्णा कृष्णाs. तेऽसंख्येयविस्तृताः । चशब्दी स्वगतानेकभेदप्रकाशनपरौ ।
बभासाः, यदर्शनमात्रेण नारकजन्तूनां जयसंपादनेन रोतत्र ये ते संख्ययविस्तृतास्ते संख्येयानि योजनसहस्राणि
महर्षमुत्पादयन्तीति । अत एव नीमा भयानकाः, भीमत्वादेव पायामविष्कम्भेण,संख्येयानि योजनसहस्राणि परिकेपेण । तत्र
उत्त्रास्यन्ते नारका जन्तव एभिरिति उत्त्रासनाः, उत्वासना येतेऽसंख्येयविस्तृतास्ते असंख्येयानि योजनसहस्राणि अाया
एव उत्त्रासनकाः, वर्णेन वर्णमधिकृत्य परमकृष्णाः प्रज्ञप्ता, मविष्कम्भण,असंख्येयानि योजनसहस्राणि परिकेपेण प्रज्ञप्ता।
यत ऊर्द्धन किमपि भयानकं कृष्णमस्तीति भावः। एवं प्र. एवं प्रतिपृथिवि तावद् वक्तव्यं यावत् षष्ठी पृथ्वी । सूत्र
तिथिवि तावद्वक्तव्यं यावदधः सप्तम्याम् । पाठस्वेवम्-" सक्करप्पभाए णं पुढवीए नरगा केबश्यं आया
(४०) गन्धमधिकृत्याऽऽहमविक्खंभेणं, केवइयं परिक्खेवेणं पत्ता गोयमा! विदा
इमीसे णं भंते ! रयणप्पभाए पुढवीए गरगा केरिसया पराणत्ता । तं जहा-संस्खेजबित्थडा य, असंखेज्जवित्थडा य।" इत्यादि ।
गंधेणं पत्ता गोयमा ! से जहानामए अहिमडे ति वा, अहे सत्तमाए णं ते! पुच्चा? गोयमा! दुविधा पम
गोमडे तिवा, सुणममे ति वा,मजारपडे ति वा.मगुस्सपहे ति ता?। तं जहा-संखजवित्यमे य, असंखेजवित्थमा य।
वा,महिसमडे ति वा, मुसगमढे ति वा,आसममे ति वा,हत्थितत्य णं जे से संखेज्जवित्थडे, सेणं एक जोयणसयस
मडे ति वा,सीहमडे ति वा,वग्यपडे ति वा, विगमडे ति वा, हस्सं आयामविक्खंनेणं, तिमि जोयणसयसहस्सा सोक्ष
दीवयममे ति वा, मयकुहियचिरविनहकुणिमवावामदुरस सहस्साई दोभि य सत्तावीसे जोयणसए तिमि कोसे
लिगंधे असुचिलीणविगयवीजच्छदरिसणिज्जे किमिजाअट्ठावीसं धणुसयाइं तेरस य अंगुसाई अचंगुलयं च
लाउलसंसत्ते।जवे एयारूचे सियाणो णटे समढे गोकिंचि विसेसाहिए परिक्खेवणं पप्पत्ते । तत्थ णं जे ते असं
यमा ! इमीसे णं रयणप्पनाए पुढवीए परगा एत्तो अखेजवित्थडा, ते णं असंखज्जाई जोयणसयसहस्साई प्रा
णितरका चेव अकंततरका चेव० जाव अमणामतरा यामविक्खंजेणं असंखजाइं० जाव परिक्खेवेणं पएणत्ता।
चेव गंधेणं पत्ता । एवं० जाव अहे सत्तमाए पुढवीए॥
(इमीसे गंजते ! इत्यादि ) प्रश्नसूत्रं सुगमम् । भगवानाह(अहे सत्तमाए ण नंते ! इत्यादि) अधः सप्तम्यां भदन्त! गौतम! तद्यथा नाम-अहिमृत इति वा, अहिमृतो नाम-मृतापृथिव्यां नरकाः कियदायामविष्कम्नेण, कियत्परिकेपेण प्रज्ञ- हिदेहः, एवं सर्वत्र भावनीयम । गोमृत इति वा, श्वमृत साः। जगवानाह-गौतम!द्विविधाः। तद्यथा-सङ्गयेयविस्तृ-1 इति वा, मार्जारमृत इति बा, इस्तिमृत इति वा, सिंहमृत त एका; स चाप्रतिष्ठानानिधानो नरकेन्डकोऽवसातव्यः। इति बा, व्याघ्रमृत इति वा, छीपकमृत इति बा, द्वीपकश्चित्र. असंख्येयविस्तृताश्चत्वारः। तत्र योऽसौ संस्येयविस्तृतोऽप्र- कः । सर्वत्र अहिश्चासौ मृतश्च अहिमृत इत्येवं विशेषणसमा. तिष्ठानाऽभिधानो नरकेन्डकः, स एक योजनशतसहस्रमा- सः। इह मृतकं सद्यःसंपन्नं न विगन्धि जबति । तत श्राहयामविष्कम्जेण, त्रीणि योजनशतसहस्राणि षोमश सहस्राणि (मयकुहियचिरविण कुणिमवावस्येत्यादि) मृतः सन् कुथितः व योजनशते सप्तर्विशे सप्तविंशत्यधिके त्रयः क्रोशा अष्टा- पूतिनावमुपगतो मृतकुधिता,स चोच्चूनावस्थामात्रगतोऽपि भविशं धनुइशतं प्रयोदश अङ्गलानि अाङ्गुलं च किश्चि-| वति । न च स तथा विगन्धस्तत पाह-चिरविनष्ट नच्नावविशेषाधिक परिकेपेण प्रज्ञप्तः । दं परिक्षेपपरिमाणं गति- स्थां प्राप्य स्फुटित इति प्रावः । सोऽपि तथा पुरभिगन्धः, जावनया जम्बूद्वीपपरिक्षेपपारमाणवद्भावनायम् ।ये ते शेषा- तथा न भवति, तत आह-(कुणिमवावरणति) व्यापन्नं विइचत्वारोऽसंख्येयविस्तृतास्तेऽसंख्येयानि योजनशतसहस्राण्या- शरारुभूतं कुणिमं मांसं यस्य स तथा । ततो विशेषणसमायामविष्कम्भेण, असंख्येयानि योजनसहस्राणि परिकेपेण सः। पुरभिगन्ध इति । पुरनिः सर्वेषामाभिमुख्येन दुष्टो गन्धो प्राप्ताः।
यस्याऽसौ दुरभिगन्धः। अशुचिश्चिलीनो मनसः कसिमक्षप.
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(२०१५) अभिधानराजेन्छः।
गरग रिणामहेतुः (विगयं इति) विप्रनष्टं तदभिमुखतया प्राणिनां दकोऽन्यस्य व्यथाजनकोऽपरस्व दाहक इत्यादि । ततः सागतं गमनं यस्मिन् स तथा, बीजत्सया निन्दयाऽदर्शनीयो | म्यप्रतिपयधमसिपत्राऽऽदीनां नानाविधानामुपमानानामुपादाबीभत्सादर्शनीयः, ततो विशेषणसमासः, अशुचिडिंगत. नम् (नवे एयाचे सिया इत्यादि) प्राग्वत् । बीभत्सादर्शनीयः (किमिजालानलसंसते इति ) संसक्तः सन् कृमिजालाकुलो जातः कृमिजालाकुलसंसक्तः, मयूरव्यं
(४२) संप्रति नरकाऽऽवासानां महत्वमभिधित्सुरादसकाऽऽदित्वात् समासः, संसक्तशब्दस्य च परनिपातः ।। इमीसेणं भंते ! रयणप्पभाए पुढवीए नरगा किं महाएतावमुक्त गौतम ! आह-(भवे एयारुवे सिया ति) स्या
सया पएणत्ता? । गोयमा! अयं णं जंबुद्दीने दीवे सव्वदीद्भवेदेतद् यदुत नवेयुरेतद्रूपा यथोक्तविशेषणविशिष्टामहिमृता.
वसमुदाणं सबजंतरए सव्ववुद्दाए वट्टे तख्तापूत [ तेलऽऽदिरूपगन्धेनाधिकृता नरकाः, सूत्रे च बहुवचनेऽपि एकवचनं प्राकृतत्वात् । भगवानाह-गौतम! नायमर्थः समर्थ:-ना
पूप] [ तेल्लापूप] संगणसंविते वट्टे पुक्खरकप्तिायामयमर्थ उपपन्नः, यतोऽस्यां रत्नप्रभायां पृथिव्यां नरका इतो गणसंविते बट्टे रहचकवालसंठाणसंविते पट्टे पडिपुष्पचंदयथोक्तविशेषणविशिष्टाऽहिमृतादनिष्टतरा एव; तत्र किश्चिद्भ- | संगणसग्नेि एक जोयण सतसहस्सं आयामविक्खंजेणं. व्यमपि कस्याऽप्यनिष्टतरं भवति । तत आह-अकान्ततरा पव जाव किंचि विसेसाहिए परिक्खेवेणं, देवे णं महिस्वरूपतोऽप्यकमनीयतरा एव, अभव्या एवेति भावः। तत्राकान्तमपि कस्याऽपि प्रियं जवति, यथा गायकरस्याशुचिः,
हिए. जाव महापूजागे जाव इणामेव त्ति कटु केतत पाह-अप्रियतरा एव, न कस्यापि प्रिया इति भावः। अत
वलकप्पं जंबुद्दी तिहिं अच्छराणि वा तिहिं तिसएवामनोइतरा पर गन्धमधिकृत्य प्राप्ताः, तत्र मनोज्ञ मनो- तखुत्तो भएपरियट्टित्ता णं हवमागच्छेजा, से णं देवे ताए ऽनुकूलमात्र यत् पुनः स्वविषये मनोगत्यन्तमासक्तं करोति
उकिट्ठाए तुरियाए चलाए चंडाए सिग्याए जाणाए तद्, न मनोझममनोनम । एकार्थिका वा पते सर्वे शब्दाः शक्रेन्द्रपुरन्दराऽऽदिवद् नानादेशजविनेयजनानुग्रहार्थमुपात्ता, एवं
छेइयाए उकुयाए दिव्वाए देवगईए वीतीवयमाणे जहपृथिव्यां तावद्वक्तव्यं यावदधः सप्तम्याम् ।
मेणं एगाई वा दुयाई वा तियाहं वा, उक्कोमेणं छम्मासे (४१) स्पर्शमधिकृत्याऽऽह
वीईवएज्जा, प्रत्येगतिए णरगे वीईवएज्जा, अत्थेगतिए ण इमीसे णं भंते ! रयणप्पभाए पुढवीए णरया केरिसया वीतीवएज्जा,महालया णं गोयमा ! मीसे णं रयणप्पनाए फासेणं परमत्ता । गोयमा ! से जहानामए असिपत्तेइ वा
पुढवीए णरगा पाता। एवं० जाव अहे सत्तमाए अत्थेगखुरपत्तेइ वा कलंवचीरियापचेइ वा सत्तग्गेति वा कुंतग्गेति
तियं नरगं वीईचएज्जा, अत्यंगइयं नरगं नो वीवएज्जा। वा तोमरग्गेति वा नारायग्गेति वा मूलम्गेति वा लजमग्गेति वा भिमिमालग्गेति वा सूचिकलाएति वा कविकच्चु
(इमीसे णं इत्यादि) अस्यां भदन्त ! रत्नप्रभायां पृथिव्यां
नरकाः किं महान्तः किंप्रमाणा महान्तः प्राप्ताः । पूर्व स्वसंत्ति वा विच्छकंटेति वा इंगालेति वा जालाएति वा मु-| ख्येयविस्तृता इति कथितं, तच्चासंख्येयत्वं नावगम्यते इति म्मुरएति वा अच्चि त्ति वा अलाएति वा मुछाग- भूयः प्रश्नः। अत एवात्रनिर्वचनं भगवानुपमयाऽभिधत्ते-गीतणि एति वा । नवे एयारूवे सिया ? । णे इण समढे । म! अयमिति यत्र स्थिता वयं, णमिति वाक्यालङ्कारे, अष्टयोगोयमा ! इमीसे णं रयणप्पभाए पुढवीए पारगा एतो
जनोतिया रत्नमय्या जम्ब्वा उपलवितो द्वीपो जम्बूद्वीपः,
सर्वद्वीपसमुत्राणां धातकीखएकलवणाऽऽदीनां सर्वाभ्यन्तर भाअणिहतरा चेव जाव अमणामतरा चेव वा फासेणं प
दिभूतः, सर्वक्षुबकः सर्वेभ्यो द्वीपसमुक्षेभ्यः क्षुद्धको ह्रस्वः स. पत्ता । एवं० जाव अहे सत्तमाए पुढवीए॥
बकुलकः । तथाहि-सवें बवणाऽऽदयः समुजाः सर्वे धातकीम. (श्मीसे णमित्यादि ) प्रश्नसूत्रं सुगमम् । भगवानाह- एमाऽऽदयो द्वीपा अस्माद् जम्बूद्वीपादारभ्य प्रवचनातक्रमेण द्वि. गौतम! तद्यथा नाम-असिपत्रमिति वा-प्रसिःस्त्रज्ञ,तस्य पत्र- गुणद्विगुणाऽऽपामविष्कम्भपरिधयः, ततोऽयं शेपसर्वद्वीपसमुमसिपत्रं,तुरपत्रमिति वा,कदम्बचिरिकापत्रमिति था, कदम्ब- बापेकया सर्वलघुरिति,तथा वृत्तो, यतस्तैलापूपसंस्थानसंस्थितः, चिरिका तृणविशेषः स च दर्नादप्यतीव तुदकः, शक्तिः प्रह- तैलेन पकोऽपूपस्तैलापूपः, तैलेन हि पक्योऽपूपः प्रायः परिपूर्णरणविशेषः,तदग्रमिति बा, कुन्ताममिति वा, तोमराममिति था, वृत्तो नवति, न घृतेन पक्व इति तैलाविशेषणं,तस्येव संस्थान, भिकिमानः प्रहरणविशेषः,तदग्रमिति वा,सूचीकलाप इति वा, तेन संस्थितस्तैलापूपसंस्थानसंस्थितः, तथा वृत्तो,यतः पुष्ककपिकच्चूरिति बा, कपिकच्यूः कण्डूतिजनको वल्लीविशेषः, रकर्णिकासंस्थानसंस्थितः, तथा वृत्तो.यतो रथचक्रवालसंस्थाबृश्चिकदंश इति बा, अनार ति बा, अङ्गारो निर्धूमाग्निः, नसंस्थितः, तथा वृत्तो, यतः परिपूर्णचन्छसंस्थानसंस्थिज्वालेति वा, ज्वाला अननसंबका ( मुम्मुर इति चा) मुर्मरः तः, अनेकधोपमानोपमेयभावो नानादेशजविनेयप्रतिपयर्थः । फुम्फुकाऽऽदौ मसृणोऽग्निः, अचिरिति वा, अचिरनलवि.] एक योजनशतसहस्रमायामविष्कम्जेण, त्रीणि योजनशतसद. च्छिन्ना ज्वाला, असातमुल्मुकम, शुद्धानिरयःपिएमानुग- नाणि पोमश सहस्राणि द्वे योजनशते सप्तविंशे प्रयः का तोऽग्निः, विद्युदादिवा, इतिशब्दः सर्वत्रापि उपमानृतव-| शा अष्टाविंशं धनुःशतं त्रयोदश अगुलानि अर्का गुलं व स्तुस्वरूपपरिसमाप्तिद्योतका, वाशब्दः परस्परसमुच्चये।। किञ्चिधिशेषाधिकं परिक्षेपेण प्राप्तः । परिकेपपरिमारणगणित. इह कस्यापि नरकस्य स्पर्शः शरीरावयवच्छेदकोऽपरस्य - भावना क्षेत्रसमासटीकातो, जम्बूद्वीपप्राप्तिीकातो .
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(१९१६) परग अभिधानराजेन्खः ।
पारग दितम्या । (देवेब णमित्यादि) देवश्च, णमिति वाक्यालङ्कारे । अन्तस्य प्राप्तुं शक्यत्वात्,शेषाणां च चतुर्णामपि प्रभूतासंख्येय. महर्तिकः महती ऋद्धिविमानपरिवाराऽऽदिका यस्य स महर्षि योजनकोटीकोटीप्रमाणत्वेनान्तस्प प्राप्तुमशक्यत्वात् । का, महती द्युतिः शरीराभरणविषया यस्य स महाद्युतिका, (४३) संप्रति किमया नरकाः?, ति निरूपणार्थमाहमहद् बलं शरीरं प्राणा यस्य स महाबलः, महद् यशः इमीसे णं भंते ! रयणप्पभाए पुढवीए नरगा किंमया ख्यातिर्यस्य स महायशाः, तथा (महेसक्ने इति) महेश
पप्रमत्ता ? । गोयमा ! सव्ववइरामया पएणता । तत्थ एं इति महान् ईश्वर श्त्याख्या यस्य स महेशाख्यः । अथवा-शनमीशो भावे घञ्प्रत्ययः, ऐश्वर्यमित्यर्थः, 'ईश'
णरएसु बहवे जीवा य पोग्गला य अवकमंति, विउक्कऐश्वर्ये इतिवचनात् । तत ईशमैश्वर्यमात्मनः ख्यातिः, अन्त - मंति, चयति, उववअंति, सासता णं ते नरगा दबध्याए तपयर्थतया स्यापयति प्रथयति, ईशाख्यः महाँश्वासाचीशाऽऽ
वामपज्जवेहिं गंधपजवहिं रसपनवेहिं फासपज्जवहिं त्यश्च महेशाख्यः। कचित् “महासोक्खे" इति पाठः। तत्र
असासता, एवं० जाव अहे सत्तमा ॥ महत् सौख्यं यस्य प्रभूतसद्वेद्योदयवशात् स महासौख्यः। अन्ये पनन्ति-"मदासक्खे इति" तत्रायं शब्दसंस्कारो महाश्वा
(स्मीसे णं भंते ! इत्यादि ) अस्यां प्रदन्त ! रत्नप्रजायां कः। श्यं चात्र पूर्वाऽचार्यप्रदशिता व्युत्पत्तिः, आशुगमनादश्वों
पृथिव्यां नरकाः किम्मयाः किविकाराः प्राप्ताः । भगवानाह. मनः, अकाणि इन्द्रियाणि स्वविषयव्यापकत्वात, अश्वश्चाक्वाणि
गौतम!(सववइरामया इति) सर्वाऽऽत्मना बज्रमयाः प्रज्ञच अश्वावाणि, महान्ति अश्वाकाणि यस्याऽसौ महाश्वाक्षः। प्ताः,वज्रशब्दस्य सूत्रे दीर्घता प्राकृतत्वात् । तत्र च येषु नरकेषु तथा-(महागुभागे इति) अनुभागो विशिष्टवैक्रियाधिकरण-। णमितिवाक्वालङ्कारे, बहवो जीवाश्च खरबादरपृथिवीकायिकविषया अचिन्त्या शक्तिः, "भागो चिंता सत्ती" इति वचनात् ।। रूपाः,पुजनाइच अपक्रान्ति,च्यवन्ते, व्युत्क्रामन्ति, उत्पश्चन्ते । महान् अनुनागो यस्य स महानुन्नागः । अमुनि महर्द्धिक एतदेव शब्दद्वयं यथाक्रम पर्यायद्वयेन व्याचष्टे-(वयंति उव. श्त्यादीनि विशेषणानि तत्सामर्थ्यातिशयप्रतिपादकानि । याव- घजंति) च्यवन्ते,उत्पद्यन्ते। किमुक्तं भवति?-एके जीवाः पुत्रादिति चप्पुटिकात्रयकरणकालावधिप्रदर्शनपरम् । “णामेव त्ति श्च यथायोगं गच्छन्ति, अपरे स्वागच्छन्ति । यस्तु प्रतिनियतकटु" एवमेव मुधिकया, " एमेव मोरकल्ला (कुखा), मुहा संस्थानाऽऽदिरूप आकारः स तदवस्थ एवेति । अत एवाऽऽहय मुहिय ति नायब्बा।" इति वचनात् । अवकयेति भावः।। (सासता णमिति) पूर्ववत, ते नरका व्यार्थतया तथाविधउक्तं च मूलटीकायाम्-( इणामेवेति कटु ) एवमेव मुधिकया
प्रतिनियतसंस्थानाऽऽदिरूपतया वर्णपर्यायैः गन्धपर्यायैः रसपर्या. अवयेति इतित्वेति हस्तदर्शितचप्पुटिकात्रयकरणसूचकम् , यैः स्पर्शपर्यायैः पुनरशाश्वता वर्णाऽऽदीनामन्यथाभवकेवलकल्पं परिपूर्ण जम्बूद्वीपं त्रिभिरप्सरोनिपातः । अप्सरो- नात् । एवं प्रतिपृथिवि तावद्वक्तव्यं यावदधः सप्तम) पृथिवी । मिपातो नाम-चप्पुटिका, तत्र तिसृभिश्चप्पुटिकाभिरिति । जी. ३ प्रति०। रुष्टव्यम् । चप्पुटिकाश्च कालोपलक्कर, ततो यावता कालेन
(४४) किंप्रतिष्ठिता नरकाः?तिम्रश्चप्पुटिकाः पूर्यन्ते, तावत्कालमध्ये इत्यर्थः। त्रिःसप्तकत्व तिपइच्यिा गरगा पाता । तं जहा-पुटवीपइट्ठिया णएकविंशतिवारान् , अनुपरिवर्त्य सामस्त्येन परिभ्रभ्य, 'हव्वं'
रगा, आगासपाटिया, आयपट्ठिया । णेगमसंगहववहाशीघ्रमागच्छेत, स इत्यम्भूतगमनशक्तियोग्यो देवस्तया देवजनप्रसिद्धया उत्कृष्टया प्रशास्तविहायोगतिनामोदयात प्रश
राणं पुढविपट्ठिया, उज्जुसुयस्स आगासपइटिया, तिएहं स्तया, शीघ्रसंचरणात् त्वरितया,त्वरा संजाता अस्यामिति स्व
सद्दण याणं आयपट्ठिया । रिता,तया त्वरितया, शीघ्रतरमेव तया प्रदेशान्तराक्रमणामति; स्फुटं केवलं नारका नरकाऽऽवासा आत्मप्रतिष्ठिताः स्वरूपप्रतिचपलेच चपला, तया, क्रोधाविष्टस्येव श्रमासंवेदनात् चएमेव ष्ठिताः। तत्प्रतिष्ठान नयैराह-(णेगमेत्यादि) नैकेन सामान्यविचएडा, तया, निरन्तरं शीघ्रगुपयोगात् शीघ्रा, तया शीघ्रया, शेषग्राहकत्वात् तस्याऽनेकेन झानेन मिनोति परिचिनत्तीति परमोत्कृष्टवेगपरिणामोपेता जबना,तया। अन्ये तु जैनया विप. नैगमः । अथवा-निगमा निश्चितार्थबोधाः, तेषु कुशलो भवो बा क्षजेतृत्वेनेति व्याचक्षते; छेकया निपुणया,वातोद्धृतस्य दिगन्त- नैगमः । अथवा-नैको गमोऽर्थमागों यस्य स प्राकृतत्वेन नैव्यापिनो रजस श्व या गतिः सा उद्धृता, तया । अन्ये त्वाहुः- गमः ॥१॥ संग्रहणं दानां संगृह्णाति वा तान् संगृह्यन्ते उद्भूतया तदर्थातिशयेनेति, दिव्या दिवि देवलोके प्रवा दिव्या, वा ते येन स संग्रहः, सामान्यमात्राभ्युपगमपर इति ॥२॥ तया, देवगत्या व्यतिव्रजन् जघन्यत एकाहं वा एकमहर्यायत, व्यवहरणं व्यवह्रियते वा तेन विशेषेण वा सामान्येन व्यव. एवं यहं व्यहमुत्कर्षतः षएमासान् यावत् व्यतिव्रजन् , तत्रा- हियते निराक्रियतेऽनेनेति लोकव्यवहारपरो व्यवहारो विशेस्त्येतद् यदुत एककान् काश्चन नरकान् व्यतिव्रजेत् उल्लक्ष्य प
षमात्राच्युपगमपरः ॥३॥ एतेषां नयानां मतेनति गम्यम् । ऋज़ रतो गच्छेत, तथाऽस्त्येतत् यत-इत्थंभूतयाऽपि गत्या षण्मा- अवक्रमभिमुखं श्रुतं श्रुतज्ञानं यस्येति ऋजुश्रुतः,ऋजु वाऽतीतासानपि यावद् निरन्तरं गच्छन् पककान् काश्चन नरकान् न व्य
नागतवपरित्यागाद् वर्तमानं वस्तु सूत्रयति गमयतीति तिव्रजेत् नोलक्ष्य परतो गच्छेत् अतिप्रनूतावामतया तेषामन्त
ऋजुसूत्रः, स्वकीयं सांप्रतं च वस्तु नान्यदित्यत्त्युपगमपरः । स्य प्राप्तुमशक्यत्वात्, एतावन्तो महान्तो गौतम! अस्यां रत्नप्र
शयते अनिधीयते अभिधेयमनेनेति शब्दो पाचको ध्वनिः, जायां नरकाः प्राप्ताः । एवमेकैकस्यां पृथिव्यां तावद्वक्तव्यं,
नयन्ति परिच्छिन्दन्ति अनेकधर्माऽऽत्मकं सद् वस्तु सावधार. यावदधः सप्तम्यां, नवरमधः सप्तम्यामेवं वक्तव्यम्-" अत्धेग- णतयैकेन धर्मेणेति नयाः शब्दप्रधाननयाः। ते च त्रयः-शश्यं णरग वीईवपज्जा,अत्धेगए नरगे नो वीईवएज्जा।" अप्र-॥ ब्दसमभिरुवंभूताऽऽख्याः। तत्र शपनमभिधानं, शप्यते बा तिष्ठानानिधस्यैकस्य नरकस्य सकयोजनाऽऽयामविष्कम्भतया । येन वस्तु स शब्दः, तदभिधेयविमर्शनपरो नयोऽपि श.
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( १७०१७)
निधानराजेन्द्रः ।
यारग
ब्द एवेति । स च भावनिक्षेपरूपं वर्तमानमभिन्नलिङ्गवाचकं बहुपर्यायमपि च गति वाचाच प्रति वाच्यभेदं समभिरोद्दत्याश्रयति यः स समनिरूदः । स ानन्तशेक्तविशेषणस्याऽपि वस्तुनः शक्रपुरन्दरादिवाचकभेदेन मे दमन्युपगच्छति घटपटादिवदिति । यथा शब्दार्थों घटते बेहत इति घटइत्यादि समिति तथाभूतः सत्यो घरादिरों, नान्यथेत्येवमभ्युपगमपर पभूतो नयः अयं हि भावना ssदिविशेषणोपेतं व्युत्पत्यर्थाऽऽविष्टमेवार्थमिच्छति, जलाSSहरणाऽऽदि चेष्टावन्तं घटमेवेति । तत्राऽऽद्य त्रयस्याऽशुरूत्वात् प्रायो लोकव्यवहारपरत्वाच्च पृथिवीप्रक मिति तध्वम्, चतुर्थस्य शुरूत्वात् श्राकाशस्य च गच्छतां तितां वा सर्वभावानामैकान्तिकाऽऽयारत्वादयोऽनेका न्तिकत्वाच्या ऽऽकाश प्रतिष्ठितत्वमिति त्रयाणां तु शुद्धतरत्वात् सर्वजवान स्वभावलक्षणाऽधिकरणस्याऽन्तरङ्गत्वादव्यनिवारित्वाच्च आत्मप्रतिष्ठितत्वमिति । न हि स्वस्व - जावं विहाय परस्वभावाधिकरणा जावाः कदाचनाऽपि जबन्तीति । यत श्राह भाष्यकार:-" वत्युं वस सहावे, सत्ताओ चेयण व्व जीवम्मि। न विलक्खणसणाओ, जिने गयातवे चेव" || २२४२॥ (विशे०) इति । स्था० ३ ठा० ३ ० [उपपातः ' उववाय' शब्दे द्वितीयजागे ६१५ पृष्ठादारभ्य अष्टव्यः ] [ एवं शरीराबहारणावगाहनेऽपि स्वस्थाने ] (४५) नरक दुःखवर्णनम् - पुच्छरसकेपलि महेसिं कजितावा खरना पुरस्या | अजाओ मे मुणि ! बूहि जाणं, कहिं नु बाबा नरए उविंति ? ॥ १ ॥
जम्बूस्वामिना सुधर्मस्वामी पृष्टः । तद्यथा-भगवन् ! किंनूता नारकाः कैवी कर्मभिरमतां तेषूपादः कीदृश्य या त्या बेदनाः इत्येवं पृष्टः स्वास्बाह-यदेतद्भवताऽहं पृष्ठतदेतत् केवलिनमतीतानागतवर्तमानमव्यवहितपदार्थदिनं महर्षिमुपकारण कारिणमनु प्रतियोपसर्गसाहि श्रीमन्महावीरवर्धमानस्वामिनं पुरस्तात् पूर्व पृष्टवानस्मि । यथा-कथं किंनूता अभितापान्विता नरका नरकावासा नवन्ति?, इत्येतदजानतो मे मम दे मुने ! जानन् पूर्वमेव केवलज्ञानेनायग च्छन्, ब्रूहि कथय । कथं नु केन प्रकारेण किमनुष्ठायिनः ? | तितर्फे बाला प्रज्ञा हिताहितत्राप्तिविषेकरहिताः तेषु नरके पूप सामीप्येन तद्ययकमपादानता पाि (४६) भूगतानां वेदनाः प्रापतीत्येताऽऽद एवं मए पुढे महाभावे,
इमोवी कासवें आपने ।
पवेद,
आदीषिणं मुकमिणं पुरस्या || २ ||
यमनन्तरोकं मया विनेयेनोपगम्य पृष्टो महाशदति रूपा माहातयं यस्य स तथा प्रश्नोत्तरका बे वक्ष्यमाणम्, “मो" इति वाक्यालङ्कारे, केवलाऽऽलोकेन परिकाय मत्प्रश्ननिर्वचनमन्त्रीक्वान् को सौ काश्यपो बीरो वर्द्धमानस्वामी, आशुप्रज्ञः सर्वत्र सदोपयोगात् स चैवं मया
,
४८०
गारग
पृष्टो भगवानिदमाह-यथा यदेतद्भवता पृष्टं तदहं प्रवेदयिच्यामि कथयिष्याम्यप्रतो दत्तावधानः गृरिबति । तदेवाऽऽहदुःखमिति नरकं दुःखहेतुत्वात अनुष्ठान यदि वा नरकाssवास एब दुःखयतीति दुःखम् । अथवा असातावेदनीयादतीमपीडात्मकं दुःखमिवाऽर्थः परमार्थतो विचार्यमाणं दुर्गे गहनं विषमं दुर्विशेयम् श्र सर्वज्ञेन तत्प्रतिपादक प्रमाणाभावादित्यभिप्रायः । यदि वा [ दमडुगं ति ] दुःखमेवार्थो यस्मिन् स दुःखनिमित्तो वा दुष्प्रयोजनो वा दुःखार्थो नरकः, स वर्गो विषम प्रतिपादयिष्ये पुनरपि तमेच विशि नष्टिना समन्ताद्दीनमादीनं तद्विद्यते परिमन्स आदीनीउत्यन्तरायः तद् पुष्पा बाफलं बा, असातावेदनीयोदयरूपं तद्विद्यते यस्मिन् स दुष्कृतिकः, तं पुरस्तादग्रतः प्रतिपादयिष्ये । पाठान्तरं वा - ( डुक्कडि ति विद्यते येषां ते दुष्कृतिनो नारास्तेषां संबन्धि चरितं पुरस्तात् पूर्वस्मिन् जन्मनि नरकगतिगमनयोग्य पद् कृतं प्रतिपादयिष्यत इति ।
-
यथाप्रतिज्ञातमेवाऽऽह
जे केइ बाला इह जीविपडी, पावाइँ कम्पाइँ करंति रुद्दा । ते घोररूने तमसंघारे, तिब्याजिताने नरए पति ॥ ३ ॥
ये केचन महारम्नपरिग्रह पत्र वेन्द्रिय वधपिशितभक्कणाऽऽदि के सावधानुष्ठाने प्रवृत्ता बाला अज्ञा रागद्वेषोत्कटास्तिर्यमनुष्याः इदास्मिन् संसारेऽयमजीवितार्थिनः पापभूतानि कर्मानुष्ठानानि रौद्रः प्राणिनां भयोत्पादकत्वेन भया नकािऽनृतादीनि कर्माणि कुर्वन्ति तपा
घोररूपे अन्तयानके ( तारेत) यडुलतमोऽन्धकारे यत्रामा नोपलभ्यतेचा केवल मधिनाऽपि मन्दं मन्दमुलूका श्वाह्नि पश्यन्ति । तथा चाऽग्गम:- "करहवेस्से णं नंते ! णेरइए कएह लेस्सं णेरइयं पाणयाए श्रोणि सव्वश्रो समता समनिलोपमाणे केवइयं खेतं जार, केव खेत्तं पास ?। गोयमा ! नो बहुययरं खेत्तं जाण णो बहुययरं खेत्तं पासद् । इत्तरियमेव खेतं जाणइ, इरिश्रमेव खेत्तं पासर ।" इत्यादि । तथा तीव्रो दुःसहः खदिरागारमहाराशितापादनन्तगुणोऽभितापः संताप परिमन् स तीव्राभितापस्तस्मिन् एवंभूते नरके बहुवेदनेऽपरित्यक्तवि पयाऽभिष्वङ्गाः स्वकृतकर्मगुरवः पतन्ति तत्र च नानारूपा वेदनाः समनुभवन्ति च ।
तथा चोकम्
"च्छेदिवियसुदे मायसिसिहाव संसारोददिल दुखागरे निर ॥ १ ॥ नीलगुरु कुरु । कक्खतिकत्तियहा-विरिक्तविवदेहजे ॥ २ ॥ जंतंतर भिजंतुच्छलत संसद्दभरियदिसिविवरे । मज्जं तुष्फिमियसमुच्छलंतसीसट्ठिसंघार ॥ ३ ॥ सुक्ककंदकडाहु-कदंत दुक्कयकयंत कम्मते ।
विनिवेशितम्भारे ॥४॥ बार-बंधायारकिले से मित्रकरचरणसंकर-हिरवसायदे ॥ ५ ॥
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(१९१०) गरग अभिधानराजेन्डः।
गारग गिद्धमुहणिहक्स्वि -सबंधणोम्मुदकंधरकबंधे।
स्पर्शजनिता शीता,तां, सा च चतुर्थ्यादिनरफपृथिवीग्विति । एदढगहियतत्तसंका-सराम्गनिसमुक्खुडियजीहे ॥६॥ वमुष्णां प्रथमाऽऽदिषु, क्षुधं बुजुक्तां,पिपासां तृष, फण्डूं खर्जूम, तिक्खंकुसग्गककिय-कंटयरुक्खग्गजज्जरसरीरे।
(परभं ति) परतन्त्रता, जयं भीति, शोकं दैन्यं, जरां वृद्धत्वं, निमिसंतरं पि दुल्लह-सुक्खेऽवक्खेवदुक्खम्मि ॥७॥ व्याधि ज्वरकुष्टाऽऽदिकमिति । स्था० १० ठा० । इय नीसम्मिणिरए, पडंति जे विधिहसत्सवहनिरया। (४८) साम्प्रतं पुनरपि नरकवर्तिनो नारका यदनुजवन्ति सबभा य नरा, जयम्मि कयपावसंघाया।" इत्यादि।
__ तदर्शयितुमाहकिश्चान्यत
हण छिंदह भिंदणं दहेति, तिव्वं तसे पाणिणो थावरे य,
सहे सुर्णिता परहम्मिया एं। जे हिंसति आयसुहं पमुच्च ।
ते नारगाओ जयनिनसन्ना, जे लसए होइ अदत्तहारी,
कंखंति के नाम दिसं वयामो?॥६॥ ण सिक्खती सेयवियस्स किंचि ॥४॥
तिर्यमनुष्यभवात् सवा नरकेषत्पन्ना अन्तर्मुहर्तेन निलूंना(तिब्वं तसेत्यादि ) तथा तीवमतिनिरनुकम्प रोड़परिणाम
रामजसन्निभानि शरीराण्युत्पादयन्ति पर्याप्तिनावमागताश्वाति
भयानकान् शब्दान परमाधार्मिकजनितान् शण्वन्ति । तद्यतया हिंसायां प्रवृत्तः,त्रस्यन्तीति प्रसा द्वीन्धियाऽऽदयः, तान्,
था-हत मुझराऽऽदिना,चिन्त खड्गाऽऽदिना, जिन्त शूत्राऽदिना, तथा स्थावराँश्च पृथिवीकायाऽऽदीन , यःकश्चिन्महामोहोदय
दहत मुराऽदिना, रणमिति वाक्यालङ्कारे । तदेवभूतान् कर्णावर्ती, हिनस्ति व्यापादयति, आत्मसुखं प्रतीत्य, स्वशरीरसु.
सुखान् शब्दान् नैरवान् श्रुत्वा, ते तु नारका भयोधान्तलोवकृते नानाविधैरूपायैर्यः प्राणिनां लूषक उपमर्दकारी भवति,
चना भयेन भीत्या जिन्ना नष्टा संज्ञाऽन्तःकरणवृत्तिर्येषां ते ततथा अदत्तमपहर्तुं शीलमस्यासावदत्तहारी परमव्यापहार
था, नष्टसंज्ञाश्च कां दिशं व्रजामः?,कुत्र गतानामस्माकमेघनूतकः, तथा न शिकते नाभ्यसति नादत्ते (सेववियस्स ति) से.
स्याऽस्य महाघोरारवदारुणस्य दुःखस्य प्राणं स्यादित्येत्तत् चनीयस्पाऽऽत्महितैषिणा सदनुष्ठाने यस्य संयमस्य किञ्चिदि
कावन्तीति। प्ति । एतदुक्तं भवति-पापोदयाद विरतिपरिणाम काकमांसाssदेरपि मनागपि न विद्यते शति ॥४॥
(४६) तेच भयोवान्ता दिक्कु नष्टा यदनु नवन्ति तदर्शयितुमाहतथा
इंगालरासिं जलियं सजोति, पागन्नि पाणे बहुणं-तिवाती,
तेणोवमं नूमिमणुक्कमंता । अनिव्वते घातमुवेति बाले।
ते डज्झमाणा कबुणं थणंति, णिहो णिसं गच्याति अंतकाले,
अरहस्सरा तत्थ चिरहितीया ॥७॥ अहो सिरं कह उवेश् दुग्गं ।।५॥
(गालेत्यादि) अङ्गारराशि खदिराडारपुञ्ज ज्वलितं ज्वालाss. प्रागल्भ्यं धाटर्च तद्विद्यते यस्य स प्रागल्भी, बहनां प्राणिनां |
कुलं, तथा सह ज्योतिषोद्योतेन वर्तत इति सज्योतिर्भूमिप्राणानतीव पातयितुं शीलमस्य स भवत्यतिपाती। एतदुक्तं न.
स्तेनोपमा यस्याः सा तदुपमा, तामङ्गारसन्निभां नूमिमाक्रवति-अतिपान्यपि प्राणिनः प्राणानतिधाष्टवाद् वदति-यथा बे.
मन्तस्ते नारका दन्दह्यमानाः करुणं दीनं स्तनन्त्याक्रन्दन्ति । दाभिहिता हिंसा अहिंसैव भवति, तथा राज्ञामयं धर्मो यदुत
तत्र बादराग्नेरजावात, तदुपमां नूमिमित्युक्तम् । एतदपि दिगआखेटकेन विनोदक्रिया। यदि वा-"न मांसजवणे दोषो, न मधे
दर्शनार्थमुक्तम,अन्यथा नारकतापस्ये हत्याग्निना नोपमा घटते ।
ते च नारका महानगरदाहाधिकेन तापेन दह्यमाना भरहस्वन च मैथुने । प्रवृत्तिरेषा भूतानां, निवृत्तिस्तु महाफसा" ॥१॥ इत्यादि । तदेवं रसिंदकृष्णसर्पवत प्रकृत्यैव प्राणातिपातानुष्ठा
रा अप्रकटस्वरा महाशब्दाः सन्तः, तत्र तस्मिन्नरकावासे,
चिरं प्रनूतं कालं सितिरवस्थानं येषां ते, तथा ह्यत्कृष्टतस्त्रययी,अनिर्वृतः कदाचिदप्यनुपशान्तः क्रोधाग्निना दह्यमानः। यदि वा गुन्धकमत्स्याऽऽदिवधकजीविकाप्रसक्तः सर्वदा परिणामपरि
त्रिंशत्सागरोपमाणि, जघन्यतो दशवर्षसहस्राणि तिष्ठन्तीति । णतोऽनुपशान्तो, हन्यते प्राणिनः स्वकृतकर्मविपाकेन यस्मिन् स
जर ते सुया वेयरणीऽऽजिग्गा , घातो नरकस्तमुप सामीप्येन एति याति,कः?,बालोझो रागद्वेषो
निसिभो जहा खुर इव तिक्खसोया । दयवर्ती, सोऽन्तकाले मरणकाले (निहो ति) न्यगधस्तात् तरंति ते वेयराणिऽजिग्गां , (सिणं ति) अधोऽन्धकारं गच्चतीत्यर्थः, यथा तेन दुश्चरितेन अधः शिरः कृत्वा दुर्ग विषम यातनास्थानमुपैति; अ
उसुचोइया सत्तिमु हम्ममाणा ॥ ७ ॥ वाशिरा नरके पततीत्यर्थः । सूत्र०१ शु० ५ ०१ उ० ।
(जहते सुया इत्यादि) सुधर्मस्वामी जम्बूस्वामिनं प्रतीद(४७) दशविधवेदना:
माह-यथा जगवतेदमाख्यातम्-यदि ते त्वया श्रुता श्रवणपथमनेरइया णं दसविहं वेयणं पञ्चणुभवमाणा विहरति । तं
पागता वैतरण। नाम कारोष्णरुधिराऽऽकारजलवाहिनी नदी
आनिमुख्येन मुर्गाऽभिदुर्गा दुःखोत्पादिका । तथा निशितो यथा जहा-सीयं, उसिणं, खुह, पिवासं, कंमुं, परब्नं, भयं, सोगं, क्षरस्तीक्ष्णानि शरीरावयवानां कर्तकानि स्रोतांसि यस्याः जरं. बाहिं॥
सा तथा, ते च नारकास्तप्ताङ्गारसन्निभां भूमि विहायोदकं "नेरश्या" इत्यादि कएठ्यम् । नवरं वेदनां पीमां, तत्र शीत- पिपासवोऽनितप्ताः सन्तस्तापापनादायानिषिषिकवो वा तां
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गारग
वैतरणीमभिदुर्गा तरन्ति का शरेण प्रतोदेनेव चोदिताः प्रेरिताः, शक्तिभिश्च हन्यमानास्तामेव भीमां वैतरण तरन्ति । तृतीयार्थे सप्तमी ॥ ८ ॥
कोलेहि विज्जति असा हुकम्मा, नाव नविते सइविप्पहूणा । अत्रे तु मूला तिमूझिपाहिं, दीहाहि विकून आहे करंति ॥ ए ॥ ताँइच नारकानत्यन्तत्क्षारोष्णेन दुर्गन्धेन वैतरणीजलेन अमिलानायस की लगामुपतः पूर्वारूढा असाधुकर्माणः परमधार्मिकाः कीलेसु कण्टकेषु विध्यन्तीति, ते च विध्यमानाः कलकलायमानुयाविना वैतरणीजलेन नष्टसंज्ञा अपि सुतरां स्मृत्या विप्रहीणा अपगतकर्तव्यविका भवन्ति । अन्ये पुनर्नरकपात्रा नारकै कतिख शूलिका निर्देभिरायानिर्विद्धा अधो भूमीकुर्वन्तीति ॥ श्रपि चकेसि च बंधित्तु गले मिलायो । उदगस बोलंति महालयंसि । कलंबुपाएँ] मुम्मुरे य
( १०१९ ) अभिधानराजेन्द्रः ।
नोति पतितत्व अने ॥ १० ॥ (केसि स्यादि) केारकाणां परमधार्मिकाणां महतीं शिलांग बच्चा महत्युदके ( बोलंत निमजय ति पुनस्ततः समाकृष्य चैतरणी नद्या कलाकार्या मुर्मुराग्नी चयन्ति प्रतिवाका चणकानिय सम न्तितो लोलयन्ति, तथाऽन्ये तत्र नरकाऽऽवासे स्वकर्मपाशाव पाशितान् नरकान् शूल के प्रोतकमांसपेशीप पचन्ति य न्तीति ॥१०॥
तथा
अमरियं नाम महामिताने,
तमं दुप्पतरं मतं ।
उप्र तिरियं दिसामु ।
समाहिओ जत्थगणी जियाई ॥। ११ ॥ असूयमित्यादि न विद्यते सूर्यो यस्मिन् सोऽयनरको बढ्लान्धकारः कुम्भीपाकाऽऽकृतिः सर्व एव वा नरकाssबासोऽसूर्यो व्यपदिश्यते । तमेवंभूतं महानतापमन्धतमसं दुष्प्रतरं दुरुत्तरं महान्तं विशालं नरकं महापापोदबाद् व्रजन्ति । तत्र च नरके ऊर्ध्वमधस्तियं च सर्वतः समाहितः स म्यगाहितो व्यवस्थापितोऽग्निजांज्वलतीति । पठ्यते च (समूसियो जत्थगणी शिवा) नरः समुि सम्प्रतं तथाभूतं नरकं बराका नजन्ति ॥ ११ ॥ काम्यत्जंसी गुहार जलवि
विजाणो मज्जा लुत्तपणो । सवाय कर्णपुण पम्मठाणं, गादोवणी अतिदुक्ख ॥ १२ ॥
परग
( सी गुदाइत्यादि) परिमारके तितो मान्गुदायामित्युकाती नरके प्रवेशितो वेदनाभिभूत्वा तं श्वरिमजानन् गतावघिविवेको दन्दह्यते । तथा सदा सर्वकालं पुनः करुणप्रायं कृ
वा धर्मस्थानमुष्णस्थानं, तापस्थानमित्यर्थः । ( गाढं ति ) अत्यर्थमुपनीतम् ढौकितं दुष्कृतकर्मकारिणां यत् स्थानं तत्वे व्रजन्ति । पुनरपि तदेव विशिनष्टि- अतिदुःस्वरूपो धर्मः स्वभावो यस्मिनिति । मुनयति-अनिमेषमात्रमपि कालं न तस्य दुःखस्य विश्राम इति । तदुकम्"निर्माणमेतं परिध सुदं क्वमेव परिषद्धं । रिपरश्याणं, अहोणिसं पञ्चमाणाणं " ॥ १ ॥ १२ ॥ अपि च
चत्तारि अगणि समारजिता, जेहिं कूरकम्माऽतिविति वा । ते तत् चितिऽभितापमाणा, मच्छा व जीवंतुवनोतिपत्ता ।। १३ ।।
चतसृष्वपि दिक्षु चतुरोऽग्नीन् समारभ्य प्रज्वाल्य, यस्मिन्नर कावासे क्रूरकर्माणो नरकपाताभिमुख्येनात्यर्थं तापयन्ति मत्रिवत्पयन्ति नारकं पूर्व तु नारकजीवा एवमभितप्यमानाः कथ्यमानाः स्वकर्मनिगमिताः तत्रैव प्रभूतं कालं महादुःखाऽऽकुले नरके तिष्ठन्ति । दृष्टान्तमादयथा जीवन्तो मत्स्या मीना उपज्योतिरग्नेः समीपे प्राप्ताः परवशत्वादन्यत्र गन्तुमसमर्थाः, तत्रैव तिष्ठन्त्येवं नारका अपि मत्स्यानां तापासहित्वादनावत्यन्तं दुःखमुत्पद्यत इत्यत स्तग्रहणमिति ॥ १३ ॥
किञ्चान्यत्संतच्छृणं णाम महादितावं,
ते नारवा जन्य असादुकम्पा ।
इत्थे हि पाएहि य बंधिऊणं,
फलगं व तच्छंति कुहामहत्या ॥ १४ ॥
तमित्यादि) समेकभावेन संत नामशब्दः संभावनायां यदेतत्संतकणं तत्सर्वेषां प्राणिनां महानिताप महा-खोत्पादकमित्येवं संभाग्यते यदेवं ततः किमित्याहते नारका नरकपाला यत्र नरकाऽऽवासे स्वभवनादागता असाधुकर्माणः क्रूरकर्माणो निरनुकम्पा कुठारहस्ता पा णयः, तान्नारकानत्राणान् हस्तैः पादैश्च बध्वा संयम्य फत्रकमिम त ति दन्तीत्यर्थः ॥ १४ अपि चरुहिरे पुणो वच्चसमुसिंगे, जिन्नुतमंगे परिवचयंता |
पर्यतिर फुरंते,
सजीवमच्छे व प्रयोकवले ॥ १५ ॥
ते परमधार्मिकास्तान् नारकान् स्वकीये रुधिरे तप्तकवल्यां प्रतेि पुनः पचति वनानि समुि अङ्गानि वा ते तथा तान, निंचूर्णितमुमा शिरो येषां ते तथा, तानिति । कथं पचन्तीत्याह-परिवर्तयन्त
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(१९२०) गारग अभिधानराजेन्द्रः।
गारग उत्तानानवाक्मुखान् वा कुर्वन्तः, णमिति वाक्यालङ्कारे । तान्
तथास्फुरत तश्चेतश्च बिह्वलमात्मानं निक्तिपतः सजीचमत्स्या
पाणोहणं पाव विभोजयंति, निवाऽऽयसकवल्यामिति ॥१५॥
तं ने पवक्खामि जहातहेणं । यो चेव ते तत्थ मसीभवंति,
दंमेहँ तत्या सरयंति बाला, ण मिज्जती तिबभिवेयणाए ।
सोहि दंडेहि पुराकडेहिं ॥ १५ ॥ तमाणूजागं अावेदयंता,
(पाणहि णमित्यादि) णमिति वाक्यालङ्कारे । प्राणैः शरी. दुक्खंति सुक्खी इह दुक्कमेणं ॥१६॥
रेन्द्रियाऽऽदिभिस्ते पापाः पापकर्माणो नरकपाला वियोज(यो चेवेत्यादि ) ते च नारका एवं बहुशः पच्यमाना |
यन्ति शरीरावयवानां पाटनाऽऽदिभिः प्रकारैर्विकर्तनादवयवान् अपि (नो) नैव तत्र नरके पाके वा नरकानुभवे पा
बिश्लेषयन्ति। किमर्थमेवं कुर्वन्तीत्याह-तद् पुःखकारणं 'जे' युसति मषीभवन्ति नैव प्रस्मसाद्भवन्ति । तथा तत्तीब्राभि
माकं प्रवक्ष्यामि याथातथ्येनावितथं प्रतिपादयामीति । दण्मवेदनया नापरमग्निप्रक्किप्तमत्स्याऽऽदिकमप्यास्ति, यन्मीयते उप
यन्ति पीमामुत्पादयन्तीति दएमा पुःखविशेषास्तै रकाणामामीयते; अनन्यसरी तीवां वेदनां वाचामगोचरामनुभचन्ती- पादितैर्बाला निर्विका नरकपालाः पूर्वकृतं स्मारयन्ति । तद्य. स्यर्थः। यदि वा-तीवाभिवेदनयाऽयननुजूतस्वकृतकर्मत्वान
था-सदा रुष्टस्त्वं खादसि समुत्कृत्य प्राणिनां मांस, तथा पिनियन्ते इति । प्रभूतमपि कालं यावत्तसारशं शीतोष्णवेदना
बसि तद्रसं, मधं च, गच्गसि परदारान, साम्प्रतं तद्विपाजनित, तथा दहनच्छेदनभेदनतक्षणत्रिशूलाऽऽरोपणकुम्भीपा- कापादितेन कर्मणाऽभितप्यमानः किमेव रारटीषीत्येवं सर्वैः कशाल्मल्यारोहणाऽऽदिक परमाधार्मिकजनितं परस्परोदीरण
पुराकृतैर्दण्डैदुःखावशषैः स्मारयन्तस्तारग्भूतमेव दुःखवि. निष्पादितं चानुभागं कर्मणां विपाकमनुवेदयन्तः समनुवेदय- शेषमुत्पादयन्तो नरकपालाः पीमयम्तीति ॥१६॥ न्तः समनुजवन्तस्तिष्ठन्ति । तथा स्वकृतेन हिंसाऽऽदिनाऽष्टादशपापस्थानरूपेण सततोदीर्णदुष्कृतेन दु:खिनो पुःखयन्ति
तथापीडपन्ते, नाकिनिमेषमपि कालं दुःखेन मुच्यन्त शति ॥१६॥
ते इम्ममाणा परगे पमंति, किमान्यत
पुन्ने दुरूवस्स पहाऽजितावे । तेहिं च ते लोलणसंपगाढे,
ते तत्थ चिटुंति दुरूवभक्खी, गाढं मुतत्तं अगणि वयंति ।
तुइंति कम्मोवगया किमीहिं ॥१०॥ न तत्थ सायं लहतीऽनिदुग्गे,
(ते हम्ममाणा इत्यादि ) ते वराका नारका हन्यमानास्तोअरहियाऽजितावा तद वी तविति ॥ १७॥
धमाना नरकपालेयो नरकेऽन्यस्मिन् घोरतरे नरकैकदेश तस्मैिश्च महायातनास्थाननरके, तमेव विशिनष्टि-नारका- पतन्ति गच्चन्ति । किंभूते नरके ?, पूणे भृते, 5ष्टं पं यस्य णां लोलने सम्यक प्रगाढो व्याप्तो भृतः स तथा तस्मिन् न. तद दुरूपं विष्ठाऽसमांसाऽऽदिकं मलं तस्य भृते, तथा रके, शीतार्ताः सन्तो गाढमत्यर्थ सुप्ठ तप्तमग्नि व्रजन्ति । त-। महाभितापिते सन्तापोपेते, ते नारकाः स्वकमीववात्राऽप्यग्निस्थाने ऽभिपुगें दह्यमानाः सातं सुखं मनागपि न स्तत्रैवंभूते नरके, रूपभकिणोऽाच्यादिभक्षकाः प्रनतं कालं लभन्ते, अरहितो निरन्तरोऽनितापो दाहो येषां ते अरहिता- यावत्तिष्ठन्ति । तथा मिनिः नरकपानाऽऽपादितैः परस्परकृतेश्व भितापास्तथाऽपि तानारकाँस्ते नरकपानास्तापयन्तीत्यर्थः, स्वकर्मोपगताः स्वकर्मढौकितास्तुद्यन्ते व्यथ्यन्ते इति । तथा चा. तप्ततैयाग्निना दहन्तीति ।।१७॥
ऽऽगम:-" छछी-सत्तमासु णं पढवीस नेहया महंताई लोअपि च
हिकुंथुरूवाइं विउवित्ता अन्नमन्त्रस्स कार्य समचरंगेमाणा २ से सुच्चई नगरवहे व सहे,
अणुज्झायमाणा मणुझायमाणा चिटुंति" ॥२०॥ होवणीयाणि पयाणि तत्थ ।
किशान्यत्उदिप्सकम्माण नदिएणकम्मा,
सया कसिणं पुण धम्मगणं, पुणो पुणो ते सरहं दुहेति ।। १०॥
गाढोवणीयं अतिमुक्खधम्म । 'से' शब्दोऽधशब्दार्थे । अथाऽनन्तरं तेषां नारकाणां
अंदसु पक्खिप्प विहत्तु देहं, नरकपाः रौद्धैः कर्यमानानां जथानको हाहारवप्रचुर श्रा
वेहेण सीसं सेऽजितावयंति ॥ १॥ कन्दनशब्दो नगरबध इव भूयते समाकर्यते, दुःखेन पीमयोपनीतानि उच्चरितानि करुणाप्रधानानि यानि पदानि-हा
(सया कसिणमित्यादि) सदा सर्वकालं, कृत्स्नं संपूर्ण, पु. मातस्तात ! कष्टम अनाथोऽहं शरणागतस्तव त्रायस्व
नस्तत्र नरके धर्मप्रधानम् उष्णप्रधानं स्थितिः स्यानं ना. मामित्येवमादीनां पदानां तत्र नरके शब्दः श्रूयते, उदीर्णमु
रकाणां जबति। तत्र हि प्रलयातिरिक्ताग्निवातादीनामत्यम्तो. दयप्राप्त कटुविपाकं कर्म येषां तयोदीर्णकर्माणो नरकपाला
पणरूपत्वात् तब हदैनिधत्तनिकाचितावस्यैः कर्मनि रकाणामिथ्यात्व हास्यरत्यादीनामुदये बर्तमानाः पुनः पुनर्बहुशस्ते मुपनीतं दौकितम् । पुनरपि विशिनहि-अतीव दुःखमसातावे. (सरदं ति) सरजसं सोत्साहं नारकान् दुःखयन्त्यतस्तदसचं दनीय धर्मः स्वभावो यस्य तत्तथा, तस्मिंश्चैवंविधे स्थाने स्थिनानाविधैरुपावैर्दुःखमसातवेदनीयमुत्पादयन्तीति ॥१॥ तोऽसुमान् अन्दुषु निगमेषु देहं विहत्य प्रक्रिप्य च यथा
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(२५२१) परग
अभिधानराजेन्द्रः। शिरव से' तस्य नारकस्य वेधेन रन्धोत्पादनेनाऽभितापय
अहस्सरे ते कलणं रसंते। न्तीति॥११॥
तएहाझ्या ते तउयं च तत्तं, अपि च
पज्जिजमाणाऽऽट्टतरं रसंति ॥ २५ ॥ छिंदंति बालस्स खुरेण नकं,
(पक्खिप्प इत्यादि) तासु प्रत्यग्निना दीप्तासु लोहितपूयशरी. उहे विदिति दुवे वि कन्ने ।
रावयवकिरिवषपूर्णासु दुर्गन्धासु च बालान्नारकॉस्त्राणरहिताजिन्नं विणिकस्स विहत्थिमित्तं ,
नातेस्वरान् करुणं दीनं रसतः प्रक्तिप्य प्रपचन्ति, तेच नारका. तिक्खाहि मूलाहिऽनितावयति ।। २॥
स्तथा कदर्यमाना विरसमाक्रन्दन्तः तृषार्ताः सलिलं प्रार्थ
यन्तो मचं ते अतीव प्रियमासादित्येवं स्मरयित्वा सप्तं त्रपु (छिदंति बालस्सेत्यादि)ते परमाधार्मिकाः पूर्वदुश्चरितानि
पाग्यमाना मार्ततरं रसम्ति रारटन्तीति ॥ २५ ॥ स्मरयित्वा बालस्याशस्य निर्विवेकस्य प्रायशः सर्वदा वेदना
उपसंहारमाहसमुद्घातोपगतस्य तुरप्रेण नासिकां छिन्दन्ति । तथोष्ठाव. पि, द्वावपि कौँ छिन्दन्ति, तथा मद्यमांसरसानिलिप्सोम॑षा
अप्पेण अप्पं इह वंचश्ता, भाषिणो जिह्वां वितस्तिमात्रामाशिप्य तीक्ष्णाभिः शूलानिर
जवाहमे पुव्वसते सहस्से । नितापयन्यपनयन्ति ॥ २२॥
चिट्ठति तत्था बहु कूरकम्मा, तथा
जहा कडं कम्म तहा सि भारे ॥ १६ ॥ ते तिप्पमाणा तलसंपुमं व,
(अप्पेणेत्यादि ) इहाऽस्मिन् मनुष्यभवे आत्मना परवञ्चनरादियं तस्थ थणंति बाला ।
प्रवृत्तेन स्वत एव परमार्थत आत्मानं वञ्चयित्वा अल्पेन गलंति ते सोणियपूयमंसं,
स्तोकेन परोपघातसुखेन आत्मानं वश्वयित्वा बहुशो भपज्जोइया खारपइछियंगा ॥ २३ ॥
वानां, मध्ये अधमा भवाधमा मत्स्यबन्धकसुब्धकाss.
दीनां भवास्तान् पूर्वजन्मसु शतसहस्रशः समनुनूय तेषु (ते तिप्पमाणेत्यादि) ते छिन्ननासिकौष्ठजिह्वाः सन्तः शो
जवेषु विषयोन्मुखतया सुकृतपराङ्मुखत्वेम वाऽवाप्य णितं तिप्यमानाः करन्तो यत्र यस्मिन् प्रदेशे रात्रिन्दिवं ग.
महाघोरमतिदारुणं नरकवासं तत्र तस्मिन् मनुष्याः क्रूरकर्मा. मयन्ति, तत्र बाला अज्ञास्तालसंपुटा इव पवनेरितशुष्क
णः परस्परतो दुःखमुदीरयन्तः प्रनूतं कालं यावत्तिष्ठन्ति । तालपत्रसंचया श्व सदा स्तनन्ति दीर्घविस्वरमाक्रन्दन्तस्ति
अत्र कारणमाह-यथा पूर्वजन्मसु यादृग्जूतेन अध्यवसाष्ठन्ति । तथा प्रद्योतिता वह्निना ज्वलिताः, तथा कारेण प्रदि
येन जघन्यजघन्यतराऽऽदिना कृतानि कर्माणि,तथा तेनैव प्रकाग्धानाः शोणितं पूर्य मांसं च अहर्निशं गलन्तीति ॥ २३ ॥
रेण (से)तस्य नारकजन्तोभारा घेदनाः प्राजवन्ति स्वतः, किश्च
परतः, उभयतो वेति। जइ ते सुता लोहितपूअपाई,
तथाहि-मांसादाः स्वमांसान्येवाग्निना प्रताप्य भक्वन्ते,
तथा मांसरसपायिनो निजपूयरुधिराणि तप्तत्रपूणीव पारयबालागणीतेअगुणा परेणं ।
न्ते, तथा मत्स्यघातकलुब्धकाऽऽदयस्तथैव छिधन्ते भिद्यन्ते कुंभी महंताहियपोरिसीया,
यावन्मायन्ते, तथाऽनृतजाषिणां तत्स्मारयित्वा जिह्वाइचेसमूसिता लोहियपूयपुरमा ॥२॥
विद्यन्ते, तथा पूर्वजन्मनि परकीयाव्यापहारिणामकोपाला
न्यपहियन्ते, तथा पारदारिकाणां वृषणच्छेदः शाल्मल्युप(ज ते सुता इत्यादि ) पुनरपि सुधर्मस्वामी जम्बू.
गूहनाऽऽदि च तैः कार्यन्ते । एवं महापरिग्रहाऽऽरम्नवतां स्वामिनमुद्दिश्य नगवद्वचनमाविष्करोति-यदि ते त्वया
क्रोधमानमायालोभिनां च जन्मान्तरस्वकृतक्रोधाऽऽदिपुष्कृतश्रुता आकर्णिता, लोहितं रुधिरं पृयं रुधिरमेव पक्कं,
स्मारणेन ताहविधमेष पुःखमुत्पाद्यत इति कृत्वा सुच्यते ते द्वे अपि पक्तुं शीलं यस्यां सा लोहितपूयपा
तथाविधं कर्म ताहविधभूत पव तेषां तत्कर्मविराकाऽऽदितो चिनी कुम्नी । तामेव विशिनष्टि-बालोऽभिनवः प्रत्यग्रोऽग्नि
भार इति ॥ २६॥ स्तेन तेजोऽभितापः स एव गुणो यस्याः सा बालाग्नितेजोगुणा, परेण प्रकर्षेण तप्तेत्यर्थः । पुनरपि तस्या एव विशेषणम
तत्र किश्चान्यत्महती बृहत्तरा (अहियपोरिसीयं ति ) पुरुषप्रमाणाधिका
समन्जिणित्ता कबुसं अणज्जा, समुच्छ्रितोष्ट्रिकाऽऽकृतिकर्व व्यवस्थिता, लोहितेन पूयेन च
डेहि कंतेहि य विप्पहणा। पूर्णा सैवंभूता कुम्भी समन्ततोऽग्निना प्रज्वलिता अतीच वाभ
ते दुब्जिगंधे कसिणे अफासे, सदर्शनेति भावः॥२४॥
कम्मोवगा कुणिमे आवसंति ॥२७॥ (५०) तासु च यत् क्रियते तदयितुमाह
(समन्जिणित्ता इत्यादि ) अनार्या अनार्यकर्मकारित्वाद पक्खिप्प तासंपवयंति बाले,
हिंसाऽनृतस्तेयाऽऽदिभिराश्रवद्वारैः कलुषं पापं समाशुभक*बितस्तिवसतिभरतकातरमातुलिते हः ।।८।११२१४॥ मोपचयं कृत्वा, ते क्रूरकर्माणो दुरभिगन्धे नरके आवसन्तीति इति तस्य हः।
संटङ्कः । किंनूताः?-इष्टैः शब्दाऽऽदिनिर्विषयैः कान्तैः कमनीयैः ४०१
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(१९२२) गारग अन्निधानराजेन्छः।
गरग विविध प्रकर्षण हीना विप्रमुक्ता नरके वसन्ति, यदि वा यद- जे पुढवीकाश्या० जाव वणस्मइकाइया ते णं नंते ! र्य कलुषं समर्जयन्ति, तैर्मातापुत्रकनत्राऽऽदिभिः कान्तैश्च वि.
जीवा महाकम्मतरा चेव, महापासवतरा चेव, महावेयणपपैषिप्रमुक्ता एकाकिनस्ते ऽरभिगन्धेन कुधितकलेवरातिशायिनि नरके कृत्स्ने संपूर्णेऽत्यन्ताशुभस्पर्शे पकान्तोद्वेजनीये शु.
तरा चेव । ता गोयमा । भकर्मापगताः (कुणिमे त्ति) मांसपेशीरुधिरपूयान्त्रफिफिसक- इमीसे णं रयणप्पभाए पुढचीए निरयपरिसामंतेसु तहेव० हमषाऽऽकुले सर्वामेध्याधमे बीजत्सदर्शने हाहाऽऽरवाऽऽक्रन्देन
जाव महावेयणतरका चेव, एवं० जाव थहे सत्तमाए । कष्ट मा तावदित्यादिशब्दावधीरितदिगन्तराले परमाधमे नर
इमीसे णं नंते ! रयणप्पभाए पुढवीए तीमाए णिरयाकाऽऽवासे पा समन्तादुत्कृष्टतस्त्रयस्त्रिंशत्सागरोपमाणि यावद्य. स्यां वा नरकपृथिव्यां यावदायुस्तावद्वसन्ति तिष्ठन्ति । (नैराय
वाससयसहस्सेमु एक्कमेकसि निरयावासंसि सव्वे पाणा कानामुद्वर्तना 'उबटणा' शब्दे १११ पृष्ठे द्वितीय नागे,उपपा- सव्वे नूया सव्वे जीवा सव्वे सत्ता पुढवीकाइयत्ताए जाव सश्च • उवचाय 'ब्दे ११५ पृष्ठे उक्तः । नैरयिकविषया. वणस्सइकाइयत्ताए णेरइयत्ताए यवनपुवा ?। द्वत्य तीर्थकृत्वाऽऽदिलानः, अन्तक्रियाश्च 'अंतकिरिया' शब्दे
हंता गोयमा! असई,अजुवा अणंतखुत्तो,एवं जाव अहे प्रथमजागे ५६ पृष्ठे अव्याः )
सत्तमाए पुढवीए, वरं जत्थ जत्तिया गरगा । (५१) संप्रति नरकेषु पृथिव्यादिस्पर्शखरूपमाह
(इमीसे ण इत्यादि ) अस्यां भदन्त ! रत्नप्रनायां पृथिव्यां इमीसे रंग जंते ! रयणप्पभाए पुढवीए नेरश्या केरिस
त्रिंशति नरकावासशतसहस्रेषु एकैकस्मिन् नरकाऽऽवासे सर्वे यं पुढवीफास पञ्चगुभवमाणा विहरंति ? ।
प्राणा द्वीन्द्रियाऽऽदयः सर्वे भूता वनस्पतिकायिकाः, सर्व स. गोयमा ! अणिमु० जाव अमणाम एवं० जाव अहे
रचाः पृथिव्यादयः सर्वे जीवाः पञ्चेन्धियाऽऽदयः ।
उक्तं चसत्तमाए।
"प्राणा द्वित्रिचतुःप्रोक्ताः, भूनाइच तरवः स्मृताः। श्मीसे ण नंते ! रयणप्पभाए पुढवीए नेरझ्या केरिसयं |
जीवाः पञ्चेन्जिया क्षेयाः, शेषाः सवा उदीरिताः ॥१॥" आउफासं पञ्चगुब्भवमाणा विहरति ? ।
पृथिवीकायिकतया अप्कायिकतया घायुकायिकतया वनस्पगोयमा! अणिटुं० जान अमणाम, एवं० जाव अहे स- तिकायिकतया नैरयिकतया उपपन्नपूर्वाः । भगवानाह-(हते. तमाए, एवं० जाव वणसई फासं अहे सत्तमाए पुढवीए ।
त्यादि) हन्तेतिप्रत्यवधारणे । गौतम! असकृत अनेकवारम,
अथवा-अनन्तकृत्वोऽनन्तान् वारान् संसारस्यानादित्वात् । (रयणप्पभेत्यादि) रत्नप्रजापृथिवा नैरयिका नदन्त ! कोरशं
एवं प्रतिपृथिवि तावद्वक्तव्यम, यावदधः सप्तमी पृथिवी । पृथिवीस्पर्श प्रत्यनुनवन्तो विहरन्ति?। भगवानाद-गौतम! (अ
नवरं यत्र यावन्तो नरकास्तत्र तावन्त उपयुज्य वक्तव्याः। निठं अकतं अप्पियं अमणुम्नं अमणाम) अस्यार्थः प्राग्वत् । एवं प्रतिपृथिवि तावक्तव्यं यावत् तमस्तमायाम । एवमपते.
क्वचिदिदमपि सूत्रं दृश्यतेजोवायुवनस्पतिस्पर्शसूत्राण्यपि भावनीयानि । नवरं तेजःस्पर्श
"श्मीसे ण भंते ! रयणप्पनाए पुढवीए णरयपरिसामतेम उष्णरूपतापरिणतनरककुट्यादिस्पर्शः, परोदीरितवैक्रियरूपो
णं जे बायरपुढविकाश्या० जाव वणस्सश्कारया ते ण भंते ! वा वेदितव्यः, न तु साकाद् बादराग्निकायस्पर्शः, तत्राऽस
जीवा महाकम्मतरा चेव महाकिरियनरा चेव महावेयणतरा नवाव।
चेव? । हंता गोयमा!. जाव महावेयणतरा चेव, एवं० जाव (५१) पृथ्वीनां बाढल्याऽऽदि
अहे सत्तमा ।"
अस्यां भदन्त! रत्नप्रजायां पृथिव्यां नरकपरिसमन्तेषु नरकाइमीसे नंते ! रयणप्पभाए पुढवीए दोच्चं पुढविं प
ऽऽवासपर्यन्तवर्तिषु प्रदेशेषु यादरपृथिवीकायिकाः (० जाव व. णिहाय सव्वमहंतिया बाहोग, सव्वखुड्डिया सव्वतेसु ?। णस्सइकाश्या ति) बादरापकायिकाः बादरवायुकायिका याद. हंता गोयमा !।
रवनस्पतिकायिकास्ते नदन्त जीवा महाकर्मतरा एव महत्प्रन. इमीसे णं जंते ! रयणप्पनाए पुदवीए दोचं पुढविं
तमसातवेदनीय कर्म येषां ते महाकाणः,अतिशयेन मद्दाका.
णो महाकर्मतराः,चेत्यवधारणे । महाकर्मतरा एव कुत इत्यादपाणि हाय० जाच सव्वखुडिया सव्वतेसु । हंता गोयमा !
(महाकिरियतरा एव) महती क्रिया प्राणातिपाताऽऽदिका दोचा णं भंते ! पुढवी तचं पुढविं पणिहाय सव्वमहंतिया | श्रासीत्प्राग्जन्मनि, तद्भवे तु तदध्यवसायानिवृष्या येषां ते वाहवेणं पुच्चा? । हंता गोयमा!।
महाक्रियाः, अतिशयेन महाक्रियतराः " निमित्तकारणदेतुषु
सर्वासां विभक्तीनां प्रायो दर्शनम् " ति न्यायात् । देतावत्र दोचा णं पुढवी० जाव खुड्डिया सव्वंतेमु, एवं एएणं अ
प्रथमा । ततोऽयमर्थः-यतो महाकर्मतरा एव । महाक्रियतरत्वमजिलावणं० जाव ट्ठिया पुढवी अहे सत्तमि पुढवि पाण- पि कुत इत्याह-महाश्रवतरा एव महान्त आश्रवाः पापोपादाहाय० जाव सव्वखुड्डिया सव्वतेसु ॥
नहेतव प्रारम्भाऽऽदयो येषामासीरन् ते महाश्रवा अतिशयेन (५३) महाकर्ममया वेदनाश्च
महाश्रवा महाश्रवतराः,चैवेति पूर्ववत, तदेवं यतो महाकर्मतरा
एव, ततो महावेदनतरा एव, नरकेषु केत्रस्वभाव जाया अपि इमीसे णं भंते ! रयणप्पभाए पुढवीए निरयपरिसामंत
वेदनाया अतिसहत्वात भगवानाह-हन्त गौतम ! (ते णं
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(१९२३) परग अन्निधानराजन्फः ।
पारग जीवा महाकम्मतरा चेवेत्यादि) प्राग्वत् । एवं प्रतिपृथिवि ता- (रयणप्पभेत्यादि) रत्नप्रजापृथिवीनैरयिका जदन्त ! कीवद् वक्तव्यं यावदधः सप्तमी। जी०।
दृशं पुजलपरिणाममाहाराऽऽदिपुजलविपाकं प्रत्यनुजबन्तः प्र. (एकैकस्मिन् नरके सर्वे जीवा उपपन्नपूर्वा शति उववाय' त्येकं वेदयमाना विहरन्ति ? । भगवानाह-गौतम ! अनिष्टशब्दे द्वितीयन्नागे १८० पृष्ठे चिन्तितम्)
मित्यादि प्राग्वत, एवं प्रतिपृथिवि तावद् वक्तव्यं, यावदधः
सप्तमी । एवं बेदनालेश्यानामगोत्रारतिजयशोकक्षुत्पिपासा. (५४) संप्रत्युहेशकार्थसंग्रहाणगाथाः प्राऽऽह
व्याध्युवासानुतापक्रोधमानमायालाभाऽऽहारमैथुनपरिग्रहसं-- पुढवि अगाहित्ता, नरगा संगण मेव बाहल्ले।
शासूत्राणि वक्तव्यानि। विक्खनपरिक्खेवो, वमो गंधो य फासो य ।। १॥
अत्र संग्रहणीगाथेतासे महालयाए, उवमा देवेण होइ कायब्वा ।
पोग्गलपरिणामं वे-यणाय असा य णामगोए य । जीचा य पोग्गलाऽव-कति तह सासया निरया ॥२॥
अरई भए य सोए, खुहा पिवासा य वाही य ॥ १ ॥ उववायपरीमाणं, अवहारुचत्तमेव संघयणं ।
उस्मासे अणुतावे, कोहे माणे य माऍ लोने य । संगणवाणगंधा, फासा ऊसासमाहारे ।। ३ ॥
चत्तारि य सन्नाओ, नेरइयाणं तु परिणामा ॥२॥ लेस्सा दिट्ठी णाणे, जोगुवओगे तहा समुग्घाए।
(५६) संप्रति सप्तमनरकपृथिव्यां ये गच्छन्ति, तान् तत्तो खहा पिवासा, विउव्वणा वेयणा य जए॥४॥
प्रतिपादयतिउववाओ पुरिसाण, ओवम्मं वेयणाएँ दुविहाए ।
एत्थ किर अतिवतंती, एरवसभा केसवा जायरा य । वि नव्वदृण फासो, जववानो सव्वजीवागं ॥५॥
मंमसिया रायाणो, जे य महारंभ कोडंवी ।। ३।। आसामकरमात्रगमनिका-[ पुढवीश्रो इति ] पृथिव्य अभिधेयाः । तद्यथा-[करणं भंते ! पुढवीश्रो पएणत्ताओ,
(एत्थ किरेत्यादि ) इह परिग्रहसंझापरिणामवक्तव्यतायां
चरमसूत्रं सप्तमनरकथिवाविषयं, तदनन्तरं च इयं गाथा, इत्यादि ] तदनन्तरम् [ोगाहित्ता नरगा इति] यस्यां पृथिव्यां यदवगाह्य यादृशाश्च नरकाः, तदन्निधेयम् [श्मासे णं भंते!
तत " पत्थ " इत्यनन्तरमुक्ताधः सप्तमी पृथिवी परामरयणप्पभाए पुढवीए असीउत्तरजोयणसयसहस्सबाहखाए
श्यते । तत्र अधः सप्तमनरकपृथिव्यां किलेत्याप्तवादस्तवने, उरि केवश्य भोगाहित्ता? इत्यादि] ततो नरकाणां संस्थानम् ,
प्राप्तवचनमेतदिति भावः। अतिव्रजन्ति अतिशयन बाहुल्ये. ततो बाहल्यं, तदनन्तरं विष्कम्भपरिकेपी, ततो वर्णः, ततो
न गच्छन्ति, नरवृषभाः केशवा वासुदेवा जलचराश्च त. गन्धः, तदनन्तरं स्पर्शः, ततस्तेषां नरकाणां महत्तायामुपमा
न्दुलमत्स्यप्रभृतयो, मएमतिका वसुप्रभृतय श्व, राजानश्चदेवेन भवति कर्तव्या,ततो जीवाः पुलाश्च तेषु नरकेषु व्युत्क्रा
क्रवर्तिनः सुनूमाऽऽदय एव, ये च महारम्भाः कुटुम्विनः कालमन्तीति,तथा शाश्वताश्च नरका ति वक्तव्यं,तत उपपातो वक्त
सौकरिकाऽऽदय श्व ॥३॥ व्यः । तद्यथा-[श्मीसे णं भंते! रयणप्पभाप पुढवीए कतो -
संप्रति नरकेषु प्रस्तावात् तिर्यगादिषु चोत्तरवैक्रिववजंति ? इत्यादि] तत एकसमयेनोत्पद्यमानानां परिमाणं, त.
यावस्थानकालमानमाहतोऽपहारः,तत चत्वं,तदनन्तरं संहननं,ततः स्थानं, ततो वर्णः, जिनमुहुत्तो नरए-सु तिरियमणुएमु होइ चत्तारि । तदनन्तरंगन्धा,ततः स्पर्शः,तत उच्चासवक्तव्यता, तदनन्तरमा- देवेमु अचमासो, उक्कोसविउव्वणा भणिया।। ४॥ हारः,सतो लेश्या, ततो दृष्टिः, तदनन्तरं ज्ञान, ततो योगः, तत उपयोगः,तदनन्तरं समुद्रातः,ततःक्षुत्पिपासे,ततो विकुर्वणा।
(भिन्नमुहत्तो निरएसु इत्यादि) भिन्नः स्वएमो मुहूर्तो नि
नमुहूर्तः, अन्तर्मुहूर्तमित्यर्थः। नरकेषूकर्षतो विकुर्वणा स्थितितद्यथा-(रयणप्पभापुढविनेरइयाणं भते! कि गत्तं पभू विउब्वत्तए पहुत्तं पभू विनम्वत्तए इत्यादि) ततो वेदना, ततो जयं,
कालः, तिर्यकमनुष्यषु चत्वारि, अन्तर्मुहूर्तानि देवेष्वर्द्धमासः,
उत्कर्षतो विकुर्वणाऽवस्थानकालो जणितः तीर्थकरगणधरैः॥४॥ तदनन्तरं पुरुषाणां पञ्चानामधः सप्तम्यामुपपातः, तत औपम्यं वेदनाया द्विविधायाः, शीतवेदनाया उष्णवेदनायाश्चे
संप्रति नरकेषु आहाराऽऽदिस्वरूपमाहत्यर्थः । ततस्तस्थितिर्वक्तव्या, तदनन्तरमुद्वर्तना, ततः स्प. जे पोग्गला अनिट्ठा, णियमा सो तेसि होइ आहारो। शः-पृथिव्यादिस्पर्शो वक्तव्यः, ततः सर्वजीवानामुपपातः । संठाणं पि य तेसि, नियमा हुंमं तु णायव्वं ।। ५॥ तद्यथा-(श्मीसे णं नंते ! रयणप्पभाए पुढवीए तीसाए निरयावाससयसहस्सेसु एगमेगंसि निरयावासंसि सब्वे
(जे पोग्गलेत्यादि) ये पुद्गला अनिष्टाः नियमात् स तेषां
भवत्याहारः, संस्थानं तु संस्थानं पुनः दुए एकमपि जपाणा सब्वे नूया इत्यादि)। जी० ३ प्रति० २२० ।
घन्यमतिनिकृष्टं वेदितव्यम् । एतच नवधारणीयशरीरमधिकृ(५५) पुलपरिणामः
त्य वेदितव्यम्, उत्तरवैक्रियसंस्थानस्याग्रे वक्ष्यमाणत्वात् । इयं इमीसे णं भंते ! रयणप्पभाए पुढवीए नेरझ्या केरिसयं च प्रागुक्तार्थसंग्रहगाथा, ततो न पुनरुक्तदोषः॥५॥ पुग्गलपरिणामं पच्चणुजवमाणा विहरति । गोयमा !
संप्रति विकुर्वणास्वरूपमाहअणिटुं० जाव अमणामं, एवं० जाव अहे सत्तमाए एवं असुना विउवणा खलु, नेरझ्याणं तु होइ सव्वेमि । णेयव्वं ।
वेनधियं सरीरं, संघयणं हंमसंगणं ॥ ६ ॥
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(२०२४)
अभिधानराजेन्द्रः |
परग
सर्वेषां नैरयिकाणां विकुर्वणा खलु निश्चितमशुभा नवति विकुर्वयं चिन्तयति तथाऽपि तथाविधप्रतिकृतकर्मोदयतस्तेषामशुभैव विकुर्वणा भवति तदपि च वैकियमुत्तरक्रियं शरीरमसंहननम, अपवाद उप णमेतत् भवधारणीयं च वैक्रियशरीरं च संहननं, तथा हुसंस्थानं तत उतरक्रियं शरीरं इदमस्थाननान एव भवप्रत्यय उदयज्ञावात् ॥ ६ ॥
अस्साओ लववो, अस्सानो चेत्र जहइ निरयनवं । सव्यपुढची जीवा, सच्चे डिई विसेसेसु ॥ ७ ॥
-
अरसा इत्यादि) कधि जीवास विषीषुरादिषु तमस्तमापर्यन्तासु सर्वेष्वपि चस्थितिविशेषेषु जघन्थाऽऽदिरूपेषु असातोऽसालोदयकलित उपपन्न उत्पत्तिकालेऽपि प्राग्भबमरणकाले जूतमहादुःखानुवृष्टि भावात, उत्पश्यनन्तरमपि श्रसात एवासातोदयकलित एव, सफलमपिनियम (जहर) स्वजति पयति नतु जातु सेशमध्यास्यादयति आद-कित कदाचित सातादयोऽपि प्रवति येनैवमुते । उच्यते भवति ॥ ७ ॥
तथा चाऽऽह
उववारणच सातो, नेरओ देवकम्णा वा वि । अभवसायानिमित्तं अड़वा कम्माभावेण ॥ ० ॥ (ववाणेत्यादि ) " उववाद" इत्यत्र सप्तम्यर्थे तृतीया, उपपातकाले सात सात वेदनीयकमयं कि
ग्भवे दादच्छेदाऽऽदिव्यतिरेकेण मरणमुपगतोऽनति संक्लिष्टाध्यबसायी समुत्पद्यते तदा न हि तस्य प्रानवानुमाधिरूपं दुः खं नापि क्षेत्रस्वभाव, नापि परमधार्मिकते, नाऽपि परस्परोदीरितम् । तत एवंविधदुःखाभावादसी सात वेदयते इत्युच्यते । (देवकम्मुणा वा वि इति ) देवकर्मणा पूर्वसामन्तिक देवप्रयुक्तया क्रियया । तथाहि गच्छति पूर्व सामन्तिको देवः पूर्वपरिचितस्य नैयिकस्य बेनोपशमनार्थ यथा बलदेवकृष्णवसुदेवस्य स च वेदनोपराम देवकृत मना कालमात्र एव भवति । तत ऊर्द्ध नियमात् के त्रस्वभावजा, श्रन्या वा वेदना प्रवर्तते, तथास्वाभाव्यातू । ( अज्भवसाणनिमितमिति ) श्रध्यवसाननिमित्तं सम्यक्त्वोत्पादकाले, तत क
या कदाचित् तथाविधविशिष्ट नाध्यवसायप्रत्ययं कधि भैरवको बाह्यस्वभावजवेदनासङ्गावेपि सातोदयमेवानुजयति सम्यकरयोरारकाले हि यस्म हान् प्रमोद उपजायते, तदुत्तरकालमपि कदाचित् तीर्थकरगुणानुमोदनाssद्यनुगतां विशिष्टां भावनां भावयतः, ततो बाह्य क्षेत्र स्पन्जाबजवेदना सद्भावेऽप्यन्तः खातोयो विजुम्भमानरुध्यते (अदा कम्माऽभावेशमिति अथवा कर्मानुभावेन बाह्यकरजम्मदी का ज्ञानापवर्ग कल्याण संभूतिला निमित्तमधिकृत्य तथाविधय सातवेदगीको अनुमा विपाको चिन्तं वेदयते न व्याख्यानमना मयत उकं वसुदेवचरिते मदनैरधिकार कुम्भ्यादिषु पच्यमानाः कुन्ताऽऽदिभिर्भिद्यमाना वा भयोत्त्रस्तास्तथाविधप्र बनवते ॥
ततस्तदुत्पातपरिमाणप्रतिपादनार्थमादनेपालप्पा कोर्स पंचजोपण सपाई ।
गारग
सेनिया यणसतसंपादणं ॥ ६ ॥ नेपाओ इति नैरयिकाणां दुःखेनाभितानां सर्वा मना व्यासानां वेदनाशादानां वेदनाशानि अपरिमिता वेदनाः संप्रगाढानि श्रवगाढानि येषां ते वेदनाशतसंप्रगाडाः सुखदेव निष्ठान्तस्य परनिपातः तेषां हेतुहेतुम पात्र यतो वेदनाशादाः ततो दुःखेनाऽभिताः । उत्पात न्यूतमात्रम पतच संप्रदायादवीय तथा च दृश्यते क्वचिदेवमपि पाठ:-" नेरइयाशुपाश्रो, गाययो जोवनसया" इति उत्कतः पयोजनशता नि दुःखेनाभिहतानामित्युक्तम् ॥ ६॥
ततो दुःखमेव निरूपयति
प्रच्छिनिमीक्षणमेत्तं, नत्थि सुहं दुक्खमेव पामित्रद्धं । नरए नेरइयाएं, होनिसं पञ्चमाणा || १० ॥ प्रतिसीयं प्रतिउएहं, अइतरड़ा अइखुहा अनयं च । नरए नेरइयाणं, दुक्ख सताई विस्सामं ॥ ११ ॥ (निर्माणमित्यादि) नरके नैरचिकाणामय वेदनाबाः शीतवेदनाया या अहर्निशं पच्यमानानां नालनमात्रमपि श्रक्षिनिकोचकालमात्र मपि अस्ति सुखं, किंतु दुःखमेव केवलं प्रतिमनुवर्क, सहानुगतमिति भावः ॥ १० ॥ ११ ॥ अब वैशिरीरं तत्तेषां मरणका कथं भवतीति निरूपणार्थमाह
तेयाम्पसरीरा सुदुमसरीरा व जे अपनचा। जीवेण विप्ययुका वसंत सहस्सो नेदं ॥ १२ ॥ (तयाकम्मेत्यादि) तैजसकार्मणशरीराणि यानि सूक्ष्मशरीराणि सूक्ष्मनामकर्मोदयवतां पर्याप्तानामपर्याप्तानां चौदारिकश रीराणि वैकियाहारकशरीराणि च तेषामपि प्रायो राह्यतया सूक्ष्मत्वात् तथा यानि अपर्याप्तानि अपर्याप्तशररीरानि तानि जीवन मात्र तिसहस्रन्त विकलितास्तत्परमसत्ता भवन्तीत्यर्थः ॥१२॥
•
पतासामेत्र गाथानां संग्राहिकां गाथामाहएत्य पनिश्रो पुग्गल असुजा व होड़ अस्साओ । उबवाओ उपाओ, अस्थिसरीरा य नायव्वा ॥ १३ ॥
( एत्थ य जिनेत्यादि) प्रथमा गाथा ( एत्थ ) इतिपदोपल किता। द्वितीया - ( भिन्नमुहुसो इति ) तृतीया - ( पोग्गला इति ) (जे पोला अनि स्यादि चतुर्थी (अभाइति) ( सुभाणि शयादि) एवं शेषपदाम्यभि नि ।। १३ ।। जी० ३ प्रति० ३ उ० । ( स्त्रीणां सप्तमनरकपृथिगमनविचारःस्थगिलिशब्दे द्वितीयभागे ४६१
पृष्ठे गतः )
सुया मे नरए गया, असीला च जा गई । बालाणं कूरकम्पाणं पगाडा जत्य वेषणा ||१२||
'मे' मया नरके स्थानानि श्रुतानि या गतिर्नरकाऽऽदि अशीलानां गतिर्विद्यते यत्र तो कूरकर्मणां बालानां मू· खोणाम भामतिविम्वंसकानां प्रगाढा बेदनाऽस्ति ॥ १२ ॥
उत० ५ अ० |
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(१९२५) गारग अनिधानराजेन्डः।
गारगविनत्ति विषयसूची
(४३) नरका यन्मयास्तत्प्ररूपणम् ।
(४४) नरका यत्प्रतिष्ठितास्तत्प्रतिपादनम् । (१) नरकनिक्केपः।
(४५) नरक मुखवर्णनम् ।। (१) सप्तनरकपृथिवीनामानि ।
(४६) तत्र गतानां यारशी वेदना प्रावति तनिक(३) पृथ्वीनामगोत्रनिरूपणम् । (४) प्रतिपृथिवि बाहल्यप्ररूपणम् ।
(४७) दशविधवेदनावर्णनम् । (५) विविधकाण्डप्रतिपादनम् ।
(४७) नरकवर्तिनां नारकाणां वेदनानुभवस्य प्रतिपादनम् । (६) तत्र खरकारामवक्तव्यता।
(R) नारका भयोदनान्ता दिनु नष्टा यदनुभवन्ति तत्प्र(७) रत्नकाएमविचारः ।
रूपणम्। (८) प्रतिपृथिवि नरकावाससंख्यासंख्यानम ।
(५.) कुम्भ्यादिषु यत् क्रियते तत्प्रदर्शनम् । (६) प्रतिपृथिवि घनोदध्यस्तित्वप्ररूपणा!
(५१) नरकेषु पृथिव्यादिस्पर्शस्वरूपनिरूपणम् । (१०) रत्नकाएमबाहख्याऽऽख्यानम् ।
(५२) पृथ्वीनां बाहल्याऽऽदिप्ररूपणम् । (११) पङ्कबहुलकाण्डवक्तव्यता।
(५३) महाकर्ममया वेदनाः । (११) अबदुलकारामस्य वाहख्यम।
(५४) पूर्वोक्तार्थप्रातिपादिकाः संग्रहगाथाः। (१३) घनोदधिधनवातयो हल्यम् ।
(५५) पुद्गल परिणामः। (१४) केवच्छेदेन विद्यमानायाः पृथिव्या व्याणां वर्णगन्ध
(५६) सप्तमनरकपृथिव्यां ये गच्छन्ति तेषां प्रतिपादनं, त. रसस्पर्शसंस्थानवर्णनम् । (१५) खरकारामाऽऽदीनां बाहल्यवर्णाऽऽदिप्ररूपणम् ।
प्रस्तावादाहारविकुणातपुत्पातपरिमाणाऽऽदिनि
रूपणम् । (१६) पङ्कबहुलकारमाऽऽदीनां बाहल्यवर्णाऽऽदिनिरूपणम् । (१७) रत्नप्रनाऽऽदीनां संस्थानप्रतिपादनम् ।
णरगगइ-नरकगति-स्त्री० । नृणन्ति विवेकमासाद्य नयधर्मपरा (१८) लोकान्तादबाधा ।
जवन्तीति नरा मनुष्याः, तेषु विषये गतिर्नरकगतिः (कर्म०) (१६) रत्नप्रभापृथिव्यादीनामधो गृहाऽऽदिसत्तानिरा- नरानुपलक्षणत्वात्तिरश्वोऽपि प्रनूतपापकारिणः कायन्तीवा. करणम् ।
ऽऽहयन्तीचेति नरका नरकावासाः, तत्रोपमा जन्तवोऽपि नर(२०) अमूनि रत्नप्रभाऽऽदीनामपान्तरामानि घनोदध्यादि- काः, नरको वा विद्यते येषां ते "अभ्राऽऽदिभ्यः" । ७।५।
व्याप्तानि, तत्र कस्मिन्नपान्तरातें कियानू घनोदण्या- ४६ । [ हैम० ] इत्यप्रत्यये नरकाः, तेषु विषये गतिर्नरकगतिः । दिरिति प्रतिपादनम् ।
गतिनेदे, कर्म० ४ कर्म । श्राव।। (१) धनोदधिबल यस्य तिर्यगवाहल्यमानम् ।
पारगबिह-नरकवि-त्रिः । नरकगतिनिवारके,अष्ट०२० प्रष्ट (२२) घनवातबझयस्य तिर्यग्बाहल्यपरिमाणप्रतिपादनम् ।। (२३) तनुवातबलयस्य तिर्यगबाहल्यपरिमाणनिरूपणमणरगजायणा-नरकयातना-खी । नरकेषु दुःखनोगे, नरक(२४) एम्वेव घनोदध्यादिबलयेषु क्षेत्रच्छेदेन कृष्णवर्णाs. पीमायाम, [ उत्त.] धुपेताव्यास्तित्वप्ररूपणम ।
" प्रदीप्ताङ्गारकल्पेषु, वज्रकुरामेष्वसन्धिषु । (२५) पृथ्वीनामागामविष्कम्नौ ।
कूजन्तः करुणं केचिदू. दह्यन्ते नरकामिना ॥१॥ (१६) पृष्टयः समा अन्तर्वहिर्वा ।
अग्निभीताः प्रधावन्तो, गत्वा वैतरणी नदीम् । (२७) पृथिवीषु जीवाः सर्वत्र उपपन्नपूर्वाः।
शीततोयामिमां ज्ञात्वा, काराम्नसि पतन्ति ते ॥२॥ (२०) सर्वे जीवाः पृथ्वीषु प्रविष्टपूर्वाः ।
कारदग्धशरीराच, मृगवेगोत्थिताः पुनः । (२९ ) त्यक्तपूर्वाः सर्वे पुद्गलाः ।
प्रसिपत्रवनं यान्ति, गयायां कृतबुरूयः॥३॥ (३०) रत्नप्रजायाः शाश्वतत्वाशाश्वतत्वविचारः ।
शाक्यसिप्रासकुन्तैश्च, खङ्गतोमरपट्टिशः। (३१) रत्नप्रनायाः कालस्थितिः ।
विद्यन्ते कृपणास्तत्र, पतद्भिर्वातकम्पितैः ॥४॥"उत्त०३०। (३२) पृथिव्यो वाहल्येन तुल्याः ।
पारगतिग-नरकत्रिक-न० । नरकगति-नरकानुपूर्वी-नरकायु. (२३) यस्यां पृथिव्यां यस्मिन् प्रदेशे नरकाऽऽवासास्त-| स्वरूपे नरकत्रये, कर्म० ३ कर्म । पं० सं०। प्रतिपादनम् ।
परगपुढवी-नरकपृथिवी-स्त्री० । रत्नप्रभाऽऽद्यासु पृथिवापु, (३४) नरकवर्णकः। (३५) नरकावाससंस्थानविवरणम् ।
उत्त० ३६ अप्रवः। (३६) अधःसप्तमीविषयं संस्थानवर्णनम् ।
परगवाल-नरकपास-पुं० । पञ्चदशप्रकारे परमाधार्मिके, (३७) नरकावासानां वाइल्यप्रतिपादनम् ।
सूत्र०१ श्रु० ५ ०१ उ.। (३०) नरकावासानामायामविष्कम्नप्ररूपणम् ।
परगविनात्त-नरकविभक्ति-खी०। नरकाणां विभागो धि(३६) नरकावासानां वर्णप्रतिपादनम् ।
भजनं विभक्तिः । नरकप्रविभागे, तदर्थप्रतिपादके सूत्र(४०) तत्र गन्धविवेकः ।
तः प्रथम श्रुतस्कन्धस्य पञ्चमेऽध्ययने, सूत्र०१ श्रु०५ प्र. (४१) तथा स्पर्शप्ररूपणम् ।
१उ० । प्रा. चू० । स० । " पुढचीफासं अगण:-- (४२) नरकाबासानां महत्त्वानिधानम् ।
बकमणिरयवालवहणं च। तिसुबेदंति अतागा, AT.ni ४८२
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णरसुंदर
(१५२६) परगविभत्ति
अभिधानराजेन्डः । चेव सेसासु ॥६७॥" सूत्र०नि०१ श्रु०५ अ०१००। (नरकविणरसंघामग-नरसंघाटक-न० । नरयुम्मे, ज०१ बक्क । भक्तिवर्णकः 'णरग' शम्दे १९०४ पृष्ठे गतः)
परसीह-नरसिंह-पुं० । शूरत्वात् (प्रश्न०४ श्राश्र• द्वार ) परगाउ-नरकायुष्-न । नारकायुष्के, कर्म०१ कर्मः।
दुःसहपराक्रमत्वात् (कल्प० ३ कण) विक्रमयोगात (स.) णरगावास-नरकाचास-पुं० । नरकरूपे आवासे,स्था० ८ ठा। सिंहत्वोपमिते नरे, शरीरार्द्धतो नरे शरीरार्द्धतः सिंहे च । गरगिंद-नरकेन्द्र-पुं० । बृहत्वात्प्रधानत्वाय तथाषिधे नरके,
शा०१ श्रु०१६ अाविशे० । मानतुजसूर्यम्बवाये जाते स्वनाम
ख्याते सूरौ, "श्रीदेवानन्द गुरु-विक्रमसूरिगुरुश्च नरसिंहः । चतुर्यो नरकपृथ्यां सप्त नरकेन्द्रकाः । यथोक्तम्-"आरे मारे
बोधितसिंहकयकः" । ग०४अधि०। णारे, तच्छे य मए य बोधन्वे । क्रोडक्खमे य खडखडे, इंदयनिरया चउत्थीप ॥१॥" स्था०६०।
परसुंदर-नरसुन्दर-पुं० । ताम्रलिप्तीनगरीश्वरे स्वनामण्याते णरणारीसंपमिवुम-नरनारीसंपरितृत-त्रि० । नरैनारीनिश्च
राजनि, (ध० र०)
तत्कथा पुनरेवम्समन्तात् परिवृते, प्रश्न. ३ आश्रहार।
" पयडियमदया बहुबिह-सत्ता वरकम्मगंधवित्तिब्य । णरदत्ता-नरदत्ता-स्त्री० । श्रीमुनिसुव्रतस्य शासनदव्याम्,
नवरं घंधविमुक्का, अस्थि पुरी तामनितीह ॥१॥ प्रव. २७ हार । ती।
सम्मंपरिणयजिणसमय-अमयरसइणियविसयविसपसरो। परयुग-नराद्विक-न० । नरगतिनरानुपूर्वीलकणे, कर्म. ३ गिहिवाससिढिलाचत्तो, राया नरसुंदरो तत्थ ॥ २॥ कर्म।
निरुवमनवणिमरुवा, बंधुमई नाम आसि से नरणी। परदेव-नरदेव-पुं० । नराणां देवाः नरदेधाः । चक्रवर्तिषु,
उज्जेणिसामिणा सा, अवंतिनाहेण परिणीया ॥३॥ स्था० ५.१ उ० । “ पोग्गलपरियहरू, जं नरदेवंतरं सुप
सो तीए अणुरत्तो, आसत्तो मजपाणवसणम्मि। जणियं । " (८०५) विशे। स्वनामख्याते श्रीऋषनदेवपुत्रे,
जूयम्मि अहपसत्तो, मत्तो वोलेइ बहुकालं ॥४॥
तम्मि निवम्मि पमत्ते, रज्जे र विसीयमाणाम्म । कल्प०७कण।
रज्जपहाणनरोहि, सचिवेहि य मंतियं सम्मं ॥५॥ गरजव-नरनव-पुं०। ६ त०। मनुष्याणां जन्मसु, कर्म० ५
पुतं ठवेमि रज्जे, मज्ज पाइत्तु निसि पसुत्तो सो। कर्म।
देवीद समं नियमा-गुसहि उजावित्रो रने ॥६॥ पररुहिर-नररुधिर-२० । मनुष्यरुधिरे, तद्धि मोहितवोत्क
चेलंचले य बद्धो, लेहोऽणागमणस्यगो तस्स। टमिति रक्तत्वेनोपमीयते । रा०।
अह गोसे पडिबुको, जा दिसिच नियक्ष राया ॥७॥
हरिहरिणरुद्दसह-लसंकुल सचओ पिता रन्न । णरव-नरपति-पुं० । राजनि, रा० । दश। औ० । स्था ।
तं लेहं च निरिक्स्विय, सविसाप्रो जण श्य दश्यं ॥८॥ श्राव । विश्रुते राजनि, प्रश्न. ४ सम्ब० हार । नरनायके, न
श्रो पिच्च पिच्छु पावा-ण ताण सामंतमंतिपमहाणं । रस्वामिनि, स०। औ० झा०।
तह तह उवयरियाणं, वियरियगुरुदाणमाणाj || ए॥ णरवश्दत्तपयार-नरपतिदत्तप्रचार-पुं० । नृपानुज्ञातकामचारे, | निश्च गुरुगुरुतरबहु--पसायपाचियपसिद्धिरिद्धीणं । शा०१ श्रु०१६ अ।
अवराहपए वि सया, सिणिकदिछी दिहाणं ॥१०॥ णरवइदिन्नपयार-नरपतिदत्तप्रचार-पुं० । नृपानुशातकामचा
अविभिन्नरहस्साणं, संसश्यत्यसु पुच्चिणिज्जाणं ।
नियकुलकमाणुरूवं, चिठियमेवंविहं सुया ! ॥११॥ रे, झा०१ श्रु०१६ अ०।
इय विरसं जपतो, अविनावियदुदिवपरिणामो। पारवरीसर-नरवरेश्वर-पुं०। नराणां श्रेष्ठराजनि, “सगरंत
राया बंधुमईए, सुजुत्तिजुतं इमं वुत्तो॥१२॥ चरता णं, भरदं नरवरीसरो।" उत्त. १८ अ० । उरिकप्तकार्ये किंचितिपण सामिय:, विहलीकयसयपुरिसयारस । भारनिर्वाहकत्वात् । स०।
अघमंतघडणरुणो, दयविहिणो विनसिपणिमिणा? ॥१३॥ परवसह-नरवृषभ-पुं० । नराणां मध्ये गुणैः प्रधानत्वात् (प्र- लहु पहु! चयसु विसायं, गलामो तामलित्तिनयरीए । श्न ४ आश्र. द्वार ) धराभारधुरन्धरत्वाद वृषभकल्पे,
नरसुंदरनरनाहं, पिच्छामो तत्थ सप्पणयं ॥१४॥ कल्प०३ कण।
रना पमिवन्नमिणं, गंतु पयट्टा ता तोफमसो।
पत्ताइँ तामलित्ती, पुरी समीवउजाणे ॥ १५ ॥ परवाहण-नरवाहन-पुं०। स्वनामख्याते नृगुकच्चनरेश्वरे,श्राव.
अह बंधुमई जंपर, हेव चिठेसु सामि! खणमेग। १ अ० । ती०। श्रा०म० । श्रा० चू० । कुबेरे, वाच० (सच
तुह अागमणं गंतू-ण भानणो जाव साहमि ॥ १६ ॥ महाधनः शालिवाहनेन रुक इति 'पणिहि' शब्दे वक्ष्यते) कह कद्द वि दोउ एवं, ति जपिए नरवरेण अह पत्ता। परवाहणा-नरवाहना-स्त्री। कुबेरायां देव्याम,ती.८ कल्प। निविडपमिबंधबंधुर-बंधवगेहम्मि बंधुमई ॥१७॥ परविग्गहगइ-नरविग्रहगति-स्त्री० । निरयविग्रहगती, स्था.
तत्थ य मदंतसामं-तविंदसेविजमाणपयजुयलो।
पासहियपणतरुणी-करचालियचामरुप्पीलो॥१७॥ १० ठा।
जय जीव जीव इय से-वगेहि बुच्चंतप्रो य पश्वयणं । परवेय-नरवेद-पुं० । पुरुषस्य नियं प्रत्यजिता, कर्म कर्म सिंघासगोवविठो, दिटो नरसुंदरो तीए ॥१९॥
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(१९१७) एणरसुंदर अनिधानराजेन्छः।
परिंदसमणी तेण विविम्हियमणसा, नगिणी अवितक्कियागया दटुं। एवंविहे य ज वखणमवि निवसंति मुणियपरमत्था । नधियपडिवत्तिपुन्वं, पुटा सयलं पि वुत्तंतं ॥२०॥
बीसस्था सगिहेसुं, अहह महाधिीट्टमा तेसि ॥४॥ तो ती वि सो कहियो, उजाणे जाव चिहश निनु ति।
श्य सो बिरचित्ता, संबको विदुधणाश्सुकहंपि। सम्विही तो सो, तयभिमुहं पट्टिो कति॥१॥ भावण अपडिबद्धो, गेहम्मि गमेश का विदिणे ॥४५॥ सो पुण भवंतिणाहो, अगाढनुहार पीमित्रो तश्या ।
कामेण नंदणे र-ज्जनारधरणकुरे नविय रजं । पालुंकिभक्षणत्यं, गम्मि अचिम्चिमीकच्चे ॥१२॥ सिरिसेणगुरुसमीवे, दिक्खं गिपहर महीनाहो ॥४६॥ अवदारेणं चोरू, व पविसमाणो स कत्थ य नरेण ।
बत्थासु गामासु, समयासु कोहमाणमाई। मम्मपश्सम्मि हो, मुट्ठीए तह य ल हीए ।॥ २३ ॥
दवे खिले कासे, भावे परिमुकपडिबंधो॥४७॥ निरपहारविहुरो, पलायमाणो तो इमो तुरियं ।
काठण मणसणं सा-सणं मणे जिणवराण धारतो। धरणीवट्टे पमित्रो, निश्चिट्ठो कठघभित ब्व ॥ २४॥
देहे वि अपमिबको, मरिउ गवे सुगे जाओ ॥४८॥ इत्तो नरसुंदरनर-वरो वि नियविजयरहवरारुढो ।
तत्तो य उत्तरुत्तर-सुरनसिरिमणहवित्त का वि जवे। भगिणीवश्स्सऽजिमुई, तम्मि पएसम्मि संपत्तो ॥ २५ ॥ पव्वजं पमिवजिय, सो संपत्तो पयं परमं ॥४॥ नवरं तरबतुरंगम-निटुरखुरखणियरेणुपूरेण ।
श्रुत्वैवं नरसुन्दरस्य चरितं, हेतोगरीयस्तरात, उद्धरतिमिरकंत, व नहयत्रं तक्त्रणे जायं ॥१६॥
कस्मादप्यनलंभविष्णुमनसो, दीक्षां गृहीतु द्रुतम् । तो दंसणविरहाओ, नरवररहतिक्खचक्कधाराए ।
संबका अपि देहगेहविषय-व्याऽऽदिपु व्यतो, तह निवडियस्स कंगे, दुहा कोऽवंतिनाहस्स ॥२७॥
भावेन प्रतिबन्धबुकिमसमां, मैतेषु नव्याः! कृत ॥५०॥
ध०र०७४ गाथा॥ अह पुव्वुत्तुजाणे, अवंतिनाहं नियो अपिच्छतो। संभंतो भइणीए, वुत्तमिमं कहावेश ॥ २० ॥
पराअ-नाराच-न । “वाऽव्ययोत्स्वातादावदातः"।।१। हा दिव्य! दिव! किमिश्र, ति संभमुभंततरनतारच्छी। ६७ । इत्यातोऽचम । ('णाराय' प्रकरणे वक्ष्यमाणेऽर्थे)
प्रा०१पाद । बंधुमई बंधुगिरं, निसामिउं आगया तत्थ ॥२६॥ तो भवझोयंतीप, पणटुरयणं व निमणदिट्ठीए ।
णराहिब-नराधिप-पुं० । राजनि, उत्त• • “कुंथू नाकह कहमवि तमवत्थं, संपत्तो ती सो दिट्ठो॥ ३०॥ म नराहियो।" उत्त.१०। अह नाउ मयं सपर्क, गुरुमुग्गरचूरिय व्व सा सहसा। परिंद-नरेन्द्र-पुं० । नरागामिन्को नरेन्द्रः । दशा०१. अ०। पमिया अतुच्छमुच्चग-निमीलियच्ची महीपीढे ॥३१॥ "इस्वः संयोगे दीर्घस्य" ॥८॥ १।४। इति स्वः । पासध्यिपरियणविहि-यसिसिरउवयारलरूचेयन्ना । प्रा०१पाद । परमैश्वर्ययोगात (स.। औ०) समस्तभरताधिपरिमुक्तरिक्कमुक्कं, एवं विलवेह दीणमणा ॥ ३२॥
पे (प्रश्न०४ आश्र द्वार) राजनि, औ० । चक्रवादी, ध०२ हा हियय! दश्य!पिययम!गुणनिवहनिवास!पणयकयतोस! अधिः। श्रा०म० । उत्त० । प्रजापतौ, व्य०२ उ०। बृ०। केणं पाविहेणं, पयमवत्थं तुमं नीओ ? ॥ ३३ ॥
परिंदप्पह-नरेन्प्रभ-पुं० । हर्षपुरीयगच्छोद्भवे ताराचन्छसहा नाह ! तायसु महं, विओगवजासणीइ भिज्जंतं।
रिशिष्ये, अनेन अलङ्कारमहोदधिः, काकुत्स्थकेलिश्चेति द्वौ ग्र. हिययं हिययसुहावह!, कीस विक्नेसि चिरकालं? ॥३॥ न्यौ रचिती। जै०३०।। हयदिव! किं न तुट्ठो, रज्जवहारेण देसचारण ।
णरिंदवसह-नरेन्ष न-पुं०। राजमुख्य, उत्त० १५ अ० । सुहिजणधिोयणेण य, जमेयमवि ववसिओ पाव!॥ ३५ ॥
"एवं नरिंदवसदा, निक्खंता जिणसासणे।" उत्त० अ०। इच्चाइविलवमाणी, वारिज्जती वि बंधवनिवेण । सा णियपश्णा सद्धिं, पमिया जानाउले जलणे ॥ ३६॥
परिंदसमणी-नरेन्द्रश्रमणी-स्त्री० । मासराजकुल पालितायां अह निवेोवगो, राया नरसुंदरो विचिते।
श्रमण्याम, सा चाऽदत्ताऽऽदानेन संसारं पर्यटितेति । अविचितणीयरूवा, अहो अणिच्चा जयस्स ठिई ॥३७॥
सा नण लहिण अदत्तादाणगं मासरायकुलवानिया जत्थ सुही वि हु दुहियो, निवो वि रोरो सुमित्ताव सत्त्। परिंदसमणी गोयमा ! तेणं मायाससभावदोसेणं उववन्ना संपत्ती वि विवत्ती, निमेसमित्तण परिणम ॥ ३८ ॥
विज्जुकुमाराणं वाहणताए ननलीरूवेणं किंकरी देवेसतकहमहुणा भणीप, चिरकालाश्रो समागमो जाओ?। कहमिहि पिषिोगो, धिरत्यु संसारवासस्स ॥३॥
ओ वूया समाणी पुणो पुणो उपवजंती वावज्जती श्राअवि य
हिमियमाणुसतिरियच्छेसु सयादोहग्गस्स दुक्खदारिदपरिजे खलु तिहुयणजणपलय-ताणकरणक्खमा जिणवरिंदा ।
गया सव्वलोयपरिनूया सकम्मफलमणुजवमाणी गोयमा ! सयय अरिगच्चयाए, उररीकीरति ते वि हहा!॥४॥
जावणं कह वि कम्माणं खोवसमेणं बहभवंतरेस तं रणसवडंमुह उभड-भिडंतरिनसुहमचककमणे ।
आयरिए य पाविऊण निरइयारसामन्मपरिवालणेणं सन्य. जे पहुणो ते विखणे-ण चक्किणो जंति हा निहणं ॥४१॥
त्थाममुं च सव्वए मायासंबणविष्पमुक्कणं तु उज्जमिळणं जे गुरुनुयबलबनभ-दसंगया दलियदक्खपमिवक्खा ।
निद्दष्टावसेसीकयभवंकुरे तहा वि गोयमा ! जा सा सरागा ते विहु हरिणो हरिणु, ब्व हरेह हा हा कयंतहरी॥४२॥ मन्ने करिकन्नसुरि-दचावतडिचावलेन निम्मवियं।
चक्खुणाऽऽलोझ्या तक्कमदोसणं माहणिच्छित्ताए परिनिन्बुइत्थं वत्युसमत्वं, ते अगदिघनद्वंति॥४३॥
मेणं से रायकुलवालियापरिंदसमणीजीवे। महा०२०।
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(२७) प्राभिधानराजेन्ः।
पारीसर
गरीसर-नरेश्वर-पु.। नृपे, “ इक्खागुरायवसहो,कुंथू नाम न- णलिपकड-नलिनकट-पुं० । जम्बूद्वीपे मन्दरस्य पर्वस्य पू. रीसरो।" उत्त०१८म.।
स्यां शीताया महानचा उत्तरकुने चस्कारपर्वते, स्था. परीसरत्तण-नरेश्वरत्व-नानपत्वे, पञ्चा।
३ ० ३ ००। "दो णक्षिणकूड़ा।" स्था०२ ० ३ उ० । सामो मणुयत्ते, धम्मायो रीसरतणं णेयं ।
कहि णं नंते ! महाविदेहे वासे णक्षिणकमे णाम बइय मुणिकणं सुंदर!, जत्तो एयम्मि कायन्बो ॥१७॥ क्खारपन्चए पमत्ते । गोयमा ! णीसवंतस्स दाहिसामान्ये बहूनां प्राणिनां साधारणे, मनुजत्वे नरत्वे, धर्मात् णेण सीआए जनरेणं मंगवायत्तस्स विजयस्स पञ्चच्छिकुशलकर्मणः नरेश्वरत्वं नृपत्वं भवतीति केयं ज्ञातव्यम् । इत्येत
मणं आवत्तस्स विजयस्स पुरच्छिमेणं एत्थ णं महादुकावा अवगम्य, सुन्दर! नरप्रधान ! यत्न उद्यमः, भत्र धर्मे, कर्तव्यो विधेयो भवति । इति गाथार्थः ॥१७॥ पञ्चा०विव० ।
निदेहे वासे णन्निएकमे णामं वक्खारपब्बए पाते। जनरोत्तम-नरोत्तम-पुं० । श्रीऋषभदेवस्य चतुश्चत्वारिंशे पुत्रे, त्तरदाहिणायए पाईणपमीणवित्यिमे सेसं जहा चित्तकल्प.७कण ।
कूमस्स० जाव प्रासयति । णलिणकमेणं ते! कति कूपल-ना-पुं० । नस्य णः, मस्य तु "मो लः" ।।१।२०२॥
मा पएणता । गोयमा ! चत्तारि कूमा पएणत्ता । तं इति लः । प्रा० १ पाद । तृणविशेषे, जी. ३ प्रति० २ ००। जहा-सिखाययणकूमे, पलिणकूमे, पावत्तकमे, मंगलावप्रका० । भाचा। शुधिरशराऽऽकारे यवाऽऽदीनां कमरे,स्था०
तकूमे,कमा पंचसइआरायहाणीओ उत्तरेणं । जं०४वक्षण ५.२३ चन्द्रवंश्ये नृपभेदेवानरजेदे,श्रारूदेवे, पितृगणभेदे, दैत्य नेदे, पद्म, न । वाचः।
णलिणगुम्म-नलिनगुल्म-न० । श्रेणिकनार्याया नलिनगुस्माणलवर-नलकूवर-पुं० । नलः कूवरो युगन्धरोऽस्य । कुबेरपु-| या अपत्ये, स च वीरजिनान्ति के प्रवजितनीणि वर्षाणि प्र. श्रे, बाच.।"अहपुस्ते पयाहिसि सिरीए नलकवरसमाणे।" | बज्यापयाय परिपाट्य सहस्रारे उपपन्नः, ततश्च्युत्वा महाश्रा० म०१.२ खएम।
विदेहे सेत्स्थति, इति कल्पावसिकाया अष्टमेऽध्ययने सूचि
तम् । नि०१ श्रु०१ वर्ग ८ अ० । अहंता महापान प्रवा. गनगिरि-नागिरि-पुं० । प्रद्योतनृपतेहस्तिरत्ने, अनलगि
जिष्यमाणे स्वनामख्याते राजनि, स्था० ८1०। अष्टमदेवरिरिति तन्नामान्तरम् । प्रा० क । प्रा० म० । प्रा० चू।
साकस्थे स्वनामख्याते विमाने, स०१८ सम"लिणगुम्मे मि. चू. श्राव.।
विमाणे देवत्ताए उववराणा।"श्रा० चू.१ अ. । उत्त० । णलत्यंत-नलस्तम्न-पुं० ! वृक्षविशेषे, श्राव. ३ अ०।
नलिनीगुल्ममप्यत्र । विशे० । स्वनामख्याते अध्ययने च । सदाम -नन्नदामन्-न । स्वनामच्याते कुविन्दे, स्था.
"अनया पदोसकाने मायरिया पलिणगुम्मं प्रज्जयण परि४०३१०।दश। व्या प्रा.म.1(अधर्मयुके हेती नलदा
यति ।" आव०४०। मकुपिन्दोदाहरणम् 'अधम्मजुत्त 'शब्दे प्रथमभागे ५६७ |
पलिणवण-नलिनवन-न० । पुष्कलावतीविजये पुएमरीकिपृष्ठे इष्टव्यम)
एया नगर्या उत्तरपौरस्त्ये दिग्भागे स्वनामख्याते वने, शा० १ णलय-नलद-पुं० । देशी-उशीरे, देना.४ वर्ग।
भु. १० भ० । मा० म०। उत्त० । भनु । पालागणि-नन्नाग्नि-पुं० । नलदहनप्रवृतेऽग्नी, स्था० ५ .
पक्षिणाबई-नलिनावती-स्री । कच्चाऽऽदिषु चतुर्विशे विज
यकेत्रयुगले, स्था० २ ० ३ उ० । झा। २३० ।
णलिणी-नलिनी-स्त्री० । पग्रिन्याम, का० १ भु० १०। णमाढ-ललाट-न० । "ललाटे समोः"॥G।२। १२३ ॥ इति सलाटशब्दे मनयोयत्ययः। “णलामं । णमालं" प्रा०२
प्रज्ञा । प्रा०क०।
पलिपीकुमार-नलिनीकुमार-पुं० । महापयतीर्थकतः प्रथमपाद। पसिन-देशी-गृहे, दे० ना.४ वर्ग।
पुत्रे, “जणलिणकुमार, रजे वाहतु तं महापनमो।" ति।
णलिणोदग-नबिनोदक-न । समुद्रभेदे, " गोतित्थेहि विलिए-नलिन-न। ईषद्रके कमले, चं० प्र. १ पाहु. १ पा.
रहियं, खेत्तं नलिणोदगसमुहे।" दी। . पाहु । रा०।ईपद्रतपणे, रा०। जं.पा. मा प्रकाश
एव-नव-त्रि० । संख्याविशेषे ६ विशिष्टे, नि० चू. १.। ईपनीले पने, जं०१ वक। जनजकुसुमविशेषे, का० १ ०६
"नव खोडा।" प्रतिलेखनायाम, नव स्रोमकाः, ते च त्रयस्त्रयः मामाचा । चतुरशीतिलक्षगुणिते नलिनाके,भ.६श..
प्रमार्जनानां त्रयेण त्रयेण अन्तरिताः कार्याः, इति पदद्वयेनाऽपि म. । जी । ज्यो० । जं० । अनु० स्था कच्छाऽऽदिषुद्वाविं
पञ्चमी अप्रमादप्रत्युपेक्षणोक्ता । स्था० ६० । ध० । नि. शे विजयकेत्रयुगले, "दो णलिणा।"स्था०२ ठा० ३१०।
वृ०। प्रत्यग्रे, दश. १०। चं० प्र०। सूत्र० । अपूर्वे, वृ०१ स्वनामख्याते विमाने, स०१८ सम। स्था. । रुचकपर्वत
उ। अजीणे, जं०३ वक्षा अभिनवे,आचा०२९०१चू०५ स्प दाक्षिणात्ये कूटे, दी। स्था० । जम्वाः सुदर्शनावाः पूर्व.
भ०१3. । नवकर्मणामनादानम । नवान्युपचीयमानानि । स्यां दिशि पुष्करिण्याम, जं०४ वक्षः । जी ।
भाव.४ अ०। "ते वरिसो होर नवो।" प्रवज्यापर्यायेण यस्य शालिणंग-नन्निनादा-न० । चतुरशीतिलकगुणिते पद्मशत. श्रीणि वर्षाणि नाधिकमित्येष त्रिवर्षो भवति नवः।व्य०३ न। की महिमा धनुः । स्था।
"नबदरियभासतपसंधयारगंभीरदरिसणिजा" इति । नवम
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याव
प्रत्यप्रेण हरितेन नीलेन भासमानेन स्निग्धत्वाद्देदीप्यमानेन पत्रजारेण दलसंचयेन यो जातोऽधकारस्तेन गम्भीरा अलब्धमध्यभागाः सन्तो दर्शनीयाः । जी० ३ प्रति० ४ उ० | "नवहेमचारुचिलकुंडल विलिखिमाणगंगे "नवभित्र प्रत्यग्रमित्र हेमपत्र ते मी नमस्यांचा चित्र कु एकलाच्यां विलिख्यमानौ गएमौ यस्य स तथा । जी० ४ प्रति० २३० ।
(२०२९) अभिधानराजेन्द्रः ।
नम् - धा० । प्रहले शब्दे, " रुदनमोः " || ८ | ४ । २२६ ॥ इत्यनेन अन्त्यस्य नस्य वः । ' नवइ ' नमति । प्रा० ४ पाद । खवंगमुत्तपमिवोहिया - नवाङ्गसृतप्रतिबोधिता - स्त्री० । नवा
नित्र २२ घणनामनोज कृणानि तानि सन्ति प्रतिबोधितानि योवनेन यस्याः सा तथा । विपा० २ श्रु० १ श्र० । नवयौवनायाम, शा० १ ० ३ अ० । विपा० । औ० । 'नवंग सुत्तपमिबोडिया ।" द्वे अक्किणी हो कर्णौ द्वौ नामापु जिस्पर्शने नवमं मनः पतानिनानि यानि न भवति भीमेतेषामती चारानियतिः पयोषने तु प्रातस्थपणेन प्रतिबुधानि जायन्ते व्य० १० उ० कोमिपरिमु नवकोटिपरशुरू ०३० नयभिविनादिपे नव कोडीपरिसुद्धे, निक्खे पणचे | नवभिर्विभागैर्निदोषे, स्था० ९ ठा० । एक्क्ख- नत्र त्रि० । "शीघ्राऽऽदीनां बहिलाऽऽश्यः " ॥ ८ । ४ । ४२२ ॥ इत्यपभ्रंशे नवशब्दस्य णवक्खाऽऽदेशः । प्रत्यये, प्रा० ४ पाद ।
66
वनयकनिवेश-पुं० प्रथमावाने नि०पू० ।
जे क्खूि नव गामंसि वा एगरंसि वा [ एगारंसि वासमिव पचिभित्ता असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा पमिगाहेइ, पडिगार्हतं वा साइज || ३६ || नि० च० ए ० ।
तृतीय ६६१ पृठे
(अत्र गोपरचरिया वगढ़-नवग्रह
अभिनवणे, सू० १ ० ३
२ उ० ।
णवच्छिद्द - नवच्छिद्र - त्रि० । नवरन्धोपेते, तं० ।
वजो यरिणय- नवयोजनिक- त्रि० । नययोजनाऽऽयामे, “ जंबूदीवे गुं दीवे नवजोगणिया मच्छा | स्था० ६ ठा० ।
०
वादमियानवनयका
मानिदिनानि य
स्यां सा नवनवमिका, नव नवमानि च भवन्ति नवसु नवकेविति तत्परिमाणेयमिति । एकाशीतिदिनैः समाप्येऽभिग्रहविशेषे, (स्था० )
मिया णं भिक्खुपडिमा एकासीए िराईदिएहिं चनहि य पंचुत्तरेहिं चिक्खासएहिं महासुत्ता० जावाराहिया पावि भव ॥
( नवणवमिया ) इत्यादि कण्ठ्यं, नवरं नव नत्रमानि दिनानि રે
गावणाम ( ण् )
यस्यां सा नवनवमिका, नव नवमानि च भवन्ति नवसु नवके स्थिति तत्परिमाणेयमिति, नय नयकान्येकाशीतिरिति कृत्या काशीत्या रात्रिरितिि नभेका दत्तिः पानकस्य भोजनस्य चेत्येवमेकोत्तरया वृद्ध्य नवमे नवके नव दत्तयः। ततश्च सर्वसङ्कलनया चतुर्भिश्च प खोसरेमिकाशतैर्यथासूत्रं यथाकल्पं यथामार्ग यथास्वं स म्यक्कायेन स्पृष्टा पालिता शोभिता तीरिता कीर्तिता श्राराधिता चाऽपि भवतीति । स्था० ६ वा प्र० । स० औ० !
अन्त० ।
वणवसंवेग - नवनवसंवेग-पुं० । पूर्वपूर्वे वैराग्ये, [ वृ० ] अथ नव नवो य संवेगो " इति व्याख्यानयन्नाद
6
जह जह मुयमोगाइड, इसयर मपसर मंजुयमपुब्वं । वह वह पलहाइ सुणी, गणवसंवेगसका ओ | यथा यथा नागमं पूर्वमवगाढते कथंभूत अतिशय सप्रसरसंयुतम् । श्रतिशया अर्थविशेषास्तेषु यो रमः श्रोतॄणामाक्षेपकारी गुणविशेषः, तस्य यः प्रसरः अतिरेकः तेन संयुसंयुतम्। यद्वा-अप
रस आस्वादनं तत्र यः प्रसरो गमनं तेन संयुतम् पूर्व यथा यथाऽवगाहते तथा तथा मुनिः प्रह्लादते शुभभावसुखासिकया मोदते । कथंभूतः ? इत्याह-नवनवोऽपूर्वापूर्वी यः संवेगो वैराग्यं तचापि कृणा यस्य स नवनवसंवेगनाक इति । गतं नवनवसंवेगद्वारम् । वृ० १ उ० । एवएव संवेगो खलु, पाणावर एक्खओवसमजाओ । तचादिगमो यता, जिन्नस गुगा ||३|| नवनवसंवेगः प्रत्यग्रः प्रत्यग्रः संवेग अन्तःकरणता, मोसुनिला इत्यन्ये धनुरायः पूरणार्थ संवेगस्य प निबन्धनत्वेन प्राधान्यख्यापनाय वा । तथा ज्ञानावरणक योपशमभावः झानाऽऽवरणकयोपशमसत्ता संवेगादेव । तवाधिगमश्च तवातयपरिच्छेदश्च तथा, जिनवचनाऽऽकर्णनस्य तीये करभाषितश्रवणस्य एते गुणा इति ॥ ३ ॥ श्रा० ॥ रावणाम [ए] - नवनामन् - न० | नवपदार्थनामनि, अनु ।
नामनिदर्शयज्ञादसे किं तं णवणामे ?। एवणामे एक कव्वरसा पत्ता । से जड़ा
ओय रोदो का हो बोल् हासो को पसंतो च ॥ १ ॥
बीरो सिंगारो बील
( से किं तं त्रणा इत्यादि ) नवनामे नव काव्यरसाः प्र कृप्ताः । तत्र कवेरनिप्रायः काव्यं, रस्यन्तेऽन्नराऽऽत्मनाऽनुभूयन्त इति रखा सत्सहकारिकारणसन्निधानोऽभूताः येतीविकारविशेषा इत्यर्थः । उक्तं च-" वाह्यार्थीऽऽलम्बनो वस्तुविकारो मानसो भवेत् । स भावः कथ्यते सद्भिः, तस्योत्कर्षो रसः स्मृतः ॥ १ ॥ " काव्येषूपनिवळा रसाः काव्यरसाः, वीरशृङ्गारादयः । तानेवाऽऽह - (वीरो सिंगारो ) इत्यादि । गाथा सुगमान 'शूर वीर विक्रान्त इति यति
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(१५३.) णवणाम[] अभिधानराजेन्द्रः।
णवरि तिरागतपोवैरिनिग्रहेषु प्रेरयति प्राणिनमिति उत्तमप्रकृतिपुरुष- णवधम्म [[]-नवधर्मन-त्रि० । अभिनवश्रावके, पृ० १२० । चरिप्रश्रवणादिहेतुसमुनूनो दानाऽऽद्युत्साहप्रकर्षो ऽऽत्म
णवपज्जवण-नवपायन-न० 1 नवं प्रत्यग्रं पजण ति' प्रतापिको चीरो रसः, इतिः सर्वत्र गम्यते। १ ॥ शुक्र सवेरसेन्यः परमप्रकर्षकोटिलकणमियति गच्कृतीति कमनीयकामिनीद.
तस्याऽयोधनकुट्टनेन तीणीकृतस्य पायनं जलनिवोसनं यस्य शंनाऽऽदिसंभवो रतिप्रकर्षाऽऽत्मकः शृङ्गारः सर्वरसप्रधान इत्य
तनवपायनम, सद्योऽग्नितप्ते तीदणीकृते जनकपेण शीतीकथः। अत एव " शारहास्यकरुणाः, रौरुवीरजयानकाः ।
ते, "णवपक्षणएणं प्रसिपएणं पमिसाहरिया।" ज०१४ बीजत्लाद्धतशान्ताइच, नव नाट्ये रसाः स्मृताः ॥२॥" इत्यादि
श०७उ.। वयं सर्वरसानामादावेव पठ्यते । अत्र तु ल्यागतपोगुणौ वीररसेवन्धि (ए)-नवपूर्विन-पुं० । परिपूर्णनवपूर्वधरे, इहाबर्तेते, त्यागतपसी च " त्यागो गुणो गुणशतादधिको मतो सतां नवपूर्विणः परिपूर्णनवपूर्वधराः, किं तु नवमस्य पूर्वस्य मे।""पर लोकातिग धाम, तपः श्रुतमिति ष्यमा" इत्यादि। यतृतीयमाचारनामक वस्तु, तावन्मात्रधारिणोऽपि नववि• वचनात् समस्तगुणप्रधान इत्यनया विवकया वीररसस्या55. णः। व्य.१००। दावुपन्यास इति श्रुतम् ॥२॥ शल्यं त्यागतपःशौर्यकर्माऽऽदि वा सकसभुवनातिशायि किमप्यपूर्व वस्त्वद्भुतमुच्यते; तदर्श
एवनचरेगुत्त-नवब्रह्मचर्यगुप्तिगत-त्रि० । नवग्रह्मचर्याणि गु. नश्रवणाडादच्यो जातो रसोऽप्युपचारात विस्मयरूपोऽदनः
प्तिशम्दसोपा वसतिकथाद्या नवब्रह्मचर्यगुप्तयस्ताभिगुप्तः ॥३॥ रोदयत्यतिदारुणतया अभूणि मोचयति इति रौद्रं, रिपुज. संरक्तितो नवब्रह्मचर्यगुप्तिगुप्तः । पा० । मवभिमैथुनवतस्य र नमहदारण्यान्धकाराऽऽदितदर्शनाऽऽअद्भवो विकृताध्यवसाय. शाप्रकारैः सुसंवृत्ते, पा० । नि० चू०।। रूपो रसोऽपि रौद्रः ॥ ४॥वीडयति सज्जामुत्पादयति सज्ज. एवम-नवम-त्रि०। नवसंख्यापूरके, उत्त• १० । स्था। नीयवस्तुदर्शनाऽऽदिप्रजवो मनोव्य लीकताऽऽदिस्वरूपो ब्रीमनका, अस्य स्थाने भयजनकसंग्रामाऽऽदिवस्तुदर्शनाऽऽदिप्रभ
पवमल्लह-नवमद्वकिन-पुं० । कत्रियविशेषजातीये, वीरवो नयानको रसः पठ्यतेऽन्यत्र, स चेह रौद्ररसान्तर्भाव.
स्वामिमोकगमनतिथिरात्रौ नवमल्लकिन्तिः पोषधोपवासः कृतः, विवकणात् पृथर नोक्तः ॥५॥ शुक्रशोणितोचारप्रश्रवणाऽऽर्धान.
तत्र नवमलसकिजातीयाः काशिदेशस्य राजानः । कल्प० मुद्धजनीयं वस्तु बीभत्समुच्यते, तहर्शनश्रवणाऽऽदिप्रभवो जगुप्साप्रकर्षस्वरूपो रसोऽपि वीभत्सः ॥६॥ विकृतासंबर-एवमालिया-नवमालिका-स्त्री० । (नेवारी) पुष्पप्रधाने ब. परवचनवेपालङ्काराऽऽदिदास्याहपदार्थप्रभवो मनःप्रकर्षाऽऽदि. | नस्पतिभेदे, कल्प० ३ कण । प्राचा। चेष्ठा ऽत्मकोऽपि रसो हास्यः ॥ ७ ॥ कुरिमतं रौत्यनेनेति
एवमिया-नवमिका-स्त्री० । सुपुरुषस्य किम्पुरुषन्धस्य द्विती. निरुक्तवशात् करुणः, करुणाऽऽस्पदत्वात् करुणः प्रियविप्रयोगा55दिदुःखहेतुसमुत्थः शोकप्रकर्षस्वरूपः करुणो रस इत्यर्थः
यायामप्रमदिध्याम, स्था०४ ग.१ उ०।नाती०। (अ. ॥6॥ प्रशाम्यति क्रोधाऽऽदिजनितीत्सुक्यरहितो भवत्यनेनेति
स्याः पूर्वभवः 'अम्गमहिसी' शब्द प्रथमभागे १७१ पृष्ठे गतः) प्रशान्तः, परमगुरुवनाश्रवणाऽऽदिहेतुसमुसित उपशमप्रकर्षा
शकस्य देवेन्द्रस्य षष्ठयामग्रमहिण्याम, ( अस्याः पूर्वनवकस्मा प्रशान्तो रस इत्यलं विस्तरेण ॥६॥ अनु०। (एषां]
था ' अग्गमहिसी' शब्दे प्रथमभागे १७३ पृष्ठे उक्ता) मन्द
रस्य पश्चिमे रुकवरपर्वतस्य रुचकोत्तमकूटे परिवसन्त्यां दिनवनानां नवकाव्यरसानां लकणानि स्वस्वशब्दे व्यानि)
पकुमार्याम, स्था०० ठा० । श्राव० । मा०चू । जं०। प्रा०म० वाणिहि-नवनिधि-पु. । अजागृहतीर्थे पार्श्वनाथप्रतिमाया
णवमी-नवमी-सी । अष्टमीदशम्यन्तराले तिथौ, द. प० । म, ता. २ कल्प।
विशे। ज्यो । एवणीइया-नवनीतिका-स्त्री० । पुष्पप्रधाने वनस्पतिभेदे,
एवमी पक्ख-नवमीपक्ष-पुं० । नवम्यास्तिथेः पक्को ग्रहो यस्य प्रज्ञा० १ पद । " णवणीश्या गुम्मा । " जं० २ वक्षः।
तिथिमेनपाताऽऽदिषु तथादर्शनात् तिथिपाते यत्कृत्यस्याटमे च णवणीय-नवनीत-न० । म्रकणे, औला निक। आ००। श्राव०॥ क्रियमाणस्वात् स नवमीपकः। अष्टमे दिवसे, " चित्तबहुस्स स्था । झा । (मक्खन) (नेनू) (मसका) इतिख्याते, प. णवीपक्खेणं । " जं. ३ वकं०। र० । रा०। प्रश्न । जं. नि. चू० । भ० । कल्प० । पञ्चा०। वय-नवत-पुं० । कर्णविशेषमये 'जीन' इति लोकप्रसिद्धेऽर्थे, जी आम.।" नवनीतं यथा दध्न-३चन्दनं मलयादिव । ब्रह्माएमं वै पुराणेज्य-स्तथा प्राहुर्मनीषिणः ॥१॥" उत्त.
झा०१७० १ अ0। आचा। २५ अ० । नवनीतं हि महाविकृतितया निर्विकृति कैरभक्ष्यम्।।
एवयारचिंतणाइय-नमस्कारचिन्तनाऽऽदिक-त्रि० । परमेष्ठि. स्था । नवनीतमपि गोमदिष्यजाऽविसंबन्धेन चतुर्मा, पञ्चकनमस्कृतिध्यानप्रभृतिके, पश्चा० १ विव.। तदपि सूक्ष्मजन्तुराशिखनित्वात्याज्यमघ । यत:-"अन्तर्महता- | णवरं-नवरम-अव्य० । केवलमित्यर्थे, पश्चा० १७ विवाग। त्परता, सुसूदमा जन्तुराशयः। यत्र मन्ति तन्नाचं, 'नवनीतं प्रश्न विषा । स्था। "णवरं केव" ।।२।१८७॥ विवेकिनिः॥१॥” इति । घ०२ अधिः ।
इति केवलेऽथै वरमिति प्रयोगः । " णवरं पि भाचिणिणवत्तयकुसंत-नवत्वक्कुशान्त-पुं० । नवा त्वक् येषां ते नव- ब्बम ति।" प्रा०५पाद । दे. ना.। त्वनः कुशान्ता दर्नपर्यन्ताः, नवत्वचश्च ते कुशान्ताच नवत्व- णवरि-नवरि-अव्यः । श्रानन्तये, “मानन्तर्थे णवरि"॥5 ककुशान्ताः । प्रत्यक्त्वग्दर्भपर्यते, रा.। जी।
१८८ ॥ प्रानन्तर्ये ख्वरीति प्रयोकव्यमिति । तथा प्रयोगः-"
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(१९३१) गावरि अभिधानराजेन्छः।
यामा बरि असे रहुवा । " केचित्तु केवमानन्तर्यायोर्णवरणवरी. कर्म तदभावान्न परलोको, नाऽपि मोक इति । यच्चतम्चेतस्येकमेव सूत्रं कुर्वते, तन्मते तु उभावप्युभयायौँ। प्रा०२पाद । न्यं तद् नूतधर्म इति । अस्याक्रियावादिता स्फुटैव । न चैतस्थ देना।
मतं संगच्चते, प्रत्यकाऽऽप्रवृत्या प्रात्माऽऽदीनां निराक मशवरिअ-देशी-सहसाथै, दे. ना.४ वर्ग।
क्यत्वात,सत्यपि वस्तुप्रमाणप्रवृत्तिदर्शनादागमविशेषसिद्धत्वा.
ब, भूतधर्मताऽपि न चैतन्यस्य, विवकित नूतानावेऽपि जाति. खवलग-नवलक-पुं० । वस्त्रमये पक्कदोरकजालकमये या (नव.
स्मरणाऽऽविदर्शनादिति । स्था..। ली वसनी स्वरिया जाली जावी इति स्याते ) मद्राकोशे, कोपि कस्याऽपि पार्वे सुवर्णपणनृतं नवल किप्तवान् । नं.।
णसण-भ्यसन-न० । व्यवस्थापने, विशे म्यासे, प्रारोपणे,
जो०१ प्रति पवलया-देशी-नियमविशेषे, देना.४ वर्ग। हावा-नव-त्रि.।"लो नवैकाद वा"॥१६५॥ इति णस्समाण-नश्यत-त्रि. I " मशेणिरिणासाशिवडावसेडप
मिसासहावहराः "10४।१७८॥ इति नशेर्णिाचादेस्वार्थे खः । नूरने, प्रा०५ पाद ।
शाभावे। प्रा०४पाद | "शकादीनां बित्वम"॥४॥४॥ लवविगइ-नवविकृति-सी । नवसु कीराऽऽदिविकृतिषु,"णव
२३०॥ इति सद्विस्वम । सन्मार्गात व्यवमाने, उपा०७.. बिगईश्रो पत्ताभो। तं जहा-खीरं, दहि,णवर्णीयं, सपि,तिर्छ
पाह-नख-पुं० । खुराप्रनागे, म०१२००७ उकरजे,तं.' गुलो, महुं, मजं, मंसं।" स्था. ग. । (एतासां विस्तरः
प्रश्नास प्रव०। पाणिपादजे, प्रव०४०बार। गम्भमन्य. 'विग' शब्द वदयते)
भेदे च । ब..। हावसुत्त-नवसूत्र-त्रि०। नवं सूत्रं वल्कसाऽऽदि यस्मिन् स तथा।
नभम्-न० । “स्नमदामशिरोनभः" ।।१।३२ ॥ तिनन्नः नवसूत्ररचिते, "प्रासंदियं च नवसुतं, पाउल्लाई संकमडाप।"
पर्युदासानपुंसकत्वम् । प्रा०१ पाद । आकाशे, दश०७ मा (१५) सूत्र.१७०४ अ०२ उ०।।
कल्प। वसोयपरिस्सवा-नवश्रोतःपरिस्रवा-स्त्री० । नबभिःश्रोतोभिः
पहच्छेज-नखच्छेद्य-न० । नस्त्रच्छेदनविधिविशेषे कलानेदे, विः परिस्रवति मलं करति इति नवश्रोतःपरिनवा । छिरू
कल्प० ७ कण। नवकेन मलं करन्त्याम, स्था। ।। वसोयपरिस्सवा बोंदी पप्सत्ता । तं जहा-दो सोया, दो
पहच्छेदणय-नखच्छेदनक-नः । ननकर्त्तन्याम, प्राचा० २
शु०१ चू०७ १०१ उ०। णित्ता, दो घाणा, मुहं, पोसए, वाऊ ।
णहमुह-देशी-चूके, दे. ना.४ वर्ग। (णवेत्यादि ) नवनिः धोतोनिः निः परिस्रवति मलं क्षर
पहयल-नभस्तन-न० । व्योम्नि, झा०१ श्रु०१०। प्रइन। तीति नवश्रोतःपरिनवा बोन्दी शरीरमौदारिकमेवैवंविधं, द्वे
" श्रोविरएमिनयले ।" प्रा०२पाद । श्रोत्रे कणों, नेत्रे नयने, घ्राणे नासिके, मुखमास्यम्, (पोसए त्ति) उपस्थम, पायुरपानमिति । स्था०९ ठा।
णहरी-देशी-खुरिकायाम, दे० ना.४ वर्ग। पवा-नवा-खी । प्रत्यग्रयौवनायाम, अतिनवोढायां वा रिया- हरणी-नखरदनी-स्त्री०। वेवादिमस्यां नखशोधन्याम, प० म् । सूत्र. ५ श्रु. ३ अ०२ उ० । व्रतपर्यायेण यावत्रिवर्षायां] व० ३ द्वार। भमण्याम, व्य.४ उ०।
पहवाहणा-नभोवाहन-पुं० । स्वनामख्याते भरुकच्छराजे पपवि-अव्य० । वैपरीत्ये, “णवि वैपरीत्ये"॥८२। १७८ ॥ मावतीपतो, यभार्यया पद्मावत्याः काव्यश्रवणेन पूर्व मापवीति वैपरीत्ये प्रयोक्तव्यमिति । " पति दावणे।" प्रा०२
नितः पश्चानिरस्कृतोऽपरिवारो वज्रभूतिराचार्यः । व्य०३ पाद । दे. ना०।
उ०। आव०। विशे। विअ-नत-न। "के"।।३।१५६ ॥ इत्यत वम् । पहसिर-नखशिरम्-न० । नखाने, भ० ५ श०४ उ०। नमने, प्रा. ३पाद ।
एहसिहा-नखशिखा--स्त्री० । नवाग्रजागे, कल्प. ए तण । विय-नव्य-त्रि०। अभिनवे, माचा० अ०२~०३ ।
नि० चू। एवोदरण-देशी उचिष्टे, दे० ना०४ वर्ग ।
पहसेण-ननसेन-पुं० । उग्रसेनतनये कमलायाः पत्या,
विशे। हावोद्धर-देशी-च्चिष्टे, दे. ना.४ वर्ग।
णहहरणी-नखहरणी-स्त्री०। नवर्तन्याम, यया नया न. पन्च-नव्य-त्रिका तत्कालमुत्पन्ने, ध०२ अधिः ।
दुध्रियन्ते । ६०३ उ०। बानत्त-देशी-ईश्वरे, दे० ना.४ वर्ग।
पहि[ ]-नखिन्-त्रि० । नवप्रधाने, अनु।
पह-नह-अव्य. नैवेत्यर्थे, ज्ञा०१ श्रु०६०। आवाव्या पसंतिपरसोगवाइण]-नशान्तिपरलोकवादिन-पुंजन विद्यते । शान्तिश्च मोकः परलोकश्च जन्मान्तरमित्येवं यो वदतिस तथा।
णाम-कात-त्रि. । "को जाणमुणौ" ॥८॥४७॥ इति भक्रियावादिभेदे, (स्था०)तथादि-नास्त्यात्मा, प्रत्यक्वाऽऽदि
बाधातोर्जाणमुणाऽऽदेशाभावे'णाअं' अवबुद्धे,प्रा०४ पाद। प्रमाणाविषयत्वात. खरबिषाणयक तनावाच पुण्यपापलक्षणं 'पामा-दसागाव
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(२५) प्रनिधानराजेन्द्रः।
गबाइल लाइ-जाति-श्री०। पूर्वापरसंबखे स्वजने, भाचा० १४. २॥
तत्थ पढमो०५ उ०। भासमानजाती, नि.१०१ वर्ग ५ अ० ।
"पुरिसेण माणधणव-ज्जिएण परिहीणभागधेजेणं । कल्प०। मौ०। विपा० । अष्ट । सूत्र० । मातापितृपुत्रकसत्रादौ, सत्र० १७.१० ३००। उत्तका।काने, संविदि,
ते देसा गंतव्या, जत्थ ण वासादि दीसंति" ॥१॥ स्था वा० ३ उ०।
तह वीओयाई-अन्य । नम, " भणणाई नमथे" ॥८।३।११०॥ "जस्स घणं तस्स जणो, जस्सऽत्थो तस्म बंधवा बहवे । शति नयें णाति' प्रयोगः । " णाई करेमि रोसं।"
धणरहिमो उमणूसो, होइ समो दासपेसेहि" ॥॥ प्रा०५ पाद ।
ग्रह एवं परोप्परं संजोज्जे ऊण गोयमा ! कयं देसपरिपाश्मट्टिम-नातिमृत्तिक-त्रि० । नातिकर्दमे, भ० १५ २०।
चायनिच्छयं तेहिं ति। गाइय-नादित-त्रि० । ध्वनिमात्रे, शा. १९०१ मा । विपा।
जहाम० । प्रतिशम्ने, कल्प०५कण । राजा लपिते, हा०१
"बच्चामो देसंतरं, ति तत्थ णं कयाइ पुज्जति । १०१०। मौ०।
चिरचिंतिए मणोरहें, हवइ पवजाएँ सह संजोगो"॥१॥ पाल-मागिल-पुं० । मार्यवज्रसेनस्थान्तेषासिनि, पत मार्यनागिला शाखा निर्गता । कल्प० ८ कण । प्रा०० । नागि
जइ दियो बहु मन्ने जा जाब णं उज्जिनकगयं कुसस्थबकुलवशवर्तिनां साधूनामाचारादारभ्य यावदनुरोपपाति- लं, पमिवन्नं विदेसगमणं । अहन्नया अणुप्पेहेणं गच्छमाकदशास्तावनास्ति माचाम्लम व्य०१उ० । दुधसहान- णेहिं दिलु पंच साधुणो [उर्स ममणो वासग ति । तमोज. गारसमये भविष्यति श्रावके, यवनुशिष्टो दुष्प्रसहोऽनगार: प्र.
णिभंणाश्लेण । जहा-भो भो मुमती जमुह ! पेच्छ केरिअजिष्यति । ति० । महा० । " सही य नाइलो नाम गाहवती लावगाण पच्छिमओ।" (३४) ति। ती० । “पविर
सो साहुसत्थो?,ता एएणं चेव साहुसत्येणं गच्चामो,जइपुणो लगामे जणवए, पविरलमणुपसु नाम दोसेसु । नामेण ना
वितए गंतव्वं । तेण जणियं-एवं होन त्ति। तम्रो सम्मिन्निस्नो मा-म गणहरो होहि महप्पा ॥२०॥" ति। इति भवि- या तस्थ सत्ये जाव णं पयाणगमावहंति, तावणं भणियोव्यत्यनगारे सुमतिभ्रातरि, महा।
सुमती पाइलेणं । जहा- भद्दमुह !मए हरिवंसतिन्नयमअत्यि हेव भारहे वासे मगहा णाम जणवो । तत्थ रगयविणो सुगहियनामधेजवासिनपतित्थगरस्स एं कुसत्थलं नाम पुरं । तम्मि य जवनकपुन्नपावे मुमुणिय- अरिघ्नेमिनाहस्स पायमले सुहनिसन्नेणं एवमवधारिजीवाऽऽदिपयत्ये सुमा-णाश्ल-णामधिज्जे दुवे सहोयरे म- यं आसी । जहा-जे एवंविहे अरणगाररूवे नवंति, ते य हिल्लिए सगे अहेसि । अहन्नया अंतरायकम्मोदएणं विय- कुसीले,ते दिट्ठीए विनिरिक्खि न कप्पंति, ता एते सालियं विहवं तेसिं, ण उण सत्तं परकम ति । एवं अचलियस- हुणो तारिसे, " कप्पइ एतेसिं समं अम्हाण गसपरकपाणं तेसिं अच्चंतपरसोगभीरूणं विरयकूमकवमा- मणं, संसगं वा । ता वयंतु एते, अम्हे अप्पसत्येणं चेव लीयाणं पमिवनजहोवइहदाणाइचउक्खंधउवासगधम्पा- वश्स्सामो, न कीरइ तित्थयरवयणस्सातिकमो, जो णं स. णं अपिसुणामच्छरीणं अपायावीणं किं बहुणा ? गो- मुरासुरस्सावि जगस्स अलंघणिजा तित्थयरवाणी, अन्न यमा! ते नवासगेणं आवसहगुणरयणाणं पत्नवा खंतीनि- च जाव एतेहिं संघं गच्छइ, ताव चिट्ठउ, ताव दरिमणबासे सुयणमेत्तीणं, एवं तेसिं बहुवासरवन्नालिज्जगुण
पालावादीणि य मा भवंतु, ता किं तुम्हेहिं तित्ययरवाधि रयणाणं पि जाहे असुहकम्मोदएणं न बहुप्पए संपया | उवंघियत्ता णं गंतव्वं । एवं तमणुभाणिकण तं सुमति वाहे ण पहुपंति अट्टाहियामहिमादओ इट्ठदेवयाणं अहि.
हत्थे गहाय निव्यमित्रो नाइलो साहसत्थाओ,निचिट्ठो य छिए पूयासकारे साहम्मियसम्माणे बंधुजणसंववहारे य ।
चक्खुविसोहिए फासुगनुपएसे । तो जणियं सुमणा। अहन्नया भचलंतेसु अतिहिसकारेसु अपूरिज्जमाणसु प
जहाणइजणमणोरोमु विहमसेसु य मुहिसयणमित्तबंधवक- "गुरुणो मायापित्त-स्स जेफनाया तहेव जहणीणं । लत्तपुत्तणत्तुयगणेसुं बिसायमुवगएहि गोयमा ! चिंतियं ते- जत्युत्तरं न दिज्ज, हा देव ! भणामि किं तत्थ ॥२॥ हिं सहगेहिं । तं जहा
आएसमवी माणं, पमाणपुव्वं तह त्ति नायव्यं । "जा विहयो ता पुरिस-स्स होइ मायापमिच्छयोलोनो।। मंगलममंगलं वा, तत्थ वियारो न कायम्बो॥।॥ गमिनोदयं घणं वि-ज्जुला व दूरं परिचयइ "॥१॥ | वरं एत्थ य णं मे, दायव्वं अज्जमुत्तरमिमस्स। एवं च चिंतिकण परोपरं अधिनमारके।
स्वरफरुसकक्सानि-दृदुनिफुरसरेहिं तु ॥३॥
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(१९३३) अभिधानराजेन्दः ।
पाइल
णाइल
अहवा कह उच्छवाउ, जीहा मे जिनाउणो पुरओ।
तित्थयरो, जेणं तुज्झमेयं वायरियं ति। तो एवं भणमा. जस्मुच्छंगे विणियं, मए सदेहं असुविनितं ॥४॥
णस्स सहत्येणं झंपिनं मुहकुहरं मुमस्स नाइलेणं,भणियो अहला कीस ण लज्जा, एस सयं चेव एव पनणंतो।
य जहा-जद्दमुहमा जगेकगुरुणो तित्ययरस्सासायणं कुजंतु कुसीले पते,दिट्ठीएवीण दहन्वे"|शा साहुणोति ।
णमु, मए पुण जणसु जहिच्छियं, नाहं ते किं वि पडिभजाव न वय ताव णं इंगियागारकुसझेणं मुणियं नाइ
णामि । तो जणियं मुमइणा जहा-जइ एते वि साहुणो लेण-जहाणं अनीयकसाइप्रो एस मणगं सुमती, ता
कुसीला,ता एत्थ जगेण को मृमीनो अस्थि । तोचणिअं किमहं पडिभणामि त्ति चिंतिनं समादत्तो।
पाइलेण जहा-जद्दमुह मुम! इत्थ जयाऽसंघणिज्जवक्कस्स जहा
जगवनो बयणमायरेयन्नं जं बच्च!कयाइ विसंवएना "कजे विणा अकमे, एस पकुविप्रो हु ताव संचिढे ।
णो णं बान्नतवस्सीणं चेट्ठियं, नो ण जिणिदवयणेणं संपइ अणिज्जतो, ण जाणिमो किं च बहु मन्ने? ॥१॥
नियमो ताव कुसीले इमे दीसंति, पबजाए पुण गंधं पि ता किं अणुणेमि इमं, याहु बोमन खणकताऽसंवा।
ण दीस एएसिं, जेणं पिच्च पिच्छ तावेयस्स साहुणो विअणुवसमियकसानो, पडिवजह तं तहा सव्वं ॥२॥
पज्जयमुहणंतगं दीसइ, ता एस ताव महिगपरिग्गहदोसेणं अहवा पत्थावमिणं, एयस्स वि संसयं अवहरोमि।।
कुसीलो,ण एवं माहूणं भगवया इ8 जमहियपरिम्गहविधारणं एस ण जाणइ भई, जाब विसेसंण परिकडियं" ॥३॥
कीरे,ता वच्छ ! होणसत्ताणं एस वेसो मणसावसि अं इति चिंतिकण नणि उमादत्तो
जहा जइ ममेयं मुहणंतगं विप्पणस्सिहिइ,ता कीयं कत्य पा"णो देमि तुम दोस, ण यावि कालस्स देमि दोसमहं ।
वेज्जा?, नो एवं चिंतेइ मूढी जहा अहिगावोगोवहिधारजंपियबुछीऍ सहो-यरा वि भणिया पकुवंति ॥२॥
गणं मऊं परिग्गहवयस्स जंग होही। श्रहवा किं संजमेsजीवाणं वि ए एत्यं, दोसं कम्मट्ठजानकसिणाणं ।
निरओ एस मुहणंतगाइसंजमोवोगधम्मोचगरणेणं विजं चउगइनिप्फिाड, हिओवएसं न बुति ॥शा
सीएज्जा नियमत्रोण विहीए णवरमत्ताणपहीणसत्तोऽघणरागदोसकुग्गा-हमोहमिच्छत्तखवमियमणा णं ।
हमिझ पायमे नम्मग्गायरणं च पयंसेइ,पवयणं च मसति भावियविसकालउम, हिमोवएसाइ मनंति" ॥३॥
एसो नण पेच्छसि सामअवतो एएणं कस्लं तीए एवमा मुणिऊण तो जणिभं सुमहणा-जहा तुम चेव । वि णीयं सेणाए इत्थीए अंगजट्टि निजाऊण जनासत्यवादी जणसु एयाए, णवरं ण जुत्तमेयं जं साहूणं] सोइयं पमिकतं तं किं तए ण विन्नायं, एस उण पेच्छसि अवलवायं भासिज्जड, अनं तु किं न पेच्चसि तुम ए- परूढविष्फोमगचिम्हिया गाणा एते य संपयं चेव लोएसिं महाभागाणं चोट्टयं-ट्टऽटुमदसमदुवाझसमा- याए सहत्येण अदिन्नं छारगहणं कयं, तए च दिट्टमेयं ति सखमणाईहिं आहारग्गहणं, गिम्हे ता वहाणं बी- एसो उ ण पेच्छसि, परूढविप्पोमगं पेच्चसि, संघमियको रासण उक्कुम्यासणनाणाजिग्गहधारणेणं च कस्तयो- पएणं अणुग्गए मूरिए नहेह, वच्चामो उम्पयं सूरियं ति ऽणुचरणेणं च सुकं मंससोणियं ति, महाउवासगो- तहा विहसियमिग्णं एसो उण पेच्छसि एसिं जिहसेहो ऽसि तुप, कहं महाभासासमिती विहिया तए, जेण एरि- एसो अन्ज रयणीए अण्वउत्तो पमुत्तो विज्जुक्काए सगुणजुत्ताणं पि महानागाणं साहणं कुसील ति नाम सियो । एतेणं कप्पगहणं कर्य, तहा पभाए हरियतणं संकप्पियं ति । तो भणियं नाइलेणं जहा-मा बच्च! वासाकप्पं बसेणं संघट्टियं, तहा बाहिरोदगस्म णं परिनोतुमं एतेणं परितोसमुवयासु जहा अहयं अतिचारोणं गं कयं, बीयकायस्सोयरेणं फरिसं को अविहीए, एस परिमुसिओ, अकामनिज्जराए वि किंचि कम्मक्खयं | खारथंमिलामो पहरं मित्रं संकमित्रो, तहा पहपमिवन्नेभवइ, किं पुण जं बालतवेणं, ता एते बातचस्सि- णं माहुणा कम्पसुयाइ कम्मे इरियं पक्किमियन्वं, तहा णो दट्ठन्ने, जो ण किंचि उस्मुत्तं मगं आयारियं चरेयचं,नहा चिट्ठयव्वं,तहा आसे यन्वं, तहा सएयव्वं, जहा एएसि पोसे, अन्नं च वच्छ ! सुप ! णत्यि ममं इमाणो. छकायमइगयाणं जीवाणं सुहमवायरपज्जत्तापज्जत्तगमागमवरि को वि मुहमो वि मणसा वि पोसो, जेणाहमेएसिं सब जीवपाणलयसत्ताणं संघट्टणपरियावकाकिलामणोदवदोसग्गहणं करेमि, किं तु मए जगवमो तित्ययरस्स णं वाण भवेज्जा । ता एतेसिं पव्वइयाणं एयस्स एकमविण सगासे एरिसमवधारियं जहा-कुसीले अदम्बे । ताहे न. एत्थ दीसड, जं पुण मुहणंतगं पमि हमाणो मज्जमए एस णि अंसुमणा जहा-जारिसो तुपंनिबुद्धीओ,तारिसो सोवि चोडमो-जहा परिसं पडिहणं करे, जेण वाउकायस्स फट्टः
४८४
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पाइस
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फमस्स संपला सरियं च पहिला संतियं कारण ति जस्सेरिस, जइ एरिसं खोओगं बहु काहिति संजय सेदेहं जस्सेरिससमाउत्तत्तणं तुज् ति, एत्थ च तहिं विणिबारियो जहा से मृगोबाही अम्हाणं सामूर्ति समं किंचि भणियन्त्रं कप्पेता किमेयं ते त्रिसुमरियं ता भद्दमुह ! एएणं सर्प संगमाणं नराणं एगमवि को परिक्खियं ता किमेस साहू भेजा जस्सेरिस पमत्तत्तणं, णो एस साहू जस्सेरिसं खिद्धम्मसंपलचणं मुह पे पेच्छ मूणो इवी चिसो कालिमला कटु अभिरमे एसो अहवा वरं सूणो, जस्स सुमपत्रि नियत्रयजंगं णो जवेज्जा, एसो उ शियमभंगं करेमाणो केणं नवमेज्जा, ता वच्छ ! मुमइ ! जद्दमुइ ! ण एरिसकत्तव्वायरणाओ जयंति साहू, एतेहिं च कत्तव्वेहिं तित्ययरवयणं सरमाणो को एतेसिं वंदणगमवि करेजा, अन्नं च एएस संसग्गणं कयाइ म्हाणं पिचरकर मिडिल भवना, नेणं पुणो पुणो हिमियो घोर भत्रपरंपरं । तम्रो जशियं सुमइला, जहां ए एए कुसीला, जह एए कुसीले तापि समं पत्रज्जा कायन्त्रा, जं पुरम इमं कहेसि तमेव धम्मं, पत्ररं को अज से अनुकरं ममावरिनुं सको ? ता मए एवोर्ड समं गंतव्वं जाव णो दूरं वयंति से सो तितो न शिवं णाइलेण-नमुह सुमह! जो कलाणं एते समं ग च्यमाणस्स तुज्छंति, अहयं च तुज्जं हियवयणं जणामि एवं तचैव बहुगुणं तमेासेवय, णाई तर क्लेण धरेमि । अह अनया अगोवा पि निवारितो
उसो मंदभग्गो सुमती, गोयमा ! पव्वश्री य । अह अनया वञ्चतेणं म सपंचगें आगओ महारोरवो
वालवच्चरि पुब्जिक्खो, तो ते सादुणो तक्काब्रदोषेण अणालोध्यपडिता परिक्षण उबवले नूयनक्ररक्सपिसावादीणं वाणमंतर देवाणं वाहनाए तो चविणं जाती कुणिमाहारकूरकवसाय दोसओ स तमाए, तो उच्चट्टिकां तइयाए चटत्रीसिंगाए संमत्तंपाविहिति । त य संमत्तल भनवाओ तइए नए नवे चउरोसि झिर्हिति एगो वा सिमिटि जो सो पंचमगो सन्च जेहो, जो गं से एगंतमिच्छदिट्ठी अभन्यो य | महा० ४ प्र० । ग० /
(२०३४) अभिधान राजेन्द्रः ।
ज्ञातििितर्विद्यते यस्य स तिवान् । स्वजनवति, " मित्तवं गाइवं होइ । " उत्त० ४ श्र० । लाइविगह- नातित्रिकृष्ट- त्रि०) अनत्यन्तदीर्घे, विपा०१०३० लाइसंग ज्ञातिमा मातापि ०१
श्रु० ३ ० २ उ० ।
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ागकेल
पाइसीय नातिशीतनिद्यतेऽतिन शीलं पत्र स नातिशीता तिशीताऽवाधारहिने सू०१०१०१४०
पाउल - देशी - गोमति, ३० ना० ४ बर्ग ।
पाई झाला अन्य विहायेत्यर्थे पञ्चा०] १. विष० । विनि
श्चित्येत्यर्थे, आ० म० १ ० १ ख एक ।
पाऊण - ज्ञात्वा श्रव्य• । विज्ञायेत्यर्थे, प्रा० ४ पाद । लाग-नाक- पुं० | न० । स्वर्गे, ध० २ अधि० ।
I
नाग - पुं० । जवनपतिविशेषे, झा० १ श्रु० ८ भ० | प्रब० । जी० । औ० । अनु० | नागकुमारे, नं० ॥ भ० । ० । स० । हस्तिनि भ० १२ श० उ० । नागवंशप्रसूते औ० । [झा० । उत० ॥ श्र० क० । प्रज्ञा० । सर्पे, भौ० । भडिलपुरे नगरे सुलसयाः श्राविकोत्तमायाः पत्यो, आ० म० १ अ० २ खण्ड । स्था० । अन्त० कल्प० । अव० । आर्यरक्षस्य शि ये स्वनामख्याते आचार्ये, कल्प० ॠण । द्रुमविशेषे, रा० । कल्याचा०] [भुवकानां चतुष्पादीनामन्यतमे सूत्र १ ० १ ० १ ० । जं० । विशे० । कल्प० । स्वनामख्याते द्वीपभेदे, समुद्रभेदे च । सूत्र० १ ० १ भ० ३ ८० । नागकेशरे, नागदन्तके, मुस्तके, देहस्थे उभारकारके पवनजेदे पर्वतभेदे, रङ्गे, सीसके च । वाच० । लागकुमार नागकुमार पुं० नागा ते कुमाराध नागकुमा राः । प्रज्ञा० १ पद । द्वितीयनवनपतिषु, स्था० ३ ० ४ उ० | प्रज्ञा० । स्या० स० । ( नागकुमारवतव्यताऽन्यत्र )
-
खागकेड-नागकेतु-पुं० [कासनगरीराज विजयसेनपसखीकान्सव्यवहारभाषया श्रीसख्याः सुने नह नन्ययेनापि पर्युषणायामएमं तपयको (कल्प० ) चन्द्रका न्ता नगरी, तत्र विजयसेनो नाम राजा, श्रीकान्ताख्यश्च व्यवढारी, तस्य श्रीसखी भार्या, तया च बहुप्रार्थित एकः सुतः प्र सुतः। स च बालक आसने पर्युषणापर्वणि कुटुम्बमम बातीमा कश्ये जातजातिस्मृतिः स्तन्यपोऽप्ययं कृतवान् । ततस्तं स्तन्यपानमकुर्वाणं पर्युषितमालतीकुसुममियान मालोक्य मातापितरावनकान् उपायश्वतुः मामू प्राप्तं तं बालं मृतं ज्ञात्वा स्वजना भूमौ निचिपन्ति स्म । ततश्च विजयसेनो राजा तं पुत्रं तद्दुःखेन तत्पितरं च मृतं विज्ञाय तरूनग्रहणाय सुजदान् प्रेषयामास । इतश्च श्रष्टमप्रभावात् प्र. कम्पनी र सकलं रूपं विज्ञाय भूमिष्ठं तं बालकममृतच्या आश्वास्य विप्ररूपं कृत्वा धनं गृह्णत स्तान् निवारयामास तत् श्रुत्वा राजाऽपि त्वरितं तत्रागत्योवा-भो भूदेव ! परम्परागतमिदमस्माकमपुत्र कथं निवारयसि ? धरणोऽयादीत राजन् ! जीवत्यस्य पुत्रः । कथं कु. त्रास्तीति राजाऽऽदिनिरुक्तः। भूमेरुतं जीवन्तं बालकं साकारकृत्य निधानमिव दर्शयामास ततः सर्वैरपि सःमि कस्त्वं कोऽयमिति पृष्ठे सोऽवदत्-अ धरणेन्द्र नागराजः कृतातपसोऽस्य महात्मनः साहाय्यार्थमागतो राजाssदिनिरुकम स्वामिन् ! जातमात्रेणानेन अष्टमतपः कथं कृतम् । धरणेन्द्र उवाच - राजन् ! अयं हि पूर्वभवे कश्चिद्वणिकपुत्रों बाल्येऽपि मृतमातृक श्रासीत् स च परमात्राऽत्यन्तं पीड्यमानो मित्राय स्वदुःखं कथयामास । सोऽपि त्वया पूर्वजन्मनि तपो न कृतं तेनैवं परामयं जमसे इत्युपदेश्वान ततोऽसी
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(१९३५) पागकेउ प्राभिधानराजेन्ः।
पागज्जण पथाशक्ति तपोनिरत भागामिन्यां पर्युषणायामवश्यमष्टमं गुणविभावकलियो, सक्किरियालंकित्रो हरसहो। करिष्यामीति मनसि निश्चित्य तृणकुटीरे सुप्वाप । सदा च लक्षणगंधु ब्व सम-त्थि तस्स एगो पवरसीसो ॥३॥ लब्धावसरया विमात्रा मासन्नप्रदीपनकादम्मिकणस्तत्र निक्कि- सो बालो विमवास-पाइलागुणरयणरोहणसमाणो। तः, तेम च कुटीरके ज्वलिते सोऽपि मृतः, अष्टमध्यानाच भयं प्राणिय चउत्थरसियं, कया विडय कहा गुरुपुरमओ।४ श्रीकान्तमहेभ्यनन्दनो जातः । ततोऽनेन पूर्वभवधिम्तिसमष्टम- अंबं तंबच्छीए, अपुफियं-पुष्फदंतपंताए । तपः साम्प्रतं कृतं, तदसी महापुरुषो लघुकर्माऽस्मिन् मधे मवसालिकजियं नव-बहुर कुमएण मे दि.॥ मुक्तिगामी यत्नात् पालनीयः, भवतामपि महते उपकाराय तो गुरुणा संलचो, बच्चा परित्तो सि पढसि जं एवं । भविष्यतीति उक्त्वा नागराजः स्वहारं तत्कण्ठे निक्तिप्य सो प्राह मह विहिज्जउ, पायारेणं पसाउ ति ॥६॥ स्वस्थानं जगाम । ततः स्वजनैः श्रीकान्तस्य मृतकार्य विधाय तह विहिए गुरुणा तो, जण पालिसी सि सो वुत्तो। तस्य नागकेतुरिति नाम कृतं, कमाश्च स बाव्यादपि जितेम्ब्यिः बसिद्धिजुमो बाई, विभो सूरीहि निययपए ७॥ परमश्रावको बनूव । एकदा च विजयसेनराजेन कश्चिद काया बि बसहिबाहि, बक्वित्तो सो कहिं वि कजम्मि । अचौरोऽपि चीरकलङ्कम इतो व्यन्तरो जातः समप्रनगरवि- जा चिहह ता तहियं, संपत्ता वाइणो के वि॥८॥ घाताय शिलां रचितवान्, राजानं च पादप्रहारेण रुधिरं वमन्तं पुच्छति प्रिनिलयं, कहर श्मो बंकदोहरपहेण । सिंहाऽऽसनाद् भूमौ पातयामास । तदा स नागकेतुः कथ- कालविसंबकर बहु, बसही सयं पुणो पत्तो हा मिमं सवप्रासादविध्वंसं जीवन् पश्यामीति बुद्ध्या प्रासादशि- दाउ कवामे कवमे-ण सुबह जा मुणिवरो तहिं ताव। खरमारुह्य शिलां पाणिना दः । ततः स व्यन्तरोऽपि तत्तपः- पत्ता बाई पुच्चं-ति कत्थ पावित्तो सूरी ॥१०॥ शक्तिमसहमानः शिलां संहृत्य नागकेतुं नतवान् । तवचनेन अह पभणति विणेया, सुहं सुहेणं सुवंति किर गुरुणो। . नूपासमपि निरुपवं कृतवान् । अन्यदा च नागकेतुर्जिनेन्पू- उवदासकर विहिमो, कुक्कुमसहो तो तेहिं ॥ ११॥ जां कुर्वन् पुष्पमध्यस्थितसण दटोऽपि तथैवाऽव्यसो नाव- गुरुणा वि विरालीप, सद्दो बिहियो कहंति तो पप । नाऽऽरूढः केवलज्ञानमासादितवान्, ततः शासनदेवताऽर्पितमु. लीलाइतए जिणिया, अम्हे सब्वे वि मुणिनाह !॥१२॥ निवेषश्चिरं विहरति स्म । कल्प०१ कण ।
दिज्जउ दंसणमिहि, तो बहु उट्टे सो तयं सहुयं । णागकेसर-नागकेशर-पुं० । स्वनामख्याते पुष्पप्रधाने बनस्पती, दरुं तज्जिणणत्थं, पवारणो इय पयंपंति ॥ १३ ॥ वाचा आव.
पालित्तय किसु फुडं, सयज्ञ महिमंडलं भमंतेण । णागग्गह-नागग्रह-पुं० । नागावेशोत्थे ज्वराऽऽदौ, जी०३ प्रति
दिको कह विसुओ बा, चंदणरससीमलो अम्गी ॥१४॥
"श्रीकालः सरिराजो नमिविनमिकुलासरत्नायमानणागघर-नागगृह-न० । उरगप्रतिमायुक्ते चैत्ये, शा० १७०८
स्तच्छिण्यो वृद्धवादी द्विजकुलतिलकः सिद्धसेनो बनूव ।
वित्राणः कूटनिकां कपट इति जने विभुतो विश्वरूपः, णागजम नागयज्ञ-पुंगनागपूजायाम,नागोत्सवे,ज्ञा०१०८०
संजातः संगमोऽयं तदनुच गणभृत् पादसिप्तस्ततोऽहम ॥१५॥" णागजसा-नागयशस्-स्त्री० । पन्थकपुध्यां ब्रह्मदत्तचक्रिभार्या
इय जिणपवयणनयन-ससिणो बरवाणो महाकवियो। याम, उत्त०१३ अ०।
कहियनियपुवपुरिसे, प्रणियं पासित्तपणेयं ॥१६॥ पागज्जुण-नागार्जुन-पुं० । हिमवदाचार्याणां शिष्ये, (नं0) प्रयसानिघायनि-म्मियस्स पुरिसस्स सुदहिययास । मिउमद्दवसंपएणे, अणुपुब्बि वायगत्तणं पत्ते ।
हो वहंतस्स पुणो, चंदणरससीयलो भग्गी ॥१७॥
श्य निजिणिया चाप, अपवाए विवाणी गुरुणो । श्रोह सुयसमायारे, नागज्जुणवायए वंदे ॥४॥
णवरसतरंगझोला, तरंगलोसाकहा य कथा ॥१०॥ (मिउ इत्यादि) मृउमार्दवसंपन्नान् मृदु कोमलं मनोइं सकल- समिया य सिवियणा, भहस्स मुगराणो तह य । भव्यजनमनःसन्तोषहेतुत्वाद् यन्मार्दवं चोपलकणं, तेन कान्ति
विहियं तं पहुसं (पडम) जं.अज्ज वि करणो न पावति ॥१६॥ मार्दवाऽऽर्जवसन्तोषसंपन्नानिति बटव्यम् । तथा प्रानुपूर्व्या वयः
वथाहिपर्यायपरिपाट्या वाचकत्वं प्राप्तान; श्दं च विशेषणमैदयुगी- दीहरफणिदनाले, महिहरकेसरदिसामुहदलिल्ले । नमीणां सामाचारीप्रदर्शनपरमवसेयम् । ( नं०) तथा श्रो. उमपिअर कामभमरो, जणमयरंदं पुहश्पउमे ॥२०॥ घभुतसमाचारकान् ओघश्रुतमुत्सर्गश्रुतमुच्यते, तत्समाच- जेसनक्वजावे-ण सूरिणा गूढसुत्तमाया। रन्ति ये ते श्रोघश्रुतसमाचारकाः, तान् नागार्जुनवाचकान् नाया बहुया भावा, विस्थरगंथाच ते नेया ॥१॥ वन्दे ॥४०॥ नं।
अट्टमिमापब्वसु, पासित्तो सेविकण नियचलणे । माचाराङ्गाऽऽदिषु नागार्जुनीयामां पाठभेदोऽस्ति, स चना- रेवयविमलगिरीसुं, बंदा देवे नहपहेणं ॥२२॥ गार्जुनोऽयमेवेति प्रतीयते । अन्योऽपि पादक्षिप्तसुरीणां शि
पुनश्वभ्यः श्रादको महाप्रजावकः सिम्नागार्जुननामा मासीत् । त- इत्तो सुरटुविसप, अम्जुणरससिस्लिम्माहप्पो । कथा चैवम्
सम्वत्थ लकलक्खो, जोगीणागज्जुणो अस्थि ॥२३॥ "पुरमथि पामनिपुरं, गंधियह सुरहिगंधर्छ ।
सोद भणहर्ति, वियरसु नियपायलेषसिकि मे। तत्थ मुरंमो निवई, ईसरसयसहस्सनमियकमो॥१॥ गिरहेसु मज्झ कंचण-सिस्तिो भण मुणिपवरो ॥ २४॥ फयमयणदमो बहुसु-द्धआगमो संगमु त्ति बरसूरी।
नो कंचणसिद्ध ! अर्कि-चणस्स मह कंचणस्स सिकीए । दूरीकयपावभरो, विहरतो तत्थ संपत्तो॥२॥
किं कज्जमबज्जाप, कंचणसिका वि किं वभस्थ ॥ २५ ॥
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(१९३६) निधानराजैन्यः ।
यागज्जया
तुपायसिद्धिं साथ तेण न तु पयच्छेमि अं सावज्जुवसो, मुणीण जो कप्पर भइ ! ॥ २६ ॥ तो इमो विज्ञपि समणोवासगकिरियं विददाई ॥ २७ ॥ तित्यागयाण सूरी- वंद देश चरणकमलेसु । कुलसणेण पुरनो ठाउं सब्वेसि सङ्घाणं ॥ २८ ॥ गुरुचरणं तो काउं, नियमउलिं नमइ तयणु गंधेण । लक्बस लखलखो, मोदी सर्व ॥ २६ ॥ तेषं घोसनियरेण पायसेवं स कुइ एसो तन्त्रसन गयणे कुक्कुरु व उप्पड पमइ पुणो ॥ ३० ॥ पुणरागरण गुरुणा, दिठो पुट्ठो य कहर सो एवं । पहु ! तुह पायपसायं, गंधेण मए श्मं नायं ॥ ३१ ॥ पडु ! पलिव कहसु सम्मं, जोगं जेणं हवामे सुकयस्थो । गुरुवरसेण विना जग्दाति सिद्धी ॥ ३२ ॥ सोसियादो, मस्स अहो ! देखाए नाम्रो चम्मो तह ओसहिगणो च ॥ ३३ ॥ नाही मुद्दे श्य चिति मह सूरी ।
जर दोसि मज्ऊ सीसो कमि तो तुइ अहं जोगं ॥ ३४ ॥ सो आइ नाइ ! नाहं, सचो जश्धम्मभारमुव्वहिडं । किं तु पदु ! तुह समीवे, गिहत्यधम्मं पवज्जिस्सं ॥ ३५ ॥ करे मणि- सूरिणा गाहियो इमो सम्मं । सम्मत मूलममलं विद्दिधम्मं पद्मणिमो य इमं ।। ३६ ।। सहियतंडुलसमले पावलेवमेति । कुण तह थियमेसो, जाया नहगमणबद्धी से ||३७|| ती पासो दे पाच पुरं ठाव नामे ॥ ३८ ॥ गिरिनारगिरिसमी, तुरगसुरंगासारमंत्र चेपमुहं विदियं, तें नेमिस्स जन्ती ॥ ३५ ॥ एवं गित्यधम्मं, जिणसास व कारुण । इहपरलो कल्लाण-भायणं एस संजाश्रो ॥ ४० ॥ नागार्जुनस्येति फलं विशिषे सन्धवस्य निशम्य सम्प गुणेऽत्र निःशेषगुणप्रधाने, कृतप्रयत्ना नचिका भवन्तु ॥ ४१ ॥ ध० र० । अ० क० स्वनामख्याते काव्यामिभ्यधनेश्वरे, "कास्यामित्यधनेश्वरेण महता, नागार्जुनेनाति । पायास्तम्भनके पुरे स भवतः, श्रीपार्श्वनाथो जिनः ॥ १ ॥ " ती०५ कल्प ।
ग्रामणिय - नाम्प न निर्मन्थनावे संयमाने सुत्र० १ श्रु० ७ ० ।
4
ागदंत-नागदन्त-पुं० । गजदन्ते, तदाकारे गृहानिर्गते न - कुष्ट ३ प्रति० रा० (वर्णकस्तु जय ' शब्दे विजयद्वारस्य नैषेधिकी वक्तव्यताऽवसरे वर्णयियते) लागदच नागदच पुं० [स्वनामस्याले राजपुत्रे, स च पूर्वभवे कुनकसाधुः कोपेन मृतो ज्योतिष्केषूपपद्य ततश्च्युतोराजसुततयोत्पन्नः प्रब्रजितः कोपरूपं भाषापायं परिहृत्य केव बलीनूय सिकः । स्था० ३ ठा० ४ ० दश० । ('अपाय शब्दे प्रथमभागे ८०३ पृष्ठे मस्य वर्षो वृतान्त उदाइतः पत्राणामन्यतमे प० 9 क्षण प्रतिष्ठानपुरवास्तव्य नागव सुश्रेष्ठिनः सुते, आ० क० भाव० श्र• खू० । ( स
पतित इति
प्रवज्यायोग्यो समिष्यतिकर्मतां 'वियमिकम् (ए) शब्दे उदाहरिते नादाराधनामुग्धे लक्ष्मीपुरवास्तव्वद सपुत्रे आ
1
श्रा० खू० आ० म० । ( स च गन्धर्वकलानिपुणो गन्धवेनादस इति ख्यातः सपैकीडापर पूर्ववदेिवस वैधिकीदेति कषायप्रतिक्रमभिक्रमण 'उदारते) ब राजभार्यायाः सुभद्राया आत्मजस्य महावनकुमारस्य पूभवत्कजीवे मणिनगरवास्तव्ये स्वनामख्याते नरे, विपा० २ ० ७ अ० ।
या गराइ
पागदार - नागद्वार-न० । ती० ६ कल्प | सिकायतनानां प चिमदिवस्थे नागावासभूते द्वारे, स्था० ४ ठा० २३० ! लागधर- नागपर-पुं० हस्तिधारकपुरुष, मो० । यागपमिमा - नागप्रतिमा- खी० । नागदैवतप्रतिमायाम्, "ते सि णं जिमिमा पुरनो दो दो नागमिमाओ पाओ" जी० ३ प्रति० । यागपरियारशिया नागपाराखी नागा नागकुमारास्तेषां परिक्षा यस्यां प्रत्यपद्धती सा नागपरि कालिक तस्याधेयं चूर्णिकृता उपदर्शिता भावना" जाड़े म समणे मां परियट्टा ताहे कय संकष्पस्स चित्ते नागकुमारा तत्थत्था चेच तं समणं परियाति वदति नमसंति बहुमाणं च करैति सिंगनादितकज्जेसु य वरदा भवंति । " नं० पा० । यागपब्चय- नागपर्वत- जम्बूद्वीपे मन्दरस्य पश्चिमेन तो दाया महानद्या उत्तरेण वक्षस्कारपर्वते, स्था० ५ ० २३० । " दो जागपव्वया ।" स्था० २ ठा० ३ ४० | जं० ॥ धामपुष्क- नागपुष्य-१० नायकेशरकुसुमे, जं० ४ यागपुर-नागपुर-१० हस्तिनापुरे राजधानीलक्षणे कुरुनपदप्रधाननगरे, स्था० १० ठा० । ० । लागवल्ली - नागवली-ख० साम्बूलीतायाम, आचा० १ अ० अ० १४० ।
०
एागभद्द - नागभद्र पुं० । सूत्र० १० ४ श्र० २० । नागद्वीपाधिपतौ देवे, सू० प्र० ११ पाहु० चं० प्र० । लागनूप ना गत १० रादायातस्य उदग णस्य प्रथमे कुले, कल्प० ० कण ।
यागमह - नागमद्- पुं० | नागदेवताके उत्सके भाचा० २०१ खू० १० २४० ।
णागमहानद्द - नागमहानद्र- पुं० । नागाऽऽयद्वीपाधिपतौ देवे, सू० प्र०१६ पाडु० चं० प्र० । बिद्यागपदावर नागपद्दावर पुं० भागसमुद्राधिपती देवे, सू०
प्र० ११ पाहु० । खं० प्र० । नागमित्त नागमित्र पुं० । मार्यमहागिरिशिष्याणामन्यतमे, स्था०
३ ठा० ४ उ० ।
सागर-नागर- पुं० । स्त्री० । नगरवासिनि, कल्प० ३ कण | श्रा० म० । प्रश्न• । देवरे, नागरङ्गे, जम्बरनेदे, वाच० । वेलंधरनागराणं शागरा नागराज पुं० नागकुमारे स० [१७ सम० | स्था० । अष्ट० । अनन्ते, सर्पे, ऐरावते, गजे
च। वाच० ।
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(१९३७) णागरिय अभिधानराजेन्दः ।
गाण णागरिय-नागरिक-त्रि. । नगरधर्मरुपयुक्त, सूत्र. ५ श्रु. ७ ह्यपयशःप्रधानानामपारसंसारसरित्पतिम्रोतःपतितानां परमप्र०
मुनिजनोपधृतलिङ्गविडम्बकानाम् मलं सन्तानपरिवृध्येति । णागरुक्ख-नागत--पुं० । स्वनामख्याते वृक्षनेदे, "णागरुक्खे केषां संबन्धी वाचकवंशः परिवर्द्धतामित्यादि । आर्यनागहनुयंगाणं । " स्था० ८ ग । प्रज्ञा० । स० ।
स्तिनामार्यनन्दिकपणाशयाणाम् । कथं नूतानामित्याह-व्याकपागलया-नागलता-स्त्री० । तियक्शाखाप्रसराभावादू लता
रणकरणजङ्गीकर्पप्रकृतिप्रधानानां, तत्र व्याकरणं संस्कृत शब्दकल्पेषु दुमविशेषेषु, जं०१ वक-परा० । जी०। प्रज्ञा । यस्य
व्याकरणं,प्राकृतशब्दव्याकरणं,प्रश्नव्याकरणं च करणं पिएम
विशुद्भयादि । उक्तं च "पिंडविलाही ४ समिई ५, नावण १२ प. तिर्यक तथाविधा शाखा प्रशाखा वा न प्रसृता सा लतेत्यनिधीयते । रा०। जी । मौ० । प्रज्ञा ।
मिमा य१२इंदियनिरोहोशपडिलेहण २५ गुत्सीओ३, अभिग.
हा ४ चेव करणं तु"॥१॥ भङ्गी भङ्गबहुलं श्रुतं कर्मप्रकृतिः प्रतीणागलयामंकवग-नागसतामण्डपक-पुं० । नागलतामयमएलप.
ता। पतेषु प्ररूपणामधिकृत्य प्रधानानाम । नं० । प्रा० चू० । को जी०३ प्रति। णागलोगेस-नागलोकेश-पुं०। उरगपती, अष्ट०१० अष्टः ।
णागिंद-नागेन्छ-पुं० नागराजे नागकुमाराणामिन्छ, "असुणागवर-नागवर-पुं० । प्रधानगजे, औ० । जं०। गजधरे, तं०।
रिंदसुरिंदणागिंदा ।" स० । स्वनामख्याते साधुकुले, " नागे
जगच्छगोविन्द-वकोऽलङ्कारकौस्तुभाः। ते विश्ववन्द्या नइस्तिप्रधाने, भ. श० ३३ उ० । नागसमुहाधिपती देवे, सू०
म्द्यासु-रुदयप्रभसूरयः॥६॥" स्या० । तमुत्पत्तिश्च महा दु. प्र०१६ पाहु । चं० प्र०।
जिंक्वान्ते पोतहारा धान्यागमने जाते जिनदत्तः श्रावको नागे. णागवसु-नागवसु-पुं० । प्रतिष्ठानपुरे नागश्रियाः पत्यो मागद
छनामपुत्रसहितो वज्रसेनसूरीणामन्तिके दीक्षां जग्राह, ततो तपितरि, आ० क० । श्राव० । प्रा० चू।
नागेन्शाखा प्रवृत्तेति भाति । कल्प० कण । णागवाण-नागवाण-पुं०। दिव्याश्वभेदे, जी. ३ प्रति०। । णागिल-नागिल-पुं० । कुमारनन्दिनः स्त्रीझोलसुवर्णकारस्य णागवीही-नागवीथी-स्त्री. हयवीथ्यां, ऐरावणपदे, “भ-| मित्रे श्रमणोपासके, प्रा०म० अ०२खएम। गच्चविशेषाश्रिते. रणीस्खाल्यानेयं, नागाख्या वीथिरुत्तरे मार्गे। " स्था० ठा।
षु साधुषु, कल्प०८ कण। यथा नागिला रजोहरणमूर्वमुखं
कृत्वा कायोत्सर्ग कुर्वन्ति । व्य०१०। धातकीखएमपूर्वविदे. णागसाहस्सी-नागसाहस्री-स्त्री० । नागकुमारदेवसहने, स.
हेषु नन्दिग्रामपतौ ललिताङ्गदेवदेव्याः स्वयंप्रनायाः पूर्वभवजी७२ सम० । नागिलभार्यायां निर्नामिकाया मातरि, प्रा. वनिर्नामिकायाः पितरि, प्रा. क० । क । प्रा० चू० । श्रा० म०।
णागी-नागी-स्त्री० । सर्पिण्याम, " मायामई अणागी, णि. णागसिरी-नागश्री-खी० । प्रतिष्ठाननगरवास्तव्यनागवमु
यमिकवमवंचणाकुसला।" मायाऽऽत्मिका नागी निकृतिकपटश्रेष्ठिभार्यायां, नागदत्तमातरि, ज्ञा० १ श्रु० १४ अ० ।
वञ्चनाकुशला। आव० ४ अ०। चम्पानगरवास्तव्यसोमद्विजस्य नार्यायाम, यया धर्मरुचये बि. षयुक्तानं दत्तं पश्चाद् भवेषु भ्रान्स्वा द्रौपदीजन्म लब्धम् श्रा० णामइज्ज-नाटकीय-न । नाटकप्रतिबद्धपात्रे, ज्ञा०१ श्रु०१ क० । श्रा० चू।
भ० । विपा०। णागसुदाढ-नागसुदाढ-पुं० । सुदाढनामके नागकुमारे, सच | पाडणी-नाटकिना-स्त्री०। नर्तक्याम्, वृ० ३१० । तत्प्रतिपूर्वभवे सिंहस्त्रिपुष्टेन विदारितो नागकुमारतयोपपन्नो वीरजि- पादके श्रुते च । स्था०६ मा० । संथा। जं० । अनु० । श्रा. नाधिष्ठितां नावं बोलितुमारब्धः। श्रा० क०।
म०। (द्वात्रिंशद्विधिनिम्नं नाटकं नट्ट' शब्देऽस्मिन्नेव भागे पागमुहम-नागसूक्ष्म-न० । स्वनामख्याते मिथ्याक्परिकल्पि-
उत्ता ) ते श्रुते , तदानीं नोपलच्यते । अनु०।।
वामग-नाटक-न० । अभिनयविशेषे, वृ०। णागसेण-नागसेन-पुं० । उत्तरचावालायां जाते स्वनामके गृ
___णर्ट होई अगीयं, गीयजुयं नामयं तु णायव्यं । हपती, स च उत्तरचावालायां स्वामिनं वीरेण प्रतिसम्भि- । इहागीतं गीतविरहितं नाट्यं भवति, यत्पुनर्गीतयुक्तं तनाटकं तवान् पश्च दिव्यानि जातानि । कल्प० ६ कण । श्रा० ज्ञातव्यम् । बृ० १ उ०। क० प्रा० म० । आ० चू।।
णाहीय-नामीक-पुं०। नामीवद्यस्य फलानि स नाडीकः। वनस्पपागहत्थि ण-नागहस्तिन-पुंoआर्यनन्दिसक्षपणशिष्ये,(नं०) ।
तिविशेषे, न. १० श० ७ उ०। वकृत वायगवंसो, जसवंसो अज्जनागहत्थीणं । णाण-ज्ञान-म० । झातिहीनम, भावेऽनट्प्रत्ययः । अथवा शा. वागरणकरणभंगिय-कम्मप्पयमीपहाणाणं ॥ ३४ ॥ यते वस्तु परिच्छिद्यतेऽनेनेति ज्ञानम. करणेऽनट् । नं० । पा.। (वकुट इत्यादि ) विनेयान् वाचयन्तीति वाचकाः, तेषां वं. भनु । नि० चू०। पं० सं० । सम्म• । कर्म० । "झो जाणशः क्रमभाविपुरुषपूर्वप्रवाहः, स वर्दतां वृधिमुपयातु, माकदा- मुणी" ॥ ४॥ इति जानाते णमुणाऽऽदेशस्य बाहुलकचिदपि तस्य वृकिमुपगच्चतोविच्छेदोभूयादिति यावत वर्धता. स्वान्न मुणाऽऽदेशः। प्रा०४ पाद । "म्नझोर्णः" ॥ ७।२।४५॥ मित्यत्राशंसायां पञ्चमी।कथंभूतो वाचकवंशः?,श्त्याह-यशो- इति इनागस्य णादेशः । प्रा०२ पाद। उत्त । विमर्शपूर्वके योबंशो मूतों यशसा वंश श्व पर्वप्रवाह श्व यशो. घे, उत्त.१०। संविज्ञानमवगमो भावोऽभिप्राय इत्यनथीबंशः, अनेनापयशाप्रधानपुरुषवंशव्यवच्छेदमाह । तथा तरम: प्रा. म.१ .१ ख एम | न्य० । यथास्थि
'४५
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पाण
(was) श्रभिधानराजेन्द्रः ।
तपदार्थपरिच्छेदने, आचा० १ ० ३ श्र० १० । द्वा० । अष्ट० स्था० | व्यपययविषये बोधे, स्था० ३ वा० २ उ० । विशेषाबोधे, औ० । अष्ट० । स्वपरपरिच्छेदिनि जीवस्य परिणामे कानावरणविगमय के तत्वार्थपरिच्छेदे चाचा ०१०१००६ उ० । अष्ट० । स्था० । औौ० । सवप्रधानायां बुद्धिवृत्तौ द्वा० २द्वा० । (१) पर्यायार्थिकस्य विशेष एव वस्तु, स एव गृह्यते येन तज्ज्ञानमभिधीयते । " " विसेसियं नाणं । सम्म० २ काण्ड । ज्ञातिज्ञानमिति भावसाधनः, संविदित्यर्थः । ज्ञायते वाऽनेनास्माद्वेति ज्ञानं तदावरणस्य कयः, कयोपशमो वा । ज्ञायते वाऽस्मिन्निति ज्ञानमात्मा, तदावरणक्कयक्षयोपशम परिणामयुक्तो जानातीति वा ज्ञानम् । स्था० ५ ग० ३ उ० । “एगे जाणे । " नं० प्र०म० । ज्ञायन्ते परिच्छिद्यन्ते अर्था अनेनातिकानदार
पोपमा चिहानमाचरणपरम पर्यायविशेषः सामान्यविशेष के वस्तुनि विशेषांशग्रहण
सामान्यांपादक ज्ञानपञ्चकाङ्गानप्रयदर्शनचतुष्टरूप तथानेकमध्यवोचसामान्यात एकमुपयोगापेका वा तथादि
तो बहूनां योधविशेषाणामेकदा संवेयुपयोगत एक एव संवत्कोपयोगत्वाद् जीवानामिति । स्था० १ ठा० | उत्त० | (२) कामानिगाणं पंचविहं पत्तं । तं जहा - प्रानिणिबोहियाणं, सुयणाणं, प्रहिणाणं, मणपज्जवणाणं, केवलणाएं ।
पंच समित्यादि) ज्ञातिनिं जाया। अथवा ज्ञायते वस्तु परिनेनेतिनं करणेऽन शेषास्तु यो मन्दमतीनां संमोहतुत्योपदिश्यन्ते । पञ्चेति संख्यावाचकः, विधानं विधा, "उपसर्गादातः " ॥ ५।३। ११० ॥ इत्यप्रत्ययः । पञ्च विधाः प्रकाश यस्य तत्पञ्चविधं पञ्चप्रकारे प्ररूपितं तीरधरैरिति समवसयते, अन्यस्य स्वयं प्ररूपकत्वेन प्ररूपणासंभवात् । नं० । ज्ञानं
कर सकाशाविलम्बि समस्त वस्तुस्तोम साक्षात्का रिकेवलप्रया पञ्चविधमेव प्राप्तं, गणधरैरपि तीर्थकृद्भिरुपदिइयमानं निजप्रज्ञया पञ्चविधमेव प्राप्तं न तु वक्ष्यमाणानीत्या द्विभेदमेवेति । अथवा प्राशासीर्थक्रादासं प्राज्ञाप्तं, गणधरैरिति गम्यते प्रागंणरेतीकरादित्यनुमीयते युदाहरणोपदर्शनार्थः माभिनिबोधकानं ज्ञानमय विज्ञानं मनःपर्यायज्ञानं, केवलज्ञानं च । नं० ज० रा० । कर्म० सूत्र ० ध० २० । विशे० ॥ श्र० म० । श्रातु० । प्रव० । दर्श० । अनु० । (३) ज्ञानकारणानि -
1
ननु सकलमी का येकस्वभाव, सतो ज्ञानं इप्त्येकरावयाविशेषे किंकृत प्रतिनियोधिकाऽऽदिभेद इयभेदक प्रति चेत् तथादि-वार्तमानि वस्याभिनि बोधिकस्य ज्ञानस्य ज्ञेयं, त्रिकालसाधारणः समानः परिनामो भवनिगोचरःस्य रूपाणि अधिकानस्य, मनोद्रव्याणि मनःपयवज्ञानस्य समस्वपर्ययान्वित सर्वे वस्तु केवलज्ञानस्य देवसमीचीनम् । एवं सति केवलज्ञानस्य दयाहुज्यतया दादास्पनैः। यानि च ज्ञेयानि प्रत्येकमानिनि बोधिकाऽऽदिज्ञानानामिष्यन्ते तानि सर्वाण्यपि केवलज्ञानेऽपि विद्यन्ते, अन्यथा केवलज्ञानेन तेषामग्रहणप्रसङ्गादविषयत्वात्, तथा च सति
याण
सत्यप्रसङ्ग मानिनिबोधिकाऽऽदिज्ञानतुष्टयविषयजातस्य तेनाग्रहणात् । न चैतदिष्टमिति । श्रयोच्येत प्रतिपत्तिप्रकारजेइतः मिनिबधिकादिज्ञानभेदः थाहि न यादृशी प्रतिपत्तिराभिनिबोधिकस्य ज्ञानस्य तादृशी श्रुतज्ञानस्य किमयन्यादशी एवमवच्यादिकानानामप्रि तिपत्तव्यं ततो भवत्येव प्रतिपत्तिभेदतो ज्ञानभेदः । तदव्ययुक्तम् एवं सम्येकस्मिन् अपि ज्ञानेऽनेकमे दस्तक । तथा दिवस देशका पुरुषस्वरूपमेन विविश्यमानमेकैकं ज्ञान प्रतिपतिप्रकाशनस्यं प्रतिपद्यते पिकः श्रेयान् स्था देत असत्यावारकं कर्मानेकप्रकार ज्ञानमप्येकतां प्रतिपद्यते, ज्ञानावारकं च कर्म पञ्चधा, प्रज्ञापनाउदो तथाऽभिधानात्। ततो नमपि पञ्चपा प्रहृष्यते, तदेतदतीव युक्त्यसङ्गतम् । यत भाचार्यापेक्तमावारकमत - बार्यभेदादेव तद्भेदः, आचार्य च इप्तिरूपापेक्षया सकलमध्येकरूपं ततः कथमावारकस्य पञ्चरूपता, येन तद्भेदाद् ज्ञानस्यापि पञ्चविधो भेद उशीर्येत ? अथ स्वभावत एवाssमिनिबादको हास्य दोन स्वाय पर्यनुयोगमश्नुते न खलु किमि ददनो दहति नाकाशमिति कोऽपि पर्य नुयोगमाचरति । अहो महती महीयसो भवतः शेमुषी । ननु यदि स्वभावत एवाभिनिबाधाऽऽदिको ज्ञानस्य भेदः, तहिं भगवतः सर्वज्ञत्वदानि तथादि-ज्ञानमात्मनो धर्मः तस्या भिनिबोधाऽऽदिको भेदः स्वभावत एव व्यवस्थितः, ततः कीणाssवरणस्यापि तद्भावप्रसङ्गः। सति च तद्भावेऽस्मादृशस्येव भगवतोऽप्यसंवत्वमापद्यते, केवलज्ञानजावतः समस्तवस्तुपरिच्छेदाद नासत्यमिति चेत नतु यदा केवलोपयोगसंभवः, तदा भवतु भगवतः सर्वज्ञत्वं यदात्वाभिनिबोधकादिज्ञानोपयोगः तदादेशः परिवादमा स्येव तस्यापि बलाद सर्वेशत्वमापद्यते । न च वाच्यं तस्य तडुपयोग एव न भविष्यत्यात्मनः स्वभावत्वेन तस्याऽपि क्रमेणोपयोगस्य निवारयितुमशक्यत्वात्, केवलज्ञानानन्तरं केवलदर्श नोपयोग योगकाले सर्व शेषज्ञानोप्रयोगकाले चासत विरुद्धमतोऽनिमिति ।
श्राह च
"नन्नेगसदावत्ते, अनिणिबोहाइ किं कश्रो श्रो ? । नेयविसेसान चिय, न सञ्चावसयं जओ चरिमं ॥ १ ॥ अह परिनिविसेसा नेगम्यगमेयभावाच । आवरणविनेो विदु, सन्नावभेयं विणा न जवे ॥ २ ॥ तम्मिय सइ सब्वेसिं, स्त्रीणावरणस्स पावरै जावो । तद्धमतान चिचय, जत्तविरोहा स चाणिठो ॥ ३ ॥ अरात्रि असन्वन्नू, श्रनिणिबोहाइनावश्र णियमा । केवल भावाउ चिय, सब्वन्नू नणु विरुरुमिण" ॥ ४ ॥ तस्मादिदमेव युक्तियुक्तं पश्यामो यडुतावग्रहशानादारभ्य यावदुत्कर्षप्रापरमावालमध्येकं तथा सकलसंज्ञितम, अशेषवस्तुविषयत्वाभावात् । अपरं च केवलिनः तच्च सकलमसंज्ञितमिति द्वावेव भेदौ । उक्तं च-" तम्हा अवग्गदाश्र, आरज्य गमेव नाणत्ति । जुत्तं ब्रउमत्थस्सा; सगलं इयरं च केघालणो ॥ १ ॥ "
अत्र प्रतिविधीयते तत्र यत्तावदुक्तं सकलमपीदं ज्ञानं इयेकस्वभावं तो इप्येकस्वभावत्वाविशेषे कि कृत एष आभिनिबोधाऽऽदिको मेद इति ? । तत्र शप्त्येकस्व
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(१९३४) याण
प्रन्निधानराजेन्द्रः। नाचता किं पामान्यतो भवताऽभ्युपगम्यते, विशेषतो वा ?।। सकलघनपटलत्रिनिर्मुक्तशारददिनमणिरिव समन्ततः समस्त. तत्र न तावदाद्यः पकः कितिमाधत्ते, सिमसाध्यतया तस्य वस्तुस्तोमप्रकाशनकस्वभावो जीवः, तस्य च तथाभूतस्वभावः वाधकत्वायोगात् । बोधरूपतारूपसामान्यापेक्षया हि सक- केवलज्ञानमिति व्यपदिश्यते । स च यद्यपि सर्वघातिना समपि ज्ञानमस्माभिरेकमभ्युपगम्यत एव, ततः कानो हानि- केवलकानाऽऽवरणेन प्रावियते, तथापि तत्यानन्ततमो भागो रिति । अथ द्वितीयः पक्कः, तदयुक्तम, असिद्धत्वात् । न दि नाम
नित्योद्घाटित एव, “अक्खरस्सऽणतो नागो निच्चुग्धाविशेषतोऽपि ज्ञानमेकमेवोपलन्यते, प्रतिप्राणि स्वसंवेदनप्रत्य- मित्रो, जह पुणो सो विप्रावरिज्जा तेण जीवा अजीवत. केणोत्कर्षदर्शनात् । अथ यद्युत्कर्षापकर्षमात्रभेददर्शनाद् ज्ञान
णं पावेग्जा।" इत्यादिवक्ष्यमाणवचनप्रामाण्यात् । ततस्तस्य केभेदस्तर्हि तावुत्कर्षापकर्षों प्रतिपाणि देशकासापेकया शतसह- वनकानाऽऽवरणाऽऽघृतस्य घनपटलाऽऽध्यादितस्येव सूर्यस्य यो सशो भिद्यते, ततः कथं पञ्चरूपता ?। नैष दोषः। परिस्थूरनि
मन्दः प्रकाशः सोऽपान्तरामावस्थितमतिज्ञानाऽऽद्यावरणकयोपमित्त भेदतः पश्चधात्वस्य प्रतिपादनात । तथाहि-मकलघाति-।
शमभेदसंपादितं नानात्वं भजते । यथा घनपटलाऽऽवृतसूर्यस्य कयो निमिसं केवलज्ञानस्य, मनःपर्यायज्ञानस्य त्वामर्षीषभ्या
मन्दप्रकाशोऽपान्तरामावस्थितकटकुड्याऽऽद्यावरणं विवरप्रदेशदिलन्युपेतस्य प्रमादले शेनाप्यकलङ्कितस्य विशिष्टो विशिष्टा- भेदतः, स च नानात्वं तत्क्षयोपशमानुरूपं तथा प्रतिपद्यमानं ध्यवसायानुगतोऽप्रमादः, “तं संजयस्स सव्व-प्पमाय- तत्तयोपशमानुसारेणानिधानभेदमश्नुते । यथा-मतिज्ञानाssरहियास विविहारद्धिमतो।" इतिवचनप्रामाएयात् ।
चावरणकयोपशमजनितः स मन्दः प्रकाशो मतिकानं, श्रुतझाअवधिनानस्य पुनस्तथाविधानीन्छियापिकव्यसाकादवगम
नाऽऽवरणकयोपशमजनितःभुतज्ञानमित्यादि,तत आत्मस्वभावनिबन्धनं क्कयोपशमविशेषः, मतिश्रुतज्ञानयोस्तु लक्षणभे
भूताज्ञानस्याऽभिनिबोधिकाऽऽदयो नेदाः, ते च प्रवचनोपदर्शि
तपरिस्यूरनिमित्तभेदतः पञ्चसंख्याः,ततस्तदपेकमावारकमपि दाऽऽदिकं तथाऽग्रे वक्ष्यते।
पञ्चधोपवर्यमानं न विरुभ्यते । न चैवमात्मस्वजावभूतत्वे उक्तं च
क्षीणाऽऽवरणस्याऽपि तद्भावप्रसङ्गः । यत एते मतिकाना"ननेगमहावतं, ओहेण विसेसओ पुण असिकं।
वरणाऽऽदिकयोपशमरूपोपाधिसंपादितसत्ताकाः, यथा-सूर्यपगततस्सहाव-त्तणे उ कह हाणिवुक्तीओ? ॥१॥
स्य घनपटलाऽऽवृतस्य मन्दः प्रकाशभेदः कटकुड्याऽऽवर. जं अविचलियसहावे, तत्ते एग न तस्सहावतं ।
णविवरभेदापाधिसंपादितः । ततः कथं ते तथारूपक्षयोपशमा. न य तंतहोवनद्धा, उक्करिसावगरिसविसेसा ॥२॥
भावे भवितुमर्हन्ति, न खनु सकलधनपटलकटकुड्याऽऽद्यावरतम्हा परिथाओ, निमित्तनेयाओं समयसिद्धामो।
णापगमे सूर्यस्य ते तथारूपा मन्दप्रकाशजेदा भवन्ति । नक्तं उववत्तिसंगो विय, भाभिणियोहारो भेश्रो॥३॥ च-“कमविवरागयकिरणा, गेहंतरियस्स जद दिणेसस्स । ते घाखओ निमित्तं, केवलणाणस्स बरिणो समए । कममेहावगमे, न होति जह तह श्माई पि"॥१॥ ततो य. मणपज्जवणाणस्स उ, तहाविहो अप्पमाउ ति॥ ४॥
था जन्माऽऽदयो जावा जीवस्य पात्मनूता अपि कर्मोपाधिमोदि सोऽपस्स तहा, अणिदिपसुं पि जो खोवसमो।
संपादितसत्ताकत्वात्तदनावे न सन्ति, तद्वदानिनियोधिकाऽऽदमश्सुयनाणाणं पुण, सक्वणनेदादिश्रो भेओ॥५॥"
योऽपि दाज्ञानस्याऽऽत्मभूता अपि मतिज्ञानाऽऽवरणाऽऽदियदप्युक्तं केयनेदकृत इत्यादि, तदप्यनभ्युपगमतिरस्कृतत्वाद् । कर्मकयोपशमसापेकत्वात् तदनाचे केवलिनो न भवन्ति, त. दुरापास्तप्रसरम । न दि वयं केयभेदमात्रतो ज्ञानस्य भेद- तो नासर्वकत्वदोषः। उक्तं च-"जमिह चमत्थधम्मा, जम्मामिच्छामः, एकेनाऽप्यवग्रहाऽऽदिना बहुविधवस्तुग्रहणोपल-ईया न होति सिद्धाणं । श्य केवलीणमाभिणि-बोहियभावम्मि म्मात् । यदपि च प्रत्यपादि-प्रतिपत्तिप्रकारभेदकृत इत्यादि, को दोसो॥१॥” इति । नं० प्रा०म० | आवासंथा। तदपि न नो बाधामाधातुमलम् । यतस्ते प्रतिपत्तिप्रकाराःदेश
धातुमलम् यतस्त प्रातपात्तप्रकाराः देश कर्म | सम्म । स्था। कालादिभेदेनाऽऽनन्त्यमपि प्रतिपद्यमानान परिस्परनिमित्त.
(४)तदेवं शानपञ्चकस्याऽप्यनिधानार्थे कथिते प्राह कश्चित्भेदेन व्यवस्थापितानानिनिबोधिकाऽऽदीन जातिभेदा नाति
नवादी मतिश्रुतोपन्यासः किमर्थः?, इति । अत्राऽऽचार्य पाहकामन्ति, तत्कथमेकस्मिन् पकभेदभावप्रसङ्गः । सक्तं च-"न य|
जं सामि-काम-कारण-विसय-परोक्खत्तणेहिँ तुझाई। पमिवत्तिविसेसो, एगम्मि अणेगभेयभावो त्ति । जं ते तहा बिसिट्टे, न जानेए विसंघे ॥१॥" यदप्यवादीदावार्या
तन्नावे सेसाणि य, तेणाईए मइसुयाई ॥८॥ पे ह्यावरकमित्यादि, तदपि न नो मनोबाधाये । यतः-प. तेन कारणेनाऽऽदौ मतिश्रुते निर्दिष्टे। येन किम् ?,श्त्याह-(जं सारिस्थीनिमित्तानेदमधिकृत्य व्यवस्थापितो ज्ञानस्य द; । मीत्यादि)इति संटङ्कः।मतिशब्दोऽत्रानिनिबोधिकसमानार्थो द्रष्टततस्तदपेकमावारकमपि तथा भिद्यमानं न युभारशदुर्ज- व्याभिनिबोधिकं ह्यौत्पत्तिक्यादिमतिप्रधानत्वाद् मतिरित्यनवचनीयतामास्कन्दति । एवमुक्त जितो भूयः सावष्टम्नं प्युच्यते। यद्यस्मात् कारणात स्वामिकासकारणविषयपरोकत्वेपरः प्रश्नयति-ननु परिस्थरनिमित्तभेदव्यवस्थागिता अ- स्तुल्ये समानस्वरूपे मतिश्रुते, तेनाऽऽदौ निर्दिष्टे इत्यर्थः। तत्र प्यमी प्राभिनियोधिकाऽऽदयो जेदा ज्ञानस्याऽऽत्मजूताः, उता- स्वामी तावदनयोरेक पव, “जत्य मश्नाणं तत्थ सुयनाणं" नात्मनुताः ? किं चाता-उभयथाऽपि दोषः। तथाहि-यद्या- इत्याचागमवचनादिति । कालोपि द्विधा-नानाजीवापेकया, स्मभूताः, ततः तीणाऽऽवरणेऽपि तद्भावप्रसङ्गः। तथा चासर्व- एकजीवापेक्या च । स चायं विविधोऽप्यनयोस्तुल्य एव ना.
त्वं प्रागुक्तनीत्या तस्याऽऽपद्यते । अथाऽनात्मजूताः, तदिन नाजीवापेकया द्वयोरपि सर्वकालमनुच्छेदादा एकजीवापेक्कया ते पारमाधिकाः, ततः कथमावार्यापेक्को वास्तव भावारक-। तुभयोरपि निरन्तरसातिरेकसागरोपमषट्पष्टिस्थितिकत्वेनानेदः। तदपि न मनोरमम,सम्यग् वस्तुतश्वापरिकानात् । इहहि त्रैवाभिधाश्यमानत्वादिति । कारणमपन्छियमनोलकर्ण, स्वा
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याय
( १०/४०) अभिधानराजेन्द्रः ।
चरणक्षयोपशमस्वरूपं च द्वयोरपि समानम् । उभयस्यापि सर्वद्रव्याऽऽदिविषयत्वाद् विषयतुल्यता । परनिमित्तत्वाच परोक्षत्वसमता । ननु यद्येवमनयोः परस्परं तुल्यता, क द्वयोरप्युपन्यासोऽस्तु, आदावेव तु तदुपन्यासः कथमः, इत्याह(समाये स्यादि तद्भावे मानसद्भाव पाययादीनि ज्ञानान्यचाप्यन्ते नात्यधान हि सकश्चित् प्राजी भूतपूर्वः अस्ति भविष्यति वा यो महिनासाथ प्रथममेचा वध्यादीनि पानानि प्रासवान, प्रोति प्रा तिति भावः । ततस्तदवासी शेषानावाचा म तितोपन्यासः इति गाथाऽर्थः ॥ ८५ ॥
भवतु दो मति-तोपादानं केवलं पूर्व मतिः पश्चा भुतमित्यत्र किं कारणं याचता विपर्ययोऽपि कस्मान्न भवति, इत्याह
माईए मह बिसिको वा । महभेओचैव सूर्य, तो इसमांतरं नियं ॥ ८६ ॥ मतिः पूर्व प्रथममस्येति मतिपूर्व, येन कारणेन श्रुतज्ञानं, तेन तस्याऽऽदी मतिः तीर्थकर गणधरेति शेषः न - हादिक मतिज्ञाने पूर्वमा क्यापि श्रुतप्रवृतिरस्तीति चिसिहो या मजे से सुति) यदि यानिन्द्रियनिमितद्वारेणोपजायमानं सर्वे मतिज्ञानमेव केवलं परोपदेशादागमवचनत्याच भवन् विशिष्टः श्मि एच तं नान्यत् ततो मूलभूताया मतेरादी विन्यासक तानं समनन्तरं भणितमित्यदोषः ।" महपुष्यं जे सु "इत्यादिश्चार्थः पुरतः प्रपचेन मणिप्यते इति गाथार्थः ॥ ८६ ॥
अथ मतिभुतानन्तरमचयेस्तत्समनन्तरं च मनवान योपन्यासे कारणमाह
काल विवज्जयसामि - तलाभसा हम्ममोऽवही तत्तो । माणसमितो नमस्यविसयभावादिसामा ॥ ८७ ॥ ततो मतिभ्रतायामनन्तरमवधिनिर्दिष्टः कुतः इत्याहकालविपर्ययश्वामित्यखानसाम्य तत्र नानाजीवापेक्षया जीवापेक्षा च मतिभ्राज्यां सहाय समास्थितिकामत्वात् कालसाधर्म्यम् । यथा च मिध्यात्वोदये मतिभुताने महानरूपं विपर्ययं प्रतिपद्येते, तथाधिरपि इति विपर्ययसाधम् एव च मति श्रुतयोः स्वामी, स एवायघेरपीति स्वामिसाधम्म खामोऽपि कदाचित्कस्यचिद मीषां त्रयाणामपि ज्ञानानां युगपदेव भवतीति लान्नसाधर्म्यम् । ( माणसमित इत्यादि) इतोऽपचेरनन्तरं मनोविषयत्वामन सि भयं मान मनःपक्ष इत्याह-विषयभावादिसामान्यात्मादिशात प्रत्ययादि सामा न्यं गृह्यते, समानस्य भावः सामान्यं, साम्यं तस्मादित्यर्थः। तत्र यथावधि उद्यस्थस्यैव भवति तथा मनवानमपीति स्याम्प उभयोरपि पुत्रलमात्रविषयत्वादविषयसास्यम् द्वयोरपि कायोपशमिकभाववृत्तित्वाद्भावसाम्यम, द्वितयस्यापि सामाद्दर्शित्वात् प्रत्यक्षत्वसाभ्यम् । एवमन्याऽपि प्रत्यासतिरभ्यूोति गाथाऽर्थः ॥ ५७ ॥
अथ केवलज्ञानस्य सर्वोपरि निर्देशे कारणमाहकेपलमुचमनसामिचावसायमा जाओ।
पाण
इत्यं च महसुयाई, परोक्खमियरं च पञ्चक्खं ॥ ८८ ॥ अन्ते सर्वज्ञानानामुपरि केवलज्ञानमभिहितम् । कुतः ?, इत्याह-भावप्रधानत्वान्निर्देशस्य उत्तमत्वात्, स सर्वोत्तमं हि केवलज्ञानम अतीतानागतवर्तमान निःशेषज्ञेयस्वरूपाश्वभासित्वादिति । यथा च मनःपर्यायज्ञानस्य यतिरेव स्वामी, तथा केवलज्ञानस्यापि ततो यतिस्वामित्वसाम्याद् मनःपर्यायहकेवल ज्ञानमभिहितम् । तथा समस्ताऽपरज्ञानानामवसान एवास्य लाभादवान एव निर्देश इति । तदेवमुपन्यासक्रमे समर्थिते सत्याह कश्चित् नन्वेतानि पञ्च ज्ञानानि किं परोकस्वरूपाणि, आहोश्वित् प्रत्यक्षाणि ? इति । अत्राऽऽह - ( इत्थं चेत्यादि ) पतेषु पञ्चसु ज्ञानेषु मध्ये मतिश्रुते परोक्षे, इतरस्ववध्यादिज्ञानत्रयं प्रत्यक्कमिति गाधार्थः ॥ ८८ ॥ विशे० ।
(५) तथा चाऽऽगमः
विहे गाणे पत्ते । तं जहा - पञ्चक्खे चेव, परोक्खे चेत्र । पच्चक्खणाणे डुविहे पत्ते । तं जहा - केवलणाणे चेव, लो केवलणाणे चैत्र ।
ज्ञानं विशेषावबोधः अति मुझे अनुपा ज्ञानेनात्मान
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न तत्प्रत्यक्षमव्यवहितत्वेनार्थ सा कात्करणादक्षमिति । श्राह च "असो जीवो मोषणगुण जे से पह यह मार्ग जंपा तिथि १ इति परेभ्योऽक्षापेक्षा पुलमयत्वेन इन्द्रियमनोज्योकस्य जीवस्य तत्पद्येकं निरुविशादिति आह बस पोलकथा, जं विदिषमणारा तेण तेहितो जे गाणं परोक्तम
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माणं वा " ॥ १ ॥ इति । अथवा परैरकं संबन्धनं जन्यजनकनावलकणमस्येति परोकम् । इन्द्रियमनोव्यवधानेनाऽऽत्मनोऽचैप्रत्यय कर्मसाक्षात्कारीत्यर्थ स्था० २०१० प्रत्य कज्ञानभेदाः पञ्चखदेते द्विविधं ज्ञानं च केवलाननेदाः 'केवलण्यास' शब्दे तीमा ६४७ पृष्ठे गताः)
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(५) केवल दुविहे पाचे ओहिणाचे म पलबणाने देव || स्था० २ ० १४० आ० प० । आर० । संथा । कर्म० सम्म० ।
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अवधिज्ञानमेव आदि शब्दे सुनीया १४० पृष्ठे गतः मन:पर्ययज्ञानमेवा 'मणपणान शब्दे
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परोकखथा दुविदे परसा तं जहा आणि बोधियथा व सुवणावे चैव । (परोहाननेदाः परोक्ष शन्दे ब
(७) स्वाम्यादिभेदाद् मतिश्रुतभेदः । साम्प्रतं "जं सामिकाम-कारण-विपरोक्त तुला() इति यदुकं प्राक, तदुपजीव्य परः प्राऽऽह
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सामित्ताइविसेसा - भावाश्रो महसुएगया नाम । लक्खणनेयादिकयं, नाणत्तं तयविसेसे वि ॥ ६ ॥ परः प्राऽऽद ननु पूर्व मतिश्रुतयोः स्वामिकानाऽऽदिनिः तुल्यत्वमभास्ता कर्षणमनुष्ठितम्पत एवं सति
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गाण
स्वामित्वादिभिर्विशेषाज्ञायामतितयोरेका स्यात्; तथा च न ज्ञानपञ्चकसिद्धिः, धर्मभेदे हि वस्तूनां भेदः स्यात् तदनेदे तु घटनास्वरूपयोरिया प्रेयानि
ति भावा । अाचार्यः प्रत्युतरमाह (लक्ष स्वामित्वाऽऽदीनामविशेषस्तदविशेषस्तत्र सत्यपि ततोनानात्वं मित्रमस्ति किनम् इस्याह-लभेदा35दिकृतम, आदिशदाद वक्ष्यमाणकार्यकारण नावादिपरिम
मुकं भवति यद्यपि स्वामिकालादिभिर्मतितयोरेकत्वम तथाऽपि लक्षणकार्यकारण नावाऽऽदिभिर्नानात्वमस्त्येव, घटा कानामपि हि स्वार्थ के पाकारित्वाऽभि साम्येपि लनादिमेवमेव एव यदि पुनर्बहुभिर्ध
सत्यपि कियधर्मसाम्यमात्रा देवार्थानामेकप्रेर्यते तदा सर्व विश्वमेकं स्यात्; किं हि नाम तद्वस्त्वस्ति यस्य वस्त्वन्तरैः सद् कैश्चिक मैने साम्यमस्ति ? । तस्मात्स्वाम्यादिभिस्तुवेऽपि खादिति तयोर्भेदः इति गा
थार्थः ॥ ७६ ॥
(१२२४१) निधानराजेन्द्रः ।
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तान्येव लकणादीनि पुरतो विस्तराभिधेयात्संपिराज्यगाथा दर्शयति
लक्खभेया देऊ - फलनावओ भेयइंदियविनागा । बागकखरमृएयर जेया ओ माया ||७|
लक्षणदणत्या मतितयोर्जे तथा मतिज्ञानं हेतु तंतु तत्कार्यम इति हेतुफलत यदः। तथा यति विभागशब्दापि योज्यते, ततश्च भेदानां विभागो विशेषो भिन्नत्वं भेदबिनागः तस्मादमिति शिव्यादिदं हि मतिज्ञानं वक्ष्यते अक्खर सरणी सम्म " इत्यादिवक्ष्यमाणवचनादिनाममिति भेदविभागात योर्भेद इति जावः । ( इंदियविनाग ति ) तत्वतः श्रोत्रवि यमेव श्रुतज्ञानम्, शेषेन्द्रियविषयमपि मतिज्ञानम्, इत्येवं बक्ष्यमाणादिन्द्रियविभागाच्च तयोर्भेदः (बागेत्यादि ) य कचाकच मूकं चकादिप्रतिपभूतानीतराणि चवकाकरम् के तराणि तैयग्स मंदः तस्मादपि मि
द इत्यर्थः । तथाहि " अन्ने मांति मई, वग्गसमा सुबसरिलयं तु सुयं । (१५४ ) " इत्यादिना ग्रन्थेन कारणत्वाद् बल्क मतिज्ञाने कार्यत्वादित्य चैत्र वक्ष्यते । तत्र वल्कः पलाशाऽऽदित्वग्रपः, शुम्बं तु इतरशब्देनेोपात्तं तजनिता दवरिकोच्यते । ततश्चायमभिप्रायःयथा वलनाऽऽदिसंस्कृतो विशिष्टावस्थाऽऽपन्नः सन् वल्को दवरिकेयुध्यते, तथा परोपदेशाईद्वचनसंस्कृतं विशिष्टावस्था सद् मतिज्ञानं श्रुतमभिधीयते, इत्येवं वल्केतरनेदादू मतिश्रुतयोर्भेदः । तथा-" श्रन्ने अक्खरक्खर - बिसेसश्रो मश्सुबाईमिति के महामरक्रमियरं च सुचनाएं" ॥ १६२ ॥ इत्यादिग्रन्थेन वक्ष्यमाणादकरेतरजेद्दात्तयोर्भेदः । तथा-" सपरप्पश्चायणओ, भेओ मूण्यराण वाऽभिहिश्रो । जंतु सुयं मनाएं, सपरपश्चायगं सुतं" ॥ १७१ ॥ इत्याद्यभिधास्यमानवचनान्मू के तरभेदान्मतिश्रुतयोर्भेदः । इति माथासंकेपार्थः। विस्तरार्थे तु भाष्यकारः स्वत एव वक्ष्यति । इयं च गाथा बहु
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carदर्शेषु न दृश्यते, केवनं क्वचिदादर्शेऽपि दृष्टा, अतीव सोपयोगा च इत्यस्मात्रिः किञ्चिद् व्याख्यातेति ॥ ६७ ॥
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तत्र यथोद्देशं निर्देशः " इति कृत्वा लक्षणदाह जमभिनितमभिनि बोहोत से सुनणियं । सदं सुगड़ जइ तो, नाणं तो नाऽऽयभावो तं ||८|| यज्ज्ञानं कर्तृ, वस्तु कर्मताऽऽपन्नमनिनिवृध्यते श्रवगच्छति, त ननिधिः तानिनियोधिक सम्मतिज्ञानमिति पाथतू । ( जं सुणइ इत्यादि ) यत्पुनर्जीवः शृणोति तच्छ्रुतम् ; इत्ये वं सूत्रोक्तलऋणभेदान्मतिश्रुतयोर्भेदः । तथा च सूत्रम् - "जइ वि सामित्ताहिं अविसेसो, तह वि पुणोऽत्थाऽऽयरिया णा
पतितं जहा अनियुक्ति प्राणिहियं सु इति सुगं । " इत्यादि । अत्राऽऽह प्रेरकः-यदि नाम यदात्मा शृणोति तत् श्रुतमिति श्रुतज्ञानस्य लक्षणमुच्यते, हन्त ! तर्हि शब्दमेव गृणोति जीव इति सकलजगत्प्रतीतमेव । ततः किं नूयते ?, इत्याह - ( जर तओ इत्यादि) यदि च सकः स शब्दो ज्ञानं श्रुतरूपम, ( तोति ) ततो नाऽऽत्मनो जीवस्य भावः परिणामः तच्छ्रुतं प्राप्नोति शब्दस्य श्रुतत्त्वा तू तस्य च पौलिकत्वेन मूर्तस्वात् आत्मनस्त्वमूर्तत्वाद्, मूर्तरूप वासूपरिणामस्वायोगादू आत्मनः परिणामातानमिष्यते तदिनिः इति कथं न विरोधः इति नायः । इति गाथार्थः ॥ ६८ ॥
"
भावार्थः प्रत्युत्तरयति
कारणं जसो सुचकारणं तितो सम्मि कीरइ सुयोवयारो, सुयं तु परमत्यओ जीवो || यतो यस्मात् कारणात् स शब्दो वक्त्राऽभिधीयमानः श्रोतृ. गतस्य श्रुतज्ञानस्य कारणं निमित्तं जवति, श्रुतं च वक्तृगततोपयोग व्यायाम करा तस्य चत्राभिधीयमान स्य शब्दस्य कारणं जायते इत्यतः तस्मिन् श्रुतज्ञानस्य कारणजूते कार्यभूते वा शब्दे श्रुतोपचारः क्रियते । ततो न परमार्थतः शब्दतं कि तूपचार इत्यदोषः परमार्थतस्क
?, इत्याद - ( सुयं त्वित्यादि) परमार्थतस्तु जीवः श्रुतं, ज्ञानज्ञानिनोरवयात् तथा च पूर्वमनिहितम-सीत तमात्मैवेति । तस्माच्पत इति तमिति कर्मसाधनप द्रव्यश्रुतमेवाऽभिधीयते, शृणोतीति श्रुतमिति; कर्तृसाधनप के तु भवतामेष इति न काचिदात्मभावता ज्ञानस्य ति गाथार्थः ॥ ६६ ॥
(८) अथ प्रकारान्तरेणापि मतियणभेदमाहइंदियमनिमित्तं जं त्रिएणाणं सुयानुसारेणं । निषवत्युत्तममत्थं तं जावसुर्य मई सेमं ॥ १०० ॥ इन्द्रियाणि च स्पर्शनाऽऽदीनि मनश्च इन्द्रियमनांसि तानि निमित्तं यस्य तदिन्द्रियमनो निमित्तम, इन्द्रियमनोद्वारेण यद्विशागमुपजायत इत्यर्थः । तत् किम् ?, इत्याह-तद्भावश्रुतं श्रुतज्ञानमि त्यर्थः । इन्द्रियमनोनिमित्तं च मतिज्ञानमपि भवति, अतस्तद्व्यवच्छेदार्थमाह श्रुतानुसारेणेति श्रूयत इति श्रुतम् । अव्यश्रुसरूपं शब्द इत्यर्थः स च विषयपदेशकत्मकश्चेद्द गृह्यते, तदनुसारेणैव यदुत्पद्यते तत् श्रुतज्ञान, नान्यत् । इदमुकं भवति सङ्केतका प्रवृत्तं श्रुतग्रन्थ संबन्धिनं वा घटादि
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पापा
इत्याह
शब्दमनुसृत्य वाच्यवाचकभावेन संयोज्य 'घटो घटः' इत्याधन्तजन्याकारमन्तः शब्दो खाम्बितमिन्द्रियाऽऽदिनिमित्तं य लहानमुदेति तच्छ्रुतज्ञानमिति । तच कथंभूतम 'निकायसिनमति 'निजकः स्वस्मिन् प्रतिभासमानो योऽसौ घटादिरर्थः तस्योतिः परस्मे प्रतिपादनं तत्र समर्थ कर्म निजकार्यों किमर्थमभावार्थ:-शोखसहितं विज्ञानमुपस्वप्रतिभासमानार्थप्रतिपादकं शब्दं जनयति तेन पर प्रत्यायते इत्येवं निजकार्थीसमर्थमिदं भवति, अभिलाप्यवस्तुविषयमिति यावत् स्वरूपविशेषत शब्दानुसारेणोत्पन्नज्ञानस्य निजकार्थोक्तिसामर्थ्याऽव्यभिचारा दिति । ( मइसेसं ति ) शेत्रमिन्द्रियमनोनिमित्तश्रुतानुसारेण दादिकानं तम्मविज्ञानमित्यर्थः । अत्राऽऽह कश्चिद ननु यदि शब्दसहिताय शेषं तु मतिज्ञानम तदा वक्ष्यमाणस्वरूपोऽवग्रह एवं मतिज्ञानं स्यात् न पुनपायादयः तेषां शब्दलेख सहितत्वात् मतिज्ञानद न चैते प्रसिद्धाः, तत् कथं श्रुतज्ञानलक्षणस्य नातिव्याप्तिदो षः ?, कथं च न मतिज्ञानस्याव्याप्तिप्रसङ्गः ? । अपरं च अङ्गा
विदिषु"मक्सर स सम्म साईयं तु सपजयसिच" इत्यादिषु च श्रुतभेदेषु प्रतिष्ठानभेदस्वरूपाणामवप्रहाऽऽदीनां सद्भावात् सर्वस्याऽपि तस्य मतिज्ञानत्वप्रसङ्गातू मतिज्ञान नेदानां चेहापायाऽऽदीनां सामिलापत्येन श्रुतज्ञानरप्राप्त्रज्ञ स्वायते-बताबकम् अवग्रह एव मतिज्ञानं स्यात्, न त्वीहाऽऽदयः तेषां शब्दोवसहितत्वात् । तदयुकम्। यतो यद्यपि उदयासा जिलापाः तथापि न ते रूपतानानुसारिण एव साभिलापज्ञानस्य श्रुतत्वात् । अथावग्रहाऽऽदयः श्रुतनिष्ठिता एसिया प्रोक्ताः युक्तितोऽपि चेदाऽऽदिषु शब्दानि संकेतकालायाकर्मितानुसरणमन्तरेण न संग, अतः कथं न तेषां श्रुतानुसारित्वम् । तदयुक्तम् । पूर्व श्रुतपरिकर्मितमतेरेवैते समुपजायन्त इति श्रुतनिश्रिता उच्यन्ते न पुनर्थबहारका नुसारित्यस्य सुरिकम्प्रियमस्य पर्यायं तं सुनिि दि। यदपि युक्तिमतदपि न समीचीनम, सं केन कालानिशब्द परिकर्मिहर दनुसरणमन्तरेणापि विपपरापूर्वकविविधचनप्रवृत्तिदर्शनात न हि पूर्ववृत्तसंकेत अन्य हारकाले प्रतिविकात पूर्वमबागतमित्येवंरूपं संकेत तथाकमन्ये पतदि स्थमभिहितमित्येवं प्रन्थं चानुमन्तो दृश्यन्ते अभ्यास पाटवान् तदनुसरण कल्पना वृतेः । यत्र तु श्रुतानुसारित्वं रात्र घुतरूपताकाभिरपि न निषिध्यतानुसारित्याजवेनाभादायधारणानां सामस्त्येन मतिज्ञानत्वान्न मतिज्ञानलक्षणस्याव्याप्तिदोष:, श्रुतरूपतायाश्च श्रुतानुसारिष्वेव साऽभिलापज्ञानविशेषेषु जावाढू न श्रुतज्ञानलक्षणस्याऽतिव्याप्तिकृतो दोषः । अपरं च 'मतिपूर्वमेत्र श्रुतम्' इति वक्ष्यमाणवचनात्प्रथमं शब्दाऽऽद्यवग्रहणकाऽवग्रहाऽऽदः समुपजायन्ते पते चालुतानुसारित्वाम्मतिज्ञानम यस्तु भेदेषु भूतानुसारी ज्ञानविशेषः सत
( १७४२ )
अनिधानराजेन्ऊ |
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पाण
ज्ञानमङ्गविष्ठा मेदानां सामयेन म तिज्ञानत्वाभावा हाऽऽदिषु च मतिभेदेषु नाऽनुसारित्वाजा येन त्वाऽसंजय संकीर्णतादोष उप्युपपद्यत इति सर्व सुस्थम् । न चेह मतिश्रुतयोः परमाणुकरिणोरिवाऽऽत्यसिको जेदः समयेीयः यतः मागियो कम् विशिष्टः कि मतिविशेष पत्र पुरस्तादापे व ते पक मतिज्ञानं सज्जनकान न च वकम्ययोः परमा कुजवतु कारकात पत्र, स चेहाऽपि विद्यते, मतेः कारणत्वेन श्रुतस्य तु कार्यस्वेनाभिधास्यमानत्वात्न कार्यकारणायेरिका नंद कनककु एकलाऽऽदिषु मृत्पिएम कुराकाऽऽदिषु च तथाऽदर्शनात् । तस्मादपेक्षयानपवादाद्यपेक्षया तु सा पिस्यात् साभिलापानमा मतिज्ञानम अश्रुतानुसारि
शब्दस्य
सङ्केताल तथा व्यवहारकाले अनुसरणात् । तातु, श्रुतानुसार्ये कालप्रवृत्तस्य तप्रधा शब्दरूपस्य श्रुतस्य व्यवहारकालेऽवश्यमनुसरणादिति स्थि तमिति गाथार्थः ॥ १०० ॥
अथ श्रुतज्ञानलक्कणस्याऽव्याप्तिदोषमुद्भावयन्नाद परःजइ सुयलक्खणमेयं, तो न तमेगिंदियाण संभवइ । दवाभाव व नायसूयं सुतः
॥ १०१ ।। यदि ज्ञानस्येदमग्राथोकं लणमिध्यते बुतानुसा रि ज्ञानं यदि श्रुतमभ्युपगम्यत इत्यर्थः, तदा तदेकेन्द्रियाणां न संजवति न घटते, शब्दानुसारित्वस्य तेष्वसंभवात् तदसं अवश्य मनःप्रभृतिसमवायमिदि या नियमं यमाणं तं जहा मइाणी य, सुयअन्नाणी य" इति वचनादे केन्द्रियाणामपि श्रुतमात्रम् इत्यव्यापकमेवेत अणन अत्रोत्तरमाह-दध्वसुपेत्यादि) द्रव्य शब्द स्तस्याभावेऽप्येकेन्द्रियाणां भावश्रुतमभ्युपगन्तव्यम, सुतयतेरिव । इदमुक्तं भवति - यद्यप्येकेन्द्रियाणां कारणवैकल्या
नास्ति तथापि स्वापाऽऽयवस्थायां साध्यामेरियाकारण कारणोपममात्र ना वश्रुतं केवलिष्टममीषां मन्तव्यम्; न हि स्वापाऽऽद्यवस्थायां साध्वादिः शब्दं न शृणोति न विकल्पयतीत्येतावन्मात्रेण तस्य नानाभावो व्यवस्था किंतु स्वापाऽऽद्ययस्थांतरका व्यक्तीजबद्भावश्रुतं दृष्ट्वा पयसि सर्पिरिव प्रागपि तस्य तदासीदिति व्ययिते, एवमेकेन्द्रियाणामपि सामग्रीय द्यपि व्यश्रुतानावः, तथाऽप्यावरणक्षयोपशमरूपं जावश्रुतसेयम परमयोगिभिदध्याहारयपरिग्रह मैयुनाऽऽदेवस्य दर्शनाच्चेति न करातेऽपि तावः तथाहि तोपगपरिणतार्तिभूदिति वा
मध्ये कया व्युत्पच्या सुप्तसाधोः श्रुतमभ्युपगम्यते । तत्राऽऽद्यपक्को न युक्तः सुपयोगासंभवात् । द्वितीयोऽपि न संगतः तत्र शब्दस्य वाच्यत्वात् तस्यापि च खपतोऽसंभवादिति । किंतु यस्माद् अम्बेति व्युत्पत्तिरि श्रीयते, एवं च श्रुतज्ञानावरण क्योपशमो वाच्यः संपद्यते, स च सुप्तयते, एकेन्द्रियाणां चास्तीति न किञ्चित्परिहीयते 1 इति गाथार्थः ॥ १०१ ॥
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माया
अथ दृष्टान्तदाष्टन्तिकयोर्वैषम्याऽऽपादनेनै केन्द्रियाणां तसद्धार्थ विघटयन्नाद
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जावसूयं जासासो - यल द्विणो जुज्ञ्जए न इयरस्स । जासाऽभिमुहस्स जयं, सोऊण य जं हवेज्जाहि ॥ १०२ ॥ भावश्रुतं युज्यत इति संबन्धः । कस्य युज्यते ?, इत्याहभाषाओलयिमतः नापालयिमतः श्रवणेन्द्रियधमत श्वेत्यर्थः । कथंनुतं यावत प्रत्याह- भाषाऽनि मुखस्य शब्दमनिचित् प्रथममेव मध्ये परतिपाद यामि इत्युपयोगरूपं यद्भवते, त्या वा परादीरितां भाषां यद्भवेद् एतदनेन प्रतिपादितमिति । इह च पचासरूयमवगन्तव्यम् - भाषालब्धिमतः प्रथमं भवेत्, श्रवणेन्द्रियलन्धिमतस्तु द्वितीयं भवेदिति । ( न इयरस्स ति) इतरस्य तु भाषान्पिरतस्य नातं न युज्यते । अयमनिप्रायःयस्य सुप्तसाधनाओषधिरस्ति, तस्योत्थितस्य परप्रति पादनपरोदारितशब्दादिल का
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( १९४३) अभिधानराजेन्द्रः ।
तदर्शनाच्च सुप्तावस्थायामपि तस्य लब्धिरूपतया तदाऽऽलीदित्यनुमीयते यस्य त्वकेन्द्रियस्य भाषाश्रोत्रलीधरहितत्वेन कदाचिदपि भावतकार्य नोपलभ्यते तस्य कथं तदस्तीति प्रतीयेत ?। इति गाथाऽर्थः ॥ १०२ ॥
मोत्तरमाहजह समं नाविदिय-नाणं दविदियाबरोढे वि तह दव्वसुयाभावे, जावसूयं पत्थिवाइ ॥ १०३ ॥ हो विहाय शेषसंसारिजीवानां सर्वेषामप्यतिस्तो बहुबहुत बहुलमाऽऽदितारतम्यनावेन इत्येव सरस्वि लब्धीन्द्रियकारयोपशमः समस्त्येवेति परममुनि वचनम् | ततश्च यथा येन प्रकारेण पृथिव्यादीनामेकेन्द्रियाणां क्षेत्रचक्षुरनानां प्रत्येक निर्वृत्युपकरणरूपाणां येन्द्रियाणां तत्प्रतिबन्धककर्माऽऽवृत्तत्वादवरोधेऽप्यभावेपि सूक्ष्ममन्यर्क अभ्युपयोग रूपं श्रोत्रादि भावेन्द्रियज्ञानं भवति, लब्धावरणयोपशमसंभूतायी ज्ञानशकिमंतीत्यर्थः तथा तेनैव प्रकारेण न्यतस्य द्रम्येन्द्रियस्थानीय स्था भावेऽपि भाषावेन्द्रियानक पृथिव्यादीनां भवतीति प्रतिपत्तव्यमेव । इदमुक्तं भवति - एकेन्द्रियाणां तावच्छ्रोत्राऽऽदि भावेपि कजिन स्वादिषु पनि तथादिफलकण्ठीर्णमधुरपञ्चमरवणारसयः कुसुमपल्लवाऽऽदियो विका ssदिषु श्रवणेन्द्रियज्ञानस्य व्यक्तं लिङ्गमवलोक्यते । तिलकाssदितरुषु पुनः कमनीय कामिनीकमलदल दीर्घशरदिन्दुधवललोचनका कुसुमाऽऽद्याविभषध सुरिन्द्रानस्य च पातु विविधसुगन्धिगन्धवस्तुनिकुरम्बोन्मिश्रविम अशीललकारात्मकटनं प्राणेन्द्रियज्ञानस्य कुला ssदिभूरुहेषु तु रम्भाऽतिशायिप्रवररूपवरतरुण नामिनीमु खप्रदत्तस्वच्छसुस्वादु सुरभिवारुणीगरामूषाऽऽस्वादनात् दाविष्करणं रसनेन्द्रियज्ञानस्य, कुरबकाऽऽदिबिटापेष्वशोmissदिद्रुमेषु च घनपीनो शतकठिनकुचकुम्भविभ्रमापघ्राजितकुम्भनकुम्भरणम्य विलक्षणत्क153भरण सूचितव्यभामिनी जनताऽवगूहनसुखानिष्पिष्ठपद्मरागचूर्णोपरान तत्पादकमलपाणिप्रहाराच्च झागेति प्रसुनपलवा ऽऽदिप्रभवः
त.
पाण
स्पर्शनेन्द्रियज्ञानस्य स्पष्यते ततश्च यथैतेषु अव्येन्द्रियासश्वेऽप्येतद्भावेन्द्रियजन्यं ज्ञानं सकलजनप्रसिद्धमस्ति तथा न्यानामपि भविष्यति ते दि जलाऽऽद्याद्वारोपजीवनापावादीनामादारसंशा, संकांचनदयादीनां तु हस्तस्पर्शादित्वाऽवयवसंकोचना 55दि भ्यो जयसंज्ञा, विरहकतिलकचम्पककेशराशोकाऽऽदीनां तु मैथुनसंज्ञा दर्शितैव विल्वपलाशाऽऽदीनां तु निधानीकृतरू विणोपरि पादमोचनाऽऽदित्र्यः परिग्रहसंज्ञा । न चैताः संज्ञाः भावश्रुतमन्तरेणोपपद्यन्ते । तस्मादूजावेन्द्रियपश्च काऽऽवरणकयोपशमाद्भवेयानातरणयोपशमद्भावाद् व्यश्रुताभावेऽपि यच याच भातमाये वे के याम इत्यनं विस्तरेण तईि" विषाणं सुयानुसारे" (१००) इति ज्ञानत्तणं व्यभिचारि प्रमोति, श्रुतानुसारित्वमन्तरेणाऽप्येकेन्द्रियाणां भावाभ्युपगमादिति
जैवमनिषापरिज्ञानात् शब्दलेखसहित विशिष्ट मेव भावमधित्यम्यरये केन्द्रियाणामधिकमविशिष्टजावतमात्रं तदाचरणयोपशमस्वरूप तच्छ्रुतानुसा रित्वमन्तरेणाऽपि यदि भवति, तथाऽपि न कश्चिद् व्यनिखारः । इति गाथाऽर्थः ॥ १०३ ॥
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पुनरप्याद पर:एवं सव्वपसंगो, न तदावरणाणमक्खओवसमा । ममुचनाणाऽऽवरण-वखभवसो ममुवाई ॥ १०४॥ यदि भाषाश्रोत्रलब्धिरहितानामपि काष्ठकल्पानां पृथिव्याकेन्द्रियाणां स्पष्टं किमप्यनुज्यमानमपि केनाऽपि बागाड स्वरमात्रेण ज्ञानं व्यवस्थाप्यते, तर्हि सर्वेषामपि केवलज्ञा पर्यन्तानां पञ्चानामपि ज्ञानानां प्रसङ्गः सद्भावतेषां प्रामो सीत्यर्थः । पञ्चापि ज्ञानानि एकेन्द्रियाणां सन्ति इत्येतदपि कस्माते स्पष्टानुपलम्भस्य विशेषाभावादिति जायः । रमा-तदेव कुतः स्यादतावरणानामधिम नः पर्याय केवलज्ञानाssवार ककर्मणामत्क्षयोपशमादिति, अक्कयायति स्वयमपि द्रष्टव्यम् । इदमुक्तं जवति केवलज्ञानं तावद स्वावारककर्मणः कप एव जायते अधिमनःपर्यायाने तु तस्य कयोपशमे नयतः तचेन्द्रियाणां नास्ति तत्कायोदर्शनाद, श्रागमेऽनुक्तत्वाच्च इति न सर्वज्ञानप्रसङ्गः । मतिते मा भूताम् इति चेत् इयाद (मईत्यादि) म तिश्रुतज्ञानाssवरणकयोपशमस्त्वेकेन्द्रियाणामस्त्येव, तत्कार्यदर्शनात्, सिद्धांन्तेऽभिहितत्वाश्च । ततश्च तत्क्षयोपशमसद्भा वान्मतिश्रुते जवत एव तेषाम् । इति गाथाऽर्थः ॥ १०४ ॥ देवें प्रदर्शितो लक्षणभेदाद् मतद तुषात्तमुपदर्शनाद
मपुब्वं सुपणं, न मई सुयपुब्विया विसेसोऽयं । पुब्वं पूरणपालण भावाओ जं मई तस्स ।। १०५ ॥ "म" इति वचनादागमे मतिः पूर्वे यस्य तद् मतिपूर्व श्रुतमुक्तम, न पुनर्मतिः श्रुतपूर्विका इत्यनयोरयं ि शेषः । यदि ह्येकत्वं मतिश्रुतयोर्भवेत् तदा एवंभूतो नियमेन घटत्वरूपोरियम अस्ति चाय ततो भेद इति भावः । किमिति पुनर्मतिपूर्वमेव श्रुतमुक्तम् १, इत्याहयद् यस्मात् कारणात् तस्य भुतस्य मतिः पूर्वे प्रथममेवोपपद्य
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(१९४४) भाभिधानराजेन्ः।
पाण
पाण
ते । कुतः, श्याह-पूरणेत्यादि 'पृ' धातुः पासन पूरणयोर-| अत्र तर्हि लब्धिमङ्गीकृत्य मतिपूर्वता श्रुतस्योक्ता नविष्यतीति
योः पठ्यते, तस्य च पिपीति पूर्वमिति निपात्यते । चेत् । नैवम, इत्याद-मतिपूर्व श्रुतम, इह तु श्रुतोपयोग एवं ततश्च शतस्य पूरणात पालनाच मतिर्यस्मात्पूर्वमेव युज्यते, मतिप्रभवोऽङ्गीक्रियते, न लब्धिरिति भावः । श्रुतोपयोगो दि तस्मान्मतिपूर्वमेव श्रुतमुक्तम्, पूर्वशब्दश्चायमिह कारणपर्यायो विशिष्टमन्तजपाऽऽकारं श्रुतानुसारि ज्ञानमभिधीयते, तचावअष्टव्यः, कार्यात पूर्वमेव कारणस्य भावात, “ सम्यग्ज्ञान- प्रहेहाऽऽदीनन्तरेणाऽऽकस्मिकंन जवति,प्रवग्रहाऽऽदयश्च मति. पूर्विका पुरुषार्थसिद्धिः" इत्यादौ तथादर्शनास । ततश्च म. रेव, इति तत्पूर्वता श्रुतस्य न विरुध्यते । इति गाथार्थः ॥१०॥ तिपूर्व श्रुतमिति कोऽर्थः ?, श्रुतकानं कार्यम, मतिस्तु तत्कार- तदेवं मतिपूर्व श्रुतमिति समर्थितम, परस्तु मतेरपि णम, कार्यकारणयोश्च मृत्पिण्डघटयोरिव कथञ्चिद् भेदःप्र. ध्रुतपूर्वताऽऽपादनेनाऽविशेषमुद्भावयन्नाहतीत पवेति जावः। इति गाथाऽर्थः ॥ १०५ ॥
सोऊण जा मई ने, सा मुयपुव त्ति तेण न विसेसो । पूरणाऽऽदिधर्मानेव मतेर्भावयन्नाह
सा दव्वसुयप्पत्नवा, चावयाओ मई नत्यि ।। १०६ ॥ परिज पाविज्जइ, दिज्जइ वा जं मईए नाऽमणा।
परस्माच्छदं श्रुत्वा तद्विषया (ने) भवतामपि या मतिरुपालिजय मईए, गहियं हरा पणस्सेज्जा ॥१०६ ।।
त्पद्यते सा श्रुतपूर्वा श्रुतकारणैव, शब्दस्य श्रुतत्वेन प्रागुक्तत्वाअनुप्रेकाऽऽदिकाले अन्यूह्य श्रुतपर्यायवर्कनेन मत्यैव श्रुतज्ञानं तू, तस्याश्च मतेः तत्प्रभवत्वेन भवतामपि सिकत्वात् । तपूर्यते पोष्यते पुहिं नीयत इत्यर्थः, तथा मत्यवान्यतः तत् । तश्च (न विसेसो त्ति) अन्योऽन्यपूर्वभावितायां मतिश्रुतप्राप्यते गृह्यते, तथा मत्यैव तदन्यस्मै दीयते व्याख्यायते, योर्न विशेष इत्यर्थः । तथा च सति “न मई सुयपुब्विय ति" नामत्या न मतिमन्तरेणेत्यर्थः, प्राकृतत्वात्पुंल्लिङ्गनिर्देशः । त
यदुक्तं प्राक, तदयुक्तं प्राप्नोतीति भावः । अत्रोत्तरमाह-पथा गृहीतं सदेतत्परावर्तनचिन्तनद्वारेण मत्यैव पाल्यते स्थि
रस्माच्छन्दमाकर्य या मतिरुत्पद्यते, सा इन्त ! शब्दस्य 5. रीक्रियते, इतरथा मत्यभावे तद् गृहीतमपि प्रणश्येदेवेत्यर्थः।
व्यश्रुतमात्रत्वाद् द्रव्य श्रुतप्रजवा, न जावश्रुतकारणा, पतत्तु न श्रुतज्ञानस्यैते पूरणाऽऽदयोा विशिष्टाभ्यूहधारणाऽऽदीनन्तरेण केनाऽपि वार्यते, किं वेतदेव वयं ब्रूमो यत-भावभुताद कर्तुं न शक्यन्ते, अन्यूहाऽऽदयश्च मतिज्ञानमेव, इति सर्वथा | मतिनास्ति, भावभुतपूर्विका मतिनं जवतीत्यर्थः, व्यश्रुतश्रुतस्य मतिरेव कारणम्, श्रुतं तु कार्यम, कार्यकारणनाव- प्रभवा तु भवतु; को दोषः ।। इति गाथाऽर्थः ॥ १०६ ॥ श्व नेदे सत्येवोपपद्यते, अभेदे पटतत्स्वरूपयोरिव तदनुपप- ननु भावभुतादूर्व मतिः किं सर्वथा न भवति ?, इत्याहसेः । तस्मात् कारणकार्यरूपत्वाद् मतिश्रुतयो दः । इति कज्जतया न उ कमसो, कमेण को वा मई निवारे । गाथाऽर्थः ।। १०६॥
जं तत्थावत्थाणं. सुयस्स सत्तोवोगाओ ॥ ११० ।। ___ अथ श्रुतस्य मतिपूर्वतां विघटयन्नाह
भावाश्रुताद् मतिः कार्यतयैव नास्तीत्यनन्तरोक्तगाथाऽवयवेन णाणाणऽमाणाणि य, समकालाई जो मासुयाई।
संबन्धः (न उ कमसो ति) क्रमशस्तु मतिनास्तीत्येवं न, तो न सुयं मइपुव्वं, मइणाणे वा सुयन्नाणं ॥१०॥
किं तर्हि ?, क्रमशः साऽस्ति, इत्येतत् सर्वोऽपि मन्यते, अइह मतिश्रुते बक्ष्यमाणयुक्त्या द्विविधे- सम्यग्दृष्टानस्वरूपे, न्यथा आमरणावधि श्रुतमात्रोपयोगप्रसङ्गात् । यदि क्रमशः मिथ्यादृष्टस्त्वज्ञानस्वभावे । तत्र शाने अज्ञाने चैते प्रत्येक स- साऽस्ति, तर्हि क्रमेण भवन्त्यास्तस्या भवन्तः किं कुर्वन्ति ?, मकालमेव भवतः, तत्क्षयोपशमनाभस्यापगमे युगपदेव निर्दे- इत्याह-(कमेणेत्यादि) वाशब्दः पातनार्थे, सा च कृतव, क्रमेण शात् । यतश्चैते झाने अज्ञाने च मतिश्रुते पृथक समकाले भवन्ती मति को निवारयति?, मत्या श्रुतोपयोगो जन्यते, तजवतः, ततो न धुतं मतिपूर्व युज्यते, न हि सममेवोत्पन्न- दुपरमे तु निजकारणकापात् सदैव प्रवृत्ता पुनरपि मतिरयोः सत्येतरगोविषाणयोरिव पूर्वपश्चाद्भावः सङ्गच्छते । अ- वतिष्ठते, पुनस्तथैव श्रुतम, तथैव च मतिः, इत्येवं फ्रमेण ज. थोत्सूत्रोऽप्यसदाग्रहवशासन त्यज्यते, इत्याह-(मइनाणे वा वन्त्या मतेनिषेधका वयं न वाम इत्यर्थः । किमिति !, इ. इत्यादि) इदमुक्तं भवति-मतिकाने समुत्पन्ने तत्समकालं च स्याह-यद् यस्मात् कारणात् तत्र तस्यां मतो अवस्थानं स्थि. शुतज्ञानेऽनन्युपगम्यमाने श्रुताऽझाने जीवस्य प्रसज्यते, श्रुतक्षा: तिर्भवति, श्रुतोपयोगात च्युतस्य ततः क्रमेण मतिं न निषेध नामुत्पादेऽद्यापि तदनिवृत्तेः, न च ज्ञानाऽज्ञानयोः समका- यामः । इदमुकं नवति-यथा सामान्यभूतेन सुवर्णेन स्वविलमवस्थितिरागमे कचिदप्यनुमन्यते, विरोधात्-कानस्य स-| शेषरूपाः कङ्कणाक्गुनीयकाऽऽदयो जन्यन्ते, अतस्ते तत्कायव्य. म्यग्दृष्टिसंभवित्वात् , अज्ञानस्य तु मिथ्याट्रिभावित्वादिति । पदेशं लभन्त एव, सुवणे त्वतज्जन्यत्वात् तत्कार्यतया न व्य. गायार्थः ॥ १०॥
पहियते, तस्य कारणान्तरेज्यः सिद्धत्वात, करकणाऽऽदिविशे. अत्र प्रतिविधानमाह
पोपरमे तु सुवर्णावस्थानं क्रमेण न निवार्यते; एवं मन्याऽपि इह लछिमासुयाई, समकालाई न तवोगो सिं। .. सामान्यभूतया स्वविशेषरूपश्रुतोपयोगो जन्यते, अतस्तत्कार्ये मइपुत्वं सुयमिह पुण, सु प्रोवोगो मइप्पनबो॥१०८॥
स उच्यते, मतिस्त्वतजन्यत्वात्सत्कार्यतया न व्यपदिश्यने, ननु ध्यानध्यविजृम्भितमिदं परस्य, अभिप्रायापरिज्ञानात् । त
तस्या हेत्वन्तरात् सदा सिद्धत्वात, स्वविशेषनूतश्रुतोपयो. थाहि-द्विविधे मतिश्रुते तदावरणकयोपशमरूपलब्धितः, उप
गोपरमे तु कमाऽऽयातं मत्यवस्थानं न निवार्यते, आमरणान्तं योगतश्च । तत्रेह लब्धितो ये मतिश्रुते ते एव समकालं
केवलश्रुतोपयोगप्रसङ्गादिति गाथार्थः॥ ११०॥ नवतः, यस्त्वनयोरुपयोगः स युगपन्न भवत्येव, किं तु
तदेवं जावश्रुतं मतिपूर्व व्यवस्थाप्य मतान्तरमुपदर्शयन्नाह
तदब जावश्रुत मातपूर्व व्यवस्थाप्य मता केवत्रज्ञानदर्शनयोरिव तथास्वाभाव्या क्रमेणैव प्रवर्तते ।। दबमुर्य मइपुव्वं, जासइ जं नाऽविचिंतियं के ।
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(१५) याण प्रन्निधानराजेन्द्रः।
गाण नावमयस्सानावो, पावइ तेसिं न य विसेसो ॥११॥ पुवं पच्छा भासद, लक्खिज्जइ तेण जावसुयं ॥११३॥ (केति) मतिपूर्व श्रुतमित्यत्राऽऽगमवचने केचिदेवं व्याच-| श्रुतविज्ञानप्रनवं सविकल्पकविवकाशानकार्य शब्दरूपं - कते । किम् ?, इत्याद-व्यश्रुतं शब्दरूपं मतिपूर्वम, न नाब- व्य श्रुतमिदं यत्परैमंतिपूर्वत्वेन इष्यते, कथं पुनस्तद्भाध श्रुतप्रभ्रतम् । तत्र युक्तिमाह-(नासह जं नाविचिंतियं ति) यद् भवं विज्ञायते ?, इत्याह-यतः सर्वोऽपि पूर्व विचिन्त्य वक्तयस्मात् कारणादविचिन्तितम अविवक्तिं न कोऽपि भाषते व्यमर्थ चित्ते विकल्प्य पश्चात शब्दं भाषते, यश्च तश्चिन शब्दमुदीरयति, यच विवकाशानं तत् किस मतिरिति ताशानं तत श्रुतानुसारित्वाद् भावश्रुतम, इति नाव श्रुतप्रभतेषामभिप्रायः, ततश्च मतिपूर्व भव्य श्रुतं सिकं जवति । एत- वता व्यश्रुतस्य विज्ञायते, यच्च यस्मात् प्रनीत तसस्य स्मिन् व्याख्याने दोषमाह-तेषामेवं व्याख्यातां नाव श्रुतस्य कार्यम्, यतस्तेन कार्यनूतेन व्यश्रुतेन स्वकारणभूतं नाव श्रुतं सर्वथैवाजावः प्राप्नोति, यतो वक्तृगतं विवक्षोपयोगज्ञानं लक्ष्यत इति तत् तस्य लवणमुक्तम,अस्ति भाव श्रतमत्र, तत्कायतैरेघ मतित्वेन व्याख्यातम, अन्यथा शब्दस्य मतिपूर्वकत्वा- स्य शब्दस्य श्रवणाद, इत्येवं तेन जावभूतस्य लक्ष्यमाणजाबात, श्रोतुरपि शब्दं श्रुत्वा प्रथमं यदवग्रहाऽऽदिशानं तत्ता. स्वादिति । द्रव्यश्रुतस्य च भाव श्रुत लवणता मतान्तरवादिनां वन्मतिरेव, ऊर्ध्वमपि च तस्या जावश्रुतं नाभ्युपगन्तव्यम्, विपर्यस्तत्वप्रतिपादनार्थमुपदर्शिता, भावश्रुतप्रभवस्याऽपि शमतिपूर्व नावश्रुतमित्यस्मत्पकवर्तित्वप्रसङ्गात् । यदशृण्वतोऽ. ब्दस्य तैर्मतिपूर्वत्वप्रतिपादनादिति गाथाऽर्थः ॥ ११३ ॥ भाषमाणस्य चानुप्रेक्वाऽऽदिन्वन्तर्जल्पारूषितंशानं विपरिवर्तते अथ यथा मतिश्रुतयोः कार्यकारण नावाद नेदः, तथा तयोः तद्भावभुतं भविष्यतीति चेत् । तदयुक्तम, यतस्तदपि यद्यव- प्रत्येक स्वस्थाने ऽपि सम्यक्त्वमिथ्यात्वपरिग्रहाद् नेद एवेत्यप्रहाऽऽद्यात्मकमतिपूर्व तदा नावश्रुतं नेष्टव्यम, अस्मत्पकाभ्युप. नुषङ्गतो दर्शयितुं नन्द्यध्ययनागमे मतिश्रुतयोः कार्यकारणगमप्राप्रेस । भथ मतिपूर्व तन्नेष्यते, तथाऽपि तत्सविक. भावेन भेदप्रतिपादनानन्तरामिदं सूत्रमस्ति। ल्पकत्वेन मतिरेव, शब्दविवक्काज्ञानवत; शब्दविववाशानेऽपि
तद्यथादि शब्दविकल्पोऽस्ति, तमन्तरेण शब्दाभिधानासजवात् । न | " अविसेसिया मई-मश्नाणं च, मइअन्नाणं च । विसेसिया चाऽसौ नावश्रुतत्वेनेष्टः तस्माद् मतेरनन्तरं सर्वत्र शब्दमा-| मई-सम्मदिद्धिस्स मई मश्नाणं, मिच्छादिहिस्स मई मध्यन्ना. त्रस्यैवोस्थानम, न भावश्रुतस्य; अस्मत्पकाङ्गीकरणप्रसङ्गात्।। णं । एवं अविससियं सुयं सुयनाणं, सुयअन्नाणं च; विसेसियं विकल्पकानानि च विवकाकानवन्मतित्वेनोक्तान्येव, इति सर्व. सुयं-सम्मदिहिस्स सुयं सुयनाण, मिच्छादिहिस्स सुयं सुयमअनावश्रुतानावः प्रसजति । भवतु स तर्हि, इति चेत् । इ. नाणं।" त्याद-(न य विसेसो त्ति) जावश्रुतानावे मतिश्रुतयोविशेषो सम्यग्दृष्टिमिथ्यावृष्टिसंबन्धतोऽविशेषितेन मतिशब्देन मतिभेदश्चिन्तयितव्यो न स्यात, स हि द्वपोरेवोपपद्यते । यदा कानं, मत्यज्ञानं च द्वे अपि प्रतिपाद्यते, सम्यग्दृष्टित्वविशेषिते. च मतिरेवाऽस्ति, न भावश्रुतम, तदा तस्याः केन सह भे न तु मतिध्वनिना मतिज्ञानमेवोच्यते, मिथ्याष्टित्वविशेषिते. दचिन्ता युज्यत इति भावः । द्रव्यश्रुतरूपेण शन्देन सह न तु तेनैव मत्यज्ञानमेवानिधीयते, एवं श्रुतेऽपि वाच्यमिति मते दचिन्ता भविष्यतीति चेत् । तदयुक्तम् । ज्ञानपञ्चकवि.
सूत्रनावार्थः । चारस्य इहाधिकृतत्वात, तदधिकारे च शब्देन सह भेदचि.
तदेतदानुषङ्गिक सूत्रोक्तमनुवर्तमानो नायकान्ताया अप्रस्तुतत्वात् । चिन्त्यतां वा 'मतिपूर्व अव्यश्रुतम
रोऽप्याहइत्येवं मतेः शब्देनापि सह विशेषः, किं तु सोऽपि न घटते । इति गाथाऽर्थः ॥ १११ ॥
अविसेसिया मइ च्चिय, सम्माहिहिस्स सा मइनाणं । कुतो न घटते?, इत्याह
माअम्माणं मिच्छग-दिहिस्स सुयं पि एमेव ॥११४॥ दबसुयं बुधीओ, सा वि तो जमाविसेसो तम्हा ।
सम्यग्दृष्टिमिथ्याष्टिभावेनाविशेषिता मतिमंतिरेवोच्यते, न भावमुयं मइपुव्वं, दव्यमुयं लक्खणं तस्स ॥ ११२॥
तु मतिज्ञान मत्यज्ञान चेति निर्यि व्यपदिश्यते, सामान्यरू
पायां तस्यां ज्ञानाशानविशेषयोयोरप्यन्तर्भावात् । यदा तु यदिति यस्मात् कारणाद् यथा द्रव्यश्रुतं शब्दो बुद्धे
सम्यग्दृष्टिरेव संबन्धिनी सा मतिर्विवक्ष्यते, तदा मतिज्ञानमंतेः सकाशादू नवतीति भवद्भिः प्रतिपाद्यते, तथा हन्त !
मिति निर्दिश्यते । यदा तु मिथ्याष्टिसंबन्धिनी तदा मत्यसाऽपि बुद्धिस्ततः शब्दात् श्रोतुर्भवत्येव । ततश्च “ माइ
ज्ञानम् । एवं श्रुतमप्यविशेषितं श्रुतमेव, विशेषितं तु सम्यम्हपुब सुयमुत्तं, न मई सुयपुन्विया विसेसोऽयं ।" (१०५) इति
टेः श्रुतज्ञानम्, मिथ्यारष्टस्तु श्रुताझानम्, सम्यग्दृष्टिसंबन्धिनो मतिश्रुतयोर्भेदप्रतिपादनार्थ योऽसौ विशेषोऽत्र प्रतिपादयितुं
बोधस्य सर्वस्यापि ज्ञानत्वात; मिथ्यारष्टिसत्कस्य त्वज्ञानत्वाप्रस्तुतः, स द्वयोरप्यन्योन्यं पूर्वजावितायाः समानत्वान
दिति गाथाऽर्थः ॥ ११४॥ प्रामोति, इत्यनन्तरगाथापर्यन्तावयवेन संबन्धः । तस्मात्तेषां मतेऽविशेषतः कारणाद् यदस्माभिः प्राक् समर्थितम्
ननु यथा मतिश्रुताभ्यां सम्यग्दृष्टिर्घटादिकं जानते, व्यवभावश्रुतं मतिपूर्वमिति, तदेव युक्तियुकम् । शब्दलकणं तु
हरति च; तथा मिश्यादृष्टिरपि, तकिमिति तस्य सत्कं सव्यश्रुतं तस्य भावभुतस्य सक्ष्यते गम्यतेऽनेनेति लकर्ण
धमन्यज्ञानमुच्यते?, श्त्याशङ्कयाऽऽहलिङ्गमिति गाथाऽर्थः ॥ ११२॥
सदसदविसेसणाओ, नवहे उजदिच्चिोवलंभाश्रो। कुतस्तसस्य बकणम् !, श्त्याह
नाणफलाजावायो, मिच्छदिहिस्म अन्नाणं ॥ ११५॥ सुपवित्राणप्पन, दब्बसुयमियं जो विचिंतेनं ।
सच्चासच्च सदसती,तयोरविशेषणमविशेषतः,तस्माद्धेतोः, ४७
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周何
मिथ्यादृष्टेः संबन्धि व्यवहारमात्रेण ज्ञानमपि निश्चयतोऽज्ञानमुच्यते, सतो ह्यसत्वेन असद् विशिष्यते, असतोऽपि च त्या घंटे. नू स्तम्भरम्भ भोरुदाऽऽदिव्यास्यादश्व पदावधर्माद सतोप्रध्यप्येन प्रतिपद्यते सर्वप्रकारे एवायम्यधार शात्। अनेन त्रधारणेन सम्तो समेादयः पटा दिधर्मा न सन्तीति प्रतिपद्यते, अन्यथा सत्त्वप्रमेयत्वाऽऽदिसामाधर्मद्वारे घंटे पटादीनामपि सद्भावात् 'सर्वथा घर पदा यम इत्यवधारणानुपपत्तेः, कथञ्चिद् घट एवायं इत्यवचारणे स्वनेकान्तवादाभ्युपगमेन सम्पम्टष्टित्वप्रसङ्गात्, तथा पटपुटनटशकटाऽऽदिरूपं घटेऽसदपि सच्चेनायमभ्युपगच्छति सबैः प्रकारैघंटोऽसयेव वधारणा 'स्यादस्त्येव घटः' इत्यवधारणे तु स्याद्वादाऽऽश्रयणात् सम्यदृष्टित्वप्राप्तेः । तस्मात्सदसतोर्विशेषाजावादुन्मत्तकस्येष मितथा विपर्यस्तत्वादेव भव धनम् तथा पात्रोधोऽङ्गानम् तथा प [चधतिला55 दिन जलाऽऽद्यवगाढनाऽऽदेषु संसारहेतुषु मेकमामब्रह्मचर्या: किञ्चयादिषु तु मोकारणेषु भचहेतुत्वाध्यवसायतो योपलम्भात् तस्याऽकानम् । तथा विरत्यभावेन ज्ञानफलाजावादू मिथ्यादृष्टेरज्ञानमिति गाथाऽर्थः ॥ ११५ ॥
"
बधान
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"
(१९४६) अभिधानराजेन्द्रः |
,
तदेवं प्रतिपादित देतुफलमा
""
9
दः, साम्प्रतं नेदभेदात्तयोस्तमभिधातुमाहनेयकयं च विसेसण - महावीसइविहंगमेयाई । इंद्रियविभाग वा सुप ओ ओऽभिहियं ॥ ११६ ॥ नेहा प्रदाय यश्च सा मतितोष ने बतोऽयमदादिभेदादशाविविध मतिज्ञानं वक्ष्यते ' इति शेषः श्रुतज्ञानं वान निवास्यते अथवा इन्द्रियविभागान्मति श्रुतयोर्भेदः, यतोऽन्यत्र पूर्वगतेऽभिहितमिति गाथाऽर्थः ॥ १६६॥ किमभिहितम् १, इत्यादसोइंदिओवलकी होड़ सुर्य सेस तु मनाएं | मोत्तू दव्वसूयं अक्खरलंनो य सेसेसु ॥ ११७ ॥ इन्द्रो जब तस्पेदमिडियम, श्रूयतेऽनेनेति श्रोत्रम तथ चेद्रियम उपलम्ननमुनि श्र द्रोपरित तृतीयासमासद श्रोत्रेन्द्रियस्य वा उपलब्धिः श्रोत्रेन्द्रियोपलब्धिरिति षष्ठीसमासः; श्रोत्रेन्द्रियद्वारकं ज्ञानमित्यर्थः । श्रोत्रेन्द्रियेणोपलविर्यस्येति यदुद्विणाभ्यपदायें होउयधिक्रियते स्वाऽऽद्यसमासद्वये श्रोत्रेन्द्रियद्वारकमभिलापनवितोपनलिक प्रावभूतमुकं यम, बहुबीहिणा तु तस्यां आवतोपलब्धावनुपयुकस्य तोयम्, तदुपयुक्त स्य तु वदत उभयश्रुतमभिहितं वेदितव्यम् । इह च व्यव छेदत्वात् सर्वे वाक्यं सावधारणं भवति, इश्चावधारणविधिः प्रवर्ततेः ततः 'चैत्रो धनुर्धर एव' इत्यादिष्विवेहायोगव्यवच्छेदेनावधारणं इष्टव्यम्। तद्यथा-ग्रेव न तु योपलधिः श्रुतमेवेति द्रोपल पिस्तु तं मतिर्वा सवति यथा धनुर्धरोऽन्योति, ओ
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द्रोपमहादिपाचा मतित्वादानुसारि पयास्तु तत्वादिति । यदि पुनः मेत्यवधार्यते तदा तदुपधेर्मवित्वं सर्वधैव न स्यात, इष्यते चकस्याश्चित् तदपीति भावः । यदि ओषेन्द्रियोपलि
तं त िशेषकि भय, इत्याह- ( सेस वित्यादि ) श्रोत्रेन्द्रियोपलब्धि विहाय 'शेषकं ' यच्चक्षुरादीन्द्रियचतुष्टयो पलब्धिरूपं सम्मतिज्ञानं भवति इति वर्तते शब्दः स
यस समुचिनोति न केवलं शेय ज्ञानं, किं तु श्रोत्रेन्द्रियोपलब्धिश्च काचिदवग्रहाऽऽदिमात्ररूपा मतिज्ञानं प्रवति; तथा च सत्यनन्तरमवधारणव्याख्यानमुपपन्नं भवति । " सेसयं तु महनाणं " इति सामान्येनैवोक्के शे वस्य सर्वस्याप्युत्सर्गेण मतित्वे प्राप्ते सत्यपवादमाह - ( मोसूर्ण सुति) पुस्तकाऽऽदिनिखितं या परित्यज्य शेषं मतिज्ञानं द्रव्यम्, पुस्तकादिन्यस्तं हि भा वधुतकारणत्वात् शब्द इव्यतमेव इति कथं मतिज्ञान स्वाद है, इति ज्ञान के ओन्द्रियोपलम् किं तु यश्च शेषेषु चतुर्षु चक्षुरादीन्द्रियेषु श्रुतानुसारिसाभिलाप विज्ञानरूपणे करवामः सोऽपि स न ब क्षरवानमात्रं, तस्येदापायाऽऽद्यात्मके मतिज्ञानेऽपि सद्भावादिति । यदि पक्षुरादीन्द्ररा
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यदाद्यगाथाऽवयवे' श्रोत्रेन्द्रियोपलब्धिरेव श्रुतम' इत्यवधारणं कृतम् तनोपपद्यते। शेषेन्द्रियोपलब्धेरपीदानीं श्रुतत्वेन समर्थितत्वात् । नैतदेवम, शेषेन्द्रियाकरलानस्याऽपि श्रोत्रे न्द्रियोपलब्धिरूपत्वात् । स हि श्रुतानुसारिसाभिलापज्ञानरूपोऽत्राधिक्रियते ओबेन्द्रियोपलब्धिरपि चैत मुका तत सामिवापविहानं शेवेन्द्रयायो भ्यतया श्रोत्रेन्द्रियोपलब्धिरेव मन्तव्यम्, अभिलापस्य सर्वस्यापि श्रोत्रेन्द्रियप्रणयोग्यत्वादिति । अत्राऽऽननु "सोईन्दिश्रोघली होइ सुयं । " तथा "अक्खरसंभो य सेलेसु । इत्युभयवचनात्तनस्य सर्वेन्द्रियनिमितता सिद्धा तथा-" सेसयं तु मइनाणं " इति वचनात् तुशब्दस्य समुयाच मतिज्ञानस्यापि सर्वेन्द्रियकारणता प्रतिष्ठिता भवद् भिस्तु न्द्रियविभागाद् मतितयोः प्रतिपादयितुमारब्धः
चैन सियति द्वयोरपि सर्वेन्द्रियनिमितायास्तुल्यस्वाद साधू नवता कि तु यद्यपि शेषेन्द्रियद्वाराऽऽयातत्वात्तदक्षरलाजः शेषेन्द्रियोपलब्धिरुच्य ते तथानाम योग्य पव ततश्च तत्वतः श्रोत्रेन्द्रियोपलब्धि रेषाऽयम् । तथा च सति परमार्थतः सबै विषयमेव श्रुतज्ञानम मतिज्ञानं तु ति वयं शेषेन्द्रियविषयं सिर्फ भवति - नागान्मतिदोन विम्बते इत्यनं विस्तरेण इति पू वगतगाथास के पार्थः ॥ ११७ ॥
अथ विस्तरार्थमभिधित्सुजयकार एच परेज पूर्वप कारयितुमाहसोभोक्लजि सुपं, न नाम सोउग्गहादओ बुकी । अह बुद्धीओन सुर्य, अहोभयं संकरो नाम ॥ ११८ ॥
श्रोत्रोपलम्बरे इत्यवधारणार्थमवगच्छतः श्रुत मेव तपनः इत्येवं च तदर्थमभ्यमानस्य परस्य च चनमिदम्। तद्यथापदिश्रुतमेच, तर्हि 'नाम'
可何
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(१४) गाण अभिधानराजेन्षः।
गाग इति कोमलाऽऽमन्त्रणे, अहो! श्रोत्रेन्ष्यिद्वारोत्पना भवग्रहहा- रित्ययमेकान्तः, तहिं यदेतद् व्यक्तं सर्वत्रोच्यते प्राचार्यपार. ऽऽदयो बुझिमंतिकानं न प्राप्नुवन्ति, तऽपलब्धेः सर्वस्याऽपि | म्पयेणेदं श्रुतमायातमिति, तदसत प्राप्नोति, तीर्थकरादर्बाक भुतत्वेनावधारणात् । मा भूवस्ते मतिज्ञानम, किनः कूयते?, सर्वेषामपि श्रोतृत्वेन मतिज्ञानस्यैवोपपत्तेः । अथ नैवम, इति चेत्, नैवम । तथा सति तस्य वक्ष्यमाणाष्टाविंशतिने. तहāकत्वं मतिश्रुतयोरिति गाथाऽर्थः ।। १२० ॥ दभिन्नवहानेः । अथैतदोषभयाद् बुझिस्तेऽभ्युपगम्यन्ते, तत.
तदेवम्-" केई वेतस्स सुयं" ( १६० ) इत्यादि स्तहि न ते श्रुतम, तथा च सति-" सोइंदिशोषलद्धी, दोष
दूपायित्वा प्रस्तुतप्रकरणोपसंहारब्याजेन मयं" (११७) इत्यसततं प्राप्नोति । अथोभयदोषपरिहारार्थम,
परमेव शिक्षयन्नाह'उभयं बुकिश्व भुतं च ते इष्यन्ते, तहिं एवं सत्येकस्था
जणो सुणो व मुयं, तं जमिह सुयाणुसारिनिनाणं। नमीनितकीरनीरयोरिव संकरः, संकीर्णता मतिश्रुतयोरामोति, न पृथग्भावः। अथ वा-'यदेव मतिः, तदेव च श्रुतं, यदेव च
दोएहं पि सुयाईयं, जं विनाणं तयं बुखी॥११॥ भुतं तदेव मतिः, इत्येवमनेदोऽप्यनयोः स्याद्, इति स्वयमेव तस्माद् युवतः श्रुतम, शृण्वतस्तु मतिः, इत्येता युक्तम, मरयम । नेदश्छेह तयोः प्रतिपादयितुं प्रस्तुतः, तदेतत् शा. उक्तदूषणाद, मनागमिकत्वाच्च । किं तहिं युक्तम्, इति चेत् । न्तिकरणप्रवृत्तस्य बेतालोत्थानमिति प्रेरकगाथार्थः ॥ ११ ॥ सच्यते-भणतः शृण्वतो वा यत्किमपि श्रुतानुसारि परोपतदेतत्प्रेर्य केचित् यथा परिदरन्ति, तथा ताबद्दर्शयत्राह
देशावचनानुसारि विज्ञानम्, तदिह सर्व श्रुतम, यत्पुनद्वयोर.
पि वक्तृश्रोत्रोः क्षुतातीतं हृषीकमनोमानिमित्तमवग्रहाऽऽदि. केई वेतस्स सुयं, सदो मुणो मा ति तं न नवे ।।
रूपं विज्ञानम, तत्सर्वे बुद्धिर्मतिक्षानमित्यर्थः । तदेवं द्वयोरपि जं सम्बो चिय सद्दो, दबसुयं तस्स को भेदो।।११।।।
बक्तृश्रोत्रोः प्रत्येक मतिश्रुते यथोक्तस्वरूपे अभ्युपगन्तव्ये, न "सोदियोचलद्धी" ( ११७ ) इत्यत्र श्रोत्रेलिये- पुनरेकैकस्यैकैकमिति भावः । शति गाथाऽर्थः॥ ११ ॥ पोपलब्धिर्यस्येति केवलबहुवीह्याश्रयणात् श्रोत्रेन्द्रियोपलब्धिः नवत्वेवम, किंतु-"सोनोवलद्धि जह सुयं, न नाम सोशब्द एवेति केचिन्मन्यन्ते, सच प्रज्ञापकस्य ब्रुवतः श्रूयत इति
नग्गहादो बुद्धी" (११८) इत्यादिना यः परेण पू. कत्वा श्रुतम, शृएवतस्तु श्रोतुरवग्रहापायाऽऽदिरूपेण मन्यते
पक्षोऽभ्यधायि, तस्य तर्हि कः परिहारः१, इत्याकायत इति मतिः। एवं च सत्युन्जयमुपपन्नं भवति, श्रोत्रगताव
शङ्कच भाष्यकार एवेदानीम् “सोइंदिशोषलकी, प्रहाऽऽदीनांच श्रुतत्वं परिहृतं भवति । प्राचार्यः प्राऽऽह-तं न
होर सुयं" (११७) इत्यादिमूलगायां विवृभवेत्ति तदेतत् केषाश्चिद् मतंयुक्तं न भवति। कुतः१, श्स्याह
एवज्ञाहयद्यस्मात् कारणात् ब्रुवतः श्रोतुश्च संबन्धी सर्व एव शब्दो
सोइंदियोवनची, चेव सुयं न ज तई सुयं चेव । व्यश्रुतम, व्यवतमात्रत्वेन च सर्वत्र तुल्यस्य सतस्तस्य शब्दस्य को भेदः को विशेषः?, येनासौ वक्तरि श्रुतम्, श्रोतरि सोदिनोवलघी, विकाइ जम्हा मइनाणं ॥१२॥ तु मतिः स्यात् । यदपि श्रूयत इति श्रुतम, मन्यते इति मतिः। शह प्रोत्रेन्द्रियोपसम्धिशब्दस्य तृतीयाषष्ठीसमासः, बहुव्रीहि. उच्यते--तत्रापि धास्वन्तरमात्रकृत एव विशेषः, शब्दस्तु स एव श्च प्राधसमासघ्येन जावश्रुतम, बहुव्रीहिणा तु भावभुताश्रूयते स एव मन्यते, इति न कचिभयं रश्यते । इति गाथा- नुपयुक्तस्य वदतो अन्यश्रुतम, तपयुक्तस्य तु ब्रुवत उभयऽर्थः॥ ११६॥
श्रुतं गृहीतमिति प्राग् वृत्तौ दर्शितं सर्वे एव्यम् । अवधारणदूषणान्तरमप्याह
विधिमपि प्रागुपदर्शितमाह-श्रोत्रेन्छियोपलब्धिरेव श्रुतम, इकिंवा पाणेऽहिगए, सद्देणं जइ य सद्दविन्नाणं । स्येवमवधारणीयम् । (न न त त्ति) न पुनः सा श्रोत्रेन्द्रि गहियं तो को भेदो, भणओ मुणो व जो तस्स:॥१०॥
योपलब्धिः श्रुतमेवेति । कुतो नैवमवधार्यते , इत्याह-य.
स्मात धोत्रेन्जियोपनाधिरपि काचित् श्रुतानुसारिणी अवनयदि वाहाने कानविचारे अधिकृते किं पुलसंघातरूपेण
देहाऽऽदिमात्ररूपा मतिज्ञानमेव, अतः 'श्रोत्रेन्डियोपलब्धिः शब्देन गृहीतेन कार्यम्, अप्रस्तुतत्वात् ? । अथ श्रोत्रेन्धि
भूतमेव' इति नावधार्यत इति नावः । एवं च सति "न योपलब्धिशब्दन शनविज्ञानं गृह्यत इति । अत्राह
नाम सोचमाहादो बुझी" (११० ) इत्यादि परेण यत्प्रे. (जयेत्यादि) यदि च श्रोत्रेन्डियोपाब्धेः शब्दस्य कार.
रितम, तत्परिहतं भवति, श्रोत्रावग्रहाऽऽदीनामपि बुधिरूपताणजुतत्वात् कार्यनूतत्वाच्चोपचारतो वक्तृगतं भोतृगतं च
याः समर्थितत्वादिति गाथाऽर्थः ॥ १२२ ॥ शब्दविकानं श्रोत्रेन्डियोपलब्धिशब्दवाच्यत्वेन गृहीतम, तच्च
तदेवमवधारणविधिनाश्रोत्रावग्रहाऽऽदीनां मतित्वं सब्रुवतः श्रुतं, रावतस्तु मतिरित्युच्यते । हन्त ! ततस्तहिं
मर्थितं, यदि वा “सेसयं तु मश्नाणं" (११७) तस्य विज्ञानस्य अवतः शृण्वतो वा यो दो विशेषः, स
इत्यत्र योऽसौ तुशब्दः, ततोऽपि तेषां तत्स. का?, इति कथ्यतां, येन तद्वक्तुः श्रुतं, श्रोतुश्च मतिः स्यात् ।।
मर्थ्यते इति दर्शयन्नाहइति नास्त्यसौ विशेषः, शब्दज्ञानत्वाविशेषादिति नायः । किंच-पवं सति श्रोतुराप कदाचित श्रुत्यनन्तरमेव ब्रुवतः
तुसमुच्चयवयणाओ, व काइ सोइंदिग्रोवनची नि। सैव शब्दजनिता तन्मतिरवशिष्टा श्रुतं प्रसजति, "वेतस्स,
मरेवं सइ सोन-ग्गहादप्रो हुंति मश्नेया ॥१३॥ सुयं" ( ११६) “सुणओ मह" (११ ) इत्यभ्यु- "सेस तु मश्नाणं" (११७ ) इत्यत्र योऽसौ तुशब्दः पगमाव; ततश्च तदेवैकत्वं मतिश्रुतयोः, इति कोऽतिशयः समुपयवचनः, ततश्च किमुक्तं जवति ?-शेषकं मतिज्ञानम्, कृतः स्याद् ! इति । किं च-वदि-शूरवतः सर्वदेव मति- काचिदनपेक्षितपरोपदेशाहदचना श्रोत्रेन्जियोपखन्धिश्च मति
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गाय
कानमित्येषं या घोषो भवन्ति मतिनेदाः । तथा च सति मतेरष्टाविंशतिभेदत्वं न परिदीयते, ततञ्चन नाम सोडाहादयो बुद्धी" ( ११ ) इत्यादि परमेये प्रतिक्षिप्तमेवेति गाथार्थः ॥ १२३॥
( १९४८ )
निधानराजेन्द्रः ।
मूलगाद्याया व्याख्यातशेषं व्याख्यानयत्राहपत्तागयं सुयका - रणं ति सद्दो व्ब तेरा दव्वसुयं । भावसुयमक्खराणं, लाभो सेसं मइन्नाणं || १२४॥
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मूलगाथायां ' श्रोत्राव ग्रहाऽऽदयः, शेषकं च मतिज्ञानम् ' इ. स्युके शेषस्य सर्वस्यापि उत्समेतो मति प्राप्ते, अपवाद:मोनू दयति (११७) युक्तम् तत्र कित यदि येते, इत्यादभाष्यकार-पत्रादिगतं. पत्रादिति तेन कारणेन व्यतमः येन किम् ? इत्याह-कारणमिति किं स्यादिति यथा भावकत्वात् शम्दो व्यतम तथा पुस्तकपत्रा33दिन्यस्तमपि तत्कारणत्वाभ्यभूतमित्यर्थः सम्मुक्त्वा शेषक्षुरादीन्द्रियोपलब्धिरूपं मतिज्ञान (भावस्वमक्ख राणमित्यादि ) न केवलं वेन्द्रियोपलब्धिः तम या भुतानुसारित्वाद् भाव भावतरूपः शेषेषु चक्षुरादीन्द्रिये स्वराणां नाभः परोपदेशाद्वचनानुसारिएरोप त्यर्थः सोऽपि श्रुतम् इत्येवं मूलगाधायां संबन्धः कार्यइति हृदयम, स च प्राग् वृत्तौ कृत पत्र । तस्माच्चाकरमानाचीन्द्रियेषु द्वेषमतानुसार्यप रूपम, तम्मतिज्ञानमत्वेषमिवेत संयते इति गा थाऽर्थः ॥ १२४ ॥
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अथ परः पूर्वपरविराधमुक्रावयचाह ज सुगमक्खर लाभो, न नाम सोओवलफिरेव सुयं । सोमवाकिरेवक्खराएँ मुहसंजनाओं चि ।। १२५ ।। इयमपि प्राग् मूलगाथावृत्तौ दर्शितार्थैव, तथापि विस्मरणशीखानामनुप्रदार्थ किञ्चिद व्याश्यायते ननु न्यायेन लामोऽपि तईि भोत्रेयोपधिरेव श्रुतम इति यद्यधारणं कृतम्, तदसङ्गतं प्राप्नोति शेषे न्द्रियाकुरलाभस्यापि तत्बाद भयोचरमा "सोय
रेयादि" यद्यन्द्रियारामोऽपि योपलब्धिर्न स्यात्, तदा स्यादेवावधारणमसङ्गतम्, तच्च गास्ति यता शेवेन्द्रद्वारा उपासनेऽपि प्रतिभासमानान्यकराणि श्रोत्रेन्द्रियोपलब्धिरेव अहो ! महदाश्रम तो यदि पोयाकरलाभः कथं पार्ष शेषेारामः सुरसंभवा शेषेन्द्रियज्ञानप्रतिभासभाज्यक्राणि श्रोत्रोपलब्धिरेष । कुतः, इत्याह तेषां ते अवणस्य संभवात् इदमुकं भवति-मिलापकपाणि हि पतानि अक्षराणि, अभिलाप तस्मिन् वा विवहिते काले, अन्यदा वा तत्र वा विवहिते पुरुषे, अन्यत्र वा श्रवणयोग्यत्वात् श्रोत्रेणोपलभ्यते । अतः श्रोत्रो पलम्भयोग्यत्वेन तत् सर्वोपि रेव इति न किञ्चिदवधारणं विरुध्यते । इति गाथाऽर्थः ॥ १२५ ॥ किं सर्वोपद्रवाकाः सुतम, आहोस्विन क श्विदेव ?, इत्याहसो विहु सुक्खराएं, जो लाभो तं सुयं मई सेसा ।
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याप
जवा अणक्खर च्चिय, सा सव्वा न प्पवत्तेज्जा ॥ १२६ ॥ सोधपडियाकरलामा स एव तम या कि इत्याह-यः श्रुताक्काराणां लाभः, न सर्वः यः संकेतविषयशब्दानुसारी, सर्वश्वचनकारणो वा विशिष्टः श्रुताक्षरलाभः स एव न त्वश्रुतानुसारी; ईहाऽपायाऽऽदिषु परिस्फुरदकरलाभमात्रमित्यर्थः । ( जश् व ति ) यदि पुनरक्षरलाभस्य सर्वस्वाऽपि तेन क्रोमीकरणादयमतिरभ्युपगम्येत तदा सा यथाभ्यप्रदा उपायधारणरूपासिद्धान् प्रोक, तथा सर्वात सर्वाऽपि मतित्वं मानुनवेदित्यर्थः किं वनकरत्वादवग्रह मात्रमेव मतिः स्यात्, न त्वीदाऽऽदयः, तेबामक्षरलाभाऽऽत्मकत्वात् । तस्मात् श्रुतानुसार्येवा करनाभः श्रुतम, शेषं तु मतिज्ञानमिति गाथाऽर्थः ॥ १२६ ॥
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तदेवं व्याख्याता प्राष्यकृताऽपि " सोइंदिभोवसद्धी" (११७) इत्यादिगाथा, साम्प्रतं त्वस्यां यः श्रुतविषयः पर्यवसितोऽर्थः प्रोको भवति तं दर्शयति
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दव्वसुर्यं भावसुयं, उभयं वा किं कहूं व होज्ज चि । को वा जावसुगं सो, दब्वाइसुयं परिणमेज्जा ? ॥ १२७ ॥ इह " सोइंदियोबलद्धी ” ( ११७ ) इत्येतस्यां गाथायां 'मोपूर्ण दध्वसु ( ११७ ) इत्यनेन पुस्तकाऽऽदिन्यस्तं - व्यश्रुतमुक्तम्, अक्षरलाभवचनासु नावश्रुतम्, श्रोत्रेन्द्रियोपलब्धिवचनेन तु शब्दः, तद् विज्ञानं चेत्युभयश्रुतमुक्तम् । तत्रानस्तरवक्ष्यमाणपूर्वगतगाथायामेतच्चिन्त्यते किं तद् इन्याssदितम् ?, कथं वा तद्भवति ?, को वा क्रियान् वा इत्यर्थः, भावभूतस्यांशो भागो तरूपतया आदिशदादुभयश्रुतरूपतया वा परिणमेदिति गाथाऽर्थः ॥ १२७ ॥ का पुनरसौ पूर्वगतगाथा ? इत्याहबुद्धिरिडे प्रत्ये, जे भास से सुर्य मईसहिये ।
श्रत्य विदोज्ज सुर्य, नवलब्धिसमं जड़ भणेज्जा ॥ १२८ ॥ मतिश्रुतयोर्भेदोऽय विचार्यश्वेन प्रस्तुतः इत्यतः केचिदेन गायां तदनुयाथिश्वेन व्याख्यानयन्ति माध्यकारस्तु तेनापि प्रकारेण पश्चाद् व्याख्यास्यति, साम्प्रतं प्रस्तावानुयायि वेन बद्ध्यायायते तत्र बुद्धि रूपे गृह्यते, तथा
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गृहीताः पर्यालोचिता बुद्धिरा अभिलाप्या अर्थाः पदा र्थाः, ते च बहवः सन्ति, अतस्तन्मध्याद् वक्ता यान् प्रापते बक्ति तद् श्रुतम् । कथं यान् जायते ? इत्याह-मतिः श्रुतोपयोगरूपा तत्सहितं यथा भवति । एवं यान् जावान् भाषते तत् श्रुतमुनयरूपमित्यर्थः । इदमुकं नवति-: - श्रुताऽऽत्मक बुन्ध्युपलब्धानधन दुपयुक्तस्यैव वदतो रूप मुभयतं भवति तदश्रुतमित्युनोऽपि सामर्थ्यादुभयतं लभ्यते " जे भास " इत्यनेन शब्दरूपस्य व्यश्रुतस्य सूचित "बुद्ध" "मसहियं " ब मेन च भावस्यानित्यादिति। तदेतायता "सोई११७) इत्यादिगाचोकस्य यस्य व रूपमुक्तम; यान् पुनः प्रथमं श्रुतबुद्ध्या दृष्टानपि पश्चादज्यासबलादेवानुपयुक्तो वक्ति, तद् व्यश्रुतम् इत्येतावनाथायामकमपि सामर्थ्याद् गम्यते; तथा याद बुद्ध पश्यत्येय न तु मनसि स्फुरतो
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अन्निधानराजेन्द्रः। यमेवावगन्तव्यम् । तदेतावता किं तद् द्रव्याऽऽदिभुतम् !, कथं तमनेकगुणमनन्तगुणम, अतो नोपलब्धिसम भणतीति गाबा तद्भवति', इत्येवं चिन्तितम् । अथ-"को वा भावसुयं | थार्थः।। १३०॥ सो"(१२७) इत्यादि चिन्त्यते-तत्र भावभुतमुन्नयभुताद् द्र
उपलब्धिसममित्येतस्य समासविधिमाह-- व्यभुताचानन्तगुणम्, एतस्मात् तु उन्नयभुतं व्यश्रुतं चा- सह नवलछीए वा, नवलफिसमं तया व जंतुल्लं । नन्ततमे भागे वर्तत इति भावनीयम, वाचः क्रमपर्तित्वात,
जं तस्समकालं वा, न सबहा तर वोत्तुं ने ॥१३१॥ आयुषश्च परिमितत्वात् सर्वेषामपि भावभुतविषयनूता. नामर्थानामनन्ततममेव भागं वक्ता भाषत इति भावः। ततश्च
यद् भाषणमुपलभ्या सह वर्तते तदुपलब्धिसमम, प्रा. भावश्रुतस्यानन्ततम एव भागो व्यश्रुतत्वेन उभयभुतत्वेन
कृत शैलीनिपातनात् सहस्य समभावः, या या श्रुतोपलच परिणमतीत्युक्तं नवति । एतच्च सर्वमनन्तरमेव ना
विधस्तया तया सह यद्भाषणं तदुपलब्धिसममित्यर्थः। (तया व ध्यकारः स्वयमेव विस्तरतो भाणष्यति, इत्यवं विस्तरेण ।
जं तुल्य ति) तया चोपलव्ध्या यत् तुल्यं समानं तपलब्धिमाह-ननु यानुपयुक्तो भाषते तदुनय श्रुतम, यास्त्वनुपयुक्तो
समम-यावती काचित् श्रुतोपलब्धिस्तत्तुल्यं तत्संख्यं यद्भाबक्ति तद् द्रव्यभुनमित्युक्तम; याँस्तर्हि न भाषते, केवलं भुत.
षणं तद्वोपलब्धिसममित्यर्थः। (जे तस्समकासं चेति) तया
अपक्षया समकासं वा यशाषणं तऽपलब्धिसमय । यथा मबुख्खा पश्यत्येव, तत्राऽपि जव्यश्रुतरूपता, उभयश्रुतरूपता च किमिति नेष्यते ?, इत्याशङ्कचाऽऽह-"इयरत्थ वि" इत्याधु
ध्ये शूलं वेदयतस्तत्समकानमेवान्यस्मै तद्यथाकथनम, एवतराईम् । " जे नासा तं च सुयं " इत्युक्त तत्प्रतियोगि
मन्तः सर्वामपि श्रुतोपलब्धिमनुभवतस्तत्समकासमेव यद स्वरूपमभाषमाणावस्थाभावि भावश्रुतमेव इतरत्र शब्दवाच्यं
नाषणं तद्वा उपलब्धिसममिति भावः । किंबहुना ?, सर्वथा जवति । ततश्चायमर्थः-द्रव्यश्रुतोभयश्रुताज्यामितरत्राऽपि ना
सर्वस्मिन्नपि समासविधावयं तात्पर्यार्थः । कः ?, इत्याहवश्रुते भवेत श्रुतम्-5व्यधुतरूपता, उभयधृतरूपता वा भवे
श्रुतज्ञानी यावत् श्रुतबुद्ध्या समुपनन्नते, तावत्सर्वं न तरति दित्यर्थः। यदि किं स्याद् १, इत्याह-उपलम्जनमुपलब्धिः ,
न शक्नोति वक्तु (जे इति) अलङ्कारमा । इति गाथाऽर्थः ॥ तत्समं तत्प्रमाणं यदि भणेत्--यावस्तुनिकुरम्बमुपक्षनते
१३१॥ तावत्सर्वमुपयुक्तोऽनुपयुक्तो वा यदि बदेदित्यर्थः । एतच्च
(ए) अथ कथं पुनरन्ये एतां गाथां मतिभुतभेदाथै व्यानास्ति, भुतोपत्नध्या उपलब्धानामनामनन्तत्वात, वाचः
ज्यानयन्ति ?, इत्याहक्रमवर्तित्वाद, श्रायुषश्च परिमितत्वादिति । तस्मादभिशाप्यानां केई बहिद्दिद्वे, मइसहिए नासो सुयं तत्थ । श्रुतोपलव्ध्या समुपलब्धानां भावानांमध्यात् सर्वेणापि जन्मना किं सहो मरुनयं, नावमुयं सव्वहा जुत्तं ॥ १३॥ मनन्ततममेव भागं भाषते वक्ता, अतस्तत्रैवानुपयुक्तस्य
ह केचनाप्याचार्या मतिश्रुतयोदं प्रतिपिपादयिषवो "बुकि. वदतो व्यश्रुतरूपता, उपयुक्तस्य तु वदत उत्जयश्रुतरूपता भवेत्, नेतरत्र नाक्थुते, नाषणस्यैवासंभवात् । इति पूर्वगत.
हिडे प्रत्ये, जे भास" (१२८) इत्यादि मुलगाथायां बुकिः गाथायः॥ १२०॥
श्रुतबुकिरिति न व्याख्यानयन्ति, किं तु 'बुर्मितिरिति' तदेवं व्याख्याताऽस्माभिरियं गाथा,
ब्याचकते। ततइच बुद्ध्या मस्या दृष्टेषु बहुवर्थेषु मध्ये काँश्चिसाम्प्रतं नाष्यकारस्तद्वयाख्यानमाह
तु तदष्टानान्मतिसहितान भाषमाणस्य भुतं भवति । पाहजे मुयबुफिदिहे, मुयमसहिओ पजासई भावे ।
ननु मतिज्ञान्येव मतिसहितो भवति, तत्कथमर्थानां मति.
सहितत्वं विशेषणम ! । सत्यम्, किंतु मूत्रगाथायां “म. तं जयमुयं जन्न, दबसुयं जे अणुवउत्तो ॥१२॥
इसहियं" ( १२८) इति वचनान्मत्युपयोगे वर्तमानोऽत्र वक्ता गतार्थेव । नवरं सुखाथै किश्चिद् व्याख्यायते-भुतरूपा यका गृह्यते, अतस्तस्य मत्युपयोगसहितत्वादानामप्युपचारस्तबुकिस्तया हा पर्यास्रोचिता ये भावास्तन्मध्याद "मासहि- तस्तत्सहितत्वमुच्यते । तस्मान्मतिज्ञानरष्टानर्यान् तदुपयुक्तयं" (१२८) इत्यस्य तात्पर्यव्याख्यानमाह-श्रुताऽऽत्मकमतिस- स्यैव प्रापमाणस्य श्रुतं भवतीति तात्पर्यम्; अनुपयुक्तस्य तु हिता, शुतोपयुक्त इति यावत् । यान् जावान् प्रजापते तद बदतो व्यश्रुतम्, पारिशेष्यादभाषमाणस्य पदार्थपर्या लोचन
व्यत्नावरूपमुजयश्रुतं जपयते । यान् पुनरनुपयुक्तो भाषते मात्ररूपं मतिज्ञानम्, इति मतिश्रुतयोर्जेदः । तदेवं कैश्चिन्मनतद् व्यश्रुतं, शब्दमात्रमेवेत्यर्थः । याँस्तु श्रुतबुद्धया पर्या लोच. गाथायाः पूर्वार्दै व्याख्याते सूरिर्दूषणमाद्द-(तस्थ किंसदो ह. यत्येव केवलम, न तु जापते, तद्भावभुतमित्यर्थाद् गम्यते । इति त्यादि) तत्र तैरेवं व्याख्याते भावश्रुतं सर्वथैवायुक्तं स्यात् गाथाऽर्थः॥ १२६॥
सर्वथा तदभावः प्राप्नोतीत्यर्थः। तथाहि-किं भाष्यमाणः उत्तराळव्याख्यानमाह
शब्दो प्रावभुतम, मतिर्वा, नभयं वा, इति त्रयी गतिः। अस्य इयरत्थ वि जावसुए, होज्ज तय तस्समज भणिज्जा। चत्रितयस्य मध्ये नेकमपि जावभुतं युक्तामति भावः । ति गा. न य तरइ तत्तियं सो, जमणेगगुणं तयं तत्वो ॥१३०॥ थाऽर्थः ॥ १३॥ यज्ञापते तभयश्रुतं, व्यश्रुतं वेत्युक्ते भावभुतमेक्तरत्र
कथम् !, इत्याहशब्दवाच्यं गम्यते । ततश्चेतरत्रापि भावभुते नवेत् तद्
सहो वा दबसुयं, मइराभिणिबोहियं न वा नभयं । सन्यश्रुतमुभयधुत वा, यदि तत्सममुपलब्धिसम भणेत, ताच जुत्तं उभयाभावे, नावसुयं कत्थ तं किं वा ॥१३॥ नास्ति, यस्माच्छ्रुतज्ञानी स्वबुध्या यावऽपलभते ताबद्वक्तुं। मत्युपयुक्तस्य शब्दमुदीरयतो यस्तावत् शब्दः स श्यभूत'न तरति' न शक्रोति । कुतः, इत्याद-यद यस्मात कारणात् | मेव, इति कथं जावधुतं स्यात् १, मतिस्त्वानिमिबोधिकहानततो भाषाविषयीकताव भुतात तदशस्यनावणक्रिय भावन-साभवतु तर्हि भतिशम्दसणमुभवं समुदित भावभुतमाख्या
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(१५.) अभिधानराजेन्द्रः।
पाण
याण
ह-(न वा उभयं, जुत्तं ति ) नैव यथोक्तमुन्नयं समुदितमपि जो असुयक्खरलाभो, तं मइसहिओ पभासेजा।१३६। भावभुतं युक्तम्, प्रत्येकावस्थायां तद्भावाजावात, न हि प्रत्ये- अथवा मतिव्यश्रुतत्वमेतु आगच्छतु, न तत्र वयं निषेका. कंसिकताकणेषु असत्सं समुदितावस्थायामपि भवतीति रः, केवसमेतदेव निर्बन्धेनाजिदमो यदुत-भावेन नावभुत. जावः । तदेवमनयस्य स्वतन्त्रस्याऽस्वतन्त्रस्य वा जावचतत्वे. त्वेन सा मतिर्विरुध्येत दर्शितन्यायेन विरोधमनुजवेत् । श्दनानाबे सति तद् भावश्रुतं क्व शब्दाऽऽदौ?, किंवा तत् ?,न मुक्तं जवति-" केई बुकिद्दि, मासहिए भासओ सुयं" (१३२) किश्चिदिति भावः । इति गाथाऽर्थः ॥ १३३ ॥
इत्यत्र गाथाद्धे योऽसौ श्रुतशब्दः स यदि द्रव्यश्रुतवाचिअथ जाषापरिणतिकाले मतेः किमप्याधिक्यमुपजायते, इति । स्वेन व्याख्यायते तदा विरोधो न जवति । कथम् !, इति चे. उभयस्य श्रुतत्वं न विरुभ्यते, इत्याह
तू । उच्यते-बुद्धिमतिस्तद्दृष्टान् मत्युपयोगसहितानर्धान् भाष
माणस्य सा मतिः शब्दलत्तणस्य व्यश्रुतस्य कारणत्वाद्र. नासापरिणकाले, मईएँ किमहियमहऽमहत्तं वा।
व्यथुतम, अनापमाणस्य तु मतिज्ञानम, इत्येवं मतिरूव्य ध्रु. जासासंकप्पविसे-समेत्तो वा सुयमजुत्तं ॥ १३४ ॥ तयोर्भदः प्रोतले भवति, न त मतिश्रुतझानयोः केवलं विरोमतेरन्तर्विज्ञानविशेषस्य भाषापरिणतिकाले शब्दप्रारम्नवे- धपरिहारमात्रमित्थमुपकल्पितं भवति । अत्राऽऽह कश्चिन-ननु लायां पूर्वावस्थातः किमधिकं रूपं संपद्यते ?, येनोभयाव- यदि मत्युपयोगे वर्तमानो भापेत कश्चित् , तदा व्यश्रुत. स्थायां सा शानान्तरं स्यात. श्रुतव्यपदेशः स्यादित्यर्थः । कारणत्वा मतिः स्याद् व्यथुतम् , एनच्च न भविष्यति, (महऽमहत्तं वेति) अथवा-अन्यथात्वं किं मतेभीषापरिण- श्त्याह-(जो अमुयोत्यादि) योऽश्रुतानुमायकर लानः, त मत्युतिकाले निर्मूलत एवं अन्यथाभावः कः, येन श्रुतत्वं स्या
पयोगे वर्तमानो नाषेत वता, नाऽत्र कश्चित् संदेहः, यस्तु श्रुत', न कश्चिदिति भावः । भाषाऽऽरम्न एवात्रविशेषः, इति चे.
तानुसायंकरलाभस्त ध्रुनोपयोग एव वर्तमानी भाषेत, अतो त', इत्याह-(नासेत्यादि ) जाषायाः संकल्पः प्रारम्भः,
न तचन्दस्य मतिः कारणम, श्रुतपूर्वत्वात्तस्येति भावः । स पव विशेषमात्रम्, मात्रशब्दो मनागपि धिकारभवननिषे.
इदमुक्तं नवनि-यः परोपदेशाद्वचनलकणं श्रुतमनुश्रित्याकधार्थः, तस्माद् भाषासंकल्पविशेषमात्रा मतेः श्रुतत्वमयुक्तम् ।
रलाभोऽन्तः स्फुरति तं श्रुतापयोगे एव वर्तमानो भाषते, पतयुक्तं भवति-अन्तर्विज्ञानस्य स्वयमविशिष्टस्य बाह्यक्रिया55
यस्त्वश्रुतानुसारी स्वमत्यैव पर्यालोचित ईहाऽपायेषु स्फुरत्य. रम्नादत्यन्तजातिभेदाभ्युपगमे धावनवल्गनकराऽऽस्फोटना55
क्षरसाना, तं यदा मत्युपयोगसहित एव भाषते, तदा तस्य शदियाह्यक्रियाऽऽनन्त्यान्मतेरानन्त्यमेष स्यात्, स्वयं चाऽनुपजात
ब्दलकणस्य व्यथुतस्य कारणत्वाद् भवत्येव मति:व्य श्रुतम् । विशेषाणां ज्ञानानां शब्दपरिणतिसन्निधानमात्रत एव ज्ञा
इति गाथाऽर्थः ॥ १३६ ॥ नान्तरत्वेऽतिप्रसङ्गः स्यात, अवध्यादिष्वपि तयाप्राप्तेरिति
अथास्मिन्नव मतेऽव्यश्रुतत्वपके "श्यरत्थ वि दोज गाथाऽर्थः ॥ १३४॥
सुयं" (१२८) इत्यादी मूलगाधाया उत्तरायोऽर्थः तदेवं कैश्चिद्विहितं मूलगाथायाः पूर्वार्धव्याख्यानं वृक्षितम,
संपद्यते, तमाचार्यः प्रदर्शयन्नाह_अथोत्तराव्याख्यानमुपदर्य दूषयितुमाह
इयरम्मि वि मइनाणे, होज तयं तस्सम जइ भणेज्जा। इयरत्थ वि मइनाणे, होज सुयं तिकिह तं सुर्य होइ। न य तरह तत्तियं सो, जमणेगगुणं तयं तत्तो॥१३७।। किह व सुयं होई मई,सलक्खणाऽऽवरणनेयाओ॥१३॥
भाषमागस्य मतियश्रुतमिन्युकम् , अतोऽभाषमाणावस्था
नावि मतिज्ञानमितरत्र शब्दवाच्यं भवति । ततश्चेतरत्राप्य“बुझिद्दिष्टे अत्ये" (१२८) इत्यत्र बुद्धिमतिक्षानं व्या
नाषमाणावस्थानाविनि मतिझाने भवेत् तद् द्रव्यश्रुतं यदि तत्सक्यातम, तन्मतेन "श्यरत्थ वि होज्ज सुथ, वाकिसमं जा
म मतिज्ञानोपलब्धिसमं भणेत, यावद प्रतिज्ञानेनोपलाते जणेज्जा।" (१२८) इत्युसरार्द्धगतस्य इतरत्रशब्दस्य मति.
तावत्सर्व वदेदित्यर्थः, एतच्च नास्ति । कुतः ?, इत्याह-( न कानमेव वाच्यम, शब्दसहितमतेई व्यभावश्रुतत्वेनोक्तत्वात,
च) नैव 'तरति' शक्नोति स यावन्मतिझानेनोपसन्नते तावद तदितरस्य मतिज्ञानस्यैव तत्र संभवात् । ततश्च तथ्याख्या
वक्तुम । कुतः ?, इत्याह-यद् यस्मात् ततो वक्तुं शक्यानमनद्य दूषयति-इतरत्रापि मतिझाने श्रुतं नवेदू यापल तत्मर्वमपि मतिज्ञानोपलब्धमनेकगुणमनन्तगुणमिति गाथाsब्धिसम भाषेत, इति यत्तरुच्यते, तदयुक्तम्, यतो हन्त !| यन्मतिज्ञानम, तत्कथं श्रुतं नवितुमईति ?। श्रुतं चेत्, कथं |
अत्र विनेयः प्राऽऽहवा तन्मतिर्मवेत् । कुतः पुनरित्यं न नवति, इत्याह-मति. कह मइसुअोवनद्धा, तीरंति न भासिउं बहुत्ताओ। श्रुतयोर्यत स्वकीय लवणम, कर्म चाऽऽवारकम् , तयोभदेना
सम्वेण जीविएण वि, भासद जमणंतभागं सो॥१३॥ ऽगमे प्रतिपादनात् । यदि च यदेव मतिकानं तदेव श्रुतम, यदेव च श्रुतं तदेव मतिज्ञानं स्यात्, तदा लकणाऽऽबरणनेदोऽपि
नन्वनन्तरगाथायां मत्युपलब्धाः सर्वेऽपि वक्तुं न शक्यन्त तयोन स्यादिति गाथाऽर्थः ॥ १३५ ॥
इत्युक्तम, पूर्व तु श्रुतोपलब्धा अपि सर्वेऽभिधातुं न पार्यन्त
इत्यभिहितम, तदेतत्कथम, यन्मतिश्रुतोपलब्धा जावा न तोतदेवम-" बुद्धिबिछे मत्थे, जे भास" (१२८) इत्यादि
यन्ते नाषितुम् ? अत्राऽऽह-बहुत्वात-प्राचुर्यात् । तत्रैतत् स्या. मूलगाधां मतिश्रुतन्नेदप्रतिपादनपरतया व्याचिस्यासोः परस्य
त्-कुतः पुनरेतावद्धहृत्वं तेषां निश्चित्तम ?, इत्याद-यद् य. मति वश्रुतं न युज्यत इति प्रतिपादितम । यदि तु व्यश्रुतं
स्मात कारणात सणाऽप्यायुषा सः मतिश्रुतज्ञानी समुपलसाऽज्युपगम्यते तदा न दोषः, इत्युपदर्शयन्नाह
धानामर्थानामनन्ततममव भागं नाषत इत्यागमे निर्णीतम, तअव मई दनमुय-तमेन ना सा विरुज्झेजा।
स्माद बहुत्वावगमः । इति गाथाऽथ १३॥
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(१९५१) णाण
अभिधानराजेन्ः। अथ मत्याापनम्धार्थानां सामस्त्येनाभिधानाशक्यत्वे पू. विताः। किम !, इत्याह-अनन्ततम एव भागे वर्तन्ते । केवोत्तम, अपरमपि च हेतुं विषयविभागेनानि
पाम?, अत्राह-अनजिलाप्यानामर्थपर्यायत्वेनावचनगोचराऽ5धित्सुराह
पन्नानामित्यर्थः, अनलिलाप्यवस्तुराशेरभिसाप्यपदार्थसार्थः तीरंति न वोत्तुं जे, सुओवलद्धा बहुननावाओ।
सर्वोऽप्यनन्ततम एव भागे वर्तत इत्यर्थः। प्रज्ञापनीयपदा
र्थानां पुनरनन्तभाग एवं चतुर्दशपूर्वलकणे श्रुते नियको सेसोवलघभावा, सा भव्यबहुत्तोऽनिहिया ॥१३॥
गवद्भिर्गणधरैः साकाद ग्रथितः। इति गाथाऽर्थः ॥ १४१॥ सर्वेऽपि श्रुतोपलब्धा भावा न तीर्यन्ते न पार्यन्ते वक्तुम् । कुतः पुनरेतद् विकायते यदुत-प्रज्ञापनीयानामनन्तभागपष 'जे' इति पूर्ववदेव । कुतस्ते वक्तुं न पायन्ते ?, इस्याह-बहुत्वभा
श्रुतनिबद्धः?, इत्याहबाद बहुखसद्भाबादेवेत्यवधारणीयम,न त तत्स्वाभाब्यादित्य- जं चोदसपुग्वधरा, उट्ठाणगया परोप्परं होति । जिप्रायः । (सेसोवलकमावा, सा भव्व त्ति) शेषं श्रुताद- तेण उ अणंतभागो, पण्णवणिजाण जं सुतं ॥१४॥ न्यत् प्रस्तुतं मतिज्ञानम्, समानवक्तव्यताप्रस्तावलब्धानि म.
यद् यस्मात् कारणात् चतुर्दशपूर्वधराः षट्स्थानपतिताः त्यवधिमनःपर्यायकेवनानि वा शेषाणि, तेन तैर्वा उपलब्धा
परस्परं भवन्ति, हीनाधिक्येनेति शेषः । तथाहि-सकलाभिसाताः शेषोपनब्धाः, ते च ते भावाश्चेति समासः, स्वाभाव्या
लाप्यवस्तुवेदितया य उत्कृष्टः चतुर्दशपूर्वधरः, ततोऽन्यो ही. देव अनन्निनाप्याऽऽत्मकत्वादेव न तीर्यन्ते भाषितुम् । श्राह
नहीनतराऽऽदिः, श्रागमे इत्थं प्रतिपादितः। तद्यथा-" अणंतजा. नन्वेते यथाऽनभित्राप्यत्वादभिधातुं न शक्यन्ते, तथा बहुत्या.
गहीणे वा, असंखेज्जभागहीणे वा, संखेज्जनागहीणे बा, सं. दपि, तत् किमित्यनभिलाप्यस्वजावत्वमेवैकमत्र हेतुत्वेनोच्यते;
खेज्जगुमा हीणे वा, असंखेज्जगुणहीणे वा, अणंतगुणहाणेवा।" सत्यम्, कि त्वभिलाप्यत्वे सति बहुत्वाल्पत्वचिन्ता क्रियमाणा
यस्तु सर्वस्तोकाऽभिल्लाप्यवस्तुज्ञायकतया सर्वजघन्यः, ततोविभ्राजते, ये तु मूलत एवानभिलाप्यास्तेषु बहुत्वलक्षणो है.
उन्य उत्कृष्ट उत्कृष्टतराऽऽदिरप्येवं प्रोक्तः। तद्यथा-"श्रणंतभागतरुच्यमानोऽपि निष्फल एव, अनभिवाप्यात्मकत्वेनैवाभिधा- महिए वा, असंखेज्जभागम्भदिए बा, संखेज्जभागम्भहिए वा, नाशक्यत्वस्य सिद्धत्वादिति । किं च (बहुत्तोऽजिदिय त्ति)
संस्खेज्जगुणन्भहिए वा, असंखेज्जगुणब्जहिए वा, अणंतगुणबड़त्वाच्षांपलब्धा भावा यथा वक्तुं न शक्यन्ते, तथा "क
जहिए था।" तदेवं यतः परस्परं षट्स्थानपतिताः हमसुनोवलका, तीरंति न भासि बदुत्ताओ।" (१३८)
चतुर्दशपूर्वेषिदः, तस्मात् कारणाद् यत्सूत्रं चतुर्दशपूर्वइत्याद्यनन्तरगाथायामनिहिता एव, इति किं बहुत्व हेतूपन्या
लकणं तत् प्रज्ञापनीयानां भावानामनन्तनाग पवेति । यदि सेन!, पौनरुक्त्यप्रसङ्गात् । शेषज्ञानेषु मध्ये मतिरेव स तत्र
पुनर्यावन्तः प्रज्ञापनीया भावास्तावन्तः सर्वेऽपि सूत्रे निबद्धा प्रोक्तः, अत्र ववध्यादपि गृहीतानि सन्ति, अतस्तदर्थम
भवेयुः, तदा तद्वेदिनां तुल्यतैव स्यात, न षट्स्थानपतितत्वयमिहापि वक्तव्य इति चेत्, नैवस्, मतेरुपलकणत्वेनावभ्यादि
मिति नावः । इति गाथाऽर्थः ॥१४॥ प्वप्यसौ तत्र द्रष्टव्य इत्यदोषः । यद्येवम, तर्हि श्रुतस्यापि ब. पाह-ननु यदि सर्वेऽपि चतुर्दशपूर्वविदः, तहिं कयं तेषां दुत्वाकणो हेतुःप्रागुक्त एव, किमितीह पुनरप्युच्यते ?, इति
परस्परं हीनाऽऽधिक्यम, इत्याहचेत् । सत्यम्, किंतु श्रुतोपसम्धा बहुत्वात, शेषोपलब्धास्त त
अक्खरलंजेण समा, ऊण ऽहिया होति मइविसेसेहिं । स्वाभाव्यान्न शक्यन्ते अभिधातुम्, इति विषयविनागदर्शनार्थ तस्येह पुनरुपन्यासः। श्रपरस्त्वाह-ननु मत्याधुपवधानामपि
ते वि अमईविसेसे, सुयनाणऽब्भंतरे जाण ॥ १४३ ॥ केषाश्चिदभित्नाप्यत्वात् किमुच्यते?-(सेसोवझकभावा,सा जब्ब
चतुर्दशपूर्वगतसूत्रलकणेनाकरलाभेन समास्तुल्याः सर्वेऽपि त्ति ) सत्यम्, किं तु तेषां श्रुतविषयत्वेनैवाभिधानाशक्य- चतुर्दशपूर्वविदः, ऊनाधिकास्ते मतिविशेषैर्भवन्ति क्योपशमवैस्वस्यक्तित्वाददोषः । इति गाथाऽर्थः ॥ १३९ ॥
चिच्याद् यथोक्ताकरलाभानुसारिभिरेव तैस्तैर्गम्यार्थविषयैर्वि. विनेयः पृच्छति
चित्रैर्बुझिविशेबहीनाधिका भवन्तीत्यर्थः । इह च मतिशब्दोकत्तो एत्तियमत्ता, भावसुयमईण पज्जया जेसिं ।
पादानविभ्रमात् ते मतिविशेषा मा भूवन्नाभिनियोधिकशान
विशेषाः, इत्यत आह-'ते वि येत्यादि । इदमुक्तं नवति--मजास अणंतभागं, भमइ जम्हा सुएऽभिहियं ॥१४॥
तिशब्देनेह श्रुतमतिर्विवक्किता, न त्वानिनिबोधिकमतिः। तत. कुतः पुनरेतावन्तो नावश्रुतमत्योः पर्याया उपलब्धार्थविष. इच यैश्चतुर्दशपूर्वविदो हीनाधिकास्तानपि च मतिविशेषाया विशेषाः, येषां सर्वेणापि जन्मनाऽनन्तनागमेव नापत इति न श्रुतक्षानाभ्यन्तरे जानीहि श्रुतज्ञानान्तर्भाविन एव विधि, प्रागुक्तम् । अत्र गुरुराह-जपयतेऽत्रोत्तरम्-यस्मात् सूत्रे प्रा- न स्वामिनिकोधिकान्तर्वर्तिन शति भावः । यद्येवम् "ते विय गमे वक्ष्यमाणमन्निहितम,तस्मात तयोरेतावन्तः पर्यायाः। इति मईविसेसे, सुयनाणं चेव जाणादि । " इत्येवमेव प्रगुणे गाथाऽर्थः॥१४०॥
कस्मानोक्तम, किमन्यन्तरशब्दोपादानक्लेशेन ? । नैतदेवम, म. किं तत्स्त्रेऽनिहितम् ?, इत्याह
स्याऽपि न्यायस्य दृष्टवाद्, अङ्गाभ्यन्तराऽऽदिव्यपदेशवद.यथा पासवणिज्जा जावा, अणंतभागो उ अणजिलप्पाणं । ह्यङ्गमेवालाभ्यन्तरम, एवं श्रुतमेव श्रुताभ्यन्तरामस्युक्तं भवति । पसवणिज्जाणं पुण, अणंतभागो मुयनिबछो॥१४१॥
अथवा-छन्दोजङ्गभयादभ्यन्तरग्रहणं, यदि वा-"सुयनाण-"
इत्यनेन चतुर्दशपूर्वलकणं श्रुतमधिक्रियते,ततश्च तानपि गम्यान प्रज्ञाप्यन्ते प्ररुप्यन्त इति प्रज्ञापनीया वचनपर्यायत्वेन भूत- मतिविशेषाँश्चतुर्दशपूर्वाकरलानरूपस्य श्रुतम्यवाज्यन्तरे जानीकानगोचरा इत्यर्थः । के', जावा कर्बाधस्तियंगलोकान्तर्नि- हि त्वम्, न व्यतिरिक्तानिति शिष्योपदेशः, चतुर्दशभिरपि हि विष्ठभूभवनविमानग्रहनकतारकान्हादयस्ते सर्वेऽपि मिपूः कश्चित् साक्षात्, कश्चित् गम्यतया सर्वोऽप्यभिवाप्यः
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( १०५२) अभिधानराजेन्द्रः ।
पाण
पदार्थोऽभिधीयत एव; ततश्च गम्या अपि मतिविशेषातदन्तर्भाविन एव तदनुसारित्वादिति गाथाऽर्थः ।। १४३॥ चतुर्दश पूर्वणश्रुतानुसारित्वेन यदेतद् मतिविशेषाणां तदन्तवित्वमुक्तम तदेव समग्रजे अक्खरानुसारेण महविसेसा वयं सुयं सव्वं । जे जण सुपरिवेक्खा, सुद्धं चिय तं महत्राणं ॥ १४४॥ ये भरानुसारेण तन्धमनुत्यजायन्ते मतिविशेषा तत्सर्वमेव तु निरपेक्षः स्वय प्रस्तुतमतिविशेषाः समुत्पद्यन्ते मति ज्ञानमेव इत्येतदप्यनेकधा प्रागप्यनिहितम् । तस्माच्चतुर्दशपूर्व गताकरानुसारेण जायमानाः प्रस्तुतमतिविशेषाः सर्वे श्रुतमेचे ति गाथाऽर्थः ॥ १४४ ॥
(१०) तदेवं परिभूतस्वरूपप्रतिपादनप्रकारेण "बुदिदि अत्थे जे भास" (१२८) इत्यादि मूलगायां व्याख्याय "केई बुद्धिद्दिठे, महसहिए भासन्नो” ( १३२ ) इत्यादिना दर्शितमपि विशे दूषणानिधित्सया पुनरपि म तान्तरमुपदर्शयन्नाद्
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के प्रभासिज्जता, सुयमणुसरओ वि जे मइविसेसा । यन्नंति से मह चिय, भावमुपाभावओो तन्नो ॥ १४५ ॥ केचिद् व्याख्यातारः (मन्नंति ते मइ चित्रयति) तान् मतिविशेषान् श्रुतमनुसरतोऽपि मतिरेवेति मन्यन्ते ये किम १, इत्याह-पे माध्यमाणाः येषु शब्दप्रवृत्तिर्नास्तीत्यर्थः मृतानुसारियोऽपि मतिविशेषा ये प्रवृत्तिरदिताः केवलं इथेव परतिज्ञानमेवेति केचि मन्यन्त इति भावः । तदेतद् न । कुतः ?, इत्याह- भावश्रुतानावप्रसङ्गात्, तदभावश्च " किं सद्दो मरुभयं जावसुयं सव्वदा जुतं । (१३२) " "सहो सा दव्वसुयं महरामिणिबादियं न वा उभयं । ” (१३२) पादि पूर्वोकप्रन्धाद् भावनीयम् इति गाथाऽचः ॥ १४५ ॥ किं च किड मयनायविक, उाणगा परोपरं दोजा । जासितं पों, न सेस बुद्धी ॥ १४६ ॥ यदि भाग्यमाणं मुक्वा शेषकं सर्वमपि बुद्धिर्मतिज्ञानामित्यर्थः, समितियां विदन्तीति मतिज्ञानवेदिनः परस्परं स्वस्थाने परस्थाने च कथं स्यानपतिताः स्युःकप दित्यर्थः तथाहि सर्वेणापि जन्मनामतितोपनाम नामनन्तभाग एव भाष्यत इति प्रागिहैवोक्तम् । ततश्च मविज्ञानी नानिनः सकाशात् सदेवानन्तगुणाधिकः सुता नी वितरस्मान्नित्यमनन्तगुणहीन एवं प्राप्नोति, इति न तावस्थापनेपानी अन्यस्मात् श्रुतज्ञानिनः संख्यातेनैव हीनो ऽधिको वा स्यात्, न त्वसंपातेन, अनन्तेन वा भाषकचतुर्दशपूर्वनियां संयु करन अवयस्यानन्तस्य या भाषणस्यैवासंभवादिति । अस्यैव च विशेषदूषणस्याभिधानार्थं पुनरत्रेदं मतान्तरमुपन्यस्तस् । अन्यथा हि-" के बुद्धि, महसहिए भासओ सुयं ( १३२ ) " इत्यादिना सर्वमिदं प्रागभिहितमेवेति गाथाऽर्थः ॥ १४६ ॥
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तदेवं "बुद्धिद्दि अत्थे " (१२८) इत्यादि पूर्वगतगाथाश्रुतस्वरूपामधायिना प्रकारेण व्याख्याता मतितयोश्च भेदस्याम प्रस्तुतत्वाभिधायकत्वेनापि मतान्त रेण व्याख्याता, तच्च व्याख्यानमयुक्ततत्वाद् दूषितम् । अथामा जिमतेन निरतिकारमा सामन्ना वा बुद्धी, मसुयनाणाई तीऍ जे दिट्ठा । भासद संजयमिचं गहियं न व जासणामिवं ॥ १४७ ॥ मइसादियं भावसुयं तं निययमनासओ वि मइरन्ना । मइसहियं तिजमुत्तं, सुयोवनत्तस्स भावसुगं ॥ १४८ ॥ स्वविदित प्रथमन्याच्यानापेक्षा वाशब्दो यदि " बुकिहिडे अत्थे (१२८ ) इत्यत्र येयं बुद्धि:, असौ सामाम्याने किस इत्याह-माणात ) मतिश्रुतज्ञाने द्वे अपि बुद्धिरित्यर्थः तथा बुद्धिश्रुतज्ञानाऽऽस्मिकया बुद्धधा ये दृष्टा नावास्तेषु मध्ये यान् भाषते तद्भावश्रुतमित्युतरगाथायां संबन्धः । जापत इत्यत्र च प्रापणस्य संभवमात्रं गृह नतु भाषणमात्रम्। ततश्चेदमुकं भवति तत्राम्य वा देशे, तदाऽन्यदा वा काले, स चान्यो वा पुरुषः, सति सामग्रीसंभवे निश्चयेनैतान् प्रापत एव इत्येवं यान् नावानन्तविमानान् भाषणयोग्यतायां व्यवस्थापयति जाध्यमाणा अपि भाषणयोग्याः सन्तो नावश्रुतं जवन्ति न तु जाभ्यमाणा एवेति भावः । एवं च सति मत्युपलब्धानामनभित्राप्यानामर्थानां भाषणायोग्यत्वाद्भावभुतत्वमपाकृतं भ बति । नाषणयोग्यानां त्वनाप्यमाणानामपि सर्वेषां विकल्पप्रतिभासिनामर्थानां मायादितं भवति ॥ १४७ ॥ अब पर्यवसितमद्वितीयगमायामा ननिश्चित तद्भाचक्षुतमभाषमाणस्यापि भवति, योग्यतामात्रेव ना पणस्य गृहीतत्वादिति भावः । माह-ये सामान्य बुद्धिदृष्टा भाषणयोग्य, यदि तेषां प्रातस्य राि मतिज्ञानान्तरपायकाचासितामपि हि तेऽपि न भाषणयोग्याः, इत्याशक्याऽऽद्द " मतिसहितमिति । अस्य व्याख्यानमाह - ( महसहियं तीत्यादि ) मतिसहितमिति यदुकं तस्य कस्तात्पर्यार्थः १, इत्याहश्रुतोपयुक्तस्यैव जाषमाणस्य, अभाषमाणस्य वा भावभुतं भवति नान्यस्य । श्मुकं भवति मतिसतिमिति मतिसहितं यथा भवति, एवं यान् भाषते त एव जावतमनान्ये ततश्च श्रुतोपयुक्तरूपेष भाग्यवि कल्पना सिर्फ जयति एवं च पति भूतानुसा रियामा तोरवरूपाऽसजवा मतिविकल्पस्य भा
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योग्यत्वे सत्यपि कुतो नावश्रुतत्वम् १, इति । श्रह--ननु सामान्य बुद्धिरिगृहीता, तोपयुक्तत्वे च गृह्यमाणे कथं तित्यति मुतबुदिशत्वस्येव तत्र संभ वात् । नैतदेवम, मतिपूर्वे हि श्रुतम, ततो यत्र भुतबुद्धिष्टत्वं तत्र मतित्वमस्येव इति न काचित् कृतिः [ते]] [] तापयुक्त सामान्य
मत
से
कथं
यतो यान् नापते स्तम्न भावभुतत्व] १, ज्ञानस्यैव तत्संप्रवात् । सत्यस्, किं तु विषयविषविणोरभेदोपचाराद् भावते प्रतिज्ञासमाना अ पि भावश्रुतम् इत्यदोषः । ( मइरन्न ति ) यथोक्ताद्भावश्रुतादग्या व्यतिरिका मनियारी-अि
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(१९५३)
अन्निधानराजेन्षः। सन्तो घटाऽऽदयः श्रुतानुसारित्वानावेन श्रुतोपयुक्तेन विकल्प्य. उवाकिसमं जह भणेजा।" (१२०) इत्येतदुसरा व्या. न्ते, ये चाऽर्थपर्यायत्वेन वाचकध्वनेरभावाद् मन्नत एवाभि- चिस्यासुराहबपितुमशक्या अनभिलाप्याः, ते यस्यां विज्ञप्ती प्रतिभासन्ते,
इयर त्ति मइनाणं, तओ वि जइ होइ सद्दपरिणामो । सा मतिरित्यवगन्तव्या, न तु श्रुतम्, अभिलाप्यवस्तुविष
तो तम्मि विकिं न सुयं, भासद नोवलछिसमं? ॥१५॥ यायां श्रुतानुसारित्वानावाद्, अनलिलाप्यवस्तुविषयायां तु नाषणायोम्यत्वादिति गाथाद्वयार्थः ॥ १४८ ॥
" श्यरत्थ वि होज्ज सुयं,” (१२० ) इति मुनगाथोत्तराई अथेष्टतोऽवधारणविधिमुपदर्शयन्नाद
इतरशब्दस्य किं वाध्यम, इत्याह-इतरदिति मतियाने त.
बाऽभिसंबध्यते, इत्याचार्येणोक्ते परः प्राऽऽह-(तो विज ने भासइ चेय तय, सुयं तु न तु भासमो सुर्य येव ।
होइ सहपरिणामो । तो तम्मि वि किं न सुयं ति) तत इति के मइए वि दिहा, जं दब्बसुयत्तमुवयंति ॥२४॥
सप्तम्यन्तात्तस्प्रत्ययः, ततश्च-“उभयहा मनाणं" (१५.) " बुझिदिले अत्थे, जे भासह" ( १२० ) इत्यत्र यान् इति वचनाद् यदि तस्मिन्नपि मतिज्ञाने शब्द परिणामो जबकदाचित् संभवमात्रेण नाषत एव तत् तमित्येवमेवा
ति, ततस्तस्मिन्नपि कि न श्रुतं-तदपि भावश्रुतरूपतां किन बधारणीयम्, न तु नाषमाणस्य श्रुतमेवेति यान् भाषते
प्रतिपद्यते ! इत्यर्थः, शब्दपरिणामस्य श्रुतत्वेन उक्तत्वादिति तत् श्रुतमेवेत्येवं नावधायेत इत्यर्थः । कुतः ?, इत्याह-यद् भावः । अत्राऽऽचार्य उत्तरमाह-(भास ज नोवलकिसम यस्मात् कारणात् केचिदभिलाप्याः पदार्या मत्याऽपि दृष्टा ति) यद् यस्मात कारणाऽपलब्धिसमं मतिज्ञानी मनापअवग्रहेणावगृहीताः, ईदया त्वीहिताः, अपायविकल्पेन तु ते, ततो न मतिज्ञानस्य श्रुतरूपतेति गाथाऽर्थः ॥ १५१ ॥ निश्चिता इत्यर्थः, द्रव्यश्रुतत्वमुपयान्ति, शब्दलक्षणेन व्य- कथं पुनरुपलब्धिसममसौ ननणति !, इत्याहअतेन भाष्यन्त इत्यर्थः । यदि च भाषमाणस्य भुत- अनिलप्पाऽणजियप्पा, उवघा तस्समं च नो भणइ । मेवेत्यवधार्यत, तदा एषामपि भूतत्वं स्यात् । न चैतदिष्यते, भुतानुसारित्वाभावेन भुतोपयुक्तत्वस्य तेवसंभवात, त
तो होन ननयरूवं, उनयसहावं ति काऊणं ॥२५॥ स्माद् यथोक्तमेवावधारणमिति गाथाऽर्थः ॥ १४६ ॥
प्रागुक्तन्यायेन अनिलाप्यानभिलाप्याः पदार्था मतिज्ञामोअथ यथोक्तव्याख्यानलब्धमतिश्रुतभेदोपदर्शनपूर्वकमुपसं- पलब्धाः , एवंभूतोपलच्या च समं भणितुं न शक्नोत्येव, हरबाद
मनभिलाप्यानां सर्वथैव वक्तुम शक्यत्वादिति भावः । एवं धणिपरिणाम, सुयनाणं उत्जयहा मश्वाणं ।
अत्र परः प्राऽऽह-( तो होठ इत्यादि ) ततस्तहिं भवतु अं जिन्नसहावाई, ताई तो भिन्नरूवाई ॥ १५०।।
मत्तिकानमुभयरूपं श्रुतमतिरूपम । कुतः १, इत्याह-उएवं प्रागुक्तप्रकारेण केवलाऽभिलाप्यार्थविषयत्वात् सर्वम
जयस्वभावमिति कृत्वा, अभिलाप्यानभिलाप्यवस्तुविषयपि भुतज्ञानं ध्वनिपरिणाममेव, ध्वनेः शब्दस्य परिणमनं वि.
स्वेन द्विस्वनाववादित्यर्थः । इदमुकं भवति-यदजिलाप्यपरिवर्तनं परिणामो यत्र तद् ध्वनिपरिणामं भवत्येव, भुता
पदार्थान् उपलभते भाषले च, तत् श्रुतकानमस्तु, अनभि. बुमारित्वेनोत्पन्नमेव खेतदिप्यते, श्रुतं च संकेतकालभाविप
लाप्यपदार्थास्तु भाषणायोग्यान् यदवगच्छति, तन्मतिकानं
भवति । ति गाथाऽर्थः ॥ १५ ॥ रोपदेशरूपः, भुतप्रन्थरूपश्च द्विविधः शब्दोऽत्राधिकृतः, त
अत्रोचरमाहदनुसारेण चोत्पन्ने ज्ञाने ध्वनिपरिणामो भवस्येवेति । मतिकानं तूभयथाऽपि भवति-शब्दपरिणामम, अशब्दपरिणामंच,
जंजासइ तं पि जो, न स्याऽऽदेसेण किं तु समईए । अभिलाप्यानभिज्ञाप्यपदार्थविषयं ह्येतत् । ततश्च श्रुतानपेक्वस्व.
न सुअोवलब्धितुवं,ति वा जो नोवलछिसमं ॥१३॥ मत्यैव विकल्प्यमानेष्वभिलाप्येषु ध्वनिपरिणामोऽस्मिन्नपि प्रा- यदपि किश्चिदभिलाप्यवस्तूपलब्धं मतिज्ञानी भाषते तदपि प्यते । अनभिक्षाप्यविषयतायां तु नाऽसौ तत्र लभ्यते । अन- यतो न भुताऽऽदेशेन, किंतु स्वमत्या, अतो न तत् श्रुतमिति । भिलाप्यपदार्था हि स्वयमेव बुद्धयमाना अपि वाचकश्चने- इदमुक्तं जवति-परोपदेशः, श्रुतग्रन्थश्च श्रुतमिहोच्यते, तरभावाद्विकल्पयितुं, परस्मै प्रतिपादयितुं वा न शक्यन्ते, यथा दादेशेन तु तदनुसारेण विकल्प्य यदा भाषते, तदा श्रुतोपमालिकेरहीपाऽऽयातस्य वयादयः वीरेवुगुडशर्कराऽऽदि- युक्तस्य भाषणात् श्रुतमुपपद्यत एव; यत्र तु स्वमस्यैव पर्यालोमाधुर्यतारतम्याऽऽइयो वाइति कुतस्तद्विषतायां ध्वनिपरिणा- ध्य जायते न तु श्रुतानुसारण, तत्र श्रुतोपयुक्तत्वाभावान्म. मः । मभिताप्यपदार्थेयोऽनन्तगुणाभानभिलाप्याः सन्ति,
तिज्ञानमेव । तदेवम्-" भास ज नोवलकिसम" (१५१) नतोऽभिवाप्यानजिलाप्यवस्तुविषयत्वात् शब्दाशब्दपरिणाम
इत्यस्य गाथाऽवयवस्य "अनिलप्पाणभिलप्पा, नवलका" प्रतिज्ञानमिति स्थितम । अधोपसंहरति-(तो सि) तस्माते (१५५) इत्यादिना व्याख्यानं कुर्वताचार्येण मतिज्ञानी मतिश्रुते स्वामिकालाऽऽविनिरविशेषेऽपि भिवरूपे वेदवती म. मतिकानोपलन्या समं न नापते, अतस्तत्रोपलब्धिसभं भाम्तव्ये । कुतः१, श्त्याह-यद् यस्मात् कारणाद् द्वे भपि भित्र- पणं न भवति, इत्यतो न मतिज्ञाने श्रुतरूपतेत्युक्तम्, श्रुतज्ञानी स्वभावे, उक्तन्यायेनेकस्य ध्वबिपरिणामित्वात, अपरस्य तूभ- स्वभिशाप्यानुपबनते, ताँश्व नाषतेऽतस्तत्रैवोपलब्धिसमयस्वन्नावत्वादिति गाथाऽर्थः॥ १५.॥
स्वस्य सझावात श्रुतरूपतति भावः । साम्प्रतं तु मतिज्ञानी तदेवं मूत्रगाथायाम-" बुद्धिबिट्टे अत्थे, जे भास तं सुर्य श्रुतोपलन्या तुल्यं समं न भाषते, इत्येवमुपलब्धिसमत्वामांसदियं।” (१२७) इत्येतत् पूर्वार्थम-" सामना ना बुझी" | भावमुपदर्शयनाह-नि सुअोवलकीत्यादि) बाशब्दः प्रकारा(१४७) इत्यादिना व्याख्यातम । मथ-"श्वरस्थ वि होजमय, स्तरद्योतका, ववश्वन धृतोपलब्ध्या तुल्यं मतिज्ञानी भाषत
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(१९५४) - याण भनिधानराजेन्द्रः।
वाग इति वा,यतो यस्मात् कारणात नोपलब्धिसम मतिशानिनोना- मइमुयनेयावसरे, जम्हा किं सुयविससेणं ।। १५६ ।। षणम, तस्मान्न तत्र श्रुतरूपता। इदमुकं जवाति-श्रुतोपलब्धी
यदि वा जाबजव्यश्रुतयोः सः-वल्क शुम्बोदाहरणाद् नेदः क. परोपदेशाहद्वचनलकणश्रुतानुसारेणोपलब्धानर्थान् जापते,म
ल्पेत-भावश्रुतं हि कारणत्वात किल वल्कसदृशम, शन्दलकणं त्युपली तु तदुपलब्धानेष, इत्यतो न मनिशानिनो भाषणं
तु हव्य श्रुतं कार्यत्वात शुम्बप्रतिमस्, इत्येवमनयोनेंद येते. भुतापलब्धिसमम्, ततश्च न तत्र श्रुतसंभवः । इति गा
ति भावः । तयोरप्यसौ न युक्तः । कुतः, इत्याह-यस्मान्मतिथाऽर्थः ॥ १५३॥
अतयोभैदानिधाने ऽवसरप्राप्ते ( किं सुयविसेसेणं ति) श्रुततदेवम्-"सोदि भोवलकी होइ सुयं" ( १९७) इत्या.
योन्यन्नावभूतलक्कयोविंशषो भेदः श्रुतविशेषस्तेनाऽभिहितेन दिमूलगाथया तत्वतः श्रोत्रेन्डियविषयमेव श्रुतज्ञानम्, सर्वे
किम् ?, असंबद्धत्वान्न किश्चिीदत्यर्थः । इनि गाथाऽर्थः ॥१५६॥ न्दियविषयं च मतिज्ञानमित्येवं मतिश्रुतयोर्मेंदः प्रतिपादितः, तत्प्रतिपादनक्रमे व " बुरिहिटे प्रत्ये, जे
अथान्यथा पराभिप्रायमाशङ्कमानः प्राहभास " ( १२० ) इत्यादिगाथा समायाता, सा च
असुयऽक्खरपरिणामा, व जा मई वम्गकप्पणा तम्मि । कम्य-भावोजयश्रुतरूपाऽभिधायकत्वेन मतिश्रुतयोर्जेदाऽभिधा. दव्यमयं मुंबसम, किं पुण तोस बिसेसेणं? ॥ १५७॥ नपरतया च व्याख्याता, तयाख्याने चावसिते शन्द्रियवि. श्रुतानुसार्यकरपरिणामो यस्यां सा श्रुतानुसार्यक्षरपरिणाभागादपि मतिश्रुतयोभैदः।
मा, न तथा--श्रुतानुसारित्वरहितशब्दमात्रपरिणामाम्बिता या लाम्प्रतं वल्कशुम्बोदाहरणात्तमभिधिसुराह
मतिरिन्यथः । तस्यां वा बल्ककल्पना क्रियते, तज्जनितअत्रे मन्नति मई, वग्गसमा सुंबसरिसयं सुत्तं ।
शब्दरूपं तु व्यश्रुतं शुम्बसदृशम्, अतस्तयोः प्रस्तुतोदाहरदिटुंतोऽयं जुत्ति, जहोवणीअोन संसहइ ।। १५४ ।।
णाद् भेदो युक्तियुक्तो भविष्यति । श्रुतानुसार्यकरपरिणामा अन्ये केचनाप्याचार्या मन्यन्ते । किम , इत्याह-बल्कसमा
मति वश्रुतमेव स्याद्,अतः पूवस्मान्न विशेष्येत; इत्यश्रुताकरप.
रिणामित्वं विशेषणम्।साच पर्युदासाऽऽश्रयणादश्रुतानुसारिणा बलकसरशी मतिः, ततः सैव यदा शब्दतया संदर्भिता जबति
शब्देनवान्विता गृह्यते, न तु शन्दपरिणामरहिताऽवग्रहरूपा, तज्जनितो यदा शब्द उत्तिष्ठतीत्यर्थः, तदा तपुत्थशब्दसहि
तस्याः शब्द जनकत्वाभावेनानन्तरं शुम्बसदृशप्रव्य श्रुतानावाता श्रुतमुच्यते, तश्च शुम्बसदृशं वल्कजनितदवरिकातुल्यं श्रुतं
दिति । अत्रोत्तरमाह-(किं पुण तेसि विसेसेणं ति) किं पुन. भवति, एवं तदभ्युपगमः शोभन इति चेत, नैवमित्याह-(दि.
स्तयोर्यथोक्तमतिद्रव्यश्रुतयोबिशेषेण भेदेनोक्तेन? अप्रस्तुतत्वान टुंताऽमित्यादि ) अयं वल्कशुम्बदृष्टान्तो यथा तैरुपनीत:
किञ्चिदित्यर्थः । श्रुतज्ञानेनैव सहात्र मतेनेदो विचारयितुं प्रक्रानक्तप्रकारेण प्रकृते योजितः, तथा युक्ति न सहते-न कमते,
न्तः, इत्यतः किं भव्य श्रुतेन सह तच्चिन्तया ,इति भावः। इति अन्यथा स्वस्मद भिमतवदयमाणप्रकारेणोपनीयमान पषोऽपि
गाथाऽर्थः ।। १५७॥ युक्तिकमो अविष्यतीति भावः। इति गाथार्थः ॥१५॥
एतदेव भावयन्नाह-- कुतो न संसहते?, इत्याह
इहइं जेणाहिक ओ, नाणविसेसो न दवभावाणं । जावमुयानाचाओ, संकरओ निधिसेसनावाओ।
न य दवनावमेत्ते, वि जुन्जए सोऽसमंजसो ॥१८॥ पुबुत्तन्नक्खणाओ, समक्खणाऽऽवरणनेयाओ॥१५॥
हास्मिन् प्रक्रमे येन कारणेन ज्ञानयोरेघ मतिश्रुतलक्षणयोर्षिमेष दृष्टान्तो युक्ति कमत ति सर्वत्र साध्यम, मतेरन
शेषो भेदोऽधिकृतोन तु द्रव्यभावयोमतिकानभव्यश्रुतलक्षणयोः, न्तर शब्दमात्रस्यैव भावेन नाव श्रुतस्याभावप्रसङ्गात् । अथ
श्त्यतः किं तद्भेदानिधानेन ? इति । न च यथोक्ताव्यभावयोमतिसहितोऽयं शब्दो न केवल इति तत्र भाव श्रुतत्वं भवि
रयसौ युज्यते । कुतः ?, इत्याह-असमञ्जसतो हटान्तदाध्यति । तदयुक्तम् । कुतः१.श्त्याह-संकरः सास्कर्यम् ,संकी
न्तिकयो(सदृश्यादिति गाथाऽर्थः ॥ १५८ ॥ र्णत्वम्, मिश्रत्वमिति यावत्, मतिश्रुतयोस्तस्य प्राप्तेः । निर्वि
तथाहिशेषनावाद वा-यदेव मतिज्ञानम, तदेव भाषश्रुतमिति प्रतिपादनादेकमेव किश्चित्स्यात्, नोजयमिति भावः । अस्तु विशे.
जह बग्गा मुंबत्तण-मुर्विति मुंबं च तं तोऽणमं । पानाव इति चेत्, नैवम् । कुतः१, इत्याह-स्वल कणाऽऽवरणभे.
न मइ तहा धणितण-मुवे जं जीवनावो सा ॥१५॥ दात् । कथम्भूताद्?, इत्याह-पूर्वोक्तवकणात् "किह व सुयं होह यथा बलकाः शुम्बत्वमुपयान्ति आत्माऽव्यतिरिक्तशुम्बपमई, सलक्षणाऽऽवरणभेयाओ।" (१३५) इति पूर्वाभिहि- रिणामाऽऽपन्नाः शम्बमित्युच्यन्ते, न तु शुम्बाद् व्यतिरितगाथाऽवयवोक्तस्वरूपात् । इदमुक्तं भवति-अभिनिबुध्यत इत्या- ताः तदपि च शुम्बं तेज्यो वल्केभ्योऽनन्यरूपमन्यतिरिभिनिबोधिकम, श्रूयत इति श्रुतम, इत्यादिकं मतिश्रुतयोर्यत् तं. न तथा मतिर्धनित्वमुपैति, यद् यस्माद् कारणाद् स्वकीयं स्वकीय लकणम, आवारकं च कर्म,तयोर्भेदात् पूर्वाs- सा मतिराभिनिबोधिकझानत्वेन जीवनावो जीवपरिणामः, भिहितस्वरूपाद् मतिश्रुतयोनिर्विशेषनावो न युज्यते। यदि हि शब्दस्तु मूर्तत्वान्न जीवमावः; इत्यतः कथममूर्तपरिणामा तयोनिर्विशेषता एकत्वं स्यात्, तदा लवणनेदः, आवरणभेदश्च मतिमंर्तध्वनिपरिणाममुपगच्छेत ?, अमूर्तस्य मूर्तपरिणामपूर्वोक्तस्वरूपो न स्यादिति जावः । इति गाथाऽर्थः॥ १५५॥ विरोधात् । तस्माद् दृष्टान्तदाष्टान्तिकोषम्यादिदमपि व्याअथ द्रव्यनावश्रुतयोरनेन दृष्टान्तेन नेदःप्रतिपाद्यते, सो- ज्यानमुपेकणीयमिति गाथाऽर्थः॥ १५ ॥ ऽपि न युक्तः, इति दर्शयत्राह
पुनः परवचनमाशङ्कच तस्यैव शिकणार्थमाहकप्पेजेज व सो जा-बदव्वमुत्तेसु तेसु विन जुत्तो। ] अह नवयारो कीरइ, पनवइ अत्यंतरं पिनं जत्तो।
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由何
सम्पतिभवतो म
जो जाहीयं ।। १६० ।। सरिस तं च ।
मासु ते मई, वसमा
C
मंचिणि य तया तो सुपरिवार ।। १६१ ।। घोषवार ते उपचारविधिराविते ततश्वार्थान्तरमपि यद् यस्मात् प्रभवति तत्तन्मयमिति भएयते, यथा-' तदपश्यमियतं विक्रियाविस्तरमुपगतम्, तदवचनान्तं विपाकमाचमत्यादि ततश्वतम्मानमयतोपर्यते तथाच सति येन प्रतित बोरवं नेदः सिद्धो भवतेि । एवमुक्तं द्याचार्यः सुहद्वा परं शिकयति - ( तो महपुत्रं इत्यादि ) हन्त ! यद्युपचारवादी भवान् ततो मतिपूर्व भावश्रुतं यस्मादागमे भणितम, तेन कारन महिमा, राथ नाचतंम्बसरम इत्येवं कुरुयेनोपचारमन्तरेणाऽपि सर्वे भवति यथा हि वल्काः शुम्बकारणम्, तथा मतिरपि नावश्रुलस्य, यथा च शुम्बं वल्कानां कार्ये तथा भावश्रुतमपि मतेः । कुतः ?, इत्याह-यद् यस्मात् कारणात् तथा मत्या चिन्तायेत्वा ततः भुतपरिपाटी मनुसरति वाच्यवाचकभावेन परोपदेशश्रुतग्रन्थयोजनां वस्तुनि करोति; तस्मान्मतिश्रुतयो एक शुम्बयोरिव कार्यकारणभावाद् भेदसिद्धिः इत्येवं दृष्टान्तोपनयो युक्ति संसहते, न तु परोकप्रकारेणेति गाथाऽर्थः ॥ १६० ॥ १६१ ॥ तदेवं वल्कशुम्बोदाहरणादप्यनिहितो मतिश्रुतयोर्भेदः; सातंवरान हरमेहाचमभिधित्सुः पराभिप्रायं तावदुपन्य
(१९५५) अभिधानराजेन्खः ।
,
स्यश्नाह
अएणे अक्बरक्खर बिसेस महानिदेति ।
मइनामणक्खर-भक्खरमियरं च सुमनाणं ॥ १६२॥ अम्ये केचनाऽपि सूरयोराद्विशेषतो मतिबुते मि स्वन्ति यद्यस्मात् किस मतिज्ञानमनमा यद्भवति तानकर सितादत्यर्थः इव गाथाअर्थः ॥ १६२ ॥
अत्राऽऽचार्यो 'दूषणमाद
,
मइरक्खरश्चिय, भविज्ज नेहाऽऽद यो निरजिलले । थाणुपुरिसाइपज्जा - यविवेगो किह ए होजाहि १ ।। १६३ ।। यदि इन्त | मतिरनक्षरेव स्यात्वापरहितैय भवनात निरमिलाये प्रतिभासमानाऽभिलाप स्थापवादिके वस्तुनि ईहाऽऽदयो न प्रवर्तेरन् । ततः किम् ? इत्युच्यते तस्यां मतावनकरन स्थाण्वादिविकल्पाजावात् 'स्थाणुरयं पुरुषो वा' इत्यादिपर्यायाणां वस्तुधर्माणां विवेको वितर्कोऽन्वयव्यतिरेकाऽऽदिना परिच्छेदोन स्वात्। तथाहि नाकानं न तत्र पुरुष पर्यायादिविवेकः यथाध्वग्रहे तथा चेादयः तस्मातेस्वपि नासौ प्राप्नोतीति गाथाऽर्थः ॥ १६३ ॥ अथ विद्यान्तस्य परस्योत्तरमादसुया स्यित्रयणाओ, अह सो सुयो मओ न बुद्धीओो । भइ सो सुपवावारो, तो किमनं चाणं ।। १६४ ।। मागमे मतिज्ञानं द्विधा प्रोक्तम् श्रुतनिः श्रिनमवग्रहाऽऽदिचतुतनिधितं चत्पत्तिपादिबुद्धि चतुष्टयम् श्र रित्यं परानिमायमाशङ्कते अथैवं परो याद बागमे तनिःक्षित
-
त्वेनाऽपि मतिज्ञानस्य भणनाव भुतात् नतोऽकराऽऽरम कादसौ स्थापुरुषादिषयविवेक मनमाशा. तस्याः स्वयमनक्षररूपत्वात् । अत्रोत्तरमाह - ( जर सो इत्यादि) यदि दन्त! पुरुषादिपययविवेकः मुनापार स्त वग्रहं मुक्त्वा किमन्यद् मतिज्ञानम् है, न किञ्चिदित्यर्थः । यदि पुरुषाऽऽदिपर्यायविवेको ऽकराऽश्मकत्वात् व्यापार - यते, तदेहापायाऽऽद यो मतिभेदाः सर्वेऽध्य कुराऽऽरमकत्वात् तस्माचा त्यांऽनिलः परहितमहं यशेषस्य सर्वस्यापि मतिज्ञानस्याभावप्रसङ्गः
इति गाथाऽर्थः ॥ १६४ ॥
mali
श्रयाऽन्यथा परस्य वचनमाशङ्क्य दूषयितुमाह-अमुपयो वि विवेगं कुणओ न त सूर्य मुनस्थि । जो जो सुपवावा, अन्नो वि तम्रो मई जम्हा ॥ १६५॥ अथ बुलादपि पुरुषाऽऽदिविवेकं कुर्वतः प्रमाने तत् न किंतु मतित्वेनायुगायते हन्त सक सोऽन्तः एवं सति तं कचिदपि नास्ति श्रुताभावः प्राप्नोतीत्यर्थः । कुतः ? इत्याह--यो यश्चरण करणादिप्रतिपादन त्रोऽन्योऽपि श्रुतस्याऽऽचारादे - पारः सकोऽसौ यस्मान्मतिज्ञानमेव, अकराऽऽत्मकत्वात्, पुरुषादिपयांवयेकवदिति गाथा उचैः ॥ १६५ ॥ अथ स्थाणुपुरुषादिको मति भविष्यति अतो नेकपा इत्याद मइकाले विजसूयं, तो जुगवं मइस ओवओोगा ते । यह नेवं एगयरं, पवज्जओ जुज्जए न सुयं ।। १६६ ॥ स्थाणुपुरुषाऽऽदिपर्याय विवेकल कुणे मतिकालेऽपि यदि श्रुतव्यापारयते ततो युगपदेव मतिभ्रोपयोगी से
ते न चैतत् युकम्, समकालं ज्ञानद्वयोपयोगस्य निषिद्धत्वात् । अथैतद्दोष भयाद् नैवमुपयोगद्वयं युगपदच्युपगम्यते तक तरं प्रतिपद्यमान पुरुषाऽपिपीयविवेककाले मतिज्ञानं तज्ञानं वा इच्छतो भवत इत्यर्थः किम् ?, इत्याह- ( जुज्जप न सुयं ति ) श्रुतमिह प्रतिपत्तुं न युज्यते, किं तु मतिज्ञानमेव । इदमुकं भवति सावकाशानवकापोरनवकाश विधिलवान् " इति न्यायादन्यत्रानवकाशं मतिज्ञानमेवैकं तबैकतरं प्रतिपद्यमानस्येद प्रतिपधुं युग्यते न तु श्रुतं तस्याऽन्यत्र भुतानुसारियाचारादिज्ञानविशेष सावकाशत्वात् एवं न तिस्थादिविको मतेरेव नतु स चाकरामिलासमनुगत इति नैकाननरमिति भावः । इति गाथाऽर्थः ॥ १६६ ॥ किं चरानुगतत्वमात्रमुपलभ्य स्थाणुपुरुषादिपर्यायविवेको भवता श्रुतनिश्रित उक्तः, एवं चा प्राप्नोतीति दर्शयति
जइ सुयनिस्सियमक्खर - मणुसरो तेण महचकं पि । सुयनिस्तियमानं तुह तं पि जमक्खरप्पनवं ॥ १६७ ॥ यदि स्थापुरुषादिपर्याय विवेक विधानेनात्तरमनुसरतः प्र मातु भवता प्रोच्यते तेन तहाँसिकादिमकिमत व तिमित्यर्थः तदपि दरिया ऽऽदय में वर्णाऽभिलापमन्तरेण संभवन्ति यस्मान्मति यतु
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बाय
(२०४२०५६) अभिधानराजेन्द्रः ।
मविप्रायेण तनिमियानग निपानिधानात् । तस्म देवानां प्रणाद्यापि निति स्वरूपमेव नावगम्यते तत् किं वय धूमः । इति गाथाऽर्थः ॥ १६७ ॥
तदेवं भुतनिचितवचनश्रवणमात्राद्विभ्रान्तस्तत्स्त्ररूपमजा• मानः परो युक्तिनिर्निराकृतोऽपि वित्रक्षी भृतः प्राऽऽहजसं सुरण न तयो, जाणइ सुयनिस्सियं कई मणियं । सुकवारं पुत्रि इहि तयावेक्वं ।। १६८ ।। यदि तं पुरुषादिपर्यायसंघातं तेन न जानाति सोऽसी नीतिनादिकं सूबे कथं केन प्रकारेण भतिम मतिः स्वयमनकरे, यदि करोपलम्भः स यदि भुतानिधितो नेध्यते तर्हि कथमन्यथाऽसौ चदिष्यते । इति विस्मय भयाऽऽपूरित हृदयस्य परस्याऽयं प्रश्न इति जावः । अत्रोच्यते-ननु भवानेव प्रष्टव्यो योऽसमीक्षितमित्वं प्रजापतेोऽरोपलम्भः सर्वोऽपि निइतिश्रय न कायते भवता, तर्हि वयमेवं ब्रूमः श्रूयतम् (जं सुर इत्यादि) श्रुतं द्विविधम- परोपदेशः, आममग्रन्थश्च व्यवहारकाखात् पूर्व तेन श्रुतेन कृत उपकारः संस्काराऽऽधानरूपो यस्य तत् कृत तोपकारम्, यद् ज्ञानमिदानीं तु व्यवहारकाले तर पूर्वप्रस्य संस्काराऽऽ धाम तस्यानपेक्षमेव प्रवर्तते सुनिश्रितमुच्यते, न स्वकरा मिलापयुकत्वमात्रेणेति भा बः । इति गाथाऽर्थः ॥ १६८ ॥
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एतदेव भावयन्नाह - पुवं सुपरिकम्य मस्स ने संपयं सुयाऽऽयं । तं नियिरिंण अधिस्सिमच उर्फ तं ।। १६ ।। व्यवहारकालात पूर्वे यथोक्तरूपेण श्रुतेन परिकर्मिता-आहितसंस्कारा मतिर्यस्य स तथा तस्य साध्वादेर्यत्साम्प्रतं व्यवहा रकाले श्रुतातीतं श्रुतविरषेकं ज्ञानमुपजायते तच्छ्रुतनिश्रितमदिसते प्रतिपादित इतरत्र नितम् सीत्पत्तिवादिमतिचतुष्कं पश्यमानया सहजत्वात् तस्य । अत्राऽऽह - ननु "भरनित्थरणसमत्था, तिवयसुत्थवदियपेयाला उभय लोगे फलवई, विजयसा इवर बुद्धी ॥१॥" इत्यादिवचनात् तत्राऽपि मतिचतुष्के वैनयिकी मतिः श्रुतनिश्रिता समस्ति । सत्यम, किं तु सकृत - रानिधितर सत्यपि बचतं तदुच्यते इत्य दोषः । तस्माद् यदुक्तम्- " जं मश्नारामएकवर-मियरं
* इममेवाऽभिप्रायं नन्द्यध्ययने अस्या एव गाथाया विवस्थले श्रीमन्म गिरिरिरध्याद्द। तथाहि "निधिता बुद्धयो वक्तुमजिताः, ततो यद्यस्यास्त्रिवर्गसूत्रार्थ गृहीतसारत्वम, ततोऽश्रुतनिचितत्वे नोपपद्यते, न हि श्रुताभ्यासमन्तरेण त्रिवर्गसूत्रार्थगृतिसारत्वं संजवति । अत्रोच्यते इह प्रा. यो वृत्तिमाश्रित्याऽश्रुतनिश्रितत्वमुक्तस्, ततः स्वल्पभुतमावेपिन कोष" इति। कश्विदोषः
"L
हातिगुरुकार्ये दुर्निहत्वा भर इव भरस्सनिस्तरणे समग्री प्ररनिस्तरणसमर्थ भयो वर्गीय लोका कामस्तदजेोपायप्रतिपादकं यत् सूपं यच तदस्ती विषादी 'देवा' प्रमाणं सारो वा यया सा तथाविधा ।" इति नन्दिटीकायां व्यास्यातोऽस्य अर्थः ।
गाय
सुनानामति" (१६२) मनवेद तदयुक्तम, पिकाभावप्रतनिधिनत्वस्य चान्यथा समर्पितम् इति गाथायः ॥१६
पचनकरा मतिर्न प्रवति, तर्हि " लक्खणनेया हेऊ, फलजावो ( ६७ ) " इत्यादिगाथायां प्रतिज्ञा वो करानकर
र्भेदः कथं गमनीयः १, इत्याह
उजयं भावक्खर, अणक्खरं होज्ज वंजारा क्खरओ । मनाचं पुण उभयं पि अणक्खरक्खरओ ।। १७०॥ इदाकरं तावद् द्विविधम- इव्याक्षरम्, जावाकरं च । तत्र रुग्या क्षरं पुस्तकाऽऽदिन्यस्ताऽऽकाराऽऽदिरूपम, ताल्वादिकारणजन्यः शब्दो वा स्वयतेऽनेनेति । नावाकर स्वतःस्फुरदकाराऽऽदिवर्णज्ञानरूपम एवं च सति (मायक्रोस) नायकरमा मतिज्ञानं भवेत् । कथंभूतम् ?, इत्याह - (उभयं ति) उजयरूपम् - अकरवत्, अनकरं चेत्यर्थः; मतिज्ञानभेदे ह्यवग्रहे भावाकरं नास्तीति तदनकरमुच्यते, ईहाऽऽदिषु तु तद्भेदेषु तदस्तीति मतिज्ञानमकरवत् प्रतिपाद्यत इति भावः । ( अणक्खरं होज वंजणक्खरओ ति) व्यञ्जनाकरं द्रव्याकरमित्यनन्तरम, तदाश्रित्य मतिज्ञानमन
वेदनाने पुस्तकाऽऽद्दिन्यस्ताकारादिशब्दो या याविद्यते तस्य ध्यान रूढत्वात्यतिबे दिति (मयं पुजेत्यादि) सूर्य ज्ञान पुनक यमपि तनावमुतं च इत्यर्थः प्रत्येकमन करता त का जवेत् । इदमुक्तं भवति - "ऊलसियं नीसलियं, निच्छूढं खासियं च बायं च । निर्हिसघिय मनुसारं, श्रगखरं देशियाईये" ॥१॥ इत्यादिवचनादू स्रव्यश्रुतमनकरम् - पुस्तकाऽऽदिन्यस्ताक्षर रूपम शब्दरूपं तदेव सारं भावमपि तानुसार्यका दिवर्णविज्ञानात्मकत्वात्साकरम् पुस्तकादिन्याकाराधहररहितत्वाद शब्दाभावाच्च सदेवानदक्षरम, पुस्तकाइदिन् स्ताक्षरस्य शब्दस्य न्यापातिश्वेन माय तदेवं मतेर्भावश्रुतस्य च साकरान करकृतो नास्ति विशेषः; प्रत्येकं द्वयोरप्पन करकपात केवलं सामान्येन 'भूत' इत्युके तमतय
नमाश्रित्य इम्याकरमस्ति मतो तु तास्ति तस्यामति स्वेनाऽऽरुद्रत्वादिति । एवमक्या लाहरानज्ञरत्वकृतो भेदः । इति माथाऽर्थः ॥ १७० ॥
तमकरेतरदा मतियमनिधाय मूकेतर भेदात् तमभिधित्सुराद्दसपरम्पदायो, यो एयराण वाऽभिद्दियो | जं मूयं मइनाणं, सपरपच्चायगं सुतं ॥ १७१ ॥
भेो
1
अन्यैस्तु कैश्चिदाचार्यैः स्वपरप्रत्यायनतो मतिश्रुतयो— दोऽभिहितः । कयोरिव इत्याह- मूकेतरयोरिव यथा हि मूकः स्वमात्मानमेव प्रत्याययति प्रतीतिपथं नयति नतु परमतत्प्रस्थापन हेतुवचनाभावाद इतरस्वः स्वं परं प्रत्याययति चचनसद्भावात् । तथा सति यथा मूकमुखयोर्भेदः, एवं मतिश्रुतयोरपि यद् यस्मात् परप्रत्यायनबेतुकाचा मूकं मतिज्ञानम, मुखरं तुला
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(१९५७) अनिधानराजेन्द्रः।
गाण
कुतः, स्वपरप्रत्यायकत्वाद-व्याकरसद्भावेन परप्रत्यायक- ति, तथाऽप्यक्षररूपत्वाद् मुख्यतया श्रुतज्ञानस्यैव किलासा. स्वस्यापि तत्र लभ्यमानत्वादिति जावः । इति गाथार्यः ॥१७॥ | धारणं कारणमुच्यते, कारणत्वेनोपचारतः श्रुतकाने ऽन्तर्भवति,
परप्रबोधकत्वेन च तत्सर्वस्यापि विदितमिति । एवं कारणस्य एतदाचार्यों मतिश्रुतयोस्तुव्यताऽऽपादनेन किञ्चिद् दूषयि
परप्रबोधकत्वात् श्रुतज्ञानं परप्रबोधकं घटते, कराऽऽदिचेष्टास्तु तुमाह
मतिमानस्यासाधारणकारणं न जवन्ति, श्रुत नहेतुत्वादपि मुयकारणं ति सद्दो, मुयमिह सो य परचोहणं कुणः ।
करबक्त्रसंयोगाऽऽदिकायां दिकरचेष्टायां दृष्ट: । न केवलं मइहेयवो वि हि परं, बोहिंति कराइचेट्टाओ ॥१७॥ तद्विषयाऽवग्रहाऽऽदय वत्पद्यन्ते, किं तु-"भोक्तुमिच्चत्ययम्"
इत्यादिश्रुतानुसारिविकस्पाऽऽमकं श्रुतज्ञानमप्युपजायते इति । इह तावद्भवन्तं पृच्छामः-हन्त ! शब्दः श्रुतमुच्यते, उपल
अतोऽसाधारणकारणत्वाभावात् कराऽऽदिचेष्टाः परमार्थतो कणत्वात्पुस्तकाऽऽदिन्यस्ताक्षरविन्यासश्च श्रुतमनिधीयते (सु.
मतिज्ञानस्य कारणमेव न संभवन्ति, ततश्च न तत्रान्तनवन्ति; यकारण ति) श्रुतकारणत्वात्-कारणे कार्योपचारादिति भावः।
तथा च सति न मतिकानं परप्रबोधकम् । अथवा-(दब्बसच शब्द,पुस्तकाऽऽदिन्यस्ताक्षरविन्यासश्च परबोधनं परप्र
सुयमसाहारणकारणो ति) द्रव्यश्रुतं पुस्तकाऽऽदिन्यस्ताऽऽत्यायनं करोतीत्येवं परतः श्रुतज्ञानं परप्रत्यायकमुच्यते, न तु
चाराऽऽदिग्रन्थाकररूपम, गुरुजनोदीरितदेशनाशब्दस्वरूपं च स्वतः इति तावजवतोऽभिप्रायः। एतश्च मतिज्ञानेनाऽपि समानम् ।
परप्रबोधकं भवेत । कुतः, इत्याह-असाधारणस्य मोतं कुतः?,श्त्याह-हि यस्मान्मतिहेतवोऽपि मतिजनका अपि करा.
प्रत्यनन्यसाधारणकारणस्थ क्वाधिकज्ञानदर्शनचारित्रलकण5ऽदिचेष्टाविशेषाः परं बोधयन्त्येव । तथाहि-अकराऽऽत्मकत्वा
स्य वस्तुकलापस्य कारणत्वाद् हेतुत्वात; ततश्च तदत किलशब्दः,पुस्तकाऽऽदिन्यस्ताकरबिन्यासश्च श्रुतस्य कारणं,
द्वारेण शुतज्ञानमपि परप्रबोधकं घटते, कराऽऽदिचेष्टास्तु करशीर्षाऽऽदिचेष्टास्त्वकररहितत्वात् किन मतिज्ञानस्य हेतवः
यद्यपि मतिज्ञानस्य कारणम् , तथाऽपि यथोक्तो विशिष्टः करवत्रसंयोगे हि कृते अजिक्रियाविषया किल मतिरुत्पद्यते,
परप्रबोधस्तासु प्रायो न संभवति, अतो विशिष्टपरप्रबोधाशीर्षे च धृनिते निवृत्तिप्रवृत्तिविषया सा समुपजायते, इत्येवं
भावाद्न ताः परप्रबोधिकाः, तथा च सति न तद्मतिहेतवः कराऽऽदिचेष्टाऽपि परप्रचोधिका पवेति गाथाऽ
द्वारेणापि मतिकानं परप्रबोधकम् । इति सूत्रस्य सूचकरवाव यः॥ १७२॥
सोपस्कारः पूर्वार्कस्यार्थोऽवसेयः । अथोत्तरार्द्धस्य व्याख्या यदि मतिहेतवोऽपि परं प्रबोधयन्ति, ततः किम् ?, इत्याह
प्रस्तूयते-(रूढं ति वेत्यादि ) वेत्यथवा, जवतु मतिज्ञानस्य न परप्पबोहयाई, जं दो वि सरूवो मसुयाई । कारणं कराऽऽदिचेष्टा,तथापि सा 'द्रव्यमतिः' इत्येवमागमे कतकारणाई दोएह वि,बोहेंति तो न भेो सिं॥१७॥
चिदपि न रूढाः, द्रव्यश्रुतं पुनः पूर्वोक्तस्वरूप 'श्रुतम् ' इत्येवं
सर्वत्र रूढम् । ततश्च यद्यपि कराऽऽदिचेष्टा मतिज्ञानस्य कारणस, मतिहेतूनामपि परप्रबोधकत्वे सति न (भभो सिं)अनयोर्मति- परप्रबोधिका च; तथापि हव्यमतित्वेनाऽऽरूढत्वात् कारणे काश्रुतयोन नेदः कुतः?,श्त्याह-(तउत्ति) ततस्तस्मात् कारणात्। योपचारतो मतिरूपतया न व्यवहियते । अतो मतिज्ञानात् त. कस्मात् , इत्याह-यद् यस्माद् द्वे अप्येते मतिश्रुते स्वरूपतो स्याः पृथग्भूतत्वाद् न तद्द्वारेण तस्य परप्रबोधकत्वम्, 5. विज्ञानाऽऽत्मना न परप्रबोधके, विज्ञानस्य मूकत्वेन परप्रबोध- व्यश्रुतं तु कारणे कार्योपचारतः श्रुतज्ञानत्वेन प्रमप्यते, इति कत्वायोगात, अवध्यादिवदिति । अथ श्रुतस्य यत्कारणं श- तवारणास्य परप्रबोधकमुपपद्यते एव । इति युक्तो मुकेतरब्दाऽऽदिकं तत्परप्रबोधकम्, इत्येताबता मतिज्ञानाद् विशिष्यते नेदाद् मतिश्रुतयोर्जेदः । ततश्च-" तक्कारणाई दोपह, वि बोश्रुतशानम् । नन्वेतद् मतिज्ञानेऽपि समानम्, तत्कारणस्याऽपि हिंति तो न नेत्रो सिं।" (१७३) इत्येतदपास्तं भवतीति करचेष्टाऽऽदे परावबोधकत्वादिति । एतदेवाऽऽह-तानि च तानि
गाथाऽर्थः ॥ १७४॥ पूर्वोक्तरूपाणि कारणानि च तत्कारणानि द्वयोरपि मतिश्रुतज्ञा
(११) तदेवं कराऽदिचेष्टाया मतिकारणत्वमभ्युपगम्योक्तम, नयोयथासंख्यं शब्दाऽऽदीनि, करचेष्टाऽऽदीनि च परं बोधय
साम्प्रतं सा मतेः कारणमेव न नवति, किंतु न्त्येव, इति कोऽनयोर्विशेषः, न कश्चिदित्यर्थः । इति किमुच्यते-मकेत्तरभेदाद् नेदः ? । इति गाथार्थः॥ १७३॥
श्रुतस्येति दर्शयन्नाद
सा वा सहत्थो च्चिय, तया विजं तम्मि पञ्चश्रो होड । तदेव परोक्त व्यजिचारिते ततो निरुत्तरं विनक्कीभूतं तूणीभावमापनं परमवलोक्य संजातकारुण्यः
कत्ता वि हु तदनावे, तदजिप्पामो कुणइचिटुं ॥१७॥ स्वयमेव रिरुत्तरमाह
यदि वा सा कराऽऽदिचेष्टा करवक्त्रसंयोगाऽऽदिलक्षणा । दन्नसुयमसाहारण-कारणो परविबोहयं होजा। किमी,श्त्याह-शब्दार्थ एव शब्दो वक्तृसमुदीरितवचनरूपः,त
स्यार्थः शब्दार्थः श्रोतृगतकाने प्रतिभासमानतदनिधेयवस्तुरूप: रूढं ति व दन्चसुयं, मुयं ति रूढा ण दव्यमई ॥१७॥
श्रुतवानमिति तात्पर्यम् । किमित्यसौ शब्दार्थ एव, इत्यादकन्यश्रुतं पुस्तकन्यस्ताकरशब्दरूपं श्रुतझानस्यैव कारणम, यद् यस्मात्:कारणात् तयाऽपि का विाहतया तस्मिन् शब्दार्थे। न तु मतेः, इति श्रुतशानं प्रत्यसाधारणकारणत्वाद् रूज्यश्रुतं जोजनेच्छाऽऽदिनक्षणे प्रतिपत्तुः प्रत्ययो भवति । तथा कर्तापरप्रबोधकं नवेत्, न तु कराऽऽदिचेष्टाः, तासां मतिश्रुतो- ऽपि तदभावे शब्दाभावे जिह्वारोगाऽऽदिसद्भावात् शब्दोदीभयकारणत्वेन साधारणकारणत्वादिति भावः । श्दमुक्तं जब- रणसार्थ्याभाव इत्यर्थः । (तदनिप्पाच तितस्मिन् शब्दार्थ ति-पुस्तकाऽऽदिन्यस्ताक्षररूपं,शब्दाऽऽत्मकं च व्यश्रुतम, भूत- भोजनेच्छाऽऽदिलकणे परस्मै प्रतिपादयितव्येभप्रायो मनोवि. ज्ञानस्य मतिपूर्वकत्वाद् यद्यप्यानन्तर्येणावग्रहहाऽऽदीन जनय- कल्पो यस्यासौ तदभिप्रायः करोति चेष्टां करवत्रसंयोगाऽऽदि
४९.
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पाण
( १५5 ) निधानराजेन्द्रः ।
लक्षणाम् । इदमुक्तं भवति यद्यपि कराऽऽदि चेष्टाऽनन्तरभावेनादादीन् जनयति तथा सतानमेवेस्पर्थः यस्मात् तथाऽपि विहितया तत्र शब्दार्थप्रत्ययो भवति, अतः शब्दार्थप्रत्ययजनकत्वात् कारणे कार्योपचारात - दार्थप्रत्यय एव सा न पुनमेति तथा कर्ताऽपि मोमि त्यस इत्यादिप्रतिपसा जानावित्यभिप्रायवानेव भाषणभावे करा55दिचेष्ठां करोति तत कवि शब्दार्थयोनाभिप्रायेण क्रियमाणत्वात् करादिश शब्दार्थ पततध एषाऽपि श्रुतकारणत्वात् श्रुत एवान्तर्भवति, शब्दवत्, न मतौ तथा च सत्येषा परमार्थतो मतेः कारणमेव न भवत्यतः कारद्वारेणापि न परप्रत्यायकं मनिज्ञान, तंतु ला रे परायबोधकम् । इति युको सुकेतरभेदमतियो र्भेदः ॥ १७५ ॥ विशे० । स्था• । श्रा० म० । कर्म० । नं०
(१२) तानन्तरमवधिज्ञानस्य विवेकःकालविपर्ययस्वामित्वलाभ साधर्म्याद् मतिश्रुतानन्तरमवधिज्ञानमुक्रम प्रवाहापेक्षा, प्रतिपतिताऽधाय वा याचा मतितयोः स्थिताः तावानेयावधिज्ञानस्यापि तथा चैव मताने मिथ्यादर्शनोद तो विपर्ययरूपतामासादयतः, तथाऽवधिज्ञानमपि । तथाहि मिथ्यादृष्टेः सतस्तान्ये
मताधिज्ञानाने त्याना नानानि भयन्ति । उक्तं च- "आद्यत्रयमज्ञानमपि भवति मिथ्यात्वसंयुक्तम् । " इति तथा मतिश्रुतज्ञानयोः स्वामी साना अर्थ तथा विभङ्गकानिनः सम्यग्दर्शनामी यु गपदेव मतिवधिज्ञानानां समसंभवस्ततो नामसाधम्यम् अधिमानन्तरं उद्यविषयज्ञानप्रत्यक्षत्वाची मनः पर्यायज्ञानमुक्तम् । तथादि-यथाऽवधिज्ञानं द्मस्थस्य भ वति, तथा मनःपर्यवज्ञानमपीति छद्मस्थसाधर्म्यम् । तथा बधाऽवधिज्ञानं रूपविषयं तथा मनोज्ञानमपि, तस्य मनःपुलाऽऽलम्बनत्वादिति विषयसाधर्म्यम् । तथा ययाचा क्षायोपशमिके भावे वर्तते तथा मनःपर्यायज्ञानमपीति भावसाधर्म्यम् । यथा चाऽवधिज्ञानं प्रत्यक्षं तथा मनःपधपमपीति प्रत्यत्वसाथ उर्फ कालव वजयसामि राज्ञामसाम्यबोम्बही तो मास समरवियजाबाई साम्या" ॥७॥ (विशे०) तथा मनःपर्यायानानन्तरं केनस्योपम्यामा सम
पतिस्वामिसाधर्म्यात् सर्वानाच तथाहि सर्वा एयपि मतिज्ञानाऽऽदीनि ज्ञानानि देशतः परिच्छेदकानि, केव लानं तु सकलवस्तुस्तामपरिच्छेदकं सर्वोतमं, सर्वोसमत्वात् चान्ते सर्वशिरः शेखरकल्पे उपन्यस्तम् । तथा-यथा मनःपर्यायानमप्रमतय तेरेयोदयते तथा केवलमध्यमाभावमुपगतस्यैव यतेपति नान्यस्य ततोऽप्रमतपतिसाध म् तथा सयपि ज्ञानानि समासादयितुं योग्य स नियमात् सर्वज्ञानावसाने केवलज्ञानमवाप्नोति ततः सर्वान्ते केवलमुकम बकं च केवल जर सामिताय साणलाभाश्रो। " इति । तथा यथा मनःपर्यायज्ञानं न बिप.
मासादयति तथा केवलानमधीतिविपर्ययाभावसाध पण मनापानानन्तरं केवलज्ञानमुकमिति कृतं प्रसन नं० । " वश्यं खश्रवसमियं, डुविहं नाणं मुणेयन्वं । खकेवल खोयसमिया साई १०० भा
(१३) प्रत्यपरोक्षं तं समासविहं पातं परोव च।
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तथादिजड़ा परच च
तत्पञ्चप्रकारमपि ज्ञानं समासतः संक्षेपेण द्विविधं द्विप्रका तद्यदाहरोपन्यासार्थः । प्रत्यक्षं च परोक्षं
रं
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च । नं० | श्र० म० । श्र० चू । स्था० । ( प्रत्यकचकन्यता शब्दे ) ( परोकमेदा: परोक्शब्दे (यादिज्ञानानां व्याख्या स्पस्वस्थाने ) ( तृतीयभागे 'शब्दे १५६ पृष्ठे ज्ञानदर्शनविनकृणमु ('मनिणियोयणाण' शब्दे द्वितीयभागे २५५ पृष्ठे संशयादीनामपि मवेदिन
(१४) न ज्ञानमात्मध्यतिरेकेण गुणः
मे
ननु चैतन्यं ज्ञानमात्मनः क्षेत्रादन्यत्यन्तयतिरिकम अस मासकरणादत्यन्तमिति लभ्यते । अत्यन्तभेदे सति कथमात्मनः संबन्धि ज्ञानमिति व्यपदेशः ? इति पराशङ्कापरिहारार्थमौपाधिकमिति विशेषणद्वारेण हेत्वभिधानम उपागत मोपाधिकम् । समयायसंबन्धल कृष्णेनोपानामनिस मेवेतमात्मनः स्वयं जडरूपत्वात् समवाय संबन्धोपढौकितमिति यावत् । | यद्यात्मनो ज्ञानादव्यतिरिक्तत्वमिष्यते, तदा दुःखजन्मप्रवृत्तिदोषमिथ्याज्ञानानामुत्तरोत्तरापाये तदनन्तराभावाद बुध्यादीनां नदानामात्यविशेषगुणानामुदारे आत्मनोपुच्छेदः स्यात् तदन्यतिरिक्कत्वात् । अतो ssmनो ज्ञानं यौक्तिकमिति । ( स्या० ) अत्राह - ज्ञानमपि यद्ये कान्तेनानः कामयते, तदा सेनानेन मे त्रस्येव नैव विषयपरिच्छेदः स्यादात्मनः । अथ यत्रैवाऽऽत्मनि समवायसंबन्धेन समवेतं ज्ञानं तत्रैव जावावभासं करोतीति चेत् । न । समवायस्यैकत्वाद् नित्यश्वाद् व्यापकत्वात् च सक्षेत्र वृत्तेरविशेषात् समवायवदात्मनामपि व्यापकत्वादेकज्ञानेन सर्वेषां विषयावबोधप्रसङ्गः । यथा च घटे रूपाऽऽदयः समवाय संबन्धन समवेताः, तद्विनाशे च तदाश्रयस्य घटस्याऽपि विनाशः । एवं ज्ञानमप्यात्मनि समवेतं तच कणिकं, ततस्तद्विनामनो विनाशा 55 सेरनित्यत्वापतिः । अथास्तु समवायेन ज्ञानाऽऽत्मनोः संबन्धः, किं तु स एव समवायः केन तयोः संबध्यते समवायान्तरेण वेदनवस्था, स्वेनैव चेत. किं न ज्ञानाऽऽत्मनोरपि तथा । अथ यथा प्रदीपस्तत्स्वाभान्यादात्मानं परंच प्रकाशयति तथा समवायस्येदृगेव स्वभावो यदात्मानं ज्ञानात्मानौ च संबन्धयतीति चेत्-ज्ञानात्मनोरपि किं न तथास्वभावता, येन स्वयमेवैतौ संबध्यते ?। किञ्च-प्रदीपदृष्टान्तोऽपि भवत्पक्के न जाघटीति । यतः प्रदीपस्तावद् इव्यम्, प्रकाशश्च तस्य धर्मः धर्मधर्मिणो स्वयाऽत्यन्तं नेदोऽभ्युपगम्यते तत्कथं प्रदीपस्य प्रकाशात्मकता ?। तदद्भावे च खपरप्रकाशक स्वभागताभणितिर्मिले यदि च प्रदीपाप्रकाशस्यात्यन्तभेदे ऽपि प्रदीपस्य स्वपरप्रकाशकत्वमिष्यते, तदा घटादीनामपि तदनुषज्यते प्रेाविशेषात् अपि च-ती स्परसंबन्धन स्वभाव समाया स्याताम, अभया । यदि मिश्री, ततस्तस्यैतौ स्वनावाविति कथं संबन्धः । संबन्धनिन्बधनस्य समवायान्तरस्यानवस्थाभयादन ज्युपगमात् । अथाऽनिन्नौ, ततः समवाय मात्रमेव, न तौ । तदव्यतिरिक्तत्वात्, तत्स्वरूपचदिति किम्च यथेद समाधिषु समवाय इति मतिः
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(१९५९) गाण भाभिधानराजेन्द्रः।
पाय समघायं विनाऽप्युपपन्ना, तयहाऽऽत्मनि कानमित्ययमपि प्र-1 चेतनाऽऽरमको शाताऽहमिति प्रत्येति ।चैतन्ययोगाभावादसौन त्ययस्तं विनैव चेदुच्यते, तदा को दोषः। अथाऽऽत्मा कर्ता, तथा प्रत्येतीति चेत् । न । अचेतनस्यापि चैतन्ययोगाच्चेतनोs. कानं च करणम,कर्तृकरणयोश्च धर्क किवासीवझेद एवं प्रती- हमिति प्रतिपत्तेरनन्तरमेव निरस्तत्वात् , इत्यचेतनत्वं सिततः,तत्कथं ज्ञानाऽऽत्मनोरभेदः,इति चेत् । न ।रष्टान्तस्य वैष. कम्-धात्मनो जडस्याऽर्थपरिच्छेदं पराकरोति, तं पुनरिचता म्यात् । वासी हि बाह्य करणम्, ज्ञानं चाज्यन्तरं,तत्कथमनयोः चैतन्यस्वरूपताऽस्य स्वीकरणीया । ननु ज्ञानवानहामिति साधर्म्यम् । न चैवं करणस्य द्वैविध्यमप्रसिद्धम् । यदाहु- प्रत्ययादात्मकानयोजेंदः, अन्यथा धनवानिति प्रत्ययादपि धनलाक्षणिका:- करण द्विविधं झेयं, बाह्यमान्यन्तरं बुधैः ।। धनवतोर्जेदाभावानुषतः । तदसत् । यतो ज्ञानवानमिति यथा लुनाति दात्रेण, मेरुं गच्छति चेतसा "॥१॥ यदि हि नाऽऽत्मा भवन्मते प्रत्येति, जडत्वैकान्तरूपत्वात्,घटवत । सर्वकिञ्चित्करणमान्तरमेकान्तेन भित्रमुपदश्यते,ततः स्याद् दृष्टान्त- था जडश्च स्यात्-श्रात्मा ज्ञानवानहमिति प्रत्ययश्च स्यादस्य विदाष्टान्तिकयोः साधर्म्यम्, न च तथाविधमस्ति । न चबा.
रोधाभावात् इति मा निर्गधी, तस्य तथोत्पत्यसंभवात् ।ज्ञानयकरणगतो धर्मः सर्वोऽप्यान्तरे योजयितुं शक्यते । अन्य
वानहमिति दि प्रत्ययो नागृढीते ज्ञानाऽऽस्ये विशेषणे था दीपेन चक्षुधा देवदत्तः पश्यतीत्यत्रापि दीपाऽऽदिवच.
विशेष्ये चाऽऽत्मनि जातृत्पद्यते, स्वमतविरोधात, “ नाकुषोऽप्येकान्तेन देवदत्तस्य भेदः स्यात; तथा च सति लो.
गृहीतविशेषणा विशेष्ये बुद्धिः" इति वचनात् । गृहीतकप्रतीतिविरोध इति । अपि च-साध्यविकलोऽपि वासिवर्द्ध
योस्तयोरुत्पद्यत इति चेत्-कुतस्तद्ग्रहीतिः । न तावत् स्वतः, किदृष्टान्तः । तथाहि-नायं वर्द्धकिः काष्ठमिदमनया वा
संवेदनाऽनन्युपगमात् । स्वसंविदिते ह्यात्मनि झाने च स्वतः स्या घटयिष्यते इत्यवं वासिग्रहणपरिणामेनापरिणतः सन् |
सा युज्यते, नाऽन्यथा, सन्तानान्तरवत् । परतश्चेत्तदपि तामगृहीत्वा घटयति, किं तु तथा परिणतस्तां गृहीत्वा । त
झानान्तरं विशेष्यं नागृहीते ज्ञानत्वविशेषणे गृहीतुं शथापरिणामे च वासिरपि तस्य काष्ठस्य घटने व्याप्रियते,पुरुषोऽ
क्यम् । गृहीते हि घटत्वे घटग्रहणमिति ज्ञानान्तरात्तहहणेन पि । इत्येवं सणकार्थसाधकत्वाद् वासिवर्द्धक्योरभेदोऽप्यु
भाव्यम, इत्यनवस्थानात कुतः प्रकृतप्रत्ययः । तदेवं नाऽऽत्मनो पपद्यते, तत्कथमनयोरुंद पवेत्युच्यते । एवमात्माऽपि-विव.
जमस्वरूपता संगच्यते । तदसङ्गतौ च चैतन्यमौपाधिकमाकितमर्थमनेन ज्ञानेन कास्यामि'इति ज्ञानग्रहणपरिणामवान ज्ञान
स्मनोऽन्यदिति बावात्रम् । स्या० । आचा। विपा० । (प्रा. गृहीत्वाऽर्थ व्यवस्यति, ततश्च ज्ञानाऽऽत्मनोरुभयोरपि संवि.
ता' शब्दे द्वितीयत्नागे २०० पृष्ठे ज्ञानशानिनोरजेविचारोग्दर्शि) तिलककार्यसाधकत्वादभेद एव । एवं कर्तृकरणयोरभेदे
(१५) ज्ञानज्ञानिनोरन्यत्वे बन्धमोकपरामर्श:सिके संवित्तिल कां कार्य किमात्मनि व्यवस्थितम, आहो
चेयमस्म उ जीवा, जीवस्स उ चेयणाउ अनते । स्विद् विषये इति वाच्यम अात्मनि चेतू-सिकं नः समीहि- दवियं असक्खणं खयु, हविज न य बंधमोक्खाओ॥ तम्। विषये चेत्, कथमात्मनोऽनुभवः प्रतीयते । अथ विषय- चैतन्यस्य जीवाउजीवस्य चेतनाया अन्यत्वे व्यं जीवद्रव्यमस्थितसंविसेः सकाशादात्मनोऽनुजवस्तर्हि किं न पुरुषान्तरस्या- लक्षणं 'चेतनालकणो जीवः' इति लकणरहितं भवेत,चेतनाया पि?,तद्भेदाविशेषात् । अथ शानाऽऽत्मनोरभेदपक्के कथं कर्तृकर. घटाऽऽदिवद् जीवादप्येकान्तव्यतिरिक्तवाद्, लकणाभावे च णभाव इति चेत्,ननु यथा सर्प श्रात्मानमात्मना वेष्टयतीत्यत्रा. लक्ष्यस्याप्यभाव इति, खरगृङ्गवत् । अत्यन्तासन् जीवो भेदे यथा कर्तृकरण जावस्तथाऽत्रापि । अथ परिकल्पितोऽ न बध्यते, बन्धस्य वस्तुधर्मत्वात् । नापि मुच्यते, बन्धाभायं कर्तृकरणभाव इति चेद्वेष्टनाऽवस्थायां प्रागवस्थाविल. वादिति बन्धमोक्तावपि न स्याताम् । अथ मन्यथा अचेतनोक्षणगतिनिरोधलकणार्थक्रियादर्शनात् कथं परिकल्पितत्वम् । ऽपि स बध्यते, मुच्यते चेति तदध्ययुक्तम् । अचेतनानामप्येव न हि परिकल्पनाशतैरपि शैलस्तम्न प्रात्मानमात्मना वेष्टय- धर्मास्तिकायाऽऽदीनां बन्धमोकप्रसक्तः। वृ. १ उ०। विशे। तीति वक्तुं शक्यम् । तस्मादभेदेऽपि कर्तृकरणभावःसिद्ध एव । (१६) बोधमात्र, साकारो वा बोधः प्रमाणम्किच-चैतन्यमिति शम्दस्य चिन्न्यतामन्वर्थ:-चेतनस्य नाव. । तथाहि-"बोधः प्रमाणम्" इति वदन्तो वैभाषिकाः पर्यनुयोचैतन्यम् । चेतनश्चात्मा त्वयाऽपि कीयंते, तस्य भावः
ज्याः। किंबोधमात्रस्य प्रामाण्यम, आदोस्विद् बोधविशेषस्वरूपं चैतन्यम् । यच्च यस्य स्वरूपं न तत्ततो निनं स्य। यदि बोधमात्रस्य,तदा तलकणमयुक्तमव्यवच्छेद्याभावाभवितुमर्हति, यथा वृक्कादू वृत्तस्वरूपम् । अथास्ति चेतन त् । अबोधस्य व्यवच्छेद्यत्वेऽपि संशयविपर्ययाऽऽदीनां बोधस्व. आत्मा, परं चेतनासमवायसंबन्धाद, न स्वतः तथा प्रती.
भावत्वात प्रमाणताप्रसक्किा न च संशयाऽऽदीनामपि प्रमाणता. तेरिति चेत् । तदयुक्तम् । यतः प्रतीतिश्चेत् प्रमाणीक्रियते, तर्हि लोकशास्त्रविरोधात् । लोकप्रसिर्फच प्रमाणं व्युत्पादयितुमारब्ध. निर्वाधमुपयोगाऽऽस्मक पवाऽऽस्मा प्रसिध्यति । न हि जातुचित । मतत्र चेन्छियाऽऽदेरपि प्रमाणतायाःप्रसिद्ध बोधस्य प्रामाएयेस्वयमचेतनोऽहं चेतनायोगात् चेतनः। अचेतने वा मयि ऽव्याप्तिश्च लकंणदोषः । न चाबोधरूपस्येन्द्रियाऽऽदेनोंकप्रमाचेतनायाः समवाय इति प्रतीतिरस्ति, हाताऽदमिति समाना
एता न व्यपदिशति, प्रदीपेनोपसन्धं चक्षुषा रटं धमेनावगधिकरणतया प्रतीतेः। भेदे तथा प्रतीतिरिति चेताना कथ
तमिति लौकिकव्यवहारदर्शनात् । न चौपचारिकं प्रामाण्यम, विचादात्म्याभावे सामानाधिकरण्यप्रतीतेरदर्शनात् । यष्टिः प्रमितिक्रियायां साधकतमत्वेन मुख्यप्रामाण्योपपत्तेः । अत पुरुष इत्यादिप्रतीतिस्तु भेदे सत्युपचाराद्रष्टा, न पुनस्तावि.
एव शास्त्रान्तरेष्वपि विशेष्योपलब्धिजनकस्य बोधाबोधरूपकी। उपचारस्य तु बीज-पुरुषस्य यष्टिगतस्तब्धत्वाऽऽदिगुणैर- विशेषत्यागेन, सामान्यतो " लिखितं साकिणो भुक्तिः, प्रमा भेदः,उपचारस्य मुख्यार्थस्पर्शित्वात्। तथा चाऽऽस्मनि ज्ञाताह- त्रिविधं स्मृतम्" इत्युक्तिः । किं च-प्रमीयतेऽनेनेति प्रमाणशमिति प्रतीतिः कश्चिचेतनाऽऽरमतांगमयति,तामन्तरेण काता | ब्दः करणविशेषप्रतिपादकः । करणविशेषत्वं चास्य विशेहमिति प्रतीतेरनुपपद्यमानत्वाद्घटाऽऽदिवान हिघटादिर- प्योपखन्धिजनकस्य बोधाबोधरूपविशेषत्यागेन सामान्यतो
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पाण
(२६) अभिधानराजेन्द्रः ।
निमितरूपकार्थजनकत्वेन कार्यस्य चाव्यभिचारादिस्वक पत्वाद तज्जनकत्वेमापरेण साधकतमेन भाग्यम्, एकस्यैव स्वा मनिकरण कियाविरोधाद। ततो बोधाबोधरूपस्य प्रमितिजन कस्य प्रमाणतोपपतेर्योधनार्थ प्रमाणमित्यत्राप्यासिले क्षणदोषः प्राप्नोतीति स्थितम् ।
अबोधविशेषः प्रमाणं चापि कः पुनरसी बोधस्य विशेषः । यद्यन्यभिचाराऽऽदिविशेषणविशिष्टावं तदा प्रमितिस्वभावस्य तस्य प्रमाणताप्रसक्तिः । न चाभ्युपगम्यत एवेति वाध्यम, करणविशेषस्य प्रमाणम्यवस्थिते 'निराका बोधोऽर्थसहायेकसामध्यधीनता प्रमाणइति भाषिकोकम किसी प्रमाणमभ्युपेयते । यत - कम "सम्वापारमिवाऽऽजाति, व्यापारेण स्वकर्मणि।" इति । कर्मताच बोचसद्भाविनोऽश्व तद्बोधाया न संभवति,
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समानका लक्ष्य कृतविकार्यत्वात् द्वयोः कर्मरूपत्वे च तत्र करणक्रिययोः कथं प्रतिनियमः ? । तदभावे चैकस्य सामग्र्य चीनतायामपि सर्वः सर्वस्य बोधो भवेत्। कि ब्रेक सामग्रयधीमत्वस्य द्वयोरप्यविशेषाद्यथा बोधार्थस्य ग्राहकः, तथाऽर्थोऽपि बोधस्य किं न भवेत् ? । तन्न 'निराकारो बोधः प्रमाणं' संभवति । अथ स्थानिराकारो बोधः प्रमाणं माउसवली, प्रमि तिक्रियायां साधकतमत्वान् प्रमाणम् । ननु च बोधस्य प्रमाणस्त्ररूपत्वादर्थाऽऽकाराऽऽत्मकत्वमयुक्तम, प्रमेधरूपताऽऽपतेः। न चप्रमेयमेव प्रमाणं भवितुमईति प्रमाणस्य तदृग्राहकान प्रतिभासनादन] तात्वेन प्रतिमानमप्रियरूपं युक्तम. प्रमाणप्रमेययोरन्तविधतत्वेनावभासनात्। भेदेन च प्रतिभासमानं नान्यथाऽचिगन्तुं युक्तम। न हि प्रतिभासा साक्षात् कारणाssकारत्वात् प्रत्यकरूपोऽर्थव्यवस्थापकः प्रमाणान्तरादनुग्रहं वाघां वा प्रतिपद्यते । उक्तं च- " प्रमाणस्य प्रमाणेन, न बाधा नाप्यनुग्रहः । बाधायाम प्रमाणत्व-मानर्थक्यमनुमहे ॥१॥ " इति सर्वदा विमासिनकस्या प्रमाणत्वे प्रमाणान्तराप्रवृत्तिरेव न चाव्यक्षेण ज्ञानमेव मंदिरकारं प्रतिपद्यते न याखोर्थः इति कथं निराकारता तस्येति वक्तव्यम् ? ज्ञानरूपताया बोधस्याभ्यक्के प्रतिनासनात्, अर्थस्य च ज्ञानरूपतायाः प्रतिपत्तेः । न हानहङ्काराऽऽस्पदस्वेनार्थस्य प्रतिभासे अहङ्काराऽऽस्पदबोधरूपस्यैव ज्ञानरूपता युक्ता । यदि वहङ्काराऽऽस्पदत्वेनार्थस्य प्रतिभासः स्यातदा रूपादभिन्नत्वात्तदात्मनोऽहं कपादनित्वा तदात्मनोऽहं घटइति प्रतिभासः स्यात् । न चान्यथानुता प्रतिपत्तिरन्यथाभूतमर्थं व्यवस्थापयितुं शका, प्रतिपत्तिव्यतिरेकेणाप्यर्थव्यवस्थितिप्रसकिधनप्रतिपतेरपि पीताऽऽदिव्यवस्थापनाप्रसङ्गात् श्र साकार विज्ञानमाकार प्रतिनियमात् तत्प्रतिपयैवार्यस्तदाकारां लज्जनकस्यार्थस्य व्यवस्थापयेदिति प्रतिकर्मव्यवस्था सि व्यति; निराकारं तु विज्ञानं बोधमात्रतया व्यवस्थितम, सर्वायौन प्रत्यविशवात्मसंवेदनं न पीतस्येति प्रतिकव्यवस्थानिबन्धनं न भवेदिति साकारं ज्ञानमभ्युपगन्तव्यम् । असदेतत् । सर्वार्थान् प्रति बोधमाया निराकारस्याविशिष्ठ त्वादिति देवोनिराकारत्वमपि चकुरादिवृष्या बोधस्य तत्रैव नियमितत्वात् न च नियतत्वस्य सर्वार्येषु नीलाऽऽदावेव तस्य प्रतीतिः समानत्वे अपि वा पुरोवर्तिन्येव नादी समानत्वस्य संभवात् न सर्वार्थसाधारणी प्रतिपत्तिः निराकारज्ञानवादिनो न काचित् कृतिः, तथादृष्टत्वात् । न हि दृष्टेरनुपपन्नं नाम नि
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गाण
राकात् किमिति पुरोवर्तिन्येव नीखाऽऽदो बिज्ञानपुरादिनस्तत्रैव नियमितत्वादिति प्रतिपादितं प्राक। कस्माः तत्र नियम्यत इति चेत् , अत्र वस्तुस्वनावैरुत्तरं वाक्यम् । न हि कारणानि कार्यजननप्रतिनियमे पर्वतुमईन्ति तत्र तस्य वैफल्यात् । साकारत्वेऽपि चाऽयं पर्यनुयोगः समानः । तथा हि साकारमपि ज्ञानं किमितिनी दिकमेव पुरोवर्त्तिसहि तमेव च व्यवस्थापयति, तेनैव तथा तस्य जननाऽऽदिवत् समानमेतनिराकारत्वे किरादिजन्यं वद्विज्ञानमिति चक्षु राधाकारं न भवतीति पर्यनुयोगे जनताऽपि वस्तुस्वभावैररं वाच्यमिति वक्तव्यम, तदस्माभिरभिधीयमानं किमित्य सात्यं भवतः प्रतिज्ञाति । अपि च-साकारता विज्ञानस्य किं साकारेण प्रतीयते, आहोस्विद निराकारेण । यदि साकारेण तदा तत्राऽपि प्रतिपतावाकारान्तरपरिकल्पनमित्यनवासकिः । निराकारेण चेतु बाह्यार्थस्यापे तथाभूतेनैव प्रतिपत्तिप्रसतिः। न च बाझे प्रत्यासतिनियमाभावास तथाभूतेन प्रतिपचिरिति वाच्यम, इतरत्रापि प्रत्यासत्तिनियमाभावस्य तुल्यत्वात् । शुक् पीताऽऽकारदर्शनादस्रान्तेन प्रतिनियमाभाव इति चेत्, निराकारेपिसादेव प्रतिनियमो भविष्यतीति किमकारपरिकल्पनया ? । कथमाकारमन्तरेण प्रतिनियम इति न वाच्यम. प्राकारेऽप्यस्य समानत्वात् । तथाहि साकारवादिनोऽपि कथं प्रतिनियम इति प्रेरणायां प्रतिनियताऽऽकारपरिषद एव प्रतिनियम इति युक्तम, प्रतिनियता 3कारपरिग्रहस्यैव प्र तिनियमरूपतयोपन्यस्तस्याद्यापि चिरायमाणत्वात् चानुमानाद्वाह्योऽर्थः प्रतीयते तर्हि प्रतिबन्धसिद्धिर्वकन्या । न च बाह्यो ऽर्थो ऽभ्यक्कृतः कदाचनाऽपि सिको, नापि साप्रतिको हामाकार इति न प्रतिबन्धसिद्धि तामन्तरेण न चानुमानप्रवृतिरिति कथं बाह्यर्थसिद्धि यथाऽर्थापाया बाह्योऽर्थोऽधिगम्यते, तथाऽपच्याऽर्थस्वरूपप्रतिपत्तौ तस्याः प्रव्यकरूपताप्रसक्तेः । न च स्वरूपप्रतिपत्तिमन्तरेणाप्यनुमानवत्तस्याप्रामाण्यम्, अनुमानस्यावगतप्रतिबन्धलिङ्गप्रभवत्वेन प्रामाएयात्, अत्र च तदद्भावात् । न चाऽत्यन्तपरोक्कस्यार्थस्य केनचिदाकारेण विषयीकरणमिति न तस्य प्रतिपत्तिविषयता, अनु. मानविषयस्य तु पूर्वादित्याकारेण प्रतिपचिवि यता संभवत्यति नातिदूरस्थितवृक्काss मृत्पिण्डाऽऽकारो यथा बाह्यवृक्काऽऽद्यर्थव्यतिरेकेण न प्रतिभासविषयः, तद्वत्पुरोवर्तिनि स्तम्भादौ तदाकारः सत्येव बाह्ये स्तम्नाऽऽद्यर्थे इति लिक एव बाह्यार्थः । न च वृक्का. दावपिपिएमाssधकार एव वृक्काऽऽदिः, तस्य स्वपरावजासस्या
अथ
,
प्रतीतेः सदेतत् । यतः स्वपराभ्यामीति प्रती यमानः साकारेण वा ज्ञाने प्रतीयते ?, निराकारेण वा ?। यदि साकारेणेति पक्षः, तदाऽसावपि ज्ञानाssकार एव न बाह्योऽयं च-प्रतिइति कचिदप्यर्थासिद्धेरसिद्धो दृष्टान्तः । तथा बन्धाप्रसिकेन ज्ञानाऽऽकाराट् बाह्याऽर्थसिद्धिः। श्रथ निराकारेण तेनार्थ स्वराज्य प्रतीयत इति प्रतिबन्धसिद्धि ज्युपगम्ब ते पिरमाद्याकारस्य बाह्यार्थेन सह (?) । नन्वेवं निराकारज्ञानं बाह्यार्थग्राहकं सिद्धमिति व्यर्थे ज्ञानाकारकल्पनम् । नच तत्राऽपि प्रतिभासमानो वृको ज्ञानाकार एवेत्यपरमर्थे सावयति, तत्राप्यपरापरार्थ कल्पनायामनबस्थाप्रसङ्गात् कुतसिद्धिः । नाकारादिनिरिति चेत् ननु प्रतिबन्धग्रहणे कथं तदा तत्खकि, इति पुनरपि तच वक्तव्यमित्यपर्यवसिता पर्यनुयोगानवस्था ।
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गाण
भनिधानराजेन्द्रः। तस्माद् निराकारादेव ज्ञानाद्वाह्यासिकिरभ्युपगन्तव्याम- यस्य तस्याभावः, संवेदनमात्रस्याप्यभावप्रसके । मतो थ निराकारं ज्ञानं नीलाऽऽदावर्थे सव्यापार नियापारमिति क
निराकाराविसंवादिप्रत्ययविषया बुद्धिः सिद्धेति युक्तमुक्तमल्पनाक्ष्यम्।प्रथमकल्पनायामप्यव्यतिरिक्तव्यापारवत्, उतन्य- निराकारा नो बुद्धिरिति । असदेतत् । यतो निराकाराsतिरिक्तव्यापारवत् इति कल्पनाद्वयम्। श्राद्यविकल्पे-झानरूपमेव धबुद्धिर्मया प्रतीयत इत्यपरा बस्तदर्थस्य च प्राहिका ब्यापारकश्चित् । न च व्यापारतद्वतोरदोयुक्तो, धर्मर्मितया बुद्धिःप्रसज्येत । तथा च सत्याकारमन्तरेण केनाऽऽकाप्रतीते द्वितीयविकल्पेऽपि संबन्धासिद्धिः, ततस्तस्योपकारा. रेण बुद्धिरर्थस्येति योग्या प्रतीयेत? न हीदं तदित्यनिनावात् । उपकारेऽपि तस्य तन्निवर्तिते ऽपरो व्यापारः कल्पनीय रूपिताऽऽकारमाकारान्तरेण योजनामहति । न च तथाइत्यनवस्था । व्यापारस्यापि चार्थग्रहणव्यापृतावपरो व्यापारः उप्रतीयमाना बुरुिरिति व्यपदेशमासादयति, शशशुङ्गाऽऽकश्चित् परिकल्पनीय इत्यत्राप्यनवस्था। निापारस्यार्थव्या- देरपि बुमित्वप्रसकोक्तेः । अथाऽपि स्वात्मनाऽर्थबुहिरासीपृतावस्यापि ज्ञानग्रहणे व्यातिप्रसक्तिरित्यर्थस्यापि ज्ञान | दिति नाऽऽकारव्यतिरिक्ता सा प्रतिनाति, किं तु पृथग. प्रति ग्राहकता स्यात् । न च निराकारो बोधो निर्व्यापारोऽपि पोद्धारपरिकल्पनया प्रकाशरूपतया व्यवस्थापिता बुकिरिति बोधस्वरूपत्वादर्थग्राहकोऽर्धस्याप्यर्थरूपतया बोधं प्रति प्राहक- व्यपदिश्यते । अयुक्तमेतत् । यतो नाव्यतिरेकेण प्रतीयमाना सो प्रारूपासंस्पर्शीन बोधकस्य ग्राहकता (1) न च ग्राह्यार्थ- बुद्धिविकल्पेनापोद्धर्तुं शक्या; न च पृथक् प्रतीयते सेत्युक्तम् । रुपान्यथाऽनुपपश्या बोधस्याग्राहकताव्यवस्था, इतरेतराऽऽध. अथ सुखस्तम्भाऽऽद्याकारतयाऽयं तदन्तःस्पृष्ठविरूपाऽऽदिक. यदोषप्रसक्तः । तथाहि-ग्राह्यरूपन्यवस्था प्राहकरूपसंस्पर्शात, | मेव शानं प्रतिभाति न पुनस्ततो व्यतिीरक्तमपरं बानम्, प्राहकरूपव्यवस्थाऽपिग्राह्यरूपसंस्पादिति कथं नेतरेतराश्रय- तथा सति संवेदनमात्रमेव प्रसक्तम्। एवं च चद्धारादिना मया दोषः । न च समानकालयोर्नीलबोधयो खग्राहकनायव्यव- रूपं प्रतीयत इति संबन्धानावात्कथं प्रतीतिः १; अस्ति चेयं स्था, कर्मकर्तृरूपत्वासिद्धेः। न हि समानकालतायां निवर्त्यवि- प्रतीतिः। तस्मादुपलब्धेऽत्र रूपाऽऽदिकेऽभिमुखीभूतं चक्षुस्तकार्यप्राप्यरूपकर्मतासंभवः, समानकालस्य निर्वय॑विका- प्रकाशत्वं विदधाति, स वै बुद्धिरुच्यते। न च नीलाऽऽद्यायंताज्योगात् । प्राप्यरूपता च न नव्यतिरिक्ता संभवति, कारमविद्यमानमेव तत्र प्रकाशस्वमुत्पन्न मिति वक्तव्यम्, समानकालयोयोरपि ग्राह्यग्राहकभावाविशेषात्। तन्न निराका- व्यज्यमाननीलाऽऽदिविषयचक्रादिव्यापाराऽदिव्यज्यमानस्य रस्याप्यर्थव्यवस्थापकत्वं बोधस्येति विज्ञप्तिमात्रमेव नार्थव्यव. प्रकाशत्वस्यैव तत्रोत्पत्तेः, नीलाऽऽदेस्तु पूर्वमेव नावात् । त. सोति विज्ञानवादिनोक्तमेतत्, सप्रतिघरूपतयाऽश्यकतो बाह्यस्य था च सत्यर्थस्य बुद्धिरित व्यपदेशः सिरू एव । अत एवोसिद्धविज्ञप्तिमात्रत्वे तड्पताऽभावप्रसक्तिनवेत्। न चास्यक्षतःस- क्तम-बुद्धिरुपलब्धिनिमित्यनान्तरमिति । एतदप्यसत् । प्रतिघबाह्यरूपतया प्रतीयमानस्य विज्ञप्तिरिति नामकरणे का- यतो न प्रकाशव्यतिरेकेण नीबाऽऽदिरुपलभ्यत इति कुतः बिन कतिः, नामकरणमात्रेण सप्रतिघत्वबाह्यरूपत्वाऽऽदेरर्थधर्म- पूर्वव्यवस्थिते एव नीलाऽऽदो प्रकाशता चक्षुरादेरुदयतीति वक्तुं स्याव्यावृत्तः । अतःसप्रतिघत्वाऽऽदिम्पो बाह्योऽर्थः, तद्विपरीत. शक्यम्,नदिप्रकाशतारहितं कदाचिदुपलब्धं नीलाऽऽदिकम, वान्तरी बोध इति कथं विज्ञप्तिमात्रम? न च सप्रतिघाऽऽकार- उपबम्भे वा सर्वस्य सर्वदर्शित्वप्रसक्तिः। अथ नोलस्य प्रकाश तया बोधप्रतिपत्तिः, तद्विषयतया तु तस्य प्रतिपत्तिरस्त्येव, नी- इति व्यतिरेक उपलभ्यत एव । न । शिलापुत्रकस्य शरीरं स्तम्भसविषयो बोधो मयाऽनुभूयते इति निश्चयोत्पत्तेः । न च प्रति- स्य स्वरूपमित्यत्रापि व्यतिरेकोपलब्धेय॑तिरेकः स्यात, प्रकाशनासनिश्चयमन्तरेणापरस्य पदार्थस्वरूपव्यवस्थिती निबन्धनम- स्य प्रकाशतेति चादृष्टो भेदःप्रकाशतायाः स्यात् । अथात्रैव त्पश्यामः, ततो निराकारादेव बोधाद् बाह्यार्थसिद्धिरभ्युपेया। । प्रकाशतोपलभ्यते नापरा इति न प्रकाशस्यापरःप्रकाअसदेतत। यतो निराकारं ज्ञानमर्थव्यवस्थापकमिति किं शः, व्यतिरेकोपलम्भस्य प्रत्यक्तवाधित्वात, तर्हि नीलप्रकाशप्रत्यक्षतोऽवगम्यते, पाहोस्विदनुमानता, उताऽर्धापत्तेरिति बि. योरपि न प्रत्यक्तप्रतीतो भेद इति, तत्राऽपि समानन्यायतो कल्पः तत्रन तावत् प्रत्यक्षतस्तत्प्रतिपत्ति, प्रतिजासमानशरी- व्यतिरेकस्यासिद्धः। नीलाऽद्याकारैव प्रकाशिता, सा च बुद्धिरस्तम्भाऽऽदिव्यतिरिक्तस्यापरस्य ज्ञानस्यानुपलम्नेनासस्वादान रिति सिद्धा साकारता ज्ञानस्य । अथ परोक्का बुद्धिः नि. च सुस्वाऽऽयान्तररूपेणाहकाराऽऽस्पदतया स्वसंवेदनाध्यकतो राकारा च ततः साकारस्य बोधस्य बुकिरिति विकल्पेडकानरूपं प्रतीयत एवेति कथं तस्यानुपलम्नः,यतः सुखाऽऽदयो
प्यप्रतिभासनात ; अर्थापत्तेश्च प्रकया, प्रकाशमात्रेणार्थस्य नान्तःस्पृष्टशरीरा, नातिरिच्यमानतनवःप्रतिभान्तिा अदमिति
सिरुत्वाद् व्यर्थ तदपरबुझिपरिकल्पनम् । ततश्च यमुक्तम्-नि. प्रत्ययोऽपि तथाभूतशरीराऽऽलम्बनतया संवेद्यत इति।नच व्य
राकारमेव ज्ञानमर्थोन्मुखमुपनज्यमानं प्रतिनियमेन कथं सर्वतिरिक्तो बोधाऽऽत्मा स्वप्नेऽप्यनुनविषय इति न प्रत्यकृतो ग्राह्य
साधारणम्, इति सिरुःप्रतिकर्मप्रत्यय इति। तदप्ययुक्तम्। यतो व्यतिरिक्तवग्राहकवरूपमवभासते। अथासूतशरीराऽऽसम्बन
नकिश्चिन्नीलाऽऽद्याकारप्रकाशिताव्यतिरेकेणोपनत्यतेऽपरमिति तया संवेद्यत इति न तत्प्रत्यक्वाबसेयम, नाऽप्यनुमानाधिगम्यम,
कस्यार्थे प्रत्यासन्नता परैः परिकल्प्यते ? प्रकाशता तु यदि प्रत्यक्काप्रवृत्ती तत्पूर्वकस्य तत्र तस्याप्यप्रवृत्तेः । नाप्यर्थाप
निराकारा स्यात, प्रतिकर्मव्यवस्था ननवेत्। न ह्यालोकमात्तिस्तद्भावमवगमयति, तस्याः प्रामाण्यानुपपत्तेः । किञ्च
श्रेणामिश्रितघटाऽऽदिरूपेण तद्पप्रकाशनं युक्तं, कथं तहि चक्षुमनुस्मरणमात्रमापत्तिः, न चेदं तदित्युल्लेखबदनुस्मरण.
रादिनाघटादिरुपलभ्यत इति व्यवस्था बाह्यार्थवादिपरिकल्पिते मरऽर्थमासादयति। न चानस्वरूपं कदाचनापि दृष्ट, दृष्टे
परोके रूपाऽऽदितदाकारा प्रकाशता चक्षुरादिना जन्यत इति वा तत एव तत्सिके किमयापश्या? अथार्थस्यहानमिति नि
तथा व्यपदेशः संभवी, प्रकाशिता चापोकारपरिकल्पनयाराकारस्य ज्ञानस्य प्रतीतस्तत्सद्भावः । न चार्थग्राहकत्वेन ऽनादिवासनानियमादू निमा व्यपदिश्यत इति न कि
सर्वदाऽर्थस्य कानमित्यवंप्रतीयमानस्याविसंवादिप्रत्ययविष- शिदयुक्तम् । यद्वा-पूर्वसमप्रीतश्चक्षुरादिम्पाऽऽद्याकारण
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पाण
( १९६२) अभिधानराजेन्द्रः ।
तया
काशताबुद्धिखभावोपजायत इत्येकसामध्यधीनया व्यपदेशः । दृश्यते हि प्रदीपप्रकाशयोः समानकालयोः प्रदीपनघटप्रकाशन इत्येकसामग्रयधीनया व्यपदेशः । न कालयोरपि प्रकाश्यप्रकाशकयोः कार्यकारणभावमुपपद्यते । ननु यदि साकारं विज्ञानमभ्युपगम्यते, तदा चकुरादिकोऽर्थः प्रतिक्षिप्त पत्र, बहुरायाकारस्य संवेदनमात्रस्यैवोपलब्धेन तदाकारार्थयस्यात् यतोना
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विज्ञानमुपज्ञम्भविषयः तयेाज्ञानमेव तत्रापि साकार तत्राप्यर्यस्य पुनरुपला ज्युपगमे झानाऽकारेऽनुभव इति न कदाचित्स्वरूपेणोपलब्धिर्भवेदिति नार्थव्यवस्था । असदेत कार्यव्यतिरेकेण बाह्यार्थपरिकल्पनापण्या वा परेषामभितेति तदयुपगमादर्थस्यायमाकारं प्रकाश कमनुप्रविष्ट इत्यभिधानार्थी कदोषानुपपत्तेः । अथवा विज्ञानवादेऽर्था प्रेरणं सिद्धसाधनदोषादमिति साकारमेव ज्ञानं प्रमाणम म्युपपन्न सोशान्तिकयोगाचाराः ।
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अत्र प्रतिविधीयते - निराकारं विज्ञानमर्थग्राहकमिति न प्रत्यक्कृतः प्रतीयते, शरीरस्तम्नाऽऽदिव्यतिरेकेण उपलम्भस्पासण्यादिति । तस्यासखादिवत्र हेतुरसिद्धः अङ्कारस्य सुखाऽऽदेशनविशेषस्यान्तःस्य संवेदनत्यानुभूयमानस्य स स्वात् । न च स्वसंवेदन प्रत्य सिकस्याप्यवम् स्तम्नाऽऽद्याकारस्यापि ज्ञानस्यासश्वप्रसकेः । न हि तथाप्रतिभासाव्यतिरेकेणापरमत्रापि सस्वानबन्धनम् । न चाहमिति प्रत्यपोऽन्तःस्पृष्टशरीराऽऽचालम्बन शरीरस्य सप्रतिपत्वे न, अपरप्रत्यक्षविषयत्वेन वाऽज्ञानरूपतया सुख्यप्रत्ययविषयत्वानुपपत्ते ज्ञानस्यैवाप्रतिघात संवेद्यरूपस्यान्तःसुखाकारस्य सुषप्रत्ययविषयत्वात् अहं कुशः स्थूल इत्यादिश. रालम्बनास्वाप्रत्ययस्योपचारिकत्वादुपचारनिवन्धनस्वस्य च प्राक् प्रतिपादितत्वात् । तेन निराकारस्य ज्ञानस्य स्वप्नेऽध्य संवेदना प्रत्यक्कतो बाह्यव्यतिरिक्तं ग्राहकस्वरूपं प्रतिभातीति प्रत्युक्तम्, नीलमहं वेद्योति बाह्यनीलार्थग्राहकस्यान्तग्रीधन्यतिरिक संवेदनाप्यकृतो ज्ञानस्याममिया प्रतीते न चान्तः सुखायो बहिश्वनीलादयः परिस्फुटवपुषः स्वयं विदिताः प्रतिभान्ति, न पुनस्तद्व्यतिरिक्तं निराकारज्ञानस्वरूपमर्थप्राकमाभाति, सुखाऽऽदेरर्थग्राहकत्वायोगादिति वक्तव्यम् । यतो बाह्य प्रति सुखाऽऽदीनां नैवास्माभिरपि ग्राहकत्वमभ्युपगम्यते । न हि सुखाऽऽदयो नावनोपनेय जन्मानो बहिरर्थसन्निधिमन्तरेणाऽपि प्रादुर्भवन्तः पदार्थ नियमेोद्यतका पतित्वात् तेषां चरादिभवास्तु संविदो मंदिर मुद्भासयन्त्यः स्पष्टावभासा अन्वयव्यतिरेकाज्यां पृथगवसीयन्त इति पदार्थग्राहिण्यस्ता पचाभ्युपगमनीयात्र
दिदि परिवर्तमानं बाह्यादि पृथगेव नववाद्यार्थमादकतयाऽज्युपगम विषयः । तदेवं प्रह्माव्यतिरेकेण निराकारकानस्य संवेदनायकवादनुमान मपि तत्प्रतिपादकत्वेन विप्रतिपत्निसद्भावे । यत्रार्थापत्यप्रामाण्याचा तस्ताप्रतिपतिरिति । वत्सा धनमेव च निराकारा मघा बुद्धिः प्रतीयत इति बुद्धेरप्यपरा बुद्धिर्मादिकेत्यायुकम तद्यमेव यतः स्वपरार्थवाद के स्वरूपं तेन च पेण स्वसंविदि प्रतिभासमाना कथं शराङ्गादिवदव्यवस्थितरूपा भवेत्। यदपि सद्स्यतिरिकतथा प्रतीयमाना न विकल्पेनाप्यपो
पाण
शक्या इति । तदप्यसङ्गतम् । प्राह्मस्वरूपवक्तव्यतया स्वरूपेण तत्प्रतिभासनस्य प्रतिपादितत्वात् यदपि प्रकाशतारहितं नीलादिकं नोपलभ्यते तथोपलने सर्वे सर्वदा वेदिति त प्रापि यदि बिना नीलादिकं नोपलभ्यते इत्युच्यते तदा सिसाध्यता, तदन्तरेण तडुपलम्नस्यानिष्टेः । अथ नीलमेव प्रकाशरूपमिति प्रतिपाद्यते । तदयुक्तम् । नीलस्य जमतवा प्रकाशयानुपपत्तेः परस्परपरिवारस्थितया जमाजमयोरेकत्वयोगात् । यदपि नीलस्य प्रकाश इति व्यतिरेकः शिलापुत्रस्य शरीरमित्यादावभेदेऽपि संजवीति । तदपि न सम्यक् । दृष्टान्ते हि प्रत्यक्तावगतो नेदप्रतिभासः स्यात् वाक्ये न तु दार्शन्तिके प्रत्यक्षारूढे तदेव प्रतिभासः समस्ति । तथादि ग्राह्यरूपस्तम्भाऽऽद्यनन्यव्यावृत्तत्वेन प्राप्रतिभाति प्रकाशितुं सम्मादिकर्मणि दयावृतस्वेन ग्राहकतया प्रतिभाति तेन त्वेनयोरदा वभासोऽभ्यक्ssरूढोऽवभाति। न केवलं प्राह्माऽऽकारोऽन्यव्यावृसत्वेनानायके प्रति प्रकाशितुंदिकर्मणि व्यावृत्तेन ग्राहकतया प्रतीतेर्न स्तम्भः प्रतिभाति, किं त्वाद्वादाऽऽदिस्वभावतयाऽहङ्कार Ssस्पदश्च प्रतिभासनिश्चयाभ्यामक सीयते, तद्ग्राह्यस्तु तद्विपरीतत्वेन । न चाध्यकसिद्धभेदयोन
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संवेदनश्वत् प्रमाणादिकता ऽसतुं शक्येति न भेदप्रतिभासस्य बाधा । न च नीलाऽऽदिश्व ज्ञानरूपः, श्रहं नीलादिरित्यनवगमात् । तेन नीलाऽऽद्याकारैव प्रकाशिता, सा च बुद्धिरिति साकारता ज्ञानस्येति यदुकं तदपि निरस्तं व्यम् । यदपि प्रकाशतामात्रेणार्थस्य सित्वाद व्यथ तदपरबुकपरिकल्पनम् तदपि सिमेव साधितम् अर्थप्रकाशतामा अनिरिकाया बुद्धिवेदना असिद्धत्वात् । यदपि नायमाकारं नीलाऽऽद्याकार प्रकाशितान्यतिरेकेणोपलभ्यत इति कस्यार्थे प्रत्यासन्नता परैः परिकल्प्य ते तदपि नीलाद्यणतेानस्य स्वसंवेदनायकृतः सिरयुक्तया स्थितम् प्रकाशता तु यदि निराकारा भवेत् प्रतिकर्मव्यवस्था न स्यादिति यदुक्तं, तदप्यसङ्गतमेव । यतः प्र काश कि बीकारा है प्रोस्विद् प्राह्माऽऽकाराऽज्युपगम्यते । यदि प्रथमो विकल्पस्तदा वक्तव्यम् किमेकदेशेन नीलाssधाकारा प्रकाशता ? आहोस्वित् सर्वाऽऽत्मनेति ? । तत्र यद्येकदेशेन नीलाऽऽद्याकारा प्रकाशता, सदा स्वांशप्रकाशनाप्रसरस्यनेकाद्धिः श्रच सर्वाऽऽस्मना, तदा प्रकाशताया जडरूपनीलाऽऽदिस्वनावत्वाद्विज्ञप्तिरूपतानावप्रसक्तिः, जमस्य प्रकाशरूपताऽयोगाद ग्राह्याकारित्वमपीतरेतराश्रयत्वम् । न हि देवदत्तस्य प्रतिनियताऽऽकारता सिकौ यदत्तस्य तदाकारतासिद्धिर्दृष्टा । न च प्रकाशता साकारतासिद्धिमन्तरेणाचि प्रास्य प्रतिनियतरूपसिद्धिर्निराकारा ज्ञानस्य प्रतिकर्मव्यवस्था देतुत्वप्रसके। न च यद् यदाकारं तत्तस्य ग्राहकमिति व्याप्तिसिद्धिः श्रन्यथोत्तरनीलक्षणपूर्वनीलकणस्थ ग्राहकः स्यात् । न च तस्याज्ञानरूपत्वाद् नायं दोषः, देवदत्त नीलज्ञानस्य यज्ञदत्तनी लज्ञानग्राहकताप्रसक्तेः । न च तयोः कार्यकारणभावाभावाचार्य दोषः समन प्रति उत्तरज्ञानकणस्य ग्राहकताप्रसक्तेः। अथ तत्र ताड वेधसारूप्याभावाद नायं दोषः । ननु तथाविधं यदि कथञ्चित् सामयते तदाउनेकान्तवादाऽभ्यथिः अथ सर्वात्मना सारूप्यं तदोचरणस्यापि पूर्वकृणरूपताप्रसारित्वे कण
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पाय
मात्र सर्वः सन्तानो भवेत् । न च पूर्वोत्तरकणयोः परपके भिन्नमजिनं वैकान्ततः सारूप्यं संभवति, भेदपक्षे सामाम्यवादसकेः, अभेदपत्ते तु तदभावप्रसक्तेः । न च परपक्षे सारूप्यमहोपायः संवत कियदिनीका रं ज्ञानमनुभूयत इति बाह्योऽप्यर्थो नीलतया व्यवस्थाप्यते, तर्हि त्रैलोक्यगतनार्थव्यवस्थितिस्ततो भवेत्स
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शत्वात् तस्य । अथ नीलाssकारताविशेषेऽपि कश्चित्प्रतिनियमहेतुस्तत्र विद्यते, यतः पुरोवर्तिन पत्र नीलाssस्ततो व्यवस्था तर्ह्य नाकारत्वेऽपि ज्ञानस्य तत एव नियमहेतोः प्रतिनियतार्थव्यवस्थापकत्वं भविष्यतीति तत्साकारपरिकल्पनं व्यर्थम । यदपि चक्रुरादिना रूपमुपलभ्यत इति व्यपदेशनिबन्धनं जन्यत्वं रूपाऽऽकारप्रकाशस्योक्तम्, तदपि स्वजाढ्याऽऽविष्करणमात्रम् । यतो यया प्रत्यासत्या चतुरादिके समानका भिन्नकालं वा भिन्नं रूपाऽऽद्याकारं ज्ञानं जयति तथैव निराकारमपि हा समानकाले कालं वा स्वग्राह्यं निन्नमपि ग्रहीष्यति । न हि चक्षुरादेोर्विभिन्नकार्योस्पादन विभिन्न शक्तिप्रकृयः कश्चि ज्ञानस्य संभ बी । अथ विभिन्नकार्योत्पादनमध्यसंभवी नाभ्युपगम्यते, तर्हि 'प्रमाणमविसंवादि' इति प्रमाणलक्षणप्रणयनमनर्थकं धर्मकीर्तेराप्यते, अविसंवादित्वस्याऽर्थक्रियाज्ञानजनकत्वणस्याभावात् । श्रथ व्याबहारिकमेतद् लक्षणं न पारमार्थिकम् किं तर्हि पा रमार्थिकमिति वक्तव्यम् ? श्रज्ञातार्थप्रकाशो वेति चेत्, तत्रापि पद्यातस्याऽर्थस्य प्रकाशा स्वसंविदितोऽण परिणामी तदान्मनाभ्युपगम इति नक पः। श्रथ "स्वरूपस्य स्वतो गतिः" इति वचनादज्ञातार्थप्रकाशः स्वरूपसंवेदनमा दोषः स्वपरसंवेदकत्वेन ज्ञानस्य स्वसंवेदनाभ्यक्षतः प्रतिपत्तेरिति प्रतिपादकत्वात्, प्रतिपादितस्वात् प्रतिपादयिष्यमाणत्वाच्च । एतेन एकसामध्यधीनतया चक् रादिना रूपमुपलभ्यत इति व्यपदेश इत्येतदपि निरस्तम् । मित्रानामेकवामध्वधीनत्वल प्रतिबन्धाविरोधेाद्यवादकलक्षणस्यापि तस्याविरोधात । यथा चैकसामधीनानां चक्कुरादीनां समानसमयेऽपि स्वरूपप्रतिनियमः, तथा ब्राह्मणादकयोरपि समानकालत्वाविशेषेऽपि विज्ञानग्राहकमेत्र, श्रर्थस्तु ग्राह्य एवेति प्रतिनियमो भविष्यति । अथ एकसामम्यधीनत्वं रूपप्रतिनियमश्चचुरादेर्नेध्यते तर्हि प्र माणादिव्यवहारस्य सकस्य चिलोपात्साका रानाभ्युपग मोsसङ्गत एव स्यात् । यदपि कार्यव्यतिरेकेण बाह्यार्थकरूपनाथांच्या च परेषामिति तद्युपगमेनोच्यते-अर्थस्था यमाकारः प्रकाशतामनुप्रविष्ट इत्युक्तम्, तदपि परदर्शनानभितां स्थापयति नदि जैनानां कार्यव्यतिरेकादर्याप स्या वार्धपरिकल्पना, किंतु प्रतिभासाद सा कारज्ञानवादिनस्तु यदि ज्ञानाऽऽकारोऽर्थव्यतिरेकेण नोपपद्यत इत्यर्थव्यवस्थापक नियतार्थव्यवस्थापकः स्यात् । जनकस्यैव व्यवस्थापक इति चेत् । न । चक्षुरादेरपि व्यवस्थापकः स्यात् । तज्जनकत्वेऽपि चक्षुरादेरनाकारत्वान्नेति चेत् ननु चचुरादिजन्यत्वेऽपि किमिति सामं सदाकारं न भवति चक्षुरादि वा साकारानजनकमिति वक्तम्यम् ? स्वत बल्लाऽऽयात तत्स्वनावत्वात् तयोरिति चेत् । ननु निराकारज्ञानएचेऽपि तत्स्वाभाव्याद् ज्ञानमेव चक्षुरादिव्यतिरेकेण स्वजनकार्थव्यवस्थापकमिति किन्नाभ्युपगम्यते ?, न्यायस्य समान
( १९६३) अभिधानराजेन्द्रः ।
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स्वात् । किश्च प्राढकस्यार्थजन्यत्वेन साकारता, साव प्र तिभासगोचरा, एवं न्र ग्राहके आकारस्य जनकस्यैव प्रतिभासविषयत्वेऽन्यस्य तज्जनकस्य कल्पनाप्रसक्तिस्तत्राप्येष मित्यनवस्था भवेत् । तत्र साकारज्ञानानुभववशादर्थव्यवस्थाप्रकाशताऽनुप्रविष्टताकारस्यायुनैष वस्वन्तरानुप्रवेशासं नवात् । संभवे वा प्रकाशताया श्रपि चैतन्यरूपतायाः पृथिव्याद्यप्रवेशात् परलोकाय दयो जलानिर्भवेत् । यदप्यवाद न वाऽयं दोषो नातु स न्यायवहिष्कृतम् । प्रमाणसिकस्याप्यर्थस्यानायो यदि न दोपाय भवेत्, ज्ञानानावोऽपि न दोषाय स्यात् । न च शून्यताज्युपगमात् तदभावोऽपि न दोषाऽऽवद इति वक्तव्यम्, तत्प्रतिपाकप्रमाणाभावाद न तेन साकारानप्रमाणवादो ऽभ्युपगमाई, अनेक दोषपुष्टत्वादिति स्थितम् । सम्म० २ काएम |
( १७ ) जैमिनीयाऽभिमतस्य तु ज्ञातृव्यापारस्य फलानुमेयस्य यथा प्रमाणता न संभवति, तथा स्वतः प्रामाण्यं निरा प्रदर्शितमिति न पुनः प्रशाम्यते । यदप्यनधिगतार्थाधिगन्तृत्वं तृव्यापारविशेषणत्वेन प्रति पादिनम्, तदप्यसङ्गतमेव । यतः प्रमाणं वस्तुन्यधिगतेनधिगते वा व्यभिचाराऽऽदिविशिष्यं प्रमां जनयनोपालस्नविषयः । न चाऽधिगते वस्तुनि किञ्चित्तत्प्रमाणतामा प्रोतीति वक्तव्यम् विशिष्टतां विधानस्य प्रमाणप्रतिपाद नात् । न व पूर्वोऽसव प्रमाणेन जन्यते प्रतिपादकत्वेन प्रमाणत्वात् न च प्रमित्यन्तरजनकत्वेऽधिगते विषये तस्याकिञ्चित्करत्येोपलम्मविषयताऽनुपपत्तिमनकानन
तार्थप्रामाण्यं तस्यायसानुं शक्यमतद् व्यर्थ तथ भावित्वलक्षणं संवादादवसीयते, स च तदर्थोत्तरज्ञानवृत्तिः । न चानधिगतार्थाधिगन्तुरेव प्रामाण्ये संवादप्रत्ययस्य प्रामाष्यमुपपन्नम्। न च प्रमाणेन संवादप्रत्ययेन प्राक्तनस्य प्रामाण्यं व्यवयाधितुं शक्यम् अतिप्रसङ्गात्। अतो यथाऽचितार्थाधिगन्तु रर्थक्रियानिर्भासिनः सिद्धं ज्ञानस्य प्रामा एयं, तथा साधनानर्नासिनोऽप्यभ्युपगन्तव्यम् न च सामान्यविशेष स्तोमधिगतार्थाधिगन्तृत्वं प्रमाणस्य संभवति श्दानीनास्तित्वस्य पूर्वास्तित्वानेदात्, तस्य च पूर्वमप्यधिगतत्वसंभवात् कदिनधिगताधिगन्तृत्वान्युपगमेऽसान् सानुप्रवेशप्रकिः । अथाप्रेका पूर्वकारितामा पालम्भावेऽपि पुरु पस्य प्रेापूर्वकारिणोऽभिगतविषयमपि प्रमाणं पर्वेषमाणस्यापानविषयता स हि पूधिते वस्तुनि पूर्वकाकि मित्यधिगमाय प्रमाणान्तरम-वेषते, निष्पक्ष प्रयोजनापेकृपा देतुव्यापारता पूर्वकारिताहानिप्रतदिदम् तो
यदर्थे प्रमाणोत्पश्यतिशय जन करवेन समयोजनत्वात् प्रमाणाम्बेपणस्य न तदन्वेष्टुः पुरुषस्योपालम्नार्हता । न च निश्चिते विषये न किश्चियान्सरेण प्रयोजनम्, पतस्तद प्रमाणान्वेषणं न वैयर्थमनुभवेत्। यतो भूय उपलभ्यमाने रडतरा प्रतिपत्तिर्भय तीति सुखसाधनं तथैव निश्चित्योपादचे, दुःखसाधनं व तथात्वेन सुनिश्चितं परित्यजेत् । अन्यथा विपर्ययेणादानत्यागौ जवेताम् । अत एवैकविषयाणामपि शब्दाऽनुमानाभ्यकाणां प्रामाण्यमुपपन्नम् प्रतिपत्तिविशेषस्य, प्रीत्यतिशयादेश्व सद्भावात् । न च प्रथमप्रत्ययेनैवाऽर्थक्रियासमर्थप्रदर्शने प्रवर्तितः पुरुषः, प्रापितवार्य इति तापक
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(१९६४) अभिधानराजेन्षः।
गाण प्रमाणान्वेषणं वैयर्यमनुभवेत् । नूयो नृय उपलज्यमाने यावदनवस्थितेः कथं प्राप्यते ?, इत्याशङ्कनीयम, प्रदर्शकत्वव्य
तरा प्रतिपत्तिजवतीति सुखसाधनं तथैव निश्चित्यो- तिरेकेड तस्यास्तत्रासंभवादित्युक्तत्वात् । न चान्यस्य कानापादचे, पुःखसाधनं च तथात्वेन सुनिश्चितं परित्यजेत् ; स्तरस्य प्राप्ती सन्निकृष्टत्वात् तदेव प्रापकमित्याशकुनीयम् । अन्यथा विपर्ययेणाप्युपादानत्यागौ भवेताम् । अत पवैकविष. यस्तो यद्यप्यनेकस्माद् ज्ञानकणात प्रवृत्तावर्थप्राप्तिः, तथाऽपि बाणामपि पुरुषप्रवृत्त प्रमाणाधीनत्वाजावाद् विशिष्टप्रमाया एव | पर्या लोच्यमानमर्थप्रदर्शकत्वमेव ज्ञानस्य प्रापकत्वम, नाप्रमाणाधीनत्वात्,तां च जनयत उपेक्षणीयाऽऽदौ विषये प्रमाण- न्यत् । तच प्रथमझानकण एव संपन्नमिति नोत्तरोत्तरज्ञानकस्याप्रवर्तकस्यापि प्रमाणत्वेन बोके प्रसिद्धत्वात्, प्रवृत्तेस्तु पुरु णानां तदुपयोगि, प्राप्यमाणं च वस्तु नियतदेशकालाऽऽकारं घेच्छानिवन्धनत्वात् तदभावेनोक्तफलजनकस्य प्रमाणत्वव्या- प्राप्यत इति तथाभूतवस्तुप्रदर्शकयोरेव प्रामाण्यं, न ज्ञानाबातः । न च पुरुषार्थसाधनप्रवतंकत्वमेव तस्य प्रवर्तकत्वं,त. स्तरस्य । तेन प्रदर्शितप्रापकत्वलकणे प्रामाण्ये पीतसंवादिग्रा.
सजावेऽपि प्रवर्तितोऽहमत्र नाति तदृग्रहणे नावेवाप्रतिपत्त्य- हिकानानामपि प्रापकत्वात् प्रामाण्यप्रसक्तिन भवेत, तहिं तानि नुपपत्तेः। न च प्रवृश्यभावे तस्य प्रदर्शकत्वान्न तत्पदर्शकमिति प्रदर्शितमर्थ प्रापयन्ति; यद्देशकासाऽऽकारं वस्तु तैः प्रदर्शितं न नोकप्रतीतिः। तन्नानधिगतार्थाधिगन्तृत्वमपि ज्ञातृव्यापारविशे- तत्तथा प्रापयति, यथा प्राप्यते न तैस्तथा प्रदर्शितम् । पणमुपपत्तिमत्। अतोऽनधिगतार्याधिगन्तृकातृव्यापारोऽर्थप्रक- देशाऽऽदिभेदेन वस्तुभेदस्य निश्चितत्वान्न तेषां प्रदर्शितार्थउताऽऽस्यफज्ञानुमेयो जैमिनीयपरिकल्पितो न प्रमाणमिति प्रापकता। एवमपि प्रदर्शितार्थप्रापकत्वे जन्माऽऽदिप्रदर्शकस्य स्थितम् ।
मरीच्यादिवस्त्वन्तरप्राप्तौ प्रदर्शितप्रापकत्वेन प्रामाण्यप्रसाक्त(१८) सौगतस्तु 'प्रमाणमविसंवादि शानम्' इति वचनादविसं
रिति न किञ्चिदप्रमाणं भवेत् । प्रमाणद्वयातिरिक्तं च शानं वादकत्वं प्रमाणलकणमुक्तम् । अविसंवादकत्वं च प्राप्तिनिमित्तं
नियतप्रदर्शितार्थप्रापकम् । तेन हि भावाभाचसाधारणोऽप्रवृत्तिहेतुभूतार्थक्रियाप्रसाधकार्थप्रदर्शकत्वम् । यतोऽर्थक्रिया
नियतोऽर्थः प्रदर्शितः । स च तथाभूतोऽसवात् न प्राप्तुं ऽर्थी पुरुषस्तनिवर्तनकममर्थमवाप्तुकामः प्रमाणमप्रमाणं
शक्य इति । न च तत्प्रदर्शितार्थप्रापकत्वेन प्रमाणम् । बाऽन्वेषते । यदेव चार्थक्रियानिर्वतंकवस्तुप्रदर्शकं तदेव तेना
अनियतार्थप्रदर्शकत्वं च शब्दाऽऽदे साकात्, पारम्पयेण वा विष्यते। प्रत्यकानुमाने एव च तथाभूतार्थप्रदर्शके,नशानान्तर- प्रतिपाद्यादर्थादनुत्पत्तेः । तत् स्थित प्रापणशक्तिस्वभावमविमिति। ते च लक्षणाहे,तयोच द्वयोरप्यविसंवादकत्वमस्ति लक
संवादकत्वं प्रामाण्य द्वयोरेव । प्रापणशक्तिश्च प्रमाणस्यार्थाणम् । प्रत्यक्केण ह्यर्थक्रियासाधनं रष्टतयाऽधगतं प्रदर्शितं भव. विनाभाबनिमित्ता दर्शनपृष्ठभाविना विकल्पेन निश्चीयते । ति; अनुमानेन तु रष्ठलिङ्गाव्यभिचारतयाऽध्यवसितमित्यनयोः तथादि-दर्शनं यतोऽर्थादुत्पन्नं तद्दर्शकमात्मानं स्वानुरूपावप्रदर्शकत्वमेव प्रापकत्वम् । न ह्यान्यां प्रदर्शितेऽर्थे प्रवृत्ती न सायोत्पादना निश्चिततदर्थाविनानावित्वं प्रमाणशक्तिनिमि प्राप्तिरिति नान्यत प्रदर्शकत्वव्यतिरेकेण प्रापकत्वम्, तच्च प्रामाण्यं स्वतो निश्चिनोतीत्युच्यते, न पुनहानान्तरं तनिकाक्तिरूपम् । उक्त च-'प्रापणशक्तिःप्रामाण्यं, तदेव च प्रापक- श्वायकमपेक्ष्यते । अर्थानुभूतानित्र ततोऽविसंवादकत्वमेव स्वम्'। भन्यथा ज्ञानान्तरस्वभावत्वेन व्यवस्थितायाः प्राप्तेः कथं प्रमाणलक्षणमुक्तम् । एतदप्ययुक्तम् । यतो नार्थप्रदर्शकत्वमेव प्रवर्तकज्ञानशक्तिस्वन्नावता । तत्र यद्यपि प्रत्यकं वस्तु क्ष- प्रापकत्वं, पुरुवेच्छाऽधीनप्रवृत्तिनिमित्तत्वात् । सति वस्तुन्यर्थजग्राहि, नग्राहकत्वं च तस्य प्रदर्शकत्वं, तथापि क्षणिकत्वेन प्रापकत्वं पुरुषेच्याऽऽप्तेः। पतच प्राक प्रतिपादितम् । उपेकणं ये तस्याप्राप्तेस्तत्सन्तान एवं प्राप्यत इति सन्तानाध्यवसायो. च विषये पुरुषस्य तद्विषयाधित्वाऽऽद्यभावे प्राप्तिपरित्यागयोरउभ्य कस्य प्रदर्शकव्यापारो द्रष्टव्यः। अनुमानस्य तु वस्वग्राह- भावेऽपि तत्प्रदर्शकत्वलक्षणस्य प्रामाण्ये न कश्चिद् व्याघात कत्वात् तत्प्रापकत्वं यद्यपि न संभवति, तथाऽपि स्वा- उपलज्यते । अथेष्टानिष्टसाधनार्थव्यतिरेकेणोपेक्वणीयस्थाsकारस्य बाह्यवस्वभ्यवसायेन पुरुषप्रवृत्ती निमित्तभावोऽ. र्थान्तरस्यानावाद न तत्प्रदर्शक किश्चिद् ज्ञानं समस्तीति स्तीति तम्य तत्प्रापकमुच्यते । एतदुक्तं भवति-प्रत्यकस्य कथं प्रापकत्वाभावेऽपि प्रदर्शकत्वस्य संजवन दोषापादनं हि कणो ग्राह्यः, स च निवृत्तत्वान्न प्राप्तिविषयः, सन्तान- क्रियते। तथा च तृतीयविषयाभावमवगत्यैवोक्तम्-अर्थानर्थस्वध्यवसेयः प्रवृत्ति पूर्विकायाः प्राप्तेविषय इति तद्विषयं प्र. विवेचनस्यानुमानायत्तत्वात् । तथा-हिताहितप्राप्तिपरिहारयोदर्शितार्थप्रापकत्वमध्यकस्य प्रामाण्यम् । अनुमानेन त्वारोपित रिति च, तृतीयविषयाभावश्च सर्वस्य वस्तुनो राशिदयेन बस्तु गृहीतं, स्वाकारोबा,तयोद्धयोरप्यवम्तुत्वान्न प्रवृत्तिधिष- भावात् । तथाहि-तृतीयं वस्तु नेष्टसाधनम, उपेकणीयत्वात् । यतेति न तद्विषयं तस्य प्रापकत्यम्। अपि त्वारोपितबाह्यच्यापा- यश्च तत्साधनं न भवति तस्याऽनिष्टसाधनराशावन्तभोवः । रजेदाध्यवसायेन वस्तुन्येव प्रवर्तकत्वमापकरनेऽस्य रुष्टव्ये । पतचायुक्तम् । स्वसंविदितवस्त्वपलवस्य युक्तिशतेनापि कर्तुतेनानुमानस्य ग्राह्योऽनर्थः, प्राप्यस्तु बाह्यः स्वाकारो भेदेना. मशक्यत्वात्। तथाहि-यद्वा तद् वस्त्विष्टसाधनं न भवति,तथाभ्यवसित इति तद्विषयमस्यापि प्रदर्शितार्यप्रापकत्वं प्रामाण्य- निष्टसाधनमपि न भवति, इष्टानिष्टसाधनयोयत्नोपादेयत्वमुक्तम् । तथा परमप्युक्तम्-'न खाज्यामर्थ परिच्छिद्य प्रवर्तमा. देयत्वदर्शनात् । उपेक्षणीयस्य चायनसाध्योपादानत्यागविषकमोऽर्थक्रियायां विसंवाद्यते' इति । अत्रच प्रत्यक्वानुमानयो- स्वात कथमिष्टानिष्टसाधनयोरन्तभावः । तत्र प्रदर्शकत्वमेव प्रा. योरपि छेदसन्तानविषयोऽध्यवसायो इष्टव्यः । तथा प्रामाण्य पकत्वं, बौद्धाभ्युपगमे न प्रदशितार्थप्रापकत्वं क्वचिदपिकाने सं. वस्तुविषयं द्वयोरिति चोक्तम् । अत्रापि सन्तानविषयित्वेन वस्तु. नवति। तद्धि संतानाश्रयेण सौगतैः परिकल्प्यतेन च संतानः विषयत्वं ज्योरित्युत्तम दौकिकं चैतदविसंवादकत्वं प्रामाण्यं, संभवति । स हि स्वरूपेण वा वस्तु सन् भवेत,सन्तानिरूपेष यतो झोके प्रतिज्ञातमर्थ प्रापयन् पुरुषः संवादकःप्रमाणमुच्यते, घान तावत्स्वरूपेण, सन्तानिव्यतिरेकेण तस्य वस्तुनोऽसतो.
तवदत्रापि रुष्टव्यम् । नच क्षणिकस्य कानस्याऽर्थप्राप्तिकाय नभ्युपगमात् । अभ्युपगमे वा वणिकवादद्दानिप्रसक्तिः, सामा
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(१५६५) अभिधानराजेन्द्रः।
पाण
न्यानन्युपगमश्च निर्निबन्धनो भवेत् । ति न तस्य स्वरूपण | लभ्यते । तदन्यतमापायेऽप्यनुपजायमानं कस्य कार्योत्पादने प्रवृत्यादिविषयता, सन्तानरूपणाऽपि तस्य सवे सन्तानिन साधकतमत्वमावेदयतु। न च समस्तमामध्याः साधकत. एव तथाभूतानव्यतिरिक्तः सन्तानः प्रवृत्यादिविषयः, सन्ता- मत्वम, अपरस्यासाधकतमस्याभावे तदपेक्वया साधकतमत्वनिनां चोत्पत्त्यनन्तरध्वंसित्वाद् न तद्विषयस्य विज्ञानस्य स्यानुपपत्ते, असाधकतममपेक्ष्य साधकतमत्वष्यवस्थिते। प्रदर्शितार्थप्रापकत्वम, दृश्यप्राप्ययोः क्षणयोरत्यन्तनेदात् । यत्र न चानेककारकजन्यत्वेऽपि कार्यस्य "विनकातः कारकादि देशकालभेदेन प्रतीयमानस्यापि वस्तुनो भेदोऽभ्युपग- णि जवन्ति" इति न्यायातू साधकतमत्वं विक्तिमिति ब. म्यते, तत्र स्वरूपेण भिन्नयोः पूर्वोत्सरकणयोः कथमनेदः ?, तव्यम, पुरुषेचानिबन्धनत्वेन वस्तुव्यवस्थितेरयोगात् । अथ येन प्रदर्शितार्थप्रापकत्वं साधननिर्मासिज्ञानस्य युक्तिसंगतं कर्मकर्तविलक्षणस्याऽव्यभिचाराऽऽदिविशेषणविशिष्टोपसब्धि. भचेत् । अथ संवृत्या सन्तानस्य स्वरूपसिद्धिः पूर्वोक्तमदृषण- जनकस्य प्रमाणत्वान्न यथोक्तदोषानुषतः । असदेतत् । अनेतया च प्रतिपादितम् । सांव्यवहारिकस्य च प्रमाणस्यैतल्लक्ष- कसन्निधानात कार्यस्य स्वरूपालामे एकस्य तमुत्पत्ती - णम, न व लोकव्यवहारानुरोधेन यदि प्रदर्शितार्थ- लक्षण्यानाचे साधकतमत्वानुपपत्तेः । तत्र कर्मकर्तृवैलक्कप्रापकत्वं साधननिर्भासिज्ञानस्य युक्तिसङ्गतं भवेत् । अथ | एयमपि साधकतमत्वम् । अत्र चाऽनेकपक्कानुद्भाव्योद्योतकरोसंवृत्या प्रमाणस्याऽभ्युपगम्यते, तदा नित्यानित्यवस्तुप्रदर्श- त्तराध्ययनकारप्रन्नतिभिः साधकतमत्वं निरस्तम, ते च पक्षा कस्य तदन्युपगम्यताम्, लोकव्यवहारस्य तत्रैवोपपत्तेः । न च ग्रन्थगौरवजयाद् नेह प्रदश्यन्ते । सन्निपत्य जनकत्ये पूर्वोतथा नूतसम्राहकस्य युक्तिबाधितवाट निर्विषयम,सन्तानवि- दिदोघानावः। तथाहि-अनेकस्मिन् सन्निधी कार्यनिष्पत्तेः षयस्यैव पूर्वोक्तन्यायेन युक्तिबाधितत्वोपपत्तेः। तन्नाध्यासि- साधकतमत्वानुपपत्तिः, तस्मिस्तु सति यदा नियनेन कार्यतार्थप्रापकं प्रत्यक्ष परान्युपगमेन संजवति । तथाहि-यदेवा- मुपजायते तदा कथं न तस्य साधकतमत्वोपपत्तिः? । असदे ध्यकेणोपनब्धं तदेव तेनाध्यवसितम् । न च सन्तानस्तेन तत् । एवं प्रमाणत्वस्याव्यवस्थितिप्रमतो। तथाहि-दोपाss. पूर्वमुपलब्ध इति कथमसावध्यवसीयते ? । न हि क्षणमात्रन्ना
प्रामा सामठ्येक देशस्य कस्याञ्चिदवस्थायां प्रमाविनां सन्तानिनां दर्शनविषयत्वे तत्पृष्ठभाविनाऽध्यवसाये. ...ऽभिमतस्य सद्भावेपि प्रमेयानावात कार्यानिष्पना दृष्टस्यैव विषयीकरणम । न चाऽन्यथाभूतस्य वस्तुग्रहणे - तत्सद्भावे तु तनिष्पत्तीतस्यापि प्रदीपवरसन्निपायकारकत्वात न्यथाभूताऽध्यवसायिनः प्रदर्शितार्थप्रापकत्वं प्रामाण्य युक्तम्, प्रमाणताप्रसक्तिनवेत् । तथा प्रमातुरपि मगऽऽद्यवस्थातथाऽभ्युपगमे शुक्तिकायां रजताध्यवसायिनोऽपि तत् स्यात् । याम्, अनवधाने वाऽन्यकारकसन्निधानेऽपिकार्यानुपपत्ती तअथाऽत्र प्रवृत्ते रजतं न प्राप्यत इति न प्रदर्शितार्थप्रापकत्वं, दवधानाऽऽदिसन्निधाने तज्जन्यकार्यनिष्पसेः। सन्निपत्य जनतर्हि सन्तानेऽध्यवसितेकणः प्राप्यत इति प्रकृतेऽपि न प्र. कत्वेन साधकतमत्वमसक्तिः । अत्र कारकसाकल्यस्य साध. दर्शितार्थप्रापकत्वम् । अथाऽत्र सन्तान एवं प्राप्यते, जहि स कतमत्वेनाऽभ्युपगमात् पूर्वोक्तदोषाभावं केचिन् मन्यन्ते । एवं वस्तु सन् भवेदिति न सामान्यधः स्वरूपेण सन्तो- तथादि-नैकस्य प्रदीपाऽऽद सामन्यैकदेशस्य फरणता, अपि भ्यपगन्तव्याः, अक्वणिकस्य च वस्तुनः सिके। यमुक्तं भवद्भिः- तु कारकसाकल्यस्य, तदभावे कारकसाकल्याननिमतका. दर्शनेन कणिकाक्षणिकत्वसाधारणस्यार्थस्य विषयाकरणात सम्वमिति प्रमातृप्रमेयसदभावे कारक साकल्यस्योत्पत्ती कुतश्विमनिमित्तादविवस्वारोपेऽपि न दर्शनमक्षणिकत्वे प्रमा- प्रमितिलकणस्य कार्यस्य भाव एव । अथ मुख्यममातृप्रमे. णम, किं तु प्रत्यक्काप्रमाणम्, विपरीताध्यवसायाऽऽक्रान्तत्वात्। यसद्भावेऽपि पूर्वोदितस्य नियमस्य तुल्यता, न कारकसाकणिकत्वेऽपि न तत् प्रमाणम्, अनुरूपाध्यवसायाजननात् । कल्य जावाजावनिमित्तत्वात् तन्मुख्या गौणभावस्य । तथाहिनील रूपे तु तथाविधनिश्चयकरणात प्रमाणमिति हि विरु- कथञ्चिन् कारककल्ये तयोः सत्वेऽपि गौणता । तत्साकल्ये भ्यते । किश्च-एवंवादिन एकस्यैव दर्शनस्य कणिकत्वा- कुतश्चिनिमित्तान्तरादू यथोक्तमितिलकणकार्यनिष्पत्तावकणिकन्वयोरप्रामाण्यम्, नीलाऽऽदौ तु प्रामाण्यं प्रसक्तमित्य- गौणता प्रमातृप्रमेययोः, तयोश्चानुपपत्तौ साकल्यस्यासचम्, नेकान्तवादान्युपगमो बसादापतति । न कणग्रहणे तद्विपरीत. अतः कारकलाकल्ये कार्यस्यावश्यं नाव इति तस्यैव साधकतसन्तानाध्यवसायोत्पत्ती दर्शनस्य प्रामाएयं युक्तम्, मरीचि- मत्वम् । अनेककारकसन्निधाने उपजायमानोऽतिशयः सन्निपत्य का स्वलकणग्रहणे जनाध्यवसायिन इव । यतो यदेव मायाव- जननं साधकतमत्वं ययुच्येत, तदा न कश्चिद् दोषः । तो हर्ष, तदेव प्राप्तमित्यध्यवसाये तस्य प्रामाण्यं व्यवस्था तथाहि-प्सामग्येकदेशकारकसहभावेऽपि प्रमितिकार्यस्याप्यते । न च दृष्टस्य कणिकसन्तानिस्वरूपेण सन्तानस्य प्राप्ति- ऽनुपपत्तेरेकदेशस्य न प्रमागता, सामग्रीसद्भावे स्ववश्यरिति प्राक् प्रतिपादितम,स्वरूपेण तु तस्यासखात् प्राप्त्यविष- तया विशिष्टप्रमितिस्वरूपोपपत्तेः । एकदेशापेकया तस्या एव यतैवेति न धर्मोत्तरमतपर्यालोचनया किश्चित् परमार्थतः प्रद- सन्निपत्य जनकत्वमेव साधकतमता। न चात्र किमपेक्षया र्शितार्थप्रापकं प्रमाणं संजबति; अतः संवादकत्वमपि तस्याः साधकतमत्वम् ?। अन्यस्मिन्नसाधकतमे साधके सातन्मतेन प्रमाणकणमयुक्तम।
धकतरे वा सति तदपेकया तस्याः साधकतमत्वमपपत्ति(१६) नैयायिकास्तु- "अव्यभिचारादिविशेषणविशिष्टा- मदिति प्रेरणीयम्; यतो न सामन्यन्तर्गतानामेकदेशानां जोपलब्धिजनिका सामग्री प्रमाणम्" इति प्रमाणसामान्यल- नकत्वव्याघातः, तेषामेव धर्ममात्रत्वात् सामन्यस्यति जकणं प्रतिपन्नाः, तज्जनकत्वमेव प्रामाण्यमिति च । श्रथ सामग्रया नकैकदेशापेत्तया तत्सामन्यस्य साधकतमत्वात् प्रमाणप्रमाणत्वे साधकतमत्वमनुपपन्नम्। सामग्री ह्यनेककारकस्वना. त्वमुपपन्नमेव । एतेन यत्परैः प्रेरित किल सामग्रीकारणं वा, तत्र चानेकसमुदाये कस्य स्वरूपेणातिशयो वक्तुं शक्य- तश्च कर्तृकर्मापेक्ष, सामग्रीजनकत्वेन जेत, तयोर्यापृतेरते?। तथाहि-सवेस्मात् कारणकलापातू कार्यमपजायमानमप- र्थान्तरनंतयोरभावात् किमपेय साधकतमत्वमासाद
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(२०१६) अभिधानराजेन्द्रः |
खाण
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येदिति । तदपि निरस्तम् । यतः कर्तृकर्मणोः सामग्रीजनक त्वेन स्थितयोः कथमसत्वम् १, तत्सद्भावे च तदपेक्षया कथं न तस्याः करणता ? । अथापि स्यात् तस्यास्तज्जन्यत्वे करणत्वव्याघातः, अन्यतः सिकस्य करणत्वसद्भावात् । असदेतत् । यतो दृश्यत एव प्रदीपाऽऽदे स्तज्जन्यत्वे करणत्वव्याघाते ऽन्यस्यापि करणत्वसद्भाव इति न कश्चिद् व्याघातः । तज्जन्यत्वकरणत्वयोस्ततोऽव्यभिचाराऽऽदिभिर्विशेषणार्थोपलब्धिजनिका सामग्री बोधस्वनावा तदेकदेशभूतकारकजन्या प्रमाणविशेषिका अप्येतदेव प्रमाणसामान्यन्नकणं प्रतिपादयन्ति । पतत्कार्यभूता वा यथोक्तविशेषके विशिष्टशेषन ब्धिः प्रमाणसामान्यलक्षणम, तया स्वकारणस्य प्रमाणाभासेज्यो व्यवच्छि द्यमानत्वात् । इन्द्रियजत्वा ऽऽदिविशेषणविशेषिता सैवोपलब्धिः प्रमाणस्य विशेषलक्षणमिति स्थितं सामग्रीप्रमाणमिति । अत्र प्रतिविधीयते यत्तावदुकं कारकसाकल्पकरणत्वेनाभ्यु पगमे पूर्वोक्तदोषानाव इति । श्रत्र वक्तव्यम-किमिदं कारकसाकल्प - किं सकलान्येव कारकाणि, आहोस्विद्धर्मः उत तत्कार्यम्, किं वा पदार्थान्तरम् ? इति पक्काः । तत्र न तावत् सकलान्येव कारकाणि साकल्ये, कर्तृकर्मकरणस्वानुपपते ताखद्भावे वा मान्येषां कर्तृकर्मरूपाने करणत्वाभ्युपगमात् न च कर्तृकर्मरूपाणामपि ते स्वम् तेषां परस्परविरोधात् तथादिज्ञानविकारता स्वतात निदियोगिक प्र धानकियानाधारत्वं करणत्वम, पतानि परस्परविरुकानि क धमेव संवन्ति । अथापरापर निमित्त भेदाः कर्तृकर्म करणरूपताया अविरोधः । ननु तान्यपि निमित्तानि सकलकारकेभ्यो व्यतिरिक्तःने, उताव्यतिरिक्तानि ?, इति वाच्यम् । यदि श्रव्यतिरिक्तानीति पक्षः, तदा तद्भेदे तेषामध्यभेदः, तेषां वा नेदे कारकस्याऽपि नेदः, अन्यथा व्यतिरेकासिकः । श्रथ व्यतिरिक्तानि तदा संबन्धासिद्धिः । न च समवायलक्षणः संबन्धः, तस्य निषिद्धत्वात्, निषत्स्यमानत्वाच । न चैकान्तमे विशेषणविशेष्यतावादिकोऽपि संबन्धः कधि संभवति संवन्धान्तरकल्पनामाच तस्य संबन्धरूपत्वात् संबन्धान्तरमन्तरेणाऽपि संबन्धत्वानवस्या, एकान्तभेदे संबन्धरूपताया एवायोगात् कथञ्चिनिमित्तानां कार ज्योऽभेदे अनेकान्तवादऽऽपत्तिः, तन्न सकलकारकाणि साकल्यम् । अथ कारणधर्मसाकल्यम्- ननु सोऽपि यदि कारकाव्यतिरिक्तस्तदा धर्ममात्रं, कारकमात्रं वा ? । श्रथ व्यतिरिक्तस्तदा सकलकारकधर्मः साकल्यमिति संबन्धासिकः। संबन्धेऽपि यदि सर्वकारकेषु युगपद संचयते तदा बहुसंख्य तत थक्त्वसंयोगविभागसामान्यानामन्यतमस्वरूपाऽऽपत्तिस्तस्येति
तदूदूषणेन तस्य दूषितत्वान्न साधकतमत्वमुपपत्तिमत् । अथतकार्ये साकल्यम् । तदप्ययुक्तम् । नित्यानां साकल्यजनन स्वभावतसके पति सफल तदुत्पाद्य प्रमाणोत्पत्तिप्रसक्तिः। तज्जनकस्वनावस्य कारणेषु पूर्वोतरकालभाविनां सर्वप्रमाणानां तदा नित्याभिमतं जनकमात्मा 33दिकं कारणमिति कथंन तदैव तत्पाप्रमाणोत्पत्ति प्रसािदिके सत्यपि तदभिन्न तर्हि तत्तत्कारणं नापितानि कार्याणीति सदपि तानि ततो न भवेयुरिति सक] जगत्यमाणविकल्पमापद्यते न - के तरकरणसामध्ये सत्यपि स्वयमेव यथाकालं ताने नवन्तौति
पाण
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वक्तव्यम्, तेषां तत्कार्यताभावप्रसक्तेः तस्मिन् सत्यपि तदात्रावात् स्वयमेवान्यदा च भावात् । न च स्वकालेऽपि कारणे सत्येव प्रवन्तीति तत्कार्यता, गगनादिकार्यास गादावपि सत्येव तेषां भावात् । न च गगनाऽऽदेरपि तत्प्रति कारणत्वस्ये. टेनोऽयं दोषः, प्रमितिसक्कणस्य तत्फलस्याऽपि व्योमाऽऽदिजन्यतयाऽऽत्मनाऽऽत्मविभागाज्ञावप्रसक्तेः। अथ यत्र प्रमितिः समबेता, स एवाऽऽत्मा, न व्योमाऽऽदिरिति न तद्विभागाभावः । ननु समवेत इति कोऽर्थः ?, समवायेन संबद्ध इति चेत् । ननु तस्य निश्वेन व्योमा दानपि प्रमितः तत्परि हारेणाऽऽत्मनो विभागः । न च समवायविशेषे समवायिनो विशेषाचार्य दोष समवायस्याभावप्रसक्तः । अथ यदा यत्र यथा यद् भवति तदा तत्र तथा तदात्माऽऽदिकं कर्ते समर्थमिति नैकदा सकलतकुत्पाद्यमाणोत्पतिम क्तिः । न । स्वभावभूतसामर्थ्यमन्तरेण कार्यस्य कालाssदिनेदायमात् । अन्यथा रहयपृधिम्यादिमहाभूत कार्यवानार स्य कारणं किमदृटपृथिवीपरमाण्वादिचतुर्विधमयुपेयते एकमेवानन्तं नित्यं सर्वगं सर्वोत्पत्तिमतां समवायिकारणमज्युपगतम् । अथ कारणजातभेदमन्तरेण न कार्यभेद उपपद्यते कारणशक्तिनेदमन्तरेणापि न कार्य पपद्यत इत्यन्युपगन्तव्यम् । अथ यया शक्त्यैकमनेका शकिर्विभाकः, तत्राप्यनेकशा के परिकल्पने ऽनवस्थाप्रसकेः ।
तहाने कार्य विधास्तीति न शक्तिपरिकल्पना । असतो न जनस्वययुपगमाताती: कयाचित् प्रत्याससिलक्षणया शक्या एकः कश्चिद्वारयतीति किं तु यत्तदात्मकं तदपि तथाविधं न कस्याश्चित् शक्तेः, अपि तु स्वकारणवशात् । न चैकस्यानेका ऽऽत्मकत्वमरमे परिकल्प्यते, अनेकरूपाऽऽद्यात्मकस्यैकस्य पटादेः प्रमाणतः प्रतिपत्तेः । अन्यथा गुणगुणिनाव एव न भवेत्, समवायस्य तन्निमित्तस्याभावात् । सकलकारणानि साकल्यजननस्वभावानि, सकलका लभाविसाकल्यस्य तदेवोत्पत्तिप्रसक्तेः । न चातज्जनन स्वतायानि कदापि तदुत्पत्तिः श्रतरजनन स्व भावात् सकृदपि तस्यानुपपत्तेः न च सहकारिसम्ययेका णि तानि तज्जनयन्ति नित्यस्यानुपकार्यतया सहकार्या गात्। न च संभूयैककार्यकारित्वं तेषां सहकारित्वम् एकान्त नित्यवाई तस्यापि निवित्वात् तत्र सकलकार्यकारणमपि साकल्यं संभवति । किश्च सकलानि कारणानि साकल्यं जनयन्ति, उतासकज्ञानि ? । न तावदसकलानि, अतिप्रसङ्गात् । नापि सकलानि, साकल्यमन्तरेण सकलानीति व्यपदेशाभावात् जावे वाचिकयमिति तत्परिकल्पना व्यर्था । किञ्च यया प्रत्यासत्या तानि साकल्यं जनयन्ति तयैक प्रमितिमप्युत्पादयिष्यन्तीति व्यय साकल्पपरिकल्पना प्रथ साकल्यस्य साधकतमत्वात् तदभावेनाकरणिका प्रमित्युत्पत्तिः, तर्हि साकल्योत्पत्तावपि तेषां न परं साकल्यलक्षणं करणमभ्युपगन्तव्यम् । अन्यथा अकरणिका साकल्यस्यापि कथमुत्यत्तिः १ अथ सदस्पशाचि करणान्युपगमस्त त तावप्यपरं करणमभ्युपगन्तव्यमित्यनवस्था । अथ करणोत्पत्तौ नापरं करणमभ्युपगम्यत इति नानवस्था, तर्हि उपलब्भ्युत्पतावपि न करणमभ्युपगन्तव्यमिति न साकल्यप्रमाणपरिकल्पना युक्तिसङ्गता । न च साकल्यस्याभ्यक्काऽऽदिप्रमाणसिकत्वादभ्यक्षबाधितोऽयं विकल्पकलापः, आत्माऽन्तःकरणतत्संयोगाऽऽदेः करणला कल्यातीन्द्रियत्वेनाभ्यक्काविषयत्वात्
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(१९६७)
प्रन्निधानराजेन्मः। तत्पूर्वकत्वेन पूर्ववदादेरनुमानस्याप्यन्युपगमान्न ततोऽपि साका कमम । तस्मात 'प्रमाणं स्वार्थनिर्णीतिस्वभावं ज्ञानम्' इत्येव्यसिद्धिः । केवलं विशिष्टार्थोपलब्धिलकणमध्यक्षसिकं कार्य तदेव प्रमाणसामान्यलकणमनवद्यम्। ननु चात्रापि स्थग्रहणवि. करणमन्तरेण नोपपद्यत इति तत्परिकल्पना, तच साकल्यमि- धुरस्य शानस्थ नैयायिकाऽऽदिभिरज्युपगमाद बौकस्त्वर्थग्रहणतिन कल्पयितुं शक्यमात्माऽऽदिकरणसावे कार्यस्योपपत्ता- विधुरस्येति स्वार्थनिर्णीतिस्वभावताऽसिद्धा। सम्म०५काएर। वपरपरिकल्पनेऽष्टपरिकल्पनाप्रसक्तिः, ततोऽपरापरदृष्टिप- "ज्ञानं स्वस्थं परस्थं वा, यथा झानेन गृह्यते। रिकल्पनयाऽनवस्थाप्रसक्तः । तत्र सकलकारणकार्यमपि ज्ञाता स्वस्थः परस्थो वा,तथा ज्ञानेन गृह्यताम"॥१॥स.२०॥ साकव्यम् । श्रथ पदार्थान्तरं सकलकारणेभ्यः साकल्यं, तदा
(२०) अनुव्यवसायप्रकाइयं कानम्यत किञ्चित् पदार्थान्तरं तत्साकल्यं प्रसज्येत, ति यस्य तथाई नैयायिकाः प्रतिपादयन्ति-घटाऽऽदिशानं स्वग्राचं कस्यचित्पदार्थान्तरस्य सद्भावेऽर्थोपलब्धिर्भवेदिति सर्वदा न भवति, ज्ञानान्तरमाह्य वा, शेयत्वात, घटाऽऽदिवत् । सर्वस्य सर्वकताप्रसक्तिः, तन्न कारकसाकल्यं प्रमाणम् । ते. अत्र प्रयोगे हेतुः स्वरूपासिकः, प्राश्रयासिद्धश्च । धर्मिणो न प्रमातृप्रमेययोरभावः साकल्याभाव इत्यादि प्रतिक्किप्तम्, त. ज्ञानस्याऽप्रतिपत्तौ तदाश्रितशेयत्वधर्माप्रतिपत्ते नचाऽऽश्रयासभावेऽपि नवदभिप्रायेण साकल्यानुपपत्तेः । यदपि मुख्य- सिकस्य परैर्धार्मिकत्वमभ्युपगम्यते । अन्यथा सामान्याऽऽदि. गौणभावस्य कारकसाकल्याभावाभावनिमित्तत्वादित्यादि।त. निषेधे सामान्यस्याऽसिकी परं प्रत्याश्रयासिद्धो हेसुरिति दोदपि व्योमकुसुमावतंसकन्नावकहेषदत्तसौभाग्यासौभाग्यप्रख्यं पोद्भावनं युक्तियुक्तं भवेत् । घटाऽऽदिज्ञानस्य प्रमाणतः प्रसिकाव्यम् । तेन सनिपत्य जननं साधकतमत्वं यद व्याख्यातम् । केनयिं दोषः । ननु तत्प्रसिद्धिरध्यक्कतोऽनुमानतो वा!, प्रमाणातदपि निरस्तमा तस्यापि साकल्यार्थत्वात् । यदपि साक- न्तरस्यात्रानाधिकारात् । न तावदध्यकतः, तस्येन्धियार्थसनिकस्यं हि तेषामेव धर्ममात्रं नैकान्तेन वस्त्वन्तरमित्यभिधे. पंजत्याभ्युपगमात्ानच ज्ञानस्य चक्षुरादीन्द्रिवेण सन्निकर्षो,न यशून्यं वचः, वस्त्वन्तरपके तु दोषाः प्रतिपादिता एव । यद. च तव्यतिरिक्तमिडियान्तरमस्ति, अथ मनोसकणमन्तःकरपि प्रमातृप्रमेयजन्यत्वेऽपि सामन्या न करणत्वव्याहतिरिति । णमस्ति, तस्य च ज्ञानेन संयुक्तसमवायः सन्निकर्ष इति तत्प्रतदपि न सङ्गतम्। सामन्यास्तज्जन्यत्वेऽनवस्थाऽऽधनकदोषा- भवमध्यकं तत्र प्रवर्तत इति । तथाहि-आत्मना मनः संयुक्तम्, 5ऽपत्तेः प्रतिपादनात् । यदप्यव्यभिचाराऽऽदिविशेषणविशिष्टा- प्रात्मनि च समवेत ज्ञानमिति मनोज्ञानेन्द्रियार्थसन्निकर्वोत्प योपलब्धिजनिका सामग्री प्रमाणमित्युक्तम् । तदप्यसङ्गतम् । म्नतदेकार्थसमवेताध्यकग्राह्यत्वाद् घटाऽऽदिशानस्य कथमाश्रभव्यजिचारादेकोपलब्धिविशेषणस्य भवदभिप्रायेणायोगात् । यासिकत्वाऽऽदिहतोर्दोषः । अयुक्तमेतद् यदीन्द्रियं मनः सिर्फ (यथा च तस्यायोगस्तथा प्रत्यकलकणे प्रदर्शयिष्यामः *) सा- भवेत । प्रधानुमानात्तत्सिद्धिमतथाहि-घटाऽऽदिशानमिडिया. मग्री च तज्जनिका यथा न संभवति तथाऽनिहितमेव र्थसन्निकर्ष, प्रत्यक्षत्वे सति सानत्वाचक्षुरादिप्रजवरूपाऽऽदिसाकल्यं विचारयद्भिः। यश्चाबोधस्वन्नावस्यापि प्रदीपाऽऽदे: ज्ञानवन्नास्य हेतोरप्रसिद्धविशेषणत्वम् ।नहि घटाऽऽदिकानस्याप्रमाणत्वं प्रतिपाद्यते। तदप्यसङ्गतम् । बोधस्वभावस्य तस्य प्र- ध्यकत्वं सिकम्, श्तरेतराश्रयत्वात्। तथाहि-मनस इन्जियसिमितिक्रियायां साधकतमत्वायोगात् । यच लोकस्तेषां प्रामाण्यं कावस्याध्यक्षवासद्धिः, तत्सिकौ च सविशेषण हेतुसिर्मनस दीपेन मया दृष्टं, चकुषाऽवगतं, धूमेन प्रतिपन्नमिति व्यवहर- इन्द्रियसिद्धिरिति व्यक्तमितरेतराश्रयत्वम् । न च घटकानाद तीति तदुपचारतः.यथा ममाऽयं पुरुषश्चक्षुरिति, न तु मुख्यतः। भिन्नमपरं ज्ञानं तद्ग्राहकमनुभूयत इति विशेष्यासिद्धश्च मुख्यतस्तु बोधस्यैव प्रमिति प्रति तादात्म्यादव्यवहितं साधक- हेतुः, सुखाऽऽदिसंवेदनेन व्यभिचार) च । तथाहि-तत्संतमत्वम्। चक्कुरादेस्तु बोधव्यवधानाद् गौणम् । न च व्यपदेश. वेदनमध्यकत्वे सति शानं च तज्जन्यमिति व्यभिचारः । अथामात्रपरतया न पारमार्थिकवस्तुव्यवस्था,उपचारतोऽपि नसो.
स्यापि पक्कीकरणाददोषः। तथा सुखाऽऽदिसंवेदनमिन्छियार्थदकं पादरोग इत्यादिव्यपदेशप्रवृत्तेः। न च प्रमाणस्य प्रमि.
सन्निकर्षजमध्यक्तमानत्वाच्चक्षुरादिप्रभवरूपाऽऽदिवेदनबत्सु. तिरूपता विरुका, स्वरूपे विरुद्धासिद्धिः। न च प्रमाणप्रमि
खाऽऽदिर्वा जिन्नानवेद्यो, शेयत्वात्, घटवत्।मन्वेचं व्यनिचार. त्योरेकान्ततो जेद पवाभ्युपगम्यते, कथञ्चिद् बोधादर्थपरिच्चि
विषयस्य पक्कीकरणे न कश्चिद् हेतुळनिचारी स्यात् । तथाहितिविशेषस्य भेदात् प्राक्तनपर्यायनिरोधेन कथञ्चिदवस्थि
अनित्यः शब्दः, प्रमेयत्वाद्, घटवदित्यत्राप्यात्माऽऽदेयभिचारतस्यैव बोधस्याऽर्थपरिचित्तिविशिष्टरूपतयोत्पत्तेः । अन्यथा
विषयस्य पकीकरणाद् न व्यनिचारः शक्यं यत्राऽपि वक्तुम्-अ. कार्यकारणभावविरोधादित्यसकृत् प्रतिपादितत्वात् । एतेन
नित्य आत्मादिः , प्रमेयत्वाद, घटवत् । न चाऽत्र प्रत्यक्तबोधः, " लिखितं साक्विणो भुक्तिः, प्रमाणं त्रिविधं स्मृतम् "
अन्यत्राऽपितस्य समानत्वात्। न हि सुखाऽऽद्यविदितस्वरूपं पूर्व इति यत् शास्त्रान्तरेषु बोधाबोधरूपस्य प्रमाणत्वाऽभिधानं
घटाऽऽदिवदुत्पन्नं पुनरिन्द्रियसंबन्धोपजातज्ञानान्तराद्वेद्यत इति तदप्युपचारेण व्याख्येयमित्युक्तं जवति । अन्यथा प्रमाणावरो.
लोकप्रतीतिः, अपितु प्रथममेव स्वप्रकाशरूपं तमुदयमासादधप्रदर्शितन्यायेन ......" (?)। यदपि तत्कार्य नूता चोदित.
यमुपलभ्यते अात्मनि त्रिविध इति चेत् । न । स्वरूपेण पदार्थस्य विशेषणोपलब्धिस्तस्य सामान्यलकणमित्युक्तम् । तदप्य
विरोधाभावात् । अन्यथा प्रदीपाऽऽदेरप्यपरप्रकाशविकलस्वरूप. सङ्गतम् । न दि यथोक्तविशेषणोपलाब्धः पराभ्युपगमेन सं.
प्रकाशविरोध: स्यात् । तस्य तत्स्वरूपं कुतःसिकमिति चेत्,प्र. भवति, नाऽपि परान्युपगतप्रमाणकार्यतयाऽसौ सिद्धा, येन
दीपाऽऽदौ कुतस्तथा दर्शनमितरत्रापि समानमान चैकस्य स्व. स्वकारणं प्रमाणाजासेभ्यो व्यवच्छिद्यात् । तन्नाकपादकण
भावोऽपरत्राप्यन्युपगमाहः,अन्यथा स्वपरप्रकाशस्वनायो घटभुक्मतानुसारिपरिकल्पितमपि प्रमाणसामान्यलकणम्पपत्ति
गतःप्रदीपेऽभ्युपगतेतयोर्जवेत्। न च तदवगमात् पूर्वमप्रतीयमा
नमपि मुखाऽऽद्यभ्युपगन्तुं युक्तम्, श्रवणसमयात् प्राक पश्चात * प्रत्यक्षलक्षणं सम्मती कष्टव्यम् ।
शब्दस्य सत्तऽन्युपगमप्रसङ्गतो नित्यत्वाऽऽपत्तेः । न चाऽऽश्मनो
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नाथार्थान्तभूता एव सुखादयोऽनुग्रहाऽऽदिविधायिनो न वेयुः, इतरथायोगिनोऽपि ते तथा स्युः । न च तेषां तत्रासमवायानायं दोषः समवायस्य निषिद्धत्वात् । सुखाऽऽदिग्रहणे मनस इन्द्रियसिद्धिः । अत एव चात्मा मनसा युज्यते, तत्र च समवेताः सुखादय इत्यादिक्रिया निरंशोरममनसोः संयोगः संभी एकदेशेन तत्संयोगे सांशस्य सके, सर्वात्मना संयोगे उभयोरेकत्व प्राप्तेः । यदि च यत्र मनः संयुक्तं तत्र समवेतं समुत्पादयति तदा सव्यतया सामान्यदेशत्वेन मनसः तैः संयुक्तत्वात् सर्वाऽऽत्मसमवेत सुखाऽऽदिषु द्विधैवैकं ज्ञानमुत्पादयतीति प्रतिप्राणि भिन्नं मनःपरिकल्पनमनर्थमासज्येत। न च यस्य संबन्धि यन्मनः, तत्समवेत सुखाऽऽदिज्ञाने तदेव हेतुरिति नायं दोषः प्रतिनियता
सिद्धेः न हि तराश्वेन संबन्धेन तस्माद तत्र चानाधेयादेयातिशये तत्कार्यतायोगान्नापि तत्संयोगात् तस्यासन सर्वाना वा योगात् योगेऽपि व्यापक स्वेन समानदेशिसर्वात्मभिर्युगपत् संयोगेन प्रतिनियताऽऽत्मसंधिवानुपपतेः न च ददतं तत्संबन्धीत वक्तव्यम्, अदृस्याचेतनत्वेन प्रतिनियतविषयतया तत्प्रेरकत्वा • योगात् प्रेरक किन चेवप्रेरितवासी प्रेरक इति न तत्परिक नाम अप्रे रणामन्तरेण ईश्वरस्य साक्षान्मनः प्रेरकत्वोपपते पर कल्पना वैयर्थ्य पुनः प्रसज्यते । न च प्रतिनियतनिमितमदृष्टपरिकल्पना, तस्यापि स्वतः प्रतिनियतत्वासिः । येनाssत्मना यददृष्टं निर्वर्तितं तत्तस्य इति प्रतिनियमसिि रिति चेत्, ननु किमिद मात्मनो ऽदृष्टनिर्वर्तकत्वम् १, तदाधारभाव इति चेत्, ननु समवायस्यैकत्वे श्रात्मनां च व्यापकत्वेन एकदेशत्वे प्रतिनियत एव आत्मा प्रतिनियतारा इत्येतदेव दुर्घटम समवायाविशेषेऽपि सम पायिनोर्विशेषात प्रतिनियमे समवायप्रस केल्यात्मसुखा
संवेदनस्य कथञ्चित् तादात्म्यमभ्युपेयम् । अन्यथा तदेकार्थसमवेतग्राह्यज्ञानत्वेन सुखाऽऽदयोन सिकिमासादयेयुः । तत्रादृष्टमपि मनसः प्रतिनियमहेतुः न च येनाऽऽत्मना यन्मनः प्रेर्यते तत् तत्संबन्धीति प्रतिनियमः, श्रदृष्टत्वादात्म नो ऽप्यचेतनत्वेन तत्प्रत्ययप्रेरकत्वात् । चेतनत्वेऽपि नानुपलज्य स्य प्रेरणमिति न नियतं मनः सिध्यतीति । एकस्मात् ततो युगपत् सर्वसुखादिसंवेदनप्रशक्तिः, इत्युक्तन्यायेन सुखाssदिसंवेदनश्वेन्द्रियार्थमर्षिजन्यत्वानावाद हेतुरमेन व्य भिचारी | किल-स्वसंविदितविज्ञानयुपगमे सदसङ्घर्गः कस्यचिदे काना 33 पञ्चाङ्ग कृनैकदेशेन व्यनिवासयोरनेत्वाविशे
(१०) अनिधानराजेन्द्रः ।
dscयेकज्ञानाssलम्बनत्वानावात्, एकशाखाप्रभवत्वानुमानवत् । अप सर्वज्ञानस्वसंविदितमिति नानेनुमानस्य व्यभिचारः तर्हि तज्ज्ञानवदम्यज्ञानस्यापि न स्वाऽऽत्मनि क्रियाविरोध इति सर्वज्ञानं स्वसंविदितं ज्ञानत्वात् सर्वज्ञज्ञानवदिति तत् दृष्टा
स्वनिसिद्धि घटादिज्ञानं रायत्वाद्, घटवदित्यत्र च व्यभिचारः । सम्म० २काएम ।
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ननु जुगवं दो णत्थि तवओोगा, इति वचनाद् भवतोऽपि न ज्ञानानुत्पतिः सदेवन मानसविकल्प द्वययौगपद्यनिषेधपरत्वादस्य, नेन्द्रियमनोविज्ञानयोर्योगपद्यनि
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या पा पेधः च विवादास्पदीभूतानि ज्ञानानि क्रमनिवा दु मानसविकल्पद्वत्वितोनुमानतद्विमसिकस्य प्रत्य
कथापितकर्मनिर्वेशानन्तरप्रयुक्तत्वेन कालात्ययापदिन चैतदनुमानाधितत्वाद् युगपत्प्रतिपष्यनुभवः प्रत्यमेव न जयति, अभावणः शब्दः सत्वात् घटवदित्यनुमानबाधितरवा त् श्रावणशब्दज्ञानस्याप्य प्रत्यक्ताप्रसको । न च सौगतमतमेसद् जैनमतमिति बम" सहनायिनो गुणा मनाचि नः पर्यायाः" इति राजधान
तथा सहभावित्वं गुणानां प्रतिपादयता दृष्टान्तार्थमुक्तम्
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'सुखमाह्लादनाऽऽकारं, विज्ञानमयबोधनम् । शक्तिः क्रियानुमेया स्याद् यूनः कान्तासमागमे तदेवं मनसोऽसिदेना विज्ञानं तेन सन्निमिति कु स्तत्राऽध्यकज्ञानोत्पत्तिरिति यतस्ततस्तत् प्रतीयते ? । न चाम्यत्तत्पत्ती पराभ्युपगमे निमित्तमस्ति सद्भावे चेन्द्रियार्थ सन्निकर्षोत्पन्नत्वाऽऽदिना तव ग्राहिणोऽध्यकृता विरुध्यते । अथ ज्ञानान्तरेऽस्यानत्यत्वेऽपि घरानाका नविष्यतीति नासिको तुष्यति, घटज्ञानस्य ततः सिद असदेतत् स्वयमसिन ने तस्याध्य[गृतरूपत्वात् । अन्यथा सर्वइहानगृहीतस्य रध्यापुरुषज्ञानगृहीतस्वं भवेदिति तस्याऽपि सर्वज्ञताप्रसाः न
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स्वानगृहीतादगृहीतमिति सदोष स्वसंविदिवज्ञानाभाचे स्वज्ञानामित्यस्यैवासिद्धेः । स्वस्मिन् समवेत स्वज्ञानमजिधीयत इति नायं दोष इति चेत् । न । तस्याभावात् भावेऽप्यविशिष्टत्वाच्च । न च स्वोत्पादितं स्वमिति वक्तव्यम्, परदर्शने दावे प्रसिकरवात् । समवायाभावे च तस्याऽप्यसिकरवाद नित्यस्य श्रानस्तद्सिद्धिः न स्वसंविदितज्ञानवादेऽपि स्वताचाविशेषादेवदत्तज्ञानं प्रसज्येत यज्ञदत्तज्ञानस्य देवदत्तासंविदितत्वात् स्वज्ञानस्य कथश्चित स्वात्मना तादात्म्यात् तस्यैव परिणतेरिति प्रसाधितत्वात् । ज्ञानान्तरेण त तद्रूपतया स्वार्थवेदनादनगृहीतमिति चेतून रेण ग्रहणे नवस्थाको अग्रहणेऽगृहीतवेदनेन गृहीतस्य द्वितीयज्ञानस्य गृहीतरूपत्वाद् न तेन प्रथमग्रहणमिति तदवस्था धर्मासः तेन घटादिज्ञानस्य धर्मिणा द्वितीयेन तस्याऽपि तृतीयेन ग्रहणादपिरान कल्पनमिति नागवति बटुक्तम् तयसंगतम् तृतीयाऽऽदेशनियाग्रहणे प्रथमस्याध्यसि यदि पुनस्तृतीयाने स्वयमसिद्धेनापि द्वितीयं गृह्यते, द्वितीयेन तथाभूतेनैव प्रथमं, तेनाऽपि तथाभूतेनैवार्थी प्रोष्यत इतिद्वार कल्पनमपि व्यर्थमासश्येन विदितोऽर्थ ति ज्ञानविशेपणस्यार्थस्य प्रतिपत्तेरगृहीतविशेषणा विशेष्ये निपा
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विशेषणादिका ती परिकल्यते न च विशे पणस्याप्युपरि विशेषविशिष्टता प्रतीयते येन तृतीयाऽऽदिज्ञानपरिकल्पना युक्तिसङ्गता भवेदिति वक्तव्यम् ; विशेषणस्यैव तृतीयाऽऽदिज्ञान परिकल्पनामन्तरेण ग्रहणासंभवादित्युक्तेः । स्वसंविदितज्ञानाभ्युपगम एव ज्ञानविशेषणविशिष्टार्थप्रतिपत्तिः संवति, अन्यथा तदयोगादनवस्थानिवृत्तेः न च विषया स्वरसंचारादनवव्यानिवृत्ति यतो धर्मज्ञानविषयात् साधनादिर्विषयान्तरं तत्र ज्ञानस्योत्पतिर्विषयान्तरसंचारः न चाप
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( १९६९ ) अभिधानराजेन्द्रः ।
पाण
परका नाहिनमुत्य साथ पश्यं भाविवाह्यानो विश्वस विधानं येनास्य संवारो भवेत् सविधाने ऽप्यन्य हिरोरन्तरस्यैव बलीयसाविषयपरिहारेण बा चित्रानोत्पत्तिर्भवेदिति कुटो नपस्थानिवृति शानयवानिवृत्तिः स्वसंविदितज्ञानाभ्युपगमेनाप्यनयस्यानिषु तेः संजवात् । अन्यथा कार्येऽनुपपद्यमानेऽदृष्टपरिकल्पनाया उपपत्तेः, स्वसंवेदनेऽपि चादृष्टस्य शक्तिप्रत्यकानावात । एतेन ईश्व देरिति प्रतिविदितम तथा प्रतिषिचतुर्थज्ञानाऽऽदेरनुत्पत्तेर नत्र स्थानिवृत्तिः, धर्मअस्यैवमनावाऽम्बिक द्यात्मनोभयतिरिका, दपि वा व्यतिरिक्त ज्ञानोत्पर्थक आत्मा जयेत् । न न सा तस्येति नास्माssनर्थक्यम. समवायाजावे तस्याप्य सिद्धेः । किञ्च यदि सिद्धिप्रकृपादनवस्थानिवृत्तबह्यविषयमपि ज्ञानं न जवेत्, शक्तिमहादेव चतुदान जननरेन विषयज्ञानशक्तेर्युगपदनेकशक्त्यजावात् । जात्रे वा युगपदनेकहानीरस नियति प्रति पादितक्रमेण शक्तिभावे कुतः स इति वक्तव्य है। आत्मन इति वेत् । न । श्रपरशक्तिवैव कव्यात् । ततस्तदजावाद पर शक्तिपरिकलपने तदभावे ऽप्यपरशक्तिपरिकल्पनमित्यनवस्था । तदेवं स्वसंविदितविज्ञानाभ्युपगमे कथञ्चिद् घटाऽऽदिज्ञानस्यासि रावस्थादिति हेतु स्वरूपासिद्धश्चेति ध्य वस्थिमेव स्वनिर्णीतिस्वभावं ज्ञानामिति । सम्म० २ काराम | युगपापानुभयो किरिषशब्दे निषेत्स्यते)
(२१) ज्ञानस्य स्वप्रकाशकत्वम्
1
प्रदोषादिन रातो ज्ञानस्य प्रकाश प्रति सजातीयपरापेले साच्चे तथाहि यथा प्रदीपाद्यलोको न स्वप्रतिपत्त या लोकान्तरमपेकते, तथा ज्ञानमपि स्व प्रति समानजातीयानापेकम् पतायमाना 35लोकस्य दृष्टान्तत्वम्, न पुनस्तस्यापि ज्ञानत्यमासाद्यते । येनेन्द्रियग्राह्यत्वाश्चष्मतामिवान्धानामपि तत्प्रतीव इति प्रेर्यते । न हि दृष्टान्ते साध्यधर्मिधर्माः सर्वेऽप्यासञ्जयितुं युक्ताः, अन्यथा घटेऽपि शब्दधर्माः शब्दत्वाऽऽदयः प्रसज्येरन्निति तस्याऽपि श्रोत्रग्राह्यत्वप्रसङ्गः । न च साधर्म्यहान्तमन्तरेण प्रमाणप्रतीत स्वाप्यर्थस्यातिशयं वक्तुम् । अन्यथा जीवच्छरीरस्यापि सात्मकत्वे साध्ये तत्प्रसि द्धदृष्टान्तस्याभावात् प्राणाऽऽदिमत्त्राऽऽदेतत् सिकिर्न स्यात् । अथ साधयेदशन्ता जावेऽपि वेदस्य पदा सद्भावात् केवलस्यतिरेकिवलापत्र तम्सिद त पत्र द प्रकाशक नास्तिकाशकत्वमपि नास्ति यथा घ
दाचित व्यतिरेक सद्भावादत्रकाशकरणकृपाकेतोः स्वप्रकाशकत्वं विज्ञानस्य किमिति न सिद्धिमासादयति ? | विश्व काचित्सामग्रीतेन प्रकाश प्रकाशात निरपेक] एस्पाणि ज्ञाने प्रतिमाति । तदयुकमेव । यथा हि स्वसामग्रीत उपज्ञायमानाः प्रदीपाऽऽलोकाऽऽदयो न समानजातीयमानोकान्तरं स्वयायि ने प्रतिभासमाना अपेक्षन्ते तथा स्व सामग्रीत उपजायमानं विज्ञानं स्वार्थत्रकाशस्यमायं स्वप्रतिपसीनानामते प्रतिनियतत्वात् स्वकारणाऽऽयत्तजन्मनां भावशक्तीनाम् । यचुभदीपाऽऽ लोकाऽऽ. दिकं सजातीया 55 लोकान्तरनिरपेकमपि स्व
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याप
ते म्याज्ञामरूपत्वात् ज्ञानस्य च तद्विपर्ययस्वभावत्वाद् युक्तियुक्तमिति नैकत्र दृष्टः स्वभावोऽन्यत्राऽऽज्जयितुं युक्त इति पूर्वपदी निःसारया व्यवस्थिनम् । अथ लोकस्य तदन्तरनिरपेक्षा प्रतिपत्तिरुपलब्धेति न नदृदृशन्तबलादू झामस्यापि ज्ञानान्तरनिरपेक्षा प्रतिपाले महास्वाम क्रियाविरोधाच नवेवस्तुति यद्यत्वं विरोधादेरपि बाह्यस्य नाइके ज्ञानम् अदृष्टत्वात्, जडस्य प्रकाशायोगाचेत्यपि वदतः सौगतस्य न वक्त्रवक्रता समुपजायते । तथाहि असावप्येवं वक्तुं समर्थवतुन स्वतः प्रकाश विज्ञानषद्, जडत्वानिप्र लङ्गात् । नाऽपि परतः प्रकाशमानम्, नीसुखाऽऽदिव्यतिरिक्तस्य विज्ञानस्या संवेदनेनासत्वात् । अथ नीलस्य प्रकाश इति प्रका
माननीलादिष्यतिरिकस्तत्प्रकाशः अन्यथा देनास्याप्रतिपत्तौ संवेदनस्य तत्प्रतिभासो न स्यात् । ननु न नील तद्वेदनयोः पृथगपनासः पत्यसंभवी, प्रकाशविधिकस्य नीलादेरननुभवात् तदूविवेकेन च बोधस्याप्रतिभासनात् । न चाध्यक्कतो विवेकेन प्रतीयमानयोर्मोल तत्संविदोर्भेदो युक्तः, विवेकादर्शनस्य जैद विपर्ययाऽऽश्रयश्वाश्नील तत् स्वरूपवत् । अथापि कल्पना मील दोर्जेदखिति-नीलस्यानुभव इति । नन्यपिनेोलेो यथा शिलापुत्रकस्य च नीलस्य वा स्वरूपमिति । अथ तत्र प्रत्यक्काऽऽरूढो मेदो बाधक इति न भेदाः सत्यः तर्हि नील संविदोरपि प्रत्यारुढो मेदोस्तीति न भेदकल्पना सत्या । तदेवं नीलाऽऽदिकं सुखाऽऽदिकं वस्तुप्रकाशपुः प्रतिमातीति स्थितम्। तद्यतिरिकस्य प्रका शस्य प्रतिभासनेनानावात् । भवतु वा व्यतिरिक्तो बोधः, तथापि ना नीलादयो युधः तथाहि तुल्यकालो वा बोधस्तेषां प्रकाशकः भिन्नकालो वा । तुल्यकालोऽपि परोक्षः, स्वसंविदितो वा ? । न तावत्परोक्षः, यतोऽप्रत्यनोपलमनस्य नार्थदृष्टिः प्रसिध्यतीत्यादिना स्वसंविदितत्वं ज्ञानस्य प्रसाधयन्त पतत्पकं निराकरिष्यामः । नाऽपि ज्ञानान्तरचे द्यः, अनवस्थाऽऽद्विदूषणस्यात्र पक्के प्रदर्शयिष्यमाणत्वात् । स्वसंवेदनपके तु यथाऽन्तर्निलीनो बोधः स्वयं वदितः प्रतिभाति; तथा तत्काले प्रकाशपुषो मी सदयो बहिर्देश संबधित प्रतिभान्ति, इति समानकाल यो र्नील तत्संवेदनयोः स्वतन्त्रयोः प्र तिभासनात्सव्येतरगोविषाणयोरिव न बेद्यवेदक नायः । समानकानस्यापि बोधस्य नीलं प्रति ग्राहक सं
प्रांत ग्राताप्रसङ्गः समानाविशेषबुद्ध लादीनां ग्रहणमुपरत्रयतीति ग्राहिका, नीचाऽऽदयस्तु ग्राह्याः । नैतदपि युक्तम । यतो नीलोतरा न ग्रहणक्रिया प्र नाति तचादिबोधः खीभूतो हि फुटा समानतनुश्च नीलाऽऽदिराभाति, न स्वपरा ग्रहणक्रिया प्रतिभासविषया । तदनवभासे च न तया व्याप्यमानतया नीलाss: कर्मता युक्ता । भवतु वा नीलबोधयतिरिक्ता कि. या, तथाऽपि किं तस्या अपि स्वतः प्रतीतिः, यद्वा अन्यतः ? | तत्र यदि स्वतो ग्रहणक्रिया प्रतिनाति: तथा सति बोधो, नीलम, ग्रहणक्रिया चेति त्र्यं स्वरूपनिमग्नमेककालं प्रतिभातीति न कर्तृकर्मक्रियाव्यवहृतिः । अथान्यतो ग्रहणक्रिया प्रतिभाति, न तु तत्राप्यपरा ग्रहणक्रियोपेया, अन्यथा तस्क ब्राह्मतासि पुनस्तत्राप्यपरा कर्मतानिबन्धनं किमोन
● निराकरणं प्रन्थतोऽवसेयम् ।
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अभिधानराजेन्सः । बस्था । तन्न ग्रहणक्रियाऽपराऽस्ति, तत्स्वरूपानवनासनात् ।
समाबलादानस्य देशकालाकारनियमो इष्ट इति जाग्रहशा. ततश्चान्तः संवेदनम्,बहिर्नीलादिकं च स्वप्रकाशमेवेति स्व. यामपि तत पचासौ युक्तः । अर्थस्य तु न सत्ता सिमा । सवित्तिमात्रवादः साधीयान् यदि, तन्तिनिझीनो बोधोनी. नापि तद्भवात् संवित्तिनियम इति तन्न ततः संविद्वैचित्र्यम् । साऽऽदे बोधकः, किंतु स्यप्रकाश पवाऽसौ । तथा सतिनी तस्मान्न कश्चिदपि नीलाऽऽदेप्राक सत्सासिकिः। अथ पू. लमहं बेग्रीति कर्मकर्तृनावाभिनिधेशी प्रत्ययो न भवेत, वि. सत्ताविरहे किं प्रमाणम् ? । नन्वनुपलब्धिरेव प्रमाणम् । षयस्य कर्मकर्तृभावस्यानावात् । ननु विषयमन्तरेणापि प्रत्ययो यदि नीलं पूर्वकालसंबन्धिस्वरूपं स्यात्तेनैव रूपेणोपलज्येत, रष्ट पय, यथा शुक्तिकायां रमतावगमः । अथ वाधकोदयात् पु.
न च तथा दर्शनकाल नुवः सर्वदाप्रतिभासनात् । यश्च येनैव कनर्धान्तिरसौनीलादौ तु कर्मताऽऽदेने वाधाऽस्तीति सत्यता ।
पेण प्रातभाति, तत्तेनैव रूपेणास्ति। यथा नीनं नालरूपतयाम्ब. मन्यत्रापि बोधनीलाऽध्देः स्वरूपासंसक्तस्य द्वयस्य स्वातन्यो नासमानं तथैव सद् न पीताऽऽदिरूपतया । सर्व चोपलभ्यमान पसम्मोऽस्ति बाधकः कर्मकर्तृभावो खस्य । अथ किमस्वा
रूपं वर्तमानकालतयैव प्रतिभाति, न पूर्वाऽऽदितया, तन्न पूर्व भ्रान्तेर्निबन्धनम्, न हि भ्रान्तिरपि निर्बीजा भवति । ननु पूर्व- सत्ताऽर्थस्य । भय नीसं, तद्दर्शनविरतावपि परराशि प्रतिभाम्रान्तिरेयोत्तरकर्मकर्तृभावावगतेर्निबन्धनम् । पूर्वजान्तिक- तीति साधारणतया ग्राह्यमविज्ञानं स्वसाधारणतया प्रकामताऽऽदेरप्यपरा पूर्वभ्रान्तिरित्यनादिनान्तिपरम्पराकर्मता- शकम् । नेतदपि युक्तम् । यतो नीलस्य न साधारणतया सि. ऽऽदिन तत्वम् । अथवा नीझमिति प्रतीतिस्तावन्मात्राध्यवसा- का प्रतिभासः, प्रत्यकोण स्वप्रतिभासिताया एवावगतः । म पिनी पृथम्, अहमित्यपि मतिरन्तरल्लेखमुबदन्ती जिन्ना; वे. हिनीसं परदृशि प्रतिन्नातीत्यत्र प्रमाणमस्ति, परदृशोऽ. प्रात्यपि प्रतीतिरपरैव । ततश्च परस्परासंसक्तप्रतीतित्रितयं नधिगमे नीलादेस्तवेद्यताऽनधिगतेः । प्रधानुमानेन कमवत्प्रतिभाति, न कर्मकर्तृभावः, तुल्यकालयोस्तस्यायो- नीलाऽऽदीनां साधारणता प्रतीयते । यथैव हि स्व. गात् । भिन्नकाबयोरप्पनवभासनाद् न कर्मताऽऽदिगतिः क- संताने नोबदर्शनात्तदा दानार्था प्रवृत्तिस्तथाऽपरसन्ताने. पश्चित सभविनी । अथापि दर्शनात्प्राक् सनपि नीलाऽऽत्मा | पि प्रवृत्तिदर्शनात् , तद्विषयं दर्शनमनुमीयते । नैतदप्यस्ति । श्रन भाति, तदुदये च भातीति कर्मता तस्य । नैतदपि सा. नुमानेन स्थपरदर्शनभृतो नीझाऽऽदरेकताऽसिद्धेतद्विसहशव्यधीयः । यतः प्राग्भाचोज्यस्य न सिरः । दर्शनेन स्थकाला- बदारदर्शनामुपजायमानं स्वदृधसदृशतां परप्रस्थ प्रतिपादबधेरर्थस्य ग्रहणात् । दर्शनकाले हि नीसमानाति, न तु ततः येत् । यथाऽपरधूमदर्शनात् पूर्वसदृशं दहनमधिगन्तुमीशो, न प्राक, तत्क्रय पूर्वभावोऽर्थस्य सिध्येत् ?; तस्य दर्शनस्थ पूर्व- तु तमेव पूर्वदृष्टम, सामान्येनान्वयपरिच्छेदात् । नानुमानतोऽपि काले घिरदात् । न च तत्काले दर्शनं प्रागर्थ- प्रायाऽऽकारस्यैकता । ननु भेदोऽप्यस्य न सिर पर प्रतिसन्निधि व्यनक्ति, सर्वदा तत्प्रतिज्ञासप्रसगात्
भासनेदे सति कथमसिद्धः?, परप्रतिभासपरिहारेण स्वप्रतिभधान्येन दर्शनेन प्रागर्थः प्रतीयते । ननु तदर्शना
भासात्, स्वप्रतिभामपरिहारेण च परप्रतिनासात्, विवेकस्व. दपि प्राग् सद्भावोऽर्थस्थान्ये नावसेय इत्यनवस्था। तस्मात्स
भावान व्यतिरेचयति, अन्यथा तस्यायोगात् । ततः स्वपरर्यस्य नीलादेर्शनकाले प्रतिभासनाद् न तत्पूर्व सत्ता सि.
दृष्टस्य नीझाऽऽदेः प्रतिभासभेदाद् व्यवहारे तुल्येऽपि नेद एव । वति । अथापि पूर्वदृष्टं पश्यामीति व्यवसायात प्रागर्थः
इतरथा रोमाञ्चनिकरसदृशकार्यदर्शनात सुखाऽऽदेरपि स्वपरस. सिद्ध्यति, प्रागर्थसत्तां विना दृश्यमानस्य पूर्वरष्टेन एकत्य
ताननुवस्तवं भवेत् । अथापि सन्ताननेदात् सुखाऽऽदे:गतेरयोगात् । केन पुनरेकत्वं तयोर्गम्यते ?-किमिदानीन्तनदर्श
दः । नन सन्तानभेदोऽपि किमन्यनेदात् , तथा वेदनवस्था । नन, पूर्वदर्शनेन या न तावत्पूर्वदर्शनेन, तत्र तत्कालावधेरे
अथ तस्य स्वरूपजेदाझेदः, सुखाऽऽदेरपि तर्हि स एवास्तु, अ. पार्थस्य प्रतिभासनात् । न हि तेन स्वप्रतिभासिनोऽर्थस्य व.
न्यथा दासिद्धेः । न धन्यभेदादन्यद्भिन्नम, अतिप्रसङ्गात् । तमानकालदर्शनव्याप्तिरवसीयते,तत्काले साम्प्रतिकदर्शनाऽहे.
नीसाऽऽदेरपि स्वपरभासिनःप्रतितासभेदोऽस्तीति नैकता। अथ रभावात् । न चासत्प्रतिभाति, दर्शनस्य वितथत्वप्रसङ्गात् । ना.
देशकत्वादेकत्वम् । ननु देशस्यापि स्थपरदृष्टस्यानन्तरोक्तन्यायापीदानीन्तनदर्शनेन पूर्वदर्शनाऽऽदिव्याप्तिीलाऽऽदेवसीयते,त.
दुनैकतायुक्ता । तस्माद ग्राहकाऽऽकारवत् प्रतिपुरुषमुद्भासमानदर्शनकाले पूर्वकालस्यास्तमयात् । न चास्तमितपूर्वदर्शनाऽऽ. नीलाऽऽदिकमपि भिन्नमेव । तच्चैककालोपसम्भात् , ग्राहकवत् दिसंस्पर्शमवतरति प्रत्यक्षम, वितथत्वप्रसङ्गादेव। तस्मादपास्त.
स्वप्रकाशम्। अथ ग्राहकाऽऽकारश्चिद्पत्वाद वेदको,नीलाऽऽकातत्पूर्वगादियोग सर्व वस्तु दृशा गृह्यते, पूर्वदृष्टतां तु स्मृ. रस्तु जमत्वादू ग्राह्यः। अत्रोच्यते-किमिदं बोधस्य चिदूपत्वम। तिरुल्लिखति । तद पास्तम् । दृष्टतोल्लेखाभावात् । न च स ए. यदि अपरोकं स्वरूपं, नी झाऽऽदेरपि तर्हि तदस्तीति न जडता । वायमिति प्रतीतिरेका । स इति स्मृतिरूपम,अयमिति तु दृशः
अथ मीनाऽऽदेरपरोक्षस्वरूपमन्यस्माद्भवतीति ग्राह्यम् । ननु स्वरूप, तत्परोक्षापरोक्षाऽऽकारत्वाद् नैकस्वभावी प्रत्यया;
बोधस्याप स्वस्वरूपमिन्द्रियाऽऽदेर्भवतीति ग्राह्यं स्यात् । अथ तत्कुतस्तस्वसिद्धिः । अथानुमानात्प्राग्जावोऽर्थस्य सिद्ध्यति,
यदीकियाऽऽदिकार्य न तद्वद्य नीलाऽऽदिकमपि तर्हि नयनाऽऽदिप्राक सत्तां विना पश्चाद्दर्शनायोगादिति । तदप्यसत् । यतः
कार्यमस्तु न तु ग्राह्यम । अथापि बोधो बोधस्वरूपतया नित्यः, पश्चादर्शनस्य प्राक् सत्तायाः संबन्धो न सिद्धः, प्राक् सत्ता.
नीलाऽऽदिकस्तु प्रकाश्यरूपतया अनित्य इति ग्राह्यः। तदप्यसयाः कश्चिदप्यसिद्धेः। न चासिध्या सत्तया व्याप्त पश्चादर्शन सिद्धयति; येन ततस्तत्सिकिः । अथ यदि प्रागर्थम
त् । स्तम्भाऽऽदेनयनाऽऽदिबनादुदेति रूपमपरोक्षत्वम् । तदनित्यः स्तरेण दर्शनमुदयमासादयति; तथा सति नियामकाभावा- स्तम्भाऽऽदिर्भवतु, ग्राह्यस्तु कथम् ? । न हि यद् यस्मात्पद्यते सर्वत्र सर्वदा सर्वाऽऽकारं तद्भवेत् । नायमपि दोषः, नियत- तत्तस्य वेद्यम । अतिप्रसङ्गात् । तस्मादपरोक्कस्वरूपाः स्तम्नावासनाप्रबोधेन संवेदननियमात् । तथाहि-स्वप्नावस्थायां वा. ऽदयः स्वप्रकाशाबोधस्तु नित्यो नित्यो वा तत्काले केवल
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(१९७१) पाण
अनिधानराजेन्द्रः। मुद्भाति,न तु चेदकः, द्वयोरपि परस्परं प्राह्यग्राहकताऽऽपत्तेः।। पकत्वमिति पुनरपि तथाभूनाऽपरा प्रतीतिः प्रतीतिव्यवअथ नीलोन्मुखत्वाद् बोधो ग्राहकः । किमिदं तदुन्मुखत्वं नाम | स्थापिकाऽभ्युपगन्तव्यत्यनवस्था । अथ प्रतीतिव्यवस्थापिका बोधस्य । यदि नीलकाले सत्ता, सानालस्याऽपि तत्का-1 प्रतीतिः स्वसंविदितत्वेन स्वयमेव व्यवस्थितेति नायं दोषा, से समस्तीति नीलमपि बोधस्य वेदकं स्यात् । अथान्या- तीर्थव्यवस्थापिकाऽपि प्रतीतिः तथा किं नाभ्युपगम्यते', मुखत्वं तत, तर्हि स्वरूपनिमग्नं चकासत्तृतीयस्वरूपं भक्त । न्यायस्य समानत्वात् । अथ प्रतीतिरप्रतीताऽपि प्रतीत्यतथाहि-तस्य तदुन्मुखत्वं तद्व्यापारः । स च व्यापारो यदि | न्तरव्यवस्थापिका, तर्हि प्रथमप्रतीतिरप्यव्यवस्थिताऽप्यर्थनीले व्याप्रियते तदा तत्राप्यपरो व्यापार इत्यनवस्था । व्यवस्थापिका भविभ्यतीति · नागृहीतविशेषणा विशेम्ये अथ न व्याप्रियते, न तबलात् बोधस्य प्राहकत्वं, नीला55. बुद्धिः ' रति वचः कथं न परिसवेत प्रतीतोऽर्थ इति देस्तु ग्राह्यत्वम् । अथ व्यापारस्यापरव्यापारव्यतिरेकेणापि विशेष्यप्रतिपत्तौ प्रतीतिविशेषणानवगमेऽपि विशेष्यप्रतिमीलं प्रति व्यापृतिरूपता, तस्य सपत्वात् । ननु नौल.
पस्थन्युपगमात् । अपि च-यदि तदेकार्थसमवेतज्ञानान्त. स्थापि स्वं स्वरूपं विद्यत इति बोधं प्रति ग्रहणव्यापृतिः रग्राह्य मानमर्थग्राहकमन्युपगम्यते, तदा पूर्वपूर्वकानोपलस्यात् । किञ्च-बोधेन यदि नीनं प्रति ग्रहणक्रिया जन्यते म्भनस्वभावानामुत्तरोत्तरज्ञानानामनबरतमुत्पत्तविषयान्तरसंसा नीलाद्भिन्ना, अभिन्ना वा मिन्ना चेत्, न तया तस्य प्रा. चारो ज्ञानानां न स्यात् विषयान्तरसन्निधामेऽपि पूर्वअत्यम्, भिन्नत्वादेव । अथानिन्ना, तहिं नीलाऽऽदेनि- कानवकणस्य तदेकार्थसमवेतस्यान्तरकत्वेनातिसन्निहिततररूपता, ज्ञानजन्यत्वापुत्रज्ञानकणवत् । अथ ज्ञानस्य एवं स्य विषयस्य सद्भावात् । यस्त्वाह-विषयोपलम्भानिमित्तमात्र. भता शक्तियेन तस्य नील प्रति ग्राहकता, नीला देस्तु तं प्रति प्रतिपत्तो प्रतीतिषिशेषणस्यार्थस्य सिम्त्वाद् नानवस्था। तदे. प्राह्यता । ननु बोधस्य ग्राहकन्चे, नीलाऽऽस्तु ग्राह्यत्वे सिके तदेव न संगच्चते । स्वसंवेदनशानानन्युपगमात् । एतन्न शक्तिपरिकल्पना युक्ता, शक्तेः कार्यानुमेयत्वात् । तदसिका प्रतिपादितम् । अपि च-प्रमाणसंप्लबाऽऽदिना नैयायिकेन प्रत्यतु तत्परिकल्पनमयुक्तम्, इतरेतराऽऽयप्रसङ्गात् । तथाहि- कशाब्दज्ञानयोरेकविषयत्वमभ्युपगतम् , तथा चाध्यकज्ञानवत् बोधस्य शक्तिविशेषसिद्धेनीनं प्रति ग्राहकत्वसिकिः, तत्सि। शाब्देऽपि तस्यैवान्यूनातिरिक्तस्य विषयस्याधिगमेन प्रतिपकेश्च तच्छक्तिसिकिरिति व्यक्तमितरेतराऽऽश्रयत्वम् तन्न बो. त्तिमेद श्यध्यक्तवच्छाब्दमपि स्पष्टप्रतिनासं स्वत् । अयैधत्य नीलं प्रति ग्राहकत्वसिद्धिः। तस्माद् व्यतिरिक्तऽपि कविषयत्वे सत्यपि इन्द्रियसंबन्धाभावात् शब्दविषये प्रतिबोधेऽभ्युपगते सहोपलम्ननियमात् स्वसंवेदनमेध युक्तम् । पत्तिभेदः । नन्वकैरपि विषयस्वरूपमुद्भासनीयम् । तच्च परमार्थतन्तु सुखाऽऽदयो नीलाऽऽदयश्चापरोका इत्येतावदेव यदि शाब्देनापि प्रदय॑ते, तथा सतीन्द्रियसंबन्धाभावेऽपि भाति । निराकारस्तु बोधः स्वप्ने ऽपि नोपज्यत इति न त- किमिति न स्पष्टावन्नासः शाब्दस्य ? न हि विषय भेदमन्तरेण
सनाव इति कथं तस्यार्थग्राहकत्वम् । अत एव ते प्रमा- कानावभासनेदो युक्तः । अन्यथा कानावभासमेवाद् वि. नयन्ति-इह खलु यत् प्रतिनाति, देव सद् व्यवहतिपश्म
षयभेदव्यवस्था न स्यात् । नहि बहिरपि तदबभासभेदसंवेदनपतरति; यथा हृदि प्रकाशमानवपुः सुखं, न तत्काले पीमा ऽनु.
व्यतिरेकेणान्यद् भेदव्यवस्थानिवन्धनमुत्पश्यामः । अन्यच्च द्भासमाना समस्ति, विज्ञप्तिरेघ च नीलाऽऽदिरूपतया सकलत.
प्रत्यक्षेऽपि लावादिन्छियसंबधोऽस्तीति न स्वरूपेण ज्ञातुं शनुनतामाभातीति खनावहेतुः। तदेवमर्थग्राहकत्वस्याप्यसिद्धेः,
क्यः । तस्यातीन्छियत्वात, कि तु स्वरूपप्रतिभासात कार्यात् । जमस्य प्रकाशविरुकत्याच्च नार्थग्राहकत्वमपि बीमाया
तयाविकलं यदि शाब्देऽपि वस्तुस्वरूपं प्रतिभाति, तदा तत युक्तम् । अथ बहिर्देशसंबद्धस्य जमस्यापि नीलाऽऽदेरनुभवाद
पवेन्द्रियसंबन्धस्तत्रापि किं नाभ्युपगम्यते ।। अथ तत्र मनीलाऽऽदिप्रकाशस्य तद्ग्राहकत्वमसिद्धम् नाप्यनुभूयमाने |
स्पष्टप्रतिभासानावा नासावनुमीयते । ननु तदभावस्तदकस्तम्भाऽऽदिके जडे प्रकाशविषयत्वबिरोधोद्भावनं युक्तिसङ्ग
संगतिविरहात् , तदनावश्च म्फुटप्रतिभासाभावादिति सोऽय. सम् । प्रत्यक्षसिके स्वनावे च सति तद्विरुद्धस्वभावा 55वेद
मितरेतराऽऽश्रयदोषः । तस्माद् विषयनेदनिबन्धन एव ज्ञानप्र. कस्यानुमानस्य प्रत्यकबाधितकमेनिदेशामन्तरप्रयुक्तकाला
तिभासनेदाध्यवसायोऽन्युपगन्तव्यः। स च एकविषयत्वे शा. त्ययापदिष्टत्वदोषदुष्ट तुप्रभवत्वेनानुमानाऽऽनासत्यात् । न च
दाऽध्यकज्ञानयोर्न संगच्छते। अथ शब्दै वस्तुरूपावभासेऽपिन प्रत्यकास स्वनाचे विरोधः सिद्ध्यति, अन्यथा शानस्यापि
सकतातविशेषावभास इत्यस्पष्टप्रतिभासं तत् । नन्वेचं प्रत्यकानवविरोधप्राप्तिः। नन्येवं नीमाऽऽदिसंबेदनस्याऽपिदि स्व- कावभासिनो विशेषस्याक्रियाकमस्य तत्राप्रतिजासनात् तदेष संवेदनविषयतयाऽनुभवाद् न स्वसंयोदितत्वमसिद्धम, नापि
जिनविषयत्वं शाब्दाध्यकयोःप्रसक्तम्। अथोनयत्रापि व्यक्तिस्व. स्वाऽऽत्मनि क्रियाविरोधोद्भावनं युक्तियुक्तम्, अनुभूयमाने वि
रूपभेकमेघ नीलाऽऽदित्वं प्रतिभाति, विशदाविशदी वाऽऽकारी रोधासिके । अस्वसंवेदनशानसाधकत्वेनोपन्यस्यमानस्य च कानात्मभूतान-वैवमतसंबके विषये प्रतिभासमाने तत्काल हेतोः प्रत्यक्वनिराकृतपकविषयत्वेन न साध्यसाधकत्वमित्यपि स्पष्टत्वावभासो ज्ञानावजास शति प्राप्तम, विशिष्टसामग्रीजन्यस्य समानम् । किश्च-स्वसंविदितज्ञानानन्युपगमे प्रतीयतेऽयमों ज्ञानस्य विशदत्वात् । तदवभासव्यतिरेकेण त्वक्षसंबरूनीलप्रबहिर्देशसंबन्यितयेत्यत्र प्रतीतेव्यवस्थापिकाया अप्रतीतत्वेनाव्य- तिभासकासेऽन्यस्य भवदज्युपगमेन वैशद्यप्रतिभासनिमित्त. बस्थितीव्यवस्थाप्यस्यार्थस्य न व्यवस्थितिः स्यात् । नहि स्वयमव्य- स्यासंभवात् । अथ मवतु विशदज्ञानप्रतिन्नासनिमित्त एव तत्र चस्थितं खरविषाणाऽऽदि कस्यचिद् व्यवस्थापकमुपसब्धम् । अथ वैशद्यप्रतिभासव्यवहारः,तथाऽपि न स्वसंविदिततज्ज्ञानसिद्धिः, प्रतीतेरसंविदितत्वेऽपि एकार्थसमवेतानन्तरप्रतीतिव्यवस्थापित. तदेकार्थसमवेतज्ञानान्तरवेद्यत्वेऽपि तद्व्यवहारस्य संजवात । स्वेन नाव्यवस्थितत्वं, ताई तदेकार्यसमवेतानन्तरप्रतीतेरप्य- एककालावभासव्यवहारस्तु लघुवृत्तित्वाद् मनसः क्रमानुपलपरतथाभूतप्रतीत्यवस्थापितरवेनार्थव्यवस्थापनप्रतीतिव्यवस्था- कानिमित्तः, उत्पलपधशतम्यतिमेदवत् । नम्वेवं सत्यनि
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पाण
( १९७२)
अभिधानराजेन्रूः ।
पञ्चकनचासोऽपि कमायमासे सत्यपि तन एव प्रतिमाखानुपत्र इति सः सर्वः स्व ज्ञानप्रत्यक्षः प्रमेयत्वादिति सर्वसाधकप्रयोग दृष्टान्तस्य साध्यधिकलताप्रसक्तिः । तथा समस्त सदसद्वर्गप्राकेश सर्वविहानेन मामा गृह्यते, उत नेति । यदि न गृह्यते, तदा तस्य प्रमेयत्वे सति तेनैव प्रमेयत्वलकृष्णो हेतुनिचारी, अप्रमेयत्वे तस्य भागासिद्धो हेतुः । अथ स देवानेन सर्वार्थमादिना मात्माऽपि गृह्यत इति ना कान्तिकः । नचैवं सति यथा ईश्वरानं ये उपात्मानं स्वयं गृह्णाति न च तत्र स्वात्मनि क्रियाविरोधः, तथाऽस्मबादिज्ञानमप्येवं भविष्यतीति न कश्चिद विरोधः किल
मन्युपगमे ज्ञानं ज्ञानान्तरां प्रमेयस्याद् घटयदित्य प्रयोगे ईश्वरज्ञानस्य प्रमेयत्वे सत्यपि ज्ञानान्तरप्राह्यत्वाभावात् सेनैवानैकान्तिकः प्रमेयत्वादिति हेतुः । तस्मात् ज्ञानस्य ज्ञानान्तरोचसंवाद स्वसंविदितं ज्ञानमभ्युपगन्तव्यम् । ज्ञानस्वरूपचारमा । अन्यथा भिन्नज्ञान सद्भावादाकाशस्थेव सस्व झातृव्वं न स्यात् । न चाऽऽकाशव्यतिरेकेण ज्ञानमात्मन्येव समवेतमिति तस्यैवानृत्यं माकाशादेरिति वक्तुं युक्रम. समवायस्य निषेत्स्यमानत्वात् । ज्ञानस्य च स्वसंविदितत्वे सिद्धे मनोऽपि यतिरिकस्य तसिद्धमिति कथं न रूपसंवेदन प्रत्यक्षसि त्वमात्मनः ?; तन प्रथमपकस्य दुष्टत्वम् । द्वितीयपक्षेऽपि वक्कम न हि कश्चित्पदार्थः कर्तृरूपः, करणरूपो धा स्वाऽऽत्मनि कर्मणीय सव्यापारो दृष्ट इति । तदप्यसङ्गतम् । भिन्नव्यापारव्यतिरेकेणापि श्रात्मनः कर्तुः, प्रमाणस्य च ज्ञानस्य स्वसंविदितत्यप्रतिपादनात् । एकस्यैव सिङ्गा करणमयायथाभेदेन यथा प्रमातृत्वं प्रमेय विरुद्धाभ्युपगम्यते, तदाऽप्येकस्या 55मनो ऽनेकधर्मसद्भावात् प्रमातृत्वप्रमात्यप्रमेयत्वान्यविरुद्धानि कि नाज्यु पगम्यन्ते ? तत्तद्धर्भयोगात् तत्तत्स्वभावत्वस्य प्रमाणनिश्चि सत्येनाविरोधात् । यच्चकम् प्रमाणाविषयत्वे परो कृते व्यस्थ कोऽर्थ इत्यादि । तदप्यसारम् । ज्ञातृतया प्रमाणत्वेन च स्वरूपावभासनस्य प्रतिपादितत्वात् न च घटादेः स्वरूपस्य भिअज्ञानग्राह्यत्वात् प्रमातुः, प्रमाणस्य व स्वरूपं भिन्नज्ञानग्राह्यम् । सोनि पाउदेस्तु तद्विपर्ययेण स्वरूपस्यात् । मच प्रमाणप्रमातृस्वरूपग्राहकस्य प्रव्यकस्य तल्लक्षणेनासंप्रदः, तत्संग्राहकस्य लकणस्य प्रदर्शितत्वात् । यदपि घटमई चतुषा पहचामीत्यनेनापिनं कृतम् व्यसन दि बहुष स्वास्थसंविदिता मातृविपपोरस्वसंविदितत्वं युकम, अन्यस्वना धानुपपतेन्द्रियापारे सति शरीराद् ध्ययच्छिन्नस्य विषयस्यैव केवलस्याऽवभासनमिति । तदत्यन्तमलङ्गतम् । विषयस्येव तदवनाससंवेदनस्यापि व्यवस्थापि तत्वात् तदभावे विषयावभास एव न स्यादित्यस्य चातः प्रमात्रवनास उपपन्न एव । सम्म० १ का एक । स्था० । (२२) साय नित्यानयादिनां मीमांसकने महानाम्, कामसमाधिज्ञानान्तरवेधनादिनां च योगानां म विकुट्टयन्नाह -
स्वार्थापोतम एवबोधः, प्रकाश नार्थथाऽन्यथा तु ।
याप
परे परेश्यो जयतस्तथाऽपि, प्रपेदिरे ज्ञानमनात्मानम् ||१२||
बोधो-कानं, स च स्वार्थावबोधक्रम पत्र प्रकाशते, स्वस्यात्मस्वरूपस्य, मर्यस्य च पदार्थं स्य, योऽवबेोधः परिच्छेदः, तत्र कम पवसमर्थ पत्र प्रतिभासते; इत्ययोगव्यवच्छेदः । प्रकाशत इति क्रि यथावबोधस्य प्रकाशरूपत्व सिद्धे - सर्वप्रकाशानां तु स्वा प्रकाशकत्वेन, बोधस्यापि सद्धिः विषयेये पाह दूषणमादनार्थकथा ऽन्यथा त्विति । अन्ययेति- अर्थकाराने वियाददानस्य स्वसंविदित्वा मन्युपगमेऽचैव न स्यात् । अकथा पदार्थसंयन्ति सदाम स्वरूपमिति या शब्दोऽपधारणे मिश्रक्रमश्च सार्थक सह योजित एव । यदि दिज्ञानं स्वसंविदितं नेष्यते, तदा तेनाss-मज्ञानाय ज्ञानान्तरमपेक्षणीयम, तेनाप्यपरमित्याद्यनवस्था ततो ज्ञानं तावत्स्वावबोध व्यग्रतामग्नम् ; अर्थस्तु – जडता स्वरूप पनासमर्थ इति को नामार्थस्य कथामपि कथयेत् है। तथाऽपि एवं ज्ञानस्य खसंविदितयुक्त्या घटमाने पतीथग्तरीयाः, ज्ञानं कर्मताऽऽपन्नम्, अनात्मनिष्ठं न विद्यत श्रात्मनः स्वस्य निष्ठा निश्चयो यस्य तदनात्मनिष्ठम, अस्वसंविदितमि त्यर्थः प्रपेदिरे - प्रपन्नाः । कुतः ?, इत्याह-परे ज्यो जयतः परेपूर्वपचादिनः यः सकाशादू ज्ञानस्य स्वसंविदितको पपद्यते स्पारमनि कियाविरोधादित्युपलम्भसंभावनासंभव
पं. सदाश्रित्येत्यर्थः इत्यमक्षरगमनिकां विधाय भा बाऽर्थः तेनास्तादिति-चिदितं न भवतस्त्मनि क्रियाविरोधात न हि सुशिक्षितो नटवदुः स्वस्कन्धमधिरोद्धुं पटु, न च सुतीक्ष्णाऽऽप्यसिधा स्वं नयापारा ततश्व परोक्षमेव ज्ञानमिति । तन्न स
यतः किमुत्पते। यदि - पसिनामानमुपादयतीति मन्यामहे । श्रथ शप्तिः - नेयमात्मनि विरुद्धा; तदाऽऽत्मनैव कानस्य स्वहेतुभ्य उत्पादात्. प्रकाशाऽऽत्मनेत्र प्रदीपाऽऽश्लोकस्य । श्रथ प्रकाशाऽऽत्मैव प्रदीपाऽऽलोक उत्पन्न इति परप्रकाशकोsस्तु. आम्मानमप्येतावन्मात्रेणैव प्रकाशयतीति कोऽयं न्याय?, इति चेत्; तत्किं तेन वराके प्रकाशितेनैव स्थातव्यम्, मालोकान्तराद्वास्य प्रकाशन भविश्यम् प्रथमेत्य वाचो, वनस्पति अथवा स्वमपेक मतया नास्तीत्यस्वप्रकाशकः स्वीक्रियते, आत्मानं न प्रका शयतीत्यर्थः ; प्रकाशरूपतया तूपन्नत्वात् स्वयं प्रकाशत एवेति बेच्चिरं जीवन हि वयमपि ज्ञानं कर्मतयैव प्रतिजासमानं स्वसंवेद्यं ब्रूमः ज्ञानं स्वयं प्रतिभासत इत्यादावकर्मकस्य तस्य चकासनात् । यथा तु ज्ञानं स्वं जानामीति कर्मतयाऽपि तद्भाति तथा प्रदीपः स्वं प्रकाशयतीत्ययमपि कर्म प्रथित एव । यस्तु स्वात्मनि क्रियाविरोधो दोष उावितः सोऽयु अनुभव बिरोधासि घट मं जानामि' इत्यादौ कर्तृकर्मवद् इतेरप्यवभासमानत्वात् । स्या० १२ श्लोक | (अतीन्द्रियान् धर्मास्तिकायादीन् छो न जानातीति 'माय' शब्दे तृतीयभाग १३३६ पृष्ठे उम् (२३) अथ निमोनिनश्च निरूपयन्नादजीवा भंते! किं णाणी, किं अण्णाथी । गोयमा 1 जीवा णाली वि एणाणी वि । जे खाणी, ते अत्थे
1
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(१९७३) अभिधानराजेन्डः।
याण
गागा
गइया उयणाणी, अत्यगइया तिमाणी, अत्येगझ्या च-1 मणुस्सा जहा जीवा तहेव पंच णाणा तिमि अमाउधाणी, प्रत्येगड़ा एमपाणी | जे दुयणाणी, ते पाणि जयणाए। वाणमंतरा जहाणेरडया, जोइसिपवेश्राभिणिोहियणाणी य, सुयणाजी य । जे तिझापी। माणियाणं तिएिण णाणाई,तिषिण अएणाणाई नियमा। ते आभिणियाणाणी, सुयपाणी, प्रोहिणाधी । सिघाणं भंते ! पुच्चा । गोयमाणाणी, नोप्रमाणी, माहवा-प्राभिणिवोहियणाणी, सुषणाणी, मणरजवणा- नियमा एगणाणी, केवलणाणी। गी। जे करणाणी, ते भिणियोहियहाणी, मुय- (इंदियाणमित्यादिवालियाः केचिद ज्ञानिनोऽनि सासाणाएी, प्रोहियागी, मशफ्जवणाणी । जे एगणाणी, दनसम्यग्दर्शनभावेनापर्याप्तकावस्था जयन्तीत्यत उच्यते. ते नियमा केवनणाणी । जे अहाणी, ते अत्थगश्या दु
(नाणी वि, अण्णागी विसि) अनन्तरं जीवाऽऽदिषु पविश
तिपदेषु शान्यज्ञानिनश्चिन्तिताः। भएणाणी, अत्येगइया तिप्रणाशी । जे भएणाणी,
(२६) अथ तान्येध गतीन्जियकायाऽऽदिकारेषु चिन्तयनादते मइभमाणी य, सुयअपाणीय।जेतिएगाणी, ते|
निरयगइयाणं ते! जीवा किंणाणी, प्राणाणी'। मइभधाणी, मुराप्रपाणी, विनंगणाची।
गोषमा ! गाणी वि, पणाणी वि, तिपिण जाणाई (२५) नैरथिक जीवानधिकृत्याऽऽह
नियमा, तिष्ठि एणाणाई भयणाए । तिरियगइयाणं परइयाणं भंते ! किं पाणी, अपाणी । गोयमा !
भैते ! जीवा किंणाणी, प्राणाणी। दो णाणा, दो पापी वि, अपाणी वि । जे पाणी, ते नियमा ति
भएणाणा नियमा । मस्सगचाणं भंते ! जीवा किं एणाणी । तं जहा- प्राजिणिबोहियणाणी, मुयणाणी, णाणी, अमाधी । तिषिण णाणाई जयणाप, दो भोहिणाणी । जे भएपाणी, ते अत्थेगइया भएणा- एणाणा नियमा। देवगतिया जहा निरयगनिया । पी, अत्थेगड्या तिप्रमाणी, एवं तिधि अण्णाणाई सिद्धगइया णं नंते ! ?; जहा सिचा। भयणाए।
गत्यादिद्वाराणि चैतानिइह च नारकाधिकारे-"जे नाणी, ते नियमा निमाणी" "गरदिए य काप, सुहमे पजसए भवत्येय। इति । सम्यग्दृष्टिनारकाणां जवप्रत्ययमवधिमानमस्तीति कत्या भवसिद्धिए य सन्नी, बद्धी नवोगजोगे य ॥२॥ ते नियमान विज्ञानिनः । “जे गएणाणी ते अत्येगश्या दु. लेस्सा कसाय वेए, आहारे नाणगोयरे काले । प्रमाणी" इति । कथमुच्यतेअसंझिनः सन्तो थे नार केपू. अंतर अप्पाष हुयं, च पजया चेह दाराई ॥२॥" स्पद्यन्ते, तेषामपर्याप्त कायस्थायां विभङ्गामाबादाद्यमेवा- तत्र निरये गर्गिमनं येते निरयगतिकाः, तेपामिह कानद्वयमिति ते नशानिनः । ये तु मिथ्याष्टिसंझिम्य उरप. च सम्यग्दृष्यो, मिथ्या दृष्टयो वा शानिनोऽशानिनो या ये चन्ते, तेषां भवप्रत्ययो विनङ्गो भवतीति तेऽज्ञानिनः । पतदेव पश्चेन्जियति भनुप्यन्यो नरके उत्पत्तकामा अन्तरगती यतन्ते, निगमयन्नाह-( एवं निमि अमाणाणि भरणार त्ति)। ते निरयगतिका विवक्रिताः,एतत्प्रयोजनवाद गतिग्रहणस्थति।
अमरकुमाराणं ते ! किंणाणी, प्रामाणी १। जहेवा (तिरिण णाणाई नियम ति) अवधेर्भवप्रत्ययत्वेनान्तरगतापरश्या तहेव तिणि गाणाणि नियमा, तिमि प्रमाणि
वपि भावात। (तिरिण प्रमाणाई नयणाए ति) असंझिनां
नरके गमकता द्वे अझने, अपयोप्तकत्वे विभङ्गस्थाभावात् । नयणाए, एवं० जान थणियकुमारा।
संझिनां तु मिथ्यादृष्टीनां त्रीणि अज्ञानानि, भवप्रत्ययविनङ्गपुढविकाइयाणं. ते ! किं पाणी, प्राणाणी ? ।
स्य सद्भावात् । अतस्त्रीणि अझनानि भजनयेत्युच्यत इति । गोयमा ! नो णाणी, अपाणी । नियमा मुअणापी-मति- (सिरियगड्याणं ति ) तियेच गतिर्गमनं पेषां ते तिर्घप्रमाणी, सुगअमापी य । एवं० जाव वास्सइकाइया ।। गातिकाः, ते तदपारतरालवर्तिनाम (दो जाण ति ) स
म्यगाथ्यो हि अवधिशाने प्रतिपतित एव तिर्यश्च गच्छन्ति, (२५) द्वान्छियाः तिरूपर्यन्ताः
तेन ते द्वे पब ज्ञाने (दो अन्नाणेति) मिच्यादृष्टयोऽपि वि. वेडंदियाएं पुच्छा। गोथमा!णाणीवि, महापी वि।। भङ्गझाने प्रतिपतित एव तिर्यक गच्छन्ति, तेन तेषां द्वे - जेणाणी, ते णियमा दुएषाण।।सं जहा-आमिशिघोहि- झाने इति । (मधुम्सगश्याणामत्यादि)(तिमि नाणाई भययणाणीय, मुयणावीप। जे आपणाणी, तेनियमाद
णार ति) मनुष्यतो हि गच्छन्ति केपिकानिनोऽवधिना
सहैव गच्चान्त, तीर्थकरवत् केत्रिच्च तद्विमुच्यन्ते, तेषां एणाशी । तं जहा-मनाहाणी य, सुवअण्णाणी य ।
श्रीणियाद्वेवा ज्ञाने स्याताभति, ये पुनरज्ञानिनो मनुष्यगताएवं तेइंदियचडरिदिया वि । पंचिंदियतिरिक्खनोणियाणं चुत्पत्तुफामास्तेषां प्रतिपतित एव विनङ्गे तत्रोत्पत्तिः स्यादि. पुच्छा। गोयमा ! पाणी कि, एणाणी वि । जे
स्थत उक्तम् । (दो अन्नाणा नियमात्त) (देवगश्या जहा णापी, ते अत्थेगश्या दुनापी, अत्यगइया तिएणाणी ।।
निरयाइय ति) देवगतौ ये ज्ञानिनो यातुकामास्तेषामवधि
भधप्रत्ययो देवायुःप्रयासमय पवोत्पद्यते. अतस्तेषां नमः, एवं तिरिण णाणाणि, तिणि अण्णाणाणि भयणाए । काणामियोच्यते-तिपिण नाणा नियम ति । ये ४६४
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(१९७४) याण
प्रानिधानराजेन्द्रः। निनस्तेऽसीकम्प उत्पद्यमाना पकानिनोऽपयोप्तकस्वे विभ. (जहा पुढविकाश्य ति) कानिनः सम्माः, मिथ्याष्टित्वा
स्याभावात् , संबिभ्य उपचमानास्तु यज्ञानिनो भवप्रत्ययः | वित्यर्थः। (जहा सकाइय ति) बादराः केबलिनोऽपि भ. विभङ्गस्य सद्भावात, प्रतस्तेषां नारकाणामियोच्यते- "ति-| वन्तीति कृत्वा ते सकायिकवद्भजनया पचहानिनयकानि. खि अन्नाणा जयणाए त्ति" (सिगश्याणं इत्यादि) यथा नच वाच्या प्रति। सिद्धाः केवलकानिन एव, एवं सिम्गितिका अपि पाच्या
(३०) पयांप्तकवारेइति भावः । यद्यपि च सिद्धानां सिद्धिगतिकानां चाम्तगत्य. पज्जत्ताणं भंते! जीवा किं पाणी, किं प्रमाणी। जहा भावाद्न विशेषोऽस्ति, तथाऽपीद गतिधारबलाऽऽयातन्मात्
सकाया। पजत्ताणं ते! नेरइया किंणाणी, किं अमा. से दर्शिता, एवं हारान्तरेवपि परस्परान्तर्भावेऽपि तत्सदिशेपापेक्षयाऽपौनरूक्त्यं भावनीयमिति ।
णी । तिमि नाणा, तिमि य प्रमाणा नियमा जहा नेरइ. (२७) अन्छियद्वारे
या, एवं. जाव चणियकुमारा | पुढविकाइया जहा एगिदि. सइंदिगाणं ते! जीवा किं णाणी, भएणाणी गोय.
या, एवं० जाव चनरिदिया। पजताणं भंते ! पंचिंदियतिपा! चत्तारि नाणाई तिहिण भएणाणाई भयणाए ।
रिक्खजोणिया किं पाणी, किं अधाणी ॥ तिमिणाणा, एगिदिया णं ते! जीवा किं णाणी, किं प्रमाणी,
तिमि अष्ठाणा जयणाए, मास्सा जहा सकाश्या वाणजहा पुढविकाइया । वेशंदियतेदियच उरिदियाणं दो णा
मंतरजोइसियवमाणिया जहा नेरश्या । अपज्जत्ताणं णा, दो अएणाणा नियमा। पंचिंदिया जहा सइंदिया।।
भंते ! जीवा किं पाणी, किं अप्लामी । तिणि पाणा, प्रणिदियाण मंते ! जीवा किंवाणी,कि एणाणी,
तिथि अध्याणा जयणाए । अपज्जत्ता एं भंते ! नेरश्या जहा सिच्चा ॥
किं णाणी, किं अपाणी? तिष्ठिणाणा नियमा, तिथि (सइंदियेत्यादि) सेन्डिया इन्जियोपयोगवन्तः, ते च शानि.
असाणा जयणाए, एवं० जाव थणियकुमारा, पुढविकाइनः,अशानिनश्चातत्र शानिनां चत्वारिज्ञानानि जनया,न्याद या. जाव वणस्सइकाइया, जहा एगिदिया । बेइंदियाणं स्यात त्रीणि,स्यात् चत्वारि केवमझानं तु नास्ति तेषामतीन्छि- पुच्चा ? । दोणाणा, दो अमापा नियमा, एवं० जाब यज्ञानस्वात, तस्य धादिभावश्चशानानां लब्ध्यपेकया, उप
पाँचदियतिरिक्वजोणियाणं अपजत्तगाणं ते ! मणुस्सा योगापेकया तु सर्वेषामेकदैकमेव शानम् । अज्ञानिनां तु श्रीपयज्ञानानि भजनयैव, स्याद् द्वेस्यात् त्रीणीति । (जहा पुढाथ
किंणाणी, किं प्रमाणी?। तिमि नापाई जयणाए, दो काइय ति) एकछिया मिथ्यान्विादशानिनः, ते च द्वयज्ञाना अमाणाई नियमा। वाणमंतग जहा नेरझ्या अपजत्तगा, एघेत्यर्थः । (वेदियेत्यादि ) एषां वेकाने सासादनस्तेषूत्पद्यत जोइसियनेमाणियाणं तिमि नाणा, तिमि प्रमाणा इति कृत्वा सासादनश्चोत्कृष्ठतः षमावलिकामान:, अतो वे
नियमा। नो पजतगा, नो अपज्जत्तगाणं भंते ! जीया किं काने तेषु अभ्येते इति । (अणिदिय त्ति) केवलिनः ।
पाणी, किं अपाणी १, जहा सिद्धा॥ (२८) कायद्वारे
(जहा सकाइयत्ति)पर्याप्तकाः केवन्निनोऽपि स्युरिति ते सका. सकाइयाणं भंते ! जीवा किं णाणी, अडाणी।
यिकयत्पूर्वोक्तप्रकारेण वाच्याः, पर्याप्तकद्वार एव चतुर्यिशतिद. गोयमा ! पंच नाणाई, तिमि एणाणाई जयणाए । पुढ- एडके पर्याप्तकनारकाणां (तिनि य अन्नाणा णियम ति) अप. विकाइया० जाव वणस्सइकाइया, नो नागी, अपाणी,
प्तिकानामेवासंझिनारकाणां विभङ्गानाब इति पर्याप्तकावस्था
यां तेषामझानत्रयमेवेति । ( एवं जाव चउरिदिय त्ति) नियमा प्रमाणी । तं जहा-मइअप्माणी य, सुयअम्मा
द्वीन्द्रियत्रीन्द्रियचतुरिन्द्रियाः पर्याप्तकाः, बझानिन पवेत्यकीय । तसकाझ्या जहा सकाइया । अकाझ्याणं भंते !
थः । (पजत्ता णं भंते ! पंचिदियतिरिक्खेत्यादि ) पर्याप्तकजीवा किंणाणी, किं प्रमाणी!, जहा सिचा॥ पञ्चेन्द्रियतिरश्चामवधिभिङ्गो वा केषाश्चित् स्यात् , केषाश्चि(सकाश्याणमित्यादि ) सह कायेनौदारिकाऽऽदिना शरी. त्पुनति त्रीणि ज्ञानानि, अज्ञानानि बा द्वे वा ज्ञाने अज्ञाने वा रेण पृथिव्यादिषट्कायान्यतरेण या कायेन ये ते सकायास्त तेषां स्यातामिति । (वेइंदियाणं दो गाणेत्यादि) अपर्याप्तकद्वीपव सकायिका, ते च केवलिनोऽपि स्युरिति सकायिकानां छियाऽऽदीनां केषाश्विासासादनसम्यगदर्शनस्य सद्भावाद् द्वे सम्यग्दृशां पञ्च ज्ञानानि, मिथ्यारशां तु त्रीएयज्ञानानि भ. काने, केषाञ्चित् पुनः तस्यासद्भावाद् द्वे एवाझाने, अपजनया स्युरिति । (अकाइयाणं ति) नास्ति काय उक्तलकणो प्तिकमनुष्याणां पुनः सम्यग्दशामवधिमावे त्रीणि ज्ञानानि, येषां तेऽकायाः, त एवाकायिकाः सिद्धाः।
यथा तीर्थकराणां, तदभावे तु द्वे ज्ञाने, मिथ्यादृशां तु वे (२०) सूक्ष्मद्वारे
एवाझाने, विभङ्गस्यापर्याप्तकत्ये तेषामभावात् । अत एवोसुहमाणं भंते ! जीवा किंगाणी, किं अप्लाणी?; तम-(तिमि नाणाई भयणाए, दो अम्माणाई नियम ति) जहा पुदविकाइया । बादराणं भंते ! जीवा किं पाणी,
(वाणमंतरेत्यादि) व्यन्तरा अपर्याप्तका नारका श्व त्रिज्ञाना
द्वधज्ञानारुयज्ञाना वा वाच्याः। तेवण्यसंझिन्य उत्पद्यमानानाकिं प्रमाणी?, जहा सकाश्या । नो मुहमा नो बादरा |
मपर्याप्तकानां विभङ्गाभावात्, शेषाणां चावभिङ्गस्य वा जते ! जीचा, जहा सिका।
जावात् । (जोइसियोत्यादि) पतेषु हि संझिभ्य पवोत्पद्यन्ते,
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(१९७५) प्राभिधानराजेन्द्रः ।
गाठ
मेषां चापमाप्तकरऽपि भवप्रत्ययस्यावविभप चावश्य
गोयमा ! णाणी, णो अपणाणी, प्रत्येगइया तिएणाणी, भावात् त्रीणि हानान्यज्ञानानि वा स्युरिति । (नोपज्जनगनोअपज्जतगति)सिका।
अत्थेगइया चनणाणी, जे तिप्माणी, ते आनिणिबोदि(३१) भवस्थधारे
यणाणी, सुयणापी, मोहिणाणी । जे चनणाणी, ते भानिरयभवत्याएं भंते जीवा किंणाणी, अडाणी, जहा
निणिवोहियणाणी, मुयाणाणी, ओरिणाणी, मणपज्जवनिरयगइया । तिरियानवत्थाएं भंते ! जीवा किं णाणी,
पाणी | तस्स अलछिया पुस्ता ? | गोयमा!णाणी वि, भएणाणी तिमिण पाणा,तिहिण प्राणाणा भयणाए,
प्रमाणी वि, प्रोहिणाणवजाई चत्तारि जाणाई, तिमि मणुस्सभवत्था जहा सकाश्या । देवभवस्थाणं नंते !
अण्णाणाई जयणाए । मणपज्जवणाणलछियाणं पुमहा निरयभवत्था, अभवत्या, जहा सिका।।
छा। गोयमाणाणी, णो अपणाणी,अत्यगइया ति(निरयभवत्थाणमित्यादि) निरयनवे तिष्ठन्तीति निरयन
एणाणी, अत्यंगश्या च उणाणी। जे निष्प्राणी, ते श्रावस्थाः प्राप्तोत्पत्तिस्थाना,तेच यथा निरयगतिकाःत्रिकाना, निणिबोहियणाणी, सुयणाणी, मणपज्जवणाणी । जे चसकानारूयकानाश्चोक्ताः, तथा वाच्या इति।
उणाणी, ते प्राजिणिवोहियणाणी, सुयणाणी, अहि(३२)जव्यहारेभवसिद्धिया णं भंते ! जीवा किं पाणी, अण्णाणी,
णाणी, मणपजवाणाणी। तस्म अनधियाणां पुच्छा।
गोयमा ! णाणी वि, प्राणाणी वि । मणपज्जवणाणवमहा सकाइया । अनव सिद्धियाणं पुच्छा ? । गोषमा ! नो
ज्जाई चत्तारि णाणाई, तिएिण अण्णाणाई जयणाए । पाणी, अएणाणी, तिहिण अएणाणाई भयणाए, नो
केवलणाणधियाणं जंते ! जीवा किं पाणी, अभवास किया, नो अजबसिद्धियाणं जीवा जहा सिच्चा। भवसिद्धिकाः केसिनोऽपीति ते सकायिकवट भजनया
एणाणी ? । गोयमा ! गाणी, णो अएमाणी नियमा पञ्चज्ञानाः, तथा यावत्सम्यक न प्रतिपन्नास्तावद्भजनधैव
एगणाणी, केवझणाणी । तस्स अनछियाणं पुच्चा । उपज्ञानाश्च चाच्या इति । अभवसिस्किानां स्वज्ञानत्रयं भज. गोयमा! पाणी वि, अपाणी वि, केवनणाणवज्जाई नया स्यात् , सदा मिथ्याइष्टित्वात तेषाम् । अत उक्तम्-"नो
चत्तारि पाणाई, तिमि अण्णाणाई नयणाए । णाणी, अपणाणी" इत्यादीति।
एणाणलदियाणं भंते ! पुच्छा । गोयमा ! (३३) संश्चिद्वारेसमीणं पुच्चा ? । जहा सइंदिया, अपएणी जहा वेई.
नो णाणी, असाणी, तिणि अताणाई जयणाए । दिया, नो साम्री, नो असएणी, जहा सिचा
तस्स भन्नछियाणं भंते ! । गोयमा ! णाणी,नो अम्माज्ञानानि चत्वारि नजनया, अज्ञानानि च त्रीणि तथैवेत्यर्थः।। णी, पंच नाणाई जयणाए , जहा अएणणस्स सधि(भसभी जहा बेदिय ति) अपर्याप्तकावस्थायां ज्ञानद्वय- या अन्नफिया नणिया, एवं मइएणाणस्स, सुयअमपि सासादनतया स्यात, पर्याप्तकावस्थायां त्वज्ञानद्वयमेवेत्य
एणाणस्म य लकिया अलद्धिया य नाणियब्वा। विनंपः।भ०८ श०२ उ.(अधिनेदा 'लकि' शब्दे दर्शयिष्यन्ते) (३५) लब्धिद्वारे
गणाणलधियाणं तिणि अण्णाणाई निथमा । तस्त माणसघियाणं नंते ! जीवा किं पाणी, अ
अनछियाणं पंच णाणाई जयणाए, दो अपणाणाई एणाली ? । गोयमा ! गाणी, नो अएणाणी,
नियमा। दसणलधियाणं नंते ! जीवा किं पाणी, अत्थेगश्या कुणाणी, एवं पंच णाणाई भयणाए ।
एणापी गोयमा!णाणी वि, अण्णाणी वि, पंच तस्स अलफियाणं भते ! जीवा किंणाणी, पापाणी। णाणाई, तिछि अएणाणाई जयणाए । तस्स अलाधगोयमा! पो णाणी, अभाणी, अत्येगश्या दुअम्पाणी,
याणं भंते ! जीवा किं णाणी, अण्णाणी?। गोयतिमि प्रमाणाई भयणाए । आभिणिबोहियणाणलछि- मा तस्स अलद्धिया नस्थि । सम्मइंसह लधियाणं पंच याणंजते ! जीवा किंणाणी, अपाणी । गोयमा! णाणी, नाणाई जयणाए । तस्स अलछियाणं तिमि अण्णापो अध्याणी, अत्यगया दुणाणी, चत्तारि णापाई पाई जयणाए । मिच्चादंसणाछियाणं भंते ! पुच्छा?1 जयणाए । तस्स अवधियाणं ते! जीवा किं णाणी,
गोयमा ! नो नाणी, अन्नापी, तिमि अमाणाई जयणाएणाणी गायमा!णाणीवि,अप्माणी वि। जेणाo,ते ए । तस्स अलछियाणं भंते ! किं पाणी, एणाणी!! नियमा एगणाणी, केवझणाणी । जे अपाणी,ते अत्थेगश्या गोयमा!णाणी वि, अण्णापी वि। पंच नाणाई, तिमि दुआएणाणी, तिमि एणाणाई जयणाए । एवं सुयणा- एणाणाई नयणाए। सम्माभिच्छादसणलछिया अलणमद्धिया वि । तस्म अप्रदिया वि जहा आजिणिबो-|
छिया य जहा मिच्छादसणलछिया अलद्धिया य तहेव हियणाणस्स लधिया । भोहिणाणलछियाणं पुच्छा।। भाणियन्या ।
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(लस्स अल कियाणं ठि ) तस्य ज्ञानस्य अलब्धिका अलब्धिमन्तो हविरहिता इत्यर्थः (अनिमियोपहारा दि ) अभिनिबोधिकज्ञानलब्धिकानां चत्वारि ज्ञानानि भज नया, केवलिनो नास्त्याभिनिबोधिक ज्ञानमिति । मतिज्ञानतु येाविनि से शामि या नमस्तेऽनन्तोऽनन्तो पाप धुतेऽपि । ( भटिणाणलकीत्यादि ) अवधि नलब्धिकाः विज्ञानाः केवल मन पर्याय सद्भावे चतुर्ज्ञाना वा केवलाभावात्, अधिक नस्याधिकास्तु ये ज्ञानिनस्ते द्विज्ञाना मत्या या मतिमत्प ज्ञाना वा केवल भावात् । ये त्वज्ञानिनस्ते द्वधज्ञाना मत्यज्ञानश्रुताकानभावात् व्यज्ञाना या त्रयम्यापि भावात् । (मणपजत्रेत्यादि ) मन:पर्ययज्ञानधिकारित्रज्ञानाः, अवधि वाहनाचा केला मनःप वानस्याधिकास्तु ये ज्ञानिनस्ते विज्ञाना बातू, त्रिज्ञाना वा श्राद्यत्रयज्ञावात्, एकज्ञाना वा केवलस्यैव भावात, ये त्वज्ञानिनः ते द्वयज्ञाना प्राद्याज्ञानबभावात् त्र्यज्ञाना वा अज्ञानत्रयस्यापि भावात् । (केवनादियानि
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जिन ण्य, केवलज्ञानस्यानब्धिकास्तु ये ज्ञानिनस्तेषामाद्यज्ञानइयं तत्रयं मतिनानि वा केनि चत्वारि वाहानानि भवन्ति ये मामामध्यं तत्त्रयं वा भवतीत्येचं भजनाऽवसेयेति । ( श्रालदिवाणमित्यादि) लब्धिका अानिनस्तेषां च श्री. एयज्ञानानि भजनया, मे अज्ञाने, त्रीणि वा श्रज्ञानानीत्यर्थः अज्ञानालब्धिकास्तु ज्ञानिनस्तेषां च पत्र ज्ञानानि भजनया पूर्वोपदर्शितया याच्यानि ( जहा असणेत्यादि ) नलधिकानां त्रीणि भइ नानि नजनयोक्तानि मत्यज्ञाननाज्ञानलब्धिकानामपि तानि तथैव तथा अज्ञानाग्धिकानां पत्र ज्ञानानि जनयोकानि मामलामा प ज्ञानानि नयनीति विनंत्यादि) विनङ्गान लग्धिकानां तु श्रीरायज्ञानानि नियमात तदग्धिकानां ज्ञा निनां पञ्च ज्ञानानि भजनया, कशा निमां च द्वे अशाने निय. मादिति । यदि ) दर्श मात्रलब्धिका इत्यर्थः ते च सम्यक् श्रद्धावन्तो ज्ञाननः सविरे त्वज्ञानिनः, तत्र ज्ञानिनां पञ्च ज्ञानानि भजनया, अ कामिनीना ने भगायेवेति । अ नरिथत्ति ) तस्य दर्शनस्य येषामलब्धिः, ते न सम्येव, सर्वजीवानां रुचिमावस्यास्तिस्वादिति । (सम्मदंसणनद्धियाणं ति ) सम्यग्टष्टीनाम् । (तस्म अलरियाणामित्यादि ) तस्यालब्धिकानां स्यालब्धिम मिथ्या हट्टीमनियापोनिम ज्ञानमे सोधात निष्ण लवाणं निमिष्यनाम तस्मादि) तपालकिन मिथ्याद नाम सम्पादन मि दीनां च क्रमेण पञ्च ज्ञानानि श्रीएयज्ञानानि च भजनयेति । भ० ० श० २ उ० । (निर्मन्थानां 'णिग्गंथ ' शब्दे तथा संयतानां 'संजय' शब्दे वक्तव्यता )
1
रिचयाणं वे जीप किंवाथी, अएयापी ? |
(१००६) अभिधानराजेन्द्रः ।
1
गाण
गोगमा ! पंच नाणारं भगणार, तस्स अफिम मणलाई बचारि नाणारं, तिरिख अाई नया सामाइकरितायाणं मंते जीवा किं पाणी, अण्णाणी १ । गोयमा ! चत्तारि याणाई जयाए, तस्स नकियाणं पंच नाणारं, तिहिण व अत्याचा भयणाए एवं जहा सावाइयचरिचलजिया अलफिया मणिया एवं जाव हक्खायच रित्तलदिया अलडिया प माहिया नवरं अक्वाय चरिसकिया पंचनालाई भयशाए । चरित्ताच स्तिल दियाणं जंते ! जीवा किं पाणी प्रणाली । गोषमा नाथी, नो अडाणी, प्रत्येगइया बुनाशी, अत्येषा तिपणाशी, जे बुनाशी, ते निणिवोहियाणी, सुगणाली य । जे तिलपाटी, वे आज बिहियाजीय, मुगणीय, ओहिणाणी य । तस्स असद्धिया पंच नाएाई, तिरिए अण्णाणाई भयलाए । यदि पत्रिका शामिन ए
तेषां च पञ्च ज्ञानानि भजनया, यतः केवल्यपि वारिश्री, चरित्रलब्धिकास्तु ये ज्ञानिनस्तेषां मनःपयंत्र जांनि चत्वारि ज्ञानानि भजनया नवन्ति, कथमसंयतत्वे आद्यं ज्ञानद्वयं सत्त्रयं या सिद्ध केवलज्ञानं विद्यानामपि शून्यत्वात् यतस्ते नो चरित्रो नोऽनरित्रिण इति । ये स्वझानिनस्तेषां श्रीएयज्ञानानि नजनया । ( सामाइथेत्यादि ) सामायिक नरित्रलब्धिका ज्ञानिन एव तेषां न केवलज्ञानवर्जीनि चत्वारि ज्ञानानि भजनवा, सामायिकवविशालाग्धकास्तु ये ज्ञानिनः तेषां पञ्च ज्ञानानि भजनया छेदोपस्थापनदिनासिकभावेन वा ज्ञानी घयज्ञानानि नजनया, एवं बेदोपस्थापनीयाऽऽदिध्वति वाच्यम् । एक्वा33 (मित्यादि स्थापना वरि त्रत्रयधयो ज्ञानिन एव तेषां वाऽऽद्यानि चत्वारि ज्ञानानि भ जनया, तलव्यो यथास्यातचरित्रालब्धयश्च ये ज्ञानिनःशेषां पच हावानि भजन नियंजनदेव यथाSSख्यात चरित्रलब्धिकानां तु विशेषोऽन्ति, अतः तद्दर्शनाथाऽऽ (नरमाद) सामाथिका दिवाश्रय तुष्टय लब्धमतां द्यस्थत्वेन चत्वार्येव ज्ञानानि भजनया, यथाकानांस्तरभावेनाभिजा भवन्तीति तेषां तथैव ठानि उक्तानीति । " चरितावरि"इत्यादी अलदिप सि) चरित्राचरित्रस्याि काः श्राकादन्ये ते च ये ज्ञानिनस्तेषां पञ्च ज्ञानानि भजनया येषां निभजगदेव ।
दाल या पंचाना जाए | तस्स चलाया पुच्छा है। गोयमा ! नाही, नो अ नाणी जिपमा पगणाणी केवलणाथी एवं जात्र वीरियसद्धिया, अलदिया जाणियन्ना | दालचीरियल चियाणं तिथि बाणाई, तिमि ब्रह्माणाई जयगाए । तस्स अ सदिया पंचनामाई जाए। पंडिपश्या
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(१४७७)
अभिधानराजेन्द्रः। पंच नाणाई भयणाए । तस्स अलदियाणं मणपज्जवना- तेषां चत्वारि ज्ञानानि भजनया, केवसं तु नास्ति, ते एवज्जाइं नाणाई प्राणाणाई तिमि य जयणाए । बा
केवलिनामिन्छियोपयोगाभावात् । ये त्वज्ञानिनः, तेषाम
सानत्रयं भजनयैवेति । इन्छियासम्धिकाः पुनः केवसमियबीरियलद्धियाणं तिरिण नाणाई भयणाए । तस्स
लिन पवेत्येकमेव तेषां ज्ञानमिति । ( सोइंदिय इत्याअलछियाणं पंच णाणाई तिएिण भएणाणाई जयणाए। दि) श्रोत्रेझियसम्धय इन्धियलब्धिका व वाच्या, ते (दाणलजियाणमित्यादि) दानान्तरायकयक्कयोपशमाहामेदा- च ये शानिनः, ते अकेवलित्वादाक्षानचतुष्टयवन्तो भजतब्ये लब्धियेषां ते दामलब्धयः, ते च ज्ञानिनोकानिनश्च । नया भवन्ति, अशानिनस्तु भजनया यज्ञानाः, श्रोत्रेन्छियातत्र ये शानिनः तेषां पञ्च ज्ञानानि भजनया, केवलशानिनामपि लब्धिकास्तु ये ज्ञानिनः ते आद्यद्विशानिनः, तेच अपर्याप्तदानलन्धियुक्तत्वात् । ये तु अज्ञानिनः तेषां त्रीणि अज्ञानानि काः सासादनसम्यग्दर्शनिनो विकलेन्द्रिया एककानिनो वा भजनयैव, दानस्यालन्धिकास्तु सिकाः, तेच दानान्तरायक- केवलज्ञानिनः,ते दिधोत्रेन्द्रियाबधिका इन्कियोपयोगाभावात, येऽपि दातव्याजाचात् संप्रदानासत्वात् दानप्रयोजनाभावा- येत्वज्ञानिनः ते पुनराधाज्ञानद्वयवन्त इति । (चक्मिदिन च दानालन्धय उक्ताः, ते च नियमात् केवमहानिन इति, इत्यादि) अयमर्थः-यथा प्रोन्कियलब्धिमतां चत्वारिकानानि साभनोगोपभोगवीर्यसब्धिः सेतरा । प्रतिदिशमाह-(एवमि. भजनया, त्रीणि चाहानानि नजनयैव, तदलब्धिकानां चहे त्यादि ) इह चालन्धयः सिमानामेवोकन्यायादवसेयाः। ननु | झाने, द्वे चाहाने, एकंच ज्ञानमुक्तम् । एवं चचुरिन्छियनदानाऽऽद्यन्तरायक्कयाकैवलिनां दानाऽऽदयः सर्वप्रकारेण क- ब्धिकानां घ्राणेन्द्रियान्धिकानां तदलब्धिकानां च वाच्यम् , स्मान्न जवन्तीति !, उच्यते-प्रयोजनानावात् , कृतकृत्या हि ते तत्र चकुरिन्कियलब्धिका घाणेन्द्रियसम्धिकाश्च ये पञ्चेन्धिजगवन्त इति । (बालबीरियाफियाणमित्यादि ) बालवीर्यन- याः, तेषां केवलवर्जानि चत्वारि ज्ञानीनि, त्रीणि चाहानानि ब्धयोऽसंयताः, तेषां च ज्ञानिनां त्रीणि ज्ञानानि, अशानिनां च जजनया, ये तु विकलेन्द्रियाः चक्षुरिन्ज्यिनाणेन्द्रियझन्धिकाः, श्रीरायज्ञानानि भजनया भवन्ति, तदलाधकास्तु संयताः, संय- तेषां सासादनसम्यग्दर्शनजावे आद्यं ज्ञानद्वयं, तदभावे स्वातासंयताच, ते च ज्ञानिन एव; तेषां च पञ्च ज्ञानानि भजनया। चमेवाज्ञानद्वयम, चक्षुरिन्जियघ्राणम्झियालब्धिकास्तु यथा"पंमियबीरिय" इत्यादौ (तस्स अलछियाणं ति) असंयतानां योग विट्रोकेन्द्रियाः केवलिनश्च, तत्र विद्वान्छियाऽऽदीनां संयतासंयतानां सिद्धानां चेत्यर्थः,तत्रासंयतानामाद्यज्ञानत्रयम- सासादननावे आद्यज्ञानद्वयसंभवः, तदभावे स्वाद्याज्ञानद्वयझानत्रयं च नजनया, संयतासयतानां तु ज्ञानत्रयं भजनयैव भव- संजवः, केवलिनां वेकं केवल झानामति । “जिभिदिय". ति, सिकानां तु केवल ज्ञानमेव, मनःपर्यायानं तु पएिकतवीर्य- त्यादौ । तस्स अलछिय ति) जिह्वानब्धिवर्जिताः, तेच सब्धिवतामेवेति, नान्येषाम् । अत उक्तम्-( मणपज्जवेत्या- केवलिन एकेन्धियाश्चेत्यत आह-( नाणी वीत्यादि ) दि)सिकानां च परिमतवीर्यालब्धिकत्वं परिमतवीर्यवाच्ये ये झानिनस्ते नियमात केवलशानिनः, येऽज्ञानिनस्ते निप्रत्युपकणाऽऽधनुष्ठाने प्रवृत्यभावात् । “बालपंमिय" इत्यादी यमाद् द्वधज्ञानिनः, एकेन्द्रियाणां सासादननावतोऽपि स. (तस्स अलद्धियाणं ति) अश्रावकाणामित्यर्थः।
म्यग्दर्शनस्यानावात् , विभङ्गाभावाश्चेति । (फासिदिय इत्याइंदियलछियाणं भंते ! जीवा किं णाणी, प्रमाणी।।
दि) स्पर्शनेन्डियलब्धिकाः केवलज्ञानवर्जज्ञानचतुष्कवन्तो गोयमा ! चत्तारि नाणाई, तिहिण य अन्नाणाई जयणाए।
जजनया, तथैवाज्ञानत्रयवन्तो वा; स्पर्शनेभियालब्धिकास्तु
केवलिन एव । इन्द्रियलब्ध्यलब्धिमन्तोऽप्येवंविधा पवेतस्स अलाद्धियाणं पुच्छा ?। गोयमा! नाणी नो एणा
त्यत उक्तम्-(जहा इंदिय इत्यादि) णी नियमा एगनाणी केवझणाणी । सोइंदियनाद्धियाणं
(३५) उपयोगद्वारेजहा इंदियलद्धिया, तस्स अलद्धियाणं पुच्छा । गोयमा ! | सागारोवनत्ताणं भंते ! जीवा किं णाणी, अमाणी ?। नाणी वि, अप्माणी वि ।जे नाणी, ते अत्थेगड्या दुनाणी, पंच णाणाई, तिमि अप्लाणाई जयणाए । आभिणिबो. प्रत्येयश्या एगनाणी। जे दुनाणी,ते आभिणिबोहियनाणी, हियणाणसागारोवउत्ताणं भंते ! चत्तारि णाणाई भयसुयाणाणी। जे एगनाणी,ते केवलनाणी,जे अपाणी,ते निय- णाए । एवं. सुयणाणसागारोवत्ता वि। ओहिणाणमा दुप्माणी । तं जहा-मतिअण्णाणी,मयअण्णाणी।च- सागारोवनत्ता जहा अोहिणाणलछिया । मणपजबखिदियघाणिदियाफियाणं अलछियाण य जहेव सोई- णायसागारोव उत्ता जहा मणपज्जवणाणबछिया। केवलदियलछिया अलफिया । जिभिदियाम्यिाणं चत्तारि णाणसागारोव उत्ता जहा केवझणाणलकिया। मश्नमाणनाणाई, तिएिण अन्नाणाई जयणाए । तस्स अमहियाणं
सागारोवउत्ताणं तिलि अप्माणाई जयणाए । एवं सुयपुच्छा। गोयमा ! नाणी वि, अन्नाणी वि । जे नाणी, ते अमाणसागारोवउत्ता वि । विनंगणाणसागारोवत्ताणं नियमा एगनाणी केवलनाणी, जे अन्नाणी, ते णियमा तिमि अप्माणाई नियमा । अणागारोवनुत्ताणं भंते ! दुपाणाणी । तं जहा-मअन्नाणी य, सुयअन्नाणी य। जीवा किं पाणी, अालागी १। पंच नाणाई, तिप्लि फासिदियलीच्या य, असद्धिया य जहा इंदियलफिया अम्माणाई भयणाए । एवं चक्खुदंसणअचक्खुदंसण अअलद्धिया य ।
णागारोवत्ता वि, नवरं चत्तारि नाणाई, तिमि अमा(इंदियलद्धियाणमित्यादि ) शख्यिसब्धिका ये शानिनः पाई भयणाए । ओहिदसण प्रणागारोवउचाणं पुच्छा।
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याप
गोमा ! नाली मांणी वि, जे नाणी, ते प्रत्येगइया विनाशी, प्रत्येगझ्या चडनाशी, जे तिनाणी, ते आजिबिहियाणी, सुयणाणी, ओढिपाणी । जे चउनाणी, से आभिणिबोद्दिपणाणी० जान मणनाणी । ने पाणी, ते नियमातिक्रमाणी । तं जहा - मइाणी, सुप अह्माणी, निजंगखाणी । केवलदंसण अण्णागारोच हत्ता नहा केरलणारानकिया ॥
(1495) अभिधानराजेन्द्रः ।
( सागारोवउत्ता इत्यादि) भकारो विशेषः तेन सह यो बोधः स साकारो, विशेषग्राहको बोध इत्यर्थः । तस्मिन्नुपयुक्त संवेदक ये ते साकारोयुकाः हानिनो उज्ञानिनब्ध तत्र ज्ञानिनां पञ्च धनानि भजनवा, स्वात् ब्रे, स्यात् त्रीणि स्यात् चत्वारि, स्यादेकं यच स्यात् द्वे इत्याद्युज्यते, तज्ञन्धिमात्रमङ्गीकृत्य, उपयोगापेक्क्या त्वेक देकमेत्र ज्ञानमज्ञानं चेति, अज्ञानिनां तु श्रीण्यज्ञानानि भजनयेयेति । अत्र साकारोपयोगभेदापेक्रमा - ( अभि त्यादि ) ( ओहिणाणला गारेत्यादि ) अवधिज्ञानसाकारोपका यथा मानधिकार प्रागुका स्वात् वि. शाजिनो मविषुवापवियोगात् स्वामिनो मतिता धिमनः पर्यवयोगात् तथा वाच्याः । ( मपज्जब इत्यादि ) मनः पर्यवज्ञान साकारोपयुक्ता यया मनःपर्यवज्ञानलन्धिकाः प्रा गुक्ताः स्यात् त्रिज्ञाभिमो मतिश्रुतमनः पर्यवयोगात स्याच्चकेवलज्ञानयोगात् तथा याच्या प्रति भ ( जागारोच ताणमित्यादि ) अविद्यमान श्राकारो यत्र तद नाकारं दर्शनं तत्रोपयुक्ताः तत्संवेदका ये ते तथा, ते च कानिनोकानिगम निकृपा पञ्च ज्ञानानि भजनया, अज्ञानिनां तु श्रीएयज्ञानानि नजनयैव । (एवमिस्यादि) यथा अनाकारोप का हानिमोनिया एवं कुर्दर्शनाद्युपयुक्ता अधि (नवरं ति) विशेषः पुनरथम्-चक्षुईथेने तपःकेलिन नाति तेषां चत्वारि ज्ञानानि भजन येति ।
1
(३६) योगद्वारे
सजोगीणं भंते ! जीवा किं नाणी, अएणाली १ । जहा सकाडया | एवं मा जोगी, वय जोगी वि, काय जोशी त्रि, अजोगी जहा सिका ।
( सजोगीणमित्यादि ) ( जहा सकाश्य ति) प्रागुके कायद्वारे यथा सकायिका नजनया पञ्च ज्ञानाः व्यज्ञानाश्वोताः, तथा सयोगा अपि वाच्याः । एवं मनोयोगाऽऽदयोऽपि, केलिन मनोयोगानां भाषायामम नोयोगssदिमतामज्ञानत्रयभावाच्च । (अजोगी जहा सिद्ध चि) योगिनः केवललकाननइत्यर्थः ।
(३७) -
स्थाणं ते! नहा सकाइया कि एहलेस्सायं नं1, जहा सकाइ सदिया। एवं०] आय पटुलेस्सा, सुकस्सा, जहा सलेस्सा। अलेस्सा है, जहा सिया ।
( जा सका वि) सोश्याः सापि 'ज्ञाना विज्ञानाथ बापा, केवचिनोपि सम्भव
पाण
पहले पदी) (जस) लेश्याश्चतुर्ज्ञानिनः यज्ञानिनश्च जजनयत्यर्थः । ( सुकलेस्ला जहा सनेस्स त्ति ) पञ्च ज्ञानिनो प्रजनया ज्ञानिनचे स्वर्थः । (अलेस्सा जदा सिरु त्ति ) एकज्ञानिन इत्यर्थः । (३०) कषायद्वारे -
सकसाइयाणं चंते ! जहा सईदिया । एवं०जाव सोहकमाझ्याणं कसाइयाणं जंते! किं शाखी, असाथी ?
पंच नाणाई जगणाए ।
( सकसाइया जहा सदिय ति) भजनया, केवलवजयतुझानिनस्य ज्ञानिनश्चेत्यर्थः । ( अकसाइयाणमित्यादि ) - कानां पञ्चानानि भजनया, कथमुच्यते ! वीतरा गः केवली चाकषायः, तत्र उद्मस्थवीतरागस्याऽऽद्यज्ञानच तुष्कं भजनापति पनिस्तु पञ्चममिति ।
(३५) द्वारे सवेदगाणं ते! जहा सईदिया एवं इत्यिवेदगा बि, एवं पुरिसवेदगा षि, नपुंसगवेदगा वि ! एवं प्रवेदना, जहा अकसाइया ।
(जहा दिल ) सवेदकालेजनया केि वर्जतुनिनः, व्यज्ञानिनश्च वाच्याः । ( अवेदगा जहा अकसाइयति ) श्रवेदका श्रकवाचिद्भ जनया पञ्चज्ञाना वाच्याः, यतो निदियोवेटा भयन्ति तेषु व उपस्थानां चत्वारि ज्ञानानि भजनया, केवलिनां तु पञ्चममिति । (४०) श्राहारकद्वारे
आहारगाणं नंते ! जीना है जहा मकसाइया नवरं केवल नापि अशाहारगाव येते ! जीवा किं णाणी, गजवनाणवलाई नाथाई अन्नाणाई तिषिय जयवार |
( आहारत्यादि) सकपाया भजनया चतुरूपा नाइयो का आहारका अध्येयमेव नाहरका केवलमध्यस्तिकेवलिन बाहारकत्वादीति अाहारादमित्यादि) मनः पर्यवज्ञानमाहारकाणामेवाग्यं पुनर्ज्ञानत्रयमानत्रयं चवि प्रहे केवलं च केवलिनः समुद्धात तशैलेशी सिद्धावस्थास्वनाहारकाणामपि स्यात् । अत उक्तम्- (मणपज्जवेत्यादि) न० श०२ उ०प्र० कर्मगुणस्थानकमाश्रित्य ज्ञानविचारो 'गुण' शब्दे तृतीया २७ पृष्ठे कृतः "मागा तुपेयिव का अनुरोण उ पंचाला ना
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खावहा ॥ १ ॥ व्य० १० उ० । ( आभिनिबोधिका ऽऽ दिज्ञानानां विषया: 'अभिशिवोदिया स्यादिशम्याः) (काय तिः 'काय' शब्दे तृतीयजागे ४५८ पृष्ठे उक्ता) ('पजब' शब्दे श्रभिनिबोधिकाऽऽदिज्ञानपर्यवा द्रष्टव्याः ) ( जीवाः प्रत्याख्यानं जानन्तीति परत्रकलाण' शब्दे वक्ष्यते )
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(४१) संवेदन नम् विषषमता चाऽऽत्मपरिणतिमत्तथा ।
संवेदनं चैव ज्ञानमादः ॥ १ ॥ द्रवहान गोचरः शब्दादिन 'प्रवृतौ तज्जन्यस्याऽऽत्मनोऽर्थानर्थ सद्भावस्य प्रतिभासः प्रति
विषयः
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(१९७९) अन्निधानराजेन्षः।
पागा
भासनं परिचोदो यत्र तद विषयप्रतिभाममैडिकाऽऽमुमिकेषु
तथाআত্মন্ধিয়ানাৰ অন্তু মাঝামান্ধিাযৗনথ
"सदसदविसेमणाश्रो, प्रबहेक जहिच्छिनोबलभायो । प्रतिनामशून्यमित्यर्थः । ज्ञानमा हुरिनि संबन्धः, वशद अस. पाणफनाभावाओ, मिच्छादिहिस्स अन्नाणं ५२१॥" (विशे०) रज्ञानविशेषापेकया समुच्चयार्थः । इदं च मिथ्यारशां भवत्री. तस्याज्ञानस्य मन्यज्ञानाऽदिक्कणभ्याऽऽवरणमावृत्तिकारणं कर्म ति । तथा आत्मनो जीवस्य परिणतिरनुष्ठानविशेषसंपाद्यः अज्ञानाऽऽधरणं तस्यापायोऽपगमःक्षयोपशमो यस्मिन् तदहानापरिणामविशेषः, सैव क्षेयतया यस्मिन्नस्तिकाने न पुनम्तदनु. वरणापायं. मन्यज्ञानाऽऽवरणाऽऽदिकर्मक्षयोपशमहेतुकमित्यरूपप्रवृत्तिनिवृत्ती अपि तदात्मपरिणतिमत्। तथेति समुच्चये। थैः। प्रथया-अविद्यमानो ज्ञानाचरणापायो यच तत्तथा। सथ इदं चाविरतसम्यग्दृष्टीनां भवति, तत्वं परमार्थः, तत् सम्यक किंफलमिदमित्याह-महान्तश्च ते गुरुका अपायाश्च स्वपरगतविद्यते ज्ञायते येन तत्तस्वसंवेदनं, हेयोपादेयार्थप्रवृत्तिनिवृ- दिकाऽऽमुष्मिकप्रत्यपायास्तेगं निवन्धनं हेतुर्महापापनिबन्धतिसंपादकमित्यर्थः। चशब्दः समुश्चये,एवकारोऽवधारणे। तस्य नम् । इदं च भावतोऽज्ञानमेव, भवति चाज्ञानं महापायनिचवं प्रयोगः-तत्वसंवेदनमेव च,नोक्तव्यतिरिक्तम, इदं च विशु. बन्धनम् । यत पाह-"प्रज्ञानं खनु कटं, क्रोधादिभ्योगपि स.
चारित्रिणां स्यात, झानं बोधम, पाहुबंबते, मयो महामु- पापेभ्यः। अथै हितमहितं वा, न वेत्ति येनाऽऽवृतो मोकः ॥१॥" मयः, पते व त्रयोऽपि ज्ञानभेदा मत्यादिविशेषा एवेति ॥१॥
अथ द्वितीयज्ञाननिरूपणायाहआद्यस्वरूपमाह
पाताऽऽदिपरतन्त्रस्य,तदोषाऽऽदावसंशयम् । विषकण्टकरत्नाऽऽदौ, बालाऽऽदिप्रतिनासवत् । अनाथाप्तियुक्तं चा-ऽऽस्पपरिणतिमन्मतम् ॥ ४॥ विषयपतिनासं स्यात्, तयित्वाऽऽद्यवेदकम् ॥१॥ पातोऽधःपतनम् प्रादियंस्य ऊर्द्धतिर्यगाकर्षणविपरीतशिकाs. विषं च निकादिकम् , कराटकाश्च बबूलाऽऽद्यवयव
श्वोद्वहनाऽऽदेःतत्पाताऽऽदि, तेन तस्य वापरतन्त्रः पराऽऽयत्तः, विशेषा इति हेयं वस्तु. रत्नानि च मरकताऽऽदानि तानि पाताऽऽदिपरतन्त्र इव पाताऽदिपरतन्त्रः,तस्य विषयकषायाss. चौपादेयं, विष,कण्टकरत्नानि तानि आदिर्यस्य तत्तथा, तत्र दिक्यीकृतस्य देहिनः तस्मिन् पाताऽऽदौयो दोषोऽङ्गभङ्गमरणा. विषकाटकरत्नाऽऽदौ एव्ये, हाऽऽदिशब्दाद् डेयोपादेयरूप. ऽऽदिनक्षणः स प्रादिर्घस्य रूतोत्करमृस्पर्शाऽऽदिगुणस्य स पस्वन्तरपरिग्रहः उपेकणीयपरिग्रहोया । बालः शिशुरादिषां
तथा,तत्र दोबाऽऽदी,दान्तिकेतु कर्मबन्धगत्यादिदोषे गुणेच से बालाऽऽदया, आदिशब्दादतिमुग्धपरिग्रहः । तेषां प्रति- अभ्युदयाऽऽदौ केयेऽसंशयम,उपनक्कणभेतत्-अविद्यमानसंदेहभासो वस्तुबोधो बालाऽऽदिप्रतिभासः, स इव बालाऽऽदि.
विपर्ययं विलीनमोहनधित्वेन यथावन्निश्चयस्य स्वरूपमित्यर्थः । प्रतिभासयत्, तत्तुलमित्यर्थः । विषयपतिनासमुक्तनिर्वचनं अनर्थोऽयोऽलादिरादिर्यस्य सुखस्पर्शाऽऽदेरर्थस्य तथा शाने, स्याद भवेत् । कथं बालाऽऽदिप्रतिभासतुल्यस्वमस्येत्या- तस्याऽऽप्तिः प्राप्तिः तया युक्तम् अन्चितम अनाऽऽद्याप्तियुक्तम्। ह-तेषां यविषयाणां, हेयत्वाऽऽदि-यत्वमुपादेयत्वमुपेक्वणी- इह च यद्यपि पुण्यस्वैवानर्थाऽऽद्याप्तियोगस्तथाऽपिकानाव्यति. यत्वं चेत्यर्थः। तस्यावेदकमनिइचायकं तद्धेयत्वाऽऽद्यवेदकं यथा
स्तित्वात् तस्याज्ञानभेयानर्थाऽद्याप्तियुक्तमुक्तम, दान्तिके बानादिनविभासो विपाऽऽदिविषयस्य रूपाऽऽदिमात्रमवाध्य.
स्वनर्धाऽऽद्याप्तिः कर्मबन्धदुर्गतिगमनपरम्परावर्गाऽऽगमनरूपाsघस्थति, न तु हेयरवाऽऽदिक तकर्मम् , एवं यद् ज्ञानं बहु
वगन्तव्या, चशब्दो विशेषणान्तरसमुच्चयार्थः । तदेवंविधं ज्ञानभुतानामप्यनिनग्रन्थीनां मोहमलमलीमममानसत्वेनातवा
मात्मपरिणतिमत् प्रतिपादितं निर्वचनं मतमभिमतमध्यात्मनां हेयनायास्तरवानां चोपादेयताया बिनाकम तवातश्व
तत्वविश्वामिति । इह च संवादगाथेयोः समताऽवभासकं विपर्ययावभासकं वा तद्विषयप्रतिज्ञास
"भिन्ने उ तर नाणं, जहऽक्वरयणेसु तम्गयं चेव । मिति भावना । उक्तं च-" विसयपम्भिासमितं. बालस्सेब
पमिबंधम्मि वि सका-भायो सम्मरूयं तु ॥१॥" ऽक्खरयणविसयं तिवयणा55इएसु नाणं, सब्यस्थानाणमो
निने तु, कस्मिन् ?, मोहग्रन्थावित्यर्थः। (तगयं चेव ति) यं"॥१॥ (वयणाश्पसुति) सूत्रार्थाऽऽदिश्चिति ।
अके अवगतमेघ, रत्ने रत्नगतमेव, प्रतिबन्धेऽपि सदनुष्ठानइदमेव लिङ्गाऽऽदिभिर्निरूपयन्नाह
व्याघातेऽभीत्यर्थः।
"जमिणं असप्पचित्ती-द दब्बो संगयं पि नियमेण । निरपेक्षप्रवृत्त्यादि-लिङ्गभेतउदाहृतम् ।
दोहफगं असुहा-णुबंधयोच्यभावाप्रो ॥२॥" इति। झानाऽऽवरणापाय, महापायनिबन्धनम् ॥३॥
एतदेव लिङ्गाऽऽदिभिनिरूपयमाहनिर्गता अपेता अपेका पहिका मुमिकापायशङ्का यस्याः सा |
तथाविधवृत्यादि-व्यङ्मयं सदनुवन्धि च। तथा निरपेक्का, प्रवृत्तिः प्रवर्तनमादिर्यस्य निवृत्यादेः तन्नि- झानाऽऽवरण हासोत्थं, पायो वैराग्यकारणम् ॥५॥ रपेकप्रवृत्त्यादि, निरपेक्स्य वा निराशङ्कस्य प्रवृत्यादि निरपेक
तथा तत्प्रकारा विधा स्वरूपं यस्याः सा तथाविधा-"हि. प्रवृत्यादि, तद्धि चित्रं यस्य तन्निरपेक्षवृत्यादिलिङ्गम् , पत. यए जिणाण प्राणा, चरियं मह परिसं अश्रोऽनस्स । बनन्तरोदितं विषयप्रतिभासं ज्ञानम् उदाहृतम् प्राप्तरुपदिएम्। एयं मालप्पालं, अब्बो!दूरं विसंवयह ॥ १ ॥" इत्याअथ कितुकमिदमित्यत आह-न ज्ञानमझानं मिथ्यास्यो- दिनावना असंक्लिष्टा चासौ प्रवृत्तिश्च हिंसाऽऽदिषु वदय इति, ते मतिश्रुते, अवधिश्च, नत्रः कुत्साधवाताभादच. तनं तथाविधप्रवृत्तिः, सादिस्य निवृत्तिप्राप्यादेः तत्तथा"अधिसेसिया मा बिय, सम्मदिहिस्स सा मइएणाणं।
विधप्रवृत्यादि, तेन व्यज्यते व्यक्तीक्रियते यत्तत्तथाविधप्र. माभएमाणं मिच्का-दिहिस्स सुयं पिपमेव ॥११४॥"
वृपादिया तथा सन् शोभनोऽनुबन्धः परम्परा मो
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(1150)
पाण
कफलप्रदायकत्वं सहनुबन्धः सोऽस्यास्तीति सदनुबन्धि, शब्दो विशेषसमुच्चये। किंतुमिदमित्याह 55वरं मत्याद्यावारकं कर्म, तस्य ह्रासः क्योपशमः, तस्मात्तितत्पद्यते बताना रासोरथम कथमिदं सहनु बन्धीत्यत आह-प्रायो बाहुल्येन वैराग्यकारणं सद्भावनानिमियं यतो भवतीति गम्यते । यदाह" बालकांडातुल्यास्यां भाति धीमताम् । तमोग्रन्थिविमेदेनख़िलैव हि ॥ १ ॥ " प्रायोग्रहणं च कषायोदयविशेषे सति तद्वैराज्यकारणं न स्यादपि राज्यादिसाधनप्रवृचनरताऽऽदेरिवेति प्रतिपादनार्थमिति ॥ ५ ॥
तृतीयप्रतिपादनाय 35
स्वस्थवृत्तेः प्रशान्तस्य तकेयत्वाऽऽदिनिश्चयम् । तवसंवेदनं सम्प, यथाशक्ति फलमदम् ।। ६ ।।
अभिधान राजेन्द्रः ।
1
स्वस्था अनाकुला वृत्तिर्वचनकायव्यापाररूपं वर्तनं यस्य स तथा तस्य स्वस्थवृत्तेः। एतदेव कुत इत्याह-- प्रशान्तस्य रागद्वेचाऽऽपामप्रकर्षवतः तच्चसंवेदनं भवतीति क्रिया किसूतमिति ग्रह तेषां शेषवस्तुतस्वानां देवत्वं त्यजनीय स्वम्, आदिशब्दादुपादेयत्वपक्कणीयत्वपरिग्रहः । तत्र निश्चयो निर्णयो यस्य तसेच नियमिति यथा वा यदिति शेषः । ततश्च स्वस्थवृत्तेः प्रशान्तस्य पुंसो यद् ज्ञानं तत्तवसंवेदनमिति योगः तस्य संवेदनमुकनिर्वचनं सम्यक समीची
या यथाशक्ति पुरुषस्य संहननादिसामर्थ्यानुसारतः फलप्र स्वप्रयोजनप्रसाधक ज्ञानस्य चानन्तरफलं विरति परम्पराफलं त्वपवर्ग इति ॥ ६ ॥
"
पतस्यादि प्रतिपादपम्यावाssदी शुद्धवृष्यादि गम्यमेतत् प्रकीर्तितम् । सम्झाना 33वरणापायें, महोदयनिबन्धनम् ॥ ७ ॥ म्यायो नीति-सम्पन्नरूप मोकमार्गः, स आदिर्यस्य न्यायस्य मिथ्यादर्शनाऽऽदिरूपस्य अयमार्गस्य सम्पादयादिः शुद्धवृतिर्निरतिचारप्रवृतिः, निसा तथा तथा गम्यमनुमेयं गुरुमृष्या दिगम्यम् । एतदनन्तरोदितस्वरूपं तत्वसंवेदनज्ञानं, प्रकीसिम ज्ञानस्वरूपविद्भिम्। किंतुकमिति, आह स योजनं प्रपद् नमाजिनियधिकाऽऽदितस्यपदाव रणं तस्यापायोऽपगमः कृपः थोपमलको पस्मिन् तद् कानाssवरणापायम् । अथवा-सन् विद्यमानो ज्ञानाऽऽवरणापायो यत्र तत्तया फलमस्य । आह-महोदयो महायुदयो निर्वाणं, तस्य निबन्धनमकेपेण कारणं महोदयनिबन्धनमिति ॥ ७ ॥ उपसंहरन्नुपदेशमादएतस्मिन् सततं यत्नः कुठाहत्यागतो नृशम् । मार्गश्रद्धाssदिनावेन, कार्य आगमतत्परैः ॥ ८ ॥ एतस्मिन्नन्तरोक्ते तस्वसंवेदनज्ञाने, सततमनवरतं यत्न आदरः, कार्य इति संबन्धः । कुतः ?, कुग्रहत्यागतः शास्त्रबाधिताभिनिवेशपरित्यागेन, रामत्यर्थ, केन करणभूतेन कार्यों बस्न इत्याह-मामीमा राष मात्र आत्मपरिणामो मार्गश्रद्धाऽऽदिनावः तेन तत्र का श्रद्धानम्, आदिशब्दाद झाममासेवनं चेति कार्यों विधेषः । कैशित है, आद-आगमतत्परै राप्तमवचनप्रधनिरिति ॥ ८ ॥ इति । हा०
पाया
९ अष्ट० द्वा० । अत उक्तम" तज्ज्ञानमेव न भवति, य स्मिन्नुदिते विभाति रागगणः । तमसः कुतोऽस्ति शक्तिः, दिनकरकिरणाग्रतः स्थातुम ? ॥ १ ॥ " नं० । श्राचा० ॥ घ० । गुरुपारतंतनाणं [ सदस्य एवमंग चेव ] (७) गुरुपायं ज्ञानाधिकाचार्याऽऽय सस्यं यबोधो विशिष्टज्ञान विकलानामपि गुरुपारतन्त्र्यस्य ज्ञानफन्त्रसाधकत्वातू । यदाह
"यो निबन्धदोषात कमलोग जिनमः । गुरुभक्तो ग्रहरहितः सोऽपि ज्ञान्येव तत्फलतः ॥ १ ॥ चक्षुष्मानेकः स्यादन्धोऽन्यस्तन्मतानुवृत्तिपरः । गन्तारीत प्राप्त ती युगपदेव ॥२॥ पञ्चा०११ विव "गाणादिओ वरचरण-हीणो वि हु पवयणं पन्नासंतो ।
यदुक्करं करतो, सुवि प्यागमो पुरिसो ॥१॥" तथा - "हीणस्स वि सुद्धपरू-वगस्स नागाहियस्स कायध्वं ।" व्या०१ अभ्या० । स्पा० (प्रत्यक्षाऽऽदीनां व्याख्या स्वस्वस्थाने) आगमपूर्वके बोधे, द्वा०२३ द्वा० । “अन्नाणं परियाणामि । (४२) अज्ञानं सम्यग्ज्ञानादन्यद्, ज्ञानं तु भगवद्वचनम् । ध० ३ अधि०
39
अत्र यशोविजयोपाध्यायकृतमष्टकम -
मज्जत्यः किलाझाने, विष्वामित्र शुकरः । ज्ञानी निमज्जति झाने, मराल इस मानसे ॥ १ ॥ निर्वाणपदमप्येकं, भाव्यते यन्मुहुर्मुहुः ।
तदेव ज्ञानमुत्कृष्टं निर्बन्धो नास्ति जूयसा ॥ २ ॥ स्वभावलाभसंस्कार-स्मरणं ज्ञानमिष्यते । ध्यान्ध्यमात्रमतस्त्वन्य-तथा चोक्तं महात्मना ॥ ३ ॥ वादाँच प्रतिवादश्च वदन्तोऽनिश्चितास्तथा । तचान्तं नैव गच्छन्ति, लिपीकफनी ॥ ४ ॥ स्वव्यगुण पर्याय चवर्या पराऽन्यथा । इति दवाऽऽश्मसन्तुष्टि-मुष्टिज्ञान स्थिनिर्मुनेः ॥ ५ ॥ अस्ति चेर ग्रन्थिजिद ज्ञानं किं चित्रस्तन्त्रयन्त्रः । प्रदीपाः कोपयुज्यन्ते, तमोघ्नी दृष्टिरेव चेत् १ ॥ ६ ॥ मिध्यात्वशैलप झानदम्नोसिशोजितः । निर्जयः शक्र योगी, नन्दस्यानन्दनन्दने ॥ ७ ॥ पीयूषमसमुषोत्वं, रसायनमनोषधम् । अनन्यापेक्षभैश्वर्य, ज्ञानमा दुर्मनीषिणः ||८|| १०५ टन " जो विणश्र तं नाएं, जं नाणं सो अ वुच्च विणओ । विषपण लहर नाणं, नाणेण वि जाणई विषयं" ॥६२॥ ६०१०| ( वचनानुष्ठानं चारित्रवतो नियोगेनेत्युक्तम् ' अनुठाण ' शब्दे प्रथमभागे ३७७ पृष्ठे )
( ४३ ) तत्र ज्ञान योजनामाहश्रुतमयमात्रापोद्धार, चिन्तामयज्ञावनामये भवतः । ज्ञाने परे थाहै, गुरुभक्तिविधानस ि।। १२ ।। निर्वृत्तं श्रुतमयं तदेव तन्मात्रमवधृतस्वरूपमन्यज्ञानद्व• हरिजामा, सुपपाद वि एणयं ।
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(१९७१) गाण
प्रनिधानराजेन्द्रः। यनिरपेक्षम्, तदपोहात्तशिरासात् । अन्यज्ञानयसापेकं तु श्रुत- (४४) दानी त्रयाणां श्रुताऽऽदिकानानां किश्चिद्विनागमु. मयं न निरस्यत इति शेयम् । चिन्तामयभावनामये बदयमाण
पदर्शयतिस्वरूपे नयप्रमाणसूक्तायुक्तिचिन्तानिवृत्तं चिन्तामयं हेतुस्वरूपफ- कहाऽऽदिरहितमाद्यं, तद्युक्तं मध्यमं भवेद ज्ञानम् । लनदेन कालत्रयविषयं भावनामयं, ते भवतो जायते शाने परे चरमं हितकरणफझं, विपर्ययो मोहतोऽन्य इति ॥६॥ प्रधाने यथाईमौचित्येन गुरुजक्तिविधानं सच्चोभनं लिङ्गं ययो
कहो वितर्कः,ऊहापोहविज्ञानाऽऽदिरहितमा प्रथम श्रुतमयं, गुरुभक्तिविधानसल्लिले ॥१२॥
तद्युक्तमूहाऽऽदियुक्तं मध्यमं चिन्तामयं भवेदानं हितीयं, ज्ञानत्रयं सफलं दृष्टान्तद्वारेण प्रतिपिपादयिषुराह
चरम भावनामयं तृतीयं हितकरणफलं हिनकरण फलमस्येति नदकपयोऽमृतकल्पं, पुंसां सज्ज्ञानमेवमाख्यातम् । स्वहितनिर्वर्तनफलं, विपर्ययो विपर्यासो मिथ्याज्ञानं,मोहतो मो. विधियत्नवत्तु गुरुभि-विषयतृमपहारिनियमेन ॥१३॥ । हान्मिथ्यात्वमोहनीयोदय द्ज्ञानत्रयादन्योऽबोध इति ॥६॥ उदकपयोऽमृतकल्पमुदकरसाऽऽस्वादकल्पं पयोरसास्वा- . (४५) श्रुतमयज्ञानस्य लक्णमाहदकल्पम् अमृतरसाऽऽस्वाद कल्पं,पुंसां विद्वत्पुरुषाणाम् सज्ञानं वाक्यार्थमात्रविषयं, कोष्ठकगतवीजसन्निभं ज्ञानम् । सम्यग् ज्ञानम्,पवमाख्यातं स्वरूपतो,विधियत्नवत्तु विधौ यत्नः श्रुतमयमिह विझेयं, मिथ्याऽजिनिवेशरहितमलम् ॥७॥ सविद्यते यस्मिंस्तहिधियत्लवदेव,न विधियत्नशून्यं,गुरुजिराचा.
सकलशास्त्रगतवचनाविरोधिनिर्णीतार्थवचनं वाक्यं, तराख्यातं विषयतडपहारि विषयतृषमपहर्तुशालमस्योति,निय
स्वार्थमात्रं प्रमाणनयाधिगमरहितम्, तद्विषयं तद्गोचरम्-वामेन अवश्यतया,श्रुतज्ञानं स्वस्थस्वादुपथ्यसलिलाऽऽस्वादतुल्यं,
क्यार्थमात्रविषयं, न तु परस्परविजिन्न विषयशास्त्रावयवभून. चिन्ताज्ञानं तु कीररसाऽऽस्वादतुल्यं,भावनाज्ञानममृतरसाऽऽस्या
पदमात्रवाच्यार्थविषयम् । कोष्ठके लोहकोष्ठकाऽऽदौ गतं स्थित दतुध्यमितित्युक्तं भवति, विषयतृमपहारीत्युक्तम् ॥ १३ ॥
यद् बीजं धान्यं तत्सन्निभमविनष्टत्वात्-कोष्ठकगतबीजसन्निभं, यस्य तु विषयाभिलाषातिरेकः स ज्ञानत्रयवानेध, फला- कानं श्रुतमयमिह प्रक्रमे, विज्ञेयं वेदितव्यम्, मिथ्याऽभिनिवेशोऽ. नावाद् न भवतीत्ययोग्यत्वप्रतिप दनाय तस्येदमाह
सदभिनिवेशः, तेन रहितं विप्रमुक्तम्, अनमत्यर्थम् ॥ ७ ॥ शृण्वन्नपि सिकान्तं, विषयपिपासाऽतिरेकतः पापः ।
(४६) चिन्तामयज्ञानस्य लकणमाहमाप्नोति न संवेगं, तदाऽपि यःसोऽचिकित्स्य इति ।१।।
यत्तु महावाक्यार्थज-मतिमूदमसुयुक्तिचिन्तयोपेतम् । एवन्नपि तीर्थकरानिहितमर्थतः सिद्धान्तं प्रतिष्ठितपक्षरूपं
उदक इव तैलविन्दु-विसर्पि चिन्तामयं तत्स्यात् ।। गणधराऽऽहुपनियरूमागर्म विषयपिपासाऽतिरेकतो रूपरस- यत्तु यत्पुनमहावाक्यार्थजमाक्किप्तरसर्वधर्माऽऽत्मकत्ववस्तुप्रगन्धस्पर्शशब्दानिलाषातिरेकेण पापः संक्लिष्टाध्यवसायत्वा- तिपादकामेकान्तवादविषयार्थजन्यमतिसूक्ष्मा अतिशयसूक्ष्मबुद् न प्राप्नोति संवेग मोकानिला, तदाऽपि सिद्धान्तश्रवण- हिंगम्याः शोभना अविसंवादिन्यो या युक्तयः सर्वप्रमाणनयकालेऽपि, पास्तां तावदन्यदा, य एवंविधः, सोऽचिकित्स्य इ. गर्नाः, तच्चिन्तया तदालोचनयोपेतं युक्तम् । नदक इय सनिस्यचिकित्सनीयः, स वर्सते, शास्त्रविहितदोषचिकित्साया ल इव तेलबिन्ऽस्तैलबवो विसर्पणशीसं विसर्षि विस्तारयुअनहेत्वादिति ॥१४॥
कम, चिन्तया निवृतं चिन्तामयं, तज्ज्ञानं स्याद्भवत् ॥८॥ इत्थं कर्मदोषवतः किं कर्तव्यम् ?, इत्याह
(४७) भावनाझानलकणमाहनैवंविधस्य शस्तं, मण्डल्युपवेशनप्रदानमपि ।
ऐदम्पर्यगतं यद्, विध्यादौ यत्नवत्तथैवोच्चैः । कुर्वनेतद् गुरुरापि, तदधिकदोषोऽवगन्तव्यः ॥१५॥ एतत्तु भावनामय-मशुद्धसघनदीप्तिसमम ॥णा न प्रतिषेधे. एवंविधस्य, पुरुषस्य शस्तं प्रशस्तमनुज्ञातमित्य
ऐदम्पर्य तात्पर्य सर्व यक्रियाविषये सर्वज्ञाझैव प्रधान कारथः । मएमव्युपवेशनप्रदानमपि अर्थमएमल्यां यदुपवेशनं श्र- समित्येवंरूपं ततं तहिषयं यद् ज्ञानं विध्यादौ विधिव्यदावणार्थ तत्पदानमपि कुर्वन् संपादयन्नेतत् पूर्वोक्तं गुरुरपि प्र- तृपात्राऽऽदौ,यत्नबत्परमाऽऽदरयुक्तं,तथैवोचैः-ऐदम्पर्यवत्वापेक्क. स्तुतोऑभिधायी तदधिकदोषोऽयोग्यपुरुषाधिकदोषोऽवगन्त
या यत्नवश्वस्य समुच्चयार्थ तयवेत्यस्य प्रहगाम । पतत्तु एतत्पुव्योऽवयोधव्यः; सिद्धान्तावाऽऽपादनादिति ॥ १५ ॥
नर्भावनया निर्वृत्तं जावनामयं ज्ञानम् । अशुरूस्य सत्नस्य पूर्वोक्तार्थ व्यतिरेकेसाऽऽह
जात्यरत्नस्य स्खजावत एव कारमृत्पुटपाकाऽऽधनावेऽपि जास्व
ररूपस्य या दीप्तिस्तया सममशुद्धसरूनदीप्तिसमम । यथा यः शृण्वन् संवेगं, गच्चति तस्याऽऽद्यमिह मतं ज्ञानम् । हि जात्यरलस्य स्वजावत एवान्यरत्नेच्योऽधिका दीप्तिगुरुभक्त्यादिविधानात्, कारणमेतद् द्वयस्येष्टम् ॥ १६ ॥ र्भवति, एवमिदमपि भावनाझानमशुद्धसजत्नकल्पस्य भव्ययः कश्चिद् योग्यः पवन सिकान्तमिति संबध्यते । संवेगं जीवस्य कर्ममसमलिनस्यापि शेषज्ञानेभ्योऽधिकप्रकाशकारि गच्छति भास्कन्दति । तस्य योग्यस्याऽऽद्यमिह प्रथममिह मतं
जवति । अनेन हि ज्ञान ज्ञातं नाम क्रियाऽप्येतत्पूर्विकैव झानं श्रुतज्ञानम् । गुरुजक्त्यादिपिधानाद् गुरुभक्तिविनयबहु
मोक्षायाऽऽपेण संपद्यत इति ॥६॥ मानाऽऽदिकरणात, कारणमेतद् द्वयस्येष्ट चिन्तामयभावनामय
साम्प्रतं त्रयाणां श्रुतीचन्ताभावनामयज्ञानानां विषयज्ञानवयस्य हेतुरेतत् श्रुतज्ञानमिष्टम् । तस्माज्ञानत्रयेऽपि र.
विभागाथै फलाभिधानाय प्रक्रमते कारिकानत्रयकस्पे परमाऽऽदरो विधेय इति ॥ १६ ॥षो०१०वि०।
द्वयन( सुस्स्सा 'शब्दे शुश्रूषाविवेचनम् )
आद्य इह मनाक् पुंसः, तागात दर्शनग्रहो भवति । ४६६
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(१२)
अभिधानराजेन्द्रः। न भवत्यसौ द्वितीये, चिन्तायोगाद कदाचिदपि ॥१०॥ दण्मीखण्डं प्रसिकं, निवसनं परिधानमस्येति दरामीखगमआये श्रुतझाने, श्ह प्रवचने, मनागीपत, पुंसः पुरुषस्य, तद्रा
निवसना, तं भस्माऽऽदिभिर्विभूषितं विच्छुरितं जस्माऽऽदिविनू. गात् श्रुतमयज्ञानानुरागात , दर्शनग्रहो भवति, दर्शनं मतं
पितं सत्पुरुषाणां शोच्यं शोचनीयं पश्यत्यवलोकयत्यात्मानश्रुतमिति एकोऽर्थः। तद्ग्रहः तदाग्रहो यथेदमत्रोक्तमिदमेव च
मलमत्यर्थ, गृही गृहवान्, नरेन्द्रादपि ह्यधिकं चक्रवर्तिनोऽप्य. प्रमाणं नान्यदित्येवरूपो, न नवत्यसौ दर्शनग्रहो ययेदम
धिकं यथेति गम्यते ॥ १३ ॥ मोहविकारसमेतो मनोविनमस्मदीयं दर्शनं शोभनमन्यदायमशोभनमित्येवंरूपो, द्वितीये चि.
दोषसमन्वितः पश्यत्यात्मानमेवमकृतार्थ सन्तं विपर्यायबोध. न्तायोगादतिसूक्ष्मसुयुक्तिचिन्तनसंबन्धात् कदाचिदपि काले
वान् कृतार्थमिति पश्यति, तस्य कृतार्थस्य व्यत्ययेन यानि नयप्रमाणाधिगमसमन्वितो हि विद्वान् प्रेक्तावत्सया स्वपर
लिङ्गानि तेषु रतस्तं तद्वयत्ययलिङ्गरतम् । अनेनाकृतार्थत्वमेव
वस्तुवृत्या दर्शयति । एवंविधोऽपि कृतार्थमिति कुतो मन्यते । तन्त्रोक्तं न्यायबलाऽऽयातमर्य सर्व प्रतिपद्यते, तेनास्य दर्शनग्रहो न भवति ॥ १०॥
तद्ग्रहादेव, स चासौ ग्रहश्च,तस्मादेव विवक्षितग्रहाऽऽवेशा
देव । एवं ग्रहगृहीतेन विपर्ययवत उपनयः कृतः ॥ १४ ॥ चारिचरकस जीव-न्यचरकचारणविधानतश्वरमे ।।
शानविपर्यययोः स्वाम्युपदर्शनार्थमिदं कारिकाद्वयमाहसर्वत्र हिता वृत्ति-र्गाम्नीर्याद समरसापत्त्या ॥ ११ ॥
सम्यग्दर्शनयोगाद,ज्ञानं तद् ग्रन्थिनेदतः परमम् । चारेश्चरको भवयिता संजीविन्या औषधेरेचरकोऽनुपभोक्ता, तस्य चारणमन्यवहारणं, तस्य विधानं संपादनं, सोऽपूर्वकरणतः स्याद्, झेयं लोकोत्तरं तच्च ॥ १५ ॥ तस्माचारिचरकसजीवन्यचरकचारणविधानतश्चरमे नाव- सम्यग्दर्शनयोगात्तवार्यश्रद्धानसंबन्धाद् ज्ञानं सम्यग्ज्ञानं, नामयकाने सति सर्वत्र सर्वेषु जीवेषु हिता वृत्तिः हितहेतुः तत् सम्यग्दर्शनं ग्रन्थिभेदतो ग्रन्धिभेदात्, परमं प्रधानं स्व. प्रवृत्तिनं कस्यचिदहिता । गाम्नीर्यादाशयविशेषात् स- रूपतो वर्तते, स ग्रन्थिमेदो नियमत एवापार्द्धपुशलपरावर्तामरसापत्या सर्वानुग्रहरूपया "कयाचित् स्त्रिया कस्य- धिकसंसारच्छेदी, अपूर्वकरणतः स्यादपूर्वपरिणामाद् भवेत, चित पुरुषस्य वशीकरणार्थ परिवाजिकोक्ता-यथेमं मम व. झेयं लोकोत्तरं तच्च, तचापूर्वकरणं लोकात् सर्वस्मादप्युत्तरं शवर्तिनं वृषनं कुरु, तया च किल कुतश्चित् सामर्थ्यात स प्रधानं झयम । अपूर्वकरणमपूर्वपरिणामः शुभोऽनादाववि वृषभः कृतः, ते चारयन्ती पाययन्ती चास्ते । अन्यदा च वट- संसारे तेषु तेषु धर्मस्थानेषु सूत्राऽर्थग्रहणाऽऽदिषु वर्तमानस्यावृत्तस्य अधस्तान्निषो तस्मिन् पुरुषगवे, विद्याधरीयुग्ममाका- प्यसंजातपूर्व इति कृत्वा ॥ १५ ॥ शमागमत, तत्रैकयोक्तम्-अयं स्वाभाविको न गौः, द्वितीययो- लोकोत्तरस्य तस्माद्, महानुनावस्य शान्तचित्तस्य । क्तम्-कथम स्वाभाधिको जवति। तत्राद्यपोक्तम्-अस्य व.
औचित्यवतो ज्ञानं, शेषस्य विपर्ययो शेयः॥ १६ ॥ टस्याधस्तात् संजीवनी नामौषधिरस्ति । यदि तां चरति, तदाऽयं स्वाजाविकः पुरुषो जायते । तश्च विद्याधरीवचनं तया त्रि
सोकादुत्तरः प्रधानो ज्ञानवानिह गृह्यते, तस्य लोकोत्तरस्य या समाकर्णित, तया चौषधि विशेषसोऽजानानया सर्वामेव चा
तस्मादिति निगमने महानुभावस्याचिन्त्यशक्तो शान्तरिं तत्प्रदेशवर्तिनी सामान्येनैव चारितः, यावत्संजीवनीमु
चित्तस्योपशान्तमनसः । औचित्यवत औचित्ययुक्तस्य ज्ञानमपभुक्तवान् । तदुपभोगानन्तरमेवासौ पुरुषः संवृत्तः ।" एव
नेन ज्ञानस्वामी निदर्शितः । शेषस्योक्तगुणविपरीतस्य विप. मिद लौकिकमाख्यानकं श्रूयते । यथा तस्याः स्त्रियाः तस्मिन्
ययो शेयो ज्ञानत्रयादन्यः पदमावाच्यार्थविषयः पूर्वोक्त इति
॥ १६ ॥ षो. ११ विव० । पुरुषगवे हिता प्रवृत्तिरेचं नावनाज्ञानसमन्वितस्यापि सर्वत्र
(४०) ज्ञानं किमिहभविकं परभावकं बाभव्यसमुदायेऽनुग्रहप्रवृत्तस्य हितैब प्रवृत्तिरिति ॥ ११ ॥
सहभविए भंते ! णाणे, परभविए णाणे, तदुभयभविए विपर्ययो मोहतोऽन्य इत्युक्तम, स पुनः कः ?, इत्याह
णाणे गोयमा।हनविए विणाणे, परजविएविणाणे, गुर्वादिविनयरहित-स्य यस्तु मिथ्यात्वदोषतो वचनात् । दीप इव मएमबगतो, बोधः स विपर्ययः पापः॥ १२ ॥
तदुनयभविए विणाणे य ।।
"इहभविए" इत्यादि व्यक्तम, नवरम इह च नवे वर्तमानजगुर्वादिविनयरहितस्य गुरूपाध्यायाऽऽदिविनयविकलस्य यस्तु
न्मनि यतते, न तु भवान्तरे तदेहभाविकम,काकुपावाच्नेह प्र. यः पुनर्मिथ्यात्वदोषतो मिथ्यात्वदोषात् तत्वाधिद्धान- |
इनताऽवसेया, तेन किमैहभविक ज्ञानमुत-(परजविए त्ति) रूपाद वचनादागमाद् दीप इव, मएमलगतो मामलाऽऽका
परनवे वर्तमानानन्तरभाविन्यनुगामितया यद्वर्तते तत्पारभरोबोधोऽवगमस्तैमिरिकस्येव स तथविधो, बोधो वचनाद
विकम, आहोस्वित-(तदुभयभविए ति) तदुभयरूपयोरहजवन्नप्यध्यारोपदोषतो विपर्ययो मिथ्याप्रत्ययरूपः पदमावा- परसवणयोर्भवयोर्यदनुगामितया वर्तते तत्तनयभविकम्. दं च्यार्थविषयः पापः स्वरूपेण वर्तते ॥ १२ ॥
चैवं न पारभविकाद्भिद्यत इति । परतरभवेऽपि यदनुयाति तदू विपर्यय एवं प्रस्तुते दृष्टान्तगर्भमुपनयमाद कारि- ग्राह्यम्, इहभवव्यतिरिक्तत्वेन परतरभवस्यापि परभवत्वात्, काद्वयेन
हस्वतानिर्देशइचेह सर्वत्र प्राकृतत्वादिति, प्रश्ननिर्वचनमपि दएमीखएमनिवसनं, भस्माऽऽदिविजूषितं सतां शोच्यम् ।। सुगम, नवरम-( इहभविए वित्ति) पहनविकं यदिहाधीतं, पश्यत्यात्मानमलं, गृही नरेन्जादपि ह्यधिकम् ॥ १३ ॥
नानन्तरभवेऽनुयाति, पारभविकं यदनन्तरभवेऽनुयाति, त.
जयभविकं तु यदिहाधीत परजवे परतरजवे चानुवर्तत शति । मोहविकारसमेतः, पश्यत्यात्मानमेवमकृतार्थम् ।
ज० १ ० १ उ० । शास्त्राच्यासे, दर्श० ५ तव । झान • तव्यत्ययनिङ्गरतं, कृतार्थमिति तद्ग्रहादेव ॥ १४ ॥ । मागमितमित्येकोऽर्थः । व्य०१..। ज्ञायतेऽनेनति शेयप्र
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可何
काश दीपकल्पे
|
दी ० ३०० १० "ग्दा विश्वका कम्मरयचिकित्रयं ना। धारयन्वं नियमा, न य श्रविणीपसु दायच्वं ॥ ५ ॥ अत्र ज्ञानं चन्द्रप्रज्ञप्तिलक्षणम् । चं० प्र० २० पाहु० ।
35
(१९८३) अभिधानराजेन्ऊ
उपत्ये
भंते! मणूले परमापोग्गलं किं नाइ, पासर, उदाहु न जाणइ न पासइ ? । गोयमा ! प्रत्येगइए जाण, ण पास, प्रत्येगइए ण जाण, ग पासइ । छतमत्येवं भंते! दुपदेसि खयं किं जागा पास १ । एवं चैव । एवं० जात्र असंखेज्जपएसियं । छउमत्थे भंते! तपसि किं पृच्छा है। गोयमा ! गए जाड़, पास, प्रत्येगइए जाइ, ण पासइ, अस्वेगइएका जाण, पास, अत्येगए जापान पास| होहिणं मस्से परमाणु जहा छउमत्थे एवं आदोहिए वि० जाव णंतपदेसियं । परमाहोहिए एवं जंते ! मणूसे परमापोंगल में समयं जाइ तं समयं पासजं समयं पास से समर्थ जाखड़ है को इसके समड़े। ? । सेकेणणं ते! एवं बुबइ परमादोहिए थे मणूसे परमापोग्गलं नं समयं आण, ख तं समयं पास में समयं पासइ, णो तं समयं जाण ।। गोयमा ! सागारे से खाणे जवर अागारे से ये जब से तेणद्वेगां० जाव यो समजा एवं जान अतपसि केवली अंते! मणूसे जहा परमादोहिए वहा केवली वि० जान अणतपसि ।
इ,
—
66
( नमःथेत्यादि ) इह छद्मस्थो निरतिशयो ग्राह्यः । ( जाण६, न पासत्ति ) श्रुतोपयुक्तः श्रुतज्ञानी, श्रुते दर्शनाभावाद, तदन्यस्तु न जाणइ न पासइति " अनन्तप्रदेशिकसूत्रे चखारो भान्ति जानाति स्पर्शनादिना पश्यति च चतु बेत्येकः तथाप्रयो जानाति स्पर्शनादिना न पश्यति चक्षुषा, चक्षुषोऽभावादिति द्वितीयः । तथाऽन्यो न जानाति स्पर्शाचा पश्यति चचुषेति तृतीया तथान्यो न जानाति न पश्यति चाविषयत्वादिति चतुर्थः । उद्यस्याधिकारामस्थ विशेष नूताघोऽवधिक परमाधोऽवधिक सूत्रे दधिकश्यामन्तर्मुहर्तेन केवली भवतीति केनिसूत्रम् । तत्र
परमा
सागारे से नाथे भवति ) साकारं विशेषक पम् |' से ' तस्य परमाधोऽवधिकस्य तथा ज्ञानं भवति, त द्विपर्ययभूतं च दर्शनमतः परस्परविरुवाकये नास्ति सं नव इति । भ० १० श० ० उ० । व्रतभङ्गभेदादतीचाराणां स. म्यगवबोधे, ध० ४ अधि० ।
संप्रति [तकर्माणि] द्वितीयमेदं व्यायिष्या
सुर्गापोरामाद
भंग भययारे, बयाण सम्म बियाणे || ३५ ॥ व्रतानामव्रताऽऽदीनामिदेव गाथायें मेदातिचारप्रस्तावे वक्ष्यमाणस्वरूपाणां भङ्गकानू द्विविधत्रिविधेत्यादीनने कपकारान ( सम्मं ति ) सम्यक् समयोक्तेन विधिना विजाना
पाण
त्यवबुध्यते (३५) ध०र० ३५ गाथा । (भङ्गसङ्ख्याप्रदनमनुपयुवा प्रम्यते )
विषयसूची -
(१) सम्युत्पत्तिकं ज्ञानम् । (२) ज्ञानस्य पञ्चविधत्वम (३) ज्ञानभेदकारणानि ।
(४)
दो मतिभ्रतोपन्यासे कारणनिरूपणानन्तरं मति श्रुतानन्तरमवत्समनन्तरं मनःपर्यायानस्यो पन्यास कारणनिरूपणं केवलहानस्य सर्वोपरि निर्दे शे कारणं च ।
(५) प्रत्यकपरोक्षत्वाभ्यां ज्ञानस्य वैविध्यं प्रकेवलमोकेवलज्ञानभेदेन प्रत्यत्तज्ञानस्य द्वैविध्यप्रदर्शनम् । (६) अवधिमन:पर्ययज्ञानत्वेन केवलज्ञानस्य द्वैविध्यं निरूप्याऽऽभिनिबोधिक श्रुतज्ञानभेदेन परोक्षज्ञानस्य द्वैविध्यप्रदर्शनम् ।
(७)
स्वाम्यादिभेदाद् मतिश्रुतभेदः ।
(D) प्रकारान्तरेणापि मनितो कृष्ण भेदप्ररूपणा । (९) आचार्यनेदेन मतिननेदार्थे शङ्कननिराकरणे (१०) तदनन्तरं विशेषदूषणानिसिया पुनरपि मतान्तरो पन्यासः ।
(११) कराऽऽदिनेश मते कारणमेव न भवति किन्तु स्पेतिशोद्घाटनम |
(१२) श्रुतानन्तरमवधिज्ञानस्य विवेकः । (१३) वस्तुतो ज्ञानस्य वैविष्यमेवेतिनिरूपणम् । (१४) न ज्ञानमारमध्यतिरेकेण गुणाः ।
(१५) ज्ञानामिस्वीकारे बन्धमोकाप्रायपरामर्शः । (१६) बोधार्थ प्रमाणं साकारों या बोधः प्रमाणमित्यच वैज्ञाधिकमतविचारः ।
(१७) जैमिनी स्वीकृत प्रमाणत्रण निराकरणम् । (१८) प्रमाणमभिसंवादिज्ञानमिति सोगनिर्मि
||
(१६) श्रव्यभिचाराऽऽदिविशेषणविशिष्टाऽथपलब्धिजनिका सामग्री प्रमाणमितिनेयायिकमप्युदासः । (२०) अनुव्यवसायप्रकाश्यं ज्ञानमित्यत्र नैयायिकममुद्धा ट्य पर्यालोचना ।
(२१) ज्ञानस्य स्वप्रकाशकत्वे प्रदीपादिदृष्टान्तमुपन्यस्य पदार्थपरिशोधनम् ।
(२२) नित्यपरो कानपादिनां जानाम्यात्मसमवायिका नान्तरवेद्यज्ञानवादिनां योगानां च मतस्व विकुट्टनम् । (२३) ज्ञानिनोऽज्ञानिनश्च निरूपणम् । (२४) तत्र नैरविकजीवानधिकृत्य प्रदर्शनम् । (Ru) finger: feræqdan i (२६) तान्येव गतिद्वारमचिन्तनम् । (२७) इन्द्रियद्वारमुपन्यस्यनिरुपण । ( २८ ) कायद्वारमुदूजाव्य प्ररूपणम् । (२५) द्वारमुदी प्रदर्शनम्। (३०) पर्यासद्वारे सत्प्रतिपादनम् । (३१) भवस्थद्वारतोऽपि तन्निर्देशः । (३२) द्वारे म्यानिविचारा
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(१९७४) णाण अनिधानराजेन्डः।
णाणकिरियाणय (३३) संझिद्वारे तेषां निरूपणम् ।
यथोक्तातीतमनोगतभावान् जानातीति न कश्चिद विरोध (३४) लधिद्वारमधिकृत्य तत्परामर्शः।
शति । १५० प्र० । सेम०२ उल्ला। (३५) उपयोगद्वारमुपन्यस्य तथुपदर्शनम् ।
णाणंतराय-कानान्तराय-पुं०।६ ताभुतस्य तद्ग्रहणाऽऽदौ (३६) योगद्वारे सयोग्ययोगिनां तविमर्शः। (३७) वेश्याद्वारे तथैव ससेश्यालेश्यानाम ।
विने, भ०८०६ उ.।। (३८) कायद्वारे सकायिकाकायिकानाम् ।
णाणकप्प-छानकरप-पुं० । भुतकानविषयके फरो, पं०भा०। (३६) वेदद्वारे सवेदकावेदकानाम ।
एत्तो उपाणकप्पं, वोच्छामि अहाणपुवीए । (४०) आहारकद्वारे माहारकानाहारकाणाम् ।
मुत्तुद्देसे वायरण-पमिच्छ पुच्छपरियअणुपेहा ॥ (४१) तत्वसंवेदनं ज्ञानमिति चिन्तनम् ।
प्रायरियनवज्जाया, अह होति तु मुत्तकप्पविही । (४२) प्रज्ञानं सम्यग् ज्ञानादन्यदू, ज्ञानं तु भगववचनम् । (४३) तत्रज्ञानयोजना।
प्रायारमादि काउं, सुयं तु जा होति दिट्टिवादो तु ।। (४४) त्रयाणां श्रुताऽऽदिशानानां स्वल्पविभागः ।
अंगाणंगपविडं, कालियमुकालियं वा वि । (४५) तत्र ध्रुतमयज्ञानस्य लकणम।
तं पुण सव्वं पि भवे, संवादसमुट्टितं च णिज्जूदं ।। (४६) चिन्तामयज्ञानस्य लकणम।
पत्तेयबुधनासिऍ, अह व समत्ती य होजाहि । (४७) नावनाझानलक्षणम्। (४८) भविकपरभविकज्ञानविमर्शः।
पं० भा० । पं० चू० । (४६) छनस्थजीवानधिकृत्य ज्ञानाऽऽदिपरामर्शः।
(श्रुतकल्पाऽऽदीनां व्यास्था स्वस्वखाने) णात-ज्ञात-न० । शायतेऽस्मिन् अति दाटन्तिकोऽर्थ इति
णाणकसायसील-झानकषायकुशील-पुं० । कानमाश्रित्यकझातम् । दृष्टान्ते, स्था।
पायकुशीले, भ• २५ ०० ६ उ०। ज्ञायतेऽस्मिन् सति दान्तिकोऽर्थ ति प्रधिकरणे क्तप्रणाणकिरियाणय-कानक्रियानय-पुं० । कानक्रियाद्वयं मोतहेत्ययोपादानादू कातं दृष्टान्ता-साधनसद्भावे साध्यस्या- तुरिति सिद्धान्तम्यवसिते नये, ( रत्ना०) किरियाणय' ऽवश्यंभावः, साध्याभावे वा साधनस्यावश्यमजाव इत्युपद- शब्दे तृतीयजागे ५५४ पृष्ठे क्रियाप्राधान्यमुक्तम) ('णाणणय' शेनलकणः। यदाह-"साध्येनानुगमो देतोः, साध्याभावेचना- शब्दे कानप्राधान्यं वदयते) स्तिता । ख्याप्यते यः स दृष्टान्तः, स साधम्यतरो द्विधा ॥१॥"
मत्र समुज्यवादी प्राह-ततः सम्यग्कानं सम्थक क्रियासनीचीइति । तत्र साधम्र्ये दृष्टान्तः-अग्निरत्र, धूमात् , यथा मदानस
नमेव फलसिद्धिनिबन्धनमित्यन्युपगन्तव्यम, न तु कानैकान्तः इति । वैधय॑रष्टान्तस्तु-अन्यजावे धमोन नवति, यथा जना- कान्तः। क्रियैकान्तोऽपि वान्त एव । “यतः खीजक्ष्यभोगशो, न ऽऽशय इति । अथवा-पाख्यानकरूपं जातं, तव चरितकल्पि
कानात् मुखितो भवत् ।" इति तु न युक्तम् । यतः सतन्नेदाद द्विधा-तत्र चरितं यथा-निदान दुःबाय ब्रह्मदत्त- म्यकानकारणैकान्तवादिनामयमुपालम्भो,न पुनरस्माकं,सम्ब. स्येव । कल्पितं यथा-प्रमादवतामनित्यं यौवनाऽऽदीनीति ।।
गजानक्रिययोरुभयोरपि परस्परापेक्षयोः कारणत्वस्वीकारा. निदर्शनीयं यथा-पापमुपत्रेण किसलयानां देशितम् ।
त् । न च नितम्बिनीमोदकाऽऽदिगोचरायां प्रवृत्तौ तद्विज्ञानं सतथादि
बंपा नास्त्येव, यतः-क्रियाया एव तत्कारणता कल्प्येत । तो"जह तुम्भे तह अम्हे, तुम्भे विव होइ हा! जहा अम्हे । नरविकानसनाथैव तत्र प्रवृत्तिः प्रीतिपरम्परोत्पादनप्रत्यला%B मप्पा हे पमंतं, पंमुयपत्तं किसलयाणं ॥१॥" इति। अन्यथा-उन्मत्तमूविताऽऽदेरपि प्रौढप्रेमपरायणप्रणयिनीनिवि. अथवा-उपमानमात्रं ज्ञातम्-सुकुमारः करः किसलय
माउलेषक्रियाऽपि तमुत्पादाब किं न स्यात् ? । अचासो मिवेत्यादिवत् । अथवा- ज्ञातमुपपत्तिमात्रं ज्ञानहेतुत्वात,
क्रियैव तवतो न भवति, सैव हि क्रिया ताविकी, या कम्मात् !, बवाः कीवम्ते, यस्मात् मुधा न लज्यन्ते, इत्यादि।
स्वकीयका व्यजिचारिणी; हन्त ! तहिं तदेव तात्विकं ज्ञानं वदित्यवमनेकधाऽपि साध्यप्रत्यायनरूपं ज्ञातमुपाधिनेदात्
यत् स्वकीयका व्यभिचारीति कथं "स्त्रीभयनोगशः" चतुर्विधं दर्शवति । स्था०४ ठा.३० । “चउविदेणाणे
इत्युपालम्भः शोनेत ? । ततः कार्यमर्जयन्ती यथा निश्चयनयेन पद्यते । तं जहा-माहरणे बाहरणतसे,आहारणतहोसे, उव
क्रिया क्रियोच्यते,तथा ज्ञानमपि इति कचिद् व्यभिचाराभावाद् बनासोवणए।" खा०४ ठा०३ उ०(प्राहरणाऽऽदीनां व्याख्या |
द्वयमेवैतत् फलोत्पत्तिकारणमनुगुणमिति । रत्ना०७ परि। स्वस्वस्थाने) मनुजकेचे व्यवलितानां मनोमात्रग्राहका ऋजुमतय
अत्र यशोविजयोपाध्यायकृतो चेदान्तिभङ्गचा समुच्चयवादः
अत्र यशोविजयापाध्याय इति कल्पसूत्रावचूर्ध्यादौ,तथा प्रज्ञापनावृत्तौ मनःपर्यायातम्, भत्र ज्ञानकर्मसमुच्चयवादे स्वपरसमयवि. इदं चारुतृतीयद्वीपद्विसमुशान्तर्बतिसंधिमनोगतरूव्यावसम्ब
चारः कश्चिद् विख्यतेनमिति व्यास्थानानुसारेण वर्तमानानामेवं संझिनां मनोगतपर्या. क्रियानयः क्रिया व्रते, ज्ञानं ज्ञाननयः पुनः । यावनासो जायत इति। तथा च सति यदुक्तं प्रज्ञापनाटीकायाम्मनःपर्यायकानमपि पव्योपमासंख्येयभागमतीतं जानातीति कथं
मोक्षस्य कारणं तत्र, जूयस्यो युक्तयो द्वयोः ॥ १८ ॥ संगच्छते, रति प्रश्ने उत्तरम्-वर्तिपदं मनुजकेत्राधिककेत्रव.
तत्र मुमककमध्यापारतन्वं तत्वज्ञानवृत्ति,न वा ?इति विप्रतिपतिसक्रिमनागतच्यावबोधनिषेधपरं, न तु वर्तमानसंबिमनोग
तिविधिकोटिरुदयनाचार्याणाम् निषेधकोटिर्भास्करीयाणाम । तव्यावबोधनियमपरम, वेनावधिज्ञानिवन्मनःपर्यायकान्यपि *"क्रियेव फलदा पुंसां,नशानं फलदं मतम्"। ति पूर्वाधम्।
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(१९९५) पाणकिरियाणय भनिधानराजेन्दः ।
णाणकिरियाणय तत्र जास्करीयाणामयमाशयः-तीर्थविशेषनानमहादानयमनि- न तु वाक्यान्तरावधृतकारणताककर्मव्युदासपरम । समुच्चये. यमादिकर्मणां निःश्रेयसकारणत्वं तावच्चन्दबलादेवावग
उन्यान्यपि भूयांसि वचनानि सन्ति । तथा च गीतावचनमम्यते। तत्वज्ञामव्यापारकत्वं तु तेषां निःश्रेयसे जनयितब्येन ता.
"स्वे स्वे कर्मण्यभिरतः, संसिद्धि लभते नरः । स्वकर्मणा बच्चन्द एव बोधयति, तत्र तस्यौदासीन्यात् । न च साकात
तमभ्यर्पा, सिकि विन्दति मानवः"॥१॥ विष्णुपुराणेऽप्युक्त. साधनताव्याप्तेः साधनताप्रतीतेः परम्पराघटकव्यापारमाविष
म्-" तस्मात् तत्प्राप्तये यत्नः, कर्तव्यः पएिकतर्नरैः । तत्प्राप्तियीकृत्य न घटत इत्यपूर्ववाच्यतान्यायेन शब्द एव वस्तुतः
देतुर्विज्ञानं, कर्म चोक्त महामते !" ॥१॥ दारीत:-"-भा सरवज्ञानब्यापारकता बोधयितुं प्रगल्भते इति शङ्कापदंहदि
ज्यामपि पक्षाभ्यां, यथा ने पतिणां गतिः । तथैवानक. निधेयं, सामान्यशब्दोऽभ्यतमविशेषबाधे तं त्यजति, न तु
मज्यां प्राप्यते ब्रह्म शाश्वतम॥१॥" श्रुतिश्व-" सत्येन विशेषान्तरमुपादिसितमपि विशिष्य बोधयतीति स्वजावादू
लभ्यः तपसा होष प्रात्मा सम्बग्ज्ञानेन ब्रह्मचर्येण च " रष्टान्तस्यैवासंप्रतिपत्तेः । न च कर्मणामाशुतराविनाशित्वेन
इति । एतन्मलकमेव परिज्ञानाद नवे प्रमिति: "मोकव्यापारोऽवश्व स्वीकरणीयः, तत्र दृष्टेन तत्वज्ञानेनैवोपपत्ता
पको विगः प्रयाति " इत्यादि । न च काम्यनिषिद्धनैमि
त्तिकाज्यां कर्मन्यां न समुच्चयः, तयोस्त्यागात् , न नैमित्ति. बष्टकल्पनाया अन्याय्यत्वाद लाघवसहकृतानुपपत्तिरेव त.
कनित्यनैकैकशो व्यभिचारातू संकल्पनासंभवात् । नाऽपि चमानव्यापारकत्वे मानमिति वाच्यम, तस्वज्ञानस्याऽपि व्यब. हितत्वेन तत्रापि कर्मणोऽदृष्टद्वाराऽऽवश्यकत्वान्निःश्रेयसे द्वारः
यत्याधमविहितेन-"न्यायागतधनस्तरव-ज्ञाननिष्ठोऽतिथिद्वयकलपने गौरवाद निःश्रेयसे कमेणामद्वारा देतुत्वे तप
प्रियः। श्रारुकृत सत्यवादी च, गृहस्थोऽपि विमुच्यते ॥१॥"
इत्यागमेन गृहस्थस्यापि मोकश्रवणादित्युपपसिविरोधादेव न कानोत्पत्यनन्तरमपि यमनियमाऽऽद्यनुष्ठानं स्यादिति चेत,स्या.
समुच्चय इति वाच्यमा यत्राऽऽश्रमे यानि मोकहेतुतया वि. देवा तदानीमपि ममकाया अधिकारस्याकतेः । न च तरव
हितानि, तैरेव तदाश्रमे तत्वज्ञानस्य समुच्चयोपपत्तेः । न च ज्ञानत्वेनैव मोक्तजनकत्वात् प्राथमिकतावानादेष मोक्को
कर्मणां परस्परव्य निचारान्निःश्रेयसे च स्वर्गवद् वैचित्र्याभात्पत्तौ क्व कर्मानुष्ठानमिति शङ्कनीयम् ।
धान्न तत् प्रति कारणत्वमिति वाच्यम्, स्वानाविकविशेषविरहे" नित्यनैमित्तिकैरेच, कुर्वाणो दुरितक्यम् ।
ऽपि प्रतियोगिनेदेन विशेषस्य निःश्रेयसेऽप्यविरोधात् । तत्पुकानं च विमलीकुर्व-नभ्यासेन तु पाचयेत् ॥१॥
रुषीयमुमुक्षुविहितकर्मत्वेन तन्पुरुषीयविजातीयदुःसाध्वंसे हे. भन्यासात् पक्वविज्ञानः, कैवल्यं लनते नरः"।
तुत्वसंभवात् , अवश्यं चानावरूपे कार्य प्रतियोगिभेदेन इत्यादि पुराणेषु सदभ्यासश्रवणात्।
विशेषोऽभ्युपेयः, कथमन्यथा आश्रयनाशपाकयोः रूपनाश. भुतिरप्यत्र विपकबाधकतया प्रमाणमस्ति। तथाहि-"अन्धंतमः
कारणत्वमिति । न च ज्ञानस्य विदितत्वादरष्टजनकत्वेप्रविशन्ति ये विद्यामुपासते। ततोभ्यश्च ते तमो य उ विद्यायां
नारष्टस्यैव प्राधान्यम्, न च रागाऽऽद्यभावाद योगिरताः।" अस्या अर्थः अविद्या कर्म,तपासते-ज्ञानत्यागेन तत्रा.
नोऽरष्टोत्पत्यसंभवः, मुक्तिविरोध्यपूर्वपित्तावेव रागाऽऽदे: सक्ता भवन्ति येतेऽन्धतमः प्रविशन्ति,संप्तारान्न मुच्यन्ते, तेन
सहकारित्वात् ताव मोक्षफलकविश्चनुपपत्तिपरिहारादिकेवलकोपासने न जन्माऽअदिविच्छेदः ये च विद्यायां रताः,विद्या
ति वाच्यम् , मुक्यादितवज्ञानसाध्यतया क्वृप्तेन मिथ्यातत्वज्ञानं, तन्मात्राऽऽसक्ताः, उ इत्यव्ययं चकारार्थम् । ते भूयोऽ.
ज्ञानविध्वंसेन स्टेनोवोपपत्तावष्टकल्पनायोगात् । अन्यतिशयेन अन्धन्तमः प्रविशन्ति,नित्याकरणे प्रत्यवायस्य बहुतर
थानेषजाऽऽदिध्वपि तत्कल्पनाऽऽपत्तेः। एवं च चिहितत्वं तत्रैव वात् । ननु "मोकाश्रमश्चतुर्थो वै,यो भिक्तोः परिकीर्तितः"
व्यभिचारादिति रुष्टव्यम् । न चावघातवन्नियमारकस्पना, इत्यागमाचतुर्थाऽऽश्रमिणामेव मोकेऽधिकारातत्र च "संन्यस्य
तत्र वैतुण्यस्याऽन्यथाऽपि संजवेन सा, अत्र त मिथ्याज्ञानस्य सर्वकमाणि" इति स्मृतेः कर्ममात्रत्यागात क्व समुचया, क्य
निवृत्तः, अन्यथाऽसंवा ति विशेषात् । नन्वपि विरोधि. वाऽकरणे प्रत्यवाय इति चेत् । न । यानि कर्माणि उपनौतमात्रकर्त
गुण्यन्तरोत्पत्तेरपि मिथ्याज्ञानध्वंसः संभवति । न च मिव्यत्वेन विहितानि,तत्परित्यागस्याशास्त्रीयत्वात् संकोचे मानाभावात्, निषिकानि काम्यानि च बन्धहेतुत्वानमूलानि च
ध्याकानपद तद्वासनापर, तत्वज्ञानात् तदध्वसस्यैवाङ्गीकारात,
तस्य चान्यथाऽसंभव एवेति वाच्यम, अचिकित्स्यरोगाऽऽदिना धनत्यागादेव त्यज्यन्त इत्येतावत एव संन्यासपदार्थत्वात् ।
तस्याऽपि संभवात् । न चेतरवासनानाशेऽपि न ततः संसार. तथा च गीतावचनम्
वासनाया अनाश शति वाच्यम्, सामान्यावच्छेदेन पाकिकरा"काम्यानां कर्मणां न्यासं, संन्यासं कवयो विपुः।"
सेरेव नियमम्लत्वात् । अन्यथाऽपूर्वाय व्रीहिविशेषे नख"नियतस्य तु संन्यासः, कर्मणो नोपपद्यते।
निर्भेदाप्राप्ते तत्राऽपि नियमादृष्टानुपपत्तिरिति चेत् ।न। शक्यमोहात्तस्य परित्यागः, तामसः परिकीर्तितः ॥ " इति।। परिवर्जनपातिकप्राप्तरेव नियममूलत्वात् । यया वीहीनवसाक्षात्समुचयप्रतिपादिकाऽपि श्रुतिः-" भविद्यां च हन्तीत्यत्र पके प्राप्तस्य नखनिजेदाऽऽः शक्येन परिवर्जनेनाविद्यां च यस्तद्वेदोभयं विद । अविद्यया मृत्यु तीवो वघातो नियम्यते-अवहन्तव्या एव, न नर्निभेसव्वा इति नै. विद्ययाऽमृतमश्नुते ।" अत्राविद्यां कर्म, विद्यां च तस्व. बमत्र तत्वज्ञानेनैव मिथ्याज्ञानं निवर्तयेत्,न विरोधिगुयारागाऽऽ. सानं तुल्यं चेह यो वेद प्राप्नोतीति पूर्वाार्यः । वेदेति दिना इति शक्यं प्रतिज्ञातुम् तस्यापुरुषतन्त्रत्वाताअत एव प्रो प्रयोगाद् विदृ 'साने इति धातोश्मन्दसत्वेन भास्करीयै- कितनीखवघातत्वेनेव श्रवणजन्यतस्वज्ञानत्वेन नियमारष्टहेतुदर्शितत्वात् । “समेव विदित्वा ऽतिमृत्युमेति नान्यः पन्था स्वधाव्यमिति निरस्तम, प्रोक्षणा प्रधानाङ्गत्वेन प्रधानापु. विद्यतेऽयनाय ।" ति वाक्यं त्वेवकारस्य विदित्वा श्त्यन- फलकारष्टजनकत्वात् । तत्र तयोक्तिसंभवेऽप्यत्र प्रधानस्यैव न्तरं योजनात तस्वज्ञानस्याप्यपवर्गसामग्रीनिवेशननियमपर, फलवेन तथा वक्तुमशक्यत्वाता किश-पत्र विजातीय.
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(१९७६) णाणकिरियाणय अभिधानराजेन्सः ।
णाणकिरियाणय तत्वज्ञानत्वेनेव रएघारा मुक्तिहेतुत्वादन नियमारष्टकल्पना।। वप्रतियोगित्वरूपतदनुकूलताबोधने एव तात्पयोत् अत्यन्तर तत्र वैजायेनैव हेतुत्वे तदवच्छिन्ने प्रोकणहेतुत्वोक्तो कण्ड- सिद्धेऽन्यथासिकत्वे तदन्यथासिद्धताया बोधयितुमशक्यत्वाने प्रोकणवाधाऽऽपत्तेःन चावहन्तव्यप्रोक्षणत्वेनाप्यरष्टदेतुत्वात् त्तावतैव श्रुतेः कर्मप्रवृत्तिपरतानिर्वाहादित्याहुः । तत्राऽपि नियमारणं कल्पनीयम, रष्टार्थस्यैव नियमारष्टार्थस्य भत्र बयं वदामा-मोकस्ताबत पुरुषार्थत्वादयुःखसाधनकर्मध्वंस सिद्धान्तत्वादित्यन्यत्र बिस्तरः।।
एब,न तु दुःखावंसारपसानुत्पन्नविवेकिना तद्वंसस्याऽसा. उदयनानुसारिणस्तु-अनुत्पत्रतत्वज्ञानस्य कानार्थिनः तत्प्र
ध्यत्वात् । तत्र च ज्ञानकर्मणोईजात्येन मुमुविहितत्वादेव तिबन्धकदुरितनिवृत्तिद्वारा प्रायश्चित्तवत् पारादुपकारक हेतुत्वं तुल्यमेवेत्येकतरपकपातो न श्रेयान् । काने केवलकाकर्म, संनिपत्योपकारकं च तत्वज्ञानम, उत्पन्नतत्वज्ञानस्य त्व. नत्वरूपस्य, कर्मणि च यथास्यातचारित्रत्वरूपस्य वैजात्यस्य स्तरनन्धरष्टेः कारीरीसमाप्तिवदारब्धाग्रिमपालनं लोकसंग्रहा.
कल्पनायाः कायिकस्थले कायोपशमिकस्थले च तदनुकूलताथम्, यद्यपि सोकसंग्रहे न प्रयोजनं, सुखदुःखाभावतत्साधने
मात्रस्य द्वयोस्तुख्ययोगमत्वात् । पतेन कारणोच्छेदकतरत्वात,तथाऽप्यकरणे लोकानामनित्यत्वेन यत् शान तत्परि- मेण कार्योच्छेदाद् मुक्तिरिति ज्ञानकर्मसहकारित्वं मिथ्याशाहारार्थम, तत्तद्नुस्खयोगेन कर्मनाशार्थ वा तत् । इदमेव च
नोन्मूलने कर्मविनाशकृतस्यैव तस्य दिग्मोहाऽऽदौ देतुत्वावधाद्वारिद्वारयोः कर्मतत्वज्ञानयोः कारणत्वं,तुल्यककतया समुभयो रणाऽऽदि निरस्तम्, मिथ्याज्ञाननाशेऽपि विरोधिगुणमात्रस्य नेष्ट इत्यनेन विवक्ष्यते।यद्यपिच तीर्थविशेषस्नानाऽऽदीनां तस्व
हेतुत्वात् , मिथ्याज्ञानप्रभावासहवृत्तिमिथ्याज्ञानध्वंसे चहे. ज्ञानव्यापारकत्वं न शाब्द, तथाऽपि तीर्थविशेषस्नानाऽऽदीनित- तुताया लोकप्रमाणाविषयत्वेन ज्ञानकर्मणोयोरेव कल्पनास्वज्ञानधारकाणि,मोकजनककर्मत्वाद, यमाऽऽदिवदित्यनुमाना. चित्यात । वस्तुत आर्थसमाजसिकत्वात् तपावच्छिन्नेपि तथास्वसिकिः । न च योगत्वमुपाधिः, "कथयति भगवानि- न देतुता, किं तु सामान्यावच्छिन्नध्वंसनये कर्मत्वाधचिन्नहान्तकाले, भवभयकातरतारकं प्रबोधम्" इत्यादिपुराणात् ध्वंसे, तत्समं यावत् कर्मवयसमनियतक्षायिकसुखत्वावच्छि"कस्तारकं ब्रह्म व्याचशे " इति श्रुतेश्च काशीप्रयागाऽऽदेत- ने चेति न कस्यापि न्यूनत्वम्, पराजिमतवारस्थान पव फ. घज्ञानव्यापारकत्वसिद्धौ तत्र साध्याध्यापकत्वादित्याहुः। लाभिषेकात् । एकपूरस्कारेणान्यनिराकरणवचनं च तत्तदस्वतन्त्रास्तु-तत्वज्ञानं प्रत्यङ्गत्वपके कर्मणामपूर्वद्वारा जनकत्वं,
वाद पवेति न कर्मकारणताबोधकवचनेनुकलत्वमात्रमर्थः। ऽरितवंसकल्पनातो लघुत्वात् । वस्तुतः कर्मणां निःश्रेयसहे
कारणता शक्तपदस्यानुकूलत्वम्, लकणायां गौरवान् । अन्यथा सुत्वे तज्जन्यनिःश्रेयसजनकतया तत्वज्ञानस्य कर्मव्यापारत्वं वा- सिकिचतुष्टयराहित्यगर्जत्वेन तत्र लाघवमिति दृष्टिदाने च विच्य,तदेव तुन युक्तम्।"न कर्मणा न प्रजया धनेन । नान्यः पन्धा धिप्रत्ययमात्रार्थाऽपीष्टानुकलत्वमात्रमेव स्यादिति यागाऽऽदेरविद्यतेऽयनाय। नास्त्यकृतः कृतेन"। "कर्मणा बध्यते जन्तु-वि- प्यपूर्वेणान्यथासिकिः कर्मणाम्, न तस्वज्ञाने। न च तद्वारा मुक्ती घया च विमुच्यते । तस्मात् कर्म न कुर्वन्ति, यतयः पारद- हेतुत्वमित्युक्तम् । तदपि न युक्तम् । प्रतिबन्धकत्वस्य विशिशिनः॥१॥" इत्यादिश्रुतिस्मृतिशतेन निषेधातू, कर्मजन्यत्वाभा. ध्य विश्रामेण तदलावकार्यमानेऽनुगतहेतुताया अयोगात्, प्र. चाचा तपसा कल्मषं हित्येति । अविद्यया च मुत्यु तीर्वा । तिबन्धकविशेषनिवृत्तिहेतुतायाश्च कर्मकारणताग्रहोत्तरकल्पततस्तु तं पश्यति निष्कलं ध्यायमानः, कषायपक्तिः कर्मभ्यः" नीयत्वेन तदन्यथासिघ्यनापादकत्वात् । किं च-प्रतिबन्धइत्यादिभिस्तरवकानोत्पत्तिप्रतिबन्धकरितनिवृत्यचान्यास- कनिवृत्या ऽन्यथासिद्धत्वेन कर्मणोऽदेतुत्वोक्तो तत्वज्ञानस्य खेः प्रदर्शनात् । न च "विविदिषन्ति यज्ञेन" " सर्व कर्मानित सुतरां तथात्वं स्यात् । न हि तत्पन्नकेवलझाना अपि भवोपपार्थ !, शाने परिसमाप्यते " इत्यादिभिः कर्मजन्यताऽपि ग्राहिकर्मचतुष्टयं प्रतिबन्धकमनिवर्तयित्वा सद्य पव मुक्तिमासाप्रतीयत इति वाच्यम् । सा हि नापूर्वद्वारा प्रतिबन्धकदु- दयन्तीति मुक्तिप्रतिबन्धककर्मनिवर्तकत्वेन तत्वज्ञानस्य कुतोऽ. रितानुच्छेदेऽपूर्वसहस्रस्याप्यकिञ्चित्करत्वात , तदुच्चेदेन | नान्यथासिद्धिः। अथ कर्मणो नोगनाइयत्वेन ज्ञानस्व तदनाशतज्जनने तु प्रमाणान्तरावधृतकारणाभावेन प्रतिबन्धकाभाचे. कत्वाद् नान्यथासिद्धिः न हि नोगस्तत्वज्ञानव्यापार,तथाऽभ्र. नैवान्यथासिकेः । न चैव यागाऽऽदेरप्यपूर्वेणान्यथासिद्धिः बणात् , तेन विनाऽपि कर्मण एव तदुपपत्तेश्च । न च वासुदेस्यात, तस्य यागकारणताग्रदोत्तरकल्प्यत्वनोपजीव्या- वाऽऽदीनां कायव्यूहश्रवणात तत्वज्ञानेन कायव्यूहमुत्पाद्य भो. परिपन्थित्वात इह तु प्रतिवन्धकाभावस्य कार्यमात्रकारण- गवारा कर्मकयमित्यपि साम्प्रतम्,तपःप्रभावादेव तत्वज्ञानस्योतायाः प्रागेवावधारणमिति शेषात । अत एव मङ्गलकारीयोः । त्पादेऽपि कायव्यूहसंभवाद् भोगजननार्थ कर्मभिरवश्यं तप्रतिबन्धकदुरितनिवृत्तिमात्रफनकत्वं, वृष्टिसमाप्ती तु स्वकार- कार्यनिष्पादनमिति न तत्र तस्वज्ञानोपयोगः, योगपचंच का. णादेवेति सिमान्तःकिच-कर्मकारणताग्रहानुपजीवनेन लो. यानां सजनककर्मस्वभावात्तपःप्रभावाद्वेति । न च "ताचदेवास्य किकान्वयव्यतिरेकावधृतमिथ्याज्ञाननिवर्तनभावसंभावितस्य चिरं यावन्न विमोकोऽथ संपत्स्यते कैवल्येन" इति श्रुतौ मोतसाधनत्वस्य "शानादेव तु कैवल्यम्, तरति शोकमात्मवित्, ताबदेवास्योत्पन्नतत्वज्ञानस्य चिरं विनम्बो यावन्नोत्पन्नकब्रह्मविदाप्नोति परं, ब्रह्मविद् ब्रह्मव नवति," इत्यादिक्षातस्मृति. मणो विमोकः । 'भथ संपत्स्यते कैवल्येन' जोगेन कपयिरवेति शतेन तत्वज्ञानादिष्टतया ग्रहणात् तदेव मोक्कसाधनम् । कर्मा- शेष इति व्याख्यानाद् भोगस्य तत्त्वज्ञानव्यापारत्वं युक्तमेव । णि तु तत्रैवाम्यथासिद्धानीति युक्त, यथा च न तत्रापि व्या- न च शेषदाने मानानावः, सत्यपि ज्ञाने कर्मावस्थाने क्लप्तपारः तथोक्तमेव । अत स्वार्थावबोधपर्यन्तताऽध्ययनविधेः, न सामान्यभोगस्यैव नाशकत्वेनाऽऽकेपादिति वाच्यम्, तपसाने तु तेन त्वाद्यनुष्ठानेन स्वर्गाऽऽदिफलकत्वमिति संप्रदायः । सति तत्वज्ञानदशायां न मोका, किं तु तदपि प्रकण (?) इत्यन च तत्वज्ञानस्व कर्मणां निःश्रेयसप्रागभावव्याप्यप्रागना- थेनाप्युपपत्तेरिति चेत् । मैवम। कर्मणो भोगनाश्यत्वेऽपि ज्ञानस्य *नवीनानाम्।
कर्मनाशकत्वम्, नोगस्य तत्वज्ञानाब्यापारत्वात् । न च तस्वका
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(१ ) याणकिरियाणय अभिधानराजेन्डः।
णाणकिरियाणय नं विनापि भोगेन कर्मनाशे व्यभिचारः, कर्मप्रागभावासहवृ। मुक्तिहेतुत्वात्। पुात् पुजोत्पत्तिपके बीजपाथ पवनाऽऽदी. तिकर्मनाचे युगपद्भोगे वाच्यव्यभिचाराभावादिति मणिकृतै- नामेकत्रोपादानत्वेन, अन्यत्र च निमित्तत्वेन हेतुत्वमिति चाघोक्तत्वाद।
रित्रकणस्थ मुक्तावुपादानत्वेन देतत्वाद्विशेष इत्यप्यसाम्प्रतम्,
ज्ञानाऽऽदिसंबलितमुक्तिको संवलितक्षणस्यैव देतुत्वात् । तअस्मत्सिकान्तेऽपि नाशार्थिवृत्तौ नाश्यनिश्चयविधव के
च्चाऽत द्यावृस्था, शक्तिविशेषाऽऽदिना वेत्यन्यदेत । कथं तर्हिबल ज्ञानस्य कर्मदेतुत्वमनपायम् । तदुक्तं नियुक्तौ समुदाता.
"सदुज्जुसुमाणं पुण, निव्वाणं संजमो चेव ।" इति नियुक्तिधिकारेण-" ऊणवेचणिज्जं अइबहुयं आउयं च थोत्रम्गं
वचनं श्रद्धानम, तेषां कुर्वपलकणावगादिस्वात, तत्र काम्तपति जिणा समुग्घायं । " अत्र क्वाप्रत्ययवलादेव निय
स्यानुपदमेव निरस्तत्वादिति शङ्कनीयम; एकैकस्य शतभेतवर्णोपर्यस्यार्थासानन्वसिकत्वस्य प्रतीते कारणत्वलामे
इत्वेनाक्षेपककारणत्वरूपस्थूलापेक्तयैव तदेकान्ताभिधानोअन्यदप्याभोगवीर्यस्यैव केवलिनः कर्मवयदेतुत्वादानोगान्धि
पपत्तेः। अत एव शैलेश्यन्त्यक्वणनाविधर्महेतुत्वमिति वि. तवीर्यत्वेनैव वीर्याम्बिताऽऽभोगत्वेनापि हेतुत्वादुक्तार्थसिभिः ।
शुदैवभूताऽभिप्रायेणैवास्मानिस्तत्र तत्र समर्थितम् । ये तु मियत्पुनः “दोषपक्तिमतिकानात्, अकिश्चिदपि केषनात् । तमः
ध्यारशो मिथ्याज्ञानोन्मूलनद्वारा तस्वज्ञानमेष युक्तिहेतुरिति प्रचयनिःशेष-विशुद्धिफलमेव तत् " ॥१॥ इत्यनेन के.
मन्यन्ते, ते मिथ्याकानोन्मूलनेऽपि तत्तन्मनःप्रणिधानरूपक्रिया. चलकानम्याकिञ्चित्करत्वमुच्यते, न दोषपक्तिरूपकार्यापेक्षया,
या देतुत्वं कथं न पश्यन्ति ? | मिथ्याज्ञानवासनोन्मूलनवत्कर्मन तु पक्वानां भवोपग्रादिणां कपणरूपकार्यमप्याश्रित्य, तत्त
निरपेकं तवकानं हेतुरिति चेत्तर्हि अष्टपरिकल्पनमेतत् । दृव्यापारस्य सदा जागरूकत्वात् । यदि च स्वरूपशुरुिग्रा
मिथ्याज्ञानिवासनायाः स्मृत्येकनाश्यत्वात् तत्वज्ञानस्य तमा हकनयेम १ केवल ज्ञानस्य निर्व्यापारत्वं स्वीक्रियते, तदा य
शताया मोकेऽहएत्वाद, अष्टकल्पने चाऽगमानुसारेणाज्ञानथाण्यातचारित्राऽऽत्मकक्रियाया अपि तथात्वमेवान्युपगन्तुं यु.
बत्कर्मणोऽपि मलयद्वारा मुक्तिदेतुत्वकल्पनमेव ज्यायः। तथा क्तम, समुद्रातादिना कर्मकप गव्यापारस्य योगविशेषेणैष वक्तुं
चाभ्यधात् सूरोऽपि बासिष्ठे- “ तन्दुलस्य यथा चर्म, यथा शक्यत्वात् । मुक्तिबन्धदेतुविवेकेन फारुिग्राहकनयेन तत्र
तानस्य कालिका | नश्यति क्रियया पुत्र., पुरुषस्य तया मलचारित्रहेतुत्वाभ्युपगम्यमानो ज्ञानहेतुतामपि न ब्याहन्ति । २।
म्"॥१॥श्त्यादि । किं च-विहितत्वेन पुण्यपापक्कयाम्यतरहेतु. अनन्तकारणग्राहकनयेन तत्र चारित्रमेव देतुरिति चेत् ।न। उत्प
स्वव्याप्त तत्वज्ञानस्य कर्मतुल्यत्वम् । न च किश्चित् सादावेव तावनन्तरत्वस्य यथाऽऽत्यातचारित्रापेकया केवलज्ञान एव सं.
व्यभिचारः, मुमुकुविदितत्वेन व्याप्ती व्यभिचाराभावादिति भवादू,व्यापारानन्तर्यस्य च कल्प्यमानस्योनयत्रापि विनिगमा
पुष्टिशुरुधनुबन्धद्वारा ज्ञानकर्मणोर्मुक्ती तुव्यवदेव देततया त।३। एतेनाऽऽकेपककारणग्राहकनयेन-"जम्हा दंसनाणा"
समुच्चयपक पवानाविल इति सिरूम् । (नयो०) इत्यादिवचनाचारित्रमेघ मुक्तिदेतुरित्यपि निरस्तम् । आक्षेपकत्वं हि स्वेतरसकलकारणसमवधाननियतसमवधानकत्वं, तच्च
हानमेव शिवस्यावा, मिथ्यासंस्कारनाशनात् । यथाक्यात स्व केवलकानेऽपीत्यधिशेषात वयोपशमद
क्रियामात्रं त्वभव्याना-मपि नो दुर्लभं भवेत् ॥१३॥ शायामप्यपुनर्बन्धकाऽऽविचारित्रव्यावृत्तजातिविशेषवतश्चारि- तन्पुलस्य यथा चमें, यथा ताम्रस्य कालिका । अस्येव विषयप्रतिभासाऽऽत्मपरिणामझानोर्वनाविनस्तस्वका
नश्यति क्रियया पुत्र!, पुरुषस्य तथा मलम् ॥ १३३॥ नस्थापकत्वाविशेषात् । ४। मुस्यैकशेषनयेन चारित्रमेवोस्कृष्यत इति चेत् । न । तत्र मुख्यत्वस्यैव चिनिगन्तुप्रश
वरश्च * तपस्वी च, शूरश्चाप्यकृतव्रणः । क्यत्वात् । ५। पुमर्थप्राहकनयेन क्रियायामेव मुख्यत्वं विनिग
मद्यपा स्त्री सती चेति, राजन!न श्रद्दधाम्यहम् ॥१३॥ भ्यत इति चेत् ।न। परमनावग्राहकमयेन ज्ञान एव तहिनि- ज्ञानवान शीलहीनच, त्यागवान् धनसंग्रही। गमनायाः सुवचत्वात् । ६।"जं सम्मति पासदा, तं मोणं ति गुणवान जाग्यहीनश्च, राजन् ! न श्रद्दधाम्यहम् ॥१३॥ पासहा” इत्यादिवचनात् कारकसम्यक्त्वशरीरनिर्वाहक
इति युक्तिवशात् पाहु-रुभयोस्तुल्यकक्षताम् । स्वनयेन चारित्रमेवोत्कृष्यत इति चेत् । न । "जं अन्नाणी क. म्म खवेश्" इत्यादिवचनात् । सम्य क्रियाशरीरनिर्वाहकत्व.
मन्त्रेऽप्याहानं देवाऽऽदः, क्रियायुग ज्ञानमिष्टकृत् ॥१३६॥ नयेन चारित्रमेवोत्कृप्यत इति चेत् । न । “जे अन्नाणी क- झानं तु गुणस्थाने, क्षायोपशमिकं जवेत् । म्म सवेद" इत्यादिवचनात् सम्यक क्रियाशरीरनिर्वाहकत्व. अपेक्षते फले षष्ठ-गुणस्थानजसंयमम् ॥ १३७॥ नयेन हानेऽप्युत्कर्षस्य वक्तुं शक्यत्वात् ।। एतेन 'णिच्यण- प्रायः संभवतः सर्वगतिषु ज्ञानदर्शने । यस्स चरण-स्सुवघाण नाणदंसणवहो वि।" इत्यादिवचमा
तत्पमादो न कर्तव्यो, ज्ञाने चारित्रवर्जिते ॥ १३८॥ त् काननाशव्याप्यनाशप्रतियोगित्वग्राहकशुरूनयेन ज्ञानातिशयस्थाप्यदुर्वचत्वात् । ८ । व्यापारप्राधान्यप्राहकक्रियानये.
सायिक केवलज्ञान-मपि मुक्तिं ददाति न । नचारित्रोत्कर्ष इत्युक्तावपि दर्शनप्रधानग्राहकक्षामनयेन का
तावनाविवेद याव-च्छेलेश्यां शुदसंयमः॥ १३ ॥ नोत्कर्षः सुवच एव ।।रष्टान्ती चात्र पनवन्धौ । नयार- व्यवहारे तपोझान-संयमा मुक्तिहतकः । न्यतरस्याऽकिश्चित्करत्वेन संयोगपक एवं श्रेयान् । न च कु. एका शब्द सूत्रेषु, संयमो मोक्षकारणम् ॥ १४ ॥ चंपत्वनये शलेश्यन्त्यक्षणनावे चारित्रमुक्तम, पवं मुक्तिरूपफखोपधायकत्वेन विशिष्यत इत्यपि शङ्कनीयम्, कुर्वपक्षण
संग्रहस्तु नयः प्राऽऽह, जीवो मुक्तः सदा शिवः। स्य सहकारिसमवधाननियतत्वेन तत्कालीनकानकणस्यापि वरिश्चति पागन्तरम् ।
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(१५) याणकिरियाणय अभिधानराजेन्द्रः ।
णायाग अनवाप्तिजमात कए-स्वर्णन्यायात क्रिया पुनः।। १४१॥ (ज्ञानं शीलं श्रुतं वा श्रेय इत्यन्ययधिकैः सह 'अराणअनन्तमर्जितं ज्ञानं, त्यक्ताश्चानन्तविजमाः।
उस्थिय ' शब्दे प्रथमभागे ४५८ पृष्ठे चिन्तितम ) आह चनचित्रं कलयाऽप्यात्मा,हीनोऽतूदधिकोऽपि वा ॥१४॥
ज्ञानक्रिययोः प्रत्येक मुक्तेरवापिका शक्तिरसती कथं समुदाये.
ऽपि भवति ? । न हि यद्येषु प्रत्येकं नास्ति तत्तेषां समुदा. धावन्तोऽपि नयाः सर्वे, स्यु वे कृतविश्रमाः। येऽपि नवति, यथा प्रत्येकमसत्समुदितास्वपि सिकतासु तैलं, चारित्रगुणलीनः स्या-दिति सर्वनयाऽऽश्रितः ॥१४॥ प्रत्येकमसती ज्ञानक्रिययोर्मुक्तेरवापिका शक्तिः । तदुक्तममुनिपुणमतिगम्यं मन्दधीमुष्प्रवेश,
" पत्तेयमनावाओ, निव्वाण समुदियासु विण जुतं । णाणप्रवचनवचनं न काऽपि हीनं नयौघैः।
किरियासु वोत्तुं, सिकयासमुदायतिवं व ॥१॥" उच्यते
स्यादेवं यदि सर्वथा प्रत्येक तयोर्मुक्तयनुपकारितोच्येत, यदा गुरुचरणकृपातो योजयंस्तान् पदे यः,
तु तयोः प्रत्येक देशोपकारिका, समुदाये तु संपूणी हेतुतीच्यपरिणमयति शिष्यांस्तं वृणीते यशःश्रीः॥१५॥ ते, तदा न कश्चिद्दोषः । आह च-"वीसुण सम्वह किचय, गच्छे श्रीविजयाऽऽदिदेवसुगुरोः स्वच्छे गुणानां गणैः, सिकयातेलं व साहणानाबो देसोवकारिया जा, सा समप्रौढि पौढिमधाम्नि जीतविजयप्राज्ञाः परामैयरुः।
वायम्मि संपुरणा ॥१॥"अतः स्थितमेतद् ज्ञान किये समुतत्सातीर्थ्यभृतां नयाऽऽदिविजयप्राशोत्तमानां शिशुः,
दिते एव मुक्तिकारणं, न तु प्रत्येकमिति तत्वम् ।
तथा च पूज्या:तवं किञ्चिदिदं यशोविजय'इत्याख्याभृदाख्यातवान् १४५ णाणाहीण सवं, णाणणो नणद किं व किरियाए ? । नयो।
किरियार करणनओ,तभयगाहो य सम्मत्तो३५६१"(विशे०) नाणं किरियारहिय, किरियामित्तं च दो वि पगंता। |
"कचित्सौच्या शल्या, क्वचिदधिकृतप्राकृतभुवा,
क्वचिच्चार्थापत्या, क्वचिदपि समारोपविधिना । असमत्था दाएन, जम्ममरणमुक्ख मा जाइ ।। ६७ ॥
क्वचिच्चाभ्याहारात, क्वचिदविकलप्राक्क्रमबलाज्ञायते यथाबद् जीवाजीबाऽऽदितस्वमनेनेति ज्ञानम,क्रियत इति दियं व्याख्या झेया, क्वचिदपि तथाऽऽम्नायवसतः॥१॥" क्रिया यथोक्तानुष्ठानम्, तया रहितं, जन्ममरणःखेज्यो मा भै- उत्त०१० । दर्श । श्रा० क० । अष्ट । पीरिति दर्शयितुम,दातुं वाऽसमर्धाम् । न हि ज्ञानमात्रेणैव पुरुषो
. प्राचार्यः प्राऽऽहनयेभ्यो मुच्यते, क्रियारहितत्वाद् , दृष्टप्रदीपनकप्रपलायमानप
सव्वोसि पिनयाणं, बहुविहवत्तव्ययं निसामित्ता। इवत् । क्रियामात्र वा ज्ञानरहितं न भयेभ्यो मा नैषीरिति दर्शयितुं दातु वा समर्थम । न हि क्रियामांत्रात् पुरुषो भयेभ्यो
तं सवनयविसुद्धं, जं चरणगुणहितो साहू ।। मुत्यते, ज्ञानविकलस्वात् , प्रदीपनकमयप्रपलायमानान्ध
सर्वेषामपि मूलनयानाम्, अपिशब्दात्त दानामाप नयानां . पत् । तथा चाऽऽगम:-" हयं नाणं कियाहीणं, हया अ
ग्यास्तिकायाऽऽदीनाम्-बहुविधवक्तव्यतां सामान्यमेष, विशेषा माणो किया। पासंतो पंगुबो दलो, धावमाणो अ अंधश्रो "
एव,उभयमेव वा परस्परनिरपेक्षमित्यादिरूपाम्,अथवा-नामा॥३६॥ (महा.) ('मोक्ख' शब्दे चैतद् विवेचंयिष्यते) उन्न
दिनयानां मध्ये को नयः कं साधुमिच्चतीत्यादिरूपां, निशम्य श्रुयसद्भावस्तु तेच्यो मा जैषीरिति दर्शयितुं समर्थः । तथा
स्वा, तत्सर्वनयविशुद्धं सर्वनयसम्मतं वचनं,यच्चरणगुणस्थि. हि-सम्यगङ्गानक्रियावान् भयेज्यो मुच्यते, उन्जयसंयोगत्वात,
तश्चारित्रज्ञानस्थितः साधुर्यस्मात् सर्वेऽपि नया भावनिक्षेप्रदीपनकनयान्धस्कन्धाऽऽरूढपगुवत् । (सम्म ३ काएक)
पमिध्वन्तीति । वृ. ६ उ०। तथा चाऽऽगमः-"दोहि ठाणेदि
संपन्ने अणगारे अणाश्य अणवदग्गं दीहमद्धं वा चाउरंतसंउक्तं च
सारकंतारं बीईवपज्जा । तं जहा-विउजाए चेव, चरणे चेव।" संजोगमिद्धीऍ उ गोयमा ! फलं,
स्था० र ठा० । दश । व्य०। न हु एगचक्केण रहो पया ।
पाणकुसीस-ज्ञानकुशील-पुं० । गुरुकहानाऽऽवरणोदयेनाअंधो य पंगू य वणे समिच्चा,
दनिशं प्रधर्षयति कुत्सितशीले, महा०३ भ०। ते संपउत्ता नगरं पविट्ठा ॥ ३७॥
णाणग-नाणक-न । मुलायर्या, कार्षापणे, पणे च । प्रा०का। नाणं पयासयं सोहउ, तवो संजमो य गुत्तिकरो।
"केनापि कस्यचित् प्राज्य-मूल्यनाणकसंभृतः। तिए पि समाजोगे, गोयम! मोक्खो न अन्नहा ।।३।।
म्यस्तो नबलकस्तेनो-पात्तास्ते बहुमूल्यकाः" ॥१॥
श्रा०का स्वनामख्याते तीर्थभेदे, मोढेरे वायमे नाणके पल्ल्यां महा० १ अ०।
मत्तएमके श्रीमहावीरः। ती०४३ कल्प । (संजोगसिद्धी पत्यादि) तस्मात् सम्यग्ज्ञानाऽऽदित्रितयनय
पन्यासजीतविजयगणिकृतप्रश्नः-यथा प्रत्यहं प्रहादविहारे समूहान्मुक्तिः, नयसमूहविषयं च सभ्यग्ज्ञानं श्रमानं च, तद्वि
पश्चशती बीसमप्रियाणां भोगः कथितोऽस्ति, तन्नाणकं किं ग्यं सम्यग्दर्शनं,तत्पूर्व चाशेषपापक्रियानिवृत्तिकणं चारित्रं,
नामकं कथ्यते?, इति प्रश्ने, उत्तरम्--वीसलदेवाझापातितं धानोपसर्जननावेन, मुख्यवृत्त्या वा तस्त्रितयदर्शकं च वाक्य
बीसलप्रियनामकं तत्कालीन किश्चिन्नाणकविशेषं संभाव्यते, रागमो, नान्यः, एकान्तप्रतिपादकस्यासदर्थत्वेन विसंवादक
तदधुना प्रसिहं नास्ति, परं षट्त्रिंशन्मूढकम्मैसिलप्रि. या तस्य प्राधान्यानुपपत्तेः। जिनवचनस्य तु तद्विपर्ययेण दृष्ट.
यनाणकमष्टशतविंशतिसहस्राधिकद्विषष्टिसकप्रमाणं कथितवादाऽपि प्रामाण्यसंगतेः । सम्म०३ काण्ड। महा। मस्तीति। ४०४ प्रासेन०३ उल्ला।
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(१et) गाणगुण प्रन्निधानराजेन्द्रः।
गागागाय णाणगुण-ज्ञानगुण-पुं० । जीवाऽऽश्रिते का तदविनानाविनि एव भावलिङ्गान्तर्गतमिति नावना, तेन कारणेन 'र' इति नि. पर्याये ज्ञानमाहात्म्ये, आव०४ अ०।
पातः पूरणार्थः । ज्ञानमस्यास्तीति ज्ञानी, तं ज्ञानिनं प्रणमाम:
पूजयामः । इति गाथाऽर्थः ॥ ७१ ॥ पाणच्चासायणा-कानात्याशातना-स्त्री० । कानस्य ज्ञानिना
यतश्च बाह्यकरणसहितस्याप्यज्ञानिनश्चरणभाव एवोक्त:घा हीसनायाम, भ०८ श०६ उ०।
तम्हा न बकरणं, मज्पमाणं न यावि चारित्तं । पाणजोग-ज्ञानयोग-पुं०।ज्ञानमेव योगः कौशलं ब्रह्मप्राप्त्यु
नाणं मझ पमाणं, नाणे च ठियं जो रित्यं ।।७२।। पायो वा । ब्रह्मनाभोपाये निष्ठाभेदे, वाच० । अष्टः ।
तस्मान्न बाह्यकरणं पिण्डविशुरुधादिकं मम ग्माणम, न णाणट्ठया-ज्ञानार्थता-स्त्री० । शानमेवार्थो यस्य स कानार्थ
चापि चारित्रं व्रतलकणं, तहानाभावे तस्याप्यभावात् । स्तद्भावस्तत्ता । ज्ञानार्थित्वे, स्था०५ ठा०२०।
अतो ज्ञानं मम प्रमाणं, सति तस्मैिश्चरणस्याऽपि भावात, हाने णाण-ज्ञानाट्य-त्रि० । बह्वागमे, जीवा० १६ अधिक। च स्थितं यतस्तीर्थ,तस्याऽऽगमरूपत्वात् । इति गाथाऽर्थः॥७२॥ . णापति-ज्ञान-स्त्री० ।" पनू णं ते ! चोहसपुवी।" किश्च दर्शनं नावयिष्यते, "सम्यग्दर्शनशानचारित्राणि मोक्षतथा-"जं अनाणी कम्म" इत्यादिरूपायामृडौ, दश ३०।। मार्गः" इति वचनात् । तश्च दर्शनं द्विधा-अधिगमजम् नैसर्गिक
च । इदमपि ज्ञानाऽऽयत्तोदयमेव वर्तते । तथा चाऽऽहपाणणय-शाननय-पुं० । कानमेव प्रधानमैहिकाऽऽमुष्मिकफलप्राप्तिकारणं युक्तियुक्तत्वादिति सिद्धान्तब्यवस्थिते नये,
नाऊण य सम्भावं, अहिगमसम्मं पि होइ जीवस्स । भाव.६१०। सम्म।
जाइस्सरणनिसग्गु-गया विन निरागमा दिछी ॥७३॥ __ एतन्मतं यथा
ज्ञात्वा च अवगम्य च सद्भावं सतां भावः सद्भावः, तं, इह केचिज शानादेव मोक्वमास्थिषत । तथा ते युवत-सम्य- | सम्तो जीवाऽऽदयः किमधिगमाद जीवाऽऽदिपदार्थपरिच्छेगहानमेव फलसंपादनप्रत्यलं, न क्रिया, अन्यथा मिथ्याज्ञाना.
दसकणात् , सम्यक्त्वं श्रमाननवणम, अधिगमसम्यक्त्वम् , दपि क्रियायां फलोत्पादप्रसङ्गात् ।
इदमधिगमसम्यक्त्वमपि, अपिशब्दात चारित्रमपि, नवति यदुक्तम्
जीवस्य जायते आत्मन इत्यर्थः । नैसर्गिकमाथित्याद"विज्ञप्तिः फलदा पुंसां, न किया फलदा मता।
जातिस्मरणात्सकाशान्निसर्गण स्वभावेनोगता संभूता - मिथ्याज्ञानात् प्रवृत्तस्य,फलासंवाददर्शनात्॥१२६॥"(नयो०) तिस्मरणनिसर्गोता, असावपि न निरागमा नागमरहिता, तथा
दृष्टिः, दर्शनं दृपिरिति, यतः स्वयंभूरमणमत्स्याऽऽदीनामपि "श्रियः प्रसूने विपदो रुणद्धि, यशांसि दुग्धे मनिनं प्रमार्टि। जिनप्रतिमाऽऽद्याकारमत्स्यदर्शनाद् जातिमनुस्मृत्य भूतार्थीसंस्कारशाचन परं पुनीते, गुफा हि बुद्धिः कुत्रकामधेनुः ।।" सोकनपराणामेव नैसगिकं सम्यक्त्वमुपजायते, भूतार्थारत्ना०७ परि०।
लोकनं च ज्ञान, तस्मादिदमपि ज्ञानाऽयसोदयमिति कृत्वा श्व कश्चिद् ज्ञानमेव प्रधानमपवर्गवीजमिच्छाति:- शानस्य प्राधान्याद् ज्ञानिन एव कृतिकर्म कार्यमिति स्थितमयं यतः किल एवमागमः--
गाथाऽर्थः ॥७३॥ "जं अनाणी कम्म, खवे बहुश्राहिं वासकोडीहिं।
" इत्यं ज्ञानवादिनोके सत्याहाऽऽाय:तं नाणी तेहिती, नवे ऊसासमित्तेणं॥१॥"
नाणं विसए निययं, न नाणमित्तण कज्जनिष्फत्त। तथा
मग्गन्नू दिटुंतो, होइ सचिट्ठो अचिट्ठो अ॥ ७ ॥ "सूई जहा ससुत्ता,न नसई कयवरम्मि पमिमा वि। जीवो तदा ससुत्तो, न नस्सइ गो वि संसारे ॥२॥"
ज्ञान प्रक्रान्तं स्वविषये नियतं २ स्वविषयः पुनरस्य प्रकाश.
नव, यतश्चैवमतो न ज्ञानमात्रेण कार्यनिष्पत्तिः, मात्रशब्दः कितथा"नाणं गिराह नाणं, मुणे नाणेण कुणा किच्चाई।
याप्रतिषेधवाचकः। अत्रार्थे मार्गदृष्टान्तो भवति, सचएः स. भवसंसारसमुदं, नाणी नाणट्रिओ तर ॥३॥"
व्यापार, अचेष्टइच अविद्यमानचेष्टश्च । पतयुक्तं भवति-यथा सम्माद् ज्ञानमेव प्रधानमपवगप्राप्तिकारणमतो शानिन एव
कश्चित् पाटलिपुत्रादिमार्गशो जिगमिषुश्चेष्टदेशप्राप्तिकणं कृतिकर्म कार्यम् । अथाऽनन्तरगाथायामेव व्यन्नावसमा
कार्य गमनचेष्टोद्यत एवं साधयति, न चेष्टाविका भूय. योगे भ्रमण सक्तः । तस्य च कृतिकर्म कार्यमित्युक्तम् ।।
सापि कालेन तत्प्रनाबादेवैवं ज्ञानी शिवमार्गमविपरीतम"चरणं च नावो वर्तते" इत्युक्ते सत्याह
वगच्छन्नपि संयमक्रियोद्यत एव तत्प्राप्तिलक्षणं कार्य साधकाम वरणं भावो, तं पुण नाणसहियो समाणे *।
यति, नानुद्यतो ज्ञानप्रनाबादेव, तस्मादवं संयमरहितेन
ज्ञानेन । इति गाथाहृदयार्थः ॥ ४॥ नय नाणं तु न भावो, तेन र नाणि पणियामो।।७१॥
प्रस्तुतार्थप्रतिपादकमेव दृष्टान्तान्तरमभिधित्मराहकाममनुमतमिदं यदुत चरण चारित्रं भावो भावशब्दो भावविकोपलक्षणार्थः । तत्पुनानसहितो ज्ञानयुक्तः समा
आउज्जनकुसला, वि नट्टिा तंजणं न तोसे । पयति निष्ठां नयति, यतः-इदमित्थमासेवनीयमिति ज्ञानादेवा
जोगं अजुजमाणी, निंदं खिंसं च मा लहइ ।। ७५ ॥ धगम्यते, तस्मात्तदेव प्रधानं, न च ज्ञानं तु न भावः, नाव प्राताद्यामि मृदङ्गाऽऽदीनि, नृत्तं करचरणनयनाऽऽदिविशिष्टप
..समापेः समाणः "।८।४।१४२ । समाप्नोतेः समा. रिस्पन्दविशेषल कणम, आतोद्यैः करणभूतैः नृत्तमातोद्यनृतं, पप्रादेशो वा। 'समाण। समावे'।
तस्मिन् कुशला निपुणा मातोद्यनृत्तकुशला, असायपि नर्तकी, ४९८
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(१९९०) अभिधानराजेन्द्रः ।
याणय
गणाणणय
अपिशब्दाद राजनपरिवृताऽपि, तं जनं रङ्गजनं न तोषयति नवति । विहारो मासकल्पाऽऽदिः, तेन विहारेण, स्थानमूर्द्धन हर्ष नयतीत्यर्थः । किंभूता सती ?-योगमयुअती काया- स्थानं, चक्रमण मन,स्थानं च चक्रमण चेत्येकवद्भावः । ते. ऽऽदिव्यापारमकुर्वती, ततश्च अपरितुष्टाद रङ्ग जनादन किश्चिद् न चाविरुदेशकायोत्सर्गकरणेन युगमात्रावनिप्रलोकनपुरपव्यजातं लभत इति गम्यते । मपि तु निन्दां च खिसांच स्सराऽद्रुतगमनेन चेत्यर्थः । शक्यः सुविहितो ज्ञातुम् , जापासा लनते रङ्गजनादिति । तत्समकमेव या होना सा निन्दा, चैनयिकेन च-विनय एव वैनयिकम, समालोच्य भाषणेन मा. परोकं तु त्रिसेति गाथाऽर्थः ॥ ७५॥
चार्याऽऽदिविलयकरणेन चेति जावना। नैतान्येवंभूतानि प्रायशो. इत्थं रष्टान्तमभिधाय दार्शन्तिकयोजना प्रदर्श- ऽसुविहितानां भवन्तीति गाथाऽर्थः ॥ ७ ॥ यन्नाह--
इत्थमभिहिते सत्याह चोदकःइम लिंगनाणसहिओ, काइअजोगं न जुजई जो उ । । आलएणं विहारेणं, गणाचंकमण य । न लहइ स मुक्खसुक्ख,लहइ म निंदं सपक्खाओ॥७६॥ न सका मुविहिओ नाउं, जासावेणइएण य ॥ ७० ॥ 'श्य' एवं लिङ्गज्ञानाच्यां सहितो युक्तः लिङ्गकानसहितः पालयेन विहारण स्थानचङ्कमणेन च न शक्यः सुविहितो कार्नु, काययोग कायव्यापार न युङ्क्ते न प्रवर्तयति, यस्तु न लभते न भाषा_नयिकेन चोदायिनृपमारकमाधुरकोट्टाछाऽऽदिभिव्यभि. प्राप्नोति, स इत्थंभूतः, किम !, मोकसौख्यं सिकिसुस्वामित्यर्थः । चारात् । तथा च प्रतीतमिदम्-असंयता अपि हीनसत्त्वाः लभते च निन्दा स्वपक्कात, चशब्दात् शिवस्यैव । श्ह च लब्ध्यादिनिमित्तं संयतवश्वेष्टन्ते, संयता अपि च कारणतोगर्नकीतुल्यः साधुः, पातोद्यतुल्यं व्यसिहं, नृत्तझानतुल्यं ऽसयतवदिति गाथाऽर्थः॥५०॥ मान, योगव्यापारतुल्यं चरणं, रङ्गपरितोषतुल्यः सवपरितोषः, दानलाभतुव्यः सिकिसुखलाभः । शेषं सुगमम । यत एवमतो
जरहो पसनचंदो, सम्भितरवाहिरं उदाहरणं । कानचरणसहितस्यैव कृतिकर्म कार्यमिति गाथाभावार्थः ॥७६||
दोसुप्पत्तिगुणकरं, न तेसि बकं भवे करणं ॥ १॥ वरणरहितं ज्ञानमकिश्चितकरम् , अस्यार्थस्य
जरतः प्रसन्नचन्द्रः साज्यान्तरबाह्यमुदाहरणम्-अज्यन्तरं ज. साधका बहवो दृष्टान्ता:सन्तीति प्रदर्श
रतः, यतस्तस्य बाह्यकरणरहिस्यापि विनुषितस्यैवाऽऽदर्शकनाय पुनरपि रष्टान्तमाह
प्रहप्रविष्टस्य विशिष्टभावनापरस्य केवलज्ञानमुत्पन्नम्। बाह्यमजाणतो वि अ तरिउं, काश्मनोगं न जुजई न
प्रसन्नचरूः। ('पसम्मचंद' शब्दे प्रसन्नचन्द्रकथाविस्तरः) सो बुज्झा सोरणं, एवं नाणी चरणहीणो ॥७॥ यतस्तस्योत्कृटबाह्यकरणवतोऽप्यन्तःकरणविकलस्याधःसप्त-- जानन्नपि च तरीतुं यः काययोगं कायव्यापारं न यवक्ते ।
मनरकप्रायोग्य कर्मबन्धो बभूव । तदेवं दोषोत्पत्तिगुणकरं न नद्यां स पुमान् उह्यते हियते श्रोतसा पयःप्रवाहेन, एवं
तयोर्भरतप्रसन्नचन्योः । (बज्ज वे करणं ति) छान्दसत्वा. कानी चरणहीनः संसारनद्यां प्रमोदश्रोतसोह्यत इत्युपनयः ।
दभूत करणं दोषोत्पत्तिकारकं भरतस्य नानुदशोजन, बाह्य तस्माचरणविकलस्य ज्ञानस्याकिश्चित्करत्वात् उनययुक्त
करणं गुणकारकं प्रसन्नचन्द्रस्य नानूच्चोभनमपीति । तस्यैव कृतिकर्म कार्यमिति गाथाऽभिप्रायः ॥ ७७ ॥
स्मादान्तरमेव करणं प्रधानम्, न च तदालयादिनाऽवगन्तुं श
क्यते, गुणाधिकं च चन्दनमुक्तमिति कृत्वा भाव एव श्रृंया. एवमसहायकानपक्षे निराकृते,ज्ञानचरणोभयपके च सम.
निति स्थितम् । इत्ययं गाथाऽभिप्रायः॥ ८१॥ थिते सत्यपरस्त्वाद
इत्थं तीर्थाङ्गनतव्यवहारनयनिरपेक्कं चोदकमवगम्याऽन्येषां गुणअहिए बंदणयं, छनमत्थ गुणागुणे अजाणंतो। ।
पारलौकिकापायप्रदर्शनायाऽऽहाऽऽचार्य:वंदिज्ज व गुणहीणं, गुणाहिनं वावि वंदावे ॥ ७॥ पत्तेप्रबुककरणे, चरणं नासंति जिणवरिंदाणं। होत्सर्गतो गुणाधिके साधी वन्दन, कर्तव्यमिति वाक्यशेषः। आहच्चभावकहणे, पंचहिँ गणेहि पासस्था ॥ ३॥ अयं चार्य:-श्रमणं वन्दे तेत्यादिग्रन्थसिद्धः,गुणहीने तु प्रतिषेधः,
प्रत्येकबुद्धाः पूर्वभवाभ्यस्तोभयकरणा भरताऽऽदयः,तेषां करणं, पञ्चानां कृतिकर्मत्यादिग्रन्धात् । इदं च गुणाधिकत्वं गुणहीनत्वं
तस्मिन्नान्तर एव फलसाधके सति मन्दमतयश्चरणं नाशय. चतचतो दुर्विज्ञेयमतः ग्नस्थस्तत्वतो गुणागुणानात्मान्तरव.
न्ति जिनवरेन्डाणां संबन्धिभूतम्, श्रात्मनः,अन्येषां च । पानातिनोऽजानानोऽनवगच्छन् किं कुर्याद, वन्देत वा गुणहीनं कि
न्तरं वा-"बोदि नासेंति जिणवरिंदाणं।" कथम्?, "प्राइचभाववित् गुणाधिकं वाऽपि वन्दापयेत् , उभयथाऽपि च दोषः
कहणे ति" कादाचित्कभावकथने बाह्यकरणरहितैरेव भरताएकत्र गुणानुज्ञाप्रत्ययः, अन्यत्र तु विनयत्यागप्रत्ययः, तस्मा
दिभिः केवनमुत्पादितमित्यादिलवणे, कथं नाशयान्त?, पञ्च. तपणीभाव एव श्रेयान,अतं वन्दनन । इति गाथाऽभिप्रायः॥८॥ निः स्थानः प्राणातिपाताऽऽदिभिः पारम्पर्येण करणभूतैः, पाइत्थं चोदकेनोक्ते सति व्यवहारनयमतमधिकृत्य गुणाधिक- इवस्था उक्तलक्षणाः । इति गाथाऽर्थः ।। ७२ ॥ त्वपरिझानकारणानि प्रतिपादयन्नाहाऽऽचार्य:
यतश्चप्रामएणं विहारेणं, गणाचकमणेण य ।
नम्मग्गदेसणाए, चरणं नासंति जिणवरिंदाणं । सकासुविहिओ नाउं, जासावेणइएण य ॥ ७॥ वावन्नदंसणा खलु, नइ लब्जा तारिसा दढें ॥७॥ प्रालयो वसतिः सुप्रमार्जिताऽऽदिलकणा । अथवा-स्त्रीपशुप-1
सन्मार्गदशनयाऽनयाऽनन्तराभिहितं चरणं नाशयन्ति जिनवरे. एडविवर्जित इति । तेनाऽऽनयेन, नागुणवत एवं स्वल्वानयो| न्द्राणां संबन्धिभूतमात्मनोऽन्येषांवा; व्यापनदर्शनाः खयु विन
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पायागाय
'
,
सम्पदर्शना निश्चयतः खलु इत्यपि दार्थो निपातः । तस्य व्यवहितः संबन्धः । तमुपरिष्टाद् दर्शयिष्यामः । (न हुलना वारिसाद तिमपि किंपुन शांनाऽऽदिना प्रतिलाभयितुमिति गाथाऽर्थः ॥ ८३ ॥ श्राव० ३ श्र० । ति० । (दंसण 'शब्दे दर्शनप्राधान्यविचारः) तंत्रज्ञाननदर्शनमदं ज्ञानमेवैहिकामुयिफ फलप्राप्तिका प्रधानं तथा वा निका:नायम्मि गिरिहयव्वे, अमिरिहयव्वम्मि चेव अत्थम्मि | जयव्त्रमेत्र इइ जो, टवएसो सो नओ नाम || ३५६२|| माया सम्यकपरि राज्ये उपादेये ( अ गिरिहयव्वम्मिति ) अग्रहीतव्ये अनुपादेये, हेय इति भावः । शब्दः खबूभयोर्ग्रहीतव्याग्रह । तत्र्ययोझी तव्यानुकर्षणार्थः, उपेणवस्तुसमुच्चयार्थी वा एकारावचारणार्थः । तस्य चैवं व्यवहितः प्रयोगो ऽध्यः । ज्ञान एव ग्रहीतव्यं, तथाऽग्रहीतव्ये, उपेक्षणीये च ज्ञात एव नाज्ञाते अर्थे ऐहिकामुष्मिके । तंत्रदिको दिनस्कटकाऽऽदिः, उपेकणीयस्तृणाऽऽदिः । आमुष्मिको ग्रहीतव्यः सम्यग्दर्शनाऽऽदिः, ग्रहीतव्यो मिथ्यात्वाऽऽदिः, उपेक्षणीयो विषयाऽऽदिः तस्मिन्नर्थे यतितव्यमेव अनुस्वारलोपाद् यतितव्यमेवं क्रमेण पेदिका 53मुष्मिक फल प्राप्त्यर्थिना सप्वेन प्रवृ स्यादिणो यत्नः कार्य इत्यर्थः । इत्थं चैतदशकयम्-स म्यगज्ञाते प्रवर्त्तमानस्य फल विसंवाददर्शनात् । तथा चोक्तमन्यैरपि
6
( १९९१) पनिधानराजेन्द्रः ।
इह ज्ञान
विशप्तिः फलदा पुंसां न क्रिया फलदा मता । मिथ्याज्ञानात् प्रवृत्तस्य, फलासंवाददर्शनात् ॥१२०॥ (नयो०) तथाssमुष्मिक फल प्राप्त्यर्थिनाऽपि ज्ञानादेव यतितव्यम् । ( ३५६२ ) श्र० म० १ ० २ ख एक यो ज्ञानप्राधान्यख्यापनार्थ प्रतिपादयति-नन्देहिकामुि कफलार्थिना तावत् सम्पवात पवायें प्रतियम् अ न्यथाप्रवृत्त फल विसंवाददर्शनात् । तथा चान्यैरप्युक्तम्- " वि इप्तिः फलदा पुंसां न क्रिया फलदा मता । मिथ्याज्ञानात्प्रवृत्तस्य फलासंवाददर्शनात् ॥ २२६ ॥ ( नयो० ) तथा चाssगमेऽप्युक्तम्- " पढमं नाणं तत्रो दया " इत्यादि । " जं अन्नाण) कम्मं ववे " इत्यादि । तथाऽपरमप्युक्तम्
6
पावा विणिवत्ती, पचत्तणा तह य कुसल पक्खमि । विणयस्त वि परिवत्ती, तिन्नि वि नाणे समप्यंति ॥ १ ॥ " इतश्व ज्ञानस्यैव प्राधान्यम्, यतस्तार्थ करगणधर र गीतार्थनां केवलानां विहारोऽपि निषिद्धः । तथा च तद्वचनम्" गीयत्थो य विहारो, बीयो गीयत्थर्मासश्रो भणिओ । पोतयविहारो, ओजिरारे १॥" न यस्मादन्धेनान्धः समाकृष्यमाणः सम्यकू पन्थानं प्रतिपद्यत इति भावः । एवं तावत् कायोपशमिकं ज्ञानमधिकृत्योक्तम्, का विकमध्यीकृत्य विशिफल सावंतस्यैव ज्ञेयमस्मादइतोऽपि भवाम्नोधेः तटस्थस्य दीकाप्रतिपन्नस्योत्कृष्टतपश्चरोनावाप्तिः संजायते
दिवस्तुस्तोम साक्षात्करणदकं केवलज्ञानं नोत्पन्नम् । तस्माद् कानसेच पुरुषार्थसिकेर्निबन्धनम् । प्रयोगश्चात्र यद् येन विना न भवति तचन्निबन्धनमेव, तथा जीवाऽऽद्यविनाजावीत
पाएता विपना हाताविनाभावित व सकलपुरुषार्थसिद्धिरिति साधानयसिमाधिके सम्पन मायिकेचापति नामकरन तयोरेव मुख्य मुक्तिकारणत्वात् । देशसर्वविरतिसामायिके तु नेच्छति, ज्ञानकार्यत्वेन गौणत्वात्तयोरिति । विशे० । बृ० । सूत्र० । अनु० । श्राचा० । नि० चू० । दश० | सम्म० | पाणिएडवया- ज्ञाननिरता खी०६० तस्य कुलगु रूणां वाsपलपने भ० ८ ० ६ ० । पाणणिव्यचिज्ञाननिरृति स्त्री० शानस्य अभिनयोधिकादिवया निष्पत्ती सावानिनियधिकाऽऽदिभेदेन पञ्चविधा । यस्य यावन्ति ज्ञानानि तस्य तावती । भ० २० श० ५ ० । के Sssदितपसि यथा पार्श्वजिनर्षभस्वामिमल्लिनाथारिष्टने मी नामष्टमेन वासुपूज्यस्य चतुर्थेन शेषाणामजितस्वाम्यादानामूनविशांतिजिनानां पठेन भकेन केवलानमुपदे प्र० ४५ द्वार पाएतह - ज्ञानतथ्य- न० । मत्यादिकेन ज्ञानपञ्चकेन यथास्वमनित विषयोपलम्ने, सू० १० १३ अ खाणतिग- ज्ञानत्रिक - न० । मतिज्ञानश्रुतज्ञानाचधिज्ञानत्रये, क
छाणतत्र ज्ञानतपसून०
र्म० ४ कर्म० ।
नापतिलगगाणे- ज्ञानतिलकगणिन् - पुं० । पद्मराजगणिशिष्ये गौतमकुलकवृत्तिकारके, स च वैक्रमीये १६६० मिते वत्सरे वर्तमान आसीत् । जै० ६०
गाएत - नानात्व-न० नानाभावो नानात्वम् । वर्णाऽऽदिकृते वैविध्ये, प्रज्ञा० १५ पद । भ० नि० चू० । व्य० । स्था० । पाणता- नानाता-स्त्री० । नानाभावो नानाता। विशेषे, अ० म० १ ० २ खण्ड ।
'ना' नानाला पिपरीपुरानागच चिविसेसो, सो व्यक्चकालमा । समाणाणं ओ, समाणसंखालमविसेो । २१६१॥ परमाणुयास मह नाणचं हायसेसा । असमायाणं तह खे-तकालभावप्यनेयाणं ॥ २१६२ ॥ नाना इत्येतस्य भावो नानाता- वस्तूनां परस्परं भिन्नता, वि शेष त्यर्थः स च विशेषयासमानानामानसंख्यानां शेयोऽवगन्तव्यः, षव्याऽऽदिभिः समानसंख्यानां पुनरवशेष इति ॥ २२६१ दादरणमाह-परमावित्या दि ) यथा रूव्यसंख्यया असमानानां परमाणूनां धणुकरकन च तथाऽवशेषणानां च तथा कानोकानां च तथा चतुरान नादिया परस्परं नाना विशेष ज्ञेयः । तथा तेनैव प्रकारेण क्षेत्रकालभावसंख्ययाऽसमानानां क्षेत्रकाल भावप्रजेदानामपि परस्परं नानात्वं विशेषो म न्तव्य तथा-एकप्रदेशापादानां द्वादिदेवानां च तथैकसमयस्थितिकानां द्वद्यादिसमयस्थितिकानां च तथा एकगुणकाकादीनां द्विगुणकालकाऽऽदीनां चेत्यादि । उपलक्षणं चेदम अन्यतः समान संख्यानामपि परमाण्वादीनां क्षेत्रकालमा
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(१२) बारात्ता अभिधानराजेन्द्रः।
णाणमंजरी नानात्वं अष्टव्यम् । एवमेकाऽऽदिप्रदेशावगादानां केत्रावगाद- णाणपडिसेवणाकुसील-ज्ञानप्रतिसेवनाकुशील-पुं० । शानप्रदेशः समानसंख्यानामपि व्यकालजावैर्नानात्वम् , पकस- | स्य प्रतिसेवनया कुशीलो ज्ञानप्रतिसेवनाकुशीसः। प्रतिसमयाऽऽदिस्थितीनां च स्थितिसमयः समानसंख्यानामपि द्रव्य
बनाकुशीले, भ०५५ श०६०। केत्रभावनानात्वम् । एकगुणकालकाऽऽदीनांच वर्णगन्धाऽदिगु. णैः समानसंख्यानामपि व्यक्षेत्रकालै नात्यमिति ॥२१६२॥
णाणपरिणाम-झानपरिणाम-पुं० । कानलकणे जीवपरिणाम, विशे० प्रा०चून
प्रका० १५ पद ।
णाणपरीसह-ज्ञानपरीषह-पुं० । ज्ञानं मत्यादि तत्परीषहणं च ज्ञानात्मन्-पुं० । ज्ञानविशेषत उपसर्जनीकृतदर्शनाऽऽदिरात्मा
कानपरीषदः। विविएस्य ज्ञानस्य सद्भावे मदवजने अभावे, कानाऽऽत्मा । सम्यग्दृष्टेरात्मनि, भ०१५ श० १०२०।
दैन्यवर्जने, ग्रन्थान्सरे त्वज्ञानपरीषह ति पठ्यते, तथणापदंसण-शानदर्शन-न । ज्ञानं च दर्शनं च, ज्ञानेन वा द- पास्मानिर्दर्शितम् । न.श०८ उ०। र्शन शानदर्शनम् । ज्ञानदर्शनयुग्मे, “अस्थि णं मम भासेसे णाणपायपिछत्त-ज्ञानप्रायश्चित्त-न० । पापं नितीति । प्राव. माणदंसणे समुप्पन्ने ।" स्था०७ ग०।
| चित्तदे, स्था० ३ ग०४०। पापदंसणलक्खणा-शानदर्शनशक्षणा-स्त्री० । ज्ञानं च दर्शणाणपुरिस-ज्ञानपुरुष-पुं० । ज्ञानलकणभावप्रधाने पुरुष, मं च लकणं स्वरूपं यस्याः सा ज्ञानदर्शनलकणा । सम्यम्. स्था० ३ ० १ उ०। शानसम्यग्दर्शनरूपाय मोक्षमार्गगतो, " मोक्खमम्गग तत्थं, णाषपेन्नदोष-नानाप्रेमदोष-न०। प्रेम च द्वेषध प्रेमद्वेष, नानासणेह जिणनासियं । चकारणसंजुत्तं, नाणदसणलक्नणं"| कामदेव नानाप्रेमतेषम । अविनयभेटे. स्था ॥१॥ उत्त० २० अ०।
३०। पाणदंसणसमग्ग-ज्ञानदर्शनसमग्र-त्रि०ा ज्ञानदर्शनाच्या पूर्णे, पाणपोस-ज्ञानप्रष-पुं०। श्रुताऽऽदो काने,ज्ञानवत्सु चा:" तत्तो णाणदंसणसमग्गे" उत्त०००।
प्रोतो, भ. श०६ उ.।। शाणदव्व-झानभव्य-न० । शानद्रव्यं देवकार्ये उपयोगि स्यान्न णाणप्पयार-नानाप्रकार-त्रि । विचित्रे, सूत्र. १ शु. १३ वा, यदि स्यात्तदा देवपूजायां,प्रासादाऽऽदो वेति प्रश्ने,उत्तरम्- प्र०ाव
"एकत्रैव स्थानके देवरिक्तं, केत्रद्वय्यामेव तु ज्ञानरिक्तम् । पाणप्पनाय-कानप्रवाद-न०। यत्र ज्ञानं मत्यादिकं स्वरूपभेसप्तक्षेञ्यामेव तु स्थापनीय,श्रीसिकान्तो जैन एवं ब्रवीति ॥१॥" दाऽऽदिभिः प्रोद्यते तज्ज्ञानप्रवादम। स०ा था। ज्ञान कानाss. पतत्काव्यमुपदेशसप्ततिकाप्रान्तेऽस्त्येतदनुसारेण शानद्रव्यं देव- विभेदन्निन्नं पञ्चप्रकारं तत्सप्रपञ्चं वदति ज्ञानप्रवादम । नं०। पूजायां प्रासादाऽऽदौ चोपयोगि भवतीति । ४प्र.सिन०३ झानस्य मतिज्ञानाऽऽदिपञ्चकस्य भेदप्ररूपणा यस्मात् तज्ज्ञानउद्वा०।
प्रवादम् । चतुर्दशानां पूर्वाणां पञ्चमे, म० । स्था० । तस्य पाणदाण-ज्ञानदान-न । श्रुतझाने, “अन्येभ्यो भन्यवर्गेभ्यो- पदपरिमाणमेका पदकोटी।नं।"नाणप्पवायस्स णं पुवस्स ऽध्यापनश्रावणाऽऽदिनिः । यदानमागमस्यैत-ज्ज्ञानदानमदा
वारस वत्यू पएणत्ता" । स० रतम् ॥१॥" ग०२ अधि।
पाणफल-झानफल-
त्रिज्ञानं फलं येषां तानि ज्ञानफलानि। पाणदिहि-शानदृष्टि-स्त्री० । तस्वज्ञानरूपायां दृष्टी, अष्ट०१ | भुतानाऽऽराधनाऽऽदिषु कर्मसु, उत्त०२ मा अष्ट।
पाणबल-कानवन-नाज्ञानबासमतीताऽअदिवस्तुपरिच्छेदसा
मर्थ्यम, चारित्रसाधनतया मोक्षसाधनसामध्ये वा तस्मिन् । पाणदीव-ज्ञानदीप-पुं०। प्रज्ञानभ्वान्तनाशात तवकानप्रदीपे,
स्था०१०म०। द्वा० २५ द्वा०।
णाणबोहि-ज्ञानबोधिन्-पु. कानाऽऽवरणकयोपदामभूता कामणाणधा-ज्ञानधन-त्रि० । ज्ञानविसे विपश्चिति,प्राव०४०।
प्राप्तिः । स्था० २ ० ४ उ० । णाणधम्म-कानधर्म-पुं० । वर्धमानसूरिवंशपरम्परायां साधु-| णाणन-शानभ्रष्ट-त्रि०।५तका सदसद्विवेकभ्रष्टे,आचा.१ रङ्गसुरेः शिष्ये, “ तच्छिण्या ज्ञानधर्माख्याः, पाठकाः पर- १०६अ०४०। मोत्तमाः । जैनाऽऽगमरहस्यार्थ-दायका गुणनायकाः॥१॥" गाणभाव-जाननाप-पुं। अधिगमे उपयोगे, नि.च०२. तच्छिष्याणां दोपचन्द्राणां शत्रुञ्जबाऽऽद्यनेकतीर्थेषु प्रतिष्ठावि
उ०। धायिनां शिष्येण देवचन्द्रेण यशोविजयकृतज्ञानसाराष्टकस्य
णाणजावणा-कानत्तावना-स्त्री ज्ञानस्य भावना ज्ञाननाटीका विरचिता । अष्ट० ३२ अष्ट।
चना । एवंनूतं मानीन् ज्ञानप्रवचनं यथाऽवस्थिताशेषपदार्थापाणपन्जब-ज्ञानपर्याय-पुं० । ज्ञानविशेषे बुकिकृतेऽधि
विवकमित्येवंरूपायां भावनायाम् , प्राचा०२ श्रु० ३०१ नागपलिच्छेद, भ०२श०१ उ०।
भ०१०। णाणपहिणीयया-झानप्रत्यनीकता-स्त्री० । ज्ञानस्य श्रुताss- पाणमंजरी-ज्ञानमज्जरी-स्त्री०। यशोविजयोपाध्यायकृतज्ञान. देः तत्साधनस्य पुस्तकाऽऽदेः (कर्म०१ कर्म०) तदभेदाद ज्ञान- साराभिधाष्टकग्रन्थस्य देवचन्द्रगणिकृतायां टीकायाम, सा षतां वा सामान्यन प्रतिकूल तायाम, भ०८ श०६ उ०। चात्यशुद्धति विद्वज्जनचेतश्चमत्कृति मादधाति । " स्याद्वादसु.
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या मंजरी
रहस्यानां माधोदनार्थ सही विनिर्मिता ॥ १ ॥
सट्टीकेयं १७८६ मिले
संवत्सरे । अष्ट० ३२ अष्ट० । नाणमंत ज्ञानत्वानि नि० ० १ ० । नामग्य-ज्ञानमग्नमिवरूपोप
२
( १९९३) निधानराजेन्द्रः ।
अष्ट० ।
पाणमय - ज्ञानमद- -पुं० । आत्मनो विज्ञत्व हे तुकेऽहङ्कारे, "ज्ञानं मददर्पहरं, माद्यति यस्तेन तस्य को वैद्यः ? | अगदो यस्य विषायति, तस्य चिकित्सा कथं क्रियते ? " ॥ १ ॥ सूत्र० १ श्रु० १३ छा० । ज्ञानमय- -त्रि०
[। ज्ञानाऽऽत्मके, आव० ४ अ० ।
मूढ कानमूड पुं० उदितानाचरणे, स्था० २०४
이
पामोड-ज्ञानमोह - पुं० । ज्ञानविषयके मोदे, स्था० २०४
--
उ० । ( व्याख्याऽस्य 'मोह' शब्दे प्रष्टव्या ) णारासि ज्ञानराशि पुं०निक १५० जाणवल- ज्ञानयनादि वस्तुपरिच्छेद साम
स्था० १० म० ।
-
गावापाड [ ए ]-ज्ञानवादिन् वि० । यथाऽवस्थिवस्तुपरि ज्ञानदेव मोइत्ये०६० नाथविज्ञानचित् वियस्थितपदार्थपरिच्छेद नतिज्ञानवित्। नवेसरि "से भयविनावि " ज्ञानवेत्तरि आचा० १ ० ३ ० १ ० ।
विज्ञानविनय पुं०: ज्ञानमानिनिधि
-
-
श्र० १० १३ श्र० ।
पाप संपण- ज्ञान संपन्न - पुं० । श्रुतसंपन्ने, स च दोषविपार्क प्रायश्चित्तं चाऽवगच्छतीति आलेोचनाऽर्हतयोक्तः । स्था० Garo |
शाखसंपण्या- ज्ञानसंपन्नता श्री०रानसहित ( उच्च० ) ।
44
नाणसं पायाए णं नंते ! जीवे किं जग्यई ? | नाणसंपशाया जीने सजावाभिगमं जणया, नागणसंप प णं णं जीवे चाजरंत संसारकंतारे न विणस्सइ | “ जहा सूई समुत्ता प-डिया विन विएस्सई । तहा जीवो ससुतो संसारे विन विवस" ।। १ ।। नाथ विष्णुयतव चरिनजोगं संपा उणइ, ससमयपरसमयविसारए संघायणिजे नवइ ॥ ५६ ॥ हे भदन्त ! ज्ञानसंपन्नतया ज्ञानस्य श्रुतज्ञानस्य संपन्नता श्रुतज्ञानसंपत्तिः, तया जीवः किं फलं जनयति ? तदा गुरुरादे शिष्य संजीव सर्वभावा
गम् सर्वे ते भावाभावा जीवाजीवाऽऽय, तेषाममि सर्वभावाभिगमनं सर्वभावानि जीवाजीवादानं जनयति तथा इानपत्र जीवश्चतुर न्तसंसारकान्तारे चतुर्गतिलक्षणे संसारबने न विनश्यति मोक्षाद् विशेषेण दूरं नादृइयो भवति । तथाहि ससूत्रा सूची कचरादिषु पतिता सती न नश्यति अश्या न भवति, नाशं न प्राप्नोति । तथा जं वोऽपि ससूत्रः श्रुतज्ञानसहितः संसारे विनष्टो न भवतीति भावः । ततश्च श्रुतज्ञानचिनयतपश्चारित्रयोगान् संप्राप्नोति । ज्ञानं च विनयश्च तपश्च चास्त्रियोगाश्च ज्ञानबिनयतपश्चारित्रयोगाः, तान् सम्यकू प्रका रेण प्राप्नोति रात्र हानम् अस्यादि, विनयः प्रसिद्ध सोद्वादशविचारिव्यापारासान् सर्वान् लभते पुनः श्रुतज्ञानी स्वसमयपरसमय सङ्घातनीयो जवति स्वमतपरमतयोः सङ्घातनीयो मीलनीयः स्यात् । एतावता स्वमतपरमतानित्वेन प्रधानपुरुषत्वात् पण्डितेषु गणनीयो भवतीति भावः ॥ ५९ ॥ उत्त० २६ श्र०
,
नागसपाहि ज्ञानसमाधि पुं० [तावगाहनपूर्वकनाथसमाधी, अह अह सुयमवगाह, अइसयरसपसर संजयमउ तह तह पढाइ मुणी, णत्रणवसंवेगसद्धाए ॥१॥ सूत्र० १० १० अ० ।
वरानन्दागुदनाथसागर- ज्ञानसागर-पुं० तपासोमसुरीणां शिष्ये
1
ग०५ अधि मनेगा 55वश्यको घनियुकि यूपी मुनिसुव्रत स्तवनं धनौघनयमपाश्र्वनाथस्तवनं चेत्यादयो कि
तदेव बिनयो, ज्ञानस्य वा विनयो भक्त्यादिकरणं ज्ञानविनयः । डाहाना मानार्थ मानाविधिग्रहमत्यादिना उज्याले भ० २५ ० ७ उ० ज्ञानविनयः पञ्चधा, ज्ञानस्य पञ्चविधत्वात् । श्र० ।
ज्ञानविनयमाद
नाणं मिक्ख नाणं गुणे नाणेण कुइ किचाई ।
ना। नवं न बंध, नाणविणीओ इवइ नम्हा ॥ ८३ ॥ ज्ञानपानमादानं गुणवति सत्प्र यानि ज्ञान करोति कृत्यानि संयमापन यं कर्म न बध्नाति, प्राक्तनं च विनयति यस्माद् ज्ञानविनीतो ज्ञानेनापनं तकर्मा भवति, तस्मादिति गाथाऽर्थः ॥ ८३ ॥ दश०
ए अ० १ उ० ।
वियपरिहीण- ज्ञान विनयपरिद्दीन त्रि० । ज्ञानाऽऽचारपरिडीने, चं० प्र० २० पाहु० । शात्रिमन्त्रगणि- ज्ञानविमल गणिन् पुं० श्रलभमुनिगुरी, श्रयं विक्रमसंवत् १६५४ मिते विद्यमान आसीत् । श्रनेन महेश्रतिशयप्रमेयस्योपरि टीका हा ०३० णाखावराणा-ज्ञानविराधना स्त्री० विराधना खण्डना
।
ज्ञानस्य
च ज्ञानस्त्र एमनायाम्, ध० ३ अध० । निह्नवाऽऽदिरूपायां काने प्रत्यनीकतायाम्, स० १ सम• ।
४६
पाणसागर
|
णाणविसंवायणाजोग - ज्ञानविसंपादनायोग- पुं० ज्ञानस्य ज्ञा निनां वा व्यभिचारदर्शनाय व्यापारे, भ० श० उ० । पाणविसोहि ज्ञानविशुद्धि-श्री०
नाऽऽचारपरिपालनतो
ज्ञानस्य विशुकौ, स्था० १० ठा० ।
तेन
पाठ- ज्ञानक ५० ज्ञानं देयोपादेयस्तु वृद्धा महान्तः । घ० १ अधि० श्रुतस्थविरेषु, हा० २४ श्रष्ट० । ज्ञानयुकपुं० [झानेन प्रतियुके स्था० २०४४० उस्य 'बुक' शब्दे माणसंका-ज्ञानशास्त्री तनविषयकशङ्कायाम् -
व्या
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<<
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गागासागर अनिधानराजेन्दः।
गाणायार ताः। अस्य विक्रमसंबत् १४०४ मिते जन्म, १४१७ मिते दीक्षा,
नामणिभिर्नानाप्रकारैर्मणिजिस्तीर्थानि सुबकानि यासां ता १४४१ मिते सूरिपदं, १४६० मित स्वर्गतिः। जै००।
नानामणितीर्थसुद्धाः । रा० । जी० । "णाणामणिदामाल
किया।"नानामणयो नानामणिमयानि दामानि मालास्तरक्षकमाणसार-ज्ञानसार-न । यशोविजयोपाध्यायकृते पूर्णाष्टका
तानि नानामणिदामालस्कृतानि । रा०। जी। नानाजातीयेषु ऽऽदिकेऽष्टश्लोकाऽऽत्मकद्वात्रिंशदष्टकविनूषिते प्रन्यविशषे, मणिषु, कल्प०२ कण । मध०१ अष्टः।
पाणामत-नानामाल्य-म । नानारूपे पुष्पे, जी०३ प्रति०४ पाणसिक ज्ञानसिछ-पु० । भवस्थकेवलिनि, दश०४०। उ० । "नानामल्लपिणद्धा। " नानारूपाणि माल्यानि पुजाणा-नाना-अव्य। न+ना । बिनार्थे, अनेकार्थे, उन्नयार्थे
पाणि पिनखानि भाविकानि यासां ता नानामाल्यपिनकाः। च। वाच.।"णाणा मलयाऽऽनं, णाणापक्विणिसेविनं।
क्तान्तस्य परानिपाता, सुखाऽऽदिदर्शनात् ।रा। णाणाकुसुमसंछन्नं, उजाणं णदणोवमं ।।" नानागुमनताकीर्ण णाणामय-ज्ञानामृत-न। ज्ञानमवबोधः, तदेवामृतम्, अविना. विविधवृकवल्लीनिर्व्याप्तम् । उत्त०२० अ० सुत्रका रा०स०। शिपदहेतुत्वात् । अष्ट०७ अष्ट० । ज्ञानरूपे पीय, "पीत्वा पाणाइगुणजुय-झानाऽऽदिगुणयुत-त्रि० । सम्यम्झानधका- कानामृतं शुक्रवा, क्रियासुरलताफलम् । साम्यताम्बूलमास्वानगुरुभक्तिसवप्रभृतिगुणसंपन्ने, पश्चा० २ विव०।
घ तृप्तिं याति पयं मुनिः ॥१॥" अष्ट. १० अष्ट।। णाणाबंद-नानाकन्द-त्रि० । नाना भिन्नश्छन्दोऽजिप्रायो येषां पाणायार-झानाचार-पुं० । ज्ञानं श्रुतझान, तद्विषय भाचारः। ते तथा। जिन्नाभिप्रायेषु, सूत्र. २ श्रु०२०।
स० २३ सम। श्रुतज्ञानविषये कालाध्ययनविनयाध्यापनाऽऽ.
दिरूपे व्यवहारे, स०१ अङ्ग । णाणादिट्ठि-नानादृष्टि-त्रि० । नानारूपा दृष्टिदर्शनं यषां ते
साम्प्रतं ज्ञानाचारमाहतथा। सूत्र.२ १०१ अ०१०। नानारूपा दृष्टिरन्तःकरणप्रवृत्तियेषां ते तथा । सर्वज्ञप्रणीताऽऽगमानाश्रयणाग्निबन्धनाभा
काले विणऍ बहुमाणे, उवहाणे तह य अनिएहवणे । वाद् भिन्नदर्शनेषु, सूत्र. २ श्रु० २ अ०।
वंजण अत्थतनुभए, अट्टविहो नाणमायारो ॥ १० ॥ णाणावग्गह-झानाऽऽद्युपग्रह-पुं० । साधुगतज्ञानप्रभृतिगु.
(काल इति) यो यस्याप्रविष्टाऽऽदेः श्रुतस्य काल उक्तः, णोपष्टम्भे, पश्चा० १२ विव० ।
तस्य तस्मिन्नेव काले स्वाध्यायः कर्तव्यो, नान्यदा, तीर्थकर.
वचनात । दृएं च कृप्यादेरपि काल ग्रहणे फलं, विपर्यये च वियाणापन्न-नानाप-त्रि । नानाप्रकारा विचित्रक्षयोपशमात्
पर्यय इति । अत्रोदाहरणम्-"एको सादू पादोसियं का घे. प्रज्ञायतेऽनयेति प्रज्ञा, सा विचित्रा येषां ते तथा । नानामतिषु,
तूण अश्कताए बि पढमपोरिसीए अणुवोगेण पढनि कानिसूत्र० २ श्रु०२०।
यं सुतं । सम्महिट्टिदेवया चिंतेति-मा अम्मा पंतदेवया नलिज्ज शाणापिंडरय-नानापिएडरत-त्र० । नाना अनेकप्रकारा- त्ति का तर्क कुंके घेत्तूण तक्कं तक्कं ति तस्स पुरओ अभिग्रहविशेषात् प्रतिगृहमल्पाल्पग्रहणाश्च पिएक आहारपिएमा,
भिक्खणं २ गयागया करेति । तेण य चिरस्स सज्झायस्स नाना चासौ पिएमश्च नानापिरमः, अन्तप्रान्ताअदि वा। त.
बाघातं करेत्ति । भणिया य अयाणिएको इमो तक्कस्मिन् रता नानापिराडरताः । नानापिएमेऽनुगवत्सु, "णाणा
स्स विक्कयणकालो?,वेनं ता पलोवेह। तीए विभाणियपिंडरया दंता, तेण वुश्चंति साहुणो।" दश. १०।
अहो को श्मो कालियसुयस्स सज्जायकालो त्ति तो सा
हुणा णायं-जहा ण एसा पागस्थि ति। वरत्तो णाओ अणाणानिगम-झानानिगम-पुं०। मत्यादिज्ञानेन यांधे, स्था०
परत दिम मिच्छादुक्क । देवयाए भणियं-मा एवं करेजा. ३०२ उ०।
सि, मा पंता ग्लेजा। तो काले सज्झाश्यवं, ण उ अकाले णाणामणि-नानामणि-पुं० । नानाप्रकारेषु माणषु, रा०।
त्ति" । दश०। (एतच तृतीयत्नागे ४९६ पृष्ठे 'कालायार' पाणामणिकणगरयणनूमणविराइयंगमंगाणं ।
शब्देद्रएव्यम्) नामाविधानि मणिकनकरत्नानि येषु भूषणेषु तानि, तैर्नाना
तथा श्रुतग्रहणं कुर्वता गुरोविनयः कार्यः, विनयोऽभ्युमणिकनकरत्ननुषणैर्विराजितान्यङ्गोपाङ्गानि यासां तास्तथा
स्थानपादधावनाऽऽदि, प्रविनयगृहीतं हि तदफलं भवति । तासाम्।
दश नि० ३ ०। प्राचा०। (एवं विनयबहुमानोपधानानिहा
वाऽऽदीनां व्याख्या स्वस्वशब्दे कष्टब्या) णाणामाणिकरणगरयणविमलमहारहणिनणोचियमिसमि
अत्रानाचरणे प्रायश्चित्तम्संतविरइयमहाभरणकडगतुझियवरजूसणुज्नलंतपीवरपलं- इदाण कालाणायागऽऽदिसु जेभिहिता पचित्ता,ते केरमतबदाहिणजुयं पसारेति ।
विसेसिया जहा नवति न भवति य, तहा जातिनानाविधानि मणिकनकरत्नानि येषु तानि नानामणिकनकर.
मुत्तमि एते लहुगा, पच्छित्ता अत्थे गुरुग कोसं वि। स्नानि, मणयो नानाविधाश्चन्द्रकान्ताऽऽदयः,कनकानि नानाव. तंतुण जुजति जम्हा,दोएह वि लहुआ अज्काए॥२१॥ र्णतया, रत्नानि नानाविधानि कर्केतनाऽऽदीनि, तथा बिमलानि जे पते पच्छित्सा भणिता ते सुने लहुगा, अत्थे गुरुगा, कोसि निर्ममानि, तथा महान्तमुपभोक्तारमर्हति । यदि वा-महदुत्सवं मतेणेवं जाति । पायरियो प्रणति-तदिदं केसिं मतं ण जु. क्षणमईन्तीति महाहाणि, तथा निपुणं निपुणबुद्धिगम्यं यथा| ज्जते,ण य घम्प,णोवत्ति पचिति।सीसो नणति-कम्हा! भवति । रा०। भाजी०।"याणामणितिस्थसुबकामो।"ना- मायरियो नणति-जम्हा दोएह वि लहुता अणज्य
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(१९९५) अभिधानराजेन्नः।
गणाणायार
पाणावरण
भकाले सज्झाश्य वा सुत्तत्थाई करेंताणं सामएणेण एषां मतिकानादीनां पञ्चानां कानानां यदावरणमाच्छादक, साहुगा नणिता, तम्हा घडति।
पट श्व सूत्राऽऽदिनिष्पन्नशाटक श्व, चक्षुषो लोचनस्य,तरेषां जे पुण के प्रायरि । बहुगुरुविसेस इच्छति, ते इमेण मतिकानाऽऽदानामावरणं तदावरणमुच्यते। श्दमत्रदयम् यथा काणेणं भणंति
घनघनतरघनतमेन पटेनाऽऽवृतं सन्निर्मलमपि चर्मन्दमन्दतरअत्थधरो तु पमाण, तित्यगरमहुग्गतो तु सो जम्हा ।
मन्दतमदर्शनं नवति, तथा ज्ञानाऽऽधरणेन कर्मणा घनघनतरघपुव्वं च होति अत्य, अत्थे गुरु जेसि तेसेवं ॥२२॥
नतमेनावृतोऽयं जीवः शारदशशधरकरनिकरनिर्मलतरोऽपि सुत्तधरे णामेगे, जो अत्यधरे. एवं चउन्नंगो कायन्बो ।
मन्दमन्दतरमन्दतमकानो भवति,नेन पटोपमं कानाऽऽबरणं कर्मों। कालदावराणं भंगाणं सुत्तत्थप्पत्ते गहियाणं गुरुलाघवं
च्यते। तत्राऽऽवरणस्य सामान्यत एकरूपत्वेऽपि यत्पूर्वोक्तानेक
भेदनिनस्य मतिज्ञानस्यानेकभेदमेवाऽऽवरणस्वनाबंकर्म तन्मचितिज्जति, कुलगणसंघसमितीसु सामायारीपरूवणेसु य
तिज्ञानाऽऽवरणमेकग्रहणेन गृह्यते चक्षुषः पटलमिव तथा सुत्तधरामो अत्थधशे पमाणं भवति । तदा गणाणुरणाकाले गुरू ततियभंगिडासति बितियभंगे अत्यधरे गणा
पूर्वाऽनिहितभेदसन्दोहस्य श्रुतमानस्य यदावरणस्वभावं कर्म
तत् श्रुतकानाऽऽबरणम २ तथा प्राक पश्चितभेदकदम्बकस्यागुराणं फरेति, ण सुत्तधरे; एवं अत्यधरो गुरुतरो,
वधिज्ञानस्य यदावरणस्वभावं कर्म तदवधिज्ञानाऽऽवरणम् ३। पमाणं च। किं च-तित्थगरमुहुग्गनको सो अत्थो जम्हा, सुत्तं
तथा प्राकृनिर्णीतनेददयस्य मनःपर्यवज्ञानस्य यदाचरणस्वपुण महत्तगणधरमुहुग्गतं-" अत्य भासति अरहा गाहा,"
जावं कर्म तन्मनःपर्यायकानावरणम ४ तथा पूर्वप्ररूपितम्हा गुरुतरो अत्थो।। किंच
तस्वरूपस्य केवलबानस्य यदावरणस्वभावं कर्म तत्केवल"पुवं च दोति अत्यो, पच्छा सुत भणति जणियं च।
कानाचरणम् । अरहा अत्यं भासति, तमेव सुतीकरेति गणधारी।
उक्तं च हत्कर्मविपाकेप्रत्येण विणा सुत्तं, अणिस्सिय केरिस होति ? "
"सरउग्गयससिनिम्मल-तरस्स जीवस्त छायण जमिह । (जेसित्ति) जेसि आयरिमाण तेसर्व ति । जगामदिवाणं तगा. नाणावरणं कम्म, पोवर्म हो एवं तु ॥१॥ रेणं तिणिदेसो कीरति।सगारा पगारोपिहो पिदो कजति-एवं जह निम्ममा वि चक्यू, पडेण केणावि गाया संती। ततो भवति । पवंसदेण य एवं कारणाणि घोसति प्रणंति मंद मंदतराग, पिच्छा सा निम्मला जर वि॥॥ य । अत्थे गुरुणि सुत्ते लहुआ पच्चित्ता । इत्ति नणितो भट्र.
तह महसुयनाणावर-णअवहिमण केवलाण प्रावरणं । विहो णाणायारो । नि० ० १ उ०।
जीवं निम्मलम्वं, पावर मेहि भेद" ॥३॥ जाणारंज-मानाऽऽरम्न-त्रि०। नानाप्रकार प्रारम्नो धर्मानु.
तदेवमेतानि पञ्चाऽऽवरणान्युत्तरप्रकृतयः तनिष्पन्नं तु सामाष्ठानं येषां ते नानाऽऽरम्भाः। विभिन्नधर्मकेषु,सूत्र०२ श्रु०१ म०। न्येन ज्ञानाऽऽवरणं मूलप्रकृतिः । यथाऽहलिपञ्चकनिष्पनो मु. कषिपाशुपाव्यविपणिशिल्पिकर्मसेवाऽऽदिषु अन्यतराऽऽरम्भक
ष्टिः मूलत्वपत्रशास्त्राऽऽदिसमुदयनिष्पन्नो वा वृक्षः,घृतगुडक. तरि, सुत्र०२ श्रु०२०।
णिकाऽऽदिनिष्पन्नो बा मोदक इति; एवमुत्तरत्रापि भावनीयम्। शाणाराहण-कानाऽऽराधन-न०। आगमार्थानुपासने, पञ्चा
व्याख्यातं पशविघं कानावरणं कर्म । कर्म०१ कर्म । १७ विव० । "नाणाराहणा तिबिहा पमत्ता । तं जहा-चको
पाणमावरणं चेव, आहियं तु पंचहा एए| सा, मज्झिमा, जहमा ।" स्था०३०४०। पाणारिय-ज्ञानार्य-पुं• । ज्ञानेन आर्यत्वहेतुना । आर्यभेदे, प्र
बानाऽऽवरणं द्विपञ्चधा दशप्रकारमात्यातम् । बा० १ पद । आभिनियोधिकाऽऽदिभेदात् पञ्चविधा मानार्याः ।
तानेव दश भेदान् विवेक्तुमाहप्रज्ञा०१ पद ।
सोयावरणे चेव वि, णाणावरणं च होइ तस्सेव । शाणारुइ-नानारुचि-त्रि० । नानारूपा रुचिः चेतोऽभिप्रायो ये
एवं दुयजेएणं, णायव्वं जाव फासो त्ति ॥६०॥ पां ते तथा । सुत्र० ३ श्रु० १० । विभिन्नाभिप्रायेषु, आहार
प्रोत्राऽऽवरणं,तथा तस्यैव श्रोत्रस्य ज्ञानाऽऽवरणमेव द्विकभेदेन विहारशयनाऽऽसनाऽऽच्चादनाऽऽभरण्यानवाहनगीतवादित्रा
ताबद् ज्ञातव्यं यावत् स्पर्शः। तद्यया-चक्षुरिन्द्रियाऽऽवरणं चऽऽदिषु मध्ये ऽन्यस्यान्या रुचिर्भवति । सुत्र०२ श्रु० २ मा
तुरिन्द्रियकानाऽऽवरणम, घ्राणेन्धियाऽऽधरणं प्राणेन्ष्यिज्ञाना. पाणावरण-ज्ञानाऽऽवरण-ना६त० । सामान्यविशेषाऽऽत्म
ऽऽवरणम, रसनेन्धियाऽऽवरणं रसनेन्द्रियज्ञानाचरणम्, स्पके वस्तुनि विशेषग्रहणात्मकस्य वोधस्य मतिश्रुतावधिमनःपर्या- शेन्जियाऽऽचरण स्पर्शेन्द्रियज्ञानाऽऽवरणमिति। व्य०१० उ०(स. यकेवल बक्कणस्य स्वप्रनावत आच्छाद के अष्टानां कर्मणां प्रथमे, सिद्धिप्रस्ताव रागाऽऽदीनां ज्ञानाऽऽवरणत्वम् (शानाऽऽबरप्रव०२१६ द्वार।पं० सं० । उत्तावृ०। (कानाऽऽवरणकर्मणोऽ. पीयस्योत्तरप्रकृतीरधिकृत्य बन्धोदयसत्तास्थानानां संवधः विभागपरिच्छेदरंशः सर्वजीवानामनन्ततमो भागो नित्यापावत "कम्म" शब्दे तृतीय नागे २५६ पृष्ठे गतः ) इति' भक्खर 'शब्दे प्रथमजागे १३६ पृष्ठे उक्तम) कानाऽऽवरणं पञ्चधा-मतिकानाऽऽवरणं, श्रुतानाऽऽधरणम्, अवधिज्ञानाऽऽव.
णाणावराणज्ज-ज्ञानाऽऽवरणीय-न० । ज्ञानमावृणोतीति ज्ञा. रणं, मनःपर्यायशानाऽऽवरणं, केवलज्ञानाऽऽवरणं च। प्रव.
नाऽऽवरणीयम् । ज्ञानाऽऽचरणकर्मणि,"सरउग्गयससिणिम्मत११६द्वार। (तत्र पञ्चानां ज्ञानानां स्वरूपं यथास्थानं भरव्यम)
तरस्स जीवस्स छायणं जमिह । नाणाऽऽवरणं कम्म, पमोव श्दानीमेतेषामाबरणमाह
होइ एवं तु ॥१॥" स्था०२ ग०४ उ. । एसिं जं आवरणं, पहुच चक्खुस्स बं तयावरणं । [ए] पाणावरणिजे कम्मे दुविहे पहाचे। जहा-देसणाणाव
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(१एए६) गाणावरण प्रनिधानराजेन्द्रः।
पाणिणि] रणिजे चेत्र, सम्यणाणावरणिजे चेव, दरिसणावरणि-1 नानाविधै रागैर्नूषिता ये वजाः सिंहाऽऽदिरूपोपलक्षिता ब्जे कम्मे एवं चेव ।
वृहत्यः प्रताकाश्च लवास्ताभिर्मपिडतं विनूषितम् । कल्प० देशं ज्ञानस्याऽऽभिबोधिकाऽऽदिमावृणोतीति देशज्ञानाऽऽवरणी- |
णाणासील-नानाशील-त्रि० । नानाप्रकारं शीलमनुष्ठानं येषां यम, सर्वेकानं केवलाऽऽस्यमावृणोतीति सर्वज्ञानाऽऽवरणीयम्, कैवलज्ञानाऽऽवरणं हि आदित्यकल्पकेवलज्ञानरूपस्य जीव
ते तथा । अनेकाऽऽचारेषु, सूत्र. २ श्रु० १०। परतीथिका स्याऽऽरुकादकतया सान्धमेघवृन्दकल्पमिति तत्सर्व कानाड
मानाशीमाः, तत्र शीलं व्रतविशेषा, स च भिस्तेषामनुनवरणम् । मत्याचावरणं तु घनाऽऽच्छादिताऽऽदित्येषत्प्रनाकस्प
वसिद्ध एव । सूत्र. २ श्रु०२०।। स्य केवलज्ञानदेशस्य कटकुड्याऽऽदिरूपानाऽऽवरणतुल्यमिति
याणाहुइमंतपयाभिसित्त-नानाऽऽहतिमन्त्रपदाभिषिक्त-त्रिका देशाऽऽवरणमिति । पठ्यते च-"केवलणाणावरणं, ईसणनक्कं च
आहुतयो घृतप्रकेपाऽऽदिलकणाः मन्त्रपदान्यग्नये स्वाहा इत्येमोहवारसगं । ता सम्यघाइसन्ना, भवंति मित्तवीसहम"॥१॥1 वमादानि, तेराभषिक्तम् । दीक्कासंस्कृते, दश ०१ उ०। इति । (अनन्तानुबन्धाऽऽदीत्यर्थः) अथवा देशोपघाति स-णाहिश [ए]-शानिन्-त्रि०। ज्ञानं सकलपदार्थाऽऽविर्भाव घोंपधाति पासुकापेक्षया देशसर्वाऽऽवरणत्वमस्य । विद्यते यस्यासी शानी । भाचा० १ श्रु. ४ ० २ उ० । यदाह
विशिष्टविवेकवति, सुत्र०१० १०४ उ० । नि: च. । "मसुयनाणाऽऽवरणं, दसणमोहं च तदुपधाईणि ।
प्रज्ञा० । यथार्थतस्वस्वरूपावबोधिनि, अष्ट. ९ ० । परमा. तप्पाडगा विहा-ई देससम्बोपघाईणि ॥१॥
र्थविदि, आचा० १ श्रु० ३ ० ३ ० । सुत्र। जीवस्वरूपत. सम्बेसु सम्बधाई-सु हपसु देसोवघाइयाणं च ।
द्वन्धकमवेदिनि, सुत्र० १ श्रु० ११ अ० । "णाणी तु तिहिं गुत्तो, भोगेहिँ मुच्चमाणो, समए समए अणतेहिं ॥३॥
खवेइ ऊसासमित्तेणं।" सुत्र. २ श्रु०५०। अनु । उत्त०। पढमं लनदणगारं, एककं वनयमनं ति ।
"जं अन्नाणी कम्म, खवेह बहुआई वासकोडीहिं । तं नाणी कमसो विसुज्झमाणो, लहइ समत्तं णमोकारं॥३॥"
तेहिं ती, नवे ऊसासमेत्तणं ॥१॥" द० १० । संथा। (णास्था०२०४न..
णण्य' शब्दे १६६० पृष्ठे ज्ञानप्राधान्यमुक्तम्) पाणावरणिजवग्ग-झानाऽऽवरणीयवर्ग-पुं०। ज्ञानाऽऽवरण
ज्ञानवदवझा यथाकर्मप्रकृनिसमुदाय, क.प्र.।
पढइ नडो वेरगं, इच्चाइ निदंसिका केइत्थ । णाणावरणिज कम्मसंघाय-झानाऽऽवरणीयकर्मसात-पुं० । नाणताणामवनं, कुणनि नेयं वियाणंलि 1। ६१ ॥ शाननक पनिवहे. "सुयदेवया भगवई, नानावरणीयकम्मसं- पति नटो वैराग्यमित्यादि निर्दिश्य कथयित्वा, प्रादिशब्दा. घायं । तसि खउ सययं, जसि सुयसागरे भत्ती ॥१॥" पा०। त्-"णिक्तिजिजा य बहुजणो जेण तं तह सढो जालेण समrणाणावरमोदय-ज्ञानाऽऽवरणोदय--पुं०।तत्काले ज्ञानाऽऽव- यर” इति हश्यम्, सुगमं च । केऽपि स्तोका अनाजोगत पव, रणीयकर्मविपाके, आव०४ अ०।।
अनेके च । पकारलोपः पूर्ववत रूपमिदम् । ज्ञानाऽऽत्यानां बह्वा
गमानामबाहामश्लाघादिरूपां कुर्वन्ति विदधति । नेति निषेधे, पणाविह-नानाविध-त्रि० । विविधप्रकारे, तं० । रा०। बहु
इदं च वक्ष्यमाणं, विजानन्ति बुध्यन्ते । इति गाथार्थः ॥११॥ प्रकारे, मूत्र २ श्रु० ३०। स० । “णाणाविहरागवसणा।"
तदेवाऽऽहनानाविधो नानाप्रकारो रागो येषां तानि नानाविधरागाणि,
नाणाहियो वरतरं, हीणो वि हु पत्रयणं पभावितो । तान्येव वसनानि वस्त्राणि संवृततया यासांता नानाविधरागयमनाः । जी. ३ प्रति०४ न०। प्राचा। रा०। " नाणावि
न य मुक्करं करितो, सुद्ध वि अप्पागमो पूरिसो ॥७॥ हपंचवाहि उबमोभिए ।” नानाविधा जातिभेदाद नाना
सुबोधार्था । प्रकारा ये पञ्चवर्णा मणयस्तैरुपशोभितः । प्रा०म० १०१
तथाखएक । प्रज्ञा ।" नाणाविहगुच्छगुम्ममंडवगसोनिया।" छट्ठऽहमदसमदुबा-लसेहिँ अबहुसुयस्स जा सोही । प्रत्यासनैनानाप्रकारैर्गुन्द्रुव॒न्ताकीप्रभृतिभिर्गुटमैनवमालिकाऽऽ- एत्तो बहुअरिया पुण, हविज जिमियस्स नाणिस्स । दिनिर्मात्रीकादिमरामपकैरुपशोभिता नानाविधगुच्च
श्यमपि सुगमा । गुल्ममण्डपकशोभिता । जी० ३ प्रति० ४ ० । “णा
ननु यद्येवं तर्हि पूर्वोक्तस्य व्याहतिः, सत्यम, तन्निन्दावाक्य. ण.विहरागरं जिनउच्छितज्यविजयवेजयंतीपकागातिपमागर्म
मेवमसौ भण्यते । येन क्रियायामुद्यमं करोति न चाऽसौ डिनं कति ।" नानाविधा रागा येषु ते नानाविधरागाः, नाना
गुणविकलः, कथमन्यथा स्वयोक्तं मे "नाणाहियस्स नाणं विधरंगमच्छुितकृतैवजैः पताकाऽतिपताकाऽऽदिभिश्च
पूज" इत्यादि। मामतां कुर्वन्ति । जी०३ प्रति०४ उ०।"णाणामणिकगाग.
अत्रैवार्थे जीवोपदेशमाहरयराखइयनजलब लबहुलमसुविभत्तनिचिनरमणिज्जकुम- संसारसंजवाओ, मुहाओं जइ जीव! तं सि निधियो। सत्ता।" नानामणिकनकरत्नानि खचितानि यत्र स नानामणिकन करत्नखचितः, निष्ठान्तस्य परनिपातो भार्याऽदि
मा नाणीणमवस्य, कोमु ता दीवसुराणं ॥ ६ ॥ दर्शनात् । तथोज्ज्वलो निर्मलो बसमोऽत्यन्तसमः सुविभ- संसारसंभवाद् भवोदताद पुःखादसाताद् यदि जीव ! तो निनिती निविमो रमणीयश्च नुमिभागो यस्यां सा ।। त्वं जवान् असि नवसि निर्षियः श्रान्तो, मेति निषेधे, तहिं जी०३ प्रतिकारा"णाणाविहागभूसियज्यपभागमंमिय।" दीपतुल्यानां दीपसदृशानी, ज्ञानिनांवानवताम, भवर्णम
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पाणि[]
श्लाघां कुरु । अयमभिप्रायः- ज्ञानवतामवशाऽऽदिकरणादू ज्ञानाss वरणीयं कर्म बध्यते । तथैव दर्शनाऽऽवरणीयं तेन च मोहनीयं मोहदयेन वा उदीर्णेनाऽष्टौ कर्माणि ततश्च भवभ्रमणम, एतच्च शतकभगवत्यादिषु सूत्रेषु प्रतीतमिति न वितन्यते । मत उक्तम्शानाऽऽयवज्ञातो भवदुःखमिति गाथार्थः । जीवा० १६ अधि० । ज्ञानक्रियाकर्तरि व्य० १ उ० । ( जीवा ज्ञानिनोऽज्ञानिनका 'स' शब्देऽस्मि जागे १६७२ पृष्ठ ) अवधिज्ञानिनो मनः पर्यवज्ञानिनो वा कियन्तो भवान् कुर्वन्तीति प्रश्ने उत्तरम" आजिणिबोहियनाणिस्ल वं भंते ! अंतरं कालश्री केव चिरं होइ ?। गोयमा ! जत्रेण अंतोमृदुत्तं, उक्कोसेणं अतं काजा अवोपरि च पदे सुचनाणि ओहिनाणिमणपज्जवनाशीलं एवं चैत्र, केवलनाणिस्स नत्थि अंतरं । " इत्यादिजगवती सूत्रामशतक द्वितीयोद्देश के; एतदकरानुसारेणावधिज्ञानेन मनः पर्यवज्ञानिना वाऽनन्तभवान् कुर्वन्तीति ज्ञायत इति । ३८० प्र० । सेन० ३ उद्धा० । णाणिंद ज्ञानेन्द्र- पुं० । श्रुताऽऽद्यन्यतरज्ञानवश विवेचितवस्तुवि शरे केवल्लिनि स्था० २ ० ४ ० । ( व्याख्या 'इंद' शब्दे द्वितीयागे ५३४ पृष्ठे उक्का ) णामुप्पायमहिमा - स्त्री० - ज्ञानोत्यादमहिमन् पुं० । तीर्थकृतां केवलज्ञानोत्पादे च कृतमहोत्सवे, स्था० ३ ० १ उ० । पोरगानोपयोगाने प्रियमाणतायाम,
१०] aro
-
प्रत्र० १० द्वार ।
शाणीवपाय-झानपपात प्रातः नानो स्थान
(2220) अभिधानराजेम्बः |
-
मोवा-झानोपसंपत्त्री० भूतनार्थमाचार्यरोपसंपत्ती, ध० ३ अधि० । ( ' उवसंपया' शब्द द्वितीयभागे ६८५ पृष्ठे तद्विधिः )
णात - ज्ञात-न " त्रि० । दृष्टान्ते नि० चू० १० स० । आदरणे, नि० चू० १५ उ० । अनु० निदर्शने, पञ्चा० ४ विव० । ० । उदाहरणे, ज्ञाताध्ययने, नं० । सूत्र । भागमिते, प्रश्न० ५ सम्ब० द्वार | ज्ञातमागमितमित्येकार्थम् । व्य० ३ ० । सम्यकूपरिच्छिन्ने, त्रि० । ० ६ अ० । श्राचा० । वि. दिने, सूत्र० १ ० ६ श्र० । उदारकत्रिये, वृ० १ ३० । श्राचा० । उत्त० प्रश्नः । श्वाकुवंशविशेषभूते, झा०१०८ श्र० । श्री ऋषभदेवजातीये ( कल्प० ५ कण ) क्षत्रियविशेषे, पुं० । सूत्र० १० ६ श्र० । स्था० । श्राचा० । यद्वशे श्रीवीरस्वामी जये । स्था० ६ ठा० । ज्ञातपुत्रे, सुत्र० १० २ श्र० २ उ० । श्रा० चू० ।
णातकुमार कृतिकुमार पुं० रात्रियकुमारे १ श्रु० ८ श्र० । शातकुलचंदज्ञातकुलचन्द्र व मदा
वीरस्वामिनि, कल्प० ५ कृण । श्राचा० । यातखंड-ज्ञानखएमा
यत्र महावीर
स्वामी प्रवजितः । स्था० १० वा० प्रा० चू० । यातपुरा - ज्ञातपुत्र- पुं० । ज्ञातः सिद्धार्थः तस्य पुत्रः । कल्प० ५
|
करण सार्थकत्रय श्रीमदायी एबमाह जिणुतमे । " सूत्र० १ ० १
"जातपुते महावीरे
० १ ३० ।
णाम
णाति ज्ञाति- स्त्री० । स्त्रजने, सूत्र० १ ० ३ अ० १३० । पादिय - नादित त्रि० । लपिते, जी० ३ प्रति० ४ ० । " धो धः पाघ- नाथ- पुं० । शौरसेन्याम | ६ । ४ । २६७ ॥ इति प्राकृतसूत्रेण थस्य धकारः । प्रभौ, प्रा० ४ पाद । लाजि - नाभि-पुं० । शकटरथाङ्गे, दश० 39 अ० 1 जनरस्व मध्यावयवे, उत्त० २ अ० । अस्यामवसर्पिण्यां भरत क्षेत्रजे प्रथमकुलकरे श्रीऋवनदेवपितरि श्राव० १ भ० नि० । माचा० ति० । प्रा० म० । प्रव० । जं० । स्था० ।
णानिचक- नाभिचक्र - न० । शरीरमध्यवर्तिनि समस्ताङ्गसनि भूदेाष, ३० २६ ३० । णानिष्पनव-नाभिभवत्रिक सं
एाजिर सहरणी - नाभिरसहरणी - स्त्री० । नानिनाले, तं० । णाजेय-नाय- पुं० नृपैः सह श्रीनामेवजिनो दोचारः केन कारित प्रश्नेततः प्रथमनिस जरिति विषा ऽऽदौ । २५६ प्र० । सेन० ३ उल्ला० ।
णाम-नाम- पुं० । नमनं नामः । परिणामे, भावे, (०)
2
कवि णं जंते ! णामे पत्ते ? । गोयमा ! छबि खामे जहा ० जा सवा से किं तं उद पामे । णामे दुबिहे पत्ते । तं जहा- उदइए उदइए य उदयकिमी व एवं जहा सतरसमस पढने उद्दे जावो तहेव इह वि । णवरं इमं पातं सेसं तदेव० जाव समिवाइए || गमनं नाम परिणाम जाण ति ) सप्तदशशते भावमाश्रित्य इदं सूत्रमधीतमिह तु नामश बदमाश्रित्येत्येतावान् विशेष इत्यर्थः भ० २५ २० ५ ० । नामन् - अव्य० । अलंकृती, प्रश्न० १ श्रावण द्वार वा क्यालङ्कारे, स्था० ४ ० १ ० । सूत्र० । दश० पादपुर, प्रा० ३ पाद । विपा० नि० धू । शिष्यामन्त्रणे जं० १ चक्क० । विशे० । जीवा । कोमलाऽऽमन्त्रणे, वृ० ३ उ० सं० विशे० । संभावनायाम्, सूत्र० १०५ अ० १ ४० । श्राचा० । स्थान | झा० ॥ अनु० । विशे० दशा० भ० प्रसिद्धी, कल्प० कण । अभ्यनुज्ञायाम्, विशेः । नमति ज्ञानरूपाऽऽदिपर्यायदानुसारतो जीवपरमाण्वादिवस्तुप्रतिपादकतया प्रोजवती ति नाम तथा चादजं चोदा पारि यं नाम । पहजेयं जं नमण, पइभेयं जाइयं भणियं ॥ १॥ उत० १ श्र० । विशे० । सूत्र० । याच्छिकानिधाने, झा० १४० १ ० ॥ सामान्येन नाम्नस्तावदत्र कणमाहपजावावाजपेयं, यियत्यनिरवेकखं । जाच्छियं च नाम, जावदव्वं च पाए ॥ २५ ॥ बलू कस्मिँश्चिद् भृतकदारकाऽऽदी इन्द्राद्यभिधानं क्रियते, तन्नाम भएयते । कथंभूतं तत् ?, इत्याद-पर्यायाणां शक्रपुरन्दरपाकशासननदनिनां समानार्थवाचकान ध्वनीनामननिधेयमवाच्यम् नामवतः पिएकस्य संबन्धी धर्मोऽयं वारितः सहिदका दिएक
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(१५ )
अभिधानराजेन्दः। लेकेन सहेतितमात्रेणेन्छाऽऽदिशब्देनैवानिधीयते, न तु शेषैः । नभिधेयं चेत्यनेन लकणस्य च व्यावृत्तौ तात्पर्यात । प्रो. शक्रपुरन्दरपाकशासमाऽऽदिशब्दैः, मतो नामयुक्तपिण्डगतधर्मों मिति चेत्, तहि रूपसत्यादिविषयेऽतिव्याप्तिः, तस्य व्यनिनाम्न्युपचरितः पर्यायाननिधेय इति । पुनरपि कथंभूतं त- केपविषयत्वे च तत्रैव सति चेत, न, उक्तलकण एव भावनिक्के. साम, इत्याह-(ठियमाणत्थे ति) विवक्किताद् नृत. पविषयाजेदव्यवहारोपयिकरूपराहित्यावशेषेण दाने दोषाकदारकाऽऽदिपिरामादन्यश्वासावर्थश्चान्यार्थों देवाधिपाss- भावात् । निरूढलकणायाः स्वीकारे तु लवणाया निरुदत्यहादिः, सद्भावतस्तत्र यत् स्थितम् , नृतकदारकाऽऽदौ तु पकवचनमेव निक्षेपः । तद्विषयविशेषस्तु अन्यव्यावृष्यादिना सङ्केतमात्रतयैव वर्तते; अथवा-सद्भावतः स्थितमन्व-अनु- यथाव्यवहारं स्वीकार्य इति नातिप्रसाइति दिक।नयो । गतः संबद्धः परमैश्वर्याऽऽदिको? यत्र सोऽन्वर्य:-शचीपत्या- पारिभाषिक्यां संज्ञायाम, विशे० । पितृपितामहाऽऽदेवांचदिःसद्भावतस्तत्र स्थितं भृतकदारकाऽऽदौ तहिं कथं वर्तते?, केन्निधाने, अनु.। इत्याह-तदर्थनिरपेक्षं तस्येन्द्राऽऽदिनाम्नोऽर्थस्तदर्थः पर. गौणाऽऽदि नाम चतुर्म । तद्यथा-गाणं, समयजं, तदुनयजम, मैश्वर्याऽऽदिस्तस्य निरकेप सङ्केतमात्रेणैव तदर्थशून्ये भृतक
मनुजयजं च । तत्र गुणादागतं गौणम् । अथ कोऽसौ गुणः,कथं बारकाऽऽदो वर्तते, इति पर्यायानभिधेयम, खिनमन्यार्थे, म.
च तत भागतम् उच्यते-इह शन्दस्य व्युत्पत्तिनिमित्तं योऽयों, वर्षे वा; तदर्थनिरपेकं यत् क्वचिद् भृतकदारकाऽऽदौ इन्का- यथा ज्वलनस्य दीपनं ज्वल' दीप्ताचितिवचनात,स गुणःगुणऽऽद्यभिधानं क्रियते, तन्नाम, इतीह तात्पर्यायः। प्रकारान्तरेणापि वह परतन्त्रो विवक्वितो,न पारिजाषिको रूपाऽऽदिः; तेन यबनाम्नः स्वरूपमाह-यारधिकं चेति । इदमुक्तं भवति-न केवल- दस्य वस्तुनि प्रवर्तमानस्य व्युत्पत्तिनिमित्तं व्यं, गुणः, किमनन्तरोक्तं, किं त्वन्यत्रावर्तमानमपि यदेवमेव यरब्धया केन- या बा, स गुण इत्यनिधीयते । तत्र व्यं व्युत्पत्तिनिमित्तम्चिद् गोपालदारकाऽऽदेरभिधानं क्रियते, तदपि नाम, यथा
शृङ्गी, दन्ती,विषाणीत्यादौ । गुणो-जातरूपं सुवणे,स्वा रसामित्यो, मवित्थ इत्यादि । श्वं चोभयरूपमपि कथनूतम ?,..
ते इत्यादौ । क्रिया-तपनः श्रमणोदप्रिो हिंस्रो ज्वलन इत्यादौ । त्याह-यावहव्यं च प्रायेणेति-यावदेतद्वाच्यं 5व्यमवतिष्ठते ता.
जातिश्च नाम्रो व्युत्पत्तिनिमित्तं न भवति, किं तु प्रवृत्तिनिमित्त यदिदं नामाप्यवतिष्ठत इति भावः। किं सर्वमपि ?, न, इत्याह
यथा गोशम्दस्य गोजातिः । तथादि-गोशब्दस्य गमनक्रिया प्रायेणेति, मेरुद्वीपसमुकाऽऽदिकं नाम प्रसूतं यावद् अन्यभावि
व्युत्पत्तिनिमित्तं, न गोत्वं, गच्यतीति गौरिति व्युत्पत्तेः केश्यते; किञ्चिच्चन्यथाऽपि समीक्ष्यते, देवदत्ताऽदिनामवा
चलमेकार्थसमवायवलादू गमनक्रियया खुरककुदमागूलसाच्यानां व्याणां विद्यमानानामप्यपरापरनामपरावर्तस्य लो
नाऽदिमश्वं प्रवृत्तिनिमित्तमुपलक्ष्यते, इति गच्छत्यगच्छति के दर्शनात् । सिद्धान्तेऽपि यमुक्तम्-"नाम भाबकहियं ति" वा गोपिएमे गोशब्दस्य प्रवृत्तिः । एवं सर्वप्वपि जातिशब्देषु तत् प्रतिनियतजनपदाऽऽदिसंज्ञामेवाङ्गीकृत्य, यधोत्तराः कुरब नामसु व्युत्पत्तिनिमित्तवत्सु भावनीयम् । ये तु जातिशम्दा इत्यादि । तदेवं प्रकारच्येन नाम्नः स्वरूपमत्रोक्तम, पता व्युत्पत्तिरहिता यथाकथञ्चित् जातिमत्सु रूदिमुपागतास्तेषु तृतीयप्रकारस्योपलकणम, पुस्तकपत्रचित्राऽऽदिलिखितस्य- व्युत्पत्तिनिमित्तमेव नास्तीति कुतस्तत्र जातेव्युत्पत्तिनिमिबस्त्वभिधाननूतेन्डाऽऽदिवाऽऽवलीमात्रस्याप्यन्यन नामत्वे- सवप्रसङ्गः । तस्मात् जातिः परतन्त्राऽपि शब्दस्य व्युत्पत्तिनोक्तत्वादिति । एतच सामान्येन नाम्नो अक्षणमुक्तम । विशे०। निमित्तमिति न सा गुणग्रहणेन गृह्यते । ये तु गोस्वविशिशे (किशिमाम निरर्थकमपि भवतीति 'उस्सारकप्पिय' शब्दे गोमानित्यादयो जातिव्युत्पत्तिनिमित्ताः, न ते नामरूपा तिन द्वितीयभागे ११७६ पृष्ठे गतम्) सर्वस्यापि घटपटाऽऽदिवस्तुन तैयभिचारः, ततो गुणादागतं गौणं,व्युत्पत्तिनिमित्तं न्याss. मात्मीयेऽभिधाने, विशे० । व्य। संज्ञायाम् , “ यद् वस्तु. दिरूपं गुणमधिकृत्य यवस्तुनि प्रवृत्तं नाम तद्गुणनामेति नोऽभिधानं, स्थितमन्या) तदर्थनिरपेक्षः। पर्यायानभिधे- भावार्थः । एतदेव नाम लोके यथार्थमित्याख्यायते । तथाबं, च नाम यादृच्छिकं च तथा ॥१॥" इति। स्था०३ समय यदन्वर्थरहितं समय पब प्रसिम्म । यथा-मोदनस्य ग.१००। दश । दशा । आचा० । उत्त०। यत्तु "णाम प्रानृतिका इति नाम । उन्नयजं यद्गुणानिष्पनं समयप्रसिद्ध भावकहिये " इति सत्रे प्रोक्तं, तत्प्रतिनियतजनपदसंज्ञामा- च, यथा धर्मध्वजस्य रजोहरणमिति नाम । वं दिसमयभित्यैवेति ध्येयम् । ननु 'गङ्गायां घोषः' इत्यत्र गङ्गापदेन ग- प्रसिद्धमन्वर्थयुक्तं च । तथाहि-बाह्यम, प्राभ्यन्तरं च रजातीरमनिधीयते । तत्र किं नामनिकेपस्य प्रवृत्तिः, उत नि- जो हियत इत्यनेन रजोहरणम् । तत्र बाह्यं रजोऽपहारिकेपान्तरस्य ?। नाचः । जाह्वन्यादिपर्यायाऽनिधेयत्वेन तत्र ना. स्वमस्य सुप्रतीतम् । भान्तररजोऽपहरणसमर्धाश्च परमामनिकेपाप्रवृत्तेः । न द्वितीयः । प्रसिद्धनिक्केपान्तराविषये र्थतः संयमयोगाः, तेषां च कारणमिदं धर्मलिमिति का
निक्षेपकल्पने तदियत्ताकतिप्रसङ्गादिति चेत् ।। रणे कार्योपचाराद रजोहरणमित्युच्यते । " जत्थ य ज जाणिज्जा, णिक्खेवं शिक्खिवे जिरवसेसं।".
उक्तं चत्यनेन यधापरिक्षानं निकेपान्तरकल्पनाया अप्यनुमतत्वेन दोषानाचात् । प्रस्तुपा तत्राभिप्रायिकी स्थापनेष, भवतु वा
"हर रयं जीवाणं, बज्ऊं अजितरं च जं तेणं । वैज्ञानिको भावनिकेपः, एवं गङ्गापदेन तीरे गानेदाभव्य
रयहरणं ति पवुच्चद, कारणकजोक्याराम्रो॥१॥ क्तिवृच्या गङ्गागतशैत्यपावनत्वादिधर्मयोगस्याभिव्ययितु- संजमजोगा इत्य, रोहरा तेसि कारणं जणं । मशक्यत्वात, तत्प्रपञ्चतमनक्कारचूड़ामणिवृत्तावस्मदादि- रयहरणं उबयारा, भन्न तेणं रोकम्मं ॥२॥" भिः । तत् कि शक्तिलकणाऽभ्यतरवृत्तिनिरपेक्षशब्दसहेत- अनुभयज यदन्वर्थरहितं, समयाप्रसिद्धं च । यथा कस्याविषयत्वमेव नामलकणं स्थितमन्यार्थ इत्यत्र अनेकार्थवा-| पि पुंसः शौयौर्यादिगुणासंभवेन उपचाराभाबे सिंह इति व्यव्यावृत्तयेऽशक्यार्थ इति करणाच्क्य स्य पर्याया- नाम | यद्वा-देवा एनं देयासुरिति व्युत्पत्तिनिमित्तासंभवे
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(१एएए) गाम अनिधानराजेन्द्रः ।
णामकम्म (ण) देवदत्त शति नाम। एवं पिएम इति वाऽऽवनीरूपमपि नाम चत्वारिंशद्विधम् । यद् वा-त्रिनवतिविधम् , यदि वा-युत्तरगौणाऽदिभेदाच्चतुर्दा। तत्र यदा बहनां सजातीयानां वि- शतविधम् ,अथवा-सप्तपष्टिविधम् । चशब्दः समुपये व्यवाहजातीयानां च कग्निरुव्याणामेकत्र पिएमने पिएक इति तसंबन्धश्च, स च तथैव योजितः ॥ २३ ॥ कर्म०१ कर्म । नाम प्रवर्तते, तद् गौणम, व्युत्पत्तिनिमित्तस्य वाच्ये विद्यमा
नामकम्मे वायालीसविहे पमत्ते । तं जहा-गइनामे, मत्वात् । यदा तु समयपरिभाषया पानीयेऽपि पिएक इति नाम प्रयुज्यते तदा समयजम, लोके दि कठिनकव्याणामेकत्र
जाइनामे, सरीरनामे, सरीरवंगनामे, सरीरोपंधणनामे,सरीसंश्लेषेपिएकति प्रतीतं,न तु द्रवद्रव्यसंघाते,ततश्च पिएमनं
रसंघायणनामे, संघयणनामे, संगणनामे, वचनामे, गंध. पिएक इति व्युत्पश्यघटनात् । पि० । नाम च यथार्थाऽऽदिने. नामे, रसनामे, फासनामे, अगुरुलहुयनामे, नवधायनामे, दात्त्रिविधम् । तद्यथा-यथार्थम् , अयथार्थम, अर्थशून्यं च ।
पराघायनामे, प्राणपुचीनामे, नस्सासनामे, भायवनामे, तत्र यथार्थम्-प्रदीपादि,अयथार्थम-पलाशाऽऽदि,मर्थशून्यम्। मित्थाऽऽदि । स्था.१ ग. विशनामस्थापनारून्यमित्येव
उजोयनामे, विहगगश्नामे, तसनामे, थावरनामे,मुहुमनामे, बन्याथिकस्य निक्केपः। सम्म०१कापक।
बायरनामे, पजतनामे, अपज्जत्तनामे, साहारणसरीरनामे, से किं तं पामे । णामे दसबिहे पएणसे । तं जहा- पत्तेयसरीरनामे,थिरनामे, अथिरनामे,मुभनामे, अमुभनामे, एगणामे, पुणामे, तिणामे, चउणामे, पंचणामे, ग्णामे, सुनगनामे, सुजगनामे, सुस्सरनामे, दुस्सरनामे, भाएज्जसत्तणामे, अट्टणामे, नवणामे, दसणामे ।
नामे, प्रणाएज्जनामे, जसोकित्तिनामे, अजसोकित्तिनामे, (णामे इत्यादि) इह जीवगतज्ञानाऽऽदिपर्यायेऽजीवगत
निम्माणनामे, तित्थगरनामे । स०४२ सम० । कपाऽऽदिपर्यायानुसारेण प्रतिवस्तु नेदं नमति तदभिधायक-1 अथ नामकर्मणो द्विचत्वारिंशतं दान् प्रचिकटयिषुराहरखेन प्रवर्तत इति नाम, वस्त्वभिधानमित्यर्थः । उक्तं च
गजाइताउवंगा, बंधण संघायणाणि संघयणा । "ज वत्पुणोभिहाणं, पज्जयनेयाप्रसारियं णामं । पश्भेमं जं नई, पहभेअंजाइयं भणिनं ॥१॥"अनु।(एकनामाऽऽदी
संगणवन्नगंधर-सफासअणुपुब्विविहगगई ॥२४॥ मां व्याख्या स्वस्वस्थाने) विचित्रपर्यायनमयति गत्यादिपर्या- इद नाम्नः प्रस्तावात सर्वत्र गत्यादिषु नामेत्युपस्कारः कार्यः। यानुभवनं प्रति प्रवणयति जीवमिति नाम । कर्म० ६ क. तथाहि-गतिनाम, जातिनाम, तनुनाम, उपाङ्गनाम, बन्धननाम, मं० । पं० सं० । स्था०। दशा। प्रव० । गत्यादिहेती कर्म- सकतननाम, संहनननाम, संस्थाननाम, वर्णनाम, गन्धनाम, णो मूलप्रकृतिदे, कम।
रसनाम, स्पर्शनाम, भानुपूर्वीनाम, बिहायोगतिनामेति । कर्म. पामकम्मण-नामकर्मन-नाक स.। जीवानां विचित्र- १ कर्म। परिणामकर्मणामहेतौ कर्मभेदे, कर्म ।
उक्ता नामकर्मणो द्विचत्वारिंशद्भेदाः । अथ तस्यैव त्रिनवति. तद् द्विविधम्
नेदान् प्ररूपयितुकामो गत्यादिपदानां पिण्डप्रकृतिसंकानां
मध्ये येन पदेन यावन्तो नेदाः पिरिकता वर्तन्ते, तान् णामकम्मे दुविहे पएणत्ते । तं जहा-सुभणामे चेच,
भेदान् तेषामाहप्रमुजणामे चेव ।
गइयाईण न कमसो,चन पण पण ति पण पंच उच्छकं। विचित्रपयायैनमयति परिणमयति यज्जीचं तन्नाम । पतस्वरूपं च
पण दुग पण चउ दुग,इय नत्तरजेयपणसही ॥२॥ "जह चित्तयरो निठणो, भणेगम्बाई कुणा म्वाई।
गत्यादीनां पिएप्रकृतीनां पूर्वप्रदर्शितस्वरूपाणां पुनः क्रमशः सोहणमसोहणाई, चक्खुमचक्खहि वन्नेहिं ॥१॥
क्रमेण, यथासंख्यमिति यावत, चतुरादयो नेदा जवन्तीति वासह नाम पिदु कम्मं, अणेगरुवा कुणह जीवस्म ।
क्यार्थः। तथादि-गतिनाम चतुर्धा,जातिनाम पञ्चधा, तनुनासोहणमसोहणाई, इछाणिट्राणि लोयस्स"॥॥इति । म पाधा, उपाङ्गनाम त्रिधा, बन्धननाम पञ्चधा, सनातननाभं तीर्थकराऽऽदि, अशुभमनादेयत्वाऽऽदीति । स्था.
म पञ्चधा, संहनननाम पाढा, संस्थाननाम घोडा, वर्णनाम पग०४३.।
अधा, गन्धनाम द्वधा, रसनाम पञ्चधा, स्पर्शनाम अष्टधा, श्रानामकानिधित्सुराह
नुपूर्वीनाम चतुर्का, विहायोगतिनाम द्वेधा। एतेषां सर्वमील. ............","..."नामकम्म चित्तिसमं ।
ने भेदाप्रमाह-(श्य ति) इत्यमुना चतुरादिभेदमीझनप्रकारे
णोत्तरभेदानां पञ्चषष्टिरिति ॥ २६॥ पायालतिनवविहं, तिउत्तरसयं च सत्तह॥ २३ ॥ (नामकम्म चित्तिसमं इत्यादि) नामकर्म भवति चित्रि
अमवीसजुया तिनवर, संते वा पनरबंधणे तिसयं । सम, चित्रं कर्म, तत् कर्तव्यतया विद्यते यस्य स चित्री
बंधणसंघायगहो, तणमु सामन्नवनचऊ ॥ ३०॥ चित्रकरः, तेन समं सरशं चित्रिसमम् । यथा हि चित्री चित्रं एषा पूर्वोक्ता पञ्चषष्टिरष्टाविंशतियुता प्रत्येकप्रकृत्यष्टाविंशत्या चित्रप्रकारं विविधवर्णकैः करोति, तथा नामकर्मापि जीवम्- सह मीलने त्रिनिराधिका नवतिनिनवतिर्भवति । सा च को. नारकोऽयम, तिर्यग्योनिकोऽयम्, एकेन्द्रियोऽयम्, द्वान्ति पयुज्यत इत्याह-(संतेत्ति) प्राकृतत्वात् सत्तायां सत्कर्म प्रतीबोऽयमित्यादिव्यपदेशैरनेकधा करोतीति चित्रिसममिदमिति । त्य बोकव्येत्यर्थः। वाशब्दो विकल्पार्थो व्यवाहितसंबन्धश्च । पतानेकभेदम् । कथमित्याह-(बायानतिनवविहं तिउत्तर- स चैवं योज्यते-पादशबन्धनैस्त्रिशतं वा पञ्चदशसंख्यैर्वसयंसहिचि) भत्र विधाशदस्य प्रत्येकं योगादधि- । प्यमाणस्वरूपैर्वन्धनः प्रदर्शितत्रिनवतिमध्ये प्रतिनिभिरधि
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(२०..) यणामकम्म (ण) अभिधानराजेन्द्रः।
यामगुत्त कं शतं त्रिशतं वा, सत्तायामधिक्रियत इति शेषः। अथ त्रिनव. अन्तराये पश्चेत्येतद् विंशत्युत्तरं प्रकृतिशतं बन्धेऽधिक्रियते । तिमध्ये पञ्चदशानां प्रकृतीनां प्रक्केपेऽष्टोत्तरं शतं जवतीति चेत् । पतदेव सम्यक्त्वमिधसहितं द्वाविंशत्युत्तरप्रकृतिशतमुदये, सच्यते-या वक्ष्यमाणाः पञ्चदश बन्धननामप्रकृतयस्तासु मध्या
उदीरणायां च। सत्तायां पुनः शेषकर्मणां पञ्चपञ्चाशद् सामान्यत औदारिकाऽदिबन्धनपञ्चकस्य त्रिनतिमध्ये पूर्व नाम्नः त्रिनवतिरित्यष्टाचत्वारिंशं शतम् । यद्वा-शेषकर्मणां प्रकिप्तस्वाच्छेषाणां दशानां प्रक्षेपे त्रिशतमेव नवतीति न कश्चि- पञ्चपञ्चाशद् नाम्नरुयुत्तरशतमित्यष्टापञ्चाशं शतमधिक्रियते, दुविरोधः । सत्र च-पनरबंधणे" इत्यत्र विनक्तिवचनव्य- इत्येतदेव मनसिकृत्याऽऽह-(बंधदए सत्ताए इत्यादि)ह त्ययः प्राकृतत्वात् । इत्युक्ता नामकर्मणः त्रिनवतिम्ध्युत्तरशतं शतशब्दस्य प्रत्येकं योगाद् यथासंख्यं बन्धे विशं शतम्। च मेदानाम् । अथ सप्तपष्टिभेदानाद-(बंधणसंघायगहोतासु नदये उपलकणत्वादुदीरणायां च द्वाविंश शतं, सत्तायामपति) बन्धनानि च पञ्चदश सघाताच संघातनानि पञ्च ब
शाशं शतम, उपलकणत्वादष्टाचत्वारिंशं शतमिति नाचना ग्धनसंघानास्तेषां ग्रहण ग्रहो बन्धनसंघातग्रहः । तनुषु शरीरे
| सुकरैव ॥ ३१ ॥ कर्म०१ कर्म। उत्त। षु तनुग्रहणेनैव बन्धनसंघाता गृह्यन्ने, न पृथग विवक्ष्यन्त -
इदानीं वर्णाऽऽदिचतुष्कोत्तरविंशतिभेदानां शुभाशुनत्यर्थः । तथा-(सामनवन्नच उत्ति) सामान्य कृष्ण नीलाऽऽद्य
स्वयोरभिधित्सया प्राऽऽहविशेषितं वर्णनोपलक्षितं चतुष्कं सामान्यवर्णचतुष्कं, गृह्यत
नीलकसिणं सुगंध, तित्तं कम्यं गुरुं खरं रुक्खं । इति शेषः । अयमत्राऽऽशयः-इह सप्तष्टिमध्ये औदारिकाऽऽदि- सीयं च अमुहनवगं, इकारसगं सुजं सेमं ॥४१॥ तनुपञ्चकमेव गृह्यते, न तद्बन्धनानि तत्संघातनानि च, यत
नीलकृष्णं नीलकृष्णाऽऽस्ये कर्मणी अशुभे, दुर्गन्धनाम 'निचौदारिकतम्बा स्वजातीयत्वादौदारिकतनुसरशानि नद् ब
क्तकटुकमिति ' तिक्तकटुके रसनाम्नी, गुरु खरं रूकं ज्ञान म्धनानि नरसंघाताश्च गृहीताः। एवं वैक्रियाऽऽदितम्बाऽपि नि.
चेति चत्वारि स्पर्शनामानि । एतानि च सर्वाएपपि समुदिजनिजबन्धनसंघाता गृहीता इति न पृथगेते पञ्चदश बन्ध
तानि किमुच्यते ?, इत्याह-' अशुभनवकम् ' नव प्रकृतयः नानि पञ्च संघाना गएयन्ते । तथा-वर्णगन्धरसस्पशानां यथा
परिमाणमस्य प्रकृतिवृन्दस्य तन्नवकम, अशुभं च तनवकं संख्य पवद्विपश्चाएभदैनिपत्रां विशतिमपनीय तेषामेव मा
चाशुभनवकम् । 'एकादशकम' एकादशप्रकृतिसमहरूपम, मान्यं वर्णगन्धरसम्पर्शलक्षण चतुष्कं गृह्यते, ततश्चा
यथा-रक्तपीत श्वेतवर्णाः,सुरभिगन्धो, मधुराऽऽल कपायरमा नस्तरोदितव्युत्तरशनाद्वाऽऽदिषोमशकबन्धनपञ्चदशकसंघात
लधुमृस्निग्धोष्णस्पर्शा इति हामं शुजविपाकवेद्यत्वात् शुभपञ्चकलकणानां पत्रिंशत्प्रकृतीनामपसारणे सति सप्तरष्टिभ.
स्वरूपम् । कीटकं तदित्याह-'शेपम्,' कुवर्णनवकादवाशष्ट, पतीति ॥ ३०॥
कोऽर्थः १-कुवर्णनवकाच्या एकादश वर्णादिनेदाः शुभवर्णएतदेवाऽऽर
कादशकमुच्यत इति ॥४१॥ कर्म०१कर्म०। ननु च शरीरपयाइय मत्तही बंधो-दए य न य सम्ममीसया बंधे।
क्यैव शरीरं भविष्यति, किं प्रागनिहितेन शरीरनाम्ना ?। बंधुदए सत्ताए, वीसवीसऽहवन्नसयं ।। ३१॥ नैतदस्ति, साध्यभेदात् । तथाहि-शरीरनाम्नो जीवन गृहीता. इति पूर्वोक्तप्रकारेण सप्तपष्टिनामकर्मप्रकृतीनां भवति । सा |
नां पुलानामौदारिकाऽऽदिशरीरत्वेन परिणतिः साध्या, शरीकोपयुज्यते, इत्याह-(बंधोदए यत्ति) बन्धश्च उदयश्च बन्धो
रपयर्याप्तः पुनरारब्धशरीरम्य परिसमाप्तिरिति । अथ प्रागुक्तेना. दयं, नस्मिन् बन्धोदये, बन्धे चोदये च सप्तपष्टिनवति, च
वासनाम्नवोच्चूसनस्य सिम्त्वादिहोच्यासपर्याप्तिनिर्विषये. शब्दादुदीरणायां च सप्तष्टिः । अथ बन्धनमहातनवर्णाऽ5
ति। नैवम् , सतीमप्युच्चासनामोदयेन जनितामुच्चसननन्धि. दिविशेषाणां विवक्षावशादेव बन्धनाधिकार इत्युक्तम, संप्रति
मात्मशक्तिविशेषरूपामुच्वासपर्याप्तिमन्तरेण व्यापारयितुं न ययोः प्रकृत्योः सबथैव बन्धो न जवति, ते पाह-नि य
शक्नुयात् । यथाहि-शरीरनामोदयेन गृहीता अप्यौदारिकाss. सम्ममीसया बंधे त्ति)न च नैव सम्यक्त्वमिश्रके बन्धेधि
दिपुमलाः शक्तिविशेषरूपां शरीरपर्याप्तिं विना शरीररूपत. क्रियते । अयमभिप्रायः-सम्यक्त्वमिश्रयोर्बन्ध पवन भवति,
या परिणमयितुं न शक्यन्त इति शरीरनाम्नः पृथमिप्यते किंतु मिथ्यात्वपुजलानामेव । जीवः सम्यक्त्वगुणेन मिथ्यात्व.
शरीरपर्याप्तिः, एवमत्राप्युच्चासनाम्नः पृथगुच्यासपोहिरेष्टस्पतामपनीय केषाश्चिदत्यन्तविकमापादयति, अपरेषां स्वी
ग्या, तुल्ययुक्तित्वादिति ॥४८॥ कर्म०१ कर्म० । स० । श्रा० । पद विर्ति, केचित्पनर्मिथ्यात्वरूपा पवावतिष्ठन्ते, तत्र ये
भाचा० । पं० सं० ।( यत्र गुणस्थानके यावत्यः प्रकृतयः त्यन्तविशुद्धास्ते सम्यक्त्वव्यपदेशभाजः, पदविशुद्धा मि
संवेधमाश्रित्य भवन्ति, ताः ' कम्म 'शब्दे तृतीयभागे ३१३ भव्यपंदशभाजः, शेषा मिथ्यात्वमिति ।
पृष्ठे दर्शिताः) उक्तंच.
णामकरण-नामकरण-10। अभिधानमात्रकरणे, पा०म०१ "सम्यक्त्वगुणन ततो, विशोधयति कर्म तत्समिथ्यात्वम्।
म.२ खपड । “नाम्नान्वर्थेन कीर्तिः स्यात्।"नाम्नाऽन्वयन यवच्छगणप्रमुखः, शोध्यन्ते कोवा मदनाः॥१॥
गुणनिष्पनेन कीर्तिः स्यात् तत्कीर्तनमात्रादेव शम्दार्थप्रतिपयत्मवधाऽपि तत्र वि-कं तद्भवति कर्म सम्यक्त्वम् ।
तेर्विषां प्राकृतजनस्य च मनःप्रसादाद् यथा जवाहुसुमिथ तु दरविशुरूं, भवत्यशुद्ध तु मिथ्यात्वम् ॥२॥"
धर्मस्वामिप्रभृतीनाम्। द्वा०२८ द्वा० न०।। उदयादारणासत्तासु पुनः सम्यक्त्वमिश्र अधिक्रियते। णामगन-नामगोत्र-न । नाम्ना गोत्रमिति प्रसिर्फ याकर्म एवं च सति ज्ञानाऽऽवरणे पञ्च, दर्शनाऽऽवरणे नव, वेदनीय दे। गोत्राऽभिधानं कर्मत्यर्थः । कल्प०२ कण । अन्वर्थयुक्त नानि, मोदनाय सम्यकचमिश्रवाः पविदातिः, भायषि चनमः । टान्वधयक्तं नाम सिद्धान्तपरिभाषया नामगोत्रमित्युच्यत । नाम्नि भेदानरमंजवेऽपि प्रदर्शितयुक्त्या सप्तपष्टिः, गोत्रे वे स.प्र०१६ पाहु । रा०।
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(२००१) गामणय भाभिधानराजेन्छः ।
गयामप्पमाण णामणय-नामनय-पुं० । नामरूपमेव सर्वे बस्त्वित्येवं सिवा- होजत्थे पढिवत्ती, न वत्युधम्मो जया नामं ॥६५॥ तं व्यवसिते नये, (नयो.)
पदा वस्तुधर्मो नाम नेभ्यते, तदा वक्त्रा घटशम्दे समुबारिते नामनयमाद-"यतो नाम विना नास्ति, वस्तुनो प्रहणं ततः।। श्रोतः किमयमाह ?'इत्येवं संशय एव स्यात्, न घटप्रतिनमिव तद् यथा कुम्भो, मृदेवान्यो न वस्तुतः ॥१॥" तथादि- पत्तिः। अथवा घटशब्दे प्रोक्त पटप्रतिपत्तिलकणो विपर्ययः यत्प्रतीतावेव यस्य प्रतीतिः,तदेव तस्य स्वरूपम्। यथा मृत्प्रती- स्यात् । अथवा-'न जाने किमप्यनेनोक्तम' इति चित्तम्यामो. तावेव प्रतीयमानस्य घटस्य मृदेव रूपं, नामप्रतीतावेव प्रती- हेन वस्वप्रतिपत्तिरूपोऽनश्यवसाय: स्यात् । यदि बा-परयते वस्तु । न च बिनाऽपि नाम निर्विकल्पकाविज्ञानेन वस्तु- ब्धयाऽर्थे प्रतिपत्तिर्भवेत् कदाचिद् घटस्य, कदाचित् परस्य, प्रतीतिरस्तीति हेतोरसिद्धता,असर्वसंविदां वागरूपत्वात्। तथा कदाचितु स्तम्भस्येत्यादिन चैवं भवति, तस्मादू बस्तुधर्म च भर्तृहरिः-" चाग्रूपता चेद् बोधस्य, व्युत्क्रामेतेह शाश्वती । पव नाम । ति गाथाऽर्थः॥ ६॥ न प्रकाशः प्रकाशेत, सा हि प्रत्यवमर्शिनी " ॥१॥ यदि च
अपि चमामरूपमेव वस्तु न स्यात् । ततश्च तदवगतावपि वस्तु संश- वत्युस्स लक्खलक्षण-संववहाराऽविरोहसिकीओ। यादीनामन्यतममेव स्यात्। तथा च पूज्या:-"संसयविवजया
प्रनिहाणाऽहीणाओ, बुझी सहो य किरिया य ॥६॥ बा-उणज्जवसाओऽहवा जदिच्छाए । होज्जऽत्धे पडिवत्ती, न बत्युधम्मो जया णामं ॥ ६२॥" (विशे०) उत्त०१०। .
वस्तुनो जीवाऽऽदेः, किम ?, इत्याद-अभिधानाधीना नामा:--
यत्ताः।काः?, त्याह-वक्ष्यं च,लकणं च, संव्यवहारश्च सध्यानभस्मिंश्च नामाऽऽदिरूपचतुष्टये नामनयः प्रधानं नामव मन्यते । तत्र ये सुगतमतानुसारिणो "न ह्यय शब्दाः
क्षणसंव्यवहाराः,तेषामविरोधेनाऽविपर्ययेण सिद्धयः प्रतिष्ठाः।
तत्र मयं जीवस्वाऽऽदि, लकणमुपयोगः, संव्यवहारोऽध्येषणप्रे. सन्ति" इत्यादिवचनाद् नाम्नो वस्तुधर्भत्वमेव ने
पणादिः । तथा बुद्धिशब्द क्रियाश्च 'अभिधानाऽधीनाः' इत्यचन्ति, तान् प्रति नामनयः प्राऽऽह
त्राऽपि संबध्यते। तत्र बुकिर्वस्तुनिश्चयरूपा,शब्दोघटादित वत्धुसरूवं नामं, तप्पच्चय हेउओ सधम्म म ।
निरूपः, क्रिया चोरकेपणाऽवक्षेपणादिका । तस्मादति वत्थु नाऽणनिहाणा, हाजाऽभावो विवाऽवच्चो॥११॥ वस्तु सत्,तदाऽऽयत्तात्मलाभत्वात सर्वव्यवहारमानवचखि
गाथाऽर्थः ॥६३॥ विशे। नामनयस्यायमभिप्रायः-वस्तुनः स्वरूपं नाम, तत्प्रत्यय. हेतुत्वात्, स्वधर्मवत्, इह यद् यस्य प्रत्यय हेतुस्तत तस्य | णामणिप्फम-नामनिष्पन्न-पुंगाखाऽऽदिनामानिष्पनाश. धर्मः, यथा घटस्य स्वधर्मा रूपाऽऽदयः, यश्च यस्य धर्मों न | निचू०१ उ०। प्रवति मतत् तस्य प्रत्ययहेतुः, यथा घटस्य धोः पटस्य, णामणिमित्तत्त-नामानिमित्तत्व- ' नामनिमित्तं भामहतुक संपद्यते च घटाभिधानाद घटे संप्रत्ययः, तस्मात् तत् तस्य
। तद्भावस्तवम । नामप्रतिपाद्यगुणाऽऽत्मकत्वे, पो० १२ विव.। धर्मः, सिद्धश्च देतुरावयोः,घटशब्दात् पटाऽऽदिव्यवच्छेदम घट इति प्रतिपयनुभूतेः। सर्वे च वस्तु नामरूपतां न व्यनिचर
णामधेज-नामधेय-न । नामैब नामधेयम । "नामरूपभागाद तीति दर्शयन्नाद-(वत्थुमित्यादि ) यदि वस्तुनो नामरूपता न धेयः" । ७।२।१५८ । इति (हैम०) स्वाथै धेयप्रत्ययः । स्यात्, तदा तद् वस्त्वेव न भवेदिति संबन्धः । कुतः १,श्त्याह- सू०प्र० १० पाहु. १३ पाहु । प्रश्न । स्था० । प्रशस्ते अनभिधानादनिधानरहितत्वादित्यर्थः । अवाच्योनिधानरदि. नामनि, स्था०६०।दश। नि० चू।नं०। । पर्यातत्वमाऽननिधेयो योऽसावभावः षष्ठभूताऽऽदिलक्षणस्तबदिति यच नौ, अनु। रान्तः। इह यदनिधानरहितं तद् वस्त्वेव न भवति,यथाऽनि-णामधेजबई-नामधेयवती-स्त्री० । प्रशस्तनामधेयवत्याम् मा. धानरहितत्वेनाऽवाच्यः षष्ठनूतल कणोऽभावः; अनिधानरहितं
१७०१ भ०। च वस्त्वभ्युपगम्यते परैः, ततोऽवस्तुत्वमेचास्य नवेद्, अवस्तु. त्वे च कुतस्तत्प्रत्ययहेतुत्वसवणस्य देतोवृत्तिः, येमाऽनै कान्ति
णामपञ्चयफगपरूवणा-नामप्रत्ययस्पर्धकपरूपणा-स्त्री०। ना. कता स्यात् । तत्र तवृत्ती वा तस्यापि वस्तुत्वमेव मप्रत्ययस्य बन्धननामनिमित्तस्य शरीरप्रदेशस्पर्धकस्य प्रकप्रवेत्, स्वप्रत्ययजनकत्वात्, घटाइद्विवदिति। विपक एव वृ.
पणायाम् , क० प्र०ाह नामप्रत्ययस्पर्धकप्ररूपणायां पानुयोसेरजावाद् विरुद्ध ताऽप्यसंभविनोति । तस्माद् वस्तुधर्म एव
गद्वाराणि । तद्यथा-अविभागप्ररूपणा, बर्गणाप्ररूपणा, स्पर्धक. नामेति स्थितम् । न च 'नद्यास्तीरे गुमनृतशकटम' इत्यादिश.
प्ररूपणा, अन्तरप्ररूपणा, वर्गणापुङ्गलस्नेहाविनागसकलसमु. ब्दात् प्रवृत्तस्य कदाचिद् वस्त्वप्राप्तरवस्तुधर्मता तस्येत्याश
दायप्ररूपणा, स्थानप्ररूपणा चेति । (२३ गा.)क०प्र०। (पत. कुनीयम, प्रत्यक्षाऽऽदिप्रमाणानामपि तत्प्रसङ्गात्-तेज्योऽपि हि
सर्व बंध' शब्दे स्पष्टीभविष्यति) प्रवृत्तस्य कदाचिद् वस्त्वप्राप्तः। अबाधितेभ्यस्तेयः प्रवृत्ती णामपुरिस-नामपुरुष-पुं० । संझामात्रेण पुरुषे, सूत्र०१ श्रु०४ भवत्येवाऽर्धप्राप्तिरिति चेत्तदेतदिहापि समानम् , सुबिवेचि- अ०१ उ० । पुरुषेतिनाम्नि, स्था० ३ ठा० १००। सादानप्रणीत शब्दाद् वस्तुप्राप्तेरवाऽप्यवश्यंभावित्वात् श्त्यादि बत्र चक्तव्यम, तत्तु नोच्यते, ग्रन्थगहनताप्रसाद,
णामप्पमाण-नामप्रमाण-न। अर्धाभिधायके शब्दे, (अनु०) अन्यत्रोक्तत्वाच । ति गाथाऽर्थः॥ ६१॥
अथ नामप्रमाणम्किं च
से कि तं णामप्पमाणे? णामप्पमाणे जस्स णं जीवस्स वा संसयविवज्जया वा-गज्वमाअोवा जदिच्छाए ।। अजीवस्स वा जीवाण वा अजीवाण वा तदुभयस्स वा तदु
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मामप्पमाण भाभिधानराजेन्ः।
णायाज्जयधया जयाण वा पमाणे ति नाम कन्जइ, सेनं णामप्पमाणे || सामुदय-नामोदय-पुं० । कालोदारयादीनामन्यथिकानामअथ किं तन्नामप्रमाणम-नामैव वस्तपरिच्छेद हेतत्वात्प्रमाणं म्यतमेऽन्ययूथिके, भ. ७ श०१० उ०। नामप्रमाणम, तेन हेतुभूतेन किं नाम भवतीति प्रइनाभिप्रायः।। णामोकसिअ-देशी-कार्ये, दे० ना०४ बर्ग। पवमन्यत्रापि भावनीयम् । अत्रोत्तरमुच्यते-यस्य जीवस्य णाय-न्याय-पुं० । 'ण' गतौ निपूर्वः । नितरामीयते गम्यते वाऽजीवस्य वा जीवानां बाउजीवानां वा तदुभयस्य वा त- मोकोऽनेनेति न्यायः । व्यवहाराध्ययने, व्य० १३० । श्रुतोपपुनयानां चा यत्प्रमाणमिति नाम क्रियते तन्नामप्रमाणं न
देशे, व्य. ३ उ०। अभीष्टार्थसिद्धः सम्यगुपायत्वाद् न्यायः । तत् स्थापनाद्रव्य नावहेतुकम्, अपि तु नाममात्रविरचनमव अथवा-जीवकर्मसंबन्धापनयनाद् न्यायः । मावश्यके, यथा तत्र हेतुरिति तात्पर्यम् । अनु।
कारुणिकैटो न्यायो द्वयोरर्थिनोमिद्रव्याऽऽदिसंबन्धिविवाद णामनेय-नामभेद-पुं० । संझाविशेषे, द्वा० १६ द्वा० । चिरकालीनमध्यपनयति, एवं जीवकर्मणोरनादिकालीनमप्याणाममुद्दा-नाममुद्रा-स्त्री० । नामाङ्कितायां मुषायाम, उपा० १
श्रयाश्रयिजावसंबन्धमपनयतीत्यावश्यकमपि न्याय सच्यते । अ०।"अभयस्स कहियं नाममुहा ।" आव०६ अ० ।
भनु० । विशे० । “अच्चति लोगसंजोगं, एस जाए प. णामय-नामक-पुं० । विनयालङ्कृतो गुर्वादावादेशदानोद्यतेऽ.
बुध। " योऽयं लोकसंयोगातिक्रम एष न्यायः-एष स
मार्गो मुमुक्षूणामयमाचारःप्रोच्यतेऽभिधीयते । अथवा-परगदा वाऽऽत्मानं नामयतीति नामकः । सदा गुर्वादौ प्रहे सा.
मात्मानं मोकं नयतीति गन्दसत्वात् कर्तरि घ न्यायः । पा, सूत्र०१ भु. १६ उ० ।
योहि त्यक्तबोकसंयोग एष एव परात्मनो मोक्षस्य न्यायः । शामवग्ग-नामवर्ग-पुं० । नामप्रकृतिसमुदाये, जी०३ प्रतिः । प्राचा० १९०२ भ०६ उ०। नीयते संविति प्राप्यते वस्त्वक. प्र..
नेनेति न्यायः । प्रस्तुतार्थसाधके प्रमाणे, विशे• । द्विजक्षत्रिपाामकीर-नामवीर-पुं०। यस्य जीवस्याजीवस्य वाऽन्वर्थरहितं
यबिट्द्राणां स्ववृत्त्यनुष्ठाने, माव.६.। सपपत्ती, पक्षा. इति नाम क्रियते स नामवीरः । नामनामबतोरजेदाद ४ विव० । अविचलितरूपे मार्ग, षो० १६ विष० । अतिदेशे, त्तस्तौ वीरश्च नामवीरः । वीरभेदे, सू० प्र०२ पाहु ।
प्रति । न्यायनिर्णायके, औ0 । शा। नं० । ‘णात' शब्दार्थ । एमसत्य-ना नामानिधानं तत्सत्यं नामसत्यम्। ना.
(इष्टान्त), नि.चू. १०००। मग सत्ये, यथा कुत्रमवर्धयन्नपि कुन्नवर्धन उच्यते, एवं
णायकारि(ण)-न्यायकारिन्-त्रि० । उपपत्तिकारिणि, "एवं धनवर्धन इति । स्था० १० ठा। ध०। प्रशा० ।
आलोइय पडिकंतस्स जो सामाश्यं देति सो णायकारी।" णामसम-नामसम-न० । नामानिधानं, तेन ममम् । ग. अ.
प्रा० चू०१० धिमा० म०। प्रा०चू० । स्वकीयेन नाम्ना समे, यथा ख.
णायकुमार-झातकुमार-पु० । 'पातकुमार'शब्दार्थे,शा० १४.
० म० । नाम शिक्षितं तथा तदप्यावश्यकम् । विशे० ।
णायकुलचंद-झातकुलचन्द्र-पुं०। 'णातकुलचंद ' शब्दायें, णामसमरण-नामस्मरण-न. । चतुर्विंशतिस्तवाऽऽदिनामानु
कल्प. ५ कण। चिन्तने, नाम्नः स्मरणेन नामिस्मरणे तद्गुणसमापण्या फलम् । प्रति।
णायखंग-हातखएक-न०। 'णातखंड' शब्दार्थे, स्था०१०म० णामसव्व-नाममर्च-न। नाम च तत्सर्वे च नामसर्वम् । सचेत. णायग-झातक-पुं। स्त्री० । पूर्वसंस्तुते, व्य.ए.मातानादेर्वा वस्तुनो यस्य सर्वमिति नाम तमामसर्वम, नाम्ना पिनादौ, सूत्र. १ ० ३ ०२ उ० । स्वजने, प्रज्ञायमाने, निo स, सर्वमिति वा नाम यस्येति विग्रहाद् नामशब्दस्य पूर्वनि- चू०८ उ० । सूत्र। पातः। स्था०४०२ उ०।
नायक-त्रि०। प्रभी, यथा राष्ट्रस्य राष्ट्रमहत्तरकः । स० ३० शाममुह-नामशुभ-न० । तीर्थकराऽऽदिसंबन्धिनि नामकर्मणि,
समादशाानगरकटकाऽऽदिप्रधाने, ०। अधिपती, स्था. दश०१०।
५ठा.१००। प्रणेतरि, सूत्र. १ श्रु. १५ ०। स्वामिनि, णामार्णतय-नामानन्तक-न० । अनन्तकमिति नामभूतायां व. स०१ सम । व्य. । कर्मणां नेतरि, भ. २००२ णानुपाम् , यस्य वा सचेतनाऽऽदेवेस्तुनोऽनन्तकमिति नाम
उ० । व्य० । चक्रवादी राजनि, औ० । प्रधाने, पाष०५ तस्मिन्, स्था० १००।
अ.शा.नियति वृद्धि प्रापयति यः स नायकः । प्रइन०५
सम्ब० द्वार मानाऽऽदीनां प्रापके, व्य. ३०। सूत्र। णामित्ता-नमयित्वा-स्त्री० । नतिं कारयित्वेत्यर्थे, " णामित्ता गहियाणि पच्चत्तगाणि ।" नि० चू०१ उ.।
णायज्जियधण-न्यायार्जितधन-न। असिमषीकृषिवाणिज्या. णामिय-नामिक-न । वाचके पदे, यथा ' अश्व' इत्यादि। अद्युचितकलया परवञ्चननिरपेक्वतयार्जितेकव्ये,कव्या०६५ प्रा० म०१ अ०२खएक । अनु ।
न्यायार्जितं धनं गृहिधर्म:णामिंद-नामेन्छ-पुं० । ययार्थसंझे इन्ने, अथवा-इन्धार्थशन्य- तत्र सामान्यतो गेहि-धर्मो न्यायार्जितं धनम् । (५) त्वाद् नाममात्रे इन्फे, वृ० । "केवलसन्ना उ नार्मिदा।" केवला (न्यायर्जितं धनमित्यादि) तत्र स्वामिलोहमित्रद्रोहविश्व
का संझा तदर्थनिरपेक्का, स नामेन्छः। वृ०१ उ० । स्था० ।। सितवञ्चनचौर्यादिगार्थोपार्जनपरिहारेणार्थोपार्जनोपायनूतः (विस्तरस्तु 'इंद' शब्दे द्वितीयभागे ५३२ पृष्ठे अष्टव्यः) । स्वस्ववर्णानुरूपः सदाचारो न्यायः, तेनाऽर्जितं संपादित
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(२००३) अभिधानराजेन्ऊः |
शायज्जियधण
धनम् - भयमेव धर्मः । न्यायार्जितं हि धनमशङ्कनीयतया स्वशरीरेण तत्फलभोगाइ मजादी संविभागकरणा मेह लोकहिताय पात्रो धीराः स्वकर्मबलगचिंताः । स्वकर्मनिन्दिताऽस्मानः पापाः सर्वत्र शङ्किताः ॥ १॥ सत्पात्रेषु विनियोगाद् दीनाऽऽदौ कृपया वितरणाश्च परलोकदि ताय । पठ्यते च धार्मिकस्य धनस्य शास्त्रान्तरे दानस्थानं यथापामार्गे च दानं विधिवदोष्यवर्गा विरोधेन, न विरुद्धं स्वतश्च यत् ॥ १ ॥ " अन्यायोपात्तं तु लो. कयेऽप्यहितायैव श्लोके विरुद्धकारिणो वधबन्धाऽऽदयो दोषाः, परलोके च नरकाऽऽदिगमनांssदयः । यद्यपि कस्यचि पापानुयानादिलो किकी विपन तथा व्यायत्यामवश्यं भाविन्येव । यतः पापेनैवार्थ रागान्धः, फ· लमाप्नोति यत् कचित् । वमिशामिषवत्तत्त-मविनाश्य न जीति॥१॥" इति न्याय व परमार्थतोऽयपानोपायोपनिषत् । यदाद " निपानमिव मएगूकाः, सरः पूर्णमिवाएरुजाः । शुभकर्माणमायान्ति विवशाः सर्वसंपदः ॥ ॥ इति दर्श धनं व गार्हस्थ्ये प्रधानकारणत्वेन धर्मतया उदौ निर्दिष्टम्, अन्यथा तदभावे निर्वाहविच्छेदेन गृहस्थस्य सर्वश्रुतक्रियोपरमप्रसङ्गादधर्म एव स्यात् । पठ्यते च "वित्तीवोच्छेयम्मी गिदियो सीयंति सम्यकिरिया निवेक्स उतो, संपु नो संजमो क्षेत्र ॥ १ ॥ " इति । ध० १ अधि० । शायज्जियवित्तेस-न्यायार्जितवितेश-पुं० । न्यायोपार्जितव्यस्वामिनि, पो० ५ विव० ।
1
"
या परऊपण ज्ञाताध्ययनन
सादरतिपाद
के यस्याङ्गस्य प्रथमस्कन्धे १६ उनविंशति शताध्ययनानि ।
छस्स अंग दो लापता । तं जहा या णिय, धम्मका य । पढपस्स णं भंते ! सुयक्खंबस समणे जगण्या महावीरेणं० जात्र संपचेणं णाया कति अज्कयणा पष्मत्ता ?। एवं खलु जंबू ! ० जाव भ्रमणं भगवया महावीरे जाव संपतेषां यायाणं ए गुणीसं कणा छत्ता । तं जहा
" क्खित्तणाए संघाडे, मे कुम्मे य सेलगे ॥ तुंबे य रोहिणी मली, मायंदी चंदमा इय ॥ १ ॥ दावदने उदगनाए, मंकुक्के तेतली विय ॥ नंदिफले अवरकंका, आइये सुमा इय ||शा अवरे य पुरमरीए, गायाए गुणविंसतिमे" |
( णायाणि चि) ज्ञातान्युदाहरणानीति प्रथमः श्रुतस्कन्धः । ( धम्मकाओ त्ति ) धर्मप्रधानाः कथाः धर्मकथा इति द्विती वः। इत्यादि तत्र कुमारजीवन हस्तिभवे प्रवर्तमानेन यः पाद उत्प्तिस्तेनोस्किप्सेनो• पतिं मेघकुमारचरित दादरार्थ साधनमुत्सितम् ज्ञाताचायैवं भा बनीयादादिगुणवन्तः सदन्त एव देवदाद कम क बाद मेघकुमारजीस्तीतिमा सुमध यमानत्वादध्ययनमुकम् पयं सर्वन १, तथा सङ्घाटका, श्रेष्ठि
पायविहि
वीरयोरेकधनवमध्यमार्थाकस्वाद कालम ए मौचित्येन सर्वत्र ज्ञातशब्द योज्यः, यथायथं च ज्ञातत्वं प्रत्यvor तर्थावगमादच सेयमिति २ गवरम- अएककं मयूरा. एकम् ३, कूर्मश्च कच्छपः ४, शैलको राजर्षिः ५, तुम्बं व अलाबु ६, रोहिणी श्रेष्ठिबधूः ७, मल्ली एकोनविंशतिसमजिनस्थानोत्पन्ना तीर्थकर छ माकन्दी नाम पवित्र, तत्पुत्रौ माकन्द | शब्देनेह गृहीतौ ए, चन्द्रमा इति च १०, (दाबद्दल) समुद्र विशेषाः १२.उ परिवाजनं तदेव कातमुदाहरणमुद्रकात १२० मक नन्दमणिहारयेद्विजः १३. विशितली तानिधानोऽमात्य इति च १४, ( नंदिफन ति ) नन्दिवृत्तानिधानतरुफलानि १५, अपरकङ्का घातकी खएडनरतक्षेत्रराजधानी १६, ( आइसेति) आकीर्णा जात्याः समुद्रमध्यवलिंग १७ मा) मन दुहिता १८, अपरं पुरीकासमेकोनशतममिति १ए । ० १ ० १ भ० । आव० स० शायद न्यायद-पुं० [दर्शिनि ०१०२०
णायपुत्त - ज्ञातपुत्र- पुं० । ज्ञातः सिद्धार्थः तस्य पुत्रः । करूप० ५ कृप । वीरवर्द्धमानस्वामिनि, सुत्र ०१, ० ६ २० | आचाका दश शायपुर भोर- ज्ञातपुत्र चोर गि निःसङ्गताप्रतिपादनपरे सके ६० णायपुचरपणातपुत्रवचन- १० श्रीमन्महावीर
१० अ० ।
शायचिय-ज्ञातपुत्रीयन वीरस्यामिनिसोथै
प्राचा० १ ० १ ० ३३० ।
णायविहि-ज्ञाविधि-पुं० [स्यजननेदे, य० ।
निक्कोतविधिसूत्रम् -
भिक्खू व इच्छेला नायविहिं एचएणो से काहि थेरे अणापुच्छित्ता; कष्पति से येरे पुच्छित्ता पायविहिं पत्तर, घेरा य से बियरेजा एवं से कप्पति छायविहिं एचए घेरा यो से वियरेज्जा एवं से णो कप्पति पायविहिं एत्तए ने तत्थ थेरेहिं अवितिष्ठे पायविहिं एइ, से अंतरा बेदे वा परि हारे वा ।। १ ।।
1
णो से कंप्पति अप्पस्सूयस्स अध्यागमस्स एगागियस विएनए |२| कप्पति से ने तस्य बस्तुए बागमे तसाियविधि एचरः तत्या से पच्छागमणं पुण्याचे चाललोदणे पच्छाते मिलिंगमूरे, कप्पति से चालोदणे परिग्गहित्तए, णो से कप्पति निलिंगसूत्रे पढिग्गहित्तए ॥ ३ ॥ तत्थ से पच्छागमणेणं पुव्बाउने नितिगसूबे पच्छाउने चाउलोदणे, कप्पड़ से भिक्खू निर्मिवे परिहत्तर, नो से कप्पति चानलोदणे पडिग्गहिदोन कप्पति दोत्रि पाहिचर ||४|| सत्य से पच्छागणेणं दो विपच्छाउ णो से कष्पति दो
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पायविहि
वि परिग्गहिवर ॥ ५ ॥ जे से तस्य पच्छागमणं पच्छाउने, से णो कप्पति पमिग्गहित्तए ॥ ६ ॥ जे से सत्य पच्चागमणे पुण्याते से कप्पति ॥ ७ ॥ निशब्दाद मिझुकी पातविधि स्वनभेद मागन्तुम् । 'से' तस्य न कल्पते स्थविरान् अनापृच्कृष तविधिमा गन्तुम् "कप्पति धेरे" श्वं प्राग्वत् (नो से कप इत्यादि) न 'से' तस्य कल्पते अल्पश्रुतस्य अगीतार्थस्य म. पागमस्य वढिःशास्त्रेष्वतिपरिचयभ्याऽविद्यमाननिजाऽऽगमस्यैकाकिनो ज्ञातविधिमा गन्तुम। कल्पते 'से' तस्य यस्तत्र गच्छे बहुतः सूत्रापेवा बागमां विधिमागन्तुम् । तत्र णमिति वाक्यालङ्कारे, तस्य ज्ञातविधिमागतस्य आगमनात् पश्चाद्य योयुकः उलोदनः । पूर्वायुक्त इति केचिद् व्याचकते - आगमनात्पूर्व यामारी रचनाय अपरे ध्यायते गमनापूर्व पा काय समीहितम् । एतद् मतद्वयमप्यसङ्गतम; आरब्धे, समीहिते पुनः संभवत्युक्तइतिआगमनापूर्व गृदस्यमानः स तदुलो, नाम 'सस्नेहः सूपः स कते प्रतिदीतुम योग तत्र पूर्वमागताः साधव इति हेतोः पश्चादायुक्तः प्रव लोनो वा ना कल्पते प्रति
तुम
(२००४) अभिधानराजेन्द्रः ।
-
चा
पार्थः।
ser भारयकारो ज्ञानविधिपदं व्याख्यानयतिम्यापितिसंबंधो, पुण्वं पच्छा व संधुवा जे छ | एमो खबु पायविही-गे भेया य एकेके ॥ ३ ॥ मातृद्वारेण, पितृद्वारेण च यः संबन्ध एष ज्ञातबिधिः। अथवा-ये पूर्वसंस्तुता मातापित्रादयः च पश्चात् संस्तुताः श्वश्यरादयः । एष समस्तोऽपि शातविधिः, एकैकस्मिश्च मातृद्वारे, पितृद्वारे वा यदि वा पूर्वसंस्तुतेा संस्तुते वाऽनेके मेदाः । मनेन विधिशब्दो भेदवाची व्याख्यातः ॥३॥ अधुना निर्युकविस्तरःनागविगि लगा, आणाऽऽदि विराजमाऽऽपाए । संजपत्रिराहणा खलु, उग्गमदोसा तहिं होज्जा ॥ ४ ॥
निष्कारणे विधिनाऽपि ज्ञातविधौ गमनं करोति तर्हि प्रायचितं चत्वारो लघुकाः, तथा भाझाऽऽदयो दोषाः, तथा संयमे आत्मनि च विराधना । तत्र संयमविराधना, यतस्तत्र खलु निश्चितमुरुमदोषा श्रधाकर्माऽऽदयो नवेयुः ॥४॥
कथमुनमदोषा भवेयुः ?, अत आहदुभलाभासमा, नीया नेढेगा माइकम्मादी | चिरश्रागयस्म कुज्जा, जग्गमदोसं तु एगतरं ॥ ५ ॥ डुलेनन्नाभाः खसु श्रमाः, तथा महता देनास्माकं बन्दापनाय नीता निर्गताः, ततत्रिरादागतस्याऽऽत्मस्वजनस्य तस्य प्राघूर्णत्वकरणायोफमदोषमा धाक मऽिऽदिकमेकतरं कुर्यात् ॥ ५॥ इति संजय एसा पिराहणा होइमा उ आयाए । छगन्नगसेावतिकलु - परगण्याले य एमादी ॥ ६ ॥ इति पचममुना प्रकारेण पषा अनन्तरोदिता, संयमे विराधना भवति । श्रात्मविराधना पुनरियं वक्ष्यमाणा - छागड
मायबहि हान सेनापती मृते समागते करुणादिने, स्थानतेस्थाने डोकते, मादी ॥६॥
तत्र यथा छागदृष्टान्तेनाभिसमीहिते सेनापतौ मृते तस्मिन् आगते आत्मविराधना भवति, तथा नावयति
जह रोगस्सा, मंसं मज्जारएण प्रक्खित्तं ।
सो असं मग्गः इणमो व तत्याऽऽतो ॥ ७ ॥ कटपोसीए, गजबकाए उछालो तत्थ । सुधा व सो बढितो, पके आत सि नाऊणं ॥ ८ ॥
यथा राज्ञा सुपस्य सुपकारस्य मांसं मार्जारेणाऽऽक्षिप्तं नीतं, ततः स सुपकारो जीतोऽर्दनो जातो मांसं मृगयते, तस्मिँश्च मृगयमाणे तत्र महानसे भयमतर्कितः कटुभाण्डपोट्टलिकया गलबद्धया युक्तश्छाग आयातः सन् सुपेन सूपकारेण मारितः 'थके' प्रस्तावे 'भाता' इति ज्ञात्वा । एष दृष्टान्तः ॥७ION साम्प्रतमुपनयमाद
एवं
आई ताई मर्गति से समतेण ।
सोय ता संपत्तो, बबरोवितो संजमा तेहिं ॥ ए ॥
सूपकार व तस्य साघोर्ये स्वजनाः तेषां सेनापतिर्मृतः ततस्तानि जनकपानि मानुषाणि (अ) म. शरणानि से भ्रमीतून सेनापतिभ्रातरमात्मीयं समन्ततो भू गयन्ते स च मृम्यमाणः सवेच संप्राप्तः तनस्तं समुपस्थि ताः स्वजनाः, वयं परिभूता भविष्यामो न च त्वयि नाथे विद्य माने परिवोऽस्माकं युक्तः, तस्मात् कुरु प्रसादमित्येवं तैरुपसर्ग्यमाणः संयमादू व्यपरोपितः ॥ ६॥
1
संप्रति करणद्वारमाह
सेणावती मतो तू, भाय पिया वा वि तस्स जो आसी । अटो व नत्थि अरिहो, नवरि इमो तत्थ संपत्तो ॥ १०॥ सेनापति यो छाता पिता वा मासीत् सोऽपि तावडू सेनापतिर्मृतः, मृतः, अन्यश्च तस्मिन् गृहे अह योग्यः सेनापतित्वस्य, नास्ति, नवरमयमेव योग्यः, स च तत्र संप्राप्तः ॥ १० ॥
तो कलु का विति अणाड़ा वयं विद्या तुमए । माय मा सेणावति लच्छी संकामो अनं ।। ११ ।। ततस्तत्संप्राप्यनन्तरं ते स्वजनाः करुणं क्रन्दन्तो ब्रुवते त्रयमनाथास्त्वया विना । श्यं च प्रत्यक्कत उपलभ्यमाना सेनापतिसारन्यं पुरुषान्तरं मा संक्रामतु ॥ ११ ॥
तं च कुलस्स पमाणं, बलविरियं तुज्जऽधीणमेयं च । पच्छावि पुणो धम्मं, काहिसि दाणि पसीयादि ||१२|| त्वं च कुलस्यास्य समस्तस्यापि कुलस्य प्रमाणम्, एतच बस्स्यादि वीर्थमान्तरसा समस्तस्यापि कुलस्य त पादपि त्वं धर्म करिष्यसि संप्रति पतदेवार्थये यत् सेनापतिपदप्रतिपश्या प्रसीद ॥ १२ ॥ एवं कारुणं इशी सोभितो तु सो तेहिं । ཞུ
1,
-
विज्जइ ताहे, संजमजीयाउ सो तेहिं ॥ १३ ॥ एवमुपदर्शितेन प्रकारेण कारुण्येन, ऋद्धा च तैः स्वजनैः स जोभितो लोभं प्रति ततो लोभणानन्तरं सः
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पायविहि
संजीवित परोच्यते ॥ १३ ॥ तदेवं करुणाद्वारे व्या श्यातम् ।
अथ रनग्धाहारमाह
अभिनयविरेां विग्गतपच्छ
जातो ।
,
1
यानं या व पुष्पं जवती तिति ॥ १४ ॥ कदाचित विभवेन दारिद्रयेणेत्यर्थः रिक्थं पूर्व पुरषोपार्जितं विरे ततोऽविरेकेण च रोपेस गृहान्निर्गत्य प्रवजितोऽनवत् पश्चाच्च स स्वजनवगों भ्रात्रादिक ऋकिमान जातः, ततो वसूनां रत्नानां पूर्ण भृतं स्थालं तन्ति यथा गृहस्थानमेतदिति॥१४॥ तस्स विडूण तयं, अह बोजकी ततो तु समुदिष्ठो । वत्ररोवितों संजमतो, एए दोसा हवंति तर्हि ॥ १५ ॥ तस्यापि साधोः तत् रत्नभृतं स्थालं दृष्ट्वा, अथानन्तरं ततो स्थानः समुः सम्प्राप्तः सतस्तेन संवाद व्यपरोधितः पते दोषास्त्रागमने भवन्ति ॥ १५ ॥
संप्रति "पमादी" इति व्याख्यानयन् प्रकारान्तरमाहअहवान दोज एते, अणे दोसा इवंति तत्य इमे । जेहिं तु संजमातो, चासिज्ज बुडितो तिम्रो ।। १६ ।। अथवा एतेऽनन्तरोदिता दोषा न भवेयुः, अन्ये इमे वक्ष्यमाणास्तत्र ज्ञातविधिगमने दोषा भवन्ति । यैः सुस्थितोऽपि स्थितकः सन् संयमाश्चात्यते ॥ १६ ॥
( २००५) अभिधानराजेन्द्रः ।
,
के ने दोषा इत्यतस्तत्संसूचकं द्वारगाथाद्वयमाहसरोवरऍपेक्षणाएँ हवसग्गे । पंथेरोयणभतर, ओजावणें अम्द कम्मकरा ॥ १७ ॥ बाघातो अलो, अजिजोग विसे सयं च ससुरणं । पंतवणपरं तं वा ते पातिवाति ॥ १० ॥ प्राक्रन्दस्थानद्वारं प्रथमम् । द्वितीयं श्वशुरेणापवर के किस इति द्वार तृतीयं चतुर्थमुपसर्गद्वार पञ्चमे पथि रोदनभृतके जार्या इति द्वारम् । षष्ठमपभ्राजनाद्वारम्यथाऽस्माकमेष कर्मकर आसीत् । सप्तमं द्वागघातद्वारम् । अ टममनुलोमद्वारम् । नवममजियोग्यद्वारम् । दशमं विषद्वारम् । ततः स्वयं श्वशुरेण प्रान्तापणबन्धरोधनानि क्रियन्ते ततः कोपात्तं श्वशुरं सोऽतिपालये विनाश्वे ते वाश्व
यः साधुमतिपालवेयुः इति एकादशं द्वारमिति कार गाथाद्वयसमासार्थः ॥ १७/१८ ॥ साम्प्रतमेतदेव विवरीषुः प्रथमत आक्रन्दस्थानधारमाहदीसंतावि हु णीया, पव्त्रयहिययं पि संपकँपेंति । कणकिणापि किं पुष्प, कुणमाथा एगसेज्जाए ? | १६ | सेनापती मृते स तत्र ज्ञातविधैा गतः, तत्र दृश्यमाना अपि निजकाः पर्वतहृदयमपि पर्वतसदृशमानसमपि साधुं संयमाद संपत्ति सम्यगन्तलमीनू प्रकर्षेण उपाययन्ति किं पुनरेकस्यां शय्यायां णानि रोनानि कुर्वाणाः,
66
सुतरां संपमा ॥ अदद्वाविवो, तेसिं सोचा उ नायगादीनां ।
पुण्यावर चरोपण, 'जाय अथाह ए को वि ॥ २० ॥
सीता इति पाठान्तरम् ।
५०२
39
सोऽधिकृ ने स्थितः पूर्व
करुणकृपणं यथा- 'जाता वयमनाथाः, भविष्यामः सर्वेषां परिज वाश्पदम् इति वाकयर्थः ५० गतमाक्रन्द स्थानम् ।
ते ज्ञानकाः कन्दन्ति अपर
रो
यायविहि
अधुना " ससुरतवरण " इत्यादि द्वारमाहमहिलाऍ समं बोढुं ससुरणं ढक्कितो उ उन्चरो । नायविडियागयं ना. पेले उब्जाभिगसगाए ॥ २१ ॥ तस्य साधोः श्वशुरकः, तं तत्र समागतं साधुं दृष्ट्रा निजदु हितरं सर्वभूषितां कारयेत्कारत्वा च यदापन य, भिक्षार्थ वा तत्र समागतेन श्वशुरकेन महेलया भार्यया स ममपवर के द्वित्व अपवरको ढक्कितः - स्थगित धारः कृतः । रात्र उपलम्यैमाणः ।
प्रेरणाद्वारमादाधाधुं वरस्तस्य स्वकीयया उद्भामिकया प्रार्थया प्रेरयेत् संयमाद् ब्याबयेत् ॥ २१ ॥ गतं [प्रेरण / द्वारम् ।
साम्प्रतं चतुर्थमुपसंगद्वारं प्रतिपिपादायेषुरिदमाहमोदुम्मायकराई, उपसगाई करेड़ से परहे। जज्जा नहिँ तक विष पाजते ||२२|| भार्या 'ते' तस्य स्वजनविधिगतस्य सा विरहे मोहोन्मादकरात् उपसर्गात् अङ्गीकरोति स्वान भज्यते सद्यः ॥२२॥
संप्रति पंथरायणभतर ' इति व्याख्यानमाहकड़वे समावेश य, जतओ भोई पथि पंतावे | मुंडियं मे भयवं पंताचए कुषितो ॥ २३ ॥ साधुतविधिं गतस्तत्र च लज्जया भिक्कां न हिण्डते, तत उच्छ्रामकभिकार्यायां गतः तेषां च ज्ञातकानां क्षेत्रं पथितत्र कै तवेन वा स्त्रभावेन वा तस्य भार्या नृतकेन समं कुत्रं गता, तत्र सभृतकः कैतवेन स्वभावेन वा कर्मणि भार्यो ( १ ) ॥ २३ ॥ कम्मतो पन्त्रइतो, जतओ एसऽम्ह आसि मा बंदा । उधार दे पाये तसा दे ।। २४ ॥ कदाचित् स प्रत्रजितः कर्मकर आसीत्, ततस्तं बहुजनो - त्योऽनृतक आसीत् कर्मतः कर्मभासद प्रवजितः, तस्माद् मा वन्दिषत ।
बागधानद्वारमाह-चङ्क्रामक के उद्धामकनिक्षाचर्यागतेऽधिते साथ क्षुद्रे मूर्खे तस्य सा नृत्यागाददाति कुपिता सती गतिं घातयतीत्यर्थः ॥२४॥ अधुनाऽनुप्रोमोपसर्गमा
मा द्विज्जन कुलतंतू, घणगोत्तारं तु जणय मेगसुयं । स्थनमादी, अभिनोजेनं बसं ऐति ।। २५ । तस्य ज्ञात विधिगतस्य साधोङ्गीतविधिरेवं ब्रूयात् मा छिद्यतां बेदं यायात्, कुन्नतन्तुः कुलसन्तानः, तस्मात् धनरक्कमेकं सुप्रसाद जन, डीएसक
श्चित् उत्प्रव्रजेत् ।
अधुना अभियोग्यद्वारमा दमादमादिविशेषपरिषदः स्वजनस्तमात्मवशं नयन्ति ॥ २५॥
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आदिशब्दात् बा तैरभियोग्य व
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(२००१) निधानराजेन्द्रः ।
वायविहि
विषहारमाह
"
नेच्छेति देवरा मे, जीवंते मम्मि इति विसं देना । प्रणेण वदावेश्या, समुरो वा से करे इमे ।। २६ ।। साधुं विचिन्तयेत्-अस्मिन् जीवति मां देवरा मोग्याच्यन्ति तस्मान्मारयामि केनाप्युपायेन नमिति विचिन्त्य स्वयं वा विषं दद्यात्, अन्येन वा दापयेत् । 'सयं च ससुरेण इत्यादिद्वारा से तस्य साथ श्वरो वा स्वयमिदं कुर्यात् ॥ २६ ॥ कि तदित्याहपंतवणवधरंजण, तस्स वि नीयन्नगा उ खुब्भेजा । या कमाइतो तु सो वऽतिवाएज एकतरं ||२७|| श्रस्तं दृष्ट्रा कुप्येव यथा एतेन मम दुहिता जीववीकृता, ततः कोपात् तस्य साधोः प्रान्तापणं प्रहारदानं बन्धनं या निगमादिनिरोपाचराद्वा निर्गमनं कुर्यात, कारयेत् वा तस्यापि च साधोः, निजका आत्मीयाः तमे मामवस्थां प्राप्तं दृष्ट्वा, ज्ञात्वा वा तुभ्येयुः, कोनाच श्वशुरेण समं युद्धं कुर्युः, तत्र परस्परमपावणाऽऽदि भूयात् । अथवा स एव साधुः कषायितः कषायोदयं प्राप्तः सन् एकतरं श्वशुरायतनमतिपातयेत् ॥२७॥
अत्र प्रायश्चित्तविधिमादएकम्मि दोसुती व मूखवडो तहेच पारंची।
ग्रह सो अतिवाज्जइ, पात्रइ पारंचियं ठाणं ॥ २८ ॥ एकस्मिन्नतिपातिते मूलप्रायश्चित्तमान् भवति द्वयोरतिपा तितयोरवस्थाच्या विषु प्रतिपातितेषु पाराची अथ स एव अतिपात्यते साधुस्तर्हि स यदि कथमपि जीवति ततः पाराचितं स्थानं प्राप्नोति ॥२८॥
अन्यान् दोषानाह
हवा विधम्मड्डा, साहू तेसिं घरे न गेण्डति ।
दोसssदिया, ताहे नीया जांसि इमं ॥ २७ ॥ अथ वेति प्रकारान्तरेण दोषकथनाने सावधा उद्गमदोषाऽऽदिभयात् तेषां गृहे न किमपि गृह्णन्ति, ततस्ते निजाः स्वजना इदं भणन्ति ॥ २९ ॥
किं तदस्याह अहं अणिमाणो आगमणे सज्ज कुणति एसो ओदावण हिंडते, पो लोगो व णं जयति ॥२०॥ अस्माकं गृहे किमप्यनिच्छन् एष आगमने लज्जनमयशस्का. रं करोति ! यतः अस्मिन् प्रतिगृदमन्यत्र भिक्षां हिएकमाने महती नूनमस्माकमपभ्राजना, लोको वाऽन्य इदं भणति ॥ ३० ॥ किसा नीलस्स विजयं न तरह दानं वि तुकों किव चि गेहे झुंज बुत्ते, भणाति नो कप्पियं जुंजे ॥ ३१ ॥
साधु निकामा केवि अन्ये स्वजनान् प्रतिःयथा यूयं कृपणा निजकस्याप्येकस्य प्राघूर्णकाऽऽगतस्य नक्क दातुं न शक् ततस्ते एवमुकाः सन्तः साधुसमीपमागत्य श्रुवते यावन्ति दिनानि यूयमत्र तिष्ठथ, तावन्माऽन्यत्र भिक्कामत, किं तु गृहे श्वम्, अन्यत्र निक्काटने हि महत्यस्माकमप
यायविहि म्राजना । स एवमुक्तः साधुर्नयति- युष्मद्गृहे न भुजे, यतः अहं कपिकं मुझे तुम उमादिशेषाङ्क ३२॥ एवमुक्ते ते स्वजनाः प्राऽऽडुः
किं तं ति वीरमादी, ददामो दिने य जातिभज्जाओ। वैति सुते जायंते, पनिया से करा बहू पुचा ! ||१२||
किं तत् कपिः सा-यानि युष्माकं यथाप्रवृतानि कीराऽऽदीनि करवधिस्ते आहुः एतानि यथाप्रवृत्तानि दास्यामः । गाथायां " वर्तमानसामीप्ये वर्तमानवद्वा " ॥ ३ । ३ । १३१ ॥ इति वचनात् ततो इसे कीरादिके प्रातृभाषी सुताद कीराऽऽदीनि याचमान् प्रति हे पुत्राः ! बढ्यो ऽस्मा कं कराः पतिताः ॥३२॥
तानेवाऽऽद्ददहिगुलतेलकरा, तककरा चैत्र पामिया म्हं । रायकरपेचिया, समणकरा करा कोई ।। २३ ।। दधिकरन करगुड करतलकराम, तथा तककरा, अस्माकं पातिताः श्रमणैः । राजकरा अस्माकमपतन्, तैः सबैव प्रेरिता
मदे परं राजकरमेरितानामस्माकमयं भ्रमणक दुष्करोमित प्रभूतसपहरणात ॥३३॥
अ य तर्हि, नायविहिगमणे होंति दोसाओ । सम्दा छ न त कारणजाते भवे मम ॥ २४ ॥ एते अनन्तरोदिताः अन्ये चानुकाः, तत्र ज्ञातविधिगमने, दोषा भवन्ति, तस्माद् ज्ञातविधौ न गन्तव्यम् । एष उत्सर्गः । कारणे नग्नदल जाते पुनरपवादतो गमनं भवेत् ॥३४॥ तदेवाऽऽदगेलष्मकारणं, पानंग्गासति तर्हि तु गंतव्वं । जे छ समत्युवसम्गे, सहि ते अति भया ।। ३५ ।। ग्लानत्वकारणेन अन्यत्र प्रायोग्यस्य औषधाऽऽदेरसत्यभावे, उपलक्षणमेतद्-वैद्याभावे च तत्र गन्तव्यम् । तत्र वैद्यस्य, प्रायोग्यस्य भीषवस्थामाऽऽदेय प्रमाणत्वात् तत्र ये उपसर्गान् सोढुं समर्थाः, ते यतनया वक्ष्यमाणया यान्ति गच्छन्ति ॥३५॥
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तामेव यतनामाद
बहिऍ प्रणापुच्छार, लहूगा लहुगो य दोच्चऽणापुच्छा । आयरियस वि लघुका, अपरिच्छिय पेसवंतस्स || ३६ || अत्र एवं सूत्रं पठति" नो से कप्पति धेरे श्रणापुच्छिता नायविदि एत्तए " इत्यादि । तंत्र यदि बहिः स्थविराणामनापृच्छया व्रजति, ततस्तस्य प्रायश्विन्तं चत्वारो लघुकाः, स्थविरान् श्रापृच्छय तैर्विसर्जितो यदि द्वितीयस्थविरान् श्र नापृच्छ्य व्रजति, ततो द्वितीयानापृष्ठायां मासलघु, आचायोऽपि यदि अपहितान् प्रेषयति, ततस्तस्यापरीक्षितान प्रेषयत्वारो लघुकाः प्रायधितम ३ ॥३६॥
तम्हा परिच्छ्यिन्त्रो, सज्जाए चैव जिक्खजावे य । थिरमचिरजापट्ठा, सो उनवाए हिमोहं तु ॥ ३७ ॥ यस पदमपरीतिमेपणे प्रतिस्थिस्थिरा
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पायविहि
स्वाध्यायेनाभावे च परीक्षितव्यः स पर्विश्वमा रुपायैः
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तानेवाऽऽद्द
चरणकरणस्स सारो, भिक्खायरिया तत्र सज्जाओ । एत्थ परितम्ममाणे, तं जाणसु मंदसंविग्गं ॥ ३८ ॥ चरणं व्रतभ्रमणधर्माऽऽदि । उक्तं च "वयसमणधम्म संजमबेयावच्चं च प्रगुत्ती । नाणाइतियं तको हनिग्गड़ा इइ चरणनेया ॥ १ ॥ " ( सम्म०३ काराम ) करणं पिएमविशुरूषादि । उक्तं च-" पिंकविसोही समिती, भाषण पमिमा य इंदिय निरोहो । पमिलेहण गुसीओ, अभिग्गहा चैव करणं तु ॥१॥ ( ग० १ अधि० ) तस्य चरणकरणस्य सारो भिक्काचर्या, स्वाध्यायश्च ततोऽत्र त्रिकार्यायां स्वाध्याये च परिताम्यति शं मन्यते तं जानीत मन्दमम॥३८॥
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(२००५) अभिधानराजेन्द्रः ।
चरणकरणस्स द्वारो, जिक्लायरिया सहेब सम्झायो । एस्य उज्जममाणे तं जासु तिब्वसंविग्गं ॥ २५ ॥ चरणकरणस्य सारो निक्काचर्या, तथैव स्वाध्यायः, ततोऽत्र भिकाचर्याssदाद्यच्छति, तं जानीत तीव्र संविग्नं, तदेवं स्थिस्थिरपरिज्ञानार्थे परीक्षा उक्ता ॥ ३९॥ संप्रति किमेष उप सचिन इति परीकार्थमाहकड़वे सहावेण प, अएयास्स व साहसं कहिवंते । मायपितिज्ञायजगिणी-नापुनाऽऽदिप तु ॥ ४० ॥ यथा स शृणोति तथा कैतवेन स्वभावेन वा अन्यस्य साधोः मातापितृभ्रातृभगिनीभार्यापुत्राऽऽदिषु विषये साध्यसं कथ्यते ॥४०॥
केन प्रकारेण १, इत्यत आहसिरकोट्टाकणारी प, कुणमाणाई तु पायवमिपाई । प्रमुख न गणिया, जो पति निष्पिवासोति ॥४१॥ मातापित्रादीनां शिरकुन कराना भायमाणानि पादपतितानि वाऽमुकेन न गणितानि एवं साध्यसे कमाने यो जस्पति अतीव खलु निष्पिपासो घोरहृदयः, न युज्यते नवमपीति ॥४१॥
सोनावतों परिवको, अपटीबद्धो बन जो एवं । सोइहिति केचियाऊ, नीया जे आसि संसारे १ ||४२|| स भावतः स्वशातेषु प्रतिबद्धो ज्ञातव्यो, न शक्तः स सोहुमुपसर्गानिति । यस्तु तथा साध्वसे कराने एवं भू संसारे सर्वजीवाः सर्वेषां पुत्रत्वाऽऽदिकमुपगताः, ते आसीरन् संसारभन्ते निजातयतः स शोचविध्यति कि वा मातापित्रादिनिः शोचितेर्ये निजान् संसाराद् न च संयमे पातयन्ति ? । स ज्ञातव्यो जावतः स्वजनेष्वप्रतियकः समर्थः सोडुमुपसर्गानिति ॥
मुद्दरागमादिहि प, वोर्स नाऊ रागवेरग्गं ।
नाक धिरं वाहे, मसहाय पेसर्वेति ततो ॥ ४३ ॥ यस्य ज्ञातविधिजिगमिषोः शोजनो मुखरागः, स ज्ञायते स्वजनषु भावतः प्रतिबद्धः, उपसर्गानसहिष्णुश्च यस्य तु न तथाविधो मुखरागः स्पष्टो लक्ष्यते स ज्ञेयो जावतः स्वजयप्रति सहिष्णुका उपसर्गान् । एवं मुखराम स्तेषां कातविधि गन्तुमिच्छतां रागं वैराज्यं च, तथा स्थि
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पायविहि
रगुण सकलमस्थिरं च ज्ञात्वा ततः स्थिरं भावतः स्वजनेस्वप्रतिवद्धं ससहायं सुरयः प्रेषयन्ति ॥४३॥
साम्बतमाऽऽगमपम्याक्या नार्थमाहबहुस्तो गीतो, बाहिरसत्थहिँ विरहितो इयरो | तब्वरी गच्छे, वारिमगसहायसहितो वा ॥ ४४ ॥ अब नामापासच्यते इसरोदागमो यो सखरहितः पतन गच्छेत् स्वजनबिधीक द्विपरीतो बने बागमथ यदि वा स्वयमल्पश्रुतोऽल्पाऽऽगमो वा तादृशसहायकसहितः ॥४४॥
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तु
बहुश्रुतविशेषमाद
धम्मकड़ीवादीहि य, वस्तिमी संपरिवृढो । नेमित्तिएहिँ य तहा, गच्छछ सो अप्पछको उ ॥४५॥ धर्मक चिभिर्द्वित्रिप्रभृतिनिः वादकुशलैः तपस्विभिः षष्ठाधुमादिकारिभिर्माता निर्निमित संपरितो गच्छेअथ धर्मकयादयो बढ्यो न सन्ति जघन्यतोर्मध्यादिसहाय आरजे तत्र प्रवेशविधिमाह
पचाण वेन पषिमण, ग्रह पुण पत्ता पगे जविज्जाहि । बाहिरं उसद्धिं गएइति अस्य ।। ४६ ।।
यदि वेन्नायां स्थानं प्राप्तास्तर्हि समकालमेव सर्वेषां प्रवेशनम् । अथ पुनः प्रगे प्रजात एव प्राप्ता भवेयुस्तदा तं स्वजनं बहिः स्थापयित्वा वसतिमन्यत्र गृह्णन्ति ॥४६॥
पपिसीकुलेर्दि सहितो ताहे तु बच वहिये । वास पडिग्गहगमणं, नातिसिहाऽऽमणग्गढणं ॥ ४७ ॥ अन्यत्र सीतायां प्रतिपचितैः सहितस्ततो :यानात् तत्र वसतो वजति तत्र तायदावासो यावद्भिजा
ततः परागमनं विधेयम्। नत्र यदि प्राप्तायां निक्कावेलायां पतग्रहं गृहीत्वा व्रजन्ति तदा तत्कालमेत्र गृहन्ति भक्ताssदिकम्, अथ जिका वेलायाम प्राप्तायां तत्र पतदूग्रहं गृहीत्वा व्रजन्ति, निमन्त्रयन्ति च ते, तदा तत्क्षणमेव यल्लभन्ते सद् गुन्ति । अथ मुहूर्तानुगुण्यतः कृतनिकाकाः तत्र तत हिं यत्र पतग्रहं न नयन्ति तत्र च गत्वा नातिस्नेहः स्वज्ञातकानां दर्शनीयः, यदि पुनरतिस्नेहं दर्शयति, ततः -अनुरक्कोsस्माकमिति ज्ञात्वा ते उपसर्गयेयुः । तथा तत्र गतेनाssसनपरिग्रहः कर्तव्या न पुनरेवंनियम्-". मंचमा सातयेसु वा । अणायरियमज्जाणं, आसइत्तु सत्सु बा ॥१॥ ( २) आसनपरिप्रदाभावे हि अपभ्राजना नवति । तस्मादासने उपवेक्ष्यम् ||83||
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सयमेव धम्मकड़ी, साप व निम्मुड़े कुणति ।
पपय तर्हि, कहेइ तल्लो अएणो ॥ ४८॥
यदि स स्वातिकसाधुः धर्मकयायां कुशलप्रायः शासनप्रत्य नीकाँध निरुत्तरान् कर्तुं समर्थः, ततः स्वयमेव तस्य धर्मकथा कचनाया भवति । अथ सोऽप्रत्युत्पन्नो नागमिका प्रतिपायकुशलो वा तदा तस्मिन्नप्रत्युत्पन्नेऽभ्यस्तल्लब्धिको धर्मकपालग्धिसपन्नः प्रत्युत्तरदानलब्धिसंपन्नश्च कथयति ॥४८॥ मनिया य पीढपदा, पन्नखाए य थिरनिमित्तं तु ।
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(२००१) अभिधानराजेन्द्रः ।
पायविहि
थावच्चापुत्तेणं, आदरणं तत्थ कायन्त्रं ॥ ४०
"पीढमदा नाम मुखपियजंपगा, ते पञ्चज्जाश्रोनावणावयणाणि भय वाले कर्ण मन्त्रिया मदिया भवति" इति चूर्णिः । स्थिरीकरणानमित्तं तत्र धर्मकथायां स्था पत्यापुत्रे ज्ञाताधर्मकथा प्रसिद्धेाऽऽरणं कर्तव्यम् ||४| कहिए व अडिए वा जाणानं अति भचपरं । पुव्वाउत्तं तहियं, पच्छाउत्तं व जाणंति ॥ ५० ॥ धर्मकथने अपने वा मुमादे दिशानार्थे भक्तगृहं महानसं प्रविशन्ति प्रविश्य च यत्तत्र पूर्वायुकं पूर्वमुपक्रियमाणं पञ्चदायुक्तं तेषु साधुस्वागतेषु तनिमित्तमुपस्क्रियमाणं तत्परिभावयन्ति ॥५०॥ पूर्वयुक्तमित्यत्र ध्यायानद्वयं परमतेन दर्शयतिपुत्राउत्तारुहिते, केसि त्रि समीहियं तु जं तत्य | एए न होंतिदोवि, पुव्त्रपवत्तं तु जं तत्थ ॥ ५१ ॥ केचि व्यायुकं नाम सुयां पाकार्यारोपित निम्त्रसमीपाका
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किनम् । एतौ द्वावप्यादेशौ प्रमाणं न भवतः, तस्मादिदं व्याख्यानम्-यगृहस्थान पूर्वक पू अथ कस्मादितरदादेशव्यं न प्रमाणमत आहरुहितेय समीहिए किंबुन न खलु अर्थ है। सम्हालु जं उचियं, तं तु पमाणं न इतरं तु ॥ ५२ ॥ पूर्व चुल्यामापते समीहिते वा किं न क्षिप्यते ?, इति भा चः । तस्मात् खलु यदुचितं व्याख्यानं तत्प्रमाणं, नेतरतू प· रकीयादेश ॥५२॥ बालदीहिं नाउं आयरमणापरेहिं च ।
जं जोगं तं गेएडइ, दव्त्रपमाणं च जाणेजा ||२३|| बालकपृच्छादिभिरादिशब्दवासको विधिपिएडनिर्युक्तिप्रसिद्वैः, तथा आदरानादराभ्यां च योग्यमयोग्यं विज्ञाय तत्र च यद् योग्यं भ्रमण प्रायोग्यं प्रतिभाति तत् गृह्णाति वरवृषमामा जानीयात् कित् स्यमन्यद्वा भोजनं कियद् वा रकमित्येवं यद् यावत् प्रायोग्यं प्रतिभासते, ताबदू गृह्णीयात् ||५३॥
संघरषेतदेव सविशेषतरमाह
दव्यमाणे गणणा खारिय फोमिय तद्देव अका प । संचिग एमाणे अयोगसाहू पद्मरस ॥ ५४ ॥
"
व्यं प्रमाणं नाम इव्याणां गणना । यथा- एतावन्तोऽत्रैौदनभेदाः, एतावन्ति व शाकविधानानि इयन्तश्च खाद्यविशेषाः, एतावन्ति च द्राकापानकाऽऽदीनि, तथा कारितानि लवणखर पितानि शालानीत्यर्थः स्फोटित जीवासि तम् । एतत्सर्वे ज्ञातव्यम् । तथा श्रद्धा कालो भिक्षाया ज्ञातव्यः, अन्यथाऽवष्वष्कणाऽऽदयो दोषाः स्युः । तथा संविग्ना एकस्थाना एक नङ्घाटाऽऽत्मकाः प्रविशन्ति, ततः कल्पते, अ
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साधु अनेकेषु साधुखद्वारेषु प्रविशासु न कल्पते, प तस्तत्र नियमादाधाकर्मसहिता श्रद्देशिकाऽऽदयः पञ्चदश दोषाः ॥ ५४ ॥
एतदेव विवरीषुः प्रथमतो अव्यप्रमाणमाहसतविमोदो खलु साली बीड़ी व कोदवे जबे य
यायविधि
गोमरागच्याराकूर खज्जा पडणे गंविहा ।। ५५ ।। सप्तविधो, मकारोऽलाक्षणिकः श्रोदनः कूरः, तथा शालिः कन्नमशाख्यादिकूरः, वीहिः सामान्यतन्डुलौदनः, कोद्रव कूरो, यत्रकूरः, गोधूमकूरो, रालककूरः, अकृष्टपच्या ऽरण्य श्रीहिकूरश्च, खाद्यानि च अनेकविधानि ॥५५॥
मागविहाणा य तडा, खारिगमादीणि वंजणाई वा । स्वगादिपाचाणि य, नाउं तेसिं तु परिमाणं ॥ ५६ ॥ शाकविधानानि प्राजमनकानि कारिताऽऽहीनि श्रादिशब्दात् स्फोटित परिजन तथा खानि पानकानि आ दिशब्दाद बाकाऽऽदिपरिग्रहः । तेषामदिनाऽऽदीनां परिमाणं ज्ञात्वा ॥ ५६ ॥
किमिति ?, आह
परिमियसगदाणे, सूक्तम एगभतको । अपरिमिते आरेण वि, गेएह एवं तु जं जोगं || ७ || परिमिताने परिमितानां भक्कमेनिमित ये यावद्दशानां योग्यताका एक योग्यं तत्र भक्तं ग्राह्यमिति भावः । अपरिमिते अपरिमित. भक्तकदाने दशानामारतोऽपि नयानामष्टानां वा योग्यं यदुपस्कृतम्, तत्रैवं स्थानपरिमाणचिन्ताव्यतिरेकेण यद् योग्यं तद् यावत् पर्याप्तं गृह्णाति ॥५७॥
अाय जाणियन्त्रा, इहरा ओकणाssदयो दोसा । संवि संपाम एगो इयरेसु न पिता ॥ ५० ॥
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अका भिकावेला ज्ञातव्या, इतरथाऽवष्वष्कणादयो दोषा भवेयुः । तथा 'संविगे' संविग्नानामेकः साटो यत्र प्रविशति तत्र गन्तव्यम् । इतरेषु यत्र बहवः सङ्घटिकाः प्रविशन्ति, तत्र न गच्छन्ति ||१८||
तेहिं गिना गस्सा, अहागमाई दवंति सच्चाई | अभंगसिरावेहो, अपाणजे यावज्जाई ॥ ५६ ॥ यदि स्वजनानां संबन्धी कोऽपि नानो वर्तते, ततस्तस्य चि. सवै करोति यदि वा वैद्यः साधुजनान जनोऽस्य कस्यापि ग्लानस्य क्रियां करोति, ततस्तत्र ग्यानो ज्ञातविधि नीयते यतस्तत्र ग्लानस्याज्य शिरावेधो ऽपानमपानकर्म नापनीयानि दापनीयानि एतानि सर्वाणि यथाकृतानि पुरः कर्मचारकर्मरहितानि भवन्ति ॥ एतदेव स्पष्टं भावयति
जइ नीयाण गिलाणो, नीश्रो विज्जो व कुणइ अन्नस्स । तत्य हुन पच्छकम्पं जाय अभंडमाई ॥ ६० ॥ यदि निजकानां संबन्धी ग्लानो, वैद्यो वा निजको ऽन्यस्य कुरुते किचित्सां, तत्र 'दु' निश्चितं न पश्चात्कर्माज्यङ्गाऽऽदिषु जायते । कथं न जायते ?, इत्याद
पुत्रं च मंगलडा, उप्पेर्ड जड़ करई गिहियाणं । सिरवेधन स्थिकमाइएन उ पच्छकम्मोउ ।। ६१ ।। पूर्वं यदि मा साथी 'उ' देशी पदमेतत् अहा पश्चादू गुहिकाणां गृहस्थानां करोत्यज्यङ्गम्, एतत् पश्चात्कर्म
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(२०. ) यायविहि प्रानिधानराजेन्द्रः ।
पायाधम्मकहा न भवति । एवं शिरावेधवस्तिकाऽऽविष्वपि पूर्व साधी
तान्येवाडकस्वा पश्चाद् गृहस्थेषु क्रियमाणेषु न पश्चास्कर्म ॥६॥
तवसोसिय अप्पायाण, श्रोमे य अमेयरंत गच्छेज्जा। अत्तट्ठा उवणीया, ओसइमादी हवंति ते चेव ।
रमाणिज वा खेत्तं, तिकालजोग्गं तु गच्छस्स ॥ ६॥ पत्थाऽऽहारो य तहिं, अहाकमो होड साहुस्स ।। ६२ ॥ तपसा विकृष्टेन शोषितस्तपःशौषितः, स्वजनाश्च प्रचुरदानाः, मात्माऽथे यान्युपनीतानि औषधाऽऽदीनि गृहस्यैः, तान्येव मत प्राप्यायननिमित्तं सपरिवारो झातविधि ब्रजेत । अथवासाधोरपि भवन्ति, पथ्याऽऽहारोऽपि च तत्र साधोथाकृतो भवमं पुर्मिकं ज्ञातं, नत्रासंस्तरलो ज्ञातविधि गरेयुः, रमभवति, न ततः पश्चातकर्म ॥६॥
पीयं वा तत्केत्रं गच्चस्य त्रिकानयाग्य, तनो गच्चन्ति ॥६॥ अगिलाणे उ गिहिम्मी, पुव्वुत्ताए करेंति जयणाए। | সিন্ধালযৗবসান ঘনিअमत्य पुण अझंभे, नायविहिं नेति अन्नतरं ॥ ६३ ॥ वासे निश्चिीकवलं, सीयल दव परमेव गिम्हासु । यदि निजकानां संबन्धी न कश्चिद् ग्लानो, नाऽपि निजको सिसिरे य घणनिवाया. वसही तह घट्ट मळा य| ७०॥ वैद्योऽन्यश्च चिकित्सां करोति, तदा गृहिणि गृहस्थे अग्लाने,
वर्षे वर्षाकाले 'निश्चिक्खिल्लं' कर्दमाभावः, प्रीभेषु प्रीम अन्यत्र पूर्वोक्तया यतनया-पूर्व कल्पाध्ययने लानसूत्रे चिकि ।
का प्रचुर शीतलं व लज्यते, शिशिरे शीतकाले घनमतिश. रसा यतना उक्ता, तया चिकित्सां कुर्वन्तिा तथाऽन्यत्रौषधीनां
यने निर्वाता वसतिज्यते घृष्टा मृश च ॥७॥ लाभो नास्ति । तताह-अन्यत्र पनरौषधीनामझाने कातविधिमन्यतरं तं ग्लानं नयन्ति । तदेवं ग्लानविधिरप्युक्तः।६३।
छिणमंडवयं च तयं, सपक्वपरपक्वविरहिनोमाणं । सम्प्रति बाभचिन्तायामाजवनविधिमाह
पत्तेय उग्गह चिय, कामपं तत्य गच्छेजा ॥७॥ अदुणा तु लानचिंता, तत्थ गयाणं श्मा हवइ तेसि ।। यदन्यत् के गन्तव्यं तच्छिन्नमएमपं,यत्र तुस्वजनाः सन्ति त. जश्सवेगाऽऽयरिय-स्स होति तो मग्गणा नऽस्थि ॥६॥ स्वपक्षपरपक्षकृतापमानविरहितम्। गाथायामपमानशब्दस्यामधुना तेषां तत्र गतानांझातविधौ गतानामियं लानचिता भ.
यथानिपातः प्राकृतत्वात् । प्रत्येकं बानबालाऽऽदीनामवप्रह वति । यदि ते धर्मकथ्यादयः सम्यकस्याऽऽचार्यस्य भवन्ति,
उपष्टम्भश्च जायते इति कृत्वा इति देतोः तत्र शातविधी गच्छेत् । तदिनाऽस्ति मार्गणा; सर्वमाचार्यस्थाऽऽभवतीति भावः ॥६॥ उक्देसं काहामि य, धम्म गाहिस्स पबयाविस्सं । संतासंती अहवा, अण्णगणा जे वितीयगा नीया । सवाणि व बुग्गाहे, जिच्छुगमादी ततो गच्छे ।। ७३ ॥ तत्थ इम मग्गागा ऊ, आभन्ने होइनायव्वा ।। ६५ ।।
धर्मोपदेशं वा स्वजनानां करिष्यामि । यदि वा-धर्मे श्रापकसद्भावो नाम-सन्ति साधवः, परं न धर्मकथाऽऽदिषु कुशलाः,
धर्म ग्राहयिष्यामि । अयवा-ते निष्क्रामतुकामा वर्तन्ने, ततः प्रसद्भावो-मुलत एव न सन्ति साधवः । एवं सदनावेनास
प्रवाजयिष्यामि, दानश्रमानि वा तानि कुलानि भिक्षुकाऽऽदि बनावेन वा येऽन्यगणसत्का वितीयका नीताः, तेषामिय.
ब्युद्ग्राहयेत्, तत पतेः कारणेतिविधि गच्छेत् । व्य०६०। माभाव्ये मार्गणा भवति ज्ञातव्या ॥६॥
णायन-कातव्य-त्रि. । स्वरूपतोऽवबोधव्ये, भाव०५ प्र.। तामेवाऽऽह
उत्त। दर्श। जंसो नवसामेती, तनिस्साए य प्रागया जे तु । । पायसंग-शातसङ्ग-पुंजपुत्राऽऽदिसंबन्धे, सूत्र०१ श्रु०३.२ ते सच्चे प्रायरितो, लनते पन्चायगो तस्स ॥ ६६ ॥ उ० । “विबद्धो नायसंगेहिं ।" ज्ञानसबिको मातापितृस कानविधिमागतः सन् यमुपशमयति प्रवज्यापरिणाम प्रा.
पुत्रकलत्राऽऽदिमोदितः। सूत्र.१७०३ ०२ उ०। त्यति,ये च तभिश्रया तस्य शार्तावधिमागतस्य निश्रया-स्वज
णायसंम-ज्ञातवएम-न० । कुएमपुरा बहिरुद्याने, प्रा. मोऽम्माकमिति खुद्धचा तत्समीपमागताः, तान् सर्वान,यो हात
म.१०२ खास । यत्र वीरस्वामी प्रवजितः । प्राचा.. विधि कष्टुमागतः,तस्य साधोयः प्रवाजक आचार्यः,स लजते ।
शु. ३ चू.१० । प्रा० म. । कल्प। ने पुण अह भावेणं, धम्मकही सुंदरो त्ति वा सोनें।
णायागय-न्यायागत-त्रि० । द्विजत्रियविभाणां स्ववृत्य. श्राउ-वसामिय तेहिं, तेसिं चिय ते हवंती च ॥ ६७॥
नुष्ठानलकणेन लोकव्यवहार्येण न्यायेन प्राप्ते, श्राव.६.। पुनः यदि वा ये-सुन्दरो धर्मकधी हात मोतुमागताः सन्तः,
णायाधम्मकहा-झाताधकथा-स्त्री. । ज्ञातानि उदाहरणानि वैधर्मकध्यादिभिरुपशामिताः प्रवज्यापरिणाम प्राहिताः, ते
तत्प्रधाना धर्मकथा ज्ञाताधर्मकथा । अथवा-झातानि कातातेषामेव भवन्ति ॥ ६॥
ध्ययनानि प्रथमश्रुतस्कन्धे, धर्मकथा द्वितीये यासु ग्रन्थ
परुतिषु ता झाताधकथाः, पृषोदराऽऽदित्वात् पूर्वपदस्य दी. अएणेहि कारणेहि य, गच्छंताणं तु जयण एसेव । ।
र्घान्तता। बछेडले. (का.) बबहारो सेहस्स य, ताई च इमाई कमाई ॥ ६८ ॥
तत्र जम्बस्वामी सुधर्माणं गणधरमेवं पप्रच्छमास्तां स्वजनबन्दापनाय, ग्लानप्रयोजनेन वा ज्ञातविधि ग.. तते णं से अजजंबूमामे जायसले जायसंमए जायकोकहने तानां यतना प्रागुक्ता प्रवति, अन्यैर्वा कारणैर्वक्ष्यमाणैज्ञात
संजायसले मजायसंसए संजायकोऊहझे उप्पासले उप्पलविधि गरुकतामेवाऽनन्तरोदिता यतना-पैव शक्कस्य विषये अनन्तरोदित प्राभवनभ्यवहारः । तानि चान्यानि कार्याणि
संसए नप्पलकोऊहने समुप्पासवे समुप्पासंसए समुप्पामकारणानीमानि ॥६॥
कोकाले उद्याए उद्वेति,नहाए उद्वित्ता जेणामेव अज्जमुहम्मे
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(२.१.) पायाधम्मकहा अभिधानराजेन्द्रः ।
णायाधम्मकहा येरे तेणामेव उवागच्छद,उवागच्छश्त्ता अजमुहम्मे थेरेति- गमा प्रायंता पज्जवा परित्ता तमा अणंता थावरा साक्खुत्तो मायाहिण पयाहिणं करेड, करेइत्ता वंदति, नमसति, । सयकडनिवसनिकाइया जिण पत्ता भावा भाघविज्जति वंदित्ता नमंसित्ता मजसुहम्मस्स थेरस्स नचासो नाइदरे | पनविनंति परूविज्जति देसिज्जति निदंसिज्जति उवमुस्सूसमाणे णमंसमाणे अभिमुहे पंजसिउडे विणएणं प- दंसिज्जति, से एवं पाया एवं नाया एवं विनाया ज्जुबासमाणे एवं वयासी-जति णं भंते ! समणेणं भगवया एवं चरणकरणपरूवणा प्रायविज्जइ, सेत्तं नायाधम्ममहावीरेणं माइगरेणं तित्थगरेणं सयंसंबुकेणं पुरिमुत्तमेणं कहाश्रो ॥ ६ ॥ पुरिससीहेणं पुरिसघुमरीएणं पुरिसवरगंधहाणं लोगुत्तमा- "से किं तं" इत्यादि । अथ कास्ता काताधर्मकथाः १, कानानि णं लोगनाहेणं लोगगहिएणं सोगपईवेणं लोगपज्जोयगरेणं उदाहरणानि, तत्प्रधानाः धर्मकथा ज्ञाताधर्मकथाः । अथवा. अजयदएणं चक्खुदएणं मग्गदएणं सरणदएणं बोहिदपणं
सातानि शाताध्ययनानि प्रथमश्रुतस्कन्धेधर्मकथा,द्वितीये यासु धम्पदये धम्मदेसरणं धम्पवरचाउरंतचक्कवट्टीएं अप्प
प्रन्थपरतिषु ता काताधर्मकथाः, पृषोदराऽऽदित्वात् पूर्वपदस्य
दीर्घान्तता । सूरिराह-साताधर्मकथासु, णमितिवाक्यासारे, डिहपवरनाणदंमणधरेणं जिणेणं जावएणं बुदेणं बोधएणं | झातानामुदाहरणचूतानां, नगराऽऽदीन्यास्यायन्ते। तथा-(स मुत्तेणं मोयगणं तिन्नणं तारएणं सिवमयन्नमरूवपणंतम- धम्मकदाणं वगा इत्यादि ) द हि प्रथमश्रुतस्कन्धे पकोक्खयमवावाहमपुणरावत्तयं सासयं गणमुवगएणं पंचम
नर्विशतितिाध्ययनानि । ज्ञातानि उदाहरणानि तत्प्रधाना
न्यध्ययनानि । द्वितीय श्रुतस्कन्धे दश धर्म कथाः धर्मस्यास्स अंगस्स विवाहपन्नत्तीए अयमढे पन्नत्ते । उट्ठस्स एं
हिसाऽऽदिनकणस्य प्रतिपादिकाः कथाः धर्मकथाः। प्रअंगस्स भंते ! णायाधम्मकहाणं के अटे पएणते । जंबू! थवा-धर्मादनपेता धाः, धाश्च ताः कथाश्च धर्मकया। ति अजमुहम्मे येरे अज्जनंबूनाम अणगारं एवं वयासी-एवं तत्र प्रथमे श्रुतस्कन्धे यान्येकोनविंशनिझानाध्ययनानि, ते खनु जंबू ! ममरोग जगवया महावीरोणं० जाव संपत्तेणं
षु आदिमानि दश ज्ञातानि ज्ञातान्येष, न तेम्वाख्यायिकाऽऽदि.
संभवः। शेषाणि पुनः नव ज्ञानानि, तेचेकैकस्मिन् चत्वारिंछठुस्स अंगस्प दो मुयक्खंधा पमत्ता । तं जहा-नायाणि
शानि पच पचाऽऽख्यायिकाशतानि भवन्ति । एकैकस्यां य, धम्मकहातो य । शा० १ श्रु०१०।
चाख्यायिकायां पञ्च पञ्चोपाख्याविकाशतानि । एकैकमयां ('णायज्झयण' शब्देऽत्रैव भागे २००३ पृष्ठे 'धम्मकहा' शब्द
चौपाण्यायकायां पञ्च पश्चाऽऽख्यायिकाशनानि । सर्वसं.
ख्यया पकर्षिशं कोटिशतं लकाः पश्चाशत् । तत पत्र च श्रुतस्कन्धाऽध्ययनानि अष्टव्यानि)
स्थिते प्रस्तुतसूत्रस्याऽवतारः । आह च टीकाकृत्-" इगवीस विषयः
कोमिसयं, लक्खा पन्नास चेव होह बोधब्वा । एवं कप समासे किं तं नायाधम्मकहाओ।नायाधम्मकहासुण नायाणं | णे, अदिगयसुत्तस्स पत्थाओ ॥१॥" द्वितीयश्रुतस्कन्धे दनगराई उजाणाई चेडयाई वणमंडाई समोमरणाई रा
श कथानां वर्गा, वर्गः समूहो, दशधर्मकथासमुदाय इत्यर्थः ।
अत एव च दशाध्ययनानि एकस्यां धर्मकथायां, कथासमूहरूपाणो अम्मापियरो धम्मायरिया धम्मकहाभो इहलोइया
पायामध्ययनप्रमाणायां पञ्च पश्चाऽऽख्यायिकाशतान्ये कैकस्यां परसोइया इविविसेसा जोगपरिमाया पन्चज्जाश्रो परियाया
चाऽऽस्यायिकायां पञ्चपञ्चोपाख्यायिकाशतानि, एकैकस्यां चोमयपरिगहा तपोवहाणाई संलेहणाओ जत्तपच्चक्खा- पाख्यायिकायां पञ्चपञ्चाऽऽख्यायिकाशतानि, सर्वसंख्यया पञ्चणाई पायोवगमणाई देवलोगगमगाई सुकुले पञ्चायाइयो
विशं फोटिशतम् । इह नच ज्ञाताध्ययनसंबद्धाऽख्यायिकापुण बोहिलाभो अंतकिरियाप्रो पापविजंति दस धम्म- |
ऽऽदिसदृशा या आख्यायिकाऽऽदयः पञ्चाशवकाधिककविंशति
कोटिशतप्रमाणाः, ता भस्मात् पञ्चविंशतिकोटिप्रमाणाजाशेः कहाणं वग्गा । तत्य णं एगमेगाए धम्मकहाए पंच पंच
शोभ्यन्ते, ततः शेषा अपुनरुक्ता अर्द्धचतुर्थीः कथानककोट्यो अक्खाइयामयाई, एगमेगाए अक्खाइयाए पंच पंच नव- जवन्ति । तथा चाह-एवमेवोक्तप्रकारेणैव गुणने शोधने व क्खाश्यासयाई, एगमेगाए बक्खाइयाए पंच पंच अ- कृते सपूर्वापरेण श्रुतस्कन्धाः पूर्वापरश्रुतस्कन्धकथाः समुदिक्खाइयासयाई, एवमेव सपुव्वावरेणं अछट्ठाओ कहाण- ता अपुनरुक्ताः (अनुहायो सि) अर्द्धचतुर्थाः कथानकको
टयो भवन्तीत्याख्यातं तीर्थकरगणधरैः। भाह च टीकाकृत्गकोमीओ हवंति त्ति मक्खायं । नायाधम्मकहाणं परित्ता
"पणवीस कोडिसयं, पत्थ य समलक्त्रणा मा जम्हा । वायणा संखिज्जा अाणुओगदारा संखेज्ना वेढा संखे
नव नायासंबद्धा, अक्खाश्यमाश्या तेणं ॥१॥ ज्जा सिलोगा संखेज्जाओ निज्जुत्तीअो संखेज्जाओ ता सोहिज्जति फुड, माओ रासीओ वेगमाणं तु। मंगहणीओ संखेज्जाओ पमिवत्तीओ सेणं अंगट्टयाए पुणरुत्तवज्जियाणं, पमाणमेयं विणिहि॥२॥" छडे अंगे दो सुयक्खंधा एगुणवीसं अज्झयणा एगृ.
तथा "नायाधम्मकदाणं परित्ता वायणा" इत्यादि सबै प्राग्वद
भावनीयम, यावनिगमनं, नवरं संख्येयानि पदसहस्राणि, प. मावीम उद्देसणकासा एगणवीसं समुद्देसण काला मंखि
दाग्रेण पदपरिमाणेन च तानि पश्च लक्षाः षट्सप्ततिसहस्राः, ज्जा पयमहस्सा पपग्गेयं संखिज्जा अक्खरा अणंता पदमपि चात्रीपसर्गिक निपातिकं,नामिकमाख्यातिक.मिधं चेति
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णायाधम्मकहा अन्निधानराजेन्छः।
गारग बेदितव्यम् । तथा चाह चूर्णिकृत्-"पयग्गेणं ति-उवसम्गपयं, एष जायते यः शूफान्नमश्नाति" इत्यादि । एष ब्राह्मणो ना. मिवायपयं, नामियपयं, अक्खायपदं, मिस्सपयं च । पप पप |
रको जायते यः शूमानमश्नातीत्यर्थः इत्यादीनि बाक्यानि भहिकिन्च चलक्खा छाबत्तरिसहस्सा पयग्गेरणं भवति ।"
नारकसत्ताप्रतिपादकानि, "न द बै प्रेत्य नारकाः सन्ति' इत्याअथवा-२६ पदं सूत्रालापकरूपमुपगृह्यते, ततः तथारूपपदापे.
दीनि तु नारकानावप्रतिपादकानि, तंत्रषां वेदपदानामर्थ, चक्या संख्येयानि पदसहस्राणि भवन्ति, न लकाः। प्राह च च. शब्दाघुक्तिहदयं च त्वं न जानासि, यत एतेषामयं वदवणिकृत्-"प्रथवा सुत्तालावगपयोणं संखेज्जाई पयसहस्साई।
माणोऽर्थ इति ॥ १८८७॥ भवंति त्ति।"न । स०। प्राव। अनु। सूत्र०। ग्रन्धान्ते
अत्र भाष्यमरीकाकारोऽभयदेघसूरिः-समाप्ता चेयं ज्ञाताधर्मकथाप्रदेश- तं मन्नसि पच्चक्खा, देवा चंदाऽऽदो तहऽने वि। रीकेति।
विज्जामंतोवायण-फाइसिद्धाऍ गम्मति ।१001 "नमः श्रीवर्कमानाय, श्रीपार्श्वप्रभवे नमः ।
जे पुण सुइमेत्तफला, नेरइय ति किह ते गहेयव्या । नमः श्रीमत्सरस्वत्यै, सहायेज्यो नमो नमः॥१॥ दहि गमनिकाथ, यन्मयाऽज्यूहयोक्तम्,
सक्खमाणुमाण ओवा-Sणुवलंना निन्नजाईया१नन्। किमपि समयहीन, तहिशोध्यं सुधीभिः ।
हे आयुमनकम्पित ! त्वमेवं मन्यसे-देवास्तावश्चन्याऽऽदयः न हि भवति विधेया सर्वथाऽस्मिन्नुपेका,
प्रत्यकप्रमाणसिका पव, अन्ये स्वप्रत्यक्षा अपि विद्यामन्त्रोपयादयितजिनमतानां तायिनां चाङिवर्ग ॥५॥
चितकादिफलसिध्याऽनुमानतो गम्यन्नो ये पुनः "नारका" परेषां दुर्लका भवति हि विवका फुटमिदं,
इत्यभिधानमात्ररूपा श्रुतिरेव फनं येषां न पुनः तदभिधाविशेषावृछानामतुलवचनज्ञानमह साम् ।
यकशम्दव्यतिरिक्तोऽर्थः, ते साक्षात, अनुमानतो वाऽनुपलच्या निराम्नायाधीभिः पुनरतितरां मारशजनैः,
मानत्वेन तिर्यनरामरेज्यः सर्वधा भित्र जात याः कथं 'सततः शास्त्रार्थ मे वचनमनघं दुर्लभमिह ॥३॥
न्ति 'रति ग्रहीतव्याः , नगविषाणवद्, इति ॥२८॥ १८८६॥ ततः सिद्धान्ततत्वः, स्वयमृह्यः स यत्नतः ।
मथ नगवानुत्तरमाह.. न पुनरस्मदाख्यात, पव ग्राह्या नियोगतः ॥४॥
मह पचक्रवत्तण ओ, जीचाई य व्य णारए गिएह । तथाऽपि माऽस्तु मे पापं, समत्युपजीवनात् । वृद्धन्यायानुसारित्वात्, दितार्थे च प्रवृत्तितः॥५॥
किंजं सप्पचक्खं, तं पच्चक्खं नवरि इकं ? ॥१८॥ तथाहि किमपि स्फुटीकृतमिह म्फुटेऽप्यर्थतः,
जं कास पच्चकखं, पञ्चक्खं तं पि घेप्पए लोए । सकष्टमनिदेशतो धिविधवाचनातोऽपि यत् ।
जह सीहाऽऽदारसणं,
सिन य सम्बपञ्चकवं ।११। समाधपदमंश्रयाद्विगुण पुस्तकेन्योऽपि यत,
हे आयुष्मन् ! अकम्पित ! सावादनुपजन्यमानत्वादित्य सि. परा55महितहेतवेऽनभिनिवेशिना चेतसा ॥६॥ यो जेनानिमतं प्रमाणमन व्यत्पादयामासिवान्,
द्धो हेतुः, यतोऽहं केवलप्रत्यकेण साकादेव पश्यामि नार
कान, ततो मत्प्रत्यकत्वान् 'सन्ति 'इति गृहाण प्रतिपद्यस्व प्रस्थानविविधैर्निरस्य निखिवं बौद्धाऽऽदिसंबन्धि तत् ।
नारकान, जीवाजीचाऽऽदिपदार्थवत् । अयैव मन्यसे-ममाप्रत्यनानावृत्तिकथाः कधापथमतिकान्तं च चक्रे तपो,
छत्वात्कथमेतान् गृहामि ? । ननु पुरनिप्रायोऽयम, यतः किं निःसंबन्धविहारमप्रतिहतं शास्त्रानुसारात्तथा ॥ ७॥ तस्याऽऽचार्यजिनेश्वरस्य मढ़ववादिप्रतिस्पर्धिनः,
यत् स्वस्याऽऽत्मनः प्रत्यक्षं तदेवैकं नवरं प्रत्यक्रमुच्यते, इति
काक्वा नेयम् । ननु यदपि कस्यचित् प्रत्ययितपुरुषस्यान्यस्य सबन्धोरपि बुद्धिसागर इनि ख्यातस्य सूरेभुवि ।
प्रत्यक,तदपि प्रत्यक्तमिति गृह्यतेव्यवहियते लोके। तथाहि-सिउन्दोबन्धनिबरुवन्धुरवचःशब्दाऽऽदिसलक्ष्मणः,
हसरजहंसाऽऽदिदर्शन सिर्फ प्रति लोके, न च सिंहाऽऽदयः श्रीसंविग्न बिहारिणः ध्रुननिधेश्चारित्रचूमामणेः ॥८॥ शिष्येणाभयदेवाऽऽख्य-सूरिणा विवृत्तिः कृता ।
सर्वजनप्रत्यक्काः, देशकालग्रामनगरसरित्समुजाऽऽदयश्च न सं
वेंऽपि भवतःप्रत्यकाः, अथ चान्यस्यापि प्रत्यकास्ते प्रत्यकतयो ज्ञाताधर्मकथाङ्गस्य, श्रुतभक्त्या समासतः॥॥" का० २ श्रु. १० वर्ग १ अ०।
व्यवहियमाणा दृश्यन्ते, अतो मत्प्रत्यका नारकाः किमिति प्र
त्यवतया न व्यवतियन्ते ?, इति ॥१८९०॥१७६१॥ णारइय-नारयिक-पु. । नरयिके नरकपृथिवीपूत्पन्ने, प्रा.
अथाभिप्रायान्तरमाशश्य परिहरन्नाहपाद।
अहवा जमिंदियाणं,पच्चक्खं किं तदेव पच्चक्खं । सारग-नारक-पुं० । नरकेषु भवा नारकाः। नरको वा विद्यते
उवयारमेत्तो तं, पच्चक्खमर्षिदियं तत्थं ॥१०२॥ येषां ते नारकाः । नरकपृथिवीपपन्नेषु जीवेषु, नं०। आम प्रव० । कर्म । श्राव।
अथवा-कि यदिन्द्रियाणां प्रत्यकं तदेव प्रत्यकमिष्यते भवता, नारकाऽस्तित्वसिहिः
मदीयंत प्रत्यकं नान्युपगम्यते, अतीन्द्रियत्वात् । ननु महानकिंमएणे नेरइया, अस्थि नउत्यि त्ति संसओ तुझं ।
यं विपर्यासः, यस्माऽपचारमात्रत एव तदिन्द्रियप्रत्यकं प्रत्य.
कतया व्यवाहयते-यथाऽनुमाने बाह्यधूमाऽऽदिलिद्वारेण बेयपयाण य अत्यं, न जाणसी तेसिमो अत्थो।१८८। बाह्यमम्म्यादि वस्तु ज्ञायते, नैवमत्र, तत उपवारात् प्रत्यकमिकिं नारकाः सन्ति. न वा १ इति त्वं मन्यसे । अयं च तव | व प्रत्यक्षमुच्यते । परमार्थतस्तु-दमपि परोकमेव, यतोऽको संशयो विरुद्धवेदपदश्रवणनिवन्धनः । तथाहि-" नारको वै। जीवः, स चानुमानवदत्रापि वस्तु साकादन पश्यति, कि
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( २०१२ )
अभिधानगजेन्द्रः ।
विन्द्रियद्वारेणैव ततोऽतीन्द्रियमेव तथ्यं प्रत्यकमवगन्तव्यम, तत्र जीवेन साकादेव वस्तुन उपलम्भादिति ॥ १८६२ ॥ ( विश० )
अनुमानं विदम
पाचफलस्य पगिस्स भाईलो कम्पनोस न । संति तेऽभिया रश्या अह मई होजा | १०एछ। या तिश्चिनरा नारंग ति तेऽनिमया । सेन जो सुरसोपख गरिससरिसं न तं चुकलं । १६०० । प्रकृष्टस्य पापफलस्य भोगिनः केचित् ध्रुवं सन्ति (कम्मति) कर्मफलत्वात् तस्य इत्यर्थः । अवशेषवदिति यथा जघन्य मध्यमपापफल भोगिनः शेषाः तिर्यक्ारा विद्यन्त इत्यर्थः इति दृष्टान्तः । (इति) ये फलभोगिनः तेनार शारगडखाण-नारकदुःखोपवर्णनन नारकाणामुप प्रकृष्टपापफल का इति श्रभिमताः । अथ परस्वैवंचूना मतिमेव मय दुःखिता ये तिर्यङ्मनुष्याः, न एवं प्रकृष्टपापफल भोगित्वा नारकव्यपदेशभाजो भविष्यन्ति, किमदृष्टनारककल्पनया है। इति त देत तोचिनामपि ति मध्य यद्दुःखंत दमरसौपकर्षसभवदिमुकं भवति येा गुत्कृष्टपापफलभोगः, तेषां संभवद्भिः सर्वैरपि प्रकारैर्दुःखेन मवियम् न चैवमतिदुःखितानामपि निगादीनां आलोकतरुच्छायाशतपचनसरित्वरः कृपादित दुःखिनेष्वपि तेषु दर्शना पाचनद दनक. एटकशिलाssस्फालनाऽऽदिभिश्च नरकप्रसिकैः प्रकारैः दुःखयादर्शनादू, इत्यादिप्रागुकानुसारेण स्वयमेवाभ्यूह्य वायमिति | भागमार्थश्चायमवगन्तव्य इति ।
"मनुः
परिणामम् ।
तिपशु-१ सुखदुःखे मनुजानां, मनःशरीराऽऽश्रये बहुविकल्पे । सुखमेव तु देवाना - मल्पं दुःखं तु मनसि भवम् ॥ २ ॥ " इति ॥ १५६ ॥ १६०० ॥
प्रागने कानुमानपि नरकान् सानुमा सर्व चेमकंपिय, महू या ओर से सवयव । सव्त्रत्तणओवा, अणुमयसव्त्रस्वयणं व ॥१६०१ ॥ मारकाः सन्ति इति सत्यमकम्पित । इदं मद्वचनत्वात्, यथायशेषं स्वत्संशया ऽऽदिविषयं मद्वचनम् । अथवा सर्वज्ञवचस्वनुमतमनुमिन्यादिवर्यनारय-नारद
बदिति ॥ १०१ ॥
अपि चजयरामोस मोहा-जानाओ सथमाहवाई च स चिय मे वयणं, जागयमज्जत्थवयणं व ।। १६०२ ॥ प्रागनेकधा व्याख्यातेयम् ॥ १०२ ॥ अकम्पितानिप्रायमाशङ्कयाऽऽत्मनि सर्वज्ञताऽऽदिसाधनाय
भगवानाह
किड सम्बति मई, पञ्चवखं मन्यसंसयच्छेया । जयरोगदोसरहिम्रो, लिंगभाव सोम्य ! || १७०३|| यमपि व्याख्यातार्था । यदपि "न ह वै प्रेत्य नारकाः सन्ति " इत्यादौ नारकाभावः शङ्कयते जवता, तदप्ययुक्तम्, यतो ऽय * १५७८ गाथाऽपीयमेव गता ।
गारय
मत्रानिप्रायो मन्तव्यः न खलु प्रेत्य परलोके मेर्वादिवाभ्वताः केचनाध्यवस्थिता नारकाः सन्ति, किन्तु य इहोत्कृष्टं पा पमर्जयति, स इतो गत्वा प्रेत्य नारको भवति, अतः केनापि त त्पापं न विधेयं येन प्रेत्य नारकै भूयते । विशे० । आ० म० । सूत्रहृदयधमनस्क "पादक न्या किनामिकाःशिरोमेद्र मिश्रा हिन योदराः * ॥१॥ इत्युक्तम्, तत्र नारकाणां नपुंसकत्वे निमेद्रा इति कथमिति प्रश्ने नारा मकरपि मे सा न विरुरूयते " महिलासहावो सरवननेश्रो, मेदिं महंत मतया य वाणी ।" इत्यादिलक्कणस्य पुष्पमालाऽऽदायुक्तत्वादिति । २५६ प्र० । सेन० ३ चल्ला० । ( ' सरग' शब्दे ऽत्रैव भागे १२७ पृष्ठे तोका
त्वादयिंग
तथा चोक्तं धर्मनिन्दौ"नारकोवनमिति। " नरके जानाका यामु निगादीनां च दुःखान्यशर्मा तेषामुप
1
(घ)
विधेयम् । यथा
' तीक्ष्णैरसिभिः कुन्तैर्विपमैः परश्वधैश्चः । परशुरमुनिः १ संभिधतालुशिरस-नासीठाः ।
मिश्रा,
बिर्ता
निपतन्त उत्पतन्तो विनेष्टमाना महीतले दीनाः । नेक्कन्ते त्रातारं नैरयिकाः कर्मपटलान्धाः ॥ ३ ॥ तु तृढिमान्युष्णभयार्दितानां, पराभियोगासन तुराहाम
अटो मिहितानां सुखानुषङ्गः किल वातमेतत् ॥ ४ ॥ मानुष्यकेऽपि दारिद्रय रोग है। जांभ्यशे । कमौर्याणि । जातिकुक्षावयवा ऽऽदि-न्यूनत्वं चाश्नुते प्राण ॥ ८ ॥ देवेषु व्यववियोग बि कोयनातिज्ञापितेषु ।
आर्या ! नदि विचार्य संगिरस्तां,
यत्सस्यं किमपि निवेदनं। यमस्ति ॥ ६ ॥ " इति ४० १ अधि० ।
समुजयनुपपासिते सोयेपुरे ववरासः सुतस्य सोममित्रायां जातस्य यज्ञदवस्य सोमयशोनामभार्यायां जाते पुत्रे, प्रा० क० ।
तत्कथा-
"आसीद् यदा सोपुरे समुद्रविजयो नृपः । तदा यज्ञयशास्तत्र, तापसस्तस्य वतुना ॥ १ ॥ सोममित्रा सुतो यज्ञ दत्तः सोमयशाः स्नुषा । तत्पुत्रो नारदम्तेषा - मुम्बवृष्या च भोजनम् ॥ २ ॥ तदप्येकान्तरं ते वाऽशोकाधो नारदं सुतम् । मुक्वोच्छन्ति दिवा यान्ती, जुम्नकास्तेन वर्त्मना ॥ ३ ॥ ते दृष्ट्राऽवधिना ज्ञात्वा स्वनिकायच्युतं ततः । स्तम्भन्ति स्म तरोश्वायां मा भूतापोऽस्य दुःबत ॥ ४ ॥ हा शिक्षित व्यचेतनः । पूर्वप्रेण ददे तस्य विद्या प्रकृतिका विका
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(२.१३) पारय निधानराजेन्द्रः।
यासंदा पाति ब्योम्ना ततः कृत्वा, पादयोमणिपादुके।
(पुरिसे इत्यादि यावत मारीश्रोत्ति) 'नारीप्रोति' खएमयति । सुवर्णकृषिमकाराणि-रन्यदा द्वारकां गतः"॥६॥
कथम, ना-पा-अरि ति । नानाविधैरुपायशतसहरः काममा० का । औ० । ब्राह्मणपरिव्राजकोदे, ती. २७
रागप्रतिबडे पुरुषे वधबन्धनं प्रति, माइति-'भाणयंति' प्रापयकस्प० । गन्धर्वानीकाधिपती गन्धर्वे, स्था० ७ म. ।
न्ति (अरीति) पुरुषाणां च नान्यसरशोरिः शत्रुः, प्रस्तीति प्रका• । नारदाः सर्वेऽपि मोक एव यान्ति, स्वर्गे वेति
नार्यः। (तं जहत्ति) तत्पूर्वोतं, यथेति दर्शयति-नारीप्रश्ने, उत्तरम-नारदा माकं, स्वर्ग च यान्तीति प्रारम
समान नराणाम् परयः सन्तीति नार्यः तं "जहाईवेयरयमलवृत्तौ । किञ्च-ते पूर्व मिथ्यास्विनः पश्चात्सम्यक्त्वि.
णी, इसरा इद संमता । एवं लोगंसि नारीभो, दुसरा भनई मस्तत्रैवोक्ता इति । भन्यच्च-भीम १ महाभीम २ रुक ३
मया ॥ १६॥"सुत्र...(०३०४०। उत्त. । (खीपमहारू ४ काल ५ महाकाल ६ चतुर्मुख ७ नवमुख ।
रिक्षा 'स्थी' शम्दे हितीयभागे ६१ पृष्ठे दर्शिता) उन्मुखा ए एवंविधानि तेषां नामान्यपि सन्तीति । ७० प्र०।। पारोट-देशी-विसे, देना.४ वर्ग। सेन०३ उहा। नव नारदाः कस्मिन् चाउरके संजाता,
पाल-नान-न । कन्दोपरिवर्त्यवयवे, जं.४ वक्षः। उत्पमा. इति साकरं प्रसाद्यमिति प्रश्ने, उत्तरम-नव नारदा वासुदेव. समानकालीनाः संजायन्ते, तत्तच्चरित्राऽऽदिषु तदारके तेषां
दिपुष्पाऽऽधारे, भाचा.२७०१०१०००। गमनाऽऽगमनाऽऽदिश्रवणादिति । १०६ प्र०। सेन. ३ उल्ला। णाझंदइज्ज-नालन्दीय-न० । नालन्दायां भवं नालन्दी पारयपुत्त-नारदपुत्र-पुं० । स्वनामके वीरजिनानगारे, भ०
नालन्दासमीपोद्यानकयनेन वा निवृत्तं नालन्दीयम् । सूत्रकृता* श.७० । (सच 'णिग्गंधी पुस' शम्दे पुलविषयं प्रश्न
स्य द्वितीयश्रुतस्कन्धस्य षष्ठेऽध्ययने, सूत्र । करिष्यति)
साम्प्रतं प्रत्ययार्थ दर्शयितुकाम पाह
नालंदाएँ समीवे, मणोरहेनासि-इंदलामा । पाराचंद-नाराचन्छ-पुं० । हर्षपुरीयगरोद्भवे मलधारिदेव
अझयणं उदगस्स म, एयं नालंदरजं तु॥४॥ प्रनप्रिशिष्ये, अनेन मुरारिकविकृताउनर्घराघवटीका, न्यायकन्दलीटीका, ज्योतिषसारः, प्राकृतदीपिका च स्यादयो बहवो
(नालंदाप इत्यादि)नालन्दाया: समीपे मनोरथाऽस्ये उचाग्रन्था रचिताः। जै०३०।
ने इन्धभूतिना गणधरेणोदकाऽऽस्यनिम्रन्यपृष्ठेन, तुशब्दस्यैव.
कारावात् तस्यैव, जाषितमिदमध्ययनम् । नालन्दायां नवं णाराय-नाराच-न० । यत्रास्न्योरुभयतो मर्कटबन्ध पव के
नालन्दीयम, नालन्दासमीपोद्यानकथनेन वा निर्वृसं नालन्दीबलं, न पुनः कीलिका ऋषभसंज्ञपट्टश्च तारशे तृतीये सं.
यम् । यधा चेदमध्ययनं नालन्दायां संवृत्तं तथा-" पासाव. हनने, जी०१प्रति । तं० रा. स्था०।० प्र०। कर्म.।।
चिजो पु-छियाइयो अज्जगोयमं! उदगो । सावगपुच्छाधम्म, सर्वमोहवाणे, पु.। जं. ३ वक्षः। तं० । स० । स्था० । ।
सोउ कहियम्मि उवसंता ॥५॥" सूत्र० १७० १७०। पारायण-नारायण-पुं० । दशरथपुत्रे रामनातरि लक्ष्मण | स्था। प्रश्न । मामके भवसपिण्यां भरतकेत्रजे प्रष्टमे वासुदेवे, प्रव. २१०णालंदा-नालंदा-स्त्री० । प्रतिषेधवाचिनो नकारस्थ, तदर्थद्वार। ति।स। आव० । वासुदेवमात्रे, उत्त०१०। । स्यैवालंशमस्थ, 'हुदा 'दाने इत्येतस्य धातोलिनेन नावं पारिकतप्पवायदह-नारिकान्ताप्रपातहद-पुं० । यत्र नारि- ददातीति नालंदा। मुकं जवत्ति-प्रतिषेधप्रतिषेधेन धास्वकाता महानदी निपतति, यश्च नारिकान्तादेवीद्वीपेन सन
र्थस्यैव प्राकृतस्य गमनात् सदाऽर्थियो यथाभिलषितं बनेन भूषितमध्यन्नागः तस्मिन् रम्यकवर्षीय प्रपातहदे, स्था०
ददातीति नालंदा । राजगृहनगरबाहिरिकायाम् (सूत्र०) २०३००।
तदिह प्रतिषेधवाचिनाऽलंशब्देनाऽधिकार इत्येतत् हारिकता-नारिकान्ता-स्त्री० । रम्यकवर्षे अपरार्णवगायां
दर्शयितुमाहमहानधाम, जं. ६ वक० । स. । रा०। (नीलवर्षधर- पढिसेहणणगारस्स, इत्यीसद्देण चेव अन्नसहो। पर्वते केशरिहदापुत्तरतो निर्गत्य पश्चिमसमुरुगा नारिकान्ता रायगिहे.नयरम्मी, नाझंदा होइ बाहिरिया ॥३॥ इतिणीलवंत 'शब्दे व्याख्यास्यते )
(पडिसेहणेत्यादि ) सत्यप्यलंशम्दस्यार्थत्रये नकारस्थ पारिकताकू-नारिकान्ताकूट-न० । जम्बूद्वीपे मन्दरस्य उत्त. सानिध्यात प्रतिषेधविधानादप्येवेट गृह्यते, ततश्व निरुकषिरेण नीलबतः पर्वतस्य षष्ठे कुटे, स्था०६ ठा० ।
धानादयमर्थः-नालं ददातीति नालंदा बाहिरिका, या खियोणारी-नारी-श्री. नरसियाम्, पृ०४ उ.।
देशकन्वेन च नालशब्दस्य त्रीलिङ्गता, सा च सदैवैहिकाss.
मुष्मिकसुखहेतुस्वेन सुखप्रदा राजगृहनगरबाहिरिका धननिरुक्ति:
कनकसमृहस्वेन सत्सावाश्रयत्वेन च सर्वकामप्रदेति । सूत्र. पुरिसे कामरागपमिवके नाणाविहहिं वायसयसहस्से २०७०।प्रा.म. । सा च बादिरिका राजगृहनगबहबंधणमाणयंति पुरिसाणं नो प्रमो एरिसोभरी अस्थि
रादुत्तरस्यां दिशि, तत्र भीवीरस्वामी चतुर्दशवर्षारावास चिनारीयो । तं जहा-नारीसमा न नराणं प्ररीमो ना
कृतवान् । कल्प०६ कण ।
"मासन्दालंकृते यत्र, वर्षारापाश्चतुर्दश। पत्रिो ॥
बचतस्थे प्रहारः, तत्कथं मास्तु पावनम् ॥२५॥ ५०४
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(२०१४) णालंदा अनिधानराजेन्डः।
सावा यस्यां नैकानि तीर्थानि, नालंदा नायनश्रियाम् ।
संस्थानं यस्याः सा तथा । तस्याश्चैवंभूताया नासिकाया जव्यानां जनिताऽऽनन्दा, नालन्दा नः पुनातु सा" ॥२६॥ मूले अधस्तात् छिकं कर्तव्यं, तस्य च निषस्य प्रमाणं पूर्वती० ११ कल्प।
त्रिपरम्परागतं कथयतो मे मम शृणुत। खानवक-नालवल-पुं० । पितृभ्रातृपुत्रप्रतिके बल्लीबद्ध,
प्रिमाणमेव कथयति(वृ०) भुतोपसंपदि द्वाविंशतिनालवरूानि लभ्यन्ते,यथा-माता,
कमउयमूसवालहि, तिवस्सजायाऍ गयकुमारीए । पित्ता, जाता,लगिनी,पुत्रो, कुहिता,मातुर्माता,मातुःपिता, माताता, मातु गिनी । एवं पितुर्माता,पिता,भ्राता,जोगनी, भ्रातृपुत्रो,
नज्जुकयपिंडिशहि उ, कायव्वं नालियाडिदं ।। दुहिता, भगिन्याः पुत्रपुत्रिका, पुत्रस्य पुत्रः,पुत्रपुत्रिकाः,दुहितुः
त्रिवर्षजातायाः त्रीणि वर्षाणि जातायाखिवर्षजाता,"कालो हि. पुत्रः, पुत्रिका चेति । ३.४०(श्रुतोपसंपवर्णने 'उपसंप
गौच मेयैः"||३२१५७॥ शति तत्पुरुषसमासः। तस्वा गजकुमाः बा' शब्दे द्वितीयभागे १०१४ पृष्ठे, तथा-'उग्गह' शब्द ७२०
षष्मबतिसंख्य मूत्रवाः पुच्चमूलवालैः ऋज्वीकृतपिपिमतकर्वपृष्ठे च विस्तरो गतः)
मृज्वीकृत्यैकत्र मीसितैालिकाया अधस्तात् तत्तले निकं कशाझंपिअ-देशी-आक्रन्दिते, दे० ना.४ वर्ग ।
तव्यम्। किमुक्तं भवति?-ऊर्ध्वमृन्वीकृता गजकुमार्याः षम्मबतिसंपालंबा-देशी-कुन्तले, दे. ना० ४ वर्ग।
ख्या पुच्चमूलबाला एकत्र पिरिकता यावत्प्रमाणे पिके परिपूर्ण
माति, न चापान्तरालं सुदामपि भवति, तावत्प्रमाणं नासिका. पालिएर-नारि लि] केर-पुं० । नब-इ-नालिः,केन वायु.॥
वा अधो भूले छिवं कर्तव्यम् । मा जसेन वा इलति चमति कः। रलयोरैक्यम । वृक्कनेदे, या.
प्रकारान्तरेण निजप्रमाणमारब०। अयं चैकजीविको वृकभेदः । प्रा.१पद । मानासिकेरे शुष्क वा कियन्तो जीवाः सन्ति, तथा नालिकेरवी
अहवा वस्सजाया-ऍ गयकुमारी' पुच्छवाबेहिं । जके संख्याता,असंख्याताः,अनन्तावा कियन्तो जीवाः सन्ति,
बिहिँ त्रिहिँ गुणेहि तेहि उ, कायव्वं नालियाछिदं ।। बत्तस्तमत्र केचिदनन्तजीवाऽऽत्मकं प्रतिपादयन्तीति प्रश्ने, न.
अथयोति प्रकारान्तरद्योतने, गजकुमार्या द्विवर्षजातायाः, तैः चरम्-बीजकसंबसे नालिकेरे एक एव जीव इति । २६५, प्रागुक्तसंख्याक पावत्येत्यर्थः । पुच्चबालैः प्रत्येक द्वाभ्यांदाप्र० । सेन.३ सम्मा.नालि केर्यप्यत्र । स्त्री०। प्राचा० १७० भ्यां गुणैः गुएयन्ते स्म, गुणा गुणिता इत्यर्थः; तैः । किमुक्तं २०५उ० । ०। प्रशा। तत्फले, नं।
भवति ?-परणवतिसंख्यैर्द्विगुणित सिकाया अधो मूले निक जानिएरदीव-नारिकेन्नद्वीप-पुं० । नारिकेलवृतप्रधाने द्वीपे ।
कर्तव्यमिति भावार्यः प्राग्वदवगन्तव्यः।
प्रकारान्तरेण जिप्रमाणमेचाऽऽहयहास्तव्या मनुष्या अस्मद्भाषाऽऽदिव्यवहारं नाब बुध्यन्ते। मा. म०१ अ० २ खराम ।
अहवा सुवरणमासे-हिँ चउहि चउरंगुला कया सूई । णालिएरमत्थय-नालिकेरमस्तक-न० । नालिकेरवृकस्तबके, नाजियतलम्मि तीए, कायव्वं नालियाविडं। प्राचा०२ श्रु० १० १०००।
अथवेति पूर्ववत् । सुवर्णमाक्ष्यमाणप्रमाणेश्चतुनिश्चतुःसंगालिया-नाभिका-स्त्री० । धरिकायाम् , नि. चू. १ उ०।
स्यैः चतुरङ्गुल प्रमाणा या कृता सुची, तथा सूच्या नालिका
या अधस्तात् तले नासिकानिकं नासिकारूपकालविशेषप्रमितं० । लाम्राऽऽदिमयघटिकायाम, अनु० । आव । प्रका० ।
तये कर्तव्यम्। किमुक्तं भवति?-यावत्प्रमाणे नि यथोक्तप्रमाया तया हि कालो मीयते
सूचिः प्रविशति, न च मनागप्यपान्तरालं भवति, तावत्प्रमाणं णाली' परूवागया, जह तीऍ गतो उ नजए काला।
निकं कर्तव्यमिति । ज्यो०२पाहु० । प्राचा० । यष्टिविशेष, तह पुबधरा जावं, जाणंति व सुझपज्जेण ||
चतुर्हस्तप्रमाणयष्टिविशेषरूपायां नासिकायाम, अनु। भ.। नालिका नाम घटिका,तस्याः पूर्व प्ररूपणा कर्तव्या; यथा पा.] श्रात्मप्रमाणाच्चतुरङ्गुलाधिकायां यष्टी, ओघ. । तविशेष, दलिप्तकृतविवरणे कालकाने । व्य०१०।
म०६ श०७ उ० । कलम्बुकावृक्के, सू० प्र०४ पाहु०। संप्रति मानं घटिकाऽदीनां वक्तव्यम्-तत्र प्रथमतो नासि- णालियाखेड-नाझिकाखेल-न । द्यूतविशेषे, मा नृदिष्टवायाकायाः संस्थानाऽऽदि विवक्षुराह
| द्विपरितपाशकनिपतनमिति नासिकया यत्र पाशकः पात्यते । तीसे पुण संगणं, निहुँ उदगं च वोच्छामि।।
ज०२ वक्व०का० । भोघ०। तस्याः पुनर्नालिकायाः संस्थानमाकृति, तथा व विचरम
पानी-नामी-स्त्री. । " डो लः" |८ । १ । २०२ । इति डस्व बोभागे येनोदकं नासिकामध्ये प्रविशति, उदकं च याग.
लः । प्रा० १ पाद । देहस्थायां शिरायाम्, गुच्चस्य काण्डे, ना. भूतं छिद्रेण प्रविशति, नासिकां नुक्त्वा यथोक्तनालिका का
ले, व्रणभेदे, गरामदूर्वायाम्, षष्टिपलात्मके काले, तृणभेरे, सविशेषपरिमाणहेतुर्नवति ताहक सूत्र पक्ष्यामि ।
वंशनाल्यां च । वाच. सत्र प्रतिझातमेव निर्वाहयितुकामः प्रथमतः संस्थानप्ररूपयां, हिरूप्रमाणवक्तव्यतोपकेपं च कुर्वन्नाद
नाली-स्त्री० । कालमापिकायां घटिकायाम्, जी०३ प्रति. दालिमपुप्फाऽऽगारा, लोहमयी नालिगा न कायब्वा ।। २० । नि० चू.। श्रा० । वल्लीभेदे, प्रका० १ पद । दीसे तझम्मि बिद, निदपमाणं कहिएँ मे मुणह ॥ णावा-नौ-स्त्री० । “नान्यावः" ।।१।१६४ । इत्यौत मा. मासिका घटिका लोहमयी कर्तव्या, सा च संस्थानमधि- वादेशः। प्रा०१ पाद । जलतरण साधने तरणी, बाच.। कृत्य दाडिमपुष्पाऽऽकारा कर्तव्या, दाडिमपुष्पस्येव आकारः प्राचावृ० । (नाचारोहणप्रकाराः 'णईसंतार' शब्दे श्रेय
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गावा
मागे १७४६ पृष्ठे खिताः। विस्तरस्तु पविणा शब्दे बहते
आया
4
(२०१५ ) अभिधानराजेन्ः |
नावापुरगनीपूरक पुं० घुलुके, " तिहि नावापूर
मह नावापूरश्रो नाम पलती । यात्रा संतारिम- नौसंतार्य - न० । यत्र नावा तरति तावत्युदके,
यृ० ।
श०४० । श्रा० म० ।
आचा० १ ० १ चू० ३ अ० १ उ० । याविय - नापित- पुं० । नखशोधके वारिके, व्य० १४० । क
,
उप० ।
नाषिक - पुं० । माषा जीवति नाविकः । अनु० । नौवाहके, भ० ५ श० ४ उ० । कैवर्तके, झा० १ ० १ ० ।" दो नाम ना विओो मंगाए लोगं उत्तारे । " श्रा० म० १ ० २ ख एक । " णाविओो विघ नावं ति ।" नाविक श्व नावं खोणीम् । भ० ५
नास-नाश-पुं० | अभावाऽऽपादने, आ० म० १ ० १ एक । उस० । ध्वंसे, विशे० । अभावे, (रुव्या० )
अथ नाशस्वरूपमाह
नाशोऽपि द्विविधो यो, रूपान्तरविगोचरः । अर्थान्तरगतित्रैव द्वितीयः परिकीर्तितः ॥ २५ ॥ नाशोऽपि द्विविधो ज्ञातव्यः, एकस्तत्र रूपान्तरविगोचरः कपान्तरपरिणामः द्वितीयस्तु अर्यान्तरगतिरथीसभागमनं चेति प्रार्थयम्
1
पुनराहू
रूपान्तराणुसंबन्धात्, स्कन्धत्वं यद्यणोरपि ।
तपरमाणु प्रभवसंचारनिरस्तान्धकारपरमाणुत्वतत्स्थानतत्तपरमाणु संक्रमिततेजः परमलको परकम जात, दधानां परमानामवयवस्कन्धत्वसंक्रमेणा रवोद्भावनयाऽर्थान्तरगतिलक्षणो नाशः समुत्पन्न इति ||२६||
पासिक पुर
तत्संयोगविभागाच्या मपि जेदप्रबन्धता ॥ २७ ॥
यद्यपि अणोः रूपान्तरपरमाणुबन्धात् संबद्ध स्कन्धताऽस्ति तदिति तथाऽपि संयोगविभागाम्यां कृत्वा इस्योत्पादनाांकाराज्यमेव बन्धना शद्वैविध्यमेव शेषम् एतदुपलक्षणं ज्ञेयम्, यतो न्योत्पादिमागेन यथा पर्यायोत्पादविभागः तथा व्यनाशविभागेनेव पर्यायाशविनागो प्रवेदिति ततः समुदायविभागः तथाथन्तरगमनं चेति द्वयमेव व्यबहियते । तत्र प्रथमः- तन्तुपर्य
पटनाशः द्वितीयः घटोत्पत्तिपर्यन्तमृत्विमादिनाशख यः । बच सम्म तितृतीय काण्डे 46 विगमस्स वि एस षिही समुदायकि सोयि समुद्मविभागमिचं, अत्यंतर भावगमणं च ॥ ३४ ॥ " इत्यादिगाथया ज्ञेयम् ॥२७॥ रुव्या० ए अध्या० ।
न्यास - पुं० । निकेपे, विशे० । उत्त० । अनु० । स्था० | नामस्थापास्तु निक्षेपो म्यासः स
प्यासा नाशन १० पलायने, गणादपक्रम दियेनात ०२ अधि० नुपायादिभयेन यस्य गर्नग्रहाऽऽदिष्वन्तर्धाने, प्रव० ३० द्वार । कर्मप्रकृतेः स्थिबुकसंक्रमणे प्रकृत्यन्तरगमने, आचा० १ ० ९ अ० १० ।
1
" परिणामो ह्यर्थान्तर- गमनं न च सर्वथा व्यवस्थानम् । न च सर्वथा विनाशः, परिणामस्तद्विदामिष्टः ॥ १ ॥ सत्पर्यायेण विनाशः, प्रादुर्भावोऽसता च पर्यवतः । द्रव्याणां परिणामः, प्रोक्तः खलु पर्यवनयस्व || २ || " एतद्वचनं संमतिप्रज्ञापनावृत्तिविषयि कथञ्चित् सद् रूपान्तरं प्राप्नोति सर्वथा न विनश्यति ध्यार्थिकनयस्य परिणामत्वं कथितम् पूर्व विनश्यति उत्तरासत्पथेोरपद्यते यत्पयायार्थिकमयस्य परिणामत्वं कथितम् । एतदनि प्रायं विचारयताको रूपान्तरपरिणामविनाशः, एकनाथ तरगमननाथः इत्यं विनाशस्यापि संपलम् ॥२५॥ पुनराद्दतत्रान्धतमसस्तेजो- रूपान्तरस्य संक्रमः । अयोरवन्तरापाती अर्थान्तरगमश्च सः ।। २६ ।। (तत्र शते तत्र नाशे अन्यतमसोप्रधकारस्य तेजोरूपान्यरस्य संक्रम उद्योतताऽवस्थितरूण्यस्य रूपान्तरपरिणामरूपनाशो हेय च पुनरणोः परमाणोरन्तरापातयोरन्तर
प्राश्र० द्वार ।
पासावहार न्यासापहारपुं० [म्यासस्य धनधान्यादिस्थाप निक/या अपहरणमपलापो न्यासापहारः । ध० २ अधि० स्थूलपावावर प्रथमेऽतिबारे स्वामिश्विदेव
मोदि भावमनुभवन पूर्वपरत्वं विगतमित्यनेनाऽर्थान्तरगमः स्कन्धपर्याय उत्पन्नः तेन कृत्वाऽथान्तरगतिरूपनाशस्य स्थितिर्भवति । निष्कर्षस्त्वयम् - यत्रान्धकारस्तथापि
बालदम्यासापहारानि तु तत्याप्रायाणि महापा तकानि सर्वथा विशिष्व वर्जनीयानि । घ० २ अधि० । उत्त० । खासि [ ए ] --नाशिन् - त्रि० । विनशनशीले, स्वा० ॥
तदाकारपरमाप्रयो नियतमः समस्ति तच मदासिकपुर नासिकयपुर-१० पञ्चवटीविभूषितकूलाया
न्यासन - न० | व्यवस्थापन, अनु० । यासपिएडवन्यासनिहन पुं० [यस्यते
-
सम
यते इति न्यासः सुषर्णाऽऽदिः, तस्य निहत्रोऽपलापः । न्यासापहारे, ध० २ अधि० ।
39
शासन नाशि-पान-प्रिमापादनेन ड-नासब-हारव - विप्पगाल-पलावाः | ६ | ४ | ३१ । इति रायन्तस्य नशेन सवाऽऽदेशः । ' णासबद्द' नाशयति । प्रा० ४ पाद ।
णासा-नासा- ख० । घोणायाम, तं । पञ्चा०] । प्रज्ञा० । औ० आ० म० । गन्धग्राह केन्द्रिये, वाच० । णासाणिस्सासवो नासानिश्वासवाद्या
द् नासानिश्वासवातवाह्ये, प्र० ६ श० ३३७० | जी० 1 णासाभेय - नासाभेद -पुं० । नासिकाविवरकरणे, प्रश्न० १
गोदावर्षा दक्षिणकूलस्थे स्वनामस्याते नगरे, आ० क० । आ० म० । श्रा० चू० | नं० ।
66
प्रणिरसामि । कप्यमहं ॥ १ ॥"
पदजिणं दिजिम नाविकलिमलनिषदे, नासिकपुर "नासिक पुरातत्स्स उपमापतिथि एवं तिपुर्विव फिर नारयरिसिणा एगया भयवं कमलाssसों पुट्ठो
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(२०१६) अभिधानराजेन्ऊः ।
यासिकपुर
पुष्ठभूमिद्वाणं कत्थ सि ? कमलाssसणं मणिमंजत्थेव इमं म ऊ पचपरिक से पच भूमिाणं तिरं चियामुपदिमं मरहट्टजणचयभूमी भा हिं नहिं भूमियाप णाणाविव वस्तश्मणहराए देवभूमियाबाप । तस्य पचमाऽऽसणेण पचमपुरं ति नगरं निवेसियं । तस्थ काढतो विद्यामहेश मिला हुरा सम्ये म राय हकारिता वि नाऽऽगया सुरभरणं । ते भणति-जश् प्रययं दध्यसामी अंतरे आगच्छ ता अम्हे वीसत्या श्रामोमो जाच सामी विहर सत्य मंतृण पमिव जोडियकरको विवेज 1 तत्थाऽगच्छ जहा मज्ज कज्जं सिज्जर । सामिणा नायंमेह पडिकवेणात्रि तं सिज्जिस्सह । तम्रो बंत्रणा चंदकंतिमणिमयं बिंबं सोहम्मिंदाओ घित्तूण तत्थाऽऽणीयं । आगया दा नवा पाएको जपणमहो अ । तत्थ कारिश्रो चंदप्यद्दविहारोपबावरणा, सुरदुवारे य सिरिसुंदरी ठाविम्रो नयररक्खणपुरे । पापमपरं तितिर सिवावाब रही राम्रो सीयालक्खणसंजु पिउआणाए वणवासं गयो,गोयमगंगातीरे पंचवडी आसमे चिरं बम्पाहारेणं विश्र । इत्यंतरे
रावणभरणी सुदपणह। तत्थ पत्ता, रामं ददवून अजोववक्षा पत्ती रामेण पडिसिया तेय ती नासिया बिया, तत्थ नासिकपुरं जायं । कमेण सीया रावणेण हरिश्रा, रावेण जुळे वाघाइओ रावणो, विभीसणस्स दिवां लंकासमोन सामियो - पणं उद्धरणं सगमुद्धारो एवं णासिपुरे संजय कालंतरे पुराणभूमिं नाउं आगओ मिहिलाहिंतो तत्थ जणयराम्रो, तेशय तत्थ दस जपणा कारिया, जग्ग्रहणं ति तायरं क" (सी०) (नासिकस्य जनस्थानमिति नामान्तरं यथा जातमिति देवजानी वृते ' 9 जणट्ठाण शब्देऽस्मिन्नेत्र भागे १३०७ पृष्ठे द्रष्टव्यम्। तथा 'कुंतीविहार' इत्यपि नाम, तद्वक व्यता 'कुंतीबिहार' शब्दे तृतीयभाग ५७० पृष्ठे गता ) श्री अ दीवायणरिसिणा वारवईप दडिए उवक्त्रीध्याय जायवसे बजकुमारो नाम जायवखत्तिओ आसि । तस्स गन्भवई नज्जा, झापामा बहुचिपुष्यं दीवारिक्षिणा मुक माता सामि देव सरणमागया, मुझे समय पुत्रपुष्पहार किसे नामं कर्म से
भाव संपतुभ्यो जाओ महारटो, कमेणावि सु लोणं समं शुद्धं काउं समत्थो । भन्नया तत्थ बोरेटिंगारिया श्ण पदारिया चोरे निगिरिधऊण वालियाओ । तो तं श्रपयंडपरिकमं पासिक्रय बंभणाश्रोषणं तस्स तलारचयं (1) दिसणं, निम्नदिया सेण चोरवरमाश्णा, जाओ सो कमेण महाराया । तत्थेव नयरे कायचंसस्स भगं मूलं उचरियति
-
ि
नितिक एवं चेदितामूलक, तो परिंदेण तस्स उद्धार कार्ड चडवसिं गामा देवस्स दिया। जं तेसु दक्षिण मुध्पज्जर, (१) । तो किसि च कालंतर गए आसपासदेवादियमहादुग्यं प्रयासो नाम महल्लयखत्तियजाई वरडो भासि, तेख पासाओ पा रिमो से सोकण पट्टीबाल सायंससाहुरेसरपुत्तमानि
लेणं कुमिरोवरले साइकुमारसीज परम सावपण पासाओ पुण नवो कारिभो । सफलीकयं नायागयं नियति उत्तारियो अप्पा भवसमुद्दाम पवमा मासिकमातित्यं भावि जामकरण भरादिति चाहिमाम प्रागंण संघा, पमाविति त्रिकालदयनि नसणं भयवभो सासणं ति " ।
"नासिकपुरक्स इमं क पौराणपरमतित्यस्स । वायंत पढ़ता, संपज्जद बंडिया रिकी ॥ १ ॥ किचि परमश्यमुद्दा, सममयपार विदा तह सोई। सिरिजिनपहस्रीहिं, सिद्दिश्रो नासिक पुरकप्पो ॥ २ ॥ " इतिश्री नासिक्य पुरकल्पः । तंी० २७ कल्प | णासियासिंघाणग- नासिकासिङ्घाणक न० । घ्राणजमल
रोपे तं
गाइ- नाथ- पुं० ।" बघथधनां०" | 0 | ११८७ । इति थ स्थ हः । प्रा० १ पाद प्रभौ, स०१ सम० । योगकेमकृति, नं०। [झा० | स्वामिनि, स्था० ।
साइड-नाथपुं मध्देशे सत्यपुर ( साचोर ) नगरे श्री. वीर जिनबिम्ब कार के गृहपती, ती० १६ कल्प ।
66
लाल-लाइन - न० । 'बाइललाङ्गलमाङ्गूले वाऽऽदेः । ८ । १२५६ । इत्यादेर्श्वस्य वा णः । प्रा०१ पाद । म्लेच्छावेशेथे, प्रा० ० १ पाद ।
नाहनाइय- नाथवादिक-पुं० । पार्श्वस्थे, पार्श्वस्था नाथवादिकमवमलचारिणः । सुत्र० १ ० ३ ० ४ ३० । शाइस्तेय-नाथसुतेनम् पुं० [प्रतीतायामुत्सर्पिष्यांनारताती
तजिने, प्र० ७ द्वार ।
अवाहिनहि-य"किलाऽथवा
दिवा सहनदे किरा
33
हवर दिवे सह नाहिं " । ४ । ४१६ । इति अपभ्रंशे नहे मीडिमादेशः । निधिले निषेधे पे गढ़ीरिम सायरो पक्ष वि कणिय नाहि ओहट्ट । प्रा० ४ पाद । छाहिए नास्तिक-पुं० श्रीकापतिके, स्वा०" वैशेनास्तिको हो, बाईस्पत्यः प्रकीर्तितः । नास्तिकाया
सर्वेऽपि परतीर्थिकाः ॥ १२५ ॥ " नये ० ।
सामिणो तेण भवणमुरुरिअं एवं तद्अजुगे उद्धारो कारावि
।
जो
किरकट नपरे परम नाम राया राईपवाह) नास्तिकवादिन पुं० । मायायां जीवना
करेइ । तेण जिलभसेज तत्थ पासाए बंदकंतमणिर्विवं सोऊण चिति-ममेयं विषं नियनयरे आणि देवासरे पुत्र सामि तिम्रो कचि परं नानानिपरलो संविदितरि देव बी, माया सेवमई परिमा । तभो रथा जिलमंदिरमागएसोमोरिक्षा
स्तित्वप्रतिपादके ० १ ० जाहियवाय- नास्तिकवाद पुं० चार्वाकमतान्युपगमे, (०) धूर्ताssस्याबाऽऽदिवदसंबरू जल्पने, ग० २ अधि० । विदेशी अपने कि-नि-य० न किनिराम, विपा० १०९०
वर्ग ।
1
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णि
(२०१७) अभिधानराजेन्द्रः।
शिउत उत्तः । नयत्ये, मनु० । निश्चये, आधिक्ये च । उत्त १ अ० । चकणे, कल्प०३ क्षण । संयमानुष्ठानकुशझे, दश०२०।संसूत्र० । प्रा० चू० । निवेशे, भृशाथै, नित्यार्थे, संशये, कौशले, गतोपचारकुशले, औ०। "न वा लभेज्जा निउणं सहाय, गुणा. केप, उपरमे, सामीप्ये, आदरे, दाने, मोके, अन्तर्भावे, बन्धने, दियं वा गुणओ सम वा ॥५॥"उत्त० ३२ अ०। अवगतत. राशा, अधोभागे, विन्यासे च । वाच ।
चे, प्राचा०१ श्रु०२ १०२ ० "निउणगंधवगीयरच्या "निपुणिअक्कल-देशी-वर्तुबे, दे० ना०४ वर्ग ३६ गाथा।
णगन्धर्वगीतरतिका:-निपुणाः परमकौशलोपता ये गन्धर्व
जातीया देवास्तेषां गीतं तत्र रतियेषां ते तथा । जी०३ प्रति० णिअच्च-दृ-धा० प्रेकणे, " दृशो निच्छ-पेच्यावयच्छा.
४३०। "निउणगंधचसमयकुसोहि।" निपुणं यथा भवति धयझ-बज-सम्बवदेवाला अक्खावक्खावअक्वपुलोएपुलए-- एवं गन्धर्वसमवे नाट्यसमये ये कुशलाः। जी०३ प्रति०४ उ०। निआवासपासाः" ।।४।१८१। इति सूत्रेण "निपच्च'
णिउणकुसम-निपुणकुशल-पुं० । निपुणानां मध्ये अतिशयेन श्रादेशः । 'निअच्छ' । पश्यति । प्रा० ४ पाद । दे० ना० ।
कुशले, रा। णिअमी-देशी-दम्भे, दे० ना.४ वर्ग १६ गाथा ।
णिउणणयजुय-निपुणनययुत-त्रि०। सूक्ष्मनीतिसंगते, पञ्चा० णिअत्य-परिहिते, दे० ना०४ वर्ग ३३ गाथा ।
२विव०॥ णिअय-देशी-रते, शयनीये, शाश्वते, घटे च । दे० ना० ४
णिनणदिहि-निपुणदृष्टि-स्त्री। सूक्ष्मबुद्धौ, पं०व०४बार । वर्ग ४० गाथा।
पञ्चा। णिअरिअ-देशी-निकरेण स्थिते, देना०४ वर्ग ३८ गाथा। पिनधी-निपुणधी-त्रि०।६ बहु । कुशलबुझौ, पो. १ णिअलं-देशी-नूपरे, दे० ना० ४ वर्ग २८ गाथा।
विव०। शिअंधण-देशी-वस्त्रे, दे० ना०४ वर्ग ३७ गाथा ।
णिउणबुधि-निपुणबुद्धि-स्त्री० । सूदमधियाम् , पश्चा० ११ पिअंसण-देशी-वस्त्रे, दे० ना०४ वर्ग ३८ गाथा।
विव०॥
णिनणसिप्पोवगय-निपुणशिल्पोपगत-त्रि०। निपुणं यथा भ. णिआणिआ-देशी-कुतृणोद्धरणे, दे० ना.४ वर्ग ३५ गाथा।।
वति एवं शिल्पं क्रियाकौशलमुपगतः। रा० । निपुणानि सू. णिबार-देशी-रिपुगृहे, दे. ना०४ वर्ग २५ गाथा।
क्ष्माणि यानि शिल्पानि अङ्गमर्दनाऽदीनि तान्युपगतोऽधिगतः। डिय-नित्य-त्रि०। सदकारणवति, नं। अप्रच्युतानुत्पन्न-
पा. १७०१०।ौ । सूक्ष्मशिल्पसमन्विते,उत्त०५०।
a-40 निपुणं समं ज्ञान, तेन चरन्तीति स्थिरैकस्वजावे, सूत्र०१ श्रु०१०४ उ० । परिणामामित्यतायामपि व्यार्थतया नियते, सूत्र १ श्रु०४०।
नैपुणिकाः। निपुणा एव वा नैपुणिकाः। निपुणकानेषु निपुणेषु,
(स्था) णिइयपिम-नित्यपिएड-पुं० । निमन्त्रितापिरामे, पं००।
नव बिउणिया वत्थू परमत्ता । जहा-"संखाणे निमिणिउअ-निवृत-त्रि.।" उदृत्वादो"।८।१।१३१ । इति भू
ते काईए, पोराणे पारिहत्यिए । परिपंमिए य वाई य त उत्वम् । नितरां वृते, प्रा० १ पाद ।
जुइकम्मे तिगिच्चिए"॥१॥ णिउक्क-देशी-तूष्मीके, दे० ना०४ वर्ग २७ गाथा ।
निपुण सूदम शानं, तेन चरन्तीति नैपुणिकाः, निपुणा एवं णिउकण-देशी-वायसे, मूके च । दे० ना० ४ वर्ग ५१ गाथा। बा नैपुणिकाः। (बत्यु ति) प्राचार्याऽऽदिपुरुषवस्तानि, पुरुषा णिज्जम-निरुद्यम-पुं० । कार्यमात्रोधमरहिते, "णिज्जमा
इत्यर्थः । (संखाणे सिलोगो) सख्यानं गणितं, तद्योगात् वणगा समणगा पन्वयंति ।" सत्र०२ भु०२०।
पुरुषोऽपि तथा, सङ्ख्याने वा विषये निपुण इति । एवमन्यत्रा.
पि, नवरं निमित्तं चूमामणिप्रभृतिः, कायिकं शारीरिकम, णिउजमाण-नियोजयत्-त्रि० । व्यापारयति, सूत्र० १
मापिकलादिग्राणतत्वमित्यर्थः। पुराणो वृकः, सच चिरजीश्रु.१००।
वित्वाद् रष्टबहुविधव्यतिकरत्वान्नैपुणिक इति, पुराणं पा शाणिनम-मस्ज-धा० । बुडने, “मस्जेराउणिवुड-खुप्पा, विशेषः, तज्जो निपुणप्रायो भवति ॥४॥(पारिहथिए ति) ।८।४।१.१॥ इति मज्जते: जिनहाऽऽदेशः। णिहा मज्जति। प्रकृत्यैव दक्षः सर्वप्रयोजनानामकालहीनतया कर्तेति च ॥४॥ प्रा०४ पाद।
तथा परः प्रकटः पण्डितः प्रपारीमतः, परपरिडतो बहुणि उण-निगुण-त्रिका नियतगुणे, निश्चितगुणे च । विशेसु. शास्त्रका, परो वा मित्राऽऽदिः पण्डितो यस्य स तथा, सोऽपि
निपुणसंसर्गानिपुणो भवति, वैद्यकृष्णकवदिति । वादी बादनिश्चित, पञ्चा०४ विधः ।
सन्धिसंपन्नो, यः परेण न जीयते, मन्त्रवादी धातुवादी वेति । निषण-त्रि० । कुशले, इति वृद्धोक्तिः । सूदमदर्शिनि, उपा०७
ज्वराऽदिरवानिमितं भूप्तिदान भूतिकर्म, तत्र निपुणः । तथा अ। मौ०। प्राव । माचा। सूक्ष्मे, औ० । सदमझाने, स्था. चिकित्सने निपुणः, अथवाऽनुप्रवादाभिधानस्य नवमपूर्वस्य नै१ ठा० । उपायाऽऽरम्भके, अनु० । नि० चू० । " सुण ताव सू. पुणिकानि वस्तूनि अध्ययनविशेषा एवेति । स्था० १ ठा। रपण्ण-त्तिवएणणं वित्थरेण जंणिठणं।" निपुणं निपुणमतिगम्यम् । ज्यो०२ पादु । राका | "सच णगरं कि.
जिनणोचिय-निपुणोचित-त्रि। निपुणेन शिल्पिना परिकचा, तवसंवरमग्गलं । संति लिटणपागारं, तिमु उपधंस- मित, माया
यं ॥२०॥" निपुणमिव निपुणमा उत्स०एम० उपायवि.णिउत-नियुत-त्रि। नितरां संगते, का०१० १० १०।। Jain Education Interatione yox For Private & Personal use only
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(२०१७) णिउत्त अभिधानराजेन्फः ।
गिंदा पिनत्त-नियुक्त-त्रि० । व्यापारिते,पश्चा०विव० प्रा०म०।| णिोगपुर-नियोगपुर-न० । नियोगो राजा, तस्य पुरम् । उत्स०। उचितव्यापारे,नियोगेनार्पिते,अनु० ।
राजधान्याम्, देश, जनपदे, राज्ये, राष्ट्रे च । जीत। णि उर-निकुर पुं०। वृक्तविशेषे, शा०१ श्रु०८ अ०।
णिोजिय-नियोजित-त्रि० । व्यापारिते. "सोऊण जिणागनपूर-न।" इदेती नूपुरे वा" ॥८।१ । १२३॥ इति ऊत | मणं, निनत्सअणिोजियाइपसुं वा।" प्रा० म० १ अ० १ इत्वम् । स्त्रीणां पादाऽऽभरणे, प्रा०१ पाद ।
खएम। पिनरंब-निकुरम्ब-न । समूहे, औ० जी० । रा०। जं० । णित-नयत-नि. । निर्गच्चति, नि० चू०१ उ० प्रा० म.। झा० "रम्मे महामेहनिउरंबभूए।" महामेहवृन्दकल्प श्त्यर्थः। दिंत-निन्दत-त्रि.1 जुगुप्समाने, प्रश्न. ३ आश्र• द्वार । शा०१ श्रु० १ ०।
अन्त। णिएबग-निजकीय-त्रि० । आत्मीये, “ताहे जा इच्छंति सम्वे ।
णिंदण-निन्दन-न । मनसा कुत्सने, झा० १ ० ८ ० । णिपडगा।" प्रा० म०१०१खएक।
स्था । आत्मनैव दोषपरिकुत्सने, भ. १७०३ उ० । पश्चाणिोग नियोग-पुं० । निवतो निश्चितो हितो वाऽनुकूलः
त्तापे, ज्ञा० १ श्रु० १६ अ०। सत्रस्यानिधेयेन सह यो योगः सम्बन्धः स नियोगः। अनु
णिंदणा-निन्दना-स्त्री० । निन्द-ल्युह, प्राकृते स्वार्थे तत । श्रायोगशब्दस्याथै, विशे०।
त्मनेवाऽऽस्मदोषपरिभावने, उत्त० १ अ०। भात्मसाक्षिक___ अधुना नियोगमाह--
मात्मनो निन्दायाम, उत्त० । अहिगो जोगों निओगो, जहाऽइदाहोजवे निदाहोत्ति।
तत्फलम्अत्यनिनत्तं सुत्तं, पसुवइ चरणं जो मुक्खो। निंदणयाए णं भंते ! जीवे किं जणयइ ?। निंदणयाए णं निराधिक्ये, अधिको योगो नियोगो, यथाऽतिदाघो निदाघः, पच्छाणुतावं जणयइ, पच्चाणूतावेणं विरज्जमाणे करणगुकस्य केन सहाऽऽधिक्यमिति चेत् ?; उच्यते-सूत्रस्यार्थेन । आध
णसेढिं पडिवजइ, करणगुणसेदि पमिवले य अणगारे क्येन योगस्य किं फलमिति चेत् ?, अत आह-अर्थेन सममाधिक्येन नियुक्तं सूत्र, चरणं चारित्रं प्रसृते, यतः संसाराट्
मोहणिज्जं कम्मं उग्याएइ ॥६॥ मोकः॥
हे जदन्त ! निन्दनया जीवः किं जनयति । गुरुराह हे शिष्य ! अत्रैव प्रसवने दृष्टान्तमाह--
आत्मनः पापस्य निन्दनेन पश्चात्तापं जनयति-हा! मया दुवच्छनियोगे खीरं, अत्यनियोगेण चरणमेवं तु ।
स्कृतं कृतमित्यादि बुद्धिमुत्पादयति । पश्चात्तापेन विरज्यमा
नो वैराग्यं प्राप्नुवन् सन् करणगुणश्रेणिमपूर्वकरणेन पूर्व कपत्तन दंमियमुनयं, दंमीसरिसो तहिं अत्यो॥
दापि अप्राप्तेन विशदमनःपरिणामविशेषगुणश्रेणि क्षपकणि यथा गर्विसेन नियुक्ता सती कीरं प्रसूते, एवमथेन समं| प्रतिपद्यते अङ्गीकुरुते, करणगुणश्रेणि प्रतिपन्नोऽपूर्वगुणनियुक्तं सूत्रं चरणं प्रसूते । यदि पुनरेकं केवलं सूत्रं स्याना- श्रेणिः सन् अनगारः साधुर्मोहनीय कर्म दर्शनमोहनीयाऽऽदिक र्थस्तेन संगृहीतो भवेत्। ततश्चरणप्रसवस्याभावः, यथा व. कर्मोद्घातयते अतिशयेन क्षपयति ॥ ६॥ उत्त० २६ भ०। सनियोगाभावे गोक्षीरप्रसवस्याभावः, अर्थोऽपि केवलः सूत्र-णिंदा-निन्दा-स्त्री.।'णिदि' कुत्लायाम्, अस्य "गुरोश्च विहीनो न कार्यसाधको, यथा केवलो बत्सः । अत्रैव दृष्टान्ता
हलः " ॥३।३। १०३ ॥ इत्यप्रत्ययः । मिथ्यादुष्कृते, आव. न्तरमाह-(पत्तगदमियउभयं ति)पत्रक-लेखः,दरिकका लेखस्यो.
४. । स्व प्रत्यकमेव जुगुप्सायाम, पा०। सूत्र० । प्रतिः। न. परि मुद्रानियोगः, उभयं-पत्रकं,दण्डिका चाइयमत्र भावना
त०। आ० माआव० । “णिदामि गरिहामि।" निन्दागही "तिन्नि पुरिसा रायाणमोलमांति, राया तुट्ठो कस्सिा नगरे
भिधेयस्यापि जुगुप्सार्यस्य विशेषतो भेदोऽस्ति । तथाहिपसानो कओ । तत्थ एगेण पुरिमेण जे तम्मि नयरे रायपुरिसा,
खप्रत्यक्काऽऽत्मसाक्षिकी जुगुप्सा, सा समये सिद्धान्ते निन्दातेसि जोग्ग पत्तयमाणीय । विश्पण दंझिया चेव केवला ।।
मोत्यनेन गम्यते। या तु गुरुप्रत्यक्का गुरुसाक्षिकी जुगुप्सा, सा तइएणोभयं । तत्थ जेण मुद्दारित्तं पत्तयमाणीयं, सो राय
गर्हामीत्वनेन शब्देन गम्यते । विशे०। पुरिसेहिं भणिओ-नस्थि पत्तगस्सोपरि मुद्दाविणिोग त्ति
सा च नामाऽऽदिनेदतः षोढा नवति । तथा चाऽऽहन मन्ने सो । विश्ओ भणिो -अत्थि श्यं मुद्दा, परं को रराणा
नाम उवणा दविए, खत्ते काले तहेव नावे य । पसाओ कओ, को वा न को ति ?, न जाणामो त्ति, तम्हा न देमो सि । तश्पणोभयं दरिसियं ति सब जहि
एसो खलु जिंदाए, निक्खेवो उबिहो होइ ॥४॥ हिक्रय लकं।" एष दृष्टान्तः । अयमर्थोपनया-पत्रकसदृशं सूत्र,
तत्र नामस्थापने तुम्मे अन्यनिन्दा-तापसाऽऽदीनामनुपयुक्तस्य दण्डिकासदृशोऽर्थः, यथा पत्रकं केवलं, दएिमका वा न
वा सम्यग्दृष्टे| उपयुक्तस्य वा निवस्याशोभनव्यस्य वेति । कार्यस्य प्रसाधिका, उन्नयं तु साधकम, एवं सूत्रमर्थश्च पृथक् ।
क्षेत्रनिन्दा-यत्र व्याख्यायते वा क्रियते वा संसक्तस्य वेति।का. न चरणप्रसाधकः, नभयं तु प्रसाधकम् । वृ० १उ०। प्रा०
लनिन्दा-यस्मिन्निन्दा व्याख्यायते वा निकाऽऽदेर्वा कास्य। चू०। व्यापारे,ज्य २ उ० पश्चा० । अवश्यतायाम्, पं० ब.४
नावनिन्दा-प्रशस्ताप्रशस्तेन द्विनेदा,प्रशस्ता सयमाऽऽद्याचरणवि. द्वार । पश्चा० । नियमे,पं०व०४ द्वार । द्वा०। पञ्चा निश्चिता षवा,अप्रशस्ता पुनरसंयमाऽऽद्याचरणविषयति। “हा घट्ट कयं
आझाऽऽदिना कृतव्यापारा यस्य स नियोगः । राजनि, जीता।। हा दुट्ट कारियं दुदु अणुमयं दत्ति । मंतो बाहिर डज्कासुसिरो ग्रामे, क्षेत्रे च । वृ०१ उ.1
4 व 5मो वणवेणं ॥१॥" अथवौषत पवोपयुक्तलम्यग्दृष्टरिति ।
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गिदा
(२०१५) अभिधानराजेन्छः।
णिकायकाय आव० ४ ० । (निन्दायां चित्रकरसुतोदाहरणं णग्गा स्तिकायाऽऽदिः । द्रव्यकायश्च ज्यादिघटाऽऽदिसमुदायः। मातृ. शन्देऽत्रैव भागे १७५५ पृष्ठे अष्टव्यम्)
काकायच्यादीनि मातृकाकराणि । पर्यायकायो द्विधा जीवाऽ. पिंदाचाग-निन्दात्याग-पुं० । परिवादापनोदे द्वा० १२ द्वा०।।
जीवभेदेन-जीवपर्यायकायो ज्ञानाऽऽदिसमुदायः, अजीवपर्याणि दिवा-निन्दित्वा-अव्यः । जुगुप्सित्वेत्यर्थे, "णिदित्ता
यकायो रूपाऽऽदिसमुदायः । संग्रहकायः संग्रहैकशब्दवाच्या, गरहित्ता पमिकमित्ता प्रहारिहं उत्तरगुणं पायच्छि । " |
त्रिकटुकाऽऽदिवत् । भारकायः कापोती। वृक्षास्तु व्याचकतेआचा०२ श्रु०३ चू०१०।
एको काओ हा जाओ, एगो चिहइ एगो मारिओ । जिंदिया-निन्दिता-स्त्री० । एकदा विजातीयतृणाऽऽद्यपनयनेन जीवंतो मरण मारिभो,तब्बव माणव केण हेउणा ॥२॥ शोधितायां कृषी, स्था०४०४ उ०।
उदाहरणम्-" एगो काहरो तलाए दो घमा पाणिवस्स भ
रेऊण काबोडीए वहति,सो एगो उक्कायकाओ दोसु घडेसु पिंब-निम्ब-पुं० । नीबमा' इति ख्याते वृक्तविशेष, प्रमा० १
दुहा को । तो सो काहरो गच्छंतो पक्वलिभो, एगो घडो पद । तत्फले, न० । उज्जयिन्यामम्बार्षिद्विजपुत्रे मालुका
भग्गो । ताम्म जो भाउक्कानो सो मश्रो । इतरम्मि जीवति; ऽऽत्मजे, स च पित्रा सह, प्रनजितो दुर्विनीतत्वेन साधुभि.
तस्स अनावे सो विनम्गो । ताहे सो तेण पुन्वमपण मारियो स्तिरस्कृत इति विनयोपगते उदाहरणम् । प्रा० क० । प्राव ति भाति । अहवा-एगो घमो बाउक्कायभरिओ, ताहे तमाबि-निम्बक-पुं० । अभिप्रायवशाद निम्बक इति नामाभि- उक्काय दुहा काऊण अद्धो ताविओ, सो मत्रो। अताविप्रो धेये, अनु०।
जीवति । ताहे सो वि तत्थेव पक्खि तो। तेण मपण जीवंतो णिबोलिया-निम्बगुलिका-स्त्री० । निम्बफरे, शा. १ श्रु०
मारिओ त्ति । पस भारकाओ गो।" भाषकायश्चौदारिका
दिसमुदायः । इह च निकायः काय इत्यनान्तरमिति कृत्वा १६ अ०।
कायनिक्षेप इत्यपुष्ट एवेति गाथाऽर्थः ॥ २८ ॥ णिकरण-निकरण-न । निश्चयेन नितरां नियतं वा क्रियन्ते नानापुःखावस्था जन्तवो येन तनिकरणम् । निकारे, शा
इत्थं पुण अहिगारो, निकायकारण हो सुत्तम्मि । रीरमानस दुःखोत्पादने, प्राचा० १ श्रु० २०५०।
उच्चरियअत्थसरिसा-ण कित्तणं मेसगाणं पि॥श्नया णिकाइय-निकाचित-
त्रिनियुक्तिसंग्रहणीहेतूदाहरणाऽदि. अत्र पुनः सूत्रे इति प्रयोगः,सूत्र इत्यधिकृताध्ययने। किमित्यानिरनेकधा व्यवस्थापिते, नं० । नितरां काचन बन्धनं निकाचि- ह-अधिकारी निकायकायेन जवति । अधिकारःप्रयोजनम्, तम्। कर्मणः सर्वकरणानामयोग्यत्वेनावस्थापने,पूर्वबस्य तप्त- शेषाणामुपन्यासवैयर्यमाशङ्कयाऽऽह-उच्चरितार्थसरशानामुमिलितसंकुटितलोहशलाकासंबन्धसमाने करणे,स्था । "चन- चरितो निकायः, तदर्थतुल्यानां, कीर्तनं संशब्दनम् ; शेषाणाबिहे निकाए पएणत्ते । तं जहा-पगडनिकाइए, चिनिकाइ- मपि नामाऽऽदिकायानां व्युत्पत्तिहेतुत्वात् प्रदेशान्तरोपयोगिए, अणुभागनिकाइप, पएसनिकाइए।" स्था०४ ० २ उ०। स्वाच्चोति गाथाऽर्थः ॥ २८६ ॥ दश. ४ अ.। णिकाउंसु-निकाचितवत-त्रि० । नितरां बद्धवति, भ. १ श.
कायमणिो वि वुच्चइ, बछमवि निकायमाहंम् । १० । नियमितवति, सूत्र०२ श्रु० १ अ० ।
बकमपि किञ्चिल्लेखाऽऽदिनिकायम्, (माहंसुत्ति) निकाचि. णिकाम-निकाम-न०। प्रत्यर्थे, निश्चये, सूत्र. १० १० अ०।
तमाख्यातवन्तः । आव ५ अषम्जीवनिकायवनिकायः। णिकामकामीण-निकामकामीन-न । निकाममत्यर्थ प्रार्थयते
प्रावश्यके, अनु।(असुराऽऽदिनिकायेन्द्राणां, सौधर्मा35. यः स निकामकामीनः । आहारोपकरणादिकस्यार्थस्य प्रार्थ- दिदेवलोकेन्द्राणां च नामानि 'इंद' शब्दे द्वितीयभागे ५३५ के, सूत्र.१ श्रु० १० भ०।
पृष्ठे अष्टव्यानि) णिकामचारि[ए] निकामचारिन्-त्रि.निकाममत्यर्थं चरति
निकाच-पुं० । निकाचनं निकाचः । ग्न्दने, निमन्त्रणे, स० तच्चीलश्च निकामचारी । आधाकर्माऽऽदीनां तनिमित्तनिमन्त्रा- ११ समः। पणाऽदीनां वा ग्रहणशीले, सूत्र०१ श्रु०१० अ०॥
निकाच्य-अव्य० । व्यवस्थाप्येत्यर्थे, "णिकाय समयं पत्तेयं पणिकाय-निकाय-पुं० । निसर्गतः काय औदारिकाऽऽदिर्यस्माद
त्तेयं पुच्छिस्सामो।" भाचा० १७०४०२ उ०। यस्मिन् वा सति स निकायः । मोके, आचा० १ ० १ ०
णिकायकाय-निकायकाय-पुं०पजीवनिकाये,दश०४ म०। ३ 30। समूहे, भोघ । प्रा० ० । गणकायनिकायस्कन्धः। वर्गराश्यादीनि च स्कन्धैकार्थिकानि । विशे।
निकायकायः प्रतिपाद्यतेसाम्प्रतं निकायपदं व्याचिण्यासुराद
णिययमहिगो व कामओ, जीवनिकालो कायका प्रो आए। नियुक्तिकृत
नित्यः कायो निकायः,नित्यताऽस्य त्रिवपि कालेषु भावात् । अ. णाम ठवण सरीरे, गई निकायऽत्यिकाय दविए य। ।
धिको वा कायो निकायः; यथाऽधिको दाहो निदाह इति श्रा. माउग पजब संगह-भारे तह नावकाए य ॥२७॥ धिक्यं चास्य धर्माधर्मास्तिकायापेकया खनेदापेक्षया था। तथानामस्थापने क्षुगणे । शरीरकायः शरीरमेव तत्प्रायोग्याष्णुसं- हि-एकाऽऽदयो यावदसंख्ययाः पृथिवीकायिकास्तावत्कायः स घातात्मकत्वात् । गतिकायो यो जवान्तरगती; सच तैजसका- पव स्वजातीयान्यप्रक्षेपापेकया निकाय इति एवमन्येष्वपि विनावमणक्षणः । निकायकायः षट्जीवनिकायः। अस्तिकायो धमा-] नीयमित्येवं जीवनिकायः सामान्येन निकायकायोजएयते। अथवा
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(२०२०) अभिधानगजेन्दः ।
गिकायकाय
गिकट्ट
जीवनिकायः पृथिव्यादिभेदभिन्नः षद्विधोऽपि निकायो भण्यते। णिकिंचण-निष्किञ्चन-त्रि० । निर्गतं किञ्चन हिरण्याऽदि थे. तत्समुदाय एव च निकायकाय ति। आव० ४ अ०। भ्यस्ते निष्किञ्चनाः। श्रा०म० १ ० १ खगक । णिकायणा-निकाचना-खी० । 'कच' बन्धन । नितरां कच्यते हिम-निष्कृट-त्रि० । अमावे, प्राब० ५ अ०। स्त्रयमेव वन्धमायाति क जीवस्य तथाविधसंकिष्टाध्यवसा- णिकेअ-निकेत-पुं० । निवासे, शा० १७०१६ अ० । गृहे, उ. यपरिणतस्य, तत्प्रयुडके जीव एव,तथानुकल्येन जवनात,ततः 'प्रयोक्तृव्यापारे णिच् श्रीमा -*६५)तता निकाउयते अवश्यवेद्यतया निवध्यते यया कर्म सा निकाचना। जीववीयविशेषप.
णिक-देशी-सर्वथा विगतमले, झा० १ ० १ ०। रिणतिरुपे समस्तकरणाऽयोग्यत्वेन व्यवस्थापने,क००। सूत्र। निष्क-पुं० । ना निश्चयेन कायति कै-कः शास्त्रीयषोडशमासंप्रति निधत्तिानकाचनाकरणे प्रतिपिपाद
पकपरिमितसुवर्णानामष्टाधिकशते, व्यवहारिकरूपके दीनारे, यिषुराह
(टाका)।चतुःसुवर्णपरिमिते पलपरिमाणे माननेदे, पोमशदेसोवसमणतबा, होई निहत्ती निकाश्या नवरं ।
रुम्मे (काहन) परिमाणे, वकोभूपणे, हेमपात्रे, च । चाच०। संकमणं पि निहत्ती-ऍ नत्थि सेसाण विभरस्म ॥१॥ णिक-निष्क्रय-पुं० । न विद्यते क्रयो यस्य सः । “कग(देसोचसमण ति) निधत्तिनिकाचना च देशोपशमनातु- टडतदपशषसक पामूर्ध्व लुक" ।।२। ७७ । इति प. ल्या । इदमुक्तं नवति-ये देशोपशनाया भेदाः,ये च स्वामिनः, ते लुक । "सर्वत्र लवरामचन्छे" ।।२। ७६ । इति र. अन्यूनातिरिक्ता निधत्तिनिकाचन योरपि वेदितव्याः। नवरम् लुक, अनादी द्वित्वम । "कगचजतदपयवां प्रायो बक” । प्राधीपई निधत्तिनिकाचनयोरिदं संक्रमणमपि परप्रकृतिसंक्रम- ८।१।१७७ । इति यजुक । प्रा०२पाद । "कस्कयोनाम्नि" णमपि अपिशब्दादुदीरणावीन्यपि निधत्ती सत्यांन भवन्ति, ।८।२।४। इति खत्येन, नास्नीति तत्र धिशपणात । क्रयरसतनाऽपवर्तने पुनर्भवत पव; इतरस्थांनिकाचना शेये अपि | हिते,प्रा०५ पाद । उहर्तनापवर्तने थपिन भवतः। सकलकरणयोग्यं निकाचितमि- णिकंकट-निष्कडन्ट-
त्रिनिष्कबुक, निरावरणे,निरुपघाते,स। त्यर्थः॥७२।।
णिकंकडाय-निष्कटच्छाय-त्रि० । निष्कटा निष्कयह यत्र गुणिश्रेगिस्तत्र प्रायो देशोपशमनानियतिनिकाचनायथाप्रवृत्तसंक्रमा अपि संभवन्ति, ततस्तत्रा
वचा निरावरणा निरुपघातेति भावः । गया दीप्तिर्यस्य तनि
काङ्कटच्चायम् । रा०। ज० । औ० । निरावरणदीप्तौ, श्री. । ऽल्पबहुत्यमा
स० । प्रशा० । रा० । स्था० । जी० । ज०। गुणिसेढिपएमग्गं, थोवं पत्तेगसो असंखगुणं । पिकंखिय-निष्काडिन्त-न । काङ्कितं देशसर्वकासात्मकतउवमामणाइ तीसु वि. संकमणेऽहप्पवत्ते य ॥२॥ स्याभावो निष्काशितम् । अन्यान्यदर्शनानभिनाषे, उत्त० २ (गुणसेदिप्ति ) गुणश्रेणिप्रदेशाग्रं स्तोकम् । ततः प्रत्येकशः अ० । प्रव० । निर्गता काङ्गाऽन्यान्यदर्शनग्रहणरूपा यस्वाप्रत्येक प्रत्येकमुपशमनाऽऽदिषु त्रिषु यथाप्रवृत्ते च संक्रमणे ऽसौ निष्काडिन्तः । सूत्र०२ श्रु० ७ ० । देशसर्वकाहारअसंख्ययगुणं वक्तव्यम् । श्यमत्र जावना-यस्व तस्य वा कर्म.
हिते, ध० र अधिः । ग० । व्य। रा०। भौ० । दर्शनान्तराणो गुणश्रेणिप्रदेशाग्रं सर्वस्तोकम, ततोदेशोपशमनायामसंख्ये- ऽऽकाकारहिते, दशा० १० अ०। यगुणम् । ततो निधत्तमसंख्येयगुणम् । ततोऽपि निकाचित- णिकंत-मिष्क्रान्त-त्रि० । प्रवज्यां गृहीतवति, भाचा० ११०१ मसंख्येयगुणम् । ततोऽपि यथाप्रवृत्तसंक्रमेण संक्रान्तमसं
अ०३उ०। ख्येयगुणम् ।२। क०प्र०७+८प्रक०। पं०सा स्था० "श्य महध्वय उश्चारणं णिकायणा ।" निकाचनब निकाचना, स्ववतप्रति
णिकंतार-निष्कान्तार-न । कान्तारमरण्यं, निर्गतः कान्तापत्तिदृढतरनिबन्ध इत्यर्थः । शुभकर्मणां चा निकाचना हेतुत्वा
राद् निष्कान्तारः। कान्तारानिष्क्रान्ते, " कंताराओ णिकंतार निकाचनेयमुच्यते, न च सरागसंयमिनामयमों घटत इ.
करेज्जा।" निष्कान्तारं निष्क्रामितारं वा । स्था०३०१०। ति । पा० । ध०। दापने, “निकायण त्ति वा दावण त्ति वा पगणिकंप-निष्कम्प-पुं०। रढे, द्वा०६ द्वा० स्थिरचित्तवृत्ती, वृ०। हा।" नि००५ उ०।“ जं मासातिप्रारोवणाप विहीण
अथ निष्कम्पताद्वारमाहधियाए वा जहा महाए प्रारोवणाए प्रारोवयंति, तं णिकाइत भाति ।" नि.चू० २०१०।
णाणाऽऽणती पुणो, दंसणतवनियमसंजमे विच्चा। णिकायपमिवण-निकायप्रतिपन्न-त्रि० । निर्गतः काय औदा- विहर विमुकमाणो, जावज्जीवं पिणिकंपो॥ रिकाऽऽदिर्यस्माद् यस्मिन् वा सति स निकायो मोकः, तं प्र. ज्ञानस्य या प्राप्तिरादेशः-"जाएँ सद्धाऍनिक्कतो, तामेव मणुतिपत्रो निकायप्रतिपन्नः । सम्यग्दर्शनाऽऽदे: स्वशक्त्यनुष्ठानाद
पालए।" इत्यादिकः, तया दर्शनप्रधाने तपोनियमरूपे संयमे मोकं प्रतिपन्ने, भाचा०१ श्रु०१०३ उ०।
स्थित्या कर्ममलेन विशुध्धमानः सन् यावजीवमाप निष्कम्पः
स्थिरचित्तवृत्तिविहरति संयमाध्वनि गच्छतीति । वृ०१3०। *श्रीमत्प्रणीतं रूचिरतरमस्त्येव शब्दानुशासनं सवृत्तिकं,तत्र |
पिकज-देशी-अनवस्थिते, दे० ना० ४ वर्ग ३३ गाथा। नामाऽख्यातदाख्यं यथार्थाख्यं प्रकरणत्रयं क्रमेण नवदशषट्पादप्रमाणम्, ततश्चात्र श्रीमलयगिरिपूज्यपादकृतप्रकरणपा-|
णिकट्ठ-निकष्ट-त्रि । निष्कर्षिते, तपसा कृशदेहे, स्था०४ दसूत्रसंख्यासूचनं क्रमेणावसेयमध्यवसितवारमयसारैः। म०४ न।
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(२०२१) णिकट्ठ निधानराजेन्द्रः ।
णिक्रिय निष्कृष्ट-त्रि० । तपसा कृषीकृते, स्था० ४ ठा०४ उ०। अधुना नियुक्तिकारोऽकारकवादिमतनिराकरणार्थमाहणिकम-देशी-कठिने, दे० ना० ४ वर्ग २ए गाथा।
को वेएई अकयं, कयनासो पंचहा गई नऽस्थि । णिक्कमण-निष्क्रमण-न० । प्रव्रज्यायाम, प्राचा० १ श्रु०५ |
देवमणुस्सगयागइ,माईसरणाऽऽश्या च ण हि ॥३४॥ नि। अ०६० । वृ० । निर् + क्रम-न्युट् । बहिर्गमने, चतुर्थे (को वेपईत्यादि) आत्मनोऽकर्तृत्वात्कृतं नास्ति, ततश्चामासि शिशोः कर्तव्ये संस्कारभेदे च ।"चतुर्थे मासि क
कृतं को वेदयते ?। तथा निष्क्रियत्वे वेदनक्रियाऽपि न घटा तन्यं, शिशोर्मिक्रमणं गृहात् ।" इति मनुः । वाच। प्राश्चति । अथाऽकृतमप्यनुनयेत, तथा सत्यवताऽऽगमकृतना. शिकम्म-निष्कर्मन्-पुं० । निष्क्रान्तः कर्मणो निष्कर्मा । मोके, शाऽऽपत्तिः स्यात् । ततश्च एककृतपातकेन सर्वप्राणि गणो सम्बरे, प्राचा० १ १० ४ भ० ४ उ० ।
हाखितः स्यात् , पुण्येन च सुखी स्यादिति । न चैतद् णिकम्मदंसि[]-निष्कर्मदर्शिन-त्रि० । निष्कर्मा मोक्षः,
इष्टमिष्टं वा । तथा व्यापित्वामित्वत्वाचाऽऽत्मनः पञ्चधा पश्च.
प्रकारा-नारकनियामनुप्यामरमोकल क्षण। गतिन भवेत् । सम्बरो बा, तं द्रष्टुं शीलमस्येति निष्कर्मदर्शी । मोकसम्बरत
ततश्च भवतां साङ्ख्यानां कापायचीयरधारणशिरस्तुगडमुखत्तरि, "णिकम्मदंसी इह मच्चिएहिं कम्माणि सफलतं
एमनदरामधारणभिताभोजित्वपञ्चरात्रोपदेशानुसारयमनियमा. दई ।" प्राचा० १ श्रु० ४ अ०४ उ० । निष्कर्माणमात्मानं प
ऽऽधनुष्ठानम, तथा-" पश्वयिशतितचको, यत्र तत्रा55इयतीति तमीलश्च निष्कर्मदशी। कर्मबन्धनविप्रमुक्ते, " प
थमे रतः । जटी मुण्डी शिखा थाऽपि, मुच्यते नात्र लिच्छियागं णिकम्मरंसी।" निष्कर्मवादपगताऽऽवरणः सर्व
संशयः ॥ १॥" इत्यादि समपार्थकमाप्नोति । तया-देवमज्ञान सर्वदशी च भवति । आचा० १७० ३ ०२ उ०।
नुष्याऽऽदिषु गत्यागतो न स्यातां, सर्वव्या पित्वादात्मनः । णिक्कल-निष्का-वि० । प्रासादिदोषरहिते, भ० १५ श० ।
तथा नित्यत्वाच विस्मरणाभावाद जानिम्मरणाऽऽदिका च शिकण-निकरुण-वि० । निर्गना करुणा दया यस्मादसौ क्रिया नोपपद्यते, तथाऽदिग्रहणात् प्रकृतिः करोति, पुरुष निष्करणः । स्नेहविरहिते, प्रश्न १ आश्र0 द्वार ।
उपतु इति सुजिक्रिया या समाश्रिता, साऽपि न प्राप्नोति । मिकतर-निष्कवच-वि०। निरावरणे, स्था० ४ ० २२० । तस्या अपि क्रियात्वादिति। अथ मुत्राप्रतिविम्योदयन्यायेन गेग णिकमण-निष्कमन-न । निर्गमने, सूत्र १ श्रु० १४ अ०।।
इति चेत्, एततु निरन्तराः सुहदः प्रत्येप्यन्तिपाश्मात्यात् :
प्रतिविम्बोदयस्यापि च क्रियाविशेषत्वादेव । तथा नित्ये णि कसाय-निष्कपाय-त्रि । कषायहते, पातु । आगमि
चाधिकारिएवात्मनि प्रतिविम्बोदयस्याभावाद्यरिताञ्चदेदि. ध्यन्त्यामुत्सपिण्यां भविष्यात त्रयोदशे तार्थश्वरे, ती० २० |
ति ॥ ३४॥ करूप । स० । प्रव०।
ननु च नुजिक्रियामात्रेण, प्रतिविम्बोदयमात्रेण च णिकसिजन-निष्काम्यमान-त्रि) । निर्वास्यमाने, निःमार्य
यद्ययात्मा सक्रियः, तथापि न तावन्मात्रेणामाण, नत्ता १०
स्माभिः सक्रियत्वमिध्यते, किं तर्हि
समस्तक्रियावच्चे सतीत्येतदाणि काम-निष्काम त्रि० । शुभरसगन्धाऽऽयुपत्रोगरहिते,वृ.१ उ० ।
शङ्कस्य नियुक्तिकृदाहणिकारण-निष्कारण-न० । ग्लानाऽऽदिकारणानाचे, आव. ६ | ण दुअफलथोवऽपिच्छित-कानफन्नत्तणमिहं अदुमहेक । अ० । व्यः ।
पादुच्थोवजुक्छ-तणे गावित्तणे हे ॥३॥ नि । णिकामिय-निष्कामित-त्रि । विनिर्गते, श्री. ।
(ण हु अफलेत्यादि)न हु नेपालत्वं मानावे साध्ये हेतुन णिकिंचण-निकिश्चन-त्रिक । णिकि चण' शब्दार्थ, श्रा०म०१
चति । न हि यदेव फलवांस्तदैव दुमोऽन्यदा त्वदुल इति भावः ।
पवमात्मनोऽपि तुपाऽऽद्यवस्थायां यद्यपि कथञ्चिन्निक्रियत्वं,तचाअ०१खएका
ऽपि नैतावता त्वसौ निष्क्रिय इति व्यपदेशाम इति । तथा स्तोकणि किय-निष्क्रिय-विनासर्वव्यापित्वेनावकाशाभावाद गम
फत्रत्वमपिन काभावसाधनाबालम् स्वस्पफलोऽपि हि पननागमनाऽऽदिक्रियावर्जिने, प्रश्न २ श्राश्र० द्वार । पो० । साऽऽदिवृक्षस्य व्यपदेशभाग्भवति । एवमात्माऽपि स्वल्पआत्मा निष्क्रिय इति साड्याः
क्रियोऽपि क्रियावानेव । कदाचिदेवा मतिर्भवतो भवेतजे ते उ वाइणो एवं, खोऐ तेसि को सिया ।
स्तोककियो निष्क्रिय एव । यथैक कापीपणधनो नयनित्य
मास्कन्दत्येवमात्माऽपि स्वपक्रियत्वादकिय इत्येतरप्युपचारः । तमाओ ते तमो जंति. मंदा आरंजनिस्सिया ॥१४॥
यतोऽयं दृधान्तः प्रतिनियतपुरुषापेकया चोपगम्यते, समस्तये पते अकारकवादिन आत्मनोऽमृतत्वमित्यत्वसर्वव्या- पुरुषापेक्षया चा? । तत्र यद्याद्यः पक्क, तदा सिसाध्यता। पित्वेभ्यो हेतुच्यो निष्क्रियत्वमेवाक्युपपन्नाः, तेषां य एप यता-सहस्राविधनदपेकया निधन एबासी । भथ सलोको जरामरणशोकाऽऽक्रन्दनहर्षाऽऽदिवकणो नरकतिर्यछम- मस्तपुरुषापेक्षया । तदसाधु । यतोऽन्यान् जरशीवरधारियोसुध्यामरगतिरूपः, सोऽयमेवं नुतो निष्क्रिये सत्यात्मन्यप्रच्यु- ऽपेक्ष्य कार्षापणधनोऽपि धनवानेव । तथाऽऽत्मापि यदि वि. तानुत्पन्न स्थिरैकस्वभावे कुतः कस्मादेनोः स्यात् ?,न कथ- शिष्टमामयोपेतपुरुषक्रियाऽपेक्षया निष्क्रियोऽज्युपगम्यते, न चित्कुतश्चित्स्यादित्यर्थः । ततश्च दृऐष्टबाधारूपात्तमसोझान- काचितिः । सामान्यापेक्कया तु क्रियावानेवेन्यनमतिप्रसङ्गेन । रुपात्ते तमोऽन्तर निकृष्ट यातनास्थानं यान्ति । किमिति ?, पचमनिश्चिताकालफलबाऽऽख्य हेतुद्वयमपि न वृताभावसाधयतो मन्दा जमा प्राण्यपकारकाः,धारम्भनिधिताते इति ।१४।। कमित्यादि योज्यम् । एवममुग्धत्यस्तोकदुग्धस्वरूपावाप हत
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(२०१२) णिकिय अभिधानराजेन्द्रः ।
णिक्खमणपवेस न गोत्वानाचत्वं साधयतः । उक्तन्यायेनैव दान्तिकयोजना सेहे चरित्तसावय-भए व जयणाएँ णिकोरे ॥ १५१ ॥ कार्येति ॥ ३५ ॥ सूत्र०नि० १ ० १.१००।
जत्थ अहाक लम्भति, तत्थ असिवाऽऽदिकारणेहिं मागच्छ कितनका-त्रिः। कृपारहिते, गतघृणे, पं. व०४द्वार।। तो अपना परिक जमmr
तो अप्पबई परिकम जयणाप णिकोरेद । नि००। निष्कृपमाह
जति नाम पुन्चसुके, कोरिजंतम्मि वितिऍ ततिए था। चंकमणाऽऽसत्तो, सुनिकिवो थावराऽऽऽसत्तेसु ।
तिप्पंच सत्त वीया, होज्जा मुकं तहा वि गता॥रएशा काउं च नाणतप्पड़, एरिसओ निकिलो होई॥ स्थावराऽऽदिसवेषु चङ्क्रमणं गमनम, श्रादिशब्दात् स्था
पुव्वं गहणकाले सुखे पच्छा कोरिजंते (वितिए सि) भष्पपनशबनाऽऽसनाऽऽदिकं सक्तः क्वचित्कार्यान्तरे व्यावक्ता सन्
रिफम्मे (ततिपत्ति)बहुपरिकम्मे, जति तिमि पंच वा सत्तबा सुनिष्कृपः सुष्ठ गतघृणो,निःशूकः करोतीति शेषः कृत्वा च तेषु
वितिया होता तहा बि सुखं । नि००१४ उ.। यत्पुनः पात्रचकमणाऽऽदिकं नानुतप्यते,केनचिन्नोदितः सन् पश्चात्तापपुर
स्य मुखकरणानन्तरं तदप्यन्तरवर्तिनो गिरस्योत्कीर्णनं तत्रिस्सरमिथ्यादुष्कृतं न ददातीत्यर्थः । शो निष्कृपो भवति ।
कोर (ल) णमभिधीयते । वृ०१०। इदं निष्कृपस्य लकयमिति भावः । बु. १उ०। "णिक्विव! णिक्ख-निष्क-न० । "कस्कयोनोम्नि" ||२४॥रति अकयण्णुय!" निष्कृप ! मम पु:खिताया अप्रतीकारात्, कभागस्य सः । सुवर्णे, प्रा. २ पाद । प्रकृत! मदीयोपकारस्यानपेकणात् । का० १७. ए० णिक्खंत-निष्क्रान्त-त्रि०। संसारादू गृहाच निःसते, उत्त. विकीलिय-निष्क्रीमित-न० । गमने, प्रव०२७१ द्वार। मौ०।।
१८ भ० । प्रवजिते, सूत्र० १७०८ अ । अनु । प्रव्रज्याप्रतिमन्त०।
पत्त्या गृहवासान्निर्गते, हा०२७ भष्टः । णिक्कुड-निष्कुट-पुं०। तापनायाम्, अनु०। प्रा०म०।
णिक्खन-निक्वत्र-त्रि०कत्रियजातिविहीने, पर्धरामेण नि:णिकोर-निष्कोलन-न । दुःसहस्य वस्तुनोऽपनयने, नि०
| सप्तकृत्वो निःक्षत्रिया पृथिवी कृता । सूत्र. १७०६०। चू०।
णिक्खम-निष्क्रम-न० । निष्क्रमणं निष्क्रमः । प्रव्रज्यायाम् मह जे जिक्खू पादं णिकोरेश, कोरावेश, कोरियमाहहु दि.
च द्विर्भावो,नपुंसकता च प्राकृतत्वात् । निष्क्रमणमेष प्रवस्थानां ज्जमाणं पमिग्गाहइ, पडिग्गाहंतं वा साइज्जइ ॥४६॥
मुखम् । सुखभेदे, स्था०१०म० भ० व्यभावगृहात्प्रत्रमुहस्स प्रवणयणं णिकोरणं, तं मुसिरं त्ति काऊण चउसडं। ज्याग्रहणेदश०१००। गाहा
णिक्खमण-निष्क्रमण-न०। सूर्याचम्मसोः सर्वाभ्यन्तरामकयमुहे अकयमुहे वा, दुविहा णिकोरणाऽनुपायम्मि ।
पमलाद बहिर्गमने, स०प्र०१३ पाहु । न्यभावसङ्गाद् निमुहकारणे य एवं, चउरा भंगा मुणेयब्बा ॥१८८॥ | कान्तिरूपप्रवज्यायाम् , पं०व०१द्वार । अन्त। वृ० । अगापुव्वद्धं कं। भायणस्स मुहकारणे, णिक्कोरणे य चरभंगा। रवासान्निर्गमे, पश्चा०६ विव० । बहिर्गमने, नि.चु.१ उ०। गाहा
उद्वर्तने, प्राचा०१७०१ अ०६ उ०। मुहकोरण समणवा, वितिए मुह तति कोरणं समणे ।णिक्खमणचरियाणवक-निष्क्रमणचरितानवक-न। भगदो गुरु ततिए सुत्तं, दोहि गुरु तवेण कालेणं ॥१६॥ | बतो महावीरस्वामिनोऽन्येषां च प्रवज्यामहोत्सवचरितनिबद्ध तत्य भावणस्स मुई समणका कयं,समणछाप णिकोरियाविति-नाट्यविधी, रा०। यभंगे समणट्ठाए मुहं कयं, पायठाप णिकोरितं । ततियभंगे।
णिक्खमणपवेस-निष्क्रमणप्रवेश-पुं० । निर्गमनागमनमोः, नि० पावट्टाप मुहं कयं, समणट्टाए णिक्कोरितं । चरिमे उभयं तंपि। चू। भायट्ठाए । पत्थ आदिमेसु दोसुभंगेसु चन्गुरुगा-पढमधितिय
जे निक्ख तं पमुच णिक्खमा वा, पविसहवा,णिक्खमंतं नंगेसु चउगुरुगा । तत्तियनंगेसु सुत्तनिवातो, चरसमित्यर्थः। पढमनंगे दोहि बि तबकालेहिं विसिहो, वितियभंगे तवगुरू,
वा पविसंत वा साज्जइ ॥१॥ ततियभंगे कालगुरू, चउत्थभंगे बीयरहिए वि कुसिरं ति (पञ्चति) जाहेसोगिहत्यो काश्यादि णिग्गति, ताहेसं. काऊण चउलहुं भवति ।
जतो चिंतेति-पस काश्यं गतो, महमवि एयणिस्साए काश्य गाहा
गच्गमि, उट्ठवेहि वा पहिं वचामो । एतेसामम्मतरं, पायं जो तिविहकरणजोगेणं ।
गाहाणिकोरेती जिम्न्, सो पावति आणमादीणि ॥१५॥ संवासे जे दोसा, णिक्खमणे पवेसणम्मि ते चेव । प्राणादी दोसा कुंथुमाऽऽदिविराहणे संजमविराहणासत्थमा- णातव्वा तु मतिमता, पुचे अवराम्मि य पदम्मि ॥१३॥ दिया संगिते प्रायविराहणा । तत्थ परिताधणाऽदिणिप्फमं ।।
जे संघासे अधिकरणाऽऽदी दोसा जवंति, ते णिम्गच्छते बि । जम्हा एवमाई दोसा, तम्हा जहाकडं मग्गियन्वं, तस्स अ.
. श्मे अधिकतरा । गाहापति अप्पपरिकम्मं । एत्थ इमो अवधातो । गाहा
गितिसहितो ती संका, आरक्खिगमादिगेएहणाऽऽदीया । असिवे प्रोममरिए, रायढे भए बगेल ।
उभयारणे दवाऽसति,अवध अपमज्जऽऽणादीया॥१३६।
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(२०२३)
निधानराजेन्द्रः ।
क्खिमापवेस
कार्ड आहे संका
त्यसहित का चोरपारदारियो अतितापलियाहीदिष्टवादी दोसा काइयसच्चा उजयं ते वोसिरंतो दवावि । असतीए उड़ाहो। लोगो अवमं भा सति पादथंमिलाऽऽदी ण पमज्जति संजमत्रिराहणा । नि०यू० ० कल्पसूत्रे सामाचार्यमेकपञ्चाशत्तम सूत्रे-"निक्यांम एवा पविसित्तर वा " इति पदद्वयमधिकमिव दृश्यत इति प्रओ, उत्तरम् - "भचतपापमिति" इति वचनात् कमि सामान्यतो विदितादानाश्चि कृतपादपोषणमनोभिर्थितु प्रवर्ततुमित्यर्थः संसारेण सामान्येन कृतानशनस्य " निक्लमितर था " इत्यादिविशेषणानि यथासंभवं संगच्छन्त एव न तु कृतपादपोपगमनस्वेति न काऽप्यधिकति । २२ प्र० । सेन० २ उद्घा० । ( स्थविरकल्पिका जिनकदिपका वा कदा निष्क्रामन्ति कदा वा प्रविशन्तीति 'थविरकल्प' शब्दे वक्ष्यते ) ( राज्याभिषेके निष्क्रमण प्रवेशविषयः ' रायानिषेवशब्देयः) णिक्खमणाभिसेय - निष्क्रमणानिषेक-पुं० । निष्क्रमणाभिषेक
सामग्य्याम, न० ६ ० ३३ ४० ।
I
शिक्खममाण- निष्क्रामत्-त्रि निर्गच्छति, प्राचा० १४० १ चू०२ म० ३ ० ।
क्खिमित्तए - निष्क्रमितुम्-श्रव्य० । प्रवेष्टुमित्यर्थे, कल्प०
क्षण | ५० प० ।
शिक्खम्म - निष्क्रम्य - अव्य० । गेहान्निःसृत्य प्रत्रजितो नूत्वेत्यसूत्र• १० १० अ० स्वदर्शनविहितप्रय गृहीत्वेत्य थें, सूत्र० २ ० १ अ० ।
शिवखय देशी-नि० ३२ गाथा क्खिसरित्र्य - देशी - मुषिते, दे० ना० ४ वर्ग ४१ गाथा । पिक्खित्त - निक्षिप्त- त्रि० । स्वस्थानम्यस्ते, प्रश्न० ३ ० द्वार। विमुक्ते, का० १ ० १ अ० । सुप्तोत्थिते दे० ना० ४ वर्ग | व्यवस्थापिते, आचा० २ ० १ ० १ ० ७ ० । परित्यक्ते, व्य० २ ० ।" णिक्लित्तं णाम- गरलिगाबद्धं स्थापयति । " नि० ० १४० सचित्तस्योपरि स्थापिते तच पणादो त्वान्न प्राह्यम् । प्रव० ६७ द्वार । जीत० ।
अथ निकितद्वारमाहसच्चित्तमीसएसुं, 5विहं कारसु होइ निक्खित्तं * । एकेकं तं निहं तर परंपरं चैव ।।५७२ ।। इढ कल्पनीयं निकितं द्विधा- सचितेषु, मिश्रेषु च । एकैकमपि द्विधा । तद्यथा श्रनन्तरं, परम्परं च । तत्रानन्तरमव्यवधानेन, परम्परं व्यवधानेन । यथा सचित पृथिवीकायस्योपरि स्थापनिका, तस्या उपरि देवं वस्त्विति । हद परिहारादिभागं विना सामान्यतो निहित सचिताचिन्तमिश्ररूपभेदात् त्रिघातच जयकाः। तद्यथा चि चिचम् १ मिश्र सचिव २, सचिते मिश्रम् ३, मिले मिश्रमिलेका चतुमंडी। तथा सचि सति अवि सचितम् २ सचित्ते अचित्तम् ३, अचित्ते अचित्तमपि द्वितीया चतुर्भङ्गी । तथाम मिश्र, मिश्रम् २ मधे म अचे तिमिति चतु
● पुस्तकान्तरे- "सच्चित्तमसपाई दुवि काप" इतिपाठः ।
णिक्खित्त
सम्प्रत्यस्यैवानन्तरपरम्पर विभागमाहपुढनीभाउकाए-तेजना यस्ताणं ।
एकेको डुगांतर पर गणिम्मि सत्तविहो । ५७३ | पृथिव्यतेजोवायुवनस्पत्रिकाधानां सवितानां प्रत्येकं सवि पृथिव्यादिषु निषः संभवति, तत्र पृथिवीकायस्थ निशेषः बोढा । तद्यथा- पृथिवीकायस्य पृथिवीकार्य निक्षेप इत्येको भेदः, पृथिवी कायस्याकार्य इति द्वितीयः पृथिवीकायस्य तेजस्काये इति तृतीया चातकावे शते चतुर्थ, वनस्पतिकाये इति पञ्चमः सकार्य इति पदमा वाऽऽदीनामपि निक्षेपः प्रत्येकं बो दा प्रायनीयः सर्वसया पत्नि को मे दो द्विधा । तद्यथा-अनन्तरेण, परम्परया च । अनन्तरपरम्पव्याख्यानं व प्रागेव कृतम् । केवलमग्निकाये पृथिव्यादीनां निक्षेपः सप्तधा । एतच्च स्वयंमेव वक्ष्यति ।
च
संप्रति पृथिवीकार्य निक्षेपस्य बहुकं प्रत्येकं योद्धात्वं त् इत्साहादयति
सातविकार सचितो व पुढवि निखित्तो । याऊतेलवणस्स - समीरणतसेसु एमेव || २७४।। सविधिका सपृथिवीकार्य निशितः वर्ष - थिवीकार्य व अते जोवनस्पतिसमीरसेषु सचित पच पृथिवी काय निक्षिप्त इति पृथिवी कायनिः पोढा । एवं शेषकायेष्वतिदेशमाद
एमेव सेयाण वि, निक्खेवो होह जीवकाए । एकेको सहाणे, परवाणे पंच पंचैत्र || ५७२ ||
एवमेव पृथिवी कायस्येव शेषाणामष्कायादीनां निषो भ यति जीवनका पृथिव्यादि तत्र को भङ्गः स्वस्थाने, शेपाः पञ्च पञ्च परस्थाने तथाहि पृथिवीकायस्थ पृथिवीका निक्षेपः स्वस्थाने अकावाऽऽदिषु शेषेषु पञ्चसु परस्थाने । एवमष्कायादीनामपि भावनीयम्। ततः स्वस्थाने एकेको भ शः, परस्थाने पञ्च पञ्च । तदेवं प्रथमचतुर्भङ्गिकायाः सचिचे सचिचमित्येवंरूपे प्रथमे भने षट्त्रिंशद् भेदाः ।
सम्प्रति प्रथमचतुर्भङ्गाद्वितीयतृतीयचतुर्भङ्गी चाऽतिदेशः प्रतिपादयति
एमेव मीस वि, मीसा सचेयणेसु निक्खेवो । मीसाणं मी प, दोए पिय दोइ चिनेषु ।। ४७६ ।। एवमेव विषुव मिष्यपि मिचियादिनि पि शद्भेदोऽवगन्तव्यः । एतेन प्रथमचतुर्भङ्गो व्याख्यातः । एवमेव मिभ्राणां पृथिव्यादीनां पृथिव्यादिषु निशेषः पशि भेदः प्रमे प्रथमचतुयातु भो व्याख्यातः । सर्वसंरूपया प्रथमचयां याचारिणं भङ्गशतम् । एवमेष द्वयोरपि सचिन्तमिश्रयोरचित्तेषु निविष्यमाणयोर्ये द्वे चतुर्भइग्यौ प्रागुक्ते, तत्रापि प्रत्येकं चतुश्चत्वारिंशं भङ्गशतं भवति । सर्वसामानानि चत्वारि द्वात्रिंशदधिकानि भय न्ति । उक्ता निक्केपस्य भेदाः ।
सम्ययस्यैव निशेपश्य पूर्वोकं चतुनेयमधिकृत्वा कल्य्यविधिमाद
जत्थ उ सवितमसे, चटजंगो तत्थ चसु वि अगेज्जं ।
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शिक्खित्त अनिधाचराजेन्द्रः।
णिक्खित्त तं तु अणंतर इयरं, परित्तऽणंतं च वणकाए ॥२७॥ । पते सप्त भेदास्तेजस्कायस्य । तत्र एकैकस्मिन् भेदे भेदद्विकम् । यत्र निक्केपे सचित्तमिश्रे श्राद्या चतुर्नङ्गी भवति, प्रथमा च.
तद्यथा-अनन्तरनिक्किप्तमा परम्परनिक्षिप्तं च । तत्र यद् विध्याता
दिक्पे वही मरामकाऽऽदि प्रतिप्यते, तत् अनन्तरनितिप्तम्। तुर्भङ्गी भवतीत्यर्थः । तत्र चतुबपि भङ्गेषु, अपिशब्दाद् द्वितीयतृतीयचतुर्नङ्गयोरपि, आयेषु त्रिषु भङ्गेषु वर्तमानमनन्तरं,
यत्पुनरग्नेरुपरि स्थापिते पितरकाऽऽदौक्तिप्तं तत्परम्परनिक्किमपरम्परा च । वनस्पतिविषये परीतकमनन्तं वा तत्सर्वमग्राह्यम्,
म् । तत्र सप्तानां भेदानां मध्ये यमेष तमेव वाऽधिकृत्य यन्त्रेषु
रसपाकस्थाने कटहाउदो अवलिप्ते मृत्तिकावरापिटते यतनया सामर्थ्यत्वात् । द्वितीयतृतीयचतुर्भङ्गयोश्चतुर्थे चतुर्थनले वर्त. मानं ग्राह्यम्, तत्र दोषाभावात्।
परिशाटिपरिहारेण ग्रहणमिकुरसस्य कल्पते । । सम्प्रति सचित्ताऽदिभिस्त्रिनिरपि मतान्तरेण तामेव
सम्प्रत्येनामेव गायां व्याख्यानयन् प्रथमतो विध्याचतुर्जकी कल्प्याकल्प्यविधि प्रदर्शयति
ताऽऽदीनां स्वरूपं गाथाद्वयेनाऽऽद-- अहव एा सचित्तासे, उ एगो एगो य अच्चित्तो।।
विकाओ त्ति न दीसइ, अग्गी दीसेइ इंधणे बूढे । एत्य चनकभंगो, तत्थाऽऽइतिए कहा नऽस्यि ।।७।।
आपिंगलमगणिकणा, मुम्मुरे निजामइंगाले ॥एन्शा अथवेति प्रकारान्तरताद्योतकः, णमिति वाक्यालङ्कारे * । श्ह अप्पत्ता न चउत्ये, जाना पिचरं तु पंचमे पत्ता। चतुर्भङ्गी प्रतिपकपदोपन्यासे नवति । तत्रैकस्मिन् पके सचित्त- बढे पुण कन्नसमा, जात्रा समच्चिया चरिमे ।।५०३।। मिश्रे एकः, पकश्च अचित्तः, तत् प्रागुक्तक्रमेण चतुर्भङ्गी भवति । सुगमम, नवरम (अप्पत्ता चउत्थे जाला इति ) चतुर्थे तद्यथा-सचित्तमिधे सचिन मिश्रम, सचित्तमिश्रे अचित्तम,
अप्राप्ताऽऽख्योदः पिचरमप्राप्ता ज्याला द्रष्टव्या पश्चममेयमन्य. अचित्ते सचित्तम, अचित्ते अचित्तमिति । अत्राऽपि प्रागिकैक
त्राप्य करगमनिका कार्या । स्मिन भने पृथिव्यप्तेजोवायुवनस्पमित्रसभेदात् पत्रिंशत् पट्- |
संप्रति "तोऽलितं य जयणाए " इत्यबयचं त्रिशद नेदाः। सर्वसंख्यया चनुश्चत्वारिंश नङ्गशतम् । तत्राss.
व्याचिख्यासुराह-- दित्रिके आदिमे भङ्गत्रये, कया नास्ति ग्रहणे वार्ता न विद्यते। सामथ्याच्चतुर्भङ्गी कल्पते । तदेवं 'पुढवा' इत्यादिमूलगाथायाः
पामोनित्त कमाहे, परिसाड। नऽस्थि तं पि य विसालं । पूर्वार्द्ध व्याख्यातम् ।
सो वि य अचिरन्छढो, उच्चरसो नाइनामिणो य ५०५। सम्प्रति “एकेके हाणतर" इत्यवयवं व्याचिख्यासुद्विती.
इह यदीति सर्वत्राऽध्यातियते, यद् यदि कटाहः पिठरविशेयचतुर्भङ्गचा सत्कस्य तृतीयस्य भङ्गस्य सामान्य
पः, पितरः पायपु मृत्तिकया लिप्तो भवति, दयिमाने चतोऽशुरूस्य विषये विशेष विभणिपुरनन्तरं,
कुरसे यदि परिशाटिनापजायते, तदपि च कटाहरूप भाजनं परम्परया वा मार्गणां करोति
यदि विशाअं विशालमुख नवति, मोऽपि चेकरसोऽचिरक्तिप्तजं पुण अचित्तदव्य, निकिवप्पड चेयणेसु दम्बेस ।। इति कृत्वा यदि नात्युषणो जति तदा सदायमान श्रस: तहिँ मग्गणा न णमो, अणंतर परंपरं हो ॥७॥
करपते। इह यदि दीयमानस्ये रसस्य कथमपि बिन्दुबहिः प.
तति, तर्हि स लेप एच वर्तते, न तु चुल्लीमध्यस्थितः तेजस्कायत्किमपि अचित्तं द्रव्यमोदनाऽऽदि वेतनषु सचित्तेषु, मि.
यमध्यपति नः, पापलिप्त इति कटाहस्य विशेषणमुक्तम् । श्रेषु वा निक्षिप्यते, तत्रेयमनन्तरं, परम्परया वा मागणा परि
तथा विशाल मुखादाकृष्यमा उदश्चनः पिचरस्थ करें न भावनं नवति ।
लगति, ततो न पिठरस्य भङ्ग इति न तेजस्कायधिराधनेति ओगाहिमादणंतरं, परंचरं पिडरगाइ पुढवीए ।
विशासग्रहणम् । अनत्युषणग्रहगो त कारणं स्वयमेव वयति । नवणीयाइ अग तरं, परंपरं नाबमाईमु ॥५७०।।
सम्प्रत्युदकमधिकृत्य विशेषमाहअवगाहिमाऽऽदि पक्वान्त्रमण्डकप्रभृति, पृथिव्यामनन्तरनि. उसिपोदगं पि घेप्पा, गुलरमपरिणामियं न अच्चुसिणं । क्षिप्तमः पृथिव्या पवोपरि स्थिते पितरकाऽऽदौ यन्निक्किप्तमवगा
जंतु भघट्टियकन्न, घट्टियपमएम्मि मा अम्गी॥ए । हिमाऽऽदि, तत्परम्परनिकेप उक्तः । सम्प्रत्यप्कायमाधित्याऽऽह-(नवणीप इत्यादि ) नवनीताऽऽपिम्रक्षणस्त्यानी
उष्णोदकमपि गुमरसपरिणामिनमनयुष्णं गृह्यते । किमुक्त भूतघृतादिसचित्ताऽऽदिरूपे उदके निक्किप्तमनन्तरनिक्षिप्त,
जबति-यत्र काहे गुडः पूर्व कथितो भवति, तस्मिन् निक्षिप्त तदेव नवनीताऽऽदि, अवगाहिमाऽऽदि वा, ननमध्यस्थितेषु
जसमीपत्तप्तमपि कटाहसंसक्तगुडरसमिश्रणात सत्वरमचित्ती. नावादिपु स्थित परम्परनिक्षिप्तम्।
भवति, ततस्तदनन्तरमपि कल्पते । अत्रापि पाश्चालिप्त. सप्रति तेजस्कायमधिकृत्यानन्तरपरम्परे व्याख्यानयन् "अग
कटाहस्थितमपरिशाटितमिति विशेषणद्वयमनुपासमपि द्रए. णिम्मि सत्तविहो" श्त्यप्यवयवं व्याख्यानयति
व्यम् । तथा यत् अघटितकर्मम्, न यस्मिन् दीयमाने पिठरस्य विकायमुम्मुरिंगा-यमेव अप्पत्त पत्त समनाले।
कर्णावुदश्चनेन प्रविशता निर्गच्छता वा घट्येते, तदीयमान
कल्पते प्रत्याह-(घट्टियपमणम्मि मा अम्गी) सदाचमेन प्र. वोकते मत्त दुगं, तोऽलिसे य जयणाए ॥५२॥ विशता निर्गच्चता वा पिठरम्य कर्ण योर्घट्यमानयोलेपस्योदछह सप्तधाऽग्निः । तद्यथा-विध्यातो,मुर्मुरोऽकारः,अप्राप्तः,प्राप्तः, | कस्य वा पतनन माऽग्निर्विराध्ये तेतिरुत्वा । एतेन च वक्ष्यमासमज्यालो, व्युत्क्रान्तश्च । तत्र यः स्पृष्टतया प्रथमं नोपलभ्यः । णो पोमशभक्तानामाद्यो जना दाशतः । ते, पश्चाविन्धनप्रक्केपे वर्द्धनमाप गच्गति, स व्युत्क्रान्तः ।।
सम्प्रति तानेव घोमश नङ्गान् दर्शयति* 'अहवरण त्ति' अखएकमव्ययपदमथवेत्यस्यार्थ । वृ०१० पासोझिन कडाहे, नचुलियो अपरिसामघईते ।
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(२०२५) णिक्खित्त माभिधानराजेन्छः।
पिक्खित्त सोनस भंगविगप्पा, पढमेऽणुना न सेसेसु ॥५६॥ | वने वनस्पतिविषये अनन्तरनिक्तिप्तं दरिताऽऽदिषु सचित्तब्रीदि.
काप्रभृतिषु अनन्तरिता निक्किप्ताः,अपाऽऽदय इति शेषः। हरिपायांवक्षिप्तः कटाहः१, अनत्युष्णो दीयमान इक्षुरसाऽऽदिः२,
तादीनामेवोपरि स्थितेषु पिठराऽऽदिषु निक्तिप्ता अपूपाऽऽदयः अपरिशाटिः परिशाट्यभावः३, (अघट्टते इति) नदश्चनेन पिचर
परम्परनितिप्तम् । तथा बनीवाऽऽदीनां पृष्ठे अनन्तरनिक्किप्ता काँघट्टने ४, इत्येतानि चत्वारि पदान्यधिकृत्य षोमश नका
अपाऽऽदयः, तत्रानन्तरनिक्तिप्तम् । बलीवर्दाऽऽदिपृष्ठ एव भरके भवन्ति ।
कुतुपाऽऽदिषु वा भाजनेषु निकिता मोदकाऽऽदयः परम्परनिनकानां च नयनाथमियं गाथा
क्किप्तम । इह सर्वत्रानन्तरनिक्किप्तं न ग्राह्यम्, सचित्तसंघटनापयसमग अब्भासे-माणं गाण तेसिमह रयणा।
दिदोषसंभवात् । परम्परनिक्षिप्तं तु सचित्तसंघटनाऽऽदिप. एगंतरियं लहु गुरु, लहुगुरु दुगुणा य वामेसु ॥५८७।। रिहारेण यतनया ग्राह्यमिति सम्प्रदायः । पिं० । आचा० । मस्या व्याख्या-इह यावतां पदानां भक्का अमुनेष्यन्ते, ताव.
पञ्चा० । नि००। तो द्विका ऊर्ध्वाधःक्रमेण स्थाप्यन्ते-साततःप्रथमो द्विको द्वि.
निक्षिप्त न ग्राह्यम्तीयेन द्विकेन गुण्यते, जाताश्चत्वारः, तैस्तृतीयो द्विको गु
असणं पाणगं वा वि, खाइमं साइमं तहा । श्यते, जाता अनौ, तैरपि चतुर्थो द्विको गुण्यते,जाताः पोमश ।।
नदगम्मि हुज निक्खित्तं, उत्तिंगपणगेमु वा ॥ ५६ ॥ पताबन्तश्चतुर्णा पदानां अङ्गा भवन्ति ।
प्रशन पानकं वाऽपि खाद्यं स्वाद्यं, तथा उदके भवेनिकितमु. तेषां च पुनर्नकानामेषा रचना-प्रथमपतावेकान्तरितं लघुगुरु
त्तिापनकेषु बा कीटिकानगरोल्लीषु वेत्यर्थः। " उदयनिक्वितं प्रथम लघु, ततो गुरु, पुनर्लघु, पुनर्गुरु ! एवं यावत् षोमशो
दुविहं-अणंतर, परंपरं च । अणंतरं-एवणीतपोग्गलियमादी । भनः । ततः प्रज्ञापकापेक्या वामेषु वामपाव॑षु द्विगुणा
परंपरं-जलघडोबरि भायणत्थं दधिमाद।" । एवं "उत्तिगपविगुणा लघुगुरवः । तद्यथा-द्वितीयपत। प्रथम द्वौ लघ,
नएसु" नावनीयमिति सूत्रार्थः ॥ ५ ॥ ततो द्वौ गुरू, ततो भूयोऽपि द्वौ लघू, एवं यावत पोमशो मङ्गः । तृतीयपत प्रथमं चत्वारो लघवः, ततश्चत्वारो गुरवः, तं भवे जत्तपाणं तु, संजयाण अधियं । सतश्चत्वारो सघवः, पुमश्चत्वारो गुरवः । चतुर्थपकायां प्रथम- दितिय पमिआइक्खे, न मे कप्पड तारिमं ।। ६०॥ मष्टौ लघवः, ततोऽष्टी गुरवः ।
तद्भवेद् जक्तपानं तु संयतानामकल्पिकं, यतश्चैवमतो ददती स्थापना-अत्र ऋजवाऽशाः शुकाः, वक्राश्वाशुद्धाः । इद षो
प्रत्याचक्कीत-न मम कल्पते तादृशमिति सूत्रार्थ ॥ ६ ॥ दशानां नानामाघे भनेऽनुज्ञा, न शेषेषु पञ्चदशसु भनेषु । सम्प्रत्युष्णग्रहणे दोषानाह..
तथा
असणं पाणगं वा वि, खाइमं साइमं तहा। दुविह बिराहण नसिणे, छडणे हाणीय जाणो य ।
तेउम्मि इज निक्खित्तं, तं च संघट्टिया दए ॥ ६१ ।। उणेऽत्युष्णे इकुरसाऽऽदौ दीयमाने द्विधा विराधना-आत्मविराधना, परविराधना च । तथाहि-यस्मिन् भाजने तत्
प्रशन पानकं वापि खाद्य स्वायं,तथा तेजसि भवेद् निक्षिप्त प्रत्युष्णं गृह्णाति, तेन तप्तं सद् नाजन हस्तेन साधुर्य
तेजसीत्यग्नी, तेजस्काय इत्यर्थः। तच्च संघट्य यावद्भिक्षां द. पहन दह्यते, इत्यात्मविराधना । येनापि स्थालेन दात्री
दामि तावत्तापातिशयेन मा भूदुर्तिष्यत इत्याघट्य दद्यादिददाति, तेनाप्यत्युष्णेन सा दह्यत इति । तथा-(छडणे
ति सूत्रार्थः ॥६॥ हाणी यत्ति) अत्युष्णमिथुरसाऽऽदि कलेन दात्री दातुं श- तं भवे भत्तपाणं तु, संजयाण अकप्पियं । क्रोति, कष्टेन च दाने कथमपि साधुसत्कभाजनाहरुज्झने दितिअं पडिआइक्खे, न मे कप्पइ तारिसं ॥ १२॥ हानिदीयमानस्ये चुरसादेः, तथा-(जाणनेप्रो य इति) तस्य
तवेद् भक्तपानं तु संयतानामकल्पिकम् ,अतो ददती प्रत्याचजाजनस्य साधुना वा नयनायोत्पाटितस्य पतग्रहणाऽऽदे
कीत-न मम कल्पते तादृशमिति सुत्रार्थः ॥ ६॥ दाच्या वा दानायोत्पाटितस्योदश्चनस्य गएकरहितस्य प्रत्युणतया झगिति नूमौ मोचने भङ्गः स्यात् । तथा च पम्
एवं जस्सिकिया अोसकिया उजालिया पज्जालिया जीवनिकायविराधनेति ।
निवाविया नस्सिचिया निस्सिचिया श्रोवत्तिया ओयासंप्रति वायुकायमधिकृत्यानन्तरपरम्परे दर्शयति
रिया दए ।। ६३ ॥ वाउक्खित्ताऽणंतर-परम्परा पप्पमिय वयी ॥५८ना
यावद्भिकां ददामि ताव मा भू विध्यास्यतीत्युत्सिच्य दद्याबातोरिकप्ताः समीरणोत्पाटिताः पर्पटिकाः शालिपपटिका | तू । (पवं ओसकिया) अवसप्र्य, अतिदाहजयादुल्मकान्युत्साअनन्तरनिक्किप्त, परम्परनिकितं वस्तीति । विभक्तिलोपाद येत्यर्थः । (एवं उजालिया पज्जानिया) उज्ज्वाल्याईविध्यात बस्ती। उपलकणमेतत्-समीरणाऽऽपूरितवस्तिरतिप्रभूतिव्य- सकृदिन्धनप्रकेपेण, प्रज्वाट्य पुनः पुनः । एवं (निवाविया) बस्थितं मएमकाऽऽदि ।
निर्वाप्य, दाहभयादेवेति जावः। एवं (उस्सिचिया निस्सिं. संप्रति वनस्पतिवंशविषयं विविधमपि निकितमाह- चिया) उत्तिच्यातिभृमादुज्नन्नयन, ततो वा दानार्थ तीम
नाऽऽदीनि निषिच्य तद्भाजनाजहितं भव्यमन्यत्र भाजने तेन दहरियाइ अतरिया, परंपरं पिढरमाइमु वणम्मि ।
धात । सद्वर्तनभयेन वा तरूहितमुदकेन निषिच्य । एवं (भोपूपाइ पीऽणर, भरए कुउपाश्म इयरा एन्एा
पत्तिया भोयारिमा) अपवर्त्य तेनेवाग्निनिविप्लेन भाजनेना५०७
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(२०२६) विक्खित्त अभिधानराजन्नः।
णिक्खित्तदंम म्येन वा दद्यात् । तथा अवतार्य दादभयादानार्थ वा दद्या- परित्तसचिसु अणंतरणिजिते चउलहुं । पत्थ सुतं विववात्र तदन्य साधुनिमित्तयोगे न कल्पते ॥ ६३ ॥ यति । सचित्तपरंपरे मासलाई। मीसे अखंतरे मासमहुं। परंपरे तंजवे जत्तपापं तु, संजयाण अकप्पियं ।
पपगं । भणंतरा ते चेव गुरुगा पच्छित्ता ।
चोदगाऽऽहदितियं पटिमाइक्खे, न मे कप्पइ तारिसं ॥६४॥
तत्थ जवे णणु एवं, उक्खिप्पं तम्मि तेसि प्रासासो। "तं भवे ति" सूत्रं पूर्ववत् । गोचराधिकार एव गोचरप्र. विहस्य ॥ ६४ ॥ दश०५०१ उ०।
संजतणिमित्त घट्टण, येरुवमाएणं तदुत्तं ॥ ५५॥ से जिक्खू वा भिक्खुणी वाजाव समाणे से जं पुण पा-|
पुढवादिकायाण उवरि ट्ठियं जं पि उक्लिप्पं, तेण तेहिं प्रा.
सासो नवति । भाचार्याऽऽह-तम्मि उक्विप्पंते जा संघट्टणा,सा गजायं जाणेज्जा अणंतरहियाए पुढवीए.जाव संताए
संजयणिमित्तं । ताण य अप्पसंघवणाण संघट्टणाए महंती भोणिक्खित्ते सिया, असंजए भिग्नुपमियाए उद- वेदणा भवति । पत्थ घेरुवमा । नोण वा ससणिकेण वा सकसारण वा मत्तेण वा
गाहासीतोदएण वा संजोएत्ता आहड्ड दाएजा, तहप्पगारं
जरजजरो उ थेरो, तरुणेणं जमझपाणिपुम्हतो । पाणगजायं अफासुर्य लाभे संते णो पहिगाहेजा। एयं जारिसवेदण देहे,एगिदियघट्टिते तह उ ।। ५३ ।। खबु तस्स भिक्खुस्स चा निक्खुणीए वा सामग्गियं जं जहा जराजुम्पदेदो थेरो बनवता तरुणेण जमनपाणिणा सबहिं समिएहिं सहिएहिं सदा जएज्जासि त्ति वेमि ।
सुके आहतो जारिसं वेयणं वेयति, ततो अधिकतरं एगिदिया
संघट्टिता यणं अणुहवंति, तम्हा ण जुत्तं जं तुम मणसि । (सेभिक्खू वेत्यादि ) स भिक्षुर्यत्पुनरेवं जानीयात्-तत्पानकं
श्मं वितियपदं । गाहासचितेवव्यवहितेषु पृथिवीकायादिषु तथा मर्कटाऽऽदिस
असिवे प्रोमोयरिए, रायडुढे भए व गेलले । स्तानके वाऽन्यतो भाजनादुधृत्योद्धृत्य नितिनं व्यवस्थापितं स्यात् । यदि वा स एवासंयतो गृहस्थो जिकुप्रतिकया भि- अघाणरोहगे वा, जयणा गदणं तु गीयत्थे ॥५॥ कुमुद्दिश्य उदकाद्रेण गलद्विन्दुना सस्निग्धेन गझदुदकविन्दु. पूर्ववत्। ना सकषायेण सचित्तवृधिव्याद्यवयवगुणिमतेन मात्रेण भाज. ___गीयत्थो इमाए जयणाए गहणं करेति । गाहानेन शीतोदकेन वा (संजोएत्ता) मिश्रयित्वा, आहृत्य दद्यात् । पुव्वं पीसें परंपर, मीसेऽणंतर सचित्तपपरए । तथाप्रकारं पानकजातमप्रासुकमनेषणीयमिति मत्वा न परिगृ- ततो साचत्तऽणतर, एमेव अणंतकाए वि।। ५५॥ डीयात् । एतत्तस्य निकोनिक्षुण्या वा सामन्यम्-समग्रो भि.
पुग्वं मासे परंपरहितो गेषहति,ततो मीसे अणंतरो,ततो सचिसे प्राव इति । आचा०२ श्रु.१०१०७०।.
परंपरे,ततो सचित्ते भणंतरे।एवं अणंतकार विापस परिसाणं. जे जिक्खु असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा अम्पायरं
तेसु कमो दरिसिप्रो। वा पुढवीकायपतिद्वियं दिजमाणं पडिगाहेइ, पडिगाईतं वा
गहणे पुणइमा जयणासाइजइ ॥२५१॥ जे निक्खू असणं वा० ४ानकाय
पुन्धि परिते मीसपरंपरहितो गेगहति, ततो मीसं प्रपइट्टियं दिज्जमाणं परिगाहेइ, पडिगाहंतं वा साइज्जइ
णतरपरंपर, ततो सचित्तपरित्तपरंपर, ततो अणंतमीसं
अणंतरं, ततो अणंतसचित्तपरंपर, ततो परित्तसचित्तप्रण॥ २५॥ जे जिक्रव असणं वा. ४ तेउकायपइडियं
तरं, ततो अणंतसचित्तश्रणंतरं आहारे भणियं । दिजमाणं पमिगाहे, पमिगाहंतं वा साइज ॥२५॥
गादाजे जिक्खू असणं वा०४ वणप्फतिकागपइट्ठियं दिज्जमा- श्राहारे जो न गमो,णियमा उवहिम्मि होति सो चेत्र । पं पडिगाहेइ, पमिगाहंतं वा साजइ ॥ २५ ॥ णायबा तु मतिमता, पुन्वे अवरम्मि य पदम्मि ॥५६॥ गाहा
कंग ॥ ५६ ॥ नि० चू. १७ उ० । पावकभाजनादनुद्धते,
और। सच्चित्तमीसएमुं, काएमु य होति मुविह निक्खित्तं। अस्तर परंपरं वि य, विभासियव्वं जहा मुत्ते ॥ २०॥
णिक्खित्तमक्खित्तचरय-निक्षिप्तोदिप्तचरक-पुं० । निकित जे पुढवातीकाबा,ते दुविहा-सचित्ता,मीसा वा । सचित्तेसु भणं. भोजनपाच्यामुत्क्षिप्तं च स्वार्थ, तत एव निक्किप्तारिकप्त, चरत्यतरणिक्खितं, परंपरणिक्खित्तं वा । मीसेसु वि अणंतरण
भिग्रहबशन इति निक्किप्तोरिकप्तचरकः। अनिग्रहविशेषेण तथाक्खितं, परंपरणिक्खिसं पा । पिमसिज्जुत्तिगाहासुत्ते जहा,
विधभिक्षाचरके, औ० । स्था। तहा सविस्थर भाणियव्वं । आयारवितियसुयक्वंधे वा जहा | णिक्खित्तचरय-निक्षिप्तचरक-पुं० । निकितं पाकभाजनाद. सचित्तमिसणासुतं, तहा जाणियन्वं ।
नुकृतं तदर्थमभिमहतश्चरति तद्गवेषणाय गच्चतीति निकिगाहा
प्तचरकः । अभिग्रहविशेषात् तथाभिक्काचरणशीले, औ०। मुत्तणिवातो अच्चि-तणंतरे तं तु गेण्हती जो उ।
णिक्खित्तम-निक्षिप्तदएम-त्रि० । निश्चयेन किप्तः परित्यक्तः सो आणा अपवत्थं, मिच्चत्तविराहणं पावे ॥२१॥ कावमनोवाङ्मयः प्राण्युपधातकारी दण्डो यैस्ते तथा ।
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णिक्खित्तदंड
(५.२७) अभिधानराजेन्छः।
शिक्खेवग
प्राचा० १७०४०३ १०निक्किप्ताः संयमिता मनोवाक्का- व्यापकत्वात् तस्य । न हि किमपि तहस्त्वस्ति यत्रामाऽऽदियरूपाः प्राण्युपमर्दकारिणो दएमा यैस्ते तथा । त्रिविधेन कर- चतुष्टयं व्यभिचरतीतिगाथाऽर्थः । भनु । भाव.।।मा. णेन परित्यक्तदपमेषु, आचा०१ श्रु०६०१ उ०।
चू। साचा । विशेनं। प्रा. म.। णिक्खित्तपुश्व-निक्षिप्तपूर्व-त्रि० । पूर्वमेवाऽऽत्मकृते निष्पादिते,
निकेप ओघनिष्पन्नाऽऽदि:पाचा०२ शु०१चू०२० ३ ००।
से किं तं णिक्खेवे। णिक्खेवे तिविहे पम्मसे । तं जहाणिक्खित्तजर-निक्षिप्तमर-त्रि० । न्यस्तकुटुम्याऽऽदिकार्यनरे,।
श्रोहनिप्पामे, नामनिप्पएणे, सुत्तालावनिप्पमे ॥ पञ्चा० १० विव।
( से कि तं णिक्खवे इत्यादि )निकेपः पूर्वोक्तशब्दार्थनिबि. शिक्खिससत्यमुसल-निक्षिप्तशस्त्रमुशल-त्रि० । त्यक्तस्त्रगा
धः प्राप्तः । तद्यथा--मोघनिष्पन्न इत्यादि, तत्रौघः सामान्यमऽऽदिशस्त्रमुशले, ज०७०१ उ०।
ध्ययनाऽऽदिकं श्रुतानिधानं,तेन निष्पन्न ओघनिष्पन्नः, नामश्रुतणिक्खिप्पमाण-निक्षिप्यमाण-त्रि० । स्वस्थाने न्यस्यमाने, स्य सामायिकाऽऽदिविशेषं नाम, तेन निष्पन्नो नामनिष्पन्नः । " अम्गपिंडं उक्लिप्पमाणं, अगसि णिक्खिप्पमाणं । " सूत्राऽऽलापका:-"करेमि नंते! सामाइयं" इत्यादिकाः, तैनिआचा० २ श्रु०१०म० ५००।
पन्नः सूत्राऽऽलापकनिष्पन्नः। णिक्खिविमव्य-निकेतन्य-त्रि० । माक्तव्ये, प्रश्न १ संष.
एतदेव भेदत्रयं विवरीषुराह
से किं तं ओहनिप्पो। ओहनिप्पले चबिहे प. द्वार। मिक्खिवि-निक्लिप्य-मव्य० । निक्षेपं कारयित्वेत्यर्थे, व्य०१ पत्ते । तं जहा-अज्झयणे,अक्खीणे,आए,खवणा ॥अनु। उ ।
(एषां व्याख्या स्वस्वस्थाने) णिक्खुम-देशी-अकम्प, दे० ना०४ वर्ग २८ गाथा ।
नामनिष्पन्नःगिरि-देशी-अढे, दे० ना०४ वर्ग ४० गाथा ।
से किं तं नामनिप्पल्ले ?। नामनिप्पमे सामाइए समासो
चउबिहे पपत्ते । तं जहा-णामसामाइए, उवणासामाइए, णिक्खेव-निक्षेप-पुं०।निक्षेपणं निक्षेपः । शास्त्राऽऽदेनामस्थाप-| नाऽऽदिभेदन म्यासन व्यवस्थापन निक्षेपःनितिप्यते नामाऽऽदि.
दवसामाइए, जावसामाइए । अनु० । भेदैर्व्यवस्थाप्यते अनेनास्मिन्नस्मादिति वा निकेपः । अनु० । नामनिष्पन्ननिकेपस्तु गुणनिष्पन्ननामकस्यैवेति । सूत्र. १ पिं० । यथाभूतार्थनिरपेकमनिधानमात्रे,प्राचा० १ श्रु० २०१ भु०एम०। उ० । स्था० । यथासंभवमावश्यकाऽऽदे माऽऽदिनेदप्ररूपणे,
सूत्राऽऽलापकनिष्पन्नःअनु। उपक्रमाऽऽनीतव्याचिस्यासितशास्त्रनामाऽऽदिन्यसने, सेकिंतं सुत्तालावगनिप्पमे? आणि सुत्तालावगनिप्पर्य जं०१वका
निक्खेवं इच्छावेइ, से अपत्तलक्खणोविण णिक्खिप्पइ । अथ निकेपस्य निरुक्तिमाह
कम्हा, लाघवत्थं । अस्थि तइए अणुप्रोगदारे अणुगमे त्ति, निक्खिप्पड़ तेण तहि, तमो व निक्खवाणं व निक्खयो।
तत्थ णिक्खित्ते इहं णिक्खित्ते जवइ, इह वा णिक्खित्ते नियमोवनिच्चियोवा,खेवो नासोत्ति जंभणिय।।१
तत्थ णिक्खित्ते जवइ, तम्हा इहं न निक्खिप्पइ, तहिं चेव निक्तिप्यते शास्त्रमध्ययनोद्देशाऽऽदिकं च नामस्थापनाच्याऽऽदि. भैदय॑स्यते व्यवस्थाप्यते अनेन, अस्मिन्, अस्माद्वेति निके
निक्खिप्पड़, मेत्तं निक्खेवं । अनु०। पः, गुरुवाग्योगाऽऽदिविषता तथैव । अथवा-निक्षेपणं शास्त्रा- (से किं तं सुत्तालावग इत्यादि ) अथ कोऽयं सूत्राला.
देर्नामस्थापनाऽऽदिभेदैन्यसनं व्यवस्थापनमिति निकेपः ।। पकनिष्पनो निक्षेपः-" करेमि भंते ! सामाश्यं । " श्दानी निराब्दतपशब्दयोरर्थमाह-नियतो निश्चितो वा केपः-शास्त्रा- सुत्राऽऽलापकानां स्थापनाऽऽदिभेदभिन्नो यो म्यासः, स सूत्राऽ5उदे माऽऽदिन्यास इति निक्षेप इति यदुक्तम् , नवत्ययं प. सापकनिष्पनो, निक्केप इति शेषः । अनु । स्था०। आचा० । रमार्थ इत्यर्थः ॥ १२ ॥ विशे०। प्रा०म०। उत्त।
भाव। मा० म०विशे० निचू० । सुत्र०। वृ०। प्रा००। तत्र जघन्यतोऽप्यसौ चतुर्विधो दर्शनीय इति-- व्या(कस्य नयस्य मते को निक्षेप इति निक्षेपनययोजना नियमार्थमाह
'णय' शब्देऽस्मिन्नेव भागे १८०६ पृष्ठे उक्ता)(नामाऽऽदिनिकेपस्य जत्थ य ज जाणेजा, निक्खेवं निविखवे निरवसेसं। ।
नयविचारः 'मोक्कार' शब्देऽस्मिन्नेव भागे १८२४ पृष्ठे गतः) जत्थ वि अन जाणेजा, चनक्कगं निक्खिवे तत्थ ।।
(स्थापनानिकेपाऽनुपगतृणां सुम्पकानां मतं 'चेश्य' शब्द
तृतीयभागे १२०६ पृष्ठे खरिमतम) अप्रस्तुतायोपाकरणात प्रयत्र जीवाऽऽदिवस्तुनि य जानीयानिकेन्यासं,यत्सदोनित्या.
स्ततार्थव्याकरणाश्च निकेपः फलवान् । व्य०१३०ाविन्यासे, भिसम्बन्धात् तत्र वस्तुनि तं निक्केप निक्षिपद निरूपयेभिरवशेष
विशे० प्रश्न। आ० म० । गएनिकपणे, व्य०४० मोके, सभप्रम्। यत्रापि च न जानीयान्निरवशेष निक्षेपानेदजासं,तत्रापि
पं०व०४द्वार । मोचने, मोघ०। परित्यागे, नाच ०२ श्रु०१ नामस्थापनाद्रव्यन्नावसकणं चतुष्क निक्षिपेत् । श्दमुक्तं भवतियत्र तावन्नामस्थापनाजव्यकेत्रकालजवनावादिलक्षणा भेदा
चू०१०१०। कायन्ते तत्र तैः सर्वैरपि वस्तु निक्षिप्यते, यत्र त स भेटाणिक्खेवग-निक्षेपक-पुं०। भावे णकप्रत्यय निरुपणे (वसायन्ते, तत्राऽपि नामाऽऽदिचतुष्टयेन बस्तु चिन्तनीयमेव,सर्व। निक्षेपकः 'वत्थ' शब्दे वयते)
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(२०१७) शिक्खेवण अन्निधानराजेन्द्रः।
णिगम णिक्खेवण-निकेपण-न । निक्केपे, स्थापने, प्रव०६ द्वार। नूमीऍ ठवेज्ज व णं, घणबंध अभिक्ख उपभोगो॥१७॥ पृथिव्यादौ निक्षिपति
दृरं गंतुकामो णिसिं वा जं परिवासिज्जति, तं वेहासे जे भिक्खू असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा पुढ- दोरगेण णिक्खियति (इहरहेति ) आसाम्ये गंतुकामो आसप्ले बीए णिक्खिक, णिक्खिवंतं वा साइजइ ॥३६॥
वा किंचि सोयमादी काउंकामो तत्थ संथारे भूमीए वा ठ. जे भिक्खू असणं वा०४ संथारए णिक्खिबइ,णिक्खि
वे। वकारो विगप्पे, णकारो पादपूरणे, तं पि ज्वेतो घणं ची
रेण बंधा, पिपीलिगनया गणादीहिं वा लिप३, अजिक्खणं च वंतं वा साजा ॥३७॥
उवओगं करेति। गाहा
जे जिवाव असणं वा०४ नवहासे णिक्खिवइ, णिक्खिपुढवीतणवत्यादिसु, संथारे तह य होइ वेहासे ।
वंतं वा साइज्जइ ।। नि० चू०१६ उ० । जे निक्खू णिक्खिवती, सोपावति आणमादीणि ॥६६७॥
(उपढासेऽशनाऽऽदिनिक्षेपे प्रायश्चित्तं 'अराणउत्थिय ' शब्दे पुढविगहणतो पोयट्टगादिभेदा दचा। दम्भाऽऽदितणसंथारए
प्रथम नागे ४७७ पृष्ठे गतम् ) वा,वत्थसंथारए वा,कंवझाऽऽदिफलसंधारे वा,वेहासे वा दोरगेण उल्लंबेइ, एवमादिपगाराण अपयरेण जो णिक्खिवज्ञ, तस्स
| शिक्खवणा-निक्षेपणा-स्त्री० । दलिकनिक्केपे, क. प्र०४-५ चन नहुँ, प्राणादिया य दोसा, संजमाऽऽयविराहणा ॥
प्रक० । ('बट्टणा' शब्दे द्वि० भा० १११० पृष्ठे 'अववट्टणा' तं तत्थ संजमे । गाहान
शब्दे प्र० भा० ७एए पृष्ठे च व्याख्यातेयम्) तकेंत परंपरओ, पलोह छिमे व भेद कायव हो। |णिक्खेवणाहिगरण-निक्षेपणाधिकरण-न । प्रतिलेखना
अहिमसलालबिच्छय-संचयदोमा पसंगो वा ॥६६॥ | प्रमार्जनाऽऽद्यकरणेनोत्पन्नेऽधिकरण, नि० चू०४ उ०। सुष्य जत्तपाणे चाउरिदिया घरकोइला तर्केति, तं पि मजारी, |णिक्खवणिज्जुत्तिअणुगम-निदेपनियुक्त्यनुगम-पुं० । निएवं ततपरंपरो पुप्पत्तं वाताऽदिवसेण वा पलोट्टेति छक्काय- | केपो नामस्थापनाऽऽदिभेदभिन्नः, तद्विषया या नियुक्तिः निक्केप. विराहणा, प्रायपरिहाणी, वेहासहितं मूसगादिछिम्मे भायण- | नियुक्तिः, तस्या वाऽनुगमो निक्षेपनियुक्त्यनुगमः । निर्युक्त्यमेदो,छक्कायवहो,आयपरिहाणी य ! एसा संजमविराहणा। इमा नुगमभेदे, (अनु.) पायबिराहणा-अहिस्स, मूसगादिस्त वा सिंघमाणस्स लाया
से किं तं णिक्खेवाणिज्जुत्तिअणुगमे।णिक्खेवाणिज्जुत्तिपमेजा,णीससंतो वा विसं चामुंचेञ्ज,विच्चुगाइ वा पमेज,जे वा संणिाहसंनए दोसा.तत्थ वि णिक्खित्ते ते चेय दोसा, पसंगो
अणुगमे अणुगए । सेत्तं णिक्खेवणिज्जुत्तिअणुगमे । संनिहिं पट्टवेजा। किं च-जो जत्तपाणं णिक्खिबइ।
अत्रैव प्रागावश्यकसामायिकाऽऽदिपदानां नामस्थापनाssगाहा
दिनिक्षेपद्वारेण यद् व्याख्यानं कृतं, तेन निक्केपनियुक्त्यनुगमो. सो समणमुविहियाणं, कप्पातो अववितो त्ति णायव्वा ।
ऽनुगतः प्रोक्तो कष्टव्यः । अनु । दसरायम्मि य पुहो,जो उवहि सो उवहतो होति ॥६६॥
णिक्खेवय-निक्केपक-पुं० । निक्केपणं निकेपकः । "नाम्नि पुंसमणकप्पो तम्मि अवविभो अपगतः,समणकप्पातो वा अब.
सिव" ॥५। ३।१२१ ॥ इति । (हैम०) भावेणकप्रत्ययः। गो,एवं णिक्खिवंतस्स दस राते गते जम्मि पाते तं भत्तादि
प्रथमं स्वार्थ निक्किप्य पश्चात् साधूनामनुज्ञाने, वृ०६ उ०। णिक्खिवर, तं उवहतं होइ, जो य उवहिणिक्वित्तो भत्थइ,
निगमने, यथा-" एवं खलु जंबू!समणेणं. जाव उवासगददसराई अपमिलेहियो, सो वि उवहतो भवति ।
साणं पढमस्त अज्जयणस्स अयम पराणचे तिमि ।" गाहा
सपा०१०। उन्धरूपीढफन्नतं-तुसंगतं वितजत्तपाणं तु |
णिक्खोन-निकोन-त्रि । निष्प्रकम्प, दर्श०४ तव ।पादिसुविहितकप्पा चवितं, सेयत्यि विवज्जए साहू ॥६७०॥
ना क्षोभयितुमशक्ये, स०२ अङ्ग। संघारगाऽऽदियाणं बंधे जो पक्खस्स ण मुंच सो सम्बद्धो,णि- लिखन-निखर्व-न । शतगुणिते खर्वे, कल्प. ७ कण । क्खित्तभ तपाणो य जो सो सुविहितकप्पातो अवगतो,जो से.
णिखिल-निखिल-न० । समग्रे, अनु० । यत्थी साधू, तेण बज्जेयब्वो, ण तेण सह संनोगो कायब्बो। श्मो अववाओ। गाहा--
विगच्छमाण-निर्गच्छन्-त्रि० । बहिर्गच्छति, नि० चू० ६ उ०। वितियपदं गेलम्मे, रोहग अद्धाण उत्तिमट्ठो वा। णिगकिय-निगृह्य-अव्य० । निग्रहं कारयित्वेत्यर्थे, " पाप एतेहिँ कारणेडिं, जयणाए णिक्खिवे भिक्खू ॥६७१।। णिगिकिय पप्फोमेमाणे।" स्था०७०। गिलाणकज्जवावडो णिक्विवति, रोहगे वा संकमवसहीए |णिगढ-देशी-धर्म, दे० ना०४ वर्ग २७ गाथा । घेहासे करोति, अहाणे वा सागारिए नुंजमाणो उत्तिम, णिगम-निगम-पुं०। प्रभूततरवणिग्वर्णवासे, प्राचा० १७०० पवमस्स चा करणिज्जं करतो णिपिखबति ।
अ०६ उकास्थान अनुसत्त। सूत्र|प्रश्न० व्या प्रक्षा। पवमादिकारणेहिं णिक्खिवतो इमाए जयणाए णि. वणिग्जनप्रधाने स्थाने, भ० १ श० १ उ० । जी० । विस्ववति । गाहा
प्रश्नः। पणिग्जनाधिष्ठिते सनिवेशे, शा० १क्षु० ८ ०। दरगमणे णिसिं वा, वेहासणे इहरहात संथारे। प्रकापौरवणिगविशेष, पू. ३० । वाणिजकसमूहे, स.
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पिगम
३० सम० । आचा० । दश० । दशा० । वणिजि भ० ७ श० उ० । " णिगमो णेगमवग्गो वस जहिं । " निगमं नाम यत्र नैगमा वाणिजकविशेषाः तेषां वर्गः समूहो वसति । श्रत एव निगमे भवा नैगमा इति व्यपदिश्यन्ते । दृ० १३०। श्राव० या कारणिके, २०७० २००० सामान्यविशे essमकस्य वस्तुनो मैकेन प्रकारेणावगमः परिच्छेदो निगमः । सूत्र० २ श्र० ७ ० श्रा०म० । निश्चितार्थबोधे, स्था० ३ ०३ उ० | "लोगत्थनिबोड़ा वा निगमा” (२१८७) लोकार्थनिबोधाःसुमितरामप्रकारा बोधा लोकस्थार्थनि
बोचा लोकार्थनिबोधाः विशे० विचित्रेष्वभिदविशेषेषु रा० सिगमण निगमनन निश्चितं गमनं निगमनम्। निश्चितेबसाये, तच्चानुमानस्य दशमोऽवयवः । दश०१ भ० आ०क० निगमनं वक्यन्ति
-
साध्यस्य पुनर्निगमनम् ।। ५१ ।। साध्यधर्मयुपसंहरणमिति योगः ।
यथा तस्मादग्निरत्र || २ || || रत्ना ०३ परि० ।
निगमनाऽऽभासमुदाहरन्ति
( २०२९ ) अभिधानराजेन्ऊ |
तस्मिन्नेव प्रयोगे तस्मात्कृतकः शब्द इति तस्मात्परिणामी कुम्भ इति च ।। ०२ ।
अत्रापि साधनधर्म साध्यधर्मिणि, साध्यधर्म वा दृष्टान्तधर्मिंएयुपसंहरतो निगमनाऽऽनासः । एवं पक्षशुद्ध्याद्यवयवपश्चकस्य भ्रान्त्या वैपरीत्यप्रयोगे तदानासपञ्चकमपि तर्कणीयम् ॥८२॥ रत्ना० ६ परि० । विशे० । णिगर-निकर- पुं० । राशिमात्रे, विपा० १ श्रु० ६ श्र० । झा० । वृन्दे, दलनिकरो दलवृन्दम् । ज्ञा० १ ० ६ ० । हिरण्य व्याssदिनिकरवनिकरः । भावस्कन्थे, अनु० । गिलिय-निगरित-त्रि । जं० २ वक्त० । सर्वथा शोधिते सा - रीकृते, तं० ।
लिगाम - निकाम - न० । श्रत्यर्थे, स्था०५ वा० २ उ० । आव० ।
गामभिसे विणी - निकामप्रतिसेविनी - स्त्री० । निकाममत्यर्थे वीजपातं यावत् पुरुषं प्रतिसेवते इत्येवं शीक्षा निकामप्रतिपते यावन्मैयुनकर्मकारिकायाम् स पुरु
संयुक्ताऽपि गर्भं नो घरते । स्था० ५ ना० २ उ० । पिगामसज्जा निकामशय्याख० शयनं शय्या, निकामं शब्या निकामशव्या । प्रतिदिवस प्रकामशय्यायाम्, ध०३ अधि श्राव० । णिमामजोपण- निकामजोजन न० " बसी साइपरेणं, पगा मनिमेष निगामं "प्रमाणातीतमादारं प्रतिदिवसमनतो भोजने, पिं० ।
गिमसाइ [ ए ] - निकामशायिन - पुं० | सूत्रार्थवेनामप्युल
इध शयाने, "......... णिगामसाइस्स । उच्छोलणापदोस्त दुल्लहा सुगर तारिलगस्स ॥ २६ ॥ दश० ४ श्र० । शिगास - निकर्ष - पुं० [सन्निकर्षे, पुलाकाऽदिना परस्परेण सं
योजने, भ० २५ श० ७ उ० ।
पिगिज्ज - निगृह्य - अव्य०। स्थित्वेत्यर्थे, कल्प ० कण | व्य०। स्था०| णिगुंज - निकुञ्ज -पुं० । निःशेषेण कौ जायते जन- 5०- पृ० । लताऽऽदिपिहितस्थले, वाच० । श्रघ० । " एगम्मि पनि गुंजे ठविण पंथे आगतो । " ० ० १ ० २ खएम ।
५०८
णिगोय
शिगूढ निगूढ - त्रि० । गुप्ते, मौनिनि च । व्य० ७ उ० | कल्प० । णिगृदजा
निगृडजानु बिजानी
२ - । । णिगृहिप-निगूहित ००२० আ* शिगोव- निगोद-पुं० [अनन्तकाधिके, प्र० २५५ द्वार सूक्ष्मबादरा निगोदाः पर्याप्ता अपर्याप्ताश्च एकस्मिन्निगोऽनन्ता जीवाः, श्रत्र निगोदः कः?, जीवाश्व के ?, इति प्रश्न, उत्तरम् -निगोदशब्देनैकं शरीरं वनस्पतिरूपं साधारणमनन्तजीव जनित मुख्यते, तथ चानन्ता जीवास्तिष्ठन्ति श्रत एव श्रनन्तकायिका जीवाः साधारणा उच्यन्ते । ६ प्र० । ही ० ३ प्रका० ।
,
सम्प्रति यथैकस्मिन् निगोदशरीरे अनन्ता जीवाः प रिता प्रतिपति तथा प्रतिपादयन्नाह -
--
"
जह यगोलो धंतो, जाओ तत्ततवणिज्जसंकामो । सब्वो गणपरिणओ ओयजीचे तहा जाए | १०| एगस्स दोएट विएट व संखेज्जाणं व पामि सक्का दीसंति सरीराई, शिओयजीवांताणं ॥ २० ॥ "जड् श्रयगोलो" इत्यादि । यथाऽयोगोलो ध्यातः सन् स तप्तसपनीद्वारा सर्वोभवति तथा जानीहि निगोदरूपेशिया अनन्तान् जीवान् जानीहि ॥ १९ ॥ एवं च सति (एग सेत्यादि ) एकस्य द्वयोस्त्रयाणां यावत्सइख्येयानां वाशब्दाद सइख्येया नां वा निगोदजीवानां शरीराणि प्रष्टुं न शक्यानि । कुतः ?, इति चेडुच्यते श्रभावात् । न ह्येकाऽऽदि जीवगृहीतानि अनन्तवनस्प तिशरीराणि सन्ति एकापा
पलभ्यामीत्यत आह-दादि) रयते शरीराणि निगोदजीवानां बादर निगोदजीवानां श्रनन्तानाम् । ननु सुक्ष्मनगद जीवाशरीराणामनुपलज्य स्वभावत्वात् तथा सूक्ष्मपरिणामपरिणतत्वात्; अथ - निगोदशरीरं नियमादपरिणा
माविभीषितं भवता निगोपा असं गोले नियोओ, जीवो मुणेयव्वो ॥ १ ॥ " प्रज्ञा० १ पद ।
1
निगोद नेदान् पृच्छति
कतिविजेते ! ओषा पाता ? गोपमा ! विदा पाता। तं जहा भिषा य, शिओमीया । निओया भंते! कतिविहा पहाता है। गोयमा ! बिहा पत्ता । तं जहा - सुदुम पणिया य, बादरनित्रयाय ।
मनिषाणं ते! कतिविहा पत्ता? गोपया ! विहा पत्ता । तं जहा - पज्जत्तगा य, अपज्जत्तगा य । बायरनि
या विदुविदा पत्ता व महा-पज्जतमा य, अपनलगा । निमोद जीवा छ भने कतिविपत गोषमा
हा पत्ता । तं जहा सहमनिप्रोदजीवा य, बायरनिओजीना मुनिगोदजीवादुपिया
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गिगोय
महा-पज्जत्तगा य, अपज्जत्रागा य । बायर निगोदजीवा दुबिहा पत्ता । तं जहा-पज्जत्तगा य, पज्जत्तगा य । "णियाणं भंते!" इत्यादि प्रश्नसूत्रं सुगमम् । भगवानादगौतम ! द्विविधाः प्रकृताः । तद्यथा-सूक्ष्मनिगोदाश्च, बादनिगोदाव्यतत्र सूक्ष्मनिगोदाः सर्वलोकाऽऽपचाः, बादामोद कन्द्रादयः सुमनिया मित्यादि) सूद निगोदा भन्त ! कतिविधाः प्रशप्ताः १ । भगवानाद गौतम ! द्विविधाः प्रकृताः । तद्यथा- पर्याप्तकाः, अपर्याप्तकाश्च । एवं बादरनिगोद विषयमपि सूत्रं वक्तव्यम् ।
संप्रति सामान्य निगोजिकासिषुः
पृष्ठाविनिप्रदा णं भंते ! दग्बध्याए किं संखेज्जा, असंखेज्जा, प्रणता ? । गोयमा ! नो संखेज्जा, असंखेज्जा, नो प्रणता । एवं पश्चगा विपन्नता विमुद्दमनिचोदा जंते! दबट्टयाए किं संखजा, असंज्जा, भता ? गोयमा ! नो संखेज्जा, असंखेज्जा, नो अता । एवं पज्जत्तगा वि, अपज्जलगा वि, एवं बायरा वि पज्जत्तगा वि, पज्जतगा वि, नो संखेज्जा, संखेज्जा, नो अांता । निश्चयजीवा णं अंते 1 दव्वट्टयाए किं संखेज्जा, असंखेज्जा, अता १ । गोयमा ! नो संखेज्जा, नो असंखेज्जा, अता । एवं पाव अजता वि एवं सुनिओयजीवा वि पज्जत्तगा वि, अपज्जत्तगा वि । बादरनिओयजीवा वि पज्जतगावि, अपज्जत्तगा वि ।
( २०३० ) अभिधानराजेन्द्र
.
"निया "त्यादि निदा जीवाऽविशेषाः । भदन्त ! द्रव्यार्थतया व्यरूपतया किं संख्येया असंख्येया अनन्ताः ? | भगवानाह मनो येषाः असंख्येयभागाववादना नां तेषां सर्वलोकाऽऽपन्नत्वात्, किं त्वसंख्येयाः, श्रसंख्येय लोकाssकाशप्रदेशप्रमाणत्वात् । नाप्यनन्ताः तथा केवलवेदसाऽनुपत्रमनात्। एवमपर्याप्त सामान्य निगोदसूत्रं पर्याप्तसामान्यनिग नाचनीयम् । यथा च सामान्यनिगोह विषयसुत्रत्रयमुमेचं सूमनिमोविषयमपि सूत्रयं बादरनिगोदविषयमपि सू त्रयं पृथक् वक्तव्यम् । भावना च पूर्वानुसारेण स्वयं बिधेया । तदेवं व्यार्थाविषयाणि नव सूत्राण्युक्तानि ।
-
संप्रति प्रदेशार्थताविषयाणि नव सूत्राणि विवक्षुः प्रथमतः सामान्यतो निगोदविषयं सुत्रमादनिओदा णं भंते ! पदेसडयाए किं संखेज्जा पुच्छा ! । गोमा ! लो संखेज्जा, यो असंखेज्ना, अनंता । एवं पज्जतगा वि, अपज्जत्तगा वि । एवं सुहुमनिया बि पक्षचगाव, अपज्जतमाथि पसाए मध्ये अता । एवं वायर नया वि पज्जत्तया वि, अपज्जत्तया वि पट्टयाए सच्चे प्रांता । एवं निमोदजीवा वित्तविहा परसट्टयाए सच्चे अरांता ।
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निश्रोदा णं भंते! परसध्याए" इत्यादि । निगोदा चक्तस्व रूपाः, णमिति वाक्यालङ्कारे । जदन्त ! प्रदेशार्थतया प्रदेशरूप
णिगोय
तया चिन्त्यमाना कि संख्येया असंख्येया अनन्ता वा १। भगवानाह - गौतम ! नो संख्या मो नो असंख्येयाः, किन्तु अनन्ता एकैकस्मिन् निगोवे प्रदेशानामनन्तस्यात् । एवं पात्राणि पूर्वकमेव नावगीयानि । सम्प्रत्येतेषामेव साह्मबादरपर्याप्ता पर्याप्तनिगोदानां द्रव्यार्थप्रदेशार्थीमार्थतया परस्परमपबहुत्वमाद एसियां ते निभोवाणं सुदुमाणं वायरा पक्षचगा पणं प्रपज्जत्तगाणं दव्बट्टयाए पएसइयाए दव्वट्टपएसइयाए कपरे० २ जाव विसेसादिया वा ? गोषमा ! सव्वत्योबा वायरनियोषा पञ्चत्तगा दन्नपाए बादर निगोदा अपज्ज तगा दव्वट्टयाए असंखेज्जगुणा, सुमनिया अपज्जतगा दन्त्रट्टयाए असंखेज्जगुणा, सुहुमनित्र्योदा पज्जत्तगा दब्बहया संखेज्जगुणा । एवं पदेसट्टयाए वि । दब्बडपएस ट्टयाए सन्यस्थोना बादरनिभोषा पन्नत्तया दब्बगाए जान
मनिप्रद पश्मसपा दम्बपाए संवेज्जगुणा, सुनुपनि ओएहिंतो पज्जत्तरहिंतो दव्बट्टयाए बादरनिगोदा पज्जत्ता परसहयागुणा, वायरणिओदा अपना पस हवाए असंखेनगुणा जानुमनिया पत्ता पस या संखेज्जगुणा । एवं निओयजीवा वि, वरिं संकमए जा सुदुमनिओजीहिंतो पज्जत्तएहिंतो दव्बच्याए बायरनियोया जीवा पज्जत्ता परसट्टयाए असंखेज्जगुणा, सेसं तप० जाव सुनुपनि ओयजीचा पज्जता पएसच्याए संखेब्जगुणा ।
"भंते! निमोदा "यादि प्रसू सुगमम म गयानाद-गौतम! सर्वतो वादगोदामूलकेन्दादिगताः पर्यातका पार्थतया प्रतिनियस क्षेत्रयतिरात् तेम्पो बादर निगोदा अर्थात यावा असंवेषगुणाः पकैकप बादरनिगोदमिश्रा असंवेदानामपानां बादरगोदानानोकरूयात
यगुणाः, सकललोकाऽऽपन्नतया क्षेत्रस्य संख्येयगुणत्वात् ते निगोदा पर्याप्ता इत्यर्थतया संव तोऽपश्यः पर्याप्तानां संश्येयगुणत्वात् परसपाट इति ) तक प्रदेशार्थतया चिन्ता क्रियते, तामेव करोतिसर्वस्तोकाः बादरनिगोदाः पर्याप्ताः प्रदेशार्थतया रुत्र्याणां स्तोकस्वा तेभ्यो बादरनिगोदा अपप्रदेस - संख्येयगुणाः, अग्याणामसंख्येयगुणत्वात् । एवं तेभ्यः सूक्ष्मनिगोदा अपर्याप्ताः प्रदेशार्थतया असंख्येयगुणाः, तेज्यः सकानिगोदाः पर्याप्ताः प्रदेशार्थतया संख्येयगुणाः । (दबटुएसअन म्यार्थप्रदेशातथा चिन्ता कियते-स तोका बादनिगोदाः पर्याप्ताः यातया, बादनिगोदा अपर्याप्ताः स्वार्थतया असं लेयः सूक्ष्मनिगोड़ा अपर्याप्ता अध्यार्थतया असंख्येयगुणाः तेभ्यः सूक्ष्म निगोदा पर्याप्ता व्यर्थतया संख्येयगुणाः । अत्र सर्वत्राऽपि युक्तिः प्राक्तन्येष । तेभ्यो बादरा निगोदाः पर्याप्ताः प्रदेशार्थतया अनन्तगुणा एकैकमि गोदस्थानकानन्तरकन्यनिष्यत्वात् । तेम्बो बादरनिगोदा अपर्याप्ताः प्रदेशार्थतया असं
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(२०३१) पिगोय अभिधानराजेन्द्रः ।
णिगोय स्येयगुणाः, द्रव्याणामसंख्येयगुणत्वात् । तेभ्यः सूक्ष्मनिगो त्तगाणं अपज्जत्तगाणं नियोयजीवाणं सुहमाणं चायदा अपर्याप्ताः प्रदेशार्थतया असंख्येयगुणाः । युक्तिः प्राक्तन्ये
राणं पज्जत्तगाणं अपज्जत्तगाणं दवट्ठयाए परमट्टयाए व । तेभ्यः सूक्ष्म निगोदाः पर्याप्ताः संख्येयगुणा, व्याणां संस्सगुणत्वात् । तदवमुक्ता निगोदाः । अधुना निगोदजी
दव्बठ्ठपएमच्याए कयरे २० जाव विसेमाहिया वा गोवानाधिकृत्य भेदप्रश्नमाह- *"निगोयजीवा णं ते!" इत्यादि यमा! सम्बत्योवा बायरनिया पत्ता दचट्ठयाए, सुगमम् । जगवानाह-गौतम! मिगोदजीवा द्विविधाः प्राप्ताः । वायरनिओदा अपज्जत्ता दव्वट्ठयाए असंखेनगुणा, तद्यथा-सूक्मनिगोदा बादरनिगोदजीवाश्च । चशब्दी निगोदजी
मुहमनिगोद। अपज्जत्ता दवट्ठयाए असंग्वेज्न गुणा, मुहबतया तुल्यतासूचका । एवमन्यत्रा ऽपि यथायोगं भावनीयो।
मनिओदा पज्जत्ता दबट्टयाए मखेज्जगुणा, मुहुमनियो"सुहुमनिगोयजीवा णं अंते !" इत्यादि पर्याप्तापर्याप्तविषयं सूत्रं त्विदं पाठसिकम् । सम्प्रति व्यार्थतया संख्यां पिच्छि'
एहितो पज्जत्तएहिंतो दमट्टयाए वायरनिोदनीया घुराह-"सुहमनिगोयजीवाणं भंते ! दव्वट्टयाए" इत्यादि पज्जत्ता प्रागंतगुणा, वायरनिोदजीवा अपज्जत्ता प्रभसूत्रं सुगलम् । भगवानाह-गौतम!नो संस्येया नाप्यसंख्य
दव्वट्ठयाए असंखेजगुणा, मुहमनिओयजीवा अपनत्ता याः, किं त्वनन्ताः; प्रतिनिगोदमनन्तानां निगोदजीवरुव्याणां
दबट्टयाए असंखेनगुणा. सुहमनिओयजीचा पज्जत्ता दभावात् । एवमपर्याप्तसूत्रं वक्तव्यम् । तदेवं सामान्यतो निगोद. द्रग्यविषयं सुत्रकमुक्तम् । एवं सूक्ष्मनिगोदजीवविषयं सूत्र
बट्टयाए संखेजगुणा,पएसध्याए सम्बत्योवा,वायरनिओ. निक, बादरनिगोदजीवविषयं सूत्रत्रिक वक्तव्यमा सर्वसंख्यया दजीवा पज्जत्ता पएसट्टयाए,बायरनिोदनीवा अपज्जत्ता नव सूत्राणि । एवमेव प्रदेशार्थताविषयाएयपि नव सूत्राणि, पएसट्टयाए असंखेजगुणा, मुदुमनिओयनीवा अपजत्ता नानात्वाभावात् । भावना सर्वत्रापि सप्रतीता। ये किल 5
पएसट्टयाए असंखेजगुणा, सुदुमनिओदजीवा पजत्ता पबायतवाऽनन्तास्ते प्रदेशार्थतया सुतरामनन्ताः, प्रतिव्यमसंख्यातानां प्रदेशानां भावात्।सर्वसंख्यया चामून्यष्टादश सूत्रा
एसट्टयाए संखेज्जगुणा, समनिोदनीवहितो पज्जणि । साम्प्रत मेतेषामेव सूक्ष्मबादरपर्याप्तापर्याप्तनिगोद जीवानां त्तएहिंतो वायरनिअोया पजत्ता पदेसच्याए अकव्याधप्रदेशार्थोभयार्थबया परस्परमल्पबहुत्वमाह-"एएसि णंतगुणा, बायरनिप्रोया अपजत्ता पएमट्ठयाए अखेणं" इत्यादि । सर्वस्तोका बादरनिगोदजीवाः पर्याप्ता व्या
जगुणा० जाव सुहुमनिओया पज्जत्ता पए सट्टयाए संथतया, निगोदानां स्तोकस्वात, तेच्यो बादरनिगोद जीवा अपयप्तिा व्यार्थता असंख्येवगुणाः, निगोदानामसंख्येयगुण
खेजगुणा, दव्यपदेसट्टयाए सव्यस्थोवा, वायरनिओया स्वात् । तेज्यः सूक्ष्मनिगोदजीवा अपर्याप्तका व्यार्थतया प्र- पज्जत्ता दबट्टयाए, वायरनिोदा अपज्जत्ता दवट्ठयाए संसपेशगुणाः, तेभ्यः सूक्ष्मनिगोदजीवाः पर्याप्ता द्रव्यार्थतया असंखेजगुणाजाव निगोदा पज्जत्ता दबट्टयाए संखेजसंख्येयगुणाः । कारणं पूर्ववदुह्यम् । प्रदेशार्थतया सवेस्तोका बादरनिगोदजीवाः पर्याप्ता, प्रदेशार्थतया व्याणां स्तोक
गुणा, सुहुगनिग्रोएहिंतो पज्जत्तपहिंतो वायरनि प्रोदजीवा स्वात् तेत्यो बादरनिगोदजीवा अपर्याप्ताः प्रदेशार्थतया असं- पज्जत्ता दबट्ठयाए अणंतगुणा,सेसा तहेवजाव मुहुमानख्येयगुणाः, द्रव्याणामसंख्येयगुणत्वात् । एवं तेभ्यः सूक्ष्म- अोदजीवा पज्जत्तगा दबट्टयाए संखेजगुणा,सहुमनिग्रोनिगोद जीवा अपर्याप्ताः प्रदेशार्थतया असंख्येयगुणाः, तेन्यः
यजीवोदितो पन्जत्तएहिंतो दवट्ठयाए वायरनि प्रोयजीवा सूचमनिगोद जीवाः पर्याप्ताः प्रदेशार्थतया, रूच्यार्थप्रदेशार्थतया सस्तोकाः, बादरनिगोदजीवाः पर्याप्ता द्रव्यार्थतया,तेभ्यो बा.
पज्जत्ता, पएसट्टयाए असंखेज्ज गुणा, सेसं तहेव. जाव दरनिगोद जीवा अपर्याप्ता द्रव्यार्थतया असंख्येयगुणाः, तेत्यः
मुहुमनिझोया पज्जत्ता पएसट्ठयाए संखेज्जगुणा । सक्ष्म निगोदजीवा अपर्याप्ता व्यार्थतया असंख्येवगुणाः, ते. 'एएसिणं' इत्यादि प्रश्नसूत्रं सुगमम्। भगवानाह-गौतम!स. ज्यः सूक्ष्मनिगोदजीवाः पर्याप्ता व्यार्थतया संख्येयगुणा,ते. बस्तोका बादरनिगोवाः पर्याप्ता व्यार्थतया, तेत्यो बादरनि. भ्यो बाद रनिगोद जीना अपर्याप्ताः प्रदेशार्थतया असंख्येय- गोदा अपर्याप्ता व्यार्थतयाऽसंख्येयगुणाः, तेभ्यः सूक्ष्म निगोदा गुणा, प्रतिबादरनिगोदपर्याप्त जीवमसंख्येयानां प्रदेशानां भा
अपर्याप्ता न्यार्थतयाऽसंख्येयगुणा:,तेज्यः सूक्ष्मनिगोदा पर्याप्ता चात् , तेत्यः सूक्ष्मवादरनिगोदजीवाश्च पर्याप्ताः प्रदेशार्थतया
द्रव्यातया संख्येयगुणाः । अत्र सर्वत्रापि युक्तिः प्रागुक्लेव । सु. असंख्येयगुणाः, बादरनिगोदापर्याप्तेभ्यो बादरनिगोदपर्याप्ताना
कमानगोदेभ्यः व्यार्थतया बादरनि गोदजीचा पर्याप्ता अनन्तमसंख्यातगुणत्वान । तेभ्यः सूक्ष्मनिगोदजीवा अपर्याप्तकाः प्र.
रूपयाप्तकाः प्र. गुणाः, कैस्मिन् निगोदे अनन्तानां जीवानां भावात, तेच्यो देशाधतया असंख्येयगुणाः, तेच्या सूक्ष्मनिगोदजीवाः पर्याप्तावादरनिगोद जीवा अपर्याप्ताः, व्यार्थतया असंख्येयगुप्रदेशार्थतया संख्येयगुणाः। नावना प्रागिव ।
जा, निगोहानामसंख्यातगुणत्वात् । एवं तेज्यः सूक्ष्मनिगो सम्प्रति सूक्ष्मबादपर्याप्तापर्याप्तनिगोदजीवानां व्यार्थप्रदे
बजीधा अपर्याप्ता द्रव्यार्थतया असंख्येगुणाः, तेभ्यः सूक्ष्मनि. शार्थोभयातया परस्परमल्पबहुत्वमाह
'गोदजीवाः पर्याप्ता द्रव्यातया संख्येयगुणाः, प्रदेशार्थतया एतेसि णं भंते ! सुहुमाणं निगादाणं बायराणं पज्ज
•| सर्वस्वीकाः, बादरनिगोदजीवाः पर्याप्तकाः प्रदेशार्थतया,निगो
दानां स्तोकस्वात् । तेभ्यो बादरनिगोदजीयाः अपर्याप्ताः प्रदे*'पवं निपोय जीवा वि' इत्यारज्य 'पएसच्याप संखजगुणाशार्थतया असंख्येयगुणा,निगोदानामसंख्येयगुणत्वात्। एवं ते. शति यावद् मूझे संक्षिप्तमुक्तमिति विभावनीयं सुधीभिः।
यः सहमनिगोदजीवा अपर्याप्ताः प्रदेशार्थतया असंख्येयगु
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विगोय
(२०३२)
अभिधानराजेन्द्रः ।
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यानिगोदजी पर्यास प्रदेशार्थतया संख्ये यगुणाः, तेज्यः सूक्ष्मनिगोदजीवेभ्यः पर्याप्तेभ्यो बादरनिगोदा: पर्याप्ताः प्रदेशार्थतया श्रनन्तगुणाः, एकैकस्य निगोदस्य अ नन्ताकानन्त कम्पनिष्ठा उपस्वत्य बादरनिगोदा अपर्याप्ताः प्रदेशार्थनया असंध्येयगुणाः पादपगोदनिया संख्यातीतानां बादरापर्याप्तनिगोदानामुत्पादात् । तेभ्यः सूक्ष्मनिगोदा अपर्याप्ताः प्रदेशार्थतया असंख्यातगुबालेभ्यः मनिगां पर्याप्ताः प्रदेशार्थतया संवेषगु णाः पार्थदेशार्थतया स्तोका बादर निगोदा पा या बादरनगोदा अपयशातया असं सूक्ष्मनिगोदा अपयात असंवातेानयोः पार्थसंश्ये गुणात्र युतिर्मियादनार्थता चिन्नायामिय के प्रः सूक्ष्मभिगोदेभ्यः पर्याप्तभ्यो बादरोजी पर्यामा म्यार्थतया अनन्तगुणा, प्रतिबाद निगम जीवाभावात् तेषो बाद निगोदजीवा पयसा इयार्थराया अवगुणा से सूक्ष्मनिगोदजीवा अपर्याप्ता अय्यार्थतया असंख्यगुणादिजाः पर्याप्ता पार्थतया संख्येपगुणाः अत्र युक्तिलिंगोदजीवानां
तया चिन्तायामिव । तेभ्यः सूक्ष्मनिगोदजीवेज्यः पर्याप्ते ज्यो पार्थता बिनोदजीवाः पर्याप्ताः प्रदेशाल्या असंख्येयाः प्रतिवाद र भिगो पर्यायस्यानां लोकाSSकाशप्रमाणानां प्रदेशानां भावात् । तेज्यो बादरनिगोद जीवा अपर्याप्ताः प्रदेशार्थतया असंख्येयगुणाः, ते
सुमन जीया अपा प्रदेशातपायगुणाः, तेज्यः सूक्ष्मनिगोदजीवाः पर्याप्ताः प्रदेशार्थतया संख्येयगुणाः । गोवा प्रदेशार्थनया संवादा मिया सूक्ष्मभ्यः पर्यायः प्रदेशांना तेभ्यो बाइरनगोदाः पर्याप्ताः प्रदेशातया चणाः। एकैकस्मिन् निगोदे अनन्तानामणूनां सद्भावात् । तेज्यो मदनगोदा प्रदेशाधनया असंख्येयमुवा या मनोदासाः प्रदेशातया अन्या मानगो जीवाः पर्षासाः प्रदेशातवा संस्थेयगुणाः चत्र यु तिर्निगोदानां प्रदेशार्थतया चिन्तायामिव । जी० ६ प्रति● | सांध्यवदारिकाः के प्रतिपाद्यन्ते, किं निगोदावस्थात उद्वृताः, देउता उता इति प्रजे, सम्प्रज्ञापनावृत्तौ निगोदावृता इति सामान्यं वचो न विशेष समर्थ स्थात सूक्ष्मात्राणां निगोद इति संज्ञा नाऽस्ति, निगोद इति नाम वनस्पतौ रूढम् तथा सूत्रेऽपि तथैव दृश्यते सूक्ष्मनिगोदेश्य चवृताः श्रत एव सारिका प्रतिभुतिपरम्परा बनाम घोष यतः सर्वे जीवान्दारिता द्विधा निगोदाव्य बदार्यास्ते चान्येऽपि व्यवहारिणः ॥ १ ॥ इति योगशास्त्रवृत्तौ इति । १३७प्र० । सेन०१ उल्ला० । अनादि निगोद मध्ये यथा भव्यस्य का नदर्शनचारित्राणां सत्ता तथा अनयस्य भवति न येति प्रश्ने, उत्तरम् अभव्यस्य ज्ञानाऽऽदिसत्ता जवति, परमभव्यतया सा मग्रीमान प्रकटीभवति यस्य तु तद्योगे प्रकटी दिति । १२० प्र० | सेन० २ उल्ला० । श्रावलिकायुःप्रमाणं सूक्ष्मकति प्रश्न उत्तरसू
गोस्वरूप
बद
विच
र मिगोदस्य तु कनिक भवति, सामान्येन तूभयोरप्यन्तर्मुहर्त्तमुच्यत इति १५५ प्र० । सेन• ३० सूक्ष्मनि गोदा तो जीवः पुनः सूक्ष्मगिदमध्ये याति न वेति प्राने उत्तरम् कानिगोदातो जीवः पुनरपि सूक्ष्मनिगोदे यातीति । २७३ प्र० । सेन० ३ उल्ला •| णिगोदजीव - निगोदजीव-पुं० । साधारण नामकर्मोदयवर्तिनि जीवे, न० २५ श०६ उ० । नारकजीवेभ्यो निगोदजीवानां दुःखमधिकं निगोदजीवेयो वा नारकीयानाम इति प्रश्ने, उत्तरम् - (-निश्चयतो नारकजीवेभ्यो निगोदजीवानां जन्ममरणाssधेकशरीरानन्तजीवावस्थानाऽऽदिरूपं महद् ःखं, परं तन्मत्तसम्पदास्तु नियोज भ्यो नारकजीवानां परमधार्मिककृत वेदनाऽऽदिरूपं दुःखं प्रति स्वयं नाधिकत्वं वा इतितरम्-तेरे समानं दुःखमय वस्तु केवल इति २४३ । ३४४ प्र अनादिनोदी कि जब तत्र तिष्ठन्तीति प्रश्ने, उत्तरम् - प्रवाहापेकया श्रनादिकर्मसंबन्धेन तत्र तिष्ठन्तीति । ३४५ प्र० । केचन निगोद जीवा लघुकर्मीभूय व्यबारशी मायामियने किं कारणमि ति प्रश्ने, उत्तरम भव्यत्यपरिपाकादिकं लघुक कारणमिति ३४६ प्र० । सेन० ३ बल्ला० । मांसमध्ये निगोदजीवा नृत्पद्यमानाः कथिताः सन्ति । तथाहि " श्रामासु अपका विषयमाणासु मंसपेसी उपत तव्वराणा तत्थ अंतूश्रो " ॥ १ ॥ पनाथायां योगशास्त्रतृतीयप्रकाशमध्ये कथिनमस्ति, यन्निगदिशब्देन शरीरं कथ्यतेउतो मांसमध्ये शरीरिणोऽनन्ता जीवा उत्पद्यन्ते तच्छरीराणि कानि ?, मांसमेव शरीरतया परिणमति, तदूपाणि किं वाऽसंख्यातानि शरीराणि उत्पद्यन्ते तानि तेषामप्यनन्तशरी रिणामाबाधोत्पद्यते ?, न वा ? इति प्रश्ने, उत्तरम् - मांसमध्ये रसजीन्द्रियजीवा अनेके उत्पद्यमानाः संभाव्यन्ते, तथा "श्रामा" पताथायां ये निगोदजीवा उत्पद्यमानाः सुश्र पक्का अ, कथिताः सन्ति, तत्र निगोदशब्देन सूक्ष्मजीवा एव अर्थः परपरया कथ्यमानोऽस्ति परं स्वाधारणवनस्पति वदनन्त जीवाssश्रय एकशरीरानिगोद एवंविधोऽर्थः कथ्यमानो नास्ति । यखः प्रतिक्रमण मांसमध्ये तरुण अनेकद धमानाः कथिताः सन्ति, परमनन्ता श्रसंख्याता न कथिताः सन्ति, तस्मादनन्ता असंख्याता यत्र कथिताः सन्ति परं तत्रानन्ताऽसंख्यातशब्देन बढ्व इत्यर्थो शेयः, एवं परम्पराऽस्ति । तानि च जीवशरीराणि मांसपुलतयाऽन्यपुजलतया च मि. श्रितानि उत्पद्यमानानि संभाव्यन्ते, तथा तक्राऽऽरनालाऽऽदि. षु द्वीन्द्रियजीवा उत्पद्यमानाः कथिताः सन्ति, तद्वत्वेषामपि मांसजीवानामायाधरपयते इति संभाध्यते परमेकशरीरस्थानन्तजीवत्रनोद्यते इति ज्ञातं नास्तीति ॥ ४४ प्र० । सेन• ४ उद्धा० ।
"
मिंच-निर्ग्रन्थ-पुंज निर्गता अन्धान्यतः सुधदिरूपा नावतो मिथ्यात्वाऽऽदित्रणादिति निर्ग्रन्थः । व्य० ३ ० । स्था० । सूत्र० । निर्गतो वाह्याभ्यन्तरो ग्रन्थो यस्मात्स निन्थः । सूत्र० १ श्रु० ६ श्र० । बाह्याभ्यन्तरग्रन्थिरहिते, दश० ६ ० | जैनसाधौ, दश० ३ अ० स० । स्था० । ( व्याख्या
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गिग्गंथ
भनिधानराजेन्द्र: ।
गिरगंध
'दिसा' शब्दे दृष्टव्या)"णिग्गंथा जिणसासणभवा ।" निम्र
अपि चन्धास्ते भस्यन्ते, ये जिनशासनभवाः प्रतिपन्नपारमेश्वरप्रवच.
कलामफलेन न जुज्जा, किं चित्तं तत्य नं विगयगगी । नमुनयः । प्रव० ए४ द्वार । पञ्चविधाः श्रमणाः, तत्र निग्रंथा
मंते विजे कमाए, निगिएहई मो वि ततुझो ।। जैनसाधवः । आचा०२ श्रु०१०१ अ०१ उ० । सूत्रः । स्था। प्रा० क । शा०। प्रश्न । पा० चा नं०।
कलुपयन्ति सहजनिर्मलं कर्मरजसा मलिनयन्तीति "अन् " (१) निर्ग्रन्थशब्दव्याख्या
॥ ५ ॥१४६॥ इति अच्प्रत्यये कलुषा कपायाः, नेपां यत्फलं
पुरुषभापणनयनमुखविकारै गैरुध्यानानुबन्धाऽदिकं. तेन सहिरनगा सगंया, अहिरनसुवष्णगा समणा ।
सह यन्त्र युज्यते न संबन्धमुपयाति, विगतरागो विशेषेणापुनसहिरण्यकः सग्रन्ध उच्यते । अत्र हिरण्यग्रहणं बाह्याभ्यन्त- भीवन गतो रागो यस्मानस विगतरागः, कीणमोह इत्यर्थः । रपरिग्रहोपलक्कणं,ततो यः सपरिप्रदः स सग्रन्थः। श्रमणाः पुन- तत्र कि नित्र किमाश्चर्य?. कपायलकगाकारणाभावान्न किधिरहिरण्यसुवर्णका अतो निर्ग्रन्थाः। हिरण्यं रूप्यं,सुवर्ण कनकम् । दित्ययः । यस्तु सतोऽपि विद्यमानानपि कषायान्निगृहाति, उवृ.१ उ० (अन्धनि केपो 'गंथ' शब्दे तृ० प्रा० ७५३ पृष्ठे उक्तः) दीयमानानेव प्रथमतो निरुणद्धि, कथञ्चिदुदयप्राप्तान् वा विप्रस्तुतयोजनामाह
फलीकरोति, सोपि तत्तुल्यो चीतराग इव निष्कायो मन्तव्यः, सावज्जेण विमुक्का, अजितरबाहिरेण गंथेण ।
सतामपि कपायाणामसत् कल्पनाकरणात्, अतः सरागसंय.
तोऽपि निग्रन्थोऽभिधीयते । निग्गहपरमा य विह, तेऐवं होति निग्गथा। सावधः सपापः कर्मोपादाननिबन्धनत्वाद्यो अन्धः,तेन सा.
अथ परं प्रश्नयति-- ज्यन्तरबाह्येन ये मुक्तास्ते निर्ग्रन्या उच्यन्ते। येऽपि चान्तरं ग्र- जइ अनितरमुका, बाहिरगयेण मुकया किहए। न्धेन न सर्वधा मुक्तास्तेऽपि, ये न विद्वांसः क्रोधाऽऽदिदोषवे. गिएहता उवगरपं, जम्हा अममत्तया तेसु॥ दिनः, तथा निग्रहपरमाः, तन्निजयप्रधानाः, तेनेचं कारणेन ते
यद्यनन्तरोक्तप्रकारेणात्यन्तरग्रन्धमुक्ताः,तो वस्त्रपात्राऽऽदिकनिर्ग्रन्था भवन्ति । (२) प्रधाऽन्तरं प्रन्यमधिकृत्य ये मुक्काः,ये चामुक्ताः, तदेत
मुपकरणं गृहन्, ततः कथं,नुरिति वितर्के। बाह्यग्रन्धेन मुक्ता.
च्चरन्?,वरत्राऽऽदेरपि ग्रन्धरूपत्वादित्यनिप्रायः। सूगिराह-यस्मादभिधिसुगह
सेषु चखपात्राऽऽदिपु न विद्यते ममत्वं मूच्छी येते अममत्वकेई सव्वविमुक्का, कोहाईएहिँ केइ भश्यव्वा ।
काः । " शेषाद्वा" ॥ ७।३।१७५॥ इति कच्प्रत्ययः । मूसेटिगं विरचित्ता, जाणसु जो निम्गो जत्तो । च्चगरहिताः । तेन बाह्यग्रन्धमुका अप्यभिधीयन्ते । इयमत्र भा. क्रोधाऽऽदिभिरन्तरग्रन्धैः केचित्सर्वविमुक्ताः सवरपि विप्रमुः। वना-मुच्छी परिग्रहो गीयते तनूरकरणाधिधारणमात्रम्, "मुच्चा ताः कचित्पुनभक्तव्याचिकल्पनीया:-कैश्चिद मुक्ताः कश्चिदपिन परिग्गहोवुत्तो" इति वचनात् । अतः संयमोपष्टम्नादिनिमिमुक्ता इत्यभिप्रायः । अत्र शिष्यःप्राऽऽह-कथं नु नामेदं शास्यते ?
त्तमुपकरणं धारयन्नपि विशुरुचेतोवृत्तिरपरिग्रह पत्र झालटयः। प्रमी सर्वथा मुक्ताः, अमी च न मुक्ता इत्युच्यते-श्रेणिहिकम- तदुक्तं परमगुरुभि:-"अत्यविसोहीए, उधगरणं घाहिरं परिपशमश्रेणिकपकणि लक्षणं, विरचय्य यथोक्तपरिपाट्य। स्थाप
हरतो । अपरिग्गडो त्ति भणिओ, जिणेहि तेलुकंदीहिं" ॥१॥ यित्वानतो जानीहि यो यतः क्रोधाऽऽदेनिंगतः,अनिर्गतो वेति। वृ०१ उ० । भ. । उत्त० । सुत्र। वृ.१००। भ.। उत्तमित्र० । (श्रेणियप्ररूपणा' खबग- (४) अथ निर्ग्रन्थनिकपमा नियुक्तिकृत्सेदि' शब्दे तृ०भा०७२७ पृष्टे, 'उवसमसेढि' शब्द द्वि० भा०
णिखवा णियंउम्मी, चउविहीं दुविहो य होई दवम्मि । १.४३ पृष्ठे च प्रव्या) (३) पनां कपकश्रेणिमध्यामीनेन येन यदनन्तानुबन्यादिकं
आगमणो आगमोणो आगमओयसो तिविहो ।३२मि० । कपित, स तेन मुक्त इत्यवसातव्यम् । येऽपि श्रेणिद्वयमद्याऽपि निकेवोन्यासः (नियंठम्मि ति) निग्रंन्ये निर्ग्रन्धविषये चतु. न प्रतिपद्यन्ते, किन्तु सामायिकच्छेदोषस्थापनीयपरिहारविशु- र्विधः, नाम-स्थापना-व्य-भावभेदात् । तत्र मामस्थापन - शिकानामन्यतमस्मिन् संयमे वर्तन्ते, तेऽपि संकलनचतुष्ट- हो। द्विविधो भवति ऽव्ये-आगमतो, नो पागमतश्च । तत्रा55. यवर्जद्वादशभिः कपायमुक्ता इत्यवगन्तव्यम् । यत उक्तम्-"बा- गमतः प्राग्वत् , नो आगमतश्च स इति निर्ग्रन्थनिमेय इति रसविहे फसाए, स्वविए उसामिए य जोगेडिं। लभ चरि- गाथाऽधः । उत्त(पाईटीका) ६ अ० । त्रैविध्यमेवाऽऽहतलंनो, तस्स विसेसा मे पंच ॥१॥"
द्रव्यतो एकः, अन्यो न व्यतो भावतः, अपरो द्रव्यतोऽपि ततध
प्रावतोऽपि । तत्र व्यतो निर्गन्धः स उच्यते, यो लिङ्गसदि. जे वि अन सव्वगंथे-हि निग्गया होंति के निग्गंथा।
तो व्यलिङ्गयुको निःशङ्कः सन्नध्यवस्यते, उत्पवजातीलायः । ने वि य निम्गहपरमा, हवंति तोसिख उन्जुत्ता।
यस्तु प्रवज्यायामनिमुखो न तावदद्याऽपि प्रवजनि, कारणेन वा ये पिच सरागसंयमवर्तिनः सर्वेभ्य श्राभ्यन्तरग्रन्थेच्यो न नि
यः साधुः परलिङ्गे वर्तते,स द्वितीयो द्वितीयनङ्गना । यस्तु उगताः, तेऽपि तेषां संज्वलनकषायाऽऽदीनां वयोदयुक्ता उदय
दयसहितो द्रव्यनायलिङ्गयुकः स तृतीयः । उभयथा निबन्ध निरोधोदयप्राप्तविफलीकरणाच्यां कयकरणायोद्यनाः सन्तो
इति जावः । बृ) ३ उ० । निग्रहपरमा अन्तरग्रन्धानग्रहप्रधाना भवन्तीत्यतो निग्रंथा
जाणगसरीरभविए, तनहरिते यशिएहशादी। उच्यन्ते ।
भारम्पिणियो खन्न, पंचविडो होइशाययो ।।३३॥निक ५०
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( २०३४ ) अभिधानराजेन्द्रः ।
ग्गिंथ
( जाएगसरीरभविए ति ) शशरीरनिग्रन्थो, प्रव्यशरीरनिर्मन्थश्च । पश्चात्कृत पुरस्कृत निर्ग्रन्थ पर्यावतयाऽयं घृतकुम्भ इत्यादिन्यायतः प्राग्वद्भावनीयः । तदूव्यतिरिक्तश्च निवाऽऽदि
| मादिशब्दात्पार्श्वस्थाऽऽदिपरिग्रहः । नावनिर्ग्रन्थोऽप्यागमतो, नो भागमतश्च तत्राऽऽगमतस्तथैव । नो आगमतस्तु स्वत पवाऽऽह निर्मुक्तिकृत् भावे निर्ग्रन्थः, खलुर्वाक्यालङ्कारे, पञ्चविधः पञ्चभेदो भवति ज्ञातव्य ति गाथाऽर्थः । उ० ( पाईटीका ) ६ श्र० ।
(५) पचविधनिर्ग्रन्थस्वरूपं चेदम्
कइ पणं नंते ! नियंत्रा पत्ता । गोयमा ! पंच पियंका पणता । तं जहा - पुलाए, बनसे, कुसीजे, णियंत्रे, सिणाए ।
( नियंठ त्ति ) निर्गताः सबाह्याभ्यन्तरप्रन्यादिति निर्ग्रन्थाः लाघवः, एतेषां च प्रतिपन्नसर्वविरतीनामपि विचित्रचारित्रमोहनीय कर्मक्कयोपशमादिकृतो भेदोऽवसेयः । तत्र - ( पुलाए चि) पुलाको निःसारो धान्यकणः, पुलाकवत्पुल्लाकः संयमसारापेकया, स च संयमवानपि मनाक तमसारं कुर्वन् पुलाक इत्युच्यते । (वनले ति ) वकुशं शव, कर्बुरमित्यनर्थान्तरम्, ततश्च वकुशसंयमयोगाद्वकुशः । ( कुसीले ति ) कुत्सितं शो चरणमस्येति कुशीलः । ( नियंत्ति ) निर्गतो प्र थाम्मोहनीय कर्मी ssख्यादिति निर्ग्रन्थः । ( सिणाए त्ति ) स्नान तश्व स्नातो घातिकर्मल क गमन पटल कालनादिति । न० २५ श० ६ उ० ।
तो यिंग पोसोवउत्ता पाएणचा । जहा - पुलाए, नियंत्रे, सिखाए । तत्र यिंग सघ-पोसपोवउत्ता पणत्ता । तं जहा - वनसे, पामलेषणाकुसीले, कसायकुसीले ।
( तो इत्यादि) निर्गता ग्रन्थात् सबाह्याभ्यन्तरादिति निर्म स्थाः संयताः,' नो 'नैव, संज्ञायामाहा राज्यभिलापरूपायां, पू. र्षानुभूतस्मरणानागतचिन्ता द्वारेणोपयुक्ता ये ते नोसोपयुक्ताः, तत्र पुलाको लब्ध्युपजीवनाऽऽदिना संयमासारताकारको ब क्ष्यमाणलकणः, निर्ग्रन्थ उपशान्तमोहः, कीणमोदो वेति 1 स्नात को घातकर्ममा सनावाप्तशुरू ज्ञानस्वरूपः । तथा त्रय एव संज्ञोपयुक्ताः, नोसोपयुक्ताश्चेति संकीर्ण स्वरूपाः, तथा स्वरूपस्वात् । तथा चाऽऽह (सन्न नोसन्नोवउत्त त्ति) संज्ञा चाहाराssदिविषया, नोसंज्ञा च तदभावलकणा । संज्ञानासंके, तयोरुपयुक्ता इति विग्रहः । पूर्वहस्त्रता प्राकृतत्वादिति । तत्र वकुशः श
रोपकरणविभूषाऽऽदिना सबलचारित्रपटः, प्रतिसेवनया मूल गुणाऽऽदिविषयया कुत्सितं शीलं यस्य स तथा । एवं कषायकु शील इति । स्था० ३ ० २ उ० । ध०र० । घ० । पं० भा० । पं० चू० | दर्श० । ( पुलाकाऽऽदीनां व्याख्या स्वस्वस्थाने ) (६) पते पुत्राकादयः पञ्च निर्ग्रन्धविशेषा एभिः संयमाssiveनुगमविकल्पैः साध्या प्रवन्तिपात्रण देय रागे, कप्प चरित पविणा लाये । तित्थे लिंग सरीरे, खित्ते काझे गति संजम विकासे ॥ १ ॥
ग्गिंथ
जोगुवयोग कसाए, लेसा परिणाम बंध वेदे य । कम्मोदीरण उवसं - पजहासमा य आहारे ॥ २ ॥ जब आगरिसे कालं - तरेय समुधाय खेत्त फुसणा य । परिणामे खलु, अप्पाबहुयं प्रियंगणं ॥ ३ ॥ ज० २५ श० ६ उ० ।
(७) तत्र वेदद्वारे
पुनाए णं भंते! किं सवेयए होज्जा, अदेदए होज्जा ।। गोयमा ! सवेयर होज्जा, णो वेदर होज्जा । जइ सवेदए होज्जा किं इत्थविद होज्जा, पुरिसवेदर होज्जा, पुरिसण पुंसगवेयए होज्जा ? । गोयमा ! णो इत्थीवेयए होज्जा, पुरिसवेयर होज्जा, पुरिसपुंसगत्रेयए होज्जा । वउसे णं भंते! किं सत्रए होज्जा, वेदर होज्जा ।। गोयमा ! सवेदए होज्जा, यो अव होना । जइ सवेदए होज्जा किं इत्यीवेयए होज्जा, पुरिसवेयर होज्जा, पुरिसपुंसगवेयए होज्जा ।। गोमा ! इत्थं वेयर होज्जा, पुरिसवेयए होज्जा, पुरिस -
पुंसगवेयए होज्जा । एवं पडिसेवणाकुसीले वि । कसाय कुसीले भंते! किं सर्वेयए पुच्छा ? । गोयमा ! सवेयए वा होज्जा, वेदए वा होज्जा । जइ श्रवेदए होज्जा किं वसंत वेदर होज्जा, खीणवेदर होज्जा १ । गोयमा ! बसंत वेद वा होज्जा, खीणवेदए वा होज्जा । जड़ सवेदए होज्जा किं इत्थवेदए होज्जा पुच्छा है। गोयमा ! तिसुवि जहा बसे । णियंत्रे णं भंते! किं सवेदए पुच्छा ।। गोमा ! यो सवेदए होज्जा, वेदए होज्जा । जइ श्र वेद होज्जा किं वसंवेदए होज्जा, खीणवेदए वा होजा पुच्छा ? । गोयमा ! उवसंत वेदए वा होज्जा, खीणवेदए वा होज्जा । सिए णं भंते! किं सवेयए होज्जा । जहा नियंठेतहा सिलाए वि, वरं पो नवसंतवेदए होज्जा, खीवेद होज्जा |
पुलाकव कुशप्रति सेवनाकुशलानामुपशमक्कूपकश्रेण्योरजावात् । (नो इत्थवय त्ति ) स्त्रियाः पुलाकलब्धेरनावात् । (पुरिसनपुंगवेयर ) पुरुषः सन् यो नपुंसक वेद को वर्द्धितन्वाssदिनावात् । ( वेद वा होजा, खीणवेदव वा होज ति ) सुक्ष्मसंपराय गुणस्थानकं यावत्कषायकुशीलो भवति, स प्रमत्ताप्रमत्तापूर्वकरणेषु सवेदः, अनिवृत्तिवादरे तूपशान्तेषु क्षीणेषु वा वेदेष्ववेदः स्यात्, सूक्ष्मसम्पराये चेति । (नियं मित्यादि ) ( उवसंतवेयर वा दोजा, खीणचेयए वा होज ति ) श्रेणिद्वये निर्ग्रन्थत्वभावादिति । ( सिणार णमित्यादि ) ( णो उवसंत वेदर होजा, खीणवेदए होज त्ति) क्षपक श्रेण्यामेव स्नातकत्वभावादिति ।
(८) रागद्वारे
पुलाए णं भंते! किं सरागे होज्जा, वीयरागे होज्जा १ । गोयमा ! सरागे होज्जा, पो वीयरागे होज्जा, एवं० जाव
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(२०३५) णिग्गथ अनिधानराजेन्धः।
गिग्गंथ कसायकुसीले । णियंत्रेणं भंते! किं सरागे होजा पुच्छा ? | पुच्छा। गोयमाणो सामाश्यसंजमे वा होज्जा० जाव को गोयमा ! णो सरागे होज्जा, वीयरागे होज्जा । जय वीय-| सहुमसंपरायसंजमे वा होज्जा, अहक्खायसंजमे वा होजा। रागे होजा किं उसंतकमायवीयरागे होजा, खीणकसा- एवं सिणाते ति॥५॥ यवीयरागे होजा?| गोयमा ! उसंतकमायवीयर होज्जा, चरित्रहारं व्यक्तमेव। खीणकसायवीयरागे होज्जा। सिणाते एवं चेव, सावरंणो
(१०) प्रतिसेवनामारेउवसंतकसायवीयरागे होज्जा, खीणकसायवीयरागे होज्जा।
पुलाए णं भंते ! किं पमिसेवए होज्जा, अपमिसेवए (पुनाए णं ते! किं सरागेत्ति) सरागः सकषायः।
होज्जा । गोयमा ! पमिसेवए होजा, णो अपमिमेवए (७) कल्पद्वारे
होज्जा । जइ पडिसेवए होज्जा, किं मूलगुणपमिसेवए पुनाएणं भंते ! किं ठियकप्पे होज्जा,अट्टियकप्पे होज्जा?।
होज्जा, उत्तरगुणपमिसेवर होज्जा। गोयमा! मूलगुणगोयमा ! म्यिकप्पे वा होज्जा. अष्ट्रियकप्पे वा होज्जा ।
पमिसेवए होज्जा, उत्तरगणपमिसेवए होज्जा, मूलगुणपहिएवंजाब सिणाए। पनाए णं नंते ! किंजिएकप्पेहाजा,
सेवमाणे पंचएहं अणासवाणं अपयरं पडिसेवेज्जा,उत्तरथेरकप्पे होजा, कप्पातीते होज्जा ? । गोयमा ! णो
गुणपमिसेवमाणे दसविहस्स पञ्चवखाणस्स अप्लयरं पमि
सेवेज्जा । उसे णं पुच्छा। गोयमा! पमिसेवए होजा, जिणकप्पे होज्जा, थेरकप्पे होना, णो कप्पातीते होज्जा ।
णो अपमिसेवए होज्जा । जइ पमिसेवए होज्जा किं मुसव उसे णं ते पुच्छा ? । गोयमा! जिएकप्पे वा होज्जा,
गुणपडिसेवए होज्जा, नत्तरगुग पडिसेवए होज्जा ?। गो. थेरकप्पे वा होजा, णो कप्पातीते होज्जा। एवं पडिसेवणा
यमा ! णो मूगुणपडिसेवए होज्जा, नत्तरगुणपमिसेवए कुसीले वि । कमायकुसीले पुच्छा? | गोयमा ! जि
होज्जा । नत्तरगुणपमिसेवमाणे दसविहस्म पच्चक्खास्स माकप्पे वा होज्जा, थेरकप्पे वा होज्जा, कप्पातीते वा
श्रापयरं पमिसेवेज्जा। पमिसेवणाकुसीने जहा पुनाए । होज्जा । णियंठे णं पुच्छा ?। गोयमा! यो जिणकप्पे ।
कसायकुसीने पुच्छा ?। गोयमा ! णो पमिसेवए होज्जा । होज्जा, मो थेरकप्पे होज्जा, कप्पातीते होजा । एवं
एवं मियो वि । एवं मिणाते वि ॥ ६ ॥ सिगाए वि ॥४॥
(पमिसेवए त्ति) संयमप्रनिकमार्थस्य संज्वलनकषायोदया. (किंचियकप्पे इत्यादि) आचेटक्याऽऽदिषु दशसु पदे पुप्रथमप. त्सेवकः प्रतिसेवकः, संयमविराधक इत्यर्थः । (मूत्रगुण पमिश्चिमतीर्थकरसाधकः स्थिता पवाऽवश्य तत्वालनादिति । तेषां) सेवए प्ति) मूलगुणाः प्राणातिपातविरमणाऽऽदयः,नेयां प्रातिकस्थितकल्पःनत्र वा पुजाको भवेत् मध्यमतीर्थकरसाधवस्तु तेषु व्येन सेवकः मूल गुरणप्रतिसेवकः । एवमुत्तरगुणप्रतिसेवकोऽपि, स्थिताश्च मियताच स्थितास्थिताश्चेत्यस्थितकल्पः, तेषां तत्र नवरमुत्तरगुणाः दशविधप्रत्याख्यानरूपाः । (दसविदस्त या पुलाको प्रयत् । एवं सर्वेऽपि अथवा-कल्पो जिनकल्पः, स्थ- पश्चक्खाणस्पत्ति) तत्र दशविधं प्रत्याख्यानम्, 'अणागतमइ. विरकल्पतदू हित । तमाश्रियाह-(पुनाए णमंते ! कि कंत कोडीसहियं' इत्यादिप्राग्व्याख्यातस्वरूपम् । अथवाजिगकाश्त्यादि)(कप्पातीते ति) जिनकपस्थविरकल्पाच्या- "नवकारपोरिसीए " इत्याद्यावश्यकप्रसिद्धम् । (अपायर मन्यत्र । (कसायकुसीले णमित्यादि) (कप्पातीते वा होज त्ति)। पमिसेवेज्ज त्ति) एकतरं प्रत्याख्यानं विराधयेऽपलवणत्वाकल्यानीवाफपायकुशीलो भवेत् , कल्पातीतस्य ग्यस्थतीर्थ- च्चास्य पिण्डविशुद्धयादिविराधकत्वमपि सम्भाव्यत इति । करम्य सकपाययादिति । (नियंठे णमित्यादि)(कप्यातीते
(११)ज्ञानद्वारेहाँजति) निग्रन्या कल्यातीत एव भवेत, यतस्तस्य जिनकरूप- पुलाए णं भंते ! कइसु णागेसु होजा। गोयमा ! दोमु स्थधिरकल्पधी न सन्तीति ।
वा तिमु वा होज्जा, दोमु होजमाणे दोसु आनिणिबो(६) चरित्रद्वारे
हियणाणसुप्रणाणेसु होज्जा, तिमु होज्जमाणे तिसु पुनाए ॥ नंते : किं सामाइयसं जमे होजा, छेओवट्ठाव- आभिणिबोहियणागमुअणाण प्रोहिणाणेसु होजा । णियसंजमे होजा,परिहारविमुद्धियमंजमे होजा, सुहुमसं- एवं व उसे वि । एवं पमिसेवणाकुसीझे वि । कसायपरायसंजमे होज्जा, अहक्खायसं जमे होना ?। गोयमा !| कुसीले णं पुच्छा ?। गोयमा ! दोसु वा तिसु वा चउसु वा सामाइयसंजमे होज्जा, छेप्रोच छावणियमंजमे होज्जा, हो। होज्जा । दोसु होज्जमागे दोमु आनिणिबोहियपरिहारविमुछियसंजमे होज्जा, णो मुहममंपरायसंजमे णाणसुप्रणाणेसु होज्जा । तिमु होजमाणे तिमु आहोज्जा, णो अहक्खायसंजमे होजा। एवं वउसे वि । एवं| जिणिवोहियणाणसुअणाणोहिणाणेसु होउजा, अपडिसेवणाकुसीले वि । कसायकुमीझे एं पुच्छा। गोय. हवा तिसु आभिशिवोहियणाणसुअणाणमणपज्जवणामा ! सामाइयसंजमे चा होज्जा जाव सुहमसंपरायसंजमे णेमु होज्जा, चनसु होजमाणे चउसु आनिणिबोहिबा होज्जा, जो अहक्खायसंजमे होज्जा । णियंठे । याणाणोहिणाणमणपज्जवणाम होजा । एवं णिय
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(२०३६) गिग्गंध अभिधानराजेन्द्रः।
जिग्गंध ने वि । सिणाते पुच्छा। गोयमा ! एगम्मि केवल- माप गणु भंते ! किं ससिंगे इत्यादि) त्रिविधलिङ्गेऽपि नबेद पाणेसु होज्जा । पुलाए एं भंते ! केवश्यं सुयं महि
कम्यलिङ्गानपेकत्वाच्चरणपरिणामस्येति । जेज्जा ?। गोयमा ! जहणं हावस्स पुनस्स ततियं आ.
(१४) शरीरद्वारेवारवत्थु, उक्कोसेणं णवपुबाई अहिज्जेजा । वउसे णं | पुनार नंते ! कडमु सरीरेम होजा। गोयमा ! तिस पुच्चा ?। गोयमा ! जहोणं अट्ठ पवयणमायाओ, उक्कोसेणं
ओरालियतेयाकम्मएस होज्जा । व उसे णं भंते ! पुच्छा। दस पुन्नाई अहिज्जेज्जा । एवं पमिसेवणाकुसीले वि ।
गोयमा ! तिसु वा चउसु वा होज्जा, तिमु होज्जमाणे कसायकुसीले णं पुन्छा। गोयमा! जहमणं अट्ठ पवयण
तिम ओरानियतेयाकम्मएस होज्जा । चउम होज्जमाणे भायाओ, उकोसेणं चनद्दम पुबाई अहिज्जेज्जा । एवं
चउसु ओरालियवेउन्धियतेयाकम्मएम होज्जा । एवं णि वि। सिगाते पुच्चा ?। गोयमा! सुयवतिरित्ते
पढिसेवणाकुसीले वि।कमायकुसीले पुछा ? गोयमा! होज्जा ॥ ७॥
तिमु वा च नमु वा पंचम् वा होज्जा । तिमु होज्जमाणे आनि निबोधिकाऽऽदिकानप्रस्तावाद ज्ञानविशेषभूतं श्रुतं बि- तिसु ओरानियतेयाकम्मएमु होज्जा, चनम होजमाणे शेषेण चिन्तबन्नाह-(पुलाए ण त ! केघाइयं सुमित्यादि) चउमु ओरालियरब्धियतेयाकम्मएम होज्जा । पंचसु हो(जहणेणं अटु पवयणमायाश्रोत्ति) अष्टप्रवचनमातृपालनरूप.
ज्जमाणे पंचमु पोरानियवेचियाहारगतयाकम्मएम स्वाचारित्रस्य, तद्वतोऽप्रवचनमातृपरिझानेनाऽवश्य भावं, कानपूर्वकत्वाचारित्रस्य, तत्परिझानं च श्रुतादतोऽप्रवचन
होज्जा। णियो, सिणाप्रो य जहा पुलाभो ॥ १० ॥ मातृप्रतिपादनपर श्रुतं वकुशस्य जघन्यतोऽपि भवतीति । तय
शरीरद्वारं व्यक्तम्। "अहएदं पबयणमाईण" इत्यस्य यतिवरणमुत्र तत्सम्ना
(१५) केत्रधारेबते । यत्खुनरुत्तराध्ययनेषु प्रवचनमातृप्रनिपादननामकमध्यय
पुलाए णं ते! कि कम्पनूमीमु होला। गोयमा जम्मनं, तद् गुरुत्वाद्विशिएतरश्रुतत्वाचन जघन्यतः सम्भवतीति पसंतिनावं पडुच्च कम्मनूमीए होज्जा, णो अकम्मनूमीए बाहुख्याऽऽश्रयं चेदं श्रुतप्रमागं, तेन न मापतुषाऽऽदिना व्यभि
होजा। वउसे पुछा ?। गोयमा ! जम्मा संतिभावं पडुब बार इति ।
कम्मनूपीए होजा, णो अकम्मधुमीए हाजा । साहरणं (१२) तीर्थद्वारे
पमुच कम्म नुपीए होजना, अमम्मतमीए वा होना । एवं पुलाए गं भंते ! किं तित्ये होज्जा, अतित्थे होज्जा ? |
नाव मिणाए ॥ ११ ॥ गोयमा ! तित्थे होज्जा, यो अतित्थे होजा। एवं उसे
(बुलाए ण नंते ! कि कम्मभूमी ए इत्यादि)(जम्मणसंतिभावं पवि । एवं पटिखेवणाकुमीले वि। कसायकुसीले पुका।
दुध त्ति) जन्म उत्पादः, सद्भावश्च विवा कनकेत्रादन्यत्रतत्र वा गोयमा ! तित्ये वा होज्जा, अतित्थे वा होज्जा । जइ जानस्य,तत्र चरणजाबे नास्तित्वम्, एतयोश्च समाहारवन्धोऽतस्तनित्ये होना किंतित्ययरे होज्जा, पत्तेयबुके होजा ।
प्रतीत्य पुलाकः कम्मनुमौ भवेत, तत्र जावते,विहरति च तंत्रगोयमा ! तित्थयरे वा होज्जा, पत्तेबवुके वा होज्जा ।
वेत्यर्थः । अकर्मभूमौ पुनरसी न जायते, तरजातस्व चारित्रा
भावात्। न च तत्र वत्तते, पुनाकसम्धौ वर्तमानस्य देवाऽऽदिभिः एवं णिमंठे वि । एवं सिणाते ।। G॥
सहर्तुमशक्यत्वात् । वकुशसूत्र-(नो अकम्मतूमीए होज ति) ( कसायकुमालेत्यादि ) कषाय कुशील श्मस्थावस्थायां श्रकर्मभूमौ वकुशो न जन्मतो जनति, स्वकृतविहारत, पर. तीर्थकरोऽपि म्याद तस्तदपेकया तीर्थव्यवच्छेदे च तदन्योऽ. कृतविहारतम्तु कर्मभूम्यामकर्मभूम्यां च सम्नवसत्येनहे. बसौ स्वादिति, तदन्यापेक्रया च "अतित्थे वा होज त्ति"5- वाद-(साहरण पहुचेत्यादि) ८ च संहरणं वेत्रान्त. युच्यते । श्रत पवाऽऽह-“जदि तित्थे होज्जा, कि तित्थगरे राकेत्रान्तरे देवाऽऽदिनिनयनम् । दोज्जा" इत्यादि।
(१६) कालद्वारे(१३) लिङ्गद्वारे
पुलाए णं जंते ! किं प्रोमपिणीकाले होज्जा, नस्मप्पिाणीपुत्राए णं नं ! किं सलिंगे होज्जा, आणशिंगे हो
का होज्जा.णो ओसपिाणी णो उस्म पिणीकाझे होजा। कमा, गिहिलिंगे होज्जा । गोयमा ! दनझिंगं प
गोयमा ! ओसप्पिणीकाले वा होना, उस्मप्पिणीकाले मुच सलिंगे वा होज्जा, अणलिंगे वा होज्जा । जा
वा होज्जा,णो ओमविण। णो उस्मप्पिाणीकाझे वा होज्जा। बसिंग पमुख णियम सझिंगे होज्जा, एवं० जाव सि
जह ओसप्पिणीकाले होजा किं सुपमम्ममाकाले
होज्जा १, सुममाकाले होज्जा , मुषमनुस्समाकाले . लिहंविधायजावभेदात् । नत्र जावानिशानाऽऽदिएतच्च स्व. विजय इानाऽडिभावस्याहनामेव भावात् । द्रव्यालिन
होज्जा ३, दुस्सममसपाकाले होज्जा , उस्मगाकाले धाम्मलिङ्गपरजिलोदात्। तत्र स्वसि रजाहरणाऽऽदि ! पर |
होन्जा ५. दुस्समदुस्समाकाने होजा ६ । गोयमा ! लिङ्गं च द्विधा-कुतीथिकलिङ्ग, गृहस्थलिङ्ग चे यत प्राद-(पु. जम्मणं पमुच णो मुपमसुममाकाले होज्जा ?, गो
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(२०३७) विगंगथ अभिधानराजेन्कः ।
शिगंध सुसमाकाले होजा , सुसमवस्समाकाले वा होजा ३, भावं पमुच्च णो सुसममममापलिभागे दोज्जा । जहेव हुस्समसुसमाकाने वा होजा ४,यो दुस्समाकाले होजा पुलाए जाच दुस्समसुसमापलिभागे होज्जा। साहरणं पमुच ५, हो दुस्समदुस्समाकाले होजा ६ । संतिनावं पडुच्च
अपयरे पलिजागे होज्जा,जश्व उमे, एवं पमिसेवाणाकुसीले शो नुसममुसमाए होज्जा १, णो सुसमाए होज्जा १,
वि। एवं कसायकुसीले वि | पियंगे, सिणाओं य जहा इसमदुस्समाए होज्जा ३, दुस्समसुसमाए होज्जा ४. पुलाए; वरं एपसिं अभाहियं साहरणं नाणियन्त्र मेमं दुस्समाए होजा ए, णो दुस्समदुस्समाए होजा ६ । तं चेव ॥ १२॥ जदि उस्सप्पिलीकाले होज्जा किं दुस्समदुस्समाकाले विविधः कालोऽवसपिपयादिः। तत्राऽऽद्यद्वयं भरतैराबतयोः, होजा १, दुस्समाकाले होज्जा २, दुस्सममुममाकाले
तृतीयस्तु महाविदेह हैमवताऽऽदिषु । (सुममस्समाकाले वा होजा ३, मुसमदुस्समाकाले होज्जा ४, सुसमाकाले
होज त्ति) आदिदेवकाले इत्यर्थः । (दुस्सममुसमा काले बेति)
चतुर्थे अरके इत्यर्थः । उक्तात्समाच्या या उन्यत्राऽसौ जायते । होज्जा ५, सुसमदुस्समाकाले होजा ६ ? । गोयमा !
(संतिभावं पसुचेत्यादि) अवपिरायां सझावं प्रतीत्य तृती. जम्मणं पमुख णो दुस्सम पुसमाकाले होज्जा १, दुस्समा- यचतुर्थपञ्चमाऽऽरकेषु भवेत्.नत्र चतुर्थार के जातः सम्पञ्चमे ऽपि काले होज्जा २, दुस्सममुसमाकाले वा होजा , वर्सते, तृतीयचतुर्थारकसद्भावस्तु तज्जन्मपृचक इति । ( जह खुममस्समाकाले वा होज्जा ४, णो सुसमाकाले वा
उस्सप्पिणीत्यादि ) उत्सपियां द्वितीयतृतीय चतुर्थेवरकेषु
जन्मतो प्रवति, तत्र द्वितीयस्वाऽन्ते जायते, तृतीये तु चरणं होज्जा ५, यो सुसपमुसमाकाने वा होज्जा ६ । प्रतिपद्यते, तृतीयचतुर्थयोस्तु जायते, चरणं च प्रतिपद्यत इति । संतिनावं पमुच्च णो दुस्समदुस्समाकाले होज्जा १, सद्भावं पुनः प्रतीत्य तृतीयचतुर्थयोरेव तम्य सला, तयोरेर जो दुस्समाकाले होज्जा २, दुस्समसुसमाकाले होज्जा
चरणप्रतिपत्तरिति । (जश्णो श्रोसपिपणीत्यादि) ( सुसम३, मुममदुस्समाकाझे वा होज्जा ४, णो सुसमाकाले
सुसमापलिभागे त्ति)सुषममुषमायाः प्रतिभागः साहश्यं यत्र होजा ५, पो सुसमसुममाकाले होज्जा ६। जइ पो
काले स तथा । स च देवकुरूत्तरकुरुषु । एवं सुषमाप्रतिभागां
हरिवर्षरम्यकवर्षेषु, सुषमदुषमाप्रतिनागो हैमवतरण्यवतेषु, प्रोसप्पिणी को नस्सपिणीकाले होज्जा किं सुसमसुसमा- दुम्पमसुषमाप्रतिभागो महाविदेहेषु । (नियंठो, लिणाश्रो पसिनागे होज्जा १, सुसमापलिनागे होज्जा २, य जहा पुलाए त्ति) पती पुलाकवद्वक्तव्यो । विशेष पुनराहमुसमस्समापलिभागे होज्जा ३, दुस्सममुसमापनिभागे
(नवरं पपसिं अभहियं साहरणं जाणियध्वं ति) पुलाकहोजा?। गोयमा ! जम्भणं संतिभावं पमुच्च णो
स्य हि पूर्वोक्तयुक्त्या संहरणं नास्त्येतयोश्व तत्सम्नवतीनि
कृत्वा तद्वाच्यं, संहरणद्वारेण च यस्तयोः सर्वकालेषु सम्भमुमममममापलिनागे होज्जा १, पो सुसमापालिनागे चोऽसौ पूर्वसंहतयोनिग्रन्थस्नातकत्वप्राप्ती एव्यः, यतो नापहोना २, णो सुसमस्समापनिजागे होज्जा ३, गतवेदानां संहरणमस्तीति । यदाह-"समणीमवगयवेयं, प. दुस्सममुसमापन्निभागे होज्जा । बनसे ण नंते !
रिदारपुलायमप्पमत्तं च । चोइसटिव आहा-रगं च न य को पुच्चा। गोयमा मोसप्पिणीकाले वा होज्जा. नस्सप्पि
६ संहर॥१॥" ति। णीकाले वा होज्जा, णो ओसप्पिणीकाझे वा होज्जा,णो
(१७) गतिद्वारे सौधर्माऽऽदिका देवगतिरिकाऽऽदयस्तो.
दास्तदायुश्च पुलाकाऽऽदीनां निरूप्यतेउस्सप्पिणीकाले वा होज्जा। जइ ओसप्पिणीकाले होज्जा पुलाए ण भंते ! कालगए समाणे कं गति गरछा ।। किं मुसमसुसमाकाले वा होज्जा पुच्छा । गोयमा! जम्मणं गोयमा ! देवगति गच्च । देवगति गच्छमाणे किं जवणमंतिभावं पमुच्च णो सुमपमुखपाकाले होज्जा १, णो वासी उवव जेज्जा, वाणमंतरेसु नरवज्जेम्जा, जोसिय. सुसमाकाले होज्जा २, सुममदुस्समाकाले होज्जा ३, 3- वेमाणिएमु नववज्जेज्जा। गोयमा! णो जवणवामीणोसमसुममाकाले वा होज्जा ४, दुस्समाकाले वा होज्जा | वाणमंतरणोनोसियवमाणिएम उववज्जेज्जा । - ए, णो दुस्समदुस्समाकाले होज्जा ६ । साहरणं पमुच्च माणिएमु नववज्जमाणे जहले सोहम्मे करपे, उकोसेगं अध्ययरे समाकाले जदि ओसप्पिणीकाले होजा किं दुस्त- सहस्सारे कप्पे उववज्जेज्जा । उसे एवं चेत्र, गवर मनुस्सयाकाले होज्जा ?। गोयमा ! जम्मणं पमुच्च णो उकोमेषं अच्चुए कप्पे । पडिसेवणाकुमीले जहा वरी। दुस्समदुस्समाकाले होज्जा, जहेच पुलाए । संतिभावं पमुच्च कसायकुसीले जहा पुलाए, णवरं नकोसेणं आशुत्तरविमायो पुस्समदुस्समाकाले होज्जा । एवं संतिजावेण वि जहा। णेस य । णियंठे णं ते! एवं चेत्र, जावल्वेमाणिएसु उवपुलाए जाव को मुममसुप्तमाकाले होजा । साहरणं पसुच्च बजमाणे अजहप्ममणुकासं अणुत्तरविमाणेमु नववज्जेअएणयरे समाकाले होज्जा, जहा पो ओसप्पिणी पो जा। सिणाए णं भंते ! काझगए समाणे के गति गच्च. उस्सप्पिणीकाले होज्जा पुच्चा । गोयमा! जम्मणं संति- ति। गोयमा ! सिधगति गच्छति । पुवाए णं भंते !
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(२०३८) अभिधानराजेन्द्रः |
ग्गिंध
देवसु ववज्जमाणे किं इंदत्ताए नववज्जेज्जा, तायत्तीसगत्ताए उबवज्जेज्जा, लोगपालत्ताए नववज्जेज्जा, अहमिंदत्ताए उववज्जेज्जा । गोयमा ! अविराहणं पमुच्च ईदत्ताए उवत्रज्जेज्जा, सामाणियत्ताए उववज्जेज्जा, तायत्तीसगत्ताए उववज्जेज्जा, बोगपालत्ताए नववज्जेज्जा, लो अहमिंदत्ताए उववज्जेज्जा । विराहणं पमुच्च प्रायरेसु उववज्जेज्जा । एवं वनसे वि । एवं पमित्रणाकुसीले त्रि । कसायकुसीले पुच्छा है। गोयमा! अविराहणं पमुच्च इंदसाए वा ववज्जेज्जा ० जाव अहमिंदत्ताए उबवज्जेज्जा । विराहणं पडुच्च सायरेसु नववज्जेज्जा । णियंत्रे पुच्छा ।। गोयमा ! अविराहणं पडुच्च णो इंदत्ताए उनवज्जेज्जा० जात्र हो लोगपासताए नववज्जेज्जा, ग्रहमिंदत्ताए उववज्जेज्जा । विराहणं पडुच्च श्रपयरेसु उववज्जेज्जा | पुलागस्स णं भंते ! देवलोगेस उववज्जमा णस्स केवइयं कालं ठिई पत्ता ? | १ गोमा ! जहां पत्रिोत्रम पुहतं, उकोसेणं अट्ठारससागरोमाई | वसस्स णं पुच्छा ? । गोयमा ! जहोणं पलिओमपुत्तं, उक्कोसेलं वाषीसं सागरोपमाई । एवं पडिसेरणा कुसीलस्स वि । कसायकुसीलस्स पु
? । गोयमा ! जहणं पनिओवमपुहत्तं, उक्कोसेएणं तेत्तीस सागरोवमाई । टिस्स पुच्छा ? । गोयमा ! अजहध्यमणुको तेत्तीसं सागरोत्रमाई ॥ १३ ॥
तत्र च - ( श्रविराहणं परुश्च ति) अविराधना ज्ञानाऽऽदीनाम् । अथवा लब्धेरनुपजीवनादतस्तां प्रतीत्य अधिराधकाः सन्त इत्यर्थः । ( श्रपयरेसु उववज्जेज प्ति) भवनपत्यादीनामन्यसरेषु देवेषूत्पद्यन्ते विराधितसंयमानां भवनपत्याद्युत्पादस्यो कत्वात् । यश्च प्रागुक्तम्- "वेभाणिएसु उववज्जेज्जत्ति " तत्संयमाविराधकत्वमाश्रित्यावसेयम् ।
(१८) संयमद्वारे संयमस्थानानि तेषां चाल्पत्वादिचिन्त्यतेपुलागस्म णं ते! केवइया संजमट्टाणा पत्ता । गोयमा ! असंखेज्जा संजमद्वाणा पणत्ता । एवं० जाव कसायकुसीलस्म | नियंतस्स णं भंते ! केवइया संजमट्टाणा पत्ता ? | गोयमा ! एंगे अजमगुकोसए संजमट्ठाऐ पष्ठात्ते । एवं सिणायस्स वि । एएसि णं भंते ! पुत्रागवनसपमित्र कसायकुसीले णं नियंसियायाएं संजमडाणाएं करे कयरे० जात्र विसेसाहिया वा ? | गोयमा ! सव्वत्थोवे पियंठस्स सिणायस्स एगे अजहमको संजमट्ठाणे । पुलागस्स संजमाणा श्रसंखेज्जगुणा । वज्रसस्स संजमद्वाणा असंखेज्जगुधा । पमिसेवाकुसीस संजमद्वाणा असंखेज्जगुणा । कसायकुसीलस संजमहाला असंखेज्जगुणा ॥ १४ ॥
तत्र - (पुढागस्सेत्यादि ) संयमश्चारित्रं तस्य स्थानानि शुद्धिप्रकर्षकृता भेदाः संयमस्थानानि तानि च प्रत्येकं स
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णिग्गंथ
assकाशप्रदेशाग्रगुणित सर्वाऽऽकाशप्रदेश परिमाण पर्यवोपेता निप्रवन्ति, तानि च पुत्राकस्यासवेयानि भवन्ति, विचित्रत्वा चारित्रमोहनी यक्कयोपशमस्य । एवं यावत्कषायकुशीलस्य | ( एगे अजष्णमपुक्कोसर संजमट्ठाणे ति ) निर्मन्थस्यैकं सं. यमस्थानं भवति, कषायाणामुपशमस्य कयस्य चाविचित्रत्वेन शु. खैरेकविधत्वादेकत्वादेव च तदजघन्योत्कृष्टं, बहुष्वेव जघन्योत्कृष्टनाव सद्भावादिति । अथ पुलाकाऽऽदीनां परस्परतः संयमस्थानाल्पबहुत्वमाइ - ( पएस समित्यादि ) सर्वेभ्यः स्तोकं स र्वस्तोकं निर्ग्रन्थस्य स्नातकस्य च संयमस्थानं, कुतो यस्मादेकं किंभूतं तदित्याह - ( अजहोत्यादि ) एतच्चैवं शुद्धेरेकविधस्वात् पुलाकाssदीनां तूक्तक्रमेणा संख्येयगुणानि तानि कयोपशमवैचित्र्यादिति ।
(१६) अथ निकर्षद्वारम् - तत्र निकर्षः सन्निकर्षः पुलाकाऽऽदीनां
परस्परेण संयोजनं, तस्य च प्रस्तावनार्थमाहपुलागस्स णं भंते! केवइया चरित्तपज्जवा पण्णत्ता ? । गोयमाता चरितपज्जा पत्ता । एवं० जात्र सिणायस्स । पुलाए णं भंते! पुलागस्स माणसणिगाणं चरित्तपज्जवेहिं किं ही, तुल्ले, अन्भहिए ।। गोगमा ! सिय हीणे, सिय तुल्ले, सिय अन्भहिए । जइ हीरो अांत भागहीणे वा, असंखेज्जभागहीणे वा, संखेज्जभागहीणे वा, संखेज्जगुणवा, असंखेज्जगुणहीले वा, प्रांत गुणही वा ।
अनहिए तभागमन्भहिए वा, असंखेज्जभागमजहिए वा संखेज्जभागमन्नहिए वा, संखेज्जगुणमन्भहिए वा असंखेागुणमन्नहिए वा अतगुणमन्नहिए वा । पुझाए णं भंते ! उसस्त परद्राणसमिवासेणं चरितपज्जवेहिं किं होणे, तुझे, अन्नहिए । गोषमा ! होणे, यो तुल्ले, णो अन्भहिए अनंतगुणे । एवं पडिवणाकुसीले वि । कसायकुसीले समं ब्रह्मणवाडिए जदेव महाणे | नियंत्रस्त जहा वउसस्स । एवं सिणायस्स वि । उसे जंते ! पुलागस्स परद्वारास शिवगासेणं चरितपज्जवेहिं किं होणे, तुले, अब्भहिए ?। गोयमा ! कोहीले, यो तुसे, अन्नहिए, अनंतगुणमन्नहिए। वउसे एणं भंते ! वसस्स सट्टाणस्स समिगासेणं चरितपज्जवे हिं पुच्छा । गोयमा ! सिप होणे, सिय तुल्ले, सिय श्रब्भहिए । जइ हो छडा मिए । वउसे जंते ! पमिसेवणाकुसीलस्स परट्ठाण सगिासेणं चरित्तपज्जवेहिं किं होणे
डामिए। एवं कसायकुसीझस्स वि ? | उसे एणं जंते ! नियंस्म परासएिगा से गं चरिचपुच्छा ? । गोया हीरो, णो तुल्ले, णो अन्नदिए अांतगुणदये । एवं सिणायस्स त्रि । पमिसेवणाकुसीलस्स एवं चेत्र । वनसस्स वत्तव्या जाणियन्त्रा । कसायकुसीलस्स ससिगासेणं एस चैत्र वमवत्तव्त्रया, एवरं पुझाएण त्रि समं छाणत्रडिए । पियंठे णं भंते ! पुलागस्स परट्ठा
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(२०३९) अभिधानराजेन्द्रः ।
विग्गंथ
एस सिगासेणं चरित्पज्जवेहिं पुच्छा ? । गोया ! यो हीये, गो तुझे, अन्नाईए दिए। एवं० जान कसायकुसीझस्त शिजे जंतेटिस सचिगासेणं पुच्छा ? गोयमा! जो हो, तुझे यो अन्नदिए । एवं सिणायस्स वि । सिणार गं भंते ! पुलागस्स परद्वारासधिगा एवं जदा स्विचव्या तहा सि पायस्स वि जाणियन्त्रा० जाव सिलाए णं भंते! सिलायस सहाणमणिगाणं पुच्छा है। गोषमा ! यो हीने, तुले यो अन्तरि ॥
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लागस्यादि) (रि) परस्य सर्वविि पपरिणामस्य पर्यचामेदारिया
गलिच्छेद, विषमता वा सट्टणन्निगासेति स्वमात्मी यं सजातीयं स्थानं पर्ययाणामाश्रयः स्वस्थानं पुलाका53देः लाका तस्य सन्निकर्षः संयोजन स्वस्थानाकर्ष तेन किति विशुद्ध संस्थान वि सुतपापेा विशुतरसंयमस्थान तराः पर्यवाहीना हीनः (तुले स शुरूपयोग अति विप योगाभ्यधिकः । ( सिय ही ति ) अशुरू संयमस्थानवर्त्ति स्वात् तुति) एकसंयमस्थानवासिय अग्भदिप त्ति ) विशुरूतर संयमस्थान वर्त्तित्वात् । ( अनंतभागही ये किला सद्भावस्थापनया पुलाकस्योत्कृसंयम स्थानपर्यवार्थ दशसहस्राणि १०००। तस्य सर्वजीवानन्तकेन श परिमाणानि भागेन १०० द्वितीय तियोगिलाचरणपानाधिका
६६०० पूर्व प्रजातानि दश सहस्राणि ततोऽसौ सर्वजीवानन्तकनागद्दारब्धेन शतेन दीन इत्यनन्तभागहीनः (संवेगही से पूर्वोक
देश सदस्य ( १००००) लोकाऽऽकाशप्रदेशपरिमाणेनासङ्ख्यकेन कल्पनया पञ्चाशत्प्रमाणेन भागे हृते लब्धा द्विशती द्वितीय प्रतियोगिपुला कचरणपर्यवाग्रं नव सदस्राएय है। व शतानि ६००० | पूर्व भागलब्धा च द्विशती, तत्र प्रतिता आता दशसहस्राणि ततोलाका वा प्रदेशपरिमाणासंस्थेयकमागहारलग्धेन शतद्वयेन हीन इत्यसङ्कवेयभागही
(संभाग व चि) पूर्वोक्तकल्पित
शसहस्रस्य ( १०००० ) उत्कृप्रसङ्घयेय केन कल्पनया दशकपरिमाणेन भागे हुने सहस्रम द्वितीयप्रतियोगिताक चरणपर्याय नव] सहस्राणि २००० पूर्वनागल व सहर्ष प्रक्षितं जातानि दशसहस्वाणि कृष्टसङ्ख्येयकमा महारलग्प्रेम सहस्रेण हीन इति सङ्घदेवभागद्दीनः संखेगुणी व ति ) किलैकस्य पुलाकस्य चरणपर्यवानं कल्पनया
दशकं द्वितीयप्रतियोगिबुलाकर पर्वा च सहस्रं नयन कल्पनया दशकपरिमाणेन गुणकारेण दोनोऽनभ्यस्त इति संख्येयगुणदीन ( असं जगुणही
त्ति ) किलैकस्य पुलाकस्य चरणपर्यवार्थ कल्पनया सहस्त्रदशकं द्वितीय प्रतियोगिपुला कचरणपर्यवाग्रं च द्विशती, ततश्च लोकाऽऽकाशप्रदेशपरिमाणेना संख्येयफेन फल्पनया पञ्चाशत्प्रमान गुणकारण गुणो द्विवि
मिथ
को राजयदशमास च तेन लोकाऽऽकाशपरि माणसंख्येयकेन कल्पनया पञ्चाशत्प्रमाणेन गुग्ाकारेण हीन इति असंख्येयगुणहीनः । ( श्रगतगुणही वत्ति ) किलैकस्य पुलाकस्य चरणपर्यवाग्रं कल्पनया सहस्रदशकं द्वितीयप्रतियोगिलाचरणपाच शतम्
म्तकेन कल्पनया शतपरिमाणेन गुणकारेण गुणितः शतिको दिशाणि स च तेन सर्वजवान केन कल्पनया शतपरिमाणेन गुणकारेण हीन इत्यनन्तगुणहीनः । पत्रपधिकयस्थानक रेष भागापारगुण कारैव्र्याख्येयः । तथाहि एकस्य पुलाकस्य कल्पनया दश सहस्राणि चरणपर्यवमानं, तदन्यस्य नवशताधिकानि नत्र स हस्राणि ततो द्वितीयापेक्षया प्रथमो ऽनन्तनागाभ्यधिकः । तथा यस्य नवसहस्राण्यष्टौ च शतानि पर्यवार्थ, तस्मात्प्रथ मोऽसंख्येयजागाधिकः, तथा यस्य नव सहस्राणि चरणयेवार्थ, तस्मात्प्रथमः संख्येय भागाधिकः, तथा यस्य चरणपर्यंचा ग्रं सहस्रमानं तदपेकया प्रथमः संख्येयगुणाधिकः, तथा यस्य चरणपर्यवाद्विशती तदपेक्षयाऽऽयोऽसंख्येयगुणाधिकः, तथा यस्य चरणपर्यत्राग्रं शतमानं तदपेकयाऽऽद्योऽनन्तगुणाधिक इति । ( पुलाव णं भंते! उससेत्यादि ) (रा सेणं ति ) विजातीययोगमाश्रित्येत्यर्थः । विजातीयश्च पुला. कस्य वकुशाऽऽदिः, नत्र पुलाको कुशादू होनः, तथाविधवि शुद्ध्यभावात् । ( कसायकुसीक्षेणं समं कृठाणवाडर जहये सहांस बुलाकर पुकारा थाऽनिति तथा कषायकुशीला पेयाऽपि वाच्य इत्यर्थः । तत्र पुलाकः कषायकुशीलाकीनो वा स्यादविगुरू संगमस्थानवृतित्वात् तुल्यो वा स्यात्समानसंयमस्थानवृत्तित्वात् श्रधिको वा स्याच्छुद्धत रसंयमस्थानवृत्तित्वात् । यतः पुन्नास्य, कषाय कुशीजन्य च स जघन्यानि संयमानान्यनन्ती युगपदस्यानि तानि
गच्छनया
णामत्वात् व्यवच्छिन्ने च पुलाके कषायकुशील पत्रक पा संदेयानि संयमस्थानानि शुभारपरिणामन्यात ततः कषायकुशलता संयमस्थानानि ग
नायकपायकुलापानि संयमस्थानानि ग रात प्रतिसेवनाशीलो व्यवद्यिते कपायकुलप स्पेयानि संयमानानि ततः सोपे
ततो निर्ग्रन्थस्नातकावेकं संयमस्थानं प्राप्नुत इति । ( नियंठइस जहा वचसस्स त्ति ) पुलाको निर्ग्रन्थादनन्तगुणहीन इत्यर्थः, चिन्तितः पुन्नाकोऽवशेषैः जहाथ वकुराश्चित्यते- (बउसे समित्यादि) कुशः पुत्राकादनन्तगुणाभ्यधिक एव विशुद्ध तरपरिणामस्वात् कुखादीनाऽऽदिविचित्र तिसेवनाकपायकुशीलाभ्यामपि हीनाऽऽदिरेव, निर्ग्रन्थस्नातका भ्यां तु दीन पर्वो (वज्रसस्त वक्तव्त्रया जाणियति । प्रति सेवनाकुशीतस्तथा वाच्यो, यथा वकुश इत्यर्थः । कषायकुशीलोऽपि वकुशवाच्यः केवलं पुताकाद्वकुशोऽयधिक पोक्तः, सकषायस्तु षट्स्थानपतितो वाच्यो हीनादिरित्यर्थः, तपरिणामस्य पुलाकापेक्षया हीनसमाधिकस्वभावत्वादित (२०) अथवाचकारायामेव जुन्यादिभेदाला काssदिसंबन्धिनामपत्वाऽऽदि प्ररूपय नाह एएसि णं भंते ! पुलागस्स बनसपगिसेवाकुसीलक
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(२०४०) णिग्गंथ अभिधानराजेन्द्रः ।
लिग्गंथ सायकुसीझलियंगसिणाताएं जहएणुकोसगाणं चरित्तप- खीणकसायी होज्जा १। गोयमा ! जवसंतकसायी वा ज्जवाणं कयरे कयरे जाव विसेसाहिया चा ? । गोयमा !| होज्जा, खीण कसायी वा होज्जा । सिणाए एवं चेव, णवरं पुलागस्स कसायकुसीलस्स एएसिणं जहलगा चरित्तप- णो उपसंतकसायी होज्जा, खीणकसायी होज्जा ॥१०॥ उजवा दोएह वितुल्ला सम्बत्योवा पुलागस्स नकोसगा (सकसायी होज्जत्ति) पुलाकस्य कषायाणां यस्योपशचरित्तपज्जवा अएंतगुणा । वनसस्स, पमिसेवाणाकुसीलस्स मस्य वा भावात् । (तिसुदोज्जमाणे इत्यादि) उपशमश्रेय । एएसि एं जहणगा चरित्तपज्जवा दोण्ड वि तुझा
पयां क्षपक श्रेण्यां वा संज्वबने क्रोधे उपशान्ते क्षीणे था,
शेषेषु त्रिषु, एवं माने विगते द्वयोर्मायायां तु विगतायां सूक्ष्मअणंतमुणा । व उसस्स उक्कोमगा चरित्तपज्जवा अगंतगु.
सम्परायगुणस्थानके एकत्र लोभे भवेदिति । सा। पढिसेवणाकुसीबस्स नकोसगा चरित्तपज्जवा अणं
(२४) लेश्याद्वारेतगुणा, कसायकुमीयस्म नकोसगा चरित्तपज्जवा अणं.
पुलाए णं भंते ! किं सहस्से होज्जा, अनेस्से होना। सगुणा; णि यंठस्स, सिणायस्म य एएसि णं अजहषमणु
गोयमा ! सलेस्मे होज्जा, णो अलेस्से होज्जा। जसलेकोसगा चरितपज्जवा दोएह वि तुब्बा प्रणंतगुणा ॥१५॥
स्से होज्जा,से णं भंते ! कइमु लेस्सासु होजा। गोयमा ! (२१) योगद्वारे
तिसु वि सुचलेस्सासु होजा । तं जहा-तेउलेस्माए, पुलाए णं भंते ! किं सजोगी होज्जा, अजोगी होऊमा
पम्हसेस्माए, मुकलेस्साए । एवं वउसस्म वि । एवं मोयमा ! सजोगी होज्जा, जो अजोगी होज्जा । जइ सजो
पटिसेवाणाकुमीले वि| कसायकुसीले पुच्चा । गोयगी होज्जा किं माणजोगी होज्जा, वइजोगी होज्जा, कायजोगी होज्जा। गोयमा! मणजोगी वा होज्जा, बहजोगी वा
मा ! सलेस्से होजा, लो अलेस्से होजा । जह होजा,कायजोगी वा होज्मा । एवंजाव णियं। सिणार
सलेस्से होजा से णं नंते ! कइसु लेस्सामु होना ?। गो
यमा ! छलेस्माखु होज्जा । तं जहा-कएदलेस्माए० जाच पुच्छा। गोयमा! सजोगी वा होज्जा, अजोगी वा होना।
मुक्कलेस्माए । णियंठे पुच्चा । गोयमा ! मलेस्से होज्जा, जः सजोगी होज्जा किं मणजोगी होज्जा सेसं जहा पुला
णो अलेस्से होज्जा । जइ सोस्से होज्जा से | जने : गस्स ॥ १६ ॥ हायोगी शैलेशीकरणे ।
काम लेस्सा होना ?। गोयमा ! एगाए मुक स्वाए (२२) उपयोगहारे
होज्जा । सिणाए पुच्चा ?। गोयमा ! सलेस्से वा होज्जा, पुलाए णं भंते ! किं सागारोव उत्ते होन्मा, प्रणागारोव- अलेस्मे वा होज्जा । जइ समेस्मे होजा मे णं नंने! नते होज्जा । गोयमा ! सागारोवनते होन्जा, अजागा-
काम बेस्मामु होज्जा गोयमा! एनार परमसुकलेस्साए रोवउत्ते होज्जा । एवं जाव सिणाए ॥१७॥ होज्जा ॥१॥ टीका सुगमत्वान्न लिखिता।
(तिसु वि सुदलेस्सामु ति) भावलेश्वापेकया प्रशस्तासु (२३) कषायद्वारे
तिसपु पुलाकाऽऽदयत्रयो भवन्ति । कपायकुशीवस्तु षट्स्वपि पुनाए णं भंते ! किं मकसायी होज्जा, अकसायी होज्जा?
सकपायमेवाऽऽश्रित्य "पुवपडिवो पुण अस्पयरीप मेस्साए'
इत्येतदुक्तमिति सम्नाव्यते । ( पकाए परममुक्कलेम्साए ति) गोयमा ! सकसायी होज्जा, णो अकसायी डोज्जा। जर
शुक्लम्यानतृतीयभेदावसरे या बेश्यासा परम शुक्ला, अन्यदा सकसायी होज्जा सेणं ते! कइस कसाएस होज्जा ?।। तु शुक्लैव, साऽपीतरजीवशुक्ल लेश्याऽपेक्षया स्नातकस्व पर. गोयमा ! चउमु कोहमाणमायानोभेसु होना । एवं बउमे
मशुक्लेति । वि । एवं पडिसेवणाकुसीले वि । कमायकुसीझे णं पुच्छा।
(२५) परिणामद्वारेगोयमा ! सकसायी होज्जा, णो अकसायी होज्जा । जय पुलाए णं भंते ! किं वहमाणपरिणामे होजा, किं हीयसकमायी होज्जा से णं भंते ! कसु कसाएमु होज्जा । माणपरिणामे होज्जा,अवष्टियपरिणामे होना ?। गोयमा ! गोयमा ! चउसु चा तिसु वा दोमु वा एगम्मि वा होज्जा। वलमाणपरिणामे वा होज्जा, हीयमाणा परिणामे वा होता, चउसु होज्जमाणे च उसु संजलणकोहमाणमायामोजेम हो- अवट्टियपरिणामे वा होज्जा । एवं० जाव कमायकुसाझे। जा। तिमु होज्जमाणे तिसु संजलणमाणमायालोजेस हो- णियठे णं पुच्छा ?। गोपमा! वहमाण परिणामे होज्जा, जो जा । दोसु होज्जमाणे दोमु संजक्षणमायासोनेमु होज्जा। हीयमाणपरिणामे होज्जा, अवट्टियपरिणामे होज्जा । एवं एगम्मि होज्जमाणे एगम्मि संजन्नणलोनेसु होज्जा। णियं- सिणाए वि ।। ठे णं पुच्छा । गोयमाणो मकसायी होज्जा, अकसायी (वकुमाणपरिणामेत्यादि) तत्र बर्द्धमानः शुद्वरुक गच्चन, होना । ज अकसायी होज्जा कि उपसंतकसायी होना, I हीयमानस्त्वपकर्ष गच्चन, अवस्थितस्तु स्थिर इति । तत्र निव
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( २०४१ )
अभिधानराजेन्मः ।
ग्गिंथ
म्यो हीयमानपरिणामो न प्रबति, तस्य परिणामहानौ कषाकुशीलव्यपदेशात् । स्नातकस्तु हानिकारणाभावाच हीयमानपरिणामः स्यादिति ।
(२६) परिखामाधिकारादेवेदमादपुलाए णं भंते! केवइयं कालं वनुमाणपरिणामे होज्जा ? । गोमा ! जहणं एकं समयं, नकोसेणं अंतो मुदुतं । केवइयं कालं दीयमाणपरिणामे होज्जा ? । गोयमा ! जहष्येणं एकं समयं उकोसेणं अंतो मुहुत्तं । केत्रइयं कालं भवडिय परिणामे होज्जा ? । गोयमा ! जहां एकं समयं, नकोसेणं सत्त समया । एवं० जाव कसायकुसीले वि । नियंठे भंते! केवइयं कालं वकुमाणपरिणामे होज्जा ।। गोयमा ! जहणणं तो मुहुतं, उक्को सेणं त्र्यंतो मुहुत्तं । केत्रइयं कालं
डिपरिणामे होज्जा ।। गोयमा ! जहां एकं समयं, उक्को से तो मुद्दत्तं | सिणाए णं जंते ! केवश्यं कालं वष्टुमालपरिणामे होज्जा ?। गोयमा ! जहणणं अंतो मुहतं, कोसेण वि तो मुहुत्तं । केवश्यं कालं वडियपरिणामे होज्जा ? । गोयमा ! जहएरोणं अंतो मुद्दत्तं, उक्कोसेलं देसूपाई पुब्वकोडी ॥ २० ॥
( पुलाए समित्यादि ) तत्र पुलाको वर्द्धमानपरिणामकाले कषाय विशेषेण बाधिते तस्मिस्तस्यैकाऽऽदिकं समयमनुभवतीत्यत उच्यते - जघन्येनैकं समयमिति । (चक्को सेणं श्रतो मुहुसंति ) एतत्स्वभावत्वाद्वर्द्धमानपरिणामस्येति । एवं वकुशप्रति• सेवनाकुशील कषाय कुशीलेष्वपि, नवरं चकुशादीनां जघन्यत एकसमयता मरणादपीष्टा, न पुनः पुल। कस्य, पुलाकस्य पुत्राकरवे मरणाभावात् । स हि मरणकाले कषायकुशीलत्वाऽऽदिना परिणमति, यश्च प्राक् पुलाकस्य कालगमनं तद् भूतभावापेक्षयेति। निर्व्रन्थो जघन्ये नोत्कर्षेण चान्तर्मुहूर्त्त वर्द्धमानपरिणामः स्या त्, केवलानोत्पत्तौ परिणामान्तरभावात्, अवस्थितपरिणामः पुनः निर्ग्रन्थस्य जघन्यत एकं समयं मरणात्स्यादिति । ( सिणा णं भंते ! इत्यादि ) स्नातको जघन्येतराभ्यामन्तर्मुहूर्त वर्कमानपरिणामः, शैलेश्यां तस्यास्तत्प्रमाणत्वात् । श्र वस्थित परिणामकाले ऽपि जघन्यतस्तस्यान्तर्मुहूर्तम् । कथम् ?। उच्यते यः केवलज्ञानोत्पादानन्तरमन्तर्मुहूर्तमवस्थितपरिणामो भूत्वा शैलेशीं प्रपद्यते तदपेक्षयेति । ( चक्को सेणं देसूणाई पुब्वकोडी ति) पूर्व कोट्यायुषः पुरुषस्य जन्मतो जघन्येन नवसु वर्षेष्वतिगतेषु केवलज्ञानमुत्पद्यते, ततोऽसौ तद्नां पूर्वकोटीमवस्थितपरिणामः शैलेशीं यावद्विहरति, शैलेश्यां च वईमानपरिणामः स्यादित्येवं देशोनामिति ॥ (२७) बन्घद्वारे
पुलाए णं भंते ! कइ कम्मपगडीओ बंधइ १ । गोयमा ! झाउयवज्जाओ सत्त कम्मपगमीओ बंधइ । वज्रसे पुच्छा ? | गोयमा ! सत्तविहबंधए वा अट्ठनिहबंधए वा सच बंधमाणे उयजाओ सत्त कम्पपगडीओ बंध, ग्रहबंधमाणे पछि अट्ठ कम्पपगमीओ बंध | एवं पमिसेवाकुसीले त्रि । कसायकुसीले पुच्छा ! । गोयमा !
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णिग्गंथ विधवा, विहबंध वा, बब्बिहबंध वा, सतबंधमाणे प्रायवज्जाओ सत्त कम्मपगडीओ बंधर, ग्रह बंधमाणे परिपुमाओ ट्ट कम्मपगमीओ बंधा । छगंधमाणे चाय मोहणिज्जवज्जामो छ कम्मपगडीओ बंधइ । पियंवे पणं पुच्छा ? । गोयमा ! एगे वेयणिज्जं कम्मं बंध । सिलाए णं पुच्छा ।। गोयमा ! एगविहबंधए वा, प्रबंधए वा । एगबंधमाणे एगं बेयणिज्जं कम्पं बंधइ ।। २१ ।।
( आउयवज्जाश्रोति) पुनाकस्याऽऽयुर्बन्धो नास्ति, तद्बन्धाव्यवसायस्थानानां तस्याभावादिति । ( वडसे इत्यादि ) त्रिभागाssवशेषाऽऽयुषो हि जीवा श्रायुर्बध्नन्तीति । त्रिभागयाssदी तन बध्नन्तीति कृत्वा वकुशाऽऽदयः सप्तानामष्टानां वा कर्मणां बन्धका जवन्तीति । (बंधमाणे इत्यादि) का वकुशीलो हि सूक्ष्मसंपरायत्वे आयुर्न बध्नाति, अप्रमतान्तत्वात् तदूबन्धस्य, मोहनीयं च बादरकषायोदयाभावान्न बनातीति शेबाः पडेवेति । ( एगे वेयणिज्जं ति ) निर्ग्रन्थो वेदनीयमेव बध्नाति बन्धहेतुषु योगानामेव सद्भावात् । ( अबंध व त्ति ) अयोगी बन्धहेतूनां सर्वेषामनावादबन्धक एवेति ॥ (२८) वेदनद्वारे -
पुलाए भंते! कइ कम्मपगमीओ वेदे ?। गोयमा ! पियह कम्मपगमीओ वेदेइ, एवं० जात्र कसायकुसीले । नियंते पुच्छा ।। गोयमा ! मोहाणिज्जवज्जाओ सत्त क म्मपगमी । सिलाए एं पुच्छा ? गोयमा ! वेयणिज्जप्रायणामगुत्ताग्रो चत्तारि कम्मपगमी श्री वेदेइ || २२|| ( मोहणिज्जवज्जाओ ति ) निर्ग्रन्थो हि मोहनीयं न वेदयति, तस्योपशान्तत्वात् कीणत्वाद् वा । स्नातकस्य तु घातिकर्मणां की सत्वाद्वेदनीयादीनामेव वेदनमत उच्यते - (वेयणिज्जेत्यादि) (२६) उदीरणाद्वारे
पुलाए णं भंते! कइ कम्मपगडीओ उदीरे ? । गोयमा ! प्राउयवेयरिज्जवज्जाम्रो ब कम्मपगमीओ उदीरेइ । बजसे णं पुच्छा ? । गोयमा ! सत्तविहउदीरए वा,
नदी वा व्विहनदीरए वा, सत्तविहउदीरेमाणे आयवज्जाओ सत्त कम्मपगडीओ उदीरेश,
विउदीरेमाणे परिपुरण अट्ठ कम्मपगडीओ - दीरेश, बन्विहउदीरेमाणे आान्यत्रेय णिज्जवज्जाओ ब कम्मपगडीओ उदीरे । पडिसेवलासीले एवं चैव । कसायकुसीले पुच्छा !! गोयमा ! सत्तविहनदीरए वा, अट्ठविहउदीरए वा, बव्विहउदीरए वा, पंचविहउदीरए वा, सत्तविहउदीरेमाणे आउयवज्जाओ सत्त कम्मपगमओ उदीरेs, अडनदीरेमाणे परिपुरणाश्रो अटु कम्मपगडीओ उदीरेइ, छ उदीरेमाणे प्रायवेयणिज्जवज्जाओ छकम्मपगडीओ नदीरेइ । पंच उदीरेमाणे आउयवेयणिज्जमोह णिज्नवज्जाओ पंच कम्मपगमीओ उदीरेति । खियंटे
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(२०४१) णिग्गंध अभिधानराजेन्छः।
णिग्गंध व पुच्छा?। गोयमा! पंचनिहउदीरए वा,विहग्दीरए वा, बनते होजा ?। गोयमा ! णो सम्मोवउत्ते होज्जा । - पंच उदीरमाणे आउयवेयणिज्जमोहणिज्जवज्जायो पंच उसे णं भंते ! पुच्छा । गोयमा ! सपोवनुत्ते होज्जा, जो कम्मपगमी ओ नदीरेइ,दो उदीरेमाणे णामं च गोयं च न- सएणोवनते होज्जा । एवं पमिसेवणाकुसीले वि । एवं दीरेइ । सिणाए णं पुच्चा?। गोयमा दुविहनदीरए वा, म- कसायकुसीले वि । णियवे,सिणाए य जहा पुलाए ॥२५॥ एदीरए वा, दो उदीरेमाणे णामं च गोयंच उदीरेति ।२३॥ (सएणोवउत्ते ति) इद संज्ञा माहाराऽऽदिसंज्ञा,तत्रोपयुक्तः (प्राउयवेयणिज्जवजाप्रोत्ति) अयमर्यः-पुलाक मायुर्वे
कथञ्चिदाहाराऽऽद्यभिष्वङ्गवान् संज्ञोपयुक्तः, नो संझोपयुक्तस्तु दनीयप्रकृतीनोंदीरयति, तथाविधाभ्यवसायस्थानाभावात्,
माहाराऽऽापभोगेऽपि तत्रानभिषक्तः, तत्र पुनाकनिर्घन्धस्ना. किंतु पूर्व ते उदीर्य पुलाकतां गच्चति, एवमुत्तरत्रापि यो याः
तका नो संझोपयुक्ता भवन्त्याहाराऽऽदिघनभिष्वगात्। ननु प्रकृतीनोंदीरयति स ताः पूर्वमुदीर्य बकुशाऽऽदितां प्राप्नोति,
निर्ग्रन्थस्नातकावेवं युक्ती, वीतरागत्वात, न तु पुलाका,सरागस्नातकः सयोग्यवस्थायां तु नामगोत्रयोरेवोदीरकः, मायुर्वेद
स्वात, नैवं, नदि सरागत्वे निरभिष्वक्ष्मता सर्वथा नास्तीति नीये तु पूर्वोदी एणे एव, भयोग्यवस्थायां स्वनुदीरक एवेति ।
वक्तुं शक्यते, वकुशाऽऽदीनां सरागत्वेऽपि निःसताया अप्रति(३०) 'उवसंपन्जहम्म तिहारे
पादितत्वात् । चूर्णिकारस्वाह-"नो सपणा नाणसरण ति।"
तत्र च पुलाकनिम्रन्थस्नातका नोसकोपयुक्ता ज्ञानप्रधामोपुनाएपंतेपुलायत्तं जहमाणे किं जहति, किं उपसंप
पयोगवन्तो न पुनराहाराऽऽदिसंझोपयुक्ताः। वकुशाऽऽइयज्जइ । गोयमा! पुलायत्तं जहति, कसायकुसीनं वा असंजमं | स्तूभयथाऽपि तथाविधसंयमस्थानस्वभावादिति । वा नवसंपज्जइ । वनसे नंते ! वउसत्तं जहमाणे किं
(३२) आहारकद्वारेजहति, किं नवसंपज्जइ । गोयमा ! वउसत्तं जहति, पमिसे- पुलाए णं भंते ! किं पाहारए होजा, अणाहारए होवणाक़सीखं वा कसायकुसीलं वा असंजमं वा संजमा
ज्जा ? । गोयमा! आहारए होज्जा, णो अणाहारए होसंजमं वा उपसंपज्जा । पमिसेवाणाकुसालेणं ते ! पु
ज्जा। एवं० जावणियंठे। सिणाएणं पुच्चा। गोयमा! चा ?। गोयमा ! पमिसेवणाकुसीलतं जहति, वउस श्राहारए वा होज्जा, अणाहारए वा होना ॥ २६॥ वा कसायकुसीनं वा असंजमं वा संजमासंजमं वा उव
(श्राहारए दोज ति) पुलाकाऽऽदिनिग्रंन्धान्तस्य विग्रहग.
स्यादीनामनाहारकत्वकारणानामनाबादाहारकत्वमेव । (सि. संपज्जइ । कसायकुसीले पुच्चा?। गोयमा! कसायकुसील
जाए इत्यादि ) स्नातकः केवलिसमुग्घाते तृतीयचतुर्थपसं जहति, पुत्राय वा बउसं वा पमिसनणाकुसीनं वाणि
श्रमसमयप्वयोग्यवस्थायां चानाहारकः स्यात्, ततोऽन्यत्र यंवं वा असंजमं वा संजमासजम वा उपसंपज्जा ।। पुनराहारक इति। णियंवेणं पुच्छा । गोयमा! णियंठतं जहति,कसायकु
(३३) नवद्वारेसीलं वा सिणात वा असंजमं वा उपसंपन्जा। सिपाए
पुलाए णं भंते ! का नवग्गहणाई होना ?। गोयमा ! णं पुच्छ।?। गोयमा! सिवायत्तं जहति, सिछगतिं उपसं
जहएणणं एकं नवग्गणं, उक्कोमेणं तिमि । वनसे एं पज्ज ॥२४॥
पुच्चा गायमा! जहलोणं एकं, नकोसेणं अट्ठा एवं पउपसम्पपसम्पत्तिःप्राप्तिः। (जदय सि)हान त्यागः,उपसं डिसेवणाकुसीले वि । एवं कसायकुसीले वि। णियंठे जहा पच्च हानं च उपसंपानं,कि,पुलाकत्वाऽऽदि त्यक्त्वा, किं,क
पुलाए । सिखाए ए पुच्छा। गोयमा! एकं ॥२७॥ कवायत्वाऽऽदिकमुपसम्पद्यते इत्यर्थः । तत्र (पुलाए णमित्या
(पुलाए णमित्यादि) पुलाको जघन्यत एकस्मिन भवग्रहणे दि) पुलाकः पुलाकत्वं त्यक्त्वा संपतः कषायकुशील पवन.
भूत्वा कपायकुशीलत्वाऽऽदिकं संयतत्यानन्तरमेकशोऽनेकशो पति, तत्सदृश संयमस्थानतस्तद्भावात् । एवं यस्य यत्सरशानि
पा तत्रैव भवे जवान्तरे वाऽवाप्य सिद्ध्यति, उत्कृष्टतस्तु देवा. संयमस्थानानि सन्ति,स तद्भावमुपसम्पद्यते, मुक्त्वा कषायकु.
ऽऽदिभवान्तरितान् श्री भवान् पुलाकत्वमवाप्नोति। (वनसे. शासाऽऽदीन् । कषायकुशीलो हि विद्यमानस्वसरशसंयमस्थान.
त्यादि)ह कश्चिदेकर भवे बकुशत्वमवाप्य कषायकुशीबकान्युनाकाऽऽदिनावानुपसम्पद्यते, अविद्यमानसमानसंयमस्था
स्वाऽऽदि च सिद्धयति, कश्चित्वेकत्रैव वकुशवमवाप्य नवान्तमकं च निर्ग्रन्थनावम, निग्रंन्यस्तु कषायित्वं वा स्नातकत्वं बा
रेषु तदम्यान्येवं सिद्भयतीत्यत उच्यते-(जहमेणं पकं भवम्गयाति, स्नातकस्तु सिद्धयत्येवेति । निर्ग्रन्धसूत्रे-“कसायकुसी.
हणं उनोसेणं अत्ति) किलाऽौ भवग्रहणान्युत्कर्षसंवा,सिणाय चा।" इह भावप्रत्ययलोपाकपायकुशीसत्वमि
तया चरणमात्रमवाप्यते, तत्र कश्चित् तान्यष्टी बकुशतया पयन्तित्यादि रश्यम । पर्व पूर्वसूत्रेवपि । तत्रोपशमनिर्ग्रन्थः श्रेणीतः
मभवे सकषायत्वाऽऽदियुक्तया, कश्चित्तु प्रतिभवं प्रतिसेवनाप्रव्यवमानः सकपायो नवति, श्रेणीमस्तके तु मृतोऽसौ देव.
कुशीलत्वाऽऽदियुक्तया पूरयतीत्यत उच्यते-(उक्कोसेणं भट्टति) स्वेनोपजेोऽसंयतो भवति नोसंयतासंयतो,देवत्वे तदभावात ।
(३४) अथाऽऽकर्षद्वारमयाविच अणिपतितोऽसौ संयतासंयतोऽपि भवति, तथापि मासाविहोकः, अनन्तरतया तदनाबादिति ।
पुलागस्स णं भंते ! एगनवग्गहणिया केवड्या भागरिमा (३१) संज्ञाद्वारे
पत्ता ?। गोयमा! जहएणोणं एको,नक्कोसेणं तिरिण । पुलाए ण जंते ! किसएणोबउते होज्जा. णो मायो-1 वउसस्त णं पच्छा गोयमा जहएण एक्का, उकास
राता
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(२०४३) निधानराजेन्द्रः ।
णिग्गंथ
हां सयम्स एवं पभिसेवाकुलेवि कसायकुसीले एवं चैव । टिस्स णं पुच्चा ?। गोयमा ! जहणणेणं एको, उक्कणं दो । सिणातस्स णं पुच्चा ।। गोयमा ! एको० । पुलागस्स वो भंते! लाखजनग्गणिया आगरि सापाचा है। गोयमा ! जघेणं दोटि, उको सेणं सच | बसस्स णं पुच्छा है। गोयमा ! जहोणं दो सि, उकासेणं सदस्य एवं जाय कसायकुसीलस्स नियंतस्स पुच्छा || गोषमा ! जहणं दोधि, उकोसेणं पंच । सिणातस्स णं पुच्छा है। यो एको चि ।। २८ ।।
/
1
तथाकर्षणाकर्षः चरित्र प्रसिरिति माय ति ) एकभवग्रहणे ये भवन्ति । ( लयग्गसोचि ) शतपरिमा जेनेत्यर्थः । तचयमिति भावना उच"तिसहस्स पुस दो सि" (उको से दोखिति) एकअ जवे वारद्वयमुपशमश्रेणिकरणादुपशमनिर्ग्रन्थत्वस्व द्वा: बाकर्षाविति । (पुलागस्सेत्यादि ) ( नाणाभवग्गहजियति ) मानाप्रकारेषु भवग्रहणेषु ये नयन्ता स्यर्थः । (जो दोशि सि) एक आकर्ष एकत्र भवे द्वितीयोऽभ्य त्रेत्येवमनेकत्र भवे आकर्णी स्वाताम्। (उको सस) पुलाकत्वमुत्कर्ष सत्रिषु भवेषु स्यात् कत्रच तो वायति । ततश्च प्रथमभवे एक आकर्षो ऽन्यत्र च नवद्वये त्रयस्त्रय त्यादिसि ते भवन्तीति सस्यादि) (उकांसे सहस्वमासीति) स्पाही भवन्युत्कर्षत बानि पत्र व भवग्रहणे उत्कर्षत आत्म. तत्र च यदाऽस्यपिठो न प्रत्येकमा कानि जयन्ति तदा नवानां शतानामष्टाभिर्गुणनात्सप्त सहस्राणि शतद्वयाधिकानि भवन्तीति ( नियंटस्सेस्यादि ) (उको पंच सि) निर्मन्थस्योत्कर्षतस्त्रीणि भवग्रहणान्युक्तानि, एकत्र च भवे द्वावाकर्षावित्येवमेकत्र द्वायन्यत्र च द्वावपरत्र चैकं रूपकनिर्मात्या कृत्या सिद्धयतीति पि (३५) कानद्वारेपुलाए णं भंते ! कालओ केवचिरं होड़ ? । गोयमा ! अहये तो मुडुचं उकोसे व तो मुदुषं । से पुच्छा। गोयमा ! जहोणं एकं समयं उकोसेणं देमूणाई पु
कोमी एवं पमिसेवणाकुसीले वि । कसायकुसीले वि एवं चैव । यिंठे णं पुच्छा ।। गोयमा ! जहसेणं एकं समयं, उकोसे
तो मुसिनाए ये पुच्छा। गोयमा जो तो मुहुत्तं, नकासेणं देसूणाई पुव्त्रकोमी । पुब्लागस्स घणं भंते! कालो केब चिरं होई। गोयमा ! जदोणं एवं समर्थ, कोसे तो मुषं बसणं ते! का? | गोयमा ! सव्व एवं० जाव कसायकुसीला | यिंग जहा 'लागा सियावा जहा वहसा ।। २५ ।।
(मियादि) (जहणं तो मुद्दति प्रतिपोऽन्तर्मुहुर्ता परिपूर्ती पुलाको नयिते, नाऽपि प्रतिपत. तीति कृत्वा जघन्यतोऽन्तमुहूर्तमित्युच्यते, उत्कर्षतो ऽप्यन्तर्मुहू· तत्मात्वादेतत्स्वभावस्येति (बले) (
पिच
णमेकं समयं ति ) वकुशस्य चरणप्रतिपश्यनन्तरसमय पत्र म संवादिति (देणा पुषकोटि सि पूर्व कोयुवरणप्रतिपसाविति । (नियंते णमित्यादि) ( जणं एवं समयं ति ) उपशान्तमोहस्य प्रथमसमयसमनन्तरमेव मरणसम्भवात् । ( उक्कोसेणं अंतो मुद्दति ) नि मैन्यकाया एतत्प्रमाणावादिति खिद
तो मुषं ति ) आयुष्कान्तिमान्तमुंह के जलोपन्मुंह से अघम्यतः स्नातककालः स्यादिति । पुलाकाऽऽदीनामेकत्वेन कालमानमुक्तम्। अथ पृथक्त्वेना (पुहागरणमित्यादि) जयन्येनैकं समयमिति । कथम् ? । एकस्य पुलाकस्य योऽन्तमुंहू का - नस्याभ्य समयेऽन्यपुत्राकत्वं प्रतिपन्न इत्येवं जघन्यत्वविवकार्या इयो: पुलाकयोरेकसमये सायो, द्वित्वे व जपन् पृथक्त्वं भवतीति । (डोसे तो मुतिपद्यपि पुलाका उत्कर्षत एकदा सहस्रपृथकत्वपरिमाणाः प्राप्यन्ते दाय बहुत्वेऽपि तेषामन्मे तरकाल के ब स्थिती यदा तदेकपुलस्थित्यन्त सन्महतरमित्यसेमकुशादीनां तु स्थितिकालः सोद्धा प्रत्येकं तेषां ब स्थितिवादिति (नियंाजा पुत्राग)। तथैवम्-ज
धन्य समयम
1
-
(11) -
पुसागस्स णं जये ! केव का अंत हो। गोपमा ! लहणं अंत मुहूचं बोसे का भयंताओ
पण उसपीओ कालो खचो अपोग्गल परियहं देणं, एवं० जाव शियंठस्म । सिणायस्म पुच्छ परिवरं पुलागा ते केइ कार हो । गोमा एवं समयं उमेश संखेन्नाई बसाई | वडसाणं जंते ! पुच्छा १। गोयमा ! णत्थि अंतरं एवं० जान कसायकुमलाएं। शिठार्थ पुच्छा है। गोवमा ! जहां एकं समयं उकोसेणं छम्मासा । सियायाणं जहा उसाणं ॥ ३० ॥
( पुलागस्स णमित्यादि ) तत्र पुलाकः पुलाको भूत्वा किय ता कालेन पुलाकत्वमापद्यते । उच्यते-अन्यत स्थित्वा पुनः पुलाक एव भवति, उत्कर्षतः पुनरनन्तेन कासेन लामाोति । कालानन्त्यमेव कालोन ड- ( अनंता इत्यादि ) इदमेव क्षेत्रतोऽपि नियमयन्नाह (बेसन इति ) स चानन्तः कालः केत्रतो मीयमानः किं मानामित्यादि) परावर्त पर्व भूते किल केनापि प्राणिमा प्रतिप्रदेशे विमान मरणैर्यावता कालेन लोकः समस्तोऽपि व्याप्यते तावता क्षेत्रतः पुलपरावर्ती भवति । स च परिपूर्णोऽपि स्वादत आह-पाईमप मतार्द्धम्माचमित्यर्थः पार्थोऽर्द्धतः पूर्णः स्यादत ह (त) देशेन नागेन न्यूनमिति । (स अंतर सि) प्रतिपाताभावात् एकत्वापेकृया पुलाकत्वादीनामन्तरमुकम् पृथकत्वापेक्षा तदेवाह माया नम त्यादि) व्यतम् ।
(३७) समुद्वारेपुनागस्स णं जंते । कइ समुग्धाया पचा है। गोयमा ! ति
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(२०४४) विगंथ प्रभिधानराजेन्द्रः।
णिग्गंध मि समुग्धाया पमत्ता । तं जहा-वेयणासमुग्याए, कसाय
(४१) परिमाणद्वारेसमुग्याए, मारणंतियसमुग्याए । वउसस्सणं भंते ! पुच्छा। पुलाया पं ते! एगसमएणं केवइया होजा। गोयमा! गोयमा! पंच समुग्घाया पयत्ता। तं जहा-वेयणासमुग्याए, | पमिवजमाणए पदुच्च सिय अस्थि, सिय णत्यि । जह
जाव तेयासमुग्याए । एवं पमिसेवणाकुसीले वि।कसायकु- होणं एको वा दो वा तिमि वा, नकोसेणं सयपुहत्तं । पुनसीलस्स पुच्छा । गोयमा छ समुग्धाया पहात्ता। तं जहा-वे | पमिवएणए पमुच्च सिग्र अस्थि, सिय एत्थि । जइ अस्थि यणासमुग्याए, पजाव पाहारगसमुग्धाए । णियवस्स गं| जहोणं एको वा दो वा तिएिण वा, नकोसेणं सहस्सपु. पुग्छ गोयमाणत्थि एको वि। सिणायस्स णं पुच्चा। हत्तं । बनसा णं भंते ! एगसमरणं पुच्चा?। गोयमा! पहिगोयमा! एगे केवलिसमुग्याए पामते॥३१॥
वज्जमाणए पहच्च सिय मस्थि, सिय णस्थि । जा अस्थि (कसायसमुग्घाए इत्यादि) चारित्रवतां संज्वलनकषायोदय. जहएणणं एको वा दो वा तिििण वा,उकोसेणं सयपुहत्तं। सम्भवेन कपायसमुद्धातो भवतीति । ( मारणतियसमुग्घाए पुनपमिवएणए पमुच्च जहणं कोमिसयपुहत्तं, उक्कोसण त्ति ) ह च पुलाकस्य मरणाभावेऽपि मारणान्तिकसमु.
वि कोडिसयपुहत्तं । एवं पमिसेवणाकुसीले वि । कसायबम्तो न विरुख,समुखातानिवृत्तस्य कपायकुशीसत्वाऽऽदिपरिजामे सति मरणानावात् । (नियंउस्स ति) ( नऽथि एको वि
कुसीलाणं पुच्चा | गोयमा पडिवज्जमाणए पमुच्च मिय ति) तथास्वभावत्वादिति ।
भत्थि, सिय णत्थि। जड़ अस्थि जहप्मेणं एको वा दो वा (३०) भथ केत्रद्वारम्
तिएिण चा, उक्कोसेणं को मिसहस्सपुहत्तं । पुवपमिवामए पुलाए एं भंते !लोगस्स किं संखेज्जडजागे होजा, अ
पमुच्च जहएणणं कोडिसहस्सपुहतं, उकोसेण वि कोडिसंखेज्ज इलागे होज्जा, संखेजेस जागेसु होज्जा, असंखे
सहस्तपुहत्तं ।णियंठा णं पुच्छा। गोयपा! पमिवज्जमाणए ज्जेसुजागेस होज्जा,सब्बलोए होज्जा ?। गोयमा ! णोसं
पमुच्च सिय अस्थि, सिय णत्थि । जइ अस्थि जहएणणं खेजश्नागे होज्जा, असंखेज्जइनागे होज्जा, णो संखे
एको वा दो वा तिमि वा, नकोसेणं वावटुं सतं, असायं ज्जेसु जागेमु होज्जा, असंखेजेसु जागेसु होज्जा, यो स
खवगाणं चनपएणं उवसमगाणं । पुचपमिवएणए पमुच्च व्वलोए होज्जा। एवं० जाव णियंठे। सिणाए णं पुच्छा।
सिय अस्यि, सिय पत्थि । जह अत्थि जहमेणं एको वा गोयमा ! णो संखेज्जश्नागे होज्जा, असंखेज्जनागे
दो वा तिमि वा, उक्कोसेणं सतपुहत्तं । सिणाता णं पुच्छा। होज्जा, णो संखेजे जागेमु होज्जा, असंखेज्जेसु जागेसु
गोयमा पमिवज्जमाण ए पमुच्च मिय अत्यि, सिय पास्थि । होज्जा, मव्वरोए वा होज्जा ॥३॥
जइ अस्थि जहएणणं एको वा दो वा तिएिणवा, उक्कोतत्र केत्रमवगाहनाकेत्रं, तत्र (असंखज्जाभागे होज ति) पुलाकशरीरस्य लोकासयन्नागमात्रावगादित्वात्। (सि.
सेणं अट्ठसयं । पुत्रपमित्रएणए पमुच्च जहणेणं कोदिपुजाए णमित्यादि) (असंखेज्जभागे होज ति) शरीरस्थो द.
इत्तं, नकोसेण वि कोमिपुहत्तं ।। ३५॥ एमकपाटकरणकाले च लोकासायन्नागवृत्तिः, केवनिशरीरा. (पुनाया णमित्यादि) ननु सर्वसंयतानां कोटिसहस्रपृथ
दीनां तावन्मात्रत्वात् । (असंस्खेज्जेसु भागेसु त्ति) मधिकर- त्वं श्रूयते । इह तु केवलानामेव कपाशीलानां तदुक्तं, ततः णकाले बहोलोकस्य व्याप्तत्वेन स्तोकस्य चाव्याप्ततयोक्त- पुलाकाऽऽदिमानानि ततोऽतिरिच्यन्त इति कथं न विरोधः । स्वाल्लोकस्यासोयेषु भागेषु स्नातको वर्तते, लोकापूरणे व उच्यते-कषायकुशीलानां यत्कोटिसहस्रपृथक्त्वं,तद द्वित्राऽऽदि. सर्वलोके वतेत इति ॥ ३२॥
कोटिसहस्त्ररूपं कस्पयित्वा पुझाकवकुशाऽऽदिसङ्ख्या तत्र प्र. (३६) स्पर्शनाद्वारे
वेश्यते, ततः समस्तं संयतमान यमु, तमातिरिच्यत इति । पुलाए णं भंते ! सबलोगस्स कि संखेज्जइभागं फुस,
(४२) अल्पमत्वद्वारेअसंखेज्जश्नागं फुसइ, एवं जहा ओगाहणा नणिया,तहा एएसि पं भंते ! पुलागव उसपमिसेवणाकुसीलकसायकुफुसणा विभाणियन्वा० जाब सिणाए ॥ ३३ ॥ सीलणियंवसिणाताणं कयरे कयरे०जाव विसेसाहिया वा। स्पर्शना केत्रवन्नवरं केत्रमवगाढमात्र, स्पर्शना त्ववगादस्य गोयमा ! सव्वत्थोवा णियवा, पुलागा संखेजगुणा, सितत्पार्श्ववर्तिनश्चोते विशेषः ॥ ३३॥
णाया संखेजगुणा, बउसा संखेज्जगुणा, पमिसेवणाकु(.) भावद्वारेपुलाए णं भंते ! कयरम्मि नावे होज्जा । गोयमा ! ख
सीला संखेज्जगुणा,कसायकुसीला संखेज्जगुणा ।। ३६ ॥
(सबथोवा णियंत ति) तेषामुत्कर्षतोऽपि शतपृथक्त्वसग्रोवसमिए नावे होज्जा, एवं० जाव कसायकुसीले । णियंठे
त्यत्वात् । (पुत्रागा संखेज्जगुण त्ति) तेषामुत्कर्षतः सहस्रपृ. पुच्चा ? गोयमा ! उपसमिए वा, वश्य वा जावे होज्जा।
थकवसङ्ख्यत्वात् । (सिणाया संखेजगुण ति) तेषामुत्कर्षतः सिणाए पुच्छा। गोयमा ! खइए नावे होज्जा ।। २४॥ कोटिपृथक्त्वमानत्वात् । (वउसा संखेजगुण त्ति) तेषामुत्कर्षभावद्वारंब्यक्तमेव ।
तः कोटिशतपृथक्त्वमानत्वात् । (पडिसेवणाकुसीला संखेजगु.
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(२०४५) अनिधानराजेन्ऊः ।
विगंथ
तेषामप्युक्तः कोटिशतमानक स्वयम् किन्तु कुशानां परकोटितादि कोटिशतमानं प्रतिसेविनां तु कोटिशतपृथक
तमानमिति न विरोधः । कषायिणां तु सख्यातगुणत्वं व्यक्तमेव, उत्कर्षतः कोटिसहस्रपृथक्त्वमानतया तेषामुक्तत्वादिति । भ० २५ ० ६ उ० । उस० [ 'अणगारधम्म' शब्दे प्र० भा० २७६ पृष्ठे, 'समणधम्म' शब्दे व कान्त्यादिर्निर्ग्रन्थधर्मो दृश्यः ] (४३) चत्तारि णिग्गंथा पष्ठत्ता । तं जहा - रायणिए सम
थे महाकम्पे महाकिरिए अथायावी समिए धम्मस्स अणाराहए जव १, रायणिए समये णिग्गंथे अपकम्मे
किरिए आयावी समिए धम्मस्स आराहए जबई २, ओमरायणि ममणे निसांधे महाकम्ये महाकिरिए अथा यावी समिए धम्मस्स अणाराहए जव ३, ओमरायापिए समने शिग्गंधे अप्पकम्मे अप्पकिरिए आयावी स पिए घम्पस राहए भवइ ४ ।
निर्गता बाह्याभ्यन्तरग्रन्थाद् निर्ग्रन्थाः साधवः, रत्नानि भावतो ज्ञानादीनि, सैर्व्यवहरतीति रातिकः, पर्यायज्येष्ठ इत्यर्थः, श्रमणो निर्ग्रन्थो, महान्ति गुरूणि स्थित्यादिभिस्तथाविधप्रमाणाऽऽद्य - निव्यानि कर्माणि यस्य स महाकर्मा | मदती क्रिया का विक्यादिका कर्मम्यस्य स महाकिया, न तापयति आतापनां शीताऽऽदिसहनरूपणं करोतीत्यनातापी, मन्दधद्धत्वादिति । श्रत एवासमितः समितिभिः । स चैवंभूतो धर्मस्यानाराधको भवतीत्येकः । श्रन्यस्तु पर्यायज्येष्ठ एवाल्पकर्मा लघुकर्मापकिय इति द्वितीयः । अन्यस्तु अवमो बघुः पर्यायेण रात्निकोऽयमरात्निकः । स्या० ४ ० ३ ० । निर्गतो मोहनीयकर्मलक्षणाद् प्रन्यादिति निर्ग्रन्थः । निर्ग्रन्थभेदे, म० २५ श० ६ उ० | प्रब० ।
(४४) स च पञ्चविधः प्रथमसमयाऽऽद्दि:
पियंत्रे पंचविदे पाते । तं जहा- पढमसमयणियंत्रे, अपढमसमपरिणयंत्रे, चरिमसमयशियंत्रे, अचरिमसभयरिणयंत्रे, अनुमणियंत्रे णामं पंचमे ।
निर्गतो प्रन्थान्मोहनीयाऽऽख्या सिन्धः कीलाकषाय उपशान्तमोहो वा, कालितसकल घाति कर्ममल पटलत्वात् । स्था० ५
ठा० ३४० ।
(४५) तओ ठाणा गिंथाल वा पिगंथीण वा अहियाए अमुहार अक्खमाए अस्पिसार प्रणाशुगामिवताए भवइ । तं जहा - कूअणया, ककरणया, अवज्झाणया । तो ठाणा किगंधान वा शिगंधी वा हियाए हाए मार णिस्तेयसाए, अणुगामियचाए भव तं जहा प्रकूपया
ककरणया, अपवज्जाणया ।
"तो" इत्यादि स्पष्टम् । किन्तु अहिताय अपथ्याय, मसुलाय दुःखाय, अक्षमाय अयुक्तत्वाय, अनिःश्रेयसाय अमोक्काय, अना गामिकावान भानुबन्धायेति जनता भार्तस्वरकरणम्, करणता शय्योपश्वादिदोषोद्भावनगर्भप्रलपनम् । अपध्यान
।
५१२
गिंच
माध्यायित्वमिति उपिस्था०३ aro ३ ० । (निर्ग्रन्थानां निर्मन्थानामेकत्र संक्सनं 'संवास ' शब्दे निषेत्स्यते)
'निर्ग्रन्धशब्दस्य विषयसूची
(१) निर्धन्यशब्दस्यापा यामहिरप पदोपद बाह्यान्तरपरिषत्वं निर्धस्य लक्षणमुक्कम (२) कोधाऽऽदे निगमानिर्गमाभ्यां कपकमेवमुप निर्ग्रन्थविचारः ।
(३) ये कषायैका निधास्तेषां पायाणां परा चतत्वेन निम्ह परमत्वं प्रसाध्य, सतामपि कषाया णामसत्कल्पना करणात् सरागसंयतत्वेन निर्मन्थत्वाभिधानम् ।
( ४ ) निर्ग्रन्थ निक्षेपे नामस्थापनाव्यभावानां मध्ये व्यस्वागमनकोन निर्मन्यत्रैविध्यं प्रय भव्यशरीराऽऽदिप्ररूपणम् ।
(५) पुलाकात मेहेन पनि स्वनिधान कानपु लाकाssiदेवरूपणानन्तरं संज्ञनो संझोपयुकावेन चादिमेम्
(६) पुलाकाऽऽदयः पञ्च निर्ग्रन्थविशेषा यैः साध्या भवन्ति तेषां निरूपणाय धारगाथाः ।
(3) वेदद्वारे पुलाकादीनां स्त्रीपुंसक वेदत्व प्ररूपणम् । (६) रावदारे बुलाकानां खरागीताविचारः तथा कल्पद्वारे तेषां तिकल्पाऽऽदिविवेकः । (1) परिवारेपुजाकाऽऽद्दीनां सामायिकशेपस्था पत्नीयादिनि ।
(१०) प्रतिसेवनाद्वारे प्रतिसेवकाप्रतिसेवका55दिविचारः । (११) द्वारे पुजाकादीनामाभिनिध
ननिरूपणम् ।
(१२) तीर्थद्वारे पुलाकाऽऽदीनां तीर्थातीर्थविचारः । (१३) लिङ्गद्वारे पुलाकाऽऽदीनां रूव्यभावलिगं प्रतीत्य सायणम
(१४) शरीरद्वारे पुढाकादीनामौदारिकवैक्रियाऽऽहारका 53दिनिरूपण ।
(१५) क्षेत्रद्वारे पुलाकाऽऽदीनां जन्मास्तिभाव प्रतीत्य, भूम्यकर्मभूमिप्ररूपणा ।
(१६) कालद्वारे पुलाकाऽऽदीनामवसर्पिएयुत्सर्पिणी कामाभिधानम् ।
(१७) गतिद्वारे पुजाकादीनां देवगत्यादिनिरूपणम् । (१८) संयमद्वारे कादीनां संस्थान निदर्शनम्। (१६) निकद्वारे पुजाकानां चरित्रपर्यवान प्रय परस्परेण हीनतुल्याभ्यधिकत्वकथनम् । (२०) पर्यवाधिकारात् तेषामेव जघन्याऽऽदिनेदानां खा कादिसंबन्धिनामन्यत्वादिप्ररूपणम् ।
(२१) योगद्वारे ुलाकाऽऽदीनां सयोग्ययोगित्वं प्रसाध्य, मनोवाक्काययोगित्वप्रसाधनम् ।
(२२) उपयोगद्वारे पुनाकाऽऽदीनां साकारानाकारोपयुक्तत्वविचारः ।
(२३) पापद्वारे पुलाकाऽऽदीनां सकपायापायत्वं प्रक प्यालोमादीनां विमर्शः ।
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(२०४६) णिग्गंथ भनिधानराजेन्द्रः।
पिगंधी (२) लेण्याद्वारे पुलाकाऽऽदीनां सलेश्यावश्यत्वं निरूप्य, निग्रन्धमत्रवत् । स्था०४०३ उ01 (निर्घन्ध्या अधिकारा य. कृष्णशुक्माऽऽदिलेश्यानिरूपणम् ।
थास्थानमुक्ताःवदयन्ते च । यथा 'गहण' शब्दे तृतीयभागे ८५९ (१५) परिणामद्वारे पुलाकाऽऽदीनां बर्थमानहीयमानाब | पृष्ठे पतन्त्याः प्रस्सन्स्या ग्रहणमुक्तम) स्थितपरिणामत्वप्रदर्शनम् ।।
नबरमिह(१६) परिणामाधिकारादेव जघन्योत्कर्षाऽऽदिभेदन कामनिरूपणम्।
छहिं ठाणेहिं णिग्गंथे णिग्गंथिं गिएहमाणे वा अवलंबमाणे (२७) बन्धद्वारे पुलाकाऽऽदीनां कर्मप्रकृतिबन्धविचारः । वा नाइक्कमइ । तं जहा-खित्ताचत्तं, दित्तचित्तं, जक्खाइई, (२८) वेदनद्वारे तेषामेव कर्मप्रकृतिवेदविमर्शः।
मम्मायपत्तं, नवप्लग्गपत्तं, साहिंगरणं । ६ ठा० एन । (२६) दीरणाद्वारे तेषामेव कर्मप्रकृत्युदीरणाऽभ्यबसायः।
(किप्तचित्ताऽऽदीनां प्ररूपणा 'खित्तचित्त' मादिशब्देषु द्रष्टव्या) (३०) अपसंपकानद्वारे पुलाकाऽऽदीनां पुलाकत्वाऽऽदित्या
चनहिं गणेहिं णिग्गये णिग्गथि पासवमाणे वा संलवगोपादाननिरूपणम् ।। (३१) संझाद्वारे पुलाकाऽऽदीनां संजोपयुक्तनोसंशोपयुक्तत्व |
माणे वा णाइक्कमइ । तं जहा-पंथं पुच्छमाणे, पंथं देसमाणे, विचारणम् ।
असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा दलयमाणे वा, द. (३२) माहारकद्वारे पुलाकादीनामाहारकानाहारकत्व- बावेमाणे वा। प्ररूषणम्।
"चउहि" इत्यादि स्फुट,किंतु मालपनीषत्प्रथमतया वा जल्पन्, (३३) भवारे पुलाकाऽऽदानां भवग्रहणनिरूपणम् ।
संलपन मिधोनाषणेन,नातिकामति न लायति निग्रन्धाचारम्(३४) आकर्षद्वारे जघन्योत्कर्षजेदेनाऽऽकर्षविमर्शः ।
"एगो पगस्थिए सद्धि,नेब चिन संलवे।"विशेषतः साच्या (३५) कालद्वारे पुलाकाऽऽदयः कियाचिरं भवन्तीति प्रति-| इत्येवं रूपं, मार्गप्रश्नाऽऽदीनां पुष्टाऽऽलम्बनत्वादिति । तत्र मार्ग पादनम्।
पृच्चन् प्रश्ननीयसाधर्मिकगृहस्थपुरुषाऽऽदीनामभावे-हे आर्य! (३६) अन्तरद्वारे जघन्योत्कर्षतः तेषामेवान्तरनिरूपणम्।
कोऽस्माकमितो गच्चतां मार्गः?,इत्यादिना कमेण,मार्ग वा तस्या (३७) समुद्घातद्वारे तेषां समुद्रातविचारः।
देशयन्-धर्मशाले!अयं मार्गस्ते इत्यादिना क्रमेण, अशनाऽऽदि च (३८) केत्रद्वारे संख्येयासंख्येयसबलोकाऽऽदिभवनभावना।
दददू-धर्मशीले गृहाणेदमशनाऽऽदीत्येवं, तथाऽशनाऽऽदिदापय(३६) स्पर्शनाद्वारे संस्येयासंख्येयभागेन स्पर्शनप्रतिपाद- नू-मायें दापयाम्येतत् तुत्यम् आगच्छेह गृहाऽऽदावित्यादिवि. नम।
धिनति। स्था०४ गा०२ उ०। (निग्रंन्यैनि प्रन्थिकानिश्च सह कायो(४०) भावधारे पुलाकाऽऽदीनां कायोपशमिकाऽऽदिभाव
त्सगों न कार्यः, इति ' ठाण' शब्देऽस्मिन्नेव भागे १६६५ विचारः।
पृष्ठे उक्तम्) (४१) परिमाणद्वारे तेषामेव परिमाणनिर्देशः। . (४२) अल्पबहुत्वद्वारे पुझाकाऽऽदीनामापात्वनिदर्शनम् ।।
सचेला निर्ग्रन्थी, अचेलश्च निन्धः सह संबसता(४३) निर्ग्रन्धानां प्रकारान्तरेण चातुर्विध्यम ।
पंचहिं ठाणेहिं समणे णिग्गंथे अचेलए सचेलियाहिं (४) प्रथमाप्रथमचरमाचरमसमययथासूचमनिर्ग्रन्धाऽऽदि-| णिगंशी समितो MITarat : नेदेन पञ्चविधत्वम् ।
चित्ते समणे निग्गंथे निग्गंथेहिं अविज्जमाणेहिं अचेल(४५) कूजनताकर्करणताऽपध्यानताऽऽदिनेदेन निर्ग्रन्थानां, निग्रन्धीनाममुखत्वाऽऽदि प्ररूप्य, सवैपरीत्येन सु.
भो सचेलियाहिं निग्गंधीहिं सकिं संवसमाणे नाइकम। खत्वादिनिरूपणम् ।
एसमेएणं गमएणं दित्तचित्ते, जक्खाश्हे, उम्मायपत्ते, निनैन्थ्य -न । निर्ग्रन्थानामिदं नर्ग्रन्थ्यम् । विशे० । आव ।। गंथीपव्वाबियए समणे निग्गंथेहिं अविजमाणेहिं अमाईते प्रबचने, सूत्र. २ भु०६०। मा० म०।
चेलए सचेलियाहिं निगंथीहिं सकि संवसमाणे णाणिग्गंथधम्म-निर्ग्रन्थधर्म-पुं० । निर्गतो बाह्याभ्यन्तररूपो प्र
इक्कपइ ॥ न्योऽस्यास्तीति निर्ग्रन्थः, स चासो धर्मश्च निग्रन्थधर्मः।
अचेलः वित्तचित्तरवाऽऽदिना क्षिप्तचित्तः शोकेन,तत्प्रति जागरभूतचारित्राऽऽस्ये कात्यादिके या सर्वझोक्त धम, सूत्र. १ भु०६अ।
काः साधवो न विद्यन्ते, ततो निर्ग्रन्थिकाः पुत्राऽऽदिकमिव तं णिगंथपावयण-नैर्ग्रन्थ्यप्रावचन-न। निग्रंन्धानां साधूनामिदं संगोपायन्तीति न ततोऽप्यसावाझामतिकामति । सप्तचित्तो
हर्षातिरेकात, यकाऽऽविष्टो देवाधिष्ठितः, उन्मादप्राप्तो वाता55. मैन्यं, प्रावचनमिति प्रकर्षणाभिविधिनोच्यन्ते जीवाऽऽक्यो
दिकोभात । निर्गन्धिकया कारणवशात् पुत्रादिः प्र.. यस्मिमिति प्रावचनम । जैनाऽऽगमे, "श्यामेब णिग्गथे पावयणे
वाजितः, स च बालवादचेलो महानपि वा तथाविधवृक्षसब, सेसमण?।" प्राव. ४.। स्था०। प्रा०च०।
स्वाऽऽदिनति । स्था० ५ ठा. २.। (अथ निर्ग्रन्थीनां णिग्गंथी-निर्ग्रन्थी-स्त्री० । निर्ग्रन्थः साधुः, तेषामियं निम्रन्धी ।
मासकल्पविहारवक्तव्यतायां सर्वा वकव्यता) माभ्याम्, स्था० २ ० १ उ० । सा चतुर्विधा
से गामंसि वा० जाव रायहाणिसि वा सपरिक्खेसि चत्तारि णिग्गंथीओ पसत्ताश्रो। तं नहा-रायणिया स-] अबाहिरियंसि कप्पक्ष निग्गंधीणं हेमंतगिम्हासु दो मासा मणी पिग्गयी जाब भाराहिया जबइ ।।
वत्थए ।। ७॥
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ग्गिंथी
अस्यापि व्याख्या प्राग्वत्. नगर मबाहिरिके क्षेत्रे कल्पते निअन्धीनां हेमन्तग्रीषु मासी वस्तुमिति । अथ भाष्यविस्तरः
एसेव कमो नियमा, निर्गचणं पि होइ नापथ्यो । इत्यं याचं तमहं बोद्धं समासेां ।। १२०७॥ एष एव निर्प्रम्भसुत्रोक्तः " पवजा सिक्खापथ, " इत्यादिकः क्रमो नियमानिन्थीनामपि ज्ञातव्यो भवति । यत्पुनरत्र वि हारद्वारे नानात्वं तदहं वदये समासेन ।
प्रतिज्ञातमेव निर्वाहयतिनिग्गंधीने गवाहर-परूवणा तमगा चैन ।
(२०४७) अभिधानराजेन्द्रः ।
बसही विचार गढ़-स्स आणणा वारण चैव ।। १२०८ || भत्तणए य विही, पडिणीए जिक्खनिग्गमे चैत्र । निग्गंथाणं मासो, कम्हा तासि 5वे मासाः ॥ १२० ॥ निधीनां यो गणधरो वीचकः, तस्य प्ररूपणा कर्त्तव्या । ततः क्षेत्रस्य संयतीप्रायोग्यस्य मार्गणा प्रत्युपेक्षणा वक्तव्या । ततस्तासां योग्या वसतिर्विचारभूमिश्च संयंतीगणधरस्यानयना, ततो वारको लघुघटस्वरूपं, तदनन्तरं भक्ता
समुद्देशन स्वस्थ, ततः प्रत्यनीकृतोप बतो यथा निवारणं, ततो भिक्कायां निर्गमः, ततो निर्मन्थानां क स्मादेको मासः १ तासां च कस्माद् द्वौ मासैौ । एतानि द्वाराणि बन्यामीति द्वारमा समुदायार्थः । गनणं 'गणहर' शब्दे तृतीयभागे २० पृष्ठे समुक्तम्)
अथ क्षेत्रमार्गणाद्वारमाहवित्तस्स उ पमिलेड़ा, कायन्त्रा होइ प्रणुपुत्रीए । किं वधई गणहरो, जो चरई सो तो वह || १३१२|| क्षेत्रस्थ संपतीप्रायोग्यस्य, धानुपूर्व्या "पुमंगलमामंतण " इत्यादिना पूर्वोककमेण धरेण कर्त्तव्य अप किं केन हेतुना गणधरः स्वयमेव क्षेत्र प्रत्युपेकणान व्रजति ? | उच्यतेोऽदवारि चरति स एव तृणभारं वहति, यो निम्वस्थाधिपत्यमनुभवति स एव सर्वमतिथिम्यानमुद्धति।
आह-संयत्यः किमचे न गच्छन्ति इत्युच्यतेसंजइगम गुरुगा, प्राणादी सउणिपेसिपेणया | लोभे तुच्छा आसिया वणा व एमाइयो (भवे) दोस।। १२१३ |
यदि संयत्यः केश्रं प्रत्युपेकितुं गच्छन्ति तत श्राचार्यस्य चतुगुरवः, अज्ञाऽऽदयश्च दोषाः । यथा शकुनिका पक्षिणी श्येनस्य गम्या भवति (पेसिति ) यथा वा मांसपेशिका, मानपेशि का वा सर्वस्याऽप्यभिलषणीया, तथा एता अपि । अत एव (पेल्लनयति) विषयार्थिना प्रेर्यन्ते । तथा तुच्छास्ताः, ततो येन
याहाराऽऽदिलोनेनोपलोज्य आसियाषणं मरणं तासां क्रियते, एवमादयो दोषा भवन्ति ।
श्वमेव भावयति
-
तुच्छेरण विलोजिज्जर, चरुयच्छाऽऽहरणनिगमिस कुणं । नियंतणे चेकदा अविव ॥ १२१४|| तुझेनापहारस्वादिना श्री सभ्यते श्रत्र च भृगुकच्छ
"
विग्गंधी
प्रासेवनोदाहरणम् कथमित्याह-"नंत सखाकृत्वा बहने प्रत्यवन्दनार्थमादान संयतीनामाक्षेपणमपहरणं कृतमिति । जदा जरुअच्छे आगतुगवाणियओ, स च निश्यसले संजईओ रूवव दवूण क वमसत्तणं पविचो। ताओ सस्स वीसंभियाश्रो । गमणका ले पति विवेचनामंगला पमिले करेमि तो संजईओ पठवेह, अम्हे वि अग्गहिया होजामो । तभो पट्ठबिषा । तत्य गया कवमसद्देण भणति पढमं बहणे बेहयाई तो पडणं करोमि ताम्रो जाति हो । वि. बेको तत्थमादा पद जाब भाविकावे"
एहि कारणेहिं न कप्पई जई मिलेड़ा | गंतव्य गणहरेणं, चिड़िया जो बोपुपि । १२१५ पतैः कारणैः संयतीनां क्षेत्रप्रत्युपेक्षा कर्त्तुं न कल्पते, केः पुनस्तर्हि प्रत्युपेक्षणायां गन्तव्यमित्याह-गन्ता गरारेण विधिना का पुनर्विचिरित्याह-यः पूर्वमत्रैव मासकल्प प्रकृते स्थविरविद्वारद्वारे वर्णितः।
आदी प्रत्युपेक्षी ? उच्यते-जत्यादिवई सूरो, समणानं सोय जायइ बिसेसे एतारिसम्म खेत्ते, समणाएं होइ पमिलेहा ।। १२१६ ।। जहिये खीलमणो, तकरसावयभयं च नहिँ नस्थि । निष्यध्वराय, अन्ना होइ पनि नेहा ॥। १२१७|| पत्र प्रामादायधिपतिज्ञांगिकादिकारादनि रनभिभवनीय इत्यर्थः। स च श्रमणानां साधूनां विशेषं जानातिमधेशममीषां दर्शने व्रतम्, ईदृशश्च समाचारः, एतादृशे क्षेत्रे
योग्येणानां प्रत्युपेक्षणा भवति तथा त्री लजनस्तस्करश्वापद्भव वा यत्र नास्ति, ईदृशे निष्प्रत्यपाये क्षेत्रे मार्थिका प्रायोग्ये प्रत्युपेक्षया कर्त्तव्या प्रयति । असारमाह
गुत्ता गुत्तदुवारा, कुलपुत्ते सत्तमंत गंजीरे | भीयपरिसमविए ओजासण चिंता दावे ।। १२१८ ।। गुप्ता वा परिक्षिता, गुप्तद्वारा पात द्वारा बस्यां च शय्यातरः कुलपुत्रकः । कथंजूतः १ सच्यवान् न केनापि कोज्यते, महदपि च प्रयोजनं कर्तुमभ्यवस्यति । गम्भीरो माम- संयतीनां परुषाऽऽद्याचरणं दृष्ट्वाऽपि विपरि णामं न याति । तथा भीता बकिता पर्षत् यस्य स भीतपत् आकसारतया यस्य नृकुटीमात्रमपि दृष्ट्वा परिवारः सर्वोऽपिजयेन कम्पमानस्तिष्ठति, न च कचिदन्याये प्रवृत्तिं करोति । माता पिस माविका एवंविधो यदि कुलपुत्रको भवति ततः [ श्रोभासण चि] संवतीनामुपाश्रयस्यावभाषणं कर्त्तव्यम् । श्रवभाषिते च यद्यसावुपाश्रयमनुजानीते, ततो नष्यते [ चिंतण ति | यथा स्वकीयाया दुहितुः, स्नुपाया वा चिन्तां करोषि तथा यद्येतासामपि प्रत्यनीकाssयुपसर्गरक चिन्तां कर्तुमुत्सह से, ततोऽत्र स्थापयामः । स प्राssह वाढं करोमि चिन्तां परं कथं पुनः संरक्षणीयाः । ततो• पुस्तकान्तरेरित आसणवारममंगल परिवारा इति पाठः ।
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( २०४८ ) अभिधानराजेन्द्रः ।
ग्गिंधी
ऽभिधातव्यम् - यथा किला क्किणी स्वहस्तेन परहस्तेन वा उपद्रूमारते तचता अपि चात्मा, परमानुप यमाखा रसि, नत पता रक्षिता भवन्तीति । यद्येवं प्रतिपाद्योपाभयस्य दानं करोति, ततः स्थापनीयाः ।
अथाप्रतिपद्यमाने स्थापयन्ति ततश्चत्वारो गुरुका:अन्याssचार्याभिप्रायेणामुमेवार्थमाहघणकुड्डा सकवामा, सागारियमानमगिणिपेरंता । निष्पचवाय जग्गा, वित्थिन्नपुरोहडा वसही || १२१५ ॥ घनकुड्या पक्केष्टाऽऽदिमयनित्तिका, सकपाटा कपाटोपेतद्वारा, सागारिकाकानां मणि पार्श्वयाः सा सागारिकमातृभगिनी गृद् पर्यन्ता गाथायामनुको गृहश होम्यः नित्याचा दुर्जनवेशादिप्रत्यपापरहिता, विस्तीर्ण 'पुरोइ' गृहपञ्चाद्भागो यस्यां सा विस्तीर्णपुरोहडा, एवंविधा वरुतिः संवतीनां योग्या ।
नासन्न - नातिदूरे, विनापरिणयवयाण परिवेसे । मक्कत्चचियाणं, अकुक्कइननावियाणं च ।। १२२० ।। विधवाश्च ताः परिणतवयसश्व थविरस्त्रियः, तासां तथा दिजाविकानामधिकाराणां गीतादिवि
कारर दिनानामानाम् संयत्यो भोजनादि कियां कथं इस्त्री को तुनां भावितानसासामाचारीयासि सानां संवन्धि पापनिवेश्म प्रत्यासन्नगृदं तत्र नाविदूरे संयतिप्रतिभयो प्रायः ।
।
अचान्याऽऽचार्य प्रतिपाद्यशय्या तर स्वरूपमाहओइयमतराऽऽदी, बहुसो पिओ कुलीयो ब । परिणतत्रओ अभीरू, अणनिग्ाहियो अकूतुहली १२२१ | कुलपुत्त सत्तमतो, जीयपरिस भइओ परिणम धम्मीय विणीतो, अज्जा सेज्जायरो जणिओ ।। १२२२ ॥ यो भोगिकमरा दिपालिका तथा प्रेरक बङ्गादीनां स्वगृहे प्रविशन्तीनां निवारकः, कुलीनः, परिणतबयाश्च प्रतीतः, अभीरुरुत्पन्ने महत्यपि कार्ये न बिनेति, कथमेतत् कर्तव्यमिति । अभिगृहीत सामिग्रहिकमिध्यात्वरदि तः कुल संपतीनां भोजनादिदर्शने कोतुकवर्जितः । वस्तु कुलपुत्रका सस्वधान् न केनाप्यभिभवनीयः भीतपत् प्राग्वत्, नकः शासने बहुमानवान्, परिणतो वयसा मत्या चा, धर्मार्थी धर्मधालु, विनीतो विनयवान्पच मार्याणां शय्यातरी प्रणितस्तीर्थकरैः । गतं वसतिद्वारम | पृ० १४० । 'स' विशेष
अथ विचारद्वारमाद
त्रयमसंगा, प्रणॉवाया चेत्र दोइ संक्षोगा । आवायमसंलोगा, आवाया चेत्र संलोगा || १२२३ ।। अनापाता लोकाः १, अनापाताश्चैत्र लोकाः २, आपाता असंलोकाः ३, आपाताः संलोकाश्चेति ४ । चतस्रो विवा रचूमयः ।
एतासु संपतीनां विधिमाहबीरे बहि गुरुगा, तो वि य तयवज्जिते चेव ।
फिगंथी
तए त्रिजत्य पुरिसा, उर्वेति वेसित्थियाओ य ।। १२२४ ।। यदि 'पुरोड के' विद्यमाने संयत्यो ग्रामाद् बहिर्विचारनुवं गच्छ ति, ततश्चतुष्वपि मिलेषु प्रत्येकं चतुर्गुरुका, अन्तरेऽपि
प्रामान्यन्तरे पुरोद मादी आपातालोकन कृपणं तृतीयस्थ रिडलं वर्जयित्वा शेषेषु त्रिषु स्थरिमलेषु गच्छन्तीनां त एष चत्वारो गुरुकाः । तृतीयेऽपि स्थण्डिले यत्र पुरुषा वेश्यास्त्रियन्त्रोपयन्ति श्रपतन्ति तत्र चत्वारो गुरुकाः । यत्र तु कुत्रजानां स्त्रीणामापातो नवति तत्र गन्तव्यम् ।
किं पुनः कारणं प्रथमाऽऽदीनि स्पधिमानि तासां नानुजायन्ते । उच्यते
जो स्त्रीला बेसिथिनपुंसतेरिच्छा । साउ दिसा परिकुट्ठा, पढमा निइया चयी य ।। १२२५ ।। (जोति) यदिनि दुःशीला परदारानियामिनः पुरुषाः, तथा वेश्याः स्त्रियो, नपुंसकाश्च (देव त्ति) अधो नापिताः, तिर्यञ्चश्च वाजगऽऽश्य श्रापतन्ति सा तु मा पुनर्दिग् प्रथमा द्वितीया चतुर्थी व प्रतिषिद्धा, प्रथनाऽऽदीनि स्थापि ज्ञानीत्यर्थः ।
अनाव
चारभमघा, सोन्झगतरुणा य जे य कुस्तीला । उमाविबेसीति ।। २२६ ।। चारभटा राजपुरुषाः घोटा बेटा:, भिएठाः गजपरिवर्तकाः, पो वास्तुरग चिन्ता नियुक्ताः। एवमादयो ये तरुणाः सन्तो दुःशीलाः, ते प्रथमद्वितीययोः स्थानयोरनापातस्वादेकान्तमिति कृत्वा भ्रामकखीषु वा वेश्यासु वा (अमे िनपुंसकेषु यापूर्वी प्रभूतां प्रतिसेयनार्थमायान्तीति ।
चतुर्थे तु स्थपनातीवर्गान् पश्येयुः, संयतीवर्गेण वा ते दृइयेरन्नित्यतस्तदपि निषिध्यते
हि नवासण हेडं, गाऽऽगमम्मि गहण उड्डाहो । वानरमयूरहंसा, बाला गुणगादितेरिच्छा ।। १२२७ ।।
अधस्तादुपासनमध्ये सोचकर्म, ततारधो नापिते पूर्वप्राप्ते अध्यनेकेषां मनुष्याणां मध्ये सोचकर्मकारापकर्मणामागमने सति यद्युदीर्णमोहास्ते संयति गृह्णन्ति ततो ग्रहणे उडाहो प्रवति, तथा वानरमयूरहंसाः, छगलाः, शुनकाऽऽदयका तिर्यञ्चस्तत्राऽऽयाताः संयतीमुपसर्गयेयुः ।
यत एवं ततः किमित्यत आहजर तो वाघाप्रो, बहिया तासि तइय अणुभाया । सेसा हा भाषा, अन्जान विधारभूमी ।। १२२० ।। यद्यन्तरे ग्रामाभ्यन्तरे व्याघातः पुरोहडाऽऽदेरभावः, ततो ब हिस्तासां तृतीया [विचार]मिरापाता लोकरूपानुज्ञाता, तजा अपना पास ह्योन पुरुषाणां शेषा विचारमबोउनापातासंलोकाऽऽद्या श्रार्थिकाणां नानुज्ञाताः । गतं विचारद्वारम् । सृ० १४० । ( 'बसदि' शब्दे रात्रौ मात्रक यतना ) अथ संययाऽऽनयममिति द्वारमाहपावलेहियं च खेतं, संजश्वग्गस्स आणणा होइ ।
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(२०४९) गिग्गंधी अभिधानराजेन्द्रः।
णिग्गंधी निकारणम्मि मग्गओं,कारणे समगच पुरतो वा।१२।। सच वारको अन्तर्लिप्तः कर्त्तव्यः कुतः !, इत्यत माहएवं वसतिविचारतम्यादिविधिना प्रत्युपेक्तितं च संयतीप्रायो. मुक्खं विसुयावे, पणगस्स य संजयो अलित्तम्मि । ज्य केत्र ततः संयतीवर्गस्याऽऽनयनं तत्र के भवति । कथम, संदंते तसपाणा, पावज्जणतकणाऽऽदीया ॥१३॥ इत्याह-निष्कारणे निर्जये, निराबाधे वा सति साधवः पुरतः
वारकोऽलिप्तः सन्, किम् ?, (विसुयावे ति) शोषयितुं पुत्रं स्थिताः, संयत्यस्तु मार्गतः पृष्ठतः स्थिता गच्चन्ति, कारणे तु
दुःखकरो भवति, अत्रिप्ते च पानकनावितत्वात पनकस्य संजयः समकं वा साधूनां पार्श्वतः, पुरतो वा साधूनामप्रतः स्थिताः
संमुखनं भवति, अलिप्तश्च वारकः पानके प्रतिते सति स्यन्दते संयत्यो गच्छन्ति ।
परिगलति, स्यन्दने च त्रसपाणिनः कीटिकामाक्षकाऽऽदयः सनिष्पचवायसंबं-धिभाषिए गणहरऽप्पविक तइए।
मागच्नेयुः। (आवज्जणं ति) यदनन्तकायनिकायविकलेन्द्रियेषु तेपणादिनए सत्थे-ए सद्धि कयकरणसहिते वा ।१२३०॥
संघट्टनादिकमापद्यते, तनिष्पन्नं प्रायश्चित्तम । (तकणाई य
त्ति) ततो वारकान् पानकेन परिमलति मक्षिकाः पतन्ति, तासां निष्प्रत्यपाये संयतीनां ये संबन्धिनः स्वक्षातीयाः, भाविताश्व |
प्रसनाथै गृहकोकिला धावति, तस्या भपि प्रकणार्थ मार्जासम्यकपरिणतजिनवचना निर्विकाराः संयताः,तैः सह गण
रीत्येवं तर्कणम, तदाइयो दोषा नवेयुः । घर आत्मद्वितीयः, आत्मतृतीयो वा संयतीर्विवक्कित केत्र नयति। अथ स्तेनाऽदिभयं वर्तते, ततः सार्थेन सार्द्ध नयति, यो
__यत्र पुनः कायिकीभूमौ सागारिक भवति, तत्रेयं यतनाया संयतः कृतकरण इषुशारण सहितः संयतीस्तत्र नयति,
सागारिए परंमुह-दगसहमसंफुसंतिम्रो णेत्तं । सच गणधरास्वयं पुरतः स्थितो गच्चति, संयत्यस्तु मार्गतः
पुलएज्ज *मा य तरुणी,तो अच्छदवं तुजा दिवसो १२३५ स्थिताः।
सागारिके सति पराकमुखीभूय कायिकी कृत्वा नेत्र जगमअत्रैव मतान्तरमुपन्यस्य दृषयन्नाह
संस्पृशन्त्यो दकशब्दं पानकप्रकासनानुमापकं कुर्वते, तथा तहनजयट्ठाइनिविटुं, मा पेल्ने वतिणि तेण पुरतेगे ।
रायः स्त्रियः किमत्रास्ति पानक, न वेति जिज्ञासया मा प्रलो.
कन्तामिति हेतोस्तस्मिन्वारके तावदच्चमकलुष एवं पानकं प्रतं तु न जुज्जइ अविणय,विरुद्ध उभयं च जयणाए १२३१
तिप्तं तिष्ठति, यावदिवसः,ततः सन्ध्यासमये तत्पानकं पिवन्ति। एके सूरयो बुवते उन्नयं कायिकीसंक्षे,तदर्थम्.आदिशब्दादपराम- गतं वारकछारम्। स् वा कचित्प्रयोजने विनिविष्टमुपविष्टं सन्तं संयतं,तिनी माप्रे
अथ भक्तार्थनाविधिधारमाहरयत इत्यनेन हेतुना संयस्यः पुरतो गच्छन्ति । अत्राऽऽचार्य पाह- मंमसिठाणस्सऽसती, बन्ना व तरुणीसु अहिपतंतीसु । तत्तु यदुक्तं, न युज्यते,कुतः?, इत्याह-पुरतो गच्चन्तीनां तासामविनयः साधुषुसजायते,नोकविरुद्धं चैव परिस्फुटं जबति-अहो!
पत्तेयकमदखंजण-मंडलिथेरी उ परिवेसे ॥१५३६॥ महेलाप्रधानमासां दर्शनं,यत एवमतो मार्गतः स्थिता एव ता ग.
यद्यसागारिक, ततो मरमल्यां समुदिशन्ति,अथ मरामलीभूमिः च्छन्ति, जय च कायिकीसंझारूपं यतनया कुर्यात् । का पुनर्य
सागारिकबहुला, ततो मण्मनिस्थानस्यासति, बन्नाद्वा प्रणयेन तना?,इति चेदुच्यते-यत्रैकः कायिकी संज्ञा वा व्युत्सृजति, तत्र
तरुणीवभिपतन्तीषु तत्रौर्णिकमलपमधः प्रस्तीय तस्योपरि सर्वेऽपि तिष्ठन्ति, तथास्थितांश्च तान् दृष्टा संयत्योऽपि नाग्रतः
सौत्रिकं तत्राप्यलावुपात्रकाणि स्थापयित्वा प्रत्येकं कमठ केषु समागच्चेयुः, ता अपि पृष्ठत एव शरीरचिन्तां कुर्वन्तीति । गतं
भुञ्जते, प्रवत्तिनी च पूर्वाभिमुखा धुरि निविशते, तत एका मगवस्याऽऽनयनमिति द्वारम।
एडलिस्थविरा यमलजननी सहोदरा सर्वासामपि परिवेषअथ वारकद्वारमाह
येत, आत्मनोऽपि योग्यमात्मीये कमठके प्रतिपेत्। जहियं च अगारिजणो, चोक्खन्नतो मुईसमायारो।
श्रोगाहिमाइविगई, समनाएँ करे जत्तिया समणीं। कुममुहदद्दरएणं, वारगनिक्खेवणा भणिया ॥
१३॥
तासिं पच्चयहेतु, अणहिक्खा अकलहो अ॥१२३७।।
प्रवगादिम पक्कानम्, प्रादिशब्दाद् घृताऽदिकाश्च विकृतीः, यस्मिश्व ग्रामाऽऽदावगारीजनोऽविरतिकालोकः,चौक्षभूतः गु
यावत्यः श्रम एयः,तावतः समभागान् , मामलिस्थविरा करोचिसमाचारश्च वर्तते, तत्र वारकग्रहणं निर्घन्धीभिः कर्तव्यम् ।
ति । किमर्थम्,तासां श्रमणीनां प्रत्ययार्थम्.तथा-[श्रणहिक्स्त्रक अथ न कुर्वन्ति, ततश्चत्वारो गुरवः । यच्च प्रवचनोहाडाऽऽदिक,
त्ति) अनधिकखादनार्थ,सर्वासमध्यविषमसमुद्देशनार्थम्, अका. तनिष्पन्न प्रायश्चित्तम् । यत पचमतः कुटमुखे घटकण्ठके लक्षण.
हश्चैवं भवति, असंखडं न जवतीत्यर्थः। चीवरदर्दरकेण पिहितस्य वारकस्य निक्षेपणा प्रणितानवति ।
ताश्च समुद्देष्टुमुपविशन्त इत्थं ग्रूतेथीपडिबके नवस्मरें, उस्मग्गपदेण संवसंतीओ। निबीए विझ्याई, विगईओ लंवणा वए विइया । वचंति काइनूमि, मत्तगहत्याण प्रायमणं ।।१२३३॥ प्राण गिलायंविलिया, अज अहं देह अन्नासिं ।१२३ उत्सर्गपदेन संयतीभिः स्त्रीप्रतिबके उपाश्रये बस्तव्यमिति एका ट्यादिसंख्याविकृतयो मुत्कझाः,शेषाणां प्रत्याख्यानम,अपरा कृत्वा तत्र संवसम्स्यो यदा कायिकी भूमि वजन्ति, तदा मात्र- | नणति-अद्य मामेतावन्तो लम्वनाः कवनाः, इत कर्द्ध नियमः। कहस्तावारकं हस्ते गृहीत्वा प्रान्ति, तासामगारीणां प्रत्ययो
मम्याऽभिधत्ते-अद्याहमन्नग्लाना, ग्लामपर्युषितमन्नं मया भो. जायते-पताः कायिकी कृत्वा पश्चाबाचमनं करिष्यन्ति, महो!
क्तव्यमित्येवं प्रतिपन्नाभिग्रहा। तदपरा बेते-अद्याहमाचाम्लिशुचिसमाचारा इति । तत्र च गतारतासामदर्शनीता भाच- का, कृता चाम्सप्रत्याख्याना,अत इदं विकृत्यादिकमन्यासांप्रय. मनं कुर्वन्ति।
*"शो नियच."018:१८॥ इत्यादिना 'पुलर' आदेश।
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(२०५०) पिग्गंधी अभिधानराजेन्कः।
णिग्गंधी छत.एवं समुद्दिश्य पान केनाऽचमनं कुर्वन्ति,प्रवर्तिन्याः कम- त्या साध्वीशीसभाप दासमविपाकतासाचकामनुशिधि ददवकं तुझका निर्लेपयन्ति, ततः सर्वास्वपि समुद्दिष्टासु मण्ड- ति । यद्यपरमते ततः सुन्दरम । अथ नोपरमते, ततो याबीषु स्थविरा समुद्दिशति ।
मि तस्य मित्राणि, मादिशब्दाचे वाभात्रादयः स्वजनास्तेषां एवंविधं इष्टा कि जयति !, इत्याह
निवेद्यम, तैः प्रज्ञापिते यदि स्थितः, ततोलष्टम् । दवण निहुयवासं, सोयपयत्तं अबुकमत्तं च ।
तह वि य भायमाणे, वसना भेसिति तहविय अठते । इंदियदमं च तासिं, विणयं च जणोइमं भणइ ॥१३॥
भमुगत्य घरे पजह, तत्थ य. बसना बतिणिवेसा ।११४॥ तासां संयतीनां निभृतवासं विकथाऽऽदिविरहेण निर्व्यापा
तथाऽप्यतिष्ठति तस्मिन् प्रत्यनीके, वृषभा गम्चस्य शुनाशुजरतयेवाऽवस्थानं, शौचप्रयत्नं वारकग्रहणाऽऽदिरूपम्, अलु.
कार्यचिन्तानियुक्ताः, तं प्रत्यनीकं नापयन्ति, तथाप्यतिष्ठति ब्धवत्वं च विकृत्यादिप्रत्याख्यानाभिधातम् , इन्डियदमं च
यस्तरुणः कृतकरणः स संयतीनेपथ्यं कृत्वा तस्य संकेतं प्रय. श्रोत्राऽऽहीन्द्रियनिग्रहणं, विनयं प्रवर्तिन्यादिषु भन्युत्थाना
च्छति, यथा-अमुकत्र गृहे समागच्छत, ततो वृषभा वतिनीऽऽदिरूप, दृष्ट्वा जनो लोक इदं ब्रवीति
वेष परिधाय तेन साधुना सह तत्र गत्वा प्रत्यनीकस्य
शिक्कां कुर्वन्ति, तथाऽप्यनुपशान्ते तस्मिन् सागारिकस्य निवेसच्चं तवो य सील, अणहिक्खाम्रो भ एगमेगस्स ।
द्यते, तेनोपनब्धे यदि स्थितः, ततःसुन्दरम् । जह बंनं जइ सोयं, एयामु परं ए अन्नासु ॥१२४०॥
मथ नास्ति तदानी सन्निहितःबाहिरमनपरिबुदा, सीमसुगंधा तवोगुणविमुछा। सागारिए असंते, किच्चकरे भोइयस्स व कर्हिति । धमाण कुयुप्पन्ना, एआ अवि होज्ज अम्बंपि ॥१२४१॥ भनत्य गणे णिती, खेत्तस्सऽसती सति णिवे वा१२४६ सत्यं वाममोरविसंवादिता,तपोऽनशनाऽऽदि,शीलं सुस्वनाव
सागारिके असंनिहिते कृत्यकरस्य ग्रामचिन्तानियुक्तस्व नोता,अनधिकस्वादश्चाविषमभोजनम,पकैकस्याः परस्परममूषाम,
गिकस्य ग्रामस्वामिनः कथयति, तेन शासितोऽपि यदि नोपतथा यदि ब्रह्मचर्य यदि शौचं शुचिसमाचारता। एतानि सत्या.
रमते,ततः संयतीरन्यत्र स्थाने क्षेत्रे नयन्ति । अथ नास्ति संयदीनि,यदि परमेतासु संयतीषुश्यन्ते,नान्यासु शाक्याऽऽदि.
तीप्रायोग्यमपरं, स्वयं वा संयता ग्लानाऽऽदिकार्यम्यापृता न पाखपिमनीषु,ततो यद्यप्येता बाह्यमोन परिक्तिप्ता,तथापि शी. शक्नुवन्ति क्षेत्रान्तरं गन्तुं,ततो नपस्य दएिककस्य निवेद्यते, स सेन सुगन्धाः,तपोगुणैरनरानाऽऽदिभिः,यद्वा-तपसा प्रतीतेन, गु- प्रत्यनीकमुपरुवन्तं निवारयति । गतं प्रत्यनीकारन । ०१ णेधोपशमाऽऽदिनिर्विशुकाः,धन्यानां कुलोत्पन्ना,एता येषां कुले | स०। नि० चू। ("गोयरचरिया" शब्द तृ. भा. ९७६ पृष्ठे सपनास्तेऽपि धन्या इति भावः । अपिः संभावनायां संजा. भिक्षाविधिरुक्तः) न्यते । किमर्थः?, यदस्माकमपि नगिनी, दुहिता च एताहश
अथ निर्ग्रन्थीनां मासः। कस्मात्तासां की मासाविति स्वकुलोज्वालनकारियो नवेयुः।
द्वारं व्याख्यायते-शिष्यः पृच्चति-कि निर्घन्धी
मामच्यधिकानि महाव्रतानि, येन तासां एवं तत्थ वसंती-णुवसंतो सो य सिं प्रगारिजणो ।
हो मासो, निन्यानामेकं मासमेगिएईति य संमत्तं, मिच्छत्तपरंमुहो जाओ ।।१२४शा
कत्र वस्तुमनुकायते । सरिएवं तत्र बसन्तीनां तासामगारीजन उपशान्तः प्रतिबुदः,
राहततो मिथ्यात्वपराङ्मुखो जातः सन् सम्यक्त्वं गृहाति, च. नविय महत्वयाई, निग्गंधीणं न होति महियाई। शब्दादेशविरतिं वा, कश्चित्तगुणग्रामरजितमनाः सर्वविरतिमपि प्रतिपक्षते । गतं निकायनाबिघिद्वारम् ।
तह विय निच्चविहारे,हति दोसा इमे तासिं॥११६४।।
यद्यपि च निर्ग्रन्थीनां महाप्रतानि नाधिकानि भवन्ति तथाऽअथ प्रत्यनीकद्वारमाह
पि नित्यविहारे मासे मासे केत्रान्तरं संक्रमणे, श्मे दोषातरुणीण अभिवणे, संबरितो संजतो निवारेइ ।
स्तासां भवन्ति । सहविय अठायमाणे, सागारिमा तत्युवासनद ॥१२४शा मंसाइपेसिसरिसा, बसही खेत्तं च मुख जोग्मं । तरुणीनां संयतीनामनिद्रवणे प्रत्यनीकेन विधीयमाने सति एएण कारणणं, दो दो मासा अवरिसासु ॥१२६॥ संवृतःसंयतीवेवाच्छादितः संयतो निवारयति,तथाऽपि चा.
मांसाऽदिपेशीसदृशाः संक्त्यः,सर्वस्याप्यभिलपणीयावान, तिष्ठति तस्मिन् सागरिकः शय्यातरः, तत्रोपसर्गे, तमुपालनते। तथा तासां योग्या वसतिभा, क्षेत्रं च तत्वायोम्योपेतं . एतामेव नियुकिमाथां भावयति
सनं, ततो यथोक्तगुणविकलायां बसतो दोषपुष्ट वाकेने गणिणीणऽकरणे गुरुगा, सावियन कहे जागरुणत। स्थाप्यमानानां बहवः प्रवचनविराधनाइयो दोषा उपढोकन्ते। सिम्मि य ते गंतुं, अणुसट्ठी मित्तमाईहिं॥१२वधा
एतेन कारणेन तासामवोसु वर्षावासं विमुच्य द्वौ दौ कश्चित्तरूणो विषयलोयुपतया संयतीनामुपवं कुर्यात, त.
मासावेका बस्तुमनुबायते । तस्तत्क्षणादेव ताभिः प्रवर्तिन्याः कथनीयम्, यदि न कथय.
भय योहपरि वसन्तीनां दोचान, द्वितीयपदं चोपन्ति, ततश्चत्वारो गुरवः । सा च प्रवर्तिनी यदि गुरूणांन कथ.
. दर्शयतियति, तदा चतुर्गुरवः,माकाऽऽदयश्च दोषाः, तस्मात्कथयितम्या
दुए उवरि वसंती, पायच्छित्तं व होति दोसा य । म, ततः शिष्टे कथिते ते प्राचार्यास्तस्याविरतिकस्य पार्श्व ग.
वियपरं च गिलाणे, बसती निक्खं च जयणाए।१२६६।
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विग्गंधी
द्वयोर्मासयोरुपरि वसन्ति, ततः प्रायश्चित्तं, दोषाश्च भवन्ति, द्वितीयपदं च ग्लाने व सति वसति, नैक्षं च बतनया ग्रहीतव्यम् । भावार्थों निर्मन्थानामिव अटव्यः ।
(२०५१) अभिधानराजेन्द्रः ।
मासावासमुत्रम्
से गास बा० जाव रायहाणिंसि वा परिक्खेनंसि वा बाहिरियंसि कप निम्गंधी हेमंतगिम्हासु चारि मासावत्थए, तो दो मासे, बार्दि दो मासे, अंतो बसमा - जीणं तो जिक्खायरिया, चाहिँ बसमा बाहि भिखारिया || ए ॥
अस्य व्याख्या प्राम्वत् । नवरं सबाहिरिके क्षेत्रे अन्त मासी, बहिर्ती मासावित्येवं चतुरो मासानि कल्पत इति ।
वस्तु
अथ माध्यम्
एसेवकमो नियमा, सपरिक्वेने सबाहिरीयम्मि । नवरं पुण नाणत्तं, अंतो वाहिं चलम्मासा || १२६७ ॥
एष एव पूर्वसूत्रोका क्रम नियमात् सपरिरोपे सबाहिरिके क्षेत्रे वसन्तीनां संयतीनां द्रष्टव्यः, नवरं पुनर्नानात्वं विशेषो यम्-अन्तरभ्यन्तरे पहिर्याहिरिकायामेव मा खाः पूरणीयाः ।
चन्हं उवरि वसंती, पायच्छित्तं च होंति दोसा य । नातं तु तो बसही बढि चर ।। १२६०।। चतु मामानामुपरि यदि सबाहिरिके क्षेत्रे संयतो वसति तदेव प्रायभितं द्वितीयमपि तदेव मन्तव्यम्, नानात्वं विशेषः, पुनरबाहिरिकाया वसतेः, शय्यातर घोणस्यासत्यनाये, अन्तः प्राकाराभ्यन्तरे वसहि ति) यसतो पूर्वस्यामेव स्थिताः बदिबहिरिकार्या चरन्ति मिज्ञाचर्यामन्ति
जोगवसढ़ी असई, तत्येव जिया चरंति वाहिं तु ।
गरि विचितत्तो थिय मचगादी वि ।। १२६ ।। बहिः संयतीयोग्याया बसतेरजावे, तत्रैवाभ्यन्तरोपाश्रये स्थिताः सत्यधरन्ति पूर्वगृहीतं शौच कण मंगल 55दि परित्यज्य तत पत्र बाहिरिकाया मात्रकाऽऽदीनध्यातव्यानि म केवलं नित्यादिशब्दार्थः ।
नादिविषया सामाचारी, क्षेत्रका साऽऽदिविषया वा स्थितिःस्थविरकल्पिकानामिव रुन्या । तदेवमुक्त आर्षिकाणामपि मासकल्पविधिः । वृ० १० । ( निर्ग्रन्थीनां दूरतः परिदरणीयत्वं वस देते) 4 निगम-निर्गम-पुं० निर्गमनं निर्गमा, कुतः सामायिक निर्गसमित्येवमादिरूपे निर्यमने, विशे अनुम
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निर्गमस्य षडियो निक्षेप:नाम उत्रणा दविए, खेत्ते काले तहेब जावे य । एमो न निग्गमस्स य, निक्खेवो बब्बिहो होइ ।। १५३३ ।। नामस्थापनानिमी नामाऽवश्यकतानुसारेण जावनीथी। द्रव्याद् अभ्यस्य वा निर्गमः, क्षेत्रात्क्षेत्रस्य वा कालात्कालस्य
विग्गम
वा, भावाद्भावस्य वा निर्गम इत्यादि वाच्यम् । इति निर्युक्तिगाथासंकेपार्थः ॥ १५३३ ॥
विस्तरार्थे तु भाष्यकारः प्राऽऽह
दबाओ दव्यस्स व विशियम दव्यनिगमो सो य । तिविहो सचिचाई, निविदाओ संजय नेओ ।। १५३४ ।।
या द्रव्यस्य वा निर्गमो ज्यनिगमः। स च सविताऽऽदिध्यात्वादेखिविधः तस्य विस् विविधादेव सचिव उत्पाद इति ॥ १५३४ ॥
तथाहि
पजो सबिताओ, जुबेरंकुर पर्ययवफाई | किमिन्सोलियाई पीसाओ बीसरी राओ ।।१५२।। किमिघुणघुणचुम्छाई, दारू जं व निग्गयं जत्तो । दव्वं विगप्पत्रसो, जह सब्जावोत्रयारेहिं ।। १५३६ ।। सविता मित्सवियस्याकुरस्य प्रभवो निर्गम ज्ञातव्यः, मिश्रस्य तु पतङ्गव्यस्य तस्य हि पक्षाऽऽदिप्रदेश चिताः, शेषं तु सचित्तमिति मिश्रता । अवित्तस्य तु बाध द्रव्यस्य तदेवं सवितासाित्रिवस्य निर्गम म अथ मिश्रारखी शरीरात्सल्यस्व मेदित यः मिश्रस्य तु गजेंद्रव्यस्य मिम्भरूपस्य ततकेाऽऽहीनामचितत्वात् शेषस्य तु सचिचत्वाग्मिता अविचस्य तु शोणितद्रव्यस्य । मिश्रात्तचित्ताऽऽदे लिंगम इत्यपि भावितम् । असियाद्दारुणः काष्ठासचिवस्य कुमिद्रव्यस्य निर्गमः, त्रिअस्य तु घुणस्य, पतङ्गवदस्यापि मिश्रत्वात्; अचिचस्य तु घुस्याह तद्वयवनियस्येत्यर्थः । अवि सचिताऽऽदेः निर्गम इत्यपि गतम् । तथा-'जं व' इत्यादि । यद्वाअभ्यं यस्माद् ब्याधिकल्पवशतो मानस कल्पनासमारोपाद्यथा सद्भावेन सद्भूतप्रकारेण, उपचारेण वा निर्गतम्, सोऽपि व्यान्निर्गमो द्रव्यनिर्गम उच्यते । तत्र यथा सद्भावेन विकल्पवशाद्यथा दुग्धाऽऽदिव्यात् घृताऽऽदि द्रव्यस्य निर्गमः। अदभूत कन्यायेन दुरात् पूता35दिनिर्गमो न दृश्यत इति विकल्पवशतः इत्युच्यते, 5. यस्य दधिघृतादिभावेन परिशानिकारणता सम इत्येतावता यथा सद्भावेनेत्यभिधीयते । उपचारेण तु रूपकाssदेव्याद्भोजनाऽऽदेर्निर्गम इत्यादि सर्वे यथासंभवमन्यदपि स्वबुद्ध्याऽभ्यूह्य वक्तव्यमिति ॥ १५३५ || १५३६ ॥ क्षेत्र निर्गममाद
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वित्तस्स विनिगमणं, सरूओ नरिथ तं नमक्किरियं ।
ताओ पिपि दविज निगमणं । १५२७| उपाओस् प, विनिग्गमो सोगनिदान । लई विनिग्ग तिय,जह खेतं उझा उति ॥ १३०॥ यथा अल्पस्यापि कचित्कल्पनया निर्गम उच्यते न तु स्वरूपतः एवं क्षेत्रस्याऽपि स्वरूपेण कुतोऽपि निर्गमो नास्ति, तस्याऽक्रियत्वेन तद्योगात् । त्रात्पुनः निर्गमोऽस्ति, यथा श्रायुःक्षयाऽऽदि समये ऊर्द्धाधोलोकाऽऽरिक्षेत्राद्देवनारक द्रव्याऽऽदेर्निर्गमः । त्रेऽपि धान्याऽऽदेर्निर्गमो रुष्टव्यः, न तु क्षेत्रस्य
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(२०५२) पिग्गम प्रमिधानराजेन्द्रः।
णिग्गम स्वरूपेण निर्गमः । किं सर्वथा नास्ति', इत्याह-उपचारतः
नवत्वेवं, प्रस्तुते केन प्रयोजनम् , इत्याहकल्पनामात्रेण, क्षेत्रस्यापि निर्गमः समस्त्येव, यथा लोक
एत्थ उ पसत्थभाव-प्पमूहमेत्तं विमेसोऽहिगयं । केषान्निकुटा निर्गता इति; तेषां स्वरूपेणाऽवस्थितानां निर्गमक्रियाभावेऽपि निर्गता इच निर्गता इति निगमोपचारः । तथा
अपसत्यावगमो विय, सेसा वि तदंगजावानी १५४४ सधं विनिर्गत क्षेत्र राजकुत्रात्, निर्गतं जरताऽऽदिकेनं दुःषमा- इह च प्रक्रमे सामायिकाध्ययनं प्रस्तुतम् । तश्च क्कायोपशमिअदिकाला मिशाशिवाऽऽदेवेत्यादीति ॥१५३७॥ १५३८॥ के भावे वर्तते । अत इह तस्यैव प्रशस्तकायोपशमिकलावस्य कासनिर्गममाह
या प्रसृतिमहावीरात् तन्निर्गमरूपा, तयैव विशेषतोऽधिकृतम
धिकारः। तथाऽप्रशस्तमिथ्यात्वाऽऽदिविषयौदयिकजावस्य योऽ. कालो वि दबधम्मो,निक्किरिओ तस्स निग्गमो पनवो।
पगमो विनाशम्तेनापि चाधिकारः, तदपगमानावे प्रशस्त. तत्तो चिय दवाओ, पनवा कासे व जं जम्मि १५३७
नावप्रसूतेरेवायोगादिति । शेषास्तु निर्गमजेदास्तदङ्गभावेन प्र. नवयारओ व सरो.विणिग्गओ णिग्गयो य तत्तोऽहं । शस्तनावनिर्गमकारणतयाऽऽनन्तर्येण पारम्पयोण घा कोऽपि अहवा दुकानाश्रो, नरोव वालाइकानाओ॥१५४०॥
कश्चिद् व्यानियत इतीह निर्दिा इति ॥ १५४४ ॥ कालोऽपि वर्तनारूपो द्रव्यधर्म एव । स च स्वरूपेण नि
___ तदङ्गत्वमेव व्याऽऽदीनां दर्शयतिक्रिया,अभ्यद्वारेगाव ततक्रियाप्रवृत्तः। तस्य च तत पर स्वाश्रयः
वीरो दव्वं खेतं, पहसावणं पमाणकामो य । भूनाद् च्याभिगमः प्रभव उत्पत्तिः। यथा-हरितादिकं य- भावो य भावपुरिसो, समासओ निग्गमंगाई ।।१५४५।। स्मिन् वर्षाऽऽदिके काले प्रभवत्युत्पद्यते स कालनिर्गम इति ।
यतो ऽव्यात्सामायिक निर्गतं. नद् अव्यमत्र श्रीमन्महावीगे अथवा-उपचारतोऽपि कालनिर्गमो, यथा-शरत्समयोऽसौ नि.
मन्तव्यः, यश्चि केत्रे तन्निर्गतं, तदिह महसेनयनमवग. र्गत आविर्भतः, ततो वा शरत्कालाद, दुष्कालाद्वा निर्गतो नि।
न्तव्यम् । कालस्तु प्रथमपीरुपीसकणःप्रमाणकालः । भावस्तु स्तीयोऽहं बालाऽऽदावस्थातो वा नरो निर्गत इत्याापचारतः
जावपुरुषो वक्ष्यमाणलक्षणः। एतानि समासतः संपतः साकासनिर्गम इति ॥ १५३ए ॥ १५४०॥
मायिकस्य निर्गमाङ्गानीति ॥ १५४५ ॥ अथ भावनिर्गममाह
एतदेव दर्शयतिजावो विदन्नधम्मो, तत्तो च्चिय तस्स निम्गमो पभयो।
सामइयं वीराओ, महसेणवणे पपाणकाले य । दव्वस्स व भावाभो,विणिग्गयो भावओऽवगमो।१५४१॥ जावपुरिसा हि जावो,विणिग्गओवक्खमाणोऽयं१५४६। रूवाइपोग्गनाओ, कमायनाणादो य जीवाओ।
गतार्था, नवरं श्रीमन्महावीरजीवनक्षणाद्भावपुरुषादयं वक्ष्यनिति पनवंति ते वा, तेहिंतो तन्विओगम्मि १५४। माणविस्तरस्वरूपः सामायिकत्रकणो भावो विनिर्गतः, इह च भावोऽपि कालवद् द्रव्यधर्म एव । तस्य च ततो व्याद् कायोपशमिके भावे वर्तमानत्वात् " सामायिकल क्षणो नायो निर्गमः प्रनवः स भावनिर्गमः, अव्यम्य वा जावानिर्गमो
वः" इत्युक्तम ॥ १५४६ ॥ भावनिर्गमः । कः ?, इत्याह-जावतो जावमाश्रित्य यो व्यस्या
अथ महावीरलकणस्य यस्य निर्गमं तावदभिधित्सुराहपगमो विनाशः । इदमुक्तं भवति-यदा व्यं पूर्वपर्यायेण वि.
इच्चेवमाइ सव्वं, दवाहीणं जो जिएस्सेव । नश्यति, अपूर्वपर्यायण तूत्पद्यते, तदा पूर्वपर्यायात्याक्तनभावाद् तो निम्गमणं वोत्तुं, बोच्चं सामाश्यस्स तो ॥१५१७।। कव्यस्य निगंतवाद्भावान्निगमो भावनिर्गम इत्युच्यते। तथा रू. इत्येवमादिक केत्रकालनिर्गमनाऽऽदिकं सामायिकाध्ययनाचपाऽऽदयो भावाः पुलऽव्यात, कषायज्ञानाऽऽदयश्च जीवानि- श्यकश्रुतस्कन्धाऽऽचाराऽऽदिकं वा सर्वमपि यतो यस्माद् द्रव्यगछन्ति प्रनयन्तीति भाचानां निर्गमो भावनिर्गम उच्यते ।
स्य महावीरतवणस्याधीनम,ततस्तस्यैव महावीरजिनस्य निर्ग(ने वा तेहितो त्ति) अथवा ते पुजलजीवाऽऽदयः पदार्थास्ते
मनमुक्त्वा ततः सामायिकस्य निर्गमनं वक्ष्य इति ॥१५४७॥ भ्या रूपाऽदित्यः कषायाऽऽदिभ्यश्च भावेभ्यस्तद्वियोगे प्रातनजावविनाशे निर्गच्चन्तीति भावेभ्यो निर्ममो भावनिर्गम
ननु महावीरजिनस्याऽपि निर्गमनं कथं वक्तव्यम् ?. इत्याहइत्युच्यत इति । तदेवं विनेयमतिव्युत्पादनार्थमनिहितः षट्विधो
मिच्छत्ताइतमाओ, म निग्गो जह य केवलं पत्तो। निर्गमः ॥ १५४१ ॥ १५४२॥
जह य पसूर्य तत्तो, सामइयं तं परक्खामि ॥१५४८।। इदानी प्रकृते यावना प्रयोजनं तदुपदर्शयितुं प्रशस्तभावनि- तमिति तदेतत्सर्व प्रवक्ष्यामीति गाथार्थः ॥१५४०॥ विशे०। गेमस्वरूपं तावदर्शयन्नाह
अत्र वक्ष्यमाणो भावः सामायिकाक्षणः,पतच्च सर्व भगवतत्थ पसत्थं मिच्छ-त्तमाणाविरजावनिग्यमणं ।
महावीरलक्षणअध्याधीनमतस्तस्यैव प्रथमतोमिथ्यात्वाऽऽदि
ज्यो निर्गममभिधित्सुराहजीवस्स संभवंति य, जसम्मत्ताद मो तत्तो ॥१५४३॥ तत्रानन्तरोक्त नावनिर्गमे प्रशस्तं शुनं निर्गमनम् । किम !,
पंथं किर देसित्ता, साहणं अडविविप्पाहाणं । स्याह-मिथ्यात्वाऽज्ञानाविरतिलकणादप्रशस्तजायात् यर्मि
संमत्तपढमलंभो, बोधवो वकमाणस्स ॥१४॥ गमन निःसरणं जीवस्य । किमिति १, इत्याह-पद्यस्मात्संजव. पन्धानं, किलेत्याप्तवादे, देशयित्वा कथयित्वा, साधुन्या, सून्स्येव ततो मिथ्यात्वाऽऽद्यप्रशस्तजावनिगमाउजीवस्य मुक्ति। त्रे षष्ठी प्राकृतत्वात्। (अमवित्ति)प्राकृतत्वादेवात्र सप्तम्या लोपदप्रामिदेतवः सम्यक्त्वाऽऽदयो गुणा इति । १५४३॥
पः । भटव्यां पथो विप्रनरेभ्यः परिम्ररेभ्यः, पुनस्तेभ्य पब दे
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(२०५३) अभिधानराजेन्रूः |
णिग्गम
शनां श्रुत्वा सम्यक्त्वं प्राप्त एवं सम्यक्त्व प्रथमलाभो बोद्धमावस्येति गाथारार्थः ॥ १४
भावार्थः कथानकादय सेयः तम् " अरविदेदे म गाने बलाहि सो व रायसेन गाणि महाय दारुनिमि
महाकवि पविठो । इतो य साहुणो मग्गं पवना सत्थेण स. मं षश्चंति, सत्थे मात्रासिए निक्त्रं पविट्ठा, सत्थो गतो, ते ममातो पदाविया भयाणता जुल्ला, मूढदिसा पंथ प्रयाणंता तेण अमविपंथेण मञ्झवह दिवसकाले तएदाए बुढाए य अप रखा दे गया जय सो सगड संनिवेसो सो या तं ते पासिता महंत संवेगमावन्नो भणइ श्रहो ! इमे साहुणो अ देसिया तत्रसिणो अरुविमरणुप्पविद्या । तेसिं सो परमभन्त्तीए विठलं असणं पाणं दाऊण आह-पह भगवं !, जेण पंथे समवसारे पुरतो संपत्ति ता ते विसो तस्सेच मग्गेण अणुगच्छंति, ततो गुरु तस्स धम्मं कहेउमारखो, सो तस्सुवगतो, ततो पंथं समोयारित्ता नियतो । ते पत्ता मदेसं । सो पुण चिरयसम्मदिट्ठी कालं काऊण सोदम्बे कप्पे पलियोमश्री देवो जातो। '
एतदेवोपप्रदर्शयन् गाथाद्वयमन्तर्भाध्यकृदाहव्यवरविदेहे गाम-स्स चिंतगो रायदारुवणगमणं । साहू निक्खनिमित्तं सत्या ही ताई पासे ॥ १५०॥ दान पंचनवर्ण, अकंप गुरूण कहण सम्मयं । सोहम्मे उबवनो, पलियाउ सुरो महिडीओ || १५१ ।। अपरविदेहे ग्रामस्य चिन्तकः, ( रायदारुवणगमण मिति) अत्र निमित्तशदलोपो ज्य:- राजदारनिमित्तं तस्य वनगमनं स साधून निज्ञानिमित साध भ्रान्तवान् ततोऽनुक स्पया परमभक्तथा दानमन्नपानस्य, नयनं प्रापणं पथि, तदनसरं गुरोः कथनं, ततः सम्यक्प्राप्तिः तत्प्रभावान्वाऽसौ सौधर्मो के उत्पन्नः पयोमायुः सुमहर्द्धिकशते
लडू य सम्मतं, अनुकंपाए सो सुविदियाणं वि । भासुरवरत्रोंदिधरो, देवो माणिभो जातो ||१२|| स ग्रामचिन्तकः सुविहितानामनुकम्पया परमभक्तचा तेभ्यः सम्पत्वं वा भासुरां दीप्तिमती व प्रधानबोदित डुं धारयतीति भास्वश्वरथदि देवो वैमानिको जातः इति नियुक्तिगाथाऽर्थः ॥ १५२ ॥
।
देवलगा, इढ चैव व भारहस्य वासयि । इक्खाकुले जातो, उमजतो मरीचि ॥ १५३॥ ततो देवलोकात् स्वायुःक्षये व्युत्वा इहैव भारते वर्षे दवाकुकुले जात उत्पन्न बनसुतसुतो मरीचिंः, ऋषभपौत्र इत्यर्थः । यतमेवमतः
इक्स्वागुकुले जातो, इक्खागुरुस होइ उप्पत्ती । कुलगरवंसेऽतीए, जरटुस्स सुओ मरीइ चि ॥१५४॥
वाकूणां कुल मिक्ष्वाकुकुलं, तस्मिन् जात उत्पन्नो, भरतस्य सुतो मरचिरिति योगः । तत्र सामान्येन ऋषभपौत्रत्वाभिधाने सतीदं विशेषाभिधानमष्टमेव सामान्यानिधाने सति सर्व
जात,
आप विशेषाभिधानस्य दर्शनास कुलकराः वयमाणलचणाः तेषां चंदाः प्रवाहातमितिका
५१४
विग्गुणबंभ
यतत्रैवमत इक्ष्वाकुकुलस्य भवति उत्पत्तिर्वाच्येति शेषः । ॥ १५४ ॥ भ० म० १ ० १ खराम । म० ० ( कुलकरवकव्यता ' कुलगर ' शब्दे तृतीयजागे ५६२ पृष्ठे समुक्ता ) गिमग-निर्गमक-पुं० प्रस्थाने ०१०
।
66
णिग्गमण-निर्गमन - न० । प्रपक्रमणे, निस्सरणे, पलायन, व्य० १० मार्गे ० २०१० (त्योपसंपदू विधिः 'सबसंपया' शब्दे द्वितीयभागे १००५ पृष्ठे उक्तः) विग्गय निर्गत श्र० नि० १ ० १ ० उत्त० नं० । नि० | अभिनिष्क्रान्ते, अ० म० १ ० १ खएन । रहिते, संथा । पञ्चा० । अविद्यमाने, स्था• १ ठा० । प्रतिपातिते, स० ६ अङ्ग । " उरुंमुद्दे निग्गयजी हनेते । " निर्गतजिह्ननेत्रान् । उत्त० ११ अ० णिग्गयग्गदंता । " निर्गता अग्रदन्ता यस्य स निर्गताग्रदन्तः । का० १ ० ८० स्थानान्तरमादया निचितेऽनिधिते गमने भ० १४ श० १० । णिग्गढ़ - निग्रह - पुं० । अनाचारप्रवृत्तोर्निषेधने, नि० १ ० १ वर्ग १ श्र० । शा० । अन्यायकारिणां दमे, भाव०६ श्र० । ग भ० । रोधे, भ० ७ ० ६ ० । इन्द्रियनो इन्द्रियनियन्त्रणे तु ८० १७ अ० । श्रा० चू० । खिच-निग्रहयुक्त त्रि० । इन्द्रियकपायाणां निग्रहसम थे, बृ० ४ ८० । विग्गहाण-निग्रहस्थानन० वादकाले वादी प्रतिवादी वा येन निगृहस्थानम् ०१०१२वञ्चनार्थके प्रतिज्ञाहान्यादौ न्यायपरिभाषिते पदार्थे, स्था•
१ ग० ।
निग्गड़दोस- निव्रहदोष-पुं० नमस्थलादिना पराजय स्थानरूपे दोषभेदे, स्था १० ठा० । विग्गदृष्पाण-निग्रहधान-नधनाचारप्रतिनिषेधा ने, नि० १ ० १ वर्ग १ श्र० । औ० ।
पिग्गहसमत्य - निग्रहसमर्थ पुं० । जितेन्द्रिये, तरुणाऽऽदीनां वा संपतीय रटादिना शिक्षा कारणद के ० १४० ।
हिम्मदिय-निदीत ०ि वादे पराजिते "से बा । णिग्गहितो, पच्छा सावगेर्दि गोट्ठामाहिलो धरितो ।” श्र०म०२४० । णिग्गा-देशी- दरिद्रायाम देना वर्ग २५ गाया । खिम्गादि - [] निग्राहिए- निगृह्णाति मनोजवेन वशी ति निग्राही । निग्रहणशीले उत्त० ४ अ• । विग्गण देशी-निर्गते दे० ना०४ वर्ग ३६ गावा शिगुण-निर्गुण-वि० नि०० द्वार
गुणापेक्षा निर्मर्यादा०३०२ ३० भ० उत्तरगुणवि कले, जं० २ ० । स्था० । गुग्वतरहिते, का० १४० १८० ॥ दादगुणाभावात् (दशा०६०) सामादिगुणाभावाद् गुणविकले, रा० भ० ।
हिम्युज- निर्गुण ब्रह्मन योगादिरमिनिस स्वरजस्तम पि
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(२०५४) णिग्गूढ अन्निधानराजेन्दः।
णिञ्चभत्तिय जिग्गूढ-निर्गुढ-त्रिका स्थिरतया स्थापिते,सूत्र. २ भु०७० सूत्र. १ श्रु०१० । प्राचा० । रा•। औ०। शूकराऽऽदिसंघा. णिग्गोह-न्यग्रोध-पुं० । वटवृक्के, अनु । स्था० । स०। जी0।
ते, पि० । संचये, भोघ।
णिचिक्विन्द्व-निश्चिखिल-पुं० । कर्दमाभावे, व्य०६००। णिग्गोहपरिमंडल-न्यग्रोधपरिमण्डल-न० । न्यग्रोधवत्परिम
णिचिय-निचित-त्रि० । निविमे, अनु । प्रश्न रा० । स्था। पमलं यस्य तश्यग्रोधपरिमएमसम् । कर्म०६ कर्म । प्रज्ञा ।
भौ। भनिविस्तरचयमापने, प्रा. म.१०१सएम। जी० । नाभेरुपरि न्यग्रोधवन्मएमले, माद्यसंस्थानयुक्तत्वेन वि. शिष्टाऽऽकारे द्वितीयसंस्थाने,अनु। यथा न्यग्रोध उपरिसंपूर्णा
णिच-नित्य-त्रि० । शाश्वते, उत्त०१० अ० । भाव० । सपयवोऽधस्तनभागे पुनर्न तथा, तथेदमपि नाभेरुपरिचिस्तरब.
घा० । सर्वदाऽवस्थायिनि, आचा०१ शु. १. ५ .। दुखं शरीरसकणोक्तप्रमाणनागमधस्तु हीनाधिकप्रमाणमिति ।
उत्पत्तिविनाशरहिते, प्रव०१द्वार । अविनाशर्मिणि, स्या. । स्था०६ ग०। पं० सं०। कर्म०।
ध० । अविचलितस्वभावे, दश. १ ० । अव्यवमित्ररूप,
विशेाभप्रच्युतानुत्पन्नतिरैकस्वभावे, भाचा०१७.५ ०५ णिग्गोहपरिमंमन्नणाम-न्यग्रोधपरिमएमलनामन-न० । न्यग्रो
सास्वादश । अप्रच्युतानुत्पन्नस्विरेकस्वन्नावतया कूटस्थधपरिमएमसनिबन्धने नामकर्मनेदे, कर्म. १ कर्मः।
नित्यत्वेन व्यवस्थापिते, भाचा.१ ० ५.१० । भ्रवे, णिग्घह-देशी-कुशले, दे० ना.४ वर्ग ४ गाथा।
प्रश्न. ३आश्रद्वार। मो०।सर्वकाले, रा.कल्प. जी.। णिग्याय-निर्घात-पुं० । वैक्रियाशनिप्रपाते, जी० १ प्रतिप्र. व्यः । प्रश्न सर्वदेत्यर्थे, संथा० । जं० । प्रश्न । रा० । का० । विद्युत्प्रपाते, जी०१ प्रति०४ उ० । साभ्रे निरभ्रे वा ग.
स्था सुत्र. उत्त०।"रागदोसे य जे पावे, पावकम्मपवगने व्यन्तरकृते महागजिंतावनौ,स्था.१.गाभावानि.
तणे जे निक्खु रंभई णिचं,सेन भत्थर मंगले॥१॥"उत्त०३१ चू० । निर्जरणे, सूत्र० १ ० १५ १०।
अ०।" णिचं नीयकम्मोवजीविणो।" नित्यं सदा नीचान्यध
मजनोचितानि कर्माण्युपजीवन्ति तैत्ति कुर्वन्ति ये ते तथा । बिग्घायण-निर्घातन-न०। निराधिक्येन घातो निर्धातः। निर्ज
प्रश्न. ३ प्राथ० द्वार। रणे, प्रा० चू. ५०।
णिचउम्गाह-निश्चयोदग्राह-पुं० । निश्चयनयोपन्यासे, "तेना. एग्घायणढ-निर्यातनार्थ-पुं० । निर्घातननिमित्ते, “पाचाणं
दौ निश्चयोग्राहो, नग्नानामपहस्तितः। रसायनीकृतविषकम्माणं णिग्यायपाए।" आव०५०। निर्घातनमुच्छेदास प्रायोऽसौ न जगद्धितः" ॥७॥ निश्चयनयाग्राहो निश्चयएवार्थः प्रयोजनं तस्मै । ध०२ अधिः।।
नयोपन्यासः । नयो। णिग्घिण-निघृण-त्रि.। न विद्यते घृणा पापजुगुप्सालकणा | णिचंधकारतमस-नित्यान्धकारतमस-न । नित्यमेवान्धकार. यत्र स निघृणः। प्रश्न.१आश्रद्वार। न विद्यते घृणा पापजुगु
तमसं येषु ते तथा । मेघावच्छिन्नाम्बरतलकृष्णपतरजनीवत् प्सा यस्य सः। प्रव. २७४ द्वार । प्रश्न निर्दये, का०१० तमोबहुलेषु नरकेषु, सूत्र. २६०२ भ.. श्र०। आव०।"मो दी| वा"1८३। ३॥ इति संबुको बा | निच्चंपरदार-नित्यं परदार-पुं० । प्रतिक्रमणसूत्रमध्ये भाविकाः दीर्घः।'रे रेणिग्घिणया!'प्रा०३ पाद ।
" निश्चंपरदारगमणविरो । " इत्यादिपावं कथयन्त्युत णिग्घिणता-निघुसता-स्त्री० । निर्दयतायाम,पश्चा०१०विव०।
"निच्चं कापुरिसगमणविरईओ।" इत्यादि चेति प्रश्ने, उत्त
रम-प्रतिक्रमणसूत्रपास्तु श्रारुश्राविकाणांसहश एव ज्ञायते, णिग्घिणमइ-निघृणमति-त्रि० । परस्य द्रव्यादविरते, प्रश्न०३
येनैतवृत्ती स्त्रियं प्रति परपुरुषवर्जनमुपलकणाद् कष्टव्यमिति आश्र0 द्वार।
व्याख्यातमस्तीति। ३५ प्र० । सेन. २ उल्ला। णिग्घे-निगृहीतुम्-अव्य० । निरुध्येत्यर्थे, "पुवपयत्तेण स-| णिचच्चणिय-नित्यक्षणिक-त्रि० । नित्यं सर्वदा कणा उत्सवा क्कितो णिग्घेउं ।" नि० चू. १ उ० ।
यत्राऽसौ नित्यकणिकः । सावदिकोत्सवयुक्ते, का० १ ध्रु० णिग्योर-देशी-निर्दये, दे० ना० ४ वर्ग ३७ गाथा। णिग्योस-निर्घोष-पुं० । नितरां घोषो निर्घोषः। तं० । आव० ।
पिच्चतवित्त-नित्यतनित-त्रि० सदैव तत्परे,पञ्चा०१७ विवा। महाप्रयत्नोत्पादिते शब्दे, न. ६ श० ३३ उ० । महाशब्दे, क
णिचक्खिय-नित्यदुःखित-त्रि० । सदा दुःखाऽऽकुले, तं० । प०५ क्षण । रा०पा . म.विपा० । महाध्वनौ, प्रश्न. १
णिच्चदोस-नित्यदोष-पुं० । अविनाशिदोष,स्था। तथा नित्यो आभा द्वार । जी० । प्राचा० । झा० । रा०।
यो दोषोऽभव्यानां मिथ्यात्वाऽऽदिरनाद्यपर्यवसितत्वात, सदोषः णिघंटु-निघण्टु-पुं० । नामसङ्ग्रहे, कल्प. १ कण । कोशे, सामान्यापेक्कया विशेषः । अथवा-सर्वथा नित्ये वस्तुनि अभ्युऔ० । नामकोशे, "णिघंटुछट्ठाणं संगोवंगाणं चटएवं वेयाणं।"
पगते यो दोषो बालकुमाराऽऽद्यवस्थानाबाऽऽपत्तिलक्षणः, सनि०१शु.१ वर्ग ५ अ०। कल्प० ।
दोषः सामान्यापेक्षया दोषविशेष इति । स्था०१०म०। णिघस-निकष-पुं० । कषपट्टगतायां कषितसुवर्णरेखायाम,
णिचापम-नित्यपिएफ-पुं०। निमन्त्रितस्य नित्यं गृहतो ग्राह्ये भनु । नि०चापा०म० भ०1चं० प्र० प्र षI पिएमा प्रव० २ द्वार। पट्टकेसर्वेषामन्निधानानामागमो निकषः हेमरजतकल्पजीवा.
णिचजत्त-नित्यजक्त-न। अनवरतभोजने,पश्चा०६ विवः । ऽऽदिपदार्थपरिकानहेतुत्वात् कषपट्टकः । अनु०।
णिच्चभत्तिय-नित्यनक्तिक-पुं० । नित्यमेकाशनिनि साधौ, क. पिचय-निचय-पुं० द्रव्योपच येतन्निमित्ताऽऽपादितकर्मनिचये, प.९क्षण ।
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(२०५५) णिच्चभाव पानिधानराजेन्द्रः।
पिच्छयणय णिच्चभाव-नित्यनाव-पुं० । सर्वदा सद्भाव, पञ्चा० ६/णिच्चोयग-नित्योदक-त्रि० । प्रचुरजले, कल्प. क्षण। विव०।
णिच्चय-नैश्चपिक-पुं० । निश्चये भवो नैश्चयिको नयः। निश्च शिवर-कथ-धा। पुःखकथने, “दुःखेपिच्चरः"॥८।४।३॥
यनये, विशे० ।। इति दुःखविषयस्य कयोणिच्चर त्यादेशः । णिश्चर'
पिच्चक-देशी-त्रि.निजे, १०१ उ० । धृष्टे, व्य०५३० । मुच कथयतीत्यर्थः । प्रा०४ पाद।
अनवसर, शा० १श्रु०९ अ.। णिच्चल-मुच्-धा० । पुःखमोचने, “पुर्णिचसः"॥5।
पिच्छय-निश्चय-पुं० । निराधिक्ये चयनं चयः पिएमीप्रवनम४।३॥ इति सुखविषयस्य मुर्णिचनाऽऽदेशः । 'णि
धिकश्चयो निश्चयः। अनु। निरधिकश्चयो निश्चयः। सामान्ये, चम'। दुःवं मुश्चतीत्यर्थः। प्रा०४ पाद।
श्रा.चू०१०। परमार्थे, पं.व. ३द्वार । पञ्चा.पा. निश्चल-त्रि०। "इस्वात् थ्य-व-स-प्सामनिश्चले"।।
म०। आव० सुत्र.। श्री० । अवश्यकरणान्युपगमे तवनि२॥ २१ ॥ इति वभागस्य च्गे न, अनिश्चलेतिपयुदा- ये, भ०२२०५उ० प्रा० म०। सूत्र० । ज्ञा० । नियमे, सात् । प्रा०२पाद । भचले, सत्त०५० ।"बम णिकन- भव्यभिचारे, निश्चय परिच्छेदे, सम्म० ३ काण्ड । इत्थमेषदं मणिप्पंदा, भिसिणीपत्तम्मि रेहर बलाया।" प्रा०२ पाद । विधेयमित्येवंरूपनिर्णये, भ.१७ श०२ उ.। गमागमाऽऽदिरदिते, का०१७• २ . । रा।
णिकृयकहा-निश्चयकथा-स्त्री.। अपवादे, "भपवादोणिच. विचलपय-निश्चलपद-न० । मोके, पं. घ. द्वार । रा। यकदा भाति ।"अजुसूत्राऽऽदिभिः शुद्धनयैः क्रियमाणायां णिच्चवाय-नित्यवाद-पुं० । नित्यैकान्तवादे, स्था।
कथायाम, नि० चू०५ उ०। णिञ्चसंदण-नित्यस्यन्दन-त्रि० । नित्यनवणशीले सततवा
णिच्छयगोयर-निश्चयगोचर-पुं० । निश्चयविषये, द्रव्या० ० हिनि, कल्प. कण।
अध्या । णिचसति-नित्यस्मृति-स्त्री० । सार्वदिकस्मरणे, पश्चा• १ णिच्छयणय-निश्चयनय-पुं० । तस्वनयमते परिणामवादे, पविव०। प्रा०।
ना. १३ विव० । ब्यास्तिकनये, सम्म. ३ काण्ड । णिच्चसहाय-नित्यसहाय-पुं•। अवस्थितसहाये, व्य०६ उ०।
ऋजुसूत्राऽऽधास्तु चत्वारो निश्चश्नयाः । बृ० ४ ० ।
(निश्चयनयस्वरू'णय' शम्देऽस्मिन्नेव नागे १७५२ पृष्ठे पिच्चसुह-नित्यसुख-त्रि० । सदा सौक्ये, पाव० ६.।
प्रतिपादितम्) णिवाणिच्च-नित्यानित्य-त्रि० । स्थितिभवनभरूपापेक
निश्चयव्यवहारयोः पार्थक्यम्या नित्ये, भवनभङ्गरूपापेक्वयाऽनित्ये, स्था० १ ठा० । निश्चयाद् व्यवहारेण, कोपचारविशेषता। सर्वस्यैव बस्तुन उत्पाद व्ययभ्रीव्ययुक्तता । इत्यत्र प्रमाणम्- मुख्यवृत्तिर्यदैकस्य, तदाऽन्यस्योपचारता ॥ २२ ॥ "असतो नत्धि पसूई, होज्ज व जर होउ स्वरविसाणस्स । (निश्चयेति) निश्चयाद् निश्वयनयाद् व्यवहारेण सहोपचारन य सचहा विणासो, सबुच्छेयप्पसंगाप्रो ॥ १९६८ ॥ विशेषता काऽस्ति ?। व्यवहारविषये उपचारोऽस्ति, निश्चये स. तोऽवस्यियस्स केण, विलओ धम्मेण नवणमन्त्रेण । । पचारो नास्त्येतावद्विशेषता। यदेकनयस्य मुख्यवृत्तिगृहाते,तदा सव्वुच्छेनोन मो, संववहारोवरोदात्रो" ॥ १६६६॥ ।
परनयस्योपचारवृत्तिरायाति । रत्नाकरवाक्ये स्याद्वादरत्नाकरे भन्यत्र विवृतम् । विशे० । (सादिश्रुतप्रकरणेऽप्येतत् )
च प्रसिद्धमस्ति-'स्वस्यार्थसत्यत्वस्याभिमानोऽखिलनयानामणिच्चालोग-नित्यानोक-पुं० । चतुःषष्टितमे महाग्रह, "दो
भ्योऽयं वर्तते, फलात् सत्यत्वं तु सम्यग्दर्शनयोग एवास्ति।" णिच्चालोया।" स्था०२०३१०। कल्पा सू०प्र०।० एवं च प्रकृतमर्थ व्याख्यायते-निश्चयनयाद् व्यवहारनयेन प्र.। नित्यमालोक उद्योतो यति । सर्वकालमुद्द्योतमाने, सदोपचारविशेषता काऽस्ति या उपचारविशेषता वर्तते, तां कल्प. ३क्षण।
दर्शयंति-यदेकभ्य कस्यचिन्नयस्य मुख्यता मुख्यभावो वर्तते, णिचिद-निश्चिन्त-त्रिका "अधः क्वचित्"।८।४।२६१ ॥ इति तदाऽन्यस्यायनयस्य उपचारता गौणत्वं भवतीति शेयम् । शौरसेम्यां तस्य दः । चिन्ताविकले, प्रा०४ पाद ।
यथाहि-निश्चयेन पात्मेति शब्द पतस्य निश्चवार्थस्तु-"मणिचुन्जोय-नित्योद्योत-पुं०। पनवष्टितमे महाप्रह"दो
संख्यातप्रदेशी निरजनोऽनन्तज्ञानाऽऽदिगुणोपेतो नित्यो चितु:
कर्मदधिरसतासिरू इव देदे उपलभ्यते।" तदाऽस्य व्यवहा. णिच्चुज्जोया।" स्था० २ ग० ३१०। कस्प० । चं० प्र० ।
रेणोपाधिकस्य जमशरीराऽऽदेः सङ्गतस्यौदायकाऽऽदिभावोसू० प्र०।
पगतनरनैरयिकाऽऽदिभावस्पर्शतोऽपि गौणत्वं नासते। अधच णिचुब्बिग्ग-नित्योदविग्न-त्रि० । सदाऽप्रशान्ते, दश. ५
'मतति सातत्येन गच्छति तांस्तान्पर्यायानित्यात्मा। 'संसारस्थो भ.२३० । सदोदासीने, अष्ट० २२ अष्ट ।
देहाऽऽदिसंगतो जन्ममरणजरायौवनाऽदिक्लेशमनुभवमानः णिचेह-निश्चेष्ट-त्रि• । व्यापाररहिते, का. १ भु.२०। प्रत्यकप्रमाणेन व्यवहाराऽऽदेशाद् देवो मनुष्यो नारकस्तिर्यक णिच्चेयणय-निश्चेतनक-नि० । चैतन्यवर्जिते शरीरे, तं। च कथ्यते, तत्र सिरूत्वस्य गौणत्वम् ।।१२।। णिचोना-नित्यर्तुका-स्त्री० । नित्यं सदा, न व्यहमेष ऋतू
भथ पुनस्तदेव प्रतिपादयतिरक्तप्रवृत्तिलकणो यस्याः सा नित्यतुका । सदा रजस्वलायाम् ।।
तेनेदं भाष्यसदिष्ट, ग्रहीतव्यं विनिश्चयम् । सा च गमै न धरते । स्था५ ग.१००।
तत्वार्थ निश्चयो वक्ति, व्यवहारा जनोदिनम् ॥ १३॥
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विश्छयाय प्राभिधानराजन्तः ।
णिज्जरा (तेनेति ) तेन कारणेनेदं विनिश्चयं निश्चयव्यवहारयोकणं,
राणाऽऽदयः" ।।४।२५८॥ इति नसतशब्दस्य निम्बूढा. मायसंदि विशेषाऽऽवश्यकनिरूपितं,ग्रहीतव्यमवधारणीयम् । 5ऽदेशः प्रा०४ पाद । उत्तिप्त, नुक्तोज्झने च । बाच०।"सो अथ निश्चयव्यवहारयोर्लकणमाह-निश्चयो निश्चयनयः, तरवाये
परिवायगो हीलिज्नंतो जिम्बूढो।" प्रा०म०१०३जएक। युक्तिसिरूमथै, बक्ति कथयति । पुनर्व्यवहारो व्यवहारमयो, जनोदितं लोकाभिमतग्राहित्वं वक्ति। यतो लोकाभिमतमेव व्य
पिच्चहणा-निकोजणा-स्त्री.। निःसरास्माद् गेहादिति प्रपहारः,तस्य ग्राहक प्रमाणं न भवति, प्रमाणं तु तवाग्राह
सने, शा.१च. १६ म०। कमेवास्ति । तथापि प्रमाणस्य सकसतरवार्थवादी निश्चयनया,
णिच्नेय-निश्चय-त्रिका निश्चीयत इति निधेयः । अवश्यकरएकदेशतरवार्थप्राही व्यवहारचायं विवेकः । निश्चयनयस्य
खीये, रा। विषयत्वम्, अथ च व्यवहारनयस्य विषयत्वमनुभवसिचं णिच्छोमाता-निश्गेट्य-मभ्या प्राप्तमधे त्याजायत्वेत्यर्थे,प्र. भिनमेवाऽऽस्ते। यथा सविकल्पककानं नष्टप्रकारताऽऽदिकम- १५ श• । पुरुषान्तरसम्बन्धिहस्ताऽवयवतो वियोजयित्वे. न्यवादिनो जिनमेवामनन्तीति दृदये विमर्शनीयम् ॥ २३ ॥ त्यर्थे, भ. १५ श०। सम्बन्धान्तरसंबद्धहस्ताऽऽदी गृहीत्वा अथोपचारं निर्दिशति
बलात् विप्वेत्यर्थे, स्था०५ ग.१००। उपा। बासस्याऽज्यन्तस्त्वं यत्, बहुव्यक्तरनेदता।
पिच्छोमणा-निकोटना-सी. । त्यजास्मदीयवसाऽऽदी. यच्च द्रव्यस्य नैर्मल्य-मिति निश्चयगोचराः ॥२४॥ त्यादिरूपे भर्सने, भ० १५ श।का। (बाह्यति) यद् बाह्यस्य बाह्यार्थस्याऽभ्यन्तरत्वमन्तरत्वं वर्तते. णिच्छनए-निरछोटन-न। स्वगपनयने, "भंगादाणं णि. तदपिगोचरम,निश्चयविषयमित्यर्थः। यथा-"समाधिनन्दनं धैर्यो, चोले, जिच्छोसंतं वा साइज।" "णिोलेति' स्वचमपनय. दम्भोलि: समता सभा । ज्ञान महाविमानं च वासवदीरियं ति, महामणि प्रकाशयति इत्यर्थः । नि००१3०। नः॥१॥" इत्यादिपुण्मरीकाध्ययनाऽऽचर्थोऽप्यवं जावनीयः ।। |णिजुद्ध-नियुक-न. । सर्वसन्धिविक्षोनणपूर्वके युद्ध, मि. मथ पुनर्बहुव्यक्तरनेकविशेषस्याभेदता भेदराहित्यं, तदपि नि- | चू.१५ उ०।ौ ।का। चयविषयम् । यथा-"एगे आया"इत्यादि सूत्रम,तथा वेदान्तद- त-देशी-सुप्ते,दे. ना.४ वर्ग२५ गाथा। शेनमपि शुरूसंग्रहमयाऽऽदेशरूपःशुद्धनिश्चयनयार्थः संमतिप्रन्थे कथितः। (स चास्मिन्नेव भागे १८९१ पृष्ठे दर्शितः) तथा
णिज्जप्पपाणभोयण-निर्याप्यपानजोजन-न० । क. स० । पुनर्थव्यम्य पदार्थस्य यमल्यं तदपि निश्चयविषयम, नैर्म
निर्यापनाकारकषु दुर्यलेषु पानभोजनेषु, प्रश्न ५सम्बद्वार। व्यं तु विमलपरिणतिः बाह्यनिरपेकपरिणामः, सोऽपि निश्चयन-णिजरहया-निर्जरायता-स्त्री० । ममाऽप्येप्तान वाचयतः कर्मयाऽथी योद्धव्यः । यथा-"आया सामाइप, आया सामाश्य- निर्जरा विपुला भविष्यतीति प्रयोजने, "गट्टयाए जि. स्स प्रहे।" एवमेते अभ्यन्तरवाऽऽदयो निश्चयगोचरा एव । | रध्याए पजवजाए।" मा० म.१०१ खएम। स्था। यथा यया रीत्या लोकातिक्रान्तोऽर्थोंsa" , तथा तयाशिजरटिण-निरार्थिन्-त्रिका कमवयकाम रीत्या निश्चयन यस्य दा भवन्ति। तस्माचसोकोत्तरार्थभावना समायातीति शेयम् ॥ २४ ॥ व्या०८ मध्या०।
|णिजरण-निर्जरण-न० । यतनोपयोगिकानदर्शनविशुरुमते. णिच्छर-निर्जर-पुं० । “विकापैशाचिके तृतीयतुर्ययोराध
भौ । दाने च, " णिचरणं भवत्थायं।" म्य०७०। द्वितीयौ" ॥८।४ । ३२५ ॥ इति चतुर्थस्य झस्य । गि-|
Iणिजरमाण-निर्जस्यत-त्रि० । निर्जरां कुवाणे, भ.१० श०॥ रिपतत्प्रस्रवणे, प्रा०४ पाद । णिच्छर-जिद-धा० । छेदने, “निदहाव-णियम-निमाणिज्जरा-निर्जरा-खी० । निजैरणं निर्जरा। कमैक्कये, भाष०३ णिवर-णिल्यूर-दूगः" ॥८।४।१२४ ॥ इति णिच्क्षाऽऽदे.
म. । पचा । स्था० ।दर्श । प्रोघ० । भाचा कर्मणां शः । णिच्छल्लक, छिंदर, चिनत्ति । प्रा०४ पाद ।
जीवप्रदेशेज्यः परिशटने, स्था० १०ठा। कारस्य नानुसमय मिच्छधिय-निश्गल्लिक-त्रि० । ग्लीरहिते,१.१ उ.।
विशेषकर्मविपाकहान्या परिशटने, स्था०४ ग. ४..
कमपुझल शाटने, सुत्र.२७० ५० प्रावास्था । नाशे, पिच्चाय-निश्छाय-त्रि० । गतश्रीके, का० ३ ०३.।
श्रा० कर्मणोऽकर्मताभवने, स्था०२ ठा०४उ० । विशरणे विशोन, प्रश्न.२पाश्रद्वार।
परिशटने, स्था.१गा अपचये, कर्म.. णिच्छिह-निश्छिद्र-त्रि.। स्थगितरन्धे दर्श०४ तव । ज० ।
एगा णिज्जरा । णिच्छिप-निश्विन-त्रिका रूपाऽऽदिव्यावृत्तेः पृथकते,विशेगा निर्जरणं निर्जरा, विशरणं परिशटनमित्यर्थः। सा चारविधपिच्चिय-निश्चित-त्रि० । अवश्यं नाविनि, स०६ अङ्गानि
कर्मापेकयाऽष्टविधाऽपि,द्वादशविधतपोजनितत्वेन च द्वादशवि.
धाऽपि, अकामचुत्पिपासाशीताऽऽतपदंशमशकसहनबहाचर्यश्चयवति, शा० १ ०१ अ० । प्रश्न असंशये,स०११ अङ्ग।
धारणाऽऽद्यनेकविधकारण जनितत्वेनाऽनेकविधाऽपि,कव्यतो बणिभण- निजण-न । निष्काशने, व्य० ० उ०।"मसं.
स्नाऽऽदेर्भावतः कर्मणामेवं द्विविधाऽपि वा,निर्जरा सामान्यारेवमिणिच्छुप्रणे।" निचू०१०।
कैवेति । ननु निर्जरामोक्षयो का प्रतिविशेषः१, उच्यते-देशतः पिच्छम-देशी-निर्दये, दे० ना०४ वर्ग ३७ गाथा।
कर्मकयो निर्जरा, सर्वतस्तु मोक इति । स्था० १ ठा। पिचर-निमपत-न। निष्ठीवने, विशे-आण्म। "केनाफ-| .।
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(२०५७) णिज्जरा भनिधानराजेन्द्रः।
पिज्जरा अधुना यगुणवशाजीवानां यावती निर्जरा, तामाह- पिज्जरे से महावेपणे, महावेयणस्स य अप्पवेपणस्स य एयगुणा पुण कमसो, असंखगुणणिज्जरा जीवा। [३]] से सेए ने पसत्वनिज्नराए । हंता गोषमा ने महावेपणे० पते प्रागुपदर्शिताः सम्यक्त्वदेशविरतिसबिरत्यादयो गुणा
एवं चेव । हमलमासु पंजते ! पुटनीस नेरड्या महाधर्मा येषां ते पतद्गुणाः, जीवा इत्युत्तरेण संबन्धः। कथम,.
वेयणा । ईता ! महारयणा । तेणं भंते ! समरोहितो स्याह-पुनरिति पुनःशब्दो गुणश्रेणिस्वरूपापेक्षया व्यतिरेकार्थः। निग्गंथेहितो महानिज्जरतरागा॥णो इणढे समढे। से कमशो यथोत्तरं क्रमेण, असंख्यातगुणिता निर्जरा कर्मपुस्लप
केणं अट्ठणं भंते ! एवं वृच्चइ-जे महावेयणे. जाव रिशाटरूपा येषां तेऽसंख्यातगुणनिर्जराः, जीवाः सवाः, भव. न्तीति शेषः। तत्र सम्यक्त्वगुणा जीवाः स्तोकपुलमिर्जरकाः,
पसत्यनिज्जराए । गोयमा ! से जहानामए मुचे वत्था सतो देशविरता असंख्येयगुणनिर्जराः, ततः सर्वविरता असं.
सिया-एगे पत्थे कद्दमरागरते,एगे वत्थे संजणरागरचे, एए. क्येयगुणनिर्जराः, ततोऽनन्तानुबन्धिविसंयोजका असंख्येयगु- सिणं गोयमा ! दोएडं वत्थाणं कयरे वत्थे दुधोयतराए णनिर्जराः, ततो दर्शनकपका असंख्येयगुणनिर्जराः,ततो मोह
चेव,दुवामतराए चेव, दुपरिकम्मतराए चेक, कयरे वा बत्थे शमका असंख्येयगुणनिर्जराः, तत उपशान्तमोहा असंस्थेयगु. निर्जराः, ततः कपका असंख्येयगुणनिर्जराः, ततः कीरणमोहा
मुधोयतराए नेव, सुवामनराए चेब,सुपरिकम्मतराए चेव,जे असंख्येयगुणनिर्जराः, ततः सयोगिकेवलिनोऽसंख्येयगुणनि
बा से वत्थे कद्दमरागरते,जे वा से वत्ये संजणरागरत्तेजिगजराः, ततोऽप्ययोगिकेवलिनोऽसंख्येयगुणनिर्जराः (८३) कर्म० वं! तत्य एंजे से कद्दमरागरते से णं वत्थे धोयतराए चेब, ५ कर्म०। स्था। (देशेन सर्वेण चाऽऽरमा निर्जरयतीति 'आता' वामतराए चेव, उपरिकम्मतराए चेव एवामेघ गोयमा! शब्दे द्वितीयभागे १६६ पृष्ठे उक्तम) (भक्तप्रत्याश्यानेन निर्जग भवतीति । भत्तपञ्चक्वाण ' शब्दे वयते )
नेरझ्याणं पावाई कम्माई गादीकयाई चिकणीकयाई सि"जीवा णं चहि गणेहिं अटु कम्मपगडीओ णिज्जरेसु, जि.
दिलीकयाई खिल्लीकयाइं जवंति, संपगादपि य णं ते वेयणं ज्जरिति,णिज्जरिस्संति।" कर्मणोऽकर्मकत्वभवनामिति । इह च वेयमाणा णो महानिजरा नो महापज्जवसाणा जति, से देशमिर्जरैव ग्राह्या, संबंनिर्जरायाश्चतुर्विंशतिदएडके असम्भ- जहा वा के पुरिसे अहिगराणं आउद्देमाणे महया महया बात्, क्रोधाऽऽदीनां च तदकारणत्वात्, क्रोधाऽऽदिक्षयस्यैव त.
सद्देणं महया महया घोसेणं महया महया परंपराघाएणं णो कारणत्वादिति । स्था० ४ ० १ उ० ।
संचाएइ, तीसे अहिंगरणीए अहाबायरे पोग्गले परिसामिज्ञानी शीघ्र कम क्षपयति। तत्र निर्जराद्वारमाह
तए एवामेव गोयमा! नेरइयाणं पावाई कम्माइं गादीकजं अन्नाणी कम्म, खवेइ बहुयाइँ वासकोडीहिं।
याईन्जाव नो महापजवसाणाई भवंति । जगवं! तत्थ ने से तं नाणी तिहि गुत्तो, खवेइ ऊसासमित्तणं । वत्थे खंजगरागरत्ते से णं वत्थे सुधोयतराए चेव, मुवामतरायदज्ञानी जीवो नैरयिकाऽऽदिभवेषु वर्तमानो वह्वीभिर्वर्षकोटी- एचेव. सपरिकम्मतराए चेव । एवामेव गोयमा! | समणाभिः कर्म कपयति, तत्कर्म शानी त्रिषु मनोवाकायेषु गुप्तः, स- निग्गंयाणं अहाबायराई कम्माई मिढिलीकयाई निट्ठियाई मुच्चासमात्रेणापि कालेन कपयति । वृ०१० । कर्मनिर्जराहेती बुभुक्षाऽऽदिसहने, स्था० ४ ठा०४ उ. । (वैयावृत्यं
कमाई विपरिणामियाई खिप्पामेव विदत्थाई भवंति, जामहानिराहेतुरित्यतिशयानां प्रसने 'अइसेस' शब्दे प्र.भा.
वश्यं तावश्यं पि य पं ते वेयणं वेयमाणा महानिज्जरा ३० पृष्ठे आवेदितम्)
महापज्जवसाणा भवंति, से जहानामए कई पुरिसे मुकं तयो मदावेदनः स महानिर्जर:
पाहत्ययं जायतेयंसि पक्खिवेज्जा, से नणं गोयमा !1 से जीवा णं भंते ! किं महायणा महानिज्जरा, महावेयणा |
सुके तण हत्थए जायतेयंसि पक्खिते समाणे खिप्पामेव अप्पनिज्जरा, अप्पचेयणा महानिज्जरा,अप्पवेया। अप्प- |
मसमसाविज । हता! मसमसाविज्जा, एवामेव गोयनिजरा । गोयमा ! अत्येगया जीवा महावेयणा महा
मा! समणाणं निग्गंथाणं अहावायराई कम्माइंन्जाव मनिज्जरा, प्रत्येगझ्या जीवा महावेयणा अप्पनिजरा, अ.
हापज्जवसाणा जवति । से जहानामए केइ पुरिसे तत्तंसि त्थेमझ्या जीवा अप्पवेयणा महानिज्जरा, प्रत्येगइया जी
अयकवद्वांस उदगविंदु० जान हता! विकंसमागच्च, वा अप्पवेयणा अप्पनिज्जरा । से केणटेणं । गोयमा! प
एवामेव गोयमा ! समणाणं निग्गंयाणं जाव महापज्जबडिमापमिवरणए अणगारे महायणे महानिज्जरे, ग्?
साणा जवंति, से तेण्डेणं जे महावेयणे से पहानिज्जरे सत्तमासु पुढवीमु नेरझ्या महायणा अप्पनिज्जरा, सेले- |
जाव निजराए । सिपमिवएणए मणगारे अप्पत्यणे महानिज्जरे, अणुत्तरो
(से गुण भंते ! जे महावयणे इत्यादि) महावेदन उपसगांऽऽ. बवाइया देवा अप्पवेयणा अप्पनिज्जरा । ज०६२०१ उ०।
दिसमुद्नुतविशिष्टपीमा, महानिर्जरो विशिष्टकर्मकया, अन.
योश्चान्योन्याविनाभूतत्वाविर्भावनाय-"जे महानिजरे इत्यादि" से णणं भंते ! जे महावेयणे से महाणिज्जरे,जे महा-1 प्रत्यावर्तनमित्येक प्रश्नः तथा-महावदनस्य चारपव
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(२०५७) णिज्जरा भनिधानराजेन्दः ।
गिजरा मध्ये सयान् यः प्रशस्तनिर्जराकः कल्याणानुबन्धनिर्जर- यणा णो कम्मनिज्जरा,से तेणटेणं गोयमा! 0 जाव न सा ति,एप'च द्वितीयः प्रभःप्रमता चकाकुपाठाऽवगम्या।इन्तेत्या
वेपणा, एवंन्जाव वेपाणियाणं से नणं ते ! जे वेदंसुतं गुत्तरम । हच प्रथमप्रभस्योत्तरे महोपसर्गकाले जगवाम्महावीरोशातः, द्वितीयस्यापि स पवोपसर्गानुपसर्गावस्थाया
निजरिंमु, जं निजरिंसु तं वेदंमुणो ण समहे । से मिति । यो महावेदनः स महानिर्जर इति यदुक्तं, तत्र व्यभि
केण्टेणं ते! एवं बुच्चइ-जं वेदं नो तं निजरिंसु, जं चारं शकमान माह-(ट्ठीत्यादि) (दुधोयतराप त्ति) दुष्क- निजरिंसु नो तं वेदंसु ? | गोयमा ! कम्म वेदंस,नो कम्म रतरवाचनप्रक्रियम्, (दुवामतरापति)पुर्वाम्यतरकं दुस्स्या- निज्जरिंसु, से तेणटेणं गोयमा!० जाव नोतं वेदंसु । नेरच्या ज्यतरकमहम् , (दुप्पारकम्मतराए ति) करकन्यतेजोजननभरकरणादिप्रक्रियमा अनेन च विशेषणत्रयेणापि तु.
णं ते ! जं वेदंमु, तं निजरिंमु, एवं नेरइया वि । एवं. विशाध्यमित्युक्तम् । (गाढीकयाई ति)मात्मप्रदेशैः सह गाड- जाव बेमाणिया । से नणं जंते ! जं वेदेति तं निजरंति, जं बानि,सणसूत्रगाढवसूचीकलापवता(विकणीकयाई ति)। निज्जरंति तं वेदेति । णो इण्डे समझे। सेकेणढेणं एवं समकम्मंस्कन्धानां सरसतया परस्परं गाढसम्बन्धकरणतो बुच्चइ० जाव नो तं वेदेति । गोयमा! कम्म वेदेति, नो कम्म दुर्भेदोकतानि, तथाविधमृत्पिएम्बत् । (सिदिलीकयाई ति)
निज्जरति, से तेण देणं गोयमा ! जाव नो तं वेदेति । एवं सपीकतानि निधत्तानि, सूत्रबद्धाग्नितप्तलोइशलाकाकलाप. बत् । खिसीनतानि अनुभूतिव्यतिरिक्तोपायान्तरेण पवि
नेरइया विजाव वेमाणिया। से नणं ते! जबेदिस्संति, तुमशक्यानि, निकाचितानीत्यर्थः। विशेषणचतुष्टयेनाप्यतेन 5. तं निजरिस्संति, जं निजरिस्संति तं वेदिस्संति । णो विंशोध्यानि नबन्तीत्युक्तं भवति । एवं च पवमेवेत्याग्रुपनय- इणद्वे समझे। से केवढेणंजावणोतं बेदिस्संति । गोयबाक्यं सुघटनं स्यात् । यतश्च तानि दुविंशोभ्यानि स्युस्ततः (संपगादमित्यादि)(नो महापञवसाणा प्रबंति री) अनन
मा ! कम्मं बेदिस्संति, नो कम्मं निज्जरिस्संति । से तेणमहानिर्जराया मजावस्य निर्वाणानावनक्षणं फलमुक्तमिति
रेणं० जाच नो तं निजरिस्संति । एवं नेरझ्या वि० नाप्रस्तुतत्वमस्याऽऽशङ्कनीयमिति। तदेवं यो महावेदनः स म. जाव वेमाणिया । से नणं भंते ! जे वेदणासमए हानिर्जर इति विशिष्टजीवापेकमवगन्तव्यम्, न पुनारकाऽऽदि. से निजरासपए, जे निज्जरासमए से बेदणासमए । क्लिष्टकर्मजीवापेकम् । यदपि यो महानिर्जरः स महावेदन इ.
णो इणहे समटे । से केणटेणं भंते ! एवं वुच्चइत्युक्तं, तदपि प्रायिकम् । यतो भवत्ययोगी महानिर्जरो, महावेदनस्तु भजनयेति । (अहिगरणि ति) अधिकरणी, यत्र खोह
जे वेदणासमए न से निज्जरासमए, जे निज्जरासमए न कारा अयोधनेन लोहानि कुट्टयन्ति । (प्राउट्टेमाणे ति) प्रा.
से दणासमए । गोयमा ! जं समयं बेरेंति नो तं समयं कुट्टयन् (सद्देण ति) अयोधनघातप्रभवेन ध्वनिना,पुरुषहुक्क- निज्जरंति, समय निजरति नो तं समयं वेदेतिमम्मि तिरूपेण बा। (घोसेणं ति) तस्यैवानुनादेना(परंपराघापणं
समए वेदेति प्रमम्मि सपए निज्जरंति,अस्ले से वेदणासपए ति) परम्परा निरन्तरता, तत्प्रधानो घातस्तामनं, परम्पराघा.
अम्बे से निज्जरासमए,मे तेणऽद्वेणं जावन से वेदणासत,तेन उपर्युपरि घातेनेत्यर्थः । (अदाबायरे ति) स्पूनप्रकारात् । पयामेवेत्याधुपनये-"गाढीकया" इत्यादिविशेषण.
मए । नेरक्ष्या भंते ! जे वेदणासमए से निजरासमए, चतुष्केण दुष्परिशाटनीयानि भवन्तीत्युक्तं भवति । ( सुधी- जे निज्जराममए से वेदणासमए ? । णो इणढे समढे। यतराए इत्यादि) अनेन सुविशोध्यं नवतीत्युक्तं स्यात् । (म. से केणऽद्वेणं भंते ! एवं वुश्चइ-नेरइयाणं जे वेदणासमप हावायरा ति) स्थूलतरस्कन्धान्यसाराणीत्यर्थः । ( सिदिली.
न से निजरासमए, जे निज्जरासमए न से वेदणासमए। कयाई ति) श्लथीकृतानि, मन्दविपाकीकृतानि । (निहियाई
गोयमा! नेरइयाणं जं समयं वेदेति नो तं समयं निजरंकहा ति) निःसत्ताकानि विहितानि । (विपरिणामियाई ति) विपरिणामं नीतानि स्थितिघातरसघातादिभिः, तानि च
ति,जं समयं निजति नो तं समयं वेदेति,अमाम्मि समए विप्रमेव विश्वस्तानि भवन्ति, पभिश्च विशेषणैः सुधिशोभ्यानि वेदेति भएणम्मि समए निजरंति, एणे से वेदणाममए भवन्तीत्युक्तं स्यात्। ततश्च(जावश्यमित्यादि)भि०६श०१३।
अमे से निजरासमए,से तेणटेणं जावन से वेदणासमए । या वेदना सा निर्जरा
एवं० जाव वेमाणियाएं । से णणं भंते ! जा वेयणा सा निज्जरा, जानिजरा सावेयणा । णो णडे समढे । से केणटेणं भंते ! एवं बुच्चइ-जा
(कम्मवेयण ति) उदयं प्राप्तं कर्म वेदना.धर्मम्मिणोरभेद
विवक्षणात्। (नो कम्म निज्जर त्ति)। कर्माभावो निजरा, त. वेयणा न सा निज्जरा, जा निज्जरा न सा वेयणा । गो. स्या पयंस्वरूपत्वादिति । (नो कम्म निजरिसुति) वेदितरसं यमा ! कम्मवेयणा, णो कम्मनिज्जरा, से तेणटेणं गोय-] कर्म नो कर्म तन्निजरितवन्तः, कर्मभूतस्य कर्मणो निर्ज• माजाव न सा वेयणा । नेरझ्या णं भंते ! जा वेयणासा रणासम्जवादिति । भ०७श० ३.(कियता तपसा किनिज्जरा, जा निज्जरा सा वेयणा । णो णटे समढे । से
यती निर्जरा जवतीति 'अम्मश्लाय' शब्दे प्रथमभागे ४४४ प्र
ठे अष्टव्यम) (परिणामानुसारेण निजरेति 'अश्सस' शब्दे प्र. केणरेणं एवं बुच्च-नेरझ्याणं जा बेयणा न सानिज्जरा. भागे २५ पृष्ठे गतम) (सम्यक्त्वं विना निर्जरा नास्तीति बजा निज्जरा न सा वेयणा? गोयमा ! नरइयाणं कम्मो क्यते 'सम्मत्त 'शब्द) "गणवारणमागिलाए, कुणमाणे णिज
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(२०५६) विग्जरा अभिधानराजेन्द्रः ।
णिज्जाणमग्ग रेति कम्माई । अग्नेय णिज्जराबे,तम्हा तू णिजरा होति १॥" | हके, भ० २५ श. ७ उ० । सहि तथा प्रायश्चितं स यथा इत्युक्तनकणे अनुशारूपेऽर्धे.पं०भा० क्रियावादिनामक्रियावादि. परो निषादुमलं भवतीति । स्था० १० टा. । हामी निर्ण मांबमिथ्याशांसकामनिर्जरा भवति,न चा?,यदि सकानिज- पकाः सन्तोति । न० । व्य०१ उ.। रा, प्रन्याक्षराणि प्रसाचानीति प्रश्ने, उत्तरम-क्रियावादि. यदप्युक्तं नियोपका व्यवपिना ति, तदपि न तथा, कपमिति नामक्रियावादिनां च केपाशित्सकामनिर्जराऽपि जयतीत्यवसी- वेदत प्राह-निर्यापर्कः निर्याप्यनाणार शिविधा मियापकायते, यतोऽकामनिर्जरामुत्कर्षतो यन्तरेग्वेष । बाखतपस्विनां स्तथा-प्रात्मनः, परस्थ वा । उभयानप्यापरकाऽऽकोनां तु ब्रह्मकं यावदुपपातः प्रथमोपाङ्गाऽऽदावु.
पादोवगमे संगीण, सुविहा खव होति पायनियमा। कोऽस्तीति, तदनुसारेण पूर्वोक्तानां सकामनिर्जरेति तच्चम् । २४० प्र० । सेन० ३ उल्ला० ।
निज्जवगा य परेगा उ, जत्तपरिबारे बोधब्बा ॥
मात्मनिर्यापकाः खलु द्विविधा भवन्ति । तद्यथा-पादयोणिज्जरापेहिण-निर्जराऽपेक्षिन्-त्रि०। निर्जरणं निर्जरा
पगमे, झिनीमरणे च। परेण पुनर्नियापका भक्तपरिकायां को कर्मणामात्यन्तिकः कयः,तामपेक्षते-कथं ममाऽसौ स्थादित्यभि- कल्याः। व्य०१.० मिनिश्चितं यापयनि प्रायश्चित्तविधिषु खपतीति निराम्पेकी । उत्तक २ . । कर्मक्षयमभीप्सौ, याबमालोचकं करोति निर्वाहयतीति याचदिति नियोपः, अर इस० २ अ०।
प्रत्ययः । अपराधकारी यथोक्तं प्रायश्चितं कमसमर्थो यम विरामक्किन्-त्रि० । निर्जरां प्रेक्षितुं शीबमस्येति निर्जगप्रे. यथा निर्वाहयति तथा तथा तमुचितप्रायश्चित्तप्रवामतः प्रय की। निर्जरातावके, " मत्थो णिज्मरापेही, समादिमणुपा
श्चित्तं कारयति स निर्यापक इति भावः । व्य. १०।। नए।" प्राचा० १ श्रु०८ अ०००।
णिज्जवणा-निर्यापणा-स्त्री. । निराधिक्येन यान्ति प्राणिमा णिज्जरापोग्गन-निर्जरापुल-पुं० । मिर्जीणकर्मदलिके, भ. प्राणास्तेषां निर्यतां निर्गच्चतां प्रयोजक निर्यापणा । अष्टाविंश१९श ३ उ०।
गौणहिंसायाम्, प्रश्न०१ आश्रद्वार। प्रश्नार्थव्यास्थानस्य निन
मने, प्रा०म०१ ०२ खपमा प्रा०च. णि जराजावणा-निर्जराभावना-सी० । मिजरात स्वपर्यासो
..........."णि
वणा, पन्नासो णिगमणं ति।" (२९३२) निर्याचना तु दापमा चने, (प्रव.) अथ निर्जराजावना
दर्शितस्यैवार्थस्य प्रत्याभ्यासः प्रत्युच्चारणं निगमनम् ।विशेका "संसारदेतुभूतायाः, यः कयः कर्मसंतसेः ।
(णमोकार 'शब्देऽस्मिन्नेव भागे १८३४ पृष्ठे व्याख्यातम्) निर्जरा सा पुनधा, सकामाकामदतः ॥ १॥
मीमांसिततया निदोपत्वेन निश्चयने, व्य०१० । मि. चूः। श्रमणेषु सकामा स्या-दकामा शेषजन्तुषु । पाकः स्वत उपायाच्च, कर्मणां स्यात् यदानपत्॥२॥
णिज्जाअ-देशी-उपकारे, दे० ना.४ वर्ग ३४ गाथा। कर्मणां न कयो भूया-दित्याशयवां सताम् ।
णिज्जाण-निर्याण-ना यान्ति तदिति यानम्, "कत्ययुटो वरवितम्बतां तपस्यादि, सकामा शमिनां मता॥३॥
बम्" ॥३३॥११३॥ इति (पाणिनि) बचनाकर्मणि ट्युट । निरुपम पकेन्धियाऽऽदिजन्तूनां, संझानरहिताऽऽत्मनाम् ।
यानं निर्याणम् । ईषत्प्राम्भारावे मोजपदे, आव० ४ अ० । शीतोष्णवृष्टिदहन-दभेदाऽऽदिभिः सदा ॥४॥
ज्ञा । भावे ल्युट् । संसारात्पलायने, प्रा० ० ४ ०। मनाकषं वेदयमानानां, यः शाटः कर्मणां भवेत् ।
वृत्तिगमने, औपाचागस्था०ामरणकाले शरीरानिगम,स्था० भकामनिर्जरामना-मामनन्ति मनीषिणः॥५॥
३०४ उ० । नगरानिर्गमे,स्था०३/०४.उ.। पुरस्य निर्गमनतपःप्रभृतिभिवृदि, वजन्ती निर्जरा यतः।
मार्ग, सू० प्र०.४ पाहु०।०५०। “रायादियाण शिगमट्ठावं ममत्वं कर्म संसार, इन्वात्त भावयेत्ततः ॥६॥" णिज्जाणिया,णगरगमेवा जंपियं तं मिज्जा"। नि००८ उन प्रव०६७ द्वार।
णिज्जाणकहा-निर्याणकथा-स्त्री० । राजकथाभेदे, स्था०४ णिज्जराहेउ-निर्जराहेतु-पुं० । क. स.। कर्मयकारणे,
ग.१ उ०। ( व्याख्या 'शयकहा' शन्दे फटव्या) ब० स० । कर्मकयजनके, पञ्चा० १२ विव० ।
णिज्जाणमग्म-निर्याणमार्ग-पुं० । निर्माणस्य मोक्षपदस्थ मा
गों निर्याणमार्गः । विशिष्टनिर्याणप्राप्तिकारणे, " इलमेव णि णिज्जरिज्जमाण-निर्जीयमान-त्रि. नितरामपुननावेन की
थं पावयणं णिज्जाणमम्गं णिवारामगं । " भाष०४ मा धन यमाणे कर्मपुमले, भ०१श.२००। स्था।
झा। सिद्धिकेत्रगममोपाये, भ० ६ ० ३३ उ० । निर्याणस्य णिजरिय-निर्जरित-त्रिः । सर्वथा कयं नीते, तं० । “णि- मरणकाले शरीरिणः शरीरानिर्गमस्य मागों नियाजमार्गः । जरियजरामरणं, वंदित्ता जिणवरं महावीरं।" बन्दित्वा काय
पादाऽऽदिके, स्था। वाग्मनोभिः स्तुति विधाय जिना रागद्वेषाऽऽदिजयनशीलाः पंचविहे जीवस्स णिज्जाणमग्गे पामत्ते । तं जहा-पाएसामान्य केवलिनः, तेषु तेज्यो वा वरः प्रधानातिशयापेकया
हिं, उरूहि, नरेणं, मिरे, सवंगेहिं । पाएहि णिज्जाश्रेष्ठी जिनवरस्तम् । तं ।
णमाणे निरयंगामी भवइ, नरूहि णिज्जाणमाणे तिरियणिज्जवग-निर्यापक-पुं०। निर्यापयति तथा करोति पथा गु
गामी भवइ, नरेणं णिज्जाणमाणे मायगामी जवइ, बपि प्रायश्चित्तं शिष्यो निवाहयतीति निर्यापकः । स्था० ८ ठा। प्राकृतत्वादूपनिष्पत्तिः । ध० २ अधि० । पश्चा० । अस.
सिरणं णिजाणमाणे देवगामी जवइ, सव्यंगहि पिजाणमर्थस्य प्रायश्चिक्तिनः प्रायश्चित्तस्य वक्षमशः करणेन निर्वा-माणे सिछिमतिपज्जवसाणे पस्मत्ते ।
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- (२०६०) पिज्जाणमग्ग अभिधानराजेन्दः ।
णिज्जुत्ति व्यक्तं, किन्तु निर्याणं मरणकाणे शरीरिणः शरीरानिगमः, त- प्रस्थितोऽभीष्टयात्रासिरूये निर्यामकरत्नन्यस्तीर्थकञ्चः स्त. स्य मार्गों निर्माणमार्गः पादाऽऽदिकः, तत्र-(पाहि) पादाज्यां वचिकीर्षयेदमाहमार्गभूताभ्यां कारणताऽऽपन्नाभ्यां जीवः शरीरानिर्यातीति निज्जामगरयणाणं, अमृढनाणमइकनधाराणं । शेषः । एवमूरुभ्यामित्यादावपि । अथ क्रमेणास्य मिर्याणमा
वंदामि विष्ायपणतो, तिविहेण तिदमविरयाणं ॥ र्गस्य फलमाह- पादाभ्यां शरीरानिर्यान जीवो ( निरयंगामि त्ति)प्राकृतत्वादनुस्वार इति, निरयगामी भवति । एवम
निर्वामकरत्नेभ्योऽद्यः , प्रमूढकाना यथावस्थितज्ञाना, म. न्यत्रापि । सर्वाणि च तान्यनानि च सर्वानानि, तैर्निर्यान्
ननं मतिः संवित, सैव कर्णधारो येषां ते तथाविधाः, तेभ्यो बन्दे सिद्धिगतिः पर्यवसानं संसरणपर्यन्तो यस्य स सिद्धिग
विनयप्रणतस्त्रिविधेन त्रिदरामविरतेभ्यः-"शपाऽऽदिभिबहुतिपर्यवसानः प्रश्नप्त इति । स्था०५ ठा०३ ३० । देवानामु
लम् ॥ (१)" इति चतुर्थी । प्रा०म०१ १०२ वएन । तरणमार्गस्तु सौधर्मशानाऽऽदीनां कल्पानां मध्यतः, तत्र सौध.
णिज्जाय-निर्यात-त्रि०ा निश्चयेनापगते, भाव०६०। मेन्छः स्वकीयापालकाद् विमानाऽत्तरन्नुत्तरेणोत्तरति,
|णिज्जायकारण-निर्यातकारण-त्रि० । निश्चयेम यातमपगतं ईशानेन्द्रस्तु स्वविमानात्पुष्पकादुत्तरन् दक्किणेनोत्तरति । न.
कारणं प्रयोजनं यस्मिन्नसौ निर्यातकारणः। अपगतप्रयोजने, २६ श०२०।
श्राव०६०। ज्ञा। णिज्जाणियलेए-नैर्याणिकलयन-न० । नगरनिर्गमग्रहे, नाशिजायमाण-निर्यत-त्रिका निर्याणकारके, " पापहि णिज्जा. १३ श०६ उ०।
यमाणे निरयंगामी जव।" स्था०५ ग० ३ उ०। णिज्जाणिया-निर्याणि की-स्त्री० । निर्याणक्रीडायाम्, नि.
|पिउजायरूवरयय-निर्यातरूपरजत-त्रि० । निर्गतसुवर्णमध्ये, चू०८० णिज्जामग-निर्यामक-पुं० । प्रापक, विशे । कर्णधारे, औ० ।
से भिक्खू ।" दश० ६ ० । समुदे प्रवहणनेतरि, व्य० ३ ० । प्रा० म० । भाव० । विशे०।
णिज्जास-निर्यास-पुं० । स्नेहे,सूत्र. २ श्रु०३ म० । रसे, सना प्रा० कारा। सम्प्रति प्रपञ्चेनाहतां गुणानुपदर्शयन्नाह
२ श्रु०१.। अमवीऍ देसयत्तं, तहेव निजामगा समुद्दम्मि ।
णिज्जिा -निजीर्ण-त्रि०। कोणे, भ.१ श०१ उ० ।कीणरछक्कायरक्खणट्ठा, महगोवा तण वुच्चति ।।एएए॥
सीकृते, भ० १२ श०४०।
णिज्जियसत्तु-निर्जितशत्र-त्रि । पराजितशत्रौ, रा० । सूत्रः। आ० म०११०२खाक । आ० चापाचा०।(णमोकार' |
|णिज्जियसत्तुसेण-निर्जितशत्रसेन-त्रि । स्ववशीकृतविपकनशब्देऽस्मिन्नेष भागे १८३६ पृष्ठे व्याख्या समुक्ता) उत्तमार्थाssराधकम्य गुणोत्कीर्तनेनोपबृहके, दर्श०४ तत्व ।
पतिसैन्ये, वृ० १ ०। पाति जहा पारं, सम्म निज्जामगा समुदस्स ।
णिज्जीव-निर्जीव-न । निर्जीवकरणे, हेमाऽऽदिधातुमारणे,रसेभवजलहिस्स जिणिंदा, तहेव जम्हा अतो अरिहा ॥
अस्य मूर्छाप्रापणे च । एतच एकसप्ततितमा कला। जं. २
वक्ष झा० औस। प्रापयन्ति नयन्ति यथा येम प्रकारेण पारं पर्यन्तः, सम्यक शोभनेन विधिना, निर्यामकाः प्रीताः समुषस्य, तथ्व भ.
णिज्जुत्त-निर्युक्त-त्रिका खचिते, ज्ञा०१ श्रु.१० का निश्वबजलधेर्नवसमुषस्य, पारं जिनेन्डाः प्रापयन्ति, यस्मादेवमत
येनाऽऽधिक्येन साधु वा प्रादौ वा युक्ताः संबका निर्युक्ताः।निस्तस्मादी नमस्कारस्य । एक संकेपार्थः। पुनरेवम्-" पत्थ. युक्तिव्यवस्थापितेषु, प्रा० म.१०१ खण्ड । निश्चयेन प्र. णिज्जामगा दुविहा। तं जहा-दव्वणिज्जामगा, भावणिजाम. रूपिते, प्रा. म १०। गाय।" (श्रा० म०)
णिज्जुत्ति-निर्यक्ति-स्त्री० । निर्युक्तानामेव सूत्रे ऽर्थानां युक्तिः तत्र यथा जलधौ काक्षिकावातरहिते अनुकूले गर्जनवाते परिपाट्या योजनम्, नियुक्तयुक्तिरितिवाच्ये युक्तशन्नलोपानिनिपुणनिर्यामकहिता निश्चिताः पोता ईप्सितं पत्तनं प्राप्नु- युक्तिः। दश०१ अ० स०। ओघ. निश्चयेनार्थप्रतिपादिका युवन्ति,पवम्
क्तिनियुक्तिः। प्राचा०१ श्रु०२ अ०१ उ। सूत्रानाबाहुस्वामि. मिच्छत्तकाझियावा-यविरहिएँ समत्तगजजपवाए *।
कृते व्याख्यानग्रन्थे, विशे० । व्याख्योपायभूते सत्पदप्ररूपपताएगसमरण पत्ता, सिचिवसहिपट्टणं पोया ।।।
ऽऽदौ, अनु। मिथ्यात्वमेव कालिकाबातो मिथ्यात्वकालिकावातः, तेन र.
साम्प्रतं नियुक्तिस्वरूपाभिधानार्थमाइहिते नवाम्भोधौ, तथा सम्यक्त्वमेव गर्जनः प्रबातो यत्र स
निज्जुत्ता ते प्रत्या, जं बद्धा तेण हो निज्जुसी। तथा तस्मिन्, एकसमयम प्राप्ताः सिद्धिवसतिपत्तनं पोता तह वि य इच्छावेई, विभासि] सुत्तपरिवामी ॥१८॥ जीवबोधिस्थाः, अईनिर्यामकोपकारात् ।
यद्यस्मात्सूत्रे निश्चयेनाऽऽधिक्येन साधु वा आदौ वा युक्ताःसंततो यथा सांयान्त्रिकः सार्थः प्रसिद्धनिर्यामकं चिरगतमपि
बद्धा निर्युक्ता एव सन्तस्ते श्रुताभिधेया जीवाजीवाऽऽदयोऽर्था यात्रासिद्धयर्थ पूजयति, एवं ग्रन्थकारोऽपि सिहिपत्तनं
अनया प्रस्तुतनियुक्त्या बक्षा व्यवस्थापिता: व्याख्याता इति * प्रतिकलवायुः कालिकावातः। अपरोत्तरस्यां शुद्धविदिग्वातो यावत् । तेनेयं भवति नियुक्तिमा नियुक्तानां सूत्रे प्रथममेव संबगर्जभवातः ।
कानां सतामर्थानां व्याख्यारूपा युक्तिर्योजनं निर्युक्तयुक्तिरिति
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(२०६१) णिज्जत्ति भाभिधानराजेन्द्रः ।
णिज्जत्तिणुगम प्राप्ते शाकपार्थिवाऽऽदिदर्शनाद् युक्तलकणस्य पदस्य लोपानि-दु,अनया तु सत्यपि विनवे भिकाचरेष्वागच्चत्सु सदैव नास्ति युक्तिरिति भवनि । ननु यदि प्रथममेव सूत्रेऽर्थाः संबद्धा पव नास्तीत्यावेद्योद्घुष्ट, तेनेदृश ईशश्च दुःखविपाको जात इत्यासन्ति, तर्हि किमिति ते नियुक्तचा व्यास्यायन्ते, संबद्धानां स्व- दि। तथाऽत्रापि श्रोतृवैचित्र्यं पश्यन् सर्वानुग्रहप्रवणबुफिरावमेव विनेयवर्गेणावबुध्यमानत्वात् । तताह-(तह वि येत्या. चार्यः सूत्रे निर्युक्तानप्यान्नियुक्त्या विभाषते इति ॥१०८६ ॥ दि) यद्यपि सत्रे संबद्धा एवार्थाः सन्ति, तथाऽपि तान् सूत्रे अथवा-नियुक्तिगायोत्तरामन्यथा व्याख्यायते । नियुकानपि अर्थान,विभाषितुं व्याख्यातु,सूत्रपरिपाटी सूत्रपा
कथम, श्त्याहतिः, एषयतीव एषयति प्रयोजयति । इयमत्र भावना-अप्रतिबु
अहवा सुयपरिकामी, सुअोवएसोऽयमेव जदवस्सं। ध्यमाने श्रोतरिगुरुं तदनुग्रहार्थ सुत्रपरिपाट्येक विभाषितुमेषय. ति-"इच्छत श्च्छत मां प्रतिपादयितुम्"इतीत्थं प्रयोजयतावेति ।
सोयव्वं निस्संकिय-सुयविणयत्थं मुबोहं पि॥१०॥ कचित् सूत्रपरिपाटोमिति पाठः। तत्रैवं व्याख्या-शष्य एव सूत्र. अथवा-श्रुतपरिपाटी श्रुतस्य विधिः श्रुतस्योपदेशोऽयमेव परिपाटीमनवबुध्यमानो गुरुमिच्चायां प्रवत्तयति-" इच्चत यदवश्यं सुबोधमपि श्रुतं निःशङ्कितत्वहे तोनियोपचारार्थ च इच्छत मम विभाषितुं व्याख्यातुं सुत्रपरिपाटीम" इति । मुमुक्षुभिः श्रोतव्यम् । अत एवंभूता सूत्रपरिपाटी यद्यपि सूत्रे न्याख्या च नियुक्तिरतः पुनर्योजनरूपा नियुक्तिरिस्थमदोषाये- नियुका एवार्थाः सन्ति, तथाऽपि विभाषितुं व्याख्यानयिति । प्रा०म०१ अ०१खएक।
तुमेषयति प्रयोजयतीत्येषोऽत्र भावार्थः स्वयमेवावगन्तव्य विस्तरतो व्याख्यातुं भाष्यकारः प्राऽऽह
इति ॥ १०९०॥ जं निच्चयाऽऽऽजुत्ता, सुत्ते अत्था श्मीऍ वक्खाया। "सूत्रपरिपाटीम्" इति पाठान्तरं क्वचित् । सत्राऽऽहतेणेयं णिज्जुत्ती, णिज्जुत्तत्याऽजिहाणामो॥१००६॥ इच्छह विनासिहं मे, मुयपरिवामिन सुद्द बुज्झामि । यद्यस्मात्सूत्रे निश्चयेनाऽऽदिशब्दादाधिक्येन, आदौ साधु वा
नातिमई वा सीसो, गुरुमिच्छावे वोत्तुं जे ॥१०॥१॥ युक्ताः संबछा निर्युक्ता एव सन्तोऽर्था अनया नियुक्त्या व्याख्या
'वा' इत्यथबा, नातिशयेन मतिर्यस्यासौ नातिमतिर्मन्दमतिः ताः, तेन तस्मात्कारणादियं नियुक्तार्थाऽनिधानाभिर्युक्तानां
शिष्यो गुरुमाचार्यम् (इच्छगवेत्ति) एषयति प्रयोजयति धक्तुम, युक्तियुक्तशब्दोपानियुक्तिर्भवति ॥ १०८६ ॥ अथ प्रेयमाशङ्कय परिहरन्नाह
'जे' इत्यलकारार्थः। कथं वक्तुमेषवति ?, इत्याह-(इच्छह
विभासिङ मेत्ति) इच्छत इच्छा विभाषितुं मम श्रुतपरिपार्टी मुत्ते निज्जुत्ताणं, निज्जुत्तीए पुणो किमत्याणं ।
सुत्रपद्धति, नाहमेतां सुनु बुद्धये-प्रथममेव नियुक्तत्वेन सतोऽप्येनिज्जुत्ते वि न सन्ने,कोइ अवक्खाणिए मुणइ १०७७। तदभिधेयानर्थान्मन्दमतित्वाद् भवद्भिरव्याख्यातान्नाह सम्यननु सूत्र एव नियुक्तानां निबद्धानां सतामर्थानां तव्याख्यानार्थ गवगच्गमीत्यर्थः । अथ वा-प्रक्रमादेवेह नियुक्तिः प्रयोक्त्री क्रियमाणया नियुक्त्या किं पुनः कार्यम् ?, न किञ्चिदित्यर्थः। विवक्ष्यते, ततश्चेत्थमकरयोजना- यद्यपि सूत्रे नियुक्तत्वेन सन्त देहि सूत्रे एवं विद्यमानार्थाः सन्ति, तान्स्वत एव विनेयवर्गो एवार्थास्तथाऽपि तानप्रतिबुद्ध्यमानः श्रोता यदैवं वक्ति-नातिकास्पति, अतस्तद्विभाषणप्रवृत्ता वृथैव नियुक्तिरिति भावः । मतिमन्दमतिरहं सदामपि सूत्रपरिपार्टी सुष्ठ न बुध्ये सम्यम् अत्रोत्तरम्-( निजुत्ते वीत्यादि ) सूत्रे नियुक्तानपि सतः नावगच्छामि, अत इच्छतेच्चत प्रनो! एतां मम विभाषितुसर्वानप्यान् कोऽपि तथाविधप्रज्ञापाटवरहितः शिष्यो मिति । तदित्यं वदति तस्मिन् श्रोतरि नियुक्तिरेव गुरूं नियुक्त्याऽव्याख्यातान्न मुणति नाऽधबुद्धयत इति ॥ १०८७॥ सूत्रपरिपाटी वक्तुमेषयति प्रयोजयति-इच्छतेच्चतास्मै महाततः किम्?, इत्याह
नुभावायैतां विभाषितुम् । ततो नियुक्तिद्वारेणैव तस्य शिबो सुयपरिवामि चिय, इच्छाइ तमणिचमाणं पि।। ज्यस्य गुरुस्तां विभाषत इति । तदेवं निज्जुत्ता ते अत्था' इनिज्जुत्ते वि तदत्थे, वोत्तुं तवणुग्गहवाए।। १० ।। |
त्यादिप्राक्तननियुक्तिगाथा व्याख्याता ॥ १०५१ ॥ विशे। नं० । ततः श्रुतपरिपाट्येव सूत्रपद्धतिरेव विभाषितुमनिच्छन्तमपितं
आव० । औ० । प्राचा। नियुक्तिकारमाचार्य तस्य सूत्रस्यास्तिदर्थान सूत्रे नियुक्ता- | पिज्जुत्तिप्राणुगम-नियुक्त्यनुगम-पुं० । नियुक्तिनामस्थापनानप्यनवबुद्धयमाने श्रातार तदनुग्रहाये तान् वक्तुमेषवतोव एष- दिप्रकारैः सूत्रविनजनेत्यर्थः,तपोऽनुगमस्तस्या वाऽनुगमो यति प्रयोजयति, अतस्तानाचार्या नियुक्त्या विनाषते, इति व्याख्यान नियुक्त्यनुगमः। अनुगमभेदे, (अनु.) तस्याःसाफल्यमिति ॥ १०८८ ।।
सच त्रिविधःभत्र रटान्तमाहफायलिहियं वि मंखो, पढइ पनास तहा
से किं तं णिज्जुत्तिणुगमे । णिज्जुत्तिअणुगमे तिविहे दाएइ य पश्वत्यु, सुहबोहत्यं तह इहं वि॥१०जए
पछत्ते । तं जहा-निक्खेवनिज्जुत्तिप्राणुगमे, नवग्यायनियथा मङ्खः फल के नानाप्रकारं लिखितमपि वस्तु ग्रन्थतः पठ.
ज्जुत्तिअणुगमे, सुत्तफासियनिज्जुत्तिअणुगमे । ति, अर्थतश्च प्रजापते-व्याचष्टे,शजाकाऽङ्गल्यादिना च बालगो
निकेपो नामस्थापनाऽऽदिनेदजिन्ना,तस्य तद्विषया वा निपालाङ्गनाऽऽदिमुग्धप्रबोधनार्य प्रतिवस्त्वपरजन्माऽऽचीर्ण कर्म- युक्तिः पूर्वोक्तशब्दार्थी निक्केपनियुक्तिः, तस्था वाऽनुगमो निविपाकाऽऽदिकं दर्शयति । यथा-अन्य जन्मन्यनया भर्ता साटि- | केपनियुक्त्यनुगमः । तथा उपोद्घातेन व्याख्येयस्य सूत्रस्थ कया बश्चितस्तेनास्या ईशो मातङ्गकुलजन्माऽऽदिको विपाकः, | व्याख्या विधिसमीपीकरणमुपोद्घातनियुक्तिः,तपस्तस्या वा भनयाच जमित्र प्राघूर्ण के समायाते मुखमाटको दस आसी. अनुगम उपोद्घातनियुक्त्यनुगमः । तथा सूत्र स्पृशताति
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(२०६९) णिज्जत्तिमणुगम अभिधानराजेन्द्रः।
पिज्जणा सूत्रस्पर्शिका, सा चासो नियुक्तिः सूभरपशिकनियुक्तिः । सूत्र. | यनग्रहणम् । ततोऽयमर्थः-उत्तराध्ययनाचारयोः तथा-एम निकेपनियुक्त्यनुगमाऽनुगतो वक्ष्यते च । इदमुकं भवति- कृते-सूत्रकृताविषयां नियुक्तिं वक्ष्ये। तथा-रहानांच दशा. भौष प्रागावश्यकसामायिकाऽऽदिपदानां नामस्थापनादि- तस्कन्धस्था तथा-कल्पस्य । तथा-व्यवहारस्य च परमनिपुरनिक्षेपद्वारेण यद्वास्यानं तं, तेन निकेपनियुक्त्यनुगमोऽनुगतः स्था अत्र परमग्रहगं मोक्षानत्वात,निपुणप्रहवं वध्यसकत्वात् । प्रोको करन्यः । अनु० । उत्त । मा. म. संघा० । विशे। नसल्वयं व्यवहारोमन्वादिप्रणीतम्यवहार व व्यंसक,"मपतदेव नियुक्तित्रैविध्यं जाम्बकारोऽप्याह
पाना रघु ववहारा।" इति वचनाता तथा सूर्यप्राप्तेर्वक्ष्ये। तथा.
ऋषिभाषितानां च देवेन्द्रस्तवाऽदोनाम । अनेकशः क्रियामिननिज्जुत्ता तिविगप्पा, नासो-वग्यायसुत्तवक्खाणं ।
मंशानान्तरविषयत्वात समासण्यासम्पत्याच शास्त्राऽऽरम्भणिक्खेवस्साणुगया, उद्देसाऽऽहुबग्धाश्रो ॥७२॥ स्वत्यष्टम्। एतेषां शुनविशेषाणां नियुक्ति वक्ष्याम्यहं जिमोपनियुक्तिस्त्रिविकल्पा त्रिभेदा । कथम् !, इत्याह-(नासोबग्घाय- देशेन,न तु स्वमनीषिकया। कथंभूताम!,श्त्याह-माहरणहेतुकासुत्तवक्खाणंति)न्यासोमामाऽऽदिनिकेपः,उपोद्घातः शास्त्रो. रणपदनिवहाम्,श्मामन्तस्तत्वनिष्पन्नां, समासेन संकेपेण । तत्र स्पत्तिः, सूत्रं प्रतीतम,तेषांन्याख्यानम्-निकेपनियुक्तिः उपोद्घा- साध्यसाधनान्वयव्यतिरेकप्रदर्शनमाहरणम् दृष्टान्त इति भावः। तमियुक्तिः, सूत्रस्पर्शिका नियुक्तिश्चेत्यर्थः । तत्र निपनियु- साध्ये सत्येव नवति,साध्याभावेचन जवत्येषं साध्यधर्मान्वय. तिरनुगता अनुक्रान्ता-पूर्वमेवोकेति यावदिति, अत्रैव प्रगा- पतिरेकलक्षणो हेतुः । हेतुमुलाय प्रथम दृष्टान्ताभिधानं न्याय. वश्यकसामायिकाऽऽदिपदानां नामस्थापनाऽऽदिनिक्केपद्वारेण य. प्रदर्शनार्थम,कचितुमनाभधायरष्टान्त एवोच्यते। यथा-गति. इम्याख्यानं कृतं,तेन निकेपनियुक्तिरनुगता प्रोक्ता,कष्टन्येत्यर्थः । परिणामपरिणतानां जीवपुजनानां गत्युपष्टम्भको धम्मास्तिकासपोदूधातनियुक्तिस्तूहेशनिर्देशाऽऽदिभिहारैरवगन्तव्येति॥७२॥ यो, मत्स्याऽऽदीनां सलिलमिव । तथा क्वचितुरेव केवलोऽमिताम्येबोद्देशाऽऽदीनि द्वाराण्याह
धीयतेन रवान्तः, यथा-मदीयोऽयमश्वो,विशिष्टचिहोपलव्य.
न्यथाऽनुपपत्तेः। तया च नियुक्तिकारेणाज्यधायि-"जिणवयण महेसे निदेसे, य निग्गमे खेत्त काल पुरिसे य ।
सि बिय,भनर कत्थर उदाहरणं । आसज्जड सोयार,हेछवि कारण पच्चय सक्खण,नए समोयारणाऽपए ॥७३॥ कहचि भोज्जा ॥१॥" इति। कारण मुपपत्तिमात्रम्,यथा-निरूप. किं कइविह कस्स कहिं, केसु कहं केचिरं हवा काझं।
मसुखः सिका, ज्ञानानाबाधकप्रकर्षात् । नात्राविद्वदलनाऽऽदिका संतरमविरहियं, जवागरिमफोसणनिरुत्ती ॥७॥
लोके प्रतीतः साध्यसाधनधानुगतो दृष्टान्तोऽस्ति । श्राहर
संच देतुश्च कारणं च प्राहरणहेतुकारणानि,तेषां पदान्याहरणदं गाथाद्वयमपि पुरस्ताद्विस्तरण व्यास्यास्पते ॥ १५ ॥
हेतुकारणपदानि,तेषां निवहः सवातो यस्यां नियुक्ती सा तथा॥ए७४ । विशे।
विधा,ताम् ॥१.७४।१०७५॥१०७६॥ प्रा०म० अ०१खएम। श्रुतकाने सर्वा नियुक्तीः संगृह्याहसे वंदिऊण सिरसा, अत्यपुत्सस्स तेहिँ कहियस्स ।
णिज्नुत्तिगार-नियुक्तिकार-पुं०। चतुर्दशपूर्वधरे श्रीनगवाही,
तेन हि सर्वा नियुक्तयः कृताः । प्राचा. १९०१ म१००। मुयनाणस्स भगवतो,णिज्जुत्तिं कित्तयिस्सामि ॥१०१।।
नियुक्तिकारिणः पूर्वधरा भवन्ति,न वेति प्रश्न उत्तरम-नियुक्तितान् अनन्तरोक्तान तीर्थकराऽऽदीन्, शिरसा, उपलकणत्वाद्
कारिणश्चतुरंशपूर्वविदोजवन्तीति ज्ञायत शति । ११५ प्र०। मनःकायाज्यां च, वन्दित्वा, किम् ?, नियुक्ति कीर्तयिष्यामि,क
सेन०१ उन्ना। स्य, अर्थपृथक्त्वस्य, अर्थात्कथञ्चिद्भिन्नत्वात सत्रं पृथक उख्य.
णिज्जद-निर्यढ-त्रि. निष्काशिते, व्य० २१०। “पिज्जूढपदुत, प्राकृतत्वाच्च पृथगेव पृथक्त्वम, मस्तु सूत्रानि यः प्रती. तपब,अधश्च पृथक्त्वं चार्थपृथक्त्वम्,समादारो द्वन्तः,तस्याभुत.
हासा भणेश।" सा निढा निष्काशिता सती साधूनामुपरिप्र. ज्ञानविशेषणमेततासूत्रायाभयरूपस्येत्यर्थः। तेस्तीर्थकरगणधरा.
द्वेष यायात् । ८. ३ उ० । पूर्वगताऽमृत्य विरचिते, दश०१ दिभिः,कधितस्य प्रतिपादितस्य, कस्य,इत्याह-भुतकानस्य
प्र०। ५०० "ससेकगई सस वि, णिज्जूढाई महापरिमा.
| ओ।" प्राचा. १७०१ म.१००। उज्झितप्राये, वृ०१०। संबन्धनं नियुक्तिः, ताम, कोर्तयिष्यामि प्रतिपादयिष्यामि। णिज्जूह-निर्यह-पुं० । गवाक्षे, व्य० १३० । नोबे, दे ना मनु किमशेषश्रुतमानस्य !, न,किन्तु भुतविशेषाणामावश्य- वर्ग २८ गाथा। काऽऽदीनाम् । मत पाह
|णिज्जुहग-नियुहक-त्रि । पूर्वगतेदतार्थधिरचनाकसरि, प्रावस्सयस्न दसका-लियस्म तह उत्तरज्झमायारे ।
दश०१ म० । द्वारोपरितनपूर्वविनितदारुषि, न०। प्रश्न०१ सूयगमे निज्जुत्ति, वोच्छामितहा दमाणं च ॥१०७॥ मा०द्वार। कप्पस्स य णिज्जुर्ति, ववहारस्स य परमनिनणस्स । णिज्जूहग यहगत-त्रि० । गवाक्षगते, व्य०१०। मरियपातीए, वोच्छं इसिभासियाणं च ॥१०७५।। |णिज्जूहणा-नियूहणा-स्त्री० । निष्काशनायां, कर्मशत्रूणामाएएसिं निजुत्तिं, वोच्छामि अहं जियोवएसेणं । स्मनगरान्निर्वासनापाम् , " महन्वयउच्चारणं णिज्जूरणा ।"
आदरणहे उकारण-पयानवहामिणं समासेणं ॥१०७६।। पा। गच्छात् संघाद् वा निष्काशनायाम. व्य. १००। आवश्यकस्य,दशबैकालिकस्यतम-भामा सत्यभामेल्यावाविव |
तिनतुसविभागमित्तो, वि जस्स असुभेन विज्जएजावो। पदैकदेशे परसमुदायोपचाराब-"म्मरम्झ"ति। उत्तराध्य. निजाणाऽरिहोसो,सेसे णिज्जूहणानऽस्थि ।। व्य०२७०।
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जूह
स्थानिय
माचिदमि
1
शुभ भावो न विद्यते स निणाया माँ योग्य शेषस्य विकलस्य निदानानि कर्त्तव्येत्यर्थः ०१० विजूडिलर-निदिनुम् मित्यर्थे
-
जुना "विद" इति व्यासुरानाम बावृष्यस्याकरणं, यदि वा वसतौ दोषाभावे यत्स्थानं न ददाति या निदणा वैयावृत्याकरणादिना यतस्य तपोकरणं सा निर्मूति भावः व्य० २४० (महानपारा
(२०६३) अभिधानराजेन्द्रः ।
हा स्वस्वस्थाने द्रष्टव्या ) परित्यागे, स्था० ४ ठा० २४० । खिजूरियन निर्वृतिम्य-वि० ताम्बूलकपरान्तेन सं घाद वहिः कर्तव्ये, कल्प० १ क्षण ।
लिज - देशी-प्रकरे, दे० ना० ४ वर्ग ३३ गाथा | विजोग-निर्योग- पुं० परिकरे, ० १ ० १ ० यथा पात्रनियोगः । वृ० ३ उ० । निजमी-देशी-रश्मी, दे० ना०४ वर्ग ३१ गाथा । निक्कर-जि-चाइये, “केा ॥ ८४ ॥ २० ॥ शति पतेर्निम्रादेशो वा विम्भर 'प' जिम्मा' प्रा० ४ पाद ।
निर्जर-पुं० न० रोषः द्वितीययोरुपरि पूर्वः "10 । २ । ४० ॥ इति भकारोपरि जकारः । प्रा० २ पाद । उदकपावणे. भ० ५ श० ७ उ० । स्यन्दने, झा० १ ० १ ० । स्रोताऽऽदिविवरेषु, अनु० जीर्णे, दे०ना० ४ वर्ग २६ गाथा | बिकास देशी-निर्वये दे० ना० ४ वर्ग ३७ गाथा । सिमाना नियमपूज्य दर्शनार्थः । नि-निर् ध्यात्वा" योगी " ॥ ४६ ॥ यस्य कदेशः । बङ्गेत्यर्थे, प्रा० ४ पाद प्रलोक्वत्यर्थे, आाखा० १ ०म० ४ उ० । निश्चयेन ध्यास्था चिन्तयित्वत्यर्थे, भावा० १ ० १ ० ६ ० ।
निर्ध्या-त्रि । दर्शनानन्तरमतिशयेन क्तिवति, त्रि० ।
66
स्था० ए ० ।
निज्जाएमाण - निर्ध्यायत्-जि० । पश्यति, प्रेमाणे, “आलोपमाणे णिज्जापमाणे । " आचा० २ भु० ३ ० १ अ० । लिम्फोम कि चालकावि
-
"णिज्जोमर ।” पके-हिन्दर छिनति । प्रा० ४ पाद । जिज्जोइता- निर्दोषयितृ-त्रि । पूर्वोपचितकर्मणां रूपके, श्राचा०| "थिज्झोसइत्ता का धरती के आणंदे ?।” पूर्वोपचितकर्मणां निर्घोषयिता रूपकः, रूपयिष्यति वा, सृजन्तमेतङन्तं वा । कर्मयोद्ययावतः पाथियो या महायोगीश्वरस्य निरस्तसंसारसुखदुःख विकल्पाऽऽभासस्य यत्स्यात इस कार के आणंदे!" हामतिविनाशोत्थी मानसो विकारो रतिः अनिल चितायां वाप्ता चानन्दः योगवित्तस्य नासा येवान्तरायास्वारस्यानन्दयो रुपादानकारणाभावादतुत्थानमेवेत्यतो ऽपदिश्यते-केयमरति-नाम ?, को बाऽऽनन्द इति ?, नास्त्येवेतरजनप्रोऽयं विकल्प इति । माचा० १ ० ३ ० ३४० । पिक - देशी-टने, विषमे च । दे० ना० ४ वर्ग ५० गाथा । यिकिय निङ्कित विपरित ३२ ० ०
पिडाभासि (यू)
नितिं प्रायश्चित्तम्
तस्यां जे इंकिय
ठाणे जत्थ जत्य जावश्यं पतिं तमेव निसे भयं मां-जाणं तमेव निकियं जन्म । गोयमाणंतराणंतरकमेणं इमे पतिसुतायेगे भव्यता चडगइसंसारवारगाओ बककाइयबिमोक्पोर] [पारक]पावकम्प निगमाई संचुनिऊअचिराविमुचितइ अहिगारो विहा गोषमा विहग इदापरिबुद्धो वज्जेत्ता नाणदंसणचरितायलासगा घोरपरीस होवसग्गाईं च जिणंतो उग्गानिग्गहपटिपाए रा गोसेहिं दूरतो विश्वको रोदय विजय बि महासु प असतो जो चंद बाहुं आप वासिणाजो तत्थत्यो संधु, जो य निंदा, समजावो डोज हु
पि, एवं भणिहियल विरियपुरिसकारपरकमे समतएमणिलेकंचलो बेको परिचयकल लामो पछि अगसुर्य अरोगमुखगा। इस दढब्बयच (प) रिजस्स एते जोमास्सेव विवक्रि पसे चरक पद्मवेषणो कनवेयव्वं, तहाय जस्स जावइएण पायच्छिते परमविसोही जवेज्जातं तस्स णं णुयत्तणाविरहिएणं धम्मेकरसिएहिं वयणेहिं जट्टियं अादियं तावश्यं चैव पायपिच्छेजा भट्टे एवं वृच्च जहा गो
यमा ! तमेव निहंकियं पायच्छित्तं भन्नड़ । महा० 9 ० । विधिया निष्ठापनिका परिसमाप्तिकारिकायाम् यथा पकस्य पञ्चदशी, अमावस्या च । ज्यो० ४ पा० ।
त्रिय - निष्ठापक- पुं० । समाप्तिकारके दिवसे प्राश्र० ६
이
-
पिर्विनिष्ठापित निष्ठांति ०२०१००१ लिट्ठत्रिय-निष्ठापित त्रि० । समाप्तिमिते, पं० ० २ द्वार निविय अहमदाण-निष्ठापिताष्टमदस्थान-त्रि० निष्ठापि तानि नान मदस्थानानि मानने जातिरूप बलमतपोवनमाया बेनासािपितमस्थानः कीणमदे, ग० १ मधि० ।
39
बिट्ठा-निष्ठा स्त्री० । पर्यवसाने, सूत्र० १ श्रु० १५ अ० । समापने, भब० २ अ० | सारे सद्भावे श्र० चू० १ ० ।" एवाजिदध्वाखि जिटुं पचाणि कम्मसिको। आ० चू० १ श्र• । विद्वाण-निष्ठानन निष्पनि००१० निष्ठीयते । स्थायु प्रायोपसेचने दयादी पनेस दश० १ अ० । बाच० ।
1
पिट्ठाएकदा-निष्ठानकथा - स्त्री० । विश्रथाभेदे, स्था• ४ डा०२ ढ० । ( व्याख्या 'भतका' शब्दे वक्ष्यते ) विद्वाभावि[ ए ]- निष्ठानापि विसाधारणमाक्षिणि, माचा० १५० १ ० ४० १४० । निशम्य भाषिणि, श्राचा० २५• १ चू० ४ ० २० ।
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चिटिक
पिएड़ग
पिट्टिक - नैष्ठिक - त्रि । सर्वधर्मप्रकर्षपर्यन्तवर्तिनि प्रश्न० ३ णिम-देशी- पिशाचे, दे० ना० ४ वर्ग २५ गाथा |
सम्ब० द्वार ।
निडिय निष्ठित त्रिनिष्ठ गते कृतस्वकार्ये
० १ ० १
० मोके, परिसमाप्ते, श्राचा० १ ४०५ प्र०६ उ० । व्य० । निःससाके, भ० ६ श० १३० । कयं गते, ध०३ अधि० । कालगते, बृ० २ उ० । श्रा० म० । सिर्फ अशनाऽऽदौ, श्राचा० २ ० १ खू० १ अ० एड० ।
नितिशब्दार्थमाद
असणाऽऽई चण्ड वि.मं नं साहुगणपाठ । संनिहियं विषाणसु
11
(२०६४) अभिधानराजेन्द्रः |
..........
अशनाssदीनां चतुर्णामपि मध्ये यदाममपरिणतं सत् सा. प्रायोग्यं कृतं प्राकृतं निष्ठितं विजानीपिं० ।
फिडिय निष्ठितार्थ- त्रि०
विषयसुखनिविवा
श्रु० ६ अ० ४ उ० । निष्ठितः समापितोऽर्थः प्रयोजनं यस्य स निष्ठितार्थः । श्राचा० १० ५ ० ६ उ० । कृतकृत्ये, सूत्र० १ भु० १५ अ० । प्रज्ञा० । ० म० ।
मिट्टियहि [ ए ] निष्ठितार्थिन् त्रि० । निष्ठितो मोकस्तेनार्थी। मुमुकौ, आचा० १० ५ ० ६ उ० ।
णिड्डुम-दर्-* [-धा० । सञ्चाले, "करेः खिरज्जरपञ्झरपश्च्चमाणेबलविडुयाः ॥ ८ । ४ । १७३॥ इति रेडुिआऽऽदेशः। 'णिट्टुभ' क्षरति । प्रा० ४ पाद ।
39
रि-निष्ठुर - वि० नि-स्था-दरच् । "क-ग-ट-म-त-दप-श-ष-क-पामूर्ध्व लुकू " ॥ ८ । २ । ७७ ॥ इति बलुक् । प्रा० २ पाद । मार्दवाननुगते, ग० १ अधि० । प्रस्तरे, ग० १ अधि० । यथा हेक्का प्रधाना भाषा निष्ठुरा, अशक्यप्रतीकारतया दुर्जेदा जापा निष्ठुरा | रा० । श्राचा० । शिड्डुल निष्ठुर वि० "हरिकाऽऽदौ इति रस्य लः । श्रमृदुनि, प्रा० १ पाद ।
१।२४४ ॥
णि
निष्ठीवन- न० । नासिका मुखेन परित्यागे, दर्श० १ तादित्रपणे, दश० २० बि इति विना साथ द्विपागताः ग च्छ निर्गताश्च । तत्र ये गच्छनिर्गतास्ते नियमादनिष्ठीवकाः, श्री. पद्माकमल्लकाssपकरणासम्भवात् । गच्ठगता अपि ये बि पिनानि ते अनि प्रायश्वितविषयाः । अविधिना खेलम के निष्ठीवने दमक इव सप्तभङ्गाः, दमक श्वैच चाऽऽद्येषु प्रत्येकं लघुमासः। उत्तरेषु त्रिषु प्रत्येकं रात्रिंदि बपञ्चकम्, सप्तमनङ्गवर्तिनस्त्वनिष्ठीवका एव विधिना निष्ठीबनात् । उपरितनेष्वपि च त्रिषु भङ्गेषु यदि भूमौ निष्ठीव्यति, सदा मासलघु । पच निष्ठीवने प्राणिनां परितापनाऽऽयुपजायते सन्निष्यन्नं च तस्य प्रायश्चितम् | आदिशन्दारपरि हः । कयनेऽपि हि दण्डक श्व सप्तभङ्गकम, तथैव च प्रायश्चितविधिः । व्य० १० । निष्ठीवनकर्तरि स्था० ५ ठा० १ उ० । विशे० । दिदि देशी यूरकृते ० ना०४ व ४१ गाथा | विदेशी दे००४ वर्ग ३३ गाया
1
"
"
पिमाल - बलाट - न० | " पक्काङ्गारललाटे वा " ॥ ८ । १ । ४७ ॥ इत्यादेरत इश्वं वा । "जलाटे च ॥ ८ । १ । २५७ ॥ इत्यादेस्य णः । 'णिमा' । प्रा० १ पाद । भाले, तं० । उस० । भलीके, जी० ३ प्रति० ४ ३० । जं० ।
1
शिणाय निनाद-पुं० [नितरां नादो महान् घोषः । जी० ३ प्रति० ४ ४० । महति घोषे, कल्प० ५ कण । ज्ञा० । निर्घोषे आ० म० १ २०२ खएम। प्रतिध्वनौ, जं० ३ वक्कु० । प्रश्न० । पिनिन- त्रि०" नशोः ॥ ८२ । ४२ ॥ इति नभागस्य णः । नीचे, प्रा० २ पाद । "णिमेसु य आससा पया।" नीचभूमि उ० १२० शुष्करः प्रभृती १५० विखुत्र निस्तारयतीत्यर्थे "बदिहा था कि "
० ।
श्राचा० २ ० १ ० २ ० १ ३० ।
णिष्ठगा- निम्नगा स्त्री० । नद्याम्, नीचैर्गामिनि, त्रि० । प्रज्ञा० १ पाद ।
शिष्य - निर्णय - पुं० । निश्चये आ० म० १ ० १ एक प्र माहाने विशे
शिपार - निर्नगर- त्रि० । नगरनिष्क्रान्ते, " अप्पेगइए णिवारे करेहिति । ज० १५ श० ।
विद्यामिया निर्नामिका स्त्री० ईशानकपोपपत्रस्य लि ताइवान पनदेचा ऽष्टमजचजीच स्वयंप्रभानाम्यां देन्याम, कल्प० ७ कृण । आ०म० श्रा० चू० । तत्कथा ॠषभस्वामिनः श्रेयांसेन 'उसभ' शब्द द्वितीयभागे भवाष्टककथनावसरे ११३३ पृष्ठे गता )
लिमिमेस- निर्निमेष- त्रि० । अचेष्टे, म्रियमाणे, तद्वत्प्रवचनकार्यानुपयोगिनि स्था०५०२० । णिछेहु निस्नेह - वि० स्नेहरहिते, "जर सहित ब
श्रद्द जीवर पिवेद । " प्रा० ४ पाद ।
णिएहइया - नैह्नविकी - स्त्री० । ब्राह्मत्रिपिभेदे, प्रज्ञा० १ पद । स० । पिए हग-निहवपुं० नियते ऽपलपति अन्यधापयन्तीति निह्नवाः । स्था० ७ वा० । श्रा० म० । मिथ्यात्वाभिनिवेशाझिलोकार्थस्यापत्नापकेषु जमाल्यादिषु विशे० । स्वतसम्यग्द ईर्शनेषु व्य० १० ।
ते च सप्तसमतास्स यां जगवम्रो महावीरस्स तित्यंसि सच पदनिएगा पत्ता । तं जहा बहुरया, जीवपएसिया, अव्यचिया, सामुच्छेया, दोकिरिया, तेरासिया, अब किया। " समणेत्यादि " कण्ठ्यम, नवरं प्रवचनमागमं निह्नवतेऽपलदन्त्यन्यथा प्ररूपयन्तीति प्रवचननिह्नवाः प्रकृता जिनस्तत्र । ( बहुरयसि ) एकेन समयेन क्रिया ऽध्यासितरूपेण त्रस्तुनोऽनुत्पतेः प्रभूतसमयैोत्पतेषु समवेषु रताः सका बहुरताः, दीर्घकालद्रव्यप्रसूतिप्ररूपिण इत्यर्थः १ । तथा जीवः प्रदेश एव येषां ते जीवप्रदेशास्त एव जीवप्रादेशिकाः । अथवा जीवदेशो जीवाभ्युपगमतो विद्यते येषां ते तथा, चरमप्रदेशजीवप्ररूपिण इति हृदयम् २ | तथा श्रव्य
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पस्थान)
(२०६४) णिएहग अभिधानराजेन्यः ।
थिएहग तमस्फुटं वस्तु भम्युपगमतो विद्यते येषां ते व्यक्तिका, नाणप्पत्तीऍ मुबे, उप्पन्ना निव्वुए सेसा ॥२३०५॥ संयताऽऽयवगमे संदिग्धबुख्य इति भावना ३ तथा-समुच्छे. | चतुर्दश वषाणि । तथा-पोडश वर्षाणि । तथा-(चोदा वीसुदः प्रसूत्यनन्तरं सामस्त्येन प्रकर्षण च छेदः समुच्छेदो विना
सरा य दोनि सय ति) चतुर्दशाधिके द्वे शते, विंशत्युत्तरे च शः,समुच्छेदं छुवत इति सामुछेदिकाः, कणकयिकनावप्ररूप. वे शते, वर्षाणामिति गम्यते । तथा-प्राविंशत्यधिके च के का इत्यर्थः ४। तथा द्वे क्रिये समुदिते द्विक्रिय, तदधीयते शते, तथा पथैव शतानि चतुश्चत्वारिंशदधिकानि, पञ्च शता. तदिनो वा द्वैक्रियाः, कालानेदेन क्रियाद्वयानुभवप्ररूपिण
नि चतुरशीत्यधिकानि, पट् चैव शतानि नवोत्तराणि भवन्ति । स्वर्थः। तथा--जीवाजीवनोजीबभेदात् त्रयो राशयः समा. पतावता व्यवधानकालेन ज्ञानोत्पत्तरारभ्याऽऽद्यौ द्वौ निदवीसइताः त्रिराशि, तत्प्रयोजनं येषां ते त्रैराशिकाः,राशियाऽऽख्या. मुत्पन्ना। शेषास्तु षा भवन्ति । श्रीमन्महावीरे निर्वृते निर्वाणकापका इत्यर्थः ६ । तथा-स्पृष्टं जीवेन कर्म न स्कन्धबन्ध
लादारभ्य उक्तशेषेण यथोक्तेन व्यवधानकालेनोत्पन्नाः। इदमु. बरुदुमबर्फ, तदेषामस्तीत्यबारकाः, स्पृष्टकर्मविपाकप्ररूपका
तं भवति-श्रीमन्महावीरस्य फेवलोत्पश्चतुर्दशभिवरतिइति हदयम् ७॥ स्था० ७ ठा। विशे।
कान्तैबहुरताः समुत्पन्नाः । षोमशनिवव्यतिक्रान्तैः जीवप्रदे. निह्नवकारिणां नामान्याह
शाः समुत्पन्नाः। नगवत पच निर्वाणकालाच्छेषेण चतुर्दशाधिएएसि एणं सत्तएहं पवयणणिन्हगाणं सत्त धम्मायरिया कवर्षशतद्वयाऽऽदिना कालेनातिकान्तेन शेषा अव्यक्ताऽऽदयो होत्या-जमाली, तिस्सगुत्ते, प्रासादे, आसामत्ते, गंगे,
निवाः समुत्पन्ना इति । २३०४ ॥२३०५॥ विशे० प्रा० क० । झए, गोचमाहिले । स्था०७ग०नि००। विशे० ।
पा० चू०। प्रा०म०। (एषां प्रत्येकं विस्तृतव्याख्या स्वस्वस्थाने)
(बोटिकस्य च सूत्रानुक्तस्याटमनिह्नवस्य व्याख्या 'बोमिय' (एषां व्याख्या स्वस्वस्थाने)
शब्दे वदयते) अथ येच्यो ये निवाः समुत्पन्नास्तदेतदाद
संप्रति निववरव्यतां निगमयन्नाहबहुरय जमालिपभवा, जीवपएसा य तीसगुत्ताओ।
एवं एए कहिया, ओसप्पिणिए उ पिएहगा मत्त । अन्नत्ताऽऽसाढाओ, सामुच्छेयाऽऽसमित्तानो ॥२३०१॥
वीरवरस्म जगवतो, सेसाणं परयणे नऽस्थि ॥२६१०॥ गंगाओ दोकिरिया, उलुगा तेरासियाण उप्पत्ती।
एवमुक्तेन प्रकारेणैतेऽनन्तरोदिताः कथिताः प्रतिपादिता भथेरा य गोहमाहिल, पुट्ठमबर्फ परवेति ।। २३०॥
स्यामवसर्पिण्यां निवाः सप्त । अष्टमस्तु बोटिका, तुशब्द: बहुरता जमालिप्रभवाः, जमालेराचार्यात्प्रभव उत्पत्तियेषां ते
समुच्चये । धीरवरस्य भगवतः प्रवचने तीर्थे । शेषाणां तु तीजमालिप्रभवाः १। जीवप्रदेशाः पुनस्तिष्यगुप्तादुत्पन्नाः २
यकृतां प्रवचने (नस्थि त्ति) प्राकृतत्वाद् नासन् निवाः। भव्यक्ता प्राषाढात् ३ । सामुच्छेदा अश्वमित्रादिति ४ ।
तत्रगङ्गादू वैक्रियाः ५ । षडबूकात् त्रैराशिकानामुत्पत्तिः ६ ।
मोत्तूणमेसिमेक, सेसाणं जावजीविया दिट्ठी ॥ स्थविराव गोष्ठामाहिलाः स्पृष्टमय प्ररूपयन्ति ७। 'कर्म' इति गम्यते । “परुबिसु वा"इति पाठान्तरं वातितो गोष्ठामादिसाद
एकेकस्स य एत्तो, दो दो दोसा मुणेयचा ॥२६११॥ बद्धिका जाता इति सामान्यत इति ॥ २३०१ ॥ २३०॥ मुक्त्वा,एषामेकं गोष्ठामाहिसं निवाधम,शेषायां जमालिप्रभृयेषु स्थानवते समुत्पन्नास्तानि क्रमेणाऽऽह
तीनां प्रत्याख्यानमती कृत्य यावजीविका दृष्टिरासीत् । न ते प्रत्या. एएसि एं सत्तएहं पवयणनिएहगाणं सत्त उप्पत्तिनगरे
ख्यानं गोष्ठामाहित चापरिमाणमब्रुवन्नितिभावना । पाह-प्रकहोत्था । स्था०७ ग०। प्रा० क०।
रणादेवेदमवसीयते किमर्थमस्योपन्यासः। उच्यते-प्रतिदि
बसोपयोगिनः प्रत्याख्यानस्यातीवोपयोगित्वान्मा कश्चित्तथैव सद् यथा
प्रतिपद्येत, ततो ज्ञाप्यते-निहवानामपि प्रत्याख्यानविषये श्यसावत्थी उसमपुर, सेयविमा मिडिल उल्लुगातीरं।
मेव दृष्टिरिति । (पत्तो ति) प्राकृतत्वादषिां मध्ये पकैकस्य पुरमंतरजि दसउर, रहवीरपुरं च नयराई ॥२३०३ ॥ निह्नवस्य द्वौ द्वौ दोषी ज्ञातव्यौ, मुक्कामति वर्तते । मावस्ती, ऋषभपुरं, श्वेतविका, मिथिला, उल्लुकातीरं, तथाहि-बहुरता जीवप्रदेशिकान् प्रत्यूचुर्भवन्तो द्वाच्या कार पुरमन्तरब्जिका, दशपुर, रथवीरपुरं चेति । एतान्यष्टौ नगरा- णाभ्यां मिथ्यादृष्टयः । तत्रैकमिदं यद्वदथ-एकप्रदेशो जीब णि निलवानां यथायोगमुत्पत्तिस्थानानि योद्धयानि । अष्टमं इति, द्वितीय क्रियमाणं कृतमिति । जीवप्रदेशिका अपि ब. नगरं व्यलिनमात्रेणापि भिन्नानां सर्वापलापिनां महामि- हरतान् प्रत्यपादिप्यमपि कारणद्वयेन मिथ्यारयः । स्वारशां वक्ष्यमाणानां बोटिकनिहवानां साघवार्थमुत्पत्ति- एक तावदिदं यदध-क्रियमाणमकृतं जीवप्रदेशं न जीव स्थानमुक्तमिति ॥ २३०३॥
इति प्रतिपद्यावे । एवं शेषाणामपि परस्परं भावनीयम् । गोष्ठाअथ भगवतः समुत्पन्नकेवलज्ञानस्य परिनिर्वृत
माहिन्नमधिकृत्य पुनरेकैकस्य त्रयो दोषाः। तथा हि-बहुरतान स्य च का कियता कालेन निहवः समुत्पन्नः,
प्रति गोष्ठामाहिलोऽब्रवीत्-कारणत्रयाद्भवन्तो मिथ्यारष्टयः। इत्येतत्प्रतिपादयन्नाह--
तथैकमिदं यत्कृतं कृतमिति बृथ, द्वितीय प्रतिप्रदेशव कर्म, चोइस सोलस वासा, चोदा वीसुत्तरा य दोन्नि सया।
तृतीयं यावज्जीवं प्रत्याख्यानमिति । बहुरता अपि तं प्रत्यवोचन्भट्ठावीसा य मुवे, पंचेव सया य चोयाला ॥२३०॥
नवानपि कारणत्रयाद मिथ्याष्टिः। एकं तावदिदं यत क्रियमाणं
कृतमिति वदति, हितीयं स्पृष्टमबद्धं कर्म, तृतीयमपरिमाणं प्र. पंचसया चुलसीप्रो, कच्चेव सया नवुत्तरा होति ।। पानमिति । पचं सर्वान् प्रति योजनीयम् । अन्ये त्वाः -पकै
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बिपडग
भाभिधानराजेन्दः। करप द्वौ द्वौ दोषौ एवं बेविलम्बी-पतंगास्वयं विप्रतिपामा, यः सूत्रार्थतदुभयानि कस्यचित्पा गृहीत्वा तमाचार्य किशिली परानषि ब्युग्राहयम्तीति ।
मृदुते अपनपति-अपरं कमपि विद्याख्यातमाचार्यमुदिशति । नोका रसः संसाराय, माहोस्थिपपर्याय ?, इत्या
अथवाव्यात्-मया स्वयमेवाज्यद्य तं मिर्षी, केवलं नाशङ्कानिवृत्यर्थमाह
चनाचार्यैः मम दिग्मात्रमेव दत्तमिति । अत्र च यदि स्त्रसत्तेया दिहीमो, नाइजरामरणगन्जवसहीणं ।
ऽऽचार्य निहते, तदा चत्वारो लघुकाः, भये अर्थदायकमा. मलं संसारस्स उ, हति.णिगंथरूवेणं ॥२६१६॥
चार्य निवॉनस्य चत्वारो गुरुकाः, तदुनयाऽऽचार्यमपसत
स्तभयं प्रायश्चित्तमिति । अत्र गेरुकः परिबाजका, तस्य सत्ताप्येता हटयो,बोटिकास्तु मिथ्यादृष्टय एवेति न तद्विचार।
कातं रष्टान्तः । (१०)(सब'मणिराहवण' शमे प्रथम नातिजरामरणगर्भवसतीनामिति। जातिग्रहणं नारकाऽऽदिप्रस्.
भागे ३३४ पृष्ठे द्रष्टव्यः) "अवमत्थोवण मो-जहा सो एडासिनहे चरितार्थमिति गर्भवसतिग्रहसमदुम् । मूलकारण,मब- बियं विजायरियं जिन्हबैतो मोहावर्ण पत्तो, एवं प्रबिमतीति योगः । मा तत्सद्भाविनीनां जातिजरामरणगवसती
पपगासं पि वायणायरियं निन्हवेता र लोए बेव बणं मां मूलमिति प्रत्यय तत पाह-(संसारस्सउ इति) संसर
समसाबगाईणं हालणिज्जा भवंति, देवयाहि य समिति जं संसास्तियनरनारकामरभवानुनूतिरूपः प्रदीर्घः,तव,तु
ति।"(अकोही यसि ) परलोके प्रबोधिफलं कर्म गुरुनिहायशमस्वावधारणत्वात् । केन कोणत्याह-निर्गन्धरूपेण ।
कोऽयति, एवंविधस्य (धुतं ) न दातव्यम्। अर्थते निवाः किं साधवः,उत तीर्थान्तरीयाः, माहोस्पिलि.
यत माहभ्यारष्टयः ?। उच्यते-न साधवः, यतः साधूनामेकस्याप्यययय. कतमशनाऽऽदि तपाणां न कस्पते, नैवं विधानाम ।
उवायमाविमाणे, न कहेयन सयंब भत्थों का। तथा बाह
न मणी य सयसहस्सो, आविसइ कोत्यु जासस्स ॥ पवनीट्याणं, जंतेसिं कारियं जहिं जत्थ ।
मतिः स्वस्वाजाविकी, विज्ञानं च गुरुपदेशजं, मतिविज्ञाने, ते अज्ज परिहरणाए, मुझे तह उत्तरगुणे य॥१६१७॥ उपहते दृषिते यस्य स उपहतमतिविज्ञानो गुरुनिहतः । ( नाहय सि ) देशीवचनमकिञ्चित्कराथें । ततः प्रब- कथमिति चेपुच्यते-इह तावद् गृहस्था भपि मिथ्याहयस्तबने पारमेश्वरे यथोक्तक्रियाकलाप प्रत्यकिञ्चित्कराणाम् । स्वातवत्यतिकविवेकविकाः, ऐहिकफलार्थमर्थशास्त्रं धनु. मथचा-( नाहय सि) आषत्वाद् निहतं, तत्र प्रवचन र्वेदाऽऽदि यस्य सकाशे शिक्किनबन्तलं यावनीवं गुरुं प्रतिनिहतमपसपितं यैस्ते प्रवचननिहताः । सुखाऽऽविदर्शनाद् पद्यमानाः सर्वस्यापि लोकस्य पुरतः साधन्ते, न पुनः कमिष्ठान्तस्य पाक्तिकः परनिपातः । तेषाम, यदशनाऽऽदि, दाऽपि कस्यापि पुरतो निहवते । स पुनः सर्वशासनप्रतिपसेषामुपभागीय कारितं यद् यस्मिन् काले यत्र केत्रे, तद्भाज्यं मोऽप्यनित्यचिन्तामणिकल्पश्रुतदायकानपि परमगुरुन् निहते विकल्पनीयम्। परिहरणे कदाचित्पाहियते,कदाचिन्नति। यदि त्यतोऽसौ तेभ्योऽप्यधमत्वादुपहतमतिविज्ञानोऽनिधीयते । लोको न जानाति-यथैते साधुभ्यो भिन्नास्तदा परिहियते, एवंविधे शिष्ये न कथयितव्यमश्रितं पा सूत्रम्,अ चा तदनि. अथ जानाति, नदा न परिहारः । भधवा-परिहरणा नाम घेयः । प्रमुमेवार्थ प्रतिवस्तूपमया हयति-(न मणी इत्यादि) परिजोगः । तथा चोक्तम्-" परिहरणा उवभोगो परिभोगो।" (कोत्यु त्ति) मार्थत्वात् कौस्तुभो नाम मणिः शतसहस्रो लकसमः कदाचित्परिभुज्यते, कदाचिन्नति निवस्वपरिक्षाने यु- मूल्यो भासस्य शकुन्ताऽऽस्यस्य पक्किणो गझके नाऽविशज्यते, शेषकालं नेति । कथम्भूतं तत् प्रशनादिसनिमित्तं का- ति, अयोग्यत्वात् । एवमस्यापि गुरुनिहोतुरस्यन्तापात्रतस्य रितमित्यत माह-मूने मूलगुणविषयम,प्राधाकर्माऽदि,तथोत्त- सुतेरत्र प्रदानमनुचितमिति न विधेयम् । १०१.। कर्म० । रगुणे उत्तरगुणविषय च,क्रीतकृताऽऽदिततो नैते साधवो,नापि नि० चू० । अपलापे, भाव•४० । सत्र। गृहस्था, नाप्यन्यतीयाः, यतस्तदाय कृतमेकान्तेन कल्ल्य-णिपदव-नि-पा० अपनपने, "वर्णस्यावः" ॥८॥४॥ मेव भवति । अत्र तु नजना ततेो व्यक्ता एवेति ।।
२३६ ॥ इत्युवर्णस्याऽवादेशः। 'जिपहवा,' निहने । प्रा.४ माह-योटिकानां कारितं, तत्र का वाता?, अच्यते
पाद । अपनपति, वृ० १ उ.। मिच्छादिडीयाणं, जंतेसिं कारियं जहिं मत्थ ।
निव-पु.। "णिएग' शम्दा, स्था०७ ठा। सव्वं पि तयं सुई, मूले तह उत्सरगुणे य ॥२६१७। तेषां मिथ्यारशीनां वोटिकानामुपभोगाय यस्कारितमशनाऽऽदि
लिएडवण-निहवन-पुं० । अपनपने, प्रब ६ द्वार (भाषागृहरोः कारितं मूले मूलगुणविषयमुत्तरगुणे उत्तरगुणविषयं, र्यापनपनेन का गतिरिति 'मणिपटवण' शन्दे प्रथमभागे ३३४ बत्सर्वमपि शुरू कल्पनीयमिति भावः ॥ २६१८॥ मा. म. पृष्ठे उक्तम्) (प्राचार्यापनपने प्रायश्चित्तं 'णिराहग'शम्दे. १०२ वराह । (निश्वाः परलोकस्याऽऽराधकाः, अनाराधका | नुपद मेव गतम्) अपहतधनाऽऽदिपरधनापहारादिकं यैरपबा', इति 'अाराहग' शन्दे द्वितीयभागे ३०२ पृष्ठे गलम)। इने न प्रकाशयति ते निहसनाः । अपहारगोपन प्रयोगेष, प्राचार्यापलापिनि, वृ०१०।।
विपा० १७. २०। मिवद्वारं विवृणोति
णितंव-नितम्ब-पुं० । पर्वताऽऽदे कटके, स्त्रीकटेः पश्चाद् जागे मुत्सत्यतदुभयाई, जो घेत्तुं निन्दवे तमायरियं ।
च । “णीलवतस्स यासहरपवयस्स दाहिणिले णितंबे।" लड़या गुरुया प्रत्ये, गेरुयनायं भवोही य ।।
| शं. बका।
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(२०६७) णितियोमागण प्रनिधानराजेन्द्रः।
णितियवास णितियोमाण-नित्यावमान-न । नित्यमवमान प्रवेशः स्वप- संयत इत्यर्थः । पञ्चनि समितः, शुभेतरेषु रागद्वेषरहित . कपरपक्कयोर्येषु तानि तथा । सर्वदा निक्षूणां गोचराय कृतप्र. ति पावत् । एवम्नूतश्च मह हितेन वर्तत इति सहितः । सपेशेषु कुलेषु,माचा नित्यलानात् तेषु स्वपकः संयतवर्गः,प. हितो धा ज्ञानदर्शनचारित्रैरेवम्भूतव सदा युतस्तेन संयमयुरपकोऽपरभिक्काचरवर्गः सर्वो भिकार्य प्रविशेत् । भाचा. २ को भवेदित्युपदेशः। ब्रवीमीति । जम्बूनामानं सुधर्मस्वामीश्रु.१०१०१3.।
दमाह-भगवतः सकाशात श्रुत्वाऽहं ब्रवीमि, न तु स्वेचयेति ।
शेषं पूर्ववदिति । प्राचा०२ श्रु.१०१०१०। (अत्र णितिय-नित्य-न । ध्रुवे, सतते, नि• चू।
वक्तव्यम् 'मम्मर्पिक 'शब्दे प्रथमभागे १६५ पृष्ठे उक्तम् ) जे जिक् णितियं वंदइ, बंदंतं वा साइजह ॥१७॥ जे भिक्खू णितियं मंसड, पर्मसंतं वा साइज ॥४॥
नित्यपिएमो न भोक्तव्यः'जे णितियं दे सूत्रे, णिशमबहाणातो णितियो ।
जे भिक्खू णितियं पिएमं तुंज,लुतं वा साइज।३२॥ गाहा
जे निक्खू णितियं अबढनुंजइ, भुंतं वा साइन्न ।३३॥ जं पुर्व जितियं खलु,चन विहं वएिणयं तु वितियम्मि। जे भिक्खू णितियं जागं भुंनइ, भुंतं वा साइज्जइ ।।३।। तं प्रावणरहितो, सेतो होति णितियो॥२॥ | जे जिक्खू णितियं उपकृतागं जुज, जंतं वा साइजइ३५॥ दवलेत्तकासनावा पतं चढविहं रहेब अजयणे वितिउ-|
पिंको भत्तहो, अव तदसो, तस्स भरूं नागो त्रिभागः, देसे परिणय, तंगिकारणे सेवंतो णितिनो भवति । नि• चू० |
त्रिनागहुँ उवभागो। १३उ०। णितियपिंग-नित्यपिएक-पुं.1 मया एतावदातव्यं, भवता तु
एसेव गमो नियमा, णितिए मिम्मि होतऽवढे य । नित्यमेव प्रायमित्येवं नियमबाह्य पिएमे, स्था० १० ना.। नित्यपिपडं न गृहीयात्
जागे य तस्मुबले, पुने अवरम्मि य पदम्मि ॥२२॥ से निक्खू वा भिक्खुणी वा गाहावश्कुझं पिकवायपमि- जो गमो णितिय प्रगपिंडे भणितो, सो चव गमो पिंडादि.
पसु चसुविसुसेसु उस्लग्गाववाएण भाणियब्यो । या परिसित्तुकामे से जाई पुण कुलाई जाणेजा-इमेसु
सूत्रार्थप्रतिपादनार्थ पिंगाहाखस कुलेसु णितिए पिंके दिज्जति, णितिए भग्गपिंके
पिंको खबु जत्तट्ठा, अकृषिको न तस्म जं अच्छ। दिज्जति, णितिए जाए दिजद, णितिए अवकृपाए दि.
तस्सऽ नागमादी, तस्मकुमुवनागो उ ।। २२३ ।। जर, तहप्पगाराइं कुमाई णितियाई णितिमोमाणाई णो |
गतार्थैव । नि० चू० २ उ०। पाणाए पावसज्ज वा, णिक्खमज्ज वा। एप णितियवास-नित्यवास-पुं० । नित्यमवस्थानाद् नित्यः । निखबु तस्स भिक्खुस्स वा भिक्खुणीए वा सामग्गिय, जं
त्यवासिनि, अतुबमवर्षासु प्रमाणाधिकवासे, नि० चू•। सबढेहिं समिते सहिते सयाजुए त्ति बेमि ।
जे जिक्खू णितियं वासं वस:, वसंतं वा साइज ।३६॥ स भिक्षुर्यावद् गृहपतिकुलं प्रवेष्ठुकामः । स तचन्दास च
दुबद्धवासामु अतिरिक्तं वसतः णितियवासो भवति । बाक्याघोंपन्याप्सार्थः । यानि पुनरेवंभूतानि कुलानि जानीयात् । तद्यथा-इमेषु कुवेषु, खलुशब्दो वाक्यालङ्कारे । नित्यं प्रतिदिनं
दानी नियुक्तिमादपिए पोषो दीयते, तथाऽप्रपिण्डः शाल्योदनाऽऽदेः प्रथ
दव्ने खने काले, जावे णितियं चउनि होति । ममुमृत्य भिकार्थ व्यवस्थाप्यते, सोऽप्रपिरामः, नित्यं नागो. एतसिं णाणतं, वोच्छामि अहाणुपुब्बीए ॥ २२४ ।। उपोषो दीयते । तथा-नित्यमपार्धभागः पोषचतुर्थभागः । दबखेसकालभावेसु गितियं च विह, एतेसिं जं नानात्वं तथाप्रकाराणि कुलानि, निस्यानि नित्यदानयुक्तानि, नित्यदा
विशेषं, तमानुपूा वक्ष्ये। नादेव (णितिओमाणाई ति) नित्यं (भोमाण ति)प्रवेशः स्व
संयोगचतुष्कभङ्गप्रदर्शनार्थमाहपकपरपक्षयोर्येषु तानि नथा। इदमुक्तम्जवति-नित्यलाभात्तेषु स्वपक्षः संयतवर्गः, परपक्षोऽपरभिकाचरवर्गः, सबों निक्षार्थ
दबेण य खेत्तेण य, णितियाणितिए चउक्कभयाणा उ । प्रषिशेत् , तानि च बहुज्यो दातव्यमिति तथाभूतमेव पाकं एमेव कामभावे, दुरप्स व सुए समोतारो ॥ २५॥ कुयुः, तत्र च षट्रायवधः । अल्पे च पाके तदन्तरायः कृतः दन्वतो णितिए, खेत्ततो णितिफ, एवं चउनंगो काययो । स्यात् । इत्यतस्तानि नो भक्ताथै पानाय वा प्रविशेभिःकामेद्वे- तत्थ पढमभंगभावणा संधारगाइदब्वाणि कालफुगातीनाजि, ति। सर्वोपसंहारार्थमाह-(एयमित्यादि) एतदिति यदादेरा- ताम्म चव खेत्ते परिजुजतो णितिप्रोजवति । पढमनंगो संधाररभ्योक्तं, सलुशब्दो वाक्यालक्कारार्थः । पतत्तस्य भिको सा. गादिदव्या कालदुगातोता मम्मि खेत्ते उ परिनंजति । मम्य समग्रता, यदुद्गमोत्पादन ग्रहणैषणासंयोजनाप्रमाणाङ्गा- विनियभंगो तम्मि व खेते असे संधारगादि गेराहति । लधूमकारणैः सुपरिशुद्धस्य पिरामस्योपादानं क्रियते, तद् ज्ञा- ततियनंगो नितियं पञ्च । च उत्थभंगो सुम्सो । एवं कालनावे. माचारसामन्यं, दर्शनचारित्रतपोवीयोऽऽचारसंपन्नता चेति ।। सुविचउभंगो कायब्यो। कालो वि णितिए,भावो विणिअथ वैतत्सामम्यं सुत्रेणैव दर्शयति-यत्सर्वार्थः सरलविर- तिए । तत्थ पढमलंगो काल पुगातीतं च सति सादिसु सादिभिराहारगतः. यदि का-रूप रसगन्धस्पर्शगतः,समितः । नावपषिद्धो पढमभंगो, कालदुतातीतं वसति, ण सतिस
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( २०१४ ) अनिधानराजैन् ।
गितियवास
गडको वितियांगो काल दुगनिमातस्स विन सातिसु भावपमिनको ततियभंगो, चतुर्थः शून्यः, (दुवस्स व डुवे समोतारो ति) कालभावदुअस्स दव्वखेतपुर समोतारः ।
गाहा
कालो दव्वतरती, जस्स व दव्वस्स सो तुपज्जायो । भावो खेते जग्हा, वासादी सुभमस्थ || २२६ ।। कासोदभ्ये समोतरति जम्हा सो दम्बपजातो, पश्यदध्यकाले चनभंगो भावेयत्रो । भावो देत्ते समोतरति, जम्हा एगाश्सु भावपमिबंधो जवति । एत्थ विखेत्ते भावेसु चचनंगो भावेयव्वो । खेत्त कालच उमंगे इमा भावणा-तम्म य खेत्ते मा सातीतं वसति पदमभंगो, चरिमं बद्धितं जत्थ मालकपठिया तत्थेव वासंतियाणं बितियभंगो, श्रन्यकालप्राप्तेरिति । अर्थ भागं पमिवसमं या संकर्मतरस सबै भिखारि बारतिय चतुर्थः ।
जो दग्वणितिश्रो सो इमे पहुश्च । गाहापरिसामिमपरिसामी, संथाराऽऽहारविहपथिमि । डगलग सरकखपल्लग - पचगमादीगु दन्यम्मि ।। २३७ ।। संधारो दुविहो - परिसाडी, अपरिसाडी य । आहारे तेसु बकुलेसु एहति । दुविदो उबद्दी आहितो, उनग्गहितो य । पासत्र खेल्लसतिनिमित्तया । गाहाकालदुगालीताई संचारादीणि सेवमाथा एसो न दव्वणितियो, पुठे तो बहिं किंतो || २२८ ॥ पते संधारणादिदम्बे कालदुगातील अपरिहरतो नितिम्रो प्रवति, स बाहिरियंसि वा खेतं भंतो मासकप्पे पुझे ते चैव संधारगादी तो तो नरपति। दार्णि समितिश्री
।
जोवाने संधारे, विहार उच्चारउवधिफलगाये ।
गरादिदेसरज्जे, वसमाणे खित्ततो णितिए ||२२|| संथारगोवाले, महवा संथारो पृथक् परिगृह्यते, विहारो सायमी, उधारोष्णः भूमी, कुलगामादिण मुंचति, पुनः पुनस्तेष्वेव चिरति सतिश्रो किमपिति
चाम्पासा उवरिं, एगट्ठाणे वसंति जे निक्खु । बुद्दिनिमिते सती समारो कालतो खितिए || २२० ।। उदुवाकालातील संतो काम गतिमवतो बहुकाले त्रिणितिश्र ण नवाते। बुढकार्यपरिसमाप्तौ उपरिटाइसन् निति भवति ।
इडानि भावनितिम्रोभोसे संचारे, भने पापो परिग्गद्दे सके ।
संघ, पनिबद्धे जावतो णितिए ॥ २३१ ॥ जे सेहा ण तावत्प्रव्रजंति पूर्वापरेण संघवेण संयुताओ बासादिन ससुरागं करैतो भावपविको भवति ।
गाहा
बसही एरिसा खलु होहित अपास्य देव चारो । ऐत्यं जत्तमणुत्तम-सवा सेहादि वा पस्थि ॥ २३२ ॥
णितियवास
श्रत्थ परिसा बसही स्थिति रागं करेति, एवं संधारगभतपासले हाऽऽदिसु बि ।
दाणिं दब्वस्त्तकालभावेसु पच्चित्तं भस्मतिकोसोवधिफलए, देसे रज्जे य बुढवासे य । बुगा भावे गुरुगा सेसे पागं च बहुगो तु ॥ २३३ ॥ दन्वं परुच्च उक्लोसोवहिए फलए य चडलहुआ । खेतं परुच्च देसे रज्जेसु चडलहुआ । कालं परुच्च वासातीते - वासातीते य चउहहुया । रागेण नावे सम्वत्थ चउगुरुगा । संथारगवज्जेसु तणेसु मगल पत्थारपल्लपसु म पणगं । सेसे दादशमासल हुयं ।
गाहा
सुचवितो नितिए, चतुविधे मासि नाई लहूगं । उच्चारितसरिसाई, सेसाइँ विगोवणछाए || २३४ ॥
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विदन्वादि णीयते, जत्थ मासलढुं तत्थ सुत्तणिवातो, सेसा पविता शिष्यस्य विगोषणा भणिता, कारणमो पुष दम्यादपि णिति से
ते इमे कारण दुबिहासिवे मारिए, रायहुडे नए व आगाढे | मेला उचिग परिने सजाइए असवी || २१५ ।। यदि असित अकाली पिक्सेल यादें ओमराहिया धागा पसेख भागादे या गेल बसेज, उत्तिम परिवरा या सेझा पहिया चरादिम चरितदोसा तो वसेज्जा, बहिं वा सज्जाओ ण सुज्झति, अतो सज्जायणिमित्तं वसेज । असती वा बहिं मासकप्पयोगा ण, तत्थेव वसेज्ज |
बोदगाऽऽग कालदुगातील बसमाणा कई सुचरण भाचार्याऽऽद
एक्सेल शिवासा फालातियंतचारिणो नंति । सुरूचरणणाणा खलु, विसुरूमालवणं जेणं ॥ २३६ ॥ गते कालदुगातिक्कतं पि वसमाणा, तहा वि णितियारा, जतो विसुकाणामसंची हानादराचाणं
किं चआणाएँ अमुकपुरा, गुण जे भरा तेणें । मुकपुरमा मुणिणो सोपी संविज्जति चरिते ॥ २३७॥ प्राणत्ति तित्थकरवयणं, जदा तित्थकरवयणातो जितियं ण वसति, तहा सित्थकरवयणाओ चैव कारणा णितियं वसति स एवं आणा संजमे अमुकधुरो चेव, प्रमुक्कधुरस्स नियमााणाSSदिगुण, जेण यतस्त्र गुरुपर हा भवति, जो गुण तप्परिपक्खे वट्टति, तस्स सोदी चरितस्त्र ए विज्जति ।
इद्राणि गतोऽप्यर्थः स्फुटतः क्रियतेगुणपरिमितं कालातीते ण होंति दोसा तु ।
जत्य तु पहितो पाणी, विज्ज तहियं न विहरेज्जा | २३८ कालाय गालि हामादिगुणपरिमित न दोषः जत्थ पुरा बाई विहरतो पानी हाणी हवेज, ण तत्थ विहरेज इत्यर्थः । नि० चू० २३० ।
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(२०६९) णितियवास निधानराजेन्द्रः।
णितियवास नित्यवासफलम्-ननु किमित्येवमुपदिश्यते?-यावता मासकल्पे- स्य,तदसप्राप्ती ज्वराऽऽद्युन्मादसभवादात्मविराधना । प्रवचनोम विहरतामवश्यंभाव्येव जीदोपमर्दः, सूत्रार्थोनयहानिरपि जा. पघातश्च यथैते श्वेतभिनवो वदन्ति-चेलाञ्चसमपि प्रमादाया: पते,मार्गगमनश्रमसंभवादपरिचितजनाऽपयोगिभक्तपानाऽऽद्य- संबन्धिनमस्माभिः परित्यज्यत, व्यापारः पुनरेतेषामरशः। प्रयोसंप्राप्तेर्वा वातपित्ताऽऽदिक्षोभादात्मविराधनासंभवाच प्रत्यकं गश्चात्र-भवभ्रमणनीरूणांगृहीतव्रतयतीनां समस्तानर्थनिबन्धनो दोष एव दृश्यत इति। प्रयोगश्चात्र-अयुक्तमिदं मासादिविहा. नित्यवास इति प्रयुक्त एवेति पकः । समस्तप्रमादनिबन्धनन्या. रेण ग्रामानुग्रामभ्रमणमिति पक्कः । संयमाऽमविराधनातुत्वा- दिति हेतुः । गृहवासवदिति दृष्टान्तः । यद्यत्प्रमादनिबन्धन दिति हेतुः। तथाविधकष्टसाध्यसावद्यानुष्ठानादिति दृष्टान्तः । य- तत् तद् पुनर्यतीनामयोग्यम्,यथा-गृहवासनिषेधनम,प्रमादनिधत्संयमाऽऽत्मविराधनाहेतुभूतमनुष्ठानं तत्तत्संयमवतामनार- बन्धनश्चायमित्युपनयः । ततोऽयुक्तोऽयमिति निगमनम् । न म्भणीयमेव, यथा कृष्यादिसावद्यानुष्ठानम्.तथाभूतं चेदं मास
चास्य हेतोरसिकताऽऽदिदोषोद्भावना विजावयितुं शक्यते, करूपाऽऽदिना प्रामानुग्रामन्चमणमित्युपनयः । अतो न युक्तमिद- पूर्वेक्तयुक्तरतिप्रतीतत्वात् । यथोक्तम्-आगमोऽप्येवमेवेत्यादि , मिति निगमनम्। न चास्य हेतोरसिकत्वाऽऽदिदोषोद्भावनाऽपि तस्यायुक्ततरतमत्वाद् वक्तुमहानिर्धमता चाऽऽवेदिता भवति । कर्तुं शक्यते,पूर्वमेव सूत्रार्थोनयसंयमाऽऽत्मविराधनायाः सप्रपञ्च
यतस्तत्राय प्रक्रमःप्रतिपादितत्वात्। अन्यकत्र निवासे गुण एव दृश्यते-यतोमा- "जो होज उ असमत्थो, रोगेण व पेल्लिो झुसियदेहो। संगमनाजावात्समस्त जीवोपमर्दाभावे संयमवृद्धिरुपजायते । सबमवि जहा भणियं, कयाइ न तरेज्ज काउं जे" ॥१॥ व्यायामाभावात्प्रासुकैपणीयोचितभक्तपानलाभसंभवाच वात- अम्या नावार्थ:-यः स्यादसमों चिकृष्टतपश्चरणाऽऽदिना,रोगेपित्तादेः क्षोभानावादात्मविराधनाऽपि न भवति । तथाऽऽचार्य- ण च, राजभयाऽदिना प्रेरितः स्वाभाविकशक्तेश्च्यावितः, तथा निवास पुस्तकाऽऽद्यविकल पठनकारण कापसंभवात् सूत्रार्थोन. झुषितदेहो जराऽतिव्याप्तत्वादशक्तिनिविष्टः। किंबहुनोक्नेनैवमा यवृद्ध्या शिष्या दीप्ता भवन्ति । नक्तं च-"प्रारोग्यवुद्धिविनयो । दिकारणैः सर्वमपि यथानणितं यथाऽऽगने प्रतिपादित क्रियाऽ. द्यमशास्त्ररागाः,पञ्चाऽऽन्तरा जगति पाचगुणा भवन्ति । आचा- | नुष्ठान, कदाचनाऽपि यदि कथञ्चिद, विधातुं, (न तरेज सिन पंपस्तकनिवाससहायवल्भाः, बाह्याश्च पच पचन परिचय शकनुयाद्वेति । 'जे' इति पादपूरणे निपात इति गाथाऽर्थः । न्ति ॥१॥" अन्यचागमोऽप्येवमेव व्यवस्थितः । यत:-" पंच तदा कि प्राप्ताऽऽलम्बन श्व समस्तमपि त्यजेदेवत्याह-- समिया तिगुत्ता, उज्जत्ता संजमे तवे चरणे। वाससयं पि “सो वि य निययपरक्कम-ववसायधिश्वलं अगूतो। वसंता, मुगिरगो आराहगा भणिया ॥१॥" इत्याद्यनेकगुणक- मोतूण काचरियं, जयई जातो अवस्स जई" ॥१॥ लापोपे तत्वाद् नित्यवासस्य, युक्तमेव तत्करणमिति मन्तव्यम् । अस्या व्याख्या-सोऽपिच वाक्तकारणैः सकल शक्तिरहितोऽपि एवं व्यवस्थितेऽपि यदन्यथापरिकल्पनं, तत्कदाग्रहग्रह गृहीतब- निजपराक्रमव्यवसायधृतिबल मगोपयन् कूटचरितं मुक्त्वा,यतचनमिवापक नोमिति स्थितम ।
ते यदि शक्तिपराक्रमोचितं विधत्ते तदा यतिरेवा.ऽसी,सुसाधुअत्रोच्यते-यत्तावत्प्रतिपादितम्-'मासाऽऽदिविहारे' इत्यादि- रेवेति, न पुनरनमोऽसाधुरित्यर्थः । तत इत्थंभूतस्यापि युक्तसंयना पृथिव्यादिमदाऽऽदिना संयमाऽऽदेविराधनेति दृषणकदम्ब- मानुष्ठानस्यागत्यैवेति काक्वाऽऽचेदितम, समर्थस्य पुनः का कम् । तद् नित्यवासेऽपि समानमेव । यतो विहारपरिहारेण वार्ता ?, ति गाथा ऽर्थः। सर्वदैकत्र निवासवतां प्रासुकैषणीयवसतिलानाभावाद् गृ. अतो हेतोर्नित्यवासमपि समस्तानबीजनूतं विदधाना यहस्था इवाऽऽश्रयाभावेषु मुक्तसमस्तजीवोपमाऽऽदयः |
दीन्यनूता नवन्ति, तदैवाऽऽराधना, नान्यथेत्यावेदयन्निदं स्वयंग्रहकरणकारणानुमोदनाऽऽदो प्रवर्तन्ते । ततश्चैषणाया. गाथात्रयमाहमगि जीवनिकायानामाकुट्यापि बिराधनोत्पद्यते । ततश्च प्रा- "निम्मम निरहंकारा, सज्जुत्ता नाणदसणचरित्तम्मि । णातिपात (विरमण) महानतनङ्गनिरर्थकताया अपि शिरस्तु. पगक्खेत्ते विठिया, खचति पोराणयं कम्मं ॥१॥ परमुगमनाऽऽदेवययं स्यात् । अन्ययैकत्र निवासे प्रतिदिनमाहा- जियकोहमाणमाया, जियलोहपरीसका य जे धीरा । राऽऽदिदानवन्दनाऽऽदिप्रतिपत्त्योपगृहीतानां साधूनामनादिभ- बूढावासे विठिया, खति पोराणयं कम्मं ॥२॥ वापासवशवर्तिनां प्रतिबन्धादयः संभवन्ति । उक्तं च- पंचसमिया तिगुत्ता, उज्जुत्ता संजम तवे चरणे । पनिबंधो लहुयत्तं, न जणुवयारो न देसविनाणं । ना55- वाससयं पि वसंता, मुणिणो राहगा जाणिया" ॥३॥ णाराहणमेप, दोसा अविहारपक्वम्मि " ॥१॥ ततश्च सुगम चेदम्,नवरमस्य विवरणं विदधताऽत्रानिहितम-किमिदमे. प्रतिबन्धात्संबन्धः, संबन्धाञ्चित्तविप्लुतिः, चितविप्लुतेरका- कार्थकगाथात्रयम? उच्यते-प्रत्यादरख्यापन परRआदरश्चार्यप्रवृत्तिरिति । एवं वाऽतिस्फुटतरा संयमविराधना-यदा च चि. प्र सकल शक्तिरहितत्वाद् जवाबत्रहीनतया चाऽऽगमनिपिद्धमत्तविप्नुन्या प्रेरितः स्त्रीसेवाऽऽदौ प्रवर्तते,तदा न केवलं प्रथमव. पिनित्यवासं कुर्वन् यदि यथाशक्तयोवच्छति-निर्ममत्वाऽऽदितभङ्गः,अपितु पश्चानामपोति । तथाहि-रमणीरमणमनाः संके. विशेषणयुक्तो भवति, तदैवाऽऽराधको, नान्यथेत्यावेदितमिति । तस्थाने वजन्नागच्चन् वा क यास्यसि, कुतो वा प्रत्यावृत्तः,इति
प्रागमनिषेधश्वेतः सूत्रादेवावसीयतेकेनचित्प्रेरितोऽलीकशोत्तरदानाय वक्ति-मदरबाधा मेऽस्ति, "साहेउ अधमासे, वासासु सुभूमित्रो निवा जति । ततः शरीरचिन्तायै गमिष्यामि,तां या कृत्वा समागतः,इति बदतो परबत्ररुद्ध वि पुरे, हावंती मासकणं तु ॥१॥ मृपाबादः। स्वास्यादिनिरननुज्ञातमतो निषेवतोऽदत्ताऽऽदानम्। कावाश्दोसो जइ, तदच्चो एस कोर नियमा। तोहात तु प्राणातिपातमैथुनपरिग्रह (विरमण) व्रतनलोऽपि सम्वेण तह वि कार, संथारग'...."याईहिं" ॥२॥ स्त्रीपरिग्रह करणाद्भवति । अन्यश्च-सूत्राोंजयहानिरपि तदशग- वृद्धाचासे पि, न यथाकथञ्चिदेव, कुशक्षः काशावलम्बनतो. स्या तथा-ममस्तानां करायाणां वृद्धिरुपजायते ऽनुगगवशगः | उपवसेयः ।
०१८
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णितियवास अभिधानराजेन्धः।
णितियवास यत भागमवचनमेवं व्यवस्थितम
मिना परीषहोपसर्गदत्तोरस्थलानां मासकल्पविहारिणांना"बेरोण अजोयण, कालेणं जाब निक्खवेलं ति।
स्त्येव संयमबाधागन्धोऽपि । यब-परिश्रमेत्यादिनाऽऽरमविरा. लेतेण य कालेण य, जाणसु सपरक्कम थेरं ॥१॥"
धनेत्युक्तम् । तदपि सुखधीबन्धन व्यतिरिच्यान्यन साधयति । अस्या भयं भावार्थ:-यदि जघाबलहीनतादिकारणः प्रजा- यतः प्रायः प्राणिनां रोगशोकभयभोगाऽऽदयः पूर्वोपात्तकर्मव. सोत्थितः प्रस्तुतभिकाचरवेलायामईयोजनं गन्तुं शक्नोति, सतः संजवन्ति,न यथाकथञ्चित् तत्पुनर्नित्यवासेऽपि समानम । तदा सपराक्रमत्वाद्विहारमेव कार्यते, न नित्यवासम्। यदि पुनरेतदुच्यते-विशेषतो बाह्यकारणकलापमासाद्य तद. यत माह
यमासादयति, तदा तस्याङ्गीकृतत्वादवइयवेद्यत्वादास्मविराध. "नेतेण अफगाउय, कालेणं जाव जिक्सवेसं ति।
नामपि न भवति । यतोऽवश्यवेद्यकर्मणां केनाऽपि त्राणं कर्तन वेत्तेण य कालेण य, जाणसु अपरकम थेरं ॥१॥"
शक्यते,भवश्यवेद्यत्वादेव । यञ्चोक्तम्-भपरापरमामनगराऽऽदिएवं पुनश्चक्रमणरहितत्वान्नित्यवासं यतनया कार्यते ।
गमने अपरिचितजनसकाशादुचितजक्तपानादेरसंभवे पातपिसा चेयं लेशतः
ताऽऽदिक्कोभः स्यादिति । तदपि बालप्रलापकरूपम् । यतोवत"मासे मासे पसही, तणडगलाई य अन्न गेषति ।
प्रहणकाले तदङ्गीकृतमेव लानासाभाऽऽदिकम् । यतः सर्वदैव साभिक्खायरियवियारा, जहिं दिया तत्थ नन्नासु ॥१॥" धूनामयमाशयविशेष:-"लाभालाने सुने दुःखे, जीविते मरणे भस्या श्यमक्षरगमनिका-बातोकोपद्धतोऽपि मूछाऽऽदिरो. तथा । स्तुतौ निम्दाविधाने च, साधवः समचेतसः" ॥१॥ गाऽऽधाततनुकाबलहीनतया शानाऽऽ दिग्रहणकारगोन पा नि
अन्यच्चाऽपूर्वापूर्वग्रामनगराऽऽदौ विहारं विदधतां शिष्योपधिस्पवासं कुर्वाणो मासे मासे अन्यां वमति, तृणमगलाऽऽदीनि भावकप्रतिबोधाऽऽद्वाराऽऽदेर्विशेषतो लानः सम्भवति,विशेषदे. चान्यानि गृहाति,भिका च नान्य विभागे, विचारश्च बहिमियत्र
शनाश्रवणाविशेषतो भावसम्नवादिति । तथादि-लोकेऽप्येवविभागे स्थितास्तत्रैव, नान्यति गाथार्थः।
मेव रश्यते-देशान्तराऽऽयातप्रार्गकस्य सविशेषस्नानविक्षपवसत्यादिविभागासप्राप्ती किंकर्तव्यमित्याह
नचीरप्रदानपर्युपास्तिवचनश्रवणाऽऽदेस्तयैव दर्शनादिति नित्य"अहाए जाव पकं, कति भागं असंघरम्गामं ।
वासिना पुनः सर्वाऽमाव एक,असकृदायातप्राचुर्णकस्येव । उक्तं महाए श्चिय वसर्दि, विनती जाव मलवसहीर" ॥१॥
च-" अतिपरिचयादवझा, भवति विशिष्टेऽपि वस्तुनि प्रायः । भस्था अयं भावार्थ:-(अट्टाप ति) यदि तृणमगलाऽदिवि.
लोकः प्रयागवासी, कृपे स्नानं सदा चरति" ॥१॥भागमेऽ. भागेन स्थातुं शक्नोति, तदैकमेव ग्राममष्टमतपष्ठाऽदिहायमा.
प्यनाणि-"पडिबंधो लहुयतं," इत्यादि । यदपि प्रतिपादितम.
सूत्रायजयदानिः स्यादिति। तदपि मिथ्यात्वतिमिरावगुणित. मभागः प्रकुर्वन यावत्सकलमपि ग्राममेकेनैव विभागेन चिधाय बसति चाम्याम्यां गृह्णाति, तदभाव एकस्यामपिस्थितःसं.
चेतसो वञ्चना। यतोन हि विदारवतां संयमस्वाध्यायाऽऽनुष्ठान स्तारकं यतीनां विधत्ते, मा चित्तशुरमावे पापबन्धः स्यादिति।
व्यतिरिच्यान्यत् कर्तव्यमस्तिा यःपुनर्विहारे वस्तुपरिकर्मणादी ततस्तन्दुद्धिनिमित्तमागममयांदापरिपासनार्थ खानयात यु
तयाघात द्भावितः, सोऽङ्गीकृत पव; यतः सूत्राोंजयाच्यासो. त्या तिष्ठति, सत भाराधको भवतीति गाथाऽर्थः।
ऽपि संयमानुष्ठाननिमित्तमेव विधीयते,न जनरअनार्थम्। यत यरपुनः पूर्वमेवंविधं प्रतिपादितम्-त्रासकल्पाअंदना विहरतःसं.
पतपुच्यते-"निश्चम्मि य सज्का प्रो।"अन्यच्च-"पैशाचिकमाल्या. यमात्मविराधना,स्त्रार्थोभयहानिरपीति। तदकानविज़म्भत.
नं, श्रुत्वा गोपायनं च कुलबद्धाःसंयमयोगैरात्मा, निरन्तरं व्या. म्।नदिविहितपरमार्थाः संचिग्ना मोकसुखानिलाषिण पर्वविध.
पृतः कार्यः॥१॥" इति। यदपि मुग्धबुद्धिबन्धनार्थ किश्चित्प्रयोगपरमपुरुषासेवितं सकलशास्त्रप्रतिपादितं परमनिराकारण
ति जल्पितम् । तदपि न विपणं मनागप्यसुखमुत्पादयति। मेकान्ततः प्रजावनाकारणं समन्तभव्यप्राणित्राण कममुदितोदित.
साकातोरसिम्ताऽऽजनाऽऽलिङ्गितत्वानोत्सहने मासकल्पा55मासकपविहारमतिपुष्करमवीरपुरुषाणामेवंविधाऽम्बनजा.
घुचितविदारनिवेधण्यापारान्तरं प्रति,अनेकोपपत्तिनिर्मातकला. सपरिकल्पनया दूषयन्ति। तथादि-यत्तावत्प्रतिपादितम् अवश्य
विहारस्य संयम प्रति श्रवणतया समर्थितत्वादिति । अतःखि. मागें गतानां पृथिवीकायाऽऽदीनां विराधना संयमविराधना,
तमिदम-मोक्तार्थ ग्रहीतदीकेण संयमाथिना मासकल्पाऽऽदिना सान संभवतायत र्यासमितिसमिता साधयो प्रवन्ति । यत
बिहत्तव्यमिति । अस्यास्यान्बयम्यतिरेकाभ्यामुपदेशमालावे. उक्तम-"जुगमे तंतरदिही, पयं पयं चपखुणा विसोहंतो। अब्ब
धायकेन नगवता धर्मदासगणिनापि तथैव समधितत्वात्। किसत्ताऽऽनुत्तो, रियासमिओ मुणी हो ॥१॥" अथ मागें कापि
तथा च तत्सूत्रम्सचेतनाया मिश्राया नुवः संभवः, कापि च हरितायाः संभवो "कारणनीयावासे, सुदबुतरं उज्जमेण जयन्वं । भविष्यति, ततोऽवभाविनी विराधनेति । न । तत्रावश्यंजा- जह ते संगमथेरा, सपाडिडेरा तया मासि" ॥१॥ विगमनसंभवे शास्त्रेऽप्यतुझानात्, केवलमत्र प्रायश्चित्तशुरेश्व अध्यायमझरार्थ:-कारणे होनजङ्कापनत्वनक्षणे, नित्यवासःनिहॉप एवेति । यच्चर्यायुक्तस्यापि चङ्क्रमणकृता चिराधनाऽच- कारणनित्यवासः, कारणनित्यवासे सुष्ठतरमतिशयेन यति. इयंभाविनीति भवता संभाचितम्। तत्रापि न दोषसेशोऽप्यस्ति।। तव्यमधमेनाप्रमादेनेत्यर्थः । यथा-ते भगवन्त भागमप्रमिकाः यतः
संगम स्थविरसुरयः सप्रातिहार्या अप्रमत्ताऽऽदिगुणगणार्जि"चालियम्मि पाप, इरियासमियरस संकमद्राए ।
तहृदयतया देवैरपि स्तूयन्ते, तदा, यदाऽसौ भगवान वृक्ष श्रावग्ज लिगी, मरेज तं जोगमासज्ज ॥१॥
वासमगमत, प्रासीद् भूयादिति गाथाऽर्थः । दर्श०४ तत्व । न दुतस्स तन्निमित्तं, बंधो सुमो विदेसिनो समए । प्रणय जो उपभोगे-ण सबभावेण सो जम्दा ॥२॥"
जाहे वि अ परितता, गामाऽऽगरनगरपट्टणममता। इत्यतस्तेषां भगवतां परमसंयमिनां धीरपुरुषचरितानगा- तो केह निमयवासी, संगमयेरं बवासंति ॥ ११ ॥
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(२०७१) णितियवास भाभधानराजेन्छः।
णिद्दमज्म यदाऽपि च परिश्रान्ताः, सर्वथा श्रान्ता इत्यर्थः । किं कुर्वन्तः णित्तेय-निस्तेजस-त्रि.। गतकान्ती, नि. १ ० १ वर्ग १
ग्रामा3उकरपत्तनाऽऽद्यटन्तः सन्तः। प्रामाऽऽदीनां स्व. ०। निर्वीर्य, भ०९.३३ उ०। रूपं प्रसिद्धमेव । ततः केचन नष्टनाशका नित्यवासिनः, न तु
णित्थरण-निस्तरण-न० । पारप्रापणे, जं. ३ वक्षः । " पर. सर्व एव । किम ?, संगमस्थावरमाचार्य, व्यपदिशन्त्यालम्पनतयेति गाथाऽर्थः ॥ ११ ॥
हित्थरणासमत्था।" प्रा. म.१.२खाक । ०। कथम् ?
णित्थरिजंत-निस्तीर्यमाण-त्रि० । पर्यन्ते प्राप्यमाणे, संथा। संगमथेरायरिओ, सुटु तवस्सी तहेव गीप्रत्थो ।
मित्थाण-निस्थान-त्रि० । स्थानभ्रष्टे, का० १ श्रु. १८०। पेहित्ता गुणदोसं, नितियावासं पवन्नो उ ॥ १ ॥
स्थानवर्जिते, विपा. १ श्रु० ३ श्रा इयं चान्यकतकी माथा सोपयोगा च निगदसिमा । कः पुनः
णित्थारग-निस्तारक-त्रिका पारगे, "णित्यारगपारगा होता।" संगमस्थविर?,श्त्यत्र कथानकम-"कोरपुरे नगरे संगमधेरा
इति बन्दकं प्रति गुरुवचनम् । निस्तारकाः संसारसमुद्रात, प्रा. पुजिवण साहहिं विसज्जिया। ते तं नगरं नवदा काकण
णिनां प्रतिज्ञाया वा पारगाः । संसारसमुरुतीरगामिनो भवत जंघाबलपरिहीणा विहरति । नगरदेवया किर तेसि वरिपस- |
यूयमित्याशीर्वचनम् । पा० । ध। ना। तेसि सीसो दत्तो नाम पाहिडिचिरेण कालेण नदंतवा. | णित्यारणा-निस्तारणा-स्त्री०। पारप्रापणायाम, ०३ वका हो अागो । सो तसि पडिस्सए न पविसति निययवासि | ('परिहार' शब्दे सयमे सीदतां संयतानां निस्तारणा बच्यते) सिकाउं। भिक्खावेलाए उम्गादियं हिंडता संकिसस्सति, कुंटो.
णिदसण-निदर्शन-न० । कश्चिद् गृह्णतः अज्युपगच्छतः ऽयं सवाणि न दापति । एगत्य सेट्टिकुले रेवईप गढ़ी भो दारो । छम्मासा रोवंतस्स पायरिएहिं चप्पुडिया कया । मा
परानुकम्पया निश्चयेन पुनः पुनदर्शने, स्था० १००। अनु।
ग. । उत्त। गेव । वाणमंतरीए मुक्को । तेहिं तुट्टेहं पभिलाभिया जहि. चिएणं । सो विजियो । प्रायरिया सुरं हिंडिऊण अंतं णिदंसिय-निदर्शित-त्रिका नितरामनुझाते, पो. ६ विष.। पतंगाहायागया समुद्दिघा । श्रावस्सयालोचणाए आयरि- | कश्चित् गृह्णतः परयाऽनुकम्पया निश्चयेन पुनः पुनदर्शिते, या नणंति-मालोएहि । सो भणति-तुज्झदिसम विंडिओसि। ग०२ अधि० । अनु०। ते भणति-धातिपिंडो ते भुत्तोत्ति। जणति-मम अतिसुहुमाणि
पिदरिसाण-निदर्शन-न । निश्चयेन दश्यतेऽनेन दान्तिक पाससित्ति पइट्रो । देवयाए अरसे वासं, अंधकारं च विउ |
पवार्थ इति निदर्शनम् । दृष्टान्ते, दश. १ अ०। बियं। पस हीले ति। आरिपहिणिो -एदि । सोजगाइप्रधयारो ति। मायरियदि अंगुली दाइया पज्जसिया प्राउट्ठो
पिदा-निदा-स्त्रीज निदानं निदा । प्राणिहिंसा नरकाऽऽदि दुःखमामाए ति। प्रायरिया वि नवभागे परिकाहिति। एवमय पक्षा- हेरिति जानतोऽपि, यद् वा साधूनामाधाकर्म न कल्पते इति उधणो ण होइ,सवसि मंदधम्माणमालवणं ति" ॥ १२ ॥
परिकानवतोऽपि जीवानां प्राणव्यपरोपणे. पिं० । नियतं दान भाइच
शुकिजीवस्य 'देप्' शोधने इति वचनाद, निदा । शाने, मानोगे, प्रोमे सीमपवासं, अप्पमिबंध अजंगमत्तं च ।
तयुक्ता वेदनाऽपि निदा । आभोगवत्यां वेदनायाम, भ० १६ न गणेति एगखित्ते, गणेति वासं नियवासी ॥१३॥
श०५ उ.। 'भोमे' पुर्भिक, शिष्यप्रवासं शिष्यगमन, तथा तस्यैवाप्र
णिदाह-निदाघ-नितरां दद्यतेऽत्र । नि-दह-घम् । स्पाइकादिसिबन्धमनजिवनमजनमत्वं च वरत्वं, चशम्दात्तत्रैव के.
त्वात् कुत्वम्। मुष्णे, घ, घर्मकाने च । वाचा लोकोत्सररीत्या अविभागनजनं च । श्दमालम्बन जालं न गणयन्ति नापेक्षन्ते,
भावणादिगणनया एकादशे लौकिकरीस्या ज्येष्ठाऽऽस्ये नाऽऽलोचयन्तीत्यर्थः । किंतु एककेत्रे गणयन्ति वासं, नित्यवा
मासे, आव०५ म। सिनो मन्दधियः । इति गाथाऽर्थः ॥१३॥ श्राव०३ माध००। निदाह-पुं०। प्रधिको दाहो निदाहः । मसाधारणदाद, णितियावा(ण-नित्यावादिन-त्रिका नित्यो मोको यत्र गतानां आव०५.। पुनरागमनाऽऽदि नास्ति। नित्यतयाऽवस्थितियत्रास्ति तनिषेध.
णिबंकाण-निखाध्यान-ना निझापरतन्त्रस्य ध्यान निमाया. प्ररूपके, दशा. ६ म०। “णितिया सम्वभावा मंगुलीणं।" नम्। स्यानर्विनिया महिषमांसभकि-मोदकाभिलाषिहस्ति. सपा०६प्र.
दन्तोत्पाटकारि-प्राककुम्भकारवाज्यस्तमृस्चिारमत्रोटनवत् सा. णित्त-नेत्र-न। नयने, लोचने, स्था० १००।
धुमस्तकत्रोटि-बटशाखाभेदि-साधूनामिव याने, आतु०। णित्तन-निस्तक्ष-त्रि०। अनिवृत्ते," तेणं निसलं मणिरय-णिहक्खय-निशाक्य-पुंकास्वापप्रमोदो, निजाकयेण सुप्तोऽ. णं अस्सादेति ।" भ. १५ श०।
पि बुध्यते । स्था०५०२०।। शित्तिरमिअ-देशी-त्रुटिते, दे. ना.४ वर्ग ४१ गाथा । बिह-निर्दग्ध-पुं० । सीमन्तकप्रजान्नर केन्द्रकात्पूर्वस्यामावणित्तिरडी-देशी-निरन्तर, दे० ना०४ वर्ग ४० गाथा । लिकायाकविंशेऽपक्रान्तनरके, स्था० ५ ठा०२२० । 'माया' जितप-निस्तुप-त्रि०। अचोप्पो, अवग्धारिते, पृ.१०। । शम्मे उदाहारण्यमाणायां रएमायाम्, स्त्री० । महा०२० । णित्तुस-निस्तुष-त्रि० । तुषरहिते, तद्वद्विशुद्ध च । प्रमाणितमजक-निर्दगधमध्य-पुं० । सीमन्तकमायादुसरस्यामाव. सम्ब.द्वार।
निकायाकविंशेऽपक्रान्तमदानरके, स्था०६ ग।
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(२०७१) गिदहावत्त अभिधानराजेन्मः।
पिदेस णिदलावत्त-निर्दग्धाऽऽवर्त-पुं०। सीमन्तकाऽऽवर्तात् पश्चिमा- हंता! निदाएज्ज वा, पयसाएज वा, जहा हसेज्जा तहा, यामेकर्विशेऽपक्रान्तमहानरके, स्था० ६ ग.।।
णवरं दरिसणावरणिजस्स कम्मस्स नदएणं निदाएइ वा, पिष्टोसिट्ठ-निर्दग्धावशिष्ट-पुं० । सीमन्तकावशिष्टादविणस्या
पक्षाएइ वा, से णं केवलिस्स नत्यि, अम्मं तं चेव ।। मावलिकायामेकर्षिशेऽपक्रान्तमहानरके, स्था० ६ ठा।
"छनमत्थे" इत्यादि । (णिहापज्जवत्ति) निद्रां सुखप्रतिबोधणिदय-निर्दय-त्रि । निष्करुणे, प्रश्न० १ आश्र० द्वार । निष्क- लकणां, कुर्यात् निद्रायेत् । (पयझापज्ज व ति) प्रचल ऊर्द्ध
पे, प्रश्न०१ आश्र द्वार । निघृणे, प्रश्न०१आश्रद्वार । स्थितनिद्राकरणलवणां कुर्यात प्रचलायेत् । भ०५ श०४०। बिदर-निर्दर-पुं० । फन्दरायाम् , हैमेऽभिधानचिन्तामणौ ।
नितरां द्वान्ति गच्चन्ति कुत्सितामवस्थामिहामुत्र चानयेति
निद्रा । तद्वशाद प्रदीपनकाऽदिषु विनाशमिवानुभवन्ति । बिदलण-निर्दलन-न । मर्दने, भाचा० १ ० १ ० ४ ००।
धर्मकार्यध्वपि शून्यमानसत्वान्न प्रक्त-ते इति । अतिणिह-विगल-धा० । चि-गन । “विगलेः थिप्प-णिहहौ" सङ्कोचनरुपायाम, सूत्र०२ श्रु० २ अ. सुमतायाम्, उत्त. । १७५॥ इति विगतेर्णिबहाऽऽदेशः। 'णिद्दह' । पते
४१०।श्रा० म० । “जागरिता धम्मीगणं, अधम्मियाणं च 'विगल' विगलति । प्रा०४ पाद।
सुसिया सेया । बच्छाहियभगिण।ए, अडिसु जिणो जयंती
ए ॥२०६॥" (इति 'जागरिया'शब्देऽस्मिन्नेव भागे १४४८ णिहा-निशा-खी।'द्रा' कुत्सायां गतौ। नियतं जाति कुत्सित- पृष्ठे, 'जयती' शब्दे च १४.६ पृष्ठे चिन्तितम्) स्वमविरूपत्वं गच्छति चैतन्यमनयोति निद्रा । "षिभिदादि- पिदाण-निद्राण-त्रि.। सुप्तप्रमत्ते, प्रति०। ज्योऽ"॥३।३।१०४॥ इति अप्रत्ययः । स्वापावस्थाविशेष, कर्म०६ कर्म । प्रव। पा० । पं० सं०। उत्त। स्था।
णि दाणिवा-निधानिद्रा-स्त्री० । निद्रातोऽतिशायिनी निजानि
जानिता। मयूग्व्यसकाऽऽदित्यान्मध्यमपदनोपी समासः। कर्म. मुहपभिबोहा णिद्दा,....... ... [११]
१कर्म । शाकपार्थिवाऽऽदित्वाम्मध्यमपदसोपी वा समासः । सुखेनाकृच्छ्रेण नखच्चगेटिकामात्रेणाऽपि प्रतिबोधो जागरणं | स्था०६ ठा। दुष्प्रबोधायां स्वापावस्थायाम् कर्म। स्वप्तुर्यस्यां स्वापावस्थायां सा सुखप्रतिबोधा निद्रा,तद्विपाक
निद्रानिधास्वरूपमाह-- वेद्या कर्मप्रकृतिरपि कारणे कार्योपचारान्निद्रेत्युच्यते । कर्म०१ कर्म। श्रनु । प्रज्ञा । निषा पञ्चविधा-निका १,निद्रानिद्रा २,
"", णिहाणिद्दा य दुकावपडिवोहा । [११] प्रचक्षा ३,पचनाप्रचला ४,स्त्यानार्द्धश्च ५ इति । वृ० ४ उ० । पुःखेन कऐन पहुनिघोलनाप्रकारैरत्यर्थमम्फुटतरीभूत. स. । (आला पृथक पृयक व्याख्या तत्तच्छब्दे)
तन्यत्वेन प्रतिबोधो यस्यां सा दुःखप्रतिबोधा । कर्म. १ णिहाऽऽविच नकं पमिसिद्ध काले आयरमाणस्स पच्चित्तं जमति. कर्म० । प्रय० । तस्यां हि चैतन्यस्यास्यन्तमस्फुटतरीनूतत्वाद दिवसे णिसि पढमें चरिमे, चतुक आसेवणे लहूमासो ।
बहुभिर्घोलनाप्रकारैः प्रबोधो भवत्यतः सुखप्रबोधनिपातोऽस्या
अतिशायिनीत्वं, तद्विपाकवेद्या कर्मप्रकृतिरपि निहानिका। श्राणऽणवत्युड्डाहो, विराधणा णिद्दवुडी य ।। १३४ ॥
प्रव०२१६ घार । कर्म०। पं० सं० । नत्ता नि०यू० । स्था। दिवसतो व उसु वि जामेसु, णिसा रात्री, ताए पढमजा- प्रज्ञा प्रव० । स० । मे, चरिमे वा जामे, चउकं णाम-णिद्दा, णिहाणिहा, पयला,
णिदापमाय-निजाप्रमाद--पुं० । क० स० । प्रमाद कारणीभूत. पयलापयला । श्रासेवणं णाम-एतासु वति । तत्थ से प. तेगं च उसु वि मासलहु । णिहाए दोगह वि लहुं, अति.
निद्रायाम, "निजाशीलो न श्रुतं नाशि वित्तं, सन्धुं शक्तो ही.
यते चैष तायाम् । ज्ञानव्यानावतो दुःखजागी, लोकते णिहाए कालगुरुं । पयलाए तवगुरुं । अतिपयलाए दोहिं वि
स्यादतो नियालम ॥१॥” इति । स्था०६ठा। गुरूं। सुवंताण य मे दोसा-भगवता पमिसिद्धेसु जो आणाभंगो को नति, प्राणानंगेण य चरणजंगो । जतो भणि-
णिहामत्त-निजामत्त-त्रि० । निद्राऽभि नुते, भाव० ५ अ०।
दामत्त-निमा यं-"प्राणाए श्चिय चरणं,तभंगे जाण किन भग्गं तु?" अणः | हिदायण-निजायण-नानिषण्णस्य स्वप्नावस्थायाम् वृ०३००। पत्थदोसो य-पगो पडिसिष्कालेसु सुवतो, अम्मो वि तं दटुं | णिहारिय-निर्दारित-त्रिका विस्फारिते, प्रश्न०३ प्राथहार। सुवति, "पगेण कयमकजं,करेति तप्पच्चया अम्लो।" नहाहो य |
।" उड्डाहो य निष्कासिते, “निहालियग्गजोहे।" उपा० २ अ । भवति-दिवसे सुचतो य दिठो असंजएहि चिंतयति-जाहे
|णिहिट-निर्दिष्ट-त्रि० । कथिते, विशे० । त० । प्रतिपादिते, एस णिक्खित्तसका यज्काणजोगो सुवति, ताहे बक्खिज्ज
दर्श. ३ तत्त्व । श्राव ।दर्शिते, पञ्चा. ३ विव०। ति-रातो रतिकिलंतो, एवं उड्डाहो भवति । अहवा अणंतिण कम्म, ण धम्मो, अहो सुबत्तं । विराहणा-मुत्तो आली.
जिद्दछिया-निर्दग्धिका-स्त्री० । पुग्धरहितायाम, तं.। घणगे डके जा गिद्द त्रुटी य । यत उक्तम-"पश्च वर्द्धन्ति कौन्ते-बिहेस-निर्देश-पुं०। निर्देशन निदेशः। विशेषानिधाने, यथा य!, सेवामानानि नित्यशः। श्रालस्य मैथुनं निद्रा, कृधा क्रोधश्च आवश्यक सामायिकभिति । अनु० प्रा०म०। "सामाश्य ति पञ्चमः ॥१॥" नि० चू० १ ० ०। (उदकतारे निजापश्चक- निहेसो त्ति ।" (नरस्वरूपम ' उद्देश' शब्दे द्वितीयनागे ५६ करणनिषेधो 'इगतीर' शब्दे वदयते)
पृष्ठे उक्तम्) (निर्देशनिकेपोऽपि तत्रैवोक्तः) बनस्थो निघाति, प्रचलायती त्याह -
___ यकाभ्यां चोदेशनिर्देशाभ्यामिहाधिकारस्तदाहछ उमत्येवं भंते ! माणूसे निदाएज्ज चा,पयनाए जवा? प्रोदो खडओ तिव, नाणं चरणं ति जावनिदेसो।
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(२०७३) णिदेस अनिधानराजेन्डः।
णिदेस एत्थ विसेसाहिगो, समासनसनिद्देसो ॥ १५०५॥ पिणेगमणो' पतावन्मात्रोक्तो निर्देश्यवशाद, निर्देशकबअज्क्रयणं उद्देसो, तं चिय सामाइयं ति निदेसो ।
शाच द्विविधं निर्देशमिच्छतीति कुतो लभ्यते?, इति । अत्रो
च्यते-"निद्दिष्टुं संगहो य ववहारो" इतिवचनात् । अत्र या बुद्धी जहासंनव-माजोन्जं सेसएसुं पि ॥ १५०३ ॥
मर्थ:-निर्दिष्टमभिधेयं वस्त्वङ्गीकृत्य संग्रहव्यवहारी निर्देशमौदयिको भावः कायिको नाव इत्यादि । मथवा ज्ञानं, दर्शन, | मिच्छतः, निर्देश्यपर्यायवात वचनस्य, इत्यादियुक्तिश्च भाप्ये चारित्रमित्यादिको ज्ञानाऽऽदीनां वायिकवायोपशमिकजावत. घयते । तदिदं निर्दिष्ट वस्त्वाश्रित्येतिवचनात्प्रागपि "दुविसित्वासावनिर्देशः। इह च प्रत्येकमष्टविधे उद्देशे निर्देश च समा. इंपि" इत्यत्र निर्दिष्टनिर्देशकवशानिर्देश इति गम्यते । (नि. सोदेशः, समासनिर्देशश्च विशेषेणाधिकृतः। तथाहि-प्रस्तुतेs- देसयमुज्जुसुमो त्ति) निर्दिशतीति निर्देशको वता, तमङ्गीकभ्ययनम, इत्येष समासोद्देशः, सामायिकमिति च विशेषाभिधा
त्य ऋजुत्रो निर्देशमिच्छति । यथा-'सामायिक स्त्री' इत्यादि । नकपरवात्समासनिर्देशः । एवं स्वबुध्या यथासम्भवं शेषेष्वपि
वक्तृपर्यायत्वाद्वचनस्येत्यादि युक्तिरत्रापि नाप्ये ऽभिधास्यते । भूतस्कन्धचतुर्विंशतिस्तवाऽऽद्यभ्ययनेवायोज्यम्, यथा श्रुत.
(उभयसरिच्चं च सहस्स त्ति) उभयमिह निर्देश्यं निर्देश. स्कन्ध इति समासोद्देशः, भावश्यकमिति समासनिर्देश इ.
कं च वस्तु तस्योभयस्य सदृशं समानलिङ्गमेवाऽऽश्रित्य शब्दस्यादि ॥ १५०२॥ १५०३ ।।
नयस्य,निर्देशप्रवृत्तिरिति गम्यते ।यदि हि निर्देइयं नपुंसकं,तदा उत्तरगाधासंबन्धनार्थमाह..
निर्देष्टाऽपि स्त्रीपुनपुंसकलक्षणो नपुंसकमेव, वक्तुच्योपसामाश्यं नपुंमय-मस्स पुमं थी नपुंसगंवा चि ।
योगानन्यत्वेन तदूपत्वात् । उपयोगप्रधाना हि शब्दनयाः, ततो
यो यत्रोपयुक्तः स तदूग एव, यथाऽन्युपयुक्तोऽग्निः, तथा निद्दिका तत्यिच्छप, कं निदेसं नओ को णु ॥१५०४।।
च सति स्त्री पुरुषावपि यदा रूढितो नपुंसके सामायिके . इह सामायिकमिति नपुंसकतया रूढम् । अस्य च त्रिविधी
पयुक्तौ नवतः, तदा निर्देश्यनपुंसकोपयुकत्वान्नपुंसकमेव, त. निर्देष्टा उच्चारयिता, स्त्रीपुन्नपुंसकभेदात् । तत्रे नयैर्विचा.
दुपयोगानन्यत्वेन तद्रूपत्वादिति । स्त्रीपुरुषौ वा नपुंसक व्रत बते को नयः कं निर्देशमिच्छति ?-कि निर्देश्यवशात, निर्देश
इत्यस्य वधस्य शब्दनयमतेनासम्नव पवेति नियुक्तिगाथासंकवशावा, इति विनयः पृच्चतीति गाथाऽर्थः ॥१५०४॥
केपार्थः ॥ १५०५ अस्मिंश्च प्रश्ने सत्याह
अथ विस्तरार्थमभिधित्सु ष्यकार:प्राहसुविहं पिगमन प्रो, निदिई संगहो य ववहारो।
जं संववहारपरो-रोगगमो गमो तओ दुविहं। निद्देसयमुज्जुसुओ, उनयसरिच्छं च सहस्स ॥१५०५॥ इच्छ, संववहारो, सुविहो जं दीसए पायं ॥ १५०६ ॥ नेके गमा वस्तुधर्मपरिच्छेदा यस्याऽसौ ककारवर्णनाशाग्नै
यद्यस्मालोकव्यवहारपरोऽनेकगमश्च नैगमनयः, ततस्तस्मानि. गमः, अनेकप्रकारवस्त्वभ्युपगमपर इत्यर्थः। नैगमश्चासौ न
देश्यवशानिर्देशकवशाच्च द्विविधमपि निदेशभिचति । लो. यश्च नैगमनयः। स द्विविधमगि निर्देश्यवशानिर्देशकवशाच नि |
कव्यवहारश्च प्रायो द्विधा दृश्यते ॥ १५०६ ॥ देशमिच्नति, इति शेषः, लोकव्यवहारपरत्वात, अनेकगारूप
कथम ?, इत्याहत्याचास्य नयस्य । झोके च निर्देश्यवशात,निर्देशकशा नि. छजीवणियाऽऽयारो, निहिवमग तह सुयं च । देशप्रवृत्तिदृश्यते । तत्र निर्देश्यवशाद् यथा-वासवदसा,तरङ्गव तं चेव य निणवयणं, सव्वं निद्देस यवसेणं ॥ १५०७॥ ता,प्रियदर्शनाकथा' इत्यादि। निर्देष्ट्रवशातु मनुना प्रणीतो ग्रन्थो
जह वा निद्दिवसा, वासवदत्तातरंगवइयाई । मनु, अपादेनोक्तोऽकपाद इत्यादि । सोकोत्तरे तु निर्देश्यवशात् षट् जीवनिकायप्रतिपादकमध्ययनं षट्जीवनिका,सा. तह निमगवसो,लोए मणुरक्खवान त्ति ॥ १५०७ ।। वाचारप्रतिपादको अन्य आचार इत्यादि।तथा-निर्देशकवशा. लोको विधा-प्रदर्शनानुगतो लोकोत्तररूपः, तक्ष्यतिरि. निर्देशो यथा-कपिलेन प्रणीनं कापिलीयमध्ययन, हरिकेशि
क्तश्च । तत्र लोकोत्तरे निर्दिष्टार्थवशान्निर्देशो यथा-पदजीचनिमा प्रणीतं हरिकेशीय, केशिगौतमाभ्यामन्निहितं कैशिगौतमीयं,
का नामाध्ययनम, प्राचारः, आवश्यकमित्यादि । (तद सुपंच नन्दिसंहिता, जिनप्रवचनमित्यादि । एवं सावधविरमणरूपं
मं, तं चेव येत्यादि) तथा अत्रैव लोकोत्तरे तदन्यच्च श्रुतं नि. सामायिक रूढितो नपुंसकमिति कृत्वा निर्देश्यवशान्नैगमो न.
देशकवशात्सर्वमपि जिनप्रवचनमुच्यते । तथा-अन्यत्किमपि पुंसकनिर्देशमेवास्य मन्यते । यथा-सामायिकं नपुंसकमिति ।
श्रुतं निर्देशकवशादेवाच्यते । तथा-भरबादुनिमित, नन्दतथा सामायिक निर्देष्टुः स्त्रीपुंनपुंसकलिङ्गत्वात्तद्वशात्सामायि
संहिता, कापिलीयमित्यादि । यथा वा-इतरलोके निर्दिएवकस्य त्रिलिङ्गताऽप्येत मतेन भवति। यथा-सामायिक स्त्री,सा
शाद्वासवदत्ता, तर वतीत्यादिनिर्देशः, निर्देशकवशातु मनुः, मायिक पुरुषः, सामायिकं नपुंसकमिति । यथा वा देवदत्ताss
प्रकपाद इत्यादि ॥ १५०७ ॥ १५०० ॥ दिना घटाऽऽविशब्दे समुन्चारितेस घटाऽऽदिशब्द नश्वारयितदेवदसाऽऽदिपरिणामत्वाद्देवदन्ताऽदिशब्दत्वेन व्यपदिश्यते;त.
तथा किम् ?, इत्याशङ्कय प्रकृते योजयन्नाहथा-तदनिधेयपृषुबुनोदराऽऽद्याकारघटाऽऽदिपदार्थपरिणामस्वा.
तह निद्दिवमाप्री, नपुंसगं नेगमस्स सापइयं । द घटादिशब्दवेनापि लोके निर्दिश्यते । एवं स्वानिधेयसा. चीनपुंसगं वा, तं चिय निद्देसयवसामो ॥ १५०७ ॥ वाविरमणपर्यायत्वात्मामायिकस्य नैगमो नपुंसकनिर्देशं मन्यते। यथा षट्जीवनिका, आचार त्यादौ मिर्दिधार्थवशानिर्देशः. अभिधायकस्त्रीपुरुषाऽऽदिपरिणामत्यात्तु सिङ्गत्रयनिर्देशमप्य. तथा प्रापि सायद्यविरमणकणनिर्दिधनपुंसकार्थवशात्सामास्थान्युपगमति, यथा-'सामायिकं स्त्री' इत्यादि । श्राह-सुचि- यिकम्, इति नपुंसकनिर्देशः, यथा वा मनु, प्रकपाद .
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(२०७४) णि देस अभिधानराजेन्छः ।
णिदेस स्यादै निर्देशकवशानिर्देशः, तथाऽत्रापि योपित्पुरुषनपुंसकत्रक- च्यादादम्यत्र वक्तृवकणेऽथे विज्ञानं जनयिष्यति वचनम्, णत्रिविधनिर्देशकवशात् तदेव सामायिकं स्त्रीनपुंसकं भवति। ततश्च विज्ञानफलं च तद्भविष्यति, वाच्ये ऽर्थे विज्ञानं च न च्यादित्रिविधनिर्देशकवशाद नन्दसंहितामनुकापिलीयाऽऽदि. जनयिष्यति, तथा च सति वाच्यार्थपायो वचनं न भविष्यबत् त्रिवपि लिङ्गेषु सामायिकस्य निर्देशप्रवृत्तिः, यथा-'सामा- तीत्याशङ्कयाऽऽह-(सम्वत्येत्यादि) यदि हि वाच्यमर्थ विहाय यिकं स्त्री' इत्यादि ॥ १५०६॥
वक्तृतकणेान्तरे प्रत्ययं वचनं जनयत्त_विशेषेणैव सर्वत्राभथ प्रकारान्तरेणापि लोकव्यवहारोपदर्शनेन प्रकृतं सम- ऽर्थे प्रत्ययः प्राप्तः, न वा क्वचिदप्यर्धेऽसौ भवेत, अधिशेषायन्नाह
दिति-अतत्पर्यायत्वेऽपि तत्प्रत्ययहेतुत्वे सर्वाऽसौ नवेत्,
नवा कचिद्भवेदिति भावः । स्यादेतद्वचनातरि प्रत्ययो जह वा घमानिहाणं, घडसहो देवदत्तसहो ति।
भवत्येव, यथाऽनेनेदमभिहितमिति, तत्किमुच्यते-"जर तंभ. उभयमविरुक्कमेवं, सामइयं नेगमनयस्स ।। १५१०॥
णिए विनत्धिकि तेणं ?" इति । श्त्याशक्याह-"अभिधेय. श्यं च गाथा- यथा वा देवदत्ताऽदिना घटाऽऽदिशब्दे संकरो वेत्यादि।" अथ चा वाच्यादर्यादन्यत्र प्रत्ययेऽभ्युपगम्यसमुचारिते इत्यादिना व्याख्यातैवेति ॥ १५१० ॥
माने सर्वाऽपि प्रत्ययो न भवेदित्येको दोष नक्तः। अथ दो"निहि संगहो य ववहारो" (१५०५)इत्येतद्वयाख्यातुमाह- पान्तरमभिधिन्सुराह-(अभिधेयसंकरो वेत्यादि) यदि दि अत्थान च्चिय वयणं, लहइ सरूवं जो पईवोन। बक्तयननिहितेऽपि वचनात्तत्र प्रत्ययोऽज्युपगम्यते, दन्त ! तदि तो संगहयवहारा, जणंति निद्दिवसगं तं ॥ १५११॥
वक्तृपदनभिहितानि खरोप्रदेवकाऽऽदीनि बनिवस्तूनि स.
न्ति, ततो वक्तवत्तेषामपि थोतुः प्रत्यये सानधेयानां सर्वे. यतो यस्मादादेव वाच्याद् घटाऽऽदेः सकाशाद्वाचकं वचनं पाम, अभिधेयेन चा घटादिना सह वक्त्रादीनामन्येषां स्वरूपमात्मनाभ लभते,नान्यथा, यथा प्रदीपः। प्रदीपो हि प्रका. सङ्करः, एकस्यां धोतृतीती सार्य युगपत्तदाकार संक्रमण इयमेवार्थ प्रकाशयन् प्रदीपो जायते, यदि तु प्रकाश्यं वस्तुन
प्राप्नोति, न चैतदस्ति, एकस्माद्वननादेकस्यैव प्रतिनियतस्य स्पात् तदा किमपेको ऽसौ प्रदीप: स्यात् । तस्माद्यथा प्रका
घटाऽऽद्याकारस्य संवेदनादिति । तस्मादनिधयपर्याय एव इयादेवाप्रदीप पात्मनाभंबभते,तथा वाच्यादेवार्थाद बच
वचनम्, तत्प्रत्ययकारणत्वात् । अतो निर्दिष्टमिह सामायिनमात्मस्वरूपमामोति । ततस्तस्मात्संग्रहव्यवहारनयौ निर्दिश्यते कशब्दस्यार्थरूपं सामायिक रूढितो नपुंसकम, तद्व-- इति निर्दिष्ट वाच्यं वस्तु तद्वशगतं तदधीनमेव तद्वचनं नणतो
शात्सामायिकशब्दः संग्रहव्यवहारयानमालवृत्ति । प्र. मृतः । वाच्यं चेह सामायिकशब्दस्य साबद्यविरतिरूप,तद
थवा-सामायिकवतः स्त्रीनपुसकत्वात्, तत्परिणामानन्यनिधेयोऽर्थः। स च रूढितो नपुंसकतया प्रसिक इति। अतः सा. स्वाच्च सामायिकार्थस्य त्रिविकतामपि संग्रहव्यवहाराव. मायिकम्य नपंसकलिङतामेव संग्रहव्यवहारावभ्युपगच्छतः ।
भ्युपगच्छतः। ततो निर्दिष्टस्य सामायिकास्य त्रिमित्रा. अथवा सामायिकवतां सवानां स्त्रीपुनपुंसकत्वात् तत्परि
निर्देश्यवशादपि सहव्यवहारमतेन सामायकस्य त्रिलिङ्ग. णामानन्यत्वेन च मामायिकार्थस्य स्यादिरूपत्वाद्वाच्यवशे
ताऽपि नवति, यथा-'सामायिकं खी' इत्यादि । एतच्च स्वयन त्रिलिङ्गताऽपि सामायिकस्य संग्रहव्यवहारनयमतेन रूट
मेव द्रष्टव्यम् ॥ १५१३ ॥ १५१४ ॥ म्येति ॥ १५११॥
'निहेसगमुज्जुसुओं' (१५०५) इति ब्याचिण्यासुराहप्रकारान्तरेणाऽपि निर्दिष्टवशानिर्देशं समर्थयन्नाह
नज्जुसुमो निद्देसग-वमेण सामाइयं विणिदिसह । अहवा निहित्य-स्स पज्जो चेव तं सधम्म व्य ।
वयणं बत्तुरहीणं, तप्पज्जाओ य तं जम्हा ।। १५१५॥ तप्पच्चयकारणओ, घमस्स रूवाइ धम्म व्य ।। १५१२ ।।
ऋजुसूत्रनयो निर्देशकवशेनाभिधानृपारतन्ध्येण सामायिक अथवा तद्वचनं निर्दिष्टार्थस्य वाच्यवस्तुनः पर्याय एव,
निर्देिशति, यदेव निर्देशकस्य लिङ्गं,तदेव सामायिकस्यासौम. त्ययकारणबात-वाच्यार्थप्रतीतिहेतुत्वात् यथा तस्यैव नि
न्यते, यथा-'सामायिक स्त्री' इत्यादि, वचनस्य कधीनदेशस्य घटाऽऽदेरन्ये संस्थानाऽऽदयो धर्माः । इह यद्यस्य प्र.
त्वात्, तत्पर्यायवाच्च, विज्ञानवदिति। त्ययकारणं तत्तस्य स्वपर्यायः, यधा घटस्य रूपाऽऽदयः,वचनं
मथ वचनस्य वाधीनत्वे युक्तिमाहच वाच्यार्थस्य प्रत्ययकारणम्, अतस्तत्पर्यायः, पयांयश्च पर्या. यिणोऽधान एवेति युक्तो निर्देश्यवशानिर्देश इति ॥ १५१२॥ करण त्तण ओ मण ३२, सपजयाओ घडाऽऽइरूचमिव । स्यादेतदसिकोऽयं देतुः, एतत्प्रत्ययकारणत्वाद्वच- साहीत्ताओविय,सधणं व वो वयंतस्स ।।१५१६।। नस्य, इत्येतन्निराकरणार्थमाह
घदत एव संबन्धिवचः, इति पर्यन्ते प्रतिज्ञा। अत्र सरष्टा-ता. वयणं विनाए फलं, नइ तं नपिए वि नत्थि किं तेणं ।
न देतूनाद-करणत्वात्मनोवत्तथा-स्वपर्यायवात, घट153. अन्नत्य पञ्चए बा, सव्वत्य वि पञ्च प्रो पत्तो ।।१५१३॥ दे रूपाऽऽदिवत् तथा-स्वाधीनत्वात्, स्वधनदिति ॥१५१६॥ अनियभंकरो वा, वत्तरि पच मोऽगभिहिए वि।
युक्त्यन्तरमाहतम्हा निद्दिवना, नपुंसगं ति सामइयं ।। १५१४ ॥ तह मुत्तरुत्ताओ,तस्सेवाणुग्गहोवघायाओ। अर्थविज्ञान हि वचनं, यदि भणितेऽप्युदीरितेऽपि वचने तस्स तयमिंदियं पि व,इहरा अकयाऽऽगमो होजा।१५१७। ( तति) तदर्थविज्ञानं, नास्ति न जवति, तर्हि करावौष्ठशो- तस्यैव वक्तुस्तच इति पकः, चनस्य सूक्तत्व रुतत्वाषमात्रविद्याधिना किं तेनोकेन, निष्फलत्वात् ? । स्यादेतहा- भ्यां वक्तुरेवानुग्रहोपघातदर्शनात् । इह यस्य यन्निमित्तावनु.
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(२०७५) णिदेस अनिधानराजेन्द्रः।
णिहेस ग्रहोपघातौ तस्य तदात्मीयम्.यथा देवदत्तादेरिन्छियम्, 1-1
हेतुः । प्रदीपयदिति दृष्टान्तः । विज्ञानमसंबकमपि वस्तु
प्रकाशयति, न च वचनं विज्ञानरूपम्, अतो नासंबकमर्थ प्र. इयते पचनसूक्तत्वदुरुक्तत्वाच्या वक्तुरनुग्रहोपघातो, तस्मात्त.1
काशयति, प्रदीपवद । अथासंबकमपि तवस्तु प्रकाशयति, तस्याऽऽत्मीयम विपर्यये बाधकमाह-इतरथा अन्यथा बच.
तर्हि सर्वमपि प्रकाशयतु, असंबद्धत्वाविशेषातू । तस्माद्वानस्य वक्तुरसंबन्धित्वे तस्याऽनुग्रहोपघातयोरकृताभ्यागम एवं
व्यप्रत्ययकारणत्वेन तरूम्मों वचनमिति ॥ १५२१ ॥ स्यादिति। १५१७॥ अत्र परः प्राह
माह-ननूक्तं वचनमर्यादात्मलाभं बनते, प्रदीपवद्, प्रतः निदिहस्स वि कस्सचि, नणूवघायाइओ तयं जुत्वं ।
कथमिदं वक्तुरेवेष्यते, त्याह
जइ विवणिज्ज वचा, बज्नं तरनिमिचसाम। ते तस्स सकारणओ,इहरा थाणुस्स वि हवेजा ॥१५१।। ननु न केवसं निर्देशकस्य, किंतु निर्दिषस्याप्यभिधेयस्यापि
बचा तह वि पहाणो, निमित्तमभंतरं जं सो।१५३२॥ कस्यचित् तस्कराऽऽदेवंचनाऽपघाताऽऽदयो दृश्यन्ते, यथा- जह यद्यपि पचनीयं वक्ता व यथासंस्यं बाह्यमन्यन्तरं च 'बध्यता, हन्यतां चायं तस्करः, 'मुच्यतां चायमित्याद्युक्ते तस्य पचनस्थ सामान्य निमित्त कारणम, तथाऽपि वक्ता प्रधानः। विधादाऽऽद्युत्पत्तेरुपघाताऽऽदयोऽध्यकत पवोपलभ्यन्ते। अतस्त. कुतः, इत्याह-यद्यस्मादन्तरङ्गं प्रत्यासनं निमित्समसौ। तस्मा. दर्शनानिर्दिष्टस्थापि संबन्धि तद्वचनं वक्तुं युज्यते । अत्रोत्तर- द्वचनस्य चक्रधानत्वात्, यदेव वक्तुर्लिङ्गं तदेव सामायिकस्य माह-(ते इत्यादि)ये इष्टाऽनिष्टवचनश्रवणात्तस्कराऽध्ये निहिष्ट- अनुसूत्रनयमतेन लिङ्गमिति स्थितम् ॥ १५२२॥ स्यानुग्रहाऽऽदयो दृश्यन्ते,ते तस्थ स्वकीयश्रवणेन्डियमनःपुण्य. " उभयसरिच्छ च सहस्स।" ( १५०५ ) इत्येतस्यादि. पापाऽऽदिकात्कारणादेव मन्तव्याः; न त्विष्टानिएवचनोक्तिमा- ख्यासुराह त्राद्, अन्यथा श्रोत्राऽऽदिकरणविकतानां स्थाएवादीनामपि त- सदो समाणशिंग, निदेसं जणइ विसरिसमवत्थु । मुक्तिमात्रात्ते भवेयुरिति ॥ १५१८ ।।
नवउत्तो निद्दिट्ठा, निहिस्साश्रो जोऽणयो॥१५॥ वक्तृधर्मत्वमेव वचनस्य हेत्वनारोक्तोः समर्थ याह
शब्दप्रधानो नयः शब्दो निर्देश वचनमिच्छति। किविशिष्टम्, सरनामोदयजाणियं, वयणं देहो व्य वत्युपज्जाओ।
इत्याह-समानलिङ्गं निदेश्यनिर्देशकयोस्तुल्यमेव लिङ्गमसावि. तं नाभिधेयधम्भो, जुत्तम नावाभिहाणाप्रो ॥१५१।। छतीत्यर्थः। विसदृशं त्वलमानक्षिा निर्देशमघटमानकत्वा. 'वक्तृपर्यायो वचनम्' इति प्रतिज्ञा, स्वररूपनामकम्मोदय
दवस्तुत्वेनैव मन्यते । कुतः ?, इत्याह-उपयुक्ता निर्देश्येऽर्थे। जन्यत्वात, इद यन्नामकर्मोदयजन्यं तत्तस्यैव वक्तुदेवदत्ता
ऽपितान्तःकरणो निर्देष्टा यद् यस्मानिर्देशयादनन्योऽनिनः । उदेः पीयः, यथा तस्यैव देहः, नामकर्मोदयजन्यं च व.
दमुक्तं भवति-वक्तुस्त्रिलिङ्गवतोऽपि पुमांसमनिदधतः पुंनिचनं, तस्मात्तस्यैव वक्तुः पर्यायः । तत्तस्मान्न वचनमभिधे.
देश एव, स्त्रियं प्रतिपादयतः स्त्री निर्देश एव, नपुंसमिशनो यधर्मों युक्तम, कि त्वभिधातुरेव । उपचयमाह-अभाव
नपुंसकनिर्देश एव, बाच्ये उपयुक्तस्य यतुर्वाच्यत्वादभिन्नत्वास्यापि बचनेनाभिधानात् । इदमुक्तं भवति-प्रभावोऽपि दि
दिति ॥ १५२३॥ वचनेनाभिधीयते, न च वचनं तद्धर्म इति वक्तुं शक्यते,
तथा चाऽऽदअभावस्यासत्वात्, यदि च वचनं तद्धर्मः स्यात्, तदा सोऽपि थी निदिस जइ पुमं, थी चेव तो जो तदुव उत्तो। भावः पाद्, वचनाऽऽश्रयत्वात्, देवदत्ताऽऽदिवदिति ॥१५१६॥ थीविमाणाणनो, निविट्ठसमाणलिंगो त्ति ।।१५२४|| यस्यापि च घटाऽऽदिशब्दाभिधेयस्य घटाऽऽदेविस्य वचनं, ध्यादेः समानलिङ्गं स्यादिकं निर्दिशतः च्यादिनिर्देश इति सत्प्रत्ययकारणत्वाद्धर्मत्वेनाभ्युपगम्यते, तत्रापि पृच्च्यते ।। ताबस्किल प्रतीतमेव । यद्यपि च पुमान् कर्ता स्त्रियं कर्मताऽऽपनां किम ?, इत्याह
निर्दिशति । यथा-वासवदत्ते! इदमित्थं विधेहीति,तदपि तकोजावम्मि वि संबई, तमसंबद्धं व पगासेज्जा। ऽसौ निर्देष्टा पुरुषः स्येव भवति। कुतः?, इत्याह-यतो यस्मा. जइ संबकं तिहुयण-वावित्ति तयं पगास ॥१५२०॥ तउपयुक्ता ज्युपयुक्तः खीविज्ञानाद्वासवदत्ताऽभ्यवसायादन
म्योऽनिन्नः सन्निर्दिष्टया खिया समानलिजः पुरुषो भवति । भावेऽपि घटाऽऽदि के वचनाभिधेये पृच्चामो भवन्तम्-तद्वचनं तत्र भावे किं संबद्धं सत्सं भा प्रकाशयति, माहोस्विदसंबद्ध
ततश्च यदा पुरुषो नपुंसकमभिधत्ते, तदाऽपि निर्दिसमानलिम् , ति । यदि संब, तर्दि "चहि समयहि लोगो, भा
अत्वानपुंसकमेवाऽसौ । एवं स्त्रियां नपुंसके च निर्देधरि निरिसाए निरंतरं तु होर फुमो।" (३७६) इत्यादिवचनात् त्रिभुव
एसमानलिङ्गता योजनीयेति ॥ १५२४॥ नव्यापित्वात्ततं समस्तमपि पदार्थजातं प्रकाशयतु, संबद्ध
ननु कथं स्त्रीविज्ञानादनन्यः स पुरुषोऽपि व्येव भवति, न स्वाविशेषादिति ॥ १५२० ॥
पुरुषोऽपि स्यात, इत्याह
जइस पुमं तो नत्यी, ग्रह थी न पुमं न वा तव उत्तो। ___अथासंबई प्रकाशयति, तत्राऽऽहनिविल्माणतणो, नासंबकं तयं पश्वो न ।
जो थीविरमाणमयो,नो थी सो सञ्चहा नत्यि ॥१५२५॥
यदि स निर्देष्टा पुमान् ,ततो न स्त्री-न खल्वसौ स्थुपयोगयाभासय, असंबई, अह तो सव्वं पगासेउ ॥१५ ॥
नित्यर्धः। अथासौ रुयुपयोगोपयुक्तत्वात् स्त्रीत्यभ्युपगम्यते, त. नासंबकं तत्पदार्थान् प्रभासयति । कुतः !, इत्याह-निर्विज्ञा-हिं न पुमान्-न पुंस्त्वेनायमेष्टव्यः,किं तु स्युपयोगोपयुक्तत्वात नत्वात्, विज्ञानादन्यत्वे सत्यसंबन्धत्वादिति भावः। अयं च सयेवासो मन्तव्य इत्यर्थः। अथ नवं तर्हिनवा न खल्वसौ.त
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णिदेस
(२०७१) णिदेस
भाभिधानराजेन्द्रः। दुपयुक्तः सयुपयुक्तः,तपयुक्तस्य सर्वथैव पुंस्त्वविरोधात् । किं | परिणतिमयत्वात् पुंनिर्देशोऽपि भवस्विति । अत्रोच्यते-भाब. बहुना यः स्रोविज्ञानमयःयुपयोगोषयुक्तोऽपि न स्त्री, किंतु स्य दैविध्ये सत्यपि वस्तुनो विज्ञानमेवेहोपयोगरूपमधिकिपुमानपुंसकं वा, स एवम्भूतः पदार्थः सर्वथा नस्ति-असनेष, यते, म पुनस्तत्परिणतिः, विज्ञानरूपस्यैवेश मिशस्यानिप्रेतबारविषागावदिति । १५२५ ।।
स्वात् । आह-ननु शब्दोऽपि पुदमरुव्यरूपो, निर्दिश्यत इतिक अनुपयुक्तः खियं भाषमाणोऽपि पुरुषो भविष्यति,श्त्याश- स्वा निर्देश एवोच्यते, तरिकमिति तदुपयोगरूप एक निर्देपाऽऽद
शोऽधिक्रियते । नैतदेवं, शमस्य व्यमात्रत्वात् , कानलका जासह वावउत्तो, जइ प्रमाणी तो न तन्वयणं । भावमाहिणश्च शब्दनयाः । अत एव पुरुषपरिणतः सत्यपि निसो जेण मयं, निच्छियदेसो त्ति निदेसो ॥१५५६।। भावत्वेन तस्या इह प्रहाम, किंतु विज्ञानरूप पवात्र नि
देशो गृह्यते । तत्रैतत्स्यात् , शम्नप्रधान एव हि शम्बनया, पदिषा उच्यते भवता-अनुपयुक्तोऽसौ पुरुषः खियं जायते
तत्कयमिह शब्दरूपो निर्देशो नेष्यते । तदयुकम, भावा. उतो नसीरूपतां प्रतिपद्यते । तदयुक्तम्, यत एवं सति सको
परिकानात्। शम्दनयो दिशब्दादेवार्थकाममभ्युपगच्चति,त. सावनुपयुक्तभाषकोकानी, उपयोगशून्यत्वात्, घटाऽऽदिवन,
प्रावभाविश्वात्तस्य । एवं च सति शब्दस्य जानकारणत्वात, ततश्चन तवचनं निर्देशः,उपयोगपूर्वकत्वाभावात,उन्मत्ताऽऽदि.
कारणस्य च व्यत्वात, व्यस्य च जावशून्यत्वात् शब्दनबचनवत् । कुतः१, इत्याह-येनैतन्मतं सम्मतं विपश्चिताम् । कि
यस्य च भावग्राहित्वाद् न शब्दमात्रप्रधानता युक्तेति । प्रम् .श्त्याद-उपयोगपूर्वकतया निश्चित्य देशनं जाषणं देशो
त्रापरस्वाह-ननु यापयुक्तो वक्ता यमर्थमाह, तद्वशानिर्देश निर्देशः। अथवा-निश्चितो देशो भाषणं यत्रासौ निर्देशो भएय
इष्यते, ततो निर्देश्यवशानिर्देश इति प्राप्तम्, एवं च सति ते। न च निरुपयोगभाषकस्यैवं सम्नवतीति ॥१५२६॥
संग्रहव्यवहारयोः शब्दनयस्य च को विशेषः । अत्रोच्यतेएतदेव भावयति
संग्रव्यवहारयोरुपयुक्तस्यानुपयुक्तस्य वा यक्तुरारमनिरपेक्षा सो जइ नावउत्तो-अगुवउत्तो वा न नाम निदेसो ।
अनिधेयमात्रवशाच्चन्दमात्रमेव निर्देशा, इह तु बाह्यवस्तुप्रत्यनिदेसोऽवनत्तो, य वेड सदो न तं वत्यु १५२७॥ यमात्रमुररीकृत्य य उपयोगस्तस्मादनन्यत्वादनिधातु वस्योहस्त! स यदि निश्चिनदेशो निर्देशोऽभ्युपगम्यते,तहिं तवान् दे.
पयोगरूपं स्वरूपमेव निर्देशोऽङ्गीक्रियते । पाह-यद्येवम्, I. परचादिर्नाऽनुपयुक्तो युज्यते। प्रथानुपयुक्तोऽसौ,ताई न तस्य
जुसत्रावस्य को विशेषः, तस्याऽपि हि निर्देशकवशाद निर्देशः, निर्देशः, निश्चितकानपूर्वकत्वात्तस्य । किंबहुना?,निर्देशः, अनु.
स पवेहाप्यापन्नः । अत्राप्युच्यते-ऋजुत्राभिप्रायेणाऽनु. पयुक्तश्च तदानित्येवंभूतं यन्मतं तचन्दनयोऽवस्त्वेव मूते,विरुद्ध
पयुक्तस्यापि वक्तुः शब्दमा निर्देशः, अत्र तु वाच्योपयोस्वात्मचेतन भात्मा,अश्रावणः शब्दः,इत्यादिवदिति ॥१५२७॥
| ग पर निर्देश इति विशेषः, इत्यलं प्रसङ्गेनेति ॥ १५५६ ॥ ___अथोपसंदमाह
तदेवं नयमतान्यनिधाय सम्यग्मिथ्याविभागमाहसम्हा जं जं निदि-स्सइ तनुबनतो स तम्मनो हो ।
इह सम्बनयमयाई, परित्तविसयाइँ समुदियाई तु । बत्ता वणिज्जायो,अणमोत्ति समाणलिंगो सो।१५३न।
जहणं बकऽनंतर-निदेसनिमित्तसंगाही ॥ १५३० ।। तस्मादेतच्चम्दनयमतस्य तात्पर्य, यः पुरुषाऽऽदिर्वक्ता यं यं इत्येषमुक्तप्रकारेण सर्वारयपि नैगमाऽऽदिनयमतानि परीत्तविसयादिकमर्थं तदुपयुक्तः स्याद्युपयुक्तो निर्दिशति वक्ति, स षयाएयन्योन्यनिरपेक्षतया एकैकांशमाहीणि, अतो मिश्याक. तन्मयो वाच्यार्थाऽऽत्मको भवति। कुतः१, स्याह-वक्ता वा- पत्वात् ताम्यप्रमाणमिति प्रायः । समुदितानि पुनस्तान्येवाडज्योपयुक्तो वचनीयादनन्य पव जबतीति कृत्वा । ततो वक्तृवच. म्योन्यसापेकतया संपूर्णवस्तुग्राहित्वाज्जैन मतं भवति । कथमीयसमानलिङ्गोऽयमस्य निर्देश इति स्थितम् ॥१५॥ म्भूतं जैनं मतम् ?, इत्याह-(बझेत्यादि) बाह्याऽऽभ्यन्तरा. प्रकृतमुपदशेयन्नाह
गि निर्देशस्य वचनस्य शब्दस्य निमित्तानि संग्रहीतुमभ्युपग.
न्तुं शीनं यस्य तद् बाह्याऽऽभ्यन्तर्रानिर्देशनिमित्तसंपादितत्र सामाअोवनत्तो, जीवो सामाइयं सयं चेव ।
बाह्यान्यभिधेयघटपटशकटाऽऽदीनि, आभ्यन्तराणि तु स्वरना. निहिसइ जो सवो, समाणालिंगो स तेणेव ॥१५॥
मकमाँदयताल्वादिकरण प्रयत्नादीनि निर्देशस्य निमित्तानि 5. र प्रस्तुने सामायि के निर्देश्य उपयुक्तो निर्देष्टा जीवः सा- पृव्यानि । समस्ततत्सामग्रीजन्यनिर्देशाभ्युपगमपरत्वेन सम्यगमायिकमेव, भवतीति शेषः । ततश्चाऽसौ सामायिकं निर्देशन रूपत्वाज्जैनं मतं प्रमाणमितीद भावार्थः । पाह-वाह्यो घकमेध! उन्मानमेव निर्दिशति । कुतः, इत्याह-यतो यस्मा.
घटाऽऽदिरयः शब्दस्य कथं निमित्तम, संबन्धानावात् ? । रस्त्रीपुनपुसकरूपः सर्वोऽप्यसौ निर्देशा तदुपयुक्तत्वात् तेनैव तदयुक्त, शब्दार्थयोर्वाच्यवाचकसंबन्धस्य विद्यमानत्वात् । निर्देश्येन सामायिकेन समानसिको जवति, सामायिकार्थस्य पद्यधस्थ शब्दो बाचकः, तागृहीतसंकेतस्थापि सच्चा. कदितो नपुंसकत्वात, नियाः, पुंसो,नपुंसकस्य वा सामायि- देरसावथै प्रतिपादयेदिति चेत् ।नवम्. कर्मक्षयोपशमस. कमभिदधानस्य नपुंसकलिङ्गनिर्देश एव भवतीति । श्राह- न्यपेकस्यैव तस्य तत्प्रतिपादकत्वात्, कयोपशमस्य च सङ्केतायदि पुनर्नावस्य द्वैविध्याभिर्देश्य निर्देशकोभयवशतोऽपि नि. ऽऽविसापकत्वात् । न हि प्रदीपः प्रकाशक इत्येतावन्मात्रेणेवाशः स्यात् तहिं को दोषः ? । तथादि-द्विविधो भावोऽर्थस्य न्धाऽऽदीनामप्यर्थ प्रकाशयति । ननु यदि कयोपशमापेक्कः शम्दोविज्ञान, परिणनिश्च, भावानियायिनश्च शुद्धनयाः। तत्र यदा ऽर्थ प्रकाशयति, तर्हि संकेतकरणेऽपि तदप्रकाशनप्रसक्तः, न पुमानुपयुक्तः सामायिकं नपुंसकमाह, तदा वकुनपुंसकविका- | चैतदस्ति, गृहीतसङ्केतानामविगानेनार्थप्रतिपत्तिदर्शनात, ततः नानन्यवानपुंसकनिर्देशोऽस्तु, निर्देश्च मुखरोमादिरूपपुरुष। किमतर्गदुकल्पयोपशमकल्पनेन, तदयुक्तम,तथादि-केषा.
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णिज्य
(२०७१) गिदेस
अभिधानराजेन्छः। चिजमतीनां शास्त्रव्याख्यानाऽऽहै। विषमपदवाक्येषु वि-णित-निर्मात-त्रि० । नितरामग्निसंयोगेन यद् ध्मातं विशो. शिष्टक्कयोपशमाजावासंकेतोsपि कर्तुं न शक्यते, अन्ये तु
चितम् । जी०३ प्रति०४०।ौ० । दग्धमले, भौ । तं०। सस्करणेऽपि नार्य प्रतिपद्यन्ते । यदपि केषाञ्चिदपूर्वम्लेच्चभाषाऽऽदिश्रवणेऽकृतसंकेतानामपि अगित्येव कथमप्यर्थप्रति.
प्रश्न । पतिश्यते, तवापि कयोपशमस्यैवातिपटुत्वं हेतुः । तस्मा-णिधस-निधेन्धस-पुं० । प्रवचनोपघातनिरपेक्के, भाष० ३ स्कर्मक्कयोपशमाऽऽदिसामग्रीसत्यपेकः शब्दो चाचकः, अर्थस्तु म. । निर्दये, दे. ना० ४ वर्ग ३७ गाथा । वास्या, इति शब्दार्थयोर्वाच्यवाचकभावलकणः संबन्ध इति।। णिकच्छवि-स्निग्धच्छवि-स्त्री. । स्निग्धा च कान्तिमती - तदेवं व्यास्याता "विहं पि नेगमनमो।" ( १५०५) इत्या- विस्त्वक । कान्तत्वचि, "सुवनवस्ने सुकुमारया य, णिहरुक. दि गाथा, तव्यास्याने च व्याख्यातमुपोद्घातनियुक्तिद्वारगा- बी।"वृ०३३० थाद्वयस्य द्वितीयं द्वारम् । १५३०॥ विशे० प्रा० मा । निर्देशनं निर्देशः । कर्माऽऽदिकारकशक्तिनिरनधिकस्य लि.
णिकण-निर्धन-त्रि.। "सर्वत्र सवरामचन्डे" ||TIVE इति कार्थमात्रस्य प्रतिपादने, "लिइसे पदमा होह।" निर्देशे प्रथमा
| रलोपः । “द्वितीयतुर्ययोरुपरि पूर्वः "NIRAV०॥ इति दकारा. विभक्तिर्भवति । यथा-स वा अयं वाऽऽस्ते, अहं वा पासे ।
5ऽगमः। प्रा०२ पाद । गोमहिण्यादिरहिते,विपा.१ ७० ३ अ.। स्था०८ ठा० । अनु० । प्रश्निते कार्य नियतार्थे, उत्तरे, ज. ३ णिकमय-निर्धान्यक-त्रि० । धान्यकणविवर्जिते, तं०। श०१उ०। निर्देशो हि प्रथमतः कायप्रयोगेण भाषामन्या.
पिकफासणाण-स्निग्धस्पर्शनामन-न । स्पर्शनामभेदे, रायादाय पश्चाद्वापर्याप्तिकरणप्रयोगतो विधीयते । ज्यो.१
यमुदयाजन्तुशरीरं घृताऽऽदिवत् स्निग्धं भवति तत् । कर्म. पाहु। हेतुरष्टान्तीपदर्शनेन स्पछतरीकरणे, नं० । उत्सर्गाप.
कर्म । वादात्यां प्रतिपादने, उत्त०१०। णिद्देसदोस-निर्देशदोष-पुं० । उचितनिर्देशाकरणरूपे सूत्रदोषे,
पिकमण-निर्धमन-न। काले, जलनिर्गममार्गे, स्था० ५ ठा. अनु० । स च यत्र निर्दिपदानामेकवाक्यता न क्रियते, यथेद
१०.। 'खास' इति देशप्रसिम्मात । "कुणालाए णिद्धमणदेवदत्तः स्थास्यामोदनं पचतीत्यभिधातव्ये पचतीति शन्दं
मूले बसही वरिसायाने देवयाणुकंपेणं न वरिसर ।" प्रा. नाजियते । अनु । विशे० । निर्देशदोषो नाम यत्र वस्तुपाय
म.१ अ. २ खएम। ऋद्धिरसमातगौरवैर्युक्तत्वेन मृत्वा वाचिनः पदार्थस्यार्थान्तरपरिकल्पनाश्रयणम् । यथा-द्रव्यप.
यकत्वमुपागते आर्यमवाचार्ये, श्राव०४ अ०। गृहजलप्रवाहे, र्यायवाचिनां सत्ताऽऽदीनां ज्यादान्तरपरिकल्पनमुलूकस्य ।
देना.४ वर्ग ३९ गाथा (मार्यमकथा 'अज्जमंगु'शआ० म०१ १०२ वएफ।
ब्दे प्रथमभागे २११ पृष्ठे गता) णिदेसवत्ति [ण -निर्देशनर्तिन-त्रि० । आज्ञावर्तिनि, " णिद्दे
णिकमाम-देशी-अविजिनगृहे, दे ना.४ वर्ग ३८ गाथा । सवती पुण जे गुरुणं।" दश०९ अ०२००।
णिदम्म-निर्धर्म-त्रि० । निर्गतो धर्मात् श्रुतचारित्रलकणादिति णिहोत्थ-निर्दीस्थ्य-न । निर्भये, व्य. ४ उ.। स्वस्थे, व्य.
निर्धर्मः। प्रश्न १ आश्रहार | धर्मादपक्रान्ते, प्रश्न १ श्रा
श्र० द्वार । अविभिन्नगृहे, दे० ना.४ वर्ग ३८ गाथा। . ७उ.
निर्धर्मन्-त्रि. । निर्गतो धर्मो यस्य । असंयतीनूते, व्य० १० णिहोस-निदषि-त्रि.। निरवये,पश्चा० ७ विव०"भलियमुव
उ०। पार्श्वस्थाऽऽदिषु, नि . १० । एकमुखयायिनि, घायजाणयं।" इत्यादिद्वात्रिंशत्सूत्रदोषरहिते, स्था०७ ठा०।
दे० ना०४ वर्ग ३५ गाथा। मा०म० । अनु० । हिंसाऽऽदिदोषरहिते, अनु०। समस्तोका. नुक्तदोषविप्रमुक्ते, विशे। दोषस्याभावे, व्य०१०। अप्राय.
पिघामण-निर्धाटन-न० । निकालने, प्रश्न. १ प्राश्र. श्चित्ते, नि० चू०१०। (व्याख्या ‘सुत्त' शब्दे वक्ष्यते) ।
द्वार। णिक-स्निग्ध-पुं०। संयोगे सति संयोगिनां बन्धकारणे रस. | णिचारण-निर्धारण-न। निर् धृ-णिच-ल्युट । जातिगुणनेदे, "एगे णिदे।" स्था• १ ठा० । मलद्रव्याणां मिथः | क्रियासंझानिः समुदायादेकदेशस्य पृथक्करणे, यथा " नराणां संयुज्यमानानां बन्धनिबन्धने तैलाऽऽदिस्थिते रसे, अनु । कत्रियः शूरः" इत्यादी नररूपसमुदायात क्वत्रियजातेरेकदेशस्य कर्म० । प्राचा० । सस्नेहे, त्रि. । झा०११०० अ०भाव.।। शूरत्वेन पृथकरणम् । वाच । आचा० । स० । “डायं प्रोसर्ट रसिय मणुएणं णिद्धं लुक्खं ।"णिक-निद्धय-अव्य०। प्रस्फोट्येत्यर्थे, “अणिस्सिए सआचा०२१०१०१०५० । रात्रिभोजनात्यङ्गसूत्र- | बिडगो धनमले ।" दश.७१० । योर्वद् गृहाऽऽदिकं तैलवर्जितमध्वं नवति तदेव स्निग्धमुः।
णिद्धम-निधूम-त्रि धूमरहिते, "णिद्भूमग च गाम, महिलाच्यते । वृ० ५ उ. । अरुक्षे, कल्प० २ क्षण । जीत० । मौ० प्रा० । जं.कान्ते,प्रश्न.४ाश्र० हार। तं । श्री।।
नं च सुन्नयं ददुं ।" निधूमं ग्राम दृष्टा अतीव भिक्काप्रस्ताव "णिद्धतेषा।" स्निग्ध मनोहरं तेजो यासा ताः स्निग्धतेजसः।। शत शायत । आ० म० अ० रखन जी०३ प्रति०४ उ०।"णिद्धपाणलेहा।" वनखएमाऽपेक्षया स्मिणिद्धमग-निधमक-पुं०। अपक्षणभेदे, यत्प्रभावतो राज्यमनुग्धा पाणी रेखा यासा ताजी०३ प्रति०४ उ0 प्रश्ना जी | शान्ति रम्धनीयमेव न भवति । व्य. ३ उ०। पिछल-देशी-अविभिन्नगृहे, दे० ना०४ वर्ग ३८ गाथा ।
वर्ग ३८ गाथा । ।णिय-निधेत-त्रि। अपनीते, रा०।
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(२०७०) णियजरढपंपत्त अभिधानराजेन्द्रः ।
णिप्पमिकम्मया पियजरढपंहुपत्त-निर्दृतजरठपाएमपत्र-त्रि० । निईतानि | हे विपश्चितां नाथ ! संख्यावतां मुख्य ! स्यमनस्तरोका, नि. अपनीतानि जरगनि पाएनुपत्राणि येत्यस्ते नितजरउपा
पीततस्वसुधोतोझारपरम्परा,तवेति प्रकरणान्सामर्थ्याद्वा गम्यएमुपत्राः । जी० ३ प्रति०४ उ० । अपगतपुराणपापमुपत्रेषु,
ते । तस्वं यथाऽवस्थितवस्तुस्वरूपपरिच्छेदः,तदेव जरामरणापऔ० । “णियजरदपंदुपत्ता।" निर्द्धतान्यपनीतानि जरगनि
हारित्वाद्विवुधोपभोग्यत्वान्मिथ्यात्वाविषोमिनिराकरिष्णुत्वादापारामुपत्राणि येभ्यस्ते निभृतजरपाएमुपत्राः । किमुक्तं भव
न्तराभवादकारित्वाच सुधा पीपूर्ण तत्वसुधा। नितरामनन्यसा. ति?-यानि वृतस्थानि जरठानि पापमुपत्राणि पातेन निध्य
मान्यतया पीना भावादिता या नवसुधा,तस्या उद्गता प्रादुर्भूनिर्धूय नमी पतितानि नूमेरपि च प्रायो निघूय निधूंबान्यत्रा.
ता तत्कारणिका उभरपरम्परा,सकारश्रेणिरिवेत्यर्थःयपाहि-कपसारितानीति । रा। जी० ।
चिदाकप पीयूषरसमापीय तदनुविधायिनी मुभारपरम्परां मु.
अति,तथा भगवानपि जरामरणापहारितस्वामृतं स्वैरमास्वाथ णिकोनास-स्निग्धावभास-त्रि० । निग्धत्वेनावभासमाने,
तरूसानुविधायिनी प्रस्तुतानेकान्तवादभेदचतुष्टयोसकणामुद्रा. का० १ ०१०।रा।
रपरम्परां देशनां मुखेनोगीर्णवानित्याशयः। अथवा-यरेकान्तवाणिदोय-निदौत-त्रि० । नितरामपुनर्भावेन धौते, " चंदिय दिभिः मिथ्यात्वगरसनोजनमातृप्ति भक्तिं, तेषां तत्तचनरूपा णिकोयसबकम्ममलं।" (१)नितरामपुनमावेन धौतःस. उद्वारप्रकाराः प्राक् प्रदर्शिताः। यस्तु पचेलिमप्राचीनपुपयप्रा. म्यग्दर्शनकानचारित्रतपासलिलप्रभावेणापगमितः सर्व एव म्भारानुगृहीतैर्जगद्गुरुवदनेन्दुनिस्वन्दि तत्वामृतं मनोहत्य कमवाष्टप्रकार जोबमालिन्यहेतुत्वाद मन व मलो येन सनि. पीतं तेषां विपश्चितां यथार्थवादविदुषां हे नाथ!इयं पूर्वराससर्वकर्ममलः । कर्म० १ कर्मः।
दलदर्शितोल्लेखशेखरा समारपरम्परोत व्यास्येयम् । स्था० २५ णिवत्त-निवत्त-न। निधानं निहितं वा निधत्तम्, भावे कर्मणि
ग्लोक। वा क्तप्रत्यये निपातनामुनापवर्तनवर्जितानां शेषकरणाना.
निपीय-अन्य० । नितरामास्वाद्येत्यथ, वाच । कर्मणोऽवस्थाने, पूर्ववरस्य कर्मणस्तप्तमीलित-|णिप्पएस-निष्पदेश-पुं० । परमाणी, विशे०। लोदशलाकासंबन्धसमाने करणे, "चन्धिो णिवत्ते पएण
|णिपंक-निष्पडु-त्रि० । मार्समबरहिने, औ० । करमविशेषसे। तं जहा-पगणिवत्त, रिणिधले, मणुभागणिधत्ते, पएसणिधते।" स्था०४ ग०२ उ० । विशिष्टानां परस्परतः
रहिते, कलङ्कविकले च । स० । प्रहा। प्रा. म. । जी. । पुजलानां निचयं कृत्वा धारणं रूढिशब्दत्वेन निधत्तमुच्यते ।।
| स्था०। राजा "णिरया णिम्मला णिप्पंका।" प्रका०५ पद। भ० १ .१००।क.प्र.। पं० सं०।
'णिप्पंद-निष्पन्द-त्रि० । किञ्चिन्चलनेनापि रहिते, उपा.
७०॥ णिधत्ति-निधत्ति-पुं०। निधीयते उद्वर्तनाऽपवनावशेषकरणायोग्यत्वेन व्यवस्थाप्यते यया सा निधत्तिः। पृषोदराऽऽदि
Iणिप्पकंप-निष्पकम्प-त्रि० । स्वरूपतोऽपोषद् व्यभिचारमनस्वादरूपनिष्पत्तिः। पं.सं.पवारनिनायक कम्पानावात (स.२ अङ्क) अतीव निश्चले, याव.४० नि. चू०१३ २०(विस्तरेण ‘णिकायणाश०२०पाणिप्पच्चक्खाणपोसहोववास-निष्पत्याख्यानपौषधोपचासप्रसङ्गान्निधत्तिरुका)
त्रि० । प्रत्याख्यामपरिणामपर्वदिवसोपवासपरिणामाभावात् णिधूय-निर्धय-प्रव्य । अपनीयेत्यर्थे, “णिधूय कम्म ण पचं (रा० ) अविद्यमानपौरुष्यादिप्रत्याख्याने, मसत्पर्वदिनोपवासे, चुवे।" सूत्र. १४.७ अ० ।
दशा०६ अ० । असत्पौरुष्यादिनियमे, अविद्यमानाएम्यादिप.
घोंपवासे, भ.७श ६ उ० । स्था०। पिन्दित्तए-निन्दितुम्-अव्य० । निन्दितुमतिचारान् स्वसमक्ष
णिप्पच्चवाय-निष्पत्यवाय-त्रि० । प्रत्यवाय (मागोंपव). जुगुप्सितुमित्यर्ष, स्वा. २ ठा. १००।
हिते, "अणकंतण णिप्पशवारण गंतब्ध।" नि० चू०१ उ०। मिन्द-निन्द-स्त्री.मृतप्रजायां स्त्रियाम् निन्द महेला यद यदपत्य प्रसूयते तसम्रियते, एवं य प्राचार्यों यं यं प्रवाजयति स
णिप्पट-देशी-अधिके, दे ना.४ वर्ग ३१ गाथा। सम्रियते अपगच्चगति वा,ततः स निन्दूरिव निन्दूः। व्य०३ उ०।
णिप्पपसिणवागरण-निःस्पृष्टप्रश्नव्याकरण-त्रि. । निर्ग
तानि स्पृष्टानि प्रश्नन्याकरणानि यस्य स तथा । निरुत्तरीकृते, णिपडिसामि []-निष्परिशाटिन-त्रि० । परिशाटिरहिते,
भ०१५ श.। "णिप्पडिसमिमभुजंतगायकय नूमिकम्मंता।" वृ०२ उ०।।
निःस्पष्टप्रश्नव्याकरण-त्रि० । निरस्तानि स्पानि व्यक्तानि णिपतंत-निपतत-त्रि० । नीचैः पतति, प्रश्न १ श्राश्र द्वार।
(वागरणानि) प्रश्नव्याकरणानि यस्य स नि.स्पष्टप्रश्नभ्याकरणः । पिपरिग्गहरुइ-निष्परिग्रहरुचि-पुं०।निर्गता परिग्रहरूचिस्य
निरुत्तरीकृते, “ अट्रेहि य देऊदि य पसिणेहि य वागरणेदि मः । परिग्रहविरते, प्रश्न ५ संब० द्वार ।
य कारणेहि य णिप्पटपसिणवागरणं करेह ।" भ० १५ श०। णिपातिणी-निपातिनी-स्त्री० । अभिमुखपातिन्याम्, "सिला-णिप्पनिकम्मया-निष्पतिकर्मता-स्त्री० । शररिस्य प्रतिकर्माहिँ हम्मति णिपातिणीहिं ।" सूत्र. १ श्रु० ए ०।
ऽकरणे, प्रा. क.। णिपीय-निपीत-त्रि० । नितरामास्वादिते, स्या।
निष्प्रतिकर्मद्वारे वैधोदाहरणगाथामाहविपश्चितां नाथ ! निपीततत्व-मुधोद्गतोद्गारपरम्परे- पइगणे नागवस, नागासरी नागदत्त पधज्जा । यम् । [२५]
एगविहारुठ्ठाणे, देवय सादू अविबगिरं ॥१॥
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(१.७ए) णिप्पडिकम्मया प्रन्निधानराजेन्द्रः।
शिबंध अर्थः कथातो शेयः
प्राचा। सत्रिभागकाकण्या त्रिभागोनगुजाइयेन वा निवृत्ते "श्रासीत्प्रतिष्ठानपुरे, श्रेष्ठी नागवसुः पुरा ।
प्रतिमाने, अनु । मागश्रीः श्रेष्टिनी तस्य, नागदत्तस्तु तत्सुतः॥१॥
निष्पाप-त्रि।पापरहिते, वाचा निर्विकामनोगः सन, व्रतमादत्त सोऽन्यदा।
णिपिवास-निष्पिपास-त्रि. । पिपासायास्तृष्णावा निर्गतो जिनकल्पिकसत्कारं, हाउवादीद् गुरूनिदम् ॥२॥ निपिपासः। निस्पृहे, उत्त० १६. निराकारक्षे, प्रमा जिनकल्पं करिष्येऽह-मप्याचार्यनिवारितः।
माश्र0 द्वार । निःस्नेह, प्रश्न १ श्राश्र• द्वार । स्वयं स्वीकृत्य तं चक्रे. प्रतिमा व्यन्तरौकसि ॥३॥ सम्यग्दृशा देवतया, मा विनश्यत्वसाविति ।
णिप्पिह-नि:स्पृह-त्रि० । इच्छारहिते,प्रा० २ पाद । समस्तपरस्त्रीरूपेणोपहाराऽऽधं, गृहीत्वाऽऽगत्य तत्र सा ॥४॥
भावाभिशापरहिते, अष्ट. ११ अष्टः । अर्थित्वा व्यन्तरं स्माऽऽड, गृहाण क्षपकोद्धृतम् ।
| पिप्पीनण-निष्पीमन-न.निश्चयेन पीमने, प्राचा. १० प्रक्ष्यभोज्यं गृहीत्वा तत्, स्वादित्वा प्रतिमा स्थितः॥५॥ | ४०४०। प्रतीसारोऽस्य संजातो, देवताऽऽस्यद् गुरोरिदम् । साधून प्रेग्याऽऽनयतं स, देवताऽकथयत्पुनः ॥६॥
णिप्पुंसण-निष्पुंसन-न. । “क-ग-2-ह-त-द-प-श-पवद्या बिल्वगिरं दत्सं, स्वस्थोऽभूचिकितस्ततः।
स-करपा यु"॥।२।७७॥ इति पलुक । “अनादी पुनरेतन कर्तव्य, गता निष्प्रतिकर्मता"॥७॥ प्रा० का ।।
शेषाऽऽदेशयोः द्वित्वम्" 111८६ नो खः। स्फटने, प्रा. स०। प्राचा।
१पाद । णिप्पमियार-निष्पतीकार-त्रि.। अचिकित्स्ये, प्रश्न०४ सम्ब० णिप्पुरिसणामग-निष्पुरुषनाटक-निर्गता रहिताः पुरुषा द्वार।
यस्मिन्नाटके तन्निप्पुरुषनाटकम् । केवलनीपात्रमये नाटके, णिप्पमिवक्ख-निष्पतिपक्ष-त्रि० । बाधकरहिते, स्या० । सबा १ अधि०१ प्रस्ता! णिप्पम-निष्पन्न-त्रि० । सिके, पञ्चा०८चिवः ।
णिप्पुलाय-निष्णलाक-पुं०। प्रागमिभ्यन्त्यामुत्सर्पिण्यां जरते
वर्षे भविष्यति बलदेवजीवे चतुर्दशे तीर्थकरे, ती. २० कल्प। हिप्पसजोग-निष्पन्नयोग-पुं० । योगिविशेषे, पोछ।
प्रव० । सः । ति। तखि चेदम"दोषम्यपायः परमा च तृप्ति-..
पिप्पंद-निष्पन्द-त्रि.140 स०।"प-स्पयोः फः"॥८॥ रौचित्ययोगः समता व गुर्वी।
|५३॥ति पस्य फाप्रा.२पाद । हस्ताऽऽवयवचलनरबैराऽऽविनाशोऽथ शतम्भराधी
हिते, का०१७०२ म० । अन्त ।" उप्र शिवमणिप्फंदा, निष्पन्नयोगस्य तु चिसमेतत् ॥१॥"पी०१३ विवा निसिणीपसम्मि रेहर बसाया।"प्रा.२पाद । णिप्पसमेणीय-निष्पचमेदनीक-निष्पन्ना, कोऽर्थः-नि-णिप्फा-निष्पन्न-त्रिका परिनिष्ठिते, विशे०। "भयवया कपसर्वशस्या मेदिनी यत्र स तथा । शस्यनिष्पत्तिकाले,"णि. हितं णिप्फो।" प्रा.म.१०२खएका प्पन्नमरणीयंसिकासि य मुश्यपकीलिपसु जणवपसु।"क.
णिप्फरिस-शी-निर्दये,दे ना ४ वर्ग ३३ गाथा । ल्प०४क्षण । पिप्पत्त-निष्पत्र-त्रि० । स्वभावतः पत्ररहिते, व्य. १७०। णिप्फाकण-निष्पाद्य-अन्य निर्माप्येत्यर्थे, पञ्चा०७ विवः। णिप्पत्ति-निष्पत्ति-स्त्रीनिष्पादने, व्य०१०।सिद्धौ,
स्थाणिप्फाइय-निष्पादित-त्रि०। योग्यतामापादिते,माचा० १७० ठागविशेगच्छवासे गुणोऽयमपि-"णिप्पत्तिसंतायो।" नि- म.उ.।" ताहे तम्मि दिवसे समयसहस्सेणं तसं णिपत्तिः सद्गुणत्वेन शिष्यसंसिकिः फलसन्तानसाधनसमर्थधा- फादितं चिंतेश।" श्रा० म.१०। न्यनिष्पत्सितुल्य ततःसन्तानः शिष्यप्रशिष्याऽऽदिवंशः संसारग- णिप्फायण-निष्पादन-न० । करणे, आसेबने, आव• अ०। तंगतानिवर्गस्य निर्गमनसोपानपरम्परारूपः। पञ्चा०१८ विव०। णिप्पज-निष्पल-पुं० । प्रभारहिते, "देवे चहस्सामीति जाव
णिप्फाव-निष्पाव-पु.। "पस्पयोः फः" ॥८॥२॥ ५३॥ ति विमाणाभरणाई गिप्पभाई पासित्ता।" विमानाऽऽभरणानां नि.
पभागस्य फः। प्रा०५ पाद । बल्लनामके धान्यभेदे, जं०२ वक। प्रभत्वमौत्पातिक तश्चक्षुर्विभ्रमरूपं वा । स्था०३ ठा० ३३०।
गिफेडिय-निष्फेटित-त्रि० । निष्काशिते, प्रा. म.१०२ णिप्परिग्गह-निष्परिग्रह-त्रि० । बाह्याऽऽन्यन्तरपरिग्रहरहिते,
खएक । निःसारिते, सूत्र. २ श्रु०२ म०। मपट्टते, स्था० ३ सत्त. १४ अ०। क्वचिदविद्यमानस्वीकारे, उत्त. १४ ।
ठा० ४ 3०1 णिप्पसाय-निष्पलाक-पुं० । जरते वर्षे भविष्यति चतुर्दशेती-णिप्फेस-निष्पष-पुं० । “ पस्पयोः फा" ॥८।३ । ५३ ॥३. र्थकरे, स.। ती.।
ति पस्य फः। "द्वितीयतुर्ययोरुपरि पूर्वः" | GIR18॥ति णिप्पाण-निष्पाण-त्रि० । उच्चासादिरहिते,झा०१ श्रु०२० फस्योपरि पः । प्रा० २ पाद । संघर्षे, वाच । शन्दनिर्गमे, दे०
ना.४ वर्ग २६ गाथा। णिप्पाव-निष्पाव-पुं० । वहाऽऽस्ये धान्य मेदे, “णिप्पाबाई
धम्मा, गंधे वागपलंमुलसुणाई।" इति धान्येषु निष्पावः णिबंध-निबन्ध-पुं० । निबन्ध-घञ्। कानविशेषे देवत्वेन प्रतिपुलाकधान्यम् । ०५ उ० ज०। ध० । स्थाजा दश० श्रुते वस्तुनि, " निबन्धो ऽव्यमेव " इति स्मृतिः । “अम्मापि
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गिबन
णिमंतणा
- ।
39
बरो य पुरानेद्देण अजाणतेने निबंधे वि क कहं विनेला देशी १० गृहे, "सोमलच्छी निमेशणं" कह० ३ सुचिररक्खियं वयं भंजामि ? | भाव० ४ अ० । शिबंद्यनिबन्धन नियन्यतेनेमात्र वायु देती वाच - न० | । । विशे० ब्राम्ने, विशे० बीणायास्तन्त्रीनिबन्धनो भागे च । भावे ल्युट् । बन्धने, वाच० । बिंवियोग-निबन्धनवियोग- पुं० । निमित्तविरहे द्वा०
२५ द्वा० ।
णिवक निबद्ध-वि० निधि०१। बोलिज्माण निवडपमान नमाने ०३
श्राश्र० द्वार ।
सिम्बल - निर्बल
निर्गतं बद्धं सामर्थ्यं यस्येति निम् मिःसारे, आचा० १०५ श्र० ४ उ० । बिलासप-निर्वलाशक-पुं० निर्बलं निश्मा33दिकं यदू व्यं, तदशकस्तभोजी । अभिप्रदविशेषेण वलचणकाऽऽदिमात्र भोजिनि, श्राचा० १०५ श्र० ४ ४० । विक्षिय - निर्वलित- त्रि । शुरु शुद्धस्वरूपे, विशे० । जि-निर्भञ्जनन० पाओलीद्यते ०२
-
(2050) अभिधानराजेन्द्रः ।
अधि० । प्रश्न० | विदेशी उद्याने दे० ना०४ वर्ग ३४ गाथा । जिच्छण - निर्जर्त्सन-न० । भरे दुष्टकर्मकारिनपर दृष्टिमाश्र० द्वार ) आक्रोशविशेषे कटुकअव्यादिना तर्जने नि० चू
गीदित्यादिरूपे ( प्रश्न० २ बचने, प्र० ३ ० द्वार
१ उ० ।
निच्छणा - निर्भर्त्सना - स्त्री० न स्वया मम प्रयोजनमित्यादिपरुषवचने, भ० १५ श० ।
विजय- निर्जय त्रिलोकादि सहजयप्रभु के आय०४ श्र० । प्रश्न० । गतजी के सूत्र० १ ० ४ अ० १३० । प्रा० म० । अविद्यमानराजाऽऽदिनये, प्रश्न० ३ सम्ब० द्वार । भयरहिते, यत्र भयं न विद्यते। नपं जन्य चोरभयं नत्थ" नि००१ उ० शिब्जपणा निर्भजना श्रीमति भजना निर्भजना नि श्चिते भागे, श्री० । “द्वितीयतुर्ययोरुपरि पूर्वः ॥ ८ । २ । ६० ॥ इति प्रकारोपरि वः प्रा० २ पाद ।
सिन्नर - निर्भर - न० । निःशेषेण भरो मारोऽत्र । अतिमात्रे तद्युके, त्रि० । वाच० । “मेघो य खिब्भरं वरिसइ ।” आ० मं० १
अ० २ ख एक ।
णिजिज्जमाण-निर्भिद्यमान- त्रि । नितरामतिशयेन भिद्यमा. ने, जी० ३ प्रति० ४ ४० । जं० । प्राबल्याभावेनाधो विदार्यमाणे. " अह नंते ! कोकण वा० जाव केलइपुमाण वा अवायसि उग्भिमाणाणं णिग्भिजमाणाणं वा । भ० १८
"
श०२ उ० जे० ।
श्री०
गिभ - निभ- त्रि० । सदृशे जं० ३ चक० । उत्त० । निंग - निभङ्ग-पुं० । गात्राणां भजने, प्रश्न० १ ० द्वार भिमेत निभमात्र न० उदाहरणमात्रे नि० ० ० । णिभाल - निभाल - घा० । दर्शने, चुरा० । " खंधावारनिषे से निजालेहि ।” भा० म० १ ० २ एक प्राचा० ।
1
कण ।
णिम-यम्-पा० नि अस् स्थापने, "सोमम" ।
॥ ८|४|१६६ ॥ इति न्यस्यतेर्णिमाऽऽदेशः । ' णिम ।' न्यस्यति । प्रा० ४ पाद ।
निमंत्रणा निमन्त्रणा स्त्री० विषयोपभोगं प्रति प्रार्थनेसू १
०३०२० भोगोपभोगं प्रति अभ्युपगम करणे, सू० १ श्रु० ३ अ० २ ० । अनु०। प्राचा० । श्र० । अगृहीतेनाशनाSSदिनाऽहं जवदर्थमशनाऽऽद्यानयामत्येवं भूतायां (घ० २ अधि०) भक्तितः प्रार्थनायाम, पञ्चा० १२ विव० । स्था• जीत० । नि० चू० । ध० भ० ।
अथ निमन्त्रणायाः सामाचार्याः स्वरूपम्सापाण्या, गुरुकिच्चे सेस असंतम् । संपुन कज्ने साथ कुजा ॥ ३० ॥
,
स्वाध्यायानाकर सद् गुरुकृत्ये रत्नाऽधिककार्ये विश्रामपरिकम्म शेष के कृतावशेष, असत्यविद्यमाने, किम् ?, श्रतश्राह तं गुरुम बनाउ साधुनिमतं मकाऽऽद्यानामीत्याच कार्ये नानामित्यर्थः शेषाणां तिरिकानाम निमन्त्रणामा
क्षणम् कुर्याद्विदध्यादिति गाथाऽर्थः ॥ ३८
,
किमित्येवं सदा व्यानेनैवाऽऽसितम्यमित्यत माहदुलहं खलु मयचं, जिवयणं वीरियं च धम्मम्मि | सणसवा, अपमा ओ हो कायन्वो ॥ २५ ॥
दुर्लभं खलु दुष्प्रापमेव, मनुजत्वं मानुषत्वम् । तथा-जिनवचनमरमतं वीर्य बत्साह, धम् चारिधर्मविषयेः पदत्रयेऽपि दुर्लभत्व संबन्धनार्थः । किं वातः, एतन्मनुजत्वाऽऽदि त्रयम्, लब्ध्वा प्राप्य, सदा सर्वदा, अप्रमादो कान नस्यम, जवति स्यात्, कर्तव्यो विधेयः । इत्यतः स्वाध्यायाssदिखिन्ने न निमन्त्रणा कार्येति गाथाऽर्थः ॥ ३७ ॥
दुग्गतरयणा परस्य णगहण ईश किति । प्रतिफलमवसायिनं ॥४०॥ दुर्गतस्य दरिद्रस्य नाकरे विधिमाणिक्यस्यास्थाने प्रा तस्य यत्नपर्ण मापिपादानं तेन रा चोपरमाभावसाध] दुर्गरत्नाकरम्। कित दिल्या पतीनां साधूनाम् कृत्यं कव्यं स्वाध्यायावृत्यादि । यथाहि दुर्गतस्य रत्नाकरे गतस्य रत्नग्रहणे इच्छाया अविच्छे दो भवति एवं साधोधरणमधिगतस्य वेषाकृदिषु साधुकृत्या स्यादिति दुर्गरत्नाकर ग्रहण यतिनृत्यमित्युकम् इतिशब्दप्रयोगं दर्शयिष्यामः तथा आयतापागामिकाले परमये इत्यर्थः । फलं साध्यमस्पेत्यायतिफलम् । पाठान्तरेण प्रायतफलं मोकफलम् । तथावामश्राणि साधनानि मानुष्यजात्यादीनि यस्य तदसाधन चराः समुचयार्थः स् म्यकू' मुणेयव्वं ति' ज्ञातव्यम् । ज्ञातं च तदैव स्याद्यदा सततं तत्राऽप्रमादो विधीयते । इति गाथा इर्थः ॥ ४० ॥
,
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(२०११) पिमंतणा अभिधानराजेन्ः।
णिमित्त गुरुमापृच्च्य साधुनिमन्त्रणा कार्येत्युक्तम, अथ तमना- फले,संघा०१ अधि०१ प्रस्ता। अतीतानागतवर्तमानवस्तुपच्म्यैव प्रत्यासन्नताऽऽदिकारणात् साधवो
रिकानहेतौ ज्ञानविशेष, प्रव०७३ द्वार । निमन्त्रितास्तदा को विधिः १, इत्याह
निमित्तमाहइयरेसे परिक्खित्ते, गुरुपुच्चाए णिोगकरणं ति । तिविहं होइ निमित्तं, तीयपहप्पन्न ऽणागयं चेत्र । एवमिणं परिसुई, यावच्चे तु अकए वि॥४१॥ तेण न विणा उ नेयं, नजइ तेणं निमित्तं तु ॥ इतरेषामपि गुर्वपेक्षया शेषसाधूनामपि, पाक्षिप्ते उपन्यस्ते
त्रिविधं भवति निमित्तम् । तद्यथा-अतीतं, प्रत्युत्पन्नम, निमन्त्रणे, गुरुपृच्या रत्नाधिकप्रश्नस्य, नियोगकरणमवश्य
अनागतं च । कालत्रयवर्तिलानाबाभाऽऽदिपरिझानहेतुश्चमातया विधानम् , युक्तमिति शेषः । इदमुक्तं भवति-बद्यपि शेष.
मणिप्रभृतिक, शास्त्रविशेष श्ययः । कुत, इत्याह-तेन वि. साधुविषया निमन्त्रणोपन्यस्ता, तथाऽपि न तवचनादेव प्रवर्ति.
वक्तिशास्त्रविशेषेण, विना केय लाभालाभाऽऽदिकं,न कार्यत तव्यम् अपि तु गुरुपृच्चाऽवश्यं विधेयेति । इतिशब्दो वाक्यार्थ
इति लाभाऽऽदिशाननिमित्तत्वानिमित्तमुच्यते । एतानि को. समाप्तौ । कस्मादेवमित्याह-एवमुक्तन्यायेन गुरुप्रश्नपूर्वलक्षणे
तकाऽऽदीनि य प्राजीवति स तत्तदाजीचको मन्तव्य इति । न,इदं शेषसाधुनिमन्त्रणं, परिशुरुमेष निर्दोषमेव,भवतीति ग
वृ०१ उ० प्रा०म० । आव० । ग० । १० वाध०।दश। म्यम्। “सो विहिना य" इत्यादिपूर्वोक्तप्रामाण्यात् । ननु यदि
ने निक्खू तीतं निमित्तं करेन, करतं वा साइजः ॥७॥ पृष्ठो गुरुर्वारयेल्लाभो वा न जवेत्तदा जक्ताऽऽदेरसंपादनेन निमन्त्रणस्य निष्फलत्वात् कथं परिशुरुताऽस्येत्याह-वैयावृत्ये
जेनिक्खू पप्पा निमित्तं वागर, वागरंतं वा साहज्जा। जक्ताऽऽदिदाने, तुशब्द एवकारार्थो योजित पब । प्रकृतेऽप्य
जे निक्खू प्रणागयं निमित्तं करे, करतं वा साइजइ॥॥ विदितेऽपि, मास्तां विदिते । भावनस्तस्य कृतत्वात्, गुर्वाज्ञाका जे निक्खू पदुप्पषं णिमित्तं वागरति-मागमस्स काले बा. रणस्यैव च महाफलस्वात्, गुरोरपि पुष्टाऽऽसम्बनतस्तनिषेध. प्रादि वागरेति। नात्र यथाकथञ्चित्। कचित् "वेयावचं तु" इति पठ्यते । तत्र
छविहं णिमित्तं इमंवैयावृत्यमेव तन्निमन्त्रणमिति प्रक्रमः, अकृतेऽपि वैयावृष्ये । लाभालाभं मुह-क्खं जीवितमरणऽतीतबजाई। इति गाथाऽर्थः ॥४१॥ पञ्चा० १२ विव०।
गिहिअम तित्यियाण व, जे भिक्खू वागरिजा णं ॥७॥ णिमंतेमाण-निमन्त्रयत-त्रि० । निमन्त्रणं कुर्वाणे, " तो पच्छा
लाजालानं सुहं दुक्खं जीवितं मरणं । एतानि छ अतीतकातस्स गिदे णिमंतेमाणस्स अणिमंतेमाणस्स ।" प्राचा. २७० लवजाणि बागरेति, वट्टमाणे पस्से चेत्यर्थः । गिहाण, अपति१चू.२०३ उ०।
स्थियाणं वा जो वागरेज भिक्खु, सो प्राणादी दोसा पावेज । हिमस-देशी-तरुणे, दे० ना.४ वर्ग ३५ गाथा ।
छबिहवट्टमाणगप्रदर्शनार्थ गादाणिमग्ग-निमग्न-त्रि० । अधोजनगमनानि कुर्वाणे, प्रश्न ३
पट्टविओ मे अमुओ, बजति ण लजति व तस्सिमा बझा। पाश्र• द्वार । पङ्काऽऽद्यवसन्ने, औ० । प्रा० म०।
सीमंसा दुक्खी हं, सुही ति अमुग्रं व ते उक्खं ।। ३ ।। णिमग्गजला-निमग्नजला-स्त्री०। निमन्जयत्यस्मिन् तृणाऽऽदि. अमुगो मया ममुगसमीवं पेसितो लानणिमित्तं,सो तत्थ तं ल. कमखिलं वस्तुजातमिति निमग्नम् बहुवचनादधिकरणे क्तप्र.
प्रेज वाणो बनेज्जा? अधचा श्मा तस्स आगमणवेला,सोब. त्ययः । निमग्नं जलं यस्यां सा तथा । तमित्रगुहाया मध्ये
लानो प्रकलाभो वा आगच्छति, ण वासीमं सका दा कोर वहन्त्यां नद्याम, जं.३ वक्ष० । प्रा००।
पुच्छेज-किमहं सुदी, दुक्खी वा?। अहवा-वट्टमाणकाले चेव
वागरेति-इमं ते सारीरं दुक्खं, माणसं वा वति । हिमज्जग-निमज्जक-पुं० । वानप्रस्थभेदेषु, ये मानार्थ निमग्ना
गाहाएष क्षणं तिष्ठन्ति । नि०१ श्रु०४ वर्ग १ अ०। औ०। भ०।
जीवति मोत्ति वा सं-कितम्मि एगतरगस्मणिदेसे । पिमज्जण-निमज्जन-न । जनप्रवेशे, ग०२ अधि० । वृ०।
एनं होहिति तुऊ, तस्स व लाभाऽऽदो एस्सो।।।।। णिमिअ-स्थापित-त्रि० । "क्तेनाप्फुमाऽऽदयः" । ४।२५।। कोर विदेसत्थो ण णज्जति-जीवति, मतो पा?,एरिसे संकि
इति स्थापितस्य निमिश्रादेशः । न्यस्ते, प्रा०४ पाद । ते पुच्छितो पगतराणिसं करेज्ज, एवं बट्टमाणे, पस्से वा णिमित्त-निमित्त-न०। हे तो, कारणे, विशे०। सहकारिकार. जस्स पुच्चिज्जति सो पञ्चक्खो, परोक्खो वा । पञ्चक्खो भन्मणे, निमित्तकारणे च । सूत्र. २ श्रु० २०श्रष्ट । उपट.
ति-तुझं एक्सकाले एवं होहिति-लानो, असानो वा, सुई, म्नकारणे, विशे० प्रा० म०। व्य० । वे शब्दस्य निमित्ते।
दुक्ख बा, जीचिय, मरणं वा । परोक्खे-तस्स एस्से काले इमो तद्यथा-व्युत्पत्तिनिमित्तं, प्रवृत्तिनिमित्तं च । यथा गोशब्द
लाजो, अल्लाभो चा, सुई, सुक्खं, जीवितं, मरणं वा नविस्सह । स्य । तथाहि-गोशब्दस्य व्युत्पत्तिनिमित्तं गमनक्रिया, गच्छु
जीवत्ति जणिते गाहातीति गौरिति व्युत्पादनात् । तेन च गमनेनैकार्थिसमवायतया
आणंदं अपमिहय, संखामकरणं च उभयचा होति । यदुपल कितं सास्नाऽऽदिमवं, तत्ववृत्तिनिमितं, तेन गति, खिन्नादिमरणकोट्टण, अधिकरणमणागए वा वि ॥८॥ अगच्छति वा गोपिएके गोशब्दः प्रवर्तते, उभय्यामप्यवस्थायां __ आणदं अपमिहयं करोति, वर्षमानक इत्यर्थः । मतो त्ति भणिते प्रवृत्तिनिमित्तभावात् । अश्वाऽऽदौ तु न प्रवर्तते, यथोक्त- संखडिकरणं करेज । एवं उन्नयहा अविधे अधिकरणदोसो रूपस्य प्रवृत्तिांनमित्तस्य तत्राभावात्। व्य०१उ० प्रयोजने. भवति । अहवा-मतो ति भागते खिनाचत्ता भक, मरात
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बिमित्त
बासरणादि वा करेज्ज, मितकिकरणे वा अधिकर णं प्रवे। बा अागते सिमिले बागरिते पते विन्नचित्तदेया दोषा प्रति ।
जं च निमित्तत्रेण कज्जसंघणं करेज
( २०८२ ) अभिधानराजेन्रूः ।
उच्चा विसीदेते. अगंतुकामस्स हाति गमयं तु ।
किरथिरीकरणं, कयविकयसंशियत्ती य ॥ ८६ ॥ मणागतणिमिवागरण करते विसोतस्व उच्छादो कतो जवति, लाभत्थिजो परदेसा भगंतुकामस्त अवस्सं से लाभो भवति सिगमणं करोते किसिमादिश्रधिकरसेतु क्सिोस अवस्तं बुड्डो नविस्वति तिवार अधिकरणे स्थैर्य मति वा परदेषं संतुकामस्स हेव लामो भविस्सतिथि थिरीकरणं भवति इत कम्मारंभात संघियता श्माम्म कम्मारने एवं ते लाभो भविस्सति एवं अधिकरणदोसा । एवमाखदोसा
सविसंवादे पोसान जणमादि पोछेश्रो । अहिकरणं शव लट्टा अणावादी प ||०७ ॥ आपसे व विसंवदति पदोसं गच्छेल, वसही वा खिच्छुभेज्ज, आहारादिवसहीण वा वोच्छेदं करेज्ज, अषेण वा निमितिरण सर्कि अधिकरणं भवे, पेण वा निमिसिरण संवादिते साधूप वादो नयति, उादो भवे ।
गाहा
नियमातिकाल विसए, नमित्ते छव्त्रिद्धे भवे दोसो । सयमेव वट्टमाणे, उत्तए वा तत्थिमं नातं ॥८॥ पियमा भवस्तदोसो प्रवति तिकालविस ती मा णे, एस्ले । छबि लाभादिए सयमेव वर्त्तमानकाले आदे दोस्रो भवति, उभयमिति-अप्पणी, परस्स वा । तरिथमं खातं दृष्टान्त इत्यर्थः ।
-
गाहा
।
कंपिया निमिचेा जोनी जोतिए चिरगतम्मि । पुज्भणितं कहती, भागतो" रुद्वो य बनवाए ॥८॥ एगो विमो, तेण प्रतिगामसामी पिता-प्रासंवातिणिमिषेण भट्टिता माया सा प्रोतिषी प्रोतयं विरगतं पुच्छति कथा सो मोतिम्रो धागच्छति । सेन कहिये अमुगदिये अगला भागच्छति। सो व भागतो ताई तस्स मितिवयमणितं रथमादिपरियको सव्वं कहेति । तम्मि कहिते सोडतीसाबुनाबेज रुट्ठो बलवाप संपुच्छति ।
गाइ
दाराऽऽजोगण एगा - मिश्रागमो परियणस्स पव्वोणी * । पुच्छा व खमणक, सादीयंकार सुविणादी ||१०|| कोहोलचा गजं च पुच्छितो मद्यति पंचपुंदाऽऽसो । फान्नण दिट्ठे जति णे- व तो तुहं अत्रित कति वा ? ॥१॥ सती असती वा मे दारा, तस्स आनोगणठा पगागी श्रागतो पे* 'पत्रोणी' शब्दो देशीवचनः संमुखार्थः ।
विमित्तपिंड
- सत्यपरियण पोषी मिती तो तेजपुत्रियं कहं ते खायं ? तेहि कहियं परिसो तारिलो नमः गो मिति, तेज कांदतं। सो तं बोहिरचं निमितं पुच्छति । ते वि से विवाद सारीका निमित्तं मां कहिये । सोनोतिम्रो कुषितो पुच्छति एक गणिती किं प्रविस्सति । तेण भणियं पंचमी बासो प्रविति ते क्खणा चैव फालविया दो । ताहे भोतिमो प्रगति-जर एवं
दोखा, तो तुह पे फालियं दतं एवं अतिविशिया कति प्रविस्संति ? | जम्हा पते दोसा तम्हा ण वागरेज । गाहा
सिवे भोमोयरिए, रायकुडे नए व गेलो । मारोह वा जयशाए वामरे भिक्खु ॥ ६२ ॥ तेहि धरतो, पणगादी कम्मइच्छितो तो । एस्सेन पप च भगति नदेसु उबलने ||१२||
पतेोई कारणेदि असंथरंतो पणगपरिहाणोप जाहे माहा कम्मं तो तामिवागरेति भइ मेसु अतीव तो पच्का यागमिस्सं पप्प
० १०० प्रतीतानागतच समानानामतीन्द्रियभावानामधिगमे निमिषं देतुर्यजातं तामिनं तदभिधायकशाख पिनिमितानीत्युच्यन्ते इति श्रीमादलक्षणशाखेषु स्था०
"
-
महवि महानिमित्ते पाते तं जड़ा-मोने, उप्पार, सुवि जए. अंतलिक्खे, अंगे, सरे, लक्खणे, बंजणे । " स्था० ८ are | आव० | प्रब० । वृ०। (भौमाऽऽदीनां व्याख्या स्वस्वस्थाने) (विस्तरार्थिना तु विद्या नाम त्यो बीतणीयः प्ररूपितं 'चैतद 'अंगविखा' शब्दे प्र० मा ३२ ) वास्कुना 53दिकेषु सूत्र० १० १२ अ धूमाम विप्रभृतीनिमित पुरुषे, स्था० ६ ठा० । दश० । आचा० । औौ० । मित्तकारण- निमित्तकारण न० । पटस्य निमित्तं तन्तव एव कारणं निमित्तकारणम्, तद्स्यतिरेकेण पटानुत्पते। तथा च तन्तुनिाि न भवति यतः तथा तनताना दिनेशयतिरेकेणापि न भवति, तस्याश्च चेष्टाया बेमाऽऽदि कारणम् । अन्यरूव्य कारणभेदे, आ० म० १ ० २ खएम। भा०चु० 1 । खिमिचप्पिय-निमितनिष्यन्न वि० निष्करणनिष्पत्रे, " विधणिप्पनं ति, करणणिप्पनं ति, निमित्तणिप्पनं तिबा पगहुं । " झा० चू० १ अ० । निमित्तमिनिमित्तपिएम पुंनिमित वातो निमित्त पिएमः । श्राचा०२ ४०१ चू०१ अ० उ० अतीसानागतवर्त्तमानकालेषु खानादिकथने मि त्पादनादोषसंपर्केण गृहीतपिण्डे, घ० ३ अधि० । जीत• । अथ तद्यनिषेधःजे भिक्खू निजि वा साइज ॥ ६२ ॥ तीतमणागतवट्टमाणत्थाणोपलद्धिकारणं णिमितं भाति जो तं परंजित्ता असणाऽऽदिमुप्पादेति सेो णिमित्रोहि पिंडो भरणति, प्रणादिया व दोसा, बउलढुं च से पछि । जिक्खू णिमिचर्षिमं कद्देन स तु अब साति
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ििमत्त पिंग
सो आणा अणवत्यं मिच्छत्तविराहणं पावे ।। १४२ ।। नियमातिकालविस ए, ऐमित्ते उन्त्रि जत्रे दोसो । सयमेव बहाणे, उजए वा तत्थि गाते ।। १४२ ।। कंा विविध कालप्रती पट्टमा आगमस्सो प शिमिषं पजति तत्थ मे उमेदाखानं अलामं सहं जीवयं मरणं मम्मि पसेमा संजमाव परोभया दोसा भवति । एत्थ तीतं श्रप्पदोसतरं ततो श्रागमिस्स बहुखतरं ततो पप्पनं बहुोसतरं ।
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दादर
कंपिया शिमित्ते - जोइला भोइए चिरगयाम्म | पुत्रभणितं कहेती, आगतो रुट्टो य वलवाए ॥१४४॥
इमा भद्दवाहुकया गाहा । पीओ दो
(२००३) अभिधानराजेन्ः |
दाराऽऽजोयल एगा - गिआगमो परियणस्स पत्रोणी । पुच्छाय खमणकढणं, सादीयंकार सुविणादी ॥ १४५ ॥ कोहो माग पुच्छितो भवति पंचपुंदाऽऽसो । फाल्न दिट्ठे जति - व तो तुहं अति कति वा ? | १४६ । एमि गामे श्रोसरणो णिमिती प्रत्थति, तत्थ जो गामभोतिम्रो सो पवसितो, तस्य य जा भोइणी, सा तं णेमित्तियं णिमितं पुच्छति । ताहे तेरा सा अक्तिणिमिणं आकंपिया । अण्णा सा तं पुच्छति । तेण कहियं करलं अमुगवेला पति । सो विजोगी जमिदाराभोगेण च गवामि-किमिवारं यभिचरति न बा तस्यागमणवेला य सध्यो परियो पाणी पितो अगति पति सो यदि सागते र पुच्छर कई
,
"
जाते हैं। तेच नणियं खमगो मिली तेच कहिये। आगतो घर कसितमणसा एस भियारि तिरे मी सदाबितो, कति णिमित्तं, तेरा जं किंचि पुग्वनणियं, भुखं बा, अणुभूतं वा सुविधागतं तं सम्यं सर्वकारेद्दि कहतं । एवं कहिये बि को मुखतिरुपुष्यति ती बडवा किं गजे । नमिचिणा उपभोगेण नणियं-किसोरो पंच पुंडो । ततो रुठो कालं ण पमिच्छति ति जयति- फाडेह उदरं । से फामियं दिट्ठो । ततो भणाति-जति एयं णिमितं एवं ण भवति, तो तुज्छं पोट्टं फामियं होतं । परिसा अवितणि मिली केलिया भवितजभचरति मानस्थपत्रमा य वितहा भवति अधिकरणादयो य दोसा श्रायपरोभयसमुत्था, संकाऽऽदिया य इत्थीषु दोसा, अतो
णिमितं बागरेयव्वं ।
अववादेण वागरेयम्बं गाहासिवे ओमोरिए, रायदुट्टे भए व गेल । प्राण रोइए वा, जयपाए बागरे निक्खू ॥ १४७॥ सिवादिकारणेहिं सुवडतो तीताइणिमित्तं वागरेति, आप चल पत्तो नि० ० १३ ४० । मिमा सि (ए) निमित्त देशिन्- पुं० निमित्तमतीवादिदभिन्नमादिशति यः स तया । नैमित्तिकसाधौ, पं०व० ४ द्वार निमिसाउनमाहतिविद्ध निमित्तं एके-के छन्विहं जं तु वन्नियं पुत्रि ।
अजिमाणाभिनिवेसा, नागरिवं प्रामुरं कुणइ ॥
त्रिविधमतीताऽऽदिकालत्रयविषयं यत्पूर्वमिदे वाऽऽभियोगिकभावनायां वर्णितं, तदेकैकं पविधं लानालाभसुख दुःख जीवितमरणविषयभेदात्यट्कारम् । आइ आजियोगिक भावना निबन्धनतया पूर्वमिदमुक्तम्, अतः कथमिदमिहाभिधीयत इत्या-अभिमानाभिनिवेशाद्वारा व्याकृतं प्रकटितमेन श्रममा भावनां करोति, अन्यथा स्थानियोगिक मतिः। बृ० १४० । पिमित्तलक्खण- निमित्तलक्षण - न० । विज्ञानहेतौ निमित्तशास्त्रे विशे० ।
अथ निमित्त विधा
सक्खिज्जई सुनासुभ- मणेण तो लक्खणं निमित्तं ति । जोमाइ तदडविहंतिकाल विसयं जिए। जिहियं ॥ २१६३ ।। लक्ष्यते विज्ञायते यस्माच्वनाशुभमनेन ततो निमित्तमपि लक्षणम् । तचाष्टविधमष्टप्रकारम् । उक्तं च-" जोमसुमि
तत्रिक्खं दिवं अंगसरलक्खणं तह य । वंजणमट्टविह अयु, निमित्तमेवं गुण" इति । भीमाऽऽदिश्वरूपं च ग्रन्थान्तरादवसेयम् । इदं चाष्टविधमपि निमित्तं प्रत्येकमतीतानागतवर्तमानरूप कालत्रयविषयं जिनैरभिहितमिति ॥ २१६३ ॥ विशे० ॥ श्र० चू० ।
"
मित्तसंजोग - निमित्त संयोग- पुं० । कारण साहित्ये, “शुभो निमित्त संयोगो, पञ्चकोदयतो मतः। ” (१८) शुभः प्रशस्तो नि. मित्त संयोगः सद्योगाऽऽदि सम्बन्धः, सद्योगाऽऽदीनामेव निःयससाधननिमित्तत्वात् (१८) ० २३० (मित्तमुद्धिनिमिराशुद्धि-स्त्री० शुभहेतुवस्तु यथावह तत्काल पण वाऽऽदिनिनाव जनावाराद्यवलोकन शुभगन्धाऽणदिस्वभावा । थ० २ अधि० ।
निमित्ताजी विया निमित्ताजीविका स्त्री० त्रैकालिकालाभादिविषयनिमित्तोपासाऽऽद्वारा अपने ०४ डा०
४ उ० ।
विम्मदिय
णिमिलण- निमीलन- न० । नि-मील-ब्युट् । "प्रादेमीलेः " ॥८॥ ४ । २३२ ॥ इति अन्त्यस्य द्वित्वं वा, द्वित्वे ह्रस्वो वा । अक्कि संकोचे, प्रा० ४ पाद ।
मील-निमीलन- न० । 'निमिक्षण' शब्दार्थे, प्रा० ४ पाद । लिमे देशी स्थाने, दे० ना०४ वर्ग ३७ गाथा । निमेल देशी-दन्तमांसे दे० ना०४ वर्ग ३० गाथा । णिमेला - देशी - धनपाले, दे० ना० ४ वर्ग ३० गाथा । णिमेस - निमेष - पुं० | अह्निनिमीलने, भ० १४ ० १ ३० । प्रा० म० । स्वाभाविकच क्षुर्निमीलनकाले, वाच० । पिम्मदग - निर्मर्दक- पुं० 1 चौरविशेषे, प्रश्न० ३ भाश्र० द्वार | णिम्मदिय निर्मर्दित-त्रि ०२ द्वार
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खिम्मम
णिम्पम - निर्मम - त्रि० । निर्गतं ममत्वं बाह्याऽऽभ्यन्तरेषु वस्तुषु यस्मादसौ निर्ममः । सूत्र ०१ श्रु०१० अ० ममत्वहिते, संथा०| आब० । पं०भा० । प्रज्ञा० । प्रा० म० । वस्त्रपात्राऽऽदिषु म मत्यरहिते, उस०] १९ ० अस्यां] भारतभूमी उत्सर्दियां भविष्यति सुलसाजीवे पञ्चदशे तीर्थकरे, प्रव० ४६ द्वार । ती० ॥ ति० । स० ।
निम्ममजाव निर्ममजाव - पुं० । श्राकालं सकलपरिग्रहोपाद'नशून्यचिदानन्दैकमूर्तिकशुरूऽऽत्मस्वजावानुभव जनिते निर्मम - स्वे द्वा० २७ द्वा० ।
शिम्मल - निर्मल त्रि० । स्वाभाविकाऽऽगन्तुकमलरहिते, जी ०३ प्रति० ४ उ० । ० । प्रज्ञा० श्रा० म० । जं० रा० । विमले, श्र० । प्रश्न० । कठिनमलरहिते, भ० २ श० एड० स० । औ० । विशुद्दे, शा० १ ० १ अ० । स्वच्छे, कल्प० ३ कण । भ० । घट्टिनीघटिते, " मट्ठा घठा नीरया निम्मला निप्पंका " प्रज्ञा० २ पद । पूर्वष कर्मविनिर्मुके द्रव्यमलवर्जिते सिद्धे, औ० । ब्रह्मन्नो विमानप्रस्तटानां चतुर्थे, स्था० ६ ठा० । विनंती मलोयात्। ५० बी० कटके तस्य हि संबाद जलमलनाशकत्वं प्रसिकम् । वाच० ।
णिम्झनपुण-निर्मलजनपूर्व-प्र० निर्मलेन जलेन भृते
कल्प० ३ कण |
सिम्बलफलिए निर्मल स्फटिक पुं० [बिमले स्फटिकमणी, "निर्मस्फटिकपेच निर्मलं रूपमात्मनः मध्यस्तोपाधिसंघधो, जमस्तत्र विमुह्यति " ॥ ६ ॥ १० ॥ श्रष्ट० । शिवोदयंत निर्मलबसपने, पो० ३ वित्र० । निर्मल बोधस्तु" निर्मल बोधोऽप्येवं, शुश्रूषाभावसं भवो वः शमशास्त्रयोगात्, सुतबिन्तानावनासारः ॥ पो० ४ दिव० ।
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म्मिल्ल निर्माल्य न० | देवोच्छिष्टे देवान्ये वाच० । तार्थाऽऽदिगतसप्रभावप्रतिमाशेषे, पिं० ।
भोगविद, सिम् विति गीवत्या । यजिनबिम्बाऽऽरोपितं सद्विच्यीभूतं विगन्धिसंजातं दृश्य मानं च निधीकतया न भव्यजनमनः प्रमोद देतु:, तन्निम्मांध्यं ब्रुवन्ति बहुश्रुताः । सङ्घा० १ अधि० १ प्रस्ता• । नैर्मल्य- न० । निर्मल परिणतौ रुव्या० ८ अध्या• । हिम्मत्र-निर्मा - घा० । निर् + मा । त्रिरचने, निष्पादने, "निर्निमाण निम्म ८४१६ इति निपूर्वस्य मिमीतेः णिम्माण निम्माऽऽदेशौ । जिम्माणेह । णिम्मवइ । निर्मिमीते । प्रा० ४ पाद। कर्मणि यक् । निर्माध्यन्ते । परिसमाप्ति नीयमाने, पं० सू० १ सूत्र । निम्बवत्ता निर्मापचित्रि० सफलतापर्यन्तकायनेरि
(२००४) अभिधानराजेन्द्रः ।
-
"
स्था० वा० ४ ० ।
निम्पहु गम्था० गती. "गमेच्छा कजाकजसो स्कुसाक्कुस पञ्च पच्छन्द - णिम्मह-जी-जीणणीसुक्क पद रम्न परिश्रल्ल बोल-परिमल- णिरिणास विढावसेदावहराः " ॥ ८ ॥ ४ ॥ १६२ ॥ शते सूत्रेण गमेर्णिम्महाऽऽदेशः । “शिम्मद्द” गच्छति । प्रा० ४ पाद |
शिम्मियवाइ (ग् )
णिम्महियरागरोस - निर्मथितरागरीष त्रि० । निराकृतप्रीतिद्वेषे,
जीवा० १ अधि० । तिम्माण-निर्मा-धा० । विरचने, निष्पादने, प्रा० ४ पाद । निर्माण - - न० । उत्तरकरणे, विशे० । लिम्माणणाम [ ण् ] - निर्माणनामन् - न० -न० । सर्वजीवशरीरावयवनिष्पादके अङ्गोपाङ्गकर्मणि आचा० १ श्रु० २ ० १ उ० । कर्म० । पं० सं० । उत्त० । प्रव० ।
अंगोगणियम सम्माणं कुणा मुत्तहारसमं । [ ४७ ] निर्माणं निर्माणनामाङ्गोपाङ्गनियमनम, अङ्गप्रत्यङ्गानां प्रतिनियत प्रदेशव्यवस्थापनं करोति विदधाति, अतः सूत्रधारसमं सुषमृत्कल्पम् बश्याज तुशरीरेष्वङ्गोपाङ्गानां प्रतिनिय तस्याननृसिता भवति, तत्सूत्रधारकल्पं निर्माणनामेत्यथेः । तदभावे हि तद्भून कर पानामार्तिना मशिदीनां स्थान नियमः स्यात् । (४७) कर्म० १ कर्म० ।
निम्माय निर्मात-पुं० निष्प ६७० परिनिष्ठामुपा
।
35
गते, व्य० १३० । पञ्चा० । विशिष्शभ्यासवति, कल्प० ३ कण सूत्रार्थमहे, " आयरियाण सगासे अमुपखं तु निम्माया । व्य० ३ उ० । पिम्यापित्त-निर्मापयितव्य-त्रि०सू०) महन्भूया अणिम्मिया अणिम्माविश्वा अकडा णो कित्तिमा " । सूत्र० २ ० १ ० । सिम्बिय-निर्मित त्रि० निवेशिने उपा० अ०
पंच
न्यस्ते, झा० १ ० १ श्र० । निष्पादिते, सुत्र० २ ० १ ० । कुते, स्था० ८ ठा० । भौ० ।
पियवा [ ]-निर्मितवान् विनिर्मिती तं लोकं दतीति निर्मिती haiदिलणे अक्रियावादिनि, ( स्था० ) "आसीदिदं तमोभूत-तमकृष्णम अयं प्रभिसंयतः ॥ १ ॥ समान
नष्टामरमरे चैव प्रणष्शेरगराकसे ॥ २ ॥ केवलं गहरीभूते महा
अचिस्यात्मा विचस्तत्र, शयानस्तप्यते तपः ॥ ३ ॥ तत्र तस्य शयानस्य, नात्रेः पद्मं विनिर्गतम् । तरविमलनिर्भयं कनकर्णिकम् ॥ ४ ॥ तस्मिम्प भगवान् दीयोपवीत संयुक्तः । ब्रह्मा तत्रोत्पन्नस्तेन जगन्मातरः सृष्टाः ॥ ५ ॥ अदितिः सुरसादितिरसुराणां मनुर्मनुष्याणाम् । विनता विहङ्गमानां माता विश्वप्रकाराणाम् ॥ ६ ॥ कडूः सरीसृपाणां सुलखा माता तु नागजातीनाम् । सुरभिश्चतुष्पदामामिला पुनः सर्वजीवानाम " ॥ ७ ॥ इति । प्रमाणयति वासी बुद्धिमत्कारणकृतं हवने संस्थानबा
घटवदित्यादि । प्रक्रियाचादिता चास्य न कदाचिदी जगदिति वचनादत्रिम चनस्य कृत्रिमतानिषेधात् नश्य रादित्वं जगतोऽस्ति कुशालाऽऽदि कारक प्रसङ्गकुलालादिवचेश्वरादेर्बुद्धिमत्कारणस्थानीश्वरता प्रस
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(२०१५) णिम्मियवाइ (ण) अभिधानराजेन्डः।
गिया अात् । किश-ईश्वरस्याशरीरतया कारणाभावात् क्रियास्वप्रवृ. जयन्तीति स्यातेर्धातोनांवे निष्ठाप्रत्ययः,तद्योगे कर्तरि षष्ठी । त. तिः स्यात् । सशरीरत्वे च तचरीरस्यापि कर्वन्तरण जाव्यम, तश्चायमर्पः तैनियतवादिभिः पुनरिदमाख्यातं, तेषामयमाशय पर्व चानवस्थाप्रसङ्ग इति । स्था०८ गा('इस्सर' शब्दे इत्यर्थः । तद्यथा-उपपन्ना युक्त्या घटमानका इत्यनेन च पश्चद्वितीयन्नागे ६३६ पृष्ठे चैतन्मतं परीक्कितम्)
भूततज्जीवतचरीरबादिमतमपाकृतं भवति । युक्तिस्तु सेशन: णिम्मिस्सवबी-निर्मिश्रवन्धी-स्त्री. नासबकेनन्तरस्वजनबर्गे, प्रारदर्शितव,प्रदर्शयिष्यतेच। पृयक पृथक मारकादिजवेषु श. पर निर्मिश्राणि
रीरेषु चेत्यनेनाऽप्यात्माद्वैतवादनिरासोऽवसेयः। के पुनस्ते पृ. माया पिया य नाया, भगिणी पुत्तो तदेव धूया य ।
थगुपपमास्तदाह-जीवाःप्राणिनः सुख दुःखजोगिनः । अनेन च एसा अणंतरा खलु, णिम्मिस्सा होति बन्नी न॥
पञ्चस्कन्धातिरिक्तजीवाभावप्रतिपादकबौद्धमताऽपलेपः कृतो
सहयः। तथा ते जीचाः पृथक पृथक प्रत्येकदहे व्यवस्थिताः माता, पिता, भ्राता, भगिनी, पुत्रो, सुहिता च । एषा सल्व
सुखं दुःखं च वेदयन्स्यनुभवन्ति । न वयं प्रतिप्राणिप्रतीतं मन्तरा जवति वल्ली । व्य० १० उ०।
सुखपुःखानुभवं निह्नमहे । अनेन चाकतवादिनो निरस्ता णिम्मूल-निर्मून-त्रि. । उब्जिनमूले, "णिम्मूलुल्लुणकमो
भवन्ति । भर्तयविकारिणयात्मनि सुखदुःस्वानुभवानुपपत्तेरिछनासिका सिन्नदत्यपाया।" प्रश्न.१ आश्र धार। "णि- ति भावः । तथैतदस्मानिर्नोऽपलप्यते । (अदुनि) अथवा-ते म्मूलितंतफुरफुरतविगलमम्महविगयगाढदिमपहारमुचित- प्राधिनः सुखं दुःखं चानुभवन्ति, विलुप्यन्ते उच्चिद्यन्ते, स्वायु: रुलंतविम्भलपिलाचकलुणो।" निर्मूलितानि विकुक्कितो बहिः- पः प्रच्याज्यन्ते, स्थानात्स्थानान्तरं संक्राम्यन्त इत्यर्थः। तत. कृतानि मन्त्राणि उदरमध्यावयवविशेषा येषां ते तथा ।। चौपपातिकत्वमप्यस्मामिस्तेषां न निषिध्यते। इति श्लोकार्थः॥१॥ प्रश्न० ३ माभ्र० द्वार।
तदेवं पञ्चभूतास्तित्वाऽऽदिवादिनिरासं कृत्वा यत्तैर्निया णिम्मलण-निर्मूलन-नाको, द्वा० २६ द्वा०।
तिवादिभिराश्रीयते, तच्च्वोकद्वयेन दर्शयितुमाहहिम्मे-देशी-गते, दे. ना० ४ धर्ग ३४ गाथा ।
न तं सयं कर्म उक्वं, को अन्नं क च णं। णिम्मरे-निर्मर्याद-त्रि । परस्त्रीपरिदाराऽऽदिमर्यादाविलोपि
सुई वा जइ वा दुक्खं, सेहियं वा असेहियं ॥२॥ त्वात् (रा. । दशा०) लोककुलाऽऽद्यपेकया (स्था० ३ ग.
सयं कडं न अोहिं, वेदयंति पुढो जिया । २०) अविद्यमानकुलाऽऽदिमर्यादे, जं० २वक । नाप्र- संगइअं तं तहा तेसिं, इहमेगेसि आहियं ॥ ३ ॥ तिपन्नाऽपरिपालके, स्था० ३ ठा० १३०।
यत् तैः प्राणिभिग्नुभूयते सुख, दुःखं, स्थानविलोपनं वा, न हिम्मोम-निर्मोक-पुं० । कञ्चुके, “केचुत्र" इति ख्याते सर्प- तत्स्वयमात्मना पुरुषकारेण कृतं निष्पादितं दुःस्वमिति, का. स्वचि, विशेः । “सेसस्स व निम्मोमो।" प्रा०२ पाद ।
रणे कार्योपचाराद पुःखकारणमेवोक्तम् । अस्य चोपलवण. पिम्मोयणी-निर्मोचनी-स्त्री० । निर्मों के कञ्चुके, “जहा य
स्वात् सुखाऽऽद्यपि प्राह्यम् । ततश्चेदमुक्तम्जवति-योऽयं सुखदु:भोई तणुय नुयंगो, जिम्मायणि हिच पलेश मुत्तो (३४)"
खानुभवः स पुरुषकारकृतकारणजन्यो न भवतीति। तथा उत्त०१४ अ.।
कुतोऽन्येन कालेश्वरस्वन्नावकर्माऽऽदिना च कृतं भवेत् । गमिणिय-निज-त्रि०।मात्मीये, स्त्र. १ श्रु० २०१० । क
त्यलङ्कारे। तथाहि-यदि पुरुषकारकृतं सुखाऽऽद्यनुभूयेत ततः म । अष्ट।
सेवकवणिक्कर्षकाऽऽदीनां समाने पुरयकारे सति फलप्राप्तिस
रश्यं, फलप्राप्तिश्च न भवेत् । कस्यचित्तु सेवाऽऽदिव्यापारानाणियजाश्वदलिया-ऽएंतसो..........."। [१]
वेऽपि विशिष्टफलावाप्तिदृश्यत इत्यतो न पुरुषकारात्किञ्चियका यकाः प्रकृतयो यस्यां मूत्रप्रकृतौ पतिता विद्यन्ते तासां दासाद्यते, कि तर्हि नियतेरेवेत्येतच द्वितीयश्लोकान्तेऽभिसब मूलप्रकृतिनिजजातिवझेया । तया तया निजनिजमूमप्र- धास्यते । नापि कानः कर्ता, तस्यैकरूपत्वाजगति फलवैचिकृतिरूपया निजजात्या यल्लम्धं प्राप्तं दलिकाप्रम् । (१) ज्यानुपपत्ते।कारणभेदेहि कार्यभेदो भवति, नाजेदे। तथा कर्म०५ कर्म।
ह्ययमेव हि भेदो दहेनुर्वा घटते, यत बिरुरुधर्माध्यासः, काणियइ-निकृति-स्त्री०। मायायाम्, तत्पादनार्थे मृषावचने रणनेदश्च । तथेश्वरकर्तृके ऽपि सुखपुःखे न भवतः । यथाच । प्रश्न०२आश्रद्वार । स०।
सावीश्वरो भूतॊऽमूर्तो वा?। यदि मूर्तस्ततः प्राकृतपुरुषस्येव नियति-त्री० । नियमन नियतिः। यथाभवने, सूत्र.१ ०१ |
सर्वकर्तृत्वाभावः । अथाऽमूर्तस्तथासत्याकाशस्येव सुतरां भ० ३ उ० । अवश्यंभाव्युदये, मूत्र०१ श्रु.१ अ०२ उ०।
निष्क्रियत्वम् । अपि च यद्यसौ रागाऽऽदिमात्रस्ततोऽस्मदाय. सा च पदार्थानामवश्यतया यथाभवने प्रयोजककत्रीति ।।
व्यतिरेकाद्विश्वस्याकतैव । अथाऽसौ विगतरागः, ततस्तस्कृतं स्था.४वा०४०। प्राचा०।
सुजगदुर्भगेश्वरदरिकाऽऽदिजगद्वैचित्र्यं न घटां प्राऽचति, ततो अथ नियतिवादिगोशालानां मतानीद दश्यन्ते
नेश्वरः कर्तेति । तथा-स्वनावस्यापि सुख दुःखाऽऽदिकर्तृत्वानआघायं पुण एगेसिं, उववमा पुढो जिया ।
पपत्तिा यतोऽसौ स्वजावः पुरुषाद्भिन्मोभिन्नो वा ? । यदि वेदयति मुहं दुक्खं, अवा खुप्पंति ठाणओ ॥१॥
भिन्नः?, न पुरुषाऽऽश्रिते सुखदुःखे कर्तुमलं,तस्माद्भिन्नत्वादिति।
नाप्यभिन्नोऽभेदे पुरुष एव स्यात्तस्य चाकर्तृत्व नुक्कमेव । ना. पुनःशब्दः पूर्वाऽऽदियो विशेष दर्शयति-नियनिषादिनां पनरे- ऽपि कर्मणः मुखदःचं प्रति कर्तृत्वं घटते । यतस्तत्कमें पुरुषाकेषामेतदाख्यातम् । अत्र चाविवक्कितकर्मका अपि अकर्मका | द्भिन्नमभिन्नं वा भवेत्। अभिन्न चेत्पुरुषमानताऽधान्त कम
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णिय
(२००६) गियइ
भाभधानराजेन्ः। गः,तत्र चोक्तो दोषः। अथ भिन्नं तस्किम्-सचेतनम् , अचेत. किञ्चित्सुखदुःखानि नियतित एव भवन्ति, तत्कारणस्य कर्मणः मेवा १ । यदि सचेतनम,एकस्मिन् काये चैतन्यद्वयाऽऽपत्तिः। कस्मिश्चिदवसरेऽवश्य जाव्युदयसद्भावानियतिकृतमित्युच्यते । मथाऽचेतनम्, तथा सति कुतस्तस्य पाषाणखास्यवास्वत- तथा किश्चिदनियतिकृतं च पुरुषकालेश्वरस्वनावकर्माऽऽदिकृतं, स्त्रस्य सुखदुःखोत्पादन प्रति कर्तृत्वम् ?, इत्यतश्चोत्तरत्र ब्या- तत्र कश्चित्सुखदुःखाऽऽदेः पुरुषकारसाध्यत्वमप्याश्रायते । सेन प्रतिपादयिभ्ये; इत्यलं प्रसङ्गेन । तदेवं सुखं सैद्धिकं यतः क्रियातः फलं भवति, क्रिया च पुरुषकाराऽऽयत्ता प्रव. सिकाबपर्वगन्नकणायां नवं, यदि वा दुःस्त्रम् -असातो- तते । तथा चोक्तम्-"न देवमिति संचिन्त्य, त्यजेदुद्यममात्मनः। दयलक्षणमसैद्धिकं सांसारिकम । यदि बोभयमप्येतत्सुखं भनुद्यमेन कस्तैलं, तिलेभ्यः प्राप्नुमईति ?॥१॥" यतु समादुःखं वा सकचन्दनाङ्गनाऽऽद्युपभोगक्रियासिकौ भवं, तथा ने पुरुषव्यापारे फन्नवैचित्र्यं दूषणत्वेनोपन्यस्त, तददूषणमेष । कशातामनाङ्कनाऽऽदि सिकौ भवं सैद्धिकम् । तथाऽसे- यतस्तत्रापि पुरुषकारवैचित्र्यमपि फलवैचित्र्ये कारणं जवति । सिकं सुखमान्तरमानन्दरूपमाकस्मिकमनवधारितबाह्यनिमि- समाने बा पुरुषकारे यः फलानावः कस्यचिद्भवति, सोनसम । एवं दुःखमपि ज्वरशिरोऽतिशूत्राऽऽदिरूपमझोत्थमसैद्धि
एकृतः । तदपि चास्माभिः कारणत्वेनाऽऽश्रितमेव । (सूत्र.) कम । तदेतदुभयमपि, न स्वयं पुरुषकारेण कृतं, नाप्यन्येन के.
(काल कर्तृत्वविचारः 'काल' शब्दे तृतीयभागे ४६१ पृष्ठे नचित् कालाऽऽदिना कृतं, वेदयन्त्यनुजवन्ति, पृथक् जीवाः प्रा
गतः) तयेश्वरोऽपि कर्ता । यात्मैव दितत्र तत्रोत्पत्तिद्वारण स. णिन इति । कथं तर्हि तत्तेषामभूदिति नियतिवादी स्वाभि
कल जगद्ग्यापनादीश्वरः। तस्य सुखपुःखोत्पत्तिकतत्वं सर्ववाप्रायमाविष्करोति (संगअंति) सम्यक स्वपरिणामेन गति. दिनामविगानन सिद्धमेव । यश्चात्र मूर्तामूर्ताऽऽविदूषणमुपन्य. र्यस्य यदा यत्र यत्सुखपुःखानुजवनं, सा सतिनियतिः,तस्यां स्तं, तदेवंभूतेश्वरसमाश्रयणे दूरोच्छेदितमेवेति । स्वभावस्याभवं सातिकम् । यतश्चैवं न पुरुषकाराऽऽदिकृतं सुखपुःखाऽऽ.
ऽपि कथञ्चित्कर्तृत्वमेव । तथाहि-प्रात्मन उपयोगलतणत्वमचतस्तत्तेषां प्राणिनां नियतिकृतं साङ्गतिकमित्युच्यते । इहा
संख्येयप्रदेशत्वम् । पुजलानां च मूर्त्तत्वं धर्माधमास्तिकाय. स्मिन् सुखदुःखानुभववादे, पकेषां वादिनामाख्यातम, तेषाम- योगतिस्थित्युपष्टम्नकारित्वममूर्तत्वं चेत्येवर्मादिस्वजावाऽऽपा. यमन्युपगमः।
दितम् । यदपि चाऽऽत्मव्यतिरेकाऽभ्यतिरेकरूपं दूषणमुपन्यस्तं, तथा चोक्तम्
तदरणमेव । यतः-स्वभाव प्रात्मनोऽध्यतिरिक्तः । प्रा. "प्राप्तव्यो नियतिववाऽऽश्रयेण योऽर्थः,
स्मनोऽपि च कर्तृत्वमन्युपगतमेव, तदपि स्वभावाऽऽपादितमेसोऽवश्यं भवति नृणां शुन्नोऽशुनो वा।
चेति । तथा कर्माऽपि कर्तृ भवत्येव । तकि जीवप्रदेशैः स. नूतानां महति कृतेऽपि हि प्रयत्ने,
हान्योन्यानुधरूपतया व्यवस्थितं कथञ्चिश्चात्मनोऽभिन्नं, नानाव्य भवतिन भाविनास्ति नाशः॥१॥" सूत्र.१७० | तद्वशाचाऽऽत्मा नरकातयकमनुष्यामरभवषु पयटन् सुखदुम्मा१०२ उ०।
ऽऽदिकमनुजवतीति । तदेवं नियत्यनियत्योः कर्तृत्वे युक्त्युपये नियतिवादिनस्ते होवमाहुः-नियति म तवान्तरमस्ति,
पन्ने सति नियतेरेव कर्तृत्वमन्युपगच्चन्तो नियुक्तिका भव. यशादेते नावाः सर्वेऽपि नियतेनैव रूपेण प्रामु वमइनुवते,
तात्यवसयम् ॥४॥ मान्यथा । तथाहि-यद्यदा यतो नवति तत्तदा तत एव नियतेनैव - तदेवं युक्त्या नियतिवादं दृषयित्वा तद्वादिनामरूपेण नवमुपलभ्यते । अन्यथा कार्यभावव्यवस्था, प्रतिनियत
पायदर्शनायाऽऽह-- रूपव्यवस्था च न जवेत्, नियामकानावात् । तत एवं कार्यनैय- एवमेगे उपासत्या, ते जुज्जो विप्पगम्भिा । स्वतः प्रतीयमानामेनां नियति को नाम प्रमाणपथकुशलो बाधि.
एवं नवीआ संता, ण ते सुक्खविमोक्खया ।। ५॥ तुं कमते ?, मा प्रापदन्यत्रापि प्रमाणपथव्याघातप्रसनः ।
( एवमेगे न इत्यादि ) एवमिति पूर्वाभ्युपगमसंसूचकम्, तथा चोक्तम्"नियतेनैव रूपेण, सर्वे भावा भवन्ति यत् ।
सर्वस्मिन्नपि वस्तुनि नियतानियते सत्येके नियतमेवाऽवततो नियतिजा ह्येते, तत्स्वरूपानुबोधतः॥१॥
श्यं नाव्यव कालेश्वराऽऽदिनिराकरणेन नितुकतया निययद्यदैव यतो यावत्, तत्तदैव ततस्तथा।
तिवादमाश्रिताः । तुरवधारणे । त एव नान्ये । किविशिष्टाः नियतं जायते न्यावात, क एनां वाधितुं कमः?"॥२॥
पुनस्ते?,इति दर्शयति-युक्तिकदम्बका बदिस्तिष्ठन्तीति पाव. एवं श्लोकध्येन नियतिवादिमतमुपन्यस्यास्योत्तरदानायाऽऽह
स्थाः, परलोकक्रियापावस्था वा । नियतिपक्वसमाश्रयणाएवमेयाणि जपंता, बाला पंझियमाणिणो ।
त्परलोकक्रियावययम् । यदि चा-पाश श्व पाशः, फर्मबन्धन
म । तच्चेह युक्तिविकलनियतिवादपरूपणम्, तत्र स्थिताःपानिययानिययं संतं, अयाणता अबुद्धिया ॥४॥
शस्थाः। अन्येऽप्येकान्तवादिनः कालेश्वराऽऽदिकारणिकाः पाएवमित्यनन्तरोक्तस्योपप्रदर्शने,एतानि पूर्वोक्तानि नियतिवादा. वस्थाः, पाशस्था वा कष्टच्या इत्यादि । ते पुननियतिवादमाश्रितानि वचनानि । जल्पन्तोऽजिदधतो, याला प्रज्ञाः सदस- श्रित्यापि, नूयो विविध विशेषेण वा प्रगभिता धारोपग. द्विवेकविकमा अपि सन्तः, परिमतमानिन आत्मानं परिमतं मन्तुं ताः परलोकसाधकासु क्रियासु प्रवर्तते । धाटचाऽऽभयणं तु शीनं येषां ते तथा । किमिति त पवमुच्यन्ते , इत्येतदाह-यतः तेषां नियतिवादाऽऽश्रयणे सत्येव । पुनरपि तत्प्रतिपन्थिनी(निययानिययं संतमिति) सुखाऽऽदिकं किश्चिनियतिकृतमव- षु क्रियासु प्रवर्तनादिति । ते पुनरेवमप्युपस्थिताः परलोकसा. यजाब्युदयप्रापितं, तथानियतमात्मपुरुषकारेश्वरादिप्रापितं धकासु क्रियासु प्रवत्ता अपि सन्तो नाऽऽस्मदुःखधिक्षका सद नियतिकृतमेवकान्तेनाऽऽश्रयन्त्यतोऽजानानाः सुखदुःखा. असम्यक्प्रवृत्तवान्नात्मानं दुःखाद्विमोचयन्ति । गता निय. दिकारणम,अबुद्धिका बुकिरहिताजवन्तीति । तयादि-आईतानां तिवादिनः । सूत्र०१०१.२ उ.प्राचा•। मकस्मा
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(२०६७) गिय अनिधानराजेन्द्रः।
णियंटिय द्भवतीत्यनुपायवादिमतं चात्यन्तोपयुक्तत्वात किश्चिद्विधार्यते-- वहिव्यक्तिस्तृणजन्यति कारणताप्रत्यकस्यापि तृणकार्यताss. अकस्मादिति किं किंशब्दस्य हेतुपरतया हेत्वभावभवनपर-| अयमात्रवृत्त्येतद्वह्नित्वप्रकारकझानसाध्यत्वसंभवात् । यद्वा-श्य म्. उत-"अमानोनाः प्रतिषेधे" इति स्मरणानिषेधार्थकस्यकि. वह्विस्तृणजन्यति प्रत्यक्षस्य एतदहित्वावचिन्नकार्यताऽवगाशब्दस्य क्रियासंबन्धसभवाद् भवनाजावपरम् ? किं वा-कि- हित्वे व्यवच्छेदकत्वांशे भ्रमत्वेऽपि कार्यतांश प्रमात्वान्न शन्दस्य स्वभिन्नपरतया, अलीकनिन्नपरतया वा स्वहेतुकत्व- कोऽपि दोषः। (१२४) नयो । सम्म। परम्, अलीकदेतुकत्वपरं वा । अथवा-अकस्मादिति स्वभाषा-णियकम-नियतिकृत-त्रि० । अवश्यंभाव्युदयप्रापिते, सूत्र०१ दित्यर्थे रूढतया स्वजाबादेव कादाचित्कमित्यर्थकः ? । एतेषु
| श्रु० १ ० २ उ०। पञ्चसु नैकोऽपि प्रकारो युक्तः, नियतावधिकार्यदर्शनात् । अनियतावधित्वे, निरवधित्वे वा कादाचिकत्वस्वभावव्याकोपात् ।।
णियश्कम्म-निकृतिकर्मन्-न । निकृतेर्मायायाः कर्म निकृतितत्स्वाभाव्ये च सहेतुकत्वस्याऽऽवश्यकत्वात् । तदुक्तमुदयनेन
| कर्म । एकोनत्रिशे गौणचौर्य, प्रश्न०३ श्राश्र० द्वार । "हेतुनूतिनिषेधोन, स्वानुपाऽऽख्यविधिन च । स्वभाववर्णनाणियापमाण-निकतिपकान-
त्रिनिकृतिर्माया, तषिये प्र. नैव-मवधेर्नियतत्वतः॥५॥"इति। अथाऽऽकाशत्वाऽऽदीनां कादा
ज्ञानं यस्य स तथा । ग्लानः प्रतिचरणीयो मा भवस्विति मानचिकत्ववत् कादाचित्कत्वमपि न सहेतुकत्वसाधकमिति चेत् ।
वेषमहं करामात्यवमादिविकल्पवति, स०। सहेनियापमाणे, नापाकाशत्वाऽधीनां सर्वत्र सावे आकाशाऽऽदिखनात्वाभावप्र
कलुसाउलचेयमा। अपणो य अबोहीप,महामोहं पकुवा॥१॥" सङ्गात्। तत्स्वभावत्वं च धर्मिग्राहकमानसिकमिति देतुं विनाऽपि
स०३० सम०। देशनियमस्तेपामिति । अथैव कादाचिकत्वमपि घटाऽऽदिस्वभा. बत्वादेव हेतुं विनाऽभिगमनाऽऽदिव्यावृत्तमस्त्विति चेत् । न । का.
पियइपचय-नियतिपर्वत-पुं०। नियत्या नैयत्येन पर्वता नियदाचित्कत्वस्यावधिनियतत्वात् । सन्त्यवधयो,न स्वपेक्ष्यन्त इति
तिपर्वताः। नियतपर्वतेषु, यत्र वाणमन्तरा देवा दव्यश्व नवधाचेत् । न । नियतपश्चाद्भावित्वस्यैवापेक्षार्थत्वात् । अन्यथा गर्दभा
णीयत्वेन वैक्रियशरीरेण प्रायः सदा रममाणा अवतिष्ठन्त - द धूम इत्यपि प्रतीयेत, तन्नियतत्वेऽपि तद्गतोपकाराजनकस्य | ति । जी० ३ प्रति. उ० । । । कथ तकेतुत्वमिति चेत?। उपकारो हि कार्यमिति तद्गतकार्य- पियवाण-नियतिवादिन-पुं० । सर्वभावानां नियतिकृत. हेतुत्वस्य तकेतुत्वेऽतन्त्रत्वात् । अन्यथोपकारहेतुत्वाच्चोपकारे त्ववादिनि, नं० । (णिय' शब्दे चैषां मतमनुपदमुपपादितम) प्युपकारान्तरस्वीकारेऽनवस्थाऽऽपत्तेः,तहिं घटादिति नियतत्वं कपालाऽऽदावेव,न तन्ताविति । कुत इति चेत् ?, स्वनावादिति गृ.
णियटिय-नियन्त्रित-त्रिका नितरां यन्त्रितं नियन्त्रितमिति । निहाण । भथ तथापि ग्राहकाभावात्सदसिद्धिः,न च धूमाऽऽदौ व.
यते प्रतिज्ञातदिनाऽऽदौ ग्लानत्वाऽन्तराजावेऽपि नियमाकर्तअचादेरन्वयव्यतिरेकानुविधायित्वज्ञानसचिवं वहयादिप्रत्यक्कमेव
व्ये प्रत्याख्यानभेदे, न । एतच प्रथमसंहनिनामेवत्यज्यधायि हेतुहेतुमद्भावग्राहकं, धूममात्रेऽन्वयन्यतिरेकझानासम्नवात्।य.
च। स्था० १. ग.। स्किश्चिद्धूमे रासमाऽऽदेरपि तथा ज्ञानात रासनाऽऽदेय॑निचा- मास मासे अतवो, अमुगो अमुगदिवसम्मि एवइयो। रज्ञानान्न तहद इति चेत् ।नावयादेरपि व्यभिचारशङ्कासामा.
हट्ठण गिलाणेण व, कायनो जाव उस्तासो ॥१०॥ भ्यादिति । धूमाऽऽद्यर्थिनो वयादौ प्रवृत्तिश्च संभावनयैवोपपद्यत इति परमतमिति चेत् । न । सामान्यज्यभिचारानुगतागुरु (ग्रह)
मासे मासे च तपः, अमुकोऽमुकदिवसे, एतावत्यष्ठाऽऽदि, विशेषान्तरानुपस्थितिस्शायां यत्किश्चिद्भूमवतयोस्तहसाम
हएन नीरोगेण, ग्लानेन वा अनीरोगेण, कर्तव्यं, यावच्चासो म्या एव वह्निधूममात्रे तग्राहकत्वात् सति लाघवकाने व्य
यावदायुरिति गाधासमासार्थः॥१०॥ निचारशङ्काया अप्रतिबन्धकत्वात् । रासभाऽऽदौ तु व्यनिचार- ए पच्चक्खाणं, णियटिअं धीरपुरिसपत्रतं । निर्णय एव । असति तत्रिर्णये तत्र धूमदेतृत्वग्रहेऽपि भ्रमत्वमेव, जंगिएइंतऽणगारा,अणिस्सिअप्पा अपमिवछा॥११॥ प्राह्याभावात् । "अनन्यथासिनियतपूर्ववर्तित्वं दि देतुस्वम्।"
पतत्प्रत्यास्यानमुक्तस्वरूपंनियन्त्रितं धीरपुरुषप्रज्ञप्तं तीर्थंकर. तथा च-बयादेरवधिनूतस्य धूमाऽऽदिनियतपूर्ववर्तित्वादनन्य
गणधरप्ररूपितं, यद् गृहन्ति प्रतिपद्यन्तेऽनगारा: साधयः, थासिकत्वाच तद् ऽनिवारम्। यागाऽष्टाऽऽदो स्वाऽऽदिनिष्ठ
अनिःस्ताऽऽत्मानोऽनिदाना अप्रतिबद्धाः केत्राऽऽदिपिति कार्यतानिरूपितकारणताग्रहश्चावच्छेदकचिनिर्मोकेण शब्दानु
गाथासमासार्थः ॥ ११ ॥ आव०६०। मानाऽऽदिनैव तत्प्रामाण्यस्यापि तत्र व्यवस्थापितत्वात् । तृणारणिमण्यादीनां वह्निकारणताग्रहेऽपीयमेव रीतिः, तृणत्वेन व्य
होण गिलाणेण व, अमुगतवोऽमुगदिणम्मि नियमेण । भिचारकानस्य तेनैव रूपेण कारणताग्रहविरोधित्वात, अबच्चे- कायव्यो ति णि अंटिमं, पञ्चक्खाणं जिणा विति ॥५॥ दकोदासीन्येन तृणत्वसमानाधिकरणकारणताग्रहे विरोधाभा
हटेन नीरोगेण,ग्लानेन वा सरोगण, अमुकं तपः षष्ठाटमाऽऽदि, वात् । अवच्छेदकरूपानुपस्थितौ कथमवच्छेद्यकारणताग्रहः,
अमकस्मिन् दिने, नियमेन निश्चयेन, मयेति शेषः । (कायवो कारणतायाः ससंबन्धिकपदार्थत्वेन तत्प्रत्यके संबन्धिज्ञानस्य
ति) कर्तव्यं, प्राकृतत्वात् पुंसा निर्देशः, नियन्त्रितमिदं प्रत्याकारणत्वादिति चेताना अयं घटः' इति समवायप्रत्यक्के व्यजिचा.
ख्यानं,जिना ब्रुवते। श्दं च प्रत्यास्पानं न सर्वकासं क्रियते,कि रात । अथ येन समवायत्वाऽऽदिना रूपेण ससंबन्धिकता,
सहि, नियतकालमेव। तेन रूपेण तत्प्रत्यके तस्य देतुत्वान्न व्यभिचार इति चेत् ।न। तथाऽपि ससंबन्धिकताऽवच्छेदकप्रकारकझानत्वेन हेतुत्वमि
तथा चाहस्था संबन्धिमात्रवृत्तित्वस्वैवावच्छेदकपदार्थत्वात् । प्रकृते च चन्दसब्धिमु जिएक-प्पिएस पढमम्मि चेव संघयणे।
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पियंडिय
एवोन्नं चित्र, चेरा चि तया करेसी प ||६|| चतुदेशपूर्विषु चतुर्दशपूर्वरेषु जिनकदिपकेषु प्रथम एव संहनने वज्रषभनाराचाजिये नियन्त्रित प्रत्याख्यानं, ध्य मेवानुपि काले चतुर्दशपूर्वरा एव कृतवन्तः, स्थविरैस्तु न कृतमेवेदमित्याह - (घेरा वित या करेसी य) स्थविरा अपि तदा पूर्वधराऽऽदिकाले, अकार्षुः, चशब्दादन्येऽप्यस्थविराः प्रथमसंहनिन इति । प्रव० ४ द्वार भ० आ० यू० । आब णियंत्र-निर्ग्रन्थ-पुं० । निर्गता प्रन्थात्स बाह्याभ्यन्तरादिति नि न्याः । साधुषु, ते पञ्चधा-पुलाफः, त्रकुशः, कुशीलः, निर्मन्थः, स्नातकति विन्ध निर्गतो मोडनीयकर्मणा न्यादिति निर्मन्थः । ध० ३ अधि० भ० । (सर्वेऽप्येते 'णिमगंथ' शब्देऽस्मि जागे २०३४ पृष्ठे प्रतिपादिताः )
( २००८) अभिधानराजेन्द्र |
नियंत्रे पंचविहे पम्पते । तं जहा- पढमसमयणियंत्रे, अपदमसमयणियंत्रे, चरिमसमयणियंत्रे, अचरियसमयणियंत्रे, महामुदुमनियंते शामं पंचमे ॥
66
लियंडे " इत्यादि सुगमम् । नवरम् अन्तर्मुहूर्त्त प्रमाणाया निर्मन्थाद्धायाः प्रथमे समये वर्तमान एकः शेषेषु द्वितीयः, अन्तिमे तृतीयः शेषेषु चतुर्थः सर्वेषु पञ्चम इति विषया भेद एषामिति । स्था० ५ ० ३ ० | दरि, उ०
१२ श्र० ।
शिपंडित-निर्यपुत्रपुं० [पेढालविद्याधरेण सुज्येष्ठानिनामुत्पादिते सत्यको स्था० १०
तद्वृत्यम
"सत्यकिः कोऽसी, स्पनिंगद्यते ॥ (३०) बेटरमेव ज्येष्ठा सुनाऽऽसीत्याच सा । नित्यं कायोत्सर्गे ददाति च ॥ ३१ ॥ इतः परिवाद पेढालो, विद्यासिद्धो नभश्वरः । समयं ब्रह्मचारिण्या, विद्यां तु निरीक्षते ॥ ३२ ॥ कायोत्सर्गस्थितां दृष्ट्वा, सुज्येष्ठां ब्रह्मचारिणीम् । कृत्वा स धूम्या व्यामोदं वीर्य तस्यां न्यवेशयत् ॥ ३३ ॥ जाते गर्भेऽतिशयिनिः ख्यातमस्या न त्रिक्रिया | मध तत्सूनुदितुं प्रहम् ॥ ३४ ॥ संगतीभिः समं यातः, कालसंदीपकस्तदा ।
प्राकीन्मे कुतो भीतिः, स्वाम्यास्यत्सत्यकेरितः ॥ ३५ ॥ तत्पार्श्वेऽथ सगरवोचे, त्वं रे ! मां मारयिष्यसि १ । इत्युदित्वा हवादात्म- पादयोस्तमपातयत् ॥ ३६ ॥ वयस्थोऽथ परिव्राजा, हंस्वा विद्याः स शिक्षितः । रोहिणीं साधयन् पञ्च भवान् स मारितस्तया ॥ ३७ ॥
परमाषाः चिन्तां स नेष्टवान् । सप्तमे च भवे तां स, साधनायोपचक्रमे ॥ ३८ ॥ शवं चितास्थं प्रज्वाल्य, तस्योपर्यार्द्रचर्म च । विस्तार्य वामाङ्गुष्ठेन, तत्र तज्ज्वलनावधि ॥ ३६ ॥ तस्य संकम्यमाणस्य, काल संदीपकस्तदा । चिकेपाऽऽगत्य काष्ठानि, सप्तरात्रे गते ततः ॥४०॥ देवता स्वयमेत्योचे, विघ्नमेतस्य मा कृथाः । सिपाह तं विशामि ते सेनादयखर्क, तथाऽविशुताभवद्विलम् ।
णियंठिपुत्त
सा तुष्ट्वा तद् व्याधानेत्रं स त्रिनेत्रोऽथ विश्रुतः ॥ ४२ ॥ धर्षिताऽनेन साध्वीति, पेढालस्तन मारितः । ततो रुद्राभिधः सोऽभू-स्कालं संदीपकं ततः ॥ ४३ ॥ सिघांसौ तत्र सोऽनश्य दूर्द्धाधः स तमन्वगात्। सोऽथो विकृत्य त्रिपुरं, पाताले लावणे ऽनशत् ॥ ४४ ॥ युवा सम्मावित्वा तं स विद्याचयत्येभूत् । सस्तो नया त्रियं नाट्यपूर्वकम् ॥ ४५ ॥ रमते सोय शस्तं महेश्वराभिषं यात् स विद्वेषतस्तेषां विध्वंसयति कन्यकाः ॥ ४६ ॥ अन्तःपुरीनिर्भूपानां, स्वस्त्रीभिरिव खेलति । तस्य शिष्यद्वयं जज्ञे, नन्दी नन्दीश्वरस्तथा ॥ ४७ ॥ समान सम दोनभूभुजः ॥ e ॥
अन्यदजयीपुर्वी
अन्तःपुरं विदध्वंसे, शिवां देवीं दिनाऽखिलम् | सोऽथ दध्यौ विनाइयोऽयं, दुईरः खेचरः कथम् ? ॥ ४५ ॥ सीमानामगणिका रूपशालिनी ।
मदेशं वा धूपं तं प्रत्युदक्षिपत् ॥ ५० ॥ सोऽन्यदा वातरखत्र, तस्या इस्तेऽम्बुजरूयम् । मेवेशः स्मेरस्तमवादयत् (१) ॥ ५१ ॥ मुसा, योग्योऽसि स्वराः । न स्मेरकमलप्रायाः, मादृशाः पुनरीक्षसे ॥ ५२ ॥ सरितस्तत्र तथा सामुवाससः। एकान्ते साध्याध्याक्षीद्वियानीति कदा सोना तो वेद्यत । राजोऽसौ तदा मार्य-स्त्वं रक्ष्या प्रत्ययाय च ॥ ५४ ॥ पत्रं तदरे दवा, खड्रेन च्छेदितं जटेः । मामित्युक्त्वा, प्रच्छन्नाः स्थापिता भटाः ॥ ५५ ॥ मारितस्तैस्तदासक्त-स्तया सह स खेचराः । ततो नन्दीश्वरस्वामि-विद्याभिः समधितिः ॥ ५६ ॥ शिलां व्योम्नि विकृत्योचे ही हताश ! हनिष्यसे । तमाम तो राजपादकः ॥ ५७ ॥ सोsवदवेदिवं युग्म मेतद्रूपं पुरे पुरे । विधायाऽऽयतनेऽध्ये, ततो मुञ्चामि नान्यथा ॥ ५८ ॥ तत्प्रपेदे नरेन्द्रोऽथ सर्वत्रापि व्यधापयत् । तत्प्रासादान्महोच्छ्राया-नेतस्योत्पत्तिरीदृशी " ॥ ५९ ॥ श्र०क० स चोरसर्पिण्यां जगत्प्रदीपो नाम तीर्थकरो प्रविष्यति । प्रबर ३६ द्वार । वीरजिना नगारभेदे, भ० ।
स च नारदपुत्रेणः पुत्रान् व्याकरोदित्युच्यतेतेणं कालेणं तेणं समएणं० जाव परिसा पमिगया । तेणं काले तेणं समए समणस्स भगवओ महावीरस्स तेबासी पारयपुत्ते णामं अणगारे पगइमद्दए० जाव विहरइ । वेणं काले तेणं समर्पणं समणस्स० जाव अंतेवासी नियंठिपुत्ते णामं अणगारे पगइभद्दए० जाव विहर । तए
से नियंत्रिपुते अणगारे जेणामेव नारवपुते अणगारे तेच वागच्छा, उपागच्छत्ता नाश्यपुत्तं अणगारं एवं बयासी मध्ये पोग्गल चिनो! किं सट्टा, समजा, सपा ?, उदा-अ, अमझा, अपसा है। अग्जो चि
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(२०५६) णियंत्रिपुत्त प्रभिधानराजेन्सः।
णियंठिपुत्त नारयपुचे भशमारे नियंठिपुतं मणगारं एवं बयासी- सप्रदेशाः सार्धाः, समस्या वा । इतरे त्वनर्धा, अमध्यातिः । सम्वे पोग्गला मे अज्जो! सवा, समज्का, सपएसानो
( अणंत ति) तत्परिमाणमापनपरं तत्स्वरूपाभिधानम् । प्रणला,अमका, अपएसा। तए णं से नियंत्रिपुत्ते अण
अथ कब्बतोऽप्रदेशस्य क्षेत्राऽऽद्याश्रित्याप्रदेशाऽऽदित्वं
निरूपयन्नाह-- गारे नारयपुत्तं प्रणगारं एवं बयासी-जाणं ते अज्मो!
जे दन्यत्रो अपएसे से खेत्तो नियमा अपएसे; कालसम्बे पोग्गमा सअठा, समजा, सपएसा, नो अणश,
श्रो सिय सपएसे, सिय अपएसे; भावो सिय सपएसे, अमज्का, अपएसा। किं दव्चादेसेणं अज्जो ! सन्मपोग्गला
सिय अपसे। सअला, समका, सपएसा; नो अणडा, अमज्जा, भपएसा । खेत्तादेसेणं अन्जो ! सन्चपोग्गला सला.
(जे दवभो अपएसे इत्यादि) यो व्यतोऽप्रदेशः परमाणः,
सच क्षेत्रतो नियमादप्रदेशो,यस्मादसौ केत्रस्यकत्रैव प्रदेशे.. तहेव चेत्र कालादेसेणं तं चेव, भावादसेणं अज्जो ! तं
धगाहते, प्रदेशद्वयाऽऽद्यधगाहे तु तस्याप्रदेशत्वमेव न स्यात् । चेव । तए णं से नारयपुत्ते अणगारे नियंठिपुत्तं अणगा- कालतस्तु यद्यसावेकसमयस्थितिकस्तदा प्रदेशोऽनेकसमयरं एवं क्यासी-दवादेसेण वि मे अजो! सबपाणला स्थितिकस्तु सप्रदेश इति।प्रावतः पुनर्योकगुणकालकाऽऽदि. सअठा,समझा,सपएसानो अणका, अमज्मा, अपएसा ।
स्तदाऽप्रदेशो, द्विगुणकालकाऽऽदिस्तु सप्रदेश इति निरूपितो खेत्ताएसेण वि, कालाएसोण वि, नावाएसेण चि ।
द्रव्यतो प्रदेशः।
अथ केवतोऽप्रदेश निरूपयन्नादतए णं से नियंत्रिपुत्ते अपगारे नारयपुत्तं अणगारं एवं वयासी-जा प्रज्जो दवाएसेणं सबपोग्गजा सका,
जे खेतो अपएसे-से दबओ सिय सपएसे, सिय
अपएसे कालो जयणाए,भावओजयणाए, जहा खेतसमज्मा,सपएसा नो अणा ,अमज्का , अपएसा । एवं ते परमाणुपोग्गले वि असले,समज्के,सपएसेणो अण,अम
ओ एवं कालओ,जावो। जे दयो सपएसे-से खेत्तो
सिय सपएसे, सिय अपएसे । एवं कालो , जावो वि । जो, अपएसे । जइ मजो ! खेत्तापसेण वि सम्पपग्गिना
जे खेत्तो सपएसे-से दबओ नियमा सपएसे, कालो सअछा, समका, सपएसा. जाव एवं ते पगपएसोगाढे वि पोग्गले सअ,समज्के,मपएसे । जइ णं अज्जो! कानाएसेणं
भयणाए, नावो जयपाए, जहा दव्यश्रो तहा कालो,
जावो वि। सन्चपोग्गला सला,समका,सपएसा एवं ते एगसमयहिइए वि पोग्गले सबहे, समज्के,सपएसे । तं चेव जइणं अज्जो!
(जे खेत्तओ अपपसे इत्यादि) यः केत्रतोऽप्रदेशः स
कन्यतः स्यात्सप्रदेशः,बणुकादेरप्येकप्रदेशावगाहित्वास । नावाएसेणं सम्बपोग्गला सअहे ३, एवं एगगुणकालए वि
स्यादप्रदेशः, परमाणोरप्यकप्रदेशावगादित्वात् । (काल भो पोग्गले सम३त चेव, अह ते एवं न भवंति, तो जे वयसि जयणाए ति) केत्रतोऽप्रदेशो यः स कालतो जजनया अप्रदव्याएसेण वि सम्बपोग्गमा सका,समझा,सपएसा; नो देशाऽदिवाच्यः । तथाहि-एकप्रदेशावगाढ एकसमयस्थितिअणधा,अमका,अपपसा। एवं खेत्ताएसेण वि, कानाए
कत्वादप्रदेशोऽपि स्यादने कसमयस्थितिकत्वाच सप्रदेशोऽपि सोग वि, भावाएसेण वि। तं णं मिच्छा । तए से नार
स्यादिति । (भावप्रो भयणाए ति) क्षेत्रतोऽप्रदेशो योऽसा
चेकगुगणकासकाउादत्वानप्रदेशोऽपि स्याइनेकगुणकालकादियपुत्ते मणगारे सियंत्रिपुत्तं अणगारं एवं वयासी-नो
स्वाच्च सप्रदेशोऽपि स्यादिति । अथ कालापदेशं, भावाप्रदेश खलु एयं देवाणुप्पिया एयमढे जाणामो, पासामो। जहणं च निरूपयन्नाह-(जदा खेत्तो, एवं कानो, भावो ति) देवाणप्पिया! नो गिलायंति परिकहित्तए, तंइच्छामि एं यथा केषतोप्रदेश उक्तः, एवं कालतो जावतश्चासौ वाच्यः। देवाणुपियाणं भतिए एयमई सोचा निसम्म जाणिसए ।
तथाहि-(जे कालओ अपपसे, से दबमो सिय सपएसे, सि.
य अपएसे) एवं केत्रतो, भावतश्च । तथा-(जे भावो भतए णं से णियविपुत्ते अणमारे नारयपुतं अणगारं एवं
परसे से दवमो लिय सपपसे, सिय अपएसे) एवं क्षेत्रतः, वयासी-दवाएसेण वि अजो! सन्धपोम्गला सपएसा वि, कालसति । उक्तोऽप्रदेशः । अथ सप्रदेशमाह-(जे दबो अपएसा वि अणंता खत्ताएसेण वि एवं चेव,कालाएसेण सपपसे श्त्यादि) भयमर्थः यो द्रव्यतो व्यणुकाऽऽदित्वेन सप्र. वि, नावाएसेण वि एवं चेव ॥
देशः, सकेत्रतः स्यात्सादेशो धादिप्रदेशावगाहित्वात्, स्या(इन्चादेसेणं ति) द्रव्यप्रकारेण, द्रव्यत इत्यर्थः । परमाणुत्वा
दप्रदेश एकप्रदेशावगाहित्वात । एवं कालतो,भावतश्च। तथा-यः sऽद्याश्रित्येति यावत् । (खेत्ताइसेणं ति) एकप्रदेशात्रगाढत्वा
केत्रतः सप्रदेशो द्वयादिप्रदेशावगाहित्वात् स व्यतः सप्रदेश दिनेत्यर्थः । (कालादेसेणं ति) एकाऽऽदिसमयस्थितिकत्वेन ।
एच, द्रव्यतोऽप्रदेशस्य द्विप्रदेशावगाहासम्नवात् । कालतो, (भावादेसेणं ति) एकगुणकालकत्वाऽऽदिना । (सब्बपोग्गलास
मावतश्चासौ विधाऽपि स्यादिति । तथा यः कालतः सप्रदेशः, पएसा बीत्यादि) रह च यत्सविपर्ययसा ऽऽदिपुलविचारे
स द्रव्यतः, केत्रतो, भावतश्च द्विधाऽपि स्यात् । तथा योभाप्रकान्ते सप्रदेशा भप्रदेशा एव ते प्ररूपिताः, तसेषां प्ररूपणे वतः स प्रदेशः, म द्रव्यक्षेत्रका लैर्द्विधाऽपि स्यादिति सप्रदेसार्द्धत्वादि प्ररूपितमेव जवतीति कृत्येत्यवसैयम् । तथाहि- शसूत्रायांनावार्थ इति। .
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(२०१०) णियंठिपुत्त अनिधानराजेन्डः।
णियंठिपुत गयेषामेव द्रम्माऽऽदितः सप्रदेशाप्रदेशानामपबहुत्वविभाग- जमखंसगुणट्ठाणे-सु होति रासी विडअणंता" ॥ ७॥ माह
(एवमिति) यदि प्रतिगुणस्थानकं कालाप्रदेशराशयोऽभिएएसिणं भंते ! पोग्गनाणं दवादेसेणं खेत्तादेसेणं कालादे.
धीयत इति।
अनोत्तरमसेणं भाचादेसेणं सपएसाणं अपएमाण य कयरे कयरे अप्पा "नएपति एगगुणाण वि, अणतभागम्मि जं मणंतगुणा। सा,बहुया वा तसा वाविसेसाहिया वा ?। नारयपुत्ता सच. तेणासंखगुण हिचय, भवंति नाणत्तगुणियसं" ॥5॥ स्थोवा पोग्गला चावादेसेणं अपएमा, कालादेसेणं अपएसा
भयमभिप्राया-यद्ययनन्तगुणकालत्वाऽऽदीनामनन्ता राशयअसंखेजगुणा; दन्वादेसेयं अपएसा असंखेजगुणा;खेत्ता
स्तथाऽप्येकगुणकालत्वाऽऽदीनामनन्तभाग एव ते वर्तन्त इति,
न तद्द्वारेण कालाप्रदेशानामन्तगुणत्वम, प्रपि स्वसत्यातगुदेसेणं अपएमा असंखेजगुणा, खेत्तादेसेणं चेव सपएसा
णत्यमेवेति। असंखेजगुणा; दवादेसेणं सपएसा विसेसादिया काला- "एवं ताजावमिणं, पहुच्च कालापएसया सिद्धा। देसेणं सपएसा विसेसाहिया; भावादेसेणं सपएसा बिसे
परमाणुपोग्गलासु, दबे विहु एस चेव गमो"t. साहिया। तए णं से नारयपुत्ते आणगारे नियंठिपुत्तं प्रण
पयं तावद्भावं वर्णाऽऽदिपरिणाममिममुक्तरूपमेकाऽऽनन्तगुण
स्थानयर्तिनमित्यर्थः । प्रतीत्य कालाप्रदेशकाः पुत्राः सिखाः गारं वंद, नमंस,नमसत्ता एयमट्ठ सम्म विणएणं जो
कालाप्रदेशभावाः पुमला: सिद्धाःप्रतिष्ठिता द्रव्येऽपि द्रव्यपरि। जुजो खामेइ, खामेइत्ता संजमेणं० जाब विहरह। णाममप्यङ्गीकृत्य परमाएवादिक एव भावपरिणामोक्त "एपसि गं" इत्यादि सूत्रसिर्फ, नवरम् अस्यैव सूत्रोक्तास्प- एव गमः। बाख्याबहुत्वस्य भावनार्थ गायाप्रपञ्चो वृद्धोक्तोऽभिधीयते
"एमेव होह लेत्ते, एगपएसाऽबगाहणाईसु। "वोच्च अप्पावहुयं, वे खेत्तऽदजाबमो यादि ।
गणतरसंकंति, पमुख कामेण मग्गणया "॥१॥ भपएससप्पपसा-ण पोग्गलाणं समासणं ॥१॥
एवमेव कन्यपरिणामवद्भवति, ते केत्रमधिकृत्य, पकप्रदेशादव्येणं परमाणू. खेतेणेगप्पएसमोगादा।
बगाढाऽऽदिषु पुल भेदेषु स्थानान्तरगमनं प्रतीत्य कालेन कालेणेगसमश्या, अपएसा पोग्गमा होति ॥२॥
कालाप्रदेशानां मागणा, यथा केत्रत एबमवगाहनाऽदितोम्पीभावेणं अपएसा, एगगुणा जे वंति यन्नाद ।
स्येत मुच्यते। से चिय थोवा जं गुण-बाहुखं पायसो दब्वे" ॥३॥
"सकीय विकोयं पि, परुयोगाहणाइ एमेव । पर्णाऽऽदिनिरित्यर्थः।
तह सुद्भवायरथियरेयसदापरिणाम"॥११॥ कम्ये प्रायेण द्वचादिगुणा मनन्तगुणान्ताः कासकत्वाऽऽदयो
प्रवगाहनायाः सस्कोचं त्रिकोचं च प्रतीत्य कालाप्रदेशाः प्रवन्ति, एकगुणकालकाऽऽदयस्स्वल्पा इतिजावः।
स्युः । तथा सदमवादरस्थिरास्थिरशम्दमनःकमीऽऽदिपरिणाम "पत्तो कालापसे-ण अप्पएसा भचे असंखगुणा।
च प्रतीत्येति। कि कारणं पुण भवे, नगर परिणामबाहुल्ला?"॥४॥
"एवं जो सम्बो चिय, परिणामो पोगलाण द समय।
तं तं पमुच पसि, फालेणं अप्पएस" ॥१२॥ भयमर्थः-यो हि यस्मिन् समये यद्वर्णगन्धरसस्पर्शसापातने
(पसिं ति) पुतानामित्यर्थः। पसहमत्ववादरत्वाऽऽदिपरिणामान्तरमापन्नः, स तस्मिन् समये
"काक्षेण अप्पएसा, एवं भावा पपसरहितो। तदपेक्षया कालतोऽप्रदेश उच्यते। तत्रैवेकसमयस्थितिरित्यन्ये,
होति असंखेजगुग्णा, सिका परिणामबाडुल्ला ॥ १३ ॥ परिणामाश्च बढ़व इति प्रतिपरिणामं कालाप्रदेशसम्भवास
पत्तो दन्वादेसे--ण भष्पएसा हवंति संखगुणा । बदुत्वमिति।
के पुण ते परमाणू, कह ते बहुय तितं सुणसु ॥१४॥ एतदेव भाव्यते
अणुसंखेजपएसिय, असंखऽगंतप्पपसिया चेत्र । "जावेणं अपपसा, जे ते कालेण होति विहा वि।
चउरो चिय रासी पो-गजाण लोप प्रणंताणं ॥ १५॥ दुगुणाऽऽदो वि एवं, भावेणं जावऽणंतगुणा"॥५॥ तत्थाऽणतेर्दितो, सुत्तेणं तप्पपसिपहितो। भावतो येऽप्रदेशा एकगुणकालकत्वाऽऽदयो जवन्ति, जेण पपसट्टाए, मणिया प्रणवो अांतगुणा" ॥१६॥ ते कासतो द्विविधा अपि नवन्ति सप्रदेशाः, भप्रदेशा. अनन्तेभ्योऽनन्तप्रदेशिकस्कन्धेज्यः प्रदेशार्थतया परमाणवोश्रेत्यर्थः । तथा भावेन द्विगुणाऽऽदयोऽपि अनन्तगुणान्ता एव- ऽनन्तगुणाः सूत्रे उक्ताः । सूत्रं वेदम्-" सम्बत्योवा अणंतपएमिति द्विविधा नवन्ति ।
सिया खंधा दबटुयाए ते चेब, पएसट्टयाए अणंतगुणा, परततश्च
माणुपोग्गला दब्बउपपसध्यार मणतगुणा, संस्लेखपएसिया "कासप्पएसयाणं, पचं एकेको भवद रासी।
खंधा दबटुयाए संखेन्जगुणा, ते वेव पपसध्याए असंखेएकेकगुणहाण-म्मि एमगुणकालयाईसु"॥६॥
गुणा, मलखिज्जपपसिया खंधा दबध्यार असंखेजगुणा, ते एकगुणकालकाऽऽदिषु गुग्णस्थानकेषु मध्ये एकैकस्मिन् गु- वेव पएसध्याए असंखेजगुण ति।" स्पस्थानके कालाप्रदेशानामेकैको राशिभवति । ततश्चानन्तत्वाद "संखेज्जइमे भागे, संखेज्जपपसिवा प वटुंति । गुमास्थानकराशीनामनन्ता एव कालाप्रदेशराशयो भवन्ति । नचरमसंखेजपए-सियाण भागे असंखहमे "॥१७॥ मय प्रेरकः--
संख्येयनमे भागे संख्यातप्रदेशिकानामसंख्येयतमे भागे सं"मादाऽणतगुणरण मेवं काबापएसयामां ति।
स्यातप्रदेशिकानामणवो वर्तन्ते, उक्तसूत्रप्रामाण्यादिति ।
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(३.५) णियंठिपुत्त भनिधानराजेन्द्रः।
पियहि "सावि असंखेज्जपए-सियाण तेसिं असंबजायते। तंत्रिय खेसाईगं, परिवह सपएमाणं ॥ ३०॥ बाहुल्लं साहिउजर, फुरुमबसेसाहि रासीहि" ॥१०॥ अवरोप्परप्पसिका, वुट्टी ढाणी य हो दोरह पि । संख्यातप्रदेशिकानन्तप्रदेशिकानिधानाज्यामिह च संस्था- अपपससप्परसा-या पोग्गलाणं स लक्षणभो ॥३१॥ तप्रदेशिकराशेः संख्यातभागवृत्तित्वातेषां स्वरूपतो बहुत्व- ते चेत्र य ते चउहि वि, जम्वचरिजंत पोग्गला ऽविहा । अवगम्यते, अन्यथा तस्याप्यसंख्ययभागेऽनन्तभागे या तेऽन- तेण न बुकी हाणी, तेसि अन्नोन्नसिका ॥ ३२॥" विष्यन्निति।
चतुभिरिति भाषकाबाऽऽदिनिरुपचर्यन्त इति विशेष्यन्ते । "जेणेकरासिणो चिय, असंखनागे न सेसरासीणं ।
"पपसिं रासीण, निदरिसणम्मि ण भणाभि पच्चक्खं । तेणासज्जगुणा, अणवो कालापएसेहि" ॥ १५ ॥
डीए सम्वपोग्गल, जावं तावाण सक्वायो"॥३३॥ न शेषराश्योरित्यस्यायमय:-अनन्तप्रदोशकराशेरनन्तगुणा.
कल्पनया यावन्तः सर्वपुस्तास्तावन्तो लक्का इति । स्ते, संख्यातप्रदेशिकराशेस्तु संख्यातभागे संख्यातभागस्य च "प च दो य पंच य, दस य महस्लाई अप्पएसाणं । विवकया नात्यन्तमल्पताऽतः कालतः सप्रदेशवप्रदेशेषु च जाबाईणं कमसो, चडएह वि जहावट्टाणं ॥३४॥ वृत्तिमतामणूनां बहुत्वाकालाप्रदेशानां च सामायिकस्येना- णउई पंचाणनई, अट्ठाणनई तहेव नवन नई। सन्तमरूपत्वाकालाप्रदेशेभ्योऽसंख्यातगुणत्वं द्रव्याप्रदेशाना. एवश्या सहस्सा-ई सप्परसाण विवरीयं ॥३५॥ मिति ।
पपसि अहसंभव-मत्थोवणयं करिज्ज रासी । "एसो असंवगुणिवा, हवंति नेत्ता पपमया समप ।
सम्भायो य जाणे-ज्ज ते अणं ते जिणाभिहिए " ॥ ३६॥ जते ता सन्चे रिचय, भपएसा रत्तो प्रणवो ॥ २०॥ भ० ५ श०८०। पपलियाइपसु वि, पएसपरिवक्लिपसु ठाणेसु ।
पियंधिया-नैग्रन्थिकी-स्त्री० । निर्ग्रन्थो भगवास्तस्येयं नन्धि. मन्ना पक्केको च्चिय, रासी नेनापएसाणं ॥२१॥
की। तीर्थकरकृतायाम, "उन्नं तन्न वत्सब, एसा प्राणा निपत्तो नेत्तापसे-ण चेव सपएसया असंखगुणा ।
यंठिया ।" सूत्र.१ भु. अ.! द्वी। एगपपसोगाढे, मोतुं सेसावगाहणया ॥ २२॥
णियंसण-निवसन-न। परिधाने, औ० । उत्त० । जीवा। ते पुण दुपएसोगा-हणाश्या सम्बपोग्गना सेसा । ते य असंखेज्जगुणा, अवगाहण गणबाहुल्ला ॥२३॥ णियंसणा-निदर्शना-स्त्री० । “अभवद्वस्तुसंबन्ध उपमा परिरब्वेण होति एत्तो, सपएसा पोग्गला विसेसदिया। कल्पिता निदर्शना" इति मम्मटोक्ते,मसम्बन्धे सम्बन्धरूपातिशकालेण स भावेण य, एमेव नवे विसेसदिया ॥१४॥ मोक्तिलक्षणे वा अर्थालङ्कारभेदे, प्रति । भावाईया वुही, असंवगुणिया जमप्पपसाणं ।
णियंसित्ता-पुष्य-अन्य० । परिधायेत्यर्थे, "देवसजुगनं तो सप्पपसियाणं, खेसाइविसेसपरिवुली " ॥ २५॥
नियंसित्ता अमेहि घरेहि य महिय अचहा" जी०३ प्रतिक पतद्भावना च वक्ष्यमाणस्थापनातोऽवसेया।
२०रा०। "मीसाण संकम प३, सपएसा खेत्तभो प्रसंसगुणा । प्राणिया सट्टाणे पुण, थोव शिय ते गहेयव्या" ॥ १६ ॥
णियग-निजक-पुं० स्वकीये पुत्राऽऽदौ, पञ्चा.१० विवानिन मिश्राणामित्यप्रदेशसप्रदेशानां मीलितानां संक्रमं प्रति अप्रदेश स्वजने, नि० चू. २ उ०। मात्माय बान्धवे, सुहाद चा मा. शेभ्यः सप्रदेशेवल्पबहत्त्वविचारसंक्रमे प्रतः सप्रदेशात चा. १७० २०१ उ.। असंख्येयगुणाः, क्षेत्रतोऽप्रदेशेभ्यः सकाशात् स्वस्थाने पुनःणियगपरिचाल-निजकपरिवार-पुं०1मात्मीयपरिबारे, "णिकेवलसप्रदेशचिन्तायां स्तोका एव ते क्षेत्रतः सप्रदेशा इति। यगपरिवालेण सरिसंपरिघुमे।" रा०पी०।
एतदेवोच्यते“ नेत्तेण सप्पपसा, थोवा दबद्धभावप्रो भाहिया ।
णियच्छइत्ता-नियम्य-अव्य । अवश्यतया प्राप्येत्यर्थे, मत्र. सपएस ऽप्पाबदुयं, सहाणे अत्यत्रो पवं" ॥२७॥
१६० १ ० १ ० । निश्चयेनावतीर्य युक्वेत्यर्थे, सूत्र १ मर्थत इति व्याख्यानापेकया।
धु०१ भ०२०। " पढमं अपएसाणं, बीयं पुण हो सप्पसाणं । णियजोगपवित्ति-निजयोगपत्ति-स्त्री०। मात्मीयमनःप्रवृत्ती, सायं पुण मीसाणं, अप्पबहू भत्थो तिनि" ॥२०॥ "अमेणियजोगपवित्तीओ य।" निजयोगानामाचार्यसत्कममःअर्थतो व्याख्यानद्वारेण श्रीएयल्पबहुत्यानि भवन्ति । सो प्रतृतीनां प्रवृत्तिः प्रवर्तन निजयोगप्रवृत्तिः । पञ्चा०विवा। स्वेकमेव मिश्रास्पबहुत्वमुक्तमिति ।
णियट्टपगअहिगार-निवृत्तप्रकृत्यधिकार-पुं। प्राधिधार्मि"गणे ठाणे वर नावाईणं जनप्पपसाणं ।
के बोधिसत्वे, ध०१ अधिः । सं चिय भावाईणं, परिभस्सा सप्पएसाणं" ॥२६॥
वियद्रमाण-निवत्तेमान-त्रि०। व्यावर्तमाने, प्राचा०५५० यथा किस कल्पनया बकं समस्तपुफलाः, तेषु प्रावकालकट्यक्षेत्रतोऽप्रदेशाः क्रमेण एकद्विपञ्चदशसहस्रनाथा, सम
। ६०४ उ०। देशास्तु नवनवत्य एनवतिपश्चनयतिनवतिसहनसहचाः, ततध
णियट्टि-निवृत्ति-स्त्री.।'वृतु' वर्तने इत्यस्य निर्वस्वकिनि मानाप्रदेशेभ्यः कालाप्रदेशेषु सदनं वद्धते, तदेवं नावसप्रदेशे निवर्तन निवृत्तिः । त्यागे, प्रतिक्रमसे, भाव। भ्वः कामसप्रदेशेषु हीयत इत्येवमन्यत्रापीति ।
सा च पोटा।बत माह*प्रहया नेत्ताईणं, जमप्पएखाण हायप कमखो।
माम ठपणा दविए, खेचे काले तहेव जाय।
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(२०१२) पियट्टि अभिधानराजेन्मः।
णियत एसो अणियट्टीए, निक्खेवो कृनिहो होइ॥
ततः प्रतिनिवृत्तास्ते, परानीकमनजयन् ॥ ३॥ तत्र नामस्थापने गताथै, कन्यनिवृत्तिस्तापसाऽऽदीनां हलक
प्रतुसंमानितास्तेऽथ, शोभन्ते स्म समन्ततः। टाऽदिनिवृत्तिरित्याद्याखिलो भावार्थः स्वबुध्या वक्तव्यो,पावत्प्र.
एवं गीतार्थमाकर्य, साधुरेवं व्यचिन्तयत् ॥४॥ शस्तनावनिवृश्येडाधिकारः। आव.४ अ.भावनिवृत्तिः प्र.
रणस्थानीया प्रवज्या, जम्नोई विदितोऽधुना । तिक्रमणम् । प्रा००१०। प्रा०म० ।
भ्रष्टोऽयमिति होसिष्ये, जनैरसरशैरपि ॥५॥ इदानी निवृत्तौ स्यान्तः
ततः प्रतिनिवृत्तोऽभूद्, दृढधर्मो विशेषतः। "एकत्र नगरे शाला-पतिः शालासु तस्य च ।
आलोचितप्रतिक्रान्तो, गुरोरिच्छामपूरयत्" ॥६॥
प्रा० क. आव० । आचा.भा. ० । समकालप्रतिपधूर्ता वसन्ति तेम्बेको, धूतों मधुरगीः सदा ॥१॥
नानां जीवानामभ्यवसायनेदे, स.१४ सम. । कीणमोहावकुविन्दस्य सुता तस्य, तेन सार्कमयुज्यत । तेनोचे साऽथ नश्यामो, यावद्वत्ति न कश्चन ॥२॥
स्थायाम्, सूत्र. १ श्रु० ११ मा। तयोचे मे धयस्याऽस्ति, राजपुत्री तया समम् ।
णियट्टिबायर-निवृत्तिबादर-पुं०। निवृत्तिप्रधानो बादरो - संकेतोऽस्ति यथा हाभ्यां, पतिरकः करिष्यते ॥३॥
दरसंपरायो निवृत्तिबादरः । स०१४ सम । कपकश्रेण्यन्नतामप्यानय तेनोचे, साऽथ तामप्यचालयत् ।
गते क्षीणदर्शनसप्तके अपूर्वकरणाऽऽख्यसप्तमगुणस्थानवर्तिनि तदा प्रत्यूषे मदति, गीतं केनचनाऽप्यदः ॥४॥"
जीवनामे, श्राव. ४ ०"इदााणि नियट्टी-जदा जीयो "ज फुद्धा कणि आरया, चूअय ! अहिमासयम्मि घट्टम्मि। । मोहणिज्जं कम्मं खनेति था, उवसमति वा, तदा अपतुहन खमं फुल्ले उं, जइ पञ्चंता करिति डमरा ॥२॥" मत्तसजतस्स अणंतरपमत्ततरेसु अज्ऊवसाणहाणेसु वहश्रुत्वैवं राजकन्या सा, दभ्यो चूतमहातरुः।
मालो दंसणमोहणिजे कम्मे खवेति, नवसामिते वा० जाच नपालब्धो बसन्तेन, कर्णिकारोऽधमस्तरुः ॥५॥
हासरतिबरतिसोगभगुंछाणं उदयवोच्चेदो न भवति, पुरिपतो यदि किं युक्तं, तबोत्तम! ततस्तया।
ताव सो भगवं अणगारो अंतोमुत्तकालं नियट्टित्ति भवति॥" अधिमासघोषणा किं, न श्रुतेत्यस्य गीः शुभा ॥६॥
प्रा० चू०४०। कर्म० । ("अपुधकरण" शब्दे प्रथमभागे चेकुविन्दी करोत्येवं, कर्त्तव्यं किं मयाऽपि तत् ?
६११ पृष्ठे विस्तर उक्तः) निवृत्ता सा मिषादन-करएमो मेस्ति विस्मृतः॥ ७॥ पियति-निकृति-स्त्री० । नितरां करणं निकृतिः । प्रादरकरराजसूः कोऽपि तत्रालि, गोत्रजैत्रासितो निजैः ।
रोग परवाने, पूर्वकृतमायाप्रच्चादनाथै मायान्तरकरणे, भ. मतस्तं शरणीचक्रे, प्रदत्ता तेन तस्य सा ॥७॥
११ श०५01प्रश्न०। आव० स० । आकारवचनाऽच्चातेन श्वशुरसाहाय्या--निर्जित्य निजगोत्रजान् ।
दने, व्य०४ सावकवृष्या कुक्कुचाऽऽदिकरणेन दम्नप्रधानपुन लेने निजं राज्य, पट्टराझी बभूव सा ॥॥
वणिकश्रोत्रियसाध्वाकारोण परवञ्चनार्थ गलकर्सकानामिवाबनिवृत्तिव्यतोऽभाणि, भावे चोपनयः पुनः ।
स्थाने, सूत्र०२ ०२०।दशा०। प्रा० म०। का।स्था कन्यास्थानीया मुनयो, विषया धृत्तसंनिभाः॥१०॥
तं. । वकवृत्या कुक्कुचाऽऽदिकरणे, अधिकोपचारकरणेन यो गीतिगानाऽऽचार्योप-देशात्तेच्यो निवर्त्तते।
परच्छलने, (इत्यन्ये) मायाप्रच्गदनाध मायान्तरकरणे, सुगते जन स स्यादू, दुर्गतेस्त्वपरः पुनः" ॥११॥ (इत्यप्यन्ये) झा० १७०१5 अ० । मायायाम्, श्राव. ५ "द्वितीयोऽप्यत्र दृष्टान्तो, व्यभावनिवर्तने ।
भ० । सूत्र । व्य० दशा०। क्वचिद् गच्छे यदा साधुः, कमो ग्रहणधारणे ॥१॥
णियडिझया-निकृतिमत्ता-स्त्री०। निकृतिर्वञ्चनार्थ चेष्टा,माया. इत्याचार्याः पाठयन्ति, तदादरपरायणाः। सोयदोदितदुःकर्मा, निर्गच्छामीति निःसृतः॥२॥
प्रच्छादनार्थ मायान्तरमित्येके । अत्यादरकरणेन परवञ्चनमितदा च तरुणाः शूराः, साभिमानमिदं जगुः ।
त्यन्ये । तद्वत्ता। भ०८ श० एउ० । निकृतिश्न वञ्चनार्थ काय. मङ्गलार्थ च तत्साधुः, सोपयोगः स शुश्रुवान्" ॥३॥
चेष्टाऽऽन्यथाकरण ल कणाभ्युपचारमवणं वा, तद्वत्ता निकृती, "तरिम्घा य पयनिआ, मरिअव्वं वा समरे समत्थपणं ।
स्था०४ ठा०४ उ०। असरिसजण उल्लावा, न हु सहिप्रवा कुलपमएणं"॥१॥ णियमिसार-निकृतिसार-त्रि० । मायाप्रधाने, पं०व०३ द्वार। सक्तं चैतत्केनाप्युक्तम् -
णियण-निदान-न । निदेखने, " नियणाश्लुणणमहण-वा" लज्जां गुणोधजननी जननीमिवायर्या
वारे बहुबिहे दिया का।" वृ० १ उ० । मत्यन्तशुरुहृदयामनुवर्तमानाः । तेजस्विनः सुखमसूनपि संत्यजन्ति,
णियणिय-निजनिज-त्रि०। स्वकीयस्वकीये, पञ्चा०२ विव०। सत्यस्थितिव्यसनिनो न पुनः प्रतिज्ञाम्" ॥१॥
णियणि यकान-निजनिजकान-पुं० । आत्मीयाऽऽत्मीयकाने, गीत्यर्थकश्वायम्
प०व०१द्वार। स्वामिसंमानिताः केऽपि, सुभटाः प्राप्तकोत्तयः। रणाद्भग्नाः प्रणश्यन्तो, निजपवयशोथिनः॥२॥
णियणियतित्थ-निजनिजतीर्थ-न । स्वकीयस्वकीयप्रवचनाअचिरे केनचिन्नैवं, नष्टाः शोजिष्यथ क्वचित् ।
वमरे, पञ्चा. ६ विवः । न कम न युक्त, प्रत्यन्ता नीचकाः, ममराणि विपवरूपाणिणियत-नियत-त्रि० । निश्चिते, विशे० । सूत्र० । नत्त । प्रतिशेष स्पष्टम्।
नियतस्वरूपे, श्रा० म.१ अ० १ खण्ड । परिच्छिन्ने, भाव.४
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(२०५३) णियत अन्निधानराजेन्द्रः।
णिययपव्वय ० परिमिते, विशे। शाश्वते, आव०४० एकरूपत्वात् पण सक्षणम् । पते योगाऽऽचायः पतञ्जल्गादिनिनियमा उदाह(स्था० ५.३०) शाश्वतत्वात् सर्वकालमवस्थिते, ताः। यमुक्तम-" शौचसन्तोषतपःस्वाध्यायेश्वरप्रणिधानानि जं.४वक०।
नियमाः।" इति । (२..३२)द्वा० २१द्वा० । इन्छियाऽऽदिद. णियत्त-निवृत्त-त्रि० । अपरते," परिग्गहारंभनियत्तदोसा।" | मने, ० । " अक्रोधो गुरुशुश्रूषा, शौचमाहारलाघवम् । उत्त. १४ भ० । " निवृता जीवितास्तेऽत्र, सर्वेऽप्यन्ये पुनर्मू
अप्रमादश्चेति ॥"द्वा०द्वा० ।यदाहुभोगवता:-"उपवतानि ताः। (५)"पाक।
नियमाः॥"द्वा०द्वा० निश्चये, अव्यभिचारे,विशे० प्रव.. णियत्तण-निवर्तन-न । भूमिपरिमाणविशेषे, उत्त. १०।
अवश्यंभावनायाम्, सूत्र०१श्रु०१३ श्रापश्चा० ।श्रा० ।
भवश्यकतव्यताऽङ्गीकारे, पञ्चा० १ विव. श्रागमने, श्राव.४०।
अवश्य करणे,
स० ६ अङ्ग । नियोगे. पश्चा० ७विव.। नियमः पूर्वमीमांसो. णियत्तासयय-निवर्तनशतक-न । निवर्तनं भूमिपरिणाम
क्तः-पक्षतः प्राप्तस्य इतरपक्तव्युदासेन एकतरपक्के व्यवस्था. विशेषो देशविशेषप्रसिद्धः, ततो निवर्तनशतं कर्षणीयत्वेन पनम्, यथा--'बीदीनवहन्ति । अत्र वितुषीकरणसाधनभूनस्य यस्याऽस्ति तन्निवर्सनशतकम् । निवर्तनशतकर्षके हने, नखाऽऽदेरवहननस्य वा नभयोः प्राप्ती अवघात व प्रवृत्तिव्यब. " पंचहिं हलसएदि णियत्तणसयएणं हलेणं भवसेसं
स्थाप्यते । व्रते, “नियमस्तु स यत् कर्मा-नित्यमागन्तुसाधनम्" नेत्तवत्यु पञ्चक्खामि ।" उपा० १ ०।
इत्युक्तेऽनित्ये आगन्तुकसाधने उपवासादौ कर्मणि, शौचाणियत्तणिय-निवर्तनिक-न । निवर्तनं केत्रमानविशेषः, तत्प. __ऽदिषु च । वाच.। (विस्तरस्तु वाचस्पत्ये व्यः) रिमाणं निवर्तनिकन । निवर्तनमाये, निजतनुप्रमाणे, (इत्यन्ये) | णियमो-नियमतस-अन्य० । नियोगेनेत्यर्थे, पञ्चा १० विवा "णियत्तणियमंडसं भासिहेचा संलेहणालणाझूसियस्स।" |
णियमण-नियमन-न। संयमे, " उद्देसम्मि चवस्थे, समाभ० ३श०१ उ० । णियत्तभाव-निवृत्तभाव-त्रि० । निवृत्तपरिणामे अपुष्टाध्यव
सवयणेण निधमणं भणिय ।" (२) श्राचा० नि. १ श्रु.
४ अ० १ उ०। कारणे, प्राचा० १ श्रु० २ चू० प्र० । साये, “सुहुमो वि कम्मबंधो, न होइ उ नियतनावस्स।" बन्धने, सूत्र.१ श्रु०० अ० । उपरमे, “अदत्तारदारनियमणे. ब्य०५उ०।
हिं ।" आतु। णियत्तमाण-निवर्तमान-त्रि० । प्रत्यावर्तने, “गुरुगा नियत्तमाणे।' व्य०१ उ.।
णियमाणिप्पकंप-नियमनिष्पकम्प-न। नियमेनावश्यंभावेन नि.
प्रकम्पमविचलं निरतिचारं यत्तत्तथा । निरपवादे, बतान्तरं नियत्ति-निवृत्ति-स्त्री. । निवर्तने, " असंजमे नियति च, सं
सापवादमपि स्याद्, ब्रह्मचर्य तु निरपवादमेव । "ण य किंचि जमे य पवत्तणं।" उत्त० ३१ अ.।
अणुन्नायं ।" इत्युक्तेः । प्रश्न०१आश्र0 द्वार। घियत्थ-निवसित-त्रि० । परिहिते, मा० म०१ ०२ खएम।
णियमप्पहाण-नियमप्रधान-त्रि. विचिौरनिग्रहविशेषैरुत्त. मियदोसपज्जणीय-निजदोषप्रत्यनीक-त्रि० । स्वकीयरागा- मे, ते वा नियमा उत्तमा यस्य तस्मिन्, रा०। ऽऽदिक्षणप्रतिपके, पश्चा० १० विव०।
णियमसाधग-नियमसाधक-त्रि.। नियमेन कार्यकारणाव्यनिणियद्दिय-न्यर्दित-त्रि० । नितरामर्दिते, अनुगते, “ अनिय
चारिणि, पं० स०४ सूत्र । दिश्वचित्ता।" ० । सू० प्र० ।
णियमारक्खिय-नियमारतिक-पुं० । राज्ञः सर्वप्रकृतीयों नियणियबुधि-निजबुद्धि-स्त्री० । स्वकीयधियाम् , पश्चा० १०
माद् रकति स नियमारक्षिकः । श्रेष्ठिनि,नि००४००। विव०।
णियमिय-नियमित-त्रि० । अवधृते, विशे०। णियम-नियम-पुं० । नियमन नियमः । दर्श०५ तव । अभिप्रहे, निरोधे, पं. चू० । व्रते, संथा० । अभिग्रह विशेष,
णियय-निजक-त्रि० । प्रात्मीये, आव० ३ ०। संथा० । पश्चा० ।ला० । औ•। उज्यकेत्रकालभावेनाभिग्र- नियत-त्रि० । शाश्वते, सूत्र १ श्रु०८ ० "णियया सव्वभाहप्रहणे, उपा० ७ ०। संथा। महावताऽऽदिरूपे, (सूत्र.
वा मंगुलीण।" नियताः सर्वनावा यैर्यथा भवितव्यं ते तथैव १ श्रु.३ अ०१०)विरमणे, संथा० । प्रा०म० । पिएम.
जवन्ति, न पुरुषकारबन्नादन्यथा कत्तुं शक्यन्ते इति । उपा०६ विशुध्वादिके उत्तरगुणे, प्रश्न. ४ सम्ब० द्वार । स० ।। भा"णिययाऽणियया भिक्खा-यरिमा पाणन सघाडं॥"भिक्षाशौचाऽऽदिके योगिपरिभाषितेऽर्थे, द्वा०।
चा नियता-कदाचिदाभिग्रहिकी, अनियता-कदाचिदनानिनियमाः शौचसन्तोषौ, स्वाध्यायतपसी अपि ।
प्रहिकी।" वृ०१ उ०।। देवताप्रणिधानं च, योगाऽऽचार्यैरुदाहृताः॥२॥ णिययचारि[ए]-नियतचारिन-त्रि० । अप्रतिवरूविहा(नियमा इति) शौचं शुचित्वम् । तद् द्विविधम-बाह्यम,प्राभ्य- रिणि, सूत्र. १ श्रु०७०। म्तरंच। वाह्य-मृज्जनाऽऽदिनिः कायप्रकासनम,प्राभ्यन्तरं-मैव्या- पास-निजकपरिणाम-पुं० । स्वानिप्राये, "णियदिभिश्चित्तमलप्रकालनम् । सन्तोष:-सन्तुष्टिः। स्वाध्यायः-प्रणवपूर्वाण मन्त्राणां जपः। तपः-कृच्छचान्छायणाऽऽदि । देवताप्र.
यपरिणामा।" स्वातिप्रायान् । जीवा० २८ प्रधिः । णिधानमीश्वरप्रणिधान, सर्वक्रियाणां फलनिपेक्षतयेश्वरसम-णिययपचय-नियतपर्वत-पुं०।क. सासदा भाग्यत्वेनाव
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गिययपव्वय
क्रियशु
तेषु तेषु येषु देवा देव्या नवधारणीयेनैव रीरेण प्रायः सदा रममाणा श्रवतिष्ठन्ते । रा० जी० । विधि नियतपिएम पुं० मया ताद्दयं प्रवता तु । एतावद्दातव्यं, नित्यमेव ग्राह्यमित्येव नियततया गृह्यमाणे पिएमे, स्था० १० मिडिनिषेधः शितिमिमा गे २०६७ पृष्ठे द्रष्टव्यः ) निवयवयनिनचनीय स्विसपरिच्छेये, "णिययवयपिज्जसच्चा, सब्वनया वियालणे मोहा । " सम्म १
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( २०१४ ) अभिधानराजेन्द्रः ।
काएम ।
विवासनियतवास पुं० बिहारकाले बिहारमकृत्वा एकत्र वासे, "जाहे वि अपरितंता, गामागरनगरपट्टणममंता । तो केश निययवाली. संगमथेरं ववइति ॥ ११ ॥ " भाव० ३ अ० । ( णितियवास ' शब्देऽस्मिन्नेव भागे २०६७ पृष्ठे ब क्तव्यतोक्ता ) " भवयमणियतविहारं, यियविहारं पण ताव साहूणं । कारणनीयावासं, जो सेवे तस्स का बत्ता ? " ॥ १ ॥ महा० ४ श्र० । यियाशिवय निषताऽनियत विश्वमवश्यंभावन "पानिपतं पार्थता बुद्धि (v) सुखादिकं किविप्रियतिकृतमश्नापितं तथानियमात्म पकारेश्वापितं सद् निगतकृतमेचे कान्तेने वाऽऽश्रयन्त्य तोऽजानानाः । सूत्र० १० १० २४० । पियानिष्पापक्षयविहारि []-निजकाभिप्रायोपत
विहारिन-त्रि स्वमत सुविदिते जी० १ प्रति । पिययावास - नियतवास-पुं० । 'णिययवास' शब्दार्थे, माव० ३ अ० ।
पियल निगम-नः । लोहमये" वेमी" इतिख्याते पादयेोबन्धने, भौ० । " नियन्त्रेद्दि य बका पिड़िया य । " आ० म० १ अ० २ खपम । सूत्र ।
यिलिंग [ ए ] - निजलिङ्गिन् पुं० । स्वमतवेषिणि, जीवा ३५ अधि० ।
णियन - निगम- पुं० | मष्टाशीतिमहाग्रहाणं त्रयः पञ्चाशत्तमे महाग्रहे, " दो नियल्ला । " स्था० २ ० ३ उ० । चं० प्र० । निज-पुं० । महाप्रदे, स्था० २ वा० ३ उ० । चं० प्र० । यित्रित्र-निजविभव - पुं० । स्वकीयविभूती, पञ्चा० ६ विष० । नियमनिनित्रशक्ति श्री स्वसामध्ये द्वा० १५० शियसमय-निजसमय पुं० । स्वकीयावसरे, पञ्चा० ९ विव० । यिसिस्सखंध वढिय - निजशिष्य स्कन्धचटित त्रिः । साभ्यं शाऽऽरूढे, जीवा० २१ अधि० । शिवाइय-निकाचित नियम १० णियाग नियाग-पुं० नितरां जनं वागा पूजा परिन् सो
-
यं नियागः । मोक्त्रे, तत्रैव नितरां पूजा सम्भवात् । उत्त० १ अ० । अष्ट० । संयमे च । कायें कारणोपचारात् । सूत्र० २ श्रु० १ प्र० । श्राचा० । नित्य-पुं० । भ्रामन्त्रितपिएमे, " जे नियागं ममायंति, कीथमुसियाह बहते समजणंतिमदेखि ४५॥" दश० ६ ० " उद्देलियं की यगडं, नियागं अभिहडाणि य । "
णियाण
इति मनाचरितेषु परिगणनात् । तत्र नियागमित्यामन्त्रितस्य पिएमग्रहणं नित्यं न स्वनामन्त्रितस्य । दश० ३ ० । नियागडि [ ए ]- नियागार्थिन् नियागो मोस्ताँ ण् त्रि० । मोकस्तद्धमों वा तदर्थिनि, सूत्र० १ ० १ अ० २ उ० मोक्कार्थनि, उत्त० ५० । एवमेगे णियागट्ठी, धम्ममाराहगा वयं । " सूत्र० १ शु० १ भ० २ ० ।
नियागपभिवा- नियागमतिपत्र यजनं वागो, नियो । निधितो वा बागोनियागो मोहमार्ग सोसाय ज्ञानदर्शनचरित्रात्मकतया गतं सङ्गतमिति तं नियागं सम्यदर्शनान चारित्रामा प्रतिनियागप्रतिपनः । मोमार्गस्य सम्यग्र, (भाषा) "शिवायपरिवन्ने श्रमायं कुवमाणे विग्राहिए।" आचा० १ ० १ श्र० ३ उ० । सूत्र• । णियाण-निदान न० । निश्चिनं दानं निदानम् । अप्रतिक्रा मास्यावश्यमुद्द्यावर्मन् आ००४ अ० नि० 딸이 प्रत्यि प्रणिदा ती- उन्भे तेण परिहर णिदाणे । ते पुण तुला तुझा, मोहणियाणा उपक्रखे त्रि ।। २२० ।। निदाएं णाम- जं पमुच्च मोहणिज्जं उद्दिज्जति । तं जहा इट्ठसद्दा ऽऽदि । उक्तं च- "दव्वं खेतं कालं भावं च भवं तदा समासज । तरस समासुद्दिडो, उदश्रो कम्मस्स पंचविहो ॥ १ ॥ " ( दुपकले विति) “इत्थी पुरिसाण य तुल्ला " नि० चू०१५ ४० दि यमानुषऋद्धिदर्शनश्रवणाभ्यां तदभिलाषा अनुष्ठाने, आव ४ म० । स्वर्गमssदिप्रार्थने, श्रतु । स्था० । भोगप्रार्थ नायाम्, व्य० १ उ० । स्था० । निदायते लूयते ज्ञानाऽऽद्याराधनासताऽनन्दरसोपेतमोकफला येन परशुनेव देवेन्द्रादिगुणद्विप्रार्थनाऽध्यवसानेन तन्निदानम् । स्था० १० ० ॥ नव निदानानि
तो कालेणं तेणं समरणं रायगिहे नामं णगरे होत्या । ओ गुणसिलए चेए रायगिदे गरे से लिए पा राया होत्या | रायवाओ एवं जहा लववातिए जान चेद्रणाएं सर्फि विहरति ।
"
( तेणं का लेणमित्यादि ) व्याख्या प्राभवत् । ( सेणिएस) श्रेणिको नाम राजा ( होत्थ प्ति ) मनवत् श्रासीदित्यर्थः । राति राजवर्णकः "महाहिमवंतमतमलयमंदरमहिंदसारे सुद्ध राकुल निरंतर रायबिराश्यंगमंगे, बहुजण बहुमाणपूरप, सव्वगुणसमिद्धे।" (औ०) इत्यादिको वाच्यः । तस्य देवी समस्तान्तःपुरप्रधाना भार्या सकलगुणसमन्विता चेल्लणा नाम्नी । तस्या वर्णको यथा औपपातिकनाम्नि ग्रन्थेऽनिहितस्तथाऽत्राऽभिधातव्यः । स चायम्"सुकुमालपाणिपाया असिरीणजोया मामारंगी०|" (औ०) इत्यादिको वाच्यः । "जाव ष्टि" यावत्करणात्बेल्लाए सद्धि अपुरते इठे सद्दफरिसे रसरूपगंधे पंचविहे माणुस्सर कामभोगे पश्चग्भवमाणे विहर। " इतिपदकदम्बकपरिग्रहः विस्तरापपातकानुसारेण वाच्या, नेविरभिया प्रतम्यते ।
तर पं से सेलिए राया या कथा एदाए कब
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(२००५) णियाण अभिधानराजेन्मः।
पियाम लिकम्मे कयकोउयमंगलपायच्छित्ते सिरसा कंठे मालाकमे मणिकणगरयणविमलमहरिदनिनणोचियमिसिमिसंतविरश्य
सुसिलिकविसिलाविरुवीरवलए किंबहुणा ।" इतिपदभाविकमाणसुवो कप्पियहारऽकहारतिसरयपासंबपलं.
कदम्बकपरिग्रहः। (कप्परुषखए चेव त्ति) कल्पवृक एव । बमाणकडिसुत्यसोभे पिणछगेवेज्जे अंगुलजुग० जाव क
(अलंकियविनूसिए त्ति) भनकतो मुकुटाऽऽदिनि: ( विभू. परुक्खए चेव प्रलंकियविनूसिते परिंदे सकोरेंटमसदामेणं | सियत्ति) वस्त्राऽऽदिभिरिति । नराणामिन्द्रो नरेन्डः (सकोरेंबत्तेणं धरिज्जमाणेणं. जाव ससि व्व पियदसणे नरवई, टेत्यादि) सकोरेएटानि कोरण्टानिधानकुसुमस्तवकवन्ति मा. जणेव बाहिरिया वाणसाला जेणेव सीहासणे तेणेव ल्यदामानि पुष्पसजो यत्र तत्तथा, एवंविधेन ग्ण ध्रिय
माणेन, शिरसीत्यध्याहारः । यावत्करमात्-" सेयवरचाम. उवागच्छद, तेणेव नवागच्छित्ता सीहासणवरंसि पुरत्था
राहि मंगलजयसद्दकयालोए, अणेगगणनायगदंडनायगराईसजिमुहे निसीयति, निसीइत्ता कोमुंबियपुरिसे सहावे, स
रतलबरमामवियमंतिमहामंतिगणगदोबारियभमश्चचेमपीढमद्दहावेश्त्ता एवं बयासी-गच्छह णं तुज्के देवाणुप्पिया! जाई णगरनिगमसेडिसेणावतिसत्यवादयसंधिवाससद्धि संपरिघुइमाईरायगिहस्स नगरस्स बहिया । तं जहा-आरामाणि य, डे, धवलमहामेदनिग्गए व गहगादिप्पंतरिक्खतारागणाण
मज्के" (श्री.) इति पद कदम्बकग्रहः। शशीव प्रियदर्शनो नरपनजाणाणिय,पाएसणाणि य, प्राययणाणि य,देवकुला- |
तिर्यत्रैव बाह्या उपस्थानशाला आस्थानमरामपो, यत्रयसिंहासन, णि य, सजाओ य, पवाओ य, पणियसालाओ य, जाण- तत्रैवोपागच्चति, उपागत्य सिंहासनावरे पूर्वाभिमुखः संनिवीद. सालापो य, सुधाकम्मंताओ य, वाणिज्नकम्मताओ य, ति, निषद्य कौटुम्बिकपुरुषान् नृपाधिकारिणः पुरुपान् शब्दकट्टकम्मंताओ य । जे तत्य वणमहत्तश्या चिट्ठनि, ते एवं
यति आमन्त्रवति, भामन्यैवमवादीत्-गच्छत । णमिति वा
क्यालङ्कारे । यूयं देवानां प्रियाः सरबस्वभावा, यानि इमानि वयह-एवं खलु देवाणप्पिया ! सेणिए राया भिंनिसारे
अनन्तरं बक्ष्यमाणस्वरूपाणि, राजगृहस्य नगरस्य बहिर्भवन्ति प्राणवेइ-जया णं समणे जगवं महावीरे आदिगरे०
इति शेषः । तद्यथा-(आरामाणीत्यादि) आरमन्ति येषु माजाव.............."पुव्वाणुपुधि चरमाणे गामाणुगामं दूइ- धचीनतागृढाऽऽदिषु दम्पत्यादीनि ते आरामाः, प्राकृतवानपुंज्जमाणे सुहं सुहेणं विहरमाणे संजमेणं तवसा अप्पाणं सकत्वम्। उद्यानानि पुष्काऽऽदिमहकसंकुलान्युत्सवाऽऽदी बहजावेमाणे इहव उ विहरेजा, तया णं तुज्के समस्त जग
जनभाग्यानि, आवेशनानि येषु लोका श्राविशन्ति तानि बाऽय.
स्कारकुम्भकाराऽऽदिस्थानानि, प्रायतनानि देवकुलपाॉपवरवतो महावीरस्स अहापभिरू प्रोग्गडं जाणेह, अवधारेत्ता
काः, देवकुलानि प्रतीतानि, सभा-आस्थानमएकपा,प्रपा उदकसेणियस्स रनो निजिसारस्स एयपढे शिवेदेह ।
दानस्थानानि, पण्यशालाः परायगृहाणि, पाया पणाः। यानशा.
ला यत्र यानानि निष्पाद्यन्ते । सुधाकर्मान्तानि यत्र सुधापरिकर्म (नते णं से सेणिए इत्यादि) ततोऽनेकमल्लयुद्धव्यायामा
कियते । बाणिज्यकर्मान्तानि यत्र वाणिज्यार्थ पहयो मिलन्दि ऽऽदिकरणानन्तरं स पूर्वनिर्दिष्टः श्रेणिको राजा, अन्यदाऽ
लोकाः। एवं काष्ठकर्मान्तानि यत्र काष्ठानि ऋया. जलाउंभ. न्यस्मिन्नवसरे, कदाचित् ( राहाते इत्यादि) स्नानं कृ
बनभिया वा यत्र संनिकिप्तास्तिष्ठन्ति । उपलकणत्वात्-दर्भयतवान्, ततोऽनन्तरं कृतं बत्रिकर्म येन स्वगृहदेवतानां स
धंवदनयानरथगृहान्दानि व्यानिशब्दः सर्वत्रापरापरतथा, हतानि कौतुकमङ्गनान्येव प्रायश्चित्तानि दुःस्वप्नाऽदि
भेदसंसूचकः। तब ये बनमहत्तरकाः,वनमुपलत्तणमाविशनाविघातार्थमवश्यकरणीयत्वाद्येन स तथा । अन्ये त्वाः
हीनामाशाता प्रत्यये ज्ञाता अधिपतित्वेन प्रसिद्धास्तिष्ठन्ति, "पायनिकृत्त ति" पादेन पादे वा विप्तो रदोषपरिहारार्थ तान, एवं बदत। किं तदित्यादि-(पवं खल्वित्यादि) एवममुना पादक्षिप्तः, कृतकौतुकमनल प्रायश्चित्तश्चासौ इति विग्रहः। तत्र प्रकारेण,खल्वित्यवधारणे, अहो देवानां प्रियाः! श्रनिको राजा कौतुकानि मषीतिलकाऽऽदीनि, मङ्गलानि तु दध्यकतवाडूरा- (भिभमारे ति) भिम्भा भेरी, सैव सारा प्रधाना यस्यासौ
दीनि । (सिरसा कंठे मालाकमे स्ति) शिरसा करावे च माला जिम्भसारः । तदाख्यानमेवं कुमारभावे-" अम्गिणा घरे परित्ते कृता धृता येन स तथा । क्वचित्-" सिरसि रहाए कंठे सेणिएण य निभियं घेत्तण णिग्गतो। अवसेमा कुमारा भरणमालाकमे" इति पाठः । तत्र शिरसि रातः । ननु पूर्वमपि
गानि पिणा पुच्चिया। सब्वेहिं कड़ियं-जेहिं ज णीयं । सोणपण "राहाए सि" उक्तं, तर्हि किमर्थ भूयोऽपि-" सिरसि एहाए
भणियं-मप भिभणी णीया। सेणियो पिनणा भणितो-तुज्ककिं त्ति। "पुनरुक्तप्रसङ्गात् ? । उच्यते-स्नातः सामान्यतोऽपि क
एस सारो? तेण नणियं-आमंति। ततो से रम्या जिभसारीणाम एठस्नात नुच्यते, अतः पुनरुपादानं, तस्मिन् दिने विशेषत उ
कयं।"शेष ज्ञातचरमेव ।(प्राणचे त्ति) माझापयति । किं तदि. कम्-शिरसि स्नातः, द्वितीयं पदं सुबोधम् । (प्राविकमणिसु. त्याह-(जया णमित्यादि) यदा, णमिति वाक्याल हारे । श्रमणो वस्ले त्ति) भाविकं परिहितम् । (कप्पियेत्यादि) कल्पिता- भगवान्महावीर आदिकरः । यावत्करणान्-" निम्धगरे सयंनीटानि रचितानि च दाराऽऽदीनि कटीसूत्रान्तानि यस्य । तानि संबुद्धे पुरिमुत्तमे पुरिससीहे."(औ.) इत्यादिकालमहतो.ऽपि च सुकृतसाभान्याभरणानि यस्य स तथा । पिनकङ्गयेयकः । औपपातिकमन्धप्रसिको नगवद्वर्मको वाच्या, सचानिगरीयावत्करणात-" अंगुत्रिजुगलनियकयाभरणे, नाणामणिकण. यानिति नलिण्यते, केवल मौपपानिकग्रन्धादवसयः । मंग्रागरयणवरकडगनुडियर्थभियभुए, अहियरुवसस्सिरीर, कुंम- पतकामो मोक्ष प्रति तदनुकूलव्यापारवान् । पुनः (पुब्यापुग्वि ला रजोनिताणणो मउडदिससिरए,हारोच्छ्यसुकयरइयवस्थे, त्ति) पूर्वानुपा, नाऽनानुपूा चेत्यर्थः। (संघरमालि) चरन् मुद्दियाधिगगुलिप,पालंवरलंबमाणसुकयपम उत्तरिजे, नाणा- संचरन् । एतदेवाइ-(गामाणुगाम दूजमाणे त) ग्रामथ
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(२०१६) मियाग अभिधानराजेन्द्रः ।
पियाण प्रतीतोऽनुग्रामश्च विवक्षितप्रामानन्तरो ग्रामो ग्रामानुग्राम,तं 5. सामी!दसणं कंखइ० जाव, से णं समणे जगवं महावीरे बन् गच्चन् एकस्माद् ग्रामादनन्तरं प्राममनुल्नवयानस्यर्थः ।।
गुणसिलए चेइए जाब बिहरह। तेणं देवाणुप्पियाणं पियं अनेनाप्रतिबद्धविहारमाह, तत्राप्यौत्सुक्यभावामिति । (सुह
निवेदमो-पियं भे नवतु । तेणं से सेणिए राया तेमि सुहेणं विहरमाणे ति) अत एव सुख सुखेन शरीरस्वेदाभाघेन, संयमबाधाभावेन च विहरन स्थानात स्थानान्तरं गच्च
पुरिसाणं अंतिए एयपटुं सोचा जिसम्म हहतुह० जाव न, ग्रामाऽऽदिषु वा तिष्ठन्, संयमेन तपसा आत्मानं जावयन् हियए सीहासणाश्रो अन्जुढेति, अन्नहित्ता जहा कोणिपासयन् , दैव अत्रैव नगरे, उकारोऽलाक्षणिकः, विहरेदाग.
ए० जाव वंदति, णमंसति, वंदित्ता णमंसित्ता ते पुरिसे सकछेत्,तदा यूयं श्रमणस्य नगवतो महावीरस्य यथाप्रतिरूपं चि.
काति, सम्माणेति, सकारत्ता सम्माणेत्ता विपुलं जीविरम्तनसाध्ववग्रहसदृशमवग्रहमनुजानीश्वम् अनुदध्वम् । भनुजानीय श्रेणिकस्य राज्ञो भिम्भासारस्य दिपनमर्थ निवेदयध्वम्।। यारिहं पीतिदाएं दलयति, पमिविसजेति, पडिविसज्जेत्ता
तते णं ते कोडुंबियपुरिसा सेगिएणं रन्ना भिंनिसारेणं णगरगुत्तिए सदावेति, णगरगुत्तिए सदावित्ता एवं वयाएवं वुत्ता समाणा हट्ठजाव हियया कय०जाव एवं सामि! सी-खिप्पामेव भो देवाणप्पिया! रायगिह नगरं सभितरत्ति आणाए विणएणं पमिसुणेति, पडिमुणोत्ता सेणियस्स | बाहिरियं आसियसम्मज्जितोवलितं. जाव पच्चप्पिणंअंतियाअोणिक्खमंति, णिक्खमित्ता रायगिहंगरं मऊं ति । तेणं से सेणिए राया बनवाउयं सदावेति, सहावेत्ता मजणं णिग्गच्छति, णिग्गचित्ता जाई इमाई रायगिहस्स | एवं बयासी-विप्पामेव भो देवाणुप्पिया! हयगयरहजोहपहिया-आरामाणि य० जान जे तत्य महत्तरया अन्नया कलियं चामरंगिणं सेण समाहेहण्जाव से वि पञ्चप्पिणंति । चिट्ठति, ते एवं वदंति-जाव सेणियम रमा एयमढे पियं तते णं से सेणिए राया जाणसालियं सद्दावेति, जाणसानिवेदिजा,पियं भे नवतु । दोच पि एवं वदित्ता जामेव दिसिं लिय सद्दावेत्ता एवं वदासी-खिप्पामेव भो देवाणुप्पिया ! पानग्जूता तामेव दिसिं नगरस्स परिगता । तेणं कालेणं धम्मियं जारगप्पवरं जुत्तामेव नवहवेह, नववेत्ता मम सेग्णं समएएं समणे जगवं महावीरे आदिकरेजाव गामा
एयमाणत्तियं पञ्चप्षिणाहि । तते ६ ते जाणसानिए सेगाम दुइज्जमाणेजाव अप्पाणं भावेमाणे विहरति । तएणं
पिएणं रन्ना एवं वुत्ते समाणे इ० जाव हियए जेव रायगिहे गरे सिंघामगतियच उक्कचच्चर० जाव परिसा जाणसाला तेणेव उवागच्छति, तेणेव उवागच्छित्ता णिग्गया० जाव पज्जुवासेति । तते णं जेणेव महत्तरया तेणेव
जाणसानं आपविसति, जाणसालं अणुप्पविमित्ता जानवागच्छति,तेणेव उवागचित्ता समणं भगवं महावीरं ति- | एग पच्चुवेक्खति,जाणगं संपमज्जति, जाणगं संपमज्जित्ता करवपोवंदनि,नमसति,वंदिता नमसिना णामं गोयं पुच्छति,
दूसं पवीति, दूसं पवीणेत्ता जेणेव वाहणसाझा तेपुच्छित्ता पामगोत्ताप धारेति,णामगोत्ताए धारेतित्ता एगं.
व नवागच्चति, नवागच्छित्ता वाहणसालं पप्पततो मिन्नति,एगंततो मिलित्ता एगंतपयक्कपति,एगंतमवक्कमित्ता।
विसति,वाहणसानं अणुप्पविसित्ता वाहणाई पच्चुविक्खति, एवं वदासी-जस्स एं देवाणुप्पिया सेणिए राया जिनसारे वाहणाई संपमज्जेत्ता वाहणाई अप्फाति,वाहणाई अप्फादंसाणं कंखति, जस्स णं देवाणुप्पिया सेणिए राया दसणं लित्ता वाहणाई णीति,णीणेत्ता ईसी पीणेति,ईमी पमीपत्येति जाव अनिलमति, जस्म णं देवाणुप्पिया सेणिए
णेत्ता वाहणाई सालं करेति, वाहणाई वरभंगमंमिताई राया णामगोत्तस्स वि माताए हट्ठाजाव जवति,से कोत्ता जाणगं जोएति, जाणगं जोएतित्ता बमं गाहेति, णं समाणे भगवं महावीरे आदिकरे तित्यकरेजाव सव्वाप्पू वमं गाहेत्ता पनयलहिपउयधरसमं अरहयति, अरहयित्ता सबदारसी पुवापुचि चरमाणे गामाणुगामं दूइजमाणे
जेणेव सेणिए राया तेणेव नवागच्छति, तेणेव उवागच्छिमुहं मुहेणं विहरति । इहमागते इहसंपत्तिए० जाव अपाणं
ताजाव एवं वदासी-जं तए सामी! धम्मिए जाणप्पवरे नावेमाणे सम्भं बिहरह; तं गच्छह णं देवाणप्पिया ! से
प्राइट्ठा नदं तव आरुहाहि । तते णं से सेणिए राया जिनसारे प्रियस्म रन्नो एयमहूं निवेदेमा-पियं भे नवन त्ति कटु जाणसालियस्स अंतिए एयमहं सोचा णिसम्म हडतुहा० एयम8 अझमास्स पडिसुति, अममास्स पमिणेत्ता जाच मज्जणघरं अणुपविसतिन्जाव कप्परुक्खए चेव प्रलं. जेणेव रायगिहे नगरे तेणेन उवागच्छंति, तेणेव नवाग- कितचित्तविनुसिए णरिंदेजाव मज्जाघरातो पमिक्खि . चित्ता रायगि नगरं मज्कं मरणं जेणेव सेणियस्स रनो मति, पमिमिक्खमित्ता जेणेव चिमणा देवी,तेणेव उनागगिहे,जेणेव सेणिए गया तेणेव उवागच्छति, तेणेव उवा- च्छति, तेणेव उवागच्छित्ता चेसाणं देवि एवं वदासी-एवं गचित्ता सेपियं रायं करयसपरिग्गहियं० जान जएणं खल देवाणुप्पिए ! समाणे जगवं महावीरे आदिगरे तिविजएवं बराति, वायित्ता एवं वयासी-जस्स एं त्थगरे जाव पुवाणुपुबिजाव संजमणं अप्पाणं नावे
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(२०५७)
श्रभिधान राजेन्द्रः ।
बियाण
माणे विहर। तं महाफणं देवाप्पिए ! तदारूवाणं अरहंता• जाव तं गच्छामो देवाप्पिए ! समणे जगवं महावीरे बंदामो,णमंसामो, सकारेमो, सम्माणेमो, कल्लाणं मंगलं देवयं चेयं पज्जुवासामा । एतेणं इह भवेय परभवे य हियत्ताए सुहाए खमाए निस्सेयसाए० जाब आणुगामियत्ताए नविसति । तते णं सा चिह्नणा देवी सेणियस्स रखो अंतिए एम सोच्चा निसम्म दहतुट्ठा० नाव पाकिसुणेति, पार्क
ता जेणेव मञ्जणघरे तेणेव उवागच्छति, तेणेव उवागचिता एहाया कयवलिकम्मा कयको यमंगल पायच्छित्ता किंते (?) वरपायपत्तणेजरमणिमेहनाहाररइयवेि हियक मगखमुगरगाव लिकंठ मुरयतिसरयवलय हे म सुत्त कुंम लुज्जोइताण
रयणमणिसियंगी वीणं सुयवत्यपरिहिया दुगुल मुकुमासकंतरमणिज्ञ्जउत्तरिज्जा सब्बोजयसुरनिकुसुमसुंदरायितपलं बेत सोहंत कंत विकंतविक संतचित्तमाला बरचंदाचच्चि - सा वराजराजूसियंगी कालागरुधूवधूविता ससिरीसमात्रेमा बहूहिं खुज्जाहिं चिल्लातियाहिं० जान महत्तरगवंदपरिक्खित्ता जेणेव बाहिरिया वाणसाला जेव सेलिए राया तेथेच जवागच्छाते । तते णं से सेखिए राया चिलणाए देवीए सद्धिं धम्मियं जाणप्पवरं दुरूहति, सकोरंटमदामेणं छत्तेणं धरिज्ञ्जमा उबवाइयगमए० जाव पज्जुवासति । एवं चिल्लणा वि० जान महतरगपरिक्वित्ता जेणेव समणे जगवं महावीरे, तेणेव नवागच्छति तेणेव उवागच्छित्ता समणं जगवं महावीरं वंदति, नमंसति, सेलियरायं पुरतो काळं ठिया चेव० जाव पज्जुवासति । तते णं समणे जगवं महाबीरे सेणियस्स रपो भिभिसारस्स चिह्नणाए देवीए सद्धिं तीसे महति महालयाए परिसाए बतिपरिसद देवपारसह अगसयाए०जाव धम्मो कहितो, परिसा पढिगता, सेलिए राया परिगए । तत्थ णं अत्यंगतियाणं नियाण य निग्गंथीण य मेणियं रायं चिल्लां देवि पासि
इमेयारूवेत्थिए०जाब संकप्पे समुप्पज्जित्था - हो सेलिए राया महिडिएण्जाव महासक्खे, जे ां एहाते कयवझिकम्मे कयकोउयमंगल पायच्छिते सव्वालंकारविभूसितं लाए देवीए सद्धिं उरालाई जोगभोगाई जुजमाणे विहरड़ | ए मे दिट्ठे देवा देवयोगंसि, सक्खं खलु अयं देवो । जति इमस्स तवनियमगंज चेरफल विसेसे प्रत्थि, वयमवि प्रागमिस्साई एताई उरालाई एतारूबाई माणुसगाई भो
भोगाई जमाणे विहरामो, से तं साहू । अहो चित्ररणा देवी महिडिया जाव मडेसक्खा, जा णं एहाया कयबनिकम्मा० जाव सव्वाकारविजूसिया सेलिए रन्नासद्धिं उराबाई० जाव माणूस्वगाई जोगजोगाई झुंजमाणी विहति । ण मे दिट्ठाओ देवीओ देवलोगंसि, सक्खं खलु
५२५
For Private
णियाण
इयं देवी | जइ इमस्स सुचरियस्स तवनियमबंभचेरवा मस्स कन्लाणे फन्नवित्तिविसेमे प्रत्थि, वयमवि आगमिस्साई इमाई एयारूबाई उरालाई ०जाब बिहरामो, से तं साडुणी ॥ ( तते णमित्यादि) व्यक्तं नवरम् एवमुक्ताः सन्तो ( हठतुट्ठा इत्यादि) हृष्टतुष्टाः, अतीव तुष्टा इति भावः । अथवा दृष्टा नाम विस्मयमापन्नाः- यथा श्रहो ! भगवद्वानित्रेदनार्थमस्मा कमादिशतीति । तुष्टाः तोषं कृतवन्तः यथा भव्यमनूचदस्मान् नगरवार्ता जिज्ञासुः श्रेणिको राजा प्रादिशति । वाबकरणात् -" चितमाणंदिया पीरमणा" इत्यादिपदकदम्बकपरिग्रहः । (अकरार्धमात्र बोधिका टीकेत्युपेक्षता ) तत्र प्रथमम् -
अज्जो ! ति समये जगवं महावीरे बहवे पिगंधा यणिगंथीओय श्रमतित्ता एवं वदासी-सेणियं रायं चेस्लणं देवि पासिता इमेयारूवे अज्जस्थिते०जाब समुप्पज्जित्थाहो सेपिए राया महिडिएन्जाब से तं स हु । अहो चिणा देवी महिष्ट्रिया सुंदरा०जान से तं साहुगी । से प्रज्जो ! प्रत्थे समट्ठे ? | हंता ! अस्थि । एवं खलु समाजसो !
धम्मे पत्ते, इलामेत्र णिगंथे पात्रयणे०जाब प्रणुत्तरे पमिपुत्रले संसु ऐयाउए सनकत्तणे सिद्धिमग्गे निव्वाणमगे पिज्जा मग्गे अवितहमविसघिसन्नडुक्खप्पडीमग्गे इत्यंडिया जीवा सिति, बुज्ऊंति, मुञ्चंति, परिनिव्त्रायंति,सच्चदुक्खाणमंतं करेति । जस्स गं घम्पस्सवांचे सिक्खाए उब िविहरमाणे पुरा दिगंबाए पुरा पिवासाए पुरावतातहिं पुरा पुढे विरूवेहिं परीसदोवसग्गेहिं उदि
कामजाते यावि चिह्नरे जा, से य परकमेज्ज, से य परकममाणे पासेज्जा - जे इमे उग्गपुत्ता महासा[मा]नया, जोगपुत्ता महामाउया, तेसिणं अतरस्म अतिजायमाणस्स वा निज्जायमाणसवा उनओ तेसिं पुरतो महं दासीदामकिंकर कम्मकरपुरिसापदात परिक्खित्तं वत्तं भिंगारं गहाय णिग्गच्छति । तथा
तरं च पुरतो महा आता आसवरा, पिडओ तेसिं लागा लागवरा, पिट्ठतो रथा रथसंगिनी, से उद्धए से उत्ते अन्सुग्गतभिंगारे पग्गहियतालिवेंटे बीयमाणसेय चामरवा
वीणाए अभिक्खणं २ अनिजाति य णिज्जाति य सप्पभा सपुव्वापरण्हं एहाए कयवलिकम्मे० जाव सव्वासंकारजूसिए महति महालयाए कुमागारमालाए महति महानयंसि सीहासणंसि दुह विव्वोयरिंग दुइप्रो०जाव सव्वरातिर जोतिणीसि कायमाणेणं इत्थीगुम्मसंपरिमे महताऽऽहतनट्टगीयवाइयतं तीतल तालतुमियघणमुइंगमदलपमुप्पचाइयरवेणं नरान्नाई माणूस्सगाई जोगजोगाई
माणे विहरति । तस्स एां एगमत्रि आणवेमाणस्स जाव चत्तारि पंच अणुत्ता चेत्र अन्नु छेड़ - जण देवाप्पिया! किं करेमो, किं आहरामो, किं उवणेमो, किं आचिट्ठामो, किं भे हिय
Personal Use Only
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बियाण
एच्छितं किं जे प्रसगस्स सदति नं पासित्ता विम्येदाणं करेति इमस्स तवनियमभचेरवामस्य तं चैव० जात्र माडु | एवं खलु समाउसो ! ग्गिंथे पिदाणं किच्चा तस्मासोइय अभियंते कालमासे का किया अणुतरे देवो देवताए उतारो जवंति। महिडिएमु० जान चिरडिनीए से तथा देवे जयति मडिडिए० जान चिरद्वितीय, ततो देवोगा आउपखणं ठितिवखयं अांतरं चयं चत्ता जे इमे उग्गपुत्ता महामाया, तेसि
तरंसि कुलंसि पुमत्ताए पञ्चायंति से णं तत्थ दारए जवति, सुकुमालपाणिपाए जात्र सुरूवे । तते गं से दारए उम्कानावेच मोपागमप्पने सपमेव पेनियं दायं पडिवति । तस्वणं अतिजायमाणस्स वा० जाव पुरतो महं दासी दास० जाव किं भे आसगस्स सदति । तस्य णं तप्यगारस्स पुरिसम्म जातस्स तहारूने समणे वा उभतो कहां के चम्यमाइवलेजाता ! आइक्खेजा । एवं संपडिसुणेज्जा ? | जो इण्डे समड़े से भगवं महिच्छे महारम्भे महापरि अहम्पिए० जाव आगमे साणंदु नवोहिए यावि भवति । ते एवं खलु समाउसो ! तस्स निदाहस इमेवारूने पाव फलविवा
यो संचापति केवधमिति ॥ १ ॥ कचिदू "महामागा" इति पाउनी शीलरूपादियुक्का माता येषां ते महामातृका इति एवं भोगपुत्रा, आदिदेवाच स्थापित गुरुवंराजपुत्राः । उपलक्षणं चैतत् - राजेदवाकुकौरवनागाना तमाह (लेखा) नेपा मन्यतरस्य (प्रति जायमाण सि) आगच्छतो बहिः प्रदेशात् स्वगृदं प्रति (विज्ञायमा निगृदादेदि प्रदेश प्रति । कथमित्याइ - उभयतस्तेषाम् उग्रपुत्राऽऽदीनां पुरतो मदमित्यादि) पुरतोऽग्रतो महान्तो ये दास्यश्श्रेट्यो, दासाश्चेटकाः किङ्कराः प्रतिकर्म प्रभोः पृच्छापूर्वकारिणः कर्मकरास्तदन्यथाविधाः, ते
ते पुरुवाति समासः पदानं पदातिसमूह से परिि परिवृतं यत्तत्तथा । एवंविधं वनं भृङ्गारं च (गढ़ाय निग्गच्छंति ) इत्यनेनास्य प्रति तथा मित्यादि) ततोऽनन्तरं पुरतो तो महान्तो वृत्तमा भयाः तुरङ्गा ( श्रसवर त्ति ) अश्ववरा अश्वानां मध्ये प्रधानाः, (नाग नि) नागा हस्तिनः, नागवराः नागानां प्रधानाः । एवं पृष्ठतो रथाः (रथ) रथसमुदाय से णमित्यादि) सोऽनिर्दिष्टनामा | उद्धृतश्च तच्छत्रः । तथा ( अनुमायभिंगारे ति ) अ भ्युतोऽभिमुखमुद्गत उत्पादितो भृङ्गारो यस्य स तथा । (ख) प्रति तथा वीज्यमानाः श्वेतचामरवालव्यजनिका यं प्रति स तथा । (अभि• २) भूषभूषाकवचनं निर्गमनसमयी त्य घामाह । कथम्भूतास्ते ? - (सप्पभा इति) सती शोभना प्रभा का पुण्यावरहमित्यादि) सह पूर्वेण पूर्वाडि कर्तव्येनापरेण वापरा कर्तव्येन यदि वा पूर्व रयते - तथापरं च पारिकपते विलेपनभोजनादिकं तेन सह
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(२०१०) अभिधानराजेन्द्रः
शियाण
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वर्तत इति सपूर्वापरम् । इदमुकं भवति यद्यदा प्रायते, तदा संपद्यते इत्यनिचितार्थप्राप्तमेव दर्शयितुमाह-रा (द) कृतपलिकमो यावत्करणा (कंजे माकडे ति) कपडे कृतमात्रम् । ( कप्पियति ) कल्पितश्वासौ मात्रा प्रधानो मुकुलितः कमल संचितो मुकुटश्च स तथा विद्यते यस्य स कल्पि तमामुद्रा (पपरिया मकलापश्च येन स तथा । महतं मूखिकाऽऽद्यनुपहतं यद्वत्रंतरप रिहितं येन स तथा । (चंदणोगिात सरीरे त्ति) चन्दनेन प्रतीते. न उत्कमिवोत्कीर्ण, गात्राणि शरीरं च वस्य स तथा, एवंविधम् । (मद्दति माया इत्यादि) मदस्यामुयायां मदानावस्त्रीणां कूटाकारा सायां कूटस्येव या पर्वतशिया तस्या श्वाऽऽकारो यस्याः सा कूटाऽऽकारा, यस्या उपरि श्राच्छादनं शि खराकारं सा कूटाऽऽकारेति भावः । कूटाऽऽकारा चासौ शाला च कूटाssकारशाला । यदि वा कूटाऽऽकारेण शिखराकृत्योपलकिता शाला कूटाऽऽकारशाला | उपलक्षणं चैतत् प्रासादाऽऽदीनाम् । कूटाऽऽद्याकाराणं नित्वाधानकारणत्वा तू । (मदति) महालये शयनीये (दुड्तो) उजयतः, उज्जौ शिरोऽन्तपादान्तावाश्रित्य । (विन्त्रोयणि ति) उपधानं यत्तथा तस्मिन् । (दुइ त्ति ) उजयतः, उन्नते मध्ये ततं भिन्नत्वाद् गम्भीरं व महत्वो गम्भीरं वा गंगालिणबालुयाश्रवदात सालिसए " इत्यादिपदकदम्बक परिश्र हः । (लव्रातित्ति ) सर्धरात्रिकेण ज्योतिषदीपरूपेण ध्यायमानेन जायमानेन (इस्मस) मेनपतिजन सार्द्धमपरपरिवारण संपरिवृतो वेष्टितः, तथा (मइया इयेत्या दिमायेति योग (इति) वानप्रतिजानीति वृद्धाः । अथवा हतानि श्राहतानि, अव्याकृतानीति भावः । नाटयगीतवादितानि च तन्त्री वीणा, तला हस्ततालाः, ताला कांसिका, बुडितानि षण तथा घनी घनसनिःसा त्यो जो मईलः पटुना पुरुषेण प्रवा तेषां पदानां द्वन्द्वः। तेषां यो रवस्तेन, उदारान् प्रधानान् २ मानुयसंबन्धीन् । शेषव्याख्या प्राग्वत् । ( तस्सेत्ति ) तस्य क्वचित् प्रयोजने समुत्यने सत्येकमपि पुरुषमाज्ञापयतो याच्चत्वा पञ्च वा पुरुषा अनुक्ता एव समुपतिष्ठन्ते । ते च किंकुर्वाणाः, ए तद्वदयमाणं जगुः । तद्यथा-भणाऽऽज्ञापयदे स्वामिन्! धन्या वयं येन भवताऽप्येवमादिश्यन्ते किं धर्म इत्यादि (हराम) श्रानयामः, (किं उवणेमो सि) सदपि किमुपनयामः। किमातिष्ठा मोऽचिनाप किं भे) किं युष्माकं रतिं तथा किं च (जे) युष्माकमास्यकस्य स्वदते स्वादु प्रतिभाति । यदि वा यदेव भवदीयस्याऽऽयस्य स्वदति तदेव वयं कुर्मः । प्रस्तुतमाह पूर्वेकस्वरूपं पुरुषम (पाले) नियो निदानं करोति । "मत्यादिपूर्ववत्)
मनन्तरे हे भ्रमण ! हे आयुष्मन् निधो निदान कृत्वा तस्य निदानस्थानव्यनागुरुणामति चारजातमनिवेद्य एवमप्रतिकस्य पुनः करणेनाऽनन्युत्थाय (करण्याप (स) क्रियते इति करणं, तस्य भावः कर एता तथा अनभ्युत्थाय (बहारिमितिपनयनयोग्यं तपःकर्म निकादिका पापच्छित्प्रायश्चित्तविशोचरवश प्रायश्चित्तम् अतिषय -
"
कान मध्ये अम्पतमेषु देवेषु देवतथा उपप्रसारो भवति । कथं जूते बियाह (महिर) इत्यादि प्रात् । नव | नवरं
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(२०९९ ) अभिधानराजेन्द्रः ।
पियापा
निरा प्रभावित उनन्तरं
नानायेन (उरणमित्यादि) आयु:कृपेण निरन स्थितिपेण प्रायुःकर्मणः स्थि निर्जरणेन भयज्ञवेण देवजवभिन्नकर्मणा गत्यादीनां निजेरणेनेति । अनन्तरं देवजव संबन्धिनां चयं शरीरम. (त्रइतति) त्यक्वा (मत्ताए ति ) पुरुषत्वेन, प्रत्यायान्ति । स तत्र दारको भवति, कुमारक इत्यर्थः । कथम्भूत इत्याह( सुकुमत्यादि) सुकुमारी पाणी पादी च पश्वाऽसी सुकुमारपाणिपाद पायरकरणात्-" ही परिचि दियसरीरे, लक्ष्खणवंजणगुणोवचेप " इत्यादिपदसमूहो रूष्टव्यः । तत्र अहीनानि स्वरूपतः पूर्णनि या संख्याः, पुण्यानि वा पूतानि पञ्चेन्द्रियाणि यत्र तथा तदेवंविधं शरीरं यस्य स तथा तम् (जणगुणोपा नि स्वस्तिकादीनि व्यजनानि मषीतिलकाऽदीनि तेषां यो गुणः प्रशस्तता, तेनोपपेतो युक्तो यः स तथा, तम् । (ससिसोस्माकारं कंतं पियदसणं) शशिवत् सौम्याऽऽकारं कान्तं कमनी
मतपत्र प्रियं रूणां दर्शनं रूपं यस्य सः, तम । ( विनयपरिणयमेत्तेति ) विज्ञ एव विज्ञकः, स बासौ परिणतमात्रश्च कलादिति गम्यते कः परिणमात्रः । (ण) योवनमेवमनुप्राप्तः स्वयमेव पैतृकं दायशब्देन धनं प्रतिपद्यते, आत्मायन्तं करोति । शेषं व्यक्तम् । (धम्ममारक्खेज पित्वं संपति) एवं संप्रति है। नायमर्थः समर्थः, अभविकोऽयोग्यः स तस्य धर्मस्य अणदानस्यैतदेव फलं या धर्मभतं न समर्थो जयति, नवरम् (पावए फलविवागे स ) पापकः फलविपाकः । इति प्रथमं निदानस्वरूपम् ॥ १ ॥
।
एवं व समावसो म धम्मे पाते तं नहायामेव ! मए निर्णये पारयणे० आव सम्यक्वा अंत करेति । जस्स णं धम्मस्स लिग्गंथीए सिक्खाए उबडिया विहरमाणा पुरा दिगिंकाए उदयकामजाया विहरेज्जा, साय परकमेजा, मा व परकमेमाशी पासेजा से जाइमा इल्यिया जयति एगा एगजावा गानरणादिविद्वाणा तेक्षपेला इव संगोपिता, चेलपेक्षा इव सुसंपरिग्गहिया रयणकरं
समाणा । तेसि णं अतिजायमाणी ए वा निज्जायमाणी ए वा पुरतो महं दासी दासा चेत्र० जाव किं भे आसगस्स सदति, जं पासित्ता णं णिग्गंया विदाएं करेंति-जति इस दिवस नियम जान भुजाणीवरामि साहुखी एवं खलु समणासो ! शिदा किया तस्स डागस्स प्रणालय पढिता कालमासे का कि
अधारे देवलांगेस देवताए उपचारो भवंति म किसु० जाव सा णं तत्थ देवे जवति० जाव मुंजमाणे विहरति । सा णं ताम्रो देवयोगातो प्राक्खणं न वक्खणं ठितिक्खणं प्रणंतरं चयं चइता जे इमे उग्गपुचा महामापा, जोगपुना महामाया सिणं अतरंसि दारिया पचायाति सा णं तत्थ दारिया भवति।
विषाण
कुपालनाच मुहवा तते तं दारि अम्मापियरो छम्मुक्कबालजावं विणयपरिणयमेत्तं जोव्वणगमपत्तं प-िरूपेणं सुकेण पटिक्स भत्तारस्य भारियाए दसयंति, सा णं तस्स जारिया भवति, एगा एगजाता इट्ठा कं ता०जाव रवणकरंदसाणा सीसे०जाब प्रतिज्ञायमालीएवा पुरतो महं दासी दास जाव किं मे आसगस्त सदति । तीसे णं तपगाराए इत्थियाए तहारूवे समणे वा उन्नतो का के लिए धम्मपाकलेला १ हंता ! आइवलेज्जा । तेणं जंते ! पडिणिज्जा ? | लो इणडे समट्ठे । अजत्रियाणं सा तस्स म्यस्त्र माया सा च जगतिमहिच्छा महारंभा महापरिग्गहा जाव दाहिणगामिरइए भगमिस्सए पोड़िए यात्रि भवाते । एवं खलु समाउसो ! तस्स णिदाणस्स इमेयारूत्रे पावएफक्षत्रित्रागं जं णो संचाति के पित्तं धम्मं परिसुणेतए ॥ २ ॥
•
द्वितीये किमपि लिक्यते-" एगे" इत्यादि । पका स्वरूपतः, एकजाता तज्जातीयान्यख पत्नीवर्जिता । ( एकाभरणा इति ) एकाभरणानि एक जाती पदे मरूप्यरत्नाभरणानि पिधानानि च वस्त्र यस्याः सा तथा । पुनः कथंभूताः, इत्याह- (तेल्लपेलाइ इत्यादि) पेरा सोराप्रसिद्धोन्मा जनविशेषः । स च भङ्गभालोटन नवाच्च सुसंध्यपर्व साऽपि । वेलपेटा इव सुपरिगृहीता । चेलानि वस्त्राणि तेषां पेला पोहलिका इव सुसंपरिगृहीता, सुरहिता इत्यर्थः । ( रयऐत्यादि) रत्नकरएक कसमाना बहुमूल्यतया यत्नेन रक्षिता । शेषं कण्ठ्यम् । ( दायित्ताए ति ) पुत्रीतया ( परिरुवेणं सुकेणं) प्रतिरूपेण स्वरूप उभयकुलोचितेन विवाहमा लनदानरूपेण शुद्धेन कन्यासहरूपेण प्रतिरूपस्य पयःप्रभृतिगुणसमेतस्य भर्तुर्भार्या, तथा ददति । एतस्य निदानस्यैतत्यभाषत प्राप्नोति ॥ २ ॥
न
एवं खलु समाजसो ! म धम्मे पराणत्ते । तं जहा-इनमेव निग्गंथे पावणे ० तदेव चेव । जस्स णं धम्मस्स गिंथे सिक्खाए नवहिते विहरमाणे पुरा दिगिंकाए० जाव से य परकमेमाणे पासिज्जा, इमा इत्थिया जवति, एगा एग०जाव किं ने आसगस्स सदति, पासिता निगचे विदा करेतिदुक्ख व मत जे इमे उग्गपुता महामाया, जोगपुत्ता महामाया । एतेसि णं अतरेसु उच्चावरसु महाममरसंगासु उच्चावयाई सत्याई उरसि चैव पाडसंवेदेति, तं मुखपुरा स्थित साहु जति इमस तय नियमभचेरवासस्स फलवित्तिविसे से अस्थि, वयमवि आगमे से नं०जान से तं साधु एवं खलु समला उसो ! निम्गये विदा किया तस्स गणस्स अवासोश्यप कालमासे कालं किच्चा मतरेमु०जाब से णं तत्य देवे जवति, महिडिए० जाव विहरति सेनाओ देवोगा प्रोप्रा
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णियाण
०जावतरंसि कुमसि दायित्ताए पमायाति० जाव ते तं दारियं० जाव जारियत्ताए दलयंति, माणं तस्स जारिया भवति,एगा एग०जाए तब सव्वं भावितां अयि नायमाणि वा०जाय किं मे आसगस्स सदति। तीसे णं तपगाराए इत्थिगाए एतारूवे समणे वा माहणे वा० जाब पमिमुणिना । यो इणट्टे समके। अभविया सा तस्य धम्मस्य सवणता, साय जवति महिला० जान दाहिएगामिए रइए श्रागमे, सा ण सभबोहिए यावि नवति । तं एवं खलु समणाउसो ! तस्स शिदास्स इमेयाचे पाप फलवियागे जति जे यो संचारति केव लिपाचं धम्मं परिमुच ॥ २ ॥
"
तृतीयेमयते
( २१०० ) अभिधानराजेन्द्रः ।
तुक
पुरुवा (से) से शब्द शब्द येह वाक्योपक्षेपी भवति- ( उश्वावसु ति) उच्चा मत्प्रभुप्रारम्निताः, अवचास्तथाविधनीच पुरुषप्रारम्भितास्तेषु, समरसंप्रामाविदेकार्थी, बच्चावचानि शस्त्राणि सशरतोमराSSहानि (उरसि सि ) वक्कसि एव पतन्ति । उपलक्षणं चैतत् शेषाङ्गानाम् । अतः स्त्रीत्वं साधु सम्यग् उजयो का सिनयोः आषणार्थ अस्थायि निदानस्यैवचि फर्म पत्र प्रणीतं धर्म श्रोतुमाप्नोति ॥ ३ ॥
4
एवं खघु समासो ! मए धम्मे पधात्ते । तं जहा - इणमेत्र पिगं पायसेमं तं चैव जान जस्म
-
यी सिक्खाए नवहिता विहरमा पुरा दिगिचाए पुरा० जावाजाता यावि हिरे, साय परकमेचा साय परक्कमेमाणी पासेज्जा-जे इमे उग्गपुत्ता महामाया, भोगपुचा महामाया जाय किं मे आसगस्त सदति पानिता मिंची निदान करेति दुक्खं खलु पुराण से, जे इमेति गत्ता मम एवागएसु महासमरसंगामेमु नग्गं बहाय सत्थाइएसि परिवेति तं दुक्खं खलु पुमत्तणए, णं इत्यित्तण०साहु । जइ इमस्स० जाव अस्थि वयमचि भगविस्साणं इमेयारूवाई उरालाई इत्यिभोगाई जुंजाणे विहरिस्तामि, से तं साधु । एवं खलु समणाजोगिंया निदान किया तस् वाणस्य अणालोइत्ता० नाव अभियंता कासमासे का किया अरे सुदेवो देवताए उबवत्तारो भवति । से णं देवलोयाओ उक्खणं अनंतरं वयं चत्ता से जे इमे जवंति सम्पदा, तेर्सापांसि दायित्ता पचायातित तेर्सि अम्मायरो सहेजा कि जे आसगस्स सदड़ || ग्रहणं भंते! तपगाराए इत्यियाए तहारूवे समणे वा उजओ कालं केवलिपचं धम्मं ग्राइवखेजा !! इंता ! इक्खेज्जा से तं भंते! पमिशिज्जा ? | जो
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बियाण
"
इण्डे समट्ठे | अजविया णं सा तस्स धम्मस्स संवणयाए, साय भवइ महिच्छा० जाव दुजयोहीए यानि जयति । तं एवं खलु समासो ! तस्स शिक्षाणस्स पारूपानए फलवित्रा के पपियतं धम्मं परिज्जा एवं खलु समाउसो ! म धम्मे पत्ते, इणमेव निग्गंथं० जाव तं करेह जस्स व धम्मस्स निम्मंयं सिखाए उट्टिया विहरमाणं पुरा दिगिंछाए० जाव उदिष्ाकामजाया यावि विहरेज्जा ● जावसाय परकममा पासेज से जे इमे जति पुमहामाया सि र विमा०जा किं च मे आसपस्स सदर है। पासिता ग्गिंधी सिदाणं करेइ - दुक्खं खलु इत्थित्तलए दुस्संचाराई गामंतराई० जाव संनिवेसंतरा से महाणाम अंसियारा, अंवादपेसिया तिवा, मंसपेसिया तिवा, माउलिंगपेसिया ति वा, नच्छुखंडिया फिलिया तिवा बहुस्स प्रासादभिजा पत्थणिना पचणिजा पण अभिसणिता पवामेव इत्थियाविटुस्स आसादजिजाप अनिणिज्जातं दुक्खं खलु इत्थित्तलए, पुमत्तणए साधु । जइ इमस्सतवनियमस्सoजा साहू | एवं खलु समाउसो ! निग्गंधी णिदा किया तस्स उस्सान्तइयमपरिता कालमासे कार्ल किया पतरे देवलो गेसु देवत्ताए नववत्तारो जवंति, महिड्डिए० जाव चइत्ता जे इमे उग्गपुत्ता तहेत्र दारए० जान किं ने प्रसगस्स सदति ?1 तस्स ां तहापगारस्म पुरिसजातसजाय प्रभविए से तस्स धम्मस सणता से प जवति महिच्छे० जाव दाहिणगामिए० जाव दुलनवोदिए यानि जयति एवं खघु०जाव पमिति ॥ ४ ॥ चतुर्थे किमपि लिखते ( तु ि दु खं देवा (दुवारा इति दुःसंचारा प्रामा, 5. र्गमा इत्यर्थः । शब्दव्याख्या प्राम्वत् । (से जहाणामप) 'से' अथ यथानामम् । (मंसपेसिय ति) मांसपेशिका मांसखरामः, श्राम्रवेशिका च दृष्टाऽपि सती सुखं करोति । एवं मातुसिपेशिका | मातुल नाम बीजपूरक
"
ति ) इकुखमिका पर्वरूपा । (संवलिया फालियति ) शाम विशेषः तत्फला पलाशरूपा (बहुजण संख्यादि) बहुजनस्य बहुलोकस्य श्रास्वादनीया ईषत्स्वादनयोग्या भवति प्रार्थनीया तथाभूतसहायजनेभ्यः सकाशाचाचनीया । (अनिसा इति) या त्रिमुख्येन कमनीया । मेवामेाऽकारो कि) अभविकोऽयोग्यः स तस्य धर्मस्य प्रधानतया, स च नवति महेच्छः, एतस्य निदानस्यैतत्फलं यन्न केवप्रितं धर्मे श कोतिभानुं परं कोति इति विशेषः ॥ ४ ॥
एवं वसु समाउसो मम्मे । तं महाइामेव नि
यं पात्रतत्र, जस्म णं धम्मस्स निग्गंथो वा निमांथीएवा सिक्खाए उट्टएि वि विहरमाणे पुरा दिगिंछा० जाव
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( २१०१ ) अभिधानराजेन्द्रः ।
णियाच
उदिमकामजोगे विहरेज्जा, सिय परकमेज्जा, से य परक्कममाणे माणुस्सेहिं कामजोगेहिं निव्वेयं गच्छेजा, माणूस्सगा खलु कामजोगा अधुवाणिया असासता सढणपटण विषंसणघम्मा उच्चार पासवण खेल संघाणगवंतपि च मुकसो पियसमुकभवा दुरूवउस्सासनिस्सास गुरूवमुत्तपुरीसपुष्पा बंतासवा पित्तासवा खेला.सवा पच्छा पुरं चणं अवस्तं विप्पजहणिजा, संति खलु प्रत्य देवा देवलोगंसि ते णं तत्थ असि देवा देवीओ अभिर्जुजिय २ परियार्रेति, अप्पणा चैत्र अप्पा बिउव्वित्ता २ परियारेंति, जति इमस्स सव०जाव तं चैव सव्वं जाणियन्नं० जाव वयमवि आगमेस्सार्थं इमाई एतारूबाई दिव्वाई जोगजोगाई जुंजाणे विहरामो, से तं साहु । एवं खलु समाउसो ! निगंया वा निग्गंधी वा निदाएं किच्चा तस्स वाणस्स प्रणासोइय अपमिकंते कालमासे कालं किच्चा छायरेमु देवत्ताए वववत्तारो जवंति, तं जहा महिडिएसु० जाब से, ते णं णं देवं देवि सं चेत्र जात्र परियारेंति से णं ताओ देवलोगाओ तं चैव मत्ता जाव किं जे आसगस्स सदति । तस्मातइप्पगारस्स पुरिसजातस्स इमेयारूवे समणे वा माहण वा० जात्र पडिणिज्जा ।। हंता परिसुणिज्जा | से णं सद्दहेज्जा, रोएज्जा १ । गो इण्डे समहे । अजविए णं से तस्स धम्मस्त सदहरणतार से य जवति महिच्छे० जाव दाहिएगामि
रए आगमेस्साए लभबोहिए यावि जवति । एवं खलु समणानसो ! तस्त विदापस्स इमेयारूवे पावए फलवित्रागे जं णो संचाएति केवक्षिपत्तं धम्मं सद्दइति बा ॥ ५ ॥
पञ्चममेव विवृगोति- ( माणुस्सपा इत्यादि) मानुष्यकेषु कामभोगेषु निर्वेदं वैराग्यं गच्छेत् । तदेवाऽऽह (मापुरलगा इति ) इह कामभोगग्रहणे तदाधारभूनानि स्त्रीपुरुषशरीराण्यपि गृहीतानि । (अधुवा इत्यादि) प्रभुवाः चलाः, अनियता अनेकस्वरूपाः, अशाइताः प्रतिकं परिणामान्तरीयाः, शटनपतन बिध्वंसधर्माणः, पताह कस्वभावाः, उच्चारप्रश्रवणश्लेष्मसिद्धाणकाः, एतद्रूपा - त्यर्थः । वान्तपित्तकरणशीलाः, शुकशोषिताच्यां समुद्भव उत्पतिर्येषां ते शुक्रशोणितसमुद्भवाः । (पुरून उरलास निस्सासा) दुरूपेण पूतिकपुरुषेण पूः इद दुरूपं विरूपम्, वान्तमाश्रवन्ति बान्ताश्रवाः, एवं पित्ताश्रवाः, पश्चात् मरणसमयानन्तरं, पूर्व जराया आगमात् च, अवश्यमविनश्यं नियतता, मवशं वा, वि प्रजात, सन्ति विद्यन्ते च खस्त्रित्यवधारणेऽत्र देवा देवलोके ( ते खं तत्थ असिमित्यादि ) तदेवत्वोत्पना निर्ग्रन्थाः तत्र देवलोके अन्येषां देवानां संबन्धिनीदेवी: (अभिजुंजिय २) अभियुज्य श्वशीकृत्य २ श्रलिप्य बा, परिचारयन्ते परिभुञ्जते । ( अप्पा चेत्र अप्पाणं ति ) आत्मनैव आत्मानं, स्त्रीपुरुषरूपतथा विकृत्येत्यर्थः । शेषं सुबोधार्थम् ॥ ५ ॥
एवं खलु समणाउसो ! मए धम्मे पते । तं जहा-तं चैव सेय परकममाणे माणुस्सर कामभोगेसु निव्वेदं गच्छे
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For Private
णियाण
ज्जा, माणुसमा खलु कामभोगा अणिया तदेव० जाव संति कुं देवा तं च लोगंसि ते णं तत्य अष्मदेवाणं श्रनदेवि श्रभिर्जुजिय २ परियारेति, अप्पा बीयाए देवीए अभिजुंजिय परियारैति, अप्पणामेव अपणा विउत्रिय परियारेंति । इमस्स तव जात्र तं चैब सम्बं० जाव से णं सदहिब्जा, पत्तिएज्जा, रोएज्जा ।। यो इणट्ठेसमडे । अरुई रुइमा या से यदति से, जे इमे रशिया आवसहिया गामंतिया कहरहस्तिया यो बहुसंजता पो बहुपमिविरता सव्यपाणनून जीवसत्तेसु अपला विरता अप्पणा सच्चामोसाई एवं विषमिवेदेति - अहं इंतव्बो, असे तब्बा, श्रहं न म ज्जवियन्वो ने अज्जवियन्वा, अहं ण परितावेयन्बो, अ
परितावयन्ना, अहं ण परिपेतन्त्रो, अने परिधेतन्ना, अक्षंण अवदवेयन्त्रो, असे अवदवयन्त्रा, एवामेत्र इत्यिकामेहिं च मुच्छिता गिटा गढिया अज्जोववरणा जाववासाईं चनपंचळ सत्तयाई भोगजोगाई जित्ता तेहिं जिया कालमासे कालं किच्चा तराई राई किव्विसिया ठाणाई उत्तारो जवंति ने ततो चिप्पमुच्चमाणा भुजो एम्यत्ताए तमुयत्ताए य पच्चायति, तं एवं खलु समणाउसो ! तस्स विदापस्स० जाव यो संचाएति केवपित्तं धम्मं सद्दत्तिए वा ॥ ६ ॥
(किं तु अति) अन्यत्र जैनधर्म्मातिरिके स्थाने रुचिरभिलाषा यस्याः सा चान्यरुचिः पररुचिः, रुचिमात्रा धर्मरूपया स च जवति, ये चामी वक्ष्यमाणा भवन्ति - ( आरक्षिय (स) अरण्ये वसन्त्यारण्य काः, तापसा कन्दमूलफलाऽऽद्वाराः, ततः केवन वृक्षमूले वसन्ति । तथा - ( आवसहियत्ति ) मा वसथिकाः, अवसथास्तापसाया उटजाऽऽइयः, तत्र वसन्ताति आवसयिकाः। ( गामंतिया इति ) ग्रामाऽऽदिकमुपजीवन्तो ग्रामस्यान्ते समीपे वसन्तीति ग्रामान्तिकाः । तथा-(कएहरहस्लिया इति ) कचित्कार्ये मएकल प्रवेशाऽऽदिके रहस्यं येषां ते क्वचिद्राहास्थिकास्ते पते न बहुसंयता न सर्वसावधानुष्ठाने भोगनिवृत्ताः। एतदुक्तं भवति न बाहुल्येन त्रसेषु दएकं समारभन्ति? विदधति, एकोन्द्रियोपजीविनस्त्वविगानेन तापसाऽऽदयो भवन्ति इति । तथा न बहुप्रतिविरता:-न सर्वेष्वपि प्राणातिपातविरमणाऽऽदितेषु वर्त्तन्ते, किं तु द्रव्यतः कतिपयतिनो, न भावतो, मनागपि तत्कारणस्य सम्यग्दर्शनस्याभावात् । सम्यक्त्वं विना न तदनुष्ठानमपि शोभनं सम्यक्त्वमेव मूलं सस्यापि विरत्यादेरित्यभिप्रायः । इत्येतदेवाऽऽविर्भावयितुमाह( सव्वपापेत्यादि ) ते ह्यारण्य काऽऽदयः सर्वप्राणभूतसवेभ्य आत्मना स्वतो घिरताः, तदुपमर्द काऽऽरस्नादविरता इत्यर्थः । तथा ते पाखणिकाः आत्मना स्वतो बहूनि सत्यामृानूतानि वाक्यान्येवं वक्ष्यमाणानीत्यविशेषेण प्रयुञ्जन्तो 'विपडित' विप्रति इत्यर्थः । यदि वा सत्यान्यपि तानि प्राण्युपमकत्वेन मृषाभूतानि सत्यामृपाइयेवं ते प्रयुज्जतीति दर्शयन्त ? | तद्यथा-"अहं ब्राह्मत्वामाऽऽवेिजिनं हन्तव्यः श्रन्ये तु शूद्रस्वाद्धन्तन्याः " । तथादि तद्वाक्यम्- "शूषं व्यापाद्य प्राणायामं
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पियाण अभिधानराजेन्डः ।
णियाण जपेत" तथा-"बसस्वानामनस्थिकानां शकटभरमपिव्यापाद्य हता सदहेजा,पत्तिएज्जा,रोएन्जा।से सीलब्बयगुणवेब्राह्मयं नोजयेत"इत्यादि। अपरं चाह-"वर्णोत्तमत्वान्नाकापयि.
रमणपच्चक्वाणपोसहोरवासाइं पमिवज्जेजा। णो इण्डे तव्यः,अम्बे स्वाहापयितव्याः। अहं न परितापयितव्यः,अन्ये तु परितापयितव्याः।"तया“अहं वेतनाऽऽदिनाकर्मकारणाय न ग्राह्यो।
समहे। से णं दमणसावए जवति, अभिगयजीवाजीवे आटेमिध्ये तु शूफा प्राह्याः"इति । किंबहुनोक्तेन-"नाहमपावयितव्यो जापेमाणुरागरत्ते सेसे अणिडे, से णं एतारूवेणं विहारेणं जीवितव्यात,अन्ये त्वपदावयितव्याः" इति। तदेवं तेषां परपीमो- विहरमाणे बहू वासाई समणोवासगपरियागं पाउणइ, बहूई पदेशः। ततो न मूढतयाऽसंबद्धप्रनापिनामशातावृतानामात्मम्न
समणोवामगपरियागं पानणित्ता कालमासे कान्नं किच्चा रिणां विषमदृष्टीनां प्राणातिपातविरतिरूपवतमस्ति। अस्य चोपन्नकणार्थत्वाम्मृषावादादत्ताऽऽदानविरमणाभायोऽप्यायोज्यः।
अएणतरेमु देवलोगेसु देवत्ताए नक्वत्तारो भवंति । अधुनात्वनादिभवाभ्यासाद् इस्त्यजत्वेन प्राधान्यात् सूत्रेणेवा
एवं खनु समणाउसो ! तस्स णिदाणस्स इमेयारूवे पावफब्रह्माधिकृत्याह-(पामेवेत्यादि)एवमेव पूर्वोक्तनैत्र कारणत्वे- सचिवाए, जंणो संचाएति सीवधतगुणपोसहोववासाई मातिमूढत्वाऽऽदिना परमार्थमजानानास्ते तीथिकाः स्त्रीप्रधानाः
पमिवइत्तए ॥ ७॥ कामाः स्त्रीकामाः। यदि वा-स्त्रीपुंकामेषु,चशन्दात्तेषु मूवितागृ
सप्तमे किमपि लिख्यते-"णवर" इति विशेषः । (हता काः, प्रधिता अध्युपपत्राः। अत्र नात्यादरख्यापनार्थ प्रभूतपर्याय.
सदहेजा इति) अधेत् . प्रतीयत्प्रतीति विदध्यात्, रोचयेत् प्रहणमा पतञ्च स्त्रीषु शब्दाऽऽदिषु प्रवर्तनं प्रायः प्राणिनां प्रधानं
चेतसि सम्यकृतथा जानीयात् (सीलम्चय ति) प्राग्वत् । प्र. संसारकारणम् । तथा चोकम-"मूलमेयमहम्मस्स"इत्यादि । इह
तिपद्येत अङ्गीकुर्यात् ?। गुरुराह-नायमर्थः समर्थों नायमधों च खीसनासक्तस्यावश्यंभाविनी शब्दाऽऽदिविषयाऽऽसक्तिरि
युक्त्योपपन्नः, स हि दर्शनश्रावको भवति । दर्शनं नाम-सति, अनाखाकामग्रहणम्।तत्र चाऽऽसक्ता यावन्तं कामासते, म्यवं, तदाश्रित्येत्पमिप्रायः। (अभिगयेत्यादि) अग्रे व्याख्यातत्सूत्रेणव दर्शयनि-यावर्षाणि चतुःपञ्चपासप्तकानि । अयं च
स्यते । एवं नुतः स बहान वर्षाणि श्रमयोपासकपर्यायं पासकालो गृहीतः। एतावत्कालोपादानं च प्रायिकम,प्रायस्तीथिका यति, केयलेनाऽपि सम्यक्त्वेन श्रावको नवत्येव, क्रियायामपि प्रतिकान्तवयस पर प्रवजन्ति,वेषां चतावानेव कानःसंभाव्यते। तस्यैव प्रधानतरत्वात् ॥ ७॥ यदि वा मध्यग्रहणासत ऊर्द्धमधश्च गृह्यते । तदर्शयति-तस्मा |
एवं खलु समणाउसो ! मए धम्मे पसत्ते, तं व सवं. बापतकालादल्पतरो भूयस्तरोवापि कालो भयति । तत्र च से त्यक्त्वाऽपि गृहवास,नुक्या भोगनोगाचिति, स्त्रीभोगे सत्य
जाव से य परकममाणे दिव्वमाणुस्सगा कामनोगा अधुवा पश्यं शब्दाऽऽदयो नोगभोगास्तान् नुक्याते च नोगेभ्यो जिता जाब विपनहाणिज्जा,दिन्या वि खलु कामनोगा अधुवा इति,न चनोगेभ्यो विनिवृत्ताः, यतोऽसाध्यादृष्टयनशानव- आणितिया असासता बनावयाधम्मा पुएरागमणिज्जा वात्सन्यविरतिपरिणामरदिताः, ते चैवंमतपरिणामाः स्वा
पच्छा पुत्वं च णं अवस्सं विपनहाणिज्जा, जति इमस्स युपः क्षये कालमासे कालं कृत्वाऽन्यतरेवासुरिफेषु किविकेषु स्थानेषु उत्पादयितारो भवन्ति । ते
तवनियमस्स. जाव आगमेस्साणं जइ इमे भवंति उग्ग
ज्ञानतपसा मृता अधिकिल्विपिके घूत्पत्स्यन्ते, तस्मादपि स्थानादायुपाक
पुत्ता महामाउयाजाव पुमत्तए पन्चायति । तत्थ णं समणो. याद्विपमुख्यमानाव्युताः किल्विषबमास्तरकर्मशेषणे नवद वासर नविस्सामि अहिगतजीवाजीवाजाव फासुयएसमूका पत्रमूकाम, तद्भावनोत्पद्यन्ते किदियषस्थानादच्युतः विजेणं असणपाणखाइमसाइमेणं पमिलाभेपाणे बिहसन्ननन्तरभवे वा मानुषस्वमवाप्य ययैकोऽव्यक्तभागनयत्येव.
रिस्सामि, से तं साधु । एवं खलु समणाउसो ! निग्गयो मेषामव्यक्तयाक समुत्पद्यत इति । तथा (तमुयत्ताप त्ति) तमरत्वेनास्यन्तान्धतमत्वेन ज्ञानावृततया वा, तथैल
वा निग्गंधी वा णिदाणं किच्चा तस्स गणस्त प्रणालोमुकत्वेनाऽपि गतवाच इह प्रत्यागच्चन्तीति । शेष
इय० जाव देवन्नोएसु देवत्ताए जवानेज्जा. जाव प्रतीतम् ॥६॥
किं ने प्रासगस्स सदति!, तस्स णं तहप्पगारस्स पुरिएवं खलु समणाउसो! मए धम्ने पहातेजाव माणुस्सगा सजातस्स वि इंता सदहिज्जा, से णं सीलब्धय० जाव खलु कामनोगा अधुवा तहेव संति उ देवा देवनायंसि. पोसहोवबाप्ताई पविजेज्जा, से णं मुझे नवित्ता अगाभष्मं देवं अप्मं च देविं अनिलुंजिय अनिजिय परिया- राओ अणगारियं पन्चएज्जाणो णटे समठे। सेणं समरोति,णो अपणा चेव अप्पाणं विधिय विउब्धिय परि- पोवासए नाति अहिगतजीवाजीवे. जाव पडिलाजेमाणे यारोंत-जति इमस्स तवनियमजाव तं चेव जाव एवं खयु। विहरति, से णं एतारूवेणं विहरमाणे बहणि वासाणि समणाउसो!निगंवा निग्गयी वाणिदाणं फिच्चा अणा
समणोबासगपरियागं पाउणिति, बहू समणोवासापरियागं सोइय तं चेवाजाव विहरति, सेणं भवं अन्नं भवं देवं अत्यं पाउणित्ता आवाहसि नष्पमं वा हता! पच्चक्खाए, हंदेवि णो अदेवेणं अभिजुजिय भनि जिय परियारति, ता ! बहू जत्ताई अणसणाए दइ, देइत्ता आलोनो अप्पणा चेव अप्पाणं वेउब्धिय वेनधिय परियारेति, | इयपमिते समाहिपत्ते काममासे कालं किच्चा अमायरेसु सणं ताओ देवमोगातो आउक्खएणं तहेव वचव्यं, एवरं देवलोएस देवचाए उबवचारो जति । एवं खा समणा
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णियाण अभिधानगजेन्द्रः।
णियाण उसो ! तस्स णिदास्स इमेयारूचे एवं फनविधागो जं रपवेसे इति) (चियत्तो सि) लोकानां प्रतीत पवान्तःपुरे पा णो संचाएति सव्वतो सव्वत्ताए मुंढे नविता आगारामो
गृहे वा प्रवेशो यस्य स तथा, भतिधार्मिकतया सर्वत्राऽनाश.
हनीय प्रत्यर्थः । (चियते ति) नाप्रीतिकरोऽन्तःपुरगृहयोग अणगारियं पञ्चइत्तए ॥८॥
प्रवेशः शिएजनप्रवेशनं यस्य स तथा, अनीताप्रतिपाअधमे किमपि लिक्यते-(तत्य णं) तत्र पुत्राऽऽदिषु अहं श्रम- दनानन्तरं चेत्थं विशेषणमिति । मथ वा (चियनोति) णोपासको नूयासं, विशिष्टोपदेशाथै श्रमणानुपास्ते सेवते इति त्यक्तोऽन्तःपुरगृहयोः परकीययोर्यथाकथश्चित्प्रवेशे येन च भ्रमणोपासकासि च श्रमणोपासनतः (अहिगतजीवाजीवे तथा । (चाउद्दसहमिअमावसापुममासिणीसु पडिपुत्रपो. इत्यादि ) अधिगती सभ्यविज्ञातौ जीवाजीबी येन स तथा। सहमपालेमाणे त्ति) चतुर्दशी पर्वविधिना प्रतीता, अष्टमी यावत्करणात-" उबलरूपुनपावे" इत्यादिपदकदम्बकसग्रहः। च, तयोः अमावास्यासु मासाोक्तपर्वत्वेन प्रत्याश्यानाउपलब्धे यथाऽवस्थितस्वरूपेण विझाते पुण्यपार येन स उप- सु. पौर्णमासीषु च पूर्णमासत्वेन पूर्णचन्द्रोदयत्वेन मासान्तपसम्धपुण्यपापः,पाश्रवानां प्रागातिपाताड़ीनां संवरस्य प्राणा-1 बसु प्रसिझासु, एवंभूतेषु धर्मदिवसेषु. शुद्ध्यतिशयन प्रतिपूणों तिपाताऽऽदिप्रत्याख्यानरूपस्य निर्जरायां कर्मणां देशतो निर्ज- यः पौषधो व्रताभिप्रदविशवः,तं प्रति पूर्णमाहारशरीरसंस्कारी रणस्य क्रियाणां कायिक्यानामधिकरणानां खङ्गादानां बन्ध. ब्रह्मचर्यव्यापाररूप पौषधमनुपालयन, संपूर्णश्रावकधर्ममनुचस्य कर्मपुफल जीवप्रदेशान्योऽन्याऽऽगमरूपस्य मोकस्य सर्वा- रति । तदनेन विशिष्टं देशबारित्रमायेदितं भवति । (समणे अरमना कर्मापगमरूपस्य कुशलः सम्यक्परिझाता, आश्रवसं- निग्गंधे फासुरसाण जेणं अमणपाणलाइमेणं बत्थपमिगहपरनिर्जराक्रियाऽधिकरणबन्धमोककुशलः । एतेन चास्य ज्ञान- बलगायपुच्छणणं) अत्र वस्त्रं प्रतीतम्, पतद्भक्तं पानं वा गृडा. संपन्नतोक्ता। (असहेज्जे इति) अविद्यमानसहायः कुतीर्थ- णतीति पतहहः। लिहाऽऽदित्वादच् प्रत्ययः। पात्रं पादप्रोचन. कप्रेरितसम्यक्त्वाविचलनं प्रति न परसाहाय्यमपेकते राति कं रजोहरणम् । ( पोसहभेजे गं नि) औषधकच्याश्रय भावः । तथा चाऽऽह-(देवासुरनागसुवन्नजक्खरक्खसकिन. यरसमुदायरूपम् । अथवौषधं त्रिफलादिमैषज्यम्(पामिहारिरकिंपुरिसगरुडगंधब्बमहोरगाइएहि देवाणेहिं निग्गयात्री पणं पीठफलगरीजासंचाररणं पडिधानेनाणे ति)प्रतिहरप्र. पावयणामो अणुतिकमणिजे) देवा चैमानिका असुरकुमा- त्यर्पणं प्रयोजनमस्येति प्रातिहारिक,पीरमासनं, फाकमवएरा नागकुमारा राक्षसकिन्नरकिम्पुरुषा व्यस्तरभेदाः (गरुक म्भनार्थः काष्ठविशेषः, शय्या वशतिः, शयनं च यत्र प्रसारित. ति) गरुडचिह्नाः सुवर्णकुमारा गन्धर्वमहारगाश्च व्यन्तराः, पादः सुप्यते, संस्तारको लघुतरशयनमेव । (बह सीलब्व. तैः (अणतिक्कमणिजे इति) अनतिक्रमणीया अचानीयाः । यगुणवेरमणपश्चक्लाणपोसहोववाहि पाहापरिग्गदि अप्पाणं एवं चैतत् । यतः-( निगांथे पाचयणे निस्संकिप इत्यादि )नि-] भावेमाणे त्ति) शीलवतानि भवतानि, गुणा गुणवतानि, वि. प्रन्धे प्राषचने निःसंशयः (निखिर त्ति) दर्शनान्तराकार- रमणानि रागाऽऽदिविरतिप्रकारा, प्रत्याख्यानानि नमस्कारसकारहितः। (निव्यितिगिच्छे)फ प्रति निःशकः। (क) हिताऽऽदीनि,पौषधोपवासो विशेषतोऽष्टम्यादिदिनेषपवसनमामर्थश्रवणतः (गहिय) ग्रहीताधाऽवधारणतः (पुच्चिय) हाराऽऽदित्याग इत्यर्थः। (विहरिस्सामि त्ति) बिचरिष्ये । कचिप्रष्टार्थः, सांशयिकार्थप्रश्नकरणात् । (अहिगय ति) अधिग- देतानि पदानि अननुगमेनापि दृश्यन्ते । तान्यपि अनेन व्यातोऽयों यन स तथा । अभिगतार्थों था, अर्थावधारणात् । स्याऽनुक्रमेण वाच्यानि । (से णं मुंझे इत्यादि )स मुमो (विणिचियत्ति) विनिश्चितायः, एवं पर्याप्तोपलम्भात । अत मस्तक सोचनेन भूत्वा, (मागाराो ति) अगैर्दुमदृषदादिभिपव-(अद्धिमिजापेम्माणुरागरत्त ति) अस्थीनि च कीकसा- निवृत्तं तस्मात् निकम्यतीति शेषः । अनगारितां माधुतां प्रबनि।'मिजा च' तन्मध्यवर्ती धातुविशेषः अस्थिमिजास्ताः जेत् प्रतिपयेत,शेष व्यक्तम । (से णमित्यादि) स पूर्वोक्तनिदानप्रेमानुरागण सर्वप्रवचन प्रीतिल कणकुसुम्भाऽऽदिरागेण रक्ता कृता यथाशक्ति सदनुष्ठानं विधा उत्पन्ने वा कारणे अनुत्पन्ने वा वरका यः सतया नोटेखेनेत्यत पाह-(अयमानुसोनि- भक्तं प्रत्याख्यायानालोचितप्रतिक्रान्तः समाधिप्राप्तः सन् कालगये पावयणे अटे अयं परमट्ठो, सेसे प्रण सि) अयमिति प्रा. मासे कालं कृत्वा अन्यतरेषु लोकेषु उत्पद्यते इति । एतानि चा. रुतत्वादिदम् । (मानसो त्ति) आयुष्मन्निति पुत्राऽऽदेशमन्त्रण- भिगतजीबादिकानि पदानि हेतुमद्ावेन नेतन्यानि तद्यथाम् । (सेसे त्ति) शेषं निर्ग्रन्थप्रवचनेनातिरिक्तं धनधान्यकसत्र.
यस्मादभिगतजीवाजीधर, तस्माइपझब्धपुण्यपापः, यस्मादुपनपुत्रमित्रकुप्रवचनाऽऽदिकम, अनर्थोऽनर्थकारणत्वात् इति। (क
ग्धपुण्यपापस्तस्मा इच्वृतमना.एवमुच्वृतमनाः सन् श्रावकधस्कियफाल ति) उच्छ्रितोच्चूितमुन्नतं स्फटिकमिव स्फटिक
में साधुधम्म वा प्रकाशयन् विहरति । अष्टमीचतुर्दश्यादिषु चित्तं यस्यासौ उतिस्फटका, मौनीन्प्रवचनावाझ्या प.
पौषधोपवासाऽऽदिपारणकेषु साधून प्रासुकेन प्रतिलानयते। रितुएमना इत्यर्थः । एषा वृक्षव्याख्या । अपरे स्वाहुः-उब्धि
एतनिदानस्यैतत्फलं, यजाननपि कटुकविपाकान् विषयान् तोऽगनास्थानादपनीय कृतो न तिरश्चीनः कटे पश्चादा
विहाय न चारित्रं प्रतिपद्यते ॥८॥ गादपनीत इत्यर्थः। उत्स्तो वा अपगतः परिघोऽर्गमा गुदद्वारे
एवं खलु समणानसो! मए धम्मे पछते. जाव से य पस्याः सा, व्युत्सतपरिघोवा-औदार्यातिकतोऽतिशयदानदा- परकममाणे दिवमास्सएहिं कामभोगेहिं निव्वेयं गच्छेयित्वेनानुकम्पया भिकुकप्रवेशार्थमनगलितगृहद्वार इत्यर्थः। ज्जा, माणुस्सगा खबु कामभोगा अधुवा० नाव विप्पजह(भवंगयवारे) अप्रावृतद्वारः भिकप्रवेशार्थ कपाटानामपि पश्चात्करणात् । वृक्षानां तु नावनावाक्यमेव । सम्यग्दर्श
गिजा दिन्ना वि खबु कामभोगा अधुवा० जाब पुणरागमलामे सतिन कस्माचित्पावपिडकाविभेति, शोभनमार्गपरि.
मणिज्जा,जति मस्स तवनियम० जाव वयमवि प्रागमेस्सापाहणे ग्धारितशिस्तिष्ठतांति भावः। (चियत्तेवर. पंजाइमाइं अंतकुमाणिवा, तुच्छकुलाणिवा,परिहा
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णियाण
(२१०४) णियाण
अनिधानराजेन्द्रः। माणि वा, किविणकुमाणि वा, भिक्खागकुमाणि छेदेति, बदई भत्ताई अणसहाए केदित्ता ततो पच्छा बा, बंभकुमाणि वा । एएसिणं अतरंसि कु- चरिमेहिं ऊसासनीसासेहिं सिज्झतिजाव सम्बदुक्खाणं संसि पुमत्ताए पच्चाएंति, एएहिं मे आतापरिया
अंतं करेति, तं एवं खलु समणाउसो! तस्स अणिदापसुणीहमे भविस्मति, से तं साधु । एवं समणाओ खलु सो णस्स इमेयारूवे कल्लाण फलविवागे, जं तेणेव जवग्गहणेण णिगंथे नियाणं किच्चा तस्स ठाणस्स प्रणालोइयअपमि- सिज्जति जाव सन्चदुक्खाणं अंतं करोति । तते गं कंत सव्वं तं चेव० जाव से मुंडे भवित्ता प्रागाराभो ते वहये णिग्गंथाओ निग्गंधीमो य समणस्स जगवअणगारियं पन्बइज्जा, से एं तेणेव नवग्गहणेणं सिके- ओ महावीरस्स अंतिए एवमटुं मोच्चा णिसम्म समणं ज० जाच सनमुक्खाणं अंतं करेजा। णोणहे समझे। जगवं महावीरं वंदति, नमसंति, बंदित्ता नमंसित्ता से णं जवइ सेसे जे मणगारा भवंतो इरियासमिता जाप तस्स गणस्स पालोएंति, पडिकमंति० जाव अहारिह बंजचारी, ते गं विहारेणं विहरमाणा बढूई वासाई साम- पायच्चित्तं तत्रोकम्म पडिवज्जंति।
परियागं पाउणति, बढ़ई वासाई सामापरियागं पाउ-| तेणं कालेणं तेणं समएणं समणे भगवं महावीरे रायगिरे णित्ता आवाहंसि अप्पमंसि पाजाव जतं पच्चाइक्वित्ता नगरे गुणासलए चेश्ए बदणं सपणाणं बहूर्ण समणी भाव कालमासे कालं किच्चा अपतरेसु देवलोगेसु देवत्ताए । बदणं सावयाणं बहूणं सावियाणं बडूणं देवाणं बहूर्ण नववत्तारो नवंतीति । ते एवं समणानसो! तस्स णि-| देवीणं सदेवमणुयामुराए परिसाए मजगते एवं आइक्ख - दाणस्स इमेघारूवे पावए फझविवागं, जो संचाएति | ति, एवं भासति, एवं परूवति, आयातिहा णाम अजो! तेणेच नवग्गहणेण सिम्झज्जाम् जाव सव्वदुक्खाणं अंतं अकयणे सप्रष्टुं सहेउग्रं सकारणं मुत्तं च अत्यं च करेज्जा ॥ ॥
तभयं च जुज्जो नवदरिसेति ति बेमि ॥१०॥ नवमे किमपि लिख्यते-(अंतकुलाणि वत्ति) जघन्यकुला- (अणुदिरणकामजाते ति) अनुदयः कामजातः कामगमः नि, भन्स्यवर्णत्वात् प्रान्तकुलानि तुच्छकुलानि स्वल्पकुटुम्बानि | (सम्बकामविरतेति)सर्वकामविरक्तः सर्वसङ्गातीतः सर्बस्नेदरिद्रकुलानि सर्वथा निर्धनकुलानि कृपणकुलानि सत्यपि | हानिकान्तः सर्वचारित्वेन सर्वधर्मानुष्ठायित्वेन परिवृतः, विनवे ऽतीव निःसरवानि भिकणशीलानि भितुककुलानि नि- तस्य जगतः (अणुत्सरेणं णाणेणं ति)ज्ञान मत्यादि, नद. कामात्रोपजीवीनि,ब्राह्मणकुलानि प्रतीतानि । एतेषामन्यतरास्मि- पेकया अनुत्तरं प्रधानं तेन । यावत्करणात्-"दंसणेणं चरिसे. न कुने पुंस्त्वेन प्रत्यागमिष्यामि,यत पतेभ्यः कुक्षेभ्यः ममाऽ. णं "इत्यादिपदानि एव्यानि । (परिनिब्याणमग्गेणं ति) स्मपर्यायेषु निःसारितो नविष्यति, प्रव्रज्यानिमाये संजाते न | परिनिर्वाणं कषायदाहोपशमनमागेंण आत्मानं भावयतो पास. कोऽपि मा प्रतिबन्धको नविष्यतीति हदयम। (से गं तेणेव ति)। यतः, अनेनाऽऽत्मैव प्रधानमोकाङ्गमित्युक्तम् । (मण ते इत्यादि ) स तस्मिन् भवग्रहणे ततः प्रवज्यापि सिद्धयेत् । पदन्याच्या अनन्तमनन्तार्थविषयाचा अनन्तमन्तरहितमपर्यवसितत्वात् । पूर्ववन् । “अणगारा" इत्यादि व्यक्तम् । यावत्करणात-"भा. अनुत्तरं सर्वोत्तरं सर्वोत्तमत्वात् । नियाघातं फटकुड्याचसासमिए पसणासमिए' इत्यादिपदानि द्रष्टव्यानि । ( सुहवे. प्रतिहतत्वात् । निराबरणं कायिकत्वात् । कृत्स्नं सकत्पादि) सुष्टु हुतं क्षिप्तं घृताऽऽदि यत्रासी सुहतो घृताऽऽदि- लाग्राहकत्वात् । प्रतिपूर्ण सकलस्वांशसमन्वितत्वात् रा. ततिः , स चासौ हुताशनश्व वहिस्तवतेजसा बानरूपेण सप- काचन्द्रवत् केवलमसहायम, अत एव घरं प्रधानं ज्ञान च सतेजसा था ज्वान् दीप्यमानः। शेष सुबोधम । पतनिदा- दर्शनं यशानदर्शनम्। ततः पूर्वपदाभ्यां कर्मधारयः। समुत्पद्यनस्यैतत्फलं यन्त्र शको ति कर्मवयं विधाय मोकगमन प्रतीति- ते सकलावरणतयादाविर्भचप्ति। [तते णमित्यादि ] ततः स तितात्पर्यमिति नयमम ||
भगवान ईन् जिनः फेवली च जति सर्वज्ञः सर्वदर्शी च सर्वएवं खलु ममताानसो!मए धम्मे पम्पते।नं जहा-इणमेव विशेषाणां सामान्यस्य च प्रथमद्वितीयाऽऽदिसमयेषु अवयोध. निगंथे जाव से परकमेज्जा,अणुदिमकामजाए सम्धकाम- मानःसदेवमनुजासुरा या जन्तुसन्ततिः। यावत्करणात्-"सबविरते सचरागविरते सव्वसंगातीते सम्वसिणेहातिकते स
नावे जाणमाणे" इत्यादि द्रष्टव्यम् । भावानिति पर्यायान् उत्पा
दस्थितिव्ययल कणान् जानाति यथावदवगच्छन् विहरत्यास्ते ब्वचारित्तएणं परिबुडे तस्स णं भगवंतस्स अत्तरेणं णाणे
[अपणो पाउसेसं ति] आत्मानमायुशेषं पश्यति । शेष सुबोएं अत्तरेणं दसागणंजाव परिनिव्वापामग्गेणं अप्पाणं |
धम् । अथोपसंहतुकामो नगवानिदमाह-[एवं खस्वित्यादि] भावमाणस्स अपते भात्तरे निवाघाए निरावरणे कसिणे एवं पूर्वोक्तप्रकारेण हे श्रमण! हे आयुष्मन् ! तस्यानिदानस्यापमिपुतणे केवलवरणाणदसणे समुप्पज्जेज्जा । तते णं से यमेतद्पः कल्याणः शुभः फनषिपाकः वृत्तिविशेषः । किं तदिनगवं अरहा जवति जिणे केवझी सच्चाप्प् सव्वदरिसी स
त्याद तेनैव भवग्रहणेन सर्वपुःखानामन्तं करोति । इति श्रुत्वा यत्ते
कृतवन्तस्तदाह-[तते रणमित्यादि ] सुबोधम [ तस्स ति] देवपायासुरापन्जाव बहूई केवलपरियागं पानणंति, बढ़ई
स्थानस्यानन्तरोक्तस्थानस्य निदानरूपस्याऽऽमोचयन्ति । स्वमा केवलपरियागं पानणिता अप्पणो पाउसेसं भानोएति,
नीषिकापरिहाराय भगवान् भद्रबाहुस्वामी प्राऽऽह-तरणं काले. श्राभोएत्ता भत्तं पच्चक्खाइत्ता बहूई भत्चाई असणाए। णमित्यादि ] राजगृहे गुणशिलालये समवसरणावसरे श्रमणा.
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(२१०५) णियाण भाभिधानराजेन्द्रः।
पियाण दिसुरान्तपरिषन्मध्यवर्ती, एवमाख्यातीति यथोक्तं कथयति, 1 चते-" सम्वत्थ मनियाण्या जगण्या पसस्था" इति वचनात् । एवं जापते पाग्योगन, एवं प्रज्ञापयति अनुपालितस्य फलं भय भोगाथै विधीयमानं निदानं तीव्रविपाकं भवतीति कृत्वा प्रदर्शयति, एवं प्रापयति । किं तदित्याह-(आयातिट्टाणे ति) मा क्रियतां, यत्पुनरमुना प्रणिधानेन निदानं करोति-माम! मे मायतिर्नाम उत्तरकालस्तस्य स्थानं पदमित्यभिधानम् । हे राजाऽदिकुले उत्पन्नस्य भोगाभिवक्तस्य प्रवज्या न प्रविभार्याः अध्ययनं [सअहमित्यादि] व्याख्यातार्थम् । इति । प्यतीत्यतो दरिद्रकुलेऽहमुत्पधेयम, तत्रोत्पन्नस्य भोगानि. ब्रवीमीति पूर्ववत । दशा. १. प्र.। (मध्यस्थस्व केवलं को न भविष्यति, एवं निदानकरणेऽदोषः। वस्तुस्वभावपरस्य निदानमपि भनिदानमेवेति प्रथमनागे
सरिराह२३६ पृष्ठे 'अज्माण' शब्दे उक्तम) भिज्जा णिदाणकरणे मोक्खमम्गस्स परिमंथू, सम्वत्थ
एवं सुनीहरो मे, होहिति अप्पत्ति तं परिहरति । जगवया अणिदाणया पसत्था।
हंदि हुणेळंति भवं, भववोच्छित्तिं विमग्गंता ॥२६॥ 'भिज ति' लोभः, तेन यनिदानकरणं चक्रवर्तीन्द्राऽऽदि.
पवमवधारणे, किमवधारयति-दरिष्कुले उत्पन्नस्व मे ममाविप्रार्थनं, तन्मोकमार्गस्य सम्यग्दर्शनाऽऽदिरूपस्य परिमन्थुरात
ऽऽत्माभसंयमात् सुनिहरः सुनिर्गमो भविष्यति सुखेनैव संयभ्यानरूपत्वात् । भिजाग्रहणाद्यत्पुनरलोजस्य भवनिवेदमार्गानु
ममतीकरिष्यामीत्यर्थः। इतीहशमपि यन्निदानं, तदपि साधवः सारिताऽऽदिप्रार्थन, तन्न मोक्कमार्गस्य परिमन्थुरिति दर्शित
परिहरन्ते । कुतः, इत्याह-'दीति' नोदकाऽऽमन्त्रणे, हुरिति मिति । समा०६ठा०। ननु तीर्थकरस्वाऽऽदिप्रार्थनं न राज्या5
वस्मादर्थे । सौम्य! यस्मानिदानकरणेन भवानां परिवृद्धिविप्रार्थनवद् पुष्टम् अतस्तद्विषयं निदानं मोक्षस्य परिमन्युन |
भवति, सोऽपि च प्रवग्याप्रयत्नोऽस्माकं भवच्छित्ति प्रविष्यति। नैवम् । बत माह-(सब्वत्थेत्यादि)सर्वत्र तीर्थ
कर्नुमिति विविधैः प्रकारैर्मार्गयन्तः साधवो भवं नेच्छन्ति । करवचरमदेहत्वाऽऽदिविषयेऽपि, प्रास्ता राज्याऽदो, मनिदा.
अमुमेवा दृष्टान्तेन ढवतिमता अप्रार्थनमेव, भगवता समप्रैश्वाऽऽदिम्ता श्रीमन्महाधी।
जो ग्यणमणग्येयं, विकिज्जऽप्पेण तत्थ किं साहू । रस्वामिना (पसत्थ त्ति) प्रशंसिता श्लाधिता। एष सूत्रार्थः। (प.)।
उग्गयभवामिच्छत्ते, एसो चिप होति दिलुतो ॥६॥ अथ निदानकरणमाह
पोऽनयमिन्द्रनीलमरकताऽऽदिक रत्नमस्पेन स्वल्पमूल्येन काचाअनियाणं निव्वाणं, काऊणमुवद्वितो भवे बहुओ।
दिमा विक्रीमीयात्तत्र किं साधु किमाम! शोभनम्न किश्चिपावति धुवमायाति, तम्हा भणियाणता सेया ॥२५७।। दिस्यर्थः । दुर्गतभवं दरिलोत्पत्तिमिच्चत पप पचरान्त उ. भनिदानं निदानमन्तरेण साध्यं निर्वाणं भगवद्भिः प्रक्षप्तं ततो | पनेतन्यो भवति । तथाहि-अनर्थ्यरत्नस्थानीय चारित्रं, निरुपयो निदानं करोति, तस्य तत्कृत्वा पुनर्निदानकरणेनोपस्थितस्य मानन्ताऽऽनन्दमयमोक्षफलसाधकत्वात्, काचशकलस्थानीयो लघुको मासः प्रायश्चित्तम्। अपि च-यो निदानं करोति, स यच. दुतभषःतुच्यत्वात्ततो यचारित्रविक्रयेण तस्त्रार्थनं करोति, वितेनैव भवग्रहणेन सिरुि गन्तुकामः, तथापि ववमवश्यमा- समन्दनाग्योऽनयरत्नं विक्रीय काचशकसं गृहातीति मन्तव्यम्। बार्ति पुनरेवाऽऽगमनं प्रामोति, तस्मादनिदानता श्रेयसी।
अपि चइदमेव व्याचष्टे
संग अपिच्छमाछो, इह परसोए य मुञ्चति अवस्सं । इहपरलोगनिमित्तं, अवि तित्यकरत्तचरिमदेहत्तं ।
एसेव तस्स संगो, प्रासंसति तुच्चयं जं तू ॥२६ए।। सन्वत्येसु जगवता, अणिदापत्तं पसत्थं तु ॥२८॥
इहलोकविषय परलोकविषयं च सङ्गं मुक्तिपदप्रतिपक्कभूतम् इहलोकनिमित्तमिहैव मनुष्यलोके-अस्य तपसः प्रभाषेण च.
भभिष्वङ्गमनिच्चमवश्यं मुच्यते कर्मविमुक्तो भवति, कः पुनकवादिभोगानहं प्राप्नुयामिहेच भावविपुलान् भोगानासाद
स्तस्त्र सङ्गः, इत्याह-एष एव तस्व सङ्गो यन्मोकाऽऽपविपु. येयमितिरूप, परलोकनिमित्तं मनुष्यापेक्षया देवभवाऽऽदिकः प.
लफलदायिनः तपसः तुच्चकं फलमाशास्ते प्राधयति । रसोकः, तत्र महर्षिक इन्सामानिकाऽऽदिरहं भ्यासमित्यादि. रूप,सर्वमपि निदानं प्रतिषिद्धमा किंबहुना, तीर्थकरत्वेन मा.
तपोऽपि निदानस्यैव पर्यायकथनद्वारेण दोषमाहईत्वेन युक्तं चरमदेहत्वं मे जवान्तरे भूयादित्येतदपि नाऽऽशंस- बंधो ति णियाणं ति य, आससजोगो य होति एगहा । नीयम् । कुतः१, इत्याह-सर्वार्थेष्यप्यहिकाऽऽमुग्मिकेषु प्रयोजनेषु ते पुण ण बोहिहेज, बंधावचया भवे बोही ॥२७॥ अनिवङ्गविषयेषु भगवता भनिदानत्वमेव प्रशस्तं श्लाघितम्,
बन्ध शति वा, निदानमिति वा, माशंसायोग इति वा पकातुशब्द एवकारार्यः। स च यथास्थानं योजितः । (प.)
यानि पदानि नवन्ति। ते पुनर्बन्धाऽऽदयो न बोरिहतवो न झापाह-निदाने किमिति द्वितीयपदं नोक्तम् ,रच्यते-नास्ति,
नाऽऽधानिकारणं जयन्ति, किं तु ये बन्धापचया, कारणे काकुतः१, इति चेदत माह
गोपचारात्कर्मबन्धस्यापचयतबोऽनिदानताऽऽदवः, तेज्यो जा सासंवणसेवा, तं वीयपयं वयंति गीयत्था ।
बोधिर्भवति। आलंबणरहियं पुण, निसेवणं दप्पियं वेति ॥२६६॥ | आह-यदि नाम साधवो भवं नेच्छन्ति, ततः कथं देवलोके. या सालम्बनसेवा या कानाऽऽद्यासम्बनयुक्ता प्रतिसेवा, तां|
त्पद्यन्ते इत्यर्थः । उच्यतेद्वितीयपदं गीतार्था बदन्ति, पालम्बनरहितां पुनर्निषेवणां प्रति
नेच्छंति भवं समणा, सो पुण तेसिं नवे इमेहिं तु । सेषां वर्षिकांवते-तचाऽऽलम्बनमानदानकरणे किमपि तहा पुचतवसंजमेडिं. कम्मं तं चावि संगणं ॥२७२।।
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( २१०६ )
अनिधानराजेन्द्रः ।
पियाण
भ्रमणाः साधवो नेच्वन्त्येव भवं परं स पुनभेवो देवत्वरूपपामीभिः कारणैर्भवेत् तथा पूर्वीपेक्षा नावस्थाभावि यतपस्तेन सरागावस्थानाविना तपसा साधवो देवलोकेषूत्पद्यन्ते इत्यर्थः । एवं पूर्वसंयमेन सरागेण सामाथिकादिचारित्रेण साधून देवस्वं भवति कुत इत्याह- (कम्मे ति ) पूर्वतपःसंयमावस्थायां हि देवगतिप्रभृतिकं कर्म कम्पते ततो भवति देवपपातः तदपि कर्म केन हेतुना बध्यते, इति चेदत श्राह तदपि कर्म सङ्गेन संज्वलनक्रोधाऽऽदिरूपेण बध्यते । वृ० ६ ० ।
कित्तियवंदियमहिया, जे ए झोगस्स उत्तमा सिद्धा । गोहिलाई समादिवरमुत्तमं दिंतु ॥ ६॥
उसमं सर्वोत्कृषं ददतु प्रयच्छन्तु । भद- किमिदं निदानमत नेति । यदि निदानम्, अमनेन सुषप्रतिधिका त् । न चेत्, सार्थकमनर्थकं वा ? यथाथः पकः तेषां रागाऽऽदिमत्वप्रसङ्गः, प्रार्थनाप्रवीणे प्राणिनि तथादानात् । अथ चरमः, तत आरोग्याऽऽदिदानवि कला पते इति जानानस्या पि प्रार्थनायां मृषावादप्रसङ्ग इति । अत्रोच्यते-न निदानमेतत् क्षणायेगात् द्वेषामि हि तत् तथा तन्त्रप्रसिद्धत्वात् धर्माच नकुलादिप्रार्थनं मोद, मत केतुकत्वात् विमोह, केतुकत्वादेव तीर्थकर वे उत्येतदेवमेव प्रतिषिद्धमिति । पवे बचत तथेच्छाया एव दिन सतरोपनबुद्धिभावात् नमेतत महदपावसा. धनम् अविशेषता दि गर्दिता पृथग्जनानामपि सिमे योग व्यवहार सार्थकनकचिन्ता भाग्यमेततु, चतुर्थ जाषारूपत्वात् । तटुक्तम्
1
" नासा असच्चमोसा, णवरं प्रतीएँ भासिया एखा । नहु खीणपेज दोला, देति समादि व बोहिं च ॥ १ ॥ तपस्थणाएँ तद् विय, ण मुसावाओ बि पत्थ विराणेओ । याच गुण दि फलमा २ ॥ चितामणिरयणादिदि, जहा भव्य समीदि
।
पावंति तह जिखेदि, तेसि रागादभावे वि ॥ ३ ॥ बत्युसाओ सो अध्यचितामणी महानागो । घोऊणं तिरे पाविव बोहिना ॥ प्रती जिवणे तसेचया कम्मा गुणपरिसवमाणो कम्मरणदालो जेण ॥ ५ ॥ " पादुकं भवति पितरामत्वादारोग्यादि न प्रयच्छन्ति, तथाऽप्येवंविधवाक्यप्रयोगतः प्रवचनाऽऽराधनतया सन्मार्गवर्तिनो महासत्वस्य तत्सत्तानिबन्धनमेव तदुपजायत इति गाथार्थः ॥ ६ ॥ ल• ।
भती निणवराणं, विनंती पुत्रसंचिया कम्पा आणिमुकारेणं, विजा पंता य सिति ॥एए॥ भक्त्यान्तःकरणाऽऽदिप्रणिधानल कणया, जिनवराणां तीर्थकराणां देतुतया कि क्षीयतेयं प्रतिप पूर्वसचितानि भनेको पाचानि कर्माथि हावी नित्थं स्वभावत्वादेव तद्भरिति । प्रस्मिन्नेवार्थे दृष्टान्तमाह । तथाहि भाचार्यनमस्कारेण विद्या, मन्त्राश्च सिद्ध्यन्ति तद्भक्तिभतः सयमपरिणामत्वात् तत्सिद्धिप्रतिका दिति भावना । अयं गाथाऽर्थः ॥ ५५ ॥
अतः साध्वी तद्भर्विततार्थप्रसाथ-कन्यादारोग्ययोधिवामदे
स्वात्तथा चाऽऽहू
भत्तीऍ जिवराणं, परमाए खी एपिज्जदोसाणं । रुग्वोदिलानं समाहिमरणं च पावंति ॥ ६० ॥
3
भक्त्या जिनबरा, किंविशिष्टया ?, परमया प्रधानया, प्रावभ परत्यर्थः । कीमद्वेषायां जनानां किम् भारोग्यबोधिठानं समाधिमरणं च प्राप्नुवन्ति प्राणिन इति । इयमत्र भावना-जि. नभक्त्या कर्मवायः, ततः सकलकल्याणावाप्तिरित्याद-समाधिमरणं प्राप्नुवन्तीत्तदारोग्ययविज्ञानस्य हेतुत्वेन यम. समाधिमरणप्राप्तौ नियमत एव तत्प्राप्तेरिति गाथार्थः ॥ ६० ॥ साम्प्रतं बोधाभासावपि जिनममित्रान जामो नमिष्यत्येव किमनेन वर्तमानकालकरेा नुष्ठानेन ?, इत्येवंवादिनमनुष्ठानप्रमादिनं सरवमपिकाचीपदेशिकमिदं गामा
बियाणा
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118211
दिलिप बोहिं अकरितोऽणामयं च पत्तो । नंदाई बोहिं, सब्जिसि कयरे मुझेण ? ॥ ६२ ॥ सम्प्रर्तमानकालिकांबोधि जिनधर्मप्रासिमकुचित कर्मपराधीनता साफलामकुर्वन्, अनागतां चाऽऽयत्वामन्यां च प्रार्थयन् किं ह्रदयसि ?, यथा-वंदे बिल ते मे यान्यां बोधिमधिकृत्य किं "चुकिदिसि" इति देशीवचनतो भ्रश्यसि न भविष्यसीत्यथेः । तथा लग्धां च बोधिमकुर्वनागतां च प्रार्थयन (अनंदाई ति ) निपातः, असूयायाम्, अन्ये तु व्याचकते - अभ्यामिदानीं बोधि, कि लक्ष्यसे कतरे मूल्येन ?। इयमत्र भावना-बोधिला सति तपः संयमानुष्ठानपरस्य प्रेत्य वासनावशात सत्प्रवृतिरेष बोधिज्ञाभोऽभिधीयते तद्नुरतस्य पुनर्वासनानावात् कथं तरप्रवृत्तिरिति बोधिज्ञानानुपपतिः । स्थादेतत् एवं सरयाच स्य बोधिलाभस्यासंभव एव उपन्यस्तवासनाभावान्न अनादिसंसारे राधायेोपमानेनानाभोगत एव करिकर्मवस्त दयातिरिति । एतद्वेदितमेवोपद्वारा इत्यखं विस्तरेणेति गाथाद्वयार्थः ॥ ६१ ॥ ६२ ॥
तस्मात्सति बोधिलाभे तपःसंयमानुष्ठानपरे भवितम् न परिकचिचेत्याद्यालम्बनं चेतस्याधाय प्रमादिना भक्तिम्यमिति, तपस्संयमेोद्यमवतश्चेत्यादिषु कृत्याविराधकत्वात् । तथा
चाऽऽड्
चेश्यकुलगणसंपे, आयरिया च पवयों सुर । सब्ते कथं तब संजय मुज्जते ।। ६२ ।। चैत्यकुल गणसङ्गेषु, तथा आचार्याणां च तथा प्रवचन श्रुतयोश्व किम्?, सर्वेष्वपि तेन कृतं कृत्यमिति गम्यते । केनः तपः संयमेोद्यभवता] साधुनेति । तत्र स्वाम्यप्रतिमा लगानि कुलं विद्या
दिगणः कुन समुदायः, सङ्घः समस्त एव साध्वादिसङ्घातः । मायाः प्रतीताः, चरान्दा दुपाध्यायादिपरिग्रह भेदाभिधानं च प्राधान्यख्यापनार्थम् । एवमन्यत्रापि रूव्यम् । प्रवचनं द्वादशामपि सूत्रार्थतदुभयरूपं भूतं सूत्रमेव वशः स्वगता
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णियाण अभिधानराजेन्डः।
णियाणमरण नेकनेदप्रदर्शनार्थः । एतेषु सर्वेष्वपि स्थानेषु तेन कृतं कृत्यम,यः तः,त्याह-यतः सानिष्परागोपेतम् । यतस्तीर्थकरसत्कस्यातपः-संयमोद्यमवान् वर्तते । श्यमत्र भावना-अयं दिनियमामा- मरवरनिर्मितसमवसरणकनककमलप्रमुखविन्नवस्व दर्शनात् नदर्शनसंपनो भवत्ययमेव च गुरुत्राघवमानोच्य चैत्याऽऽविकृत्ये. श्रवणावा संजाततभिलाषः कोऽपि विकल्प करोति, नवनषु सम्यक् प्रवर्तते। यथैहिकाऽऽमुग्मिकगुणवृद्धिर्भवति, विपरी- मगतोऽप्यहं तीर्थकरो भूयासमिति गाथार्थः ॥ ३७॥ तस्तु कृत्ये अपि प्रवर्तमानोऽप्यधिवेकादकृत्यमेव संपादयत्यत्र
पतस्यैव साभियङ्गताविपर्यये दोषाभावमाहबहु वकव्यमिति गाथार्थः॥६३॥ प्राव.२.पं०सू०। (प्र. जं पुष पिरभिस्संगं, धम्मा एसो अणेगसत्तहिनो। णिधानलक्षणं 'पणिहाण' शब्दे वक्यते) ("जय वीयराय जग- णिरुवमसहसंजाओ, अपुवचिंतामणीकप्पो ॥३॥ गुरु, होउ ममं तुह पत्रावो जयवं भवणिब्वे ओ मम्गाणसा.
ता एयाणुहाणं, हियमणुवहयं पहाणभावस्स । रिया टुफनसिद्धी ॥३३॥" इति प्रणिधानसूत्रं "चेदयबंदण" शब्द तृतीयभागे १३२० पृष्ठे उक्तम् ("पतो चिय ण णियाणं,
सम्मि पवित्तिसरून, अत्थापत्तीऍतमवुटुं॥३६॥ (युग्मम्) पणिहाणं बोहिपत्यणासरिसं । सुहजाबहेउजाबा, पेयं शहराs
[जं पुणति साभिप्वहं तावत् सुधमेव,यत्पुनस्तीर्थकरत्वप्रापबित्ती उ" ॥ ३० ॥ इत्यपि तत्रैव १३२१ पृष्ठे व्याख्यातम्)
धनं निरभिष्व रागाभावेन विहितं, तत अदुएमिति संबन्धः । यमुक्तं प्रणिधान निदानं न जबतीत्यस्यार्थस्य साधकं प्रमा
निरनिम्वङ्गतामेव तस्याऽऽह-धर्मात् कुशलानुष्ठानरूपाद हंटाणं दर्शयन्नाह
सल्याऽऽदे सकाशाद्धर्माय वा भव्यानाम,पष तीर्थकर,भवतीति
गम्यम् । किम्भूतः,अनेकसचहितः निखिल जगजन्तुजातपर. मोक्खंगपत्यणा इय, ण णियाणं तदुचियस्म विम्यं । मवान्धवः। कथम् ,यतो निरुपमसुखसंजनकः अनुपमाऽऽनन्द सुत्तारामइत्तो जह, बोडीए पत्थणा माणं ॥ ३६॥ संपादको, निर्वाणहेतुत्वात् । अत एवापूर्वचिन्तामणिकल्प: मोक्षानी मितिकारणानां प्रार्थना आशंसा । अथवा-मो.
चिन्तातिकान्तसुखाविधायित्वादिति । [ता इति ] यस्मादनेक
सवहितत्वाऽऽदिविशेषणस्तीर्थकरस्तस्माद, पतस्य तीथैकर. कानं चासी प्रार्थना बेति मोक्षाङ्गप्रार्थना। इति एषा "जबवीयराय (३३)"श्त्याचनन्तरोक्तप्रकारा, अनेन च तीर्थ
स्यानुष्ठानं सम्र्मदेशनाऽऽदिकमेतदनुष्ठानम् । किमित्याह-हितं करत्वं मे नूयादित्यादिकाया रागाऽऽकुलमानसकृताया ज
पथ्यमार्थसाधकत्वात् । किम्भूतम्, अनुपहतमप्रतिघातम् । चारभूताया व्युदासः । 'न' नैव, निदानमार्तध्यानविशेषो
वह स्थाने इति शब्दो अपव्यः । ततश्व इति प्रधानन्नावस्य पत्रभवतीति, विज्ञेय ज्ञातव्यमिति प्रतिका । कुतः, इत्याह-त.
म्भूतप्रवराध्यवसायस्य देहिनः, किम्भूतं तीर्थकरत्वप्रार्थनसुचितस्य प्रणिधानोचितस्य, प्रमत्तसंयतान्तस्य गुणस्थानिन
मित्याह-तस्मिन् धर्मदेशनादिजिनानुष्ठाने,प्रवृत्तिस्वरूपं प्रबइत्यर्थः। सूत्रानुमतित भागमानुझातत्वात् । अप्रमत्तसंयताऽऽदे.
निस्वभावम् । ननु तीर्थकरोऽहं भवेयमित्येतस्य प्रार्थनस्य
तीर्थकरवृत्तिकत्वात् कथमिदं धर्मदेशनाप्रवर्तनस्वभावम् !, हिं तत्सूत्रं नानुमन्यते, तस्याननिष्वङ्गत्वाद्, तदन्यस्थ त्वनुमन्यते, साऽभिध्वात्वादू, विशिष्टप्रणिधानस्य निरभिष्वङ्गताहेतु
इस्यत पाह-अर्थापत्या न्यायनः। यधपि तत्प्रार्थनं साकासी.
धकरत्ववृत्तिकं, तथाऽपर्यापस्या धर्मदेशनादावेच वर्तते, स्वादिति । अनेन च हेतुरुक्तः। यथेति पान्तसूचनार्थः। बोधेवों
तीर्थकरत्वप्रार्थनाद्वारेण धर्मदेशनाऽऽदिजिनानुष्ठानस्यैव हिता. धिलाभस्य, प्रार्थनाशंसति, मानं प्रमाणम् । इनमनुमानलकणं
ऽऽदिविशेषणस्य प्रार्थितत्वादिति तीर्थकरत्वप्रार्थनमाएं, न प्रणिधानस्य निदानत्वाभावसाधकत्वमिति । प्रयोगश्चास्यैवम्
दृषणवदिति गाथाद्वयार्थः॥ ३८ ॥ ३६ ।। पश्चा०४ विषः । यत सूत्रानुमतं मोकाशप्रार्थनं, तन्निदानं न भवति, यथा बोधिप्रार्थनम, सूत्रानुमतं चेदमधिकृतं मोक्षाङ्गप्रायनमिति
("जाईपराइनो समु, कासि नियाणं तु हस्थिणपुरम्मि । गाथाऽर्थः॥ ३६॥
चुलणी बभदत्तो, उपवनो नलिणगुम्मा॥१॥" (उत्त०१३ नन्धमोक्षालानां प्रार्थनं निदानं, तीर्थकरत्वं तु मोकानम्,
प्र०)इति निदानकरणे ब्रह्मदत्तोदाहरणं 'बंजदत्त' शब्दे वक्ष्यते) प्रतस्तस्यापि प्रार्थनाप्रतिषेधो यो दशाश्रुत
(खोपद्याः पूर्वभवे निदानकरणं 'दुई' शब्देऽप्रे वयते) स्वर्गा
चाफ्यादिलकणेऽथे,सूत्र०१६०२४०३०श्राकाकायाम्, स्कन्धेऽनिहितो नासौ युक्तः,इत्याशक
सूत्र०१भु०१६ म०। कारणे, बृ०१ उ०। विशेसूत्र० । उक्याह
स्थानकारणे, वृ० १०० उत्पादने, प्राचा०१७.६ म०१०। एवं च दसाऽऽईमुं, तित्ययरम्मि विणियाणपडिसेहो ।
णियाणंजाण-निदानध्यान-२० । प्राकृतत्वादनुस्वारः । नन्दिजुत्तो जवपमिवई, साजिस्संग तयं जेण ॥१७॥
पेणगङ्गादत्तसम्भूतकौपद्यादीनामिव स्वर्गमाऽऽदिऋद्धिप्रार्थएवं चानेन च पूर्वोक्तेन प्रकारेण मोकाङ्गप्रार्थनाया एवानिदा- मध्याने, मातु। नताप्रतिपादनलकणेन, दशादिषु दशावुनस्कन्धप्रमृतिषु +,
णियाणकरण-निदानकरण-न० । चक्रवर्तीकाऽऽदिप्रार्थने, मादिशब्दाभ्यानशतकाऽऽदिपरिग्रहः तीर्थकरेऽपि भवनवनभीतजननिवारणानगरगमनसार्थवाहकल्पे जिनेपिविषये,भास्तां
स्थाग.४ उ०। संसाराऽऽवर्सपातनिमित्तस्तनपतित्वाऽऽदौ । निदानस्य "अमु.
बियाणकारि (ए)-निदानकारिण-त्रि० । निदानकरणशीले, तो धर्मातीर्थकरो नूयासम्" इत्येवं प्रार्थनस्य प्रतिषेधो विधेय
"नियाणकारी संगंतु कुरुते उकुदे दियं ।" स्था• ६ ग०। तया निषेधो निदानप्रतिषेधः। किमित्याह-युक्तः सङ्गतो वर्तते।।
णियाणमयग-निदानमृतक-पुं० । निदानं कृत्वा बालतपश्चरकेन कारण नेत्याह-नवप्रतिषकं संसारानुषक्तम,येन यस्मात्कार- णादिमत्वेन मृतेषु,०। णात्। [तवं तितकं तीर्थकरत्वप्रार्थनं भवप्रतिबकमेव। कु-णियाणमरण-निदानमरण-न। मरणभर स्था. ६ +२१०४पृष्ठेस विषयक आवश्यकसूत्रस्थं ध्यानशतकम्।। (व्याख्याऽस्य 'मरण'शब्दे बयते)
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ग्रियायसह
णियाणसश्ल - निदानशस्य १०१ विहान दे
नवज्यामितो ब्रह्मान्ममेता भूषास्यव्यवसाय गरे यस सम अधिकरणानु तदेव शल्यम् ३ । मोदनान्निदानशल्यम् । शल्यभेदे, आव० ४ ० " दिग्वं मा मानु वा विभवं पासिपूण सोऊन या विाणस्स उत्पती भवेजा, सेण किं भवति १ । उच्यते-" सणियाणस्स चरितं न चट्टति कश्मात् है, मधिकरणानुमोदन, तस्योदाहरणं बंभ दत्तो।" प्रा. चू० ४ श्र० । थियामिया नियम्य-व्यय ( सूत्र ) “उबसम्मानियामिया, मामोक्खा परिषद "सूत्र० १० ३ अ० ३ उ० ।
(२१०८) अभिधानराजेन्रुः ।
शियाबाद (ए) नियतनादिन
1
नियतं निस्तु
तथा एकान्तनित्यवादिन्यक्रियायादिनि, स्था०] नित्यो मोक, आविभीषतिरोभावमात्रत्या उत्पादविनाशयो तथाऽसतो नुत्पादाच्शविषाणस्येव, सतश्चाविनाशात् घटबनून हि सर्व
घटबिन: कपास स्थाभिः तस्य परिणतत्वात् तासां पारमार्थिक सामान्यस्येव पारमार्थिकत्वात् तस्य विनयादित क्रियावादी चायम् एकान्तमित्यस्य स्थिरे करूपतया सकलक्रियाविलोपाज्युपगमादिति ॥ ७ ॥ स्था०८ ठा० पियुद्ध-नियुक० म ० २ ० । नियोग नियोग- पुं० । नियतो निश्चितो वा योगः सम्बन्ध इति नियोगः। यथा घटशन्देन घटस्यैव प्रतिपादनं न पामेरिति । अनुयोगे, आ० म० १ ० १ खएम । व्यापार, उत्त० ३ ० । सूत्र० । ना॰ म० । भवश्यतायाम, पो० १ विव० । मोक्षमार्गे, सत्संयमे च । सूत्र० १ ० १६ म० । (विशेषः 'णिश्रोग' शब्देऽस्मिन्नेव प्रागे २०१८ पृष्ठे गतः ) योगपविनियोगपतिपन्न त्रि० नियोगो मोक्षमार्गशिरडुग-निरर्थक १० अर्थ प्रयोजनं तदभावो निरर्थे सब संयमो वा तं सर्वाऽऽत्मना भावतः प्रतिपन्नो नियोगप्रतिपन्नः । मोक्षमार्ग प्रतिपन्ने, सूत्र० १० १६ ० पिचित-नियोजित श्रिमिकशाची
निरर्थकम् प्रयोजनाभावे "रिगम्मि विरमेया सुसंबुमो ।” (४२) उत्त० २ म० ।
रिकंप निरनुकम्पयनिःशुके, प्रश्न० ३ अभ० द्वार ।
४३२॥ इति तृतीयस्यायम्या
।
"
पारित, प्रा० ४ पाद । णियोजित - नियोजित त्रि० । “ नादियुज्योरन्येषाम् ||८|४| ३२७३ प्रतिलिपैशाचिकेभ्येषामाचार्याणां मते तृतीयस्थ प्रथमो न । व्यापारिते, प्रा० ४ पाद ।
शिर निर्मा० भृशार्थे उत्तम निधि
उस० ६ अ० ।
रि-निर्ऋति श्री० निरई । पिरोत्रम - निरयोपम-त्रि० । नरकोपमे नरकतुस्थे, दश०
[राइसे, मूलाधिष्ठातृदेवतायाम्, "दो " स्था० २ ठा० ३ उ० । जं० ।
१०
| प्रश्न० ।
निरंकुस - निरङ्कुश - त्रि० । गुर्वाज्ञाऽऽयतिचारिणि, ग० २
अधि० । बाघाशून्ये. अनिवार्ये च । वान्र० । किरंगी देशी-शिरोऽहने देना 8 वर्ग ३१ गाथा निरंजा - निरजन जिनं रागापरानं रोग शुन्य वाकण ) रज्जनं रागापरम्जनं तस्मा
पिरयुबंध दोस
निर्गतः । खा० १० ठा० । रागादिमुक्के, " संखो श्व निरंजणे । 33 स्पा०१ ठा० । निरंतर निरन्तर- भि० निर्गत निमन्तरं वारमा । निर्गतमन्तरात्, त्। निविमे गिरवधो निश्विने व याच सतते, मैरम्स, बिशे० रा० । श्रविश्रामे, सुत्र० १० ५ ० २४० । प्रज्ञा० । स्था० । निरंतररायलक्खणविराश्यं गुबंगो । " नैरन्तर्येण राजवेश्यकस्वस्तिकादिनिर्दिशमितान्यनि शिरप्रभृ पाङ्गानि चाव्यादीनि यस्य स तथा ०२ ०१ ४० शिरंतरिय निरन्तरिक वि० निर्गताऽन्तरिका सन्तररूप त्रि० । येषां ते नितरिकाः । चन्तररहितेषु रा० " निरंतरिव एकवाका भिती ।" रा० । निर्गताऽन्तरिका सध्यन्तररूपा थयोस्तौ निरन्तरिको, अत एव घनौ कपाटौ यस्य तन्निरन्तरिकघनकपाटम् | जी० ३ प्रति० ४ ० । जं० ।
1
निरंबर- निरम्बर- पुं० निर्गतमम्बरं येभ्यस्ते रिम्बराः । जि । नकल्पिकाऽऽदिषु, आ०म० १ ० १ खण्ड । फिरंस- निरंश-पुं० निरवयविशे० ।
गिरक देशी-बोरे, स्थिते पृठे ० ना०४ वर्ग ४२ गाथा | णिरक्क-देशी-चोरे, च । दे० । शिरग्गिसरण- निरग्निशरण-पुं० । निर्गतमग्नेः पावकास्तरणं शीताऽऽदिपरित्राणं यत्र । अथवा निर्गते स्वीकाराभावादग्निशरणे वह्निभवने यत्रासौ निरग्निशरणः । पा०| अग्निशरणरहिते, इमस्त धम्मस्स निरग्गिसरणस्स संपक्खालियरस ।" ५० ३ अधि० ।
46
णिरट्ठ-निरर्थ त्रि० । निष्प्रयोजने, उस० १ ८० । “ख्रिश्ऽसोबा परितावमेश ।” निरर्थः शोको यस्याः सा निरर्थशोका। उस० २० प्र० ।
निरनुकम्पमाह
उ
जो परं कंपतं, दया न कंपए कढियजावो । एसो रिपुकंप, अणु पश्चानाबजोरणं ॥
यस्तु परं कृपाssस्पदं कुतश्चित् भयात्कम्पमानमपि दृष्ट्वा कठि ननावः सन् न कम्पते, पक्ष निरनुकम्पः । कुतः ?, इत्याद-भ्रमु. शब्देन पाचवावकेन यो योगः संबन्धः तेन किमु नय ति-अनु पश्चाद् दुःखितः सम्बकम्पनाइनन्तरं यत्कम्पनं सा अनुकम्पा, निर्गता अनुकम्पा यस्मादिति निरनुकम्पते।
बृ० १३० ।
हिता [ ए ]-निरनुतापिन पुं० पनि जी त० । सेवितेऽप्यकृत्ये मनागपि न पश्चात्तापभाक् । प्रब० २७४ द्वार ।
निरनुबन्धकवि अनुबन्धरदिवे, द्वा०२२ द्वा० रिपुवंपदोस-निरनुपन्यदो । पुं०००- । व्यवदिन
सन्ताने रागा55 पो० १२० ।
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(२१०९)
अभिधानराजेन्रूः |
पिरति
रिति निरति स्त्री० । देवानन्दायाम, कल्प० ६ कण । खिरस्य निरस्त - वि० निष्काशिते ००४० पिरत्यग - निरर्थक - न० | सत्यार्थान्निष्क्रान्ते, प्रश्न० २ अन द्वार । वर्णक्रमसत्यार्थरहिते, उत्त० १८ प्र० । निर्देशयति, ० म०१ अ०२ खछ । यत्र वर्णानां क्रममात्रं निर्देशमात्र मुपलभ्यते, मत्यर्थः यथा-अभावइत्यादिविशे० अनु० निययोजने द्वा० १६ द्वा० । यस्य वाऽवयवेष्वर्थो न विद्यते । यथा - मित्थः, कवित्थः, वाग्जनः । वृ० १५० ।
-
रिप्प - देशी - पृष्ठे, उद्वेष्टिते च । दे० ना० ४ वर्ग ४६ गाथा | स्वाचा गतिनिवृत्ती, "स्पष्ठा पक्ष चिनिया: " - । ५८।४।१६ ॥ इति तिष्ठतेर्निरप्पाऽऽदेशः । ' निरप' | तिष्ठति । प्रा० ४ पाद । खिरभिग्गह- निरनिग्रह - त्रि० । निर्गता अभिप्रदा येज्यस्ते नि. निद्रा अभिप्रहरहितेषु केवल सम्यग् ि०६० रिभिराम - निरनिराम त्रि० । श्ररमणीये, " पदसितबी
-
कणिरभिरामे । ” प्रश्न० ३ अश्र० द्वार । रिभिस्संग-निरभिष्वङ्ग - त्रि० । सङ्गरहितत्वे, पञ्चा० ६ बिष० । सर्वाऽऽशंसाचिप्रमुक्ते, पं० ३०१ द्वार । मिथ्यादृष्टिव्यव दारेषु वाइम्ये च निस्पृहे, पञ्चा० २ विच० । विश्य निरय-पुं० निर्गतमविद्यमानमयमिफलं देवं कर्मतवेदनीयाऽऽदिरूपं येभ्यस्ते निरयाः कर्म० ८ कर्म० स्था० । निर्गतमयं शुभमस्मादिति निरयः । स्था० ४ ठा० १ उ० । सीमन्तकादिषु नरकेषु, कर्म ०१ कर्म ०। स्था० । प्रश्न० श्रावण ( सर्वा वक्तव्यता 'रग' शब्देऽस्मिन्नेव भागे १६०४ पृष्ठादार१९२५ पृष्ठपर्यन्तं स्थिता ) निर्गता प्रयानुभादिति नि रयाः । नारकेषु, स्था० १० वा० । धाचा० ।
1
निरत- त्रि० । सके, दश० १० अ० । स० ।
पिरयगइ - निरयगति-स्त्री० । निरये नरके या गतिर्निरयगतिः, निरयश्चासौ गतिश्चेति वा निरयगतिर्निरयप्रापिका वा गतिर्निरयगतिः । स्था० ५ ठा० ३ ४० । निर्गता अयाच्डनादिति निरया नरका, ते गतिर्गम्यमानत्वाद्, निरयो नरकस्तद्गतिर्नाम कर्मोदय संपाद्यो नारकत्वलक्षणः पर्यायविशेषो बेति निरयगतिः । गतिभेदे, स्था० १० वा० । णिरयगोयर - निरयगोचर- पुं० ब० स० नरकनिजां
प्रश्न० २ श्राश्र० द्वार ।
रिवसि []-निरयदर्शिन् निरयं स्वरूपतो
रित्यागरूपत्वाद् ज्ञानस्य, परिहरति च । समानमपि पश्यति, प रिति च निरयदर्शी । नरकनिदानवेत्तरि, " जे मारदंसी से णिरयसी, जे णिरयांसी से तिरियदसी ।" भाबा० १ ३ अ० ४ उ० ।
०
णिरयपत्यम - निरयप्रस्तट- पुं० । नरकप्रस्तरे, प्रज्ञा०३ पद | णिरयपरिमामंत - निरयपरिसामन्त-पुं० | नरकपारिपार्श्वे भ०
१३ श० ६ ० । निरयवासानां पार्श्वे भ० १३ ० ४ उ० । रिपाल - निरवपाल पुं० नरकपालेषु परमधार्मिकेषु स्था ४ ठा० १ उ० | ( नरकपाल कर्तव्यं 'खरग' शब्देऽस्मिन्नेव प्रागे १९१२ पृष्ठे दर्शितम् )
पिरयरोग - निरयरोग - पुं० । नरकरोगे, " पणकोडि सही,
५२८
पिरयावलिया
लक्खा नवनवइसहसपंचसया । घुलसी अहिया रोगा, बट्टे तह सत्तमे नरए ॥१॥" श्यं गाथा क्वास्तिः, प्रथमाऽऽदिनरकेषु च कियन्तो रोगा नवन्तीति प्रश्ने, उत्तरम् श्यं गाथैतत्पातरूपा प्रथे
पिन समर्थन पतद्भावाधरूपानुयते यथा रोगाणं कोडीओ, हवंति पंचेच लक्ख असही। नवनवसहरुलाई, पंचसया तह य चुलसी ” ॥ १ ॥ एते रोगा अप्रतिष्ठाने नरकावासे नित्यन्यत्रापि संभवन्ति यथायोगम् तत परिक भवे एतावन्तो रोगाः क्षयहेतवस्तस्मिन् धर्म एव सार इत्याद रणीयः सर्वशत्वत्युपदेशरत्नाकरे पञ्चविंशत्यधिकशतपत्र मित पुस्तके एकाशीतितमपत्रे । २७ प्र० । सेन० १ बला० । णिरववास निरयवास-पुं० नरकरूपे वाले, "विश्ववास गमण निघणो । " निरयो नरकः, स एव वालो निरयवासः, तत्र गमनं तदेव निधनं पर्यवसानं यस्य स निरागमनविधनस्तत्फल इत्यर्थः । प्रश्न० १ श्रश्र द्वार । रियविग्गहगइ - निरयविग्रहगति - स्त्री० । निरयाणां नारकाणां विग्रहात् क्षेत्रविभागानतिक्रम्य गतिगमनं नियत । स्थितिनिवृत्तिलक्षणायामृजुवकरूपायां विहायोगतिकर्मापा
द्यायां वा गतौ स्था० १० वा० ।
"
गिरयविभत्ति - निरयविनक्ति-स्त्री० । नरकप्रविभागे, तदर्थके सूत्रकृतोऽध्ययने च. प्रश्न०२ श्र० द्वार ।
रियंवेयणिज्ज - निरयवेदनीय न० । निरये वेद्यतेऽनुभूयते यन्निरययोग्यं वा यद् वेदनीयमत्यन्ता शुभनामकर्मादि, असा तवेदनीयं वा । नरकगतिनामकर्मणि, "णर रियि
सि कम्मंसि ।" स्था० ४ ठा० १ उ० । फिरवावलिया निस्यासिका श्री० प्रालिका
1
-
-
बु, "रियाबलियासु निरयपत्थडेसु ।” प्रज्ञा० २ पद । ब००। यत्राssवलिकाप्रविष्टा इतरे च नरकाऽऽवासाः प्रसङ्गतस्तद्गामिता नरास्तिर्षो वा वसन्ते सा निराकार एकस्मिन्नपि मन्ये वाध्ये बहुवचनं दादशक्तिस्वानाच्या यथा पञ्चाला इत्यादि । नं० पा० । अन्तकृद्दशाङ्गाऽऽदीनां राष्ट्रवाद पर्यन्तानां पञ्चानामुपागानामुपाङ्गरूपे कल्पिकाऽऽदिपञ्चवर्गाssत्मक तस्कन्धे, तत्र पञ्च षर्गः पञ्चानामुपाङ्गानि । तथादिअन्तकृद्दशाङ्गस्य कपिका १. अनुत्तरोपपातिक पातंसिका २, प्रश्नव्याकरणस्य पुष्पिका ३, विपाकश्रुतस्य पुष्पचूलिका ४ दृष्टिवादस्य दृष्टिदशा ५ । जं० १ वक्क० ।
वेणं काले ते समपर्ण रायगिड़े नाम नगरे होत्या । रिक गुण सिलए चेइए | वन्नओ । सोगवरपायवे पुढविि लापट्टए। तेणं कालेयं तेणं समर्थ समस्स नगव महावीरस्तेवासी अज्जमुहम्मे नाम अणगारे जातिसंपन्ने जड़ा फेसी०जाब पंचहि अणगारमा ससिं परिवारमा शव रायगिहे नगरे० जाव अहापर्व जग उग्गिएडचा जमे जाव विहरति । परिसा निम्गया। पम्यो कहियो परिसा पडिगया। ते काणं तेणं समएणं अज्जसुहम्मस्म अणगारस्स अंतेवासी जंबूणामं अणगारे समचरंसठाण मंत्रिए० जाव संखिचविपुलतेयलेस्से अजनुहम्मस्स अणगारस्स अदूरसायं जाणू जात्र विहरति । तए णं से जग जंबू०
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गिरयावासिया
(२१९०) भाभिधानराजेन्द्रः ।
गिरयावास
जाव सक्ले जाव पज्जुवासमाणे एवं बयासी-मवंगाणं. समणेणं भगवया० जाव दुवालस अकयणा पत्ता। तं भंते ! समणेणंजाव संपत्तेएं के अटे पाते । एवं खलु | । जहा-"निसढे अनि दह बहे, पगती जुति दसरहे दढरहे मंबू ! समणणं जगवया० जाच संपत्तणं एवं उबंगाणं य । महाधणू सत्तधणू, दसधणु नाम सए ॥१॥" निक पंच बग्गा पमत्ता । तं जहा-निरयावनियाओ, क- १ श्रु० ५ वर्ग १ अ०। प्पसियाओ, पुफियानो, पुप्फचूलियामो, वगिह- एवं खबु जंबू! समणेणं जगवया महाजाव निक्खेको। दसाम्रो । जइ णं नंते ! समणेणं० जाव संपत्तेणं एवं सेसा वि एकारस अजयणा नेयम्वा, संगहणीअणुनवंगाणं पंच वग्गा पमत्ता । तं जहा-निरयावलियाओ० सारेण अहीण महरित्तं एकारससु वि निरयावलियासुयक्त्रंधो जाव वएिहदसायो । पढमस्स एं भंते ! वग्गस्स उगाणं सम्पत्तो, सम्मत्ताणि उवंगाणि,निरयावलियाउवंगे णं एगो निरयावलियाणं समणेणं भगवयान्जाव संपत्तेणं का अज्- | सुयक्रवंधो,पंच वग्गापंचमु दिवसेसु उदिस्सति । तत्थ चउमु यणा पन्नत्ता ?। एवं खलु जंबू! समणेणं० उवंगाणं पढमस्स वग्गेसु दस दस उद्देसगा, पंचमगे बारस नदेसगा निरयावग्गस्स निरयाव बियाणं दस अकयणा पमना । तं जहा- वलियासुयक्वंधो सम्मत्तो। नि०१ श्रु० एवर्ग १२ अ०। "काने सुकाले मह-काडे, कण्हें मुकादे तह म- यह ग्रन्थे प्रथमवर्गो दशाऽभ्ययनाऽऽत्मको निरयावलिकानामकः। हाकएहे । वीरकएहे बोधब्बे, रामकएहे तहेन अहमए ।
द्वितीयवों दशाध्ययनात्मकः, तत्र च कल्पावतंसिका इत्याच्या
अध्ययनानाम् । तृतीयवर्गोऽपि दशाध्ययनाऽऽत्मकः, पुप्पिकाशपिउसेणकण्हें नवमे, दसमे महसेणकरहे उ ॥"
म्दानिधेयानि च तान्यभ्ययनानि। तत्राऽऽद्ये चन्द्रज्योति केन्कव. नगवता उपाङ्गानां पञ्च वर्गाः प्राप्ताः । वर्गोऽध्ययनसमु.
कव्यता। द्वितीयाध्ययने सूर्यवक्तव्यता। तृतीये ाक्रमहाग्रहवक्तदायः । तद्यथेत्यादिना पञ्च वर्गान् दर्शयति-(निरयाबसियामा
व्यता। चतुर्थाध्ययने बदुपुत्रिकादेवीवक्तव्यता। पञ्चमेश्ययने कप्पसियाओ पुफियाप्रो पुष्फचूलिया नो वरिहदसामो
पूर्णभनदेववक्तव्यता । षष्ठे माणिजद्रदेववक्तव्यता। सप्तमे प्राग्जति) प्रथमवर्गों दशाध्ययनाऽऽत्मकः प्रज्ञप्तः । अध्ययनदश
विकवन्दनागतगङ्गदत्तनामकदेवस्य द्विसागरोपमस्थितिकस्य कमेवाऽऽह-"काले सुकाले" इत्यादीनां मातृनामजिस्तदपत्या
धक्तम्यता । अष्टमाध्ययने शिवगृहपतिमिथिलावास्तव्यस्य नां पुत्राणां नामानि । यथा-काल्या अयमिति कालः कुमारः ।
देवत्वेनोत्पन्नस्य द्विसागरोपमस्थितिकस्य वक्तव्यता । नवमे च एवं सुकाल्या, महाकाल्या, कृष्णायाः, सुकृष्णायाः, महा
हस्तिनापुरवास्तव्यस्य द्विसागरोपमाऽऽयुष्कतयोत्पन्नस्य देवकृष्णायाः, वीरकृष्णायाः, रामकृष्णायाः, पितृसेनकृष्णा
स्य ........" नामकस्य वक्तव्यता । दशमाऽभययने 'अणाढिया महासेन कृष्शाया अयमित्येवं पुत्रनाम वाच्यम् । श्व
य' गृहपतेः काकन्दीनगरीवास्तव्यस्य द्विसागरोपमाऽऽयुष्ककास्या अपत्यमित्याद्यर्थः प्रत्ययेनोत्पाद्यः काल्यादिशब्दे
तयोत्पन्नस्य देवस्य वक्तव्यता। इति तृतीयवर्गे अध्ययनानि । घपत्येऽर्थे पयत्प्रत्ययः । काबस्तु कालाऽऽदिनाम्ना सिद्धरेव
चतुर्थो वर्गोऽपि दशाध्ययनात्मकः, श्री-ही-धृति-कीर्ति-बुकिवाच्यः । कालः १, तदनु सुकालः१, महाकाल:३, कृष्णः४, सु.
सक्ष्मी-इलादेवी-सुरादेवी-रसादेवी-गन्धदेचीतिवक्तव्यताप्र.. कृष्णः ५, महाकृष्णः ६, वीरकृष्णः ७, रामकृष्णः८, पितृसेन
तिबाध्ययनात्मकः। तत्र श्रीदेवीसौधर्मकस्पोत्पन्ना नगवकृष्णः, महासेनकृष्णः १० दशमः । इत्येवं दशाध्ययनानि
तो-महावीरस्य नाट्यविधिदारकचिकुर्वणया प्रदश्य स्वस्थान निरयावलिकानामके प्रथमे वर्ग इति । नि.१ श्रु.१ वर्ग १
जगाम, प्राग्भवे राजगृहे सुदर्शनगृहपतेः प्रियनार्याया मजा अा(निरयावलिकाद्वितीयवर्गवक्तव्यता 'कप्पर्मिसया'श
भूया नाम्न्यऽभवत, न केनापि परिणीता, पतितस्तनी जाता, ब्द तृतीयत्नागे २३५ पृष्ठे गता) तच्चस्स णं नंते ! वग्गस्स उबंगाणं पुल्फियाणं के अ
चरकपरिवर्जिता वरयितृप्रस्वेदिता नाऽपरिणीताऽभूत् । सुगम
सर्व यावश्चतुर्थवर्गः समाप्तः। पञ्चमे वर्गे वह्निदशाभिधानद्वादपठाते । एवं खलु जंबू! समणेणं० जाव संपत्तेणं पुल्फि- शाध्ययनानि प्राप्तानि-" निसढे" इत्यादीनि । प्रायः सर्वोऽपि याणं दस अजयणा पएणत्ता । तं जहा-"चंदे सूरे सुक्के, सुगमः पञ्चमवर्गः । नि०१थुछ ३ वर्ग। बहुपुत्तिय पुमनद्देमाणिभद्दे यी दत्ते सिवे वलियाए, अ.
गिरयावास-निरयावास-पुं० । पावसन्ति येषु, ते आवासाः, पाढिए चेव बोधव्वा ॥१॥" नि०१ श्रु०३ वर्ग १ अ०।।
निरयाश्च ते आवासाश्च निरयावासाः । नरकाऽवासेषु जाणं नंते ! समणेषां जगवया उक्खेव ओ० जाव दस
रत्नप्रभाऽऽदिषु । भ०।
नरकाऽऽवाससंख्याअजयणा पत्ता । तं जहा-"सिरि हरि घिति कित्ती, इमीसे णं भंते ! रयणपनाए पुढवीए कइ निरयावासबुछी लच्छी य होइ बोधव्वा । इलदेवी सुरदेवी, रसदेव।।
सयसहस्सा पावत्ता। गोयमा! तीसं निरयावाससयसहस्सा गंधदेवी य ॥१॥" जड पं भंते ! समणेणं भगव या०जाव संपत्तेणं नवंगाणं |
पपत्ता | गाहा-* "तीसा य परमवीसा, पसरस दसेव चउत्थस्स वग्गस्स पुप्फचूलाणं दस अज्मयणा पत्ता ।
*प्रथमपृथ्यां ३० लवनरका वासाः। द्वितीये २५ लक्वमिताः।
तृतीये १५ समिताः । चतुर्थे १० बक्कमिताः । पञ्चमे ३ लक्ष. पंचमस्स णं भंते ! बग्गस्म उवंगाणं वएिहदसाणं समणे
मिताः । षष्ठ के पञ्चूना एकलक्कमिताः । सप्तमे ५ पश्च । इति ए जगवयाजाव संपत्ते के अहे पत्ते । एवं खा जंबू।। गाथार्थः ॥१७२ ॥ संग्रहणी।
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रियावास
शिरवलाव
यससहस्सा तिथे पंचूर्ण, पंवेद अनुचरा छिर- छिरवर्कखि [ ] निश्कासि परित्यकभोगे ० या ॥ १७२ ॥ " ० १ ० ४ उ० ।
१ ० १ अ० ।
(२१११ ) अभिधानराजेन्द्रः ।
(इथं गाथा ज्ञान शब्देऽस्मिन्नेव भागे १७०२ पृष्ठे शिरवरंगढ़-निरवग्रह-पुं० विश्वले को । वर्जिता
शिरवच्च-निरपश्यत्रिअविद्यमानशिष्यसंतती स०७१
दोचार यां पुढची पानी गिरवापास सबसहस्सा प
सम० । शिष्यसन्तानरहिते, कल्प० क्षण ।
तित्थसुह
पत्ता | स० २५- सम० ।
मातो, निरवच्चा गणहरा सेसा । अ०म० १ २०२ खण्ड ।
रयणष्पभाए णं पुढबीए तीसं रियावास सयसहस्सा प- णिरवज्ज - निरवद्य - त्रि० । असावद्ये, “ से संजय समक्ख
छाता । स०३० सम० ।
निरचज्जाहार जे विऊ । " दश० ५ ० १ उ० ।
पढमपंचमळट्टिसत्तमासु चसु पुढवीसु चोत्तीसं रिया- णिरवज्जवत्युविसय-निरवद्यवस्तुविषय - त्रि० । निरवद्यं साबवाससयसहस्सा पएलता । स० ३४ सम० । धर्मगतं तद्विषयो यस्य । श्रसावद्यविषय के,
वितिपचचरथी दो पुडपी पणती णिश्यावासमय
सहस्सा पत्ता | स० ३५ सम० ।
पुढवी
च एकचत्तालीसं णिग्यावास सयस हस्ता पत्ता । तं जहा - रयणप्पभाए, पंकप्पभाए, तमाए, तमतमाए । (उइत्यादि) क्रमेण सूत्रकासु चतसृषु प्रथमचतुर्थसप्तमं पृथिवीषु त्रिंशतो दशानां च नरकलकणानां पञ्चानस्य वैकस्य पञ्चानां च नरकाणां नाबाद्यथोक्तसंख्या स्ते भवन्तीति । स० ४० सम० ।
पदमचत्यपंपमा पुढवी नेपालीसं निरयावाससयसहस्सा पण्णत्ता । स० ४२ सम० | पादोपुवी पणपन्नं निरयावाससयसइस्सा पण्णत्ता । स० ५५ सम० ।
पदमदोच्चपंचमासु तिम्ररी अडाव निश्वावासस्यसहस्सा पत्ता । स० ५७ सम० ।
चचत्वरजासु सु पुढवी घोषनारं निरयावासमयसदस्सा परणता । स० ७४ सम० ।
चरासी निश्यावासमयसहस्सा पएलत्ता ॥ चतुरशीतिस्थानके किमपि कियने चतुरशीतिरकलाएवमुना विभागेन- "तीसा य पराणवी सा, पणरस दसेव तिन्नि हवंति। पंचूणसपहस्से, पंचेन अन्तरा रिया ॥१॥"
स० ८४ सम० ।
-
इमी से णं रयणप्पनाए पुढवीए केवइयं खेत्तं श्रोगाहेत्ता
या रियावासा पएलता है। गोवमा ! इमीसेणं रयणप्पना पुढत्रीए असीउत्तर जोयरासय सहस्सबा ढल्लाए
एगंजोयणस्स ओगाढेना डेडा चेगं जीयणसहस्वजेा मजे असत्तरिजोसमहस्से, एत्थ
रयणप्पा पुढवीए सरयाणं ती रियावासमयसमा भवतीति मक्खाया, तेरियावासा अंती बट्टा वाहिँ चउरंसा० जाप असुजा गिरया स० । रिबकख - निरवकाङ्क्षत्रि० । वावारहिते, उत० ३० भ० ।
धपरिहारेण वधस्तु बो० ३ विव० । शिव-निरपेक्ष-विनिर्गतापेक्षा पाया पर लोकादिविषया वा यस्मिन्नसौ निरपेक्षः, निरवकाङ्क्षोत्रा प्रश्न • १ श्राश्र० द्वार । परप्राणापेकावर्जिते, प्रश्न० २ श्राश्र० द्वार । Para-grafka, nuo 2 winG MIT I णिरवयव-निरवयव-त्रि० निरंशे विशे० ।
रिवरादि (ण्) - निरपराधिन्- त्रि० । अकृतापराधे, “ निरवराही तो देवया । " आव० ६ अ० । शिवय-निरवलम्ब र निरालम्बने पत्रकश्चिदवाप्यते । प्रश्न० ३ श्राश्र० द्वार ।
णिरवलाव-निरपलाप-त्रि
39
अन्यस्मै कप के "रिसस, मूले आलोयध्वं १, निरवलावस्स, जो अन्नस्स न कहेति ! आव० ४ ० । निरपलापः स्यान्नान्यस्मै कथयेदित्यर्थः । स० ३२ सम० ।
दंतपुर दंतत्रको, सच्चाई मोहले अवरए ।
मध सिरीए, पनमसिरी चेव दढमित्ते ||७|| "दंतपुरे नगरे दंतवक्को राया, सच्चावती देवी, तीसे दोढलो-कहं दंतमए पास श्रभिरमेज स्ति ? राया पुच्चियं दंतनिमित्तं । घोसावियं रन्ना- जहा त्रियं मोनं देमि, जो न देश,तस्स राया विणास करे | तत्थेव नगरे धणमित्तो नाम वाणियश्री । तस्स दो भारियाश्रो खसिरीमती पदमसिरी महरिया बिपि यतरी यति । श्रन्नया सवत्तीणं मंडणे प्रणसिरी भए- किं तुमं एवं गब्विया, किं तुज्क ममाओ अदियं, जहा सञ्चवती तदा ते किं पासाओ की रेजा ? । सा प्रणश्-जश्न कीर, तो अहं न जीवेमि तिरते वारं बंधित ठिया । वाणियओ श्रागओ पुच्छइ कहि पउम सिरी ? | दासीहि कहिश्रं । तत्थेव अतिग पसाए,तावि न पसीयति-ज नत्थि न जीवामि । तस्स मित्तो दढमित्तो नाम, सो आगतो। तेण पुच्चियं सव्वं कहेइ । भणइ-कीरउ, मा इमीप मरताप तुमं पि मरिजासि तुमं मरते श्रहं पि। राया व घोसायं तो सो णि मणीय, लत्तगं, कंकणं च गहाय अडर्षि गओ । दंता लद्धा, पुंजी गाण मबंधिता सगई मरेसा पाणीया, नगरं पवेसिज्ञतेसु बसमेणं वर्णपिंडगा कलिया । ततो ख
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(१११२) বিবাৰ भनिधानराजेन्डः।
णिरामगंध मसि दंतो पडिभो, नगरगुत्तिपहिं दिट्ठो,गहिओ, रायाए नव- कृतार्थानां निरपेक्ष-यतिधर्मोऽतिसुन्दरः ॥८॥ जीओ, बज्को भाणिज्जा । धणमित्तो सोऊण अागो । रायाए
महासामर्थ्यम्-आद्यसंहननत्रययुक्ततया, बज्रकुड्यसमान. पायपमिओ विन्नवेर-जहा पए मप आणाविया । सो पुच्चिो
तितया च कायमनसोः शक्तिः, तस्य संजचे विद्यमानत्वे, प्र. मण-महमेयं न याणामि, को ति। एवं ते अपरोपरं भणंति ।
मादपरिहाराय प्रागुक्ताष्टविधप्रमादत्यागाय, कृतार्थानां कृतकरायाए सवधसाविया पुच्चिया,अनमो दिन्नो,परिकहियं । पूर
त्यानामाचार्योपाध्यायप्रवर्तकस्थविरगणावच्छेदकलकापदपता विसज्जिया। एवं णिरवलावेण होयब्वं आयरिएणं । वितिभो
चकयोग्यतया शिष्याणां निष्पादनेन निष्ठितानामित्यर्थःनि. वि-पगेण एगस्स हत्थे भाणं वा किंचि दिसं, अंतरा पमियं ।
रपेक्कयतिधर्मों गच्चनिर्गतयतिधर्मोऽतिसुन्दरोऽतिशयेन धेतत्थ भाणियम्वं मम दोसोइयरेण वि मम ति।" भाष०४०। यान,प्रमादजयाथै कृतकृत्या नामाचार्याऽऽदीनामयमतिश्रेष्ठ इत्यपिरवसेस-निरवशेष-त्रि.। समग्रे, अनु० । प्राय० । समस्ते, र्थः । अत्रेदमवधेयम्-निरपेक्षा यतयो-जिनकहिपका, बद्धपा. भ. १४ श० ३ उ० । मपूर्णे, प्रा० म०१ ० १ खण्ड । सर्व. रिहारिकाः, यथालन्दिकाश्च । धर्म०४अधि०। (जिनक. स्मिन्, प्रा०म०१.२खएक । विशे०। पश्चा० ।
स्पिकाऽऽदयः पृथक् पृथक स्वस्वस्थाने अष्टव्याः) णिरवसेसपच्चक्खाण-निरवशेषप्रत्याख्यान-न । सर्वाऽशन
पिरहंकार-निरहङ्कार-त्रि० । अहङ्काररहिते, उस०१६ म० । पानत्यागाद् निरवशेषे प्रत्याख्याने, ध.२ अधिः ।
रागद्वेषरहिते, सूत्र.१ श्रु० अ०। इदानी मिरवशेषमाह
पिरहिगरण-निरधिकरण-त्रि०। गुरुतरारम्भवजिते, पञ्चा सन्चं असणं सव्वं,च पाणगं खाइमं पिसव्वं पि। १५ विषः। वोसिरइ साइमं पि हु, सव्वं तं निरवसेसं ॥१०१॥ णिरहिगरणि [[ ]-निरधिकरणिन्-त्रि० । निर्गतमधिकर'अश'नोजने, अश्यत इत्यशनमोदनमण्ड कमोदकखज्जका | णमस्मादिति निरधिकरणी । समासान्तविधिः (न्) । अधिक. दि । पायत इति पानं, कर्मणि ल्युट् । खजूरकाक्षापानादि । रणदूरवातान, भ० १६ श०१२० । बादनं खादो, भावे घञ् । वादेन नितम्-"भावादिमन" णिराम-देशी-प्रकटे, ऋजी,रिपौ च । देना०४ वर्ग ५० गाथा। ४॥२१॥ इति श्मनि खादिम नालिकेरफलाऽऽदि, गुडधानाऽऽदि-णिराकिच्च-निराकृत्य-श्रव्य । अपनीयेत्ययें, सूत्र०१ श्रु० ११ कं च । स्वदनं स्वादः, तेन निवृत्तं, तथैव श्मनि स्वादिमम। भ० । परित्यज्यत्यर्थ, सूत्र.१ श्रु० ३ ० ३३० ।" ततो पलाफलकपुरखवङ्गपूगीफलहरीतकीनागराऽऽदि। ततश्च सर्वम- चायं णिराकिच, ते तुजो विप्पगब्जिए।" सूत्र. १ शु० १ शन, सर्व पानकं, खादिमं च सर्यमपि व्युत्सजति परित्यजति । अ०१ उ०। स्वादिममपि सर्व यत्,निरवशेष तद्विशेयमिति । प्रव.४ द्वार। पिरागस-निराकर्ष-पुं०। प्राकृष्यत शति आकर्षों न विद्यते प्रा. भ.। "वित्थरस्थो-जो पुण असणस्त सत्तरसविहस्स वो- कों यस्य स निराकर्षः । बविणरहिते, “किम् निरागसाणं, सिरह, पाणगस्स अणेगविहस्स खमपाणगादियस्स था, इमं
गुत्तिकरो काहितो राया।" नि० चू० २० । प्रणेगविद-फलमा, साइमं अणेगविहं-मधुमादि, तं सवं जो वोसिरह । पतं निरवसेसं।" प्राव.६अ।
णिरागारपच्चक्खाण-निराकारप्रत्याख्यान-पुं०। निर्गतं महत्त.
राऽऽद्याकारानिराकारम,तश्च प्रत्याख्यानं चेति । अनाकार प्रत्यागिरवसेससव्यय-निरवशेषसर्वक-न० । निरवशेषव्यक्तिसमा.
ख्याने, निराकारेऽऽप्यनाभोगसहसाकाररूपाऽऽकारद्वयस्याऽ. भयेण सर्व निरवशेषसर्वकम्। यथा अनिमिषाः सर्वे देवाः, न पश्यनावान्महनराऽऽद्याकारवर्जनाऽऽश्रयणम् । ध०२ अधिक। हि देवव्यक्तिरनिमिषत्वं काचिद् व्यनिचरतीत्यर्थः । स्था०४Mmin-तिनका-त्रि०। प्राकृतत्वाद् दीघः । अनुकम्पार. ग.१००।
हिते, पं० १०४द्वार। जिरवाय-निरपाय-त्रि० । अपायेभ्यो निर्गते, पो. विव०। ।
णिरातंक-निरातड़क-त्रि.नीरोगे, प्रभा ४ आध० द्वार। हिरवेक्ख-निरपेक्ष-त्रि० । पुत्रदारधनधान्यहिरण्याऽऽदिकमन
औ०।तं.। पेवमाणे, सूत्र. १७०ए०। अनपेक्षेप्राव०४ अाअपेक्का-
देशी-नथे, दे० ना.४ वर्ग ३० गाथा । रहिते, ध० ३ अधि०। वृत्तिनिस्पृहे, पश्चा०४विव०जी० ।। उत्त। बालाऽऽदिषु चिन्तारहिते, व्य. ३ उ.। आचार्यस्य
णिरावाह-निराबाध-त्रि०। सर्वशारीरकमानसिकबाधाविवर्जि. शिष्यैः, प्रतीच्चकैश्च सर्व कर्तव्यं, ये तु न कुर्वन्ति, ते निरपेक्का
| ते, दर्श०४ तव । अष्ट। स्वाऽऽयत्ताऽऽनन्दरूपत्वात् । (स्था० इति 1(एतश्च" असेस"शब्दे प्रथमभागे २७ पृष्ठे उक्तम्) |
| १००)बाधारहिते, पाव०४०। द्विविधाः साधवः-सापेक्काः, निरपेक्वाश्च । “णिरवेक्खा जि.
णिराभिराम-निरनिराम-त्रि० । अभिरमणीये, प्रश्न. २ आष. गाड्या, ते सरीरगच्छादिणिरवेक्वत्तणो णिरवेक्वा।" द्वार।। नि. चू० २० उ०। निरभिमाषे निरभिष्यने, “पक्स्त्री पतं
वों, " पक्खी पसं णिरामगंध-निरामगन्ध-त्रि०। निर्गतोऽपगत श्रामो ऽविशोधि. समादाय, निरवक्खो परिव्वए।" उस०६अ।
कोट्याख्यः, तथा गन्धो विशोधिकोटिरूपो यस्मात् स भवति णिरवेक्वजइधम्म-निरपेक्षयतिधर्म-पुं० । गच्छनिर्गतसाधुधः |
निरामगन्धः। मृलोत्तरगुणभेदभिन्नां चारित्रक्रियां कृतवति, में, (ध.)
सूत्र.१७०६०।"से सब्वदंसी अनिय नाणी, शिरामसाम्प्रतं निरपेक्षयतिधर्मप्रस्तावनाय तद्योग्यतामाह- गंधे धिहम चितप्पा । (५)" सूत्र.१७०६० "णिरामगंधे प्रमादपरिहाराय, महासापर्थ्यसंभवे ।
सपरिवान्जा।" प्राचा० १६०२० .।
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(२११३) पिरामय अभिधानराजेन्डः ।
णिरुजसिखतव णिरामय-निरामय-त्रि.नीरोगे, दश०४ अ। निर्मलपरमा-णिरिंधणया-स्त्री० । निरिन्धन-न० । प्राकृते स्वार्थिक स्त्रीत्व त्मानुभवे, भष्ट. १० अष्ट।"भतीव निरामया नो प्रहो वा- | म्। धूमस्येव कर्मेन्धनविमोचने, भ०७श. १००। तो निस्सर ।" आ० म०१ १०२खएक ।
णिरिक्खण-निरीक्षण-न० । पात्रोकने, सङ्घा १ मधिः १ पिरामिस-निरामिष-त्रि०। विषयाऽऽदिपदार्थ, उत्त। "सा | प्रस्ताव मिसं कुलले दिस्स, बज्झमाणं णिरामिसं। श्रामिसं सबमु- णिरिक्खाणा-निरीक्षणा-स्त्री० । प्रत्यपेकणायाम, ओघ०। फित्ता, विहरिस्सामो पिरामिसा ॥ ४६॥" निक्रान्त श्रामिषाद गृहितोरभिलषितविषयानिर्गतं वा आमिषमस्येति ।
पिरिक्खिय-निरीक्तित-त्रि. । पालोकिते, " अप्पानाणउत्त• पाई० १४ अ०।
दसणधरेहिं तेलुकनिरिक्खियमहियपूइपहि।" तत्र निरीक्षिता णिरायास-निरायास-त्रि०। अनेदकारणे, प्रश्न• सम्ब०
मनोरथपरम्परासम्पत्तिसंभवननिश्चयसमुत्थसम्मदविकासि
लोचनैरानोकिताः । नं०। द्वार। णिरारंज-निरारम्भ-त्रि० । निर्गत प्रारम्भादसत्क्रियाप्रवर्त
णिरिय-निली-नि - लीक । धा। निलयने, “निलीडेणि. मलकणान्निरारम्भः। प्रारम्भरहिते, उत्त०२०।
लीय-णिलुक्क-णिरिग्घ-लुक्क-लिक-हिकाः "८।४। ५५ ।।
इति निलीको णिरिग्घाऽऽदेशः। 'णिरिग्घई। पके-निझिज्जा'। णिराब-निरालम्ब-त्रि । ज्ञानाऽऽद्यासम्बनरहिते,व्य०४००।
निलीयते । प्रा०४ पाद । पिरासंबण-निरालम्बन-त्रि०। प्राणायाऽऽजम्बनीयवस्तुवर्जि
णिरिणास-गम्-धा० । गमने, " गमेरई भइच्छाणुवज्जायजसो. से, झा० १ श्रु००। “गयणमिव णिराखंबणो।" गगनमि
कुसाक्कुस पचड-पच्छंद-णिम्मह-णी-वीण-णीलुक्क-पदअ. च निरालम्बनो,न कुलग्रामाऽऽवलम्बत ति जावः । स्था०९ रम्भ-परिअल्ल-बोल- परिपत्र-णिरिणास-णिवहावसेडाबहगा। ऐहिकाऽऽमुमिकाऽऽशंसारहिते, "श्मम्मि लोए परते य | रा: "॥४।१६२॥ इति सूत्रेण गमेणिरिणासाऽऽदेशः। दोसु वि न विज्ज बंधणं जस्स किचि वि, से हु निरालंवणे।" 'णिरिणास। गच्चति । प्रा०४ पाद । आचा०२६०४भ०१०।
नश-धा० । श्रदर्शने, “नशेर्णिीरणास-णियहावसेह-पकिणिरालंबणया-निरालम्बनता-स्त्री० । निर्गत पालम्बनादाश्र.
सा-सेहावहराः "१८ | १७७ ॥ इति नशोणरिणासाऽऽदे. यणीयाद् गच्चकुटुम्बकाऽऽदेरिति निरालम्बनस्तद्भावो निराल. शः। 'णिरिणास'नश्यति । प्रा०४पाद । म्बनता। पाश्रयानपेकत्वेऽविनयभेदे, स्था०३ ठा० ३ उ०।। पिष-धा० । पेषणे, " पिणिवह-णिरिणास-णिरिणजपिपरानोय-निरानोक-त्रि०। निर्गताउलोके, “निरासोयाओ । रोचचडाः" ॥ ७।४।१८५॥ इति पिषेणिरिणासाऽऽदेशः। दिसाश्रो कारेमाणे।" नि० १ श्रु०१ वर्ग १०।। 'पिरिणासई'। पिनष्टि । प्रा०४ पाद । णिरावकंखि[ण-निरावकाडिण-त्रि०। निस्पृहे, "नि-णिरिणिज्ज-पिष-धा। पेषणे,"पिषेर्णिबह-णिरिणास--णिरि
क्खम्म गेहाउ णिरावख), कार्य विक सेज्ज नियाग्नेि।" | णिज्जा-रोचचड़ाः" |४|१५॥ इति पिष्धातोणिरि. निरावका कायं शरीरं व्युत्सृज्य निष्प्रतिकर्मतया चि-| णिज्जाऽऽदेशः । 'णिरिणिज्जा'। पिनधि । प्रा०४ पाद । कित्सादिकमकुर्वन् दिन्ननिदानो भवेत् । सूत्र १ श्रु० भित्ता-निरुध्य-अव्य० । सन्मार्गे व्यवस्थाप्येत्यर्थे, सूत्र. १०अ०।
१ श्रु०४०२१० । दश। णिरावयख-निरवकार-त्रि० । निरपेक्ष, प्रश्न०३ आश्रद्वार।
णिरुंजण-निरोधन--न० । प्रतपणे, प्रश्न १ श्राश्र० द्वार । णिरावरण-निरावरण-न० । क्षायिकत्वात् (औ० । ज०। प्रतिबन्धे, सूत्र. १ श्रु० ५.१००। दशा.) ममस्ताऽऽवरणरहिते, कल्प०१ क्षण ।
शिरुरचार-निरुच्चार--त्रि०। प्राकारस्योड़ जनप्रवेशनिर्गमव. णिरास-निरास-त्रि० । परित्यागे, प्रतिकेपे, वधे, निष्कासने,
जिते, पुरीषविसर्गाथै जनानां बहिनिर्गमनरहिते,झा०१ श्रु.॥ वाच० प्रा० म०।।
श्र.। निरुद्धपुरीपोत्सर्गे, प्रश्न. ३ आश्र० द्वार । निराश-पुं०। वीणमनोरथे, पृ. ६००। प्रश्न
बिरुवाह-निरुत्साह--त्रि० । सवपरिवर्जित, जं. २ बका। विरा-निराशंस-त्रि०। इहपरलोकाऽऽशंसांविप्रमुके,प्राव | निरुद्यमे, ग.१ अधि० । ४०। ऐहिकाऽऽमुष्मिकाऽऽशंसाराहते, प्राचा० २ श्रु० ४ | निज-निरुज-न। रुजानामनायो निरुजम् । रोगाणामभावे, चू०१०।
पञ्चा० १६ विव०। णिरासबहल-निराशबहन-त्रि० । प्राशाऽभावप्रचुरे, प्रश्न ३| Maina
णिरुजमिखतव-निरुजशिखतपस-न०। रुजानां रोगाणामभावो आश्र० हार।
निरुज, तदेव शिव शिखा प्रधानं फनतया यवाऽसौ निरुजणिरासव-निराश्रव-त्रि० । कर्माऽऽदानरहिते, प्रश्न०३ सम्ब.
शिखः, स एव तपः। पश्चा०१६ विव: । प्रारोग्याथै तपोभेदे,
(प्रक०) णिरि-देशी-अविशेषिते, दे० ना.४ वर्ग २८ गाया।
निरुजशिखं तपः प्राऽऽहशिरिंक-देशी-नते, दे. ना. ४ बर्ग ३० गाथा।
एवं निरुजसिखो वि हु, नवरं सो होइ सामले पक्खे । ५२५
द्वार।
।
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(२११४) अभिधानराजेन्द्रः ।
गिरुजसिखतव
तम्मिय अहिओ कीर, गिलाणपाडेजागरणनियमो । ५५६ | जानां रोगाणामभावो निर्ज, तदेव प्रधानफलविषया शिखेव शिक्षा चूला यत्रासी निरुजशिक्षा, तपोविशेषः सोऽप्येवमेव सर्वाङ्गसुन्दरतपावदष्टनिरुपवा सैराचाम्पारणकेद्रष्टव्यः नवरं केवविशेषः श्याम कृष्णपके नवति, अधिक तत्र क्रियते प्रतिज्ञानियमः, ग्लानो मया पथ्याऽऽदिदानतः प्रतिचरणीय इत्येवंरूपप्रतिग्रहणमित्यर्थः शेषं तु जिनपूजाऽऽदिकं तथैवेति
प्रव० २७१ द्वार ।
गिरुडाइ (ए) निस्स्थायिन् वि० प्रयोजनेऽपि न पुमा पुनरुत्थानशीलः । उत्त० १ ० । निमित्तं विनाऽनुत्थापके, उत्त
३ श्र० ।
णिरुत - निरुक्त- न० । श्रभिधानाकरानुसारतो निश्चितार्थस्य वचने भणने, धनु अनुयोगे सूत्रव्याख्यायाम् (१०) सम्प्रति अनुयोगमा निरुकद्वारमाहनियत रुितं तं पुण सुते य होइ अत्य सुते उवरिं वोच्छं, अत्यशिरुत्तं इमं तत्थ ॥ निति कि तब द्विधा-सूत्रस्यार्थस्य च तत्र सूत्रस्योपरि " नेरुत्तियाणि तस्स उ " इत्यादिना ग्रन्थेन वक्ष्ये । अर्थनिरुकं पुनरिदं वक्ष्यमाणम् । प्रथमतस्तद्विषयान् दृष्टान्तान् वक्तव्यान् सूचयतियि पाया पडले प को निरुतादी बशी व जहा ॥
देव
बापरे चिएँ
अनुयोगे त्वे बादरत्वे च दृष्टान्तो वक्तव्यः, अनुयोगे उरिधिमा मुद्रा भाषायां प्रति
टशन्तः । ।
शतः विभाषाणमपटलः पार्त्तिके परवारो भङ्गाः तत्र मदृष्टान्तः । तथा निरुक्ताऽऽदीनि । यथा वईमानवाम्याख्या. तवान् तथा किमृपभाऽऽदयोऽपि उतान्यथा । उच्यते तथेति, केवलज्ञानस्य तुल्यत्वात्, यथा वर्तनी मार्गः स सर्वजनपदेषु प्रमाणत एकैव भवति । वृ० १ ० । बिशे० । पदन जने, पदव्युत्पत्तिरूपे टीका, ०२ कण शब्दनिरुक प्रतिपाद के वेदाङ्गे, श्र० । श्रा० म० । अनु० । श्राव० । सर्वज्ञे रुपादेयतया नितरामुक्ते, प्रश्न० ३ सम्ब० द्वार । निश्वये, दे० ना० ४ वर्ग ३० गाथा ।
।
विस्वकेस
४ श्र० ३ उ० । वित्रहितदिभगमननिवारिते, ज्ञा० १ ० १ ० जलचरजीवविशेषे, कल्प० ३ कण ।
खिरुक जोग-निरुरूयोग पुं० चतुर्थे भ्यानमेरे, सूत्र० १
।
४० ६ अ० ।
विरुद्धपमा निरुद्धमभि० दि
थाऽऽदिना कर्मणा प्रा ज्ञानं यस्य सः • १ श्रु० ८ ० ।
किपरियाय निरुपर्याय पुं० द्धिविनाशितः प
""
-
t
यो यस्य स निरुद्धपर्यायः । व्य० ३ उ० । पश्चात्कृतत्वेन पूर्वपर्यायनिरोधात् देवासपर्या ("निरुद्धपरिवार समणे णिगंथे कप्पर तद्दिवसं आयरियडवज्जायन्ताए ।" इति सूत्रम्उद्देसशब्दे द्वितीयनागे ५०३ पृष्ठे व्यायाम विरुद्धबुद्धि - निरुक बुद्धि क्रि० निरुष संशयकोटीकृता बुद्विर्येषां ते निरुद्ध संशयितेषु बृ० ३ ० । निरुकनास परियायनिरुद्धपर्याय पुं० निस्को बिनाशि तो वर्षापयस्य स निरुद्रपर्यायः अनेकषपये, व्य० ३ उ० । नि०यू० । ("तिष्ठि य जरूल अमा, वासा पुहिँ वा तिर्हि तं तु । वासेहिं निरुद्धेहि, लक्खणजुत्तं पसंसंति ॥२॥” इति 'उद्देस' शब्दे द्वितीयभागे ८०५ पृष्ठे व्याख्यातम) णिरुका उप-निरुद्धायुष्कपरिक्षिते आयुके, मं विरुद्धायं संपेहाए ।" आचा० १ ० ४ श्र० ३ ० । रुिव - निरुज - न० । 'णिरुज ' शब्दार्थे, पञ्चा० १६ चित्र० । विरुपसिखतब निकम शिवतपस् नणिरुति शब्दार्थ, पञ्चा० १० विव० ।
णिस्ती देशी मकरा 53 हतिया दे० ना०४ वर्ग २७ गाथा । खिरुवम निरुपम ० निर्मत उपक्रमादिकमः अपस।
नाकरण अनुभागे. भ० तत्र मरणविष रष्टभिर्वा कर्नैवमित्र मरुषु जलगण्डूपग्रहणरूपै पुद्गलोपादानं तदतिढपवर्तयितुमशक्यतया निरुपक्रममुच्यते । उत्त• ५ श्र० । उपक्रमणानावे, भ० २० श० १० उ० ।
विरुवकमभाव-निरुपक्रमजाव पुं० । अनुपक्रमणीयत्वे कर्मणामवश्यंवेद्यस्वनाववि
6
|
निरुचि - निरुक्ति-स्त्री० निश्चिता उतिर्निरुकिः । विशे० । आ० म० निर्वचनं निरुक्तिः क्रियाकारकमेपशब्दार्थ कथने, विशे० । प्रा० म० प्रा० चू० । णिरुत्तिय-नैरुक्तिक- न० । निरुक्ते भवं नैरुक्तम् । निरुक्तवशेना.
प्रतिवाद के नामनि, (अनु) से किं तं निदेशी शेते महिषः । भ्रमति चरतीति भ्रमरः । मुहुर्मुहुर्लीति मुसन्नम् । करिव लम्बते कपित्थम् । चिश्चं करोति खल्लं च जवनि चिक्खलन । ऊर्द्धकर्ण उलूकः । स्वस्य माला मेखला सेत्तं रुितिए । अनु० । पिरुष-निरुद्ध - त्रि० । श्राच्छादिते, सुत्र० १ ० १२ अ० । आवृते, सुत्र० १० २ श्र० ३ उ० । परिगलिते, आवा० १०
39
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णिरुदकमा निरुपक्रमा० समररहिते ।
० म० । यदा ह्यमान् स्वायुपस्त्रिजागत्रिभागे वा जघन्यत एकेनाभ्यां चतः विप्रमाणे कालेन अमप्रदेशरचनानामिकालिन आयुष्कर्मवा पुलान् प्रयत्नविशेषेण विधत्ते तदा निरुपक्रमाऽऽकुर्भवति । आचा० १० २ ० १ ३० । विपा० ।
56
० ० ४ वर्ग ४१ गाथा | fuaang - निरुपक्लिष्ट त्रि० । स्वगतशोकाऽऽद्युप क्लेशवियु के, ज० २५ ० ७ उ० ।" दहस्स एवगलस्स णिरुवक्किहस्स जंतुणा ।" अनु० ।
पिरुत्रकेम - निरुपक्लेश-पुं० । शोकाऽऽदिबाधा बर्जिते, स्था० बिकेसे परिभ्रायः पर्यायः इति ि
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णिरुवक्केस अनिधानराजेन्द्रः।
णिरुवाह रेवोपक्लेशै रहितः प्रव्रज्यापर्यायोऽनारम्नी कुचिन्तावर्जितः स्यपात्रीव मुक्तं तोयमिव स्नेहो येन स तथा, यथा कांश्लाघनीयो विदुषामित्येवं चिन्तनीयम् । दश १ चू।
स्यपात्रं तोयेन न लिप्यते, तथा भगवान् स्नेहेन न लिप्यते णिरुवगारिण-निरुपकारिन्-त्रिका निरुपक शीलमस्यति । इत्यर्थः। तथा शहदव निरन्जनः, रखनं रागाऽऽद्युपरजनं तेन निरुपकारकारके गुर्वादिकार्येवप्रवर्तके, प्रा. म. १ अ.१
शून्यत्वात् । जीव श्व अप्रतिहतगतिः, सर्वत्रास्वातविहारि
स्वात् । गगनमिव निरालम्बनः, कस्याप्याधारस्यानपेकणात् । खएक।
वायुरिव अप्रतिबरू, एकस्मिन् स्थाने काथ्यवस्थानाभावात्। णिरुवग्गहया-निरुपग्रहता-स्त्री० । गन्व्यादिरहितपश्वद्ध
शारदसलिसमिव शुरुहृदया, कायुष्याकलङ्कितत्वात । पुष्करमस्तिकायानावेन तज्जनितगत्युपष्टम्भाभावे,स्था० ४ ना० ३७०।
पत्र कमलपत्रं, तद्वनिरुपलेपः, यथा कमलपत्रे जल लेपो न णिरुवचरिय-निरुपचरित-त्रि. । उपचारेणाऽऽश्मनोऽसंबन्धि
सगति, तथा भगवतः कर्मलेपो न लगतीत्यर्थः । कूर्म श्व गुप्ते. नि, झा० १ श्रु० ५ ०।
न्द्रियः । स्वनिविषाणमिव पकजातः। यथा-खनिनः श्वापदविणिरुवट्ठाणि -निरुपस्थानिन्-त्रिका निर्गतमुपस्थानमुद्यमो शेषस्य विषाणं शृङ्गमेकं नवति, तथा भगवानपि, रागाऽऽदियस्य स निरुपस्थानी। सर्वज्ञपणीतसदाचाराऽनुष्ठानविकले, ना सहायेन च रहितत्वात्। विहग श्य विप्रमुक्ता, मुक्तपप्राचा०१ श्रु० ५०६ उ०।।
रिकरत्वात अनियतनिवासाच । नारण्डपकीव अप्रमत्तः, णिरुवदव-निरुपज्व-त्रि० । अविद्यमानराजाऽऽदिकृतोपत्रवे, भारपडपक्षिणोः किलक शरीरम् । यतः-" एकोदराः पृथऔ० । झा० । रा०। रोगाऽऽदिक्लेशरहिते,तंग उपकवो नाम-अ
म् प्रीवा-स्त्रीपदा मर्त्य भाषिणः। नारएमपकिणस्तेषां, मृतिशिवं, गलरोगाऽऽदिकं वा । तस्याजावो निरुपद्रवम् । उपवा
निनफलेच्चया "॥१॥ ते चात्यन्तम् अप्रमत्ता एवं जीवभावे, नं। “णिरुवहवं च खेमं च होहिति ।" वृ०४ उ०।
न्तीति तदुपमा । कुञ्जर श्व शौएमीरः कर्मशत्रून् प्रति शूरः, अशिवाऽऽद्युपत्रववर्जिते, बृ०१ उ.।।
वृषभ श्व जातस्थामा जातपराक्रमः, स्वीकृतमहावतभारो
द्वहन प्रति समर्थत्वात् । सिंह श्व ऽर्धर्षः, परीषहाऽऽदिश्वापदैरणिरुवम-निरुपम-त्रि० । सकलोपमाऽतीते,दर्श०५ तत्व । उपमा.
जय्यत्वात् । मन्दर इव मेरुरिव अप्रकम्पः, उपसर्गवातैरचरहिते, जी. ३ प्रति०४०। तं०। श्राव। "णिरुवमर्पिमिय
सितत्वात् । सागर इब गम्भीरः, हर्षविषादकारणसगावेऽपि भासिरा ।" निरुपम पिएिमकेव वतनत्वेन पिएिककायमानमग्र
अविकृतस्वभावत्वात् । चन्छ श्व सौम्यलेश्यः, शान्तत्वात् । शिरः शिरोऽग्रं येषां ते तथा । तं०।
सूर्य इव दीप्ततेजाः। व्यतो देहकान्त्या, भावतो ज्ञानेन शिरुवमसुहसंगय-निरुपमसुखसङ्गत-त्रि० । निरुपमाऽऽस्येना
जात्यकनकमिव जातं रूपं स्वरूपं यस्य स तथा । यथा विद्यमानाऽऽक्षेपेण सङ्गत इति समासः। असंयोगिकाऽऽनन्दयुक्त, किल कनकं मलज्वलनेन दीप्तं भवति, तथा जगवतोऽपि पं० सं०१द्वार।
स्वरूपं कर्ममलविगमेन अतिदीप्तमस्तीति भावः। वसुन्धरा श्व णिरुवयरिय-निरुपचरित-त्रि० । 'णिरुवचरिय ' शब्दार्थे, पृथ्वीच सर्वस्पर्शसहः, यथा हि शीतोष्णादि सर्व पृथ्वी का० १ ० ५ ०।
समतया सदते, तथा भगवानपि । सुष्टु हुतो घृताऽऽदिभिः सि. णिरुवझेव-निरुपलेप-त्रि० । अन्यतो निर्मलदेहत्वाद् भावतो क एवंविधो यो हुताशनोऽग्निस्तद्वत्तेजसा ज्वलन् । नास्त्यय बन्धहेत्वभावान्निर्गत उपलेपो यस्मादिति निरूपलेपः । स्थाo
पक्षः-यत्तस्य भगवतः कुत्रापि प्रतिषन्धो भवति, तस्य ९ गाव्यतो निर्मनदेहे, जावतस्तु कर्मबन्धहेतुलकणोपले.
नगवतः कुत्रापि प्रतिबन्धो नास्तीति भावः । कल्प. ६ कण । परहिते, औ० । कल्प० । झा०। प्रश्न। स. परहिते,
मौणिरुषसग्ग-निरुपसर्ग-पुं० । जन्माऽऽद्युपसर्गरहिते मोते, प्रस्नेहवर्जिते, प्रश्न सम्ब० द्वार ।
ति। आव० । आचा। .चू०। राजगुणमेदे, यतः सकले. निरुपलेप दृष्टान्तर्भावयति
ऽपि देशे मारिडमराऽऽद्युपसर्गासम्भवः । व्य०३१०। णिरुवलेवे-कंसपाई इव मुक्कतोए, संखो इव णिरंजणे,
णिरुवसग्गवत्तिया-स्त्री०निरुपसर्गप्रत्यय-पुं० । जन्माऽधुपजीवे इव अप्पमिहयगडे, गगणमिव णिरालंबगो वार सर्गाभावेन निरुपसगो मोक्कस्तत्प्रत्ययः। "वसिया ति"आर्षअप्पमित्रके, सारयसलिनं व सुघहियए, पुक्खरपत्तं व
स्वात् । मोक्कनिमित्ते, "भरिहंतचेश्याणं करेमि काउस्सग्गं
णिरुवसम्गवत्तियाए बोहिलाहवतियाए।"ध. २ अधिः । णिरुवझेवे, कुम्मो इव गुतिदिए, खम्गिविसाणं व एगजाए, विहग इव विप्पमुक्के, जारंडपक्खी इच अप्पमत्ते, कुंजरो णिरुवहय-निरुपहत-त्रि०। वाताऽऽद्यनुपहते,भ०७ १०१ उ.। इच सामीरे, वसभो इव जाययामे, सीहो इव धारिसे का उत्त० । विकारविरहिते,औलारा0। ज्वराऽऽदिदशाऽऽामंदरो इव अप्पर्कपे, सागरो इच गम्भीरे, चंदो इव सोमले.
पवरहिते, जी०३ प्रति०४ उ० । रोगाऽऽदिभिरनुपहते, प्र
इन०४ आश्रद्वार। "णिरुवहयनदसलापंचिंदियवहुं ति।" से, सूरो इव दित्ततेए, जच्चकणगं व जायस्वे, वसुंधरा इव
निरुपहतानि अविद्यमानवाताऽऽद्युपघातानि उदात्तानि उत्तमव. सवफासविसहे, सुहृयहुयासण व तेयसा जलंते । ऽऽदिगुणानि अत एव अष्टानि मनोहराणि पश्चापन्छियाणि नत्थि तस्स भगवंतस्स कत्थइ पढिबंधे नवइ । पटूनि च स्वविषयग्रहणदत्वाणि यत्र तत्या। भ• ए श. निरूपलेपोजव्याजावमलापगमेन, तत्रव्यमनः शरीरसंभवः, | २३०० नावमलः कर्मजनितः। अथ निरुपलेपत्वं दृष्टान्तदृदयति-का-णिरुवहि-निरुपधि-त्रि. उपधिज्म,मायत्यनर्थान्तरम्। श्रय
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चिरुवदि
च क्रोधाssयुपलकणं, ततश्च निर्गता उपध्यादयः सर्व एव क पायादेभ्यस्ते निरुपययः निष्कषाये "हेडविन जियाण अवहेण य जियंति ॥ १४४ ॥ " दश० १ अ० । शिरुवार - ग्रह - धा० । ग्रहणे, " ग्रहो वल गेण्ड-दर-पङ्ग-निरुवाशदि पथ्या" |४| २०६॥ इति प्रदेशः । " निरुबारइ " । गृह्णाति । प्रा० ४ पाद । पिरुस्साह निरुत्साह त्रि० सदाननिरुद्यमे, सू० १०
४ भ० १ उ० ।
णिरूवि-निरूपित त्रिकायेते, " विकरणि ऋषि "वृचिनिपितम् प्रा० २पाद शिरुविण निरूपमा पञ्चाविण णिरुविषय-निरूपतिव्य०ि घालोनी पञ्चा० ११
निचले नि०० २००
यस्थितिरुक्ता । ज० २५ ० ४ ४० । विरेय - निरंजन - ०
(२११६)
अभिधानराजेन्द्रः ।
वित्र० ।
बिरूद - निरूह- पुं० । विरचने, सूत्र० १४० १ ० । शिरेय-निरेजम्-त्रि०किरपे ०५ ०७० | कल्प० । सनिजांचा का
I
आव० ५ अ० ।
•
"
शिरोदर निरोदर - त्रि । विकृतोदरहिते, जी. ३ प्रति० ४ उ० । तुच्छोदरे, प्रश्न० ४ आश्र० द्वार । गिरोह निरोध-०यकरणे, बड मत्थाएं जाणं, जोगनिरोदो जिणाणं च ।" आव० ४ अ० अ० क० । अशेषकर्मकये, सूत्र० १० १४ अ० । निश्चयेन धरणे, भाव० ४ अ० ।
मुन्तशिरोडे च
रोहेण जीवयं जहति । Tags कोढं गेलनं वा भवे तीसु ।। ६६३ ॥
सूत्रनिरोधे विधीयमानेचरुहपते वर्क पुरीपं तस्य निरोधेन जीवितं परित्यजति, अचिरादेव मरणं भवतीत्यर्थः । ऊर्द्ध वमनं, तस्य निरोधे कुष्ठं भवति, ग्लान्यं वा सामान्यतो मान्यं त्रिष्वपि मूत्रपुरीषवमनेषु निरुध्यमानेषु भवेत् । बृ० ३ ४० प्रकाशवृचिनियमपविघाते स च निरोधोऽभ्यासाद वैराग्याच्च भवति । तदुक्तम्- " श्रज्यासवैराग्याच्यां तन्निरोधः।" द्वा० २३ द्वा० । गिरोहपरिणाम-निरोधपरिणाम- पुं० । चित्तस्य तथाविधस्यैशेद्वायुयाननिरोधसंस्कारबोरभिभवप्राय निरोधक्षणचि नान्वयो निरोधपरिणाम इति । द्वा० २३ द्वा० । शिलज निर्मल-त्रि राहते, " हुं निज समोर " प्रा० २ पाद ।
..
लिजिया पुं० [स्त्री० निर्धज्जियन पुं० निस्य भावो निर्लज्जमा । "वेमाजल्याद्याः स्त्रियाम्॥१३५॥ इति वा स्त्रियां प्रयोगः । “ एसा निलजिमा, एस निलज्जिमा "। न ज्जाराहित्ये, प्रा० १ पाद । पिक्षय-निलय- पुं० । गृहे, उत्त० ३२ अ० | को० | तं० । णिक्षयण - निलयन - न० । वसतौ, नयानां निलयनौपम्यम् । वि
० प्रा० । निष्यकम्पे,
शे० । ( वसतिदृष्टान्तः ' राय ' शब्देऽस्मिन्नेव भागे १८५० पृष्ठे प्ररूपितः )
पिल्लाम - ललाट- न० । भाले, प्रश्न० ४ श्राथ० द्वार । पिलिंमिनीमाऽऽद्यापति,
अ० २ ० ।
पिनी निली-था नियने, " निली को लिखक गिरिग्ध-लुक लिक्क हिक्काः " ॥ ४ । ५५ ॥ इति निपूर्वस्य बीको 'मिली' आदेशः शिलीअर' निलीयते। प्रा०॥ पाद शिलुक देशी-विरले, "खियामेव जितुको " चाम० १० १ - ।" श्र०म० खण्ड । अन्तर्हिते, शा०१ श्रु०८ श्र० निबुक्को निवृत्तः । आ०क० । निल्ली-नि-ली धा० । निलयने, “निलीङो णिली अणिलुक्क०-" ॥ ८ । ४ ! ५५ ॥ इत्यादिसूत्रेण निलोङो णिलुकाऽऽदेशः । 'णिलुक' । निलीयते । प्रा० ४ पाद | तुम्पादने, "तुमेस्तोम तुट्ट खुट्ट खुडो-कसुक्कोल्लूरा: "|८|४|११६॥ इति तुमेर्णिलुक्काऽऽदेशः। "शिबुक्कर ।” तुमति । प्रा० ४ पाद । कि देशी
शमाने, औ० ।
शिजिमाण - निलीयमान त्रि० अपनयतिधान्यशुद्धिकु र्वाणे, सूत्र० २ ० २ भ० । संबाधनं कुर्वति सूत्र• १० ४
66
पिसूर
-
-
रा० निि
ना० ३१ गाथा । निंबण - निलज्ञ्जन - न० | नितरां बाइडनमङ्गावयवच्छेदः, गवादिकर्णकम्बङ्गपुच्छच्छेदनासावेधाङ्कनखण्डनत्वग्दाहाऽऽतुष्ट्रपृष्ठ पालनादिरूपे (०२ अधि०) दारे बीर ङ्गादीनां वर्धित करणे, ध०र० । प्रश्न० भा० चू० | प्रब० । "नासावेोऽङ्कनं पुच्छच्छेदनं पृष्ठगाजनम् गोकर्ण दोरम् ॥ १ ॥ " तथाऽङ्कनं गचाभ्याऽऽदीनां चिह्नकरणं, मुष्को रामस्तस्य बेदनं वर्द्धितकीकरणं, अस्मिन् जीवबाधा व्यक्तैव । ध० २ अधि० ।
"
किम्म निर्वानन्न० दिनमेव कर्म जीविका निर्मगोमहिष्यादीनां नासावे, गवावादीनां वर्धित करणे, प्रव०६ द्वार । श्रा० । उपा० । पञ्चा० । श्राव० । एतच कर्मत उपभोगपरिभोगना कर्माऽऽदान देतुरती बार एवेति वर्ज्यम् । ध० २ अधि० । शिवमृच्पा० I मुचेश्चडाब हेम मेलोस्सिक्क-रेअवपिल्लुञ्छ- धंसामाः " ॥ ८४ ॥ ७१ ॥ इति मुचेर्णिङ्घाऽऽदे शः । 'पिल्लुच्छ' । मुञ्चति । प्रा० ४ पाद । जिनिजारने प्रश्न० २ ० द्वार पिल्लस - उल्लस - उत्-लस-धा० । उसने, लसिते, "उनसेरूसो सुम्भ- जिल्लल- पुल आअ गुज्जे लारोधाः ||८४ २०२ ॥ इति उत्पूर्वस्य धातोः हिसादेशः प्रा० पाद विसि - देशी-निर्गते, दे० ना० ४ वर्ग ३६ गाथा | पिझालिय- निललित त्रि० । प्रसारिते, झा० १ ४० १ म० । विवृतमुखादनिःखारिते ० १०८० पलायमाने,
13
कल्प० २ कण ।
पिल्लूर - छिद्शिर
-धा० । द्वैधीकरणे, " बिदेहावणिच्छल-नि" ॥ ८ । ४ । १२४ ॥ इति छिदेज्योम - जिन्वर- णिल्लूर-हूराः जिल्लूराऽऽदेशः । 'जिल्लूर इ' । बिनति । प्रा० ४ पाद ।
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(२११७, पिल्लेव अन्निधानराजेन्डः ।
शिवमुस्सिय पिव-निर्लेप-त्रि० । चेतनस्य सकसपरजावसंयोगानावे.णिलेवग-निपक-j०। रजके, व्य०१०"रायगिहे सेणिो म व्याप्यव्यापकग्राहककर्तृत्वभोक्तृत्वाऽऽदिशक्तीनां स्वभावाव. राया, तेण सोमजुयलं णिल्लेबगस्स दिनं । " श्रा० चू०४ अ०। स्थाने, अष्ट. । चेतनस्य सकझपरभावसंयोगाभावेन ब्या
णिवेवण-निलेपन-१० । मलस्याभावे मलच्चोटने, व्य. १ प्यव्यापकग्राहककर्तृत्वभोक्तृत्वाऽऽदिशक्तीनां स्वभावावस्था
उ० । निचू। निःपे, " उम्बत्तणणिवणपाहते ।" भोमं निपः । नामतो निपः-अभिभाषाऽऽत्मकजीवाजीवा.
घ.। द्विविधानि शरीराणि-बहानि, मुक्तानि चेति । भ०७० नाम् । स्थापनानिलेपः-निर्ग्रन्थाऽऽकाराऽऽदिः । द्रव्यनिलेपः
४ उ० । (तेषां निर्लेपनमपि 'सरीर' शब्दे वदयते) कांस्यपात्राऽऽदिस्तव्यतिरिक्तः। शेषस्तु पूर्ववत् । भावनिोपः
पिोहण-निर्लेखन-न। ईषनुष्कस्योदूवर्तने, प्राचा० १ जीवाजीवभेदात् । अजीवा धर्माधर्माऽऽकाशाऽऽदिः। जीवस्तु समस्तविनावाभियरहितः मुक्ताऽऽस्मा | नयस्तु व्यपरिग्र
-श्रु०१चू० ३ १०२ उ०। हाउदिबलिप्तः । नैगमेन संप्रदेण जीयो जात्यालिप्तः,व्यवहा
|णिबोह-निर्लोज-त्रि०। विगतलोभे, उत्त० ८०। प्रतियोरेणालिप्तः व्यतस्त्यागी। शम्दनयेन सम्यग्दर्शनसम्यग्ज्ञानप. ध्य तेन भगवता निर्लोभचूडामणिना प्रवाजिता। ती०३५कल्प। रिजिनपरजावपरित्यागी तन्निमितभूतातु धनस्वजनोपकरणात् | णिव-नृप-पुं० । राजनि, नि. चू०२ उ० । “दशवेश्यासमो सेवनासक्तः। समभिरूढेनारिहन्ताऽऽदिप्रशस्तनिर्मिसबहुतरैः
नृपः।" प्राचा०१ श्रु० २ १०६ उ.। दण्डिके, वृ. १००। परिमाणैरलिप्तत्वात् क्षीणमोहोजिनः केवली चाझिप्तः। एवंनतेन
णिवइ-नृपति-पुं० । राजनि, व्य. १००। सिद्धः,सर्वपर्यायरलिप्तत्वात् । वाचनान्तरे तु-नैगमालिप्तः, अं. शत्यागी नेगमाऽऽकाररूपेण संग्रहण सम्यग्दर्शनी सच्चया आ-णिवइता-निपतित-त्रि०। अवतरीतरि, स्था०४०४ उ०। स्मानं सर्वथा विभक्तत्वात् । व्यवहारेण तच्चच्याऽपास्तरा- विवश्य-निपतित-त्रिः। उपरि पतिते तथा सत् यत् पोमयगाऽऽदिवेपत्यागात् । ऋजुसूत्रस्तु सन्निमित्ताऽऽविध्वरक्तत्वेना.
ति तन्निपतितम् । त्वगविषे दृष्टिविषे वा विषनेदे, न । स्था०४ बझम्बनात्। शब्दत अनिसंधिजवार्यबुद्धिपूर्वकोपयोगस्य रागा.
ग०४ उ० । अधोलम्बमाने, "समुच्छिप, वा, णिवपइ चा)" ऽदिषु अपरिणमनात् । समभिरूढतः सर्वचेतनायाः सर्ववीर्यस्य
आचा०२ श्रु०१०४ अ.१००। विभावाऽऽश्लेषरदितत्वात् । पवनूततः पूर्वाध्यासचभ्रमाऽ. दिभवोपमाहिसर्वपुसहरहितस्य सिद्धस्य निलेपत्वम् । पुन
णिवनप्पय-निपातोत्पात-पुं० । निपासपूर्वक उत्पातो यत्र स निकपत्रये नयचतुष्टयम, भावनिक्षेपे पर्यायालिप्तत्वेनाऽन्तिमनय'
निपातोत्पातः । नाट्यभेदे, यत्र पूर्व निपतन्ति, तत उत्पतन्ति । त्रयम् । इति तस्वार्थवृसेराशयः। अत्र भावसम्यकसाधकनि
प्रा० म०१ अ० १ खराम। जं० । लेपाधिकार:
णिवकर-नृपकर-पुं० । राजहस्ते, पञ्चा० १० विव०। संसारे निवसन् स्वार्थ-सज्जः कजलवेइमानि । शिवकरलूयाकिरियाजयणा-नृपकरबूताक्रियायतना-स्त्री। लिप्यते निखिलो लोको, झानसिको न लिप्यते ॥१॥ नृपकरे राजहस्ते लूता वातिको रोगविशेषो नृपकरलूता,तस्या नाऽहं पुतभावानां, कर्ता कारयिता च न ।
उपशमे क्रिया चिकित्सा मन्त्रापमार्जनाऽऽदिका, तस्यां या नानुमन्ताऽपि चेत्यात्म-झानवान् लिप्यते कथम् ॥२॥
यतना प्रयत्नः, सा तथा । राजहस्तलूताचिकित्साप्रयत्ने,
पञ्चा० १८ विव०। लिप्यते पुदगझस्कन्धो, न लिप्ये पुदगझेरहम् । चित्रव्योमाञ्जनेनेव, ध्यायन्निति न लिप्यते ॥३॥
णिवा-निवर्तन-न । निवृत्ती मार्गनिवसनस्थाने, का० १
श्रु. २ अ.। लिप्तताज्ञानसंपात-प्रतिघाताय केवलम् ।
णिवमण-निपतन-न० । अधःपतने, प्रश्न०२ श्राश्रद्वार। निर्लेपानमग्नस्य, क्रिया सर्वोपयुज्यते ॥३॥
णिवमिळण-निपत्य-अव्य० । अधःपतित्वेत्यर्थे, “णिवडिऊण तपाश्रुताऽऽदिना मत्तः, क्रियावानपि लिप्यते ।
लेणेसु पयं पियं करेह मे जयब ! पसायं।" दर्श० ३ तव । भावनाझानसंपन्नो, निष्क्रियोऽपि न लिप्यते ॥५॥ णिवमिय-निपतित-त्रि० । नीचैः पतिते, "सम्वंगेहि णिवामिअलिप्तो निश्चयेनाऽऽत्मा, सिप्तश्च व्यवहारतः।
या।" मा० म० अ० २ खण्ड । शुध्यत्यलिप्तया ज्ञानी, क्रियावान् लिप्तया दृशा ॥६॥ णिव-निवन्न-त्रि० । शपिते, श्राव०४ अ०। सुप्ते, संथा० । झानक्रियासमावेशः, सहैवोन्मीलने द्वयोः।
स्वग्वर्तिते, वृ० १ उ० । भिकानेदतस्त्वत्र, नवेदेकैकमुख्यता ॥ ७॥
निपत्र-पुं० ।" धम्मं सुकं च दुबे, न वि काय न वि अ सझानं यदनुष्ठानं, न त्रिप्तं दोषपडुन्तः।
अट्टरुदाई । एसो काउस्सग्गो, णिवलो होड नायव्वो ॥१॥" शुकबुघस्वभावाय, तस्मै भगवते नमः॥
इत्युक्तलकणे कायोत्संगभेदे, पाव० ५ अ०। अष्ट०११ अष्ट । विगतक्षेप,न०६ श०७ उ०। "सेपल्ले वीमे
णिवाणिवा--निपानिपत्र-पुं० ।"अह रुदं च दुवे, झायर मीरप णिम्म णिट्ठिए णिले अवहमे विसुद्धे भव।" भत्य
| भाणाई जो णिवप्लो उ । एसो काउस्सम्गो, णिवाणिवागो तसंश्लेषात् तन्मयतागतवालाप्रापहारादपनीतभित्यादिगत.
नाम ॥१॥" इत्युक्तबकणे कायोत्सर्गभेदे, श्राव० ५ ०। धान्यलेपकोष्ठागारवद् निक्षेपः । भ०६ श०७०। अनु०।। णिवएणस्सिय-निफ्नोत्सित-पु. । " धम्म सुकं च उचे, जी० । सेपरहिते पृथुकाऽदौ, आव०४ अ.।
झाया झाणाई जो णिवझो उ। एसो काउस्सगो, होड़ ५३.
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त्रिस्सिय
णिवपुस्सिओ नाम ॥ १ ॥ "
आव० ५ अ० ।
शिवचमाण निवर्त्तमान त्रिप्रत्यावर्तमाने "गुरुणा वि समाणे । " व्य० १ उ० ।
रिति निवृत्ति खी० बन्धने, स्था० ४ ० १ ० निष्यत्ती, स्था० ४ ० ४३० । विपदमा नृपतिया स्त्री० राइ आकारे, " संगामे शिवपमिमं देवी काऊण जुज्झति रणम्मि । " व्य० १ उ० । शिववस नृपश-पुं० नरेश चा० १२ अधि
विविट्टि - नृपविष्टि - स्त्री० । राजविष्टौ व्य० २३० । शिवमण - निवसन - न० । परिधाने, ज्ञा० १० ८ ० । विशिटरचनारस्त्रिते परितः परिधाने, अनु० । "महिलिश्रं णिवसणेणं ।" अनु० । विह-निवह-५००० म० ।
गमेरई-मवाणु व जावज्जलोक्कुसा
गम-धा० । गतौ, कुस-पच-पच्छन्द निम्मी पदर परिपरि विरिणास विहायसे द्वारा
.
॥ ८ । ४ । १६२ ॥ इति सूत्रेण गमधातोविहाऽऽदेशो वा । शिवहर। पक्षे-' गच्बइ '। गच्छति । प्रा० ४ पाद । नन् - पा० अदर्शने, “नशेर्निरियास-निवायसेपमिसा "सेहावरा : " ॥ ८ । ४ । १७८ ॥ इति सूत्रेण विहाऽऽदेशः । 'विदेह' मयति प्रा०४ पासी दे० ना०४ व २६
गाथा ।
-
( २११८ )
अभिधानराजेन्द्र
विबुद्वित्ता इत्युक्तलक्षणे कायोत्सर्गभेदे, शिवायगंभीर-निवातगम्भीर - त्रि० । निवात विशाले, यद् हि गृहाऽऽदिकं वातरहितमपि महदू भवति तद्यथा । भ• 9 श०
८३०।
शिवायण निपातन १० गतमपणे ०२ श्र● द्वार। सूत्र । व्याकरणप्रसिद्धे आदेशाऽऽगमाऽसाध्ये समुदाया• ssदेशे, आ० म० १ ० २ खएन ।
शिवापसरणयईव निवातशरणप्रदीप--पुं० । निर्गतवातगृहेकदेशस्थदीपे, "जं पुण सुनिष्यकंपं निवायसरणप्पईयमिय चिसं ।" आव० ४ ० ।
शिवाय सरणपई पक्काण-निया तशरामदी पध्यान- न० बातवर्जितगृह दीपज्वलने, " णिवायसरण पवज्झाणमिव णिपकंपे । " प्रश्न० ५ सम्ब० द्वार ।
शिवारण -निवारण- न० | नितरां वारणं निवारणम् । प्रतिघा ते, न० ६ ० ३३ ब० । नितरां वार्यते निषिध्यतेऽनेन शताऽऽतपाऽऽदीनीति निवारणम सीधादि तथाविधे
66
"
शिवाशी येथे ०४३४ गाथा । णिवाइ[५] - निपातिन् त्रि० निपतितुं शीलमस्येति निपालीति विगृह्य विनिः। निपतनं या निपातः सोऽस्यास्तीति निपाती। भ्रष्टे, अधः पतिते, संयमादसंयमं प्राप्ते, जेव्हा णो पाचवा जे पाजे च्ाणिवाई। आचा० १० ५ ४० ३३० । णिवामेत्ता निपात्य-श्रव्य खगयिस्वेत्यर्थे, “जाएं धरणि तांसि निट्टु णिवाडेश्वा । " जी० ३ प्रति० ४ उ० । णिवाण - निपान - न० । जलपानस्थाने, वृ० ३ उ० । शिवाय निपात-पुं० निपतनं निपातः भाषा० १० ५ अ० ३ उ० । पतने, झा० १ ० १ ० । विनाशे, पिं० । निवेशने, प्रश्न० २ श्राश्र० द्वार। नितरां पातो निपातः । संयोगे, श्रावस्ल विारणं । " उत्त० २ श्र० । तत्तदर्थद्यो तनाय तेषु तेषु निपततीति निपातः । प्रश्न० 2 सम्ब० द्वार । " निपात एकाजनाङ् " ॥ १|१|१४|| " चादयोऽसत्वे | १|४|५७ ॥ इति निपातिसंहितेषु धोकापरिमितार्थेषु बिशे० । झा० । श्रा० म० । मरणे, वाच० ।
65
46
निवास- वायुप्रवेशरहिते, ४०७ ० ० ० ० "सिगारा, हिमवाद शिवायमेति "शीतार्दिता निवातमेषयन्ति घङ्गशालाऽऽदिवस तीचतायनाऽऽदिरहिताः । आचा० १ ० ६ अ० २३० ।
-
दौ च । ००२ अ० । “न मे निवारणं अस्थि, बबिता णं न विजई । श्रदं तु रिंग सेवामि, भिक्खू न चिंतय || ७ ||" उस०२ भ० ॥ निवारय निवारक वि० मैवं कार्यरित्येवं निषेध
1
०१
-
श्रु० १६ श्र० । नि० । निवारिय-निवारितप्रति
०४०
निवास - निवास - पुं० निवसने भूमिनागे, नि० १० १ र्ग १ श्र० ।
पिविड-निविष्ट त्रियुप, माचा० १०४० २ उ० । सुत्र० । झा० । जीवप्रदेशेषु भ० १३ श० ७ उ० । तीवानुभावजनकतया स्थिते कर्माशे, प्रशा० २ पद । प्र० । निर्दिष्ट व उपासे, "यो बहु गिबि
-
विष्टशब्दस्य लाभार्थस्य दर्शनात् । स्था० ५ ० २३० । णविक यदि निर्विष्टकम्प स्थिति स्त्री० । कल्पशास्त्रोतसाघुसामाचारीभेदे, स्था० ५ ० २३० । (व्याख्या 'कप्पि शब्दे तृतीय २३३ पृष्ठे दर्शिता ) निविम-निविम-त्रि०
66
डोमः ॥७१ २०२४] इत्यस्य काहा चित्कत्वान्न डस्य लः । प्रा० १ पाद । सान्धे, वाच० । विवित्ति निवृत्ति - स्त्री० । आरम्भनिवर्त्तने, न मांसनकणे दोषो, न मद्ये न च मैथुने । प्रवृत्तिरेषा जूतानां निवृत्तिस्तु महाफला " ॥ १ ॥ सूत्र० १० ८ अ० । नियमविएस्स परदारगमस्स व । अणियत्तस्स भवे बंधो, जिवितीय महाफ॥ सुधेवां (?) निवित्ति जो, मणसा वि य विराहए। लो मोग्गदं गच्छे, मेघमाला जहज्जिया ॥ " महा० ६ श्र० । शिविपाणनिवृचिमधान रिम्नान्तरनिवर्तनसारे बहुतरसत्वघातनिवर्त्तनसारे, पञ्चा० ७ विव० ।
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शिवुद्धनिवृष्ट त्रि० वित" देव या निबुझे देव तिवा णो वए। " आचा० २ ० १ ० ४ भ० १ उ० । डिना निर्देष्य हाथवेत्यर्थे "दिवस तस्स शिवुट्ठित्ता रतणिक्खेत्तस्स भभिवुद्धित्ता चारं चरति । सू० प्र०१ पाहु० 1
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(२११ए) णिवुडेमाण प्राभिधानराजेन्ः।
पिव्वत्तणा णिबुट्टेमाण-निष्यत-त्रि० । हापयति, स०प्र० । “विक्वं- पणगपरिदाणी ते गिएइंति, जदा वा अगीतपरिणामगाण भर्ति णिवुढेमाणे अट्ठारसजोयणाई परिरयबुर्ति णिवुट्टि णिषु
जाणंति तहा गोयत्या गेएहेति ।" नि.चू. ११ उ०। हेमाणे।" सू०प्र०२ पाहु ।
शिवेस-निवेश-पुंग। नि-प्राधिक्येन वेशो निवेशः। प्रवेशे, शिवलि-निवृद्धि-स्त्री०। बातपित्ताऽऽदिभिः शरीरोपचयहानी,
निचू०४ उ.। स्थापने, स्थाना० । यत्र प्रभूतानां स्थानिशब्दस्याभावार्थत्वाद्,निरुदरा कन्येत्यादिवत्। "दोएदं भाएमानां प्रवेशस्तारशे स्थाने,बृ०। "णिवेसा सत्थाऽऽजत्ता गम्भत्थाणं निवुही पसत्ता । तं जहा--मणुस्साएं चेव, पंचिदि-| वा।" निवेशो नाम-यत्र सार्थ श्रावासितः, आदिग्रहणेन प्रामो यतिरिक्खजोणियाणं चेव । " स्था० २ ० ३ उ० । सा, अन्यत्र प्रस्थितः सन् यत्रान्तरा समधिवसति,यात्रायां चा"तिहि ठाणेहिं जीवाणं णिवुठी पराणत्ता । तं जहा-उखाप, | गतो लोको यत्र तिष्ठति । एष सर्वोऽपि निवेश उच्यते । वृ० महोए, तिरियाए।" स्था• ३ ग.२००।वृदयभावे, सू०प्र० १७.। १२ पाहु।
णिवेसश्त्ता-निवेश्य-अन्य० । अवधार्येत्यर्थे, " इत्थीण चित्तजिवुत्त-निवृत्त--त्रि० ।“ निवृत्तवृन्दारके बा " 0 । १। सि निवेसरता, बदई बवस्से समणे तपस्सी।" उत्त. १३२॥ इति ऋत सत्वम । प्रवृत्तिविमुखे, प्रा. १ पाद ।
३२ अ०। णिवेएन-निवेद्य-अव्य० । गुर्वादेरास्याप्येत्यर्थे, पश्चा० १५
णिवेसण-निवेशन-न० । स्थाने, भाचा.१६०५ अ०४०.। विव.।
एकद्वारे पृथकपरिक्तेि अनेकगृहे, आव०४ मा । यथा एकणिवेयण--निवेदन-न०।गुरोः प्रत्यर्पणे,विशे। यथा-"नवदी
निष्क्रमणप्रबेशानि व्यादीनि गृहाणि । १०१ उ०। योऽयं किङ्करम,यूयं मे नवोदधिनिमम्नस्य नाथाः" इत्येवं समर्प
पिवेसिय-निवेश्य-अन्य । प्रवेश्येत्यर्थे, "अप्पणो अंगुलाए एम् । पश्चा० १ बिव।
णिवेसिय ण णीहर।" नि० चू०३ १०। णिवेयणापिंग-निवेदनापिएम-पुं० । यक्काअदिभ्यो निवेद्यमाने णिवसियव्य-निवेष्टव्य-त्रिका स्थापनीये, “परलोगे चिणिपिएके, नि० चू।
बेसियव्वं प्रसासयं जीवियं ।" श्रा०म०१ अ०१खएछ । जे जिक्खूणिवेयणापिंजतुजंतं वा साज।१८। णिच-देशी-ककुदे, दे. ना.४ वर्ग ४७ गाया। ओबाइयं, अणीवाश्यं वा जं पुमभहमाणिभइसबाणजन.
|णिवच्छण-देशी-अवतारणे, दे० ना० ४ वर्ग ४० गाथा। मधुमिमादियाण निवेदिज्जति, सो णिवेयणापिंडो । सो य सुविहो-साहुणिस्साकमो, अणिस्साकडो य । णिस्साक णिवट्ट-गाढ-त्रि० । प्रत्यर्थे, "शीघ्राऽऽदीनां बहिबाऽऽदयः"॥ गरहंतस्स चउगुरुग, मणिस्साको मासलहुं, माणादिया य | । ४२२ ॥ इति गाढस्य णिव्यः । “विहवे कस्स थिरक्षण, दोसा।
जोव्वणि कस्स मरट्ट । सो लेखम पवाविपक्ष, जो समाश् णि. गाहा
बह ॥१॥" प्रा०४ पाद । सव्वाणमाइयाणं, विहो पिंमो निवेयणाओ य।
णिबग-निर्वर्तक-त्रिका कर्तरि,आष०४ाकरणे,विशे। हिस्साएँ अणिस्साए,णिस्साए आषमादीणि ॥२०६॥
शिवहिता-निर्वर्य-श्रव्य० । जीवप्रदेशेभ्यः शरीरं पृथक्कृत्वे. सन्वाणादिया जे अरहतपक्खिया देवता, ताण जो पिंडो नि- त्यर्थे, स्था• २ वा०४०। (देशेन सर्वेण वाऽऽत्मा शरीरं बेदिज्जति, सो दुबिहो-णिस्साकममणिस्साकमो य । णिस्सा- निर्वर्त्य निर्यातीति, 'माता' शन्दे दितीयभागे २०१ पृष्ठे उक्तम्) कम गेएहते प्राणादिया। इमेण विधिणा णिस्साकडं करेति । गाहा
णिवट्टिय-निर्वतित-त्रि० । कृते, स्था० १०। "असंखडा बरुगं करेन आहा, समणाणत्थं उवक्खमं नोत्तुं ।
ति वा,बहुणिन्वट्टियफला तिवा,बड़संजूषा ति पा" आचा०२ सहाकम वेति य,णिस्सामिम्मि मुत्वं तु ॥२०७॥
ध्रु.१०४०२ उ० । प्रश्न ।
णिबह-तू-धागा पृथग्भवने।"पृथक्स्पष्टे णिबडः"८६२॥ दाणरुसको वा णिवेयणवरुवबदेसं कातुं साधूण देति, श्रा
इति पृथग्भूते पटे च कर्तरि शुवो णिव्वमेत्यादेशः। “णिन्वधाकम्मं वितं च । अहवा--जाव साह अत्यंति, ताव प्रोबा
मह"। पृथग्भवतीत्यर्थः । प्रा०४ पाद । नने, दे० ना. ४ वर्ग तियं देमो,सुहं साहगिएहति,पत्थ ओसकणमीसजायवियग
२० गाथा। दोसा । जया वा साहू भागमिस्संति,तदा दाहेम।। एत्य मोसकपामीसजातवियदोसा सम्हाकरं साहु णिस्साए वा कम
णिवण-निव्रण-त्रि० । विस्फोटकाऽऽदिकृतकतरहिते, जं० साहुणिस्सा बाग्वेति,पत्थ वियादोसो फेवनो। एसणिस्ता- | २ वक । औरजी। कमो,पत्थ सुत्तणिवातो,श्मो मणिस्सातो कमो साहहोउ वाणिवत्त-नित्त-त्रिका निर्वर्तिते, स्था०६०। अतिक्रान्ते, मा घा, देवता ते पुब्वपवत्तं ग्वेति, सा य नवितो साहू य प. ज्ञा० १ श्रु० १ । साए सो कप्पति।
णिवत्तणया-निर्वर्तनता-स्त्री० । निष्पत्ती, "तो निम्बत्तण__णिस्साकमो वि कप्पति श्मो कारणेहिं
या तो परिवाइणत्ता।" प्रज्ञा० ३४ पद । अमिवे ओमोयरिए, रायढे भए व गेलम् ।
णिव्वत्तणा-निवतेना-स्त्री.। इन्द्रियाणां निष्पादनायाम्, उ. भकाणरोहए वा, जयणा गहणं तु गीयत्थे ।।२०। । १० ३ ० ।
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(१९५०) गिव्यत्तणाहिगरणिकिरिया अभिधानराजेन्द्रः।
णिव्वत्ति णिवत्तवाहिगरणिकिरिया-निर्वर्तनाधिकरणिक्रिया-स्त्री०।।
साणिवत्ती, मोसनासाणिवत्ती, सच्चायोसजासाणिच. निर्वर्तनमसिशक्तितोमराऽऽदीमा निष्पादनं, तदेवाधिकरणा
ती, असच्चामोसनासाणिवत्ती। एवं एगिदियबज जस्स या। आधिकरणिक्याः क्रियाया भेदे,भ०३ श.३० । स्था।
जा नासाजाव बेमाणियाणं । काविहा णं भंते ! मयनिष्ठानयने, स्था० २ ग.१ उ० ।
णिवत्ती पपत्ता गोयमा! चउबिहा मणणिवत्ती णिबत्ति-निति-स्त्री । वस्तुनः करणे, " अनोच्नसमाहाणं,
पत्ता । तं जहा-सच्चमणणिवत्तीजाव असञ्चामोसमजमिहं करणं न णिवत्ती।" विशे० । निवर्सनं निवृत्तिनिप्पतिः । निष्पत्ती, भ०।
णणिवत्ती । एवं एगिदियवज्जं विगलिंदियवज्जंजाव वे. निवृत्तिनेदा:
माणियाणं । कइविहा णं भंते !कसायणिव्यत्ती पठकाविहाणं भंते ! जीवणिवत्ती पस्मत्ता | गोयमा!
त्ता ?। गोयमा ! चउबिहा कसायणिवत्ती पपत्ता । पंचविहा जीवणिबत्ती पम्पत्ता । तं जहा-एगिदियजीवणि
तं जहा-कोहकसायणिव्यत्तीजाव लोनकसायणिवत्ती। बत्तीजाव पांचंदियजीवणिवत्ती। एगिदियजीवणिबत्ती
एवंन्जाव वेमाणियाणं । काविहाणं मंते ! वप्पणिवत्ती णं भंते ! कइविहा पहाता गोयमा! पंचविहा पत्ता।
पसत्ता गोयमा पंचविहा वाणिवत्ती पत्ता । तं जहावं जहा-पुढवीकाश्यएगिदियजीवणिव्यत्ती जाव वणस्स
कालवमणिवत्ती. जाव मुक्किसवमणिबत्ती । एवं णिर
वसेसं० जाव वेमाणियाणं । एवं गंधणिबत्ती सुविहार इकाइयएगिदियजीवणिवत्ती । पुढवीकाश्यएगिदियजीव णिवत्ती णं भंते ! काविहा पएणत्ता । गोयमा ! इविहा
जाव वैमाणियाणं । रसणिबत्ती पंचविहाजाव वेमाणिपएणत्ता । तं जहा-मुहमपुढवीकाइयएगिदियजीवणिवत्ती
याणं । फासणिवत्ती अढविहान्जाव चेमाणियाणं । करय,बादरपुढवीकाइयएगिदियजीवणिवत्ती य । एवं एएणं अ.
विहाणं भंते ! संगणणिव्यत्ती पप्पत्ता । गोयमा ! छजिमावेषणं भेदो-जहा बहुगबंधे तेयगसरीरस्स० जाव सव्व.
बिहा संगणणिवत्ती पपत्ता । तं जहा-समचनरंससंघसिहअणुत्तरोवाइयकप्पातीतवेमाणियदेवपंचिंदियजी- गणणिवत्ती० जाव हुंमसंगणणिवत्ती। गेरइयाणं पुबाण व्यत्ती पं भंते ! कइबिहा पएणत्ता । गोयमा ! दुविहा
च्छा ?। गोयमा! एगा हुँमसंठाणणिव्यत्ती पएपत्ता। अ. पएणता । तं जहा-पज्जत्तगमबसिछअत्तरोववाइय.
मुरकुमाराणं पुच्छा ?। गोयमा ! एगा समचउरंससंगणजाव देवपंचिंदियजीवणिवत्ती य, अपज्जत्तगसबसि
णिव्यत्ती एवं० जाब थणियकुमारा । पुढबीकाइयाणं पुकअणुत्तरोववाश्यक जाव देवपंचिंदियजीवणिवत्तीय।
च्छा । गोयमा! एगा मसूरचंदसंगणणिबत्ती पामत्ता । काविहा ए भंते ! कम्मणिवत्ती पाणता । गोयमा!|
एवं जस्स जं संगणंजाव वेमाणिया । कइविहा णं भंअविहा कम्मणिव्यत्ती पएणता । तं जहा-पाणावर
ते ! सम्माणिवत्ती पत्ता गोयमा! चनबिहा समा. णिजकम्मणिवत्ती० जाव अंतराश्यकम्मणिबत्ती । जेर
णिव्वती पत्ता । तं जहा-आहारसम्माणि व्यत्ती जाव इया ए भंते ! काविहा कम्मणिवत्ती पमत्ता गोयमा!
परिग्गहसम्माणिवत्ती। एवं० जाव बेमाणिया। कइविहा अट्टविहा कम्मणिवत्ती पएणता । तं जहा-णाणावरणि
ण मंते ! स्माणिवत्ती पसत्ता। गोयमा ! छबिहा ज्जकम्माणिवत्तीजाव अंतराश्यकम्मणिबत्ती य । एवं०
लेस्साणिवत्ती पम्पत्ता। ते जहा-कएहस्साणिव्यत्तीजाव जाव वेमाणियाणं । काविहाणं भंते ! सरीरणिवत्तीप- |
सुक्कलेस्साणिवत्ती।एवं० जाव वेमाणिया जस्स जलेस्सासत्ता गोयमा! पंचविहा सरीरणिव्यत्ती पम्मत्ता। तं जहा
श्रो तस्स तत्तिया नाणियव्वा । काविहा णं भंते ! दिहिभोराझियसरीरणिवत्ती० जाव कम्मगसरीरणिवत्ती।।
णिवत्ती पक्षता । गोयमा ! तिविहा दिहिपिबत्ती एवश्या पं भंते ! एवं चेव । एवंजाब वेमाणियाणं,णवरं
पत्ता। तं जहा-सम्मदिहिणिवत्ती, मिच्छादिहिणिव्यत्ती, णायव्वं जस्स जइ सरीराणि । कइविहा ण भंते ! सब्धि- सम्मामिच्छादिहिणिवत्ती । एवं जाव वैमाणिया, जस्स दियणिवत्ती पएणता । गोयमा ! पंचविहा सबि.
जइविड़ा दिट्ठी। कइविहा णं भंते !णाणणिवत्ती परमत्ता। दियणिवत्ती पाता। तं जहा-सोइंदियणिवत्ती. जाव
गोयमा ! पंचविहा णापाणिवत्ती पत्ता । तं जहाफासिंदियणिवत्ती । एवं णरइया० जाव थणियकुमारा ।
आनिणि बोहियणाणणिवत्तीजाब केवलणाणणिवत्ती। पुढवीकाइयाणं पुच्छा ।। गीयमा! एगा फासिंदियणिच.
एवं एगिदियवजं. जाव वेमाणिया जस्स जणाणा । त्ती पत्ता । एवं जस्स ज इंदियाणि जाव बेमाणि या
कइविहा पं भंते ! अपाणणिबत्ती परमत्ता १ । गोयमा ! प । काविहा गं भंत ! जासाणिव्यत्ती पपत्ता ? । गोय
तिविहा प्रमाणणिवत्ती पपत्ता। तं जहा-मइअम्माणणिमा! चनबिहा नासाणिवत्ती पसत्ता । तं जहा-सच्चन्ना.' व्वत्ती, सुअप्रमाणणिवत्ती, विजंगणाणणि ब्यत्ती । एवं
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व्वित्ति
जस्स जइ जाव बेमाणिया कहविहाणं भंते! जोग शिब्वती पत्ता १। गोयमा ! तिविहा पत्ता । तं जहामण जोगणिव्बत्ती, बइजोगणिव्वती, कायजोगणिन्त्रत्ती । एवं • जान बेमालिया जस्स नविहो लोगो कड़वा उवयोगणिन्नत्ती पत्ता ? गोयमा ! दुविधा उपयोगणिब्वती पछता से जहा मागारोव योगणिम्बसी, अयागारोवओोगणिव्वती । एवं जाव वेमाणिया । अत्र ग्रहण गाथे वाचनान्तरे
जंते!
( २१२१ ) अभिधानराजेन्रू |
" जीवाणं वित्ती, कम्मप्पगमी (णिव्वची) सरीरणिव्वत्ती । सविदियणिव्वती, जासा य मणे कसाया य ॥ १ ॥
गंधे से फासे, संठाणविही य होइ बोधव्वो । लेस्सा दिडी णाले, उवओोगो होइ जोगे प " ॥ २ ॥ (कविदेत्यादि) निर्वर्तनं निर्वृतिर्निष्पतिजस्यैकेन्या 35दितया निर्वृत्तिर्जीवनिर्वृतिः । ( जढ़ा वडगबंधे तेयगसरीरस्स ति) यथा महाबन्धाधिकारेऽमशतकमव मोदेशकाभिदि जःशरीरस्य बन्ध बक्तः, एवमिह निर्वृत्तिर्वाच्या सा च तत एव दृश्येति । पूर्व जीवाक्कया निर्वृत्तिरुक्ता, अथ तत्कार्यतर्माक्या नामाद - (कविदेत्यादि ) ( कसायव्वितिति) कबायवेदनीयनिर्वर्तन (जस्स जं संज्ञायं ति) का विकानां स्तियुकसंस्थानं तेजसां सूचीकनापसंस्थानं, वायूनां पताका संस्थानं, वनस्पतीनां नानाकार संस्थानं विन्द्राराममन्द्रियवियां मनुष्याणां च पव्यन्तरादीनां समचतुरस्त्र संस्थानम् । भ० १९ श० ८ उ० । वित्तिय निर्वर्तितत्रिबन्धयोग्यतया निष्पादिते स्था १० वा० | सामान्येनोपार्जिते, स्था० २ ठा० ४ उ० । व्विमिश्र देशी - परिभुक्ते, दे० ना० ४ वर्ग ३६ गाथा | विनिर्वत- अविर स्था३ ० १ ० प्राणातिपाताऽऽद्य निवृत्ते, स्था० ३ ठा० २ उ० । अवतरहिते, ज्ञा १ श्रु० ८ श्र० ।
1
रिव्त्रयण - निर्वचन - न० । निरुक्तौ विशे० । शब्दार्थकथने, श्रा० म० १ श्र० २ खएम । व्याकरणे, स्था० १० ठा० । बिलि-देशी घी, प्रगणिते विघटिते । दे० ना० ४ वर्ग ५१ गाथा । सिब्बह पिए-चा०] [पेपणे पिषेहि रिहास- णिरिणज-रोश-[ चड्डाः " ॥ ८ । ४ । १०५ ॥ इति पिषेर्णिन्त्र हाऽऽदेशः । 'णिव्वes | 'पिनष्टि । प्रा० ४ पाद । णिव्वढे पज्जा । ' निर्वद्येत्, असारतामापादयेत् । सुत्र० १ श्रु० ए अ० । व्विहण - देशी बिवाहे, दे० ना० ४ वर्ग ३६ गाथा । णिव्वा - विश्रम-वि-श्रम । धा०, बिरामे, श्रमान्ते, स्वास्थ्ये,
" विश्रमेर्णिव्वा " ॥ ८ । ४ । ५९ ॥ इति विपूर्वस्य श्रमधातोर्णि ब्वाऽऽदेशः । ' णिव्वाइ' । पके - 'वीसम' । विभ्राम्यति । प्रा० ४ पाद । पिव्वाघाड़म-निर्व्याघांतिम- त्रि० । व्याहननं व्याघातः पर्वतादिस्खलनम् तेन निर्वृत्तं व्याघातिमम् । " भावादिमन् " ॥६॥ ५३१
-
शिवाण
४ । २१ ॥ शते प्रत्ययः निघातिमं व्याघाताभितम् । स्वाभाविके, चं० प्र०१८ पाहु. १ पाहु० । सू० प्र० । शिव्याधाय निर्व्यापात अन्य व्याघातस्याप्रायोनियातम् । व्याघाताजावे, प्रज्ञा० २ पद । " णिव्वाघापणं पन्नरसक म्मभूमीसु" प्रा० २ पद धरणीधराऽऽदिभिः प्रतिहतत्वाद (स्था० ६ वा० ) कटकुज्याऽऽद्यप्रतिहतत्वाद् व्याघातरहिते केवलाने औ० दशा
शिब्वाण - निर्वाण न० निर्वृती, विशे० उ० पञ्चा आ॰ चू· । सुत्र॰ । श्रात्मस्वास्थ्ये, प्रा० चू० ४ अ० श्राचा० । मा० । कर्मकृतविकाररहितत्वे, स्था० ३ ठा० ३ ० । सकलसंतापरहितत्वे, मो० सर्वद्वन्द्वोपरतिभावे सूत्र० १ ० १ ० १ ० | सकलकर्मविरहजे सुखे, झा० १ ० १ [अ०] सकलकर्मजे मात्यन्तिके सुखे श्री० अशेषक
क्षयरूपे (सूत्र० १ ० ६ श्र० । श्राचा० ) मोक्षे, घ० २ अधि० । प्रश्न | भातु० । सूत्र० । परमपदे, पो १५ वि० । पातिकर्मचतुष्ट्यरूपेण कर्मणा केवलज्ञानावासी सुब० १ ०११शेचे कर्मक्षयरूपे ईषत्प्रानाराध्ये भूमागोयवस्थित क्षेत्रसूत्र २०२०
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मोक्षसिद्धि
ते पव्व सोळं पहासों भागच्छई जिणसवासं । चामिण चंदामी, बंदिचा पज्जुवासामि || १९७२ ॥
सुगमा || १९७२ ॥
ततः किमित्यादआजको व जिणे, जाइ नरामरयविष्य मुकेश । नाम य गोत्ते य, सव्वष्णु सव्वदरिसीणं ॥ १७७३ ॥ तथैव ॥ १८५७३ ॥
सामान्य ततः किमुको सावित्याह
१
9
किम एवाणं, अत्थी नत्यि चि संसओ तुम्छ । पाणय अत्यं, न वाणसी वेसियो त्यो । १७७४४।। आयुस त्वमेवं मन्यसे कि निर्वाणमस्ति ना इति । अयं च संशयस्तव विरुरूवेद पदभवणनिबन्धनः। तानि यानि जरामा पनि "तथा'सैषा गुहा दुरवगाहा । ' तथा 'द्वे ब्रह्मणी परमपरं च । " तत्र "परं सत्यं ज्ञानमनन्तरं ब्रह्मेति "एतेषां चायमर्थस्तव चेतसि वर्तते यदेतदग्निहोत्रं तज्जरामर्थमेव यावज्जीवं कर्त्तव्यमिति । अग्निहोत्रक्रिया च भूतवधहेतुत्वाच्छवलरूपा । सा च स्वर्गफलैव स्या
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पवर्गफला 'याच जीवम् इतिची कालान्तरं नास्ति पत्राप वर्गदेतुभूतक्रियाऽन्तराऽऽरम्भः स्यात्तस्मात्साधनानावान्मोक्काभावादिकानि फलमाभावप्रतिपादकानि पाणि तु तदस्तित्व सूचकानि, यतो गुहान्त्र मुक्तिरूपा, सा च संसाराभिनन्दिनां दुरवगाहा, दुःप्रवेशात् । तथा-परं ब्रह्म सत्यं मोकः, अनन्तरं तु ब्रह्मज्ञानमितितितो मोकास्तित्वं नास्तित्वं च वेदपदप्रतिपादितमवगम्यतय संशयः। तत्रेष त्वं न जानासि, यतस्तेषामयमय वक्ष्यमाणलक्षण इति ॥ १९७४ ॥ न्युक्तिमपि मोकाभावप्रतिपादने प्रभासाध्यवसितां दूषयितुं भगवान् प्रकटयितुमाह-
मनसि किं दीवस्स व नासो निव्वाणमस्स जीवस्स १।
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णिव्वाण
दुक्खक्खयाइरूवा, किं होज्ज व से सोऽवत्था १ । १६७५ | आयुष्मन् ! प्रभास ! त्वमेवं मन्यसे कि दीपस्येवास्य जीवस्य नासो ध्वंस एव निर्वाणम्ययाः सौगतविशेषाः केचित्।
?
तद्यथा-
"दीपो यथा निर्वृतिमभ्युपेतो, तिमन्तरिम
दिनाद्विदिशंका स्यात्केवलमेति शान्ति ॥ १ ॥
तथा निर्वृतिमम्युपेतो, नैवापनि गच्छति नान्तरिकम् ।
दिशं न काञ्चिद्विदिशं न कान्रित्
(२१२२ ) अभिधानराजेन्द्रः ।
"
कृपावलमेति शान्तिम् ॥ २ ॥ इति ।
किं वा यथा जैनाः प्राहुः तथा निर्वाणं भवेत् । किं तदित्याद. सतो विद्यमानस्य जीवस्य विशिष्टा कानिवस्था । कथंछूता, रागद्वेषममोहजन्मजरारोबाऽऽदिदुःख पाउच "दर्शनरूपा सर्वादुिःखपरिमुच्ाः मोदते मुक्तिगताः, जीवाः कीणाऽऽन्तरारिगणाः ॥ २॥” इति ॥ १०७५॥
प्रकारान्तरेणापि संशयकारणमाह-अवाडनादचाओ, खस्स व र्फि कम्मजीवजोगस्स ?। विओोगाओ न नये, संसाराजाव एवं चि ।। १५७६ ।। अथवा त्वमेवं मन्यसे नूनं संसाराभाव एव न प्रयेत् । कुतः है, विषाद्वियोगायोगात् कस्य है, कर्मजीवयो संयोगस्य । कुतः ?, अनादित्वात् खस्येव । इद्द ययोरनादिः संयोगस्तयोर्वियोगो नास्ति, यथा जीवाssकाशयोः। अनादि जीवकर्मणोः संयोगः । ततो वियोगानु पपत्तिः । ततश्च न संसाराजाबः । तथा च सति कुतो मोक्षः १, इति ॥ १०७६ ॥
अथ प्रत्यासत्तेरेवानन्तरोकस्नेव प्रतिविधा
नमाह
पमिव भिओ इव विद्योगमिह कम्पनी र जोगस्स । समाइलो विपण पाऊण वाण फिरियादि। १६७७॥ अनार जीवकर्मयोगस्य तमिति स्वं प्रतिपद्यश्च वियोगं कथमोकवादे महिमकवद कयोरि यो वियोग का तुपापापोरिच किं निर्हेतुक एव जीवकर्मणोर्वियोगः । न इत्याह-शान कियाभ्याम् । इदमुक्तं भवति मायमेकान्तो दनादिसंयोगो न भियतःपाषाणयोरनादिरपि संयोगोऽन्यादिसंपर्केण विघटत एव तद्वकर्मयोगाऽपि सम्यग्ज्ञान कियाभ्यां वियोगं महिमवत्वमपीद प्रतिपद्यस्येति ॥ १९७७ ॥
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अथ प्रकारान्तरेणाऽपि मोकाभावप्रतिपादकं प्रभा साभिप्रायं भगवान् प्रकटयितुमाहनारगाइजावे, संसारो नाराइजियो य । को जीवो तं मन्नास, तन्नासे जीवनासो ति ॥ १७७८ || यद्यस्मान्नारकतिर्यग्नरामरभाव एब नारकाऽऽदित्वमेव संसार उच्यते, नान्यः, नारकाऽऽदिपयार्यभिन्नश्च कोऽन्यो जीवः १, न कोयत्ययेनार कायदे नावादम्यत्वेन कदाचिदपि जीवस्यानुपन्नग्नादिति भावः। ततस्तनाशे नारकाऽऽ विभावरूप संसारनाशे
पिव्वाण
जीवस्य स्वस्वरूपनाशात्सर्वथा नाश एष भवति, ततः कस्या - सौ मोक्षः १ । इति त्वं मन्यसे ? ॥ १६३ ॥ तदेतदयुक्तम् । कुतः ?, इत्याह
न हि नारगाइफ्लायमेत्तनासम्म सम्पदा नासो । जीवद्दव्त्रस्समय, मुद्दानासे व हेमस्स || १७७ कम्पकओ संसारो, तन्नासे तस्स जुज्जए नासो । जीवत्तमकम्पक, सन्नासे तस्म को नासो ? ॥१६८०॥ नारकतिर्वगादिरूपेण यो प्रायः स जीवस्य पर्याय एव पर्यायानपर्वायिणो जीवद्रव्यस्यापि सर्वथा नाशी मतः, कथञ्चिषु पश्यपि। न हि मुद्राऽऽदिपययमात्रा नः सुवर्णस्य सर्वथा वाशो दृशः। ततो मार कादिसंसार पर्याय निवृती मुकपर्यायान्तस्यारी जीवस्य मुद्राक
"
पर्यायान्तरपरि सुवर्णस्य न । ननु यथा कर्मणो नाशे संसारो नश्यति, तथा तनाशे जीवस्वस्यापि नाशान्मोक्काभावो भविष्यति । एतदप्यसारम् । कुतः ?, इत्याद--कम्मको इत्यादि) कर्मकृतः कर्मजनितः संखार, ततस्तन्नाशे कर्मनाशे तथ्य संसारस्य नाशो युज्यत एव कारणानाये कार्यानवयनादिकालतत्वात्कर्मकृतं न जवत्यतस्तन्नाशे कर्मनाशे तस्य जीवस्य को नाशः न कश्चित् कारणायोरेव कार्याध्यनिवर्तका व. कर्म तु जीवस्य न कारणं, नापि व्यापकमिति भावः । ।। १६७६ ।। १६८० ॥
इतश्च जीवो न विनश्यति कुतः ?, इत्याह
न विगाराजा दानासं पिव विणासघम्पो सो इह नासिलो विगारो, दीस कुंजस्स वाऽवयवा ॥ १७८१ ॥ न विनाशधर्मा जीव इति प्रतिज्ञा । विकारानुपलम्नादिति हेतुः । इह यो विनाशी तस्य विकारो दृश्यते । यथा मुद्रrssदिध्वस्तस्य कुम्भस्य कपाललक्षणा अवयवाः; यस्त्वविनाशी न तस्य विकारदर्शनम्, यथा आकाशस्येति । ततो मुक्तस्य जीवस्य नित्यत्वान्नित्यो मोक इति ॥ १९८१ ॥
स्याम्यति त प्रतिकृणध्वंसी मोको मा भूत्कालान्तरविनाशी तु भविष्यति, कृतकत्वात्, घट
वत् । तदयुक्तम्, घटप्रध्वंसानावेनानैकान्तिकत्वादिति दर्शयन्नाह-
कातरनासी वा पमो व्व कयगाइओ मई होना । नो पसाभावो नि सद्धम्म विजं नियो । १९५०२|| भत्र प्रेये परिहारं चाऽऽदअणुदाहरणमजावो, खरसिंगं पि व मई न तं जम्हा | कुंजविणासविसिडो, जावो चिय पोग्गनमत्रो सो । १९८३ श यद्वा कृतकत्वं मोकंस्याभ्युपगम्योतम, इदानीं तदेव तस्य नास्तीति सोदाहरणमुपदर्शयखाद
किं वेगं कथं, पोग्गलमेतविलयम्मि जीवस्स । किं निव्वपिमपिं नमसो पदमेवविलयम् । १९०४ अनुमानात्पुनरपि मुक्तस्य निव्ययं साचयतिदव्यामुत्तत्तण, मुत्त निच्चो नभं व दब्बतया । विवपापसंगो एवं सह नामाणाओ ||१५||
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(२१२३) पिव्वाण अभिधानराजेन्दः ।
णिव्वाण नित्यो मुक्ताऽऽत्मा, द्रव्यत्वे सत्यमूर्तत्वात् (दब्बतय त्ति)यथा अकालादिसामन्यन्तरं प्राप्य पुद्गल परिणामवैचित्र्याद्रव्यत्वे सत्यमृतेत्वान्नित्यं नमः । श्राह-नन्वनेन दृष्टान्तेन व्याप- दिन्द्रियान्वरग्रहणं स्पशनरसनाऽऽदीजियग्राह्यतामायान्ति। करवाऽऽद्यपि सिध्यति जीवस्य । तथाहि-विभुापकः सर्वगतो तथादि-सुवर्ण पत्रीकृतं चक्षुह्यं भूत्वा शोधनार्थजीवः, द्रव्यत्वे सत्यमूर्तत्वात् , यथा नभः । तदेतन्न । कुतः, मन्नौ प्रतितं भस्मना मिलितं सत्स्पर्शनेन्द्रियग्राह्यतासर्वगतत्वबाधकानुमानसद्भावात्। तथाहि-त्वपर्यन्तदेहमात्र. मेति, पुनः प्रयोगेण जस्मनः पृथक् कृतं चाविषयताव्यापको जीयः, तत्रैव तद्गुणोपलब्धेः, स्पर्शनवत्, इत्यनुमानाद् मुपगच्छति । लवणसुरागीहरीतकीचित्रकगुमाऽऽदयोऽपि प्राक बाध्यते सर्वगतत्वं जीवस्व । एवं " न बध्यते, नापि मुच्यते चक्षुरिन्छियग्राह्या भूत्वा पश्चात्सूपाऽऽद्यन्ते बौषधसमुदाये च जीवः,न्यत्वे सत्यमूर्तत्वात् , नभोबद" इत्याद्यपि दूषणं, ". काथचूर्णावलेहाऽऽदिपरिणामान्तरमापनाः सन्तो रसनेन्छिय. ध्यते पुण्यपापकर्मणा जीवः, दानहिंसाऽऽदिक्रियाणां सफलत्वा- संवेद्या भवन्ति । कपूरकस्तूरिकाऽऽदीनामपि पुमलाश्चक्षुर्गाद्या त्, कृष्यादिक्रियावत, तथा विघटते सम्यगुपायात्कोऽपि जी. अपि वायुना दूरमुपनीता प्राणसंवेद्या भवन्ति । योजननवकातु यकर्मसंयोगः, संयोगत्वात् , काञ्चनधातुपाषाणसंयोगवदू"
परतो गतास्तथाविधं कश्चित्सूक्ष्मपरिणाममापा नेकस्या:इत्याद्यनुमानात्परिहर्तव्यमिति ॥ १९८५ ॥
पौन्छियस्य विषयतां प्रतिपद्यन्ते इति । अनया दिशाऽल्याऽपि अथवा-किमेकान्तेन बहाऽऽग्रदैमोक्षस्य नित्यत्वं साभ्यते,
पुमतपरिणामता चित्रा भावनायेति ॥१६८९॥ सर्वस्यापि वस्तुनः परमार्थतो नित्यानित्यरूपत्वात् ,सत्कटा- अथास्यैव पुसपरिणामवैचित्र्यस्य प्रस्तुते योजनार्थमाहनुत्कटपर्यायविशेषविवक्तामात्रेणैव हि केवलम 'इत्यादिव्यप.
एगेगेदियगका, जह वा दबादयो तहा गया। देश इति दर्शयन्नाह
हो चबुग्गज्झा, घाणिदियगज्यानि ॥
१०॥ को वा निच्चग्गाहो, सव्वं चिय विभवभंगविश्मइयं । पज्जायंतरमेस-प्पणादनिच्चाश्चत्रएसो॥ १६॥
बायुः स्पर्शनेम्ब्यिस्यैव प्रायः, रसो रसनस्यैव, गन्धो घाण.
स्यैव, रूपं चक्षुष एव, शब्दस्तु श्रोत्रस्यैव प्रायः । तदेवं यथा अथ कथञ्चिदनित्यत्वेऽपि मोकस्य न किञ्चिद् नः कूयत ति
बारवादयः पुरुमा एकैकस्य प्रतिनियतस्येछियस्य ग्राह्या भूभावः । वह "कालतरनासी वा घडो ब्य" इत्यादिगाथाः प्रा
स्वा पश्चात्परिणामान्तरं किमप्यापना इन्द्रियान्तरमाह्या अपि गपि षष्ठगणधरे बन्धमोक्कविचारे व्याख्याता एव । ततो यदिह
भवन्तीति स्वयमेव गम्यते । तथा प्रस्तुता अपि प्रदीपगता न व्याख्यातं, तत्ततो (प्रन्धतो)-5वगन्तव्यमिति ॥ १९८६॥ माम्नेया: पुदलाचतुह्या जूत्वा पश्चाद्विध्याते तस्मिन् प्रदीप अथ प्रथमपते यदुक्तम्-' किं दीवस्स व नासो निब्बाणं'। त पव तामसीताः सन्तो घ्राणेन्द्रियग्राह्यतामुपयान्ति,तरिक(१९७५) इत्यादि । तत्रोत्तरमाह
मुच्यते ..."किं दीसए न सो सक्खं ति" (१९८८)निनु घाणे. न य सव्वहा विणासो-ऽणास्स परिणामओ पयस्सेव । जियेणोपलभ्यते एव विध्यातप्रदीपविकार इति ॥१६६०॥ कुंभस्म कवालाण व, तहाविगारोक्तंनाओ ॥१८॥
यद्येवं, ततः प्रस्तुते किमित्याहन प्रदीपानलस्य सर्वथा सर्वप्रकारैर्विनाशः, परिणामत्वात् , जह दीवो निव्वाणो, परिणामंतरमित्रो तहा जीवो। पयसो दुग्धस्येव । अथवा-यथा मुझराऽऽद्याहतस्य कपालतया
भाइ परिनिव्वाणो, पत्तोऽणावाहपरिणामं ॥१६६१|| परिणतस्य घटस्य, यथा, वा चूर्णिकृतानां कपालानाम् । कुतो न सर्वथा विनाशः ?,श्त्याह-तथा तेन रूपान्तरप्रकारेण विका
यथाऽनन्तरोक्तस्वरूपपरिणामान्तरं प्राप्तः प्रदीपो निर्वायः' रस्य प्रत्यकाऽऽदिप्रमाणोपसम्भादिति ॥ १९८७ ॥
इत्युच्यते,तथा जीवोऽपि कर्मविरहितकेवलामूतेजीवस्वरूपभा. अथ प्रेये, परिहारं चाह
बलक्षणमबाधं परिणामान्तरं प्राप्तो निर्वाणो निति प्राप्त उ. जइ सन्चहा नानासो-ऽणलस्स किं दीसए न सो सक्खं में
च्यते । तस्माद् दुःखाऽऽस्कियरूपा सतोऽवस्था निर्वायमिति
स्थितम् ॥ १६६१॥ परिणाममुहुमयाओ, जलयविगारंजणरन ब १एन्न
तहि शब्दादिविषयोपभोगाजावाग्निःसुख पवायमिति चेत् । यदि सर्वथाऽनलस्य न नाशस्तर्हि विध्यातानन्तरं किमित्य
नैषम् । कुतः?, श्त्यार-- सौ साक्वान्न दृश्यते । अत्रोत्तरमाह-(परिणामेत्यादि)वि. म्याते प्रदीपेऽनन्तरमेव तामसपुलरूपो विकारः समुपलभ्यत
मुत्तस्स पर सोक्खं, णाणाणावाहो जहा मुणियो। एव, चिरं चासौ पुरस्ताद्यन्नोपलभ्यते, तत्सूक्ष्मसुक्ष्मतरपरि
तकम्मा पुण विरहा-दावरणाऽऽवाहहेकणं ॥१एएशा णामनावात् । तथाहि-विशीर्थमाणस्य जलदक्यापि यः कृ- मुक्तस्य जन्तोः परं प्रकृएमकृत्रिमममिथ्यानिमानजं स्वाभाविकं. पणाम्रपुमनविकारः स परिणामसौदम्यानोपलज्यते। तथाऽज. सुखमिति प्रतिज्ञा। (णाणाणावाहउ ति) ज्ञानप्रकर्षे सति ज. नस्थापि पबनेन हियमाणस्य यत्कृष्टरज नहीयते, तदपि प. मजराव्याधिमरणेष्टवियोगारतिशोककत्पिपासाशीतोष्णकामको. रिणामसौदम्यानोपलभ्यते, न पुनरसत्वादिति ॥ १९८० ॥ धमदशाठ्यतृष्णारागद्वेषचिन्तीत्सुक्या ऽदिनिःशेषाबाधविर-- चित्ररूपश्च पुलपरिणाम इप्ति दर्शयन्नाह
हितत्वादिति देतुः। तथाविधप्रकृष्टमुनरिव । यथोक्तावाधरहि
तानि काष्ठादीन्यपि वर्तन्ते,परं तेषां शानाभाचान सुखम,अतहोऊण इंदियंतर-झा पुणरिदियंतरग्गहणं ।
स्तव्यवच्चेदार्थ ज्ञानग्रहणम् । कथं पुनरसौ प्रकष्टज्ञानवान, खंधा एंति न एंति य,पोग्गलपरिणामया चित्ताए भावाधरहितश्च, इत्याह-(तहम्मेत्यादि) तद्धर्मा प्रकृष्टज्ञानानाद सुवर्णपत्रलवणसुरागदरीतकीचित्रकगुमाऽऽदयः स्कन्धाः पाधधान मुक्ताऽऽत्मा । कुतः ?, बिरहाद-भभावात् । केषाम् , पूर्वमिन्द्रियान्तरमाह्याश्चरादीन्द्रियविषया भूत्वा पुनन्यके- । भावरणतनामावाघदेवनां च । पतकं भवति-कोणनिः
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विव्याव
शेषाऽऽवरणत्वात् प्रकृष्टज्ञानवान सौ, वेदनीयकर्माऽऽदीनां च सर्वेषामयाबादेतूनां सर्वथाऽपगमात्सचाचरहितोयमिति । प्रयोगः-स्वाभाविकेन स्वेन प्रकाशेन प्रकाशवान्मुक्तारमा, समस्तप्रकाशावरणरहितत्वात् तुनिषत्तथाचा"स्वतः शीतः प्रकृत्या प्रायशुद्धया चन्द्रिकायच विज्ञानं, तदाचरणमभ्रवत् " ॥१॥ इति । तथा अनाबाधसुखो सुकमा, समस्ताबादेतुरहितत्वात् उपराधपगमे स्वच् तुरषत् । तथा चोक्तम्- "सन्या बाधाभावा-त्सर्वज्ञत्वाश्च भवति प रमसुखी । व्याबाधाजावोऽत्र, स्वच्वस्य ज्ञस्य परमसुखम" ॥१॥ इति ॥ १६६२ ॥
(२१२५) अभिधानराजेन्रूः ।
अपरस्त्वाद
करणाभावादपाणी स्वं व नए विरुषोऽयं । जमजीवया वि पाव, एतो चिय भइ तन्नाम । १६६३ नवज्ञानी मुक्ताऽऽत्मा, करणाभावादू, आकाशवत् । अत्रा5 3चार्यः प्राऽऽद-- ननु धर्मिस्वरूपविपरीतसाधनाद्विरुयोऽर्थ देतुः । तथादि-नेता सिध्यति जी - क्काऽऽत्मा, करणाभावात्, आकाशवत् । अत्र परः सोस्कर्ष प्रणति तचाम) नामपनुहायाम्-मस्तव न नः किमपि । न हि मुच्यनामजी
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श्यति, येन हेतोर्विरुद्धता प्रेर्यमाणा शोभेत । अत्राऽऽह कश्चित् ननु मुक्तस्याजीवत्वमाईतानामप्यनिष्टमेव ततश्चैतद् दूषणमायायाऽपि परिसन्यमेव चामनोऽपि दूषणं स मापतति तत्कथं परस्यैवैकस्योद्भाव्यते है सत्यमेतत् कि न्तु परशक्तिपरीकार्थे प्रेर्यमाचार्यः कृतवान् कदाचित्क्षोभाद् विगत परोऽत्रापि प्रतिविधाने स्वतस्तूष्णीं विद घ्यात् परमार्थतस्तु जीवस्थाजीवत्वं कदाचिदपि न - त्येव ॥ १६६३ ॥ कुतः ?, इत्याह
दब्बाऽमुत्तत्त सदा-बजाइम्रो तस्स दूरविवरीयं । न हि जचंतरगमणं, जुत्तं ननसो व्व जीवत्तं ॥। १६६४|| तस्य मनो हि यस्मात् कारणान युक्तमिति संकधः । किं तन युक्तम ?, इत्याह-एकस्या जीवत्व लक्षणाया जातेयदजीवत्वलक्षणं जात्यन्तरं तत्र गमनं जात्यन्तरगमनं, तन युक्त म् । कथंनुतं जात्यन्तरम !, इत्याह-दूरमत्यर्थ विपरीतं दूरविपरीतम् । कस्या दूरविपरीतम् ?, इत्याह-- (सहाबजाईओ) जीवत्वल करणायाः स्वाभाविकी स्वभावभूता जातिः स्वभावजातिः, तस्याः । किंवत् या स्वजावजातिः १, इत्याद-उपमानप्रधानत्वानिर्देशस्य इत्यात्यवदिति दर्त स्ववयेत्यर्थः स्वभावजा तेदूरविपरीतं सत् कस्य यथा किन युक्तम ?, इत्याह-नभस इव जीवत्वम् । इदमत्र हृदयम-व्यत्वम्, अमूर्तत्वं च जीवस्य तावत्स्वभावभूता जातिः, तस्याश्च यद् दूरविपरीत जात्यन्तरमव्यत्वम्, अमूर्तत्वं च तत्र गमनं तस्य कस्यामप्यवस्थायां न भवति । एवं जीवत्वमपि जीवस्य स्वभावनूतैव जातिः, ततस्तस्या अपि स्वनावजातेर्यद् दूरविपरीतमजीवत्वलकणं जात्यन्तरं तत्र गमनं मुक्तावस्थायामपि तस्य न युज्यते । न ह्यजीवस्य सतो ननसः कदाचिदपि जीवत्वाप्राप्तिर्भवति । तस्मान्मुक्तो जीवो यथाऽद्रव्यं मूर्तश्च न भवति, तद्विपक्कस्वनावत्वात्; एवं जीव स्वाभाव्यादजीबोऽप्यसी कदाचिदपि न भवति ; अन्यथा नजः परमाण्वादीनामपि स्वस्वभा बत्य, गेन वैपरीत्या परयाऽतिप्रसङ्गादिति ।
"
गिव्वाण
मापद्येवं तर्हि
जीवमुक्ामा कर
"
णाभावादू, आकाशवद्” इति, तत्कथं नेतव्यम् १ । अत्रोच्यतेपरस्य प्रसङ्गपादनमेव तदस्माभिः कृत कर कार मुकमेव न पुनरनेन हेतुना मुकस्याजीचत्वं सिद्धयति प्र तिबन्धाभावात् तथादि यदि करजवत्वं कृतं नयेत् यथा दहनेन धूमः ध्यापकानि वा जीवत्वस्थ करणानि यदि भवेयुः, यथा शिशपाया वृक्षत्वम् तदा करन वृत्तिः यथाऽनित्यनिधूमशिपायो न चैतदस्ति । जीवस्यानादिपरिणामिकतावपत्ये ना कृतकत्वात् व्याध्यव्यापकभावोऽपीद्रयाणां शरीरेणैव सह युज्यते, उपस्यापि पी ङ्गलिकत्वात् न तु जीवत्वेन, जीवस्या मूर्तत्वेनात्यन्तं तद्विलकृणत्वात् । तस्मात्करण निवृत्तावप्यनिवृतमेव मुक्तस्य जीवत्वमिति ॥ १६६४ ॥
"
बाद-पद्येवम् अज्ञानी मुकामा करणाभावाद् आकाशव इत्यत्र धर्मस्वरूपविपरीत साधना या देतोरुितोद्भाबित सा न भवद्भिरपि परिहता, मतस्तत्राम्यत्किमप्युतरमुच्यतामिखाशया35
मुचाऽऽद्भावप्रो नोवलकिमंतदिया जो व्व । वाराणि ताई जीवो वसा ॥१॥ सपरमे विसरणओ, तब्बावारे विनोजाओ। इंदियो आया, पंचगत्रक्खोवला वा ॥ १०६ ॥ अनयोर्व्याख्या पूर्ववत, केवलं प्रस्तुते नावार्थ उच्यते-यदीयामन्ति भवेयुस्तदा तत्रिवृतायप्युपल सर्मत अध्यतिरेकाभ्यां जीवस्योपधम ध्वनिश्चयादिति ॥ १६६५ ॥ १९९६ ॥
माया जीवस्य इति कथं करनिवृतो मुकस्य निवर्तत इति दर्शयन्नाद
नाणरहिओ न जीवो, सरुवमोऽय मुत्तिभावेणं । जं तेा विरुद्धमिदं प्रत्थि य सो नाणरहिओ य । १६६७ यद्यस्मात्कानरहितो जीवः कदाचिदपि न भवति ज्ञानस्य तत्स्वरूपत्वात् यथा मूर्तिजा रहितो भवति तेन त स्मात्कारणाद्विरुद्धमेतद् अस्ति वासो मुक्तो जीवः अथ च स शामरतिः" इति न दिये स्वरूपतस्थानं यु पतिरितस्य तस्याध्यात् तथा चानन्तरमेवोन दि जयंतरगमनं तं नमो व जीवचं" (१९६४) इति ॥ १६६७ ॥
पराभिप्रायमाशक्यैतदेव समर्थयन्नाह
किड सो नाणसख्वो, नए पथक्वाइओ नियए ?। परदेय वि गज्जो, सपविचिनिविचिलिंगाओ । १६६०। मनु कथमयी जीवो ज्ञानस्वरूप इति निधीयते । अ सरमाह--नम्बित्यक्षमायां, ननु निजे देहे तावत्प्रत्यकानुभवादेव ज्ञानस्वरूपो जीव इति विज्ञायते इन्द्रियव्यापारोपरमेऽपि तयापारोपधार्थानुस्मरणात् तस्यापारेऽपि याम्यमनस्क तायामनुपलम्भात महाभुतानामपि चार्थानां तथाविधज्ञ योपशमपाटचात्कदाचिद व्याख्यानाचेतसि स्फुरनाद। एतच स्वसंवेदनसिकमपि मवतः प्रष्टव्यतां गतम् । तथा
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(२१२५) अभिधान राजेन्द्रः ।
णिव्वाण
स जन्तुः परदेहेऽपि ज्ञानस्वरूपे एवेति ग्राह्यः । कुतः ?, तथाविधप्रवृतिनिवृत्तिनिङ्गादिति । १६९८ ॥
अपि च मुक्तावज्ञानित्वाऽऽपादने महान् विपर्यासः; कुतः : इत्याह
सम्माऽऽवरणावगमे, सो सुपरो भषेत सूरो व्य । तम्मयजावाभावा - दमाणित्तं न जुत्तं से || १|| सेन्द्रियजन्देशतोऽध्यावरण सावतारतम्येन ज्ञानयुक्त एवमवति, यस्य त्वनीन्द्रियस्य सर्वमध्यावरणं कीणं, स निःशेचावरणापगमे शुरूतर एव भवति संपूर्णज्ञानप्रकाशयुक्त पच प्रचतीत्यर्थः यथा समस्ताम्राऽऽवरणापगमे सम्पूर्णप्रकाशमयः सूर्यः ततस्तन्मयभावस्य प्रकाशमयत्वस्य करणाभावेनाभावातो: ' से ' तस्य मुक्तस्य यदशानित्वं प्रेर्यते भवता, तन्न युक्तम, आवारकाभावे. तस्यैव प्रकर्षवतो ज्ञानप्रकाशस्य ल द्भावादिति ॥ १३९ ॥
तदेवं सति किमिद स्थितम् है स्वादएवं पगासमो, जीवो छिदावजासयत्ताओ। किंम्पास, बाबरपईयो ब्व ||२००० || सुबहुयतरं त्रियाण, मुत्तो सव्चपिहाणत्रिगमा
।
वीरो व नरो, विवाऽऽवरणप्पईयो व्य । २००१ । तदेवं सति सर्वदा प्रकाशमयः प्रकाशस्वभाव एव जीवः, केवलं संसार्थवस्थायां बद्मस्थः किञ्चिन्मात्रमवभासयति, की पक्की खाऽऽवरणच्छि द्वैरिन्द्रियच्चित्रैश्वावभासनात्, सच्चि रूकुटकु मयाऽऽद्यन्तरितप्रदीपवदिति । मुक्तस्तु मुक्तावस्थायां तत्सबै मासो जीव बहुतरं विज्ञानाति-पस्ति प्रकाशयतीत्यर्थः सर्वेपिधानविगमात् सर्वावरणादित्यर्थः । अपनीत समस्तगृहः पुरुषश्य विगतसमस्तकुटकुड्याऽऽद्यावरणप्रदीप श्य वेति । यो हि सच्चाssवरणान्तरिता स्तोकं प्रकाशयति, स निःशेषाऽऽवरणापगमे सुबत्र प्रकाशयति, न तु तस्य सर्वथा प्रकाशाभाव इति भावः । सोक्खं, तस्मात् " मुचस्स परं सोनं नाणाणावाद (१९६२) इत्यादि स्थितम् ॥ २००० | २००१ ॥
"
जं
अथाद्यापि मुक्तस्य सुखाभावं पश्यन् परः प्राऽऽदछावाई सुक्खा तेण तमासे । तमासा मुचो, निस्सृहदुक्खो जहा गाएं ||२००२ || अहरा निस्सुदक्खो नभं व देविदिषादभावाओ । आधारो देहो चिय, जं मृदुक्खोवलकीणं ॥। २००३ ॥ पुखपापाच दुःखमिति भवतामपि सम्मतं, तेन तस्मात् तयोः पुण्यपापयोः कारण नूतयोनशे सुखयो कार्यरूपयोगात्रि-सुखदुःख एच मुक्कामप्राप्नोति तत् कारणानाबाद, आकाशदिति निःसुखदुःखोसी दे प्रियाजावात्, नभोवत्यद् यस्माद्देह एव. तथेन्द्रियाणि च सुखखोपलब्धीनामाधारो दृश्यते न पुनर्देहभावे सुखदुःखे ह श्वेते, नापीन्द्रियाभावे ज्ञानं काप्युपलच्यते । ततः सिद्धस्य क थं तद्भावात्तानि श्रद्धयन्ते १, इति ॥ २००२ ॥ २००३ ॥ अत्रोत्तरमाहपुष्पफलं दुक्खं चिय, कम्मोदयत्रो फलं व पावस्स ।
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शिव्वाण
२००४।
न पावकले विसमं पक्वविरोडिया चे चक्रवर्तिदलाभादिकं फलं नियतो दुःखमेव कर्मोंदयजन्यत्वात्, नरकत्वाऽऽदिपापफलवत् । परः प्राऽऽह - नतु पापफले समानमिदम्। तथाहि अत्रापि वकुं शक्यत -कंपापलं नातं परमार्थतः सुखमेव कर्मोंजयत्वात् यत् एवं च विरोध, स्वसंवेधसुखदुःखयोर्वैपरीत्येन संविश्यभावादिति ॥ २००४ ॥
जगवानाह -
जतो च्चि पञ्चवं सोम्म सुहं नत्यि मुक्खये । तप्प दियारविभचं, तो पुएखफलं तिनं ति |२००५ || सौम्य ! प्रभाव! यस दुःखे अनुभूयमाने कराय वस्तमतेः सुखं प्रत्यकं नास्ति सुखानु स्तन बि द्यते, अत एवास्माभिरुच्यते- दुःख मेवेदम् इति यत् किमप्यत्र संसारच अन्नानासंभोग 53दिसते, तत्सर्वे समेत्यर्थः तस्यानानोऽदिविषयमजनितारतरूपस्य दुःखस्य प्रतीकारो भोगाइदेकस्ततीकारस्तत्प्रतीकारे दुःखमपि सद्विकं मूर्तेदेन व्यवस्थापितं ततीकाररूपं कामिनीोगा 51 कं पामा कम्यनादिवत्सुख मध्यवसितम्, शूलाऽऽरोपणशूलशिबाधादन्याधिवन्ववदिजनितं तु -समिति रमणीसंभोगचक्रवर्तिपद लाभाऽऽदि सुखं स्वविदितं दुःखमिति दहां प्रत्यक्षविरोध इति चेत् । तदयुक्तम् । मोहमूढप्रत्यक्षत्वात्तस्यानमारतिरूप दुःखप्रतीकाररूपत्वा दुः अतित्राः पामानापद्वार पर योगा
दिव
तथा चोक्तम्" नग्नः प्रेत इवाऽऽविष्टः, कणन्तीमुपगृह्य ताम् । गाढाऽसि सुखी रमते फिल ॥ १ ॥ श्रीसुक्यमात्रमवसादयति प्रतिष्ठा क्लिश्नाति परिपालनवृत्तिरेव । नातिश्रमापनयनाय यथा श्रमाय
राज्यं ममियात्रम् ॥२॥ किं ?, श्रिमः सकल काम दुधास्ततः भुक्काः संप्रीणिताः प्रणयिनः स्वधनैस्ततः किम् ? | दत्तं पदं शिरसि विद्विषतां ततः किं ?, कल्पं स्थितं ततः किम् ॥३॥ इत्थं न किञ्चिदपि साधनसाध्यजातं, स्वमेन्द्रजालसदृशं परमार्थशून्यम् ।
निवृतिकरं पार्थ
95 ॥४॥ इत्यादिना । तद् ब्रह्म वाञ्छत जना यदि चेतनाऽस्ति "कति दुखं ति यन मुक्तप्रकारेण 5खेऽपि सुखाभिमानः, तस्मात्पुण्यफलमपि सर्व तवतो दुःखमेवेति ॥२००५॥
एतदेव प्रपञ्चयति-विसयहं दुक्खं चिय, दुक्खपडीयारओ तिगिच्छ व्व । तं मुमुपपारा, नो उपधारो विद्या तच्च ।।२००६ ।। विषयसुखं तत्त्वतो दुःखमेघ, दुःखप्रतीकाररूपत्वात् कुष्ठगएमा शौरोगका थप नच्छेदनद्मनादि चिकित्सा यक्ष लोके
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( २१२१ ) अनिधानराजेन्: ।
शिव्याण
तत्र सुखभ्यपदेशः प्रवर्तते स उपचारात् । न चोपचारस्तथ्यं पारमार्थिकं विना क्वापि प्रवर्त्तते, माणवकाऽऽदौ सिंहाऽऽग्रुपचारवदिति ||२००६ ॥ ततः किमित्याहतम् नं च तं तच्च संस्स्सं । मुणोऽाबाद व सिप्पडियारप्पसईओ |२००७ ।। तस्माद्य मुकस्य संधिदेव निरुपचारितम् । कु स्वाभाविक नितीकाररूपस्य तस्य प्रतेरुत्पत्तेः । कथम् ? अवश्यम् सति दुःखये सांसारिकं दि सर्व पुण्यफलमपि दुःखरूपतया समर्थितं, ततः पापफलम्, इतरच्च सर्वे दुःखमेवेहास्ति नान्यत्, तच्च मुक्तस्य कीएम; श्रतस्तत्संक्षये श्रवश्यंतया यत् तस्य निष्पतीकारं स्वाभाविक खिद्यते तदेव तथ्यम् कस्य है, विशिष्य तोऽनावाथस्य मुनेरिव ।
उक्तं च" निर्जितमदमदनानां, वाक्काय मनोविकाररहितानाम् । विनिवृत्तपराशाना-मिहैव मोक्तः सुविहितानाम् ”| १ | इति । २००७ | अथवा प्रकारान्तरेणापि मुतस्य तथ्यसुखसंभवमादमह वा नामयोऽयं, जीवो नाथोनपाइ चार करणमयुग्गद् कारि, सव्वाऽवरणक्खए सुधी । २००८ | तसो जीवो, पावं तस्सोवपाइयं नेयं । पुमग्गहकारि, सोक्खं सव्वक्खए सयलं ॥ २००॥ यथा वाऽनन्तज्ञानमयोऽसौ स्वरूपेण जीवः । तदीयज्ञानस्य च मत्यावर ऽऽदिकमावरणमुपघातकं मन्तव्यम् । करणानि विप्रियाणि तज्ज्ञानस्य, सूर्याऽऽतपस्य तदावारकमेघपटलदिपक काणि सर्वाऽऽवरणक्षये तु नबुद्धिनिंर्मलता सर्वथाऽवभासकत्वलकणा भवति । प्रकृतयोजनामातथा तेनैव प्रकारेण स्वरूपतः स्वाभाविकान्त समय जीवः, तस्य च सुखस्यैवोपघातकारकं पापकर्म वि पुण्यं त्वनुत्तरसुरपर्यन्तसुखफलं तस्य स्वाभाविक सुखस्यानुग्रहकारकम् । ततः सर्वाऽऽवरणापगमे प्रकृष्टज्ञानमिव समस्त पुण्यपापकये सकलं परिपूर्ण निरुपचरितं निरुपमं स्वाभाविकमनन्तं सुखं भवति सिद्धस्येति ॥ २००८ || २००६ ॥ अन्येन वा प्रकारेण मुक्तस्य तस्य सुखसम्भवमाहजवा कम्मरखयओ, सो सिचाइपरियई लभइ । तह संसाराईयं, पावर तत्तो च्चिय मुहं ति || २०१० ।। यथा वा सकलकर्मक्कयादसौ मुक्तात्मा सिद्धत्वाऽऽदिपरिण• ति मते तन एव सकलकर्मकयात् संसारातीतं वैषयि सुखाडियरूपं नियमं तयं सुखं प्राप्नोति । एतेन यदुक्तम्-" की वायु पापत्वेन कारणानाचासुखः श्रो मुक्ताऽऽत्मा, व्योभवत्" इत्येतदपि प्रत्युक्तं द्रष्टव्यम, कारणाभावाद' इत्यस्य हेतोरसिक सफल जन्यत्वेन मिसुखस्य सकारकत्वादिति ॥ २०१० यदुक्तम्- " श्राधारो देदो किवय, जं सुदक्खोवलीणं " (२००३) इति; तत्राऽऽह
सायासायं दुबलं तम्बिरम्मिय सुहं जो वेणं ।
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शिब्वाय
देहिंदिप दुक्खं सोक्खं देहिंदियाभावे || २०११ ।।
ननु यत्पुण्यफलं खातं सुखतया लोकव्यवहारतो त रसवे दुःखमेदेश्यनन्तरमेव समर्थितम् । तु पापफल
निर्विवादं दुःखमेष । एवं च सति सर्वे दुःखमेवास्ति सं सारे, न सुखम् । तच्च दुःखं सिकस्य सर्वथा कीणम । अतस्तद्विरदे यद्यस्मात्सस्य स्थानावि, निरुपममनन्तं च युसिमेव सुखं तेन तत्कारणात् पारिशेष्यन्यायात् सं सारिवामेच जीवानां देहेन्द्रियेष्वाधारभूतेषु यथोकस्वरूपं दुःखम् सुखं तु देहेन्द्रियजाब सिनःशेष दुःखत्वेन तस्य तत्र युक्तिसित्वादिति ॥ २०११ ॥
अथवा देहेन्द्रियाभावे सुखाभावलक्षणो दोषस्तस्य जवतु वः, किमित्याह
जो वा देहिं दिव, सुमिच्छतं पय दासोऽयं । संसाराईपमिदं धम्मंतरमेव सिद्धिमुहं ।। २०१२ ॥
यो वा कश्चित् संसाराजिनन्द) मोदमूढः परमार्थादर्शी विषया मिमात्रको देहेन्द्रियजमेव सुखं मन्यते, न तु सिद्धिसुखं, तस्य स्वप्नेऽदर्शनात् तस्यवादिनः संखारचिपके मोके प्रमाणतः साधिते सति "निःसुख, सिर, देदेन्द्रियाभावाद" त्यो भवेत् नवा संसारातीतं पुण्यपापफलसुखदुःखाज्यां सर्वथा विलक्षणं धर्मान्तरनृतमेवानुपमम निरुपचरितं सिद्धिमुखमिच्छतामिति । २०१२ ॥ अत्र प्रेर्यमाशक्य परिन्नाह
कह न मे ति मई, नाखाणाबाट ति ननु नणियं । तदणिचं नाणं पिय, चेयणधम्मोत्ति रागो व्व । २०१३ | अत्रैवंभूता मतिः परस्य भवेत्-नन्विच्छन्ति भवन्तः सि स्य यथोक्तं सुखं किन्तु नेच्छामातो वस्तुसि अपि तु प्रमाणतः; ततो येन प्रमाणेन तत्सिद्ध्यति तद्वक्तव्यम् । अनुमानेन तदनुमीयत इति त् केनानुमानेन तदनुमेयम्अनुमीयत इत्यर्थः प्रबाह तिन मि ति।" मन भणितमत्रा प्रागनुमानं सिस्य सुखं का नत्वे सत्यनाबाधत्वादू, मुनिवदिति । पुनरपि परः प्राऽऽह-यये नित्यं सुखं ज्ञानं व सिकस्य चेतनधर्मत्वाद, रागव दिति ॥ २०१३ ॥
अथवा हेत्वन्तरमाह
कयगाइभावो वा नाऽऽवरणाऽडबाहकारणाजावा । उपायनिंग-सहावओो वा न दोसोऽयं ॥ २०१४।। अथवा विस्व सुखज्ञाने तपप्रभृतिष्टानुष्ठनिन क्रियमाणत्वात् श्रादिशब्दादभूतप्रादुर्भावात् घटवदिति । अत्रोचरमाह--" नावास्यानि नसुखे। कुतः ? आवरण चाऽऽबाधयाऽऽवरणाऽबधी तयोः कारणं हेतुस्तस्यानावात् श्राकाशवदिति मुम्भवति सिकस्य ज्ञानं सुखं यद्यपगच्छेत् तदा स्यादनित्यम्, अपगम कानस्याssवरणोदयात्, सुखस्य त्वाबाधहेतु जुतादसात वेदनीयो दयाssदिकारणाद्भवेत्, आवरण वेदनीयाऽऽद्दीनि च मिथ्यात्वाssदिभिर्बन्धदेतुभिर्बध्यन्ते, ते च सिद्धस्य न विद्यन्ते, अतस्तदभाषावू नाऽऽवरणाssवा धाकारण सद्भावः, तद्जावाश्च न सिकस्य
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(२१२७) अभिधानराजेन्द्रः ।
णिव्वाण
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ज्ञानसुखापगमः तदसावे च तो सदाऽवस्थितत्वात् कथमनित्यम् । न च तनधर्माः सर्वे यत्ति जीवगतद्रव्यत्वा मूर्तस्वाऽऽदिनिर्व्यभिचारात् । ततश्च चेतनधर्मस्वादयनैकान्तिको हेतु तथा कृतकत्वादिण्यनैकान्ति कः घटायेन व्यभिचारात् बम सिद्ध ज्ञानसुखयोः स्वाभाविकत्वेन कृतकत्वाऽऽद्ययोगात् । श्रावरणावाचकारणाभावेन च तसिरोजामात्रमेव निवर्ततेन पुनस्ते क्रियेते, घटाऽऽदिवत्: नाप्यभूते प्रादुर्भवतः, विद्युदादिवत, येन तयोरनित्यत्वं स्यात् । न हि घनपटलापगमे चन्द्रज्योस्वायाः सूर्यप्रभाया वा तिरोभावमात्रनिवृत्ती इतकत्वम्, अनूतप्रादुर्भावो वा वक्तुं युज्यत इति ।
विशिष्टेन रूपेण कृतकत्वादनित्ये सिस् ज्ञानसुखे, प्रतिक्षणं च पर्यायरूपतया पविनाशे ज्ञानस्य विनाशाद, सुखस्यापि प्रतिसमयं परापररूपेण परिणामादेयो सर्दि सिद्धसाध्यतेति दर्शयति-" उपायडिए" इत्यादि इथमारमाकाशघटा 35दिरूपस्य सर्वस्वापि वस्तुस्तोमस्य स्थित्युत्वादयस्वानाध्यान्युपगमात्सु खज्ञानयोरपि कथञ्चिदनित्यत्वाढू नायं तदनित्यत्वाऽऽपतिलक्षणोऽस्माकं दोष इति ॥ २०१४ ॥
तदेवं जीवस्य सदवस्थालकणं निर्वाणं, निवृचस्य च निरुसुखसद्भावं कितः प्राय बेोकद्वारेणापि वरसाधनार्थमाद्
न ह वै ससरीरस्स, पियऽप्पियावहतिरवेमादि व जं । तदमोक्ले नासम्म व, सोक्खाजावमिव न जुचं । २०१५।
"सबै सशरीरस्य प्रियाप्रिययोरपतिरस्ति""अश रीरं वा वसन्तं प्रियाप्रिये न स्पृशतः " इति च यद्वेदोक्तं, तद्मोमाजीवकर्मणोर्वियोपगम्यमाने इत्यर्थः तथा मतिरनि प्रायते इति वचनाद मुकासर्वधा माशे वा जीवस्वाऽभ्युपगम्यमाने सच्चे वा मुकाऽमनः सुखा भाव प्रमाणे न युक्तं प्राप्नोति - अभ्युपगमविरोधस्तवत्यर्थः । अनेन हि वाक्येन किन यथोको मोक्षः, मुकौ च निकर्मणो जीवस्य सवं, निरुपममुखं च तस्य पतानि त्रीयपि अभ्युपगम्यन्ते तच पुरस्ताद्वयकीकरिष्यत्रि. तयस्य निषेधं कुर्वतस्तत्राभ्युपगमविरोध इति भावः ॥२०१५॥ अत्रान्ती परित्य मध्ययतं जीवनाशनविन मयुपगमंदिरोधं परितु तात्परः प्राद
सच्चिय, सुहदुक्खाई पियऽपि च । ताईंन फुर्सत नहं, फुडमसरीरं वि को दोसो || २०१६ || "" इत्यादिवेदवाक्यस्य किस परोष्मुमचे मन्यतेशरीरः सर्वनाशेन नटः खरविपाकल्प पत्रोच्यते तमेतू समशरीरं नष्टं प्रियाप्रिये सुखदुःखे यन स्पृशतः, तत्स्फुटमेष दुभ्यत चेदन नष्टस्य सुख अस्पर्शायोगाव, महारिशम्देन
जीवनाशाभिधानात्। एवं जुते चास्य वाक्यस्यायें मुखबस्य निर्वाणप्रदीपस्येव सर्वनाशमभ्युपगच्छतां कोऽस्माकमम्युपगमविरोधलक्षणो दोषः १ न कश्चिदपीति परानिप्राय इति ॥ २०१६ ॥
शिव्त्राण
अत्र प्रभासस्य भगवान् बोघान्यथात्वमवगम्य, पतेषां वेदपदानां यथाऽवस्थितमर्थ म्याविषयामुरादबेगपाणय अर्थ न सु जाखसि इमाथ तं सुणयु । असरीरव्यवसो, अपणो व्य स निवेद्दाओ । २०१७ | न निसेो य न म्मि तव्बिहे चैव पञ्चओ जेण । वेणासरीरगणे, जुतो जीवो न खरसिंगं ।। २०१० ।।
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आयुष्मन् ! प्रभाव न केवलं कि, वेदपदानाममीचामर्थ त्वं न जानासि ततस्तं न इत्यादि सुष्ठु पूर्वा सुगमत्वाद गाथा व्याख्यातं तदपि सुखप्रतिपश्यर्थ व्याख्यान इति निपात निषेधार्थ । 'द इनिपातयं दिशम्दार्थत्वाद्यस्मादर्थे । सह शरीरेण वर्त्तत इति सहरी जीवस्तस्य सरीरस्वेत्यत्र पत्रकारो द्रष्टव्यः । ततश्चायमर्थः यस्मात् सशरीरस्य जीबस्य प्रियाप्रिययोः सुखदुःखयोरपइतिर्विघातोऽन्तरं नास्ति, न स्वशरीरस्य ; तस्मादशरीरं शरीररहितं मुक्त्यवस्थायां वसन्तं वोकान्तस्थितं जीवं प्रियाप्रिये सुखदुःखे न स्पृशतः । इदमुकं भवति यावदयं जीवः सशरीर तात् सुखेन दुःखे न या अन्यतरेण कदाचिदपि न मुच्यते । मस्यौ कणवेदनया सुखदुःखाय कदाचिदपि न स्पृश्यत इति। एवंभूते चार वाक्यस्यायें सति योऽयमशरीरव्यपदेश अस सत एच विद्यमानस्यैव जीवस्य मुक्तयचथायां विधीयते नतु सर्वथा नष्टस्य । कुत इत्याह-निषेधात् श् यो यस्य निषेधः स तस्य सव एव विधीयते, न त्वसतः, यथाऽधन इति, अत्र सत एष देवदत्तस्य धननिषेधो विधीयते, न स्वसतः खरविषाणस्था आन विद्यते शरीरं यस्येत्येवं निषेधाद्यपदार्थ जीव एव कथं प्रतीयते ?, इत्याह-" न निसेदओ य" इत्यादि व्यास्थानतो विशेषप्रतिपत्तेः पर्युदासवृत्तिना नत्रा निषेधो नम्निषेधस्तस्माननिषेधात् कारणात् सशरीरादन्यस्मिंस्तद्विध
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शरीरसदृशे दिपदार्थसंप्रत्ययो विशेष यथा " न ब्राह्मणोऽब्राह्मणः " इत्युक्ते ब्राह्मणसदृशः कत्रियाऽऽदिरेव गम्यते, न तु तुवरूप भावः च "नभियुक्तमन्यस
शाधिकरणे लोके तथाहार्थगतिः " इति । इह च शरीरसदशोऽशरीरो जीव एव गम्यते, द्वयोरप्युपयोगरूपत्वेन सहशत्वात् । न चेद शरीरं सादृश्यबाधकं तस्य जीवन सह नीरन्यायतो खोली भूतत्वेने करवादिति । तदेवं वेग - त् कारणात् ननिषेधादयति पायें सम्ब त्ययो भवति, तेन तस्मात्कारणात्. अशरीरं वा वसन्तम् ' इत्याह जीव वाशरीरो युज्यते, न तु खरविषाणं रूपोऽभवत्यर्थः । तदेवमशरीरमिति व्याख्यातम् । ॥। २०१७ | २०१८ ॥
इदानी" या वसन्तम् " श्वेतद्वाचिश्यामुरादजं व वसंत संत, तमाद वासदयो सदेहं पि
न फुसेज्ज बीयरागं, जोगिण मिट्टेयरविसेसा ॥। २०१६॥ यस्माच्चाशरीरं कथंभूतम् १, वसन्तं लोकाग्रे निवसन्तं ति मितियावत् अनेन विशेषखेन तमशरीरसन्तं विद्यमानमाद्, न स्वसद्भूतं सनस्य सम्स्यात् । तस्मात्कथं जीवनाशरूपं निर्वाणं स्वाद न केवल
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(२१२८) अभिधानराजेन्द्रः।
णिव्वागण
णिव्वाणगमणापज्जवसाग फल
किंतु वाशब्दात सदेहमपि सशरीरमपिवीतरागं कीणोपशम | पवमप्युक्तप्रकारेण मुको जीवो भवेदित्यकामरज्युपगतममोहबोगिनं परमसमाधिमन्तं भवस्थमपि न स्पृशेयुः । के', स्माभिः, तथा च सति जीवस्य कर्मवियोगलकणो मोक्षः, तत्र इऐतरविशेषाः, सुखदुःसभेदा इत्यर्थः ॥२०१६॥
जीवसत्वं च सियम् । यत्तु निःसुखदासत्वं सिम्स्य मया प्रेरिप्रकारान्तरेणापि “बाव सन्तम्" इत्येतद्वचाचिस्मासुराह
तं, तत् "प्रियाप्रिये मशरीरं न स्पृशतः" इति वचनात् तदधवाव त्ति वा निवाओ, वासदत्थो जवंतमिह संतं ।
लमेव । प्रत्रोत्तरमाह-तदेतत्र, यस्मात्पुण्यपापकर्मजनिते पब
जीवानां प्रियाप्रिये सांसारिकसुखदुःखे प्रवतः, तेच तं जीजबुज्काऽव ति व संतं,नाणाइविमिट्टमहवाऽद ॥२०२०॥
निःशेषपुण्यपापकर्माणं सकलसंसारार्णवपारप्राप्तं मुक्ताऽस्मान वा इत्यथवा-'वाब 'इत्ययं शब्दो निपातः, स च वाशब्दा
नस्पृशत प्रत्युत्तरगाथायां संबन्धः।न चैतावता तस्व निःमुकर्थः । ततश्चाशरीरं सन्तं नवन्तं मुक्त विद्यमानं जीवं प्रियाप्रिये
त्वमिति स्वयमेव कष्टव्यम्। कुतः?,श्त्याह-(नायेत्यादि)कामत्वे न स्पृशतः, पाशनात् सशरीरमपि वीतरागं न ते स्पृशतः । य- सत्यमावाधरूपत्वादित्यर्थः । यच तद् मुक्तस्य सुकं मुक्तसुख दिवा बसन्तमित्यम्बथा व्यास्यायते-" बुज्माऽव तिबेत्या- स्वाभाविकं निष्प्रतीकारं निरुपमं च । "मुत्तस्स परं सोक्राणादि"। 'पा'इत्यथवाऽयमर्थः।"वाच संतं ति ।" रक्षण
पाणाबाहो जहा मुषिणो” (१९९२) इत्यादिना प्रागेव सागतिप्रीत्यादिम्बकोनविंशतावर्यध्वयधातुः पठ्यते । गत्यर्थाश्च धित,तत्तस्यबीतरागद्वेषस्य मुकाऽऽत्मनो न प्रियं न पुपयजनिधातबो कानार्था अपि भवन्ति । ततश्चाह-बिनेव ! त्वमेचं बु. तं सुखं भएयते,न चाप्रिय न पापजनितं जसं भएयत,किस्बेध्यस्व । किं तदित्याह-मशरीरं सन्तं मुक्तयवस्था विद्यमानं ताज्यां सर्वथा विलक्षणम् , भकर्मजनितत्वेन स्वानाषिकत्वाजीवम, अथवा कानाऽऽदिभिर्गुणैर्विशिष्ट सन्तमित्याद-भूते, व, निष्प्रतीकाररूपत्वात्, निरुपमत्वात् , मप्रतिपातित्याचेति । प्रियाप्रिये न स्पृशतः। बाशब्दात सशरीरमपि वीतरागमिति अथ “को पसंगोस्थति" "अशरीरं प्रियाप्रिये न स्पृशतः" तथैवेति ॥१०२०॥
इत्युक्त कोऽत्र मुक्ताऽश्मनि मुक्तसुखाभावप्रसाः कश्चिदित्य. माह-नन्वेचमत्तरकुट्या मयापि स्थाभिप्रायसिवये यः। पुषयपापजनितप्रियाप्रिययोरनावे तस्व सुतगमेव भावा। व्याख्यानान्तरं कर्तुं पार्यत पवनहाय भव
तस्मात् 'न ह वै सशरीरस्य' इत्यादिवेदपदेयथोक्तनीत्या जांचतेष केवलेन क्रेण्या प्रदीता, इत्यभिप्रा.
कार्मणशरीरविरहलक्षणो मोक्का,मुक्तावस्य च जीवस्य सब. बचतः परस्य मतमाशस्क्य प.
म.तथा "मशरीरं प्रियाप्रिये न स्पृशतः" इत्यतोऽपि बचनात् रिहरन्नाद
पुण्यपापक्षयसमुत्थं स्वाभाविकम,मप्रतिपाति सुखं चास्व इत्ये. न वसंतं अवसंतं, ति वा मई नासरीरगहणाओ।
ततत्रितयं सिम्म् । मत एतदनभ्युपगच्चतस्तवाभ्युपगमविरोध
इति सितम् । यदपि-" जरामय बैतत् सर्व यदग्निहोत्रम्" फसणाविसेसणं पि य, जो मयं संतविसयं ति।२०१२॥
इत्येतस्माद्वाक्यान्मो कहेतुक्रियाऽऽरम्भयोग्बकालाभावान्मोता"अशरीरं वाऽवसन्तं " इत्यत्र लुप्तस्व अकारस्य दर्शनात | भावं शङ्कसे । तदप्ययुक्तम् तदर्यापरिकानात् । तस्य यमर्थःन बसन्तमवसन्तं काप्यतिष्ठन्तमिति व्याख्यानतो नास्ति मु- यदेतदग्निहोत्र तजावजीवं सर्वमपि कालं कर्तव्य, वाशदात् कस्यवस्थायां जीवः, काप्यबसनात्. मसरवादेव च नामुं प्रिया- मुमुकुनिमाकरेतुभूतमप्यनुष्ठानं विधेयमिति । इत्येवं वेदपदोकप्रिये स्पृशत इति परस्य मतिर्भवेत् । तदेतन्न । कुतः, श्त्याह- द्वारेण युक्तिभिश्च प्रसाधितो मोक्षः। निमश्च प्रजासस्य तत्संअशरीरग्रहणात् । एतदुक्तं भवति-न विद्यते शरीरं यस्येत्पन्न शयः ॥२०२२॥२०१३॥ पर्युदासनिषेधात् पूर्वोक्तयुक्त्या मुक्त्यवस्थायामशरीरो जीवो
ततः किं कृतवानसावित्याहगम्यते, इत्यतोऽत्राऽकारप्रश्लेषव्याक्यानं कर्तुं न पार्यते, अश
छिन्नम्मि संसयम्मी, जिणेण जरमरणविप्पमुक्केणं । रीरमरणान्मुक्तो जीवसिद्धेः । किन-"प्रियाप्रियेन स्पशतः" इति बदशरीरस्य स्पर्शनाविशेषणं, तदपि यस्मात सहिषयमेव
सो समणो पन्वइओ, तिहि अोसहखंडियसएहिं।२०श्वा मतं, तस्मान्न मुक्तो जीवस्याभावः। यदि शरीरशम्दस्व जी- व्यास्या पूर्ववदिति ।२०२४: विशे०। सिम्सुस्वे, कर्म०५ कर्म वाजाबो वाच्यः स्यात्तदा तं प्रियाप्रिये न स्पृशत इति विशे- ( श्रीनिर्वाणचर्चा, प्रकीर्णकवार्ताश्च 'मोक्त' शब्द संग्राषणमनर्थकं स्यात् । न हि "बन्यापुत्रं प्रियाप्रियेन स्पृशतः" | हिण्यम्ते) विध्यापने, श्राव. ४ . । (तीर्थकता निर्माण इति विशेष्यमाणं विराजते । तस्मान्मुक्त्यवस्थो जीव पपाश- 'तित्यपर' शब्द वश्यते) निर्वाणप्रधानककारणत्वानियाणम्। रीरशन्नवाच्यः, न पुनस्तद्भावः । ततो नाकारप्रश्लेषव्याख्यान प्राणातिपातनिवृत्ती, सूत्र. १६० ११. IFखकथने, दे० युज्यत इति । तदेवम"शरीरं वा वसन्तम्" इत्यनेन जीवका- ना.४ वर्ग ३३ गाथा । मणशरीरवियोगलकणस्य मोक्षस्य मुक्तजीवसत्वस्य चाभि
णिचाणंग-निर्वाणालग-न । मुक्तिकारणे, पशा०१६ विधः। धानासभिषधं कुवेतस्तवान्युपगमधिरोध एवेति ।। २०२१॥ एवमपि मुक्तस्य सुखाभावलक्षणं तृतीयपक्षमप्रतिविहितमे
णिवाणगमणकाम-निर्वाणगमनकाल-पु.। मोक्षगमनप्रत्यावोत्पश्यन् परः प्राऽऽह
सन्नसमये. दर्श०४ तत्व। एवं पि होज्ज मुत्तो, निस्सुहक्खत्तणं तु तदवत्यं ।
णियाणगमणपज्जवसाफ-निर्वाणगमनपर्यवसानफल
त्रि.निर्वाणगमनं मतिप्राप्तिः पर्यवसाने मानुषतिकसुरमनुतं नो पियऽपियाई, जम्हा पुणेयरकयाई ॥२०२॥
जसुखानुजवपर्यन्ते फलं वस्यासौ निवोजगमनपर्यवसानफनाणाबाहत्तणयो, न फुसति वीयरागदोसस्स ।
लः । पा०। निर्वाणगमनं मोक्तगमनमेव पर्यवसानं परमार्थ तस्स पियमप्पियं वा, मुत्तमुहं को पसंगोऽस्थ ?॥२०॥। रूपं फलं यस्य स तथा । मोकैकहेती, ध• । “असमिहिसं.
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(२१२९) णिव्वाणगमणपज्जवसाणफल भाभिधानराजन्धः ।
णिविइय बयन्स जिम्बाणगमणपजरसाणफलस्स श्मस्स धम्मस्स।" |णियाणाऽऽवस-निर्वाणाऽऽवेश-पुं० । मोकाश्वेशे, “यथाप्रध.१प्रधि..
| काग यादन्तः, संसाराऽऽवेशहेतवः । तावन्तस्तद्विपर्यासाः, णिवाणणगर-निर्वाणनगर-न । निर्वाणपुरे, द. १०। “ध. | निर्वाणाऽऽवेशहेतवः ॥१॥" सूत्र. १ ० १२ १०। मंजिणपक्ष, सम्ममिणं सहामि तिबिहेणं । तसथावरतू. णिवाणि [D]-निर्वाणिन-पुं० । अतीतायामुत्सर्पिएयां पहियं, पंथं निब्वाणनगरम्स ॥१॥" द..।
जाते भरतकेजे द्वितीये तीर्थकरे, प्रब०७ द्वार । णिव्वाणपय-निर्वाणपद-न । निकर्मताहेतुपदे. अ०५मष्ट। णिवाणी-निर्वाणी-स्त्री. । श्रीशान्तिनाथस्य शासनदेव्याम्, णियाणपसाहण-निर्वाणप्रसाधन-न. । मोक्षसाधने, पं० ० प्रव० २७ द्वार । सा च कनकरुचिः पद्माऽऽसना चतुर्भुजा पु. ३द्वार।
स्तकोत्पलयुक्तदक्विणशणिया, कमएकलुकमवकसितबामकणियाणपुर-निर्वाणपुर-ज० । पित्यानाराऽऽस्ये सिसिपत्तने,
रद्वया च । प्रव.२७द्वार। भाव.४ म.। दर्श।
णिवाव-निर्वाप-पुं०। शाकघृताउदिपरिमाणे,नि० चू०१२। णिबाणजाबि []-निर्वाणभाविन्-त्रि० । निर्वाणे नवि
णिब्वावकहा-निर्वापकथा-स्त्री० । एतावन्तस्तत्र पकात्रभेदाः, व्यतीति निर्माणभावी । भव्ये, विशे।
व्यञ्जनभेदा वेति भक्तकथायाम, स्था०४ ठा.१००।
णिब्बावण-निर्वापण-न० । विध्यापने, दश.४० । अभाणिवाणभ्य-निर्वाणत-वि• । असावद्यानुष्ठाननूत, सूत्र० । | वाऽऽपादने, दश० ८ ०। "णिब्याणभूप य परिवएजा।" अस्यायमर्थः-यथा हि निवृतौ
शिवाचार-नियापार-त्रि. । व्यापारानिर्गतो निव्यापारः । निर्व्यापारत्वात कस्यचिपघातेन वर्तते, एवं साधुरपि सावनुष्ठानरहितः परि समन्ताद् बजेदिति । सूत्र०१७०१०अ०।
निरारम्भे, उत्त० ६ ० । परिहत कृषिपापाट्याऽऽदिक्रिये,
उत्त०६०। णिबाणमग्ग-निर्वाणमार्ग-पुं० । निर्वृतिनिर्वाण, सकल कर्मक
णिवाविकण-निर्वाप्य-भव्य । विध्याप्येत्यर्थे, नि. चू. यजमात्यन्तिकं सुखमित्यर्थः । निर्वाणस्य मार्गों निर्वाणमार्गः ।
| १००। परमनिर्वृतिकारणे, आच०४५। ध०। पातु । सिक्षिकेत्रा- बाविय-निर्वापित-त्रि० । शीतलीकृते,शा०१श्रु. १३ श्र•। बाप्तिपथे, उपा०२ • । सकलकर्मविरहजसुखोपाये, जा ६ श.३३ उ..
निर्वाप्य-अन्य० । दानयाद्विध्यातं विधायेत्यर्थे, "4णिवाणपहावाम-निर्वाणमहाबाट-पुं० । सिकिमहागोस्थानः |
जालिया णिवाविया।"दश. ५ अ०१०। विशेषे, उपा० ७०।
सिव्वाह-निर्वाह-पुं० । व्यवस्थापने, द्वा०११ द्वा०। णिबाणयहोयस-निर्वाणमहौजस-पुं०। ऐरवते वर्षे अविष्यति |णिवाहण-निर्वाहन-न। निःसारीकरणे, सूत्र. १० १४ सप्तमे तीर्थकरे, ति । प्रवः ।
अ.। पञ्चा। णिवाणवाण-निर्वाणवादिन-पुं०। निर्वाणं सिकिकेत्राऽऽ- |
णिबिह-निति-स्त्री० । मथुरानाथस्य पर्वतकनृपस्य सुताया. क्यं कर्मच्युतिलकणं स्वरूपतस्तपायप्राप्तिहेतुतो वा वदितुं
म्, यया राधावेधकृत्कुमारो भर्तृत्वेन वृत इति । पञ्चा० १४ शीसं येषां ते तया। निर्वाणपथदेशक, "पक्वासु वा गेरने वे
विव.। गुदेवे,जिन्वाणवादीणिड णायपुत्ते।" (२१) सूत्र० २१०६०।
णिविय-निर्विकृतिक-न विकृतिप्रत्यारपाने, प्रम। णिबाणवीय-निर्वाणवीन-न० । मोवसुखयोहतो, सूत्र १
निर्विगतिक-न। मनसो विकृतिहेतुत्वाद् विगतिदेतुत्वाद् वा अ० १२ १०।
विकृतयो विगतयो वा यत्र तनिर्विकृतिक, निर्विगतिकं वा।
विकृतिप्रत्याख्याने, प्रवानिर्विकृतिके प्रष्टी नव वा प्राकारा णिवाणसाहण-निर्वाणसाधन-न । स्त्री । परमपदप्रापके,
भवन्ति । यथा-"णिञ्चिगइयं पच्चक्खा अन्नत्थऽणाभोगण सुखसाधने च । पो०१५ विवास्त्रियां डोष । “निर्वाणसा
सहसागारेणं लेवालेवेणं गिहत्थसंसहेणं उक्खित्तविवेगेणं धनीति ब, फलदा तु यथार्थसंज्ञानिः।" (१०) निर्वाणं साधयः
पकुच्च मक्खिएणं पारिट्रावणियागारेणं महत्तरागारेणं तीति निर्वाणसाधनी । मनोयोगसारायाम, षो. ए विव०। सब्यसमाडिवत्तियागारेणं बोसिरह ।" (प्रव०) आकाराः णिबाणसिला-निर्वाणशिला-स्त्री० । जयन्तशैले नेमिनाथ- पूर्ववद् व्याख्येयाः, नवरं ( पमुच्च मक्खिरणं नि ) प्रती. शिमायाम् , "कंदप्पकप्परागा, कुगई विवणनेमिनाहस्स ।णि- त्य सर्वथा रूक्ष परामकाऽऽदिकमपेक्ष्य म्रक्तितं स्नेहितमीपत्सौवाणसिना नामे-ण अत्थि भुवणम्मि विक्स्वाया ॥१॥" ती०
कुमार्योत्पादनादू नक्कणकनविशिष्टखादुतायाश्चाभावाद् प्रक्षि३ कल्प।
तमिव यवर्तते तत्प्रतीत्य घ्रक्षितं घ्रक्षितानास इत्यर्थः। इद चायं
विधिः-यद्यङ्गल्या घृताऽऽदि गृहीत्वा मएमकाऽऽदिक्षितं,तदा णिबाणमुह-निर्वाणसुख-न. । निर्वाणमशेषकर्मवयस्तद.
करपते निर्विकृतिकस्य,धारया तुन कल्पते,इति व्युत्सृजति वि. चाही वा विशिष्टकोशप्रदेशः। तेन तत्र वा सुखं निर्वाणसुखम्।
कृती:परिहरति ह च यासु विकृतिषु रिक्तप्तविवेकःसनात, मोकसुने, प्राचा० १७० ३ अ०१०।
तासु नवाऽऽकाराः, अन्यासु च्वरूपासु अष्टौ। ननु निर्विकृतिक शिवाणसेट-निर्वाणश्रेष्ठ-त्रि.। मोकप्रधाने, सूत्र० १७.६ पवाऽऽकारा अभिहिताः,विकृतिपरिमाणप्रत्याख्याने तु कृत पाप्र.
कारा भवगम्यते । उच्यते-निर्विकृतिकग्रहणे सति विकृतिपरि.
_Jain Education intemak३३
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(२१५.) णिव्विाश्य अनिधानराजेन्डः।
णिविश्य माणप्रत्यारमानस्यापि संग्रहो भवति, यतस्तत्रापि त पव विहिगहि विहिनुत्तं, उच्चरिमं जं नवे असणमाई। तथैवाकारा भवन्तिायथा एकाशनकस्य,पौरुष्याः पूर्वाद्धस्य
तं गुरु णाणुष्णायं, कप्पइ आयंबिताईणं ।। ६३ ।। च सूत्रे आकारा अभिदधिरे, परं चाशनकस्य, सापौरुप्या अपाद्धस्य च प्रत्याख्यानस्य त एव भवन्तीति प्रत्याख्यानं सू
चउरो अहोति भंगा, पढमे नंगम्मि होइ भावन्निमा । त्रानभिहितमपि नवति,अप्रमादवृकेः सर्वत्र संजवादित्यदोषः । इत्तो अतइअनंगे, आवक्षिप्रा होइ नायबा ॥६॥ ननु निर्षिकृतिके, विकृतिपरिमाणे वा प्रत्याख्याने काष्टी,क पदात्रान्तरे प्रबुद्ध व चोदकः पृच्छति-अहो! ताबद्भगवता वा नव आकारा भवन्ति ?, इत्याह
"एगासणएगवाणगमायंबिलचउत्थकऽहमणि चिहपसु परनवणीअोगाहिमगे, अवदाहिपिसियघयगुमे चेन । रिद्धावणियागारो वनिनो, न पुण जाणामि केरिसस्स साहुस्स नव आगारा एसि, सेसदवाणं च अटेव ॥ २०७॥
पारिहावणियं दायब्वं,न दायबंवा पायरिओ भण-(प्रायं.
बिल्लमणायंविले गाहा)पारिठावखियाभुंजणे जोग्गा साहू नवनीते घ्रकणके, अवगाहिमके च पक्वान्ने, अभवदधिपिशि
दुविहा-आयंबित्नगा, अणायंबिलगा य । मायबिलगसघृतगुडे चैव । अवग्रहणं सर्वत्र सम्बन्धनीयम् । नव च श्रा.
बिरहिया-एगासणेगहाणवउत्थछट्टऽहमनिम्विगइपज्जवसाकाराः (पसिं ति) अमीषां विकृतिविशेषाणां भवन्ति । शेषाणां
णा दसमभत्तिगादीणं मंडलिए उब्वरिए पारिठावणिय तु वरूपाणामप्टेवा उकाराः। अयमनिप्रायः-यत्रोरिकप्तविवे.
न कप्पर दाउ, तेसि पेजं, उपहयं वा दिज । अनि य-तेसिं कोऽवरूपाणां नवनीतगुमाऽऽदीनां कर्तुं शक्यते, तत्र नवाss
देवया व होज-एगो भायबिन्तिप्रो.एगो चउत्पन्नत्तिो टोज। काराः, द्रवरूपाणां तु विकृतीनामुद्धतुमशक्यानामधवाकारा
कयरस्स दायचं? नत्थनत्तियस्स। सो दुविहो-बालो,वुको इति ! प्रव०४ द्वार । प्राव. नि।
य । बासस्स य दायब्बं । बालो दुयिहो सहू,असहू य । असहुस्स आकारा:पंचेव य खीराऽऽइं, चत्तारि दहीणि सप्पि नवणीए।
दायचं असह दुविहो-हिमियगो, अदिमियगो य । हिंडियस्स
दायब्वं । हिमियो दुविहो-वत्थव्वगो,पाहुणगो या पाहुणगस्स चत्तारि अतेवाई, दो विअ फासिए दुन्नि ।।एन।
दायब्वं। एवं ताव च उत्थजत्ते बालो असह अर्हिडिश्रो पादणगो महुपुग्गनाइँ तिन्नि उ. चनचलोगाहिमं तु जं पकं । । पारिट्रावणियं भुंजाविज्जा तस्स असहवासो असहहिडिओ एएसि संसहूं, वुच्छामि अहाणपुब्बीए । एए॥
वत्थम्बो।शतस्स असति बालो असहू महिंडिपो पादुणगो।३। दं चिकृतिस्वरूपप्रतिपादक गाथाद्वयं गतार्थमेव । अधुना पत.
तस्त असति बाझो असर अहिंमिओ वत्थबोधाएषमेतेण क.
रणोवापण चउहि पहिं सोनस प्रावलिया भंगा भासियवा। दाकारा व्याख्यायन्ते-तथा-" अणाभोगसहसाकारा तहेष, लेवाले वो पुण जहाऽऽयंबिलो तहेव दहचो । निहत्थसंसट्रो बहु
तत्थ पढमभंगियस्स दायब्धतस्सासति वितियस्स दायव्वंतबत्तन्यो ति गाहाहिं भम।।
स्सासह तयस्ता एवं०जाव चरिमस्स दायब्ध । पठरपारिहाव. ताओ पुण इमाओ
णियाए वा सम्बेसिं दायब्वं । एवं प्रायविनियस्स छट्ठभसियम्म खीरदहीविप्रमाणं, चत्तारि न अंगलाई संसर्ट ।
सोसस भंगा विज्ञासा । एवं प्रायचिनियस्स अट्ठमन्नत्तियरस सो
सस नंगा।एवं आयंबिनियस्लनिधिगझ्यस्त सोझसभंगा,नवफाणियतेवघयाणं, अंगुलमेगं तु संसर्ट ॥६॥ रंपायबिलियस्स दायब्धं। एवं आयंबिलियरस एकासणियस्स मङपुग्गलरसयाणं, अटुंगुञ्जय तु होइ संसह ।
सानस भंगा एवं श्रायबिलियस्स एगट्ठाणियस्स सोबस नंगा। गुल पुगझनवणीयं, अद्दामनगं तु संसटुं॥ ६१ ॥ एवमए पायबिबिनम्वेवगसंजोगेसु सम्वग्गणं उनउई भावनिगिहत्यसंसटुस्स श्मो बिही-खीरेण कुसणिो कूरोजर बना,
या भवति । आयंबिलिगक्खेवगो गो ॥ एगो चउत्थभत्तिो, तरस जइ कुंडगस्स ओषणाश्रो चत्तारि अंगुलाणि दुरूं,ताहे नि.
पगो ग्टुभत्तिो ,एत्थ वि सोलस,नवरं ग्टुभत्तियस्स दायब्वं । धिगश्यस्स कप्पर,पंचमं चाऽऽरद्धं विगती य,एवं दधिस्स घि,
पवं चउत्थानत्तियस्स अहमभत्ति प्रस्स वि सोलस नंगा । एगो बियडस्स वि, केसु धि विक्षपसु वियमेण मीसिज्जर ओयणो,
एगासणिो, एगो पगढाणिो, एगठाणियस्स दायब्वं, पत्थ भोगाहिमो वा फाणियगुलस्स तेवघयाण य । एपहि कुसणिए
वि सोलस । एगो पगासणिो , एगो निधिगइओ, एगासणिजह अंगुलं उबरि अत्या ,तो वट्टइ,परेण न वह।महुस्स,पोग्ग
यस्स दायव्वं, एत्थ वि सोलस । एगो एगट्ठाणिो,एगो निधिलरसगस्स य अगुलेण संसटुं हो३, पिंडगुलस्स पुग्गलस्स
गो, एगट्ठाणियस्स दायलं, एत्थ वि सोलस जाय त्ति नवीयस्स अदामलगमेत्तं संसटुं । जइ बहुणि पयप्पमाणाणि
गाथार्थः । ६२ । तं पुण पारिट्ठावणियं जहाविधाए गढ़ियं कप्पक्ष, पि बहुं न कप्पइ । इति गाथाद्वयार्थः॥ ६१ ॥
विधिनुत्तं सेसं च तेसि दिज्जर । तत्र ( विधिगहिये उक्वित्तविवेगो जहा श्रायंबिले जं उद्धरिलं तीरह, सेसेसु
विधिभुत्तं गाहा ) विहिगहियं नाम-अलुकेण उग्गमियं पनस्थि, पमुश्च मक्खियं पुण-जर अंगुलीए गहाय मक्खे
च्चा मसीए कम्पयरग (च्छेद) सीहखश्पण वा विढीप तुतं, तेवण वा घपण वा, ताहे नि धगश्यस्स कप्पड़, प्रह धा
पवंविधं पारिठावणियं । जाहे गुरू भणइ-अज्जो मं पारिछावराए जइ, मणागं पिन कप्पर
णिय इच्छाकारेण लुंजाहि ति, ताहे से कप्पति बंदणं दाउं स. याणि पारिठावणियागारो-सो पुण एगासणएगठाणाइसा
दिसावे भोत्तम्बंति । एत्थ चउभंगविजामा । ६३ । (चउरो य धारणोत्ति कटु विसेसेण परविज्जइ,तितन्निरूपणार्थमाद
होति गाहा) विहिगहिय विहिजुत्तं १, बिहिगहियं अविहिभुत आयंबितमणायं-बिले चउत्थाइबालसह ।
२,भविहिगहिय विहिनुत्तं३,अविदिगहियं मविहिनुस ४ तत्थ
पढमभंगो-निक्वं साधू हिंडति, तेण य अलुद्धेण बाहिं असहू अपहिमिश्रए, पाहुपागनिमंतणा बलिया॥६२॥। संजोवणादोसेण विप्पजढेण पोहारियं भत्तपाणं, पच्ग मं.
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णिविश्य भनिधानराजेन्द्रः।
णिविइय उलीए पयरगच्छदी तिसु विधीए समुद्दिटुं । एवंविदं पुब्बव- उपरि वर्तते, तदा तद् दुग्धमविकृतिः, पञ्चमाङ्कलाऽऽरम्भे तु बियाणं भावलियाणं कप्पा समुद्दिसियो । १। श्याणि वितिय- विकृतिरेव । अनेन न्यायेनान्या अपि। भंगो तहेव-विहीए गहियं, भुतं पुण कागसियालादिदोसदुई,
तत्रोक्तम्एवं अनिदीए जुत्तं । तत्य जइ उधर, न उज्झिज्जर, न फापर,
“स्वीरदद्दीवियडाणं, चत्तारि उ अंगुलाई संसटुं। छडिमाई दोसा हवंति। एरिसं जो देरे. जो य भुंजइ, दोएद वि
फाणियतेल्लघयाणं, अंगुलमगंतु संस॥ ६॥ विवेगो कीरश, अपुण कारए वा नवट्ठियाणं पंचकल्लाणयं महुपोग्गलरसयाणं, अखंगुत्रयं तु होइ संस। दिज्जह ।। हमाणि तइय नंगो-तत्थ अविहिगहियं वीसुं
गुलपोग्गलणवणीय, भद्दामलयं तु संसटुं ॥६१॥" (आव०नि०) सकोसगादिदम्वाणि भाणियवाणि । कत्थ पुमगाम्भव पडिम्गहे फाणियं काकवः । पुबलरसको मांसरसः। पुलं मांसम । विचार-यं मे भोत्तम्बंति, मागतो पच्चा मंडबीए, रायणिएण
माओमनकं तु पीबुमयूर इति सम्प्रदाय इति । समरसं का ममसीए विहीप समुदिटुं । एवंविहे जं उन्च. (पमुच्च मक्खिएणं ति) प्रतीत्य सर्वथा रूकं मण्डकाऽऽदिक. रियं, तं पारिहावणियागारं श्रावलियाणं विहितं ति काउं मपेक्ष्य म्रतिनं स्नेहितम, ईषत्सौकुमार्योत्पादनात, ब्रहणकृतकप्पा । ३। चउत्थभंगे आवलियाणं न कप्पा भोतुं, ते चेव विशिष्टस्वाऽताया अभावाच्च घ्रक्षितमिव यद्वर्तते तत्प्रतीत्य पुन्वन्निया दोसा । एवमेव जावपच्चक्खाणं भणियं ति गा- प्रक्षितं, नकिताभास इत्यर्थः। तस्मात्प्रतीत्य प्रतिवादन्यत्र नि. थार्थः॥ ६४॥ पाव.६ अ.।
विकृतिकम् । इह च पश्चम्यर्थे तृतीयेति । इह चायं विधिःभय यमुक्तं "निविश्प अट्ट नय य आगारा (१.)"
यद्याख्या तैलाऽऽदि गृहीत्वा मएमकाऽऽदि म्रकितं,तदा कल्प
ते निर्विकृतिकस्य, धारया तु न कल्पते । व्युत्सृजति विकृति इति, तद्विभागदर्शनायाऽऽह
त्यजतीत्यर्थः । इह सूत्रे-" निम्विइए अट नव य आगारा" णवणीोगाहिमए, अवदाहिपिसियघयगुग्ने चेत्र । (१०) इत्येवं निर्विकृतिकम्यैव प्रत्याख्यानतयाऽभिधानेपि एव आगारा तेसिं, सेसदवाणं च अटेव ॥ ११ ॥
विकृतिपरिमाणप्रत्याख्यानमपि न दुष्टम्, अप्रमादवृद्धिदेतु
स्वात् । अत एव सूत्रे “च उब्बिई पिाहार" इत्येवं पावेऽपि नवनीतं च म्रक्षणम् । अवगाहेन स्नेहबोलनेन निर्व- द्विविधाऽऽहारस्य त्रिविधाऽऽहारस्य च पौरुष्यादिप्रत्याख्यानमा समवगाहिमम, तदेवावगाहिमकं पक्कानं तश्चेति नवनी- पुष्टमेवमेकाशनकस्य पौरुष्याः पुरिमार्द्धस्यैव च सूत्रेनिधाने. ताऽवगाहिमकम, तत्र । तथाऽअवं कग्निं यद्दधिपि- पिनाशनकस्य सार्कौरुष्पा अपार्कस्य च प्रत्याख्यानमपुरशितलगुडं प्रतीतस्वरूपं तत् तथा । समाहारद्वन्द्वगर्भ- मिति केचित्,अप्रमादवृद्ध मशिनकाऽऽदिष्वपि संजवात् । श्रा. कर्मधारयपदमिदम् । तथाऽभवदधिपिशितघृतगुममेव । चै- कारा अपि य एवैकाशनकाऽऽदिषु त एघेतरेपपिन्यास्याः, अशपशब्दो समुच्चयावधारणायौँ । दर्शित एव चाऽनयोः प्रयोगः । नाऽऽदिशब्दसाम्यात, विकृतिपरिमाणद्विविधाऽऽद्याहारपौरुष्याकिमित्याह-नवाऽऽकारा जवन्ति । एतेषूस्किप्तविवेकस्य संभ- दिप्रत्याख्यानेविति।न च वाच्यमभिग्रहप्रत्याख्यानानि द्याशपात् । तथादि-भकस्योपरि नवनीतं दधिपिशिताऽऽदीनि चाव नकाऽऽदनि, तत्तस्तेषु चत्वार पवाकारा भविष्यन्ति,एकाशमुक्त, तरिकप्यमाणं कठिनत्वेन सर्वथा विवेचयितुं शक्यमत- नादिभिस्तुख्ययोगमत्वादितरेषामिति । अन्येतु मन्यन्ते-एवं स्तरसंसष्टमपि भक्तं भुनानस्य “क्वित्तविवेगेणं" श्येत- हि प्रत्याख्यानमर्यादा न काचित्स्यात् । तत एकाशनकाऽऽदी. दाकारबलाद्न भनः। एवं तावदाकारनवकसंभव उक्तः । न्येव प्रत्याख्यानानि । एकाशनकाश कस्तु सा पौरुषर्षी वायावद अथ तदष्टकसंभवमाह-तेषां दध्यादीनां विकृतिविशेषाणाम। बुनुकुन्धिसहितमेव तदुपरि प्रत्याख्याताति गाथाऽर्थः ॥११॥ पूर्वमद्रवशब्देन विशेषितत्वादिह द्रवाणामिति विशेषणं द्रष्ट
अथाऽऽकाराः किमर्थमिहाभिधीयन्ते ?, श्त्यत्राऽऽहध्यम। तथा शेषाः प्रागुक्तनवनीताऽऽदिव्यतिरिक्ता विकृतिविशे
चयनंगो गुरुदोसो, थोबस्स वि पालणा गुएकरी । पाः,तेच ते द्रवाश्च श्लथानोजने निक्किप्ताः सन्तः सर्वथा विवेक्तुमशक्याः शेषवाः, तेषां शेषजवाणां मद्याऽऽदीनाम्। चशम्दः
गुरुलाघवं च णयं, धम्मम्मि अग्रो न आगारा ॥१शा समुचये । सम्बन्धिनि प्रत्याख्यान शति गम्यते । किमित्याद-मष्टे- व्रतभङ्गो नियमभङ्गः। किमित्याह-गुरुमहान् दोषो दूषणमव, न तु नव भवन्याकाराः । इह च विकृत्यन्तरप्रत्याख्यानमपि शुभकर्मबन्धाऽऽदिरूपो यस्मिन्नसौ गुरुदोषः,भगवदाझाधिराध. निविकृतिकमुच्यते। तेन यो मद्यपुग्धतेलाऽऽहीनां प्रत्याख्यानं का नात् । तथा स्तोकस्याप्यल्पस्याप्याकाराऽऽश्रयणतो व्रतस्यास्तां रोति,तस्योक्तिप्तविवेकोचारणं नार्थवताभ्यादिप्रत्याख्यातुःपु. महतः । पालनाऽऽराधना । गुणकरी तु कर्मनिर्जराल कणोपकामरवत्,तद्विवेकस्य संजवादिति भावना । इदं च वस्तुविचार- रकारिएयेच, विशुरुकुशलपरिणामरूपत्वात् । तथा गुरु च मात्रमेव । यतो दुग्धाऽऽदिकमपि प्रत्याचक्षाणेनोत्क्षिप्तविवेक न. सारं, अघु चासार, तयोर्भावो गुरुलाघवम् । तच झेयं ज्ञातचारणीय एव, भगवतीयोगवादिना गृहस्थसंसृष्टाऽऽदिवदिति । व्यं भवति । क्वेत्याह-धर्मे चारित्रधर्मे । तथाहि-उपवासे कृते:अन्ये त्वाः -वचनप्रामाण्यानोचारणीय एवेति। एते चैवम्-"नि- पि संजातासमाधेरौषधाऽऽदिदानतः समाधिसंपादने निर्जरा. विगश्य पचवा असत्यऽणाजोगेणं सहसागारेणं सेवाअवेयं । गुणों गुरुनवति, इतरथा पुनरप इति विमर्शनीयम । एकागित्यसंसहेर्ण उक्वित्तविवेगेणं पमुच्च मक्खिएणं पारि- ताप्रहस्य प्रतापकारकारित्वनाशोजनत्वात्, यत पचमतोऽ. ट्रावणियागारेणं महत्तरागारेणं सम्बसमाहिवत्तियागारेणं घो- स्मात्कारणात् । तुशब्दः पूरणार्थः । आकारा अपवादाःसिरह।" व्यक्तम् । नवरं गृहस्थसंसृष्स्य निर्विकृतिक प्रति स्याख्याने क्रियन्ते इति । इदमुक्तं भवति-कृतप्रत्याख्यानस्यापि विशेषव्याख्यानमिदम् गृहस्थेन स्वप्रयोजनाय दुग्धेन संसृष्ट गुरुलाघवचिन्तया समाध्याद्यर्थममहारस्यावश्यं ग्रहणमुचित. मोदनो, दुर्ब यदि तमतिक्रम्बोत्कर्षतश्चत्यार्यकुलानि यावद। मतः कृताऽऽकारत्वेमाल्पमपिवलं सम्यक पाविते नवति,अकृता
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(२१३२) पिविश्य प्रभिधानराजेन्सः ।
णिबिट्टकाइय कारतापांत महादपि तद्भग्नं भवति । पालनाभी चार्थानर्थ- सद् निर्विकृत्तिकं भवतीति । प्र०७७। सेन. ३ उमा० । श्राव करावित्याकाराः समाभवणीया प्रवन्तीति गाथाऽर्थः॥१२॥ कस्य निर्विकृतिकप्रत्याख्याने यतिवद निर्विकृतिक कल्पते, न उकाकारविधिः । पञ्चा५विध स०प्र०।५००। बेति प्रमे, उत्तरम्-यतिनां श्रावकाणां च मुख्यवृत्त्या निर्विमथ येषु निर्विकृतिकं प्रायश्चित्तं, तान्याह
कृतिकं न कल्पते, कारणे तु कल्पते, एवंविधान्यक्कराणि
शास्त्रे सन्ति, तस्मात् श्राकः कदाचिनिर्विकृतिकप्रत्याख्यानं इत्तरगविए मुहमे, ससणिक सरक्खपक्खिए चेव ।
करोति, तस्य न कस्पते, बस्तपसि तु कल्पते, कारणत्वात, मीसपरंपरगविया-इबीयाइएसु वाऽविगई ॥४॥
एकान्तम निषेधो ज्ञातो नास्ति, यतिनां तु पर्वाऽऽदिषु पुनःपु. श्वरस्थापनायां सक्षमप्राभृतिकायां सनिग्धम्रक्रिते सरज
नस्तत्प्रत्यास्यानकरणात्कल्पते इति । ४५२ प्र. सेन०३ उल्ला। स्कनकितेच मिश्रपरम्परस्थापिताऽदिषु,मिश्राःसचित्तचित्त- बहुतरे दुग्धे दनि वा यत्राल्पतरान् तन्दुलान् प्रतिपति, तद रूपाः पृथिव्यप्तेजोवायुप्रत्येकानन्तवनस्पतित्रसाः, तेषु परम्परं दुग्धं तद्दधि वा निर्विकृतिक भवति, न वेति प्रश्न-उत्तरम्व्यवहितं निहितम् । मादिशब्दापिहितसंहतगर्दतानि, "दहिस्वीरबहुअप्पतंस" इति भाष्यगाथावचनादल्पतन्दुसप्रतेषु (बीयाइएसु व ति) प्रत्येक जेम्वचित्तबीजेषु बाऽन
केपेपि तद् दुग्धं तदध्यपि निर्विकृतिक भवतीति ज्ञायते इन्तरपरम्परनिक्षिप्तपिहितसंहतच्चर्दितेषु बीजान्मिभं च अवि. ति । ४५७ प्र०। सम० ३ उल्ला० । श्राहानामाचामलमध्ये निर्विकृतिपरित्यागप्रायश्चित्तमित्यर्थः । वाशब्दाच.
कृतिमध्येच उष्णोदकं प्रासुकं च बारिशवति, न बोत प्र. "कायवग्गहत्था, समणडा निक्सिवितुते चेत्र ।
मे, उत्तरम्-उन्नयमपि शुवति। ४७६ प्र.। सेन. ३ उचा। घट्टती गाहंती, प्रारंजंती साणं"॥१॥ इत्यपि केयम् ।।
पिचिगप्प-निर्विकल्प-पुं० । निःसन्दिग्धे, ग०२ मधि । गत. अस्यार्थ:-पटकायन्यग्रहस्ता भ्रमणार्थमुत्थाय पट्कायान्
शक्के, ०२ अधि। “अस्थि ति निन्विगप्पो।" दश.४ शुवि निक्किप्य पुनस्तानेव घड्यन्ती तत्संघटुं कुर्वाणा गाहमाना विलोडनेन इतस्ततो विक्षेपणेन अगादं गादं
अ.। निष्क्रान्ताशेषनेदस्वरूप, सम्म०१ काण्ड । चापरितापयन्ती प्रारम्नमाखा पट्कायोपवं कर्माऽऽरम्भ णिबिगिच्च-निर्विचिकित्स्य-न । निर्गता विचिकित्सा निकुर्वती दात्री यदि ददाति, ततो प्रहीतुः साधोः स्व- विचिकित्सा, तस्य भावो निर्विचिकित्स्यम् । फलं प्रति संदेहास्थानं प्रायश्चितं भवति । अयमनिप्रायः-जीतकल्पे य- करणे, उत्त• २८ अ०। स्यापराधम्य यत्प्रायश्चिचमुक्तमस्ति , तसस्य स्वस्थानं,
निर्विचिकित्स-त्रिका विचिकित्सा मतिविनमो, निर्गता विचि. ततश्च दाव्याः पृथिव्यप्तेजोवायुप्रत्येकवनस्पतिसंघट्टाऽऽगादपरितापापवान् कुर्वत्याः, सकाशाद् ग्रहीतुः निर्विकृतिपुरिमै
कित्सा यम्मादसौ निर्विचिकित्सः। साध्वेव जिनदर्शन, किं काशनाचामाम्लानि, अनन्तवनस्पतिविकलोम्ब्यिसंघट्टाऽदीन्
तु प्रवृत्तस्यापि सतो ममाम्मात्फलं भविष्यतीति वा, न वा, कृ. कुर्वत्याः पाश्वादादातुः पुरिमैकाशनाचामाम्लक्षपणानि, पञ्चे
चीवनाऽऽदिक्रियासूभयथाऽप्यु मधेरिति कुविकल्परहित,ध०। जियसंघहाऽऽदीन् कुर्वत्याः प्रायश्चित्तग्राहकस्य पकाशना
न ह्यविकल उपाय उपेषवस्तुपरिप्रापको न भवतीति संजात. चामाम्लक्षपणककल्याणकानि प्रायश्चित्तं भवतीत्यर्थः । उक्तं
निश्चये, ध०१ अधि० । ग0 । प्रत्र । व्या विचिकित्सारूपा. पट्चत्वारिंशदोषप्रायश्चित्तम् । मूसकर्मप्रायश्चित्तं त्वष्टमप्राय
ऽतिचाररहितसम्यक्त्वे, दश० ३ ०। फलं प्रति निःशक्के, विसमाये मणिभ्यते ॥४३॥
दशा० १००। इहानन्तरं सूत्रगाथायां निर्विकृतिप्रायश्चित्तमुक्तं, ततस्तत्प्र-णिबिगिय-निर्विकृतिक-न. । 'णिविश्य' शब्दार्थ, प्रव. स्तावादन्यदपि निर्विकृतिशोध्यमाह
द्वार। सहसाणाभोगेण व, जेमु पमिकमणमभिहियं तेमु। शिबिग्य-निर्विघ्र-अव्यः । विघ्नानावे, " सीसपवित्तिनिमिप्रानोगेण वि बहुसो, अइप्पमाणे य निविगई॥ सं, निविग्घत्थं च।" अनु० । सहसाऽनानोगः प्रागुक्तस्वम्पः,सहसाऽनाभोगेन वा वासितचि-णिनिट-निर्विष्ट-त्रि०। मासेवितविवक्तितचारित्रे भनुपारितेषु स्थानकेषु प्रतिक्रमणाई प्रायश्चित्तमभिहितं,तेषु स्थानकेषु | हारिके, स्था० ३ ठा०४ उ.। मनु उचिते, दे. ना०४ वर्ग मध्ये आभोगेनापि,कोऽर्थः, जानन्नपि बहु स पुनर्यदासेवते,अत- ३४ गाथा। प्यन् मतिमात्र वा तदेवाऽऽसेवते तत्र सर्वत्र निर्विकृतिकं प्राय
णिविट्ठकप्पट्टिइ-निर्विकल्पस्थिति-स्त्री०। निर्विष्टा-मासे. श्चित्तम् ॥४४॥ जीतः। निर्गतो घृताऽऽदिविकृतिन्यो यः स नि. विकृतिकः । स्था०५ ग.१०। विनिर्गतविकृतिपरिभोगे,
वितविवक्षितचारित्राऽनुपारिहारिका इत्यर्थः । तत्कल्पस्थितिः। रश. । "अमजमखासि अमच्छरी श्र, अनिक्वणं नि
स्थितिभेदे, स्था० ३ग.४ उ.। निर्विष्टकायिके (तद्विषयविवग गया य । (७)" दश०१च. निर्गतघृताऽऽदिविकृ.
के) यथा प्रतिदिनमायाममात्रतया त्रिका तथैवेति । उक्तं च.
"कप्पहिया विपइदिणं, करति पमेव चायामा" स्था. ३ निके, औः। इधि गृहस्थैरोदनादिना संसृष्टं तदिने प्रहरानन्तरं निकितिकं भवति, तथा पुग्धमपि रादकरपृथुका
ठा० ४ उ०। दिना संसृष्टं निर्विकृतिक भवति, न वा?,इति प्रश्ने, उत्तरम्-क- णिबिटकाइय-निर्विष्टकायिक-पुं०।निर्विष्टः प्रासेवितःप्रस्तुरमिकं दधि करम्बन्पं साबते, तद् घटिकाद्वयादनु निविकृतिक ततया विशेष:, काबो येषां ते निर्विष्टकायाः, त एव स्वाथै कभवति । यच्च दधि पुग्धं वा "दुद्ध दहिचउरंगुन"इत्या प्रत्ययोपादानानिबिष्टकायिकता, तदभेदादिदमपि (चारित्रमपि) नुसारेण कुराऽऽदिमिभंविधीयते तद्गाच्यावरिवचनात्पर्यषितं । निर्विकायिकम् । अनु० । विशे० । वृ०। निर्विशमानकानुच.
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पिचिकाइय
रकेषु भ० २५ ८० ७ उ० । पं० [सं० । श्रासेवितविवक्तितचाकायिकेषु तदन्वयव्यतिरेकाच्चारित्रनेदे च । कर्म ४ कर्म० । ( " परिहार" शब्दे चैषां व्याख्या वक्ष्यते ) पिविमा-निर्विधत्रि । खिने, जीत० । " जो एसियं पि चित्ते, इच्छ सो को न णिब्बियो १।" आचा०१ ४० ३ ०३ उ० विचार-निर्विचार त्रि० चरणं चारोऽनुष्ठानं निर्मि चारो निर्विचारः सोऽस्यास्तीति निर्दिष्टचारी खिने, ' से जिविसवारी श्र रते पयासु ।" आचा० १ ० ५ अ ३ ४० ।
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विवि-निर्विधारा निर्विवराः परिताप स्याः सा निर्विष्ठवरा । वरवर्जितायाम्, झा० २ ० १ वर्ग । विविधाद्य-निर्मिज्ञान-त्रि बीत् भा० अ० ) विशिष्टज्ञानरहिते, तं० ॥
व्विति निवृति स्त्री० [कशतिका दाबाकारे इये न्द्रियभेदे, विशे० नं० | निर्वृतिराभ्यन्तरबाह्य नेदाद् द्विष । निइति निर्वृतिः केन निरते है, कर्मणा
देवभागप्रमानानां कानामात्मप्रदेश प्रतिनिधत कुराईद्रियसंयनेनावस्थित वृतिरम्यन्त निर्वृतिः घात्प्रदेशेन्द्रियव्यपदेशभाकु यः प्रतिनियत संस्थानो निर्माणनाम्ना फलविपाकिना बर्फ किसंस्थानीयेन आरचितः क. र्णशष्कुल्यादिविशेषः, अङ्गोपाङ्गनाम्ना च निष्पादित इति बा ह्यनिर्वृतिः । श्राचा० १ श्रु० २ ० १ उ० । स्था० । विनिर्वृतिलक्षण त्रि० सर्वसाद्योगपर मस्वभावे, पा० | इयत्ताऽवगमरूपे, अनु० बिदुगुं निर्विजुगुप्स वि० गुजारहिते, विजुगुप्सा
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नामसम्यक्त्वातिचाररहिते, ध० १ अधि० । विदेशी सुप्तोत्थिते निराशे उन शंसेच दे० ना० ४ वर्ग ४० गाथा । शिविचाग-निर्विज्ञागवि नागरहिते, जागाः परमाणवः । दर्श० ५ तत्व |
खिव्ववार निर्विकार त्रिनितो विकारः कामोन्माल णो यस्मादस्तौ निर्विकारः । विकाररहिते, “ इमस्स धम्मस्स पिन्वियास्स निश्चितिलक्खणस्स । पा० । इन्द्रियमनोविकार देते ०३ अधि कोपाऽऽदिविकाररहिते, संघा गिनियारसमाहि-निर्विकार समाधि - पुं० । आलम्बने देशका धर्मवच्छेदं बिना धर्मिमात्राऽवनासित्वेन जावनायाम्, समा धिमेदे, द्वा० २० द्वा० । पिच्चिस निर्विषत्रि० विपरहिते, "पिंकुरं मे।" श्र० ।
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(२१३३) अभिधानराजेन्द्रः |
५३४
शिवसंत-निर्विशत् वि० समस्तं प्रवेशयति अपरिह माने, अनासेवमाने, स्था० ५ ० १ उ० । सप्प - निर्विशन कप ५० निर्विद्यमान
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पं० भा० ।
याविकयो
" भट्टणा बोच्छामि विकि
शिष्युम
जड़ निव्विति समग्रा, सम्यं तु गुरूचरणं ॥ गाणं च दंसणं वा, तहा चरितं समितिगुत्तीओ। एकासीतिपदेहिं णिब्धिस-ब्देिसशाकप्पो । छन्त्रिकप्पाssदीया, वायालं ताम्र पंचवीसाए । मेलीणा उ भवंती, एकासीती भवे भेदा ॥ णवरं न्हिकप्पे, बीसतिकये य णामउरणाओ । मोतुं सेसा सच्चे, एकासीती तु मेलीया ॥ एवं सम्मी, व्त्रिसमाणस्स विव्विसणकप्पो । एते पुरा कतरो महिडियो होइ समेति ॥ पं० ना० । ( नां च दंसणं न गाहा ) नाणे ति दंसणणभावणेसु य त जुत्तयाए य पंचविहचरितत्तया य समितीहि य उचउत्तया अपालेति पयासीश्रदि । कयरे पुण एकासा है। उच्यते-हिप्पस्स पीसविकप्पस्सब नामaणाको अवि नेऊण सेला विहसन्तविह दसविह-बीसविदा वायालीस त्ति एग मेलिया एकासीइकच्या होति पर समं जिविसमायरस जिन्सपो भव । एस णिब्लिकप्पो । पं० चू० ।
८८ दस भ ं दस बर्फ, अहेव य बटु चउरो य । उक्कोसमज्जिम जद्-नगा उ वासासिसिरगिम्हे ॥ १ ॥ पारणगे आयामं, पंचसु गढ़ों दोसुऽजग्गहो निकला ॥ " स्था० ३ ठा० ४ ० । पञ्चा० ॥
णिब्बिसमा निर्विशमानक-पुं० विचति (परिहार पोविशेषाऽऽलेवके, प्रव० ६६ द्वार। कर्म० । पं० सं० । साधी, तद्व्यतिरेकाश्चारित्रभेदे च । विशे० । अनु० । वृ० । (अत्र 'परिहार' शब्दो वीदयः ) णिसिय-निर्विषय- त्रि० विषयाभिलापरहिते, उस १४ अशुदिविषयहेते उपाई १४० नयाँब अनर्थ "वम निश्सि, दोसा व मुखंति विशेष " पञ्चा० १२ विव० | देशान्निष्क्रान्ते प्रश्न०३ श्र० । “पुत्तदारे य शिब्बिसए करे । आ० म० १ श्र० २ खण्ड । शिव्विसी - निर्विषी - स्त्री० । महौषधिभेदे, ती० ६ कल्प। स्थिती जिबिसेम-निर्विशेषविशेष संवाद ज्येष्ठेतराऽऽदिविशेषरहिते, तं० । fey-fan-a-q-45: 1" meramệt" 11 11ti १३१ ।। इत्यादेत उच्चम् । प्रा० १ पाद । कोधाऽऽद्यपगमने
णिव्विसमाण - निर्विशमान पुं० । परिहारविशुद्धि कल्पं वहमानेषु, स्था० ६ वा० ॥ भ० । शिव्विसमाएकपट्ठि - निर्विशमान कल्पस्थिति - स्त्री० । निर्वि शमाना ये परिहारविशुद्धितपोऽनुचरन्ति, पारिहारिका इत्यर्थः, तेषां कल्पे स्थितिः । परिहारकल्पस्थितौ स्था० । यथा श्रीकामे तो जयंचतुर्थपाद. मध्यमं पनि उत्कृत पारणे यायाम | एपित बायो वेति पञ्च पुनरेकया भकमेकया च पानकमित्येवं द्वयोरभि इति । उक्तं च
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(२१३४) शिव्वुभ माभिधानराजेन्ः।
पिवेयणी न शीतीभूते, भाचा.१ श्रु०० अ०१3० । निर्माणं गते, प्रव.णिबढे-देशी-नग्ने, दे. ना०४ वर्ग२८ गाथा । ३३ द्वार । स्वस्थाऽऽत्मनि, का.१७० १५०।
णिव्येय-निर्वेद-पुं० । विरागे, भाचा०१ श्रु. ४०१०। णि -निवृति-स्त्री. । “उहत्वादो" ॥८।१। १३१॥ इत्या.
उत्तः। संसारबैराग्ये, वृ. ३ १० । संसारादुद्विग्नतायाम, दिषु शन्देवादेत उत्वम् । प्रा०१पाद ।का. मनःस्वास्थ्ये, उत्त०१८ माजा दश।संसाराद विरक्ततायाम, १० प्रश्न० २ प्राश्र• हार । समाधौ, नं० । सुखे, प्रा. म. ५ १९५०। प्र० सामान्यसुने, माध.४ मा महादुर्मिक वनसेनेन प्रवा
निवेदफनम्जितस्थ जिनदत्तधारस्य सह प्रव्रजिते पुणे, यतो निवृति- णिनए भंते ! जीवे किं जायड।णिबेएणं दिमनाम्नी शाखा निर्गता । कल्प: ८ कण । नितिकुलीनशीलाजाऽऽचायण प्रथमद्वितीययोरङ्गयोष्टीका कृता । प्राचा० १
माणुसतेरिच्छिएसू कामनोगेषु निवेयं हव्वमागच्छ, ६० ४ ४.। मथुरायां पर्वतकराजस्य सुतायाम्, प्रा.
सम्वविसएसु विरज, सबक्सिएसु विरज्नमाणे प्रारंज. म०१ अ.२खएका प्राव.।
परिग्गहपरिचायं करइ, भारंजपरिग्गहपरिचायं करेमाणे शिवुइकर-नितिकर-त्रि । निवृत्तिनिर्वाणं सकलकर्ममलाप-1 संसारमग्गं वोच्छिदइ, सिकिमग्गपमिवन्ने य जवइ ॥॥ गमनेन स्वस्वरूपामतः परमस्वास्थ्यंत तुः सम्यगदर्शनाss. इतः प्रभृति सर्वत्र सुतमत्वाचा प्रश्नध्याश्या । निदेन सामापपि कारणे कार्योपचारानिवृतिः। तत्करणशीलो नितिकरः। न्यतः संसारविषयेण कदाऽसौ त्याज्य इत्येवंरूपेण दिव्यमाप्रका०१पद । सर्वकर्मवयभावकरे, तं। सुस्वोत्पादके, रा। नुषतरभेषु,मत्रत्वात् प्रत्ययो, यथासंजय देवाऽऽदिसंबन्धिषु णिबुडप तिपथ-पुं० । निवृतमोकस्य पन्थाः।"ऋक्पू.
कामभोगेषूकरूपेषु निदं हवमागच्चति, यथाऽलमेतेरनर्थ
हेतुभिरिति, यथा च सर्वविषयेषु विरज्यतेऽशेषशब्दादिरम्धूःपथामानके"।।४।७४ ॥ इति समासान्तोऽप्रत्य
विषयं विरागमामोत, विरज्यमानस्तेघारम्भः प्राण्युपमदंको यः। मोकमार्ग, वाच०।
व्यापारस्तरपरित्यागं करोति,विषयार्थत्वात सर्वारम्भाणाम,तत्प. णिब्तुइपहसासणयं, जयइ सया सबभावदेसणयं [२४]
रित्यागं कुर्वन् संसारमार्ग मिथ्यात्वाविरत्यादिरूपं व्यवच्छिनिवृत मोक्षस्य पन्थाः सम्यग्दर्शनकानचारित्राणि । तथा नत्ति,तत्यागवत एव तस्वत प्रारम्भपरित्यागसंभवात, तद् व्य. बाद नगवानुमास्वातिवाचकः-"सम्यग्दर्शनशानचारित्राणि वस्थितौ च सुप्राप्य एव सिकिमार्गः सम्यग्दर्शनाऽऽदिरिति मोकमार्गः" इति निवृतिपथः । " ऋक्पूःपरमपोऽ" ॥७। सिकिमार्गप्रतिपन्नश्च भवति ॥२॥ उत्त• पाई. २६ अ०। ३।७६ ॥ (हेम०) इति समासान्तोऽपप्रत्ययः । यद्यपि निवृति- __ "णरगो तिरिक्ख जोणी, कुमाणुसत्तं च णिवेत्रो।" मरकपथशम्देन ज्ञानाऽऽदित्रयमनिधीयते, तथाऽपीह सम्यग्दर्श-| स्तिर्यग्यानिः कुमानुषत्वं च निवेद इति । दश ३ मा । नचारित्रयोरेख परिग्रहः, ज्ञानस्योत्तरत्र विशेषेणानिधानात्।। अनु । अष्टः । मोकाभिलाषे, प्रव. १४ द्वार। ध०। विषयेष्व. निवृतिपयस्य शासनम्-शिष्यतेऽनेनोते शासन प्रतिपादक नन्निध्यते, ध०२ अधिः । जुगुप्सायाम्, प्राचा० १७०२५० निवृतिपथशासनम् । ततः "कश्च" इति प्राकृतलकणात् । ४ उ०। सूत्र। स्वाथे का प्रत्ययः, निवृतिपथशासनकम् । नं।
पिमेयण-निर्वेदन-न• समर्पणे, द्वा० १२ वा दर्श। णिव्वुइपुर-निवृतिपुर-न० । सिद्धिपुरे, प्रा. म. १ भ.२ णिबयणी-निर्वेदिनी-स्त्री. । निर्वेद्यते संसाराऽऽदेनिविपणः खएक।
क्रियते श्रोताऽनयेति निदनी । स्था०४ ठा०२ उ०दश०। पिनुम-निर्वत-वि•। शीतीनूते, माचा० १ ०४ म० ३ |
निवेदनौकया चतुर्विधा-- उ० । निर्वाणमनुप्राप्ते, सूत्र.१७० १५ भ० । मुक्तिपदवीम
णिव्यणीकहा चउबिहा पएणत्ता । तं जहा-इहधिरूढे, व्य० २१०" निवुमे कालमास्त्री, एवं केवालणो म" निर्वृतं कषायोपशमाच्चीतीनूतं काल मृत्युकानं याव.
मोगच्चिमा कम्मा हलो गदुइफन्नविवागसंजुत्ता भवति, दनिकाक्रेत् । सूत्र० १६० ११ १० । निवारणे, भ०५ श|
होगसुच्चिस्मा कम्मा परसोगदुइफलविवागसंजुत्ता भवति । ४३०
परसोगदुच्चिा कम्मा इहलोगहफन्नविवागसंजुत्ता भवंणिजुममाणा-निवुमत-त्रिका जन्ममरणाऽऽदिजसे नितरां निमः।
ति, परमोगदुच्चिणा कम्मा परलोगनुहफलविवागसंजुत्ता जति. उपा०७०।
भवति । इहलोगमुचिमा कम्मा इहोगसुहफनविधागसंणिन्वुड-निवृत-त्रि० । निष्ठागते, " नितुड़े वितिमिरे विसुद्धे
जुत्ता जवंति, इहमोगसुचिमा कम्मा परसोगसुइफसविति।"न.५श.४०। णिढ-देशी-गृहपश्चिमाङ्गणे, दे ना०४ वर्ग २५ गाथा।
वागसंजुत्ता भवंति । एवं चउनंगो।
इहलोके दुश्चीर्णानि चौर्याऽऽदीनि कर्माणि क्रिया होके :णिबृह-निर्ग्रह-पुं० । गृहैकदेशविशेषे, जी. ३ प्रति०४ उ.।।
समेव कर्मदुमजन्यत्वात् फलं दुःखफलं, तस्थ विपाकोऽनुशिव्दुत-निर्वेष्टयत-त्रि० । निर्जरपति, घिचटयति, " दवेष
भायो दुःसफलविपाकः,तेन संयुक्तानि दुःसफलविपाकसंयुय भावेण य, निब्बेतो चउण्डमन्त्रयरं।" विशे। हापयति, कानि जयन्ति,चौरादीनामिवेत्येका। एवं नारकाणामिति वि. मा. म. १.२ अपम । सुबमानि कुर्वति, भाचा.२० तीया। भाग द ब्याधिदारियाभिभूतानामिवेति तृतीया।प्रा१चू. ३ भ०१०।
कुकृताशुभकोस्पनानां नारकप्रायोग्यं पनतां काकगृहामी
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मिव्वेयणी
(१९३५) प्रनिधानराजेन्द्रः।
पिसग्गरु
मामिव चतुर्थीति । "श्हसोए सुचिन्न" इत्यादि चतुझी तीर्थ-णिसंत-निशान्त-त्रि• । नितरां शान्तो निशान्तः । मत्वन्त करदानदातृ१ सुसाधु२ तीर्थकर ३ देवभवखतीर्थकराऽऽदी.
मन्दीभूते, श्रा० म०१०१सरमश्रुते, अवगते, प्राचा.५ मामिव नाबनीयेति । स्था०४ ठा०२०.।
शु.१०२.२०॥ निशमिते श्रुते, भ० श. ३३००। निवेदनीमाह
निःसञ्चरवेझायाम, वृ.३०।राज्यवसाने दिवसे, दश०५ पावाणं कम्माणं, अमुभविवागो कहिजए जत्थ ।
अ. १ उ० । का० । अवधारिते, सूत्र. १७०६०। इह य परत्थ य सोए,कहा उणिवेयणी नाम |२०७।। णिसंस-नृशंस-त्रिका क्रूरकर्मणि, पृ. ३ उ० । शुकावर्जिते, पापानां कर्मणां चौर्याऽऽदिकृतानामशुभविपाका दारुणपरिणा- प्रम०१ सम्ब० द्वार। मः कथ्यते यत्र यस्यां कथायामिद च परत्र च लोके-"इहलो.
पिसग्ग-निसर्ग-पुं०। निसनं निसर्गः1 निमष्टो, मोक, पिरोग के कृतानि कर्माणि इहलोक एवोदोर्यन्ते" इत्यनेन चतुर्भकि
स्वभावे, उत्स० २८ ०। स्था० । आव० । मा० ० । कामाह । कथा तु निवेदनी नाम-निवेद्यते भवादनया श्रोतेति निवेदनी । एष गाथाऽकरार्थः । भावार्थस्तु वृक्षविवरणाद
प्रा०म०। प्रज्ञाव्यसंथाल नि००। बसेयः ॥२०७॥
णिसग्गकिरिया-निसर्गक्रिया-स्त्रीला निसर्जनक्रियायाम,प्रावा सदम-"इयाणि जिवेयणी । सा चलम्विहा । तं नहा-यहलोए दुचिमा कम्मा इहलोए चेव हविवागसंजुत्ता भ
णिसग्गवलरागया-निसर्गबलरागता-स्त्री०। प्रकृत्या स्थिरचंति ति। कह', जहा चोराणं पारदारियाणं, पवमा । एसा
रागतायाम्, पं०व०३ द्वार । पढमा णिवेयी । इयाणि विश्या-दहसोए दुश्चिमा कम्माणिसग्गचेयणाजुत-निसगचतनायुक्त
|णिसग्गचेयणाजुत-निसर्गचेतनायुक्त-त्रि० । निसा सहा परखोए दुरविवागसंजुत्ता नवंति । कहं १, जहा नेरश्वाणं | या चेतना तया युक्तः । सहजवेतनायुक्त, "निसर्गचेतनायुक्तो, अन्नम्मि भवे कयं कम्मं सिरपनवे फवं देश। एसा विश्याण- जीवोऽरूपी ह्यवेदकः ।" च्या १० अ०। ग्वेयणी गया। इयाणि तश्या-परलोए दुच्चिमा कम्मा इहलोप दुहषिवागसंजुत्ता भवंति। कह ,जहा बालप्पभितिमेव अंतकु
णिसग्गरुड-निसर्गरुचि-पु.निसर्गः स्वभावः, तेन रुचिजनमसु नप्पना नयकोढाऽऽदीहिं रोगह दारिदेण य अभिनया
प्रणीततत्वाजिलाधरूपा यस्य स निसर्गरूचिः । प्रज्ञा०१पद । दीसंति। एसा तश्या णिन्वेयणी। इदाचिउत्था णिब्बेयणी-प
निसर्गा रुचिनिसगतो वा रुचिरिति निसर्गरुचिः। स्वजावत रसाए दुश्चिमा फम्मा परलोए चेत्र दविवागसंजुत्ता नवति ।
पव तस्वश्रद्धाने, न.२५ श०७ उ०। सम्यक्रवनेदे, स्था.१. कहं ?, जहा पुलिंब दुच्चियोहं कम्महिं जीवा संमासतुडोह
10ध० । भूतार्थेन सह संमत्या जीवाजीवाऽऽदिनवपदार्थपक्रनीहिं उववज्जंति । तो ते नरय पाउम्गाणि कम्माणि
विषयिणी रुचिनिमर्गखचिः। तार्थ नेत्यस्य भूतार्थत्वेनेत्यर्थः, असंपुम्माणि ताणि ताप जातीए परिति, परिमण नरयभवे
प्रापप्रधाननिर्देशात; सदनूतार्था अमी इत्येवंरूपेणेति यावत। वेदति । एसा चनुत्था निम्वेयणी गया। एवं इहलोगो पर- वस्तुतो भूतार्थेनेत्यस्य शुद्धनयेनेत्यर्थः । ध० २ अधि० । लोगो वा पएणवयं पमुष भवति, तत्थ पन्नवयस्स मणुस्स- जूयत्येणाधिगया, जीवाजीवा य पुछापावं च । भयो इहलोगो, अवसेसाओ तिपिण वि गईश्रो परलोगो ति गाथाजावार्थः।
सहसंमइयाऽऽसवसं-वरो य वेएइ एस णिस्सग्गो ॥२॥
जो जिणदिढे जावे, चनबिहे सद्दहाइ सयमेव । इदानीमस्या एव रसमाहथोव पि पपायकयं, कम्मं साहिजई जहिं नियमा।
एमेव मह त्तिय, णिस्सग्गरुक त्ति णायचो ॥३॥
'भूयत्येण' इति भावप्रधानो निर्देशः। ततोऽयमर्थः-भतार्थत्वेन पउरामुहपरिणाम, कहाइ णिव्वेयणीइ रसो॥२०॥
समुद्धता प्रमी पदार्था इत्येवंरूपेण यस्याऽधिगताः परिज्ञाना स्तोकमणि प्रमादकृतमल्पमपि प्रमादजनितं कर्म घेदनी- जीवाऽजीवाः पुण्यपापमाश्रक्संकरः, यशदाद बन्धाऽऽदययाऽऽदि (साहिजा त्ति) कथ्यते यत्र नियमानियमेन । किंवि- श्व । कथमधिगताः', इत्याह-(सहसम्मइया इति) प्रार्षवा. शिष्टमित्याह-प्रचुराशुनपरिणामं, बहुतीवफलमित्यर्थः । यथा द्विभकिलोपाच.सद सम्मत्या सहाऽमना या सङ्गता मतिः सा यशोधराऽऽदीनामिति । कथाया निर्वदन्या रस एष निष्यन्दः। सहसम्मतिः तया।फिमुक्तं भवति?-परोपदेशनिरपेकया जातिइति गाथाऽर्थः ॥ २०८ ॥ दश. ३ अ०। द्वा•।और।
स्मरणप्रतिभादिरूपया मत्या न केवलमधिगता, किं तु तान् विवेरिस-देशा-निर्दये, ३० ना०४ वर्ग ३७ गाथा।
जीवाऽऽदीन पदार्थान् वेदयतेऽनुरोचयति च तवरूपतया प्रा. शिन्चेस-निर्वेश-पु. । लाभे, स्था० ५.वा. २ उ०।
स्मसात्परिणामयति चेति भावः । एष निसों निसर्गरुचिर्चि
झेय इति शेषः ॥ २ ॥ अमुमेवार्थ स्पष्टतरमभिधित्सुराहणियोढब्ब-निर्वोदव्य-त्रि.1 निर्वाय आव०४मः। (जो जिणदिट्टे भावे इत्यादि) यो जिनदृष्टान् जावान् द्रव्यलिम्बोदग-निवोदक-न । गृहच्छानप्रान्तगलिते जले, गृहप
केत्रकालनावभेदतो नामाऽऽदिनेदतो वा चतुर्विधान् स्वयमेटलान्तोत्तीण जले, पि० । मा०क०।
चोपदेशनिरपेकं श्रद्दधाति । केनोवेखेन श्रद्दधाति ,तत पाह
एवमेव एतन्जीवाऽदि यथा जिन नान्यथेति । चः समुचये। णिस-निश-पुं० । वृतविशेषे, उत्त• पाइ.१० । नृतराव पप निसर्गचिरिति ज्ञातव्यः॥ ३ ॥ प्रशा०१पद् । प्रा०चू० । शंसति हिनस्तीति शंसः । का.१.२०।
धा। उत्त० । म० । स्वभावत पर तत्वश्राद्ध औ० ।
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( २१३६) निधानराजेन्द्रः |
विसग्गसंमत्त
पिसग्गसम्मत- निसर्गसम्यक्त्व - न० | निसर्गरुच्यारूये सम्यक्त्वभेदे, आ० ० " णिसग्गो नाम सभावो, जधा सावपुसुयाणं कुलपरंपरागतं निसभान्तं भवति, जहा वा सयंजूरमणमत्थाण पकिमासंविताणि साहुसावयाणि य पच माणि मनरा वा ददद्दूण मा णं खश्रोवसमेणं निसग्गसम्मसं भवति । तम्मूलं च देवलोगगमणं तेसि भवति त्ति ।" श्र० • १ भ० ।
पिसज्जा - निषद्या - स्त्री० । निषदनं निषद्या । आसने, प्रब०६७द्वार ।
० उपवेशने, व्य०४ उ० । उपवेशनविशेषे, स्था० । सा च पश्चधात्रयस्यां समं पादौ पुतौ च स्पृशतः सा सम्पादयुता । यस्यां तु गोरिवोपवेशनं सा गोनिषधिका शयत्र पुताभ्यामुपविष्टः सन् एकं पादमुत्पाट्याssस्ते सा दस्तिसिमका ३। पर्यङ्काऽपर्या च प्रतिका ४-५ । स्था०५ ठा०१०। “पनियंकनिखेज्जा व सिखाणं सो भवज्जणं ।” निषद्या च गृहे एकानेकरूपा अनाचारः । दश० ६० । निषीदन्त्यस्यामिति निषद्या । श्रीपशुपएम कविवर्जिते स्वाध्याय भूम्यादौ, उत्त० १ भ० ।
णिसट्ट - निसृष्ट- त्रि• । परेणोत्सङ्कलिते, सुत्र० १ ० १६ म० ।
दत्ते, श्राचा० २ ० १ ० १ ० ५ ० । ० णिसढ-निषध [इ]-पुं• । नितरां सहते स्कन्धे पृष्ठे वा समारोपितं जारमिति निषधः । चं० प्र० ४ पाहु० । " निषधे धो ढः " ॥ ८ । १ । १२६ ॥ इति निषधे धस्य ढः । प्रा० १ पाद । बलीव. सू० प्र० ४ पाहु | बलदेवस्य रेवत्यामुत्पन्ने पुत्रे, नि० । जति णं भंते! समयेणं ० जात्र दुवासस प्रज्जवला पछत्ता । पढमस्स णं भंते ! लक्खेबओ । एवं खलु जंबू ! तेणं कालेणं तेणं समएणं वारवई नाम नगरी होत्या; दुवाल सजोयणाssयामा० जान पच्चक्खं देवओोयनूया पासादीया दरिस णिज्जा अभिरूवा परूिवा । तीसे णं वारवईए नगरीए बदिया उत्तरपुरच्छि दिसिनाए एत्य णं रेवईए पामं पन्वए होत्या, तुंगे गगणतलमविदंतसिहरे नाणाविहरुक्ख गुच्छ गुम्मलता वल्लीपरिगताभिरामे इंसमियमयूरकोंचसारसकागमयणसाला कोइलकुलोवचिए तडकमगविजय
भरपव्वतसिहरे पउरे अच्छरगण देवसंघविज्जादरमिदुणसन्निवित्ते निच्चत्याए दसारवरवीरे पुरिसतेलोकवल वग्गाणं सोमे सुभए पियदंसणे सुरूवे पासा - दीए० जाव पडिरूवे | तस्स णं रेवयगस्स पव्वयस्स अदुरसामंते एत्थ णं नंदणवणे नामं उज्जाणे होत्या । स
ओ य पुष्फ० जाव दरिसणिज्जे । तत्थ णं नंदावणे - जाणे सुरपियस्स जक्खस्स जक्खायतले होत्या. चिरातीए० जाव बहुजणे प्रागम्ममच्चेति सुरप्पियं जक्खाययगं । से णं सुरप्पिए जक्खाग्रयणे एगेणं महता वणसंढणं सव्वओ समंता संपरिक्खिते जहा पुणनद्दे० जाव सिलापट्टए, तत्थ णं बारबईए नवरीए कहे नामं वासु देवे राया हास्या० जात्र पासमाणे विहरति । से णं तत्थ
सिढ समुद्रविजयपामोक्खाणं दसरहं दसाराणं, बलदेवपामोक्खाणं पंच महावीराणं, उग्ग सेणपामोक्खाणं सोलसएदं राई सरसहस्साणं पज्जुपामोक्खाणं प्रदुद्वाणं कुमारकोमीणं सव्वया स उ उदंतसाहस्सीणं वीरसणपामोक्खाणं एकत्रीसाए वीरसाहस्सीणं, रुप्पिणिपामोक्खा
सोलसाई देवीत हस्ताणं, अणंग सेणापामोक्खाणं - ऐगाणं गणियासहस्साणं अन्नेसिं च बहूणं राईसरसत्यबाहप्पनिईणं वेयगिरिसागरमेरागस्स दाहिएठ्ठभर हस्स आहेवच्च० जाव विहरति । तत्य णं वारवईए बलदेवे नाम राया होत्या, महता० जाव रज्जं पासाएमाणे विहरति । तस्स णं बलदेवस्स रनो रेबई नामं देवी होत्या, सुकुपाला० जाव विहरति । तते णं सा रेवती देवी अन्नदा कदाई - सितारिससि सयणिज्जंसि० जाव सीहं सुमिणे पासता एवं सुमिदंसणपरिकहणं, कलाओ जहा महाबलस्स पन्नासच दोतो पन्नासा रायवरकन्नगाणं एगदिवसेणं पाणि नवरं निसढे नामं० जाव जाप पासादं विहरति । ते कालेणं तेणं समरणं रहा रिलेमी आदिकरे दसघणू प० जाव समोसरिते । परिसा निग्गया । तते
से कहे वासुदेवे इमीसे कहाए लकडे समाणे दट्ठतुट्ठे कोमुंबिय पुरिसं सद्दावेई, सदावेइसा एवं व्यासी-ख़िपामेव भो देवाणुपिया ! सभाए सुहम्माए समुद्राणियं जेरिं ताओहि । ततेां से कोडुंबिय पुरिसे० जात्र पडिणित्ता जेणेव सदं सुणे, तेथेव उवागच्छर, नवागच्छित्ता समुदायिं नेरिं महता महता सदेणं ताद्वैति । तते णं तीसे सामुदाणियाए जेरीए महता महता सद्देणं तालियाए समाणी समुद्दविजयपामुक्खा दस दसारा देवीओ जाणियन्त्राओ० जाव णंग सेणापामोक्खा - गागणियासहस्सा, अन् य बहवे राईसर० जाव सत्यवाहप भि एहाया० जाव पायच्छित्ता सव्वालंकारविजू - सिया जहात्रिभवइटिसकारसमुदएणं अपेगइया हयगया० जाब पुरिसत्रम्गुरा परिक्खित्ता जेणेव कएहे वासुदेवे तेणेव उवागच्छs, जवागच्छत्ता करतझ० कएडं वासुदेवं विज बति । ततेां से कहे वासुदेवे को मुंबिए एवं वयासी - खिप्पामेव जो देवापिया ! अभिसेकं हत्यिकप्पे हयगयर जात्र पच्चप्पियंति। तते णं से करहे वासुदेवे मज्जणघरे०जात्र दुरूढे अट्ठमंगलगा, जहा कूणियो, सेयत्ररचामरेहिं उडुव्नमाणेहिं जन्भारोहिं समुद्दविजयपामुक्खहिं दसहिं दसाराहिं० जात्र सत्यवापनितीहिं सद्धिं संपरिवुमे सम्बनिए० जाव रखेणं वारवईागरं मज्जं मज्जें, सेसं जहा कूमिप्रो० जाब पज्जुवासति । तते ं
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णिसढ अभिधानराजेन्डः।
पिसढ तस्स निसढस्स कुमारस्स उप्पि पासायवरंगयस्स तं जाब अणंतरं चयं चइसा हेव चारचईए नयरीए पक्षदेवस्स महतो जणसदं च जहा जमानी जाव धम्म सोचा निसम्म | रो रेवईए देवीए कुच्चिस पुत्तत्ताए उववन्ने। ततेसा बंदइ, नमंसइ, नमंसश्त्ता एवं वयासी-सदहापिएं ते! रेवती देवी तंसि तारिसगांसि सणिजंसि मुमिणदंसणं० निग्गय पावयणं जहा चित्तो जाव सावगधम्म पडिवज्जति, । जावुप्पि पासायवरगते विहरति । एवं खलु वरदत्ता! णिपडिवज्जेत्ता पदिगते । तेणं कालेणं. तेणं समएणं अरहा सढणं कुमारेणं अयमेयारूवे उराक्षे मायइली लछा पत्ता अरिष्टनेमिस्स अंतेवासी वरदत्ते नामं प्रणगारे उराले० अभिसममागया । पञ्णं भंते ! निसढे कुमारे देवाणुप्पियाणं जाव विहरति । तेणं से चरदत्ते अणगारे निसदं कुमारं अंतिएण्जाव पन्चइत्तए । हता। पनू से एवं भंते ! वरदत्ते पासति,पासित्ता जातसडेजाव पज्जुवासमाणे एवं वयासी- अणगारेजाव अप्पाणं जावेमाणे विहरति । ततेणं अरहा अहणं जंते ! निसढे कुमारे इहे श्टरूचे कंते कंतरूवे, एवं अरिघ्नेमी भन्नदा कयाई वारवतीओ नगरीश्रो. जाव पिए मणुए मणामे मणामरूवे सोमे सोमरूवे पियदंसणे बहिया जणवयविहारे निसढे कुमारे समणोवासए जाए मुरूवे, निसढे ते ! कुमारे अयमेयारूचे मणुयइहि- अजिगतजीवाजीवेजाव विहरति । तते णं से निसदे कुकिया लदा किया पत्ता पुच्छा जहा सूरियाजस्म । एवं मारे अन्नदा कयाई जेणेव पोसहसाला, तेणेव उवागखलु वरदया। तेणं कालेणं तेणं समएणं इहेव जंबुद्दीवे च्छइ, उवागच्छित्ता० नाव दम्भसंथारोवगते णं विहरति । दीवे जारहे वासे रोहीमए नाम नगरे होत्था । रिफमेह-1 तते णं तस्स निसढस्स कुमारस्स पुब्बरतावरत्तधम्मजागचन्ने उजाणे मणिदित्तस्स जक्खस्स जक्खाययणे । तत्थ णं रियं जागरमाणस्स इमेयारूवे अन्नत्यिए-धन्नाणं ते गारोडीहए नगरे महब्बसे नाम राया,पउमाई देवी | अन्नदा मागरनगरजाव संनिवेसा, जत्य णं अरहा अरिहनेमी कयाई तंसि तारिसगंसि सयणिज्जंसि सीहे सुमिणे, एवं विहर६ । धन्नाणं ते राईसरण्जाव सत्यवाहप्पभितिओ,जेणं मुमिणं जाणियच्वं जहा महन्बलस्स, नवरं वीरंगतो नामं अरिघ्नेमि बंदंति, नमसंति जाब पज्जुवासंति । जति एं बत्तीसतो दोतो बत्तीसाए रायवरकन्नगाणं पाणिं० जाव अरिहा भरिट्ठनेमी पुवाणपब्धि नंदणवणे विहरेजा, भोगिज्झमाणे ओगिज्झमाणे पाउसबरिसारत्तसरयहेमंत- तेणं अरिहं अरिष्टनेमी बंदिज्जाजाव पज्जुवासिज्जा । तते गिम्हवसंते गपि ननं जहा विनवे समाणे २ ले रिद्ध। णं अरिनेमी निसढस्स कुमारस्स २ अयमेयारूवे अन्न
जाव विहरति । तेणं काझेणं तेणं समएणं सिछत्थे नाम थिए जाब वियाणित्ता अट्ठारसहिं समणसहस्सेहिं० जाव आयरिया जातिसंपन्ना, जहा केसी, नवरं बहुस्सुया बहुप-| नंदणवणनजाणे, समोसरिता । परिसा निग्गया। तते णं रिवारा जेणेव रोहीडए नगरे, जेणेव मेहवन्ने उज्जाये, निस कुमारे श्मीसे कहाए बढे समाणे हड० चानग्धं
दत्तस्स जक्खस्स जक्खाययणे, तेणेव नवागतं टेणं आसरहेणं गते, जहा जमाली. जाव अम्मापियरो प्रहापभिरूवंजाव विहरति । परिसा निग्गया। तते णं तस्स |
आपुच्छित्ता पवइए अणगारे जाव गुत्तबंजयारी । बीरंगतस्स कुमारस्स उत्पिपासायवरगयस्स त महता जणसई तते णं से निसढे अणगारे अरिहंतो अरिहनेमिस्स तहाच,जहा जमाझी य,निग्गते धम्म सोच्चा,नवरं देवाणुप्पिया! रूवाणं थेराणं अंतिए सामाइयमाश्यं एकारस अंगाई अम्मापियरो आपुच्छामि, जहा जमाली तहेब निक्खंतोग अहिजति, अहिन्जित्ता बढ़ चउत्थछटु० जाब विचिजाव अणगारे जाए.जाव गुत्तबंजयारी । तते णं से वीरंगते त्तेहिं तचोकम्मेहिं अप्पाणं जावेमाणे बहुपमिपुरमाई प्रणगारे सिफत्थाणं पायरियाणं अंतिए सामाइयमाझ्या-1 नव वासाई .सामन्नपरिपागं पारणंति, वायालीसाई इंजाव एक्कारस अंगाई अहिज्जति,अहिन्जित्ता बजाव
। भत्ताई अणसणं वेदेति, आलोइयपमिकंते समाहिचउत्थ जाव अप्पाणं जावेमाणे बहुपमिपुस्माई पणयाली- पत्ते आणुपुत्रीए कालगते । तते णं से वरदत्ते अणगारे निसं वासाइं सामापरियागं पाणित्ता दो मासियाए संह
सढं अणगारं कालगते जाणित्ता जेणेव अरहा अरिहनेमी, णाए मलेहिता अत्ताणं कुसित्ता सवीसं भत्तसई अ- तेपोव उवागच्छउवागच्छइत्ताजाव एवं वयासी-एवं खलु णसणे छेदित्ता आलोइय समाहिपसे कालमासे कालं कि- देवाणप्पियाणं अंतेवासी णिसदे णामं अणगारे पगतिनचा बनलोए कप्पे मणोरमविमाणे देवत्ताए नववन्ने । तत्थ इंगेजाव विणीओ,से णं ते ! निसढे अणगारे कानमासे णं अप्पेगइयाणं देवाणं दसमागरोवमाई लिई पमत्ता । कालं किच्चा कहिं गए, कहिं उववन्ने ? । तते णं से भतत्थ णं वीरंगयस्स देवस्स दस सागरोबमाई ईि पमा- रडा अरिहनेमी वरदत्तं अणगारं एवं बयासी-एवं खबु चा । से एणं वीरंगते देवे ताओ देवलोगाओ आउक्खए० वरदचा ममं अंतेवासी निसढे नाम अपगारे पगइलगेजा
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(२१३) णिसढ अभिधानराजेन्द्रः।
गिसढ बविणीए मम तहारूवाणं येराणं अंतिए सामाझ्याई एका- जोत्रणसयं दुमि अ एगणवीसभाए जोपस्स अकरस अंगाई अहिज्जेत्ता बहुपमियुमाई नव वासाई सामस- जागं च आयामेणं तस्स जीवा उत्तरेण. जाव कणवई परियागं पाणित्ता वायानीसं जताई अणसणाए दित्ता जोअणसहस्साई एगं च उप्पमं जोअणसयं मुसि भएश्रासोइयपमिकते समाहिपत्ते कानमासे कानं किच्चा उठे गृणवीसजाए जोअणस्त आयामेणं तस्स धणं दाहिणेणं चंदिमसूरियगहगण नक्खत्ततारारूवाणं सोहम्मीसाणंजाब एगं जोअणसहस्संचवीसं च जोअणसहस्साई तिमि श्र अच्चुते तिमि य अट्ठारसुत्तरगेविजबिमाणावाससते बीती- गयाने जोप्रशासए णव य एगृणवीसइनाए जोअगास्स वस्त्ता सम्बट्ठसिफिविमाणे देवताए उनबने। तत्य णं देवाणं पक्खियेणं रुअगसंगणसंठिए सव्वतवाणिजमए अत्थे नतेत्तीसं सामरोवमाइंगिई पत्ता । तत्य निसढस्स देव- जो पासिं दोहिं पउमवरवाहिं दोहि अवणसंमेडिं. स्स तेत्तीसं सागरोवमाई लिई परमत्ता। से पं भंते! निसढे जाव संपरिक्खित्ते णिसहस्स णं वासहरपब्वयस्स नपि देवयाओ देवलोगाओ आउक्खएणं भवक्खएणं ठिइक्ख- बहुसमरमणिजे नूमिनागे पडतेजाव प्रामयंति,सयंति ॥ एणं अणंतरं चयं चइत्ता कहिं गतिहिति,कहिं नववन्जि- __ "कहि "इत्यादि प्रमसूत्र व्यक्तम् । उत्तरसूत्रे महाविदेहस्य हिति। वरदत्ता! इहेब जंबुद्दीचे दीवे महाविदेहे वासे उन्नाए दक्किणस्यां हरिवर्षस्योत्सरस्यां पौरस्त्यलवणोदस्य पश्चिमायाँ नगरे विमुद्धपिइवंसे रायकुले पुत्तत्ताए पञ्चायाहिति । तने गं
पश्चिमलवणोदस्य पश्चिमायां पश्चिमलवणसमुषस्य पूर्व
स्यामत्रान्तरे जम्बूद्वीपे निषधो नाम वर्षधरपर्वतः प्रशप्तः, से उम्मुक्कचालभावे विधायपरिणमितजोधणगमणुप्पत्ते
प्राचीनप्रतीची नेत्यादि प्राग्बत् । चत्वारि योजनशतान्यो। तहारूवाणं घेरा अंतिए केवनं बोहिं बुद्धिमत्ता प्रागारा- चत्वेन, चत्वारि गव्यूतशतान्युद्वेधेन, नृप्रवेशेन मेरुवजंसश्रो अणगारियं पवहिति । से ए तत्य अणगारेजविस्सति मयकेत्रगिरीणां स्वोच्चत्वचतुर्थीशेनोद्वेधत्वात षोझशयो. शरियासमिएन्जाव बंभयारी । सेणं तत्थ बहहिं चनत्य
जनसहस्राणि द्विचत्वारिंशानि किचत्वारिंशदधिकानि अष्टौ
च योजनशतानि द्वौ च एकोनविंशतिभागौ योजनस्य हऽहमदसमवालसेहिं मासऽघमासखमणेहिं विचित्तेहिं त
विष्कम्भेण महाहिमवतो गुिणविष्कम्भमानत्वात् । अथ वोकम्मेहि अप्पाणं जावेमाणे बढ़ई वासाई सामपपरियागं
बाहाऽऽदिसूत्रत्रयमाह-( तस्स बाहा इत्यादि ) (तस्स पाउणिस्सति पाउणित्ता, मासियाए संलेहणाए अत्ताणं जीवा इत्यादि ) अत्र यावत्पदात्-" पाईपमीणायया सिहिति झूसित्ता, सहिभत्ताई अणसणाए बेदति । ज
हो लवण समुहं पुजा पुरच्छिमिन्नाए लवणसमुहं जाव
पट्टा ।" इति प्राधम । (तस्स धामित्यादि) एवं सुत्रानुस्सऽढाए कीरति अणगारजावे मुंमभावे प्रबहाणाए जाय
सारेण व्याख्येयम । अथ निषधमेव विशेषणैर्विशिनष्टि-(रु. अदंतधावण अत्यत्तए अगोवाहणाए फलसज्जा कट्ठसेज्जा | ग इत्यादि ) अत्र यावत्पदात्-" सब्बयो समंता" इति प्रा. केसमोए वंभचेरवासी पराघरपवेसे लछावनद्धे उच्चावया य यम्, शेां प्राग्वत् । अथास्य देवक्रीमायोग्यत्वं वर्णयन्नादगामकंटकया अहियासिजाति, तम, श्रारादिति. श्राराहिता (णिसह इत्यादि) अत्र यावत्पदात् मालिङ्गपुष्कराऽऽदिपदकचरमेहिं उस्सासेहिं हिस्सासेहिं सिकिहिति, बुकिहिति
दम्बकं बोध्यम् । जं०४ वक्षः। स०।। तन्मध्यवतिचिकित्स.
हदात् शीतोदा नदी प्रव्यूटेति वक्तव्यता 'तिगिच्चदह' शब्दे जाव सबक्वाणमंतं करेति ।
वक्ष्यते) (निषधकूटानां 'कू' शब्दे तृतीयभागे ६२५ पृष्ठे नि० १७०५ वर्ग १० । प्रा० म० । विशे० । प्रभ० । वक्तव्यतोक्का) वर्षधरपर्वतभेदे, स्था०७०। सारा।
से केवढेणं भंते ! एवं वुच्चइ-णि सढे वासहरपन्चए, णि. निषधः पर्वतः क्कास्तीति पृच्चतिकहिणं भंते ! जंबुद्दीचे दीवे पिसहे णाम वास
सढे वासहरपन्चए । गोयमा!णिसढे णं वासहरपन्चए बहरपचए पसते ? । गोयमा ! महाविदेहस्स बासस्स
हवे कूमा णिसहसंगणसंविआ उसजसंगणसंविधा णिसढे दक्खिणणं हरिवासस्स उत्तरेणं पुरच्छिमलवणसमु
अच्छदेवे महिष्टिए० जाव पलिओवमट्टिए परिवसइ । से इस्स पच्चक्किमेषां पञ्चच्चिमलवणसमुदस्स पुरच्छिमे
तेणणं गोयमा ! एवं वुच्च-णिसहे वासहरपन्चए, णिएत्य णं जम्बुद्दीवे दीवे णिसहे णामं वासहरपन्चए पपत्ते,
सढे वासहरपन्चए ।
(सेकेण हेणं) इत्यादि व्यक्त । नवरं निपधे वर्षधरपर्वते पाईपमीणायए नदीणदाहिए वित्थितो, दुहा सत्रणसमुदं बहनि कटानि निषधसंस्थानसंस्थितानि । तत्र नितरां सहते पुढे पुरच्छिमिद्वाए जाव पुढे चत्तारि जोश्रणसयाई उठं | स्कन्धे पृष्ठे वा समारोपितभारामिति निषधो वृषभः,पृषोदगऽऽउच्चत्तेणं चत्तारि गान असयाई नब्बे हेणं सोलस जो- दित्वादिष्टरूपसिद्धिः। तत्संस्थानसंस्थितानि। एतदेव पर्यायान्त.
रेणाह-वृषभसंस्थितानि,निषधश्चात्र देव श्राधिपत्यं परिपाअणसहस्सा अट्ट य वाहने जोअणसए दोष्ठि अ
लयति, तेन निषधाऽऽकारकूटयोगाग्निषधदेवयोगाद्वा निषध एगूणवीसइभाए जोएस्ट विक्खंभेणं तस्स बाहा
इति व्यवहियते इति । जं.४ वक० । स्था।"दो णिसढा।" पुरचितमपञ्चच्छिमेणं वीसं जोअणसहस्साई एगं च पणटुं| स्था.म०३ ३० ।
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( २१३९) णिसढकड अभिधानराजेन्छः ।
णिसिज्जा णिसढकम-निषधकट न । निषधपर्वताधिष्ठातृदेवनिवासोपेते | णिसमेंत-निशमयत-त्रि० । आफर्णयति,प्रा०म० अ०१खएक। (स्थाग० ) निषधवर्षधरपर्वतस्य द्वितीये कूटे, स्था०विसम्म-निशम्य-अस्य शात्वेत्यर्थे, प्राचा० १श्रु. १० २ ठा०३३०। जं.।।
१० न० अवगम्येत्यर्थे, सूत्र०१ श्रु० १० अ० । निश्चिशिसढदह-निषधहद-पुं० । मन्दरस्य दक्विणेन देवकुरुषु महा
त्येत्यथ, आचा०१७०१०१ अ.३उ०। अवधायेंत्यथै, हृदे, स्था० । शह च देवकुरुषु निषधवर्षधरपर्वताऽत्तरेणाटी
स्था०३.३ उ०। हृदयेनाऽवधास्यत्यर्थ, कल्प०३कण । योजनानां शतानि चतुस्त्रिंशदधिकानि योजनस्य चतुरश्च स्था०।त. झा० सुत्र०। प्राचा०। सप्तभागानतिक्रम्य शीतोदाया महानद्याः पूर्वापरकूनयोर्विचित्रकूटाभिधानी योजनसहस्रोच्तिो मुझे सहस्राऽध्यामवि
| णिसम्ममासि[]-निशम्यभाषिण-त्रि० । अत्वरितनाषिकम्भावुपरि पश्चयोजनशताऽऽयामविष्कम्भी प्रासादमपिमतौ
| णि, आचा० १ श्रु०१चू०४ अ०२००। पूर्वोत्तरेण पर्यालो. स्वसमाननामदेवनिवासभूतः पर्वतौ स्तः, ततस्ताच्यामुत्तरतोऽ.
| च्य नाषके, सूत्र० १ श्रु०१०म०। नन्तरोदितान्तरः शीतोदामहानदीमध्य नागवर्ती दक्षिणोत्तरतोणिसह-निषध-त्रि० । 'णिसढ' शब्दार्थ, चं०प्र०४ पाहु। योजनसहनमायतः पूर्वापरतः पश्चयोजनशतानि विस्तीर्णवेदिकावनखरामध्यपरिक्तिप्तो दशयोजनावगाढो नानाम
णिसहकूम-निषधकूट-न'णिसढकूम' शब्दाथे, स्था०९ ठा। णिमयेन दशयोजननालेनाद्धयोजनबाहुल्येन योजनविष्क-णिसहदह-निषधद-पुं० । 'णिसढदह' शब्दार्थ, स्था०५ म्नेणाईयोजनविस्तीर्णया क्रोशोच्तिया कर्णिकया युक्तेन | ठा०२ उ०।
भिधानदेवनिवासभूतनवनजासितमध्येन तदरूप्रमाणा-णिसा-निशा-स्त्री० । नितरां श्यति व्यापारान्। शो-कः। रात्री, ष्टोत्तरशतसमयपस्तदन्येषां च सामानिकाऽऽदिदेवनिवा
। हरिषायाम्, मेषाऽऽदिराशिषु च । वाच । ०५०। सभूतानां पद्मानामनेकाक्षः समन्तात्परिवृतेन महापझेन विराजमानमध्यभागो निषधो महाहदः । स्था०५०२ उ०।
|णिसाकप्प-निशाकल्प-पुं०। रात्रौ जवानावेन मात्रके मेकिं ___एतदेव सूत्रकार पाह
गृहीत्वाऽऽचमने,गीता चीर्णत्वादस्य कल्पत्वम् । वृ०५ उ०. कहिणं भंते ! देवकुराए कुराए णिसढदहे णामं दहे प
('माय' शब्दोऽत्र वीक्ष्यः ) सत्ते । गोयमा ! तेसिं चित्तविचित्तकमाणं पव्वयाणं उत्त.
णिसापासाण-निशापाषाण-न। मुझाऽऽदिदनशिवायाम्, रिसायो चरिमंताओ अट्ट चोत्तीसे जोअणसए चत्तारि
उपा०२ अ०।
णिसामिप्र-देशी-श्रुते, देना.४ वर्ग २७ गाथा। अ सत्तभाए जो अणस्स अबाहाए सीओदाए महाणईए। बहुमज्देसभाए एत्थ एं णिसढदहे णामं दहे पत्ते । एवं |
पिसामित्ता-निशम्य-श्रव्यः । प्राकपर्येत्यर्थे,उत्त०२०।नि
शम्येत्यर्थे, सुत्र.१ श्रु०१४ । आचा। अवधार्यत्यथे, आमा चेव नीलवंत उत्तरकुरुचंदेरावयमानवंताणं वत्तव्यया, सा |
चा०१ श्रु०८०३ उ०। चेव जिसढदेवकुरुसूरसुनसविज्जुप्पभाणं णेयव्वा,रायहाणी- साय-देशी-सुप्तप्रसुप्त, दे. ना.४ वर्ग ३५ वर्ग। श्रो दक्खिणेणं ति । (कहि णं इत्यादि)एवमुक्ताऽऽलापकानुसारेण यत्र नीलवत्त
णिसालोद-निशालोष्ट-न । शिलापुत्रके, उपा० उ० । रकुरुवरावतमाल्यवतां पश्चानां हाणामुत्तरकुरुषु वक्तव्य
णिसिअर-निशाचर-पुं०। "इः सदादौ वा"॥८॥१॥७२॥ ता, सैव निषधदेवकुरुसूरसुल सविद्युत्भनामकानां नेतव्या;
| इत्यात इत्वम। "निसिअरो, निसारो।" प्रा०१पाद । " स्व. पतदीयाधिपसुराणां राजधान्यो मेरुतो दक्षिण इति शेषः ।
रस्योवृत्ते ॥८१८॥ इति न सन्धिः । प्रा०१पाद । जं०४वक्त।
रात्रिचरे, राकसे, वाचः । णिस-निषम-त्रि स्थिते, उत्त०१०अ० श्रावका उपविष्टे,
णिसिकिय-निषिच्य-अव्य.। अग्नाविन्धनाप्रदिप्रतिप्येत्यय स्था० एम०२ उ० झा०। उत्त०। प्राचा० । निविटे, ज्ञा०१ |
आचा०२७० १.१ १०७ उ०। श्रु०७ श्रा। निमग्ने, सूत्र०२ श्रु० २ अ०।
णिसिज्जा-निषद्या-स्त्रीचा निषदनानि निषद्याः। उपवेशनप्रकाणिसण-निपत्यक-पुं० । " संवरपासवदारो, अब्बावाहे अ.] रेषु (स्था) कंटए देसे। काऊण थिरं वाणं,ठिो णिसप्लो णिवन्नो वा॥१॥"
। पंच णिसिज्जाओ पएणतायो। ते महा-नक्कुमुया, गोइत्युक्तलकणे कायोत्सर्गभेदे, प्राव०५०।
दोहिया, समपायपुया, पक्षियका, अछपक्षियंका। णिसमणिसम्मा-निषानिषम-त्रिका "अट्ट रुदं च दुवे, कायह
निषदनानि निषद्या उपवेशनप्रकाराः, तत्राऽऽसनलग्नपुतः पाकाणा जो णिसन्नो उ । एसो काउस्सग्गो, णिसमनिस्सम्यगो दाभ्यामवस्थित उत्कृट्रकस्तस्य या सा उत्कुटुका । तथा-- नाम ॥१॥" इत्युक्तलकणे कायोत्सर्गभेदे, आव० ५ ० । गोदोहनं गोदोहिका तद्वद् या असौ गोदोदिका। तथा-समो णिममोस्सिय-निपएणोत्सत-पुं० । “धम्म सुक्कं च दुवे, झा- समतया भूनग्नौ पादौ च पुती च यस्यां सा समपादपुता। याणा जो णिसनो श्र। एसो काउस्सग्गो, णिसमा सि. तथा-पर्यङ्का जिनप्रतिमा, तामिव या पद्मासनमिति रुढा । भो होश नायबो॥१॥" इत्युक्तलक्षणे कायोत्सर्गभेदे, श्राव०५ तथा अपर्यङ्का करावेकपावनिवेशनलकणेति । स्था० १ ठा०१
उ० "णिसिजं च गिहंतरे । निषद्यां चाऽऽसनम् । सूत्र० १
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(१९४०) शिसिज्जा भनिधानराजेन्दः।
मिसीह ६०९० प्रा० म०। "तिएमन्नयरागस्स,निसिज्जा जस्सपिसिय-निशित-
त्रितीक्ष्णे, सूत्र० १६०५ १००। कप्पए । जराए अनिवस्स,बादियस्स तवस्सिणो ॥१॥" दशक ६ अ० । जीता। प्रणिपत्य पृच्छायाम, गौतमस्वामिना निषद्या
जिसियर-निशाचर-पुं० । पिशाचाऽऽदौ व्यन्तरे, श्रोधः। प्रयेण चतुर्दश पूर्वाणि गृहीतानि । विशे० । निषीदन्त्यस्यामि
णिसिरणा-निसर्जना-स्त्री० । दाने, भाचा०२ श्रु०१ चू०१० ति निषद्या। पादप्रोग्छनके, जीत। ध०। रजोहरणोपकरण- १०००। निक्केपणे, सत्र०२ श्रु०२०। स्था। श्याणि णिसिरणा भेदे, सा च द्विधा-सौत्रिकी, औणिकी चेति । बृ० ३ ० । दुविधा-सोइया,लोउत्तरिया य। तत्थ लोइया णिसिरणा तिविपायस्स पमोयारो, सुनिसिज्जतिपट्टपोत्तिरयहरणं ॥३०]
धा-सहसा, पमाएण, अण्णाभोगेण य। पुब्बाश्छेण जोगेण किंचि तथा रजोहरणस्य सके द्वे निषो। तद्यथा-वाह्या,प्राभ्यन्तरा
सहसा णिसरति, पंचविधपमायऽन्नतरेण पमत्तो णिसरति ।
एगतविस्सती प्रणाभोगो, तेण णिसिरति।" नि०यू०४ उ०। च । इह संप्रति दशिकाऽऽदिभिःसह या दरिमका क्रियते,सासूत्र. नीत्या केवलैब भवति,न (१)सदशिका । तस्या निषद्याश्रयम् । तत्र
णिसीइत्ता-निषद्य-अव्या उपविश्येत्यर्थे, स्था०३ ग०५ उ०। या दधिमकाया उपरि एकहस्तप्रमाणाऽऽयामा तिर्यग्वष्टकत्रयपृथु. | निषीदयित--त्रि० । उपवेष्टरि, “सेहे रातिणियस्स सपक्वं स्वा कम्बलीखएकरूपा सा आद्या निषद्या,(नि)तस्याश्चाग्रे दशिकाः निसीइत्ता जवति ।" दशा० २ अ०। सम्बध्यन्ते । तांच सदशिकामग्रे रजोहरणशब्देनाऽऽचार्यों ग्रही-IM यति, ततो नासाविह ग्राह्या । द्वितीया त्वेनामेव निषद्यां तिर्यग
| पिसीश्यब्व-निषत्तव्य-त्रि० । संदंशकभूमिप्रमार्जनाऽऽदिबहुभिर्वेष्टकैरावेष्टयन्ती किञ्चिदधिकहस्तप्रमाणायामा हस्त
म्यायेनोपवेष्टव्ये, भ०२ श० १ उ० । प्रमाणमात्रपृथुत्वा वस्त्रमयी निषद्या, सा आभ्यन्तरा निष
पिसीढ-निशीथ-न० । अप्रकाशे, नि० चू० ३ उ०। द्योच्यते । तृतीया तु तस्या एवाऽभ्यन्तरनिषद्यायास्तिर्यग्वेष्ट
णिसीयंत-निषीदत-त्रि० । उपविशति, न. १३००६ उ.। कान् कुर्वतो चतुरङ्गानाधिकैकहस्तमाना चतुरस्त्रा कम्बलमयी भवति । सा च उपवेशनोपकारित्वादधुना पादप्रोनकमिति
णिसीयण-निषीदन-न । उपवेशने, स्था० ७ ग.। व्य० । सदा, सा बाह्या निषोत्यभिधीयते । मिलितं च निषधात्रय नि० ० । पिं० । औ०।। दपिकासहितं रजोहरणमुच्यते । ततो रजोहरणस्य सत्के द्वे |णिसीयमाण-निषीदत-त्रि०। उपविशति,सूत्र.११०११०२ उ०। निपये इति न विरुभ्यते । पि० । निषीदन्त्यस्यामिति निषद्या । उपाश्रये, पं० सं०४ द्वार।
णिसीरिजमाण-निसृज्यमान-त्रि० । किप्यमाणे, भ.८० णिसिज्जापट्टग-निषद्यापट्टक-पु. । रजोहरणामिषद्यायाम, प्रो.
७०। घ ।
पिसीह-निशीथ--न। “निशीथपृथिव्योर्वा" ॥८।१।२१६॥ ३. णिसिज्जापरिसह-निषद्यापरिषह-पुं० । निपद्या च उपाश्रय
ति यस्य दो वा। प्रा० १ पाद । भप्रकाशे, नि. चू. ३ उ० । उच्यते, निषीदन्न्यस्यामिति निषोति व्युत्पत्तिबलात्, सैव
मध्यमरात्रौ, तवजहोनूतं यदध्ययनं तनिशीधम् । आचाराङ्गपरिपहः । श्मशानोद्यानसत्रागारगिरिगुहाऽऽदिषु स्त्रीपशुपएम.
पञ्चमचूडायाम्, पा० ।नं। कविवर्जितेषु अनभ्यस्तपूर्वेषु निवसतः सर्वत्र स्वेन्द्रियज्ञानप्र
पच्छन्नं तु निसीहं, निसीहनामं जहऽज्यणं । काशपरीक्किते प्रदेशे नियमानुष्ठानमधितिष्ठतः सिंहव्याघ्राऽs.
प्रच्छन्नं तु निशीधनामकमध्ययनमिति । अथवा-निशीथं गुप्ता. दिविविधभाषणध्वनिश्रवणतोऽसंजात त्रयस्य चतुर्विधोपसर्ग
थमुच्यते । यथा-अग्रायणीये वीर्यपूर्व अस्ति नास्ति प्रवादेच सहनेन मोक्षमार्गावप्रच्यवने, पं० सं०४ द्वार।
पाठ:-"जत्धेगो दीवायणे तुजा तत्थ दीवायणसय मुंज। णिसिज्जारयण-निषद्यारचन-ना उचितभूमावक्तगुरुनिषद्या
जत्थ दीवायणसयं तुजा तत्थेगो दीवायणो भुज । तथा
जत्थेगो दीवायणो हम्मइ तत्थ दीवायणसयं हम्मद । जत्थ दीकरणे, पं०व०४द्वार ।
वाययासयं हम्मद, तत्थेगो दीवायणो हम्म।" णिसिह-निसृष्ट-त्रि० । निर्गते, रा० । प्रदत्ते, आचा० १ श्रु०७
तथा चामुमेवार्थमनिधातुकाम आहअ०२ उ० । बृ० । स्वामिनोत्सङ्कलिते, आचा०२ श्रु० १०२ अग्गेणीयम्मि जहा, दीवायण जत्थ एगों तत्थ सयं । अ०१ उ. । निसृष्टो नाम यस्य शय्यातरेण प्रबेशोऽनुज्ञातः।
जत्थ सयं तत्थेगो, हम्मइ वा तुंजई वा वि ॥ बृश्उ ०। णिसित्त-देशी-सन्तुष्टे, देना.४ वर्ग ३० गाथा।
अक्षरगमनिका सुप्रतीता । इदमालापकद्वयं सम्प्रदायप्रती
तार्थमिति गुप्तार्थत्वानिशीथमिति । भा० म० १ अ० २ स्वाम। णिसिक-निषिक- त्रिनिवारिते, प्रा०म० अ०२खएक।
प्रा० चू० । निशीथं च कुतः सिहमित्यत पाह--"निसिहं नवणिसिद्धजोग-निषियोग-त्रि० । निरुद्धसव्यापारे, पञ्चा. मापुब्बा, पच्चक्खाणस्स तश्यवत्थूयो। आयारनामधेज्जा, बी१२ विव।
सश्मा पाहुडा या ॥२॥" व्य०१०। प्रकल्पो निशीथः, स
च प्रत्याख्यानपूर्वस्य यत्तृतीय वस्तु तस्याऽपि यदाचाराऽऽमयं णिसिद्धप्पण-निषिघाऽऽत्मन्-पुं० । निषिको निवारितः |
विंशतितमं प्राभृतम् । श्राचा०२ श्रु०१ चू०१ अ० १ उ० । साबद्ययोगेज्य आत्मा स्वभावो येन स निषिकाऽऽत्मा । पञ्चा० १२ विवः । निषिको मूलगुणोत्तरगुणातिचारेज्य आत्मा येन
__ इयाणिं णिसीदं ति दारंस निषिद्धाऽऽत्मा। निरतिचारे सुसंयते, प्रा०म०१ १०२
णामं ग्वणणिसीहं, दब्बे खेत्ते य काले जावे य । सएम।
एसो उणिसीहस्सा, णिक्खेवो छबिहो हो ॥६॥
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(२१४१) णिसीह अभिधानराजेन्डः।
मिसीहकप्प कंग । णामवणा गता । दम्वणिसीदं दुविध-भागमो. | गफलं, जम्हा तेण कलुसुदयपक्वित्तेण मझो णिसीयति, जोनागमो य । श्रागमओ जाणए अणुवउसे । णोचागमो उदगादपगच्चतीत्यर्थः। तम्हा तं चेव कतगफ दम्बणिसी। जाणगभन्धसरीरवरितं ।
खेत्तणिसीई-बहि दावसमुहादिया, लोगा या जम्हा ते पप्प नी. तं चिमम
बपुग्गलाणं तमभावो भवगच्छति। काणिसीहं-महोतं पप्प दव्वणिसीहं कतगा-दिएमु खत्तं तु कएहतमुणिरया ।
रातीतमस्स णिसीयणं भवति । भावणिसीहंकामम्मि होति रची, जावणितीहं तिमं चेव ।। ६७॥ अट्टविहकम्मको, णिसीयते जेण तं किसीह ति । भवतीति ब्यम, णिसीहमप्रकाशम् । कतको णाम-रुक्खो,
अहवऽमहा विसेसो, मुई पि जं ति असि ॥७॥ तस्स फलं, तं कलुसोदए पक्खिप्पइ, तो कसुसं देखा ग. अट्ट त्ति संस्खा,चिही भेो,क्रियत ति कर्म, पडो-दम्बे, भावे यति, तं दब्बणिसीहं, सच्चं नवरि, तं अनिसीहं । गयं द. य । दवे उदगचलणी, भावे णाणावरणातीणि पंको, सोभावध्वनिसीहं । नेत्तनिसीई-खेत्तमामासं, तु पूणे, (कएद इति) पंको णिसीयते जेण। तस्स भावपंकस्स णिसीयणा तिचिहाकराहरातीभो, ता अणेण भगवसुत्ताणुसारेण णेया-“कति ण स्वरो, उवसमो,बमोवसमो य । (जेण सि) करणभूतेण, तं णिभंते ! कराहराईनो पम्मत्तानो ? । योयमा! अट्ट कण्हराईओ सीयं भवति, तं चिमं अज्झयणं । जम्हा जहुसं पायरमाणस्स पलसानो। कहि णं नं ! तामो अह कराहरातीमो पासा- अविहकम्मगंठी वियागइति, तेणिमं णिसीई । चोद ग माह
ओ? । गोयमा ! उपि सणकुमारमादिंदाणं कप्पाणं, हेडिंबं. जइ कम्मक्खबणस्स सामत्थाओ श्मं पिणिसीधं, एवं सम्बs. भनोगे कप्पे रिट्टे विमारपपत्यमे, एत्य णं अक्खाडगतमचउर- ज्झयणाणं णिसीहत्तं भवति ति?| गुरू भणति-प्रामं । किं पुण ससंढाणसंधियारो मह कराहगईओ पमत्तानो॥" (नमुत्ति) अविसेसा सम्बऽज्यणा कम्मक्खवणसमुत्था । अज्कतमुक्कामो, सो य दवमो आनकायो। सो अणेण भगवती- यणे विसेसो। विसेसो णाम भेो। को पुण विखेसो ?। श्मोसुत्ताणुसारेण णेओ-"तमुक्काए ण भंते! कर्दि समुट्टिए, कार्द (सुरं पि ज णेति अमेसि) सुति सवणं सोइंदिनोवनद्धी, जम्दा णिट्ठिप ? गोयमा ! जंबुद्दीवस्स दीवस्स बहिया तिरियमसं. कारणा,ण इति पमिसेहे,एति आगच्कृति प्राप्नोतीत्यर्थः। (प्रोसि खेजे दीवसमुदे वीतीवरत्ता अरुणवरस्स दीवस्स बाहिरि- ति) अगीत अइपरिणामो,अतिपरिणामगाणं ति वकसेसं। किं पुण लाओवेश्यताओ अरुणोदय समुदं वायालीसं जोयणसह- कारणं तेसिमं सुरं पि णागति।सुण-दमज्जयणं प्रयवाय.
साई भोगाहित्ता, उरिवाश्रो उज्जवंताओ एगपदेसियाए बहुलं । ते य अगीयस्थादिदोसजुत्तबा विणस्सेज्ज, तेण णागसेढीए, पत्थ तमुक्काए समुछिए सत्सरस एक्कवीसे जोयणस. च्छति । भवि पदत्थसंजावणे। किं संभावयति ?-जति अगीया. ते उ बपतित्ता, ततो पच्छा वित्थरमाणे २ सोदम्मीसाया. ण, अम्पसापरावत्तयंताण विसवणं पिण भवति । को उद्देसर्णकुमारमाहिदे चत्वारि वि कप्पे आवरेत्ता ण चिट्ठति, उझं सवायणत्यसवणाणि एवं संजावयति । अहवऽमहागाहा समपिणं. जाव बंजोए कप्पे रिहविमाणपत्यमे संपत्ते, पत्थ वतारज्जति-अप्पगासणिसीड्सद्दसामरणवक्त्राणो। सीसो तमुकाप पिढिते । तमुक्काए सुनते ! किंसंचिते पत्ते । गोव- पुच्चति-लोगुत्तरलोगणिसीहाण को पमिविसेसो । उच्यतेमा! अहे मागसंग्तेि उपि कुक्कुडपंजरसंगणमंग्तेि॥"(णि- " अटुविहकम्मपंको गाहा।" अक्सरत्थो सो चेव । उवसं. रया इति) णरगा, ते य सीमंतगादि। एए कराहतमुणिरया हारो श्मो-जइ वि लोहगारण्णमादीणि णिसीदाणि, तह अप्पगासित्ता खेत्तणिसीहं भवंति । खेत्तणिसीहं गतं। इदाणिं वि कम्मक्स्त्रवणसमत्थाणि ण भवंतीति भविसेसे बिसेकामणिसीहं-कालणसी रात्री । गतं कामणिसीई। इदा- सो भणितो । किं न-ताणि गित्थपासंडीवं ण सुतिमाणि भावणिसीह-जवणं नावः, णिसीहमपगासं, भाव एव गच्छति । इमं पुण मुर्ति पि ज ण पति अमेसि, मम्मे गिणिसीदं प्रावणिसीदं । तं दुविहं-बागमत्रो, णोभागममो हत्यमातित्थिया अवि सपक्खा, गीयपासंगीण वि।" य। आगमत्रो जाणए उवउत्ते, गोपागमो श्मं चेव पकप्पक- नि००१ उ०। यणं, जेण सुत्तत्यतपुभएहिं अप्पगासं, एव अवधारणे इति । | नसिंह-पुं०। पुरुषसिंहे, पुरुषोत्तमे, बो १६ विव०। कोऽर्थः?-निसीयसहपाठीकरणत्थं वा भणति
|णिसीहकप्प-निशीथकन्प-पुं० । निशीथाध्ययनमयांदायाम, जे होति अप्पगासं, तं तु णिसीई ति लोगसंसिर्फ ।
(पं०मा०) जं अप्पगासधम्मं, असं पि तयं निसीहं ति ॥ ६ ॥
इयाणि जिसीहकप्पोजमिति अणिद्दि, होति भवति, अप्पगासमिति अंधकार, ज
.......",णिसीहकप्पं अतो वोच्छं। कारणिदेसे तगारो होइ,सहस्स अवहारणत्थे तुगारो,मप्पगा. सवयणस्स णिरणयत्थे जिसीहंति, लोगे विसिद्रं णिसोहं प्र
चनहा णिसीहकप्पो, सहहणाऽणुपासण गहण सोही। प्पगास । जहा कोइ पवसिओ पोसे आगो, परेष बितिए
सदहणा वि य सुविहा, मोहनिसीहे विनागे य ।। दिणे पुचिमो-कढेकं वेलमागप्रोसिभिमति-णिसीहे ति,रा- मोहे ति हत्थकम्मं, कुणमाणो रागमूलिया दोमा। प्रावित्यर्थः। न केवलं लोकसिकमपगासं णिसाहं जं अप्प- गिएहणमादिविजागे, अहवोघो होति नस्सग्गो।। गासधम्म, अन्नं पि, तं णिसी। प्रक्चरत्थो कंगे। उदाहरणं
अहवा होतु विभागो, सव्वं चेदं न सदइंतस्स । जहा लोश्या रहस्ससुत्ता, विज्जा, मंता,जोगा य अपरिणयाणं ण पगासिज्जति । अहवा-दब्वस्खेतकाभावमिसीहा पणदा
सदहणाए कप्पो, होति अकप्पो पुण इमो हु ॥ वक्वाणिज्जांत-दणिसीइं जाणगाम्यसरीरातिरित्तं कत! मिच्छत्तस्सुदरणं, प्रसन्नविहारताइसद्दहणा।
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(१९४२) णिसीहकप्प अभिधानराजेन्द्रः।
मिसीहकप्प गणहरमेरं भोई, ण सद्दहति जो णिसीहं तु ॥ मित्तोदपण न सहहर, श्रोसन्नविहारपसंग चेव करे। श्रोसन्नाण विहारं, सद्दहती सुविहिताण गणमेरं ।
तस्स दोससंकमया भवह। तेण बहुदोससंकमो गणधर
धारधरोघो ति । गणं धारयन्तीति गणधरा, धारा मेरा, णो सदहती जो खलु. एस अकप्पो तु सद्दहणो ।
मर्यादा इत्यर्थः । मेराए प्रोघं, तं गणधरमेरधरोघे, न जाणि भणिताणि मुत्ते, पुवावरबाहिताणि वीसाए ।
सदहर जो निसीदं तु भगुपाक्षणाए (गादा जाणि जताणि अणुपालयतो, सव्वाण निसीहकप्पो तु ॥ णियाणि ) जाणि भणिताणि वीसएहिं उद्देसपाहं निसीहस्स मुत्तत्थतनुभयाणं, गहणं बहुमाणविणयमच्छेरं । पुरवावरवाहगाईत्ति अववादेण उस्सग्गोवाहिओ, ताई अणुचोदसपुषिणिबछो, पकप्पगहियम्मि गणधारी ॥
पालेश, ते अणुपाताणा। (गाहा सुत्तत्थ) गहणबिहिगहणे सुत्त.
स्थतदुभयाणं बहुमाणविणएण चोदसपुवनियद्धं अच्छेरंति तिविहो य पकप्पधरो, सुत्ते अत्थे य तदुभए चेव ।
मममाणेण सो गणपरियट्ट। भव । (गाहा तिविहो य) सोमुत्तधर होदु तइओ, वितिओ वा होति गणधारी ।। हिकप्पो ति तिविही पकप्पधरो सुसस्थतदुभया, सो गणतिणिपंचपणगछकं, अट्ठग नवगं च जस्स उपन्नम्। परियट्टी, तदुभयवजगाणं पुण अत्थधरो गणपरियट्टी, (तिम्मि) वणाकरणं दाणं, च सो हु सोही वियाणाहि ॥
तिमि जो जाण नाणदसणचरितं, (पंच इति) पंच महब्वया
णि । अहवा-पंचिदिवाणि, पायच्छित्तं. जाव पंचिंदियाणं । णाणादीणं तियगं, पणगं क्वहारों होति पंचविहो।
महवा-पणगं नाणदरिसणचरित्ततवसंजमाइं जो जाण सोप. वितियपणगं च पंच य, छक्कं पुण होति छक्काया ।।
रियट्ट।। (कत्ति)रायजोयणघावयाई (अगत्ति)श्राझोय. आरोयणारिहगुणे, अह तु अहवा विसोहि अट्ठविहा । णारिहाईजाब मूलं अहविहं पायच्चित्तं । (नवग इति) प्रणवट्रआलोयणगादीयं, मृतं तं जाणती जो उ ।
पनवमाई। एयारंगाणाई जस्सुवल द्धाणि मो जाण विसोही,
पायच्छित्तकरणदाणं च । (गाहा ओहेण तु) पोहो नाम-अधि. आलोयणमादीयं, अणवढं तं तु णवविहं होति ।
सेसियं, तेण ओहेण सपायच्चित्तं पहिसेवणागणेहिं जहा पारंचितं तमहवा, दसविह होती च सद्देणं ॥
रायपि च नगुरुगा, पए सट्ठारो त्ति विभाएण ईसरतल वराइ, ग्वणा रोयणकरणं, सफना मासा करेत्तु जो जाणे अन वि होति दोसा आकिनगुम्मा । पायच्चित्सकरणं पुण सो होति दाणअरिहो, तबिवरीओ अपरिहो तु ॥
परिसजाई परिच्छिऊण, देउंच समिक्खिऊण, किं निमिकिं पुण तं दायव्यं, पायच्छित्तं तु पुच्छए सीसो ।
तं पमिसेवियं', कारणे अकारणे त्ति जयणा वा समक्खियं ।
किं निमित्तं पायच्छित्तं दिज्जइ ?; पायकृित्तं सोहिकारणं । भापति इमण विहिणा, दायचं तंतहा कमसो।।
(गाहा पायच्चित्तं) पायचित्ते य असते पमिसिद्धमेव । एस श्रोहेण तु सट्टाणं, सहाणविनागताएँ वित्थारो। निसीहकप्पो"। पं० चू। पच्छित्तपुरिमहेतू, किं ति ए संती चरणमादी ?"
दाणि आयरिश्रो सिस्सि गाणं च श्मं जिसीहऽज्जयणं हिश्रोहे सहाणं ति य, जह चतुगुरु होति रायपिंमम्मि । ययम्मि धिरं भवउ त्ति णिकायणत्थं श्मं श्मं नणद । गाढासहाणविभागे पुण, ईसरमादी मुणे यन्यो ।
चउहा णिसीहकप्पो, सद्दहणाऽऽरयाएगहएसोही य । जह वा करकम्मम्मि उ, ओहेणं होति मासगुरुयं तु । सदहण बहुविहा पुण,ओहणिसीहे विजागे य ॥३०॥ होति वित्रागपसंगो-दिहादीओ मुणेयव्यो ।।
अहवा ज पयं पंचमचूलाए वुतं सम्वं तं एवं समासतोच. पुरिसज्जातं णातुं, व दिजए जं च जारिसं वत्यु ।
सब्विहं । जतो नमति-(चउगाहा) श्रोह, विभागे य । गुरुमादि बनियदोबा-हट्ठगिलाणाऽऽदि जं जोगं ।।
एलेका अणेगविहा श्मा । गाहा
ओहणिसीहं पुण हो-ति पेढियामुत्तमो विभागो । होऊ कारणणिका-रणे य जयणादिसेविओ जह तु ।
नस्सग्गुववाओऊ, अववाओ होति उ विनागो ॥३८॥ तो देति किं निमित्तं, पच्छित्तं विज्जते मुणसु ।।
श्रोधः समासः, सामान्यमित्यनान्तरम् । तं च णिसीदपेदि" पायच्छिते असंतम्मि, चरित्तं तु न चिट्ठइ ।
याणामणिप्पालो णिक्खेवो, उग्गहणादित्यर्थः । विभजनं वि. चरित्तम्मि असंतम्मि, तित्थे ण सचरित्तया ।।
भागः, विस्तर इत्यर्थः । स वोसाए उद्देसएहि जो सुत्तसंगहो, तित्यम्पिय असंतम्मि, णिव्वाणं तु ए गच्छ। सुत्तत्थो य । अहवा उस्सग्गो ओहो, तस्यापवादः विनागः। णिनाणम्मि असंतम्मि, सव्वा दिक्खा णिरत्यिया॥"
अहवाएवं णिसीहकप्पो, चउहा तू वसितो समासेणं। पं० भाग उस्सग्गो वा ओहो, आणादिसंगमो विनागो उ । (चउदा गाहा) "सो निसीहकप्पो चउब्विहो-सहदणया, आ
वत्थु पप्प तिनागो, अवसिट्ठाऽऽरज्जणा होति ॥३०॥ यरणया, गदणविसोही, सोहिकप्पो य । सद्दहणया विहा- मुत्ते सुत्तेज उस्सग्गदरिसणं तं ओहो होउ, जे पुण सुत्ते ओर, विभागे य । ओदेति हत्थकम्मं करेमाणस्स तनिष्फलो सुने प्राणोएणवत्थुमिच्छचनिराहणाविभागदरिसणं, सोषिदोसो। विभागो गेएहणादयो । अदवा-पोहो उस्सग्गो, जागो । अहवा-पायरियादिपुरिसवत्युभेदेण जं भणियं सो विभागो प्रववादो। (मित्तस्मुदएणं गाहा) जो पुण । विभागो, जो पुण अवसिता भावत्ती सो ओहो।
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मिसीहकप्प
(२१४३) माभिधानराजेन्ः।
पिसीहचूला
महवा
स्वस्मृत्यर्थ तस्य बढ्ये सुबोधां, पमिसेहो वा मोहो, तकरणाऽऽणाइ होइ वित्थारो।
व्याख्या काश्चित्सद्गुरुज्योऽबबुद्ध्य ॥२॥
श्रादौमासिकपदमिद, तत्प्रस्तावात्समागता मासाः। आयासंजमभइया, तस्स य भेदो बहुविकप्पा ।।३८४॥
तानवधीकृत्याऽऽदौ, व्याख्या प्रारज्यते चात्र॥३॥" न कप्पा ति का जं जं पडिसिदं सो सम्बो ओहो । नि०० २० उ०। तस्स पमिसिद्धस्त करणाणुमा जा आणादियो य
इदानीं चूर्णिकारो यदर्य मया चूर्णिः कृता इत्येतदा. भेदा, एस सम्बो वित्थरो सिविमागो । स वित्थरो पुणो
विष्करोतिभाणियन्वो णिकारण प्रविधिपडिसेवणणियमा आणागो,
"जो गाहासुत्तत्थो, चेवंविधपागमो फुरुपदत्यो। प्रणवत्था य, मित्तं च । ण जहा वादी तहा कारि ति
रश्तो परिभासाए, साहूण अणुमाहऽघाए ॥१॥" विराहणाए प्रायसंजमविराहणाश्रो भयाणजा कया विनवंति,ण वा। जहा करकम्मकरणे प्रायबिपहणा नवति, ण वा ।
"जो गाहा" इत्यादिगाथाशब्देन भाष्य गाथानिबरूत्वादत्रि
धीयते, ततो गाथा च, सुत्रं च, तयोरथ ति विग्रहः । (पागमो संजमेण णियमा भवति । पमत्तस्स य पढमाणस्स य आयबिराहणा । तस्सेच पाणाइवायसंपत्तीए णो संजमविराहणा।
त्ति) प्राकृतः, प्रकटो बा, पदार्था वस्तुभावा यत्र स तथा, परिपर्व (तस्सि त्ति) विराहणार भेदा । एवं बहुविगप्पा ।
भाष्यतेऽर्थोग्नयेति परिभाषा चूणिरुच्यते। अणेगप्रकारा नवाज नाणियव्वा । एवं विभागो।
अधुना चूगिकारः स्वनामकथनाथै गाथायुग्ममाह
" तिचतपणऽटुमवग्गा, तिपणतितिगअक्खरा चेव । गाहा
तेसिँ पढमततिपहिं, तिसरजुहिँ णामं कयं जस्स ॥१॥ अहवा सुत्तनिवाओ, ओहो अत्याओं होति वित्यारो।
गुरुदिरणं च गणितं, महत्तरत्तं च तस्स तुडेहिं । अविसेसो त्ति व ओहो,जो तु विसेसोस वित्थारो।३। तेण कएसा चुपणी, विसेसनामा निसीहस्स ॥२॥" जे भणिता उ पकप्पे, पुवावरवाहिता भवे सुत्ता। "तिच" इत्यादि। वर्गा इह 'अ-क-च-ट-त-प-य-शसो तह समायरंतो, सव्वा आयरणकप्पो न ॥३०६।। । वर्गाः' इति वचनात् स्वराऽऽदयो हकारान्ता ग्राह्याः । तदिह सुत्तमेत्तप्रतिबकं,जहा-पढमसुत्ते करकम्मकरणे मासगुरूं। एस |
प्रयमगाथया जिनदास श्त्येवंरूपं नामाभिदितम् । द्वितीयगाओहो । सेसो अत्यो, जहा-पदमपोरिसीए करकम्मकरणे मूलं,
थया तदेव विशेषयितुमाह-" जिणदासगाणिमहत्तर इति । वितिए दो,ततिए ग्गुरु,चमत्थीए चउगुरुं,पञ्चमीए मासगुरूं।
तेन रचिता चूर्णिरियम् । पस विभागो । एवं पढमसुत्ते । एवं चेव सव्वसुत्तेसु । जो
"सम्यक्तयाऽऽम्नायभवा-दम्रोक्तं यत्तत्सत्रम् । अणुवादी अत्यो सो सम्बो विभागो । अहवा-जं दवा
मतिमान्द्यावा किञ्चित्तच्चोध्यं श्रुतधरैः कृपाकवितैः ॥१॥ दिपरिसविसेसेणं अविसेसिज्जति सो मोहो। दब्वादिपरिस
श्रीशीलभसूरीणां, शिष्यैः श्रीचन्मप्रिनिः। विसिहं पुण सवं वित्थर णेयव्वं । वुत्तं सहाणसहतस्स
विशकोद्देशके व्याख्या, इन्धा स्वपरहेतवे ॥२॥ सदहणकप्पो । नि० चू० २०००।
वेदावरुद्रयुक्ते. ११७४, विक्रमसंवत्सरे तु मृगशीर्षे । णिसीहकरण-निशीयकरण-न०। रहस्यसूत्राथें, विशेः। माघसितद्वादश्यां, समर्थितेयं रवौ वारे ॥३॥" नि० च. साम्प्रतमनिशीथनिशीथयोरेव स्वरूपप्रतिपादनार्थमाह
२०३०। ('चंदसूरि' शब्दोऽत्र वीक्ष्यः ) तूयाऽपरिणयविगए, च सद्दकरणं तहेवमनिसीहं । णिसीहचूना-निशीथचूका-स्त्री। प्राचाराङ्गस्य पञ्चमचूडापच्छन्नं तु निसीई, निसीहनामं जहऽज्यणं ।। रूपे निशीथाध्ययने, नि. चू. १००। नूतमुत्पन्नम्, अपरिणतं नित्यं,विगतं विनष्टम् भूतापरिणतविगा। प्राचाराओं विमुक्तिचूलाऽनन्तरं निशीथचूलिका । तत्संबन्ध. तम्। समाहारत्वादेकवचनम् । किमुक्तम्भवति ?-"उपमेह वा,
श्वायम्विगमेह वा,धुवेह वा" इत्यादि। किंविशिष्टमित्यादि। शब्दकरणं “नमिऊणरिहंताणं, सिद्धाणं कम्मचकमुकाणं । शब्दः क्रियते यस्मिन् तत् शब्दकरणम् । प्रा० म०१०१ सयणसिणेदविमुक्का-ण सव्वसारण भावेणं ॥१॥ खएक । ('करण' शब्दे तृतीयभागे ३६८ पृष्ठे व्याख्या)
सविसेसाऽऽयरजुत्तं, काउ पणामं च अत्थदायिस्स । -णिसीहगंथ-निशीथग्रन्थ-पुं० । प्रकल्पशास्त्रे, जी०१ प्रतिः। पज्जुम्मस्त्रमासम-स्स चरणकरणाणुपालस्स ॥२॥ णिसीहचुणि-निशीथचूर्णि-स्त्री निशीथाऽध्ययनव्याख्यायां
एवं कयप्पणामो, पकप्पमाणस्स विवरणं वत्ते। चूर्णिग्रन्थे, नि• चू० । सा च चूर्णिः जिनदासगणिमहत्तरेण
पुवाऽऽयरियकयं चिय, अहं पितं चेव न विसेसे ॥३॥
भणिया विमुत्तिचूना, अहुणाऽवसरोणिसीहचलाए । कृता । विंशतितमोद्देशे " जे भिक्खू मासियं" इत्यादिसूत्राणां विशेषव्याख्या तु चन्द्रसूरिणा कृता । तथाहि
को संबंधो तस्सा, भम्म णमो णिसामेहि ॥४॥" "प्रणम्य वीरं सुरवन्दितक्रम,
णवबंभचेरमइओ, अट्ठारसपदसहास्सिओ वेदो। विशुष्शुख्याऽखिलनष्टकल्मषम् ।
हवा य सपंचचूलो, बहु प्रायारो पयरगणं ॥१॥ गुरूंस्तथा निर्माधिकारिणो)
ब्रह्मचरणयोरुत्पत्तिनिमित्त साधनार्थ वा शत्रपरिणाऽऽदीविशुद्धतवान् जगते हितैषिणः॥१॥
नि उपधानभुतावसानानि नवाऽध्ययनान्यनिहितानि । जम्हा "विशोदेशे श्रीनिशीथस्य चूर्ती,
णव पताणि बंजचेराणि, तम्हा णवबंभचेरमो इमो चि, पुमै पाक्यं यत्पदं पा समस्ति ।
जदा-मिम्मभो घडो, तंतुममो पमो, एवं पवर्षभचेरम
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(२१४४ ) निधानराजेन्द्रः |
सिहचला
इओ आयारो । सो य अन्यणसंखाणेण रावऽज्जयखो। पयपरिमाण अठारसपयस हस्सिमो वेश्रो श्रठ य दक्ष य अहारस, अट्ठारसे त्ति संखा, पज्जय इति पयं तं च अत्थपरिच्छेयबायगं पयं भवति, सहस्सं ति गणिताभिहाणेण चचत्थं गणं भवति जहासं गं दहं वयं सहस्सं तिस पवावारो बट्टा रसपयल हस्सिओ वेो भवति । कडम ?- विद ज्ञाने, अस्य धा तोः घञ्प्रत्ययान्तस्य वेद इति रूपं भवति । अतस्तं विदन्ति तेन विदन्ति सम्मान्तिीति वेदो भवति सीखो भणति-किमेसियमायारो, नत अपि से अस्थि किंचि १ अतो भाति"वति व सपंचचूलो " इति नयति इति प्रथितं होत चशब्दो चूलारणुकरिलणे, सहेति युक्तः, पंच इति संखावायगो सो त चूलतिया अतिया
हूं। साजिदा दसवेवालिए भणिया तहा नायि
य
। ताभ य पुण श्माओ पंच चूलाओ पिंकेसणादि जाव उभाइपडिमा ताव पढमा चुला । वितीया - सविकगा। तश्याभावणा । चउत्था-बिमोती । पंचमी श्रायारपकप्पो । एताहि पंचचूलाहिं सहिश्रो भयारो बहू भवति, जवऽज्जयणेहिंतो बहुतरो भवति (पयोणं ति) महारसमासस्तो पं चापदि सहितो प्रयोग बहुतरो भवति तिवा णवऽज्जयणा पढमन्चूलासहिता बहु भवंति, श्रहारसपय सहस्सा पदमचूलापदेदि संहिता बहुतरा व पयोभवति क्रमवृद्ध्या नेयं, जाव पंचमी चूला । श्रहवा-सपंचचूलो सुतपयम्गेण मूनगंथाश्रो बहु जवति, अत्थपयग्गणं बहुतरो भवति वा बहुतरपदेद्धि सपदा सुचिता भवति बहुत-बहुततम-तत इति प्रति-यंत्र रमओ यारो महारसहस्सिओ पढमण स्थपदों तो बहु भवति पढमचूलासहितो हांथो दुश्य चूल ज्झयणसुसत्थपदोर्ह जुत्तो बहुतरो भवति । एवं ततियचलाए वि बहुतमो भवति । पढमचूलासहितो मूलग्गंथो डुइयचूसपणे तत्थपदेहिं जुतो बहुतमो भवति (?) पतिचला व बहुतमो नवति चडत्य बहुतरतमो भवति । पंचमी बहुबहुतरतमो भवति पथम दिन दाग्रं, पदाग्रेणेति पदपरिमाणेनेत्यर्थः । स एवं पयोणं बहुबहुतरो भवति । एवं संबंधगाढासूत्रे व्याख्याते चोदग आइ-नववं भचेरम आधारे वखाते आधारमारंभ संबं घार्थमिदमेव सूत्रं प्रामुपदिषं प्रथमभूमाता द्वितीयमा या अनेनैव गाथासूत्रेण संबन्धको प्रति एवं द्वितीयमा तः तृतीयमाया तथा तृतीया चतुचूायाः च तुर्थचूमातश्च पञ्चमचूमायाः संबन्ध उक्त एवं नयति एवं सति प्रागुकस्य संबन्धगादासुत्रस्येह पुनरुच्चारणं किमर्थम ? | आचार्य आह--पुन्त्रभणियं तु जं पत्थ भष्यति, तत्थ कारणं श्रत्थि - पमिसेह अगुताकारणं, विसेसोवलंभो वा । सीसो पृच्छति कर पभिसेो कई वा अनुष्ठा, किं नाकारणं, को वा विसेसोवलंभो ? । भाचार्य आह-तत्र प्रतिषेधः चतुश्वकात्मके आचारे यत्प्रतिषिद्धं तं संवंतस्स पतितं भवति ति का कि सेवमाणस्स भवति । सूत्रम्-"जेभित् कम्मं करेति, करतं वा सातिजति " एवमादीणि सुसाणि । एस पमिसेहो | अत्थेण कारणं प्राप्य तसेच अपुजाणंति, तं जयणाए पडिक्षेत्र तो सुको, श्रजयणाए स प्रायचित्ती । कारणमष्पा जुगवं गता । अय से सोव संजो इमो माइल्लाश्रो चत्तारिच
प
हिसीदिया
लामो कमेणेव महिति पंचमी हा आयारपकप्पोति यासपरियाग न दिजति सि, वासपरियाग वि अपरिणामगस्स अतिपरिणामगस्स वा न दिज्जति । श्रयारप कप्पो पुण परिणामस्त्र दिति एते कारण संबंधाहा पुनरुच्चायैते । श्रहवा बहु अतीतकालत्वात् प्रागुक्तसंबन्धस्व विस्मृतिः स्यात्, अतस्तस्य प्रागुक्तसंबन्धस्य स्मरणार्थ प्रागुक्तमपि संवगाहासूत्रमिह पुनरुच्चार्यते । नि० चू० १३० । शिसीहऊपण-निशीथाध्ययन न० आचाराङ्गस्य निशीथा व्यपञ्चमचूलिकायाम्, श्राचा० १ ० १ अ०१ उ० । आ०० । णिसीहपेढिया - निशीथपीठिका - स्त्री० । निशीथचूर्णि भूमिकायाम्. मि० | सुतत्थोपेढियाए देशो न वा ? कस्स देघोरा पण देस्रो इति । दितो तो पेडिया विखीदियपेडियाए सुनायो व्यायातो सोहिपेडि काय सुचत्यो कस्स देश्रो, कस्स वा न देश्रो ?, इति भष्यति । जेसि ताव ण देखो, ते ताव भणामिअवदुस्ते विपुरिसे, जिए रहस्से पण विजते । निस्साणपेट वा संविग्गे ब्लचरिते ॥ ४६५ ॥
बहु सुयं जस्स सो बहुस्सुतो । सो तिविदो-जहयो, मज्जिमोउकोसो । जहनो जेण पकप्पऽज्जयणं अधीतं । उक्कोसो चोइस पुण्वधरो । तम्मज्जे मज्जिनो । पत्य जहन्ने वि ताव ण पमिसेहोम बायनं नाचतमित्यर्थः। तस्य निशीथपीढिका न देखा । श्रहवा- अब हुस्सुतोयेन ट्ठिलसुतं ण सुर्य, सो अस्तोति (पुरिसेसि पुरियो तिथि हो परिणामी परिणाम गो धहपरिणामो यपथ अपरिशामगमतपरिणाम गाणं पमिसेदो मियां रह जम्मिच पु रिसेोरसोर धारयतीत्यर्थः। इह रहस् बबातो भरणति । तं जो श्रगीताणं कहेति सो मिण्णरहस्सो । पराविजत्तणं वा करेति, जस्स वा तस्स वा कहयति । आदी आदिभावाण सावगाण जाव कयति । णिस्साणं णाम-प्राप्रार्थयतिथि युतं भवति तं विकारणे व सेवतीत्यर्थः ण संवि
ण
अव ग्गो, पात्यादिति तं भवति । दुब्बलो चरित्ते दुग्बल चरितो, विना कारणे मूलुतरगुणपरिसेवणं करोतीत्यर्थः ॥ ४६५ ॥ नि० चू· १ उ० । लिसीहिया निशीथिका श्री० अल्पतरकालिकायां वसती
भ० १४ श० १० उ० । आ० चू० । निश। धिकानिकेपः- तत्र नामनिष्पन्न निक्षेपे निशीथिकेति नाम, अस्य च नामस्थापनाकाभावः बहुविधो निशेषः । नामस्थापनेपूर्व द्रव्यनिशीथम् आगमती हशरीरजन्यशरीरम्यतिरिकं यद् व्यं प्रप्नम् । निशी तु ब्रह्मलोकमान वर्तिन्यः कृष्णराजयो, यस्मिन् वा क्षेत्रे तद् व्याख्यायते । काननिशी कृष्ण जम्प, वत्र का काले निशा इति प्राथमिशीनो भागम इदमेवाध्ययनम् आगमैकदेशत्वात् । गतो नाम निष्पन्नो निक्षेपः । श्राचा०२ श्रु०२ ०२ श्र० ।
1
अथाऽऽचाराङ्गस्य द्वितीयसतैकके निशीथिकागमनम् - पद से भिक्खू वा जिक्खुडी या अभिकति णिसीदियंगमणार, से जं पुरा फिसीदियं जाना-संप्रमं
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( २१४५ ) निधानराजेन्द्रः ।
विसीदिया
सपा०ज्ञान मकमासंताणयं तप्यमारं पिसीदियं अफा सूर्य असा लाभे संते यो वेतिस्सामि ॥
साम्प्रतं सूत्रानुगमे सुत्रधारणीयम् । तथेदम्याद सभाषद सरूपताया अन्यत्र निधिक स्व भूमिका यदि सपानां जानीयासतोयासुरवास परिपादिति किं
निशीथिकायामन्योन्या
से जिक्खू वा भिक्खुणी वा अभिकखइ सिसीहियं गमपाए, से मं पुण जिसीहि जाणेजा- अप्पा अपनी ० जान मक्कडासंतायं तहयगारं पिसीढं फासूयं एसपिज्जं लाभे संते वेतिस्सामि एवं सेज्जागमेणं णेयब्बं० नाव उदयपस्याए ति ॥
(से इत्यादि) सरियारदादिकां गृहीयादिति । पचम स्याम्यविषाणि शय्यादयानि यावद्योदप्रसूनानि - दाऽऽदीनि स्युस्तां न गृह्णीयादिति । धर्माधिका
तत्वमा वा तिग्गा वाचवा वाचवा अभि संधारेइ सिीहियं गमनाए, ते णो मस्स कार्या शिंगेला वा विशिंगेज्जा वा वेजावा, दंतेहिं या नहिं वा अच्छिन्न वा एवं खलु तस्स चिक्खुस्स वा भिक्खुकी वा सामग सम्बसिदिए समिए सदा पीए सामग्गियं जं जपज्जा, सेयमि मोजा सिचि वेमि ।।
(जे इत्यादि) ये तत्र साथ निषेधिकाद्विद्याग मायोज्यस्य कायं शरीरमभिद्रे, परस्परं गायस्पर्श न कुर्युरित्यर्थः । नापि विविधमनप्रकारे क्या मोदीदयो भवति तथा विलिङ्गेयुरिति । तथा कन्दर्पप्रधाना वक्त्रसंयोगादिका किया न कुश्तिस्य भिक्षोः साम बहस सर्वार्धशेष प्रयोजनेमुः सहितः समन्धित स्तथा समितः पञ्चभिः समितिनिः सदा यावदायुस्तावत् मनुष्य इत्येवं मन्येतिमीति पूर्ववत् निशधिकयनं द्वितीय २० २ ० २ श्र० ।
:
'नैपेधिकी-बी० 'विध' गत्यामित्यस्य निपूर्वस्य घञि निषेधः । प्राणातिपाताऽऽदिनिवृत्तिः प्रयोजनमा नेपेधिक प्राणातिपा सनिवृत्तायां तम्याम्, घ० १ अधि । आय• । उत्तः । निषेधो गमनादिव्यापारपरिद्वार: स प्रयोजनमा ने बेधिकी। बृ० २३ । जीत० । निषीदनस्थाने, जी० ३ प्रति० ४ निषेधः प्रमादेश्य आत्मनो व्यव
स्था
निगम
धिकी। ग० २ अधि० । निषेधेन निर्वृत्ता नैषेधिकी । व्यापारा स्तरनिषेधरूपाय सामाचाय्यम साधये प्रविशतो १००) बस १ ८० । घ० । रा० प्रा० म० । निषेधनासंवृतगात्र चेष्टानिवारणेन नियोजनाच या शयावेशकिया सा नैषेधिकी । पञ्चा० १२ विव० । सामाचारीभेदे, पञ्चा।
५३७
१०
पिसीहिया
साम्प्रतं नैधिकीमाह
एवोपवेसे, खिसीहिया तह णिसिद्धजोगस्स । एस्सेसो उचिओ, इयरस्स ण चैव नस्थिति ||२२|| मुकेनाश्वन्यायेन ज्ञानादिकार्यल प्रवेशवेशने नैधिकी सामाचारीविषय तथेत्यवग्रहप्रवेशापेक्क्या विशेषणान्तरसमुच्चयार्थः तरुत्रेदम्निषिकयोगस्येति । अथवा तथाऽऽगमन्यायेन निषिद्धयोगम्य निरुद्धा सदस्यापारस्य कस्मादियमस्वाद- एतस्य निषियोगस्य एष देवेचिकीम्स्याम्य योग मे
चार इत्यन्ये, उचितः संगतः । विपर्ययमाह - इतरस्यानिविरू योगस्य पुनः नै उचित एष इति प्रकृतम् । चशब्दः पुनरथेः । स च सम्बन्धित एव । कस्मानोचित इत्याह-नास्तीति न वि द्यते अन्वर्थ इति कृत्वा । इति गाथाऽर्थः ॥२२॥
अथ कस्मादवग्रहप्रवेशे नैधिकी विधेयेत्यत श्राह -
गुरुदेवोग्गहमी जो व होति परिभोगो । इहफलसागो सर्प, अफिमसाहगो इहरा ||२३|| गुरुदेवाचभूम्या वाचायेदेवाधिदेवाश्रयभुवः यानप श्राशातनापरिहारप्रयत्नेनैव चैत्रशब्दोऽवधारणे । भवति वर्तते परिभोगः । स च किंभूतः ?, इत्याह- इष्टफलसाधकः ईप्सितार्थनिष्पादक, कर्मकय हे तुरित्यर्थः । सकृत्सर्वदा । उ कम्यतिरेकमानिसका कर्म
रथाऽन्यथा, अप्रयत्नत इत्यर्थः । गुरुदेवावप्रद भूमेः परिजोग इति प्रकृतम् । तत्र रूपमावश्यके महितम् दधः"ययमाणमेोदो उदो गुरुणो " इति। देवावप्रहस्तु न क्वापि ग्रन्थे दृष्टः, केवलं भएयमानः श्रुतः । यथा-"सत्योदो] पतिविदो जनमज्जिमो वेष 1 कोसों सद्दित्थो, जद्दएण नव सेस विच्चालो ॥ १ ॥ " इति गाथाऽर्थः ॥ २३ ॥
देवानुमेरेव प्रयत्नपरियां समर्थयन्नाहएचो ओसरणाssदिस, दंसणमेचे गवाऽऽदिग्रोसरणं । सुच्चइ चेयसिहरा- इएस सुस्सावगाणं प ||२४|| ( पत्तो ति) यतो गुद्यवग्रहभूमेः प्रयत्नपरिजोग इष्टफलाको भवतोsस्मात्कारणात्, अत्रसरणाऽऽदिषु जिनसमवसरणप्रभृतिषु विषयभूतेषु तेषामित्यर्थः । षष्ठयर्थत्वात्सप्तम्याः । आदिशब्दात्समबरण सम्बन्धिमन्द्रध्वज चामरतारणादिपरिदर्शनमा सजिश्यशिविकाप्रभूतियो देवानज्योऽवतरं प्रयविशेषणम् श्रूयते च तेषु तेष्ास्यानकेषु तथा शिखरादिषु जनमनशिखरभृतिषु पचामित्यर्थः दर्शनमात्र इति वर्त
1
पि श्रमणोपासक विशेषाणामपि सभवसर जिन भवनाऽऽदि षु प्रयेामानामिति गम्यते सुसाधूनां पुनद्यये शेप्रान विशेष इत्यादिः सु
णं चेतरेषामुक्तविधेरन्यथात्व संभवोपदर्शनार्थम् । इति गाथाsu: 1128 11
श्रथ यस्य नैवेधिको भावतो भवति, तमनिधित्सुराइजो होइ निसिरूपा, हिसीदिया तस्स भावतो होइ
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गिसीहिया निधानराजेन्द्रः।
मिसीहिया अणिमिद्धस्स उ एसा, वामेत्तं चेव दवा ॥ २५॥
यो भवति निषिकात्मा-निषिद्धो मूलगुणोत्तरगुणातिचारेज्य
प्रात्मा येनोत समासः। नैधिको तस्य निधिकाऽऽत्मनोभावतः यः प्राणी, नवति स्यात्, निषिको निवारितः सायद्ययोगेभ्य
परमार्धतो,भवति। न निषिद्धोऽनिधिक उक्तेन्य पवातिचारेभ्यः, मात्मा स्वभावो येन स निषिद्धाऽऽस्मा। नैषेधिको नक्तनिर्वचना,
तस्याऽनिषिद्धस्य अनुपयुक्ततया गातो नैषेधिकोशम्दमात्र. तस्य प्राणिनः, जावतः परमार्थतः, नवति स्यात् । अयो.
मेव केवलं भवति, न भावतः। पाह-यदि नामेवं, तत एकासविपर्ययमाह-अनिषिकस्य तु भनिवृत्तस्य पुनः, सावद्या.
येतायाः किमायातम १, उच्यते-निषिद्धाऽऽत्मनो नेपोधिको दिति गम्यते । एषा नैषेधिकी, वाङमात्रं वागेच केवला,
भवतीत्युक्तम् । निरर्थकेत्यर्थः। भवति स्यात् , अटव्याऽवसेया । इति गायाऽर्थः । पञ्चा० २२ विव.।
श्रावस्सयाम्म जुत्तो, नियमनिसिको ति होइ नायव्यो। साम्प्रतं नैषधिकी प्रतिपादयन्नाहसेजं गणं च जहि, चेएइ तहिं निसीहिया होइ।
अहवा वि निसिघऽपा, नियमा भावस्सए जुत्तो।। जम्हा तत्य निसिद्धो, तेणं तु निसीहिया होइ ।।
आवश्यक मूलगुणोत्तरगुणानुष्ठानरूपे, युक्तः (नियमनिसिद्धो
त्ति होइ नायम्बो इति) नियमेन निषिको नियमनिषिद्ध इत्येवं शेरते भस्यामिति शय्या-शयनस्थानं, तां शय्यां शयनस्थानं भवति ज्ञातव्यः । आवश्यकेऽपि चाऽवश्यकयुक्तस्यैवेत्यत चेनि स्थानमूर्द्धस्थानं, कायोत्सर्ग इत्यर्थः । यत्र चेतयते 'चिती' एकार्थता । अथवेति प्रकारान्तरदर्शनार्थः, अपिशब्दस्य व्यथा संझाने । अनुनयरूपतया विजानाति, वेदयत इत्यर्थः । अथवा- हितः सम्बन्धः। निषिकामाऽपि नियमादावश्यके युक्तो,यतो वेतयते करोति, धातनामनेकार्थत्वात् । शयनक्रियां च कुर्व- ऽप्येकातेति । पाठान्तरम-“अदवा बि निसिकऽप्पा, सिद्धाणं ता निश्चयतः शय्या कृता भवति, ततश्च यत्र स्थपितीत्यर्थः । अंतियं जाइ ।" इति । अस्थायमर्थः-तदेव तावत् क्रियाया अ. चराब्दो वीराऽऽसनाऽऽद्यनुक्तसमुच्चयार्थः । अथ चा तुश-| भेदेन एकार्थता उक्ता, इह तु कार्याभेदेनकार्थतांच्यते । प्रधब्दार्थे एव्यः, म च विशेषणार्थः । किं विशिनष्टीति चेत् ?, बेति प्रकारान्तरे, निषिद्धाऽऽत्माऽपि सिद्धानामान्तकं समीप नच्यते-प्रतिक्रमणाऽऽद्यशेषकृतावश्यकः सन् अनुज्ञातो गुरूपां याति गच्चति । अपिशब्दादावश्यक युक्तोऽप्यतः कार्याभेदादे. शय्यां स्थानं च यत्र चेतयते, तत्र एवंविधस्थितिक्रियाविशिष्टे कार्थता । प्रा० म०१ अ०२ खण्ड । प्रा०चूछ । उत्तनिषे. स्थाने नैधिकी जवति, नाऽन्यत्र । किमित्यत आह-यस्मात्तत्र धेन स्वाध्यायव्यतिरिक्तशेषव्यापारप्रतिषेधेन निर्वृत्ता नेपेधिकी। निपिझोऽसौ, तेन कारणेन नेषेधिकी भवति,निषेधाऽऽत्मकत्वा- स्वाध्यायमात्रनिमित्ते स्थाने, व्य०१०। त्तस्या इति । पागन्तरं वा-" से जं गणं च जया, चेते तत्र का नषेधिकी, का वाऽभिशय्या ?, इति व्याख्यानयतितइया निसीहिया हो । जम्हा तया निसीहा, निसेहमइ. गणं निसीहिय ति य, एगटुं जत्य गणमेवेगं । या मसाजेण ॥१५" श्यमुक्तार्थत्वात्सुगमैव । अनेन प्रन्येन मू.
चिंतेति निसिहियं वा, मुत्त उत्पनिसीहिया सा उ । लगायया आवश्यकी निर्गच्छन् यां च श्रागच्छन नैषेधिः करोति, व्यञ्जनमेतद् द्विधेत्येतव स्थिीतरूपनषेधिकीप्रतिपाद
सकायं काकणं, निसीहियातो निर्सि चिय नवेंति । नं व्यजनभेदनिबन्धनमधिकृत्य व्याख्यातम् ।
अजिवसि जत्थ निसि, नवेति पातो तई सेजा ।। साम्प्रतममुमेवार्थमुपसजिहीर्घराह भाध्यकार:
तिष्ठन्ति स्वाध्यायव्यापृता अस्मिन्निति स्थानम् । निषेधेन आवस्सियं च नितो, जं च अयंतो निसीहियं कुणइ । स्वाध्यायव्यतिरिक्तशेषव्यापारप्रतिषेधेन निवृत्तानषेधिकी। ततः सेन्जानिसीहियाए, निसीहियाअभिमुहो होइ ।।
स्थानमिति वा नैषधिकीति वा (एगट्ठमिति) एकार्यम्,हावयेतो
तुल्याधाविति भावः। व्युत्पत्यर्थस्य द्वयोरप्यविशित्वात् । तत्र आवश्यकी निर्गन्छन् नैधिकीं करोति, तदेतद् व्याख्यात.
यत्र स्थानमेव स्वाध्यायनिमित्तमेकं,न तु ऊर्च स्थानं, स्वम्बर्तन. मिति शेषः । उपलकणमेतत् । ततः सह तृतीयपादन व्य.
स्थान था। चेतयन्ति निशि रात्रौ,दिवा वा, सा स्त्रार्थहेतुभूता जनमतद् द्विधेत्यनेनेति व्यम् । साम्प्रतमर्थः पुनर्भवति,
नैपेधिको । एतेनास्मिन् या नैषेधिक्युक्ता सा सूत्रार्थप्रायोग्या स एव गाथाऽवयवार्थः प्रतिपाद्यते । तत्र इत्थमेक एवार्थों
नैपेधिकी प्रतिपत्तव्या, न तु कालकरणप्रायोग्या मैधिकी प्रभवति । यस्मान्नैपेधिक्यपि नावश्यकर्तव्यव्यापार गौचरता.
तिपत्तव्या । किमुक्तं भवति ?-यस्यां नषेधियां दिवा स्वाध्याय मनीत्य वर्तते, ततः संयमयोगानुपासनायाशेषपरिज्ञानार्थ
कृत्वा दिवैव, यदि वा निशि च स्वाध्यायं कृत्वा निइयेचेत्यमाह-( सेज्जानिसीहियाए, निसीहियाअभिमुहो हो इति)शस्यैव नैषेधिको शय्यानधिकी, तस्यां शय्यानधे
व, निशायामवश्यं नैवेधिकीतो वसतिमुण्यन्ति, सा नै
धिकी, यस्यां पुनषेधिक्यां दिवा निशायां वा स्वाध्यायं धिक्यां विषयभूतायाम्. किं शरीरमपि नैपेधिकीत्युच्यते !,इ.
कृत्वा रात्रिमुषित्वा प्रातर्वसतिमुपयन्ति (तई इति.) तका त्यत पाह-शरीरनैषेधिक्या करणनूतया आगमनं प्रत्यभि
अजिशय्या अनिनिषधेति भावः । व्य० १२० । सोपनवेतरामुखः, ततः संवृतगात्रैः साधुभिर्भवितव्यमिति संज्ञां करोति,
यां स्वाध्यायभूमी, स०२२ सम० । झा । स्था० । " सिज्जा सतोऽवश्यकर्त्तश्यव्यापाररूपत्वाद् नेषेधिक्यप्यावश्यकीत्येक
निलीहियाए य,समावन्नो य गोयरे।" शय्यायां वसती चेधिपवार्थः। पतदेव सुव्यक्तं जावयति
क्यां स्वाध्यायनुमौ शय्यैव वाऽसमञ्जसनिषेधाधिकी, तस्यां
समापन्नः । दश०५० २०० । स्वाध्याय करणे, उत्स०२६५०) जो होइ निसिऽप्पा, निसीहिया तस्म भावतो हो।।
शवरिष्ठापनमौ,अनु० । गृदाऽऽदिव्यापारपरिहारे, सहा.१ अनिसिचस्स निसिहिया, केवलमेचं हवइ सहो ।। अधि०१प्रस्ता।
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(२१४७) मिसीहियापरिसह
अभिधानराजेन्द्रः । मिसीहियापरिसह-नषेधिकीपरिषह-पुं०। निषेधनं निषेधः पमिमंदियसकाठिया,अग्गी सीसम्मिजाले
तिशउत्तनिक पापकर्मणां गमनाऽऽदिक्रियायाश्च, स प्रयोजनमस्या नैधिकी, निष्क्रान्तःप्रवजितो गजपुरात् कुरुदत्तसुतो, गतश्च साकेतश्मशानाऽऽदिस्वाध्यायाऽऽदिभूमिनिषधेति यावत् सैवच परिष. म्, प्रतिमास्थितस्य (कुटिय ति) तगवेषकाः, अग्नि शिरसि हो नेषेधिकीपरिषहः । उत्त०२ अगषेधिकी स्वाध्यायभूमिः ज्वालयम्तीति गाथाडकरार्थनमावास्तु बसम्प्रदायादवसे. शून्यागाराऽऽदिरूपा,तत्परिषहणं च तत्रोपसर्गेभ्य त्रासः। भ०७ थः । उत्त• ३० श•०००।निषद्यापरिषदो यथा-"इमशानादौ निषद्यायां, अथ कुरुदत्त (सुत) साधुकथा-भत्र नैषेधिकीपरिषहः । ख्यादिकराटकवर्जिते । उपसर्गाननिष्टेष्ठान, निरीहो निर्भयः कोऽर्थः?, यथा प्रामाऽऽदिषु अप्रतिबद्धेन चर्यापरिषहः सह. सहेत् ॥१॥" ध०२ अधि०। "इमशानाऽऽदिनिषधास्तु,स्यादि- नीयः, तथा शरीरेऽप्रतिबद्धन नैषधिकीपरिषदः सहनीयः । कण्टकवर्जिते । उपसर्गाननिष्टेष्टा-नैफोनीरस्पृहः क्षमेत् ॥९॥" नषेधिको नाम शरीरमित्यर्थः । अथ कथा-हस्तिमागपुरेभ्व. मा० म. १०२नएक।
पुत्रः कुरुदत्त (सुत) नामा प्रवजितः विहरन् क्रमात् साकेपतदेव सूत्रकार पाह
तपुराददूरप्रदेशे प्रतिमायां स्थितः । तत्र चरमपौरुष्यां गोधना
पहारिणधीराः समायाताः, तत्पृष्ठे त्वरितं गताः, पश्चाद् मसाणे सुन्नगारे वा, रुक्खमूझे व एगो ।
गोस्वामिनः समायाताः। तैश्चौरमार्गस्वरूपे पृष्टेस यतिः न मकुक्कुओ निसीएज्जा, न य वित्तासए परं ॥३०॥ |
किञ्चिद् ब्रूते । ततः संजातकोस्तैः शिरसि मृत्पासिं कृत्वा(सुसाणे ति ) शवानां शयनमस्मिन्निति श्मशानं, तस्मिन् |
बाराः किप्ताः, स यतिर्मनामनपस्तः तां वेदनामधिसहमामः पितवने, श्वभ्यो हितमिति वाक्ये "उगवादिभ्यो यट" | सिकिंगतः । उत्त०२ अ०। १२॥ इत्यत्र "शुनः संप्रसारणं दीर्घत्वम्।" (चा०) इति णिसीहियारय-निशीथिकारत-त्रि.। स्वाध्यायभ्यायिनि, मावचनतो यति संप्रसारणे दीर्घत्वे च शून्यम्, तच त- चा. २ श्रु.१० ३ ०। दगारं च शून्यागारं, तस्मिन था । वृश्यत इति वृत्तः, तस्य | मिसीहियासत्तिक्कय-निशीथिकासप्तकक.न. । प्राचारामूलमधो भूभागो वृक्तमूलं, तस्मिन् वा, एक उक्तरूपः, स पवे.
स्य वितीयश्रुतस्कन्धस्य सप्तककस्याप्टमाध्ययनस्य द्वितीये ककः, एको वा प्रतिमाप्रतिपत्त्यादौ गच्छतीत्येकगः, एकं वा क
निशीथिकाप्रतिपादकेऽध्ययने, प्राचा.२ ०२चू० । स्था। मसाहित्यविगमतामोकं गच्छति तत्प्राप्तियोग्यानुष्ठानप्रवृत्ते.
विसुअ--देशी-श्रुते, दे० ना०४ वर्ग २७ गाथा। योतीत्येकगः, अकुक्कुचोऽशिष्टचेष्टारहितो, निषीदेत् तिष्ठत, न च नैव, वित्रासयेत परम अन्यम् । किमक्तं भवति ?- दिणिमुंभ-निशुम्न-पु.। पञ्चमे प्रतिवासुदेवे, प्रव० २११द्वार। पमिवज्जिया मसाणे, नो भायर भयन्नेरवाइंदिस्स । विचिद्ध- ति। भाव० । पातिते, दे. ना.४ वर्ग ३६ गाथा। गुणतवोरए य निश्छ, सरीरं चानिकंखए स भिक्खू॥"इत्यागाणिसंजण-निपातयत-त्रि.। भूमौ पातयति, सूत्र०१६०५ ममनुमरन् श्मशानाऽऽदावप्यककोऽप्यनेकभयानकोपलम्भेऽपि | ०१०। न स्वयं संविभीयाद, न च विकृतस्वरमुखविकारादिभिरन्यषांजा -निसाना-स्त्री० । बलेवरोचनेन्स्य पानामग्रमभयमुत्पादयेत्। यद्वा-(अकुक्कुर त्ति) अकुक्कुचः कुष्टचादिवि. राधनानयात्कर्मबन्ध हेतुत्वेन कुत्सितहस्तपादाऽऽदिभिरस्यन्द
हिण्याम्, स्था०४ ठा०२ उ०। झा । (मस्याः पूर्वोत्तरजन्मकथा मानो निषादेत् । न च बित्रासयेत् विक्षोभयेत, परमुन्दुराऽऽदि ।
| अम्गमाहसी' शब्दे प्रथमभागे १७० पृष्ठे नक्ता) मा भूद संयम इति सूत्रार्थः ॥ २० ॥
णिस--निपातित--त्रि० । “केनाप्फुयाऽदयः" ॥८।४। तत्र च तिष्ठतः कदाचिपसर्गोत्पत्ती यत्कृत्यं तदाह
२७५॥ इति निपातितशब्दस्य निसुहाऽऽदेशः। प्रा०४ पाद । तत्थ से अत्थमाणस्स, उवसग्गाऽभिधारए ।
णिमुढ-नम-धा० । नतो, भाराऽऽक्रान्तेर्नमेणिसुढ इत्यादेशः। संकाजीओ न गच्छेजा, उहित्ता अन्नमासणं ॥ २१ ।।
"णिसुटर'। भाराऽऽक्रान्तो नमतीत्यर्थः । प्रा०४ पाद । तत्रेति श्मशानाऽऽदो 'से' तस्य तिष्ठतः । तथा च-णिमुराणमनल
| णिसुणिकण-निश्रुत्य-अन्याश्रवणं कृत्वत्यर्थे,जीवा०१मधिला 'प्रथमाणस्स ति' प्रासीनस्य, उप सामीप्येन सृज्यन्ते तिर्य-णिज्जा-निषद्या-स्त्री.स्त्रीवसतो, स्त्रीभिः कृतायां मायाग्मनुष्यामरैः कर्मवशगेनाऽऽत्मना वा क्रियन्त इत्युपसर्गाः, ते.
गा, ते. याम, “तम्हा समणा समेति आयदियाए समिसेजाए।" भिधारयेयुः अन्तर्भावितेवार्थत्वादभिधारयेयुरिव । कोऽर्थः- सुत्र.१ श्रु.४०१3०। पण्यशालायाम, हट्टे, कुरुखट्टा. उत्कटतयाऽत्यन्तोत्सितारपुवदभिमुखीकुर्युरिव । यथैते सह्या याम् । वाचा 'णिसज्जा' शब्दार्थे च । प्रव० ६७द्वार। वय, तत्प्रगुणीभूयाऽनिमुखैः स्थेयमिति । यद्वा-सोपस्कारवा.
जिसेय-निषेक-पुं०।कर्मपुलानांप्रतिसमयानुनावरचनायाम, स सूत्राणाम, उपसर्गाः सन्नवेयुस्ततस्तानभिधारयेत् । किमेते ममाचत्रितचेतसः कमलमिति चिन्तयेत् । पठ्यते च-"उव.
स्था०६ गामाचा गर्भाधाने, “निषेकाऽऽदि श्मशानान्तसम्गभयं नवे।" इति सुगमम् । शङ्कानीत इति । तत्कृतापका
म्।" इति मनुः । वाच। रशङ्कातो भीतनास्तो न गच्छन्न यायाऽत्थाय । कोऽर्थः१-त-णिसेविय-निषवित-त्रि. । मासेविते, मा. म.१०१ रस्थानमपदाय अन्यदपरम्, प्रास्यतेऽस्मिनित्यासनं स्थान- स्वपम । आश्रिते, उत्त. २०० मिति सूत्रार्थः ॥ २१ ॥ उत्त० पाई. ३ प्र.।
|णिसेह-निषेध-पु०। पिध' गत्यामस्य निपूर्वस्व पनि निषेधनं णिक्खंतो गयपुरो, कुरुदत्तसुभो गोय साएए। निषेधः। प्राब०३ अनिवारणायाम, पश्चा० ११विव.।
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(१९४७) णिसेहण अनिधानराजेन्धः।
हिस्सागण पिसेरण-निषेधन-न० । पारणे, मा. म.१०२ खण्ड। कशिष्याऽऽदीनामात्मनो वा गादेनिगमेण प्रसन्ने पुरुष
जाते, स्था०४ ठा.२०। णिसाणा-निषेधना-सी।वारणायाम् माप०१०।
णिस्सरिअ-देशी-मस्ते, दे० ना.४ वर्ग.गाया। बिसेहिया-नषेषिकी-खी। निपिश्यन्ते निराक्रियातस्यां क
णिस्सल-निश्शय-त्रि.। मिथ्यादर्शनाऽऽविशल्यरहिते, स. माणीति नैपेधिकी निर्वाणभूमिः। "कृत्यल्युटोन्यत्रापि"इत्या. ६ सम । प्रा०म० उत्स। पिपडणवलादल्युह । यदि वा निषेधे सकसकर्मनिराकरणल
हिस्सह-निःसह-त्रिक। नितरामशक्त, स.भ.। सोनचा नषेधिकी । मुक्तिगतो, उत्स.१.भ.। शवपरिष्ठा पनानूमी, ग०५भधिः । निषीदनस्थाने, घरकटसमीपे नि.
णिस्ता-निश्रा-श्री. रागे, न्य०१.पक्षपाते, ज्य०॥४॥ सम्बे, जी. ३प्रति०४०।
उपसंपदि, न्य० ४ लामाश्रयणे, भ० ३ २०२ उ०। पिस्फल-निष्फल-त्रि० । " सपोः संयोगे सोनी"
हिस्साठाण-निधास्यान-न । यलम्बनस्थाने, उपग्रहहे
तो, स्था। २७ । वि सकारसंयोगे स एव प्रा० ४ पाद। फारहिते. प्रा०४पाद।
धम्म चरमाणस्स पंच णिस्सागणा पक्षाचा । तं नहाहिस्संक-निःशहर-त्रि.निर्दय,शहपरलोकाशारहिते,ज्य. छकाया, गणो, राया, गाहा, सरीरं । १.४०। शङ्काया प्रभावो निःशम्। संशयानाचे, पक्षा..
धर्म श्रुतचारित्ररूप, पमित्यलरकारे,चरतः सेवमानस्य, पत्र विव० । निर्गता शका देशसर्वशङ्कारूपा यस्य स निःशस्कः ।
निधास्थानाम्यवसम्बनस्थानानि, उपप्रहदेतब इत्यर्थः । पट्सत्र०२४०७०। प्राचा० । शङ्कारहिते, उत्त०१९ प्र.।
कायाः पृथिव्यादयः, तेषां च संयमोपकारिता मागमप्रसिका। निर्भरे, दे. ना.४ वर्ग ३५ गाथा।
तथाहि-पृथिवीकायमाश्रित्योक्तम्हिस्सकिय-निःशान्ति- त्रिशङ्कन शङ्कितं शङ्का,निर्गतं शद्धि
"ठाणनिसीयतुथरण-उच्चाराईण गहणनिक्खये।
घट्टगमगलगलेवो, एमा पोषणं बहुहा ॥१॥" सं यस्मादसौ निःशाइकितः । देशसर्वशङ्कारहिते, व्य० १००।
अपकायमाश्रित्यपश। ध.।ग । नि०पूस.स्था । निःसंशये,रा।
"परिसेयपियणहत्था-धोयणे पारधोयणे चेष। शनं शक्ति देशतः सर्वतब शESSत्मकर । तस्याभावो
भायमणभाणधुवणे, एमा पमोयणं बहा ॥२॥" निःशकितम । उस० २० म.प्र. संशयाभाषे नि:
तेजस्कायम्प्रतिसंदहे, औ०।
“ोयणवंजणपाणग-पायामुसिणोदगं च कुम्मासा । णिस्संग-निस्सङ्ग-त्रि.। बाह्याभ्यन्तरसारहिते, मा.म.१ मगलगसरफ्वस्श्य-पिप्पलमाई य उवभोगो॥३॥" म.१ खण्ड । उत्तपुत्रकलत्रमित्रधनधान्यहिरण्यसुवर्णाs.
पायुकायमभिदिसकनसम्बन्धविकले, पा० । प्राव।
"दापण पत्थिणा चा, पमओयणं होज पाउणा मुणिणो । णिसंचार निस्संचार-त्रिका द्वारापनारैजनप्रवेशनिर्गमवर्जि
गेसएणम्मि वि दोजा, सचित्तमासे परिहरेज्जा ॥"
वनस्पति प्रतिते, का० १ श्रु०८०।
"संथारपायदंग-खोप्रियकप्पायपीढफलगाई। हिस्सत-निःशान्त..त्रि० । नितरामतिशयेन शान्त उपशमो प्रोसहभेसबाणि य, पमा पोसणं तरुसु॥॥" ন: ধন্যবাৰ অহয় ময়লা5ান লিঃ
वसकाये पश्शेन्द्रियतिरश्च प्राधियोक्तम्म्तः। स०१०। अत्यन्तमन्दनूते, रा०।
"चम्मऽट्टितनहरो-मसिंगप्रमिलाणगणगोमुत्ते । हिस्संधि-निस्सन्धि-
त्रिनिर्विवरे, “णिस्संधिवारविरहि- बीरदहिमाश्याणं, पंचिदियतिरियपरिभोगे" ॥६॥ या।" प्रश्न प्राध० द्वार ।
एवं विकलेम्झियमनुष्यदेवानामप्युपग्रहकारिताबाच्या। हिस्संस-निःशंस-त्रि० । श्लाघारहिते, प्रभ• २ भाभ०द्वार।
तथा गणो गया, तस्य चोपग्राहिता-"एगस्स को धम्मो,
इत्यादिगायापूगादवसेया । णिसंसय--निस्संशय-त्रि० । संदेहाभावे, "ततो शिजीवं नि
तथासंसयं मुणिकण । " मा०म० अ०१ सपड । सूत्र । "गुरुपरिवारो गच्चो, तत्थ वसंताण निज्जरा बिउला। हिस्सास-निःसन्न-त्रि० । नष्टस, सूत्र० १४० ५०
विणयाउ तहा सारण-माईहिन दोसपमिषत्ती ॥७॥ मनसावेक्शाए, जागतितार्ह पयस्तो।
नियमेण गच्छयासी, प्रसंगपयसाहगे नेभो ॥७॥" इति। णिस्सयर-नि:स्वकर-न० । स्वकर्मानादिसम्बन्धवानदपन
तथा राजा नरपतिः, तस्य धर्मसहायकत्वं दुष्टेभ्यः साधुरत. यनसमर्थानि निःस्वकराणि । कर्मविश्लेषकेषु, माचा० २ ० गात्। ४ चू० १३.।
सक्तं व लौकिकैःहिस्सरण-निःमरण-न०। पलायने, व्य० १३. । निर्गमे,
क्षुबोकाकुले लोके, धर्म कुर्युः कथं हि ते ।
काम्ता दान्ता प्रहन्तार-हाजा तान रक्कति ॥१॥" स्था०४०२ उ०।
तथाहिस्सरणणंदि निःसरणनन्दिन्-त्रि.। निःसरणेन | "अराजके हिलोकेजस्मिन्, सर्वतो विहते भयाव।
नान्दवा यस्य सनिःसरगनन्दी। प्राप- रक्षार्थमस्य सर्वस्थ, राजानमसुजस्मतुः ॥ २॥" इति।
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हिस्सागण
(२१४९) अभिधानराजेन्दः ।
गिस्सेयस
तथा--
सपा गृहपतिः शय्यादाता, सोपि निवास्थानम् , स्थानदानेन पिस्सिचिय-नि:षिच्य-भव्य । तद्भाजनारूदितं म्यमन्यत्र संयमोपकारित्वावा
भाजने कृत्येत्यय, दश०५०१ उ०। यदुक्तम्"वृतिस्तेन दत्ता मतिस्तेन दत्ता,
पिस्सिय-नि:श्रित-त्रि. । 'श्रिम्' सेवायाम्। प्रा०.४७०। गतिस्तेन दत्ता सुखं तेन दत्तम् ।
निश्चयेन मितः संबद्धो नि-धितः । अध्युपपन्ने, सूत्र० १ ०२ गुणश्रीसमालिमितेच्यो यरेन्यो,
प्र. ३ उ० । संबके, प्रवृत्ते, प्रतिबके सूत्र. १७. १. मुनिभ्यो मुदा येन दत्तो निवासः" ॥१॥
म. । प्रश्न । लिङ्गप्रमिते, स्था० ६ ० । सम्म ।
आश्रिते, स्था०१० ठा० । स० । सूत्र० । प्रासक्ते, सत्र “जो देश उवमयं जश्-वराण तवनियमजोगजुत्ताणं।
१७.१०१०। भावे क्तः। रागे, आहारादिलिप्सायाम, तेणं दिया बत्थ-ऽपाणसयणासणविगपं" ॥१॥ इति ।
स्था.Ga101 निश्रा रागः,निश्रा संजाताऽस्योति निधितः रक्ते, तथा शरीरं कायः अस्य च धर्मोपग्राहिता स्फुटैन ।
सर्वाऽऽशंसायुक्ते, शिष्यस्वाऽऽदिप्रतिपन्ने, स्या०५ ०२०। यतोऽवाचि
निःमत-त्रि.निर्गते, स्था०७०। प्राचा० । “तं चिय "शरीरं धर्मसंयुक्तं, रक्षणीयं प्रयत्नतः।
सरूवा जं, अणिस्सियम्मि ति" तमेव लिनिश्रया जानानो शरीरात् श्रयते धर्मः, पर्वतात्सलिलं यथा" ॥१॥ इति। निःसृतं मुणतीत्युच्यते । विशे। नवति चात्राऽऽर्या
गिस्सील-निःशील-त्रिका निर्गतशुजस्वनावे दुःशी से,स्था०३ “धर्म चरतः साधो-लोके निश्रापदानि पञ्चैव ।
ग.१००।सुस्वभाववर्जिते, स्था० ३.२ उ.। गताss. राजा पृहपतिरपरः, पटकाया गणशरीरेच" ॥१॥
चारे, जं० २ वक्व० । समाधानरहिते, भ०१२ श०८ उ. प्र. इति। शेष सुगमम् । स्था०५1०३००।
पगतशुभस्वभावे,ज्ञा०११०१८ अ । महावताणुवतविकसे, णिस्साण-निश्राप-न । पालम्बने, “णिस्साणपेदित्ति प्रय
भ०७श.६ उ० । ब्रह्मचर्यपरिणामानावात (दशा०५ प्र.) घातपेदि ति बुसं नवति ।" निच०१ उ०। प्रश्न
गृहस्थे, सूत्र.१०१०१० । (निःशीलानां त्रैविध्य हिस्साएपय--निश्राणपद-नका निधायते मन्दधाकैरासन्य- 'लोग' शब्दे वक्ष्यते)
ते इति निशाणं,तश्च तत्पदं च निश्राणपदम् । अपवाद.१०।। तओगणा णिस्सीलस्स णिबयस्स णिग्गुणस्स हिम्मेणिस्सार-निःसार-प्रि० । सारवर्जिते प्रजलिपायगुणधान्ये, रस्स णिप्पञ्चवारणपोसहोववामस्म गरहिया भवति । तं स० ६अ। सारो हि विषयगणरसतरप्राप्ती तृप्तिस्तदभा. जहा-अस्सि लोए गरहिए भवइ, उपवाए गरहिए जवा, बानिःसारम् । तथापिघलाररहिते, प्राचा० १ ० ३ ०२ पायाश्गरहिए नवा । तमो गणा ससीलस्स सव्वयस्स १०। जीणे, प्राचा०१ श्रु०४ अ०३ वेदवचनाऽऽदिवत्तथाविधयुक्तिरहिते परिफल्गुश्रुते, अनु० । विशेः । यत्र सारोऽर्थो
सगुणस्स समेरस्स सपञ्चक्खाण पोसहोववासस्स पसत्या माविद्यते अस्थि चर्म शिनापृष्ठं वृक्ष इति । वृ०१० ।
भवंति । तं जहा-अस्सि लोगे पसत्ये भवर, उपचाए णिस्सारथ-निस्सारत-त्रि०। निर्गत एकान्ततः सारNT- पसत्थे जवइ, अायाए पसत्ये भवइ ।। रित्राऽऽस्यो यस्य स निःसारः । यदि वा निगंतस्थ सारो निः- ( तो गणा इत्यादि ) त्रीणि स्थानानि निःशीलस्य सासारः,स विद्यते यस्यासी निःसारवान् । साररहिते, "णिस्सा. मान्यन शुभस्वभाववर्जितस्य, विशेषतः पुनर्निव्रतस्य प्राणारए होश जहा पुत्राए ।" सुत्र०१७.७ अ०।
तिपाताऽऽधनिवृत्तस्य निर्गुणस्योत्तरगुणापेकया, निर्मर्यादस्य णिस्तारिय-निम्सारित-त्रिः । संयमाच्याविते, विषयोन्मु.
लोककुलाऽऽद्यपेक्षया,निःप्रत्याख्यानपोषधोपवासस्य गर्हितानि खतामारादिते, सूत्र.१७०१४ भ०।
जुगुप्सितानि भवन्ति । तद्यथा-(अस्सि ति ) विभक्तिहिस्सावयण-निश्रावचन-न० । निश्रया वचनं निधावचनम् । परिणामादयं लोकः 'दं जन्म' गर्हितो भवति, पापप्रवृश्या माहरणतशभेदे, स्था० । कमपि सुशिष्यमासम्म्य यद- विद्वज्जनगुप्सितत्वात् । तथा उपपातोऽकामनिर्जराऽऽदिजनितः न्यप्रबोधार्थ वचनं निश्रावचनं, तद्यत्र विधेयतयोच्यते त. किल्बिषादिदेवभवो नारकभवो वा, उपपातो देवनारकाणादाहरणं निभावचनम्-यथा असहनान् धिनवान् मार्दवसम्प. मिति यचनात्,स गर्हितोभवति,किल्यिचाजियोभ्याऽऽदिरूपतयेअमन्यमालय किश्चिद् ब्रूपात,गौतममाश्रित्य जगवानिवेति । ति,प्राजातिस्तस्मात् च्युतस्योत्तस्य वा कुमानुषत्वतिर्थक्त्व. तथाहि-किल गौतम तापसाऽऽदिप्रवजितानां केवझोत्पत्तावन- । रूपा गहिता, कुमानुषाऽऽदित्वादेवेति । उक्तविपर्ययमाह (तम्रो स्पषवसत्येनाधृतिमन्तं चिरसंपुष्टोऽसि गौतम!, चिरपरि- इत्यादि) निगइसिद्धम् । स्था० ३ ग०२ उ.। चितोऽसि मौतम, मा स्वमधृति फारित्यादिना पचनसंदो- |णिस्सणिण-नि:श्राण-ख
|णिस्सेणित-निःश्रेणि-श्री. । अवतरण्याम्, प्रश्न०१आश्र. हेनानुशासयताऽन्ये ऽप्यनुशासिताः, तदनुशासनार्थ तुमपत्र- | द्वार । श्राचा। काध्ययनं च प्रणिन्ये इति । उक्तंच-"पूच्चाएँ कोणिो ख- मेयम-निःश्रेयम-प्र० । निश्चित श्रेयः प्रशस्यम् । म.निस्साययणम्मि गोयमस्सामी।" स्था०४ ठा०३ उ.।
स्था० ३ ०४ उ. । कल्याणे, स्था० ६ ० । कर्मपिस्सिचमाण-निस्सिन्चत-त्रिका दत्त्वोचरितं प्रतिपति, "उ
यहेतुत्वात (माचा० १ ० ० ० ४ उ.) भन्युदस्तिचमाणे वा निस्सिचमाणे वा प्रामज्जमाणे वा पमज्जमाणे यप्राप्ती. स०ए० मिश्चितकव्याणे मोदो, दशा०४ म०। था।" प्राचा०२०१०६०६ उ०।
| मोके, नि.१७०१ वर्ग १०। स्था। श्री०।०।दशा। ५३८
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(२१५०) हिस्सेयस अभिधानराजेन्छः।
मिहि मा० म०। ध० । स्था० । अभिलषितविषयावाप्याऽज्युदये, श्वयन हन्यते शति निहतः । नावरिपुभिरिन्द्रियकषायकर्मउत्स०अ०।
भिईन्यमाने, आचा•१७०४० ३०॥ हिस्सेयसिय-नैःश्रेयमिक-त्रि० । निःश्रेयसं विपदमाक्षमिच्च-णिहयकंटय-निहतकण्टक-त्रिका निहता मारणात्कएटका दातीति नैःश्रेयसिकः। भ० १५ श० । निःश्रेयसं मोका,तत्र नियुक्त | यादा यत्र राज्ये तत् तथा । मारितदायादे, स्था० एम०। श्व नैःश्रेयसिकः । मोक्षयोग्ये माहार्थिनि, प्रतिकाभ।
णिहयरय-निहतरजम्-त्रि० । निहतं रजो नूय उत्थानासम्भ. णिस्सेस-निःशेष-त्रि० । सम्पूर्णे, दश.९ ०२०।
बाद यत्र तनिहतरजः। शान्तरजमि, रा० ।"अप्पेगतिया णिस्सेसकम्ममुक-निःशेषकर्ममुक्त-त्रि० । कोणसकनकमणि,
देवा णिइयरयं णट्ररयं भट्टरय नवसंतरयं पसंतरयं करेति।"
निहतं रखो यस्यां सा निहतरजास्तां, तत्र निहतत्वं रजसकपञ्चा०विव० ।
णमात्रमुत्थानामावेनाऽपि सम्भवति। जी० ३ प्रति०४०। णिह-निज-त्रि.। सर, प्रा०म० १ अ. १ खण्ड ।
रा.। निह-त्रिका निहन्यते निह निपूवार्द्धन्तेः कर्मनिमः। माचा
णिहयसत्तु-निहतशत्रु-त्रि० । निहता रणाणे पतिताः शत्रयो
यत्र तनिहतशत्रु । हतशत्रुके, " श्रोहयसनु णिहयसमाब१७०५ अ०३ उ० । मायिनि, सूत्र० १ श्रु०६ अकोधाss
यस निजियसचु।" रा०। स्था० । सत्र। दिभिः पीमिते, सूत्र०१(०२०१०। निहन्यते प्राणिनः
णिहुव-कम-धा० । इच्छायाम, “कमेणिवः"॥८॥ ४४॥ कर्मवशगा यस्मिन् तबिहम् । माघातस्थाने, सूत्र. १ श्रु०५ प्र.२००।
कमेः स्वार्थ एयन्तस्य णिहुवोत्यादेशः। णिहुवर' । 'कामो।'
प्रा०४ पाद। निह-त्रि०ा निह्यते श्लिप्यते अष्टप्रकारेण कर्मणा शति लिहः।
णिहस-निकष-पुंग। “ निकष-स्फटिक-चिकुरे हः"॥७॥ रागवति, आचा० १७० ४ ० ३ उ• 1 रागद्वेषयुक्ते, प्राचा
॥१८६॥ इति कस्य हः । प्रा०पाद । "शयोः सः" ॥८/१२६०॥ १६०५ ० ३ उ० । ममत्वसहिते, सूत्र० १ श्रु० २ १०२ उग
इति षस्य सः प्रा० १ पाद । कषपट्टकरेखायाम्, प्रशा०१७ बिह-निईत्य-अव्य० । पृथक् कृत्वेत्यर्थे, " बहु मट्ठियं मंसं | पद २ उ० । वल्मीको देना.४ वर्ग २५ माथा । पडिभाएत्ता णिहटु दलपज्जा।" प्राचा. २७.१.१णिहा--निहा-स्त्री०। निहन्यन्ते प्राणिनःसंसारे यया सानिहा। भ.१.२०॥
मायायाम, सूत्र. १०८०। निहत्य-अन्य० । स्थापयित्वेत्यर्थे, का० १७०१६ मा णिदाश्र-देशी-स्वेदे,समूहे च । देना०४ वर्ग ४ए गाथा। णिहट-निघष्ट-त्रि० । कतनिधर्षे, " तहिासणिहाणंग | "Imm-निधान--10 | रत्नाऽऽदी, स्वा० ५.१ उ० । निधी, प्रा० २ पाद ।
अनु। मिक्किप्ते, “दब्बे निहाणमाई।" दश०००। बिह-निधन-न। विनाशे, सम्म०१काण्ड । पर्यन्ते,..णिहाय-निधाय-अन्य व्यवस्थाप्येत्यर्थे, सनिधि कृत्व शं०४ तव । “ तव णिहणमुवगतो।" श्रा.म.१.१ थे,सूत्र. १७०७० । परित्यज्यत्यये, खत्र.१७० १३ मा खएम । "णिहणाहि रागदोसमझे।" कल्प०५ क्षण । कूले, देविहार-निहार-० । मिर्गमे प्रमाणे स्था. ८०। ना०४ वर्ग २७ गाया।
णिहालेलं-निजास्य-अध्य० । सम्यग्विलोक्येत्यर्थे, ग. २ णिहणिमु-निहतवत्-किप्तवति, भाचा० १ ० १ ० ३ ००।
अधि। सम्यकपरीक्ष्येत्यर्थे, ग०१ अधिः। णिहत्त-निधत्त-न.1 निधानं निहितं वा निधतं, मावे कर्मणि णिहि-स्त्री० पुंनिधि-पुं० । नितरां धीयते स्थाप्यते यकप्रत्यये निपातनात् । नद्वर्तनापवर्तनावर्जितशेषकरणानामयो- स्मिन् सनिधिः। प्राकृते "वेमाजल्याचाः खियाम" ॥१॥३५॥ ग्यत्वेन कर्मणावस्थापने, स्था०४०२ उ०। भ• । निषिक्ने । इति वा स्त्रीत्वमा प्रा०१पाद । विशिष्टरत्नसुवर्णादिद्रव्यनिषेकश्च प्रतिसमयबहुहीनहीनतरस्य दलिकस्यानुभवनार्थ भाजने, स्था। रचना (स.। स्था० । सूत्र०) निश्चिते, प्रमाणे, निकाचिते, पंच णिहपएणता । तं जहा-पुत्तविही, मित्तणिही, "मागहस्सगं जोयशस्स अधणुसहस्लानिधसे पपणसे।"
सिप्पणिही, धनणिही, धन्नणिही । स्था० ठा।
तत्र निधिरिव निधिः, पुत्रश्चासौ निधिश्व पुत्रनिधिद्रव्योपार्जणिहात्त-निधत्ति-स्त्री० । उद्वर्तनापवर्तनावर्जशेषकरणाऽयोग्य
कत्वेन पित्रोनिर्वाह हेतुत्वात्,अत एव स्वभावेन च तयोरानन्दसुत्वेन व्यवस्थापने, क० प्र०१ प्रक०।
खकरत्वाच । अत्रोक्तं परैः-“जन्मान्तरफलं पुण्यं, तपोदानसणिहम्म-निहम्म-धा० । गती, 'णिहम्म'।'णीहम्मद ।' मुद्भवम् । सन्ततिः शुद्धवंश्या हि,परत्रेहन शर्मणः॥१॥"इति। आहम्मद' । 'पहम्मद ।' इत्येते तु हम्मगतावित्यस्यैव म
तथा मित्रं महत्तञ्च तनिधिश्चेति मित्रनिधिरर्थकामसाधक. विष्यन्ति । गच्चति । प्रा०४ पाद ।
त्वेनाऽऽनन्दहेतुत्वात् । तदुक्तम्- "कुतस्तस्यास्तु राज्यश्रीः कुत
स्तस्य मृगेकणाः । यस्य शूरं विनीतं च, नास्ति मित्रं विचक्षबिहय-निहत-त्रि० । मारिते, "जक्या हुबेवावमिवं करेंति, पम्"॥२॥शिप चित्रादिविज्ञान, तदेव निधिः शिल्पमिधिः। वाहा उ पप णिहया मारा।" (३२) उस०१२ अनि- तपोपलक्षण,तेन विद्या निधिरिव पुरुषार्थसाधनत्वात्।
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चिदि
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प्रत्रोक्तम्- " -" विद्यया राजपूज्यः स्यात्, विद्यया कामिनीप्रियः । विद्या हि सर्वलोकस्य, वशीकरण कार्मयम् " ४२॥ इति । तथा धननिधिः कोशः। धारयनिधिः कामारमिति । अनन्तरं निधिका सच इयतः पुत्राऽऽदि मावतस्तु कुशलानुष्ठानरूपं ब्रह्म । स्था० ॥ ता० ३ उ० । भाएकागारे, झा० १ ० ३ म० । महापुरुषाणां चक्रवर्तियां संबन्ध निधिप्रकरणमाहएगमेगे णं महानिही नवनवजोयणाई विक्खनेणं पाते। एगमेगस्स णं रथो चाउरंदचहिस्स नव महानिहीओ पछताओ । तं जहा
नेस पंकुए पिं-गजेय सन्त्रस्य महापचमे । काले व महाकाले, माणवगमहानिड़ी संखे ॥ १ ॥ "गमेगे" इत्यादि सुगमम् नबरं
नेसपम्मि निवसा, गामागरनगरपट्टणाणं च । दोगणमुदमवाणं, संधाराणं गिहाणं च ॥२॥
( ११५१ ) अभिधानराजेन्द्रः ।
इह नियानायकदेवयोरभेदविवक्षा नेसपों देवः तस्मि म्सति, तत इत्यर्थः । निवेशाः स्थापनानि अभिनवप्रामादीनामिति । अथवा चक्रवर्तिराज्योपयोगिन्यादि सर्वा या नव निधिष्ववतरन्ति नवनिधानतया व्यवहियत इत्यर्थः । तत्र ग्रामाऽऽदीनामभिनवानां पुरातनानां च ये स. विदेश निवेशनानि ते सर्पनिधी वर्तन्ते सर्पनिधितया व्यवाहियन्त इति भावः । तत्र ग्रामो जनपदप्राय लोकाधिष्ठितः, आकरो यत्र सन्निवेशे सबाऽऽयुत्पद्यते न करो यत्रास्ति
करम, पचनं देशीस्थानं दोषमुखं जलपथस्थलपचयुकम महम्यमविद्यमानप्रत्यासत्रावास, स्कन्धावारः कटकनिवेश भवनमिति ॥ २ ॥
गणिस्स व बीया मालुम्माहास्स नं पमाणं च । पारस य बीयाणं, उप्पती पंडुए अणिया ||२॥ गणितस्य दीनाराऽऽदिपूगफल दिखणस्य चकारस्य ययातिसम्बन्ध स च दर्शविध्यते तथा बीजानां विन्ध भूतानां तथा मानं टिकादि तद्विषयं यत्तदपि मानमेव धान्याऽऽदिमयमिति माया योग्याला 35 ि चयं यत्तदभ्युमानं खगुमाऽऽदि परियमित्यर्थः । ततोसमाहारः कार्यः । ततस्तस्य च किमित्यादयश्प्रमाणं चकारो सम्बन्ध एव दर्शविष्यते। सत्यकेत मिति विपरिणामेन सम्बन्धः । तथा धान्यस्य ब्रीह्या देवजानां च तद्विशेषाणामुत्पति या सा पाके पाकनिधि विषया सदस्यापारोऽयमिति माषः प्रणितीका जिनाऽऽदिभिरिति ॥ ३ ॥
सव्वा आचरणविदी, पुरिसाणं जा य होइ महिलाएं । आमा इस्वीप, पिंगलवणिहिम्मि सामणिया || कण्ठया ॥ ४ ॥
राईसम्बरणे, चउदस पनराई चकवहिस्स । उपमंत व ए-िदिपाई पंचिदियाई च ॥ ५ ॥ बहरमनैवम्-स्नान्ये केन्द्रियाणि चाऽऽदीनि सापसाथि येनापकादीनि सप्त, उत्पचन्ते भवन्ति, पानि
फिदि
चक्रवर्तिनस्तानि सर्वाणि सर्वरत्ने सर्वरत्ननामनि निधा रूहव्यानीति जावः ॥ ५ ॥
बत्याण य उप्पत्ती, निप्फची चैव सव्वजत्तीणं । रंगाण य धोवाण य, सख्या एसा महापहमे ।। ६ ।।
वखायां वासां योत्पतिः सामान्यतो, या च विशेषतो निष्पतिः सिद्धिः सर्व सर्वकाराणां सर्वा प्रकयः प्रकारा येषां तानि तथा तेषाम् । किंनुतानां वस्त्राणामियाद-रङ्गायां रङ्गवतां रकानामित्यर्थः घोतानां शुरूस्वरूपाणां सर्वेषामहाय महापद्मद्यनिधिविषया ॥ ६ ॥ काले कालयाणं नम्बपुराणं च ती वासेसु सिप्पस कम्पाणि य, तिथि पयाए हियकराई ॥ ७ ॥
काले कालनाम्नि निधौ, कालानं कालस्य शुभाशुरू स्यार्म वर्तते ततो ज्ञायत इत्यर्थः किमित्याह-नवीन वस्तुविषयं नव्यं, पुरातनवस्तुविषयं पुराणं, शब्दावर्तमान वस्तुविषयं वर्तमानं, (तीसु वासेसु सि ) अनागतवर्षत्रयषिप्रथमतीत वर्धत्रयविषयं चेति । तथा शिल्प काळ निधी वर्त्तते, शिल्पशतं च घट १ लोड़ २ चित्र ३ वस्त्र ४ नापित ५ शिल्पानां प्रत्येकं विंशतिमेत्यादिति तथा कर्माणि च कृषिवाणिज्यादीनि कालनिधाविति प्रक्रमः । एतानि थि कालानशिल्पकर्माणि प्रजाया होकस्य हितकराणि निर्वा दाभ्युदयत्वेनेति ॥ ७ ॥
$
"
लोहस्स य उप्पत्ती, होइ महाकाले आगराणं च । रुष्पस्स सुत्रास्त य, मणिमुत्तसिलप्पवालां ॥ ८ ॥ लोडस्योपसर्महाकाले निधो भवति वर्तते तथा भा राणां च मदादिखाकानामुत्यधिकरी का पर्व प्यानामुत्पतिः सम्बन्धनीया केवलं मणयन्द्रकान्ता उदयः, मुख्य मुकाफलानि, शिलाः स्फाटेकाऽऽदिकाः प्रवाझानि चिमणीति ॥
जोहाण य उप्पत्ती आवरणाय च पहरयाणं च । समाय जुकणी माणवर दमनीई व ॥ ए ॥ योधानां शूरपुरुषाणां योत्पत्तिरावरणानां संनाहानां प्रदर नखांसा दुरुनीतिश्च व्यूहरचनादिलक्षणा मा णवके निधौ निधिनायके वा नवति, ततः प्रवर्तत इति भावः । दण्डेनोपलक्षिता नीतिर्दएमनीतिश्च सामाऽऽदिश्चतुर्विधा । अत याला उदंडनी, मायगवड दो
भरहस्स । " ॥ ६॥
विहि णामयविही, कव्वस्स चउव्विहस्स उप्पची । संखे महानिहिम्बी, मयंगाणं च सम्मेसि ॥ १० ॥ नाख्यं यं तद्विस्ताकरणप्रकारों, नाटकं चरितानुसार नाटक लक्षणोपेतं तविधिश्व, पदध्ये द्वन्द्वः । तथा काव्यस्य चतुर्विधस्य धर्मार्थकाममोकृष्णपुरुषार्थयति कदमयस्य १, अथवा भाषानिव २, अथवा समविषमार्द्धसमवृच्चरुतया गद्यतया चेति ३, पाद्यपद्ययपदमेदवस्पति उत्पा
महानिधो भवति तथा सूर्याङ्गायां च सदाऽऽदीनां सर्वेषामिति ॥ १० ॥
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भाभिधानराजेन्कः।
पीततर चकटपइटाणा, अहुस्सेहा य नव य विखंने।
बिदुइदिय-मिनोबिष-निका अनुखतेन्द्रिये, दश० १ ० । पारसदीहा मंजू-ससंठिया जाएहवीइ मुहे॥११॥ पके वसु प्रतिष्ठान प्रतिष्ठा प्रवस्थान येषां ते तथा अधौ
णिगुण-देशी-व्यापारे, ३० मा०४ वर्ग २६ गाथा। बोजनान्पुत्सेध उच्चायो ये ते तथा । नव च, योजनानीति
| पिन-देशी-न। सुरते, दे० ना.४ वर्ग १६ गाथा। गम्यते । विष्कम्ने विस्तरे, निधय इति शेषः। द्वादश योजना- मिलण-नानिमय-पुं० । " गोणाऽऽदयः"।८।। नि दीर्घा, मञ्जूपा प्रतीता, तत्संस्थितास्तत्संस्थानाः, जाहव्या १७४ ॥ इति निलयस्थाने निहेमणाऽऽदेशः । प्रासये, गूदे गया मुखे भवन्तीति ॥ ११॥
प्रा०२पाद । गृहे, जघने च । दे. ना०४ वर्ग ५१ गाथा। बेरुलियमणिकवाडा, कणगमया विविहरयणपमिपुम्ला ।।
णिहोड-नि-वृ-पत्-णि-धानिवारणे, पातने च । “कि. ससिसूरचकलक्खण-अणुसमजुगबाहुवयणा य ॥१शा
वृप्रत्योणिहोमः ॥ ४ । २२ ॥ निवृगः पतेश्च पयन्तस्य बैर्यमणिमयानि कपारानि येषां ते तथा मयशब्दस्य वृस्या
णिदोडेस्यादेशः ! "णिहोनहा' निवारे । निवारयति । पातय. उत्कर्षतेति-कनकमयाः सौवर्णाः, विविधरत्नप्रतिपूर्णाः प्रती
ति वा । प्रा०४ पाद । व्य० । ता, शशिसुरचक्राऽऽकाराणि सणानि चिहानि येषां ते तथा, अनुसमा भविषमाः ( जुग सि ) यूपः, तदाकारा वृत्त
पिहोमिय-निपातित-त्रि.अधःकृते, दर्श.३ तव । स्वाहीत्वाचा बाहयो द्वारशाखा वदनेषु मुस्खेषु येषां ते तथा, पी-गम-धा० । गती, " गमेरई-प्रश्च्छाणुवबावजसोकततः पदत्रयस्य कर्मधारये शशिसूरचक्रलकणानुसमयुगवा- साक्कुस-पश्चा--पच्छन्द-णिम्मह-णी गीण-णीबुद्ध-पदम-र वदना इति। चः समुचये ॥ १२॥
मन-परिअनु-बोल-परिअल-णिरिणास-णिवहावसहावहपलिश्रोवमहिया, निहिसारिणापा य तमु खलु देवा। राः"।८।४।१६२ ॥ इति स्त्रेण गमवातोादेशः । 'णी'
जेसिं ते प्रावासा, अक्केया आहिवचं च ॥१३॥ गति । प्रा०४ पाद ।। (निहिसरिनाम ति) निधिभिः सहक सरक्ष नाम
ये णी प्रारण-देशी-ना बलिघश्याम् देना०४ वर्ग ४३ गाथा। पानां ते तथा, येषां देवानां ते निधय श्रावासा आश्रयाः, किं-पी-नीति-स्त्री० । नये, स्था•७ ठा० । अनु. । मादायानूताः-अकेया प्रक्रय गीयाः सदैव तत्सम्बन्धित्वात्. प्राधिः।
म, पं० चूः। नीयते परिच्चिद्यते एकदेशविशिष्टोऽर्थ प्राभि. पत्यं च स्वामिता च तेषु, येषां देवानाम, इति प्रक्रमः॥ १३ ॥
रिति नीतयः । नैगमाऽऽदिनयेषु.स्था०२० २ १० । कुलकएए ते नवनिहियो, पयधणरयणसंचयसमिछा। राणां हकाराऽऽदिषु इएमनीतिषु, श्रा• म० १ ० १ स्थएन । जे वसमुनगच्छंती, सम्वेसिं चक्कवट्टीणं ॥ १४॥ (ताच ' कुमगर' शब्दे तृतीयमागे ५६३ पृष्ठे दर्शिताः) पए ते गाहा कण्ठ्या ॥ १४ ॥ स्था. 101 प्रव.। स०। प्रा०
राजनीती, "तिविदा नीई पराणत्ता । तं जटा-सामे, दंमे.भेमाति। प्रा० चू०।
ए।' तत्र सामनीतेः पञ्च.दएकस्य प्रयो, नेदस्प, उपपदानस्य सकादिप्रमाणम्य स्थापने, भ०३ श०७०।निधिरिय च पच पच कामन्दकाऽऽदिषु प्रसिद्धाः । शा. १७०१०। निधिः। सम्यक्त्वे, यथा हि निरवधिनिधिव्यतिरेकेण महाहे- विपा० । प्रयोगश्चासामेवम." उत्तम प्रणिपातेम, शूरं भेदेन मणिमौक्तिककनकादि व्यं न प्राप्यते, तथा सम्यक्त्वमहा- | योजयेत् । नीचमध्यप्रदानेन, समं तुस्यपराक्रमः "॥१॥ विचाबामधिगती चारित्रधर्मवित्तमः निरुपमसुखसम्पाद स्था०३ ठा०३० । संग्रामनिर्गमप्रवेशे, प्रा० का। मप्राप्यते । प्रव. १४८ द्वार। ध. विशे०। निधाम निधिः । कोविय-नीतिकोविद-पुं० । लोकनीतिचतुरे, उत्त.११ निक्केपे, निधिनिक्षपो न्यासो विरचना प्रस्तारः स्थापनेति प. र्यायाः। तथा च-लौकिके निधीदं निहितमिदमित्यत्र नि-पीट-नियत-न निष्ठीवने, मं•। पूर्वस्य धातोः निकेपार्थत्वप्रसिद्धेः । अनु। णिनि-निहित-त्रि.। निधा-क । “सेवाऽऽदो बा' 1012
णीजूहग-निर्यक-न० । द्वारपार्श्वविनिर्गतदारुके, शा० १० ए॥ ति द्वित्वं वा । पके ततो लोपः । प्रा०२पाद । निक्किते, पञ्चा०१०वि०।
| णीजूहयंतर-नियुहकान्तर-न०। नि!हकं द्वारपाश्र्वविनिर्गतणिहिय-निहित-त्रि०। णिहित्त' शब्दा, प्रा०२ पाद।
दारु, तपारन्तरे, का० १ श्रु.१०। णिड-स्त्री० । अनन्तजीववनस्पतिन्नदे, प्रा०१पद ।
पीड-नीम-न०। पविणामावासस्थाने, प्रा०१पाद । पीण-गम-
धागती, "गमेरई०-"1181१६२॥इत्यादिस्प्रेण णिहु-स्निदु-स्त्री.। औषधिनेदे, जी०१ प्रति।
| गमधातोर्णीणाऽऽदेशः। 'मीणा' । गति । प्रा०४ पाद । णि -निनृत-त्रि० । “उहत्वादो"॥८1१।१३१॥ व.
णीणिजमाप-गम्यमान-त्रि०ानीयमाने, “णीणिजमाणं पेतु श्यादिषु शब्देषु प्रादेब्रत उस्वम् । प्रा.१पाद। तदर्थमनु
| हाए।" प्राचा.११.२०५०। हुक्के, सूत्र०१ श्रु०००। निर्यापारे, वृ० ३१० । निश्चने, उत्त.१० असंधान्ते, कायस्थित्या चित्तधों, “तेसि
पीणित-गमित-त्रिनिर्मूढे धाडिले नि . १०। सो निहुमोदतो, सम्यन्यसुदावहो।" दश.६ अ. । निया- |णीणिया-नीनिका-खी० । चतुरिन्जियजीवभेदे, जी. १ पारे, तूष्णीके, सुरते च । दे. ना.४ वर्ग ५. गाथा।
प्रति। शिमा-देशी-स्त्रीकाकामितावाम, देना०४ वर्ग १६ गाथा। पीतवर-नीचतर-बि० प्रतिशयेन नीचे, नि० चू०१००।
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प्रान्निधानराजेन्द्रः।
पीलरत्तपानसुकिल जीम-नीप-पुं० । “नीपाऽऽपामे मो वा"।८।११२३४५६. ॥ ४॥५॥ ति बुभुक्कतेणीरवाऽऽदेशः। 'पारवह।' बुमु. त्यनेन पस्य मः । णीमो । जीवो। कदम्बे, प्रा०१पाद ।
क्खा । बुभुकते। प्रा०४ पाद । पीय-नीच-वि•। अत्यन्तावनतकन्धरे, नस०१०। उब
णीरोग-नीरोग-त्रि० । मारोग्य, स्था० १० ठा। रोगवर्जिते, विपरीते, स्था.३०४ उ.। अपूज्ये, भ०३ श•१० ।
शा०१०१० । ग्लान्याभाषे, ०३ उ० । मौ०। निने.नि. चू. १००। नीचैः स्थाने,मालाऽऽदौ,उत्त. १०।
पीरागय-नीरोगक-त्रि०ा रोगवर्जिते, जी०३ प्रति०४ उ० । नित्य-त्रि.। सदाऽवस्थायिनि, स्था० १० ठा।
रा०। नीत-त्रि स्वस्थान प्रापिते.बा० १० १६ मा उत्तात्र।
णील-निर-स-धा०। निर्गमने, "निस्सरणीदर-नीम-धाम-- पीयळद-नीचच्छन्द-त्रि०अनुषतानिप्राये, स्था० म०
घरहामाः"॥८॥४७इति निस्सरतेनीलादेशः। नी.
साह । नासर । निस्सरति । प्रा०४ पाद । ४०। णीयजण-नीचजन-त्रि० । जात्यादिहीने जने, प्रम० २ मा
नील-त्रि०। ईषत्सुन्दररूपे, कृष्णे, वर्णविशेष, स्था० १ ठा। द्वार। "जीयजणजिसेविणो लोगगरहणिज्जा ।" प्रश०१
तयुक्त," एग णीले । " नील्यादिवद नीलवर्णपरिणते, प्रका० प्रा० द्वार।
१पद । “णीने णीलोभासे।" वनस्वपमे, हरितत्वमतिकान्ता
नि कृष्णत्वमसंप्राप्तानि पत्राणि नीलानि, तद्योगावनखण्डा बीयत्तण-नीचत्व-न० । गुणाधिकान् प्रति मीचभाके, दश०
अपि नीलाः । रा० । मरकतमणी, जी० ३ प्रति.४ उ०। तं० । एम० ३००।
जंबा | पञ्चविंशतितमे महाग्रहे, कल्प०६ क्षण।"दो णीयद्वार-नीचद्वार-त्रि० । नीचनिर्गमप्रवेशे दश० ५ ०१
जीना।" स्था०२ ठा०३ उ०। सू०प्र०। चं. प्र० ।“एगे 10 निम्नमुने गृहे, पश्चा० १३ विधा।
णीने।" ao १ ठा0 । श्रौ०। णीयाग-निजक-पुं० । स्वशातीये, “पीयलगाण य भया हि.
णीलकंठ-नीलकण्ठ-पुं०।शकस्य देवेन्कस्य महिषानाकाधि. रिवात्सयसजमााहगारा" व्य०४ उ०प्रात्माये, व्य० २०० पती, था.४ग.५ । जीयागोय-नीचेगेत्रि-10 । सर्वजनविगीते गोत्रकर्मदे सूत्र०
णीलकंठी-देशी-वाणवृक्के, दे. ना.४ वर्ग ४२ माथा। २०१०। कर्म० । नीचैगोत्रमपूज्यत्वनिबन्धनामिति क.
I काणीलकणवीर-नीलकरवीर-पुं०। नीलवर्णपुष्पे करवीराऽऽ
ME मजेदे, स्था०१०। यमुक्यान्महाधनोऽप्रतिरूपो बुद्धवादिस.
वृतभेदे, रा.। मन्वितोऽपि पुमान् विशिएकुलाभावात् लोकानिन्द प्रामोति ।
पीलकम-नीलकूट-न० । नीलवर्षधरपर्वतकूटे, खा. ग. कर्म०१ कर्म० । नौचैोत्रोद्भवे वपिलदसम्जूते, सूत्र०२) थु०१ 01 णीयावास-नित्यवास-पुं० विहारकावेऽप्येकत्र वासे, प्रा० ०णीलकेसी-नीलकेशी--स्त्री० । कृष्णकेश्यां तकण्याम, म्य०४००। ३०
णीनगुफा-नीनगुहा-सी०ासनामयाते उद्याने, यत्र मुनि. णीयावित्ति-नीचैति-त्रि० । नीचैर्वृत्तिर्वर्तनं यस्य स तथा ।।
सुव्रतनामा तीर्थकरो निष्काम्नः। मा.म.१०१ नएम। अनुच्चवृत्ती, व्य०१०।।
पीलगुलिया--नीलगुटिका-स्त्री० । नील्या गुटिका नीमगुटि. पीयासण-नीचासन-न । नाचमासनं नीचासनम् । गुरुणां
का। गुटीरूपे नानपदार्थे, "णीलगुलिया गवनप्पगासा।" जी० नीचतरोपवासे, नि.चू०१ उ०।
३ प्रति०४ उ०। रा०। पीर-नीर-जापानीये, दर्श.१ तव ।
पीलणाम-नीलनामन्--न०। यदुदयाजन्तुशरीरं मरकताऽदि. णीरंमी-देशी--शिरोऽवगुएउने, दे ना.४ वर्ग ३१ गाया। पन्नीसं भवति । तस्मिन् नामकर्मभेदे, कर्म०१ कम ।। णीरज-भज-धा। श्रामदेने, "भम्ञमय-मुसुमुर-मूर-सूर-[जीवपत्त-नीनपत्र-त्रि०ानीनवणपत्रोपेते, प्रज्ञा०१ पद । सूड-विर-पविरज-करज-नीरजाः" ॥८।४।१०६॥
तिपाप-नापारिण-त्रिका नीलः, कायमक साप इति गम्यते। भन्ने रजाऽऽदेशः ।' नीरजई। पको नम्जा । जनक्ति।
जनात।। पाणौ येषां ते नीलपाणयः । नीलवर्णकाण्डहस्ते, रा. । प्रा०४ पाद । जीरय-नीरजस-त्रि० । निर्गतं रजो यस्य । अनु । मागन्तुकर-[[ीलप्पल-नीलमल-त्रि० ।
पीलप्पन-नीलप्रज-त्रि० । नीलवणे, झा० १ श्रु० १ ०। जोरहितत्वात् (साऔ०) सहजरजोरहितत्वात (जंदणीनफल-नीलफल-त्रि. | " शुष्कनीलफलस्वा--नानाबका मौ। स्था०) स्वाजाविकरजोरहितत्वात् (प्रका०२ पक्वान्नपेशा । शालिसूपघृतप्राज्य-प्रश्नेहव्यजनाहृता" ॥१॥ पद । जी०) निर्मले, सूत्र०१ श्रु०१०३ उ०। भाबध्यमा- प्रा. क.नीलं फलं यस्याः । जम्बवृक्त, वाच.।। नकर्मबन्धनस्त्यक्ते, बध्यमानकर्मरदिते, पा। ध० । प्रा0 मीलबंधजीव-नीयबन्धजीव-त्रि० । नीलवर्णपुष्पे वृक्तविशे नीरद-पुं० । मेघे, वाच०।
बे, रा०। णीरव-पा-क्षिप-धा० । आ-किए । आक्केपे, "आत्तिपेणीरवः"णीयमट्टिया-नीलमतिका-स्त्रीलानीलवर्णमृत्तिकायाम. सण10।४।१४५ ॥ इत्यापूर्वस्य किणीरवः । 'जीरव।' पृथ्वीकायभेदे, आचा। 'अक्सिवा' प्राक्षिपति । प्रा० ४ पाद ।
पीलरत्तपीअसुकिन्त-नीलरक्तपीतशक्ल-त्रि० । नॉलरक्तपीपक-201 भातुमिच्नयाम्, "बुभुकि-बीज्योतीरव-चोउजी", तशक्तवर्णमनोहरे, करप०३कण।
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(२१५४) गोसलस्सा प्रन्निधानराजेन्द्रः।
বীর पीलोस्सा-नीललेश्या-श्री.। वर्णतो नीमाशोकगुलिकावै. | कभदन्त! जम्बूद्वीपे बोपे नीलवानाम्ना वर्षधरपर्वतः प्रकइयेन्जनीनचापरिचाऽऽदिलमवणः, रसतो मरिचपिप्पलीनाग. तः । उत्तरसूर्य व्यक्तम् । नवरं रम्यककेत्र महाविदहेभ्यः परं रादिसमधिकतररसैः,गन्धतो मृगतुग्गशरीराऽऽनिसमाधक- युग्मिमनुजाऽऽअपभूतमस्ति, तस्य दक्षिणतः,अयं च निग्धवतरगन्धैः, स्पर्शतो जिहाऽऽदिममधिकतरफशस्पर्शः सकल.
न्धुरिति तसाम्येन नाघवं दर्शयति-(णितह इत्यादि)निधधव. प्रकृतिनिष्पन्दनूतनी लद्रव्य नतत्वानीलोऽपि लेश्याऽऽस्मप
तम्यता नीझवतोऽपि भणितम्या, नवरमस्य जीवा परम पाया. रिणतिरिति । लेश्याभेदे, पा० । स्था।
मो दकिणत उत्तरतःक्रमेण क्रमेण जगत्या चक्रत्वेन म्यूनान्त.
रत्वात धनुः पृष्ठमुसरतः। अत्र केसरिद्रहो नाम बदः । म. गीलवंत-नीयवत्-पुं। उत्तरकुरुषु स्वनामख्याते हरे, तद्वा
स्माच शीता महानदी प्रव्यूढा सती उत्तरकुरुन् इयूती २ सिनि नागकुमारदेचे च । ज०४ बक्क । जी०। ('उत्तरकु'
परिगन्ती १ यमकपर्वती नीलवत्तरकुरुचरावतमाय. शब्दे द्वितीयभागे ७६१ पृष्ठे बकव्यतोका) मन्दरस्य पर्वत.
यन्नामकान् पञ्चाऽपि कहाँश्च द्विधा विभजती २ चतुरशीत्या स्य नदशालबने द्वितीये दिग्दस्तिकूटे, जं०।
सलिनासहरापूर्यमाणा २ भद्रशालवनमियूती२ भागरती एवं पीलवंतदिसाहस्यिकूमे मदरस्स दाहिणपुरछिमेणं २मन्दरं पर्वतं द्वाज्यां योजनाच्यामसंप्राप्ता पूर्वाभिमुखी पराल. पुरच्चिमिलाए सीअाए दक्षिणेणं, एस्स वि नीलवंतो
स्पा सती माल्यवस्कारपर्वतमधो विदार्य मेरो मन्दरस्थ
पूर्वस्यां पूर्वमहाविदेहं वासंविधा विभजन्ती२एकैकमायकव. देवो रायहाणी दाहिणपुरस्टिमेणं ॥
तिविजयादाविशारा २ सलिनासहरापूर्वमाणा २ श्रारमना (व्यमिति) पद्मोत्तरग्यायेन नीझवानाम्नादिग्दस्तिकूटः मन्द. महपञ्चजिनंदीलात्रिंशताच सलिलासदः सम्मा भयो रस्य दक्षिण पूर्वस्यां पौरस्त्यायाः शीतोढ़ाया दक्विणस्यां तनोऽयं
विजयस्य द्वारस्य जगतीं विदार्य पूर्पक्या लवणममुमुपैति। मायजिनभवनाऽनेयप्रासादयामध्ये शेयः। एतस्थापिनील.
अवशिष् प्रवदम्यासत्वाऽऽदिक देवेति निषधनिर्गतशीतोदाप्र. पान् देवः प्रतुः, तस्य राजधानी दक्षिणपूर्वस्यामिति। जं०४
करणोक्तमेय। अथ स्मादेवोत्तरतःप्रवृत्तां नारीकान्तामतिदिशपका दी। स्था। वर्षधरपर्वतमेदे, ज० ।
ति-(वं णारिकंता इत्यादि) परभुकन्यायेन नारीकान्तामि कहिपां भंते ! जंबुद्दीचे दीरे पीलवंते णामं वामहरप
उत्तरानिमुखी नेतन्या । कोऽधः। यथा नौलवति केसरिद्रहा.
इक्षिणाभिमुखी शीता निना तया नारीकान्ता तूतरानिमुखी मए पापत्ते । गोयमा ! महाविदेहस्स बासस्स नचरणं
निर्गता । तर्हि अस्याः समुप्रवेशोऽपि तद्वदेवेस्याशक्यमानरम्मगवासस्स दक्खिणेणं पुरथिमझवणसमुहस्स पच्चच्चि- माह-नवरमिदं नानात्वं गन्धपातिनं वृत्तवैताव्यपर्वतं योज. पणं पच्चच्छिमक्षवण समुदस्स पुरच्छिमा एस्थ ह जंबु- ननाऽसम्प्राप्ता पश्चिमाभिमुखी प्रावृता सती इत्यादिकमब. हीवे दीवेणीमवंते णाम वासहरपन्चए पाते, पाईपमी.
शिएं सर्व तदेव, हरिकान्तासनिनावगाव्यम् । तद्यथा-".
म्ममयासं दुदा विभयमाणी २ उपसाप सलिमासहस्सेहि गायए उदीणदाहिणवित्यिो , णिसहवत्तव्यया णील
समा भदे जगई दाबाचा पष्चिमेणं लवणसमुहं समतस्स भाविमव्या, णवरं जीवा दाहिजेणं घणु उत्तरेणं, तत्य प्रति।" अत्र चाऽवशिष्टपदसंग्रह प्रामुखल्यासादिकंन केसरीदहो णामदहो, एत्य णं सीमा महापई पब्बूदा समा
चिन्तितं. समुप्रयेशावधिकस्यैवाऽऽतापकस्य दर्शनात, तेन तत् पी उत्तरकुर एज्जमाणी उत्तरकुरं एज्जमाणी जमगपब्बए
पृषगाह-प्रवहे व मुखे च यथा इरिकालाससिमा । तथाहि
प्रबहे पञ्चविंशनियोजनानि विष्कम्भेण प्रयोजनमुळेधेन, मुखे पीलनंत उत्तरकुरुचंदेरावतम लवंतदहे अहा विजयमाणी
२५० योजनानि विष्कम्भण ५ योजनान्युवेधेन, यस्चात्र हरि. विभयमाणी चरासीए सलिमासयमहस्सोहिं प्रापूरेमाणी सनि विहाय प्रवहमुखबोर्ड रिकान्ताऽतिदेश उक्तस्तद् दलित भारेमाणी नासाग्नवर्ण एज्जमाणीजवसाझवणं एज्जमाणी सशिक्षाप्रकरणेऽपि हरिकाम्ताऽतिदेशस्योकत्वात् । अं०। मंदरं पन्चयं दोहिंजोअणेहिं असंपत्ता पुराभिमुही परा. | অখায় নামনিৰন বৃন্সয়া बत्ता समापी अहे मानवंतवक्खारपनयं दालयिता मं- सेकेणऽढणं भंते ! एवं वुच्चय-पीलवते वासहरपज्जए दरस पन्चयस्स पुरच्छिमेणं पुन्वविदेहं वासं दुविहा| पीते वासहरपब्धए । गोयमा ! पीने णीलोभासे पी. भयपाणी दुविहा जयमाणी एगमेगाओ चकट्टि लवंते प्रात्यदेवे महिलिए. जाव परिवसइ, समरून विजयाओ अट्ठावीसाए अट्ठावीसाए सलिलासहस्से हिं प्रामए पीलते जाव णिति । प्रारेमाणी आपूरेमाणी पंचहिं सलिलासयमहस्सेहिं व
"सेकेणष्ट्रेणं" स्यादि प्रश्नः प्राग्वता उत्तर चतुर्थी नौसाए म ससिमासहस्सेहिं समगा भ अहे विजयस्स दा-| बधरगिरिनौलो नीलवर्णवान् नालायभासो नीलप्रकाश रस्स जगई दामइत्ता पुरनिकमेलं झवाण समुदं समप्पेइ, अ. प्रासनं यस्त्वन्यदपि नीलवर्णमयं करोति, तेन नीलवर्णवोगाबसिटुंतं चेव,एवं णारिकंता वि उत्तराभिमुही अना।
बलवान, नीलांश्च या महर्दिको देवः पस्योपमस्थितिको
यावत् परिवसतितेन तद्योगाद्वा नील वान अथवाना सवे. पवरमिमं णाणत्तं गंधावइबट्टवेअकृपवयं जोधणे असंपत्ता
इयरत्नमाया, सेन वैरलपर्यायकनीलमणि योगाचीन, शेष पञ्चच्छानिमुडी आवत्ता समाणी अवसिटुं तं चेव, पबहे सुहे। प्राग्यत । जं.४वतास्था स.(कुड' शदे तृतीवजागे अ,जहा हरिकंता सलिना ।
६२६ पले कुटान्युकानि)। "दोषीलवैता" स्था•२०३४
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गीसवंतकूम अनिधानराजेन्सः।
गीसा पीक्षक्तकम-नीमवत्कूट--न । नीलवर्षधरपवनस्य द्विती-णीबुपलवण-नीलोत्पलवन-10 ! इन्दीवरकानने, तं० । ये कूटे. स्था० २ ० ३ ०।।"दो गोलबंतकूडा।"णीलोनान-नीलावभास-त्रि० । मयूरगलयादवभासमाने, स्था०२ ग. ३००।
श्री० । ग.। णीलवंतदह-नीलवनहद-पुं० । उत्तरकुरुषु विचित्रचित्रकूट
|णीव-नीप-पुं० । काम्ब, मौ० । वृतविशेष, का० १० । पर्वतसमवाव्यताज्यां यमकाभिधानाभ्यां स्वसमाननामदे म०प्र० म०1 पावामाश्यां पर्वताभ्यामनन्तरे महाहने.स्था०५.१०.
antotaoराधीनों पशनांवयस्थानप्रवेजं. 'उत्तरकुरा' शब्दे द्वितीयजागे ७५६ पृष्ठे वक्तव्यतोक्ता) पीझवनदाइकुमार-नीलवदहदकुमार-पुं० । नीलबहदस्या
शबनते जदयविशेवे, मूत्र०१२० १५ अ० बाहिविशेषकधिपतिनागकुमारे देवे, जी. ३ प्रति•४ उ०।
दाने, सूत्र० १ ० ३ ० २ ०।
णीति-नीति-सी० । मूबधने, को०६ विव० । कोटवावधे, णीलबणि-नीनवाणि-स्त्रीका प्रत्यास्यानरे, सेनगयेन दाक्काप्रहणार्थ नीलवणिप्रत्याख्यानं कृतं भवति, तस्य दीक्षान
वाच०। हणानन्तरं कराने, न वा, इति प्रश्न-उत्सरम-यदि प्रत्याख्या.
गीस-निस्स्व-त्रिका "लुत-य-र-व-श-प-सा श-प-सांदीघः" मकरणवेखागामेवं कधितं नवति-यहीक्षाग्रहणानन्तरं मील-
॥८॥१। ४३ ॥ इति दीर्घः । निधने, प्रा० १ पाद । वणिः कल्पते, नदा कल्पते, नाम्ययेति। ४५६ प्र०ा सेन० ३.णीसंद-निस्यन्द-पुं० । परिगालपरित्राचे, " णवमपुरवणीखा। नीलवणिप्रत्याख्यानिनां ताहननिष्पन्नकरीपाकप्रमुख | संदो।" पं०भा० । चिन्दी, क.१ कर्म०। कल्पते,नया. इति प्रश्ने, उत्तरम-परम्परया तत्कल्पना प्रवृत्ति-[णीसंपाय-देशी-परिश्रान्ते, दे० ना०४ वर्ग ४२ गाथा। हेश्यत इति । ९३ प्र०। सेन०४ उल्ला।
एसट-निमुष्ट-त्रिका विमुके प्रश्न०१ पाश्र0 द्वार । बहिनिजीना-नीवा-स्त्री.] "अजातेः पुंसः " ॥८।३।३१।
सानार्थाय निमाशित ति प्रजातिवाचिनो नीलशन्दस्य खियां कीर्वा, नीली । नी- प्रदत्तो वृ०१०।। ला । प्रा० ३पाद। नीबश्यायाम,स० स० जम्बूद्वीपे म. सतिया-देशी-निम्पयाम, दे०ना०४ वर्ग ४३ गाथा। दरम्योत्तरेण रकायां महानद्यां सतायां महानद्याम् स्थ०
बीसर-रम-धा० । क्रीडायाम, " रमेः संह-खेडोभाव-कि१. ०
लिकिश्व-कोटुम-मोट्टायाणीसर-वेल्जाः " ॥८।४।१६॥ णीमाभास-नीमाजास-पुं० । पडूविंशतितमे महानहे. "दो
इति सूत्रण रमेणासरादेशः। 'णीसरा पक्ष-रमा रमते । णीलाभासा" स्था० २ ० ३ उ० । चं० प्र० । ९० प्र०।
प्रा०४ पाद। कल्प..
निस-स-धानिस्सरण, 'णीसर निःसरति।प्रा०पाद। पासासोग-नीमाशोक-पुं० । नीलश्वासी अशोकच नीलाशोकः । नीलपुष्पाशोकवृत. ग.। उत्त । शुकपरिवाजकजे.
डीसरण-निस्सरण-न० । फेहसने, ५०४ उ०। तुः सुररानश्रेचिन मावासनायाःसुगन्धिकार्यावहिरुधानेणीसह-निःशन्थ-त्रि+मायादर्शननिदानशवरहिते, संथा। का० १७०५ मा
णीसवग-निश्रावक-पुं०। कर्मनिरके, मा० म० १०१ णीली-नीली-स्त्री.। गुखिकायाम.झा० १शु०१६ अ0 जी0। खएमा विशे। 10 101 गुगवनस्पतिभेदे, प्रशा.१ पद । श्रादें खीव-पीसवमाण-निश्रवयत-त्राकमा पद । श्रा, खीत्व-
शत-
त्रिकर्माणि निर्जरयति. पा०म०, विशिष्य, "तहेवासहिओ पक्कापो.निलियानो छवीश्या" ०२खरामा दश०७०
| पीससंत-निःश्वसत्-त्रि० । “निश्वसेज: "018| २०१७ णालीराग-नीलीराग-पुं०। नोल्पाः सम्बन्धी रागो यस्य स
इति का देशाभावे शतरिकाम् । प्रा०४पाद । निःश्वासान् मालीरागः । नानोरके, "जोलोरागं खलु. दुमहत्थी सरमा.
मुश्चति, प्रश्न ३भाश्र द्वारा प्राकृतेशानजपि। " ऊसससिया'च्य०३ उ०।
माणे वापीमसमाणे .कासमाणे कागीयमाणे वा" याचा पीलुक-गम्-धा० । गती, "गई-माच्छाणुवज्जायजसो.
| २६०१०२ ० ३ १०. फवाक्स-गवड-पचन्द-णिगढ-गी-खीण-णीलुक-प- मसिजसियसम-निश्वसिताच्चसितसम-10 । मानमदस-रम्भ परिमल्ल-बोल-परिअल-णिरिणास-विवहावसेढा.
तिक्रामतोमाने, स्था० ७ 101 बहराः" ॥८।४।१६२ ॥ इति सूत्रेण गम्लवातामुक्का दे। शः । 'णीबुक्कई । पके गच्छर' । प्रा० ४ पाद ।
पीसशिय-निःश्वसित-1 निःश्वसनं निःश्वसितम नि० -
धःश्वसिते. या विशे० प्रा० म010 | कामपीलप्पन्न-नीलोत्पल-न० । “हस्वः संयोमे दोघंत्य"।
क्रीडायाः श्वाससमुद्भवे. झा०१७०ए० । श्वासमो१४॥ इति भोकारस्योहारः । प्रा० १ पाद । कुवलये, कगे, ध०२ अधिo जं०१ वा इन्दीवरे, सौगन्धिके, नीलवणे कुमुदेचा याचपीसह-निस्सह-नि०1"लुप्तपरत्व "गीलुप्पलगवनगुलिया" उपा० २ ०।
॥१॥४३॥ इति सोपे दीर्घः । नितगं सहिष्णी, प्रा०५ पाद प्पलकयामझ-नीलोत्पझकवाऽऽवीर-वि०बीलारप-पीमा-नश्रा-स्त्री०। पीएम " दगवारपण पा महशेखरे उपा० ७५.
साए पीदएण वा "दश: ०१३..
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पीसार अभिधानराजेन्द्रः।
गूसा पीसार-नीशार-jo । नितरां शीयते हिमानिलावत्राने वा। प्रबले, प्रा० म० १ ० २ खएका घोषवति,घण्टाशब्दवचन्द. नि-श-घा दीर्घः। हिमानिलनिवारणे प्रावरसेकाएमपटे च।। भेदे, स्था० १० ग० । पाच० । मएकपे, दे० ना०४ वर्ग ४१ गाथा।
पीहारिम-नि:रिम-न० निहारेण निर्वृत्तं यत्तनिहारिमम । - जीसास-निःश्वास-पुंon निर्--श्वस्-घञ्-रलुक् । “टुंकि नि. तिश्रये यो म्रियते तस्यैतत् कलेवरस्य निहारणात् निहरिममा ."॥८।१। ६३ ॥ इतिरेफलोपे सति श्त कारः ।"णी. पादोपगमनमरणभेदे, ज०२श०१1०1 ('मरण'शब्द व्यासासो।" प्रा०१ पाद । अधःश्वासे, आ० ०५०। श्वास.
ज्या वयते)दूरं विनिर्गमनशीले, प्रा० म०१ १०१ खएक। मोकणे, तं( के जीवाः कियता कालेन नि वसन्तीति 'प्राण'
रा०inा। शम्दे द्वितीयभागे १०५ पृष्ठे उक्तम् ) संख्येयाऽवलिकापरिमिते
|णीहुय-निहन-त्रि०ा अपलपिते, देशी । मकिञ्चित्करे, “पवप्राणाऽपरनामके कालविशेष, कर्म०४ कर्म०।
यणणीहुयाणं।" प्रा० म०१ ०२ खण्ड । णीसासय-निःश्वासक-त्रि०ा निःश्वसतीति निःश्वासकः।
माण-नु-अव्य० । निश्चये, प्रतिक वितर्क, विशे०। सत्र० । प्रा० नपाखपर्याप्तिपरिनिष्पन्न, प्रा० म०१ ०२ खामविशे०। | चू० । विकल्पे, अनुनये, अतीते, प्रश्ने, हेतौ, अपमाने, मपदेशे, पीसित्त-निषिक्त-त्रि० । " लुप्तयार-व-श-ष-सां श-ष-सां | अनुतापे च । वाच। दोघः ॥८॥१॥ ४३॥ इति पलोपे मादेः स्वरस्य दीर्घः। कत.Iणकार-नुकार-पुं०। नुगितिशब्दकरणे,"अप्पेगश्या देवा . निध्येके, प्रा०१ पाद ।
कारं करेंति।" (णुकारं ति) नुक्कारशब्दं कुर्वन्ति । रा०। पीसीसिअ-देशी--निर्वासिते, दे० ना० ४ धग १४२ गाथा।
एम-न्यस्-धा० । न्यासे, स्थापने, “न्यसो णिम-गुमौ"10 खीसेयस-निःश्रेयस-न० । निश्चितकल्याणे, जी०३ प्रति० ४। २९६ ॥ इति न्यस्यतेप्मादेशः।गुम'। न्यस्यति । प्रा. ४०।
४पाद। पीह-निहत्य-अव्य० । निःसायेंत्ययें, भाचा० १ ० ।। छादि-धा० । गदने, “छदेणे[म-नूम-सन्नुम-ढक्कौम्बाल-प. चू०६.२००।
ज्वालाः" ॥ ४॥२१॥ इति उदेपर्यन्तस्य गुमाऽऽदेशः। णीहम-निहत-त्रि० । निर्गते, प्राचा० २ २०१० १ ० १॥
'गुमर' । पले-गाइ प्रा०४ पाद । 01 निष्क्रान्ते, प्राचा० २ ० १ ० १ अ0 30।
एमजण-निमज्जन-न।" द्विन्योरुत्"॥८।१।९४ ॥ इति पीडमिया-निर्हतिका-स्त्री० । अन्यत्र नीयमाने सागारिक
इत उत्वम् । अधोवाने, प्रा० १ पाद । व्ये, वृ० २००।
णमन्त्र-निमग्न-त्रि० । “हिन्योरुत" ॥८१४इति इतणीहम्म-नि-हम्म-धा० । गतो, 'हिम्म।' 'गच्ची' मच्छ- उत्वम् । बुडिते, प्रा०१ पाद । ति।प्रा०४ पाद।
निष-त्रिका " उमो निषो"।१।१७४ । तिनियमणीहर-निर-स-धा० बहिर्गमन" निःसरेणीहरनीलधामव. शन्दे आदेः स्वरस्य परेण सस्वरव्यअनेन सहोमादेशः। "एमरहाडाः" ॥८६॥ ति निःसरतेहराऽऽदेशः।"णीहर
यो"। "णिसमो"। उपविष्टे, प्रा.१पाद। "पते-'णीसरह।' प्रा०४ पाद ।
गुन-प्रकाश-धारा प्रकाशने, "प्रकाशेणुव्यः" ॥ ४॥ निर-ह-धा० । पुरीपोत्सर्जने, 'णीहरा निहरति । परीपो. इति प्रकाशेपर्यन्तस्य एवेत्यादेशः। 'गुवा प्रकाशयति । सगै करोति । उपसर्गवशादयमर्थः । प्रा०४ पाद।।
प्रा०४ पाद। काहरण-निहरण-न० । निर्गमे, नि०१ श्रु०१ वर्ग १०ाणूणं-नूनम्-श्रव्य । नाश्चत,
पाणं-जनम-भब्य । निश्चिते, बृ० १ उ० । उत्त । सूत्र.। पनयन, सूत्र०५ श्रु० २० । परित्यागे, निच ला भ०। द्वा० । का। उपमाने, अवधारणे, तक, प्रश्न, हेती, प्र. प्राचा०॥
श०६०। णीहरि-देशी-शब्दे, दे० ना० ४ वर्ग ४२ गाथा ।
णूम-गदि-धा। छादने, "छदेणेम-नूम-सन्नुम-ढकौम्बा. पीहरितए-निहर्तुम-अव्य० । निष्काशयितुमित्ययें, भ० ५।
ल-पब्वालाः "॥८।४।२१॥ इति ग्देर्यन्तस्य नमादेशः ।
"म" "गह।" गदयति । प्रा०४ पाद । “मा हु एमए श०४ उ०। विशोधयितुमित्यर्थे, दशा० ७०। विशे०।
तरुणी।" मा हु समाच्चादयेत्तरुणी। वृ० १ उ०। पीहरिय-निर्हत्य-अन्य० । निष्काम्येत्यर्थे, नि० चू०९ उ०। णीहार-निर्दार--पुं० । मूत्रपुरीपोत्सर्गे, स० ३४ सम01
बन्न-न। अवतमसे, गाढतमसे, प्र० १ ० ८ उ०। प्रच्चन्ने
गिरिगुहाऽऽदिके, सूत्र०२ श्रु. ३.३० आचा० प्रच्छादपीहारचारण-नीहारचारण -पुं० । नीहारमवष्टल्याप्कायिका
ने, प्रश्न प्राश्र• द्वार । गहने, मायायाम, सत्र. १ श्रु० १ जीवपीडामजनयति गतिमसङ्गां कुर्वति चारणभेदे, प्रव० ६८ | अ.४ उ. कर्मणि, श्राचा०१० . ८ उ०। सूत्र। द्वार । ग00
सापरवञ्चनार्थ निम्नताया निम्नस्थानस्य च धाश्रयणे, प्र. णीहारण-निरिण-न० । निस्सारणे, स्था० २००४ उ०। । १२ श०५ उ० । भिन्ने, नि० चू० ११ उ० । जोहारि:(प.)--निहारिण-त्रि० । व्यापिनि, “जोयणणीहारि- पगिह-छन्नग्रह-न । वृतप्रधाने गृहे, प्राचा. २०१०
णं ।" योजनानिहारिणा योजनव्यापिना शब्देन । प्रा० ३.३ उ० । भूमिगृहे, नि०० १२ उ०। म०१ ०२खमा योजनातिकामिणाशब्देनास०३४ममामा-देशी-शाखायाम, दे० ना.४ग ५३ गाथा।
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अभिधानराजेन्द्रः।
णेच्छिय णे-ऐ-अव्य। 'इति निपातः। पूरणे, जी. आधिः। स नैगमः । अथवा-के गमा यस्यासौ नैगमः। पृषोदराअस्मान-द्वि०। “अम्हे-म्हो-अम्हणे शसा" ॥८॥१०॥ ऽदित्वात् ककारस्य लोपः। बहुविधवस्त्वज्युपगमपर प्रत्यर्थः। इति शसा सहितस्याऽस्मदो 'णे' इत्यादेशः । प्रा. ३ पाद ।।
प्रा.म.१०२खएम । नि० चू०।
नैगमनयशब्दार्थ तावदाहमया-तृ०।" मि-मे-ममं-ममए-ममाइ-मश्-मप-मयाइ-णे टा" | गाई माणाई, सामन्नोभयविसेसणाणाई । ॥८।३। १०६॥ इति सूत्रेण टाविशिष्टस्याऽस्मदो 'गे' इत्या. ___ जंतेहि मिणइ तोणे-गमोणोणेगपाणोति॥१८६॥ देशः ।'णे कभं' मया कृतम् । प्रा. ३ पाद ।
न एकं नैक, प्रभूतानीत्यर्थः, नैकानि, किं तु प्रभूतानि यानि अस्माकम्-40"णे-गो-मऊ-अम्ह-अम्हं-भम्हे-अम्दो-अ.] मानानि सामान्योभयविशेषज्ञानानि । तत्र समानानां भाव: म्हाण-ममाण महाण-मज्काण प्रामा"॥८।३।११४॥ इति । सामान्य, सत्तालकणम्, उन्नयं सामान्यविशेषोभयरूपमपासूत्रेण प्रामासहितस्याऽस्मदो 'णे' इत्यादेशः। प्रा.३पाद। न्तरालसामान्यं वृकत्वगोत्वगजत्वाऽऽदिकम,विशेषास्तु नित्यरोह-देशी-सद्भावे, दे० ना०४ वर्ग ४४ गाथा ।
कल्पवृत्तयोऽत्यस्वरूपा व्यावृत्याकारबुद्धिहेतवः, तेषां सामाणेनणिय-नैपुणिक-न। णि उणिय' शब्दार्थे, अनुप्रवादपू.
म्योभयविशेषाणां ग्राहकाणि ज्ञानानि सामान्योभयविशेषकागते स्वनामख्याते वस्तुनि, प्रा० म.१०२ वाम। विशेगा
नानि, तैर्यस्मात् मिनोति, मिमीते चा, ततो नैगमः । भन
एवं नैकमानो नैकपरिच्छेदः, किं तु विचित्रपरिच्छेद णेउना-नैपुण्य-न० । माझेख्याऽदिकायाम, दश • २
शति ॥ ११८६ ॥ उ० । श्राव।
नैगमनयस्वैव ग्युत्पश्यन्तरमाहणेनर-नपुर-न० । कारस्यैकारः। पादाऽऽनरणे,प्रभ०४ प्राधo द्वार।"खुड़ियवरणे उरचलणमालिया।" श्री.1मा० माद्वी
लोगत्यनियोहा वा, निगमा तेसु कुसलो जवो वाऽयं । न्द्रियजीवजेदे, प्रज्ञा०१ पद । जी। चतुरिन्छियजीवभेदे, प्र.
अहवा जं नेगगमो-जणेगपहोणेगमो लेणं ॥२१८७।। झा०१ पद । जी।
'वा' इत्यधवा, निगमा भएयन्ते । के? । लोकार्थनियोधा:णेकण-नीत्वा-प्रव्य । “युवर्णस्य गुणः" 118 २३७॥ प्रर्या जीवाऽऽदया,तेषु नितरामनेकप्रकारा बोधा नियोधा लोइति युवर्णस्य गुणः । गमयित्वेत्यर्थे, प्रा०४ पाद।
कस्यानियोधा लोकार्थनिबोधाः तेवंविधेषु निगमेषु प्रवः णेग-नैक-त्रि० । न पकं नैकम् । नायं न, किं तु न इति । प्र- कुशलो वाऽयमिति नैगमः । अथवा-अन्यथा व्युत्पत्ति:भूते, आ० म०१ अ० २ खण्ड । बहुके, प्रश्न० ३ आश्रद्वार।
गम्यतेऽनेनेति गमः पन्थाः, नैके गमाः पन्थानो यस्याऽसै, सत्र. विशे०।
नैकगमः, वक्ष्यमाणनीत्या बहुविधाज्युपगमपरत्वाद् नैकमार्गः। ऐगेम नैगम-पुं०। निगमा वणिजः, तेषां स्थानं नैगमम् । बणिजाऽऽ. निरुतविधिना च ककारलोपागम इति ॥ २१०७॥ बासे, प्राचा० २ ० १ ० १ ०२०।वाणिजके, भ०१८ कथंजूतः पुनरयं, कथं चानुगन्तव्य :?, इत्यादश०२ १० । कल्प० । वृ. । सामान्यविशेषग्राहकत्यात्तस्यानेकेन ज्ञानेन मिनोति परिच्छिनत्तीति नैगमः। अथवा निगमा
सो कमचिसुदभेश्रो,लोगपसिदिवसोऽणुगंतब्बो । निश्चितार्थबोधाः, तेषु कुशलो भवो वा नैगमः। अथवा-नेको विहिणानिलयणपत्थय-गामोवम्पाः संसिद्धो१८।। ममोऽर्थमार्गों यस्य स प्राकृतत्वेन नेगमः । निगमेषु पाऽर्थ- स नैगमनमः क्रमेण परिपाट्या विशुद्धा विशेषवन्तो भेदाः बोधेषु कुशलो नवो वा नैगमः । स्था० ३ ठा०३ उ० । प्रकारा यस्य स क्रमविशुरुभेदः । तथाहि-आधभेदोऽस्य नैकम-पुं० नैकैर्मानमहासत्तासामान्य विशेषज्ञाननिमीते मिनो. निर्विकल्पमहासत्ताऽऽख्यकेवसामान्यवादित्वात्सर्वाविशुरू ति वा नकमः । अथवा नैके गमाः पन्थानो यस्य स नेकगमः। गोवाऽऽदिसामान्यविशेषवादी तुद्वितीयभेदो विशुसाविशुरूः, (पृषोदरादित्वात् रूपसिद्धिः) स्था०७ठा०। भनु । मष्ट । विशेषवादी तु तृतीयजेदः सर्वविशुद्धः। विशे। (रष्टान्ता ग. । नयजेदे, प्रा. म.।
'णय 'शब्देऽस्मिन्नेष भागे १७३६ पृष्ठे द्रष्टव्याः) _ व्युत्पत्ति:
गविह-नेकविध-त्रि.। नानाप्रकारे, नि० चू०१.। रोगेहिमाणेहिं, मिणइ ती णेगमस्सगेरुती।
णेचश्य-नैचयिक-पुं०। निचयेन संचयेनार्थाद् धान्यानांचे सेसाणं तु नयाणं, लक्खणमिणमो मुणह वोच्छं ॥ ।
व्यवहरन्ति ते नैचयिकाः । धान्यम्यापारिषु, म्य०४ उ.। न एकं नैक, नायं नञ्, किंतुन इति । भनुस्वार इतित-अनिच्छत-त्रि०ा अनभिलपति, व्य०२ उ•। न भवति (?) प्रभूतानीत्यर्थः। ततो नैकैमानैर्महासामान्याबा
णेच्क्रिय-चित-त्रि.न इच्चितं नेचितम् । इच्छाया भस्तरसामान्यविशेषाऽऽदिविषयः प्रमाणैमिमीते परिच्छिनत्तिव. स्तुजातमिति नैगमः। "पृषोदराऽऽदयः" ।। ३ । १ । १५५॥
विषयाकते, जी.। इतीरूपनिष्पत्तिः। तथा चाऽऽह-इति इयं, नैगमस्य निरुक्तिः णेच्चियकामगामिणो ते मणुयगमा । निर्वचनम्। उपलकणमेतत् । तेनाऽन्यथाऽपि नेगमशब्दव्युत्प- नेच्छितकामगामिनः-न इच्छितमिच्चाविषयीकृत नेच्छितं, नायं त्तिः परिभावनीया । तद्यथा-निश्चितो गमो निगमः परस्परवि- न किं तु नशब्दः, इत्यत्राऽऽदेशाजावः। यथा-नेके द्वेषस्थ पर्याविक्तसामान्याऽऽदिवस्तुग्रहणम् स एव प्रज्ञाऽऽदेराकृतिगणतया था इत्यत्र नेच्छितमिच्छाया अविषयीकृतं कामं स्वेच्या स्वार्थिकात्प्रत्ययविधानागमः । यदि वा-निगम्यन्ते परिच्छि गच्छन्तीत्येवं शीला नेच्चितकामगामिनः,ते मनुजाः। जी. ३ पन्ते इति निगमा,तेषु जवो योऽभिप्रायो नियतपरिच्छेदरूपः । प्रति०४ उ.। ।
५४०
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योहर
हर नेहरपुं० [अनादेश भेषे तपत्यमनुष्ये चप्र०१
श्राश्र० द्वार। प्रज्ञा० ।
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12 1
म- नीम- न० ।" नीमपीठे वा" ॥ ८ । १ । १०६ ॥ इतीत एत्वं वा । 'नेमं' | 'नीडं' । पक्षिणामावासस्थाने, प्रा० १ पाद । माली - देशी-शिरोभूषण दे०४३ गाया। । ऐड-नीम न० सेवा या " ॥ ८ ॥ २६६ ॥ इति डद्वित्वम् । प्रा० २ पाद | पक्षिणामाचासस्थाने, प्रा० २ पाद । नीम, दे० ना० ४ वर्ग ४४ गाथा । हरिया - देशी भाषपदोज्ज्वलदशम्यां जाते कस्मिश्चिदुत्वविशेषे दे० ना० ४ वर्ग ४५ गाथा । णेस - नेत्र - न० | नयन्त्यर्थ देशमर्थक्रियासमर्थमर्थमाविर्भावयन्ति इति नेत्राणि येषु धा० १०४०४० अह्निणि, “वाग्नुपर्थवचनाद्याः ॥ १। ३३ ॥ इति वा नपुंसकत्वम्, पक्षे स्त्री । प्रा० १ पाद । " दो णेता। " प्रज्ञा० १८ पत्र | "उरुंमुद्दे जिग्गयजीहणेते । " उस० १२ अ० मन्यद एमाउप रथे जटाया म्नश्याम शलाकायाम् प्रापितरि नयनसाधने, प्रवर्तके
च । वाच० ।
(२१45 ) अभिधानराजेन्द्र
1
। चक्रस्य बाह्यपरिधौ, जी० ३ प्रति० ४ उ० ।
31
16
ऐत्तसूल - नेत्रशूल - न० । नेत्रपडायाम, शा० १ ० १३ अ० । प-नेम - पुं० । भूमिभागादूर्ध्वं निष्क्रामति प्रदेशे, जं० १ चक्क० । जी० रा० श्रा० म० । नेमशब्दो देश्यः। कार्ये, पिं० । श्रवधौ, काले, अर्के, प्राकारे, कैतवे, गर्तनाट्ये, श्रन्यस्मिन्नित्यर्थे च । अर्द्धार्थेऽस्य सर्वनामता । वाच० । ऐमि- नेमि - पुं० ० । नं० । " सुकयनेभिजत कम्माणं । भ० श० ३३ उ० । सूत्र ० चक्रधारायाम, स्था० ३ ठा० ३ उ० । धर्मचक्रस्य नेमिवन्नेमिः । श्रस्यामवसर्पिष्यां जाते द्वाविंशे तीर्थकरे, कल्प० ७ कण । स० । श्रा० चू०| प्रावध० प्र० । नेमिचरित्रे सर्वसाधूनां कृष्णोदकमस्ति न स्वष्टादशसहस्राणामिति लिकिकी, शास्त्रीया बेति । यदिशा स्त्रीया तदा कथं तडुपपत्तिः, पयहिश्राणं च तइयं तु । इतिवचनात्सर्वेषां च पदस्थत्वाभावात् यदि सर्व पद । सर्वेषां स्वत्वं तदा ते कस्मिन् पदे स्थिताः ? इति प्रश्ने, उत्तरम् - यथा चितिथाऽवश्यकयादावपि सर्वेषां साधूनां द्वाद मुकमस्ति सर्वशब्देन वाष्टादशसंख्या समागति द्वारिका किं च सर्वेषामिति पदं विषक्षितसर्वपरं तेन पदस्थानानेव चन्दनप्रदानं पदस्थेव्यपि विचारेण सर्वे समञ्जसमेत्रेति । २३१ प्र० । तथा श्री कल्पसूत्रे श्रीनेमेधत्वारि शतसहखाच्या उक्ताः सन्ति, नेमिचरित्रे त्वेवम्-" विनाच कनकवर्ती, रोहिणीं देवकीं तथा । पम्योऽपि प्राव्रजन् खामि सन्निधौ सकला श्रपि ॥ १ ॥ " वसुदेवदिएक्यामपि द्वानप्ततिसहस्रारावपि वसुदेवपत्न्यः श्रीनेमिपार्श्वे प्रवज्य मोकं गताः । श्रन्या अपि सहस्त्रराः कृष्णाऽऽदिपत्म्यः नेमिपार्श्व प्रवजिताः सन्तीति कथं संगच्छते ?, तथा सर्वेषामपि सामान्यसंख्या कल्पसूत्रोऽपि संदे हमावहतीति प्रश्ने, उत्तरम् - तीथकृतां पार्श्वे यैः सम्यक्त्वलापूर्व शरत्यादि प्रतिपन्नं तव सीत्परिवारमध्ये
गुरुमिकस्थास्ते कथं तापयन्तीति
येयालय
गयनीयाः, नान्ये इति न कोऽपि शङ्काऽवकाश इति । २३२ ० प्रथपन्यास दर्पचन्द्र मिरावि यथा - श्री जिनेन्द्राम्बा जिनेन्द्रप्रसवनानन्तरमपत्यं प्रसूते, न वेति प्रश्ने, उत्तरम् - एकान्तो ज्ञातो नास्ति । नेमिनाथाऽऽदीनां रथनेमात्यादिति ४१६० मि नाथस्यैकादश गाव एकविशतिस्थानके कथिताः कल्पसूत्रे स्वष्टादश, तत्कथमिति प्रश्ने, उत्तरम् -तावत एवैकविंशति स्थानके तथा सप्तविस्थानकवचनसारो द्वाराऽवश्यका55दिग्रन्थेषु कथिताः सन्ति कल्पसूत्रे तु मनाया गणधरा इत्यादि यदन्तरं पतति तन्मतान्तरं ज्ञेयमिति । ४४८ प्र० । सेन• ३ उला । ( 'अरिनेमि' शब्दे प्रथमनांगे ७६२ पृष्ठे कथोक्ता ) ( 'रहणेमि' शब्दे विस्तृता कथा, राजीञ्जतिरथनेमिसम्वादश्वाभिधास्यते )
मिचंद नेमचन्द्र- वि० सं० १२०० मिले विद्यमाने वैरस्था मिशिष्ये सागरन्दुस्वामिगुरौ, श्रयमाचार्यः तर्कशास्त्रेऽतीव कुशल श्रासीत् । जै० २० ।
मिसकारण नैमित्तकारण-२० मिमि दे कारखं नैमित्तकारणम्। नैमित्तिक कारणे आ०म० १ अ० २ खराम । विशे० ।
निमित्तमतीताऽऽदिपरिज्ञानोपायशास्त्र
ऐमित्तिय-नैमित्तिक-न० ॥ मतदेवमकिपा स्था०ठा० निवितं कालिमालाप्रतिपाद
नैमित्तिकः । घ० २ अधि० । अष्टाङ्गनिमित्तसम्पन्ने, नि० चू० १ उ० | प्रब० । दश० । श्राचा० । मदिरूप - मतिरूपक किधारा योगाचक्रमपि नेभिस्तत्प्रतिरूपकम् । वृत्ततया तत्सदृशम्। वृत्तस्थाने, भ० १४ श० ६ उ० ।
णेय शेय- त्रि० । ज्ञायत इति ज्ञेयम् । ज्ञानविषये, नि० चू० १ ० । ज्ञानक्रियाविषये परिच्छेद्ये, व्य ० १ उ० विशे० ज्ञातव्ये, आव० ४ श्र० । पञ्चा० ।
तथ्य त्रिसंवेदन
प्रापणीचे उ०१ ४० या नेतृत्र०यनशील नेता नयतेालिकस्तृन् । सूत्र० १ श्रु० ३ भ० १ ० प्रणायके, सूत्र० १ ० १ अ० २
उ० । स० ।
पाइप नैयायिक० यायेन चरति नैयायिकः न्याया बाधिते ००४० न्यायानुगते. चै० न्यायनि उ० २ अ० । सूत्र । न्यायमनतिक्रान्ते, दशा० ए ० । न्यायोपपत्रे, उत्त० ३ अ० । सूत्र० । गौतमशास्त्र अक्षपादे, पुं० । च प्रमेय पदार्थानामन्यस्यतिरेक परिनान्निःश्रेय साधिगम इति व्यवस्थिताः । सूत्र० १ ० १ ०१ उ० नयनशीलो नेवाधिका यावे या नयो नैयायिक मोम के बा श्रु० १ ० ६० भ० आव० मोक्कनयनशी ले, " नेयाजय सुक्खायं, उवादाय समीए । " नयनशील नेता, नयतेस्ता
1
बिच सम्यदर्शनज्ञानचारि33मको भोकमार्गः। तचारिक वा धर्मो मोनशीलान् गृह्य ते मार्ग प्रति नेता कराऽऽदिनिरा ख्यातं स्वाख्यातं तमुपादाय गृहीत्वा सम्यक् मोक्षाय चेष्टते ध्यानाध्ययनादावुद्यमं विधते । सूत्र० २ ० ०
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(२९५६) पोरइय अभिधानराजेन्सः ।
परइयत्ता परश्य-नैरयिक-पुं० । निर्गतमविद्यमानमयामिष्टफलं येज्यस्ते सत्तमाए जहन्नेणं, बावीसं सागरोवमा ॥१६७॥ निरयाः, तेषु जवा नैरयिकाः । क्लिष्टसवविशेषेषु, स्था। जा चेव य आउईि, रझ्याणं वियाहिया। "तिविहाणेरड्या पएणत्ता। तं जहा-कतिसचया, अकतिसंच.
सा तेसिं कायठिई, जहएणुकोसिया नवे ।। १६७॥ या , अवत्तबगसंचया, एवं एगिदियवज्जा. जाव बमाणि
अणंतकालमुक्कोस, अंतोमुहुत्तं जहमयं । या" (पवमिति)नारफवच्छेषाश्चतुर्विशतिदण्डकाता वाच्या, पकन्छियवर्जाः, यतस्तेषु प्रतिसमयमसळचाता अनन्ता वा मक
विजढम्मि सए काप, रझ्याणं तु अंतरं ॥१६॥ तिशब्दवाच्या एवोत्पद्यन्ते, न त्वेकः, सङ्ख्याता वा इति । एतेसि वमों चैव, गंधो रसफासो।।
संगणदेसो वा वि, विहाणाई सहस्ससो ॥ १७०॥ "अणुसमयमसखिज्जा, संखिजानो य तिरियमाणुया य । पगिदिपसु गच्छे, आरा ईसाणदेवा य ॥१॥
चतुर्दशसूत्राणि-नैरयिकाः सप्तविधाःसप्तप्रकाराः, किमिति:, एगो असंखभागो, वट्टर वट्टणावबायम्मि ।
यतः, पृथिवीषु सप्तसु। (भवे ति) भवेयुः, ततस्तद्भेदात्तेषां स. एगनिगोप णिचं, एवं ससेसु वि स एव ति"॥२॥
प्सविधत्वमिति जावः । काः पुनस्ताः सत्याह-रियणाज त्ति)
रत्नानां बैर्याऽऽदीनामाभा स्वरूपतः प्रतिभासनमस्यास्था० ३ ०१ उ० । दशा० । नरकभवमनुप्राप्तेषु जन्तुषु.दश०
मिति रत्नाभा, इत्थं चैतत्तत्र रत्नकाएमस्य प्रवनपतिभवनानां १०। रत्नशर्कराऽऽदिमहातम पृथ्वीपर्यन्तनरकाबासिषु,
च विविधरत्नवतां सम्भबात । एवं सर्वत्र, नवरं शर्करा लवणत्राचा ०१ श्रु० १०६ उ01 प्रशा० । जी0। सूत्र० । उत्त०। स्था०1 (नैरयिकसिद्धयादिकोऽधिकारःणरग' शब्देजस्म
पाषाणशकलरूपा। तदाह-(धूमाने ति) यद्यपि तत्र धुमासं.
भवस्तथापि तदाकारपरिणतानां पुदलानां सम्भवात, तमोनेव भागे १९०४ पृष्ठे उक्तः) ( ' अहुणोववस्मग' शब्द
रूपत्वाच्च तमःप्रभा, प्रकृष्टतरतमत्वाच्चतमस्तमा। इतीत्यमुना प्रथमन्नागे ८८६ पृष्ठेऽत्रत्या सर्वा वक्तव्यता गता)( नै
पृथिवीसप्तविधस्वबकरोन प्रकारेण नैरयिका एते सप्तधा प. रयिकाणाम अन्तरं, कालस्थितिः, ज्ञानं, दृचिः, समुद्घातश्चे
रिकीर्तिताः। "लोगस्स" इत्यादि सूत्रद्वयं क्षेत्रकालाभिधायि त्येवमादयोऽन्तराऽऽदिशब्दषु, जीवशब्दे च पुस्लभेदादिश्च.
प्रावत, सादिसपर्यवसितत्वं द्विविधस्सित्यनिधानद्वारतो भावलितकर्मनिर्जरणाऽऽदि च सर्व विलोक्यम् )
यितुमाह-(सागरोपममेगं तु) उत्कृष्टेन व्याख्याता, प्रथमायां नैरयिकानाह
प्रक्रमानरकपृथिव्यां, जघन्यन दशवर्षसहस्राणि यस्यां सा नेरड्या सत्तविहा, पुढचीसू सत्तम् भवे ।
दशवर्षसहनिका, प्रस्तावादायुःस्थिते रयिकाणामितीहोत्तरस. (पज्जत्तमपजत्ता, तेसिं भेए सुणेह मे !
प्रेषु च षष्टव्यमा त्रीएयेव (सागर त्ति)सागरोपमानि, तुः
पूरणे, उत्कृष्टेन व्याख्याता। द्वितीयायाम्-(जहनेणं ति) उत्तरत्र रयणाज सकराभा, बाबुयाभा य आहिया ॥१७॥
तुशब्दस्य पुनःशब्दार्थस्य निन्नक्रमत्वेनेह संबन्धाज्जघन्येन पंकाजा धूमाना, तमाना तमतमा तहा।
पुनरकं सागरोपमम् सप्तव सागरोपमानि तूत्कृष्टेन व्याख्याता । इति णेरड्या एए, सत्तधा परिकित्तिया ॥ १५ ॥ तृतीयायां जघन्येन पुनस्त्रीरयेच सागरोपमाणि। दश सागरोपसोगस्स एगदेसम्मि, ते सव्वे न वियाहिया ।
माणि तूत्कृष्टेन व्याख्याता । चतुर्यो जघन्येन सप्तचतुःसागरोएत्तो कालविजागं तु, तेसिं वोच्छं चनब्बिई ॥१५॥
पमाणि,सप्तदशसागरोपमाणि तूत्कृष्टेन व्याख्याता । पञ्चम्यां जघ
न्येन दशचैव तु सागरोपमानि, द्वाविंशतिसागरोपमानितूकृष्टसंतई पप्प पाईया, अपज्जवसिया वि य ।
न व्याख्याता। षष्ठयां जघन्येन सप्तदश सागरोपमानि, त्रयस्त्रिंशठिति पमुच्च सादीया, सपज्जवसिया वि य ।। १६० ।। सागरोपमाणि तूत्कृष्टेन व्याख्याता । सप्तम्यां नरकपृथिव्यां सागरोवपमेगं तु, उक्कोसेणं वियाहिया ।
जघन्येन द्वाविंशतिसागरोपमाणि आयुःस्थितिरुक्ता । कायपढमाए जहश्रेणं, दसवाससहस्सिया ॥ १६१ ॥
स्थितिमाह-या चेति, चशब्दोचकव्यतान्तरोपन्यासे, पति
भिन्नक्रमः, चः पुनरर्थः, ततो यैव च पुनरायुःस्थिति रयिकाणां तिन्नेव सागरा ऊ, नक्कोसेण वियाहिया ।
व्याख्याता (से त्ति) पवकारस्य गम्यमानत्वात्सव. तेषां कामदोच्चाए उ जहन्नेणं, एगयं सागरोवमं ।। १६३ ॥ स्थितिः जघन्योत्कृष्टा भवेदित्य चैतत् उदृत्तानां पुनस्तत्रै. सत्तेव सागरा ऊ, उक्कोसेण वियाहिया ।
बानुपपत्तेः। तेहि तत उद्देष्य गर्भजपर्याप्तकः संख्येयवर्घायुष्वे. तइयाए जहन्नेणं, तिन्नेव सागरोवमा ॥१६३ ॥
चोपजायते । यत उक्तम-" णरगतो उबट्टा, गन्भे पजत्तसंखदससागरोधमा छ, उक्कोसेणं वियाहिया ।
जीवीसु । णियमेण होइ वासो, बहीण उ संभवो वुच्छ" ॥१॥
अन्तरान्निधामानिधायि सूत्रद्वयं प्राग्वत्, नबरमन्तर्मुदत्त जघन्य. चउत्थीए जहन्नेणं, सत्तेव सागरोवमा ॥ १६॥
मन्तरं यदाऽन्यतरनरकादुवृत्त्य कश्चिज्जीबो गर्भजपर्याप्तकमसत्तरस सागरा छ, उकासेण वियाहिया।
त्स्याऽऽदिषूत्पद्यते, तत्रचातिसंक्लिष्टाध्यवसायोऽन्तर्मुहूर्तमायुः पंचमाए जहन्नेणं, दसव सागरोवमा ॥ १६५॥
प्रतिपाल्य मृत्वाऽन्यतमनरक एबोपजायते, तदा लभ्यते इति वावीस सागरा ऊ, उक्कोसेण वियादिया।
भावनीयमिति चतुर्दशस्त्रार्थः । उत्त. पाई. ३६ अ.।
(नैरयिकाणां स्थितिः 'वि' शब्देऽस्मिन्नेष भागे१७१७पृष्ठे गता) छट्ठीए य जहनेणं, सत्तरस सागरोवमा ॥ १६६॥
णेरडयत्ता-नैरयिकता-स्त्री० । नैरयिकत्वे नैरयिकभावे, स्था. तेसीससागरा ऊ, उकोसेण वियाहिया ।
पठा०४उ०।
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(२१६०) परश्यावास
अभिधानराजेन्यः । गेरझ्यावास-नैरयिकावास-पुंग नैरयिकाणामाचासनूमी, जी. च यस्यामेकं जानुमुत्पाटयति, एवंविधनिषद्यया चरन्तीति नैष. १ प्रति। स्थान
धिकाः । ०५० सुत्र०। स्था०1 आचाo। शेरई-नैती-स्त्री० । निऋतिर्देवताऽस्या नैती। भ०७ श. सत्थिया-नैसृष्टिकी-स्त्री० । निसर्जनं निसृएं, केपणमित्यर्थः। १०। स्था० । पूर्वस्याः पश्चिमायाश्चान्तरालविदिशि, प्रा.
तत्र भवा नैसृष्णिकी, निसृजतः कर्मबन्धरूपायां निसर्गरूपायां म. १०२खएका विशेस्था।
वा क्रियायाम्, स्था० २ ग. १ उ० । " णेसस्थिया रिप-नैरात्म्य-न० । आत्मराहित्ये, शौखोदनीयाः पुनरेव. किरिया सुविदा पएणत्ता । तं जहा-जीवणेसस्थिया चेत्र, माहुः-नैरात्म्यजावना । नं।
अजीवणेसत्थिया चेव ।” राजाऽऽदिसमादेशाद्यदुदरुत्त-नैरुक्त-न । अभिधानाक्षरानुसारतो निश्चितार्थस्य च.
कस्य यत्राऽऽदिभिानसर्जनं सा जीवनैसृष्टिकीतिः य
कारमाऽऽदीनां धनुरादिभिः सा अजीवनसृष्टिकीति । अथ'बन जणनं निरुक्तं, तत्र भवं नैरुक्तम् । मिरुक्तवशेनाऽर्थानिधा
ना-गुर्वादी जीवं शिष्यं पुत्रं वा निसृजतो ददत एका, अजीचं यके नामनि, यथा मह्यां शेते महिष इत्यादि । भनु । निरु.
पुनरेषणीयभक्तपानाऽऽदिकं निसृजतो ददतोऽन्येति । स्था०२ कशास्त्रविदि, पुं० । व्य०७ उ०।
ग०१ 30। श्रा००। ज-नैन-न । नीलीविकारे, भ. १ श०१ उ० प्रका। । ऐसत्थी-देशी-वणिक्सचिवे, दे० ना० ४ वर्ग ४४ गाथा। अच्छ-पतिमत-०।" गोणाऽऽदयः"॥ ८॥२॥१७४॥-
सप्प-नैसर्प-पुं० । निधानभेदे, तदभेदविवकया देवनेदे च ।
म- निधानभेटे. न विनमा ते पण्डितशब्दस्य णेलच्छाऽऽदेशः। प्राज्ञ प्रा०२पाद । षण्ढे, स्था। "णेसप्पम्मि निवेसा, गामागरनगरपट्टणाणं च। दोणदे० ना०४ वर्ग ५४ गाथा ।
मुहमडंबाणं, खंधाराणं गिहाणं च ॥१॥" स्था०९ ग० । लिच्की -देशी-कृपतुझायाम् दे० ना०४ वर्ग ४४ गाथा। (जिदि' शब्दे ऽस्मिन्नेव भागे २१५१ पृष्ठे व्यास्यातम्) अवश्य-नैतकिक-त्रि० । नीतिकारिणि, व्य. १००। णेसर-देशी-रवौ, दे० ना० ४ वर्ग ४४ गाथा । वच्छण-देशी-अवतारणे, देना०४ वर्ग ४० गाथा ।
ऐसाय-निषाद-पुं० । निषीदन्ति स्वरा यस्मात्स निषाद स्ववत्थ-नेपथ्य-न । वेषे, प्रश्न०४ आश्र• द्वार । श्रा० म.। रविशेषे, “निषीदन्ति स्वरा यस्मा-निषादस्तेन हेतुना । सोंऔ० । रा० । स्त्रीपुरुषाणां वेषे, स्था० ४ ठा० २ उ० । प. श्वातिभवत्येषः, यदादित्योऽस्य दैवतम् ॥१॥" स्था०७ ०। रिधानाऽऽदिरचने, शा०१ श्रु०१०1 केशचीवरसमारचने, ह-स्नेह-पुं० । “क-ग-च-ज-त-द-प-य-वां प्रायो लुक" दर्श४ ताव । नि। औ० । निर्मवेषे, शा. १ श्रु० १६ | ॥८।१।१७७॥ इति सबुक । प्रा० १ पाद । मोहोदयजे अ.। स्था।
प्रीतिविशेषे पुत्राऽऽदिवत्यन्तानुरामे, आतु० । जीत । तैवाइय-नैपातिक-न० । निपतत्यहदादिपदानामादिपर्यन्तेषु | लाऽऽदिगतरसे, यवशाद् दाहानुकूल्यम् । वाच०।। इति निपातः । निपाते भवं नेपातिकम् । “ अध्यात्माऽऽदिज्यण्डकाण-स्नेहध्यान-न० । स्नेहो मोहोदयजःप्रीतिविशेषः पु. इकण"॥६।३।७८॥ इति अध्यात्माऽऽदित्वादिकण् । यदि वा | प्राऽऽदिष्वत्यन्तानुरागः।मरुदेवीसुनन्दाहरनकमात्राऽऽदीनामिनिपात पव नैपातिकम् । निपातसंज्ञके पदे, विशे० । प्रा. म. व दुर्व्याने, भातु । चाल-नेपाल-पुं० । देशदे, नेपालनामा ऋषनदेवपुत्र प्रा. णेहपच्चय-स्नेहप्रत्यय-न० । मेहनिमित्त क०प्र० १ प्रक। सीत्ताज्यभूतो देशोऽपि नेपालः । प्राव०४ अ.। कप० ।
णेहपच्चयफडग-स्नेहप्रत्ययस्पर्धक-न । बेदप्रत्ययं मदनिप्रा० चू०।
मित्तमे फैकहाविभागवृक्षानां पुनर्गणानां समुदायरूपं प. वेजपूया-नैवेद्यपूजा-स्त्री०। घृतदधिपुग्धाऽऽदिनानान्यजन- र्धक नेहप्रत्ययस्पर्धकम् । स्नेहनिमित्ते स्पर्धके, क० प्र० १ रससमग्राऽऽहारस्य जिनानां पुर उपढौकने, “घयदहियना. प्रक०। णावंजणरससमग्गं पयदिणं जिणाणं पुरभो दाऊण भत्तीए स णेहफडगंपरूवणा-स्नेहस्पधेकमरूपणा-स्त्री०। प्रयोगेण गृसत्तीण नोयणं कायक्वं । " दर्श०१ तव । (प्रत्र रटान्तो दर्श
होतानां पुतानां स्नेदमधिकृत्य स्पर्धकप्ररूपणायाम, क. प्र. नशुद्धिग्रन्थादवसेयः)
१प्रक। पोसज्ज-नैपद्य-पुं० । समपुततयोपविष्टे, प्रव० ६७ द्वार। निष.
णेहासु-स्नेहवत-त्रि०। “माहिवल्लोदाल-चन्त-मंतेत्ते-मणा. चावति, पञ्चा. १० विव।
मतोः"।८।२।१५९ ॥ शति मत्व भामुः। स्निग्धे, प्रा. सज्जिय-नैषधिक-jo। निषधया चरके, निषद्योपविष्टे, पण
पाद । निषद्याः पञ्च भवन्तिपंचेव निसिज्जाओ, तासि विनासा न कायव्वा ।
हत्तप्पियगत्त-स्नेहोत्त्रेपितगात्र-त्रि। स्नेहस्नेहितशरीरे, निषद्याः पञ्चैव भवन्ति, तासां विनाषा कर्तव्या । सा चेयम्
विपा० १ श्रु०५०। निषद्या नामोपवेशनविशेषाः, ताः पञ्चविधाः तद्यथा-समपाद- हो-नो-अव्य० । अवधारणे, सूत्र०१ श्रु० ७ ० । निषेधे, पुता, गोनिषधिका, हस्ति शुएिमका, पर्यन्ता, अपर्यन्ता चेति ।। विशे०1 सूत्र० प्रा० म० भ० सर्वनिषेधे, नं० । देशनिषे. तत्र यस्यां समौ पादौ पुतौ च स्पृशतःसा समपादपुता, यस्यां तु | धेच । श०१०। आचा० । विशे० । उत्त० । व्य. । गोरिवोपवेशनं सा गोनिषधिका, यत्र तु ताभ्याम्पविश्यैकंपा- "नो कप्पामपलम्बो" इति सूत्रे नोकारशब्दस्येव जावना बमुत्पाटयठि सा इस्तिशुदिमका । पर्या प्रतीता। अर्दपर्यडगा करोति-"नोकारोखलु देस, पडिसेहयाई पकप्पिज्जा।" नोशब्द:
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( २१६१ ) अभिधानराजेन्थः ।
यो
प्रायो देशप्रतिषेधे वर्त्तते यथा नो घर इत्युक्ते घटेकदेशः कपालाssदिकः प्रतीयते, एवमत्रापि नोकारो देशं प्रतिषेधयति । बृ० १ उ० | कल्प० । “नो घमो घमेगदेसो, तब्विवरीयं च जं "नोकारो प्रतिषेधक सदस्यभावसूचको वा यथा नो घट युके पटेकदेशः कपालादि कोऽवयवः, तद् विपरीतम म्यादिकम् ०१ ४० साहचर्ये कर्म कर्म पोअक्खर संबन्ध - नोअक्षरसंबद्ध - पुं० । भक्करसम्बद्धादितरो नोकरसम्बद्धः । भक्षरसंबरू भिम्ने, स्था० २ ० ३ उ० । पोजीव-नोऽजीव- पुं० । भजीवत्वरहिते, नयो० ।
•
जीवो वा जीवदेशो वा प्रदेशो वाऽप्यजीवगः ।
नव दिशा ज्ञेयो, नोअजीवपदादपि ॥ ४४ ॥ ( जीवो वेति ) अनयैवोक्तवैव दिशा नोश्रजीवपदादपि नोशब्दस्य सर्वनिषेधकत्वे जीवो जीवपदार्थों वा बोध्यः, तस्य देशनिषेधक बाजीयदेश बाजी जातिः प्रदे शो या "मोन प्रतिषेधे" इत्यनुशासनभावोऽन्योन्यानावश्च नञोऽर्थः । नोशब्दस्य स्वभाव एकदेशो था, तत्र चान्वयिताऽचच्छेद कायद्धिप्रतियोगिताकत क देशवादियुत्पचिबल लभ्यमिति सिद्धान्तपरिभाषेति नि
गर्वः ॥ ४४ ॥ नयो० ।
यो भ्रमण-नो अमन-प्रविवक्षित सम्बन्धविशे
मात्रे, स्था• ३ वा० ३ उ० । कोनोप्रवचन १० चनमात्रे स्था० ३ ०२४० णोत्र्याउज्जसद्द-नोआातोथशब्द--पुं० । श्रतोद्यादितरो नो श्रतोद्यशब्दः । स्था० २ ० ३३० । णोउज्जसदे दुविहे जहान भूसणस " स्था० २ ना० ३ ० । ( स्वस्वस्थाने व्याख्या )
66
"
पदम्यमनुपायाद्यक मेत पानीयमिति ०९ ० । लोकेवल गाण - नोकेवलज्ञान-न० । “ खोकेवलणाणे दुविढे प जादिणाणे व माजणा देव" स्था० २ डा० १ उ० ।
लोगार - नोकार - पुं० | निषेधार्थ के नोइत्यकरे, विशे० ।
यो आगम-नोश्रागम-पुं० । श्रागमस्याभावे, आगमस्यैकदेशे, भागमेन सह मिश्रणे व । माहस्य विध्यर्थेषु यशोगुण- नौगुण-पुं० गुणेभ्यो यत्र न प्रयति तन्नो द
नोशब्दस्य
1 विपन्नं
मानत्वात् । अ०म० १ ० १ खरम पदार्थ परिज्ञाने, नं० ।
म् । अयथार्थे, अनु० ।
घ० । अनु० ।
- |
शोधावास- नोआकाश न० प्राकाशादन्यस्मिन् धर्मास्तिकायाऽऽदौ, स्था० २ ठा० १३० ।
गोइंदिय - नोइन्द्रिय- न० । मनसेि साइयार्थत्वान्नोशब्दस्यापरिमेयाणां सदशमिति समिति स्था• ६ ० ॥ भ०
लोइंदियत्य--नोइन्द्रियार्थ - पुं० । नोइन्द्रियस्य विषये, स्था० । औदारिकाऽऽदित्वार्थपरिच्छेद कस्वलक्षणधर्मद्वयोपेतमिन्द्रियं सस्यौदारिकादिव पलपदेशनिषेधा मनः स्वादृश्यात्वाद्वा गोशब्दस्यार्थपरिच्छेद करचे वेद्रियाणां स शमिति तत्परमिति मन्द्रयं मनः, तस्यायों विषय जीवादिन्द्रियार्थ इति स्था० ६ डा० । णोनस्सासग- नोडच्छ्रासक-पुं० । उच्चातपर्य्याप्तिविकले, "खेपरश्या दुविधा पष्ठता । तं जड़ा-उस्सालगा चेव, णो उस्सासगाव, जाव० वैमाणिया । " स्था० २ ० २३० । पोएगिंदि - नोए केन्द्रिय-पुं० । साऽऽदिषु श्राव० ४ ० ।
२७१
योगुण
शोकम्म नोकर्मन्न० । मनोवचन काया कर्मसु. कन्या० १३ अध्या० । श्रा० न्यृ० । णोकसाय - नोकपाय--पुं० । कषायैः सहचरा नोकषायाः हास्या ssदिषु ते च नव हास्याऽऽदयः षट्, त्रयो वेदाः । अत्र नोशब्दः साहचर्यवाची । एषां हि केवलानां न प्राधान्यमस्ति, किं तु ऋषादिभिः सहोदयं यान्ति द्विपाकसमे
पाकं दर्शयन्ति, बुध ग्रहवदन्य संसर्गमनुवर्तन्ते इति भावः कषा बोद्दीपना या मोकषायाः "कपासस्थान कषायप्रेरणादपि। हास्याऽऽदिनव कस्योक्ता, न नोकपाया कपायता" ॥ १ ॥ कर्म० १ कर्म० । पं० सं० । श्रा० लोकसायमोह लिज्ज - नोकषायमोहनीय- न० | नोकपायरूपे मोनीत द्विविधम- दास्यादेष क मं० १ कर्म० ।
णोकसायवेयणिज्ज्ञ - नोकषाय वेदनीय न० नोकपायतया बेद्यसेतोपादनीयम् वेदनीयकर्मने. स्था० । नवविद्धे नोकसायत्रेय णिज्जे कम्मे पत्ते । तं जहा-६वीए, पुरिस, नपुंसगए, हासे, रह, भर, जप, सोगे, दुछा ।
गोशः साहचर्यार्थः कथाः कादेशः सहचरा या केवलानां तैयां प्राधान्यं किं तु रा
हो यान्ति तद्विपाकमदृशमेव विपाकमादयन्तीति बुध
इत्यादि)
से किं तं मोगुणे हैं। नोगुणे अकुंती सकुंतो अमुग्यो समुग्गो अमुझे समुझे भलाल पलाएं भक्षिया सलिया नोप असइ ति पलासो अमाइवाहर माइवाहए अवीवावर बीवावर नोदगोई ईदगोवे से नोगुणे । (से कि गोइत्यादि) गुणपत्र प्रोगुणमयार्यमित्यर्थः मानः कुन्तोऽस्य प्रहणविशेष एव (सकुंत त्ति) पक्षी प्रोच्यत इ स्वद्यथार्थता। पचमविद्यमानमुद्राचारविशेषः स मुयः अस्याभरणाि तथा समु जलराशिः (लाल पलालं ति) इह प्रकृष्टश लाला यत्र तत्प्रलालं वस्तु, प्राकृते पलालमुच्यते । यत्र तु पलालाभावस्तत्क ये विशेषरूपं पालयति कृतकृत्या पथार्थतामा संस्कृते तु नृणविशेषानिये मेध्यते इति न यथार्थायार्थचिन्ता संभवति । ( लिया सबलिय सि) अत्रापि कुलिकाजिः सह वर्तमानबसलय चि जबते, या तु कुनिकारतेय पक्षिणी सा कथं " सबलिय शि " १, एवमिहापि प्राकृत
"
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(२१६२) गोगण अन्निधानराजेन्द्रः।
एहाण लीमेवाङ्गीकृत्याऽयथार्थता । संस्कृते तु शकुनिल साऽनिधी- प्रा० १ पाद । "नेवार" इतिख्याते सुगन्धपुष्पप्रधाने पृकभेदे, यते इति कुतस्तबिन्तासंभव इति। एवमन्यथाऽप्यविरोधतः सु. जं०१ वक० । शा• । जी० । धिया भावना कार्या । पलं मांसमनश्नन्नपि पलाश इत्यादि पोला -देशी- चश्ची, दे० ना०४ वर्ग ३६ गाथा। तु सुगमम् । नवरं मातृवाहकाऽऽदयो विश्लेम्झियजीवविशेषाः। "सेत्तं नोगुणे त्ति" निगमनम् । अनु०।
गोमना-देशी-चश्ची, दे. ना० ४ वर्ग ३६ गाथा । योजीव नोजीवपुं० । जीवाजीवव्यतिरिक्त पदार्थे,प्रा.चू.१णोद्व-क्षिप-धा० । प्रकपणे, "किपेगलत्याइक्व-सोल्ल-पेमुणो. मामा.मा विशे० । स्था।(जीबाजीवव्यतिरिक्तं रा- बुहहुग्न-परी-घत्ताः" ।।४।१४३॥ प्रति क्विणों द्वाऽऽदे. श्यन्तरमस्तीति 'तेरासिय' शम्दे वदयते)
शः । गोल्ला विपत्ति । प्रा० ४ पाद । नोनीव इति नोशब्द-ऽजीवः सर्वनिषेधके ।
णोद्धिय-नोदित--त्रि० । प्रेरिते, प्रश्न० ३ आश्र० द्वार। देशप्रदेशौ जीवस्य, तस्मिन् देशनिषेधके ।। ४३ ॥
जोसुमण-नोसुमनस्--त्रि० । अपहतमनःसङ्कल्पे, पाव० ३ ०। (नो इति ) नौजीव इतिशब्दवाच्ये नोशब्द सर्वनिषेधके वि. वक्कितेऽजीव एव । देशनिषेधके तु नोझाब्दे आधीयमाणे दे.
पोसुयकरण--नोश्रतकरण-10। 'करण' शम्ने व्याख्याते करण. अनिषेधस्य देशाभ्यनुज्ञानान्तरीयकस्वाज्जीवस्य देशप्रदेशावेव
भेदे, विशे। श्रुतकरणव्याख्या 'करण' शब्दे तृतीयभागे होजीवशब्दव्यपदेश्यावभ्युपगन्तव्यो॥४३॥ नयो ।
३६८ पृष्ठे गता) पाणायार-नोज्ञानाचार-पुं० । ज्ञानाचाराभावे, " कोणा-पोहनिया-नबफलिका-स्त्री० । " औत् पूतर-बदर-नवमायारे विहे पत्ते । तं जहा-दसणायारे चेब, णोदसणायारे | लिका-नयफलिका-पुगफा
लिका-नफलिका-पृगफो" ॥८।१।१७० ॥ इति त प्रो. धव।" स्था २ ठा० ३ उ०। (स्वस्वशब्दे व्याख्या)
स्वम् । प्रा०१ पाद । अचिरोल्पनफलिकायाम्, वाच० । तस-नोत्रस-पुं०सा न भवन्तीति नोत्रसाः।आहाराsएड-एई..अव्य.। नि०। पादपूरणे, घृ०१उ० । प्रा० म० । दिषु, आष०४।
पाक्यालङ्करे, कलपक्षण । गौतहा-नोतया-श्रव्य. । अन्यथाऽपीतिशम्दस्याथै, स्था०४एवण-स्नपन-न। जलकालने, नि०यू०१ उ०। साभा०२उ०।
ग्यपत्रार्थ वध्यादेमंजने, प्रश्न० २ पाश्र0 द्वार। गोदसणायार-नोदर्शनाचार-पुंगनोदर्शनाचारचारित्राss- हा-स्नात-त्रि०"सूक्ष्म-श्न-ण स्न-ब-ब-णां एहः" दिः। "दुविहे णोदसणायारे पहात्ते । तं जहा-चरित्तायारे चेव ॥ २।७५ इति स्नभागस्थ सकाराऽऽक्रान्तो दकारः। नोचरित्तायारे चेय।" स्था०२०३१०। (स्वस्वस्थाने व्याश्या)। कृतस्नाने, प्रा०५पाद । सामान्यतः कृतस्नाने, दशा १० भ०। पोदिय-नोदित-त्रि. प्रेरिते, गमनानिमुखीकृते, ज्ञा० १ श्रु. "पहाया करबलिकम्मा।" झा०१ श्रु०२०। १०॥
एहाण-स्नान-न० । देशतः सर्वतो या शरीरस्य प्रकालने, व्य० णोपरमाणपोग्गा-नोपरमाणपुल-पुं० । स्कन्धेषु, स्था० १० उ० । उत्त० । प्रा० म० । २ म०३ उ.।
अथ श्रवकस्य स्नानविधिःजोवपासपुट-नोबसपार्श्वस्पृष्ट-पुं० । नोबद्धाः किं तु पाश्य
सम्यक् स्नात्वांचित काले. संस्नाय च जिनान् क्रमात । म्टा इत्येक पद निषेधे थोत्रेन्द्रियझानोचराः। एकपदनिषेधे धोत्रेन्द्रियग्रहणगोचरेषु, स्था• २.३००।
पुष्पाऽऽहारस्तुतिनिश्च, पूजयेदिति तद्विधिः ॥६१॥ योभासासद-नोनापाशब्द-पुं०। अव्यक्तशष्टे,भाषाशम्दादि- उत्तिपनककुयायसंसक्तवैषम्य शुषिराऽऽविदोषाऽदूषितभूमौ तरो नोभाषाशम्दः । “णोभासासहे विहे पत्ते । तं जहा
परिमितवस्त्रपूतजलेन संपातिमसयरक्षणाऽदियतनारूपः। 3. प्राउज्जसद्दे चेय, णोप्राउजसद्दे चेव।" स्था० २ ठा० ३ उ..
कं च दिनकृत्ये--" तसाजीवरहिप, भूमिजागे विसुरूए । फासुएणं तु नीरेणं, अरेण गलिएण उ॥१॥" "
कावि . (स्थस्वस्थाने व्याख्या) पोभिवरधम्म-नोभिदरधर्म-पुं० । स्वत एव नो भियत इति
हिणा राहाणं." इति। तत्रविधिना परिमितोदकसंपातिमसपर. नोजिदुरधर्मम् । सुदृढधर्मे, स्था०५०३ उ०।
कणाऽदियतनयेति तकृनिलेशः। पञ्चाशकेऽपि." नूमीपेहण.
जनगणणा जयणा उ होइ एहाणाम्रो । एसो विसुरुमायो, पोसणमद-नोत्नुपणशब्द- भूषणशब्दव्यतिरिक्त, भूषणं
अणुहबसिको चित्र बुहावं ॥१॥"व्यवहारशास्त्रे तु-"नग्ना. नूपुरादि । “नोभूसणसहे ऽविदे पएणत्ते। तं जहा-तालसहे
तैः प्रोषिताऽऽयातः, सचेबो भुक्तभूषितः । नैव स्नायाइनुवज्य, चेव, अत्तियासहे चैव ।" स्था०म०३ उ०। (स्वस्वस्थाने
बन्धून् कृत्वा च मम ॥१॥" इत्यादि। स्नानं च व्यभा. व्याख्या)
वाच्यां द्विधा--तत्र व्यस्नानं जोन शरीरका लनम्। तच्च गोमाज्यापय-नोमातृकापद-10। मातृकापव्यतिरिक्त अप- देशतः सर्वतो वा, तत्र देशतो मलोत्सर्गदन्तधावनजितानेराधपदे, “नोमा उयं वि दुविहं, पंच परन्नगं च बोधव्यं।" खनकरचरणमुखाऽऽदिकालनगरापकरणाऽऽदि. सर्वतस्तु स. दश.२०। (अपराधपदव्याख्यानम् 'अवराहपय' शब्दे शरीरकासनमिति । तत्र न मनोस्सों भौमेन निरवद्याप्रथमभागे ७६८ पृष्ठे अष्टव्यम् )
ईस्थानाऽऽदिविधिनवोचितः । यतःणोपानिया-नयमालिका-स्त्री. ।"श्रोत् पतर-बदर-नवमा- “मत्रोत्सर्ग मलोत्सर्ग, मैथुनं स्नाननोजनम् । लिका-नबफलिका-पूगफ" 15:21१७० इति उत प्रोत्वमा! सन्यादिकर्म पूजाँच, कुर्याज्जापं च मानवान् ॥१॥"
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एहागा
अभिधानराजेन्छ। विवेकविलासेऽपि
यथाऽऽहुरेके" मौनी वस्त्रऽऽवृतः कुर्या-दिनसध्याद्वयेऽपि च ।
"सप्त स्नानानि प्रोक्तानि, स्वमेव स्वयंभुवा। उदमुखःशक-मूत्रे, रात्रौ याम्याननः पुनः॥१." इति । द्रव्यभावविशुद्धार्थ-मृषीणां ब्रह्मचारिणाम ३१॥ दन्तधावनमपि
माम्येयं वारुणं माझं वायव्यं दिव्यमेव च। "अवकाऽग्रन्थिसत्पूर्व, सदमानं च दशाङ्कलम् ।
पार्थिवं मानसं चैव, स्नानं सप्तविघं स्मृतम् ॥२॥ कनिष्ठाऽग्रसमस्थौल्य, ज्ञातवृकं सुनूमिजम ॥१॥
माभ्ययं भस्मना मान-मवगाथं तुबाहाम्। कनिष्ठिकाऽनामिकयो-रन्तरे दम्तधावनम् ।
पापोतृष्णामयं ब्राह्म, वायव्यं तु गवां रजः॥३॥ (मम्म मादाय दकिणां दंष्ट्रां, वामां या संस्पृशस्तो ॥
स्नानमित्यर्थः) तल्लीनमानसः स्वस्थो, दन्तमांसस्यथां त्यजन् ।
सूर्यदृष्टं तु यद दृष्ट, तहिव्यमृषयो विदुः। उत्तराभिमुखः प्राची-मुखो वा निश्चमाऽऽसनः३॥"
पार्थिवं तु मृदा स्नानं, मनःशुद्धिस्तु मानसम् ॥४॥" इत्यादिनीतिशास्त्रोक्तविधिना विधेयम् ।
इति सप्तविधस्नानकथनं ह्यनर्यकम, यतो यदूबाह्यमलक्षाल. गरडूपोपि
नप्रत्यलं तत्सर्व व्यस्नानमेव । यश्चाऽऽस्तरमलोम्मूलनायालं, "अभावे दन्तकाष्ठस्य, मुखशुद्धिविधिः पुनः ।
तद्भावस्नानम् । यत्पुनरन्यथाविधं तदस्नानमेव । न च गोर. कार्यो द्वादशगण्डौ-जिंबो खस्तु सर्वदा ॥१॥"
जसा मन्त्रेण वा मलापनयनमुपलभ्यत इति । अतः सुष्ठस्यते इति विधिना कार्यों प्रत्यास्यानिना, प्रत्यास्यानिनस्तु दन्त- द्विधैव । अथवा-व्यतो द्विविधैव, नावतश्च द्विविधैय इत्येवं धावनाऽऽदेविनाऽपि गुद्धिरेव, तपसो महाफलत्वात् इदं च विधाशब्दप्रयोगः । वैविध्यं च प्रधानाधानभेदाता तथ दर्शट्रब्यस्नानं वपुःपावित्र्यसुखकरत्वाऽऽदिना भायशुकिहतुः । ध० यिष्यत इति । व्यतो भावतश्चैवमिति पानान्तरे तु, पत्रकार २ अधिः। (स्नानदोषः 'प्रणायार' शब्दे प्रथमभागे ३११
उपप्रदर्शनार्थः । तेन एचमनेन प्रकारेण द्विधा स्नानं शुचीपृष्ठे ,३१४ पृष्ठे च शीतोदकाऽऽदिभिः पादाऽऽदिनधायने दोषप्रा.
करणमुदाहृतं तरवदिभिरभिहितम् । अत्रायें परेषामप्यविप्रयश्चित्ते उक्त)
तिपत्तिमुपदर्शयन्नाद-बहिनवं बाह्यं शारीरम, अध्यात्मे मनसि ततो देशस्नानं सर्वस्नानं पा सेवंतस्स आणाभणवस्थमि
भवमाध्यात्मिक, मानसमित्यर्थः । चशब्दः समुश्चयार्थः । इति । त्तविराहणा भवति । एहाणे श्मे दोसा
रूपप्रदर्शने । एवं चानयोः प्रयोगः-बाह्यमिति, प्राध्यास्मिकमिति छकायाण विराधणा,तप्पटिबंधो य गारव विनूसा । च। तदनतिक्रमेण द्रव्यस्नानं नावस्नानं च, अन्यैरिति जैनपरिसहजीरुतं पिय, अविसासो चेवरहाणम्मि ॥५६॥ व्यतिरिक्ततायिकविशेषैः, परिकार्यते संशब्दयते इति ॥१॥ पहायंतो कृज्जीयणिकाए वहति, पहाणे पमिबंधो भवति, तत्र व्यस्नानप्रतिपादमायाऽऽहपुनः पुनः स्नातीत्यर्थः । अस्तातसाधुशरीरेभ्यः निर्मल शरी. जलेन देहदेशस्य, क्षणं यच्चुचिकारणम् । रोऽहमिति गौरवं कुरुते, स्नान एव विभूषाऽलङ्कार इत्यर्थः । श्र. पायोऽन्यानुपरोधेन, व्यस्नानं तमुच्यते ॥३॥ पहायपरीसहाउ वाडेति, तं तं जिनातीत्यर्थः । लोगस्साविधंभणीयो भवति । एते स्नानदोषा उक्ताः। नि०.२ उ.।
जसेनाम्भसा,न भस्माऽऽदिभिः, तैहि द्रव्यस्नानमपि न भवति, स्नानायकम्-पूजाऽऽदि स्नानपूर्वकमिति स्नाननिरूपणायाह
मलाऽऽद्यपनयनासमत्वातेवाम्, "गन्धलेपापहं शौचम्" इति
स्नानलक्षणाच्च, देहदेशस्येति शरीरत्वगलकणावयवस्य । व्यतो भावतश्चैव, द्विधा स्नानमुदाहृतम् ।
बहबदेहग्रहणेन सचेतस्नानेन देवार्चनं कार्यमिति मतमवाह्यमाध्यात्मिकं चेति, तदन्यैः परिकीर्त्यते ॥१॥ । पाकृतम्, जनाबस्त्राणां स्नानतयाध्यतीतेः। वति गच्छति तांस्तान् पर्यायानिति ल्यम्-पुलादित.
देशस्येत्यनेन तु ये मन्यन्तेस्माद् कण्यात व्यतो जननक्षणं करणभूतम् ,देहदेशलवणं
"एका लिङ्गे गुदे तिम्र-स्तयकत्र करे दश। घा शोधनीयम २, मनोलकणं बापनेयं, 5व्यमाधियोत्य.
उन्नयोः सप्त विकयाः, मृदः शुचौ मनीषिभिः॥१॥ थे ३, अथवा-द्रव्यतोऽपरमार्थतो सभ्यशम्दस्याप्राधान्यास्वा.
पतग्छौचं गृहस्थानां, विगुणं ब्रह्मवारिणाम् । त्, अथवा-व्यतो भावस्नानकारणत्वेन कारणार्थत्वाद
त्रिगुणं वानप्रस्थानां, यतीनां च चतुर्गुणम ॥२॥" इति । द्रव्यशब्दस्य ५ तथा-भवनं भावः-परिणामः, तस्माद्भावतः
ते उपहसिता भवन्ति । न दि तैरेवं शैाचं प्रति प्रयत्नशुभभ्यानसकणं करणभूतम् १, उपयोगभावाऽऽत्मकजीवलकणं वद्भिरपि लिगुदाऽऽद्यन्तंभागस्य शौवं कर्तुं शक्यं,
किंतु या शोधनीयम् २, अथवा-औयिकनायकारणभूतकर्ममखन- स्वस्मात्रस्यैव, नवकर्णनासादानामेवं शौचं वैविधीयते.. क्वणमपनेतन्यं, लवणं करणभूतनावमाश्रित्येत्यर्थः ३, भावतः चैताग्यशुचीनि न भवन्तीति, कणं मुदत यावन्न प्रभूतकालं, परमार्थतो जवति । चशन्दः समुच्चय। एवकारोऽयधारणे।
यदिति स्नान, शुद्धिकारणं सलविलयहेतु, प्रायो बाहुल्येन, एवं चाऽनयोः प्रयोग:-व्यतो भावत एव । ततश्च व्यभा
प्रायोग्रहणासविधरोगग्रस्तस्य कणमपि शुक्षिकारणं न भवबजेदेनैव द्विधा द्विप्रकार, नामाऽऽदिभेदेन तु चतुर्काऽपि केवल- तीति दर्शितम्। कुतः पुनः कणमेव शुझिकारणम,श्त्यत पाहमिद चतुःप्रकारत्वं स्नानस्य नाश्रितम्, नामस्थापनयोः प्ररूप- अन्यस्य प्रतालितमत्रापेक्कयाऽपरस्य मलस्याऽनुपरोधोगनिरोणामानोपयोगित्वात् । न दि स्नानस्य नामस्थापने जिननाम- धोप्रतिषेधोऽन्यानुपरोधः तेनान्यानुपरोधेन देतुना, नदि स्नास्थापने इव प्रमोदडेतुत्वेन पूजागोचरत्वेन च सोपयोग इति ।। नं मलाऽऽश्रयस्वभावत्वाचरीरस्य मत्रान्तरमुपरोसुं शक्नोतीति अथवा-एवकारो विधेत्यनेन संबब्बते, तथा कम्यतोनावत- सदिस्येवंविधं स्नानम्, किमित्यत आह-कव्यारायुरूल कणानि घेति । एवं द्विधैव स्नानमुहाहतं. न तु सप्तधा।
मीराऽऽदीन्याश्रित्य स्नानं व्यतं वा स्नानं व्यस्नानमुच्य.
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(१९६४) एहाण अभिधानराजेन्फः।
पहाय तेऽनिधीयते, स्नानलकणविद्भिः । भन्ये तु प्रायोऽन्यानुपरो- व्यस्नानमपि शोभनं, जावशुद्धिनिमित्तत्वात. यद्यद्भायशुकिनिधेनेत्येतदित्थं व्याचकते-प्रायो बाहुल्येनान्येषां जलस्वरूपा- | मिसं तत्तच्छोभनम, यथा चैत्यवन्दनम्, नाबाद्धिनिमित्तं च तिरिक्तानां प्राणिनामनुपरोधोऽव्यापादनं प्रायोग्यानुपरोधः, सव्यस्नान, तस्माच्चोभनमिति । अथायमसिको हेतुरित्यत्रोसेनेति॥॥
च्यते-यद्यथाऽनुभूयते तत्तथा प्रतिपत्तव्यम्, यथा. विचित्र अपतस्यैव कर्तृवशात् प्रधानाप्रधानतां दर्शयन्नाह- सुखाऽऽदिसंवेदनम्, अनुभूयते च भावशुकिनिमिकृवेदं यो विधानेन, देवताऽतिथिपूजनम् ।
त्ततया द्रव्यस्नानं, तस्माद्भावशुद्धिनिमित्तं तदिति ।
अथ कथञ्चित् सदोषत्वात्कयं शोभनत्वमस्य ?, इत्यत्रोच्यतेकरोति मलिनाऽऽरम्भी, तस्यैतदपि शोजनम् ॥ ३ ॥ यद्यद्विशिष्टतरगुणान्तरोत्पत्तिहेतुस्तत्तद्दोषसद्भावेऽपि शोभनम्, कृत्वा विधाय, इदमनन्तरोदितं व्यस्नान, य इति तदधिकार- | यथा श्रमपङ्काऽऽदिदोषोपेतमपि तृविच्छेदाऽऽदिविशिष्टतरबान् धार्मिक, विधानेन धार्मिक जनोचितस्नानविधिना "भमी- गुणहेतुकूपखननम्, विशिष्टसम्यग्दर्शनशुद्ध्यादिगुणहेतुश्च - पेहणजला-गुणा जयणा न हो पहाणाश्रो।" इत्येवंरूपेण, | व्यस्नानामिति ॥ ४ ॥ सतः किमित्याह-देवताऽनन्तरविवेचितस्वरूपमहादेवल कणा, यदि मावशद्धिनिमित्त त्याच्छोजनं द्रव्यस्नानं, तर्हि करोति मतति सततम प्रतिबद्धविहारितया गच्चतीत्यतिथिः, अविद्य- मलिनाऽऽरम्भीति कस्मादभिहितम् ?,मलिनाऽऽरम्नणोऽपि त. भाना वा तिथिः,उपनक्षणत्वादुत्सवाऽऽदयश्च यस्येत्यतिथिः-स. |
थैव तस्य शोभनत्वादित्याशझ्याऽऽहमार्गनिरतो यतिः। उक्तं च... तिथिपर्वोत्सवाः सर्वे, त्यक्ता येन महात्मना । अतिथि ते विजानीया--च्छेषमज्यागतं विपुः"
अधिकारिवशाच्छाने, धर्मसाधनसंस्थितिः । २॥ इति। तयोः पूजनमुचितसत्कारकरणं देवतातियिपूजनं,त. |
व्याधिप्रतिक्रिया तुल्या, विझेया गुणदोषयोः॥५॥ करोति विधत्ते। द्वितीयव्याख्यानपके तु-विधानेन देवताऽतिपू. अधिकारोऽस्यास्तीत्यधिकारी योग्यानुष्ठाता,तस्य बशोऽपेक्काजनं करोतीत्येवं सम्बन्धः कार्यः। कोऽसावित्याढ-मसिनोऽवद्य. धिकारी वास्तस्मात,न यथाकथञ्चिदित्यर्थः। शास्त्रे सुनिश्चि. मयुक्त प्रारम्भो व्यापारो मलिनाऽऽरम्भः, सोऽस्यास्तीति म. ताऽऽप्ताऽऽगमे, धर्मसाधनयोः प्रस्तुतयोव्यस्नानभावस्नानल. सिनारम्नी,सावद्ययोगाऽऽद्यनिवृत्तो गृहस्थ इत्यर्थः। कुतीथिकशि. कणयोः, संस्थितिः सम्यग् व्यवस्था धर्मसाधनसंस्थितिः। कणानिमायप्रवणं चेदं विशेषण,तच्चिकणं चैवम् हे कुतीथिकाः। किंरूपेयमित्याह-व्याधिप्रतिक्रिया तुव्या रोगचिकित्साव्यपदि यूयं मलिनाऽऽरम्भिणस्तदा युष्माकमिदं व्यस्नानं कत्तुमु- घस्था समाना, विज्ञेया सद्गुरूपदेशादर्थभिरवसेया । कयोचितं, नान्यथा। यथा ह्यस्य विशुरुभावहेतुत्वेन प्रशस्यता, मच बिषया ?, इत्याइ-गुणदोषयोः, गुणदोषावाश्रित्येत्यर्थः । विशुको भावो निर्माऽरस्त्राणां सदैवास्तीति किमेतेनेतित- श्यमत्र भावना-यथाऽऽतुरयशाद् व्याधिचिकित्सा गुणकरी, स्थति देवताऽतिथिपूजनक मनिनाऽऽरमिजणः,एतदपीति न के- दोषकरी च, तथा मलिनाऽऽरम्भीतरबकणानुष्ठातृवशाद पलं बक्ष्यमाणस्वरूपं भावस्नानं शुमपरिणामरूपत्वाच्वोभनमेत- ब्येतरस्नानरूपे धर्मसाधने गुणदोपकरे, व्यस्नान मलिदपि व्यस्नानमपि शोभनं साधु, सत्यपि सावद्यत्वे प्रायो नाऽऽरम्भिण एव गुणकर, नेतरस्येति हृदयम् । यतो मबि. मददऽऽदिहेतुन्वे च शुभन्नावहेतुत्वात् तस्येति विशे- नाऽऽरम्मी देवतोदेशेन स्नानाऽऽदावधिकारी, न वितरः । पणासदम्यस्य स्वशोभनमेव तदिति सिर्फ भाव गुद्धिनिमि
केचिघुनर्वदन्ति-मलिनाऽऽरम्भ्यपि नेहाधिकार।, यस्माद् बसत्वादिति ॥३॥
क्ष्यति अयमेव ग्रन्थकार:-" धार्थ यस्य चित्तेदा, तस्याशोभनमिदमित्युक्तं तत्समर्थनार्थमाह. उनीहा गरीयसी । प्रकाल नाद्धि पस्य, दूरादस्पर्शनं वरम" नावशुचिनिमित्तत्वा-त्तयाऽनुजवसिछितः।
॥१॥ इति । अनेन धर्मार्थ सावधप्रवृत्तिनषिद्धा, तथा शु
काऽऽगमैर्यथालाजमिति वदयति,अनेन च पुष्पत्रोटनाभावो देकथश्चिद्दोषभावेऽपि, तदन्यगुणनावतः॥४॥
वसंघन्ध्यारामाभावश्च दर्शित इति । न चायं सम्यगुवापः, नावोऽध्यवमायः, तबुद्धिनिर्मलता,तस्या निमितं कारणं,तस्य यतः स्नानं विधेयतया देवाचनार्थमुपदिष्टमेव । यदाह-"तत्थ मावो भावशुमिनिमित्तत्वं,तस्मादेतदपि शोभनमिति प्रकृतम् ।।
सुश्णा हा वि हु, दब्वे रहारण सुध्यत्येण ।" इति । अथ न चास्य भावशुकिहेतुत्वमसिहमित्याह-तथा तेनैव प्रकारेण
प्रासङ्गिकः स्नानापेक्तोऽयमुपदेशो, न तु देवतोद्देशिकः । एत. भाव शुद्धिनिमित्ततयैव योऽनुभवः संनवेदनन्तरस्य या सिकिः दपि न सङ्गतम् । एवं हि यदा कदाचित्स्नातोनवेत् तदा देप्रतीतिः सा तथाऽनुभवसिकिःतस्यास्तथाऽनुनबसिद्धितः । वार्चन कुर्यादित्युपदिष्टं स्यात, म नित्यकृत्यतया । नित्यकृत्य अथ व्यस्नानं जावशुद्धिनिमित्तमपि सदकायिकायिकाss- चैतत् । प्राह च-"वदंति चेश्याईतिकाझं पण विहिणा।" दिजीवहिंसादोषदूषितत्वादशोभनमेवेत्याशझ्याऽऽह--क- इति। यचोक्तम्-धर्मार्थमित्यादिना धर्मार्था सावधप्रवृत्तिनिषिथञ्चित् केनापि प्रकारेणाप्कायिकाऽऽदिविराधनालक्षणेन, दोष- का,तत् सत्यं,केवलं सनिषेधः सर्वविरतापेक्षया,तदधिकारेऽस्य भावऽपि हिंसालक्षणावद्यासद्भावेऽपि, न केवल दोषानावे लोकस्याधिकृतत्वात गृहस्थापेक्वया तु सायद्यपवृत्तिविशेषो. इत्यपिशब्दार्थः । तस्मासिादिदोषाद्योऽन्यो गुणः स- अनुज्ञात एव । यदाह-"दव्वस्थ कृवदितो।" इति । तथा वा. म्यग्दर्शनशुद्धिलक्षणः, स तदन्यगुणस्तस्य भावो लाभ- णिज्याऽऽदिसावधप्रवृत्तिरपिकाचित् कस्यचिन्न दृष्टा,विषयवि. स्तदन्यगुणभावः, तस्मात्तदन्यगुणनावतः। प्राइच-"प्याए शेषप्रक्षयात्तद्रूपत्वेन पापक्कयगुणबी जलानहेतुत्वात् यथा संका. कायवहो,पमिकुट्ठो सो किंतु जिणपूया। सम्मत्तमुकिहेन- शस्य, संकाशश्रावको हि प्रमादाद्भक्कितचैत्यभव्यो निबद्धलाभातिजावणीया र जिरवजा"॥१॥ यत्स्नानं पूजाथै तत्पूजा- म्तरायाऽऽदिक्लिएका चिरं पर्यटितदुरन्तसंसारकान्तारोऽनन्तमात्वात्तव्यपदेशमईतीति । ह च हेतुप्रयोग एवम-5-4 कामालब्धमनुष्यभवो दुर्गतनरशिरशेखररूपः पारगतसमी
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पहाय
पोपलब्धस्वकीय पूर्वभववृत्तान्तः पारगतोपदेशतो दुर्गतत्वानिबधनकर्मकपणाय, “यददमुपार्जयिष्यामि त्र्यं तद् ग्रासाबाद
जिनानादिषु निषोइये," इत्यदितवान् कालेन च निर्वाणमवाप्तवानिति । अथ युक्तं संकाशस्यैतत् तथै परस्मैवम् सर्वत्र शुभ स्वरूपव्यापारस्य विशिष्टनि जरा कारणत्वायोगादिति । यतु "शुरूऽऽग मैामम् "हत्यादि त स्वयं पुष्पोटननिषेधनपरं कि पूजा मालिके दर्शनप्रभावना तोकिन प्रयोक्तव्येत्यस्यार्थस्य व्यापनपरम् इतरथा-" सुबइ डुग्गनारी, जगगुरुणो सिंदुवार कुसुमेहिं । पूयापणिहाणे, लबबना तियल लोगम्मि ॥ १ ॥ " (पञ्चा०) न हि तथा यथालाभं, न्यायोपात्तवितेन वा तानेि गृहीतानीति । तथा चैत्यसम्ब न्धितया ग्रामाऽऽदीनां प्रतिपादनान्नाऽऽरामाऽऽद्यभावः प्रोक्तः ।
( २११५ ) अभिधानराजेन्द्रः ।
यदाह
'चोर बेइयाणं, रुप्पसूत्र भाइ गामगावाइ । लगतस्स मुखियों, तिकरणसुद्धी कई तुजये ॥१॥ भन्नर पत्थ विनासा, जा एयाई सयं विमग्गेजा । न हु तस्स हुज्ज सुद्धी, अढ कोई हरेज एयाई ॥२॥ सम्वत्थामेण तर्हि संघेणं दोइ लगियब्वं तु | सचरित्तीर्ण एयं सवेसि होर कजं तु ॥ ३॥
13
मलिनाऽऽरम्भयो धर्मार्थस्नानादिकमविरुद्धमिति स्थितम् । ननु यतिर कस्माधिकारी यतः कर्मको व्या धिरेको द्वयोरपि यतिगृहस्थ योरतस्तश्चिकित्साऽपि पूजाऽऽदिलक्षणा समैव भवति, ततो यद्येकस्याधिकारः, कथं नापरस्य ? | अस्मानमुनाऽभ्यङ्गं नशा स्कियाम् गन्धमापं च धूपं च त्यजन्ति ब्रह्मचारिणः " ॥ १ ॥ इति वचनाद् बताने करवाया चैनस्य नाधिकारः नैवम् भूषार्थस्यैव तस्य निषेधात् प्रसाद्यनिवृत्तोऽसाविति तत्र नाधिकारी नपरि यतिः साचात्रको दोष पत् मेवा देवता न करोति है। यदि स्नानपूर्वकदेवतार्थने योग स्थापित
*
न कर्त्तव्यं स्यात् । अथ गृहस्थः कुटुम्बाऽऽद्यर्थेऽपि साबधे प्रवृ ताम् पतिस्तु स्नाना प्रति नतु यद्यपि कुटुम्बार्थी साथ प्रवर्तते तथाऽपि तेन धर्मार्थ तत्र न प्रवर्तितव्यं स्यात् यतो नैकं पापमाचरितमित्यन्यदप्याचरितत्र्यं स्यात् । श्रय कूपोदा हरदारको विगुणान्तर मातीत निपूजादे ननु यथा दिनां पोदे म प पतेरनियुकमेव
कमानादौ यतिधिकारीतिपूर्वक है। अतो हि सर्वधनिवृत तत पोदारणेनाऽपि तत्रर्तमानानां तेषामेव स्फु रति, न धर्मः तत्र सदैव शुभध्यानाऽऽदिभिः प्रवृत्तत्वात् । गृहवास्तु सावद्ये स्वनावतः सततभेत्र प्रवृत्ताः, न पुनर्जिनाचना
द्वारे परोपकारात्मके धर्मेतेन तेषां वर्तमा नानां स एव चित्ते लगति, न पुनरवद्यमिति कर्तृपरिणामशादधिकारेतरौ मन्ताविति । स्नानाऽऽदौ गृहस्थ एवाधि कारी, न यतिरिति । आगमोऽप्येवं व्यवस्थितः ।
यवाद"जीयकायम सो विकखियो।
५४२
"
एहाय
तो कसिणो संगममिति ॥ १ ॥ अकसिणपतगाणं, विरयाविरयाण एस खलु जुत्तो । संसार करणे, दत्तो॥२॥ "
तथा व्यस्तत्ररूपत्वात् पूजायामतस्य च भावस्तव हेतुत्वात् प्रधानत्वाच्च यतीनां न रूव्यस्तवेऽविकारः । श्रत एव सा मायिकथा आयकोऽप्यनधिकारी तसाद्यनिवृत्या भावस्तथाऽऽरूढत्वेन भ्रमणकल्पत्वात् । अत एव गृहिणोऽपि प्रकृत्वा पृथापनमायतः साप संपति कानुनि धर्माति बाद"सदारंभपवत्तो जं च गिद्दी तेण तेलि विनेया । सन्निवित्ति फल चिचय, एसा परिनावणीयमियं ॥ १ ॥ " न चायमनन्तरोदितोऽसदारम्प्रवृत्तः कथं तस्य निवृतिफलत्वेन स्ना नादौ सावधानः स्थितमिदं न सर्व एव सर्वत्राधिकारी, किं तु य एवैत्राधिकारी, स एवान्यवानधिकारीति ॥ ५ ॥
3
अथ भावस्तानप्रतिपादनायाऽऽह
ध्यानाम्भसा तु जीवस्य सदा यच्छुद्धिकारणम् । मलं कर्म समाश्रित्य भास्तानं समुच्यते ।। ६ ।। ध्यानं शुचिकाताला जसं तद् ध्यानाम्भस्तेन. तुशब्दः पुनरर्थः, यत् स्नानं, शुद्धिकारणं निर्मलखहेतुः तद्भाव स्नानमुच्यते इति सम्बन्धः । प्रकालनीयप्रदर्शनाया ममालिन्यबन्धनं कर्ममाचरणाऽऽदिन कर्ण समाश्रिताऽङ्गीकृत्य भावान्नाऽऽदीमाथित्व भावतो वा परमार्थतः स्नानं भावस्मानं, तदित्येवं भूतमुच्यते तत्स्वरूपविद्भिरभिधीयत इति ॥ ६ ॥
अस्यैव कारकभेदेोमखरूपतामाहऋषीणामुच होत-निर्दिष्टं परमभिः । हिंसादोपहितानां व्रतशीनि ॥ ७ ॥
पश्यन्ति यथाय परिवति ऋषयो मुनयस्तेषां शिदोघारणार्थ: तेन ऋषीणामेवोत्तमं पादितं परमविनिमुनिपुङ्गवै स षीणामुतममिति विशेषणसामर्थ्यादन्येषां त्वनुसममेव तदिति सिद्धं तेषामविशि ममेतदेवेत्येवमयधारणं दृश्यम् । ततश्चोत्तमत्वात्तदेव तेषां विधेयम् । ननु देज्यानमपि त्यास प्र मनयोगात्णव्यपरोपण से दोषो के दिन वृत्त उपरता येते तथा तेषाम्, न तु ऋष विधातु
तथा सोन्यासा
स्वादिति वाक्यार्थः स्यात् । किंभूतमित्र मित्याह-व्रतानि महा व्रतानि, शीलं च समाधिः, अथवा व्रतानि सूलगुणाः, शीलमु राते विशेषेण वृद्धिकारण मीनिं भावानं दिधर्मशुभ्यानरूपं तद्विषभदेवेति॥७॥ उपसंचा स्नात्वाऽनेन यथायोगं निःशेषमवर्जितः । ज्यो न लिप्यते तेन, स्नातकः परमार्थतः ॥ ८ ॥
स्वा अनेन भयहेतुनानेन भावाने
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(२१६६) अभिधानराजेन्द्रः।
एहसा म च यथायोगं यथासंबन्धं व्यस्नानेन मलिनारम्भी, नाव. ति ॥८॥ भष्ट०३ अप० । वर्षातः प्रतिनियतदिवसभाविनि स्नानेन चेतरः निःशेषम लवर्जितः, पारम्पयण साक्षाच सकल. जगवत्प्रतिमायाः स्नाने पर्व विशेषे, पृ.१३.। कर्ममलमुक्तो भवतीति शेषः । शेषकरणं विना एककर्तृकत्वा.
एहाशमलिया-स्नानमद्विका-स्त्री. । स्नानयोग्य मालिकाविशेभावात् स्वाप्रत्ययो न स्यादिति, शेष:-कृत इति । एवंभूतम सन् नूयः पुनरपि, न लिप्यते नोपदिह्यते, तेन कर्ममलेन.पवंच
थे, जी० ३ प्रति० । जंग स्नातक: स्नातः, परमार्थतो वस्तुवृष्या भवति,स्नानान्तरस्ना.
एहारु-स्नायु-न० । अस्थिवन्धनाशरायाम्, तं। प्राचाo। तस्तु परमार्थस्नातो न भवति, विवक्षितमलविगमाभावात, एडाविन-नापित-पुं० । “निम्बनापिते सपहं वा" ॥ पुनर्मोपलेपनाति । ततो हे कुतीथिकाः! यदि यूयमकेपेण
२३०॥ इति नस्य रहः। 'पहाविमो,' 'नावित्रो । कुरोपजी. परमार्थतः पारमार्थिकस्नातका भवितुमिग्य,वा भावस्ना.
विनि, प्रा० १पाद। मेनैव स्नात, मा कम्यस्नानेन, मसिनाssरम्भाषामेव तस्यो कत्वादिति हदयम् । अथ चैवं व्याख्या-स्नात्वाचनत्यनम्त
एडाविअपसेवय-नाषितप्रसेवक-पु.। मखशोधपुरादिरोक्तजावस्नानेन, यथायोगं यथायुक्ति, निःशेषमलवजितः सन्
नाजने, उत्त०२०। नयो न सियते, तेन, कोऽसावित्याद स्नातकः परमार्थतःपार- |
एहसा-स्नुषा-स्त्री.1 पुत्रवधाम,"प्राणंदपुरे मदमो, गहुसामायिकस्नातक इत्यर्थः । हच क्वाप्रत्ययो कण्डवशादि । समं संवासं काळण।"प्रा. म. ०१खएड।
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इति श्रीमरसौधर्मबृहत्तपागच्छीय-कलिकालसर्वज्ञकरूपश्रीमद्भहारक-जैन श्वेताम्बराऽऽचार्यश्रीश्री १००० श्री विजयराजेन्प्रसूरिविरचिते 'थनिधानराजेन्द्रे' ण (न) कारादिशब्दसङ्कलनं समाप्तम् ।
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(२१६७) भाभधानराजेन्द्रः।
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उत्त। तप्तत्रपु पारयन्ते,पास्यमाना प्रातिरं रास्टन्ति। सूत्र०१ भु०म०२०। 'पुक'शब्दोऽन्यत्री प्रश्न संत्रद्वार। सूत्र प्रकाश त्वव-तव-पाप० ।"असिस्न्यां तनु-तुज्झ-तुध"
४॥३२॥ अपभ्रंशे युष्मदोरुसिङसोको। प्रा.४ पाद । तनमागर-त्रपुकाकर-पुं० । यत्र अपुकं ध्मायते । अपुकमाफनस्थाने, स्था०८ ग.नि.चू० । तनस-पुष-नाप्रपतेः किए। अप-उप दाहे, क-कार्क
रोक्ने गोरादिस्वाती । खीरा' इतिस्याते वृक्के, वान --पुं० 'त' इसने, सहने वा अप्रत्ययः, डिवाहिलोपः।।
बालीविशेष, प्राचा.१०१०५०। व्य० । प्रका०॥ बोरे, अमृते, पुन्छ, कोमे, मोच्ने, रो, सगालपुच्छेच । तरूपे,
पत्राणि एतेषामेकजीवाधिष्ठानानि, पुष्पाण्यनेकजीवाऽऽरमका. पुण्ये, स्त्री०० वाच."तकारः पुंसि संनोगे, निश्चय वि.
नि । प्रका०१पद। स्तरेसमे।(४१) धातुवादे विधी क्रोधे, तापायां खियातउसमिजिया-त्रपषमिजिका-श्री. श्रीन्कियोचाविशेष, मता॥"माधव०-पका-"तप्रेते निष्फो शाम्ते, पौनःपुन्ये बयेचतः।" इति विश्वदेव -एका तच्छन्दनिर्देशे, निच यथा-" से गामंसि वा" इत्यादि । नि० चू. २०४०।
सए-ततम्-अव्य । तस्मादित्य, उत्त०१०। वएणवत्युभ-तदन्यवस्तक-पुंतयएणवत्थुम 'शम्दातम्रो-ततम्-मय. । शौरसेनीमागधीविषये एव , माहवे स्था०४ ०३ उ..
तुन दः । प्रा० १ पाद । तस्मादित्य, दार। माणिं-तदानीम्-अव्य० । तस्मिन् काले तदानीम्। "पानीया.
तं-तत-मध्य बहुसाधिकारादन्यस्यापि व्यञ्जनस्य मकारस। ऽऽदिवित् ॥८॥१.१.१॥ इति ईकारस्थेत् । प्रा० . पाद ।
"मोऽनुस्वारः"॥८१॥२३॥ इति मकारस्यानुस्वारःप्रा. सदेत्यर्य, वाच.
१पाद। "तंबाक्योपन्यासे"॥८२।१७६॥ तं तिवा.
क्योपभ्यासे प्रयोक्तव्यम् । “तंतिभसवादमोक्खं ।" प्रा.२ सइय-ततीय-त्रिकाप्रयाणां पूणः । हि-तीयः-संप्रसारणम् ।
पाद । तस्मादित्यय, भ. १५ श० । विपासातदितिनिदेशे. वाचा "पानीमाऽऽविचित्" ११०२॥श्तीकारस्येकारः।
भाव०४ मा प्रक्राम्तपरामार्शनि, त्रिका भाचा.१९०२. प्रा.१पाद । प्रयाणां पूरणे, येन त्रित्वसंख्या पूर्यते तस्मिन्
१उ० अनु।"तं जहा-सासमसामोतिविहा पत्ता पदाणे, वासाप्रामा नि० चू.।
जहाजाणिया, प्रजाणिया, सुविनदा जाणिया।" तपस्यवश्यंग-तृतीयाग-न० । स्थाना, प्रति०।
दाहरणोपदर्शना, नंगा भाचा० । मनु-स्थागतयथेति या. वक्ष्या-तृतीया-स्त्रीला चम्ममएस्सस्य तृतीयकलाया. सूर्यमण्ड क्योपण्यासाथै, प्राचा० १७०५ म.५००। भावाब। लप्रवेशनिगमान्यतररूपक्रियाऽऽस्मिकायां तिथी, पाचगस्थना. | तंट-देशी-पृछे, दे० ना०५ वर्ग १ गाथा। मस्यातायां विप्रको, "विवक्तितक्रियासाधकतमं करणं, तस्मि
तम-देशी-कविकासासके, शिरोविहीने, स्वराधिचादेना स्तृतीया । अनुग"तश्या करणम्मि कया, भणियं च फयं चण
५ वर्ग १९ गाथा। व मरवा।" तृतीया करणे, का यथेत्याह-भणितं वा कृतं वा, केनेत्याह-तेन वा मया वेति । अत्र यद्यपि कर्तरि तृतीया प्र
तंमत्र-ताएमा-नानृत्ये, जी०३प्रनि०४०1"मप्पेगरतीवते, तथाऽपि विवकाधीनत्वात् कारकप्रवृत्ते, तेन मया वा
या तंमवेति"माम.१.१खएम । तापमवरूपं नृत्यं कृत्वा भरिणतं कृतं वा,देवदतेनेति गम्यत इति । एवं करणवि.
कुर्वति, रा. वक्षाऽपि न यतीति सकयामः । तवं तु बहुश्रुता विदन्ती. संकुल-तएडुल-पुं। तमि-मलच् । धान्याऽऽदिसारे, निस्तुषे तिअनु..
धान्याऽदी, तामुलीयशाके च । विले. पुंस्त्री० । टा। सइलपत्तिधारगणायग-तैलपात्रीधारकहातग-त्रि० । तैलपा. वाचा घाम । वृतविशेषे, 'टीवरू' इति गुर्जरभाश्रीधारकस्य तप वा यज्ञातमुहादरण तद्गतः प्राप्तोऽपाया. रासा"ासीयपाणिधंसी,तिम्मियतंडुलपवालपुमभोई। वगमजमिताप्रमत्तातिरकसाधाद्यः स तथा तेसपात्रीधार- तपडलशम्देन औषय उच्यन्ते । आव०१०। कायदप्रमचे, पञ्चा. १४ विवा।
तंत्र-तन्त्र-नामा०म०११ खण्ड । शास्त्रे, पक्षा वास-ताश-वि•। तस्येच दर्शनमस्य । वाच० "अतां -
वियनाचू प्रा० मा विद्यायाम्, स्था० ठाासिका. इसः"।४।४०३॥ इति अपभ्रंश तारशशब्दलदादेरब. न्ते,पंम्ब०४ बर। पष्ठयां खीकसायाम, कल्प.७कण । "सरी पवस्य डिसंज्ञका 'प्रश्स' इत्यादेशः । प्रा०४ पाद । तथा. प्रणियं तंतं, भाणिजए सम्मि व जमत्थो।" तनु' विस्तारे विषेऽय, बारा
तम्यते विस्तार्यते यद्यस्मादनेनास्मादस्मिन् वाऽर्थ इति तन्त्रपउ-अप-10 मरिष्वा अपते लग्जते श्व खजया रुचीभय. म् । अथवा तन्यते विशिष्टरचनया तदेव विस्तायंते इति वन्य बीविका सौसके पक्के वाब.मि. सम्बादारससूत्रमेवोपते। विझे।
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संत
तान्त त्रि० । कायेन खेदवति, झा० १ परितता । " खेदवाचका एते । नि० १ संतंतर - तन्त्रान्तर- त० । दर्शनान्तरे, पञ्चा० १० चित्र० ।
(२१६८) अभिधानराजेन्द्रः ।
संत जुने - सन्त्रयुक्ति - श्री० । श्रागमाऽऽश्रितोपपतौ, पञ्चा० ४
विश्व० शास्त्रीयोपयुक्त, पञ्चा ६ विष० ।
1
1 012 6
संतडी - देशी- करम्बे, दे० ना० ५ वर्ग ४ गाथा |
संतय-तन्त्रज- त्रि० तन्त्रं मविज्ञेयम्पनिकादि तस्माखातं तम्त्रजम् । वस्त्रे, कम्बले च । उत्त० २ ० । ततस्त० चतुरिया प्रा० १ पद वैतानुसार वन्यानुसार पुं० शाखानुसारे पो० १२० । संदिप तान्त्रिक-त्रयमस्येति तान्त्रिकः । तीनपिपजीविनि अनु
संती-तन्त्री श्री बीणावाम् जी० ३ प्रति० ४ ० ० म। कल्प० । श्राचा० | औ० । रा० । जं० सू० प्र० । 'ती' ता. यो जायन्ते । अनु० । वीणाविशेषे, प्रश्न०५ सम्ब० द्वार । "तं. वीवामिष" ती पाहता लो स्तन ताम्र सिका, त्रुटितानि वादित्राणि । जी०३ प्रति० ४ ० | "संतीत
ताक्षगीय वाइयरवेणं । " तन्त्री वीणा, तला दुस्ततालाः, कंसिफास्तव्रताला वा हस्तताना, गीतवादिते प्रतीते, तेषां यो रवः स तथा तेन । भ० श० ३३ उ० । गुरुच्याम, देहशिरायाम्, रज्ज्वम्, नदीभेद, युवती भेदे च । वाचः । वंतीसम - तन्त्रीसम-त्रि० । वीणाऽऽदितन्त्र शब्देन तुल्ये, स्था०
तंब
०
भ० ।
।" संता ता | तंतुमच्छिग - तन्दुलच्छिन्नक - त्रि । तन्डुल प्रमाण खण्डैः ० १ वर्ग १ श्र० । पिडते औ०
तंदुलपिड दुलपिष्टन मासोपवतकुकुरोनि
चू० ४ उ० ।
दुसमच्छतमत्स्यपुं०
तंतु-तन्तु पुं० । तम्यते भवोऽनेनेति तन्तुः । भवतृष्णायाम्, उत्त २३ म० । तुरीवेमाऽऽदौ, न० ६ श० ३ उ० । तंतुक्खोमी देशातन्त्रोपकरणे, दे०ना०२ वर्ग७ गाथा । तंतुमय तन्तुगत वि० [सन्तोस्तुरीपेमादेरपनीतमात्रे, भ०६
· ।
श० ३ उ० ।
..
तंतुमय तत्रोत त्रिमुरीवेमाऽऽदी
००
३ न० ।
तंतुयतन्तुज त्रि० । तन्तुभ्यो जातं तन्तुजम, वस्त्रे, कम्पले च ।
उत्त० २ अ० ।
तंतुत्रम - तन्तुवट - पुं० । गन्धप्रधानवनस्पतिविशेषे, स० प्र० । चंतुवाय तन्तुवाय पुं० । कुविन्दे २ द्वारा म० । कटप० । प्रज्ञा० । अनु० ।
तुवायसाला तन्तुवायशासा स्त्री कुविन्दशासायाय भ०
१५ श० ।
दंतोयार--तन्त्रावतार - पुं० । तन्त्रे आगमे अवतारः प्रवेशः । श्रा
गमप्रवेशे, घ० १ अधि० । दुगुजाण - तन्दुकोद्यान- न० | श्रावस्त्या नगयी बहिरुद्याने, य प्रकोष्ठकं चैत्यम् । प्रा० चू० १ ० ।
बं उन - तन्न - पुं० । धान्ये, तन्पुन्नवाहान् जुनक्ति । त
जी०१ प्रति प्र० । तंदुञ्जवेयालिय- तन्दुक्षवैचारिक- - न० | तन्दुलानां वर्षशतायुपुरुषप्रतिदिनयोग्यानां साविचारेोप
चारिकम् | श्री वीरहस्तदीक्षितमुनिविरचिते नन्दी सूत्रो कप्रन्थविशेषे, तं० ।
-
निज्ज रियजरामरणं, बंदिता जिणवरं महावीरं । बुच्छं पयागमितंयालियं नाम ॥१॥ मनु विन्ति प्रकीर्णानि कथं ते बो
१२ देि
वि५ इत्यादीनि श्रीमानका कोरकार भिन्नानि चतुरशीतिसहस्रसंख्याने प्रकीर्णकान्य भवन् श्री ऋष भस्वामिनः। कथम्, अधभस्य चतुरशीतिसहस्र प्राणाः भ्रमण भखारन मेरेकैकस्य एवं संस् कसान आसीरन् जिनाऽऽदीनां मध्यमजिनानां यस्य याचन्ति यतस्तावन्ति प्रथमानुयोग
93
1
कस्राणि आसीत् देवानस्वामिनः ३ । इति तेषां मध्ये श्रीवर्द्धमानस्वामिस्व दस्तदीक्षितेनैकेन साधुनिवैचारिकीर्णकं तस्य व्यापक यते इति । (निजरिम त्ति) निर्जरितं सर्वथा कयं नीतं जरा ब वृद्धत्वं, मरणं च पञ्चत्वं जरामरणम् । यद्वा-जरगा वृषभावेन, जरायां वृद्ध मात्रे वा मरणं येन सं निर्जरितजरामरणः, तं वन्दित्वा विधाय जिना रागादिजयनशीलाः सामान्य केवलमस्तेषु यथा नातिशयापेक्षा जिनवरस्तं जिनवरम् । (तं०) महांचासौ वीरश्च कर्मविदारणसहिष्णुर्महावीरस्तम, (बुच्छं ति) वक्ष्ये जणिष्यामि प्रकीर्णकं श्री वीरस्नदीकिनमुनिविचितं नन्दीसूकं प्रम्यविशेषमिदं प्रत्यक्षं वर्षशतायुरुषप्रतिदिन सं विचारेणोपचारिक नामेति ॥ १ ॥ (०) अथात्रोकं निरूपयन्ति
बहारो उस्मायो, संधितिराम्रो य रोमकूपाई । पितं रुहिरे व गणि गणिया । १६ ।।
प्रकीर्ण जीवानां गर्म आहारस्वरूपम्, गर्ने उपरिमाणम शरीरे सरूप शरीरे पिषि रोमकूपाणि पितरुधिरम शुरु राहत दि कन् । एतत्पूर्वोक्तं गणित संख्याप्रमाणतो निरूपितं, कैः १, गणित पनितीक १६० तंदु सिज्ज - तन्दुलीय - शाकविशेषे, है ० । वाच० । तंउलेज्जग - तराजुलीयक- पुं० । दतिवनस्पतिभेदे, प्रज्ञा० १
पद । श्रचा।'
सम्यक पुं० हरिवनस्पति मा १ प संद ताम्र १०
॥
तर दाते" योगे"
| १ | ८४ ॥ इति सूत्रेणाऽऽदेर्द्वस्वः । प्रा० १ पादः । " स्तस्य
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(२१६४) तंब अन्निधानराजेन्द्रः।
तक थोऽसमस्त-स्तम्बे" ॥5॥२॥४५॥ अत्रालमस्तस्तम्बे - तंबोलीमंटवग-ताम्बनीमएडपक-पुं० । ताम्बूली नागवली स्युक्तस्तस्य थः ।" साम्राउनेम्बा "। ।२। ५६॥ इति सं. ।
तन्मया मएकपकाः । नागवद्वीमयमण्डपे, रा० । जी। युक्तस्य मयुक्तो बकारः। प्रा०२पाद । धातुविशेष, प्रका०१ पद । उत्तासूत्र०। "तंबपायाखि चा, तउपायाणि चा, सुवास
तंस-व्यस्र-त्रि०1" पगे तंसे।" तिम्रोऽनयो यस्मिन् तत् व्य. पायाणि वा।" ग०१मधिल अरुणे,पं०। भौतद्वति,त्रि.।
स्रम् । स्था०१०।"वकाऽऽदावन्तः"८।१।२६॥ इ. वाचा शुल्वे, प्रश्न०४ सम्बार ।
त्यनुस्वारः । प्रा० १पाद । “नदीघानुस्वारात्"॥511
ए२॥ इत्यनुस्वारात्परस्य सस्य द्वित्वनिषेधः । प्रा०२पाद। संबंकिमी-देशो-इन्द्रगोपे, दे. ना० ५ वर्ग ६ गाथा ।
शृङ्गाटकफलवत् त्रिकोणे. अनु०।" रहस्से बढे तसे चनरं. संबकुसुम-देशी-कुरवके, दे. ना०५ वर्ग है गाया।
से।" अनु। बंबचूल-ताम्रचूम-पुं। ताम्रा चूमा यस्य । कुक्कुटे, ज्ञा०१/तकार-तकार-पुं० । 'त' इत्येवंरूपे वणे, पाय० ४ श्र०। श्रु०१ ० । "सोन्ब ऽत्यगादाद्ययामो, रात्रेस्तावदतः परम् ।तक-तक्र-न । दध्ययवरूपे, वृ०१०।" तक्ककुमेणाह. ताम्रचूड मतादा-कयाचिद्विद्यया यदि " ॥१७॥ ती०७ कल्प। रणं ।" नि० ० १ ००। तंबटकरी-देशी-शेफालिकायाम, दे० ना०५ वर्ग गाथा।
तत्क-
त्रिरशे, अनु। तंवणह-ताम्रनख-त्रि० । ताम्रा श्व रक्ता नसाः कररुदा यासां तर्क-पु० । तर्कणं तर्कः। स्था०१ 10) संशमाय भवितव्य
तास्ताम्रनखाः। ताम्रसदृशमोहितनखवति,जी. ३ प्रति०४ उ० । ताप्रत्यये, सदपर्यासोचनात्मके भवितव्यमत्र स्थाना तंबणिकणह-ताम्रस्निग्धनख-त्रि० । ताम्रा अरुणाः स्निग्धाः ।
पुरुपेण वेत्येवंरूपे ज्ञानविशेष, स्त्र०१० १२ १० । सं. कान्तिमन्तो नखा येषां ते तथा । कान्तिमदरुणनखे,प्रश्न.४
भवत्पदार्थास्तित्वाध्यवसायरूपे कहे, प्राचा० १७०५० प्राथद्वार।
६ म० । विमर्श, स्था०६10 विचारे, दश०१ अ० । प
यालोचने, प्राचा०१ श्रु.८०२.। संवरत्ति-देशी-गोधूमेषु, कुङ्कमच्छायायां च । दे. ना०५ वर्ग ५ |
समपि कारण गोचरस्वरूपैः प्ररूपयन्तिगाथा।
उपन्नम्नानुपक्षम्नसम्भवं त्रिकाबीकक्षितसाध्यसाधनसंवसंचलित-ताम्रलिप्त-पुं० । देशभेदे, क्वचिस्सिन्धुताम्रलिप्तको
न्धाऽऽद्यालम्बन मिदमस्मिन् सत्येव जयतीत्याद्याकारं संवेतणाऽऽदिके देशेधिका दंशमशका भवन्ति । सूत्र० १ श्रु०२ भ०१ उ०।
दनमूहाऽपरनामा तकः॥७॥ तंबा-देशी-गवि, दे. ना० ५ बर्ग १ गाथा ।
उपलम्भानुपशम्भाज्यांप्रमाणमात्रेण ग्रहणाग्रहणाभ्यां संभव
उत्पत्तिर्यस्येति कारणकीर्तनम्। त्रिकालीकलितयोः कालत्रयीतंबागर-ताम्राकर-पुं० । ताम्रध्मापनस्थाने, यत्र तानं धमायते ।
वर्तिनोः साध्यसाधनयोगम्यगमकवोःसंबन्धोविनाभावो व्यास्था०1०। यत्र ताम्रमुत्पद्यते । ताम्रोत्पसिस्थाने,नि.चू.
तिरित्यर्थः । स पादिर्यस्याशेषदेशकालवर्तिवाच्यषाचकसम्ब५ उ01
न्धस्याऽऽम्बनं गोचरः यस्य तत्तथेति विषयाविष्करणम्।इ. संवाय-ताम्राक-पुं० । स्वनामझ्याते ग्रामे,यत्र भडिकापुर्या मा.
दमस्मिन् सत्येव भवतीत्यादिशब्दादिदमस्मिन्नसात न भवत्येचे. गते वीरभगवति नन्दिघेणः पापित्यीयो भडाहतः स्वर्जगा- त्याकार, साध्यसाधनसबन्धाऽऽलम्बनम, एवंजातीयः शन म। प्रा. क. । प्रा० ०।
पर्वजातीयस्यार्थस्य वाचकः,सोऽपि तथाभूतस्तधामृतस्य वाच्य संबिरा-देशी-गोधूभेषु, कुङ्कमच्छायायां च । दे० ना० ५ वर्ग इत्याकारं वाच्यवाचकनावाऽऽलम्बनं च संवेदनमिहापादीय५ गाथा।
त इति स्वरूपप्रतिपादनम्। एवंनूतं यद्वेदनं स तकः कीयेते.कद
इति च संज्ञान्तरं लभते।ये तु ताथागता:प्रामाण्यमूहस्य नोहांतंबूलीदल-ताम्बूलीदन-न। नागवद्विपत्रे, अनेकशकली कृत.
चक्रिरे । तेषामशेषशन्यत्वपातकाऽऽपत्तिः। भाः !किमिदमकाकरमर्दितप्रहरमात्रधृतताम्बूलीदवं सचित्तचित्तं वेति प्रश्ने,
एमकूष्माएमाझम्बरोडामरमन्निधीयते । कथं हि तप्रामाण्यामुप. उत्तरम-पताशपत्रस्याचित्तीभवने व्यवहारो नास्तीति । १९६
गममाणेशमसमञ्जसमापनीपोत ?। शृणु-प्राचयामि प्रासेन.२उल्ला।
किन । तर्काप्रामाण्ये तावन्नानुमानस्य प्राणाः, प्रतिबन्धलिए. तंबेरी-देशी-शेफात्रिकायाम, दे० ना०५ वर्ग ४ गाथा । क्युपायापायात् । तदभावेन प्रत्यकस्याऽपि । प्रत्यक्षण दि पदातंबोल-ताम्बूल-न । "ओत कूष्माएमी-तूणीर-कूपर-स्थूल.
र्थान् प्रतिपद्य प्रमाता प्रवर्तमानः कचन संयादादिदं प्रमाताम्बून-गुसूची-मूल्ये" ॥८।१ । १२४ ॥ ति ऊत प्रोत् ।
णमिति, अन्यत्र तु विसंवादादिदमप्रमाणमिति व्यवस्थाप.
न्थिमाबध्नीयात् । न समुत्पत्तिमात्रेणैव प्रमाणाप्रमाणविवेप्रा०१पाद । नागवल्लीदले, सूत्र०१७. ४ अ० २० ।
कः कर्तुं शक्यः, तदशायामुभयोः सौसरश्यात । संवादपञ्चा० । पत्रपूगस्त्र दिरवटिकाकत्थकाऽऽदिस्वादिमे, ध० २
विसंवादापेक्वायां च तनिश्चये निश्चित पवानुमानोपनिपाअधि०। प्रव० । अनु.।
तः। न चेदं प्रतिबन्धप्रतिपत्तौ तस्वरूपापायापाये । अनुमासंबोली-ताम्बूली-स्त्री० । नागवल्ल्याम, जी. ३ प्रति०४००।
नाध्यक्तप्रमाणाभावे च प्रामाणिकमानिनस्ते कौतस्कुती प्रमेयजं.। कन्प्रत्ययोऽस्यत्र, लोमसिका पुसिमा नाम्बलिका व्यवस्थाऽपीस्यायाता त्वदीयहृदयस्येव सर्वस्य शन्यता । साऽ. स्यवमादिका पक्ष्यः। व्य.ए.1
पिघान प्रामोति । प्रमाणमन्तरेण तस्या अपि प्रतिपमश५४३
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(१९७०) प्राभिधानराजन्तः।
तक्खगा
क्यत्वादिति । अहो! महति प्रकटकसंकटे प्रविष्टोऽयं तपस्वी तकरट्ठाण-तस्करस्थान-न। शून्यदेवकुलाऽगारादौ,ज्ञा०१ किं नाम कुर्यात् । अथ-"धूमाधी हिविज्ञान,धूमझानमधीत
ध्रु०२ अ.। योः । प्रत्यकानुपम्भाच्या-मिनि पञ्चनिरन्वयः" ॥१॥ निणे
तकरतण-तस्करव-न० । नवमे गाणेऽदत्ताऽऽदाने,प्रश्न० ३ मा. ज्यते। अनुपलम्नोऽपि प्रत्यक्तविशेष एवेति प्रत्यक्षमेव व्याप्ति
श्रद्वार। तात्पर्यपालोचनचातुर्यवर्यम् , तत् किं तकापक्रमेणेति चेत् . ननु प्रत्यकं तानियतधूमाग्निगोचरतया प्राक् प्रावृतत । तद्यदि
तकरपोग-तस्करप्रयोग-पुं० । तस्कराश्चौराः,तेणं प्रयोगः सं. व्याप्तिरपि ताम्मात्रिय स्यात्तदाऽनुमानमपि तत्रैव प्रवर्ततेति
हरणक्रियायांप्रेरणमन्यनुशातं तस्करप्रयोगः,तान प्रयङ्ग्रे-हरत कुतस्त्यं धूमान्महीधरकन्धराऽधिकरणाऽऽशुशुक्कणिलवणम ।
यूमिति । स्थूलकादत्तादानविरते हितीयेऽतिवारे, श्राव०६ सयलादू बभूवान् विकल्पः सार्वत्रिकी व्याप्ति पर्याप्नोति निणे.
भापश्चाधा। ध०र०। तुमिति चेत; को नामवं नामस्त तर्कविकल्यस्योपलम्भानुपल-तकाल-तकारी-खा० । बनस्पार
तकलि-तारी-स्त्री० । वनस्पतिभेदे, प्रज्ञा.१पद । प्राचा०। म्भसंभवत्वेन स्वीकारात, किन्तु व्याप्तिप्रतिषसावयमेय प्रमाण भ० । जयन्तीवृह, वाच । ककीकरणीयः । अथ तथा प्रवर्तमानोऽयं प्राक् प्रवृत्त प्रत्य-
री-स्त्री.' तकलि 'शब्दार्थ, प्रक:०१ पद। कव्यापारमेवानिमुखयतीति तदेव नत्र प्रमाणमिति चेत्, वर्षनुमानमपि मिग्रादिप्रत्यकस्यैव व्यापारमा मुस्खयतीति नदेव
| तकलीमत्यय-तारीमस्तक-न । तोरीमध्यवर्तिनि गमें,मा. बैश्वानरबेदने प्रमाणम्, नानुमानमिति किं न स्यात् । अथ | चा०२७०१०१ अ०० उ०।
६ लिकगाचरमेष, | तकलीसीसय-तारीडीर्षक-न । तोरीस्तबके, प्राचा. २ अनुमानं तु साध्यगोचरमिति कथं तत्तदृव्यापारमामुखयेत, साई प्रत्यक्षं पुरोवतिखक्षक कणकुपणमेव । तकविकस्पस्तु
श्रु० १ .१ 400 उ०। साश्यसाधनसामान्यायमर्शमनीषीति कधं सोऽपि तयापारमु.
तछा-तो-स्त्री० । स्वकीयविकल्पनायाम् , सूत्र० १ ० १ हाधयेत् । अथ सामान्यममान्यभेव, असत्वादिति कथं तत्र प्रय
अ०२ उ०। वित, स्वमतिपयर्यालोचने, सूत्र. १७०१३ अ०। समानस्तकः प्रमाण स्यादिति चेतः अनुमानमपि कथं स्यात? | "एगा तका।" तर्को विमर्शः । अपायात्पूर्वा ईहाया उत्तरा: तस्थापि मामाभ्यगोचरत्वाध्यभिचारात । " अभ्यतु सामान्य- प्रायः शिरःकण्डूपनाऽऽदयः पुरुषधर्मा इह घटन्त इति सम्प्र. लकणं सोऽनुमानस्य विषयः" इति धर्मकीर्तिना कीर्तनात् । त्ययरूपाः, हैकत्वं तु प्रागिव । स्था० १ ०। तस्यतोऽप्रमाणमेवेतद्, व्यवहारेणेवास्य प्रामाण्यात.सर्व एवा-काजाम-तोजास-पुं० । तलक्षणराहते तबदाभासयमनुमानानुमेयव्यवहारो बुद्ध्यारूढेन धर्ममिन्यायनेति वच
माने, रत्ना०1 नादिति चेत्, तौ ऽपि तथाऽस्तु । अथ नायं तर्कः व्यवहा
तर्काऽऽभासमादर्शयन्तिरेणापि प्रमागम, सर्वथा वस्तुसंस्पर्शपराङ्मुखत्वादिति चेत, अनुमानमपि तथाऽस्तु । अयम्तुनिर्भासमपि परम्परया पदा.
अमत्यामपि व्याप्तौ तदवनासस्तर्काचासः॥ ३५॥ प्रतिबन्धात् प्रमाणमनुमानमिति चेत, किं न तोऽपि?.
व्याप्तिरविनाभावः ॥ ३५ ॥ भवस्तुत्वं च सामान्यस्याचाऽपि केशरिकिशोरवक्त्रक्रोडदंया.
उदाहरन्तिऽहाऽऽकर्षायमाणमस्ति । सदृशपरिणामरूपस्यास्य प्रत्यका
स श्यामो भैत्रातनयत्वादित्यत्र यावान्मत्रातनयः स श्याम दिपरिच्छेद्यत्वादिति तत्वत एवानुमानम, तश्च प्रमाणं प्र. इति यथा ॥ ३६॥ त्यक्षवदिति पाषाणरेखा ॥७॥
न हि मैत्रातनयत्वहेतोः श्थामत्वेन व्याप्तिरस्ति,शाकाऽऽद्याहा. अत्रोदाहरन्ति
रपरिणतिपूर्वकत्वात् श्यामतायाः। यो हिजनन्युपक्शाका. यथा यावान्कश्चिमः स सर्वो वही सत्येव भवतीति । ऽऽद्याहारपरिणतिपूर्वकस्तनयः स एव श्याम इति सर्वोकेपण तस्मिन्नसत्यसौ न नवत्येव ॥८॥
यः प्रत्ययः स तर्क इति ॥ ३६ ॥ रत्ना० ६ परि । अत्राऽऽद्यमुदाहरणमन्वयव्याप्ती,हितीयं तु व्यतिरेकव्याप्तावि-तक-तके-पुं०। कृत्-उ- नि० तेकू' इतिच्याते यन्त्रे, वाच। ति॥6॥ रत्ना०३ परि०।
"कौसुस्तन्तुभिश्तकुं-संपकिंभिरथापराः।" प्रा०क। तकणवित्ति-तर्कणवृत्ति-न । नटनग्नाऽऽचार्याऽऽदीनां कृपण-|
- तक्व-तक-धा० । तनूकरणे, ज्वादि० । पके स्वादि०-परकुले, स्था० वा.
सक.-बेट । “तकेस्तच चच्च-रम्प-रम्फाः " ॥८।४। तकणा-देशी-इच्छायाम, ३० ना.५ वर्ग गाथा।
१९४॥ तक्षेरेते चत्वार आदेशा वा भवन्ति । 'तब्यक्ष,''चच्चर' तकम्मसवि (ण)-तत्कर्मसेविन्-पुं० । मैथुनमासेव्य वीर्यनिसमें 'रम्प,''रम्फर'पिके'तक्नई। प्रा० ४ पाद। भर्सने तु-संत. सति यः श्वान श्च वेदोत्कटतया जिह्वाहनाऽऽदिनिन्यकर्मणा क्षति । वाच.। सुखमात्मनो मन्यते स तथा। गलितश्वसदृशस्वलिङ्गलहनक- तक्षन-पुं० । तक-कनिन् । त्यष्टरि, विश्वकर्मणि च । वाचः। तरि, घ०३ अधिः । वृ० । पं. भा०।००।
तक्खण-तत्क्षण-न । तस्मिन्नेव तणे, "तक्खणोलुग्ग. सकर-तस्कर-पुं०। तदेव चाय कुर्वन्तीत्येवं शीक्षाः । कृ-अन् ।
मुम्बलसरीरलावासुमानिच्चाय ।" तरकणमेव प्रवजामीतिनि। औ०। परव्यहरे,प्रश्न. ३ आश्रद्वार। श्राव।का।। वचन श्रवणक्षण एब अवरुग्णं ग्लानं दुर्ब च शरीरं यस्याः रा०नि००। प्रा०चू० । दमनकवृके,प्रकाशाके चाखियां सा तथा । लावण्येन शून्या नावण्यशून्या, निश्वया निष्णा डीप् । वाच.।
जा. ततः परत्रयस्य कर्मधारयः। भ.६० ३३०॥
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(१९७१) तक्खमाण अभिधानराजेन्फः।
तज्जिय सक्खमाण-तकन-त्रि० । तनूकुर्वति, अनु० ।
तच्छसिला-तक्षशिला-स्त्री. । वहलोदेशे पाहुयोर्नगराम, तक्खय-तक्षक-पुं• । तक्ष-वुल् । कश्यपस्य सुते मागभेदे, | यत्र बाहुबलिविनिर्मितं धर्मचक्रम । ती• ४३ कल्प प्रतिका पाचा पाय० । विश्वकर्माण बर्द्धको, वाच।
तचिह-देशी--कराले, दे० ना०५ वर्ग ३ माथा। सक्खसिला-तक्षशिला-स्त्री० । वहलीदेशे बाहुबले गर्याम, तच्चिय-तवयित्वा-अव्य.। बास्यादिना तक्षणं कृत्वेत्ययें,
मा० म०१ १०१ खण्ड । कल्प० । प्राचा०। प्रा० चू। | सूत्र.१७०४०१०।। सगर-तगर-पुं०। गृ-अच्. तस्य कोमस्य गरः । टगर' इति तत्त-तन्न-
त्रितस्माज्जातं तज्जम् तिच्छन्दविवकितादुरपम्याने वृक्ष, वाच । गन्धरूयविशेष, प्रश्न०५ संब. द्वार। | नेपो० वि०। सूत्र०।शारा । जं०। जो० । “भगरतगरचायाकुंकुमेण।" अनु।
तर्ज-धार्सिने, स्वादि-पर.-सका सेट् । तजेति। मत
जीत् । चुरादि-मात्म-सक-सेट तर्जयते । ततजेता खगार-तकार-पु.। तच्चन्दघटकस्यानुकरणं 'त' इति । ततः
वाचा कारप्रत्ययः । निदेशे, नि. चू०१ उ०।
तज्जए-तर्जन-1०। शिरोऽङ्गल्यादिस्कोरणतो कास्यसि रेजा वगुण-तदशुण-'• I" अन्स्यव्यञ्जनस्य" ॥१ १ ॥
स्म! इत्यादिभाने,भी। तं०। प्रइन । ज्ञा० । माचा। इति दकारलोपः। समासे तु वाक्पविभक्त्यका यामन्यवमन
तजमाण-तर्जत-वि० । बस्यय रे यन्मम वं पवनं दत्स्वे. स्थत्यं च तेनोभयपपि भवति । प्रा०१ पाद। अनारोके भ. थालङ्कारनेदे, वाच।।
त्येवं जीपयति, बिपा० १६०१०। तण-देशी-सूत्रे, कणके, दे० ना ५ वर्ग १ गाथा।
तज्जाइय-तजातिक-त्रि० । तस्माजालित्पतिर्यस्य सः। -
मुत्थे. सत्र.१०४.२०॥ बग्गुण-पु.। 'तगुण' शब्दा, प्रा०१ पाद ।
| तज्जाईय-तज्जातीय-त्रि० । भजिनजातीये, पाव०४ मा सच-सध्य-ना तथा तत्र साधु यत्। वाच."हस्थात् ध्य-श्व-।
प्राचा०। रस-सामनिशले"॥ २॥२१॥ तथ्ये चोऽपि भवति । इति पकारस्य चकारः । प्रा०२ पाद । चकारस्य द्वित्यम् । अवि
तजाय-तजात-त्रि। तस्माद् विवक्षितात् सकाशाजातं ततथे, सत्ये, तवरूपे, उत्त०२० भ० । जी• । प्राचा. तद्वति,
जातम् । तदुत्पको, दशा०३ मा स्था। त्रि० । वाच।
तजायदोसे महजंगदोसे, पसथारदोसे परिहारदोसे। सश्चकम्मसंपत्त-तथ्यकर्मसंमयुक्त-त्रिका तथ्यानि सत्यफमा. सलक्खणकारणहेउदोसे, संकामणं निग्महत्युदोसे ॥१॥ म्यव्यभिचारितया कर्माणि क्रियास्तत्संपदा तरसमृद्ध्या यःप्र.
___ " तज्जाय " इत्पादि वृत्तम । एते हि गुरुशिष्ययोर्धादिप्रयुक्तः स तथा । तस्मिन लम्धफले, उत्त० ३ ०।
तिवादिनोर्चा यादाश्रया श्व लक्ष्यन्ते । तत्र तस्य गुचीदे. तचावाइ(ण)-तथ्यवादिन-पु. कौशाम्बोराजस्य शतानीकस्य
जातं जातिः प्रकारो या जन्मकर्माऽदिसतणं तज्जातं, तदेव धर्मपाठक, मा० ० । श्रा० चू: । प्रा० म०।
दूषणमिति कृत्वा दोषस्तऊजातदोवस्तथाविधकुलाऽऽदिना
दूपण मित्यर्थः । अयवा-तस्मात्प्रतिवाद्यादेः सकाशाजातःको. सच्चावाय-तववाद--पुं० तस्यानि वस्तूनामैदम्पर्याणि तेषां वा.
जान्मुखस्तम्नाऽऽदिल कणो दोषस्त जातदोषः । (शेषोऽन्यत्र) इस्तववादः । राष्टिवादे, स्था० १.ग।
दशविघदोषाणां मध्ये प्रथमे दोषभेदे, स्था१. ठा०। सध्यवाद-पुं। तथ्यो बादस्तध्यवादः। दृष्टिवाड़े, स्था. तज्जायसंसट्टचरग-तज्जातसंसृष्टचरक-त्रि० सज्जातन देयक१०ठा०॥
च्याविरोधिना यत्संस्ष्टं हस्ताऽऽदि तेन दीयमानं यश्वरति सञ्चित्त-तञ्चित्त--त्रि. । तस्मिन् भगवचने चित्तं भावो मनो। तस्मिन्, स्था० ३ ग०१ उ.। येषां ते तच्चित्तासामान्योपयोगापेक्रया वा तपिता ज्जाया-तज्जाता-खी० । तुल्य जातीयक्रियमाणायां परिष्ठाप. तास्मन्नेव पावश्यकै चित्तं सामान्योपयोगरूपं यस्येति तस्मिन् | नायाम, माव०४० विवक्कितेजाबमनायुके, सामान्योपयुक्त च । ग. २ अधिनिय-तन्जित-नाएकोनविंशतितमे वन्दनदोष, वृ०॥ अनु० । विपा।
एकोनविंशतिदोषमादसच्छ-तक-धा० । तनूकरणे, न्वादिगपक्के-स्वादि. पर०-स. ण विक्रप्पति ण पसीयसि, कहसियो तजि एथे। कवेट । “ततस्तच्छ-चच्छ-रम्प-रम्फा:" ॥८४१६४॥ इति सीसंगुन्निमादीहि व, तज्जेति गुरुं पणिवयते ।। तपक्काऽदेशः। तच्चद।प्रा.४ पाद । "कप्पैति करकरएपहि,
काष्ठघटितशिवदेवताविशेष इवाऽवन्धमानोन कुष्पमि,तथासच्छिति परोप्परं सुरीह ति।" तक्कयन्ति सर्वशो देहावयवा
बन्धमानोऽप्यविशेषतया न प्रसीदसीत्येवं तर्जयन् निसियन पनयनेन तनून कारयन्ति । सुव०१ श्रु०५.१ उ०। यत्र यन्दते तत्तजितम् । यदि च भेलापकमध्ये वन्दनकं मांदा. सच्छा-तण-न० । कुराऽऽदिना स्वचस्तनूकरणे, विपा० १
पयस्तिष्ठस्थाचार्य ! परंशास्यते तवैकाकिन इत्यभिप्रायवान् धु.१ भासूत्र० । वास्या काष्ठस्येव देहकर्तनरूपेशारीरद.] यदा शाणाव्या या प्रदेशिनीलकणया गुरुं प्रसिपतन् चन्द एसे प्रश्न०३भाभ. द्वारका..
मानस्तजयति तदा वर्जितम् । वृ. ३२०
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(२१७२) तन्जीवतच्छरीर
प्रानिधानराजेन्बः।
तज्जीवतच्छरीरवाइ(ण) तजीवनारीर-तजीवतच्छगर-न । स चाऽसौ जीवध सारनूनः कश्चिदात्माऽऽण्यः पदार्थ उपलभ्यते। यथा वा ममातं तन्जीव कायाकारो नूतपरिणामस्तदेव शरीरम । जीवश.
भ्राम्यमाणमतद्रूपमपि चक्रबुकिमुत्पादयनि, भूतसमुदायो. रीरयोरक्ये, सत्र० १ ०१०१०।
विविशिष्टकियोपेतो जीवम्रान्तिमुत्पादयतीति । यथा च स्वप्ने
बहिमुखाऽऽकारतया विज्ञानमनुयते,मान्तरेणैव वाघमर्थम,ए. वजीवतच्चगैरवाइ[]-तजीवतच्चरीरवादिन्-त्रि० । ना
वमात्मानमन्तरण तधिकानं नूतसमुदाये प्रादुर्भवतीति । तथा स्तिकविशेषे, सूत्र।
यथाऽऽदर्श स्वच्छत्वात्प्रतिबिम्बतो बहिखितोऽध्यर्थोऽन्तर्गतो साम्प्रतं तज्जीवतच्छरीरवादिमतं पूर्वपकरानाह
लंक्यते, न चासो तथा । यथा च प्रीमे भौमेनोमया पत्ते कसिणे प्राया, जे बाला जे अमिमा।
परिस्पन्दमाना मरीचयो जलाऽऽकारविज्ञानमुपादयन्ति एव.
मन्येऽपि गन्धर्वनगराऽऽदयः स्वस्वरूपेणा तथाना अपि तथा संति पिचा न ते संति, नऽस्थि सत्तोत्रवाइया ॥११॥
प्रतितासन्ते,तथाऽत्माऽपि नूतसमुदायाऽऽकारपरिणती सत्यां सजीवसन्चरीरवादिनामयमन्युपगम:-यथा पञ्चज्योततेच्यः
पृथगमन्नेव तथा भ्रान्ति समुन्धादयतीति।अमीषांच दृष्टान्ताना कायाऽऽकारपरिणतेपश्चैतन्यमुत्पद्यते, अभिव्यज्यते च, एकैकं
प्रतिपादकानि केचित्सूत्राणि व्याचक्षते । अस्माभिस्तु स्त्राशरीरं प्रति प्रत्येकमात्मनः कृत्स्नाः सर्वेऽध्यात्मान एवमयस्थि
ऽदर्श चिरन्तनटीकायां यादृष्टवान्नासिङ्गितानीति ॥ ननु च मदि तोः । ये बाला अज्ञाः, ये च परिकताः सदसद्विवेकज्ञाः ते सर्वे
मूतव्यतिरिक्तः कश्चिदात्मा न विद्यते, तस्कृते च पुण्यापुण्ये न, पृथग् व्यवस्थिताः। न ह्येक एवात्मा सर्वव्यापित्वेनाभ्युपगन्त
तत्कथमेतपद्वैचिऽयं घटते तद्यथा-कश्चिदीश्वरोऽपरोदग्लिोव्याकलपरिमताऽऽद्यावभागप्रसङ्गात् ।ननु प्रत्येकशरीराऽऽश्रय
उन्यः सुजगोऽपरोऽर्गभः सुखी दुःखी सुरुपो मन्दरूपो न्या. त्वेनाऽऽत्मबहुन्वमाहतानामपीष्टमेवेत्याशधाऽऽह-सन्ति विद्य
धितो नीरोगीत्येवंप्रकारा विचित्रता फिनिबन्धनति । अत्रोच्य. म्ते यावरीरं विद्यन्ते, तदना तु न विद्यन्ते । तथाहि-काया.
ते,स्वभावात् । तथाहि-कुबचिच्छिलाशकले प्रतिमारूपं विद्यते, कारपरिणतेषु भूतेषु चैतन्याऽऽविर्भावो भवति.नूतसमुदाय
तच कुङ्कमागरुचन्दनाऽऽदिविलेपनानुन्जोगमनुभवति,
धूया . विघट्टने च चैतन्यापगमो, न पुनरन्यत्र गच्चैतन्यमुपलक्ष्यते ।
मोदं च,अन्यस्मिंस्तु पाषाणस्नएने पादकालनाऽऽदि क्रियते.नच तदेव दर्शयति-(पिचा न ते संतीति) प्रेत्य परलोके न ते
तयोः पाषाणखण्मयोःशुभाशुभे स्त:, यदयात्स तारगवस्था. मात्मानः सन्ति विद्यन्ते, परलोकानुयायीत्वात्मा शरीराद्मिनः
विशेष इत्येवं स्वभावाज्जगद्वैचियम् । तथाचोक्तम्-"कएटक. स्वकर्मफलभोक्ता न कश्चिदात्माऽस्यः पदार्थोऽस्तीति भावः।
स्य च तीक्ष्णत्वं, मयूरस्य विचित्रता । वर्णाश्च तानचूडाना, किभित्यवमत पाह-(नऽस्थि ससोववाश्या) अस्ति शब्दस्ति
स्पनावेन भवन्ति हि॥१॥" इति । तद्यावत्तचरीरवादिमतं सतप्रतिरूपको निपातो बहुवचने रुष्टव्यः । तदयमान
गतम् ॥ १२॥ सूत्र०१९०११०१ उ०। सन्ति न विद्यन्ते, तदभाचेतुन विद्यन्ते सत्वाःप्राणिन उपपातेन निवृत्ता औपपातिका जवाद्भवान्तरगामिनो न भवन्तीति
साम्प्रतं तज्जीवतचरीरवादिमो मतं निराचिकीर्षुराहतात्पर्यार्थः । तथादि तदागमः-"विज्ञानघन एवैतेच्यो नूतेभ्यः
नेते उ चाणो एवं, लोए तेसि को सिया । समुत्थाय तान्येवानु विनश्यतीति, न प्रत्य संज्ञा अस्तीति ।" तमाओ ते समं अंति, मंदा आरंभनिस्सिया ॥ १४ ॥ मनु प्रागुपन्यस्तनूतवादिनोऽस्य च तज्जीवतच्छरीरयादिनः ये तावच्चरीराऽव्यतिरिक्ताऽऽत्मवादिनः एवं पूर्वोक्तयुक्त्या को विशेषः, इत्यत्रोच्यते-नूतवादिनो तूतान्येव कायाss. भूताव्यतिरिक्तमात्मानमभ्युपगतवन्तस्ते निराक्रियन्ते-तेषां मो. कारपरिणतानि धाचनवलानाऽऽदिको कियां कुर्वन्त्यस्य तु कश्चतुर्गतिभवरूपा सुनगदुर्भगसुरूपकुरूपेश्वरदारियादिगकायाऽऽकारपरिणतेभ्यो तेज्यश्चैतन्याऽऽस्य आत्मोत्पद्यते. स्या जगद्वैचिव्यरूपः कुतः स्यात् । भात्माऽनङ्गीकारे पुण्यपन्निव्यज्यते च, तेभ्यश्चाभिन्न इत्ययं विशेषः ॥ ११॥ पापानावे कथं विश्ववैचित्र्यमित्यर्थः । ते च नास्तिकास्तमएवं च धर्मिणोऽभावाद्धर्मस्यायभाव इति दर्शयितुमाह- सोऽज्ञानरूपात् तमो यान्ति ज्ञानाऽऽवरणाऽऽवृताः पुन नाऽऽवरनऽत्थि पुमे च पात्रे वा, नऽस्यि लोए इतो परे ।
णरूपं तमः प्रविशन्ति । अथवा-सद्विवेकप्रध्वंसित्यात्तमो दुःखं,
तस्मात्तमो मदादुःखं यान्ति, यतस्ते मन्दा जमाः परलोकनिरसरीरस्त विणासेणं, विणासो होइ देहिणो ॥१२॥
पेक्षत्वाचाऽऽरम्भनि:श्रिताः (सूत्र.दी.१७०१ अ०१उ०) पुपयमभ्युदयप्राप्तिलकणं, तहिपरीतं पापम् एतमुजयमपि न तत्र यस्तावमुक्तम् । यथा-न शरीराद्भिन्नोऽस्त्यात्मेति । तद. वियते, आत्मनो धर्मिणोऽनावात् । तदनावाच्च नास्तोतोऽस्मा.
संगतम । यतस्तत्प्रसाधकं प्रमाणमस्ति । तच्चेदम्-विद्यमानकघोकात परोऽभ्यो लोको यत्र पुण्यपापानुभव इति । अत्रायें सू. तकमिदं वारम्,आदिमप्रतिनियता55कारकत्वात,इह यद्यपकारः कारणमाह--शरीरस्य कायस्य विनाशेन नूनविघट- दादिमत्प्रतिनियताकारं तत्तद् विद्यमानकर्तृकं दृष्टम्। यथा मेन, देहिन पात्मनोऽप्यभावो भवति, यतो न पुनः शरीरे घटः, यच्चाविद्यमानकर्तृकं तदादिमत्प्रतिनियताकारमपि बिनऐ तस्मादात्मा परझोकं गत्वा पुण्यं पापं वाऽनुभवतीत्यतो न भवति,यथाऽऽकाशम् । प्रादिमत्प्रतिनियताऽऽकारस्य च सयमिण मालपनोऽभावात्तकर्मयोः पुण्यपापयोरप्यभाव इति । कर्तृत्वेन व्याप्तेः व्यापकनिवृत्ती व्याप्यस्य विनिवृत्तिरिति अस्मिइनायें बहवो दृष्टान्नाः सन्ति तद्यथा-यथा जलबुवुदो सर्वत्र योजनीयम् । तथा विद्यमानाधिष्ठातृकाणीन्द्रियाणि, नलातिरेकेण नाऽपरः कश्चिद्विद्यते, तया नृतव्यतिरेकेण नाऽ- करणत्वात् , यद्यदिह करणं तत्तद् विद्यमानाधिष्ठातृकं परः कश्निदात्मेति। तथा च यथा कालीस्तम्भस्य बहिस्व- म, यथा-दण्डाऽऽदिकमिति । अधिष्ठातारमन्तरेण करणत्वा
पनयने कियमाणे स्वमात्रमिव सर्व नाऽन्तः कश्चित्सारो- नुपपत्तिः,यथाऽकाशस्य । हृषीकाणां चाधिष्ठाताऽऽत्मा, सच उत्थव नूतम्ममुदाये विघटति मति तावन्मानं विहाय नान्तः- तेयोन्यति तथा विद्यमानाधिष्ठातृकमिदमिन्द्रियविषय
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(२१७३) तज्जीवतच्छरीरवाइ (ण)
अभिधानराजेन्धः।
तज्जीवतच्छरीरवाइ (ण) कदम्बकम, पादानाऽऽदेय सद्भावात् । शह यत्र यत्राऽऽदानाss.
तं जहा- पादतन्ना, अहे केसग्गमत्थया, तिरियं तय - यसद्भावस्तत्र तत्र विद्यमान प्रादाता ग्राहको दृष्टः। यथा परियंते जीवे,एस अायापजने कसिणे, एस जीवे जीवति, संदंशकाऽयापिएमयोस्तभिन्नोऽयस्कार इति । यश्चात्रेन्द्रियः
एस मए णो जीवड, सरीरे धरमाणे धरह, विणीम्म य करणैर्चिषवाणामादाना प्राहकः स तदन्निन्न आत्मेति। तथा वि.
णो धरह,एवं तं जीवियं जवति,यादहणाए परेहिं निजइ, रामानभोक्तृकमिदं शरीरं, भोग्यरवात,प्रोदनादिवत् । अत्रच कुलासाउदीनां मृतत्वानित्यत्वसंहतत्वदर्शनादाम्माऽपि तथैव अगणिज्कामिए सरीरे कवोतवन्नाणि अहीणि भवंति,मा. स्यादति धर्मविशेषविपरीतसाधनस्वेन विरुका शङ्का न संदीपंचमा पुरिसा गाम पञ्चागच्छंति, एवं असंते असंवि ज. विधेवा । संसारण भात्मनः कर्मणा सहान्योन्यानुबन्धतः क. माणे, जेसि तं असंते असंविजमाणे] तेसि तं सुयक्खायं पञ्चिन्मूतत्वाऽऽद्यान्युपगमादिति । तथा यदुक्तम्-"नास्ति स. व औपपातिकः" इति । तदप्ययुक्तम् । यतस्तदहर्जातबाल
भवति। अन्नो भवति जीवो,अग्नं सरीरं,तम्हा ते एवं नो विकस्य यः स्तनानिलाषः सोऽन्याभिलाषपूर्वका, अभिलाषत्वात,
पमिवेदेति-अयमाउसो!भाया दीहे ति वा, हस्से तिवा,प. कुमाराभिलाषषत् । तथा बाझविज्ञानमन्यविज्ञान पूर्वक,विज्ञान- रिमंमोनिया, बट्टे तिवा, तसे ति बा,चउरंसे तिवा, आयते स्वात.कुमारविज्ञानवत् । तथाहि-यदहर्जातवानकोऽपि यावत्स
तिचा, छलंसिए ति वा, अटुंसे तिवा, किएहे तिवा, णीले पवायं स्तन इत्येवं नावधारयति, नावनोपरतरुदितो मुखमय
तिवा, लोहियहालिद्दसु किसे तिवा, सुन्निगंधे तिवा, मु. ति स्तने श्त्यतोऽस्ति बालके विज्ञानलेशः, सचान्य विज्ञानपू. पंकः। तथाऽन्य विज्ञानं भवान्तरविज्ञान, तस्मादस्ति सत्व भौ
ब्मिगंधे तिवा, तिते तिवा, कए ति वा, कसाए ति वा, पपातिक इति। तथा यदनिहितम-"विज्ञानघन एतेभ्यो भूते- अंबिले तिवा, पहरे ति बा, कक्खमे ति बा, मउए तिवा, ज्यः समुत्थाय तान्येवानु विनश्यतीति।" तत्राप्ययमर्थ-वि.
गुरुए ति बा, बहुए ति वा, सीए तिवा, जसिणे तिवा, कानघनो विज्ञानपिएम श्रात्मा भूतेज्य उत्थायेति प्राक्तनकर्मयशात्तथाविधकाया 55कारपरिणते भूतसमुदाये तद्वारेण
निचे तिवा, लुक्खे तिवा, एवं असंते असंविजमाणे स्वकर्मफलमनुनूय पुनस्तद्विनाशे प्रात्माऽपि तदनु तेनाऽकारे
जेसिं तं सूयक्वायं नवति-अन्नो जीवो, अन्नं सरीरं, -ण विनश्यापरपर्यायान्तरेणोत्पद्यते, न पुनस्तैरेव सह चिन
तम्हा ते णो एवं नवहानति ॥ १५॥ श्यतीति । तथा यमुक्तम्-धर्मिणोऽनावात्तर्मयोः पुण्यपा- तद्यथा-ऊर्ध्वमुपरि पादतलात्,अधश्च केशाग्रमस्तकात्,तिर्यक पयोरभाव इति। तदप्यसमीचीनम्। यतो धर्मी तावदनन्त.
च खपर्यन्तो जीवः। एतदुकं भवति-यदेवतचरीरं, स एव रोक्तिकदम्बकेन साधितः,तत्सिद्धौ च तद्धर्मयोः पुण्यपापयो
जीयो, नेतस्माच्चरीरायतिरिक्तोऽक्त्वात्मत्यतस्तत्प्रमाण एव रपि सिद्धिरवसेया, जगहचिज्यदर्शनाच्च । यत्तु स्वभावमा
भवत्यसावित्ययं च कृत्वैष प्रात्मा योऽयंकायोज्यमेव च तस्याधित्योपल शकलं दृष्टान्तत्वेनोपन्यस्तं, तदपि तद्भक्तकर्मवशा.
5ऽत्मनः पर्यवः, कृत्स्नः सम्पूर्णः पर्यायोध्यस्थाविशेषः, तस्मिश्च देघ तथा तथा संवृत्त इति दुर्निवारः पुण्यापुण्यसद्भाव इति ।
कायारमन्यबाप्ते तदव्यतिरेकात् जीयोऽपयवाप्त एव भवति । येपि बहवः कदलीस्तम्भाऽऽदयो दृष्टान्ता यात्मनोऽभावसाध
एष च कायो यावन्तं कालं जीवेदधिकृत आस्ते, तावन्तमेव मायोपन्यस्ता,तेऽप्यभिहितनीत्याऽऽत्मनो नूतव्यतिरिक्तस्य पर
कालं जीयो ऽपि जीवतीत्युच्यते, तदन्यतिरेकात्। तथैव कायो लोकयायिनः सारजूतस्य साधितत्वात् केवयं भवतो वाचाल.
यदा मृतो विकारजाग्भवति, तदा जीवोऽपि न जीपति, जीवतां प्रख्यापयन्ति। इत्यसमतिप्रसङ्गेन। शेष सूत्र विवियतेऽधुनेति. तदेवं तेषां भूतव्यनिरिक्ताऽऽत्मनिह्नववादिनां योऽयं लोकश्च
शरीरयोरेकाऽऽत्मकत्वात् । यावदिदं शरीरं पश्चभूतात्मकम
व्यङ्गंधरति, तावदेव जीवोऽपीति। तमिव विनऐ सत्येकस्यापि सुर्गतिकसंसारो जवाद् भवान्तरगतिशक्षणःप्राक् प्रसाधिनः सु.
भूतस्यान्यथाजाचे विकारे सति जीवस्याऽपि तदात्मनो वि. भगदुर्भगसुरुपमन्दरूपेश्वरदारिख्याऽऽदिगत्या जगद्वैचियल
नाश,तदयं यावदेतचरीरं वातपित्तश्लेग्नाऽऽधारं पूर्व स्वभावाकणश्व, स पन्तो लोकस्लेषां कुनो भवेत् । कयोपपत्या घटेत् १; भात्मनोऽनभ्युपगमान किञ्चिदित्यर्थः । ते च नास्ति
दप्रच्युतं तावदेव तज्जीवस्य जीवितं भवति । तस्मिश्च विनले काः परलोकयपिजीवाऽनन्युपगमैन पुषयपापयोश्चाभावमा
तदात्मा जीवोऽपि विनष्ट इति कृत्वा प्रा पहनायासमन्ताहभित्य यत्किञ्चनकारिणोऽज्ञानरूपात्तमसः सकाशादन्यत्तमो
हनार्थ श्मशानाऽऽदौ नीयते, यतोऽसौ तस्मिश्च शरीरेऽग्नि
मापिते कपोतवर्णान्यस्थीमि केवल मुपलभ्यन्ते,न तदतिरिक्तो. यान्ति-नूयोऽपि ज्ञाना55वरणाऽऽदिरूपं महत्तरं तमः संचि
परस कश्चिधिकारः समुपलत्यते, यत आत्मास्तित्वशङ्का स्याम्बन्तीत्युक्तं भवति। यदि वा तम श्व तमो दुःखसमुदातेन स
त। ते च तदबान्धवा जघन्यतोऽपि चत्वारः। आसन्दीमश्चकः, इसद्विवेकाध्वंसिस्वाद यातनास्थानम्.तस्मादेवंतूतात्तमसः पर
स पञ्चमो येषां तेभसिन्दीपञ्चमा पुरुपातं कायमग्निना मापतरं तमो यान्ति । सप्तमनरकपृथिव्यां रौरवमहारौरवकालम
यित्वा पुनः स्वग्रामं प्रत्यागरुकृम्ति । यदि पुनस्तत्रामा निजहाकासाप्रतिष्ठानाऽऽण्यं नरकाऽऽवासं यान्तीत्यर्थः । किमिति ?।
झारीरात्रिः स्यात्ततः शरीरानिर्गच्छन् दृश्यप्त । न चोपन्नम्बवे, पतस्ते मन्दा जमा मूनाः सत्यपि युक्त्युपपन्ने आत्मन्यसदभिः तस्माजजीवस्तदेव शरीरमिति स्थितम । तदेवमुक्तनीत्याऽसौ निवेशात तदभावमाश्रित्य प्राण्युपमईकारिणि विवोकजननि- जीवोऽसनविद्यमानस्तत्र तिष्ठन् गच्चासवेद्यमानो येषामयं न्दिते प्रारम्भे व्यापारे निश्चयेन नितरां वाश्रिताः संवतः पुण्य
पक्कस्तेषां तत्स्वास्यातं भवति, येषां पुनरन्यो जीवोऽन्यच्चरी. पापयोरजाव इत्याश्रित्य परलोकनिरपेकयाऽऽरम्ननि:बिता ति। रमेवं जूतोप्रमाणक एवाभ्युपगमस्तस्माते स्वयमूह्याः प्रवर्तसूत्र० १५०१०१०॥
| माना पवमिति वक्ष्यमाणं तेनैव पिप्रतिवेदयन्ति जानम्ति । ५४४
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(१९७४) तज्जीवतम्बरीरवाइ(ण)
अभिधानराजेन्द्रः।
तज्जीवतच्चरीरवाइ(ण) वषया-मायुष्मन् ! शरीराद् बहिरभ्युपगम्यमानः किंप्रमाणका तोऽग्रिमनिनिर्वयं दर्शयेत् । एवमेव शरीराद जीवमिति नचास्यादिति वाच्यम् । ताकिदीर्घःशरीरात्प्रांशुतराउत स्वोs. ऽस्त्येवमुपदर्शयिताऽतोऽसनात्मा, शरीरापृथगसंवेद्यमानअष्टश्यामाकतपमुनाऽऽदिपरिमाणो वा तथा संस्थानानां परि. ति । प्रयोगश्चात्र-सुखदुखताक परलोकयायी नास्त्यात्मा, तिसमण्डलाऽऽहीना मध्ये किंसंस्थानः, तथा कृष्णाऽऽदीनां वखानां शश्चिमानेऽपि शरीरके पृथगनुपलब्धेः, घटाऽऽत्मवत, व्यतिरेमध्ये कतमवर्णवर्ती,नथा किंगन्धः, पयां रसानां मध्ये कनमर- केण च कोशस्वगवत् । तदेवं युक्तिनिःप्रतिपादितोऽध्यात्मा भवेसवती तथाऽष्टानां पानां मध्ये कतमोयः स्पों वर्तते । त, येषां पृथगास्मादिना स्वदर्शनानुरागादेतत्स्वाण्यातं भवति । हदेव संस्थानवर्णगन्धरसस्पर्शान्यरूपतवा कथमध्यसावगृह्य- तद्यथा-प्रन्यो जीवः परलोकानुयायी अमृतोऽन्यच तद्भववृत्ति माखो सनसौ तथाऽपि केनापि प्रकारेणावेद्यमानोऽपि वे- मूर्तिमचरीरमतश्च पृथक नोपलभ्यते । तस्मातन्मिध्या-यैः केपांतत्स्वाण्यातं भवति। यथाऽन्यो जीवोन्यारीरकमित्यप. मिदुच्यते यथाऽस्त्वात्मा परमोकानुयायीति ॥१६॥ कस्तस्मात्पृथगविद्यमानत्वात्ते शरीरात्पृथगात्मवादिनो नैवं व. से हंता तं हणह, खणह, थणह, डहह, पयह, पालुंपह, वमाषमीत्याऽऽस्मानमुपवनन्ते ॥१५॥
विलुपह, सहासकारेह, विपरामुमह, एतावं ताव जीवेणसे जहाणामा केइ पुरिसे कोसीओ अर्सि अभिनिव
त्थि परसोए वा,ते णो एवं विपमिवेदंति-तं जहा-किरियाइ ट्टित्ता णं वदंसेजा-अयमानसो! असी,अयं कोसी, एव
वा अकिरिया वा सुक्क मेइ वा मुक्कमेइ वा कवाणे वा मेव त्यि के पुरिसे अनिनिवट्टित्ता ६ उबदसतारो
पावएइ वा साहुइ वा असाहुइ वा सिद्धाइ ग असिअयपाउसो ! आया,इयं सरीरं । से जहाणामए केइ पुरिसे
दाइ वा निरएइ वा अनिरए वा, एवं ते विरूवरूवेमुंनाओ इसिपं अनिनियहित्ता नबर्दसेना-अयमाउ
हिं कम्मसमारंलोहि विरूवरूवाई कामभोगाई समारभंति सो! जे इयं इसिय,एवमेव नत्यि केइ पुरिसे उवदंसेत्तारो
भोयणाए ॥१७॥ अयमाउसो ! आया,इयं सरीरं । से जहाणामए केइ पुरिसे पतदण्यवसायी च स लोकायतिकः स्वतः प्राणिनामेकेनिकमंसाओ अष्टुिं अनिनिमट्टिता णं नवदंसेज्जा-अयमान- यादीनां हन्ता व्यापादको भवति, प्राणातिपाते दोषाभासो! मंसे, भयमढी, एवमेव नस्थि के पुस्सेि बदसेत्तारो
वमभ्युपगम्याऽन्येषामपि प्राण्युपघातकाारणामुपदेशं ददाति । अयमानसोमाया,श्यं सरीरं। से जहासापए के पुरिसे
तद्यथा-प्राणिनः बहाऽऽदिना घातयेत, पृथिव्यादिकं समते.
त्यादिसुगमम् । यावदेतावानेव शरीरमात्र पर जीवस्तता करयला प्रोग्रामलकं अनिणिमट्टिताणं उबदसजा-म.
परसोकिनोऽनावानास्ति परलोकोऽतस्तदनावाच्च यथेमा. यमाउसो! करतत्ने, अयं मामलर,एवमेव पत्थि के पुरिसे सत। तथा चोक्तम्-" पिव खाद च साधु शोभने 1, यद. नवदसेत्तारो-अयमाउसो! आया,इयं सरी । से जहाणामए
तीते वरगात्रि तन्नते। न हि भीर! गतं निवर्तते, समुरय. के रिसे दहियो नवनीयं अभिनिव्वट्टिताणं उवदंसेज्जा
मात्रमिदं कलेवरम्" ॥१॥ तदेवं परलोकयायिनो जीवस्या:
भावान्न पुण्याचे स्तः, नापि परलोक इत्येवं येषां पकस्ते लोअयमानसो! नवनीय,अयं तु दही,एवमेव पत्थि केइ पुरि
कायतिकास्तचीवतचरीरबादिनो, नैवैतद्वदयमा प्रतिवेदयन्ति से०जाब सरीरंग से जहाणामए केइ पुरिसे तिनेहितो तिवं अभ्युपगच्छन्ति । तद्यथा-क्रियां वा सदनुष्ठानाऽऽस्मिकाम, म. अभिणिवाहिता णं उवदंसेजा-अयमाउसो ! तेल्नं,अयं क्रियां वा असदनुष्ठानरूपाम । एवं नैव ते विप्रतिवेदयन्तिपिनाए, एवमेव० जाव सरीरं । से जहाणामए के पुरिसे
यदि दिभात्मा तरिक्रमावान कर्मणो भोक्ता स्यात्ततः पापभ.
यात्सदमुष्ठानचिन्ता स्यात.तदभावाच सक्रियादिचिन्ताऽपिदइक्वुत्तो खोतरमं अभिनिवाहिता उपदंसे ज्जा-अयमा
रोत्सारितैव । तथा सुकृतं कृतं वा कल्याणमिति पापमिति उसो! खोतरसे, अयं खोए, एवमेव जाव सरीरं । से जहा
वा साधुरुतमसाधुकृतमित्यादिका चिन्तय नास्ति। तचाहिणामए के पुरिसे अरणीतो अग्गि अनिनिवट्टित्ता णं न- सुकतानां कल्याणथि पाकिनां साधुनयाऽवस्थानं, दुष्कृतानां च बदसेजा-अयमानसो! अरणी,अयं अग्गी, एवभेवण्जाव
पापविपाकिनामसाधुत्वेनावस्थानमेतदुनयमपि सत्यात्मनि त.
त्फलभुजि संभवति. तदभावाच कुतोऽनर्थको हिताहितप्राप्ति. मरीरं । एनं असंते असंविजमाणे जेसिं तं सुयक्खायं नव
परिहारौ स्यानाम् । तथा सुकृतेन कल्याणेन सावनुष्ठानेनाशेति-तं जहा-अन्नो जीवो,अन्न सरीरं,तम्हा ते मिच्य।१६। पकमकररूपा सिद्धिः, तथा पुष्कृतेन पापानुबन्धिना असातद्यथा नाम कश्चित्पुरुषः कोशतः परिवारादसि स्वङ्गमनिनिर्व- नष्ठानेन नरको,नरके वा तिर्यक्नरामरगतिलकणं स्थादित्ये. स्यं समाकृष्यान्येषामुपदर्शयेत्। तद्यथा-अयमायुष्मन् !असिः स्त्र- धमात्मिका चितवन जयेत्, तदाधारस्याऽऽत्मसद्भावस्यानच्युकोचकोशः परिवारः,पवमेव जीवशरीरयोरपिनास्त्युपदशं- पगमादिति भावः । पुनरपि बोकायतिकानुष्ठानदर्शनाया35हयिता। तद्यथा-अयं जीवः, च शरीरमिति,न चास्येवमुपदर्श- (पर्व ते त्यादि) एवमनन्तरोक्तेन प्रकारेण ते नास्तिका मा. यिता कश्चिदतः कायान्न भित्रो जीव इति । मस्मिश्चाथै बहवो स्माभाव प्रतिपाद्य वि नानाप्रकारं रूपं स्वरूपं येषां ते, रखान्ताः सन्तीत्यतो दर्शयितुमाह । तद्यथा वा-कश्चित्पुरुषो तथा कर्मसमारम्भाः सायद्यानुठानरूपाः पशुघातमांसभक्षणमुजात् तृणविशेषात (इसियं ति) तद्भू तां शलाका पृथक- सुरापाननिलाधनाऽऽदिकाः,तैरेव नूतैर्नानाविधैः कर्मसमारम्नः छत्य दर्शयेता तथा मांसादस्थि, तथा करतलादामल कम्। कृषीवनानुष्ठानाऽऽदिनिर्विरूपकान् कामभोगान् समारजन्वे अपादाभो नवनीतम् तिबेभ्यस्त समितिको रसंधारणी समाददति तपनोगामिति ॥१७॥
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(२१७) तज्जीवतच्छरीरवाइ(ण)
अग्निधानराजेन्द्रः।
तज्जीवतच्छरीरवाइ (ण) साम्प्रतं तनीवतधरीरवादिमतमुपसजिघृक्षुः प्रस्ता- वृताः महाभूतास्ने राजानः पूजां प्रति प्रवृनास्तदुपदेष्टारो অমাথা
वा पूजामध्युपपन्नाः सन्तस्तं राजादिकं स्वदर्शनप्रतिपत्रमे
संचन स्वदर्शनस्थित्या हिताहितप्राप्तिपरिहारेषु निकाचिएवं चेगे पागम्भिया शिक्खम्म मामगं धम्म पति, तं
तवम्तो नियमितवन्तः । तथाहि-भवतेदं तचरीरमित्यज्युपगसदहमाणा तं पत्तियमाणा तं रोयमाणा साहु. सुयक्रवाए म्तव्यमन्यो जीयोभ्यश्च शरीरमित्यतत परित्याज्यम्, भनुष्ठासमणे ति वा माहणे ति वा कामं खलु माम्मो तुम पूयया
नमपि पतदनुरूपमेतद्विधेयमित्येवं निकाचितवन्त इति ॥१८॥ मि। तं जहा-अमणेण वा पाणेण वा खाइमेण वा साइमेण पुष्चम तेसिं णायं जवति-सममा जविस्सामो प्रणवा बत्थेण वा पमिग्गहेण वा कंचलेण वा पायपुंछणेण गारा अकिंचा अपुत्ता अपम् परदत्तचोइणो भिक्स्तु
ो पावं कम्मं पो करिस्सामि समुट्टिए ते अप्पयो अपा, तत्थेगे पूयणाए समानटिस, तत्थेगे प्यणाए नि. काइंस ॥ १७॥
प्पमिविरया जवंति, सयमाइयंति, अन्ने विश्रादियाति,
अन्न पि आयतं तं समजाणंति, एवमेव ते शत्थिकाममोमूर्तिमतः शरीरादन्यदमन शानमारमन्यनुभूयते, तस्य चामूर्तेमेव गुणिना जाव्यमतः शरीरात्पृथग्नूत मात्माऽमूतों ज्ञानवत्त
गेहिं मुच्चिया गिला गदिया अज्कोववन्ना लुछा राग बाधारभूतोऽस्तीति । न चात्माऽभ्युपगममन्तरेण तज्जीवनच.
दोसवसट्टा ते णो अपाणं समुच्छेदेति, ते णो परं समुरोरवादिनः किचिद्विचार्यमाणं मरणमुपपद्यते। श्यन्ते च तथा च्छेदेति, जो अमाई पाणाई नूताई जीवाई सचाई समुनून एव शरीरे म्रियमाणा मृताश्च । कुतः समागतोऽई, कुष
छेदेवि, पहीणा पुन्चसंजोगं पायरियं मग्गं असंपचा चंदें शरीरं परित्यज्य यास्यामि ,तथेदं मे शरीरं पुराणं कर्मेत्यध
इति ते णो हच्चाए यो पाराए अंतरा कामनोगेट विसमाधिकाः शरीरात्पुथम्भावेनाऽऽन्मनि संप्रत्यया भनुनूयन्ते।त. देवमपि स्वानुभवसिद्धेऽध्यात्मनि एके केचन नास्तिकाः पृथक मा इति पढमे पुरिसजाए तज्जीयवचरीरए विमाजीवास्तित्वमश्रधानाः प्रागल्भिकाः प्रागल्येन चरन्ति, धृष्ट- हिए ॥१५॥ तामापत्रा मभिदधति । तद्यथा-अयमात्मा शरीरत्पृथग्नूतः तत्र ये भागवतादिकं लिङ्गमभ्युपगताः पश्चाडोकायतप्रम्प स्यात्ततः संस्थानवर्णगन्धरसम्पर्शान्यतमगुणोपेतः स्यात् । न
भवन लोकायताः संवृत्ताः,तेयामादौ प्रवज्याग्रहणकाल ए. च ते वराका स्वदर्शनानुरागान्धतमसाऽऽवृतरप्टव एतद्विद
तत्परिकातं भवति । तद्यथा-परित्यक्तपुत्रकलत्रा:श्रमणा यसको न्ति । तथा-मुनस्यायें धर्मों, नामूर्तस्य, न दिशानस्य संस्था
प्रविष्यामः,मनगारा गृहरहिता,तथा निरिकश्चनाः किचन माऽऽदयो गुणाःसंभाउपन्ते। न च तत्तदनावेऽपिनास्तीत्येवमा.
व्यं तद्रहिताः,तथाऽपशवो गोमदिष्यादिरहिता,परवमनोजिना स्माऽपि संस्थामादिगुणरहितोऽपि विद्यत शति। एवं युक्तियुक
स्वतः पवनपाचनाऽऽदिक्रियारहितत्वात् भिक्षणशीला निकवा, मध्यात्मानं धाष्टोन्नाभ्युपगच्चन्ति । तथा निकम्य च स्वद
कियदयते-अन्यदपि यत्किञ्चित्पापं साब कर्मानुष्ठानं तत्सद निविहितां प्रवज्यां गृहीत्वा नाऽन्यो जीवः शरीराद्विद्यत इ.
नकरिष्यामीत्येवं सम्यगुत्थानेनोत्थाय पूर्व पश्चासोकायतिकस्येवं यो धर्मों मदीयोऽयमित्येवमन्युपगम्य स्वतोऽपरेषां च तं मुपगता प्रात्मनः स्वतः कर्मभ्योऽप्रतिविरता भवन्नि। विरस्यतथावृतं धर्म प्रतिपादयन्ति; यद्यपि लोकायतिकानां नास्ति दी.
भावेऽपियाकुर्वन्ति तदर्शयति । पूर्व सावधाऽऽरम्भानिवृत्ति वि. काऽऽदिकं, तथाऽप्यपरण शाक्याऽऽदिना प्रवज्याविधानेन प्र. धाय नीनपटाऽऽदिकं च शिङ्गमास्थाय च स्वयमात्मना पावबज्य पश्चासोकायतिकमधीयानस्य तथाविधपरिणतेस्तदेवा- मनुष्टानमाददते स्वीकुर्वन्ति, अन्यान्यप्यादापयन्ति प्राहयन्ति, भिरुचितमतो मामकोऽयं धर्मः स्वयमन्युपगच्चन्त्यन्येषां च प्र. अन्यमप्यादानं परिग्रहं स्वीकुर्वन्तं समनुजानन्ति । एवमेव पूर्वोहापयन्ति । यदि वा-नील पटाऽऽद्यन्युपगन्तुःकश्चिदस्त्येव प्रम- तप्रकारेण स्त्रीप्रधानाः स्त्रियोपलक्विताचा,काम्यन्त इति कामाः, न्याविशेष इत्यदोष इति । साम्प्रतं तत्प्रतिज्ञापितशिष्यव्या. तुज्यन्त इति जोगास्तेषां सातबहुलतयाऽजितेन्द्रियाः सन्तः,तेपारमाधिकृत्याऽऽद-(तं सद्दहमाणे इत्यादि) तं नास्तिकवाद्यु- षु कामनोगेषु मूर्षिता एकीभावतामापना गृदाः कालावन्तो पन्यस्तं धर्म विषयिणामनकुलं श्रद्धानाः स्वमतावतिशयन रो.
प्रथिता अवघका अध्युपपना आधिक्येन भोगेषु, लुब्धा रागचयन्तस्तथा प्रतिपादयस्तोऽवितधनावेन गृहन्तस्तथा तत्ररुचि | द्वेषाा रागद्वेषवशगाः कामन्नोगान्धा वात एवं कामभोगेषु कुर्वन्तस्तथा साधु शोभनमेसद्यथा स्थाब्यातं यथाऽवस्थितो माधवबहाः सम्तो नात्मानं संसारात्कर्मपाशाद्वा समुदयप्रवतो धर्मोऽन्यथा सति दिसाऽदिवप्रवर्तमानः परलोकमा न्ति मोचयन्ति, नाऽपि परं सदुपदेशदानतः कर्मपाशावपाशित वात्सुखसाधनेषु मांसमद्याऽऽविश्वप्रवृत्ति कुर्वन्तो मनुष्यजन्मफ. समुच्चेदयन्ति कर्मबन्धात त्रोटयन्ति,नाप्यन्यान् दशविधप्राणव.
जिता भवेयुः। ततः शोभनमकारि भवता हे श्रमण! ब्राह्म- सिनःप्राणान् प्राणिना,तथा चाऽभूवन् भवन्ति नविष्यन्ति च भूप! इति वा यदयं तज्जीवतच्छरीरधर्मोऽस्माकमावेदितः, तानि,तथा वा प्रायुकधारणाजीवास्तान तथा सावांस्तथाविधकाममिष्टं तदस्माकं धर्मकथनम । स्वमुशब्दो वाक्यामकारे । धार्यान्तरायकयोपशमाऽऽपादितवीर्यगुणोपेतास्तान् समुच्छेदेभायुष्मन् ! त्वया षयमभ्युताः काटिस्तीर्थिकैञ्चि- | दयन्ति, असदभिप्रायप्रवृत्तस्वात् । ते चैवंविधास्तज्जीवतनताः स्युरिति । तस्मादुपकारिणं त्वां भवन्तं पूजयाम्यहमाप रीरवादिनो लोकायतिका प्रजितेन्द्रियतया कामनोगावसका कश्चिदायुध्मतो जगवतः प्रत्युपकारं करोमि । तदेव वर्शयति। पूर्वसंयोगारपुत्रदारादिकात्यहीणाः प्रचा, बारावू याताः तयथा-(असणेल्यादि) सुगमम् । यावत्पदपुनकमिति । सबहेयधर्मभ्य इत्यार्यों मार्गः सदनुष्ठानरूपा, तमसंप्राप्ता - तक पूर्वोक्तया पूजया पूजायां पा(समाउसिदि) समा- स्येवं पूर्वोकमा बीत्या ऐहिकामुष्मिकबोकस्य सदनुष्ठानमण
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(२१७६) तज्जीवतच्छीरवाइ (ण) भाभिधानराजेन्द्रः।
तापयाग अन्तराम एव भोगेषु विषमास्तिष्ठन्ति । न विवदितं पाएमरी- तमितमिय-तमित्तमित-खी० । विस्तारितविद्युति, औ०। कोरक्षेपणेोऽऽदिकं कार्य प्रसाधयन्तीति । अयं च प्रथमः पुरुष-तमिय-तहित-
स्त्राताम्यत्यभ्रम् । चुरा०-तम-नि०-हस्वः। स्तज्जीवतच्छरीरवादी परिसमाप्त इति ॥१६॥ सूत्र. १७० ४ म.२ उ•।
वाच । विद्युति, ज्ञा० १ श्रु. १६ १०। बज्नेमाण-तनयत-त्रिकाकास्यथ रे! यन्ममेदं वचनं दत्स्वेत्येवं
तमी-तटी-स्त्री० । " मो लः" ।।१।७.३ ॥ इति कवित भीपयति,विपा० १ ० १ ०।
भवस्येषेत्रमस्य लो न भवति। प्रा०पाद । नवामीनां तटे. वटाग-तमाम-yo | तम-नि0 | "लिकापशाचिके तृतीयतु
षु, नि० चू०११० । विच्छिनटङ्कायाम,“भाउत्से रीयाती, तयोरायद्वितीयौ"८।४।३२५ ॥ इति चूलिकापैशाचिके
मितकमाउबदिसंधारे।" नि० चू. १७०। भाषायां कारस्य टकारस। मो०।
तण-तृण-न. नरन्तीति तृणाति भौणादिको नक हस्खत्वं च । सटाक-jo। तटमकति । 'क' वक्रगती, मण, तडागे, जना.
उत्त. २०।"ऋतोऽत्" ॥८।१।१२६॥ हात मादे
कारस्याऽत्वम् । प्रा०१पाद । कुशाऽऽदौ, प्राचा०१०॥ शयभेदे, वाच०।
प्र०३१०। सूत्र.1०। उत्त०। तमाक-पु. ताडयते पाहन्यते तटोऽनेन। 'तम'-माकन् नि। जलाश्यभेदे, नहागे च । वाच ।
से किं तं तगा। तणा अणगविहा पत्ता । तं जहातट्टिया-तट्टिका-जी० । थोट्टिकानां धर्मोंपकरणभेदे, प्राचा०१
"सेमिय गंतिय होत्तिय, दब्भकुसे पन्नए य पोमइला । शु.२ भ०५०।
अज्जुण असाढए रो-हियसि सुयवे' खीरजुसे ॥१॥ तट्टी-देशी-वृतो, दे० ना०५ वर्ग गाथा।
एरंडे कुरुविंदे, करकऍ सुंठे तहा विमंग य । सह-तत्स्थ-त्रि०। तस्मिन् तिष्ठतीति तत्स्थः । तस्मिन् स्थिते. मदुरतण बुरय सिप्पल, बोधचे संकलितणे य॥२॥" भाचा० १ श्रु० १ ० ३ ०।
जे यावझे तहप्पगारा । सेतं तणा । प्रज्ञा १ पद । तष्ट-10 । घट्टिते, सूत्र १ श्रु०७०।
दर्भवारणाऽऽदौ, दश० ८ भाभा आचा। कुशवादी, सहा-स्वर-पुं० । चित्रानक्षत्राधिष्ठातरि देचे, अनु० । “दो।
सूत्र० १ श्रु०६अ। कुशजञ्जकार्जुनाऽऽदी, जी० १ प्रति०। सहा।" स्था०२ वा० ३ 3.। ०। पा०। त्वष्टरपत्ये, वृषा
दूर्वाऽऽदी, प्रज्ञा०१ पद । दर्भकुशाऽध्दी, भ०१५ श.। "कुसं च सुरे, पुं०। संज्ञानाम्न्यां सूर्यपल्याम्, स्त्रीयां कीए । त्वष्टादे
जूषं तणकामगि।" उत्त०१२ अ. कुशद वर्चकार्जुनसुर. पताधिष्टातृचिनानकत्रे, वाच।
भिकुरुविन्दाऽऽदी, आचा.१७०१०५ उ०1"तृण" नको, बम-तट-त्रि• । तट-अच् । वात्र० । कूने, प्राचा० १ श्रु० २
धा0 | वाच० उत्पले,दे ना०५ वर्ग १ गाथा। म. ३ 301 नि० ० । समीपतिनो युनतप्रदेशे, रा.न
तन-पा० । विस्तृतौ, तना० । उपकारे, वाच०। पास्तीरेचा भमरमते-खियां की याच०।
तणग-तणक-न। तृणविशेषे, स्त्र. २ श्रु० २ ०। तट-धा० । उच्छाये, भ्दादि०। वाच ।
ताए गहण-तृणग्रहण-न । तृणानां ब्रीदिपनानाऽऽदीनां प्रहणं तम-धा० । आहिती, वाच०।
तृणग्रहणम् । ब्रीहिपालादेरादाने, प्रव.६१ द्वार । तन-पा० । विस्तृतो, तना०-उन-सकोट । वाच । “त
तणग-तृणान-बातृणस्योपरितने पूलिते भागे,
निचू०१०। नेस्तम-तह-तड्व-विराः "
साताघर-तृणगृह-न० । दनाऽऽदितृणमये गृह व्य.४ उ.। घातोस्तम इत्यादेशः। तहह । पदो-तण | प्रा० ४ पाद । तणच्छाह-तृणच्छाया-स्त्री० । संकुच्छायायाम, अनु। वडउमा-तडनमा-खी०। प्राचल्याम, जं०१ वक्षः पाउलि-तटावा-तणस्थान-न० । दाऽऽदितृपशालायाम, यत्र दोधुके. दे० ना०५ वर्ग ५ गाथा।
दीनि स्थाप्यन्ते । नि.चू० १००। बहनमाकुसुम-तहनमा कुसुम न० । आचलीपुष्प, जी० ३- |
तणपग-तणपञ्चक-ना तृणानि च पश्चोपयोगीनि । ध० ति०४३० प्रा० म० ।
२ आध। साइतमण-स्फुट-न० । स्फुटने, " तडवमस्स भज्जति भज्जणे
तापणगं पुण नणिय, जिणेहि जियरागदोममोहेहिं । कलं बुवाल गा पहे।" (तमतमि त्ति) स्फुटतः । सूत्र०१०५
सालीवीहीकोद्दव-रालयअनेतणाहिं च ॥ ६७३॥ म. १ उ०। तमतमंत-तहतमत्-त्रि० । तमतमेत्येवंध्वनि बिदधाने, शा० १ तणपश्चकं पुनर्गणितं जिनर्जितरागद्वेषमोदैर्यथा शालिनीतिधु०५०।
ककोवरामकसंबन्धीनि तृणानि पत्रालप्राथाणि भरपये परवस्फटि-देशी-परितश्चलिते, दे० ना.५ वर्ग ९ गाथा।
पयविषयाणि च। तत्र शालयः कलम शानिप्रभृतयः, त्रीहयः
षष्ठिकाऽऽदयः, कोडवो धान्यविशेषःप्रतीतः, रामकः कविशे. तममढ-देशी-कुजिते, दे० ना०५ वर्ग ७ गाथा।
षः, भारएयतृणानि श्यामाकप्रमुखाणि ॥ ६८२ ॥ प्रव०२द्वार। बमागमह-तमागमख-पुं० । तमागयझे, "अग:महेसु वा तडा
जीत०।दश। पा०। आव । नि०००। (तृणपश्चकागम देसु वा दहमसे वा।" प्राचा० २७० १० १० दिषु दोषः, तथा प्रायश्चित्तं च 'झुसिर' शब्देऽस्मिनेष भागे १७०।
१६७५ पृछे गतम्)
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(२१७७) तगफास अनिधानराजेन्द्रः।
तणावणारसश्काश्य तणफास-तृपस्पशे-पुं०। तृणानां कुशाऽऽदीनां स्पर्शः । श्रा
कूजन्तः करणं केचित, दह्यते नरकाग्निना ॥१॥ चा० १ ० ए ० २ ०। सप्तदशतमे परीषद प्रश्न अग्निभीताः प्रधावन्तो, गत्वा वैतरणी नदीम्। * संघ द्वार । प्राचा० । उत्त.।
शीततोचा मिमां कात्या, काराम्भासि पतम्ति ते ॥२॥ तणफासपरीसह-तृणस्पर्शपरीषह-पुं०। तरन्तीति तृणाति वा कारदग्धशरीराश्च, मृगवेगोस्थिताः पुनः । मौणादिको नकप्रत्ययो. हस्वत्वं च । तेषां स्पर्शस्तृणस्पर्शः. स प्रसिपत्रवनं यान्ति, गयायां कृतबुद्धयः॥३॥ एव परीषहस्तृणस्पशपरीषहः । उत्त.१० । अशुधिरतृणस्य शक्त्यसिप्रासकुन्तैश्च, खगतोमरपट्टिशः। दर्भाऽऽद परिभोगोऽनुज्ञातो हि गच्चनिर्गतानां, गच्यवासिनां विध्यन्ते कृपणास्तत्र, पनद्भिर्यातकम्पितैः॥४॥" यतीनां च, तत्र येग शयनमनझातं ते तान् दीन भूमावीष. इत्यादिका इतराश्च नरकेषु परवशेन मयाऽनुजूता वेदनाः,त. दाताऽऽदियुक्तायामास्तार्य संस्तारोत्तरपट्टको च दर्भाणामुपरि त्कियनीयम, नूयांश्च नाभः स्वःशस्य सम्यक् महन इति विधाय शेरते। चौरापहवोपकरणो वाऽत्यन्तजीर्णत्वात् प्रतनु- परिभावनातो न तत्परिजिहीर्षया वस्त्रं कम्बलाऽऽदिकमुपादसंस्तारकपट्टो वा तपरि शेते, तन च शयानस्य यद्यपि क- दते। जिनकल्पिकापेकं चैनत, स्थावेरकल्पिकाश्च सापेकसंयमचिनतीक्षणाप्रभागैम्तृणरत्यन्तपीमा समुपजायते, तथापि परुष. त्वात् सेवन्तेऽपीति सूत्रार्थः। उत्त०२ अ.। दर्भाऽऽदितृणस्पर्श सम्यक सहेतेति । प्रव०८६ द्वार । प्रायः । अत्र संस्तारद्वारमनुसरन् "विना नवति चेयणा"शति कादाचिकतृणग्रहणे तत्संस्पर्शजन्य दुःखाधिसहने, भ०८ २०
सूत्रसूचितमुदाहरणमाह८1० । प्रब०। तथा चोक्तम्-" अहताल्पाणुचेलवे, कादा.
सावत्यीऍ कुमारो, भदो सो चारिश्रो ति चेरजे। चित्कं तृणाऽऽदिषु । तत्संस्पर्शोद्भवं दुःखं, सहेदिच्छेद् न ता.
खारेण तधियंगो,ताएफासपरीसह विसहेशउत्तनि। स्मृन् ॥१॥" भा०म० १०२खएक। "मनुताल्पाणुचे.
श्रावस्त्यां कुमारो नमः, स चरिकश्वर इति वैराज्ये कारेण सत्वे, संस्तृतेषु तृणाऽऽदिषु । सहेत जावं तत्स्पर्श-भवमि. बन्न तान्मृदन्"॥१॥ध.३अधिक।
तक्किताङ्गः तृणस्पर्शपरीपहं (विसहात्त) विषहते, स्मेति शेषः ।
इति गाथार्थः ॥५२॥ भावार्थस्तु संप्रदायाइवसेयः। स चायमएतदेव सूत्रकृदयाह
"सावत्धीए नयगए जियमनरन्नो पुत्तो भद्दो नाम, सो नच्चा उप्पइयं दुक्खं, वेयणाए उहाहिए।
निम्बिमकामभोगो तहारूवाणं घेराणमंतिए पब्वतितो, कामेण अदीणो थावए पन्नं, पुट्ठो तत्यऽहियासए ॥३॥ पगल्लविहारपमिमं पडिबन्नो, सो विहरंतो बदरज्जे चारित्रो तोगिच्छं नाभिनंदेजा, संचिक्खऽत्तगसए ।
त्ति काऊण गहितो, सो य पंताबेऊण वारेण तच्चियो, सो एवं खु तस्स सामछ, जं न कुजा न कारवे ।। ३३ ।।
दो वेदिऊण मुक्को, सो दम्भेहिं सोदियसंमीनियदि दुक्खा
तिजंतो सम्मं सहति ।" एवं शेषसाधुभिरपि सम्यक् सोढव्य. अचेलगस्स बृहस्स, संजयस्स तवस्सियो ।
स्तृणस्पर्शपरीषहः । उत्त० २ १०। तणेसु सयमाणस्स, होजा गायचिराहणा ॥ ३४॥
तणफासपरीसहविजय-तृण स्पर्शपरीषहविजय-पुं० । तृणस्पमचेलकस्य कास्य संयतस्य तपस्विन इति प्रावत् । तर.
शंपरीषदविजये, पं० सं०। स चैवम्-गच्छवासिनो गच्चनिर्गन्ति तृणाति दर्भादीनि तेषु, शयानस्य, उपलक्षणत्वादासी.
तानां वा शुषिरस्य दर्नाऽऽदेस्तृणस्य परिभोगः समनुनातो मस्य वा भवेत्, गात्रस्य शरीरस्य विराधना विदारणा गात्रवि.
भगवता, तत्र येषां दीऽऽदितृणानामुपरि शयनमनुनातं राधना, अचेनकत्वाऽऽदीनि तु तपस्विविशेषणानि,मा भूत्सचे
स्वगुरुभिः, तेषां दर्भाऽऽदितृणानामुपरि संस्तारकोत्तरपट्टी लस्य तृणस्पर्शासनवेनास्तस्य, तत्संजवेऽपि निम्वत्वेनासं
निधाय शेरते । अथवा-चौरापहतोपकरणो यदि चाऽतिजी. मतस्य च शुपिरहरिततृणोपादानेन तथाविधगात्रविराधना. र्णतया व्यपगतसंस्तारकोत्तरपटो दर्भाऽऽदितृणान्यास्तीर्य शेते, या भसंभव इति ।
तत्र यत्तगस्पर्शसम्यगधिसहनं स तृणस्पर्शपरीषदविजयः। ततः किमित्याह
पं.स.२द्वार। आयवस्स निवारणं, तिउला हव वेयणा ।
तणनार-तृणनार-पुं० । तृणभारके, भ. श. उ० । ब. एतं नच्चा न सेवंति, तंतुजं तणतज्जिया ॥ ३५॥ ।
ध्यमानतृणसमूहे, वाच। मातपस्य धर्मस्य नितरां पातो निपातः, तेन (तिउल त्ति) सूत्रत्वात्सोदिका । यद्वान्त्री प्रस्तावाद् मनोवाकायान् विना
तणमुदिया-देशी-अङ्गुलीयके, दे० ना० ५ वर्म ९ गाथा। पिनत्वावरादीनां दलन्तीव स्वरूपचलनेत विदया। तणय-तनय-पुं० । तनोति कुलमा तन्-कयन् । पुत्र,मुहितरि, पाठान्तरतस्तु-अतुला विपुला बा, भवति चेदना । एवं च बकुल्यायाम,लतायाम,घृतकुमायो च। स्त्री-टाप्। वाच । किमित्याह-पतदनन्तरोकं, पागन्तरत एवंशात्वा न सेवन्ते। प्रा० म०॥ मनजन्ते, पास्तरणायेति गम्यते । तन्तुन्यो जातं तन्तुजम्, तणरासी-देशी-प्रसारिते, दे० ना०५ वर्ग ६ गाथा। पठ्यते च-(तंतयं ति) तत्र तन्त्रं वेमविझेख्यन्यनिकाऽऽदि, समाजातं तन्त्रजम्,उभयत्र वस्त्रं,कम्बलोचा, तणैस्तर्जिता नि.
तणवणस्सइ-तृणवनस्पति-पुं० । बादरवनस्पतिदे, न० . भेरिसताम्तृणतर्जिताः। किमुक्तं भवति?-यद्यपि तृणैरत्यन्तबिलि
श०६ उ.। वितशरीरस्य रविकिरणसपर्कसमुत्पन्नखेदवशतः कतक्षार- तणवणस्सइकाइय-तृणवनस्पतिकायिक-पुं० । तृणवद्वनस्पनिक्षेपरूपेव पीडोपजायते, तथाऽपि
तयस्तुणवनस्पतयः । स्था०१० ठा.। बादरवनस्पतिकायि"प्रदीप्तानारकल्पेषु, बजकुएमवसन्धिषु।
कोदे,भ०७श. ६ उ०।
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( २१७ ) अभिधानराजेन्द्रः ।
तथवणरसइकाइय दविकाइया पत्ता तं नद्दा मूले, कंदे, जात्र पुप्फे, फले, बीए ॥
( द सेत्यादि ) तृणवनस्पतयस्तृणवनस्पतयः, तृणमाधर्म्य बादरत्वेन तेन सूक्ष्माणां न दशविधत्वमिति । मूलं जटाः कन्दः स्कन्धाऽधावर्ती । यावत्करणात् -" बंधे " इत्यादीनि पञ्च रूव्यानि । तत्र स्कन्धः स्युममिति यत्प्रतीतं त्वक् बल्कः, शाला शास्त्रा, प्रबालमङ्करः, पत्रं पर्णे, पुष्पं कुसुमं फलं प्रर्ततं, बीजं मिजेति दशस्थानकाधिकार एव स्या० १० ठा० ।
इदमपरमाह
तिरिहा तणवणस्सइकाइया पत्ता । तं जहा - संखेज्जजीविद्या, असंखेज्जजीविया, अणंतजीविया ॥
( तिथि देखादि) तृणवनस्पतयो बादरा इत्यर्थः । संख्यात जीविकाः सातजीवाः, यथा नालिका बरु कुसुमानि, जात्यादी मीत्यर्थः अतीचिका-प्रथा निम्बानादीनां मूलकन्द स्कन्दत्वक्शास्त्राप्रबालाः, अनन्तजीविकाः पनकाऽऽदय इति । इढ प्रज्ञापनासूत्राएयपीत्थम्
"जे के नालियाबा, पुप्फा संखेज्जजीविया । जे याने तहाबिदा ॥ १ ॥ पत्रमुप्पल नक्षिणाणं, सुभगसोगंधियाण य । अरविंद कोकणा, सयवत्तसहस्वत्ताणं ॥ २ ॥ चिदं बाहिरपता य कन्निया चैव एगजीवस्स । अभितरगा पत्ता. पत्तेयं केसरं मिंजा " ॥ ३ ॥
तथा
"विको सालको पा सल्लइमोयइमालु-वनपलासे करंजे य " ॥ ४ ॥ इत्यादि । "एसि णं मूला संजीविया कंदा विदा या विसाला त्रिपत्राला वि पत्ता पत्तेयजीविया, पुष्का श्रणेगजीविया फला एगट्टिय ति ।" अनन्तरं वनस्पतय उक्ताः, ते व जलाऽऽश्रया बह्यो जवन्तीति । स्था० ३ ० १ उ० । वनस्पतिमेव प्ररूपयन्नाहचतसइकाइया पाचा । सं जहा-अग्ग बीया, झीया, पोरचीया, संघीया ॥
म्यादि) बनस्पतिः प्रतीतः स एव कायः शरीरं येषां ते वनस्पतिकायाः, त एव वनस्पतिकायिकाः, तृणप्रकारा वनस्पतिकायिकास्तृणवनस्पतिकायिकाः, बादरा इत्यर्थः । अयं बीजं येषां ते अग्रवीजाः कोरण्टकाऽऽदयः, अग्रे बांबोज श्रादयो मूलमेव बजिं
थुड
ते मूलबीजा उत्पल कन्दाऽऽदयः, एवं पर्वबीजा ३स्वादयः, स्कन्धबीजाः शङ्खक्यादयः स्कन्धः मेति । एतानि सूत्राणि मान्छेदनपरणि, जम्मूर्च्छानामा मताः सूत्रासरवरोधादिति । श्रनन्तरं वनस्पतिजीवानां चतुःस्थानकमुक्तम् ।
० ४ ठा० १ उ० ।
पंचाचा पत्ता महा-अगवी पा, मृषीया पोरीया, संघवीया, दीपकड़ा।
( तणवणस्स सि ) तृणवनस्पतयो बादरवनस्पतयोऽग्रबीजाssदयः क्रमेण कोरण्टका उत्पन्नकन्दा वंशाः शब्नक्यो जटा एवमादयः । व्याख्यात चैतत्प्रागिवेति । खा० वा० २ ० ॥
तणग
बच्चा तस्काश्या पाचा । तं महा-अग बीया, मृदीया, पोरवया, संघवीया, बीरुद्दा, संभुचिमा ।
तृणवनस्पतिकायिका बादरा इत्यर्थः । मूलबीजा उत्पन्नकदादयइत्यादि स्मूमिदमी बी
जावेऽपिउत्पद्यन्ते यथाधिकृताध्ययनातार प्ररूपिता जीवाः । स्था० ६ ठा० ।
तवरं मी - देशी उडुपे, दे० ना० ५ वर्ग ७ गाथा | श्रीजीवविशेषे प्रज्ञा
टिप
- ०
पद । जी० ।
तृणकपुं० शब्दार्थ महा० १
"
पद । जी० ।
तणसूत्र - तृणशूक- - पुं० । न० । तृणाग्रे, भ० ८ ० ६ ० । सोनिया सोशिका-श्रीलकामा १०
१६ अ० ॥ जं० ।
तणसोली- देशी महिलकायाम् ० ना०
हाराहारीद्रयविशेषे
●
६ माथा १ प्रति ।
उत्त० । प्रज्ञा० ।
तणु-तनु- स्त्री० । “स्वराणां स्वराः प्रायोऽपभ्रंशे " ॥ ८ । ४ । ३२ ॥ इति अपभ्रंशे स्वरस्य स्वर एव । प्रा० ४ पाद । देहे, आव० ४ अ० । कर्म० | प्रब० । तं । श्रा० म० । मूर्ती, वाच सूक्ष्मे, त्रिo | कल्प०२ कण | प्रश्न० । तं । श्र० स० । अल्पे, विरले, कृशे च । स्त्रियां वा ङीप् । तन्वी । तनुः । वाचः । लघुपरिमाणे, न० जी० ३ प्रति० ।
नुकसा
स्वरूपेण कृशे, पञ्चा० १६ चित्र० । स्तोके, जीत० । सुजरे, भ० १५ श० । लघुसुजरे, झा० १ ० १२ अ०
तनुज - त्रि० । तनुः शरीरं, तस्माज्जातस्तनुजः । उत• १४० शरीरानुत्पन्ने, उत्त० १४ अ० ।
भट्ट सम्बन०
अंत-तन्त्र १० सूदमन्त्रे "रायंते तेण पायये प रिम" तेन प्रवणं मूत्रं परिणमति 1 नुशब्देनोपलक्षितम्-"बंगा गिःसंघयणजाइगरख गइपुग्बी" इति गाथाऽवयवेन प्रतिपादिते अटके, कर्म० " तर अ-" (१६) तनुशब्देनोपलकित मटकम् " तलुवंगागि संघपण जाइ गर खगद्द पुब्बी" (३) इति गाथाऽवयवेन प्रतिपादितं तन्वष्टकम् । तत्र तनवस्तैजसकार्मणोर परावर्तमानासु प्रतिपादितत्वात् शेषा श्रदारिकवैक्रिपा उद्वारकरूपास्तिस्रः। उपाङ्गानि त्रीणि माता सं हननानि पट्, जातयः पञ्च चतस्रो गतयः, खगतिद्वयम, श्रानुपूर्वी चतुष्कमिति । तम्बकशब्देन च त्रयस्त्रिंशत्प्रकृतयो गृह्यते । (१६) कर्म० ५ कर्म० । तीखी यामारायास्तृतीयेनानि तणुकायाकरिय-तनुकायक्रिय-त्रि० । तम्बी उच्चासनिःश्वा साऽऽदिल कणा कार्यक्रिया यस्य स तथा । सूक्ष्मोच्वासनि:श्वासाऽऽदिलक्ष व्यापारयति श्राव० ४ श्र० । तमृग-तनुक - न० । शरीरे, जं० ३ वक्ष• । सूक्ष्मे, जं० २वक्ष० ।
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(२१७१) तणुजोग अभिधानराजेन्सः ।
तएहा ताजोग-तनुयोग-पुं० । तनोति विस्तारयत्यात्मप्रदेशानस्या- माप्रजायां सा द्वे धनुःशत । तमस्तमःप्रभायां पञ्चैव धनु:मिति तनुरौदारिकाऽऽदिशरीरं, तया सहकारिकरण नूतया यो.
शतानीति । प्रव. १७६ द्वार । गस्तनुयोगः। तनुविषयो वा योगस्तन्योगः। कर्म०४ कर्म० । | ताय-तनुक-त्रि०। अग्रभागे, श्लणे विशे) प्रतरे, का.. कायिके योगे, न मनोवारपव्यारणामुपादानं करोति स काथिको | श्रु०८ अ.। सूक्ष्मे, बाच । योगः।"किं पुण तणुसंरने-म नेण मुंबद स वाइओ जोगो । म तनज-पुं। तनुः शरीरं तस्माज्जातस्तनुजः। उत्त०१४०॥ म स माणसोश्रो, तणुजोगो चेध य वित्तो॥१॥" विशे०।
पुत्रे, दुहितरि, स्त्री० । देह जातमात्रे,त्रि० । पाच । तणुणमिय-तनुनमित-त्रि० । तनु कशं तं नम्र तनुनतम् ।।
तायर-तनुतर-त्रि० । अतिशयेन तनुस्तनुतरः । भतिसूचमे. षन्नने, ज०२ वक्षः।
मक्षिकापत्रादपि तनुतरः । प्रा०म०१ ० २ खएक । ताणाम-तनुनाम-न । तनोति जन्तुरात्मप्रदेशान् विस्तारय-तणुरागत-तनुरगान्त-पुंग। सूचमसंपरायगुणस्थानकान्ते,क. ति यस्यां सा तनुः,तज्जनकं कापि तनुः सब नाम तनुनाम । प्र०१०प्रक०। शरीरनानि, कर्म०१ कम।
तणन-तनुल-त्रि० । तनुं शरीरं सुखस्पर्शतया माति अनुगृहातणुणिद-तनुनिष-नि० । तन्वी स्तोका निभा यस्येति । अल्प
| तीति तनुलम् । तनुसुनाऽऽदौ, जं. २ धक्का। निरुणशीले, पृ० १ उ०
तणुवाय-तनुवात-पुं० । तमुश्चासौ पातश्व तनुपातः । स्था.. वणुताइ-तनुतन्वी-सी० । मतित नुत्वाचनुतनुः। ईषत्प्राग्भा- ठा० उ० । घनवातस्याधःस्थायिनि विरसपरिणामोपेते बावरायाश्चतुथें नाम्नि, स्था०८म०।
रवायुमयिकदे, जी. १ प्रति० । प्रज्ञा ।
पिला । वणुपएग-तनुपञ्चक-न० । औदारिकवक्रियाऽऽहारकतेज-तणव
रिकतजा | तणुवायवलय-तनुवातवलय-न। तनुवातः स एव वझयमि. सफार्मबलकणे, प्रव ११ए द्वार ।
| व वलयं कटकम । सा. ३ ठा•४००। बादरत्रायुकायिकमेतबग्गणा-तनुवगेणा-रखी। तनूनामीदारिकाऽऽदिशरीराणां। दे.प्रका०पद । भेदाभेदपरिणामाभ्यां योग्यत्वाभिमुम्नास्तनुवर्गणाः । अथवा-तणुवी-तन्वी-खी । तन-उ-निगं वा की।वाच० "तन्वीपदयमाणमिश्रस्कन्धावित्सस्कन्धद्वयस्य तनुर्देहः शरीरं मंत्ति तुल्येषु" ।।२। ११३ । इति भन्स्यव्यञ्जनात्पूर्व उकारः । रिति यावत्, तद्योण्यत्वानिमुखा वर्गणा तनुबंगणा । द्रव्यवर्ग- प्रा०२पाद । कृशायाम् , वाच.। णानेदे, प्रा०म०१ अ.१ खण्ड । (तद्वतव्यता 'वम्गणा' शब्द) तणुसरीर-तनुशरीर-न० । सदमशरीरे, प्रश्न• १ मा० द्वार। वणुल-तनल-पुं० । शरीरादुत्पन्ने पुत्रे, मा० क.। हितरि,
तणय-तनूज-पुं० । पुत्रे, प्रा. क.। इहितरि, स्त्री. देवजास्त्री० । देह जातमात्रे, नि. । वाच ।
तमात्र,
त्रिवाच.। बामाण-तनुमान-न० । शरीरप्रमाणे, प्रव. १धार।
तणेण-तगोण-मध्यका "तादध्ये केहि तेहि-रेसि-रेसिं-तणेणा" पढपाए पुढवीए, नेरझ्याणं तु होइ उच्चत्त ।
।। ४।४२५ ॥ इत्यपभ्रंश तादय चोत्ये 'तणेण' इति निपा
तः । प्रा०४ पाद । सत्तधणु तिन्नि रयणी, बच्चेव य अंगुना पुन्ना ॥२॥
तणेणी-देशी-तृणप्रकारे, दे० ना०५ वर्ग३ गाथा । सत्तमपुढवीए पुण, पंचे धणुस्सयाइ तणुमाएं।
तप-तर्ण-पुं० । वत्से, जी०१ प्रति। मज्झिमपुढवीसु पुणो, अणेगहा मजिक्रम नेयं ।।ए॥
ताप-पुं० । तृणसंबन्धिनि, " किंची सकायसत्थं, किंची परअवगाहते जीवोऽस्यामवगाहना,तनुः शरीरमित्येकोऽर्थःसा द्विधा भवधारणीया, उत्तरक्रिया च । नवे नारकाऽऽदावायु:
काय तदुभयं किंची। (२४)" किञ्चिच्यखं स्वकाय पब मनिसमाप्ति यावदनवरतं धार्यतेऽसाविति भवधारणीया। स्वाभा.
काय एव मनिकायस्य । तद्यथा-ताणोंगम्निः पार्णाग्निशनमा विकशरीरग्रहणोत्तरकालं कार्यविशेषमाश्रित्य विविधा क्रियत- प्राचा.१७०१०४ १०। स्युसरक्रिया। पकैकाऽपि च द्विधा जघन्या,उत्कृष्ट चतत्र प्रथम | ताय-देशी-श्रा, दे० ना०५ वर्ग २ गाथा। तावत्प्रतिपृथिव्युत्कृष्टा जवधारणीयाऽवगाहनावाच्यते-प्रथमायां तमिह-तनिष्ठ-त्रिका तदाधिते,प्राचा.१६०१२म.१ उ०॥ रत्नप्रभायां पृथिव्यां नारकाणामुत्कर्षसोनवधारणीयावगाहनोच-नोरण-तिवेशन-त्रि. । सदा तनिवासिनि, “तप्परत्वं सप्तधनूंबि,निस्रो रत्नयः,त्रयो हस्ता इत्यर्थः। षमेव चावलानि पूर्णानि,उत्सेधाङ्गोन सपादैकत्रिंशसस्ता इति भावः। सप्तमपृथि.
कारे तस्सरणी तएिणवेसणे"तन्निवेशनःसदा गुरुकुलनिवाव्यां पुनः पञ्चैव धनुःशतान्युत्कर्षतो नारकाणां तनुमानं शरीरो
सी। प्राचा०१७०५०६ उ०। कन्या,मध्यमपृथिवीषु शर्कराप्रभाऽऽद्यासु तमःप्रजापर्यन्तासु पु
तएहकाण-तृष्णाध्यान-न । तृष्णा तृषापरीषहोदयस्तस्या नर्मध्यम प्रथमसप्तमपृथिवीनारकतनुमानयोर्मध्यवर्ति अनेकधा
ध्यानम्। तृषार्तस्य मार्ग गच्छतो जनकसाधुसहितस्य सुद्धकपूर्वपूर्वपृथिवीषु उत्तरोत्तरपृथिवीषु द्विगुणं २ तनुमानमुत्कर्षतो स्येव तृषाभ्याने, भातु। कातव्यम् । तथाहि-रत्नप्रभानारकतनुमानात् द्विगुणं शर्क-तएहा-तृष्णा-खा० । तपस्तृष्णामा राप्रभायां पञ्चदश धषि दी हस्ती द्वादशाङ्गलानि देहमानम् । | ३ उ०। उत्त.।प्रइन । धा पुदनभोगपिपासायाम्, अष्ट.१ एवं बालुकाप्रभायामेकत्रिंशद्धनूंषि एको हस्तः । पक्कप्रजायां अgo ०। प्राय.। उत्त०। सुत्र. । अनुचितवावायाम द्वापष्टिधनषिद्वी हस्ती धमप्रभाय पर्विशं धन-शतम् . प्रश०३माध० द्वार तथापरीषदादय, भातु।
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। २१.) तएहणेही
अभिधानराजेन्दः । बगहागेही-तृष्णागृषि-स्त्री० । तृष्णा च प्राप्तव्यस्याव्यये. कालो माणुसलोप, जियधम्माधम्म लोयपरिमाणा।
गागृशिधाप्राप्तस्य प्राप्तिवाछा,तद्धेतुकं चादत्तावानमिति सम्वे दव्यं स्टा, कालविणा अस्थिकाया य ॥ ७ ॥ तृष्णागृतिरुच्यते । गौणे भदसाऽऽदाने, प्रश्न. ३ माश्रद्वार । धम्माधम्मागामा, कालो परिणामिए भावे। तएहातिप्र-तृष्णार्दित-त्रि० । विपासिते, प्रभा पाश्र द्वार।
उदयपरिणामिप पु-गला र सम्बेसु पुण जीवा 15."
पुरगतयमतएहाऽजिहय-तृष्णाऽभिहत-त्रिका तृषाऽभिदते,जी०३प्रति "तिरिनरसुराउ नवं, सायं परघायभायखुरजायं।
जिणसासनिमाण, पणिदिवसभचउरमं.. तत-तत-न। वीणाऽऽदिको स्था•४ ठा.४ उ. । प्रभः ।
तसदस बउवनाई, सुरमणुग पंचतणु उवंगतिग। मं०। जी। प्राचा. "ततं वीणादिकं झेय, विततं पटदाऽऽदि.
मगुरुलहु पढमबगई, वायानं पुनपईमो॥१०॥" कम्। "ज.५.४ उ.। मृदापटाऽऽदिके,जी०३ प्रति०
पापतत्यम्४उ.रा.भा.म। वीणापटहाऽऽदिजानते शब्दे, घनः
"नाणंतराय पण पण, नवदीप नियममायमिष्ठत्तं। यधिरति व्यपदिश्यते । “तते दुबिहे पत्ते । तं जहा-घणे
थावरदस नरयतिगं, कसायपणवीस तिरिय दुगं ॥ ११॥ येव, सुसिरे चेव । " स्था० ३ ०३ उ०। मा..।
बउजाई वधार्य, भादमसंघयणगइसंगणा । सतगइ-ततगति-स्त्री। ततस्य ग्राभमगराऽऽदिगन्तुं प्रवृत्तत्वेन बसाइप्रसुभचउरो, घासीई पाचपगमीभो ॥ १२॥" तथाप्राप्तत्वेन तदन्तरालपथे वर्तमानतया प्रमारितकमतया च
माधवतश्वम्विस्तारंगतस्य,गतिस्ततगति । गतिप्रवादतूते,भ०७श०७ उ०।
"इंदिय क.साय मन्त्रय, किरिया पण चउर पंच पणवीसा। साति-स्त्री० । ततो वा अवविभूतग्रामादेनगराऽदो गतिः। जोगतिगं वायाला, भासवभेया इमा किरिया ॥ १३॥ प्राकृतत्वेन 'ततगई' । गतिप्रवादभेदे, म. 09801 "से कि
काईय अदियरणीया, पासिया पारितावणी किरिया। सं ततगति । ततगति जेणं जं गाम वा० जाव सचिवेसं वा
पाणावायरंनिय, परिगहिया मायवत्तीय ॥१४॥ संपठिए असंपत्ते अंतरापरे य वट्टर । से तं ततगति ।"
मिच्छादसणवित्ती, अप्पचक्वाण दिदि पुडी य । प्रका०१६पद।
पाश्चिय सामंतो-वणीय नेसस्थि साइत्थी ॥१५॥
प्राणवणि बियारणिया, अणभोगा अणवस्खपधाया। सतगति-ततगति-स्त्री०। 'ततग' शब्दार्थ, भ०८ श•७३०॥
भन्ना पभोग समुहा-ण पिज्जदोसेरियाबहिया ॥ १६॥" तत्त-तष-न । परमार्थे, सूत्र.१.१ म. १ उ.। उत्त।
संवरतस्वम4.व.। परमार्थ जाते, स्त्र० १ ०१ म०१ उ०। यथाश्चस्सि. "भावण चरित्त परिसह, समिई जइधम्म गुत्ति पारस उ। तलोकस्वजावे, सुत्र०१४.१.३उ० । यथाऽवस्थितव. पंच दुधीसा पण दस, तिय संवरभेषसगवा" ॥ १७ ॥ तुस्वरूपपरिच्छेदे, स्था० । परस्परनिरपेक्ष सामाग्यविशेषाऽऽ.
निर्जराबन्धतस्वम्स्मके (प्राचा. १६०४ अ०२०) जीवाजीवपुण्यपापाऽऽध- "वारसविहं तवो नि-जरा उ अहवा अकामसक्कामा । बबन्धसंवरनिर्जरामोकामके,तथा धर्माधमाकाशपुनम जी- पय वि अणुनाग-पपसभया चउहबंधो॥ १७ ॥ पकालात्मक व्ये, निन्यानित्यस्वनावे सामान्यविशेषाऽऽत्म
संतपयपकवणधा, दवपमाणं च खित्त फुसणा य । केनाद्यपर्यवसानचतुर्दशरज्ज्वात्मके लोके च । सूत्र० ३ ०। कालो अंतरभागा, भावऽप्पबहू नवह मुक्खो॥ १९ ॥ २०॥
जिण अजिण तित्य नित्था, मिहिनसलिगत्थीनरनपुंसा। अनि नव तखानि
पत्तेयसयंबुद्धा, विबुकबोदिक्कणिक्का य ॥२०॥" जियअजियपुन्नपावा-ऽऽसवसंवरबंधमुक्खानिज्जरणा(१५)
इति मोहनषम् । इत्युक्तं संपतो नव तस्वस्वरूपम । कर्म.
१कर्म । दर्श। श्रा०। प्राचा०। (विशेषतो व्याख्यानं स्वजीवश्च, अजीवश्व.पुण्यं च, पापंचाश्रम,संवरश्च,बन्ध.
स्वशब्द) (साइख्यमते तु तवानि पञ्चविंशतिस्तानि ". श्चमोत्तइन, निर्जरणं च निर्जरा,एतानि नत्र तयानि । (कर्म)
स" शब्द दर्शयिष्यन्ते) जीवाजीवताके
नव सन्नावपयत्या पप्पत्ता । तं जहा-जीवा, अजीवा, "जीवाजीया पुन, पावासाबरो य निझरणा । पंधो मुक्खो य तहा, णव तत्ता हुँति नायबा ॥१॥ पुगणं, पावं, आसवो, संचरो, निज्जरा, बंधो, मुक्खो। पपविद्दविहतिविदा, चउचिहा पंचछविहा जीवा । (नव मशावत्यादि) सद्भावेन परमार्थेन,अनुपचारेणेत्यर्थः। पदाबेयणतसश्यरेहि, वेयगईकरकापहि॥२॥
र्था वस्तूनि सद्भावपदार्थाः। तद्यथा-जीवाः सुखपुसज्ञानोपपगिदिय सुइमियरा, वितित्र उसनीप्रसन्निपंचिंदी।
योगलकणाः । मजीवास्तद्विपरीताः, पुण्यं प्रकृतिरूपं कर्म,पापं अपजत्ता पज्जत्ता, चउदसभेया अहव जीचा ॥३॥
तद्विपरीतं कमैंव,प्राथूयतेगृह्यतेऽनेनेस्याश्रवः,शुनागुभकर्मापणयावर सुडुमियरा, परित्तवणसमिश्रसनिविगलतिगं। दानहेतुरिति भावः । संवर पाश्रवनिरोधो गुप्यादिभिः, नि. इय सोनस अपजत्ता, पज्जत्ता जीवरसीसा ॥४॥
जरा विपाकासपसोचा कर्मणां देशतःकपणाद,बन्ध माधवै. धम्माधम्मागासा, य दब्बदेतप्पएसनो तिविहा।
रात्तस्य कर्मण मारमना संयोगो मोक्षः, करस्नकर्मकयागश्चाणवगाहगुणा, कालो य अरूविणो दसहा ॥५॥
दात्मनः स्वात्मन्यवस्थानमिति । ननु जीवाजीयव्यतिरिक्ताः कंधा देसपपसा, परमाणु पुगगला चन्द कावी।
पण्याऽऽदयो म सन्ति, तधायुज्यमानस्यात् । तथाहि-पुजीवं विद्या बयण, प्रविरिया सम्बगय बोर्म..
स्वपापे कर्मणी, बन्धोऽपि तदात्मक पष, कर्म च पुद्रल
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(२१७१) तत्त प्रभिधानराजेन्छः ।
तत्ततव परिणामः,पुवनाश्चाजीवा इनि; भाश्रवस्तु मिश्यादर्शनाऽऽदिक- च धात्वर्थः करोत्यर्थेन ध्यान ति स्वात्मनि परत्र च नवनिपः परिणामो जीवस्यास चाऽऽस्मानं,पुद्गलाँश्व विरहस्य कोऽन्यः% गयं चिकीरित्यर्थः । मथ परं प्रति तस्वनिर्णिनीयोरप्यस्य त. संबरोऽप्याश्रवनिरोधन कणो देशसर्वभेद आत्मनः परिणामो न्मिणयोपजनने जयघोषणामुदोषयन्त्येव सत्या इति चेत् ततः निवृत्तिरूपः,निर्जरातुकर्मपरिशाटौ जीवः कर्मणां यत्पार्थक्यमा. किम् । जिगीषुता स्यात् इति चेत्, कथं यो यदविच्छःस त. पादयति स्वशक्त्या, मोकोऽध्यात्मा समस्तकमविरहित इति । दिन्छः परोक्तिमात्रा भवेत । तस्किं नाऽसौ जयमश्नुते ?, वा तस्माजीवाजीबो सद्भावपदार्थाविति वक्तव्यम्। मत एवोक्तमिद।। ढमश्नुतेन च तमिच्चति च,मश्नुते चेति किमपि कैतवं तवेति ब-"उदास्थ च लोप तं सव्वं ऽपडियारंवतं जहा-जीवमेव, चेत्, स्यादेपं, यद्यनिष्टमपि न प्राप्येत । अवलोक्यन्ते चानिअजीव वत्ति?"अत्रोच्यते-सत्यमेतस्किन्तु यावेव जीवाजीवप. टान्यप्यनुकूत्रप्रतिकूलदैवोपकल्पितानि जपनुज्यमानानि दायाँ सामाग्येनोली, ताचेवेह विशेषतो नवधोती. सामान्य. शतशः फत्रानि । तदिदमिह रहस्यम-परोपकारकपरायणस्य विशेषाऽऽत्मकत्वाद् वस्तुनः,तथेह मोकमार्गे शिष्यः प्रवर्तनीयो, कस्यचिद्वादिवृन्दारकस्य परत्र तवनिर्णिनीपोरानुपातिकं फलं म संप्रदाभिधानमात्रमेव कर्तव्यम्। स च यदैवमाख्यायते-यपु. जयः,मुख्यं तु परतवावबोधनमा जिगीयोस्तु विपर्यय इति। तायो , बन्धो वा, बन्धद्वाराऽऽयाते च पुण्यपापे मुरुषानि त.
स्वाऽऽत्मनि तस्वनिणिनीषुमुदाहरन्ति-- स्वानि संसारकारणानि, संवरनिर्जरेच मोक्षस्य, तदा संसार
__ प्रायः शिष्याऽऽदिः ।। ६ ॥ कारणत्यायेनेतरत्र प्रवर्तते, नाभ्यथेत्यतः षट्कोपम्यासः, मु-1 स्यसाध्यख्यापनार्थं च मोक्षस्येति । स्था०६ ग.।
(पाद्य इति) स्वात्मनि तत्त्वनिर्णिनीधुरित्यर्थः। आदिग्रहणा
दिहोत्तरत्र च स ब्रह्मचारिसुहृदादिरादीयते ॥६॥ तप्त-त्रि०ा अनुष्ठिते, सूत्र.१७० ३ ०४ ३०।उष्णे, स्था०
परत्र तस्वनिर्णिनीषुमुदाहरन्तिवा। तं०। संतापे, औ० । संतप्ते, “तत्सतवाणिजकणगव
द्वितीयो गुर्वाऽऽदिः ॥ ७॥ पणा।" भौ०॥ वत्तओ-तवतस्-अम्बा परमार्थवृत्तौ, भने १ अधि० ।
(द्वितीय इति) परत्र तवनिर्णिनीषुः ॥७॥
द्वितीयस्य भेदावनिदधति-- सत्तंत-तत्वान्त-ना प्रात्माऽदितस्वप्रसिफिरूपेद्वा० २३ द्वा।
अयं विविध:-क्षायोपशमिकहानशाली, केवली ॥5॥ तत्तगोयर-तषगोचर-त्रि० । तस्यविषयो द्वा०२१ द्वा०। ।
(प्रयमिति) परत्र तत्वनिर्णिनीषुर्गुर्वादिः, कानावरणीयस्य तत्तचिंता-तपचिन्ता-स्त्री० । परमार्थचिन्तायाम, शा. १
कर्मणः क्षयोपशमेन निवृत्तं ज्ञानं मतिश्रुतावधिमनःपर्यायरूविव०॥
पं व्यस्त समस्तं वा यस्यास्ति स तावदेक; द्वितीयस्तु तस्यैव
क्वयेण यज्जानतं केवलकानं तद्वान् । तदेवं चत्वारः प्रारम्भतत्तजला-तलजला-स्त्री० । जम्बूद्वीपे भेरोः पूर्वस्यां दिशि शी.
का:-जिगीषुः, स्वात्मनि तवनिर्णिनीषुः, परत तणनिर्णिताया महानद्या दक्षिणभागस्थितायां स्वनामस्तायामन्तन
मीषुश्च कायोपशमिककानशालिकेवसिनाविति । तस्वनिर्णिचाम, स्था. ३०४०।"दो तत्तजनाओ। " स्था. नीघोहिं ये भेदप्रभेदाः प्रदर्शिताः, न ते जिगीषोः सर्वेऽपि मा० ३..।जं.
संभवन्ति । तथादि-न कहिचद्विपश्चिदात्मानं जेतुमिच्छति । तत्तनिवासा-तवजिज्ञासा-स्त्री० । सातुमिच्छा जिज्ञासा, त. न व केवली परं पराजेतुमिच्छति, वीतरागत्वात् ।गौडद्रास्वविषयाशानेच्छा तवजिज्ञासा । तस्यविषयकमानेच्यायाम, विडाऽदिभेदस्तु नाङ्गनियमभेदापयोगी प्रसन्जयति चानन्त्यपो०१६ विव..
म्, इति पारिशेष्यात कायोपशमिकज्ञानशाली परत्र जिगीतत्तणा-तत्वज्ञान-न० । ऊहापोहविगुरुमिदमित्यमेवेति । पुनवतीत्येकरूप पवाऽसौ न भेदप्रदर्शनमइति । यो च परत्र निश्चये, ध०१ अधि०।
तत्वनिर्णिनीयोदावुक्ती, न तो द्वायपि स्वाऽऽत्मनि तवनिर्णि
नीषोः संजवतः, निर्णीतसमस्ततस्यज्ञानशानिनः केवलिनःस्वा. सत्तणिएिणणीमु-तप्वनिर्णिनीषु-पुं० । तस्वं प्रतिष्ठापयित्री,
उत्मनि तत्वनिर्णयेच्छानुपपत्तेः, इति पारिशेष्यात कायोपश. स्वीकृतधर्मव्यवस्थापनार्थ साधनदूषणाभ्यां शब्दाकथञ्चि
मिककानवानेव खात्मनि तवनिर्णिनीषुर्भवतीबसायप्येकाप नित्यत्वाऽऽदिरूपं तवं प्रतिष्ठापयितुमिच्छौ तवनिर्णिनीषौ,
एवेति। रत्ना०८ परि। रत्ना। अथ तवनिर्णिनीयोः स्वरूपं निरूपयन्ति
तत्ता-तत्व-वि•ा तस्वं सकलपर्यायोपेतसकलवस्तुस्वरूप तथैव तवं प्रतितिष्ठापयिषुस्तवनिलिनीपुः ॥४॥
जानातीति तस्वकः । वस्तुतत्त्ववेदिनि, पश्चा०१ विव० । सर्वतयैव स्वीकृतधर्मव्यवस्थापनार्यसाधनदृषणाभ्याम् शब्दाऽऽ.
के. मात्र.१०। देकश्चिद नित्यत्वाऽऽदिरूपं तपम,प्रतिष्ठापयितुभिच्चस्तत्व तत्तापूटि-तवपुष्टि-सीतवस्याविसंथावस्थाने हितोपदेनिर्णिनानुरित्यर्थः॥४॥
शे, पो०८ विधा मस्यैवायत्तावैचिव्यहेतवे भेदावुपदर्शयम्ति- तत्ततब-तलतपम-त्रिका तापिततपस्के, मार्यसुधर्माणमुपक्रम्य अयं च द्वधा-स्वात्मनि परत्र चेति ॥ ५॥
" उमातवे दित्ततवे तत्तत।" सप्तं तापितं तो येन स तप्त. (भयमिति) तत्वनिर्णिनीषुः, कश्चित्खलु संदेदाऽऽपहतचेतो. तपाः। तेन तत्तपस्तप्तं येन कर्माणि सन्ताप्यन्ते, तम न बतप. वृत्तिः स्वाऽममनि तत्त्वं निर्णतुमिच्छति,प्रपरस्तु परानुग्रहकर- मा स्यात्मा तपोरूपः संतापितो, यतोऽन्यस्यास्पृश्यमिव जातसिकतया परस तथा इति वेधाऽसौ तस्यनिर्णिनीपुःसापिमामाघनिभ.।।रा०ासू.प्र०ा का।
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(२१८२) तत्ततवाणिज्ज अभिधानराजेन्द्रः।
तत्तसमजोइनूय तत्ततवाणिज-तप्ततपनीय-न। तप्तसुवणे, "तनतवणिज्जसं. __कस्मात्पुनस्तत्राद्वेषः क्रियत इत्यादकासो।" प्रशा० १ पद ।
अद्वेषो जिज्ञासा, शुश्रुषा श्रवणबोधमीमांसाः। तत्तववोधण-तप्ततपोधन-त्रि। तप्तमनुष्ठितं तप एव धनं य-|
परिशुधा प्रतिपत्तिः, प्रवृत्तिरष्टाहगिकी तत्त्वे ॥१४॥ स्य स तप्ततपोधनः । पञ्चाग्न्यादितपोविशेषण मिष्टप्तदेहे,
अद्वेषोऽप्रीतिपरिहारः तत्वविषयस्तत्पूर्विकाशातुमिच्ग जिज्ञासा सूत्र १ श्रु० ३ अ०४ उ०।
तावविषया ज्ञानच्छा तस्वजिज्ञासा तत्पूर्विका बोधाम्नःश्रोप्तसः
सिराकल्पा, श्रोतुमिच्छा शुश्रूषा तयविषयैव। तत्वशुश्रूषानिबतत्ततेस-तप्ततैल-ना तप्तं च तत्तैलं च । सम्णतेले. स०११अङ्ग ।
धनं श्रवणमाकर्णन तत्त्वविषयमव । बोधोऽवगमः परिच्छेदो चि. तत्तत्ति-तत्वाप्ति-स्त्रीजीवाऽऽदीनां स्वरूपोपलम्भे, पो (?)।। वक्तितार्थस्य श्रवणनिबन्धनस्तत्वविषय एच, मीमांसा सद्विचाससत्य-तत्त्वार्थ-पुं० । युक्तिसिऽर्थे, द्रव्या०८ अध्या।
ररूपा बोधानन्तरभाविनी तत्वविषयक श्रवणं च बोधश्च मीमां
सा च श्रवणबोधमीमांसाः । परिशुका सर्वतो भावविशुद्धा.प्र. तत्तत्यसदहाण-तत्वार्थश्रधान-नः । तस्वार्थानां सर्वविदुपदि.
तिपत्तिमीमांसोत्तरकालभाविनी निश्चयाऽऽकारा परिचित्ति. तया पारमार्थिकानां जीवाऽऽदिपदार्थानां श्रद्धानमेवमेतदेवेति
रिदमित्यमेवेति तत्त्वविषयैव । प्रवर्तनं प्रवृत्तिरनुष्टानरूपा प्रत्ययः, तत्वेन वा भावतोऽर्थानां श्रमानं तरवार्थश्रद्धानम। "त. परिशुरूप्रतिपस्यनन्तरभाविनी तत्वविषयैव, प्रवृत्तिशब्दो द्वित्तत्यसदहाण, सम्मतसमगहोण एयम्मि" । पञ्चा०१ विवा रावय॑ते, तेनायमर्थो नवति-तवे प्रवृत्तिरष्टभिरनेनिवृत्ताऽष्टा(एतबहुवक्तव्यता“सम्मत"शब्दे वदयते)
निकी, पनिरद्वेषाऽऽदिभिरष्टभिरङ्गैस्तत्वप्रवृत्तिः संपद्यते, तत्तदंसण-तत्वदर्शन-न० । परमार्थावलोकने, द्वा० २५ द्वा०। तेनाऽऽगमान्तरे मूलागमकदेशनूते न द्वेषः कार्य इति ॥ १४ ॥ तत्तदंसि (ण)-तवदर्शिन्-त्रि० । मेधाविनि, माचा. १७०३ | षो०१६ विव०।
अ०२ न० । तवावलोकनकर्तरि, सूत्र०१ श्रु०१५ ०। ।तत्तफासुअ-तप्तपाशुक-त्रि० । तप्तं सत्माकं त्रिदण्डोद्धत तत्तदिहि-तवदृष्टि--स्त्री० । तवं वस्तुरूपं जीवे जीवत्वमनन्त- तप्तप्राशुकम् । त्रिदएडोद्धते तप्ते जनाऽऽदौ, "उसिणोदगं चैतन्यरूपम्, अजीचे अचैतन्यस्वरूपं, तत्र यथार्थावयाधयक्ती. | तत्तफासुयं, पडिगादिज्ज संजए।" दश०८०। अष्ट।
तत्तविद् -तत्वविद-त्रि० । तस्वं वेत्तीति तत्वविद् । जीवारूपे रूपवती दृष्टि-दृष्टा रूपं विमुह्यति ।
जीवाऽऽदिवस्तुविशातरि, ध• ३ अधि० । परमार्थविदि, नि.१
श्रु० १ वर्ग? अ०। मजत्यात्मनि नीरूपे, तवदृष्टिस्त्वरूपिणी ॥१॥
तत्तवे[]-तचदिन-पुं०।तत्वज्ञानिनि, प्राचा. सारो चमवाटी बहिदृष्टि-भ्रेपच्छाया तदीक्षणम् ।
हि विषयगणस्य तत्प्राप्तौ तृप्तिः, तदभावान्निःसारः, तं दृष्टा अभ्रान्तस्तत्वदृष्टिस्तु, नास्यां शेते सुखाशया ॥२॥ ज्ञानी तत्ववेदी नविषयाभिशापं विदध्याद, न केवलं मनुष्याग्रामाऽऽरामाऽऽदि मोहाय, यद् दृष्टं बाह्यया दृशा । णां, देवानामपि विषयसुखाऽऽस्पदमनित्यं जीवितमिति द. तवदृष्ट्या तदेवान्त-नीत वैराग्यसंपदे ॥ ३ ॥
शयति-" उववाय चवणं णच्चा।" उपपात जन्म, च्यवनं
पातःतच्च ज्ञात्वा न विषयसमोन्मुखो भवेदिति । यतो नि:बाह्यदृष्टेः सुधासार-घटिता नाति सुन्दरी ।
सारो विषय ग्रामः, समस्तः संसारो वा, सर्वाणि च स्थानातच्चदृष्टस्तु सा साक्षात्, विणमूत्रपिठरोदरी ॥४॥
न्यशाश्वतानि । सारासारवेत्तरि, प्राचा०१ श्रु० ३१०२ उ०। लावण्याहरीपूर्ण, वपुः पश्यति बाह्यदृम् ।
तत्तबोहविहाणी-तत्वबोधविधायिनी-स्त्री० । अभयदेवविरतत्वदृष्टिः श्वकाकानां, नक्ष्यं कृभिकुलाऽऽकुलम् ॥ ५॥ चितायां स्वनामख्यातायां सम्मतिटीकायाम्, " प्रद्युम्नसूरेः गजाचपभवन, विस्मयाय बहिशः।
शिष्येण, लत्त्वबोधविधायिनी । एषा चाभयदेवेन, सम्मतेर्वितत्राश्वेभवनात कोऽपि, भेदस्तच्चदृशस्तु न ॥ ६॥
वृतिः कृता" ॥१॥ सम्म० ३ काएका जस्मना केशोचेन, वपुर्धतमलेन वा।
तत्तरसासाय-तत्वरसाऽऽस्वाद-पुं०। तवे परमार्थे रस आम.
क्तिहेतुस्तस्याऽऽस्वादस्तत्वरसास्वादः । परमार्थाऽऽसक्तिहे. महान्तं बाह्यहा वोत्त, चित्साम्राज्यन तत्ववित् ।। ७ ॥
स्वास्वादे, नि०१ श्रु०१ वर्ग१०। न विकाराय विश्वस्यो-पकारायैव निर्मिताः।
तत्तलोहपह-तप्तलोहपथ-पुं० । तप्ते लोहमयमार्गे, प्रभ० १ स्फुरत्कारुण्यपीयूष-वृष्टयस्तचदृष्टयः।।।अष्ट० १६अप० । | आश्र० द्वार । तनदेवा-तच्चदेष्ट-पुं० । तवं सकलपर्यायोपेतसकलवस्तुस्व
तत्तसंदिहि-तत्वसंदृष्टि-स्त्री० । तत्वसंदर्शने, पो० १५ विधा। रूपं तद्दिशतीति तत्त्वदेवा । तत्त्वोपदेष्टरि, ध०१ अधि०।
तत्तसंवेयण-तत्वसंवेदन-ना तत्त्वं परमार्थः, तत्सम्यक प्रवृश्या
धुपहतत्वेन विद्यते यम्मिस्तत् । शानभेदे, द्वा०६द्वा । सम्यतत्तधम्मनोणी-तवधर्मयोनि-स्त्री। धृत्यादिके, धृतिः श्रधा सु.
| ग्ज्ञाने, पं० सू०४ सूत्र० । हा। खाविविदिषा विज्ञप्तिरिति तत्वधर्मयोनयः । “धिइसम्हासुहबि.
तत्तसमजाइभय-तप्तसमज्योतिर्जत-त्रिका तप्तेन तापेन समा विदिस-नेया जं पायसो . जोणि नि।" पञ्चा०४ विव०।
तुल्या ज्योतिषा बहिना भूता जाता या सा तप्तसमज्योतितत्तपवित्ति-तत्वप्रवृत्ति -स्त्री० । तत्त्वानुष्ठाने, पोछ ।
जूता । तापसहशवह्निजाते, भ. १००० ५ उ० ।
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(२१९३) तत्तसु अभिधानराजेन्डः।
तद तत्तमुइ-तत्त्वश्रुति-स्त्री.। तत्त्वश्रवणे, द्वा।
तत्तिय-ताविक-पुं०11०। वास्तवे, द्वा• १६ द्वा० । मा० म०। ततःकिमित्याह
"महावतिसहस्रेषु, वरमेको हिताविकः । तारिखकस्य सम पुण्यबीजं नयत्येवं, तच्चश्रुत्या सदाशयः।
पात्रं, न भूतो न भविष्यति ॥१॥"अतस्ताविकाय पात्राजवदाराम्नमस्त्यागाद्, वृद्धिं मधुरवारिणा ॥१॥
ऽऽदिकं देयम् ध०२ अधि०। एवं धर्मस्य प्रारणेभ्योऽप्यधिकत्वप्रतिपत्त्या, तत्रोत्सर्गप्रवृत्त्या,
तावत-त्रि० । “जति गहियं तत्तियं विय, सेसं नटुं, ततो ग. तत्वश्रुत्या तथा तखश्रवणेन, मधुरवारिसा, सदाशयः शोभन- तो सिं घरं।" प्रा. म० १ ० २ खराम । 'तत्तियं' लावपरिणामः, नवलक्षणस्य क्षाराम्भसस्त्यागात, पुण्यबीज न्मात्रमेव कार्यम् । व्यवहारे, नि. ०० ११००। वृद्धि नयति । यथा हि मधुरोदकयोगतस्तन्माधुर्यानवगमेऽपि तत्तियजोग-ताविकयोग--पुं०। केनापि नयेन मोकयोजनफले, बीजं प्ररोहमादत्ते, तथा तत्वश्रुतेरचिन्त्यसामर्थ्यासस्वविषय
द्वा० १६ द्वा०। स्पष्टसंवित्वभावेऽपि अतरवश्रवणत्यागेन तदयोगात् पुण्यवृद्धिः स्यादेवेति भावः ॥२१॥
तत्तियधम्मत्ति--ताचिकधर्माप्ति-स्त्री. । तारिखकस्वाभ्यासशुतत्त्वश्रवणतस्तीत्रा, गुरुभक्तिः सुखाऽऽवहा ।
द्धस्य तत्त्वान्यासिकमात्रस्य धर्मस्याहिंसाऽऽदेराप्तिरुपनधिः।
मन्यासस्याहिंसाऽऽदेरुपलब्धौ, द्वा० १० द्वा। समापन्यादिभेदेन, तीर्थदर्शनं ततः ॥ १२॥ (तस्वेति) तत्वश्रवणतः, तीव्रा उत्कटा, गुरौ तस्वश्रावयितरि,
तत्तिस-तृप्तिमत्-त्रि० । तृप्तिर्विद्यते यस्य स तदस्यास्त्यस्मिप्रक्तिराराध्यत्वेन प्रतिपत्तिः, सुखावहोभयलोकसुखकरी,ततो
निति मतुए। “प्राल्बिल्लोटलाल-चन्त-मन्तेत्तेर-मणा-मतोः" गुरुभक्तः समापत्यादिभेदेन तीर्थकद्दर्शनं भगवत्सावात्कारल
॥८।२।१५९ ॥ ति मतुपः स्थाने इल्बाऽऽदेशः। प्रा. कणं जवति । तमुक्तम-"गुरुभक्तिप्रभावेण,तीर्थदर्शनं मतम् ।
दुपिढ० २ पाद । तृप्ते, कल्प० ६ कण । तत्परे, दे० ना. समापत्त्यादिनेदेन, निर्वाणैकनिबन्धनम" ॥१॥समापत्तिरत्र
५बग ३गाथा। ध्यानजस्पर्शना भएयते, आदिना तन्नामकर्मबन्धविपाकतद्भा- | तत्तिन्वऽवसाण-तत्तीवाध्यवसान-त्रिका तस्मिन्नेवाऽऽवश्यवापायुपपत्तिपरिग्रहः ॥२२॥ द्वा०२२ द्वा ।
के तीवं प्रारम्भकालादारज्य प्रतिक्षणं प्रहर्षयायि प्रयत्नविशेषतत्तसुस्मूसा-तत्वशुश्रूषा-स्त्री० । तवश्रवणेच्गयाम, द्वा०२२ । लक्षणमध्यवसानं यस्य स तथा । तस्मिन्, ग०२ अधि०। द्वा०।
तत्ती-देशी-तत्परतायाम, भादेशे च । देखना०५ वर्गगाथा। तत्ताणिव्वुडलोइत्त-ततानिवृत्तभोजिस्व-न । तप्तं च तदनि
| तत्तीइग-तार्तीयिक-त्रि. । तृतीयमेव तार्तीयिकम् । स्वार्थ वृत्तं चात्रिदएमोद्धतं च उदकमिति विशेषणान्यथानुपपया गम्यते तद्भोजित्वमिति । असचित्तोदकभाजित्वे, ग०२ अधिक।
टीकण्प्रत्ययः । ध.२ अधिo। त्रयाणां पूरणे, येन त्रित्वसंख्या
पूर्यते तस्मिन पदार्थे. वाच । तत्ताणुरूवत्त-तत्वानुरूपत्व-न० । पञ्चदशतमे सत्यवचनातिशेषसम्प्राप्ते, तत्वानुभोजित्वं विवक्षितवस्तुस्वरूपानुसा।
तत्तु-तत्र-अव्यः ।" यत्रतत्रयोस्त्रस्य मिदेवतु" ॥८४४०४॥ रिता । रा०।
रति तत्रशब्दस्य मित्सककोऽत्तु इत्यादेशः । प्रा० ४ पाद । तत्तातत्तवइगरकराल-तत्वातश्वव्यतिकरकराल-त्रि० । तस्वं _नमा
तस्मिन्नित्यर्थे, वाच। चातत्त्वं च तत्वातवे, तयायतिकरो व्यतिकीर्णता मिश्रता स्व.
तत्तुमिव-देशी-सुरते, देना०५ वर्गगाथा। भावविनिमयः तस्वातत्वव्यतिकरः, तेन करालो भयङ्करः। तत्थ-तत्र-श्रव्य० । तस्मिन् कालाऽऽदौ,तत्र तस्मिन्नित्यर्थे, वातत्त्वेऽतवाभिनिवेशोऽतवे तश्चाभिनिवेश इत्येवरूपेण संजा- च० स्था। अनु० प्रश्नः । वाक्योपन्यासार्थ, सूत्र० २ यमानव्यातिकरण भयङ्करे, स्या ।
शु०१०। निर्धारणार्थे च । दश०१ म.। तहि' शब्दार्ये तत्तान्भास-तच्चान्यास-पुं० । परमार्थाज्यासे, पो०१३ विवo | च । प्रा० १ पाद । तत्ताभिणिवेस-तचाजिनिवेश-पुं० । तरबज्ञाने, पो । “गुरु
तथ्य-न० । तत्र साधुः यत् । सत्ये, वाच। विशे० मा. भक्तिः परमाऽस्यां,विधी प्रयत्नस्तथा धृतिः करणे। तद्वन्धा
निरुपचरिते, मुख्य च । विशे। प्तिश्रवणं, तत्वाभिनिवेशपरमफलम् ॥१॥"पो०१०विव..
स्तब्ध-त्रि०। परमाधार्मिकदेवपरस्परोदीरितःखसंपातनवस्तुस्वरूपनिर्णयातिशये, पश्चा० ६ विवः ।
यात त्रासमुपपन्ने, जी०१ प्रति० । स्था। तत्तायगोलकप्प--तप्तायोगोजकल्प-त्रि० । तप्तलोइपिएलसदृशे, त्रस्त-त्रि.। भीते, झाल १४० १ अ.। "तत्तायगोलकप्पो,पमत्तजीचो निवारियप्पसरो।(२०१)"
श्रातत्यावाइ(ण)-तथ्यवादिन-पु० ।' तश्चा तत्तालोग-तचालोक-पुं० । परमार्थप्रकाशे, द्वा०२४ द्वा०।। प्रा० क०। तत्ति-तृप्ति-स्त्री० । प्राणी, स्था० १ मा सन्तोषे, पातु०। बु. तत्थन-दृष्ट्वा-अव्य० । “तोऽत्" ॥।१।१२६॥ देत्तदोस्तः। नुक्काऽऽद्युपशमबकणायाम, विशे०।
दस्य तः। "दूनत्थूनौटः" ॥८।४।३१३॥ इति ट्रस्थाने तप्ति-स्त्री० । सारायाम्, "गणतत्तिविप्पमुक्का।" गणस्य ग.| दुनत्यूनश्त्यादेशौ । विलोक्येत्यर्थ, प्रा० ९०४ पाद । यस्य या तप्तिः सारा, तया विप्रमुक्ताः। व्य०१०। चिन्ता- तद-तत-त्रि० । लोकत्रयव्यापिनि, क्विवन्तत्वेन प्रायशो हवन्तयाम् प्रति०।
| त्वादतारशाः प्राकृतेन प्रयुज्यन्ते । जै० गा।
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(२१०४) तदक्ख अनिधानराजेन्द्रः।
तडियए बदक्ख-तदाख्य-त्रि० तेन अर्थन प्राण्या येषां ते तदारुयाः। स्वग्दोष-त्रि कुष्ठिनि. श्री. श्वेतकुष्ठिनि,पिं० स च त्वग्दो. भहिंसके निचू० २०७०।
पो द्वाच्या प्रकाराभ्यां भवति । तद्यथा-"संदंतमसंदते मस्सं. बदफवसाण-तदध्यवसान-त्रि० । सस्यामेवाभ्यवसानं भो-| दिणसित्तमंमलपमुत्ती । किमिपूयं रसिगा वा, पस्संदति तगक्रिया प्रयतविशेषरूपं यस्य स तस्मिन् । तदभ्यवसिते. वि
स्थिमा जवणा" ॥२॥ व्य०६०। (गाया 'बगडा'शपा० १४०२० । भनु० ।
एगवगमावसरे व्याख्यास्यते)
तदिय--तचित--त्रि०ाना तस्मै रितं तद्धितमित्यन्वर्याभिसदवासिय-तदस्यवसित-त्रि० । तस्मिन्नेव विवक्तिते पाव. श्यके अध्यवासितं क्रियासंपादनविषयमस्येति तदभ्यवसितः।
धायका रे प्रत्यवास्ते तद्धिताः। यथा गोज्यो हितोगव्यो देश सद्विषएकाभ्यवसाययुके, ग १ मधि० । अनु ।
इत्यादि । प्रश्न०२ सम्ब० द्वारा प्रा.चू० । तेभ्यो विग्रहस्थ
तसत्प्रकृतीमा स्वविशिष्तया प्रयोगेच्यो हितः । व्याकरणोठे बदह-तदर्थ-पुं० । तस्मै अर्थस्तदर्थः। भाचा.१४०२०५ प्रत्ययभेदे, वाचः। उ। तत्प्राप्ता, वि० १६. २०।
तष्ठियए-तचितज-जा तद्धिताज्जातं तद्धितजम्। हतकितबदबोच नत्त-तदर्थोपयुक्त-त्रिका तस्य (विवकिसस्य) भावश्य- शम्देन तद्धितप्राप्तिहेतुभूतोऽर्थों गृह्यते तत्रायम,यत्रापि "तुनाए कस्याधस्तदर्थः तस्मिन्नुपयुक्तस्तदर्थोपयुक्तः। भनु तत्प्राप्तये उ.
तंतुवाए । " कितप्रत्ययो न इयते, तत्रापि तकलुभूतार्थस्य पयोगवति,विपा०५६०१ भाग० । तदभिधेयोपयुक्त,औ०।
विद्यमानस्वामित सिकं भवति । अनु० । नावप्रमाखभेदे, बदमवयण-तदन्यवचन-न• । वचनभेके, स्था0 तस्माद्वि
भनु०।
से किंतधियए। तधियए अहविहे पमाते। जहा. पक्तिघटाऽऽदेरन्यः पटाऽऽदितस्य वचनं नरम्यवचनं, घटाये कया परवचनवत् , नोमवचनमजणननिवृत्तिर्वचनमा मि
"कम्मे सिप्प सिनोए, संजोगे समीवए असंजूहे। स्थाऽऽदिनदिति । अथवा-स शमव्युत्पत्तिनिमित्तधर्मविशिष्टो- इस्सरिऍ भवञ्चेण य, तचितणामं तु अट्टविहं" ॥१॥ अर्थोऽनेनोध्यते इति तद्वचनं,यथार्थनामेत्यर्थः। ज्वलनतपनाऽऽ. (से किं तं तजियए इत्यादि)तहिताज्जातं तस्तिजम । इह दिवत्। तथा तस्माचन्दव्युत्पत्तिनिमित्तधर्मविशिष्टादन्यः श- तस्तिशब्देन तकितप्राप्तिहेतुनूतोऽथों गृह्यते । तत्रायम्, यत्रापिमप्रवृत्तिनिर्मितधर्मविशिष्टोऽर्थः, उच्यतेऽनेनेति तदम्यवचनम. "तुम्नाए तंतुवाए" ततिप्रत्ययोन रश्यते, तत्रापि तकेतु. यथार्थमित्यर्थः। स्था० ३ ० ३ ०।
भूतार्थस्य विद्यमानत्वातद्धितजं सिकंजयति। "कम्मेगाहा" तदपियकरण-तदर्पितकरण-त्रि.। तस्मिन् भगवत्यषितानि पानसिक, नवरं श्लोकः श्लाघा, संयूथो प्रन्यरचना, पते प करणानीन्द्रियाणि शब्दरूपाऽऽदिषु श्रोत्रचारादीनि येस्ते तद.
कर्मशियाऽऽदयोऽस्तिमितप्रत्ययस्योस्पिरसोनिमित्तीभवन्तीपिंतकरणाः। औग । तस्मिन्नेवाऽवश्यके यथोचितम्यापार
स्पेतद्देशासक्तिनामावविधमुच्यत इति भावः। नियोगेनार्पितानि नियुक्तानि येन स तदर्षितकरणः । सम्यग्यथा.
से किंतं कम्मनामे ?। कम्पनामेधणेगविहे पएणचे। स्थानन्यस्तोपकरणे,०। तस्यामवार्पितानि दौकितानि करणानि जहा-तणहारए, कहहारए, पत्तहारए, दोसिए, सोत्तिए, इन्छियाणि येन स तथा तस्मिन् । दौकितेन्किये, ध०३ अधिका कप्पासिए, भंमवेमालिए, कोसालिए । सेत्तं कम्मनामे । सदाभास-तदानास-पुं। तत्सरशे. पक्षा०४ विधा। तत्र फर्मतस्तिजं (दोसिए, सोतिर इत्यादि) दृष्यं परायम. वदाहार-तदाघार-त्रिका ते पृथिव्यादय माधारो येशं ते त. स्येति दोषिकः। सूत्रं परायमस्येति सौत्रिकः । शेषं प्रतीतम्। दाधाराः । तत्राऽऽहितेषु, प्रश्न०१भाभ• द्वार।
नवरं भाएमविचारः कर्मास्यति नाण्डवैचारिका, कौलालानि
मृद्भायमानि परायमस्योति कौलालिकः। अत्र कापि "सणतदाहार-पुं० । जानेव पृथिव्यादीन माहारयन्तीति तदाहारः। हारिए" इत्यादिपागे रश्यते । तत्र कहिचदाह-नम्वत्र तद्धितद्भवके, प्रश्न.१ माघ द्वार।
सप्रत्ययो न कश्चिदुपलभ्यते, तथा वक्ष्यमाणेष्वपि " तुनाप दुजयहिय-तबुलयहित-त्रिकाहपरलोकहिते, पं० भा०। तंतुवाए" इत्यादिषु नायं दृश्यते, तस्किमित्येवंभूतनाम्नाभिनतो-ततम्-अध्य० । तस्मादित्यय, प्रा०पाद ।
होपन्यासःमित्रोच्यते-अस्मादेष सूत्रोपभ्यासातृणानि हरतिव.
हतीत्यादिका कभिदायव्याकरणरएस्तद्धितात्पत्तिहेतुभूतोऽर्थो दो-ततस-प्रय० । "तो दो तसोवा" | |१६०॥
आपल्या, ततो यद्यपि साकात तद्धितप्रत्ययो नास्ति, तथापि इति तसा प्रत्ययस्य वा सो दो इत्यादेशौ । तस्मादित्यर्थ, प्रा० तदुत्पत्तिनिबन्धन नुतमर्थमाभित्योह तनिशीन विरुष्यते । यदि १पाद।
तद्धितोत्पत्तिहेतुरोऽस्ति, तर्हि तद्धितोऽपि कस्मात्रोत्पद्यत दिअचय-देशी-नृत्ये, दे० ना०५वर्ग-गाथा।
इति चेन,लोके इस्थमेव रूढत्वादिति धूमःमधवा-शस्मादे. दिग्रस- देशी-अनुदिवसे, देना०५ वर्गगाथा। पाऽऽयमुनिप्रणीतसूत्रशापकादेवं जानीयास्तस्तिप्रत्यय पचाहिमसिन-देशी- अनुदिवसे, दे० ना०५ वर्ग गाथा। मा केचित्पत्तिपत्राच्या इति । वहिप्रह-देशी अनुदिवसे. ३० ना०५ वर्ग ८ गाथा।
मथ शिल्पतस्तिनामोच्यतेवदेस--तद्देश-पुंगतस्य देशस्तद्देश। उदाहरणदेशे, दशरमा
से किं तं सिप्पणामे । सिप्पणामे प्रणेगविहे दोस--तदोष-पुं० । तस्योदाहरणस्यैव दोषो यस्मिन् तत्तदो- पमचे । तं जहा-पत्थिए, तंतिए, तुषणाए, तंतुपः। उदाहरणदोषे, दश.१०।
| वाए, पट्टकारे, उपट्टे, वरुडे, मुंजकारे, कटुकारे, उत्त
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(२१०५) तद्धियए अभिधानराजेन्द्रः ।
तपोरिह कारे, भकारे, पोत्यकारे, चित्तकारे, दंतकारे, लेप्पकारे ।। ते । तं जहा-अरिहंतमाया, चकट्टिमाया, बसदेवमाया, सेत्तं सिप्पनामे ।
वासुदेवमाया, रायमाया, मुणिमाया, वायगमाया । सेचं वस्त्रं शिल्पमस्येति चारिखकः, तन्त्रीवादनं शिल्पमस्येति ता.
भवचनामे। त्रिकः। “तुनाप तंतुवाए" इत्यादि प्रतीतम् । प्राक्षेपपरिहारौ (तिस्थयरमाया इत्यादि) तीर्थकरोऽपत्यं यस्याः सा तीर्थक. तूतावेव । यदिह पूर्व चक्रभिद् वाचनाविशेषे प्रतीतं नाम :- | रमाता । एवमन्यत्रापि सुप्रसिझेनाऽप्रसि विशिष्यते । अतः श्यते, तदेशान्तरकदितोऽवसेयम्।
तीर्थकराऽऽदिनिर्मातरो विशेषिताः। तद्धितनामत्वभावना त. अथ श्लाघातद्धितनामोच्यते
थैव । गतं तद्धितनाम । भनु । से किं तं मिलोभणामे । सिसोप्रणामे प्रणेगविहे पापत्ते। तधियय-तचितज-न० । तस्यिए' इतिशब्दार्थे, अनु० । सं जहा-समणे, माहणे, सव्वातिही । सेत्तं सिलोगणामे ।
| तछन-दृपा-प्रव्य । “नत्यूनौष्टः"॥८॥४॥ ३१३ ॥ इति (समणे इत्यादि ) श्रमणाऽधीनि नामानि साध्याऽथेषु सा. वास्थाने द्धन इत्यादेशः।"ऋतोऽ" :२६॥ऋदतो दोस्तः धादिषु कढान्यतोऽम्मादेव सूत्रनिवन्धनात् क्लाध्यार्थास्ताद्ध- दस्य तः। प्रा.४पाद । विलोक्येत्यर्थे, वाच०। साः, तदुत्पत्तिहेतुनूतमर्थमा वाऽत्रापि प्रतिपत्तव्यम् ।
व्यम् । तपागच्च-तपागच्च-पुं० । घोरतपःकारित्वेन तपाविरुदप्रा. संयोगतकितनाम
ताजगचन्छसूरेः प्रतिष्ठिते गच्छे,तपा इतिशयस्ततार्थको देशीसे किं तं संजोगनामे । संजोगनामे अणेगविहे परमत्ते। तं प्रसिकः। यथा तत्काले विरुदतया प्राप्तस्तथैव सर्वैरेव विद्वद्भिजहा-रणो ससुरए,रको जमाउए, रखो साले,रमो दुते,रणो व्यंचहियते । केचित्तु तपोगच्च इति शुरूसंस्कृतमपि व्यवहरन्ति। जगिणीचई । सेत्तं संजोगनामे ।
जै.इ०। राज्ञः श्वशुर इत्यादि । अत्र संबन्धरूपः संयोगो गम्यते। तपोरिह-तपोऽई-न० । प्रायश्चित्तभेदे, जीता। अत्रावि चास्मादेच कापकात्तचिननामता,चित्रं च पूर्वगतं श. साम्प्रतं भावाऽऽदिविषयं तपोऽहै प्रायश्चित्तमाहमप्राभृत अप्रत्यक्षं च, अतः कथमिद भावनास्वरूपमस्माह- हट्टगिलाणा नाव-म्मि दिज हस्सन न गिनाएस्स । शैः सम्यगवगम्यते। समीपतस्तिनाम
जावइयं वा विसहर, तं दिज सहिज वा कालं ॥६॥ से कितं समीवणामे।समीवणामे प्रणेगविहे पत्ते ।। भावे भावतः, कश्चिदालोचनाग्राहीहष्टो नीरोगः समर्थः।क. जहा-गिरिसजीवे णगरं गिरिणगरं, विदिसिसमीचे एगरं
श्चिद ग्लानो रोगी शक्तिविकत इत्येतद्विचार्य (दिज हट्टम्स नउ
गिलाणस्स) तुशब्दस्य विशेषणार्थत्वात् दृष्टस्य जीतोक्तादविदिसिणगरं,वेनायसमीवे णगरं बनायणगरं,णगरायसमीवे
धिकमपि दद्यातू, तानस्य तु न दद्यात्, जीतोक्तादनं वा दद्यानगरं गगरायणगरं । सेत्तं समीवणामे।
त् । यावन्मात्रं वा विषढ़ते कर्तुं शक्नोति,तत्प्रायश्चित्तं तावन्मात्र गिरिसमीपे नगरं गिरिनगरम् । अत्र "अदरमवश्व "॥४॥ दद्यात् ,कावं वा सहेत-यावता प्रगुणो भवति तावत्प्रतीक्ष्य रो२।७.॥ (पाणि.) इति भए न जबति, गिरिनगरमित्येष
गनिवृत्तौ समर्थस्य दद्यादित्यर्थः । उक्तो नावः ॥ ६॥ प्रतीतत्वात विदिशाया भदूरजयनगर वैदिशम् । अत्र तु "भदर
संप्रति सप्रपञ्च पुरुषद्वारमाहप्रवश्व"॥VI२।७०इति (पाणि) अण् भवत्येच, इत्थं
परिसा गीयाणीया, महासहा तह सढाउसढा केह। बढत्वादिति ।
परिणामाऽपरिणामा, अश्परिणामाइ वत्थूणं ॥६४।। संबूथतरितनाम
इहाऽऽलोचनाग्राहिणः पुरुषाःकिस्वरूपाः?,शति प्रथममेवा. से किं तं संजूहनामे ?। संजूहनामे प्रणेगबिहे पत्ते । तं
चार्यविनायर्याः, ततस्तदपेक्कया प्रायश्चित्तं दातव्यम्, तेच बहुमहा-तरंगवश्कारे, मलयवइकारे, अत्ताणसडिकारे, बिंदु-1 মা: নয়থা-গীনায় মাঘসানাখালিয়াখাकारे। सेचं संजूहनामे।
श्रुताः। तदितरे स्वगीता अगीतार्थाः । सहाः सर्वप्रकारैः सम(तरंगवश्कारे इत्यादि) तद्धितनामता चेहोत्तरत्र च पू.
ः, असहा असमर्थाः। तथा केचित-शामायाचिनः, अशठा: बंबद्भावनीया।
सरमात्मानः, परिणामका अपरिणामका अतिपरिणामकाथ ऐश्वर्यतद्धितनाम
वस्तुषसर्गापवादरूपेषु विषये। पते च परिणामकाऽऽदयस्खयोसे कि त ईसरिमनामे। ईसरिअनामे अणेगविहे पामते ।।
ऽपि पूर्वमरे"याश्मसदहभो।" इति गाथाया विवरणे व्या
स्याताः, भतो नात्र पुनः प्रतन्यन्त इति ॥६६॥ तं जहा-ईसरे, तसवरे, मडबिए, कोदुविए, इन्भे, सेट्टी, | तह धिइसंघयणोजय-संपमा तभएण हीणा य। सत्यवाहे, सेणाई । सेतं ईसरिअनामे।
भायपराजयनोभय-तरगा तह अएणतरगा य ॥७॥ (रासरे इत्यादि )ह राजाऽऽदिशन्न निबन्धनमैश्वयंप्रे
तथा धृतिसंहननोभयसंपन्नाः, तदुभयेम हीनाश्च । इह नङ्गब गन्तव्यं, राजेश्वराऽऽदिशब्दार्थसिवहेव पूर्व प्यास्यात एव ।
चतुष्टयं संभवति-तत्र धृत्या संपन्नाश्त्यका संहननेन संपन्ना प्रपत्यतद्धितनाम
शति द्वितीयः। उभयेन धृतिसंहननाऽऽख्यने संपन्ना इति तृतीयः। से किं सं अवच्चनामे । भवचनामे अणेगविहे पम- तनुभयेन हीनाश्चेति चतुर्थः । तया-आत्मपरोभयानुभयतरका
५४७
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तपोरिह
इति
इति भाचिनुतः परोपकारे भैयावृत्तयोरपि समर्थ परं तन यावृत्यं, ते श्रात्मतरकाः, (स्वार्थेऽत्र कः प्रत्ययः) न परतरका इत्याङ्गः तु वैत्यमेव कुर्वन्ति न तपते तरकार नात्मतरका इति द्वितीयः । ये तूभयमपि कुर्वन्ति, ते तु उभयतरकाइति तृतीया पिये ते चतुर्थः तथाः ये तपोयो परदेकमेव कर्तृ नोनकरणमा इत्यर्थः॥७०॥ कपडियादओ विय, चउरो जे चेयरा समक्खाया । सावेक्वेवर जेवा-दओ य ने ताल पुरिसाण ॥ ७१ ॥ कल्पः सततासेवनीयः समाचारः ।
स चायं दशधा
(२१५६ ) अभिधानराजेन्द्र
किरक
"देसावर जेमिणे, मासे पोसवणरूप ॥६॥ पञ्चा १७ विव० )
अस्या व्याख्या न विद्यते चेतं वस्त्रं यस्याऽसावचेलकः, तस्य भाग झालयं सवेलवे चायम बेलपदेशः । तथा चान्यत्रापि दृश्यते"जो बहुतो विसयिकडिल्लो जन्नइ नरो अलो, तह मुए श्री संतवेला चि ॥ २६०० ॥ तद थोब जुन्नकुच्छ्रिय- चेलेहि त्रि भन्नए अचेलु चि जय मे पसिना २६०१ (विशे०) उद्देशेन साधुकल्पेन वृत्तमीदेशिकम् आधाका बसत्या तरति भवाम्भोधिमिति शय्यातरः राजा नृ., तयोः पिएमो भक्ताऽऽदिरूपः- शय्यातरपिएमो, राजपिएकस्य । saौदेशिकाऽऽदीनां त्रयाणामपि परिहारोऽवसेयः । कृतिकर्मष्ठामेण चन्दनम् प्रतानि पञ्च महान पेक्षिताया अपिलाच्या अद्यतनदीतोऽपि
धुरीयान् । प्रतिक्रमणं प्रतीतम, मासः मासकल्पः, परि सायनमेकत्र निवासी निरुविशाणा इति
पतस्मिन् दशविधे कल्पे स्थिताः कल्पस्थिताः प्रथमबरमजिनाच ते आता येषां नेपाः। कल्पः परमकृतयोगितमाणः क्य तत्र कथिताः कथिता व परिणताः परिपरिक जीवन प्रभारिये ते कृतयोगिनः चतुर्थ षष्ठाष्टमाऽऽदितपोभिः परिकर्मितशरीराः "तरमाण त्ति" । " शके काय तर तीर पाराः " ८४ ८६ ॥ इत्यनेन प्राकृतलक्षणसूत्रेण शकधातोः तराऽदेशे ते शक्नुवानाः शक्तिल कुर्वाणा इत्यर्थः । ये एते चत्वारः सप्रतिपक्काः समाख्याताः क चिताः कथितादिश्य तरे अकल्यस्थतापरिकृतयोग्य तरमा अकल्पस्थिता मध्यमद्वाविंशतिजनाव महाविदेहजाश्र, पते हि दशविधस्थित कल्पमध्यात् शय्यातरपिमादातुमपुरुष उये कृति कर्म करणाऽश्वेषु चतुर्षु स्थिताः, शेषेसु षट्सु पुनरस्थिताः । ते ह्येतानि षट् स्थानानि गु. वाग्यमाच्य काकानिचित् कुर्वन्ति वा न वेति स्तुपरिणताविपरीता (सावेयरनेवा
1
जे जे पायो
द्विविधाखनिरपेक्षजनका
-
तपोरिह
कादयः । (ताण पुरिसाणं ) इत्यप्रेतनगाथायां सम्बध्यते । सा चेयं गाथा
जो जह सत्तो बहुतर- गुणो व तस्साहियं पि दिज्जाहि । दीपारस हीणतरगं हासिज्ज व सम्बहीणस्स ॥ ७२ ॥ तेषां पुरुषाणां कपस्थितीसापेनिरपेदानां प्रा गाथाद्वयोगीतार्थाऽऽदीनां च मध्याद् यो यथा शक्तः तपः क कम, बहुतरगुणी वा धृतिसंहननसंपत्रः परिणतः कृतयोगी आत्मपरतरी वा भवेत् तस्याधिकमपि जीवोकातिरिकमपि दद्यात् । हीनस्य धृतिसंहननाऽऽदिरहितस्य दीनतरं जीतोकाद परंतु सर्वेनिस्य सामस्वनामस्य सर्वत णात हासयेत्, न किमपि तस्य दद्यात् मिथ्या दुष्कृतेनैव तस्य शुद्धिरादेदयेत्यर्थः ।
पुनः पुरुषविशेषानेवाऽऽहइथं बहुतरा, भिक्खु अकराणभिगवा य जंग जीयमम-भणं तं निब्बिगाई ॥ ७३ ॥
अब पुनर्बहुत बहुदा बचावाच्यायकृत करता रायाः भिसाइत करणास्तपोभिरपरिकर्मित शरीरा अननिगताश्रागताः। चशब्दादरा व सर्वेषां यथा सूक्ष्मवादरातिचारादिना यज्जीतं जीतदानवनिर्विकृत्याचमभकान्तं शेयमिति शेषयामि त्यः । इदं चात्र गाथान्ते यन्त्रकस्य पञ्चम्या दीर्घपतेः पश्चि मनुष्य तो तम्पतषिय तपोविशेषः सयके ण स्पष्ट भवति । ततस्तस्यायं लेखनविधिः कथ्यते इह दीर्घेण पङ्किरचनायां त्रयोदश गृहाणि स्थाप्यन्ते । पृथुत्वेन वाच्यपकौ पञ्चदश गृहाणि । द्वितीयतृतीय पङ्क्त्योश्चतुर्दश, चतुर्थपञ्चमपत्योपयोरे
त्रयोदश
कादश दशमेश णीति। अत्र चाऽद्यायाः पृरुपरि निरपेक्षः स्थास्यते द्वितीया या आचार्यः कृतकरण नीयाया श्राचार्योऽकृतकरणः चतुषी उपाध्यायः कृतकरणः, पञ्चम्या उपाध्यायोऽकृत करणः, षष्ठया गीतार्थः स्थिरः कृतकरणो निक्षुः, सप्तम्या गीतार्थः स्थिरोऽक्क तकरणो भिक्षुः, अष्टम्या गीतार्थोऽस्थिरः कृतकरणो नितुः, नवया गीताथस्थिरोहतकरणो मितीतार्थः विरा कृतकरणः, एकादश्या श्रगीतार्थः स्थिरोऽकृतकरणः, द्वादश्या अगीतार्थोऽस्थिरः कृतकरण यो परिभा रोऽकृतकरणो भिक्षुरिति स्थापयित्वा पृथुत्वेन प्रथमायां पङ्की निरपेकस्याओं येशू स्थाप्यम्पतस्तयो: पाक्षिकान वस्थाप्येन भवतः । ते च जिनकल्पिकस्य न सम्भवतः, तस्यु हि स्वावेनैव प्रथ तयोः शून्ययोरथस्त्रयोदशसु गृहेषु लच्छेत्र गुरु घुगुरु चतु घुमा गुरुमाललघुभिन्नमःसर्विशतिकपञ्चदशकपश्च कानि स्थायी यायां पङ्कौ पाराचिकाऽऽदीनि दशकान्तानि, तृतीयायामनवस्थाप्यादीनि पञ्चकान्तानि चतुर्थ्यामनवस्थाप्याऽऽदीनि दशकान्तानि अम्मीन दशकान्तानि नवम्
गुर्वादीनि पञ्चकान्तानि, दशम्यां षम्गुर्वादीनि दशकाम्लानि, एकादश्यां पलानि पञ्चकान्तानि द्वादश्यां चम्लप्यादीनि दशकान्तानि प्रयोदश्यां चतुर्मुर्यादानि पञ्चकास्वानि स्थाप्यन्ते ।
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॥ एतेन पुरुषविभागेन श्रुतव्यवहारतो जीतकरूपयन्त्रम् । “इत्थं पुण” (७३) गाथा ॥
भाचार्यः निरपेकः कृतकरणः
तपोरिह
आचार्योsकृतकरणः
उपाध्यायः कृतकरणः
उपाध्यायोऽकृतकरण:
| गीतार्थः । गीतार्थः गीतार्थोंगीतार्थोंs-| भगांतार्थः श्रगीतार्थः|अगीतार्थों| अगीताथों
स्थिरः स्थिरोकृ-स्थिरः कृ-स्थिरोऽकृ. स्थिरः कृ-स्थिरोक-ऽस्थिरः |ऽस्थिरोऽकृतकरणो| तकरणो |तकरणा तकरणो । तकरणो | तकरणो कृतकरणो | कृतकरणो भिक्षुः | जितुः । निक्षुः | भिक्षुः | भिकुः | भिक्षुः | जिक्षुः | जिक्कु
पाराश्चिक
अनवस्थाप्य
अनवस्थाप्य
मूल
मूत्र |
छेद
।
छेद
६
४
अनवम्थाप्य
मूल
मूल
छेद
|
छेद
३| मून
छेद
छेद
४]
छेद ।
केद
२५
** IIm
22
अन्निधानराजेन्छः।
(२१०७)
२५
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२५
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तपोरिह
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(२१ ) तपोरिह प्रन्निधानराजेन्डः।
तप्पडिबद्ध प्रत्रै जावना--यत्राऽपराधे कृतकरणाऽऽचार्यस्य पारा
थवा-तदुभयं पालोचनामिच्याइतोनयरू प्रायश्चित्तं विनि. शिके, तवापराधे प्रकृतकरणाचार्यादीनां दीर्घपति- दिघम। क्रमेणानवस्थाप्याऽदीनि प्रायश्चित्तानि भवन्ति । तथा यत्रा.
इदं चोक्तस्वरू प्रायश्चित्तं परिणामानुरूपे. पराधे कृाकरणावार्थस्याऽनवस्थाप्य,तत्रैवाऽपराधे शेषाणां
जैव दद्यादित्याहसक्षेत्र कमेण प्रायश्चित्तानीत्येवं सर्वदधिपतिषु नायना कार्या। उक सप्रपथं पुरुषधारम।
श्रामायणकामम्मि वि, संकेसबिमोहिमावओ ना। सम्प्रति सेवनामाह
होणं वा अहियं वा, तम्मेत्तं वा वि दिजाहि ॥७॥ प्राउट्टियाइ दुप्प--मायकप्पेहि वा निसेविजा। श्राझोचनाकानेऽपि कमप्यपराधविशेष यः सर्वथा न प्रकादलं खित्वं कालं, भावं चाऽऽसेवए पुरिसो ॥७॥
शयति कथयति, कथयन्नप्यई कथितं या करोति,स संक्लिपु
परिणाम इति ज्ञात्वा तस्याधिकमपि दद्यात्, यः पुनः संवेगममाकुष्टिकया- उपत्य सावधकरणोत्साहाऽऽस्मिकया, दर्पप्रमाद- पगतो निन्दागहोऽदिभिर्विशुरूपरिणामः, तस्य हनिमपिदद्यात, कला,दों धावन हेपनवल्गनाइदिकः हास्यजनकवनाऽऽदि. यःपुनध्यस्थपरिणामः, तस्य तन्मात्रमेव दद्यात् ।
दर्परूपोत्राप्रमादोरात्री चाप्रनिलेखनाप्रमार्जनाऽऽद्यनुपयुक्तता, कल्पः करणे दर्शनाऽऽदिचतुर्विशतिरूपे सति गीतार्थस्य कृ.
| ওমবার্থ যাইतयोगिन उपयुक्तस्य यतनयाऽऽधाकमांजधानरूपः, तेरेतेश्चतुभिः इय दवाई बहुए, गुरुसेवाए य बहुतरं दिज्जा। प्रतिमेवनारूपैरासेवकः पुरुषो निषेवेत प्रतिसेवेत, द्रव्यमाहारा- हीणतरे हीणतरं, हीणतरे वा वि जोमु ति ॥७॥ दिकं किञ्चिदशुरुमध्याइदीततेत्र निममम्बाऽऽदिकं स्तोकलो.
इत्यमुना प्रकारेण अन्याऽऽदौ द्रव्यत्रकासनावाऽऽस्ये प्रतिसबिते काभयंसायोजनद्वयं यावदविद्यमानवसतिप्रदेशं यत्र सम्पू.
बहुगुणिते प्रचुरदोषयस्येन सर्वथा वा विपरीतलकणया या र्णा जिक्का न सभ्यते,कालो दुभकाऽऽदियंत्र सर्पयाऽHISऽदिन प्रा.
बहुदोभे गुरुसेवायां गुरुतरायां प्रतिसेवायां कृतायां बहुतरं प्राप्यते, प्रतिमेवेत अपमाशयः साधुना महति के काझेच गत्वा
यश्चित्तं दद्यात् । दीनतरेऽपदोघे द्रव्याऽऽदिके प्रतिसबिते स्पेयम्,आकुहिकाऽऽदिभि सर्वग्निमाम्याऽऽदिक क्षेत्र दुष्काळ
हीनतरमल्पतरं वा प्रायश्चित्तं दद्यात् । ततोऽपि हीनतरे च प्रतिसेवमानः संयमाऽऽन्मधिराधने प्राप्नुयात्। भावं वहष्टना
हीनतराद हीनतरं यावत् सर्वहीने इत्यल्प दोषे द्रव्याऽऽदो म. मस्याऽऽदिकं प्रनिसवेत, माकुट्टिकादिनिरहितानावधाऽऽदिक
स्यल्पीयस्यां सेवायाम । (मेसु ति) केपणात् हासः कार्यः, भुक्वा ग्लानत्वाऽऽदिक नाबमुत्पाद येदित्यर्थः। नक्ताः स्वरूपतः
सर्वस्तोकं तपो देयमित्यर्थः। प्रतिसेवनाः । तासां प्रायश्चित्तमाह
कुत्रापि च सर्वयाऽपि हासः क्रियते,शति प्रतिपाद
यत्राहनं जीयदाणमुत्तं, एवं सन्नं पमायसहियस्स।
कोसिजइ सुबह पि हु, जीएणंऽनं तवारिहं वाओ। इत्तु चिय गणंतर--मेगं हित्तु दप्परो ।। ७५॥
वेयावच्चगरस्स उ, दिज साणुग्गहतरं वा ॥ ७ ॥ बजीतदानं जीतन्यवहारे तपोदानमुक्तम्, एतत्सर्व प्रायः प्रमादसहितस्य, प्रमादप्रतिसेवना प्राग्गाथाविवरणव्याख्यात
इह जीतेनायक गुरुनिर्वितीर्ण परामासाऽऽदिकं तपो वहतः ग्याऽऽदिसेवना भणिना। इत एवं प्रमादप्रतिसेवकप्रायश्चित्ता.
पञ्चकेप्यपि दिवसेषु गतेष्वन्यश्चातुमासिकं पापमासिकं बात. देक स्थानान्तरं वयेद् दर्पवतः । अयमर्थः-प्रमादप्रतिसेवनया
पोहे व समापनं, ततस्तत् किप्यते सुबहुकमपि हास्यते, निनमासलघुमासगुरुमासचतुलंघुवतुर्गुरुवल घुषगुरूणामा.
सर्वथाऽपि तत्तस्य न दीयते इत्यर्थः । वैयावृत्यकरस्य च सापसी निर्विकृतिकपुरिमा कासनाचामाम्ल चतुर्थषष्ठाऽऽख्य
नुग्रहतरं या दीयते। कोऽधः-यावन्मात्र तपश्तप्यमानः स चैयातपो दीयते, दर्पप्रतिसेवाकारिणस्तु मिन्नमासाऽऽदीनामापत्ती वृत्यं कर्तुं शक्नोति, तस्य तावन्मात्रमेव तपो दीयतेनाधिकम् । सस्यां स्थानान्तरवृद्धिः कार्या, निर्विकृतिक मुक्त्वा परिमार्गएष सप्रपश्चस्तपोऽप्रायश्चित्तविधिः। जीत०। दीनि दशमान्तानि तपांसि देयानीति ॥
तप-तप-पुं०। नदीप्रवाहेण प्लाग्यमाने दादानीयमाने काष्ठप्राउट्टियाइ गएं-तरं व सहाणमेव वा दिजा। समुदाय, भा.म.१०१ नए । प्रका० । उहुपके, ज.११ फप्पेण पमिकमणं, तभयमहवा विणि दिड ।। ७६ ॥
श.१०१०। विशे० । नं.। मा० चू०। प्राकृद्धिसाप्रतिसवायां साधोः स्थानान्तरं वा दद्यात्, दर्प•|
.. तप्पक्खिय-तत्पातिक-त्रि० । तेषां विवक्षितानां संविग्नानां प्रतिसेवाकारिणः सकाशात् स्थानवृदयादिकं तपःस्थान वित.
पकस्तस्पकः, तत्र भवस्तरपातिकः । व्य. १ उ० । तस्य रेत, दासविनो दिजिनमासाऽऽद्यापत्तौ पुरिमाऽऽदीनि द.
प्रयोजनेषु सहाये, भ. ३२०७०। शमान्तानि दीयन्ते । अस्य कासनाऽऽदीनि द्वादशान्तानि देतप्पज-तात्पर्य-न० । तस्परस्य भावः, प्यम् । वक्तुरिछायाम्, यागि। स्वस्थानमेव वा दद्यात्। इहाऽऽपत्तिरूपं प्रायश्चिनं स्वस्था- | अभिप्राये, तत्परतायांचा प्राचा०१७०३ भ०१ उ०। ममुच्यते,यथाऽऽकुट्टिकया पञ्चेनिध्ययधे मूवम,अन्य चापि चा परिमाण-तत्पतिपक-पुं० तद्विरुयथा-परिणतप्रतिपक्का कुष्टिकया यत्रापराधे यद्भिन्नमासादिकभुक्तं, तत्तत्र स्वस्थान,
अपरिणताः । नि०यू०१.3.। तदेवाऽऽकट्टिकाप्रतिसेविनां दद्यादित्यर्थः। कल्पेन कल्पप्रतिसेवा नया प्रतिलेवितो प्रतिक्रमणं मिथ्याऽस्कृतं प्रायश्चित्तम.तप्पमिवरू-तत्पतिवा-त्रि.तिदभाविनि, पो०१विधा।
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(१७) तप्पडिरूवगववहार प्राभिधानराजन्ः।
तमतमप्पभा तप्पमिरूवगववहार--तत्प्रतिरूपकव्यवहार--पुं० । तेन प्रतिरूप. वानन्तरं देवेष्वेवोत्पादः, तथा सुरगणांश्च सुरनिकायान् । किमु. के सरशं तत्प्रतिरूपक, तस्य विविधमवहरणं व्यवहारः प्रके
क्तं नवति?-चतुर्निकाववर्तिनोऽपि देवान्,निरयो नरकः, तस्मिन् पः तत्प्रतिरूपकन्यवहारो यद्यत्र घटते ब्रीहिताऽऽदिषु पल
भवा नैरयिकाः । इहाऽपि चशब्दानुवृत्तम्तांश्च, मुक्त्वति संब. जीवशाऽऽदेः प्रकेपे, तत्प्रतिरूपण बशाऽऽदिना व्यवहरणे त.
न्धः। तेषां देवानां च तद्भवानन्तरं तिर्यमनुष्येष्वेवोत्पत्तेः। शेषा. प्रतिरूपकव्यवहारः । स्थूवादत्ताऽऽदानविरतेश्चतुर्थेऽतिचारे, णामेतद्वारितानां कम्मन्नूमिजनरतिरश्चां,जीवानांप्राणिनां तक धा०। पश्चा० ध०। भाव० ।
वमरणं, तेषामेष पुनस्तत्रोत्पत्तेस्तकि यस्मिन् नवे वसते जन्तुतप्पढमया-तत्पथमता-स्त्री०। तेषां विवक्षितानाम् (भ०ए०
स्तद्भवयोग्यमेवाऽऽयुबद्धा पुनस्तस्कयेण नियमाणस्य भवति,
तुशब्दस्तेषामपि संख्येयवर्षाऽऽयुषामेवेति विशेषव्यापकः, ३३ उ०) अणुवताऽऽदीनां प्रथमं तत्प्रथम, तद्भाबस्तत्प्रथम
असंख्येयवर्षाऽऽयुषां हि युगत्रधार्मिकत्वादकर्मभूमिजानामित्र ता। तस्याम्, उत्त०१०। प्रथमे कल्पे, कल्प० २ कण।
देवेष्वेव उत्पादः, तेषामपि न सर्वेषां, किं तु केषाश्चिद् तद्भवो. सप्पण-तर्पण-न० । उपकरणे, स० ३० सम• । शक्ती,
त्पादानुरूपमेवाऽऽयुःकर्मापचिन्वतामिति गाथार्थः । प्रश्र० ५ सम्बद्वार । स्नेहाऽऽदो शरीरबृंहणे, विपा. १७०१
मोत्तूण ओहिमरणं, आवी वीआइअं तु तं चेव । अ0 + स्नेहव्यविशेषैर्वृहणे, हा०१ श्रु० १३ अ०।
सेसा मरणा सव्वे, तब्भवमरणे य णायचे ॥ १६ ॥ तप्पणालोमिय-तर्पणाऽऽलोमित-न । सवालोमने, जला. ऽऽद्याबोमितसक्ती, स्था०४ ठा०३ उ० ।
मत्रान्तरे प्रत्यन्तरेषु (मोत्तूण मोहिमरणं ) इत्यादि माथा तप्पमास-सपमाण-त्रिका क्षरति, सूत्र०१ श्रु०५०१ २०स०।
दृश्यते, न चास्या भावार्थः सम्यगवबुध्यते, नापि चूर्णीकृता
ऽसौ व्याख्याता। उत्त० पाई० ५ अ०। तप्पर-तत्पर-त्रि० । तद्रूपतया वर्तमानेऽन्यस्मिन्, यथा परमाणोरपरः परमाणुः । प्राचा० २७०२चू०६अ। आसक्त,
तब्भारिय-तजार्य-त्रि० । तस्य सोमस्य भार्या श्च भार्या मप्राचा०११०१०७उ०।
त्यन्तवश्यत्वात्पोषणीयत्वाति तद्भार्यः।दासे,ज०३।०७ उ. तप्पागारसंठिय-तप्राकारसंस्थित-त्रि०। अधोमुखसरावा55-1 तज्ञारिक-वि.। तारो येषां चोदव्यतयाऽस्ति तेतद्भारिकाः। कारसंस्थिते, भ० ११ श० १.१०। प्रा० चू.।
दासे, भ० ३ श०७ उ०। तपुरक्खार-तत्पुरस्कार-पुं० । तस्याऽऽचार्यस्य पुरस्करणं पुः तम्नावणानाविय-तनावनाभावित-त्रि.। तस्याऽऽवश्यकस्य रस्कारः। सर्वकार्येध्वग्रतः स्थापने, प्राचा०१० । अ०४ उ0) | भावना अव्यवच्छिन्नपूर्वपूर्वतरसंस्कारस्य तदनुष्ठानरूपतया तमाचार्य सर्वकार्येष पुरस्करोतीति तत्परस्कारः । प्राचार्या | जावितः। साढभावम परिणताऽऽवश्यकानुष्ठानपरिणामे,अनु। नुमत्या क्रियाऽनुष्ठायिनि, त्रि०। प्राचा० १ श्रु०५ अ०६ उ०।। विपा० । ग०। तप्परिस-तत्पुरुष-पुं० द्वितीयाऽऽदिविभक्त्यन्तपदानां स्वनाम. | तन्तुम-तोम-वि०। तस्यामेव भूमौ भवस्तौमः । तमिल स्याते समासे,वथा तीर्थे काक इवाऽऽस्ते तीर्थकाकः। "ध्वात. । वास्तव्यसोकपरिचित वृ०१०। मातेपे ॥२॥१॥४२॥ इति (पाणि) सप्तमीतत्पुरुषः। अनुतम-पुण-तम-न। तमयति खेदयति जनलोचनानीति त
से किं तं तप्पुरिसे । तप्पुरिसे अणेगविहे पएणत्ते । तं | मः। औणाऽऽदिको सुन् । उत्त०१ अ0"स्नमदामशिरोऽनभः" जहा-तित्थे कागो तित्यकागो, वणे इत्थी वणहत्थी,
।।१।३२ ॥ इति प्राकृते पुंस्त्वम । प्रा० १ पाद । अन्धका
रे, औका श्राचा। कृष्ण चतुर्दश्यां रजन्यां वा तेजोषव्याभावे, त्रणे वराहो वणवराहो, वणे महिसो वणमहिसो, वणे म- |
वृ०१ उ०। निचूला मोहे, श्रो। अज्ञाने, ध.२अधि. 1 स्था। यो वणमयूरो । सेत्तं तप्पुरिसे ॥
मिथ्याज्ञाने, स्था०४४ा०२० । बरूस्पृष्टनिधत्ते ज्ञानाऽऽवरणीये तीर्थे काक वाऽऽस्ते तार्यकाकः । "ध्वालेणाक्षे"॥११॥ निकाचिते, आव.५ अ । अप्कायपरिणामस्वरूपेऽन्धका४॥ ति ( पाणि०) सप्तमीतत्पुरुषः । शेषं स्पष्टम् । अनु । रे, स्था०४ ठा०२० तमिस्र, साात्मनो वैरपीडाऽऽदी। सन्जत्तिय-तद्भक्तिक-त्रि० । तत्र भक्तिः सेवा बहुमानो वा
प्रव० ७२ द्वार । द्रव्याभावरूपान्धकारे, षो० १५ विव.। येषां ते तद्भक्तिकाः । तत्सेवके, भ.५श०७ उ० ।
सम्म० । शोके.देना०५ वर्ग १गाथा । तम्भवमरण-तवमरण-न। तस्मै भवाय मनुष्याऽऽसतो म- | तमण-देशी-धुद्धौ, दे ना०५ वर्ग २ गाथा। नुध्याऽऽदावेष बद्धाऽऽयुषो यन्मरणं तत तवमरणम । दंतमतम-तमस्तम-पु० । तमस्तमा सप्तमनरकपृथ्वी, तस्यामुत्पन्ना चनरतिरश्चामेव नवति । बालमरणनेदे, भ०११श०१ उ० । नारका अपि तमस्तमाः, उपचारात् । यद्वा-तमस्तमा विद्यते स.। स्था। प्रव०।।
येषां ते तमस्तमाः। "अम्राऽऽदिभ्यः" ॥७।२।४६॥ इत्यप्र. तत्स्वरूपम्
त्ययः । सप्तमनरकपृथिवीनारकेषु, कर्म० ५ कर्म । मोत्तुं अकम्मभूमग-एरतिरिए सुरगणे य रइए। तमतमग-तमस्तमाग-पुं० । सप्तमपृथ्वीनारके, " तमतमगो असेमाणं जीवाणं, तम्जवमरणं तु कोसं च ॥१५॥
इखिप्पं, संमत्तं लभिय तम्मि बहुगद्धं । मणुयदुगस्सुकोसं, (मोतुं गाहा) मुक्वा अपहाय, कान् ?,(अकम्मनमगणरति.
सवज्जरिसभस्स बंधते ॥१६०॥" पं० सं०५ द्वार । प्रश्न गिए त्ति) सूत्रत्वादकर्मनूमिजाश्च ते देवकुरुत्तरकर्वादिषत्पन्न- तमतमप्पभा-तमस्तमप्रभा-खी । तमसः प्रभा यस्याः सा । सतया नरतियश्चश्च अकर्मभूमिजन रतिर्यचः, तानू,तेषां हितद्भ-| तमनारकपृथिव्याम, अनु० । प्रका।
kal
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तमतमा
( ११५०) अभिधानराजेन्द्रः ।
समतमा-तमस्तमाश्री० प्रतिशत मस्त पपयोगात
स्तमा । सप्तमनरक पृथिव्याम्, अनु० । स्था० । वमतिमिर-मस्तिमिरन अन्धकारे या रजो धूमधू मिका जयति तदा तमतिमिरं जएयते । वृ० ४ उ० । विज्ञा नमन्दताऽपत्ये, भा० ० ॥ भ० । नि० ० । समतिमिरपल-तस्तिमा
था पृथ्वी कायाssनां तिमिरविज्ञानारूपता, तथा शेषाणां तम स्तिमिरनिमित्तभूतं पटलं तमस्तिमिरपटलम् । ज्ञानाऽऽवरणी याकर्म सङ्घाते, आचू। ज्ञान्तमोऽपरिज्ञानं तस्य हेतुभूतं तिमिरपट समस्तिमिरपटनम् मानाऽपर अ०] [भशमोन पतिमिरं समस्तमितस्य कारण पटलं तमस्तिमिरपटलमा तमोरान तु बद्दल स्तिमितस्य पटलं पर्गः समूहः पुनन्ति समो बद्धं स्पृष्टं निघतं ज्ञानावरणीयं निकाचितं तिमिरं तस्य पदवृतमस्तिमिरपटलम् । ज्ञानावरणीय कर्मसंघाते, आ ० ० या तस्यामेव जय जनमेर्दिनं च भवति, तदा समस्तिमिरपटलमभिधीयते । यथा तत्रैवान्धकारे पुरुषः किञ्चिदपि न पश्यति । अन्धकारसमूदे, वृ०
1
४ उ० ।
तमतिमिरपडलनूय - तमस्तिमिरपटल जूत - त्रि । दर्शनाऽश्वरयोदयाद किञ्चित्पश्यति, नि० चू० । तमतिमिरलो, पार्थ चिंतेति दोहसंसारी | कहाऍ चद्दसिए, राम्रो जास"
11
दव्याभावो य तमं भाति, तम्मि चैत्र रातो जदा रयरेषु भूमिया भवति तदा तमतिमिरं भतिजदा पुणता राती रथादियादि च भवति तदा तमतिमिरपडलं भापति अधकार नाथ पुरसो किचि पासति एवं उदपण तित्रतरतिब्बतमेण पुरिसो तमतिमिरपकलभूतो भष्ठति, भूतशब्दः साक्ष्योपमार्थे ष्टव्यः । श्रवा--तम
तिमिरमेव पर तमतिमिरयम अन्वकारविशेष त्यर्थः । पते उवमा कज्जति, तेण तमतिमिरपमल जूतो, इहापि भूत उपमार्थः यथाऽन्धकारण न कपिलयते एवं पयोदयाच चारित्रगुणः कपिलभ्यते । अद्यापि उद्यधिकारेण यदव्ययवदियस्तःकरणं प भयत सतावे तिमि पदि पुरिसम्स तो प्रथम पश्यतीत्यर्थः । तेण उमा जस्स कजति, सो तमतिमिरपकलभूतो, इहापि उपमार्थे । नि० भूतशब्द चू० १० ब० । समतिमिरपमझवि सण- तमस्तिमिरपटझ विसन-त्रि सोऽदेव तिमिरं तमस्तमिरम् अथवा मोबद स्पृष्टं निघतं ज्ञानावरणीयं, निकाचितं तिमिरं तस्य पटलं वृन्दं तमस्तिमिरपटलं तद्विसपति विनाशयति तम स्तिमिरयमलविध्वं निराकर्तरि व
1
घ० ।
तपपज्जझन - तमः प्रज्वलन - त्रि० । तमोबलेनाऽज्ञानबलेनाऽन्धकारबलेन वा प्रज्वलति दर्पितो भवतीति तमःप्रज्वलनम् । अज्ञानबलेन अन्धकारबलेन वा हप्ते, स्था० ४ ० ३ ० ।
तमिसंघयार
मल तमः पट २० नम्वरणे, न०६०४४०न्धकारसमूहे, उत० ४ ० । समपमनमोहनान्न पच्छिम तपःपट प्रमोदमतिच्छन्नमिमामारमो मोहनीयं व देव जालं मोहजालं, ताभ्यां प्रतिष्ठा श्राच्छादिता ये ते तथा। झाना 35 वरणीयमोहनीय कर्मभ्यामादितेषु, २०६०
४ उ० ।
तमप्पभा-तमःप्रजा - स्त्री० । तमसः प्रजा बाहुल्यं यत्र सा तमःप्रभा । प्र०१७२] द्वार तमोमयां पष्ठां नरकपृथिव्याम, प्रा० १ पद भ० । अनु० । तमप्यवितमःमष्टि-त्रित प्रविष्टतमःप्रविष्टः ।
०६०४४०
तपबल-तमोचन - पुं० । तमोऽज्ञानं बलं सामर्थ्य, यस्य सः, तमोअन्धकारं वा तदेव तत्र वा बलं यस्य स तथा । असदाचारपनि मानिनि रात्र चोराउदो पुरुषजाते, स्था०४०
३ ४०
तमतमोतमरजन पुं० सभी मिश्याानमन्धकारं वा तदेव बलं यत्र । अथवा तमस्युक्तरूपे बले
साम
प्ररज्यते रर्ति करोतीति तमोबनप्ररजनः । तमोबन्नर के पु· रुपजाते, स्था० ४ ० ३ उ० ॥
तपोबलमलञ्जन पुं० [तोष सेनाका प्र ज्जते इति तमोषलप्रलज्जनः । प्रकाशचारिणि पुरुषजाते, स्था•
४० ३ उ० ।
तमरयत्रिदंसणाण - तमोर जोविध्वंसज्ञान न० । तमोरजसी
अज्ञानपात के विध्वंसयति नाशयतीति यत्तत्समोरजोविध्वंसं, ततश च तमोरोविंसज्ञानम् अज्ञानपातकनाशके ज्ञाने, स०५ अङ्ग ।
तमस्सई - तमस्वती - स्त्री० । नमोऽन्धकारमस्यास्तीति तमस्वती । व्य० ५ न० । बहलतमःपटल कलितायां रात्रौ, बृ० १ उ० । तमा-तमा स्त्री० तमोरूपद्रव्ययुक्तत्वात् तमा इति । अनु० ।
6
नरकचियाम स्था०७३o | मन्धकारकत्वेन रात्रितुल्यत्वादधोदिशि, स्था० १० ठा० । प्रश सोभाईसाना चिय, विमला य तमा य बोधव्त्रा ।" विशे० आ०म० । तमाम भ्रामि धा० शिन्। "मेकालिमाडी "
॥ ८ । ४ । ३० ॥ इति भ्रमतेपर्यन्तस्य था ' तमाङ ' इत्यादेशः । 'तमाम' | पक्षे' भमामइ' । भ्रमणे, प्रा० ४ पाद । तमाल-तमान - पुं० | संख्येयजीवके चलयाऽऽख्यवनस्पतिभेदे, श्रचा० १ ० १ ० ५ उ० । प्रज्ञा० भ० भ० रा० । तमाललया तमाललता खी० । सुतालनन्दनामनगर वास्तव्य. स्य तालध्वजनाम्नो राज्ञो भार्यायाम्, दर्श० १ तत्र । पुष्करद्वीपाचे द्वीपे मङ्गलावतीविजये अमर केतु पितृसमरनन्द पालितापुर, दर्श० ३ तव ।
-
तमिसंधयार - तमिस्रान्धकार - पुं० । न० । बहुलतमोऽन्धकारे, यत्रात्माऽपि नोपलभ्यते चकुषा केवलमवधिनाऽपि मन्दं मन्दमुलूका श्वाहि पश्यन्ति । सूत्र• १ ० ५ ० १३० । पिं०
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(२१५१) तमिरस भनिधानराजेन्द्रः।
तमुक्काय समिस्स-तमिस्र--न । अन्धकार, स्था० ४ ग. ३००।
ব্লিাষ্ট কিলবিধবীমা বিল বাঘিনা স্ব ৯
त्येकमसंख्यातयोजनसाम्रा नवन्ति, नवरं केवल मिदमसंख्यासमुक्काय-तमस्काय-पुं०। तमसोऽकायपरिणामस्वरूपस्याम्ध
तयोजनसहस्रारूपं च प्रमाणं विस्तारे प्रवनि वलयाकारानकारस्य कायः प्रबयस्तमस्कायः। अकायपरिणामम्पतमःप्र
द्ध यदली तमस्कायक्रमण विस्तरति, तदानीमिदं प्रमाणमयपये, प्रव. २५५ द्वारा स्था० । तमस्कायस्थ व्यत्वम्
सेयमिति भावः । अस्य च तमस्कायस्य महत्वमित्यमागमजंबुद्दीवान असं-खेज्ज इमा अरुणवरसमुदायो।
विदः प्रनयन्ति-यथा यो देवो महर्डिको यया गत्या तिसपायालीससहस्से, जगईड जलं विलंघे ॥ ४१३॥ निश्चप्पुटिकाभिरेकविंशतिनारान् सकलं जम्बूद्वीपमनुपरिसमसेणीऍ सत्तरम, एकवीसाई जो असयाई । वृत्याऽऽगत,स एव देवः तयैव गया पतिरपिमासैःसंस्थाउल्लसिनो तमरूवो, बलयागारो अबुक्काओ ॥ ४१३॥
तयोजनविस्तारमेव तमस्कार्य व्यतिव्रजेन्नेतरमिति । यदा चक.
हिनदेवः परदेयाः सेवाहेवाकपरस्स्वाहाराऽऽदिभिरपराधमा. तिरिअं वित्थरमाणो, आवरयंतो सुरालयचउकं ।
धणे, तदा बलवदेवभयात्यालास्य देवानामपि रितयाऽऽयि. पंचमकप्पेऽरिष्ठ-म्मि पत्यमे चनदिसिं मिलिओ ।।१३।। भावकत्वेन गमनविघातहेतौ तस्मितमस्काये निलीयत इति। जदीपादसंख्ययतमोयोऽसावरुणवरसमुहातमाश्रिय द्वि. प्रव०२५५ द्वार। चत्वारिंशद योजनसहस्राणि जगत्या जबं विलय, समश्रेपया किमियं जते ! तमुक्काए त्ति पवुच्चइ-किं पुढवितमुक्काए सभभिन्तितया पक/वशत्यधिकानि सप्तदश शतानि यायद्वन
त्ति पवुच्च, श्रानतमुक्काए चि पवुरच? गोयमा ! नो याकारस्तमोरूपो, देवानामपि तत्रोद्योताभायेन महाम्धकारास्यकत्वात् अकाय उद्यसितः। अयमर्थः-एतस्माजम्बूद्वीपा.
पुढवितमुक्काए ति पवुच्चा, आनतमुक्काए ति पञ्चइ । से त्तिर्वगसंख्यातान् बीपसमुत्रान् व्यतिक्रम्यारुणवरनामा द्वीपः
केण्डेणं । गोयमा ! पुढविकारणं अत्यगश्र सुजेए संसमस्ति, तद्वेदिकापर्यम्ता द्विचत्वारिंशयोजनसहनापयरुण. पकासेश, अत्यगइए देसं नो पकसिइ, से तेण्डेणं ।। परं समुझमवगाहाऽत्रान्तरे जलोपरितनत खाद्यमेकर्षिशस्युः
(किमियमित्यादि) (तमुकमाए ति) तमसा तमिम्रपुद्र. तराणि सप्तदशयोजनशतानि यावत्समभिष्याकारतया गत्वा
लानां कायो राशिस्तमस्कायः । स च नियत पवेद स्कपायाऽऽकृतिरकायमयो महाधिकाररूपस्तमस्कायः समुल्ल.
म्धः कश्चिद्विवक्तितः, स २ तारशः पृथ्वीरजःस्कन्धो वा सित शति । अयं तिर्यक विस्तरन् सुराज्ञयचतुम्कं सौधम्मैश:.
स्यादुदकरजःकन्यो या न स्वन्यः, तदन्यम्यातारशस्वादिলালমােনাইঘৗনঅমান্সাচ্চা
ति । पृथिम्यग्विषयसन्दहादाह-(किं पुढवीत्यादि ) व्य. सायद् गतो यावत्पञ्चमे ब्रह्मलोकनामके कल्पे तृतीयेऽरिष्टवि.
कम् । ( पुढविकाए णमित्यादि) पृथ्वीकायोऽस्त्येकः कधिमानप्रस्तरे चतसृष्यपि दिक्षु मिक्षित इति ।
छुभो भास्वरो, यः किंविध इत्याह-देशं विवक्षित क्षेत्र. अथ तमस्कायस्य संस्थानमाह
स्य प्रकाशयति, भास्वरत्वाद् मण्यादिवत्. तथाऽसत्येकः पृथि. हेहा मल्लयमूल-हिडिओ उपरि भसोपं जा । वीकायो देशं पृथिवीकायान्तरं प्रकाश्यमपिन प्रकाशयति, प्र.
जास्वरत्वादन्धोपनवदू, नैवं पुनर कायः,तस्य सर्वस्याप्यप्रका. कुक्कुमपंजरगाऽऽगा-रसंठिो सो तमुक्काभो ॥४२॥
शकतात, ततश्च तमस्कायस्य सबवाप्रकाशकत्थादष्काअधस्तादधोभागेन मनु कमलस्थितिस्थितो-ममुकं सरावं,त.
यपरिणामतैव । भ०६ श०५ उ०।। स्य मुखं बुध्नस्तस्य स्थितिः संस्थान तथा स्थितो व्यवस्थितः,
अत्र न्यायमार्गानुयायिनः सनिरन्ते-ननु पृथिव्यादीनां चतु. शराबबुनाऽऽकार इति जावः। उपरिष्टाय यावत् कुक्कुटपाज
गो सका वर्णयन्तु सन्यताम, तिमिरच्छाययोस्तु व्यतावा. राकारसंस्थिता, स पूर्वक्तिस्वरूपः तमस्कायो भवति,नमसां
चोयुक्तियुक्तिरिकैव, नासामनाव पर हितमश्वगाये गदतां स. तमित्रपुमलानां कायो राशिस्वमस्काय इति । स्थापना
चाये। तथाहि-शशधरदिनकरफरनिकरनिरन्तरप्रसारासंभवे प्रथाऽस्य तमस्कायस्य विष्कम्भं परिधि च प्राऽऽह
सर्वतोऽपि मति तम इति प्रतीयते, यदा तु प्रतिनियतप्रदेशसुविहो से विखंभो, संखेजो अत्थि तह असंखेजो। नाऽऽतपत्रादिना प्रतिबद्धस्तेमापुओ यत्र यत्र न संयुज्यते, तदा पढमम्मि य विक्खंभे, संखेजा जोयणसहस्सा ॥१६॥
तत्र तत्रच्चायोक्ति प्रतीयते. प्रतिबन्धकामाचे तु स्वरूपेणाऽऽ लोक. परिही ते असंखा, वीए विक्खनपरिहिनाएहिं ।
समालोक्यत इत्यालोकाभाव एवं तमश्वाये। यदि च-तमो
बन्यं भवत्तदा रूपिव्यसंस्पर्शाव्यभिचारात् स्पर्शच. इंति असंखसहस्सा, नवरमिमं होइ नित्यारो॥४१७॥
व्यस्य च महतः प्रतिघातहेतुत्वात्तरलतरतुगततरङ्गपरम्पद्विविधो प्रिकारः (सेति)तस्य तमस्कायस्य विष्कम्मो रोपेतपारावारावतार श्व, प्रथमजलधरधाराधोरणीधी ताजविस्तरो भवति-संख्यातः, तथा असंख्वातश्च । तत्र प्रथमे वि. नगिरिगरीयःशुङ्गप्रतिवादिनीव, निर्यनिर्करकाकारिवारिदुर्वा. कम्भे प्रादित प्रारज्य ऊर्द्ध संस्येययोजनानि यावत्संख्येययो. रशीकरासारसिव्यमानाऽभिरामाराममहीरुहसमूहप्रतिच्छजनसहनाःप्रमाणतोभवन्ति । परिधी परिक्केपे पुनस्त एव यो. वच प्रवृत्ते तिमिरभरे सञ्चरतः पुंसः प्रतिबन्धः स्याजनसहना असंन्याताः, अधस्तमस्कायस्य संख्यातयोजनवि- स्। भूगोलकस्येव चाऽस्याययवभूतानि स्वराष्टावयविरुण्यास्तृतत्वेऽप्यसंख्यातद्वीपपरिक्षेपतो बृहत्तरत्वात्परिकेपस्यासं. णि प्रतीयेरन्, एवं गयायामपि, इति कथं ते हव्ये जवेताम्। स्यातयोजनसहस्त्रैः प्रमाणत्वमविरुकम् । मान्तरपढिपरिकेप- अत्राभिदध्मदे-तमसस्तावदभावस्वनाचतास्वीकृतिरानुभविकी, विभागस्तु नोक्ता, उन्नयस्याप्यसंस्थातवया तल्पत्वादिति।वथा। भानुमानिकीवा ।म तावदानुभविकी, यतोनावानुभयो
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( २१२ ) अभिधानराजेन्द्रः ।
तमुक्काय
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नावान्तरोपलम्भे सत्येव संभवी कुमाभावोऽग्नयत् न च प्रचुरतरतिमिरनिकरपरिकरितापयरको स्वकरतलाऽऽदिमाश्रस्याप्युपलम्भः संभवति तदनुभूति कथं वा प्रदीपाऽऽदि प्रभाप्राग्जार प्रोज्जृम्भ यमन्तरेणास्योपवस्त्रः १, कुFissurावो हि तदनाव पवानुभूयमानो छ, तत्कथमेष न्यायमुद्राऽतिक्रमो न कृतः स्यात् ? । अथ वो भावो वाचता सामध्वेव गृह्यते तद्भावोऽपि तावतैव तेन तदाऽऽलोकस्य स्वातयेाऽऽोकान्तरमन्तरेणैव ग्रहणमाजोकिम इति तदावस्याऽपि तत्किं न स्वात् ? इति चेत् । अहो ! पीतस्याप्यमृतोद्गार एवं वदता त्वमसि ताव्याहारात् । किमिदमीशमिजानमिति चेत् ? । इदमीदृशमेवेन्द्र जालमालोक्यताम् - आलोकः किल चक्षुषा संयोगात् गृह्यते, यदि च तदभावस्याऽपि तत्सामथ्र्येणैव ग्रहणं स्यात् तदा तस्याऽपि ग्रहणे संयोगाबादाबा ता ता पतिः संयोगस्य गुणत्वेन थासंयुक्ोऽव्ययं प्रेक्ष्यते, तदा कथं वो भावो वावतस्यायं मृमेन स्यात् ?; कथं वा चक्कुत्रः प्राप्यकारिताप्रवादः सुपपादः स्यादू ? । विशेषणविशेष्य जावसंबन्धबन्धुरस्यान्धकारस्य प्र. याददोष इति व कनमस्वैष विशेषणम् । न शररिस्य, सदस्यत्रापि प्रतिभासनात्। नाऽपि त
तत एव । ताई भवतु नजस इति चेत् । तदशस्वम; एतस्य त द्विशेषणविशेष्यभावेनातिनासनाद चेतनाच तास्वाकृतिरानुभविकी भव्या ।
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नाsप्यानुमानिकी, बतः कतमोऽत्र देतुरास्थाय ते संख्यावता :कि भावजयेन यमाणत्वं नायकिणसामग्रीसम स्वाद्यत्यम् असत्येवालो के तत्प्रतिभासनम, आशोकग्रहणसामध्या गृह्यमाणत्वम्, तिमिररूव्योत्पादक कारणात्रावः, रूव्यगुणकर्मातिरिक्तकार्यत्वम्, मालोकविरोधित्वं, भावरूपताप्रसाधकप्रमाणाभावो वा !, इत्यष्टपकी राकसीव स्वत्पप्रक्ष्यप्रक्षणविचक्षणोपतिष्ठते । तत्र न तावदायः पक्षः केमङ्करः, 'कुम्लोऽयं स्तनोऽयम्' इति हि यथा कुम्भायो भावाधिमुखेन प्रत्यक्षेण प्रेश्वन्ते तथेदं तम इति तमोऽपि बनाय रूपतायां तस्य प्रतिषेधमुखेन प्रत्ययः प्रादुःध्यात् । यथा कुम्भो sa नास्तीति । ननु नाशप्रध्वंसाऽऽदिप्रत्यया विधिमुखेनाऽपि वर्तमाना दृश्यन्ते । नैवम, नाशाऽऽदिशब्दानामेव भावप्रतिषेधाभिधायकत्वात्, अत एव हि कुम्भस्य प्रभ्वंस इति सोपपदानामेषां प्रयोगोपपत्ति। यदि तु तमःप्रभृतिशब्दा अपि त समानार्थतामा बिचरन् सदानी कुम्भस्याभाव इतिवदालोकस्य तम इत्यपि प्रोच्येत, न चैषं कश्चिद्दिपश्चिदपि प्रवकि । अथाऽऽओकाभावे संकेतितस्तमः शब्दानामा ततो
तथाव्यपदेश इति चेत्। नैत्रम यदि अन्धकाररूपो नावोऽपि विधिमुखेन वीदयेत, तदानीं किमन्यदेतस्य भाववैकयेन लक्ष्मणस्तु
अथ भावविललामी समुत्पाद्यत्वं हेतुः तथाहि समया व्यसमवायिनिमित्तकारणकलापव्यापाररूपाभावोत्पादिका सा मग्री, नैव तमसीयं समगस्त । तद्शस्तम्, यतः किमिदं स कारण पत्र कार्यसमवेतमुत्पद्यते तदिति चेत् । तदसम्यकू, समवायस्य निरन्तस्सुहृद्गोष्ठीषु गौस्वात्यात सात्यानिमतस्य तन्तु पट इत्यादिप्रत्ययस्याप्रसिक, ' पढे तन्तवः' इत्यादिरूपस्यास्था
तमुक्काय
ssबालगोपालं प्रततित्वात् सिद्धौ वा इद नूतले घटाभा
त्यावश्यपेन व्यभिचारात् संबन्धमा पूर्वताप्रसा घने सिसाघात भविष्यग्भावमाषनिमितया तदड़ीकारात् । एकान्ते कस्वरूपत्वेन चास्यैकवस्तुसमवायसम्म समस्तवस्तु समवायस्य विनश्यदेषस्तुमानावे सम स्तवस्तुसमवायाभावस्य वा प्रसङ्गात् । तत्तदवच्छेदकभेदात् तडुपपत्तौ तस्याऽपि कथञ्चिद्भेदाऽऽप ले, अनेक पुरुषावच्छिन्नप दादेरपि तावत्स्वभावभावेन क अस्थिरेकरूपता चास्याकाशसामान्यादेतारमाथि तत्वमेव भवेन तु कार्यस्तुतिस्तासहकारि कारणकलापोपनिपातप्रभावात् कार्यसमवायस्वीकरोऽपि स निकारः, तत्स्वभावप्रमावप्रतिबद्धानां तेषामपि सदा सन्निधानप्रधानत्वात्, तथा वास्तमिता समवायिकारणार्कवदन्ती । तदसवे किमसमवायिकारणन् ?, समवायिकारणप्रत्यासन्नत्वं हि तल्लक्षणम्, तदसत्वे कथमेतत् स्यात् ? । तथा च तच्छेषचूतस्य निमित्तकारणस्याऽपि का व्यवस्था ? | सरतु वा कारणान्यमूनि तथाऽपि धाकथािम्रोपपाद तथा मनोऽपि भविष्यति किमथविरचनाभि
मोरपादकमिति चेत् कस्य किमिति वाच्य म् ? | तेजोऽव इति चेत् । अस्याऽपि तमोऽणव एव सन्तु । सिधास्तावत् तेजसास्तेऽवेवादेन चादिप्रतिवादिनोरिति बेत् । तामसा अपि तद्वदेव किं न सेत्स्यन्ति ?, इति त्वज्यतामाग्रद्ः । अस्त्येचाऽऽलोके तत्प्रतिमासनमप्यसम्यक्, न हि यस्मिन्नसत्येव यत् प्रतिभासते तत् तद्जावमात्रमेव भवति, असत्ये
वाने प्रतिमासमनिटादिभिव्यभिचारात् कथंचनैवं प्रतिबन्धकेऽसत्येव समुत्पद्यमानस्य स्फोटस्याऽपि तदभा वमात्रता स्यात् ? अथ स्फोटो दाहकाऽऽत्मकतया स्पार्शनप्रत्यक्षेणाऽनुभूयते, प्रभावमात्रतायां हि तस्य नेयमापपत्तिकी स्या तू, तर्हि तमोऽपि शैत्येन तेनैव प्रत्यक्षेण प्रेक्ष्यमाणं कथमभावस्वनावं प्रवेत् ? ॥
अथाssलोकग्रहणसामग्र्या गृह्यमाणत्वं हेतुः तथा च शङ्करन्यायभूषणौ-' योढि भावो यावत्या सामग्र्या गृह्यते, तदनावोऽपि तावत्यैव, इत्या लोकग्रहणसामध्या गृह्यमाणं तमस्तदजाव पवेति" तदपि न निसामध्या गृद्यमानस्याssलोकस्यैव तदजावतानाऽनेकान्तिकत्वात्, घटपटयोर्वा समानग्रहणसामग्रीकतया परस्पराभावत्वप्रसङ्गात् ॥ अथ तिमिरज्योत्पादककारणाची हेतु तथा
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तमः परणवः स्पर्शवन्तः, तद्रहिता वा न तावत् स्पर्शवन्तः, स्पर्शवतस्तत्कार्यव्यस्य कचिदप्यनुपलम्भात् । अदृष्टव्यापाराजावात् स्पर्शवत्कार्यव्यानारम्न का इति चेत् । रूपबन्तो वायुपरमाणोऽहवापार वैगुष्पाद रूपवत् कार्ये नारभन्ते इति किन ये है कि बानीयादेव परमारोपाची कार्याणि जायन्त इति है। कायेंकसमधिगम्याः परमाणो यथा कार्यमुनीयन्ते न तद्विलक्षणा प्रमाणानावादिति चेत् । एवं तर्हि तामसाः परमाणवोऽप्यस्पवन्तः कल्पनीया तासामेयमारनेरन् । अ स्पर्शवत्वस्य कार्यद्रव्यानारम्भकत्वेनाऽव्यभिचारोपलम्भात् । कार्यदर्शनादनुगुणं कारणं कलयते न तु कारणवैकल्येन
कार्यविपर्यासो युज्यत इति चेत् । न चयमन्धकारस्य प्रत्यचिनः किमारम्भानुपतनमिमायमिन
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(२१३ ) अभिधानराजेन्रूः ।
तमुक्काय
भवतीति धूम इति नैतदुपपत्तिपदवीं प्रतिपद्यते, यतः स्पर्शघन्त एव तामसाः परमाणवः प्रोच्यन्ते । यत्पुनस्तत्रोपदेशिस्पर्शयतस्तत्कार्य इत्यस्य कचिदयनुपलम्भादिति तदसत्यम श्रीतस्पर्शचत स्तमोऽव्यस्यैव तत्कार्यस्य दर्शनात् । तत्र रूपसद्भावे किं प्रमाणम ?, इति चेत् । तदभावे किं प्रमाणम् ?, इति वाक्यम नदि सत्प्रतिषेधकप्रमाणमन्तरेषा स्पर्शयवाद कार्यद्रव्यागारनस्वया प्रसाधयितुं शक्यते अस्माकं तु सास द्भावे प्रमाणाभावेऽपि तावद् न काचित् कृतिः । न च नास्त्येव तत्, प्रत्यक्कस्यैव सङ्गावात् । तथाहि-दिवा दिवाकर करानाss
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पातो पतप्तवपुषः पचिकास्त मित्रासम्म सत्यसंपर्कात् प्र मोदन्ते न च तापात एव तेषां प्रमोद प्रतीतिबाधात्, तन्मात्रनिमितो हि घटोऽत्र नास्तीतिवत् तापः संप्रति नास्तीति प्रतिषेधमुख एव प्रत्ययः प्रादुःष्यात; न तु संप्रतितली मे शरीरमिति विधिमुख तथा दि राम्रोभावमात्रसूत्रित एवायमा लोकप्रत्यय इत्यपि वाकस्य वदतो वदनं न वक्रीभवेत् । अथान्धकारनिबन्धनत्वे शैत्यस्पर्शप्रत्य यस्य निश्चिस्तरघटितकपाटसंपुढे गलबलली एठका एककृष्णान्धकारेकार्णवजूते कारागारे हितस्य कः सु तयं तत्प्रत्ययो प्रवेत् इति चेत् । तापानावनिमित्तताबामपि सुतरां स किं तत्र न स्यात् १, तत्रात्यन्तं तापाभावसम्भवात् । तस्माद् मन्दमन्द समीरलद्दिपरिचय एव जलरूपसंस्थेच तत्स्पर्शस्याध्ययिकी देतुः न चाखी तत्रास्ती ति न तत्र तत्प्रतीतिः प्रादुर्भवति । अनुमानतोऽपि तत्र स्पर्शप्रतीतिः तथाहि तमापयत् पृथ्वीन च्च रूपवस्वमसिरूम, अन्धकारः कृष्णोऽयमिति कृष्णाऽऽकारप्रतिमासात् । ननु यदि तिमिरं श्यामरूपपरिकलितकलेवरं स्यात् तदाऽवश्यं स्वप्रतिभाले आलोकमपेक्षेत, कुवलय को कितमालाऽऽदिकृष्ण वस्तूनामा लोकापेीत्वादिति चेत् । सद् नालम्बनमालोकमन्तरेणापि तत्प्रतिभाबाद मथाऽस्मदादिप्रतिभासमवेतच्यते। तदपि न पेशतो यद्यपि कुवलयादिकमालोकमन्तरे लोक वितुं न शक्यतेऽस्मदा तिमिर मा लोकयिष्यते, विवि श्रत्वाद् भावानाम्, इतरथा पीतावदाताऽऽदयोऽपि तपनीयमुकाफल प्रमुखानालोकनिरपेकी इि
ऽपि प्रकाशान्तरमपेकेरन् । इति सिद्धं तमो रूपवत् । तथा रामपत काय प्रतीयमानत्वत्शोपित रूपसिद्धिनरूपं कुम्नाभावादिकृष्णाssarकारण कदाचित् प्रतीयमानमालोकितम, इति रूपवस्त्रसिव सिद्धं स्पर्शदग्यम् । तथा च तापमान कार्यकन्याऽऽरम्भप्रतिषेधोपन्यस्तमस्पर्शवत्वं स्वरूपासिरूम्, परश्व तामस परमानामप्रसिद्धेराश्रयासिद्धं वेति स्थितम् ॥ म्यगुणकर्मतिरिकन हेतु इन्यातिरिक्तकार्यस्वस्य तस्मिसिद्ध ने कशा सिद्धिर्हि तस्वाभावरूपतया अन्यतो वा कुतोऽप्यभिधीयते । नाऽऽचः पक्कः, परस्पराऽऽभवप्रसङ्गात् श्रभावरूपतासिद्धी हि तस्य रूव्यातिरिक्तकार्यत्वसिद्धिः, ततोऽपि सेति । श्रन्यहेतुतस्तत्सिदी तु वास्तु किमनेन सिकोपस्थापिता कृतकमार्कभृत्येनैव कर्तव्यम् ? ॥
आलोकविरोधित्वमपि न साधीयः, न दियो बद्विरोधी स
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तमुक्काय तदभावस्वभाव एव, वारिवैश्वानरयोः परस्पराभावमात्रताऽऽपत्तेः । अथ सहानवस्थानलऋणो विरोधस्तिमिरस्याऽनावस्वभाषतासिक साधनत्वेनाऽभिप्रेतः, न वध्यघातकभावः, स च मावामापोसीन देयारपि भावकानवकाशे स्वत्येव समुज्जृम्भमाणस्यान्धकारस्याऽनावरूपतेव श्रेयसी, कुम्भानावर्षादिति चेत् । तदपवित्रम् । श्रत्राऽपि वध्यघा तकनाबस्यैव नावात् घनतर तिमिरपूरिते पथि प्रसर्पता प्रदीपप्राप्राम्भारेण तिमिर निम्बाम्बर
भावरूपताप्रसाधकप्रमाणाभावोऽप्यसिद्धः, तत्प्रसाधकानुमानसद्भावात् । तथाहि भावरूपं तमः घनतरनिकरल हरिप्रमुखशब्देन्यपदिश्यमानाबाद आलोकच न चासिद्धिः खा
धनस्य ।
तथादि"रःसङ्केत घरम
वृथोन्मेषं चक्रुर्मुहुरुपदधानः पथि पथि । घटत्कारादल्पादपि निभृतसंप्राप्तरमणीभ्रमभ्राम्यचादुमदमिकयो साम्यति युधा ॥ १॥ पर्यस्तो दिवसस्तदी मय मटत्यस्ता चलस्यांशुमान्, संप्रत्यङ्करितान्धकारनिकरैर्लम्बालका चौरभूत । एान्तविंश वेश्मनः प्रियसखि ! द्वारस्थवीतोरणस्तम्भाबितवादुहिती कि पथ प तिमिरलहरी विक हरतु नितरां निद्रामुद्रां क्षणाद् गुणिनां गणात् । सदपि तर 1 तेजोमे, किमपिरियन ज्योति स्वजातिविराजित ३ ॥ " औपचारिक एवायं तत्र तद्व्यपदेश इति । नैवम् एतदभावरूपताप्रसिद्धिं बिना घनतराऽऽदिव्यपदेशस्य भावरू पमुख्यार्थबाधाविरहेण तस्थोपचारिकत्वायोगाव; तथात्वेऽवि वा तस्य तमसो भावरूपतैव प्रसिध्यति, न खलु कुम्भाऽऽद्यना यस्तथाप्रकारोपचारगोचरचारितामा स्त्रियाछुपचारकारणाभावात् । तथा-नाभावरूपं तमः, प्रागभावाऽऽयस्वभावत्वात् ; व्योभवत् । न चाप्यमपि हेतुरसिद्धः । तथा दि - भाल्लोकस्य प्रागभावः, प्रध्वंसाभावः, इतरेतराभावः, अत्यन्ताभावो वा तमो भवेत् ?। आधे- एकस्य, अनेकस्य वाऽयं तत्स्यात् ? । न तावदेकस्याऽऽलोकस्य प्रागभावस्तमः, प्रदीपाऽऽलोकेनव प्रभाकराऽऽलोकेनाऽपि तस्य निवर्त्यमानत्वात्, यस्य हि यः प्रागभावः स तेनैव निवर्त्यते, यथा पटप्रागजा खः पटेनैव | नाप्यनेकस्य, एकेन निवर्त्यमानत्वात्, पटप्रागभावत्रदेव । न च वाच्यं प्रत्या लोकं स्वस्त्रनिवर्तिनीयस्य तमसो भेदा
प्रदीपादिना निवर्तितेऽपि तमोविशेषे पूषाऽऽदिनिवर्तनीयं तमोऽन्तरं तदा तदजावान निवर्तते इत्येकेन निवर्त्यमानत्वादिति हेतुरसि इति, प्रदीपाऽऽदिनिवर्तिततमसि प्रदेशे दिनकनिवर्तनीयस्य तमोरस्योपधायानुप
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न्धेः सम्प्रतिपन्नवत् । यदि खेदं प्रागज्ञावस्वभावं स्यात्, त दा प्रभावोत्पत्तिस्पात् अनादित्यात् प्रागभावस्य । नाप्यालोकस्य प्रध्वंसाभावस्तमः, निवर्त्यमान। नापीतरेतराभावः, तस्य प्रसृतेऽप्रागभाववत् । स्वात् तस्यैव पि मे मायलेज से साम तमिस्रायामिव वा सरेऽपि तमःप्रतीतिप्रसङ्गात् । नाऽप्यालोकस्यात्यन्तानावस्तमः,
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( २१९४ ) अनिधानराजेन्द्रः ।
तमुक्काय
तस्य स्वकारणकलापोपनिपातकाले समुत्पद्यमानत्वात् । इति पक्षाष्टके नाऽध्य घटमानत्वान्नानुमानिक्यपि तमसोऽभावरूपतास्वीकृतिः॥ एतत्सकलमपि प्रायेण छायायामपि समानमिति यथासंभवं योज्यम् । विशेषतश्चैतन्यताप्रसिद्धिः परिपाटि प्राप्तस्वा
दरत्नाकरादवधारणीया । यत्पुनरवाचि तमसि संचरतः पुंसः प्रतिबन्धः स्यादित्यादि, तदखिलमालोकेऽपि समानमिति स एव प्रतिविधास्यतीति किमतिप्रयत्नेन तत्राऽस्माकम् ? | इति सिद्धे तमस्वाये सव्ये । (२१) रत्ना० २ परि । अथ तमस्कायानां संस्थानम्
तमुक्काए णं ते! कहिं समुट्टिए, कहिं संनिहिए ? । गोयमा ! जंबुद्दीवस्स दीवस्स बहिया तिरियमसंखेज्जे दीवस - मुद्दे वा अरुणवरस्स दीवस्स बाहिरिबाओ वेइयंताओ अरुणोदयं समुदं वायालीसजोयणसहस्त्राणि प्रो. गाहिता उवरिलाच जयंताओ एगपएसियाए सेटीए तत्थ
तमुकाए समुट्टिए सतरस एकवीसे जोयसर उ उप्परता तो पच्छा तिरियं पवित्यरमाणे पवित्थरमाणे सोहम्मी साहसं कुमारमाहिंदे चत्तारि त्रि कप्पे आवरेता उपय० जाव बंजलोए कप्पेऽरिद्वविमापत्य मं संपणे, एत्थ णं तमुक्काए संनिट्टिए । (पपसियापत्ति) एक एव न ह्यादय औत्तराधर्य प्रति प्र देशों यस्यां सा तथा, तथा, समभित्ति तवेत्यर्थः । न च वाच्यम्एक प्रदेशप्रमाणयेति असंख्यात प्रदेशावगाहस्वनावत्वने जीवानां तस्यां जीवावग दानावप्रसङ्गात् तमस्कायस्य च स्तियुकाऽऽ काराकायिकजीवाऽऽत्मकत्वाद् बाल्यमानस्य च प्रतिपादविष्यमाणत्वादिति । (पत्थ ं ति) प्रज्ञापकाssले ख्यालिखितस्यारुणासमुद्राऽऽदेरधिकरण ताप दर्शनार्थमुकवान् ॥
तमुक्काए णं भंते ! किं संहिए ? | गोधमा ! हे मलगमूल संत्रिए, उपि कुक्कुडगपंजरगसंत्रिए पत्ते ॥ अभ्भः अधस्तात्मक मूल संस्थितः शरावबुधसंस्थानः सम जलान्तस्योपरि सप्तदश योजनशतान्येकविंशत्यधिकानि यावद्वलय संस्थानत्वात् ।
अथ तमस्कायस्य नामान्याह
तमुक्काए णं भंते! केवइयं विक्खं नेणं केवइयं परिक्खेत्रे पत्ते हैं। गोयमा ! दुबिहे पछते । तं जहा - संखेवित्यमेय संखेज्जवित्थडे य । तत्थ ं जे से संखेज्जवि - रथ में, से णं संखेज्जाई जोयणसहस्साई विक्खंनेणं असंखेज्जाई जोयणसहस्साइं परिक्खेवेणं पणत्ते । तत्य णं जे से असंखेज्जवित्थडे, सेणं असंखेज्जाई जोयएसहसाई विक्खं नेणं असंखेज्जाई जोयणसहस्साई परिक्खें पत्ते ॥ तमुक्काए णं नंते ! के महालए पत्ते ? । गोमा ! जंबुद्दीचे दीवे सव्वदीयस मुद्दाणं सव्वकतराए जाब परिक्खेवणं पाते, देवे णं महिलिए० जान महामात्रे इणामेव शत्ति कट्टु केवलकप्पं जम्बुद्दीवं दीवं तिहिं अच्छरानिवाएहिं तिसत्तखुत्तो अणुपरियट्टित्ता द
तमुकाय मागच्छेज्जा मे णं देवत्ताए व उकिडाए तुरियाए०जाक देवगईए वीईवयमाणे० जात्र एकाहं वा दुयाई वा तियाई वा उक्कोसेणं छम्पासे बीईवएज्जा, प्रत्येगइए तकार्य बीईएज्जा, अत्थेगइए तमुक्कायं नो बोर्डबएज्जा, ए महालए णं गोधमा ! तमुकाए पत्ते । अस्थि भंते ! तमुक्काए गेढाइ वा, गेहवणाइ वा १ । ो इगडे समडे । अस्थि भंते ! तमुक्काए गामाड़ वा० जाव सभि - सावा ? | णो इट्ठे समहे । अस्थि णं भंते ! तमुक्काए राजा बनाया संसेयं ति वा, संमुच्छंति वा, संवासं तिचा । हंता अस्थि । तं भंते! किं देवो पकरेड, असरो पकरे, नागो पकरे ? । गोयमा ! देवो वि पकरे, असुरो विपकरे, नागो चि परे । अस्थि भंते ! तमुक्काए बादरे थसिदे बादरविज्जुयाए १ । हंता अस्थि । तं भंते ! किं देवो करे३० ? | तिथि वि पकरे३ । अस्थि णं मंते ! तमुक्काए बादरे पुढवीकाए बादरें अगणिकाए ? । जो इट्टे, नपत्य त्रिग्गद्गइसमाचन्नेणं । श्रस्थि भंते! तमुक्काए चंदिमसूरियगगण एकखचतारारूत्रा है। जो इण्डे समठे, पनिपस्स ओ
अस्थि । प्रत्थि णं भंते! तमुक्काए चंदाना वा, सूराभाइ वा ? | पोइल के समट्टे, कादूसलिया पुए सा । तमुकारणं भंते ! केरिसए वम्मेणं पत्ते १ । गोयमा ! कासे कालोनासे गंजीग्लोमहरिसजपणे जीमे उत्तास ए परम किएहे वणं पण ते देवे विणं श्रत्येगइए जेणं तप्पढमयाए पासिता णं खुभाएजा आहे णं अभिसमागच्छेजा, तो पच्छा सीहं सीहं तुरियं तुरियं खिप्पामेव बीईएजा ॥
( केrयं विक्खंभेणं ति ) विस्तारेण । कचिदू " श्रप्रामवि क्खं में" इति दृश्यते । तत्र चाऽऽयाम उच्चत्यमिति । (संखेजबित्थडे इत्यादि) संख्यातयोजनविस्तृतः, श्रादित श्रारभ्य क संख्येययोजनानि यावत्, ततोऽसंख्यातयोजनविस्तृत परि तस्य विस्तारगामित्वेनोक्तत्वात् । ( असंखेजाई जोयणसहस्लाई परिक्खेवे ति ) संख्यातयोजनविस्तृतत्वेऽपि तमस्क्रायस्यासंख्याततमद्वीपपरिकेपतो बृहत्तरत्यात्परिक्षेपस्यासंख्यातयोजन सहन्नप्रमात्वम् श्रान्तर बहिः परिक्षेपविनागस्तु नोक्तः, उभयस्याप्यसंख्याततया तुल्यत्वादिति । ( देवे मित्यादि ) श्रय क्रिमेदं पर्यमिदं देवस्य महसूयादिकं विशेषणमि त्याह- (०जाब इणामेवेत्यादि) हट यावच्छ पेम्पर्यार्थः यतो देवस्य महद्ध्यादिविशेषणानि गमनसामर्थ्यप्रकर्षप्रतिपादनाभिप्रायेणैव प्रतिपादितानि । (इणामेत्र २ ति कट्टु त्ति ) इदं गमन मेघ मतिशीघ्रत्वाऽऽवेदक चप्पुटिका रूप हस्तव्यापारोपदर्शनपरम् अनुस्वाराऽश्रवणं च प्रकृतत्वाद्, द्विर्वचनं च शीघ्रत्वातिशयोपदर्शनपर इति रूपप्रदर्शनार्थः। कृत्वा विधायति । (कैवलकप्पं ति ) केवलज्ञान कल्पं, परिपूर्णमित्यर्थः । वृष्याख्या तु केवलः संपूर्णः कल्पत इति कल्पः स्वकार्यकरणसमर्थो वस्तुरूप इति यावत् । केवलश्चाऽसौ कल्यश्चेति केवल कल्प
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(२१५५) तमुक्काय भाभधानराजेन्मः ।
तमुक्काय स्तम् । (तिहिं भरकरानिवापा ति)तिमृनिश्चप्युटिकाभि- इति शोकान्धकारः, देवानामप्यन्धकारोऽसौ, तस्वगरप्रभाया रित्ययः । (तिसनखुत्तोत्ति) त्रिगुणाः सप्त मिसप्त. निसप्तत्रा- अपि तत्राप्रजासनादिति देघान्धकारः अत एव ते बनवतो रान् त्रिसप्तकृत्वः, एकविंशतिधारानित्यर्थः। (हति) शी- प्रयेन तत्र नश्यतीति श्रुतिरिति । तथाऽन्यानि बग्यारिकाघम् (प्रत्येगश्यामत्यादि) संस्थानयोजनमानं व्यतिव्रजेत् इतरं र्याऽऽश्रयाणि-वातस्य परिजननान् परियोगला.परिष श्य. तु नेति । ( उराला बलाहय सि) महान्तो मेघाः (संसेयं ति रिघो,वातस्य परिघोबानपरिषः,तथा वातं परिघवत् क्षोभयति ति) संस्थेदन, मूईनं, वर्षणं च (वायरविजपाए ति) ह हतमार्ग करोतीति वातपरिकोभः, बात एव वा परिचस्तंचो. नवादरतेजस्कयिका मन्तव्याः, व तेगं निषेत्स्यमाणस्वात, जयति यस्य तथा। पाठान्तरण-वातपरिकोज इति।कानिक किंतु देवप्रभावजनिता भान्धराः पुजलास्त इति। (णऽस- परिधो देघपरिकोभ इतिचाऽऽद्यपदयस्थाने पश्यते। देवानारय विमाहगसमावहोणं तिन इति योऽयं निषेधो बादरधि मरगयमिय बलबन्द्रयेन नाशनस्थामस्वाचःस देवारस्वमिति। बीतेजप्तोः सोऽन्यत्र विग्रहगतिसमापन्नान् बिग्रहगत्यैव बादरे देवानां व्यूहः सागरादिः सामामिकम्यूह श्वको इस से भवतः पृथिवी हि बादरा रत्नप्रभ ऽद्यास्वष्टासु पृथिवीषु गि. धिगमस्यास देवन्यूह इति । तमस्कायस्वरूपप्रतिपादनायैक रिविमानेषु च, तेजस्तु मनुज केत्र एवेति, तृतीया चेह पश्चभ्य- (मुकाए णमित्यादि ) सूत्रं गतार्थम् । किंतु सौधमादीधै प्राकृतत्वादिति । (पत्रिपरसओ पुण अस्थि सि) परिपाव. ना55वृणोत्यली, कुक्कुटपजरमस्थानसंस्थितस्य तस्य प्रति. तः पुनः सन्ति तमस्कायस्य चन्द्राऽऽदय इत्यर्थः। (काबूतणि
पादनात । उक्तं च-“तमुकाए जं भले! किसंठिप पाते। या पुण सा इति)ननु सस्पार्श्वतश्चन्द्रादीनां सद्भावात्तप्रना. गोयमा ! अदे मगमूलसंम्पि, उगि कुक्कुरूपंजरसंचिप विताऽस्ति ?, सत्यम, केवलं कमात्मानं दूषयति तमस्काय
पत्ते।" इनि । स्था०४ा०२ उ०। परिणामेन परिणमनास्कदूपणा. सैव कदूषणिका । दीर्घता च अथ पृथिव्यापपर्यायतां पृथियक्कायौ जीवपुत्रप्राकृतत्वात्, अतः सत्यप्यसावसतीति । (काले त्ति) कृष्णः (का.
रूपाविति तत्पर्यायतां प्रश्नयनाहलजाले त्ति) कामोऽपि कश्चित कुतोऽपि कालो नावभासत
तमुक्कायस्स एणं भंते! का नामधेज्जा पएणता? गोयमा ! इल्यत आह-कालावजासः। कालदीप्तिर्ग, (गंजीरलोमहरिस. जणणे त्ति) गम्भीरइवासी भीषणत्वाद्रोमहर्षजननश्वेति ग.
तेरेस नामधेजा पत्ता। तं जहा-तमेइ वा, तमुक्काएइ वा, म्नीररोमहर्षजननः । रोमहर्षजनकत्ये हेतुमाह-(भीमे त्ति)नी
अंघकारे वा, महंधकारई वा, लोगंधकारे वा, लोगतमिपः (उत्सासणए त्ति) उत्कम्पहेतुः। निगमबन्नाद-(परमेव्या. स्से का,देवंधकारे वा,देवतमिस्से वा,देवारमेइ वा, देव. दि)यत पचमन एबा55-(देथे विणमित्यादि) (सपढमया. चूहई वा, देवफलिहेइ वा, देवपडिक्खोजेइ वा, अरुणोदएइ एत्ति) दर्शनप्रथमतायाम् (खुब्भाएजति ) कन्नीयात् तु. भ्यत, (अहे णमित्यादि)अथैनं तमस्कायमभिसमागच्छेत् प्र
वा समुद्दे । तमुकाए गंमते : किं पुढविपरिणामे, जीवविशेततो भयात् (सीई सीहं ति) कायगतेरतिघेगेन (तु:
परिणामे,पाउपरिणामे, पोग्गलपरिणाम गोयमा नो पुढरितुरियं ति) मनोगतरतिवेगात्।फिमुक्तं भवति ?-क्षिप्रभेव विपरिणामे, आउपरिणामे घि, जीवपरिणामे वि,पोग्गलप(वीवएजत्ति) व्यतिबजेदिति । ज०६ श५ उ01 रिणामे वि । तमुकाए गंजते सव्वे पाणा नूया जीवा सत्ता तमकायस्स णं चत्वारि णामधेजा परात्तातं जहा-त
पुढविकाइयत्साए जाव तसकाश्यत्ताए उवाणपुला ?, मेइ वा,तमुकायेवा , अंधकार वा, महंधकारेइ वा । तमु
हंता । गोयमा ! असई अमुवा अणंतखुनो, णो चेवणं कायस्सग चत्तारिणामधेजा पत्ता । तं जहा-प्रोगंध. बादरपुढविकाइयत्ताए, बादर अगणिकाइयत्ताए। यारे वा, लोगतमसेरे दा, देवंधयारेइ वा, देवतमसेइ वा । (तमेश वा इत्यादि)तमः, अन्धकाररूपत्वात शति एतद् वा तमुक्कायस्स पं चत्तारि णामधेजा पत्ता । तं जहा-वाय
विकल्पार्थः, तमस्काय इति चा; अन्धकाररशिरूपत्वात्, फलिहेवा,वायफबिहखोजेक्वा.देवारोवा,देववृहे वा।
अन्धकारमिति वा; तमोरूपत्वात्. महान्धकारमिति या महा
तमोरूपस्वात, लोकान्धकारमिति चा, बोकमध्ये तथाविध. नमक्कारणं चत्वारि कप्पे प्रावरिचा चिट्ठातं जहा-सो. स्याग्यस्यान्धकारस्याभायात, एवं लोकतमिनमिति वा देवाइम्भीसाणं सणंकुमारमाहिंदं ।
न्धकारभित्ति बामदेवानामपि तत्रोद्योताभावेनाम्धका Issrम. (तमुकायेत्यादि) सूत्रत्रयं सुगमम् । नवरं तमसोकायप-| भावात्। एवं देवतमिस्रमिति वा, देवाऽरण्यमिति ना, बनरिणामस्वरूपस्याऽधकारस्य कायःप्रवयस्तमस्कायो,योद्यसं. चदेवभयानश्यतां देवानां तथाविधारण्यमिव शरणभूतत्वात्, क्यातनमस्यारुणवरानिधानद्वीपस्य बाह्यवेदिकान्तादरुणावा- देवव्यूह इति वा, देवानां दुर्जेद्यत्वाद् व्यूह इष चक्राऽऽदिम्बूद क्यं समु द्विचत्वारिंशद्योजनसहस्राएयवगाह्योपरितनातू ज- श्य देवव्यह, देवपरिघ पति वा देवानां जयोत्पादकत्वेन गमलान्तादेकदेशिकया श्रेण्या समुस्थितः सप्तदशैकशित्यधि- नविघातहेतुत्वात, देवप्रतिकोभ इति वा; तत्काभहेतुत्वात् . कानि योजनशतानि कर्द्धमुपस्य ततस्तिर्यविस्तृणन् सौधर्मा- रुणोदक इति या समुफः अरुणोदकसमुफः, जमविकारस्वादि. उध्दीन चतुरोदेवलोकानावृत्योर्द्धमधि ब्रह्मबोकस्य रिधिमान- ति। पूर्वै पृथिव्यादेस्तमस्कायवाच्यता पृष्ठा, अथ पृथिव्य. प्रस्तट संप्राप्त ,तस्य नामान्येव नामधेयानि तम इति तमोरूपस्वा. कायपर्यायतां पृधियकायौ जीवपुभयरूपाविति सत्पर्यायां द, इति रूपप्रदर्शने, वा विकल्पे, तमामात्ररूपताऽभिधायकान्य:- प्रश्नयनाद-(तमुकाप णमिति) बादरवायुवनस्पतयःप्रसाश्चत. पानि चत्वारि नामानि । तथा पराणि चत्वार्यवारयन्तिकनमोह. प्रोत्पद्यम्ले अष्काये तत्पत्तिसम्ञवादन वितरेऽस्वस्थानस्वापताभिधायकानीति बोके भयमवान्धकारो नान्योऽस्त. हातबकम-(मोचेवणं इत्यादि).६श...
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तमुक्काय
देवास्तमस्कायं कुर्वन्ति
जाड़े जंते ईसाने देविंदे देवराया सकार्य कार्य कामे जव से कहमिदाणिं पकरेति । गोषमा ताहे थेव ईसाने देविंदे देवराया अस्थितरपरिसार देवे सहा बे, तर णं ते अजितर परिसगा देवा साबिया समाया एवं जदेव सकस्स० नाव तर खं ते आजोगिया देवा सद्दाविया समाणा तमुक्कायिए देवे सद्दार्वेति । तए णं ते तमुक्का पिया देवा सद्दाविया समाणा तझुकायं पकरेंति, एवं खगोमा ! ईसा देविंदे देवराया तमुक्कायं पकरे । - त्थियां जंते असुरकुमारा देवा तमुका पकरेति ? प्रत्थि । किंपत्तियं णं भंते! असुरकुमारा देवा तमुकावं पकरेंति ? । गोयमा ! किड्डारतिपत्चियं वा परिणीयविमोहणद्वयार गुती संरक्खणदेओ वा अप्पखो वा सरीरपच्छा पवार एवं खलु गोयमा ! अरकुमारा देवा वमुकार्य पकरोति, एवं० जाय बेमाथिया ।
हंता
(२१००६)
अनिधानराजेन्द्रः ।
(जाणं इत्यादि)
मुक) मस्कायकारिणः । ( किड्डारतिपत्तियं ति ) क्रिडारूपा रतिः । अथवा क्रीडा च खेलनं, रतिश्च निधुवनं क्रीमारतिः, सेव, स एव वा प्रत्ययः कारणं यत्र तत्कीकारतिप्रत्ययम्। (गुत्तीसंरक्खणदेओ सि) गोपमी यम्रव्यसंरक्षण हेतोर्वेति । भ० १४ श० २ उ० । तमुयत्त - समस्त्व- न० जात्यन्धतायाम्, अत्यन्ताज्ञानाऽऽवृतता याम, सूत्र० २ ० २ अ० । नमोकसिप-तमः काषिक त्रिसमा कतुिंषांस माणित समःकाधिकाः पराविज्ञाताः क्रियाः कुर्वन्,
सुत्र० २ ० २ अ० ।
तम्ब - ताम्र - न० । ' तंब ' शब्दार्थे, प्रा० १ पाद ।
सम्पण- तन्धनम् - 1-त्रि० तस्य देवदत्तादेस्तान् घटा 555 मनस्तन्मनः । मनोविशेषे, स्था० ३ ता० ३ ४० । तस्मिन्नेव म नोबिशेषोपयोगरूपं यस्य स तथा तस्मिन् विशेषोषयुक्त, अनु ग। तद्विषय करून बिया १२० । सम्म सम्यय-वि० तेषां विवहितानामनमानित्यचनस्पतिगणानां विकारास्तन्मयाः । तद्विकारेषु, प्रश्न० १ श्र० द्वार । सम्मयता - तन्मयता स्त्री० । तत्परतायाम्, बो० १२ विष० । सम्मिच तन्मात्र १० शि० तदेष सन्मानम् मयूरव्यसकादित्वात् समासः । तदात्मके, सा मात्रा यस्मिन् । "तस्मिंस्तस्मि च तन्मात्रा, तेन तन्मात्रता स्मृता । तन्मात्रापयविशेषाणि, प्रविशेषास्ततो हि ते ॥ १ ॥ म शान्ता नापि घोरास्ते, न मूढायाविशोषणः।" इत्युकेषु साक्ष्योचेषु पञ्
रणीभूतेषु भूतेषु, वाच० । पञ्च तन्मात्राणि । तद्यथा - गन्धरसरूपरूपशब्द तन्मात्राऽऽस्यानि, तत्र गन्धतन्मात्राद् पृथिवी गन्धरसरूपस्पती दापो रसरूपस्पशेयत्वा पतन्मात्रा जो ऊपस्पर्शवत्, स्पर्शतन्मात्राद्वायुः स्पर्शवान्। शृन्दतन्मात्रादाकाशं गन्धरसरूपस्पर्श वर्जितमुत्पद्यत इति । [सू० १ ० १ ० १ ३० ।
तयप्पमायमित्त
तम्मियय - तन्मात्रज - न० । शब्दाऽऽदीनि यानि पञ्च तन्मात्राि सूक्ष्मसंज्ञानि तेभ्यो जातमुत्य सम्मानजम अम्बराऽऽदिषु स्था० २ ० १ ० ।
तम्मुति तन्मुकिख तेन विहितेन इक्ता सर्वस विरतिर्मुक्तिस्तन्मुक्तिः । तदुक्तसर्वसङ्गेन विरतौ, आचा० १० ५ अ० ४ उ० ।
सम्मे-सन्मान भि० 'सम्मिट' शब्दार्थे ० १ ० १ ०
। सूत्र०
१३० ।
तम्मेयय - तन्मात्रज - न० । ' तम्मिषय' शब्दार्थे, स्था० २ ग० १ ० ।
सम्पोचि तन्मुक्ति - श्री० 'तम्मुति' शब्दायें, आचा० १ ० ५
म० ४ ० ।
तम्बिर- न० 1 देशी-ताम्रस्यार्थे, प्रा० २ पाद । तब तत० 'तत' शब्दार्थे ०४०४४० तपक्वाय स्वस्वाद-पुंर्च बाखादीचा स्वग्भक्के घुणाऽऽदौ, स्था० ४ ०१ ० 1 स्त्रकूकल्पाऽसारभाकरि, साधौ च । दश० १ ० तयधावत्युक-तदन्यवस्तुक-पुं० । तस्मात्परोपन्यासाद्वस्तुनो. तदन्यवस्तुऽन्यतरन्तं वस्तु यस्मिन्नुपन्यासोपनये स कः उपन्यासोपनयोदाहरण (वा० ) तत्रोपन्यस्तावस्तुनोयतं वस्तु यस्मिन्नुपन्यासोपनये स तदन्यथ स्तुकः। यथा जमे पतितानि जलचरा इत्युक्ते, पतद्विघटना प तनादन्यदुत्तरमाद-यानि पुनः पातयित्वा खादति नयति वा तानि किं भवन्ति न किञ्चिदित्यर्थः, भयमपि ज्ञापकतथा ज्ञातमुक्तः, अथवा यथा रूढमेव ज्ञातमेव । तथाहि--न जलस्थल प तितानि पत्राणि जलचराऽऽदि सच्चाः संभवन्ति, मनुष्याऽऽद्याश्रितानीव । श्रयमनिप्रायः यथा जलाऽऽद्याश्रितत्वाज्जलचराऽऽदितया तानि सम्पद्यन्ते तथा मनुष्याचा मनुष्यादिमचकादितवापि सम्पद्यन्ताम् भाधितत्वस्याविशेषा न च तानि तथाऽभ्युपगम्यन्त इति जलाऽऽदिगतानामपि जलचरत्वाऽऽद्य संभव इति । स्था० ४ ० ३ उ० । क शिवदाह यस्य वादिनोऽन्यो जीवः, अन्यच्च शरीरमिति त स्यान्यदस्याविशिष्टत्ययोरपि तद्वाविशिष्टत्वेन प्रसङ्ग इति तस्य जीवशरीरापेक्षया तदन्यवस्तूपम्यासेन प रिहारः कर्तव्यः । कथम् ? । नन्वेवं सति सर्वभावानां परमाघटपटादीनामेकः अन्यः परमार प्रदेशिक इत्यादिना प्रकारचा याद स्वाविशिष्ट यत्वेनाविशिष्टत्वादिति तस्मादन्य जीवो
मित्येतदेव शोजनमित्येतद् अन्यानुयोगे, अनंन चेतयोरप्याकेपः, तत्र चरणकरणानुयोगेन मांसभक्षण इत्यादावेव कुप्रादे तदन्यवस्तूपम्यासेन परिहारः । कथम ? " न हिंस्यात्सर्वाणि चूतानि " इत्येतदेवं विरुख्यत इति । लौकिकं तु तस्मिन्नेोदाहरणे तदन्यवस्तूपन्यासेन परिहारः । " जदा जाणि पुण परिऊण पाहिकण कोइ खाइ वा खेइ वा ताणि किं दवंति से । ” दश० १ ० ६ उ० ।
तयप्पमाणामेत स्वक्प्रमाणमात्र न० । तिलपानागमात्रे, त चाशनस्य घटते । वृ० ६ ४० |
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तयप्पमागामेत्त अन्निधानराजेन्द्रः ।
तरुगा तयप्पमाणमत्त-त्वकपमाणमात्र-न. । 'सयप्पमाणमित्त शब्दा. (चत्तारितग्गेत्यादि) व्यक्तम, २ स्यतातिरान
तरकाः, समुई समुद्रवत सुस्तरं सबंधिपत्याधिक कार्य त. तया-स्वरु-स्त्री० । तृणवनस्पतिकायिकभेद, स्था० ० ० ।। गामि करोमीरयषमभ्युपगम्य तत्र समर्थत्यादेकः समुतरनल्ल्याम.जी. ३ प्रति०४ १० । रावायवल्के, स्था०४ ग.
ति, तय समययतीत्येकः। अन्यम्तु तहज्युपगम्यासमर्थवा. १०।"णुमो तिक्खयो, असोणिो केयतयागो।"
झोपदं ततकल्प देशबिरत्यादिकमलपतमं हरति, निहिय. भावभ• । स्वगिवासारं भोक्तव्यामित्यर्थसूचकरवात् त्वम्
तीति । अन्यस्तु गोपदप्रायमभ्युपगम्य धीतिरकारसमुरुउच्यते, दशकालिकम्य द्रुभपुषिकाऽध्ययने, दश । उक्तंभ
प्रायमपि साधयतीति । चतुर्थः तीन समुदाय काय त. परममुनिभिः-"चत्तारिघुणा पता। तं जहा-जयखाए. उ.
रिस्वा निवाह्य समुपाये प्रयोजनान्तो विधीदति, मतं निविक्खाए, कक्लप्प, सरिक्खाप । एवमेव चत्तारि भिक्खुगा
बाहयति, विचित्रत्वात् क्षयोपशमस्येति । एकमन्यत्रय इति। पएणतातं जहानियबाप." इत्यादि । कल्पासारनोक्तु:
स्वा०४०४ उ०। कर्मनेमङ्गीकृत्य बज्रसारं तपो जवति । दश.१०।
तरच्छ-तरक्ष-पु. । व्याघ्रविश घे, प्रति० प्र०। प्रकाभ० सवाणंतर-तदनन्तर-न। तम्मादब्यवहितोत्सरे, रा०। स्त्रियां तरकी । प्रज्ञा० ११.पद। स्थाणुप-तदनुग-त्रि.। तदनुगन्तरि, “विवरीयनसंजू, | तरण-तरण-ना लडने. सूत्र०१७.११ मा निस्तारणे, मि०पू० मन उत्तं तयाणुगे।" सूत्र०१ श्रु० १ १०४ उ०।
१०ापारगमने.प्लाने च । प्रान्त रणं बउमा-मामारिपाटिं। सयामुह-त्वचामुख-पुं० । सुखकारिणि. कल्प० ३ कण।
णामटुवणाोगतानो दम्यतरणे तिग्नि तग्जिन्तिा प्रहा-रव्य. तयामंत-त्वम्वत-त्रि० । त्दग्विद्यते यस्याऽसी।विशिष्टत्व कहा
तरओ, दन्चतरणं,दब्वतरियवयं तत्य नयनरमओ पुरिसाऽऽदी,
दब्यवर उडुवादि.दव्यतरियादीसमद्दसराऽदिएपंजाब. शिनि, रा०।
तरणे फिणिवरं भावतरो जीयो,भावतरणं णाणाऽऽदि,भावना तयाविस-त्वबिष-पुकास्वनि विषं यस्य स त्यग्विषः। प्राकृत. रियायं मसारोबउबहो। एवं प्लवनमपि तरसिामा०चूम। स्वात् 'तयाविसो'। दर्वीकरसपनेदे, जी.प्रति०। तरमह-देशी-प्रपुनारे,दे० ना० ५ वर्ग ५ गाथा। तयाहार-स्वगाहार-पु० । त्यहमानाऽऽहारकवानप्रस्थधिशेष, तरतम-तरतम-धि. । न्यूनाधिसभावान्विते , तारतम्येन धर्मभौ०।
मान इति शारीरकभाप्यम । वाच० । " तरतमजोगजुत्तेहिं तर-तर-पुं० । तरतीति नरः । स्था० ५० १३० । "ऋवर्ण
जालयपरोहिं अपम्ममिव मधुप्पइस पिच्क्षा "कल्प.क्षण । स्यारः "GI४।२३४ ॥ इति धातारम्त्यस्य ऋवर्णस्थार निया --तालिहायन-त्रिकातरो बेगो बलं या तथा इत्यादेशः । प्रा०४पाद । संतरणकर्तरि, तपशब्दो महादोप
'महा-मव' धारये । ततश्च तरो मल्ली धारको घेणाऽऽदिप्रदर्शने, यथा कृष्णा कृष्णतर इत्यादि । नि० ५.१०।।
धारको, हायनः संवत्सरो वर्तते येषां ते तरमलिहायनाः। शक-धा० ।'शक'साम, "शकेश्चय-तर-तीर-पाराः "
यौवन वत्सु, औ०। (?) ४८६॥ इति शक्नो ते तर' स्यादेशः। 'तर'। प्रा०४ पाद ।
तरमाण-तरत-त्रि० । समर्प, नि० चू.१ ३०जी० । समस्-न । वेगे, बले व । श्री। तरंग-तरङ्ग- तृ-अङ्ग-कच् । वायुना जलस्य संचालन हि-तरनियम-तरक्षितपति-स्त्री०।विसंस्थुल बुझौ, जी.प्रति०। र्यगाऽऽरिप्लबने, वाच । कल्लोले, प्रश्नः ३ आश्र द्वार । तास-देशी-मांसे.देना५ वर्ग ४ गाथा। अष्ट० । कल्प० । कोचिषु, जं.२ वक०। औ० । हस्यकल्लो
तरिश्रब्ध-तरितव्य-त्रिका निधोंढव्य.-"तरिअन्वंय पत्रिम, से. ०११०७०। औ०।
मरिम वा समरे समत्येणं।" श्राव० ४० । नमुपे. दे. तरंगणंदण-तरङ्गानन्दन-पुं। स्यनामख्याते राशि. यस्य गति.
ना० ५ वर्ग गाथा। सरजामामा जार्या, रतितरहिणीमामा मुहिना । दर्श. ३ तय। तरंगमाझिण -तरङ्गमाझिन्-पु० । समु, को। तरित्तर-तरीतुम-अव्या लघयितुमित्यर्थे, प्रति. सरगनई-तरङ्गवती-स्त्री। स्वनामख्यातायां नायिकायाम.तर- | तरिया-तरिका-खी । घृतदश्यादेविकृतेऽययो, " पक्कगयं अपतीवक्तव्यताप्रतिबद्ध कथ प्रन्थे, दश. ३५० । मा० म०।। घयकिट्टी, पक्कोसहि उवरि तरियसबिच ।" ध०२ अधि। तरग-तम्फ-त्रि. । तरन्तीति तरस्ति एव तरकाः । पारगन्त. | तरु तरु-पुं०। तृज गुणः । वाच। क-ग-व-ज-त-द-प-य-या प्रा. पु. (स्था)
योमुक"| |१७० ॥रह स्वरादसंयुक्तस्यानादेरित्यतो. चत्तारि तरगा पहाता । तं जहा-समुदं तरामी एगे सम.| उनादेरित्यस्याधिकारान्झुग न । प्रा० १ पाद । वृते दा. ई तरह, समुदं तरामी एगे गोपयं तरइ, गोपयं तरामी एगे
१०.
तरुण तरुण-त्रि० । जन्मपर्यायेण योमशवर्षाणयारज्य या गोपय तरइ, गोपयं तरामी एगे समई तरह ४
धारिंशद्वर्षाणि नायत्तरुणः। व्य० ३ उ० । इत्युनलक्कमे प्रवचनारि तरगा पामत्ता । तं नहा-समुदं दरित्ता णायमेगे
अंम.नवयसि, भ०१४ श. १००। सूत्र. । ग० । त.. समुद्दे विसीयइ, समुहं तरित्ता जाममेगे गोपए विसीयह, |
नूतने, कर.३ ऋण । श्री. ।'तरुणदिवाकरकरे हं।' औ०॥ गोपयं तरित्ता एगे ॥
विशिष्टयर्णाऽऽदिगुगोपेतेऽभिनवे वस्तुनि,जी. ३ प्रति०२३०॥ ԱԱջ
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(२१५८) तरुणग अभिधानराजेन्दः ।
तलिम तरुपग-तरुणक-त्रि०ा स्तनन्धये सत्र०१९०३ भ०४ उ०मतलप्रएट-भ्रम-धा।"भ्रमष्टिरिटिच-दुगदुल्ल-ढएढल्ल-चकअनिन, भ.१५ श.1
म्म-भम्मम-भमझ-भमाम-तलपट-झएट-फम्प-भुम-गुमतरुणदिवाकर-तरुणदिवाकर-पुं० । प्राधिनवोदिताऽऽदित्वे, फुम-फुस-दुम-दुस-परी-परा: "॥८।४।१६१ ॥ इति श्राव०४०। अन्त।
भ्रमधातोः 'तमभण्ट' इत्यादेशः । 'तसएटर' । प्रा०४ पाद । तरुणधम्म-तरुणधर्म-त्रिका प्रविपकपर्याये, मि० चू. १९ उ०।
चलने,दिवा -पर-सक० सेट् । भ्राम्यति, अनमीत्। वाचा तारुण्ये वर्तमाने, श्रा० म० १ ०२खएक।
तलगत्ती-देशी-कूपे, दे० ना०५ वर्ग ८ गाथा । तिएडाssरेण समाणं. होड पकप्पम्मि तरुणधम्मा तलम्रोमा-खी० । गुच्चभेक 'तेबेमा 'इति गुर्जरदेश प्रसिद्ध. पंचएह दसाकप्पे, जस्सव जो जत्तिनो कालो॥ । म् । प्रज्ञा• १ पद। व्रतपर्यायमधिकृत्य तिसृणां समानां वर्षाणामारणार्वाक व-तल जमनजुगलबादु-तलयमलयुगलबाहु-त्रि० । तली तालवृ. तमानः प्रकल्पे निशीथाऽध्ययने तरुणधर्मा प्रविपक्कपर्यायोज.
amrendarविपीना तो तयोर्यमझ युगलं श्रेणिकयुगलं तलयमलयुगलं, तद्वत पति, पञ्चानां वर्षाणामकि वर्तमानस्तु (दसाकप्पेत्ति) उ
अतिसरली पोबरी बाहू यस्य सः । तात्रवृकसदशातिसरन. पलकणत्वाद्दशाकल्पव्यवहाराणां तरुणधमा हातव्यो,यस्य वा
पीवरवादी, रा०। जी । तलयमलयुगलपरिघनिभयाहुः। तची सूत्रकृताङ्गाऽऽदेः श्रुतस्य, यो यावान काझो व्यवहाराध्ययने दश
तालवृक्षी तयोर्यमदं समश्रेणिकं ययुगलं द्वयं परिघश्चार्गला, माहेशके भणितः, तस्य तावन्तं कालमसमापयन् तरुणधर्मा
तन्निमौ तत्सदृशौ दीर्घसरलपीनत्वाऽऽदिना बाहू यस्य सः। भवति । यथा-"कपप चउवालपारयायसमास्स निगंथस्स
भ० १४ श० १००। सुधगडं नाम अंग उदिसित्तए।" इत्यादि । ५.१००।
ताण-तमन-म० । सुकुमारिकाऽऽदेरिव भ्राष्ट्रभर्जने,प्रश्न.भा. तरुणपरिकम्प-तरुणपरिकर्म-न । रोगप्रस्तस्य सतस्तरुण- श्रद्वार । अग्नी स्नेहेन भर्जने, विपा० १ ० ३० स्य बलविवृद्धिकरणे, व्य०४ उ०।
| तन्नतान-तज्ञताल-पुं० । हस्त तामे, कल्प०१क्षण। सू० प्र०। तरुणपन-तरुपमज-पुं० । खरतरगच्चीये जिनकुशलसरिशि-|
| चं० प्र० । कल्प० । ज्ञा० । न । हस्तकशिकयोः, कल्प० ४ प्य, अनेन विक्रमसंवत् १४११ मिते श्रावकप्रतिक्रमणविवरणं कण | चं० प्र०। नाम ग्रन्थो रचितः । जै०६०।
तलपत्त-तालपत्र-ना तालानिधानवृक्षपणे,ज्ञा०१ श्रु.१७मा तरुणिया-तरुणिका-स्त्री० । अपरिपक्कायाम, प्राचा०५०१
तलप्फल-देशी-शास्याम, दे० ना०५ वर्ग ७ गाथा। ०१० तरुपीपमिकम्म-तरुणीप्रतिकर्म-न. । एतदेकत्रिंशत्तमकसा
तलभंगय-तलनगक-पुं० । बाह्वानरणविशेषे, जी०३ प्रति०४
नौ । दे, युवतीनां वर्णाऽऽदिवृक्षरूपायां सङ्गस क्रियायाम, जं. २ पक्ष। झा0। औ०।
| तलवत्त-देशी-करणाभरणविशेषे, वराहे च । दे. ना.५ वर्ग तरुणीपरिकम्म-तरुणीपरिकर्म- तरुणीपमिकम्म ' शब्दार्थ, २१ गाया। जं. २ वक।
तन्नवर-तलवर-त्रि०। परितुष्टनरपतिप्रदत्तपट्टबन्धविनूषिते रा. तरुतिगिच्छा-तरुचिकित्सा-स्त्री० । वृक्काणां रोगप्रतीकारलक्क- । जस्थानीये,
स्थाएगा| औा पश्चा० । प्रज्ञा० भ० । जी।
कल्प० । जं० ।रा० । अन्त. । झा० । अनु० । वृ०। णे एकोनपश्चाशत्पुरुषकलाभेदे, कल्प०७कण । तरुपक्खंदोनय-तरुपक्षान्दोनक-त्रि०। तरूपक्के तरूपावा -तलटि-तानन्त-न । "वाऽव्ययोत खातादावदातः" स्मानमान्दोलयन्ति ये ते तथा । तरूपवान्दोमनात्पातेम मृतेषु,
६७. त्याकारस्यात्वम् । पते-तालविएटम् । प्रा०१ पाद ।
तामे करतले वृन्तं बन्धनमस्य,तानस्येव वृन्तमस्य वा व्यजने, तरुपमण-तरुपतन-नापिप्पसबटाऽऽदितरूनारुह्य उत्पत्य पत.
वाच.. मे, नि0 चू० ११ उ० प्र०।
तलबेंट-तालसन्त-न० । 'तलविंट' शब्दार्थ, प्रा. १पाद । तरुपतणहाण-तरुपतनस्थान-न० । यत्र मुमूव एवानशनेन | तलसारिअ-देशी-गासिते, दे ना.५ वर्ग ९ गाथा । नायिके, तस्वत्पतितास्तिष्ठन्ति, तरुभ्यो वा यत्र पतन्ति । तथाभूते स्थाने, | दे० ना.५ वर्ग गाथा। भाचा०२ श्रु०२~०३०
|तमाभ-तडाग-jo1"डो लः" ।।१।२०२॥ इति डस्यलः। तन-तम-पुं० । हस्ततले, जं० १ वक० । नि००। प्रा० म०। प्रा०१पाद । पुरुषाऽऽविकृते जनाऽऽश्रयविशेष, प्रश्न.४ संब०
जी। पाणिपादामामधोभागे, ज्ञा० १७०१०। तं० । हस्ते द्वार । प्रका1ौ । अनु•। आ०म०। श्राचा०ापाव.रा०। स्था०८ ठा। चप्रा०। औ० कन्प्रत्ययोऽप्यत्री प्रा. |तलाग-तमाग-पुं०।'तलाअ'शब्दार्थ, प्रइन०४ संव.द्वार। म०१०१स्व मा मध्यखरामे, स्था. ८ ग० । भधोभागे, तमार-देशी-नगररक्षके, दे ना०५ वर्ष ३ गाथा । का०११० १ ०। प्रतिष्ठाने, “सम्मम्गनिमम्गद्वदतलं।"
तलिण-तन्निन-न० । प्रतले, औ०। प्रश्न०३ पाश्रा द्वारा हस्ताले, रा०ाझा० । दशा०। भति. दीर्घ तासानिधाने वृत्तो का० ११.८ अ.जी। प्रा० म०। | तलिम-तस्प-नाशयनीये, ज्ञा०१ श्रु० १६ ० । कुडिमे, तालो वृतस्तत्र भवं तालम् । तालकफले, व्य. १3०। प्रा- शय्यायाम्, गृहोवनूम्याम्, वासभवने च । दे० ना० ५ बर्ग मेश शख्यायां च । दे० ना०५ वर्ग १६ गाया।
१. गाथा।
औ०॥
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तलिमा
सलिमा तलिमाखी सूर्यचाद्य ००० सत्रिय वन्निव शिक्के नि० १ ० १ १० नि० चू० ।
हलिया तलिका श्री० उपाधि पृ०
तझियान रचिगमणे, कप्पड़ तेथे य सावए असहू । भारिपचरी, बी चिन्धसंघट्टा || पुख सविका कमाता रात्री गमनेकार्थे पदे बध्यन्ते सा पान
येन, श्वापदभयेन च स्वरितं गम्यमाने दिवाऽपि बध्यन्ते, अलदिष्णुः सुकुमारपाइ स कण्टकसंरक्षणार्थ क्रमणिका पादयोर्बध्नाति । ताश्च प्रथममेकतलिकाः, तदप्राप्तौ यावच्चमुस्तलिका अपि गृह्यन्ते पुरकान खलका शानि शीतेन पादयोविचर्चिकासु विपादिकासु स्फुटतीषु बध्यन्ते । व
पुस्तकांचा
बृ० १ उ० । घ० । व्य० नि० सू० । ओघ० ।
तरुण ०
(२२) अभिधानराजेन्द्रः ।
वयास आ० म० १ ० २ खण्ड रा० । सन्देश पले,
० १ ० १६० मान
येथे यायच००५
वर्ग १० गाथा | सतलज-पुं० तृणविशेषे, प्रश्न० ३ सम्ब० द्वारा | साक-पुं० [सुविशेषे २० सलम - देशी- शय्याम, दे० ना० ॥ वर्ग २ गाथा । सनिच्छ-देशी-तत्परे, दे० ना० ५ वर्ग ३ गाथा । सनेस्स - तल्लेश्य - त्रि० । तत्रैव लेश्या शुभपरिणामरूपा यस्य सः। ग० २ अधि० । अनु० । लेश्या दि कृष्णाऽऽदिव्यसा विश्वजनित मात्मपरिणामः तद्विषयले पिपा० १०
२ अ० ।
।
सब-पुं० । तपम् - १० "स्नमद्दामशिरोभ्यमः " ॥ | १ | ३२ ॥ इति प्राकृते पुंस्त्वम् । प्रा० १ पाद । तथ्यतेऽनेनेति तपः । तापयति अकारं कर्मेति तपते इदि को सुप्रत्ययः ० ० १ ० २ खयम ! तापयति कर्म दहतीति तपः । पञ्चा० १६ विव० । स• । ताप्यन्ते रसाऽऽदिधातवः कर्माणि वा श्रनेनेति तपः । ध० ३० म० रसधरमांसा काश्यनेन सध्यन्ते कर्माणि वाभानी स्वतस्तपोनामनिय कम् । स्था• ॥ ठा० १ उ० । चतुर्थाऽऽदिषएमासान्ते ( स्था० ६ वा० ) अनशमाऽऽदौ, प्र० ४ संब० द्वार । आव० ।
० । सूत्र० । नं० रा० । संथा० । दश० प्रव● | भरू महानरूप्रतिमासु उत्त० ३० अ० ।
तपोनिष
निक्खेवो उतवम्मी, चव्विहो दुविदो उदोइ दव्त्रम्मि । प्रागम-नो भागमत्रो, नोभागमतो य सो तिविद्धो ||४३|| मायगसरीरजनिए, तम्यहरिचे व पंचतनमाई | मापम्मि छोड़ पुनिहो, जो तिरो चैव ॥४४॥ गणं दुह वि, पुब्वुद्दिको चउक्कनिक्खेवो । यं तु भावम, सिद्धिगईए उ नायम् ||४२||
तव
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दुहितो मग्गइ वा निज्जइ वा जम्ह एत्थ श्रन्यखे । तम्हा एयऽज्जपणं, तत्रमग्गगइ ति नायव्वं ॥ ४६ ॥ गाथाचतुष्टयं प्राग्वनवरं ( पंचतवमा त्ति ) पञ्चतपः पा तियों यत्र चतवविदिषु चत्वारोऽग्नयः पचमध व पनः । लोके प्रतिरुमादिशब्दा लोक प्रतीतमन्यदपि बृहत्तपःप्रभृति यत्वं वास्याज्ञान तथा विधानङ्गत्वात् तथानावे प्रमापो बाचा चास्य तथा पूर्वत्र मोहमार्ग गतिनाम केऽध्ययने उद्दिष्टः कथितः पूर्वोद्दिष्टः ( भावममा ति) सुध्यत्ययाद्भावमार्गेण मुक्तिपथेन तपोरूपेण ज्ञानदर्शनखारित्राविनाभावित्वाद्भावतपसः । उत० पाई० ३० अ० । नामनिरुक्तिमाह
जहा उपाय कम्मं, रागदोससमज्जियं ।
खवे तसा चिक्यू हमेगग्गमणो सुण ॥ १ ॥ यथा येन प्रकारेण निक्षुस्तपसा रागद्वेषसमर्जितं रागद्वेषाभ्यामुपार्जितं कर्म पति पादपूरणे। तं सपोमार्गम एका साधान सन्दे जम्मस्यामिन्! अहं वदामीति सम्बन्धः, अनाश्रवेण किल कर्मक्षयः क्रियते ॥ १ पाणिमुसावा- प्रदचमेरापरिगडा बिरयो । राईभोषणविरो, जीवो होइ अणासभो ॥ २ ॥ हे शिष्य ! जीवो निरानयति को बाबादारामैथुनपरिग्रहादिस्तो रहिता मा रात्रिभोजनबि रतः, एतादृशोऽनाश्रवो भवति ॥ २ ॥
पुनरनधयो यथा भवति तमा पंचतिगुतो, असाच निदियो ।
गावो य निस्सयो, जीवो होइ अणासवो ॥ ३ ॥ कोच पञ्चभिः समितिमतः सहितः पश्चमतः, पुनस्तिसृभिर्गुप्तिनिर्गुप्तः, पुनरकषायः कषायरहितः पुनर्जि
यः पुनरगार रससाताऽऽद्गिरदितःपुनःक्ष्यः मायानिदानमिष्यादर्शन रहिता एतादृशोऽनाश्रवो नवति ॥ ३ ॥
एवंविधोऽमाश्रवश्च यथा कृपयति, तथा वदतिएएस तु विवश्वासे, रागदोससमज्जियं । खने जं जहा जिक्यू, तमेगग्गमथो सुख ॥ ४ ॥ हे शिष्य ! यथा येन प्रकारेण मितुः साधुरेतेषां पूर्वोकानां प्राणा[[तिपादनृपावादादसमे परियोजनविर
व्रतानां तथा समिति गुप्त्या दिल कृणानामनाथत्रकारणाना विपर्यास वैपरी प्राणियधमृपावादादतमैथुनपरिमात्रिनोजसमित्यभाषयनाय से बने सति रागद्वेरासम तिं पापकर्म क्षपयति, तं प्रकार मेकाग्रमना एकखितः सनूत्वं शृणु ॥ ४ ॥
अत्र दृष्टान्तमाद
जहा महातमागस्त, मन्निरुद्धे जलागमे । खचिणाएँ तत्राए, कमेणं सोसणा भवे ॥ ५ ॥ यथा महातढाकस्य महाजलाऽऽअघस्य जबाऽऽगमे पानीयाssमनमार्गे सक्षिय सम्पककारण संसति
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(२.) श्राभिधानराजेन्द्रः।
तव बणापति) चरिसश्चनया कदै भरघट्टाऽऽदिना कर्धाऽऽकर्ष. शनाऽऽविदुःखम्पयाध्यादिःखम्यान दुश्वत्वावशेषात,दुः. गया, तपमेन रविकिरणाऽऽदिमा संतापेन फ्रमेण शोषण खाऽश्मकस्य तपसोऽन्युपगम च दुखम्यैव तपस्टचे नान्युपगजलस्थ शोषणं नवेद, नवीनजलागमनमार्गो निभ्यते, मादिति भावः। तथाविशिष्टः प्रधानतरः सपस्वी सम्पते प्रति पूर्वस्वजसं च निष्कास्यत,जलदो रिक्तः स्यात,तिभावः ॥५॥
प्रक्रमः केनेत्या-तावशेषण हेतुना । कब कनेत्याह-सुधनेन भय दान्तिकमाह
प्रधुरधनेन. धनी महाधना, यथा येन प्रकारणेति ॥२॥ एवं तु संजयस्साऽवि, पावकम्मनिरासवे ।
भथ सर्व पर दुम्सी तपस्वी प्रसज्यतां. को दोषः माहजयकोमिसचियं कम्म, तवमा निजरिजा॥६॥
महावपस्थिनश्चैवं. त्वन्नीत्या नारकाऽऽदयः।। पचममुमा प्रकारेण, पापकर्मनिराभवे सति पापकर्मणा प्रा.
शमसौख्पप्रधानत्वाद्, योनिनस्पतपस्विनः ॥ ३॥ जिवाचानां निरोधेसनि, मयनस्यापि साधौरपि, कपमा
महातपस्विनः विशितपोधनाः, प्रसम्यते इति गम्यते, चकारी द्वापशविन. सधकाहिसंचितं कर्म मिजीर्यते, प्राधिक्येन सायं
दोचतरससुरमये, एवमुचप्रकारया,खात्या नव्यायेन.दुःखो मीयते । अत्र कोटाहणं पस्योपलक, कोटानियमस्य
नपस्वी प्रयुपगमक्षकगोनेति भावानारकाऽऽदयो नैरयिकाss. असंभवात् ॥ ६॥उन ३०भ०।
यः तेषां महादु:खितत्वात, दिशब्दान्मदाबेदनाभिभूततिबगा. तपाभ्यन्तरं.६बाह्यम-"इविडेये पाते। तं जहा.
देः परिग्रह । हामः स पण सौख्यं शमौल्यम। यदाह-क्षणमं. बाहिरियतिरिष य ।से कि बाहिरपाया
चारनिमामोवि मुनिवरो भदुरागगयमोहो । जं पायमुनिसुहं. PARप त बिहे नातं जटा-"अणसणं.कणोयरिया,
कत्तो तंबकयट्टी बि?"॥३॥शरसौख्यं प्रधानं येबांहे,तेन या प्र. भिखायरियासपरिणामो कायकि सोपडिसंहीणया।"
धामा ये ते तथा दभावस्तरवं, तम्मामतीरूपप्रधानम्वाद भ०२५ श.9 30/101001सभामा स्था।
5.खितम्यानित्यर्थः। योगिनः समाधिमन्तः शब्दः पुनरा.म. पा० । प्रा००। प्राचा०।नं। उत्त । जीन.। (भनश
तपस्विनः भतपोधनाः..खामकापसोजावादिति नावना मादीनां व्याख्या स्वस्वस्थाने. "तेणं तबेणं तेपणं एगादप कुमा.
त्यन्तीत्या प्रसज्यन्त इति प्रकृतमेवेति ॥ ३॥ हवं"तपोजन्यं तेजस्तप पय.तेन तेजोस्ने श्क्या। भ.१५श।
पर एव स्वपकं निगमयन्नाह.. दुःखस्तत्वात्सपो म कायमिति केषामितनिरासः । युक्त्यागमयहिभूत-मतस्त्याज्यमिदं बुधैः। पैराम्पयुक्तेन तपो विधेयमसो वैराग्याष्टकानम्तरंसपोऽएक- प्रशसाध्यानजननात, पाय प्रात्माऽधकारकम् ॥४॥ मारज्यते। तत्रापि परमतमाशमान पाह
युक्तिश्योपपत्तिः प्रागमश्चाऽऽप्तवचनं.ताभ्यांबहिनदननुपाति मुःखाऽऽत्मकं तपः केचि-न्मन्यन्ते तन्न गुक्तिमत् । तवाधितं युक्त्यागमयहिभूतं, तत्र युक्तिवाहितता प्रागग्दादशकर्मोदयस्वरूपत्वा-द्वनीवर्दाऽऽदिदुःखवत ॥१॥
ना। भागमयहिहना चैवमबगन्तव्या-"भाषियजिणवप्रमाणे, समसुख मारमा स्वजाबो यस्य नद सापक,नित् ?,
ममत्तमाहियाण मऽस्थि उधिसेसी, अप्पाणमिम परम्मि यतो घ. तपोऽनशनादिरूपमिनि कृत्वा.केचिदनधिगनपारगताऽऽगमग
जे पीममुनभो चि" ॥३॥ घनशनाऽऽदीन स्वकासपीमाप्रतीने. भांधी, मन्यन्ते अभ्युपगरुन्ति । तदिति तपो न नैव, युक्तिमा
घेति। मत इति, यम्मादनन्तगेदिधणोपेतमत पम्मादेतो. व उपपण्या सातं न, मोकाङ्गं तप एयन संभवती त यावत् ।
स्याज्यं ज्यागादेमिरमनशमाऽऽदि दु खाऽस्मकं तपः कैरित्याहअथ दुःखाकमपि सत्क.स्मान मोक्ताभित्याह-कर्मोदयस्व.
युधयुक्त्यागदपक,न तेलोंकरुत्या प्रतिव्यं नयति.पुरउपन्यादिति । प.मोद योऽसातवेदनीया 55दिकर्मविपाकः स्वरूपं
स्वाभावप्रसादितिदृदयमातथाऽस्माऽपकारकं स्वस्यानर्थ नब. स्यायो यस्य तत्तथा तनावस्तवं तस्माता तथाहि-नयम्यन
धनामई.कुतः१.प्रशस्तध्यानजननाव अप्रस्ताभ्यवसायोरपा. शनादिषु कृषिपालाऽमयः परिषहा,तेच वेदनीयकर्मोदय
दकन्यात, यो बाहुल्येन,नत्यते हि भोजनायभाये अप्रशस्तं सपाचा भागमे भूयन्ते,इति वेदनीयकोदयाममकमनदाना55.
ध्यानम् । यदाह-"माहारबर्जिते देडे,धातुक्षोभ प्रजायते । तत्र दिकदियस्वरूपन्याच न मोका तस्किशिदिस्यार-बनीया
चाऽधिकमयोऽपि, चिस_शं समानते॥५॥हभप्रायोबिदुखपत्-गयाहिमतासामिय। प्रयोगकम यत्फमोदय.
ग्रहणात थीमन्महायोगादभिभिवारपरिधागे वर्शित इति, मम्भौशायथा गवादिदु:खं, कर्मोदयम्वरूपं च सपः,
अतोऽपि स्याज्यमेव चुरिति प्रक्रम इति पूर्वपकः ॥४॥ RAHIM मोकासमिति शिवम् । अयं स योकामा
भत्र रिरुत्तरमाहकगाथामुपजाप्य मयाऽभिहित:-" एपण जंपिके.
पनइन्द्रिययोगाना-महानिश्चदिवा जिनः। बोई दुहं नि मोक्चंग । कम्मरियागरणभो भणति
यतोऽज तत्कथं न्वस्य, युका स्याद् :स्वरूपता ? || एवं पिपडिसुद्धं ॥१॥" इति।।
पूर्वपकवादिना यदुक्तम् खाऽस्मकं तपो न युक्तिमत.कर्मोदय. Rथ दुःखस्परपस्यापि उपसो मुक्तिमत्वाभ्युपगमे पर एच स्वरूप यातना दुःखत्मकमिति विशेष तपसोनसिद्धाप्रति प्रसङ्गमाह
ताबदायदयनि-कथम,मनच चित्तमिडियाणि न करणानि, सर्व एव च मुख्येवं, तपस्वी संप्रसज्यते ।
योगाचप्रत्युपेकणाऽऽदय संयमव्यापारा मनइन्द्रिययोगाः तेषा. विशिष्टस्तविशेषेण, मृधनेन धनी यया ॥३॥
महानिरमाबाधता, चोदिता अनिहिता अथवा-बादः समु.
बये, तेनानुप्लुतता बदिता उका.जिनस्तीर्थकरैः,यतो यस्मा. सर्थ एव निरवशेष एवं यःकश्चिद दुखी दुःखवान्, चदादो। कारणात, अन तपसि । यदाहदुषणाम्तरसमुपये,एवं दुःखाऽमकस्याऽपि तपसोयुक्तिमत्या. “सोदुबो कायम्बोजेण मणोऽमंगलं न बिते । भ्युपगमेसात, सतपस्वी तपायुक्तः संप्रसज्यते मात,मन- जेण न दियदामी, जेण य जगान हायति "ta
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(२१०१) तव अभिधानराजेन्ः।
तव तथा
मागत्य निभालयन्ति स्म। अपश्यंश्च काचाऽदिशकलानि,अब. "ता जहन देहपीला, न यावि चुयमंससोणियत्तं तु । धीरितवन्तश्च ग्रहगृहीतोऽयमिति विभावयन्तः । ततः पुनरपि जह धम्मकाणवुही, तहा श्म होइ कायम् ॥२॥"
तथैव निवृत्तः, तत्रापि यः पूर्य न वीक्कित पासीत, ते तथैव तदिति तस्मात्कारणात् कथं केन प्रकोरण!,न कश्चिदित्यर्थः। चीक्षितयन्तोऽथावधीरितवन्तश्च । एवं पुनरपि असावरण्यमध्ये. नु इति वित, अस्य तपसः,युक्ता उपपन्ना, स्याद्भवेत, पुःख- न गतवान् । ततस्तृतीयवसायामतिपरिचितत्वादयधीरितस्तरूपना असुखस्वभावता। तदेवं दुःखाऽमकत्वं तपसोऽसिकं, स्करजनेन । ततोऽसौ निश्चितवान्-न मां कोऽपि अत्राभरण्यमार्ग सदसिद्धावयुक्तिमत्वमप्य सिद्धमित्युक्तमिति ॥५॥
स्खशयिष्यति । इति निश्चित्य रत्नानि गृहीत्वा शीघ्रसऽपयोगाय ननु देहपीडाकरत्वेनाऽनशनाऽऽदीनां दुःस्वस्वरूपत्व- वाञ्छितपुरप्राप्ताबरण्यात्तनिर्वाहणे चातीयौत्सुक्येनाऽनधरतं मनुभूयमानमपि कथमसिद्धमिति व्यपदिश्य
महाप्रयाणकै क्षुत्पिपासाश्रमादीन् भवतो नूयसोऽप्यवगणय. त इत्याह
न गन्तुं प्रवृत्तः। बहुतरमार्गमतिलङ्कितः सन् विपासाऽनिलूतो याऽपि चानशनाऽऽदिन्यः, कायपीमा मनाक् कचित । भारयामास-अहो! अहमद्य नझं विना निये,न च रत्नोपभोच्याधिक्रियासमा साऽपि, नेष्टसिख्याध बाधिनी ॥६॥ गभाजनं भवामीत्येवं भावयता मरणभयजीतेन रत्नोपनो. (याधीति) अनशनाऽऽदिभ्य उक्तन्यायेन तावद् देहपीमा न भय.
गाडकाविणा दृएं सर: पप्रायपानीयं पङ्कमग्नमृगादिकडेव. स्येव, याऽपि चानशनाऽऽदिभ्य उपवासाऽऽदियः, श्रादिशन्दा.
रपूयकामजालव्याकुलं विलीनमतिदुर्गन्धं विरसतुबजलम् । दुनोदरताऽऽदेः सकाशात् , कायधीमा शरीरवाधना, न तु
हा च गन्धमजिघ्रता रसमनास्वादयता पुष्करकरणं कु. मनापीमा, मनाक् स्वल्पा, क्वचिद्देशे काले बा, न पुनः सर्वत्र
यता अक्षिणी निमील्पाञ्जलिभिस्तत् पीतवान्, परं स्वासर्वदा सा समवति । उक्तन्यायप्रवृत्तस्य साऽपीति इह दृश्यते
स्थ्य नागमत, तदुपष्टम्भितश्च क्षीणपिपासादुःखोरकेपणेष्टपुरं नासावपिन बाधनी, नया बाधिका, न मनसो दुःखदा । कि
प्राप्तः, रत्नोपयोगसुखं चेति। उपनयस्तु प्रागुक्त एवेति ॥ ७॥ मित्यत आह-सिध्या याचितार्थसाधनात्, अत्र प्रय
तदेवं पुःखाऽऽत्मकतां तपसो व्युदस्य कमोदय. चने, किंविधाऽसावित्याह-व्याधिक्रियासमा रोगचिकित्सा.
स्वरूपतां व्युदस्यन्नाहतुझ्या । यथा हि रोगचिकित्सायां मनाक देहस्य पीडा सस्यपि विशिष्टज्ञानसंवेग-शपसारमतस्तपः। न बाधिका, आरोग्यनिद्धः, एवं तपस्यपि देहपीडाभावाss- क्षायोपशमिक शेय-मव्यावाघमुखाऽऽत्मकम् ॥८॥ रोग्यसंसिद्धेन भावतो बाधिोति नाचनेति ॥६॥
विशिष्टाः प्रधानाः सम्यग्दर्शनविशेपितत्वात्-ज्ञानं च तयसं. पार्थसिद्धी देहपामाया अदुःखरूपतां दृष्टान्तेन समर्थयमाह- घेदन,संवेगश्च संसारभयं,मुक्तिमार्गानिवाषिता वा,शमश्चकपा पृष्टा चेष्टार्थसंसिछौ, कायपीडा ह्यदुःखदा ।
येम्झियमनसां निरोधः,ज्ञानसंवेगमा,विशिष्टाश्वतेचीत कर्म. रत्नाऽऽदिवणि गादीनां, तद्वदत्रापि नाव्यताम् ।। ७॥
धारयात एव सारोऽन्तगनों यस्यातेवा सारं यत्तत्तथा । ज्ञाना. न केवल मस्माभिरहोपन्यस्ता, दृष्टा च लोके भवलो
दिसारमेव तपस्तपो भवति,नेतरदल्पफलत्वात् । यदाद-"मट्टि किता, इष्टाधससिमावनिप्रेतप्रयोजन प्राप्ती सत्यां, फायपीमा
वाससहस्सा" गाहा । "वज्जीवकायवहगा" गाहा। अत इति। देहयाधा, हिशब्दः स्फुटार्थः, अदुःखदा न पीमाकारिणी,
यस्मादुक्तयुक्तरदुःखात्मकमत एतस्मातोस्तपोऽनशनाफेवामित्याह-रत्नानि मरकतादीनि, प्रादि वखसुब.
दिकिमित्याह-क्षयेण उदीय चारित्रमोहनीयकर्मणश्वेदेन सह दीनां तानि तथा तेषां, पणिय वाणिजको रass
उपदमस्तस्यैव विपाकापेकया विष्फमिन्नतोदयत्वं कयोपशमः, दिवाणकाम आदियेषां कृषीवलाऽऽदीनां ते तथा तेपा, रत्नाऽऽ
तत्र भवं क्षायोपदाभिकम्, इयं ज्ञातव्यम । न पुनः कोदयस्व दिणिगादीनाम। ततः किमित्याह-तेपामिव वणिगादीनामिव
रूपम् । तथा अविद्यमाना व्यावाधा अधिरतिजनिता अनन्तराः सहत, अप्रापि अनशनाऽऽदितपोविषयेऽपिभाग्यतां निपुणधिया
पारम्पर्य कृता या ऐहिक्यः पारत्रिका वा यस्मिस्तदव्यावा, पर्या लोच्यताम् । तयादि-रत्नसुवर्णवसनाऽऽदिवणिकृषीवला
तश्च तत्सुखं च तदेवाऽऽत्मा स्वन्नाबो यस्य तदव्याबाधसुखाउदीमा ममाहितार्थसंसिद्धिबदनिश्चयानाम् अपारपारावारा.
ऽऽत्मक प्ररामसुखा मकसिसुखानुकारीत्यर्थः । अनेन च चतारकान्तारनिस्तरणधरणाकर्षणादिविविधव्यापारपराय- ग्लोफेन तपसोऽकर्मोदयस्वरूपत्वमसुखत्यरूपत्वं वाऽदितम्। णानां कृत्पिपासा-श्रमाऽऽदिजनितदेडपोमा न मनोविधुरताऽऽधा
उक्तं चैतदन्यत्रापियिनी, पवं साधूनामपारसंमारसागरमचिरादुत्तितीषूणामनश. " श्य इमं न दुक्खं, कम्मविवागो वि सम्बहा ने । नौनोदरताऽऽदितपोजानतदेहपीमा न मनोबाधाविधायिनीति ॥ खाउयसमिए जाये, एयं ति जिणागमे भणियं ॥१॥ ४ पुनविशेष सम्प्रदाय केचिदेवमूचुः
खंताश्साहुधम्मे, तबगहणं सो ख प्रोबसमियम्मि। किन कोऽपि दरिद्रवणिजको दूरदेशान्तरं गत्वा कथं कथम- नावम्मि विणिहिटो, मुक्खं चोएइ भे सब्धं ॥२॥" पि रत्नान्युपार्जितवान्, चिन्तितवांश्च-कथमहमेतानि महामूल्या- पतेन च तपसो दुःखरूपत्वकर्मादयस्वरूपत्वपरिहारो सर्य एवं मिमाऽऽशासम्पादकानि महारत्नानि चौरच्याकुलमरण्यं नि. हि दुःस्येवमित्यादिश्लोकद्वयानिहितं तपोधणं सर्व परिहतमस्तीर्य स्खनगरं गत्वोपनोग नेष्यामि ततस्तेनोत्पाबुहिना ता. वगन्तव्यम, दुःख स्वरूपत्वाऽऽश्रयत्वात्तस्येति । अन्ये विदन्यकत्र स्थाने निहितानि, काबाऽऽदिसतानि च पोट्टलिकायां मष्टकमेव व्याचक्कते-दु:स्वाऽऽत्मकं, दुःखमेधेत्यर्थः । तपः बद्धानि । सा च दरामा निबहा । ततश्चोरपल्लिमध्ये नाहो! केचिन्मन्यन्ते, तदेव दुःखाऽस्मकतपोमननं न युक्तिमत् । कुत रनवणिज को गच्चतीत्येवं महता शब्देन व्याहरन्नरण्यमतिका- इस्याह-कोदयस्वरूपवाद सुःखम्य। किदित्याह-पलीवदी. मति स्म । ततोमागे पल्लीषु च ये जनाःते तं वाक्य ससंभम. विखवत, तपसश्च वायोपशामकत्वादिाताहवरमा
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(२००१) अभिधानराजेन्षः ।
तव न्तराभिधानायाऽऽह-सर्व एव चेत्यादिश्लोकद्वयमाअथवा दुः- रोक्ततपोभेद एव ( इमो त्ति) इदं बक्ष्यमाणं तपः प्रकीर्णकं साऽऽत्मकं तपः केचिन्मन्यन्ते कर्मोदयस्वरूपत्वाद् बलीवा- व्यक्तितः सत्रनिबरुम्, न निक्षुप्रतिमाऽऽदिवत्सूत्रे निवामिऽऽदिशम्देन विछोषितत्वाद् दृष्टान्तस्येति स तुरेवायं वृक्कोऽयं, त्यर्थः । न चोत्सूत्रत्वमस्य, द्वादशभेदतपस्यन्तर्भावात् । तशाखादिमवात, प्रामवृक्षवदिल्यादिवदिति । अत्राचार्य वाऽनेकभेदमनेकविधाऽऽसम्बनत्वात् । इतिशब्दः समाप्तौ । बाह-वन युक्तिमदिति । कुत इत्याह-सर्व एव चेत्यादि श्लो- इति गाथाऽर्थः॥४॥ कद्वयम् । इह चशब्दो यस्मादर्थे अष्टव्यः । प्राचार्य एवोभ
प्रकीर्णकमेव तपो दर्शयन्नाह-- यत्र परस्योपदेशमाह-युक्त्यागमेत्यादि । इदमिति तपसो दुः- तित्थयरणिग्गमाई, सव्वगुणपसाहणं तबो होइ । स्वाऽऽत्मकत्वमननं, शेषं तु श्लोकचतुष्टयं प्रववदेव, नवरं "म.
भव्वाण हिओ णियमा, विसेसो पढमवागीणं ॥५॥ नशयियोगानामहानिश्चोदिता जिनैः," इत्यत्र चशब्दः पूर्वोक्त
तीर्थकरनिर्गमादि येन तपसा तीर्थकरा निक्रान्ताः; आदियुक्त्यपेक्षया युक्त्यन्तरसमुपयार्थो अष्टव्य इति ॥ ॥ हा०
शब्दातीर्थकरज्ञाननिर्वाणाऽऽदिग्रहः। किंभूतमिदमित्याह-सर्वगु११अष्ट०।
णसाधकं तीर्थकरनिर्गमनाऽऽद्यासम्बनस्य शुभनावप्रकर्षरूपत्वे. तपश्चान्जायणं कृच्छं, मृत्युघ्नं पापसूदनम् ।
न ऐदलौकिकाऽऽद्युपकारकारित्वात्। तपोभवतीति व्यक्तम्। प्रत आदिधार्मिकयोग्यं स्या-दपि लौकिकमुत्तमम् ॥१७॥ एव भव्यानां हितं नियमादिति व्यक्तम् । विशेषतः पुनः तप इति । बौकिकमपि लोकसिकमपि, अपिलोकोत्तरं समु. प्रथमस्थानिनामव्युत्पन्नबुझीनां हितत्वादेव निरालम्बनतयाऽपि चिनोति, उत्तम स्वभूमिकोचितशुभाध्यवसायपोषकम् । द्वा.
शुभभाचप्रकर्षसंजबात् सर्वमपि हितमेवेति गाथाऽर्थः॥५॥ १२ द्वा० । यो० वि०।
पश्चा० १६ विव०। ज्ञानसारीयं तपोऽष्टकम्
चान्द्रायणाऽदितपः
चंदायणा य तहा, अणुलोमविझोमो तवो अवरो । झानमेव बुधाः प्राहुः, कर्मणां तापनात्तपः।
जिक्खाकवलाण पुढो, विषो बुझिहाणीहिं ।। १० ।। तदाभ्यन्तरमेवेष्टं,बाह्य तदुपबृंहकम् ॥ १ ॥
चन्द्रायणमिव चन्याय, तदादि च, प्रादिशब्दाद्भजामहाभआनुस्रोतसिकी वृत्ति-बालानां सुखशीलता ।
दासर्वतोभकारत्नावलीकनकावल्येकावलीसिंहनिष्क्रीमितद्वया. प्रातिस्रोतसिकी वृत्ति-निनां परमं तपः । ॥ ऽऽचाम्बवर्द्धमानगुणरत्नसंवत्सरसप्तसप्तमिकाऽऽदिचतुष्टयकधनार्थिनां यथा नास्ति, शीततापाऽऽदि :महम् ।
ल्याणकाऽऽदितपसामागमप्रसिद्धानां ग्रहः। तथेति वाक्यान्तरोतथा भवविरक्तानां, तवज्ञानार्थिमामपि ॥३॥
पक्केपार्थो गाथाऽऽदौ दृश्यः । अनुलोमविलोमतो गतप्रत्यागत्या,
तपोऽपरमन्यत् । कथम् ?, भिक्षाकवतानां प्रतीतानां, पृथग्ने. सदुपायप्रवृत्ताना-मुपेयमधुरत्वतः।
देन, विज्ञेयो झयो वृकिहानिभ्यामिति गाथाऽऽर्थः ॥ १८ ॥ झानिनां नित्यमानन्द-वृद्धिरेव तपस्विनाम् ॥४॥
पश्चा०१६ विव०। इत्थं च सुखरूपत्वा-त्तपो भ्यर्थमितीच्छताम् ।
रोहिएयादितपःबौद्धानां निहता बुधि-बौछाऽऽनन्दाऽपरिक्षयात्॥५॥
अम्लो वि अत्यि चित्तो, तहा तहा देवयाणिोएण । यत्र ब्रह्मजिनार्चा च, कषायाणां तथा हतिः ।
मुछजाणाण हिओ खलु, रोहिणिमाई मुणेयन्यो।।२३।। सानुबन्धा जिनाज्ञा च, तत्तपः शुचमिष्यते ॥६॥
अन्यदपि, अस्ति विद्यते, चित्रम, तप इति गम्यते । तथा
तथा तेन तेन प्रकारेण लोकरूढेन, देवतानियोगेन देवताहे. तदेव हि तपः कार्य, बुानं यत्र नो नवेत्।
शेन मुग्धजनानामव्युत्पन्नबुद्धिलोकानां, दितं खल्ल पथ्यमेव, येन योगा न हीयन्ते, नीयन्ते नेन्द्रियाणि वा ॥ ७॥
विषयाच्यासरूपत्वात् । रोहिण्यादिदेवतोद्देशेन यत्तडोहि. मूलोत्तरगुपणश्रेणि-पाज्यसाम्नाज्यसिकये ।
एयादि । (मुणेयञ्चो त्ति) ज्ञातव्यम्। पुंलिङ्गताच सर्वत्र प्राकृतबाह्यमान्यन्तरं चेत्थं, तपः कुर्यान्महामुनिः ॥७॥ अष्टन
स्वादिति गाथाऽर्थः ॥ २३ ॥ ३१ अष्ट।
देवता एव दर्शयन्नाह.. ('भिवाग' शब्दे नेपां चतुर्विधं तपो वक्ष्यते) (कियताऽन-1
रोहिणि अंबा य तहा, मंदउएिणया सब्बसंपयासाक्खा । शनेन किवती निर्जरा भवतीति । अमलाय' शब्दे प्रथ
मुयसंतिमुरा काली, सिकाईया तहा चेव ।। २४ ॥ मभागे ४४४ पृष्ठे अष्टच्या)
रोहिणी १ अम्बा २, तथा मन्दपुरियका ३, ( सब्यसंपयासोप्रकीसकतपांसि
क्ख ति) सर्वसंपत् ४, सर्वसौख्या चेत्यर्थः । (सुयसंतिसुर एसो बारसभेओ, सुचनिबद्धो नगे सुणेयव्यो ।
त्ति) श्रुतदेवता ६, शान्तिदेवता चेत्यर्थः । “सुयदेवयसंति
सुरा"ति वा पाठान्तरम् , व्यक्तं च । काली ८, सिहायिएयविसेमो न इमो, पइएएगोऽणेगभेउ ति ॥ ४॥
का ९, इत्येता नव देवताः। तथा चैवेति समुश्चयार्थः। "सबाश्या इह तपःशब्दस्य प्राकृतित्वेन पुद्धिङ्गनिर्देशः । एतदनन्तरोक्तं चेव" ति पाठान्तरमिति गाथाऽर्थः।२४॥ द्वादशभेदमुजयेषां मेदानां मीलनत्वात खत्रमिबलं शासमोक्तम,
ततः किमित्याहतपस्तपस्या (मुलयब्वो त्ति) ज्ञातव्यम् । एतद्विशेषस्तु अनन्त। एमादेवयाओ, पमुच अवऊसगा न जे चित्ता।
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तत्र
( २२०३ ) अभिधानराजेन्द्रः ।
पाणादेसपसिका, ते सच्चे व हो तो ।। २५ ।। वमादिदेवताः प्रतीतानयेत्यर्थः । अ) श्रपवसनानि श्रवजोपणानि वा । तुः पूरणे। ये चित्रा नानादेशप्रसिद्धास्ते सर्वे चैव भवन्ति तप इति स्फुटमिति । तत्र रोहिणी निवासः समाधिणे यावत् । तत्र च वासुपूज्यजिनप्रतिमाप्रतिष्ठा पूजा च विधेयेति । तथा बाह्य ( अम्बा ) तपः पञ्चसु पञ्चमीष्वे काशनाऽऽदि विधेयम् । नेमिनाथाम्बिका पूजा चेति । तथा श्रुतदेवा एकादशकापासोमदेवतापूजा चेति । शेषाणि तु रूडितोऽवसेयानीति गाथाऽर्थः ॥ २५ ॥ अथ कथं देवतोद्देशेन विधीयमानं यथोक्तं तपः स्यादित्याशक्याऽऽह
जत्य कसायणिरोड़ो, पंजे जिणपूपणं असणं च । सो सन्चो चैव तवो, विसेस मुकलोयाम् ॥ २६ ॥ यत्र उपसि पापनिरोधी निपूजनमिति व्यक्तम् । श्र नशनं च भोजनत्यागः । ( सो त्ति ) तत्सवै भवति तपो विशेपतः मुग्धलोके । मुग्धलोको हि तथा प्रथमतया प्रवृत्तः
ज्या सत्कर्मयोदेशेनाऽपि प्रवर्तते न पुनरादित एव तद प्रवर्त्तितुं प्रति मुग्धत्वादेवेति सदयस्तु मोकार्थमेव विदितमिदमिति बुरुचैव वा तपस्यन्ति । यदाह - " मोक्कायैव तु घटते, विशिष्टमतिरुत्तमः पुरुषः" इति मोक्कार्यघटना चागमविधिवलम्बनारस्थानात्वादिति गा
थाऽर्थः ॥ २६ ॥
न चेदं देवतेोद्देशेन तपः सर्वथा निष्फलमैहिकफलमेव बा, चरणहेतुत्वापीति चरणहेतुत्वमस्य दर्शयन्नाद
एवं पविची, एचो मग्मानुसारिजावाओ । चरणं विहियं वहओ, पत्ता जीवा महाभागा ॥ २७ ॥ एवमित्युक्तानां साधर्मिकदेवतानां कुशलानुष्ठानेषु निरुपसवाssदिहेतुना, प्रतिपच्या तपोरूपोपचारेण; तथा इत उक्तरूपात्कषायाऽऽदिनिरोधप्रधानात्तपसः। पाठान्तरेण- एवमुक्तकरणेन मार्गानुसारिभावात् सिद्धिपषानुकृताध्यवसायाचरणं चारित्रम विदितमाशोपदिष्ट, बद्दवः प्रभूताः, प्राप्ता अधिमताः, जीवाः सच्चाः, महाभागाः महानुभावा इति गाथाऽर्थः ॥ २७ ॥
तथा
सुंदरीत शिरुन सिदो परम चैत्र । आयइजणगो सोढ़-ग्गकप्परुक्खो तो वि ॥२८॥ पढिओ तवोविसेसो, अहिँ वि तोह तेहिँ सत्येहिं । दिदि विशेष ॥ २५ ॥ सर्वाङ्गानि सुन्दराणि यतस्तपोविशेषात्स सर्वाङ्गसुन्दरः । तथेति समुच्चये । रुजानां रोगाणामभावो निरुजं तदेव शिखेव शिखा प्रधानं फलत्तया यत्राऽसौ निरुजशिखः । तथा परमातमानि पणान्याभरणानि लेउसी परमभूषणः । [देवेति समुन्वये तथा मायसी आगामिकालेभीएफ ज मयति करोति योऽसावायतिजनकः । तथा सौत्राभ्यस्य सुनगतायाः संपादने कल्पवृक्क श्व यः स सौभाग्यकरूपवृक्षः। तथेति समुच्चये । अन्योऽप्यपरोऽपि उक्ततपोविशेषात् ॥ २८ ॥ किमिपादपतितस्तपोविशेषस्तपोमेद, अन्धेरपि ग्रन्थकारे
तव
तेषु तेषु शास्त्रेषु, नानाग्रन्थेष्वित्यर्थः । नन्वयं पठितोऽपि साभिमुक्तिमार्ग इत्याह-मार्गप्रतिपत्तिहेतुः शिष पथाऽऽश्रयणकारणम् । यश्च तत्प्रतिपत्तिहेतुः स मार्ग एबोपचारात् कथमिदमिति चेदुच्यते-हन्दीत्युपप्रदर्शने । विनेयागुरुन शिक्षकीययानुरुध्येण भवन्ति दि केपि विनेया ये सामिप्यङ्गानुष्ठानप्रवृत्ता सन्तो निरमिष्यज्ञानं ति गाथाद्वयार्थः ॥ २७ ॥ पञ्चा० १९ विव० 1
असे तपोविशेषा आगमे नोपलभ्यन्त इत्याशङ्क परि
हरन्नाह
चितं चिप
मिलिंदवणं असेससहियं ।
परिमेत्थ किं तं जं जीवाणं हियं णत्थि ||३०||| चित्रमद्भुतमनेकातिशयानिधानत्वाद्वानमेवात्र
मनेकविध तथा चित्रपद नानाविधाप्रतिपादकाभिधान युक्तम, जिनेनं जिनेश्वरा आगम, अशेषसहितं समस्त प्राण्युपकारकं नव्यानुसारेण मार्गप्रतिषप्युपायप्रतिपादनपरत्वा त्। परिशुद्धं कपच्छेदतापविद्धं सुवर्णमिव निर्दोषम् । एवं चास्मिन् जनवचने किं जीवानां हितं नास्ति सर्व मपि जीवानां हितमस्तीत्यत इदं तपः परिदश्यमानाऽयमे पलभ्यमानमप्युपलब्धमिवाचगन्तव्यं तथाविधजनहितत्वादि ति गाथाऽर्थः ॥ ३६ ॥
तथा
सव्वगुण पाहण मो, ओ तिहिँ अट्टमेहिँ परिमुचो । दंसणणाणचरिता या एस रेसिम्मि सुपसत् ॥ ४० ॥ सर्वगुणप्रसाधनः सकलगुणाऽऽवद इति पर्यायस्तपोविशेषः । 'मो' निपातः पूरणार्थः प्रेयोध्यसेयः, त्रिनिरहमे रुपवासयसकणैः परिवधः, दर्शन ज्ञानवरिवाणां प्रतीतानाम ए पोऽयम् (रेखिमिति ) निमित्तं सुप्रशस्तोऽतिशयद्धनः । तत्रैकमष्टमं दर्शन गुणयुद्धये, पवमपरद्वयं द्वयपरिशुद्धये इति गाथाऽर्थः ॥ ४० ॥
अथ सर्वाङ्गसुन्दराऽऽदिनपसु सनिदान एव प्राणी प्रवर्तते ततो न न्याय्यान्येतानीत्याशङ्कापरिहारार्थमनिदानतामेषु प्रवृतस्य दर्शयन्नाह
एएस वट्टमाणो, जावपवित्तीऍ बीयजावाओ । सुकाऽसयजोगेणं, अणियाणो नवविरागाओ ॥४१॥ पवनन्तरोप प्रवर्तमानो व्याप्रियमाणो जीव एतेसु बहुमाणा " इति पाठान्तरं व्यक्तं च । कथा ?, जाप्रवृष्या बहुमानसारकिवा अनिदान ते योगा कु इत्यादीमा बोकिलस्य देदिनो बोधिजन यमेन तदेव कथमित्यायोगे माध्यवसायसंबन्धेन यवसायादिबोधजव्या मनिदानो मिदामरहितः स्यात् तथा भवविरागात्संसार निर्देदाद्यरिकन भ विराणाऽऽदिनिमित्तं तन्निदानं न भवति बोद्ध्यादिप्रार्थनमिव विरागादिदेबीकतपांसि पाति निदानानि
इति गाथाऽर्थः ॥ ४१ ॥ निर्निदानत्वादेवेतेषां निर्माण सामाचार्यान्तरमना दर्श
यन्नाद
विसयमऽणुबंधे - हि तह य सुद्धं जो अण्डाणं । णिव्वाणगं भणियं, असेहि चि जोगमग्गम्पि ॥ ४२ ॥
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(२२०४) तव
प्राभिधानराजेन्दः । एयं च विसयसुच, एगंतेणेव जंतश्रो जुतं ।
कटुकाऽऽदयोऽपि जनस्य ईपद्दर्शयन्त प्रारोग्यम्, अनुभव. प्रारोग्गबोहिलाभा-उपत्यणाचिचतुवं ति ।। ४३ ।।
सिद्धमेतदिति गाथाऽर्थः॥ ११ ॥
किमेप दृष्टान्तोऽयमर्थोपनयःविषयो गोबर उक्ततपसामालम्बनीयस्तीर्थकरनिर्गमाऽऽदिः,स्व.
अ एए चित्र मुणिणो, कुएंति घिउमेव सुधभावस्स । रूपमुक्ततपसामेव स्वभाव माहारत्यागब्रह्मचर्यजनपूजासाधुदा. नाऽऽदिसणः,अनुबन्धश्च तत्परिणामाब्यवच्छेदतःप्रकर्षयायि
गुरुपाणासंपाढण-चरणाइ सयं निदंसंता ॥१|| ता, अतस्तेषु विषयस्वरूपानुसन्धेषु। तथा चेति समुचये । शुरू
(इय) एवमेवैव कुदादयो मुनेः कुर्वनि धृतिमेव, न तु दुःस्त्र, निरवचं, यतो यस्मात्कारणाद्, अनुष्ठान क्रिया, निर्वाणा मुक्ति
शुरुभावस्य रागादिविहितस्य, कि दर्शयन्तः सन्तः', कारणम्, भणितमुकम्, अन्यैरपि तन्त्रान्तरीयैः, किं पुनर्जि
गुर्वाज्ञासंपादनचरणादि स्वयं निदर्शयन्त इति गाथार्थः ॥१२॥ मैः, योगमागेऽभयात्मशास्त्रपये। अतो विषयादिशुरुतयेते. णय ते वि हॉति पायं, अविअप्पं धम्मसाहणमस्स । बां निर्वाणासत्वानिनिदानतेति हदयमिति ॥ ४२ ॥ एतच न य गतेणं चिय, ते कायव्वा जो जणियं ॥१३॥ पतत्पुनरनम्तरोक्तं तपः, विषयशुरू निदोषगोचरं, सकलदो. पौषिजिनपतिविषयत्वात् । एकान्तेनैव सर्वथैव, यद्यस्मात्ततः
न च तेऽपि नवन्ति प्रायः चुदादयः, अविकल्प मातृस्थानविर• तस्माकेतोयुक्तं सङ्गतम, प्रार्थनागर्भमपीदं तपः । कुतः?,श्त्याह
हेण धर्मसाधनमतेः प्रवजितस्य धर्मप्रभावादेव, न चैकान्तेमारोग्यबोधिलानाऽऽदीनाम-" मारोगाबोदिलानं, समाहिय.
नेय ते कुदादयः कर्तव्या मोहोपशमाऽदिव्यतिरेकेण यतो भरमुत्तमं दिनु" इति।एवंरूपा या प्रार्थना यावा,तत्प्रधानं यधि
णितमिति गाथाऽर्थः ॥ १३॥ सं मनस्तेन तुल्यं समानं यत्तदारोम्योधिलानादिप्रार्थनाचि
कि तदित्याहतुल्पम्, इति कृत्वा । इति गाथाद्वयार्थः ॥ ४३ ॥
सो ह तो काययो, जेण मणोऽमंगलं न चिंतेड़ । पवमनन्तरोकतपो निनिदानमिति व्यवस्थापितमयोपदि
जेण न दियहाणी, जेण च जोगाए हायति ॥ १४॥ राभाह
तद्धि तपः कर्तव्यमनशनाऽऽदि, येन मनोऽमङ्गनमसुन्दरं न जम्हा एसो सुको, भणियाणो होइ नावियमईणं। । चिन्तयति,शुभाध्यवसायनिमित्ताकर्मतयस्य । तथा येनेलिय. तम्हा करेह सम्मं, जह विरहो होइ कम्माणं ।। ४४ ॥
हानिः,तद जावे प्रत्युपेकणाऽऽद्यभावातू, येन च योगाश्चक्रचाल
सामाचार्यन्तर्गता व्यापारान हीयन्त नि गाथाऽथः ॥ १४ ॥ वस्मारकारणात्, (पमोति) इदमनन्तरोक्तं तपः, शुवं निर्दोषम, जति स्यात् । किंभूतं सदित्याह-अनिदान प्रा
देहे वि अपमिवच्छो, जो सो गहणं करेइ अन्नस्स । एक्तयुकल्या निदानवर्जितम्। केपामिदमेयंविधमित्याह-भाधि
विहिमाणुघाणामिणं, ति कह तो पावविसओत्ति||१५|| तमतीनां सदागमवासितमानसानाम्, तस्मारकारणात्, कुरुत
देदेऽध्यप्रतिबद्धो २: विवेकात्स ग्रहणं करोत्यनस्यौदनाऽऽदे. विधत्त । एतदेवेति गम्यम, सम्यग् भायशुम्या । एतदेव ध्य.
विहितानुष्ठानमिति, न तु लोभादायतश्चैवमतः कथनसौ पापकतरमाद-यथा येन प्रकारेण, विरहो विनाशो, भवति जायते,
विषय इति ?, नैच पापविषयः, एतेन कथं न पापविषय इत्ये. कर्मणां बानापरणाऽऽदीनाम । (५४) पश्चा०१६विवा प्रया
तत्प्रयुक्तमिति गाथाऽर्थः ॥ १५ ॥ सांवत्सरिकपाक्तिकाएमीकानपञ्चमीरोहिणीतपांसि येन यापाजीवमुचारितानि जवम्ति, स रोहिण्या अग्रतः पृष्ठतो या
तत्य वि अधम्ममाणं, न य आसंसा त यो अहमेव । भागमने षष्ठकरणशक्त्यनावे किं करोतीति प्रश्ने, सत्ताम् अत्र स. सव्यमियमण्डाणं, मुहाऽऽयहं होई बिन्नेअं॥१६॥
था षष्ठकरणशक्त्यजावे यत्तपः प्रथममागच्छति तत्तपः तत्रापि चान्नग्रहणादधर्मध्यानं सूत्राऽऽशासंपादनात. न चाशंप्रथमं करोति, स्थितं तु पश्चात्कृत्वा प्रापयतीति।३७प्र०ादी०४ सा, सत्राभिनिवृत्तेः। यतश्चैवं ततश्च सुख मेय, तत्राऽपि प्रका रोहिणीदिनाउराधकानां काचिद मिथ्यामतिर्न चेति सवे यसपात्राऽऽदि (श्य) एवमुक्तेन न्यायेन सूत्राऽऽासं. प्रश्न उत्तरम-रोहिणीदिनाऽऽराधकानां मिथ्यामतिर्माता नास्ति। पाद नाऽऽदिना अनुशानं साधुसंबन्धि सुखाऽऽवई, भवति प्र०ाही०१ प्रका।
चियमिति गाथाऽर्थः ॥१६॥ पं० २०१द्वार । “जहेव सपस्तथा कर्तव्यं यथा शरीरसानिन स्यात्
पायबित्ता ण पयिमंति, तहा ससत्तीए तयो कम्भणाणुस, तवसो अपिवासाई, संतो चिन दुक्खरूवगा मेया। ।
तो च उगुणं च गुणं पायचित्तं ।" महा०१च.। मंते खयस्स हेम, निद्दिवा कम्मवाहिन॥१०॥
पर्यसु तपो न करोतितपसम्म पिपासादयः सन्तोऽपि भिवादनादौ नमुःखरू
संते बलबीरियपुरिसयारपरको अभिचाउद्दसीनाणपंचपा शेयाः। किमित्यत्राह-यद् यस्माते पिपासाऽऽदयः वयस्य
मीपज्जोसवणचाउम्मासिए चत्यपछडे ए करेज्जा देतबो निर्दिष्टा भगवद्भिः कर्मचारिति गाथाऽर्थः॥१०॥
खत्रएं कप्पं वायरइ चनत्यं कप्पं परिचविज्जा वानसं । तथाहि
महा०१ चू०। पाहिस्स य खयहेज, सेपिज्जंता कुएंति धिइमेव ।
"णो पूयणं तयसा प्रावईज्जा।" (२७)मापि तपसा जनकमगाई विजएस्सा, ईसिं दंसिंतगाऽऽरोग्गं ॥११॥
सत्कारमावहेत्. न पूजनसत्कारनिमित्तं तपः कुर्यादित्यर्थः । य.
दि धा-पूजासत्कारनिमित्तत्वेन तयाविधार्थत्वेन या महताऽपि साधेरपि कुछा कयतका सेव्यमानाः कुर्वन्ति धृतिमेव | केचित्तपो मुक्तिहेतुकं न निःसारं कुर्यात् । तदुक्तम्-परलो.
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(११०५) तव अभिवानराजेन्कः ।
तवचरण काधिकं धाम, तपः श्रुतमिति द्वयम् । तदेवाचियनिलुप्त-सारं | मणिचिन्निधिले रुहिचिक्खिन दुदस्सणिजबीनत्यमृणलवायते"॥१॥ (२७) मूत्रः ६०७०।
तिमिसंधयारगंतुब्वियणिजगम्भपापजम्म नरापरणाइमचतुधिमाजीचिकानां सप.. आजीरियाणं चननिहे तो पाने । तं जहा-नग्गतने,
गसारीरपाणसे मुच्चमुघोरदारुणम्वाणमेव भायणं भ. घोरतवे, रसनिज्जणगा.जिनिंदियपझिमलीया।।
चंति, ण नपण संजमजयाणाए विगा जम्मजरामरणाऽऽपkि (प्राजीबियाणं इत्यादि) भाजीविकानां गोशालकशिष्याणाम्.
घोरपयंम्पहारुद्ददारुणमुक्खाणं णिवणमेगंनियमचनियं मधेनपोऽटमाऽऽदि.कवन - "उरमिति"पाठातत्र उरंशोभनम । नवेजा, एतेणं मंजम्जयणावियले मुमाते विकायकेसे इहलोकाऽऽद्य शंमारहितत्वेनेनि धेरमात्मनिरपेकं ( रसनिज. पकम्भय गोयमा ! निम्त्थगे भवेजा । महा०५चूत। इणया) घृताऽऽदिरसारित्यागः जिहान्द्रयनिसंक्षीनना मनो.
“स्मेण वा सुचरियनयनियमवंत नेरवासेणं " इत्याशंसारकामनोवाहारेषु रागद्वेषपरिहार इति; माहतानां तु द्वादश
हितेन तपः कर्तव्यमिति । सूत्र.२४०१. यस्मिन प्रनि. धेति । स्था०४ वा०२३.।
मेविने निर्विकृताऽऽदगानामपर्यवसानं तपो दीयते तत्सपोऽहंपर्युषणायामष्टमाऽऽदि तोऽवश्यं कर्तव्यमिति । कल्प०१कण।।
स्यात्तपति । व्य...ा निर्विकृतिकाऽऽदिके सपसि.भा०। बालतपसि.पा.का कथाऽन्यत्र)शारीराऽऽदि त्रिविधंतपः।के.
मश्विपस्वाध्यायमध्ये कृतनासो दिनत्रयप. प्रथया द्वादशदि. श्चितु शारीरामदभेदं त्रिविधमप्युच्यने। यदुतं गुरुगुणापत्र
नान्युपधानालोचनायामन्यालोचनावान समायान्तीनि प्रइने, शिकावृत्ती-कैश्चिनपत्रिविध शारीराऽऽविभेदमप्युच्यते ।
उनरम सप्तम्याटिदिनत्रयगणनायांनायान्तीतिः१२२५ सेम० यथा"देवातिथिगुरुपाक-पृजनं शौचमार्जवम।
२उल्ला. पोपवासरोहिणोपञ्चम्यादितपम्सुबड़वाऽऽचरितेषु ब्रह्मचर्य महिमा च, शारीरं तप उच्यते ॥१॥
कदाचिद्विम्मृन्या महाकारणाऽऽदिना वा पक्षोपवासाऽऽनिदिने उ. अनुढेगकर वाक्य, सत्यं प्रियहितं च यत् ।
पवामाभवने पक्कोपबामाऽदिनपो मूलतो याति.किंवा यथोक्त. स्वाध्यायान्यसन चैत्र, वायं तप उच्यते ॥२॥
वर्षमास जयनानन्तरं तत्तपःकरणादिना निष्ठां नीयत इति प्रभे, मनःप्रसादः सौम्यन्य, भौनमात्मविनिग्रहः।
उत्तरम-विम्मभ्यादिना तपोदिन ज्ञाने तोपत्रासाभत्रने द्वितीभावसंशुकिरित्तद, मानम तप उच्यते ॥ ३॥
यदिने दएनिमित्त तत्तपः कार्यम, समानो व वर्षमान विधे. शारीराद्वानयं सारंवाझमयान्मानसं शुभम ।
यमित्यराणि श्राद्धविधौ सन्ति, महाकारणे तु पोदिने तपः जघन्यमध्यमोत्कृष्ट- निराकरणं तपः॥४॥"
करणं महत्तराऽऽद्याकरणान्तयतीति । १६७ प्र० । सेन० २
उहा। नप उपचानेह्यमानेषुशिनिस्थानकाऽदि तपः कर्तु सात्विक, राजसं, तामसमिति वा त्रिविधन ।
शुवति, न वेति प्रश्ने, उत्तरम-तत्तपःप्रायः कर्तुं न शुरुचती. _ यथा" तपश्च त्रिविधं कैग-मफलाऽऽकाडिभिनेरैः ।
ति, १८५ प्र० । सेब. २ असार । अथ पं० विद्याविजयश्रच्या परया तप्त, मायिकं तप नच्यते ॥१॥
गणितप्रश्नत्तदुत्तर च । यथा चैत्राऽऽश्विनास्वाध्यायदिनेषु यसाकारमानाजाऽर्थ,तपो दम्भेन चैव यत्।।
तपः कृतं स्यात्तत्तपो रोहिरवालोचनाऽऽदिषु समेति, न वेति क्रियते तदिह प्रोक्तं, राजसं चलमधूवम् ॥२॥
प्रश्ने, उत्तरम् सप्तम्यादिदिनत्रयकृतं तत्तप आलोचनायां न मूदप्रदेण यच्चाम-पीडया क्रियते तपः ।
गण्यते, रोहिण्यादि तथाविसंबद्धतापसि तु गगयते, न तु परस्योच्चेदनार्थ वा, तत्तामसमुदाहृतम् ॥३॥"(१०१ गाथा)
सर्ववेति । २०० प्र० भेन० ३ नल्ला । तपसा निकाचितकग०२ अधि० । तपःफल व्यवदानम्-" तवे बोदाणफले ।"
मणां कयो भवति, न वेति प्रइने, उत्तरम-निकाचितानामपि स्था०३म.३०।
कर्मणां तपसा कयौ भवतीति श्री उत्तराध्ययनसकृत्वादावुसंयमत्रान् साधुस्तपोनिरतः स्यात,अतस्तत्फलं प्रश्नपूर्वकमाह
तमस्तीति । ४६ प्र०। सेन०४ उबा०। तवे ते! जीचे कि जणय?। तवेणं वोयाणं जण
तव-देशी-व्यापते, देना० ५ बर्ग २ गाथा। यह ॥ १७॥
तषायार-तपत्राचार--पुं० । प्राचारदे, तप प्राचारी द्वाद हे भगवन् ! नपमा कृत्वा जीवः किं फवं जनयति? गुरुराह- | शविधः । नक्तं च--" वारसविम्नि चि तये, अजितरबा. हे शिष्य! नपसा जीयो व्यवदानं जनयति, पूर्वयसकर्मापगमनेन हिरे कुसलदिडे । अागलागू अणाजीची, नायचो सो ताऽऽया. विशेषेण शुद्धि जनयति ॥ २७ ॥ उत्त) २६०।
रो" ॥२॥ त । स्था०२ ग०३ उ०। से जयवं!हिऽहमदसमवानसऽदमाममासेजाव णं |
तवकरण-तपःकरण--10। तपसोऽनशनाऽऽदिबाह्यान्यन्तरभेद. बम्मामखवाई पं अञ्चतघोरवीरुग्गकसुकरे संजमजयणे
भिन्नम्य करणं कतिस्तपःकरणम् । अनशना ऽदेोह्याच्यन्तर
भेदजिन्नस्य तपसः कृती, प्रा० म० अ० २खएड । विपुले सुमहंते वि न काय केसे कए णिरत्यगे हवेता ?। गो.
तवगुण-तपोगुण-० । अनशनाऽऽदी, स्थावा । यमा! शिरस्थगे हवेजा। से जयवं केणं अट्ठणं ? गो
| तवग्ग-तवर्ग-पुं० । तकारा ऽऽदिवर्णपञ्चके, रा०। यमा!जो एं ग्वरुट्ठमहिलगोगादो वि संजमजए। विउले
तबगपविजत्ति-तवर्गप्रविभक्ति-न. । सकारथकारदकारध. अकामनिजराए सोहम्मकप्पाइमु चयंति, तो विभाग
कारन कारयेयंरूप प्रविभक्तिनामकेऽष्टामशे नाट्यविधी,रा। खएणं चुए सपाणे निरयाऽऽदिसु संसारमणुसंसरे जा, तहा |
॥णानस्याऽऽादसु समारमणुससरजा तहा | तवचरण-तपश्चरण-न । तपोविधाने तपमि च कृते धृति क. य सुगंधामिजमानेशीणखारपित्तमिसिनपढच्छेवजलसप- रोति नार्तध्यानम् । अनु । संयमानुष्ठाने, सूत्र. १ शु०५ १०
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(२२०६) तवचरण अनिधानराजेन्द्रः।
तवसमाहि १ उ० । तपश्चरणं ब्रह्मवर्यादि, तत्फलमप्युपचारासपश्चरण. तवजावणा-तपोभावना-स्त्री०। प्रशस्तभावनामेदे.पृ.१ उ०। म् । स्वर्गसंभवे भोगजाते, ज्ञा १७.६ अ.।
तवमय-तपोपद-पु.। तपःप्रधानो मदस्तपोमदः । मदस्थानने. तवचरणचरियणिवछ-तपश्चरणचरितनिवछ-न । दिव्ये । दे, स्था० १० ठा.स. नाट्यविधी, रा०।
तवय-तवक-न० । सुकुमारिकाऽऽदितखननाजने, बिपा०१. तवचरणिएतपश्चरणिन्-त्रिका तपस्विनि, “नाणादीयो । ३ । जीवइ, अह सुहुमो प्रद श्मो मुणेयध्यो। सातोपगं, वचतवविय-तपोविनय-पुं०। बिनयमेदे दश। एसो तवचरणी ॥१॥" स्था•५ ठा०३ उ०।
तपोवनयमाहतवण-तपन-पुं०। तपतीति तपनः । रवा, मनु । पिं० रुचक- श्रवणे तवेण तमं, नवणे असग्ग मोक्खमप्पाणं । शिस्त्ररतले पूर्वस्यां दकिणस्यां च दिशि तृतीये कूटे, दी। तत्रविणयनिच्छियमई, तवोषिणीयो हवइ तम्हा ।।। तवणवंधु-तपनबन्धु-न० । पुं० । बुझे, रत्ना• ६ परि०।
अपनयति तपसा तमोऽझानम् , उपनयति च स्वर्ग मोतमातवणिज-तपनीय-न । भारतसुवर्षे, जी. ३ प्रति० ४ उ.।।
स्मानं जीवम, तपोविनयनिश्चितमतिर्थस्मादेवविधस्तपोधिनी.
तो भवति तम्मादिति गाथाऽर्थः ॥ ८५ ॥ दश । ताभाभी। जं.। सुवर्षविशेष, जी०३ प्रति.४ उ०।
जी० ३ प्रति• ४ उ० तवसंनम-तपःसंपम-पुं० । तापयतीति तपस्तत्प्रधानः संयमतं0 । भौ० । स० । रा०। जं० । १० प्र.।ज्ञा."वणिज्जबानुयापत्थडे।" तपनीयमय्यः बालुकाःसिकता,तासां मस्त
स्तपःसंयमः। चारित्रसानायिके, विशे। तप प्रशनोदरता
अदि तप्रधानः संयमस्तपःसंयमः। प्रशनोदरताविप्रधाने टः प्रस्तारो यस्मिस्तत्तथा। जी०३ नि०४ उ०रा०1"त. वणिज्जनंसगा।" तपनीयस्तपनीयमयो 'लवसगोदानामनि
संयमे, प्रा० म० अ०२ खण्ड ।। मभागे प्राङ्गणे लम्बमानो मारुनविशेषो गोलकाऽऽकृतियां
तबसंजमप्पहाण-तप:संयमप्रधान-पुं० । तपः वाह्याभ्यन्तरं तानि । जी० ३ प्रति०४ उ.रा."तवणिजाभरणनूसणवि.
द्वादशप्रकार, तथा संयमः सप्तदशमेदः । पञ्चाऽऽधविरमणाराइअंगुयंग। " कल्प०२कण।
दिलकणःताभ्यां प्रधानास्तपःसंयमप्रधानाः । तपःसंयमा
ज्यां प्रधाने, “तवसंजमप्पढाणा, गुणधारी जे बयंति सम्भातवणिजकूम-तपनीयकट-पुं०। जम्बूद्वीपे रुचकपर्वतस्य द्वि
।" सत्र.११. ११०। तीयस्मिन् कूटे, स्थावा।
तबसंजममुज्जय-सपःसंयमोद्यत-पुं०। तपोऽनशनाऽऽदि संयम. तवणियमणाणरुक्ख-तपोनियमझानक-पुं० । जाववृके, मा०
सप्तविधः, मकारोबाणिकः, नतस्तपःसंयमयोरुद्यतस्तपः म० १ ० १ स्खएक । (अस्योदाहरणम् ' सुय' हाब्दे वक्ष्यते)। संयमोधतः । तपःसंयमाभ्यामुद्यते, दर्श० ३ तख । तवणी-देशी-भकणयोग्ये, दे. ना०५ वर्ग १ गाथा। तवसंजमरय-तपःसंयमरत-jo नाबसाधी, औ.। तवतेण-तपःस्तेन-युगा कपकरूपकल्पे, कश्चित्केनचित् पृष्टस्त्व. तबसमाहि-तप:समाधि-पुं० । तपास ययाऽऽज्यस्तरभेदानने मसौ कपक इति । तदा स पूजाऽऽद्यर्थमाह अहम । अथवा ब.
यथाशक्ति निरन्तरं प्रवृत्तिस्तपासमाधिस्तस्मिन्, प्रव. १० क्ति-साधव एव कपकाः। अथवा-तूष्णीमास्ते । दश.५ अ.
द्वार । दश। २००।
तपःसमाधिमाद
चउब्धिदा खलु तवसमाही भव। तं जहा-नो इहलोतवण-तपोधन-वि•। तप एवं धनं यस्य सः। तपोधनवति, उत्त. १००।
गट्ठयाए तबमाहिडिजा, नो परखोगच्याए तवमहिष्टिजा, तवप्पमिमा-तपःप्रतिमा-स्त्री. । तपसाऽऽत्मतुलनायाम, वृ०१
नो कित्तिवन्नसदसिलोगट्ठयाए तवमहिडिजा, नऽनन्थ 801 ( 'जिणकपिय' शब्देऽस्मिन्नेव भागे १४६६ पृष्ठे पतत्स्य
निजगट्टयाए तवमहिहिजा चकुत्थं पयं जवइ । रूपम्)
नवा इत्थ सिलोगोतवपहाण-तपःप्रधान-त्रि० । तपसा प्रधाने उत्तमे, शेपमुनि.
चतुर्विधः खलु तपःसमाधिर्भवति । तद्यधेत्युदाहरणोपन्याजनापेकया, तपो वा प्रधान यस्य तस्मिन, झा०१ श्रु.१०।
सार्थः। नेह प्रोफार्थमिहशोकनिमित्तं लब्ध्यादिवाकया है. निरा।
पोऽनरानाऽऽदिरूपमधितिष्ठेत् कुर्याद्धर्मिलबत् । तथा न पर•
मोकार्थ जन्मान्तरभोगनिमित्तं तपोधिनिष्ठेब्रह्मदत्तवत् । एवं सबवल-तपोवन-त्रि० । यदनेकभवार्जितमनेकदुःखकारणं मि.
न कीर्तिवर्मशब्दश्लाघाऽयमिति । सबंदिग्न्यापी साधुवादः की. काचितकर्मग्रन्धि ज्ञपयति तस्मिन्, स्था० १० वा।
तिः । एकदिरूपापी वर्णः । अर्द्धदिम्यापी शब्दः । ततस्थान तववालिय-नयोबलिक-पुं० । तपसा बलि कस्तपोवलिकः । त. पब इलाघा, नैतद तपोऽधितिष्ठेत् । अपि तु नान्यत्र निर्जरा. पसा यक्षिष्ठे, महताऽपि तपसा यो न क्लाम्यति, यत्र नत्र वा स्व.
थेमिति न कर्भनिरामेकां विहाय तोऽधितिष्ठेत् । अकामः रूपे प्रयोजने तपः करिष्यामि इति विचिन्य प्रतिसेयते । यदि
सन् यथा कर्मनिर्जव फवं भवति तथाऽधितिष्ठेदित्यर्थः । बा-पारमामिके तपसि दसे बदति-समर्थोऽहमन्यदपि तपः
चतुर्थ पद जवति । भवति चात्र लोक इति पूर्ववन् । कर्तुं तदपि मे देहीति । तस्मिन् तपोवलि के मूखपर्याये, व्य०
स चायम्विविहगुणतबोरए य निचं,नव निरास निजरहिए ।
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तवसमाहि
(११०७) भाभवानराजेन्छः।
तवायार
तवसा धुण पुराणपावगं, जुत्तो सया तबसमाहिए ॥४॥ सहाह्मणी नमूचेऽथ, किं कृतं निष्प ! स्वया। विविधगुणतपरितो हि नित्यमनशनाऽऽद्यपेकयाऽनेकगुणं य
साऽपि व्यापादिता तेन, तमोऽविहिधा कृतः॥ सपस्तत एव सदा भवति,नियशो निःप्रत्याश इहलोकाss.
प्रम्फुरन्तं तमालोक्य, करुणाऽस्याभवत्तदा।
हा हा चक्रे मया पापं का भविष्यति मे गतिः ॥१०॥ दिषु निर्जरायिका कम्मनिर्जरार्थी, स एवंभूतस्तपसा विशुः।
हिम्नरूपयोचुस्तं, पापास्मानपि मारय। केन धुनोत्यानयति, पुराणपापं चिरन्तनं कर्म, नवं च नव
पित्रारजावतो नाची.मृत्युदोरियतोऽपि नः॥१. नास्येवं युक्तः सदा तपःसमाधाविति सूत्रार्थः । दश..
तदाकये विशेषेण, स निर्वेदं परं गतः। म. ४ ..
इतः पापाकथं मुक्तिः स्याम्मे साधूनथैकत । १३. सवसामायारि (ए)-तफसामाचारिन-पुं• । पाक्तिकाऽऽदिषु
हास्ते धर्ममाचख्युः, सर्वपापापहारकम। तपाकर्म स्वयं करोति. परं च कारयति. भिकानों स्वयमनु- प्रतिबुरूः परिवज्य, जगृहे कान्त्यनिग्रहम ॥ १३ ॥ तिष्ठति, परं च तस्यां नियुहके, इति तपःसामाचारी । तस्मिन, यावत्कर्म स्मरत्येत-साबद्भोज्यं मया । प्रव० ६५ बार।
हील्यमानो हन्यमान-स्तत्रैव विजदार सः॥१४॥ तपासामाचारीमाह
तस्कृतानुपसर्गाश्चा-धिसेहे स्वकृतं स्मरन् । पक्खिएँ पोसहिए, कारेति तवं सयं करेति यवा। । राहारी भूत्वा स, कर्मशत्रूनपि प्रति ॥ १५॥
पम्भिर्मासैस्तपःशस्त्रै-स्तस्कमोन्मूल्य सर्वथा। जिक्खायग्यिाएँ तहा, निम्नुजति परं सयं वा वि ॥ ।
उत्पाद्य केवलज्ञानं, तपःसिको बभूव सः"॥ १६ ॥ श्रा0क01 पातिके अर्द्धमासे सर्वाणि, पौषधिकैषु च अपम्यादिषु पर्वसु तवसर-तप:शर-jo। तपोधोरे, स्था०४ ग०३3.।“ तक परं तपः कारयति, स्वयमपि च करोति, तथा भिज्ञा-|
सुरा अणगारा।" संथा । पर्यायां परं नियुके, प्रयोजनमपेक्ष्य स्वयममि भिकाचर्या
तवसोसिय-तषःशोषित-वि•ा तासा शोषमुपगते,श्य० २७.। गच्चति । सन्नम्मि वारसविहे, निन्झुंजड़ परं सयं च उज्जुत्तो।
तवस्सि[ए-तपस्विन-पुंत्रिका तपोऽस्यास्तीति तपस्सी।
तपः संयमतपस्तस्मिन् विद्यमाने, व्य० १ १०। तपोऽस्यास्ती. गणसामाचारीए, गणं विसीयंत चोएति ॥
ति तपस्वी, तपो विकृष्टाविकृष्टरूपं विद्यते येणं से तपस्विनः। सर्वस्मिन् द्वादशविधे तपसि यथायोगं पर नियुक्त,स्वयं सर्व. प्रव• ६६ द्वारा विकृष्टमाटमप्रकृतिकं तपो विद्यते येषां ते तप. व यथाशक्ति उयुक्तः । व्य०१०।।
खिनः प्रव०१४८द्वारा धनि चविष्टादिनपधरण. सबसिछ-तपःसिद्ध-पुं० । तपसा सिके सिम्भेदे, (मा०म० ) कारिषु,प्रय.४द्वार । कपके,भ.८श०८ उ०1०। स्था०॥ संप्रति तासिद्धप्रतिपादनार्थमाह
मासकरकाऽऽदिषु, भा०क०। स्या.।चतुर्थनकाऽऽदिकारिणि,
प्रश्न०३ सम्ब• द्वार प्रशस्ततपायुक्त, प्रश्न०५ सम्ब• द्वार। न किलिम्म जो तवसा, सो तवसिद्धो दढप्पहारिन ।
अनशनाऽऽदितपोधिचित्रयुकेषु सामान्यसाधुषु, का०१७.. सो कम्मस्वयसिद्धो, जो सबक्खीणकम्मंसो॥
भ० । साधा, सूत्र०१७.२ १३० । उत्त० । वीणदेहे, म क्लाम्यति न क्लमं गच्चति यः सवस्तपसा बाह्याभ्यन्तरेण बृ० १ उ.। अष्टमाऽऽदिकपके,०५५ श०७ उ०। निष्टतदेहे, स एवंभूतस्तपःसिरूः, अग्लानित्वाद् दृढप्रदारिवदिति गा- सूब०१७०२ अ०१3०। प्रशस्यतपोऽस्विते भिक्ती, उत्त०२ थाऽकरार्थः। प्रा. म० अ०२खराम।
म० । जितेन्न्येि , औ०। तपो बाह्याभ्यन्तरक घनदहनम्ब. भावार्थः कथानकादवलेयः । तदम्
लगकल्पमनवरतशुभयानलकणमस्ति यस्य स तपस्वी । स्था "धिग्जातिरेको दुर्दान्तो, उर्षिनीतः पुरे क्वचित् ।
२ ठा०४ उ०। स्थानानिःसारितो दुष्ट-चौरपल्लो नमन् ययौ॥१॥ | तवायार-तपमाचार-पुं० । दशविधतपोविशेषानुष्ठिते (स. चौरसेनापनिस्तं च, पुत्रयु या प्रपत्रवान् ।
१ भा) आचारभेदे, “बारसविहम्मि वि तये. सबिभसरबामृो तस्मिन् स एवाऽतूत्, चौरसेनापतिस्ततः ॥ २॥ हिरे कुसलदिऐ । अगिलाएँ प्रणाजीवी, नायवो सो तवायारो राहारीमानाऽभूद. दृढयहारकः स यत् ।
॥१॥" ध०२ अधिo । तपाचारस्तु द्वादशविधा, बाह्याससेनः सोऽन्यदायासीद, ग्राममेकं विनुरितुम् ॥३॥ ज्यन्तरतपःपटूद्वयनेदात् । तत्र "अनशनमूनोदरता, वृत्तः सं. तको निःस्थविप्रोग्भू-डिम्मरूपैः स मार्गितः।
क्षेपणं रसत्यागः । कायक्लेशः संसी-नतेति बाह्यं तपः प्रोक्तम यानिवाउनदुग्धाऽऽदि, परमानमपाचयत् ॥४॥ ॥१॥"ध०१ अधिक। स्वयं स्नानकृते सोऽगान्चौर एकस्तु तद्गृहे।
प्याणि तवायारो भातिप्रविष्टः पायसस्थालि-मपहृत्य जगाम सः॥५॥
विध तवपरूवण या, संगाणाऽऽरोषणा तमकरेंते । पदन्ति मिम्मिरूपाण्या-ख्थन् पितुः पायसं वृतम्। दधावे सोऽथ रोषेण, चौराणां निजिवृक्षया ॥६॥
सव्वत्य होति बहुगो.(सं)नीणविण्यऽ(सकाय मोत्तणं४१ . अनेकाँस्तस्करांस्तत्र, परिघेण जघान सः।
बारसविधम्मि वितरे, सब्जितरवाहिरे कुसलदिट्टे । चौरसेनापतिम-मध्य ऽनु तेन चिालतम् ॥ ७॥
अगिमाएँ अणानीवी, णायन्बो सो तवायारो॥४॥ सन्ति कोऽप्येष मौरान, खद्माकृष्य धावितः।
दुविहतत्ति-बाहिरो, अमितरो य । बाहिरो बनिहो-मतत्रागादम्बरे धेनु-स्सामनय तं द्विजम् ॥
णसणं, प्रोमोयरिया, भिक्खापरिसंखाणं, रसपरिम्बामो,
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तवायार भाभिधानराजेन्द्रः ।
तबारिह काकिसेतो, पमिसंबीणता या अभितरोगब्यहो-पायचितवारिह-तपोई-न- । निर्विकृतिकाऽऽदितपःशोभये (स्था तं, विणो. यावच्चं सज्कामो. विउस्सग्गो, काशं चेति । १.वा) षष्ठे प्रायश्निवदे, स्थाoमा प्रयामथ तमोऽहंदुविधा तबस्स य परुणा कायया । परूषणा णाम पायणा । प्रायश्चितविषय:- तपोहे वक्तव्यम-ततश्च रात्रिन्टिवप. साब जा जमपुष्फियामसुने, नहा दम्बा । हतु प. चकादारभ्य रात्रिनिवपञ्चकादिया नायनेयं.यावत पामा. विरोण हिकारी, तंजणति-सगं ठाणं सहाणं. सहायरस साः, तत्र येषु स्थानेषु रात्रिन्दवपञ्चकं तपः ताभ्युपदर्शयतिभारोषणा सहाणारोवणा, तमिति तयो संबज्कृति, भकारो
दंमगगह निक्वेवे, भावसियाए निसीहियाए य । पमिलेहे. करैनि भाबरंतेत्यर्थः। भकारेणय पमिसिके,प्रणाचरणं प्रणाचार, तस्स व सटाणं, तं च म "सम्वत्थ होइल
गुरुणं च अप्पणामे, ना चउरा दिया हुंति ॥ २६ ॥ गो।"सम्पत्यतिासम्बेसुपदेसु अणसणाऽऽदिसु सतिपुरिसका. दहल गृहन्यायगेचते न प्रमार्जगतीत्येको भान प्रत्युपेकते
परमे विद्यमाणेनयमकरेंतस्स मासबइ. प्रापसतं सक्षण प्रमार्जगतीति द्वितीयः, न प्रत्युपेक्षते न प्रमायतीनि तनीयः, मितिका उहाणं करेकनाणविणयसक यपया तिथि,मोत्त. प्रत्युपेकते प्रमार्जयतीति चतुर्थः । तत्रायेषु त्रिषु भनकेषु जापरिसलीजया दुविहा-दम्बपमिसमीणया.भावपमिसंसौणया पश्चादनुपया यथोसरं पःकालविशेषतो मघुर्मामः प्रत्येक बारस्थिपसुपंगपुमसत्ता हति व्यम्मि । भावपडिसनीण. प्रायश्चित्तम् । चतुर्थे चचारो भङ्गाः। तद्यथा-प्रत्युपेक्षते दुः. ताविहा-इंदियपडिसलीणयाणो दियपनिसलीयाया। दि. प्रमार्जयति'. दुष्पत्युपेक्षते सुप्रमार्जयति २, सुप्रत्युपेकने पपरिसंवीषया पंचचिहा-सोदियाऽऽदि । नोदियपमिसंडी. दुधमार्जयति ३. सुप्रन्युप्रेक्षवे सुमार्जवति ४ । अत्रार्थेषु या चरविदा-कोहाउदि पतेसु पमिसंलीण जधियध्वं ।
त्रिषु नाकेषु पश्चादनुपूर्या योत्तरं तपः कामविशेषितानि कोण भवति, नस्स पाखतं भत्ति । इत्यिसंसत्ताए वनगुरूं, पञ्चरनिन्दिवानि प्रायश्चितभचतुर्थे भने शुरोविधिना प्रवृतः। तिरिविजपुरिसेसु चरित्सविराहणाणिप्फळ बउगुरुगं । पु. हाऽऽद्यालयो नङ्गका मासलघुप्रायश्चित्तविषयाः प्रस्ताया. रिसेसु बाउल हुगे । सोयचपखुरसफामेसु रागे चन्गुरुगं । काः, यतो वक्ष्यमाणेषु प्रायश्चित्तेषु द्रष्टव्याः। यथा दएमकग्रहपतेसु व दोसे चलदुर्ग । घाणेदियरागण गुरुगो, दोसण णेऽभिहित तथा दण्ड कनिक्षेपेऽपि वकन्यं, नवरं निको अधमागो । कोहे माणे य हु, मायार मासगुहगो, लोहे हु। स्ताद नमरुपरि च दरमसि संपर्कविपया भित्तिप्रदेश प्रमापमिसंठीणया गता । अथ विण म्रो जाति-प्रायरियम्म वि. जना कर्नव्या तथा वसतेनिंगच्चन् यद्यावश्यकीं न करोति, नयंग करेति चउगुरुयं, उबकायम हु. भिक्खुस्स मा. बसतो प्रविश्य नैधिकीम् , नन भावश्यकाकरणाधिक्या
गुरूं, खुसम्म मासलहुं । विगो गभो । साओ भ. भकरणे च प्रत्येक प्रायश्चिने रात्रिदिवपश्चकं. तथा ( गुरुगं थति सुतपोरिसिं ण कति मासलदु. अत्थपोरिसिं गा क. च अप्पणामे इति) पत्र प्रणामग्रहण दस्तोत्सेधारूपलवणं, रेनि मासगुरु । सीसो पुति-तबस्स कहं पायारो, कहं वा ततोऽयमयः-अवश्य करणीयप्रयोजनवशनः स्वापारयाद बहिप्रणायारो भवति? । मायरियो जणति-(बारसथिहम्मि थि। विनिर्गतो भृया अतिश्रये प्रविशन् 'नमो खमासमणाण' इति न सबै गाहा ) कुसनो दवे य, भावे य । दब्बे दब्बला, ते प्रणाम वा न करोति, नापि हस्तस्यानाकणिकत्वेऽपि द. भावे कम्ममा पानेडि भावकुसलेडि दिले नवे अगिलाए स्तोत्धम, तदा प्रायश्चित्तं रात्रिन्दिवपञ्चकम् ॥ १२६ ॥ ति प्रगिलाणाणो मनोवाकारहिं अज्जरणमाणेत्यर्थः। प्रणा. बेटियगहनिक्खेवे, निट्ठीवा पायवाउ छायं च । सावित्ति-ण भाजीबी प्रणा जीबी, अणासंसोत्यर्थः । प्रासंमण
थमिसकएहमोमे, गामो राईदिया पंच ॥ १७ ॥ हपरलोगेसु । चलोगे यर से सिलाघा भविस्मति।लोगो य भानही वस्यासमसणादिभेसनं दाहिति । परलोगे इन्दमा.
संस्तारकवेण्टलिकाया ग्रहणे, निकेच प्रत्येक दण्ड श्चममाणिगाऽऽदि, रायाऽऽदि वा भविस्सामि । सेसं कंठं । नि०
तनाग, नत्रापि दण्डक श्वाऽऽयेषु त्रिपु नझकेषु पश्चादनुः १.१ उ०।
पृा यथोत्तरं तपः कालविशेषतः प्रत्येक लघुनासः, नसरेषु | অথ নানাঘাই
त्रिषु भगकेषु प्रत्येक रात्रिन्दिवपञ्चक, सप्तमे तु जङ्गे शुरूः । भारसविम्मिवितवे, सभितरवाहिरे कुलझादिष्टे ।
(निट्रोवणा इति) निष्ठी वनाऽऽदो। इह माधयो द्विधा-गच्छगता,
गच्चनिर्गताश्चातत्र धेगळनिर्गतास्न नियमादनिष्टावकाः,औ. अगिलाएँ मणाजीवी, णायबो सो तवायारो ॥२६॥
पग्रहिकमतकाऽऽपकरणासंभवात् । गगना अपिये चिवादविधेऽपि द्वादशभेदेऽस्याम्नां तदेकदेशे, तपसि नपस्या- धिना निष्ठीब्यन्ति, ते अनिष्ठीवका एव, न प्रायश्चित्तापयाः। यां. कार्मणलक्षणाभ्यन्तरदेहस्यैव तापनास्त्रायः सम्यग्दृष्टि- प्रावधिना खेवमलके मिष्ठावने दरामक श्य सप्तभङ्गाःदपक निरेव चा तपस्तया प्रतीयमानत्वादाभ्यन्तरं प्रायश्चित्तादि वैय चाऽऽयेषु प्रत्येक सघुमासः, उत्तरपुत्रिषु प्रत्येक राधिपोढः । तथा बखदेवस्याऽपि नापनाम्मिाधिभिरपि वा नप. न्दिवपञ्चकं.सप्तमभङ्गवर्तिनस्त्वनिष्ठावका पच, विधिना नि. स्तया प्रतीयमानत्वात् बाह्यमनशनाऽऽदि पोदैव । सहाभ्यन्तरण ष्ठीवनात् । उपरितनेष्वपि च त्रिषु भङ्गेषु यदि नमो निष्ठाव्यपसायतरपाद्यं नत्र, कुशमष्टे निपुणोपलब्धे, सर्थक- ति तदा मासलघु। यश्च निवाबने प्राणिनां परिनापनाऽऽशुपप्रलापन इत्यर्थः । भग्लान्या अनदेन, अनाजीकी तस्यैव त. जायते, तनिक च तस्य प्रायश्चित्तम् । श्रादिशब्दारकराडूयपतोऽनुपजीवकः मन्, यो जीयः, प्रवर्तत इति शेषः । ज्ञात- नपरिग्रहः। कण्य ने ऽपि हि दरारूक इव सप्तमङ्गक, तथैव च ध्यो सेयः, स जीयः नपाचारः तपसि तपोरूणे याचारो प्रायश्चित्तविधिः । तथा वस्त्राऽऽदिकमातपात् छायां नाथाया व्यवहारस्तपमा शरः,प्राचारतद्वतोरभेदादिति गाथाऽर्थः॥२६॥ वा भात संक्रामयत्न प्रत्युपेक्कने, न प्रमार्जयतीत्यादयः पूपश्चा०१५विधा
यरसप्त भङ्गाः। पूर्ववदेव बाऽऽयेषु षट्षु भाकेषु प्रायश्चित्त
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( २२०० )
अनिधानराजेन्द्र
तवारिह
विधिः, सप्तमे तु भङ्गे शुरू: । (यंमिलेत्यादि) मार्ग व्रजन् अस्थ मित्स्थस्परिडा अस्थापले. तथा कृष्णमा प्रदेश नीलम, नीमेव कृष्णप्रदे
पि प्रत्येकं योजनीयम् । अथ अध्वनो ग्रामे ग्रामप्रवेश, प्रामाद्वा अध्वनि संक्रामन् पादौ न प्रत्युपेक्षते, न प्रमजियतो. स्यादयो दण्मक श्व प्रत्येकं सप्तनङ्गाः, षषु भङ्गकेषु प्रायश्चि सविधानं, सप्तनङ्गके तु शुद्धः ।
सम्पति ब्राघवमादामपि प्राथमित्रेव विषये प्रतिपादयति
एएस अरं निरंतरं अतिचरेज तिक्खुतो । निकारण मगिलाणे, पंच उ राईदिया छेदो ।। १२८ ॥ एतेषामनन्तरोदितानां रात्रिन्दिवपञ्चकप्रायश्चित्तविषयाणां स्थानानामन्यतरत् स्थानमग्लानो निष्कारणं यो निरन्तरमतिख रेत् त्रिःकृत्वस्त्रीन् वारान् तदा तत्पर्यायस्य च्छेदः क्रियते, पवरात्रिन्दिवानि । उपलक्षणमेतत्-येष्वनन्तरोदितेषु स्थानेषु मामलघुकानि प्रायानि तेषामन्यतमालाम निष्कारणं यदि निरन्तरं श्रीन् वारानतिचरति, तदा तत्पय स्य बेदो मासिक इति इष्टव्यम् ।
सम्पति मासिकानि प्रायश्वितानि विमणिपुराहरियाले हिंगुलप, मणोसिला ज य लोणे य ।
मीसगढ विकाए, जह उदउले तहा मासो ॥ १२७ ॥ यथा उदकार्थे तथेति वचनादेवमत्र प्रतिपसव्यम्-यथा दाते करे मात्र वामितप्राय शिवं घुम तथा हरिताललिकमनःशिलाः प्रती
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अजन सीवीराजनाऽऽदि दणं समुदि प सचित्त पृथिवी कायभेदाः। उपलक्षणमेतत्-तेन शुरू पृथिव्यूकाठिका सादयोऽपि सवित्तपृथिवीकाय भेदाः प्रतिपत्तव्याः । तथा मिश्रकः सचित्ताऽचित्तरूपः कर्दमादिरिताला दिर्वा पृथिवीकाया किमुकं भवति तैरपि प्रत्येकं प्रतेि करे मात्रके या मिकामाददानस्य लघुर्मासः एतत्पुनः सम्प्रदायादवसातत्र्यम्सचित्तमिश्रपृथिवी रजोगुपिते सचित्तमिश्रोदकस्निग्धे वा करे मात्र के वा भिकामुपाददानस्य पञ्च रात्रिन्दिवानि । उक्तं च" सखणि ससरक्खे पणगमिति । " तथा वनस्पतिकायो द्विविधः परीमन्तकाय एकैकस्य यो मेि कुरुकुला, उत्त पिष्टं कुक्कुसा प्रतीताः। उत्कुतिविखनकादिः । तत्र विविधैष सवितमिश्रपरी सवनस्प तिकायैः संस्प्रे करे मात्रके वा भिक्षां गृह्णनो वा लघुमासः । अनन्तमिवनस्पतिक विविधैरपि गुरुमा पुरःकर्मणि पश्चात्कर्मणि च केचिदाहुने घुमास इति परे च स्वारो लघव इति । उकं च कल्पचूर्णै- "पुरकम्मपच्चकम्मे हिं बहु !" इति ॥ १२६ ॥
सम्झायस्व प्रकरणे, काउसो तहा अपमिलेडा ! पोमयित य तदा, अनंदणे चेइयाणं च ॥ १३० ॥ स्वाध्यायस्य वाचनाऽऽरकरणे, सामान्यतो मालनिष्यन्नं प्रायश्चित्तमिति योगः । श्रवेयं भावना सूत्रपरुपीं न करोति मसूत्र मधुमासी तिसृसूत्रपौरुषीणामकरणे क्यो लघुमासाः । चतसृष्णमपि
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तवारिह
इति
आवश्यक
इति करणे कापोत्सव सूत्रे सप्तमी सप्तम्यर्थे प्रायदा (?) करणे सामान्यतो मासनिष्पन्नं प्रायश्चित्तमिति सर्वत्रापि योजनीयम् भावना स्वत्रापीयम् - आवश्यके एकं कायोत्सर्गे न करोति मासलघु । द्वौ न करोति द्विमासलघुची कायोत्सर्गान्नरोत सघु समेवाश्यकं न करोति प्रावरणात पा बन्दनानि आवश्यकेन ददाति दानवा ददाति प्रायश्चित्तं मासलघु ॥ नवरं यत्र माया तत्र मासगुरु । तथा - (अप· मिलेहा इति ) विभकेरत्र लोपः प्राकृतत्वात् । श्रप्रत्युपेक्कायाः, प्रकरणे सामर्थ्यादव- श्रधिकः, श्रीप किश्च । औधिकस्त्रिधा - जघन्यो, मध्यमः, उत्कृष्टश्च । तत्र जयतु तद्यथा मुखपोतिका पात्र केरिकाक पात्रस्थापनं च । उतं च " मुद्दपोत्ती, पायकेसरिया, गोच्छमो. पाय पस" इति मध्यमा पि तद्यथा पानि रजखायं पात्रबन्ध बोलपट्ट मात्रकं, रजोहरणं च । श्राह च " पटला हूँ रत्ताणं, पत्ताबंधो य चोलपट्टो य । मत्तग रयहरणं वि य. मज्झिमगो बन्विहो नेश्रो " ॥ १ ॥ उत्कृष्टश्चतुर्विधः, तद्यथा- पतदुग्रद्दस्त्रयः कल्पाः । उक्तं च--"- उक्कोलो चउत्रिहो, पमिग्गहो तिनि पच्छागा इति प्रार्थिकाणामप्युपचिरोधिकविधः तद्यथाजन्य, मध्यमः पोखिकादिरूपः प्रागुक्तः । मध्यमस्त्रयोदशविधः । तद्यथा- पात्रबन्धः १ रजोदर णं २ पटलानि ३ रजस्त्राणं ४ मात्रकं ५ कमठकः ६ श्रवग्रहानन्तकं 9 पोट्टः श्ररुकः वचनिका १० कञ्चुकः ११ अवक्की १२ बैंककी १३ ।
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सूत्रपरुपामकरने
उकं च पनि
"सचाई । मत्तो य कमढकं था, तह श्रग्गद्द ऽंतगं चैव ॥ १ ॥ पट्टो अरु च्चिय, बलणिय तह कंचुगे य भोगच्छी । वेगच्छी तेरसमा अजाणं होइ नायञ्चा ॥ २ ॥ "
, अभ्यन्तरनिवस" उक्कोसो अट्ट
उत्कृष्टोऽषुविधः, तद्यथा-पतद्रह स्त्रयः कल्पाः, श्र नी, बहिनिक्सनी, संघाटी, स्कन्धकरणी च । जे वो मे अतिरनियंसणी, बाढिनियंसणी, संघाडी, संघकरणी य" इति । ग्राहकोऽपि साधूनामविधिः यथा-ज म्यो, मध्यमः, उत्कृष्टश्च । तत्र पीठनिषद्या इण्डकप्रमार्जनी-म गरदनिका 55 रेजेयम्य मध्यमो दसक
पञ्चकोश्चारप्रवय खेल मल्लकाऽऽदिरूप श्रार्थिकाणामधिको वारकः, उत्कृष्टोऽकाः संस्तारक एकाइगिक इतरो बा, द्वितीयपदे पुस्तकपञ्चकं, फलकं च।" अक्वा संधारो वा, दुविहो एगंमिश्र व इयरो वा । विश्यपयं पोत्थपणगं. फलगं तद होड़ उक्को सो ॥ १ ॥ " तत्रोरकृष्टमुपधि यदि यथाकालं न प्रत्यु
चतुर्मास दिन प्रत्युपेक्षतामा गुरुजनत्युरादिवानित्यु मास पोषित व तहा इन ) दीप धम- अष्टमीपाक्षिकाऽऽदि । पोषधे भवं पौषधिकं तच तत् तपश्च पौषधिकतपः तस्मिन् क्रियमाणे इति सामर्थ्याद्गम्यते । सामान्यतो' मासनिष्पन्नं प्रायश्चित्तमिति योजना । तद्यथा-अ. म्यां चतुर्थन करोति मसलघु, पाक्षिके चतुर्थे न करोति
"
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तवारिह
सार
तथा प् राम्दाद वे अन्यस्यां व तथा
I
मागुरु, तुमसमाकरणे चतुर्मास के अमं न करोति चतुर्मास कादियान जिनबिम्बानी सती सुखावतेषामप्यन्दने मास भवन स्थिता वैकालिकं कालं प्रतिक्रम्य प्रकृते श्रावश्यके प्रभाते व कृते आवश्यके यदि चैत्यानि न वन्दन्ते तेषामपि मासलघु । वक्तं वास्यैव व्यवद्वारस्य चूर्णो-" एएसु चैव अट्ठमिमादीसु चेयाई साहु साहुखी वा जहन्नार बसहीए ठिया, ते न वंदसि मासलघु । जइ चेइयघरे विया वैयालिकं कालं प्रमिता कप श्रावस्सप गोसे य कए श्रावस्सए बेईए न वदंति माल । " इति ।
(२२१० ) अभिधानराजेन्द्रः ।
साम्प्रतमेनामेव गाथां व्याविश्यासुः प्रथमतो " सज्झाय इस अकरणे" इत्येतद्व्यायामयति
सुचत्यपोरिसीर्ण प्रकरणें मासो उ होइ गुरुलघुगो । चाउका पोरिसि उवावणं वस्स चडुगा ।। १३१ ।। सूत्रार्थवीरुध्योः सूप पीरुष्याः अर्थवीरुध्या इत्यर्थः करणे यथाक्रमं गुरुमासो, लघुमासः । श्रर्थपौरुषी हि प्रज्ञाऽऽदिविशि सामभ्यपेक्षा सूत्रायत्ता च । सूत्रपौरुषी त्वजिनवदीक्षितेनाऽपि जहमतिनाऽपि च यथाशक्ति व कर्त्तव्या सूत्राभावे सर्वस्याप्यभावादतः सूत्र पौरुण्या अकरणे मासगुरु । अपौरु या अकरणे मसलघु यो सूपप्रकरणे ही लघुमासी तिमृणां परीणामकरण यो लघुमासा इति सामध्यप्रतिपत्तव्यम् (चाकामित्यादि) चतुःकाल दिवारात्रिगत प्रथमचरमप्रहररूपेषु चतुर्षु कालेषु सूत्रपौरुषीरवपातयतो भ्रंशयतोऽकुर्वत इत्यर्थः । चतुर्षु लघुकाश्चत्वारो घुमत्साः ।
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सम्प्रति काउसो' इति व्याख्यानयति
जइ उस्सो न कुण, तमासा निसाए नि । सव्यं चैवावस्सं, न कुण्ड़ तहियं चउलढुं ति ॥ १३२॥ श्रावश्यके प्रभाते वैकालिके वा यावतः कायोत्सर्गान करोति तावन्तो मासास्तस्य प्रायश्चित्तम् एकं चेन्न करोति, एको लघुमासः । द्वौ न करोति द्वौ लघुमासौ । त्रीन्न करोति यो लघुमासाः । तथा निषस उपविष्टो निपन्नः पतितः, सुप्त इत्यर्थः । चशब्दात् प्रावरणप्रावृतो वा यद्यावश्यकं करोति तदा सर्वत्र मास यदि पुनः सर्वमेवाऽश् न करोति सदाचारी अघुनासाः प्रायश्चितम्।
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अधुना अदा ि चाम्मासुकोसे, मासे मज्छे य पंच उ जहने ।
हिस्स अपेद्दार, एसा खघु होई आस्वणा ।। १३३ ।। उत्कृष्टे वरकृष्टस्य प्रागुकस्वरूपस्थ उपयेोकायुक बरवारो लघुमासामध्ये मध्यमस्योपधेरा घुमा स्वः । जघन्ये जघन्यस्य पञ्चरात्रिन्दिवानि । एषा खलु भवति श्रारोपणा प्रायश्चित्तं प्रत्युपेक्कायामिति ।
संप्रति " पोसहियत वे य" इति व्याख्यानयतिचमकरणे, अहमिपक्खच उमासवरिसे य । लहु गुरु झहुमा गुरुगा, अइसा ॥१३४॥ अत्र यथासंख्येन पदयोजना । सा चैवम्-अष्टम्यां चतुर्थस्याs
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तवारिह
कर मास । पक्के पाक्षिके चतुर्थस्याकरणे मासगृह । चतुर्मासे अष्टमस्या करणे चत्वारो लघुमासाः | सांवत्सरि के षष्ठस्याsकरणे चत्वारो गुरुमासाः । तथा एतेषु चाऽष्टम्यादिषु दिवसेषु चैत्यानाम्, अन्यसतिगतस्तु साधून चान्दने प्रत्येकं मास लघु ।
सम्प्रति लाघवार्थमा प्रायश्चित्तमाहएते तिठाणेसुं, जिक्खू जो वट्टए पमाए । सोमासि ति बग्गा, उग्घायं वा अणुग्धायं ॥ १३५ ॥ एतेष्वनन्तरोदितेषु स्थानेषु ( ति त्ति ) त्रीन् वारान् यो भिक्षुः प्रमादेन वर्त्तते, प्रमादेनैषां स्थानानामन्यतरत् त्रीन् वारान् श्र तिचरति, स मासिकं सामान्यतो मासनिष्पन्नं बेदमुद्घातं लघु, अनुद्घातं गुरुकं लगति प्राप्नोति । यत्र यावन्तो मासा लघवो गुरवो वा तपः प्रायश्चित्तं तत्र तावन्तो मासा लघवो गुरवो वा छेद इति यावत् ।
सम्पति शेषाणि यानि चातुर्मासकानि पारामासिकानि वा प्रायश्चित्तानि, ये वा भणिताः छेदाः, यानि च मूल्झानवस्थितपाराचितानि तदेतत्सर्वमेकगाथया
विवक्षुराह
छकाएँ चसु लहुगा, परित्त लहुगा य गुरुग साहारे । संघट्टण परितावण, बहुगुरुगऽतिवायणे मूझे ||१३६ ।। पङ्कायाः पृथिव्यतेजो बायुवनस्पतित्र सकायरूपाः । तेषां मध्ये चतुर्षु पृथिव्यतेो वायुरूपेषु संघट्टनादिनिः प्रायश्चितं परीत्ते प्रत्येक वनस्पतिकायेऽपि च लघुकाः, साधारे श्रनन्तः वनस्पतिकायिके संघट्टनादिषु गुरुकार तथा दीनां संघट्टने परितापने च यथायोगं लघुका गुरुकाश्च प्रायश्चित्तम् | अतिपातने विनाशे मूलम् । इयमत्र भावना - पृथि वीकायं संघट्टयति मासलघु, परितापयति मासगुरु, अपकाक्पतिजीविता व्यरोचमा ये तेजस्काये वायुकाये प्रत्येक वनस्पतिकाये च यम् । उक्तं च-" बक्कायाऽऽदिम चनसू, तह य परितस्मि होति वा काए । लहु गुरु मासो चउलहु, संघट्टणपरिताव गुद्दवणे ॥ १॥ " एतत्प्रायश्चित्तमेकैकस्मिन् दिवसे संघट्टनाऽऽदि करणे; यदि पुनदो दिवसी पृथिव्यान्तरमा परि तापयति चतुर्लघु, जीविताद् व्यपरोपयति चतुर्गुरुकं, श्रीन् दिवसान् निरन्तरं पृथिव्यादि संपति
चतुर्गुरु, पायति पम्पु निरन्तरं परितापने पलघु अपावणे पमगुरु, पञ्चदिवसान्निरन्तरं पृथिव्यादीनां संघट्टने परितापने गुरु मास्तिक
सान्निरन्तरं संघट्टने पम्गुरु, परितापने मासिकच्छेदः, अपद्वाबचतुर्मास सप्तरं
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मासिक पावणे पारमासिका भी दिवसाि दिसंघट्टने चातुर्मासिकच्छेदः परितापने पाएमासिकः । अपावणे मूलम् । उक्तं च--" दोहिं दिवसेहिं आढवेत्ता मास गुरुप आता ० जाव अहिं संघट्टयचउगुरुप ति । " अनन्तवनस्पतिकायिकं संघट्टयति मासगुरु । परितापयति चतुगुरु अपति चतुर्गुरुद्विदिवसादिनिरन्तर संघट्टनदिने वृद्धि ततः सप्तभिर्दिय लम्बा चतुर्लघु परिताप
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तवारिह
पायति पात्र व्यादिदिय निम्त संघट्टमादिभिर्दिवसैर्मूलमति परिता पति पहल अपद्वावपति पहगुरु मंत्र पञ्चनिर्दिवसे लम् । चतुरिन्द्रियं संघट्टयति बम्लघु, परितापयतः गुरु, अपाययतो मासिकच्छेदः अत्र विलम् चतुरि स्त्रियं संघट्टपति पक्षघु परितापयतः पम्गुरु अपावयतो मासिक पचेन्द्र संघयतः गुरु, परितापयेद, अपाचयतो मूलम् । अत्र पोर्दिव योवस्थाप्यं त्रिपु दिवसेषु पाराचितमिति । व्य०१०। तपोऽर्हमभिधीयतेनिव्वीए पुरिम - गमत्तमायंबिलं चणागाढे ।
पुरिमाई वमनंतं, आगा एवमत्येव ।। २३ ।।
तपोऽप्रायधि कानदर्शनचारित्रतपोऽऽचारपञ्चक
(२२११ ) अभिधानराजेन्द्रः |
तातिचारचक्रमाना वारस्यातिचारे चारातिचारः, सोऽविधः। तद्यथा-अकाले स्वाध्यायकरणं कालातिचारः । धुनमधिजिज्ञासोजीतिमापेन गुरु चिनो बन्द नाऽऽदिरुपचारः, तस्याप्रयोजनं हीनं या विनयाति २ । श्रुते गुरौ वा बहुमानो दार्दः प्रतिबन्धविशेषः, तस्याऽकरणं बहुमानातिचारः ३ । उपधानमाचामाम्लाऽऽदितपसा योगविधानं, तस्याकर
प्रधानाचार
म्यं वा युगानमारमनी उध्यापकं निर्दिशति स्वयं वाऽधीत मित्याचष्टे, एष निह्नवनाभिधानातिचारः ५ । व्यज्यते श्रथ वेनेति जनमागमसूत्रं तम्मावारविन्द्रमरुनमतिरिक वात संस्कृतं वा विधते पर्यायैव विद्धाति । यथा मो मंगलमुकि" इत्यादिस्थाने "पुत्रं कलाणमुक्तेसं दया संचरमिति"नाविचाराः ६ आगम पदार्थस्यान्यथापरि कपनमयतिचारा पथा आचारसूत्रेऽवन्यध्ययनमध्ये "आ ती केश्रा बोगंसि विप्रामुतीति । यावन्तः केचित् लोकेऽस्मिन् पापरिमलोके विपरामृशन्तीति प्रस्तुते ऽर्थेऽन्योऽर्थः परिकल्प्यते - "आवंति होइ देसो, तत्थ व अरहट्टकूबजा केया पाहि तं लोगो विप्रामुलह "७ यत्र च सूत्रार्थी द्वाइये मतनयातिचारों यथा"मंगलमुख, अहिंसा गिरिमत्थर
।
देवा वि तं नमसंति, जस्स धम्मे लया मती ॥ १ ॥ आदागमेसु रंधति, कडेसु रहकार रत्तो भत्तसिणो जत्थ, गद्दभो जत्थ दीसह ॥ २ ॥ " अर्थ व महीयानतिचारों यतः भवनाशे मोनात दभावे दीक्षाचैवमिति विज्ञानाचा तिचारों द्विधावत तत्र विभागत उद्देशकाध्ययनत स्कन्धाङ्गेषु विषये प्रमादिनः प्रमादपरस्य कालातिक्रमणादि पानाचा विचारेषु जातेषु क्रमशः क्रमेण तपो निर्विक तिकं. पुरिमा के अचारलं च अनामाढे दशकाकादि ते उद्देशकालियारे कापावादिके निर्विकृतिम अ ध्ययनातिचारे पुरिमा तस्यातिबारे एकभक्कम अड्डातिबारे श्रावामा मित्यर्थः । आगाडे तू सराज्यभगवत्यादि के श्रुते, पतेतिचारस्थानेषु पुरिमार्द्धाऽऽदि कृपणान्तमेव तपो भवति एतद्विभागतः प्रायश्चित्तमुक्तम् । जीत० । ( पतश्च 'यार' शब्दे प्रथमजागे ८ पृष्ठेऽपि व्याख्यातम् ) पासह परियायवि ।
< अ·
-
तवमग्गगइ
छेयाइयाणवि तत्रो, जीएण गणाहिवइलो य ॥ ५६ ॥ बच्छेदं न चाति भणतिदिनपञ्चकाऽऽदी विधे कि मदीयं हि सम्पूर्ण कर्णनासिकापसाम स्मि, तस्य च्छेदाऽऽद्यश्रद्धानपरस्य ( मिलणो ति) यविद्यमाने व्रतपर्याये न संतप्यते, यथा-कष्टं मम पर्यापरिछन्न इति । यद्वा अन्येषां लघूनामप्यहमतिलघीयान् जात इति तस्य मृदोः, पर्यायगति जिम्नेपियन् अधिकपर्याय एव न न्यूने पर्याये, न पर्यायच्छेदाह बि मेति तस्य पर्यायगतिय अधिवेति समुप्यये पतेषा मुद्दिष्टानां बेदमापन्नानामपि, आदिशब्दान्मुखानवस्थाप्यपा राश्चिकान्यथोपपन्नानां, तथा गणाधिपतेराचार्यस्य, चशब्दास्कुल गणसंघाधिपानां च, जीतेन जीतव्यवहारमतेन तप एव दीयते । अत्राऽऽद दीयतां नाम बेाऽऽद्यश्रद्धालुप्रभृतीनां बेदाद्यावत्तावपि तोयअनेकविधाः शिष्याः परिणामका परिणामकाः, श्रतिपरिणामकाः, शैक्षा उच्छृङ्गलाश्चेति । तत्रोत्सर्गे उत्सर्गापवादे चापवादं य• था नणितं ये श्रद्दधत्याचरन्ति च ते परिणामकाः, ये पुनरुत्स र्गमेव श्रद्दधत्याचरन्ति, अपवादं तु न श्रद्दधति, नाचरन्ति वा,
परिणामकाः, ये चापवादमाचरन्ति नोत्सर्ग, तेऽतिपरिणामका हा नवदीड़िता, उच्ला वा पापरिणामि कानामि मानिन्दनीया लाघवाजोऽभूवन्नित्याचार्या दीनामपि त एव दीयन्ते न वेदाऽऽदय इति । जीत० । ( 'जीयबवहार ' शब्देऽस्मिन्नेव भागे १५१३ पृष्ठे, ' तपोरिह ' शब्दे २१ पृष्ठेवावशिष्टं म्
55
तबियतप्त-त्रि "शेतजे था" ४८।२ । १०५ ॥ ि तप्तस्य संयुक्तस्यान्त्यव्यञ्जनात्पूर्व इकारः । प्रा० २ पाद | - णे, स्था० वा० ।" आश्च्चतेयसा तविया खणलबदिव - सानो परिणमति ।" स्था० ५ ० ३ उ० ।
तवोकम्म तपःकर्म न० । तस्यैवाऽष्टप्रकारस्य कर्मणो बद्धस्पृष्टनिधनिकाचितावस्थस्यापि निर्जराहेतुभूषं] बाह्याज्य स्तरभेदेन द्वादशप्रकारं तपःकर्मोच्यते । आचा० १० २ श्र० १ उ० । निर्विकृतिकाऽऽदिनि (स्था० २ वा० १ ० । स० । औ०) महालयाऽऽदिनि ( अन्त० ८ वर्ग० ३ अ० ) तपः क्रियायाम्,
स्था० ४ ० ३ ३० ।
यो कम्मर्गमिया- तपःकर्मगमिका स्त्री० [तपःकर्मवकल्यताधिकारानुगतायां प्रत्यपती स
योगुणापहाण तपोगुणप्रधान त्रि
ति, दश० ४ श्र० ।
तोमरंगगः तपोमार्गगति खी० उत्तराध्ययनानां ऽध्ययने, उत्त० २६ अ० । स० ।
दुषितवोमगार्ड पनि जम्हएत्य ।
तदा एषवणं तमम्गग चिनाय ॥४६॥ द्विविधं सामान्यन्तरं च देव मार्गों भावमार्गः तत्फल नृता च गतिः सिद्धिगतिः द्विविधतपोमार्गगतिर्भष्यते यस्मादश्राध्ययने तस्मादेतदद्ध्ययनं तपोमांगगतिरिति ज्ञातव्यम, अभिधानोपचारादिति भावः । तच पाई० ३० अ० ।
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(२२१२) भनिधानराजेन्छः।
तवोमय
तस
तवोमय-तपोमद-पुं० । अमेव विकृष्टतपोविधायी नापि तपसा किचि बच्चेरियं दिकं तत्थ पगो कप्पडिगो भणइ-मए दि. सानिमुपगच्नमीत्येवंरूपे मदे, सत्र० १ श्रु० १३ म० । टुंति । जशपुण पत्थ समणोवासो नस्थि,तो साहेमि । तओ " पम्नामयं चेय तवोमय च, विन्नाम गोयमयं च भिक्ख।" सेसर्टि भणिय-त्थित्य समणोचासो। पच्छा सो जणति. सूत्र. १७०१३ मा
मए हिमंतेणं पुचवेतालीए समुदस्स तमे रुक्स्रो मदतिमा
हंतो दिछो । नस्सेगा साहा समुद्दे परट्रिया, पगा य थले । त. तवोवहाण-तपउपधान-न । विशिष्टतपोविशेषे, सूत्र.१ .
त्थ जाणि पत्ताणि जले पमंति, ताणि जलचराणि सत्ताणि ६०। तपःकर्मणि, "दाणं तोवदाणं, सरीरसकारमो जहा.
हवंति, जाणि घले, ताणि थनचराणि हवंति । ते कप्पमिया सत्ति।" पञ्चा. ९चिव.। भनियन्त्रिते तपसि, श्रुतोपचारत.
भणंति-श्रहो! अच्छेरियं देवेण भट्टारएण णिम्मियं ति । तत्थेगो पसि च । स० ६ अङ्ग।
सावगो कप्पमित्रो । सो भणति-जाणि अद्धमज्के पमंति, तवोवहाणादिय-तपउपधानादिक-त्रि० । तपाकर्मशरीरसत्- ताणि किदवंति ? । ताहे सो खुदो नणति-मया पुवं चेव कारप्रभृतिकाऽऽदौ, "कयमत्थ पसंगणं, तबोवदाणादिया वि। भणितं । जइ सावो नऽस्थि तो कहेमि । पतेणं तं चेव णियसमए । अणुरूवं कायम्बा, जिणाण कहाणवियहसु।" पमणवत्थुमदिकिचोदाहरियं ।" एवं तावल्लौकिकमिदं चोक्त॥ २६ ॥ पञ्च विव०।
न्यायालोकोत्तरस्यापि सूचकम् । तत्र चरणकरणानुयोगे यः
कश्चिद्विनेयः कश्चनासग्राहं गृहीत्वा न सम्यवर्तते, स खलु तवोसमायारिसमाहिसंव-तपःसामाचारिसमाधिसंतृत-पुं० ।
तद्वस्तूपन्यासेनैव प्रज्ञापनीयः । यथा कश्चिदाह-" मांसभतपसोऽनशनाऽऽद्यात्मकस्य सामाचारी समाचरणम् । यद्वा- क्षणे दोषो, न मद्ये न च भैथुने । प्रवृत्तिरेषा भूतानां, नितपश्च सामाचारी च तत्कृतो वक्ष्यमाणस्वरूपः समाधिश्च चे- वृत्तिस्तु महाफमा ॥१॥" इदं च किंवमेव प्रयुज्यते, प्रवततः स्वास्थ्य, तैः संवृतो निरुद्धाऽऽधवः तपःसामाचारिसमा
त्तिमन्तरेण निवृत्तेः फलानावानिर्विषयत्वेनासंभवाच, तस्माधिसंवृतः। यद्धा-तपःसामाचारिसमाधिनिः संवृतं संवरण यस्य ।
त्फलनिवन्धननिवृत्तिनिमित्तत्वेन प्रवृत्तिरप्य दुष्टैवेति । अत्रो. स तथा । तपसः समाचरणेन समाधिना च निरुकाऽऽश्रवे,
च्यते-इह निवृत्तेमहाफलत्वं किं दुष्टप्रवृत्तिपरिहाराऽऽत्मकत्वेन, उत्त.१उ०।
आहोस्विद दुष्प्रवृत्तिपरिहाराऽऽत्मकत्येनेति ? । यद्याद्यः पक्षःतब्बइरित्तमिच्छादंसपवत्तिया-तन्यतिरिक्तमिध्यादर्शनप्रत्य- कथं प्रवृत्तेरपुष्टत्वम् ?, अधापरस्ततो निवृत्तेरप्यपुश्त्वात्तभिवृ. या-स्त्री. । तस्मात् ऊनातिरिक्तमिथ्यादर्शनाद्वयतिरिक्तं मिथ्या
तेरपि प्रवृत्तिरूपाया महाफवत्वप्रसङ्गः, तथा च मति पूर्वापरदर्शन नास्त्येवाऽऽत्मेत्यादिमतरूपं प्रत्ययो यस्याः सा तथा,
विरोध इति नावना। 5व्यानुयोगे तु य एवमाह--एकान्त नित्यो
जीवः, अमूर्तत्वादाकाशवदिति । स खबु तदेवामूर्तत्वमाश्रित्व तस्याम्, स्था० २ ठा० १ उ.।
तस्योरक्षेपणाऽऽदावनित्ये कर्मण्यपि तावद्वक्तव्यः । कर्मामूर्तसम्बत्युय-तद्वस्तुक-पुं•। तदेव परोपन्यस्तसाधनं वस्त्विति
मनित्यं चेत्ययं वृद्धदर्शनेनोदाहरणदोष पव, यथाऽन्येषां साउत्तरभूतं वस्तु यस्मिन् उपन्यासोपनये स तद्वस्तुकः । श्र.
धर्म्यसमा जातिरिति । दश०१०। थवा-तदेव परोपन्यस्तं वस्तु तद्वस्तु, तदेव तद्वस्तुकं, ताक्त उपन्यासोपनयोऽपि तद्वस्तुकः । उपन्यासमेदे, स्था० । यथा
| तव्वयण-तद्वचन-न० । तस्य विवकितार्थस्य घटाऽऽदेवचनं कश्चिदाह-समुष्तटे महान् वृक्षोऽस्ति, तच्छाखा जलस्थ- नणनं तद्वचनं, घटार्थापेकया घट वचनवतू । बचनभेदे, स्था. लयोरुपरि स्थिता, तत्पत्राणि च बानि जसे निपतन्ति तानि | ३ ग०३ उ०। जलचरा जीवा भवन्ति, यानि च स्थले तानि स्थनचरा तस-त्रस-पुं०। त्रसन्ति उष्णाऽऽद्यभितप्ताः सन्तो विवक्तितस्थानाइति । अन्यस्तपन्यस्तमेव तरुपत्रपतनवस्तु गृहीत्वा त. दुद्विजन्ते गच्छन्ति च गयाऽऽद्या सेवनार्थ स्थानान्तमिति त्रमाः, मुक्तं विघटयति-यत यानि पुनमध्ये, तेषां का बातेत्येतद्- अनया च व्युत्पच्या प्रसारसनामकोदयवर्तिन एवं परिगृपपत्तिमात्रमुत्तरभूतं तद्वस्तुक उपन्यासोपनयः, झातत्वं चास्य ह्यन्ते, न शेषाः। अथ च शैबैरपीह प्रयोजन,तत एवं व्युत्पत्तिःज्ञाननिमित्तत्वात्। अथवा-यथारूढमेव शातमेततानथा ह्येवं प्र. त्रसन्ति अजिसन्धिपूर्वकमनमिसन्धिपूर्वकंवा ऊर्वमधस्तियक्षु योगोऽस्य-जलस्थलपतितपत्राणि न जलचराऽऽदिसवाः संज. चमन्तीति प्रसाः। तेजोवायुपु,दीडियाऽऽदिषु च । जी प्रतिका कन्ति, जलस्थलमध्यपतितपत्रवत् । तन्मध्यपतितपत्राणां हि | वसन्तीति प्रसाः । द्वीन्डियाऽऽदिषु, सूत्र. २७० १ अ० । जं०। जलस्थापतितपत्रजसचरत्वाऽऽदिप्राप्तिवनयरूपप्रसाः, न सु०प्र० स्था० । पं०सं०। आचा। प्राब• । स० । द्वीन्द्रियाचोभयरूपाः सवा अत्युपगता इति । अथवा-नित्यो जीवोऽम- ऽऽदिकृम्यादिषु, आचा०१ श्रु०६०१ न० । द्वित्रिचतुःपञ्चेतन्वादाकाशवदित्युक्त श्राह-अनित्य एवास्तु मूर्तत्वात्कर्मव- छियेषु पर्याप्तापर्याप्तभेदनिन्नेषु, सूत्र० १ श्रु०५०१०। दिति । स्था० ४ ठा० ३ ००।
प्रसनामकर्मोदयतस्त्रस्यन्तीति त्रसाः। द्वान्छियाऽऽदिषु, स्था०२ सम्बत्यूवमास-तद्वस्तूपन्यास-पुं० । उपन्यासन्नेदे, दश०१०।।
गा.१ उ.। मूत्र० । तेजोवायुद्वीनियाऽऽदिषु, नि० चू० १२
उ० । सुत्र । वित्रिचतुःपञ्चेन्द्रियेषु, सूत्र. १ श्रु० ११ अ०। नम्वत्थुयम्मि पुरिसो,सव्वं नमिळण साहइ अपुन्वं । (४) त्रस्यन्ति तापाऽऽझुपतताइगयाऽऽदिकं प्रत्यभिसर्पन्तीति प्रसाः। नवस्तुके, तवस्तूपन्यासे इत्यर्थः । पुरि शयनात् पुरुषः । सर्व द्वन्धियाऽऽदिषु, उत्त०५ अ० । कुन्थ्वादिषु,पा० । दर्डरप्रभृतिषु, भ्रामवा सर्वमाहिण्ड्य, किम्, कथर्यात, भपूर्व, वर्तमाननिदेशः सुत्र.२९०३ अ०। त्रससंभारकृतेन कर्मणा समुत्पन्नाः सन्त: पूर्ववदिति गाथादलार्थः। नावार्थः कथानकादवसेयः। तच्चेदम- सामान्यसंझया प्राणा अप्युच्यन्ते, नथा विशेषतः 'त्रस' भयच
"पगम्मि देवकुले कप्पमिया मिलिता भणंति-केण भे भमंतहिंलनयोरिति धात्वर्थानुगमाद,भयचलनाज्यामुपेतेषु,सूत्र०२श्रु०
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(२२१३) तस अनिधानराजेन्द्रः।
नस ७० त्रस्यन्तीति त्रसाः तेजोवायुरूपा विकन्छियपञ्चे- तीति वाक्यशेषः। अभिक्रमणमभिकान्तं, भावे निष्ठाप्रत्ययः। जियमेदात्रिधा । सुत्र. १७०६०।
प्रज्ञापकं प्रत्यभिमुखं क्रमणमित्यर्थः। एवं प्रतिक्रमणं प्रतिक्रातिविहा तसा पत्ता । तं जहा-तेउकाइया, वा उकाइया,
म्तं, प्रज्ञापकात्प्रतीपं क्रमणमिति भावः। संकोचनं संकुचितं,
गात्रसंकोचकरणम् । प्रसारणं प्रसारितं, गाविततकरणम् । उरामा तसा पाणा।
रवणं रुत, शब्दकरणम । भ्रमणं भ्रान्तम, इतश्चेतश्च गमनम् । त्रस्यन्तीति त्रसाः संचलनधर्माः, तत्र तेजोवायचो गति.
प्रसनं त्रस्तं दुःखापुढे जनम् । पलायनं पनायितं.कुतश्चिन्नाशनम्। योमास्त्रसाः उदाराः स्यूलालसा इति त्रसनामकोदयवति
तथा आगतेः कुतश्चित् क्वचित, गतेश्च कृतश्चित्क्वचिदेव स्वात् प्राणा इति व्यक्तोन्नासाऽऽदिप्राणयोगाद् द्वीन्धियाऽऽदय.
च, (विप्नाया इति) विझातारः। श्राह-अभिक्रान्तप्रतिक्रान्ता. स्तेऽपि गतियोमात् प्रसा इति । स्था०३ ग.२१०।
भ्यां नाऽऽगतिगत्योः क्वचिद्भेद इति किमर्थ भेदेनाभिधानम? सम्प्रति औदारिकत्रसानाह
उच्यते-विज्ञानविशेषख्यापनार्थम् । एतदुक्तं भवति-य पव से कितं उरामा तसा पाला। उराया तसा पाणा चउ
विजानन्ति,यथा-बयमभिकमामः,प्रतिक्रमामो वात एव प्रसा-3B बिहा पन्नता । तं जहा-बेइंदिया, तेदिया, चनरिदिया, न तु वृत्ति प्रत्यभिक्रमणवन्तोऽपि वल्ल्यादय इति । श्राह-एच. पांचंदिया।
मपि द्वीन्द्रियाऽऽदीनामत्र सच्चप्रसङ्गः, अभिक्रमणप्रतिक्रमण (से कि तमित्यादि) अथ के से औदारिकास्त्रसाः ? सूरिराह
भावेऽप्येवं विज्ञानाभावात् । नैतदेवम् । हेतुसंज्ञाया अवगते. औदारिकास्त्रसाश्चतुर्विधाः प्राप्ताः। तथा द्वीन्जियास्त्रीन्जियाः
qहिपूर्वकमिव बायात उध्यमुष्णाघा गयां प्रति तेपामचतुरिन्द्रियाः पश्चेन्डियाः। तत्र द्वे स्पशरसनरूपे इन्डिये येषां
भिक्रमणाऽऽदिनावात। न चैवं वल्ल्यादीनामभिक्रमणाद्योघसंते द्वीन्द्रियाः। त्रीणि स्पर्शनरसनघ्राणरूपाणि इन्छियाणि येषां
ज्ञायाः प्रवृत्तेरिति कृतं प्रसङ्गेन।। ते त्रीन्छियाः। चत्वारि स्पर्शनरसनघ्राण वषरूपाणि सन्धियाणि
अधिकृतत्रसभेदानाहयेषां से चतुरिन्डियाः । पञ्च स्पर्शनरसनघ्राणचक्षुःश्रोत्ररूपाणि
जे य कीमपअंगा, जा य कुंथुपिपीझिया, मब्वे वेइंदिइन्छियाणि येषां ते पञ्चेन्छियाः। जी०१ प्रति। इदानी त्रसाधिकारे पतदाह
या, सब्चे तेइंदिया, सव्वे चनरिंदिया,सव्वे पंचिंदिया, सब्वे से जे पुण इमे अखेगे बहवे तसा पाणा । तं जहा-अं
तिरिक्खनोणिया, सव्वे नेरड्या, मव्वे माणुया, सन्चे देवा, डया,पोयया,जराज्या,रसया.संसेइमा, समुच्छिमा,उब्भिया,
सच्चे पाणा परमहम्मिया । उववाश्या ।।
(जे य इत्यादि ) ये च कीटपतङ्गा इत्यत्र कीटाः कृमयः,"ए(से जे पुण श्मे इति) से' शब्दोऽयशब्दार्थः । असा
कग्रहणे तज्जातीयग्रहणम्" इति द्वीन्द्रियाः शहाऽऽदयोऽपि गृह्यवयुपन्यासार्थः । “अथ प्रक्रियाप्रश्नानन्तर्यमङ्गलोपन्यासप्र
न्ते। पताः शलजाः। अत्रापि पूर्ववच्चतुरिन्न्यिा चमराऽऽद. तिवचनसमुच्चयेषु" इति वचनात् । अथ ये पुनरमी बा.
योऽपि गृह्यन्त इति । तथा याश्च कुन्थुपिपीग्निका इति; अनेन साउदीनामपि प्रसिकाः, अनेके द्वीमियाऽऽदिभेदेन बहर
त्रीन्जियाः सर्व एव गृह्यन्ते। अत पवाऽऽह-सर्वे हीन्द्रियाः कृ. पकैकस्यां जाता त्रसाः प्राणिन:-त्रस्यन्तीति प्रसाः प्राणा
म्यादयः, सर्वे त्रीन्द्रियाः कुन्थ्वादयः, सर्वे चतुरिन्ज्यिाः पत. उच्चासाऽऽदय एषां विद्यन्त इति । तद्यथा-( अंडया
ङ्गाऽऽदयः। पाह-ये च कीटपतङ्गा इत्यादावुद्देशव्यत्ययः किमयं. इत्यादि ) एष खलु षष्ठो जीवनिकायः त्रसकायः प्रो
म्। उच्यते-विचित्रा सुत्रगतिः,तन्त्रः क्रम इति झापनाम । च्यत इति योगः । तत्राराडाउजाता अरामजाः, पक्किगृहकोकि
सर्वे पश्चेन्जियाः सामान्यतः। विशेषतः पुनः सर्वे तिर्यग्योनया लाऽऽदयः । पोता एव जायन्त इति पोतजाः । “अन्ये.
गवादयः; सर्वे नारका रत्नप्रजानारकाऽऽदिभेदजिन्नाः; सर्व वपि दृश्यते" ॥ ३।२।१०१। इति डप्रत्ययो जनेरिति
मनुजाः कर्ममिजाऽऽदयः; सर्वे देवा जवनवास्यादयः । सर्ववचनात; ते च हस्तिवल्गुलीचर्मजबूकाप्रभृतयः। जरायुवेष्टिता
शब्दश्चात्र परिशेष भेदानां त्रसत्वख्यापनार्थः । सर्व एवैने त्र. जायन्त इति जरायुजाः। गोमहिध्यजाविकमनुष्याऽऽदयः। अ.
सान केन्द्रिया श्व त्रसा:, स्थावराश्च इति । उक्तं च-"पृ.
थिव्यम्वुवनस्पतयः स्थावराः,तेजोवायुद्धीन्द्रियाऽध्दयश्च त्रसा।" त्रापि पूर्ववप्रत्ययः । रसाज्जाता रसजा;तकाऽऽरनालदधिती. मनाऽऽदिषु पायुरुम्याकृतयोऽसिसूक्ष्मा भवन्ति । संस्वेदाजाता
इति । सर्वे प्राणिनः परमधर्माण इति । सधैं एते प्राणिनोटी. इति संस्वेदजाः,मत्कुणयुकाशतपादिकाऽऽदयः। समुचनाउना.
जियाऽऽदयः पृथिव्यादयश्च परमधर्माण इति । अत्र परमं सुखं ताः संमूर्छनजाः, शल नपिपीलिकामक्तिकाशालूकाऽऽदयः ।
तद्धर्माणः-सुखधर्माणः, सुखानिलाषिण इत्यर्थः । यतश्चैवमि. उद्भेदाजन्म येषां ते उद्भेदाः । अथवा-उद्भेदनमुक्षित. उद्भिज.
त्यतो दुःखोत्पादपरिजिहीर्षया पतेषां पप्मां जीवनिकायानां
नैव स्वयं दराम समारभेतेति योगः। न्म येषां ते उद्भिजाः पतङ्गखजरीटपारिसवाऽऽदयः। उपपाताजाता उपपातजाः । अथवा-उपपाते भवा भोपपातिकाः;
षष्ठं जीवनिकायं निगमयन्नाहदेवा नारकाच!
एमो खबु छट्ठो जीवनिकाो तसकाओ त्ति पञ्च। एतेषामेव बकणमाहजेसि केसि चि पाणाएं अनिकंतं पमिकतं संकुचियं |
एष स्वल्वनम्तरोदितः कीटाऽऽदिः षष्ठो जीवनिकायः, पृधि
ग्यादिपञ्चकापेक्षया षष्ठत्वमस्य । त्रसकाय इति प्रोच्यते-प्रकपसारियं रुयं भंतं नमियं पलाश्यं आगइगइविधाया ॥ | बैंणोच्यते, सर्वैरेव तीर्थकरगणधरैरिति प्रयोगार्थः । प्रयोगश्चयेषां केपाश्चित्लामान्येनैव प्राणिनां जीवानामजिकान्तं च विद्यमानकर्तृकमिदं शरीरम् , अादिमप्रतिनियताऽऽकारत्यात,
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(२२१४) तस अभिधानराजेन्दः ।
तसकाय घरबत् । पाह-इदं सकावनिगमनमननिधायास्थाने सर्वे
इदानीमुत्तरदानाहप्राणिनः परमधर्माण इत्यनम्नरसूत्रसंबन्धिसूत्राभिधानं किम
तिविहा तिविहा जोणी, अंमा पोया जराच्या चेव । थम उच्यते-निगमनसूत्रव्यवधानवदन्तिरेण व्यवधानस्यापनार्थ तथाहि-त्रसकायनिगमनसूत्रावसानो जीवाभिगमः,
वेइंदिय तेदिय, चउरो पंचिंदिया चेव ।। ५४|| मत्रान्तरेऽजीवानिगमाधिकारः, तदर्थमभिधाय चारित्रधर्मों (तिविहेत्यादि) अत्र हि शीतोष्णमिश्रभेदात्, तथा-सचित्ताधक्तव्यः।दश०४०।
चित्तमिश्रभेदात, तथा-संवृतविवृततपुभयभेदात्, तथा-स्त्री. वस-धा० । गतौ, ग्रह, निषेधे च । चुरा०-उम०-क-लेट् ।। पुनपुंसकभेदाच्चेत्यादीनि बहूनि योनीनां त्रिकाणि संनवअसयति । प्रसयते । प्रतित्रसत् । बाबा भये,न्यादिफणा.
ति, तेषां सर्वे संग्रहार्थं त्रिविधा त्रिविधेति वाचा निपर०-भक०-सेट् । वास। "प्रसेमर-योज-बजाः" || ४|
देशः, तत्र नारकाणामाद्यासु तिसषु नूमिषु शीतैव योनिः, १९०॥ त्रसेरेते त्रय मादेशा वा भवन्ति । 'घर' 'बोज,
चतुर्णामुपरितननरकेषु शीता,अधस्तननरके पूष्णा, पञ्चमीषष्ठी'वजपक्षे-'तसई'। प्रा०४ पाई।
सप्तमीकृष्णव, नेतरे, गर्भव्युत्क्रान्तिकतिर्य मनुष्याणामशेषदेवा
नां च शीतोष्णा योनिर्नेतरे, द्वित्रिचतुःपञ्चेन्द्रियसम्मूर्चनज. तसकाइव-त्रमकायिक-पुं०। सनशीसाखसाः, प्रसाः कायाः
नियंकमनुष्याणां त्रिविधाऽपि योनिः-शीता, नष्णा, शीतोष्णा शरीराणि येषां ते प्रसकायाः, प्रसकाया एव सकायिकाः।
चेनि । तथा-नारकदेवानामचित्ता, नेतरे, द्वीन्द्रियाऽऽदिसमू. दश.४ अ.। जङ्गमप्राणिनि, स० ३ समः।
जपवेन्द्रियतिर्यामनुष्याणां सचित्ताचित्तमिश्रयोनिर्नेतरे तसकाय-प्रसकाय-पुं०। प्रसनामकझोंदयात्रस्थम्तीति प्रसाः, ............ (?) । नया-देवनारकाणां संवृता योनिनंतरे, ते कायो राशिस्नसकाथः । स्था०२० ११० । प्रसन
द्विधिवतरिम्झियमम्मूचनजपवेन्द्रियतियदमनुष्याणां विवृता शीलालसाः, प्रसा: कायाः शरीराणि येषां ते त्रसकायाः। ज. योनिनेंतरे, गर्नव्युतकान्तिकतिर्यकमनुष्याणां संवृतविवृता योश्रमजीवभेदे, स०१० सम0 1 " तसकाए विहे पत्ते । तं
नितरे । तथा-नारका नपुंसकजपचैमिष्यनियमनुष्याणां जहा-भवसिद्धिए वेब, अनवसिहिए बेव।" स्था०२ ग.१
विवृता योनिर्नेतरे । गर्भधोनय पव तिर्यश्च स्त्रविधाः स्त्रीपुंउ०। (व्याख्या स्वस्वस्थाने)
नपुंभकयोमयः, मनुष्या अप्येवं विध्यनाजा, देवाः स्त्रीपु. मथ त्रसकायोद्देशमाह
योनय पव,तथा परं मनुष्ययोनेस्पैविध्यम । तथ्या-कर्मोन्नता।
तस्यां चाहत चक्रपत्य दिसत्पुरुषाणामुत्पत्तिः । तथा-शवबसकाए दाराई, ताई जाई हवंति पुढवीए ।
। सा च स्त्रीरत्नस्यैव, तस्यां च प्राणिनां संभवो नास्तीति न नाणत्तओ विहाणे, परिमाणुवभोगसत्ये य ॥ ११ ॥ । निष्पत्तिः । तथा-बंशीपत्रा। सा च प्राकृतजनस्येति । तथा परं वसन्तीति त्रसाः, तेषां कायः, तस्मिन, तान्येय द्वाराणि नव.
त्रैविध्यं नियुक्ति दर्शयति । तद्यथा- एमजाः, पोतजाः, जरायु: स्ति, यानि पृथिव्याः प्रतिपादिनानि । नानात्वं विधानपरिमा- |
जाश्चति । नत्राएडजाः पदयादयः, पोतजाः वल्गुलीगजकगोपभोगशत्रद्वारेषु, चशब्दालकणे च प्रतिपत्तव्यमिति ।
सनाऽऽदयः, जरायुजा गोमहिषीमनुष्याऽऽदयः । तथा द्वित्रि. तत्र विधानद्वारमाह
चतुःपञ्चेन्जियभेदाच्व निद्यन्ते । एवमेते त्रिविधानसा योन्या
दिनेदेन प्रमपिताः। सुविहा खलु तसजीवा, ललितसा चेव गतितसा चेव ।।
पतयोनिसंग्राहिएयो गाथा:लदी य तेउवाऊ, तेणऽहिगारो इहं नत्यि ।। ५ ।। ( दुविहेत्यादि ) द्विविधा द्विमेदाः, ख सुरवधारशे, प्रसत्वं
" पुढविदगप्रगशिमारुय-पत्तेयनिश्रोयजीधजोगीणं ।
सत्तग मत्तग सत्तग, सत्तग दस चोरस य मक्खा ॥१॥ प्रति द्विभेदत्वमेव-त्रसनात स्पन्दनात् प्रसाः, जीवनात् प्राण
विगलिदिएमु दो दो, चउरो चनरो य नारयसुरेसु। धारणाजीवाः त्रिपा एव जीवास्त्रसजीवा:-लब्धित्रसाः,गतित्र.
तिरिया सतनब य, पणवीसा एगिदिया....... ॥२॥ साश्च। लब्धी तेजोवायू त्रसौ. सब्धिस्तक्तिधात्रम्। लम्वित्रमाज्यामिहाधिकारो नास्ति, तेजसोऽनिहितवाद, बायोश्चाग्निः
.......... होति च नरो, चोइस मण्यारण लक्खाई॥" धास्यमानस्यात, अतः सामाद् गतिरसा पवाधिक्रियन्ते।
एबमेते चतुरशीतियोनिलका भवन्ति । के पुनस्ते कियनेदा इत्याह
तथा कुलपरिमाणम्नेइयतिरियमाया, सुरा गहतसा चउब्धिहा पए। "कुल कोमिसयसहस्सा, बत्तीस नव य पणवीसा। पजताऽपजना, नेरझ्याई न नायव्वा ॥ ५३ ।। पगिहिय वितिइंदिय, चरिदिय हरियकायाण । (नेस्येत्यादि) नारका-नशनाऽदिमहातमःपृथ्वीपर्यन्त. अटुत्तेरम बारस, दस नव चेव कोमिलक्साई१॥ नरकमासिनः सप्तभेदाः,तिर्यशोऽपि-विधिवतुःपञ्चन्छिया,म.
जलयरपक्खिन अध्यय-उरभुयपरिसप्पजीवाणं । नुष्याः-संमूनजाः, गर्भग्युत्क्रान्त पश्च; मुराः-भवनपशिष्यन्त. पणवीसं बम्चीस, च सयसहस्साई नारयसुराणं ॥२॥ ज्योतिप्कवैमानिकाः,पते गतिरसाइमनुर्विधाः,नामकोदया. पारस य सयसहस्सा, कुल कोमीणं माणुस्साणं ॥३॥ मिनिर्वृतगभिलालालित्रसत्यम । पते च नारकास्यः पर्या. एगा कोडाकोडी, सत्ताण च सयमहस्सा। मापर्याप्तभेदेन विविधा भवन्ति; नत्र पर्याप्तिः पूर्वोतव पोहा, पन्नासं न सहस्सा, कुल कोडीणं मुणेयचा ॥४॥ तेधा यथासंभयं निष्पनाः पर्याप्ता, तस्पिरीतास्त्वपर्याप्तका अत:-१७५००००००००००००० सकनकल संग्रहोऽये बो. अन्तर्मुहकासमिति ।
व्यः । प्राचा.शु.१०६ उ.1.
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(2214) अभिधानरा जेन्खः |
तसकाय
से किंतं तसकाइया है। तसकाइया चचम्विदा पछता तं जहा बेदिया, इंदिया, चरिंदिया, पाबंदिया से किं तं बेदिया है। इंडिया प्रोगविदा पछता एवं जडेल पछ शानदेव निरवसेायजा सम्यसिकमा दे वा से वाया से पंचिदिया, सेतं तसकाइया ।। उक्ता प्ररूपणा । जी० ३ प्रति० ४ ० । तदनन्तरं लक्षणद्वारमाह
दंसनाचरिते परियाचरिए व दाणसाने प । उवजोगजोगवीरिए, इंदियसिए य सीए ॥ ५५ ॥ उपयोग भोग अश्व-सा वीच सदिई व अविद्धोदय लेसा सथा उसासे कमाए व ।। ५६ ।। ( इंसत्यादि) दर्शनं सामान्योपलब्धिरूपं, चतुरचतुरव धिकेवलाऽऽख्यं मत्यादीनि ज्ञानानि स्वपरपरिब्बैदिनो जीवस्य परिणामाः ज्ञानावरणाबेगमध्यानध्वार्थपरिवेशः साकायि
वेदोपपरिहारविशुमसम्पतानिया
रियं चारित्राचारित्रं देशविरतिस्थूलप्राशाविपानादिनिवृति लक्षणं धावकाणाम्, तथा दानलाभोगोपभोगवीर्याः श्रचक्षु प्रणिरस्पर्शनाका निवारियो कणं नवन्ति । तथोपयोगः साकारोऽनाकारश्वाऽचतुर्भेदः, योगो मनोवाक्कायाऽखिया अध्यवसायाखानेकविधाः सूक्ष्मा म नःपरिणामसमुत्थाः, विष्वग् पृथग्बन्धीनामुदयाः प्रादुर्भावाःक्षीरमध्वासवादयः, ज्ञानाऽऽवरणाऽऽद्यन्तरायावसानकर्माष्टकस्य स्वशक्तिपरिणाम उदयः, वेश्याः कृष्णाऽऽदिनेदा अशुजाः सुनाश्च कपाययोगपरिणामविशेषमुत्याः संज्ञास्वाहारमपपरिग्रहमैथुनाया। अथवा दशमेश रोकाः कोश्चतस्रः, तथौध संज्ञा, लोकलंज्ञा च । उच्छासनिःश्वासौ प्राणापा संसारातस्यायाः क्रोधादयोगानुबन्ध्यादि दान बोडशविधाः पतानि गाचायम्वनानि ही दीनां लक्षणानि यथाकलापसमुह घट:55 देवस्ति तस्मादेतन्यमध्यव स्यन्ति विद्वांसः ।
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अनितिल कृणकलापोपसंजिहीर्षया तथा परिमाणप्रतिपादनार्थ गाथामाह
मेव पपरस्स असंभागमेाते। नियम व पवेसो, एमा बीया विमेव ॥ ५७ ॥ (क्वमित्यादि) तुदादिजी यानां खयं विग्नमेतावदेव दर्शवाऽऽदि परिपूर्ण नाम्पदधिक मस्तीति । परिमाणं पुनः क्षेत्रतः संवर्तितलोकप्रतरासंख्येयजागवर्तिप्रदेशराशिमा शास्त्रलकाय पर्याप्तकाः । एते च बादरतेजस्काय पर्याप्त केभ्योऽसंख्येयगुणाः, जसकाय पर्याप्त केज्यासकायिकापर्यातकाः असंख्येयगुणाः, तथा कालतः प्रत्युत्पन्नत्रस कायिका सागरोपमधपमराशिपरिमाणा जघन्यपर्व उपपदे ऽपि सागरोपमा पृथकत्वपरिमाणा एवेति । तथा चागमः-" पप्पन्ना तसकाश्या केवतिकालस्स निल्ले. बालिया? गोमा ! जनपप सागरोपमसय सदस्मपुचस्स, चक्कोपदेवि सागरोवम सगसहस्स पुढ तस्स ।" उद्वर्तनोपपाजाति-निष्क्रमप्रवेश उपप
जघन्येने को ही यो बा, उत्कृष्टतरमेवमेवेति-तरस्यासंख्येव भागप्रदेशपरिमाणा एवेत्यर्थः ।
तसकाय
साम्यतमविरहितप्रवेशनिर्गमायां परिमाणविशेषमाहनिमपसकाले समयाई एत्थ भावयिभागो । तो विरहो, उद्दिसहस्सा ने दोषि ॥ ए८ ॥ (निलोयादि) जयम्बेन अविरहिताः सम्तासेषु उत्प चिष्कमा जवानामेकं समयं दिनप्रायद्विका असंख्य कार्य संततमेव निष्क्रम प्रवेशो या एकजीव करना बिरह माथापन विरहः सातवेनावस्थानम् एकीय हिसावेन जन्यतोमाया पुनः पृथिव्या केन्द्रियेत्पद्यते प्रकर्षेणाधिकं सागरोपमसह सम्वमिति । उकं
प्रमाणद्वारम् ॥
भगवेमाहारयप्रतिपादनायासादी परिजोगो, सत्यं सत्याश्यं अगविहं । सारीरमाणभावेपणा व दुविहा बहुविहाय ॥ ५६ ॥ मांसमनखन्तिनयस्वादिभिस काय संबन्धिनिरुपजोगो नवति, शस्त्रं पुनः शस्त्राऽऽदिकमिति खतोमररकाऽऽदि तदादिश्य जलानादेस्त स्वाऽऽदिकमनेकविधं स्वकायपरकायोभयव्य भावभेदभिन्नमनेकप्रकारे काय बेदना यात्र सोसा च शरीरमुत्या मनासमुत्थावद्विविधा यथासंभवम् । तत्राऽऽद्या - शल्यशलाकाऽऽदि भेद जनितेतरप्रियविप्रयोगाप्रियसंप्रयोगाऽऽदिकृता । बहुविधा च ज्वरातीसार कासश्वासनग शिरोरोगशूलगुफीलादिसमुत्या ति
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पोपचानित्याऽऽद
सरस के अट्टा, केई चम्मस्य के रोमा पिच्छा पुरा देवाणऽद्वा वहिज्जति ॥ ६० ॥ केई वति श्रद्धा, केइ अापसंगदासेणं | कम्पसंगपत्ता, बंधंति हणंति मारंति ।। ६१ ॥ माशुकायो तेत्रिका रोमा मूषिकाssदयः, पिनार्थे मयूरगृद्ध कापेषुरुकाऽऽश्यः, पुनार्थ व मर्यादयः, दन्तार्थे वारण वराहाऽऽदयः। वध्यन्त इति सर्वत्र संबध्यते केचन पूर्वे जनमुद्दिश्य हम्य के प्रयोज नमन्तरेणाऽपि श्री माया हन्यन्ते । तथा परे प्रसङ्गदोषादू मृगक्ष्यहिलेकादिना तदन्तरालपस्थिताने कपोत कपिलशुकसारिकादयो यते तथा कर्म कृध्याय नेमका स् सोऽनुष्ठानम् तत्र प्रसक्तानामसाधिका बहन् सिरवादिना बन् कुन्द्राऽऽदिभिस्तार पति, मारयन्तिप्रणिवियोजयन्तीति ।
"
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विधानादिद्वाराचमुपवसनित्योपसंहाराचा
सेसाई दारा, वाई जाएं इति पुढवीए ।
एवं ताम्बी, निती किचिया एसा ।। ६२ ।। मेसा हस्यादि) कायतिरिकानि शेषाद्वाराणि साम्बेव यानि पृथ्वीस्वरूप समधिगनिरूपितानि अवशेष
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तसकाय
रामधानका नियुक्ति कीर्तिचा सकता मन्तव्येति ।
साम्प्रतं सूत्रानुगमे ऽस्खलिताऽऽदिगुणोपेतं सूत्रमुच्चारणीयम् । तब्चेदम
(२२१६ )
अभिधानराजे |
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"
संतिने तसा पाणा से नहाया या राज्या रसया, सेवा, संमुमा भियया उक्वाइया ॥ ६३ ॥ सन्ति विद्यन्ते श्रस्यन्तीति त्रसाः प्राणिनो द्वीन्द्रियाऽऽदयः । से कियदाः किंप्रकाराचेति दर्शयति तद्ययेति वाक्यो पन्यासार्थः । यदि वा तत्प्रकारान्तरमर्थतो यथा भगवता ऽभिहितं तथाऽहं भजामीति । ( आचा० ) एवमेतस्मिन्नबिधे जन्मनि सर्वे प्रसजन्तवः संसारिणो निपतन्ति, नैवद् व्यतिरेकेणान्ये सन्ति ते वायोनिमा जो स
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प्रतीता वासना 55दिजनप्रत्य प्रमाण समधिगम्याः, सन्ति चानेन शब्देन त्रैकालिकम स्तित्वं प्रतिपाद्यते सानाम ।
नकदाचिदेवरहितः संखारः संयतीत्येतपि दर्शयति
एस संसार चि पच, मंदस्स अविषाणयो निज्जाचा, पहिले हिस्सा पत्तेयं परिनिव्वाणं सव्वेसि पारणाणं सव्बेसिं न्यानं सव्वेसिं जीवार्थ समे समायं असावं अपनिव्वाणं महम्भवं दुक्खं ति बेमि ॥ २ ॥
I
अवरुजादिप्राणिकलापः संसारः प्रोच्यते नातो सानामुत्पत्तिप्रकारो ऽस्तीत्युक्तं भवति कर पुनरष्टविध तामे उत्पत्तिवतीवादाविवाम्रो मन्द द्वा पावभेदात्तपमन्दोऽतिक्यूवोऽतिमन्दो अनुपचितयुद्धिः कुशास्त्रासितबुद्धियां अयमपि सद्बुमेर जावादू बाल एव । ३६ भावमन्देनाधिकारः- मन्दस्येति बालस्याचि• शिश्बुद्धे, अत एवाविज्ञान दिवादिप्राप्तिपरिवारशून्यमनस इत्येषोऽनन्तरोक्तः संसारो भवतीति । यद्येवं ततः किमित्याह(निजाइयादि) एवमिमं कामार्ग बलादिसिद्धं निश्वयेन ध्यात्वा निष्यीय विवस्वत्यर्थः कस्याप्रत्ययस्थांतरक्रियापेा मन्तरक्रिया सर्वत्र योजनीयेति पूर्ववत् नाय ततः प्रत्युक्षणं भवतीति दर्शयति- (परिलेदित प्रिपेचाभ्येत्यर्थः किं तदिति दर्श यति प्रत्येकयेकमेकं कार्य प्रति पनि कसुखनाजः सर्वेऽपि प्राणिनो नान्यदीयमन्य उपभुङ्क्ते सुखमित्यर्थः। एष व सर्वप्राणिधर्म इति दर्शयति-सर्वे प्राणिनांद्रयाणां तथा सर्वेषां भूतानां प्रत्येक साधारण सूक्ष्मवादकायामिति तथा सर्वेषां जीवानां गर्नपुरका किसनजी पपातिकपचेन्द्रियाणां सर्वांसवानां पृथिवा केन्द्रियाणामिति च प्राणाऽऽदिशब्दानां यद्यपि परमार्थतोऽमेदः तथापि येन दो द्रष्टया उ च - " प्राणाद्वित्रिचतुयोक्तः, नुतास्तु तरवः स्मृताः । जीवाः प चेन्द्रियाः प्रोक्ताः, शेषाः सध्या उदीरिताः " ॥ १ ॥ इति । यदि वाशब्दाद्वारेणं समभिमतेन ष्टयः त था सततमाणधारणात्प्राणाः कालत्रयजायनाद् भूताः, कलजीवनात जीवाः, सदाऽस्तित्वात्सच्चा इति । तदेवं विचि
प्रत्ये
तसकाय
स्य प्रत्युपेक्ष्य च यथा सर्वेषां जीवानां प्रत्येकं परिनि णं सुखं तथा प्रत्येकमातमपरिनिर्वाणं महाभयं स वीमि । तत्र दुःखयतीति दुःखम, तद्विशेष्यते - किंविशिष्टम सातमसातवेद्यं कर्म, संविपाकजमित्यर्थः । तथा श्रपरिनिर्वाणमिति परिनियां समान परिनिर्वाणमपनिय समन्तात् शरीरमनः पीडाकरमित्यर्थः । तथा महाभयमिति-म. हच्च तद्भयं च महाजयं, नातः परमन्यदस्तीति महाभयम् । तथाहि सर्वेऽपि शारीरम्यानसाध्य दुःखादुद्विजन्ते प्राणिन इति इतिशब्द एवम एवमदं ब्रवीमि सम्यगुपनस्पतथ्यो यत्प्रागुक्तमिति ।
एतच्च ब्रवीमीत्याह
तमंति पाणा पदिसो दिसासु य, तत्थ तत्य पुढो पास आतुरा परितावंति संति पाणा पुढो सिया ||
(द) एवंविधेन वाताऽऽदिविशेषणविशिष्टेन दुःखेनानि भूताखपन्ति प्राणानि प्राणिनः कुतः पु नरुद्विजन्तीति दर्शयति-प्रगता दिक प्रदिग्विदिश इत्यर्थः । ततः प्रदिशः सकाशादुद्विजन्ति । तथाहि प्राच्यादिषु च दिकु व्यवस्थितास्त्रस्यन्ति एताश्च प्रज्ञापकविधिभक्ता दिशो ऽनुदिशश्व गृह्यन्ते, जीवव्यवस्थानश्रवणात् । ततश्चायमर्थः प्रतिपादितो नयति का नागदा यस्यांन सन्ति त्रसाः, त्रस्यन्ति वा यस्यां स्थिताः, कोशिकारकीटव त् । कोशिकारकीटो हि दिग्भ्योऽनुदिग्भ्यश्च विभ्वदात्मसंरकृणार्थ एवं करोति शरीरस्येति भावदिनि काचित्ता दृश्य यस्यां वर्त्तमानो जन्तुर्न त्रस्येत् शारीरमान
सर्व नरकान् प्राणिनोतमनसः सर्वदान्याः वयं सर्वत्र दिदि त्रसाः सन्तीति गृह्णीमः । दिग्विदिव्यवस्थितास्त्रमात्रस्यन्तीकुतः पुनखस्यन्ति यस्मादारम्भव्यिापा किं पुनः कारणं ते तानारभन्त इत्याढ - (तत्थ तत्येत्यादि) तत्र तत्रतेषु तेषु कारणेषु मजितािदि
19
पृथग्विनेषु प्रयोजनेषु पश्वेति शिष्योदना किं तत्प इयेति दर्शयति-मांस नक्कणाऽऽदिगृष्ण श्रातुराः अस्वस्थ मनसः परि खमम्तापयन्ति पीडयन्ति नानाविधवेदनादा यापादनेन वातारणनितिन रमे प्राणिनां संतापनं भवतीति दर्शयन्नाह - (संतीत्यादि ) सन्ति विद्यन्ते प्रायः सर्वत्रैव प्राणाः प्राणिनः पृथक् विभिन्नाः द्वित्रि चतुःपञ्चेन्द्रियाऽऽश्रिताः पृथिव्याद्याश्रिताः । एतश्च ज्ञात्वा निरवद्याविना वितायमित्यभिप्रायः ।
अन्ये पुनरन्यथावादिनोऽन्यथाकारिण इति दर्शनाद
सज्जमाणा पुढो पास अणगारा मोति एगे पत्रयमाणा जमिणं विरूवहिं सत्येहि तसकायसमारंनेणं तसकायसत्यं समारजमाणा अछे आयोगले पाये विहिंसति, तत्व स्खलु जगवया परिएला पबेड्या - इमस्स चेत्र जीवियस्स परिमाणणपणा जाईमरणमोकार स्वपदि यायडे से सयमेव तायसत्यं समारभति तस कायम समारंजाड असणे वा तसकाय सत्यं समार
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सपन्धः क्रियते,
(२२१७) तसकाय अभिधानराजेन्रुः ।
तसदसग जमाणे समाजाण, तं से अहियाए, तं से अबोहीए, नवंति,तं परिमाय मेहावी व सयं तसकायसत्थं समारंभेसे तं संबुज्मागणे आयागीयं समुट्ठाए सोच्चा भगवमो ज्जा, वऽहिं तसकायसत्थं समारंभावेजा,णेवs तस. अणगाराणं अंतिए,हमेगेसिं णायं भवति-एम व गंथे, कायसत्थं समारंभंते समाजाणेजा,जस्सेते तसकायसमारंएस खबु मोहे, एस खलु मारे, एम खट्नु णरए इञ्चत्यं ना परिमाया भवंति, से हु मुखी परिक्षायकम्मे त्ति गढिए लोए जम्मिणं विरूवरूवहिं सत्थेहि तसकायसमा- बेमि ।। ६॥ रंभेणं तसकायमत्थं समारजमाणे असे प्रणेगरूवेण पाणे
(पथ सत्यमित्यादि) प्राग्वद्वाच्यम । यावत्स एव मुनिलस. विहिंसति ।
कायसमारम्भविरतत्वात् परिक्षातकर्मत्वात् प्रस्थाश्यातपापक
मत्वादिति प्रवीमि । जगवतः त्रिलोकबन्धोः परमकेवालोपूर्ववद् व्याख्येयं,यावत् "अन्ने प्रणेगवेण पाणे विहिंसात्ति।"
कसाक्वात्कृतसकलनुवनप्रपञ्चस्योपदेशादिति । प्राचा• १६० __ यानि कानिचित्कारणान्युदिश्य च स बन्धः क्रियते,
१ भ०६ उ.। (प्रसकायस्य प्रतिसेवना 'पमिसेवणा' शन्ने तानि दर्शयितुमाह
वक्ष्यते) से बेमि अप्पेगे अच्चाए हणंति,अप्पेगे अजिणाए वहंति, तसचउक-त्रसचतुष्क-न-त्रिसप्रवृष्योपवितं चतुष्कं त्रसच. अप्पेगे मंसाए वहंति, अप्पेगे सोणियाए वहंति, एवं तुष्कम् । त्रसबादरपर्याप्तप्रत्येकमिति प्रकृत्योपलविते चतुष्के,
कम०१ कर्म०। हिययाए,पित्ताए,बसाए,पिच्चाए,पुच्छाए,बालाए,सिंगाए,
तसण-सन-न० । पलायने, सूत्र०१ श्रु०७० । स्पन्दने' विसाणाए,दंताए,दाढाए,णहाए, एहाउणीए, अट्ठीए, अ
प्राचा०१ ० १ ०६००। द्विमिजाए;अट्टाए,अण्डाए, अप्पेगे हिंसिसु मे त्ति वा व.
तसणवग-त्रसनवक-न । त्रसप्रकृत्या उपलकितं नवकं प्रसइंति, अप्पेगे हिंसंति मे त्ति वा वहति, अप्पेगे हिंसिस्संति
नवकम् । प्रसवादरपर्याप्तप्रत्येकस्थिरशुनसुजगसुस्वराध्देयलकमे त्ति वा वहंति, पत्थ सत्यं समारभमाणस्स इच्चेते आ- णे, कर्म• २ कर्म। रंजा परिणाया नवति ।
तसणाम[]-त्रसनामन-न त्रिसन्ति उपणाऽऽधनितप्ताः सन्तो (से बेमीत्यादि) तदहं ब्रवीमि-यदर्थ प्राणिनस्तदारम्भप्र- विवक्तिस्थानादुद्विजन्ते, गच्चन्ति च छायाऽऽद्यासेबनार्थ खानावृत्ती व्यापाद्यन्त इति । अप्येके यै मन्ति, अपिरुत्तरापेकया
न्तरमिति प्रसाः, तत्पर्यायविपाकचेचं कर्म त्रसनाम । प्रसगतनि. समुच्चयार्थः। एके केचन तदर्थवेनाऽऽतुरा,अर्यतेऽसाबाहा. बम्धने नामकर्मणि, कर्म०१ कर्म। पं० सं०। प्रव०। यदरालङ्काररित्यर्चा देहः, तदर्थ व्यापादयन्ति । तथाहि-लकणव. याचलनं स्पन्दनं भवति । भा० । कर्म । त्पुरुषमक्षतमव्यङ्गं व्यापाद्य तच्छरीरेण विद्यामन्त्रसाधनानि वितिचउपणिदियतमा, बायरो बायरा जिया यूना। कुर्वन्ति, उपयाचितं वा यच्छन्ति मुर्गाऽऽदीनामग्रतः। अथवा
नियनियपज्जत्तिजुया, पज्जत्ता लकिरणेहिं ॥ ४॥ बिषं येन भक्षितं, स हस्तिनं मारयित्वा तच्चरीरे प्रतिप्यते, पश्चाद्विर्ष जीर्यति । तथा प्रजिनार्थ चित्रकव्याघ्राऽऽदीन व्यापाद
प्रस्पन्ति उष्णाऽऽद्यभितप्ताः सन्तो विषक्तितस्थानावुद्धिजन्ते, यन्तिा एवं मांसशोणितहृदयपित्तवसापिच्चपुच्छबानाविषा
गच्छन्ति च वायाऽऽद्यासेवनार्य स्थानान्तरमिति प्रसाः, तत्पदन्तदंष्ट्रानखस्नावस्थ्यस्थिमिजाऽऽदिवपि वाच्यम,मांसाथै श.
र्यायविपाकवेद्यी कर्मापि सनाम । ततखसात् प्रसनामोदया. कराऽऽदया,त्रिशूवाऽऽश्लेख्यार्थ शोणितं गृह्णन्ति,हृदयानि साधका
ज्जीवा-(वितिचउपणिदिय त्ति) इन्छियशम्दस्य प्रत्येक योगृहीत्वाऽन्ति, पित्ताथै मयूराऽऽदयः, वसाथै व्याघ्रम करवरा.
गाद वे इन्धिये स्पर्श नरसनसकणे येषां ते हीन्द्रियाः, शराचहाऽऽदया,पिच्चार्य मयूरगृध्राऽऽदयः,पुकार्य रोज्काऽऽदयः,बा
न्दनककपर्दकजलूकाकृमिगरमोलकपूतरकाऽऽदयो नवन्ति।बी. मार्च चमर्यादयः,शृक्षार्थ रुरुखमम्यादयः,तस्किल शृङ्गं पवित्रमि.
णि स्पर्शनरसन्घ्राणलवणानीन्द्रियाणि येषां ते त्रीन्छिया:, ति याझिका गृहन्ति,विषाणार्थ इस्त्यादयः, दन्तार्थ शृङ्गालाऽऽ.
यकामत्कुणगर्दभेन्द्रगोपककुन्पुमत्कोटकाऽऽदयः। चत्वारि स्पर्शवयः,तिमिरापहत्वात्तद्दन्तानां.दंष्ट्राऽयं वराहाऽऽदयः,नस्वार्थ व्या.
नरसनघ्राणचकुर्वकणानीन्द्रियाणि येषां ते चतुरिन्छियाः,मति. घाऽऽदया, स्नायवर्थ गोमहिल्यादयः, अस्थ्यथै शशक्त्यादयः,
काभ्रमरमशकवृश्चिकाऽऽदयः । पञ्च स्पर्शनरसनघ्राणचकुःश्रोत्र. अस्थिमिजाथै महिषवराहाऽऽदयः। एवमेके यथोपदिष्टप्रयोजन
रूपाणीन्द्रियाणि येषां ते पञ्चन्छिया मध्यमकरहरिहरिणसा. कलापापेक्षया नन्ति । अपरे तु कृकवासगृहकोकियाऽऽदन्विना
रसराजहंसनरसुरनारकाऽऽदयो जयन्तीति। यदुदबाजीपात्रप्रयोजनेन व्यापादयन्ति । अन्ये पुनः-(हिसिसु मे त्ति) हिंसि
सा द्वित्रिचतुःपञ्चेनिकया भवन्ति तस्त्रनामेत्यर्थः । (४८) तवानेषोऽस्मन्स्वजनान् सिंहः सोऽवा,अतो प्रन्ति, मम या पी.
कर्म०१ कर्म०। मां कृतवानित्यतो प्रन्ति । तथा चान्ये वर्तमानकास एव
तसतिग-सत्रिक-नासबादरपर्याप्ताऽऽस्ये त्रिके,कर्म०२ हिनस्ति अस्मान् सिंहोऽन्यो वेति प्रन्ति । तथास्य-अम्मानयं कर्म। हिसिष्यतीत्यनागतमेव सर्पाऽऽदिकं व्यापादयन्ति ।
तसदसग-त्रसदशक-न. त्रिसनामाऽऽदिनामकोसरप्रकृतिकएवमनेकप्रयोजनोपम्यासेन हननं प्रसविषयं प्रदश्य,देश- शके, (कर्म०) कार्थमुपसंजिहीर्घराह
तसबायरपज्जतं, पत्तेययिरं सुमं च मुनगं च। पत्य सत्थं असमारभमास्स इच्चेते भारंभा परिमाया सुसराऽऽइनजसं तस-दसंग थावरदमं तु इमं ॥१६॥
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(२२१०) तसदसग अभिधानराजेन्छः।
तहकार नामशमस्येहापि संबन्धात्-प्रसनाम, बादरनाम, पर्याप्तनाम, तवस्तुता । तमामाऽऽदिभिश्चतुर्धा | तत्र नामस्थापने सुगमे । प्रत्येकनाम,स्थिरनाम,शुभनाम, शुभगनाम | चशम्मी समुच्चये। कन्यतथ्यं गाथापश्चार्धन प्रतिपादयति-तत्र कन्यतथ्यं पुनयों सुस्वरनाम, आदेयनाम (जसं ति) यशःकीर्तिनाम इत्येवं प्रस- यस्य सचित्ताऽऽदेः स्वभावो, न्यप्राधान्याद्ययस्य स्वरूपम् । शम्नेनोपखक्तितं प्रकृतिदशकम, सदशंकमुच्यत इति शेषः ।। तयथा-उपयोगलकणो जीवः, कविनलक्षणा पृथिबी, 5वलककर्म० १ कर्म।
णा प्राप इत्यादि । मनुष्याऽऽदेर्वा यो यस्य मार्दवाऽऽदिस्वभावः, तसरेणु-त्रसरेणु-पुंस्यति पूर्वाऽऽदिवातप्रेरितो गच्छतियो
प्रचित्ताव्याणां च गोशाषचन्दनकम्बलरत्नाऽऽदीनां द्रव्याणां
स्वन्नाषः। तद्यथा-" उपहे करे सीयं, सीए उपहत्तणं पुण न. रेणुःस त्रसरेणुः । रेणुनिः परिमिते प्रमाणविशेष, प्रव. २५४
वेश। कंबलरयणाऽऽदीणं, पस सहावो मुणेयम्यो" ॥१॥ द्वार। ज्यो•। भ० ज० । स्था। अनु । कियद्भिः परमाणुभित्रसरेणुनवतीति प्रश्ने, उत्तरम्-अमन्तसदमपरमाणुनि
नावतथ्यमधिकृत्याऽहरेको व्यवहारपरमाणुजीयते, अष्टव्यपदारपरमाणुभिरेका उत्
नाबतह पुण नियमा, णायव्वं छविहम्मि जावम्मि । लहिणका जायते, ताभिरभिरेका लणश्लविणका जायते, अहवा वि नाणदंसण-चरित्तविणरण अज्कप्पे ॥२५॥ ताभिरष्टाभिरेक ऊर्ध्वरेणुर्जायते, पभिरभिरेकखसरेणुर्जायते, (भावतहमित्यादि ) भावतथ्यं पुननियमतोऽवश्यजावतया पसावता-कोऽर्थः चतुःसहनः परणवत्यधिकैर्व्यवहारपरमायुः
षट्विधे चौदपिके भावे ज्ञातव्यम् । तत्र कर्मणामुदयेन निवृन जिरेकरसरेणुर्जायते इत्यर्थः। ४८१ प्र० । सेन० ३ उल्ला०। प्रौदयिकः कर्मोदयाऽऽपादितो गत्याद्यनुभवलकणः, तथा कर्मोतसवाश्या-त्रसपादिका-स्त्रीत्रीन्द्रियजीवभेदे, जी०१ प्रतिका पशमेन निवृत्त औपशमिकः कर्मानुदयसक्षण इत्यर्थः । तथा
कयाज्जातः क्षायिको प्रतिपातिज्ञानदर्शनचारित्रलक्षणः। तथातसवीसह-त्रसविंशति-स्त्री० । त्रसेनोपलक्षिता विंशतिस्त्रसर्वि
क्षयाउपशमाच जातः क्षायोपशमिको देशोदयोपशमलकणः । शतिः । त्रसदशकस्थावरदशकद्वये, कर्म०१ कर्म।
परिणामेम निर्वृत्तः पारिणामिको जीवाजीवभव्यत्वाऽऽदिलकणः। तसासि(ण)-प्रसासिन्-त्रि०ा पिपीलिकाऽऽदिसहितादनमक्षके,
पञ्चानामपि भावानां द्विकाऽऽदिसंयोगानिष्पन्नः सान्निपातिक
इति । यदि वा-अध्यात्मन्यान्तरं चतुर्धा भावतथ्यं रुष्टव्यम। नि.चु.१००।
तद्यथा-झानदर्शनचारित्रबिनयतथ्यमिति । तत्रज्ञानतथ्यं मतसिप्र-त्रस्त-त्रि० । सनं त्रस्तम् । दुःखोद्वेजने, दश० ४ त्यादिकेन ज्ञानपञ्चकेन यथास्वमवितथो विषयोपलम्भः । दर्शप० । परमाधार्मिकदेवपरस्परोदीरितपुःखसंपातभयात् त्रास. नतथ्यं शङ्काऽऽधतिचाररहितं जीवाऽऽदितवनकानम्। चारित्रमुपपन्ने, जी. ३ प्रति० १ ० । भ० । शुके, दे. ना. तथ्यं तु तपसि द्वादशबिधे संयमे सप्तदशविधे सम्यगनुष्ठानम् । ५ वर्ग २ गाथा।
विनयतथ्य, द्विचत्वारिंशद्भदनिने बिनये ज्ञानदर्शनचारित्रतप तस्समिण]-तत्संझिन्-त्रिः। तस्य संज्ञा तत्संझा-तज्ञानम्,
उपचारिकरूपे यथायोगमनुष्ठान,ज्ञानाऽऽदीनां तु वितथाऽसे.
वनेनाऽतथ्यमिति । सुत्र०१ श्रु.१३ प्र.। तद्वान् तत्संझी। भाचा० १ ० ५ ०४ उ० । विवक्कितका. नोपयुक्त, भाचा. १ श्रु. ५ अ. ६ उ.।
तहक्कार-तथाकार-पुं० । तथाशम्देन तथेत्येवभूतं पदमभिधी
यते, तत्तश्चैतस्य कारः करणम् । पञ्चा. १२ विवः । गुरोः तस्सेविण-तत्सेविन्-पुं०। ये दोषा आलोचयितव्यास्तत्सेवी
पार्श्वे वाक्यं श्रुत्वा गुरुं प्रति इदं कथनं-यद्भवनिरुक्तं तत्तथैवयो गुरुस्तस्य पुरतो यदालोचनम् । तत्सेविलकणे पालोचना
तथाऽस्त,दांत करण तथाकारः । उत्त०२६ प्र.। गवादिष दोधे, स्था० १००।
ब्रुवाणेषु यथाऽदिशत यूयं, तथैवेति जणनरूपे सामाचारीनेदे, तह-तया-अव्यः । तेन प्रकारेण तथा प्रकारे थाच । वाच०। वृ०१० तथाकरणं तथाकारः, स च सूत्रप्रइनगोचरः। यथा "वाययोत्खातादावदातः " ॥८।१।६७॥ इत्यत्वं विकल्पेन । भवद्भिरुक्तं तदमित्येवस्वरूपे सामाचारीभेदे, प्रा. म. १ प्रा०१ पाद । उक्तपरामर्श, कल्पः १ कण । पादपूरण, नि. अ०२खएम । आ० चू०। जीत० । उत्त । स्था। चू.१००।
साम्प्रतं तथाकारो यस्य दीयते, तत्प्रतिपादनार्थमाहतथ्य-न। तथा तत्र साधु यत् । सत्ये, वाचा सदर्धाभि
कप्पाकप्पे परिण-ट्ठियस्स गणसु पंचसु ग्यिस्स । धायित्वे, त्रि०। (सूत्र.)
संजमतवगस्स उ, अविगप्पेणं तहकारो॥१४॥ णामतहं वणतहं, दवतह चेव होइ भावतहं ।
कल्पो विधिः, प्राचार इत्यर्थः। अकल्पश्च प्रविधिः। अथवादब्बतहं पुण जो ज-स्स सभावो होति दबस्स ॥२४॥
कल्पोजिनकल्पस्थविरकल्पाऽऽदिः,प्रकल्पस्तु चरकाऽऽदिदीका। (णामतहमित्यादि) अस्पाध्ययनस्य याथातथ्यमिति नाम । अथवा-कल्प्यं प्राह्यम्, अकल्प्य मितरत् । ततः समाहारद्वन्द्वातच्च यथाशब्दस्य भावप्रत्ययान्तस्य भवति । तत्र यथाशब्दो- कल्पाकल्पं, कल्प्याकल्यं वा । तत्र परिनिष्ठितस्य झाननिष्ठां लकनेन तथाशब्दस्य निकेपं कर्तुं नियुक्तिकारस्यायमनिप्रायः- प्राप्तस्य, अनेन च ज्ञानसंपदुक्ता । तथा तिष्ठन्ति मुमुक्कवो येषु इह यथाशब्दोऽयमनुवादे वर्तते, तथाशब्दश्च विधेयार्थे । त- तानि स्थानानि महावतानि तेषु, पञ्चस्विति स्वरूपविशेषणम् । यथा-यथेदं तथैवेदं भवता विधेयमित्यनुवादविधेययोश्च वि- यतो न तान्येकादीनि भवन्ति, यत्रापि चत्वारि तान्युच्यन्ते धेयांश एवं प्रधानभावमनुभवतीति । यदि वा याथातथ्यामिति | तत्रापि वस्तुतः पञ्चवेति।स्थितस्याऽश्रितस्य,अनेन च मूलगुणतथ्यमतस्तदेव निरूप्यत इति । तत्र यथानावस्तथ्यं यथाऽवस्थि- संपत्तिरुता । तथा-संयमः प्रत्युपेकोपेकाऽऽदिः, तथा-तपश्चा
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तहकार
नशनाऽऽदिताभ्यामाख्यः परिपूर्णः, स एव संयमतप आख्यकः, तस्य, अनेन चोत्तरपुरा संपत्तिरुक्ता । तुशब्द एवकारार्थः । तस्य किमित्याह--अविकल्पेन निर्विकल्पं तदीयवचने कुमकुमेनेत्यर्थः तथाकारों यथा सूर्य पदपथैतदि त्यर्थसंयुतयेतिशब्दप्रयोगः कार्यइति गम्यमिति गाथाऽर्थः ॥ १४ ॥
(२२१०) अभिधानराजेन्द्रः ।
ar तथाकारस्यैव विषयाभिधानायाऽऽहबायणमिणणार, उनसे सुत अडकणार | तिमेति तहा अविगप्पेणं तहकारो ॥ १५ ॥ बाचनायाः सुत्रदानस्य प्रतिश्रवणा श्रवणं वाचनाप्रतिश्रवणा, तस्यां तथाकारः प्रयोक्तव्य इति योगः । इदमुकं भवतिबाचन प्रयद्धति सति गुरौ सूप्रनादिया तथाकारः कार्यः । तोपदेशे सामान्येन सामाचारीप्रतिबके । तथा सूत्रार्थकथना यां, व्याख्यान इत्यर्थः । अवितथं सत्यम्, एतद् यद्ययं भूति श्यापनपर तचेति समुच्चयार्थः सुत्रार्थकथनापदस्यादी द्रष्ट व्यः । श्रविकल्पेन निःसंदेदेन सता तथाकारस्तथेतिशब्दप्रयोगः कार्यों भवतीति शेष इति गाथाऽर्थः ॥ १५ ॥
यः पुनरेवंविधो भवति को विधिरित्याहइयरम्मि विगप्पेणं, जं जुत्तिखमं तर्हि एए सेसम्मि । संविग्गपावर या गीए सम्बत्य इयरेां ।। १६ ।। इतरस्मिन् कल्पाकरूपपरिनिष्ठिता ऽऽदिविशेषणविशिष्टादम्य. स्मिन् गुरौ प्रज्ञापयति सति विकल्पेन भज्जनया, तथाकारः कार्य प्रति प्रक्रमः । तामेव भजनां दर्शयति-यस्तु युतिक्रमम उपपत्तिस तस्मि वस्तुनि त थाकाशे विधेयः, न शेषे मयुक्तिकमे । देव प्रकारान्तरमाह - संविग्नाः संवेगवन्तः सुसाधवः, तेषां पाक्षिकः पकप्रादी संविग्नपातिकः ।" सुद्धं सुसाहुधम्मं, कहेश निंदश् य नि वयमाचारं सुतवस्सियाण पुरखो, हब व सचोमराय
॥ १ ॥ इत्यादिनलक्षितः पार्श्वस्थादिस्तस्मिन्। बाशब्दः प्रकारान्तरद्योतनार्थः । गीते - पदेऽपि पदसमुदायोपचाराद गीतार्थे विषयभूते, तदन्यस्य स्वज्ञातत्वेन
-
तहाकार
प्रज्ञापयति सति, तथेति निर्विकल्पम्, प्रतथाकारस्तथाकारस्या• प्रयोगः । तुशब्द एवकारार्थः। तस्य चैवं प्रयोगः - मिथ्यात्वमेवासम्यग्दर्शनमेष, मिध्यात्वतुकस्यास्य न हिमा निश्चितद्युद्धप्ररूपकत्वेऽपि प्रज्ञापके तथाकारं न प्रयुद्ध शते गाथाऽर्थः ॥ १७ ॥ पञ्चा० १२ विव० ।
तहब - तथार्च- त्रि० । अवस्थितचित्तवृत्तिके, "मुदामो तहबा मो. जे धम्म वियागरे।" तथा जूता सम्बदर्शनप्राप्तियोग्याच श्यान्तःपरिणतिरकृतधर्माणामिति । यदि वा मनुष्ययकृतधर्मबीजानामात्र सुकुलोत्पति सकलेन्द्रयसामम्म्यादिरूपं दुर्लभं भवति; जन्तूनां धर्मरूपमर्थ व्याकुर्वन्ति ये, धर्मप्रतिपत्तिइत्यर्थः तेषां तथाभूताति । सूत्र० १० १५ अ० ।
तयसंभवात् सर्वत्र वस्तुनि युक्तिदाते नोमाने इतरेोत्खमांचे पायेनापवादेनेत्यर्थः । अथवा( इयरे ) इतरका कार्य इति प्रक्रम इति गाथाऽर्थः ॥ १६ ॥
अथ कल्पा कल्पपरिनिष्ठिताऽऽदिगुणे गुराव क्षीणरागाऽऽदित्वेन संविग्नपाक्षिके चासत्क्रियत्वेन वितथोपदेशसंनवान्न तथाकारः कार्यइत्येतद्या संविग्गो देश दुम्मासयं कमुनिवागं । जाणतो तम्म वहा अकारो ॥ १७ ॥ संविग्नो प्रवर्गीकर्तुङ, मनुपदेशमनः कुत्सार्यत्वेन कुत्सितां तस्मात् "सर्वादेले
सोपदेशमागमाथितार्थानुशासनम्न ददाति पर नकरोति, सहाने विनावानित्यादतिमनामिका कटुविपाकं दारुणफलं पुरन्त संसारा मरीविभवे महावीरस्येव जानन्नवबुद्धयमानः, को हि पश्यन्नेवात्मानं कूपे प्रक्षिपतोति, यस्मादेवं ततस्तस्मिन् संविग्ने कव्याकल्पपरिनिष्ठिताऽऽदिये सद्गुरो गीतार्थे, संधिज्ञपाक्षिकेच
तदपाण- तथाज्ञान- न० । यथा वस्तु तथा ज्ञानं यस्य तथाज्ञानम् । सम्यग्दीि तस्यैवानित्यादयचैव यद् वस्तु तथैव ज्ञानमवबोधः प्रतीतिस्मिंस्तताहान घ rssदिद्रव्ये, स्था० १० ठा० । यथा प्रच्छनीयार्थे प्रष्टव्यस्य ज्ञान तथैव पृच्वकस्यापि ज्ञानं यत्र प्रश्ने स तथाज्ञानः । जानत्प्रश्ने, स गीतमाथा "केवाले नंते! चमरचं चारायहाणीबिरहिया उववाणमित्यादिरिति । स्था० ९० । वहष्प योग- तथाप्रयोग-पुं० तथाशब्दस्य प्रयोगे, "त पोगो नाम पथमेतं अति जातं तुझेच तरल अत्थस्स संपश्चयत्थं सविसर तह त्ति सई परंजंति । ” अ० चू० १ ० ।
19
इथे
।
तहप्यार तयाप्रकार पुं० पूर्वीकप्रकारे आवा० १५० १ चू० १ ० १ 30 | नि० चू० । एवंप्रकारे, बी० १ प्रति० । ० । पूर्वोकस्वरूपे, कल्प० १ कण । तहय-तथाच श्रव्य• । तथेति चिनोति च चिञ् चयने । पूर्षोकार्यहीकर, पाच समुचये, पञ्चा०२ विष० । तहरी देशी - पहिला सुरायाम् ३० ना०५ वर्ग २ गाया। तहलिया- देशी-गोवाटे, दे० ना० ५ वर्ग ८ गाथा ।
तहा तथा अव्य०। तेन प्रकारेण, पं० ० ४ द्वारा। कल्प०। विशे० । तथाप्रकारे, बासा अभ्युपगमे पृष्टार्तवाक्ये, समु ये, निश्चये च । वाच० नं० । श्रानन्तर्ये, नं० श्र० म० । अवधिज्ञानेन सहास्य कुद्मस्थत्वाऽऽदिनिः सारूप्यप्रदर्शने, प्रा० म० १ अ० १ खएम । समुच्चय निर्देशावधारणसादृश्यप्रेभ्येषु दश० १० । वाक्योपक्षेपे, स च वाक्यस्याऽऽदौ दृश्यः । पञ्चा० ६ वि० [प्रयानन्तरे विशेष यथाशब्देनानुद्यमानस्य विधेयस्यार्थे, तद्यथा यथेदं तथैवेदम् । सूत्र० १० १३ ० । पूर्वोकार्थे, सूत्र० १ ० ६ ० । दृढाध्यवसानप्रकारसारश्योपदर्शनार्थे, भाव० ४ ० दर्श० ।
४३५५॥ इति अपभ्रंशे सर्वाऽऽदेरकारान्तात्परस्य सेह इत्यादेशः । प्रा० ४ पाद ।
तहाकप्प - तथाकल्प - त्रि० । तथाऽऽचारे, द्वा० ३ द्वा० । तहाकार - तथाकार - पुं० | तीर्थंकरत्वं केवलज्ञानं च मते, सुत्र
१ श्रु० १२ अ० ।
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(२२२०) बहागब
अभिधानराजेन्द्रः। यहागय-तथामत-j• तथा तेन यथावस्थितपदार्थोपलम्भा-ताश्र-तात-
पंतन-क्त-दीर्घत्वं च । वाच।। मागच्यां दत्वं, अऽस्मकेन प्रकारेण गतं ज्ञानमेवामिति तथागताः। १०३ उ० । प्राकृते तकारसोपः । प्रा० १ पाद। जनके, उत्त० १४ अ० । तथाऽपुनरावृष्या गतास्तथागताःासत्र०११.१५० अथवा- पुने सूत्र०१ श्रु. ३ अ०२ उ०। प्रश्न । अनुकम्प्ये, पूज्ये च। मथैकापुनरावृत्या गतं गमनं येषां ते तथामताः । यदि वा-य- त्रि०ा वाच। थैवयं तथैव गतंकानं वेषांते तथामताः। आचा०१७०३ १०३ उ० अथवा-तथागतानि यथावस्थितानि तथैवावितथं
ताड ( ) तापि (यि)न-त्रि० । 'तप' गतौ णिनिप्रत्ययः। मोकं जानन्ति, न विभकानिन श्व विपरीतं पश्यन्ति। तेषु. सत्र०१
प्रति गमनशीले, सत्र०२७०६०तायते रक्षति दुर्गरारमानभु.१२५०। देवत्वाऽऽदिप्रकारमाफ्ले, भ०१७श.२ उ०
मेकेन्धियाऽऽदिप्राणिनो वाऽवश्यामति तापी (?)। उत्त०८ अ०। यथोक्तानुष्ठायिषु (सूत्र०१.२०२०) सिद्धेषु, स.
तापः स्वरष्टमार्गोंक्तिः, तद्वान् तापी । सुपरिक्षातदेशतया विनेपक्केषु च । प्राचा०१४०३५.३ उ.।
यपासपितरि, द्वा०२७ द्वा०।दश। तपन ताप,स विद्यते य.
स्यासौ तापी। तस्मिन्, सूत्र० १७. १५ अ०। आव०। वहाजुत्त-तथायुक्त-त्रिका सेक्कमेपेततया चिते, जी. ३
त्रायिन्-त्रि० । मनोवाक्कायगुप्तिनिः कृतकारितानुमतिनिप्रति•४०
lssत्मानं त्रातुं शीलमस्येति त्रायी, जन्तूनां सपदेशदानतहाभूय-तथालत-वि•ा एवंप्रकार प्राप्ते, "अह गं स होई
तस्त्राणकरणशीले, सूत्र. १ अ० १४ अ०। भासनभन्वानां ग्वलो तो संति तदानपटिं।" सूत्र १ श्रु.४०२ २.। त्राणकारणे, सूत्र. २ श्रु०६ अ० । आत्मनः परेषां च त्राण. वहारूव-तथारूप-त्रि• । तथा तत्प्रकारं रूपं सनायो नेपथ्या- शीले, सत्र०२ श्रु. ६ भ० । विशिष्टोदेशदानादपरेषां त्राSऽदिर्वा यस्य स तथारूपः । दानोकिने, स्था०३ वा. १०
भूते, (सुत्र० १ श्रु. १ अ.) संसारसागराप्राणिपुगपाल. उचितस्वभावे, भ०१०५० मचिदानोचितपात्रे, भ०५
के. (पश्चा० १६ विव०। धर्मकार्याऽऽदिना संसारपुःखेच्या श.५ उ. अविज्ञातव्रतविशेषे, न.। भ०१५.
खाणकर्तरि, दश.१०। तहाविय-तथावित्-पुं० । तथारूपमनुष्ठानं विदन्तीति तथा
ताठा-दंगा-स्त्री० । 'चूलिकांपैशाचिके तृतीयतुर्ययोरायद्वितीविदः । इलिताचारकुशले निपुणे, तद्विदि सर्वके, पुं० । सूत्र०
यो" | GI४ । ३५५॥ द कविल्लाक्षणिकस्वापीत्युक्तेदाढा १९.४.१ उ०।
इत्यस्य स्थाने ताग इत्यादेशः । प्रा० ४ पाद । दम्तभेदे, द
न्तपतिदयप्रान्तस्थायां द्विगुणाकृतायां दन्तावली च । वाच०। तहाविह-तथाविध-त्रि० । तत्प्रकारे, "तं तहाविहं पेश।" मा० म० १ ० २ अराम । नि० चू।
तामण-ताडन-न० । उशिरःकुट्टनकेशलुचनाऽऽदिषु, भाव० बहाहि-तथाहि-अव्य० । निपातसमुदायः । ध०३ मधिः । त.
४ म० । गुणने, स्था० १ ० । था च हिव बन्धः । निदर्शने, प्रसिम्मेवेत्यर्ये, पाच० । उक्त
ताडत्थ-ताटस्थ्य-न० । तटस्थत्वे, पार्श्ववर्तित्वे, ए० ३२ स्योपदर्शने, घ.३ अधिः । भने ।
अष्ट। तहि-तत्र-भव्य० । “पो हिहत्थाः " ॥ ८।२। १६१॥ इति
ताडि-तामयित्वा-भव्य । तामनं कृत्वेत्यर्थे, उत्त०१९ अण प्रत्ययस्यैते त्रय प्रादेशाः । प्रा०२ पाद । तस्मिन्नित्यर्थ, तापिय-देशी-रोदने, दे०मा०४ वर्ग १० गाथा। चाच.जंप्रमा
तामिज्जमाण-ताज्यमान-त्रि० । कुख्याऽऽयभिघाताऽऽदिना तहिय-तथाच-अग्य। तथेति चिनोति-चिचयने पूर्वोक्ता
तामनां प्राप्यमाणे, सूत्र.१६०१०। घरटीकरण, वाच० । उक्तप्रकारमापन्ने, मात्रयाऽप्यन्यूनाधिके,
ताण-त्राण-त्रि.शरणे,प्राचा०१ श्रु.२०१३.। सत्र। उत्त०६०। प्रम।
अष्ट० । विशे० । स्था० । अनर्थप्रतिघातहेतौ, कल्प० कण । तथ्य-त्रिका परमार्थभूते सत्ये, सूच०१७०१४ मा। अनर्थप्रतिहमने, अर्थसंपादने च । न । तं०। बहोचवचि-तथोपपत्ति-स्त्री० । तयेव साध्यसंभवप्रकारेण इ.
वित्तं पसबो य नाइओ, ते बाले सरणं ति मन्त्रा। बोपपत्तिस्तथोपपत्तिः । अर्थात् सत्येव साध्ये हेतोरुपपत्तिस्त
एते मम तेमुवी अहं, नो ता सरणं न विजइ ॥१६॥ थे.पपत्तिः । यथा कृशानुमानयं पाकप्रदेशः, सत्येव कृशानुमखेधूमवश्वस्योपपत्तेः। हेतुप्रयोगोंदे, रत्ना०६ परि।
(वित्तमित्यादि) वित्तं-धनधान्य हिरण्या मद, पशवः-करितु.
रगगोमहिप्वादयः,शातयः-स्वजना मातापितृपुत्रकलवाऽऽदयः, वा-तस्मात-अव्य० । " तस्मात्ताः ॥८।४।२७८ ॥ इति
तदेव वित्ताऽऽदिकंबासोः शरणं मन्यते। तदेव दर्शयति-ममै. औरसेन्यां तस्माच्छन्दस्य ता इत्यादेशः । प्रा०४ पाद । पञ्चा।
ते वित्तपशुजातयः परिजोगे उपयोक्ष्यन्ते। तेषु चार्जनपालनसावत-अम्बा। तत्परिमाणमस्य । नि." यावतताली- सरवणादिना शेषोपवनिराकरणेन परिहारेणाऽहं भवामी. वितावर्तमानाबटनावारकदेवकुलैवमेवे वः"।।१। २७१ त्येवं बानो मन्यते । न पुनर्जा नीते-यदर्थ धनमिच्छति तच्चइति सखरस्य वकारस्य लोपः। प्रा०१ पाद । प्रस्तुतार्थप्रद. रीरमशाश्वतमिति । अपि च-"रिकी सहावतरला, रोगजशके,प्रा०म०१.२खपम। सूत्रः। तच्चन्दस्य प्रथमैकवच- रानंगुरं हयसरीरं ।" तथा-"मातापितृसहस्राणि पुत्रदारनेऽपि स्त्रियां 'ता' इति । अस्यमामीत्युक्तेः "किं यत्तदोस्यमामि" | शतानि च । प्रतिजन्मनि वर्तन्ते, कस्य माता पिताऽपि ॥८॥३३३॥ इतिहीन जवति । प्रा० ३ पाद।
। बा?॥१॥ एतदेवाऽऽह-नो नैव, विचाऽऽदिकं संसारे क.
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तामली
(२२ ) ताण
भाभिधानराजेन्तः । थमपि त्राणं जवति, नरकादो पततो नाऽपि रागाऽदिनो
अईव अनिवामि० जाव च मे मित्तनाइनियमसंबंधिपतस्य क्वचिच्चरण विद्यते इति ॥ १६ ॥ सूत्र. १ भु० १ भ.३उ०।
परियणो आढाइ, परियाणा, सकारेइ, सम्माणेइ, कल्लाणं तान-पुं०। ततायां तव्याम, "ताणा एगूणपणासं । " तत्र षह
मंगलं देवयं विणएणं चेइयं पज्जुवासेड, ताव ता मे सेयं कल्लं जाऽऽदयः स्वराः प्रत्येक सप्तभिस्तानैर्गीयन्त इत्येवमेकोनपश्चा
पाउप्पभायाए रयणीएज्जाव जलते सयपेच दारुपयं पमिशत्तानाः सप्ततन्त्रिकायां वीणायां भवन्ति । अनु.।
ग्गहं करेत्ता विउलं असणं पाणं खाइमं साइमं उवक्खडाताद-तात-पुं० । 'तान' शब्दार्थ, प्रा० १ पाद ।
वेत्ता मित्तणाइनियगसयणसंबंधिपरियणं आमंतेचा तं मि
तणाइनियगसयणसंबंधिपरियणं विनलेणं असणपाणतादत्तिय-तादात्विक-त्रि० । यः किमप्यसंचिस्प उत्पन्नमर्थ
खाइमसाइमेणं वत्थगंधमझालंकारेण य सकारता सम्माव्येति स तादात्विकः । अविचारणार्थनाशके, ध०१ अधिक।
त्ता तस्सेव मित्तणाइनियगमंबंधिपरियणस्स पुरो तादत्थ-तादर्थ्य-न । तदर्थनाचे, श्रा० ।
जेहपुत्तं कुमुंबे गवित्ता तं मित्तनाइनियगसंबंधिपरियणं ताम-ताबत-प्रया"यावत्तावतोर्वाऽऽदेःमनमदि"८४४०६॥ इत्येते त्रय भादेशाः। तामाता-तामहि । प्रा०४ पाद । साकल्ये,
जेहपुत्तं च आपुच्छित्ता सयमेव दारुमयं पडिग्गहं गहाय अवधौ, माने, अवधारणे, प्रशंसायाम्, पक्षान्तरे, वाक्यभूषणे,
मुंडे वित्ता पाणामाए पबजाए पन्चइत्तए । पब्वइए तदैत्यर्थं च । तत्परिमाणवति, त्रि. स्त्रियां की । तावती।। वि य णं समाणे इमं एयारूवं अजिग्गहं अनिगिएिहस्साबाच०।
मि-कप्पर मे जावज्जीवाए उई बहेणं अणिक्खित्तेणं तामर-देशी-रम्ये, दे० ना०५ वर्ग १० गाथा ।
तपोकम्मेणं नई बाहाम्रो पगिकिय पगिजिकय मुराभितामरस-तामरस-न । पझे, प्रशा० १ पद । स्था०। कल्प० । मुहस्स आयावणमीए यावेमाणस्स विहरित्तए, छहस्म ताने. स्वणे, धुस्तुरे, द्वादशाक्षरपादके छन्दोनेदे च । चाच. । वि य म पारणयंसि पायावण नूमीओ पचोरुजित्ता सयमुहूर्ते, दे० ना०५ वर्ग १० गाथा ।
मेव दारुमयं पडिगई गहाय तामनित्तीए नयरीए उच्चतामलित्ति-ताम्रनिप्ति-स्त्री० । जम्बूद्वीपे जारतवर्षे स्वनामख्या.
नीयमज्झिमाई कुलाई घरसमुदाणस्स जिक्खायरियाए तायां नगर्याम, यत्र मौर्यपुत्र ईशानदेवेन्जीवो गृहपतिरासी
अहेता मुखोदणं पमिगहेत्ता तं निमत्तखुत्तो उदए त् । भ०३ श०१ १० । वङ्गानां आर्यजनपदानां राजधाम्याम,
पक्खालेत्ता तो पन्चा आहारं पाहारित्तए त्ति कटु एवं प्रज्ञा० १ पद । प्रव० सूत्र० । आचा०।। तापलित्तिया-ताम्रलिप्तिका-स्त्री० । स्थविरामोदासानिर्गत.
संपेहेक, संपेहेइत्ता कवं पानप्पनायाए नाव जलते सयमेव स्य गोदासगणस्य प्रथमशाखायाम, कल्प०८ क्षण।
दारूमयं पडिग्गई कारे, कारेइत्ता विनलं असणं पाणं तामनी-तामनी-पुं० । ताम्रलिप्तिनगरीवास्तव्ये ईशानदेवेन्द्र खाइमं साइमं उपक्खमावेs, उबक्खमावेइत्ता तो जीवे मौर्यपुत्रे गृहपतौ, भ० ।
पच्छा एहीए कयवलिकम्मे कयकोउयमंगलपायच्चित्ते सुतेणं कानेणं तणं समएणं हेव जंबुद्दीवे दीवे जारहे छप्पावेसाई मंगवाई यत्याई पवरपरिहिए अप्पमहग्याजरवासे तापलिली नामं नयरी होत्या । वहाओ । तत्य एं णालंकियसरीरे जोयण वेलाए भोयणमंडवंमि सुहामणतामलित्तीए नयरीए तामली नाम मोरियपुत्ते गाहावई बरगए, तए णं मित्तणाशनियगसयणसंबंधिपरियणेणं सकिं होत्था । अग्ले दित्तेजाव बहुजणस्स अपरि नूए यावि तं विउझं असणं पाणं खाइमं साइमं आसाएमाणे बीसाहोत्या । तए णं तस्स मोरियपुत्तस्स तामलिस्स गाहावइस्स एमाणे परिसाएमाणे परिभुजेमाणे विहर । जेमिय अमया कयाइ पुल्चरत्तावरत्तकालसमयंसि कुटुंबजागरियं जुत्तुत्तरागए वि य एं समाणे आयते चोक्खे परमसुइचए जागरमाणस्स इमे एयारूवे अन्नत्यिएजाव समुप्पो- तं मित्त जाव परियाणं विनलेणं बत्थगंधमझालंकारेण य. अस्थि ता मे पुरा पोराणाणं सुचिमाणं सुपरिकंताणं सुभाणं सक्कारेइ,सक्कोरइत्ता तस्सेव मित्तणाइजाव परियाण स्स पु. कमाणाणं कमाणं कम्माणं कदाणफन्नवित्तिविसेसो,जेणाई रो जेट्टपुत्तं कुमुंचेगवेड,गवेश्त्ता तं मित्तगाइजाव पहिरमेणं बलामि, सुवोणं वहामि, धणेणं वहामि, धणणं रियणं जेहपुत्तं च आपुच्छइ,आपुच्छइत्ता मुंमे भवित्तापापुत्तेहिं च पहिं वहामि, विउलधणकणगरयाणमाणि-| यामाए पन्चज्जाए पदइत्तए । पन्चइए वि य णं समाणे मोतियसंखसिनप्पवालरत्तरयणसंतसारसावएजेणं अश्व इमं एयारूवं अजिग्गहं अभिगिएहइ-कप्पड़ मे जावजीअश्व अभिवहामि, तं किं णं अहं पुरा पोराणाणं सुचि- वाए बढे बढेणं० जाव आहारित्तए त्ति कडु इमं एयारूवं एणाणं जाव कडाणं कम्माणं एगंतसो क्खयं उबेहयाणे | अभिग्गहं अनिगिएइ, अभिगिएहइत्ता जाज्जीवाए बढ़ विहरामि, तंजाव अहं हिरणेणं हामि० जाव अईव । बडेणं अनिक्खित्तेणं तवोकम्मणं न पाहाभो पगिकिय
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(१२२२) तामली भनिधानराजेन्द्रः ।
तामसी पगिकिय सूराभिमुहे पायावरणतमीए पायावेमाणे विह- पुप्पिया! इंदाहीणा इंदाहिडिया इंदाहीणकज्जा, अयं रइ, बहस्स वि य पं पारणयंसि आयावणभूमीए पच्चोरु- च णं देवाणुप्पिया ! तामली बालतवस्सी ताममितीए इड, पचोरुहत्ता सयमेव दारुमयं पमिग्गहं गहाय तामनि- नयरीए बहिया उत्तरपुरच्छिमे दिसीनाए नियत्तनियमतीए नयरीए उच्चनीयमजिकमाई कुलाई घरसमुयाणस्स भि- डलं आलिहिता संलेहणाभूसणासिए जत्तपाणपमिक्खायारयाए अमा, अमहत्ता सुबोयणं पमिग्गहेइ,पमिग्ग- याइक्खिए पाओवगमणं निवले,तं सेयं खलु देवाणुप्पिया! देइत्ता विसत्तखुत्तो नदएणं पक्खालेइ, पक्खालेइत्ता तओप- श्रम्हं तामलिं बालतवस्सि बलिचंचाए रायहाय लिइच्छा आहारं आहारे। से केणढेणं ते! एवं बुच्चइ-पाणा- प्पकप्पं पकरावेत्तए त्ति कटु एणमएपास्म अंतिए एयमाए पयजा ?। गोयमा ! पाणामाए णं पन्चज्जाए पन्च- मटुं पडिसुणेति, पमिसुणेतित्ता बलिचंचाए रायहाणी इए समाणे जं जत्थ पासइ, तं इंदं वा खंदं वा रुई वा| मऊ मज्केणं निग्गच्छति, जेणेव रुयशंदे उपायपव्वर, सिवं वा वेसमणं वा अजं वा कोकिरियं वा राधं वा तेणेव उवागच्छंति, वेउब्धियसमग्याएणं समोहपांति
जाव सत्यवाई वा काकं वा साणं वा पाणं वा नचं जाव नत्तरवेनधियाई रुवाई विकुवंति त्ति विकुपासइ, उचं पणामं करेइ, नीयं पास, नीयं पणा करेइ, वंतित्ता ताए उकिटाए तुरियाए चक्लाए माए जं जहा पासइ, तस्स तहा पणामं करे, से तेणढेएजाद जयणाए डेयाए सीहाए सिग्याए दिवाए नयाए पवजा । तए पंण से तामली मोरियपुत्ते तेषं उरालेणं वि- देवईए तिरियं असंखेज्जाणं दीवसमुदाणं मकं पुलेणं पयत्तेणं पाहिएणं बालतबोकम्मे सुके जुक्खे मन्झेणं जेणेव जंबुद्दीवे दीवे जेणेव भारहे वासे
जाव धमणिसतए जाए यावि होत्था । तए णं तस्स बा- जेणे व ताममित्तीए गरीए जेणैव तामझी मोरियपुत्ते, तेणेव मलिस्स बालतवस्सिस्स अपया कयाई पुनरत्तावरत्त- उवागच्छति, नवागच्वंतित्ता तामलिस्स बासतबस्सिस्स कालसमयंसि अणिच्चजागरियं जागरमाणस्स इमेयारूवे नपिं सपश्खि सपडिदिसि ठिच्चा दिव्यं देविढेि दिव्वं दे. अब्जरियए चिंतिए. जाव समुप्पज्जित्था-एवं खलु अहं वजुति दिव्वं देवाणुनावं दिव्यं बत्तीसशविहं नट्टविहिं उइमेणं उरालेणं विपुलेणं० जाव जदत्तेणं नत्तमेणं महा- बदमंति, उवदंसंतित्ता तामलि बालतवस्सि तिक्खुत्तो पाप्रभागेणं तवोकम्मेणं सुक्के नुक्खे० जाव धमणिसंतए पाहिणपयाहिणं करंति, वंदंति, नमसंति, नमसंतित्ता एवं जाए, तं अत्थि जा मे नहाणे कम्मे बसे वीरिए पुरिस- वयासी-एवं खलु देवाणुपिया! अम्हे बझिचंचारायहाकारपरक्कमे ताव ता मे सेयं कवं. जाव जलते तामात्र- पीवत्थव्यया बहवे असुरकुमारा देवा य देवीओ य देवासीए नगरीए दिवानडे य पासंडत्थे य गिहत्ये य पुव्व- मुप्पिया ! वंदामो, नमसामो० जाव पज्जुवासामो, अम्हासंगतिए व पच्छासंगतिए य परियायसंगतिए य आपु- एवं देवाणुपिया ! बलिचंचा रायहाणी अणिंदा अपुरोकित्ता तामलिनीए नयरीए मऊ मज्जेणं निग्गच्छि- हिया, अम्हे य णं देवापुप्पिया ! इंदाहीणा इंदाहिडिया चा पाओगकुंमियमादीयं उवगरणं दारुमयं च पमिग- इंदाहीणकजा, तं तुब्ने ६ देवाणुप्पिया ! बलिचंचारायइयं एगते एमेचा तामलित्तीए नगरीए उत्तरपुरच्छिमे हाणिं आढह, परियाणह, सुमरह, अळं बंधेह, निहाणं दिसीभाए नियत्तणियमंमझं आलिहित्ता संलेहणाम- पकरेह, विइप्पकप्पं पकरेह । तए तुके कालमासे वासियस्स भत्तपापापमियाक्खियास पामोवगयस्स कालं किच्चा बक्षिचंचारायहाणीए जबज्जिस्सह, तए णं कालं प्रणवखमापस्स विहरित्तए त्ति कट्टु एवं संपेहेइ, तुम्मे अम्हं इंदा जविस्सह, तए पं तुब्ने अम्हेहिं ससंपेहेइत्ता कवं. जाव जनते० जाव पापुबड, प्रा- किं दिव्वाई भोगभोगाई लुंजमाणा विहरिस्सह । तए पुच्छता तामली एगते एमेइ० जाव भत्तपाणप- णं से तामली बालतवस्सी तेहिं वन्निचंचारायहाणिवत्यमियाइक्खिए पाओवगमणं निवप्ले । तेणं कालेधं तेणं व्वेहिं बर्हि अमुरकुमारेहिं देवेहि य देवी हि य एवं वुत्ते समरणं बनिचंचा रायहाणी अणिंदा अपुरोहिया समाणे एयमटुं नो आढाइ, नो परियाण, तुसिणीए संयावि होत्था । वए णं ते बलिचंचारायहाणिवत्थन्वया चिड। तए णं ते वलिचंचारायहाणिवत्यव्धया बहवे असुबहवे असुरकुमारा देवा य देवीओ य तापलिं बालतब-| रकुमारा देवा य देवीओ य तामनिं मोरियपुतं दोचं पि स्सि ओहिणा आहोति, आहोयंतिता अमममं सद्दा- तचं पि तिक्खुत्तो आयाहिणपयाहियां करेइ , करेइत्ताक बेति, सदातित्ता एवं वयासी-एवं खलु देवाणुप्पिया ! जाव अम्हं च एं देवाणुप्पिया ! बलिचंचा रायहाणी बलिचंचा रायहाणी अपिंदा अपुरोहिया, अम्दे देवा- प्रणिंदा जाब विपकप्पं पकरेह, जाव दोचं पि त.
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( २२२३ ) अभिधानराजेन्द्रः ।
तामली
चं पि एवं वृत्ते समाणे ०जाव तुसिपीए संचिडइ । तए णं ते वझिचंचारायहाणिवत्यव्त्रया बहवे असुरकुमारा देवाय देवीओ य तामलिणा बालतवस्सिपा अपाढाइजमाला अपरिया इज्जमाणा जामेव दिसिं पाउन्नूया तामेव दिसि पगिया । तेणं कारणं तेषं समएवं ईसाणे कप्पे शिंदे अपुरोहिए यानि होत्या । तए णं से तामली बालस्सी बहुपमिसाई सहिँ वाससहस्साई परियागं पाणित्ता दो मासियाए संलेहलाए अत्ताणं जूसित्ता सवी जत्तत्रयं अणसणाए बेदित्ता कालमाने कालं किच्चा ईसाने कप्पे ईसाणवर्डिस विमाणे उबवायसभाए देवसय जिंसि देवदूसंतरियं अंगुलस्स असंखेजइनागमेत्तीए प्रोगाहलाए ईसाणे देविंदे विरहियकालमयंसि ईसाणदेविंदत्ताए नवत्र । तए गं से ईसाणे देविंदे देवराया प्रदुशणोववने पंचविहार पज्जतीए पज्जत्तिभावं गच्छ । लं जहा आहारपज्जत्ती ए० जाव नासामएपज्जत्तीए । तए णं बलिचंचारायहाणिवत्यव्त्रया बहवे असुरकुमारा देवाय देवीओ य तामसिं बालतवसि कालगयं जालित्ता इसाणे य कप्पे देविंदत्ताए उवक्ष्णं पासिता आसुरुत्ता कुवित्र्या चंडिक्किया मिसिमिमेमाणा बलिचचाए रायहाणीए मज्ऊं मज्भेणं निग्गच्छति, निग्गच्छंतित्ता ताए उक्किट्ठाए०जाव जेणेव जारहे वासे जेणेव तामलित्ती नयरी जेणेव तामलिस्स बालतव स्सिस्स सरीरए, ते शेव उवागच्छंति, जवागच्छंतित्ता बामे पाए सुंवेणं बं धंति, बंधंतित्ता तिक्खुत्तो मुद्दे हुईति, उहुहंतिसा तामलितीए नयरीए सिंघाडगतियच उक्कचच्चरच उम्मुहमहापहपहे विकिरेमाला महया महया सदें जग्घोसेमाणा जग्घोसेमारणा एवं व्यासी से केणं जो तामाली बाल बस्सी सयंगहियझिंगे पाणामाए पव्वज्जाए पइए, केसां से ईसाले कप्पे ईसा देविंदे देवराया ति कट्टु तामन्झिस्स वासतवस्सिस्स सरीरयं होलेंति, निंदंति, खिसंति, गरहंति, अत्रमसंति, तनिति, तालिंति, परिवर्हेति, पव्त्रहंति, व्याकश्वविकष्किं करेंति, ढीलेचा० जाव आकडत्रिक करेता एगंते एडंति, एमंतित्ता जामेव दिसिं पाचब्या तामेव दिसि पगिया । तए णं ते ईसा कप्पवासी बहवे बेमाणिया देवाय देवीओ य बलिचंचारायहाणिवत्य
एहिं बहिं असुरकुमारेहिं देवेहिय देवीहि य नामलिस्स बालस्सिस्स सरीरयं हीलिज्जमाणं निंदिज्जमाणं खिसिज्जमाएं० जात्र आकविका कीरमाणं पासंति, पासंतित्ता श्रमुरुता० जाव मिसिमिसेमाणा जेणेव ईसाणे देविंदे देवराया तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छंतित्ता कर
For Private
तामली यक्षपरिग्गहियं दसनदं सिरसावत्तं मत्थए अंजलि कट्टु जएवं विजएणं बद्धावत, बच्चार्वेतित्ता एवं वयासी - एवं खलु देवापिया ! बलिचंचारायहाणिवत्थव्त्रया बहवे - सुरकुमारा देवाय देवीओ य देवाधिये कालगए जायेचा ईसाणे य कप्पे इंदत्ताए उबवसे पासेत्ता आसुरुत्ता० जाव एगंते एमंति, एमंतित्ता जामेव दिसि पाउन्या तामेव दि सिं परिगए । तर णं से ईसाले देविंदे देवराया तेसिं ईसा
पवासी बणं बेमाणियाणं देवाण य देवी य अंतिए एयमहं सोचा निसम्म आतुरुते जात्र मिसिमिसे - माणे तत्व सय णिज्जवरगए तिवलियं भितमि णिमाले साइड बन्निचंचारायद्दाणिं हे पक्खि सपमिदिसिं सममिलो, तर णं सा बलिचंचा रायहाथी ईसा येणं देविंदे-हणं देवरछा आहे सपाख सपदिदिसि समनिलोइया समाला ते दिष्वप्यभावेणं इंगालच्या मुम्मुरभूया छारिया तत्तकवेल्लपया सत्ता समजोइन्नूया जाया यावि दोत्या । तए णं ते बलिचंचारायहा शिवत्थव्वया बहवे असुरकुमारा देवा देवीयो य तं बचिंचारायहाणि इंगालनूयं ० जाव समजोइनूयं पासंति, पासंतिचा जीया उत्तत्था तसिया उच्चग्गा संजायनया सवओो समता आधावति, परिधावंति, परिधावतित्ता अमएणस्स कार्य समतुरंगेमा
चिट्ठति । तए णं ते बलिचंचारायहाणिवत्यव्यया बहवे असूरकुमारा देवा य देवीओ य ईसाणं देविंदं देवरायं परिकुवियं जाणित्ताईसाणस्स देविंदस्स देवरएणो तं दिवं देवि दिव्वं देवजुर्ति दिव्वं देवाभावं दिव्वं तेयले - स्सं असदमाथा सव्वे सपक्खि सपमिदिसि विच्चा कर
परिग्गहियं दसनहं सिरसावत्तं मत्थर अंजलि कट्टु जएवं विजए वकावंति वद्धावंतित्ता एवं वयासी - ढो देवापि दिव्वा देविघ्वी० जाव अभिसममा गया, दिट्ठा णं देवापियालं दिव्वा देविष्ठी० जाव ला प
असिम गया खामेमो देवाप्पिया !, खमंतु मं देवाप्पिया !, खमंतुमरिहंतु णं देवाप्पिया !, नाइनुज्जो भुजो एवं करणयाए ति कट्टु एयमहं सम्मं विशएवं उज्जो
जो खामंसित एं से ईसाणे देविंदे देवराया तेहिं बलिचंचांरायहाणिवत्यव्वेहिं बहूहिं असुरकुमारेहिं देहि य देवीहि य एयमहं सम्मं विणणं भुज्जो भुज्जो खामिए समातं दिव्वं देविसिं० जात्र तेयलेस्सं पडिसाहरइ, तप्पभिई च णं गोयमा ! ते बलिचंचारायहाणिवत्थन्त्रया बहवे असुरकुमारा देवा य देवीओ य ईसाणं देविंद देवरायं श्रति० जाव पज्जुवासंति; ईसाणस्स य देविंदस्स देवरष्णो आणाववायवयप निद्देसे चिति ।
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(१२२४) तामली अनिधानराजेन्द्रः।
तायत्तीसग एवं खल गोयमा ! ईसाणेणं देविदेणं देवरमा सा दिना गाहावई समणोवासगा परिवसंति, असा जाव अपरित देविही जाव अभिसमसागए। ईसाणस्स एं नंते ! देविं- या अभिगयजीवाजीवा उवाद्धपुष्पावा, वहाओ० जाव दस्स देवरसो केवश्यं कालं लिई पाठत्ता ? । गोयमा ! विहरति । तए णं ते तायत्तीसं सहाया गाहावश्ममणोवाससाइरेगाई दोसागरोषमाणि लिई पएणत्ता। ईसाणे णं भंते! गा पुचि उग्गा जग्गविहारी संविग्गा संविग्गविहारी भविदेविदे देवराया तांत्रो देवलोगाओ प्रारक्खएणं जाव त्ता तो पच्छा पासत्था पासत्थ विहारी भोसमा अोसम्मकहिं गच्छहिंति कहिं उक्वजिहिंति । गोयमा ! महा- विहारी कुसीला कुसीलविहारी अहाच्छंदा अहाच्छंदविविदेहे वासे सिजिलाहिंति. जाव अंतं काहिति । भ० ३ हारी बहूई वासाई समणोवासगपरियागं पाउणं ति, पाश० १०॥
उणं तित्ता अदमासियाए मलेहणाए अत्ताएं फूसंति, झूतामस-तामस--पुं० । नमसि अन्धकारे अविद्यागुणे षा रतः |
संतित्ता तीसं जत्ताई अणसणाए बेदेंति, छेतित्ता तस्स मए । सर्प, उलूके, वझे च। तमसा गुणभेदेन निवृत्तम, अण। गणस प्रणालोइयपडिकंता कानमासे कालं किच्चा चमसायोक्ते तमोजन्ये अहङ्कारादौ, त्रि० । तमसः राहोरपल्य.
रस्स असुरिंदस्स असुररलो तायत्तीसगा देवत्ताए उववम, अण् । राहुसुतेषु ज्योतिषोक्तेषु के तुषु, तमसा व्याप्ता, अण् ।
मा । जप्पनि च ते ! कायंदगा तायत्तीसं सहाया की । रात्री, जटामास्यां, तमोऽधिकायां स्त्रियां च । वाच । अज्ञानपरिणामे, प्रश्न०४ आश्र0 द्वार।
समापोवासगा चमरस्स असुरिंदस्स असुररलो सायत्तीमगतामिस्स-तामिस्र-न० । तमिनमस्त्यस्मिन्, अण् । साझ्याक्त.
देवत्ताए उपवला, तप्पनिइं च एं नंते ! एवं वुञ्चइ-चमदशविधे विपर्ययरूपाझामभेदे, याच० । स्या० । भोगेच्चा- रस्स अमरिंदस्स अमुरकुमाररको तायत्तीसगा देवा । प्रतिघातजे क्रोधे, तमिस्रा चारिणि राकसे। अन्धकारमये तत्थ णं भगवं गोयमे सामहत्थिणा अणगारेणं एवं वृत्ते मरकद, न• । वाया।
समाणे संकिए कंखिए वितिगिबिए नहाए उढेइ, उढेइतामोतर-दामोदर-पुं० । "चूलिकापैशाचिके तृतीयचतुर्ययो- त्ता सामहत्थिणा अणगारेणं सकिं जेणेव समणे जगवं राधद्वितीयो" ॥८।४ । ३२५ ॥ इति चूलिकायां पैशाच्यां च
महावीरे, तेणेव नवागच्छइ, उवागच्छइत्ता समषं जगवं दकारस्य तकारः। प्रा०४ पाद। "तदोस्तः" ॥८।४। ३०७॥
महावीरं वंद, नमसइ, नमसइत्ता एवं वयासी-अत्यि इति पैश्याच्यां दस्य तः। प्रा०४ पाद । विष्णौ, वाच । ताय-तात-पुं० । पितरि, भ०३३ श०एन०।
भंते ! चमरस्म असुरिंदस्स असुररमो तायत्तीसगा देवा । तायत्तीसग-त्रयस्त्रिंशत्-स्त्री० । यधिकायां त्रिंशति, ज० ३ |
इंता अस्थि । से केपट्टेणं भंते ! एवं बुच्च-एवं तं चेव श०१०। प्रा०।
सव्वं भाणियव्यं० जाव तप्पभिइं च णं एवं बुच्चय-चमरस्स प्रायस्त्रिंश-पुं० । इन्त्राणां पूज्ये महत्तरकल्पे, उपा० २ भ०। असुरिंदस्स असुररको तायत्तीसगा देवा ? । नो इणढे स्था। कल्प०।
समढे । एवं खलु गोयमा! चमरस्सणं असुरिंदस्स अतेणं कालेणं तणं समपणं वाणियगामे णाम णयरे सुरकुमाररएणो तायत्तीसगाणं देवाणं सासए नामज्ने होत्था । वएणो-दूपन्नासए चेइए सामी समोसढे० पएणते; जं न कदाइ नासी, न कदाइ न जव३० जाव जाव परिसा पढिगया। तेणं कालेणं तेणं समएणं समण- णिच्चे भव्योवित्तिनयट्टयाए अमे चयंति, एणे उचस्स जगवो महावीरस्स जेके अंतेवासी इंदनई णाम क्जंति । अत्यि णं नंते ! बलिस्स वश्रायणिंदस्स बइरोआणगारे जाव उकुंजाणू० जाव विहरइ । तेणं काले- यणरमो तायत्तीसगादेवा ?। हंता अत्यि। से केणटेजते ! णं तेणं समएणं सपणस्स नगवओ महावीरस्स अंतेवासी
एवं वुच्चइ-बलिस्स वश्रोणिदस्स० जाव तायत्तीसगा देसामहत्थी णामं अणगारे पगभदए जहा रोहे. जाव उ-
वा ? । एवं खबु गोयमा ! तेणं कालेण तेणं समएणं इ
वा।। एव खलु गायमा । तण का जाणू० जाब विहरइ । तए णं से सामहत्थी अणगारे
हेव जंबुद्दीवे दीवे भारहे वासे विनेले गामे सन्निवेसे होजायस० जाच उडाए उद्धेश्त्ता जेणेव जगवं गोयमे ते
त्या। वएणो । तत्य णं विनेले सन्निवेसे जहा चमरणेव उवागच्च, उचागच्वइत्ता भगवं गोयमं तिक्खुनो. स्म जाव उववरणा । तप्पलिई च ते 1 ते विभेलनाव पज्जुवामेमाणे एवं वयासी-अत्थि णं भंते ! चम
गा तायत्तीसं सहाया गाहावई समणोवासगा बलिस्स वरस्स णं असुरिंदस्स अमुरकुमाररयो तायत्तीसगा देवा ।
इरोयणिंदस्स सेसं तं चेव जाव णिचे अधोबित्तिणयहएवं खलु सामहत्थी! तेणं कालेणं तणं समएणं इहेव
याए भो चयंति,अो उनवज्जति । अस्थि णं भंते ! धरजंबुद्दीवे दीवे भारहे वासे कायंदी णाम एयरी होत्या।। एस्स नागकुमारिंदस्स नागकुमाररप्लो तायत्तीसगा देवा । वएआ। तत्थ णं कायंदीए एयरीए वायत्तीसं सहाया। दंता अत्थि।से केणद्वेणंजाव तायत्तीसगा देवामगाय
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(१२२५) तायत्तीसग अनिधानराजेन्डः।
तारा मा! धरणस्स नागकुमारिंदस्स नागकुमाररमो तायत्तीसगाणं | | तायय-तातक-पुं० । स्वार्थे कन् । पितरि, उत्त. २.। देवाणं सासए नामधेज्जे पपत्ते । जं न कदाइ नासी० जाव
| जन कदाइ नासा० जाव | तार-तार-पुं०। स्वायें णिच्-अच् । प्रेरणे णिच् । करणाऽऽदो वा श्रले चयंति, अमे नववज्जति । एवं जूयाणंदस्स वि, एवं० घञ् । वानरभेद, शुद्धमुक्तायां प्रणबे, देवीप्रणवे, हीरणे, जाव महाघोसस्स वि । अस्थि एंजते ! सकस्स देविंदस्स वाच० । का० । गीयतां मूधानमनिनन् स्वर उस्तरोनवतिदेवरमो पुच्चा ? । हंता अत्यि। से केणट्रेणं भंते ! जाव
स्थानकं च द्वितीयं तृतीयं वा समधिरोहति-इत्येवंरूपे शिरो
जातश्वनी, रा० । नत्र, नेत्रमध्यस्थकनीनिकायां च । न०। तायत्तीसगा देवा । एवं खलु गोयमा ! तेणं कालेणं तेणं
स्त्री. । रुपये, न० । अत्युच्चनादे, अत्युच्चे, निर्मले च । समएणं इडेच जंबुद्दीवे दीवे जारहे वासे बालाए णाम स- | त्रि० । महाविद्याभेदे, बालिपल्यां, वृहस्पतिभार्यायां च । निवेसे होत्या । वमो। तत्थ णं बालाए सनिवसे ताय- | खी. वाच तीस सहाया गाहावई समणोवासगा, जहा चमरस्स नाव तारग-तारक-न। तारयत्यगाधात् संसारपयोधेयोगिनमित्यविहरति । तए णं ते तायत्तीसं सहाया गाहावई समणोचा
न्वार्थक्या संझया तारकमुच्यते । विवेकजे ज्ञाने, द्वा० १६
द्वा० । कल्प० । रा० स० द्वितीये प्रतिवासुदेधे, पुं०। प्रव० सगा पुचि पिपच्छा वि उग्गा उम्गविहारी संविग्गा संविग्ग
२११ द्वार । ति। विहारी बहूई वासाई समणोवासगपरियागं पाउणंति, पाउ
तारगम्गह-तारकग्रह-पुं० तारकाऽऽकारा प्रहास्तारक ग्रहाः । एंतित्ता मासियाए संलेहणाए अत्ताणं फूसित्ता सहि भ. नवग्रहे, तत्रच वाऽऽदित्यराहूणां तारकाऽऽकारत्वादन्ये पट ताई भणसणाए छेदेंति, तित्ता आलोइयपमिकता तथोक्ताः।"छ तारगम्गहा पसत्ता । तं जहा-सुक्केबुधे,बहस्सई, समाहिपत्ता कालमासे कादंकिच्चा० जाव नववमा । ज
अंगारए, सनिश्चरे, केळ।" (सुके ति) शुक्रः, (बहस्सा ति)
बृहस्पतिः । अङ्गारको मङ्गलः, (सनिस्चरेत्ति) शनवर इति । पभिई च णं भंते ! ते बालाए तायत्तीसं सहाया गाहावई
स्था०६ म०। समणोवासगा, सेस जहा चमरस्स जाव भर उववज्जति। तारगा-तारका-स्त्री । पुण्यभद्रस्य यकेन्द्रस्य यक्कराजस्य तुर्याअत्यि ण नंते ! ईसाणस्स देविंदस्स देवरलो एवं जहा यामग्रमहिण्याम,स्था०४ ग०१३०। (अस्याः पूर्वोत्तरभवकथा सकस्स, वरं चंपाए णयरीए० जाव उववमा । जप्पनिई। 'अम्गमहिषी' शब्दे प्रभा०१७ पृष्ठे का) अष्टाशीतिप्रहाणां, च णं भंते ! ते चंपिच्चा तायत्तीसं सहाया, सेसं तं चैव
सर्वतारकाणांव मण्डलानि कति सन्तीति प्रश्ने, उत्तरप-यथा जाव अमो उववज्जति । अस्थि ण भंते ! सणंकुमारस्म दे।
चन्द्रसूर्ययोर्मगडलानां संख्याऽऽदिविचारः शास्त्रे उपलत्यते,
न तथा परग्रहाणां, तथा तारकाणां मण्डलाम्यवस्थितान्येव विंदस्स देवरम्मो पुच्छा? । हंता अस्थि । से केणटेणं ।।।
भवन्ति, न तु चन्द्रसूर्यमएभलवदनियतानीति । २२३ प्र० । जहा धरणस्स तहेव, एवं० जाव पाणयस्स, एवं अच्चुय- सेन. ३ उल्ला ! ज्योतिषि नको, अणु० ३ वर्ग १ अ०। सूत्र।। स्स जाव अस्ले जनवजंति ।
अश्विभ्यादिनक्षत्रेषु, सूत्र०२ १०६०।
तारग्ग-ताराग्र-न। तारापरिमाणे, चं० प्र० १ पाहु । स. (तेखामित्यादि ) (तायत्तीसगति) त्रयस्त्रिंशा मन्त्रि. प्र सं0 (तचणवत्त'शब्देऽस्मिन्नेष भागे १७७१ कल्पाः।( तायत्तीसं सहाया गाहावा ति) त्रयस्त्रिंशत्पः | पजक्तम) रिमाणाः सहायाः परस्परेण साहाय्यकारिणो गृहपतयः कुटुम्बनायकाः ( उग्ग ति) उग्रा उदात्ता भावतः ( अम्ग
| तारण-तारण-पुं० । तारयत्यनेन ल्युट । मेलके, ६० वर्षमध्ये विडारि ति) उदाताऽऽचाराः सदनुष्ठानत्वात् (संविम्म नि)
" शस्त्रं भवति सामान्य, तारणे सुरवन्दिते" इत्युक्ते वत्सरसंचिम्ना मोकं प्रति प्रचलिता, संसारभीरबो वा (संवि.
भेदे च । तारयितीर, त्रि.वाच। तीर्थभेदे, तारणे विश्व. गगविदारि ति) संविग्नविहारः संचिम्नानुष्ठानमस्ति येषां
कोटिशिलायां श्री अजितः। ती० ४३ कल्प। ते तथा ।(पासत्थ ति) कानाऽऽदिबहिर्तिनः (पासत्थविहा- | तारत्तर-देशी-मुहूर्ते, दे ना.५ वर्ग १० गाथा । रित्ति) आकालं पावस्थसमाचाराः(भोसन्नित्ति ) अ.नारय-तारक-त्रि०ातारगशब्दार्थ, हा) २६ हा बसना व भ्राम्ता श्वावसन्ना मालस्यादनुष्ठानासम्यकरणात (भोसनविहारि त्ति) आजन्मशिथिलाचारा इत्यर्थः ।
| तारवई-तारवती-स्त्री० । संमारपुरराजयन्धुमारस्य अङ्गारव. (कुसील ति) ज्ञानाऽऽद्याचारावराधनात् । (कुसीलविहारि तीभार्यायां जातायां उहितरि, प्रा० चू०४ अ.। ति) आजन्माऽपि झानाऽऽद्याचारविराधनात् । (अहाच्छंद ति)
तारा-तारा-स्त्री• । स्वनामख्यातायां सुग्रीवनार्यायाम, तयथाकथञ्चिन्नाऽऽगमपरतन्त्रतया छन्दोऽभिप्रायो बोथःप्रवचनार्थेषु येषां ते यथाच्चन्दाः। ते चैकदापि भवन्तीत्यत श्राद
स्थाश्च कृते संग्रामोऽनुत् । ( प्रश्न ) तथाहि-किषिक
धापुरे बालिसुग्रीवाभिधानाचादित्यारथाभिधानस्य विद्याध(अहाच्छंदविहारि ति ) आजन्मापि यथाच्छन्दा पवेति ।।
रस्य सुतौ वानरविद्यावन्तो विद्याधरी बभूवतुः। तत्र-"महि. (तप्पभि च णं ति) यत्नृति त्रयस्त्रिंशतसंख्योपेतास्ते भाघकास्तत्रात्पन्नास्तत्प्रति च पूर्वमिति । भ० १० १०४ उ० ।
माणेण य बाली, दाऊणियरम्स तं नियं रजं । सिको कय
पावजो, सुग्गीवो कुण पुण रज ॥१॥"तस्य भार्या तारानाय-नात-पु. । 'नाथ'शब्दार्थे, प्रा० १ पाद ।
भिधाना च। ततः कश्चित्खे बराधिपः साहसगत्पनिधानस्ता
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तारा
परिजगलाल सुवन्तारं प्रविवेश तथा विःप्रत्यय निवेदितो जम्पदादिमन्त्रिमरामस्य । तब यमुपज्य किमिदमासमिति विस्मयं जगाम । ततश्च- "निलामिया य दोनिवि, पुरओ ते मंतिघगावयणेण । जुज्छंति मच्तरेण य, वलितो एस श्रब्रियसुग्गीवो ॥ १ ॥ " ततयासी सत्यसुग्रीवो हनुमदभिधानस्य महाविद्याधरराज * नत्वा निवेदयति स्म । स स्वागत्य तयोर्विशेषमजानन्नकृतोपकारः स्वपुरमगमत् । ततश्च लक्ष्मणविनाशितखरदूषणबन्धिनिपाताललापुरे राज्यावस्थं राममेवमालोक्य शरणं प्रपन्नः । ततस्तेन सह गतः सन्नदमणो रामः किष्किन्धापुरे स्थिती बहिः। कृतश्च सुप्रीत्रेण बाहुशब्दः, तमुपश्रुत्य समागतो सालको राधिको रसिका सन्तयोर्विशेषमजानन् तद्वलं च रामश्च स्थित उदासीनः। कदर्शितः सुग्रीव इत रण | रामस्य गत्वा निवेदितं सुग्रीवेण देव! तव पश्यतोऽप्यहं कर्द्धितः तेन रामेोकम् कृतः पुनर्युद्ध्यस्व ततोऽसी पुन युद्ध्यमानो रामेण शरप्रहारेण पञ्चत्वमापादितः । सुग्रीवञ्च तारथा सद् जोगान् बुभुजे । प्रश्न० ४ श्रश्र द्वार । दर्श० । ज्योतिष्करे, स्था० ५ ठा० १३० स० । ज्योतिर्वि मानरूपे, कृतिका नक्षत्रे ताराप्रमाणं' शब्दे चास्मिमेव भागे १७७२ पृष्ठ बंद तृतीय भागे १०६४ पृष्ठे उक्तम् )
1
•
"पंच तिभि एगं, चउ तिग रस वेय जुगल जुयलं च । इंदिय एवं एगं, विसवग्गि व समुह वारसगं ॥ १ ॥ चइरो तिय तिय पंच य, सत्त ये वे भवेतिया तिनि । रिक्खे तारपमाणं, जर तिहितुलं दयं कज्जं ॥ २ ॥ " इति । इह चैक स्थानकानुरोधानक्कत्रत्रयस्य ताराप्रमाणमुक्तं शेषन क त्राणां तु प्रायोपेतनायनेषु यति यस्तु कबिडियादुस्ताराप्रमाणस्य तथाविधप्रयोजनेषु तिथिविशेषस्य नक्षत्रवि शेवयुका शुभ बनार्थत्वेनोपाय यो मन धक इति । स्था० ६ वा । " तारास्त्रे चलेजा । " स्था० ३ बा १ उ० । अश्विन्या दिनकृत्रेषु (सूत्र०) नकुत्रे, सूत्र० १ श्रु० ६ श्र० ।
तिहिं गणेहि तारारू चलेजा विमा वा परियारेमाणे वाणाओ वा वाणं संक्रममाणे वाराने चलेज्जा ॥
(तिहि इत्यादि) (नाति) तारकमा
लेता नवं कुर्वता परिचारेमा वा ) ना सरम्भमित्यर्थः स्थानकास्मात् स्थानाम
दित्यर्थः यथा चातकीखाऽऽदि मे परिरदित्यर्थः । अचम्म के देवाऽऽदी चमरवद्वेविकुर्वति सति तन्मार्गदशनाथ चलेदिति । उक्तञ्च " तत्थ जे सेवाघात से दोनो पारसजोषसहस्ताई" इति व्याघातकमन्तरं कि देवस्यादिति स्था० ३४० १४० परशुराममारितस्व कार्तवीर्यस्य भार्यायामष्टमत्रक्रवर्तिनः सुभूमम्य मातरि, आο म० १ ० २ खण्म । स० । आव०। जम्बूद्वीपे मन्दरस्योत्तरे रक्तानदीसङ्गतायां महानद्याम्, स्था० १० ठा० | योगदृष्टिभेटे, द्वा० ।
तारायां तु मनाक् स्पृष्टं दर्शनं नियमाः शुभाः ।
( २२२६ ) अभिधानराजेन्द्रः |
-
तारा
अनुद्वेगो हिताऽऽरम्जे, जिज्ञासा तगोचरा ॥ १ ॥ (तारायामिति) तारायां पुनरं मनागतमा क्या दर्शनं गुजाः प्रशस्ता नियमा वक्ष्यमाणा इच्छाऽऽदि रूपाः। तथा हिताऽरम्भे पारलौकिकस्तानुष्ठा कनुद्वेगः तथा-तगोचरावासा च्छा | अद्वेषत एव तत्प्रतिपस्यानुगुण्यात् ॥ १ ॥
नियमाः शौचसन्तोषी, स्वाध्यायतपसीअपि। देवताप्रणिधानं च, योगाऽऽचार्यैरुदाहृताः ॥ २॥ (नियम इति) शौचं शुचित्वं तद् द्विविधम बाह्यम, आज्यन्तरं च । बाह्यं मृज्जलाऽऽदिजिनः काय प्रकाशनम्, आभ्यन्तरं मैत्राऽऽदिनिधितमान सन्तोषः सन्तुष्टि, स्वाध्यायः प्रणयपूर्व मन्त्राणां जप, तपः कृचादिदेव प्रणिधानमीश्वरप्रणिधानकियाणां फलनिरपेकृतयेश्वरसमर्पणम् । एते योगात्यादिनिर्मिमा उदा हृताः । यदुक्तम्- " शौचसन्तोषतपःस्वाध्यायेश्वरप्रणिधानानि नियमाः । " ( २-३२ ) इति ॥ २ ॥ शोभावना स्वाङ्ग-जुगुप्साऽन्यैरमङ्गमः ।
शुद्धिः सोमनस्यैकारवाक्ष जययोग्यताः ॥ ३ ॥
1.
( शौचेति ) शौत्रस्य जावनया स्वाङ्गस्य स्वकायस्य कारणरूपपोलोचनद्वारेण जुगुप्सा पूणा भवति "विश्यं कायो नात्राऽऽग्रहः कर्तव्यः ।" इति । तथा चान्यैः कायवद्भिरसङ्गमस्तत्संपर्कपरिवर्जनमित्यर्थः यः किल स्वयमेव कार्य जुगुप्सते, तसद चद्यदर्शनात् स कथं परकीयाः कायैः संभ यति । तदुक्तम्- "शोबात स्पाइगुप्सा परसर्गः (२.४०) इति । तथा सवस्य प्रकाशसुखाऽऽत्मकस्य, शुद्धी रजस्तमोभ्या मननिभवः। सौमनस्यं खेदाननुभवेन मानसी प्रीतिरेकाव्यं नि. यते विषये चेतसः स्थैर्यम्, श्रकाणामिन्द्रियाणां जयो वि पपराङ्मुखानां स्वात्मन्यवस्थानं, योग्यता चात्मदर्शने विवेकल्पातिरूपे समर्थस्यम् पावन्ति फलाने शोभाव दन्ति दुरू" सुमनस्यैकाम्येन्द्रियजयानियति (२-४१) ॥ २ ॥ संतोषात सौरूपं स्वाध्यायादिष्टदर्शनम् । तपमोगाक्षयोः सिद्धिः समाधिः प्रणिधानतः ॥ ४ ॥ ( संतोपादिति ) संतोषात् स्वभ्यस्ताद योगिन उत्तमम तिशयितं सीयं भवति यस्य बाह्येन्द्रियतां पिन समम् । तदाह-संतोष लाभः (२-४२) स्वाध्यायात् स्वभ्यस्तादिदर्शनं जप्यमानममितदेवतादर्श भवति सा "स्वादिदेवतासंप्रयोगः" (२०४४) तप सः स्वभ्यस्तात् क्लेशाऽऽद्यशुचिकय द्वाराऽङ्गाक्कयोः कायेन्द्रययोः सिद्धिः यथेत्थमत्व मढ स्वाऽऽदिप्राप्तिसूक्ष्मव्यवढि विप्र
दर्शन सामलको स्वात् यथोकम" कार्यस्त्रिय सिद्धिरचिक्षयात् तपसः " (२-४३) प्रणिधानात् ईश्वरप्रणिधानात् समाधिः स्यादश्वसन वरोरापान् केशान् परिहत्य समाधिमुचपतीति यो"स माधिसिरिश्वरप्रणिधानादिति।" (२-४५) तपःस्वाध्यायेश्वरप्रत्रियाणामपि च शोत्रनाध्यवसायला प्रतिबन्धद्वारा समाध्यनुकूलत्वमेव धूयते । यथोक्तम्-" तपः
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(२२१७) तारा प्रभिधानराजेन्द्रः।
ताराचंद स्वाध्यायश्वरप्रणिधानानि क्रियायोगः"(२-१) "समाधिभाव- माश्वराहो नामे-ण पत्थिवो अस्थि सुपसिको ॥२॥ नार्थःवेशतनूकरणार्थश्चेति।" (२-२)॥४॥
ताराचंदो तस्सा-सि नंदणो नंदणो गुणतकणं । विज्ञाय नियमानेता-नेवं योगोपकारिणः ।
बररायलक्खणधरो, रुघेणं विजियरहनादो ॥३॥ अत्रेतेषु रतो दृष्टौ, नवेदिच्छाऽऽदिकेषु हि ॥५॥
सो बालकालो विहु, पव्वजागहणबद्धपरिणामो।
हयगयधणसयणासु, चिट्टा पमिबंधपमिमुक्को ॥४॥ (विज्ञायेति) एतान् शौचादीनियमान एवं स्वाङ्गजुगुप्साऽs
न कुणा जलास्केलिं, न य दूसर कंपि फरुसभासाए । दिसाधनत्वेन योगोपकारिणः समाधिनिमित्तान् विकाय । पत्र
न इसन चेव विलवा, न य वाह पवरकरितुरगे ॥५॥ तारायां दृष्टावेतेषु इच्छाऽऽदिकेषु हि नियमेषु रतो भवेत, तथाझानस्य तथारुचिहेतुत्वात् । तदन काचित् प्रतिपत्तिः प्रद
सह पंसुकीलिपति वि,मित्तोहि समं रमेह न कया चि । र्शिता ॥५॥
मल्खालंकारविखे-षणाऽऽश्ववहार णो कुणइ ॥६॥ जवत्यस्यामविच्छिन्ना, प्रीतियोगकथामु च ।
अश्सयविसयविरतं, कया वि कुमरं निपवि नरनाहो।
तम्मणबामोहकए, कुवरायपए तय ठवा ॥७॥ यथाशक्त्युपचारश्च, बहुमानश्च योगिषु ॥ ६ ॥
नियपुत्तरज्जविग्धं, चिंततीए सवत्तिजणणीए । (भवतीति) अस्यां दृष्टावविचिन्ना भावप्रतिबन्धसारतया हणापत्थं तस्स रहे, भक्खजयं फम्मणं दि॥८॥ बिच्छदरहिता, योगकथासु प्रीतिभवति, योगिषु भावयोगिषु, तो तस्स जायमगं, विहुरमसारं दुगुछणिज्ज च। यथाशक्ति स्वशक्त्यौचित्येनोपचारश्च प्रासाऽदिसंपादनेन, तयणु घणसोगभरिश्रो. कुमरोदय चितए चित्ते ॥४॥ बहुमानश्वान्युत्थानगुणगानाऽऽदिना । अयं च शुरूपकपातपु- रोगभरविहुरियाणं, अधणाणं सयणपरिभवहयाणं । एयविपाकाद् योगवृहिलाभान्तरशिष्टसंमतत्वकालोपवहा- जुज्जा मरणं देसं-तरेव गमण सुपुरिसाणं ॥१०॥ न्यादिफल इति ध्येयम् ॥६॥
तामह खणं पिन खम, विणटदेहस्स निवसिळ इत्थ। भयं न जवज तीवं, हीयते नोचिता क्रिया।
निशं पुज्जणकर-गुलीहि दंसिरजमाणस्स ॥११॥ न चानाभोगतोऽपि स्या-दत्यन्तानुचितक्रिया ॥७॥
श्य चितिऊण सणियं, अबगविडं परियणं स रयणीप । (भयमिति ) भवजं संसारोत्पन्नं ती जयं न जवति, तथा
नीहरिऊ गेहामो, पुन्वदिसाभिमुहमुदो चत्रिभो ॥१२॥ अशुभाऽप्रवृत्तेरुचिता क्रिया क्वचिदपि कार्य न हीयते, सर्वत्रैव
मंच मंदमंद, सो गच्छंतो कमेण विमणमलो। धर्माऽऽदरात् । न चानाभोगतोऽप्यज्ञानादप्यस्यन्तानुचितक्रिया
संमेयगिरिसीवे, पत्तो पगम्मि मयरम्मि ॥ १३॥ साधुजनानन्दाऽऽदिका स्यात् ॥७॥
गयण ऽग्गलगनश्च-गसिंगपम्भारकादिसिपसरं । स्वकृत्ये विकले त्रासो, निझामा सस्पृहाऽधिके ।
तत्तो संमेयगिरि, सणियं सणियं स आरूढो ॥१४॥
विहियकरचरणसुकी, सरसाश्री गरिय सरससरसिरहे। दुःखोच्छेदार्थिनां चित्रे, कथंताधीः परिश्रमे ॥८॥
मजियाइजिणिदे पू-ऊण भत्तीय श्य थुण ॥ १५ ॥ (स्वकृत्य इति) स्वकृत्ये स्वाचारे कायोत्सर्गकरणादौ, विकले जय अजियनाह! अइसयसणाह!, विधिहीने,त्रासो "हा! विराधकोऽहम्" इत्याशय कणः,अधिके जय संभव ! समियभव ऽग्गिदाह!। स्व जुमिकापेकयोत्कृष्ट प्राचार्याऽऽदिकृत्ये, जिज्ञासा-कथमेतदेवं अभिनंदण ! नंदियभवियनियर !, स्यात?,इति सस्पृहाऽनिलाषसहिता। दुःखोज्छेदार्थिनां संसार
मह सुमई सुमजिणेस ! वियर ॥१६॥ शजिहासूनाम, चित्रे नानाविधे, परिश्रमे तत्तत्रीतिप्रसिक्रि
जय पहु! पउमप्पह ! अरुणकंति !, यायोगे, कथंताधीः कथंजाबबुरिः। कथं नानाविधा मुमुक्षुप्रवृ. जय देव ! सुपास! पयासकित्ति!। तिः कात्स्न्येन ज्ञातुं शक्यत इति । तदाह-"दुःस्वरूपो जव: चंदप्पह ! चंदसुकंतदंत!, सर्व, उच्छेदोऽस्य कुतः कथमचित्रा सतां प्रवृत्तिश्च,सा शेषा देवाहिदेव ! जय पुप्फदंत!॥ १७ ॥ ज्ञायते कथम? ॥१॥" ॥७॥
जय सीयल ! सीनियसुद्धचरण !, नास्माकं महती प्रज्ञा, सुमहान् शास्त्रविस्तरः।
सिजंस! मुरासुरपणयचरण!। शिष्टाः प्रमाणमिह त-दित्यस्यां मन्यते सदा ।।।
जय विमल ! विडियवच्छरियदाण!, (नेति) नास्माकं महती प्रज्ञाविसंवादिनी बुद्धिः, स्वप्र.
जय देव ! अणत! अणंतनाण! ॥ १७ ॥ झाकल्पिते विसंवाददर्शनात् । तथा-सुमहानपार: शास्त्रस्य
जय धम्म! पयासियसुद्धधम्म!, विस्तरः, तत्तस्मात् शिष्टाः साधुजनसंमताः प्रमाणमिह प्र.
सिरिसंति! विहियजयसंतिकम्म!" स्तव्यतिकरे, यत्तराचरितं तदेव यथाशक्ति सामान्येन कत
जय कुंपु! पमंथियमोहम!, युज्यत इत्यर्थः । इत्येतदस्यां दृष्टी, मन्यते सदा निरन्त.
अरनाह ! पणासियसयलसख!॥१६॥
जय मलि ! मश्रियरागारिवार!, रम् ॥॥द्वा०२२द्वा०।
मुणिसुन्वय ! सुन्वयधरणसार!। ताराचंद-ताराचन्छ-पुं० । श्रावस्तीराजराजकुमारे, ध०र०।
जय जय नमि! नमियमुरिंदवग्ग!, तत्कथा चैवम्
सिरिपास! पयासियमुक्खमम्ग! ॥२०॥ अस्थि पुरी सावत्थी, नेवऽत्यि इदं पुरी मम सरिच्छा। श्य पुणिय जिणेसर नामरसुरसर, जिणगिनियधयचलन-घउलेण श्य कदइ जा निश्चं ॥१॥ । भचिन्जानिन्भरमणेण । तत्थ य पणमिरनरवर वररयणपहापहासिकमकमलो। तुझउ मिवनंदणु बहुपुलश्यतणु,
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(१२२७) ताराचंद प्रन्निधानराजेन्द्रः।
ताराचंद जा पिच्छा दसदिसि खणिण ॥२१॥
कुरुचंदेणं भणियं, रायाऽऽपसेण इत्थ रयणपुरे।। ता ससहरकरसुंदर-पसरंतमहंतकंतिदिप्पंतं ।
अहमागतोऽम्हि संपर,सावत्थीए गमिस्सामि ॥ ४६॥ ईसिं ओणमियतएं, चरणभरणं व अकंतं ॥२२॥
कुसलं च रायचक-स तह य नयरी जण वयजुयाए । हिट्ठामुहलंबियसु-स्पसंखकरनहमकहरज्जूदि ।
तुह दुसहविरहहियं, श्कं मुर्नु नवरि निवई ॥४७ नरयाऽवडनिवमियज-तुजायमागरिसयंतं व ॥ २३ ॥
जप्पभिरतं नदिको, तप्पभिइ निवेण पेसिया पुरिसा। कणयाचलनियनचल-ण अंगुलीविमलपहनदमिसेण ।
तुज्क पठतिनिमितं, सब्वत्थ न चेवतं लद्धो ॥४॥ फुडपयमंतं पि व खं-तिपमुहदसविहसमणधम्म ॥२४॥
तो रयणपुरागमणं, जायं मे बहुफ महानाग!। गिरिकंदरगयमुस्स-गसंठियं सो निप वि मुणिमेगं।
जंलको तुममिपिंड, पुराणेहि प्रतक्कियागमणो॥४ परमप्पमायकलियो, पत्तो मुणिवरसमीवम्मि ॥ २५ ॥
तो पसिय बहुं नरबर--नंदण! नियदंसणामयरसेण । तो लछिनारनिहिणो, जियसुरतरुकामधेणुमाइप्पं ।
निव्वावसु पिउहिययं, दुस्सहविरहदवनवतबियं ॥ ५० ।। मुणिणो से पयजुयलं, सिरसा तुझो परामुसा ॥ २६ ॥
श्य सप्पणय मित्ते-ण पत्थिो निवसुओ समं तेण । श्रद मुणिमाहप्पणं, तक्कानं चिय पण विव रोगो।
पिचकारियरदमोह, सावस्थि नयरिमणुपत्तो ॥५१॥ ताराचंदो जाओ, अम्भहियसुरुवस्वधरो ॥२७॥
पणो य जणयचनणे, समयम्मि निवेण पुच्चिो कुमरो। तं मुणिणो माहप्प, जा चिट द बिम्हिो कुमरो।
मुत्रा प्रारम्भ नियं, वुनंत जाव साहेड् ॥ ५॥ ता विजाहरजुयलं, गयणतलाश्रो समोसरियं ॥ २७ ॥
ता विजयसणसूरी, समोसढो तत्थ नूरिपरिवारो। हरिमवसवियसियाच्छं, पणमिय चल एप्पलं च से मुणिणो।
तव्वंदणवमियाए, कुमारजुत्तो निवो पत्तो ॥ ५३॥ अगणियगुणगणममसं, थोर निसन्नं महीपीढे ॥२६॥
नमिय मुणिदं चिय-ठाणासीणे निवम्मि कह गुरू। कुमरण तो भणिय, कत्तो तुम्हाण इह समागमणं ?।
मंथिज्जमाणजलनिहि-उद्दामसरेण धम्मकडं ॥ ५४ ॥ केण य कजेण तो, बुत्तं विजादरेण श्म ॥ ३०॥
इह जरजमणसलिलं, बहुमच्चरमच्छकच्छभाऽऽनं । धेयकृगिरिवराओ, मुणिमेयं नंतु वयभिहं पत्ता।
उल्लसिरकोववम्वा-हुयवहजालोसिप्पिच्छ ।। ५५॥ कुमरेणुत्तं को -स मुणिवरो आह इय खयरो॥३१॥
माणगिरिदुग्गमतरं, मायाबल्लीबियाणअविलं। आसी रह वेयके, राया वरखयरविसरनमियकमो।
भक्खोहलोहपाया-अपरिगय मोहश्राबत्तं ।। ५६॥ घगावाहा सिनामे-ण नामियासेसरिजचको ॥३२॥
अन्नाणपवणपिल्जियसं-जोगविप्रोगरंगिरतरंगं । भन्नदिणे जम्ममरण-रोगकारणयभीमभवभीभो ।
जा भवजलनिहिय, तरिच्छेह भवियजणा!॥५७॥ सो सुचिरप्पदढो मो-ह वल्लिमुल्लूरिय खणेण ॥ ३३ ॥
ता सइंसणदढगा-ढबंधणं सुद्धनावगुरुफन्नई। जरचीवरं व चां, रजं सज्जो गहेवि पञ्चज्जं ।
उद्धरसंवरसंरु-द्धसयलछि अइसणग्धं ।। ५८ ।। प्रणवरय मासखमणे, करे सो एस मुणिवसहो॥३४॥
वेरम्गमगलग्गं, दुत्तवतवपवणजाणियगुरुवेगं। इय पत्राणय ते खयरा, मुणि च नमिउं गया सगणम्मि ।
सन्माणकन्नधारं, सरेह चारित्तबरपोयं ॥ ५ ॥ हरिसियडियो कुमरो, प्रतीप इय मुणि थुण ॥ ३५॥
श्य सुणिय निवो निरव-ज्जचरणगहज्जुनो भणा मूरि। जय जय मणिद!बरि-दविंदबंदियपयारविदजग।।
काकण रज्जसुत्थं, पदु! नुह पासे गहमि वयं ॥ ६०॥ प्रबहहुयवहसंत-तमतपीकसबरिससम!॥ ३६ ॥
मा पडिबंधं स्वणमपि, काही नरनाद! इय मुर्णिदेण । निज्जियतिहुयणजणमयण-सुहमभडवायभंजणपबीर!
बुत्तम्मि महीनाहो, पमुश्यहियो गो सगिह ॥ १ ॥ प्रश्उन्गरोगनरस-पदप्पनिठवणवरगरुम!॥ ३७॥
नासेसमंतिसाम-तममत्रं पुचिऊण सच्चमई। एवं थुणिय मुर्णिदं जा किंचि वि विनाविस्सप कुमरो।
ताराचंदकुमार, रज्जे अहिसिंचिही जाव ॥ ६॥ ता सस्सग्ग पारे-विमुशिधरो गयणमुप्पइयो। २० ।।
तो विणणयताणा, कयअंजक्षिणा पयंपिय तेण । तो विम्हश्भो कुमरो, नमिय जिणे गिरिचराउ ोयरिमो।
वयगहणानुन्नाए, ताय! पसायं कुण ममावि ॥ ६३॥ गच्छतो य कमेणं, रयणउरं नयरमणुपत्ती ॥३६॥
जं संसारसमुद्दो, रुदो उद्दामदुक्कोलो। ताथ य चिरकालपरुढ-गाढपणपण बालमित्तेण ।
न बिणा चरणतरम, तीर तरि प्रादुरंतो ।। ६४॥ कुरुचंद्रेण स दिडो, डित्ति तह पञ्चभिन्नाओ ॥ ४० ॥
तो रन्ना पम्भिणिय, जुत्तमिणं वय नायत्तताण । मालिगिऊण गाढं, ससंभमं पुच्छिो इमो तेण ।
किं नु कमागयमेय, रज्जं पालेसु का चि दिणे ॥६५॥ अच्चरियमिणं कत्तो, चयंस! तुह इत्य भागमण ? ॥४१॥
न य विक्कमसंजुत्ते, पुत्ते पच्चा वितु रज्जभरं । कत्थ व पत्तियकालं, सावत्थामो विणिक्वमित्ता थे।
कल्लाणवल्लिजलकु-चतुल्लदिक्खं गहिज्ज तुमं ॥६६॥ प्रसिओ सि कद व संपा, पुणो नवंगो तुम जाओ ॥४२॥
इय भणिय पत्रा बि इमं, राया रज्जे नविन गिराहे । ताराचंदेण तमो, सावत्थीनिग्गमान प्रारम्भ।
सिरिविजयसेणपासे, दिक्वं वेमाणिपसु गो ॥ ६॥ तप्पुरमो परिकहिओ, सम्बो वि दुनिययवृत्तंतो ॥४३॥
अह ताराचंदनिवो, निचं वयगहणसुद्धपरिणामो। कुमरेण वि तो पुठं, कहेसु कुरुचंद ! मित्त! नियबत्तं ।
पइसमयमुत्तरुत्तर-मणोरहसप विचितंतो ॥ ६८।। कि इत्थ तुहाऽऽगमणं, गमणं च पुणो हि होहि!॥ ४४।
कारतोअिणजवणे, सया विजिणपवयण पभावंतो। कह पा तानो निवस, अवि कुसलं सयनरायचकस्स।
प्राणुकंपादाणाऽऽसु, जहाविहाणेण बटुंतो॥६॥
नियगिहसमीवकारिय-पोसहसालाइ पोसहुज्जुत्तो। सावस्थी सुत्था सा, सगामपुरजणवया धणियं? ॥४७॥ सच्चरिएम पर मणुमोयं तो य धम्मिजणं ॥ ७० ॥
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(२२२४) तराचंद अनिधानराजेन्दः ।
तालसंवम बदुनयपमाण गमनं-गसंग गुरुविचारभारसहं ।
भावे नावविषयस्तालो ये जीवास्तस्य तालस्य परिग्रहे निसुणतो पुवावर-अविरुकं सारसिद्धतं ॥ ७॥
मूत्रकन्दादिगतास्ते सर्वेऽपि समुदिताः सन्तोनावताल इति रज्जधर प्रभावामो, रज्जमणाई विमुत्तुमचयंतो ।
समाख्यातानोपागमत इति भावः। द्वितीयोऽप्यनाऽऽदेशोऽस्ति अपजले मीणो श्व, दुहेण गेहम्मि निवसंतो ॥ ७२॥ यस्तस्य तानस्य विज्ञायकस्त्वनियुक्तः पुरुषः सोऽपि भावताल बाहिरवित्तीइ चिय, चितंतो रज्जरध्वाचारं ।
उच्यते, आगमत इत्यर्थः । अत्र च नोपागमतो भावतालेनाकालेण मरिउ जानो, श्रच्चयकप्पे पवरदेवो ॥ ७३ ॥ धिकारः, तस्य संबन्धि यत्फलं तदिह तालशब्देन प्रत्येतव्यम् । तसो चविय विदेहे, निवपुत्तो होनु गहियसामन्नं ।
बृ० १० स० श्रा० म०। प्रशा० । स्था० । भ० । मौ० । सवत्थ वि होऊण, अरत्तदको सिवं गमिह। ॥ ७४ ॥ प्रश्नः । झा० । वलयाऽऽख्यवनस्पतिभेद प्रशा० १ पद । इति ज्ञात्वा ताराऽधिपतिरुचिरोचिष्णुयशसो,
भाचा० । कसिकापरपर्याये वाद्यविशेषे, औ० । आचा० । मुदा ताराचन्द्रक्षितिपतिलकस्याऽस्य चरितम् ।
आ० म० । जंग। ज्ञा० । स्था० । हस्तताले, दश २ अ०। अरक्तद्विष्टास्तत्स्वजनधनदेहप्रतिषु,
स्था० । कंसिकाऽऽदिशन्दविशेषे,स्था.७ ठा०। वादिनसमुदाम्फुटं धत्त स्वान्तं शिवसुखकरे शुरुचरणे ॥ ७५ ॥ध० २० ये, निचू०१२ उ० । आजीवकोपासकभेदे,भ.श०५०। ७२ गाथा।
तालनम-तानपुट-न० । तालमात्रब्यापत्तिकरे उपविषे, उत्त० तारापह-तारापथ-पुं० । नभास, अनु० ।
१६ अ.।दश। प्रा० म०। तारिम-तारिम-त्रि । तरणयोग्ये, सूत्र०१ श्रु० ३ अ० २ ००।
ताजंघ-तालजड-पुं० । तालो वृतविशेषः, स च दीर्घस्कन्धो
भवति, ततस्तासवज्ज यस्य स तथा । झा०१ ध्रु० ०अ०। दश। तारिस-तादृश-त्रि० । “दृशे किप्टक्सकः "॥८।१।१४२॥
स्वनामख्याते राजनि,यो हि ब्राह्मणेषु विक्रान्तः सन् विननाश ।
ध.१अधिक। इति दशेर्धातोर्ऋतो रिरादेशः । प्रा० १ पाद । तथाविधेऽथे, वाच। उत्त । प्रइन०। प्रा० म.पाण्डवचरित्रेयामशसगे.
ताज्झय-तालध्वज-पुं० । ताबनन्दनगरवास्तव्ये स्वनामस्याऽष्टादशश्लोके-"केभ्यस्तादृशाः स्त्रियः। (१०)" इत्यत्र तादृशा
ते राजनि, तस्य तमानलता भार्याऽऽसीत् । दर्श१तष। इति शब्दे आपप्रत्ययः कथमानीत?,टप्रत्ययस्यात्राऽऽगमने ई
शवजयपर्वते, ती०१कल्प । तानो वक्षविशेषो वजा यस्य प्रत्ययम्यवोक्तत्वादिति प्रश्ने,उत्तरम-टक्प्रत्ययान्तात्तारशश
सः। बलदेवे, प्रा० म.१०१खएम। ब्दादीप्रत्ययसनावेऽपि तादृश इति विबन्ताद्भागुर्याचार्यमते- ताल-तामन-न० । चपेटाऽऽदिना निश्वोरने, उपा० ७०। नाऽऽप्प्रत्ययाऽऽममने रूपसिद्धिरिति न कोऽपि दोषः। ६४ प्र0 चपेटाऽऽदिदाने, औ० । कुट्टने, प्रश्न० १ आश्र० द्वार। सेन०१ उल्ला०।
भन्त० । ०। आ०म० । पञ्चा। तारुण-तारुण्य-न० । यौवने, उत्त. ३२ अ०।
तालपलंब-तालप्रलम्ब-पुं० । प्राजीवकोपासकभेदे, भ.८ ताल-ताल-पुं०। तलन तासः । नि० ० १२ उ० । वृक्तविशे- श.५०। थे, आचा. १ श्रु०१ अ०५३०।
तापिसाय-तालपिशाच-पुं० । तालो वृक्तविशेषः, तदाकारो
दीर्घत्वाऽऽदिसाधात्पिशाचो राकसः तालपिशाचः। दीर्घतरे __ अथ तालपदं विवृणोति
पिशाचे, स्था० १० ठा० । न० । श्रा० म० । व्य. । झा०। नाम उवणा दविए, तानो जावे य होइ नायव्यो। ।
प्रा० का पिशाचभेदे, प्रशा० १ पद। जो जविप्रो सो ताझो, दब्बे मृलुत्तरगुणेसु॥ तानपुम--तानपुट-न । 'तालउम' शब्दार्थे, उत्त०१६ अ०। नामतालः, स्थापनानालः, अभ्यतासः, भावतालच भवति | तालफली-देशी-दास्याम, दे ना.५ वर्ग ११ गाथा । झातव्यः । तत्र नामस्थापने क्षुम्ो । व्यतालः पुनरयम्-(जो भ
तानमत्थय--तालमस्तक-न । तालमध्यवर्तिनि गर्ने प्राचा०२ विओ ति ) यः खलु भव्यो जावतालपर्यायः, स च त्रिधापकभधिको, बद्धाऽऽयुप्का, अभिमुखनामगोत्रश्च । तत्रैकभवि
०१.१०० उ० को नाम-यो विवक्षितभवानन्तरं तात्वेनोत्पत्स्यते। बजाऽऽयु
तानमाण-तासमान-खी । तासमानपरिज्ञानाऽऽत्मके कासनेको-येन तालोत्पत्तिमायोग्यमायुःकर्म बद्धम् । अनिमुखनामगो
। दे, कप० ७ क्षण ।
दें, कटप०७ वः पुनः-विपाकोदयाभिमुखतालसंबन्धिनामगोत्रकर्मा ताल-तासमूलय-तालमूलक-ना तालमूनाकार मधः त्वेनोस्पित्सया विवक्तितजीवप्रदेशः । यद्वा-द्रव्यतालो द्विविः च सूक्मे लयने, कल्प० । कण। धः-मूलगुणनिवर्तितः, उत्तरगुणनिवतितश्च । तत्र स्वायुषः तालनिएट-तालवृन्त-न।"वृन्त एटः ॥" परिक्षयादपगतजीवो यः स्कन्धाऽऽदिरूपस्तालः स मूलगुणनि
म्तस्य एटः । प्रा०२ पाद । व्यजने, प्राचा०१भु १५०७ वर्तितः । यस्तु काष्ठचित्रकर्माऽऽदिवाक्षित्रितः स उत्तरगुण
उ०। अणु.दश। द्विपुटाऽऽदिव्यजने,प्रश्न०१भाश्रद्वार। निवर्तितः । एष द्रव्यतालः ।
दश।ज्ञामयूरपिचकृतव्यजने, भाचा. २ श्रु० १०१ सम्प्रति भावतालमाह
म०७०। भावम्मि होति जीवा, जे तस्स परिग्गहे समक्खाया। तानसंवड-तालमपुट-पुं० । पवनेरितशुष्कतानपत्रसंचये, सू. बीओ वि य आदेमो, जो नरस वि जाणो पुरिसो॥ १७.५ म. उ.।
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तालसम
सालसम-तालसम-न० । यत्परस्पराऽऽहत हस्ततालस्वरानुवृ तिर्भवति तत्तावसमम् । स्वरभेदे, स्था० ७ ० तालहल- - देशी शाल्या. दे० ना० ५ वर्ग ७ गाथा । ताला - तढ़ा-अव्य० । "डर्मा हे मात्रा इआ काले " ॥ ८ । ३ । ६५ ॥ इति तात्कालेऽभिधेये डे: स्थाने आहे आता इति मिती, इभा इति च श्रादेशा वा जवन्ति । तस्मिन् काले, प्रा०३ पाद | लाजेषु दे० ना० ५ वर्ग १० गाथा । ताझायर-तालाचर- - त्रि० । तालैर्वाद्यविशेषैश्वरन्तीति तालाचशः। (दोघेत्वं प्राकृतत्वात् नि० ० १५० ताला प्रेाकारिणे, औ० । प्रश्न० | जं० । विपा० । ज्ञा० । प्रज्ञा० । नटनर्तकाऽऽदिषु वृ० ३ ० । तामापरकम्प वामाचरकर्म-२० प्रेककर्मविशेषेा० १ श्रु० १३ श्र० ।
।
वालि भए भ्रमिम् िसमेण्टमा मौ” ॥ ८ । ४ । ३० ॥ इति भ्रमतेपर्यन्तस्य 'तालिएट' इत्या देशः । भ्रमतां प्रेरणे, प्रा० ४ पाद ।
तालवृन्त पुं० । व्यजने श्रचा० १ ० १ अ० ७ उ० । सालित तायमान- चिपेाऽऽदिनिः पीयमाने का० १ श्रु० १६ श्र० ।
वासित तापमान त्रि० चपेटाऽऽदिभिः पीयमाने आা• न्यू० १ उ० ।
ताक्षिय तालिक • वाले करतलेन निर्वृतः उक । चपेटे वाच० ।
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तामित त्रि० आहते, प्रश्न० ३ श्राश्र० द्वार |
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( २२३० ) अभिधान राजेन्द्र
तानी - ताली - स्त्री० । वाद्यभेदे, श्र० चू० १ अ० । तालेन तनिर्यासेन निर्वृत्ता-अण् । (तामी ) तालजातसुरायाम्, तल - एयन्तात् श्रच् । गौरा० ङीष् । वृकभेदे, तालमूल्याम्, आढक्याम्, वासीशपत्रास वृके, तालको दनयन्त्रे कु चिकायां च । ताम्रबल्ल्याम्, त्र्यकरपादके छन्दोभेदे च
वाच० ।
1
साबुसान सरस्यनेन व रस्य सः जि हेन्द्रियाधिष्ठाने स्थानभेदे, वाच० । प्रज्ञा० | ज्ञाo | तालुग्घामणी - तालोद्घाटनी - स्त्री० । तालोदूघाटनका रिकायां विद्यायाम, सूत्र० २ श्रु० २ अ० । साधुजिम्म ताबुजिह पुंसा पत्र जिला यस्य । कुम्भीरे, तस्य जिह्वाशून्यत्वेऽपि तालुनैव रसाऽऽस्वादनात् । बर्ग २१ गाथा । तात्र - तावत् - अव्य० । तत्परिमाणमस्य । त्रिo | " अन्त्य व्यञ्जनस्य” ||३|१| ११ ॥ इत्यन्त्यव्यञ्जनस्य तकारस्य लोपः । प्रा० १ पाद । प्रस्तुतार्थप्रदर्शके, आ० म०१ भ० २ खण्ड | अचू० सू० साकल्ये, अवधी, माने अचार सायास पापभूषणे उद्देश्य व "भ
वाच० । प्रश्न० ।
1
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वालुर देशी फैने
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तावक्रखेत
कथकैशिकानाम " इति रघुः सत्परिमाणयति, त्रि० खिया ङीप् । तावती । वाच० ।
66
ताप पुं० | तप घञ् । संतापे, वान्र० । दुःखे, श्राव० ४ श्र० । सूर्याणामेव तापः, चन्द्रस्य तु प्रजासः । चत्तारि सूरिया तविसु वातयंति वा, तविस्संति वा । चसारि चंदा पभासिसु वा, पभासिति वा, पभासिस्संति वा" इत्यवभासस्य पार्थक्ये • नोक्तः । स्था० ४ ० २० ।
तावय- तावत्क-1 5-त्रि तत्परिमाणवति, २०१८०४ ४० ॥ श्र०म० तावचण - तावचण - पुं० तावति काले, ज० १५ श० । तायक्वेत-तापक्ष १० | तपनं तापः सूर्यकिरणस्पर्शजनितः प्रकाशात्मकः परितापः, तदुपलकितं क्षेत्रं ताप क्षेत्रम् । धमोंपलकित केत्रे, प्रा० म० १ २०२ खरम मएम० ।
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सम्प्रति तापक्त्रसंस्थितिमभिधातुकामः प्रथमतस्तद्विषयं प्रश्नसूत्रमाद
सा कहते क्लेशसंनिती आहिता निवदेना है। तरब खलु इमाओ सोलस पवित्तीय पत्ताओ । तत्थ एंगे एवमाता गेहसंठिया सायक्लेत्तमंत्रित पहाता, एगे एवमासु । १ । एवं० जाव बालग्गपोत्तियासंठिया तापसंती पणा 1 एगे पुण एवमामुजस्संठिते जंबुद्दीवे दीवे तस्संठिते तावक्खेत्तसंविती पसत्ता, एगे एमाए। एमा-तानस्सं ठिए भारदे वासे तस्संविता तावखेत्त संविती पएलता, एगे एमा १० एवं संक्रिया | ११ निजाणसंजिता । १२ । एगो सिइति । १३ तो सिहविता | १४ | सेगसंविता, एगे एवमाहंसु | १५ | एगे पु एवमाहंसु-ता से गपिडसंगिता तावक्रखेत्तसंवितीपत्ता, एगे एवमाहं | १६ | वयं पुण एवं वदामो-ता उदीमुहकलंबआपुण्कसंडितासात जिती पता तो संकुमा वाहि
त्या तो यहाा पिझा तो अंकमा बाहि सत्थिमुहसंठिता । उभतो पासेणं तीसे दुवे वाहाओ अवता प्रभवंति पणती पणवालीसंजोयणसहस्माई आयामेणं दुबे व सीसे बाहाओ अणवताओ जति तं जहा सतरावा सव्यबाहिरिया चैव वाहा त्य को हेतू ति वदेज्जा ! । ता अयं णं जंबुद्दीचे दीवे० जाव परिक्खेजया सूरिए समंतमंजनसंकमिताचारं चरति तथा कफसंठित तावकखेतसंविती आहिता ति वदेज्जा । तो संकुमा बाहिं वित्थमा, तो वहा माहिं पिधुला तो अंकमुता बाहि सत्यमुनिया तो पासे सांसे सब जावसव्यबाहिरिया बाहर सीसे सम्वन्तरिया बाहा मेंदरपण्ययेते णं व जोयएसस्साई बचारि व उलसी जोयसता एव य दसजागे जोयणस्स परिक्रखेत्रेणं आ
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(२२३१) तावक्षेत्त अभिधानराजेन्द्रः ।
तविक्खेत हिना ति वदेज्जा। ता से ण परिक्खेवविसेसे कुतो पाहि- एवमासु ११॥" अत्र उद्यानस्येव संस्थित संस्थान यस्याः सा ता ति वदेजा। ता जे णं मंदरस्स पव्वयस्स परिक्खेवेणं | तथेति विग्रहः ११। (निज्जायासंग्यि ति) निर्यागj पुरस्य तं परिक्खेवं तिहि गुणित्ता दसहिं वेत्ता दसहिं भागोहिं
निर्गमनमार्गः तस्येव संस्थितं संस्थानं यस्याः सा तथा। अप
रेषामभिप्रायेण वक्तव्या । सा चैवम्-"पगे पुण एवमासुहीरमाणे, एस णं परिक्खेवविसेसे आहिता ति वदेज्जा ।
निज्जाणसंठिया ताबक्खेत्तसंविई पमत्ता,एगे एवमासु १२॥" तीसे णं सम्बबाहिरिया बाहा लवणसमुईतेणं चउणन- (पगतो मिसहसंग्यि ति) एकतो रथस्य एकस्मिन् पावं तिं जोयणसहस्साई अह य अडसट्टे जोयणसते चत्तारि य
यो नितरां सहते स्कन्धे पृष्ठे वा समारोपित जारमिति निषदो दसभागे जायणस्स परिक्खेवेणं आहिता ति वदेजा। ता
बसीबर्दः,तस्येव संस्थितं संस्थानं यस्याः सा एकतो निषहस
स्थिता। अपरेषामनिप्रायेण वक्तव्या । सा चैवम-"एगे पुण एस णं परिक्खेवविसेसे कुतो आहिता ति वदेजा। ता जे णं
एवमासु-गतो मिसहसठिया तावक्खेत्तसंविई पाससा, पगे जबुद्दीवस्म दविस्स परिक्खेवे, तं परिक्खेवं तिहिं गुणित्ता एवमासु १३।" (उहतो निसहसंठिय ति) अपरेषामभिदसहिं वेत्ता दमहिं भागेहिं हीरमाणे,एस एणं परिक्खेवविसेमे प्रायनोभयतो निषहसंस्थिता वक्तव्या, उभयतो रथम्योन्नयोः अाहिता ति वदेजा। तीसे णं तावक्खेत्ते कतियं आयामणं
पार्श्वे यो निषही बलीवर्दी, तयोरिब सस्थित संस्थामं यस्याः
सा तथा । साचैवं वक्तव्या-"एगे पुण एवमासु-दुहरो निस. आहितेति वदेजा। ता अत्तरि जोयणसहस्साई तिमि य |
हसचिया तावक्खेत्तसंठिई पन्नता, एगे एवमासु १४।" जोयणसए तेत्तीसे जोयणतिनागे च आयामेणं आहितेति |
(सेणगीठय त्ति) श्येनकस्येव संस्थितं संस्थानं यस्याः सा वदेजा।
तथा, अपरेषामभिप्रायेणाभिधातव्या । सा चैवम्-" एगे पुण
एघमासु-सेणगसंठिया तावक्खेत्तसंठिई पसत्ता, पगे एवमा. ( ता कहं ते इत्यादि ) 'सा' शति पूर्ववत् । कथं भगवन !
हंसु १५॥" (पगे पुण इत्यादि) एके पुनरेवमाहुः-श्येमकपृष्ठस्येष त्वया तापकेत्रसंस्थितिराख्याता इति भगवान् वदत् । एवमुक्त
संस्थितं संस्थानं यस्याः सा तथा तापत्रसस्थितिः प्रहप्ता । जगवानेतद्विषये यावत्यः परतीथिकानां प्रतिपत्तया, तायतीरुप.
भोपसंहारमाह-(एगे एवमासु १६)। तदेवमुक्ताः पोमशादर्शयति-(तत्थेत्यादि) तत्र तस्यां तापक्षेत्रसस्थिती विषये ख.
ऽपि प्रतिपत्तयः,पताश्च सर्वा अपि मिथ्यारूपाः,अत एता ब्युदस्य ल्विमाः षोडश प्रतिपत्तयः परतीथिकान्युपगमरूपाः प्राप्ताः ।
भगवान् स्वमतं भिन्नमुपदर्शयति-(वयं पुण इत्यादि) वयं पुनतद्यथा-तत्र तेषां षोमशानां परतीथिकानांमध्ये एके एवमाहुः |
रुत्पन्न केवलज्ञानाः केवलज्ञानेम यथाऽवस्थितं वस्तूपलभ्य, एवं (गेहसंठिय त्ति) गेहस्यवे वास्तुविधाप्रसिगृहस्येव सखितं
वक्ष्यमाणप्रकारेण बदामः। तमेव प्रकारमाह-(उद्धीमुद्देस्यादि) संस्थानं यस्याः सा तथा तापक्केत्रसंस्थितिः प्रकप्ता । अत्रैवोपसं.
ऊर्द्धमुखकलम्बुकापुष्पसंस्थिता कर्द्धमुखस्य कसम्बुकापुष्प. हारमाह-(एगे एचमाहंसुशएवं जाव बालग्गपोत्तियासंग्यिा |
स्येव नालिकापुष्पस्येव संस्थितं संस्थानं यस्याः सा तथा, तावक्खेत्तसंठि पन्नत्ता इति) पवमनन्तरोक्तन प्रकारेण, च.
तापक्षेत्रसस्थितिः प्राप्ता, मया शेषैश्च तीर्थकृन्निः । सा कथं सूर्यसंस्थितिगतेन प्रकारेणेत्यर्थः । गृहसंस्थिताया ऊर्द्ध |
भूतेत्यत पाह-अन्तर्मेदिशि संकुचा संकुचिता, बहिसवणतावक्तव्यं यावद् बालाप्रपोत्तिकासंस्थिता प्राप्ता इति । तश्चै
समुपदिशि विस्तृता । तथा अन्तर्भरुदिशि वृत्ता वृत्तावना वम्-" एगे पुण एवमाईसु-गेहावणसठिया तावक्खित्तसंविई
याऽऽकारा,सर्वतो वृत्तमेरुगतान् त्रीन द्वौ वा दशनागानभिभ्या. पम्मत्ता, पगे एवमासु ।२। एगे पुण एवमाइंसु-पासायसं.
प्य तस्या व्यवस्थितत्वात् , बहिसवणदिशि पृपुला मुत्कलना. ठिया तावनेत्तसंविई पन्नत्ता, एगे एवमासु ।३। एगे पुण ए.
वेन विस्तारमुपगता । पतदेव संस्थानकथनेन स्पष्ट स्पष्टयति. बमासु-गोपुरसंठिया तायक्लेत्तसंठिई पन्नत्ता, पगे पवमाहं.
(अंतो अंकमुहसंठिया बाहिं सस्थिमुहसंग्यि ति) अन्तमरुसा४। एगे पुण पषमाइंसु-पिच्छाघरसंधिया तावक्रेत्तसंठिई
दिशि अ: पद्मासनोपविष्टस्योत्सनरूप बासनयन्धः, तस्य पन्नत्ता, पगे पवमासु।५। एगे पुण एवमाहंसु-वलभीसंग्यिा
मुखमग्रभागोऽईबलयाऽऽकारस्तस्येव संस्थितं संस्थानं यस्याः तावनेत्तसंचिई पन्नत्ता, एगे एबमासु।६। पगे पुण एवमासुदम्मियतलसंग्यिा तायक्वेत्तसंचिई पन्नता, एगे पवमासु ७५
सा तथा । बदिलवणदिशि स्वस्तिकमुखसंस्थिता । स्वस्तिका
सुप्रतीतः, तस्य मुखमप्रभागा, तस्येवातिविस्तीर्णतया संस्थित पगे पुण एवमासु-बासम्गपोत्तियासंग्यिा तावक्खेतसठिई
संस्थानं यस्याः सा तथा । (उनो पासेणं ति) उन्नयपावन पन्नता,एगे एवमासु"अत्र सर्ववपि पदेषु विप्रहभावना
मेरुपर्वतस्योभयोः पार्श्वयोस्तस्यास्तापत्रसंस्थिते सूर्यभेदन प्रागिव कर्तव्या। (एगे पुण इत्यादि) एके पुनरवमाहुः-(अ
द्विधा व्यवस्थितायाः प्रत्येक कैकभावेन ये द्वे बाहे,ते मायामेन संचिए ति) यत्संस्थितं संस्थानं यस्य स यत्संस्थितो जम्बद्धीपो द्वीपस्ततसंस्थिता तदेव जम्बूद्वीपगतसंस्थितं संस्थान य
जम्बूद्वीपगतमायाममाश्रित्यावस्थिते भवतः। साचैकैका आयास्याः सा तथा तापक्षेत्रसंस्थितिः प्रप्ता । अत्रोपसंहार:-(पगे
मतःकिं प्रमाणा,श्त्याह-पञ्चचत्वारिंशत् पञ्चचत्वारिंशत् यो. एवमासु ) ( एगे पुण एवमाहंसु) एके पुनरवमा
जनसहस्राणि ४५... तस्यास्तापक्केत्रसंस्थितेरेकैकस्या देव हु:-यत्संस्थितं भारत वर्षे तस्संस्थिता तापक्षेत्रसंस्थितिः
बाहे अनवस्थितेजवतः । तद्यथा-सर्वाभ्यन्तरा, सर्वबाह्या घ। प्रहप्ता । भत्र विग्रहभावना प्रागिव वेदितव्या । अत्रोपसंहारः
तत्र या मेरुसमीपे विष्कम्भमधिकृत्य बाहा सा सर्वात्यन्त( एगे पवमासु १०) एवमुक्तेन प्रकारेण उद्यामसंस्थिता
रा, या तु लवणदिशि जम्बूदीपपर्यन्ते विष्कम्भमधिकृत्य बातापत्रसंस्थितिरपरेषामभिप्रायेण वक्तव्या । सा चैवम्-"एगे हा सा सर्वबाह्या । प्रायामश्च दक्षिणोत्तराऽऽयततया प्रतिपत्तपुण एवमासु--जाणसंठिया ताव विखससंठिी पता, पगे। व्यो,विष्कम्भः पूर्वापराऽऽयततया एवमुक्केसतिनगवान् गौतमः
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(२२३३) तावक्खेत्त अभिधानराजेन्धः।
वक्खेत स्वशिष्याणां स्पष्टावबोधनार्थ भूयः पृच्चति-(तत्थेत्यादि)। यो जम्बूद्वीपस्य परिकेपपरिरयो गणितप्रसिद्धः, परिक्षेपंत्रितत्र तस्यामेवंविधायामनन्तरोदितायां वस्तुव्यवस्थायां को भिर्गुणयित्वा तदनन्तरं दशभिश्विरवा दशनिर्विभज्य; अत्रार्थे हेतुः का उपपत्तिरिति भगवान बदेत । एवमुक्त भगवानाह- कारण प्रागुक्तमेवानुसरणीयम् । दशमिर्भागे हियमाणे यथोक्तं (ता भयं णमित्यादि) इदं जम्बूमीपवाक्यं पूर्ववत् परिपूर्ण जम्बूद्वीपपर्यन्ते तापकेत्रपरिमाणमागच्छति । तथाहि-जम्बूद्वीस्वयं परिभावनीयम् । (ता जया णमित्यादि ) तत्र यदा सूर्यः पस्य परिक्वेपस्त्रीणि नकाणि, पोमश सहस्राणि, वे शते, सप्तर्विसर्वाभ्यन्तरमण्डलमुपसंक्रम्य चारं चरति,तदा "उझीमुहकलं- शत्यधिके ३१६२२७, त्रीणि गव्यूतानि ३ अष्टाविंशं धनुःशत वुयापुष्फ" इत्यादि प्राग्व व्याख्येयम्। यावत्सर्वाभ्यन्तरा बाहा, १२७, त्रयोदश अङ्गलानि१३ एकमाङ्गलम्', एतावता च योसर्वबाह्या च बाहा । (तीसे णमित्यादि ) तस्यास्तापक जनमेकं किस किश्चिन् न्यूनमिति व्यवहारः, तत् परिपूर्ण विवत्रसंस्थितेः सर्वाभ्यन्तरा बाहा मेरुपर्वतान्ते मेरुपर्वतसमीपे, क्ष्यते, ततो द्वेशते अष्टाविंशत्यधिके बेदितव्ये ३१६२२८, एतत सा च परिक्षेपेण मन्दरपरिक्षेपगततया नव योजपसहस्राणि त्रिनिगुण्यते,जातानि नब सवाणि,अष्टाचत्वारिंशत्सहस्राणि,पट चत्वारि योजनशतानि षमशीतानि षशीत्यधिकानि नव च शतानि चतुरशात्यधिकामि४८६७४ाएतेषां दशभिनागोहियते, दश भागा योजनस्य ६४८६पाख्याता मया इति वदेत् । लन्धं यथोक्तं जम्बूजीपपर्यन्ते सर्वबाह्याया बाहाया विष्कम्भपएवमुक्त भगवान् गौतमः प्रश्नयति-(ता से णमित्यादि) 'ता' रिमाणम्। तत (एस पमित्यादि) एष एतावाननन्तरोदितप्रमाणः इति प्राग्वत् । स तापक्षेत्र संसिते. परिकेपविशेषो मन्दरप- परिकेपविशेषो जम्बूद्वीपपरिरयपरिकेपविशेषस्तापत्रसंस्थिरिरयपरिकेपेण विशेषः कुतः कस्मात्कारणादेवंप्रमाण प्रा. तेराख्यात इति वदेत् । उक्तं चैतदन्यत्रापि-"जंदीवपरिरए, स्यातः, नोनोऽधिको वेति वदेत् ? । भगवानाह-(ता जे णमि- तिगुणे दसभाइयम्मि जं सद्धं । तं होह तावखित, भम्भितरत्यादि)'ता' इति पूर्ववत् । यो,णमिति वाक्यालकारे। मन्दरस्य ममते रषिणो" ॥ १॥ तदेवं जम्बूद्वीपे तापक्षेत्रसंस्थितेः मेरोः पर्वतस्य परिकेपपरिरयो गणितप्रसिः , तं परिक्षेपं त्रि. सर्वाभ्यन्तरायाः सर्वयाह्यायाश्च पाहाया विष्कम्भपरिमाणमु. भिर्गुणयित्वा तदनन्तरं च दशभिश्विा विनय । अथ कस्मा. तम् । सम्प्रति सामस्त्येनाऽऽयामतस्तापक्षेत्रपरिमाणं जिज्ञासुदेवं क्रियत इति चेपुच्यते-इह सर्वाभ्यन्तरे मामले वर्तमानः स्तद्विषयं प्रश्नसूत्रमाह--(ता से णमित्यादि) 'ता' इति पूर्ववत् । सूर्यो जम्बूद्वीपमतस्य चक्रवालस्य यत्र तत्र प्रदेशे तत्तचक्रवा- तापक्षेत्रमायामतः सामस्त्यन दक्विणोत्तराऽऽयततया कियत्किलकेनप्रमाणानुमारेण त्रीन् दशभागान् प्रकाशयति । एतच्च प्रा. प्रमाणमाख्यातम, शति वदेत ?। भगवानाह-( ता अटुत्तरिमिगेवोक्तम् । सम्प्रति च मन्दरसमीपे तापकत्रे चिन्ता क्रियमाणा त्यादि)'ता' इति पूर्ववत्, अष्टसप्ततियोजनसहस्राणि त्रीणि योवर्तते, ततो मन्दरपरिरयसुखावयोधार्थ प्रथमतस्त्रिभिर्गुण्यते, जनशतानि त्रिशानि प्रयस्त्रिंशदधिकानि योजनत्रिभागं च गुणयित्वा च दशभिविभज्यत इति, दशभिश्च भागाइयमाणे यावत् आयामेन दक्किणोत्तराऽऽयततया भाज्यामिति वदत् । यथोक्तं मन्दरसमीपे तापक्षेत्रपरिमाणमागच्चति । तथादि-म. तथाहि सर्वाभ्यन्तरे मामले वर्तमानस्य सूर्यस्य तापक्षेत्र न्दरपर्वतस्प विष्कम्भो दशसहस्राणि १००००। तेषां वर्गो दश दक्षिणोत्तराऽऽयततया मेरोरारभ्य तावद्वते यावखवणसमु. कोट्यः १०००००००० । तासां दशनिर्गुणने कोटिशतम्- स्य षष्ठो नागः। उक्तं च१०००००००००। अस्य वर्गमूलानयने लब्धानि एकत्रिंशत्सह
"मेरुस्स मऊभागा, जाव लवणसमुहस्स छन्भागो। स्राणि षट्शतानि किश्चिन्यूनत्रयोविंशत्यधिकानि, परं व्यवहारतः परिपूर्णानि विवक्ष्यन्ते ३१६२३ । एष राशिस्त्रिभिगुएयते,
तावाऽऽयामो एसो, सगडुसीसंगियो नियमा ॥१॥" जातानि चतुर्नवतिसहस्राणि अपौ शतानि एकोनसप्तस्यधि.
श्रत्र-(पसोश्त्यादि) एप तापो नियमान् शकटोसं. कानि NG६९ पतेषां दशभिभागदारे लब्धानि नव योजनसह
स्थितम, शेषं सुगमम् । तत्र मेरोरारभ्य जम्बूद्वीपपर्यन्ते स्राणि चत्वारि शतानि पमशीत्यधिकानि नव च दश भागा यावत् पश्चचत्वारिंशद्योजनसहस्राणि लवणस्य विस्तारो द्वे योजनस्य; तत एष पतावाननन्तरोदितप्रमाणः परिकेपविशेषो
योजनलते तयोः पष्ठो भागस्त्रयस्त्रिंशद्योजनसहस्राणि त्रीणि मन्दरपरिरयपरिकेपविशेषस्तापत्तेत्रसंस्थितेराव्यात इति वदे
योजनशतानि, त्रयस्त्रिंशदधिकानि योजनस्य च त्रिभागः, स्वशिध्येभ्यः। अयं चार्थोऽन्यत्राप्युक्तः-"मन्दरपरिरयरासी,
तत उन्नयमीलने यथोक्तमायामप्रमाणं भवति । इह सर्वातिगुणो दसभाश्यम्मि ज बद्धं । तं होश तावनेतं, अभितर- भ्यन्तरे मण्डले वर्तमानस्य सूर्यस्य लेश्या मभ्यम्तरं प्रविशति, मंझने रविणो॥१॥" तदेवं सर्वाभ्यन्तरे मएमसे वर्तमाने मेरुणा प्रतिस्त्रव्यते, यदि पुनर्न प्रतिस्वल्यते, ततो मेरो सबैख्र्ये मन्दरसमीपे तापवेत्रसंस्थितिः सर्वाभ्यन्तरवाहाविष्कम्भ- मध्यभागगतं प्रदेशमबधीकृत्याऽऽयामतो जम्बूद्वीपस्य पञ्चाशत परिमाणमुक्तम। इदानीं लवणसमुफदिशि जम्बूद्वीपपर्यन्तेयास
योजनसहस्राणि प्रकाशयेत् । अत एवेत्थं जम्बूद्वीपस्य पशाश. बाह्या बादा, तस्या विष्कम्जपरिमाणमाह-(तीसे णमित्या- तं योजनसहमालि प्रकाश्यानि संजायन्ते, सर्वाभ्यन्तरोपि दि) तस्यास्तापक्षेत्रसंस्थितेलवणसमुद्रान्ते बघणसमुद्रसमीपे
मरामले वर्तमाने सूर्य तापत्रस्याऽऽयामप्रमाणं ज्योतिषकरपमसर्वचाह्या बाहा सा परिक्षेपेण जम्बूद्वीपपरिग्यपरिकेपेण चतु
कमूसटीकायां श्रीपादलिप्तसरिभिः यशीतियोजमसहस्राणि भवतियोजनसहस्राणि अशीच अष्टपटवधिकानि योजनशता
त्रीणि शतानि प्रयखिशदधिकानि योजनस्य च त्रिभाग इत्युक्तनि चतुरश्चरशभागान् योजनस्य ९४०६७ याबदाख्याता म् । युक्तं चैतत्संनावनया तापक्केत्राऽऽयामपरिमाणम्, अन्यथा इति वदेत् । भत्रैव स्पष्टावबोधनाय प्रश्नं करोति--(ता एस जम्बूद्वीपमध्ये तापकेत्रस्य पञ्चचत्वारिंशत्सहस्रपरिमाणान्युप. पमित्यादि)'ता' ति पूर्ववत् ।स एतावान् परिक्षेपविशेषस्ता- गमे यथा सूर्यो बहिर्निकामति तथा तत्प्रतिबद्धं तापक्षेत्र. पक्षेत्रसंस्थितेः कुतः कस्मात् कारणादाख्यातः, नोमोऽधिको मपि, ततो यदा सूर्यः सर्वबाह्यं मामलमुपसंक्रम्य चारं चबोत बदेत। भगवानाह-(ता जे एमित्यादि)'ता'इति पूर्ववत।। रति, तदा सर्वथा मन्दरसमीपे प्रकाशो न प्रानोति । अथ च
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(१२३३) तावक्खेत भनिधानराजेन्द्रः।
तावसुद्धि तदापितत्र मन्दरपरिरयपरिक्षण विशेषपरिमाणमग्रे वक्ष्यते,
यत्र शास्त्रे द्रव्यरूपतयाऽप्रच्युतानुत्पन्नः, पर्यायाऽऽस्मकतस्मात्पादसिप्तमूरिव्याख्यानमप्यभ्युपगन्तव्यमिति।तदेवं सर्वा. तया च प्रतिक्षणमपरापरस्वभावाऽऽस्कन्दनेनाऽनित्य स्वभावो ज्यन्तरमएकलमधिकृत्य तापकत्रसंस्थितिरुक्ता । सू. प्र०४ जीवाऽऽदिरवस्थाप्यते स्यात्तत्र तापशुकिः । यतः परिणामिन्योपाहु०। च० प्र०। (भत्र 'अंधकार' शब्दः प्रथम जागे १०५ वाऽऽत्माऽऽदौ तथाविधा शुरूपर्यायनिरोधेन ध्यानाध्ययनाऽऽद्य. पृष्ठे वीक्ष्यः)
परशुद्धपर्यायप्रार्भावादुक्तलकणः कषो, बाह्यचेपाशुसिलकजंबुद्दीवेणं दीवे सूरिया केति खेत्तं उसूं तवंति, णश्च छेद उपपद्यते, न पुनरन्यथेति । ध०१ अधि० । केवतिअं खेतं अहे तवंति, केवतिअं खेत्तं तिरिअं तवं
इहैव तापविधिमाहति। ता जंबुद्दीचे णं दीवे मूरिया एग जोयणसतं नई त.
जीवाऽऽइजाववाओ, जो दिहेष्वाहि पो खलु विरुष्को । वंति, अट्ठारस जोयणमताई अधे प तवंति, सीतासीसं जो.
बंधाऽऽइसाहगो तह, एत्य इमो होइ तावो त्ति ॥ ७० ॥ यणसहस्साई दुन्नि य जोयणसते तिस? एगवीसं च स
जीवाऽदिभाववादो जीवाजीवाऽऽदिपदार्थवादः,यः कश्चिद्र.
टेष्टाभ्यां वक्ष्यमाणाज्यां, न खलु विरुकः, अपितु युक्त एव. ब. हिजागे जोयणस्स तिरियं तवंति॥
धाऽऽदिसाधकस्तथा निरुपचरितबन्धमोत्तव्यञ्जकः, अत्र श्रुत(ता जंबुद्दीवे णमित्यादि ) 'ता' इति पूर्ववत्। जम्बूद्वीपे कि
धर्मे एप जवति ताप इति गाथाऽर्थः ॥८॥ यत्प्रमाणं के सूर्यावूर्द्ध तापयतः प्रकाशयतः।कियकत्रमधः, कियत्तेत्र तिर्यग , पूर्वजागे अपरभागे चेत्यर्थः । भगवानाह
एएण जो विमुच्छो, सो खलु तावेण हो सुको ति। (ता इत्यादि) 'ता' इति पूर्ववत् । जम्बूटीपे द्वीपे सूयौं प्रत्येक
एएणं चामुच्छो, सेसेहि वि तारिसो नभो ।। १ ।। स्वविमानार्द्धमक योजनशतं तापयतः प्रकाशयतः । मध
एतेन जीवाऽऽदिभावधादेन यो विशुकः स खलु तापेन भवति स्तापयतोऽदशयोजनशतानि। पतधो लौकिकामापेक्षया शुद्धः स पर नान्य इति । एतेन चाशुद्धः सन् शेषयोरपि कद्रष्टव्यमातथाहि-अधोलौकिकग्रामाः समतल भूभागावधीकृत्या
पच्छेदयोस्तादृशो केयः, न तवतःशुरू इति गाथाऽर्थः॥ १॥ धो योजनसहनेण व्यवस्थिता,तत्रापि सूर्यप्रकाशःप्रसरति,ततः
हैवोदाहरणमाहसमतल जूनागस्याधो योजनसहनं, तदूर्द्धं चाष्टौ योजनशता- संतासंते जीवे, णिचाणिञ्चायणेगधम्मे भ । नीत्युनयमीलने मष्टादश योजनशतानि । तिर्यक् स्वविमानात्पू. जह मुहबंधाईया, जुज्जति न अमहा नियमा ।। ७॥ नागे अपरभागे च प्रत्येक तापयतः सप्तचत्वारिंशद्योजन
सदसपे जीवे स्वरूपपररूपाभ्यां नित्यामित्याऽऽधनेकधर्मिणि सहस्राणि, द्वे योजनशते, त्रिवष्टे त्रिषष्ट्यधिके, एवविंशति च
च द्रव्यपर्यायाभिधेयपरिणामाऽऽद्यपकंया यथा सुखबन्धाऽऽदय: पष्टिनागान् योजनस्प ४७२६३२१ । सू०प्र०४ पाहु ।
सुखाऽऽदयोग्नुभूयमानरूपा बन्धाऽऽदयोऽभ्युपगताः युज्यन्ते तारखेचदिसा-तापक्षेत्रदिशा-स्त्री० । तपनं तापः सूर्यकिरण
घटन्ते नान्यथाऽन्येन प्रकारेण नियमाद युज्यन्त इति गाथा:स्पर्शजनितः प्रकाशाऽऽत्मकः परितापः,तदुपत्नकितं क्षेत्रं तापक्के- थेः ॥ २ ॥ नं, तदेव दिकाभथवा-तापयतीति तापः सविता, तदनुसारेण
एतदेषाऽऽहकेत्राऽऽस्मिका दिक तापक्षेत्रदिक । भा० म. १ अ० ५ वराम । विशे । तापः सविता,तपनकिता दिक तापक्षेत्रदिक। पूर्वाभि
संतस्स सरूवणं, पररूवेणं तहा असंतस्स । धानायां दिशि, सा चानियता। यत उकम्-“जेसि जत्तो सू.
हंदि विसिहित्तणो, होति विसिट्ठा मुहाई॥७३॥ रो, उदे तेर्मि तई दवा पुल्वा । तावक्रेत्तदिमाओ. पयादिर्ण सतो विद्यमानस्य स्वरूपेणाऽऽत्मनियतेन, पररूपेणान्यान्यस. सेसयाम्रो सा"॥१॥ इति । स्था० ३ ०२०।
बन्धिना तथा असतः स्वरूपेणैवाविद्यमानस्य, न च स्वसवमेतावण-तापन-न० । भम्निना हस्तपादाऽऽदीनामुष्पीकरणे, घान्यासरवम् अभिन्न निमित्तत्वे सदसवयोर्विरोधात् । तथाहिनि. चू०१०।
सवमेवासमिति व्याहतम् ।नत्र तत्तत्रास्ति, स्वसवासव. तावणिज-तापनीय-त्रि.। तापसहे. भ०१५श।
घदसचे तत्सवप्रसङ्गादिति पररूपासवधर्मकं स्वरूपतावदिसा-तापदिशा-स्त्री० । तापयतीति ताप आदित्यः, त- सय विशिषं भवति,अन्यथा वैशिष्टपायोगात,तदाहन्दि विशिष्टदाश्रिता दिकतापदिकासूर्यतापितायां दिशि,मएम-प्राचा०।
स्वातदुक्तेन प्रकारेण भवन्ति विशिष्टाः स्वयं घेचा सुखाऽऽदया, तावस-तापस-पुं० । तापोऽस्यास्तीति तापसः । दश० २१०।
प्रादिशब्दाद् पुःखबन्धाऽऽदिपरिग्रह इति गाथाऽर्थः ॥ ३॥
विक्षेपे बाधामादतापप्रधामस्तापसः। दश०१०प्र० । सतपस्के वनवासिनि पा
इहरा सत्तापित्ता-जावो कह विसिट्ठया तोस । खपिडविशेष, दर्श• तव । .।पि० । अनु० । आचा। भ्रमणभेदे, स्था०५ ग०३०माउरगोत्रस्याऽर्यशान्तिश्रे.
तयभावम्मि तयत्थे, हंत पयत्तो महामोहो॥४॥ णिकस्य शिध्ये, कल्प०० कण ।
इतरथा यथा स्वरूपेण सत्तथा पररूपेणाऽपि भावे,सत्तामातावसावसह-तापसावसथ-- । तापसमभ०११ श०६701 पाऽऽदिजावात्,आदिशब्दाइसवमात्रग्रह इति । कथं विशिष्टता
प्रत्यत्मवेद्यतया तेषां सुखाऽऽदीनां तदभावे विशिष्टसुखाऽऽध. नावमुछि-तापशुद्धि-स्त्री० । विधिप्रतिषेधतद्विषयाणां जीवा
जाय तदर्थों विशिष्सुखाऽऽद्यों, हन्त प्रयत्नः क्रियाविशेषो, दिपदार्थानां च स्याद्वादपरीकया याथात्म्येन समर्थने तापशु
महामोहोऽसंभवप्रवृत्येति गाथाऽयः ॥४॥ किभेदे, ध०।"उभयनिबन्धनभाववादस्तापः" इति । उभयोः
निच्चो वेगसहावो,सहावजयम्मि कह णु सो मुक्खे । कपच्छेदयोरनन्तरमेघोक्तरूपयोर्निबन्धनं परिणामि । किमित्याह-तापोऽत्र भुतधर्मपरीक्षाऽधिकार, दमुक्तं भवति। तस्मुच्च्यनिमित्तं, असंनवामो पयहिजा ॥८॥
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तावसुधि अन्निधानराजेन्धः।
तावसुद्धि नित्योऽप्येकवनावः स्थिरतया,स्वभावभूते आत्मभूते,
क सौ नचनानन्यः किं वनभ्योऽपि (१) कथमित्याह-मोऽहं किं प्राप्तो नित्यः स न पुःखे। किमित्याह-तस्य पुःखस्योच्छेदनिमित्तं वि- बन्धनाऽऽदि पापपरिणतिवशेम चौर्यप्रभवेण अनुभवसन्धानामाशाय, असंभवाद्धेतोः प्रवर्त्तत, कथं नैवेति गाथाऽर्थः ॥८॥ सोऽहमित्यनेन प्रकारेण, झोकाऽऽगमसिकितश्चैव-सोऽयमिति पंगतनिच्चयो वि अ,संभवसमणं तरं अभावाओ। लोकसिद्धिः, तत्पापफलमित्यागमसिरिरिति गाथाऽर्थः ॥१२॥ परिणामहेनविरहा, असंजनाप्रो न तस्स त्ति ॥८६॥
इय माआश्भवकयं, वेअइ देवाइभवगओ अप्पा । एकान्तनित्योऽपि च निरन्वयोऽनश्वरः संनवममनन्तरमुत्प
तस्सेव तहानाचा, सव्वमिणं होइ उववमं ॥ ३ ॥ स्यनन्तरमभावादविद्यमानत्वात्. परिणामिक हेतुविरदात,तथा
एवं वृद्धवन्मनुष्याऽऽदिनवकृतं पुण्याऽऽदि वेदयते अनुभवति भाविकारणाभावेमासंभवाश्च कारणात, तस्येत्येकान्तानित्यस्य देवाऽऽदिलदगतःसन्नात्मा जीव इति,तस्यैव मनुध्याऽऽदेस्तथास कथं प्रवर्तेत?, नैवेति गाथाऽर्थः ॥८६॥
भावाद् देवाऽऽदित्वेन भावात,सर्वमिदं निरुपचरितं स्वकृतभोपतदेव समर्थयन्नाह
गाऽऽदि भवत्युपपन्नं, नान्यथेति गाथाऽर्थः ॥ ३ ॥ ण विसिट्ठकज्ज जावो, गई अविसिट्ठकारणत्ताओ। एगंतोष उ निच्चो-ऽणिच्चो वा कह णु वेआई मकडं। एगंतऽभेयपक्खे, निमा तह नयेपक्खे अ॥5॥ | एगसहावत्ताओ, तयणंतरनासो चेव ।। ५४ ॥ नविशिएकार्यभावोन घटाऽऽदिकार्योत्पादोभ्याय्योऽनतीतविशिएकारणत्वात, अनतिकान्तनियतकारणत्वादित्यर्थः । एका- .......................................................nven न्ताऽभेदपक्षे, कार्यकारणयोर्नित्यत्वपक इत्यर्थः । नियमादव.
जीवसरीराणं विदु, नेपाऽनेनो तहोवलंभाओ। इयमेव नेति, तथा भेदपके च कार्यकारणयोरेकान्तानित्यत्व
मुत्तामुत्तत्तणओ, पिकम्मि पपेप्रणाओ अ । एए || पके चेति गाथाऽर्थः ॥ ७॥ उभयत्र निदर्शनमाद
जीवशरीरयोरपि भेदाभेदः, कथञ्चिद् भेदः,कथञ्चिदानेद इत्य
थः। तथोपलम्भात्कारणान्मूर्नामृतत्वात्तयोरन्यथायोगाभावात् पिंमो पडो व्य । घमो, तप्फन्त्रमणई अपिमनानाओ।
स्पृष्ट शरीरे प्रवेदनाच,न चामूर्तस्यैव स्पर्श इति गाथाऽर्थः ॥१५॥ तयर्ड अत्ते तस्स न, तहभावा अन्नयाइत्तं । ॥
उत्नयकमोभयनोगा, तयनावाओ अहोई नायव्यो । पिएमवत्पटवदिति च दृष्टान्ती, न घटस्तत्फलं पिगम्फमेति प्रतिज्ञा, अनतीतपिएमभावत्वादसमानत्वाद् भेदपक्षे पट
बंधाविसयभावा, इहरा तयसंजवाओ अ॥ ६ ॥ वत्, तदतीतत्वे घटस्य पिएमातीतायां, तस्यैव तथाभावात्
उभयकृतोजयभोगात्कारणातू, तदभावाच्च नोगानावाच, पिएमस्यैव घटरूपेण भावात, अन्वयाऽऽदित्वमन्वयव्यतिरे
जबति ज्ञातव्यः जीवशरीरयोर्जेदः, बन्धाऽऽदिविषयजावाकत्वं वस्तुन इति गाथाऽर्थः ॥ ॥
कारणादितरथैकान्तजेदाऽऽदौ तदसंभवाच्च बन्धाऽऽद्यसंअतः सदसन्नित्यानित्याऽऽदिरूपमेय वस्तु, तथा चाऽऽह
भवाच्चीत गाथाऽर्थः॥ ए६॥
एतदेव प्रकटयाहएवंविहो न अप्पा, मिच्छत्ताईहिँ बंधई कम्म।
एत्थ सरीरेण कम, पाणवहासेवाणाए जं कम्मं । सम्मत्ताऽऽईएहि उ, मुच्चइ परिणामनावाओ ||८||
तं खलु चित्तविवागं, वेए भवंतरे जीवो ॥७॥ एयंविध एवं सन्नात्मा सदसनित्यानित्याऽऽदिरूपः मिथ्यास्वादितिः करणभूतैबध्नाति कर्म शानाऽऽवरणाऽऽदि, स
अत्र शरीरेण कृतं, कथमित्याह-प्राणवधाऽऽसेवन या देतुभूत. म्यक्त्वाऽऽदिभिस्तु करणभूतर्मुच्यते । कुत इत्याद-परिणाम
या यत् कर्म तत् वयु चित्रविपाकं सदयते भवान्तरे. भावात्परिणामत्वादिति गाथाऽर्थः ॥८६॥
ऽन्यजन्मान्तरे जीव इति गाथाऽर्थः ।। १७ ॥
न उ त नेत्र सरीरं, णरगाऽऽइमु तस्स तह अनावाश्रो। सकमुवनोगो चेवं, कहं चि एगाहिकरण नावाओ।
भिन्नकमवेअणम्मी, अऽप्यसंगो ना होई ॥ १० ॥ इहरा कत्ता भोत्ता, नभयं वा पावइ मया वि ॥ ५० ॥
न तु तदेव शरीरं येम कृतमिति । कुतः?, इत्याह-नरकाऽऽदिषु स्वकृतोपभोगोऽप्येचं परिणामिन्यात्मनि कथञ्चिदेकाधिकरण
तस्य शरीरस्य तथाभावादिति। भिन्नकृतवेदनाऽभ्युपगम्यमा. भावाञ्चित्रस्वभावतया युज्यते। इतरथा नित्याऽऽद्यकस्वभा. बतायां कर्ता, भोक्ता, तनयं वा । वाशब्दादनुभयं वा, प्राप्नोति
ने ऽतिप्रसङ्गोऽनवस्थारूपः बत्राद्भवतीति गाथाऽर्थः ॥ ६८|| सदापि, कर्ताऽऽद्यकस्वभावत्वादिति गाथाऽर्थः ॥ १० ॥
एवं जीवेण कम, करमणपयट्टएण जं कम्मं । एतदेष जावयति
तं पा रोदविवागं, वेएइ भवंतरसरीरं । एU || वेएड जुवाणकयं, वुमढो चोराइफलामिहं कोई ।
एवं जीवेन कृत,तत्प्राधान्यं,करमनःप्रवृत्तेन यत्कर्म पापाऽऽदि ण य सो तो ण अन्नो, पञ्चक्खाईपसिछीओ।।१।।
तत्प्रति तन्निप्रितं गैविपाक तीवेदनाकारित्वेन वेदयते वेश्यते अनुभवति युवकृतं, तरुण कतमित्यर्थः, वृद्धश्चौर्यादि
जबान्तरशरीरं, तथाऽनुभवादिति गाथाऽर्थः ।। ९६ ।। फलं बन्धनाऽऽदि, इह, कश्चित, लोकसिकमेपत् । न चाऽसौ वृ.
ण उ केवल ओ जीवो, तेण विमुक्कस्स वेषणाऽजावा । रुस्ततो यनो नाऽन्यः, किं त्वन्यः, प्रत्यक्षाऽऽदिप्रसिक कार- ण य सोचेव तयं खल, लोगाऽऽविरोहभावाओ।।१०।। णादिति गाथाऽर्थः ॥ ११॥
न तु केवलो जीवो वेदयते, तेन शरीरेण धिमुक्तस्य सतःवेदण य णाऽपामो सोई, किं पत्तो पावपरिणाइवसेण । ।
ना नावात्कारणात, न च स एव जीवस्तच्चरीरमिति बोकाअणुहरसंधाणाओ, लोगाऽऽगमसिदिओ चेव ।।२॥ | ऽदिविरोधनाचात् प्रादिशब्दात्समयग्रह इति गाथाऽर्थः ।१००।
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(२२३५) तावसुछि अनिधानराजेन्द्रः।
तिमोय एवं चिअ देहव है, उवयारे वा वि पुरणपावाई।
एमाइ जाववादो, जत्थ तओ होइ तावमुको त्ति । इहरा घमाइभंगा-श्नायो नेव जुज्नंति ॥१०॥ एस उवाएओ खड्यु, बुधिमया धीरपुरिसेणं ॥१०॥ एवमेव जीवशरीरयोमैदाभेद पत्र, देहवधात्सत्काराद् षा __ एवमादि भाववादः पदार्थवादो यत्राऽऽगमेऽसौ जवात तापदेहस्य पुण्यपापे नवतः,श्तरयैकान्तभेदा घटाऽऽदिभङ्गाऽऽदि- शुरूः तृतीयस्थानसुन्दर इति,एव उपादेयः खल्वेष एवं मान्यः, झाततः घटाऽऽदिविनाशकरणोदाहरणेन, नैव युज्यते पुण्यपापे बुद्धिमता प्राझेन धीरपुरुषेण स्थिरेणति गाथाऽर्थः ॥१०९॥ पं० इति गाथाऽर्थः॥१.१॥
व.४द्वार। अच्युच्चयमाह
ताविया-तापिका-खी। कटाहिकायाम, प्रा.म. १०२ तयभे अम्मि अनियमा, तन्नासे तस्स पावई नासो। खएक। इय परसोपाजावा, बंधाईणं अनावो य॥ १०॥ तास-त्रास-पुं० । उद्वेगे, प्रश्न १ श्राश्र• द्वार।का। प्सदभेदे च जीवशरीराभेदे च नियमात्तन्नाशे देहनाशे तस्य | तामन-त्रासन-त्रि० । कोभाऽऽदिलिङ्गकारकत्वात्वासनः। प्रश्न. जीवस्य प्राप्नोति नाशः। (य) एवं परलोकाभावात्कारणात
१ श्राथ. द्वार । त्रासजनके, प्रश्न० ३ माद्वार । नि. प. बन्धाऽऽदीनामपि प्रस्तुतानामभाव पवेति गाथाऽर्थः ॥१०॥
। प्रा० म०। देहेणं देहम्मि अ, नवधायाणग्गहेहि बंधाई।
तासी-त्रासी-त्रि.। स्वयं प्रस्तः परानपि त्रासयतीति त्रासी। ण पुण अमुत्तो मुत्त-स्स अप्पणो कुणइ किंची वि॥१०३|| त्रस्ते, अन्यत्रासकरे च । स्था० ४ ०२०। ....... "किश्चिदपि, मुक्तकरूपत्वादिति गाथाऽर्थः ॥ १०३॥ ता-ताई-अव्य । आमन्त्रणे, प्रश्न० १ आभ• द्वार। अकरितो अण बज्मा, अइप्पसंगा सदेव बंधाओ। माटा -व्य० । तस्मिन् काले हाच । तस्मिन् काले श्त्ययें, तम्हा भेाजेए, जीवसरीराण बंधाई ॥ १०४ ॥ वाव. भ०। प्रा०। अकुर्वश्च न बध्यते न्यायत इत्याह-अतिप्रसङ्गान्मुक्तो सदैव भा-ति-इति-अव्य० । पदास्परस्य इतिशब्दस्य ति इत्यादेशो नववाद्वन्धस्य, अकर्तृत्वाविशेषाद, यत एवं तस्माद्भेदाभेदे जात्यन्त. ति। उपमाभूतवस्तूनां परिसमाप्ती, जी. ३ प्रति०४ उ०। रात्मके जीवशरीरयोन्धाऽऽदयो,नान्यथेति गाथाऽर्थः॥१०॥
प्रश्न । पवायें, रत्स०१०। तथा
त्रि--ब०। त्रिका डि । त्रित्वसंख्याविशिष्टे, खियां तिम्रादेशः। मोक्खो वि अ बच्चस्स य, तयनावेस कह कीस बाण सया। तिन इत्यादि । वाच । किं वा हेजहिँ तहा, कहं च सो होइपूरिसत्यो॥१०॥ तिअसीस-त्रिदशेश-पुं०।"लुक" || 0 । १।१० ।। इति स्वमोकोऽपि च बहस्य सतो भवति, तदभावे बन्धानावेस कथं | रस्य स्वरे परे बहुल लुक् । प्रा. १ पाद । देवराज,वाच०। मोक: नैव,किमिति वा न सदाऽसौ, बन्धाभावाविशेषातू, किंवा हेतुतिस्तथा यथा- दिनिः, कथं च स भवति पुरुषार्थोऽयत्न
| तिउमण--त्रित्रटन--10। त्रिज्यो मनोवाक्कायेभ्योग्शुभेभ्यो म. सिद्धत्वादिति गाथाऽर्थः ॥ १०५ ॥
क्ती, सूत्र १ श्रु० १५ अ० । यत एवम्
तिउडय--त्रिगुटक-पुं० । मानवकप्रसिद्ध धान्यविशेष, घ० २ तम्हा बकस्स तो, बंधो वि अगाइमं पचाहेणं ।
अधि । प्रव०। हरा तयभावम्मी, पुव्वं चिअ मोक्खसंसिसी ॥१०६।। तिनल-त्रितल-त्रिकात्रीन् मनोवाकायास्तुयत्यन्निजयति या सा तस्माद् बद्धस्यैवासी मोक्को, बन्धोऽप्यनादिमान् प्रवाहेण सन्त. त्रितुना । मनोचाकायतोदके दुःखहेती, प्रश्न० १ पाश्र0 द्वार। त्या,इतरथैवमनङ्गीकरणेन,तदभावे बन्धाभावे सति,पूर्वमेवाऽऽ- नशा.स्था। दावेष मोकसंसिद्धिः, तद्रूपत्वात्तस्येति गाथाऽथेः॥ १०६॥ तोदक-त्रि० । सूत्रत्वात्तोदकः। मनोवाक्कायतोदके दुःखहेती, अत्राऽऽह
उत्त०२०। अाजुअवत्तमाणो, बंधो कयगो त्ति णामं कह णु।
त्रिदन-त्रि०ात्रीन् प्रस्तावान्मनोवाक्कायान् विभाषितण्यन्तजह य अईओ कालो, तहाविहो तह पवाहेण ।। १०७ ।। स्वाच्चुराऽऽदीनां दसतीव स्वरूपचलनेन त्रिदलः। मनोवाक्काअनुभूतवर्तमानो जावो बधः कृतक ति कृत्वा स एवंभूतो
| यतोदके दुःखहेतो, उस.२०। 5नादिमान् कथ नु,प्रवाहतोऽपीति भावः। अत्रोत्तरम-यय- कम-विकट-
पु तिकृम' शब्दार्थ, स्था०४०२ उ०। वातीतः कालस्तथाविधः-अनुभूतवर्तमानभावोऽप्यनादिमान,
सोनस-न । त्रिनिरादित एव कृतयुग्माद्वापारवतथा प्रवाहे बन्धोऽप्यनादिमानिति गाथाऽर्थः ॥ १०७॥
तिजिरोजो विषमराशिविशेषयोजः। ज०१७ श०४ उ.। नुपपत्तिमाह
विषमराशिविशेष, यो हि राशिश्चतुष्कापहारेणापन्हियमाणदीसइ कम्मावचओ, संजबई तेण तस्स विगमो वि।
खिपर्यवसितो भवति स ज्योज इति । स्था० ४ ठा० ३ उ० । काणगमलस्स व तेण उ, मुक्को मुकात्ति नायव्यो ॥१०॥
मितप्रदेशासु दिकु, स्त्री । सर्वासां दिशां प्रत्येकं ये प्रदेदश्यते कपिच यः कार्यद्वारेण, संजवति तेन कारणेन तस्य
शास्ते चतुष्कणापहियमाणास्त्रिकावशेषा जवन्तीति कस्या कर्मणो विगमोऽपि, सर्वथा कनकमत्रस्यति निदर्शनं, तेन
तत्प्रदेशाऽऽस्मिकाश्च दिश आगमसंशया योजःशब्देनानिधीयकर्मणा मुक्तः सर्वधा पत्तो ज्ञातव्य इति गाथाऽर्थः ॥ १०॥ । ते। प्राचा०११०१०१3०।
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तिंतिण अनिधानराजेन्द्रः।
तिकोमि तितिण-तिन्तिण-पुं० । तिन्तिणो नाम यः स्वल्पोऽपि केनचि. ज्यां संयोजयति। अन्तःसंयोजना-शोन्ननार्थ प्रतिभयं गोमयमसाधुनाऽपराकोऽनवरतं पुनस्तं ऊपत्रास्ते सतिन्तिणः । त-|
दादिना लिम्पति, सेटिकया वा धवलयति । अथवा-हाय्या. स्मिन्, व्य.१ उ०प्रव०। कन्प्रत्ययोऽध्यत्र । मलाभे सति खे
शब्देन संस्तारक उच्यते, ततश्च सुन्दरतरं संस्तारकं सवा पाचकिचनाभिधायी, स च खेदप्रधानत्वात्तिन्तिणिको भव. यमुत्तरपट्टमपि तदनुरूप नुत्पाद्य परिभुङ्क्ते, सा बहिःसंयोजना। ति । स्था०६०"तितिणिए एसणासमिस्स परिमंथ।"
यत्पुनः सुकुमारस्पशोपे विनूषार्थ वा सुन्दरया जनचा संस्तारतिन्तिणिको हि सुन्दरमाहाराऽऽदिकं गवेषयनेषणासमितेः
कं प्रस्तृणाति सा अन्तःसंयोजना । तदेवं यदुपध्यादिकं यस्य परिमन्धुर्भवतीति । वृ. ६ उ० ।
साधोगुणोपकारि विषाऽऽदिगुणोपयोगि भवति,स तेन विव.
कितेन वस्तुना सार्क तदेव वस्तु योजयन् मीलयन, न्यासार्थ प्रतिद्वारमभिधित्सुः प्रथमतस्तिन्तिणिकद्वारं व्यावष्टे
तभावे विवक्कितवस्तुयागाजावे तिन्तिणिको भवति-"दा! उज्मंतं टिंबरुदा-रुयं व दिवसं पि जो तिमितिहे।
नास्त्यमुकं वस्तु अत्र स्थापडलप्राये संनिवेशे" इत्यादि अह दब्बतितिणो भा-वोत आहारुवहिसिजाए । बापतीत्यर्थः । वृ०१उ० । नि००। (अपवादे तिन्तिणिकत्वं
| तिम्बुरुकदारुकं तिम्बुरुकवृककाष्ठमनौ प्रक्तिप्तं, तद् रामानं
कप्प'शब्दे तृतीयन्नागे २३.पृष्ठे गतम) सद् यथा त्रटनटिति कुर्वदास्ते, एवं यो गुवोदिभिः खरएिटतः
| विंतिणी-तिन्तिणी-स्त्री० । यत्र तत्र वा स्तोकेऽपि कारणे करसंपूर्णमपि दिवसं "तिडितिडेइत्ति" अनुकरणशब्दत्वात्रटत्- करायण, ब.३० अटयते, मम संमुखमिदमिदं च जल्पितमेनिरिति झषनास्ते तिक-तिन्क-पुं० । बहुबीजकफलप्रधाने वृत्तविशेषे, प्रज्ञा. रति भावः । अथैष व्यतिन्तिणिकः। भावतम्त तिन्तिणिकः १ पद । भाचा प्रव० । वाराणस्यां तिन्कवृक्षप्रधाने उद्याने, विविधः । तपधा-आहारे, उपधौ, शग्यायां चेति । पुनरकैको मा०म०१०२ खण्ड । तत्र गएडीतिन्कनामा यको वसति। द्विविधः-अन्तःसंयोजनया, बहिःसंयोजनया च।
सत्त०१२ अा ती स्था०। श्रावस्त्यां नगरमरामले पुरपरिसतत्रोभयथाऽप्याहारातन्तिणिकं तावदाह
रेतिन्दुकवृतप्रधाने उद्याने,उत्त० २३ अ.प्रा. क. विशे।
चैत्यविशेषे, ति० । माघस्तीनगरीचैत्ये, स्था०७०।त्रीअंतो बहि संजोअमा, आहारे बाहि खीरदधिमाई।
कियजीवविशेषे, उत्त० ३६ अ०। अंतो न होति तिचिहा, जायणे हत्थे मुहे चैव ॥
तिंदुस-तिन्दुस-पुं० । बहुषी जकफप्रधाने वृतविशेषे, प्रज्ञा० मादारविश्या संयोजना छिविधा-अन्तः, बहिश्च । तत्र बदि१पद । स्वाथै कन्प्रत्ययोऽप्यत्र । प्रा० का। स्ताबद्भाव्यते-कश्चित्साधुटिकामटन् कीरं वा दधि वा लगवा तिंदसय-तिन्नसक-पुं०। कन्डके, ज्ञा०१७०१८ अ० । क्री. रसगृनुनया कलमशालिप्रतिकमोदनं चिरगोचरचयकरणेमा।
डाविशेषे, " सप्पं व तरुवरम्मी, काउंतिदूसर यभिंव।" प्युत्पाद्य यत्तेनैव तीराऽऽदिना सार्धमुपाश्रयाद् बहिः संयोजय
मा०म० भ० २ खएक। ति,प्रादिशब्दात् परमानाऽऽदिकं वा लभवा घृतखण्डाऽऽदिना बदिरेव खितः सन् यद् योजयति, एषा बहि-संयोजना अन्तस्त
तिकंग-त्रिकएकक-त्रि०कएमत्रययुक्ते, " सयं सहस्साण उ प्रतिश्रयाच्यन्तरे पुनः संयोजना त्रिविधा भवति। तद्यथा-ना
जोयणाणं, तिकंरगे पंडगवेजयंते।" मेरुः-त्रीणि करमान्यस्ये. जने, हस्ते, मुखे चैव । तत्र भाजनविषया-यत्र भाजने कलम.
| ति त्रिकएलका,तद्यथा-भौम, जाम्बूनदं, वैयमिति । सूत्र.१ शास्योदनस्तत्र दुग्धयादि प्रतिपति । हस्तविषया-मएमक | भु०६०। पुपूलिकाऽऽदिना गुडशर्कराऽऽदि हस्तस्थितं वेष्टयित्वा मखे प्र-तिह-विकत्वस्-अव्य० । बीन् कृत्वेत्यर्थे, भ०१श.१०॥ क्विपति । मुखविषया-पूर्व मण्डकादि मुने प्रक्षिप्य ततः श-किरय-त्रिकटक-न०। प्रयाणां कटूनां समादारनिकटु,त्रिकराखएडाऽऽदि प्रक्विपति एवंविधां द्विविधामप्याहारसंयोजनां
| टुपच त्रिकटुकम् । शुण्ठीमरिचपिप्पल्यात्मके कटुत्रयसमाहालोभाभिजूततया कुर्वन् यदा यदा संयोजनीयवस्तुयोग न
। रेउस० ३४ ० । अनु० । समते. तदा तदा तिन्तिणिकत्वं करोतीत्याहारतिन्तिणिकर ध्यते।
निकरणभावसुद-त्रिकरणजावशुध-त्रि. विविधेन विप्रकामथोपधिशय्यातिन्तिणिकावतिदिशति
रेण फरणेन मनोवाकायलकणेन सुविशुद्धे, मनसाऽप्यसंयमान
निसाधाद भावेन च परिणामेन विशुरू इहलोकाऽऽद्याशंसाविएमेव उबहिसिना, गुणोवगारी उ जस्स जे होइ।।
प्रमुक्तत्वात् त्रिकरणजावविशुद्धः। तस्मिन्, व्य० ३ उ० । सो तेण जोजयंतो, तदनावे तितिणो हो ।
|तिकरणसुक-त्रिकरणशुद्ध-न० । मनोवाकायलकणकरणनय. एवमेवोपधिशव्ययोरपि संयोजनायां भावना कार्या । सा चे. | स्य दायकसंबन्धिनो विशुद्धतायाम् विपा० २ श्रु.१०। बम-उपधिसंयोजनाऽपि द्विविधा-बहिः, अन्तश्च तत्र बहिःसं. योजना-उत्कृष्ट कसगवा चोलपकमप्युत्कृष्टमुत्पादयति;
तिकूड-त्रिकूट-पुं० ।बीणि कुटान्यस्य । लङ्कापुरसन्निहिते सुवे. भौणिकं वा कसं सुन्दरं लग्वा तदनुरूपमेव सौत्रिकमुत्पा.
हाऽऽस्ये पर्वते, स्था०४ ग. २००।"दो तिकूमा।" स्था०२ दयति, नत्पाद्य च तदुभयपरिभोगेण संयोजयति । अन्तःसं.
०३ उ०।ती। जम्बूद्वीपे मेरुपर्वतस्य पूर्वस्मिन् जागे शी. योजना पुनः-विधार्थ श्वेतकम्बल्यां कृष्णवरकसीबनिकांद
ताया महानद्या दकिणस्यां दिशि प्राये वक्षस्कारपर्वते, स्वा० । दातीत्यादि।शय्या प्रतिश्रयः,तस्य संयोजनापिद्विविधा-बहिः, तिकोटि-त्रिकोटि-स्त्री० त्रिकोट्याम्, बन्दास्वृत्तौ-"सिके भोअन्तधातला बहि-संयोजना-मकपाटमुपाभयं बगवा कपारा पयत्रो" इत्यादिवृत्तव्याख्याने निकोटिपरिगुरुत्वेन प्रख्याता
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तिकोमि
ये तज्ञ कोटिशब्दस्य कोड इति प्रार्थ नयरूपाः कपच्छेदनापनपत्ररूपा या कोटः संभाव्यन्ते । २६० प्र० । सेन० ३ उज्ञा० । तिको परिशुद्ध त्रिकोटिपरिशुद्ध-० रागद्वेषमत्रपरि मु.पो० ।
मध्यमस्वीर्या समितिमभृति त्रिकोटिपरकम् (9) प्रिकोटिपरिम्-रागद्वेपमोश्यपरिशुद्धमत स्रः कोट्यो हनन - पचन-क्रयणरूपाः कृतकारितानुमतिजेदेन भूपले ताभिः परिशुद्ध
थापाको
गुरुम् । पो० २ विव० । विकोण त्रिकोण लियः कोसा यस्य त्रिकटयुके पदार्थ, स्था० १ वा । ज्योतिषोक्ते लग्नात्पञ्चमनवमस्थाने, न० । "त्रिकोणगानू गुरुः पश्यन् । " बाच० । शृङ्गाटके, स्था० ५ वा० १० ।
(२२३७) अभिधानराजेन्द्रः |
विवीतिज्ञ कस्न दीर्घ गुरुके, प्रतिपालि नि च । व्य० १३० । परुषे, भ० १६ श० ३ उ० । वेगवति, ०२० मरणे व खेशी, सामुद्रलवणे, मुष्कके, चपके, उग्रे रसे च । न० । तद्वति, त्रि० । य बारे कुरो, कुन्दुरके, ज्योतिषीके ल नक्षत्रे च । पुं० [सी, आत्मस्यागिति निराक्षस्ये, मुकी, बो गिनि च । पुं० । वाच० ।
मातीतुदा स्त्री० [तेहिकायाम्, कल्प०६ कृण तिक्खालिअ-देशी-०० वर्ग १३ गाथा | निक्खुत्रिःकृत्य-वारा स्वा
श्रु० १ अ० । दशा० । स्था० नि० ० रा० । प्रति । कल्प० । श्र० म० । नि० । श्री० ।
तिग- त्रिक- न० | रथ्यात्रयमीलकस्थाने, वृ० १ ० । जो० । भ० । कल्प०। औ० ० । ज्ञा० । अनु० । ० म० पा० सूत्रof किन पापनार्थमिदमाह नाम वा दविए, सेते काले व गणण भावे य एसो उ खलु तिगस्स य, निक्खेवो होइ सत्तविहो ॥१०॥ नामंत्रिकम स्थापनात्रिकम यत्रिकम् केलिकम्. फाल त्रिकम् गणनाकम् भवति एतुकस्य निक्षेपः सप्तविधो भवति । नामस्थापनात्रिके गतार्थे ।
कम्यत्रिकं इनत्यशरीरव्यतिरिचं ज्ञापयतिदादी तय हो तिषिद्धं तु । दुपदचतुष्पद पदं, पण तस कायना ॥ १२ ॥
पनि सवित्ताचितमिश्रमेदात् त्रिया । तत्र विधिकं भूयस्त्रिविधं भवति । तद्यथा द्विपदत्रिकम, चतुष्पद निकम, अपत्रिकम् । तस्य च सप्तभेदस्याऽपि प्ररूपणा कर्त्तव्या । सा च यथा सचित्तैकैकस्य कृता तथैवावगन्तव्यम् । परमाणुमादियं खचितं मी च मालादी । तिपदेस तदोगाढं, तिमि वि लोगा उ खेत्तम्मि || १२ || (परमाणु ति ) श्रादिशब्दाद् द्विप्रदेशिकत्रयं यावदनन्तप्र देशिकप्रथम पद तु मलायं
५६०
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तिमिच्छा
मन्तव्यम् । तत्र हि पुष्पाणि सचितानि षमचिमिति - स्वा । आदिग्रहणेन सालङ्कारपुरुषत्रयमित्यादि गृह्यते । केत्रत्रयम्-त्रय आकाशप्रदेशाः ( तदोगाढं ति ) तेषु वा त्रिषु आकाशप्रदेशेषु अवगाढं धन्यं क्षेत्रत्रयम् भयो वा बोका अघो कति कोई लोकल कुणाः क्षेत्रत्रयमुच्यते ।
तिसमय तहितिगं वा, कालतिगं तीयमातियो चैत्र । भाने पसस्यामितरं, एफेकं तत्यतिविहं तु ॥१३॥ कालत्रयं प्रत्यग्रमयं (?) (तष्ठितिगं व प्ति) त्रिसमयस्थिति. कंवा व्यं कालत्रयम् । अथवा श्रतीतानागतवर्त्तमानकाला एब कालत्रयम, भावत्रयं प्रशस्तमप्रशस्तं चेति द्विधा । पुनरेकैकं त्रिविधम्-तत्र ज्ञानम्, दर्शनम्, चारित्रं चेति प्रशस्तम । मिध्यात्वमज्ञानमविरतिश्चेत्यप्रशस्तम् | अविरतिरपि हस्तकमेरात्रिकप्रति सेवादादिह प्रस्तावे त्रिविधा व्याया तं त्रय इति पदम् । बृ० ४ उ० | तिगतिगभेद शिकषिकनेद-० किं त्रित्रिकः । प्रत्येकं त्रिविधे, दर्श०
नेदानां यस्य स
।
विगरणमुत्रिकरणशुद्ध णि
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तानि कानि
मनःप्रभृतीनि विकरणानि तैः शुद्ध निर्दोषकिरणानि या शुद्धानि सर्वदोषरहितानि यस्य स त्रिक
प्रवृते अथवा करण कारण नुमतिरूपसावद्ययोगविरते, पा०| तिगारमरूपा त्रिगौरवगुरुता स्त्री० [ऋरिससारखे ध० ३ अधि० । तिमिच्छचिकित्म० जिनके स्था० १०वैये व्य० ५ उ० । दशमकल्पे देवानां विमानविशेषे, स०२० सम० । तिगिच्छग- चिकित्सक त्रि० रोगप्रतीकारकर्तरि स्था० । अथात्मचिकित्सा 55चत्तारि तिगिगा पता। तं महा-प्रायतिगिरिछन् खाममेगे, णो परतिगिच्छिए । परतिगिच्छिए णाममेगे यो आपतिगिच्छित् । एवं चहभंग ४ |
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"तारि" इत्यादि कष्ठ्यम । नवरं व्रणं देहे क्षतं स्वयं करोति रुधिरादिनिगमनामिति करो 'नो' ने परिमृतीस्येवं शीलो व्रणपरिमशत्येकः, अन्यस्त्वन्यकृतं व्रणं परिमृशति न च तत्करोतीति एवं भावप्रणमतिचारलकणं करोति, कार्यन तदेव परिमृशति पुनः पुनः संस्मरणेन स्पृशति अन्य स्तु तत्परिमृशतीत्यभिलाषान्न च करोति कायतः संसारमयाऽऽदिनिरिति । व्रणं करोति, न च तत्पट्टबन्धाऽऽदिना संरक्षति । अन्यस्तु कृतं संरक्षति, न च करोति । भाववणं स्वाधित्यतिवरं करोति न च तं सानुबन्धं च कुशला55 देसानपरिहरतो रकृति एकः अन्यस्तु पूर्वहतातिचारं निदान परिहारो रतनयं न करोति (न) ने मादायादिनेति मणसं जाणापेकपा तु नो वह प्रायानिपते ही पूर्वकृतचारप्रायश्चित्तप्रतिपच्या मोणकरोऽयताराकाशादति । स्था० ४ ० ४ ० ।
"
तिमिच्छा-चिकित्सा- स्त्री चिकित्सनं चिकित्म्या । रोगप्रतीका बे, रोगप्रतीकारो पदेशे च प्रवण सा द्विविधा सूक्ष्मा, बादरा च ।
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(२२३८) तिगिच्छा भनिधानराजन्यः ।
तिगिच्चा तत्र सूक्ष्मा औषधविधिवैद्यज्ञापनेन । बादरा स्वयं चिकित्साकर- सो आणा अणवस्थ, मिचकुत्तविराहणं पावे ॥१७॥ णेन, अन्यस्मारकारणेन च। तत्र कश्चिज्जराऽऽदिरागाऽऽक्रान्तो
नि० चू०१३ न०। गृही भिकाऽऽद्ययं गृहे साधं प्रविष्ट दृधा पृच्छति जगवन् ! एतस्य मदीयव्याधेर्जानी कमपि प्रतीकारमिति?। स प्राऽऽह-भोः
चिकित्साद्वारमाह-- श्रावक:यारशस्तवाऽयं रोगस्तादृशो ममाप्येकदा संजात आ- भणइ य नाहं विज्जो, अहवावि कहे अप्पणो किरियं । सीत् । स चामुकेनौषधेन ममोपशमं गत इति। एवं चाज्ञस्य गृह
अहवा वि वेज्जयाए, तिविह तिगिच्छा मुणे यया ॥ स्थस्य रोगिणो भैषज्यकरणान्निप्रायोत्पादनादौषधसूचनं कृतम् ।
इद चिकित्सा रोगप्रतीकारो, रोगप्रतीकारोपदेशो वा विवअथवा रोगिणा चिकित्सा पृष्टो वदति-" किमहं वैद्यो, येन रोगप्रतीकारं जाने?" इति । एवं चोरो रोगिणोऽनभिशस्य सतो
क्विता । ततः साधूनधिकृत्य त्रिविधा त्रिप्रकारा चिकित्सा उस्मिन् विषये वैद्यं पृच्छति सूचनं कृतमिति सूक्ष्मचिकित्सा।
ज्ञातम्या। तद्यथा-केनापि रोगिणा रोगप्रतीकारे साधुः पृष्टः
सन्नाह-किमहं वैद्यः ?, एतावता च किमुक्तं भवति ?-वैद्यस्य यदा तु स्वयं वैधीभूय साकादेव वमनविरेचनकाधादिकं क
समीपे गत्वा चिकित्सा प्रष्टव्या,श्त्यबुधबोधनादेका चिकित्सा । रोति, कारयति वा अन्यस्मात्तदा बादरा चिकित्सेति । एव.
अथवा रोगिणा पृष्टः सन्नेवमाह-ममाप्येवविधो व्याधिरासीत्, मुपकृतो हि प्रमुदितो गृही मम भिकां प्रकृष्टां दास्यतीति यति.
स चामुकेन जेषजेनोपशान्तिमगमत, एषा द्वितीया चिकित्सा । रिमां द्विविधामपि कुरुते, न चैवं तुच्छपिएडकृते अतिनां कर्तु। मुचितम,अनेकदोषसंजवात् । तथाहि-चिकित्साकरणकासे क.
अथवा-बैद्यतया वैद्यीनूय साकार चिकित्सां करोति, एषा
तृतीया । बहाऽऽद्ये द्वे चिकित्से सूदमे, तृतीया तु बादरा। दफलमूलाऽऽदिजीववधेन क्वाथकथनाऽऽदिपापव्यापारकरणा
तत्राद्यां व्याचिख्यासुराहदसंयमोजवेत् । तथा-नीरुक्कृतो गृहस्थः ततायोगोसकसमानः प्रगुणाकृतदुर्बलान्धव्याघ्रवदनेकजीवघातं कुर्यात् । तथा यदि
निक्खाइगो रोगी, किं विजोऽहं ति पुच्छिओ भणइ । देवोगात्साधुना चिकित्स्यमानस्यापि रोगियो व्याधेराधि. अत्थावती' कया. अबुहाणं बोहणा एवं ।। क्पं जायते, तदा कुपितस्तत्पुत्रादिराकृष्य राजकुलाऽऽदौ ग्रा. निकादौ भिकाऽऽदिनिमित्तं गतः सन् (रोगी इति ) अत्र हयेत । तथाऽऽहाराऽऽदिसुब्धा पते इत्थमित्यं च वैद्यकाऽऽदि तृतीयार्थे प्रथमा, रोगिणा पृष्टः सन्नाह- किमहं वैद्यो येन कुर्वन्ति, इति प्रवचनमालिन्यं स्यादिति ॥ ६॥ प्रव०६७ हार ।
कथयामि एवं चोक्ते सति प्रर्यापच्या सामर्थ्यात, अबुधानांपि०। पञ्चा० । विशे। व्योषधाधुपयोगतः पीमोपशम,
'वैद्यस्य पावें गत्वा चिकित्सा कार्यते' इत्यजानता, बोधना प्राचा०१ श्रु०एम०४०। ग। चिकित्सया पिण्डोत्पाद- अनन्तरोक्तस्यार्थम्य ज्ञापनो कृता भवति । नम् । उत्पादनादोषभेदे, स्था० ३०४०। पश्चा०।
हितीयां व्याख्यानयतिचउबिहा तिगिच्छा पलता। तं जहा-विज्जा, ओस- एरिसयं चिय दुक्खं, नेसज्जेण अमुगेण पउणं मे। हाई, पाउरे, परियारए ४ ।
सहमुप्पन्नं व रुयं, वारेमो अट्ठमाईहिं॥ "चउब्विहा" इत्यादि कराठयम । नवरं चिकित्सा रोगप्रतीकार- एतादृशमेव दुःखं दुःखकारणनूतं गण्डाऽऽदि, अमुकेम मेस्तस्याश्चातुर्विध्यं कारणभेदादिति ।
षजेन प्रगुणं नष्टवेदनमभूत् । तथा वयं सहसोत्पन्नामकस्मा. __एतत्सूत्रसम्बादकमुक्तमपरैरपि
दुत्पन्नां मजमएमा 35दिभिर्वारयामः । “तत्थोप्पन्न रोग, मण "त्रिपाडव्याण्युपस्थाता, रोगी पादचतुष्टयम् ।
निवारप" इत्यादिपरममुनिवचनप्रामाण्यात् । तस्मात् नवताचिकित्सितस्य निर्दिष्ट्र, प्रत्येक तश्चतुर्गुणम् ॥१॥
ऽपि तथा कर्तव्यामति भावः। दक्षो विशातशास्त्रार्थों, दृष्टकर्मा शुचिर्जिषक।
तृतीयां चिकित्सा प्रपञ्चयितुमाहयहुकल्पं बहुगुणं, सम्पन्नं योग्यमौषधम् ॥२॥
संसोधण संसमणं, नियाण परिवज्जणं च ज तत्थ । अनुरक्तः शुचिर्द को, बुकिमान् परिचारकः ।
आगंतु-धानखाने, य आमए कुणइ किरियं तु॥ भातयो रोगी नियम्बश्यो, कापकः सववानपि" ॥३॥ इति। श्यं व्यरोगचिकित्सा।
आगन्तुके धातुकोभे च सूचनात्सूत्रमिति कृत्वा धातुकोभजेच नावरोगचिकित्सा त्वेवम्
भामये रोगे समुत्पन्ने सति तत्र यात्कियां करोति । तद्यथा-संशो "निविग निम्बलोमे, तबबट्टाणमेव उभामे।
धनं हरीतक्यादिदानेन, पित्ताऽऽापशमनं संशमनं, तथा निवेयावच्चामिण-मंगलिकप्पट्टियाऽऽहरणं ॥१॥” इति ।
दानपरिवर्जन रोगकरेण परिवर्जन च । एषा तृतीया चिकित्सा । निर्बलं वल्लादि, अवममूनम,नामो भिक्काभ्रमणम्,पाहि.
अत्र दोषानाहएमनं देशेषु, मएमली सत्रार्थयोः (कप्पध्यिा) श्रेष्ठिवधूरिति । अस्संजमजागाणं, पसाधणं कायघाओं अयगोलो। स्था०४ ठा०४ उ०।
मुबलवम्बाहरणं, अब्भुदए गएहण्डाहो ॥ जे भिक्खू विगिच्छापिमं तुंजइ, भुंजंतं वा साइज्जइ ॥६॥ असंयमयोगानां सावधव्यापाराणां प्रसाधनं सातत्येन प्रवर्तरोगावणयणं तिगिच्चा, तं जोग करेति गिहिस्स । तस्स श्रा
नमिदं चिकित्साकरणं,ततो गृहस्थस्ततायोगोसकसमाना,ततपादिणो दोसा, चउल हुं च पच्चित्तं ।
स्तन नीरोगीभूतन ये कायघाता यावज्जीवं प्रवर्त्यन्ते, ते सर्वे
ऽपि साधुचिकित्साप्रवर्तिताशते । चिकित्साकरणं सातत्य जे निक्खु तिगिच्छपिम, तुंजेज सयं तु अहव सातिजे ।' नासंयमयोगानां निबन्धनम । तथा चात्र दुर्बसव्यावरणा
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( २२३९ ) अभिधानराजन् |
तिमिच्छा
न्तः। यथा-अटव्यामन्धो भक्ष्यमप्राप्नुवन् दुर्बलो व्याघ्रः केनाप्यान्ध्यापनयनाय चिकित्स्यते, चिकित्सितः सन् प्रगुणीभूतः प्रथमतस्तस्यैव वैद्यस्य विघातं करोति । ततः शेषाणां बहूनां जीवानाम् । एवमेषोऽपि गृहस्थः साधुना चिकित्स्यमानः साधोः संयमप्राया दन्ति य पृथिवीकायाऽदीमिति । यदि पुनः क धमपि चिकित्स्यमानस्यापि तस्यातिशयेन रोगोदयः प्रादु र्भावो भवति, ततोऽह मनेनातिशयेन रोगी कृत इति संजातकोपो राजकुत्राऽऽदौ ग्राहयतिः तथा च सति उडाहः प्रवचनस्य मानिन्यमिति । पिं० ।
धर्मवितिषपदं
असित्रे प्रोमोयरिए. रायदुट्ठे नए व गेलो । प्राणरोह ए वा, जयाए कारए जिक्खू || १७६ ।। नि० चू० १३ उ० |
जे निक्खु रोगियपडिकम्मं करेई. करंतं वा साइज्जइ |४०| आरोग्गो विरुवद्दयसरीरो, मा मे रोगो नविस्सति त्ति अणाग व रोगपरिकम् करोति तल आणाऽऽदिया य दोसा ||४०||
जे जिक्लू आरोगे, कुम्मा हि अणगयं तु तेच्छिं सो आणा प्रणवत्थं, मिच्छत्तविराइणं पावे ।। ७६ ।। गतार्था । इमोहं कारणेहि अववादेण कुज्जाविहरणवाणवा सगाण मा मे बयाण वा पीला होज्जाहि अकीरते, कप्पति अणागतं कालं ॥ ७७ ॥ विणं जाव मासकप्पो ण पूरति ताव करेमि मा मासक पुछे विहरणस्स वाघातो भविस्सति, रोगे वा उत्पन्ने मा बा यणार वाघाओ भविस्सर, विविधाण वा श्रावासगजोगाणं रोगमुकर्म असहमाणे हरितादिष्वा किं वि मिठट्टा बसाइयारं करे रोगकम्मं करजति । जतो भष्मति
सुओ सुगं कालं, कप्पति त्राही ममं ति णं गातुं । तप्पसमणी उ किरिया, कप्पति इहरा बहू हाथी ॥ ७८ ॥ ममं अप्पसरीरस्स अमुगो वाही अमुगे काले अवस्समु प्पज्जति, तस्स रोगस्स अणागयं चेध किरिया कज्जति, (र) उगे किरिया कन्जमा बहु दोसा दो अबदुशाम्रो य संजा
श्रागयं कज्जमाणे इमे गुच्छा-अपपरायासो, न य कायवहो न यावि परिहाणी | नयनमा गिद्द पाहते-रिशेण दितो ॥ ७५ ॥ अनागते रोगपरिकामे कामाने अपनो परस्त व प्रणायासे भवति । कमेण फासूपण कज्जमाणे कायवधो ण जवति । णय सुत्तत्थे श्रावस्सगाण परिदाणी भवतेि । अणागतं जहामाणसाने गिद्दीमा भवति किं
विखितो वाढी पुच्छ्रेजो जवति । जहा रुक्खो अंकुराव त्याए पहच्छेज्जो भवति, विवचितो पुण जायमूलो महाखंधो कुहामेण विरिणं विप्रा सुछेगुणगुणं दुच्छे एवं बाह
तिमिच्छि
जो
जो तर गहियायो, गहरासम त्थोय जो गोवगदकारी, कुलगणसंघकज्जेसु य पमाणं, तस्स एसा विधी ।
जो पुणो पुरिलो तरस इमा विधीजो पुरा अपुत्रगहणे, उवग्गहे वा अपचलो एसिं ।
म तपरकरणे तस महिच्छाणियोगो ||८०|| अभिणवाणं सुराणं गढ़णे बसमत्यो साधुवमासा स्थपाय भन्त पाणश्रोसढभेसज्जादि एतेदि उवग्गदं कालं अस मत्थो । उत्तरकरणं तवो, पायच्छितं वा तत्थ वि अस । एरिसस्त पुरिसस्स इच्छाण णिश्रोगो अवस्लमसागयं कायब्वं ति । नि० न्यू १३ उ० ।
नया उप्पलं नेणार किए। अदीणो यावर प, पुट्टो तत्थडियासए ॥ ३२ ॥ तेोगच्छं नाजिनंदेज्जा, संचिक्खडत्त - गवेसए ।
एयं खु तस्स सामछां, जं न कुज्जा न कारवे ॥ ३३ ॥ चिकित्सां रोगप्रतीकाररूपां नाभिनन्दन्नानुमन्येत अनुम विनिषेधाद्य दुरापास्ते करणकारणे, समय-स्वकर्मफलमेव तद्भुज्यत इति पर्यालोच्य । यद्वा-( संचिक्ख चि) " श्रच संबिहुलम्" इत्येकारतो "सचिन" समा
तू न कूजनकर्करायिताऽऽदि कुर्यात्, आत्मानं चरित्रात्मानं, गवेषयति मार्गयति-कथमयं मम स्यादित्यात्मगवेषकः । किमि त्येवमत श्राढ- एतदनन्तरमभिधास्यमानं, (खुचि) खलु, स च यस्मादर्थः, ततो यस्मादेतत्तस्य भ्रमणस्य, श्रामण्यं श्रमणजावो, यन्न कुर्यान्न कारयेत् । उपलक्षणत्वान्नानुमन्येत प्रक्रमाचिकित्साम जिनका तत्का क्या तु 'जन्न कुज्जा' इत्यादी सावधमिति गम्यते । अयमंत्र जावा याकरणादिभिः सद्यपरिहार एवम साथयाच प्रायशकिरा, ततस्तान् न अभिनन्देत् एतत्सर्गि कम्, अपत्रादतस्तु सावधाऽऽप्येषामियमनुमतैव । यदुक्तम्- "कादं प्रीतोविहाणेज व उज्जमिस्सं गणं व ती विसारसं साचसेवी समुदेति मोय ॥ १ ॥ " इति सूत्रार्थः । उत० पा० २ ० । ( ' गिहितिगिच्या' शब्दे तृ० भागे ८६ पृष्ठे गृहिचिकित्सानिषेधो व्यः) चिकित्सा श्री जगवत ऋषभस्योपदेशात्प्रवृता । आ० ० १ ० १ खएम ।
1
विष्छिाधि चिकित्सावि पुं० चिकित्सवमनविरेचनवस्तिकर्मादिकारवतो वैद्यनैषम्यादि वा पिएमा ये चिकित्सा पिएमा चिकित्सवा पिएमोत्पादनम् उत्पादना दोषभेदे, ध० ३ अधि० । बा० । तिमिच्छासंडिया-चिकित्मामेहिता स्त्री चिकित्साशा श्लोकस्थाननिदानशारीरचिकित्सितकल्प संच कायां मूलसंदितायाम, सूत्र० २ ० २ ० ।
तिमिच्छासत्य-चिकित्साशास्त्र
आयुर्वे 1
~न० 1 " गोणाऽऽदयः ॥ इ । २ । तिगिच्छि- पुष्परजस्~न १७४ ॥ इति पुष्परजः शब्दस्य 'तिगिच्धि इति निपातः । प्रा०२ पाद । देशीशब्दो बा । पुष्परजसि, जं० ४ ष० । द्वी ।
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१५४०) तिगिच्छिकूड अभिधानराजेन्दः।
तिणय तिगिच्चिकूड-तिगिच्छिकूट-पु० । चमरस्य उत्पातपर्वते, भ.३ | गिच्चिदहे तिगिच्चिददे?" इत्यादिप्राकसूत्रानुसारेण वाच्यं,
श०४ उ० । स्था(तक्तव्यता'चमर' शब्द तृतीयभागे | यावसिगिव्दिवर्णाभानि उत्पलादीनि धृतिश्चात्राधिपत्यं १११३ पृष्ठे उका) "दो तिगिच्छिकडा।" स्था०२० ३ उ०।।
परिपालयति। “से तेणणं" इत्यादि प्राम्बत् । ज०४ वक्त ।
तिगिच्छिय-चिकित्सक-पुं० । 'कित' रोगापनयने, स्वार्थ सन्, तिगिच्छिदह-तिगिजिहद--पुंग तिगिछिः पौणरजः, तत्प्रधा
एवम् । रोगापनयनकर्तरि वैद्य, वाच । स्थाए ठा० । मोदस्तिगिच्छिदः। निषधवर्षधरपर्वतमध्ये हवे, जम्बूमन्दर
तिगिच्छी-देशी-कमलरजसि, दे० ना.५ वर्ग १२ गाथा। स्य दक्किणे तृतीयहदे, जं०। तस्स एं बहुसमरमणिजस्स मिभागस्स बहुमझदेस.
तिगुण-त्रिगुण-न । त्रयाणां गुणानां समाहारः। सारख्योक्त
प्रधाने, त्रिनिर्गुण्यते 'गुण' संख्याने, घम् । त्रिभिर्गुणिते, वि०। जाए पत्य णं महं एगे तिगिच्चिदहे णामं दहे पग्मत्ते। पाई.
वाच• । अनु०। जं०। बापमीणायए. मदीणदाहिणविस्थिमो, चत्तारि जोअण
निगुणुकंम-त्रिगुणोत्कएम-त्रि०ा त्रिगुणं श्रीन वारान् याषसहस्साई आयामेण, दो जोमणसहस्साई चिक्खंनेणं, द.
प्राबल्येन कण्डनं ग्एटनं येषां ते त्रिगुणोत्कएमाः । श्रीन स जोमणाई उब्बेहेणं, अच्छे सएहे रययमयकले । तस्स
वारान् कण्डिते, पिं०।। अंतिगिरिदहस्स चउदिसिं चत्तारि तिसोवाणपमिरूवगा
तिगुत्त-त्रिगुप्त-त्रिका तिमजिरहालकोच्छूझकशतघ्नीसंस्थानीपएणत्ता। एवंजाय आयामविश्वं भविदूणा जा चेव महा- याऽऽदिभिर्मनोगुप्त्यादिगुप्तिभिर्गुप्तम् मयूरव्यसकाऽऽदित्वात पउमदहस्स बत्तम्बया,सा चेव तिगिकिदहस्म वि वत्त- समासः उत्त० अ. | मनोवाकायकर्मनिर्गुप्ते, ध०२ अधि।
चा । तं चेव पउमदहप्पमाणं अट्ठोजाव तिगिविणाई दश। पं० सू० । श्रावस। गुप्ताऽऽत्मनि, स्था० म०। घिइअइच्छदेवी पलिमोवमट्टिई अ परिवस। से एयडेणं
त्रिस्रो गुप्तयो यत्र तत् त्रिगुप्तम्-मनसा सम्यक प्राणहितो,वाचा
ऽस्थमिताम्य कराएयुश्चरन्, कायेनाऽऽवनिविराधयन् वन्दनक गोयपा ! तिमिच्चिदहे। तस्स ां तिगिच्चिदहस्स दक्खि- करोति । प्रव०२ द्वार दश। मनोवाकायगुप्ते, अर्थात् अकुपिल्लेणं तोरणणं हरिमहाणई पहा समाणी सत्त जोअण- शलमनोवा कायप्रवृत्तिनिरोधिनि,एकग्रहणे तज्जातीयग्रहणमिति सहस्साई चत्तारि अ एकवीसे मोअणसए एगं च एगणवी- न्यायात कुशलमनोचाकायोइ।पके प्रा० म०१ अ०२ स्खएम । सई भागं जोअणस्स दाहिणालिमही पदणं गंता महतिगोण-त्रिकोण-त्रि०ात्रयः कोणा यस्य । त्रिकोटियुक्त पदायें, या घममुहपवित्तिएणं० जाव सारेगं चउजोअणसइएणं पवाए पवमहा एवं जा चेव हरिकंताए बत्तब्धया, सा चेव
| तिग्ग-तिग्म-न। 'तिज्'-मम् । जस्य गः । तीक्ष्णे, तद्वति, हरिए विणेयव्वा । जिभियाए कुंमस्स दीवस्स जवणस्स
त्रिवाचा पं० सं०। तं चेव पमाणं, अहो वि भाणि अन्यो, जाव अहे जगई
तिग्य-त्रिन-न० । त्रिगुणिते, ध० २ अधि०। तिघरंतरिय-त्रिगृहान्तरिक-
पुत्रीणि गृहाणि अन्तरं भिकादालइत्ता छप्परणाए सलिलासहस्सोहि समग्गा पुरच्छिमं।
ग्रहणे येषां ते त्रिगृहान्तरिकाः । एकत्र गृहे भिक्कां गृहीत्वाऽयलवणसमुई समप्पेइ, तंचेव पवहे अमुहमले अपमाणं उ-] निग्रहविशेषाद गृहत्रयमतिक्रम्य पुनर्मितां गृहन्ति, न निरबेहो अजो हरिकंताए. जाव वणसंमसंपरिक्खित्ता॥ | तरं, दिनद्वमान्तरं घा। तेषु, चौ०।। ( तस्स णमित्यादि ) तस्य बहुसमरमणीयस्य मिः तिचक्खु-पत्रचकुप
..तिचक्ख-त्रिचक्षु-पुं०। उत्पन्नज्ञानदर्शनधरे श्रमणे माइने, भागस्य बहुमध्यदेशभागे अत्रान्तरे महानेकः तिगिचिः | स्था०३०४ उ०। पौष्परजा, तप्रधानो हुदस्तिगिहिदो नाम हृदः प्राप्तः ।। तिच्छमिय-त्रिच्चटित-त्रि० । श्रीन वारान् छटिते,रा । जी। प्राकृते पुष्परजःशब्दस्य 'तिगिच्छि' इति निपातः । देशीशब्दो चा। अन्यत्सर्व प्रागनुसारेणेति । अथास्यातिप्रदेश
तिहाणकरणमुछ-त्रिस्थानकरण शद्ध-त्रि० । त्रीणि स्थानासत्रेण सोपानादिवर्णनायाऽऽह-(तस्स णमित्यादि) तस्य
नि उरःप्रनृतीनि, तेषु करणेषु क्रियायां शुद्धं त्रिस्थान करणशुतिगिहिरस्य चतुर्दिक्षु चत्वारि त्रिसोपानप्रतिरूपकाणि
कम् । तस्मिन्, तद्यथा-"उरःशुद्धं, कएरशुद्धं, शिरोविशुप्राप्तानि । एवमित्यं प्रकारण इश्वर्णके क्रियमाणे यावदो
खं च। तत्र यदि उरसि स्वरः स्वभूमिकानुसारेण विशालो इत्र कायवाच्यव्ययम्, तेन यावत्परिपूर्ण यैव महापग्रहदस्य
भवति, तत उरोविशुद्धम् । स एव यदि कगठे वर्तितो नपति पकव्यता आयामविष्कम्नविहीना, सैव तिगिच्छिदस्य वक्त
अस्फुटितश्च, ततः कण्ठविशुरुम । यदि पुनः शिरः प्राप्तः सन् ग्या । पतदेव व्यक्त्या प्राचष्टे-(तं चेव इत्यादि ) तदेव
सानुनासिको भवति, ततः शिरोविशुद्धम्। यदि वा यत् बर:महापग्रहदगतमेव पचानां धृतिदेवीकमलाना प्रमाणम्
कपशिरोभिः श्लेष्मणान्याकुलितर्विशुद्धिीयते, तत् उर:एककोटीविंशतिझकपञ्चाशत्सहकशतर्विशतिरूपम,अन्यथा
कएशिरोविशुरुत्वात त्रिस्थानकरणविशुमारास जंग जी। उप पानामायामविष्कम्भरूपप्रमाणस्य महापग्रहदगतपी-|
तिण इय-त्रिनयिक-म । त्रिनयोपेते सूत्रे, यानि त्रैराशिकमत. ग्यो विगुणवेन विरोधापातात, हृदस्य च प्रमाणमधरूपबो- मवलम्ख्य व्यास्तिकाऽऽदिनयत्रिकेण चिन्त्यम्ते । नं० । भ्यम्, मायामविष्कम्जयोः पृथगुक्तत्वादिति । भस्तिगिरि | तिणय-त्रिनत-त्रि० । मध्यपाचक्ष्यलकणस्थानत्रयेऽवनते, रस्थ वाच्यः। स चैषम्-"से केवणं नंते! एवं वृश्चर-ति- भ. ३.६० । जी।
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तिवसूप
-
तिणमूव तृणशक पुं० [० तिणहत्यपतृस्तक विद्यामविनान०
1
"
भ० १५ श० ।
७ प्र० ।
60
तिणामेतिति पत्ते । तं जहा दन्त्रणामे, गुणणामे, पजत्रणामे अ । अनु• । तं पुराणामं निविहं थी पुरिसे पुंसगे चेव । " अनु० । (एषां त्रयाणां प्ररूपणा 'लिंगतिय' शब्दे रुया)
९६१
( २२४१ ) अभिधान राजेन्द्रः ।
के
३०३ ४०
थखे किं तं तिथामे हैं।
तिणिस - तिनिश-पुं० । वृकविशेषे, दश० ६ श्र० । जी० । नि० चू० । औ० । स्था० । ज्ञा० । मधुपटले, दे० ना० ५ वर्ग ११ गाथा ।
तिपु - तृण - न० | "स्वराणां स्वराः प्रायोऽपभ्रंशे ॥ ८४३२६ ॥ इति ऋकारस्थाने कारोऽकारश्च भवति । तपु । तिरयु । प्रा० १ पाद। नमाऽऽदौ, खटे च । वाच० ।
तिष्ठ-तीर्ण - त्रि० । प्रतिक्रान्ते, सूत्र० १० १२ श्र० । पारंगते, सूत्र० १० १० अ० तीर्थकृत्सु, “तिठाणं तारयां।" रा० । तीर्ण इव तीर्णः, संसारसागरमिति गम्यते । श्र० । तीर्णवती: विशुद्ध सम्यग्दर्शन । ऽऽ दिवाभाद्भवाणवमिति गम्यते । दश० १० अ० शे० । उत्तः । कल्प० । द्वा० | ज्ञानदर्शनचारित्रपो तेन भवार्णवं तीर्णवन्तस्तीर्णा । ल० । सर्वभावज्ञास्तीर्णाः परमदुस्तरम् (श्रा० म० १ ० १ ख । स० । जी०) संसारसाग रं भाविनि नूतवदुपचारातीर्णाः । भाचा०१ ० ० ६३० । सम्यग्ज्ञानदर्शन चारित्रपोतेन भवार्णवं तीर्णवन्तस्तीर्णाः, न चैषां तीर्णानां पारंगतानामावर्तः संभवति, तदभावे मुक्त्य सिको, एवं वन मुक्तः पुनवे नवतीति तीर्णत्वासिद्धिः । ६०२ अधि
कारणवादिभिरनम्तशिष्यैमवे. यन्ते 'काल एव कृत्स्नं जगदावर्त्तयतीति' वचनात् । एतन्निरा वायाऽऽड - "तीर्णेभ्यः तारकेज्यः । " ज्ञानदर्शन चरित्रपोतेन प्रबातीस्तेषां जीवितानि बन्धनानावातून ह्यस्यायुकान्तरवङ्गवाधिकारान्तरं तावे अत्यन्त मरणवद् मुक्त्यसिद्धेः सरिक च तद्भावेन जवनाभावः, हेत्वभावात् न हि मृतस्तद्भावने प्रवति, मरण नावविरोधादर्शनं प्रत्युतं न्यायानुपपत्तेः तदा सौ तदवस्थाभावेन परिणामान्तरायोगात्, अन्यथा तस्याऽऽनृसत्ययुक्तम्, तस्य तदवस्थानिबन्धनत्वात् । अन्यथा तदहेतुकोष एवं मुकः पुनर्भवे भवति त्वविरोधान, सर्वथा भवाधिकारनिवृत्तिरेव मुक्तिरिति, तद्भावेन प्रावत(२८)
विश्वसंसार तीर्थ संसार, पा तिएड्डा तृष्णा श्री "सदमा"
२ । ७५ ॥ इति एकाराऽऽक्रान्तो हकारः । प्रा० १ पाद । पि पासायाम, स० ५२ सम० ।
विविवख तितिकृ-त्रिततिते स इति तितिकम्। पाऽऽदिनि स्था०५०४०
विनितितिक्षण सहने, स्था विविषमाण-विविक्रमाय त्रि० असहति सू० १०
तितिक्खा-नितिज्ञा- खीसने ०१०४०१०
कमायाम, उत्त० १ ० । ० । आचा० । कुदादिपरीषहोपनिपातसहितायाम्, द्वा०२७ परीषदोपसर्गखनऊपक्षात १०० परीषद्दोपसऽऽ दुःखशेषसहने, श्रात्रा ० १ ० ८ श्र० ८ ३० । परीपढभेदे, परीषहाऽऽदिजये तितिका कार्या । श्राव० ४ श्र० । क्रमा, तितिक्षा, क्रोधनिरोध इत्येकार्थाः । भ० चू० ४ श्र० । उपा । परीषहाssदिजये, स० ३४ सम० ।
तितिकाद्वारमा
"पुरिदिदास
दिले अ ॥१॥
मदुरा
अग्गिए फायर, बदली तह सागरे श्र बोधवे । एगदिवसेण जाया, तत्थेव सुरिंददत्ते अ" ॥ २ ॥ ( कथा मनुष्यजन्म
सुरेन्द्र दत्तकुमारस्य इव्यतितिक्कानाचे उपनयःसाधुकरूपः कुमारोऽत्र, कषायाश्चाग्निकाऽऽदयः । शतकुमारास्तु सुताः परीषाः ॥ रागद्वेषीपाती सीतारका विशिष्टाऽऽराधना या सिद्धिर्मितिद्वारिका " ॥ २ ॥ अ० क० । श्राव० । प्रा० चू० । ( 'इंद्रदय' शब्द द्वितीयजागे ५३० पृष्ठे वृत्तम् )
विच तिक्त पुं०
86
[प्यादिदोष
सविशेषे, तथा च भिषकशास्त्रन" श्लेष्माणमरुत्रि पित्त, तृ कुष्ठं विषं ज्वरम् । इन्यात्तिको रसो बुद्धेः कर्ता मात्रोपसेवितः " ॥ १ ॥ अनु० | जं० । कर्म० । “ एगे तित्ते । " स्था० १ वा० । निम्बाऽऽदितिर सोपेते, त्रि० । प्रइन० ३ श्राश्र० द्वार । तंग शाः । उत्त० । प्रज्ञा० भा० । चरुणडुमे कुटजे, पुं० । वाच० । विनग तिक्तक- पुं० [तिक संकाय कन् भूनिम्बे (चिराता) चिरतिक्ते, कृष्णखदिरे, निम्बे, दीवृ के, ति कार्थे, वाच० | दश । निo चू० 1 पटोले, कटुतुम्ब्याम्, स्त्री० ॥ टाप् । वाच० । तिराणाम (५) विकनामन् १० रसनाम शरीरं निम्वादिति यति कर्म 1 तचरणाम विकरसनाम-१० रसनामदेव उजन्तुशरीरेषु तितो रसो भवति । यथा निम्बाऽऽदीनां तति• करसनाम । पं० सं० ३ द्वार। कर्म० । तित्तऽञ्जान्य- तिक्तान्झाबुक-बी० । कटुक तुम्बके, ज्ञा० १ ४०
1
-
एम० ।
वितविसारण तिसरा
विशेषे गिरिवरमा
तिचि
+6
सिल बद्धगाढपीठे, वे लक्खा तत्थ दम्माणं |१| " ती०३ तित्ति - तृप्ति - स्त्री० । घ्राणौ, विशे० । प्रश्न० । श्रष्ट०
--
पीत्वा ज्ञानामृतं मुक्त्वा, क्रियासुरक्षताफलम् । साम्यताम्बूनमासाद्य, तृप्तिं याति परां मुनिः ॥ १ ॥ स्वरेव तृप्ति-दाकालमचिनवरी । ज्ञानिनो विषयैः किं तैर्यैर्भवेत् तृप्तिरित्वरी ॥२॥ या शान्तैकरसास्वादा
स्थ
नाम कल्प |
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(२२४२) तित्ति अनिधानराजेन्दः ।
तित्य सा न जिहे न्द्रयधारा, परसाऽऽस्वादनादपि ॥३॥ | विध, जीवाजीवविधयाऽऽदिभेदात् । स्थापनातीर्थ साकारासंसारे स्वप्न मिथ्या, तृप्तिः स्यादानिमानिकी। नाकारभेदात् । व्यतीर्थमागमा ऽदिनेदान । तथ्या तु ज्ञान्तिशून्यस्य, साऽऽत्मवीर्यविपाककृत || ____ तत्र शरीरभव्यशरीरतीर्थप्रतिपादनार्थमाहपुनः पुमनास्तृप्तिं, यान्त्यात्मा पुनरात्मना ।
दाहोवसमं ताहा-वुच्छयण मलपवाहणं चेव । परतृप्तिसमारोपो, शानिनस्तन युज्यते ॥५॥
तिहि अत्यहिँ निजुत्तं, तम्हा तं दबतो तित्यं ॥ मधुराऽऽज्यमहाशाका-ग्राह्येऽशो च गोरसात ।
वह इशरीरभव्यशरीरव्यतिरिक्तं प्रागमतो नोभागमतो था परब्रह्मणि तृप्तिर्या, जनास्ता जानतेऽपि न ॥६॥
व्यती मागधवरदामाऽऽदि परिगृह्यते. बाह्यदादाऽऽदेरेव तत
उपशमसद्भावात्तथा चाऽऽह-दाहोपशममिति । दाहो बाघः विषयोर्मिविषोद्गारः, स्यादप्तस्य पुफलैः।
संतापा,तस्य उपशमो यस्मिन् तद् दाहोपशमम । (राहावुच्चज्ञानतृप्तस्य तु ध्यान-सुधोझारपरम्परा ।।७।।
यणं ति) तृपः पिपासायाः बेदन, जलसंघातेन त नियात्, मुखिनो विषयाऽतृप्ताः, नेन्झोपेन्नाऽऽदयोऽप्यहो।। तथा मलो बाह्योऽङ्गसमुत्था, तस्य प्रवाहणं-प्रवाह्यतेऽनेनेति भिक्षुरेकः सुखी लोके, ज्ञानतृप्तो निरञ्जनः।।
प्रवाहणं,जोन तस्य प्रक्षालनत्वात् । एवं त्रिभिरथैः करण जूते.
नियुक्तं निश्चयेन युक्तं प्ररूपितम्। यदिवा-प्राकृतत्वात सप्तम्यर्थे मा० १० अष्ट।
तृतीया। विष्वर्थेषु नियोजनं यस्माद बाह्यदाहाऽऽदिविषयमेव तिति-सावत-अव्य० । तत्परिमाणमस्य । त्रि० । बाच० ।
तस्मात मागधाऽऽदि व्यतस्तीर्थ, मोवसाधकत्वानावात् । " यत्तदेतदोतोरित्ति पतल्लुक च"॥८।३ । १५६ ॥ इति
संप्रति जावतीर्यमधिकृत्याऽऽहतच्छन्दात परस्य मावादेरतोः परिमाणार्थस्य 'इत्तिअ' इ. त्यादेशो भवति । प्रा०२पाद । साकल्ये, अवधी, तत्परिमा
कोहम्मि उ निग्गहिए, दाहस्सोवममणं हवइ तत्यं । णवति, त्रि।
सोहम्मिन निग्गहिते, तएहाए डेयणं होई ।। तित्तिकंखि ( ण )-तृप्तिकाङ्किण-नि० । तृप्तिवाञ्छके, अष्ट , अट्टविहं कम्मरयं, बहुएहि भवेहि संचियं जम्हा । ६ श्रष्ट.।
तवसंजमेण बज्म, तम्हा तं भावतो तित्यं ।। तित्तिर-तित्तिरि-पुं०।" तित्तिरौ रः"॥१०॥ इति
इह भावतार्थमपि अागमनोभागमभेदतोऽनेकप्रकार, तत्र नौ तित्तिरशब्दे रस्येतोऽद्भवति । प्रा०१पाद । पक्तिविशेष, सूत्र. प्रागमतो भावतीर्थ क्रोधादि निग्रहसमर्थ प्रवचन मेव गृह्यते । ५ श्रु०२ अ०। प्रश्न उपा०। प्रज्ञा ।
तथा चाऽह-क्रोधे एव निगृहीते दाहस्य द्वेषाना जातस्यातित्तिरकरण-तित्तिरिकरण-न । तित्तिरिमुद्दिश्य यत्र कि
न्तः प्रशमनं जवति तथ्य निरुपचरितं, नान्यथा । तथा लोन एव श्चिस्क्रियते तथा यत्र स्थाप्यते एवंभूते स्थाने, प्राचा०। ।
निगृहीते (तण्डाए छेयणं होति त्ति ) तृषोऽभियङलक्षण
स्य रोदनं व्यपगमो भवति । तथाऽविधमप्रकारं कमेव तित्तिराखण-तित्तिरिक्षण-न । तित्तिरिस्वरूपप्रतिपाद
जीवानां रजनात् कर्मरजा, बहभिर्भवैः संचितं तपःसंयमेन के ग्रन्थविशेषे, सूत्र. २ श्रु. २ अ०।।
बाध्यते शोध्यते यस्मात्तस्मात्तत्प्रवचनं नावतीर्थम् । तित्ती-देशी-सारे, दे० ना० ५ वर्ग ११ गाथा ।
दसणनाणचरित्त-म्मि निनत्तं जिणवरोहँ सव्वेहिँ। तित्थ-तीर्थ-न । यतेऽनेनेति तीर्थम् । व्यतो नद्यादीनां
एएण होइ तित्थं, एसो अमोवि पजायो। समोऽनपायश्च जूनागो, जौताऽऽदिप्रवचनं वा । जावतार्य तु
दर्शनशानचारित्रेषु नियुक्तं नियोजितं सः ऋषभाऽऽदिसङ्घः । स्था०१०। श्रा०म० । श्रा।
भिः,जिनवरैस्तीर्थकृद्भिर्यस्मादित्थंभूतेषु त्रिवर्थेषु नियुक्तं तअथ तीर्थशब्दार्थमाह
स्मात्तत्प्रवचनं भावतीर्थम । अथवा-येन कारणेनेत्थंना त्रि. तित्यं ति पुवभणिय, संघो जो नाणचरण संघाओ। वर्षेषु नियुक्तमेतेन कारणेन प्रवचनं भावतस्त्रिस्थम,एष त्रिस्थइह पवयणं पि तित्थं, तत्तोऽणत्यतरं जेण ।। १३०० ।।
लकणस्तीर्थशब्दापेक्षयाऽन्यः पर्यायः । श्रा.म.द्वि.२०।
अथ तीर्थशब्दार्थमाहतीर्यते ऽनेनेति तीर्थ पूर्वमेवात्राप्युक्तम् । किमित्याह-सङ्घः । किंविशिष्टः?, ज्ञानदर्शनचारित्रगुणसातः। श्ह तु प्रवचनमपि
तिज जं तेण तहिं, तो व तित्थं तयं च दवम्मि । तीथेमुच्यते यस्मात, ततः सहगतात्तदपि श्रुतज्ञानरूपत्वादन. सरियाईणं भागो, निरवायो तम्मि य पसिद्ध ॥१०२६॥ र्थान्तरमेवेति ॥ १३७० ॥ विशे०।
तरिया तरणं तरिय-व्वं च सिद्धाणि तार ो पुरिसो। संप्रति तीर्थनिरूपणायाऽऽह
बाहोमुवाइ तर, तरणिज्जं निन्नयाईयं ।। १०२७ ।। नामवणा-तित्यं, दवतित्य चेव जावतित्यं च।
यद् यस्मात्तीर्यते ऽस्तरं वस्तु तेन तस्मिस्ततो वेयतातीर्थमुच्य. एकेक पि य एत्तो-उणेगविहं होई नायव्यं ॥
ते । तच्च नामस्थापनाद्रव्य भावभेदाच्चतुर्षिधम् । तत्र नामस्थापने (नाम ति)नामतीर्थ, स्थापनातीय, व्यतीर्थ, भावतीर्थ सुगमे । ७व्ये द्रव्यभूतमप्रधाननुतं सरित्ममुकाऽऽदीनां निरपाच । (एत्तो नि) नामाऽऽदिनिकेपमात्रकरणादनन्तरमेकैकं नाम- यः कोऽपि नियतो भागः प्रदेशस्तीर्थमुच्यते । तस्मश्च प्र. वार्थाऽऽदि अनेकविध भवति ज्ञातव्यम् । तत्र नामतीर्थमनेक' सिसिद्धे सत्यस्याऽऽपेकिक शब्दत्वादेतानि नियमासिध्यन्ति ।
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(२२४१) तित्थ अनिधानराजेन्द्रः।
तित्य कानि, इत्याद-तरिता पुरुषः, तरणं बाहदुपादि,तरणीयं तु नाणातियं तरणं, तरिय जबसमुद्दोऽयं ॥१०२२॥ निमगाऽऽदिकमिति ॥ १.२७ ।।
प्राधे भावविषयं, श्रुनविहितं झुप्त प्रतिपादित, संघस्तीथे, तथा कथं पुनरिदं व्यतीमित्याह
च भमवत्या मुक्कम-"निस्थं नंन! सिस्थ, स्थियरे तित्थं । देहातारयं जं, बकमलावणयाणाइमत्तं च ।
गोयमा! परहा ताव नियमा तित्थंकरे, नित्थं पुण चाव. णेगंताऽगचंतिय-फलं च तो दन्वतित्यं तं ॥ १०३७ ।।
नो समसंघो। "इति । इह च तीर्थसिद्धौ तारकाऽऽदयो नि.
यमादाकियन्त एव । नत्रेह संघ तीर्थ तद्विशेषजूत एव तारकः यस्मादिदं देहाऽऽदिकमेव द्रव्यमानं तारयति-नद्यादिपरकू
साधुः, ज्ञानदर्शनचारित्रात्रकं पुनस्तरणं,तरणीयं तु जवसमुखः। समात्रं नयति, न पुनर्जीव संसारसमुद्रस्य मोक्कलक्षणं परकूसं
इद च तीर्थतारकादीनां परस्परतो-अभ्यता. अनन्यता च प्रापयति,अतोऽप्रधानत्वाद् जयतीर्थम् । तथा बाह्यमेघ मला
विवकावशतो बोरव्या।तत्र सम्यग्दर्शनाऽऽदिपरिणामाऽऽत्मकदिव्यमात्रमपनयति, न त्वन्तरङ्गं प्राणातिपाताऽऽदिजन्यकर्म.
स्वात् संघः तार्थ, तन्नावतीर्णानामवश्यं भवोदधितरणात । मसम । तथा-अनेकान्तिकफनमेवेदं नद्यादितार्य, कदाचिदनन नद्यादेस्तरणात, कदाचित्तु तत्रैव मज्जनात् । तथाऽनात्यन्तिक
द्विशेष नूतत्वात् तदन्तर्गत एव साधुस्तराता.सम्यदर्शना 55.
नुष्ठानात् । साधकतमत्वेन तत्करणरूपतामापकानाऽदित्रय फनं चेदम्। तथादि-एकदाऽनेन तीर्णमपि नद्यादिकं पुनरपि च सीर्यत इत्यनात्यन्तिकफलत्यम् । आत्मना चाऽस्य नद्यादिती.
तु तरणम् । तरणीयं त्वादयिकाऽदिभावपरिणामाSSURE र्थस्य हव्यमात्रत्वेनाप्रधानत्वात सर्वत्र व्यतीर्थत्वं भावनीय
संसारसमुद्र ति ॥ १०३२॥ मिति ॥ १०२८६
कस्मात् पुनः संघो नावतीर्थमित्याहरह केषाञ्चिन्मतमाशय परिहरन्नाह
जंनाणदसणचार-चभावो तधिवक्खभाबाओ। इह तारणाऽऽइफलथं, ति एहाणपाणाऽवगाहणाऽऽहहिं।
भवनावो य तारे-इते. तंजावो तित्यं ॥१.३३॥ नवतारयं ति केर्ड, तं नो जीवोवघायाओ ।। १०३९ ।।
यद् यस्मात्तारयति पारंप्रापयति तेम तत् संघल कणं भावतसूणंग पिव तमुद-हलं व न य पुएहकारणं एहाणं।
स्तीर्थमिति संबन्धः । कुतस्तारयतीत्याह-तद्विरक्षभावादिति
तेषां ज्ञानदर्शनचारित्राणां विपको-प्रज्ञानमिथ्यात्वाऽविरमणामि ण य जड़जोग्ग नं मं-मणं व कापंगभावाओ ।।१०३०॥
तद्विपका तहकणो भावो जीवपरिणामः तद्विपकभावः, तस्याशह केचित्तीथिका मन्यन्ते-नद्यादेःसंबन्धि व्यतीर्थ किल ना
सारयति । कुतः१, इत्याद-ज्ञानदर्शनचारित्रभावतःकानाss. नपानावगाहनाऽऽदिनिर्विधिवदासेव्यमानं भवतारकं संसार
घात्मकत्वादित्यर्थः । यो हि ज्ञानाऽऽद्यात्मको नवति सोझा. महामकराऽऽनयप्रापकं भवत्येव । कुतः१, तारणाऽऽदिफनमिति कृत्वा शरीरसंतारण-मलकाल न-ताव्यवच्छेद-दाहोपशमा35
नादिजावात्परं तारयस्येवेति नावः । न केवलमहानादिभादिफनस्वादित्यर्थः। अनेन चाध्यकसमीकितदेहतारणाऽऽदिफने
पात्तारयति । तथा भवभावतंश्च तारयति, जबः संसारस्तत्र
भवनं भावस्तस्मादित्यर्थः। यस्मात्स्वयं ज्ञानादिभाषाऽस्मका, न परोकस्यापि संसारतारण फनस्यानुमीयमानत्वादिति भावः। तदेतत्रोपपद्यते, स्नानाऽऽदेर्जीवोपघातदेतुत्वात्, षग सिधे.
तथा ज्ञानाऽऽदिभावाद्भवभावाच्च भव्यांस्तारयति,तस्मादसौ
संघा भावतीर्थमितीद तात्पर्यम् । नुशूलाऽऽदिवदिति । एतमुकं भवति-जीवोपघातहेतुत्वाद् दुर्गतिफला एव स्नानाऽऽदयः,कय नु जवतारकास्ते भवेयुः, सूना.
उक्तं चबध्यनूम्यादीनामपि भवतारकत्वप्रसङ्गादिति ? | तश्च-नद्या
"रागाऽऽद्यम्भाःप्रमादन्यसनशतंचलद्दीघकहोसमाला, दिनार्थ भवतारकं न नवति, सनाङ्गस्वास्-सूनाप्रकारस्वात,
कोधेावामवाग्नितिजननमहानचक्रीघरीकः। उपवाऽऽदिवदिति । न च पुण्यकारणं स्नान,नापि यतिजनयो. तृष्णापाताल कुम्नो जवजाधिरयं तार्यते येन तर्ण, ग्यं तत्, कामास्वात, मएम्नवत्.भन्यथा ताम्बूलभक्कणपुष्पब
तद्द्वानाऽऽदिखभावं कथितमिह सुरेल्वार्चितैर्भावतीर्थम॥॥" न्धनदेहाऽऽदिधूपनाम्यञ्जनादयोऽपि च भुजङ्गाऽऽदीनां पुण्यदे.
इति ॥१०३३॥ सवः स्युः। न च देखतारणाऽऽदिमात्रफनदर्शनेन विशिष्टं भवता.
उपपश्यन्तरमाहरणाऽऽदिकं फनमुपपद्यते, नियामकाभावात, प्रत्यकवीकितप्रा.
तह कोहनोदकम्मम-यदाहतएहामलावणयणाई। . ण्युपमर्दबाधितत्वाव, इत्याद्यभ्यूह्य स्वधियात्र दोषजालमनिघानीयमिति ॥ १०२६ ॥ १०३०॥
एगतेणवतं, च कुगइ सुधि जोपायो॥१०३४॥ অথ যা মুযানিমিয়া
तथा क्रोधश्च, मभिश्व, कर्म च, तन्मयास्तस्वरूपा ययासंब्य
ये दाहतृष्णामलाः क्रोधो दि जीवानां मनःशरीरसंसारसदेहोरगारि वा ते-ण तित्यमिह दाहनासणाहिं ।
तापजनकत्वाहाहा, सोनस्तु विनाविषयपिपासाअविभावकमहमज्जमंसवेस्माऽऽ-दमोवि तो तित्यमावनं ॥१०३१।।
स्वात् तृष्णा, कर्म पुनः पवनोद्धृतश्लदणरजावत्सर्वतोऽवगुयदि प्रेरको मन्येत-जाहीजलाऽऽदिकं तीर्थमेव, दाह- पठनेन मासिन्यदेतुस्वादु मलः, अतस्तषां कोषलोमकर्ममयाना नाशपिपासोपशमाऽऽदिभिर्द होपकारित्वात् । अत्रोच्यते-पवं दातृष्णामझानां यदेकान्तेनात्यन्तं चापनयनानि करोति । सति ततो मधुमद्यमांसवेश्यादयोऽपितीर्थमापद्यन्ते,तेषामपि तथा कर्मकचवरमलिनाद्भवोधात् संसारापारनीरप्रवाहय देहोपकारित्वाविशेषादिति । उक्तं व्यतार्थम् ॥१.३१॥ परकूलं नीत्वा शुकिमलापनयननां यतः करोति, अथ नावतीर्थमाह
तेन तस्सयलकणं भावतस्तीमिति पूर्वसम्बन्धः। अपर. भावे तित्थं संघो, सुयविहियं वारमो तहिं साह। বি নকিবই নানাভাবে
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(१४) तित्य भाभिधानराजेन्छः।
तित्थ नयनं विदधाति। पतनु संवतीर्थमनादिकालालीनत्वेनानन्तानां
अभ्यतीर्थान्यप्येवंविधानि जविष्यन्ति?, नेत्याहदातृष्णामलामामैकान्तिकमात्याग्निक चापनयनं करोति, मतः नाभिप्पेयफलाई, तयंगवियनत्तो कुतित्याई। मथानत्वाद्भावतीर्यमुच्यते, मद्यादितीर्थ स्वप्रधानत्वादू कन्य
वियतनयत्ता ओचिय,वियलाई वियन्नकिरियन ।१०३।। तीर्थमिति भावः॥ १०३४॥
मुगताऽऽदिप्रणीतानि कुतीर्थानि नानिप्रेतफमानि।कुतः?,इत्याहअथवा प्राकृते “तित्थं" इत्युक्ते त्रिस्थामित्येतदाप लज्यते,
(नयंगेत्यादि)तस्यानिप्रेतार्थग्याङ्गानि तदङ्गानि सम्यग्झानाऽऽही. इत्येतदाह
मि कारणानि, तद्विकन्नत्वात्तदितत्वान,नयविकावाच विकदाहोवसमाऽऽसुवा, जतिसु थियमहद दमणाऽईस।
मानि तानि । सर्वैरेव कैकांशमादिभिर्नयैर्मिलितः संपूर्णमन. तो तित्य संघोच्चिय, उनपंव विसेस पाविसेस्सं ॥१०३५।। न्तधर्माऽऽत्मकं वस्तु निश्चीयते; शेषतीर्थानि स्वेकट्यादिनय. अथवा यद्यस्माद्यधोक्तदादोपशमताहाच्छेदमलक्का लनरूपेषु, मात्रमतावन्नम्बित्वेन समग्रनयविकलान्येवेति तानि नयविकयदि वा सम्यग्दर्शनशानचारित्राणेषु त्रिवर्षेषु स्थितं तत- लानि, ततो न सम्पूर्णाभिप्रेतफलस्य साधकानीत्यर्थः । वि. ख्रिस्थं संघ एव, नभयं वा संघत्रिस्थितिक्षणविशेषणविशेष्य. कनक्रियावदिति; यथा निपक्प्रतीचारकाऽऽतुरौषधाऽऽद्यन्यतरा. रूपं यं त्रिस्थम् । श्दमुक्तं भवति-किं त्रिस्थं ?-संघा, कश्च विकमा क्रिया न संपूर्णनिप्रेतफनसाधनी, तथा कुती. संघः?-त्रिस्थं, नान्यः, श्त्येवं विशेषणविशेष्ययोरुभयं संसुलितं र्थान्यपीति । तदेवं यथोक्तप्रकारेण व्याजावतीर्थप्ररूपणा विस्थमुच्यत इति ।। १०३५॥
कृता॥ १०३९॥ अथवा प्राकृते तित्थं' इत्युक्त इयर्थमित्यपि लभ्यते, इत्येतदर्य
अथ प्रकारान्तरेण तत्प्ररूपण कर्तुमाहपन्नाह
अहव होतारुत्ता-रणाइ दब्बे चउनिहं तिथं । कोहग्गिदाहसमणा-दनो व ते चेव जस्स तिएणऽत्या।
एवं चिय जावम्मिनि, तत्थाऽऽश्मयं सरक्खाणं २०४०॥
तन्वणियाणं बीयं, विसयमुहकुमत्थानावणाधणियं । होइ तियत्यं तित्थं, तमत्थसदो फलश्योऽयं ॥ १०३६।। क्रोधाग्निदाहोपशमलोनतृष्णाव्यवच्छेदकर्ममलकालनलकणा.
तइयं च बोमियाणं, चरिमं जाणं सिवफनं तु ।।१०४१॥ स्त एवानम्तरोक्तानयोऽर्थाः फलम्पा यस्य तव्यर्थ, तच्च संघ यह द्रव्यतीय चत्वारो भनाः। तद्यथा-सुखावतारं सुखोचापव, तदव्यतिरिक्त मानाऽऽदित्रयं वा ज्यथै प्राकृते तित्थमुच्यते। रम, सुखाचतारं दुरुत्तारम्, दुःखावतारं सुखोत्तारम् , दु:अर्थशम्दश्चायं फलार्थो मन्तव्यः। श्दमुकं नवति भगवान् संघः ।
स्वावतारं दुरुत्तारम् । एवं भावतीय ऽपीयं चतुर्नङ्गी एव्या । तदण्यतिरिक्तदानाऽऽदित्रयं वा महातकरिव भव्यनिषेव्यमाणं शह च यत्र सुखेनैवावतरन्ति प्रविशन्ति प्रारिणनस्तत्सुनावकोधाग्निदाहशमनाऽऽदिकांस्त्रीनर्थान् फनत्यतस्यर्थमुच्यत तारम्, सुखेनैव यत उत्तरन्ति -सुखेनैव यद मुश्चन्तीत्यर्थः, तत्सुइति ॥ १०३६॥
खत्तारमा इत्याद्यनङ्गवर्तितीर्थनावार्थः । पथमन्यत्रापि । एतच अथवा वस्तुपर्यायोऽत्राथशम श्त्याह
सरजस्कानां शैवानां सम्बन्धि वेदितव्यम् । तथादि-रागद्वेषक
पायम्लियपरीषहोपसर्गमनोवाकायजयादिक्षणभ्य तथाधि. अहवा सम्मईसण-नाणचरिता तिरिए जस्सऽत्था ।
धनुष्करकानुष्ठानस्य तैः क्रियमाणस्यादर्शनात, यथा कयशितं तित्थं पुनोश्य-मिह भत्थो वत्युपज्जाओ ॥१०३७॥ स्वरूपतयाऽपि च तैर्वतपरिपाझनस्याभिधानात्सुनेनैव प्राणिन. अपवा सम्पग्दर्शनादयत्रयोज्यां यस्य तत्व्यर्थम,अर्थशमबा. स्तदीनां प्रतिपद्यन्ते, इति तत्तीर्थस्य सुखावतारता । तच्चाप्रवस्तुपर्यायः,त्रिवस्तुकमित्यर्थः। तच्च संघ एव,तदव्यतिरिक्त- रेषु चन तथाविधाऽऽवासकस्वजाचा काचिनिपुणा युक्ति.रस्ति, स्वात, त पव वा सम्यग्दर्शनाऽऽदयखयोग्ाः समाहताः यथै, यद्वामितान्तरात्मा पुमांस्तहीकां न परित्यजेत । कि च-"शसंपापूर्वस्वात् , स्वार्थत्वाच्च द्विगोरिति॥१०३७॥
वो द्वादश वर्षाणि, व्रतं कृत्वा ततः परम् । वयशक्तस्त्यजेदापि, तदेवं संघो जावतस्तीथै, त्रिस्थ, यथै वेति प्रतिपाद्य साम्प्र- यागं कृत्वा बतेश्वरे ॥१॥" इत्यादिना दीकात्यागस्य तेर्निर्दोष. समिवमेव जैन तीर्थमनिप्रेतार्थसाधकं, नान्वदिवि प्रमाणत: तयाऽप्यन्निधानात्सुखेनैव तद्दीको जन्तवः परित्यजन्ति, इति त. प्रतिपादयसाह.
तीर्थस्य सुखोत्तारतेति । द्वितीयभवति तीर्थ ( तब्बल शह सम्मंसचाणो-बसदिकिरियासभावो जहणं ।
शिवाणं ति) सुगतानां संबन्धि मन्तव्यम् । तित्यमजिप्पेयफसं, सम्मपरिच्छेयकिरिय ब्व ॥१०३८॥
"मृती शय्या प्रातरुत्थाय पेया, पहजैनमेष तीर्थमनिप्रेतार्थसाधकमिति प्रतिका, सम्यग्दा- भक्तं मध्ये पानकं चाऽपराहे। मोपलब्धिक्रियालभावस्वात, सम्यग्दर्शनहानचारित्रात्मक- बावास शर्कय चारात्रे, स्वादित्यर्थः । ह यत् सम्यकुश्रमानोपलब्धिक्रियामकं मोक्चान्ते शाक्यपुत्रेण ष्ठः॥१॥" तरिटार्थसाधकं , यथा सम्यगपरिच्छेदवती रोगा- " मगु भोयणं भोचा, मणुक सयणामणं । पनयनक्रिया, यच्चेवार्थसाधकं न भवति, तत् सम्यगृधद्धा- मासि भगारंसि, मणुनं झायए मुणी॥१॥" नोपलब्धिीक्रयाऽऽश्मकमपिन नवति, यथोन्मत्तप्रयुक्तक्रिया, इत्यादेस्तरभिधानतो विषयसुखलिस्तत्तीर्थस्य सुखावतारता। तथा च शेषतीर्थानि । श्दमुक्तं भवति-यथा कस्यचिनिपुणवै- तथा-कुशास्त्रोक्तनिपुणयुक्तिभिस्तीववासनोत्पादाद्वतस्यागेव यस्य सम्यगोगाऽऽदिस्वरूपं विज्ञाय विशुद्धश्रद्धानवत् आतुर. तैर्महतः संसारदरामाऽऽदे प्रतिपादनात, तत्समीपगृहीतत्रस्य सम्यगौषधप्रयोगाऽऽदिक्रियां कुर्वतोऽभिप्रेतार्थसिरिर्जा- तस्य उपरित्याज्यत्वात्ततीर्थस्य दुरुत्तारतााइमांच युक्ति मा. पते, एवं जैनतीर्यादपीति । १.३८ ॥
यकार स्वयमेव किशिदाद-"विसयमुह" इत्यादिपनार्थम ।
साहि
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(२२४५) तित्थ अभिधानराजेन्कः ।
तिस्थ दुःखावतारं मुखोलारमिति वतीयं बोटकानां दिगम्बराणा- पुनरपि ' एतज्जानमपि कथं नु नाम तम्मादयति-कथं म । तमनायादेलजाउदिहेतुस्वेन दुराज्यबसेयत्वात्सत्तीर्थस्य | तत उत्तरिष्यति ?, न कशिदित्यर्थः । प्रतो पुरुत्तारता दुखावतारता । अनेषणीयपरिमोगकपायवाल्याऽऽदेस्तद- तस्योत । किश-सद्वचप्रयुक्तकर्कशक्रियोदाहरणत भावतीभमासदर्शनात. नाम्यादेधातिमञ्जनीयस्वेन तत्पराजम्नानां र्थस्य सुखावतारोचारता भावनीया ॥ १०४३.१४॥ सत्तीर्यस्य सुखोत्तारतेति । पुखावतारं दुरुत्तारमिति चरम
कथम !, इत्याहचतुर्थ मोक्षफलम्। जैनानां साधूनांगगवेषकषायेछियपरीषहो
प्रकक्खमं व किरियं, रोगी दुक्खं पवजए परमं । पसर्गाऽऽदिजन्यस्य, तथा प्रमततया समितिगुप्तिशिरोलुशनादिकाऽनुष्ठानस्य दर्शनात्ततीर्थस्य मावतारता । मुशा.
• पडिवयो रोगक्खय-मिचंतो मुंचए दुक्खं ॥१०४॥ रोक्तनिपुणयुक्तिभिस्तीबतरवासनोत्पादनात्, व्रतत्यागे चाति. इय कम्पवाहिगहिमो, संजमकिरियं परम्मए दुक्खं । मदतः संसाराऽदिदएकस्यानिधानात्तत्तीर्घस्य पुरुत्तारता।४।
पमिवलो कम्पक्स्वय-मिच्छंतो मुचए दुक्खं ॥१०४६॥ अन्ये तु सुखोचारता दुरुचारतां च सर्वत्र मुक्तिप्राप्तिमाभित्य
गाधाइयमपि सुबोधम् ॥ १.४५॥१०४६ ॥ विशे। (अ. पाचकते, तत्र सरजस्कानां स्वल्पेनैवेश्वरोक्कानुष्ठानेम किल
म्बूद्वीपतीर्थवतन्यता 'जंबूदीच' शम्देऽसिनेष मागे १३७४ मुक्तिप्राप्त्यभ्युपगमात्सुखोत्तारतीर्थ,सुखेनैवास्माद्भवार्णवमुत्त.
पृष्ठे गता) रस्तीति व्युत्पत्तेः । शाक्यानां तु पुरवापविशिष्टभ्यानमार्गाद योगिकानोत्पश्यानिक्रमेण मुक्तिप्राप्यभ्युपगमाद् दुःखोसारता।
तित्थं ते ! तित्यं, तित्यगरे तित्यं ।। गायमा ! अरहा खनास्मात्संसारमुत्तरन्ति' इति रुस्वा। वोटिकानां तु भि. ताव णियमा तित्थगरे, तित्थं पुण चाउन्नमा समणताशुखादीनां गौणत्वेनान्युपगमानायलकणनियत्वमात्रा- संघे । जहा-समणा, समणीभो, सावया, साविदेव मुक्न्यन्युपगमात्सुखोत्तारता । साधूनां तु पूर्वोक्तकष्टानु
यायो य । हानाद् मुक्त्याश्रयणाद् गुरुत्तारता । भवतारपके तु सर्वत्र
(तित्धं भंते ! इत्यादि) तीर्थ सहरू नदन्त ! (तित्थं ति: पूर्वक्तिव भावना; इत्यलं विस्तरेणेति ॥ १०४० ॥ १.४१॥
तीशम्नवाच्यम्, त तीर्थकरस्तीर्थ तीर्थशनवाच्यम्, इति अत्र प्रेरकः प्राऽऽह
प्रश्नः । पत्रोत्तरम-भईन् तीर्थकरस्तावत्तीर्थप्रवर्तयिता, न तु ना जं दुहावयारं, दुक्खोत्तारं च तं दुरहिगम्म। तीर्थम् । तीये पुनः (चाउम्बमा समणसंघे ति) चत्वारो लोयम्मि पूश्यं जं, सुहावयारं महत्तारं ॥ १०४३ ॥ पर्णा यत्र स चतुर्वर्णः, स चासाचाकीर्णश्व माऽदिगुणामनु यद् दुःखावतारं च दुरुत्तारं च तीर्थ तद् पुरधिगम्यम् ,
सश्चतुर्वर्णाऽऽकीर्णः । क्वचित्-" चढवपणे समसंघे " इति पवंचूतं च जैन तीर्थ भवद्भिः प्रतिपादितम्। एतच्चायुक्तम.पवं.
पठ्यते,तन्त्र व्यक्तमेवेति । भ०२० २०८०('माणा' शब्दे
द्वितीयभागे ११६ पृष्ठे तीर्थविचारो रूपन्यः)"भव:स्वाततीर्थस्य तरणक्रियाविघानित्वेनानिहार्थप्रसाधकरवात, लो
यीतीर्थ, यत्किञ्चिन्नाम विद्यते । तत्सर्वमेष रष्टं स्यात्, पुकप्रतीतिबाधितत्वासा तया चाह-लोकेहि यत्सुखावतारं सुखोत्तारं च तीर्थे, तत्पूजितं तदेवोपादेयम्, तरणक्रिया नुक
एडरीकेऽभिवन्दिते ॥१॥" ती० १कल्प । तीयते संसारसस्ये नेणार्यप्रसाधकस्वात् तस्मात् प्रथम एव सः श्रेयान, इति
मुखोऽनेनेति तीर्थम् । रा० । पञ्चा० ला पा०म० स० प्रा० प्रेरकाऽभिप्राय इति ॥ १०४२॥
च० । संसारसागरं तरन्ति येन तत्तीर्थम् । नं0।" द्वितीयतु
र्ययोरुपरिपूर्वः" ।।२ ॥ इति द्वितीयस्योपरि प्रथमः । अत्रोत्तरमाह
प्रा.२ पाद । “इस्वः संयोगे" ॥८१॥ ४॥ इति दीर्घस्य एवं तु दबतित्यं, जाने दुक्खं हियं सभइ जीवो।
हुस्वः । प्रा.१पाद । प्रवचने, प्रा. म०प्र०१खएम मार मिच्छत्तऽणाणऽविरई-विसयसहभावणाणुगओ।१०४॥ चा संसारसागरतारणकारणत्वाकानादी, स०३० समा पहिवमो पुण कम्मा-गुजावो नावनो परममुकं ।
तागाऽऽदाववतारमार्गे, स्था०१० ठाश्रीवारतीय कियस्का
सं यावद भवतीति प्रश्ने, उत्तरम्-"जंबुद्दीचे दी जारहे वासे किह मोच्चिइ जाणतो,परमहियं मुख च पुणो।१०४४।
श्मीसे भोसप्पिणीए देवाणुणिमा ! णं केवतिनं तिथं भ. सत्यम,दव्यतीर्थमेवमेवेष्यते यथैव त्वं ब्रूगे,तस्य सुखप्राप्यत्वा- गुसज्जिस्स ?" इति नगवतीसूत्रविशतितमशतकाटमोस्, सुखेनैव च मुच्यमानत्वादिति । भावतीर्थे तु नैवम, तस्य देशकानुसारङ्गकविंशतिसहस्रवर्षाणि यावत् श्रीधीरतीय प्रवमोकदेतुत्वेन जीवानां परमहितत्वात् । यह मोक्षहेतुत्वेन हितं तिच्यते।किश-"तिस्थं भंते !तित्थं, तित्ययरे तिथं? गोयमा! सद् दुःखं समते जीवा-महता कोन तज्जीवः प्रामोतीत्यर्थः। क- भरहाताव नियमा तित्थकरे,तित्थं पुण चाउवालाको समणसं. यंभूतो यस्मादेष जीवः१. पाह-(मियत इत्यादि) यस्मा- घेतं जडा-समणा,समणीओ, सायगा,साविमानो या"इति अनादिकालालीनमिथ्यात्वाज्ञानादिरातविषयसुखभावनाऽनुगतो जगवत्यां"अप्पसहंते चरणं, मणिभंज नगवया इहं लेते।श्रा. जीवः, तस्मादित्यभूतस्य जीवस्यानन्तसंसारदुःस्त्रव्यवच्छेदहे. जाजुत्तणमिणं, ण होर हुण सिवामोडो" ॥१॥ श्स्युपदेशपदय. तुस्वाभिःसीमनिःश्रेयसावाप्तिनिबन्धनस्वासच परमहितं नाव- चनादू दुःप्रसहान्तं यावश्चात्र जविष्यतीति। १०प्र०ासेन३ १. सार्थमतिदुरवापरवात पूर्वोक्तकानुष्ठानयुक्तत्वाच्च दुःखाचता- नाका अश्रुत्वाकेबनिनस्तीभवन्ति, तीर्थ विच्छेदेषा भयम्ति?, म. तथा-कुरुत्तारं च । कुतः, इत्याह-(पडिवएणो इत्यादि) तथा पाक्षिकसूत्रवृत्तावतार्थेऽन्तकृरकेवलिनो नुस्वा सिदधन्ति, शुजकर्म परिणत्यनुभावतः पुनः कथमपि परमहाद्धं भावतीर्थ भगवस्यांच नवमहातके तदाश्रित्य "सप्पक्वियसाययस्स तप्पभावतः परमार्थतः प्रतिपलो जीयः । परमहितं दर्सन क्लियसाबियाप वा"स्यत्र धम्मोपदेशं नवच पकं प्रशंकात.
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तित्थ
मेकं च मुक्त्वेत्यभिप्रायेणाऽश्रुत्वा के बनिस्तीर्थे एव भवन्ति ?! श्रन्यच्चाश्रुत्वा केवलिनः पञ्चदशभेदभिन्नानां सिद्धानां मध्ये निमेस सविस्ट प्रसा मिति प्रश्ने, उत्तरम् केविन ओभ नुसारेण ती एक
(२२४६ ) अभिधानराजे
सिधारे पते ना तीर्थसिद्धाऽऽदिमध्ये यथासंभव मवतरन्तीति । ३८२२० । ० ३ उद्धार । तीर्थे यनालिकेराऽऽदि त्र्यंमानितं तदेव शुरुयतेऽन्यद्वैति प्रश्ने, उत्तरमदेव मानदेव मुख्य कारणे ४४२ प्र० । सेन० ३ उद्घा० जे० (तोर्थव्य प्रभावकाः 'प्रभाव' शब्दे बक्ष्यन्ते ) (ऊर्ध्वोकाऽऽदिषु शाश्व शाश्वतीर्थानि 'चेश्य ' शब्दे तृतीयभागे १२४२ पृष्ठे उक्कानि) (नरतस्य राज्ञो वरदातीगमनं ' भरद्' शब्दे वक्ष्यते )
1
त्रिस्य न० वा कोपिलो तृष्णानि कर्माऽविणे व ती ति त्रिस्थम् । संघे, प्राकृतस्वात् ' तित्थं । ' स्था० १ ठा० । पर्थम प्रयो वा क्रोधादिदोषशमा यो पान यस्य अथवा हानादयोऽधीयस्य तयर्थम् । संघे, स्था० १aro | तित्पर - तीर्थकर - पुं० । ' तिस्थयर ' शब्दार्थे, विशे० । त्तित्थंकर-तीर्थ (ङ) कर- पुं० | तीर्थमुक्तलक्षणं तत् कुर्वन्स्यानुहेतुत्वेनातितीरा अनुस्वारः प्राकृतत्वात् । पा०|" तीर्थाच्चैके इति वचनात् खप्रत्यये तीर्थशब्दाद् मुम् । नं० शास्तृषु, पा० । ( तीर्थकरस्य सर्वा वक्तव्यता' तित्थयर' शब्दे २२४७ पृष्ठतो वक्ष्यते ) नित्यकरणाय तीर्थकरात २० जिनोदादर के पा विव० ।
•
नित्यगरतीर्थकर पुं०दार्थे विशे तित्यजत्ता - तीर्थयात्रा - स्त्री० । तीर्थगमने, घ० । अथ तीर्थयात्रास्वाम
।
रात्र तीर्थानि श्रपोज पन्तादीनि तथा तीर्थमाज्ञाननिविहारमयोऽपि प्रभूनस्वा संपादकत्वेन यातनिधिारतीर्थान्यन्ते तेषु
विशु विधिवजिनानुद्दिश्य महोत्सव तीर्थयात्रा । तत्राऽयं विधिः प्रथमं मुख्यवृष्या ब्रह्मवतै काऽऽहारपादचाराअभिमान्प्रतिपद्यते सत्यामपि वादनामध्यां पादचार प्रतिमेकाहारी दर्शनधारीयाधासुराचनकारी सचित्तपरीहारी, पदचारी ब्रह्मचारी च ॥ १ ॥ " ततो राजानमनुज्ञापयति, प्रगुणीकरोति च यथाशक्ति युक्तिविशिष्टान् या देवाऽऽपान् कारयति विवि
दाऽऽदि उत्पखरोरा सजयति शकटायनेकवि चिवानामि निमन्यते स बहुमाने श्रीगुरुजनवर्ग च, प्रवर्तयत्यमारिम, करोति चैत्याऽऽदौ महापूजा ऽऽदि महोत्स यम् ददाति मादिभ्यो दानम् प्रोत्खाइपति निराधारेग्यो भिवादनादिदानविषयोचा पूर्वम् श्राढपति का काऽऽयुपस्कार/र्पणऽऽ दिसं मान पूर्वमनेको द्भटान् प्रगु
-
तित्यग्विगार
"
णयति च गीतनृत्यवाचाऽऽदि, ततः करोति शुभेऽह्नि प्रस्था नमजय तत्र सकलमुदाय विशिनोपनाम्बाऽऽदि निः परिजाय परिचाय व कुलाऽऽदिभिर्विपति सु तिष्ठपठिपभागवत्तराधिपत्यम् विद धाति पूजामय मार्गे महाकुम् प्रतिग्रामं प्रतिपुरं च येषुजर पाट्याद्यतुच्छोत्सवं जीर्णोद्धाराऽऽदिचिन्नां च विदधन तीर्थ प्राप्नोति । तद्दर्शने च रत्नमौक्तिका ऽऽदिवर्षापनल पनेप्सितमोदकाऽऽदिलम्ननिकादि कुरुते । तीर्थे चाष्टप्रकाराऽऽदिमहापूजा विधिसमालोचनाननवाज
माजावरात्रिजागरण गीताकरण
तीर्थोपविधानविविधफलभादिस्तु ढोकनपरिचापनिकामोचनविचित्रचन्द्रोदय
तिकेवरचन्दनागुरुपुष्यादिपूजापकरण...
दाननविकादिविधापन सुधारशनिवारक मानतीर्थावर्तन मार्मिक वात्सल्य गुरुसंघपरिधापनाऽऽदिभा के मार्ग नदीनाऽऽयुचितदा कुरुते । एवं यात्रारातो देवाऽऽहान दिवस जनादकारपूर्वक विच वयोदयापा का दिनमा इनि तीर्थाधिन यात्रा च कल्याणकदिवसेषु विशेष लानकरी । यतः पञ्चाश के नवमविवरणे
"तक्षिमाणा व दिपमुख काय जं एसो श्चिय विसओ पहाणमो ती किरियाए ॥ १ ॥ "
तथा
"म्यासियम दिया प्रतिहीसु सव्वायरेण नगर, जिणपरपूश्रातवगुणेसुं " ॥ १ ॥ त्यागमप्रामापादेयादिषमेषु विशेषकर देवा यात्रायाश्व दर्शनशुद्धयत्वात्प्रयत्नः श्रेयानेव । यतः"मोनं परमं सदाऽऽपारो निस्संकादी भणि, पभावणं तो जिणिदेहिं ॥ १ ॥ पवरा पभावणा ३६, असे सनावस्मि ती सम्भावा । जिणजत्ता यं तयंगं. जं पत्ररं तप्ययासोऽयं ॥ २ ॥ ध० २ अधि० । ( तीर्थयात्रायां पापकर्मयोगो भवति न वेति विचारः ' आणा' शब्दे द्वितीयजागे १२० पृष्ठे कृतः ) गारवीर्यनिकार० शासनसंकोचे, स्था
तथा चाहुराजी विकनयानुसारिणः" ज्ञानिनो धर्म तीर्थस्य, कर्तारः परमं पदम् ।
भूयोऽपि भवं तीर्थेनिकारतः ॥ १ ॥ " स्था० ॥ पायामपि मे मोकावासी तथाऽपि स्वतीथेनिकारदर्शनतः पुनरपि संसाराऽभिगमनं भवतीद
माशक्याऽऽहू
अकुप एवं पास्थि, कम्पं नाम विज्ञान |
(
क्यों इत्यादि ) तस्य अशेषकवारहितस्य योग प्रत्ययाभावात्किमप्यकुर्वतोऽपि नवं प्रत्यनं, कर्म ज्ञानाssचरणादिकं नास्ति म प्रतिकारणाभावात्कामाि कृत्वा, कर्माभावे च कुतः संसाराभिगमनम् कर्म कार्यत्वात्संसारस्थ, तस्य चोपरताशेषद्वन्द्वस्य स्वपरकल्पनाभाबाद रागद्वेषर
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(२२४७) अभिधानराजेन्द्रः ।
विस्थाणिगार
तित्थयर
हिततया स्वदर्शननिकाराभिनिनेशोऽपि न भवत्येव । मूत्र०१ तच्च प्रवचनाऽऽधारः चतुर्विधः सः, प्रथमगणधरोवा, सरकभु० १५ अ०।
रणशीलास्तार्थ कराः। ध०२ अधिकारा०।जी। तीर्थमेव धर्मः, तित्थपनत्तण-तीर्थप्रवर्तन-न । तीर्थप्रवर्तने, उत्सर्पिणी- तस्याऽऽदिकारस्तीर्थकराः, अथवा-तीर्थानामादिकर्तारस्ती. काले चरमतीर्थकृतस्तीर्थ कियत्कालं प्रवनिष्यतीति प्रमे,
र्यकराः। तथा च प्रत्येकशः सुतीर्थानामादिकर्तारस्तीर्थकराः। उत्तरम-पञ्चमाले विंशतितमशतकेटमोद्देशे श्रीऋष नजिनके.
मा००५ प्र.। साकरणशीवाद दुःखाचतारपुसोत्ताररू
पपरमतीर्थकरणशीला तीर्थकारः। श्रा० म०१०१ खाम। वलपर्यायं यावदुत्सर्पिणीकाले चरमतीर्थकृतस्ताय प्रवर्तिध्य
(२)ताच तीर्थकरणशीशास्तीकरा अचिन्त्यप्रभावमहानीत्युक्तमस्तीति । ५० प्र० । सेन० १ बख्वा० ।
पुण्यसंक्तितम्रामकर्मविपाकतः, तस्याऽन्यथा वेदनायोगात,तत्र तित्यपवत्ता चम्यिणिबन्छ-तीर्थप्रवर्तनचरित्रनिबछ-म० ।। येनेट जीवा जन्मजरामरणसलिसं मिथ्यादर्शनाविरतिगम्भीरं नाट्यभेदे,राधाश्रमणम्य भगवतो महावीरस्य चरमपूर्वमनुष्य- महानीषण कषायपातालं सुदुर्लयमोहाऽऽवतरौ विचित्रदु:भव-चरमच्यवन-चरमगर्भसंहरण-चरमभरतकेत्रावसर्पिणी-- खौघदुएश्वापदं रागद्वेषपवनविकोभितं संयोगवियोग, चीयुसाथङ्करजन्माऽनिषेक-चरमबाबजाव-चरम यौवन-चरमकामा तं प्रबलमनोरथवेलाऽऽकुलं सुदीर्घ संसारसागरं तरन्ति तत्ती. भोग-चरमनिकमण-चरमतपश्चरण-चरमझानोत्पाद-चरम- मिति, पतच यथास्थितसकलजीचाऽऽदिपदार्थप्ररूपकम, तीर्थप्रवनेन-चरमपरिनिर्वाणनिबद्धं चरमचरमनिबद्धं नाम
अत्यन्तानवद्यान्याविज्ञातचरणकरणक्रियाधारं त्रैलोक्यगतशुद्ध द्वात्रिंशन नाट्यविधिमुपदर्शयति । रा०
धर्मसंपातमहासत्वाऽऽश्रयम, अचिन्त्यशक्तिसमन्विताविसंवातित्थपवित्तिउत्त-तीर्थप्रत्तिहेतत्व-न० । तीर्थ चतुर्विधश्रम
दिपरमबोहित्थक प्रवचन, सहघोवा,निराधारस्य प्रवचनस्य
असंभवात् । उक्तं च-"तित्थं भंते! तित्यं, तित्थगरे तिथं? णमः प्रवचनं वा, तम्य प्रवृत्तिरविच्छेदेन स्थितिः,तच्या हेतुत्वं
गोयमा! परहा ताव नियमा तित्थकरे,तिथं पुण चाचवमो स. कारणत्वम् । तीर्थप्रवर्तकतायाम. ध० ३ अधि०।
मामघो।" ततश्चैतदुक्तं भवति-घातिकर्मकये ज्ञानकैवल्पयोगातित्थभेय-तीर्थद-त्रि तीर्थानि तीर्थ नूतदेवोण्यादीनि भि. तू वीर्य करनामकर्मोदयतस्तत्म्बजावतया आदि त्याऽऽदिप्रकाश. नत्ति द्विधा करोति तदुषव्यमोषणाय तत्परिकरभेदनेनेति ती- निदर्शनतः शास्त्रार्थप्रणयनाद.मुक्तकैवल्ये तदसंभवेनाऽऽगमाथभेदः । शा० १६०२ अ० । तीर्थमोषके तस्करे, तीर्थ (भेद)। नुपपत्तेःभव्यजनधर्मप्रवर्तकत्वेन परम्परानुग्रहकरास्तीर्थकरा मोचके, प्रश्न० ३ अाश्र0 द्वार ।
इति तीर्थकरस्वसिकिः।(४). तरन्ति ये संसारसागरतित्थमाया-तीर्थमृत्तिका-स्त्री० । तार्थमृत्तिकायाम्, रा०।
मिति तीर्थ प्रवचनं, तदव्यतिरेकाच्चेह संघस्तीर्थम, तत्करस
शोलत्वात्तीर्थकराः। न.१२०१०।०। नं० । “क-गतित्ययर-तीर्थकर-पुं० । तीर्यते भवोदधिरनेन अस्मात् प्र-|
च-ज-त-द-प-य-वां प्रायो बुक" HG1१।१७।। इति कलोपः। म्मिन्निति वा तीर्थ वदयमाणस्वरूपम्, तत्करणशीलः “कृषो प्रा.१पाद । “अवों यश्रुतिः" ॥८।१।१८०॥ इत्यकारदेतुनाच्चील्याo-" ॥३।२ । २० ॥ इत्यादिना (पाणि) टा. स्थाने यकारः । क्वचित्कस्य गः । प्रा०१ पाद । द्वादशाहप्रणायस्यय तीर्थकरः । अदति, विशे०।
केषु जिनेषु, प्रश्न.. संव० द्वारार्थमेव धर्मः, तस्याऽऽदि. (१) नीर्थकरशब्दसिद्धिमाह
कर्तारस्तीर्थकराः, स्वतीर्थानामादिकारः तीर्थकरा:मा. अणुलोमहेनतच्छी-लया य ने नाबतित्थमेयं तु ।
चू.१०। सत्ता दर्श०। (तीर्थकृतामतिशयाः 'बासेस' कुव्वंति पगासंति य,ते तित्थयरा हियत्यारा ॥१०॥७॥
शम्दे प्रथमजागे ३१ पृष्ठे कष्टव्याः) (जिनानां परस्परं मोक्का
न्मोक्षस्थान्तराणि प्रथमभागे 'अंतर' शब्दे ६६ पृष्ठे निरूपितानि) हेतुताच्छील्यानुबोम्पतो ये भावतीर्थमेतत्कुर्वन्ति,गुणतःप्रकाशयन्ति च,ते तीर्थकराः। तत्र हेनौ-सकर्मतीर्थकरणहेतवः कृत्रो
(३) तीर्थकतामचे तत्व संयमविराधनाऽऽदयो दोषाः कथं हेतुताच्छील्याऽनुलोम्येषु" ॥३॥१२० ॥ इत्यादिना (पाणि)
न भवन्ति ?, इत्यत्राऽऽहटप्रत्ययविधानातीर्थकराः । यथा यशस्करी विद्येत्यादि ।
निरुपमधिइसंघयणा, चउदाणाऽइसयसचसंपमा । ताच्छीस्ये-कृतार्थाऽपि तीर्थकरनामकर्मोदयतः समनप्राणि- अच्छिद्दपाणिपत्ता,मिणा जियपरीसहा सः ॥२५७१॥ गणानुकम्पापरतया च सद्धर्मतीर्थदेशकत्वात्तीर्थकराः, भरता
तम्हा नहुत्तदासे, पावंति न वत्थपत्तरहिया वि। ऽऽदिकेने प्रथमनरनाथकुल कराऽऽदेवदिति । भानुलोम्ये-स्त्री
तदसाइथं ति तेसिं, तो तम्गहणं न कुर्वति ॥२५ ॥ पुरुषबालवृक्षस्थविरकल्पिकजिनकल्पिकाऽऽदीनामनुरूपोस्स - पवाददेशनया अनुलोमसरूमतीर्थकरणात् तीर्थकराः,यथा
तह वि गहिएगवत्या, सवत्यतित्थोरएसणत्यं ति। वचनकर इत्यादि । एवंभूतास्तीर्थकराः, अत एव सर्वासुम
अनिनिक्खमंति सब्बे, तम्मि चुएऽचेलया होति।२५०० तां हितस्य मावार्थस्य करणाद्धितार्थकराः । (१०४७)विशे०। यस्मालिनास्तीर्थकराः सर्वेऽपि निरुपमघृतिसंहननास्थावतीर्यते संसारसमुखोऽनेनेति तीर्थम् द्वादशाङ्गं प्रवचनं, तदा- स्थावां चतुझानाः,अतिशयसवसंपत्राः, तथा-अच्चिद्रः पाणिरेव धारः संघो घा, तत्करणशीलास्तीर्थकराः।०२० । तीर्थ- पात्रं येते अनिष्पाणिपात्रा:,जितसमस्तपरीषदाश्च । (तम्ह मुक्कलकणं,तत्कुर्वन्त्यानुलोम्बेन हेतुत्वेन तच्चीलतया चेति ती- त्ति) तस्माद वस्त्राभावे ये संयमविराधनाऽऽदयो दोषा:प्रोक्कार्यकरः। माद च-"अगुवामहेउतच्छी-लया यजे नाचतित्थमे- स्तान् यथोक्तान् दोषान् ते वनपावरहिता अपि न प्राप्नुवन्ति, यं तु । कुम्वति पगासंति य, ते तित्थयराहियस्थकरा"॥१०४७॥ इत्यतस्तवस्त्राऽऽदिकं न साधनम-न साधकं संयमस्य तेषां ता(विशे०) इति। स्था०९ठा तीर्यते संसारसमुद्रोचनोति वायकराणाम्। (तोति)तस्मादकिश्चित्करत्वात् तस्याऽभ्मगतसं
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(२२४०) तित्थयर अन्निधानराजेन्द्रः।
तित्ययर पमस्थानुपकारिखो बना देग्रहणं न कुर्वम्ति तीर्थकरा ति । दिर्न कार्य: ५। पते पशवीरस्याधिका अभिग्रहास. भनु यदि ते बनाऽऽदेहसं न कुर्वम्तीत्युच्यते, तर्हि "सम्बे वि ०२द्वार मा. म. कल्प। एगदूसे- जिग्गया"(१०१२) इत्यादि विरुष्यते.त्याशक्पा .
. (७) प्रादेशसंख्याNE (तह वीस्यादि) यद्यपि तत्संयमस्थानुपकारि वनम् तथा. भंगाइस् अवका, नाणीहि पयासिया य नेते य । अपि सबनामेव तीथे "सबना पत्र साधवस्ती चिरं भविष्य
प्रापसा चीरस्स य, पंचसयाऽगहऽसि ।। २७१।। ति" इत्यस्वार्थस्योपदेशनं ज्ञापन तदर्थ गृहीतकवनाः सर्वे ऽपि तीतोऽमिनिकामन्तीति । तस्मिश्च पखव्युते कापि
कुरुमकुरूहाण नरम्रो, बीरंगुडेण चालिमो मेरू। पतिते भवेलका बखारहितास्ते भवम्तिपुमा सर्वदा । ततः
तह मरुदेवी सिफा, अवंतं यावरा हो ।। ७ ।। "अचेलकाश्च जिनेन्द्राः" स्यकान्तिकं यदुक्तम्, तद्भवतोऽम- बनयागारं पोर्नु, सयंभरमणम्मि समभागारो। मिशस्वसूचकमेवेति भावः ॥ १५७॥१५.शा१५८३ ॥ विशे। मीणपउमाण एवं, बहुहाऽऽएसा मुम्रप्रवका ॥२७शा (पतदन्यत् 'अबेलग' शब्द प्रथमभागे १८८ पृष्ठे गतम) प्रोपाइदिसोप्यवान प्रथिता ये भाषाः पदार्थाला(तीर्थकरविषयकमाश्चर्यम् 'अमर' शम्दे प्रथमभागे २०० निनिः प्रकाशिताइच ते खादेशा उध्यम्तोतेब भीषीरस्थ पृष्ठ गतम्) (तीर्थकताममवस्थितसमाचारस्वम् 'अट्टियकप्प' पधशतानि भवन्ति । भम्येषां जिनानां प्रयोविंशतिमितानामशम्दे प्रथमभागे २५५ पृष्ठे गतम्)
नेकधा केते भादेशा स्याशकायां कांश्चिदादेशान् दर्शव(४) अनुत्तरोपपातिकमुनयः
ति । यथा-कुरुटाकुरुटयोर्नरकगतिः १ तथा वीरेण प्रा.
ठेन मेरुपर्वतश्चालितःश तथा मदेवी अपनजननी भनादि. बाविससहस्स नवसय, उसहस्स भणचरोवाइमुणी ।
बनस्पतिज्य उत्य मोकं गता, सा दि भनम्तकायादागत्व नेमिस्स सोल पास-स वार वीरस्स अट्ठसया॥२६॥
प्रत्येकभवे कदलीवनस्पतित्वेन समुत्पप ततो मृत्वा मरुदेवी से सेसाणपणाया, (२७०)॥
जाता । ततश्चान्तरूकेवलीनूय सिका३ । तथा वलयाका अपभस्य जिनस्य द्वाविंशतिसहस्राणि, तपरि नवशतानि मुक्त्वा स्वयंभूरमणसमुद्र मत्स्यानां कममानां च सऽध्या२२१०० । नेमिनाथस्य घोमशशतानि १६०० । पाइजि- कारा नवम्ति ४ा इत्याचादेशाः सूत्रेऽबद्धाः पवमन्ये ऽपि बि. मस्य द्वादशशतानि ११.० ।कातनन्दनस्य वारस्य भटौ | केयाः॥ सत्त० १२६ द्वार । आवामा.खू। भागमा तानि ८००याः । निश्शेषजिनामा ते सिमाम्ताऽदि.
(८) पडावश्यकमबवासोक्ताः॥ सत्त०१२३ द्वार।
सामइयचउविसत्थय-वंदणपमिकमणकाउसम्गा य । (५) तीर्थपानामहादश दोषा मेन भवम्ति
पञ्चखाणं जाणियं, जिणेहि श्रावस्सयंदा ॥२एशा पंचेच अंतराया, मिच्छत्तमनाणमविरई कामो ।
तं दुबह सा दुकालं, इयराणं कारणे इत्रो मुणिणो। हासछग रागदोसा, निदाऽद्वारस इमे दोसा ॥२२॥
पढपियरवीरतित्थे, रिजनम-रिउपन-बकजमा २५३॥ पशान्तराया-दान १ लान वीर्य ३लोगो-४पभोगविषयाः
सामायिकचतुर्विशतिस्तववन्दनकप्रतिक्रमण कायोत्सर्गरूपं ५.मिश्यास्वम ६ भवानम अविरतिः कामो नोगेच्छा
रावश्यकं प्रथमान्तिमजिनयोस्ती सन्यासमये प्रातःसमये हास्यम१० रतिः ११ भरतिः १२ शोकः १३ भयं १४ जुगुप्सा च प्रतिदिनं विचारं भवति, जजमवाजमवान्मुनीनाम, १५॥रागः १६ वेषः१७निका १८ चैते दोषाः॥सत्त०९५ द्वार । इतरेषां वाविंशतिजिन ती कारणे प्रतिक्रमणं भवति, मुनीप्रकारान्तरेणाप्यष्टादश दोघानाह
मामृजप्राकृत्वात । सत्त० १३० द्वार । वृकल्प० । हिंसाऽऽतिगं कीला, हासाऽऽपंचमं च चउकसाया।
(१)माहार:मयमच्छरमाणा, निला पिम्मं इभ्र वदोसा ॥१६॥ समे सिमुणो अमयं, उत्तरकुरुफले गिहे उसहो। हिसा १ मृपावादः २ प्रदत्तादानं ३, क्रीडा ४,हास्यं ५ रतिः सेसान ओयणाई, तुंजिंस विसिट्ठमाहारं ॥ १३४ ।। ६ भरतिः ७शोकभयं कोषः १० मानः ११ माया १२ सर्व जिना बाल्यावस्थायां वर्तमाना मृतमश्गुष्ठन्यस्तं . बोभः १३, मदः १४ मत्सर १५ मकानम १६, निद्रा १७ प्रेम भुजिरे, ऋषभ उत्तरकुरुद्भवानि फलानि गृहयासे बुभुजे,त्रयो १८ इति वा दोषाः, पभी रहितास्तीर्थकरा॥ स०५६ द्वार। विशतिजिना गृहवासे शाल्यादिमनोकाऽऽहारं बुभुजिरे, व्रतप्र(६) अनिग्रहाः
दणे कृते सति सवें तीर्थपा उमाऽऽदिदोषरहितमाहारं क. तेसिं अभिग्गाद-रुचमाइ वीरस्सिमे अहिया।। (१७०)
तबम्तः॥ सत्त०५२ द्वार । भा० चू० भाषा। प्रचियत्तगिहाउनसणं, निच्चं बोसट्टकाएँ मोणेणं ।।
(१०)जन्मावसरे इन्द्रकृत्यान्याह
तत्र शक्रस्याऽऽसनसनापाणीप गिहिवं-दणं प्राभग्गहपणगमेयं ।। २७१ ।।
तए तस्स सकस्म देविंदस्स देवरप्लो भासणं चल । तर तेषां चतुर्विशतिजिनानां बहवोऽनिग्रहा व्यक्षेत्रकामभाव. णं से सके०जाच आसणं चलिभं पास, पासइत्ता भोहिं भेवभिन्ना झेयाः । बीरजिनस्य इमे वक्ष्यमाणा अधिका भवस्ति । तामाह-अप्रीतिमदूगृहे मया पासो म कार्यः १, मित्यं
पजड़, पजित्ता जगवं तित्थ यरं श्रोहिणा मानोएझ,मामया म्युस्मएकायेन विहर्तव्यम् १, मौनेन क्येयम ३, करपा
जोएइत्ता हट्टचित्ते माणंदिए पीपणे परमसोमणस्मिए मेम मया नोक्तव्यम् ५, गहिवन्दमं पुरस्थविमयोऽभ्युत्थाना- | हरिसवमावसम्पम
हरिसवमरिसप्पमाहिए धाराहयकयंबकुमुमचंचमाल:
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(२२४५) तित्थयर अन्निधानराजेन्फः।
तित्थयर बससिअरोमकूवे विअसिअवरकमलनयणवयणे पचन्नि- । ग्रोसेमाणे ग्रोसेमाणे एवं बयाहि-प्राणाहणं भो!सके यवरकडगतुमिसकेकरमउडकुंमतहारविराज्यवत्थे पालंब- देविंदे देवराया-" गच्छड एणं भो ! सके देविंदे देवराया पलबमाणघोसंतनुसणधर ससंजमं तुरिअं चवनं सुरिंदे जंबुद्दीवे दीये जगवो तित्थयरस्स जम्मण माहिम करित्तए; सीहासणाओ भन्नुढेइ, अन्भुट्टश्ता पायपीढाओ पच्चो- तं तुन्ने विणं देवाणुप्पिा ! सनिडीए सबजुईए सम्बवकहइ, पच्चोरुहइत्ता वेरुलिअवरिफरिट्ठअंजणनिउणोचि- झणं समुदएणं सम्बायरेणं सव्वविनूईए सम्बविजूसाए भमिसिपिसितमणिरयणमंमियाओ पाजयाओ जम्मुअइ, सव्वसंजमणं सव्वणामरहिं सव्वारोहेहिं सन्न पुप्फगंधमउम्मुमइत्ता एगसामि उत्तरासंगं करेश, करेइत्ता अं- झालंकार विज्ञासाए सवादिव्चतुटिअसहसमिणारणं मजझिमननिअगहत्ये तित्थयराभिमुहे सत्तकृपयाई अणु- हया इट्टीए.जाव रवेणं णिययपरिचारमंपरिखमा सगाई गच्छ, अणुगच्छित्ता वामं जाणुं अंचे, अंचेश्ता जाणविमानवाहणाई दुरूदा समाणा अकासपरिहीणं चेव दाहिणजाणु धरणितलंसि साहव तिक्खुत्तो मुछाएं सकस्स. जाव अति पाउन्नवह"। धरणितनसि निवेसइ, निवेसित्ता इसिं पच्चुम्ममइ, (११) भादेशानन्तरं हरिनैगमेषी' यत्करोति तदाहपच्चुत्समइत्ता कमगतुटिअयंभिप्राभो तुभाभो सा- तए णं से हरिणेगमेसी देवे पायताणीचाहिवई सकेणं हरइ, साहरश्ता करयसपरिग्गहिरं सिरसावत्तं मत्य- देविदेणं देवपणा एवं वुत्ते समाणे हतुजाव एवं देवो! ए अंजाझिं कहु एवं बयासी-मोऽत्थु णं अरि- ति आणाए विग एणं वयणं पमिसुणेश, पमिमोइत्ता ताणं जगवंताणं आइगराणं तित्यवराणं सयंसंबु- सकस्स अंतियाो पमिणिक्खमः, पमिणिक्खमहत्ता जेकाणं पुरितुत्तमाणं पुरिससीहाणं पुरिसवरपुंमरीश्रा- णेच सभाए सुहम्माए मेघोघरसिअगंभीरमदुरयरसदा जोणं पुरिसवरगंधहत्याएं लोनत्तमाएं लोगणाहाणं प्रणपरिमंझला सुघोसा घंटा, तेणेव नवागच्छा,उवागच्छ. लोगहिआणं लोगपईवाणं लोगपज्जोगराणं अभय- इत्ता तं मेघाघरसिगंजीरयहरयरसई जोअण परिमंमलं दयाण चक्खुदयाएं मग्गदयाणं सरणदयाणं जीवद-1 मुघोसं घंटं तिक्खुत्तो उल्लाले । पाणं बोहिदयाणं धम्मदयाणं धम्मदेसयाणं धम्म
(१२) घण्टास्वरेण यदभूत्तदाह-- नायगाणं धम्मसारहीणं धम्मवरचाउरंतचक्कवट्टीणं दीवो तए तीसे मेघोघरसिअगनीरमहरयरसदाए जोभणपताणं सरणं गई पइट्टा अप्पडिहयवरणाणदसणधराणं रिमंमलाए सुघोसाए घंटाए तिखुत्तो उदानिभाए सविअट्टछउमाणं जिणाणं जावयाणं तिएणाणं तारयाणं ,माणीए सोहम्मे कप्पे अण्णेहिं एगणेहिं बत्तीसबिमाणबुकाणं बोहयाणं मुत्ताणं मोअगाणं सन्मन्नूणं सम्बद- वाससयसहस्सेहिं अमाई एगूणाई वचीसं घंटामयसहस्साई रिसीणं सिवमयसमरु अमयंतमक्खयमबावाहमपुरावि- जमगसमगं कणकणारावं काउं पयत्ताई पि हुत्था । त्ति सिधिगइणामधेयं गणं संपत्ताणं णमो जिणाणं
लालनानम्तरं यदजायत तदाह-(तए णं तीसे मेघोघरसिजिमभयाणं णमोऽत्यु एं भगवो तित्थगरस्स आइ-| अगंभीरमर इत्यादि) तत उल्लालनानन्तरं तस्यां मैघोघर. गरस्सजाव संपाविनकामस्स बंदामि हां जगवं! तं तत्थ
सितगम्भीरमधुरतरशब्दायां योजनपरिमएम्सायां सुघोषायां गयं इहगए,पासउ मे भयवं! तत्थगए हगयं ति कड्ड बंद
घण्टायां त्रि-कृत्य उस्लालितायां सत्यां सौधर्म कल्प भम्येषु
एकोनेषु द्वात्रिंशविमानरूपा ये भावासा देवावासस्थानामंदिचा सीहासणवरंसि पुरत्याभिमुहे समिमएणे। तए पां
नि तेषां शतसहस्रेषु । अत्र सप्तम्यर्थे तृतीया ।अन्यान्येकोनातस्स सकस्स देविंदस्स देवरएणो अयमेयारूवेजाव सं- निद्वात्रिंशद् घण्टाशतसहस्राणि (जमगसमगं) युगपत कणकप्पे समुप्पज्जित्था-नप्पएणे खलु नो! जंबुद्दीचे दीये नगवं कणारावं कर्तुं प्रत्ताम्ययभवन् । अत्रापिशन्दो भित्रक्रमस्वाद तित्थयरे,तं जीयमे तीअपच्चुप्पएहामणागयाणं सकाणं
घण्टाशतसहस्राएयपि इत्येवं योजनीयः। दोविंदाणं देवराईणं तित्ययराणं जम्मणमहिमं करतए,
(१३) मथ घण्टानादतो यत् प्रवृत्तं तदाहतं गरजामिणं अहं पि भगवो तित्थगरस्स अम्मामहिम
सए सोहम्मे कप्पे पासायविमाणनिक्खुमाऽऽवमिकरोमि चि कहु एवं संपेहेच, संपेहेत्ता हरिणेगमोर्सि
प्रसघंटापमिसुआसयसहस्ससंकुले जाए याचि होत्या ॥ पायत्ताणीयादिवई देवं सहावड़, सहावेइत्ता एवं यासी
(तपणमित्यादि) ततो घण्टानां कणकणारावप्रवृत्तेरनन्तरं विपामवे जो देवाणुप्पिा ! सजाए मुहम्माए मेघोघरसि.
सौधर्मः कल्पः प्रासादानां विमानानां वा ये निकुटा गम्भीरप्र.
देशाः, तेषु ये भापतिताः संप्राप्ताः शन्दाः शापवर्गणापुद्रला, अगंभीरमहरयरसई जोगपरिमंगलं सुघोसं मुस्सरं घंटं ति
तेच्या समुत्थितानि यानि घण्टाप्रतिभूतानां घण्टासंबन्धिक्खचो जलालेमाणानुलालेपणा माया माया सोपांच प्रतिशब्दानां शतसहस्राणि तेः सहना जातमायन।
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तित्ययर
किमुक्तं भवति?-घण्टायां महता प्रयत्नम तामितायां ये वि निर्मताः शब्दा तस्यतियातयश्नः सर्वा दिक्षु विदि तु च दिव्यानुजावतः समुच्छलितैः प्रतिशब्देः सकलोऽपि सौधर्मः कल्पो बधिर उपजायत इति । पतेन द्वादशयोजनेभ्यः स मागतशब्दः श्रोत्रग्राह्यो भवति, न परतः, ततः कथमेकत्र तामिठाचा सर्वत्र प्रतिरुपजायत इतेि ते. ताकृतमेाययम, सर्वत्र दिव्यानुभावतस्तथारूपशब्दो चलने यथोक्तदोषासंभवात् ।
(१४) देवान्तियन्ति सोचने ये संजाते पदातिपदिकाद
तए णं तेसिं सोहम्मकप्पवासी बहूणं देवाण य देषीण
(224 अभिधानराजेन्द्रः
रणिपत्यमुद्दा मुस्सरपेटारसिचि उल बोलतुरिचत्रनपमिवोइए कए समाये घोसणकोहलदिव्कम एगग्गचिनउव उत्तमाणसां से पायत्ताआई देवे सिटामिनिसिसि तस्य तत् तर्हि तर्हि देसे महया महया सद्देणं उग्घोसेमाणे उघो सेमाणे एवं बयासी-नणं तो बहवो सम्प वासी वैमाणि देवा देवीओ सोहम्मप्पणी इमो ari, हिप्रसुहत्यं प्राणां भो ! सक्के, तं चेव० जाव अंतिमं पाठम्भव ॥
t
( तर णमित्यादि ) ततः शब्दव्यास्यनन्तरं तेषां सौधर्मकबहूनां वैमानिकानां देवानां देखीनच एकान्ते तो रमणे प्रवक्ता आसक्ताः, अत एव नित्यप्रमत्ता विषयसुखेषु मूचिंता अभ्युपपन्नाः । ततः पत्रयस्य पदद्वयमीलनेन कर्मधारयः । तेषां सुम्बरा या 'पङ्क्तिरथन्यायेन' सुघोषा घण्टा, तस्या रतिं तस्माद्विपुलः सकली धर्मदेवलोक कुक्षिम्भरियो बोलः कोलाहलः तेन । अत्र तृतीयालोपः प्राकृतत्वात् । स्वरितं शीघ्रं चपले ससंभ्रमे प्रतिबोधने कृते सति आगामिकाल संजाव्यमाने घोष कुतूहलेन किमिदानीमुदघोषणं भविष्यतीत्यात्मकेन दती कण येस्तैस्तथा । एका घोषणविषयं चित्तं येषां ते तथा । एकाग्रचित्तत्वेऽपि कदाचिन्नोपयोगः स्याच्छाप्रस्थावस्थावशादत आद-उपयुक्तमानसाः शुश्रूषितवस्तुग्रहणपटुमनसः। ततो विशेषणसमासः। तेषाम्। स पदास्यनीकाधिपतिवस्तस्मिन् घण्टारचे नितरां शान्तो ऽत्यन्तं ततः प्र कर्षेण सर्वात्मना शान्तः प्रशान्तः । ततश्प्रिरूढ इत्यादाविव विशेषणसमासः । तस्मिन् सति तत्र तत्र तस्मिन् २ देशे महता महता शब्देन तारस्वरेण उद्घोषयन् उद्घोषयन् पवमवादीत् । किमवादीदित्याह - (दंत ! सुणंतु णमित्यादि) हन्त ! इति दुवै स च स्वस्वामिनादिया गुरुजन्म रणार्थक प्रस्थाने समारम्नाश्च गुरुवन्तु भवन्तो बहवः सौधवैमानिका देवा देव सौधर्मकल्पयतेरियं बचनं हितं जन्मान्तर कल्याणाssवहं, सुखं तव संबन्धि तदर्थमाज्ञापयति भो देवाः शयद प्राकसू श हरिनैगमेपिपुर उद्घोषयितव्यमादिष्टं यावत् प्रादुर्भवत ।
!
(१५) अथ शक्राऽऽदेशानन्तरं यदेव जातं तदाहवहां से देवाय देवीओ व एअहं सोचा तुड जात्र हिया अप्पम वंदणवत्तिअं एवं पूप्रणवचि -
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तित्थयर
त्र्यं, सकारवत्ति, सम्मागवत्ति, दंसणवत्तियं, कोऊहलवत्ति अप्पेगइया सकस्त वयणमनुत्रट्टमाणा, अगाम मित्तमात्रमाला अप्पेगइया जी अमेयं एवमादिति कहु० जाव पाउति ॥
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(तर णमिश्यादि) देवा देव्यपनमनन्तरो दिनम वायवश विद्याः अपि संज्ञाना म्, एककाः केचन वन्दनमभिवादनं प्रशस्त काय वाङ्मनः प्रवृत्तिपं तत्त्ययं तस्मानिक कर्तव्यमित्ययं निमि सम एवं पूजनप्रत्ययं पूजनं गन्धमाल्याऽऽदेशि समर्थनम्। एवं सरकारको स्तुयादिभिकरण सं मानो मानसप्रीतिविशेषः, तत्प्रत्ययं दर्शनमदृष्टपूर्वम्य जिनस्य विलोकयाकि मित्वात्मकम्, तत्प्रत्ययम, अध्येककाः शक्रस्य वचनमनुवर्तमानाः, नमिति भृत्य धर्ममनुभवन्तःमध्येका यमनुवर्तमानामित्यर्थः अध् का जीव यत् सम्मम वतनीय प मादीत्यादिकमागमननिमित्तमिति कृत्वा चित्तेश्वधाय, यावच्छ दात् "कालपरिहीणं चेत्र लक्कस्स देविंदस्स देवरो" इति ग्राह्यम् । अन्तिकं प्रादुभवन्ति ।
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(१६) इन्द्रः पालकमाविशति शक्रस्येतिकर्तव्यमाहतर से सके देविंदे देवराया से बेमाणि देवे देवीओ अ अकालपरिहीणं चेत्र अंतित्र्यं पाठब्भवमाणे पासइ, पासचा हड्डे पाला आजियोगिनं देवं सहावे स दावेत्ता एवं बयासी - खिप्पामेव जो देवागुपिया ! गजविसीसडिअसाल मंनि आकक्षियं ईदामि सजतुर गणरममर बिग बाल गमिररुरुसरभ चमरकुंजरवणलपपमलयपचितिं परिगयाभिरामं बिज्जाहर जमलजुअल जंत जुतं पिव अर्थसहस्समालिनी अं रुगसहस्वकलि भिसामा चरणसे सुहफार्स सस्सिरी अरू चलचत्रिमरमण हरसरे सुहतं दरिसणिज्जं पिउोचिअमिसिमिसितमप्रियणघंटियाजालपरिक्खित्तं जोयस इस्सवितियां पंचजो
99
सयमुनि सिग्धतुरिअजइणं पिव्वाहिं दिव्वं जाशविमाणं चाहिम्यादिचा माणति पचपिनाहि । (तपणं इत्यादि ) ततः स शक्रो देवेन्द्रो देवराजा तान् बहूवैदेदेपा (कारिणं चेवेति पूर्ववत । अन्तिकं प्रादुर्भवत उपतिष्ठमानान् पश्यति । दृष्ट्वा च " हट्ट' इत्येकदेशेन सर्वोऽपि हर्षालाको ग्राह्यः पालनाममा गविकुर्वणाधिकारिणमानियोगिकं देवं शब्दयति शब्दया चयनवादीत्यवादी सदाहविष्याने ि मानवर्णकं प्राश्यत् । नबरं योजना वस्ती मिस्त्र प्रमाणानिय योजन वैक्रियप्रयोगजनितत्वेन स्कुल ग विविमाणासु पमाणंगुले सं तु " इति वचनादस्य प्रमाणाइगुलनिष्पन्नत्वं युक्तिमद् ' पुढवित्रिमाणाइ ' इति वचनं
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तित्थयर
सातविमानापेपनि
योधाङ्गप्रमाणनिष्प वेद जम्बूदीपाःप्रवेशनीय नन्दश्वविमानको चनस्यवैः। तथा स्थानानु
रिहोगे समा पाता । तं जटा श्रपइठाणा णरप जंबुद्दीचे दीवे पालए जाणत्रिमाणे सबसिको महाविमाणे ।" इत्यत्रापि पा विमान जम्मूपादिभिः प्रातः समस्तं प्रमाण निष्पन्नत्वेनैव संभवतीति दिकू ! तथा पञ्चशतयोजनोच्त्रं शीघरवरिनजवनय, अतिशयेन वेगस्य निता निपश्चात् पूर्वपदेन कर्मधारय दिया
तामा प्रत्य
मनिवार्य
( २२५१) अभिधानराजेन्द्र
त्यो निवेदय इत्यर्थः ।
(१७) पालक तय करोति वर्णकयुक्तं विमानम्-तदनु यदनुतिष्ठति स्म पालकस्तदाहतसे पालए देवे स देविंदेणं देवरथा एवं बु समाणे तु०जाव वेनव्त्रिसमुग्धारणं समोहणितातइव करे । तस्स णं दिव्वस्य जाणविमास्म तदतिओ तिसोपविणा पुर ओ पत्ते पत्ते तोरणावओ०जात्र पडिरूवा । तस्स एं जाणवितो समरमणिले मनाने से जहा कामए आलिंगपुरे वा० जावदीवि अम्मेवा
''
ग संकुकीकवितामा सुत्यिअसोवत्यि अवयमाणदूसमाणवमच्छंडमगरंडजारमारफुल्लावपिउमपत्तसागर तरंग व संतलय पडमलयन क्तिचित्ते हिंसच्छाएहि सप्पजेहिं समरीईएहि सउज्जोपाई गाणाविहपंचहिं मणीहिं नवसोभिए । तेसि णं मणीणं व गंधे फासे जाणिले, जहा राययमे ।।
( तर रां से पालप देवे सक्केणमित्यादि ) ततः स पालको दे. वः शक्रेण देवेन्द्रेण देवराज्ञा पवमुक्तः सन् दृष्टो यावद्वैक्रियसमुद्घातेन समवहृत्य तथैव करोति, विमानं रचयतीत्यथे। अथ विमानस्वरूप या तस्स णमित्यादि) इति सूत्रद्वयी व्यक्ता । अथ तद्भूमिभागं वर्णयशाह - (तस्स णं इत्या दि) इदं प्रावद् ज्ञेयम्, नवरं मणीनां वर्णों गन्धः स्पर्शश्च नणितव्यो यथा राजप्रश्नीये द्वितीयोपाने । अत्रापि जगतापअवरवेदिकावर्णनं मणिवर्णाऽऽदयो व्याख्याताः, ततोऽपि वा बोधव्याः ।
(१८) भूमिभागवर्णन
मनायातस्तुएं जूमिनागस्स बहुमदेसचा पिच्छापम गखंभस यस छिवि० जाव पमिरूवे, तस्स उए पमझयाभत्तिचित्ते० जाव सव्वतवणिज्जमए० जान परुिवे ।
( तस्स णमित्यादि ) यावच्छन्द ग्राह्यं व्याख्या यमक राजधानी गतसुधर्मासनाऽधिकारतो ज्ञेया । उपरिभा गवर्णनायाऽऽह - ( तस्स उल्लोप इत्यादि ) तस्योल्लोच उपरिभागपद्मलतानक्तिचित्रः यावत् सर्वात्मना तपनीयमयम, प्रथमयावच्छ्न्देन अशोक लताभक्तिचित्र इत्यादि प द्वितीयान्तन्दाव "इस" वादिविशेषणा
च
तित्थयर
छत्र राज सूर्याम पानवमानवर्ष के कृपाक परं बहुदरोंषु वा लिखितम् ।
(११) धात्र मण्डपमणिपीठिकायनाचा उद्तहसी मंगवस्त्र बहुसमरमणिजस्व भूमिप्रागस्स हु मज्झदेशभागसि महं एगा मणिपीढिया जाणाई आयामविजेणं चचारि जो अाई बाइलेणं, सब्बमणिमयी ती उबरि मई एमे सिंहाणे भो। तस्युपरि मई एगे विजय मे सरओतसमदेस जागे एगे बहराम से एत्य मई एने कुंभमुदामे से णं सदकुच चप्पमाणामहिं चि
निके मुतादामेर्टिसओ समता संपरिक्खिते । ते दामा तवणिज्जलंबूसगा सुवपयगमंकि आ णाणामणिरयणविविहार रूहारवसोनिया समुदया ईसिं
संपता वा बाई मे पलमाणा एइज्जमाणा० जाव निव्श्करे ते परसे आापूरेमाला अपूरेमाला जावई बसोवाणा भईन उपमाणा चिट्ठेति ।
तस्मादि)
पाया विजयद्वारस्था
या । (तैणमित्यादि ) इदं सूत्रं प्राकू पद्मवर वेदिका जाल वर्ण के व्याख्यातमिति ततो बोध्यम् । अत्र प्रथमयावत्पशत्-" वेद्दजमाणा २ पलंबमाणा २ पजन्नमाणा २ उरालेणं मरणं मपणं क्रमण" इति संग्रहः । द्वितीययावत्पदात्-" लि. रीप" इति ग्राह्यम् ।
(२०) संत्रस्थाननिदेशन कियामाह··
तस्स ं सीहासणस्स अवरुतरेणं उत्तरेणं उत्तरपुरचिमेत्य नं सहस्स चहरासोए सामाणि साहस्सीणं चनरासीइन हासण साहसी प्रो, पुरच्छि मेणं अट्ठएई भ्रमणपहिली एवं दाहिणपुरच्छिमे अनंतर परिसाए बुबालमपदं देवसाहस्वीणं, दाहि ऐणं मज्जिमाए परिसाए चउदमहं देवसाहस्सीर्ण, दाहिणपच वाहिरपरिसाए सोखसएड देवसाइस्मणं पञ्चच्छिमणं सत्तएडं अणीआदिवईणं; तर णं तस्स सीहासास्स चउदिसि च चतरासी आयरक्खदेवसाहस्सीणं, एवमाइ विभासिव्यं, सूरियाजगमे० जाव पञ्चपिति ॥
( तस्स णं इत्यादि) तस्य सिंहासनस्य पानकविमानमध्यभागबर्मिनोऽपरोसराय वासरस्याम् उसरपृयामैशाम्याम् अत्रान्तरे शक्रस्य चतुरशीतेः सामानिकसहस्राणां चतुरशीति
मनसखाणि उदिये चतुरशीतिमानमीत्यर्थः । पूर्वस्य दियानाममम। एवं दक्षिणपूर्वायामको पानां देवानामापि स्मियमा
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(२२५२) तिरपवर प्राभिधानराजन्ः।
तित्पयर माः पर्षदश्चतुर्थशानां देवसहस्त्राणां चतुर्दश भद्रासनसमाणि, त्रिमौपानेनारोहति, प्रारुह्य च । यावधदात्-"जेणेष सीहापक्षिणपश्रिमायां मैतको बाह्यपर्षदः बोमशानां देवसहना- सणे नेणेव उवागच्या उवागच्छता" इति प्राह्यम् । सिंहासने बायोमश जमासनसहस्राणि.पश्चिमायांसप्तानामनीकाधिपती- पूर्वाभिमुखः सनिषय इति । मां मत नहासनानीति। (तप णमित्यादि) ततःप्रथमवयस्था- (२२) अथाऽऽस्थानं सामानिकाऽऽदिभिः यथा पूर्यते तथाऽऽहपनानन्तरं द्वितीये बलये तस्य सिंहासनस्य चतुर्दिशि चतसणां
एवं चेव सामाणिया वि उत्तरेणं तिमोवाणेणं दुरूचतुरशीतानां चतुर्गुणीकृतचतुरशीतिसंख्याकानाम्,मारमरककदेवमहमाणां पर्तिशतसहस्राधिकनक्षत्रयमितानामात्मरक्कक
हिता पत्ते अंपत्तेअं पुव्वास्थेमु महासणेमु णिसीअंति, देवानामित्व नावस्ति नकामनानि विकुयितानीस्यर्थः पवमा- भवसेसा य देवा देवीप्रो अदाहिणेदेणं तिसोवाणेणं दित्रिभाषितव्यमित्यादि वक्तव्य.सूर्याभगमेन यात्रप्रत्यर्पयति । दुरूहिता तहेब जाव णिसीयंति ॥ पावरपदात् सरवायम्" तस्स णं दिब्बस्स जाणविमाणस्स
"पवंच इत्यादि" व्यकम् । नवरम् अवशेषाश्चात्यन्तरइमेयासवे बचावासे पते से जहाणामए भारुग्गयस पा
पर्षदादयः। हेमंतिभवाललारभस्म वा बाहरगिलाण पा रचि पज्जलिबाणं या जबावणस्सया केसुप्रवणस्स या पारिजायवणस्स
(२३) प्रस्थापनाक्रमः-अथ प्रतिष्ठासोः शक्रस्य पुर: पा सम्बनो समंता संकुसुमिस्स भवे एयाचे सिमा ।
प्रस्थाथिनां क्रममाहकोण सम तम्स णं दिवस जाणविमाणस्सइचो इट्ट- तए तस्स सकस्स तसि पुरूढस्स इमेट मंगझगा पुरतराप चेच.४ बसे पत्ते,गंधो फासो , जहा मणीणं । तभी
श्रो अहाणुपुनीर संपट्टिा । तयणंतरं च षं पुमकलसणं से पालपदेचे तं दिवं जाणविमाणं विउम्बित्ता जेणेव के देविदे देवराया तेणेव उवागधा, उवागमता सदेदिं
भिंगारदिन्ना य उत्तपमागा सचामरा सणइअभालोदेवरायंकरगनपरिगहियं सिरसाव मत्थर भंजा कट्टु
प्रदरिसणिज्जा पाउअविजयवेजयंती असमसिमा गगजपणं विजपणं बसावेक, बद्धाश्त्ता तमाणतिग्रं।" इति। एतलमणुलिहती पुरमो अहाणुपुत्रीए संपत्थिा । तयणं
भत्र व्याखबातस्य दिग्यस्य यानविमानस्यायमेतपो वर्ण- तरं च णं छत्तजिंगारं, तयणंतरं च णं वश्रामयवाहसंग्याला प्राप्तः। स यथानामकोऽचिरोस्य तत्कानमुदि. तस्य मन्तिकस्य शिशिरकालसंबन्धिनो बाससूर्यस्य बा
विमुसिलिङपरिघट्टमहसुपरहिए बिसिहे मणेगवरपंचत्रदिराकाराणां वा ( रत्तिमिति सप्तम्यर्थे द्वितीया । रात्री
छाकुडभीसहस्सपरिमंडिमानिरामवाउभविजयवेजयंतीपप्रज्वलिताना जपावनस्य किंशुकवनस्य वा, पारिजाताः क. दागाछत्ताश्च्छत्तकलिएणं तुंगे भयण यसपालिहंतमिहरे पामा तेषां बनस्य वा सर्वतः समन्तात् सम्यक कुसु-1 जोअणसहस्समूसिए महइ महालए महिंदज्कए पुरो मितस्याभत्र शिष्यः पृच्छति-भवेदेतद्रूप: स्यात् कश्चित् ।
प्रहाणुपुबीए संपत्थिए । तयणंतरं च णं सरूवनेवत्यपरिसरिराह-मायमर्थः समर्थः । तस्य दिग्यस्य यानविमानस्य त तरक एव, किताइएतरक इत्यादि प्राग्वत । गम्धा,
कथि असुसज्जा सवालंकारविनूमिश्रा पंचमणीमा पंचपर्शच यथा प्रागमणीनामुक्तस्तथेति ।
अपीमाहिवरणो० नाव संपटिआ। तयणं तरं च बहवे (११) शक्रक्रिया
भाजिभोगिया देवा य देवीमो असएहिं सरहिं विनवेहिं. तर से मवेजाव हिट्ठहिए दिवं जिणंदाजिगमणजु- जाव णिमोगेहिं सकं देविंदं देवरायं पुरओ अ मग्गभो मां सवालंकारतसि उतरवेउब्बिभं रूवं विउम्बा, वि- अपासोम प्रहाणुपुबीए संपहिआ। तयणंतरं च पां सुन्दरता भष्टी अग्गमाहिसीहिंसपरिवाराह पाहाणीएणं बहवे सोहम्मकप्पवासी देवा य देवीओ अ सबिट्टीएक गंधवाणीएण य सहिं तं विमागणं अणुप्पयाहिणीकरे- जाव रूढा समाणा मग्गो अ० जाव संपविया । तर माणे अणुप्पयाहिणीकरेमाणे पुत्रिवेणं तिसोवाणे दु. एं से सके ते पंचाणीअपरिक्खित्तेणंजाब महिंदकरणं रूहड़, पुरूाइचा० जाव सीहासणंसि पुरत्याजिमो स- परभो पकछिज्जमाणे चनराखीए सामाणिअ० जाव परिमिसो॥
चुमे सन्निहीए० जाच रवणं सोहम्मकप्पस्स मज म(तप णमित्यादि)ततः स शक त्यादि व्यक्तं, दिव्यं प्रधानं,
ज्केणं तं दिवं देवर्षि नाव उबदंसेमाणे उपदंसेमाणे जिनेन्स्य अमवतोऽनिगमनायाभिमुनगमनाय, योग्यमुचितं. बारशेन वपुषा सुरसमुदायसर्वातिशायिश्रीभवति, तारशेने.
जेणेव सोहम्मकप्पस्स उनरिवे निजाणमग्गे, तेणेव उम्यर्थः। सर्यालङ्कारपितम-सः शिरश्रिवणाऽऽयसकारैर्विभू
बागच्छ, नवागच्चिचा जोभासयसाहस्सी एहिंविग्गहे पितम, उत्तरक्रियशरीरस्वात् । स्थानाविकवैक्रियशरीरस्य तु
उवयमाणे उपयमाणे ताए नाकिटाए जाव देवगईए वाईव भागमने मिरलकारतयैवोत्पादभवणात । उत्तरभवधारणीय. यमाणे वीईवयमाणे तिरियमसखिजाणं दीवसमुदाणं पकं शरीरापेत्तया चोचरकालभाविवक्रियरूयं विकुर्वते, विकुर्य चा. प्रहाजिरग्रमविषीभिः सपरिवारातिः प्रत्येक प्रत्येक पोमशदेवी
मऊफेणं जेणेव गंदीसरवरे दीवे जेणेव दाहिणपुरच्चिमिल्ले सहस्रपरिवारपरिवृताभिर्नाट्यानीकेन गन्धर्वानीकेन बसाई
रहकरपब्बर तेणेव उवागच्छद, एवं० जा चेव मूरिवं विमानमनुप्रदकिणीकुर्वन् अनुप्रदक्षिणीकुर्वन् पूर्वदिक्खन
भाभस्स बत्तब्बया, णवरं सकाहिगारो बत्तम्बो,
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तित्थयर अभिधानराजेन्द्रः ।
तित्ययर जाव तं दिव्वं देव जाव दिलं जाणाविमा पमिसाह. शक्रस्य संप्रस्थिताः । अश यथा शक्रः सौधर्मकल्याश्रिीति, तरमाणे पडिमाहरमाणेजाव जेणेव भगवो तित्यपरस्स था चाद-(तएणमित्यादि)ततःस शक्रम्तेन प्रागुक्तस्वरूपण - जम्मणणगरे जेणेव जगवो तित्ययरस्म जम्मणनवणे,
शभिः संग्रामिकरनीकापरिक्तिप्तेन मन:परिवृतेन,यावरपूर्वोक्ता
सर्वो महेन्द्रध्वजवर्थको प्रायः महन्द्रध्वजेन पुरतः प्रकृष्यमाणेतेणेव उवागच्छति, उवागच्छतित्ता जगवी तित्थयरस्स
न निर्गम्यमाणेन चतरीत्या सामानिकसहस्रा,यावत्करणात्. जम्मणभवणं तेणं दियेणं जाणाविपाणेणं तिक्वत्तो पा- “च सरासीहि पचरासीहिं भायरक्वदेघसाहस्सीरि"इत्यादि पाहिणं पयाहिणं करेड, करेइत्ता भगवी तित्ययरस्स ज- प्र ह्यम् । परिवृतः सर्वर्या,याचवेण । यावत्करणात-"सब्य. म्मण नवणस्स उत्तरपुरच्चिमे दिमीनागे चउरंगुलमसंपत्तं
जए" इत्यादि प्रागुक्तं ग्राह्यम् । सौधर्मस्य कल्पस्य मध्यं मध्येन
तां दिव्यं देवरि, यावच्चदात्"दिव्यं देवजुर दिब्य देवाणधरणिले तं दिवं जाणविमाणं ग्वेश, उपेत्ता अट्टहिं
भावं" इति प्रहः । सौधर्म कल्पवासिनां देवानामुपदर्शयन् २ अगमदिसीहिं अणीएहिं गंधनाणीएण य नहाणीपण यत्रैव सौधर्मस्थ कल्पस्योत्तराहो निर्माणमार्गों निर्गमनमंब. य सहिंताओ दिव्याओ जाणविमाणाओ पुरजिमिवेणं म्ची पचास्तवापागच्छति । यथा वरयिता नागराशा विवाहोतिसोबाण पमिरूवएणं पच्चोरुहइ । तएणं सकस्स देविंदस्स |
रसवस्फातिदर्शनार्ध राजपचे याति, न तु रथ्यादी,नथाऽयमवि।
एतेन समग्रदेवलोकाऽऽधारतूतप्रथिवीप्रतिष्ठितविमाननिरुद्धदेवरमो चउरासीई सामाणि असाहस्सीओ जाणविमाणाप्रो
मार्गत्वेनेतस्ततः संचरणाभावेन मध्यं मध्ये नेति " उत्तरिल्ने उत्तरिवेणं तिसोवाणपडिरूवएणं पञ्चोरुहंति, अवसेसा देवा णिज्जाणगे " इत्युक्तमिति ये आहुः, ते पागमसांमत्य य देवीओ अताओ दिव्याओ जाणविमाणाश्रो दाहिणि-| युक्तिसालगत्यं च पश्याः । उपागत्य च योजनशतमाहनिलेणं तिसोवाणपमिरूत्रएणं पचोरुहंति ||
कैयोजनल प्रमाणैर्थिग्रहै: क्रभैरिय गन्तव्यक्षेत्रातिक्रमरूपैः।
पतेन स्थावरस्वरूपस्य विमानस्य पदन्यामरूपाः क्रमाः कथं (नप णं तस्स इत्यादि) पनव्याख्या जरतचक्रिणोऽयोध्या
जयेयुरिति शङ्का निरस्ता । अवपतन अवपनन् या चोत्कृप्रवेशाधिकारतो झेया । (तयणमित्यादि। तदनन्तरं छत्रभृङ्गा
ष्टया । यावत्करणात् "तुरिमाए " इत्यादिग्रहः। देवगत्या रमा समाहारादेकवद्भावः। छत्रं च "बेतिमिसंतविमनटम"
व्यतिव्रजन २ तिर्यगसंख्येयानां द्वीपसमुहाणां मध्यं मध्ये. इत्यादिवर्णकयुक्तं भरतस्यायोध्याप्रयेशाधिकारतोकथम् । भृङ्गा
न यत्रैव नन्दीश्वरवरद्वीपो यात्रैव तम्यैव पुत्वमध्यभागेदकिरचविशिष्टवर्णकचित्रोपेतः। पूर्व च भृङ्गारस्य जलपूर्णत्वेन कथ
पर्व आग्नेय कोणवर्ती रतिकरपर्वतस्तत्रैवोपागच्छति । इदं नात्,अयं च जनरिक्तत्वेन विवक्कित इति न पोनरुक्त्यम । तद.
च स्थानानाऽऽद्याशयनोक्तम् । अन्यथा प्रवचनसारोद्धाराऽऽदि. नन्तरं बजमयो रत्नमयः। तथा वृत्तं वर्तुल, नष्टं मनोई,संस्थित
धु पठ्यभानानां पूर्वाऽऽद्यञ्जनगिरिविदिव्यवस्थितवापीद्वयवसम्थानमाकारो यस्य स तथा। तथा-सुप्लेषाऽऽपन्नावयचो.म
यान्तराले बहिःकोणयोः प्रत्यासत्ती प्रत्येक द्वयध्यभायेन तिसण श्यर्थः । परिघृष्टः खप्शाणया पाषाणप्रतिमावत । मृए
टतामटानां रतिकरपर्वतानां मध्ये विनिगमनाविरहात कतरोव मृटः सुकुमारशाणया पाषाणाप्रतिमेव सुप्रतिष्ठितो, न तु रतिकरपर्वतोदकिणपूर्वः स्यादिनि । ननु सौधर्मादवतरतःशतिर्यकपतिततया यः। तत एतेषां पदद्वयपदद्वयमीलनेन कर्म
कस्य नन्दीश्वाद्वीप पवाऽवतरणं युक्तिमत, न पुनरसंख्येयद्वीप. धारयः। अत एव शेषध्वजेभ्यो विशिष्टोऽतिशायी, त्याऽनेकानि वराणि पश्चवर्णानि कुरभीनां झधुपताकानां सहस्राणि तैः परिम
समुत्रातिक्रमेण तवागमनमित्युच्यते, निर्याणमार्गस्थाऽसंख्यागिडतोऽवकृतः, स चासावभिगमश्चेति। वातोद्धृतेत्यादिविशे
सतमस्य द्वीपस्य वा समुषस्य वा परिस्थितत्वेन सम्भाव्यपणद्वयं व्यक्तम् । तथा गगनतलभम्वरतल मनुद्धिखत् संस्पृशत्
मानत्वात्तथाऽवतरणमाततश्च नन्दीश्वराभिगमनेऽ संख्यातीप
समुपातिक्रमणं युक्तिमदेवेति । अत्र टान्तसूत्रम् (एवं जा चेत्र शिखरमग्रभागो यम्य म तथा । योजनसहनमुन्मृतोऽत पवा
त्ति) एवमुक्तरीत्या यैव सूर्यानस्थ वक्तव्यता, यथा सूयोनः सौ. ह-(महा महालए इति) अतिदायेन महान, महेन्द्रध्वजः,पुर
धर्मकल्पादयतार्थस्तथाऽयम पीत्यर्थः । नवरमयं दः शक्रातो यथाऽनुपूा संप्रस्थित इति । (नयणमित्यादि) तदन
धिकारी वक्तव्यः, सौधर्मेन्द्रनाम्ना सर्व वाच्यम् । ( जाव स्तरं स्वरूप स्थकर्मानुसारि नेपथ्य वेषः परिकथितः परिगृही. तो यैस्तानि । तथा (सुसजानि) पूर्ण सामग्री कतया प्रगुणानि
तं दिव्वं ) इत्यादि प्रायो व्यक्तं, नवरमत्र प्रथमयाव
च्छब्दो रवान्तविपवीकृतसूर्यानाऽधिकारस्यावधिसूचना. मालङ्कारविभूषितानि पञ्चानीकानि, पञ्चानीकाधिपतयश्च
थः । स वावविर्विमानप्रतिसंहरणपर्यन्तो वाच्यः । द्वितीयपुरतो यथानुपूा संप्रस्थितानि (तयणंतरं च णमित्यादि) तदनन्तरं बहवे आभियोगिका देयाश्च देव्यश्व स्वकैः २विभौर्य
यावच्छब्दो-" दिब्वं देवजुई दिवं देवाणुभावं" ति थास्वकर्मोपस्थितैर्विभः संपत्तिनिः,यावच्छब्दात्स्वकैः२ रूपै
पदव्यग्राही । अस्य चायमर्थ:-दिव्यां देवद्धि परिवारसंपदं संथा स्वकोपचितरुत्तरवैझियस्वरूपैः, स्वकैः स्वकैः नियोगैरु
स्वविमानवार्जसौधर्मकल्पवासिदेव विमानानां मेरी प्रेषणात्, पकरणैः शकं देवेन्द्र देवराज पुरतश्च मार्गतश्व पृष्ठतः पार्श्व
तथा दिव्यां देवाति शरीराभरणाऽऽदिवामन,तथा दिव्यं दे. तश्च उपयोर्यथानुपूर्वा यथावृद्धकमेण संस्थिताः । (तयणतरं
वानुभावं देवगतिहस्वताऽऽपादनेन, नथा दिव्यं यानयिमानं पास. चणमित्यादि)तदनन्तरं बहवः सौधर्भकल्पयासिनो देवाश्च दे
कनामकं जम्बूद्वीपपरिमाणन्यूनविस्तराऽऽयामकरणेन, प्रतिसंहध्या सर्व खो, यावत करणादिस्य हरिनैगमेषिणं पुरः स्वाज्ञ
रन् प्रतिसंहरन् संक्षिपन संक्षिपन्निति । तृतीययावभरदातप्तिविषयकःप्रागुक्त अालापको ग्राघातेन स्वानिर यानविमातवा
"जेणेव जंबुद्दीवे दीये जेणेव भारहे वासे" इति ग्राहक ननु हनानि भारुढाः रूम्तो मागतश्च यावच्चदात् पुरतः पावतश्च पर्वत्रिसापानप्रतिरूपकणोत्तारः शक्रस्योक्तोऽपराभ्यां केषा
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१२२५४) तित्ययर अन्निधानराजेन्द्रः ।
तित्थयर मुसार स्याह-"तपणं साकरस देविंदस्स देवरसो " - सप्तापि सामानिकाऽऽदिपरिवारे यदिन्द्रस्य स्वयमेव पश्चत्यादि म्यकम।
रूपविकुर्वणं, तत् त्रिजगद्गुरोः परिपूर्णसेवालिप्सुत्धेनेति । (२४) अथ शक्रः किमकादित्याह
(२५) मेरुगमनम्।
अत्र यथा शको बिक्तिस्थानमाप्नोति तथाऽहतए णं से सके देविंदे देवराया चनरासीए सामाणिअ.
तर णं से सके देखिंदे देवराया अहिं बहिं भवणव. साहस्सीएहि जाव सकिं संपरिवुमे सब्धिकीएजाव दुंदु
वाणमंतरजोइसवेमाणिएहिं देवेहिं देवीहि अ सकिं संभिणिग्योसणाइयरवेणं जेणेव भगवं तित्थयरमाया य, ते
परिवुमे सविहीए. जाव ताए उकिट्ठाए० जाव वीऐव उनागच्छइ, उनागच्छइत्ता आझोए चेत्र पणामं करे,
ईवयमाणे बीईवयमाणे जेणेव मंदरे पन्चए जेणेव पंडकरेइत्ता जगवं तित्थयरमायरं च आयाहिणं पयाहिणं करडे, करेइत्ता करयक्ष० जाव एवं वया
गवणे जेणेच अजिसे असिला जेणेच अजिसे असीहामाणे, सी-णमोऽत्यु ते रयण कुच्छिधारिए !, एवं जहा दिसा
तोगेव नवागच्चइ, उवागच्छत्तासीहासणवरगए पुरत्या.
भिमुहे सणिसम्मे। कुमारीयो० जाव धणा सि पुम्पा सि तं कयत्था सि अ
(तएणं से सके इत्यादि) ततःस शक्रो देवेन्छो देवराजा अन्यैर्यहं देवाणप्पिए ! सके नाम देविंदे देवराया भगवो
हुभिर्भवनपतिवाणमन्तरज्योतिकवैमानिर्देवैर्देवाभिश्च साढे तित्थयरस्स जम्माण महिमं करिस्सामि, तेण तुन्भेहिं ण संपरिवृतः सर्वा ; यावत्करणातू" सबजुए" इत्यादिपजीडचं ति कटु अोसोवणि दलयह, दल इत्ता तित्थ- दसंग्रहः पूवोक्तो झयः। तयोत्कृष्टया। यावत्करणात्-“ तुरि. यरपडिरूवगं विउबइ, विउचइता तित्थयरमा
श्राप" इत्यादिग्रहः। व्यतिवजन् व्यतिवजन यत्रैव मन्दरपर्व.
तो यत्रैव च पाडकवनं यत्रैव चाभिषेकशिमा यत्रैव चाऽभिषे. उपाए पासे उबई, ग्वेश्त्ता पंचसक्के विउबइ, विन
कसिंहासनं, तत्रैवोपागच्छति, उपागत्य च सिंहासनवरगतः पू. बित्ता एगे सके जगवं तित्ययरं करयलपुडेणं गि- भिमुखः (ससिसम इति) पालकविमानं च गृहीतस्वामिकएडइ,एगे सके पिट्ठो प्रायवतं धरेड,दुवे सक्का नजयो स्य स्वस्वामिनः पादचारित्वेन तमनुवजतां देवानामप्यनुपयो. पासिं चमरुक्खे करेंति,एगे सके पुरो बज्जपाणी पकहद।। गित्वादजिषेकशिलायां यावदनुवजदनूदिति सन्नाव्यते।
(२६) ईशानेन्जाबसरः"तए णं से सक्के देविदे देवराया चउरासी" इत्यादि
तेणं काझेणं तणं समएणं ईसाणे देविंदे देवराया सूलकराव्यम् । यावत्पदसंग्राह्यं तु पूर्वसूत्रानुसारेण बोध्यम् । यदवा. वीत्तदाह-(णमोऽस्थु ते इत्यादि) नमोऽस्तु तुभ्यं रत्नकुविधारि
पाणी वसलवाहणे मुरिंदे उत्तरउलोगाहिबई अट्ठावीसके! एवंप्रकारं सूत्रं,यथा दिककुमार्य पाहु,तथाऽवादीदित्यर्थः। विमाधाावाससयसहस्साहिवई अरयंबरवत्थधरे एवं जहा यावच्छब्दादिदं ग्राह्यम्-"जगप्पईवदाईप चक्खुणो अमुत्तः | सके, इमणाणतं-महाघोसा घंटा, लहुपरक्कमो पायत्ताणीयास्स सम्बजगजीववच्चलस्स हिमकरमगदेसियरस वागिदिवि
हिवई, पुष्फओ विमाणकारी, दाहिणिो णिजाणभूमी, भुप्पत्तुस्स जिणस्स जाणिस्स नायगस्स बुरूस्स बोहगस्स सम्बलोगणाहस्स सबलोगमंगलस्स जिम्ममम्स पवरकुमस.
उत्तरपुरच्छिमियो रइकरपचनो, मंदरे समोसरिओ जाव मुप्पभवस्स जाइखत्तिबस्स जंसि सोगुत्तमम्स जणगीति।' पज्जुबासह॥ कियत्पर्यन्तमित्याह-धन्याऽसि पुण्यासि त्वं कृतार्थाऽसि, अहं (तेणं कालेणमित्यादि ) तस्मिन् काले सम्भवजिनजन्मके, देवानुप्रियेशको नाम देवेन्यो देवराजा भगवतस्तीर्थकरस्य तस्मिन् समये दिक्कुमारिकृत्यानन्तरीये, न तु शक्राऽऽगमनानन्तजन्ममहिमां करिष्यामि। तेन युष्माभिर्न नेतव्यमितिकृत्वा भव. रीये, सर्वेषामिछाणां जिनकल्याणकेषु युगपदेष समागमनाs. स्वापिनी ददाति, सुते मेकं नीते सुतविरहाऽऽ" मा दुःख- रम्जस्य जायमानत्वात् । यत्तु सूत्रेशकाऽऽगमनानन्तरीयमीशा. भागभूदिति दिव्यनिष्या निद्राणां करोतीत्यर्थः। दवा च नेन्बाऽऽगमनमुक्तं, तत् क्रमेणैव सूत्रबन्धस्य सम्भवात । ईशानो तीर्थकरस्य मेरुनेप्तव्यजगवतः प्रतिरूपकं जिनसदृशं रूपं बि- देवेन्को देवगजा शूलपाणिर्वृषभवाहनः सुरेन्ड उत्तरार्द्ध लोकाकुर्वति, भस्मासु मेरुगतेषु जन्ममहव्यापृतिव्यग्रेषु आसन्नपने- धिपतिः, मेरोरुत्तरतोऽस्यैवाधिपत्यात् । अष्टाविंशतिविमाना. बतया कुतूहलाऽऽदिना तनिका सती माश्य प्रस्ता भवत्वि. वासशतसहस्राधिपतिः, परजांसि निर्मलामि अम्बराणि वस्त्राति भगवपाविधिशेष रूपं विकुर्वतीत्यर्थः। विकुळ च तीर्थ- णि,स्वच्छतयाऽऽकाशकल्पानि वसनानि धरति यः स तथा। एवं करमातुः पार्थे स्थापयति,स्थापयित्वा च पञ्च शकान् विकुर्वति, यथा शक्रः सौधर्मेन्छस्तथाऽयमपि । इदमत्र नानात्वं विशेषःपात्मना पचरूण भवतीत्यर्थः। विर्य च तेषां पञ्चानांमध्ये
महाघोषा घण्टा, लघुपराक्रमनामा पदात्यनीकाधिपतिः, पु. पकः शक्रो भगवन्तं तीर्थकरं परमशुचिना सरसगोशीर्षचन्द. पकमामा विमानकारी, दक्विणा निर्याणभूमिः, उत्तरपौरस्त्यो नमिलेन, धूपवासितेति शेषः। करतलयोरुद्ध यायवस्थितयोः रतिकरपर्वतः, मन्दरे समवस्तः समागतः । यावत्पदात्पुटं संपुटं, शुक्तिकासंपुटमिवेत्यर्थः, तेम गृहाति । पकः शक्रः " भगनंतं तिस्थयरं तित्थयरमायरं तिक्खुत्तो आयाहिणपयापृष्ठत प्रातपत्रं त्रं धरति । द्वौ शक्रावुनयोः पायोश्चमरो- दिणं करे, करिता बंदरगामसर, पंदित्ता णमंमित्ता चासकेपंकुरुतः एकः शक्रः पुरतो वज्रपाणिः सन् प्रकर्षति-निर्गम- मेणारे मुम्सूसमाणे णमंसमाणे भनिमुहं विणपणं पंजपति, आस्मानमिति शेषः। अग्रतः प्रवर्तत इत्यर्थः। अव चा लिउमे॥" इति पर्युपास्ते ।
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(२२५५) तित्थयर अभिधानराजेन्धः।
तित्षयर मथातिदेशेनावशिष्टानां सनत्कुमाराऽऽदीम्डाणां वक्तव्यमाह- एवमेव, णवरं सही सामागअसाहस्सी प्रोपनगुणा पा एवं अवसिहा वि इंदा जाणियबा० जाव अच्चुभो। यरक्खा, महादुपो पायत्ताणीमाहिवई, महापोहस्सरा इसणाणत्तं
घंटा, सेमंत चेत्र परिसायो जहा जीवानिगमे। "चउरासी असीई, वायत्तरि सत्तरी अमट्ठी ।।
धरण:पमा चत्वानीसा, तीसा वीसा दससहस्सा॥१॥"
तेणं कालणं तेणं समपणं घरणे तहेव जाणतं,सामा. एए सामाणिप्राणं।
णिअसाहस्सीओ, उ अग्गमहिसीओ, चरगुणा भायर"वत्तीसऽद्यावीसा, वारस अट्ठ चउरो सयसहस्सा ।
क्खा, मेघस्सरा घंटा,भइसेको पायत्ताणीपाहिवई, विमाएं पणा चत्तालीसा, उच्च सहस्सा सहस्सारे ॥ १ ॥
परमवीसं जोअणसहस्साहि, महिंदको अचाइज्जाई जो आणयपाणयकप्पे, चत्तारि सयाऽऽरणऽच्चुए तिमि ॥"
अणसयाई। एए वेमाणियाणं।
भवनवासिना
एवममुरिंदरन्जिाणं जवणवासिईदाणं, णवरं असुराण इमे जागविमाएकारी देवा । तं जहा
ओघस्सरा घंटा, गागाणं मेघस्सरा, सुवमाणं इंसस्सरा, "पाल' पुप्फे सोमण-से सिरिवच्छे अणंदिभावते। ।
विज्जूणं कोंचस्सरा,अग्गीणं मंजुस्सरा, दिसाणं मंजुघोसा, कामगमे पीगमे, मणोरमे विमने सन्बोनद्दे" ॥१२॥
उदहीणं सुस्सरा, दीवाणं महुरस्सरा, वाकणं दिस्सरा, सोहम्मगाणं सणंकुपारगाणं बंभलोगाणं महामुक्तयाणं
यणियाणं एंदिघोसा, चनसट्ठी सही खवच सहस्सामो पाणयगाणं इंदाणं सुघोसा घंटा, हरिणेगमेसी पायत्ताणी
अमुरव जाणं सामाणिमाओ,एए चनगुणा पायरक्खाओ, माहिवई,उत्तरिया णिजाणमी, दाहिणपुरच्छिमिझे रइ
दाहिणिलाणं पायत्ताणीभाहिबई भद्दसणो, उत्तरिद्वाण करपन्चए; ईसाणगाणं माहिदझंतगसहस्सारअच्चुअगाण य इंदाणं महाघोसा घंटा, लहुपरक्कमो पायताणीमाहिबई,
दक्खो ।
वाणमन्तरा:दक्खिणिझे णिजाणमग्गे, उत्तरतिमिद्धे रइकरपन्च ए, वाणमंतर मोसिमाणं अज्जो! एवं चेत्र, नवरं चत्तारिश्र परिसाओ णं जहा जीवानिगमे आयरक्खा सामाणि अचउ- सामाणि असाहस्सीमो, चत्तारि अग्गमहिसीओ, सोमस ग्गुणा समोस जाणविमाणा सम्बसिं जोयणसयस- आयरक्खसहस्सा विमाणा, जोअणमहस्सं महिंदज्या, हस्सवित्थिमा उच्चत्तेणं सविमाणप्पमाणमहिंदज्या स- पणवीसं जोअणसयं घंटा, दाहिणाणं मंजुस्सरा, उत्तराण ब्बोसिं जोअणसाहस्सिा सक्काज्जा मंदरं समोअरंति० मंजुधोसा, पायत्ताणीपाहिबई विमाणकारी अभाभिजाव पज्जुवामंति।
ोगा देवा । (एवं प्रचसिट्टा विश्त्यादि) एवं सौधर्मशानेन्द्ररीत्या अव.
ज्योतिका:शिष्टा अपि इन्छा वैमानिकानां प्रणितव्या, यावदच्युतेन्छ - जोइसिआणं मुस्सरा सुस्मरणिग्योसायो घंटाओ, मंदरे कादशद्वादशकल्पाधिपतिरिति । (विमानाऽऽदिसंख्या सामा- समोमरणं. जाव पज्जुवासंति । निकाऽऽदिसंख्या च तत्तचन्द)
घण्टासु चायं विशेषः-चन्द्राणां सुस्वरा, सूर्याणां सुस्वरवि(२७) चमरादीनामागमनम
घोषा, सर्वेषां च मन्दरे समवसरणं वाच्यम,यावत पर्युपासते। तेणं कालेणं तेणं सपएणं चमरे असुरिंदे अमुरराया च. यावच्कन्दग्रामं तु प्रादर्शितं ततो केयम्। पतपुस्खेशस्त्वयमपरचंचाए रायहाणीए सभाए मुहम्माए चमरंसि सीहास
"तेणं कालेणं तेणं समपणं चंदा जोइसिंदा जोइसरायासो
पसेनं २ चहि सामाणिप्रसाहस्सीहिं चउहि अगमरिसी गंसि चडसडीए सामाणिअसाहस्सीहिं तायत्तीसाए ताय
तिहिं परिसाहिं सत्सहिं प्रणीपदि सत्सहि भणीमाहिवहिं सीसेहिं चाहिं लोगपाहिं पंचहिं अग्गमहिसीहिं सपरि- | सोलसहि मायरक्वदेवसादस्सीहि एवं, जहा वाणमंतय, वाराह तिहिं परिसाहिं सत्तहिं अपीएहिं सत्तहिं प्रणी
एवं सूरा वि।" मन्त्राल्लेख्ने चन्द्राः सूर्या इत्यत्र बहुब. माहिवईहिं चनहिं चउसट्टीहिं आयरक्खसाहस्सीहिं अधेहि
चनं किमर्थम?, प्रस्तुतकर्मणि पकस्यैव मूर्यस्य चम्चस्व अजहा सके, वरं इमं णाणतं-चुमो पायत्ताणीपाहिबई,
चाधिकृतत्वात; अन्यथेन्डाणां चतुःषष्टिसमस्याकत्वन्याघाता.
वाच्यते-जिनकल्याणकाऽऽदिषु वश करपेन्द्रा विंशतिर्भवनअघिस्सरा घंटा वि णं पणासं जोमणसहस्साई महिंद- वासीका द्वात्रिंशद् व्यन्तरेन्कार,पते व्यक्तितःचन्छसूया तु जा. को पंच जोअणसयाई, विमाणकारी आनिमोगियो त्यपेकया; तेन चन्द्राः सूर्या असल्याता अपि समायाम्ति, देवो,अवसिटुं तं चेव. जान मंदरे समोसरह, पज्जुवासइ ।
के नाम न कामयन्ते भुवनजट्टारकाणां दर्शनम् । यदुवं
शान्तिचरित्रे श्रीमुनिदेवत्रिकृतश्रीशान्तिदेषजन्ममहवर्णनेबली
"ज्योतिकनायको पुष्प-दन्ती सापातिगाविति । हेमाद्रिमा वेणं कालणं तेयं समरणं बनी असुरिंदे अमुरराया । नियन्ते स्म, चतुःषष्टिः सुरेश्वराः" ॥१॥
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( २२५६ ) अभिधान राजेन्द्रः ।
तित्थयर
तर से अच्चु देविंदे देवगया महं देवादिवे आभि झोगे देवे सहावे, महावेइत्ता एवं बयासी विप्पामेव भो देवनिया ! महत्थं महग्यं महारिहं विलं तित्थयराजिसे उबवेह | तर ते हडतुडा० जात्र पमिलित्ता उत्तरपुरच्छिम दिसीभागं श्ररक्रांति, अक्कतित्ता त्रेव्वियसमुग्धारणं० जात्र समोहणित्ता असहस्सं मोवकिलसाणं, एवं रुप्पमयाणं मणिपयाएं सुनारुपमयाणं सुत्रमणिमवाणं रूप्पपणिमयाणं सुत्रहरु - मणिमयाएं अट्ठसदस्यं नोमिनाएं सहस्तं बंदणकलसाणं, एवं सिंगाराणं आसाणं यान्त्राणं पाईमें सुपरडगाणं चिचाएं रयणकरंमगाणं बायकरगोणं पुप्फचंगेरीणं, एवं जहा सूरिद्माभस्स सन्नवंमेरी मन्त्रपन्नगाई विसेसिअंतराई भावि नाई सीहा सण छत्त वापरते समुग्ग० जाव सरिसत्रसमुग्गतालिटा जान असहस्सं करुच्णं विउव्वंति, त्रिवित्तसाहात्रिए बिउब्विए अ कलसे० जाव कडुच्तुए अ गिरिहत्ता जेपोत्र खीरोदए समुदे तेणेव आगम्म खीरोदगं गिएइंति, गिएइंतित्ता जाई तत्थ उप्पलाई पउमाई० जाव सहरसपत्ताई ताई गिरहंति, एवं क्खरोदाओ० जाव भर हेरवयाणं मागहाई तित्थाणं उदगं मट्टियं च गिरहंति, गिएइंतित्ता, एवं गंगाई महाईगं० जात्र चुनहिभवंता सव्वतुरे सव्वपुष्फे सव्वगंधे सत्रम० जाब सब्बोसड़ीओ सिद्धत्यएहिं गिरहंति, गिए इंतिता उमद्दहो दहोदगं उप्पन्नादीणि अ । एवं सम्पन्न बट्टवेठेमु सव्वमहहेमु सव्ववासेसु सच्चचकन हिजिए वक्रवारपन्त्रएस अंतरणईमु विनासिज्जा० जाव उत्तरकुरुतु० जान सुदंसणजद्द सान्झवणे सव्व तुरे० जाव सिद्धत्यए अ गिरइंति । एवं णंदावणाओ
तुरे जात्र सिद्धत्थए अ सरसं च गोसीसचंदणं दिल्लं सुमणदामं गेएईति । एवं सोमण सपंडगत्रणाओ सन्त्र ० जाव सुमदामं दद्दरमलय सुगंधिए गंधे अगिएति, गिरइंतित्ता एगओ मिलंति, मितित्ता जेणेव सामी येणेव उवागच्छंति, जवागच्छेतित्वा तं महत्यं ० जाव तित्थपराभिसे अं जबडवेति ॥
यावलोम हस्तकपटल कानामिमानि च वस्तूनि सुर्याभाषेिकौपयोगवस्तुनिः सङ्ख्ययैव तुल्यानि, न तु गुणेनेत्याह त्रिशेचिततगाण | ( जं०) ननु मेरुनो ऽभिषेकाङ्गनूतवस्तुग्रहणाय च - सम्बते देवास्तद्ग्रहणोपयोगिवस्तुजातं कलशभृङ्गाराऽऽदिकं गृह्णन्तु परंतवनुपयोगियासोदरप्रविष्टं सिंहासनचामरा
किं तैलसमुकाऽटिकं च कथं गृहन्तीति चेत् ? । उच्यतेबिकुवेणा सुत्रस्यातिदेशेन ग्रहणसूत्रस्यातिदिष्टत्वादेतत्सूत्रपा
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तित्थयर
उस्यास्तंगतलेऽपि ये ग्रहणोनितास्त एव गृहीना इति बोध्यम्. योग्यतावशादेवार्थप्रतिपत्तेः यश्च धूपकच्छुकानां तत्र प्रह तत्कादिदेवढस्तधूपनार्थेमिति । अभ्यथा सूत्रे साक्षादुपदर्शितम्य धूपकच्छुकानां प्रणस्य नैरर्थकापसे. अथ प्रस्तुतं सूत्रं गृहीत्वा न यानि तत्र कोरोट र चानि पद्मानि यावत्सहस्रपत्राणि निगृह्णन्ति । यावतपत्रात् कुमुद्र - विग्रहः एवमनया रीत्या पुष्करोदात तृतीयममुद्रात् उदका53किं गृहन्तियतु कीरांदा द्विनिवृतैर्वारुणीवरमन्तरा मुक्ता पुष्करोदे जलं गृहीतं नद्वारुणीवरचारिणोऽग्राह्यत्वादिति संभाव्यमि ति । यावान् "समयस्त्रि से" इति ब्राह्मम् । तेन समयकत्रे मनुष्यतेत्रे भग्तैरावनयोः प्रस्नाखात पुष्करवरद्वीपासरकयोमादीनां तीर्थानामुदकं मृत्तिकां च गृहन्ति । एवमिति समये क्षेत्रस्थपुष्करवर द्वीपासकानां गङ्गादीनां महानदीनाम् | आदिशब्दात् सर्वमहानदी ग्रहः । यावत्पदात् उदकपुरयनमृत्तिकां च गृह्णन्ति । क्षुद्र हिमवतः सर्वान् तुबरान (?) कपायद व्याणि आमलकाऽऽदीनि सर्वाणि जातिभेदेन पुष्पाणि, सर्वान् गन्धान् वासादीन् सर्वाणि माव्यानि प्रथिनाऽऽविनेदभिन्नानि, सर्वामधी राजहंसप्रमुखाः, सिद्धार्थ कांश्च सर्षपान गृहन्ति, गृहीत्वा च पद्महदाद् हृशेदकमुत्पलानि च गृह्णन्ति । एवं क्षुरूहिमवन्न्यायेन सर्वके व्यवस्था कारित्वेन कुल कराः पर्वताः । मध्यपदलोपे कुलपर्वता हिमात्रादयः तेषु वृत्त चे ताट्येषु सर्व.. महादेषु पद्मदाऽऽदिषु सर्ववर्षेषु सर्वचक्रवर्त्तिर्विजयेषु करनाssदिषु वस्कारपर्वतेषु गजदन्ताऽऽकृतिषु माल्यदादिषु सरलाssकृतिषु च चित्रकूटाऽऽदिषु तथाऽऽन्तरनदीषु प्राहावत्यादिषु, विभाषेत वदेत्, पर्वतेषु तु तुबरादीनां प्रदेषूत्पलाऽऽदीनां कर्मक्षेत्रेषु मागधाऽऽदितीर्थोदक मृदां, नदीषूद को जयनमृदां प्रदं वक्तव्यमित्यर्थः । यावत्पदादेव कुरुपरिग्रहः तेन कुरुद्वये च त्रविचित्रमिरियमकगिरिकाञ्चनगिरि दशकेषु यथासंभवं वस्तुजातं गृह्णन्ति । यावत्पदान् पुष्करवर द्वीपस्य पूर्वाई मेरो भशालव ने नन्दने सौमनसबने पपरुकवने सर्वतुबराSSदीन् गृह्णन्ति । तथा तस्यैवापरार्द्ध अनेनैव क्रमेण वस्तुजातं गृह्णन्ति । ततो धातकी एड पूर्वापरार्द्धयोर्भरताऽऽदिस्थानेषु वस्तुप्रोवाच्यः । ततो जम्बूद्वीपेऽपि तद्ग्रहस्तथैव वाच्यः । कियत्पर्यन्तमित्याह- सुदर्शनो जम्बुद्वीपगतो मेरुस्तस्य भद्रयानचने सर्वतुरान् यावत् सिद्धार्थकां सरसं च गोशीर्ष ब. न्दनं दिव्यं सुमनोदानप्रथितपुष्पाणि गृह्णन्ति । एवं सोमनवनात् । सूत्रपाठे पञ्चमीलोपः प्राकृतत्वात् । पएककवनाच्च सर्वतुबरान् यावत् सुमनोद्दामदर्दरमलय सुगन्धिकान् गन्धानू, दर्दरमलचौ खन्दनोत्पत्तिखानिजूतो, तेन नद्भवं खन्दनम पि "तात्याचदृव्यपदेशः " इति न्यायेन दर्द रमजयशब्दाभ्या मभिधीयते । ततो दर्दरमलयनामके चन्दने तयोः सुगन्धः परमगन्धो यत्र तान् दर्दरमलय सुगन्धिकान् गन्धान् वामान् गृह्णन्ति । गृहीत्वा च इतस्ततो विप्रकीर्णा श्रभियोग्यदेवा एकत्र मिलति । मिलिस्वा च यत्रैव स्वामी तत्रैवोपागच्छ म्ति । उपागत्य च तं महार्थे, यावरुन्दात् महार्घे महाई वि पुलमिति पदत्रयम। तीर्थ कराजिषेकं तीर्थंकराभिषेक योग्यं कीरोद काऽऽयुपस्करमुपस्थापयन्ति उपनयन्ति, अच्युतेरेद्रस्य समीपस्थितिं कुर्वन्तीत्यर्थः ।
( २८ ) अच्युतेन्द्रो यदकरोत्तदाहतर से अच्चु देविंदे देवराया दसहिं सामाणित्र
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(२२५७) प्राभिधानराजेन्दः ।
तित्थयर
साहस्सीहिं तायत्तीसाए तायतसिएहिं चउहिं लोगपालेहिं वि नासिमना । अप्पेगा हक्कारेंति एवं पुकारेंति,यकारेंतिहिं परिसाहिं सत्तहिं अणीएहिं सत्तहि अणीयाहिबई. ति, ओवयंति, नुप्पयंति,परिवयंति, जन्नति, तवंति, पपवंति, हिं चत्तालीसाए आयरक्खदेवसाहस्सीहिं सहिं संपरिबुडे गजति,विज्जु आयंति, वासेंति । अप्पेगइया देवुक्कलि क. तोहं सानाविएहिं विउधिएहि अवरकमलपइटाणहिं सुर- रेति । एवं देवा कहकहगं करोति । अप्पगइ या दुहुहुगं कभिवरवारिपमिपुस्मोहिं चंदणकयवच्चाएहिं प्राविछकंठगु- रेंति । अप्पेगइया विकिअनुयाई रूवाई विउवित्ता पणेहिं पनपप्पापिहाणेहिं करयनसुकुमारपरिग्गहिएहिं अ. णचंति, एवमाइ विभाएज्जा, जह विजयस्सन्जाच सचओ दृसहस्सेणं सोवणिप्राणं कलसाणं नाव असहस्सेणं समंता आहावेंति, परिधावति ॥ जोमेजाणं नाव सब्बोदएहिं सबमट्टिाहिं सचतुअरेहिं
अथाऽभिषेकनिगमनपूर्वकमाशीर्वादसूत्रमाहजाव सम्बोसहीहिं सिद्धथएहिं सव्विठ्ठीए० जाव रवेणं
सए णं से अच्चुईदे सपरिवारे सामि महया अजिसेएमहया महया तित्य यरा निसेएणं अभिसिंचति ।
एं अभिसिंचह, अजिसिंचइत्ता करयलपरिग्गहिरं जाव यावच्चदात्-" सव्वजुए" इत्यारज्य " इंदुहिनिम्घोस. नाइ” इत्यन्तं ग्राह्यम् । महता महता तीर्थकराभिषेकेण,
मत्थए अंजलिं कडु जएणं विजएणं बघावेइ, बकावेअत्र करणे तृतीया । कोऽर्थः ?-येनानिषेकेण तीर्थकरा अभिषि- त्ता ताहिं श्वाहि० जाव जयजयसई पजति, पगंजित्ता च्यन्ते, तेनेत्यर्थः । अत्राभिषेकशब्देनानिकोपयोगिकीरोदादि- जाव पम्हलसुकुमालाए सुरभीए गंधकासाइए गायाई खूजलं शेयम, भभिषिञ्चत्यभिषेकं करोतीत्यर्थः।
हेइत्ता एवं० जाव कप्परुक्खगं पि व अलंकियविमिश्र (२५) इन्काऽऽदयो यत्कुर्वन्ति तदाह
करडे, करता. जाव पट्टविहिं उवदंसेइ, उपदंसेइत्ता तए एं सामिस्स महया महया अजिसेसि वट्टमाणं
अच्छेहिं सएहहिं रययमएहिं अच्छरसतंडुलेहिं भगवसि इंदाइआ देवा उत्तचामरकासधूचकमुच्चुअपुप्फगंध० प्रो सामिस्स पुरो अष्टमंगलगे आलिहइ । तं जहाजाव हत्थगया हतुट्ठ० जान बजसूनपाणी पुरो
"प्पणे जद्दामणयं,बच्छमाण वरकममच्छ सिरिवच्छा। चिट्ठति पंजनिउमा । एवं विजयाणुसारेण जाव अप्पे
सोस्थिअणंदावत्ता, लिहिआ अट्ठऽट्ठमंगलगा" ॥२॥ गइया देवा आसित्तममज्जिओबनित्तसितमुझसम्मघर
लिहिकण करे उवयारं, किं ते पामलमविप्रचंपगमत्यंतराऽऽवणवीहिनं करेंति० जाब गंधवहिनूनं । अप्पे---
सोगपुन्नागचूअमंजरिणवमानिअवनलतिक्षयकणचीरकुंदगड़ा हिरणवासं वासंति । एवं सुवस्मरयणवर
कुज्जगकोरंटपत्तदमणगवरसुराभिगंधगंधिअस्स कराग्गहगहिआभरणपतपुप्फफनबीअमरगंधवास जाव चुमवासं वासं
प्रकरयलपन्जविप्पमुक्कस्स दसवपस्स कुसुमणिभरस्स, ति। अप्पेगश्या हिरमविहिं भाईति,एवं०जाब चुमविहिं भा.
तत्थ चित्तं जाणस्सेहप्पमाणमित्वं ओहनिकर करे, करेइत्ता इति । अप्पेगइया चढविहं वजं वाएंति । तं जहा-ततं १,
चंदपनरयणवररुमिअविमलदंडं कंचणमणिरयण भात्तिविततं घणं ३,कुसिरं ।। अप्पेगइआ चनविहं गेअंगायं
चित्तं कालागुरुपवरकंदुरुक्कतुरुक्कधूवगंधुत्तमाणुविदं च धू. ति। तं जहा-नक्खित्तं१,पायनं २,मंदाइयं ३,रोइआवसाणं
मवहि विणिम्मुअंत वेरुनिअमयं कमुच्चुअं पगाहित्तु पपा अप्पेगइया चउनिहंणदृ णचंति। तं जहा-अंचिअं१,
यएणं धूवं दाऊण जिणवरिंदस्स सत्तऽटुपयाई ओसरिता दुअंश,भारजई ३,भसोलंधा अप्पेगइया चउन्विहं अभिण
दसंगुलि अं अंजालं करिअ मत्थयांसि पयो अच्सयविमुयं अनियंति । तं जहा-दिट्टतिअंपमिस्सुअंश,सामलो
दगंथजुत्तेहिं महावित्तेहिं अपुणरुत्तेहिं अत्थजुत्तेहिं संथुपवणिवाइ ३,योगमकावमाणि अंधा अप्पेगआवत्तीसइ.
| इ, संयुणइत्ता वामं जाणु अचेइ, अंचेइत्ता जाव करयलविहं दिव्वं शट्टविहिं नरदंसेंति । अप्पेगा प्रोप्पायं निवायं,
परिग्गहिमं मत्थए अंजलि कट्ट एवं बयासी-एमोऽत्थु ते निनामोपाय,संकुचिअपसारिअंजाब तसंभंतणामं दि
सिक! बुक! पीरय! समण! समाहिश! समत्त! समजोगि! बं नट्टविहिं उपदंसंतीति । अप्पेगड़आ तंमति,अप्पेगा
सलगत्तण! णिब्जय! णीरागदोस!णिम्मम! हिस्संग ! लामोति,अप्पेगइमा पीणेति। एवं वुक्कारेंति,अप्फोडेंति, वर्ग
णीसस !माणमूरण ! गुणरयणसीलसागर!अणंत! अप्पति,सीहणायं णयंति । अप्पेगइया सव्वाइंकरोति । अप्पेगइआ मेय! भवि! धम्मवरचाउरंतचक्कवट्टी ! णमोऽत्यु ते अरइय हेसिनं करोति । एवं हत्यिगुलगुन्नाइरहधणघणाअं। हो त्ति कटु वंदर, णमंसद, एमसइत्ता णचासहोणाइदूरे अप्पेगड्या तिमि वि | अप्पेगश्या नुच्छोलेंति, अप्पेगड्या
सुस्मूसमाणे० जाव पज्जुवासइ । पच्चोति,अप्पेगइया तिवइंछिंदनि,पायदद्दरयं करोति,नूमिच
(तए णमित्यादि) ततः सोऽच्युतेन्द्रः सपरिवारः स्वामिनम. वेमंदनयंति। अप्पेगडा महया सद्देणं वेनि:एवं संजोगा। नन्तरोक्तस्वरूपेण महता महता अतिशयेन महता अनिषेकेणा
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तित्ययर
अभिषिञ्चति. मिनमनसूत्रत्वाच्च पौनरुक्यम अभिषिच्य च रतनपरिगृहीतं यावत्पद संग्राह्मं प्राभ्वत् । मस्तके अञ्जलि कृत्या जयेन विजयेन प्रागुक्तस्वरूपेण वर्द्धयत्याशिषं प्रयुङ्क्ते, वर्कयित्वा
सामोताराम धो
( २२५६ )
अभिधानराजेन्
वत्करणात् "कंतादि पिचादि मधुमादिदि" इति ब्राह्मम् । अत्र व्याख्या व प्राग्वत् । वाग्निर्जयजयशब्दं प्रयु हे संभ्रमे द्विर्वचनं जयशब्दस्य । अत्र जयेन विजयेन वर्द्धविस्वा पुनर्जय विजयशब्दप्रयोगो, मङ्गलवचमे पुनरुक्ति दोषायेत्यभिदितः प्रयानिषेकोसीमा (जिइत्यादि) प्रयुज्य च । यावच्छन्दात्-" तप्पढमयाए इति ब्राह्मम् । अत्र व्याक्या-तेष्वनिषेकोत्तर कालीन कर्त्तव्येषु प्रथमतया प्राचत्वेन पदमल सुकुमारया सुरज्या गन्धकाचाविक्या गन्धकथा
परिकर्मितया अशादिकति गम्यगाचाणि यति मुक्तप्रकारेण यावत् कल्पवासकृतं बरेणा भरणारे विभूषितं करोति यावत्करणात्-"डिसासरसे गोसीस गाया अलिपर, अलिपला मासामी खासबाययोज्यं चक्रं चरितं हलाला
या कणगलत सनसावे निसावेता" इति प्राह्यम् । अत्र व्याख्या प्राग्वत् । नवरं देवदूध्ययुग परिधानोचरीयरूपं निवासयति परिघात - स्वा च । यावत्करणात्-" सुमिणदामं पिनद्धावे " इति प्राह्यम् । नाट्यविधिमुपपति उपदश्यं स रजतमवेच्खतपते भगवतः स्वामिनः पुरताम रजतमयैरच्छरसतरामुलैः काम्यालिखति । तद्यथा-" दप्पणे " इति पद्यं सुगमम् । मङ्गलोखनोत्तर कृत्यमाह - ( सिद्दिऊण सि ) अनन्तरोक्ताम्यटमङ्गमानि लिखित्वा करोत्युपचारमित्याद्यारभ्य कडुच्छुकग्रहपर्यन्तं सूत्रंचकर पूजाधिकारनिचितव्यतया यम् । ततः प्रयतः सन् यथा बालनद्वारकस्य धूपधूमाकुले अक्षिणी न भवतस्तथा प्रयत्नवान् धूपं दत्वा जिनवरेन्द्राय | सूत्रे पछी अश्यात् । अङ्गपूजार्थे प्रश्यासेदुषा मया निस्को
वनमार्गोलोऽहं मा परेषां दर्शनामृतपान विघ्नकारी स्वामिति सप्ताष्टानि पदान्यपसृत्य दशाङ्गुलिकं मस्तके - जलिं कृत्वा प्रयतो यथास्थानमुदान्तादिस्वरोच्चारेषु प्रयत्नबामशतैरष्टे तरशतप्रमाविशुद्धेन प्रन्येन पालेन युकैर्महावृ सैर्महाकाव्यैर्यथा महावर पुन र युकेामत्कारिव्यययुकैः संस्तीति संस्तुत्य च वामे जानुम् उत्पति अशित्वा च यावत्पदात्-" दाहिणं जाएं धरणिमलंसि निवामेरु " इति प्राह्मम् । अत्र व्याख्या प्राग्वत् । करतलपरिगृहीतं मस्तकेन कृत्वा पात्। यदवदीतदादतेस इत्यादि नमोस्तु ते तुज्यं हे सिद्ध ! एवं बुकेत्यादिपदानि संबन्धनीयानि । तत्र हे बुद्ध । ज्ञाततत्र ! हे नीरज: कर्मर जोर देत ! हे श्रमण ! तपस्विन्! हे समाहित! डानाकुलिखित ! हे समाप्त ! कृतकृत्यस्वात् । अथवा सम्यक् प्रकारेणाप्रविसंवादिवचनत्यात हे समयोगिन् कुल ! ! मनोवाक्काययोगित्वात् । शल्यकर्त्तन ! मिर्भय ! नीरागद्वेष ! निर्मम | निरस विशेष निःशल्य 1 (मानसूर
1) माननेषु मनुष्यच्तस्य सागर | अनन्तज्ञाना ऽऽत्मकत्वात् । अप्रमेय 1 प्राकृतहामापरिच्छेद्य ! अशरीरजीवस्वरूपस्य उग्रस्थैः परिवेत्तुमश कत्वात् इति । अथवाऽप्रमेय भगवान
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तित्यमर
संख्यातुमशक्यत्वात् । भव्य ! मुकिंगमनयोग्य ! अस्यासचभवसिद्धत्वात् । धर्मेण धर्मरूपेण वरेश प्रधानेन सारकत्वात् रम्तुतकारिया प
सम्बोधनं हे धर्मवर्तिन् नमोऽस्तु तुम् जगज्याइति संस्तुत्य ते नमस्वतीत्यादिनं प्राम्यत् विशेष मो से' इत्युक्वा पुनरपि 'नमोऽस्तु से' इत्युक्तं तच पुनरुकये, प्रत्युत साघवाय, यसो जगत्त्रयप्रतिस्रोतश्चारित्रिणो जगत्त्रय पतेस्तस दसाधारणैकैक विशेषण विभावनात समुद्भूतप्रणामपरिणामेन हरिणा प्रतिविशेषणं 'नमोऽस्तु ते' इति न प्रयुक्तमिति । इमानि सर्वाणि विशेषणानि भव्यपदवर्णानि 'नाविवि भूतबडुपचारात् । ' अम्पचाऽभिषेकसमये जिनानामेतादृशविशेषणसयुकम्, असंभवादिति ।
(३०) मधावशिष्टानामिन्द्राणां बकव्यं लाघवादाहएवं जहा प्रस् ता० जाब ईसाणस्साव्वं । एवं भवणवत्राणमंतर जोइसिभा य सूरपज्जवसाणा सणं सपर्ण परिवारणं पत्ते पते अभिसिति । त
ईसा देविंदे देवराया पंच ईसाणे विजब्बर, विजब्बरचा एगे ईसा जगनं तित्ययरं करयनपुणं गिएडर, गिएहड़चासदासावरगए पुरस्वानिमुद्दे सचिसो एगे ईसा मे पिओ आपलं घरे दुबे ईसाणा उभओ पासिं यास्वयं करेति एगे ईसा पुरओ मूलपाणी चिह्न ।
( एवं जहा इत्यादि) पवमुक्तविधिना यथाऽच्युतेन्द्रस्याभिषेककृत्यं तथा प्राणतेन्द्रस्य यावदीशानेन्द्रस्यापि भणितम्यं शकाभिषेकस्य सर्वरत्वात् पर्व भवनपतियन्तरज्यो तिष्काचेन्द्राः सूर्यपर्यवसानाः स्त्र केन २ परिवारेण सह प्रत्येकं प्रत्येकमभिषिञ्चन्ति । ( तप णमित्यादि ) ततस्त्रिषंष्ट्राभि• मानो देवेन्द्रो देवराजा पशावाद विकुर्वति, एक ईशानः पञ्चधा भवति । एतदेव विभजति तत्र एक ईशानो भ गवन्तं तीर्थकर करतलसम्युटेन गृह्णाति गृहीत्वा च सिंहा सनत्ररगतः पूर्वाभिमुखः सनिषणः। एक ईशानः पृष्ठतः प्रातपत्रं घरात द्वाषीशाना युनयोः पार्श्वयोः चमरोस्केपं कुरुतः । एक ईशानः पुरःपाणिहित्यूर्द्धस्यो प्रयति ।
(३१) अथावशिष्याकस्थाभिषेकाय सरारा
तर से सके देविंदे देवराया आभियोगे देवे सहावे, साता एसो वि तह चैव अजिसे आणमादिसइ, ते बि तह चैव तवर्णेति । तए णं से सके देविंदे देवराया भगव तित्थयरस्स चनद्दिसिं चत्तारि धवलवसभे विजब्बर, सेए संवदनविमल निम्मलदधिषणगोली र फेणस्य पचिगरपगासे पासाइर दरमणि अनिरुवे परिरुवे तर णं तेभि चढए सबसजाएं अरिसिंगेहिं तो अ तोयधागभो विग्गच्छति । स ताम्रो अह तोयधाराओं व बेडासं समुप्पयंति, समृपतित्ता गओ मिज्ञाति मिला सिता जग तित्ययरस मुद्धानंसि निवयंति । तए पां से सके
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(२१५५) तित्पयर माभिधानराजेन्कः।
तित्नयर देविंदे देवराया चउरासीईए सामाणि प्रसाहस्सीहि, एअ- तित्ययरं अणिमिसाए दिडीए पहमाणे पेहमाणे मां स्स वि तहेव अजिसेश्रो जाणिप्रबो० जाव'एमोऽत्यु | मुहेणं अभिरममाणे चिट्ठ। ते परहो'त्ति का बंदइ, णमंसइ० जाब पज्जुवास । (तपणमित्यादि) प्राग्वत । अथ जम्मनगरप्रापणाय सूत्रम
सम्प्रत्यव्यप्रपाणिः शक्रो यदकरोतदार-( तप गमि- ( तप णमिति ) ततः स शक्रः पक्षरूपत्रिकुर्वस्पादि ) तत ईशानेकेण जगवतः हरसंपुटग्रहणानन्तरं णानन्तरं चतुरशीत्या सामानिकसदौयांवत् संपरिवतः स शको देबेम्बो देवराजा भाभियोग्या देवान् शब्दय. सर्वर्या यावत्रादितरवण तयोत्कृष्टयां दिव्यया देवगति, शमयित्वा च एषोऽपि तपैवाऽच्युतेन्द्रबदभिषेक- त्या व्यतिव्रजन् व्यतिनजन् यत्रव भगवतस्तीर्थकरस्थ विषयिकामाप्तिं ददाति, तेऽप्याभियोग्यास्तथैवाऽच्युते- जम्मनगर, यत्रैव च जन्मभवन, यत्रैव तीर्थकरमाता, तत्रैवोपगहाभियोग्यदेवाइवाभिषेकवस्तून्युपनयम्ति । मथ शक्रः किंकि यति । उपागत्य च जगवन्तं तीर्थकर मातुःपावें स्थापयति। चकारत्याह-तिथ खमित्यादि) ततोऽभिषेकसामध्युपनयनान. स्थापयित्वा च तीर्थकरप्रतिबिम्ब प्रतिसहरति । प्रतिसहत्य म्तरं सशको देवेन्द्रो देवराजा भगवतस्तीर्थकरस्य चतु.
चावस्वापिनी प्रतिसंहरति । प्रतिसंहत्य चैकं महत् कौमयो. दिशि चतुरोधवजवृषनान् विकुर्वति । श्वेतान् । श्वेतत्वमेव क. तुकूलयोयुगलं कुएमलयुगलं भगवतस्तीर्थकरस्योच्चीर्षढयति-शस्त्रस्य दलं चूर्ण विमल निर्मसोऽत्यन्तनिर्मलो यो कमूले स्थापयति । स्थापयित्वा च एकं महान्तं श्रीदाम्नां दधिधनो दधिपिरामो,बद्धदधीत्यर्थः । गोकोरफेनः प्रतीतः, र. | शोभावरिचित्ररत्नमालानां गएडं गोखं वृत्ताकारस्वात् । जतनिकरोऽपि । एतेषामिव प्रकाशो येषां ते तथा, तान् (पा- कापडं असमूहः, श्रीदामगएम श्रीदामकायम वा, प्रगसाइप इत्यादि) प्राग्वत् । तदनन्तरं किमित्याह-(तर गमि. बतस्ती
निकिपत्यबलम्बयतीति क्रियायोगः । ति) ततस्तेषां चतुणी धवल वृषभानामष्टयः शोभ्योऽरी तपनीयेत्यादि सूत्र प्रोग्बत् । मामामणिरस्नानां ये विविध. तोयधारा निर्गच्छन्ति । ततस्ता अष्टौ तोयधारा कई विदाय- हाराहारास्तैरुपशोभितः समुदायः परिकरोयस्य तत् तथा। सि उत्पतम्ति कर्द्ध चलन्ति, उत्पत्य च पकतो मिलम्ति.
अधमर्थः-श्रीमत्यो रत्नमानास्तथा प्रथयित्वा गोलाकारेख मिलिस्वा च नगवतस्तीर्थकरस्य मूर्ध्नि निपतन्ति । अथ शकः किं कृताः यथा स्वरूगोपके मध्यकुम्बनकतां प्रापिता, हाराईकृतवानित्याह-(तप समिति) ततः स शक्रो देवेन्छो देवरा- हाराश्व परिकरकुम्बनकतामा कस्वरूपकुम्बनकविधाने प्रयोजा चतुरशीत्या सामानिकसहखनिशता प्रनिशकर्याव- जनमाह-(तं णमिति प्राग्वत्) भगवांस्तीर्थकरो निनिमेषया त् संपरिवृतस्तैः स्वाभाविकवैकुर्विककलमहता तीर्थकरा- रएपाध्यादरेण प्रेक्ष्यमाणः प्रेक्ष्यमाणः सुखं सुखेनाभिरममाभिषेकेणानिषिञ्चति, इत्यादिसूत्रोकाभिषेकविधिः शक्रस्थाs.
जो रतिं कुर्वस्तिष्ठति। च्युते वदस्तीति । माधवमाह-पतस्यापि तथैवाभिषेको भ
(३३) अथ वैश्रवणद्वारा शकस्य कस्यमारणितम्यः । कियदन्त इत्याह-यावनमोऽस्तु तेऽईते इति करवा बम्दते, नमस्यति, नम्रता यावत् पर्युपास्ते इति ।
तए से सकें देविंदे देवराया वेसणं देवं सहावेइ, स(३२) अधकृतकृत्यः शको जगवतो जन्मपुरप्रापणायोपक्रमते
हावेइत्ता एवं बयासी-विप्पामेव भो देवाणप्पिया! बच्चीस तए णं से सके देविंदे देवराया पंच सके विनम्बइ, बि.
हिरकोमीयो बत्तीसं सुनाकोमीमो बत्तीसं रयणकोउबदत्ता एगे सके जगवं तित्थयरं करयलपुमेणं गिए,
डीयो पत्तीसं एंदाई बत्तीसं जहाई सुभगे मुभपगे सके पिडओ पायवत्तं घरेइ, दुवे सका उनमो पासिं
गरूवजोवणमावले अ भगवो तिस्ययरस्स जम्मचामरुक्खेवं करेंति, एगे सके पज्जपाणी पुरओ पक। तए
पनवणंसि साहराहि, साहराहिता एमाणत्ति एं से सक्के चउरासीईए सामाणिअसाहस्सीहिं० जाव भले
पञ्चप्पिणाहि । तए णं से बेसमणे देवे सकेगं. मात्र हि अभवणवनाणमंतरजोश्मवेमाणिएहिं देवेहिं देवीहि
विणएणं वयणं पदिसुणेश, पमिसुणेचा जंजए देवे श्र सकिं संपरिवुमे सविडीए जाव णाइभरवेणं ताए
सदाबेइ,सहावेत्ता एवं वयासी-खिप्पामेव जो देवाणप्पिया! उकिट्ठाए जाव जेणेव जगवमो तित्थपरस्स जम्मणणयरे,
बत्तीसं हिरकोमीअोजाव भगवो तित्थयास्स नम्रजेणेव जम्मणभवणे, जेणेव तित्थयरमाया, तेणेव उवागच्छइ,
एभवणंसि साहरह, एप्रमाणत्तिभं पञ्चप्पिणह। तए पते उवागच्छाइचा भगवं तित्थयरं माउए पासे ठवड, उत्ता
अंजगा देवा बेसमोणं देवेणं एवं वुत्ता सपाणा हहतुक तित्ययरपफिरूवगं पमिसाहरइ, पमिसाहरइत्ता ओसोवणि
जाव खिप्पामेष वत्तीसं हिरनकोमीयो० जाव जगवनो पमिसाइरह, पमिसाहरपत्ता एगं महं खोमजुअलं कुंडल
तित्थगरस्स जम्ममभवणंसि साहरांति, सारं तित्ता जेणेव
वेसमणे देवे तेवजाव पचप्पिणंति। तर से बेसमणे जुअलं भगवो तित्थयरस्स उस्सीसगमले ग्वे, वे. सा एग मई सिरिदामगंमं तवणिजवंबूसगं भुवनपयरग
देवे जेणेव देविंदे देवराया० जाव पञ्चप्पिा ।।। बंडिअं पाणामणिरयणविचिहहारकहारउवसोहिअसमु
(तए पमित्यादि) ततः स शको देवेन्द्रो देवराजा वैभवणा
तरदिकपासं देवं शम्दयति, शम्दायित्वा वैवमवादी-वियमेव दयं जगमो वित्थयरस्स नशोमंसि निक्खिवर, तं पं भगवं भो देवानुप्रियाशितंदिरख्यकोटी,वाशितं पुषणकोटी
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(२२६०) तित्थयर अनिधानराजेन्डः।
तित्थयर द्वात्रिंशतं नन्दानि वृत्तलोहाऽऽसनानि, द्वात्रिंशतं भजाणि
हियाभो महामहिमाओ करेंति, करोंतित्ता जामेघ दिसिं भद्रासनानि, सुभगानि शोजनानि, सुजगयौवनलावण्यानि
पाउब्लूआ तामेव दिसि पमिगया । रूपकाणि यत्र तानि तथा। सूत्रे पदव्यत्यय प्रार्थत्वात् । च: समुरुचये। भगवतस्तीर्थकरस्य जन्म नबने सहराऽऽनयेत्यर्थः।
भध निगमनसूत्रमार-(तए णमिति) ततस्ते बहवो भवनसंरत्य च पनामाज्ञप्ति प्रत्यय । ततः स वैश्रमणो देवः शक्रेण, पत्यादयो देवा भगवतस्तीर्थकरस्य जन्ममहिमानं कुर्वन्ति, कृयावत्-" देविदेणं देवरम्मा एवं कुत्ते समाणे दन्तुचि.
स्वा च सिद्धसमीहितकायें मानार्थ यत्रैव नन्दीश्वरवरद्वीपसमाणदिए एवं देवो! तद त्ति प्राणाप।" इति ग्राह्यम् । विन
स्तत्रैवोपागच्चन्ति, उपागत्यावाहिकामहामहिमा अष्टदिननियेन वचनं प्रतिशणोति, प्रतिमुत्य च जम्नकान् तिर्यग्लोके वै.
वर्तनीयोत्सवविशेषान् कुर्वन्ति, वहुवचनं चात्र सौधन्काताब्यद्वितीयश्रेणिवासित्वेन तिर्यवलोकगतनिधानाऽऽदिधेदिनः
ऽऽदिभिः प्रत्येक क्रियमाणत्वात । अथ यस्येन्स्य यस्मिशब्दयति, शब्दयित्वा चैवमवादात् । शेषमनुवादसूत्रत्वात्
न अजनगिरौ येषु च दधिमुखगिरिषु तवोकपालानामधादिसुबोधम् ।
काधिकारः स ऋषभदेवनिर्वाणाधिकारे उक्त इति मात्र
लिख्यते । ज०५ बका। (३४) अथास्मासु स्वस्थान प्राप्तेषु निःसोदर्यसौन्दयाधिके भगवति मा दुष्टां दुदृष्टि नितिपन्वित्युद्घोषणा
(३६) संख्यातए णं से सक्के देविंदे देवराया आजियोगे देवेसहावे,
जवणिंद वीस वंतर-पहु दुत्तीसं च चंदसरा दो । सक्षवेइत्ता एवं बयासी-खिप्पामेव भो देवाण-ग! ज.
कप्पमुरिंदा दस इय, हरि चनसद्विति जिणजम्मे ।।१०४॥ गवओ तित्ययरस्स जम्माण पयरंसि सिं
महा
प्रवनपतीनां विशतिरिन्डाः २.। व्यन्तराणां प्रभव इन्डा द्वा
त्रिंशय ३२ । द्वौ चन्छसूर्यो । द्वादशकल्पानां देवलोकानां दश पहेसु महया महया सद्देणं नग्घोसेमाणे नग्धोसेमाणे एवं
सुरन्धाः १०। इति इन्काः चतुष्पर्धिश्चतुःसंयुक्ता पष्टियन्तिवदह-हंद ! मुणंतु नवंतो बहवे जवणवइबाएमंतरजोइसचे.
श्रागच्छाति जिनजन्मनि । इति गाथाऽर्थः ॥ १०४॥ सत्त. माणिआ देवा य देवीओ अ,जे खं देवाणुप्पिया ! तित्थयरस्स ३५ हार । श्रा० चू । जं०। तित्ययरमानए वा अमुभं मणे पधारे,अज्जगमंजरिआ इव
(३७) उपदेशःसयधा मुकाणं फुट्टतु ति कड घोसणं घोसेह, घोसेश्त्ता ए. से बेमि जे य अतीता, जे य पडुप्पन्ना, जे य आगमिस्सा प्रमाणत्तिअं पञ्चप्पिणह । तएणं ते आजिओगा देवा जाव अरिहंता भगवंता सम्वे ते एवमाइक्खंति,एवं जासंति, एवं एवं देवो! त्ति आणाए पडिसुणंति, पमिसुशंतित्ता सक्कस्स पम्मवेति, एवं परू-ति-सव्वे पाणाजाव सत्ता ण हंतव्वा, देविंदस्स देवरमो अंतिप्रामो पमिणिक्खमंति,परिणिक्ख- ण अजायचा,ण परिघेतव्वा, ण परितावेयव्या,ण प्रोदमंतिता खिप्पामेव भगव नो तित्थयरस्स जम्मणणगरंसि वयचा, एस धम्मे धुवे णितिए सासए समिञ्च लोग खेसिघामग० जाव एवं वयासी-हद ! मुणंतु जवंतो बहवे यन्नेहिं पवईए, इति एवं से निक्खू विरते पाणातिवायतोजाव नवणवइ० जाव जे ए देवाणुपिना! तित्थयरस्स० जाव परिग्गहातो णो दंतपक्वान्नणेणं दंतं पक्वानेजा, णो अफुहिदि त्ति कह घोसणगं घोसंति, घोसतित्ता एप्रमाण- जणं, णो वमाण,णो धूवणे, पोतं परिभाविए जा ॥४॥ त्ति पञ्चप्पिणंति ॥
सोऽहं ब्रवीम्येतन स्वमनीषिकतया,किं तु सर्वतीर्थकराऽऽक्ष. सपायार्थमाह-(तए णमित्यादि) ततो वैश्रवणेनाऽऽकाप्रत्यर्प- येति दर्शयति-(जे अतीता इत्यादि)ये केचन तीर्थकृत ऋ. णानन्तरं स शक्रः देवेन्द्रो देवराजा श्राभियोग्यान् देवान् शब्द- पभादयोऽतीताः,ये च विदेहेषु वर्तमानाः सीमन्धराऽऽदयो,ये यति, शब्दयित्वाचैवमवादीत्-क्षिप्रमेव नो देवानुप्रिया: भग- चागामिन्यामुत्सपियां भविष्यन्ति ब्रह्मनाभाऽऽदयोऽहन्तोऽमबतम्नार्थकरस्य जन्मनगरे नाटक० यावन्महापधेषु मह- रासुरनरेश्वराणं पूजाहः,नगवन्त ऐश्वर्याऽऽदिगुणकलापोपताः, ता महता शब्देन उद्धोषयन्त उद्घोष यन्त एवं बदत-'हंत' इति सर्वेऽप्येवं ते व्यक्तवाचा आख्यान्ति प्रतिपादयन्ति । एवं सदेच. प्राम्बत् । शपवन्तु भवन्तो बहवो भवनपतिव्यन्तरज्योतष्कदै- मनुजायां पर्षदि भाषन्ते स्वत एव, न यथा बौद्धानां घोधिसमानिका देवाश्च देव्यश्व, योऽनिर्दिष्टनामा देवानां प्रिय! इति स्वप्रभावात् कुरुधादिदेशनत इत्येवं प्रकर्षेण ज्ञापयन्ति हेतूदादसंबोधन,भवतां मध्ये तीर्थकरस्य तीर्थकरमातुर्वोपर्य शुनं मनः रणाऽऽदिभिः, एवं प्ररूपयन्ति नामाऽऽदिभिः, यथा सर्वे प्राणा न प्रधारयति दुष्ठं संकल्पयति, तस्य भार्यक्रम अरिकेव-आर्यको हन्तव्या इत्यादि । एष धर्मः प्राणिरक्षण सकपः प्राध्यावर्णि. घनस्पतिविशेषो, यो लोके "आजउ" इति प्रसिकः, तस्य म
तस्वरूपो धुनोऽवश्यं जावी, नित्यः क्षान्त्यादिरूपेण शाश्वत जरिका इव मूझे शतधा म्फुटस्विति कृत्यत्युक्त्वा घोषणं घो
इत्यवं चाभिसमेत्य, केवलकानेनावलोक्य मोकं चतुर्दशरज्ज्वा. षयत, घोषयित्वा चैतामाझप्तिका प्रत्यर्पयत इति ।।
त्मक, खेदकस्तार्थद्भिः प्रचोदितः कार्थत इत्यत्रं सर्व ज्ञात्वा स (३५) अध्याहिका
भिक्षुर्विदितवेद्यो विरतः प्राणातिपाताद, यावत्परिग्रहादिति । नए णं ते बहवे नववश्वाणमंतरजोइसवेमाणिया देवा
पतदेव दर्शयितुमाह-(णो दंत इत्यादि) ३ह पूर्वोक्तमहावनपा. भगवो तित्थयरस्स जम्मणमहिमं करेंति, कतित्ता जेणेध
सनार्थमनेनोत्तरगुणाः प्रतिपाद्यन्ते । तत्रापरिग्रहो निष्किञ्च
नः स साधुनों दन्तप्रक्षालनम कदम्बाऽऽदिकाष्ठन दन्तान प्र. दीसरचरदीवे तेणेव उवागच्छति, नवागच्चंतिता अट्ठा-1 कालयेत, तथा नो अजनं सोचीराऽऽदिकं विभूवार्थमक्ष्णो
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तित्थयर
दधात्, तथा नो वमनविरेचनाऽऽदिकाः क्रियाः कुर्यात्, तथा नो शरीरस्थ, स्वीयनास्त्राणां वा धूपनं कुर्यात् नापि कालाउद्यपनयनार्थ तं धूमं योगवर्तिनिष्पादितमापिवेदिति । ४६ । सूत्र० २ श्रु० १ अ० आचा० आ० म० ।
धर्मोपायस्य देशका इत्येतद् व्यान्निख्यासुराहधम्मोचाओ पण महवा पुष्पा देसया तस्स । सम्वजिया गयरा, चोसम्बीउ जे जस्स ॥ धर्मोपायो नाम प्रचचनं तदन्तरेण धर्मस्यासम्भवात् । अथ बा- पूर्वाणि । तस्य धर्मोपायस्य देशकाः सर्वजिनानां गणधतेषां अथवा यस्य तीर्थ शपूर्विणस्ते धर्मोपायदेशकाः परिपूर्णतया तेषां यथाऽय स्थितवस्तु देश करवात्।
(३२६१ )
अभिधानराजेन्द्रः ।
सामाश्याया वा व्यजीवनिकाय भावशा पद एस धम्मोत्राओ, जिरोहिँ सब्बेहिँ उबइको || बाशब्दः प्रकारान्तरताद्योतनार्थः । अथवा-या प्रथमं व्रतजीबनिकायज्ञावना महावता पयपम्जीदनिकाय यथावस्थितप रिज्ञानसम्यक्कान संरक्षणाध्यवसायरूपा भावना, सामायि कादिका रागद्वेषपरिहारेण समभावादिका, एप धर्मोपायः समन्तरेण सम्यक वारियरूपधर्मासम्भवात्
पायो जनः सर्वैरप्युपदिष्टः ततो धर्मोपायरूप देशकास्त एव जिना इति । श्र० म० १ ० १ खण्ड ।
(३८) उपकरण संख्यापतं पचाबंधो, पायवणं च पायकेसरिया |
मलाई स्वत्ताणं च गोच्छओ पायनिज्जोमो || १७८ || तिचेव व पच्छागा, रहरणं देव होड़ मुहपुती | बार जिकविया, येराण समत्तकमिपट्टो || १७५|| साध्वीनां पञ्चविंशत्युपकरणानिश्रोतगपट्टो, अरुय चलशिया य बोधव्त्रा । अनतरवाहिनिये सतह कंचुए चैव ॥१८०॥ उच्छिक संघानी पर उबगरणा । तेर कम-सहिया अजाणपणवी || १८१ ॥ गाथार्थः हि० भागे 'बगरण' १०६१ प्रतिः) यात्रोपकरणानि सप्त देहोपकरणानि एतानि साधूनां चिरकदिपकानाम् घादश जिनकपिकाना, साध्वीन पञ्चविंशत्युपकरणानि । सत्त० १२ए द्वार ।
(३) उपसर्गः -
-
उवसग्गा पासस्स य, वीरस्स य न उण सेसाणं । (१६) उपसर्गाः देवमनुजाऽऽदि कृताः श्री पार्श्वनाथस्य, वीरजिनस्य च जान पुनः शेषाणां शतिजिनानाम् । अयं नावार्थ:श्रीजनांद्वाविंशतिजिनानां प्रमादो नाभूत श्रीपा
वीर जीनां द्वाविंशतिजिनानामुपसर्गा नाभूवन् । सत्त० ८६ द्वार। आ० सू० । कल्प० । श्राव० पृ० 1 (४०) उचालेनात्मा च देहमा जिनानां कहतेसपन, दस पाप हाथी । नवकर सत्तुतोड़ो, आयंगुलि पीस मध्ये ।। १३१ ।। चरण वारस्स दुर्ग, उसद्दार्यगुल पमाण अंगुल
।
५६६
तित्थयर तेनहोस, बारंगुहाणिजा सुबह ६ ॥ १२२॥ बीसंग अंगुलदाव नावडतो तडक जानेमी । सगवीसंसा पासे, वीरे गवसं सपन्नासा ॥ १३३ ॥
तत्रोत्सेधाइगुलेन ऋषभजिनः पञ्चशत (५००) धनुर्वेदमानः १। (नसुति) ततः पञ्चाशदूधनुहीनिः क्रियते अष्टसु जि. मेषु यथाजितः सात्र पान (४५०) मना चतुःशत (४००) मानः ३ अभिनन्दनः (३४० ) सानुमानः ४ सुमति (३००) प देहमान पद्म (२०) सार्द्धद्विशतधनुमान है। सु पार्श्वः (२००) द्विधनुर्देहमान (१४०) साई शतधनुर्वेदमानः सुविधि (२००) मानः ए (पति) दशनिः पञ्चजनेषु क्रियते यथाशी तलः (१०) नवविधमानः १० सः (G०) मशीनु दमन ११पः (७०) सप्ततिधनुर्वेदमानः १२ वि मलः (६०ष्टधनुर्देहमानः १३ । अनन्तः (५०) पञ्चाशद्धनुर्वेदमानः १४+ (पणसु यत्ति ) अष्टसु जिनेषु पञ्चधनुर्दानिः किषते यथा (४) पान १४ । शातिः (४०) त्वारिंशद्धनुर्देहमानः १६ कुन्यु जिनः (३४) पा
:
मानः शरः (३०) हिमा मलिः (२५) पञ्चविंशतिधनुर्दे हमानः १६ । मुनिसुव्रतः (२०) विंशतिधनुर्देहमान: २० । नमिः (१५) पञ्चदशधनुर्वेदमानः २१ | नेमिः (१०) दशधनुर्वेदमानः २२ (नवकर ति) नवकरदेहमा२३) सत्सेध सप्तहस्ती नतो वीरः २४ । सत्त० ४६ द्वार ।" पासे णं श्ररहा पुरिसादाणीयस्स वज्जरि सह समच उरंस ०नं वरयणियो नहुं उच्चतेप होत्था । " स्था० ६ ठा० (श्रयंगुलवीस सय सप्ति) आत्माकुलैः सर्वे जिनाश्चतुर्विंशतिरपि विंशत्यधिकशताङ्गुलप्रमाणड़ा ज्ञेयाः । इति गाथाऽर्थः । सत्त० ५० द्वार । प्रम जिनानां देहानमात्र उत्सेवानि चत्वारि धनूंषि तथा एकधनुषो द्वादशांशाः क्रियन्ते तादृशां. शाधिकमृषभदेवस्याऽऽत्माङ्गुतं तथा प्रमाणाहुत्रमपि नवति । तेनाह्रगुलेन ऋषभो विंशत्यधिकं शतं भवति । एतावता ऋषभदेहमानम् (१२०) अङ्गुलम् १ | (बारंगु जहानि जा सुविहित ) ततो द्वादशाहानिः कियत् सुवि ति । यथा अजितस्याशेत्तरशतम् (१०८) मानम् २ | सम्भवस्य (६६) पराणवत्यङ्गुलानि ३ । श्रभनन्दनस्य (७४) चतुरशीत्यङ्गुलम् ४। सुमतेः (७२) द्विसप्ततिः ५। पद्मप्रभस्य (६०) षष्टिः ६ । अष्टचत्वारिंशत (४०) सुपाश्वस्य । चन्द्रप्र स्व (३६) शित् सुविधेः (२४)
५
।
- जातो) विंशत्यशयुक्ता लकिहानिः क्रियते यावदनन्तः । शीतल जिनादारभ्यानन्तं यावत् प्रमाणाङ्गुतद्विकेन, तथैकस्य प्रमाणाङ्गुलस्य पञ्चाशयत्राविशतिभा दावा कियते यथाशीतलस्य २१ एकविंशतिरङ्गुलानि, तथा एकस्य प्रमाणाहुलक्ष्य पञ्चाशङ्गागाः क्रियन्तेाविंशतिजागा देदमानम् १०। श्रेयांसस्य १६ एकोनविंशत्यगुलानि दशांशाः पञ्चाशाः ५० देहमानम् ११ वासुपूज्यस्यागुसाः १६ षोडश ४० अंशाः पञ्चाशाः ५० । १२ । विमलस्यागुलाः १४ चतुर्दश २० विंशत्यंशाः १३ । अनन्तस्याङ्गुला १२ द्वादश
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(२२६३) तित्थयर अभिधानराजेन्छः।
तित्थयर १४ । (तयऽ जा नेमित्ति) तदईहानिर्यावन्नेमिः । धर्मस्य १० मकाश्चरमाः पुरिमपश्चिमकाः, तेषां जिनानामहतां (दुग्गमं ति) दशाहगुलाः ४. चत्वारिंशत्यंशाः १५ । शान्तः ६ नवान्नाः फुःलेन गम्यत इति दुर्गम, भावसाधनोऽयम, कृच्छवृत्तिरित्य३० त्रिशदंशाः १६ । कुन्थुनाथस्याङ्गुला अशी १० वि- र्थः। तवति, विनेयानामृजुजडत्वन,वजमत्वेन च। तानि चेशदंशाः ५० पञ्चाशाः १७ । अरनाथस्य ७ सप्ताङ्गुन्नाः १० मानि-तद्यथेत्यादि । इद चाख्यानं, विभजनं, दर्शन, तितिकणदशांशाः ५० पश्चाशाः १० । मल्लिनाथस्य षमगुलाः मनुचरणं चेत्येवं वक्तव्येऽपि येषु स्थानेषु कृच्छ्वृत्तिर्भवति, १५ । मुनिसुवतस्य ४ चत्वार्यगुलाः ४० चत्वारिंशदंशाः ५० तानि तद्योगात् कृच्छ्रवृत्तीन्येवोध्यन्त इति कृच्छ्रवृत्तिद्योतकपश्चाशाः २० । नमः ३ ज्यगुनाः ३० शिदंशाः २१ । नेमेः२ शब्दविशेषितानि कर्मसाधनशब्दाभिधेयान्याख्यानाऽऽदीनि । यङ्गुलं शिदेशाः ५० पञ्चाशाः २२ । ( सगळसंसा पासे विचित्रत्वात् शब्दप्रवृत्तेराह-(आइक्खमित्यादि) तत्र दु. ति) पावस्य २७ सप्तविशत्यंशाः ५० पश्चाशाः २३ । (विरेग राख्येयं कृच्चाख्येयं वस्तुतवं विनेयानां महावचनाऽऽटोपप्रबो. वीस ति) वीरस्यकविंशत्यंशाः २४ । ( सपनास त्ति)एका- ध्यत्वेन भगवनामायासोत्पत्तरिति । एवमाख्याने कृच्चवृत्तिइलस्य पञ्चाशदंशाः क्रियन्ते तारशा एकविंशत्यंशाः श्रीवी- रुक्ता । एवं विभजनाऽऽदिध्वपि नावनीया । तथा-क्यातेऽपि रस्य देहमानम् । एष पश्चाशशब्दः शीतलजिनादारज्य बीर- तत्र दुर्विभजं कष्टविभजनीयम्, ऋजुजमत्वाऽऽदेरेघ तद्भवतीजिनं यावद् शेयः । सत्त०५१ द्वार ।
ति, दुःशकं शिष्याणां वस्तुतत्वस्य बिनागेनावस्थापनमित्यर्थः; (४१) चतुर्विंशतिजिनानामवधिकानिमुनिसंख्या
दुर्विभावमित्यत्र पाठान्तरे-दुर्विभाव्य,दुःशका विनावना कर्तुत
स्येत्यर्थः । तथा-( दुप्पस्सं ति ) दुःखेन दर्यत इति दुर्दर्शअह ओहिनाणि नर्वई, चउनवई उएणव अट्टणबई।
मुपपत्तिनिर्दुःशकं शिष्याणां प्रतीतावारोपयितुं तत्वमिति भाएयाइसयाइ तो, इगार दस नव अडसहस्सा २५५॥ वः। (कुतितिक्खं ति ) दुःखेन तितिकृत सह्यत इति दुचुलसी बिसयरि सट्ठी, चउपनऽमयान तह य तेयाला । स्तितिकं परीषहाऽऽदि :शकं परीपहाऽऽदिकमुत्पन्नं तितिकछत्तीसं तीससया, पणवी छब्बीस बावीसा ॥ २५६ ॥
यितुं शिष्यं तत्प्रति कमां कारयितुमिति भाव इति । (पुरणुचरं
ति) पुस्खेनानुचर्यतेऽनुष्ठीयत इति पुरनुचरमन्तर्भूतकारिअधार सोल पनरस, चउरस तेरस सया अवधिनाणी।
तार्थत्वेन दुःशकमनुष्ठापयितुमित्यर्थः । अथवा-तेषां तीथे दुलक्खेक तित्तिससह-स्स चतारि सयाइँ सबके ॥२५७।।
राख्येयं दुर्विभजमाचार्यादीनां वस्तुतस्वं स्वशिष्यान् प्रति ऋषभस्यावधिज्ञानिमुनयो नवतिशतानि १, एवं सर्वत्र क्रमेण आत्मनाऽपि दुर्दर्श स्तितिकं पुरनुचरमित्यत्रकारितार्थ वि. जिनानामवधिज्ञानिमुनिसंख्या केया । तथादि-चतुर्नवतिशतानि मुच्य व्याख्येयम्, तेषामपि ऋजुजमाऽऽदित्वादिति । मध्यमानांतु २,षमवतिशतानि ३,अष्टनवतिशतानि ४। (तउसिपकादशस- सुगममकृच्छ्रवृत्ति, तद्विनेयानामृजुप्राइत्वेनाल्पप्रयत्नेनैव बोधनीहस्राणि ५, दशसहस्राणि ६, नवसहस्राणि ७, अष्टौ सहस्राणि । यत्वाद्विहितानुष्ठाने सुत्रप्रवर्तनीयत्वाचेति। शेषं पूर्ववन्नवरमक(चुलसी ति)चतुरशीतिशतानि ९,द्विसप्ततिशतानि १०, षष्टिश- वार्थविशिष्टता आख्यानाऽऽदीनां वाच्या। स्था० ५ ठा०१०। तानि ११,चतुःपश्चाशतानि १२,अष्टचत्वारिंशच्छतानि१३ तथा
(४३) कर्मध्यावर्णनं, वेदनं बाचंत्रित्वारिंशच्छतानि१४, षट्त्रिंशतानि१५,त्रिंशच्चतानि १६; नो जझ्या तित्थयरो, सो तइया अप्पणम्मि तित्थम्पि। पञ्चविंशतिशतानि १७, षनिंशतिशतानि १०, द्वाविंशतिशतानि
वत्रेइ तवोकम्मं,उवहाणसुम्मि अज्यणे ॥२॥ आचा०नि०। १९/ अष्टादशशतानि २०,षोमशशतानि २१,पञ्चदशशतानि २२,
यो यदा तीर्थकृपपद्यते स तदाऽऽत्मीये तीर्थे प्राचारार्थप्रणयचतुर्दशशतानि २३,त्रयोदशशतानि २४॥ एते चतुर्विशतिजिना.
नावसानाध्ययने स्वतपःकर्म व्यावर्णयति,इत्ययं स च तीर्थकृतां नामबधिशानिमुनयः । सर्वेषामङ्कानां परिगणनमीनने १३३४..
कल्पः । इह पुनरुपधानश्रुतास्यं चरममभ्ययनमन्तृत, अत उपएक सकं त्रयरिंशत् सहस्राणि चत्वारिशतानि भवन्ति। सत्ता
धानभुतमित्युक्तमिति । प्राचा०१ श्रु० १ अ० १ उ.। २१८ द्वार। (४२) कल्पशोधिमाद
उदाहु धीरे ते फासे पुट्ठोऽहियासए से पुन पेयं पच्छा पुरिमस्स दुबिमुज्को, चरमस्स य दुरणुपामणो कप्पो ।
पेयं भिउरधम्मं विसणधम्म अधुवं अणितिअं असासयं मजिकमगाण जिणाणं, सुविसुज्को सुहणुपालणओ।१।
चयोवचइयं विपरिणामधम्म पासह, एवंरूवं संधि समुवेप्रथमतीर्थकृपतीनां कल्प प्राचारो दुर्विशोध्यः दुर्बोध्या, दु:
हमाणस्स एकायतणरयस्स इहविप्पमुक्कस्स पत्थि मग्गे खेन बोध्यते इति दुर्योध्यः। चरमजिनस्य पुःखेन पाल्यते । म- विरतस्स त्ति वोमि। ध्यमकानां जिनानां द्वाविंशतिजिनानां सुखनावबोध्या, सुखेन तीर्थकरैरप्येतद्वहस्पृष्टनिधत्तनिकाचनावस्थाऽऽयातं कर्माअमुपाल्यः । सत्स० १३७ द्वार प्रा० म. । कल्प• । स्था। वश्यबचं, नान्यथा तन्मोका, अतोऽन्येनाप्यसातावेदनीयोदये
पंचहिं गणेहिं पुरिमपच्छिमगाणं जिणाणं सुग्गर्म भवइ ।। सनत्कुमाररष्टान्तेन मयतत्सोहब्यमित्याकसय्य नोद्विजितव्य. तं जहा-दुभाइक्खं,दुविभज,दुप्पस्सं,दुतितिक्खं, पुरण- म्। आचा०१७०५ ०२० चरं । पंचहिंगणेहि मज्झिमगाणं जिणाणं मुग्गपं जवइ । तं
(४४)कुमारवासकालमानं जिनानाम्जहा-सुभाइक्खं,मुविभज, सुपरसं, मुतितिक्ख, सुरणुचरं ।
वीसऽट्ठारस पनरस, सहचालस दसेव समगा। सुगमश्चार्य, नवरं पञ्चम स्थानकेषु प्रास्याताऽऽदिक्रियाविशेष:
पण अछाई बक्खा,पुबसहस्स पएण पणवीसं॥११६॥ सकणेषु पुरिमा भरतैरावतेषु चतुर्विशतिरादिमाः, तेच पश्चि। समक्षक्खा गवीसं, वार पनर सासत्त सदुगं ।
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(२२६३) तित्थयर अभिधानराजेन्धः ।
तित्थयर तो सहसा पाणवीसा, पानांचवीस इगवीसं ॥१३७॥ केवलमासा य इमे, भाण या पुव्यं व उमुरासी।।२४॥ वाससयं मसिजिणे, पणसयरी पंचवीस तिनि सया ।। श्रीऋषभाऽऽदीनां क्रमेण केवलज्ञानोपत्तिमासतिथयः। तथावामाई तीस तीसं, कुमरतं........." .......... ||१३ना
हि-फाल्गुनमासस्य कृष्ण कादश्यां केवलज्ञानं ऋषभस्य जातम् लक्कशब्दः पूर्वशब्दश्चाष्टमजिनं यावत्प्रत्येकमभिसंबध्यते ।।
।१। पौषस्व गुबैकादश्यामाजितस्य । २ । कार्तिकमासस्व
कृष्णपश्नम्यां सं०३ । पौषस्य शुक्लचतुर्दश्यामभिनन्दनस्य विशतिनक्कपूर्वाणि १ । अष्टादशलक्कपूर्वाणि २। पञ्चदशलक्ष
। चैत्रशुक्लैकादश्यां सुम०५ । चैत्रस्य पूर्णमास्यां पन. पूर्वाणि ३। सार्द्धद्वादशलक्षपूर्वाणि ४ । दशैव लकपूर्वाणि । साद्ध सप्तपूर्ववक्षाणि ६ । पञ्चलकपूर्वाणि ७ । साहिलक
६ । फाल्गुनकृष्णषष्ठयां सुपा० ७ । फाल्गुनकृष्णसप्तम्यां
चन्०८। कार्तिकमासस्य शुक्मतृतीयायां सुवि०६ । पौधे पूर्वाणि ८ पञ्चाशत्सहस्रपूर्वाणि ।। पञ्चविंशतिसहस्रपूर्वाणि
कृष्ण चतुर्दश्यां शीत. १० । माघे अमावास्यायां श्रेयां० ११। १०। (समलक्खा गवीसं ति) एकविंशतिलकवर्षाणि ११ ।
माघश्वेतद्वितीयायां वासु.१२। पौषे मासे धवलषष्ठयां बिम० अष्टादशवर्षलक्षाणि १२। पञ्चदशवकवर्षाणि १३। सार्द्धसप्तवर्ष
१३ । बैशाखस्य श्यामचतुद्दश्यामनन्त.१४। पौषे पूर्णिमालक्षाणि १४ । साद्विवर्षलनाणि १५। (तोत्ति)ततः पञ्चविंश.
यां ध. १५ । पीपे कनवम्यां शान्ति०१६ । चैत्रस्य शे. तिवर्षसहस्राणि १६ । पादोनचतुर्विशतिवर्षसहस्राणि १७।
ततृतीयायां कुन्थु०१७। कार्तिकस्य श्वेतद्वादश्यामर०१७। एकविंशतिवर्षसहस्राणि १८ । ( वाससयं ति ) मल्लिजिने मागशीर्षे श्वेतैकादश्यां मल्लि• १९ । फाल्गुनस्य श्यामवर्षशतम् १९ । पत्रसप्ततिवर्षशतानि २० । पञ्चविंशतिवर्ष
द्वादश्यां मुनिसुव. २० । मार्गशीर्षविमलैकादश्यां नमि.२१॥ शतानि २१ त्रीणि वर्षशतानि १२ वर्षाणि त्रिंशत् २३ ।
भाश्विनमासश्यामाबास्यायां नेमि०२२ । चैत्रमासस्य श्याम पुनवर्षाणि त्रिंशत् २४ । एवं क्रमेण सर्वेषां जिनानां
चतुया पार्श्व० २३ । वैशाखश्वतदशम्यां वीर. २४ । एते कुमारत्वे के यम । सत्त० ५४ द्वार । प्रा० म० । “पश्च चतुर्विशतिजिनानां केवलमासाऽऽदयो भणिताः । सस.८७ तित्थयरा कुमारवासमके वसिसा मुंमे० जाव पवश्या । धार। श्रा० म० । केवलनक्षत्रराशयः च्यवनकल्याणकवत् । तं जहा-बासुपुज्जे, मल्ली, अरिटनेमी, पासे, बीरे ।" स्था०५
सत्तए द्वार। ग.३०।
(४२) केवलवृक्षा:केवलज्ञाननकत्राणि च्यवननक्षत्रवद भाचनीयानि, च्यवन
णग्गोह सत्तवमो, सान पियालो पियंगु उत्ताहो। नक्षत्राण्यग्रे वक्ष्यन्ते । सत्त० ८८ द्वार। (४५ ) केवनोत्पत्तिस्थानानि
सिरिसोनागो मती,पिलंखु-तिंयग-पामलया।॥१८॥ वीरोमहनमीणं, जंजियबदिपुरिमतालउजिते ।
जंबू असत्य दहिव-अ नंदि तिलगा य अंग असोगो। केवलणाणुप्पत्ती, सेसाणं जम्मगणेसु ॥१८५ ॥
चंपग बउसो वेतस, धायइ सानो य णाणतरू ॥१८॥ वीरस्य जृम्भिकाग्रामाद् बहिः केवलोत्पत्तिः १ । ऋषजस्य
न्यग्रोधवृकस्याध ऋषभजिनस्य केवलज्ञानमुत्पन्नम् । १ । पुरिमतालनगरे । नेमिजिनस्य उज्जयन्ते रैवतकाचले ३ ।
एवं प्रतिजिनं प्रतिवृकंक्रमेण योजना बाच्या। सप्तपर्णः । शेषाणां जिनानां जन्मस्थानेषु जन्मनगरीषु केवलज्ञानोत्प.
(सास पिनासो पिअंग छत्ताहो) शानः ३. प्रियालः। प्रियङ्गः त्तिर्वाता । सत्त.१० द्वार । आ. म० ।
५। छत्राभवृत्तः ६।(सिरिसोनागो मल्ली) सिरीषः ७। नाग. (४६) केवलतपः--
नामा मल्लीवृकः ९२(पिलंखु-तिदुग-पागलया) पिलक्सअहमभत्तम्मि कए, नाणमुसहमद्विनेमिपामाणं ।
वृक्षः १.। तिन्मुकः ११। पाटलिका १२ । इति गाथार्थः। वमुपूजस्स चरत्ये, सेसाणं बहभत्ततवे ॥१०॥
॥ १८७।। (जं असत्य दहिवन) जम्बः १३। अश्वत्थः १४॥ ऋषनरमल्लिरहनेमि२२पाश्र्व२३जिनानां अष्टमभक्त तपसि
दधिपर्णः १५ । (नंदी तिलगा य मंबग असोगो) नन्दिका १६॥ कृते सति केवलज्ञानमुत्पन्नम । वासुपूज्यस्य १२ चतुर्थतप
तिलकः २७ । मानकः १० । अशोकः १६ । (चंपग बउसो सि। शेषाणामेकोनविंशतिजिनानां षष्ठभक्ततपसि केवलमुत्प
वेतस) चम्पकः २०। वकुशः २१ । बेतसः २२ । (धायक
सानो प्रणाणतरू) धातकीवृकः २३ | शालश्च २४ । एते नम्। सत्त०६४ द्वार । आ० म० ।
चतुविशातानतरवः। इति गाथाऽर्थः ॥ १८० ॥ सत्त० १२ (४७) केवलमासास्तिथयश्च-.
कारसूत्र० । स०।। फग्गुणिगारसि किएहा, मुदा एगारसी य पोसस्स ।
केवज्ञानवृकप्रमाणम्कत्तियबहुला पंचमि, पोसस्स चनद्दसी धवला ॥१७॥
ते जिणतणुवारगुणा, चेइयतरुपोविनवरि वीरस्स। चित्तेगारासपुत्रिम, तह फग्गुण किएहकाहि सत्त मिया ।
चेइयतरुवरि सालो. एगारसपणुहपरिमाणो॥ १ ॥ सुका कत्तियतया, पोसम्मि चउद्दसी बहुला ॥ १८१॥ (ते जिणतणुबारगुणा ) ते वृक्षाः भगवतः शरीरात द्वादश माहेऽमानसि सियबिय, पोसे मासम्मि धवलछट्ठी य ।। गुणा जवन्ति । (चेअतरुणो वित्ति) च्यैत्यवृक्षा अपि पतावबेसाहसामचउदसि, पोसे पुत्रिमनवमि सुद्धा ॥ १२॥
प्रमाणा भवन्ति । (नवरि वीरस्स । चेइतरूवरि सालोति) सियचित्ततस्य कत्तिय, वारसि एगारसी य मग्गसिरे ।
एतावान् विशेष:-यद्वीरस्य चैत्यवृक्षोपरि शासवृको प्रवति, स
कथम्भूतः ?-(पगारसधाहपरिमाणो ति) एकादशधनुरूप फगुणवारसि सामा, मग्गम्मि इगारसी अमझा।।१३।। रिमाणः । चैत्यतरूणां प्रमाणमत्र प्रसादु'कमिति माथाऽयर प्रासोअमावसी चि-त्तबहुलचजी बिसादसियदसमी ।' । १० । सत्त० ६३ द्वार ।
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तित्थयर
( २२६४ ) अभिधानराजेन्ः
चैत्यतरुणां विशेषतः प्रमाणम्
बसीसाई धणुई, चेश्यरुक्खो य बढमाणस्स । वियोगो प्रयोगो, ओष्ठको साझरणं ।। १६ ।। तिथे गालआई चेयरुक्खो जिणस्स उसजस्व । सेसा पुरा रुक्खा, सरीरओ बारसगुणा उ ॥ ३७ ॥ सच्छता पागा, सइया तोरणेहि उबच्या । सुरासुरगरुल महिया, चेइयरुक्खा जिणवराणं ॥ ३८ ॥ ( नियोगोत ) नित्यं सर्वदा ऋतुरेव पुष्पाऽऽदिकालो यस्य स नित्यर्तुकः ( अलोगो चि ) अशोकानिधानो यः समवसर मि भवति श्राणं ति
के लिए वचनादशोकस्योपरि कोऽपि कशिस्तीत्यवसीयत इति ॥ ३६ ॥ (तिशेष गाडयाई गाहा ) ऋषभस्वामिनो, द्वादशगुणा इत्यर्थः ॥ ३७॥ ( सवेइयप्ति ) थेदिकायुक्ताः । पते चाशोकाः समवसरणसम्बन्धिनः सम्भाव्यन्त इति ॥ ३८ ॥ स० ।
(४६) अथ ज्ञानवनान्याह
जसहस् य सगरुमुद्दे, उजुनायनइतमम्मि वीरस्स । सेसजिणाणं गाणं, उपमं पुण वयवसु ॥ १८६॥ (उपहस्स य सगडमुद्दे ति ) ॠषभस्य केवलज्ञानं शकटमुखोद्याने उत्पन्नम १ ( उजुवालुअन तडम्मि वीरस्स त्ति )
पाका श्रीधरस्य केवलज्ञानमुत्पन्न २ (स. जिणाएं नाणं, उपां पुण वयवणेसु सि ) पुनः शब्दस्य नि अक्रमत्वात् शेषजिनानां पुनर्व्रतवनेषु केवलज्ञानमुत्पन्नमिति ॥ १८६ ॥ सप्त० ६१ द्वार ।
(५०) केवल वेला
नाणं सदा पुढे पश्छिमऐिड वीरस्स ।। (१५१) (ब) शुनादीनां प्रयोविंशतिजिनानां केवहान पूर्व प्रथम समुत्पम् प परस्स) पश्चिमहरे वीरस्य केवलज्ञानमुत्पन्नम् । सत्त० ९५ द्वार ।
(५१) अथ जिनानां गृहस्थकाल - केवलिकालमानमाहजजुरगं कुमर निवड़-चकी कालेहिं होइ मिहिका । बयकाला केवलि - कानो छनमत्यकालूणो ||२८|| यथायोग्यं कुमारका सुपतिकाल किले की ते स्थ कालो भवति । व्रतकालात् उद्मस्थकाल ऊनः क्रियते, याधानवशिष्यते तावान् केवल्लिकालो भवति । इति गाथाऽर्थः ॥ २६० ॥ सप्त० १४३ । १४४ द्वार ।
सम्प्रति के पर्यायो वक्तव्यः, स च श्रामण्यपर्यायात पर्यायापगमे स्त्रयमेव ज्ञेय इति पूर्वोक्तमेत्र भ्रामण्यपर्यायं धारयति
उसमस्सल पुगुणमज्जियस्स से चे चचरंगू लक्, पुणो पुणो जान सुविद्धि ति ।।
ऋषभस्य भगवतः श्रामण्यपर्यायमेकं पूर्ववकम् । अजितस्वामिनस्तदेव एकं पूर्व सक्षमेकेन पूर्वाङ्गेन न्यूनम् । पूर्वाॐ नाम चतुरशीतिवर्ष क्षाणि । श्रत ऊर्द्ध चतुरङ्गोनं पूर्वलक्षं पु* मतान्तरेतत् संभाष्यते ।
तित्ययर
नः पुनस्ताषद्वक्तव्यं यावत्सुविधिः । तद्यथा-संजवनाथस्य - उपयोग के पूर्व चतुर्भिरङ्गैकनम् अभिनन्दनस्य एक पूर्वलक्षमष्टभिः पूर्वङ्गैरुनम् । सुमतिनाथस्य एकं पूर्वलक्षं द्वादशभिः पूर्वाङ्गैरुनम् । पद्मप्रभस्य एकं पूर्वलक्कं बोमशभिः पूवहनम् । सुपार्श्वस्यैकं पूर्वलत्तं विंशत्या पूर्वाहनम् । यस्यैकं पूर्वकं चतुर्विंशत्या पूनम सुविधिमाथस्यैकं पूर्वणामाविशत्या पूर्वानिम् ।
1
सेमाणं परिया, कुमारवासेण सहियओ भणितो । पतपय पुवं सीमामद्वार |
1
शेषाणां शीतलस्वामिप्रभृतीनां पर्यायः पूर्वे कुमारवसेन स छतिः प्रत्येकमपि च किमर्थमुभयथाि दत आह-शिष्याणामनुग्रहाय मन्दमतीनामपि शिष्याणां बुद्धौ सम्यक प्रतिस्फुरतु । श्र०म० १ भ० १ खण्ड | सप्त• ॥ केवलमानमाद
बीससहस्सा उससे बीस बावीस शहर अभियस्त । पनरस चउदस तेरस, वारस इक्कारस दसेच ।। ३५३ ।। असते या छच्च पंच सट्टा य पंचे पंचम, च सहसा तिनि य सया य ।। ३५४ ।। बीस या अहवा, बावीससाई ति कुंस्स । अट्ठावीस बावीस तह य अधारस सयाई ।। ३५५ ।। सोलस पर दस सय, सते सया इति वीरस्स एवं केवलिनाणं, ॥ ३५६ ॥ केवलिनां विंशतिसहस्रा ऋषभे वृषन्नजिनस्य । विंशतिः सहस्रा अजितजिनस्य । श्रथवा मतान्तरेण द्वाविंशतिः सहस्रा अजितनाथस्य । श्री सम्भवस्य पञ्चदश सहस्राः । श्रीश्रभिनन्दनस्य चतुर्दश सहस्राः । श्रीसुमतेस्त्रयोदश सहस्नाः । श्रीपद्मप्रभस्य द्वादश सहस्राः । श्रीसुपार्श्वस्य एकादश सहस्राः। श्रीचन्द्रप्रमस्य शेष सहाः श्रीविधिजिनस्यमा सहस्राः, सप्त सहस्राः पञ्चशताधिका इत्यर्थः । श्रीशीतलजिनस्य सप्त सहस्राः। श्रीश्रेयांसरू पट् सहस्राः सार्द्धाः सपञ्चशता इत्यर्थः । श्रीवासुपूज्यस्य षट् सहस्राः । श्रीविमत्र जिनस्य पञ्च सहस्राः, साफः सपञ्चशता इत्यर्थः । श्रीश्रनन्तजिनस्य पञ्चैव सह
। श्रीधर्मजिनस्य अर्जपञ्चमाः सहस्राः, चत्वारः सहस्राः सपञ्चशता इत्यर्थः श्रीशान्तिनाथस्य चत्वारः सहस्राः शतत्रयाधिकार | श्रीकुजिनस्य द्वातिनि याधिकमित्यर्थः । अथवा मतान्तरेण द्वाविंशतिशतानि सहस्रद्वयं शताधिकमित्यर्थः । श्रीरजिनस्य द्वाविंशतिशतानि सहस्र शाकाधिकमित्यर्थः । श्रीमचिजिनस्य द्वाविंशतिशतानि सहस्रष्यं शतद्वयाधिकमित्यर्थः । श्रीमुनिसुव्रतस्य अष्टादश शतानि सहस्रमेकमाधिकमित्यर्थः । श्रीनमिजिनस्य पोमश शतानि सहस्रमेकं पभिः शतैरधिकमित्यर्थः । श्रीने मिजिनस्य पञ्चदश शतानि सहस्रमेकं पञ्चशताचिकमित्यर्थः श्रीयाजिनस्य दश शतानि सहस्रमियर्थः । श्री वीर जिनस्य च सप्तशतानि । एतत्पूर्वोक्तं यथाक्रमं सर्वती कृतां केवनिमानम् । प्रव० २१ द्वार | सर्वेषामेव
गतिः सर्वा एव प तिसहस्राणि शतमेकम् | १७६१०० | प्रब० १६० ।
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(२२६५) तित्थयर अभिधानराजेन्द्रः ।
तित्थयर (५२) अधुना गणघारमाह
द्वितीयश्चतुर्थ नवमहद्वादश१२त्रयोदश१३पञ्चदश१५शेषजि. चुलसीह पहाणवई, विनत्तरं सोनमुत्तर सयं च ।
नेषु गर्भस्थितिः (मासा अम नव ति) द्वितीयाऽऽदिसत्तऽहियं पणनई, तेणउई अहसीई य ॥
धु जिनेषु मासा अष्टौ । शेषजिनेषु नव मासाः । (त.
उपरि त्ति) तेषां मासानामुपरि (उसहायकमेणिमे दिवसा) एक सीई छाव-त्तरी य छावहि सत्तवना प ।
ऋषभाऽऽदिषु क्रमेण श्मे वक्ष्यमाणा दिवसा झयाः । इति गाथापन्ना तेयालीसा, उत्तीमा चेव पणतीसा॥
थैः ॥७॥ ( चउ पणबीसं छद्दिण) दिनानीति सर्वत्र गम्यम् । तेत्तीसढावीसा, अट्ठारस चेक तह य सत्तरसा ।
चत्वारि १ पञ्चविंशतिः २ षट् ३ (अडवीसं छच्च छश्चिगुणएकारस दस नवग, गणाण माणं जिणिंदाणं ।
वीसं) अष्टाविंशतिः ४ षट् च ५ षट् ६ एकोनविंशतिः ७ भगवत श्रादितीर्थकरस्य चतुरशीतिर्गणाः । गणो नामेह एक
(सग उब्बीसं उच्च य) सप्त ८ पदिशतिः ९ षट् १० षट् च बाचनाऽऽचारक्रियास्थानां समुदायो,न कुलसमुदाय इति पूर्वसू.
११ (वीसिगचीसंग्वीस) विशतिः १२. एकविंशतिः १३ रयः । अजितस्वामिनः पञ्चनबतिर्गणाः । सम्भवनाथस्य द्वघु
घट १४ षविंशतिः १५ । इति गाथार्थः ।। ७६॥ (छ पण श्रम चरं शतम् । अभिनन्दनस्य षोमशोत्तरं शतम् । सुमतिनाथस्य
सत्त अय) षट् १६ पश्च १७ अष्टौ १० सप्त १५ अष्टच २० परिपूर्ण शतम् । पद्मप्रभस्य सप्ताधिक शतम् । सुपार्श्वस्य प.
(458 सत्त इंति गन्नदिणा) अष्टौ २१अष्ट २२ षट्
२३ सप्त २४ भवन्ति गर्नदिनानि जिनानां गर्भस्थितयः । सवनवतिः। चन्नप्रभस्य त्रिनवतिः।सुविधिस्वामिनोऽवाशीतिः।
स.२०द्वार। शीतलस्य एकाशीतिः । श्रेयांसस्य षट्सप्ततिः । वासुपूज्यस्य पटपष्टिः । विमलस्य सप्तपञ्चाशत् । अनन्तजिनस्य पञ्चाशत् ।
(५५) गृहवासे ज्ञानानिधर्मस्य त्रिचत्वारिंशत् । शान्तिनाथस्य षट्त्रिंशत् । कुन्थुनाथ. मइसुयोहितिनाणा, जाव गिहे पच्छिमनवानो(२३) स्य पञ्चत्रिंशत् । अरजिनस्य त्रयस्त्रिंशत् । मल्लिस्वामिनोs- मतिधुतावधिज्ञानलकणानि वीणि ज्ञानानि सर्वेषां जिनानां टाविंशतिः। मुनिसुव्रतस्वामिनोऽष्टादश । नमिनाथस्य सप्तद. भवन्ति, पश्चिमभवादारज्य यावन्तं कासं गृहे गृहवासे ति. श । अरिष्टनेमेरेकादश। पार्श्वनाथस्य दश । वर्द्धमानस्वामिनो ष्ठन्ति । सत्त०४५ द्वार । नव । मा०म०१०१खएक "समणस्स भगवो महावीरस्स नव
(५६) तीर्थकरगोत्राणि वंशाश्वगणा होत्था । तं जहागोदासगणे, नत्तरवलियस्ल य गणे, उद्देहगणे, चारणगणे, उवाश्यगणे, विस्सवाइगणे, कामिक्खिय
गोयमगुत्ता हरिवं-ससंनया नेमिसुधया दो वि । गणे,माणवगणे, कोडियगणे ।" (स्था.९०)एतजिने- कासवगुत्ता इक्खा-गुवंसजा सेम चावीसा ॥ १०६॥ बाणामृषभाऽऽदीनां जिनानां यथाक्रमं गणानां मान परिमाण- धीनोमिमुनिसुव्रतौ द्वौ गौतमगोत्री हरिवंशसंभवी चा शेषाःती. म् । प्रा. म. १०१ स्वयम । सत्त. ।
र्थपा द्वाविंशतिः काश्यपगोत्रा इक्ष्वाकुवंशजाश्च । सत्त० ३७ (५३) संप्रति गणधरप्रतिपादनार्थमाह
द्वार । कल्प० । आव०। एकारस उ गणहरा, वीराजिणिंदस्स सेसयाणं तु ।
(५७) चतुर्दशपूर्विणःजावश्या जस्स गणा, तावश्या गणधरा तस्स ।।
चनदसपुब्धि-सहस्सा, चउरो अकट्ठमाणि य सयाणि। गणधरा नाम मूलसूत्रकारः, ते च वीरजिनस्य एकादश,
वीसहिय सत्ततीसा, गवीससया य पन्नासा ॥३६॥ गणास्तु नव, द्वयोयुगक्षयोरे कैकवाचनाऽऽचारक्रियास्यत्वात् । पनरस चउवीससया, तेवीससयां य वीससय तीसा । शेषाणां तु जिनवरेन्द्राणां यस्य यावन्तो गणास्तस्य तावन्तो
दो सहस पनरस सया,सयचउदस तेरससयाई॥३६॥ गणधराः प्रतिगणधर भित्रभित्रवाचनाचारक्रियास्थत्वात्। प्रा०म०१ अ०१खएड । प्रव० । “पासस्स णं अरहो
सय बारस इक्कारस, दस नव अढेव छच्च सय सयरा। पुरिसादाणीयस्स अ गणा अउ गणहरा होत्था । तं जहा
दसदिय छच्चेव सया,छच्च सया अवसट्ठऽहिया॥३६॥ सुभे, अजयोसे, वसिट्टे, बंभयारी, सोमे, सिरिधरे, बोरिए,
सयपंच अपंचम,चउरो अकऽहिय तिनि य सयाई ।। भद्दजसे।" ययावश्यके तूभयेपि दश भूयन्ते, “जावया उसभाइजिणिदाणं, चउदसपुवीण परिमाणं ॥३६५ ॥ जस्स गणा, तावश्या गणहरा तस्स"इति वचनातू, तदिहा
तत्राऽदिजिनस्य चतुर्दशपूर्विणां चत्वारः सहस्राः, रूपत्वाऽऽदिकारणमपेक्ष्य द्वयोरविवकणमिति संभाव्यते ।
प्रोष्टमानि च शतानि, पञ्चाशदधिकानि सप्तशतास्था०८ ठा (५४) अथ सर्वेषां जिनानां गर्नस्थितिमाह
नीत्यर्थः । श्रीअजितजिनस्य विशत्यधिकसप्तत्रिंशच्छतानि।
श्रीसंभवजिनस्य एकविंशतिशतानि पञ्चाशदधिकानि । श्री5 चनत्य नवम बारस, तेरस पन्नरस सेस गब्भगिई। अभिनन्दनस्य पञ्चदशशतानि । श्रीसुमतेश्चतुर्विशतिशतानि । मासा अमनव तनुवरि, उसहाइकमणिमे दिवसा ।।७५॥
श्रीपद्मप्रभस्य त्रयोविंशतिशतानि.। श्रीसुपार्श्वस्य विंशतिशचन पणवीसं गदण, अमवीसं छच्च बञ्चिगुणवीसं ।
तानि त्रिंशदधिकानि । श्रीचन्प्रनस्य द्वौ सहस्रौ । श्रीसुसम छन्वीसं छच्छ य, वीसिगवीसं उबन्धीसं ॥७६॥
विधेः पञ्चदशशतानि । श्रीशीतलस्य शतानि चतुर्दश ।
श्रीश्रेयांसस्य त्रयोदशशतानि। श्रीवासुपूज्यस्य हादशशतानि । पण अड सत्त अट्ट य,अहऽ सत्त हुंति गब्नदिणा(७७) श्रीविमलजिनस्य एकादशशतानि । श्रीअनन्तजिनस्य दशश. (दुचउत्थ नवम चारस तेरस पन्नास सेस गम्भनि ति)। तानि । धीधर्मस्य नवशतानि । श्रीशान्तेरटैव शतानि । श्रीकु.
६७
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(५२६६) तित्थयर अन्निधानराजेन्नः ।
तित्थयर न्योः षट्शतानि सप्तत्यधिकानि । श्रीअजिनस्य दशाधिकानि बन्धिनां श्रावकाणां मानं क्रमेण ज्ञातव्यम् । प्रव० २४ द्वार । षमेव शतानि । श्रीमटिलजिनस्य षट्शतानि अष्टपष्टधधिकानि ।
(५५) अथ चक्रित्वकाल:श्रीमुनिसुव्रतस्य शतानि पञ्च । श्रीन मेश्चत्वारि शतानि पञ्चाश- तो तित्थगरा चकवट्टी होत्था । तं जहा-संती, दधिकानि । श्रीनेमेश्चत्वारि शतानि । श्रीपाश्वजिनस्य त्रीणि श
कुंथू, अरो। तानि पञ्चाशदधिकानि । श्रीवीरजिमस्य च त्रीणि शतानि । इदं पूर्वोक्तमृषभाऽऽदिजिनेन्द्राणां क्रमेण चतुर्दशपूर्विपरिमाणम् ।
अत्रोक्तम्-"संती कुंथू अपरो, अरिहंता चेव चक्कवट्टी य । प्रव०१३हार। "समणस्स ण नगवो महावीरस्स तिनिसया
अवसेला तित्थ यरा, मंडल्लिा प्रासि रायासो" ॥२॥ इति शा
न्तिकुन्ध्वरजिनानां चक्रित्वं, शेषजिनानां नास्ति चक्रित्वम् । चोहसपुब्बीणं अजिणाणं जिणसंकासाणं सव्वक्स्वरसन्निवाईणं जिणो श्व अवितह बागरमाणाणं नक्कोसिया चमद्द
स्था०३ग०४० | सत्त। सविसंपया होत्था।" स्था० ३ ०४ उ. ।
(६०) अथ चारित्रम्(५०) श्रावकसंख्या चतुर्विशातितीर्थकराणाम्
सामाइयचारितं, ओचट्ठावणं च परिहारं । पढमस्स तिन्नि लक्खा, पंच सहस्सा लक्ख जा संती।। तह मुहुममंपरायं, अहवाई पंच चरणाई ।। २८२ ॥ लक्खोवरि अमनउई, तेएनई अहसीई य ॥३६६ ॥ दुएहं पण इअराणं, तिनि उ सामाझ्यसुहमऽहक्खाया। एगासी छावत्तरि, सत्तावन्ना य तह य पन्नासा ।। (२०३) एगुणतीस नवासी, इगुणासी पन्नरसऽच ।। ३६७॥ तत्र प्रथम सामायिकचारित्रम १ द्वितीयं दोपस्थापनीयम २। बच्चिय सहस्स चउरो, सहस्स नई सहस्स संतिस्स ।। तृतीयं परिहारविशुकिकम् ३॥ चतुर्थ सूक्ष्मसंपरायम ४। पञ्चम तत्तो एगो लक्खो, उवरि गुणसीय चुलसी य ॥३६॥
यथाख्यातम् । एतानि पञ्च चारित्राणि जवन्तीति गाथार्थः।२०२॥
आषभवीरयोस्तीर्थे पश्च चारित्राणि पूर्वोक्तानि भवन्ति । इत. तेयासी वायत्तरि, सत्तरि इगुणत्तरी य च उसट्ठी ।
रेषां मध्यमद्वाविंशतिजिनानां त्रीणि चारित्राणि भवन्ति । तन्नाएगुणसहिसहस्सा, य सावगाण जिणवराणं ॥३६॥ मानि-सामायिक १ सूक्ष्मसंपराय २ यथास्यातानि३ । सत्त. तत्र प्रथमजिनस्य श्रावकाणांतिम्रो लक्षाः पञ्चलहस्राऽधि- १३० द्वार। काः । श्रीअजिताऽऽदिजिनाना, यावत् शान्तिजिनस्तावस्वकद्वयं
(६१) च्यवननकत्रमृषभाऽऽदीनाम्भाद्वानां, द्वितकोपरि च यदधिकं भवति तन्निवेद्यते । तत्र तृती- उत्तरसाढा रोहिणि, मियसीस पाणध्वम् महा चित्ता । यगाथावर्ति 'सहस्स त्ति' पदस्य सर्वत्राभिसंबन्धात् अष्टनव.
वश्साहऽणुराहा मूल पुव्व सवणो सयभिसा य ॥६५॥ तिः सहस्राःकोऽर्थः?-अजितजिनस्य लक्षद्वयमष्टनवतिसहस्रा. धिकमित्यर्थः । श्रीसंभवस्य लकद्वयं त्रिनबतिसहस्राधिक
उत्तरभद्दव रेवा, पुस्स जणि कत्तिया य रेवइ य । मित्यर्थः । श्रीअभिनन्दनस्य लक्षद्वयमणाशातिसहस्राधिक
अस्सिणि सवणो अस्सिणि, चित्त विसाहुत्तरा रिक्खा६६ मित्यर्थः। श्रीसुमतेः बकद्वयमेकाशीतिसहस्राधिकमित्यर्थः ।
ऋषभजिने उत्तराषाढा नक्कत्रम १ । एवं सर्वत्र जिननामानि श्रीपद्मप्रभस्य लकद्वयं षट्सप्ततिसहस्राधिकमित्यर्थः । श्रीसु.
क्रमेण योज्यानि । रोहिणी २ मृगशीर्षम् ३ पुनर्बसु ४ मघा ५ पार्श्वस्य लक्षवयं सप्तपञ्चाशतसहस्राधिकमित्यर्थः । चन्द्र
चित्रा ६ विशाखा ७.अनुराधा 6 मूलम ९ पूर्वाषाढा १. प्रभस्य लकद्वयं पञ्चाशतसहस्राधिकमित्यर्थः । सुविधेल
श्रवणः ११ शतभिषक १२ उत्तराभापत् १३ रेवती १४ कद्वयमेकोनत्रिंशत्सहस्राधिकमित्यर्थः । श्रीशीतलस्य लक
पुष्यः १५ जरणी १६ कृत्तिका १७ रेवती १८ अश्विनी १५ द्वय नवाशीतिसहस्राधिकमित्यर्थः । श्रीश्रेयांसस्य लकद्व
श्रवणः २० अश्विनी २१ चित्रा २२ विशाखा २३ उत्तराषाढा यमेकोनाशीतिसहस्राधिकमित्यर्थः । श्रीवासुपूज्यस्य लकद्व
२४ एतानि नवत्राणि । सत्त०१५ द्वार। यं पञ्चदशसहस्राधिकमित्यर्थः । श्रीविमल जिनस्य लक
(६२) अध च्यवनकल्याणकतिथयो मासाश्वद्वयमसहस्राधिकमित्यर्थः । श्रीअनन्तजिनस्य लकद्वयं षसहस्राधिकमित्यर्थः । श्रीधर्मस्य लक्षद्वयं चतुर्भिः सह
बहुसाऽसाढचनत्थी, मुछा वइसाहतेरसी कमसो। घरधिकमित्यर्थः । श्रीशान्तेः सवयं नवतिसहस्राधिक- फग्गुण अहमि वसा-हचनत्थि सावाणियबीया य एण मित्यर्थः । ततः श्रीशान्तिनाथादनन्तरं कुन्थुप्रभृतितीर्थः । माहस्स कसिणछट्टी, जद्द-ट्ठमि चित्तमासपंचमिया । कृतां महावीरपर्यन्तानामेकं लकं श्राकानां लकोपरि, च
फग्गुणनवमी वइसा-हछफि तह जिहबट्ठी य ।। ६०॥ यसंख्यास्थानं तदुच्यते, यथा-एकोनाशीतिः श्रीकुम्थो, सकमेकोनाशीतिसहस्राधिकमित्यर्थः । श्रीअजिनस्य लक्षमेक
जिम्मि सुकनवमी, तत्तो वइमाहबारसी मुछा। चतुरशीतिसहस्राधिकमित्यर्थः । श्रीमद्धेयकमेकं अशीतिस- सावणकसिणा सत्तमि, विमाहमिय भकिएहा य॥६॥ हस्राधिकमित्यर्थः । श्रीमुनिसुव्रतस्य लकमेकं द्विसप्ततिसह- सावणकसिणा नवमी, फग्गुणमियवीय फग्गुणचउत्थी। स्राधिकमित्यर्थः । नमेर्सकमेकं सप्ततिसहस्राधिकमित्यर्थः ।
सावण अस्तिणि पुन्निम,कत्तियबहुला दुवालसिया ॥६२।। श्रीनेमेल क्षमेकोनसप्ततिसहस्राधिकमित्यर्थः । श्रीपार्श्वस्य नक्कमेकं चतुःषष्टिसहस्राधिकमित्यर्थः । श्रीवीराजेनस्य च समे
असिया चित्तच उत्थी, असाढसियट्टि चवणमासाई। कोनषष्टिसहस्राधिकमित्यर्थः । इति जिनवरेन्चतुर्विमतेः स
इत्यऽन्नत्य वि पय, अभणियमाहिगारो नेयं ।।६।।
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(२२६७) तित्थयर अनिधानराजेन्द्रः।
तित्थयर नूयभविस्सजिणाणं, पुवापुचीऍ वट्टमाणाणं ।
(६५) उद्मस्थकालमानं सर्वजिनानां कथ्यतेपच्छा पुव्वियाए, कलाणतिथी य अन्तु ॥६४॥ वाससहस्सं बारस, चउदस अट्ठार वीसव रिसा य ।
ऋषभस्य च्यवनकल्याणके आषाढकृष्णचतुर्थी । १। अजि- मामा बन्नव तिनि य, वउ तिग दुगमिक्कग दुगं च॥१७॥ तजिनम्य वैशाख शुद्धत्रयोदशी । फाल्गुन शुद्धाष्टमी संन्नवस्य तिय दुग इक्कग सोलस, वासा तिमि य तहेवऽहोरत्तं । ३ । बैशाखचतुर्थी अभिनन्दनस्य ४ । श्रावण शुक्ल द्वितीया
मासिकारस नवगं, चउपध्मदिखाई चुन्नसीई ।। १७४ ।। सुम० ५। माघस्य कृष्णषष्ठी पद्म०६ । भारूपदकृष्णाष्टमी सुपा०७। चैत्रकृष्णपश्चमी चन्द्र० । फाल्गुनकृष्णा नवमी
पक्खऽहिय सवारस, वासा छउमत्यकालपरिमाणं। [१७५] सुवि०ए। वैशाख कृष्णषष्ठी शीत०१० । ज्येष्ठकृष्णषष्ठी श्रेयां० ऋषभस्य उमस्थकालमानं वर्षसहस्रम् १। एवं क्रमेण द्वादश ११ । ज्येष्ठ शुरुनवमी वासु. १२ वैशाखशुद्धद्वादशी विमल. वर्षाणि २। चतुर्दशवर्षाणि ३ । अष्टादशवर्षाणि ।। विंशति१३ । श्रावणकृष्णसप्तमी अनन्त०१४। वैशाखश्वेतसप्तमी धर्म० वर्षाणि ५ । षमासाः ६। ("चंदप्पने णं मरहा सम्मासा - १५। भाजपदकृष्णसप्तमी शान्ति.१६ । श्रावणकृष्णनवमी मत्थे होत्था । " स्था०) नवमासाः । यो मासा: कुन्थु० १७ । फाल्गुनसितद्वितीयाऽरजि० १८ । फाल्गुनसि- ८। चत्वारो मासाः एत्रयो मासाः १० । हो मासौ ११॥ तचतुर्थी मल्लि०१९ । श्रावणपूर्णिमा मुनिसु०२० । अश्विनपू. एको मासः१२। द्वौ मासौ १३। त्रीणि वर्षाणि १४वे वर्षे र्णिमा नमि० २१ । कार्तिक कृष्णद्वादशी नेमि०१२ । चैत्र- १५। एक वर्षम १६ । षोमश वर्षाणि १७ । त्रीणि च वर्षाणि ष्णचतुर्थी पार्श्व०२३। आषाढश्वेतपष्ठी वीरजिनस्य २४ । १८ । एकमहोरात्रम् १६ । एकादश मासाः २० । नब मासाः अत्रान्यत्रापि प्रकटं साकादित्यर्थः । यदभणितं तदधिकारतो २१ । चतुःपञ्चाशदिनानि २२। चतुरशीतिदिनानि २३ । पक्काकेवमिति । भूततीर्थपाः केवलज्ञानिप्रनुतयः, भविष्यजिनाः पद्म. धिकसार्द्धद्वादशवर्षाणि २४ । इति क्रमात स्थकालमानं ती. नानाऽऽदयः, तेषामन्योन्यं कल्याणकतिथयः पूर्वानुपूर्या नवे. पानाम् । सत्त०८४द्वार रात्रीश्यहोरात्राणि १८। द्वादशवर्षायुः । यथा हि याः कल्याणकतिथयः नूतकाले प्रथमजिनस्य णि २४ । इति मतभेदः। श्रा० म०१ ० १ खण्ड । केबलझानिनः, ता एव भविष्य जिनकाले पद्मनाभस्येति । प्रका.
(६६) उमस्थतपोमानम्रान्तरमाह-वर्तमानजिना ऋषभाऽऽदयस्तेषां नूतजिनापेक्कया भविष्यजिमापेक्कया च तिथयः पश्चानुपा भवेयुः। सत्त.
नग्गं च तवोकम्म, विसेसओ बद्धमाणस्स। [१७५] १४ द्वार । प्राब.।
वयदिणमेगं पुन्न, उमासियं वीययं पाप दिणूणं ।। (६३) ऋषभाऽऽदीनां क्रमतो व्युतिराशयः
नव चउपासिय दु तिमा-सिया अढाइजमासिया दुन्नि १७६ धणु वसह मिहुण मिहुणो, सीहो कन्ना तुझा अनी चेव।।
उदुमासिय दु दिवठ्य-मासिय बारस तहेगमासीया। धणु धणु मयरो कुंभो, दुसु मीणो कक्कमो मेसो ॥ ६७ ।।
वावत्तरऽसमासिय, पमिमा बारष्टमेहिं च ॥ १७७॥ विस मीण मेस मयरो, मेसो कन्ना तुला य कन्ना य।
दो चउ दस खपणेहि, निरंतरं जद्दमाइपदिमतिगं । श्य चवणरिक्खरासी, जम्मे दिक्खाऍ नाणे वि॥६॥
दुसयगुणतीम छट्ठा, पारणया तिसयगुणवन्ना ॥१७॥ धनुः १। वृषः २। मिथुनम् ३ मिथुनम् ४ सिंहः ५। कन्या ६।
(उग्गं च तवोकम्मं ति) उग्रं च तपाकर्म सर्वेषां जिनतुला ७। वृश्चिका ८ । धनुः धनुः १० मकरः ११ । कुम्नः
घराणाम् ( बिससओ वकमाणस्स त्ति) विशेषतो बर्द्धमा१२। मीनः १३ । मीन: १४ । कर्कटः १५ । मेषः १६ । वृषः १७
नस्य, वीरजिनस्य सर्वेभ्योऽपि जिनभ्योऽधिकतरमुग्रं तपः, मीनः १८ । मेषः १९ । मकरः २० । मेषः २१ । कन्या २२ ।
तेषां कर्माभावादिति नावः । श्रीबीरतपम्प्रमाणमाह-(प. तुला २३ । कन्या २४ ऋषनाऽऽदीनां क्रमतयुतिराशयः ।
यदिणं ति) व्रतदिनं, यस्मिन् दिने प्रतं गृहीतं त. जन्मकल्याण के, दीकाकल्याणके, केवलज्ञानकल्याणकेऽप्ये
हिनमुपोषितवानिस्यर्थः । ( एगं पुनं उमासियं ति ) त पव नकत्रराशयो भवन्ति । सत्त० १६ द्वार।
एक पूर्ण पाएमासिकं कृतम १ । (पीयय पणदि(६४) च्यवनवेला
गुणं ति) द्वितीयषाएमासिकं पञ्चदिनैरुनं विहितम २ ।
(नव चउमासिय दु तिमासिय त्ति) स्वामिना नव चातुचुइवेलानिसिकं, जिणाण एमेव एगसमयम्मि ।
मासिकानि कृतानि, द्वे त्रैमासिके रुते, (अढाइजमाचुइमासाइवियारो, भरहेरवएमु स चेव ।।६।। मित्रा दुन्नित्ति) द्वे साद्विमासिके कृते ॥ १७६ ॥ ( छ दु(चुश्वेला निसिअहं जिणाण त्ति) च्यवनवेला अर्द्धरात्रो मासिय दुदिवकृय-मासिय ति) पम् द्विमासिकानि वे साईजिनानाम् । (एमेव एगसमयम्मि त्ति) एवमेव नक्तरीत्या एक- मासिके कृते । (बारस तहेगमासीया) तथैफमासिकानि मासस्मिन् समये (चुइमासाइविधारो ति) च्यवनमासादिवि. कपणानि द्वादश। (बावत्तरकमासिय ति) द्विसप्ततिरखमाचारः (भरहेरबपसु सच्चेव ति) जरतैरवतषु स एव, यत सक्वपणानि । (पमिमा बारमेहिं च) प्रतिमा द्वादश विहिता च्यवनमासाऽऽदि ऋषभाऽऽदानामुक्तं तदेव सर्वभरतैरवतेषु अष्टमजतैः, चः पादपूरणे ॥ १७७ ॥ (दो चउ दस समरिं) जिनानां समयोऽपि स एव भवति यथा भरतकेत्रे, तथैव त. द्वायां चतुर्दिशभिश्वेापवासैः (निरंतरं भहमाश्पमिमतिस्मिन् समये तस्मिन्नको तस्यां वेत्रायाम परवतकेत्रेऽपि सैव गं ) अन्तररहितं पारणकराहतं नहरमहाभश्सर्वबेला भवति। इति गाथाऽर्थः ॥६६॥ इति सर्वेषां जिनानां तोज३प्रतिमात्रिकं कृतमिति । ( दुसयगुणतीसगट्ठा ) दे व्यवनवेला । सत्त०१७द्वार।
शते एकोनत्रिंशदधिके पष्ठभक्कानि विहितानि । (पारणया ति
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(२३६०) तित्थयर अभिधानराजेन्द्रः ।
तित्थयर सयगुणवन्ना) 'पक्वाधिकसार्चद्वादशवः' भीषि शताम्येकोन- वर्णः [शा]शिखिवाहनो द्वादशभुजो बीजपूरकबाणखम्गमुझरपश्चाशत् ३४६ पारणकानि पिहितानि । इति गाथाऽर्थः ॥१७८॥ पाशकाजययुक्तदक्किणकरषट्रो, नकुनधनुःफल कशूलाङ्कुशाकसत्त०६४ हार।
सूत्रयुक्तवामपाणिषट्कश्च । श्रीमद्विजिनस्य कूबरो यक्वश्व(६७) तीर्थकरयक्षाः
तुर्मुख इन्द्रायुधधों गजवाहनोऽष्टनुजो वरदपरशुशूनाभययु. जक्खा गोमुह महज-क्ख तिमुह ईसर सतुंबुरू कुमुमो।
कदक्विणपाणिचतुष्ठयो, बोजपूरक शक्तिमुझराक्षसूत्रयुक्तवामपा
णिचतुष्टयश्च । अन्ये कूबर स्थाने कुबेरमाहुः । श्रीमुनिसुव्रतमायंगो विजयाऽजिय, बंभो मणु प्रो सुरकुमारो॥३७॥
स्य वरुणो यकश्चतुर्मुखस्रिनेत्रः सितवर्णो वृषवाहनो जटामु. उम्मुह पायान किन्नर, गरुडो गंधब्द नह य जक्खिदो.।। कुटनूषितोऽएभुजो बीजपूरकगदाबाणशक्तियुकदक्षिणकरककूबर वरुणो निउमी, गोमेहो वामण मयंगो ॥३७६।। मनचतुष्को, नकुल पनधनु-परशुयुतवामपाणिचतुष्टयश्च । श्री. पक्का भक्तिवतास्तीयकृतामिमे-यथा प्रथमजिनस्य गोमुखो नमिजिनस्य नृकुरिर्यकश्चतुर्मुखत्रिनेत्रः सुवर्णवर्णो वृषभवापक्कः सुवर्णवों गजवाहनश्चतुर्भुजो वरदाकमालिकायुक्तद- हनोऽनुजो बीजपूरकशक्तिमुझराजययुक्तदविणकरचतुष्टयो,नकिणपाणिद्वयो, मातुलिङ्गपाशकाम्वितवामपाणिद्वयश्च । अजि- कुनपरशुवज्राक्कसूत्रयुक्तवामकरचतुपयश्च । श्रीनेमिजिनस्य सनाथस्य महायतानिधो यकश्चतुर्मुखः श्यामवर्णः करीन्छवा. गोमेधो यक्वत्रिमुखः श्यामकान्तिः पुरुषवाहनः पम्भुजो मातुहनोऽपाणिनरदमुझराकसूत्रपाशकान्वितदतिपाणिचतुझ्यो,बी. लिङ्गपरशुचक्रान्वितदविणकरत्रयो, नकुत्रशूलशक्तियुक्तवामपा. जपूरकानयाकुशशक्तियुक्तवामपाणिचतुष्कश्च । श्रीसम्जवजि
णित्रयश्च । श्रीपाश्वजिनस्य वामनो यक्को,मतान्तरेण पावनामा, मस्य त्रिमुखो नाम यकत्रिवदन स्त्रनेत्रः श्यामवर्णो मयूर- गजमुख चरगफणामएिमतशिराः श्यामवर्णः कूर्मवाहनश्चतुर्नुपाहनः षम्भुजो नकुलगदाजययुक्तदक्विणकरकमलत्रयो, मा- जो बीजपूरकोरगयुक्तदक्षिणपाणिद्वयो,नकुलनुजगयुक्तवामपातुमिङ्गगगावसूत्रवामपाणिपत्रयश्च । श्रीअभिनन्दनस्य ई.
णियुगश्च । श्रीवारजिनस्य मतङ्गो यक्षः श्यामवर्णो गजवाश्वरो यक्तः श्यामकान्तिगजवाहनश्चतुर्भुजो मातुलिङ्गाकसूत्र. हनो द्विभुजो नकुनयुतदतिणनुजो, वामकरधृतबीजपूरकन । युक्तदविणकरकमनद्वयो, नकुलानुशान्वितवामपाणिद्वयश्च । प्रव० २६ द्वार। श्रीसुमतेस्तुम्बुरुर्यक्षः श्वेतवर्णो गरुड़वाहनश्चतुर्भुजो बरद.
(६८) तीर्थकरदेव्यःशक्तियुक्तदक्विणपाणिद्वयो, गदानागपाशयुक्तवामपाणिद्वयश्च । देवीओ चकेसरि, अजिया दुरितारि कालि महकाली। श्रीपद्मप्रभस्य कुसुमो यको नीनवर्णः कुरङ्गवाहनश्चतुर्भुजः फ.
अच्चुय संता जाला, सुतारयाऽसोय सिरिवच्छा ।।३७७॥ लाभययुक्तदक्विणपाणिद्वयो, नकुशाक्कसूत्रयुक्तवामपाणिद्वयश्च । सुपाश्वस्य मातङ्गो यक्षो नीलवर्णो गजवादनश्चतुर्नुजो विस्व
पवर विजयंऽकुसा प-नग त्ति निवाण अच्चुया धरणी। पाशयुक्तदक्णिपाणियो, नकुन्नाशयुक्तवामपाणिद्वयश्च । श्री- पइरुट्टऽनुत्त गंधा-रि अंब पउमावई सिद्धा ॥३७॥ चन्द्रप्रजस्य विजयो यको हरितवर्णस्त्रिलोचनो हंसवाहनो तत्राऽऽद्यजिनस्य चक्रेश्वरी देवी, मतान्तरेणाऽप्रतिचक्रा, द्विभुजः कृतदक्किण हस्तचक्रो, वामहस्तधृतमुहरश्च । श्रीसुविधि- सुवर्णवर्मा गरुमवाहनाऽकरा धरदबाणचक्रपाशयुक्तजिनस्याऽजितो यकःश्वेतवर्णः कूर्मवाहनश्चतुर्जुजो मातुलिकाका दक्विणपाणिचतुष्टया, धनुर्वनचक्राशयुक्तधामपाणिचतुष्टया स्त्रयुक्तदक्षिणपाणियो, नकुलकुन्तकलितवामपाणिद्वयश्च । चेति । श्रीअजितस्याजिता देवी गौरव सोहासनाधिरूढा च. श्रीशीतलम्य ब्रह्मा यक्षश्चतुर्मुखत्रिनेत्रः श्वेतवर्णः पद्मासनोऽष्ट- तुर्तुजा वरदपाशकाधिष्ठितदक्तिणकरद्वया,बीजपूरकाशालातुजो मातुलितमुझरपाशकाभययुकदक्षिणपाणिचतुष्टयो,नकुन- कृतवामपाणिद्वया च । श्रीसम्नवस्य ऽरितारिदेवी गौरवर्मा गदाबूशाक्कसूत्रयुक्तवामपाणिचतुष्टयश्च । श्री श्रेयांसस्य मनुजो मेघवाहना चतुर्नुजा घरदाकसूत्रभूषितदक्किण नुजद्वया, फलायको मतान्तरेण ईश्वरो,धवलवर्णस्त्रिनेत्रो वृषवाहनश्चतु जो प्रयान्वितवामकरद्वया च । श्रीअभिनन्दनस्य काली नाम देवी मातुनिङ्गगदायुक्तदक्षिणपाणियो, नकुत्रकाकसूत्रयुक्तवामपा- श्यामकान्तिः पद्मासना चतुर्नुजा वरदपाशाधिष्ठितदकिणकरणिवयश्च । श्रीवासुपूज्यस्य सुरकुमारो यक्कः श्वेतवर्णो हंसवाहन
द्वया,नागाकुशालकृतवामपाणिद्वया च । श्रीसुमतेमहाकाली अतु जो बीजपूरकराणान्वितदक्षिणकरध्यो,नकुनकधनुर्युक्त. देवी सुवर्णवर्मा पद्मासना चतुर्भुजा वरदपाशाधिष्ठितदक्षिणघामपाणिवयश्च । श्रीविमलस्य षण्मुखो यक्षः श्वेतवर्णः शिखि
करतया, मातुलिकाशयुक्तवामपाणिद्वया चेति । श्रीपमप्रभपाहनो द्वादशभुजः फनचक्रवाणखगपाशकाकसूत्रयुक्तदक्कि. स्याऽच्युता,मतान्तरेण श्यामा,देवी श्यामवर्णा नरवाना चतुणपाणिषट्रो, नकुशचक्रधनुःफलकाकुशाभययुक्तवामपाणिष. र्नुजा वरदवाणान्वितदकिणकरद्वया,कार्मुकाभययुक्तवामपाणिदुश्च । श्रीमनन्तस्य पातालोयकस्त्रिमुत्रो रक्तवर्णो मकरवाहनः द्वया च । श्रीसुपार्श्वस्य शान्ता देवी सुवर्णवर्णा गजवाहना च. षड्भुजः पानगपाशयुक्तदक्षिणपाणिप्रयो,नकुलफलकाकसूत्र- तुर्नुजा वरदाकसूत्रयुक्तदक्विणकरदया, शूलाभययुक्तवामहस्त. युक्तवामपाणित्रयश्च । श्रीधर्मस्य किन्नरो यक्षत्रिमुखो रक्त- द्वया च । श्रीचन्नप्रभस्य ज्वाला; मतान्तरेण नृकुटिः,देवी पीतवर्णः धर्मवाहनःपरचुजो बीजपूरकगदाजययुक्तदक्षिणपाणि वर्णा वरालकास्यजीवविशेषवाहना चतुर्तुजा खड्गभूषितदक्तिअयो, नकुलपमा कमानायुक्तवामपाणि वयश्च । श्रीशान्तिनाथस्य णकरदया, फत्रकपरशुयुतवामपाणिद्वया च । श्रीसुविधेः सुगहमो यक्को बराइवाइना कोडवदनः श्यामरूचिश्चतुर्नुजो तारा देवी गौरवर्णा वृषनबाहना चतुर्भुजा वरदानसूत्रयुक्तदबीजपुरकपचान्वितदक्षिणकरद्वयो, मकुवाक्षसूत्रयुक्तवामपाणि- क्षिणभुजदया, कलशाङ्कशाञ्चितबामपाणिद्वया च । श्रीशीतलबयश्च । श्रीकुन्योर्गन्धर्वयाः श्यामवर्णो हंसवाहनश्चतुर्नजो स्य अशोका देवी नीलवर्णा पद्मासना चतुर्नुजा वरदपाशयुक्तपरदपाशकान्वितदक्षिणपाणियो, मातुनिताशाधिष्ठितवाम- दक्विणपाणिद्वया,फसाङ्कायुक्तवामपाणिद्वया च । श्रीश्रेयांसस्य करद्वयश्च । श्रीमरजिनस्य यक्षेन्द्रो यक पपमुखस्त्रिनत्रः श्यामः । श्रीवासा देवी, मतान्तरेण मानवी, गौरवणो सिरवाहना चतु
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तित्ययर
भेजा वरदमुद्रान्विदक्षिणकर या कलाकुचामक रव्या च श्री वासुपूज्यस्य प्रवरा देवी, मतान्तरण चरामा, श्यामवो तुरगपादना चतुजा देश दक्षिणकरगा, पुष्पगदायुतवामकरद्वया च श्रीविमलस्य विजया, मतान्तरेण विदिता, देवी हरितालवर्णा पद्मासना चतुर्भुजा बाणपाशयुक्त किरद्वया, धनुर्नागयुतवामपाणिया च । श्रीश्र नन्तजिनस्य अंशा देवी गौरवर्ण पद्मासनाचा पा शयुक्तदक्षिणपाणिद्वया, फलका कुशयुक्त वामकरद्वया च । श्रीधर्मस्य पन्नगा देवी, मतान्तरेण कन्दर्पा, गौरवर्णा मत्स्यवाहना चतुवा उत्पायुतदाणपाणिच्या पद्माभवननामपाद्विया च । श्रीशान्तिनाथस्य निर्वाणा देवी कनकरुचिः पद्मासना चतुर्भुजा पुस्तकोरपणपाणिया कमण्डलुकमलकबितवामकरद्वया व । श्रीकुन्धोरच्युता देवी, मतान्तरेण बलाभिधानाविरवाहनाचतुर्भुजा बीजपूरका न्वितदक्षिणपाणिघ्या, भुएिकपद्मान्वितवामपाणिद्वया च । श्रीधर जनस्य धारणी देवी मालवणी प मातुलिङ्गोत्पलयुक्त दक्षिणपाणिद्वया, पद्माक्षसूत्रान्वितवापाणिया च श्रीमजिनस्य वैरोट्या देवी कृष्णवर्णा पद्मासना [जा] वरदाक्षसूत्रदणिपाद्रिया बीजपूरक शक्तियुक्तवामपाणिद्वया चेति । श्रीमुनिसुव्रतस्य अभुता देवी, मतान्तरेण नरदन्ता, कनकरुचिद्रासनारूढा च तुर्भुजा वरदाकसूत्रयुक्तद क्विणभुजद्वया, बीजपूरकशूल युक्तवा मकरद्वया च । श्रीनमिजिनस्य गन्धारी देवी श्वेतवर्णा हं
वादना चतुर्भुजा वरदखयुक्तदक्षिणकरपा, बीजपूरककुतकलितवामकरध्या च । श्रीनेमिजिनस्य अम्बा देवी कान्तरुचिः हिचाहना चतुर्भुजा धातुविपाशतदक्षिणकरपा, चा ङ्कुशाऽऽ सक्त वामकरद्वया च । श्रीपाश्र्वजिनस्य पद्मावती देवी कनकवर्णा कुर्कुटसर्पवादना चतुर्भुजा पद्मपाशास्त्रितदक्षिणक या फलातिवाकरद्वया च श्रीवीर जिनस्य सि
( २२६८) अभिधानराजेन्द्रः |
देवी रिसिवादना चतुर्भुजा पुस्तकाभययुक्तदक्षिणकरद्वया, बीजपूरकवीखानिरामकइया बेति त्र सूत्रकारेण षकाणां देवीनां च केवलानि नामान्येवामिहितानि, न पुनर्नयनवदनवर्णाऽऽदिस्वरूपं निरूपितमः अस्माजिस्तु शिष्यहिताय निर्वाणकलिकाऽऽदिशास्त्रा मुसारेण किञ्चित्तदीयमुखवर्णप्रहरणादिस्वरूपं निरूपितमिति । प्रव० २७ द्वार । ( जन्मवेला २२ । जन्मनक्कत्राणि २३ । जन्मराशयः २४ इति द्वारत्रिकं च्यवनवत् )
(६९) तीर्थजन्म नगर्थ:--
जम्मस्व इमा नपरीओ। इक्खागनूपसज्जा, सावत्यी दो अऊ कोबी । वाणारसि चंदपुरी, कार्यदी दिसपुरं च ।। ६३ ।। सीहपुर चंप कंपि-लउज्ज रयणपुर ति-गयपुर मिहिला । रायगड मिडिल सूरिय-पुरवणारमि य कुंमपुरं |४| अयोध्या नगरी २ श्रावस्ती ३ द्वयोरयोध्याअयोध्या नगरी ४ अयोध्या नगरी ए। कौशाम्बी ६। वाराणसी ७। चन्द्रपुरी फाकन्दी भरि १० ।। ११ । चम्पा १२ । काम्पिल्यपुरम् १३ । अयोध्या १४ । रत्नपुरम् १५ ।
५६०
"
त्रिषु गजपुरम् - गजपुरम् १६ मिथिला १६ । राजगृहम् २० वाराणसी २३ | कुग्मपुरम् २४ सत्त० २० द्वार । आ० म० ।
तिरथयर
। गजपुरम् १७ । गजपुरम् १७ । | मिथिला ३१ । सौर्यपुरम् २२ । जिनानां क्रमेण जन्मनगराणि ।
(७०) अथ तीर्थकर जन्मदेशाः कथ्यन्ते
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दुसुकोमला कुणाला दुस कोमल बच्छ कामि पुग्दो प सुन्न मलय सुन्नंडगा, पंचाला कोसला सुन्नं ॥ ६१ ॥ तिम्र कुरु विदेहमगहा, विदेह कोसह कासि तह पुथ्यो । देसा इमे जिला, जम्मस्स'
|| 02 || (सु कोसला कुणाल प्ति) घ्योः जिनवरयो:- कोश लादेशः १। २ | कुणालदेशः ३ । ( 5सु कोसल वच्छ कासि पुव्वो यत्ति ) योः पुनः कोशला ४/५ । बच्देशः ६ । काशीदेशः ७ । पूर्वदेशश्च ८ (सुन्न मलय सुन्नंग ति) पुरातन ग्रन्थेष्वप्राप्यमाणस्वेनासित्वात् शून्यमित्यर्थः । मलय देशः १० | शून्यं प्राग्वत् ११ | श्रङ्गदेशः १२ । (पंचाला कोसला सुन्नं ति) पञ्चालाः १३ । कोशलाः १४ । शून्यं प्राग्वत् १५ । इति गाथार्थः ॥ ६१ ॥ (तिसु कुरुविदेहमगह ) त्रिधु कुरुदेशः १६ १७ १७ । बि देहदेशः १५ मगधदेशः २० विदेह कोकाat ) विदेह देशः २१ कुशा (व) र्तदेशः २२। काश | देशः २३ । तथा पूर्वदेशः २४ (देखा मे जाल) मे ऽनन्तरोका देशाः क्रमेण चतुर्विंशतिजिनानाम् ॥ २ ॥ सत्त० २७ द्वार ।
(७२) तीर्थकरजन्मामासाऽऽदिइचो उमहाऽऽछ भिणाण जम्पमासाई वृष्छामि (७७) चित्तबहुलमी सिय-माहट्ठमि मग्गचउदसी माहे । सिबिय साहs मि, कत्तियगे कसिणवार सिया 1951 जिसिय पोसकसिणा, य वारसी मग्गपंचमी चैव । कसिला यमाहफग्गुण - चारसि फग्गुण चनुदसिया 1981 माहस्त मुद्धतझ्या, तह बड़साहम्मि तेरसी कसिणा । माइसियतड़य जिट्ठे, कसिणा तेरसि विसाहच उदसिया । ८० । सियमग्गदसपि - गारसि बद्दलऽमि निसाबणे मासे । साबणसियम पो सकसिवादचिरातेरसिया।। इलो गर्भस्थितिकथनानन्तरम. ऋषभाऽऽदीनां जन्मदि ये बहुजनस्य जन्मा [२] मार्गशीखसदेशी ॥ मातद्वितीया देशात धर्मकार्थाशिक पो
,
षस्य कृष्णा द्वादशी । मार्गशीर्ष कृष्णपञ्चमी । माघकृष्णा द्वादशी १०१ फाल्गुनकृष्णा द्वादशी ११ फाल्गुनकृष्ण चतुर्दशी १२| १३ शादी १४ माघ
१२ ज्येष्ठयोदशी १६ वेष्णचतुर्दशी १७ मार्ग माशी काशी कृष्णापेमा हुलाष्टमी २०१ श्रावण बहुलाष्टमी २१ श्रावणश्वेतपञ्चमी २२। पौकृष्णा दशमी २३| चैत्रश्वेत त्रयोदशी २४ इति क्रमेण जन्ममासपक्कृतिथयः । सत्त० २० द्वार |
(७२) अथ जन्मारकानाह
संखिज्ज कालरूवे, तज्ञ्यऽरयंते उस जम्मो | ( 52 )
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( २२७० ) अभिधानराजेन्छः |
तित्थयर
अजिवरम चत्वारय-मऊ पच्छ संभवाऽऽई। तसं अराई, जिला जम्मो तहा मुक्खो ||०२|| (संखिजकासरूवे, तश्यायंते सहजस्मो सि) संख्यातकालपे तृतीयारकपते जिनजन्म मोि थार्थ (जयस्वा चकमध्ये जन्म, मोहात पडदे मात पश्चिमा सम्भवादीनां जिनपर्यन्तानां जन्म, मोक नूत्। तस्सं राई) तस्य धारकस्यास्ते अ जिनानां योरपर्यन्तानां सप्तानां जन्म, भोक्षाभूत्। (जि. गाण जम्मो तहा मुक्खो ) एवं सर्वजिनानां जन्म, मोक्श्च ।
सत्त० २५ द्वार ।
श्रथ जन्मारकाणां शेषकालमाद
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जम्मा गुणनउई - पक्खनिजान्त्र्यमियमरयसेसं | पुरिमं तिमाण नेत्र्यं, तेणऽहियमिमं तु सेसा ॥८६॥ अनियस्व अवरकोमी, लक्खा पचास, बीस दस एगो । कोसिस दस एगो, कोमिस कोमि दस एगा | 09 | बापालसहस्पूर्ण इव नवगे अगे पुणो इचो । पण सहिल क्खचुलसी-सहसऽहियं होड़ वरिसाणं ॥ ८८ ॥ अपरस छायाला, सोलनसंगतिभि पत्रियमागतिगं । पल्लियस्स एगपाओ, वरिसाएं कोमिसहसो य ॥८॥ तिसु चुलसिसहरूसहिया, पणसट्टिगार पंचलक्खा य । चुसि सदस्सा तो सदुमय पास अरसेसं ||०|| (जम्माउ इगुणनउई पक्खनिजाउ श्रमियमरय सेसं ति) जम्मत कोननवति (९) निजा दुर्मितमरकोषमा (पुरिमतिमाण नेति प्रथमान्तिमयोजिनयोङ्गेयम् । अयं भावः एको ननवतिपकाः चतुरशीतिलकणि श्रीदेवरूप तृती यारकशेष यम को ये ?- श्री ऋषभदेवस्य जन्मतः तृतीयार कमध्ये एतावान् कालोऽवशिष्यत इति । तथा-एकोननवतिपक्काः द्वासप्ततिवर्षाणि च श्रीवीरस्य जन्मतोsरकस्य शेषं शेयम् | श्री वीरस्य जन्मतः चतुर्थारकमध्ये एतावान् कालोऽयशिष्यत इत्यर्थः । (तेगाहियमिमं तु साणं ति) तोकि मत्वात् शेषाणां मध्य तु तेन निजायुषा - धमिदं वाकयमिति माघ २६ (अ जियस्स अयरको लक्खा पन्नास त्ति) अजितस्य जन्मतः द्वासप्तति (७२) लक्षपूर्वैरधिकाः " बायालसहस्सुणं श्य नवगे " त्यप्रेक्ष्यमाणत्वात् द्विन्दत्वारिशशतवर्षसरूनाथ प वाशल्लकाः सागरकोट्यः चतुर्थारकशेषं ज्ञेयम् । एवं शीतलजिनं याबदू निजायुःप्रक्षेपपूर्वकं द्विचत्वारिंशद्वर्षसहस्रापनयनपूर्वकं चतुरकशे वा २ (बस इस एगो सि विविध २० लक्षपूर्वाधिक० ४ । एककोटिलक्षाः ४० लक० ५ । (कोसिस दस को ति) दशकोटिसहस्राः ३० पू० ६ । एककोटिसहस्रः २० बकपू० ७ । ( कोडिसयं कोकि दस एगत्ति) कोटीशर्त १० लक० ८ दशकोट्यः २ ब० । एका कोटी १ लक० १० | सागराणामिति सर्वत्र गम्यम् । इति गाथार्थः ॥ ८७ ॥ बापालसहस्वर्ण, श्य नवगे" इत्यनन्तरोके नवके -
तित्थयर
जिनजिनादारज्य शीतल या निरिशनसह रेतदरकशेषनं क्रियते गेो इस
रके पुनः पणवीस सहिये दोइ परिमाणं ति) पञ्चषष्टिलक्क चतुरशीतिवर्षसहस्राधिकं भवति, अप्रे वदयमाणामिति शेष इति गाथार्थः ॥ ८ ॥ ( भयरस्यं ति) अंतरशतं सागरशतम | भावना चैवम् श्रेयांसस्य जन्मतः निजायुरकिं ६५ शांति (४) सहस्रवर्षादधिकं चेक सागरशतं चतुधारकशेषं शेषम् । एवमरजिन यावामेजयुःप्रत्ययपूर्वकं पञ्चषष्टिकतुरशीतिसहस्रपत्रकेपपूर्वकंच जावन पचत्वारिंशत् सागराणि १२ लक्षा० १२ । ( सोलस सग तिनि पलियनागतिगं ति ) बोमश सागराणि ६० लका० १३ । सप्तसागराणि १० लक्षा० १४ । त्रीणि सागराणि ( ? ) लक० १५ । पल्यनागत्रिकं पादोनपल्यम १ ० १६ । ( पलियम्स पगपाच त्ति ) त्यस्यैकपादः चतुषः निजायुः (क) सहस्राधिक० १७ । ( वरिसाणं कोमिसहसो यति) वर्षाणां कोटिसहस्र (८४) सहस्रमेति १० गाथार्थः ॥६॥ (तिसु
"
-
ति ) त्रिषु जनेष्वनन्तरं भणिष्यमाणेषु चतुरशीतिसहस्राधिका: ( पणसाठगारपंचलक्खा यत्ति ) लकशब्दस्य प्रत्येकं योगात् पचपः श्रीमनि जन्मतः चतुरशीतिस
वर्षाधिका ५००० निजासुरधिका ६५ वर्षाणि चतुरकशेषमिति नमिजिनं यावद्भावना कार्या १६ । एकादशलकाः ३० सहस्र० २० । पञ्चलकाश्च १० सह० २१ । (सिसस्सस) चतुरशीतिसहस्राणि वर्षाणि १ सह० २२ । ( तो स सय त्ति ) ततः सा द्वे शते ( पालस्स - रसेसं ति) श्रीपार्श्वनाथस्य श्ररकशेषं ज्ञेयं वर्षशताधिकम् २३| इति गाथाऽर्थः ॥६०॥ चतुर्विंशतिजिनानां जन्मारकाणां शेत्रका
लः । सत्त० १६ द्वार ॥
(७३) अथ तीर्थप्रसिजनन
उस मरीपमुद्दा ? सिरिवम्मनिवाश्या सुपासजिणे 9 | इरिसेविनई, सीपतिस्थाम्मि १० जिण जीवा ||२४|| सेयं सरिकेक, तिमिरुभूमियतेचणा ।
११ नंदनंदसंखसिद्धत्यसिरियम्मा ||३५|| सुत्रते ऍरावण नारय-नामा२० मिम्मि कएहपमुहा य २२ । पासे अंबसवणंदा २३ वीरे सोधियाईय || ३६ || सेणिय पास पोहिल, उदाइ संखे दढाउ सय य ।
वे मुलसा वीर सबतिया न उ ॥ ३७ ॥ (उस मश्यमुदाहृपने मरीचिप्रमुखा १ (सम्मिि वाचा सुपासजिये नृपाऽऽदिकाः सुपार्श्व - रिसेविभूति श्रीशी नाती हरि
नजीवौ यो इति गाथार्थः ||३४|| (सेयं से सिरिकेऊ) श्रेयांसतीर्थेनामा (तिमिरुभूमियतेयः) विवि नृत्यमिततेजोबनना ११ नंदनंद सिरिवच्छा) वासुपूज्यजिनतीर्थे नन्दननन्द सार्थ श्रीवसमभिधा १२ इति गाथार्थः ॥ ३८५॥ (सुवते पॅरावणनारयनामा) मुरारनामानौ २० । (नमिम्मि कपहपमुदाय) कृष्णास २२ पासे अंदा तीर्थे अम्बड सत्यक्यानन्दनामानः २३ । ( बीरें सेणिभाई य )
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(२२७१) तित्ययर अनिधानराजेन्डः।
तित्थयर श्रीवीरतीर्थ श्रेणिकाऽऽदयो जिनजीवा ज्ञेयाः। इति गाथार्थ:३६ दशधा दशप्रकारेण स्थितिकल्पः प्रथमचरम२४जिनयोस्तीथें (सेणियसुपासपोट्टिलउदासखे त्ति) श्रेणिकः १ सुपार्श्वः २/ जणितः । अन्येषां द्वाविंशतिजिनानां चतुःप्रकारो प्रणितः। पोट्टिनः ३ उदायिनामा ४ संखनामा ५ । (दढाच सयगे)। सत्त० १३५ द्वार । (विशेषार्थिना 'कप्प' शब्दस्तृतीयभागे रदायुः ६ शतकौ च ७ (रेवा सलसा) रेवती सुलसाना- २२५ पृछे विलोकनीया) न्यौ९ (वीरस्स बतित्थरणा नव)श्रीवारस्य तीचे पतेगब
(७७) तवसंख्याजीवा बद्धतीर्थरपदा इति गाथार्थः ॥३७॥ सत्त. १६६ कर!! जीवाऽऽई नव तत्ता,तिनिऽहवा देव-गुरु-धम्मा(२०३) (७४) भविष्यसार्थकराः
सबसि जिय-अजिया, पुन्नं पावं च आसवो बंधो । जंबुद्दीचे दीवे जारहे वासे आगमिस्साए उस्सप्पिणी.
संवर निजर मुक्खो, पत्तेयमणेगहा तत्ता ॥२८४ ।। एचवीसं तित्यगरा भविस्संति । तं जहा
सर्वेषां जिनानां शासने जीवाऽऽदीनि नव नरवानि । अथवा“ महापउमे सुरदेवे, मुपास य संयंपने ।
त्रीणि तवानि देवगुरुधर्मरूपाणि भवन्ति । (२८३) सर्वेषां जि. सन्नाणुनूई अरहा, देवगुत्ते य होक्खा ॥१॥ नानां तीर्थे जावाऽजीवौ, पुण्यं पापंच, आश्रवः, बन्धः, संवरः, नदए पेढालपुत्ते य, पोट्टिने सतकित्तिए।
निर्जरा,मोकः । एतानि नव तत्वानि प्रत्येकमनेकधा नवन्ति ॥ मणिमुव्यए य अरहा, सम्बनावविऊ जिणो ॥शा
सत्त० १३१ द्वार । श्रा० म०।
(७०) अथ तीर्थप्रवृत्तिकालः प्रोच्यतेअमम णिकसाए य, निप्पुलाए य निम्ममे । चित्तउत्ते समाही य, आगमिस्सेण होक्खइ ॥ ३ ॥
इगतित्था जा तित्थं, बीयस्मुप्पजए यता नेयो।
पुनिवतित्थकासो, दुसमंतं पुण चरिमतित्यं ॥१०॥ संवरे अणियट्टी य, विवाए विमले तहा ।
केवग्निकालेण जुओ, इगस्स बीयस्स तेण पुाग हीणो । देवोववाए अरहा, अणंतविजए इय * ॥ ४ ॥
अंतरकालो नेओ,जिणाण तित्थस्स कालो वि॥११॥ एए वुत्ता चउन्नीसं, भरहे वासम्मि केवली।
सहस्स य तित्थाओ, तित्यं वीरस्म पुनसक्खऽहियं । आगमिस्सेण होक्खंति,धम्मतित्यस्स देसगा"||एस
अयरेगकोमिकोडी, वावीससहस्सवासूणा ॥१२॥ महाविदेहविजयेषु विहरत्सु केवलिजिनेषु ग्यस्थेम्वन्येषां जिनानां जन्माऽऽदि स्यात्, किं वा तन्मोक्षगमनानन्तरमिति प्रश्ने,
(गतित्था जा तित्थं, बीयस्सुप्पज्ज ए अता नेओ। पुग्विदतिउत्तरम- महाविदेहविजयेषु विहरत्सु केवलिजिनेषु ग्मस्थेषु
स्थकालो)पकस्य तिर्थकृतस्तीर्थात् याबद् द्वितीयतीर्थकृतस्तीर्थबाऽन्येषां जिनानां जन्माऽऽदि न स्यादिति । प्र०२। ही०२प्रका। मुत्पद्यते तावत्कालं पूर्वतीर्थकृतस्तीर्थकालो शेषः । (समतं (७५) अथ युगान्तकृभूमिकामाह
पुण चरिमतित्यति) दुःषमान्तं पुनश्वरमतीर्थम्-पञ्चमाऽरकसादण मिछिगमणं, असंखअडचउतिसंखपरिसं जा।
पर्यन्तं यावत् श्रीवीरजिनस्य तीर्थमिति गाथाऽर्थः ॥ २१॥
(केवलिकालेण जुओ इगस्स त्ति) एकस्य विवक्षितजिसंजायमुसहनेमी-पासंऽतिमसेसमुक्खाओ ॥३२३॥ नस्य केवनिकालेन युतः ( बीयस्स तेण पुण होणो) (साहूण सिरुिगमणं) साधूनां मुनीनां सिद्धिगमनं मोक्षगम- द्वितीयस्य तदग्रेवनस्य जिनस्य पुनस्तेन केवलिकालेन डीनो नम(असंखअडचतिसंखपुरिसं जा, संजायं ति)असंख्याएचतु- रहितः (अंतरकालो त्ति) एतादृशोऽन्तरकाल एव (नेत्रो खिसंख्यपुरुष यावत् संजातम् । कस्मादित्याह (नसहनेमिपासं. जिणाण तित्यस्स कालो वित्ति) जिनानां तीर्थस्यापि कालो निमसेसमुक्खाप्रो)ऋषजनेमिपावा॑न्तिमशेषाणां मोक्कात् । इय: सेयः । तथाहि-श्रीऋषत्राजितयोरन्तरकानः पञ्चाशदूरक्षकोमन योजना-श्रीऋपजस्य मोक्वात् असंख्यपुरुषान् यावत् सा. टिसागराणि । स च श्रीऋषभस्य केवलिकालेन वर्षसहस्रोधूनां सिकिगमनं संजातम् । श्रीनमेरष्टी पुरुषान् यावत् साधू. नपूर्वलक्षमानेन युतः श्रीअजितस्य केवनिकालेन द्वादशवनांसिभिगमनं संजातम् २२।("अरहओ णं अरिटुनेमिस्स जाब पोनपूर्वागोनैकपूर्वलकमानेम दोनश्च क्रियते । तथा च अमाओ पुरिसजुगाओ जुगंतगमभूमी उवासपारयाए अंत- द्वादशवर्षोंनपूर्वाङ्गोमव पूर्वलकोनानि वर्षसहस्रोनैकपूर्वलक्षा' मकासी।" स्था०८1०।" उसनेणं अरहा कोसलिएणं इ. धिकानि च पञ्चाशवककोटिसागराणि जातानि । पतावता मासे उस्सप्पिणीए नवहिं सागरोवमकोमाकोडीदि बाइकंताहिं
कातं ५० लक्षकोटिसागर ७३एE0१२ वर्षाधिकं श्रीऋषभस्य तित्थे पवत्तिए।" स्था०९०) श्रीपार्श्वस्य मोकात चतुरः तीर्थ प्रवृत्तमित्यर्थः । एवं पार्श्वजिनं यावद्भावना कार्या । इति पुरुषान् यावत् साधूनां सिद्धिगमन संजातम २३॥ शेषाणामाजि- गाथार्थः ॥ २११॥ (सहस्स य तित्थाओ तित्थं वीरस्स ताऽऽदीनां नमि (२१) पर्यन्तानां जिनानां मोक्कात् (त्रि)?"सं. ति) ऋषभस्य च तीर्थात् वीरस्य तीर्थ (पुटवलक्खदियं ति) स्यातपुरुषान् यावत्साधूनां सिद्धिगमनं संजातमिति गाथार्थः॥ पूर्वतकाधिकमधिकं ( अयरेगकोझिकोडी) सागरैककोटाको१४॥ ३२३ ॥ सत्त० १५० द्वार । "समणस्स ण भगवो म. | टी (वावीससहस्सवासूणा) द्वाविंशतिसदम्रवर्षोना भवति। दावीरस्स जाव तच्चाओं पुरिसजुगारो जुगंतगडनूमी।" | तपाहि-ऋषभस्य केवविपर्यायःवर्षसहस्रोनमेकं पूर्वलकं, ततो स्था०३०३ उ०।
नवाशीतिपतेषु व्यतीतेषु तृतीयारकः परिसमाप्तः । ततो (७६) स्थिति कल्पः
चित्वारिंशत्सहस्रवर्षोनकः सागरकोटाकोदिषमाणः चतुर्थादसहा दुएई जणियो, चउहा अनेसि निइकप्पो(१७) को व्यतीतः। तदन च पविशतिसहस्रवर्षप्रमाणः पश्चमारकः।
प्रवचनसारोद्धाराऽऽदो यनामभेद उपलक्ष्यते,तन्मतान्तरण। सर्वेषां पिएमीकरणे बनवारीतिपकाधिकेन पूर्वेक्षणाधिका
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( २२७२)
अनिधानराजेन्द्रः ।
तित्पयर
द्वाविंशतिवर्षसहस्रश्च न्यूना सागराणाम एका कोटाकोटिभवति । श्री ऋषभस्य तीर्थात् श्रीवीरस्य तीर्थम् एतावता कालेन परिसमाप्तमिति तात्पर्यमिति गाथाऽर्थः ॥ २१२ ॥ इति तीर्थप्रवृत्तिकालः । सत्त० १०१ द्वार । (७०) तीर्थंकरकायातपः
"तीचमाणायागयचवीस जाएं। श्रसपिपिणि नवा लोमडलोमा ॥ १ ॥ सग्गाधविसया, पंचसु भरदेसु परचयपनये । कल्लाणयमासतिही-उ सासया न य विदेहेसु ॥ २ ॥ इगनतिनिधिधामा-मामति उप इन संखेवतवेणं, श्राराहट पंचकलाणे ॥ ३ ॥ वित्थरओ उवडतं, खुइजम्मेसुं करिज्ज पसे । तिवसा दिवातिगं राहे ॥ ४ सुमइत्थ निच्चनत्ते-ण णिग्गश्र बासुपुज्ज चउथेणं पासो मली विश्र श्रमेण सेसा उ छठेणं ॥ ५ ।। अनतम्बी नामुसनमनेमिपासाएं। वसुपुजस्स चउत्थे ण बनतेण से साणं ॥ ६ ॥ चउदसणं उभो, वीरो बहेण मासिए पते । सिद्धीवि॥ ७ ॥ कालं कलाणतवं, उक्षमणं जो करिज्ज विहिपुन्बं । जिण पहश्राराहणचो, परमपयं पावए सकमा ॥ ८ ॥ बुजम्म दिवसकेवल सिवा का पंचन सम्वजिनाएं पुणो, वीरस्स सगप्तहरणाई ॥ ६ ॥ इखितवजिणाणं, जो आदेश पंचा तेदसखित्ततिकालिअ- अरिहाण उवासिणा तेरा ? ॥ १० ॥ पण कलाकप्पं, नवीण पूरियमणिट्ठसंकं । जो पढाइ सुखइ भन्यो, सयंवरा तस्स सिद्धिसिरी" ॥११॥ ती० ५० कल्प | प्रब० ।
(८०) तीर्थकरणप्रयोजनम्
ननु सर्वोऽपि ज्ञावान् फलार्थी प्रवर्तते यहा ताक्षतिप्रसङ्गः । ततोऽसौ तीर्थे कुर्वनवश्यं फलमपेक्षते । फलं चापेमाणोऽस्मादश च व्यकमवीतरागः । तदयुक्तम्। यतः तीर्थंकरः स एव नयति वस्वीर्थकर नामकर्मोदयसमवितः न हि सर्वेऽपि भगवन्तो वीतरागास्तीर्थप्रवर्तनाय प्रवतीर्थरामकीर्तनफलम् ततो गवावी. सरागोऽये तीर्थकरनामकमदयतः तीर्थादितेव प्रकाशमुपकार्योपकारानपेकं तीर्थे प्रवर्तयतीति न कश्चि दोषः ।
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उक्तं च
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"तीन कर्म तीर्थकरनाम । तस्योदयात् कृतार्थोऽप्य हैस्तीर्थे प्रवर्तयति ॥ १ ॥ त्या प्रकाशयति भास्करो यथा लोकम तीर्थप्रवर्तनाय प्रवर्तते तीर्थकर पवम् ॥ २ ॥” ननु तीर्थप्रवर्तनं नाम प्रवचनार्थप्रतिपादनं प्रवचनायें बे भूगवान् प्रतिपादयति, तर्हि नियमादसर्वशः, सर्वस्यापि वक्तुसर्वतोपमाद तथा चात्र प्रयोगः विपश्चितः पुरुषः सर्वो न भवति वक्तृत्वात रारुषवदिति । तदसत् । तिरेकतया देतोरनैकान्तिकत्तानि सर्ववेदनेन सह विरुद्धयते, अतीन्द्रियेण सह विरोधानिश्च
तित्ययर
या द्विविधो हि विरोध-परस्परपरिहार सहानच स्थानलक्षणश्च । तत्र परस्परपरिहारलक्षणः तादात्म्यप्रतिषेधे, यथा घटपटयोः । न खबु घटः पटाऽऽत्मको भवति, नापि पटो घामको प्रतिसत स्तरमुपैति " इति वचनात्। ततो (ना) मयोः परस्परपरिहारलकृणो विशेष पर्व सर्वेषामपि वस्तूनां भावनीयम्, अन्यथा वस्तुसाडुस । यस्तु सहानवस्थानलक्षणो विरोधः, स परस्परबाध्यबाधकभावसिद्धौ सिद्ध्यति, नान्यथा । यथा वह्निशीतयोः । तथा हि-विव प्रदेसे मन्दमभिनयति वही शांतस्वापि मन्दमन्दभायः यदा पुनरत्यर्थमतिविमुति वह्निस्तदा सर्वथा शीतस्यानाव इति प्रत्यनयोर्विरोधः । उक्तं च"अविकलकारणमेकं सपरभावे भवेत्। जवति विरोधः स तयोः, शीतदुताशाऽऽत्मनोर्दृष्टः ॥ १ ॥ " न चैत्रं वचनसंवेदनयोः परस्परं बाध्यबाधकभावः, न हि संवे दने तारतम्येनोत्कर्षमासादयति वचस्वितायाः तारतम्येनापकर्ष उपलभ्यते, तत्कथमनयोः सहानवस्थानलक्कणो विरोधः । श्रथ सर्ववेदी बता नोपलब्ध इति विरोध उद्घष्यते । तदयुकम् । श्रत्यन्तपरोक्को हि जगवान्, ततः कथमनुपलम्नमात्रेण तस्याभावनिश्चयः, अदृश्यविषयस्यानुपलम्नस्यानावनिश्चायकत्वायोगात् ।
"
श्राह च प्रज्ञाकरगुप्तः46 बाध्यबाधकभावः का, विद तादृशानुपलब्धेश्चं- दुच्यतां सैव साधनम् ॥ १ ॥ अनिश्चयकरं प्रोक्त-मीदृक्षानुपलम्भनम् । तस्यन्तपरोक्षेषु सदसत्ताविनिः ॥ २ ॥ " मं० । (८१) ताल:
पुरिमंऽतिमाऽहं-तरेषु तित्थस्स नत्थि वृच्छेओ । मज्जिएस सत्तमु, एत्तियकानं तु वुच्छेओ || ४३२|| चजागो पजागो, तिथि य चलनाग पक्षिय चउजागो। तिन्नेव पचजागा परत्यभागो यचभागो ॥ ४३२ ॥ दहितुस्ती योगतिरेवान्तराणि भवन्ति। यथा चतसृणामगुलीनां श्रीपेचान्तराणि तत्र पूर्वेषु श्रीष नाऽऽदिजिनाऽऽदीनां सुविधान नवानां धिषु अन्तिमेव शान्तिनाथादीनां महावीरान्तानां नवानां जनानां संबन्धि अवतरेषु तीर्थस्य यस्य श्रमणसङ्घस्य नास्ति व्यवच्छेदः । (मज्जिल्लएसुति) मध्यवर्त्तिषु पुनःप्रभृतीनां शान्तिनाय पर्यन्तानां तीसरे तसुतावन्मात्रं वक्ष्यमाणं कालं यावतीर्थस्य व्यवच्छेदः । तदेarsse - (चउजागेत्यादि) सुविधिशीतलयोरन्तरे पस्योपमस्य चतुर्भागीकृतस्य एकञ्चतुर्भागस्तीर्थव्यवच्छेदोऽर्ह दूधर्मवार्त्ताअपि तत्र नत्यर्थः तथा शीतपोरतरेयोपमस्य चतुर्भागस्तथाक्चच्छेद तथा बेयांस वासुपूज्ययोरन्तरे पस्योपम संबन्धिनस्त्रयश्चतुर्भागास्तीर्थव्यवच्छेदः । तथा बासुपूज्य विमल जिनयोरन्तरे पल्योपमस्य चतुर्भागस्तीर्थव्यवच्छेदः । तथा बिमलानन्तजिनयोरन्तरे पल्योपमसंबनिपतु भीमातीर्थव्यवच्छेदः । तथाऽनन्तधर्म्मयोरतरे पयोपमस्य चतुर्भागस्तीर्थव्यवस्छेदः तथा धर्मशान्ति
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तित्थयर
(२२७३) अभिधानराजेन्दः ।
तित्थयर
नाधयोरन्तरे पक्ष्योपमचतुन गस्तीर्थव्यवच्छेदः। इति सर्वाग्रेण द्वितीयः २, भरुनामा तृतीयः ३, चः पादपूरणे। (सुप्पहसुदंसप्रागमीलने त्रीणि पल्योपमानि एकचतुर्भागहीनानि जातानि । णाऽऽणंदनंदण त्ति ) सुप्रजनामा चतुर्थः ४, सुदराननामा प्रव० ३६ द्वार।
पञ्चमः ५, प्रानन्दनामा षष्ठः ६, नन्दननामा सप्तमः । (रा. एएमजते! तेवीसाए जिणंतरे कस्स कहि कानियम
मबबनद्दत्ति) रामनामाऽष्टमः, बलजनामा नवमः ।।
इति गाथार्थः ।। ३४६ ॥ पद्मः ८। प्रव०। यस्स चोच्छेदे पप्पत्ते ? | गोयमा ! एएसु णं तेवीसाए जि.
त्रिषष्टिशलाकापुरुषमानमाहतरेसु पुरिमपच्छिमएमु अहसु अहसु जिणंतरेमु एत्य चउपन्नुत्तमपुरिमा, इह एए होंति जीवपन्नासं । णं कालियसुयस्स भ्रवोच्छेदे पम्पत्ते । मज्झिमएसु सत्तम
नवपमिविएहूहिँ जुआ, तेसहिमलागपुरिस नवे ॥३५०।। जिणंतरेसु एत्थ णं कालियमयस्स वोच्छेदे पामते । स- ( चठपन्नुत्तमपुरिसा, इह एए होति जीवपन्नातं ति) पते व्वत्य विणं वोच्छिमे दिहिवाए।
चतुर्विंशतिजिनाः २४, द्वादश चक्रिणः १२, नव बासुदेवाः कस्य जिनस्य सम्बन्धिनः कस्मिन् जिनान्तरे, कयोर्जिनयोर
ए, नव बलदेवा (श्चेति चतुःपञ्चाशत ५४ उत्तमपुरुषा इद जग.
ति भवेयुः। एते सर्वेऽप्युत्तमपुरुषाः संभूय पश्चाशजीवा। न्तरे, कालिकधुतस्यैकादशाङ्गीरूपस्य व्यवच्छेदः प्राप्तः?,शति
यतः-शान्तिकुन्थुअराः जिनाश्चक्रिणोऽपि जाताः, तथा श्रीवीप्रश्नः। उत्तरं तु-(एएमु णमित्यादि) ३६ च कालिकस्य व्यव.
रजीवस्तु त्रिपृष्टनामा वासुदेवोऽपि जात इति । (नव पडि. च्छेदेऽपि पृष्ठे यदपृष्टस्याव्यवच्छेदस्थाभिधानं तद्विपकवापने स.
विराहहि जुय त्ति) ते चतुःपञ्चाशत्तमपुरुषा नवप्रतिविष्णुति विवकितार्थबोधनं सुकरंजवतीतिकृत्वा कृतमिति । (मजिक
नियुताः । ( तेसहिसलागपुरिस भवे ) त्रिषष्ठिः शलाकापुरु. मपसु सत्तसुति ) अनेन 'फस्स कहिं ' इत्यस्योत्तरमवसे.
षा भवन्ति । शलाकापुरुषा इति कोऽर्थः ?-शलाका श्व यम्। तथाहि-मध्यमेषु सप्तस्वित्युक्ते सुविधिजिनतीर्थस्य सुविधिशीतलजिनयोरन्तरे व्यवच्छेदो बनुव, तदृव्यवच्छेदकालश्च
रेखा इव पुरुषाः शनाकापुरुषाः, न कोऽप्यन्यपुरुष ईदृशः
चतुःषष्टितमः । ति गाथार्थः ॥ ३५० ॥ पल्योपमचतुभीगः । एवमन्ये षम् जिनाः, षट् च जिनान्तराणि चाच्यानि । केवलं व्यवच्छेदकालः सप्तस्वप्येवमवसेयः
अथ प्रतिवासुदेवनामान्याह"चउभागो चउजागो, तिमि य चउभाग पलियमेगं च। ।
ते आसंगीवे तारऍ, मेरऍ महुकेढवे निमुंभे य । तिम्मेव य चउभागा, चउत्थभागो य चउभागो ॥१॥” इति । बलि पहलाए तह रा-वणे य नवमे जरासंधी ॥३५॥ ( एत्थ ण ति ) पतेषु प्रज्ञापकेनोपदयमानेषु जिनान्तरेषु अश्वग्रीवः १, तारकः२, मेरकः ३, मधुकैटनः ४, निशुम्नकः कालिक श्रुतस्य व्यवच्छेदःप्रज्ञप्तः । दृष्टिवादापेक्षया वाह-(स- ५, ( बलि पहलाए तह रा-वणे अ नवमे जरासंधो) बलिः ६, व्वत्थ वि ण वोच्चिो दिठिवाए ति) सर्वत्रापि सर्वेष्वपि जि. प्रहादः ७, तथा रावणश्च ८, नवमो जरासन्धः राति गानान्तरेषु, न केवल सप्तस्वेव क्वचित्, कियन्तमपि कावं व्यवः | थार्थः ॥ ३५१ ॥ चिन्नो दृष्टिवाद इति । भ० २०२० ८ ०।
अथ कस्य तीर्थे के चक्रिवासुदेवबलदेवा (२) अथ प्रसङ्गात् द्वादशचक्रिनामान्याह
जातास्तानाहचक्की भरहो सगरो, मघव-सणंकुमर-संति-कुंपु-अरा।
कामम्मि जे जस्म जिस्स जाया, मुत्तूम-महपउम-हरिस--जयनिवा बंजदत्तो य।३४७।
ते तस्म तित्यम्मि, जिरणतरे जे । चक्री-भरतः १, सगरनामा २॥ चक्रिशब्दः प्रत्येकमभिसम्बध्य- नेया उ तेऽतीअजिणस्स तित्थे, ते। मघवा ३, सनत्कुमारः ४.शान्तिः५, कुन्थुः ६, अरनामा ७, निएहि नाहिँ कमेण एवं ।। ३५३॥ (सुभूममहपउमहरिसेण त्ति सुभूमनामा ,महापद्मः दरिषेणः (कालम्मि जे जस्स जिणस्स जाया ते तस्स तिथम्मि १० (जयनिवा बंभदत्तो य) जयनृपः ११, ब्रह्मदत्तश्च १२ । इति त्ति) यस्य जिनस्य काले जिनतीर्थ वर्तमाने ये जाताते गाथार्थः ॥ ३४७ ॥
चक्रिवासुदेवाऽऽदयः तस्य तीर्थ कथ्यन्ते, (जिणंतरे जे, नेयाउ __ अथ नववासुदेवनामान्याह
तेऽती अजिणस्स तित्ये) जिनान्तरे ये जातास्तेऽतीतजिविण्हु तिविङ सुविढू, सयंभु पुरिमुत्तमे पुरिससीहे।। नस्य तीर्थे ज्ञेयाः । ( निहिं नामेदि कमेण एवं) निजैर्नामनिः तह पुरिसघुमरीए, दत्ते लक्खमण काहे य ॥३वना
क्रमेण एवं वक्ष्यमाणरीत्या । इति गाथार्थः ॥ ३५॥ इद(विपहु तिविट्ठ विट्ठ सयनु पुरिसुत्तमे पुरिससोहे) विष्णुः
मुपजातिच्छन्दः । त्रिपृष्टः१, द्विपृष्टः२,स्वयंभूः३, पुरुषोत्तम.४, पुरुषसिंहः५, तथा
दो तित्येस स चक्कि, अह य जिणा, तो पंच केसीजुया, पुरुषपुएमरीकः ६, दत्तनामा ७, लक्ष्मणनामा ८, कृष्णश्च ।। दो चक्काहिव, तिन्नि चक्किअजिणा, तो केसि चक्की हरी । शति गाथार्थः ॥३४८॥
तित्येसो इग, तो सचक्कि-अ जिणो केसी मचक्की जिणो, अथ बलदेवनामान्याह
चक्की, केमवसंजुओ जिणवरो,चकी अ,नो दोजिणा५३ हरिजिट्टनायरो नव, बलदेवा अयल-विजय-जद्दा य ।
(दो तित्थेस सचक्कि अ य जिणा तो पंच केप्तीजुमा) ही मुष्पहसुदंसणाऽऽणं-दनंदणा रामबलभदा ॥ ३४ ॥ तीर्थशौ सचक्रिणौ चक्रवर्तिसहिता, ततोऽष्ट जिनाः,ततः पञ्च. (हरिजिघ्भायरो) विष्णूनां जेष्ठभ्रातरः (नव बलदेवा)। वासुदेवयुताः पञ्च जिनाः। (दो चमाहिव तिन्नि चक्किन जि. नबसंख्या बनदेवा सान्ति । अचलनामा प्रथमः१,विजयनामा हा.तो केसि चक्री हरी)द्वा ततश्चक्राधिपी, ततनयः चाक
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|०००.००००००
(१९७४) तित्थयर अभिधानराजेन्डः।
तित्थयर पो जिनाश्च । ततो वासुदेवः, ततश्चक्री, ततो वासुदेवः । (ति
(८३) तीर्थकरनामान्याहस्थेसो गु तो सचक्किम जिणो केसि ति) तीर्थेश एकः, | जंबुद्दीवे दीवेजारबासे चवीसं तित्यगरा होत्था। तं ततः सचक्री जिनः,ततो वासुदेवः, सचक्री जिनः। (चकी, केस.
जहा-उसन प्रजिअ संभव अनिणंदण सुपा पनमपत्न वसंजुमो जिणवरो,चक्की अ,तो दो जिया) चक्री, केशवसंयुतो जिनवरः, ततश्चक्री, ततो द्वौ जिनौ । इति गाथार्थः ॥ ३५३ ॥
सुपास चंदप्पन सुविहि (पुप्फदंत * ) सीयल सिज्जंस वासत्त०१७. द्वार।
सुपूज्ज विमल भणंत धम्म संति कुंथु अर मद्वि मुणिमुन्वय
णमि मि पास बकुमाणो य ।स। (तीर्थकृतां मातृपितृतीर्थकरः
वासुदेवः चक्रवती
विचारोऽग्रे करिष्यते) ऋषभस्वामी । भरतचक्रवर्ती
(चक्रवर्तिनां सर्वा वक्तव्यता 'चकवट्टि' शब्दे तृतीयभागे अजितस्वामी | सगरचक्रवर्ती
१०६६ पृष्ठतो अष्टव्या) शंभवस्वामी
बलदेववासुदेवपितर:
जंबुद्दीवे णं दीवे भारहे वासे नवबलदेवनपचासुदेवपितरो अन्निनन्दनः
होत्था । तं जहासुमतिनाथ:
“पयावई य बंजो, सोमो रुद्दो सिवो महिसरो य । पद्मप्रभः
अग्गिसीहो य दसरहो,नवमो भणियो य वसुदेवो"18| सुपार्श्वनाथः
वासुदेवमातरःचमप्रभः
जंबुद्दीवे दीवे जारहे वासेणव वासदेवमायरो होत्था। सुविधिनायः
तं जहाशीतलनाथः
“मियावई उमा चेव, पुहवी सीया य अंबिया । श्रेयांसनाथः
त्रिपृष्टः
लच्छिमई सेसमई, केकई देवई तहा ॥ ५० ॥"
बलदेवमातरःवासुपूज्य:
द्विपृष्टः
जंबुद्दीवेणं दीवे जारहे वासे णव बलदेवमायरो होत्था। विमलनाथ:
स्वयं नः तं जहाअनन्तनाथः
पुरुषोत्तमः " भद्दा तह सुभद्दा य, सुप्पना व सुदंसणा। धर्मनाथः
पुरुषसिंहः
विजया वेजयंती य, जयंती अपराजिया ।। ५१ मघवा चक्रवर्ती
एवमीया रोहिणीय, बलदेवाण मायरो"। सनतकुमारश्चक्री
. दशारमएमलानिशान्तिनाथः | शान्तिरेव
जंबुद्दीवे एं दीवे नारहे वासे णव दसारमंमला होत्या।
तं जहा-उत्तमपुरिसा मज्किमपुरिसा पहाण पुरिसा ओयंस। कुन्थुनाथः । कुन्थरेव
तेयसी वचंसी जसंसी बायसी कंता सोमा सुनगा पियदंसअरनाथः अर एव
णा मुरूआ सुहसीला महानिगम्मसमजणण्यणता प्रो. पुरुषपुएमरीका
हबला अतिबला महाबला अनिहता अपराइया सत्तुमद्दणा सुनुमचक्रो
रिपुमहस्समाजमहणा साणुक्कोसा अमच्छरा अचपना अ.
चंमा मियमंजुलपलावहसियगंभीरमधुरपमिपुप्लसच्चवयणा मल्लिनाथः
अन्नुवगयवच्छला सरमा लक्खणवंजणगुणोववेत्रा मुनिसुव्रतः | महापद्मचक्री
माणुम्माणपमाणपमिपुष्पसजायसव्वंगसुंदरंगा ससिसोम्मा
लक्ष्मणः गारकंतपियदंसणा अमरिसणा पयंडदंडप्पयारा गंभीरदनमिनाथः हरिषेणचक्री
रिसणिज्जा तालघओबिगरुलकेऊ महाधणुविकरूया जयचक्री
महासत्तसागरा दुघराधणुधरा धीरपुरिसा जुनकित्तिनेमिनाथः
कृष्णः *"ऋपभो वृषभः, श्रेयान् श्रेयांसः, स्यादनन्तजिदनन्तः । | ब्रह्मदत्तचक्री
सुविधिस्तु पुष्पदन्तः, मुनिसुव्रतसुव्रती तुल्यौ ॥ २० ॥ पार्श्वनाथः
अरिष्टनेमिस्तु नेमिः, वीरश्वरमतीर्थकृत।
महावीरो वर्कमानो, देवार्यों ज्ञातनन्दनः ॥३०॥" बर्द्धमानः
श्त्यभिधानचिन्तामणी पर्यायवाचकाः।
जिनचक्रवर्तिकेशवानां विवरणयन्त्रम्
.
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( २२७५ ) अभिधानराजेन्द्रः ।
तित्थयर
पुरिसा विलकुल समुन्भवा महारयणविहामगा अरूभरहसामी सोमा रायकुलवंसतिलया अजिया अजियरहा इस मुसलक एकपाणी संखचक्कगय सत्तिनंदगधरा पवरुजलसुकंतविमलगोत्थुनतिरीमधारी कुंमल उज्जोइयाणणा पुंमयया एकावलिकंठ लगियत्रच्छा सिविच्छ सुसंबणा वरजसा सव्वोजयसुरनिकुसुमरचितपलंब सोनंत कंत विकसंतचित्तवरमानरश्यत्रच्छा अट्ठसमविजत्तलक्खणपसत्यसुंदर विरइयंगमेगा मत्तगयत्ररिंदल लियविक्कमविलसियगई सारयनत्रत्यरिणयमहुर गंभीर कुंच निम्पोस मुनिस्सरा कढि - सुत्तगनलिपीयको सेज्जवाससा पत्ररदित्ततेया नरसीहा नरवई नरिंदा नरवसहा मरुयवसभकप्पा अन्नहियरायतेयलच्छीपदिष्यमाणा नीलग पीयगवसणा दुवे दुवे रामकेसवा भायरो होत्या । तं जहा - तिविट्टु य० जाव कएहे । अयलो० जावरा य पच्छिमे ।
बलदेव वासुदेवानां पूर्वभवनामानि - एएस णं णवएवं बलदेववासुदेवाणं पुण्वजविया नव नामज्जा होत्या । तं जहा
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" विसनूई पञ्चमए, धणदत्त समुद्ददत्त इसिवाले । पियमित्त ललियमित्ते, पुणन्त्रसू गंगदत्ते य ॥ ५२ ॥ एयाई नामाई, पुव्वनवे आसि वासुदेवाणं । " " एतो बलदेवाणं, जहकमं कित्तइस्लामि ।। ५३ ।। विसनंदी य सुबंधू, सागरदत्ते असोग ललिए य । वाराह धम्मसेणे, अपराइऍ रायल लिए य ।। ५४ ॥ " एतेषां पूर्वभवधर्माऽऽचार्याः
एएसि णं नवहं बलदेववासुदेवाणं पुन्नजविया नव ध म्मायरिया होत्या । तं जहा
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संजू य सुनद्दे, सुदंसणे सेय कऐहॅ गंगदत्ते छ । सागर समुद्दनामे, घुमसे णवमिए होइ ॥ ५५ ॥ धम्माssयरिया कित्ती - पुरिसाएं वासुदेवाणं । पुन्वभवे एसिं, जत्थ नियाणा कासी य ॥ ए६॥ " एतेषां निदानभूमयःएएासे णं नवदं वासुदेवाणं पुव्वनवे नव नियाणभूमीहोत्या । तं जहा - महुरा० जाव इत्थिणा उरं च । निदानकारणानि
एतेसि णं नवहं वामुदेवाणं नत्र नियाणकारणा होत्या । तं जहा - गावी जूए जाव मानुआ ।
एतेषां प्रतिशत्रवः
एसि णं नवं वासुदेवा नव पमिसत्तू होत्या । तं जहा - आसग्गीवे० जाव जरासंधे०जाव सचकेहिं । के क्व यान्तीत्याह"एको य सत्तमीए, पंच य छट्टीएँ पंचमीएको । एको य चत्यीर, कहो पुण तच्चपुढवीए ॥ ५७ ॥
तित्थयर
दिशकमा रामा, सव्वे वि य केसवा नियाणकमा । उषंगामी रामा, केसव सव्वे होगामी ॥ ५८ ॥
तकमा रामा, एगो पुरा बंजलोयकष्पम्मि | एको से गन्नवसही, सिज्जिस्सइ आगमिस्से ||२||" (जंबुद्दीवेत्यादि) दशाराणां वासुदेवानां मएमलानि बलदेववा सुदेवद्वययलक्षणाः समुदाया दशारमण्डलानि, अत एव "डुबे दुबे रामकेसव सि" वक्ष्यति। दशारम एडवाव्यतिरिक्तत्वाच्च बलदेववासुदेवानां दशारमएमबानीति पूर्वमुद्दिश्यापि दशारमहमतव्यक्तिनूतानां तेषां विशेषणार्थमाह-- तद्यथेत्यादि । तद्यथेति बज्रदेववासुदेवस्वरूपोपन्यासाऽऽरस्नार्थः । केचित्तु दशारमण्डना इति । तत्र दशाराणां वासुदेवकुझीनप्रजानां मएमनाः शोभाकारिणो दशारमएमनाः । उत्तमपुरुषा इति । तीर्थकराssati चतुःपञ्चाशत्, उत्तमपुरुषाणां मध्यवर्तित्वाद् मध्यमपुरुत्राः, तीर्थकर चक्रिणां प्रतिवासुदेवानां च बलाऽऽद्यपेक्कया मध्यवर्त्तत्वात् । प्रधानपुरुषास्तात्कालिकपुरुषाणां शौर्याऽऽदिभिः प्र धानत्वात् श्रोजस्विनो मानसबलोपेतत्वात् तेजस्विनो दीप्तशरीरत्वात् वर्चखिनः शारीरबलोपेतत्वात यशस्विनः पराक्रमं प्राप्य प्रसिद्धि प्राप्तत्वात् । (बायंसि चि) प्राकृतत्वात् बायावन्तः शोजायमानशरीराः श्रत एव कान्ताः कान्तियोगात्, सौम्या
रौद्राकारत्वात्, सुनगा जनवल्लभत्वात्, प्रियदर्शनाः चक्कुव्यरूपत्वात् सुरूपा समचतुरस्त्रसंस्थानत्वात्, शुभं सुखं वा सुखकरत्वात् शीलं स्वभावो येषां ते गुजशीलाः सुखशीला वा, सुखेनाभिगम्यन्ते सेव्यन्ते ये शुभशीलत्वादेव ते सुखाभिगम्याः, सर्वजननयनानां कान्ता अभिलाप्या ये ते तथा । ततः पदद्वयस्य कर्मधारयः । श्रोघबलाः प्रवाब्रन्त्राः, अव्यवच्छिन्नवनत्वात् । अतिबलाः, शेषपुरुष बलानामतिक्रमात् । महाबलाः प्रशस्तबलाः, निहता निरुपक्रमाऽऽयुष्कत्वात् युद्धे भूम्यामपातित्वात् अपराजिताः, तैरेव शत्रूणां पराजितत्वात् । एतदेवाऽऽह शत्रुमर्द नाः, तच्छरीरतत्सैन्यकदर्थनात् । रिपुलहस्रमानमथनाः, तद्वाि तकार्यविघटनात् । सानुक्रोशाः, प्रणतेष्वद्रोहकत्वात् । अमत्सराः, परगुणलवस्याऽपि ग्राहकत्वात् । अचपला मनोवाक्कायस्थैर्यात् । अचण्मा निष्कारणप्रबलको परहितत्वात् । मिते परिमिते मज्जुनः कोमलः प्रलापश्चाऽऽला पो हसितं च येषां ते मितमज्जुनप्रलापहसिताः, गम्जीरमदर्शितरोषतोषशोकाऽऽदिविकारं मेघनादवद्वा मधुरं श्रवणसुखकरं प्रति पूर्णमर्थप्रतीतिजनकं सत्यमवितथं वचनं वाक्यं येषां ते तथा । ततः पदध्यस्य कर्मधारयः । अभ्युपगतवत्सलाः, तत्समर्थनशीलत्वात् । शरपात्राणकरणे साधुत्वात् । कणानि मानाऽऽदीनि, वज्र स्वस्तिक चक्राऽऽदीनि वाग्यजनानि तिलकमघाऽऽदीनि तेषां गुणा महर्द्धिप्राप्त्यादयः, तैरु पेताः*शर्कराऽऽदिदर्शनादुपपता युक्ता लक्षणव्यञ्जनगुणोपेताः । मानमुदकद्रोणपरिमाणशरीरता, कथम् ?, उदकपूर्णायां घोण्यां निविष्टे पुरुषे यज्जत्वं ततो निर्गच्छति तद्यदि प्रमाणं स्थातदा स पुरुषो मानप्राप्त इत्यभिधीयते । उन्मानमर्द्धभारपरिमाणता, कथम् ?, तुनाऽऽरोपितस्य पुरुषस्य यद्यभारस्तल्यं जवति तदाऽसावुन्मानप्राप्त उच्यते । प्रमाणमष्टोत्तरशतमगुनानामुच्छ्रयः । मानोन्मानप्रमाणैः प्रतिपूर्णमन्यूनं, सुजातमागर्भाधानात् पालनविधिना, सर्वाङ्गसुन्दरं निखित्रावयवप्रधानम शरीरं येषां ते तथा । शशिवत् सौम्याऽऽकारम रौद्रम बीभत्सं * शर्कराऽऽदिगणस्थत्वात् ।
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(२२७६) तित्थयर अभिधानराजेन्द्रः ।
तित्ययर वा कान्तं दीप्तं प्रियं जनानां प्रमोदोत्पादकं दर्शनं रूपं ये- णप्रशस्तसुन्दरविरचिताङ्गोपाङ्गाः । तथा मत्तगजवरेन्डस्य यो षां ते तथा। (अमरिसण त्ति) अमस्णाः प्रयोजनेष्वनलसाः,
लसितो मनोहरो बिक्रमः सञ्चरणं तहविलसिता संजातबि. अमर्षणा बा अपराधिष्वपि कृतक्षमाः । प्रकाराम उत्कटो
लासा गतिर्गमनं येषां ते मत्तगजवरेन्द्रललितविक्रमविझसिदपमप्रकार प्राशाविशेषो वा येषां ते तथा । अथवा-प्रचएमो
तगतयः । तथा शरदि भवः शारदः, स चासौ नवं स्तनितं रमित दुःसाध्यसाधकत्वाइण्डप्रचारः सैन्यविचरणं येषां ते तथा। ग
यस्मिन्नि?षे सनवस्तनितः, स चेति समासः। स चासो मधुरो म्मीरा असक्ष्यमाणान्तवृत्तित्वेन दृश्यन्ते ये ते गम्भीरदर्शनी.
गम्भीरश्च यः क्रौञ्चनिर्घोषः पक्तिविशेषनिनादः, तद्वद् दुन्दुभियाः। ततः पदद्वयस्य कर्मधारयः । प्रचएमदएमप्रचारेण ये ग
स्वरवञ्च स्वरो नादो येषां ते शारदनवस्तनितमधुरगम्भीरक्रीम्मीरा श्यन्ते । तथा तातो वृक्तविशेषो ध्वजा येषां ते तालव
वनिर्घोषदुन्दुभिस्वराः । इह च शरत्काले हि क्रौचा मायन्ति, जाः बलदेवाः। उद्विक उच्छ्रितो गरुम्लक्षितः केतु जो येषां ते
मधुरध्वनयश्च भवन्तीति शारदग्रहणम । तथा पीतपानी येन श. उद्विरूगरमकेतवो बासुदेवाः। ताम्रध्वजाच उद्विद्धगरुडकेतवश्व
ब्दप्रवृत्ती तादमनोइता तस्य स्यादिति नवत्तनितग्रहणम्, तालध्वजोकिगरुमकेतवः । महाधनुर्विकर्षकाः,महाप्राणत्वाद्
स्वरूपोपदर्शनार्थ मधुरगम्जीरग्रहणमिति । तथा कटोसूत्रमाभ
रणविशेषः, तप्रधानानि नीलानि बलदेवानां, पीतानि वासुदेमहासत्वसकणजन्नस्य सागराइव सागरा प्राश्रयत्वान्महासत्वसागराः । दुर्द्धरा रणाकणे-तेषां प्रहरतां केनाऽपि धन्विना
बानां कौशेयकानि वस्त्रचिशेषनुतानि वासांसि बसनानि
येषां ते कटीसूत्रकनीलपीतकौशेयवाससः। प्रवरदीप्ततेजसो धारयितुमशक्यत्वात् । धनुर्धराः कोदएकप्रहरणाः। धीरेवेवते
वरप्रभावतया वरदीप्तितया च । नरसिंहा विक्रमयोगात् । नरप. पुरुषाः पुरुषकारवन्तो, न कातरेचिति धीरपुरुषाः । युरुजनिता
तयः तन्नायकत्वात्। नरेन्द्राः परमैश्वर्ययोगात्। नरवृषना उत. या कीर्तिस्तत्प्रधानाः पुरुषा युद्धकीर्तिपुरुषाः। विपुलकुलस
क्किप्तकार्ये भारनिर्वाहकत्वात् । मरुकृपभकल्पाः देवराजोपमुजवा इति प्रतीतम् । महारत्नं वजं तस्य महाप्राणतया बिघट
माः, अभ्यधिकं शेषराजेभ्यः राजतेजोल दम्या दीप्यमानाः। का अगुष्ठतर्जनीभ्यां चूर्णका महारत्नविघटकार, वज्रं हि अ.
नीलकपीतकवसना ति पुनर्भणन निगमनार्थम । कथं ते नवेधिकरण्यां धृत्वा अयोधनेनाऽऽस्फोट्यते, न च भिद्यते, तदेव
त्याह-(दुवे वे इत्यादि)एवं च नववासुदेवनवबलदेवा इति। जिन्दन्तीति दुर्मेदं तदिति । अथवा महनीया आरचना साग.
(तिविट्ठ यत्ति ) यावत्करणात्रशटकव्यूहाऽऽदिना प्रकारेण सिसंग्रामयिषोर्महासैन्यस्य, तां रपारकरसिकतया महाबातया च विघटयन्ति वियोजयन्ति ये
"बिराहु तिविट्ट दुबिटु य, सयंतु पुरिसुत्तमे पुरिससीहे । ते महारचनाविघटकाः । पामन्तरेण तु-महारणविघटकाः । प्र.
तह पुरिसपुंडरीप, दत्ते नारायणे कराहे ॥१॥ कंजरतस्वामिनः सौम्या नीरुजः। राजकुलवंशतिलका अजि- अयले विजप नद्दे, सुप्पने य सुदंसणे । सा: अजितरथा हसमुशलकणकपाणयः । तत्र हनमुशो प्रती
आनंदे गंदणे पउमे, रामे यावि अपच्छिमे" ॥२॥ इति । ते, ते प्रहरणतया पाणी दस्ते येषां ते बलदेवाः । येषां तु कण
(कित्तीपुरिसाणं ति) कीर्तिप्रधानपुरुषाणामिति । का वाणाः पाणी ते शार्ङ्गधन्धानो वासुदेवाः । शश्च पाञ्चज.
" महुरा य कणगवत्यू, सावत्थी पोयणं च रायगिई। न्याभिधानः, चक्रं तु सुदर्शननामकं, गदा च कौमोदकीसंज्ञा
कायंदी कोसंबी, मिहिलपुरी हथिणपुरं च ॥१॥" लकुटविशेषः, शक्तिश्च त्रिशूलविशेषः, नन्दकश्व नन्दकाभिधानः
तथापाङ्गः, तान् धारयन्तीति शङ्खचक्रगदाशक्तिनन्दकधराः वासुदे
" गावि जुए संगामे, तह इस्थिपराहओ रंगे । वाः। प्रबरो वरप्रभाबयोगात्,ज्ज्वलःशुक्रवात् स्वच्छतयाचा, जजाणुराग गोही, परदकी माउयाई य" ॥१॥ इति । मकान्तः कान्तियोगात् । पागस्तरे-सकृतः सुपरिमित्वात्। विमलो मलर्जितत्वात, (गोत्युभ ति) कौस्तुभाभिधानो यो "अस्सग्गीचे तार, मेर' महुकेढभे निसुंभे य। मणिविशेषस्तं, (तिरीमं ति) किरीटं च मुकुट धारयन्ति ये ते। वलि पहलाप तहरा-वणे य नवमे नरासंधो॥१॥" तथा कुएमलोद्योतिताननाः। पुएमरीकबन्नयने येषां ते तथा । " एप खलु पमिसन, कितीपुरिसारण वासुदेवाण । एकावली आभरणविशेषः,सा कप ग्रीवायां लगिता विलम्बि. सम्वे वि चकजोदी, सब्वे वि हया सचकेहिं ॥२॥ ता सती बकसि नरसि वर्तते येषां ते एकावलीकएलगित- अणियाणकडा रामा, मव्वे वि य केसवा नियाणकड़ा। षकसः । श्रीवत्साभिधानं सुष्ठ लाइन महापुरुषत्वसूचकं ध.
तुरुंगामी रामा, केसव सब्वे अहोगामी ॥ ३॥"इति । कसि येषां ते श्रीवत्सलाञ्छनाः। वरयशसः, सर्वत्र विख्यात
(आगमिस्सेण ति)आगमिष्यता कालेन । "भागमिम्साणं नि" स्वात् । सर्वतकानि सर्व सम्भवानि सुरभीणि सुगन्धीनि
पागन्तरम् । आगमिष्यतां भविष्यतां मध्ये सेत्स्यन्तीति । स० । यानि कुसुमानि नैः सुरचिता कृता या प्रलम्बा प्राप्रपदी
(८४) तीर्थोत्पत्तिः-- ना (सोभत ति) शोभमाना कान्ता कमनीया विकसन्ती तेवीमाए पढमे, वीए वीरस्स पुण समोसरणे । अवन्ती चित्रा पश्चवर्णा वग प्रधाना माला स्रक रचिता संघा? पढमगणहरोश, मुयं च ३तित्थं समुप्पन्नं ॥२०६।। निहिता, रतिदा वा सुखकारिका, वकसि येषां ते सर्वर्तुकसुर- त्रयोविंशतिीजनानां प्रथमतमवसरणे तीर्थ समुत्पन्नम्. वारस्य भिकुमुमचितप्रलम्बशोजमानकान्तविकसच्चित्रवरमालारचि
पुनर्वितीये समवसरणे तीर्थ समुत्पन्नम् । तीर्थ नाम प्रवचनं, तवक्षसः । तथा अपशतसंख्यानि विभक्तानि विविक्तरूपाधि
तच्च निराधारं न भवति, तेन साधुमाधीश्रावकश्राविकारूप: पानि सणानि चक्राऽऽदीनि तैः प्रशस्तानि मङ्गल्यानि सुन्द- चतुर्वणः संघः। तथा प्रथमगणधर आद्यगणभृन्, श्रुतं द्वादशाराणि च मनोहराणि विरचितानि विहितानि (अंगमंग त्ति) ड्रीरूपम, पतस्वयरूपं तीथ ममुत्पन्नम् । सत्त. १०० द्वार। अङ्गोपाङ्गानि शिरोऽगुल्यादीनि येषां तेऽष्टशतविजत्तलक- मा.म।
तथा--
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तित्थयर
(८५) निर्गमनकालं प्रतिपादयन्नाह -
पासो रहनेमी, सेज्जसो सुमति मलिनाथो य ।
पक्ष
(६) दर्शननामानि
"
पुत्र विक्ता, सेसा पुण पच्चिमएडम्पि || २१०|| पार्श्वनाथ यांसः सुमतिमहिनामा तीर्थकृतः पूर्वाह्णे निष्क्रान्ताः । शेषाः पुनः श्रीषजस्वामिप्रभृतयः पश्चिमाहे निष्क्रान्ताः । श्र० म० १ ० १ खएम । चाइस संखं वेतिअनाहि आय बुकाएं। सेसियाविषय, इमाई सग दरिसलाई कपा ।। १३६ ।। तिने उस विरथे जाया सीयलस्स ते दुखि । दरिस मेगं पास-स्स सत्तमं वीरतित्थम्मि ॥ ३४० ॥ (जस) जैम ३ (विश्वनादिआणणंति) वेदान्तिकानां मतं ४ नास्तिकानां मतं ५ बौद्धमां मतम् ६ (सेसिव वैशेषिकानामपि म७२माई समदरिया कमा) मानव दर्शनानि कमादनुक्रमेण भवन्तीति गाथाऽर्थः ॥ ३३६ ॥ ( तिनि उसहस्स तित्थे जाया
"
ति) पूर्व गाथास्य पर्तिकमशब्दस्ह संबन्धादाद्यानि त्रीणि दर्शनानि ऋपनतीर्थे जातानि ३ । ( सीयलस्स ते नि ) शीतलस्य तीर्थ ते घे दर्शने, तदग्रे चतुर्थपञ्चमे जाते ५, ( दरिणमे पास) एक दर्शनं पार्श्वस्य ६ (समं वीरम) दर्शन वरती संजातमिति गाथाऽर्थः ॥ ३४० ॥ सत्त० १६८ द्वार । दोकानक्कत्राणि व्यवनवत् । सप्त० ६० द्वार । (09 ) व्रतपर्यायः -
( २२७३ )
अभिधानराजेन्द्रः ।
उसभस्स पुव्वलक्खं, पुर्वगुणमज्जियस्स तं चैव । चउरंगुणं लक्खं, पुणे पुणो जाव सुविहिति ॥ ( श्रस्मिन्नेव शब्दे २२६४ पृष्ठे पूर्व केवलि पर्याये व्याख्यातैषा) पणवीसं तु सहस्सा, पुत्राणं सीयलस्स परियायो । लक्खा एकवी, सिसनियस्स वासाणं ॥ चउपन्न पन्नारस, ततो अमाई लक्खाई। अड्डालाई ततो बाससहस्सा पानी ।। ते च सहस्सा, सवाणि अरूमाथि य इति । इगीसं च सहस्सा, वाससऊणा य पणपन्नं ॥ अडमा सहस्सा, अजाई सत्तय सयाई । सयरी विचत्तवासा, दिक्खा कालो जिविंदाणं ॥ पविशतिः सहस्राणि शीतलस्य पर्यायो व्रतपर्यायः श्रेयांस जिनस्य बर्षाणां लक्काल्पेकविंशतिः । वासुपूज्यस्य न्रणि विमलनाथस्य पम्याणि । ततोऽनन्तरमनन्तजितोऽश्मानि सर्वानि वर्षाणि व्रतपर्यायः । धर्मनाथस्याईतृतीयानि वर्षशतसहस्राणि । शाविनाथस्य पञ्चविंशतिखाणि कुन्युनाथस्य योनिवर्षसहस्राणि शतानि चाष्टमानि । श्ररस्वामिन एकविंशतिसदस्राणि मशिनाथस्य शतानि ऋषि मुनिसुव्रतस्वामिनोमानि नमि
1
I
५७.
तित्थयर
नाथस्यानृतीयानि वर्षशतानि परिने सप्त शतानि । पार्श्वनाथस्य सप्ततिर्वर्षाणाम् । वर्धमानस्वामिनो द्वाचत्वारिं शत् । एष यथाक्रमं जिनेन्द्राणामृषभाऽऽदीनां दीका कालो व्रतपर्यायः । आ० म० १ अ० १ खराम ।
दीक्षातयःविखताऽसोगतस्तो सम्बे (१५७) सर्वे २४ जिना अशोकतरोरधो निष्कान्ताः । सत्त० ६० द्वार । (८) संप्रति यो येन तपसा निष्क्रान्तस्तदनिधित्सुराहसुमइत्थ निवभचेण निग्गतो बायुपुन (जियो) चोत्येण । पासो मल्लीविया - इमेण सेसा न छट्ठेणं ॥ ३८७ ॥
सुमतिरत्र-अस्यामवसर्पिण्यां चतुर्विंशतितीर्थकृत्सु मध्ये नित्यमक्केनानवस्तमतेन निष्क्रान्तः वासुपूज्यतुन ए केनोपचा सेनेत्यर्थः पार्श्वनाथ मस्त्रिरपि चाटमेन त्रिभिरुपतासैः । शेषास्तु रूपभस्वामिप्रभृतयः पठेन द्वाभ्यामुपवासाभ्यां निष्क्रान्ताः । श्र० म० १ ० १ एक ती० स० । (८) कापरिवार:
एगो भगवं वीरो, पासो मन्त्री य तिहिँ तिर्हि सरहिं जगवं पि वासुपुज्जो, बहिँ पुरिससहिँ निक्खतो ३८५ ।। उग्गाणं जोगाणं, रायमाणं च स्वत्नियाणं च ।
"
सहसेहिँ उस हो, सेसा उ सहस्सपरिवार ।। ३८६ ॥ तत्र एको भगवान् वीरो वर्द्धमानस्वामी प्रवजितः, न केनापि सद् तेन गृहीतमित्यर्थः पार्श्वनाथ भगवांस भिस्त्रिभिः शतैः सह व्रतमग्रहीत्। अत्र च मल्लिस्वामी स्त्रीणां पुरुषाणां च प्रत्येकं त्रिभिस्त्रिभिः शतैः सह प्रवजितः, ततो मिसितानि पद शतानि भवन्ति यत्सूत्रे नियुकं तत्र केवलाः स्त्रियः पुरुषा वा गृहीताः, द्वितीयः पुनः पक्षः सन्नपि न विवक्षित इति सम्प्रदायः स्थानाङ्गीकायामप्युकम-महिजनः स्त्रीशतैरपि त्रिनिरिति । भगवानपि वासुपूज्यः षग्निः पुरुषशतैः सद् निष्क्रान्तः, संसारकान्ताराभिर्गतः प्रव्रजित इति यावत् || ३८५ ॥ (" वासुपुजे णं रहा बर्दि पुरिससपाहिं मुंडे प्रवित्ता।" स्था० ६ वा० ) उप्राणामारककस्थानीयानां भोगानां
प्राणां राजन्यानां प्रियायां त्रियाणां सामन्ताऽदीनां सर्वसिस रुपभाजिनः प्रथमो जिनो निष्कान्तः तं जयार्थः शेषास्तु वीरपार्श्वमवासुपूज्य नाव्यतिरिकजना अजिताऽऽदय एकोनविंशतिः सहस्ररिवारा पुरुषसहस्रसहिताः प्रायाजिरिति ॥ ३०६ ॥ ३१ द्वार । आ० म० । स० । सत्त० ।
( ए०) दीकापुरम - सो विणीयाए, बारवईए रिवरणेमी । बसेसा विश्वपरा निक्खता जम्मभूमी ॥ इषभस्वामी भगवान् विनीतायां नगर्य्यो निष्क्रान्तः द्वारबत्यामरिष्टनेमिः अवशेषा अजितस्वामिप्रनृतस्तरानकान्ता जन्मभूमिषुः यत्र जातास्तत्र निष्क्रान्ता इति भावः । श्रा० म० १ ० १ खण्म । स० । सत्त० । दोहासमये मन:पर्ययज्ञानम
जायं च चत्थ मनाएं || ( १५० )
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(२२७८) अभिधान राजेन्द्रः |
तित्थयर
दीक्षायां गृहीतायां तस्मिन् समये सर्वेषां जनानां चतुर्थ मनः पर्यवज्ञानं जातम् । सत्त० ११ द्वार । (२) दामासादयः
जम्पं व मासपक्खा, नवरं सुवयस्स सुद्धफरगुणिश्रो । नमिवीराण वयम्मी कसिया आसादपम्गसिरा ।। २४६ ।। अमि नवमी भय, दृदसि नवमि तेरसीविंगं उडी । बारसि तेरसि पनरसि, चउत्थि चउदसि य तेरसिया | २४७ | चन्दसि पंचमिगारस, एगारसि बार सय नवमि बट्टी य गारसि दसमितिदी, वयम्पि उमरासि पुष्पं व॥२४८॥ व्रतमासाऽऽदिनक्षत्राणि राशयश्च कथ्यन्ते । ( जम्मं व मासपक्ख चि) जन्मवद्र मासपक्काः - जन्म कल्याणके ये मासाः पक्षाश्च कथिताः दीयाकेऽपि स एव या इत्यर्थः । (नवरं ति एतावान् विशेषो शेयः - ( सुत्रयस्स सुद्धफग्गुणिश्रोति ) सुव्रतस्य मुनिसुव्रतस्य मते फाल्गुनिको मानमिवीरा वयम्मि त्ति ) नमिजिनकार जिनयोर्व्रते (कसिणा श्रसादमग्गसिर चि) कृष्णावाषाढमार्गशीर्षी, तत्र नमिजिनस्य व्रते कृष्ण आषाढमासः । श्रीवीर जिनस्य व्रते कृष्णो मार्गशीर्षमासः । इति गाथाथेः ।। २४६ मि नवमी निम) मी नवमी, पूर्णिमा (दसि न तेरसी तिर्म बट्टी) द्वादशी त्रिकम्, पछौ (बारसि तेरसि पनरास) द्वादशी १० त्रयोदश ११ अमावास्या १२ चा चलि तेरसिया) चतुर्थी १३ चतुर्दश च १४ त्रयोदशिका १५ । इति गाथार्थः ॥ २४७॥ (चदपिंचमिगारसि) १६ पञ्चमी १७ एकादशी १८ (पारस वारस नवमि उठी) एकादशी १६ द्वादशी २० नवमी २१ षष्ठी २२ ( पगारसि दसमि तिही) एकादशी २३ दशमी २४ तिथिः। (वयम्मि नसुरासि पुत्रं व ति) व्रते नक्षत्रराशयः पूर्ववत् श्रासी जम्मे दिख जा बि" इति पूर्वमुकरबाद ये व्यवनसमये पोते
त पव ज्ञेयाः । इति गाथार्थः ॥ २४८ ॥ सच० ५९ द्वार | दीवाराशियवनवत् । सत० ६१ द्वार ।
दीकालिम
न नाम अन्नलिंगे, न य गिहिलिंगे कुलिंगे वा ॥
सर्व एव तीर्थकृतस्तीर्थकरालिङ्ग एव निष्कान्ताः, न तु नाम अन्यलिने, गृहिलिङ्गे, कुलिङ्गे वा । मा० म० १ ० १ खयम | (अन्यलिङ्गाऽऽद्ययऽन्यत्र )
दीकालो चमुष्टिः
कयपंचमुडियोमा, सहो चठमुट्ठिकयलोओ । (२५०) कृतपञ्चमुष्टिलोचास्त्रयोविंशतिर्जिनाः, ऋषभः चतुर्मुष्टिकृतलोचो जातः । सत० ६६ द्वार ।
दीक्कावनानिउसनो सिकरवण-मासु विहारमिदगम्बि । धम्मो य वप्पगाए, नीलगुहाए मुणी नाम || आसमपपप पासो, वीरजिनिँदो य नापसंदपि । अवसेसा पव्वइया, सहसंववणम्मि उज्जाणे || ऋषभः पत्रस्वामी सिद्धार्थने याने निष्क्रान्तः, वासुपूज्यो विहारगृह के बिहारगृहका निधाने उद्याने; धर्मो धर्मस्वामी भगवान् वप्रगायां प्रगाभिधाने उद्याने । तथा च वक्ष्यति
तित्थयर
"साला सुखासु पश्या" एवं नीगुड़ायां नीलगुहा निधाने उद्याने मुनिनामा मुनिसुवामा तीर्थकरो निष्ातः । तथा आश्रमपदे श्राश्रमपदाभिधाने उद्याने पार्श्वनाथ निष्क्रान्तः; वीरजिनेन्द्रो ज्ञातखपमे ज्ञातखरामा भिने उद्याने अवशेषा प्रजितस्यामिप्रभृतयस्तीकराः सहस्रा स्रवणे निष्कान्ताः । आ० म० १ ० १ खराम ।
।
यस्मिन्वयसि निष्कान्तास्तदभिधसुराबीरो अरिनेमी, पासो मझी य वासुपूज्यो । पदमव पव्वइया, सेमा पुरा मज्जिमवयम्पि || वीरो महावीरः, मरिष्टनेमिः, पार्श्वनाथो, मतिर्वासुपूज्य इत्येते पच तीर्थतः प्रथमकुमार प्रजाः शेषा पुनः ऋषभस्वामिप्रभृतयो मध्यमे वयसि यौवनलक्षणे वर्त मानाः प्रव्रजिताः । श्र० म० १ २०२ खएम । (९२) शिक्षिका
सिं चहब्बीसार तित्वगराणं चम्बी सीमाओ होरथा । तं जहा
"सीया सुदंसणा सुभाव सिद्धस्य सुपसिद्धा व विजयाय वैजयंती, जयंति अपराजिया चैव ॥ १४ ॥ रुपन चंद, सूरप्पन असिया चैव । विमला य पंचवद्या सागरदत्ता य यागदचा य ||१५|| जयकरा निव्वुकार, मणोरमा तह मणोहरा चैत्र । देवकुर उत्तरकुरा विसाल चंदष्पभाई य ।। १६ ।। एमओ सीआओ, सच्चेसिं चेत्र जिणवरिंदाणं । सव्वजगवच्छलाणं, सब्बोजयसुखयछायाए ॥ १७ ॥ पुओिस्त्रिया पशु-मेहिं साइडरोमकूपेहिं । पच्चा वहति सीयं, सुरिंदसुरिंदनागिंदा ॥ १८ ॥ चललकुंडलचरा सच्छेदविकुब्वियाभरणधारी । सुरसुरवंदियाणं, वहति सी जिपिदा || १ || पुरओ हवंति देवा, नागा पुण दाहिणम्मि पासनि । पञ्चच्चिमेण असुरा, गया पुण उत्तरे पासे " ॥ १० ॥
वोपज्ञावासिया सर्वेषु शरदादिषु ऋतुषु सुखदया बायया प्रभया श्रातपाजावत कृणया वा, युक्ता इति शेषः । तथा-( सा हट्टरोमकूपहिं ति ) सा शिविका
जिनोऽध्यावः दृष्टरोमकूपैरुषितमभिरित्यर्थः । तथा (चलचवनकुंमलधर त्ति ) चन्नाश्च ते चपवकुएमलधराश्चेति वाक्यम् । तथा स्वच्छन्देन स्वरुच्या विकुर्वितानि याभ्याभरणानि मुकुटादीनि तानि धारयन्ति ये ते तथा । श्रसु रेन्द्राऽऽदय इति योगः । (गरुन चि) गरुडध्वजाः सुपर्णकुमारा इत्यर्थः । स० । सत्त० |
(१३) महकुमारीस्थानान्याद दिकुमारिका नाम-दिक्कुमारजवनपतिविशेषजातिजा देव्यःमेरुलोया, चनदिसि रुपगान अट्ठ पत्ते । चविदिमिरुगा, इंती छप्पन्न दिसिबुमरी । १०१ । (मेरुदतोय ( ) मेरोरघोलोकात् १, ऊर्द्धलोका
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(१७५) तित्थयर अन्निधानराजेन्द्रः।
तित्थयर स् २ । तत्र अधोलोक गजदन्तगिरिचतुष्टयस्याधस्तादष्टानां हिताभिः,सप्तभिरनीस्त्यश्वरथपदातिमहिषगन्धर्वनाट्यरूदिककुमारीणां भवनानि सन्ति । एतच सामान्यमात्रेणेव | पैः, सप्तभिरनीकाधिपतिभिः, षोमशविरात्मरक्षकदेवसरिस्थानमुक्तम् । विशेषेण तु संप्रदायगम्यम् । तथा-ऊर्द्ध सोके मेरोरु- त्यादिकं सर्व विजयदेवाधिकार श्व व्यास्येयम् । ननु कासाञ्चिपरि नन्दनवने अष्टौ कूटानि सन्ति । तेषामुपरि अष्टानां दिक्कु- दिक्कुमारीणां युक्त्या स्थानाले पल्योपमस्थितेमणनात् समा. मारीणां भवनानि सन्ति । (चउदिसि रुयगाउ ति) चतुर्दि
नजातीयत्वेनासामपि तथा नूतायुषः सजाव्यमानत्वाद् प्रवनगर्तिरुचकात् रुचकादिक्चतुष्टयादित्यर्थः । (अह पत्ते
पतिजातीयत्वं सिरूम, तेन भवनपति जातीयानां चानमन्तरजायं ति) पतेभ्यः षट्स्थानकेभ्यः प्रत्येकमष्टावष्टौ समागच्छ- तीयपरिकरः कथं संगच्छते ?। उच्यते-पतासां महर्द्धिकत्वेन न्ति । एवमएचत्वारिंशद् दिककुमार्यों जाताः । (चउ विदिसि
ये आज्ञाकारिणो व्यन्तरास्ते ग्राह्या इति । अथवा-बानममकरुयग त्ति ) चतम्रो विदिकरुचकात्, रुचकगिरिविदि
न्तरशन्देनाऽत्र बनानामन्तरेषु चरन्तीति यौगिकार्यसंश्रयगज्य इत्यर्थः। चतम्रो मध्यरुचकान्तात् रुचकद्वीपमध्यादित्य
णाद् भवनपतयोऽपि वानमन्तरा इत्युच्यन्ते । उभयेषामपि यः। (इंती उप्पन्न दिसिकुमरी) आगच्छन्ति एवं षट्पञ्चाशद्
प्रायो वनकूटाऽऽदिषु विहरणशीलस्वादिति सम्नाव्यते । तथं दिककुमार्यः। इति गाथार्थः ॥ १०१ ॥ सत्त० ३३ द्वार।
तु बहुश्रुतगम्यामिति सर्व सुस्थम् । अथैतासां नामान्यादअधोलोकवासिन्योऽयकुमार्यः
(तं जदा इत्यादि ) तद्यथा-"नोगंकरा" इत्यादि । रूपकमेजया णं एकमेक्के चक्कट्टिविजए जगवतो तित्थयरा स
त कराव्यम् ।
पतासामासनानि चलन्तिमुप्पाजंति, तेणं कालणं तेणं समएणं अहोलोगवत्थव्वाश्रो
तए णं तासिं अहोलोगवत्यव्वाणं अट्ठएहं दिसाकुमारीअफ दिसाकुमारीओ महत्तारामो सहि सरहिं कृमेहि
णं महत्तरिाणं पत्ते पत्तेअं आसणाई चलंति । तए णं सरहिं सरहिं जवणोहिं सएहिं सरहिं पासायवमेंसएहिं प
ताओ अहोरोगवत्थवाओ अट्ठ दिमाकुमारीओ महत्तरितेमं पत्ते चरहिं सामाणिअसाहस्सीहिं चनहिं महत्त
आयो पत्तेमं पत्तेअं आसणाई चलिआई पासंति, पारिश्राहिं सपरिवाराहिं सत्तहिं अपीएहिं सत्तहिं अणी
सित्ता प्रोहिं पति, पलंजित्ता जगवं तित्थयरं ओहिणा आहिवईहिं सोनसरहिं आयरक्खदेवसाहस्सीहिं अप्लेहि अ
आनोएंति, भानोएत्ता असमान सदाति, सद्दाविना बहिं वाणमंतरेहिं देवेहिं देवीहि अ सकिं संपरिखुडाओ
एवं वयासी-उप्पले खलु नो ! जंबुद्दीवे भयवं तित्थयरे, महयाहयणगीअवाइसजाव जोगभोगाई नजमाणी
तं जीयमेअं-तीअपच्चुप्पाममणागयाणं अहोलोगवत्थव्वाओ विहरति । तं जहा
णं अट्ठएडं दिसाकुमारीमहत्तरियाणं जगवो तित्थयर"भोगकरा १ भोगवई, सुनोगा ३ नोगमालिनी ।। स्स जम्मणमहिमं करित्तए, तं गच्छामो णं अम्हे वि भगतोयधाराए विचित्ता य ६,पुप्फमाला अणिदिया"। वो तित्थगरस्स जम्मणमहिमं करेमो त्ति कट्टु एवं वयं( तेणं कालेणं इत्यादि ) तस्मिन् काले संजयजिनजन्म- ति, वइत्ता पत्ते पत्तेअं प्राभिमोगिए देवे सद्दावेंति, के भरतैराबतेषु तृतीयचतुर्थारकनवणे,महाविदेहेषु चतुर्या. सद्दावेत्ता एवं वयासी ॥ रकप्रविभागलकणे, तत्र सर्वदाऽपि तदाद्यसमयसहशकालस्य अर्थताखेबं विहरन्तीषु सतीषु किं जातमित्याह-(तप णविद्यमानत्वात् । तस्मिन् समये सर्वत्राप्यरात्रलकणे, ती.
मित्यादि) ततस्तासामधोलोकवास्तव्यानामष्टानां दिपकुमायंकराणां दिमध्यरात्र एव जन्मसंभवात् । अधोलोकवास्त
रीणां महत्तरिकाणां प्रत्येक प्रत्येकमासनानि चलन्तीति । व्याः, चतुर्णा गजद-तानामधः समभूतवाद् नवशतयोजनक
अयैताः किं किमकार्षरित्याह-(तए णमित्यादि) तत मापां तिर्यगलोकव्यवस्थां विमुच्य प्रतिगजदन्तं द्विद्विजावेन
सनप्रकम्पानन्तरं ता अधोवास्तव्या अष्टौ दिमार्यो मदतत्र भवनेषु वसनशीलाः । यत्तु गजदन्तानां षष्ठपञ्चमकूटेषु
तरिकाः प्रत्येक प्रत्येकमासनानि चलितानि पश्यन्ति, दृष्ट्वा पूर्व गजदन्तसूत्रे पासा वासः प्ररूपितः, तत्र क्रीमार्थमागमनं
चाऽवधि प्रयुञ्जन्ति, प्रयुज्य भगवन्तं तीर्थकरमवधिना आहेतुरिति,प्रासामपि चतुःशतयोजनाऽऽदिपञ्चशतयोजनाऽऽदि
भोगयन्ति, आभोग्य च अन्यमन्यं शब्दयन्ति, शब्दयित्वा च पञ्चशतयोजनपर्यन्तोच्चत्वगजदन्तगिरिगतं पञ्चशतिककटग
एवमवादिषुः । यदवादिषुस्तदाद-(उप्पम्मे इत्यादि) उत्पन्नः तप्रासादावतंसकवासित्वेन नन्दनवनकूटगतमेघराऽऽदिदिक
स्खलु भो! जम्बूद्वीपे जगवांस्तीर्थकर तज्जीतमेतत्कटप एषोऽतीमारीणामिबोद्धलोकवासित्वाऽऽपत्तिः। अथ प्रकृतं प्रस्तुमः
तप्रत्युत्पन्नानागतानामधोलोकवास्तव्यानामष्टानां दिक्कुमारीअष्टौ दिककुमार्यों दिककुमारा भवनपतिजातीयाः, महत्त.
महत्तरिकाणां भगवतो जन्ममहिमां कतु, तमच्कामो वयमपि रिकाः स्ववर्गेषु प्रधानतरिकाः, स्वकेषु स्वकेषु कुटेषु गजद
भगवतो जन्ममहिमा कुर्म इति कृत्वा, धातूनामनेकार्थत्वान्ताऽऽदिगिरिवर्तिषु,स्वकेषु स्वकेषु जवनेषुजवनपतिदेवाऽऽवा. सेषु,स्वकेषु स्वकेषु प्रासादावतसकेषु स्वस्वकूटवर्तिकीडाऽऽ.
निश्चित्य मनसा एवमनन्तरोक्तं वदन्ति, उदित्वा च प्रत्येक
प्रत्येकमाजियोगिकान् देवान् शब्दयन्ति, शब्दयित्वा चैव. बासेषु। सूत्रेषु च सप्तम्यर्थे तृतीया प्राकृतत्वात् । प्रत्येक प्रत्येक चतुर्भिः सामानिकानां दिक्कुमारिसरशद्युतिविभवाऽऽदिकदे
मवादिषुः। वानां सहस्रः,चतसजिव महत्तरिकाभिर्दिककुमारिकातुल्यवि
किमवादिषुरित्याहभवाऽऽदिभिस्ताभिरनतिक्रमणीयवचनाभिश्च स्वस्वपरिवारस- खिप्पामेव जो देवाणुप्पिा ! अणेगखंजसयसमिविटे
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( २२५० ) अभिधान राजेन्द्र
तित्ययर
झील प्रि० एवं विमाणवाओ भाणिव्वो० जाव जोणवित्थि दिव्वे जाणत्रिमाणे विनुव्वेद, विजच्चित्ता ए माणचि पश्चप्पियह। तर णं ते नियोगा देवा अणेगखंभसय० जाव पञ्चप्पियंति ।
( विप्पामेव इत्यादि ) भो देवानुप्रियाः ! क्षिप्रमेवाअनेक स्तम्भशतसन्निविष्टानि लीलास्थितशालनजिकानीस्येवमनेन क्रमेण विमानवर्णको गणितव्यः । स चायम्"ईहामिगत सभतुरगणर मगर बिहगवाल किन्नररुरुसरभचमरकुंजरवणलय पर मलयभत्तिचित्ते संभुमायवरवइरवेइआपरिगयाभिरामे किज्जाहर जमवजुअल जंतजुत्ते विब अचीसहरुसमालणी रुगसहस्सकलिए भिसमाणे निम्भिसमाणे चखुल्लोश्रणलेसे सुहफा से सस्सिरीश्ररूवे घंटाचलियमहुरमहरसरे सुभे कंते दरिसणिजे पिठोचियमिसिमिसंतमनिरयण घटिश्राजालपरिक्खिसे । " कियत्पर्यन्तमित्याहयावद्येोजनविस्तीर्णानि दिव्यानि यानायेष्टस्थाने गमनाय विमानानि, अथवा यानरूपाणि वाहनरूपाणि विमानानि यानविमानानि विकुर्वत - वैक्रियशक्त्या संपादयत, विकुर्वित्वा एतामाप्तिं प्रत्यर्पयत । अथ यानवर्णकव्याख्या प्राभ्वद् ज्ञेया, तोरणाऽऽदिवर्णकेषु पतद्विशेषणस्य व्याख्यातत्वात् । ततस्ते किं चक्रुरित्याह - ( तर समित्यादि ) ततस्ते आभियोगिका देवा अनेकस्तम्भशतसंनिविष्टानि यावदाज्ञां प्रत्यर्पयन्ति ॥ अथैताः किं कुर्वन्तीत्याद
तए णं ताओ होलोगवत्थव्वा श्र दिसाकुमारिमहत्तरिश्राश्रो पत्ते पत्ते चहिं सामाणिप्रसा इस्सीहिं चउहिं महत्तरिमाहिं० जात्र श्रहिं बहूहिं देवेहिं देवीहि सद्धि संपरिवुमा ते दिव्बे जाणवि माणे दुरूइंति, दुरूहिता सन्बिठ्ठीए सन्चजुईए घणमुईगपणवपवाइअरवेणं ताए उक्किट्ठाए० जाव देवगईए जेणेब भगवओ तित्थगरस्स जम्मणणगरे जेणेव तित्थयरस्स जम्मणजवणे, तेणेव उवागच्छंति, उनागच्छित्ता भगवओतित्ययरस्स जम्मशजवणं तेहिं दिव्वहिं जाए बिमारोहिं तिक्खुत्तो याहिणपयाहिणं करेंति, करित्ता उत्तरपुरचिमे दिसीनाए ईसिं चउरंगुलमसंपत्ते घरणिश्रले ते दिव्वे जाणविमा ठर्विति, ववित्ता पत्ते पत्ते चउहिँ सामाणि साहस्से हिं० जाव सद्धिं संपरिवुमाओ दिहिंतो जाणविमाणेहिंतो पच्चोरुति, पच्चोरुहित्ता सव्किीए० जाव णाइएवं जेणेव भगवं तित्थयरे तित्थयरमाया य तेथथेोव जवागच्छति, उवागच्छंतित्ता भगवं तित्ययरमायरं च तिक्खुत्तो याहिणपयादिणं करेंति, करिता पत्ते पत्ते करयल पारेग्गहि सिरसावत्तं मत्थर अंजलि कट्टु एवं बयासी ।
"तरं ताओ" इत्यादि । ततस्ता अधोलोकवास्तव्या श्रष्टौ दिक्कुमारी महत्तरिकाः हतुत्याद्येकदेशदर्शनेन संपूर्ण श्र लापको ग्राह्यः । स चायम् - "हट्ठतुट्ठचित्तमादिश्रा पीश्रमणा प
तिरथयर
रमसोमसिआ दरिसवलविलप्यमाणहिअया विअसिअवरकमलनयणपचत्रिश्रवरकम गतुमिकेऊर मउडकुंडलदारविरायंतरभवच्चा पासंबप लंबमाण घोसंतभूसणधरा ससंजम तुरि चवलं सीहासणाश्रो अन्ठेति, अब्भुठित्ता पायपढाओ पच्चोरुहंति, पच्चोरुहिता " इति । प्रत्येकं प्रत्येकं चतुर्भिः सामानिकसहस्रैः चतसृभिश्च महत्तरिकाभियवदन्यै बहुभिर्देवैदेवीभिश्च सार्द्ध संपरिवृताः तानि दिव्यानि यानविमानान्यान रोहन्ति । भारोहेणोत्तरकालं येन प्रकारेण सूतिकागृह मुपतिष्ठन्ते तथाऽऽह - ( पुरुदित्ता इत्यादि) श्ररुह्य च सर्वट्र्य सर्व
त्या घनमृदङ्गं मेघवद्गम्भीरध्वनिकं मृदङ्गं पणवो मृत्पटहः, उपलक्षणमेतते नान्येषामपि तूर्याणां संग्रहः । एतेषां प्रवादितानां यो वस्तेन तथा उत्कृष्टया यावत्करणात् -" तुरिश्राए चबलाए " इत्यादि पदसंग्रहः प्राग्वत् । देवगत्या यत्रैव भगवतस्तीर्थकरस्य जन्मनगरं यत्रैव च तीर्थकरस्य जन्मजवनं तत्रैवोपागच्छन्ति, उपागत्य च भगवतस्तीर्थकरस्य जन्मभवनं तैर्दिव्यैर्यानविमानैस्त्रिः कृत्व श्रादक्षिणप्रदक्षिणां कुर्वन्ति, श्रीन् वारान् प्रदक्षिणयन्तीत्यर्थः । त्रिःप्रदक्षिणीकृत्य च उत्तरपौरस्त्ये दिग्नागे ईशानको ईपश्चतुरङ्गुलम संप्राप्तानि धरणितले तानि दिव्यानि यानविमानानि स्थापयन्तीति । अथ यश्चक्रुस्तदाह- स्थापयित्वा च प्रत्येकं प्रत्येकम, श्रष्टावपीत्यर्थः । चतुर्भिः सामानिकसहस्रैर्यावत् साई संप रिवृता दिव्येभ्यो यानविमानेभ्यः प्रत्यवरोहन्ति, प्रत्यव रुह्य च सर्वद्वर्या, यावच्छब्दात् सर्वद्युत्यादिपरिग्रहः । किन यत्पर्यन्तमित्याह--" संखपणव भेरिझलरिखर मुहिहुडुक्क मुरजमुंगडुं दुहिनिग्यो सनाइएणं ति । " यत्रैव भगवांस्तीर्थकर स्तीर्थकर माता च तत्रैवोपागच्छन्ति, उपागत्य च भगवन्तं तीर्थकर तीर्थकरमातरं च त्रिः प्रदक्षिणयन्ति त्रिः प्रदक्षिणीकृत्य च प्रत्येकं प्रत्येकं करतलपरिगृहीतं शिरस्यावर्त्त मस्तके अजा कृत्वा, एवं वक्ष्यमाणमवादिषुः ।
तदाह
एमोऽत्थु ते रयणकुच्छिधारिए ! जगप्पईत्रदीविए ! सव्वजमंगलस् चक्खु मुत्तस्म सव्वजगजीववच्छ लस्स हिप्रकारगमग्गदे सिवागिनि विनुष्पभुस्स जिणस्स लाहिस्स नायगस्स बुद्धस्स बोहगस्स सव्वलोगनाहस्स निम्ममस्स पवरकुलसमुब्भवस्स जाईए खत्तिस्स जं सि लोगतमस्स जी, धामि तं कयत्या सि, अम्हे देवाणुपिए ! अहोलोगवत्यव्त्राओ ग्रह दिसाकुमारीमहत्तरिआओ जगवओो तित्थगरस्स जम्मणमहिमं करिस्सामो, ते तुन्नहिं ण जावं ति कट्टु उत्तरपुरच्छिमं दिसीजागं अवकमंति ।
( नमोऽथु ते इत्यादि ) नमोऽस्तु ते तुभ्यं, रत्नं भगवलकणं कुक्की धरतीति रत्नकुक्तिधारिके ! | अथवा रत्नगर्भाधारकत्वेनाऽपरस्त्रीकुक्तिभ्योऽतिशायित्वेन रत्नरूपां कुकि घरतीति शेषं तथैव । तथा जगद्वत्तिजनानां सर्वभावानां प्रकाशकत्वेन प्रदीप इव प्रदीपो भगवान्, तस्य दीपके, सर्वजगन्मङ्गलभूतस्य चक्षुरिव चक्रुः सकलजगद्भावदर्शकत्वेन तस्य, चः समुच्चये । चक्षुश्च द्रव्यजावनेदाज्यां द्विधा, तत्राऽऽद्यं भाव
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(२२१) तित्थयर अभिधानराजेन्दः।
तित्थयर चक्कुरसहकृतं नार्थप्रकाशकं, तेन नावचक्षुषा नगवानुपमीयते, वाक्ययोजनार्थ तुकिञ्चिलिख्यते-तेषां रत्नानां बादरान पुमला. तच्चामूर्तमति । ततो विशेषमाद-मूर्तस्य मूर्तिमतः, चतुर्मा- | न परिशाट्य सूक्ष्मान् पुत्लान् गृहन्ति, पुनक्रियसमधातपू. यस्येत्यर्थः। सर्वजगजीवानां वत्सतस्योपकारकस्य। उक्तार्थे वि. चकं संवर्सकबातान् बिकुर्वन्ति । बहुवचनं चात्र चिकीर्षितशेषणद्वारेण हेतुमाद-हितकारको मार्गो मुक्तिमार्गः सम्यग- कार्यस्य सम्यकसिध्यर्थे पुनः पुनर्वातविकुर्वणाझापनार्थम् । शानदर्शनचारित्ररूपः, तस्य देशिका उपदेशिका, दर्शिकेत्यर्थः। विकुळ च तेन तत्कालविकुर्वितेन, शिवेनोपवरहितेन, मृदुतथा विवी सर्वभाषाऽनुगमनेन परिणमनात् सर्वव्यापिनी, केन भूमिसर्पिणा मारुतेन अनुतेन अनूईचारिणा, भूमितलसकलधोतृजनहदयसंक्रान्ततात्पर्योो, एवंविधा बागृद्धिा- विमझकरणेन मनोहरेण सर्वर्तुकानां षम्ऋतुसम्भवानां सुनि
संपत, तस्याः प्रभुः स्वामी, सातिशयवचनलग्धिक इ- कुसुमानां गन्धेनानुवासितेन, पिसिममः पिपिमतः सन् निहारो त्यर्थः । तस्य । तथाऽत्र विशेषणस्य परनिपातः प्राक- नातिदूरं विनिर्गमनशीलो यो गन्धः,तेन उद्धरण,बनिष्ठेनेत्यर्थः। तत्वात् । जिनस्य रागद्वेषजेतुः, ज्ञानिनः सातिशयज्ञानयु- तिर्यक प्रवातेन तिर्यक वातुमारब्धन, भगवतस्तीर्यकरस्य जकस्य, नायकस्य धर्मवरचक्रवर्तिनः,बुद्धस्य विदिततवस्य, बो- न्मभवनस्य सर्वतो दिक्षु समन्ताद्विदिक्षु योजनपरिमण्डलम्, धकस्य परेषामावेदिततत्वस्य, सकललोकनाथस्य सर्वप्राणि- "से जहाणामए कम्मयरदारप मिश्रा० जाव" इत्येततसुत्रकवर्गस्य बोधिबीजाऽऽधानसंरकणाभ्यां योगक्षमकारित्वात्। नि- देशसचितहष्टान्तिकसूत्रान्तर्गतेन "तहेव" इति दाष्टान्तिकसूत्रममस्य ममत्वरहितस्य, प्रबरकुलसमुद्भवस्य, जात्या कत्रि- बबादायातेन समार्जयतीतिपदेन सहान्बययोजना कार्या । यस्य, एवंविधविख्यातगुणस्य सोकोत्तमस्य, यत्वमसि ज.
तश्चेदं दृष्टान्तसूत्रम्मनी, तवं धन्याऽसि पुण्यवत्यसि, कृतार्थाऽसि, वयं हे दे. " से जहाणामए कम्मयरदारए सिया तरुणे बनवं जुगवं वानुप्रिये ! मधोलोकवास्तव्या अौ दिक्कुमारीमहत्तरिका: जुवाणे अप्पायके थिरऽग्गहत्थो दढपाणिपाएपितरोरुपरिणए भगवतो जन्ममहिमां करिष्यामः, तेन युष्माभिर्न भेतव्य- घणनिचित्रवलिअवखधे चम्मेगदुहणमुसिमादयानिचिम्-असम्नाव्यमानपरजनाऽऽपातेऽस्मिन् रहस्थाने इमा विस- अगचे उरस्सबलसममागए तलजमल जलपरिघवाद संघणरशजातीयाः किमिति शङ्काऽऽकुलं चेतो न कार्यमित्यर्थः । पवणजइपमहणसमत्थे बेए दक्ने पठे कुसले मेहावी निनण(ति कह उत्तरपुरच्चिम दिसीभागमित्यादि) इतिकृत्वा प्रस्ता- सिप्पोवगए एगं महंत समागहत्यगं वा दंडसंपुबार्ण वा बेणुबादिदमुक्त्वा,ता एवोत्तरपौरस्त्यं दिग्भागमपक्रामन्ति । सिमागिग वा गहाय रायंगणं वा रायंतेउरं वा देवकृतं वा सभं भथैतासामितिकर्तव्यमाह
वा पर्व वा पारामं वा उज्जाणं वा अतुरिअमचवलमसंभंत
निरंतरं सुनिऊण सम्बो समंता संपमजिज ति।" अबक्कमित्ता वेनव्वियसमुग्धाएणं समोहणंति, समो
स यथानामको यत्प्रकारनामकः कर्मकरदारका स्याद् भवेत् । इणित्ता संखिज्जाई जोअणाई दम निसिरंति, नि- प्रासन्नमृत्युर्हिदारको न विशिष्ट सामर्थ्यभाग्भवतीत्याद-तरुणः सिरित्ता तं जहा रयणाणं० जाव संवदृगवाए वि
प्रवर्षमानवयाः । स च बलहीनोऽपि स्यादित्यत पाह-बलउब्धिति, विउवित्ता तेणं सिवेणं मउएणं अणुभू
वान् । कालोपद्रवोऽपि विशिष्टसामर्थ्यविघ्नहेतुरित्यत आह
युगं सुषमकुम्पमाऽऽदिकालः,सोऽदुष्टो निरुपया विशिष्टयनहेतु. एणं तुमितलविमलकरणेणं मणहरणं सवोनअसु
यस्यास्त्यसौ युगवान् । एवंविधश्च को जवति?,युवा यौवनवयस्था, रहिकुसुमगंधाणुवासिएणं पिंमिमनीहारिमगंधुकरेणं ति- ईदृशोऽपि ग्लानः सन् निर्बलो भवत्यतः-अल्पातङ्कः, अल्पशरिमं पवाइएणं भगवमो तित्थयरस्स जम्मणजवणस्स
ब्दोऽत्राभाववचनः तेन निरातङ्क इत्यर्थः। तथा स्थिरः प्रस्तुतका. सम्बो समंता जोअयापरिमंमलं,से जहाणामए कम्मयर
र्यकरणेऽकम्पोऽग्रहस्तो हस्ताग्रं यस्यासौ तथा दृढं निवितरच.
यमापन्नं पाणिपादं यस्य स तथा। पृष्ठं प्रतीतम्,अन्तरे पार्श्वरूपे, दारए सिआम्जाव तहेव जं तत्थ तणं वा पत्तं वा कडे वा
उरू सक्थिनी,पतानि परिणतानि परिनिष्ठितां गतानि यस्य स कयवरं वा अमुइमचोक्खं पूनं मुभिगधं, तं सव्वं आहु
तथा, सुखाऽऽदिदर्शनातू पाक्षिकः कान्तस्य परनिपातः, महीनाशिअ आणि एगंते एति, एडित्ता जेणेव भगवं ति- ङ्ग इत्यर्थःघननिचितौ निविडतरचयमापन्नौ वनिताविव वलती, स्थयरे तित्थयरमाया य, तेणेव उवागच्चंति, उवागच्चित्ता
हृदयानिमुखौ जातावित्यर्थः। वृत्तौ स्कन्धौ यस्य स तथा। त. भगवो तित्ययरस्स तित्थयरमायाए अ अदूरसामंते
था चर्मेष्टकेन चर्मपरिणद्धकुट्टनोपकरणविशेषेण दुघनेन घ.
नेन, मुष्टिकथा च मुष्टया समाहताःसन्तस्ताडिताःसन्तो ये नि. आगायमाणीअो परिगायमाणीओ चिट्ठति ।
चिता निविडीकृताः प्रबहणप्रेष्यमाणवखग्रन्थिकाऽऽदयः, तद्वद् अपक्रम्य च वैक्रियसमुद्घातेन समवघ्नन्ति, समवहत्य च सं. गात्रं यस्य तथा। नरसि भवमुरस्यमीहशेन बलेन समन्वागतःस्यातानि योजनानि दएम निसृजन्ति,निसृज्य च किं ताः कुर्वन्ति?, अन्तरोत्साहवीर्ययुक्तः । तलौ तात्रवृती, तयोर्यमनं समणितदेवाऽऽद-तद्यथा रत्नानाम्। यावत्पदात् "वश्राणं वेरुलिआणं कं ययुगलं वयं, परिघश्चागला, तन्निभे तत्सदृशे दीघसरलपी. लोहिमक्वाणं मसारगवाणं हंसगन्नाणं पुरयाणं सोगंधिमा | नस्वाऽऽदिना बाहू यस्य स तथा । सङ्घने गर्ताऽऽदेरतिक्रमे, जोईरसाणं अंजणाणं पुरयाणं रयणाणं जायरूवाणं काणं फा लवने मनाक विक्रमवति गमने, जवनेऽतिशीघ्रगमने, प्रमर्दने लिहाणं रिटाणं अहावायरे पुम्गले परिसाडेसहासुरमे पुमगले 'कविनस्याऽपि वस्तुनइचूर्णने समर्थः । केकः कलापएिमतः. परिभापद, पुचवि बेचब्वियसमुग्धारण समोहणंति, समाह- दकः कार्याणामविलम्बितकारी, प्रष्ठो वाग्मी, कुशलः सम्यक्णित्ता।" इति पदसंग्रहः । पततुसविस्तरब्याख्या पूर्व भरताभिः क्रियापरिज्ञानवान् , मेधावी सकृत्श्रुतदृष्टकर्मज्ञः, निपुणशियोगिकदेवानां वै क्रियकरणाधिकारे कृता, तेन ततो ग्राहा।। ल्पोपात:-निपुणं यथा भवत्येवं शिल्पक्रियासु कौशलमुपगता
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(२२८२) तित्थयर भनिधानराजेन्द्रः ।
तित्थयर प्राप्तः एकं महान्तं शलाकहस्तकं सरित्पर्णाऽऽदिशलाकासमुदा- भो तित्थगरस्स जम्मणमाहिम करिस्सामो, सेणं तुम्भेडिं यं,सरिस्पर्णाऽऽदिशलाकामयां सम्मार्जनीमित्यर्थः।वाशब्दो वि.
ण जाइअन्न ति का उत्तरपुरच्छिम दिसीमागं प्रवकमंति, कल्पार्थः। दण्डसंपुंसनी दएमयुक्तां सम्मानी,वेणुशलाकिका
अवकमित्ता. जाब अभवद्दलए विनव्यंति, विउन्वित्ता वंशशलाकानिवृतां संमार्जनी गृहीत्वा राजामणं वा, राजाउन्तःपुरं वा, देवकुलं वा, सनां वा-पुरप्रधानानां सुखं निवे.
जावतं नियरयं णहरयं भट्टरयं पसंतरयं उपसंतरय करेंशनतुमएमपिकामित्यर्थः । प्रपां वा पानीयशालाम, माराम
ति, करेत्ता खिप्पामेव पच्चुवसमंति,एवं पुप्फबद्दसि पुप्फपा दम्पत्योनगराऽऽसन्नरतिस्थानम्, उद्यानं वा क्रीमार्थाऽऽगत- वासं वासंति, वासित्ता० जाव कानागुरुपवर० जाव मुरवजनानां प्रयोजनाजावेनोवलम्बितयानवाहनाऽऽद्याश्रयभूतं राभिगमणजोगं करेंति, करेत्ता जेणेव भयवं तित्थयरे,तित्य. तरखएकम,अत्वरितमचपलमसंभ्रान्तम् त्वरायां चापल्ये संभ्रमे यरमाया य, तेरणेव उवागच्छति, उवागच्छित्ता जाव वा सम्यकचवराऽऽद्यपगमासंभवात्। तत्र त्वरा मानसौत्सुक्यं, पागायपाणीश्रो परिगायमाणीभो चिट्ठति। चापव्यं कायोत्सुक्यम्, संभ्रमश्च गतिस्खलनमिति । निरन्तरं,
"तरण तासिं उकुलोगवत्यवाणं" इत्यादि म्यतम , नवमतु अपान्तरालमोचनेन, सुनिपुणमल्पस्याप्यचोकस्यापसा
रं तदेव पूर्ववर्णितं भणितन्यं, कियत्पर्यन्तमित्याह-( • जाव रणेन सेप्रमार्जयदिति।
प्रम्हे णमित्यादि) मत्र यावचन्दोऽवधिवाचको, न तु संग्राअथोक्तदृष्टान्तस्य दार्शन्तिकयोजनायाऽऽह-तथैवता मपि
रका (अबक्कमित्ता. जाव ति) अत्र यावत्पदात्" वेउब्वि. योजनपरिमण्डलं योजनप्रमाणं वृत्तक्षेत्रं संप्रमार्जयन्तीति ।
असमुग्घाएणं समोहणंति, समोहणित्ता• जाव दोच्चं पि वे. यत्तत्र योजनपरिमरामसे, तृणं वा पत्रं बा काष्ठं वा कचवरं वा
उन्धिवसमुग्धार्पण समोहणंति, समोहणित्ता ।" ति बोध्यम्। प्रचि अपवित्रम,अचोकं मलिनं.प्रतिकं दुरभिगन्धं,तत्सर्वमा.
अनवादलकानि विकुर्वम्ति, भने प्राकाशे वा पानीयं तस्य धूय प्राधूय संचास्य संचाल्य,एकान्ते योजनपरिमएमलादन्यत्र,
दलकानि अभ्रवालकानि,मेघानीत्यर्थः।(विउवित्ता जाप सि) एमपन्यपनयन्ति, अपनीय-अर्थात् संवतकवातापशमं विधाय
अत्र यावत्करणादिदं दृश्यम्च,यत्रैव जगवांस्तीर्थकरः, तीर्थकरमाता च तत्रैवोपगब्बन्ति,
" से जहाणामए कम्मयरदारप० जाव सिप्पोवगए एग उपागत्य च भगवतस्तीर्थकरस्य तीर्थकरमातुश्च नातिदूरासने महंत दगवारगं वा दगकुंभयं वा दगथालगं वा दगकलसं प्रामायन्य:-माईषत् स्वरेण गायन्त्यःप्रारम्भकाले मन्यस्वरेण
षा दगभिगारंबा गहाय रायंगणं या. जाव अजाणं वा गायमानत्वात, परिगायन्त्यो गीतप्रवृत्तिकालानन्तरं तारस्व. समंता प्रावरिसिज्जा, एवमेव ता भवि उकुलोगवत्यन्यानो रेण गायत्यस्तिष्ठन्ति ।
अटु दिसाकुमारीमदत्तरिमामओ अम्भवहलए विउम्बिचा सिप्पाप्रयोर्बलोकवासिनीनामवसरः
मेव पतणतणायंति, पतणतणारा स्त्रिप्पामेव पविजुश्रावंति, तेणं कालेणं तेणं समएणं लोगवत्थव्वाश्रो अट्ठ
पविजुमाइत्ता भगवो तित्यगरस्स जम्मणभवणस्स सम्बो दिसाकुमारीमहत्तरियानो सएहिं सरहिं कूमेहिं स- समंता जोपणपरिममलं णच्चोमगं माश्मट्टिअं पविरल. एहिं सएहिं भवणेहिं सएहिं सएहिं पासायव.सएहिं
पफुसिरयरेणुविणासणं दिव्वं सुरभिगंधोदयवासं वासंति।" पत्तेनं पत्ते चउहिं सामाणिप्रसाहस्सीहिं एवं तं चे
अत्र व्याख्या-स यथा कर्मदारक इत्यादि प्राग्वद्न्या -.
स्पेयम् , पकं महान्तं दकवारकं वा मृत्तिकामयजलव पुव्यवभि० जाब विहरति ।
भाजनविशेष, दककुम्नकं वा जमघट, दकस्थालकं वा कांस्या" तेणे कालेणं" इत्यादि व्यक्तं, नवरम ऊर्द्ध लोकवासित्त्वं
दिमयं जलपात्रं, दककलशं बा, दकभृङ्गारं वा गृहीत्वा राजा. चासां समभूतनात् पञ्चशतयोजनोश्चमन्दनवनगतपञ्चशति
अणं था यावदुद्यानं वा आवरेत् समन्तात् सिश्चेत । “एकाग्थकूटवासित्वेन केयम् । नन्वधोलोकवासिनीनां गजदन्तगि
वमेव ता अवि कुलोगवत्थवाओ" इत्यादि प्राम्बत् । किनरिगतकूटाष्टके यथा क्रीडानिमित्तको वासः, तथैतासामप्यत्र
मेव (पतणतणायंति ति) अत्यन्तं गर्जन्तीत्यर्थः । गर्जित्वा च प्रविष्यतीति चेद, मैवम, यथाऽधोसोकवासिनीनां गजदन्तगि
(पविजुभायंति ति) प्रकर्षेण विद्युतं कुर्वन्ति; कृत्वा च भरीणां गन्धभवनेषु वासः ध्यते, तथतासामथ्यमाणत्वेन तत्र
गवतस्तीर्थकरस्य जन्मभवनस्य सर्वतः समन्ताद्योजनपरिमनिरन्तरं वासः, ततश्चोर्द्धलोकवासिवम ॥
एमवं केत्रं यावत्, भत्र नैरन्तये द्वितीया, निरन्तरं योजनपरिताश्चेमा नामतः पद्यबन्धेनाऽऽह
मण्डले केत्रे इत्यर्थः । नात्युदकं नातिमृत्तिकं यथा स्यात्तथा
प्रकर्षण बावन्तो रेणवः स्थगिता भवन्ति, तावन्मात्रे"मेहंकरा मेहबई, मुमेहा मेहमालिण।।।
पोत्करोति जावः । उक्तप्रकारेण विरतानि घनेतराणि, धनमुवच्छा वच्चमित्ता य. वारिसेणा वसाहगा" ॥१॥ भावेन कर्दमसम्भवात्, प्रस्पृष्टानि प्रकर्षवन्ति स्पर्शनानि, ममेघश्करा, मेघवती, सुमेघा, मेघमालिनी,सुबत्सा,बरसमित्रा, भदस्पर्शनसंनवे रेणुस्थगनासम्नचात् , यस्मिन् वर्षे सत्पविरल. चः समुचये । वारिपेणा, वलाहका।
प्रस्पृष्टम,अत एव रजसां लक्ष्णरेणुपुत्रानां च स्थूलतममेतत्अथ तासां यद् वक्तव्यं तदाह। प्रासनानि चलन्ति- पुमलानां विनाशनं, दिव्यमतिमनोहरं सुरभिगन्धोदकवर्ष वर्ष. तए णं नासिं उसोगवत्थव्वाणं अच्एहं दिसाकुमारीमा |
न्ति, बर्षित्वा च । अथ प्रस्तुतस्त्रमनुश्रियते, तद् योजनपरिहत्तरिमाणं पत्तेअं पत्तेनं आसणाई चझंति । एवं तं चेच
मम्मलक्षेत्र, निहतरजा,कुर्वन्तीति योगः। निहतं भूय सत्याना
भावेन मन्दीकृतं रजो यत्र तत्तथा । तत्र निहतत्वं रजसा पुववणि भाणिअनं० जाव अम्हे णं देवाणुप्पिए ! उ.
कणमात्रमुत्थानाभावेनाऽपि संजवति तत आह-नष्टरजः नटं कुत्लोगवत्यन्यानो अह दिसाकुमारीमहत्तरिआओ नगव । सर्वथा अदृश्यीभूतं रजो यत्र तत्तथा । तथा भ्रष्टं वातोततया
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(२५८३) तित्थयर अभिधानराजेन्मः।
तित्थयर योजनमात्रा दूरतः किप्तं रजो यत्र तत्तथा । अत एव प्रशान्तं मघमघंतगंधुदाभिरामं सुगंधवरगंधिलं गंधपट्टिभूमं दिसर्वथाऽसदिव रजो यत्र तत्तथा। अस्यैवाऽऽत्यन्तिकतः स्याप- व्वं ।" इतिपर्यन्तसूत्रं ज्ञेयम् । तत् कालागुरुप्रभृतिधूपधूपितम्। मार्थमाह-उपशान्तं रजो यत्र तसथा कुर्वन्ति कृत्वा च विप्रमेव धूपासापकव्याख्या प्राग्वत । अत एव सुरवरान्निगमनयोग्यम्प्रत्युपशाम्यन्ति,गन्धोदकवर्षणानिवर्तन्त इत्यर्थः। भथासां तृती. सुरवर जस्तस्याभिगमनायाबतरणाय योम्यं, कुर्वन्ति, कृत्वा यकर्त्तव्यकरणावसरः-एवं गन्धोदकवर्षणानुसारेण पुष्पवाद- च यत्रैव भगवांस्तीर्यकरस्तीर्थकरमाता च, तत्रैवोपागच्छन्ति, लकेन पुष्पवर्षकवादलकेन, प्रकृतत्वात् तृतीयाथै सप्तमी। उपागत्य च,यावच्चन्दात्-"भगवोतित्ययरमायाए य अदरपुष्पवर्ष वर्षन्तीति ।
सामंते" इति प्राह्यम् । बागायन्यः परिगायत्यस्तिष्ठन्तीति । अत्रैवमित्यादिवाक्यसूचितमिदं सूत्र केयम्
अथ रुचकवासिनीदिककुमारीवक्तव्ये प्रथम पूर्वरुचकरखानाम"तचं पिबेउब्वियसमुग्धारणं समोहणंति,समोहणित्ता पुष्फः शानां वक्तव्यतामाह-- पहलए विचव्वंति, से जहाणामए मालागारदारएज्जाव सि.
तेणं कालेणं तेणं समरणं पुरच्छिमरुभगवत्यम्बानो प्रह प्पोवगए पगं महं पुप्फजिवा पुप्फपमसगं वा पुष्फचंगेरियं घा गहाय रायंगणं वा० जाव समंता कयग्गहगहिअकरयलप
दिसाकुमारीमहत्तरिआओ सएहिं सएहिं कूमेहिं तहेव० मनहविष्पमुक्केणं दसवलेणं कुसुमेणं पुप्फपुंजोवयारकलि
जाव विहरति । तं जहाभं करेजा, एवमेव ता भवि उस्लोगवत्यम्बामोजाव पुण्फवह- " Qत्तरा य गंदा, आणंदा गंदिवद्धणा। सप विम्वित्ता बिप्पामेव पतणतणायंति०, जाव जोमणपरि- विजया य वेजयंती, जयंती अपराजिया॥१॥" ममनं जलयथलबन्नासुरप्पनयस्स चिंटगश्स्स दसवपस्स। सेसं तं चेवण्जाव तुम्भेहिं ए भाइभलं ति कट्ट जगवो कुसुमस्स जाणुस्सेहपमाणमित्तं वासं वासंति"
तित्थयरस्स तित्थयरमायाए अपुरच्छिमेणं भायंसहत्थभत्र व्याख्या-तृतीयवारं बैकिवसमुद्घातेन समबनन्ति । को:यः?-संवर्तकवातविकुर्बणाथै हि यद् वेलायमपि बैक्रियसमु.
गयामो प्रागायमापीयो परिगायमाणीमो चिटुंति । घातेन समवहननं, तकिलकम्, एवमतवाद नकविकुर्वणार्थ
(तेणं कालेणं तेण समपणं इत्यादि)तस्मिन् काले तस्मिन द्वितीयम,वं तु पुष्पवादलकविकुर्वणार्य तृतीयम्। समयदत्यच
समये पौरस्त्यरुचकवास्तव्याः पूर्वदिग्नागवतिरुनकटषापुष्पवादलकानि विकुर्वन्ति, स यथानामको मालाकारपुत्रः,म.
सिन्योऽष्टौ दिककुमारीमदतरिकाः स्वकेषु स्वकेषु ष्टेषु तथैव स्यैव प्रस्तुतकायें व्युत्पन्नत्वात् । स्यावावधिपुणशिल्पोपगतः,
यावद्विहरन्ति। तद्यथा-मन्दोत्सरा, चः समुच्ये । नन्दा.प्रानन्दा, एका महती पुष्पगधिकां वा, माद्यते सपरिस्थग्यते इतिगयेव
नन्दिवना,विजया। चः पूर्ववत् । वैजयन्ती,जवन्ती,मपराजिछाधिका,पुष्पै ता छाधिका पुष्पवापिकाता, पुष्पपटलकं वा
ता, श्येता मामतः कथिताः । शेषमासनप्रकम्पावधिप्रयोगपुष्पाऽऽधारभाजनविशेषः, पुष्पचारिकां पा प्रतीताम्।यावत्
भगवदर्शनपरस्पराह्वानस्वखात्रियोगिककृतयानविमानविकुर्व-- समन्तात् रतकसहे या पराक्मुखी, तस्याः सुमुखीकरणाय
णाऽऽदिकं तथैव, यावद्युमाभिन भेतव्यमिति कृत्वा भगवकेशेषु ग्रहणं कचग्रहणं, तत्प्रकारेण गृहीतं, तथा करतमाशिप्र
तस्तीर्थकरस्य तीर्थकरमातुश्च पूर्वरुचकसमागतत्वात पूर्वतो मुक्तं सत् प्रनष्ट करतलप्रचएविप्रमुक्तं, प्राकृतत्वात पद.
हस्तगत आदर्शो दर्पणो जिनजनन्योः गृक्षाराऽऽदिविलोव्यत्ययः, ततो विशेषणसमासः । तेन कचप्रहगृहीतक
कनाऽऽधुपयोगी वासा तास्तथा, विशेषणस्य परनिपातः प्राकरतलप्रभ्रष्टविनमुक्तेन दशार्कवर्णकेन पञ्चवर्णेन कुमुमेन, जा
तत्वात । आगायन्त्यः परिगावन्त्यस्तिष्ठन्तीति । अत्र रुचकात्यपेक्कया एकवचनम्, कुमुमजातेन, पुष्पपुखोपचारो बलि.
दिस्वरूपप्रपणेयम् एकादेशेन एकादशे,द्वितीयादेशेनत्रयोदशे, प्रकार, तेमकलितं कुर्यात्, एवमेता अपि ऊर्द्धलोकबास्त.
तृतीयादेशेन एकविंशे रुचकद्वीपे बदुमध्ये वलयाऽऽकारो इचव्या अष्टौ दिक्कुमारीमहत्तरिका: “पुष्फवद्दलए बिउम्वित्ता"
कशमश्चतुरशीतियोजनसदस्राण्युधः,मूझे १००२२,मध्ये ७०२३, इत्यादिकं योजनपरिमण्डलान्तं प्राम्बद व्यास्येयम। वाक्ययो
शिमारे ४०२४ योजनानि विस्तीर्णः,तस्य शिरास चतुथे सहने जना तु-योजनपरिमएमखं यावत दशावर्णस्य कुसुमस्य वर्ष
पूर्वदिशि मध्ये सिवायतनकूटः, उभयोः पार्श्वयोश्चत्वारि चवर्षन्तीति । कर्थनूतस्य कुसुमस्य?, जलजस्थखजनासुरप्रभ
त्वारि दिक्कुमारीणां कुटानि, नन्दोत्तराऽऽद्यास्तेषु वसन्तीति । तस्य-जम पन्नाऽऽदि.खलजं विचकिमाऽऽदि,भास्वरं दीप्यमानं
अथ दक्षिणानकवासिनीनां कर्तव्यम्-- प्रभूतमतिप्रचुरम्। ततः कर्मधारयः|भास्वरं च तत प्रभूतं च भाव
तेणं कालेणं तेणं समएणं दाहिणरुअगवत्यव्यामो अट्ठ रमजूतम्, जलजस्खाजं च तद् भास्वरप्रनूतं च तत् तथा तथा
दिसाकुमारीमहत्तरियानो तहेवजाव विहरति । तं जहावृन्तस्थापिन:-वृन्तेनाधोभागवत्तिना तिष्ठतीत्येवंशलिस्य,तथा क. " समाहारा मुप्पश्मा, मुप्पबुका जसोहरा । न्तमधोभाग पत्राण्युपरीत्येवं स्थानशीलस्येत्यर्थः। कथम्नतं वबम,जाम्बवधिक उचायो जानृत्सेधः,तस्वप्रमाणं द्वात्रिंशदान
मच्छीमई सेसई, चित्तगुत्ता वसुंधरा ॥१॥" सक्कणं, तेन सदृशी मात्रा यस्य स तथा तं,दार्षिशबङ्गलानि .
तहेव० नाव तुम्भाहिं न जाइग्रव्वं ति कटु जगवनी वम्-चरणस्य चत्वारि, जतायाश्चतुर्विंशतिः,जानुतश्चत्वारीति।
तित्थयरस्स तित्थयरमा नए अदाहिणेणं भिंगारहत्थगयाएवमेव सामुहिके चरणावसानस्य लक्षणत्वात् ।
श्रो पागायमाणी यो परिगायमाणीओ चिट्ठति ॥ वपित्वा च कियत्पर्यन्तोऽयमेवमित्यादिवाक्यसूचितसू- सम्प्रति दकिणरुचकवास्तव्या इति पूर्ववद, रुपकशिरसि वसंग्रह इत्याह-यावत् " कालागुरुपवर ति ।" पत्र दकिशदिशि मध्ये सिद्धायतनकुटम, तदुभयतश्चत्वारि चत्वारि यावच्चन्दोऽवधिवाची । ( जाव सुरवराभिगमणजोमां कटानि, तत्र वासिन्य इत्यर्थः । अष्टौ दिककुमारीमहत्तरिकाः ति ) अत्र यावत्करणात्-" कुंकुरुकतुरुकडझंतधूव- तथैव यावद्विहरन्ति । तद्यथा-समाहारा, सुप्रदत्ता, सुप्रवुद्धा,
स्वाभिमान जागभिगमणीय मतका को किसी काम मारमा
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(२२८४) तित्ययर भाभिधानराजेन्दः ।
तित्थयर यशोधरा, लक्ष्मीबती, शेषपती, चित्तगुप्ता, बसुन्धरा । तथव | नका,शतेरा,सौदामिनी । तथैव यावन्न भेतव्यमिति कृत्वा विदि. यावयुष्माभिन मेतव्यमिति कृत्वा जिनजनन्योर्दकिणदिगागत. गागतत्वात् भगवतस्तीर्थकरस्य तीर्थकरमातुश्च चतसृषु वि. स्वाइक्षिणदिग्भागे जिनजननीस्लफ्नोपयोगिजलपूर्णकलशद- दिगुदीपिकाहस्तगता आगायन्यः परिगायन्स्यस्तिष्ठन्तीति । स्ता मागायन्त्यः परिंगावस्यस्तिष्ठन्तीति।।
अथ मध्यरुचकबासिन्य भागमयितव्या:__ साम्प्रतं पश्चिमन्चकस्थानां वक्तव्यमाह
तेणं कालेणं तेणं समरणं मजिकमरुअगवत्यवाओ चत्तातेणं कालेणं तेणं समरणं पञ्चच्चिमाअगवत्थव्वाओ रि दिसाकुमारीमहत्तरियामो सएहिं सरहिं कृडेहिं तहेव. अ दिसाकुमारीमहरिग्रानो सरहिं सरहिं० जाब वि.
जाब विहरति । तं जहा-"रूया रूपासिया, सुरूवा रूवहरति । तं जहा
गावई।" तहेव०जाव तुम्भाहिं ण नाइअव्वं ति कठ्ठलगव"श्नादेवी सुरादेवी, पुढची पठमावई।
ओ तित्थयरस्स चउरंगुलवज्जणाभिशालं कप्पंति, कप्पेसा एगणासा एवमिश्रा, भहा सीना य अहमी ॥१॥"
विभरगं खणंति, स्वणित्ता विअरगे णानिं णिहएंति, निहतहेव०जाय तुन्भाहिण भाश्मवंति कटु० जाव जगवओ
णित्ता रयणाण यवइराण य पूरेति,पूरेत्ता हरिश्रानिपाए पेदं तित्थयरस्स तित्थयरमाउए अपचन्हिमे तालिअंट
बंधंति,बंधित्ता तिदिसिं तो कयलीहरए विउति । तएणं हत्थगयानो पागायमाहीमो परिणाममाणीयो चिटुंति ।
तेसिं कयनीहरगाणं बहुमज्जदेसजाए तओ चउस्साए वि"तेणं कालेणं" इत्यादि सर्व तथैव,नवरं पश्चिममचकवास्तन्याः पश्चिमदिग्नागवत्तिकचकवासिन्य इति नामाम्यासांपोना.
नव्वति,तए ण तेसिं चउस्मालगाएं बहुमज्देसनाए ती श्लादेवी,सुरादेवी,पृथिवी,पद्मावती,एकनासा, नवमिका, भका,
सीहासणे विजयंति तेसि णं सीहासणाणं अयमेरूचे सीता । चा समुच्चये । अष्टमी चेति । कूटव्यवस्था तथैव, वस्यावासे पसत्ते, सब्बो वसगो जाणिअन्चो ॥ पश्चिमरुचकागतत्वाग्जिनजनन्योः पश्चिमदिमागे तासवृन्तं (तेणं कालेणं इत्यादि)तस्मिन् काले तस्मिन् समये मध्यरुचकन्यजनं तद्धस्तगतास्तिष्ठन्तीति।
वास्तव्या मध्यभागबतिरुचकवासिन्यः। कोऽर्थः?-चतुर्विशत्यधि उदीच्या रुचकपासिनीमां कृत्वानि
कचतुःसहस्रप्रमाणे रुचकशिरोविस्तारे, छितीयसहस्र चतुर्दितेणं कालेणं तेणं समएणं उत्चरिद्वरुअगवस्थव्वाश्रो | म्वतिषु चतुषु कूटेषु पूर्वाऽऽदिक्रमेण चतस्रस्ता वसन्तीत्यर्थः। श्रीज्जाव विहरति । तं जहा
अभयदेवसुरयस्तु षष्ठाङ्गवृत्ती मल्ल्यध्ययने-"मज्झिमरुअगव
त्थव्या" इत्यत्र रुचकद्वीपस्याभ्यन्तरार्द्धवासिन्य इत्याहुः । पत्र " अलंबुमा मिस्सकेसी, पुंमरीश्रा य वारुणीं।
तत्वं बहुश्रुतगम्यम् । चतम्रो दिक्कुमारिका यावधिहरन्ति । हासा सन्चप्पभा चेक, सिरि हिरि चेव उत्तरो" ||१|| तद्यथा-रूपा,रूपासिका,सुरूपा,रूपकावती । तथैव युप्मानिन तहेव० जाव तित्थयरस्स तित्थयरमाउए अ उत्तरे- नेतव्यमिति कृत्वा भगवतस्तीर्थकरस्य चतुर गुलबर्जनाभिनालं णं चामरहत्थगयाओ आगायमाणीओ परिगायमाणी
कल्पयन्ति, कल्पयित्वा च विदरकं गौ स्खनन्ति, खनिस्वा च
विदरके कल्पितां नाभि निधानयन्ति, निधानयित्वा च रत्नेश्व ओ चिट्ठति ।
बढश्च, प्राकृतत्वाद्विभक्तिव्यत्ययः। पूरयन्ति, पूरयित्वा च हरिउद्दीच्यामप्येवमेवेति।तत् सूत्रमाह-"तेणं कारणं" श्स्यादिन्यः
तालिकाभिर्दूर्वाभिः पीठं वन्नन्ति । कोऽर्थः? पी बद्ा तपरिकमानवरमुत्तररुचकवास्तव्या उत्तरदिगभागवतिरुचकवासि.
हारितालिकां वपन्तीत्यर्थः। विवरकवचनाऽऽदिकं च सर्व भगन्यः । नामाम्यासां पद्यनाद-अलम्बुषा, मिश्रकेशी, पुण्मरीका,
बदवयवस्याशातनानिवृत्यर्थम् । पीठं बच्चा च त्रिदिशि पश्चिचः प्राग्वत्। वारुषी, हासा,सर्वप्रभा, चैवेति प्राग्वत्। श्रीः, ही
मावर्जदिक्त्रये त्रीणि कदवीगृहाणि विकुर्वन्ति । ततस्तेषां क. भोत्तरतः कूटश्यवला तथैव, उत्तररुचकाऽऽतवाजिनजनन्यो
दलीगृहाणां बहुमध्यदेश नागे त्रीणि चतुःशालकानि भवनरुत्तरदियभागे चामरहस्तगता आगायन्स्यः परिगायन्त्यस्तिष्ठन्ति।
विशेषान विकुर्वन्ति । ततस्तेषां चतुःशासकानां बहुमध्यदेशनाअथ बिदिग्ररुचकवासिनीनामागमनाऽवसर:
गे त्रीणि सिंहासनानि विकुर्वन्ति, तेषां सिंहासनानामयमेतातणं कालेणं तेणं सपएणं विदितिरुअगवत्यवाभो
शो वर्णव्यासः प्राप्तः, सिंहासनानां सों वर्णकः पूर्ववद् भचत्तारि दिसाकुमारीमहत्तरिाभो० जाब विहरति । तं | शितव्यः । जहा-"चिचा य चित्तकणगा, सतेरा सोदामणी ।" तहेच सम्मति सिंहासनविकुर्यणानन्तरीयकृत्यमाद
जाव ण नाइअव्वं ति का भगवो तित्ययरस्स तित्थय- सए पं ताो रुमगमज्वत्थव्वाओ चत्तारि दिमाकुमा. रमानए अबउसु विदिसामु दीविवाहस्थगयाओ आ-1 रीओ जेणेव जयवं तित्थयरे तित्थयरमाया य तेणेव उगायमाणीनो परिगायमापीओ चिट्ठति |
वागच्छति, उवागचित्ता जगवं तित्थयरं करयलसंपूडेणं तिनं कालेणे' इत्यादि व्यक्तम् । नवरं विदिग्बकवास्तव्यास्त- तित्ययरमायरं च बाहाहिं गिएहति, गिरिहना जेणे व स्यैव रुचकपर्वतस्य शिरसि चतुर्थे सहने चतसृषु विदिच एकैफ कूट, तत्र बासिभ्यश्चतस्रो चिदिककुमार्यों यावद्विहरन्ति ।
दाहिणिले कयनीहरए जेणेच चाउस्साझए जेणेव सीहामइमाश्च स्थामा विद्युतकुमारीमहतरिका इत्युक्ता इति । एता
णे तेणेव उवागच्चंति, नवागच्चित्ता भगवं तित्थसां चैशान्पादिक्रमेण नामान्ये यम्-चित्रा,चः समुच्चये। चित्रक' यरं तित्ययरमायरं च सीहासणे णिसीप्रावेति, णि
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(२२८५) तित्थयर अभिधानराजेन्द्रः।
तित्ययर सीआवेत्ता सयपागसहस्सपागोहिं तेलेहिं अनंगेति, उपागत्य च जगवन्तं तीर्थकरं करतलसंपुटेन,तीर्थकरमातरंच
बाहुभिगृहन्ति, गृहीत्वा च यत्रैव दाक्षिणात्यं कदलीगृहं, यत्रैव अन्नंगेत्ता सुरनिणा गंधुबट्टएणं उबट्टति, उबट्टित्ता
च चतुःशालकं,यत्रैव सिंहासनं,तत्रैवोपागच्छन्ति, उपागत्य च जगवं तित्थयरं करयनसंपुडेणं, तित्थयरमायरं च बा
भगवन्तं तीर्थकर तीर्थकरमातरं चसिंहासने निषादयन्ति-उ. हामु गिएइंति, गिएिहत्ता जेणेव पुरच्छिमिले कय- पवेशयन्ति; निषाय च शतपाकैः सहस्रपाकैः शतकृत्वोऽपराप. लीहरए जेणेव चानस्सालए जेणेव सीहासणा तेणेव
रोषधीरसेन,कार्षापणानां शतेन वा यत्पकं तच्चतपाकम् एवं स.
दम्रपाकमपि । बहुवचनं तथाविधसुरभितनसंग्रहार्थम् । तैरउवागच्छति, वागच्चित्ता भगवं तित्थयरं तित्थयर
भ्यङ्गयन्ति, तैलमभ्यजयन्तीत्यर्थः । अन्याय च सुरभिणा मायरं च साहासणे णिसीआवेंति, णिसीआवेत्ता
गन्धद्रव्याणामुत्पलपिष्टाऽऽदीनामुद्वर्तितचूर्णपिण्डेन गन्धयुक्ततिहिं उदएहिं मन्जावेति । तं जहा-गंधोदएणं, पु-- गोधूमचूर्णपिण्डेन बा उद्धर्तयन्ति, किततलापनयनं कुर्वन्ति,ज. प्फोदएणं, सुखोदएणं । मज्जावेत्ता सव्वालंकारवि- द्वर्य च भगवन्तं तीर्थकरं करतनपुटेन तीर्थकरमातरं च बाहोसिधे कति, करेत्ता भगवं तित्थयरं करयलपु
गुवन्ति, गृहीत्वा च यत्रैव पौरस्त्यं कदलीगृहं,यत्रैव चतुःशालं,
यत्रैव च सिंहासनं, तत्रैवोपागच्चन्ति, उपागत्य च भगवन्तं मेणं, तित्ययरमायरं च बाहाहिं गिएहंति, गिएिहत्ता
तीर्थकरं तीर्थकरमातरं च सिंहासने निषादयन्ति, निषाद्य जेणेव नचरिल्ले कयनीहरए जाणेव च उस्सालए जेणेब सी- च त्रिभिरुदकैर्मजयन्ति स्नपयन्ति । तान्येव त्रीणि दर्शयति हासणे तेणेव उवागच्छंति, उवामच्छिचा भगवं तित्थयरं तद्यथेत्यादिना, गन्धोदकेन कुङ्कमाऽऽदिमिभितेन, पुष्पोदकेन तित्थयरमायरं च सीहासणे णिसीआवेंति,णिसीआवेत्ता
जात्यादिमिश्रितेन, शुशोदकेन केवलोद केन, मज्जयित्वा स
वासङ्कारभूषितौ कुर्वन्ति, मातृपुत्राविति शेषः । कृत्वा च नगभाभिओगे देवे सहावेंति, सद्दावेत्ता एवं बयासी-खि
वन्तं तीर्थकरं करतल पुटेन तीर्थकरमातरं च बाहुभिडन्ति, पामेव जो देवाणुप्पिया! चुतहिमवंताओ वासहरपब्वयानो गृहीत्वा च यत्रैवोत्तराह कदबीगृहं, यत्रैव च चतुःशासक,यत्रैव गोसीसचंदणकट्ठाई साहरह। तए णं ते अलिप्रोगा देवा च सिंहासन, तत्रैवोपागच्छन्ति, उपागत्य च जगवन्तं तीर्थकर
तीर्थकरमातरं च सिंहासने निषादयन्ति, निषाद्य च भाभियो. ताहिं रुअगमवत्थव्याहिं चउहिं दिसाकुमारीमहत्तरिया.
गान् देवान् शब्दयन्ति, शब्दयित्वा च एवमवादिषुः-किप्रमेव हिं एवं बुत्ता समाणा हतुट्ठाजाव विणएणं वयणं पमि
भो देवानुप्रियाः! चुहिमवतो वर्षधरपर्वतामोशीर्षचन्दनका. च्छंति,पमिच्छित्ता खिप्पामेव चुल्ल हिमवंताओ वासहरपन्च- ष्ठानि संदरत-समानयत । ततस्ते पाभियोगा देवास्तानी रुच. याओ सरसाइं गोसीसचंदणकट्ठाइं साहति । तए णं ताओ कमध्यवास्तव्याभिश्चतसृभिर्दिककुमारीमहत्तरिकाभिरेवमनन्त-- मज्झिमरुअगवस्थन्वाओ चत्तारि दिसाकुमारीमहत्तरिया
रोक्तमुक्ता प्राप्ताः सन्तो दृष्टतुष्टा इत्यादि यावद्विनयेन वचनं
प्रतीच्चन्त्यही कुर्वन्ति,प्रतीष्य च किप्रमेव क्षुदिमवतो वर्षधरप. प्रो सरगं करेंति, करेत्ता अराणि घति, अरणिं घमेत्ता
वतात् सरसानि गोशीपचन्दनकाष्ठानि संहरन्ति । ततस्ता मध्यसरएणं अरणिं महिंति, महित्ता अग्गि पामिति, पामि- रुवकवास्तव्याश्चतम्रो दिक्कुमारीमहत्तरिकाः शरक-शरप्रतित्ता अग्गि संधुक्खेंति, संधुक्खेता गोसीसचंदणकढे कृतितीक्ष्णमुखमन्युत्पादकं काष्ठविशेषं कुर्वन्ति, कृत्वा च तेनैव पक्खिवंति, पक्खिवित्ता अग्गि नजालिंति, उज्जालित्ता
शरकेन सह अरणि लोकप्रसिद्धं काष्ठविशेष घटयन्ति-संयोज
यन्ति, घटयित्वा च शरकेनाग्नि मनन्ति, मथित्वा च अग्नि पा. समिहाकट्ठाई पक्खिविंति, पक्खिवित्ता अग्गिहोमं करेंति,
तयन्ति,पातयित्वा च अग्निं सन्धुकन्ति-सन्दीपयन्ति, सन्धुक्ष्य करेत्ता नतिकम्मं करेंति, करेत्ता रक्खापोट्टलिभं बं
च गोशीर्षचन्दनकाष्ठानि,प्रस्तावात् खएमशः कृतानीति बोध्यम, धति, बंधेत्ता णाणामणिरयनत्तिचित्ते दुवे पाहाणवट्ट- यादृशैश्चन्दनकाष्ठरग्निरुद्दीपितः स्यात् तादृशानीति भावः। गोलगे गहाय भगवो तित्थयरस्स कम्पमूले टिट्टिा
प्रतिपन्ति, प्रतिप्य च अग्निमुज्वालयन्ति उद्दीपयन्ति, उज्ज्वाविति, जवन भयवं पनयानए। तए णं ताओ रुग
व्य न प्रदेशप्रमाणानि हवनोपयोगीनीन्धनानि समिधः, तद्
पाणि काष्ठानि प्रतिपन्ति । पूर्वो हि काष्ठप्रोपोऽन्युद्दीपनाय, मजावत्थव्वाश्रो चत्तारि दिसाकुमारीमहत्तरिआओ भयवं
अयं च रक्काकरणायेति विशेषः । प्रक्तिप्य च अग्निहोमं कुर्वन्ति, तित्थयरं करयापुमेणं तित्ययरमायरं च बाहाहिं गिएहंति, कृत्वा च भूतेभस्मनः कर्म क्रिया, तां कुर्वन्ति, येन प्रयोगणे. गिएिहत्ता जेणेव भगवो तित्थयरस्स जम्माजवणे
धनानि भस्मरूपाणि भवन्ति तथा कुर्वन्तीत्यर्थः । कृत्वा च तेणच नवागच्चंति, उवागच्छित्ता तित्ययरमायरं सयाण
जिनजनन्योः शाकिन्यादिपुष्टदेवतात्यो दृग्दोषाऽऽदिभ्यश्च रज्जमि पिसीप्राविति, णिसीआवित्ता भयवं तित्ययरं माउए
काकरी पोट्टलिका बध्नन्ति, बध्वा.च नानामणिरत्नानां भक्तिरच.
नाद् यो विचित्रौ द्वौ पाषाणवृत्तगोलको, पाषाणगोलकावि. पाते विति, वित्ता अदरमामते आगायमाणीओ परि
त्यर्थः । गृहीत्वा भगवतस्तीर्थकरस्य कर्णमूले " टिट्टिमावेगायमाणीओ चिट्ठति ॥
नि" श्यनुकरणशब्दोऽयम् । तेन 'टिट्टिाबेति' परस्परप्रताम(तए णं ताो रुप्रगमवत्थत्वानो चत्तारिदिसाकुमारीश्रोइ-] नेन टिट्टीतिशब्दोत्पादनपूर्वकं वादयन्तीत्यर्थः। अनेन हि बालत्यादि ततस्ता रुचकमध्यवास्तव्याश्चतस्रो दिककुमारीमहत्तरि- लीलावशादन्यत्र व्यासक्तं जगवन्तं वक्ष्यमाणाऽऽशोचनश्रवणे काः,यत्रैव भगवस्तीर्थकरस्तीर्धकरमानाच, तधोपागच्चन्ति, । पट्र कुर्वन्तीति भावः । तथा कृत्वा च, जवतु भगवा.
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तित्थयर
न् पर्वताऽयुः इत्याशयेनं ददतीति । तत उक्तसकलकार्यकरणानन्तरं ता रुकमण्यवास्तव्यात दिककुमा रामहरिका भगवन्तं तीर्थकर करतलपुरेन तीर्थंकरमात रं चादित्वा च यत्रैव नगयतस्तीकरस्य जन्मन्नवनं तत्रैवोपागच्छन्ति उपागत्य च तीर्थकर मातृशय्यायां निषादयन्ति, निषाद्य च भगवन्तं तीर्थंकरं मातुपार्श्वे स्थापयति स्थापयित्वा च नातिदूरास लागा यन्त्यः परिगायन्त्यस्तिष्ठन्ति । एतासां च मध्येऽष्टावधोलोकबा सिन्यो गजदन्तगिरीणामघोभवनवासिन्यः । यश्वेतद धिकारसूत्रे" सपर्हि सपदि कूडेहिं " इति पदम, तदपरसकलदिक्कुमार्यधिकारसूत्रपातसंरक्षणार्थम साधारणसूत्रपाते यथासम्भव धिनिषेधी समापणीयाविति ऊलोकवासिन्योऽनन्दनवने योजनपञ्चशतिककूटवासिन्यः, अन्याश्च सर्वा अपि रुचक स्वत्कफूटेषु योजनसहस्रमले सहस्रयोजनविस्तारेषु शि. रति पञ्चशतविस्तारेषु वसन्ति । उक्तं षट्पञ्चाशदिककुमारीकृत्यमिति । जं० ॥ ब० ।
(१४) देवदूष्याणि
( २२८६ ) अभिधानराजेन्: ।
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सपिएमा सर्वेऽपि भगवन्तोऽतीता अपि चतुर्विंशतिरिश्वनेन सर्वास्वीत्येिक भरतक्षेत्रे चतुर्विंशतिरेव तीर्थकरा अभूतिवापितम्। एक दृष्येण एकेन वस्त्रेण, निर्गता अभिनिष्क्रान्ताः । तद्यदि भगवन्तोऽप्येकदूष्येण निर्गता इति सोपधयोऽजवनू, किं पुन
मध्यान सोपचयः । तत्र य उपधिरातो सादेोकः यः पुनर्विधेयःस्थविरक पिकादिभित्रेभ्योऽनुतः स खलु प्रन्थान्तरावसेयः । आ० म०१ अ० १ खराम ।
म्याचिन् ।
चतुर्विंशतिसंख्या
देवदूष्यवस्त्र स्थितिमाहसको लक्खमु सुर उप सजणखंचे।
,
वीरस्स वरिसमहियं, सया त्रि से साप तस्स लिई | १६ | शका अमूल्यं देवदृष्यं वस्त्रं सर्वजिनस्कन्धे स्थापयति तत् श्रीवीरस्य साचिवर्ष स्थितम् उचकल्य साहित्रं मासं जाव चीवरधारी होत्थ त्ति” मासैकेनाधिकं वर्षे वीरेण व मृतम् जिमान विरो सदाऽपि यावज्जीवमपि तस्य वस्त्रस्य स्थितिर्ज्ञेयेति । सत्त० ७३ द्वार । (देद्दमानमुत्सेधाङ्गुलविचारे २२६१ पृष्ठे पूर्वमुक्तम ) (१५) अथ प्रसङ्गतः तीर्थकर प्रतिपादितत्वेन धर्मभेदानाददाणं सीलं च तत्रो, जावो एवं व्हो धम्मो सन्वजिणेहिं भणिओ, तहा हा सुयचरितेहिं ॥ २७६ ॥ सुपादानं देवम् त्रिकरणाशी पानीयम यथाश क्ति तपो विधिवद्विधेयम्, साधुपुरुषेण शुनभावना भावनीया । एवं चतुर्विधः (माजिभिणियां) सर्वजितैश्चतुर्विंश तिजिनेनेतिः कथितधर्मचारिएक
धर्मः द्वितीयवारितः इति गाथाऽर्थः ॥ २९६ ॥
सत्त० ४१ द्वार |
अथ धर्मप्रसङ्गात् पुण्यमौचित्ये प्रवर्त्तत इत्यौचित्याष्टकम् | पुण्यानुबन्धिपुण्यं प्रधानफलतो दर्शयन्नाह
श्रतः प्रकर्षसंप्राप्ता द्विज्ञेयं फलमुत्तमम् ।
तित्थयर
तीर्थ
सदौचित्य मनुष्या मोसाधकम् ||१|| अत अस्मात् पुण्यानुबन्धिपुयात् प्रकर्ष गताद्विशेषं ज्ञातयं फलं कार्यमुत्तमं प्रधानं तो कत्यम् विरूपं तदित्वादासर्वका औचित्य यथाप्रवर्तनेन मोकसाधकं निर्माण कमिति ॥ १ ॥
औचित्यप्रवृत्तिमेवाऽऽप्तस्य सार्वदिकीं दर्शयितुमाहसदौचित्यप्रवृत्तिय, गर्भादारभ्य तस्य यत् । तत्राऽप्यनिग्रहो न्याय्यः पते हि जगमुरोः ॥ २ ॥ सदा सर्वकालमौचित्यप्रवृत्तिः संगतज्ञावनम्, चशब्दः पुनःश ब्दार्थः । गर्भादारज्य गर्भावस्थामवधीकृत्य, तस्येति यः प्रकृष्टपुएयानुबन्धिपुण्यफलभूतस्तस्य तीर्थकरस्य, भवतीति शेषः । कुत एतदेवं सिद्धमित्याह-यद्यस्मात्कारणात्, तत्राऽऽदिगर्भेऽप्यास्तां प्रतिपक्षी, अभिप्रतिज्ञाविषयमस्वरूप न्याय्य यायादनवे शब्द जगद्गुरो त्रिलोक गौरवार्हस्य महावीरस्येति भावना ॥ २ ॥ किमर्थमग्रि इत्याद
पित्रुमनिरासाय महतां स्थितिकिये। इष्टकार्यार्थमेव नागमे ॥ ३ ॥
माता च पिता च पितरी योगश्चितता तस्य निरासोऽभावः पिशुद्वेगनिरासः तस्मै पिनिरासाय यतन्ते च महान्तो विश्वस्याऽपि उद्वेगनिरासार्थम्, तेषां तथास्वभावत्या विशेषतः पुनः पित्रोरतिदुःखप्रतीकारित्यायो रिति । तथा महतां महापुरुषाणां स्थितिसिद्धये व्यवस्थासाधनाथ। अन्येऽपि महातो मातापित्रद्वेगनिरासेन प्रवन्तमित्ये सदर्थमित्यर्थः प्रधानमार्ग नुसारित्वानस्येति तथा इकार्ययोजनं मोहार्थिनां मोकोपाय स्य समृद्धिकार्यसमिएकार्यसमृद्धयथैमिवाभिप्रदः कृत इति गम्यमानायाविशेषणम्मोि फोरर्थःप्रवृत्या अनुचितप्र तिस्तु तद्विप्न इति भूतस्वरूप, अनि
"
ति
I
योगः जनाने भूयते इति संबन्धः उच्यते चा कनिकी समनि मासे, जत्थो
हं गहिश्र । नाहं समणो होहं, अम्मापियरम्मि जीवंते" ॥१॥ इति ॥ ३ ॥
अथवा यथाभूतोऽभिग्रहः श्रूयते, तथाभृतमेवाऽऽहजीवतो गृहवासेऽस्मिन यावन्मे पितराविमौ । तावदेवाधिवत्स्यामि गृहानहमपीष्टतः ॥ ४ ॥
किल भगवान् श्रीमन्महावीरवर्द्धमानस्वामी देवभवाच्च्युस्वा पूर्वप्रयोपासनी गाँज्ञाभिधानकर्मशेषवशाद् ब्राह्मण रामप्रमाभिधाननगर निवासिनानद्विजातिजयाबादे वानन्दानिधानायाः कुनुत्पन्नः। अथ शांतिनावनिहासनचलनजनितावधिप्रयोग पुरन्दरप्रयुक्तगिमेपिनाम्ना देवेन कुराकानिधाननगर नायक सिद्धार्थाभिधान नरपतिप्र धानपल्या शिलाभिधानाया गर्भे संक्रमितः । ततो देवानन्दामुपलब्धचतुर्दशमहास्वप्नापहारा सम्जा
सर्वस्व पतिशोकसागरनिमग्नामवाधिनायो ! अस्म
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( २२८७) तित्थयर अनिधानराजेन्डः।
तित्थयर निमित्तमेषाऽनाख्येयदुःखमवाप्तवत्येवमेषाऽपि त्रिशना मद. गुरूद्वेगकृतोऽत्यन्त, नेयं न्याय्योपपद्यते ।। ६॥ चलनचेष्टानिमित्तमसुखमथ मा प्रापदित्यासोच्य निश्चलो
सर्वपापनिवृत्तिरशेषसावधानुष्ठानव्युपरतिः,यद् यस्मात्सर्वथा ऽचतस्थे । ततोऽसौ निस्पन्दतां गर्भस्यावगम्य गलितो गर्भो ममे. सर्वैः प्रकानिमित्ताभावेनापीत्यर्थः, एषा प्रवज्या, सतां विपु. ति भावनया गाढतरंसुःखसमुदयमगमत् । ततो भगवांस्तदु:
षां, मता इष्टा, इह तस्मादिति शेषो दृश्यः। तस्माद्गुरूद्वेगकखवितोदाय स्फुरति स्म । पर्यालोचयाञ्चकार च-यदुताऽदृष्टे
तो मातापितृचित्तसन्तापकारिणः, अत्यन्तमतिशयेन,तत्संबोध. ऽपि मयि मातापिवोरहो ! गाढः स्नेहः, दृष्टे पुनः परिचयादव
नपूर्वक शास्त्रोक्ततत्संबोधनोपायाप्रयोयपूर्वकं वा प्रवृत्तस्य,न गतगुणग्रामे गाढतरोऽसौ भावी, ततःप्रवजनतो वियुज्यमाने नैच, श्यं प्रवज्या, न्याय्या युक्ता, उपपद्यते घटते, पितृसंतापरशोकातिशयान्महाननन्तस्तापो भविष्यति, ततोऽनयोर्जी- क्षणोपायाप्रवृत्तत्वेन निमित्तभावेन तचित्तसंतापलकणपापबतोस्तत्संतापपरिहारार्थमप्रवजितेन मया भाव्यमिति सप्तममा- कारित्वात्तस्यति । परिवर्तव्यश्च तच्चित्तसंतापः । यदाह-"श्र. साऽनिग्रहं जग्राहेति लोकसमुदायार्थः ॥
पमिबुज्झमाणे कहिं वि पमियोहिजा अम्मापियरो।"प्रवज्याअकरार्थस्त्वयम्-जीवतः प्राणान् धारयतः, पितराविति | निमुखीकुर्वीतेत्यर्थः । " अपडिबुज्जमाणेसु य कम्मपरिणईए योगः । गृहवासे गृहस्थतायामस्मिन्नधुनातने, न पुनर्देवा- विहेपजा जहासत्ति तमुवगरणं, तो अणुनाए पमिवजिज ऽऽदिभवसम्भवेपि, यावद् यत्परिमाणमिति पितृजीवन- धम्मं ।” अथ नानुजानीतस्तदा “अणुबहे चेव उवहिजुत्ते क्रियाविशेषणम । मे मम संबन्धिनाविमौ प्रत्यक्काऽऽसन्नौ सिया।" अल्पायुरहमित्यादिकां मायां कुर्यादित्यर्थः । एवमुत्रिशबालिकार्थलकणौ, न पुनऋषनदत्तदेवानन्दास्वरूपौ। ता. पायप्रवृत्तमपि यदा नमुत्कयतः,तदा तौ त्यजेत्। न च तो त्यवदेव तत्परिमाणमेव, न पुनरधिकं विरतानिध्वनाश्त्यमु- जतस्तचित्तसंतापेऽपि तस्य दोषः, विशुद्धनाचत्वात् । यदाहतमवधारणम्, एतश्चाधिवत्स्यामीति क्रियाविशेषणम् । अधि. " सम्वहा अपडिबुज्कमाणे वपज्जा अद्धाणे गिलाणओ बस्यामि अध्यामिप्ये, गृहान् गेहम " गृहशब्दो हि पुंल्लिङ्गो सम्वत्थ चागनारण।" यथाऽध्वनि ग्लानीभूतयोः पित्रोरौषधार्थ बहुवचनान्तोऽप्यस्तीति ।” अथवा-राजत्वाद् बहुगृहाधिपति- गच्छतः तत्त्यागोऽत्याग एव भावतः, एवं तयोः स्वस्यात्वमनेन दर्शितम् । अहमपि न केवलं पितरौ गृहानधिवत्स्येत न्येपांचोपकाराय प्रवजन ति झातभावना । अत एव-"सोय. इत्यपिशब्दार्थः । इष्टमिच्छा. तदाश्रित्याधिष्ठितः, इच्छया | णमकंदण विन-वणं च तं क्खिो तो कुण । सेवइज च स्वच्छन्दतया, न पुनः पारवश्येनेति भावः । ननु तावन्तं का- अकज्ज, तेण विणा तस्स सो दोसो ॥१॥" इत्यादिकमाक्षिबं चारित्रमोहनीयकर्मविशेषोदये सति तस्य गृहावस्थानम् , प्येवं परिहतम् ." अब्भुवगमेण भणियं, न उ बिहिचागो पि अन्यथा वातत्र यद्याद्यः पक्का, तदा कर्मविशेषोदय एव तत्रा- तस्स हेउ त्ति । सोगाम्मि वि तेसिं, मरणे व विसुद्धचिचस्थानकारणं, नानिग्रहग्रहणं, तत् किं तद्ग्रहणेन ? अथवा- त्तस्स ॥१॥" क्वचित् पठ्यते-" सर्वपापनिवृत्ति ।" इति । चारित्रमोदनीयविशेषोदयाभाव इति पक्कः । तदप्यसङ्गतम् । तत्र व्याख्येयम्-सर्वथा सर्वपापनिवृत्तिरेषा सतां मता, गुरूमोहकर्मविशेषोदयाभावे विरतेरेव भावेन गृहावस्थानासम्भ- द्वेगकारिणश्चात्यन्त नेयं सर्वपापनिवृत्तिाग्योपपद्यत इति।६। बात् व्यर्थमेवानिग्रहकरणम् ?। अत्रोच्यते-मोहनीयविशेषोदय
कस्मादेवमित्याहएव तत्र तस्यावस्थानं, किं तु तत्कर्मणः सोपक्रमत्वेन पित्रुद्वे
प्रारम्भमङ्गलं ह्यस्याः , गुरुशुश्रूपणं परम् ।। गनिरासाऽऽद्यबलम्बनाभिग्रहानङ्गीकरणे विरतेरेव भावान्न गृ.
एतौ धर्मप्रवृत्तानां, नृणां पूजाऽऽस्पदं महत् ॥ ७॥ हावस्थानहेत्वभिग्रहकरणमसङ्गतम्। उच्यते च सोपक्रमता कर्म. णाम् । यदाह-" उदयक्खयखवसमो-वसमा जंचेह कम्मुणो
प्रारम्भमङ्गलमादिमङ्गलं, हिर्यस्मात्, अस्याः प्रव्रज्यायाः, भणिया । दबं खित्तं कालं, नवं च भावंचतं पप्प ॥१॥” इति ।
गुरुशुश्रूषणं मातापितृपरिचरणं, परं प्रकृष्ट, भावमङ्गमित्यर्थः। इहोक्तविशेषणानिग्रहसक्षणं प्रावमाश्रित्य चारित्रमोहोदयः,
प्रारम्नमङ्गलतैवास्य कुतः १, इत्याह--एतौ गुरू धर्मप्रवृत्तानां तदत्रावलकणं च नावमाश्रित्य तत्क्षयोपशम इति न व्यर्थ
मोक्षहेतुसदनुष्ठानसमुपस्थितानां, नृणां पुंसां, नृग्रहणं च प्रधामनिग्रह करणमिति ।
नतया तेषां, न तु तदन्यव्यवच्छेदार्थम्। पूजाऽऽस्पदमहणाप.
दम, महद् गुरुकम् । यदाह-"ह मातापितृपूजा, प्रामुहिमननूक्तानिग्रहकरणात् पित्रुद्धगनिरासो महतां च स्थितिसि.
कयोगकारणं झेया। तदनुज्ञया प्रवृत्तिः, प्रधानदीकाविधानाकिरिति सङ्गतम, यत्पुनरिष्टकार्यसमृकिरिति, तदसाम्प्रतम,
थम् ॥१॥" गृहावस्थानस्य प्रवज्याविरोधित्वादित्यस्यामाशङ्कायामाह
पूजाऽऽस्पदत्वमेव समर्थयन्नाहइमो शुश्रूषमाणस्य, गृहानावसतो गुरू ।
स कृतज्ञः पुमान् लोके, स धर्मगुरुपूजकः । प्रव्रज्याऽप्यानुपयेण, न्याय्याऽन्ते मे नविष्यति ॥५॥
स शवधर्मभाक् चैव, य एतौ प्रतिपद्यते ।। ॥ श्मी प्रत्यक्ताऽसन्नी. गुरू इति संबन्धः। शुश्रूषमाणस्य परि
स इति । य एतौ प्रतिपद्यते स एव कृतज्ञः पितृकृतोपकारचरतो, मे इति योगः । तथा-तच्छुथूषणार्थमेव गृहान् गहमा
ज्ञाता, पुमान्नरः, लोके लौकिकमागें, तथा स एव धर्मगुरोबसतोऽधितिष्ठतः सतः,गुरू मातापितरी, प्रवज्वाऽपि चिकीर्षि: तानगारिताऽपि,प्रास्तां पित्रुद्वेगनिरासाऽऽदि, आनुपूर्वेण परि
दीवाचार्यस्य, पूजकः पूजयिता धर्मगुरुजका, नविष्यतीति पाट्या, न्याय्या न्यायोपपन्ना, युक्तेत्यर्थः। अस्ते गुरुशुश्रुषाब
गम्यते । नान्यः। यदाह-"उपकारीति पूज्यः स्याद्, गुरू चाऽऽद्यो
पकारिणी। तावप्यर्चयते यो न, स हि धर्मगुरुं कथम्?।१।" तथा साने एव, मे मम, भविष्यति संपत्स्यते ॥५॥
स इति। स एव शुद्धधर्मभा निहोषकुशलधर्मभाजनं नवति। कुत एतदेवमित्याहसर्वपापनिवत्तिर्यत, सर्वथैषा सतां मता।
चशब्दः समुच्चये। पवशब्दोऽषधारणे । तस्य च दर्शितः प्रयोगः। यः पुमान् एतौ मातापितरौ प्रतिपद्यते सेवनतोऽङ्गीकरोति ।
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(२२८) तित्थयर अनिधानराजेन्द्रः।
तित्थयर दुप्रतिकारित्वात्तयोः । माद च." दुपतिकारौ माता-पितरौ
जयतावहरो सियनो, अंबाकरफाससमियपिउदाहो ।१३। स्वामी गुरुश्च लोकेऽस्मिन् । तत्र गुरुरिहामुत्र च, सुष्क
(सहकिरियाए सुविहरी सयं पि 6ि) स्वयमपि शुभरतरप्रतीकारः॥१॥" ॥८॥ हा० २५ अष्टः
क्रिया: करोति यस्मात कारणात् सुविधिः ।।(अण(६) अथ जिननामसामान्यार्थी, विशेषार्थश्च कथ्यते । णी वि गन्जकामम्मि) जिनजनन्यपि गर्भकाले गर्भसमये सुवयधुरवहणा उसहो, नसहाऽऽश्ममुविणलंगणाओ य ।। विधिः-सा सम्यगाचारे रता जाता अतः सुविधिरिति जिरागाजिओ अजिओ, न जिया अक्खेसु पिउणंऽवा ।।
नस्य नाम दत्तम् । (जयतावहरो सिनो ति) जग
तापहरः,अतः शीतलः १०(अंबाकरफाससमिअपिउदाहोत्ति) (वयधुरवहणा उसहो) वतरूपा धुरा व्रतधुरा, तद्वदनाद् व.
अम्बायाः जनन्याः करस्पशात समितः जनकदाघज्वरो येन पभःबलीवर्दः, तर्हि ईरशाः सर्वजिना वर्तन्ते, भगवति वृषने
स तथा इति शीतलः १० । इति गाथार्थः ॥१३॥ को विशेषः, इत्याशङ्कायां विशेषार्थमाद-(उसहाश्मसुविणलं.
सेयकरो सिज्जमो, जणणीए देविसिज्जअक्कमणा। ग्णामो यति) जनम्या मरुदेव्या स्वामिन्या चतुर्दशस्व.
सुरहरिवमुहिं पुज्जो, पिउसमनामेण वसुपुज्जो ॥१४॥ नेषुप्रथमं वृषभदर्शनात्, च पुनः, वृषनलाञ्चनाद्वा वृषभः । (रागाजिनो अजिनो त्ति) रागाऽऽदिजिरजितो न पराजित
(सेयकरो सिज्जंसो) श्रेयस्करः कल्याणकारी, तेन श्रेयांसः इति अजितः२१एवंविधाः सर्वेऽपि, अजितजिने को विशेषः।
११ । (जणणाप देविसिज्जअक्कमणा) भगवति गर्नस्ये जनन्य।
देव्यधिष्ठितशय्याया आक्रमणात् । श्रेयांसदेवताऽधिष्ठिता शय्या (न जिया अक्खसु पिणंऽबा) भगवति गर्भस्थिते न जिता अकेषु पाशकक्रीडासु जिनजनकेन अम्बा जिनमाता। इति
पूर्वमनुत् केनाप्याक्रमितुमशक्या, तया जिनजनन्या गर्भा
नुभावतः सा शय्याऽऽकान्ता, श्रेयश्च जातमिति श्रेयांसः ११ । गाथार्थः ॥६॥
(सुरहरिवसुर्हि पुज्जो) सुरैर्देवैई रिभिरिन्द्रैर्वसुभिर्देवविशेषैः मुहाइसयसंजवओ, तइमो नुवि पनरसस्ससंनवओ।
पूज्यः, स एव वासुपूज्यः १२, (पिउसमनामेण वसुपुज्जो त्ति) अभिनंज्जिइ तुरिओ, हरीहि हरिणा सया गन्भे ॥१०॥ पितृसमाननाम्ना वा वासुपूज्यः १२॥ इति गाथार्थः॥ १४ ॥ ( सुहाइसयमंजवो तो) शुभाऽतिशयसंनवतस्तृ- विमलो उहा गयमलो, गम्भे माया वि विमलबुछितण। तीयः३। ईदृशाः सर्वे, संभवे को विशेषः १-(जुवि पनरसस्स. नाणाअणंतत्ता-ऽणंतोऽणंतमणिदाममुविणाओ।।१५।। संजवो ) नुवि पृथिव्यां प्रचुरसस्यस्य बदुधान्यस्य संजवतः ( विमलो दुहा गयमलो त्ति ) विमलो द्विधा गतमलो संभवजिनः ३ (अभिनदिजा तुरिओ हरीदि ति) अनि सा- वाह्यान्तरमलरहितः, तेन विमलः१३, (गम्भे माया विविमस्त्येन नन्द्यते चतुष्पष्टिदेवेन्डैः स्त्पते इति तुर्योऽभिनन्दनः४। मनबुकितणु त्ति ) स्वामिनि गर्भस्थिते माता जनन्यपि एवंविधाः सर्वे जिनाः, ततोऽस्य विशेषार्थमाह-(हरिणा सया निर्मलबुद्धिशरीरा जाता इति हेतोर्विमलः १३ । ( नाणागम्भे ति) देवेन्केण सदा गर्ने गर्नस्थे सति, प्राभिनन्द्यते इति
इअणंतत्ताऽणतो ति) ज्ञानदर्शनचारित्राणामानन्त्यतः-अनपूर्वोक्तमेवानुवर्तनीयमिति गाथाऽर्थः ॥ १०॥
न्तः १४ (अणंतमणिदामसुविणाश्रो सि) अनन्तं महत्प्रमाणं यसयमवि सुहमइभावा, अंबाइ विवायनंगओ सुमई।। मणिदाम तत्स्वप्नतो वा अनन्तः १४ । शत गाथार्थाः ॥ १५ ॥
अमलत्ता पउमपहो, पनमप्पहअंकसज्ज मोहलो ॥११॥ धम्मसहावा धम्मो, गन्ने माया वि धम्मिया अहियं । (सयमवि सुहमभावा) स्वयमपि शुभमतेभीवात्सद्भावात म. संतिकरणा न संती, देसे असिवावसमकरणा ॥१६॥ मतिः५(मंबा विवायभंगप्रो सुमत्ति) अम्बाया बिवादभ- (धम्मसहाबा धम्मो ) धर्मस्वभावाद् धर्मजिनः । ( गम्भे अतः सुमतिरनूदिति जिनस्य सुमतिरिति नाम । अत्रैकः सामा. माया वि धम्मिया अहियं ति) भगवति गर्भस्थिते माताग्याथै,सर्वजिनसाधारणत्वात्, द्वितीयो विशेषार्यश्चेति सर्वत्रापि ऽपि धार्मिकाऽधिकं जाता इति हेतोः धर्मजिनः १५ । (संज्ञेयम्। ५। (अमलत्ता पउमपदो त्ति) अमलत्वात् निर्मलत्वात तिकरणा उ सती) शान्तिकरणात् शान्तिः १६ । ( देसे प्रसि. पानः ६ (परमप्पहभंकसे जमा हलो त्ति) पद्मस्येव प्रना चोवसमकरणा ) तस्मिन् देशे अशिवस्योपऽवस्योपशान्तियस्यासी पचप्रभा, रक्तवर्णश्चात, पद्माङ्कत्वात्पनपनः, तथा करणाचा शान्तिः १६ । इति गाथार्थः ।। १६ ।। स्वामिनि गर्भस्थे जनन्याः पद्मराय्याया दोहदः समुत्पन्ना, दे कुंथु त्ति मही विप्रो, मिति रयणथूभमुषिणाओ। बतया पूरितः, अतः पद्मप्रनः ६ । इति गाथार्थः ॥ ११ ॥
बसाइवक्तिकरणा, अरो महारयण अरसुविणा |॥१७॥ मुहपासो य मुपासो, गन्ने माऊ ताणमुपासत्ता। | (कुंथुत्ति मही ठिो त्ति)को पृथिव्यां स्थितवानिति निरुक्तात् सियलेस्सो चंदपहो, समिप्पहापाणमोहलओ ॥१२॥ कुन्थुः। (नूमिठिपरयणथूभसुविणाओ)लूमिकास्थितरत्नस्तूपस्व. (सुहपासो य सुपासो) शोभनानि पाश्वाणि यस्यासौ सु.
प्नात् कुन्पुः१७ (वंसाइवुद्धिकरणा अरोत्ति) वंशाऽऽदिवृद्धिकपार्श्वः । (गम्भे माऊ तणुमुपासत्ता) स्वामिनि गर्न
रणात् अरः १८ । (महारयणभरसुविणा) महारत्नाऽरकस्वप्नास्थे मातुस्तनुः सुपाया जाता, अतः सुपाश्वः ७। (सियलेस्तो
दरोऽरजिनः १८ । इति गाथार्थः ।। १७।। चंदपदो ति) सितसेश्यः शक्तयेश्यस्तेन चन्प्रभः ८ ।
मोहाईमबजया, मबी वरमवसिज मोहलओ। (ससिप्पडापाणमोहलओ त्ति)जगवन्मातुः चन्द्रप्रभा शशि- मुणिसुबओजहत्या-निहो तहंऽवा वि तारिसी गन्भे।१८। पुतिस्तत्पानदोददतो वा चन्द्रप्रनः । इति गाथार्थः ॥ १२॥ | (मोहामवजया मलि ति) मोहाऽऽदिमवजयाद् मतिः, अत्रार्थमुहकिरियाए सुविही, सयं पिजपाणीवि गन्जकालम्मि! त्वादिकारः १६॥ (वरमसिजमोहनभो त्ति) वरमाध्यदाय्यायाः
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(२२८५) तित्ययर अनिधानराजेन्डः।
तित्थयर प्रधानपुष्पशध्याया दोहदाद् बामविः१६(मुणिसुव्वत्रो जहत्था- ॥३॥ अभिनन्द्यते देवेन्छाऽऽदिभिरित्यभिनन्दनः। तुज्यादित्वाद. ऽभिहो त्ति) मुनिसुवतः यथार्थानिधो यथार्थनामा-मन्यते जग- नट् । यद्वा-गर्भात्प्रभृत्येव अभीक्ष्णं शक्रेणाऽभिनन्दनादभितखिकालावस्थामिति मुनिः,सुष्ठ बतान्यस्येति सुवतः,ततो मुनि- नन्दनः॥ ४॥ शोभना मतिरस्य सुमतिः। यता-गर्मस्थे जनश्वासौ सुवतश्चेति,मुनिवत् सुव्रतो मुनिसुव्रत इति वा २०(तांबा स्याः सुनिश्चिता मतिरन्नूदिति सुमतिः॥ ५॥ निष्पकृतामली. वि तारिसी गजे ति) तथाऽम्बाऽपि मातापि, जगवति गर्नस्थे कृत्य पद्मस्येव प्रभाऽस्य पमप्रभः । यद्वा-पद्मशयनदोहदो मासति मुनिवत् सुव्रता जातेति मुनिसुवतः२०। इति गाथार्थः।१०। तुर्देवतया पूरित इति, पद्मवर्णश्च भगवानिति वा पापनः ॥६॥ रागाsssनामणेणं, गन्ने पुररोहिनामणा उनमी।
॥२६॥ शोजनौ पाश्वावस्य सुपार्श्वः । यद्वा-गर्जस्थे भगवति दुरियतरुचक्कनेमी-रिमाणनेमिसविणाओ॥१॥
जनन्यपि सुपावाऽनूदिति सुपार्श्वः ॥७॥ चन्मस्येव प्रभा (रागाऽऽइनामणेणं) रागद्वेषाऽऽदिशणां नामनेन नम्री
ज्योत्स्ना सौम्यलेझ्याविशेषोऽस्य चन्मप्रभः । तथा गर्भस्थे नृतत्वकरन नमिः।(गम्भे पुररोहिनामणा उ नमित्ति) गर्भ
देव्याः चम्पानदोहदोऽभूदिति चन्द्रप्रभः॥८॥शोजनो वि. पुररोधिनामनानामिः । अयमर्थ:-भगवति गर्भस्थे प्रत्यन्तनृपै.
धिर्विधानमस्य सुविधिः । यहा-गर्भस्थे जगवति जनन्यप्ये. रवरुद्ध नगरे भगवत्सुपुण्यशक्तिप्रेरितां प्राकारोपरि स्थितां
वमिति सुविधिः ॥ ६॥ सकलसवसन्तापहरणात शीतलः। भगवन्मातरमवलोक्य ते वैरिणो नृपाः प्रणता इति नमिः २१ ।
तथा गर्भस्थे नगवति पितुः पूर्वोत्पन्नाऽचिकित्स्यपित्तदादो (पुरियतरुचकनेमि ति)रितानि पापानि तपास्तरवस्त
जननीकरस्पर्शाउपशान्त इति शीतलः ॥१०॥ श्रेयांसावंसा. द्विषये चक्रनामः चक्रधारा, प्रतो नेमिः। (रिमणिनमिसुवि.
वस्य श्रेयांसः, पृषोदराऽऽदित्वात् । यथा-गर्भस्थेऽस्मिन् केनाजाश्री त्ति) भगवन्मात्रा स्वप्नेऽरिष्टरत्नमयो नेमिष्टस्तेन "पदै
प्यनाकान्तपूर्वा देवताऽधिष्ठितशय्या जनन्याऽऽक्रान्तेति श्रेयो कदेशे पदसमुदायातू" अरिष्टनेमिः २२ । इति गाथार्थः ॥१९॥
जातमिति श्रेयांसः ॥ ११ ॥ वसुपूज्यनृपतेरयं वासुपूज्यः । भावाण पासणणं, निसि जणणीसप्पपासणा पासो ।
यदा-गर्नस्थेऽस्मिन् वसु हिरण्यं, तेन चासो राजकुलं नाणाइधणकुलाई- वकणा बदमाणोणं ॥२०॥
पूजितवानिति । वसवो देवविशेषाः, तेषां पूज्यो वा वसुपून्यः, (भावाण पासणेणं)सकनसंसारवर्तिनां भावानां पदार्थानां दर्श
प्रज्ञाऽऽद्यणि वासुपूज्यः ॥ १५ ॥ विगतो मलोऽस्य, बिमलकानानेनाऽवलोकनेन पार्श्वः। (निसि जणणीसप्पपासणापासोति)
ऽऽदियोगाद्वा विमनः। यद्वा-गर्भस्थे मातुर्मतिस्तनुश्च विमक्षा निशि रात्रौ जनम्या शय्यासमीपे व्रजन सोऽवलोकित इति पा
जातेति विमलः ॥ १३॥ न विद्यते गुणानामन्तोऽस्यानन्तः;
अनन्तजिदेकदेशो वा अनन्तः, "भीमो जीमसेनः" इति चंः २३॥ (नाणाधणकुलाईण वरुणाबरूमाणोत्ति)ज्ञानदर्शन
न्यायातू । स चासौ तीर्थकृच्च अनन्ततीर्थकृत् ॥ १४ ॥२७॥ चारित्राणांबर्द्धनाद धनकुलादीनांच वर्षानतो बर्द्धमानः। अत्र
मुर्गती प्रपतन्तं सत्वसवातं धारयतीति धर्मः। तथा गर्भस्थे झानाऽऽदीनां वर्द्धनाद वर्कमान इति सामान्यार्थः कुलधनाऽऽदी
जननी दानाऽऽदिधर्मपरा जातेति धर्मः ॥ १५॥ शान्तियोगात नां बर्द्धनाद् वर्षमान इति विशेषार्थश्व २४ाति गाथार्थः॥२०॥
तदात्मकत्वात् तत्कर्तृकत्वाच्चाऽयं शान्तिः । तथा गर्नस्ये अथ वीर इति मामापेक्षया सामान्यविशेषार्थमाह
पूर्वोत्पन्नाऽशिवशान्तिरभूदिति शान्तिः॥१६॥ कुः पृथ्वी तहवा भावारिजया. वीरो दहमरवामणीकरणा।
स्यां स्थितवानिति कुन्थुः, पृषोदराऽऽदित्वात् । तथा-गर्नस्थे सामनविसेसेहिं, कमेण नामत्थदारगं ॥१॥
भगवति जननी रत्नानां कुन्युराशि दृष्टवतीति कुन्थुः ॥ १७ ॥ (अहवाभावारिजया वीरोत्ति)अथवा भावारीणामन्तरङ्गाऽऽ. "सर्वो नाम महासत्वः, कुसे य उपजायते । तस्याभिवृ. रोणां जयाद् बीरः २४। (उठसुरवामनीकरण ति) बामल की- कये वृद्ध-रसावर उदाहृतः॥१॥” इति वचनादरः। तथाक्रीमायां दुष्टसुरवामनीकरणाद् वीरः१४। (सामनविसेसेहि गर्भस्थे भगवति जनन्या स्वप्ने सर्वरत्नमयोऽरो दृष्ट इत्यर: ति) सामान्यविशेषाभ्यां क्रमेणानुक्रमेण (नामत्थदारपुगं) ॥ १८॥ परीषहाऽऽदिमवजयान्निरुक्तान्मद्विः। तथा-गर्भस्थे भ. नामार्थेन नाम्रोऽर्थद्विकेन द्वाराद्विकं शेयमिति गाथार्थः॥ २१॥ सत्त०४०-४१ द्वार।
गवति मातुः सुरभिकुछममाव्यशयनीयदोहदो देवतया परित
इति मल्लिः ॥ १५॥ मन्यते जगतस्त्रिकालापस्थामिति मुनिः, " "एतस्यामवसर्पिण्या-मृषजोजितशभवी ।
"मनेरुदेतो चास्य वा” ॥ (उणा० ६१२) इति प्रत्यये अनिनन्दनः समति-स्ततः पद्मप्रनानिधः ।। २६ ।। उपान्त्यस्योत्वं, शोभनानि व्रतान्यस्य सुव्रतः, मुनिश्चासौ सु. सुपार्श्वश्चन्द्रप्रभश्च, सुविधिश्वाऽथ शीतलः।
वनश्च मुनिसुव्रतः । तथा-गर्भस्थे जननी मुनिवत् सुवता श्रेयांसो वासुपूज्यश्च, विमलोऽनन्ततार्थकृत् ॥ २७॥ जातेति मुनिसुव्रतः ।। २० ।। परीषहोपसर्गाऽऽदिनामनात " नमेधर्मः शान्तिः कुन्थुररो, मलिश्च मुनिसुव्रतः।
स्तु वा"।। (उणा०६१३) इति विकल्पेनोपान्त्यस्येकाराभावप. नमिनेमिः पाचो वीर-श्चतुर्विशतिरहताम" ॥ २० ॥ ते नमिः । याबा-गर्भस्थे भगवति परचकनृपैरपि प्रणतिः पतस्यामिति वर्तमानायामवसर्पिण्यां दशसागरोपमकोटी. कृतेति नमिः ॥११॥ धर्मचक्रस्य नेमिवन्नामः नेमीतीनन्तोकोटिप्रमाणायां कासविशेष, ऋपति गच्कृति परमपदमिति ऽपि दृश्यते । यथा-" वन्दे सुव्रतनेमिनौ।" इति ॥ २२ ॥ स्पृ. "ऋषिवृषिलुसिभ्यः कित्"। ( नणा० ३३१) इत्यभे ऋ. शति झानेन सर्वभावानिति पार्श्वः । तथा-गर्भस्थे जनम्या पभः । यद्वा-"कावृषभवाञ्छनमद्भगवतो जनन्या च चतु. निशि शयनीयस्थयाऽन्धकारेसो दृष्ट इति गानुनाचोऽयमिति दशानां स्वप्नानामादावृषभो दृष्टस्तेन ऋषभः ॥१॥ परीघहाऽऽ- मत्वा पश्यतीति निरुक्तात्. पावः, पार्थोऽस्य वैयावृष्यकरो दिमिन जित इति अजितः । यद्वा-गर्नेस्थेऽस्मिन् द्यूते राक्षा यकः, तस्य नायः पार्श्वनाथः, "भीमो जीमसेनः" इति न्यायाद जननी न जितेत्यजितः ॥ २॥ शं सुखं भवत्यस्मिन् स्तुते शंभ- घा पार्श्वः ॥ २३ ॥ विशेषेण ईरयति प्रेरयति कर्माणीति धीरः वः । यता--गर्भगतेऽध्यमित्रत्यधिकसस्यसंभवातू संभवोऽपि । ॥४॥ त्यमिधानचिन्तामसीधी हेमचन्सूरयः।
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तित्थयर
( २२७०) अभिधानराजेन्द्र |
निःशुभकम्मूलगु सेसार निमितं (२८७) द्वयोजिनयोः ऋषभ१वीरयोः २४ शासने, मूलगुणेषु निशि भोजन प्रत्याख्यानम, ( सेमापुत्तरगुणेसु निसि भुत्त ) शेषाणां द्वाविंशतिमितानां जिनानामुत्तरगुणेषु निशि भोजनप्रत्याख्यानम् । सत्त० १३४ द्वार ।
प्रकीर्णकानि
नियनियसीसपमाणा, नेया'
....सध्येसि पन्नगा ससीसकथा | ( 200 ) सर्वेषां जिनानां प्रकीर्णकानि स्वशिष्यकृतानि प्रवन्ति मि जनिजशिष्यप्रमाणानि येषां जिनानां यावन्तः शिष्यास्तेषां तावत्प्रमाखानि प्रकीर्णकानि प्रथविशेषा ज्ञेयाः । सत०] १२४ द्वार ।
(09) पञ्चकल्याणकम्
ते
पचमप्प रहा पंच चित्ते होत्या । तं जहा- चित्ताहि चुए, चइत्ता गर्भ वक्ते, चित्ताहिं जाए, चित्ताहिं मुंडे नवित्ता अगाराओ अलगारियं पव्वइए, चित्ताहिं अरे विव्वाधार निरावरणे कसिले पमिपुन्ने केपसवरनाणदंसणे समृध्यमे, चिताहि परिनिव्यए ।। १ ।। पुष्पदंते रहा पंच मूले होत्या । मूझेणं चुए, चइत्ता गर्भ वकते एवं चैव ।
अभिलावे इमाम गाहाओ अणुगंतव्या44 पचमप्यभस्स चिता, मूले पुरा छोड़ पुप्फदंतस्स | पुब्वाऽसादा सीयल इस उत्तरामितस्त्रया || १ || रेवश् य अंतजियो, पूसो धम्मस्स संतिणो भरणी । कुंघुस्स फलियाओ, अररस तह रेवईयो य ॥ २ ॥ मुणिसृव्वयस्स सवणो, आसिणि नमिलो य नेमिणो चित्ता । पासस्स विसाहाओ, पंच य इत्युत्तरे वीरो || ३ || " समणे जगवं महावीरे पंच हत्युत्तरे होत्या । तं जहा - हत्थुचराहिंचुए, चइता गन्धं वकंते, हत्युत्तराहिं गन्भाग
साहर, इत्युत्तराहिं जाए, हत्युत्तराहिं मुंमे भवित्ता ०जाव पव्वइए, हत्युत्तराहिं अणंते अणुत्तरे ० जाव केवझरनादंसणे समुत्पन्ने ।
पद्मादिषु षष्ठः पञ्च यवनाऽऽदिदिनेषु चित्रान त्रविशेषो यस्य स पञ्चचित्रः, चित्रानिरिति रूढ्या बहुवचनम्। तोर्णपरमोपरिपाकशित्सागरोपमस्थितिकात् युवा च (ति) कान्त उत्पन्नः कौशाम्यां धराभिधानमहाराजभार्यायाः सुसीमानामिकायाः माघमासबलपांकाद्वादश्यां तथा मुण्डो भूत्वा केशका रा गारितां श्रमणां प्रब्रजितो गतोऽनगारतया च प्रबजितः का तथाऽमन् पर्यायानन्तन्यान धनुत्तरं सर्व ज्ञानोत्तमत्वात् नियघातमप्रतिपातित्वात् निरावरणं सर्वथा
तित्ययर
3
स्वावरणक्षयात्. कटकुरुचाऽऽद्याचरणाभावाद्वा, कृत्स्नं सकलप दार्थविषयात परिपूर्ण स्वपोर्णमासीचन्द्रबिम्बवत् । किमित्याद - केवलं ज्ञानान्तरासदायत्वात् संशुत्वाद्वा । श्रत एव वरं प्रधानं केवलवरं ज्ञानं च विशेषा बभासं, दर्शनं च सामान्यावभासं ज्ञानदर्शनं तच्च तचेति केवलवरज्ञानदर्शन, समुत्पन्नं जातम, चैत्र शुरू पञ्चदश्याम् । तथा गत मार्गशोलेकादश्याम् आदेशा न्तरेण फाल्गुनयलचतुय्यमिति ॥ ( एवं चेति) प सूत्रमिव पुष्पदन्तसूत्रमध्यख्येयम एवमनन्तरोकस्वरूपेण । एतेनानन्तरत्वात्प्रत्यक्षेणानिलापेन सूत्रपाठेने मास्तिस्रः सूत्रसंग्रदणिगाथा अनुगन्तव्या अनुसर्त्तव्याः शेषसूत्रानिलादनिष्पादनार्थम् (पप्पखेत्यादि तत्र प कच्यवनादिषु पञ्चसु स्थानकेषु भवतीत्यादिगायाक्षराय वक्तव्यः, सूत्राभिलापस्त्वाद्यसूत्रद्वयस्य साकादर्शित एव । इतरेषां त्वम्-"सीयलेणं अरहा पंच पुव्वासाढे होत्या । तं जहावासादा चुप चापुसा जाए।" इत्यादि । एवं सर्वाएयपीति । व्याख्या त्वेवम- पुष्पदन्तो नवम तीर्थकर भगतकल्यादे कोनविंशतिसागरोपमस्थितिका फा गुनबहुलवतः च्युत्वा काकन्दीनगर्यो सुधीराजनायाः रामान्निधानायाः गो सूत्रे मार्गपञ्चम्पातः तथा मूल ज्ये
प्रतिपदि मतान्तरेण मार्गशीपंपां निष्कामतः । तथा मूल व कार्तिक शुद्ध तृतीयायां केवलज्ञानमुत्पन्नम्। तथाऽश्वयुजः शुद्धनवम्याम्, आदेशान्तरेण वैशाखबहुलषष्ठयां, निव इति । तथा शीतल दशमान प्रकल्पाद्विशति लाग रोपमा स्थितिकाद्वैशाख पूर्वपादानतः वाच भरे दरपनृपतिज्ञायया नन्दाया गया यु कान्तः तथा पूर्वाषाडास्येव मावलाश्यां जाता तथा पूवाषाढाचेच माधवदुलद्वादश्यां निष्कान्तः तथा पूर्वापादा पौष शुभे मतान्तरेण बहुत चतुर्दश्यां ज्ञानमुपन म्, तथा तत्रैव नकुत्रे श्रावणशुद्धपञ्चम्यां, मतान्तर - श्रावणब हुतियायां निवृत इति एवं गाथात्रयोक्तानां शेषाणा मपि सुत्राणां प्रथमानुयोग पदानुसारेणोपयुज्य व्याख्या कार्या नवरं चतुर्दशसूत्रेऽभिलापविशेषोऽस्तीति तद्दर्शनार्थमाह- (म मणे इत्यादि) हस्तोपलकिता उत्तरा हस्तोत्तरा, हस्तो बोत्तरो यासां ता स्तोत्तरा उत्तराफाल्गुन्यः पञ्चनगर्भहरणाssदिषु हस्तोत्तरा यस्य स तथा गर्भात् गर्भस्थानात् । (गमं ति गर्ने गरे तो तो नितुतिम कार्तिकामावास्यायामिति । स्था० वा० १ ० ।
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(१८) पर्यायान्तकृद्भूमिः
चिप नागाओ मुली यम्माण सिद्धिगयो । अंतमुले तिचछ परिसइदिई ।। २२४ ॥ तेषामुपभनेमिपायीलिमा केवलज्ञानादमुनीनग कर्मकाणां सिद्धिगमो मोकगमनं जास् केवलोत्पत्यनन्तरमन्तर्मुहूर्तेन मोकमार्गश्चलितः प्रथमभगवति मरुदेवी स्वामिनी मोकं गता १। नेमिजिनस्य केवलज्ञानाद्वर्षद्वयादनन्तरं मोकमागंश्चलितः २ । पार्श्वजिनस्य केवलोत्पत्यअवर्षण मोकमार्गलितः ३ वारजनस्य केवलदनन्तरं वर्षचतुष्यादनन्तरं मोनालि
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(२२५१) तित्थयर अन्निधानराजेन्दः ।
तित्थयर रिक्तजिनानां विंशतिपारगतानामेकदिनाऽऽदिषु मोक्षमार्गश्व- इति प्रथमगाथया चतुर्दशप्रवर्तिनीनामानि । आर्या, शिवा, वितः ५ । इति गाथार्थः ॥ ३२४॥ सत्त० १५९ द्वार ।
श्रुतिः (शुभा) दामिनी (अञ्जका) रकी (भावितात्मा) बन्धुमअथ प्रतिक्रमणसंख्या
तिनामा, पुष्पवती, अनिला (अमिला) यक्वदत्ता (यक्षिणी)तथा
पुष्फचूला, चः समुच्चये, चन्दनासहितास्तु पताः प्रवर्तिन्यः । दोसिय-राडय-पक्खिय-चउमामिय-बच्चनयनामाओ।
प्रव० द्वार। दुएई पण पमिकमणा, मज्झिमगाणं तु दो पढमा ३०६।
प्रथमश्रावकाःदेवासिक-रात्रिक-पाक्षिक- चातुर्मासिक सांवत्सरिकनामतः सेयंस नंद सुजो, संखो उसहस्स नेमिमाईणं । (११८) ( दुराहं पण पमिकमणा ) द्वयोर्जिनयोः प्रथमचरमजिनयोः
श्रीऋषभस्य प्रथमः श्रावकः श्रेयांसनामा १ । नेमिजिनस्य पञ्चाऽपि प्रतिक्रमणानि भवन्ति । (मज्झिमगाणं तु दो पढम
नन्दः । पाश्वस्य सुद्योतः ३ शङ्खो वीरम्य ४ । शेषाणां वि. त्ति) मध्यवर्तिनां द्वाविंशतिजिनानां शासने द्वे प्रथमे प्रतिक
शतिजिनानामप्रसिघाः, पुरातनग्रन्थेष्वनिबन्धनात् । सत्त. मणे देवसिकरात्रिक अक्षणे भवतः, नान्य इति गाथार्थः ।३८६।
१०५ द्वार। सत्त० १३३ द्वार।
प्रथमश्राविकाः-- प्रथमगणधरनामानि
सहि मुभद्दा महसु-व्वया सुनंदा य सुलसा य ।। (२१७) एएसिं च उवासाए तित्थगराणं चउन्धीसं पढमसीसा
ऋषत्रस्य सुनद्रा १। ने मेः महासत्रता पार्श्वस्य सुनन्दा ३। होत्था । तं जहा
वीरस्य सुनसा ।। अन्येषामप्रसिकाः, ग्रन्थेष्बनिबन्धनात् । “पढमेऽत्थ जसजसाणे, बीए पृण होड़ सीहसोगे य ।।
सत्त०१०६द्वार। चारूरु वज्जणाभे, चमरे तह सुबए विदब्भे य ॥३॥
प्रत्येकबुरुमुनिसंख्यादिप्से वाराहे पुण, आणंदे गोथुने मुजूमे य ।
नियनियसीसपमाणा, नेया पत्तेअबुद्धा वि । (१७०) मंदरे जसे अरिहे, चक्का उहसंवकुंज अनिणए य ॥४॥ प्रत्येकबुद्धा भपि मुनयो निजनिजशिष्यप्रमाणा श्रेयाः। सत्त. इंदकुंभे य मुंजे, वरदत्ते अजदिला इंदनूई य ।
१२५ द्वार । ('मुणि' 'साहु' शब्दे विशेषः) उदितोदितकासा, विसुखवंसा गणेहि उवया । (प्रमाणानुबम् 'अंगुल' शब्दे प्रथमजागे ४४ पृष्ठे निरूपितम्)
प्रमाद-- तित्थप्पयत्तयाणं, पढमा मिस्सा जिणवराणं ।।४।।"
वीरुसहाण पमाओ, अंतमुहुत्तं तहेवऽहोरत्तं । (१७) पुरमरीको वृपानसेनाऽपरनामा १, सिंहसेनः २, चारूरुः ३, घजनानः ४, चमरगणिः ५, सुव्रतः (मतान्तरेण प्रद्योतनः) ६,
वीरस्यान्तमुहर्तमात्र प्रमादो जातः। ऋषजस्याऽहोरात्रं जाता। विदर्भः७,दत्तः,वाराहः ६,श्रानन्दः (मतान्तरेण पद्मनन्दः)१०,
अन्येषां प्रमादो नास्ति । सत्त०८५ द्वार।
परीषहाःकौस्तुभः (कृतार्थः) ११,सुनूमः (सुधर्मा)१२,मन्दरः १३, यशोध
नदिता परीसहा सिं, पराइया ते य जिणवरिंदेहि। र:१४,अरिष्टः१५,चक्रायुधः१६,साम्बः १७,कुम्भ:१८,अभिनयः । (भिषजः)२६,इन्द्रकुम्भः(मल्ली)२०,शुभः५१,वरदत्तः२२,आर्यद- नदिताः परीषहाः शीतोष्णाऽऽदय एषां भगवतां तीर्थकृतां, त्ता२३,इन्धभूतिः२४॥ एतानि प्रथमगणधराणां नामानि *स०। परं ते परीषहाः सर्वैरपिजिनवरेन्ः पराजिताः । गत परीषहप्रथमप्रवर्तिन्य:
द्वारम् । मा० म०१ अ.१ खण्ड । एएसिणं चनव्वीसाए तित्थगराणं चउव्वीसं पढमासस्स
(EE) अथ जिनप्रातिहार्याएयाहणी होत्या । तं जहा
कंकेसि कुसुमबुट्ठी, दिव्वणिचामरासणारं च । " बंनी फग्ग सामा, अजिया तह कासवी रई सोमा । | जावनयभेरि (दुंदुहि) उत्तं,जिणाण इय पामिहेराइं।२०७। सुमणा वारुणि सुजसा, धारणि धरणी धरा पनमा ।। (कंकेतिकुसुमबुद्धित्ति) जिनशरीराद् द्वादशगुणः कङ्कोल्लेअजा सिवा सुई दा-मणी य रक्खी य बंधुवई।
पादपः,अशोकाऽपरपर्यायः॥ पञ्चवर्णकुसुमानां वृष्टिः। (दिच. पुष्फवई अनिन्द्रा जक्खदिन्न तह पुप्फचूला य ॥४३॥
न्मुणि चामरासणाईच)दिव्यध्वीनः३,श्वेतचामराणि, स्वर्ण
रत्नादिमयं सिहासनम् श(भावलयभरिइंदुहित्ति)भावक्षय चंदणसहिन पवत्तणि, चनवीमाणं जिणवरिंदाणं ।।" मौलिपृष्ठे भामण्मलम् ६, नेरिदुन्दुभिनामा बाद्यविशेषः । तत्र ब्राह्मी, फल्गुः, श्यामा, अजिता, काश्यपी, रतिः, सोमा, (छत्त) छत्रमानपत्रं जिनमस्तकोपरि।(जियाण श्य पामिसुमना, वारुणी.सुलसा (सुयशाः) धारिणी, धरणी, धरा, पद्मा, हेराई) जिनानामेतानि प्रातिहार्याएयुक्तानीति गाथार्थः ॥२०॥ * "सिरिनसहसेण पहुस-दसेण चारूरु वजनाहऽक्वा ।
सत्त०६९द्वार। चमरो पज्जोयविय-भदिन्नपहुणो वराहो य ।।३०६।।
(तीर्थकराणां पारणकालो, पारणच्याणि च 'उसह' शब्दे पउनंद कयत्यो वि य, मुहम्ममंदरजसा अरिट्ठो य ।
हितीयभागे २१३३ पृष्ठे निरूपितानि) चका उह संबो कुं-भ भिसह मही य सुभो य ॥३०७॥
(१००) पारणदायका:बरदत्त अज्जदित्रा, तहिदभूई य गणहरा पढमा।"प्रथाद्वार।
एएसि ए चननासाए तित्यगराणं चउचीसं पढमभिइति प्रवचनसारा EXIदी नामनेदोऽगि।
क्वाटापारी होत्या । तं जहा
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(9203) अभिधानराजेन्क |
तित्थयर
,
"सिस भने सुदिदचे यदद पमेय सोमदेवे, माहिंदे सोमदत्ते य ॥ २६ ॥ पुस्से पुत्र पुण, एंद सुगंदे जए य विजए य । ततो यम्पस, सुमित तह वग्पसीहे अ ॥ २७ ॥ अपराजिऍ दिससेणे, वीसइमो होइ उसभसेणो य । दिछे वरदत्त पो बहुलो तह आपुब्बीए ॥ २८ ॥ एए वि मुलेसा, जिलवरजत्तीइ पंजालमा । तं का समर्थ, मिझाई जिबरिंदे" || २ए ॥ श्रेयांसः १, ब्रह्मदत्तः २. सुरेन्द्रदत्तः ३, इन्द्रदत्तः ४, पद्मः ५, लोमदेयः ६७ सोमदत्तः पुष्यः १०:११, सुन्छः १२ जयः १३, विजयः १४, धर्मसिंहः १५. सुमित्रः १६, व्याघ्रसिंहः व्यासि: १७, अपराजित १८ विश्वसेना १६ से २० (पाठान्तरे ब्रह्मतः २०) दि २१ र २२ पाठान्तरे बर दिनः २२) धन्या २३ बलमाः २४ पानुजनानां प्रथमनिदाता केयाः । स० ।
पारणदायक गतिः
अ य तम्भवसिका, सेसा तम्मि उ भवे व तए वा । सिकिस्त समासे, जिणाण पविपजा ।। १६७ ।। अष्टौ प्रथमदातारः तस्मिन्नेव भवे मोकं गताः, शेषाः षोडशजिनप्रथमदातार तमिव भवे तृतीये वा नवे जिनानां समीपे प्रतिपद्मप्रयज्योः सन्तः सरस्यन्ति मोक्षं यास्यतीति । सस० 90 द्वार ।
पारणदायक दिव्यप पण दिव्वा जलकुसुमा ण वुद्धि वसुहार चैलउक्खेवो । दुदिकुणी सुराणं, अहो सुदाणं ति घोसण्या ॥ १६८ ॥ ( विवरणं तु 'उसह' शब्दे द्वितीयजागे ११३३ पृष्ठे गतम् ) तत्र पारखदायक वसुधाराष्टि:ससिपिजा, जहियं का उ पढपक्खिा । तहियं वसुधाराओ, सरीरमेत्ता र बुट्ठाओ ||३२|| सर्वेषामपि जिनानां यत्र प्रथमभिका लब्धा, तत्र वसुधारा (सरीरमेत्ता उत्ति) पुरुषमात्रा उच्चत्वेन देवैर्वृष्टा । स० स० । सवालसकोडी, मुभी होश उकोमा ।
लक्खा सवालस, जहन्निया होइ वसुहारा ||१६|| सार्द्धादशकोटिस्वर्णवृष्टिश्च भवति उत्कृष्टा, साईद्वादशलक्काणि जघन्यका भवति वसुधारा ॥ १६६॥ सत्त० ८० द्वार । जिनानां पारणकपुराण्यादइत्यिणपुरंभा, सावस्थी वह अहम विजयपुरं । मंजस्थलंच पाक्षि तह पममं च ।। १६१ ।। सेयपुरं रिफपुरं, सिकत्व महापुरं च धन्नकर्म तवमा सोमण मंदिरं चैव चकरं ।। १६२ || रायपुरं तह मिहिला, रायगिहं तह य होइ वीरपुरं । बारवई कोवकमं, कुद्धागं पारणपुराई ॥ १६३ ॥ हस्तिनापुर पात्रान्तरे गजपुरम १ अयोध्या २ श्रावस्ती ३। अयोध्या ४ | विजयपुरम ५ । ब्रह्मस्थलम् ६। पाटलिखएमम् 9 | तथा पद्मलएमं नगरम् ८ ॥ श्वेतपुरम् । रिष्टपुरम् १०।
तित्ययर
सिद्धार्थपुरम् ११ | महापुरम् १२। धान्यकडम १३ । वर्द्धमानपुरम १४ । सौमनस्यम् १५ । मन्दिरपुरम् १६ । चक्रपुरम् १७ ॥ राजपुरम् १८ | मिथिला १६ | राजगृहम् २० । वीरपुरम् २२ द्वा. रखती २२ । कोपकडं नगरम् २३ । कुद्धागः सन्निवेशः २४ । एतानि जिनानां पारणकपुराचीत्यर्थः स ७६ द्वार (१०) नाम
अंबुद्दीवे णं दीवे भारहे वासे इमीसे णं श्रसप्पिणीए चवी विश्वमराणं पियरो होस्या तं जहा
" णाभी य जियसत्तू य, जियारी संवरे वि य । मेढे घरे पट्टे प, महसेने व वत्तिए । ५ ।। सुग्गी दरडे विपुले पखतिए । far, वसृपुज्जे कयवम्मा सीहसेणे, भाष्य पिल्ससेण य ॥ ६ ॥ सूरे सुदंसणे कुंभे, सुमित्ते विजए समुदविजए य । राया य आससेणे, सिछत्थे चिय खत्तिए ॥ ७ ॥ उदितोदितकुलवंसा, विमुका गुणेहिं उनलेया । तित्यवतयाणं, एए पियरो जिशवराणं ॥ ७ ॥ " नाभिः १, जितरा २ जिताशि २ : ४, मेघः घर: ६, प्रतिष्ठः ७, महासेनः सुग्रीवः ९, दृढरथः १०, विष्णुः ११, व सुपूज्यः १२, कृतवर्मा १३, सिंहसेनः १४, भानुः १५, विश्वसेनः १६, सूरः १७, सुदर्शनः १० मा १० सुमित्रः २०, विजयः २१, समुद्र विजयः २२, अश्वसेनो राजा २३, सिकार्थः २४ । एते क्रमेण चतुर्विंशतिरतां पितरः कृत्रिया राजानः । स० । तीर्थकर पितृणां गतिः
नागेसुं उस पिया, साणं सत इति ईसा । अट्ट यसकुमारे, माहिदे अह बोधना ॥३२८॥ नागेषु नागकुमारेषु प्रयमपतिद्वितीयनिकाय सुरेषु श्री ऋषभनाथपिता नाजिनामा गत इति दोषा तथा शेषासामजितनाथ प्रभृतीनां च प्रजान्तानां सप्तानां पितरो जवन्ति गता ईशाने द्वितीयास्तु-श्रीजितामिपितुर्जितशत्रोर्मुक्तिगमनमाचकते, अनुयोगद्वाराऽऽदो तथैव जणनात् । यदाह श्रीडे मसूरि :
"राजा बाहुबलि सूर्य-यशाः सोमयशा अि श्रन्येऽप्यनेकशः केऽपि, शिवं केऽपि दिवं ययुः ॥ १ ॥ जितशत्रुः शिवं प्राप, सुमित्रस्त्रिदिवं गतः ॥ " इति योगशास्त्रे, विपरितेपिच । तथा सुविधा व पितरः कुमार तृतीयदेवलोके तथा कुप्रमुखानामपितरो मारेन्द्र चतुर्थदेवलो के गता बोकव्याः । प्रव० १२ द्वार । (०२) पूर्वप्रवृत्तिकाल:पुत्रवित्ति जिला, असंखकालो इहासि जा कुंप पासं जा संखिज्जो, वरिमसहस्रं तु वीरस्स ।। ३२७ ।। ऋषभादीनां पूर्वप्रवृत्तिकाल एवम पनादारज्य कुन्थुजिनं यावत् असंयतकालमा पूर्वप्रवृत्तिः अरजिना दारभ्य पाश्र्वनाथ पर्यन्तं संख्यातकालः पूर्वप्रवृत्तिः । वीरस्य सहस्रवर्षपर्यन्तं पूर्वप्रवृत्तिरासी सत्त० १६२ द्वार | पूर्वविच्छेदका नम्
एमेव यकाली, नवरं वीरस्म वीससमसहसा ।
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(५२४३) तित्ययर अभिधानराजेन्सः ।
तित्थयर पासस्स नत्थि सो वा, सेसमयपवित्ति जा तित्यं ॥३२॥
मुनिसुव्रतस्य नव भवाःएवमेव पूर्वरीत्या छेदकालोपि यः । श्रीऋषभस्यासंख्यात
सिवकेन मुहम्ममुरे, कुवेरदत्त तियकप्पि वजंकुंमन्नओ। कालं यावत्पूर्वव्युच्छेदः । एवं कुन्युजिनं यावद् केयम् । ततो- बंभे सिरिवम्मनिवो, अवराई मुन्धो नवमे ॥ २६ ॥ ऽरजिनस्व संख्यातकासं यावत् पूर्वव्युच्छेदः । एवं पार्श्वनाथं प्रथम नवे शिबकेतुनामा राजा १ द्वितीयभवे सौधर्मे देवः २। यावद् केयम् । नवरं वीरस्य विशतिवर्षसहस्राणि पूर्वविच्छेदः।। तृतीयनवे कुबरदत्तनामा नृपः ३। तुर्यनवे तृतीयकल्प सनत्कुश्रीपाश्र्वनाथस्य स पूर्वविच्छेदकालो वा नास्ति । अत्र विकल्पः । मारे देवः । पञ्चमनवे बजकुराममनामा राजा ५ | षष्ठे नवे केपाश्चिदाचार्याणां मतमाश्रित्यावसेयः। शेषश्रुतप्रवृत्तिः याव. ब्रह्मनाम्नि पञ्चमदेवलोके देवो जातः ६ । सप्तमभवे श्रीवमरातीर्थम् । अयमयः-यावद् यस्य तीर्थक्करस्य तार्थ तावत्कालं जा जातः ७ । अष्टमेऽपराजितनाम्नि तुर्यानुत्तरे विमाने देवः पूर्वव्यतिरिक्ता श्रुतप्रवृतिरिति गाथार्थः । सत्त० १६३ द्वार । ८ानबमे भवे मुनिसुव्रतजिनः । (१०३) पूर्वभवनिरूपराम
नेमिनाथस्य नव भवा:(ऋषभस्याटो पूर्वभवाः 'उसह ' शब्द द्वितीयभागे ११३३ धणधणवइ सोहम्मे, चित्तगई खेयरो य रयणवई । पृष्ठे कथिताः)
माहिदे अवराश्य, पीइमई पारणे तत्तो॥२७॥ चन्द्रप्रजस्य सप्त भवाः
सुपश्ट्ठो संखो वा, जसमइ भजाऽबराइयविमाणे । सिरिवम्मनियो सोह-म्मसुरवरो अजियसेणचक्की य।
नेमिजिणो राईमइ, नवमनवे दो वि सिक्का य ॥२८॥ अच्चुयपहु पउमनिवो, य वेजयंते य चंदपहो ।। २३ ।।
प्रथमभवे-धननामा राजाऽनृत्, तस्य धनवती राशी १। द्वितीये प्रथमे भवे श्रीवर्मनामा राजा ।। द्वितीय नवे सौधर्मदेवलो
भवे सौधर्म कल्प द्वावपि देवी जातौ । तृतीयनये चित्रगके देवः। तृतीयभवेऽजितसेननामा चक्रवर्ती ३। तुर्यनवे तिनामा विद्याधरो, राझीजीबो रत्नवती प्रिया ३ । तुर्यभषे द्वा. अच्युतेन्द्रः । पञ्चमभवे पद्मनामा नृपः ५ । षष्ठभवे द्वितीया. वपि माहेन्में देवरोक देवी जातौ ४ । पञ्चमभवे अपराजितो उत्तरविमाने वैजयन्ते देवो जातः ६ ! सप्तमभवे चन्प्रभना
राजा, प्रीतिमती राझी ५ । षष्ठे नवे प्रारणदेवलोके द्वावपि म्नाऽष्टमतीर्थपः ।
देवी जातौ ६॥२७ ।। सप्तमभवे सुप्रतिष्ठः; मतान्तरे-शवशान्तिनाथस्य छादश भवा:
नामा राजा बभूव; धनवतीजीवो यशोमती भार्या जाता। सिरिसेणो अजिनंदिय,जुया सुरा अमियतेयसिरिविजया।
अष्टमभवे अपराजितनाम्नि तुयानुत्तरविमाने देवी जाती ८। पाणय बन्न हरि तो हरि, नरए खयरऽचुए दो वि ॥श्व। नवमभवे भगवान् श्रीनेमिजिना, पत्नीजीबः राजीमती जाता वजाउह सहसाउह, पिउसुय गेविज तऍ नवमे वा।
ए। तदनन्तरं द्वाबपि सिद्धौ मोकं गतौ ।। २७ ।।
पार्श्वस्य दश भवाःमेहरहदढरहा तो, सब संति गणहारी ।। २५ ॥
कमढवरुइनाया, कुक्कुमअहि हत्थि नरऍ सहसारे । प्रथमनवे-श्रीषेणो राजाऽनुत, तस्याभिनन्दिता राशी १। (जु
सप्प खयरिंद नारऍ, अच्चुयसुर सवर नरनाहो ॥३॥ यल त्ति)हितीयभवे उत्तरकुरुक्केत्रे द्वावपि युगलिनी जातौ २। (सुरत्ति) तृतीये सौधर्मकरूपे देवः३॥ (अमियतेय सिरिविजय
नार गेविज्जमुरो, सीहो निवई य नरय पाणयगे । त्ति) तुर्यनवे जिनजीवोऽमिततेजोनामा विद्याधरो जातः, प्रिया- कंगे विप्पो पासो, संजाया दो वि दसमभवे ।। ३० ॥ जीवः श्रीविजयोराजा जातः४ा (पाणय त्ति) पश्चमे प्राणतनाम्नि प्रथमे नये-कमरमरुभूतिनामानौ नातगै जाती,तत्र मरुजूतिनादशमे देवलोके हावपि देवी जातो५। (बलहरित्ति) षष्ठभवेs. | मा भगवज्जीवः१। द्वितीयभबे कमठजीवः कुर्कुटाहिर्जातः, जिनस्मिन् जम्बूद्वीपपूर्वविदेहमध्यस्ये रमणीयास्ये विजये सुनगायां
लीवो हस्तिर्जातःश तृतीयन्नवे कमगे नरके गतः,जिनजीवःसनगर्यो जिनजीवो बलभो जातः। प्रियाजीवो वासुदेवो जातः
हस्रारेऽष्टमदेबलोके गतः३॥ चतुर्थनवे कमठजीवः सो जातः, ६ । (तो इति) ततः हरिनरके गतः। ततो नरकादुकृत्य (स्त्रयर
जिनजीवो विद्याधरेन्द्रोऽनूत् ।। पञ्चमभवे कमजीबो नैरयिको त्ति) खचरौ द्वावपि विद्याधरौ,संजमं लात्वा सप्तमे भवे अच्युते
जातः, जिनजीवोऽच्युते देवो जातः५१ षष्ठनवे कमठजीवः श. गती ७ ॥२४॥ (वजाउह त्ति) ततोऽष्टमभचे जिनजीवो वज्रायु
वर: भिन्नाऽजनि, जिनजीवो नरनाथो बलव ६॥ २६ ॥ सप्तमभधराजा जातः, स्त्रीजीवः तस्य सहस्रायुधनामा पुत्रो जातः ।
वे कमजीवो नरके गतः, जिनजीवो ग्रैवयक सुरो जातः ७. (गेविज त्ति) ततो नवमे प्रैवेयके द्वावपि देवी जातौ । मतान्तरे
एमनवे कमजीवःसिंहो जातः, पाश्वजीवो नृपतिर्जातःमानव. तृतीये ग्रेवेयके देवी जाती है। (मेहरह त्ति) दशमभवे ततळयु.
मे भवे कमजीवो नरके नारको जातः,पार्वजोवः प्राणतनाम्नि तौ तस्मिन् जम्बूद्वीपे प्राग्विदेहविभूषणे पुष्कलावतीविजये पु.
दशमे देवलोके देवो जातः ।। दशमे नवे कमरजीवः कपउनापडरीकियां नगीं जिनजीबा मेघरथः, प्रियाजीवो रढरथा, मा विप्रोऽतूत, मरुभूतिजीवः पार्श्वनाथनामा प्रयोविंशतितमो एवं द्वावपि भ्रातरौ जातौ १०। (सब्बत्ति ) एकादशनवे ततो
जिनो जातः१एवं सन्तौ द्वावपि दशमभवे ॥३०॥सत्त.१द्वार। हावपिनातरौ संयम लात्वा सम्यक्संयम प्रपाल्य सर्वार्थसि
(वीरस्य सप्तविंशतिनवाः " वार" शब्दे वक्ष्यन्ते) द्ध विमाने देवी सम्भूती ११ । (सतिगणहारित्ति) हादशे भवे
सप्ततिशतस्थाने वीरस्याष्टाविंशतिभवा निरूपिताः,तत्र देवाभगवान् शान्तिनाथः, पूर्वभवप्रियाजीवो सर्वार्थसिद्धविमामात्
नन्दोदरात २७ सप्तविंशतिः, त्रिशलोदरादष्टाविंशतितमः। व्युवा भगवतः पुत्रत्वेन जातः, भगवतः चक्रवर्तित्वे सेनानीर
शेषजिनानां जवाःभूत्, ततः पश्चात् संजमं लात्वाऽऽद्यगणधरो जातः १२ । सत्तएडमिमे जणिया, पयम्भवा तेसि सेसयाणं च ।
५७४
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(२२४४) तित्थयर अभिधानराजेन्द्रः ।
तित्थयर तइयभवदीवपमुह. नायव्वं वक्खमाणाप्रो ॥ ३४॥ ऋषनाऽऽद्याः द्वादश जिनाः पूर्वमहाविदेहे जाताः १२ सप्तजिनानामिमे भणिताः प्रकटभवाः, तेज्यः सप्तजिनेभ्यः |
त्रीणि कमात्-जरते १३, ऐरवते १४, पुनः भरते १५ शेयाः। शेषाणामनुक्तभवानां सप्तदशजिनानां तृतीयभवद्वीपप्रनृति झेयं शान्तिः १६,कुन्थुः १७,अरः १८,पते त्रयोऽपि जिना पूर्वमहाविवक्ष्यमाणाद् ग्रन्धात् । अयं जावः-शेषजिनानां त्रयो नवा देहे केयाः । मद्विः पश्चिममहाविदेहे १६ । मुनिसुव्रतः २०, अधिकाराद कयाः । तथा पूर्वजवद्वीपक्षेत्रविजयाऽऽदिकथ- नमिः २१, नेमिः २२, पार्श्वः २३, वर्षमानः २४. एते पश्चापि नेन, पूर्वनवनामकथनेन च प्रथम नवो केयः १, पूर्वभवदे.
भरते झेयाः । मध्यममेरुः सुदर्शननामा,तस्मात् धातकीखएमभवलोककथनेन च द्वितीयो जवो डेयः २, तृतीयस्तु जिन- रताऽऽदीनि पुष्करा भरताऽऽदीनि च कंत्राण पूर्वखण्डे। अत्रायं भवः ३, इति सर्वेषां जिनानां पूर्वभवा उक्ताः । सत्त० भावः-धातकीखरामा, पुष्करार्द्धद्वीपश्च इषुकारगिरिभ्यां विभक्तो द्वार। (मली 'शब्दे मल्लिनाथस्य त्रयो भवा वक्ष्यन्ते ) स्तः तेनोभयोरपि द्वौ द्वौ खण्डौ नवतः, एकः पूर्वखण्डोऽपरः (१०४) अथ पूर्वभव गुरवः सर्वेषां जिनानां प्रतिपाद्यन्ते-- पश्चिमखामश्च। ततोऽत्र यानि तीर्थकृता पूर्वनवकेत्राणि भरतावयसको अरिदमपो, संभंतो विमनवाहणो य तहा ।
दीनि तानि सर्वारयपि पूर्वखएमसंबन्धीनि, न तु पश्चिम
खएमसम्बन्धी नीति । ननु तर्हि जम्बूद्वीपगतकंत्राणि किंस्त्र एमसीमंधर पिहियासव, अरिदमण जुगंधर गुरू य॥४७॥
संबन्धीनी त्याह-खामविचारो जम्बूदीपे नास्ति, तत्र कस्यापि सचजगाणंदगुरू, संथाहो वजदत्त वयनाहो ।
भाजकस्यानाचादिति । सत्त०३द्वार । तह सव्वगुत्तनामे, चित्तरहो विमलवाहणो ॥४ ॥
पूर्वनवतेत्रादिशाघणरह संवर तह सा-हुसंवरो तह य होइ वरधम्मो । विमलोधम्मो मुणिसु-व्ययाइ पण आसि मेरुदाहिण ओ। तह य सुनंदो नंदो, अइजस दामोदरो य पुट्टिलो मेरुत्तरोऽतो, सीओयादाहिणे मल्ली ॥ ३८॥ वज्रसेनः १। अरिदमनः। संभ्रान्तः ३। विमलवाहनः । सीयाए उत्तरओ, सहसुमइसुविहिसंतिकुंथुजिणा। सीमन्धरः ५। पिहिताश्रवः ६। अरिदमनः ७ । युगन्धरः ८। सेसा दस दाहिणओ, इय पुवनवम्मिखित्तदिसा ।।३।। सर्वजगदानन्दः । संस्ताघः१०। वज्रदत्तः ११ । वज्रनानः विमल, धर्मश्चैतौ द्वौ; मुनिसुव्रतः, नमिः, नेमिः, पार्श्वः, वर्क. १२ । सर्वगुप्तः १३ । चित्ररथः १४ । विमलवाहनकः १५ ।
मानः, एवं च पञ्च जिनाः,पते सर्व सप्त जिना मेरुतो दक्षिणत घनरथः १६। संवरः१७। साहसंबर: १८ । तथा च जवति । आसन् । अनन्तोऽनन्तजिजिनः मेरोरुत्तरत अासीत् । सं।वरधर्मः १६ । सुनन्दः २०। नन्दः २१ । प्रतियशाः २२ ।।
तोदानद्या दक्विणपाधै श्रीमाि जनः ९ । सीतानद्या उत्तरतः दामोदरः २३ । पोट्टिलकः २४। सत्त. द्वार।
ऋषभः १०, सुमतिः ११, सुविधिः १२, शान्तिः १३, कुन्थुः पूर्वभवायु:
१४, एते जिनाः समुत्पन्नाः पूर्वभवे । शेषाः स्थिता ये दश धम्मस्स मज्झिमाऊ, सेसाकोसयं तमिमं । (५६)
जिनास्ते दक्विणस्यां दिशि जाताः। इति सर्वेषां जिनानां पूर्वतित्तीसं तित्तीसं, गुणतीसं दुमु तितीस इगतीसं । भवक्षेत्रदिशः। सत्त० ४ द्वार । अमवीसं तित्तीसं, गुणवीसं वीस वावीसं ॥ ७॥
पूर्वभवजिनहेतुःवीसउघारस वीस, बत्तीस कमेण पंचसु तितीसं ।
पढमचरिमी पुट्ठा, जिणहेक वीस ते य इमे ॥ (५०) वीस तितीस बीसं, वीसऽयरा पुवनवाऊ ।। ५८॥
प्रथमः-ऋषभः, चरमो-वीरः, ताभ्यां स्पृष्टा जिनहेतवो
विशतिः, ये तुनिः जिनो भवति । ते चश्मे वक्ष्यमाणा नवे धर्मनाथस्य मध्यमाऽऽयुः । शेषजिनानामुत्कृएकमेव तदिदं
युः । सत्त.१० घार प्रा. क०। वक्ष्यमाणम् ॥ ५६॥ त्रयस्त्रिंशत्सागराणि १। त्रयस्त्रिंशत्साग
तानेव हेतूनाहराणि २। एकोनत्रिंशत् साग० ३। द्वयोः-त्रयस्त्रिंशतसाग०४। त्रशितसाग०५॥ एकत्रिशतसाग०६। अष्टाविंशतिःसाग०७।
अरिहंतसिछपवयण-गुरुथेरबहुस्सुए तवस्मीम् । त्रयस्त्रिंशत्साग० ८। एकोनविंशतिःसाग०६। विंशतिः साग०
वच्छल्लया य एमि, अभिक्खनाणोवोगे अ॥३१॥ १.1द्वाविंशतिःसाग.११॥५॥विंशतिःसाग०१२। अष्टाद. अन्नतिम्रो गाथाः तत्रत्रयमगाथायामी कारणान्युक्तानि, द्वितीयाश सागर०१३। विंशतिः साग०१४ । द्वात्रिंशत्साग०१५। यांनव,तृतीयायां त्रीणि। तत्र प्रथमगाथाव्याख्या अशोकाऽऽद्यष्टक्रमेण पञ्चस-प्रयस्त्रिंशत् साग० १६ । त्रयस्त्रिंशत् साग०१७। महाप्रातिहार्याऽऽदिरूपां पुजामईन्तीत्यहन्तस्तीर्थकराः,अपगतत्रास्त्रशत् साग०१७ । त्रयस्त्रिंशत् साग० १५ । त्रयस्त्रि- सकल कौशाः परमसुखिन पकान्तं कृतकृत्याः सिद्धाः, प्रव
शत्साग०२०। विंशतिः साग०२१ । प्रर्यास्त्रशत साग० २२॥ चनं द्वादशाङ्ग, तदुपयोगानन्यत्वात् संघो वा प्रवचनम, गृणन्ति :विशतिः साग० २३ । विंशतिः सागराणि २४ । इति जिनानां यथास्थितशास्त्रार्थमिति गुरवो धर्मोपदेशाऽऽदिदातारः, स्थपूर्वभवायुः । सत्त. १३ द्वार ।
विरा जातिथुतपर्याय नेदजिन्नाः। तत्र जातिस्थविरा:-वर्षांष्टन पूर्वभवक्षेत्राणि--
माणाः। श्रुतस्थविराः- समवायाङ्गधारिणः। पर्यायस्थविराः-वि. वारस पुनविदहे, तिन्नि कमा जरह एरवर भरहे। शतिवर्षव्रतपर्यायाः । बहुप्रनुतं श्रुतं येषां ते बहुश्रुताः, बहुश्रुतपुनविदेहे तिन्नि य, मल्लिऽवरविदेहे पण भरहे ॥३६॥
स्वमापतकं प्रतिपत्तव्यम् । श्रुतं च त्रिधा-सूत्रतः, अर्थतः, उ.
भयतश्च । तत्र सूत्रधरेम्वोग्यघगा प्रधानाः, तेभ्योऽप्युभयधराः मजिकमसेरुनगाओ, धायइपुक्खरगया जरहाई।
प्रधाना इति । विचित्रमनशनाऽऽदिनेदभिन्नं तपो विद्यते येषां खित्ता पुनखंमे, खंडवियारो नजंबम्मि ॥ ३७॥ ते तपस्विनः सामान्यसाधवः अन्तिश्च सिद्धाश्च प्रवचनं च
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(३२९५ ) अनिधानराजेन्द्रः ।
तित्ययर
गुरवश्च स्थविराश्च वनाश्व तपस्विनश्य चनगुरुस्थविरबहुश्रुततपस्विनः । सूत्रे च "बहुस्सुए" इत्यत्र एकारः प्राकृतत्वादवाक्षणिकः । तेषु । (पर्सि ति) प्राकृतत्वात्ससम्पर्थे पड़ी। रात पतेषु सप्तसु स्थानेषु वत्सलभाषालता अनुरागः ७ यथाऽवस्थितगुणोत्कीर्तनं तदनुरूपप्रचार काशीकर नामकर्मवन्धकारणमिति शेषः तथा-अभीदमन ज्ञानोपयोग ज्ञाने व्यात्रियमाणता इदमहमं कारणम् ॥ ३२२ ॥
आव-स्सए सीलन्नए निरयारो । खणलवतवच्चियाए, वेयावच्चे समाही य ।। ३१३ ॥ द्वितीयगाथान्यापादविनयानादिवि नयः स च प्रागुको यमाणो वा दर्शनं च विनयश्व दर्शन विनयम, समाहारद्वन्द्वः; तस्मिन् । आवश्यकमनश्यक र्त्तव्यं प्र तिक्रमणाऽऽदि; तस्मिन् । शीलानि च व्रतानि च शीलव्रतम, अ त्रापि समाहारद्वन्द्वः । तस्मिन् । तत्र शीलान्युत्तरगुणाः, वसानि सूत्रगुणाः। वनेषु निरतिचारा सन् तीर्थकर नामक
नातीति क्रियायोगः एतावता पञ्च कारणान्युक्तानि तथा कणचे तपसि त्यागे यावे समाधिस्वीकर नामकर्मवन्धकारम। तत्र कृणग्रहणमशेषकालविशेषोष लक्षणम्, कणलवाऽऽदिषु कालविशेषेषु निरन्तरं संवेगभावनातो ध्यानाऽऽसेवनतश्च समाधिः कणलवसमाधिः । तथा-तपनि बाह्याभ्यन्तरमि यथाशक्ति निरन्तरं प्रवृत्तिस्तपःसमाधिः । त्यागो द्विधा इव्यत्यागः, भावत्यागश्च । त्यानामादादिनिमाया परि त्यागः, प्रायोग्याणां च यतिजनेज्यो दानम् । भावत्यागः को. घाऽऽदीनां विवेक काना दोनों परिजनेभ्यो वित रणम् । एतस्मिन् द्विविधेऽपि त्यागे सूत्रानतिक्रमेण यथाशक्ति निरन्तरं प्रवृत्तिस्त्यागसमाधिः । वैयावृत्यं दशविधम् । तद्यथा भाचार्यवैयावृष्यम् १, उपाध्यायवैाष्यम् २, निरवैया वृध्यम्, तपस्विवैषाम् ४ न
ध्यम ६, साधर्मिकवैयावृत्यम् 9, कुलवैयावृत्त्यम् गणवैयानृष्यम् सहयाति एकैकं प्रयोदशविधम् । तद्यथा-भक्तदानम् १. पानदानम् २, आसनप्रदानम् ३, उप करमजनम प्रदान ६ ज दानम् ७ अध्वनि साहास्यम् एस्तेनाऽऽदिभ्यो रम १, वशतौ प्रविशतां दण्मकग्रहणम् १०, कायिकामात्रक सम र्पणम् ११, संज्ञामात्रक समर्पणम् १२, श्लेष्म मात्र समर्पणं चेति १३ मेधाकि निरन्तरं प्रवृि
यातृसमाधिः । अनाणगहणे, सुपभत्ती वय पहावया । एएहि कारणेहिं, तित्ययरत्तं लहइ जीवो || ३१४ ॥ तृतीयगाथा व्याख्या अपूर्वस्या पूर्वस्य ज्ञानस्य निरन्तरं प्रणमपूर्वज्ञानग्रहणमादर्श तीर्थकरनामसंवन्धकारम | एकोनविंशतितमं श्रुतनक्तिः श्रुतविषयं बहुमानम् । विंशतितमं प्रवचने प्रभावना यथाशक्ति प्रवचनार्थोपदेशदानाऽऽदिरूपा । एभिरनन्तरोक्तः कारणैस्तीर्थकरत्वं लभते जीवः ।
एतानि च कानिचित् कारणानि सूत्रकार एव स्वयं व्याचष्टेगुरुको धम्बोसाईपा
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तित्थयर
सुत्योभयधारी, बहुस्या हुंति विस्वाया ।। ३१५ ।। जानुपपरियार, पब मेरो तिहा जहकमे । सीवरिमो ममवा यधारओ वीसवरिसी य ।। ३१६ ।। भत्ती पूा - पयडण वज्जणमवष्यवायस्स ।
सायणपरिहारो, अरिहंताई बच्छ ।। ३१७ ॥ नावओोगो भिक्खं दंसणमुद्धी विषयसुखी । आवस्यजोए सीलवप निरइयारो ।। ३१० ॥ संवेगभावाला या मेवणं खणलवाइकाले । तबकरणं जजणसं विभागकर जसमाही ।। ३१६ ॥ यावच्चं दसहा, गुरुमाईणं समाहिजणणं च । फिरियादारेण तहा अपुव्यनाणस्स गणं तु ॥ ३२० ॥ गाव तित्यस्स पभावणं महासती । ए िकार िनित्ययरचं समजाई ।। ३२१ ॥ "संघ पदार्थचैतन स्थविरबहुश्रुतयोर्गाथा ऽनुलोम्याद्वयतिक्रमनिर्देशः । तथा-तृती (३१) गाधायां भक्तिराम्रो बहुमानविशेषः पूजा बधी चित्वेन पुष्पफलाहार पखादिनिरुपचारः वर्णस्य घायाः प्रकटनं प्रकाशनं, वर्जनं परिहरणमवर्णवादस्य अश्लाघायाः, आशातनाया वक्ष्यमाणायाः परिहारो वर्जनम् । एतदर्हदादीनां सप्तानां वात्सल्यं वत्सलता । तथा षष्ठ (३२०) गाथायां बेया कदानादिक्रियाद्वारेण गुर्यादीनां समाधिजननम् । तत्पुनर्दशधा पूर्वोक्तप्रकारेण । यद्वा-शीलवताभ्यामे[कमेव कारणं कृत्वा समाधिरिति नियमेव तीर्थकरगोत्रय न्धस्थानं विवक्ष्यते । ततो वैयावृत्यं दशधा गुर्वादीनां तथा तेषामेव क्रियाद्वारेण समाधिजननं कार्यकरणद्वारेण स्वस्थताऽऽपादनमिति । तथा ऋषभनाथेन वर्द्धमानस्वामिना
पूर्वभवे एतान्यनन्तरोकानि सर्वास्यपि स्थानाम्यासेवि तानि मध्यमेषु पुनरजितस्यामिप्रभृतिषु द्वाविंशतितीर्थकरेषु केनायक, केनापि श्रीणि यावत्केनापि सर्वोत्यपि स्थामानिस्पृशानीति । तच्च तीर्थकरनामकर्म मनुष्यगताये वर्तमानः पुरुषः स्त्री नपुंसको वा तीर्थकरवाद पृष्ठत स्तृतीयभवं प्राप्य बद्धुनारजते । श्राह तीर्थकर नामकर्मणो ज धन्यत उत्कर्षतश्च बन्धस्थितिरन्तः सागरोपमकोटा कोटीप्रमाणा, ततः कथमुक्तं तीर्थकरभवात् प्राकू तृतीयजवे बध्यत इति ? | नैष दोषः । द्विविधो हि बन्धः -निकाचनारूपः, अनिकाचनारूपश्च । तत्र अनिकाचनारूपस्तृतीयजवात् प्राक् सुतरामपि जवति, जघन्यो ऽप्यन्तः सागरोपमकोटा कोटीप्रमाणत्वात् निकालनाकपस्तु तीर्थकरनवात् प्रायएक "तं च क - २. अविला धम्मदीद बञ्झ तं तु भो भन्वो सकता णं" ॥१॥ इति वचनप्रामाण्यात् । तत्र निकाचितमबन्ध्यफलम, इतरतु उभयथाऽपि निकाचनारूपश्च बन्धस्तृतीयभवादारज्य तावत्प्रवर्त्तते यावत्तीथकरनवे श्रपूर्वकरणस्य संवभागाः केनोपीमएमसिद्धादिरूपे सुरेन्द्र पूजोपचारे सति समासुपरिषदि ग्लानिपरिहारेण धम्मदेशनया चारित्ररूपपण चतुखिता देहसीन्यादिभिरवि पारुतिस्तयत इति प्र०१० द्वार
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तित्थयर
पूर्वभचढीपा जंबूपापक्खर दीवा पचानवे । धाय मिलाइ तिगे, जंबू संतिष्पमुहनवगे ।। ३५ ।। ऋषाऽऽदिचतुर्णी जिनानां पूर्वभवे जम्बूद्वीप श्रासीत् सुमत्यादीनां चतुर्णी जिनानां पूर्वनवे धातकीखण्ड आसीत् । सुविध्यादिचतुर्णी जिनानां पूर्वभवे पुष्करद्वीप आसीत् १२ । विमलाssदीनां प्रयाणां जिनानां पूर्वजवे घातकी वरामद्वीप आसीत् १५ शास्यादिन पूर्व जम्बूदीप असत २४ । इति पूर्वभवद्वीपाः । सत्त० २ द्वार । पूर्वभवनामानि
(२२३६) अभिधानराजेन्द्र
एएसि चउन्नीसाए तित्यगराणं चन्नीसं पुण्वजवया णामधेया होत्था । तं जहा“पमेय वरणा, विमले तह विमलवाहने चैव । ततो य धम्मसी, सुमित्त तह धम्ममिते य ॥ ११ ॥ सुंदरबाई तह दी डबा जुगवाहु लयाय । दि य इंददत्ते, सुंदर माहिंदए चेव ||१२|| सीइरहे मेहरडे, रुपी मुसो य बोधव्या । तची व नंदन खघु सीदगिरी क्षेत्र बीस इमे ॥ १३ ॥ सखे सुमणे नंदणे व बोधव्वे |
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इमिसे ओपिणिए, तित्यकरणं तु पुन्वभवा" | १४ | जिनानां पूर्वभवनामानि क्रमेण यथा वज्रनानः १ । विमलः २ । विमबवाहनः ३ | धर्मसिद्धः ४ । सुमित्रः ५ । धर्ममित्रः ६ । सुन्दरबाहुः ७ । दीर्घबाहुः ८ युगबाहुः । लब्धवाहुः १० । दिन्नः ११ | इन्द्रदत्तः १२ । सुन्दरः १३ । माहेन्द्रः १४ । सिंहरथः १५ | मेघरथः १६ । रूपी १७ । सुदर्शनः १८ । नन्दनः १६ । सिंहगिरिः २० । अदीनशत्रुः २१ । शङ्खः २२ । सुदर्शनः २३ नन्दनः २४ पूर्वभवे जिनानामेतानि नामानि बभूवुरिति ।
स० । सत० |
१२ः३ महाघनः ४ । अतिबलः । श्रपराजितः ६ । नन्दिषेणः ७ । पद्मः ८ महापद्मः । पुनरपि पद्मः १०। नलनीगुल्मः ११ । पद्मोत्तरः १२ पद्मसेनः १३ । पद्मरथः १४ । अतिदृढरथः १५ । मेघरथः १६ । सिंहावहः १७ । धनपतिः १८ । वैश्रवणः १६ । श्री वर्मा २० । सिद्धार्थः २१ । सुप्रतिष्ठः २२ । श्रानन्दः २३ | नन्दनः २४ | पूर्वनयनगर्थ:
पुंडरिगिणी सुसीमा, सुजापुरी रणसंथा नेपा । चगतिगम्य महापुर रिहा तह महिलपुरं च ४२ ।। पुंमरिगिणि स्वग्गिपुरी, तहा सुसीमा यवीयसोगा य चंपा वह कोमंत्री, रायगिदाउऊ अदिना ॥४३॥ पत्रिकेतानि नगरी नामानि याति तथा प ५ए योजना पुरीकियांपूर्व जाताः। श्रजितः २, पद्मजः ६, शीतलः १०, एते त्रयो जिनाः सुसीमाया जाता। संभवः सुपः ७, १२ जिना राजापुर जाता। अनिन्दनः ४ चन्द्रप्रभः वासुपूज्य १२, एते जिनास्त्रयो रत्नत्रयायां जाताः। विमलः १३ महापुर्या
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तित्थयर
म् | अनन्तजिनः १४ रिष्टनगर्याम् । धर्मः १५ भद्दिवपुरे जातः । शान्तिः १६ पुण्डरीकियां जातः कुन्जनः १७ स डियम । अरजिनः १८ सुसीमायां पुर्याम् । मलिजिनः १७ वीतशोकायाम् । मुनिसुव्रतः १० चम्पायाम् । नमिः २१ कोशाम्या मिजिनः २२ राजगृहे पार्श्वजिनः २३ भयोध्यायाम् । वीरः २४ अहिच्छत्रानमय पूर्वभवे जातः 1 सन्त० ६ द्वार ।
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पूर्व जयराज्यम
जंबुदीने णं दोघे इमी सप्पिणीए तेत्रीसं तित्थंकरा पुणे मंगसिराया होत्या तं जहा अजित संव अनिांदण जाव पासो वमाणो य । उसने णं रहा कोसलिए पुनवेचकपट्टी होत्या स० २३ सम० । पूर्वविजय
पुक्खव य वच्छा, रमणिज्जा मंगलावई कमसो । नेा जिच उगतिगे, जितियगे खित्तनामाओ ॥४०॥ पुक्खलवइ यावत्तो, वच्छा सलिलावई जिणच उक्के | मुखियापणगे, विजया खिताण नामे ॥ ४१ ॥ जिनानां चतुष्कषिके क्रमश पते विजया ज्ञेयाः। यथा पुष्कलाबतीविजयः प्रथमे पञ्चमे नवमे विजय द्वितीये षष्टे, दशमे रमणीवाक्यविजय एकादशेला वतीविजयः चतुर्थे, अष्टमे वादशे । एवं द्वादशजिनानां विजया : कथिताः । (जिगतिय नामाओ ) जिगत्रिके-विमसः १३ अनन्तः १४ धर्म्मश्चेति १५ त्रिके क्षेत्रनामतो विजया ज्ञेयाः । तेषां विजयामास्थाने भवनमा पूर्वो नि क्षेत्राण्येव ज्ञेयानीति भाव इति गाथार्थः ॥ ४० ॥ ततः शान्तिः कुम्पुर महिति जिनचतुष्के कमेण क लावत्याद्या विजयाः । यथा- पुष्कलावतीविजयः षोडशजिने १६ आयसेविजयः सप्तदशे जिने १७वजयादश जिने १० | सलिलावतीविजय एकोनविंशतितमे जिने १६ । (मुसुिव्वाश्पणगे त्ति ) मुनिसुव्रताऽऽदिपञ्चके मुनिसुव्रतो नमिनेमिः पार्श्व वीरश्चेतिरूपे (विजया खित्ताण नामे ति ) क्षेत्रनाम्ना विजया पा म्भवेन विजयाभावात्तास्थाने क्षेत्राणामेव नामानि पानीति भावः ॥ ४१ ॥ सप्त० ५ द्वार |
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ऋषभः १, सुमतिः ५,सुविधिः ६, पतेषां पूर्वभवे पुष्कलावतीविजयः । श्रजितः २, पद्मप्रभः ६, शीतलः १०, एतेषां वच्छाविजयः। संभवः ३७११ख्यविजयः । श्रभिनन्दनः ४, चन्द्रप्रभः ८, वासुपूज्यः १२, एतेषां पूर्वभवे मङ्गलावतीविजयः । विमलः १३, अनन्तः १४ १५ नाम विजया याः, तेव जयानाचात् सरस्थाने भरतैरावतरूपाणि पूर्वोनि के आयेवयानि शान्ताजना १६वर्तविजये कुन्थुजिनः १७ । अरजिनः १० वच्छाविजये । मल्लिजिनः सनिबाबतीविजये १६ । मुनिसुव्रतः १०, नमिः २१, नेमिः २२, पार्श्वः २३, वीरः २४, एतेषां त्रनाम्ना विजया शेयाः, भरत क्षेत्रे विजयाभावात् तत्स्थाने क्षेत्राणामेव नामानीति ।
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(२२९७) तित्थयर अनिधानराजेन्द्रः।
तित्थयर पूर्वभवस्वर्गाः
यो धरणः श्रीपाचे पूर्वनवोपकारित्वादतीव भक्तिमानिति कार. सवटुं तह विजयं, सत्तमगेविजयं दुसु जयंतं ।
णात् फणा भवन्ति। (ननेसि ति) अन्येषां द्वाविंशतिजिनानां न
भवन्ति । इति गाथार्थः ॥ १२७ ॥ सत्त०४३ द्वार। नवमं ग्टुं गेत्रि-जयं तो वेजयंतं च ।। ५४॥
फलदायकाःआणय पाणय अच्चुय, पाण्य सहसार पाणयं विजयं ।
आरुग्गं वाहिनाभं, समाहिवरमुत्तमं च मे दितु । तिसु सन्चट्ठ जयंतं, अबराइय पाणयं चेव ।। ५५॥ अवराइय पाणयगं, पाणयगमिमे य पुचभवसग्गा (५६)
किं नु हु णिदाणमेतं, .........." """" ॥
ए इति वित, किमिदं निदाणं कीरति ? । उच्चति-नासर्वार्थसिद्धनामकं विमानमृषभजिने १ । एवं सर्वत्र जि
सा पत्थ जवति । तं जधा--(भासा असञ्चमोसा गाधा) सा ननामपूर्वक योज्यम् । तथा विजय विमानम् । सप्तमौवेय
असच्चामोसा सुवासविदा । तत्य जा जायणी सा एसा सा. कम ३। द्वयो:-जयन्तम् ४, जयन्तम् ५। नवमवेयकम ६ ।
हुणो संसारविमोक्वत्थं जन्नति । "ण दुखीणपेजदोमा, देति षष्ठग्रेवेयकम् ७। वैजयन्तम् । ७॥ ५४॥ानतः प्राणतः
समाधि ब बोधि वा ।" आह-जदि न पसीदति, न वा देंति, १०। अच्युतः ११। प्राणतः १२ । सहस्रारः १३। पुनः प्राणतः
बो किं नमस्कारो कीरति ?। उच्यते-जधा अम्गी न तूसति, १४। विजयमनुत्तरविमानम् १५ । त्रिषु जिनेषु सर्वार्थसिद्धम्
न वा देति, तह वि जो सीतपरिगतो सो प्रतियति, सो यस. १६.सर्वार्थसिकम् १७,सर्वार्थसिद्धय १७। जयन्तं विमानम् १९॥
कन्नं निष्फाएति; एवं ते वि स्वीणरागदोसमोहा न किंचि वि अपराजितविमानम् २०। प्राणतदेवलोकः २१ ॥५५॥ अपराजित
देति, न वा तृसंति, जो पुण पणमति,सो अस्थितमत्थं लनति । विमानम् २॥ प्राणतनामा दशमदेवलोकः २३॥ प्राणतकः २४॥
उक्तं च-.'चन्हं दृष्ट्वा यथा तोयं,” इति श्लोकः। अत्यियजाह पते जिनानां पूर्वभवस्वर्गा झेयाः ॥ सत्त० १२ द्वार ।
ते चि आरोग्गादीया लाजा लभंति, जम्हा एतेसिं पते गुणा, पूर्वभवसूत्राणि
तेण परमा भत्ती कातवा।" प्रा०० २ ० । (बरूस्पृष्टकम जंबुद्दीवेणं दीवे इमीसे णं नस्मप्पिणीए तेवीसं तित्थ-|
'बोगसार' शब्दे वक्ष्यते) गरा पुवनवे एक्कारसंगिणो होत्था । तं जहा-अजित
(१०६) अथ बलवर्णनम्संनव अभिणंदण मुमई० जाव पासो वच्छमाणो य ।
निवहि बना बनिणो,कोमिमिलुक्खेवसत्तिणो हरिणी । उसने णं अरदा कोसलिए चोदमपुची होत्था । स०
तहगुणवमा चक्की, जिणा अपरिमियवझा सवे ।१२।। २३ सम० ।
हरिसंसयउयत्यं, वीरोणं पयमियं वनं निययं । तत्र श्रुतलाभद्वारमाह
मेरुगिरिकंपणेणं, हेउअजावा न सेमेहिं ।।१३०॥ पढमस्म वारसंग, मेसाणिकारसंगमुयलंजो ॥
(निवईहि बला बत्रिणो त्ति) नृपतिभ्यो १ बला बलदेवा व. प्रथमस्य भगवत ऋषभस्वामिनः पूर्वभवे श्रुतलाभः परि | लिनो बनिष्ठाः । “निवहि" इत्यत्र प्राकृतत्वात्पञ्चम्यर्थे तृपूर्ण हादशाङ्गम् । अवशेषाणामजित स्वामिप्रनतीनामेकादशा-| तीया । (कोमिसिलुक्खेवसत्तिणो हरिणो त्ति) कोटिशिलोगानि । यस्य च यावान् पूर्वभवे श्रुतलान, तस्य तावान् तो- त्पाटनशक्तिमन्तो हरयो वासुदेवाः ३ । (तद्दुगुणवला चकि थंकरजन्मन्यपि अनुवर्तते । प्रा० म०१ अ०१खएम। ति) तत्तस्माद्वासुदेवबलाद् द्विगुणबलाश्चक्रिणः चक्रवर्तिनः ।। (१०५ ) फरणकारणानि, फणानप्याद
(जिणा अपरिमिअबला सम्वे त्ति) जिनाः सर्वेऽपि अपरिइग पण नव य मुपासे, पासे फण तिन्नि सग इगार कमा।
मितवताः, अनन्तबला इत्यर्थः । अत्र चक्रयादीनां बवप्रमाणे
प्रसङ्गात् कथितमिति गाथार्थः । १२६ । (हरिसंसयरयत्थ फणिसिजामुविणाओ, फणिंदनतीऍ नऽन्नेसु ।।१२।।
ति) संशयच्छेदनार्थम् । (वीरेणं पयमिअं बन निययं ति) (इग पण नव य सुपासे त्ति) एकः, पञ्च, नब च फणाः सुपा
श्रीवीरेण प्रकटितं बलं निजकम् । केन प्रकटितम् ?,मेरुपर्वतकवें सप्तमजिने, ( पासे फण तिणि सग इगार त्ति )पावं.
म्पनेन । (देनअभावा न सेसेहिं ति) हेत्वभावाद न शेपैः नाये फणात्रयः ३, सप्त ७, एकादश च ( कम त्ति) क्रमात् । शेषजिनः प्रकटितं, यतः किमपि बलप्रकटने हेतु नृत्, अतो (फगिणसिजासुविणाउ ति ) फणिशय्यास्वप्नात् श्रीसुपाचे न प्रकाशितमिति गाथार्थः ॥ १३॥ सत्त० ४७द्वार । जिने फणाः, यतो गर्भस्थे भगवति जननी एकफणे पञ्चफणे प्रथमान्तिमयोस्तीर्थकरयोः शरीरमाने भिन्नत्वं, बले च नबफणेपि च नागतरूपे स्वप्नमध्ये स्वां सुप्तां ददर्श ।
जिन्नत्वं नास्ति, तत्कथम् ?, इति प्रश्न, उत्तरम-प्रथमायत उक्तं श्रीहेमाऽऽचार्यकृतमुपाचचरित्रे
स्तिमाजिनयोः शरीरमानभेदेऽपि न बले भेदः । “अपरि"सुप्तामेकफणे पञ्च-फणे नवफणेऽपि च ।
मिययत्रा जिणवरिंदा " इत्यागमप्रामाण्यादविशेषेणाननागतल्पे ददर्श स्वां, देवी गर्भे प्रवानि ॥१॥
न्तबलवश्वमवसीयते । १ प्र० ही० २ प्रका० । पृथ्व्या देव्या तदा स्वप्ने, दृष्टं ताटग महारगम् ।
(१७७) अथ जिनभक्तानां राज्ञां नामान्याहशकोऽपि चके भगव-मूईि छत्रमिवापरम् ॥ २॥ तदादि चालत्समव-सरणेष्वपरेष्वपि।
जरहसगरमियसेणा, य मित्तविरिमो य सचविरिप्रोय । नाग पकफणः पञ्च-फणो नवफणोऽथवा ॥ ३॥” इत्यादि।।
तह अजियसेणराया, दादाविरिय मघवराया य ॥२२॥ (फगिदनत्तीइति) फणीन्धभक्त्या श्रीपाश्वनाथे। यतः फथी। जुचविरिय सीमंधर, तिविट्ठविएहू इविट अ सयंन् ।
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तित्थयर
पुरिमुत्तमविरहू पुरि-ससीह कोणालय निवो य ॥२३१॥ निवकुबेर सुमा-जिय विजयमो चाकरिणो । कहो पसे सेपिय, जिलाए जिणनत्तरायाणो ॥ १२२॥ वित्तीइ सङ्घबारस, लक्खे पीईऍ दिति कोमीओ।
hi कणयं हरिणो, रययं निवई सहसलक्खे || १२३ ॥ चिविवारुविय दिति इन्नमाईया | सोऊण निगम नित्तमनिउत्तर बा ||२२४|| (भरहल गरमिय सेणा य ) ॠषनशासने भक्तनृपो नरतः १। पयं सर्वत्र जिननामपूर्वकं भक्तनुपनामानि यानि सगरः २ | मृगसेनश्च ३। ( मित्तविरिश्रो य सच्चविरिश्रो य) मित्रवीर्यश्व ४ । सत्यवीर्यश्च ५ | ( तह श्रजियसेणराया ) तथाश्रजितलेनो राजा ६ । (दाणत्रिरित्र मघवराया य ) दानवीर्यः ७ । मघवराजा चेति गाथार्थः ॥ २२० ॥ ( जुद्धविरिअसीमंधरति ) युद्धवीर्यः ६ । सीमन्धरः १० । ( तिविधविण्डू दुबिट्ट अ सयंभू ) त्रिपृष्टविष्णुः ११ । द्विपृष्ठ १२ । स्वयंभूः वासुदेवः १३ । ( पुरिसुत्तमविरुद्व पुरिससीह (स) पुरुषोत्तमः वासुदेवः १४ । पुरुषसिंहः वासुदेवः १५ । (कोपालवनियो य) कोणालक १६ इति गाथार्थः ॥ २२९ ॥ (निवकुबेरमा) कुबेरनामा नृपतिः १७ सुभूमनामा १८ । ( श्रजियविजय महो य चक्किहरिणो ) अजितः १९ । विजयमद्दश्च २० | चक्रिरिषेणः २१ । ( कएहो पसेण से पियसि ) कृष्णः २२ । प्रसेनजित् २३ । श्रेणिकः २४ । (जिगाय जिणभत्तरायाणो ) जिनानामतिजिनभक्ता राजानो न वन्तीति गाथार्थः ॥ २२२ ॥ ( बिसी सङ्घबारस लक्खे पीई दिति कोडीओ ) सार्कद्वादशलक्षाणि वृच्या ददति, प्रीत्या सदति ण) चक्रिय एतावान कं ददति । ( हरिणो रथयं ) वासुदेवा एतावत् रजतं ददति । ( निवई सहस लक्खे ) नृपतयः सामान्यराजानः सहस्राणि प्रक्षाणि च क्रमेण वृच्या प्रीत्या च ददतीति गाथाथेः ॥ २२३ ॥ मतिविभक्तिविभवानुरूप अ नेवि अदिति इन्भमाईया ) श्रन्येऽपि ददति इज्यश्रेष्ठि सेनापत्यादयः । ( सोकण जिणाssगमणं श्रुत्वा जिनागमनं जिनानामागमनं (निउत्तमा) मकारस्थालाक्षणिक स्वादू नियुक्तपुरुषेषु वा भनियुपुरुषेषु वा इति याथार्थः
॥ २२४ ॥ सप्त० १०७ द्वार ।
( २२५६ ) अभिधानराजे
(१००) मनःपर्यवज्ञानिनः
मध्ये माषाणि एगलक्खा य
T
पणयालीस सदस्मा, पंचसया इगनवइ अदिया ॥२५४॥ सर्वेषां कृतमेकीकृताः सन्तः मनज्ञान क नाथ ( पणयासीससहस्सा) पञ्चचत्वारिंशत्सहस्राणि (पंच नदिया) एकनवत्यधिकशतानि २४५४०१, सर्वेषां जिनानां मनः पर्यवज्ञानिसंख्या । सच० १७
द्वार ।
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तित्ययर
पंचसय सत्तसहसा, सुविहिनिने सीपले चैव ॥२५८॥ छसहस्स दोएहमित्तो, पंच सहस्सा य पंच य सयाई । पंचसहस्मा चउरो, सहस्स सय पंच यजहिया || ३५८५|| चरो सस्स तिमि पतिमेव मया इवेति चालीसा । सहसगं पंचसया, इगवन्ना अरजिलिदस्स ।। ३६० ॥ सत्तरसयाइ पन्ना, पंच दस सया य वार सय सट्ठी । सहसो सब अम, पंचैव सया वीरस्स ।। ३६१ ।।
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33 वारससहरुस इत्यादिगाथापञ्चकम् । त्रयाणामृषभाजित संजना द्वादशमनःप सिहस्राणि परमाऽऽदिजिनस्य साधिकाि जितस्य पञ्चशताधिकानि, शंभवजिनस्य साईशताधिकानि । तथा श्रीश्रभिनन्दनस्य मनः पर्यवज्ञानिनामेकादश सहखाणि सापताधिकानि श्रीमदेशसहस्राणि साईचतुःशताधिकानि श्री पद्मनस्य दशसहस्राणि शताधिका नि । श्रीसुपाश्वस्य नव सहस्राणि साकशताधिकानि । श्रीच प्रभस्य असण सुविधिजिनस्य सप्तसहस्राणि पञ्चशताधिकानि । शीतलेऽप्येतावन्त एव । श्रेयांस जिनस्य, श्रीवासुपूज्यजिनस्य च पट्ट पर सहस्राणि (१) इतोनन्तरं विमलजिनस्य पञ्च सहस्राणि पञ्चशताधिकानि । श्रनन्तीजनस्य पञ्च सहस्राणि । श्रीधर्मस्य चत्वारि सहस्राणि पञ्चशताधिकानि । श्रीशान्तिविचारि सहस्र श्री कुन्धस्त्री सहस्राणि चत्वारिंशदधिकशतवाधिकानि । श्रीरजिनस्य सहस्रदि कमेकपञ्चाशदधिकपञ्चशता उयधिक श्री सप्तदश शतानि पञ्चाशदधिकानि मुनिसुतस्य श्रीनमिजिनस्य द्वादशशतानि पष्ट्वाधिकानि । श्रीनेमेरेकं सहस्रम् । श्री पार्श्वजिनस्य शतान्यर्द्धाष्टमानि, सानि सप्त शतानीत्यर्थः । श्री वीर जिनस्य च पञ्चैव शतानीति । प्रव० २२ द्वार । (महावतानि पञ्च प्रथमान्तिमतीर्थकृतोः, चत्वारि मध्यमानां द्वाविशतेरिति गोयमसिशब्दे तृतीयभागे २५० ते स्पीकृत)
(१००५) तीर्थकर मातृनामानि -
जम्मुदीचे दीवे भार वाले इमीले ओसविणीए पह बीसे तिगरा मायरो होत्या । तं जहा
"मरुदेवि विजय सेवा, सिद्धत्था मंगला सुमीमाय । पुहवी लक्खण रामा, नंदा विराहू जया सामा ॥ ३२२ ॥ मुजमा सुब्वय भरा, सिरिया देवी पजावई पक्षमा ।
क्या सिवाय वामा, तिसझा देवी य जिष्णमाया ३२३०॥ जगवत ऋषभस्वामिनो माता मरुदेवी । श्रजितस्वामिनो विजया । शेनवनाथस्य सेना । अभिनन्दनस्य सिद्धार्था । सुमतिनाथस्य मङ्गला । पद्मप्रभस्य सुसीमा सुपास्य पृथिवी । चन्द्रप्रभस्य लक्षणा । सुविधिस्वामिनो रामा | शीतलस्य नन्दा | श्रेयांसस्य विष्णुः । वासुपूज्यस्य जया | विमलस्य श्यामा | अनन्तजिनस्य सुयशाः । धर्मनाथस्य सुव्रता | शान्तिनाथस्य श्रचिरा । कुन्थुनाथस्य श्रीः । श्ररस्वामिनो देवी मनिजिनस्थ प्रभावती मुनिसुव्रतस्य पद्मा नमिनाथस्य वप्रा । अरिष्टनेमेः शिवा । पार्श्वनाथस्य वामा । ११ द्वार । प्रब० ।
वारमसदस्स दिए, या सच पंच दिव
एगदम म उस्सय दस सहसा या सट्टा | ३५७। दमदमा तिभिसया, नत्र दिवढ सपा व असहसा पवमानस्यामित्रि
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तित्थयर
(२२६९) तित्थयर
भनिधानराजेन्मः। तीर्थकरमातृगतिः--
मोक्तपरिवार:अट्ठएहं जणणीओ, तित्थयराणं तु इंति सिचाओ।
एगो जयवं वीरो, तेत्तीसाऍ सह निव्वुप्रो पासो । अट्ठ यसणंकुमारे, माहिंदे अट्ट बोधब्बा ॥ ३२७॥
छत्तीसेहिं पंचहि, सएहिँ नेमी सिछिगतो।। मष्टानां तीर्थकृतामृषभाऽऽदीनां चन्द्रप्रभान्तानां जनन्यो मातरोजवन्ति सिद्धाः,तदनु मुविध्यादीनां शान्तिनाथपर्यन्तानाम
पंचहि समणसएहिं, मब्बी संती उ नवसएहिं तु । टौ जनन्यः सनत्कुमारे तृतीये देवलोके गताः, तथा कुन्यु- अहसएणं धम्मो,सएहिँ छोडें वासुपूजजिणो।। प्रभृतीनां श्रीमहावीरान्तानामष्टौ जनन्यो मान्छचतुर्थ देवतो. सत्तसहस्साऽयंतइ-जिएस्स विमलस्स छस्सहस्साई। के गता बोकच्या इति । प्रद०१३ द्वार ।
पंचसया सुपासे, पनमाने तिथि अट्ठ सया ॥ (११०) मोक्काऽऽसनम्
दसहिँ सहस्सेहसलो, सेसा उ सहस्सपरिवुदा सिका। वीरोसहनेमी, पलियंक सेप्सयाण उस्सग्गो ।
वीरो भगवानेक एकाको सन् निवृतः । त्रयस्त्रिंशता साधुपलियंकासणमाणं, सदेहमाणा तिनागणं ॥ ३१६ ॥
निः सह निर्वृतः पार्श्वनाथः । पञ्चनिः शतैः, पनिरीः-पट बीरः१,अपनः २,नेमिः ३,एतेषां जिनानां पर्याऽऽसनम् । शे- विशदधिकैः सद सिद्धि गतो नेमिररिष्टनेमिः । पञ्चनिः पजिनानामुत्सर्ग प्रासनम् मोकगमने इति शेषः । पर्याऽऽसन- माशतैः सह परिनिवृतो मल्लिस्वामी । नवभिः शतैः परिवृतः मानं तु-स्वदेहमानात् तृतीयभागोनं यदा क्रियते, तदा पर्यङ्का- शान्तिनाथः । अष्टभिः शतधर्मः । षभिः शतेर्वासुपूज्यजिनः ऽऽसनमानं भवतीति । सत्त० १५१ द्वार ।
सिकिंगतः। अनन्तजितो जिनस्य निर्वाणं गच्चतः सप्तसहस्राधि मोक्षस्थानानि
परिवारः। विमलनाथस्य षट् सहस्राणि । पशशतानि सुपाअट्ठावयचंपुज्जय-पावासम्मेयसेनसिहरसु ।
वनाथस्य । पद्मप्रभस्य त्रीणि अष्टोत्तराणि शतानि । दशनिः
सहस्रैः परिवृत ऋषभस्वामी निर्वाणमगच्चत् । शेषास्त्वजिनसभ वसुपुज्ज नेमी, वीरो सेसा य सिफिगया ॥
तस्वामिप्रभृतय उक्तव्यतिरिक्ताः प्रत्येकं सहस्रपरिवृताः सि. अष्टापदचम्पोजयन्तपापासम्मेतशैलशिस्त्ररेषु यथाक्रममृषभो
काः। प्रा०म.१०१खएम । प्रव०। बासुपूज्योऽरिष्टनेमिर्वीरो भगवान्, शेषाश्च तीर्थकृतः सिद्धि
मोकपथ:गताः । अापदे ऋषभस्वामी सिकिमगमत् । चम्पायां वा.
मुमुणिमुप्तावगरूचो, मुक्खपहो रयणतिगसरूवो वा। सुपूज्यः । उज्जयन्तेऽरिष्टनेमिः। भगवान्महावीर: पापायाम् । शेषा अजितस्वामिप्रभृतयः सम्मेतशलशिखरे इति । प्रा. म. सनजिणेहिं भणिो ,.................'[ ३२५ ] १ अ० १ वएम । प्रव०। पश्चा०।
सुमुनयः सुश्रावकास्तद्रूपो मोकपथः, रत्नत्रयस्वरूपो वा का(मोक्षतपः) अधुनाऽन्तक्रियाद्वारावसरः। सा चान्तक्रिया नदर्शनचारित्ररूपो वा मोक्रपथः सर्वजिनः कथितः । सत्त० निर्वाणलकणा, सा कस्य केन तपसा क जाता कि- १६० द्वार । यत्परिवृतस्य चेत्येतदनिधित्सुराह
अथ जिनानां मोक्षमासाऽऽदयः कश्यन्तेनिव्वाणमंतकिरिया, सा चोदसमेण पढमनाहस्स।
माइस्म किएहतेरासि, दोसुं सियचित्तपंचमी नेवा । सेसाण मासिएणं, वीरजिणिंदस्स बट्टेणं ॥ सा च निर्वाणलकणा अन्तक्रिया प्रथमनाथस्याऽऽदितीर्थकृत
वडसाहसुफअट्ठमि, तह चित्ते सुचनवमी य ॥ ३०६ ॥ भतुर्दशकेन पमिरुपवासैरभूत् । शेषाणामाजतस्वामिप्रभृतीनां कसिणा मग्गइगारसि, फग्गुणजद्दवयसत्तमा किएह।। पार्श्वनाथपर्यन्तानां द्वाविंशतेस्तीर्थकृतां मासिकेन तपसा, मा- नवयमुद्धनवमी, बइसाइ बहुलबीया य ॥३०॥ सोपवासेनेत्यर्थः; अन्तक्रियाऽमवत् । भगवतो वीरजिनेन्द्रस्य
कसिणा सावणतइया, आसाढे तह य चन्दस) सुखा। पुनः षष्ठेन-द्वाभ्यामुपवासाभ्याम् । श्रा० म०१ अ० १बएम ।
आसाढकसिणसत्तमि, सियपंचामे चित्तजिटेम॥३०८।। मोक्वनकत्राण्याहअनिई मिगसिर अदा, पुस्त पुणव्वसु य चित्त अणुराहा।
जिट्टे कसिणा तेरसि, वइसाहे पमित्र मग्गसियदममी। जिट्ठा मूलं पुवा-साढा धणिवुत्तरानद्दा ॥ ३११ ॥
फग्गुणमुद्धदुवाससि, किएहा नवमी य निस्स ।०। रेखद वह पुस्सो, भरपी कनिय य रेवई जरणी।।
वसाहअसियदसमी, आसढे सावणेऽहमी सुधा । सवणऽस्मिणि चित्त विसा-हसाइ जिणमोक्खाकावत्ता३१०
कत्तियमावसि सिवपा-समाश्भणिया जिरिणदाणी३१॥ ऋषनस्याभिजिन्नको निर्वाणम् १ । एवं सर्वत्र । मृगशिरः (माहस्स किरहतेरसि) माघस्य कृष्णत्रयोदशी अपजस्य २। श्रा३। पुष्यः ४ । पुनर्वसु ५। चित्रा ६। अनुराधा ७।। निर्वाणे १ । एवं सर्वजिनानां नामपूर्वकं मोक्तगमनमासाऽदि ज्येष्ठा मूलम ए। पूर्वाषाढा १० । धनिष्ठा ११ । उत्तराभा- वाच्यम् । (दोमु सियचित्तपंचमी नेय सि) द्वयोरजितशजव. द्रपदा १२ ॥ ३११ ॥ रेवती १३ । रेवती १४ । पुष्यः १५ । जिनयोः चैत्रस्य श्वेतपश्चमी झेया २।३। (बरसादसुद्धअहमि ) प्ररणी १६ । कृत्तिका १७ । रेवती १८। भरणी १६ । श्रवणः वैशास्त्रमासस्य शुझाउटमी ४। (तह चित्ते मुरूनवमी य)त. १०। अश्विनी २१ । चित्रा २२ । विशाखा २३ । स्वातिः २४। था चैत्र शुधनवमी ५ चेति गाथार्थः ॥ ३०६ ॥ (कसिणा पतानि जिनानां कमेण मोकनकत्राणि । सत्त.१४८द्वार।। मगहगारसि) कुष्णा मार्गशीर्षमासस्यैकादशी ६ । (फन्गुणभ
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(२३००) तित्ययर अभिधानराजेन्डः।
तित्थयर इवयसत्तमी किएहा ) फाल्गुनमासस्य कृष्णा सप्तमी जाद
मोकारकशेषकाल:पदमासस्य कृष्णा सप्तमी। (भहवयसुकनवर्मः ) भाद्रपदा- .........."ऽरसेसमावि तं तु नियनियाउ विणा । (३५५) धनवमी ए (वइसाहे बहुजबीया य) वैशाख कृष्णद्वितीया १० मोक्षारकशेषमपि पूर्ववद जन्मारकशेषवत् । परन्तु निचेति गाथार्थः ३०७ ।। (कसिणा सावणतइया ) कृष्ण- जनिजायुर्विना परकशेषमानं नवति । तथाहि-ऋषभस्य जभावणस्य तृतीया ११ । (प्रासाढे तह य च उदसी सुद्धा) आ- न्मारकशेष चतुरशीतित्रकपूर्वाणि नवाशीतिपक्षाधिकानि तपाढे तथा चतुर्दशी शुझा श्वता १२(आसाढकसिणसत्तमि)| भिजायर्वा निष्क्रयते. तदा नवाशीतिपका श्रा आषाढस्य कृष्णा सप्तमी १३ । (सियपंचमि चित्तजिहेसु ) श्वे- एतावत् श्रीऋषभस्य मोकारकशेषं भवति । एवं सर्वत्र नावतपञ्चमी चढे १३ । जेष्ठेऽपि श्वतपञ्चमी १५ । इति गाथार्थः।। ना कार्या । सत्त० १५७ द्वार। ॥ ३०॥ (जि कसिणा तेरसि) ज्येष्ठे कृष्णा त्रयोदशी १६। (च.
मोक्षारका:इसाहे पडिब मम्गसियदसमी) वैशाख कृष्णा प्रतिपत् १७॥
पुन्नं व मोक्ख रया..............."(३४ ) मार्गशीर्षस्य श्वेतदशमी १८ । (फग्गुणसुवालास) फाल्गु
मोकारकः पूर्ववत् । " अरका मंखिज्जकालरूवे" इत्यादिना नशुद्वादशी १६ । ( किए हा नवमी य जिहस्स) ज्येष्ठस्य
प्रोक्त इत्यर्थः। ऋषभस्थ तृतीयारके मोकः, शेषाणां चतुर्था. कृष्णा नवमी २० ति गाथार्थः ॥ ३०॥ (वइसाहअसि
रके । सत्त० १५६ द्वार । यदसमी ) वैशाखस्य कृष्णदशमी २१ । ( आसाढे सावणेs
मोवावगाहनामानम्हमी मुका) आषाढे शुझाऽष्टमी २२ श्रावणेऽपि शुभाइटमी २३ । ( कत्तियमावसि ) कार्तिकस्याऽमावास्या श्रीवीरस्य निर्वाणे
सव्वेसि सिवोगाहण-तिनागमणा नियासणपमाणा ।। २४ । (सिवमासमा इनाणा जिणिदाणं ति) एवं सर्वजिनेप्राणां मोकमासाऽऽदयो भणिताः। इति गाथार्थः॥ ३१ ॥ स- सर्वेषां शिवगतानामवगाहना शरीरमानं तृतीयभागोना नि१० १४७चार।
जाऽऽसनप्रमाणात् भवति । सत्त १५२ द्वार । मोकराशयः
(वीराऽऽद्यासनानि 'आसण' शब्दे द्वितीयभागे ४७० पृष्ठे नि. मयरो वसहो मिहणो,दुसु ककड कन्न दुसु अली य धण।
रूपितानि) (अवगाहना 'प्रोगाहणा' शब्दे तृतीयत्नागे ७६ पृष्ठे
निरूपिता) धणु कुंनो तिमु मीणो, कक्कम मेसो वसह मीणो॥३१३।।
(१११) अथ राज्यकालमभिधित्सुराहमेमो मयरो मेमो,तिसु तुन्न एर उ मुक्खरामीणो । ३१४) तेसहि पुव्वलक्खा, तिपन्न चउचत्त म छत्तीसा। ऋषभजिनस्य मोने मकरराशिः। एवं सर्वजिनानां नामपूर्ण गुणतीस सइगविस,चनदस सहच्छ असऽहं॥१३६॥ मोक्षदायो वाच्याः । वृषः २ । मिथुनम् ३ । द्वयोः-कर्कटः ४, कर्कटः५ । कन्या ६ । द्वयोः जिनवरयो:-अली च वृश्चि
अजियाओ जा सुविही, पुव्वंगा ताविमेऽहिया नेया। कः ७, वृश्चिकः ८ । धनुः । धनुः १० । कुम्भः ११ । त्रिपु
इग चर अमचारस सो-वीस चउवीस अस्वीसा।१४० पुनर्जिनेषु-मीनः १२, मीनः १३, मीनः १४ । कर्कटः १५ । तो सयलक्ख 5 चत्तो, तो सुन्नं तीस पनर पंच तो। मेघः १६ । वृषनः१७ । मीनः १८॥३१३ ।। मेषः १६ । मकरः सहस पण वीस तत्तो, पाउणचवीस इगवीमं ॥१४१ ।। २० । मेषः २१ । त्रिषु जिनेपु-तुवा २२, तुला २३, तुत्रा २४॥ सुन्न पनर पण तत्तो, तिमुन्न रज्जं च चकिकालो वि । एते तु जिनानां मोक्कराशयः । सत्ता १४६ द्वार ।
(१४५) मोक्षविनयः--
(तेसहि पुवलक्ख त्ति) पूर्वल कशब्दस्य दशसु योगात् त्रि. ........", पंचविहो मोक्खविणो वि। षष्टिपूर्वलक्वाणि राज्यकाल ऋषभस्य १। एवं नामग्राहं सर्वत्र वादमणनाणचरित्ने, तवे य तह ऊवयारिया चेव।
च्यम् ।(तिपन्न चव चत्त सम्म बत्तीसा) त्रिपञ्चाशल्लकपूर्वाणि एमो हु मोक्खविणो,सुहा व गिहिमाण किरियरूवो३२६
"अजिभाऊ जा सुबिहीत्यादिना" वक्ष्यमाणत्वात पूर्वाङ्गेण ए
केन सहितानि २। चतुश्चत्वारिंशत्पूर्वत्रवाणि चतुःपूर्वाङ्गसदर्शनम, ज्ञानम्,चारित्राणि, तपः, उपकारिता च । एष पञ्चवि
हितानि ३ । सार्द्धषट्त्रिंशत्पूर्ववक्षाणि अष्टपूर्वाकाधिकानि ४ । धो मोक्षचिन यः । विविधो वा मोक्षविनयः--गृहस्थक्रियारूपः,
(गुणतीससहगविस) एकोनत्रिंशतपूर्वकाणि द्वादशपूर्वाधि. मुनिक्रियारूपश्च । सत्त०१६१. चार ।
कानि ५। साई कविंशतिपूर्वलकाणि षोडशपूर्वाधिकानि ६। मोकवेला
(चचदस सहच्छ अहऽद्धं) चतुर्दशपूर्वलकारिण विशतिअवरोहे मिछि गया, संभवपनमाजमुविहिवमुपुज्जा।
पूर्वाङ्गसहितानि ७। सापटपूर्वलकाणि चतुर्विंशतिपूर्वाइससेसा उमहाईया, सेयं संता उ पुचराहे ॥३२॥
हितानि अर्द्ध पूर्ववक्षम् । कोऽर्थः? पश्चाशत्पूर्वसहस्राण्यष्टार्षि
शतिपूर्वाङ्गसहितानि । केवलमर्द्धपूर्वलक्ष पश्चाशतपूर्वसहस्रा. धम्मअरनमीवीरा-वररत्ते पुन्चरत्तए मेमा (३२२) णीत्यर्थः १०॥ इति गाथार्थः ॥१३६॥ अथ पूर्वोक्तेषु पूर्वेष पूर्वाह्नअपरादे पश्चिमाहरे सिगिता मोकं प्राप्ताः शंभवपमप्रभ- प्रक्षेप्यमाह-(अजिआयो जा सुविही पुवंगा ताविमेहिया नेय सुविधिवासुपूज्याः। शेषाः ऋषनादिश्रेयांसान्ता अौ जिनाः त्ति) अजितजिनादारभ्य यावत् सविधिजिनो नवमजिनो पूर्वाद सिद्धि गताः। धर्मारनमिवीरा अपररात्रे मोक्षं गताः। भवति, तावदिमानि बक्ष्यमाणानि पूर्वाङ्गान्यधिकानि यानि । शेषा अटी जिनाः पूर्वरात्र मोहं गताः सत०१५५ द्वार। । तानि दर्शयति-( ग चउ अम वारस सो-ल वीस वरवीस
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(१३.) तित्थयर प्राभिधानराजेन्द्रः ।
तित्थयर अडवीस त्ति) एकं १,चत्वारि २,अष्टौ ३,द्वादश ४,पोमश ५,वि. भवन्ति । यथा जिनेभ्यो गणधरा रूपेण हीनाः । ततश्चाहा. शतिः ६,चतुर्विंशतिः७,अष्टाविंशतिः ८ । योजना तु प्रागेव दर्शि- रकं शरीरम २ ततश्चानुत्तरवासिमः सुगः ३। ततो नवमाधुतेति गाथार्थः॥१४०॥ (तो सयलक्ख पुचत्त ति)........... (?) तकमेण प्रैवेयकसुराः, ततो द्वादशाद्युत्क्रमेण कल्पवासिनः ततःशुन्य राज्याभावः १२। लकशब्दोऽप्रेऽपि योज्यते । त्रिंश. सुराः, ततो ज्योतिष्कदेवाः, ततो भवनपतिदेवाः, ततो व्यन्तछववर्षाणि १३ । पञ्चदशवर्षलक्षाणि १४। ततः पञ्चवक्तवर्णणि रदेवा रूपेण हीनाः । तेभ्योऽपि चक्रिणो रूपेण हीनाः ५. १५॥ (सहसपणवीस तत्तो त्ति) सहस्रशब्दस्य नमिजिनं याव- ततो वासुदेवा रूपेण दीनाः ६। ततो बला बननका रूपेण धोगः कृतः पञ्चविंशतिवर्षसहस्राणि १६। (पावणचनवीसहग. हीनाः ७। ततो माएडलिका रूपेण हीनाः। (छट्ठाणगया वीसं ति) पादोनचतुर्विशवर्षसहस्राणि १७ एकविंशतिवर्षस- भवे सेसा)बोकाः षट्स्थानगता भवेयुः। इति गाथार्थः ।।१२१॥ हस्राणि १८॥ इति गाथार्थः ॥१४१॥ (सुन्न पनर पण तत्तो) शून्यं सत्त ४७ द्वार। राज्याभावः १६, पञ्चदशसहस्राणि बर्षाणाम् २० । पञ्चवर्षसह
(११३) साम्प्रतं लाम्चनान्याहस्राणि २१ । ततः (तिसुन्न रज्जं च चक्किकालो वि)त्रिस्थानेषु
वसह गय तुरय वानर-कुंचो कमलं च मस्थिो चंदो । शून्यं राज्यानावः २५२३ ।२४। राज्यं च एतावन्तं कालं जिनानाम । सत्त०५५ द्वार।
मयर सिरिवच्छ गंमय, महिस वराहो य सेणो य ।।३०१॥ (११) अथ रुजनामान्याह
वजं हरिणो छगनो, नंदावत्तो य कलस कुम्मो य । भीमावलि जियसत्त, रुद्दे विस्सानलो य सुपइहो ।
नीलप्पल संख फणी,सीहो अजिणाण चिएहाई।३८॥ अयलो य पुंमरीओ,अजियधरो अजियनानो य ।३३॥
वृषनः ॥ गजः २॥ तुरगः ३। वानरः । क्रौञ्चःश कमसं च ६।
स्वस्तिकः चन्छः मकरः । श्रीवत्सः १० गएमकः १२ । पेढालो तह सच्चइ, एए रुद्दा इगारसंगधरा ।
मदिषः१२। वराहश्च १३॥ श्येनश्च १४ ॥३८१॥ वज्रम् १५॥ हरिणः नसहाजिअमुविहाई-अडजिण सिरिवीरतित्यभवा ३३६
१६। छगलकः १७। नन्द्यावतश्च १८ । कलशः१५। कूर्मः२० । भीमावलिनामा रुद्रःश जितशत्रुः२। रुषः ३। विश्वानसः ।। नीलोत्पलम् २१ । शङ्खः २३ । फणी २३ । सिंहश्च २४ । जिसुप्रतिष्ठः ५ । अचल: ६ । पुरागरीकः। अजितधरः । नानां नाभेयाऽऽदीनां चिहानि क्रमेण ज्ञातव्यानीति । प्रव० अजितनाजः ॥ ३३८ । पेढालः १० । सत्यकि: ११ । एते २६ द्वार। रुका रुष्तपःकारका महामुनय एकादशाङ्गधरा एकादशा
लकणद्वारम्कोपारकाः। (सहाजिन सुविहाई-अमजिण सिरिवीरति- अत्तरो सहस्सो, सव्वेसि लक्खणाई देहेसु । (१५३) स्थभव ति) ऋषभाजितयोः सुविध्याचष्टजिनानां श्रीवीरस्य अष्टोत्तरसहस्रः-अष्टेनाधिकः सहस्रः १००८, सर्वेषां तीर्थपानां च तीर्थे भवाः । एवमेकादशानामपि तीर्थकतां तीर्यवेकादशा- शरीरेषु लक्षणानि भवन्ति । सत्त०४४ द्वार। पिरुषाः । ते च ऋषभशासने भीमावलिनामा जातः१।
लोकान्तिकदेवैर्बोधनम् - अजितशासने जितशत्रुनामा जातः २ सविधिशासने रुरु
सव्वे वि सयंबुद्धा, लोगंतियबोहिया य जीयं ति। नामा३ । शीतल शासने विश्वानसनामा ४ । श्रेयांसशासने सुप्रतिष्ठनामा ५ । वासुपूज्यशासने प्रचलनामा ६। बिमलशा
(सव्वेसि परिच्चाओ, संवच्चरियं महादाणं॥) सने पुएमरीका ७ । अनन्तशासने अजितधरः ८ । धर्मशासने
सर्व एव तीर्थकृतः स्वयंबुद्धा वर्तन्ते, तथापि लोकान्तिक. अजिसनाभः । श्रीशान्तिशासने पेढाल: १० वीरतीय सत्य.
देवानामियं स्थितिः-यत स्वयंबुझानपि भगवतो बोधयन्ति, किः ११। पते एकादश रुका जाताः । सत्त० १६७ द्वार।
ततो जीतमिति कल्प इति कृत्वा लोकान्तिकदेवैबोंधिताः सअथ जिनवराणां प्रसङ्गाद् गणधराऽऽदिमाएमलिकान्ताना
न्तो निष्कामन्ति । प्रा०म०१०१खएड । प्रा० चूछ। मुत्तमपुरुषाणां देवानां च रूपवर्णनमाह
अथ वस्त्रवर्णानाहसव्वसुरा ज रूवं, अंगुठ्ठपमाणयं विनधिज्जा ।
पुरिमंतिमतित्थेमुं, ओहनिजुत्तीजणियपरिमाणं । जिणपायंगुटुं पक्ष, न सोहए तं जहिंगालो ।। १२० ॥
सियवत्थं श्यराणं, वप्पपमाणेहि जहमकं ।। २७।। गणहराहार-त्तरा य जाव चकिवासुबला।
(पुरिमंतिमतित्थेसुं) प्रथमजिनतीर्थे अन्तिमजिनतीर्थे च
(ोनिजुत्तीभणियपरिमाणं) ओघनियुक्तिसूत्रोक्तपरिमाणम मंमलिया जा हीणा, छहाणगया जवे सेसा ।। १२१॥ ।
(सियवत्थं ति) सितं श्वेतं बलं शेयम्। (अराणं वन्नप. (सब्बसुरा जइ रूवं अंगुष्पमाणयं विउविज ति) सर्वे दे.
माणेहि जहलद्धं ति) इतरेषां द्वाविंशतिजिनानां वर्णप्रमाणैः बाः सम्भूय ययेक रूपमङ्गुष्ठप्रमाणकमगुष्ठमात्रं विकुर्वेयुः। वस्त्रवणयंथालन्धं यथाप्राप्तम्, अनियतवर्णमनियतप्रमाणं चेत्य(जिणपायंगुटुं पह त्ति) जिनपादागुठं प्रति-जिनस्य पादौ थः॥ २६७ ।। सत्त०१४२द्वार।। जिनपादौ तयोरगुष्टः जिनपादाङ्गष्ठः, तं प्रति ( न सोहए तं
वर्ण जिनानामजहिंगालो ) न शोजते तद्रूपं, यथा अङ्गारो, भगवदूपाने पनमाभवासुपुजा, रत्ता ससिपुप्फदंत ससिगोरा । तदङ्गारसदृशं दृश्यते । इति गाथा ऽर्थः॥१२०॥ (गणहरमा
सुक्यनेमी काला, पासो मद्वी पियंगाजा ॥ ३८३ ॥ हारअणुत्तरा य त्ति) गणधराहारकानुत्तराश्च (जावणं चकिचासुबल ति) याबद् व्यन्तरचक्रिवासुदेवबनदेवाः (मंग
वरतवियकरणयगोरा, सोलस तित्थंकरा मुणेयन्या । लिआ जा हीण ति)माएमलिका यावत् क्रमेण रूपेण हीना | एसा वफावजागा, च
एसो वपावित्जागो, चवीसाए जिणिंदाणं ॥ ३४॥
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(२३०२) तित्ययर अन्निधानराजेन्दः।
तित्थयर पद्मप्रजवासुपूज्यौ जपापुष्पवक्तौ । शशिपुष्पदन्तौ-चन्द्रप्र. सुचकं वा १२॥ (पत्थावुचिअं) प्रस्तावोचिसं देशकालानुगुणम् भसुविधी शशिगौरी चन्द्रनारुरुची। सुव्रतनेमिनो इन्जनीन- १३॥(पमिहयपरुत्तर)निराकृतान्योत्तरं परदूषणविषयम१४(८. मणिवत्कालौ । पार्श्वमल्लिजिनौ प्रियस्वाभी, प्रियङ्गः फलि. अयपीश्कर) हृदयप्रीतिकरमिति गाथार्थः १५ ॥२०४॥ (अन्नुन्ननीतरुः,तदाभौ, नीलावित्यर्थः। वरमकृत्रिम तापितं यत्कनकं| साभिकखं) मिथः साभिकाङ्कमन्योन्यगृहीतं परस्परेण पदानां तद्वद् गौराः शेषाः षोमश तीर्थङ्करा ज्ञातव्याः । एष वर्णवि- बाक्यानां वा सापेक्वतायुक्तम १६ । (अजिजायं ) अभिजातं भागश्चतुर्विशतेस्तीर्थकराणामिति । प्रव० ३० द्वार।
वक्तः प्रतिपाद्यस्य वा नूमिकाऽनुसारि १७। ( अशीणद्धमहुर दो तित्थयरा नीबुप्पलसमा वन्नेणं पहात्ता। तं जहा- च)प्रतिस्निग्धमधुरं च,घुतगुमाऽऽदिवत् सुखकारि १८ (ससमुणि सुबए चेव,अरिहाणेमी चेव । दो तित्थयरा पियंगुस
बाहापरनिंदावजिअं) स्वश्लाघापरनिन्दावर्जितमात्मोत्कर्षपरनि.
न्दाविप्रमुकम १६। (अपश्नपसरजुयं) अप्रकीर्णप्रसरयुक्तं सुसं. मा वन्नेणं पसत्ता । तं जहा- मबी चेव, पासे चेव । दो
बद्धं सत् प्रसरणयुक्तम् । असंबद्धाधिकारत्वातिविस्तरयोतित्थयरा पउमगोरा वशेणं पत्ता । तं जहा-पनमप्पहे| रजावयुक्तमिति गाधार्थ: २०॥ २०५॥ ( पयडक्खरपयवक) चेव,वासुपुजे चेव । दो तित्थयरा चंदगोरा वप्मेणं पछत्ता। प्रकटाकरपवाक्यं वर्षाऽऽदीनां विचिन्नत्वयुक्तम् २१(सत्तप्प. तं जहा-चंदप्पभे चेव, पुप्फदंते चेव ।
हाणं च)सधप्रधानं च साहसोपेतम्२२। (कारगारजुश्र)कारका
ऽऽदियुतम्,कारकवचनलिङ्गाऽऽदियुतं तद्विपर्यास रहितम् २३ । पन रक्तोत्पलं तौरी, रक्तापित्यर्थः । तथा-चगौरी च
( ठविप्रबिसेस) स्थापितविशेषमारोपितविशेषं वचनान्तराशुनावित्यर्थः । शेष सुगमम् । स्था० २ ठा०४ च०।
पेकयाऽऽहितविशेषम् ३४. (नार) उदारमभिधेयस्याऽयस्या(११४) अथ तीर्थकृतां पञ्चत्रिंशद् वाग्गुणानाह
तुच्चत्वयुतम् २५ । (अणेगजाईविचिनं च) अनेकजातिविचित्र वयणगुणा सग सहे, अत्ये अमवीस मिझिय पणतीसं ।
जात्या वर्णनीय वस्तुस्वरूपवर्णनानि तत्संश्रयाद्विचित्र२६,चःपुतेहिँ गुणहिँ मां , जियाण वयणं कमेण इमं ।२०२। नरर्थे इति गाथार्थः।।२०६।। (परमम्मविभमाईविशेबवुअखे. वयणं सक्कयगंभी-रघोमउवयारुदत्तयाजुत्तं ।
अरहिमंच)परमर्मरहितं परमर्मानुयटनस्वरूपम्२७ विभ्रमा
ऽऽदिरहितं विभ्रमो वक्रमनसोनान्तता,स श्रादियेषां विकेपाऽऽ. पमिनायकर दक्खि-न्नसहियमुवणीयरागं च ।। २०३॥
दीनां ते विभ्रमाऽऽदिमनोदोषास्तैर्विप्रमुक्तम शजविलम्बरहित. सुमहत्थं अव्वादय-मसंसयं तत्तनिट्ठियं सिहूं।
म२९॥ पदवाक्यवर्णाऽऽदीनां व्युच्चेदरहितं विवक्षार्थसिमि या. पत्थावृचियं पडिहय-परुत्तरं हिययपीइकरं ।। २०४॥ वदव्यबच्चिन्नवचनप्रमेयम् ३० खेदरहितं च अनायाससंभवअम्मसाभिखं, अजिजायं अइसिणिछमजरं च । म् ३१॥ (अदुयं) अद्रुतमत्यौत्सुक्यरहितम् ३२। (धम्मस्थजुयं) ध.
मार्थयुतं धर्माभ्यामनपेतम् ३३। (सलाहणिज्जंच)श्लाघनीयं ससलाहापरनिंदा-बज्जियमपइन्नपसरजुयं ॥ २०५।।
च उकगुणयोगात प्रशंसनीयम् ३४ । (चित्तकर)चित्रकरम् पयमक्खरपयवकं, मत्तपहाणं च कारगाइजुयं ।
उत्पादिताविच्छिन्नकौतूहलम् ३५। इति गाथार्थः ॥२०७।। सत्त. वियविसेसमुयारं, अणेगजाईविचित्तं च ॥ ३०६ ॥ ए द्वार। परमम्मविभमाई-विसंबुच्छेयखेयरहियं च ।
(जिनवारयतिशयाः 'असेस' शब्दे प्रथमभागे ३२ पृष्ठे दर्शिताः) अदुयं धम्मत्यजुयं, सलाहणिज्जं च चित्तकरं ॥२०७।।
(११५) तीर्थकराणां वादिमुनिसंख्याप्रतिपादनार्थमाह(वयणगुणा सग सई) भगवदचनगुणा एते वदयमाणा भव- सहछसया सुवालस, सहस्स वारस य च उसयऽन्नहिया। ति-तत्र शब्दे गुणाः सग। (अत्ये अमपीस) अर्थेऽविशतिः। वारेकारससहसा, दससहसा छसय पन्नासा ॥३४६।। (मिलिभपणतीसं) उभयेऽपि मिलिताः पञ्चरिंशत् वचनगुणा
छननई चुनसीई, बहत्तरी सट्टि अट्ठपन्ना य । भवन्ति । (तेहि गुणेहि मप) तैगुणमनोझम (जियाण वयणं कमेण श्म)जिनानां वचनं क्रमेणेदं वक्ष्यमाणं शेयम । कोऽर्थः?.
पन्नासा य सयाणं, सीयाला अहव वायाज्ञा ।। ३४७॥ अत्र स्फुटं गुणा न वक्ष्यन्ते,किं तु तैर्विशिष्टं क्रमेण वचनं वक्ष्य- वत्तीसा वत्तीमा, अट्ठावीसा सयाण चवीसा । तीति गाथार्थः ॥ २०२।। (घयणं सक्कयगंभीरघोस उवयारुद- विसहस्सा सोलसया, चनदस वारस दस सया।३४८। तयाजु)जगवद्वचनं संस्कृताऽऽदिलक्षणयुक्तम् १,गम्भीरघोष
अट्ठसया बच्च सया, चत्तारि सया हुंति वीरम्मि । युक्तं गम्भीरशब्दोपेतं मेघस्येवर,उपचारयुक्तमग्राम्यमित्यर्थः३। उदात्ततायुक्तमुच्चैवृत्तितायुक्तम् ४ (पमिनायकरं दक्खिन्नसहि
वाइमुणीण पमाणं, चनासाए जिनवराणं ॥ ३४६ ।। य)प्रतिनादकरं प्रतिरवोपेतम ५,दाक्विण्यसहितम,सरसत्वयुक्तं " सहकृसया" इत्यादिगाथाचतुष्टयम । प्रथमजिनस्य वादिन तु किश्चिदपि वक्रम् ६ । (नवणीअरागं च) उपनीतरागं च यतीनां द्वादशसहस्राणि साषट्शतानि, पश्चाशदधिकैः पःि मालवशिक्यादिग्रामरागयुक्तम् ७। पते सप्ताऽपि शब्दापेक्षया शतरधिकानीत्यर्थः श्रीअजितजिनस्य द्वादशसहस्राणि चतुःशगुणाः । इतिगाधार्यः ॥२०३॥ अथार्थविवक्षया कथ्यन्ते-( सुम- ताधिकानि । श्रीशंभवस्य द्वादशसहस्राणि । श्रीअभिनन्दनस्य हत्थं ) मुष्ठ महार्थ बृहदमिधेयम् । (अब्वाइयं) अव्याहृतं एकादशसहस्राणि । श्रीसुमतिजिनस्य दशसहस्राणि पश्चाशदपूर्वा परवाक्यार्थाविरुद्धम , ( असंसय ) सेशयरहितमसंदि- धिकषट्शताज्यधिकानि "छन्नई" इत्यादिगाथायामुत्तरार्कवग्धम् १० (तत्तनि४िअं) तत्त्वनिष्ठितं विवक्तितवस्तुस्वरूपा- | तिं शतानामिति पदं सर्वत्र संबध्यते । ततः श्री पद्मप्रजम्य वादिनां नुसारि १९, सि5) शिष्टमभिमतसिद्धान्तोक्तार्थ,बक्तुः शिष्टता- पावतिःशतानाम्, कोऽर्थः,नवसहस्राणि षट्शतैरधिकानीति।
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( २३०३ ) अभिधानराजेन्द्र
तित्थयर
सुपार्श्वजिनस्य चतुरशीति चतुःशतैरपिकास हस्पि शंकानि सप्त सहस्राणीत्यर्थः । श्रीसुविधिजिनस्य षष्टिः शतानां पद्मइस्त्राणीत्यर्थः । श्रीशीतल जिनस्य श्रष्टपञ्चाशच्चतानां पञ्चसहस्राण्य एशताधिकानीत्यर्थः । श्रीश्रेयांसस्य पञ्चाशत् शतानां, पञ्च मदानीत्यर्थ श्रीवासुपूज्यस्य सप्तचत्वानि, चत्वारि सहस्राणि सप्तशताधिकानीत्यर्थः । ( अढव वायाल सि) अथवा मनान्तरेण श्रीवासुपूज्यस्य द्वित्वारिंशतानि, चत्वारि साणिमित्यथे श्री विमलजिनस्य द्वात्रिशतानि च सहस्राणि द्वयाधिकारः श्रीश्र नन्तजिनस्य द्वात्रिमजिनस्य भाविशक्तिश तानां शताधिकमित्यर्थः । श्रान्तिनाथस्य स तानां चतुवैिशतिः द्वे सद्स्त्रे शतचतुष्टयाधिके इत्यर्थः । श्रीकुन्युजिनस्य द्वे सहस्त्रे । श्रीअरनाथस्य षोडश शतानि षट्शतात्रिकं सहस्रमित्यर्थः । श्रीमल्लिजिनस्य चतुर्दश शतानि शतचतुष्वाधिक द्वादश शतानि सहस्रमेकं शतद्वयाधिकमित्यर्थः। श्रीनमिजिनस्य दश शतानि, सहस्रमित्यर्थः । श्रीनेमिजिनस्य श्रष्टौ शतानि । श्रीपार्श्वजिनस्य पट्शतानि । श्रीश्रीरजिनस्य चत्वारिशतानि नवन्ति । इति वा दिमुनीनां वादसमरेषु सुरासुरजेवानां प्रमाणं चनुचि जिनवराणामिति ॥ प्र० १६ द्वार । स्था० ॥ करविषय:
"
मनुं ते विवाह य जोगफला । ( १३५ ) मल्लिजिन नेमिजिने या शितिजिनानामुक्तव्यतिरिक्तानां विवाहका जातो भोग्यफला, फलकमद यादित्यर्थः । सप्त० ५३ घर |
तीर्थकृतां येषु ग्रामनगरादिषु विहार आसीदेवाद मगहारापनिहार, मुणओ खेतारिए विहरिं । उसभी य नेमि पासो, बीरो य पारिए पि ॥ मन्यन्ते स्म जगतः समस्तस्यापि त्रिकालावस्थामिति मुनयो भगवतीकृतसादिषु जनपदेषु राजगृदादेषु नगरेषु क्षेत्रार्थेषु येषु विततः आत्र चिन्तायां शास्त्रान्तरेषु मगायो जनपदा, राजनि नगरायुकामपत्रापि " मगहाराषमिदासु " इत्युक्तम्. अन्यथा स्वामिन आदितीर्थ करत्यात्तदन मायां विनीतादिति स्वामी ि पार्श्वनाथ भगवान स्वारस्कृतायैष्यि क्षेत्रेषु विहृतवन्तः । आ० म० १ ० १ ख एक । (११६) वैकियकमुनयःवेनव्त्रियलद्धी, वीससहस्सा य सयब्रगभहिया । बी ससदस्सा चसय, इगुणीस महस्स अहसया | ३४२ | इसिमहरूम अड्डा र चासोसम असया । सतिसय पनरस चचदम, तेरस वारस सहस इसमे | ३४३ | इक्कारस दस नत्र अट्ठ सत्त व सदस्य एगवन्न सया । सच सदस्य सतिया, दुनि व सहसा नवसपाई १२४४० दुनि सहस्सा पंच य, सहस्स पनरस सयाइ नेमिम्मि | इकारसय पासे, सपाईं सचेन वीरजिये || ३४९ ॥
तित्थयर
"इत्यादिगाथाचतुष्टयम् वैकिल मतो नानाविधरूपकरणशकानां मुनीनामादिजिनेन्द्रस्व विशतिः
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शनिसस्राणि साधकाश्रय जनशतिः सहखाणि शताधिकानि । श्रीमनन्द नकोनविंशतिः सुमतिजिनस्य चतुःशताधिका नि श्रष्टादशसहस्राणि । श्रीपद्मप्रभस्य षोडश सहस्राणि अष्टोत्तरशताधिकानि । श्रीसुपार्श्वजिनस्य शतत्रयाधिकानि पञ्चदश सहस्राणि श्रन्भस्य चतुर्दशसहस्राणि यदा सहस्राणि तस्य द्वादश सहस्
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सहस्र श्रीवासुपूज्यस्य दस सहस्राणि मिस्न सहस्राणि । श्री अनन्ताजनस्याौ सहस्त्राणि । श्रीधम्मैजिनस्य सप्त सहस्राणि । श्रीशान्तिनाथस्य पट् सहस्राणि । श्री कुन्थुजि.
पञ्चशतानि पञ्चसायेरानाधिकानीत्यर्थः । श्रीअरजिनस्य सप्त सहस्राणि त्रिभिः शतैरधिकानि । श्रीमविजिनस्य सहस्रे नवशताधिके श्रीमुनिसुतस्य सहस्रे | श्रीनमिजिनस्य पञ्चसहस्राणि । श्रीनेमिजिनस्य पञ्चदश शतानि । श्रीपार्श्वजिनस्य एकादश शतानि । श्रीवीरजिनस्य शतानि सप्तैवेति ॥ प्रब०१८ द्वार ।
आर्यमाणमादिजानामू
विशेष यसलाई तिरिणय तीसा निधि उचीसा । तीसा यच्च पंचयतीसा च य बीमा || चत्तारि यतीसाई, निधि सीया यति मित्तो य । वीमुत्तरं बन्नऽद्दियं, तिसहस्सऽहियं च लक्खं च ॥ लक्खं सयाणि य, वासद्विसहस्म चउससमग्गा । एगट्ठी च सया, सहिसहस्सा सया च ॥ सहि पपन्न पन्ने-गचत्त चत्ता तहहतीसं च । छत्तीसं च सहस्सा, अज्जाणं संगहो एसो | जगवत आदितीर्थकर स्वार्थका लाि तस्यामिनत्रीणि लाणि विज्ञान शिरसाधिकानि । भवनाथस्य श्री माथि साधिक अभिनन्दनस्य पर लकानि विशान-त्रिधिकानि । सुमतिनाथस्य पञ्च लक्षाणि त्रिंशत्सहस्राधिकानि । पद्मप्रभस्य वाणि वितिसहस्राधिकानि सुपार्श्वस्य चत्वारि अाणि त्रिंशत्सहस्रयधिकानि चन्द्रस्यामि लापशीतिसहस्राणि परि नि लक्षाणि । (तिनिमित्तो य इति ) त्रिल कमान मार्यासंग्रह इति गम्यते इत्यर्थः । शीतलनाथस्य विंशत्युत्तरं विंशतिसहस्रा धिकं लकम् । श्रेयांसस्य षट्सहस्राधिकं बक्कम । वासुपूज्यस्य त्रिसहस्राधिकं लक्षम् । विमलनाथस्य परिपूर्ण लक्षम् | अनन्तजितो लकमेकमौ च शतानि । धर्मनाथस्य चतुःशतमणि चतुःशनाभ्यधिकानि । शान्तिनाथस्य एकष्टिः सहस्राणि शतानि कुयुनाथस्य षष्टिः सहस्राणि षट्शतानि । अरनाथस्य षष्टिः सहस्राणि । मल्लिस्वामिनः पञ्चपञ्चाशत्सहस्राणि । मुनिसुवस्वामिनः प आणि नमिनाथस्यैकचत्वारिंशत्सहस्राणि अरिमेरिणि पार्श्वनाथस्यात् ।
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(२३०४) तित्थयर अन्निधानगजेन्फः।
तित्ययर जगवतो वर्द्धमानस्वामिनः षट्त्रिंशत्सहस्राणि । एवमृषनाऽऽदी. संयमोऽपि सामायिकाऽऽदिरूपः प्रथमान्तिमजिनयोर्तिविकनां जिनानां यथाक्रममार्यिकासंग्रहः। प्रा०म० १.१खएम। रूपः। श्वरं सामायिक, छेदोपस्थापनीयं चेत्यर्थः । शेषाणां सर्वसंयतीनां संख्या
मध्यमानां द्वाविंशतितीर्थकृतां यावत्कथिकमेवैकं सामायिकं, चोप्रालीसं लक्खा, वायालसहस्स चोसयसमग्गा । न शेष बेदोपस्थापनादि, तथाकल्पत्वात् । सप्तदशाह अज्जाछकं एसो, अजाणं संगहो कमसो ॥३४॥
सप्तदशभेदः, चः पुनरर्थे । सर्वेषां तीयकृतामनूत् । ते च
सप्तदश भेदा अमी-" पञ्चानवाद्विरमण, पश्चेन्द्रियनिग्रहः कचतुश्चत्वारिंशतवाणि षट्चत्वारिंशत्सहस्रश्चतुःशताधिकैः सम
पायजयः। दण्डत्रयविरतिश्चे-तिसंयमः सप्तदशदः॥१॥" प्राणि पूर्णाणि आर्याषटुं च, एष मार्यिकाणां संग्रह शति । प्रव.
प्रा०म०१ १०१ स्त्रएक। १ए द्वार। अथ मुनिस्वरूपम्
(१९७) इदानी परित्यागधारमाहपढमियरवीरतित्थे, रिउजड-रिउपन-बक्कजमा (२०३)
संवच्छरेल होडी, अभिनिक्खमणं तु जिणवरिंदाणं । प्रथमजिननीय मुनयः ऋजुजमाः, इतरस्मिन् मध्यमजिनतीर्ये
तो अत्थसंपयाणं, पबत्तए पुचमूरम्मि । ऋजुप्राहा, धीरतीय मुमयो वक्रजमा। सत्त०१३६ द्वार । संवत्सरेण जिनवरेन्द्राणामभिनिष्क्रमणं भविष्यति, ततोऽर्थसंयतप्रमाणम्
संप्रदानमर्थस्य सम्यक् तीर्थप्रजावनाबुवा, अनुकम्पास्याच, चुलसीइं च सहस्सा, एगं च मुचे य तिमि लक्खाई। मतु कीर्तिबुद्धचा,प्रदानं जनेभ्यः प्रवर्तते पूर्वसूर्य,पूर्वाद इत्यर्थः। तिमि य वीसऽहियाई, तीसऽहियाई च तिनन ।
कियत्प्रतिदिवसं दीयते , श्त्याहतिनि य अवाइज्जा, दुवे य एगं च सयसहस्साई। एगा हिरप्ताकोमी, अहेव अणूणगा सयसहस्सा। चुलसीइं च सहस्सा, विसत्तरि महसडिं च ॥
सूरोदयमाईयं, दिजा जा पायरासामओ ।। छावहिं चोवडिं, बावहिं सडिमेव पन्नासा।
एका हिरण्यस्य कोटी अष्टौ चायनानि परिपूर्णानि शतसहचत्ता तीसा वीसा, अट्ठारस सोलस सहस्सा ॥
स्राणि लक्षाणि इति प्रतिदिवसं दीयते । कथं दीयते', इत्याहचोदस य सहस्साई, जिणाण जइसीससंगहपमाणं । सूर्योदय प्रादौ यस्य दानस्य तत्सूर्योदयाऽऽदि,क्रियाविशेषणभगवत ऋषभस्वामिनश्चतुरशीतिसहस्राणि श्रमणानाम् ।
मेतत् । सूर्योदयादारज्य दीयते इति नावः। कियन्तं कालं यावएकं सक्षम्-अजितस्य। द्वे सके शम्भवनाथस्य । त्रीणि ल- दित्याह-प्रातराशात्-प्रातःप्रभाते प्रशनमाशः, प्रातराशा, त. क्षाणि अभिनन्दनस्य । सुमतेः त्रीणि सकाणि विंशतिसहस्रा- स्मात्तमभिव्याप्य, प्रातर्भोजनकालं यावदिति भावः । भ्यधिकानि । पद्मप्रनस्य त्रीणि लक्षाणि त्रिंशत्सहस्राधिका
__ यथा दीयते तथा प्रतिपादयनाहनि । सुपार्श्वस्य त्रीणि लक्काणि । चन्नप्रभस्य भर्द्धतृतीया- सिंघामगतिगचनक-चच्चरचउम्मुहमहापहपढेम । नि सक्काणि । सुविधढे लके । शीतलस्य एकं लकम् । श्रेयां- दारेसु पुरवराणं, रत्थामुहमज्ककारेसु ॥ सस्य चतुरशीतिः श्रमणानां सहस्राणि । वासुपूज्यस्य द्वास
शृङ्गाटकं नाम-शृङ्गाटकाऽऽकृतिपथयुक्तं त्रिको स्थानम्, त्रिकं ततिः सहस्राणि । विमलस्य अष्टषष्ठिः सहस्राणि । अनन्त
यत्र रथ्यात्रयं मिनति, चतुष्कं चतुष्पथसमाहारस, चत्वरं जिनस्य षट्पष्टिः सहस्राणि । धर्मनाथस्य चतुःषष्टिः सहस्रा
बहुरथ्यापातस्थानम्, चतुर्मुखं यस्माच्चतसृम्वपि दिक्षु पन्थानो णि । शान्तिनाथस्य द्वाषष्टिः सहस्त्राणि । कुन्थुनाथस्य पएि:
निस्सरन्ति, महापथो राजपथः, शेषः सामान्यः पन्थाः पथः, सहस्राणि । अरनाथस्य पश्चाशत्सहस्राणि । मद्विनाथस्य चत्वा.
तत पतेषां द्वन्तः । तथा पुरवराणां द्वारेषु, प्रतोलीवित्यर्थः । रिशसहस्राणि । मुनिसुव्रतस्वामिनस्त्रिंशत्सहस्राणि । नमि
तथा-रथ्यानां मुखानि प्रबेशाः, मध्य कारा मध्य पच, काराशस्वामिनो विशतिः सहस्राणि । अरिष्टनेमेरणादश सहस्राणि
ब्दस्य स्वार्थिकत्वात्, रथ्यामुखमध्य काराः, तेषु । पाश्वनाथस्य पोमश सहस्राणि । जगवतो महावीरस्य चतुर्द
किमित्याहश सहस्राणि । एतद्यतिशिष्यसंग्रहप्रमाणं जिनानामृपनाऽऽदी.
वरवरिया घोसिज्ज, किमिच्छियं दिजए वहविहीए । नां यथाक्रममबसातव्यम् । प्रा० म०१ अ०१ खण्ड । एतेषां सर्वसङ्खचामीलनेन यदू जवति तदाह
मुरअसुरदेवदाणव-नरिंदमहियाण निक्खमाणे ।। अट्ठावीस लक्खा, अमयालीसं च तह सहस्साई।
घरं याचध्वं वरं याचश्वमित्येवं घोषणा समयपरिभाषया सव्वेसि पि जिणाणं, जईण माणं विपिद्दिट्ठ॥३३६॥
घरवरिकोच्यते । सा वरवरिका पूर्व शृङ्गाटकाऽऽदिषु घोप्यते । (अठावीसमित्यादि) अष्टाविंशतिर्ल काणि अष्टचत्वारिंशथ तथा
ततः कः किमिच्छति ?-यो यदिच्चति तस्य तद्दानं समयपरिभासहस्राणि सर्वेषामपि जिनानां संबन्धिनां यतीनां मानं परि
पयैव किमिच्चिकमुच्यते; किमिच्चिकं यथा भवति एवं दीयमाणं विनिर्दिष्टं विनिश्चितमेतच्च ये धीजिनेर्निजकरकम
ते। व?,श्त्याह-सुरैर्वैमानिकज्योतिकैरसुरैर्भवनपतिष्यन्तः,देवसेन दीकितास्तेषामेवैकत्र पिषिमततापरिमाणं,न पुनर्गणधराss.
दानवनरेन्डैमिति । इनग्रहणं प्रत्येकमनिसंबध्यते-देवेन्ःश
काऽऽदिभिः, दानवेन्श्वमरेन्डाऽऽदिभिः, नरेन्द्रैश्चक्रवर्तिप्रभृत दिभिरपि ये दीक्विताः,तेषामतिबहुत्वादिति । प्रव०१७ द्वार ।
तिभिमंदितानां भगवतां तीर्थकता निष्क्रमणे इति । तीर्थकृतां संयमनिरूपणम्
साम्प्रतमेकैकेन तीर्थकृता किवन्यजातं संवत्सरेण दत्त. ..........."सं-जमो य पढमंतिमाण दुबिगप्पो।
मित्येतत्प्रतिपादयन्नाहसेसाणं सामइओ, सत्तरसंगो य सन्वेसि ।।
तिमेव य कोडिसया, अट्ठासीयं ति होति कोहीभो।
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तित्थयर
असि च सबसहस्सा, एयं संवरे दिषां ॥
श्रीदेव कोटिशतामि, अष्टाशीतिश्च भवन्ति फोटयः, मशीतिका शतसहस्राणि ३८८८००००००, एतावत्प्रमाणमेकैकेन तीर्थकृता संवत्सरे दत्तम् । एतच्च प्रतिदिनदयं त्रित्रिः षष्ट्यधिके. सरत्या परिभावनीयम् प्रा०म० १०१ म [ 'दाण'-' महादाण शब्देऽख महादानत्वं ते हा रिभाष्टके, पञ्चाशकेचाऽस्य प्रयोजनं फर्म च ] ( ११८) भाविकामानमाहपढमस्स पंच लक्खा, चउपन्न सहस्स तयणु पण लक्खा । पणयालीस सहस्सा, छ लक्ख छत्तीस सहसा य ॥ ३७० ॥ सत्तावीस सहस्सा-हिय लक्खा पंच पंच लक्खा य । सोलस सहसहिया, पण लक्खा पंच न सहस्सा । ३७१ । बारं चरो लक्स्वा, धम्मो जा उवरि सहस तेणवई । इगनवई इगहसरि, अटवन अहवाल बत्तीसा ।। ३७२ ।। चवीसा चउदस ते-रसेच तत्तो तिलक्ख जा बीरो ।
'
(१३०५ ) अभिधान राजेन्द्रः ।
3
वरि तिनबड़ इगासी, विसत्तरी सयरि पन्नासा ३७३ ॥ अमवाला बत्तीसा, इगुण चतऽद्वारसेव व सदस्सा |
सङ्घीण माणमेयं, चडवीसाए जिणवराणं ॥ ३७४ ॥ तत्र प्रथमस्याऽऽदिजिनस्य श्राविकाणां पञ्च काणि चतुःप खाशत्सहस्राधिकानि । तदतु प्रथमतीर्थकरादनन्तरम् - अजि सस्य भाषिकाणां च लकाणि पञ्च चत्वारिंशत्सहस्राबि कानि । श्रीशंभवस्य षट् लकाणि षट्त्रिंशत्सहस्राणि च । अ मिनन्दनस्य सप्तविंशतिसहस्राधिकानि ब्राणि पञ्चम तिजिनस्य लङ्काणि पञ्च षोमशसहस्राधिकानि । श्रीपद्मप्रभस्य लक्षाणि पञ्च पञ्चसहस्राधिकानि । इत उपरि पद्मप्रभादारभ्य 'धर्मजिनं यावत् श्राविकाणां चत्वारि लक्षाणि । प्रत्ये कमुपरि च निवत्यादीनि सहस्राणि । कोऽर्थः सुपार्श्वस्य अधिकाणां लचयतिसहस्राधिकम् । चन्द्रप्रभस्व सकचतुष्टयमेकन यतिसदनाधिकम्। सुविधेचतुष्टयमेकप्रतिसहस्राधिकम् शीतस्य सतुष्टयम पदा धिकम् । भवांसस्य यत्रशत्सहस्राधिकम् । बासुपूज्यस्य नकचतुष्टयं पत्रिंशत्सहस्राधिकम् । विमलस्य लक्षचतुष्टयं चतुविशतिसदाधिकम् अनन्तस्य चतुर्व चतुर्दशसहखाधिकम धर्मस्य चतुष्टयं त्रयोदशसहस्रा धिकम्। ततः श्रीशान्तिनायादारभ्य प्रत्येकं सवयं अधिकाजां याच महावीरम्, तडुपरि च त्रिनवत्यादीनि सहस्राणि । तत्र श्रीशान्तेलेकत्रयं त्रिनवतिसहस्राधिकम् । कुन्डोले कत्रयमका-शीतिसहस्राधिकरस्यं द्विसप्ततिधिकम् । मल्लेर्लक्कत्रयं सप्ततिसहस्राधिकम् । मुनिसुवतस्य वकत्रयं पञ्चाशत्सहस्नाधिकम् भीनमे संत्रथमष्टचत्वारिंशत्त्रदाकिमयं पत्रिंशत्सहस्राचिक श्रीपा त्रयमेकोनचत्वारिशत्सहस्राधिकम् । पीरजिनस्य लक त्रयमष्टादशसहस्रधिकम् भाविकायां मानमेतद् चतुविशतिजिनानाम् । प्रव० २५ द्वार ।
,
सर्वसंख्याइगकोटी पलक्खा अमतीससस्स सडीओ ॥ २४६ ॥ सर्वेषां जनानां पिरामीकृता एका कोहि पाणि, अ त्रिंशत्सहस्राणि भाविकाः १०५३००००। सत० ११५ द्वार । ५७७
तित्थयर
(११) उत्कृष्टजन्याभ्यां विततां संख्यां तथोत्कृष्टजन्याभ्यां तेषां जन्मसंख्यां चाऽऽहसत्तरिसयमुकोर्स, जद्म बीसा य दस य विहरति ।
:
जम्मं पर उक्कोसं, बीस दसय हुंति हु जहमा ||३२|| सप्तत्यधिकं शतमुत्कृत एकका तीर्थकृतः समयक्षेत्रे विदर म्ति, पञ्च भरतेष्वेकैकस्यभावात् देवतेष्वपि पञ्चावत भावात् पञ्च महाविदेदेषु प्रत्येक द्वात्रि बुतीकृतां वष्टचधिकशतस्य सद्भावादेतत्संख्यायाः सम्भव इति । तथा-जघन्यतो विंशतिस्तर्थिकृत एककालं विहरमाणाः प्राप्यन्ते । तथाहि - जम्बूीपस्य पूर्वविदे शीतामहानद्या द्विभागीकृते दक्षिणोत्तरदिग्भागेनैकैकस्य सद्भावाद हो, अपरविदेहे शीतोदाया महानद्या द्विभागीकृते तथैव द्वौ जिनेन्द्री, मि-सिताद्यत्वारः परद्वीपय संबन्धिमहाविदेदश्वेऽपि चवारा इति पचविंशतिः प्रररावसयोकान्त सुषमाऽऽदावनाव एव । अन्ये तु सूरयो दशैव जघन्यतो वि. इरन्तीति मन्यन्ते पश्वानां महाविदेदानां पूर्वापरविदेहयोः प्रत्येकमेकैकस्य विहरतः सद्भावेन दशानामेव सीतां प्राप्य माणत्वात् । तथा जन्म प्रति जन्माऽऽश्रितोत्कृष्टत एककालं विहरमाणजिनविंशतिवद् विशतिस्तोयेकृतो भवन्ति । यतः सर्वेषा मपि कृतसमय जन्म ततो महाविदेदेषु तीर्थ जन्मसमये भरतेरावत क्षेत्रेषु दिवससीखादेतायत प्राप्यन्ते । ननु महाविदेदवििवजयेन
ज्योंऽधिकानामपि सीतागुत्पतेः संभ तिते इदि मेरी पड
सृषु पूर्वाssदिषु दिक्कु प्रत्येकं चतुर्योजन प्रमाणबाहल्याः पञ्च योजनशा पायामा मध्यभागे तृतीययोजनशत प्रमाणविष्क नामसंस्थिताः सर्ववेतवर्णमयतोभयेकशिला निकायाः पूर्वदिग्नाधिग्यांपासुकम्बल शिला
तीर्थकराभिषेक सिंहासने। तद्यथा एकमुत्तरतः एक द किणतः तत्र वेशीताया महानथा उत्तरतः क
येषु तीर्थकरा चपजायन्ते, ते भौत्तराहे सिंहासने सुरेन्द्रैरभिषि यन् पुनः शीताया महानया दक्षिणतो मातीप्रमु
थे
विजयेत्पद्यन्ते ते दाक्षिणात्ये सिंहासनेऽभिषिच्यते। तथा चूलिकायाः पश्चिमदिग्नाकिन्यां रक्तकम्बलशिक्षा सिंहा मे । तद्यथा एकमुत्तरता, एक दक्षिणतः तत्र शीतोदाया महानया दक्षिणतः पद्मादिषु विजयेषु तीर्थंकरा उत्पद्यन्ते ते दाखि खात् सिहासनेऽनिषिध्यते । ये तु शीतोदाया महानद्या उत्तरतो गन्धिनावतीप्रमुखेषु विजयेषु जायन्ते, ते उत्तराहे सिंहासने । तथा धूलिकाया दक्षिणदिग्भाविन्यामतिपाण्डुकम्पल ये भरत क्षेत्रसमुद्भवास्तीर्थकरास्तेऽनिषिच्यन्ते । उत्तरदिग्भाषित्यां स्वतिरककम्बलशिलामा भैरवत क्षेत्र समुद्रवारुतीर्थंकरा स्तेऽभिषिच्यन्ते । सिंहासनानि च सर्वरत्नमयानि सर्वाण्य पीत्येयं पञ्चधनुःशताऽध्यामविष्क जान्यतृतीय धनुःशत बाहल्या नीति । ततः समधिकाजिषेक सिंहासनाभावादेव विदेदेषु च तुभ्योऽधिकानां तीर्थकृता मेककालमुत्पत्यभाव इति ॥ जघन्यतः पुनर्दशे एककालमुत्पद्यन्ते, पञ्चसु भरतेषु पञ्चसु वैरवनेषु प्रत्येकमेकैकस्य सद्भावात् भरतैश्वतेषु हि जिनजन्मसमये महाविदेदेषु दिनसद्भावान्नाधिकानामुत्पत्तिरिति । प्रव० १३०
१४ द्वार |
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( २३०६ ) अभिधानराजेन्द्रः ।
तित्थयर
(१२०) सर्वायु:
चउरासीइ विसत्तरि, सट्ठी पमासमेव लक्खाई । चसा तीसा बीसा, दस दो एगं च पुब्वाणं ॥ चउरासी वातरीय सही य होड़ वासाणं । तीसा य दस य एगं च एवमेए सयसहस्सा || पंचाणउ सहस्सा, चउरासीई य पंचपण्णा य । तीसा य दस य एगं, मयं च बावत्तरी चेव ॥ प्रगवत आदितीर्थकरस्य सर्वायुधतुरशीतिपूर्वाषां लाणि अजितखामिनातिः पूर्वलक्षाणि शंभवनाथस्य पहि पूर्वाणि अभिनन्दनस्य पञ्चाशत्पूर्वाणि सुमा रिंशत् । पद्मप्रभस्य त्रिंशत् । सुपाश्वस्य विंशतिः । चन्द्रप्रभस्य दश पूर्वाणि सुविधेद्वे पूर्व शीतलस्यैकं पूर्वकम् ॥ श्रेयांसस्य चतुरशीतिवर्षसहस्राणि वासुपूज्यस्व दिस प्रतिविमलस्वपश्चितकारी अनम्यजित 1 धर्माणि शान्तिनाथस्यैकं पर्यटक कुम्धुनाथस्य पञ्चमपतिबंध स्राणि धरनास्थ चतुरशीतिसहस्राणि स्वामिनः पञ्चाशद्वर्षस खानि मुनिसुव्रतस्य त्रिणि नमिनाथस्य दश वर्षसहस्राणि । अरिष्टनेमेरेकं वर्षसहस्रम् । पार्श्वनाथस्यैकं व शतम् | वर्षमानस्वामिनो द्वासप्ततिवर्षाणि । श्र० म० १ अ० १ खराम |
1
सामान्यमुनिसंख्यागणहर केवलिमणओ-हिपुव्वि वे उब्विवाइयं संखं । मुणिसंखाए सोहिय, नेया सामन्नमुखि संखा || २६७ || गणधराः १, केवलिनः २, मनःपर्यवज्ञानिनः ३, अवधिज्ञानिनः ४, पूर्वधराः ५, वैक्रियलब्धयो ६, वादिनश्च ७, एतेषां संख्यां मणि साहिब ने सामन्नमुयिसंचा) मुनिसंख्यायाः "सिसचा "इत्यायुकायाः शोध निष्काशोधयित्वा स्प सामान्य मुनिसंख्या वा यस्य यावन्तो मुनयो भवन्ति, तेभ्यस्तङ्गणधराऽऽदयः पृथक् क्रियन्ते, यावन्तोऽवशि यस्तस्तस्य सामान्ययो भवतीति गाथार्थः ॥ २६७॥ गुणवीस या तह छासी हवंति सहसा । गवना अहिपाई सामन्नमुषीण सम्यगं ॥ २६० ॥ एकोनविंशतिलकाणि ( तह बालीई हवंति सहसाई ) तथा अपरिपकशीतिसहस्राणि गवादि) का शधिकानि ( सामन्त्री ज्य) सामान्यमुनीनां सर्वाग्रं सर्वसंख्या ज्ञेया । अङ्कतो यथा-- १९ ८६०५१ । इति गाथार्थः । २६० ॥ सत्त० १२२ द्वार । परिमतगणिकृत प्रश्नो यया तीर्थकराणां चतुर्दशसहस्राss. दिका साया कि दिवाभा इति उत्तरम् तकांच देशपृथ्वीसहस्रादिपरिवारामध्ये गण्यन्ते न वेति प्रश्नमाश्रित्य -
"गण हरकेवलिमणओ हिडिव बेचविवाणं संखं । मुणिसखाए सोहिअ नेया सामन्नमुणिसंखा ॥ १ ॥ पगुणवीस य लक्खा, तह बासी हवति सहसाई । गया सामत्रमुगीण सज्यग्मं ॥ २ ॥
23
तथा-
अठावीसं लक्खा, अयालीस च तह सहस्साई । सवसि पि जिणाणं, जईण माणं विणिद्दिहुं ॥ ३ ॥ " इति वचनयोरनुसारेण यथोक्तसंख्यामध्ये गएयन्ते चतुर्द्दशपूर्यादय इति सम्भाव्यते ।
तथा
तित्थयर
""
33
'पञ्चाशीतिसहस्राणि शतानि पद् परिवारेऽभवन् सर्वे मुनयस्त्रिजगद्गुरोः ॥ १ ॥ एतदनुसारेण च श्री ऋषभदेवस्य चतुरशीतिसहस्र भिक्षा एव ते इति यतः सामान्य साधुविशेषसाधुसंयामी नेन यधोकसंख्या संजावनया पूर्वमाखास्तीति । रातु स विद्वेद्यमिति ॥ ७ प्र० । ही० 9 प्रकाo | सामायिकम् -
वावी तित्थयरा, सामाश्यसंजम उवइसंति । बेवडावणियं वयंति उसजो अ वीरो ॥ २० ॥ द्वाविंशतिस्तीर्थकरा मध्यमाः सामायिकसंयमम् (नवसंनि) उपदिशन्ति देव सामायिकमुचार्यते तदेव तेषु यते।
,
पनि भवति प्रथमतीर्थकर चरमतीर्थकरती हि प्रवजितमात्र सामायि संयोजयति तावद्यावच्त्रपरिज्ञायनमः एवं हि पूर्वमा सीत् । अधुना तु पम्जीवनिकायावगमं यावत्, तया पुनः सूत्रतोऽर्थतश्चावगतया सम्यगपराधस्थानानि परिहरन्तेषु स्थाप्यत इत्येवं निरतिचारः साऽतिचारा पुनमूलस्थानं प्राप्त उपस्थाप्यत इति ॥ २० ॥ श्र० ४ ० । (विशेषस्तु 'कप्प' शब्दे तृतीया २२४ पृष्ठ गतः
,
श्रथ सामायिक संख्यामाह-सव्वेी चचसम आ सम्ममुपदेससम्यरिहिं । भणिया सागरकोमा कोम सेसेसु कम्मे ॥ २०५ ॥
( मणिय त्ति ) सबैजिनैः चत्वारि सामायिकानि भणितानि । हस्वत्व पुंस्त्वनिर्देशस्तु प्राकृतत्वात् । तानि काभिरित्याद( सम्म सुयदेस सम्बविरईहिं ) सम्यक्त्वश्रुतदेश सर्वविरतिभिः सम्यक्त्व सामायिकम् श्रुतसामायिकम्, देशविरतिसा माविकम, सरितादेति पानि कदा भवन्तीस्याह- सागरकोकाको कम्मे ) सागरकोटाको टीपे कर्मसु जीवानामित्याहारमा समुदाया
1
- जीवानामेक कोटा कोटा स्थितिकेषु सप्तस्वपि कर्म आयु वस्तु स्वभावत एकको टिकमध्यस्थितिकत्वात् चत्वारि सामान यिकानि नवन्तीति सर्वैर्जिनैनीणितमिति गाथार्थः ॥ २८५॥ सत्त० १३२ द्वार । (श्रस्य स्वरूपं विशेषतः 'सामाइय' शब्दे वक्ष्यते) (१२१) श्रावकव्रतसंख्यासहाणं हिंसालिय- अदत्तमेहुणपरिगहाणवित्ती |
पण असाहय महन्वया एए ॥ २७५ ॥ दिसिविर भोगमाण तहणत्यविनय । समय देमवगसिप, पोसह तिहिँ बिजागरया | २७६। प्रथमं श्राद्धानां सम्यपूर्वकं हिंसालादनेनपरि ग्रहाणां निवृत्तिः प्रत्याख्यानम् ५। । इय पण श्रवयाति) एतानि पञ्चाव्रतानि, हिंसाऽऽदिभ्यो देशतो निवृत्तिरूपत्वात् । ( साहूए महन्वया पप चि ) एतानेव पञ्चापि साधूनां महाब
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(2309) अभिधानराजेन्ः |
तित्थयर
तानि हिंसादिभ्यः सर्वतो निवृतिरूपत्वात् । इति गाथार्थः । ॥ २७५ ॥ अथ श्राद्धानां त्रीणि गुणव्रतान्याह - ( दिसिविर भोगुबभोगमाण तह दंडवत) दिविरति ६ मो गोपगमानं तथाऽनर्थदयमविरतिश्चेति त्रीणि गुणवतानि । अथ चत्वारि शिष्याम्यादसमय देउवासिय पोख सिद्धि विज्ञागवया) सामायिकम ए. देशाकाशिकम् १०, पौषधः ११, श्रतिथिसंविभागः १२ । एतानि व्रतानि गृहमेधिनां ज्ञेयानीति गाथार्थः ॥ २७६ ॥ सत्त० १२७ द्वार । साधुव्रतसंख्या
साहुगिद्दी बचाई, कमेण पण वार परमचरिमाणं । असिंचन वारस पडत्यपंचमचमता ॥ २७४ ॥ श्रीॠषभतीर्थे, श्रीवीरस्य तीर्थे च साधूनां पञ्च महाव्रतानि, श्राद्धानां द्वादश व्रतानि (अनसिं च वारस चवत्थपंचम एगता) येषां द्वाविंशतिजिनानां तीर्थे चत्वारि व्रतानि साधूनजानां द्वादश शतानि । कस्मात् चतुर्धपञ्चमक स्वात् चतुर्थपञ्चमव्रतयोरेकत्वादभेदात, परिग्रह प्रत्याख्याने कृते स्त्री प्रत्याख्यानं कृतमेव स्त्रीणामपि परिग्रहरूपत्वात् परिग्रहमन्तरेणाऽसंभवाश्च ॥ इति गाथार्थः ॥ २७४ ॥ सप्त० १२७ द्वार |
(१२२) अथ तीर्थकरमातुः चतुर्दशस्वनादगय वसह सीह जिसे यदाम सनि दियरं कयं कुंभं । पउमसर सागर विमा-ण जत्रण रयणऽग्गि सुविलाई || ७०|| गजः १, वृषभः २, सिंह: ३, लक्ष्म्या अभिषेकः ४, (दाम सि दिणयरं कयं कुंभं ) पुष्पत्रक ५, चन्द्रः ६, दिनं करोतीति दि नकरः सूर्यः ७, ध्वजः, ८ कुम्भः पूर्णकलशः ६, (पतमसरसारविमाण) पद्मसरः १०, सागरः समुद्रः १२, विमानम् १२ । भचणरण सुवित भवनम् १२१३ निर्धूमाग्निचेति १४ स्वप्ना शेषाः । इति गाथार्थः ॥ ७० ॥ स्वप्नकारणान्याह
नरयवद्वाण इहं, भवणं सग्गच्चुयाण न विमाणं । वीरूरा से सजणी, नियंसु ते हरिविसद्गयाएँ ॥ ७१ ॥ नरकोतानां नरकादागतानां जनानां जननी मंत्रनयनं प श्यति, समाधाण विमाणं) स्वर्गाच्युतानां तु जननी स्वप्ने विमानं पश्यति । (वीसह से सजगणी ) जननीशब्दः प्रत्येकमभिसंबध्यते । वीरजननी १, ऋषभजननी २, शेषजिनानां च जनन्यः २२, (निसु ते हरिवसहगया) दस्तान् स्वप्ना न सिंह २२६ रजनी पूर्व निदर्श भदेवश्व जननी पूर्व वृषभं ददर्श शेषजिनानां जनयः पूर्व गजं ददृशुः । इति गाथार्थः ॥ ७१ ॥
पुनरयकष्पगिविज्जा, हरी निरमरिमाण मिणा । पदमा चकि नरया, बला चउरे पकिचला ॥७३॥ द्विनर कादागताः- द्वादशकल्पादागताः, ग्रैवेयकादागताश्च ह रयो वासुदेवा भवन्तीति । ( निरयविमाणयहिँ जिला ) प्रथमतिरादागताच तीर्थङ्करा नयन्ति । प्रथमनर कादागताश्चक्रिणो भवन्ति । (पुनरया बला ) द्विनरका दागताश्च बलदेवा भवात । ( चठसुरेहिं चक्किबला ) जवन पतिभ्यन्तरज्योतिष्कवैमानिका सुरेभ्यः समागताश्चक्रिव लभद्रा भवन्तीति गाथार्थः ॥ ७२ ॥ जिचकीय जगणी, नियंति चउदस गयाइँ वरसुविणे ।
तित्थयर
सगचछति गाइ हरी - बलपमिहरिमंगलियमाया ॥ ७३ ॥ ( जिणचक्कीण य जणणि त्ति ) जिनानां चक्रवर्तिनां च जनन्यः (नियंति चउदलगयाश् वरसुविणे) पश्यन्ति चतुर्दश गजा35दीन् प्रधानख्यान् (गहरी बल परिमंडल माया) मातृशब्दस्य प्रत्येकं योगात् सप्त दृरिमातरः, चतुरो व लदेवमातरः श्री प्रतिवासुदेवमातरः एकाऽऽदीन ि कमातरः स्वप्नान् पश्यन्तीति गाथार्थः ॥७३॥ सत० १८ द्वार । स्वविचारकाः
पढमस्स पिया इंदा, सेमाणं जयण - सुविणसत्यविक । विषारिंस मुद्दे सुविणे चउदस जाणिदिहे ॥७४॥ प्रथमस्य ऋषभ जिनस्य पिता, तथा इन्द्राः स्वप्नान् विचारयन्ति हम । शेषजिनानां जनकाः, तथा स्वप्नशास्त्रविदो विप्राः, (अविया प्रकृतत्वाद विभाग विचारयति स्म । कानू ?, (सुहे सुविणे ति) शुभान् स्वप्नान् चतुर्दशसंख्याकान् । पुनः कथं (जस) जननि कितान्।
०१२ द्वार ('वीर' शब्दोऽय विलोकनीयः) शेषतवृतिकालः
................, सेसमुपविधिमा तित्यं ॥ २२८ ॥ शेष इति पूर्वग्यतिरिका प्रवृतिः याय यस्य तीर्थस्य तीर्थं तावत्कालं स्थास्यति । सत्त० १६३ द्वार ।
तीर्थकरजीवानां नरके परमाधार्मिककुता पीडा भवति, न वेति ? प्रश्ने, उत्तरम् अत्राप्ये कान्तो ज्ञातो नास्ति । ६०० ही०३ प्रका० । (१२३) जंबुद्दीवे पं दीवे उक्कोसपर चोत्तीसं तित्थयरा समुपज्जंति । (कोसपर को गिरा समुपतति ) समुत्पद्यन्ते सम्भवन्तीत्यर्थः न त्वेकसमये जायन्ते, चतुर्णामेवैकदा जन्मसंभवात् । तथादि मेरी पूर्वापरो सिंहासने जवतो तो घावेव द्वावेवाभिषिच्येते, अतो द्वयोद्वयोरेव जन्मेति । दक्षिणोत्तर क्षेत्रयोस्तदानी दिवससद्भावान्न भरतेरावतयो जिनोत्पतिः, अर्द्धरात्र एव जिनोत्पत्तेरिति । स० ३४ सम० । भरतत्रेऽतीतोत्सर्पिण्यां जिनेश्वराःकेवलनाथी निम्या सिागरो जिए महाजसो विमलो। सवा सिरिहर, दत्तो दामोयर सुते ||२०|| सामिजियो सिवासी, सुमई सिवगइ जियो व अत्या हो । नाह नमीसर अमिलो, जसोहरी कियग्यो य || २७१ || धम्मीसर सुमई, सिक्कर जिए संदणो व संपड़ प
ती उस्सप्पिणिभरहे, जिणेसरे नाम वंदे ॥ २२ ॥ केवलानी, निर्वाणी, सागरी जिनो महायशाः विमलोनासुतेजाः अन्ये सर्वानुभूतिमाः । श्रधरो, दत्तः, दामोदरःसु तेजाः, इति प्रथमगाथायां दश। स्वामिजिनः, चः समुश्च ये । शि बासी । अन्ये मुनिसुव्रतमाहुः। सुमतिः १३, शिवगतिः २४, जिनः अस्ताघः १५, नाथः नमीश्वरः, अनिलो, यशोधरो जिनः, कृताघरच द्वितीयगाथायामस्यां नय ॥ धर्मश्वर के विजिनेश्वरमाहुः । शुद्धमतिः, शिवकरजिनः, स्यन्दनश्च, सम्प्रतिजिनश्च । श्रतीतत्सर्पिएयां भारते जिनेश्वरानेतान्नामतो वन्देऽहमिति तृतीयगाथायां पञ्च जिनाः । प्रव० 9 द्वार ।
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(२३०७) तित्ययर अभिधानराजेन्फः।
तित्पयर ऐरवते तीर्थकरा:
पतेषां यावतसंख्याकं यद मषिष्यति तदाहमंबुद्दीवे दीवे एरवए वासे श्मीसे भोसप्पिणीए चउव्वीसं |
एएसि पंचनव्वीसाए तित्थगराणं पियरो मायरो - वित्थगरा होत्था । तं नहा
विस्संति । चनचीसं पढमसीसा भविस्संति । चउब्बीस
पदमसिस्सपीओ जविस्संति । चउनीसं पढमभिक्खादा" चंदाणणं मुचंद, अम्गीसेणं च नंदिसेणं च।
यगा नविस्संति । चउव्वीसं चेइयरुक्खा भविस्संति । सन इसिदिलं वयहारिं, वंदामो सामचंदं च ॥६० ॥
पेरवतवर्षजाविनस्तीर्थकराःबंदामि जुत्तिसेणं, अजियसेणं तदेव सिक्सेणं।
जंबुद्दीवे एरवए वासे आगमिस्साए उस्सप्पिपीए चउदुकं च देवसम्मं, सययं निक्वित्तसत्थं च ॥६१॥ बीसं तित्थगरा भविस्संति । तं जहाअस्संजसं जिएवसहं, वंदे य अणंतयं अमियणाणि । " मुमंगले प्रसिदत्थे, णिबाणे य महाजसे। वसंतं च धुवरयं, वंदे स्वबु गुन्सिसेणं च ।। ६३ ।।
धम्मऊए य भरहा, आगमिस्सेण डोक्लाइ॥१॥ अतिपासं च मुपासं, देवेसरवंदियं च परुदेवं ।
सिरिचंदे पुप्फकेऊ, महाचंदे य केवली । निव्वाणगयं च घरं, खीणदुई सामकोडे च ।। ६३॥ सुयसागरे य अरहा, आगमिस्सेण होक्खइ ॥२॥ जियरागमागसेणं, वंदे खाणरयमग्गिउत्तं च।
सिछत्थे पुमघोसे य, महाघोसे य केवली। चोकसियपिज्जदोसं, वारिसेणं गयं सिद्धं ॥ ६४॥"
सच्चसेणे य भरहा, आगमिस्सेण होक्खा ॥३॥ जम्बूद्धीपैरवते अस्यामवसपिण्यां चतुर्विंशतिस्तीर्थकरा - सूरसेणे य अरहा, महासेणे य केवली । वन, तांश्च स्तुतिद्वारेणाऽऽह । तद्यथा-(चंदापणं सुचं- सवाणंदे य अरहा, देवउत्ते य होक्खइ ॥४॥ दं, अग्गीसेण च नंदिसेणं च) कचिदात्मसेनोऽप्ययं दृश्यते ।
मुपासे सुब्बए अरिहा, अरहे य सुकोसले । ऋषिदिन्नं, प्रतधारिणं च बन्दामहे श्यामचन्हं च ॥६०॥ बन्दे युक्तिसनं, कचिदयं दीर्घबाहुर्दीर्घसेनो बोच्यते । अजित
अरहा अणंतविजए, आगमिस्सेण होक्खा ॥ ५॥ सेनं, कचिदयं शताऽऽयुरुच्यते । तथैव शिवसेनं, कचिदयं | विमले उत्तरे अरहा, अरहा य महापसे । सत्यसेनोऽभिधीयते, सत्यकिश्चेति । बुद्ध चावगततत्वं च देवाणंदे य अरहा, आगमिस्सेण होक्खइ ॥६॥ देवशर्माणं देवसेनापरनामकं, सततं सदा, वन्दे इति प्रकृतम् ।
एए वुत्ता चउव्वीसं, एरवयम्मि केवली। निक्किप्तशस्त्रं च,नामान्तरतःश्रेयांसमा६१। (अस्संजसं ति)असं
प्रागमिस्सेण होखंति, धम्मतित्थस्स देसगा"॥७॥ ज्वलं जिनवृषनं, पाठान्तरेण-स्वयंजलं, बन्दे अनन्तजिनमामि. तज्ञानिन,सर्वामित्यर्थः। नामान्तरणाऽयं सिंहसेन इति । सपशा.
(तीर्थकृतांजन्मभूम्यादौगमनफलं 'दंसणनावणा' शब्दे वक्ष्यते) संच उपशान्तसंकं,धूतरजसं बन्दे बसु गुप्तिसेनं च ॥६॥ (मह
(तीयकृतामाशातना 'पासायणा' शब्दे द्वितीयभागे ४८. पृष्ठे पासंति)मतिपावै च सुपाईवं देवेश्वरवन्दितंच मरुदेवं निर्वा
निरूपिता) (केवलज्ञानेन ज्ञात्वा स्वयमेव तीर्थ करोतीति सगतं च धरं धरसझंकीणदुःख श्यामकोष्ठम् ।६३ (जिय ति)
'उबहाणसुय' शब्दे द्वितीयभागे १.५६ पृष्ठे उक्तम् ) जितरागमग्निषेणं, महासेनापरनामकं वन्दे कीणरजसमग्निपुत्रं
(१२४) तीर्थकरा यद्यपि कृतकृत्याः, तथापि तपःकर्म, उपधा. च, व्यवकृष्टप्रेमद्वेषं च वारिषेणं, गतं सिद्धमिति । स्थानान्तरे नक्षुतमुपसर्गसहनं च कुर्वन्तिकिञ्चिदन्यथाऽप्यानुपूर्वी नाम्नामुपलभ्यते । स०।
जो जइया तित्थयरो, सो तइया अप्पणम्मि तिस्याम्मि। (भविष्यत्तीर्थकरा अस्मिन्नेव शब्दे १२७१ पृष्ठे व्याख्याताः)| वोइ तवोकम्म, उबहाणसुयम्मि अज्य णे ॥ ३ ॥ अथ तेषां पूर्वभवामाह
सम्बेसि तवोकम्मं, नीरुवसग्गं तु वम्लिय जिणाणं । एएसिचनुन्बीसाए तित्थगराणं पुन्बजरिया चर
नवरं तु वकमाण-स्स सोबसग्गं मुणेयन्वं ॥४॥ बीसं नामधेजा नविस्संति । तं जहा
तित्थगरो चउनाणी, सुरमहिनो सिज्जियन्व, धुम्मि। "सेणिय सुपास उदए, पोट्टिम अणगार तहदढालय।
अपगृहियबलविरिभो, तवोविहाणम्मि नजम ॥ए। कत्तिय संखेय तहा, नंद मुनंदे य सतए य ॥१॥
किं पुण अवसेसेडिं, दुक्खक्खयकारणेसु विहिरति । बोधब्बा देवई य, सदर तह वासुदेव बलदेवे ।
होइ परकमियत्वं, सपञ्चवायम्मि माणुस्से । ए६ ॥ रोहिणि मुलसा चेवं, तत्तो खबु रेवई चेत्र ॥२॥
प्राचा०नि० १ ० ए ०१०। तत्तो दर सयाली, बोपचे खलु तहा जयासी य ।
सर्वेषां तीर्यकृतां सरशानि सूत्राणि
अत्र शिष्यः प्राऽऽहदीवायणे य कण्हे, तत्तो खबु नारए चेच ॥३॥ निक्खेवा य निरुता-णि जा य कहणा नवे पगासस्स । भंक्ड दारूममे वा, साई बुके य होइ बोधब्वे । | बह रिसजाइयाऽऽहं-सु किमेवं रखमाणो वि॥३०॥ जानीतित्थंगराणं, पामाइं पुनमवियाई" । बेनिषाश्चतुष्कसप्तकाऽऽदयो, शनि च निस्कानि सत्रापेको
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(२३०९) तित्थयर अनिधानराजेन्डः।
तित्थयर रनन्तरमुकानि,या च चतुरिनुयोगद्वारैःप्रकाशस्यार्थस्य कथ- पूर्वज्यः पूर्वकालभाविभ्यः पुरुषभ्यो यद्यपि साम्प्रतनराणां सम्प्रना, चशब्दादेकाधिकानामपि या कथना । एतानि यथा ऋषभा- तिमनुध्यागामिन्छियमानानि हीनानि,तथाप्यारमाङ्गलमधिकृत्य ऽऽदयस्त्रयोविंशतिस्तीर्थकरा पाण्यातवन्तः,तथा किमेवं भग- केत्रविभागे तेषां तुल्या उपलब्धिः। तथाहि-श्रोत्राऽऽदन्जियप्रमा. वान् वर्कमानम्वाम्यप्याख्याति,किं वाऽन्यथेति? उच्यते-तथैव । गंश्रोत्राऽऽदीन्द्रियविषयप्रमाणं चात्माहतः,तच्च यथा पूर्वमनु. ननु ते उच्चतराः, भगवान् वर्द्धमानस्वामी पुनः सप्तरनिप्र- ष्याणांद्वादशयोजनाऽऽदिकं कंत्रप्रमाणम,तथाऽधुनातनमनुष्यामाणः,ततः कथं तथैवाऽऽख्यानम् ?, अत आह
णामपि । तथा चोक्तम्-“ सोशंदियस्स णं नंते ! केवश्य विसर धिइसंघयणे तुबा, केवलभावे य विसमदेहा वि। पन्नत्ते ? गोयमा ! जहन्ने अंगुलस्स प्रसंखिज्जइनागाओ,उ. केवलनाणं तं चिय, परमवाणिज्जा य चरमे वि ॥२०६॥
कोसेणं चारसहिंतो जोयणेहिं ।" इत्यादि । एवं दीनाधिकयथा विषमदेहा अपि तीर्थकृतः धृतिसंहनने केवबजावेच
शरीरप्रमाणत्वेऽपि केवसेनोपलम्भस्तुव्य एवेति न कश्चिद्दोषः ।
अन्यच्च-शरीराऽऽश्रितानीन्द्रियाणि, ततः शरीरप्रमाणविषये, तुल्याः, तथा प्ररूपणायामपि तुल्याः । यतश्चरमेऽपि भगवति
तदाश्रितानामिन्छियाणामपि प्रमाणविशेषभावाचद्विषयकेत्रोवर्द्धमानस्वामिनि तदेव केवलज्ञानं, त एव च प्रज्ञापनीया |
परम्भविशेषः । बृ० १ उ०। भावाः, ये ऋषभाऽऽदीनां ततः कथं न तुल्या प्ररूपणा?।
(१२५) प्रकीर्णकवार्ताःतत्र यो विशेषस्तमुपदर्शयति
तित्थयरे जगवते, अणुत्तरपरक्कमे अमियनाणी। णायऽज्यणाऽऽहरणा, इसिजासियमो पइन्नगमुया य । एए हुँति अणियया, निययं पुण सेसमुप्पमं ॥२०७॥
तिन्ने सुगइगइगए, मिछिपहपदेसए बंदे॥१०२५॥
तीर्थकरान् भगवतोऽनुत्तरपराक्रमानमितझानिनस्तीर्णान सुगझाताध्ययनेषु यान्याहरणानि दृष्टान्ताः, ते हि केचित्त एव
तिगतिगतान सिक्रिपथप्रदेशकान् बन्दे । (प्रा० म०) ननु ती. भवेयुयें ऋषभाऽऽदिभिरुपन्यस्ताः, केचिदन्यथा, ये प्रत्युत्पन्ना
र्थकरानित्यनेनैव भगवत इति गतं. तीर्थकृतामुक्तकणभाव्य. इति । तथा यानि ऋषिनाषितानि, प्रकीर्णकश्रुतानि घ, एतान्य
निचारात, ततः किमनेन विशेषणेन । तदयुक्तम् । अस्य नयमनियतानि-कदाचिद् भवन्ति, कदाचिन भवन्ति । यानि च भ. वन्ति तान्यपि कदाचित्तथार्थयुक्तानि, कदाचिदन्यथाऽर्थोपे
तान्तरावलम्बिपरिकल्पितबुझाऽऽदितीर्थकरतिरस्कारपरत्वात्। तानि । शेषं पुनरुत्पन्नं प्रायेण नियतम ।
तथाहि-न ते बुझाऽऽदयः स्वस्वदर्शनरूपतीर्थकारिणोऽपि
तस्ववृश्या भगवन्तः, यथोक्तासमग्रेश्वर्याऽऽदिगुणकलापायोआह-कः पुनरत्र दृष्टान्तः, यथा वर्द्धमानस्वाम्यपि तथैवाउमयातीति? दृष्टान्तमाह
गादिति । ( प्रा० म०) ननु ये ऽनुत्तरपराक्रमास्ते ऽमित
झानिन एव, क्रोधाऽऽदिपरिक्कयोत्तरकालमवश्यममितज्ञाजस्य जह सब्वजणवएसुं, एक चिय सगमवत्तिणिपमाणं ।
भावात् । सत्यमेतत् । केवलं ये क्लेशकये ऽप्यमितज्ञानं ना. विसमाणि य वत्यागी, सगडाईणं तह णिरुत्ता ॥३०॥ भ्युपगच्छन्ति । तथा च तद्ग्रन्थः-" सर्व पश्यतु वा मा यथा शकटाऽदीनाम,आदिशब्दाद गन्ध्यादिपरिप्रदः। यद्यपि वा, तवमिष्टं तु पश्यतु । कीटसङग्यापरिकानं, तस्य न कोविपमाणि वस्तूनि केषाश्चिमहान्ति,केषाश्चित् सुखकानि, तथा. पयुज्यते?।।१॥" इत्यादि । तन्मतव्यवच्छेदफलमिदं विशेऽपि सर्वेम्वपि जनपदेषु एकमेव तदा शकटवर्तिन्याः प्रमाणं, षणमित्यदोषः । तद्व्यवच्छेदश्चैवम्-सर्वभावपरिज्ञानानावे सर्वत्राकाणां चतुर्हस्तप्रमाणत्वात् । तथा निरुक्तानि, उपलक- तत्ववृश्यकस्याऽपि वस्तुनः परिज्ञानायोगात, सर्वस्याऽपि य. गमेतत, निपाऽऽदीनि च प्ररूपणामधिकृत्य तुस्यानि । थायोगमनुवृत्तव्यावृत्तधर्मतया सर्वैः सह सव्यपेक्षत्वात् । श्राह-नववश्यं पूर्वरथानां, संप्रतिरथानां च विस्तरस्या- प्राह च-"एको जावः सर्वथा येन दृष्टः, सर्व भावाः स. स्ति विशेष एव, महाप्रमाणानां पूर्वमनुष्याणामल्पप्रमाणा- र्वथा तेन दृधाः । सर्वे भावाः सर्वथा येन दृष्टाः, एको भानामधुनातनमनुष्याणां विशेषो भवति ।
वः सर्वथा तेन दृष्टः ॥१॥" आचारानेऽप्युत्तम्-"जे एग तत प्राद
जाण, से सब जाण । जे सव्वं जाणइ, से एगं जाणइ।" जा वि य वत्थू हीणा, पुब्बिल्लरहेहि संपयरहाणं ।
इति । अथवा-ये स्वसिद्धान्ते छद्मस्थवीतरागास्ते अनुत्तरपरा
क्रमा भवन्ति, कषायाऽऽदिशत्रूणामाक्रमणात्,न त्वमितझानिनः, तह विजुगम्पि जुगम्मी, सहत्यचन हत्थगा मक्खा ॥२०॥
केवलज्ञानाभावात् । ततस्त व्यवच्छेदार्थमिदं विशेषणमिति । यद्यपि पूर्वतनरथेन्यः साम्प्रतरथानां वस्तूनि होनानि, तथा- (मा० म०) अनेन ये प्राप्ताणिमाऽऽद्यष्टविधैश्वर्य स्वेच्छाविन. ऽपि युगे युगे सर्वत्रामहस्तेन चतुर्दस्तका प्रक्षाः, ततः स- सनशीलं पुरुषं तीर्ण प्रतिपादयन्ति । तथा च तदनन्धः-"अणि
परि जनपदेवकं शकटवर्तिन्याः प्रमाणम् । तथा यद्यपि भाऽऽद्यष्टविध प्रा-प्यैश्वर्य कृतिनः सदा । मोदन्ते सर्वनावपूर्वकाले महाप्रमाणा मनुष्याः, संप्रतिकाले त्वल्पप्रमाणाः, त. झा-स्तीर्णाः परमपुस्तरम् ॥१॥” इत्यादि । तव्यवच्छेदमाद । थापि सर्वेषां तदेव केवलज्ञानं, तदेव संहननं, त एव च प्रज्ञा- (प्रा० म०) सिक्रिपथप्रदेशकान्,अनेनानेकभव्यसचोपकारितीपनीया भावा इति तुल्या प्ररूपणा।
र्थकरनामकर्मविपाकोदयसमन्वितं भगवतां स्वरूपमाह । श्रा. मनु पञ्चधनुःशतिकप्रभृतीनां महान्तीन्जियामि, तेन तेषां प्र
म० अ०१खएक।
प्रश्नोत्तराणिनूततरकेत्रे विषयोपलम्भविशेषोऽपि स्यात् ।
तीर्थकरा एकस्मिन् समये कति सिद्धयन्ति ?,इति प्रश्न,उत्तरम् अत पाहधुरिमहि जइविहीणा, इंदियमाणान संपयनराणं ।
एकस्मिन्समय उत्कर्षतः चत्वारस्तीर्थकराः सिद्धयन्तीति सिद्धप.
ञ्चाशिकाऽऽदावुक्तमस्तीति ।०६प्र० । सन.१वा । यथाऽत्र वह चि य सिं नवलछी, खित्तावनागेण तुला न ॥२१॥जरते श्रीवारजन्म भसग्रहः, तथाऽन्यकत्रे तीर्थकृतां जन्म
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(१३१०) अभिधानराजेन्द्रः।
तित्थयर
तित्थयर
सागतोऽस्ति, न वेति प्रश्ने, उत्तरम-दशवपि क्षेत्रषु तीर्थक- उत्तरम-समवसरणस्थस्य तीर्थकृतः श्राका यतयश्च वन्दितां च्यवनाऽऽदीनि कल्याणकान्येकस्मिन्नेव नको जवन्तीत्याग
त्वा यथास्थाने निषीदन्तीति दारिजद्रयां, परं तद्वन्दनरीमोक्तत्वाद्भस्मग्रहाऽदिसंक्रमणं सर्व समानमेवेति । ९३ प्र० । तिः कापि विखिता नास्ति, तस्मादाधुनिकवन्दनरोतिरेष संसेन०१ उल्ला ।" बीरस्सायंगुलं दुगुणं ति" कथं सर्वे जिनाः भाव्यत इति । ४३६ प्र० । सेन० ३ उल्ला० । तीर्थकृतां विशत्यधिकशताइलाः कथिताः,प्रमाणागुलस्य पश्चाशद्भा
जन्मनवनानन्तरं देवाः कियरप्रमाणां रत्नाऽऽदिवृष्टिं कुर्वन्तीति गसत्कैकविंशतिभागदेहमानं वीरस्य कथितमस्ति, तेन चो प्रश्न, उत्तरम-"उसमेणं अरडा कोसलिए. जाव चिहा, ततो त्सेधाइलैकशताष्टषष्टिमानं जायते, विंशतिशतद्विगुणीकरणे वेसमणो सवयणेणं बनीसं हिरमकोमीओ, बत्तीसं मंदाचत्वारिंशदधिकद्विशतागुलानि स्युः, सात्रयहस्तमाने तु सणाई, बत्तीसं भद्दासणा जगवतो तित्थमरस्स जम्मणभपाश्चात्यमानं विसंवदतीति प्रश्ने, उत्तरम्-" वीरस्सायंगुलं वणम्मि साहर।" इत्यावश्यकबृहद्वृत्ति७६ पत्रे, पतदनुसामुगुणं" इत्येतनाथावृत्तौ मतवयमस्ति,तत्रानुयोगद्वारचूर्ण्यभि. रेण, तथाप्रायेण श्रीवीर आत्माल्गुलेन चतुरशीत्यङ्गुलप्रमाणश्चतुरशी- "कुरामले सौमयुग्मं चो-च्छी मुक्त्वा हरिय॑धात् । तिविगुणीकरणेऽष्टषष्ट्यधिकशतमुत्सेधाश्गुलानां भवतीति न श्रीदामरत्नदामाख्यमूल्लोचे स्वर्णकन्कम् ॥ ४२॥ किश्चिदनुपपन्नम्, एतदाश्रित्य विस्तरस्तु संग्रहणीवृत्तावस्ति । द्वात्रिंशदुसरे सप्य-कोटिवृष्टिं विरच्य सः। ११५ प्र०। सेन०२ उहा। तीर्थकृतां त्रयोदशाऽऽदिभवाः प्रथ- वाढमाघोषयामास-ति सुरैराभियोगिकैः॥४३॥" मसम्यक्त्वलाभापक्कयाऽप्रतिपत्तिसम्यक्स्वलाभापेक्षया बा, प्र. इतिकल्पकिरणावल्यनुसारेण च, तीर्थकृतां जन्मभवनानन्तरं सिद्धमहद्भवापेकया वा,किं वा प्रकारान्तरेणेति प्रश्ने, उत्तरम- देवरिहिता वृष्टिःद्वात्रिशद्धिरण्यकोटिप्रमाणा जवतीति। ४४४
आवश्यकाऽऽयभिप्रायेण श्रीऋषभाऽअदितीर्थकृतां त्रयोदशा-प्रासेन०३ उचा। दिनवाः प्रथमसम्यक्त्वलाभापेक्षया गण्यन्ते, न त्वन्यापेक्षयेति । १६५ प्र० । सेन० २ उल्ला० । सार्द्धद्वीपद्वये जघन्योत्कृष्टत
तित्थयर' शब्दस्थविषयसूचीएकस्मिन् समये तीर्थकृतां कत्यभिषेकाः,तथा तत्र कत्यरका (१) तीर्थकरशब्दसिद्धिः। भवन्तीति प्रश्न, उत्तरम-सार्कद्वीपद्वये जघन्यत एकसमये दश (१)तीर्थकृतां तीर्थकरणशीलत्वम् । तीर्थकरा मेरुपञ्चके शरभिषिच्यन्ते, उत्कृष्टतस्तु विंशतिः, त. (३) तीर्यकृतामचेलत्वेऽपि संयमविराधनाऽऽदयो दोषान था तत्र जघन्यतश्चत्वारोऽरकाः, उत्कृष्टतस्तु पञ्च भवन्तीति भवन्तीति निरूपणम् । ज्ञायते । ६५ प्र० सेन. ३ उल्ला० । तीयजननी चतुर्दश स्व.
(४) तीर्थकृतामनुत्तरोपपातिकमुनिसंख्या। मान् स्फुटान, चक्रवर्तिजननी स्वस्फुटान् प्रत्यक्षराणि सन्ति,
(५) ये तीर्थकरेषु अष्टादश दोषान भवन्ति तेषां प्ररूपणम्। प्रघोषो वेति प्रश्ने, उत्तरम्-चक्रवर्तिमाताऽस्फुटान् पश्यति ।
(६) तोर्थकराणामभिग्रहाः। तमुक्तम्-" चतुर्दशाप्यमून स्वप्नान् , साऽपश्यत् किश्चिदस्फु
(७) अनोपाजाऽऽदियबद्धा अपि ये आदेशपदाभिधेया: टान् । सा प्रभोः प्रमदा सूते, नन्दनं चक्रवर्तिनम् ॥१॥"
पदार्था कानिभिः प्रकाशिताः तेषां सख्यानिरूपणा । इति बासुपूज्यचरित्रे । १०४ प्र. । सेन. ३ उम्झा० ।
(C) तीर्थकराणां तीर्थे षमावश्यकं यस्मिन् समये क्रियते जनन्या विश्वतुर्दशस्वप्ना दृष्टाः, उत एकवारम ?, इति
तनिरूपणम्। प्रने, उत्तरम्-शान्तिनाथजनन्या द्विश्चतुर्दश स्वप्ना इष्टाः । यदुक्तं शत्रुञ्जयमाहात्म्येऽष्टमपणि "द्विः स्वप्नदर्शनादई-8.
(१) तार्यकरा यादृशमाहारं कुर्वन्ति तनिरूपणम् । क्रिजन्मसुनिश्चया । रत्नगर्नेध सा गर्ने, बभार भदोहदा
(१०) तीर्थजन्मासरे शक्रस्याऽऽसनचलनानन्तरमवधिना ॥ ७६ ॥ " इति । एवमन्यत्रापीति । १०७ प्र० । सेन० ३
तीर्थकरजन्मावबुध्य हरिनैगमेष्याशाप्रतिपादनम् । उडा० । भरतैरवततीर्थद्वयतिरिक्तानां तीर्थकृतां कीहर
(११) आदेशानन्तरं हरिनैगमेषी यत्कृतवान् तद्वर्णनम् । वर्णविजागः ?, इति प्रश्ने, उत्तरम्-पञ्चवर्णान्यतरवर्णरूपो वर्ण
(११)हरिनेगमेषिकृतघण्टानादेन यदभूत्तन्निरूपणम् । विभागो शेयोऽत्रापि पूर्वोक्त एव हेतुरिति । ३५० प्र० । सेन०
(१३) ततश्च घण्टानादतो यद् प्रवृत्तं तत्प्रतिपादनम् । ३ उल्ला० । बलदेवकर्णद्वैपायनशङ्खाऽऽद्याख्या आगमिध्यच्चतु
(१४)सौधर्मे कल्पे पदातिपतिकर्तव्यनिरूपणम् । (देवाना विंशतो तीर्थकृतो भविष्यन्ति, ते किं नवमराम १ कौन्तेय २
चिन्तनम्) द्वारकादाहकाः ३ श्रीवीरप्रथमश्रावका पव?, अथवा किमन्ये
(१५) सौधर्म शकाऽऽदेशानन्तरं यज्जातं तन्निरूपणम् । वेति प्रश्ने, उत्तरम-शखः श्रीवीरप्रथमश्रावकादन्यस्तीर्थकृत (१६)न्यो यत् पालकमादिएवान तदुक्तिवर्णनम् । श्रीस्थानाङ्गवृत्तावुक्तोऽस्ति । द्वैपायनो द्वारिकादाहकोऽन्यो वेति (१७)तदनु यदनुतिष्ठति स्म पात्रकस्तन्निरूपणम्। निर्णयः केवीलगम्यः । कृष्णभ्राता चलदेव अावश्यकनियुक्त्या- (१८) तत्कृतप्रेक्षागृहमएमपवर्णनम् । दायागमिष्याचतुर्विशतिकायां कृष्णतीर्थ सेत्स्यत्युक्तोऽस्ति, (१६)मरूपमणिपीठिकावर्णनम् । नेन बलदेवः कश्चिन्नामान्तरेणावगन्तव्यः । कर्णस्थाने तु शा- (२०) श्रास्थाननिवेशनप्रक्रियाप्रतिपादनम् । ने कृष्णः प्रोक्तोऽस्ति, सोऽपि नामान्तरेण बोध्योऽत एव (२१) तदनन्तरं शक्रक्रियाप्ररूपणम् । शास्त्रान्तरे: सह विसंवादं संभाव्य प्रवचनसारोकारवृत्तिका- (२२)सामानिकाऽऽदिभिरास्थानस्य पूतःप्ररूपणम् । रंणाऽपि द्वित्रा एव नावितीर्थजीबा व्यक्ता विवृताः सन्ति, (२.३) प्रतिष्ठासोः शक्रस्य पुरप्रस्थायिनां क्रमवर्णनम् । न शेषा इति ! ३६० प्र० । सेन. ३ उद्या० । समवसरणस्थ. (२४)ततो यदकार्षीत् शक्रस्तन्निरूपणम्। स्य तीर्थरस्य श्राद्धा यतयत्र कथं बन्दन्ते ?, ति प्रश्ने । (२४) मेरुगमनवर्णनम् ।
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(२३११) तित्थयर अभिधानराजेन्डः।
तित्ययर (२६) तत ईशानेन्डाऽऽगमनावसरः।
(६५) सर्वजिनानां ग्वस्थकालमानम् । (२७) चमरबलिधरणभवनवासिवाणमन्तरज्योतिष्काऽऽदी. (६६) तीर्थकृतां छद्मस्थतपोमानम् । नामागमननिरूपणम् ।
(६७) तीर्थकरयकाणां नामानि । (२०) ततोऽच्युतेन्यो यदकार्षीत्तन्निरूपणम् ।
(६८) तीर्थकरदेवीनां नामानि । (२६) तन्द्राऽऽदयो यत्कुर्वन्ति तत्प्रतिपादनम्, ततस्तत्र- (६६) तीर्थकरजन्मनगर्यः। वाजिषेकनिगमनपूर्वकमाशीर्वादकरणम् ।
(७०) तीर्थकरजन्मदेशाः। (३०) भवशिष्टानामिन्द्राणां बक्तव्यता।
(७१) तीर्थकरजन्ममासाऽदिप्ररूपणम् । (३१) तत्रावशिष्टशककृताभिषेकावसरः ।
(७२) तीथंकरजन्मारकप्ररूपणानन्तरं जन्मारकाणां शेषका(३२) ततः कृतकृत्येन शक्रेण भगवतो जन्मपुरप्रापणम् ।
लविचारः। (३३) वैश्रवणद्वारा शक्रकृत्यप्ररूपमाम् ।
(७३) तीर्थप्रसिद्धजिनजीवप्रतिपादनमा (३४) अस्मासु स्वस्थान प्राप्तेषु भगवति मा दुईष्टिं केपि नि- (७४) भविष्यत्तीर्थकरवर्णनम् । क्षिपन्विति शकाकोद्घोषणा ।
(७५) युगान्तकृभूमिप्ररूपणम् । (३५) अष्टाहिकामहोत्सवः।
(७६) तीर्थकृतां स्थितिकल्पः। (३६) नबनपत्यादीनामिन्सं ख्याप्रतिपादनम् ।
(७७) सर्वेषां जिनानां शासने तत्त्वसंख्या। (३७) तीर्थकरकृतोपदेशं प्राप्य ये धर्मोपायस्य देशकास्ते- | (७८) तीर्थप्रवृत्तिकालप्रतिपादनम्। वां प्ररूपणम् ।
(ए) तीर्थकरकल्याणकतपोविधानम् । (३७) तीर्थकरप्रसङ्गात् साधूनां द्वादशोपकरणसंख्यायाः,सा- (८०) तीर्थकरणप्रयोजनवनिम् ।
ग्वीनां पञ्चविंशत्युपकरणसंख्यायाश्च व्यावर्णनम् । (८१) तीर्थोच्छेदकालः। (३६) श्रीपार्श्ववीरतीर्थकरयोरुपसर्गप्ररूपणम् ।
(८२) तीर्यकरप्रसङ्गात् द्वादशचक्रिनववासुदेवनवबलदेव(४०) सत्सेधाशुलेनाऽऽत्माङ्गनेन च जिनानां देहमानम् ।
नामानि, त्रिषष्टिशनाकापुरुषमानम्, प्रतिवासुदेवना. (४१) चतुर्विशतिजिनानामवधिज्ञानिमुनिसंख्यावर्खनम् ।
मानि, यस्य तीर्थे ये चक्रिवासुदेवबलदेवा जातास्तेषां (२) तीर्थकृतां कस्पशोधिः।
च निरूपणम् । (४३) तीर्यद्भिः कर्मन्यावर्णनं, तैरपि कर्मवेदनं च। (३) वर्तमानकाबीनचतुर्विशतितीर्थकरनामानि, बलदेव(४४) जिनानां कुमारवासकालमानम् ।
वासुदेवपितृमातृनामानि, दशारमएमलानि, वासुदेव(४५) केवलोत्पत्तिस्थानानि ।
बखदेवानां पूर्वभवनामानि, तेषां पूर्वमवधर्माचार्य. (४६) जिनानां केवलोत्पादकं तपः।
नामानि, तनिदानभूमयः,तनिदानकारणानि, तेषां प्र. (३७) तीर्थकता केवलोत्पत्तिमासतिथीनां प्ररूपणम् ।
तिशत्रुनामानि, तेषां मध्ये ये यत्र यान्ति तनिरूपणम् । (४८) यस्य वृक्षस्याघो यस्य तीर्थकृतः केवलज्ञानमुत्पन्नं त.। (४) तीर्थोत्पत्तिप्ररूपणम् ।
भिमप्य केवलवृकप्रमाणनिरूपणम् । तत्राऽपि चैत्यत- (५) तीर्थकराणां निर्गमनकाबस्य प्रतिपादनम् । सणांविशेषतः प्रमाणकथनम्।
(८६) दर्शननामनिरूपणानन्तरं यस्य तीर्यकरस्य समये यद् (४९) यस्मिन् वने यस्य केवलज्ञानमुत्पन्नं तन्नामनिर्देशः।
दर्शनमुत्पनं तनिरूपणम। (५.) यस्यां वेलायां केवलज्ञानमुत्पन्नं तन्निरूपणम् । (७) अपनाऽऽदितीर्थकतां व्रतपर्यायः, दीक्षातरूणां च (५१) जिनानां गृहस्वकाल-केवत्रिकालमानं निरूप्य धाम
नामप्रतिपादनम् । एयपर्यायात् खपर्यायापगमे केवलिपर्यायः ख. | (८८) यस्तीर्थकरोयेन तपसा निकान्तस्तदनिधानम्। यमेव केय इति श्रामण्यपर्यायनिरूपणम् । तथा तार्थ- (८९) यावत्परिवारेण भगवन्तो दीकामशिश्रियन्, तनिरूपकृतां वलिमानविमर्शः।
णम्। (५२) तीर्थकृद्गणसंख्याप्रतिपादनम् ।
(20) तीर्यकृतां दीकापुरम्, दीकासमये मनःपर्यवज्ञानोत्प(५३) तीर्थकृतां गणधराणां संख्याप्ररूपणम् ।
प्ररूपणम। (५४) जिनानां गनस्थितिमानम् ।
(९१) तीर्थकराणां दीकामासपक्षतिथिप्रतिपादनम, दीका(५५) गृहवासे याचन्ति ज्ञानानि तीर्थकृतां भवन्ति तन्निक- लिङ्गम, दीक्षासमये लोचमुष्टिः, दीक्षावनानि, यस्मिपणम।
न वयसि ते निष्कान्तास्तनिरूपणं च । (५६) तीर्थकरगोत्राणां, तीर्थकरवंशानां च वर्णनम् । (१२) दीक्षाशिविकाऽऽदिप्रतिपादनम् । (५७) तीर्थकृतां चतुर्दशपूर्विणः।
(६३) षट्पञ्चाशदिक्कुमारीनामानि, तासां करणीयनिक. (५८) श्रावकसंख्या चतुर्विशतितीर्थकृताम् ।
पणं च। (५६) जिनानां चक्रित्वकालः।
(१४) देवदृष्यप्ररूपणम्, देवदृष्यबस्त्रस्थितिमानाऽऽदिनि(६०) जिनानां सामायिकाऽऽदिचारित्रस्य प्रतिपादनम्।
देशः । (६१) च्यवननक्षत्रमृषभाऽऽदिजिनानाम् ।
(१५) प्रसङ्गतस्तीर्थकरप्रतिपादितत्वेन धर्मजेदप्ररूपणं, तथौ. (६२) च्यवनकल्याणकातिथयश्च्यवनमासाश्च ।
चित्याष्टकं च । (६३) ऋषभाऽऽदीनां क्रमतश्युतिराशयः ।
(१६) चतुर्विशतिजिननामसामान्यार्थस्तद् विशेषार्थश्च । (६४) जिनानांच्यवनवता।
(ए७) तीर्थकतां पञ्चकल्याणके नक्षत्रैक्यप्ररूपणम् ।
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(२३१३) तित्थयर अनिधानराजेन्षः।
तित्थयरणाम (९८) तीर्थकृतां केवलज्ञानानन्तरं मुनीनां मोकगमनमानम, (१२०) सर्वेषां तीर्थकृतां सर्वायुः, तथा तेषां सामान्यमुनिप्रतिक्रमणसंख्या, प्रथमगणधरनामानि, प्रथमप्रवर्ति
संख्या, तीर्थकृत्सामायिकोपदेशविचारः, सामायिकन्यः, प्रथमश्रावकाः, प्रथमश्राविकाः, प्रत्येकबुद्धमुनि
संख्या च। संख्या, तीर्थकृतां प्रमादविचारः, तीर्थकृतां परीषह- (१२१) श्रावकवतसंख्या, साधुव्रतसंख्या च । सहनविमर्शश्व ।
(१२५) तीर्थकरमातुश्चतुर्दश स्वप्नाः, स्वप्नकारणानि, स्व(एए) जिनानामष्टमहाप्रातिहार्याणि ।
प्नविचारकाः, शेषश्रुतप्रवृत्तिकालः। (१००) जिनानां प्रथमपारणदायकनामानि, तेषां गतिश्च, पा- | (१२३) भरतक्षेत्रेऽतीतोत्सपिण्यां जिनेश्वरनामानि, ऐरवते रणदायकार्य देवकृतदिव्यपञ्चकनामानि, तत्र वसुधा.
तीर्थकराः, भविष्यत्तीर्थकराणां पूर्वनवनामानि, तेषां राप्रमाणप्ररूपणम्, जिनानां पारणकपुरनामानि।
पितृमातृप्रथमशिष्यप्रथमशिष्याप्रथमभिक्कादायकसं(१०१) तीर्थकराणां पितृनामानि, पितृणां गतिश्च ।
स्या, ऐरवतकेवनाविनस्तीर्थकराः।। (१०२) पूर्वप्रवृत्तिकालः, पूर्वविच्छेदकालमानं च।
(१२४) कृतकृत्या अपि तीर्थकरास्तपःकर्मोपधानश्रुतमुपसर्ग. (१०३) सर्वतीर्थकराणां यावन्तः पूर्वनवास्तेषुतेषां नामानि ।
सहनाऽऽदिकं कुर्वन्तीति निरूप्य,सर्वेषां तीर्थकराणां (१०४) तीर्थकृतां पूर्वनवगुरवः, तथा तेषां पूर्वजवायुः, पूर्व
सहशानि सूत्राणीत्यत्र गुरुशिष्ययोःप्रश्नोत्तराणि । भवकेत्राणि, पूर्वभवक्षेत्रदिशा, पूर्वनवजिनहेतवो वि. (१२५) प्रकीर्णकबार्ताः। शतिविधाः, पूर्वभवद्वीपाः, पूर्वभवनामानि, पूर्वजव
|तित्थयरगमिया-तीर्थकरगण्डिका-स्त्री०। तीर्थकरैकवक्तव्यनगर्यः, पूर्वभवराज्यम, पूर्वभवविजयाः, पूर्वभवस्वर्गाः, पूर्वभवसत्राणि, तत्र श्रुतलाभद्वारम् ।
तार्थाधिकारानुगतायां वाक्यपद्धती, सका। (१०५) पावसुपार्श्वयोः फणकारणानि, तेषां फणसंख्या च,
तित्थयरणाणुप्पत्तितव-तीर्थकरझानोत्पत्तितपस्-न० । स्वनाजिनानामारोग्याऽऽदिफलदायकत्वविचारः । मख्याते चित्रतपसि, पञ्चा। (१०६ ) नृपतिबलदेवबासुदेवचक्रितीर्थकृतां बनतारतम्यप्रति
तत्स्वरूपमाहपादनम् ।
तित्थंकरणाणुप्प-त्तिसमिश्रो तहऽवरो तवो हो । (१.७) जिनभक्तानां राज्ञां नामानि।
पुबोइएण विहिणा, काययो सो पुण इमो त्ति ॥१॥ (१०८) तीर्थकरमनःपर्यवक्षानिसंख्याकथनम् । (१.६)तीर्थकरमातृनामानि, तासां गतिश्च ।
तीर्थकरज्ञानोत्पत्तिरिति संज्ञा संजाता यस्य तत्तीर्थकरझानो. (११०) तीर्थकराणां मोकाऽऽसनं, मोक्षस्थानानि, यावतात
त्पत्तिसंज्ञितम्, पुंस्त्वं तु सर्वत्र प्राकृतत्वात् । तथेति समुपये,अपपसा तीर्थकन्मोकसिद्धिस्तनिरूपणम्, मोक्षनकत्रा.
रमन्यत्,तपो जवति स्यात् । पूर्वोदितेन विधिना ऋषभाऽऽदिक. णि, मोकपरिवारः, मोकपथः, मोसमासपक्कतिथयः,
मेण गुर्वाज्ञया विशुद्धक्रियया, मतान्तरणे तन्मासदिनेवित्येवं मोकाशवः, मोचविनयः, मोक्षवेला, मोकारकशे
लक्षणेन, (कायचो त्ति)कार्यम्(सो पुण तितत्पुनः प्रस्तुततपः, पकालः, मोकारकप्रतिपादनम, मोकगतानां शरी
(इमो त्ति) इदं वक्ष्यमाणम,इतिः समाप्तौ । इति गाथाऽर्थः ॥१२॥ रमानम्।
तदेवाऽऽह(१११) तीर्थकृतां राज्यकासमानम ।
अघमभतम्मि य, पासोसहमतिऽरिहनेमीणं । (११२) तीर्थकृतां रुषतपाकारकमुनिसंख्या, तत्र प्रसङ्गात् वसुपुज्जस्स चनत्थे-ण छटलत्तेण सेसाणं ॥१३॥
गणधराऽदिमागमालिकान्तानां, देवानां च रूपव- (अस्थार्थोऽनुपदमेव 'तित्थयर' शब्दे २२६३ पृष्टे केवलतपो. जनम्।
नामकेऽधिकाराङ्के गतः) (११३) तीर्थकृता लाम्चनानि, तेषां लक्षणद्वारम, तीर्थकृत्सु
उसनाऽऽइयाणमेत्यं, जाया केवलाई णाणाई। लोकान्तिकदेवबोधनम, जिनवरवर्णानि, जिनानां च वर्णनिरूपणम् ।
एयं कुणमाणो खलु, अचिरेणं केवलमुवेइ ।।१।। (११४) तीर्थकृतां पञ्चत्रिंशद्वागगुणाः ।
ऋषभाऽऽदिकानां जिनानाम,अत्र तपसि कृते,जातान्युत्पन्नानि, ( ११५) तीर्थकराणां वादिमुनिसंख्या, तीर्थकृतां विवाह
केवलानि केवलसंझितानि, ज्ञानानि संवेदनानि। अत एतत् तीविषयश्च, येषु प्रामनगरेषु तेषां विहार आसीत् त.
यङ्करशानोत्पत्तिसंशितं तपः, कुर्वाणः, खल्वचिरण केवलं लभत निरूपणम् ।
इति व्यक्तम् । उपतीति पाठान्तरं चेति ॥१४॥ पञ्चा०१९विव०। (११६) तीर्थकृतां वैक्रियकमुनयः, तेषामेवाऽऽयिकासंग्रहप्र
तित्थयरणाम-तीर्थकरनामन्-न० । नामकर्मभेदे, यऽदयवशामाणम, मुनिस्वरूपम्, संयतसंयतीप्रमाणम, तीर्थ- दरमहाप्रातिहार्यप्रमुखाश्चतुस्त्रिंशदतिशयाः प्राऽभवन्ति । ककतां संयमप्रतिपादनम् ।
मं० ६ कर्म । श्रा० । पं० सं०। (१९७) परित्यागधारे जिनेन्द्राणामभिनिष्क्रमणसमये दान- तित्येण तिहयणस्स वि,पुज्जो से उदो केवलिणो(४६) विचारः।
तीर्थन तीर्थकरनामकर्मबशात्,त्रिभुवनस्यापि देवमानवदान(१९८) जिनश्राविकामानम् ।
बलकणत्रिलोकस्यापि, पूज्योऽज्यनीयो भवति । से' तस्य (१९९) वत्कृष्टजघन्याभ्यां विचरतां तीर्थकृतां संख्या, तयो- तीर्थकरनामकर्मण उदयो विपाकः केवलिन अस्पन केवलज्ञानस्कृष्टजघन्याभ्यां तेषां जन्मसंख्या च ।
स्यैव,यदयाजीचः सदेवमनुजासुरलोकपूज्यमुत्तमोत्तम तीर्थे
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तित्थयरणाम
प्रवर्तयति । यदागमः “तित्यं भंते । तित्यं, तित्थयरे तित्थं । गोयमा ! अरिहा ताब नियमा तित्थंकरे, तिरथे पुण चासत्रने समसंघे पगहरे वा" इति परममुनिमणी
दिति तीर्थकरनाम इत्यर्थः (४६) कर्म०१] कर्मण ननु केवलज्ञानावाप्तौ कृतकृत्यो नवान् किमिति धर्मदेशनायां प्रवर्तत इत्याशङ्कायामादवीतरागोऽपि सद्वेध तीर्थकुम्नामकर्मणः ।
उदयेन तथा धर्म-देशनायां प्रवर्त्तते ॥ १ ॥ वीतरागोऽपि विगतामिवोऽपि खरागः
किस प्र
可
चैत इति शब्दार्थः । सद्वेद्यं च सातबेदनीयं तीर्थकृनाम तीर्थनास्नी, ते एव कर्म सद्वेधतीर्थकृन्नामकर्म्म । अथवा सता शोभनेन धर्मदेशनाऽऽदिना प्रकारेण पद्यते तत्सदेयं तरच तीर्थक्षामकम् च तस्य उदयेन विपाकेन तथा तेन प्रकारेण समवसरण 35 दिखी समनुभवलक्षणेन, धर्मदेशनायां कुशलानुष्ठानप्रज्ञापनायां प्रवर्त्तते व्याप्रियते इति ॥ १ ॥ हा० ३१ अष्ट० । सम्म० । जी० । ननु सूत्रकर्तुः परमाऽपवर्गप्राप्तिः, अपरं सस्वानुग्रहः, तदर्थप्रतिपादकस्थाईतः किं प्रयोजनमिति चेत् ?। उच्यते न किञ्चित् कृतकृ त्यत्वाद्भगवतः । प्रयोजन मन्तरेणार्थप्रतिपादनप्रयासो निरर्थक इति येन तस्य तीर्थकर नामकर्मविपाको प्रभवत्वात् उक्तं च-" तं च कहं वेइज्जर, अगिला धम्मदेसणार व । ” इति । श्रोतॄणामनन्तरं प्रयोजनं विवचिताऽध्ययनार्थ परिज्ञानं परं पदं विवहिताध्ययनसम्यगधगमतः संयमः, संयमवृष्या सकलकर्मक्षयोपपत्तेः जी० १ प्रति०] "ज्ञानि नो धर्मतीर्थस्य कर्त्तारः परमं पदम् । गत्वाऽऽगच्छन्ति भूयोनि नकारतः" ॥१॥ इत्यन्यदीयमतम स्था० १ ठा० । आ० म० । पं० सं० । उत्त० । ( तीर्थकृनामबन्धहेतवः ' तित्थयर ' शब्दे २२६४ पृष्ठे निरूपिताः ) तित्थयरणामगोयकम्म- तीर्थकर नामगोत्रकर्म - न० | तीर्थकरत्वनिबन्धनं नाम तीर्थकरनाम, तच्च गोत्रं च कर्मविशेष पवेस्काया तीर्थकर नामगोत्रम् अथवा तीर्थकर इति नाम गोत्रमभिधानं यस्य तत्तीर्थकर नामगोत्रम् तीर्थकरनामा 35ये नामकर्मभेदे, स्था० ।
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(२३१३) अभिधानराजेन्द्रः ।
समस्स नगवओ महावीरस्स तित्यंसि नवहिं जीवेहिं तित्थ करनामगोयकम्मे निव्वत्तिए । तं जढ़ा-* सेणिएणं, सुपासेणं, उदारणा, पुलेणं अणगारेणं, दढाना, संखेणं, सयएणं,मुल्लसाए सावियाए, रेवईए । एस अज्जो कहे बासुदेवे रामे पसदेवे उदर पेढालपुरे पुट्टिले सपए गाहावई दारुए नियंठे सच्चाई य यिंठीपुत्ते सावियबुद्धे अम्म परिव्वा, अज्जावि सुपासा पासावरचेज्जा ग्रागमेस्साए उस्सप्पिणी चाटलार्म धम्मं पन्नचित्ता सिन्हिहिंति० जान अंतं काङ्क्षिति । स्या० ए ० । नित्ययर शामतत्र तीर्थकर निर्ममतपस् न । स्यनामख्याते
चित्रतपस, पञ्चा० ।
• श्रेणिक राजा १, सुपापर्कमान स्वामिया कूणिकपुत्रः श्रेणिकपैौत्रः ३ ।
XV
तित्ययरत
तत्र तीर्थकर निर्गमतपः प्रतिपादयंस्तदाहतित्ययरणिमामो खलु वे नेण तवेण णिग्गया सब्बे । सपिऍ सो पुण, इमीऍ एसो विषिद्दिट्ठो ॥ ६ ॥ संकरेनिंगमे गृहवासाद्यकृतं तपस्तसीयकरनिगमं तपः ।
द्वारे या तीर्थकरा येन तपसा निर्गता गृहवासात्सर्वेऽवसर्वियाम् (सेो पुरा फि) तत्पुन स्तपोऽस्यां वर्त्तमानायाम ( एसोसि) एतद् वच्यमाणम् । (विहिडोस ) उकमिति गाथार्थः ॥
एतदेवासुमहत्व चिमण निम्म बापु (भिणों ) चयेां । पासो मही विय -इमेण सेसा उ छट्टेणं ॥ ७ ॥
सुमतिः पञ्चमजिनः । " त्थ" इति पादपूरणे निपातः । नित्यन्नकेनानवरत भोजनेन विहितोपवास इत्यर्थः निर्गतो गृहवासानिकान्तः तथा वासुपूज्यो द्वादको जिनोऽन्चतु धेनैकोपवासरूपेण । पार्श्वस्त्रयोविंशतितमः, मरेकोनविंश तितमः अमेोपवासत्र शेषास्तु विंशतिः पुनः प नोपवासद्वयरूपेणेति गाथाऽर्थः ॥ ७ ॥ ( एतदेव ' तित्थयर शब्दे २२७७ पृष्ठे निष्क्रमण तपः प्ररूपणावखरे व्याख्यातम् ) एतद्विधानविधिमाहउसभाको काय प्रोओ सह वनम्मि । गुरुप्राणापरिको विशुद्ध किरियाएँ धीरे ॥ ८ ॥ भादिक्रमेण नायनिर्गमाद्यानुयो, पतीचे करन गंमः कर्त्तव्यो विधेयः आपतः सामान्येनोत्सर्गेणेत्यर्थः । सति विद्यमाने बजे की, तथाविधबलानाचे पुनतिक्रमक रणेऽपि न दोष इति भावः गुहा परिशुद्ध निर्दोषस्त संपादनादू गुर्वाज्ञापरिशुरुः । तथा विशुरु क्रियया ऽनवद्या नुष्ठानेन, धीरैः सात्विकैरिति गाथार्थः ॥ ८ ॥ इहैव मतान्तरमाह
9
"
मु
असे तम्मासदिणे - वेंति लिंग इमस्स नावम्मि । तप्पारण संपत्ती, तं पुण एयं इमेसि तु ॥ ए ॥
धन्ये अपरे सुरयः तेषामुपभादे जिन निर्गमपसां ये मासाः प्रतीताः दिनानि च तिथयः, तानि तन्मासदिनानि तेषु, न मासान्तरतिध्वन्तरेषु ते तीर्थंकर निर्ममतपः । तथाहि-
भस्वामिनो निष्क्रमणतपोऽङ्गीकृत्य चैत्रमासबहुलाष्टमीदिनपच प कार्य, वर्षमानस्वामिनाथ मार्गशीर्षदशमीदिन एवेति । एवमन्येषामपीति । तथा लिङ्गं लक्षणम्, अस्य ऋभः दिनिर्गम तपसः भावे संसिडी, तेषामादीनां यस्य यत्पारणं भोजनमासीत्तस्य संपत्तिः प्राप्तिस्तत्पारण संपत्तिः त स्पुनः पारणकमेतद्वयमाणमेपासून भादीनाम् तुशब्दः पूरणे। इति गाथार्थः ॥ ९ ॥ पञ्चा० १६ विव० । ( ' उसद्द ' शब्दे द्वितीयभागे ११३३ पृष्ठे यावता कालेन भिक्षा सन्धा, यच्च पारणकमासीत् तन्निरूपितम् )
तित्थयरत - तीर्थ करत्व - न० । अर्हखे, यो० बि० । आ० म० । सरस्वतिश्थपर' शब्देऽनुपमेव २२००४ पृष्ठे
व्याख्याताः)
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(२३१४) तित्थयरदाण अनिधानराजेन्डः।
तित्थाणुसज्जणा तित्ययरदाण-तीर्थकरदान-न-तीर्थकदीयमाने, वरघोषणा- तिअं आणं नाश्कमिज्जा, उदाहुपायरियसंतिभं? गौयमा! चनयां सत्यां श्रावको, योषिच्च तद्दानं गृहीतः, न वेति प्रश्ने, उत्त.
बिदा पायरिया नवंति। तं जहा-नामायरिया, ग्वणायरिया, रम-तीर्थकहानसमये शाताधर्मकथाऽऽदिषु सनाथानाथपथि- दवायरिया, नावायरिया । तत्थ णं जे नावायरिया ते ति. ककार्पटिकाऽऽदीनां याचकानां प्रहणाधिकारो दृश्यते, न तु स्थयरसमा चेव दट्टब्वा, तेसिं संति आणं नाइकमेज ति।" व्यवहारिणाम, तेन श्रावकोऽपि कश्चिद्यदि याचकीय गृहाति स कः यः सम्यक् यथास्थितं, जिनमतं जगत्प्रभुदर्शनं नैगमसं. तदा गृह्णातु,योषितस्तु प्रायस्तत्राधिकारोन हश्यत इति।३नए प्रहव्यवहारऋजुसूत्रशब्दसमनिरुदैवंभूतरूपनयसप्तकाऽऽरमप्र.। सेन०३ उद्वा०।
कं, प्रकाशयति नव्यानां दर्शयतीत्यर्थः।२७। ग०१ अधि० । तित्थयरभत्ति-तीर्थकरजक्ति-स्त्री० । परमगुरुविनये, पञ्चा०तित्ययरसिक-तीर्थकरसिक-पुं०। तीर्थकराः सन्तो ये सिद्धा १बिव०।
ऋषभाऽऽदिवत्ते तीर्थकरसिद्धाः। सिद्धभेदेषु, पा० ल. नन तित्ययरमाइतव-तीर्थकरमावृतपस्-न । तीर्थकरमातृपूजायु
मा०चू०। क्तं तपस्तीर्थकरमातृतपः । भारूपदे सप्तभिरेकाशनकैनिष्पाये
तित्थयराऽऽणा-तीर्थकराऽऽक्षा-स्त्री-जिनोपदेशे, पञ्चा०१६ चित्रतपोनेदे. पश्चा० १६ विव।
विव० । “तित्थगराणा मूत्रं,नियमा धम्मस्स ती वायाए । किं
धम्मो किमहम्मो,मूढा नेउं वि पारिति ॥१॥" दर्श०१ तत्व । तित्ययरमोक्खगमण तव-तीर्थकरमागमनतपस्-न । स्वना
तित्थयराभिमुह-तीर्थकराभिमुख-त्रि०। तीर्थकरसम्मुखे, वृ० मख्याते चित्रतपसि, पञ्चा।
१०। तत्स्वरूपमाह
तित्थयरी-तीर्थकरी-स्त्री। स्त्रीत्वविशिष्टे तीर्थकरे, यथा बुद्धीतित्थयरमोक्खगमणं, अहावरो एत्य होइ विन्नेो।
मल्लिस्वामिनीप्रभृतिका तीर्थकरी, सामान्यसाच्यादिका वा घे. जेण परिनिन्वया ते, महागुभावा तो य इमो॥१५॥ दितव्या । यतः सिद्धप्राभृतटीकायमेवोक्तम्-"बुझीनो वि मल्लीतीर्थकरमोक्तगमनं नाम, अथानन्तरम, (अवरोत्ति) अपर- | पमुहामो अनाओ य सामन्नसाहुणीपमुहाप्रो ब दुति त्ति।" नं। म्, अत्र तपोऽधिकारे, नवति स्यात्, (बिन्नेउ त्ति) विझेयम् । तित्थराय-तीर्थराज-पुं० । शत्रुञ्जयपर्वते, ती०१ कल्प। येन तपसा, परिनिर्वृता निर्वाणं गताः, ते तीर्थकरा, महातिल्यमिक तीर्थसिक-तीयतेसंसारसागरोऽनेनेति तीर्थनुभावा अचिन्त्यशक्तयः, (तो य श्मो त्ति) तच्च तीर्थकर
म, यथाऽवस्थितसकलजीवाजीवाऽऽदिपदार्थसार्थप्ररूपकं प-- निर्वाणगमनाऽऽख्यं तपः, इदं वक्ष्यमाणमिति गाथाऽर्थः ॥१५॥
रमगुरुप्रणीतं प्रवचनं, तच निराधारं न भवतीति सधः, प्रथ. तदेवाऽऽद
मगणधरो वा तस्मिन्नुत्पन्ने ये सिकास्ते तीर्थसिकाः । प्रज्ञा० निव्वाणमंतकिरिया, सा चोदसमेण पदमनाहस्स। १ पद । नं० । ध० । मा००। तीर्थे उक्तलकणे सति सिहा सेसाण मासिएणं, वीरजिणिदस्स बढणं ॥ १६ ॥ निवृता जम्बूस्वाम्यादिवदिति तीर्थसिद्धाः । पा० । तीर्थे निर्वाणं निर्वृतिः, अन्तक्रियेति अन्तक्रियाशब्देनोच्यते,सान्त- | सति सिंका निवृता ऋषनासनगणधरा दिवादात । क्रिया (चोइसमेण त्ति) चतुर्दशनक्तेनोपवासषट्करूपेण, प्र- सिद्धाः। सिरुभेदेषु, स्था० १ ग। थमनाथस्य ऋषनजिनस्य, शेषाणामजिताऽऽदीनां मासिकेन तित्थसेवण-तीर्थसेवन-न० । तीर्थम् उक्तलक्षणं, तस्य सेवन मासोपवासरूपेण वीरजिनेन्जस्य षष्ठेनेति व्यक्तमिति गाथार्थः तीर्थसेवनम् । व्यभावतीर्थसेवायाम, ध० । तीर्थकरनामक॥१६॥ पञ्चा० १६ विव० । ('तित्थयर' शब्देऽपि २२५९ पृष्ठे मंनिबन्धनत्वेन प्राधान्यख्यापनार्थम् । तथा-तीर्थ व्यतो जिगतेयं गाथा)" समणस्स णं जगवो महावीरस्स अटुसया नदीकाज्ञाननिर्वाणस्थानम् । यदाह-" जम्मं दिक्स्वा नाणं, अणुत्तरोववाइयाणं गइकल्लाणाण. जाव प्रागमेसिभदाणं उक्को. तित्थयराणं महाणुभावाणं । जत्य य किर निव्वाणं, पागाई सिया अणुत्तरोषवाइसंपया होत्था।" स्था0 0 01 (पते 'ति- दसण होई॥१॥” इति । भावतस्तु शानदर्शनचारित्राऽऽधा. त्ययर' शब्दे १२४८ पृष्ठे सर्वेषां तीर्थकृतां न्यक्केण प्रतिपादिताः) र: श्रमणसंघः, प्रथमगणधरो वा । यदाह-" तित्थं भंते ! तित्थयरसम-तीर्थकरसम-पुंज सर्वाऽऽचार्यगुणयुक्ततया सुध- तित्थं, तित्थयरे तित्थं? गोयमा! अरिहा ताव नियमा तित्थ. माऽऽदिवत्तीर्थकरकल्पे, ग०।
यरे, तित्थे पुण चावी समणसंघ, पढमगणहरे वा।" तित्थयरसमोसरी, सम्मं जो जिणमयं पयासइ।।
शति । तस्य सेवनम् । ध०२ अधि०। -आणं अशक्कतो, सो कापुरिसो न सप्पूरिसो ॥२७॥
| तित्थाणुसजणा-तीर्थानुषजना-स्त्री• । जिनशास्त्रानुषजना
याम, कल्प० । स मूरिस्तीर्थकरसमः सर्वाऽऽचार्यगुणयुक्ततया सुधाऽऽदि. वत्तीर्थकरकल्पो विज्ञेयः। न च वाच्यं चतुस्त्रिंशदतिशयाऽऽदिगु
जप्पभिई च णं से खुद्दाए जासरासी महम्महे दोबाससहणविराजमानस्य तीर्थकरस्योपमा रेस्तद्विकलास्वाऽनुचिता ।
सटिई समणस्स भगवो महावीरस्स जम्मनक्वत्तं यथा तीर्थकरोऽध भाषते,एवमाचार्योऽप्यर्थमेव नापते। तथा यथा संकेते, तप्पनिइं च णं समणाणं निग्गंथाणं निग्गयीण यनो तीर्थकर उत्पन्न केवलज्ञानो भिवार्थ न हिएमते, पवमाचार्योऽपि उदिनोदिए पूयासकारे पबत्तइ ॥ १३० ।। जया णं से भितार्थन हिएमते, इत्याद्यनेकप्रकारेस्तीर्थकरानुकारित्वस्य सतिशयित्वस्य परमोपकारित्वाऽऽदेश्वब्यापनार्थम,तस्य न्या.
खुद्दार भासरासी महग्गहे दोबससहस्सहिईजाव जम्मनय्यतरत्वात्। किं च-श्रीमहानिशीथपश्चमाध्यबनेऽपि नावा55.
खत्ताओ विश्कते भविस्सा, तयाणं समणाणं निग्गंथाएं चार्यस्य तीर्थकरसाम्यमुक्तम् । यथा-"से जयवं! किंतित्थयरस,
निग्गंधीज य उदिअोदिए पूासकारे जविस्सा ।।१३१।।
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( २३१५ ) अभिधान राजेन्द्रः ।
तित्थाणुसज्ज
यतः प्रभृति साऽऽत्मा भस्मराशिनामा ग्रहो द्विवर्षसह स्त्रस्थितिः श्रमणस्य भगवतो महावीरस्य जन्मनक्षत्रं संक्रान्तः, ततः प्रभृति श्रमणानां तपस्विनां निर्ग्रन्थानां साधूनां निर्ग्रन्धीनां साध्वीनां च उदितोदित उत्तरोत्तरं वृद्धिमान् ईदृशः यः पूजा बन्दनाऽऽदिसत्कारो वस्त्रदानाऽऽदिबहुमानः, स न प्रवर्त्तते । अत एव शक्रेण स्वामी विज्ञप्तः यत् कणमायुर्वर्द्धयत, येन भवत्सु जीवत्सु भवज्जन्मनक्कत्रं संक्रान्तो भस्मराशिग्रहो भवच्छासनं पीडयितुं न शक्यति । ततः प्रभुणोक्तम्-न खलु शक्र ! कदाचिदपि इदं जूतपूर्व, प्रकणमा युजिनेन्द्वैरपि न वर्धयितुं शक्यते, ततोऽवश्यंभाविनी तीर्थबाधा प्रविष्यत्येव, किं तु षडशीतिवर्षाशुषि कल्किनि कुनृपतौ स्वया निगृहीते सति वर्षसहस्रद्वये पूर्णे मज्जन्मन कत्रा स्मग्रहे व्यतिक्रान्ते च त्वत्स्थापित कल्कि पुत्रधमैदत्तराज्यादारभ्य साधुसाध्वीनाम उदितोदितः पूजासत्कारो भविष्यतीति ॥ १३०॥ सूत्रकारा अपि तदेवाऽऽडु: - ( जया णमिस्यादि) यदा च कुद्रात्मा जस्मराशिर्महाग्रहः द्विर्षसहस्रस्थितिकः यावद् भगवद्जन्मनक्षत्राद् व्यतिक्रान्तो भविष्यति, तदा श्रमणानां निर्ग्रन्धानां निर्ग्रन्थीनां च उदितोदितः पूजासत्का रो भविष्यति । कल्प० ६ कण |
से भयवं ! केवइरणं काळेणं पढ़े कुगुरुभावी होति १ । गोमा ! ओय अस्तेरसएदं वाससयाणं साइरेगाणं समताणं परओ जविंसु । से जयवं ! केणं हे ? | गोयमा ! तकालं इष्ट्वीरस सायगारवसंगए ममीकार अहंकारगए तो संपज्जयंतबदी अहमहं ति कय माणसे अमुणिसमय सजावे गणी जर्विसु, एएणं अट्ठेणं । से भयवं ! किसवि एवंवितकालगणी जावंसु ? । गोयमा ! एंगतेां नो सम्बे, के य पुण पुरंतपंतलक्खणे श्रट्टने गंग एगाए जयपीए जमगसमगं पर निम्मेरे पावसीले दुज्जायजम्मे सुरोद्दपयंमाजिग्गद्दियदूरमहामिच्छदिठी जर्विसु । सेजयत्र ! कहं ते समुबलक्खेज्जा ? । गोयमा ! उस्सुत उम्मग्गपत्रत्तणुदिस्सए, अणुमईपञ्चएण वा । महा० ७ ० १ चू० ।
उत्सर्पिण्यामन्तिमजिनस्य तीर्थानुषजनाउस्सप्पिणि अंतिमजिए - तित्यं सिरिरिसहनाएपज्जाया । संखेज्जा जावा, ताव पमाणं धुवं जविही ||४५२ || श्द श्रीऋपत्रस्वामिनः केवलज्ञानपर्यायो वर्षसहस्रोन पकपूर्वलकः, तत एवं स्वरूप ज्ञानपर्यायाः संख्यया यावन्तो जवन्ति तावत्प्रमाणमुत्सर्पिण्यामन्तिमजिनस्य चतुर्विंशतितमस्य भषकृन्नास्नस्तीर्थकृतस्तीर्थे ध्रुवं निश्चितं प्रविष्यति । संख्ये पूर्वलक्षणं तत्तीर्थमित्यर्थः । प्रव० २६५ द्वार दर्श० ति० । ( कहा कस्य श्रुतस्य व्यवच्छेद इति तु 'तित्ययर' शब्दे २२७३ पृष्ठे निरूपितः )
व्यवच्छेदाधिकारादेवेदमाद
जंबुद्दीवे णं भंते ! दीवे जारहे वासे इमीसे नस्सप्पिणी देवापियाएं केवइयं कालं पुन्नगए - पुसिज्जिस्स १ । गोयमा ! जंतुदीवे णं दीवे भारहे
तित्था गुसज्जणा वासे इमीसे उस्सप्पिणीए ममं एगं वाससहस्सं पुत्रगए सिज्जिस्स । जहा णं भंते ! जंबुद्दी वे दीवे जारहे वासे इमीसे उस्सप्पिणीए देवाणुप्पियाणं एगं वाससहस्सं पुचगए सिज्जिस्मर, तहा णं जंते ! जंबुद्दीचे दीवे भारहे वासे इमी से प्रसप्पिणीए अवसेसाणं तित्यगराणं
त्रयं कालं पुत्र गए सिज्जित्था ? । गोयमा ! अत्येगइयाणं संखेज्जं कालं, अत्येगइयाणं असंखेज्जं कालं । जंबुद्दीत्रे णं दीवे भारद्दे वासे इमीसे उस्सप्पिणीए देवाणु - पिया केवयं कालं तित्थे अणुसिज्जिस्सर ? | गोयमा ! जंबुद्दीवे दीवे भारहे वासे इमीसे उस्सप्पिणीए ममं एगवीसं वाससस्साई तित्ये अणुसिज्जिस्सइ । जहा णं भंते ! जंबुद्दीवे दी जारहे वासे इमीसे उस्सप्पिणीए देवाणुप्पिया एकवीस वाससहस्माई तित्ये अणु सिज्जिस्सइ, तहा णं नंते ! जंबुद्दीवे दीवे जारहे वासे आगमेस्साएं चरमतित्थगरस्स केवइयं कालं तित्थे श्रणुसिज्जिस्स ।। गोयमा ! जावइरणं उसभस्स अरहओ कोसलियस्स जिणपरियाए तावश्याए संखेज्जाई आगमेस्साएं चरमतित्यगरस्स तित्थे असिज्जिस्स |
(जंबुद्दी वे णमित्यादि) (देवापियाणं ति) युष्माकं संबन्धि (अत्गश्याणं संखेां कालं ति) पश्चानुपूर्व्या पार्श्वनाथाssदीनां संख्यातं कालम् । ( अस्थेगइयाणं श्रसंखेज्जं कानं ति ) ऋषभाऽऽदीनाम ( आगमेस्साणं ति) श्रागमिष्यतां भविष्यतां महापद्मादीनां जनानाम् । (कोसलियस्स प्ति) कोशलदेशे जातस्य । ( जिण परियार त्ति) केवलिपर्यायः, स च वर्षसहस्रन्यूनं पूर्वलक्कमिति । भ० २० श० उ०
अधुना ..........." अणुसजणा य दस चोइस अट्ठ दुष्पसदे ( ३३४ ) इत्यस्य व्याख्यानमाह-
29
दस तागुसज्जती. जा चोहसपुत्रि पढमसंघयणं । ते परेऽविहं, जातित्थं तात्र बोधव्वं ।। ३४१ ॥ यावत्प्रथमसंहननं, चतुर्दशपूर्वी च तावद्दश प्रायश्चित्तानि भ नुपज्जन्ति स्म । पतौ च प्रथमसंहनन चतुर्द्दशपूविणौ समकं व्यवच्छिन्नौ तयोश्च व्यवच्छिन्नयोरनवस्थाप्यं, पाराञ्चितं च व्यवच्छिन्नम् । ततः परेणानवस्याप्यपाराश्चितव्यवच्छेदादबक्, अष्टविधं प्रायश्चितं तावदनुषज्जते, अनुवर्त्तमानं बो
व्यं यावत्तीर्थव्यवच्छेदकाले चतुःप्रसभो नाम सूरिर्भविध्यति, तस्मिन् कालगते तीर्थे, चारित्रं च व्यवच्छेदमयते । ययुक्तं " देता विनदीसंति” (३३०) इत्यादि । तत्राऽऽहदासु न वोच्छिन्नसुं, अद्वत्रिहं देतया करेंता य ।
न विकेई दीसंती वयमाणे जारिया चउरो ।। ३४२ ।। द्वयोरनवस्थाप्यपाराञ्चितयोः, अथवा - प्रथम संहननचतुर्दशपूर्विणोः, व्यवच्छिन्नयारष्टविधं प्रायश्वितं ददतः कुर्वन्तो वा केचिन्न दृश्यन्ते इति वदति परस्मिन्प्रायश्चिचं चत्वारो ना रिता मुरुका मासाः ।
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(२३१६) तित्थाणुसज्जणा निधानराजेन्द्रः।
तित्थुग्गालिय दोमु वि वोच्छिन्नमुं, अट्टविहं देतया करेंता य ।
परिहारविशुद्धिके संयमे वर्तमानानां स्थविराणां मूलान्ताम्यपञ्चक्खं दीसती, जहा तहा मे निसामोहि ।। ३४३॥
टौ प्रायश्चित्तानि भवन्ति । जिनानां पुनश्छेदाऽऽदिवर्ज षमिधम। द्वयोरन्तिमयोः प्रायश्चित्तयोः प्रथमसंहननचतुर्दशपूर्विणोर्धा
श्राझोयणा विवगो य, तस्य तु न विज्जती। व्यवच्छिन्नयोरष्टविध प्रायश्चित्तं ददतः, कुर्वन्तश्च प्रत्यक्षं ह. मुहुमे य संपराए य, अहक्खाए तहेव य ॥३५॥ श्यन्ते यथा,तथा मम कथयतो निशमय ।
सूक्ष्मसम्पराये, यथाख्याते च संयमे वर्तमानानामालोचना, पंचेव नियंठा खल्ल, पुलागवकुमा कुसीननिग्गया। विवेक इत्येवंरूपे दे प्रायश्चित्ते भवतः, तृतीयं तु न विद्यते। तह य सिणाया तेसिं, पच्चित्तं जहकम वोच्च ॥३४॥
ततः प्रस्तुते किमायातमिति चेदत पाहपञ्चैव स्खलु निग्रंथा भवन्ति । तद्यथा-पुलाको, वकुशः, कुशी.
वउसपमिसेवया खलु, इत्तरि-व्या य संजया दोसि । सः, निग्रन्थः, स्नातकश्च । एतेषां च स्वरूपं व्याख्याप्रज्ञते.
जा तित्यऽणुसज्जती, अस्थि ह तणं तु पच्चित्तं ||३५|| रवसेयम् । एतेषां प्रायश्चित्तं यथाक्रमं बदये।
निर्ग्रन्धचिन्तायां वकुशः,प्रतिसेवकः प्रतिसेवनाकुशीला,श्त्येप्रतिज्ञां पूरयति
तो द्वौ निर्ग्रन्धी संयतचिन्तायाम् इत्वरी-इत्वरसामायिकवान्,
छेदश्वेदोपस्थाप्यश्चेति द्वौ संयती, यावत्तीर्थ तावदनुषआलोयण पमिकमणे, मीसविवेगे तवे विउस्सग्गे ।
उजतोऽनुवर्तेते, तेन ज्ञायते अस्ति संप्रत्यपि प्रायश्चित्तम् । एए उ पच्चित्ता, पुनागनियंठस्स बोधव्वा ॥३४॥
व्य०१० उ०। (विशेषविस्तरस्तु 'वोच्छेय' शब्दे वक्ष्यते) भालोचना, प्रतिक्रमणं, मिश्र, विवेकः तपः, व्युत्सर्गः, पतानि | (कल्किराज्ये तीर्य नष्टप्रायमासीदिति 'कक्कि' शब्द तृतीयषट् प्रायश्चित्तानि पुलाकनिर्ग्रन्थस्य बोधव्यानि।
जागे १८१ पृष्ठे समुक्तम्) वनसपमिसेवगाणं, पायच्छित्ता हवंति सम्वे वि। तित्याभिसेअ-तीयोजिषेक-पुं० । लौकिकतीर्थस्नाने, औ०। थेराण भवे कप्पे, जिणकप्पे अट्टहा होति ॥३४६॥ तित्यिय-तीर्थिक-त्रि० । अन्यमतीये सम्मतपापे, आचा० १ वकुशप्रतिसेघकयोधकुशस्य, प्रतिसेवनाकुशीलस्य च सर्वा-| श्रु०अ०१ उ०।। पयपि दशाऽपि प्रायश्चित्तानि भवन्ति । तौ च वकुशकुशीला तित्युग्गालिय-तीर्थोशालिक-न० । स्वनामख्याते प्रकीर्णके, स्थविराणां कल्पे भवतः, जिनकल्पे, उपलकणमेतत-यथालन्द- तित्थु। कल्पेच, तयोः प्रायश्चित्तमष्टधा भवति, अनवस्थाप्यपारा- "जय ससिपायनिम्मल-तिहुअणविस्थिमपुराणजसकुसुमो। ञ्चितयोरजाबात् ।।
उसभो केवलदसण-दिवायरो दिघिदट्टब्वो ॥१॥ आलोयणा विवेगो य, नियंठस्स मुवे नवे ।
बावीसहं च निज्जिय-परीसह कसायविग्घसंघाया। विवेगो य सिणायस्स, एमेया पमिवत्तिो ॥३४॥
अजिआईया भविया-उरविंदरविणो जयंति जिणा ॥२॥
जय सिद्धत्थनार-दविमलकुलविपुलनलियमयंको । मालोचनाप्रायश्चित्तविवेकप्रायश्चित्ते निग्रंन्यस्य नवतः,
महिपालससिमहोरग-महिंदमहिओ महावीरो॥३॥ स्नातस्य केवल एको विवेकः । एवमेताः पुलाकाऽऽदिषु प्र.
नमिऊण समासंघ, सुनायपरमत्थपाबडं वियर्ड। तिपत्तयः।
बोच्चं निच्छययत्थं, तित्युग्गाली' संखेषं ।। ४॥ पंचेव संजया खब, नायसुएण कहिया जिणवरेणं ।।
रायगिहे गुणसिलप, मणिया धीरेण गणहराणं तु । तोस पायचित्तं, अहक्कम कित्तइस्सामि ॥३४८॥
पयसयसहस्समेयं, वित्थरओस्रोगनादेणं ॥५॥ कातसुतेन जिनवरेण बर्बमानस्वामिना पञ्चैव स्खलु संयताः असंखवं मोत्तुं, मात्तूण पवित्थरं अहं भणिमो। कथिताः, तेषां यथाक्रम प्रायश्चित्तं कीर्तयिष्यामि ।
अप्पक्वरं महत्थं, जह भणियं लोगनादेणं ॥६॥ तदेव कीर्तयति
कालो र अणाईयो, पवाहरूवेण होइ नायबो। सामइयसंजयाणं, पायच्छित्तानि छेदमूलरहियऽट्ठा । निहणवितणो सो चिय, वारसअंगोहं निहिछो॥७॥"तित्पु०। थेराण जिणाणं पुण, तवमंतं विहं होई ।।३४६॥ "पसा य पयसहस्से-ण वनिया समणगंधहत्थीण । सामायिकसंयतानां स्थविराणां स्थविरकल्पिकानां वेदमूबर- पुछेण य रायगिहे, तित्थुग्गाली उ वीरेणं ।। १२४५ ॥ हितानि शेषारयष्टी प्रायश्चित्तानि भवन्ति । जिनानां जिनकल्पि- सोउंतित्युग्गालिं, जिणवरवसहस्स वद्धमाणस्स । कानां पुनः सामायिकसंयतानां तपापर्यन्तं षडिधं प्रायश्चित्तं पण मह सुगइगयाणं, सिद्धाणं निट्टितट्टाणं ॥१२४६ ॥ जबति।
भई सबजगुज्जो-यगस्स नई जिणस्स वीरस्स। दोवद्यावणिए, पायचित्ता हवंति सम्वे वि ।
भई सुरासरनमं-सियस्स भई धुयरयस्स ॥१२॥७॥ थेराए जिणाणं पुण, मूलंतं अहहा होइ ॥३०॥
गुणभवणगहण! सुपरय-न!भरियदसण!बिसुद्धरत्यागा।
संघनगर ! भदंते, अक्खंमचरित्तयागारा! ।। १२४७ ।। दोपस्थापनीये संयमे वर्तमानानां स्थविराणां सर्वाण्यपि
जं उठितं सुयाश्रो, अहव गतीए जयोचदेसेणं । प्रायश्चित्तानि भवन्ति, जिनकल्पिकानां पुनर्मूलपर्यन्तमष्टधा
तं च विरुकं नावं, सोहेचव सुयधरेहिं ।। १२४९ ।। प्रवति ।
मणपरमोदिपुलाप, श्राहारगखवगनवसमे कप्पे । परिहारविसुधीए, मूलंता अट्ट होति पच्चित्ता।
संजमतियकवलिसि-झणा उ जंबुम्मि विचिन्ना ॥१२५०।। थेराण जिणाएं पुण, बिह छेयादिवज्जं च ।।३५२।। पुष्वाणं अगोगो, संघयणं पढमं च संहाणं ।
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तिमहुर
(२३१७) तित्यग्गालिय
अभिधानराजेन्द्रः । सुहुममहापाणाणि य, वोच्चिन्ना थूलभद्दम्मि ।। १२५१॥ तेषां वक्तव्यम्,यथा एकेन्द्रियाणां देहस्यौदारिकस्य मायुषस्तिदसपुब्वा वोच्चित्रा, संपुत्रा सुरजवम्मि संपत्ते ।
र्यगायूरूपस्यन्छियस्य स्पर्शनोन्यस्य, द्वान्जियाणां देहस्याबयरम्मि महाभागे, संघयणं अनारायं ॥ १२५५॥
दारिकरूपस्य प्रायुधस्तियंगायुष इन्द्रिययोश्च स्पर्शनरसनबसिविणोहिं कप्पे, पंच गहाणी उ कप्पवणा य।
मकणयोरित्यादि । पञ्चमीतत्पुरुषस्त्वयम्-त्रिज्या कायबाङमनोनवसयतियणपहिं, वोच्चिका संघाणाए ॥ १२५३ ॥ ज्यो, देहाऽऽयुरिन्कियेभ्यो वा पातनं च्यावनमिति त्रिपातनम् । तीर्थोदुगालिकासकान्तः।
मत्राऽपि त्रिभ्यः परिपूर्णेयः कायवालमनोन्यः पातनं गर्भतेतीप्तं गाहामो, दोन्नि सयाल सहस्समेगं च ।
जपचेन्द्रियतिर्यक्मनुष्याणाम, एकेन्द्रियाणां तु कायादेव केवतित्थुग्गालियसंस्खा, एसा जणियान अंकणं" ॥१२५४॥ तित्पु०।। लात्, विकलेन्ष्यिसंमूछिमतियम्मनुष्याणां तु कायवाग्ज्यातित्युएणतिकारग-तीर्थोन्नतिकारक-त्रिका प्रवचनप्रभावनाका- मिति, देहाऽऽपुरिन्द्रियरूपेभ्यः पातनं सर्वेषामपि परिपूर्ण स. रिणि, पञ्चा०८विष
म्भवति । तथा तेषां प्रागिव वक्तव्यम् । तृतीयातत्पुरुषः पुनः तित्युदय-तीर्योदय-पुं० । तीर्थकरनामोदये, यतः सयोग्यादौ । रयम-त्रिनिःकायवालानोभिर्विनाशकेन स्वसम्बन्धिनिः पाततीर्थकरनामोदयो प्रवति । यऽक्तम-"उदम जस्स सुरासुर
नं विनाशनं त्रिपातनम एशा ('आधाकम्म' शब्दे द्विना. नरवनिवहेहिं पूरो हो । तं तित्थयरं नामं, तस्स विवागो |
१२० पृष्ठेऽपि व्यास्यैषा ) पिं० । प्रश्न । सुत्र। हु केवनिणो॥ १॥" ततः पूर्वोक्तकचत्वारिंशति तीर्थकरनाम | तिपंज-त्रिपञ्च-न । शुद्धाशुरुमिश्रपुञ्जत्रये, विशे । " आलंतिप्यते, जाता द्विचत्वारिंशत, सा च सयोगिनि भवतीति ।।
| वणमलदंती, जह सखाणं न मुंचए इनिआ । एवं अकयति'. (२१) कर्म०२ कर्म०।
जी, मिच्छ चिम उवसमी प॥१॥" ध.२ अधिक। तित्येस-तीर्थेश-पुं । तीर्यस्य प्रागुक्तस्य, तदाऽऽधेयस्याs. |
तिपुक्खर-त्रिपुष्कर-ना त्रीणि पुष्कराणि त्रिपुष्करम्। "संख्यागमस्य वा, ई बहमी मदिमानं, श्यति तत्तदसद्भुत दूषयोद्.
| पूर्वो द्विगुः" ।।१। ५२ । इति समासः । अनु० । “वाराः घोषणैः स्वाभिप्रायेण तनूकरोति यः स तीर्थेशः । तीर्थान्तरीये |
शः !ताथान्तराय। रास्तिथिकानक्वत्रं नमपादकम । जातेऽत्र जारजो योगो,मबहिरङ्गापकारिणि, ( रत्ना० )तीर्थस्य चतुर्वर्णस्य श्रीश्रम.
रणेऽत्र त्रिपुष्करम् ॥१॥” इति ज्योतिषोक्ते योगदे, पुंगवाच. णसङ्कस्येशः स्वामी तीर्थेशः । तीर्थकरे, रत्ना०१ परि० ।
तिपुड-त्रिपुट-पुं० । त्रयः पुटा यस्य । खेसारीकसापभेदे, शरे, तिदम--त्रिदएम-न । त्रयाणां दण्डानां समाहारखिदएकम् ।
तालकयने, गोकुरे, हस्तभेदे च । सूक्ष्मैत्रायाम् , मछिकायाम्, त्रयाणां दएकानां समाहारे, प्रो.भ.।
त्रिवृदोषधौ, कर्णस्फोटायर्या, देवीभेदे च । स्त्री० । टाप् । तिदंमि-(ण)-त्रिदाएमन्-० । मनोचाक्कायदण्डनयपरि
| वाच• जं०५ वक०।। कामाथै दमत्रयधारके वेदान्तावसम्बिधमणभेदे, प्रा. म. १|तिपर-त्रिपर-पुत्रीणि स्वर्गाऽऽदिस्थानानि पुगएपस्य । असु. म. २ खण्ड । सूत्र० । ( नमस्कारफले त्रिदण्मदाहरणं 'णमोकार' शम्देऽस्मिन्नेव भागे १०४ पृष्ठे गतम् )
रभेदे, वाच०। नीणि पुराणि त्रिपुरम । " संख्यापूर्वी द्विगुः" तिदसावास-त्रिदशाबास-पु.। देवलोके, प्रा. दुढी०५ पाद ।
॥२॥१॥५२॥ इति समासः । अनु। पुरत्रयमात्रे,नावाच०। तिदिस-त्रिदिश-न । बिस्रो दिशः समाहताखिदिक । दि
तिप्प-तृप्त-त्रिका "इत्कृपाऽऽदौ" ||८।१।१२० ॥ इति ऋत त्रये, रा०।
श्त्वम् । प्रा. १ पाद । अतिशयोपभोगेन निवृत्तेन्छे, प्राचा. तिध-तथा-अव्य • । "कथं-यथा-तथा थाऽऽदरेमेमेहेधा डितः" १ श्रु०२ म०५ उ०। १८४४०१॥ इत्यपनशे थादेवयवम्य डिसंगकः 'ध'
उप-धा। च्वा०-आत्म० । करणे, प्राचा०११० २ म०५ इत्यादेशः । प्रा• पाद । साम्ये, अभ्युपगमे, पृष्टप्रतिवाक्ये, स.
| उ "तिप्पामि वा पीमामि वा।" (तिप्पामित्ति) शरीरबत. मुच्चये, निश्चये च । वाच०।।
रामि । सूत्र.श्रु.१०।" तिप्पंति।" सुखाच्यावयम्त्या. निपरिवत्त-त्रिपरिबर्त-त्रि० । त्रिभिर्वारएनीये, वृ० ३२० त्मानं, पराँश्च । सूत्र. २ श्रु० २ अ.। तिपह-त्रिपथ-न । त्रयाणां पयां समाहारे, वाच० । अनु.।। तिप्पणया-तेपनता-री । तिपेः करणार्थत्वादश्रुमोचने, भ. तिपायण-त्रिपातन-ना "कायवयमणा तिनि उ, प्रहवा देहा २५ श०७ उ० । स्था०। शोकातिरेकादेव अश्रुलालाऽऽदिक्षरणशंदिया पाणा । सामित्ता वायाणे, होयऽतिवाओ य करणे.
प्रापणायाम, भ. ३ श० ३१०। प्रार्तध्यानलकणे, सन. १ सुं||४" इत्युक्ताक्षखे प्राणिविनाशे, पिं०ात्रीणि कायवा
श्रु.१०१उ०। परिदेवने, सूत्र० २६०४ अ.। त्रिनियोगः ड्मनांसि, यद्वा-त्रीणि देहाऽऽयुरिन्द्रियलकणानि । पातनं चा.
परितापे, प्रा. चू० ४ अ० । तिपातो,विनाश इत्यर्थः । अत्र च त्रिधा समासविवक्षा। तद्यथा- त्रिपातनता-स्त्री० । त्रिभ्यो मनोवाकायेन्यः पातनं त्रिपातनं, पष्ठीतत्पुरुषः, पञ्चमीतत्पुरुषः, तृतीयातत्पुरुषश्च । तत्र षष्ठीत. तद्भावनिपातनता । त्रिपातननावे, सूत्र. २ श्रु०४ अ०। त्पुरुषोऽयम-प्रयाणां कायवाग्मनसा पाननं विनाशनं त्रिपातन.
तिभाग-त्रिनाग-पुं० । तृतीयो नागस्त्रिभागः। मयूरव्यंसकाऽऽ. म। एतच्च परिपूर्णगर्भजपञ्चन्ज्यितिर्यम्मनुष्याणामवसेषमए. केम्ब्यिाणां तु कायस्यैव केवलस्थ,विकलेन्द्रियसंमृश्चिमतिर्य
दित्वात्समासः । तृतीयेऽशे, कर्म० २ कर्म । ग्मनुष्याणां तु कायवचसोरेवेति । यद्वा-त्रयाणां देहाऽऽयुरिन्द्रि. तिमहर-त्रिमधुर-ना त्रीणि मधुराणि समाहतानि त्रिमधुरम् । यरूपाणां पातनं बिनाशनं त्रिपातनम् । इदं च सर्वेषामपि तिर्य. | "संख्यापूर्वो हिगुः" ।। २।१।५२॥ इति समासः। अनु०। मनुष्याणां परिपूर्ण घटते, केवलं यथा येषां सम्भवति तथा । घृतसितामाविकरूपे मधुरप्रये, वाच.।
५6.
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(१३१९) तिमि अभिधानराजेन्द्रः ।
तिरिक्खसामल तिमि-तिमि-पुं० । मत्स्यभेदे, प्रज्ञा० १ पद । जी० । कल्प।तियणाण-ध्यान-नत्रयाणामज्ञानानां समाहाररूयज्ञानम्। "अस्ति मत्स्यस्तिमिर्नाम, शतयोजनविस्तरः । तिमिङ्गिबगि- मत्यज्ञानश्रुताझानविभगझानरूपे, कर्म०४ कर्म०। लोऽप्यस्ति, तमिलोऽप्यस्ति राघवः ।।१॥" सूत्र २ श्रु०३ अ०। तियस-त्रिदश-पुं० । तिम्रो दशा जन्मसत्ताविनाशाऽऽख्याः, समुळे, वाच० । महामत्स्ये, प्रश्न १ आश्र0 द्वार ।
न तु वृद्धिपरिणामक्षया मानामिव दशा येषां ते त्रिदशाः । तिमिगिन्न-तिमिगिल-पुं०। तिमि मत्स्य गिरति । 'गृ' निगर- देवेषु, वाच० । प्रा० मा । थे। ख, मुम् च । "अस्ति मत्स्यास्तिमिनीम, तथा चास्ति ति- | तियसझोग-त्रिदशनोक-पुं० । स्वर्ग, वाच । श्रा०म०। मिडिलः।" वाच० । मत्स्यनेद, प्रज्ञा०१ पद । मीने, देना. ५ वर्ग १३ गाथा । कस्प० । सूत्र० । जी० । महामत्स्यतमे,
तियसिंदणमंसिय-त्रिदशेन्धनमस्थित-त्रि त्रिदशाः सुमनसप्रश्न०१ आश्र० द्वार।
स्तेषामिछात्रिदशेन्द्रास्तैनमस्थितः। देवेन्नते, ग०१ अधि। तिमिांगनगिल-तिमिङ्गिलगिल-पुं० । महामत्स्ये,सूत्र २ श्रु० | तिरयणमाझा-त्र
|तिरयणमाझा-त्रिरत्नमाला--स्त्री० । ज्ञानदर्शनचारित्ररूपरत्न६१०।
जयमालायाम, संथा। "चारित्ससुद्धसाला, तिरयणमाला तिमिच्छाओ-देशी-कश्चिदित्यर्थे, पथिके च । दे॰ ना० ५ वर्ग
तुमे भव्वा ।" संथा।
तिरासि-त्रिराशि-न । जावाजीवनोजीवभेदानयो राशयः १३ गाथा। तिमिण-देशी-भादारुणि, दे. ना.५ वर्ग ११ गाथा ।
समाहतास्त्रिराशि । राशित्रये, स्था०७ ठा।
तिरिअजोणि-तिर्यग्योनि-पुं० । तिरश्चामुत्पत्तिस्थाने, प्रज्ञा तिमिर-तिमिर-न० । अन्धकार, कल्प० ३ कण । “ अदा क- १ पद । राहच उद्दसीए रातीए रयरेणुधूमिगा भवति, तदा तम्मि ति- तिरिअंच-तिर्यक-त्रि.चतुर्थगतिके तिरश्चां वैक्रियशरीरकरणं मिरं भति । अहवा-पित्तुदपण दव्यचक्खिदियस्संतरकरणं
मूलशरीरेण सह संबद्धमसंबवा स्यादिति प्रश्ने,उत्तरम-संभवति ।" नि० चू०४ उ० । निकाचिते कर्मणि, ध० २ अ
बरूमसंबळंच भवतीति । ७३ प्र० । सेन०२ उता। युगलिकधि विज्ञानाल्पतायाम, बहलापरिज्ञाने, आ००५ भ०। पर्व
क्षेत्रतिर्यश्चः कल्पवृक्काहारं कुर्वन्स्यन्यद्वेति प्रइने, उत्तरम्-गोतकवनस्पतिजदे, प्रशा० १ पद ।
प्रभृतयः कल्पवृक्काऽऽहार कुर्वन्ति, तथाऽन्यदू धान्यतृणाऽऽदि. तिमिरिचक-देशी-करजद्रुमे, दे. ना०५ वर्ग १३ गाथा। कमपि कुर्वन्तीति संभाव्यत इति । ५६ प्र० । सेन०४ उबा। तिमिन्ना-त्रिमिना-स्त्री. । तूर्यभेदे, औ०।
तिरिक्ख-तिर्यक्-त्रि० । 'अञ्चु' गतौ । तिरोऽऽचतीति तिर्यक, तिमिसगुहा-तिमिरगुहा-स्त्री. । वैताव्य गुहायाम्, यया स्वक्षे.
| तिसरस्तिर्यादेशः । प्रज्ञा. १ पद । चतसृणां गतीनां चतुर्थग. त्राचक्रवर्ती चिलातकेत्र याति । स्था०९ गाताश्च भरतैरव
तिमापन्ने, प्रइन० १ श्राश्र0 द्वार । तवर्षयोदधिरताव्ययोंढे, कच्छाऽऽदिद्वात्रिंशधिजयेषु द्वात्रिंश- |तिरिक्खजोणिय-तिर्यग्योनिक-पुंज तिर्यग्नोके योनय उत्पत्तिदित्यवं चतुरिंशज्जम्बद्वीपे । (स्था०८ ठा०) एवं धातकीख- स्थानानि येषां ते तिर्यग्योनिकाः। जी०१ प्रति०। स्था।"तिरामे, पुष्कराद्धे च प्रत्यकमधष्टिस्तासांप्रमाणम् । स्था०२० रिक्खजोणिया तिथिहा पासत्ता । तं जहा-इत्थी, पुरिसा, नपु३ उ०। तत्र कृतमालको देवः। स्था०३०३ उ० स० ज०। सगा।" स्था.३० १००। श्रा०क०। (तत्र भरतचक्रिगमनं 'नरह' शब्दे वक्ष्यते) "ति
तिर्यग्योनिज-पुं०। तियन्त्रोके योनयस्तियग्योनयः, तत्र जास्तिमिसगुहा अह जोपणाई उहं उच्चत्तणेणं ।” स्था०८ ग०।
यंग्योनिजाः । जी०१ प्रति। जीवभेदे, स्था०८० जी० । तिमिसगुहाकूम-तिमिरगुहाकूट-पुं०।न। तिमिस्रगुहाऽधि
"तिविडा तिरिक्ख जोणिया पत्ता । तं जहा-इत्थी, पुरिसा, पदेवस्य निवासभूतं कुटं तिमिस्रगुहाकुटम् । वैताव्यपर्वतस्य नपुंसगा।" स्था०३ ठा०१०। तियक्त्वकारणानि-"चउ. तृतीये कुटे, जं.१ वक० स्था०।
हि नाणेहिं जीवा तिरिक्ख जाणियत्ताए कम्म पगरेति । तं जहातिमुह-त्रिमुख-त्रि.। त्रिभिर्मुखयुक्ते, प्रव. २६ द्वार।। माइल्लयाए, नियमिस्ल याप, अलियवयणेणं, कूडतुनाममा
णेणं ।” स्था० ४ ठा० ४ ०। तिम्म-तिम्म-न० । तिज-मक, जस्य गः । “ग्मोवा" ॥८।
तैर्यग्योनिक-त्रि । तैरिश्च तिर्यग्यानिकृते, स्था०४ वा. २०६२ ॥ इति मस्य विकल्पन मकारः । प्रा०२ पाद । तीदो ।
४० नवति, त्रि० । वाच।
तिरिक्खपया( ण )-तिर्यक्प्रचयिन्-त्रि. । परस्परसमानीनिय-विक-न० । त्रित्वलक्यायाम, रा०। प्रा० म० । त्रिपथ | शिकसति परस्परसमानकालीने, यथा रूपरसाऽऽदया, युक्ते स्थाने, इा० १ श्रु० २ ० ।
अणुत्वस्थौल्याऽऽदयश्च । नयो। त्रिज-त्रिक त्रियां धातुमा जीवनको यो जातं त्रिजम् ।स. स
तिजन-त्रि० । पशकल्पे, प्रश्न. ३ आश्र. चस्मिन् वस्तुनि विशेष निरंकर-त्रिवडर-पुं० । स्वनाम र पाने पि! (ननुदा-निखिमम-निर्यवपामान्य-न । लिगुरासनानसाहरणं 'उदारणाम शब्द यो)
। यत्यकामणे, रमा।
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(२३१४) तिरिक्खसामम अन्निधानगजेन्जः।
तिरियग तिर्यक्सामान्यस्य स्वरूपं सोदाहरणमुपदर्शयन्ति- एकाकारा परिणतिः प्रयशकिः, तत्तिय सामान्य मुच्यते । प्रतिव्यक्ति तुल्या परिणतिस्तियक्सामान्यं, शबाशाबो
यथा-घटेषु घटत्वम, गोपु शावलेयाऽऽदिपु गोत्यम, अश्येषु
अश्वत्वं नियति सामान्यजनम्, तथा अनेकाकारघरसहये। याउदिपिण्डेषु गोत्वं यथा ॥ ४॥
यपि घटत्वमेवोत तिर्यफसामान्यामिति । अत्र कश्चिदाह- यद व्यक्तिं व्यक्तिमधिश्रित्य समाना परिणतिस्तियसामान्य विझे- घटादिभिव्यक्तिपुयथा घटत्वाऽदिक सामान्यमेकमेवास्ति, यम् । अत्र सौगताः संगिरते--गौगौरित्यायनुगताऽऽकारप्रति. तथा पिएम कुशूनाऽऽदिमिन्नध्यतिष मृदादिसामान्यमेकमेवास्ति, पत्तेरन्यव्यावृत्तिमात्रेणैव व्यक्तिषु प्रसिझेरनसर एव सहशप. ताई तिर्यमामान्योद्धतासामान्ययोः को विशेषः । तत्रारिणामस्वरूपसामान्यस्वीकारः । सर्वतो व्यावृत्तानि हि स्वन- यत्र देशलेदेन या एकाऽऽकारा प्रतीतिरुत्पद्यते, तत्र तिर्यसाकणानि न मनागप्यात्मानमन्यन मिभयन्तीति । तदेतन्मरुमरी- मान्य मभिधीयते । यत्र पुनः कानदेन अनुगताकारा प्र. चिकाचक्रोदकाचान्तयेऽञ्जलिपुटप्रसारणम् । यत श्यमन्यव्या- तीतिरुत्पद्यते, तत्र द्धतासामान्यमनिधीयत इति । एवं सति वृत्तिबहिः,अन्तर्वा भवेत्। तत्र खाममुण्डाऽऽदिविशेषप्रतिष्का- दिगम्बरानुसारी कश्चिद्वक्ति-पमां द्रव्याणां काअपर्यायरूप 3. न्यव्यावृत्तेबहिः सद्भावे सामान्यरूपता अनिवारा । अान्तरत्वे द्धतापत्रयः, कालं विना पञ्चव्याणामवयवसंघातरूपस्तिर्यकर. तु तस्याः कथं बहिराभिमुख्येनोरलेखः स्यात् ? । नान्त:, चयश्वास्ति। एवं वदतां तेषां मते तिर्यकप्रचय स्याऽऽधारो ध. बहिर्वा सेत्यपि स्वाभिप्रायप्रकटनमात्रमा तथालूतं धन्यव्या. टाऽदिस्तिर्यक्सामान्यं भवति । तथा परमाणुरूपप्रचयपर्याया। वृत्तिस्वरूपं किञ्चित,न किञ्चिद्वा। किञ्चित,नूनमन्तर्बहिर्वा तेन णामाधारोभिन्न एव युज्यते, तस्मात्पञ्चव्याणां स्कन्धदेशप्रदे. जाव्यं,तत्र च प्रतिपादितदोषानतिक्रमः । न किञ्चिच्चेत्, कथं त. हाभावेन पकानेकव्यवहार उत्पादनीयः; परं तु तिर्यक्प्रचय थाभूतप्रत्ययहेतु: । वासनामात्रनिर्मित पवायमिति नेतू, तर्हि इति नामान्तरमप्रयोजक, वालुकापेषवत्, इति नियनः ।। ५ ।। बहिरीपेक्का न भवेत् । न ह्यन्यकारणको भावोऽन्यदपेक्वते,धूमा- अव्या०२ अध्या०। ऽऽदो सलिनाऽऽद्यपेक्षाप्रसङ्गात् । किं च-वासनाऽप्यनुनूतार्थबि- तिरिच्छ-तिरश्चीन-त्रि । तिर्यक्-स्वार्थे स्वः । तिर्यगते, “गतं पयेवोपजायते।न चात्यन्तासखेन स्वन्मते सामान्यानुभवसम्न.
तिरश्चीनमनूरुसारथः" इति माघः। वाच । प्राचाo। नि.चू० । चः। भपि च-वासना तथाभूतं प्रत्ययं विषयतयोत्पादयेत,कारण. मात्रतया वा? । प्राचि पके सकलविशेषानुयायिनी पारमार्थिकी | तिरिच्छमंतारिमा-तिरश्चीनसन्तारिमा-स्त्री । लाङ्गलवाजुपरिच्छेद्यस्वन्नावा वासनेति पर्यायान्तरेण सामान्यमेवाऽनिहितं गामिन्यां नौकायाम्, नि० चू० १ उ०।। भवेत् । कारणमात्रतया तु वासनायाः सरशप्रत्ययजनने विष- तिरिच्छसंपातिम-तिरश्चीनसंपातिम-त्रि०। तिर्यगामिनि, भायोस्य वक्तव्यः,निर्विषयस्य प्रत्ययस्यैवासंभवात् । न च सहश
___ चा. २ श्रु० १ ० १ ० ३ ००। परिणामं विमुच्यापरस्तद्विषयः संगच्छते,प्रागुदीरितदोषानुष
तिरिचि-तिर्यच-त्रि.। "तिर्यचस्तिरिच्छिः" ॥।३।१४।। कात् । किं च-यमन्यव्यावृत्ति स्वयमसमानाऽऽकारस्य,समा. नाकारस्य वा वस्तुनः स्यात् । प्राक्तनविकल्पकल्पनायामति
इति तिर्यच्कूब्दस्य 'तिरिचि' स्यादेशः । प्रा०२पाद । प्रसङ्गः,कुरतुरतरङ्गाऽऽादिष्वपि तत्संनवाऽऽपत्ते,तथा च ते.
वक्रे, वाच। धनुगताऽऽकारैकप्रत्ययानुषङ्ग स्वयं समानाऽऽकारस्य तु वस्तु
तिरिड-पुं० । देशी-तिमिरवृत, दे० ना०५ वर्ग ११ गाथा । नोऽन्युपगमे समुपस्थित पवायमतिथिः सहशपरिणामः कथं प.
तिरिमिअ-देश-तिमिरयुक्ते, विचिते च । दे० ना० ५ वर्ग राणुद्यताम् ?। ननु यया प्रत्यासत्या केचन भावाः स्वयं सह- २१ गाथा। शपरिणाम बिन्नति, तयैव स्वयमतदात्मका अपि सन्तस्तथा तिरिडी-देशी-नवाते, दे० ना०५ वर्ग १३ गाथा । किनावनासेरनिति चेत् । तदनुचितम् । चेतनेतरभेदानावप्रस
तिरिका-तिर्यद्रिक-न । तिर्यग्गतितियंगानुपूर्वी रूपे, कर्म० ङ्गात् । ययैव हि प्रत्यासण्या चेतनेतरस्वजावान् जावाः स्वीकुर्वन्ति, तयैव स्वयमतदात्मका श्रपि सन्तस्तथा कि नावनासे
५ कर्म। रनित्यपि वाणस्य ब्रह्माद्वैतवादिनो न वक्त्रं वक्रीभवेत् ।
तिरिय-तियक-त्रि.। चतसृषु गतिषु चतुर्थगतिमापन्ने, सूत्र० चेतनेतरव्यतिरिक्तस्य ब्रह्मणोऽसत्त्वात्कथमस्य तथावभासन.
१ श्रु० ३ अ.१ उ० । स्था० । कर्म । आचा' । ०। संम्, इत्यन्यत्राऽपि तुल्यम् । न खलु सदृशपरिणामान्य स्खल
था० । तियत्रोके, स्था० ३ ०४ उ० । मध्ये, भनु । क्वणमध्यस्ति,यत्तथाऽवभासेत । ननु स्वल कणस्य विसरशा55- तारित-त्रि०। पारं प्रापिते, प्रइन०१ सम्बद्वार । अन्त प्रापिकारात्मनः सदृशपरिणामात्मकत्वं विरुध्यते। नैवम । ज्ञान- ते. व्या " पमिमा तीरिया किट्टिया।" तीरं पारं नीता स्थ चित्राकारतावद्विकलतराऽऽकारतावचैकस्यानयात्म
पूणेऽपि काऽवधौ किश्चित्कालावस्थानेन । स्था०७ वा । कत्वाविरोधात । ततो व्यावृत्तप्रत्ययहेतुविसदृशाऽऽकारतावद् वस्तुनः सदृश परिणामाऽऽत्मकत्वमप्यनुयायिप्रत्ययहेतुः स्वी
तिरियंकट्ट-तिर्यककृत्वा-प्रव्य० । अपहस्तयित्वेत्यर्थे, सूत्र.१ कार्यम् ।। ४॥ रत्ना०५ परि।
श्रु० ३ ० ३ ००। तिर्यक्सामान्य लक्षणमाह
तिरियंगोरखपरिणाम-तिरंगगौरवपरिणाम-पुं० । प्रायुःपरितुल्या परिणतिभिन्न-व्यक्तिषु यत्तदुच्यते ।
यामदेयेन आयुःस्वभावेन जीवस्य तिर्य दहिगमनशक्ति
नजरिया भवति । प्राकृत-वादनुसार ६० निर्यकलामान्यमित्ये ३, घटत्वं तु मोविय ।५।।
रिया-विमति... ।तियतु -- नारि पदमिनभ्यानसशनिशन त्रासमा
गतिमातिएम०२ उतरामी
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(२३२०) तिरियग अभिधानराजन्छः।
तिरियगइ सीति तिर्यश्चः। व्युत्पत्तिनिमित्तं चैतत्, प्रवृत्तिनिमित्तं तियम्ग- जोयणाई, बहूई जोयणसयाई, बहूई जोयणसहस्साई तिनाम । एते चैकेन्डियाऽऽदयः, ततस्तियक विषये गतिस्तिय-| गतिः। कर्म० ४ कर्म । तियनामकर्मोदयसंपाद्ये तियक्त्वस्त
दूरं नएं उप्पतित्ता एत्थ णं पातो मरिए अागासातो क्षणे पर्यायविशेष, स्था० १० गातियं परिभ्रमणे, च० प्र०।
उत्तिकृति, से णं इमं दाहिण; लोगं तिरियं करेति, कथं सूर्यस्तिर्यक् परिभ्रमतीति ततस्तद्विषयं प्रश्नसूत्रमाद- करेत्ता उत्तरहुं लोग तमेव रातो, सेणं इमं उत्तरहं लोग
ता कहं ते तिरियगती आहिया ति वदेजा। तत्थ खलु तिरित करेति,करेत्ता दाहिणई लोग तमेव रातो, से णं इमाई इमामो अट्ठ पमिवत्तीअो पत्ता । तं जहा-तत्थेगे एव- दाहिणुत्तरलोगाई तिरितं करेति, करता पुरच्छिमिसातो लोमाइंसु-ता पुरच्छिमिक्षातो लोयंताओ पातो मरीइसंघाए गंतातो बहूई जोयणाई तंचेवजाव दरं उर्फ नपतित्ता,एत्थ
आगासंसि उत्तिकृति, से णं इमं लोगं तिरितं करेति, नि- णं पातो मूरिए आगासातो नत्तिहति, एगे एवमाहंसु । रित करेत्ता पञ्चच्छिमिवंसि लोगसि सायं परीसंघाए वयं पुण एवं वयामो-ताजंबुद्दीवस्स दीवस्स पाइणपीभागासंसि विछंसति, एगे एवमाइंसु ।। १॥
णायताए नदीणदाहिणायताए जीवाए मंगलं चउबीमेणं एगे पुण एवमासु-वा पुरच्छिमिलातो लोगंतातो पातो
सतेणं वेत्ता दाहिणपुरच्छिमंसि उत्तरपञ्चच्छिमंसि य चसरिए आगासातो उनिति, सेणं इमं लोगं तिरितं करोति,
उम्भागमंझलांस इमीसे रयणप्पनाए पुढवीए बहुसमरमकरेतित्ता पञ्चच्कृिमिलंसिस्रोगतसिसाय मारिए भागासंसि
णिज्जातो भूमिजागानो अट्ट जोयणसताई नहुँ उत्पतित्ता विकंसति, एगे एवमाहसु ॥ ॥
एत्थ पातो उचे सूरिया भागामातो उत्तिद्वंति, ते णं एगे पुरण एवमाहंमु-ता पुरच्छिमिसातो लोगतातो पातो
इमाई दाहिणुत्तराई जंबुद्दीवभागाइं तिरितं करेंति, सूरिए सयावहारे आगासातो नत्तिहति, से ए इमं सोगं| करेता पुरच्छिमपञ्चच्छिमाई जंबुद्दीवभागाई तामेव रातो, तिरित करेति, करेत्तासायं अहे आगासमणुप्पविसइ, अणुप्प- ते इमाई पुरछिमपच्चच्छिमाइं जंबुद्दीवजागाई तिरिने विसित्ता अहे पमिश्रागच्छद, अहे पमिश्रागच्छित्ता पुणरवि |
कति, करेत्ता दाहिणुत्तराई जंबुद्दीवजागाइं तमेव अवरनुप्रो पुरच्छिमियाओ लोयंताप्रो पातो सरिए
रातो, ते णं इमाइंदाहिणत्तराई पुरछिमपञ्चच्छिमाणि प श्रागासाप्रो नत्तिट्ठति, एगे एवमाइंसु ॥ ३ ॥ एगे पुण एवमासु-ता पुरच्छिमिलाओ लोगंतातो पातो
नंबुद्दीवजागाई तिरितं करोति, करेत्ता पुरच्छिमपञ्चच्छिमाई
जंबुद्दीवस्स दीवस्स पाईणपमीणायता. जाव एत्य णं मूरिए पुढावियातो नत्तिद्वति, से ण इमं लोग तिरितं करेति, करेत्ता पच्चच्छिमिल्लं सि लोगसि सायं सरिए पुढवि
पातो दुवे सूरिया आगासातो नत्तिटुंति । कायंमि विदंसति, एगे एवमाइंसु ॥ ४ ॥
(ता कहं ते तिरियगई इत्यादि ) अत्यन्यदपि प्रभूतं प्रष्ट
व्यं, परमेतावदेव तावत् पृच्छामि-कथं 'ते' स्वया भगवन् ! पगे पुण एवमासु-ता पुरच्छिमिन्तातो लोगंतातो पातो
सूर्यस्य तिर्यग्गतिस्तिर्यकपरिभ्रमणमास्यातमिति वदेत ?। एवसूरिए पुढवियातो उत्तिट्ठति, से णं इमं लोगं तिरितं करेति,
मुक्तो भगवानेतद्विषये परतीर्थिकप्रतिपत्तिमिथ्याभावोपदर्शकरेत्ता पञ्चच्छिमिळमि लोगंसि सायं सूरिए पुढविकायं अ. नाय प्रथमतस्ता एवं प्रतिपसीरुपन्यस्यति (तत्थ खयु - एप्पविसति,अणुप्पविसित्ता पुढविअहे पमिआगच्छति,अहे त्यादि ) तत्र तस्यां. सूर्यस्य तिर्यग्गतौ तिर्यग्गतिविषये, श्रागच्छित्ता पुणरवि अवरो पुरच्छिमिझातो लोयतातो
स्खलिवमा वक्ष्यमाणस्वरूपा अधौ प्रतिपत्तयः परतीथिकाभ्यु.
पगमरूपाः प्रज्ञप्ताः।ता एव क्रमेणाऽऽह-(तत्थेगे इत्यादि) तत्र पातो सूरिए पुढवियातो उत्तिकृति, एगे एवमाहंमु ॥५॥
तेषां परतीथिकानामष्टानां मध्ये एके परतीथिका एवमाहुः। 'ता' एगे पुण एवमाईमु-ता पुरच्छिमिसातो लोगतातो पातो इति पूर्ववत्, पौरस्त्याटलोकान्तात, ऊद्धमिति गम्यतेः पूर्वस्यां सृरिए आनकायंसि उत्तिकृति, से एं इमं सोगं तिरितं क- दिशीति भावार्थः । प्रातःप्रभातसमये मरीचिसंघातः, विकाश रेति, करेता पञ्चच्छिमिामि लोगसि सायं मूरिए आन
संघात इत्यर्थः । आकाशे उत्तिष्ठति उत्पद्यते । एतेन एतदुक्तं
नवति नैतद्विमानं, नाऽपि रथो, नापि देवतारूपः सूर्यः, यथाऽपरे क्काए विसति, एगे एवमाहंसु ६।।
बदन्ति, कि तु किरणसंघात एवैष वर्तुलगोलाकारोलोकस्वाएगे पुण एवमाइंसु-ता पुरच्छिमिसातो लोगंतातो पातो
भाव्यात्प्रतिदिवसं पूर्वस्यां दिशि प्रातराकाशे समुत्पद्यते, यतः सूरिए आउकासि उत्तिकृति, से णं इमं सोगं तिरितं करे- सर्वत्र प्रकाशः प्रसरमधिरोदति। स इत्थम्भूतो मरीचिसंघातः, ति,करेत्ता पञ्चच्छिमिवसि सायं मूरिए आउक्कार्य अणुप्प- उपर्युद्यतः सन्, णमिति वाक्यालङ्कारे । इमं प्रत्यकत उपलज्यविसति,अणुप्पविसित्ता अहे पडिमागच्छति, अहे पमिश्रा
मानं तिर्योकतिर्यक् करोति । किमुक्तंन्नबति?-तिर्यक्परिचमा गच्छित्ता पुग्णरवि अवरभुओ पुरच्छिमिबातो लोगंतातो
न म तिर्यगलोक प्रकाशयतीति, तिर्यक्त्वा पश्चिमे लोकान्ते
सायं सान्ध्ये समये तथाजगत्स्वानाक्यात्स मरीचिसंघात पातो मूभिए आउक्कायमि उत्तिट्ठति, एगे एवमाहंमु७।।
साकाशे विसते ध्वसमुपयाति। एवं सकल कासमीप अत्रैवो. एगे पुण एवमाइंसु-ता पुरच्छिमिरातो सोगंतातो बहूई। पसंहार:-(पगे एवमासु) १ । एके पुनरेवमाहुः-पौरस्त्यालो.
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(२३२१) तिरियग अभिधानराजेन्डः।
तिरियम कान्तादू,प्रातः सूर्यो मोकप्रसिकोदेधतारूपो भास्करः,तथाज. योऽकाये पूर्वसमुझे उत्तिष्ठति उच्चति । एवं सकनकासमगत्स्वानाम्यादाकाशे उत्तिष्ठति उत्पद्यते, सचोत्पन्नः सन् श्मं पि। अत्रैवोपसंहार:-(पगे पवमा.सु)७। एके पुनरेवमाहु:प्रत्यकत उपलश्यमानं मनुष्यलोक तिर्यक्करोति तिर्यक्परिन्न- पौरस्यालोकान्तादूर्व प्रथमतो बहनि योजनानि, ततः कमेगा मात, लोकं प्रकाशयतीत्यर्थः। तिर्यकत्या पश्चिमे लोकान्ते सायं बहूनि योजनशतानि, तदनन्तरं क्रमेण बहूनि योजनसहमाणि सान्ये समये भाकाशे विध्वंसते । अत्रोपसंहार:-(एगे एवमा- दूरमूर्द्धमुत्युत्य बुद्ध्या गत्वा, अत्रास्मिन्नवकाशे प्रातः सूर्यो देव. इंसु)२। पके पुनरेवमाहुः-पौरस्त्याल्लोकान्तादूर्दू, प्रातः सूर्यो तारूपः सदाऽवस्थायी उत्तिष्ठति उद्च्चति,स चोद्तः सन् मं देवतारूपः सदाऽवस्थायी तथाविधपुराणशास्त्रप्रसिद्ध प्राकाशे दक्षिणार्द्धलोकं दक्षिणदिग्भाविनमर्द्ध लोकं, दक्किलोकस्यारउत्तिष्ठति उद्गच्छतिस चोद्गतः सन् श्मं प्रत्यक्कत उपलभ्य
मित्यर्थः तिर्यक करोति,तिर्यकारिभ्रमन्निमं दक्किणमोकार्द्ध प्रका. मानं मनुष्यलोकं तिक्त्वा सायं सान्य समये अधः आका- शयतीत्यर्थः दक्षिणं चाईनाकं तिया कुन् तदेवोत्तरमईलोशमनुप्रविशति, प्रविश्य च अधः प्रत्यागच्गति,अधोलोकं प्रका. कंरात्रौ करोति, ततःस सूर्यः क्रमेणेममर्कलोकम उत्तरमधमोकं शयन् प्रतिनिवर्तते इत्यर्थः । तम्मतेन हि भूरियं गानाऽऽकारा,मो. तिर्यक करोति, तत्रापि तिर्यकपरिभ्रमन् उत्तरमर्द्ध लोकं प्रकाशकोऽपि च गोलाऽऽकारतया व्यवस्थितः । इदं च सम्प्रति तीर्था
यतीत्यर्थः। उत्सरं चासोकं तिर्यकपरिचमणेन प्रकाशयन् त. न्तरीयेषु विजृम्नते, ततस्तद्गतपुराणशास्त्रादेतत् सम्यगव
देव दक्षिणमझोकं रात्रौ करोति, ततः स सूर्य इमो दक्षिणोसेयम् । अस्य च प्रयो जेदाः। एके एवमाहु:-प्रातः सूर्य प्राका- तरालोको तिर्यक कृत्वा भूयोऽपि पौरस्त्यालाकान्तादर्दू प्रथ शे उद्गचति । अपरे पाहुः-पर्वतशिरसि । अन्ये पाहुः-समुझे
मतो बहूनि योजनानि गत्वा, ततः क्रमेण यहूनि योजनशतानि, इति । तत्र प्रथमानामिदं मतमुपन्यस्तम । अधः प्रत्यागत्य च तदनन्तरं बहूनि योजनसहस्राणि दूरमूर्द्धमुत्प्लुत्य बुद्ध्या गपुनरप्यवरजुवोधो नुवः,पृथिव्या अधोभागेन विनिर्गत्येत्यर्थः। स्वाऽनास्मिन्नवकाशे प्रातः सूर्य आकाशे उत्तिष्ठति उच्चति । पौरस्त्यावलोकान्तादूर्वमाकाशे प्रातः सूर्य उद्गच्छति । एवं एवं सकलकालप । अत्रोपसंहारमाह-(एगे एवमासु)। सर्वदावि मरव्यम् । भत्रोपसंहारः-(एगे पवमासु)३ । तदेवं परप्रतिपत्तीरुपदश्य सम्प्रति स्वमतमुपदर्शयति-(वयं पुण एके पुनरेवमाहुः-पौरस्त्याल्लोकान्तार्द्ध प्रातः सूर्यो देवरूपः इत्यादि) वयं पुनरुत्पन्न केवलज्ञानाः केवलज्ञानेन यथावस्थित तथाविधः पुराणप्रसिकः पृथिवीकायमध्ये उदयभूधरशिरसि वस्तूपलभ्य एवं वक्ष्यमाणप्रकारेण वदामः । तमेव प्रकारमादउत्तिष्ठत्युदगच्छति । स चोत्पन्न: सनिमं मनुष्यलोकं तिर्यक- (ता इत्यादि) 'ता' इति पूर्ववत् । जम्बूद्ध पस्य द्वीपस्योपरि यद्धा करोति, प्रकाशयतीत्यर्थः । तियेक कृत्वा पश्चिमे लोकान्ते सायं तवा मामलं चतुर्विशत्यधिकेन शतेन लिखा,चतुर्थशत्यधिक सान्ये समये सूर्यः पृथिवीकार्य अस्तमयनूधरशिरसि (वि. शतसंख्यान मण्डलान् परिकल्प्येत्ययः। भूयश्र प्राचीनप्रतीनी. खंसति) विध्वंसमुपयाति । एवं प्रतिदिवसंसकसकासं जगतः नाऽध्यतया नदीच्यदकिणाऽऽयतया जीवया प्रत्यश्चया,दवरिकस्थितिः परिभाषनीया । अनोपसंहार:-(एगे पषमासु)। या इत्यर्थः । तत्तन्मएम चतुर्विशतिभागैर्विनज्य दक्किणपौरएके पुनरेवमाहुः-पौरस्त्यात लोकान्तादृर्द्ध प्रातः सूर्यो देव- स्त्ये उत्तरपश्चिमे च चतुनांगमामले चतुभांगे एकत्रिशद्भागतारूपः सदाऽवस्थायी पृथिवीकाये उदयभूधरशिरसि उत्तिष्ठ- प्रमाणे पताबति किन चतुरशीत्यधिकमपि मामलशतं सूर्य.. ति सच्चति, स चोफतः सन् श्मं प्रत्यक्कत उपलभ्यमान स्योदये प्राप्यते इति ।" चउन्धीसेणं सपणं छित्ता च उभाग. मनुष्यलोक तिर्यग् करोति, तिर्यकृत्वा पश्चिम लोकान्ते मंडलसि" इत्युक्तम् । अस्याः प्रत्यकत उपलज्यमानाया रत्नसायं साध्ये समये पृथिवीकायमस्तमयभूधरमनुप्रविशति, प्रभायाः पृथिव्या बहुसमरमणी या भूमिजागादू_म,अष्टौ योप्रविश्य चाधः प्रत्यागमति, अधोभागवर्तिनं लोकं प्रकाशयन् जनशतान्युत्प्लुत्य बुद्ध्या गत्वा,पत्रान्तरे प्रातही सूर्यो उत्तिष्ठत प्रतिनिवर्तते। ततः पुनरप्यवरभुवोऽधो भुवः, पृथिव्या अधो- उसकतः, दकिणपौरस्त्ये मण्डनचतुर्भागे भारतः सूर्य - प्रागाद्विनिर्गत इत्यर्थः । पौरस्त्याल्लोकान्तादृर्द्ध प्रातः सूर्यः ति,अपरोत्तरस्मिन् मरामलचतुनांगे ऐरावतः सूर्यः। तो चैव. पृथिवीकाये उदयभूधरशिरसि उत्तिष्ठति-पद्चति,भूतभूगोल. मुरुतौ भारतैरावती सूर्यों यथाक्रममिमौ दक्षिणोत्तरी जम्बूद्वी. वादिनः परं पूर्वे आकाशे उत्तिष्ठतीति प्रतिपन्नाः, एते तु पर्व. पभागौ तिर्यक् कुरुतः किमुक्तं जवति?-भारतः सूर्यो इक्किण पी. तशिरसीति विशेषः । अत्रैवोपसंहारः-(एगे पवमासु) ५। रस्त्यमएमसचतुर्भागे उकतः सन् तिर्यक परिभ्रमति,तिर्यकपरिएके पुनरेवमाहुः-पौरस्त्यालोकान्तादृर्द्ध प्रातः सूर्योऽकाये पूर्व | भ्रमन् मेरो किणभाग प्रकाशयति । ऐरावतः पुनः स्योंऽपरोस. समुछे उत्तिष्ठति उत्पद्यते, स चोत्पन्नः सन्निमं प्रत्यक्कत उपल- रदिग्विभागे उच्चति,स चोकतः सन् तिर्यक्परिभ्रमति, तिर्यभ्यमानं लोकं तिर्यक्करोति,तिर्यग् कृत्वा पश्चिमे झोकान्ते सायं परिजमन् मेरोरुत्तरभागं प्रकाशयतीति । इत्थं च भारतरावती सानग्ये समये सूर्योऽकाये पश्चिमसमुद्रे विश्वसते, विध्वंसमा | सूर्यो यदा मेरोदक्षिणोत्तरौ जम्बूद्वीप नागौ तिर्यक कुरुतः, तदैव याति। एवं सर्वदापि । अत्रोपसंहार:-(एगे पवमासु) ६। तो पर्वपश्चिमी जम्बद्धीपभागी रात्री कुरुतः । एकोऽपि सूय. एके पुनरेवमाहुः-पौरस्त्याल्लोकान्तादर्द्ध प्रातः सूर्यः सदाऽवस्था- स्तदा पूर्वभामं.पश्चिमनागं वा न प्रकाशयतीत्यर्थः। दक्किणो. यी पुराणशास्त्रप्रतिकोऽकाये पूर्वसमुद्रे उत्तिष्ठति उद्गच्छति, त्तरीच भागौ तिर्यक् कृत्वा ताधिमा पूर्वपश्चिमै जम्बूद्वीपभागी स चोरुनः सन्त्रिम लोकं तिर्यक करोति, तिर्यकपरिभ्रमन्निम | तिर्यक्रुतः। श्यमत्र नावना-पेरावतः सूर्यो मेरोरुत्तरजागे ति. सोकं प्रकाशयतीत्यधः । तिर्यक कृत्वा पश्चिमे लोकान्ते सायं यकपरितम्य तदनन्तरं मेरोरेव पूर्वस्यां दिशि तिर्यक्परिभ्रमति। सान्ध्ये समये सूर्योऽपकायं पश्चिमसम्मनुप्रविशति, प्रवि- नारतः सूर्यो मेरोदक्षिणतम्तिर्यक्परिभ्रम्य तदनन्तरं मेरारेच श्य चाधा प्रत्यागच्छति, अधोभागवर्तिनं लोकं प्रकाशयन् पश्चिमे नागे तिर्यकपरिभ्रमतीति । इत्थं च यदा ऐरावतभारतसू. प्रतिनिवर्तते इति भावः। अधः प्रत्यागत्य चावरन्नुवोधःप्रथि- यो यथाक्रम पूर्वपश्चिम भागौ तिर्यक् कुरुतः तदेव दक्किणोत्तरी ध्यधोनागाद्विनिर्गस्येत्यर्थः । पौरमयाकान्ताद, प्रातःसा जम्बद्रीपभागी रात्री कुपनः । वकोऽगि यस्तदादाकणभागए
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(२३२२) तिरियग अन्निधानराजेन्दः ।
तिल त्तरजाग वा न प्रकाशयतीति । नत इत्थं यथाक्रममैरा
नक्तंचवतजारतसूर्यों पूर्वपश्चिमभागौ तिर्यक् कृत्वा यो भारत:
"मज्जणुभावं खेत्तं, जंतं तिरियं ति वयणपजयो। सूर्यः, स उत्तर पश्चिमे मामलचतुर्भागे उदयमासादयति । यश्चै. भन्न तिरिय विसालं, अतो व तं तिरियलोगोति ॥१॥" गवतः, स दक्षिणपौरस्त्ये मगझलचतुर्भागे इति । एतदेवोप- (वयणपज्जवउ त्ति)मध्यानुभाववचनस्य तिर्यगध्वनेः पर्यादर्शयन्नुपसंहारमाह ( ते णमित्यादि ) भारतैरावती सूर्यो यतामाश्रित्यत्यर्थः । अनु० । तिर्यम्सोकविभक्तिस्तु जम्बूद्वीपप्रथमतो यथाक्रममिमौ दक्किणोत्तरौ जम्बूझोपभागौ, ततो
सवणसमुख्यातकीखएमकालोदसमुद्रस्यादिद्विगुणद्विगुणवृकया यथायोग पूर्वपश्चिमी जम्बू द्वीपभागौ, भारतः पश्चिम भागं, द्वीपसागरस्वयम्तूरमणपर्यन्तस्वरूपनिरूपणम् । सूत्र०१ ७० ऐरावतः पूर्वभागमित्यर्थः । तिर्यग् कृत्वा जम्बूद्वीपस्योपरि यद्वा
५१०१३० । आव०। तद्वा मगमनं चतुर्विशत्यधिकेन शतेन निस्वा भूयश्च प्राचीनप्रतीचीनाऽऽयतया नदीच्यदक्षिणाऽयतया च जीवया प्रत्यञ्चया,
तिरियलोगचूला-तिर्यग्लोकचूमा-स्त्री । तिर्यग्लोकस्य चूमा दवरिकया इत्यर्थः । चतुर्भिविभज्य यथायोगं दक्किणवारस्त्ये
तिर्यग्लोकचूमा, तिर्यग्लाकातिक्रान्तत्वात् । अथवा-तिर्यउत्तरपश्चिमे वा मरामलचतुर्भागे अस्या रत्नप्रभायाः पृयि
ग्लोकप्रतिष्ठितस्य मेरोरुपरि चत्वारिंशद्योजना चूमा तिर्यव्या बहुसमरमणीयाद् भूमिजामादृवम् अौ योजनशतानि
ग्लोकचूडा । तिर्यग्लोकोपरिजागे, नि० चू. १ उ० । नत्प्लुत्यास्मिन्नवकाशे प्रातही सूर्यावाकाशे उत्तिष्ठत उक
तिरियवसइ-तिर्यग्वसति-स्त्री० । तियग्योनौ, प्रश्न० १ आ. यतः, य उत्तरभागं पूर्वस्मिन्नहोराने प्रकाशितवान्, स दक्षि- | श्रद्वार। पौरस्त्ये मण्डनचतुर्भागे गति । यस्तु दकिणभागं | तिरियवाय-तिर्यग्वात-पुं० । तिर्यग्गच्छन् यो वाति बातः स
मस उत्तरपश्चिम मएमले बतुभागे। एवं सकल- | तियग्बातः । तियेनिमज्जति वायुभेदे, प्रशा० १ पद । काल जगतः स्थितिः परिजावनीया। चं० प्र०१ पाहु.। तिरियतिग-तियक्तिक-न० । तिर्यगतितिर्यगानुपूर्वीतिय
| तिरियविग्गहगइ-तिर्यविग्रहगति-स्त्री० । गतिभेदे, स्थाo गाऽऽयुलक्षणे, कर्म०२ कर्म०।।
१० ठा। तिरियदिसा-तिर्यगदिशा-स्त्री०। पूर्वाऽऽदिकासु दिक्कु,प्राव०६
तिरियसंसारविनस्सय-तिर्यक्संसारव्युत्सर्ग-पुं० । संसारव्युअ० । एताश्चाप्रापि रुचकात्तिर्यक्प्रव्यूढत्वात्तिर्यग्दिश शति व्य.
त्सर्गभेदे, औ०। वहिवन्ते । प्रा०म० अ०२खण्ड ।
तिरियसत्त-तिर्यकसच्च-न० तिर्यग्योनिजन्तुषु,पश्चा०२ विव तिरियदिसिप्पमाणाइक्कम-तिर्यग्दिममाणातिक्रम-पुं० । सि
तिरिश्च-तिरश्चीन-त्रिका प्राकृतलकणेन निष्पन्ने 'तिरिच्च' शब्दे यग्दिशि यावत्प्रमाणं परिगृहीत तस्यातिलबने, आव. ६
"उस्य श्चोऽनादो" ॥८॥४॥ २६ ॥ शति मागध्यामनादौ वर्तअ०। उपा।
मानस्य छस्य तालव्यशकाराऽऽक्रान्तश्चकारो भवति । प्रा०४ तिरियदिसिवय-तिम्दिगवत-नातिर्यग्दिशः पूर्वाऽऽदिका- |
पाद । तिर्यग्नवे, वाच। स्तासां संबन्धि तासु वा व्रतं तिर्यदिखतम् । एतावती दिक
तिरीम-किरीट-
पुंना शेखरक्षाणयुक्त,ौ० । प्रका०।मुकुटे, पूर्वेणावगाहनीया, एतावती दक्विणनेत्यादि, न परत इत्येवं
सशिरोवेष्टने, वाच । नृते दिग्वते, श्राव० ६ अ०।
तिरीट-पुं० । वृक्तविशेष, वृ०२ उ० । तिरियग-तिर्यगद्रिक-नातिर्यग्गतितिर्यगानुपातिके कर्मः तिरीमपट्टग-तिरीटपट्टक-न० । तिरीटो वृत्तविशेषस्तस्य यः पठो ५ कर्म ।
वल्कनलक्षणं,तन्निष्पन्नं वा तिरीटपट्टकम् । वृ०२४०। वृक्तत्वतिरियपव्यय-तिरश्चीनपर्वत-पुं० । तिरश्चीनं पर्वतं तिरश्चीन
मये वस्त्रे, स्था. ५ ठा०३००। पर्वतम् । गच्चतो मार्गावरोधके पर्वते, भ० १४ श० ५ उ० ।
तिरोनाव-तिरोभाव-पुं० । अन्तर्धाने, विशे। तिरियनित्ति-तिय ग्जित्ति-स्त्री० तिरश्वीनायां प्राकारवरण्ड
तिरोवई-देशी-वृत्त्यन्तरिते, दे० ना.५ वर्ग १३ गाथा। काऽऽदिभिती, न. १४ श. ५०० । श्राचा० ।
तिरोहिअ-तिरोहित-त्रि०। अन्तर्हिते, आच्छादिते, वाच ।
आचा। निरियस्रोग-तिर्यग्नोक-पुं० । सातिरेका सप्तरज्जुप्रमाणोऽधो
तिल-तिन-धा० । गतौ, त्वादि०-पर-सक०-सेट् । तेस्रति, लोकोवनोकयामध्ये अष्टादशयोजनशतप्रमाणस्तियम्भागावस्थितत्वात्तिर्यग्लोकः । स्था० ३ ०२ उ० । लोकभेदे, अनु०।
प्रतेलीत् । वाचा पुवाणुपुवी अहोलोए, तिरियलोए, उस्रोए ।
तिल-धा। स्नेहे, तुहा०-पर--अक०-सेट। तिलति, अतेलीतयोश्चाधोसोको नोकयामध्ये अष्टादश योजनशतानि निर्य
त् । वाच०। ग्लोकः, समयपरिजापया नियमध्ये व्यवस्थितो लोकस्ति. निल-पुं० । स्वनामख्याते धान्यभेदे, “ साली बीही गो. यंग्लोकः । अथवा--तियशब्दो मध्यमपयांयः, तत्र च केत्रा- हुम-जवा कलमसूरितिलमुग्गा ।" प्रा०१ पद । आचा। नुभावात्प्रायो मध्यमपरिणामवन्त्येव व्याणि संभवन्त्यतस्त- प्रव.। . । .क० । विपा० । स्था० । तत्फले च। द्योगात्तिर्य मध्यमो लोकस्तियग्लोकः । अथवा-स्वकीयोद्ध- न. । वाच० । वर्णेन तिसदृशकाले, " जंपियतिलधोनागात्तिर्यग्भाग एवातिविशारतयाऽत्र प्रधानम, अतस्तेन कीडगा यत्ति । " यापिताः कालान्तरं प्राप्ता ये तिला धान्य. व्यपदेशः कुतः, तिर्यगनागप्रधानो लोकस्तिर्यग्लोकः । विशेषास्तद्वद् य वर्णलाधा ते तथा । शा०१ श्रु०१७ अ०।
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तिल
(२३२३) अभिधानराजेन्डः।
तिलोदग एकत्रिंशे महाग्रह, सू०प्र०२० पादु०। कल्प० । “दोतिलया।" | तिसपीमकवत तिनपीडक श्व निरुकाक्तिसंचारस्तिलयन्त्रस्था० २ ठा० ३ उ०।
वाहनपरो, यथा ह्ययं नित्यं भ्राम्यत्रपि निरुद्धाविनया न तत्प. तिलकुट्टी-तिलकुट्टी-स्त्री० । तैविकृतौ विकृतिभेद, प्रव० रिमाणमवबुध्यते, एवमेतेऽपि वादिनः स्वपक्कानिनिवेशान्धावि४ द्वार । " तिलमल्ली तिलकुट्टी, दद्धतिलं तहोसहव्वरिय ।।
चित्र बदन्तोऽपि नोच्यमानतवं प्रतिपद्यन्ते ति । द्वा०२३ द्वान लक्वाइदब्वपक, तिवं तिल्लम्मि पंचेध ॥१॥"ध. २ अधिः । | तिलपुप्फरम-तिलपुष्पवर्ण-पुं० । चन्धमूर्यग्रहनकरतारारूपे तिलग-तिनक-पुं० । वृतविशेषे, न.१ श• १०। स० औ प्रहभेवे, सू० प्र० २० पाहु.। चं० प्र०ाद्वात्रिंशत्तमे महाग्रहे, कल्प० । रा० । जं. । यः स्त्रोकटाक्कनिरीक्षितो विकसति "दो तिलपुष्फवमा । " स्था० १ ठा० । कल्पम् । तत्पुष्पे, जं. ३ वक्त। विशेषकापरपर्याये ललाटाऽऽभरणवि- तिलभद-तिमनट-पुंनअन्तर्दुटवणवत्कुधितहृदयाया उन्मत्तशेषे, औ० ज० । का। सूत्र० । तं । पुण्मे, स. ७ समः ।
| रामायाः पत्या, तं०। तं। ज्ञा०। सू०प्र०ा च० प्र०प्रथमवासुदेवस्य त्रिपृष्ठस्य प्रतिशत्री, स.ए सम । ति। स्वनामख्याते द्वीपे, समुच।।
तिलमदी-तिलमसी-स्त्री.तैविकृती विकृतिभेदे, प्रव. ४ प्रशा०१ पद । बसन्तपुरनगरवास्तव्ये स्वनामण्याते श्रेष्ठिनि, द्वार । ध। यस्य सुदर्शना नाम भार्या। पिं० । (अस्य 'पब्वय' शब्दे कथा | तिलयसीह-तिलकसिंह-पुं० । तामनन्दनामनगरवास्तव्यस्य वक्ष्यते ) देवपूजनाबसरे तिलकं क्रियते,न वेति प्रश्न उत्तरम्- तालध्वजनामराजस्य स्वनामस्याते युवराजे, दर्श०१ तस्व । देवपूजावेलायां तिलककरणनिषेधो ज्ञातो नास्त्यात्मीयगच्छे।
गच्छ| तिलविगइ-तिलविकृति-स्त्री० । तैलविकारे, " तिलमल्ली १ इति । ७६ प्र० । सेन. ४ उल्ला । तिलगकरणी-तिलककरणी-स्त्रा० । तिलकः क्रियते यया सा
तिलकुट्टी २, दक्षतिनं ३, तहोसहुब्बारयं ४ । लक्खाइदम्बपर्क,
तेल्लं ५ तिवम्मि पंचेव ॥१॥" ध०२ अधि। तिलककरण।। दन्तमरयां सुवर्णाऽऽत्मिकायां वा शलाकायाम, सूत्र.। यया गोरोचनाऽऽदियुक्तया तिलकः क्रियते । यदि वा
तिनसंगलिया-तिलसंगलिका-स्त्री० तिलफलिकायाम, भ. गोरोचनया तिलकः क्रियते, सा च तिलककरणीत्युच्यते । गो
१५ उ०। रोचनायाम, अथवा-तिलकाः क्रियन्ते पिध्यन्ते वा यत्र सा | तिलसक्कुलिया-तिनशकुलिका-स्त्री० । तिलप्रधानायां पि. तिसककरणी। तिलकपेषणोपकरणे, सूत्र० १ ० ४ अ. | एमयपोट्टलिकायाम, प्राचा० १ श्रु० १०५० जी० ।
तिलागणि-तिमाग्नि-पुं० । तिला धान्यविशेषाः,तेषामवयवा तिलगायण--तिलकरत्न-ना पुण्मूविशेषे,जं०१ पक्का "तिल-|
अपि तिलाः,तेषामग्निस्तद्दहनप्रवृत्तो वहिस्तिलाग्निः। तिलाव. गरयणऽमचंदचित्ते।" तिलकरत्नानि पुएरकविशेषास्तैरर्क- यवदहनप्रवृत्ते वही, स्था०८ म०। चन्द्रश्च चित्राणि नानारूपाणि तिलकार्द्धचचित्राणि । जी० १प्रति०।
| तिलिविनिय-तिनिविलिक-पुं०। जलचरजीवविशेषे, कल्प. तिलगसरि-तिनकसरि-पुं० । वैक्रमीये संवत्सरे १३६० मिते ३ कण । विद्यमाने हर्षपुरीयगच्चीये राजशेखरसूरिशिध्ये, जै० इ०।
| तिलोग-त्रिलोक-पुं० । त्रयो सोकाः समाहतास्त्रिनोकाः। स.
मादृतेषु त्रिषु लोकेषु, नं० । तिलगायरिय-तिनकाचार्य-पुं० । स्वनामख्याते आचार्य, येन जज्बादुविरचितस्य यति जीतकल्पस्योपरि टीका कृता ।
तिलोगचूड़ामणि-त्रिलोकचूमामणि-पुं० । त्रिभुवनशिरोरत्नजीत०। अयमाचार्यः शिवप्रभसूरिशिष्यः, तेन च वैक्रमीये सं
कलो, पञ्चा०८विवा। वत्सरे १२९६ मिते आवश्यकलघुवृत्तिर्नाम ग्रन्यो विरचितः; तिनोगदंसि (ए)-त्रिलोकदर्शिन-पुं० । त्रिलोकमूर्वाधस्तियदशवकालिकसूत्रटीका, प्रत्येकवुद्धचरित्रं, प्रतिक्रमणसूत्रलघु- | ग्लकणं द्रष्टुं शीनं येषां ते त्रिलोकदर्शिनः। तीर्थकत्सु सर्वश्रेषु, वृत्तिश्चेत्यादयो ग्रन्था अप्यनेन कृताः । जै००।
सूत्र. १ श्रु० १ अ.२००। तिलचुन्न-तिनचूर्ण-न०। चूर्णिकाभेदे, “से कि तं चुनियाभे.
तिमोगपुज्ज-त्रिलोकपूज्य-पुं० । सुरनराऽऽदिलकणभुवनत्रितदे।चुन्नियानेदे जणं तिलचुनाण बा,मुग्गचुनाण वा।" प्रशा. ___यपूजनीय, पञ्चा०६ विव० । १ पद।
तिलोगमहिय-त्रिलोकमहित-पुं०। त्रिलोकमहिते तीर्थकृति, तिलथंज-तिस्तम्ब-पुं० । तिलवृक्तगुल्मे, कुम्भग्रामे तिल
वृ० त्रयो लोकाः समादृताः, समवसरणे त्रयाणामपि संजस्तम्ब दृष्टा गोशाकस्य वीरस्वामिनं प्रति तज्जीवपृच्छा । भ०
वात् । तथाहि-समागच्छन्ति नगवतां तीर्थकृतां समवसरणे१५श । श्रा० म० । ( एतच ' गोसालग' शब्दे तृती- वधोलोकवासिनो भवनपतयः, तिर्यग्लोकवासिनो वाणमन्तयनागे १०१५ पृष्ठे उक्तम)
रतियंगपञ्चेन्द्रियज्योतिषकाः, ऊर्द्धलोकवासिनः कल्पोपपन्नतिमपिट्ठ-तिनपिष्ट-न० । कुट्टिततिमचये, आचा० २ श्रु० १
का देवाः,त्रिलोकेन महिताः पूजिताः, त्रिभिर्वा सोकैमहिताचू० १०० उ०।
स्त्रिलोकमहिताः । वृ०१ उ० । तिलपीमग-तिनपीमक-त्रि० । तिलयन्त्रवादनपरे, द्वा०।।
तिलोदग-तिलोदक-न। निस्वचिततिलधावनजले, कल्प० वादाँश्च प्रतिवादाँश्च, वदन्तो निश्चितं तथा ।
३ मधिल ए क्षण । तित्रैः केनचित्प्रकारेण प्राशुकीकृते उदके, तवान्तं नैव गच्छन्ति, तिलपीमकवातौ ॥५॥
ग०२ अधि० स्था०। प्राचा
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तिल
(१३२४) अन्निधानराजेन्द्रः।
तिविद्य तिन-तैन-नातिलस्य विकारः,अ । “तिक्षाऽऽदिस्निग्धवस्तूः | तु देववशाद्वाधा संनवति, तदात्तरोत्तरबाधायां पूर्वस्य पूर्वस्य -
ना, स्नेहस्तैझमुदादृतम् ।" इत्युक्ते तिलसर्षपातसीकुसुम्भानां बाधा रक्षणीया। तथाहि-कामबाधायां धर्माययोर्वाधा रकणीया, स्निग्धवस्तूनां स्नेहरूपे विकारे, वाचा प्रश्नासं चतुर्धा, तयोः सतोः कामस्य सुकरोत्पादत्वात् । कामार्थयोस्तु बाधायां तिलातसीकुसुम्भसर्षपभेदात् । स्था० ६ ठा०।
धर्मो रकणीयः, धर्ममूलत्वादर्थकामयोः । उक्तं च-"धर्मश्चेतिलग-तैलक-त्रि० । तैलविक्रयकारके, वृ०१301 प्रव० ।
नावसीदेत, कपालेनाऽपि जीवतः । भाल्योऽस्मीत्यवगन्त
व्यं, धर्मवित्ता हि साधवः ॥ १॥" ध१ अधि० । तिद्वोदा-तैमोदा-स्त्री०। शशकाऽऽस्येन धूर्तेन परिकल्पिते वृष्टितिलसमुद्भुते नदीभेदे, नि. चू०१०।
तिवणी-त्रिवनी-स्त्री० । औषधिविशेषे, ती०६ कल्प। तिव-तथा-अव्य० । प्राकृते तथेत्यस्य तिमादेशें,"मोऽनुनासिको | तिवारिस-त्रिवर्ष-पुं० । न । प्रव्रज्यापर्यायेण यस्य त्रीणि वपोवा" ॥८॥४३५७॥ श्त्यपन्नशानादौ वर्तमानस्यासंयुक्तस्य | पाणि नाधिकमित्येष त्रिवर्षो नवति । प्रवज्यापर्यायण त्रिवर्षमकारस्यानुनासिको वकारः। प्रा०४ पाद । तेन प्रकारेणेत्यर्थे, जाते नवे, व्य० ३ उ० वाच.।
तिवारिसपरियाय-त्रिवर्षपर्याय-पुं०। स्त्री० । त्रीणि वर्षाणि पतिवई-त्रिपदी-स्त्री०। मवस्येव रङ्गनूम्यां गतिविशेषे, का० १
यायः प्रवज्यापर्यायो यस्य स निवर्षपर्यायः । प्रवज्यापर्यायण शु०१६ अ० । भूमौ पदत्रयन्यासे, औ० । मल्ल इव रहनुमौ
| त्रिवर्षजात नवे, व्य०३ १०। त्रिपदीच्छेदं करोति। भ०३ श०२ उ०। हस्तिनां पादबन्धनार्य
तिवालिय-त्रिवलिक-त्रिका रेखायोपेते,रा। शाम । रज्जुभेदे, वाच । तिवग्ग-त्रिवर्ग-पुं० । यो वर्गाखिवर्गाः । धर्मार्थकामये, तिवल्ली-त्रिवली-खी । पलित्रये, प्रश्न० ३ माघ द्वार ।
| विपा। लोकवेदसमयत्रये, सूत्रार्थतदुभयत्रये च । प्रा० चू० १० । भा• • । प्राचा।
तिवलीविणीय-त्रिवनीविनीत-त्रि० । तिम्रो घलयो बिनीता तिवग्गसाहण-त्रिवर्गसाधन-न । त्रिवर्गस्य वक्ष्यमाणस्व. | विशेषतः प्रापिता यत्र तत् त्रिवलीविनीतम् । पलित्रययुक्त, रूपस्य, न त्वेकैकस्य, साधन सेवन त्रिवर्गसाधनम्। त्रिगिसे- | जी० ३ प्रति०४ उ० । घने, ध।
तिवस्सजाय-त्रिवर्षजात-त्रि०ा त्रीणि वर्षाणि जानायालिवअन्योन्पानुपघातेन, त्रिवर्गस्यापि साधनम् । (२३) ।
पजाता। "कालो द्विगोपमेयैः "॥३।१।५७॥ इति तत्पु. त्रिवों धर्मार्थकामाः, तत्र यतोऽभ्युदयनिःश्रेयससिकिः रुषः । ज्यो०२ पाहु । जन्मतो वर्षत्रयाणि जातानि यस्य स स धर्मः, १ यतः सर्वप्रयोजनसिद्धिः सोऽर्थः २, यत मानि- त्रिवर्षजातः । जन्मतः प्रवज्यातो वा त्रिवर्षजाते, तं०। मानिकरसानुविका सन्धियप्रीतिः स कामः ३। ततोऽन्यो
तिवारखलणा-विवारस्खाना-स्त्री० । श्रीन वारान यावत.. न्यस्य परस्परस्याऽनुपघातेनापीडनेन त्रिवर्गस्याऽपि उक्तस्वरूपस्य, नखेकैकस्येत्यपिशम्दार्थ साधनं सेवनम् । त्रिवर्ग
प्रतिहतो. पञ्चा० १२ विव० । साधनविकलस्योभयभवम्रपत्वेन जीवननैरर्थक्यात् । यदाह- |तिविंदु-त्रिबिन्दु-न । बिन्दुत्रयसमाहारे, मनु.। "यस्य त्रिवर्गशून्यानि, दिनान्यायान्ति यान्ति च । स लोहकार
तिविट्ठ-त्रिपृष्ठ-पुं० । प्राकृतत्वादापत्वाच 'तिवि' इति निर्देशः। प्रस्त्रव, श्वसनपिन जीवति" ॥१॥तत्र धर्मार्थयोरुपघातेन ता.
प्रव.२द्वार । वत्तमानप्रथमवासुदेवे, ति० । प्रा. म. प्र. दात्विकविषयसुखलुब्धो वनगज श्व को नाम न जवल्यास्पदमा.
श्न० । प्रा० क०। कल्प० । माव०। प्रव० । प्रा० चू०। पदामीन च तस्य धन, धर्मः, शरीरं वायस्य कामेश्त्यन्तास.
"तिविणं बासुदेवे असीई धणू उर्फ़ उश्चत्तेणं होत्था।" क्तिः । धर्मकामातिकमारुनमुपार्जितं परेऽनुभवन्ति, स्वयं तु परं
"तिबिट्टे णं चासुदेवे असीइवाससयसहस्साई महाराया हो. पापस्य भाजन, सिंह श्व सिन्धुरवधात् । अर्थकामातिक्रमेण च
स्था।" स०८० समात्रिपृष्ठवासुदेवस्य चतुरशांतिवर्षशक्षाणि धर्मसेवा यतीनामेव धर्मों, न गृहस्थानाम न च धर्मबाध
सर्वाऽऽयुरिति चरवारि सवाणि कुमारत्वे, शेषं तु महाराज्ये याऽर्थकामा सेवेत, बीजभोजिनः कुटुम्बिन श्च नास्यधार्मिक
इत्यादि । स०. सम. । “तिविणं वासुदेवे चनरासी स्याऽऽयत्या किमपि कल्याणम् । स खलु सुखी योऽमुत्र सुखावि
पासलयसहस्साई परमाउयं पामरसा अप्पट्ठाणे नरप नेररोधेनेहझोकसुखममुभवति । तस्मानाबाधनेन कामार्थयोर्म
यत्साए उवयने ।" (तिविठ्ठत्ति) प्रथमवासुदेवः श्रेयांतिमता यतितव्यम् । एवमर्थयाधया धर्मकामौ सेवमानस्य
सजिनकामनावीति, अप्रतिष्ठानो नरकः सप्तमपृथिव्यां पश्चाशुणाधिकत्वम् । कामबाधया धर्मार्थो सेयमानस्य गाईस्थ्या.
नां मध्यम इति । स०८४ सम। नावः स्यात्। एवं च तादात्विकमूलहरकवर्येषु धर्मार्थकामानामन्योऽन्यबाधा सुसभैव । तथाहि-यः किमप्यसंचित्योत्पन्नमर्थ
पुत्तो पपावश्स्सा, मिश्रावईकुच्छिसंनवी जयवं । मपन्यति स तादास्विका १,यापितृपैतामहमधमन्यायन जक्कय. नामेण तिविछत्ती, आई आसी दसाराणं ॥१॥ ति स मूलहरः१,यो भृत्याऽऽत्मपीमाभ्यामथै संचिमोति, न तु
अत्र कयाकचिदपिव्ययते स कदर्यः ३। तत्र तादात्विकमलहरयोरर्थ- “पदास्ति पोतनपुरं, नगरं जितसागरम। शेन धर्मकामयोविनाशानास्ति कल्याणम् । कदर्यस्य त्वर्थसं- भूरिश्रीजिनसंशोभि, श्रावृताखिलजन्तुकम् ॥१॥ महो राजदायादतस्कराणां निधिः, न तु धर्मकामयातुरिति। राजा रिपुप्रतिशत्रु-यप्रतापमहाग्निना। अनेन निवर्गवाचा ग्रहस्थस्य कर्तुमनुचितेति प्रतिपादितमा यदा। भासीदाः शत्रवः सर्वे, ज्वलदूर्णायुतां ययुः ॥ २॥
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(२३२५) तिविह अभिधानराजेन्द्रः।
तिविद्ध देव्यास्तस्य च जलायाः, बलदेवः सुतोऽनवत् ।
गलोचे रक शावीस्त्वं, सिंहाजाजाऽऽझयैष सः। चतुर्भिः सचिता स्वप्नै-रचनोऽचनसौष्ठवः ॥३॥
राजोवाच सुतावेत-फनं दूतखलीकृतेः ।। २० ॥ मृगावती च पुज्यासीद्, रूपातिशयशालिनी ।
अवारकेपि यदभू-दादेशः शालि रकणे । जगाम जनकं नन्तुं, सोद्भिन्ननवयौवना ॥४॥
इत्युक्त्वा प्रस्थितं नूपं, प्रतियोध्य गतौ सुतौ ॥ २६ ॥ दृष्ट्वा तामनुगगेण, स्वाङ्कपर्यङ्कां व्यधात् ।
कियकालं कथं सिंह-मन्ये ऽरक्षन्नृपा इति । विवोढुं तामथोपाय, चिकीर्विससर्ज च ॥ ५ ॥
त्रिपृष्ठ पृष्टः शिष्टं तैः, शालीनां परिचारकैः ॥ ३० ॥ पुरप्रधानाम्याहूया-ऽप्राक्षीदेतत्ततो नृपः।
पत्यश्वेभरथैर्वप्रं, कृत्वाऽरक्कन् कितीश्वराः। वह यज्जायते रत्नं, स्यात्तत्कस्येति कथ्यताम् ॥६॥
कर्षणग्रहणं याव-दागता वारकक्रमात् ॥ ३१ ॥ अवोचस्ते तवैवेति, त्रिरुपादाय तद्वचः।
स्थास्यतीयश्चिरं कोऽत्र, त्रिपृष्ठः स्माऽह तान् प्रति । भानाययत्ततस्तत्रो-दोई राजा मृगायतीम।। ७॥
दर्यतां मम सिंहः स, येनैकोऽपि निदन्मि तम् ॥ ३२ ॥ ययुस्ते वीडया सर्वे, पुत्रीमपि मृगावतीम् ।
तुङ्गाऽऽचलगुहायां तै-दर्शितः केशरी ततः। गान्धर्वण विवाइन, राजा स्वयमुपायत ॥७॥
रथाऽऽरूढी कुमारौ ता-वयासिष्टामुभी गुदाम् ॥ ३३ ॥ जका विरक्ता प्रोगेज्य-स्त्यक्त्वाऽनाचारिणं नृपम् ।
तां गुहामभितो लोका-श्वकुः कलकलाऽऽरवम् । सुतमादाय निर्गत्य, प्रययौ दक्विणापथम् ॥९॥
तं च पश्चाननः श्रुत्वाऽ-भ्यागाज्जम्नापराननः ।। ३४ ।। विरचय्याचलस्तत्र, पुरी माहेश्वरी नवाम् ।
अहं रथी पत्तिरसी, यको नौ नैप संगरः। संस्थाप्य जननी तत्र, तातोपान्तं ययौ स्वयम् ॥ १०॥
रथात्ततोऽवततार, त्रिपृष्ठः फलकासिनृत् ।। ३५ ॥ अग्रे च तत्पितुझेकै-मौवं नाम व्यलोप्यत।
फलकासी मम करे, एष दाढानखाऽऽयुधः। खप्रजायाः पतित्वेन, प्रजापतिरितीरितम् ॥११॥
तदप्यनुचितं भाति, तत्तावपि मुमोच सः ॥ ३६ ॥ विश्वनूतिश्च्युतः शुक्रा--मृगावत्या अथोदरे ।
दध्यौ त प्रेक्ष्य सिंहोऽथ, धाएचोदेको यदागमत् । कथितः सप्तभिः स्वप्न-र्विषारित्यवतीर्णवान् ॥१२॥
यद्यानशस्नमुक्तिश्चा-हंयुहन्मि तदेणबत् ।। ३७।। पुण्येष्वहःसु संजझे, तनुर्विष्णुरादिमः ।
विचिन्त्यैवं महाकोपा-दजानानो हरि हरिः। त्रिकरएमक(ए)ष्ठत्वात, त्रिपृ(ए) 8 इति संझितः ॥ १३ ॥ दवा फालो कराला स, त्रिपृष्ठोपान्तमापतत् ॥ ३० ॥ प्रशीतिधनुरुच्चाङ्गः, खेनन् चात्रा बलेन सः।
एकेनेव करेणौष्ठा-धरौ धृत्वा हरि हरिः। द्विसप्ततिकलाऽभिः, क्रमाद्यौवनमासदत् ॥ १४॥
पाटयामास तं जीर्ण--पट्टांशुकमिव कणात् ॥ ३६॥ विशाखतिजीवश्च, नवं भ्रान्त्वाऽथ के लरी ।
पुष्पाभरणवस्त्रैश्च, वृष्टं देवतया हरी । जझे तुङ्गगिरी हाल-पुरदेशनिघूद कः ॥ १५॥
शौर्येण विस्मितमोकै-स्तुष्टुवे स स्फुटन्मुखैः ॥ ४०॥ प्रतिविष्णुः पृच्छति स्मा--श्वग्रीवो मे कुतो मृतिः ? ।
पकाकिना मारितोऽह-मिति सिंहः स्फुरस्तदा । भाविनीति निमित्तइं, सोऽप्याचख्याचिदं तदा ॥१६॥
गौतमजीवस्तत्सुत-स्तम्चेमा स्म खिद्यथाः॥४१॥ हप्तस्ते भौचरामवेग, यो दृतं धर्षयिष्यति ।
पशुसिंहो नृसिंहेन, मारितोऽसीति का व्यथा ?। यस्तुगिरिसिहं च, हेझयेव हनिष्यति ॥ १७ ॥
प्रीतस्तद्वचसा मृत्वा, तुर्योया नारकोऽभवत् ॥ ४२ ॥ ततः शपुरे शाली-नश्वनीयोऽध्यवापयत्।
कुमारावासतस्कृती, बलिती नगरं निजम । बारकेण महीपालान, तत्राणार्थमथाऽऽदिशत् ॥१८॥ ग्राम्यरूचे हयग्रीवं, स्वैरं तिष्ठ रिपोर्धधात् ॥४३॥ राः प्रजापतेः पुत्री, स शुश्राव महोजसौ।
तत् श्रुत्वा सोऽथ साशङ्कः, प्रैषीद् दूनं प्रजापतेः। ततोऽप्यर्थाश्चरामवेग, दूतं तस्मै प्रयुक्तवान् ॥१५॥
सुती प्रेषय मत्पाचे, कुर्वेऽमू यत्पृथग्नपी ॥४४॥ तदा प्रजापतेरग्रे, संगीतिरङ्गमागते ।
प्रजापतिर्वभाषेऽह-मेष्यामि न सुतौ तु मे। अकस्मादागतश्चराम-वेगस्तानदः ॥ २० ॥
दूतोवादीद् न चेदेवं, सज्जो युद्धाय तद्भव ॥४५॥ अत्युत्तस्थे भूभुजाऽसौ, तदीयस्वामिशङ्कया।
इत्युक्ते धर्षयित्वा तं, कुमारी दूतमूवतुः। मन्त्री पृष्टः कुमाराज्या-महंयुः कोऽयमाद सः ॥ २१॥
यत् शिक्षितमरे ! कुर्याः, दुदन्तिोऽद्यापि ते प्रतुः ॥ ४६॥ अश्वग्रीवस्य दूतोऽय, राजराजस्य ऽदमः।
दूताऽऽख्यातो इयग्रीवः, सर्वोघेणा उचलाधि। गच्चन्नय निवेद्यो ना-विति तावूच तुनजान् ।। २२ ।।
त्रिपृष्ठः साचलश्चाद्री, रथावर्तेऽमिलत्स्वयम् ॥१७॥ प्रजापतिस्तमन्येशु-य॑सृजत्कृतगौरवम।
नभयोः सैन्ययोर्युद्धे, जायमानेऽतिनितुरे। स्वनटै पितो तो च, कुनारायन्वधावताम् ॥२३॥
दोलारूढेव तत्कालं, जयक्षदमीः समाभवत् ॥ ४८॥ तमर्द्धमार्ग प्राप्य स्व-हस्तयोश्चक्रतुः सुखम ।
ऊचे त्रिपृष्ठोऽश्वग्रीवं, वीक्ष्यानेकजनकयम्। काकवद् लगुमाऽऽपाते, तत्सहायाश्च नेशिरे ॥२४॥ (?)
युष्मस्त्वावयोरेव, बराकैः किं तेजेनैः ? ॥ ४६॥ झास्वा प्रजापतिस्तञ्च, दूतमानीय तं गृहे।
प्राङ्गाङ्गिन्युझेऽश्वग्रीवः, खिन्नश्चक्रं विमुक्तवान् । सत्कृत्योचे नियं, माऽऽख्यः कौमारमीशितुः ।। २५ ॥ त्रिपृष्ठोरसि तुम्बेन, चक्रं निपतति स्म तत् ॥५०॥ आमेत्युक्त्वा ययौ दृतः, दमापतेः परमग्रतः।
त्रिपृष्ठस्तच्छिरस्तेनै-पाक्छिनत्तरकणात्तयोः। पलाय्य यातैः कथितं, सर्व दूतस्य धर्षणम् ॥ २६॥
पुष्पवृष्टिः कृता देवैरायो विष्णुबलाविति ॥५१॥ ततोऽपि तथवाऽऽख्य-दलीकाम्मा कुपन्नृपः।
सदैव प्रणतो तो च, समस्तैरपि राजभिः। अश्वग्रीवो.ऽनुशिष्यान्य, दुतं प्रैषात्प्रजापतेः ॥२७॥
बरतक्षेत्रपाम्या, चऋतुलीसया वशे ॥ ५२ ।। ५८२
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(२३२६) तिविह अभिधानराजेन्खः ।
तिव्वाभिलास मौलौ छत्रमिवाधार्षीत, शिलां कोटिशिलाभिधाम् । तिव्वकसायपरिणइ-तीनकषायपरिणति-स्त्री० । उत्कृष्टानां उत्पाट्य दोष्णकेनाऽपि. लीलया विष्णुरादिमः ।। ५३॥ दीर्घकालान्तरावस्थायिनां वा क्रोधाऽऽदिकषायाणां परिणाम, सोऽथागात्पोतनपुर, जगज्जित्वरविक्रमः ।
पं० चू.। अभिषिक्तो नृपैर्देवैरर्फचक्रिपदे ततः। ५४॥
तिब्बखिसण-तीनखिसन-न० । मत्यर्थनिन्दायाम, औ० । एकदा गायनाः केऽन्य-गायनिशि हरेःपुर।
प्रश्न। तादिपक स्माद मय्येते, विसाः शयिते त्वया ॥ ५५॥ पामित्यूचे विसृष्टास्ते-ऽनेन सुप्तेऽपि न प्रभौ ।
तिब्बगिध-तीव्रगृक-त्रि० । प्रत्यर्थमनुपपन्ने, प्रश्न० ३ श्राभ उत्थितः प्रनुरूचे तान्, श्रुत्वा तं किं न वारिताः ॥ ५६ ॥
द्वार। सोऽवदगीतल्लोभेन, तदाकाऽकुपन्नृपः।
तिब्बगिमाण-तीव्रग्लान-त्रि० । प्रात्यन्तिकव्याधिमति, पञ्चा. तत्कर्णयोःप्रगेऽक्वेप्सी-तप्तं पु मृतश्च सः ॥७॥ ४विषः। वेद्य व्यकाचयकर्मा-सातं तेन हरिस्तदा ।
तिब्बचरितमोहणीय-तीनचारित्रमोहनीय-न । कषायव्यतिनिखिशः क्रियया स्वात्म्याद, दुष्कर्म प्राज्यमार्जयत् ॥ ५८॥ रिक्त नोकषायलकणे मोहनीये कर्मणि, भ. श० उ०। महापरिग्रहाऽऽरम्भ-हिंसाऽऽयैः कलुषाऽस्मकः ।
तिव्वतरग-तीव्रतरक-न० । अतिशयोत्कटे, पश्चा० १५ विव। चतुरशीस्यदलकं, राज्यं कृत्वाऽऽद्यकेशवः ॥ ५ ॥ मृत्वा सप्तमनरक-पृथ्व्यां नैरयिकोऽभवत् ।
तिब्वदंसणमोहणिज्ज-तीव्रदर्शनमोहनीय-न० । मिथ्यात्वतया अचलस्तहियोगाऽऽत्त-व्रतो मृत्वा शिवं ययो"||६०॥प्रा०क०।।
दर्शनमोहनीये, भ० ८०६ उ०। नविष्यदष्टमवासुदेवे, ती०२० करप । स०।
तिब्बपरिणाम-तीव्रपरिणाम-त्रि० । तीवो पुःसहः परिणामः
परिणतियेषां ते तीवपरिणामाः । दुःसहपरिणतिकेषु, भाचा. तिविमी-देशी-पुटिकायाम्, दे. ना०५ वर्ग १२ गाथा।
१९०५ अ०१०। तिविह-विविध-त्रि तिम्रो विधा यस्य स त्रिविधः प्रा. म तिव्वपावानिमय-तीव्रपापाभिचत-त्रि० । तीवेणातिदारुणेन १०२खएमा त्रिप्रकारे, व्य० १००। प्रश्न।ध० । पा। पापेन मिथ्यात्वाऽऽदिनाऽभिभूतः परतन्त्रोकृतस्तीवपापानिभू
आव०। मनोवाकायलकणे,कृतकारितानुमतिलकणे च । सूत्र०१ तः। अतिदारुणेन मिथ्यात्वाऽऽदिना परतन्त्रीकृते, यो० वि०। श्रु०२१०६०। (“तिविहं तिविहेणं पच्चकवामि" इति तिबजाव-तीवभाव-पु. । गाढसंश्लिष्परिणामे, पञ्चा० ३ 'सामाश्य' शम्दे व्याख्यास्यते)
विव। तिविहाऽऽहार-त्रिविधाऽऽहार-पुं० । आहारत्रये, त्रिविधाss- || तिव्वरागा-तीवरागा-स्त्री०। उत्कटविषयानुबन्धायां भाषायाहारद्विविधाऽऽहारप्रत्याख्याने श्राकानां पानीयतुर्याऽऽहारी | म, ध०३ अधिः । किं भयो, न वेति प्रश्ने, उत्तरम्-श्राद्धानां त्रिविधाऽऽहारद्वि
उत्तरम्-श्राद्धाना त्रिविधाऽऽहारद्वि-तिब्बवेर-तीववैर-त्रि० । अविच्छिन्नोत्कटवैरे, प्रश्न० १ मा. विधादारप्रत्याख्यानेऽपि पानीयताऽऽहारी नचयो शेयौ;
| श्र. द्वार। का। परमयं विशेष:-येन प्रातस्त्रिविधाऽऽहारप्रत्याख्यानं कृतं स्यात्तस्यैकाशनादिकरणसमये तुर्याऽऽहारं कल्पते, न तु
तिव्वसंकिलेस-तीसंवेश-पुं० उत्कृष्टपुष्टपरिणामे, उत्कृष्टदुस्थानानन्तरमिति, पानीयं तु उभयत्राप्यचित्तं कल्पते। द्विविधा
रभ्यवसाये, पञ्चा० १६ विव०। ऽऽहारप्रत्याख्याने तु वयोरपि भक्ष्यतया संबोस्ति, संध्यायो
तिब्बसंवेग-तीसंवेम-पुं० भृशं दुःखन्नक्षाऽऽकुशनवनये,स.। तु त्रिविधाहारप्रत्याख्याने पानकाऽऽकारानुच्चारणात सचि
'तीवसंवेगसंजातश्रद्धा'-तीसंवेगेन भृशं पुःख लकाऽऽकुलत्तमपि पानीयं कल्पतेन तु तुर्याऽऽहारः। द्विविधाहारमत्या
| भवजयेन संजाता सम्यगुत्पन्ना श्रद्धा श्रद्धानं धर्मादिषु यस्य ख्याने नूभावपि भको संभवत इति ।१०। सेन• २ नहा।
स तथा । तं। तिब्ब-तीन-नारोके, सूत्र.१०५०१ उ01 उत्कटे,मा०
तिवसढ-तीव्रशठ-त्रि• । तीनैरुपसगैरभित्रुते शठानुष्ठाने, सू. म.२ म०। आव० । दुःसहे, सूत्र० १६.५.१ उ० ।
प्र.१७.३.१०। आत्यन्तिकसदनुष्ठान करणरुची, प. त्यर्थे, सूत्र.१७०२५. १०। औ० । असो, सूत्र०२०
श्वा०४विव। ६० "कसा, पगाढा, चंडा, दुहा, तिव्वा, दुरहियास
तिवाजिताव-तीत्राजिताप--त्रि० । दुःसहसन्तापवति, "ति. ति "एकार्थाः ।विपा०१७०१०। गाढे, प्रव०६द्वार ।
ग्वाभिताबे नरए पलते।" तीवो दुःसहः खदिराकारमहारातीवानुभवगन्धजनिते, प्रश्न.१ आश्र० द्वार । नि.चु.।
शितापादनन्तगुणोऽभिताप: संतापो यस्मिन् स तथा । सूत्र०१ प्रबले, द्वा० २१ द्वा० । रौद्रे, प्रा. म० १ ० २ खण्ड ।
भु०५ अ०१०। तीवकर्मबन्धरूपे,स्त्र०१ श्रु० ३ ० ३ उ०। उत्कटे, प्राचा० १ ० ३ ०१०। सुर्विषह, दे.
नातिनाजितावि (ण)-तीब्राजितापिन-त्रिका तीवोऽसह्यो योऽ. बगे ११ गाथा । प्रकृष्टे, स० ११ अङ्ग । निम्बादिवत् तिक्त, । | भितापः क्रकवपाटनकुम्भीपाकतप्तत्रपुपानशास्मल्यालिङ्गनाऽऽत्रि.जि.शि. ३४१० । “तिम्वे रोगायके पानग्नूए ।" | विरूपाल विद्यते यस्याऽसौ तीवाभितापी। तीववेदनाऽभिजूते, सामान्यस्य झगिति मरणहेती, प्र० १५ श० ।
सूत्र. २ श्रु०६ अ०। तिव्यमणराग-तीवानराग-पुं० । अत्यन्ताध्यबसाये, ध०२ तिव्बानिलास-तीव्रानिबाप-पुं० । अत्यन्ताध्यवसायिस्वे, अधिक।
आप० अ० 1 उपा० ।
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तिहि
(२३२७) तिव्वुएह
अभिधानराजेन्फः । तिह-तीतोष्ण-त्रि०। प्रत्युष्णे, आव०५०। तिमुगंध-त्रिसुगन्ध--त्रिका वगेलाकेसरैम्तुल्ये त्रिजातके, "स्व. तिसंकु-त्रिशङ्क-पुं० । भीमदयोध्यानिवासीदवाकुवंश्यस्य श्री- गेलाकेसरैस्तुल्यं,त्रिसुगन्धं त्रिजातकम् ।" जी० ३ प्रति०४ मा
हरिश्चन्छमहानरेन्द्रस्य स्वनामख्याते पितरि, ती• ३७ कल्प । तिमुल-त्रिशल-न । त्रीणि शूलानि शिखाऽग्राणि यत्र । स्वना. तिसंधि-त्रिसन्धि-त्रि० । आदिमध्यावसानेषु सन्धिभावात
मख्याते अस्त्रभेदे, वाच०। सूत्र०। (जी० ३ प्रति०४०)त्रिषु स्थानेषु सन्धियुक्त, न० ३ श० ६ उ०।
तिमलिया-त्रिशलिका-स्त्री० । लघुविाले, सूत्र० १ ० ५ तिसहिसलागा-त्रिषष्टिशलाका-स्त्री० । महंचक्रवर्तिबलदेववा- अ०१०। सुदेवप्रतिवासुदेवानां त्रिषष्टेः पुरुषाणां शलाकारूपे चक्रे, ही० तिसोबाण-त्रिसोपान-न० । त्रयाणा सापानाना समाहारान३ प्रका।
सोपानम् । सोपानत्रये, रा०। तिसम्म-त्रिसंक-त्रि तिस्र प्राहारजयपरिप्रहरूपाः संज्ञा ये|
तिसोवाणपडिरूवग-त्रिसोपानप्रतिरूपक-नाप्रयाणां सोषांते तथा । आहारभयपरिग्रहसंकायुक्ते, यो०बि०।
पानानां समाहाराखिसोपानम् । त्रिसोपानानि च तानि प्रतिरूपतिसत्तखुत्त-त्रिसप्तकृत्वस्-अव्य. । एकविंशतिबारेषु, पि० ।।
काणि चेति विशेषणसमासः। विशेषणस्य परनिपातः प्राकृतजी०। भ०।
स्वात् । सुन्दरेसोपानत्रये, जी०। तिसमइय-त्रिसमयिक-त्रि०। त्रयः समयास्त्रिसमय, तद्यत्रास्ति
तेसि ण तिसोवाणपमिरवगाणं अयमेयारूवे वापावासे स त्रिसमयिकः । समयत्रयत्नाविनि, स्था० ३ ०४ उ०।।
पाते । तं जहा-बयरामया निम्मा, रिठ्ठामया पतिवाणा, तिसमय-त्रिसमय-न । त्रयः समयाः समाहृतारिखसमयम् । समयत्रयसमादारे, प्रा० म०१ अ०१ साल।
वेरुलियामया खंजा, सुवन्नरुप्पमया फलगा, वइरामया संधी, तिसमयसिम-त्रिसमयसिक-पु.। सिम्त्वसमया तृतीयसम-|
लोहितरुक्खमईओ सईओ, नाखामणिमया अवज्ञवणा - यवर्तिनि सिद्धे, प्रशा० १ पद ।
वसंवणबाहाम्रो । जी०३ प्रति०४ उ०। (टीका सुगमा) तिसमयाऽऽहारग-त्रिसमयाऽऽहारक-पुं० । आहारं गृह्णाती- | तिस्सगुत्त-तिष्यगुप्त-पुं० । द्वितीयनिहवे बसुनामाऽऽचायशिष्ये, त्याहारकः । त्रयः समया: समाहतास्त्रिसमय,त्रिसमयमाहारक- | विशे०। (अस्य वृत्तं • जीवप्पएस ' शम्देऽस्मिन्नेव भागे ख्रिसमयाऽऽहारकः । "व्याप्ती" ॥३।१।६१ ॥ इति समासः।। १५५४ पृष्ठे गतम) " नाम नाम्नकार्ये समासो बहुसम्"॥३।१।१०।। इति
तिहा-विधा-अध्यात्रिप्रकारे, अनु । वा समासः । श्रीन समयान् याघदाहारके, प्रा० म०१ भ०१खएम । विशेनं।
तिहि-तिथि-
पुंखी । चम्झनिष्पादिते महोरात्रे, चं० प्र० विसमुद्राण-त्रिसमुत्थान-त्रि० । त्रिभ्यो धर्मार्थकामेभ्यः समु. स्थानं तद्विषयत्वनोत्पतिरस्येति त्रिसमुत्थामम् । धर्मार्थकाम
अथ तिथिस्वरूपं, तिथिमानं चाऽऽहजाते,दश०२०।
कम्मो निरसयाए, मासो ववहारकारगो लोए । तिसमुद्दक्खायकित्ति-त्रिसमुघख्यातकीर्ति-त्रि० । पूर्वदकिणा
सेसा उ संसयाए, ववहारे दुकरा घिन्तुं ।। (सू०प्र०१० पाहु) परदिग्विभागव्यवस्थितत्वात् पूर्वापरदक्षिणात्यः समुहानि. समुरुम् । उत्तरतस्तु हिमवान, वैताख्यो वा । त्रिसमुन्याता
मादित्यकर्म चन्जनकत्राभिवतिमासानां मध्ये कर्मसंव. कीर्तिर्यस्याऽसौ त्रिसमुख्यातकीर्तिः। दक्विणाचभरतव्यापि
सरसंबन्धी x मासो निरंशतया परिपूर्णशिनहोरात्रप्रमाणकीती, नं।
तया लोके सुखेन व्यवहारको नवति । तथाहि हलधराऽऽदयोतिसर-त्रिशरस-न० । त्रीणि शरांसि त्रिशरः। वाच । शरत्रये,
ऽपि बालिशास्त्रिंशदहोरात्रान् परिगणय्य मासं परिकल्पयन्ति ।
शेषास्तु मासाः सूर्यमासचन्द्रमासाऽऽदयः सांशतया सावयअनु० । विपा० । राक्षसन्नेदे, ज्वरे, कुबेरे, वाच०।
बतया व्यवहारे लोकव्यवहारप्रवर्तनविषये लौकिकैदीतुं तिसरग-त्रिसरक-नादारविशेषे, मौका | तं० । ज०।
दुष्करा, दुःखेन स्वयं ज्ञातुं शक्यन्ते इत्यर्थः । तथाहि-सूर्य. तिसला-त्रिशला-स्त्री० । सिद्धार्थनरन्छभार्यायां महावीरस्वा- मासः सार्धानि त्रिंशहिनानि । चन्द्रमास एकोनत्रिशहिनानि, मिनो मातरि, स्था० १० ठा। प्रव०। प्राचा०।स। भाव०। द्वात्रिंशदूझाषष्टिभागा दिनस्य नक्षत्रमासः सप्तविंशतिदि. ('वीर' शब्दस्याः सा वक्तव्यता)
नानि, एकविंशतिश्च सप्तषष्टिभागा दिनस्य + अभिवतमास तिसलोगा-त्रिश्लोका-ना त्रयः श्लोकाश्चन्दोविशेषरूपा प्रा.
* ऋतुमासस्य कर्ममास इति नामान्तरमा उक्तं च-"पस धिक्येन यासु तास्तथा। यथा-"सिसाणं चुकाणं" इत्यायेकः
चेव उउमासो कम्ममासो......... नम।" व्य०१ उ०। श्लोकः। “जो देवाण" इत्यादिको द्वितीयः। "एको वि नमो.
____कर्म लौकिको व्यवहारः, तत्प्रधानः संवत्सरः कर्मसंवकारो" इत्यादिकस्तृतीयः । इत्येवंरूपश्लोक प्रयाऽऽस्मिकायां
सिरः ऋतुसंवत्सरे। अत्र 'कम्मसंवच्छर' शब्दस्तृतीयभागे स्तुती, प्रव० ३९ द्वार।
३४५ पृष्ठे कष्टव्यः । तिसीस-त्रिशीर्ष-पुं० । शिखरिपर्वतस्य प्रथमकटाधिपती देके,
तृतीयभागे 'चंदमास' शब्दः १०० पृष्ठे कठयः । द्वी।
+चतुर्थनागे 'जक्खत 'शम्मः १७६१ पृष्ठे कष्टव्यः ।
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(2225) अभिधानराजेन्
तिहि
दिनानि एकविंशत्युत्तरतं चतुर्विंशत्युत्तरनामानदिनस्य नालिशा जानने के चान्द्रमासोत तदपेक्षा विश्यमाने परिपूर्णत्रिशतिध्यात्मकत्वात् लोके व्यवहारपथं चरतीति ।
तिथिपरिमाणज्ञापनार्थमिदमुपक्रम्यते, तत्र तिथिस्वरूपज्ञानार्थे पन्निमित्ता अहोरात्राः, यन्निमित्ताश्च तिथयस्तदेतत्प्ररूपयतिसूरस्स गमणमंगल-विभागनिष्फाइया अहोरता । साकिरा निष्फल वही ॥
सूर्यस्याऽऽदित्यस्य गमनयोग्यानि यानि मण्डनानि तेषां प्रत्येकं यो विनागो, विशिष्टः समभागतया जाग इत्यर्थः । तेन नियादित दोरात्राः किमुक्त एकैकस्मिन् ममले काले मलाई गमनेन पुरयति तावत्कालप्रमाणेनाहोरात्राः ॥ चन्द्रस्य चन्द्रमएमन्त्रस्य पुनः हानिवृषिकृतेन कालपरिमाणेन निष्पद्यते तिथिः । अत्रायं जावार्थ:- चन्द्रमएकलस्य कृष्णपक्षे यावता कालेनैकः पोमशभागो द्वाषष्टिजागचतुष्टयप्रमाणो हानिमुपपद्यते, यात्रता व कालेन शुक्लपक्षे एकः षोभशभागः प्रागुक्तप्रमाणः परिवर्द्धते तावत्कालप्रमा पास्तिथयः । एतावांश्चाहोरात्राणां तिथीनां च परस्परं काल विशेष:- अहोरात्रो द्वाषष्टिभागपरिच्छिन्न विधीयते । तस्य सत्काये एकषष्टिभागाः, तावत्प्रमाणा तिथिः । हेदमुम्बस्य वृद्धिहानिने निष्प
दमोह-कथं चन्द्रस्य शायकितयोपय पर्यमानस्ततः शिष्याणां संमोद करूपणार्थमाद
काम
चंदस्स नेत्र हाथी, न विबुवा अडियो चंदो । सुकिलजावस पुणणे, दीसइ बुढी य दाणी य ॥ चन्द्रस्य चन्द्रमएलस्य स्वरूपतो नैव हानिर्नाऽपि वृद्धि:, कि स्ववस्थित एव सदा चन्द्रः, चन्द्राऽऽदिविमानानां शाश्वतिकत्वात् । यद्येवं कथं साक्षात प्रत्यक्क्त उपलभ्येते वृद्धिहानी ? । तस्यादिशुद्धावस् कृतायाः दर्शनपथप्राप्तस्यैव कृता दृश्यते वृद्धिहीनिर्वान तु स्वरूपतश्चन्द्रमण्डलम् । किमत्र कारणम् ?, तदकिए राहुविमानं देहा चउरंगुलं च दस्त । तो चंदो, परिवनु वा विनायव्वो । द्विविधः तद्यथापराः भुवरा राहुस्तकता चिन्ता क्षेत्रसमासीकायां कृता । यस्तु ध्रुवराहुस्तस्य विमानं कृष्णं तच चन्द्रमण्डलस्याधस्तात् चतुरङ्गु· लमसंप्राप्तं सत् चारं चरति । तश्च कृष्णपके आत्मीयेन पञ्चदशेन भागेन प्रतिदिवसमेकैकं भागं द्वापभागीकृतस्य चन् भएमन्नस्य सका ये चत्वारो भागास्तावत्प्रमाणमावृणोति । शकरके प्रतिदिवस सायन्तमेकैकं भागमारमायेन प न [ पञ्चदशेन] भागेनापसरत् प्रकटीकरोति । तेन कारणेन चन्द्रः कृष्णपके अपने हीयते जपके परिवइति किमुक्तं जवति ? - तेन कारणेन चन्द्रमएमलस्य वृद्धिहानी प्रतिनासेते, न तु ते ताविकयौ स्त इति ।
।
एतदेव स्पष्टुं भावयतिमरिस-प्यस्य चंद्र
राहनुभगस्त ।
* प्रथमभागे 'अभिवह्निय' शब्दः ७२७ पृष्ठे द्रष्टव्यः ।
तिहि
बोए तिहि ति निययं, भाइ हाणीऍ बुट्टीए ॥
घोड
यत एवं चन्द्रमफलस्य राहुविमानकृतावरणानावरणजनि वृद्धिहानी, तत् तस्मात् कारणात् चन्द्रस्य रजतकुमुद पुष्पतुउपप्रभस्य रात्रिसुभगस्य रजन्यामतिमोदारिता प्रतिभासनशीलस्य, हानौ वृद्धौ यथोदितस्वरूपायां, यथोदित जागप्रमापायां च लोके तिथिरिति नियतं निश्चितं प्रपयते । सम्पति भागप्रमाणमेव निदरासोलसभागे काऊ - ण नमुबई हायतेऽत्य पन्नरसे । तत्तियमेत्ते जागे, पुणो वि परिवई जोएहे ॥ कुपति चन्द्रमरमलमित्यर्थः, षोमराजागोनं राहुदेवः कृत्वा बुया परिकल्प्य तयाजगत्स्वाभावयात् कृष्णपके, अत्र पषु शसु नागेषु मध्ये प्रतिदिवसमेकैकमानहानिकरक कृ sorपके पञ्चदश भागानू हापयति । ज्योत्स्न्ये ज्योत्स्नासमन्विते, शुक्रपके इत्यर्थः प्रतिदिवसमेकभागपरि परिपके तावन्मात्रान्, पञ्चदश संख्यानित्यर्थः । भागान् पुनरपि परिवयति । इयमंत्र जावना-इह चन्द्रविमानं द्वाषष्टिसंख्ये जागे: प रिक परिकल्प्य च तेषां भागानां पञ्चदशोषिते, ते मागेही भाग, तौ च सदाऽनावृतौ । एषा किन चन्द्रमसः षोमशीकन्नाप्रसिद्धिः। तत्र कृष्णपक्षे प्रतिपदि रामचन्द्रमा भागे न चतुरङ्गमसंप्राप्तं सत् चारं चात्मीयेनपद भागे भागी सावरणस्वावी मुक्त्यारोपापास भागाऽऽत्मकस्य चन्द्रमण्डलस्य सत्कं चतुर्भागाऽऽत्मकं पञ्चदशभागमा वृणोति । द्वितीयायामात्मीयाच्यां (?) पञ्चदशभागानाघृणोति । ततः शुक्लपक्के प्रतिपदि पञ्चदशभागान् अनावृतान् करोति, तदा व सर्वाऽऽत्मना परिपूर्ण चन्द्रमएम लोके प्रकट भवति । उक्तं च--" कविदे णं भंते! राहू पन्नसे ?। गोयमा ! 5. विहे राहू पन्नते । तं जढ़ा-धुत्ररा य पञ्चराहू य । तस्थ णं जे से घुवराहू से णं बहुनस्ल पक्खस्स पारित्रए पन्नरसतिभागणं पन्नरसभा लोगमापरमा आवजापढमा पढमं भागं विश्याप विश्यं भाग०जाब पनरसेसु पन्नरसं जागं चरमसमए चंद्रे रसे भव, अबसे से समय चंदे रसे घाविरते वा भवतं चेत्र सुकपक्खस्स तवदं सेमाणे उवदलेमा
चि । तं जड़ा-पढमार पढमं भागं, विश्या विश्यं भाग० जाव पन्नरसेसु पन्नरसं भागं । " इति । (भ० १२ श० ६ उ० )
तत्र
काले जे हाय सोझनजागो य सा विदी होइ तं चैव पबुद्धी एवं विडियो] समुप्पत्ती ॥ यावता कालेन कृष्णपके पोमशो जागो द्वाषष्टिभागः सचतुर्भागा
को हानि एतावान कालविशेषधिभवति । तथा चैवं वृद्ध्याऽपि तिथिर्भवति । किमुक्तं नवति ?-या पता का पतिवत्प्रमाणः कालविशेषस्तिथिरिति अहोरात्रस्य द्वाषष्टिनागाः, तावत्प्रमाणा तिथिरित्यर्थः । एवंविधैर्भगवद्भिस्तीर्थकर समुत्पतिराश्यता ।
कियरयाकास्तास्तिथय इति रानिकपणार्थमुपपसिमाह
Were परिहार, भाजे वय आदी ।
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(२३२५) तिहि अनिधानराजेन्डः।
तिहि तावश्या होति तिही, तेसिं नामाणि वोच्छामि॥ बकामसमृद्धः,सप्तम इन्जमूभिषक्तः,अष्टमः सौमनसः,नयमो ह यावता कालेनैकश्चन्मएडलस्य षोमशो भागो द्वाषष्टिभा
धनञ्जयः दशमोऽर्थसिकः, एकादशोऽनिजातः, द्वादशोऽव्यस. गसत्कचतुर्भागाऽऽत्मकः परिहीयते,वईते वा, तावत्कालप्रमा
नः, त्रयोदशः शतञ्जयः, चतुर्दशोऽग्निवेश्म, पञ्चदश उपशमः । णा एका तिधिरिति प्रागुपपादितम् । ततो यावतो जागान् चन्द्र- तथा चोक्तं जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ती.." एगमेगस्स ण भेत! पक्खस्स मसो राहुविमानं कृष्णपक्षे हापयति, यावतश्च भागानानुपूर्ध्या
कह दिवसा पन्नना ?। गोयमा ! पारस दिवसा पन्नत्ता । तं क्रमेण शुक्लपके परिवर्द्धयति, तावतप्रमाणाः शुक्लपके कृष्ण
जहा--पमिवादिवसे, विइयादिवसे० जाव पन्नरसीदिवसे । पत्ते च तिथयो भवन्ति । तत्र पश्चदश भागान् कृष्णपक्षे हापय
पपसि णं भंते ! पम्नरसएई दिवसाणं का नामधिज्जा प.
म्नत्ता?। गोषमा! पारस नामधेजा पपत्ता । तं जहाति, पञ्चदशैव नागान् शुक्लपके परिवर्द्धयति; ततः पञ्चदश कृष्णपके तिथयः, पञ्चदश शुक्वपक्षे च । सम्प्रति तासां ति.
"पुगे १ सिद्धमणो-रमे भरतत्तोमणोहरे चेव ३।
जसभद्दे य ४ जसदरे, सव्वकामसमिद्धे य ६॥१॥ थीनां नामानि वक्ष्यामि।
इंदमुकाभिसित्तेय ७, सोमणस धणंजप य बोधब्बे ९। प्रतिज्ञातमेव निर्वाहयति
अत्यसिके१०अभिजाए११, अब्धसणे१२ सयंजए चेव १३।२। पामविग चिइय तश्या, य चनत्थी पंचमी य छट्ठी य । अम्गिवेसे १४ उवसमे १५, दिवसाणं नामधिलाई ।" सत्तमि अट्ठमि नवमी, दसमी एगारसी चेव ॥
(जं०७वक०)
एकैकस्मिश्च पके पश्चदश रात्रयः । तद्यथा-प्रतिपत्रात्रिः, बारसि तेरसि चान-इसी य निवाणिगा य पन्नरसी ।।
द्वितीयारात्रिः, यावत्पञ्चदशीरात्रिः। तासां च रात्रीणां क्रमेणाकिएहम्मि य जोएहम्मि य, एसेव विही मुणेयव्वा ॥
मूनि नामानि । तद्यथा-प्रथमा उत्तमा, द्वितीया सुनतत्रा, तृतीकृष्णपके प्रथमा तिधिःप्रतिपद्, द्वितीया द्वितीया,एवं यावन्नि-1 या ऐलापत्या, चतुर्थी यशोधरा,पञ्चमी सौमनसा, षष्ठी श्रीसठापनिका परिसमाप्तिकारिका पञ्चदशी, अमावास्या इत्यर्थः।
म्भूता, सप्तमी विजया, अष्टमी वैजयन्ती, नवमी जयन्ती,दशमी ज्योत्स्न्येऽपि,पके इत्यर्थः । एष एवानन्तरोदितो नाम्ना विधिा- अपराजिता,एकादशी इच्छा,द्वादशी समाहारा,त्रयोदशी तेजाः, तव्यः । तद् यथा-प्रथमा प्रतिपत्, द्वितीया द्वितीया, तृतीया चतुर्दशी अतितेजाः,पश्चदशी देवानन्दा । तथा चोक्तम्-"पगमेगतृतीया । एवं यावत् परिसमाप्तिकारिका पञ्चदशी, पौर्णमासी सणं नंते ! पक्खस्स कराईयो पत्ताओ ?। गोयमा! पारसइत्यर्थः। इद विचित्रो विधिनाम्नामागमे मासाऽऽदीनां तिथि.
राईनो पहात्ताओ । तं जहा-पमिवाराई, बीयाराई जाव पक्षमापर्यन्तानामुक्तः, ततस्तिथिनाम्नां प्रस्तावाद मासोऽपि विनेय- रसीराई। एएसिणं भंते ! पारसएहं राईणं का नामधेजा जनानुग्रहार्थमुपवर्यते-इह च पकैकस्मिन् संवत्सरे द्वादश परमत्ता? । गोयमा ! पन्नरस नामधेजा पम्मत्ता । तं जहाभासाः, तेषां च नामधेयानि द्विविधानि । तद्यथा-लौकिकानि, "उत्तमा य सुनक्खत्ता, एमावच्चा जसोधरा । लोकोत्तराणि च। तत्र लौकिकान्यमूनि । तद्यथा-श्रावणः,भाजप- सोमणसा चेव तहा, सिरिसंनूया य बोधवा ॥१॥ दः, आश्वयुजा,कार्तिका, मार्गशीर्षः,पौषः,माघः,फालानः,चैत्रः, विजया य वेजयंती, जयंति अपराजिया य इच्छा य । वैशाखः, ज्येष्ठः, आषाढ शति । लोकोत्तरापयनि । तद्यथा-प्र. समाहारा चेव तहा, तेश्रा य तहाइतेया य ॥२॥ थमः श्रावणे अजिनन्दितः,द्वितीयः प्रतिष्ठितःप्रतिपत्तव्या,तृती. देवाणंदा राई, रयणीए नामधिजाई।" (जं०७बक०) यो विजयः, चतुर्थः प्रीतिवर्द्धनः, पञ्चमः श्रेयान, षष्ठः शिवः,
एकैकस्मिश्च पक्षे पञ्चदश तिथयः। ताश्च द्विधा। तद्यथा-दिसप्तमः शिशिरः,अष्टमो हेमवान,नवमो वसन्तमासा,दशमः कु
वसतिययः,रात्रितिथयश्च । तत्र दिवसतिथीनाममूनि नामानि । सुमसंभवः,एकादशो निदाघः, द्वादशो वर्णविरोहः। तथा चोक्तं
तद्यथा-प्रथमा नन्दा,द्वितीया नद्रा,तृतीया जया,चतुर्थी तुच्छा, जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ती-" एगमेगस्स णं भंते ! संबच्चरस्स कति
पञ्चमी पूर्णा । ततः पुनरपि-षष्ठी नन्दा, सप्तमी नका, अष्टमी मासा पत्ता ? । गोयमा! दुवालस मासा पन्नत्ता। तेसिणं
जया, नवमी तुच्छा, दशमी पूर्णा । ततः पुनरप्येकादशी नन्दा, दुविदा नामधिज्जा पन्नत्तातं जहा-लोश्या, लोउत्तरिया य ।
बादशी जमा, त्रयोदशी जया, चतुर्दशी तुच्छा,पञ्चदशी पूर्णा। तत्थ लोइया नामा इमे। तं जहा-सावणे,भइवएन्जाव प्रासाढे।
तथा चोक्तं चन्नप्राप्ता-"ता कहं ते तिहीओ आहिया ति वरजा?। लोगुत्तरिया नामा श्मे। तं जहा
तत्थ खलु श्मा विहा तिही पमत्ता । तं जहा-दिवसतिही, "अनिणंदिते पट्टे य, विजए पीइवणे।
राइतिही य । ता कहं ते दिवसतिही आहिया ति वएज्जाता सेयंसेय सिवे चेव, सिसिरे य सहेमवं ॥१॥
पगमेगस्स पक्खस्स पन्नरस दिवसतिही पम्मत्ता । तं जहानवमे वसंतमासे, दसमे कुसुमसंभवे ।
" नंदे भद्दे जर तुच्छे, पुम्से पक्खस्स पंचमी। एकारसे निदाहे य, वमविरोहे य वारसमे।"(जं०७वक्ष०)
पुणरविएकैकस्मिश्च मासे द्वौ पक्की, तयोश्च नामधेये गुणनिष्पन्नेश्मे । नंदे भद्दे जए तुच्छे, पुरो पक्खस्स दस्समी ॥१॥ तद्यथा-बहुलः पक्कः, शुक्लपक्रश्चतत्र योऽन्धकारबाहुलः पक्षः
पुणरविस बहलपक्का । यस्तु ज्योत्स्नाधवलिततया शुक्ल पकः सश- नंदे भहे जए तुच्छे, पुणे पक्खस्स पहारसी। क्लपक्कः। उक्तं च-"पगमेगस्स णं मंते! मासस्स कर पक्वा एवं तिगुणा तिगुणा, तिहीन सम्वेसि दिवसाणं ॥२॥" पन्नता । गोयमा! दो पक्वा पपत्ता । तं जहा-बहुसपक्खे.
(चं०प्र०१० पाहु.) य, सुषकपक्ष ।" (जं०७ वक्क०) एकैकमिश्च पक्षे पञ्चदश यास्तु रात्रितिथयस्तासामेतानि नामानि । तद्यथा-प्रथमा दिवसाः । तद्यथा-प्रथमः पूर्वाङ्गो, द्वितीयः सिद्धमनोरमः,त. उग्रवती,द्वितीया नोगवती,तृतीया यशोमती,चतुर्थी सर्वसिद्धा, ठीयो मनोहरः, चतुर्थों यशोभा, पञ्चमो यशोधरः, षष्ठः स पञ्चमी शुभनामा। पुनरपि षष्ठी उग्रवती, सप्तमी भोगवती,
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(२३३०) अभिधान राजेन्द्रः ।
तिहि
अष्टमी यशोमती, नवमी सर्वसिका, दशमी शुभनामा । ततः पुनरप्येकादशी उग्रवती, द्वादशी भोगवती, त्रयोदशी यशोम
चतुर्दशी सिद्धा, पञ्चदश गुमनामेति । उकं च चन्द्रमहादेव"ता कई ते इति आहिषति वा ता ए गमेगस्स णं पक्खस्स पारस राइतिही पाता। तं जड़ा-"लगघई भोगवई, जसोवई सम्वसिद्ध सुइनामा ।" पुणरवि-"लम्गवई जोगवई, जसोवई सम्बसिक सुहनामा । " पुणरबि-उभावई जोगवई, जसेोवई सम्वसिद्ध सुहनामा एवं तिगुणा पया, तिठोड सास राइ०ि प्र०१०पा०) तदे मुक्तानि तिथीनां नामानि प्रसङ्गतो मालदिवसरात्रीणामपि । संप्रति याप्रमाणातिथिस्ता प्रमाणां तिथि प्रतिपादयति
उता मुद्दा सोमतो सिद्धी हो । भागा वि य बत्तीसं, वासधिकरण देणं ॥ सोमतश्चन्द्रमल उपजायते तिथिः, सा च तत उपजायमाना एकोनत्रिंशत्परिपूर्णमुहूर्ता, एकस्य मुहूर्तस्य द्वाषष्टिकृतेन बेदेन प्रविभक्तस्य क्त्वा द्वात्रिंशद् भागाः । तथादि - अहोरात्रस्य द्वाषष्टिभागीकृतस्य सत्का ये एकषष्टिभागाः तावत्प्रमाणा तिथिदियुकम। तत्रैकजातान्यष्टादश शतानि त्रिंशदधिकानि १८३० । एते च किस द्वाषष्टिभागीकृत सकलतिथिगतमुरका ततोऽन नामोते ते भागे लग्या कोनत्रिशम्मुतौः द्वात्रिंश
भागा मुहूर्त तावन्मु प्रमाणां तिथिः। एतावता हि कालेन चन्द्रमण्डलगतः पूर्वादितप्रमाणः षोमशो भागो हानिं चोपगच्छति वर्द्धते वा, तत एतावानेव तिथेः परिमाणकान्नः । ( चं० प्र० १० पाहु० )
साम्प्रतमतिदिने तिथिपरिमाणज्ञापनार्थे करणमाहतिहिरासिमेव बाव- हीनइयं सेसमेगसद्विगुणं । बावडीए नए, सेसे सा तिहिममत्ती ॥ ईप्सिततिधिराशिष्ट भागैः परिपूरहोत्रा भवन्ति ततः परिपूर्णाहोपनाविभागः क्रियते वि भागे च कृते पलभ्यते तदेणं कियते कथास्तिताहोरात्र प्रभागप्रमाणत्या रा विभवतेद्वाष्याः परिपूर्ण
दोरीत्रस्य पतनादू द्वाषष्ट्या च भागे कृते ये अंशाः राशेः पश्चा. नितिथिपरिताप्रमाणे तस्मिन दिने तिथिरित्यर्थः । यथा वा कोऽपि पृच्छति द्वाषष्ट्या च भागे कृते. प्रथमेान् संवत्सरेमा केपी कियत्प्रमाणेति ? । तत्र किल तिथिः तावदंशप्रमाणा, तस्मिन् दिने तिथिरियर्थः । राशिरादित आरभ्य पञ्चमीपर्यवसानो 3शीतिसंख्या इत्यशीतिर्धियते, तस्या द्वापष्टचा भागो दियते, स्थिताः पश्चादष्टादश, ते एकषष्टधा गुण्यन्ते, जातानि दशशतानि अष्टनवत्यधिकानि २०६८। तेषां या भागो हि बस्तात् चतुश्चत्वारिंशदेशाः आगतमेतावदेव प टिनागप्रमाणा तस्मिन् दिने पञ्चमी तिथिः। एवमन्यत्रापि भाबनीयम् । (१) ज्यो० ४ पाहु• । चं० प्र० । सू० प्र० । व्य० | आo म० । प्रा० चू० । ( कालतो ये दिवसा वर्जनीयास्ते' आलोया द्वितीया ४२० पृष्ठे दिवसेभ्यस्ति
,
तिदि
थयो बलिष्ठा:-" दिवसा व तिही पलिश्रो, तिहिओ ब लियं तु सुच्च रिक्खं । " ६० प० । अथ पञ्चदशतिथिफलमाह
•
परिवार पमिवती, नरिथ विवची जयंति बीआए । सध्याएँ अत्यसिकी, विजयग्गी पंचमी भणिया ॥ ४ ॥ जा एस सचमी साज बहुगुणा इत्य संसभो नरिथ । दसमीऍपत्यया भवंति निकंटगा पंथा ॥ ए ॥ आगमवि खेमच इकारसिं त्रियाणाहि । जेबि हु हुति अमित्ता, ते तेरसिपट्टियो जिइ ॥ ६ ॥ चादसि पनरसिं, जिजा अपि नवमिं च। छद्धिं च चउत्थि वा-रसिं च उन्हें पि पक्खाणं ॥ ७ ॥ पदमी पंचमि दसमीपभरभिकारसी विय तहेब । एएमु य दिवसेसुं, सेहस्स निफेडणं कुज्जा ॥ 5 ॥ नंदा जद्दा विजया, तुच्छा पुन्ना य पंचमी हो । मासेण य बच्चारे, इक्किक्का वत्तए नियए ॥ ए ॥ नंदे जए य पुत्रेय, सेहनिक्खमणं करे ।
नंदे भरे सुजदार, पुत्रे असणं करे ।। १० ।। द०प० धर्मकर्माssदिषु तिथिरुदया तिथिरेव प्राह्मातिथिश्व प्रातः प्रत्याख्यानवेलायां या स्यात्सा प्रमाणम, सूर्यो दयानुसारेणैव लोकेऽपि दिवसाऽऽदिव्यवहारात् । श्रडुरपि"उम्मविर नायया । ताम्रो तिहिओ जालिं, उदेश सूरो न अष्ठाओ ॥ १ ॥ पूषा, पडिकमणं तद् य निमगच । जीए उदेश् सूरो, ती तिहीए उ कायव्वं ॥ २ ॥ उदयम्मि जातिदी सा, पमाणमिश्रराऍ कीरमाणीए । आणाभंगऽणवत्था, मिच्छत्तविराहणं पावे " ॥ ३ ॥ पारासरस्मृत्यादावधि"आदित्योदयवेलायां या स्तोकाऽपि तिथित् सा संपूर्णेति मन्तव्या प्रजुता नोदयं विना " ॥ १ ॥ उमास्वातिवाचकप्रभूते"कये पूर्वा तिथिः कार्या, वृद्धौ कार्या तथोत्तरा । श्रीमा, कार्य कानुगरि " ॥ १ ॥ इति । एवं पौषधाऽऽदिना पर्वदिवसा आराध्या इति पर्वकृत्यानि । ध० २ अधि० । द्वितीयाऽऽदिपञ्चपर्वी श्राद्ध विध्यादिस्वीयग्रन्थातिरिक्त इति प्रझे, उत्तरम्-द्वितीयादिपञ्चपयां उपादयेवं संविग्नगीतार्थाचीर्णतया संभाव्यते, अराणि तु श्राऊविधेरन्यत्र दृष्टानि न स्मरन्ति । १५० । “मासम्म पव्वत, तिथि पापक्त्रस्मि" इतिगायोच्य चतुर्थी सर्वधा काम किया पाउित्तर"मासम्म पक्कं तिनि य पन्चाइँ पक्खम्मि ।" इति गाथो सेव चतुर्थी सर्व सम्मान्यतेन तु पधाधिकारी १६ प्र ० ही ०२ प्रका० ॥ यदा पञ्चमी तिथिस्त्रुटिता भवति तदा तत्तपः कस्यतिथी किते मतियां कुत्र इति प्र, उत्तरमा पञ्चमभिनिःपूर्व तिथौ क्रियते, पूर्णिमायां च त्रुटितायां त्रयोदशीचतुर्दश्योः कित्रयोविद कमा
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तिहि अन्निधानराजेन्द्रः।
तीसल्लनिस्सल्ल विदेदेषु कल्याणकतिथ्यादिकमिदमेघ, अन्यद्वा?, इति प्रश्ने,उत्त. शक-धा०1 सामर्थे । स्वादि०-पर-मक०-अमिट । "शकेरम्-महाबिदेदेषु कल्याणकतिथ्यादिकमिदमेवेति म सम्नाव्य. श्चय-तर-तीर-पाराः" ॥८॥४॥८६॥ इति शक्नोतेस्तीर त्याते,यदाऽत्रत्यतीर्थकृतां च्यवनाऽऽदिकल्याणकं तदा तत्र दिवसस
दशः। 'तीरह।' शक्रोति । प्रा.४ पाद । द्भावात्. तत्प्रतिपादकान्यक्कराण्यपि नोपलभ्यन्त १७प्र०ा ही.
तृ-धा० । तरणे, प्लवने, अभिभरे च । स्वादि०-पर-सक१प्रका० । तिन एव पूर्णिमा पर्वत्वेन संगीर्यते, सर्वा अपि
वा आप सेट् । “कृन्त-जामीरः" ॥८॥४।२५० ॥ इति तृधातोरन्त्यत्यत्र प्रभे, उत्तरम-"छन्नं तिहीण मज्झम्मि, का तिही अज पासरे।" इत्याद्यागमानुसारेणाऽविच्छिन्नवृरूपरम्परया च
| स्य ईर इत्यादेशः। 'तीर'तरति । प्रा.४पाद । सर्वा भपि पूर्णिमाः पवेत्वेन माम्या पवेति।२प्र०ाही०१ प्रका।
तीरंगम-तीरङ्गम-त्रि० । तीरं गच्छन्तीति तीरजमा, खच्, मुपूर्णिमामावास्ययोर्चको पूर्वमौदयिकी तिथिराराध्यत्वेन व्यवहि
मागमश्च । पारगामिनि, प्राचा.१६०२ ० ३ ००। पीति केनाचे दुक्तम,श्रीतातपादाः पूर्वतनीमाराध्यत्वेन तीरह-तिरस्थ-त्रि० सम्यक्त्वाऽऽदिप्राप्तः संसारपरिमाणात् प्रसादयन्ति, तत्किमिति प्रश्ने,उत्तरम-पूर्णिमाऽमावास्ययोद्यकी। तटस्थे, दश० २ ० । श्रादयित्येव तिथिराराध्यत्वेन विकेया । ५ प्र० । ही तीटि(ण)-तिरार्थिन-त्रिका तीरं पारं भवार्णवस्यार्थयत ३. ३ प्रका. । “कृनं तिहीण मम्मि, का तिही अज्ज स्वशीलस्तीरार्थी. तीरस्थायी घा, तीरस्थितिरितिवा प्राकृत. वासरे ? । " इत्याद्यागमवाक्यम, तत्कुत्राऽऽगमेऽस्ति, स स्वात् 'तीरही' इति । स्था४ ठा०१ उ०। सूत्र० भवार्णवनामग्राहं प्रसाधः, यतोऽत्र स्तनिकाः राजसमकमेव बदन्ति, तितीर्षों, दश०१००। यज्जैनजीर्णग्रन्थमध्ये द्वितीयैकादशीप्रमुखतिथीनां चतुःपर्वी.
तीरदुत्त-तीरजक्त--पुं० । विदेहजनपदेषु, "इहेब भारदे बासे नां मानमाराध्यत्वेन नास्तीति प्रश्ने, उत्तरम-"ग्नं तिहीण म. ज्जाम्म, कातिही अज्ज वासरे?"इत्यादि गाथा श्राद्धदिनक
| पुवदसे विदेहो नाम जणवो, संपकाले तिरहुत्सदेसो ति स्थसूत्रेऽस्ति, तव्याल्यानं च -१४-१५ाएता: सितेतरजेदात्,
| जराणति ।" ती०१ कल्प। षद् तिथय इति । द्वितीयकादशीप्रमुखतिथीनामकराणि तु|
तीरित्ता-तारयित्वा-श्रव्य०) यावज्जीवमाराध्येत्यर्थे, कम्प. श्रारूविधेरन्यत्र न सन्ति, तथा ज्ञानपश्चम्यकराणि महानिशीथे।
एवण । सन्तीति । १८० प्र०।सेन. ३ उल्ला० । “बहुसु यतिहीसु य
तीरिय-तारित-त्रि० । पूर्णेऽपि प्रत्याख्यानकालावधी किश्चिपन्धणीसु या" मदनादित्रयोदश्यादितिथिषु, भ०६०३३301
दधिककालावस्थानेन तीरं नीते, प्रव० ५ द्वार । प्राचा.। तिहिबुष्ठि-तिथिदृषि-स्त्री० । अष्टम्यादितिथिको अग्रेतन्या
"एता भिक्खुपडिमा तीरिया भवह।” पूर्णेऽपि तदवधी पाराधनं क्रियते, यतस्तहिने प्रत्यास्यानवेसायां घटिकाद्विका
स्तोककामावस्थानात्तीरिता भवति । दर्श०१ तव । मा०चू।
समाप्ते, व्य१ उ०।। सा भवति, तावत्या पवाराधनं भवति, तदुपरि नवम्यादीनां भवनात्, संपूर्णायास्तु विराधनं जातं,पूर्वदिने भवनात्।अथ यदि
तीसमुहत्त-त्रिंशन्मुहर्त-त्रि.। त्रिंशतं मुहीश्चन्द्रभागो येप्रत्याक्यानवेझायां विलोक्यते, तदा तु पूर्वदिने द्वितयमप्यम्ति,
पां तानि तथा। त्रिंशन्मुहर्तानि यावधयेण सह युज्यमाननकप्रत्याश्यानबेलायां समग्रदिने उपाति स्पष्टमाराधनं भवतीति
त्रे, स्था० ६ ग०। प्रश्ने, उत्तरम्-"क्कये पूर्वा तिथिः कार्या, वृक्षौ कार्या तथोत्त
तीसगत्त-तिष्यगुप्त-पुं०। राजगृहनगरवास्तव्यस्य वसुनामारा।" इति उमास्वातिवाचकवचनप्रामाण्याद् वृद्धौ सत्यां स्व
|चार्यस्य स्वनामच्याते शिप्ये, स च जीवप्रादेशिकानां निवानां ल्पाऽप्यप्रेतना तिथिः प्रमाणमिति । १८५ प्र० सेन.३ चला।
धर्माचार्यः । विशे० प्रा० क । उत्त० । स्था.। प्रा० म01 तिही-तिथी-स्त्री०। तिहि' शब्दार्थे, चं० प्र० १० पाहु.। । पा० चू०। (तद्वक्तव्यता लेशतो 'जीवपएसिय' शब्देऽस्मितिहु-कुतस्-अव्य० । “कुतसः कर कहं तिहु" ॥८।४।।
नेव भागे १५५४ पृष्ठे उक्ता) ४१६ ॥ इत्यपभ्रशे कुतःशब्दस्य ' तिहु' इत्यादेशः। कस्मादि
तीसजद-तिष्यभ-पुं० । माउरसगोत्रस्याऽऽयंसंभूतविजयत्यर्थे, प्रा०४ पाद।
स्थविरस्य स्वनामख्याते शिध्ये, कल्प०८ कण । तिहयण-त्रिभुवन-न० । अधस्तिर्यगूर्वलोकभेदे, आव०४० तीसशनिस्सस-त्रिशस्यानिःशस्य-त्रि.। मायानिदानमिथ्यादतिहुयण तिलग-त्रित्तुवनतिन्नक-पुं० । श्रीनासिक्यपुरे श्रीजी
शनरूपशव्यत्रयरहिते, पा०।
.................तीसदनिस्सलो (२३) वितचन्द्रप्रनस्वामिप्रतिमायाम, ती०४३ करप । तिहुयण नाणु-त्रिनुवननानु-पुं० । अहिच्छत्रापूजितायां स्व
शख्यते बाध्यते प्राणी एभिरिति शट्यानि । व्यतस्तोमरा35नामख्यातायां पार्श्वजिनप्रतिमायाम्, ती०४३ कल्प।
दीनि, भावतस्तु मायादीनि । निर्गतानि शव्यानि यस्य स तीय-अतीत-त्रि०। अतिशयेन इतो गतोऽतीतः,पिधानवदका
निःशल्यः। स चैकशल्यापेकयाऽपि स्यादित्याह-त्रीणि च तानि
शल्यानि च त्रिशल्यानि, तेषु विषये निःशल्यः त्रिशल्यनिःशरखोपः। वर्तमानत्वमतिक्रान्ते,स्था०३ ०४ २०षो। आच०।
ख्यः। तत्र मायाशल्यम-माया निकृतिः, सैव शल्य मायाशल्यतीयवयण-अतीतवचन-न० । कृतवानित्येवरूपे षोडशवचनेषु
म । नितरां दायते व्यते मोक्षफलमनिन्द्य ब्रह्मचर्याऽऽदिसायद्वादशे वचने, प्राचा० २ श्रु.१०१ अ० १ उ01
कुशल कर्मकल्पतरुवनमनेन देवादिप्राधनपरिणामनिशि. तौर-तीर-पुं० । पर्यन्ते, नि० चू० १ २० । तटे, सूत्र०२ श्रु० १. तासिनेति निदान, तदेव शल्यं निदानशल्यम् । मिथ्यादर्शनशअपारे, स्था०४पा.१ उ० प्रवाहात्परकूट, विशे"द. ज्यम्-मिथ्या विपरीतं, दर्शनं तत्वानवबोधलकणं मिथ्यादशं. कतीरम्मिचिट्टित्तए।" उद कतीरं उदकोएकपटम् । वृ०१ तानं तदेव शख्यं मिथ्यादर्शनशल्यमिति । (२३) पा०।
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(२३३२) तीसा अभिधानराजेन्डः।
तुंगिया तीसा-त्रिंशत-स्त्री. । “विंशत्यादेर्बुक" ॥ ८।१।२७ ॥ इ. भत्तपाणा बहुदासीदासगोमहिसगरेलगप्पत्तूया बहुजणस्स त्यनुस्वारस्य लुक । प्रा०१पाद । "ईर्जिह्वासिंहत्रिंशतिशती अपरिज़या अभिगयजीवाजीचा नवलकपुलपावा आसवत्या"।।८।१ । ९२॥ इति कारस्येकारः। त्रिरावृत्तदशसं.
संवरनिज्जरकिरियाहिगरणबंधप्पमोक्खकुसला असहेजदे. ख्यायाम, प्रा०१पाद । तीसिया-त्रिंशिका-स्त्रीजत्रिंशद्वर्षपर्यायायां स्त्रियाम,व्य०७०) वासुरनागमुवमजक्खरक्खसकिम्मरकिंपुरिसगरुलगंधब्बमतु-तु-भव्य० । समुच्चये, विशे० । नि० च । दर्श० । अघ
होरगादीएहिं देवगणोहिं निग्गंथाओ पावयणाश्रो अणधारणे, विशे० । उत्त०। सूत्र।दश। प्रव०। प्रा०म०। नि.
तिकमणिज्जा निग्गंये पावयणे निस्संकिया निकंखिया चू० । पञ्चा०ा विशेषणे, सूत्र १ श्रु०४०२ उ०। प्राचा०। निवितिगिच्छा लघट्टा गहियहा पुच्चियट्ठा अजिगयट्ठा वितर्के,सूत्र० २२०४०प्राव०। पश्चापूरणे, स्था०४ ठा०२ विणिच्छियट्ठा अद्विमिंजपेम्माणुरायरता अयमाउसो! निन.नि.चू० । पश्चा०। पादपूरणे, पञ्चा०४ विवामि० चू०।
गंथे पावयणे अहे, अयं परमढे, सेसे अणडे, ऊसियफलिपुनःशब्दार्थे, प्राचा०१७.५ अ.१ उ०। दशकापूर्वस्माद्विशेषद. शेने, सूत्र० १७.१०२ उ०। एवकारायें, सूत्र०१ श्रु०२
हा अवंगुयन्वारा चियत्ततेनरपरघरप्पवेमा बहहिं मीलब्धअ०श्न ग०अने। दर्शगदशनं श्रा०म०। स्था०। अप्यर्थे, यगुणवेरमाएपञ्चक्खाणपोसहोषवासहि चाउद्दसमुद्दिपुरमदर्श०१ तव । यस्मादथे,नि००१ उचशब्दार्थ, सूत्र.१ श्रु०१ मासिणीसु पमिपुलं पोसहं सम्ममाणुपाक्षेमाणा समाणे णिअ.१२० शब्दार्थप्रदर्शने,
निवृ०१५उभेदे, "तुः स्याद्दे. गंथे फासुएसणिजेणं असणपाणखाइमसाइमेणं वअवधारणे।" स्याश्रामजिनक्रमे प्रव०४ द्वार । अव्ययत्वेनाऽनेकार्थत्वाद् हेती, व्य०१०। कारणापेक्वायाम्, नि.
त्यपरिग्गडकंबलपायपुरणेणं पीठफलगसेज्जासंथारएणं सू०१ उग तुशब्दो यच्चदार्थे द्रष्टव्यः। "तेणं तु चित्तमचित्तो" | प्रोसहलेसज्जेणं पडिलामेमाणा अहापरिग्गहि एहिं तवोनेणं जं तं चित्तमचित्तेत्यर्थः। नि००१च. । विकल्पद- कम्मेहिं अप्पाणं भावेमाणा विहरति । तेणं कालेणं इंनि, नि० चू० १ उ० । परिग्रह. नि. चू० १ ०। तणं समरणं पासावच्चिज्जा थेरा जगवंतो जाइसंपदा साहश्य, स्या० । अप्रतिषेधे, स्तोकप्रायश्चित्तप्रदामविशेषे, नि० चू. १० । अनेकप्रकारविशेषग, दश• ४० ।
कुलसंपल्सा बनसंपमा रूवसंपाला विणयसंपएणा णाणसंपर्याप्तिवचने, प्राचा. १ श्रु०१ अ०६ उ०।
पमादसणसंपएणा चरित्तसंपला लज्जास्राघवसंपमा ओयंतुअर-तुवर-पुं० । धान्यविशेषे, जं० १ वत० । कवायरसे च । सी तेयसी वच्चसी जसंसी जियकोहाजियमाणा जियमाया तति, त्रिपाढक्यां, सौराष्ट्रमृत्तिकायां च । स्त्री० । पित्वा- जियझोभा जियनिद्दा जियशंदिया जियपरीसहा जीवियासान कीए । स्वार्थे कन् । तुवरिकाऽपत्रैव । वाच।
मरणनयसोगविप्पमुक्का बहुस्सुया बहुपरिवारा पंचहिं अणतु-त्वाम्-त्रि" तं-तु-तुम-तुवं.. ॥७३॥६५ ॥ इत्यादिनामा
गारसएहिं सहिं संपरिखुडा अहाणुपुचि चरमाणा गामाणुसदितस्य युष्मदः 'तु' इत्यादेशः। प्रा०३पाद । तव-त्रि । "तश्-तु-ते-तुम्हं.." ॥३॥६६॥ इत्यादिना षष्ठधे
ग्गामं दूइज्जमाणा सुहं सुहेणं विहरमाणा जोमेव तुंगिया कवचनेन सा सहितस्य 'तु' इत्यादेशः । प्रा. ३ पाद।।
नयरी, जेणेव पुप्फईए चेइए, तेणेव उवागच्छति, नवागत्वम्-त्रिका "युष्मदस्तं तुं०-"८।३।९०॥ इत्यादिना सिसहि
चश्त्ता अहापमिरूवं नग्गहं अोगिएहेत्ता संजमेणं तवसा
अप्पाणं भावमाणा विहरति । तस्य युष्मदः 'तुं' इत्यादेशः । प्रा• ३ पाद ।
(अनुत्ति) आख्या धनधान्याऽऽदिनिः परिपूर्णाः, (वित्त सि) तुंग-तुङ्ग-त्रि० । उचस्त्वगुणयुक्ते, स० । । औ० । जी० ।
दीप्ताः प्रसिद्धाः, हप्ता बा दर्पिताः (वित्थिानविपुनभवणसय. कल्प० । सू० प्र० । उन्नते, औ० । अत्युच्चे, रा०।
णाऽऽसणजाणवाहणाऽऽइमा)विस्तीर्णानि विस्तारवन्ति विपुतुंगार-तुङ्गार-पुं० । दक्षिणपूर्वस्या दिग्बाते, प्रा. म० १० सानि प्रचुराणि भवनानि गृहाणि शयना सनयानवाहनराकी. १ खण्ड । आ.चू०।
नि येषां ते तथा। अथवा विस्तीर्णानि विपुलानि भवनानि येषां, तुंगिय-तुङ्गिक-पुं० । वत्सदेशान्तर्गते स्वनामख्याते ग्रामे, शयनाऽऽसनयानवाहनानि वाऽऽकीयोनि गुणवन्ति येषां ते आ. म.१०२खरा । प्रा० चू० । “जसभहं तुगियं चेष।"
तथा । तत्र यानं गन्ड्यादि, वाहनं त्वश्वाऽऽदि । (बहुधणबहुतुङ्गिकगणे तुङ्गिकापत्यगोत्रे, नः ।
जायरूवरयया)बहुप्रभूतं धनं गणिमाऽऽदिक, तथा बहेब जात.
रूपं सुवर्ण रजतं च रूप्यं येषां ते तथा । (पाओगपभोगसंपउ. तंगिया-तुलिका-स्त्री० । स्वनामख्यातायां नगर्याम्, भ०।
त्ता)प्रायोगो द्विगुणाऽऽदिवृख्याऽर्थप्रदानं,प्रयोगश्च कलान्तरं, तो तुहिकानगरीश्रावकसमुदायवान् दृष्टान्तश्चैवम
संप्रयुक्ती व्यापारिता यैस्ते तथा । (विचड्डियविचलभत्तपाणा) तीसे णं तुंगियाए नयरीए बहिया उत्तरपुरस्चिमे दिसीभा- विदितं विविधमुज्झितं, बहुलोकभोजनत उच्छिष्टावशेषसंगे पुप्फबईए नामं चेइए होत्या । वमो । तत्थ णं तुंगियाए
भवात् . विच्छदितं वा विविधविचित्तिमदू, विपुलं भक्तं च नयरीए बहवे समणोवासया परिवसंति, अादित्ता वित्थि
पानकं च येषां ते तथा। (बहुदासीदासगोमहिसगवेलगप्पभू
या) बहवो दासीदासा येषां, गोमदिषगवेलकाश्च प्रभूता येषां ते धाविपुलभवणसयणाऽऽमणजाण वाहणाऽऽइस्या बहुधणव
तथा । गबेनका उरभ्राः (बहुजएस्स अपरिभूया) बहोलोकस्या. हुजायरूपरयया आरोगपभोगसंपनत्ता विकृझियविउलः । परिभवनीयाः,"आसव" इत्यादी क्रिया कायिक्यादिका अधि.
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तुगिया
(२३३३) अनिधानराजेन्द्रः।
तुगिया करणं गन्त्रीयन्त्रकाऽऽदि। (कुसल ति) श्राश्रवादीनां हेयोपा- | हकंबलपायपुंछणणं ति)। ह पतग्रहः पात्रं, पादप्रोग्छन, देयतास्वरूपवेदिनः (असहेज्जेत्यादि) अविद्यमानं साहाय्यं रजोहरणं,पीचमासनं,फनकमवष्टम्ननफलक, शय्या वसतिपरसादायिकमत्यन्तसमर्थत्वायेषां तेअसाहाय्याः, तेच तेदेवा- हत्संस्तारको वा, संस्तारको लघुतरः । एषां समाहारद्वन्द्वोऽ
दयश्चेति कर्मधारयः । अथवा-व्यस्तमेघवं, तेन असाहाय्या तस्तेन । (अहापरिगाहपहिं ति) यथाप्रतिपनन पुनहास पापीप देवाऽऽदिसाहाय्यकानपेक्काः, स्वयं कृतं कर्म स्वयमेव नीतैः (थेरेति) श्रुतवृद्धाः । (रूवसंपन्न ति) वह रूपं सुविजोक्तव्यमित्यदीनमनावृत्तय इत्यर्थः। अथवा-पाखरिमभिः प्रार-| दित नेपथ्यं, शरीरसुन्दरता था, तेन सम्पन्ना युक्ता रूपसम्पब्धाः सम्यक्त्वविचलनं प्रति न परसाहायकमपेक्तन्ते, स्वय. न्नाः । ( लज्जालाघवसंपन्न ति) सज्जा प्रसिका, संयमोवा, मेव तत्प्रतिघातसमर्थवाजिनशासनात्यन्तभाबितत्वाति, तत्र लाघवं व्यतोऽल्पोपधित्वं, भावतो गौरवत्यागः । (ओयंसी देवा वैमानिकाः(असुरत्ति)असुरकुमाराः(नागत्ति)नागकुमाराः, ति ) ओजस्विनो मानसाषष्टम्भयुक्ताः । (तेयंसी ति ) उभयेऽप्यमी भवनपतिविशेषाः (सुवरण त्ति) सी ज्योति- तेजस्विनः शरीरप्रभायुक्ताः । ( वचसी ति ) पर्चस्विमो काः, यक्कराक्षसकिन्नरीकपुरुषा व्यन्तरविशेषाः (गरुन ति) विशिष्टप्रभावोपेताः, वचःस्विनो वा विशिष्टवधनयुक्ताः। गरुमध्वजाःसुपर्णकुमारा भवनपतिविशेषाः, गन्धर्वा महोरगाश्च
(जसंसी ति) ख्यातिमन्तः। अनुस्वारश्चैतेषु प्राकृतत्वात् । व्यन्तरविशेषाः । (अणतिक्कमणिज्ज त्ति) अनतिक्रमणीया
( जीवियासामरणभयसोगविप्पमुक त्ति) जीविताऽऽशया, अचासनीयाः (सद्धटु ति ) अर्थश्रवणात् । (गहि- मरणजयेन च विप्रमुक्ता येते तथा । श्ह (?) यावत्करणायह ति ) अर्थावधारणात् । ( पुच्चियह त्ति ) सांश- दिदं रश्यम्-"तवप्पदाणा गुणप्पहाणा।" गुणाश्च संययिकार्थप्रश्नकरणात् । (अजिगयट्र ति ) प्रशिनतार्थ- मगुणाः, तपःसंयमग्रणं चेह तपःसंयमयोः प्रधानमोकाङ्गता स्याभिगमनात् । ( विणिज्यिक ति) पेदम्पर्याधस्योपन. भिधानार्थम् । तथा-"करणप्पहाणा चरणप्पहाणा" तत्र करणं मनात् । अत एव (अद्विमिंजपेम्माणुरागरत्ता) अस्थीनि च पिएमविशुच्यादि, चरणं व्रतश्रमणधर्माऽऽदि । (निग्गहप्पहाणा) कीकसानि, मिजा च तन्मध्यवती धातुरस्थिमिजास्ताः प्रेमा. निग्रहोऽन्यायकारिणां दण्डः, (निच्चयपहाणा) निश्चयोऽवनुरागण सार्वज्ञप्रवचनप्रीतिरूपकुसुम्भाऽऽदिरागण रक्ता व र. इयङ्करणाभ्युपगमः, तस्वनियो वा । (महवप्पहाणा अजवप्पका येषां ते तथा । अथवा-अस्थिमिजासु जिनशासनगतने हाणा) ननु जितक्रोधाऽऽदित्वान्मार्दवाऽऽदिप्रधानत्वमवगम्यत मानुरागण फका येते तथा । केनोल्लेखेनेत्याह-(अयमानसो! इ- एव तरिक मार्दवेत्यादिना? नच्यते-तत्रोदयविफलतोक्ता, माईत्यादि ) अयमिति प्राकृतत्वादिदम् ।(प्रातसो ति) श्रायुध्म- वाऽदिप्रधानत्ये तूदयाभाव एवेति । (साघवप्पहाणा) साघवं म्निति पुत्रादेरामन्त्रणम। (सेसे ति) शेषनिन्धप्रवचनव्यति- क्रियासु दत्तत्वम्। (खंतिप्पहाणा मुत्तिप्पहाणा)(एवं विजामंतरिफ धनधान्यपुत्रकल मित्रकुप्रवचनाऽऽदिकामति (ऊसियफ- वेयभनयनियमसच्चसोयप्पहाणा चारुपमा ) सत्प्रकाः लिह ति) सन्द्रितमुन्नतं स्फटिकमिव स्फटिक चिसं यक्ष ते (सोही) शुद्धिहेतुत्वेन शोधयः, सुहदो वा मित्राणि, जीवाउध्रितस्फटिका, मौनीप्रवचनावाप्स्या परितुष्टमानसा इत्य- नामिति गम्यम्। (भणियाणा अप्पुस्सुया अवहिलेस्सा सुसार्थः इति वृद्धव्याख्या । अन्ये स्वाहुः-उत्थितोऽर्गास्थाना. मन्नरया अच्छिहपसिणवागरण सि) अच्छिमाएयविरलानि चपनीयोर्कीकृतोऽतिरधीनः कपाटपश्चाद्भागादपनीत इत्यर्थः। निर्देषणानि वा प्रश्नव्याकरणानि येषां ते तथा। (कुत्तियावपरिघोऽगमा येषां ते उच्तिपरिघाः। अथवा-उच्तिो गृहद्वा- णनूय सि) कुत्रिकं स्वर्गमर्त्यपाताललकणं मित्रयं, तत्सरादपगतः परिघो येषां ते उच्छ्रितपरिघाः । प्रौदार्यातिशयाद
म्भवं वस्त्वपि कुत्रिक, तत्सम्पादक प्रापणो हट्टः कुत्रिकाऽऽपतिशयदानदायित्वन निकुकाणां गृहप्रवेशार्थमनर्गलितगृहधारा णः, तदूनूताः समीहितार्थसम्पादनलब्धियुक्तत्वम सकलगुणो. त्यर्थः॥ (अवंगुयदुवारे ति) अप्रावृतद्वाराः, कपाटाऽऽदिभिर
पेतत्वेन वा तपमाः। (सद्धि ति) सार्दू सहेत्यर्थः। सम्पस्थगितगृहद्वारा इत्यर्थः । सहर्शनाभन न कुतोऽपि पाव
रिवृताः सम्यक परिबारिताः, परिकरभावन परिकरिता जिकादिभ्यति. शोभनमार्गपरिग्रहेणोद्धाटितशिरसस्तिष्ठन्तीति इत्यर्थः । पञ्चभिः श्रमणशतैरेव । भावः इति वृहव्याया। अन्ये स्वाहु:--भिक्षुकप्रवेशार्थमौदा- तए णं तुंगियाए नयरीए सिंघामगतिगचनक्कचञ्चरचनदिस्थगितगृहकारा इत्यर्थः॥ (चियत्तंतेउरपरधरपवेता) म्मुहमहापहपहेसु जाव एगदिसाभिमुहा णिज्जायंति, तए (चियत्तोत्ति) लोकानां प्रीतिकर एवान्तःपुरे वा परगृहे वा
एं ते समणोवासया इमीसे कहाए सफा समाणा हट्ठतुप्रवेशो येषां ते तथा, अतिधामिकतया सर्वत्रानाशङ्कनीयास्त श्त्यर्थः। अन्येवाहुः (चियत्तोत्ति)नाऽग्रीतिकरोऽन्तःपुरपर
ट्ठा जाव सदाति, सद्दावित्ता एवं वयासी-एवं खल गृहयो प्रवेशः शिष्टजनप्रवेशनं येषां ते तथा। भनीामुता- देवाणुप्पिया ! पासावच्चेजा थेरा जगवंतो जातिसंपमा प्रतिपादनपरं चेत्थं विशेषणमिति । अथवा-(चियत्तो ति)। ज्जाव अहापडिरूवं उग्गहं प्रोगिएिहत्ता संजमेणं तवमा त्यक्ताऽन्तःपुरपरगृहयोः परकीययोर्थथाकथञ्चित्प्रवेशो यैस्तेत्त.
अप्पाण भावेमाणा विहरति । था । (बहदि इत्यादि) शीलवतान्यणुवनानि, गुणा गुणवतानि,
(सिंघामग त्ति) शृङ्गाटकफलाssकारं स्थानं, त्रिकं रथ्यात्रय. विरमणानि औचित्येन रागाऽदिनिवृत्तयः,प्रत्याख्यानानि पौरु
मीलनस्थानम्, चतुष्कं रथ्याचतुष्कमीसनस्थानम, चत्वरं बहुज्यादनि,पौषधं पर्वदिनानुष्ठानं तत्रोपवासोऽवस्थानं पोषधोप
तररथ्यामीलनस्थानम, महापथो राजमार्गः, पन्था रथ्यावासापतेषां द्वन्छोऽतस्तयुक्ता इतिगम्यम्। पौषधोपवासश्त्युक्त
मात्रम यावत्करणातू-" बहुजणसहोर्ह वा" इत्यादिपूर्वव्याम, पौषधं च यदा यथाविधं च ते कुर्वन्तो विहरन्ति तदर्शयमाह-(चाउद्दसेत्यादि) होद्दिष्टा अमावस्याः (पमिपुत्रं पो.
सयातमत्र दृश्यम्। सति)माहाराऽदिमेवाश्चतुर्विधमपि सर्वतः। (वस्थपरिमा- तं महाफलं खल देवाणुप्पिया!तहारूवाणं राणं भगवंता
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(१३३४) तुगिया अभिधानराजेन्द्रः ।
तुवा णं नामगोयस्स विसवणयाए, किमंग! पुमा अभिगमण- ति) अनेकत्वस्यानेकाऽऽनम्वनस्वस्यैकत्वकरणमेकालम्बनत्ववंदणनमंसणपडिपुच्छणपज्जुवाप्तणयाए जाव गहणयाए;
करणमेकत्वीकरणं, तेन । (तिबिहाए पज्जुवासणाप सि) तं गच्छामो देवाणप्पिया! थेरे जगवते वदामो, णमंसामो
पर्युपासनात्रैविध्यं मनोवाकायभेदादिति । ( महश्महासियाए
त्ति) आलप्रत्ययस्य स्वार्थिकत्वाद् मदति महत्या: । भ० ३ जाव पज्जुवासामो,एयएणं इहनवे परभवे जाव आणुगा
श०५उ.। मियत्ताए भविस्स त्ति कह अामयस्स अंतिए एयमटुं| तंगियायण-तुलगिकायन-पुं० । तुषिगोत्रापत्ये ऋषी, कपणिसुणेति, पमिमुणिता जेणेव सयाई गेहाई, तेणेव उवागच्छति,उवागच्छताएहाया कयवलिकम्मा कयकोनयम-तुंगी-देशी-रात्रौ, दे० ना०५ वर्ग १४ गाथा। गलपायच्छित्ता सुधप्पावेसाई मंगसाई वत्थाईपवराई परि-तुंड-तुएड-न० । मुखे, विशे० । प्रा० क । पुरोजागे, नि.चू॥ हिया अप्पमहग्यालरणालंकियसरीरा सएहिं स एहिं गेहेहिंतो “सायं से धूता सगमस्स तुमे ठिता" नि० ० १ ०। पमिनिक्खमंति, पडिनिक्खमइत्ता एगयो मेलायंति, पाय
आस्ये, दे० ना०५ वर्ग १४ गाथा। विहारचारेणं तुंगियाए नयरीए मकं मोणं निग्गच्छति, तुमिक-तुएिमक-पुं० । वेबाक्ल वास्तव्ये स्वनामख्याते वणिनिग्गच्चइत्ता जेणेव पुष्फईए नाम चेइए होत्या, तेणेव
जि. पा. का('जत्तासिद्ध' शब्देस्मिन्नेव भागे १३०.
पृष्ठे कथा) उवागच्छंति, उवागच्छइत्ता थेरे भगवते पंचविहेणं अनि
तुंमीर-देशी-मधुरविम्बे, दे० ना० ५ वर्ग १४ गाथा । गमेणं अनिगच्छंति । तं जहा-सचित्ताण दव्वाणं विउस
तुंडुअ-देशी-जीणेघटे, दे० ना० ५ वर्ग १५ गाथा । रणयाए, अचित्ताणं दवाणं अविनसरणयाए, एगसाडिएणं उत्तरासंगकरणेणं चक्खुप्फासे अंजलिपगहेणं माण
तुंतुखमिअ-देशी-वरायुक्ते, दे० ना० ५ वर्ग ३६ गाथा। सा एगत्तीकरणेणं जेणेव थेरा भगवंतो तेणेव उवागच्छंति. I तुंद-देशी-उदरे, दे० ना० ५ वर्ग १४ गाथा । उवागच्छपत्ता तिक्वत्तो आयाहिए पयाहिणं करोति जाव तुंदपरिमिय-तुन्दपरिमित-त्रि० । उदरभरणव्यग्रे, सत्र० १० तिविहाए पज्जुवासणाए पज्जुवासंति । तए णं ते थेरा| श्रु०७ मा । जगवंतो तेमि समणोवासयाणं तीसे य मह महालियाए | तुंदिन-तुन्दिन-त्रि० । तुन्दमस्यास्तीति तुन्दिनः । यथेप्सित. परिसाए चान जाम धम्म परिकहेंति ।जहा केसिसामिस्स भोजनेन बर्वितोदरे, उत्त०७०। जाव समणोवासत्ताए आणाए पाराहए भवइ० जाव | तुंव-तुम्ब-न• अलाबाम्, का० १७.१० । राधा निचूण धम्मो कहिओ॥
अष्टादशे ज्ञाताध्ययने, स० १८ समा श्रावण शकटनाभ्याम्,
"जेण कुत्रं आयतं, तं पुरिस भायरेण रक्खेज्जा । न हि तुंब. (पमिसुणेति त्ति) अभ्युपगच्छन्ति (सयाति) स्वकीयानि । सिम विणटे, अरया साहारया होति ॥१॥" प्रा० म०११०१ (कयबालिकम्म त्ति) स्नानानन्तरं कृतं बलिकर्म यैः स्वगृहदे- नएम । कप्रत्ययोऽपि । अनु० । उत्त० । स्था। वतानां ते तया । (कयकोउयमंगझपायच्चित्त त्ति) कृतानि तुंचाणाय-तुम्बात-न० । अलावूदृष्टान्तप्रतिपादके षष्ठेऽध्ययने, कौतुकमाङ्गल्यान्येव प्रायश्चित्तानि पुःस्वप्नादावघातार्थमवज्ञा० १ श्रु० १५० प्रा० चू०। ('कम्म' शब्द चैतत् तृतीइयकरणीयत्वाद्यैस्ते तथा । अन्ये त्याहुः-(पायच्बुत्तत्ति) पादेन | यभागे ३३३ प्रष्टे उक्तम) पादे चा, बुप्ताश्चकुर्दोषपारहारार्थ पादचुप्ताः, कृतकौतुकमङ्गना
तुंवर-तुम्बर-त्रि० । कच्चे आमे, "जह तरुणअंबगरसो, तुवरश्व ते पादच्छुप्ताश्चेति विग्रहः। तत्र कौतुकानि मषीतिलकाऽऽ.
कवितस्स वा वि जारिसमो। (१२)" उत्त ३४०। दीनि,मकलानि तु सिझार्थकदध्यक्षतर्वाराऽऽदीनि । (सुद्धपाचेसाई ति) शुद्धाऽऽत्मानो वेष्याणि वेपोचतानि । अथवा.
तुंवरफल-तुम्बरफल-न० । हरीतकीप्रभृतिषु, वृ०१०। शुद्धानि च तानि प्रावेश्यानि स राजाऽऽदिसभाप्रवेशोचितानि | तुंबवणम्गाम-तुम्बवनग्राम-पुं०। स्वनामख्याते प्रामे. यत्र सु. शुरुमावेश्यानि । (वस्थाई पचराई परिहिय ति) कचित् | नन्दाभिधानां साधानां भार्या मुक्त्वा धनगिरिणा दीका गृहीदृश्यते । कचिच-(वस्थाई पवरपरिहिय त्ति)तत्र प्रथमपागे | ता । कल्प० १ कण। श्रा० चू० । प्रा० म० । व्यक्तः, द्वितीयस्तु प्रवरं यथा भवतीत्येवं परिदिताः प्रवरप- तुंववीण-तुम्बवीण-नि० । तुम्बयुक्ता बीणा येषां ते तुम्बचीरिहिताः। (पायविदारचारेणं ति) पादविहारण, न यानविदा
| णाः। तुम्बवीणावादकेषु, जीव० ३ प्रति०४०। रेण,यश्वारो गमनं स तथा तेन । (अभिगमणं ति) प्रतिपच्या अभिगच्छन्ति समीपं गच्छन्ति । ( सचित्ताणं ति) पुष्प
| तुंववीणिय-तुम्बवीणिक-त्रि० । तुम्बयुक्ताया वीणाया वादताम्बूनाऽऽदनाम ( विसरणयाए ति) व्यवसजनया त्यागेन ।। .
| के, रा०। आचा। प्रश्न । ज्ञा० । अनु०। (अचित्ताणं ति) वनमुद्रिकानाम ( अविवसरणाए नितुंबसाग-तुम्बशाक-पु. । स्वनामण्याते शाकविशेषे, उत्त० श्रत्यागेन । (एगलामिपणं ति) अनेकोत्तरीयशाटकानां नि। २०। पेधार्थमुक्तम् । (उत्तरासंगकरणेणं ति) बत्तरासग उत्तरी- ना-तम्बा-स्त्री० । चमरस्य बलस्य च लोकपालानामग्रमहियस्य देहेन्यासविशेषः। चतुःस्पर्शे रष्टिपाते। (पगत्तीकरणेणं बीणां चायन्तरपरिषदि, स्था० ३ ठा० २ उ• । चन्दस्य सू.
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( २३३५) अभिधानराजेन्द्रः ।
तुवा
येस्य च सामानिकामदिषीय चाभ्यन्तरपरिषदि स्था०
३ ० २ ० 1
बाग-तुम्बाक- न० | श्वमिजाऽन्तर्वर्त्तिनि, श्रायां तुलस्यां च । स्त्री० । दश० ५ ० १ ० । विधी- तुम्बिनी-श्री० [विशेषे खाया १०१ २०
५ उ० ।
बिली - देशी - मधुपटले, उदखले च । दे० ना० ५ वर्ग २३ |
गाथा ।
तुंबी-देशीया दे० ना०५ वर्ग १४ गाया । तुंबुरु-तुम्बुरु - पुं० | श्री सुमतेर्यक्षे, स च श्वेतवर्णो गरुमवानचतुर्भुजो वरदशक्तियुक्तदक्षिणपाणिद्वयो, गदानागपाशयुक्तवामपाणिद्वयश्च । प्रब० २६ द्वार । शक्रस्य देवेन्द्रस्य गन्धर्वा. नीकाधिपती, स्था० ७ ठा० । तृतीये गन्धर्वे, प्रज्ञा० १ पद । वृकविशेषे, स० ० सम० ।
बे-तुम्बेक - न० | ज्ञाताऽध्ययनभेदो आव० ४० । तुच्छ–तुच्छ-त्रिः। भसारे, आव० ६ अ० | पं० ब० । श्रल्पे भ० ६ ० ३३ उ० । प्रइन० । उन्मत्ते, न तुच्छो भवेनोन्मादं ग[सू० १० १४० चतुर्थीनीचतुर्दशीपासु ति धिषु, चं० प्र० १० पाहु० | द० प० । सू० प्र० । रिक्त, स च - व्यतो निर्धनो जलाऽऽदिरहितो घटाऽऽदिव, भावतो ज्ञानाऽऽदिरहितः । श्राचा०१ भु०२ श्र०६ उ० । इमके, काष्ठदारकाऽऽदौ, अथवा कृतिश्वर्यधनोपेतो, जात्यन्दयबलान्वितः । तेजस्वी मतिमान् ख्यातः, पूर्णस्तुच्छ विपर्ययात् ॥ १ ॥ 93 इत्युक्तक अपूर्ण, श्राचा० १० २ ० ६३० । अवशुष्के, दे० ना० ए वर्ग १४ गाथा ।
तुच्छम-देशी- रञ्जिते. दे० ना० ५ वर्ग १५ गाथा | तुच्छकहा- तुच्छकथना - स्त्री० । अपरिणतदेशनायाम, पं०
व० ४ द्वार ।
तुच्छकुल-सुच्छकुल- जि०
कल्प० २ क्षण बा
डालाssदीनां कुले, न० । स्था० ८ ठा० । श्रा० म० । तुच्छग तुच्छक वि० अगम्भीरे, पञ्च चिचण ब्रा० चू
आ० म० । आचा० ।
तुच्छत - तुच्छत्व - न० । निःसारतायाम, न० १८ ० ३ उ० । तुच्छ्रय- देशी- रजिते दे० ना० ५ वर्ग १५ गाथा | तुच्छरूत्र - तुच्छरूप – त्रि० । तुच्छं हीनं रूपमाकरो यस्य स तुच्वरूपः । हीनाssकारे, स्था० ४ ठा० ४ ० । तुच्छुत्ति- तुच्छोक्ति - स्त्री० । तुच्छबुद्धिप्रणीतवचने, व्या० १४
अभ्याo |
तुच्छोभासि (ए) तुच्छावभासिन बि० तुच्छो जनताऽऽदि तो एव तद्विनियोजकत्वात् तुच्छावभासी । रुटृणामपूर्णावभासिनि, स्था० ४ ४० ४ उ० । तुच्छास नक्वाया- तुच्छीपभिता स्त्री०
असारा
-
पामोषधीनां नकणरूपे उपभोग परिनोगादेरतिवतस्यातिचारे, उत्त० १० उदाहरणम" एगो खेत्तरक्खगो, से गानो खाए, शया निग्गओ, खार्थतं पच्छर, ततो वारिए इतो खायर, रा
तुलग
कोण पोट्टं फालियं, केन्तियाओ खाइयाश्रो होज्जतिः, नवरिफे, अन्नं न किंचि अस्थि । आव० ६ श्र० । ध० र० । तुज्ज- तूये- - न० । घाद्यभेदे, सू० प्र० १० पाहु० । तुच्छतपद्
३७२ || इति ङसिङभ्यां सह युष्मदस्तुज्झ इत्यादेशः । प्रा०
—
४ पाद ।
तुट्ट त्रुट्-धा० । छेदने, दिवा०] तुहा० पर० - सक० - लेट् । "शmissदीनां द्वित्वम् ॥ ८ । ४ । २३० ॥ इति द्वित्वम् । प्रा० ४ पादयति व्यवच्छिद्यते जीवानां जीवितमिति शेषः । सूत्र०१ श्रु० २ श्र० १३० | तुय्यति च्यवते । सूत्र० १ ० २ श्र० १ ० । जीविताच्च्यवने, सूत्र ० १ ० १ ० १ उ० । त्रोटयेदपनयेत श्रात्मनः पृथक्कुर्यात्परित्यजेद्वा । सुत्र० १ ० १ अ ० १ उ० । तुष्ट त्रि० संतुष्टे, उत्त १८ अ० । तोषं कृतवति, आ० म० १ अ० १ खराम | औ० । जी० । न० । ० । श्रचा । झा० । उत्त० । सन्तोष प्राप्ते, कल्प० १ ॠण ।
""
तुट्टि - तुष्टि - स्त्री संतोषे, कल्प० १ क्षण | मनःप्रसत्तौ, कल्प०६ क्षण। नवधा तुष्टिः - प्रकृत्युपादानकाल भोगाऽऽख्याः, अम्भःसलिलौघवृष्टयपरपर्यायवाच्याश्चतस्त्र आध्यात्मिकाः; शब्दाऽऽदिविषयोपरतयश्चार्ज नरक्षण क्रयभोगहिंसा दोषदर्शन हेतुजन्मानः पञ्च बाह्यास्तुष्टयः; ताश्च पारसुवारपारापारानुत्तमाम्भउत माम्भः शब्दव्यपदेश्या इति । स्था० १५ श्लो० | उत्सवे, नि० १ श्रु० १ वर्ग १० ।
-
तुमे
11
तुम तुम् धा० । भेदे, तुदा पर० सक० - सेट् । “ स्तोड तुट्ट- खुट्ट-खु मोक्खु मोल्लुक्क - णिसुक्क - लुक्कोल्हूराः | ४ | ११६ ॥ इति 'तुम' धातोरेते नवाऽऽदेशाः । प्रा० ४ पाद। तुमय त्रुटिन पूर्वे, जं० २० औ स्थादिव्य तूर्ये श्रा० म० १ अ० १ खएम वेणुवीणामृदङ्गादिषु श्रातोयेषु, रा० । परदाऽदौ, स्था० ८ ठा० । श्रतोद्ये, रा० । श्र० म० | जं०] | प्रज्ञा० । वादित्रे, झा० १ ० १ ० । कल्प० । ततवितततन्त्रीतलताल भिन्नवादित्रे, कल्प० १ क्षण । जं० दशा० ॥ भ० औ० । रा० । चतुरशीत्या लक्षैर्गुणिते त्रुटिता, कर्म० ४ कर्म० | जं० | कल्प० स्थान अनु० | ज्यो० जी० भ० बाहुक्षिकायाम्, स्त्री० रा० । ० । स्था० । आखा । तं । श्र० । स० । उत्त० । प्रज्ञा० । जं० ॥ भ० । चमरस्य सामानिकानाप्तभ्यन्तरपरिषदि स्था० ३ वा०२३० | "तुमियं धिग्गलं । " इति देशी भाषा । नि० चू० २ उ० । तुडयंग - त्रुटिताङ्ग[-न० । चतुरशीत्या लक्कगुणितपूर्वे, स्था० २ बा० ४ ० "बउरासी पुण्यसहरसा से बडगे" अनु० | जं० । कर्म० भ० । सुबमसुषमायां भरतैरवतयोरकर्मभूमिषु च जाविनि कल्पवृक्के, तं० श्राव० जी० ति० । स० । नितिकरणत्वात् बुद्धिताङ्गः सूर्यदायिनि उ १. सुपे भाषातुमियंगेसुसंगत या बहु स्था० १०० तुझा ओ देशी कुश्खः स्यविशेषे दे० ना० ५ वर्ग
-
गाथा
१६
तुष्यग-तुन्नाक- त्रि० । सीवनकर्मकर्त्तरि, नं० । श्राचा• । अ० चू० । प्रज्ञा । अनु० । अ० म० ।
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(२३३६) तुरणाग अन्निधानराजेन्द्रः।
तुयट्टियव्व तुपाग-तुभाक-त्रिका'तुमग' शब्दार्थे, मं० ।
तुमा.." ॥८३६४ ॥ इत्यादिना टासहित्तस्य युष्मदः 'तुमाई' तुमिय-तुनित-त्रि । तुकारणे स्वकसाकौशसतः पूरिते छि- इत्यादेशः। प्रा०३पाद । देवृ०१०।
तब-त्रि.। " तहतु-ते-तुम्ह-तुह-तुहं तुव-तुम-तुमे तुमो-तुमातुहिक-तृष्णीक-त्रिका "सेवाऽऽदौ बा" |ए | इति ३.-" ॥5३।९६ ॥ इत्यादिना षष्ठयेकवचनेन सह युष्मककारस्य षिकस्पेन द्वित्वम् । पक-' तुहिम ' ।प्रा.पाद।
दस्तुमाह इत्यादेशः प्रा०.३ पाद । मौनावलम्बिनि, प्रा० म० १ ० २ स्त्रयम । नि. च।।तुमाण-युष्माकम्-त्रि० । "तु बोभे-तुम्भ-तुम्भं तुम्भाण-तुवाणतूणीभाव भजमाने, नि० चू।"जह णाविए गंमूसं कौती तुमाण-" ॥८।३। १००॥ इत्यादिना प्रामा सहितस्य घेतूण नाम तुण्डिको।" नि.१ उ.। मृदो, निश्चले च ।। युष्मदस्तुमाण इत्यादेशः।प्रा. ३पाद । दे० ना.५ वर्ग १५ गाथा।
तुमातो-त्वत्त:-विका"श्रतो सेडातोमातू" ॥४॥३१॥ तुएही-देशी-सूकरे, दे० ना.५ वर्ग १४ गाथा ।
| इति पैशाच्यामकारात्परस्य सेहिती 'मातो-मात्' स्यादद-तोद-पुं०। प्रतोदाऽऽदिषु, "रहंसि जुत्तं सरयति बालं, मा.| शौ। प्रा०४ पाद । रुस्स विज्कंति तुदेण पिके। "कोपं कृत्वा प्रतोदाऽऽदिना | तुमे-त्वया-त्रिका "भे-दि-दे-ते-तह-तप-तुम तुम-तुमर तुमे" पृष्ठदेशे तं नारकं परवश नयन्ति । सूत्र० १ ० ५ १०२ उ०। ८।३।६४ ॥ इत्यादिना टासहितस्य युष्मदस्तुमे इत्यादेशः। तुप्प-तुप्र-पुंग। मृतककोवरं वशाध्ताऽऽदिभिः परिणामिते, वृ० । प्रा०३ पाद। १ उ० । नि० खून कौतुके, विवाद, सर्षपे, नक्किते, स्निग्धे, कु- तव-नि।" तह-तुंरते-तुम्ह-तुद-तुहें तुब.." ॥ ३ ए । तुपे च । दे० ना०५ वर्ग २२ गाथा।
इत्यादिना सा सहितस्य युष्मदस्तुमे इत्यादेशः । प्रा. ३ तुप्पग्ग-तुमाग्र--न । नकिता, कस्प. २ क्षण।
पाद। तुप्पोट्ट-तुपोष्ठ-त्रिका तुप्रा प्रक्विता मदनेन वा वेताशीतर तुम्ह-स्वया-त्रिका "तर-तु-ते तुम्हं0-110DAEE इत्यादिना टासक्षादिनिमित्तमोष्ठा येषां ते तुम्रोष्ठाः । प्रतितोष्टेष ग.२ हितस्य युष्मदस्तुम्हमित्यादेशः । प्रा०३ पाद । अधि० । अनु।
तुम्हकर-युष्मदीप-त्रि.। युष्माकमिदम् । वाच । " श्वमर्थतुबरी-तुबरी-स्त्री० । मासघकाऽऽदिप्रसिरे धान्यविशेष, ध० | स्य केरः"॥ ११४७॥ ति इवमर्थस्य प्रत्ययस्य केर २भधिः।
स्यादेशः । प्रा०२ पाद । "युष्मद्यर्थपरेतः"॥ ८।१।२४६ ॥ तुम्भ-स्वत्-त्रिका "तुम्ह-तुम्न.-"||३।१७॥ इत्यादिना - इति युष्मदर्थपरे यकारस्य तकारः। प्रा०१पाद । युष्म
संबन्धिनि, वाच। सिना सह युष्मदस्तुम्भ इत्यादेशः। प्रा० ३ पाद । तुम्जतो-स्वत्त:-त्रि०। " तश्तुव-तुम-तुद तुम्भा सौ ॥१३
तुम्हाण-युष्पाकम्-निका"तु-वो-भे-तुबम-तुम्भ-तुम्जाण-तुवाण
तुमाण-तुहाण-तुम्हाए..॥८।३।१.०॥ इत्यादिना मामा ९६॥ इति सि परतो युष्मदस्तुम इत्यादेशः। एवं 'तुम्ह
सहितस्य युष्मदस्तुम्हाण इत्यादेशः। "कस्वास्यादेणस्वोर्षा" तो इत्यपि। प्रा०३ पाद ।
॥८।१।२७॥ इति पक्केऽनुस्वारोऽपि । प्रा० ३ पाद । तुम्भाण-युष्माकम्-त्रिका "तु-यो-भे-तुम्भ-तुम्नं-तुम्भाण.."101 ३।१०० इत्यादिना मामासहितस्य युष्मदस्म्भाण श्स्यादेशः।
तुम्हारिस-वाहश-त्रि०ा “ युध्मधर्थपरे तः " ॥८।१।२४६॥
इति तकारः ।"दृशः किए टक्सकः " ॥८।१। १४२ ॥ प्रा.३पाद । तुम्जे-यूयम्-
त्रिने-तुम्भे तुज्मे०-" ||३९१॥ इत्यादिना इति कि टक्सक् पतदन्तस्य दशेर्धातातो रिरादेशः । जसा सहितस्य युध्मदस्तुम्भे इत्यादेशः। प्रा० ५ पाद।
स्वत्सरशे, प्रा० १पाद । सम-तव-त्रिका तह-तुं-ते.तुम्ह-तुह-तुदं तुव-तुम०-"॥5३।। तुम्हे-ययम-त्रिका "ने-तुम्ने-तुज्." ॥ ३॥ १॥ इत्यादिना २४ ॥श्त्यादिना षष्ठकषचनेन सहितस्य पुष्मदस्तुम इत्या
जसा सहितस्य युध्मदस्तुम्हे इत्यादेशे “भो-म्ह-उझो बा" देशः । प्रा० ३ पाद । बहुवचनोचारणयोभ्मे तिरस्कारप्रधान
॥८।३।१०४ ॥ इति वचनात् हकारः । प्रा० ३ पाद । कवचनान्ते, सत्र० १७.६०।"तुमं ति पत्ता भण। "तुम्हेश्चय-योष्पाक-लि । “युष्मदस्मदोन एच्चयः" ॥ ८॥२॥ श्राव.१५०। स्था।
२४६॥ इति युष्मदः परस्यदमर्थस्याज एचय इत्यादेशः । तुपद-स्वया-त्रिका "भे-दि-दे-ते-तइ-तप-तुमं तुम.." १४॥ प्रा०२ पाद। इत्यादिना टासहितस्य युष्मदस्तुम इत्यादेशः । प्रा० ३ पाद ।। तुयट्टण-स्वरवर्तन-न। शयने, नि० ० १. उ००। पि.। तमप-स्खया-त्रि०ा" ने.दि-दे-ते-त-तप-तम-तुम-तमप०." |
ज्य । दश । उत्त। स्थावृ० । संस्तारकं प्रस्तीर्य शयने, ।।३।१४॥ स्यादिना टासहितस्य युष्मदस्तुमर इत्यादेशः। वृ. ३० निषमाऽऽसीने, 'तुयहूति' निषमा आसते । म०१३ एवं 'तुम' इत्यपि । प्रा० ३पाद ।
श०६ उ०। तुमता-वत्त:- " तहतुवन्तुम.."।। ३।६॥ इत्या. तयट्रिय-स्ववर्तित-त्रि०वामपावतः परावृश्य दक्षिणपावन, दिना सि परतो युष्मदस्तुम इत्यादेशः । प्रा० ३ पाद । | दक्षिणपार्श्वतः परावृश्य वामपाइँन वा प्रतिष्ठमाने, रा.। तुमाइ-स्वया-त्रि०"भेद-दे-ते-तह-तप-सुम-नुम-तुमप-तुमेतयटियन-त्ववर्तितव्य-न। करव्ये शयने, भ.२१०१३०
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(२३३७) तुयावइत्ता अमिधानराजेन्डः ।
तुला तुयावहत्ता-तोदायित्वा-अन्य । तोदं कृत्वा 'व्यथामुत्पाद्य' या तरियगड-त्वरितगति-स्त्री.मानसौत्सुक्यप्रवर्तितवेगवद्गती, प्रवज्या दीयते मुनिचन्मपुत्रस्य सागरचन्डेणेव सा तथा। भ०३ श०२ उ०। “तुरियगई खिप्पगई।" विकमारेन्योरप्रव्रज्याभेदे, स्था० ३ वा. २००।
मितगत्यमितवाहनयोः पौरस्त्ये लोकपाले, स्था० ४ ग० १ तुय्ह-युष्माकम्-त्रि० । “तु-वो-जे तुम्ह-तुम्नं0-"॥८।३।
उ०। भ०। १०.॥ इत्यादिना प्रामा सहितस्य युष्मदस्तुरह इत्यादेशः ।। तुरियनासि (ण)-त्वरितभाषिण-त्रि० । अविवेकनापिणि, प्रा० ३ पाद ।
| आचा०२ श्रु०१ चू०४ म०२ उ०। तुय्हे-यूयम्-त्रि० । “ भे-तुम्भे-नुज्ज-तुम्ह०." ॥८।३।१॥ तुरिया-त्रुटिता-स्त्री० । बादुरक्षिकायाम, औ०।
श्त्यादिना जसा सहितस्य युष्मदस्तुरहे इत्यादेशः। प्रा०३ पाद । तुरी-देशी-पीने, तूलिकानामुपकरणे, दे० ना.५ वर्ग २२ तुम्हेडिं-युष्माभिः-त्रि० । “भे-तुम्नहि-उज्केहि-उम्हेहि-तुरटे.
गाथा। दि."॥८।३।१५॥ इत्यादिना भिसा सहितस्य युष्मदस्तु
तुरुक्क-तुरुष्क-न० । सिहके, शा० १ श्रु० १ ० । जी• । रहदि इत्यादेशः। प्रा०३ पाद ।
प्रा. म. भ.। तुरंत-स्वरमाण-त्रि०। "तुरोऽत्यादौ"10१७॥ इति । तुरुक्कधूव-तुरुष्कधूप-पु० । सेहकलकणे धूपे, उत्त० १ ०। अत्यादा परतस्त्वरशब्दस्य तुर इत्यादेशः । संभ्राम्यति,
| तुरुक्ख-तुरुष्क-न। सिहकानिधाने गन्धमन्ये, स०३४सम01 प्रा० ४ पाद । शीघ्र, तं.।
औ• प्रज्ञा । जं. रा०। तुरग-तुरग-पुं० । अश्वे, अनु। कल्प• । ०। प्रव. रा.।। तुल-तुल-धा० । सन्माने । चुरा०-उभ० । पक्षे-यादि०तुरगा माटव्या महाकायाः पशवः परसरेति पर्यायान०११ पर०-सका सेट् । वाचा "तुलेरोहामः" 111५॥ श. ११ उ० ।
इति एयन्तस्य तुलेरोहाम इत्यादेशः। 'मोहामा पक्षे-'तुझतुरगमुह-तुरगमुख-पुं० । अनार्यदेशविशेष, प्रच० २७ द्वार ।
।'प्रा०४ पाद। "कैकयकिरीयहयमुह-खरमुह तह तुरगमेंढयमुहा य।" सूत्र.
| तुलग्ग-देशी-काकतालीये, दे० ना०५ वर्ग १५ गाया। २७.१०।
तुलणा-तुलना-स्त्री० । परिच्छेदे, " जहा श्मेहिं दसहिं अंगेतुरगढग-तुरगमेढ़क-पुं०। धर्मसंज्ञारहिते अनार्यदेशविशेष,
हिं पमलहि रिश्रो उट्ठति, तदा तं कालं तुलेति।" निo सूत्र० १ ० ५ ० १ उ०।
०२००। पञ्च तुलना जिनकल्पे उक्ताः, 'तवेण इत्यादि'तुलतुरगारोहणसिक्खा-तुरगारोहणशिक्का-स्त्री०। तुरगारोहण.
ना, भावना, परिकर्म चैकार्थाः। विशे० । व्य० । नि० चू०।
पं० चू०॥ध । स्था। उत्त। (द्रव्याऽऽदितुलनया तोलविषयकशिक्काभेदे, कल्प०७ कण।
यित्वैव प्रवाजनीयः शिष्य इति 'पन्चाजबा' शब्दे वच्यते) तुरतुंगव-तुरतुलव-पुं०। त्रीन्द्रियजीवभेदे, प्रज्ञा १ पद ।
तुलसी-तुलसी-स्त्री.। पत्रिकाविशेषे, प्रव० ४ द्वार। "रूढी तुरय-तुरग-पुं०। 'तुरग' शब्दार्थे, मनु।
आदर पाली, तुलसी तह माउलिंगा या" प्रका.१ पद । तुरा-स्वरा-स्त्री.। बेगे, अभीष्टलाभाथै विनम्बासहने च । स्था । पञ्चा० ।सरसलतायाम, दे० ना०५ वर्ग १४ गाथा । वाचा "प्रवरा सर्वकार्येषु, त्वरा कार्यविनाशिनी । स्वरमा
गुच्छविशेषे, प्राचा०१७.१.५ उ०।। न मोण, मयूरो बायसीकृतः ॥१॥" मा. चू०१०।।
तुला-तुला-स्त्री० । औपम्ये, सूत्र०२ श्रु०२०।" पतं तु.
लमसि शह संतिगया दचिया णावकंवंति।" का पुनरसौ तरिमिणी-तुरिमिणी-स्त्री० । भारतवर्षे स्वनामख्यातायां नग.
तुला?, यथाऽऽत्मानं सर्वथा सुखानिनाषितया रतसि, तथा योमा दर्श०३ तव । “पुरी तुरिमिणी तत्र, जितशत्रुनराधि
परमपि रक, वथा परं तथाऽऽस्मानमिति । प्राचा० १७० पः। भाजो द्विजो दत्तः, कालिकाऽऽचार्यजामिजः॥१॥"
१०७० | तोलनदएमे, वाच। मा..। तुरिमिणीनगर्यामुपसर्गकारी तरुणजनो पात् हतमथितविप्रारब्धः। ०४ उ०।
संप्रति तुलामानमाह
पणतीस लोहपलिया, बट्टा वावत्तरंऽगुला दीहा। तुरिष-स्वरित-न। "तुरोऽत्यादी"॥८।४ । ७१ ॥ इति
पंचपल धरणगस्स य, समायकरणे तुला हो॥ स्वरशब्दस्य 'तुर' इत्यादेशः। प्रा० ४ पाद । शीने, रा.प्राo म०प्र० मा अनुभका• स्वरा संजाता अस्यास्वरायुक्त,
सगालितानां पञ्चत्रिंशत्संख्यानां लोदपलानामत्यर्थ घनैः न श०२० । का० । रा० । जी० । औत्सुक्यवत्या
कुट्टनेन निर्मापिता, वृत्ता सुवृत्ता, विषमोश्चत्वहीना श्त्यम, कम्प० २कण । आकुले च । बाच०।
थः । द्वासप्तत्याला दीर्घा (पंचपल धरणगस्स य ति) ध्रियते
येन तद्धरणं, धरणमेव धरणकं,येन धृत्वा तोल्यतेतदित्यर्थः। तर्य-नि। मेरीमृदापटहकरतालतालाऽऽदिषु, उत्त० २५
तस्य प्रमाणं पञ्च पलानि कर्तव्यानि । ततः समाचकरणे धर० । द्वादशप्रकारस्तूसिकातः । स चायम्-"भभामकुंदन- जके तुलायां संयोजिते सति यत्र प्रदेशे तुला ध्रियमाणा सइल-करंबकचारगुडककंसामा । काहसतानमा बंसो, संखो मा भवति, नैकस्मिन्नपि पके अग्रतः पृष्ठतो वा नता उन्नता वा पणबो बबारसमो॥१॥"मा०म० १०१सएम। भवति, तत्र प्रदेशे समायकरणे-समतासमागमपरिज्ञान
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तुला
निमित्त रेखाकर, तुला परिपूर्णा भवति । तस्यां चैवंभूतायां तुलायां समकरणीरेखामपहाय शेषा रेखाः पञ्चविंशतिर्भवन्ति ।
तथा चाऽऽह
सव्वगेण तुझाए, लेहाओ पंचवीस होंति । चत्तारि य लेढाओ, जाओ नंदीपिणद्धाओ ॥
(2130) श्रभिधानराजेन्द्रः ।
तुलायां तौल्यपरिमाणसूचिकाः सर्वाग्रेण सर्वसख्यया, रेखाः पञ्चविंशतिर्भवन्ति । तासां च पञ्चविंशतिसङ्ख्यानां रेस्वाणां मध्ये या रेखाः नन्दीपिनद्धाः फुलिकायुक्ताः, ताश्चतस्रो
वेदितव्याः ।
तत्र पञ्चविंशतिमेव रेखाः प्ररूपयति-समकरणि श्रद्धकरिसा, तो करिमुत्तरा य चत्तारि । तत्तो पलुचराओ, जाव यदसग ति लेहाओ | बारसिया पन्नरसी, बीसग एतो दसुत्तरा ग्रह | एवं सव्वसमासो, बेदाणं पनवीसं तु ॥
तुलायां प्रथमा रेखा तावत् समकरणी भवति, यत्र प्रदेशे धरणकसहिता तुला प्रियमाणा समा नवति तत्र प्रदेशे समतापरिज्ञानार्थमेका रेखा भवतीत्यर्थः। सा पञ्चविंशतिसया गणनेन गहयते, तस्याः समतापरिज्ञाननिमित्ततया तौल्यवस्तुपरिमाणेऽनुपयोगात् । ततः प्रथमा रेखा श्रकर्षा श्र कर्षरूपपरिमाणसूचिका नवति । ततः कर्षोत्तरा कर्षाऽऽद्येकैककवृद्धिसूचिकाश्वतस्त्रो रेखा भवन्ति । तद्यथा--द्वितीया कर्षरूपपरिमाणसूचिका, तृतीया द्विकसूचिका, चतुर्थी त्रिकर्षत्रिका, पञ्चमी चतुःकर्षसूचिका, पलसूचिकेत्यर्थः । ( तत्तो इत्यादि) ततः पञ्चमरेखात ऊर्द्ध रेखाः पल्योत्तराः, एकैकपल वृद्धिसूचि कास्तावदवसेया यावद्दकमिति दशपल सूचिका रेखा । तबथा षष्ठी रेखा द्विपल सूचिका, सप्तमी त्रिपलसूचिका, अष्टमी चतुःपक्षसूचिका, नवमी पञ्चपल सूचिका, एकादशी सप्तपलसूचिका, द्वादशी अष्टपल सूचिका, त्रयोदशी नवपलसूचिका, च तुर्दशी दशपलसूचिका । ( वारलेत्यादि ) ततः पञ्चदश । रेखा द्वादशपसूचिका, पोमशी पञ्चदशपल सूचिका, सप्तदशी विंशतिपत्रसूचिका ( पत्तो दसुतरा श्र त्ति ) श्रत ऊर्द्धमष्टौ रेखा दशोत्तराः, दशकवृद्ध्या पलपरिमाणसूचिकाः । तद्यथा-अष्टादशी रेखा त्रिंशत्वसूचिका, एकोनविंशतितमा च त्वारिंशत्सूचिका, विंशतितमा पञ्चाशत्पल सूचिका, एकविंशतितमा षष्टिपनसूचिका, द्वाविंशतितमा सप्तति पत्रसूचिका, त्रयोविंशतिनमा प्रशीतिपल सूचिका, चतुर्विंश तितमा नवतिपल सूचिका, पञ्चविंशतितमा सूचिका, शति के काण्डे पञ्चविंशतितमा रेखा जवतीत्यर्थः । एवमुक्तेन प्रकारेण रेखाणां सर्वसमासः सर्वसंक्षेपः, सर्वसंखेत्वर्थ । पञ्चविंशतिरिति ।
पत्त्रशत.
यदुक्तम् - पञ्चविंशतिरेखाणां मध्ये चतस्रो रेखा नन्दीपिनशिका इति, तदूव्याचिख्यासुराह
पंचमु य पन्नरसगे, तीमग पन्नासगे य लेहाभो । नंदीपिपद्धिकाम, मेसाओ नज्जुलेहाओ ।। पञ्चसु पञ्चत्रिंशति पञ्चाशति त्र या रेखास्ता नन्दी पिन[रूकाः । किमुक्कं भवति ? - पञ्चपल परिमाणसूचिका, पञ्चदशप
तुलय लपरिमाण सूचिका, त्रिंशत्पलपरिमाणसूचिका, पञ्चाशत्पलपरिमाणसूचिका, पताश्चतस्त्रो रेखाः फुल्लडिकायुक्ताः, शेषा एकविंशतिसङ्ख्या श्रृजवः । तदेवमुक्तं तुलास्वरूपम् । ज्यो० १ पाहु० । गृहायां दारुबन्धकाष्ठे, पलशते नाथमे, मेषावधितः सप्तमे राशौ, वाच० ।
तुलासम - तुलासम-पुं० । श्ररक्तद्विष्टे, यथा तुला समस्थिता न चाग्रतो न वा पुरतो नमति, सा इवाभ्यं रागद्वेषविमुक्तो मा नापमानसुख दुःखाऽऽदेिषु समः । गृ० ६ ० । नि० चू० । तुलिय-तुलित त्रि० । गुणिते, तं० । उत० ।
1
तुलेऊय - तोलयित्वा - अव्य० । सभ्य निश्चित्येत्वर्थे, बृ०१ ० तुल-तुल्य - न० । सदृशे, औ०। समाने, विशे० । एककाले, नं० । प्रज्ञा० ।
तुलचरित- तुझ्यचरित्र - त्रि• । समानसामायिकाऽऽदिसंयमे, बृ० ६ उ० ।
तुझट्ठिय तुल्यस्थित त्रि० । परस्परापेक्षया समानाऽऽयुके,
भ० ३४ श० १ ८० ।
तुल्य - तुझ्यक- त्रि० । तुल्यमेव तुल्यकम् । समे, प्र० १० श०
७ उ० ।
अथ तुल्यताऽभिधानार्थमाह
रायगिहे जाव परिसा पभिगया, गोयमाऽऽदि ! समोभगवं महावीरे भगवं गोयमं आमंतेचा एवं वयासी - चिरसंसिडोसि मे गोयमा !, चिरसंधुतो सि मे गोयमा !, चिरपरिचितो सि मे गोयमा !, चिरजुसि सि मे गोयमा !, चिरा
गोमा, चिराणुवत्ती सि मे गोयमा !, अणंतरं देवझोए, अणंतरं माणुस्सए भवे, किं परं मरणा कायस्स भेदा इतो चुता दो वि तुल्ला एगट्ठा अविसेसमणाणता भविसामो । जहां जंते ! एयमहं वयं जाणामो पासामो तहा णं णुत्तरोत्रवाड्या देवा एयमहं जारंगति पासंति । । हंता ! गोयमा ! जंहा णं वयं एयमहं जाणामो पासामो तहा णं णुत्तरोचवाझ्या देवा एयमहं जाणंति पासंति । से केलणं० जाव पासंति ? । गोयमा ! अणुत्तरोत्रवाइया णं अंता मरणोदव्ववग्गणाओ बद्धाओ पत्ताओ अभिसमागयाओ जवंति से तेलट्ठे गोयमा ! एवं वुच्चइ० जापासंति । कवि जंते ! तुलए पत्ते ? । गोयमा ! I for तुए पत्ते । तं जहा - दव्बतुलए, खेचतुल्लए, का तुल्लए, भवतुलए, भावतुए, संताणतुलाए । से केणणं भंते ! एवं बुच्चइ-दब्बतुलए, दव्वतृलए । गोयमा ! परमाखुपोग्गले परमाणुपोग्गलस्स दव्त्रत्र्य तुले, परमाणुपोग्गले परमाणुपोग्गलवरित्तस्स दव्व णो तुले । दुपदेसिए खंधे दुपदेमियस्स खंधस्स दव्वओ तुल्ले, दुपदेसिए खंधे दुपदेसिवरितस्स खंधस्स दव्वओं को तुल्ले । एवं० जाव दसपएसिए । तुल्ल संखेज्जप एसिए खंधे संखेज्जपएसियस्स स्वपस्स
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( २३३७) अभिधानराजेन्धः ।
तुल्लय
दव्यच्यो तुल्ले । संखेज्जपए सिए खंधे संखेज्जपएसियन रचस्स संघस्स दव्वो णो तुल्ले । एवं तु संखेज्जपरसिए त्रिः एवं तुलणं तपसिए वि; से तेल डेणं गोयमा ! एवं दुच्चर-दन्त्रतुलए दव्त्रतुलए। से केणठेपणं भंते ! एवं बुच्चइ-खे चतुल्लए खेचतुर ।। गोयमा ! एगपएसोगाढे पांगले एगपएसोगादस्स पोग्गलस्स खेचओ तुल्ले, एगपएसोगाढे पोग्गले एगपएसोगाढवाचस्स पोग्गलस्स खेचओ यो तुल्ले । एवं० जाव दसपए सो गाढे; तुन संखेज्जपरसोगाढे वि; एवं तुल्ल असंखेज्जबएसोगाढे वि; से तेणट्टणं ०जाब खेचतुल्लए । से केणट्टे अंते ! एवं वुच्चइ-कालतुए कालतुए । गोयमा ! एगसमडिए पोग्गले एगसमयस्स विइयस्स पोम्गलस्स कालो तु, एग समयईिए पोगले एगसमय विरिचस्स कालश्रो यो तुल्ले । एवं० जाव दससमयट्टिईए; तुल्ल संखेज्ज समयहिए एवं चैत्र; तुलप्रसंखेज्ज समय हिईए वि एवं चैव, से तेजाब कालतुल्लए । से केणटुणं जंते ! एवं बुच्चइभवतु भवतु | गोया ! बेरइए ऐरइयस्स भवट्टयाए तुझे, रइए रइयवइरिचरस जबट्टयाए णो तुल्ले; तिरिक्खजोगिए एवं चैत्रः एवं मणुस्से वि एवं देवे वि सेतेाद्वेणं • जाव भवतु भवतुले । से केणणं भंते 1 एवं वुच्चइ-नावतुल्ले जावतुल्ले हैं। गोयमा ! एगगुणकालए पोगले एगगुणकालयस्स भावतुल्ले, एगगुणकालए पोग्गले एगगुणकालवइरिचस्स पोग्गलस्स भावओो णो तुल्ले, एवं ०जदन दसगुणकालए तुझ संखेज्जगुणकाल पोग्गले तुल असं स्वेज्जगुणकालए वि, एवं तुल्ल प्रणंत गुणकालए वि, जहा कालए एवं णीलए लोहियए हानिदए सुकिल्लए; एवं सुभिगंधे, एवं दुब्जि गंधे, एवं तित्ते ० जाव महुरे; एवं कक्खमे ० नाव बुक्खे, उदइए जावे उदश्यस्स भावस्स भाव प्रो तुल्ले, उदश्यभाववइरित्तस्स जाओ णो तुल्ले, एवं उवसमिए वि । खइए स्वओवसमिए परिणामिए सलिवाइए भावे समिवाइयस्स भावस्स, से तेषां गोयमा ! एवं बुच्चइ-जावतुल्लए भावतुञ्जए । से केा डें भंते! एवं बुच्चइ - संग तुल्लए संगतुल्झए ? । गोया ! परिमाणे परिमंडलस्स संत्राणस्स संतगणत्र तुल्ने, परिमंडल संठाणे परिमंगलस्स संठाणवई रित्तस्स संठाणस्स संठाणो णो तुल्ने । एवं बट्टे तंसे चनरंसे आयए, समचरंमसंठाणे समचउरंसस्स संवाणस्स संग
तुल्ले, समचरं संठाणे समचरंसस्स संवाणवरतर संगणोतुहले; एवं परिमंमले वि; एवं० जाव हुमे । सेतेणट्ठे जाव संठाणतुलए संठाणतुलाए ।
( रायगिदे इत्यादि ) तत्र किस भगवान् श्रीमन्महावीरः के
तुलय वलज्ञानाप्राझ्या सखेदस्य गौतमस्वामिनः समाश्वासनायाऽऽत्मनस्तस्य च नाविन तुझ्यतां प्रतिपादयितुमाह- ( गोयमेत्वादि) (चिरसंसि सि सि ) चिरं बहुकालं यावत्, चिरेवाऽतीते प्रभूते काले संलिष्टः स्नेहारसम्बश्चिरसंश्लिष्टोऽसि जवस, मे मया मम वा त्वं हे गौतम! ( चिरसंधुतो सि) चिरं बहुकालमतीतं यावत्संस्तुतः स्नेहात्प्रशंसितश्चिरसंस्तुतः । ( एवं चिरपरिचिए ति ) पुनः पुनर्दर्शनतः परिचितश्चिरपरिचितः (चिरजुसिए सि ) विरसेवितश्विरप्रीतो वा । 'जुबी' प्रीतिसेवनयोरिति वचनात् । ( चिरागओस) चिरमनुगतो, ममानुगतिकारित्वात् । (चिराणुवची सिसि) चि रमनुवृत्तिरनुकूलवर्तिता यस्यासौ चिरानुवृत्तिः । इदं च चिरलत्वादिकं वाऽऽसीदित्याद - ( अणंतरं देवलोए ति ) अनन्तरं निर्व्यवधानं यथा भवत्येवं देवलोके, अनन्तरे देवभवे इत्यर्थः । ततोऽपि श्रनन्तरं मनुष्यनवे, जात्यर्थत्वादेकवचनस्य देवभवेषु मनुष्यभवेषु चेति द्रष्टव्यम् । तत्र किल त्रिपृष्ठनवे भगवतो गौतमः सारथित्वेन विरसंश्लिष्टत्वाऽऽदिधर्मयुक आसीत् । एवमन्येष्वपि भत्रेषु संभवतीति । एवं च मयि तव गाढत्वेन स्नेहस्य न केवलज्ञानमुत्पद्यते, भविष्यति च तवापि स्नेहकये तदित्यधृतिं मा कृथा इति गम्यमिति । (किं परं मरण त्ति ) किं बहुना ( परं सि ) परतो मरणान्मृत्योः ? । किमुक्कं भवति ? - कायस्य दातोः (श्रो चुप ति ) इतः प्रत्यदादू मनुष्यभवात् च्युतौ ( दो वित्त) द्वावप्यावां तुल्यौ, भ विध्याव इति योगः | तत्र तुल्यौ समानजीवद्रव्यौ (एग चि) एकार्थावेकप्रयोजनौ अनन्तसुखप्रयोजनत्वात् । एकस्थौ वा एकाश्रित सिकि क्षेत्रापेकयेति । (अविसेसमणागत चि) अविशेषं निर्विशेषं यथा भवत्येवमनानास्वी तुल्यज्ञानदर्शनाऽऽदि पर्यायाविति । इदं च किल्ल भगवता गौतमेन चैत्यवन्दनायापदं गत्वा प्रत्यागच्छता पञ्चदश तापसशतानि प्रवाजितानि समुत्पन्न केवलानि च श्रीमन्महावीरसमवसरणमानीतीनि तीर्थप्रणामकरणसमनन्तरं च केवलिपद समुपविष्टानि गौतमेन चाविदित तत्के व लोत्पादव्यतिकरेणाभिदितानि यथा आगच्छूत भोः साधवः ! जगवन्तं वन्दध्वमिति । जिननायकेन च गौतमोऽभिहितः - यथा गौतम ! मा केवलिनामाशातनां कार्षीः । ततो गौतमो मिथ्या दुष्कृतमदात् । तथा यानहं प्रवाजयामि तेषां केवलमुत्पद्यते, न पुनर्मम ततः किं तन्मे नोत्पत्स्यत एवैति त्रिकल्पादधृतिं चकार । ततो जगद्गुरुणा गदितोऽसौ म नः समाधानाय । यथा- गौतम ! चत्वारः कटा भवन्ति-सुम्बकटो, विदलकटः, चर्मकटः, कम्बल कटकश्चेति । एवं शिष्या त्रपि गुरौ प्रतिबन्ध साधर्म्येच सुम्बकट समाऽऽदयश्चत्वार एव भवन्ति । ('अजहर' शब्द प्रथमभागे २१६ पृष्ठे प्रसङ्गादुकैषा कथा ) तत्र त्वं मयि कम्बल कटसमान इत्येतस्यार्थस्य समर्थनाय न गवता तदाऽभिहितमिति । एवं भाविन्यामात्मतुल्यतायां भगवताऽनिहितायामतिप्रियमश्रद्धेयमिति कृत्वा यद्यन्योऽप्येनमधे जानाति तदा साधु भवतीत्यनेनाभिप्रायेण गौतम पवाऽऽह( जहा णं इत्यादि ) ( एयमहं ति) एतमर्थ मावयोर्भावितुल्यतालक्षणम् । ( वयं जाणामो ति) यूयं च वयं चेत्येकशेषाद वयम् । तत्र यूयं केवलज्ञानेन जानीथ, वयं तु नवदुपदेशात् । तथाऽनुत्तरोपपातिका अपि देवा एनमर्थे जानन्तीति प्रश्नः १ । त्रोत्तरम् - (हंता ! गोयमा ! इत्यादि ) ( मोदनवगणाओ मोति ) मनोव्यवर्गमा सम्घास्तद्विषयावधिज्ञानल
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(२४) प्रमिधानराजेन्का।
तुवाब
था कुम्भिकायाः, आयतं दीर्घ यथा दासस्य । तत्रेधा,श्रेपयाब्धिमात्रापेक्कया (पत्तानो ति) प्राप्तास्तव्यपरिच्छेदतः।
यतप्रतराऽऽयतघनाऽऽवतभेदात् । पुनरेकैकं द्विधा,समसमस्या(अनिसमागयाो सि) अनिसमन्वागतास्तद्गुणपर्याय.
देशासमसइख्यप्रदेशभेदात् । इदञ्चपञ्चविधमपि विलाप्रपरिच्छेदतः । अयमत्र गर्भार्यः-अनुत्तरोपपातिकदेवा वि. शिष्टावधिना मनोरुम्यवर्गणा जानन्ति, पश्यन्ति च तासां
योगाभ्यां भवति । जीवसंस्थानं तु संस्थानाभिधाननामको. चावयोरयोग्यवस्थायामदर्शनेन निर्वाणगमनं निश्चिन्वन्ति ।
त्तरप्रकृत्युदयसम्पाद्यो जीवानामाकारः, तच्च षोढा । तत्राऽs
धम्-(समच उरंसे ति) तुल्याऽऽरोहपरिणाहं सम्पूर्णाकाबततचाऽऽबयो वितुल्यतालक्षणमर्थ जानन्ति पश्यन्ति चेति
यवस्वाङ्गलाष्टशतोच्यं समचतुरस्त्रं, तुल्याऽऽरोहपरिणाहत्न व्यपदिश्यत इति । तुल्यताप्रक्रमादेवेदमाह:(कविहेत्यादि)
समत्वात्पूर्णावयवत्वेनच चतुरनत्वातस्य चतुरनत्वं सतमिति तुल्यं समं,तदेव तुल्यकमा (दम्पतुझएति) कन्यत एकाएका
पर्यायौ। (एवं परिमंडले विति) यथा समचतुरस्रमुक्कं तथा ऽऽद्यपेक्कया तुल्यकं भव्यतुल्यकम्। अथवा-व्यं च तत्तुल्यकं च
न्यग्रोधपरिमामलमपीत्यर्थः । न्यग्रोधो वटवृकस्तद्वत्परिमास कव्यान्तरेणेति द्रव्यतुल्यकं,विशेषणव्यत्ययात् । (खेत्ततुबपत्ति)
वं नानीत उपरि चतुरस्रबहमयुक्तमधश्च तदनुरूपं न भवति केत्रत एकप्रदेशाबगाढत्वाऽदिना तुल्यकं केत्रतुल्यकम् । एवं
तस्मात्प्रमाणाधीनतरमिति । (पवं जाव हुंमे न्ति) इह यावत्कशेषाएयपि,नवरं भवो नारकाऽऽदिः,भावो वर्षाऽऽदिः,ौदयि काऽऽदिवा,संस्थानं परिमएमलाऽऽदि । श्ह च तुल्यन्यतिरिक्त
रणात-"सासुजे वामणे ति" दृश्यम् । तत्र (साह ति) सा.
दोनोभितोऽधश्चतुरस्रलक्षणयुक्तमुपरिच तदनुरूपं न भवति । मतुल्यं भवतीति तदपीह व्याख्यास्यते। (तुसंखेज्जपपसि.
(खुज ति) कुजं ग्रीवाऽऽदौ हस्तपादयोश्चतुरनलकपयुक्तं पत्ति) तुल्याः समानाः संख्येयाः प्रदेशा यत्र स तया, तुल्यग्र
संक्किप्तविकृतमध्यम् । (वामधे ति) वामनं लक्षणयुक्तमध्यं हणमिह सङ्ख्यातत्वस्व संख्यातनेदत्वान्न सरख्यातमात्रेण तु.
प्रीवाऽऽदो हस्तपादयोरप्यादिलक्षणन्बूनम् । (दमे सि) दुएम ल्यताऽस्य स्यात,अपितु समानसंस्थत्वेनेत्यस्वार्थस्य प्रतिपाद
प्रायः सर्षावयवेषु आदिबक्षसविसंवादोपेतमिति । भ० १४ नार्थम् । एवमन्यत्रापीति। यह-अनन्तकेत्रप्रदेशावगाढवमन
श•७१०॥ तसमयस्थायित्वं च नोक्तं, तदवगाहप्रदेशानां स्थितिसमयानां च पुद्रमानाश्रित्याऽनन्तानामभावादिति । (भवच्याप ति) चचारि पएसग्गेणं तुझा पत्ता । तं जहा-धम्मस्थिकार, जब एवार्थों भवार्थः, तदभावस्तत्ता, तया भवार्थतया (सदस्य अधम्मत्थिकाए, लोगागासे, एगजीचे । भावे ति) उदयः कर्मणां विपाकः,स एवौदायिकः क्रियामात्रम।
'चत्तारि' इत्यादि कराव्यम्, नवरं प्रदेशाग्रेस प्रदेशप्रमाअथवा-बदयेन निष्पन्न भौदायिकोभावो नारकत्वाऽऽदिपर्यायवि.
जेनेति तुल्याः समानाः, सर्वेषामेषामसंख्यातप्रदेशत्वात्। (लो. शेषः, औदयिकस्य भावस्य नारकत्वाऽऽदेभीवतो भावसामान्य.
गागासे सि) आकाशस्थानन्तप्रदेशत्वेन धर्मास्तिकायाऽऽदिमाश्रित्य तुल्यः समः। (पवं उपसमिए ति)ौपशमिकोऽप्ये.
भिः सहातुल्यताप्रसक्तलोकग्रहणम् । (एगजीव तिसबं वाच्यः। तथाहि-"उवसमिए जावे उपसमियस्स भाबस्स
वैजीवानामनन्तप्रदेशत्वाद विवक्तितुल्यताजावप्रसङ्गादे. भावनोतुले, उपसमिप भावे नवसमियवरित्तस्स भाबस्स भाबोनो तुल्वे त्तिा" एवं शेषेष्वपि वाच्यम्। तत्र नपशम उदीर्ण
कग्रहणमिति । स्वा०४ ग.३. स्थ कर्मणः कयोऽनुदीर्णस्य विपकम्मितोदयत्वं, स एव औपतुव-तब-त्रिका "त-तु-ते-तुम्ह-सुह-तुहं-तुव.."|३|एEL शमिकः क्रियामात्रम् । उपशमेन वा निर्वृत्त औपशमिकः स- इत्यादिना उसा सहितस्य युष्मदस्तुब इत्यादेशः । प्रा०३ पाद। म्यग्दर्शनादिः। (वश्पत्ति)कयः कर्मानावः स एव कायिकः, येण वा निर्वृत्तःकायिका केवलज्ञानाऽऽदिः।(खोवसमिए
तुवं-त्वाम्-त्रिका "त-हुँ-तुम-तुबं." ५।३।९२॥ इत्यादिना सि) येणोदयप्राप्तकर्मणो विनाशेन सहोपशमो विष्क
| अमा सहितस्य युष्मदस्तुवं इत्यादेशः। प्रा० ३ पाद । जितादयत्वं कयोपशमः, स एव कायोपशमिका क्रियामात्रमे- तुवतो-त्वत्त:-त्रि०1"त-तुव०-"॥८।३।६॥ इत्यादिना ब।क्षयोपशमेन बा निर्वृत्तःकायोपशमिको मतिज्ञानाऽऽदिः पयावविशेषः । नन्वपिशमिकस्य कायोपशमिकस्थ च कः प्रति.
से परतो युष्मदस्तुव इत्यादेशः । प्रा० ३ पाद । विशेषः, उभयत्रापिडदीर्णस्व वयस्यानुदीर्णस्य चोपशमनावा
तुवर-स्वर-धा० । वेगे, ज्वादि०-आत्म-अक०-सेट् । “त्वरत् .. उच्यते-काबोपशमिक विपाकवेदनमेव नास्ति, प्रदेशवेदक
स्तुवरजश्रमों"।।४।१७०॥ इति त्वरधातोः 'तुवर' इत्यापुनरस्त्येव, औपशमिके तु प्रदेशवेदनमपि नास्तीति। (परिणा- देशः। प्रा०४ पाद । कुसुम्भोदकाऽऽदिके, वृ०३ उ. वृतविमिप ति) परिणमनं परिणामः, स एव पारिणामिकः । ( स.
शेष, औका निचू० । श्रीमविजिनस्य यके, स च चतुर्मुख भिवाइए त्ति) सन्निपात प्रौदयिकाऽऽदिभावानां यादिमं यो
इनकायुधवों गजवाहनोऽष्टभुजो वरदपरशुशूलाभययुक्तदकिगः,तेन निर्वृत्तः सानिपातिकः। (संठानतुल्लए ति) संस्थान
णपाणिचतुष्टयो,बीजपूरकशक्तिमुद्राकसूत्रयुतवामपाणिचतुष्ट. माकतिविशेषः। तच द्वेधा, जीवाजीवभेदात् । तत्र अजीवसंस्थान यश्च । प्रव०२६ द्वार। पञ्चधा । तत्र (परिमंडलसंग चि) परिमएमसं संस्थान बहि- तुवरपत्त-तुवरपत्र-न । पलाशपत्राऽऽदिषु, नि.चू०१ उ०। स्ताद्वृत्ताऽऽकार मध्ये सुषिरं यथा वल्लयस्यातच वेधा, घनप्रतरभेदात् । ( बट्टे त्ति) वृत्तं परिमरमसमेवान्तःशुषिररहितं
तुवरफल-तुवरफल-न० । हरीतक्यादिषु, नि० ०१.०। यथा कुलालचक्रस्य । इदमपि द्वेधा, धनप्रतरभेदाता पुनरेकैकं तुवाण-युष्माकम्-त्रि• । “तु-वो-ने-तुन्भ-तुम्भ-तुम्भाणविधा, समसळयविषमसङ्स्यप्रदेशजेदात् । एवं ध्यनं.चतुरनं तुबाखo-" ॥७।३।१००॥ इत्यादिना प्रामा सहितस्य युष्मदर च, नवरं ध्यन त्रिकोणं शृनाटकस्यैव, चतुरतं तु चतुष्कोणं, य. 'तुवाण' इत्यादेशः । प्रा०३ पाद ।
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तुस
(२३४१) अन्निधानराजेन्द्रः।
तेव तुस-तुष-पु. कोकवादिषु, स्था. ग. आचा० । धा-तुरंत-स्वरमाण-त्रि०। प्राकृतत्वाच शतृप्रत्ययः।" त्यादिशत्रोन्यत्वचि, वाघ।
स्तूरः" ।।४। १७१। शति त्वरधातोः शतृप्रत्यये परत. तसमल-तषमन-मकाबीजस्य तुषमूलकणिकायाम,स्था०८०] स्तूर इत्यादेशः। संत्राम्यलि, प्रा०४ पाद । तुसागणि-तुषाग्नि-पुं०। तुषाः कोद्रवाऽऽदयस्तेषामग्निस्तद्दह-| तूरवश्-तूर्यपति-पुं० नटमहत्तरे, वृ०१०। नप्रवृत्तो बहिस्तुषाग्निः । कोजवाऽऽदिदहनप्रवृत्ते बह्रो, स्था०] तूरसह-तूर्यशब्द-पुं० । तूर्यशब्देनार्धािभते संनिनादे, विशे०। ८ग। जी।
तूल-तूल-न । अर्कतूले, स.प्र.१.पाहु । प्राचा• 1 भ० । तुसार-तुषार-पु.।हिमे, ज्ञा० १ ०१०। मौ०।
प्रा० म०। कल्प। तुसिणीय-तूष्णीक-त्रि० । मौनिनि, उत्स०२०। वचनरहि
| तूलकम-तूलकृत-त्रि०। अर्काऽऽदितूननिष्पन्चे, आचा०२४०१ ते, ज्ञा०११०२०वाचंयमे, उपेकके, स्था० ३ ग० ३ चू०५ अ०१उ०। उ.1 तूष्णीं शीले, उत्त०१०। माचा ।
| तत्रिणी-देशी-शाश्मल्याम, दे० ना०५ वर्ग १७ गाथा । तुसिय-तुषित-पुं०। षष्ठकृष्णराजिमध्यवर्तिसुराननामलोकान्ति-[तविया-तविका-स्त्री० । संस्कृतरुताऽऽदिभृते शयनोपकरणे, कविमानदेवे, भ०६ श०५० स्था० । ज्ञा० स०। असौ ग.३ अधिः । बालमय्यां, चित्रलेखनकूचिकायां च । झा० १
संज्ञाऽन्तरतो माम्तोऽप्यभिधीयते । प्रध०२६७ द्वार। आम-1| श्रु०००। तुसेअजज-देशी-दारुणि, दे० ना०५ वर्ग १६ गाथा। | तली-तली-स्त्री० । अप्रतिवेस्यदूण्यविशेषे, जीत० । जं० । तुसोदग-तुषोदक-न० । ब्रीह्यादिधावनजले, कल्प० एक्षण ।
संस्कृतरुताऽदिभृते अर्कतूलाऽऽदिभृते वा शयनोपकरणे, ग। स्था।
वृ० ३३०। तुह-तव-त्रिका" तश्-तु-ते-तुम्ह-तुह०-"||३॥ १९॥श्त्या.
तवर-तूबर-पुं० । कषाये, राणाकाले अजातशृक्ने गवि,अजातश्मदिना सा सहितस्य युष्मदस्तुद इत्यादेशः । प्रा. ३ पाद ।
शुके पुरुष, कषायरसवति,
त्रिपाटक्यां, सौराष्ट्रमृत्तिकायां त्वाम्-त्रि० । “तं-तु-तुमं-तुवं-तुह.." ॥ ८ ॥ ३॥ १२॥ इत्या.
च । स्त्री०। डीप् । बाच०। दिना प्रमा सहितस्य युष्मदस्तुह इन्यादेशः । प्रा० ३ पाद ।
तुस-तूष-धा0 1 तोपे, दिवा०-पर-प्रक--अनिट् । “रुषाssतुहं-तत्र-त्रि० । “तइ-तु-ते-तुम्ह-तुह-तुहं०-"||३||
दीनां दीर्घः"८।४।२३६ ॥ इति दीर्घः । 'तूसह ।'
तुष्यति । प्रा०४ पाद । इत्यादिना ङसा सहितस्य युष्मदः 'तुहं' इत्यादेशः। प्रा०३ पाद ।
तूह-तीर्थ-न। "पु:खदक्किणतीर्थे वा" ॥ ८।२।७२॥ इति तुहग-तुहक-पुं० । कन्दवनस्पतिविशेषे, उत्त०१०।
संयुक्तस्य तीर्थशब्दस्य र्थस्य हः । प्रा०४ पाद। "तीयें दे" तुहतो-स्वतः-त्रि०।"ततुव-तुम-तुह-तुम्मा सौ" ॥ ३॥
॥८।१।१०४॥ इति तीर्थशब्दे हे सति ईत ऊत्वम् । प्रा०४ १६ ॥ इति पञ्चम्येकवचने परतो युष्मदस्तुह इत्यादेशः। से. पाद । शास्त्रे, यके, केत्रे, उपाये, स्त्रीरजसि, नद्यादेरवतरणे, घ. स्तु'तो' इत्यादेशः। प्रा०३पाद ।
हाऽऽदौ, विद्याऽऽदिगुणयुतपात्रे, उपाध्याये, मन्त्रिणि, योनी, बुहाण-युष्माकम्-त्रि०"तु-चो-भे-तुन्भ-तुन्ज-तुम्भाण-तुवाण-1
दर्शने, ब्राह्मणे, आगमे, निदाने, अग्नौ, उपकृपजलाशये, दैतुमाण-तुहाण."||८|३।१०० ॥ इत्यादिना आमा सहि-| हिके मानसिके भौमिके त्रिविधे पवित्रस्थाने, घाच० । तस्य युष्मदस्तुहाण इत्यादेशः। प्रा०३पाद ।
तूहण-देशी-पुरुषे, दे० ना०५ वर्ग १७ गाथा । तुहार-युष्मदीय-त्रि० । “युष्मदादेरीयस्य मारः" ॥८।४
ता-तनु-स्त्री० । “ स्वराणां स्वराःप्रायोऽपभ्रंशे" ॥ ४॥ ४३४ ॥ श्यपञ्चशे युष्मदादिभ्यः परस्य ईयप्रत्ययस्य डार
३२६ ॥ इत्यपभ्रंशे स्वरस्थाने स्वरः । तणु । तिणु । तृणु । इत्यादेशः । प्रा०४ पाद ।
प्रा.४ पाद । देहे, अस्पे, विरले, कृशे च । त्रि०ावाच०। तुहिणाचल-तुहिनाचल-पु। हिमालयपर्वते, "वभार शिर
ते-खया-त्रिका“भे-दि-दे-ते०-" ॥ ७।३।१४॥ इत्यासा स्वर्ग--वाहिनी तुहिनाचलः।" आ. क.। त-देशी-इकुकर्मकरे, दे. ना०५ वर्ग १६ गाथा ।
दिना टासहितस्य युष्मदस्ते इत्यादेशः प्रा० ३ पाद । तूणइस-तृणावत-त्रि०। तूणानिधानवाद्यवति, जी०३ प्रति०४ | तव-त्रि०ा"त-तु-ते-" ॥८।३।९५॥ इत्यादिना असा । कल्प०। औ रा . प्रश्न अनु०। ज्ञा०।
सहितस्य युष्मदस्ते इत्यादेशः। प्रा० ३ पाद । दश। तूण-तूणा-खी। शराऽऽश्रये, जं० ३ वक्षः।तूणानिधानवाद्य- तस्मिन्-पुं०। प्राकृतशैलीवशात्तस्मिन्नित्यस्य स्थाने 'ते' इत्या. विशेषे, औ० । रा० अनु०। झा०।
देशः ।" तेणं कालेणं ते णं समए णं"। रा० ० । कल्प० । तर-स्वर-धा• वेगे, स्वादि-अक०-आत्म-सेट। " स्यादि-। ('काल' शब्दे व्याख्यातम्) तच्छब्दस्य प्रथमाबहुवचने इति । शत्रोस्तूरः"॥८।४।१७१॥ इति त्वरधातोस्त्यादिशतृप्र.
प्रश्न.१ श्राश्रद्वार। त्यये परतस्तूर इत्यादेशः । 'तूरइ ।' स्वरते । प्रा०४पाद । तेव-प्रदीप-धा. प्रकर्षण दीप्ता, दिवा०-श्रात्मक प्रक० सेट। तर्य-1.। "ब्रह्मचर्य-तूर्य-सौन्दर्य-शोराकीय या रः"।।८।२। “प्रदीपेस्तेअव--संदुम--सन्धुकारभुत्ताः " ॥८।४।१५२॥ ६३॥ इति यस्य सः । प्रा०२ पाद । वादिजेदे, उस० शति प्रोपसर्गसहितस्य दीपधातोः 'तेव' इत्यदिशः। तेअवश' कक्षा-1
पझे-- पत्नीवा।' प्रदीप्यते । प्रा०४पाद । प०६
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(२३४२) तेश्रा अनिधानराजेन्दः।
तेच्छ तेया-सेजस्-स्त्री० । त्रयोदश्याम्, जं.७ वक।
(से कि तमित्यादि) अथ के ते त्रीन्जियाः। सरिराह-त्रीन्छितेशंदिय-वीडिय-पुं० । त्रीणि स्पर्शनरसनघ्राणरूपाणि इन्द्रि- या अनेकविधा प्राप्ताः । तद्यथा-(ओ जहा पम्पवणाए) याणि येषां ते त्रीन्द्रियाः। कर्म० ४ कर्म० । जी० । युकामत्कुण.
भेदो यथा प्रज्ञापनायां तथा वक्तव्यः। स चैवम्-"नवाश्या, रो
हिणिया, कुंथू,पिपीलिया,उद्देसगा, उद्देहिया,उक्कलिया,उप्पाया, गर्द मेन्छगोपकुन्थुमकोटपिपीटिकोपदेहिकाकर्षासास्थिकत्रपु-- सबोजकतुस्थरूकाऽऽदिषु, पं० सं०१ द्वार । उत्त० । प्राब।
उप्पमा, तणहारा, कटुहारा, पत्तहारा, मालुंया, तणबेटका, प.
बेटका, पुष्फबेटया, फाबेटया, बीयबेटया, तेबुमिजिया,तनमा०म० । ___ सम्प्रति त्रीन्जियसंसारसमापन्नजीवप्रज्ञापनाऽर्थमाह
समिजिया, कप्पासटिर्मिजिया,हिडिया, झिल्लिया, किंगिरा,किंसे किं तं तेईदियसंसारसमावनजीवपार्वणा । तेइंदिय
गिरडा, बाहुया, लहुया, मुरुगा, सोवस्थिया, सुयबेटा, इंदका
श्या, इंदगोवया, तुरतुंगवा, कोत्थलवाहगा, जूया, हालाहला, संसारसमावनजीवपालवणा प्रणेगविहा पसत्ता । तं जहा
पिसुया, सतवाश्या, गोम्दी, हथिसोंडा।" इति । एते च केनवाइया, रोहिणिया, कुंथ, पिपीलिया,उद्देसगा, उद्देहिया, | बिदतिप्रतीताः,केचिद्देशविशेषतोऽवगन्तव्याः। नबरम्-(गोम्ही उक्कलिया, उपाया, उप्पमा, तणहारा, कहहारा, पत्तहारा, काहसियाली जे यावो तहप्पगारा इति) येऽपिचान्ये तथाप्र. मालुंया,तणबिंटिया, पत्तबिंटिया, पुष्फबिंटिया, फलबिटिया,
कारा एवंप्रकारास्ते सर्वे त्रीन्द्रिया ज्ञातव्याः। (ते समासतो इ.
त्यादि) समस्तमपि सूत्रं द्वान्छियवत्परिजावनीय,नवरमबगाहबीयविटिया, तेंवुरुमिंजिया, तउसमिजिया, कप्पासहिमिजि
नाद्वारे उत्कर्पतो अवगाहना त्रीणि गव्यूतानि, शन्छियद्वारे त्रीया, हिल्लिया, फिस्सिया, किंगिरा, मिगिरिमा, बाइया,
णि इन्द्रियाणि, स्थितिजघन्येनान्तर्मुहूर्तमुत्कर्षत एकोनपञ्चा. बहुया,मुरुगा,सोवत्यिया,सुयबेटा,इंदकाइया, इंदगोवया,तु- शद् रात्रिन्दिवानि। शेष तथैवाउपसंहारमाह-(सेत्तं तेइंदिया) रतुंवगा,कोत्यन्नवाहगा,जया,हालाहला, पिसुया, सतवाइया,
उक्तास्त्रीन्द्रियाः। जी०१ प्रति०। गोम्ही,कमसियालिया (हस्थिसोमा), जे यावझे तहप्पगारा
श्रीन्द्रियवक्तव्यतामाहसब्बे ते समुच्बिमणपुंसगा । ते समासो ऽविहा पत्ता।
तेइंदिया न जे जीवा, सुविहा ते पकिनिया। तं जहा-पजत्तगा य, अपज्जत्तगा या एएसिणं एवमाइ.
पजत्तमपज्जत्ता, तेसिं भेए सुणेह मे ॥ १३७ ॥ याणं तेइंदियाएं पन्जत्ताऽपज्जत्ताणं अह जाइकुझकोडिजो- कुंथ पिवीलिया दंसा, नक्कुखुद्देहिया तहा। णिप्पमुहसयसहस्सा हवंतीति मक्खाय । सत्तं तेइंदियसं
तणहार कट्टहारा य, माबुंगा पत्तहारगा ॥१३॥ सारसमावनजीवपएणवणा॥
कप्पासहिमिंजा य, तिंदुगा तउसमिजगा । (से किं तमित्यादि) अथ का सा त्रीन्द्रियसंसारसमापन्न- सतावरी य गुम्मी य, बोधन्या इंदकाश्या ॥ १३ ॥ जीवप्रकापना ?। भगवानाह-श्रीन्द्रियसंसारसमापन्नजीवप्रका
इंदगोवगमाईया-ऐगहा एवमाइया । पना अनेकविधा प्राप्ता। तानेव तद्ययेन्यादिनोपदर्शयति । एते च औपचयिकप्रनतयस्त्रीम्भिया देशविशेषतो लोकतश्वावग
लोगेगदेसे ते सव्वे, न सम्वत्थ वियाहिया ॥२४॥ स्तव्याः। नवरं (गोम्ही कमसियालिया जे यावन्ने तहष्यगारा) संतई पप्प नाईया, अपज्नवसिया वि य । येऽपि चान्ये तथाप्रकारास्ते सर्षे त्रीकिया ज्ञातव्या इति शेषः। ठिई पमुञ्च साईया, सपज्जवसिया वि य ॥ १४१ ।। (ते सब्वे संमुच्छिमनपुंसगा) इत्यादि पूर्ववत् । ( पतसि -
एनवमहारत्ता, उक्कोसेण वियाहिया। मित्यादि) एतेषां त्रीन्द्रियाणामेवमादिकानामपिचयिकप्रभृ: तीनां पर्याप्ताऽपर्याप्तानां सर्वसमस्यया अष्टौ जातिकुलकोटीनां
तेइंदिमाउगिई, अंतोमुडुत्तं जहसिया ॥ १५ ॥ योनिप्रमुखाणि योनिप्रवाहाणि शतसहस्राणि भवन्ति, अष्टौ कु
संखेजकालमुक्कोसं, अंतोमुहुत्तं जहएणगं । कोटिलका भवन्तीति जावः । इत्याझ्यातं तीर्थरुद्भिः। उप- तेइंदियकायलिई, तं कायं तु अमुंचओ ॥१४३ ॥ संहारमाह-(सेत्समित्यादि)तदेवमुक्ता त्रीन्द्रियसंसारसमा
मयंतकालमुकोसं, अंतोमुहुत्तं जहएणायं । पाजीवप्रज्ञापना। प्रका० १ पद । जी०। स्था०।
तेइंदियजीवाणं, अंतोमुहुत्तं महनिया ॥ १४॥ अथ त्रीन्डियानाहसे किं तं तेइंदिया। तेइंदिया अलेगविहा परमत्ता ।
एएसि वरुणो चेत्र, गंधओरसफासो । तं जहा-नेओ जहा पएणवणाए । उवइया, रोहि
संगणदेसो वावि, विहाणाई सहस्ससो॥१४५॥ णिया, हथिसोमा, जे यावले तहप्पगारा, ते समा- एतदपि पूर्ववन्नवरं त्रीन्द्रियोश्चारणं विशेषः, तथा कुन्धसतो दुविहा परमत्ता । तं जहा-पज्जत्ता य, अपज्जताय।
वोऽनुद्धरिप्रभृतयः, पिपीलिकाः कीटिकाः, गुम्मी शतपदी ।
एवमन्येऽपि यथासंप्रदाय वाच्याः। एकोनपञ्चाशदहोरात्रातहेव जहा बेइंदियाणं, णवरं सरीरोगाहणा, उक्कोसेणं ति
एयायुःस्थितिरिति । उत्त० ३६ अ० ।पि। मो०।भ.। (त्रीनि गाउयाई ठिती, जहलेणं अंतोमुहत्तं, उक्कोसेणं एगूण-| न्द्रियाणां परिभोगः 'परिभोग' शब्दे वक्ष्यते) परमराईदियाणं, सेसं तहेव गतिया दुआगतिभा परित्ता | चैकित्स्य-न । चिकित्साया नावश्धैकित्स्यम् । व्याधि. असंखेजा पम्मत्ता । सेत्तं तेदिया।
प्रतिक्रियारूपे, दश० ३ ०। प्राचा०।
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तेइच्चिय
तेलिय-चैकित्स्यिक ०ि येथे ०१७०
|
॥
तेल-तेजोद्योत
सूत्र०२५०१० उष्ण
रूपे, सूत्र० १ ० १ ० १ उ० । पक्तृगुणे, सूत्र० १ ० १ श्र० १ उ० । श्रग्निकुमारेन्द्र योरग्निसिहाग्निमानवयोः पूर्वदिग्लोकपाले, पुं० । स्था० ४ ० १ उ० । ज० ॥ ते कंत - तेजस्कान्त पुं० । श्रग्निकुमारेन्द्रयोरग्निसिंदाग्निमानवयोरुत्तरदिग्लो कपाले, स्था० ४ ० १ ० ॥ भ० ।
--
उक्काय - तेसस्कायिक- पुं० । तेजो बहिः, तदेव कायः शरीरं येषां तेजकायाः तेजस्काया एव स्वार्थिप्रत्य तेजस्कायिकाः। जी०१ प्रति० प्रा० एकेन्द्रियजीवनेदे, दश० । अथ तेजसो जीवत्यसिकिमाह
ते चित्तनमखाया अगजीबा पुढो सत्ता प्रत्य सत्यपरिणरण || ३ ॥
1
सारमकोग्निः माहारेण वृद्धिदर्श बालकच दश० ४ सात्मकमादारोपादानात् विशेष द्विकारदर्शनाच्च पुरुषवत्। श्राच" अपरप्पेरियतिरिया नियमिपदिश्यमण निलोगो व अनलो आहाराम्रो विद्धि. विगारोभाओ " ॥ १ ॥ इति । स्था० १ ठा० । सूत्र० । व्य० । विशे० ।
(२३४३) अभिधानराजेन्द्रः |
"
सम्प्रति तेजस्कायिकानाहसे किं तं काय ? तेजकाइया दुबिदा पत्ता तं जहासुहुमते काइया य, बादरत उक्काश्या य से किं तं मुहुमते - काइया है। सुहुतेकाइया दुबिहा पणा तं जहा प तगाय, अपज्जत्तगा य । सेत्तं सुदुमतेनकाइया । से किं
बादराया है। बादरवेजकाइया प्रमापएएचा से जड़ा इंगाले, जाला, मुम्मुरे, अर्थी, अलार, सु
गणी, उक्का, विज्जु, असणी, णिग्घाए, संघारिससमुट्ठिए, सूरकंतमणिणिस्सिए ने पावले वहप्पारा, ते समासो दुविधा पणता तं जहा पञ्जलगाय, अपज्जतगा य । तत्यथं जे ते अपज्जत्तगा, वेणं असंपत्ता । तत्य णं जे ते पज्जतगा एएासे वद्यादेसेणं गंधादेसेणं रसादेसेणं फासादेसेणं सहस्सऽगसो विहाणाई संखिज्जाई जोणिप्पमुहस्यसहस्साई पज्जचगावस्थाए अपाचगावकमंति, जत्य एगो तत्थ यिमा असंखेज्जा | सेत्तं बादरकाया, काया।
I
( से किं तमित्यादि) सुगमं नरमहारो विगतधूमः ज्वाला जाज्वल्यमानः खादिराऽऽदिज्वालाऽनल सम्बका दीपशिखेत्यन्ये । मुमुंरः फुम्फुकाऽऽदौ जस्ममिश्रिताग्निकणरूपः, अनाप्रतिबद्धा ज्याना आसातमुल्मुकं शुरूानिया पिएको काली, विदुरप्रतीता, अनिराका पत निमयः कला निघतो क्रियाशनिप्रपात स स्थित रामधनसमुद्भूतः सूर्यकान्तमशिनिस्मृतः सूर्यकिरणसम्पर्क सूर्यकान्तमः समुपजायते, ( जे यावले तपगारा इति ) चेऽपि चान्ये तथाप्र
तेलकाइय
कारा एवंप्रकारास्तेजस्कायिकाः, तेऽपि बादरतेजस्कायिसमासतो इत्यादि प्राग्वत् नवमपि सङ्गवानि पोनप्रमुखाणि शतसहखाणि सप्त वेदितव्यानि । प्रज्ञा० १ पद ।
अथ तेजस्काधिक विपादक उद्देशका सारज्यते तस्य योपक्रमादीनि चत्वानुयोगद्वाराणि बाप्यानि तावद्यायामन
निज उद्देशक इति नाम तत्र तेजसो निवाऽऽदीनि द्वाराणि वाच्यानि अत्र च पृथिवीविकल्पतुल्यत्वात् केषादितिदेशो काराणामपरेषां तदित्वाद अपोद्धार इत्येतद् द्वयमुररीकृत्य नियुक्तिकृद् गाथामाहतेस्स विदाराई, ताई जाई हवंत पुढवी |
नाणचं तु रिहाणे, परिमाप जोगसत्येव ।। ११६ ॥ (द) तेजसनेरपि द्वारा निपानि यानि पृथिन्याः समधिगमेनिहितानि साम्येानि अप वाद दर्शयितुमाह- नानात्वं भेदो विधानपरिमाणोपजोगशपुरवधारणे। विधानाऽऽदिश्येव व नानात्वं नान्यत्रेति । दारपरिग्रहः ॥ ११६ ॥ यथाप्रतिज्ञानिर्वहणार्थमादिद्वारव्याधिव्यालवाऽऽह
विहाय तेजजीवा, सुहुमा तह बायरा य लोगम्मि । सुदुमा य सव्वलोए, पंचैव य वायर विहाणा ॥११७॥ ( डुविदेत्यादि ) स्पष्टा ॥ ११७ ॥ बादरपञ्चभेदप्रतिपादनायाऽऽहइंगास अगणि अभी, जाला वह मुम्मुरे य बोध । वायरवाया पंचवाभिया एए ॥। ११० ।।
( इंगालेत्यादि ) दग्धेन्धनो विगतधूमज्वालोऽङ्गारः- इन्धनस्थः घोषक्रियाविशिष्टरूपः तासमुत्थितः सु मणितादेरुपधानि प्रतिको विशेष ज्याला त्रिमूलाकारप्रतिबद्धा प्रविराणानुविद्धं जन्य मुर्मुरः । पते बादरा श्रनिभेदाः पञ्च जवन्तीति । एते च बादरायः स्वस्थानाङ्गीकरण मनुष्यतृतीयेषु द्वीपसमुच्य व्याध पञ्चदशसु कर्मभूमिषु व्याघाते सति विदे घु, नान्यत्र, उपपाताङ्गीकरणेन लोकासंख्येयभागवर्त्तिनः । तथा चागमः"उनवारणं बोस उकवा " अस्थायमर्थः तृतीयद्वीपसमुद्रवाह पूर्वापरदक्षिणतर स्वयम्भूरमणपर्यन्ताऽऽयते ऊर्द्धाधोलोकप्रमाणे कपाटे तयोः प्रविष्टा बादग्निपद्यमानास्तदुपपदेशं लभन्ते । तथा(तिरियलोयतट्टे यत्ति ) तिर्यग्लोकस्थालके च व्यवस्थितो बादराग्निषूत्पद्यमानो बादराग्निव्यपदेशजागू भवति ॥ श्रन्ये तु व्याचकृते तयोस्तिष्ठतीति तत्स्थः, तिर्यग्नोकश्चासौ तत्स्थ
1
-
तिर्यग्योदयः तत्र स्थित दिरामध्य पदेशनासादयति । अस्मिश्च व्याख्याने कपादान्तर्गत एव गृह्यते, स च द्वयोरूर्द्धकपाटयेोरित्यनेनैवोपात्त इति तदूश्याख्यानाभिप्रायं न विद्मः । कपाटस्थापना चेयम्-समुद्घातेन सर्वच पृथिव्यादयो मारणाविसमुद्घातेन समग्रता बादग्निन्पद्यमानास्तद्यपदेशनाजा सर्वोक व्यापिनो जवन्ति । यत्र च बादशः पर्याप्तकास्तत्रैव बादरा पर्यासकाः सनिया तेषामुत्पद्यमानत्वात् । तदेवं सूक्ष्मा वाप यतका पर्याप्तकभेदेन प्रत्येकं द्विधा जवन्ति । एते च वर्णगन्ध
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तेलकाश्य अतिधानराजेन्द्रः।
तेनक्काश्य रसस्पर्शाऽऽदेशैः सहस्राप्रशो निद्यमानाः सङ्ग्येययोनिप्रमु- प्रवृत्ता गृहिणो यत्वाभासा वा सुखैषिणस्तेजस्कावजन्तून् खशतसहस्रभेदपरिमाणा भवन्ति । तत्रैषां संवृता योनिरुष्णा हिंसन्तीति दर्शयितुमादच सचित्ताऽचित्तमिश्रभेदात् त्रिधा । सप्त चैषां योनिसका एपी कारणेहिं, हिंसंति न तेनुकाइए जीवे । भवन्ति ॥ ११ ॥
सायं गवेसमाषा, परस्स मुक्खं उदीरंति॥१२॥ साम्प्रतं चशब्दसमुचितं लकणद्वारमाह
(पहिं इत्यादि ) एतदहनादिभिः कारणैस्तेजस्कायिकान् जहदेहप्परिणामो, रत्तिं खज्जोयगस्स सा जवमा । जावान् हिंसन्तीति संघटनपरितापनाभ्यद्रावणानि कुर्वन्ति, जरियस्स य जह उम्हा, तह नवमा तेउजीवाणं ॥११॥
सातं सुखं तदात्मनोन्विष्यन्तः परस्व बादराग्निकायस्य, (जहेत्यादि) ययेतिदृष्टान्तोपन्यासार्थः । देहपरिणामः प्रति.
दुःखमुदीरयन्त्युत्पादयन्तीति ॥ १२॥ विशिष्टा शरीरशक्तिः, राताविति विशिष्टकालनिर्देशः। खद्योत
साम्प्रतं शस्त्रद्वारम्, तच द्रव्यभावशस्त्रजेदात् द्विधा,
कन्यशनमपि समासाविभागनेदात् विधव, क इति प्राणिविशेषपरिग्रहः । यथा तस्याऽसौ देहपरिणामो जीवप्रयोगनिर्वृचशक्तिराविश्वकास्ति, एवमहाराऽऽदीनामपि
तत्र समासतो द्रव्यशप्रतिपादनायाऽऽहप्रतिविशिष्ट प्रकाशाऽऽदिशक्तिरनुमीयते जीवप्रयोगविशेषा
पुढवी आउकाए, उवाय वणस्सई तसा पाणा । ऽऽचिर्भावितेति । यथा वा-ज्वरोधमा जीवप्रयोग नातिवर्तते, बायरतेउकाए, एयं तु समासो सत्थं ॥ १५३ ।। जीवाधिष्ठितशरीरकानुपात्येव नवप्ति, एवोपमाऽऽनेयजन्तू. पृथिवी धूलिः,अप्कायश्च पार्षश्च वनस्पतिः प्रसाश्च प्राणिनः, नाम, न च मृता ज्वरिणः क्वचिदुपलभ्यन्ते, एवमन्वयव्य. एतद् बादरतेजस्कायजन्तूनां समासतः सामान्येन शस्त्रतिरेकाभ्यामग्नेः समितता मुक्तकप्रन्थोपपत्तिमुखेन प्रतिपा- मिति ।। १२३॥ दिता । संप्रति प्रयोगमारोप्यतेऽयमेवार्थ:-जीवशरीराण्य.
विभागतो यशस्लमाहकाराऽऽदयः, बेचत्वाऽऽदिहेतुगणान्वितत्वात, सास्मावि. किंची सकायसत्यं, किंची परकाएँ तभयं किंची। पाणाऽऽदिसघातवत्, तथा आत्मसंयोगाऽऽविर्भूतोऽङ्गारा
एयं तु दव्वसत्थं, जावे य असंजमो सत्थं ॥ १२४ ॥ ऽऽदीनां प्रकाशपरिणामः, शरीरस्थत्वात् , खद्योतकदेहपरिणामवत्, तथा-श्रात्मसंप्रयोगपूर्वकोऽङ्गारादीनामूष्मा, शरीर- |
(किंचीत्यादि) किञ्चिच्चा स्वकाय एब अग्निकाय एवा. स्थत्वात, ज्वरोष्मवत् । न चाऽऽदित्यादिजिरनेकान्तः । सर्वेपा- |
ग्निकायस्य । तद्यथा-तार्णोऽम्निः पारणाझेः शस्त्रमिति। किञ्चित्र मात्मप्रयोगपूर्वकं यत उष्णपरिणामभाक्त्वं तस्मानानेकान्तः,
परकायशामुदकाऽऽदि । उभयशस्त्र पुनस्तुषकरीषाऽऽदिव्यति. तथा सचेतनं तेजो, यथायोग्याऽऽहारोपादानेन वृझिविशे.
मिश्रोऽग्निरपराग्नेः । तुशब्दो भावशस्त्रापेकया विशेषणाधः । षतद्विकारवश्वात्, पुरुषवत् । एवमादिना लकणेनाऽऽग्नेया ज.
पतत्तु पूर्वोक्तं समासविभागरूपं पृथवाखकायाऽऽदिव्यशत्रन्तवोऽवसेयाः ॥ ११६ । इत्युक्तं लक्षणद्वारम ।
मिति । भावशस्त्रं दर्शयति-भावे शस्नमसंयमो दुःप्रणिदि
तमनोवाकायलकण इति ।। १२४ ॥ अथ परिमाणबारमाह
अयोपसंहारमाह. जे बायरपज्जत्ता, पलियस्स असंखजागमेत्ता उ। .
सेसाई दाराई, ताई जाई हवति पुढवीए । सेसा तिमि वि रासी, वीमुं लोगा असंखज्जा ॥१०॥
एवं तेउद्देसे, निज्जुत्ती कित्तिया एसा ।।। १२५ ।। (जे बायरेत्यादि ) ये बादरपर्याप्ताऽनलजीवाः केत्रपस्योपमा.
(सेसाणीत्यादि) उक्तशेषाणि द्वाराणि तान्येव, यानि पृथिव्युसंख्येयभागमात्रवत्ति प्रदेशराशिपरिमाणा भवन्ति, ते पुनर्वा
देशकेऽनिहितानि । एवमुक्तप्रकारेण, तेजस्कायानिधानोद्देशके दरपृथिवीकायपर्याप्तकेभ्योऽसंख्येयगुणहीनाः, शेषास्त्रयोऽपि
नियुक्तिः कीर्तिता व्यावर्णिता नवतीति ॥१२५॥ राशयः पृथ्वीकायद्भावनीयाः। किंतु बादरपृथिवीकायापर्या
साम्प्रतं सूत्रानुगमे स्खलिताऽऽदिगुणोपेतं सुत्रमुचारतकेन्यो बादराऽऽग्नेयपर्याप्तका असंख्येयगुणहीनाः सूक्ष्मपृ.
- णीयम् । तदम्थिवीकायापर्याप्तकेभ्यः सूदमाऽऽग्नयापर्याप्तका विशेषहीना,
से बेमि एव सयं लोग अभाइक्वेजाणेच अत्तासूदमपृथिवीकायपर्याप्तकेभ्यः सूक्ष्माऽऽग्नेयपर्याप्तका विशेषहीना इति ॥ १२०॥
नाइक्खेजा,जे लोयं अभाइक्खइसे अत्ताणं अब्भाइक्खसाम्प्रतमुपनोगद्वारमाह
इ, जे अत्ता अब्भाइक्खइ से लोयं अन्भाइक्खइ ॥३१॥ दहणे पयावणपगा-सणे य सेए यजत्तकरणे य।
(से बेमीत्यादि) अस्य च संबन्धः प्रारबद्वाच्य इति । येन वायरतेनकाए, नवभोगगुणा माणुस्साणं ॥११॥
मया सामान्याऽऽत्मपदार्थपृधिव्यप्कायजीवप्रविभागव्यावर्णन
मकारि स एवाहमव्यवच्छिन्नज्ञानप्रवाहस्तेजोजीबस्वरूपोपल(दहणेत्यादि) दहन-शरीराऽऽद्यवयवस्य वाताऽऽद्यपनयनाथ, म्भसमुपजनितजिनवचनसंमदो ब्रवीमि । किं पुनस्तदिति दर्शयप्रकृष्ट तापमं प्रतापनं-शीतापनोदाय, प्रकाशकरणमुदयोतक- ति-(नैवेत्यादि ) इह दि प्रकरणसंबन्धाल्लोकशब्देनाग्निकायरण-प्रदीपाऽऽदिना, नक्तकरणमोदनाऽऽदिरन्धनम्, स्वेदो- लोकोऽभिधित्सितः, अतस्तमग्निलोकं जीवत्वेन नैव स्वयमात्मज्वरविशचिकादीनाम । इत्येवमादिध्वनेकप्रयोजनेषूपस्थितेषु नाऽभ्याचक्कीत, नैवापबीतेत्यर्थः। एतदन्याख्याने ह्यात्मनोऽपि मनुष्याणां बादरतेजस्कायविषया उपभोगरूपा गुणा उपनो. झानाऽऽदिगुणकलापनुमितस्याभ्याख्यानमवाप्नोति । अधच गगुणा भवन्तीति ।। ११॥
प्राक साधितत्वादभ्याख्यानं नवाऽऽत्मनो न्याय्यम,एवं तेजस्कातदेवमेवमादिनिः कारणैः समुपस्थितः सततमारम्भ- | यस्यापि प्रसाधित्वात् अभ्याख्यानं क्रियमाणं न युक्तिपका
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(२३) तेनकाइय भाभधानराजन्ः।
तेनकाश्य चतरति । एवं चास्य युक्त्यागमबलप्रसिकस्याभ्याण्याने क्रि. तं पश्वपयावट्ठा, संजया किंचि नारजे ॥३५॥" (दश०६०) यमाणे सत्यात्मनोऽप्यप्रत्ययसिम्स्याभ्याख्यानं जवतःप्राप्तम् । मथवा बादरतेजस्कायाः पर्याप्तकाः स्तोकाः, शेषाः पृथिव्याएवमस्त्विति चेत्, तक्षेति दर्शयति-(नेव अत्ताणं अभाइक्ने.
दयो जीवकाया बहवः, भवस्थितिरपि त्रीण्यहोरात्राणि स्वल्पा, ला) नेवाऽऽत्मानं-शरीराधिष्ठातारं ज्ञानगुणं प्रत्यात्मसंचेचं प्र
इतरेषां पृथिव्यप्वायुवनस्पतीनां यथाक्रमं द्वाविंशतिसप्तत्रिदत्याचक्षात, तस्य शरीराधिष्ठातृत्वेनाऽऽहतमिदं शरीरं केनचि
शवर्षसहस्रपरिमाणा दीघा भवसेया ति । अतो दर्घिलोक:दनिसन्धिमता,तथा त्यक्तमिदं शरीरं केनचिदभिसन्धिमतवेत्ये- पृथिव्यादिः, तस्य शस्त्रमग्निकायः, तस्य क्षेत्रको निपुणोऽग्निबमादिभितुभिः प्रसाधितत्वात् । न च प्रसाधितप्रसाधनं पिष्ट
कायं वर्णाऽऽदितो जानातीत्यर्थः । खेदज्ञोवा,स्वेदः-तव्यापार पेषणवद् विद्वजनमनांसि रजयति । एवञ्च सत्यात्मवत्प्रसाधि.
सर्वसरवानां दहनाऽऽत्मकः पाकाऽऽधनेकशक्तिकलापोपचितः तमग्निसोकं यः प्रत्याचकीत सोऽतिसाहसिक आत्मानमभ्या
प्रवरमणिरिव जाज्वल्यमानो लब्धाग्निव्यपदेशः यतीनामनार. ख्याति निराकरोति, यश्चाऽऽत्माभ्याख्यानप्रवृत्तःस सदैवामिन
म्भणीयः, तमेवंविधं खेदमग्निव्यापार जानातीति खेदशः, अतो लोकमभ्याख्याति, सामान्यपूर्वकत्वाद्विशेषाणाम, सति यात्म
य एव दीर्घलोकशस्त्रस्य खेदकः स एवाशस्त्रस्य सप्तदशजेदस्य सामान्ये पृथिव्याद्यात्मविजागः सिद्ध्यति, नान्यथा, सामान्यस्य
संयमस्य खेदज्ञः। संयमो दिन कञ्चिजीचं व्यापादयति, अतोविशेषव्यापकत्वात; व्यापकविनिवृत्तौ च व्याप्यस्याप्यवश्य
शस्त्रम। एबमनेन संयमेन सर्वसत्वाभयप्रदायिनाऽनुष्ठीयमानेभाविनी विनिवृत्तिरिति कृत्वा । एवमयमग्निलोकः सामान्या- नाम्निजीवविषयः समारम्भः शक्यः परिहर्तु पृथिव्यादिकाय3ऽत्मवन्नाभ्याख्यातव्य ति प्रदर्शितम ।
समारम्भश्चेत्येवमसौ संयमे निपुणमतिनवति, तत निपुअधुनाऽग्निजीवप्रतिपत्तौ सत्यां तद्विषयसमारम्नकटुकफल- णमतित्वाद्विदितपरमार्थोऽग्निसमारम्भाद व्यावृत्य संयमापरिदारोपन्यासाय सूत्रमाह
नुष्ठाने प्रवर्तते। जे दीहलोगसत्थस्स खेयो, से असत्थस्स खेयो। ।
इदानी गतप्रत्यागतलक्षणेनाविनाभावित्वप्रदर्शनार्थ बिप.
र्ययेण सूत्रावयवपरामर्श करोति(जे दीदेत्यादि) य इति मुमुक्षुर्दीघेलोको-वनस्पतिर्यस्मादसा कायस्थित्या परिमाणेन शरीरोच्छ्रयेण च शेषैकेन्धिये
जे असत्थस्स खेयले, से दीहलोगसत्थस्स खेयो॥३॥ ज्यो दीघों वर्तते । तथाहि-कायस्थित्या तावत् “वणस्सश्काइ- (जे असत्थस्स इत्यादि) यश्चाशस्त्रे संयमे निपुणः, स खलु पण नंते ! वणस्सइकाए त्ति कालो केवधरं होइ?। गोयमा ! दीर्घलोकशस्त्रस्याग्नेः, क्षेत्रमः खेदको वा, संयमपूर्वकं ह्यग्निअतं कालं अणंताओ उस्सप्पिणिअवसप्पिणीओ, खेत्तत्रो विषयखेदकत्वम् । अग्निविषयखेदज्ञतापूर्वकं च संयमानुष्ठाअणंता लोया असंखेजा पोग्गलपरियट्टा, ते णं पोग्गलपरियट्टा नम्, अन्यथा तदसंभव एवेत्येतस्तप्रत्यागतफलमाविर्भावितं श्रावलियाए असंखेजश्भागे।" परिमाणतस्तु-"पमुप्यन्नवण- भवति। स्सश्काइयाएं भंते ! फेवतिकासस्स निलेवणा सिया? गो.
कैः पुनरिदमेवमुपलब्धमित्यत आहयमा! पमुष्पन्नवणस्सश्काइयाणं नत्यि निछेवणा।" तथा श.
वीरेहिं एवं अभिन्नूय दि, रीरोच्छया- दीर्घो बनस्पतिः। “वणस्सइकाइयाणं भंते ! के महालिया सरीरोगाहणा पम्मता?। गोयमा! सारेग जोयण.
(बीरहीत्यादि) अथवा सद्वक्तृप्रसिद्धौ सत्यां वाक्यप्रसिसहस्सं सरीरोगाहणा।" न तथाऽन्येषां एकेन्छियाणाम, अतः
भिवति, इत्यत उपदिश्यते-(वीरेदीत्यादि ) घनघातिकर्मस्थितमेतत्सर्वथा दीर्घलोको वनस्पतिरिति । अस्य च शस्त्रमग्निः,
संघातविदारणानन्तरप्राप्तातुलकेवलधिया विराजन्त इति यस्मात्स हि प्रवृरूज्वालाकलापाऽऽकुलःसकसतगणप्रध्वंस
बीरा:-तीर्थकराः, तैर्वीरैरर्थतो दृष्टमेतणधरैश्च सूत्रतोऽग्निशनाय प्रभवति, अतोऽसौ तपुत्सादकत्वाच्न म् । ननु च स
संरष्टम्, अशस्त्रं संयमस्वरूपं चेति । किं पुनरनुष्ठायेदं वलोकप्रसिद्ध्या कस्मादग्निरेव नोक्तः?, किं वा प्रयोजनमुररी
तैरुपलब्धमिति ?। अत्रोच्यते-(माभिजूयेति ) अजिभवो कृत्योक्तं दीर्घलोकशस्त्रमिति अत्रोच्यते-प्रेक्षापूर्वकारितया, न
नामाऽऽदिश्चतु , कल्यात्रिभवो रिपुसेनाऽऽदिपराजयः, प्रा. निरभिप्रायमेतत्कृतमिति। यस्मादयमुत्पाद्यमानो ज्वास्वमानोषा
दित्यतेजसा वा चन्द्रग्रहनकत्राऽऽदितेजोऽभिन्नवा, जावाभिन.
वस्तु-परीषहोपसर्गानीककानदर्शनाऽऽवरणमोहान्तरायकर्महव्यवादः समस्तभूतग्रामघाताय प्रवर्तते, वनस्पतिदाहप्रवृत्त
निर्दलनं, परीषहोपसर्गाऽऽदिसेनाविजबाद्विमलं चरणं, च. स्तु बहुविधसत्वसंहतिविनाशकारी विशेषतःस्यात, यतो वनस्पती कृमिपिपीलिकाभ्रमरकपोतश्वापदाऽऽदयः संजवन्ति, त.
रणाद्धर्शानाऽऽवरणाऽऽदिकर्मवयः, ततक्यालिरावरणमप्रतिया पृथिव्यपि तरुकोटरव्यवस्थिता स्यात, मापोऽप्यवश्यायरू
हतमशेषकेयनाहि, केवलज्ञानमुपजायते । श्दमुक्तम्भवतिपाः, वायुरपीपावनस्वन्नावकोमलकिशनयानुसारी संभाब्यते।
परीषहोपसर्गशानदर्शनाऽऽवरणीयमोहान्तरायाएपनिभूय केवतदेवमम्निसमारम्भप्रवृत्त एतावतो जीवानाशयति, अस्यार्थ
लमुत्पाद्य तैरुपलब्धमिति । स्य सूचनाय दीर्वलोकशस्त्रग्रहणमकरोत् सूत्रकार शति ।
यथाभूतैस्तैरिदमुपसन्धं तदर्शयति. तथा चोक्तम्
संजएहि सया जत्तेहिं सया अप्पमत्तेहिं ॥३३॥ "जायतेय न इच्छति, पावगं जलश्त्तए ।
सम्यग यताः संयताः प्राणातिपाताऽऽदिभ्यस्तैः, तथा सदा तिक्त्रमन्त्रयरं सत्थं, सव्वो वि दुरासयं ॥ ३३॥
सर्वकासं चरणप्रतिपत्तो मूलोत्तरगुणभेदायां निरतिचारत्वापाईणं पमिणं वा वि, उहुं अणुदिसामबि ।
यत्नवन्तस्तैः, तथा सदा सर्वकालं न विद्यते प्रमादो मद्यविषय. अहे दाहिणो बा वि, दहे उत्तरमो विय ॥ ३४॥ कषायविकथानिकाऽऽख्यो येषां ते प्रमत्ताः, तैरेवंभूतैर्महावीरैः भूयाण-मेस-माघाओ, हब्बवाहो न संसभो।
केवलझनचकुषेदं दीर्घलोकशस्त्रम्, अशस्त्रं च संयमो दृष्ट
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ते काइय
मुण्झन्यमिति । अत्र च यत्नग्रहणादीर्घासमित्यादयो गुणा गुणा मचादनिवृत्तिरिति तदेव धानपुरुषप्रतिपादितमग्निमपादर्शनादप्रमते साधुनिः
( २३४६ ) अभिधानराजेन्द्रः ।
परिहार्यमिति ॥
एवं प्रत्यक्षीकृतानेकदोषजालमप्यग्निशस्त्रमुपनो गोमात्मादवशगा ये न परिहरन्ति तानुद्दिश्य विपाकदर्शनायाऽऽहजे पत्ते गुणडीए से दु दंगे त्ति पवुच्चइ || ३४ ॥ यो दि प्रमत्तो भवति मद्यविषयाऽऽदिप्रमादैरसंयतो 'गुणार्थी' रन्धनपच्चनप्रकाशाऽध्यापनानिगुणप्रयोजनवाद सपुष्यणि दितमनोवाक्कायोऽग्निशस्त्रसमारम्भकतया प्राणिनां द रामहेतुत्वाइण्डः, प्रकर्षेणोच्यते प्रोच्यते, आयुर्धृता ऽऽदिव्यपदेशवदिति । ततः किं कर्तव्यता
परिया मेहावी इयार्थि यो जमदं पुण्मकामी मारणं ॥ ३५ ॥
( तं परिष्वाय मेहावी ) तमग्निकायसमारम्नं दण्डफलं परिज्ञाय परिक्षाप्रत्याख्यानपरिज्ञाभ्यां मेघावी मर्यादाव्यवस्थितो वक्ष्यमाणप्रकारेण व्यवच्छेदमात्मन्याचिनोतीति । तमेव प्रकारं दर्शयितुमाह - (श्यामीत्यादि) यमहमग्निसमारम्भं वि प्रमादेन कृतान्तःकरणः सन् पूर्वमकार्थे तमिदानी जिनवचनोपलम्याग्निसमारम्नना वो करोमीति ॥ अन्ये त्वन्यथा वादिनेोऽन्यथाकारिणइति दर्शवितुमाहलज्जपणा पुढो पास-धागारा मो चि एगे पदमाणा जमिथं विरूवरूयेहिं सत्यो अगणिकम्मसमारंजेणं अगणिमयं समारभमाणे अये गये पाणे विहिंसंति, तत्य स्खलु भगवता परिष्णा पवेदिता, इमस्स चैव जीवियस्स परिवंदण माणणपूयगाए जाइमर मोयलाए एक्खपमिघामदेउं से सयमेव अगणिसत्यं समारजइ, अमेहिं वा अधिसत्यं समारंभावे अ वा अगणि सत्यं समारजमाणे समजा, तं से अहियाए तं से अबोढियाए से तं संयुक्रमाणे आपाणीयं समुद्वाय सोचा भगवओो अण गाणं इहमेगेसि णायं भवति - एस खलु गंये एस खलु मोहे एस खलु मारे एस खलु परए, इञ्चत्यं गढिए बोए जमियां विरूवरूवेदि सत्येदि अगणिकम्मसमारंजमा अगरूपा विहिंसइ ।। ३६ ।।
( लज्जमाणेत्यादि ) यावत् - ( अने श्रगरूवे पाणे वि. सिइति) अस्य ग्रन्थस्पोकार्थस्यान्यमच मेशवः प्र दश्यते मनः स्वायमोसा नुष्ठानेन वा खां कुर्वाणाः पृथग्विभिन्ना शाक्यादयः पश्येति संयमानुष्ठाने स्थिरीकरणार्थ शिष्यस्य चोदना अनगारा वयमित्येके प्रवदमानाः, किं तैर्विरूपमाचरितं ये. नैव प्रदश्यत इति दर्शनकर्म समारम्भेण अग्निशस्त्रं समारभमाणः सन्नन्याननेकरूपान् प्राणिनो विहिनस्ति तत्र खलु भगवता परिक्षा प्रवे दिता यथाऽस्यैव परिगुजीवितस्य परिचन्दनमान पूजना जातिमरणमोचनायें दुःखप्रतिघातहेतुं यत्करोति दर्शय
..
तेमुकाश्य
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ति स परिवन्दनाऽऽद्यर्थी स्वत मचाशिखं समारभते तथा मन्यैवाग्निशखं समारम्भयति तथाऽम्याँ अग्निशखं समारजमाणान् समनुजानीते । तच्चाग्नेः समारम्भणं तस्य सुखलिप्सोरमुचान्यत्र चाहिताय भवति तथा-देव तस्याबोधिज्ञानाय जयति । स इति यस्यैतदसदाचरणं प्रदर्शितं स तु शिष्यस्तदग्विसमारम्भणं पापायेत्येवं संयुध्यमानादानीयं सम्यदर्शनादिसम्पत्ययाभ्यु पगम्य श्रुत्वा भगवदन्तिकेऽनगाराणां वा इदैकेषां साधूनां ज्ञातं भवति । किं तद्दर्शयति ?- एवोऽग्नि समारम्भः ग्रन्थः कर्मदेतुत्वात्, एष एव मोह एष एव मार एष एव नरकस्तद्देतुत्वादिति ज्ञावः । इत्येवमर्थ व फोलोको परकरोति दर्शयते यदिदं विरूपरूपैः शस्त्रकर्म समारभते तदारम्भेण चाशिखं समारभते त चारभमाणोऽन्याननेकरूपान् प्राणिनो विहिनस्तीति ॥ कथं पुनरग्निसमारम्भप्रवृत्ता नानाविधान् प्राणिनो विहिंसन्तीति दर्शयितुमाह
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से बेमि-संतिपाणा विणि स्सिया तणणिस्सिया पचणिस्सिया कट्ठपिस्सिया गोमयपिस्सिया कववरणिस्सिया, संवि संपाविमा पाया आहम संपयंति, अगणिच खलु पुट्ठा एगे संघायमावज्जंति, जे तत्थ संघायमावज्जंति ते तत्य परिवाति ने तस्य परियावज्जेति तत् उदाति ।। ३७ ।।
(सेमीत्यादिदं प्रीमि यथा नानाविधजीवहिंसनम निकायसमारम्भेण भवतीति । यथाप्रतिज्ञातार्थ दर्शयति-सन्ति विद्यन्ते प्राणा जन्तवः, पृथिवीकायनिश्रिताः पृथिवीकायत्वेन परिणता इत्यर्थः । तदाश्रिता या क्रमिकुन्युपिपीलिकाम पम्पदा हिमधिकंकायः तथा वृक्षगुल्म लाविताना ssदयः । तथा तृणपत्रनिश्रिताः पतङ्गेलिकाऽऽदयः। तथा काष्ठ निभिता देदिकापिपीलिकाण्डाद्यः गोमयनिश्रिता:कुपनकादयः। चवरः-पत्र समुदाय, ति कृमिकीटपतङ्गाऽऽद्यः तथा सन्ति विद्यन्ते संपति त्योत्प्लुत्य गन्तुमागन्तुं वा शीलं येषां ते संपातिनः प्राणिनो-जीबा ममितमशक पक्षाला 33 वः पतेव संपति
त्यापेत्य स्वत एव यदि वा अत्यर्थे काशि चायां संपतन्ति च तदेवं पृथिव्यादिनिश्रितानां जीवानां पति दर्शयितुमाह- अस्यादि धनपताना गुणार्थिभिरवश्यमग्नि समारम्भो विधेयः; तत्समारम्भे च पृथिव्यादिनिश्रितानां जीवानामेता वक्ष्यमाणा अवस्था भवन्ति, बा दत्वात् तृतीयाऽर्थे द्वितीया । ततश्यायमर्थ:-अमन स्पृष्टः इसके कंचन संघातमधिकं गात्रसंकोचनं मयूरपिच्चदा पद्यन्ते चब्दस्याधियारा शब्दोचारणे रे वायं प्रतापो नापरस्येति । यदि वा सप्तम्यर्थे द्वितीया । स्पृष्टशब्दश्च पतितवचनः। ततश्चायमर्थो भवति-अग्नावेव स्पृष्टाः प तिता एके शलभाऽऽदयः संघातं समेकी भावेनाधिकं गात्रसंकोमापद्यते प्राप्नुवन्ति ये च साम्नी पतिता संघातमापथप्रखिनः तत्रानी पद्यन्ते पतिःसंमूर्च्छन, रुप्यामिभूतामापद्यते इत्यर्थः अथ किमर्थे कृतानि परिणामोऽकारी ते मागधदेशी समनुवृत्तेः व्यापादि कम्पप्रदर्शनार्थे वा । अध्याहाराऽऽदयोऽपि व्याख्याङ्गानीत्यनेन
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(२३४७) तेनक्काइय अनिधानराजेन्दः।
तेनक्काश्य शिष्यो ज्ञापितो भवति।अथ के पुनस्तेऽध्याहाराऽऽदय इति?,उच्य- मगमगसरक्खसूई, पिप्पलमाई न उवोगो ॥४३ ।। ते-अध्याहारो,विपरिणामो, व्यवहितकल्पना, गुणकल्पना,लक
ओदनः-शाल्याऽऽदिभक्त, व्यञ्जन-पत्रशाकतीमनाऽऽदि । पाणा,वाक्यभेदश्चेति । इह च द्वितीयाविनक्तेः सप्तमीपरिणामः कृत
नकं-काञ्जिकम् । तत्र ह्यवश्रावणं प्रतिप्यते, ततस्तउपेक्षया इति।ये च तत्राग्नौ पर्यापद्यन्ते ते प्राणिनः कृमिपिपीलिकाभ्रम
काजिकस्याग्निकायता । आयामम्-अवश्रावणं,उष्णोदकम-उद्ध. रनकुलाऽऽदयः,तत्राग्नावपत्रावन्ति प्राणान् मुञ्चन्तीत्यर्थः तदेव
तत्रिदएकम् । एतेषां च पदानां समाहारद्वन्द्वः । चकारो मएममग्निसमारम्भे सति न केवलमग्निजन्तूनांविनाशः,कि त्वन्येषाम
काऽऽदिसमुच्चयार्थः । कुल्माषाः पक्वा माषाः। एते च ओपिपृथिवीतृणपत्रकाष्ठगोमयकचवराऽऽश्रितानां सम्पातिनां च
दनाऽऽदयोऽग्निनिष्पनत्वेनाग्निकार्यत्वादग्नयो व्यपदिश्यन्ते । ज्यापत्तिरबश्यम्जाविनीति। अत एव च जगवत्यां भगवतोक्तम्
भवति च तत्कार्यत्वासच्छब्देन व्यपदेशः । यथा-द्रम्मो भ"दो पुरिसा सरिसबया अन्नमन्नेहिं सकिं अगणिकायं समार
कितोऽनेनेत्यादौ ओदनाऽऽदयश्चाचित्ताः, तत एतेवामचित्ताजति,तत्थ णं एगे पुरिसे अगणिकायं समुज्जालेति, पगे विज्क
निकायत्वेनाभिधानं न विरुध्यते। तथा मगलकाः-पक्केष्टकाबेति । तत्थ ण के पुरिसे महाकम्मयराप? के पुरिसे अप्पकम्मयराए । गोयमा ! जे उजालेति से महाकम्मयराप, जे विज्ज.
खएमानि, सरजस्को-जस्म, सूची लोहमयी वस्त्रसीबनिका । वेति से अप्पकम्मयराए ॥"
अथवा ( सरक्वसू त्ति) रक्षा भस्म, सह रक्कया वत्तते
इति सरका सूची । किमुक्तं नवति?. रका च, सूची चेति । तदेवं प्रभूतसचोपमईनकरमग्यारम्नं विज्ञाय मनोवाक्कायैः
पिप्पलका-किश्चिद्वका तुरविशेषः । श्रादिशब्दान्नखरद. कृतकारितानुमतिभिश्च तत्परिहारः कार्य इति दर्शयितुमाह
निकाऽदिपरिग्रहः । एतानि च मगलकाऽऽदीनि पूर्वमग्निरूपएत्य सत्यं असमारंजमाणस इच्वेते आरंभा परिमा- तया परिणतान्यासोरन्, ततो भूतपूर्वगत्या संप्रत्यपि अग्निया नवंति, तं परिणाय मेहावी व सयं अगणिसत्य स
कायत्वेन व्यपदिश्यन्ते, अचित्तानि वन चेतेषामचित्ताग्निका.
यत्वानिधाने विरोधः । ... (?)संप्रत्यचित्तानिकायस्य प्रयोजमारंभे, नेवाणहिं अगणिसत्यं समारंभावेज्जा, अगणि
नमाह (उवभोगोत्ति) एतेषामोदनाऽऽदीनां य उपयोगोजोजनासत्यं समारंभमाणे अएणे न समपुजाणेज्जा, जस्सेते अ
ऽऽदावुपयुज्यमानता, तदचित्ताग्निकायेन साधूनां प्रयोजनम् द्रगणिकम्मसमारंजा परिणाया नवंति से हुमणी परि- व्याऽऽदिभेदाच्चतुर्विधत्वमचित्ताग्निकायस्य प्रागिव यथायोगभा. एणायकम्मे ॥ ३७॥त्ति बेमि ॥
वनीयम् । उक्तस्तेजस्कायपिएडः।पिं०। ओघ आमाकल्प।
बृ० । (प्रथमं तेजस्कायोद्दीपनम् ऋषभदेवेन शिक्षितमिति (पत्थ सत्थेत्यादि) अत्राग्निकाये शस्त्रं स्व कायपरकाय
'उसह'शब्दे द्वितीयभागे ११२६ पृष्ठे उक्तम् ) ( 'सदीववसई' भेदभिन्नं समारजमाणस्य व्यापारयत इत्येते आरम्भाः
प्रस्तावे साधूनामग्निसेवना प्रदर्शयिष्यते) (विकाने विहरतापचनपाचनाऽऽदयो बन्धहेतुत्वेन परिज्ञाता भवन्ति । तथा
मग्निसेवना'बिहार' शब्दे वक्ष्यते) उत्रैवाग्निकाये शस्त्रमसमारभमाणस्यैते प्रारम्नाः परिधाता भवन्ति । यस्यैते अग्निकायसमारम्ना परिझया परि
अथ तेजस्कायहिंसानिषेधमादशाता भवन्ति, प्रत्याख्यानपरिझया च पारिहता भवन्ति, स
जायतेयं न इच्छंति, पावगं जलइत्तए । एवं मुनिः परमार्थतः परिज्ञातकम्मति । ब्रवीमीति पूर्ववदिति। तिक्खमन्त्रयरं सत्थं, सव्वो विरासयं ॥३३॥ मांचा० १ श्रु० १०४ उ० ।
जाततेजा अग्निः, तं जाततेजसं, नेच्छन्ति मनःप्रभृतिभिरपि सम्प्रति तेजस्कायपिएममाह
पापकं पाप एव पापकस्तं, प्रभूतसच्चापकारित्वेनाशुनमित्यतिविहो तेउकाओ, सच्चिचो मीसओ य अच्चित्तो। । थः । किं नेच्छन्तीत्याह-ज्वलयितुमुत्पादयितुं, वृद्धि वा नेतुम् । सच्चित्तो पुण दुविहो, निच्छय-ववहारो चेव ॥४२॥
किंविशिष्टमित्याह-तीक्ष्णं च्छेदकरणाऽऽत्मकम्, अन्यतरत् शस्त्रं त्रिबिधः तेजस्कायः । तद्यथा-सचित्तो, मिश्रोऽचित्तश्च । सचि
सर्वशस्त्रम् । एकधाराऽऽदिशस्त्रव्यवच्छेदेन सर्वतोधारशस्त्रक.
स्पमिति भावः । अत एव सर्वतोऽपि दुराश्रयं सर्वतोधारत्वेत्तः पुनर्विविधा-निश्चयतः, व्यवहारतश्च । निश्चयव्यवहाराभ्यामेब सचित्तस्य द्वैविध्यमाद
नानाश्रयणीयमिति सूत्रार्थः ॥ ३३॥ स्टगपागाईणं, बहुमज्झे विज्जुमाह निच्छ्यो ।
एतदेव स्पष्टयन्नाह - इंगालाई श्यरो, मुम्मुरमाई य मिस्सो उ ॥ ४२ ॥
पाईणं पडिणं वा बि, जम्दं अणुदिसामवि । इष्टकापाका प्रतीतः। भादिशब्दात् कुम्भकारपाकेक्षुरसक्व.
अहे दाहिएओ वा वि, दहे उत्तरो विय ॥ ३४॥ थनचुल्ल्यादिपरिग्रहः। तेषां च बहुमध्यानागे विद्यदादिश्व वि. अग्निरिति शेषः। प्राच्या प्रतीच्या वाऽपि, पूर्वायां पश्चिमायां [दुल्काप्रमुखस्तेजस्कायो निश्चयतः सचित्तः,शेषस्तु अङ्गाराss- चेत्यर्थः । कर्वमनुदिक्ष्वपि, सुपां सुपो भवन्तीति सप्तम्यर्थे दिका, अनारो-ज्वालारहितोऽग्निः, आदिशब्दाद ज्वालाऽऽदि. षष्ठी । विदित्वपीत्यर्थः । अधो दक्षिणतश्चापि ददति दाह्य परिग्रहः। व्यवहारतः सचित्तः । सम्प्रति मिश्रं तेजस्काय. भस्मीकरोति, उत्तरतोऽपि - सर्वासु दिक्षु विदिक्षु च दहमाह-( मुम्मुरमाई य मिस्सो उ) मुर्मुरः कारीषोऽग्निः, श्रा- तीति सूत्रार्थः ॥ ३४॥ दिशब्दादविद्ध्याताऽऽदिपरिग्रहः । इत्थं नूतो मिश्र इति ।
यतश्चैवमत:साम्प्रतमचित्त तेजस्कायपिएममाद
नृयाण-मेस-माघाओ, हव्यवाहो न संसओ । ओयणवंजणपाणग-आयामुसिणोदगं च कुम्मासा। । तं पश्वपयावट्ठा, संजया किं चि नारले ॥ ३५॥
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उक्काइय
भूतानां स्थावराssदीनामेष आघातः, आघात देतुत्वादाघातः । हव्यवाहोऽग्निर्न संशय इत्येवमेवैतदाघात एवेति भावः । येनैवं तेन तं इव्यवाहं प्रदीपप्रतापनार्थमालोक शीतापनोदार्थ, संयताः साधवः किञ्चित्सङ्घट्टनाऽऽदिनाऽपि नारभन्ते, संयतत्वापगमनप्रसङ्गादिति सूत्रार्थः ॥ ३५ ॥ यस्मादेवम्
तम्हा एवं वियाणित्ता, दोसं दुग्गड़वढणं । तेडकायसमारंजं, जावजीबाईं वज्जए ।। ३६ । व्याख्या पूर्ववत् ॥ ३६ ॥ दश० ६ ० ।
( २३४० ) अभिधानराजेन्द्रः ।
अथ तेजस्कायविधिमाहइंगा अगणि चिं, अलायं वा सजाइयं । न जिज्जा घट्टिज्जा, नो णं निव्वावर मुखी ॥ ८ ॥ अङ्गारं ज्वालारहितम्, अग्निमयः पिएमानुगतम्, श्रर्चिः बिश्नज्वालम्, भालातमुल्मुकं वा; लज्योतिः साग्निकमित्यर्थः । किमित्याह - नोत्सिञ्चेत न घट्टयेत् तत्रोञ्जनमुत्सेचनं प्रदीपाऽऽदेः, घट्टनं मिथश्चालनं, तथा नैनमग्नि निर्वापयेत् अभावमापादयेन्मुनिः साधुरिति सूत्रार्थः । दश० ८ अ० ।
अग्निकायस्य मध्येन नैरयिकाऽऽदय व्यतिव्रजन्तिरइयाणं भंते ! अगणिकायस्स मज्जं मज्जेणं वीईए? । गोयमा ! प्रत्येगइए वीईवएज्जा, प्रत्येगइए पो वीवएज्जा | से केलट्टेणं भंते ! एवं वृच्चड़ - अत्थेगइए बीएज्जा, अत्थे णो वीईवएज्जा ? । गोयमा !
1
रइया दुविहा पत्ता । तं जहा - विग्गहगइ समावएणगा य, अविग्गहगसमावणगा य । तत्थ णं जे से विग्गहगइसमात्र एणए णेरइए से णं अगणिकायस्स म मज्जेणं वीईवएज्जा, से णं तत्थ क्रियाएज्जा १ । लो इण्डे समट्ठे । यो खलु तत्थ सत्यं कमइ । तत्य णं जे से अविगहग समाए रइए से णं अगणिकायस्त मज्जं मज्जेणं पो बीईएज्जा, से तेणट्ठेणं णो वीईएज्जा | असुरकुमारे णं भंते ! अगणिकायपुच्छा ? । गोयमा ! प्रत्येगए बीई एज्जा, प्रत्येगइए णो वीईवएज्जा | से केएट्टें० जाव णो वीईवएज्जा ? । गोयमा ! असुरकुमारा दुविधा पत्ता । तं जहा - विग्गहगहसाव लगाय, विग्ग गइ समावपगा य । तत्थ णं जे से विग्गहगइसमावा असुरकुमारे, से गं जहेव णेरइए० जाव कमइ, तत्य णं जे से अविग्गहगइसमावर असुरकुमारे, सें अत्थेगड़ए अगणिकायस्स मज्जं मज्जेणं बीईएज्जा, अथेगइए पो बीईएज्जा, जेणं बीईवएज्जा से पां तत्य कियाज्जा ? | णो इाडे समट्ठे । यो खलु तत्थ सत्यं कमइ । से तेण एवं० जाव यणियकुमारा एगिंदिया जहा ऐरइया । वेइंदिया णं जंते ! अगणिकायस्स मज्ऊं मज्जेणं जहा सूरकुमारे तहा बेईदिए वि. वरं जे एां बीईवएज्जा से सं
तेनकाइय
तत्थ क्रियाएज्जा ? | इंता ! क्रियाएज्जा सेसं तं चैत्र० जाव चारदिया । पंचिदियतिरिक्खजोलिए णं भंते ! अगणिकापुच्छा । गोयमा ! त्येगइए बीईवएज्जा, प्रत्येगइए पो वीएज्जा | सेकेण्डेणं नंते ! ? । गोयमा ! पंचिंदियतिरिक्खजोणिया दुविहा पत्ता । तं जहा- विग्ग ढगइसमा - वगा य, अविग्गहगइसमावागा य। विग्गह गइ समावष्य ए जदेव रइए० जाव णो खलु तत्थ सत्यं कमइ, अविगहराइसमाबछगा पंचिदियतिरिक्खजोगिया दुविहा पएत्ता । तं जहा - इलिपत्ता य, अपिढिपत्ता य । तत्य गं जे से इढिपत्ते पंचिदियतिरिक्खजोथिए णं सेणं प्रत्येगए अगणिकायस्स मज्जं मज्मेणं बीईएज्जा, अत्येगइए णो वीईएज्जा । जेणं बीईवएज्जा से णं तत्य क्रियाएजा ।। णो इणडे समट्ठे । सो खलु तत्थ सत्थं कमइ । तत्थ णं जे से प्रणिपत्ते पंचिदियतिरिक्खजोणिए, से णं प्रत्यगइए
गणिकायस्स मज्जं मज्जेणं वीईवएज्जा, प्रत्येगइए णो बीजा, जे बीईएज्जा से णं तत्थ कियाएज्जा ? | हंता ! क्रियाएज्जा | से तेणट्टेणं० जाव णो किया एज्जा । एवं मणुस्से वि, वाणमंतरजोइसिवेमाणिए जहा असुरकुमारे । (नेरइयाणमित्यादि ) इह च क्वचिदेश कार्थसंग्रह गाथा दृश्यते । सा ज्ञेयम्-" नेरइय श्रगणिमज्जे, दस ठाणा तिरियपोग्गले देवे । पचयनिती उल्लंघणा य पहुंघणा चेब ॥ १ ॥ " इति । अर्थश्वास्या उद्देशकार्थावगमगम्य इति । ( णो खलु तत्थ सत्यं कमइत्ति ) विग्रहगतिसमापन्नो हि कार्मणशरीरत्वेन सूक्ष्मः, सूक्ष्मत्वाश्च तत्र शस्त्रमग्न्यादिकं न क्रामति । ( तस्य णं जे से इत्यादि ) अविग्रहगतिसमापन्न उत्पत्ति क्षेत्रोपपन्नोऽनिधीयते, न तु ऋजुगति समापन्नः, तस्येह प्रकरणेऽनधिकृतत्वात् । स चाग्निकायस्य मध्येन व्यतिव्रजति, नारकक्षेत्रे बादराग्निकायस्याभावान्मनुष्यक्षेत्र एव तद्भावात् । पश्च्चोत्तराध्ययनाऽऽदिषु श्रूयते -"हुयासणे जयंत म्मि, दनुपुण्वो अणेगसो । ” इत्यादि । त दग्निसदृश व्यान्तरापेक्षयाऽवसेयम् । संजवन्ति च तथाविधशक्तिमन्ति प्रव्याणि तेजोलेश्याव्यवदिति । श्रसुरकुमारसूत्रे विग्रहगतिको नारकवत्, अविग्रहगतिकस्तु को ऽध्यग्नेर्मध्येन व्यतिव्रजेत् यो मनुष्य लोकमागच्छति, यस्तु न तत्रागच्छत्यसौ न व्यतिव्रजेत्, व्यतिव्रजन्नपि च न ध्यायते वा, ध्यायतेऽतो न खलु तत्र शस्त्रं क्रमते, सूक्ष्मत्वाद्वै क्रियशरीरस्य, शीघ्रत्वाच्च ततेरिति । (एगिदिया जहा नेरश्य त्ति) कथम?, यतो विग्रहे तेऽप्यग्निमध्येन व्यतिव्रजन्ति, सुक्ष्मत्वान्न दान्ते च श्रविग्रहगतिसमापन्नकाश्च तेऽपि नाग्नेर्मध्येन व्यतिव्रजन्ति, स्थावरत्वात् यच्च तेजोवायूनां गतित्रसतयाऽग्निमध्येन प्रतिव्रजनं दृश्यते, तदिह न विवचितमिति संभाव्यते, स्थावरत्वमात्रस्यैव विवक्षितत्वात् । स्थावरत्वे ह्यस्ति कथञ्चित्तेषां गत्यन्नावो, यंदपेक्षया स्थावरास्ते व्यपदिश्यन्ते, अन्यथाऽधिकृतव्यपदेशस्य निर्निबन्धनता स्यास. था । यद्वा-द्वयादिपारतन्त्र्येण पृथिव्यादीनामग्निमभ्येन व्यति जनं दृश्यते, तदपि न विवचितम्, स्वातन्त्र्यकृतस्यैव तस्य वि वक्कणात्। चूर्णिकारः पुनरेवमाह - "एगिंदियाणं गई नत्थि ति । "
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तेनकाइय
ते न गच्छन्ति । "एगे चालक्कायाश्वर पेरणेसु गच्छति, विरादि. ज्वंति य " इति ॥ पञ्चेन्द्रियतिर्यक्सूत्रे - (इपिता यत्ति) क्रिअगर अगणिकायस्थेत्यादि) अस्त्येक कः कश्चित्पञ्चेन्द्रिय तिर्यग्यो मनुष्य लोकवर्ती स तत्राग्निकायसम्भवात्तन्मध्ये न व्यतिव्रजेत् । यस्तु मनुष्य क्षेत्राद् बहिर्नासावग्नेमेध्येन व्यतिषजेत्, अग्नेरेव तत्राभावात् तदन्यो वा; तथाविधसामभ्यभावात् । (णो खसु तत्थ सत्थं कमइति) वैक्रियाऽऽदिसन्धिमति पञ्चेन्द्रियतिरश्चि नाग्न्यादिकं शस्त्रं क्रमत इति । भ० १४ श० ५ ० । ( अग्नेरुज्ज्वालकः प्रज्वालको वा महाकम्मैति कालोदायि प्रश्नेन " अराणवत्थिय " शब्दे प्रथमभागे ४४७ पृष्ठे विचारितम् )
( २३४५) अभिधानराजेन्द्रः ।
अथ अङ्गारकारिकासु तेजस्काय स्थितिःइंगाल कारियाए एं भंते! गणिकाएं केवइयं कालं संचि १। गोयमा ! जहां अंतोतं, उक्कोसेणं विधि राईदियाई वित्थ वाडयाए बुकमइ, ए विणा वाउयाएणं अगणिकाए उज्जल । पुरिसे णं जंते ! अयं त्र्यकोसि पोमसंडास उहिमा वा पहिमा वा क किरिए ? | गोमा ! जावं चणं से पुरिसे अयं अयकोटुंसि यो संमास या पविदिति वा, ता चां से पुरिसेकाइमा ए० जाय पाएनाय किरिया पंचाई किरिवाहिं पुढे, जो पिणं जीवाणं सरीरेहिंतो अय चिए कोडे व्वित्तिए समासए शिव्यत्तिए इंगाला लि
ण
त्तिया इंगालकडिणी व्वित्तिया जंबा व्वित्तिया, ते विणं जीवा काइयाए० जान पंचईि किरियाहिं पुडा || ( इंगालकारियाए ति ) अङ्गारान् करोतीति श्रङ्गारकारिका अग्निशकटिका, तस्याम्, न केवलं तस्यामग्निकायो मवति स ) अन्योऽप्यत्र वायुकायो म्युकामति । यत्रास्तित्र वायुरिति कृत्वा । कस्मादेवमित्याद-णेत्यादि ) भ० १६ श० १ उ० । सूत्र० । नि० चू० । ( तेजस्कायस्य आहारः महार' शब्दे द्वितीयजागे ४६६ पृष्ठे उक्तः ) ( तेजस्कायस्य प्रतिसेवना ' पमिसेवणा ' शब्दे बदयते ) (ओदना किंवा इति अजीबसरीर शब्दे प्रथमभागे १५६ पृष्ठे उक्ताः ) तेजपुड - तेजःस्पृष्ट- त्रि० । तेजसा अग्निना स्पृष्टो दह्यमानः । अग्निना दह्यमाने, सूत्र० १ ० ३ अ० १३० । ठप्प-तेजःप्रथ-पुं० अग्निकुमारेन्द्रयोरग्निसिंहानिमान
C
वयोः पश्चिमदिग्लो कपाले, स्था० ४ ० १ ० | अग्निकुमारे. मानवयोरदिम्लोकपाले २०३०० ४० ते फास तेजःस्पर्श-०क्षणस्पर्श, भा० १०६०३ उ० । उष्णस्पर्शश्च श्रातापनाऽऽदिकाले । श्राचा० १ ० ६ अ०
२ उ० ।
तेस्मा तेजोलेश्याखी०
नियानि व्याणि, लोहितानीत्यर्थः । तत्साकियाजाता तेजोलेश्या । स्था० १ टा० । विशिष्टत पोजन्य लब्धिविशेषप्रवायां तेजज्वा तासिकायाम, विपा० ० ० ० चं० प्र० । जं० ॥
५६८
-
तेलेस्सा
निर्ग्रन्थानामेव लब्धिविशेषस्य कारणत्रयमाहतिहिं गणेहिं समणे णिग्गंथे संखित्तवि उलतेउलेस्से जवइ । तं जहा - आयावणयाए, खंतिखमाए. पाणगेणं तवोकम्में |
(तिहिमित्यादि) संहिता लघुता विपुलाऽपि विस्तीणां पि सती, अन्यथाऽऽदित्य बिम्बवद् प्रदेश स्यादिति । तेजोलेश्या तपोविति तेजस्वित्वं तेजसरीपरिणतिरूपं महाज्वालाकल्पं येन सविपुलतेजोलेश्य बतानानां शीत भिः शरीरस्य सन्तापनानां भाव आतापनता, शीताऽऽतपाऽऽदेः सममित्यर्थः । तया; क्षान्त्या क्रोधनिग्रहेण कमा मर्षणं, न त्वशक्कतयेति कान्तिक्कमा, तयाः श्रपानकेन पारणककालादन्यत्र तपः कर्मणा षष्ठाऽऽदिनेति । अभिधीयते च जगवत्याम्- "जे णं गोसालो गाए सनहाए कुम्मासपिंकियाए पगेण य वियमामरणं बणं णिक्खित्तेणं तवोकम्मेणं उ बाढाओ पगिज्झिय पणिज्यि सुराभिमुद्दे आपणभूमी माविहरु, से गं अंतो हं मासाणं संखित्तविउलते च लेस्ले जव । इति । स्था० ३ ठा० ३ उ० ।
33
आत्मज्ञानमग्नस्य वाचंयमस्य तेजोलेश्या युज्यत इत्याहतेजोलेश्याविवृद्धि साधोः पर्यायतः ।
जाषिता भगवस्थादी, सेत्यंभूतस्य युज्यते ॥ ए ॥ टीका सुगमा । अ० २ श्रष्ट० ।
जे इमे अज्जत्ताए समणा णिग्गंथा विहरंति, एएणं कस तेस्तं वीईवयइ १ । गोयमा ! मासपरियाए समणे विग्गंचे वाणमंतराणं देवानं सेउलेस्सं बीईवयई। दुमासपरियाए समणे णिग्गंथे सुरिंदवज्जियाणं भवणवासीं देवाखं तेजले बीईयह एवं एए अभिलाषेण निमासपरियाए समणे णिग्गंथे असुरकुमाराणं देवाणं तेउलेस्सं बीवियड़ | चलमासपरियाए समणे णिमये गढ़गए एक्खचतारारूवाणं जोइसियाणं देवाणं तेउलेस्सं बीईवय । पंचमासपरियाए समणेहिमांचे बंदिमरियाणं जोइसियाएं जोइसिरायाणं तेउलेस्सं वीईवयई । छम्मासपरियाए समणे निमांचे सोहम्मीसाणार्थ देवाणं । सतमाम परियार सकुमारमाहिंदाणं देवा अमासपरियार समलि गंचे जगतगाणां देवाणं तेलेस्स बीईवय एबमासपरियार समणे निांचे महामुकसहस्साराणं देवाणी उस्सं बीईय। दसमासपरियाए समये हिग्गंचे भावयपाणयारणऽच्चयाणं देवाएं । एक्कारसमासपरियार समणे णिग्गंये गेवेज्जगदेवाणं । वारसमासपरियाए समणे गंधे रोबवाइयाणं देवायां तेउलेस्सं बीईवग्रह | ते परं मुक्के सुक्कानिजाए जवित्ता, तम्रो पच्छा सिज्झइ० जाय अंत करे ।
( जे इमे इत्यादि ) य श्मे प्रत्यक्का ( अजसार सि ) आर्यतथा पापकर्मतितया तया वा अधुनातनतया प मानकाले इत्यर्थः । ( तेउलेस्सं ति ) तेजोलेश्यां सुखासिकीं,
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(१३५०) तेनलेस्सा
अनिघानराजेन्द्रः। तेजोमेश्या दि प्रशस्तलेश्योपलकणं, सा च सुखासिकाहेतु- तेगारपव्यय-त्र्याकारपर्वत-पुं० । स्वनामख्याते पर्वते, यत्र सह. रिति कारणे कार्योपचारात् तेजोलेश्याशब्दन सुखासि | सफपी पाश्वनाथः पूज्यते । ती.४ कल्प। का विवक्षितेति । (बीईवयंति )व्यतिवजन्ति व्यतिक्रामन्ति ।
तेगिच्च-चैकित्स्य-न० । चिकित्साकर्मणि, वृ० १ उ० । व्यः । (असुरिंदवज्जियाणं ति) चमरबलिवर्जितानाम्, (तेण परं
करपला"तिविहे तेगिच्चगम्मित, उज्जुय वाउलणसाणा चैव । ति) ततः संवत्सरात्परतः। (सुके त्ति) शुक्लो नामाऽजिन्न
पावणमणिच्छते, दिठंतो भमिपोपाहं ।।१॥" इति। न्य.१ वृत्तोऽमत्सरी कृतज्ञः सदारम्नी हितानुबन्ध इति, निरतिचारचरण श्त्यन्ये । (सुक्कानिजाय त्ति) शुक्लानिजात्यः, परम शुक्ल
उ० । नि. चू० । (आचार्याऽऽदीनां चिकित्सा 'पच्चित्त ' श्त्यर्थः । अत एवोक्तम्-"पाकिञ्चन्यं मुख्यं, ब्रह्मापि परं सदाग
शब्दे व्याख्यास्यते) मविशुद्धम् । सर्व शुक्लमिदं स्खलु, नियमात्संवत्सरादृर्द्धम् ॥१॥"
तेगिच्चायण-चैकित्सायन-त्रि० । चिकित्सगोत्रापत्ये, जं. ४ एतश्च श्रमणविशेषमेवाऽऽश्रित्योच्यते, न पुनः सर्व एवैवंविधो वक्ष०। भवतीति । भ०१४ श०९ उ०। अथ गोशालः प्रनुमागत्याप्राकी- तेगिच्छिदह-चैकित्स्यहद-पुं० । निषधपर्वतस्थे धृतिदेवताके त्-तेजोलेश्या कथं भवति ? । खाम्याह-नैरन्तर्येण षष्ठपारणके स्वनामख्याते हृदे, स्था० २ ठा• ३१०। मुष्टिमध्यगतकुल्माषपिएिककया एकेन च पानीयचुलुकेन यापय.
तेजलपुर-तेजलपुर-न० । सुराष्ट्रदेशस्थिते स्वनामख्याते पुरे, तीन तः षभिर्मासैनवति । आक०। वर्णतो-वहिवालाशुकमुखकिशुकतरुणार्कडिङ्गुल काऽऽदिरोहितजव्यसमानवणे, रसतः-प.
यत्र श्रीपार्श्वप्रतिमा पूज्यते । “ तेजपालमंतिणो गिरिनारत
से निअनामंकिअतेजलपुरस्स पुग्बदिसाए नग्गसेणगढं नाम रिणतामसुपक्ककपित्थाऽऽदिसमधिकरसैः, गन्धता-विचिकिलपाटलाऽऽदिसमधिकगन्धैः,स्पर्शतः-शाल्मनीफलतूलाऽऽदि.
पुगं जुगाश्नाहप्पमुह जिणमंदिरराहिलं विजन, तस्स य तिसमधिकस्पर्शः तेजोवर्णव्यैर्मिष्पन्नत्वात्तजसी संझा । (५ गा०)
पिण नाम विज्जाई पसिकाई। तं जहा- उग्गसेणगढं ति चा, तेजोवर्मव्यनिष्पन्न लेश्यानेदे, पा० । पं०व०। उत्त० स०।
खंगारगढं ति बा, जुम्ममुग्गं ति वा । गढस्स बाहि दाहिणदितेजोलेश्यायाः पुत्राः सचित्ताः, अचित्ता बेति प्रश्ने, उत्तरम्
साए चउरिअविश्लट्टयउवरिभाए सुवामयाइं गणाई चिटुं. लब्धिः
ति।" ती०४ कल्प। पुमसरूपा न भवति,शक्तिरूपाजवति, परं तेजोलेश्यापुमा ला जीवन मुखाजीवप्रदेशसहिता निष्कासिता,तस्माजीवप्रयो
तेजस्सिया-तेजस्विता-स्त्री० । प्रतिवादिकोभाऽऽपादिकायांश. गनिष्कासितत्वात्सचित्ता झायन्त इति । ७० प्र० । सेन०३ उद्वारा
रीरस्य स्फूर्तिमत्यां देदीप्यमानतायाम, न्य० १ उ० । तेउल्लेस्सालछि-तेजोमेश्यालब्धि-स्त्री०कोधाऽऽधिक्यात्प्रति. तेड़-पुं०। देशी शलभे, पिशाचे च । देना०५ वर्ग २३ गाथा। पन्धिनं प्रति सुखनाने कयोजनप्रमाणक्षेत्राऽऽश्रितवस्तुदहनदक- तेण-स्तन-त्रि०। चौरे, स्था०५ वा०३ उ०। प्राचा। सूत्र। तीवतरतेजोलक्यानिसर्जनशक्ती, प्रव० २७० द्वार।
आवतं० ध० । दश व्या "तेणा विहा तिविदा बा।" तेनसमुग्घाय-तैजससमुदात-पुं० । तेजसि विषये जवस्तैजसः,
व्य०२०। "णाणातिकारणेहि गममाणे अंतरा तेणा भवंति।" स चासो समुद्घातश्च तैजससमुद्घातः । प्रव०२३१ द्वार । ते.
नि० चू०५०।। पं० भा० । पं० चू० । ग०। जोलेश्याविनिर्गमकालजाविनि तेजसनामकर्म पुगल परिझातहे
श्याचं तेयोतो समुद्धातविशेषे, प्रशा० ३४ पद । तेजोलेश्याविनिगमकाल
अकंतितो य तेणो, पागतितो गामदेसअच्छायो। भाविनि तैजसशरीरनामकर्माऽऽश्रये समुदघातानेदे, प्रव. २३२ तकरखाणगतेणो, परूवणा होति कायव्वा ।। ३६१ ॥ द्वार । तथाहि-तेजोनिसर्गलब्धिमान् क्रुकः साध्वादिःसप्ताष्टी
अमामाए बला हरंतो अक्रतितो, राते हरतो पागतितो, पदानि अवष्वक्य विष्कम्भबाहल्याच्यां शरीरमानमायामतस्तु
अधवा-राउलवमास्स अकंतितो पागयजणस्स हरति । उपागसंख्येययोजनप्रमाणं जीवप्रदेशदएशरीराद् बहिः प्रतिप्य को- तिउमागतो हरंतो गामतेणो। सदेसे परदेसे व दरंतो देखतेणो। धविषयीकृत मनुष्याऽऽदि निर्दहति,तत्र च प्रजूतांस्तैजसशरी- गामदे संतरेसु हरंतो अंतरतेणो । पंथेसु हरंतो अकाण तेणो। रनामकर्मपुतान् शातयति । प्रव०२३१ द्वार । स्था। प्राचा। तदेविक करोतीति तकरो, नो अन्नं किंचि किसिमादि करोती('गोसामग' शब्द तृतीयन्नागे १०१६ पृष्ठे वैश्यायनबालतप
ति । खत्तं खणतो खाणगतेणो।। स्विना तेजोलेश्या गोशालकोपरि प्रयुक्ता, भगवता बीरेण वा
सो समासेण च विदो तेणोरितेति निदर्शितम)
दव्धे खेत्ते काले, नावे वा तेणगस्स निक्खेवो । तेउसीह-तेजःसिंह-पुं० । अग्निकुमारेन्योरग्निसिंहाग्निमान
एएसिं तु चनएहं, पत्तेअपरूवणं वोच्चं ॥ ३६२ ।। वयोर्दकिणदिग्लोकपाले, स्था०४ ठा० ११० । भ० ।
कंग। सेनसोय-तेजःशौच-न० । तेजसा अग्निना तद्विकारेण वा भस्म
इमो दब्बतेणोना शौचं तेजःशौचम । शौचनेदे, स्था० ५ ठा० २ उ० ।
सच्चित्ते अचित्ते, य मीसए होंति दव्यतेणा न । तेंमुअ-न० । देशी-तुम्बुरुाण, दे० ना०५ वर्ग १७ गाथा।
साहम्मिएणधम्मिय-गारथीहिं च नायव्वा ॥३६३ ।। तेंदुसय-तेन्ऽसक-पुं० । कन्डके, ज्ञा०१ श्रु० ८०।
सञ्चितंदुपदचउप्पदापदं, अञ्चित्तं-हिरनाऽऽदि, मिस्सं-सनंमबतंवरु-तेम्बुरु-पुं० । त्रीन्जियजीवभेदे, जी०१ प्रति ।
मत्तोवगरणं,अस्साऽऽदि फत्रादि व देसोव सचित्ताचितं,तं पुण तेकाल-काल्य-ना त्रयश्च ते कालाः, तेषां नावस्त्रकाल्यम्।। सचित्ताऽऽदि दवं साहम्मियाण अधम्मियाण गारत्थियामा वा अतीतानागतवर्तमानरूपे फाले, दर्श०५ सत्य।
अवहरंतो दन्यतो तेणो। सोतिविहो-चक्कोसो, मजिमो,जहयो।
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(२३५१) तेण अभिधानराजेन्दः ।
तेयाप्पभोग इयाणि नेत्तकालभावतेणो तिन्नि वि जुग भन्नति
इमं व से पच्चित्तंसगदेसपरविदेसग-अंतरतेणा य होति खेत्तम्मि ।
सग्गामे परगामे, सदेसे परदेसे अंतों बाहिं च । राई दिवा व काले, भावम्मि य नाणतेणा तु ॥३६४॥ दिहाऽदिहा सोही, मासलह अंते मूलाई ॥ ३७१ ॥ हयगयराईलच्छी-माणिक्काई तु तेणों उक्कोसो।
सग्गामे, परम्गामे, सदेसे, परदेसे,पतेसिं अधो उक्कोसमज्झिगोमहिसखत्तखणखा-रियाणि तेणो य मजिमश्रो । ३६५॥
मजहमा विजंति । एतेसिं अहो अंतो बाहिं ठविज्जति। एतेसि
अहो दिट्ठाऽऽदि । एतस्साधो मूलं । गंठीछेदगपथिजण-दबहरो वा जहएणतेयो उ । एकेको वि य एत्तो, पडिगपडिच्चग्गतेपो उ ।।३६६॥
मूलं छेदो छग्गुरु, बहु चत्तारि गुरुग लहुगा य । सदेसतो, परदेसतो, एतसिमंतरे वा हरंतो खेत्ततेणगो । रातो।
गुरुया लहुया मासो, रायविमुक्कस्स जा ताव ॥३७॥ घा दिया वा हरंतो कालतेणो।जावतेणोणाणदसणचरित्ते दरंतो।
मूलाइ जाव मासलहुं ताव बविज्जति । इमा वारणा-सम्गामे हयगयरायिच्छिमाणिक्के हरंतो उक्कोसो। गोमहिसखेत्तखणखा.
उक्कोसं अतो दिटुं जो अवहरति, तं जो पब्वावेति तस्स मूखं; रियाऽऽदि वा हरंतो मज्झिमो । पहियजणमोसगो, गम्भेिदगो,
अदि छेदो; बाहिं दिऐ दो,अदि बग्गुरु; मज्झिमे दो अंतो असणाऽऽदि वा हरंतो जहन्नो । एकेके चपगारा इमे-तेणो,
नव हुए ठायति; जहन्ने बग्गुरुया अंतो चमगुरुगे ठायति । एवं तेणतेणो, पमिच्छगो, पमिच्छगपडिच्चगो।
परम्गामे अदिठेकंतिवारणाए दाढत्तं चउबहुए ठायति । इमे उदाहरणा तिसुवि
सदेसे नग्गुरु, श्राढत्तं मासगुरुए गयति । परदेसे छहु,त्रा
दत्तं मासलहुए गयति, अन्नधा वि वारिज्जते पतदेव भवति । गोविंदज्जा हाणे, दंसणे सत्थट्ट हेतुगमा य ।
जम्हा एते दोसा तम्हा ण पवावेयबा तेया। एवं वि गत्रा चरगा, उदायिवहगादिया चरणे ॥३६७||
कारणतो पवावेसच्चित्तं अच्चित्तं, च मीसगं तेणियं कुणति जो उ ।
मुक्को व मोइओ वा, अहवा वीसज्जितो नरिंदेणं । समणाण व समणीण व, न कप्पती तारिसे दिक्खा ३६७ गोबिंदो णाम निक्खू, सो पगेणाऽऽयरिएण वादे जितो भ
अच्छाणे परदेसे, दिक्खाए उत्तिमढे वा ॥ ३७३ ॥ टारस वारा । ततो तेण चिंतिय-सिकंतसरूवं जाव एतेसि
बंधणागारसोधणे मुक्को सयमणेण, प्रमेण वा दंमेण मोश्रो, णो लब्जति, तावते जेतुं न सक्किता। ताहे सोणाणदंसणचरणह- रया वा विसजितो।जहा पनवो। अहवा मेयज्जऋषिघातवत् । रणट्ठा तस्सेवाऽऽयरियस्स अंते णिक्खंतस्स य सामाश्याऽअद- प्रमाणे परदेसे वा उत्तिम वा पमिवज्जतो दिक्निज्जति । पढेतस्स लकं संमत्तं । ततो गुरुं वंदित्तानणति-देहि मे बते । तेण त्ति गतं । नि० चू० ११ उ० । वन्दनदोषविशेष, प्रव० । णणु दत्ताणि ते णाणाणि । तेण सम्भावो कहितो। ताहे गुरुणा हा- परस्स दिहि, वंदंते तेणियं हवइ एअं। दत्ताणि से वयाणि । पच्ग तेण एगिदियजीवसाहणा गोविं.
तेषो वि य अप्पाणं, गृह ओभावणा मा मे ॥१६॥ दणिज्जुत्ती कया । एस णाणतेणो । (एष चवार्थों ' गोविंदणि
(हाउं परस्सत्ति) परस्याऽऽत्मव्यतिरिक्तस्य साधुश्रावकाss ज्जुत्ति' शब्दे तृतीयभागे १०१२ पृष्ठे प्रदर्शितः) एवं दसणप
देष्टिं हित्वा वञ्चयित्वा वन्दमाने सति शिष्यैः स्तन्यवन्दनकं भावगसत्थट्ठा,ककडगमादिहेतुगट्टा वा जो णिक्खमति,सो दस
भवति । एतदेवोत्तरार्द्धन स्पष्टतरं व्याचष्टे-स्तेन च तस्कर इ. णतेणो। जो एवं करणट्राचरणं गेण्डति, भंमि वा गंतुकामो,
वान्यसाध्वाद्यन्त नेनाऽऽत्मानं गृहयति स्थगयति । कस्मादि. जहा वा रमो बहणट्ठा उदायिमारगेण चरणं गहियं । आदि.
त्याह-(भोभावणा मा मे त्ति ) नन्वसावप्यतिविधान किमसदातो मधुरकॉमश्ला, पते सम्वे चरित्ततेणा । एते दवा
न्येषां वन्दनकं प्रयच्चतीत्येवंभूताऽपभ्राजना मम मा भूदित्यर्थः। ऽऽदितेणा समणसाणाणं ग कप्पंति पब्बावेउं ।
प्रव०२द्वार। ध० वृ०। प्रा०चून( साधर्मिकाणामन्यधार्मिपवाविते इमे दोसा
काणां च स्तन्यं कुर्वन् अनबस्थाप्यो भवतीति 'अबवठप्प' वह बंधण उद्दवणं, व खिसणं आसियावणं चेव ।
शन्दे प्रथम नागे २९३ पृष्ठे उक्तम् ) णिन्धिसयं व परिंदो, करेज्ज संघंव से भट्ठो ।। ३६ पनड-विनवति-स्त्री। यधिकायां नबतिसंख्यायाम्, “ते. तस्स च, पब्वायगाऽऽयरियस्स वा, सवस्स वा गच्छस्सल
गणा, तेण उ गणधरा।" स. १२ सम। तकसाऽऽदिपहिं वहं करेन्ज, बंधणं णियलाऽदिपहि, न्हवणं
तेणग-स्तेनक-नि। चौरे, स्तेनकाचौरा विघ्नकरा भवन्ति । मारणं, खिसा-धिरत्यु ते पव्वज्जाए ति । श्रासियावणं-पब. ज्जातो, गामनगरातो वा धाडेज्ज । अहवा-णरेदो रुठो णिधि
ग०३ अधि०1 सए करेज्ज, कुलगणसंघ वा णिविसयं करेज्ज । कुलगणसं. तेणणाय-स्तेनहात-न। चौरोदाहरणे, पञ्चा०विव०। घाण वा वहाऽऽदिए वीए पगारे करेज्ज ।
ताप्पयोग-स्तेनप्रयोग-पुं० । स्तेनानां प्रयोगोऽभ्यनुज्ञानम्-दरकि चान्यत
त ययमिति हरणक्रियायां प्रेरणेति यावत् । अथवा-स्तेनोपकरअयसो य अकित्ती वा, नाहं वा तहिं पत्रयणस्स ।
णानि कुशिकाकर्तरिकाघघरिकाऽऽदीनि,तेषामर्पणं विक्रयणं वा तेसि पि होइ एवं, सब्वे एयारिसा समणा ।। ३७०।। स्तनप्रयोगः। तस्करप्रयोगे स्थूत्राऽऽदत्तादानविरते द्वितीयेऽतिपूर्ववत, गवरि तेणत्ये बत्तब्वा, तेणं जो पवावेति,तस्स आणा- चारे, ध०अत्र च यद्यपि चौर्य न करोमि न कारयामीत्येवं. जदया दोला।
प्रतिपननवस्य स्तनप्रयोगे व्रतमन एव, तथापि किमथुना यूयं
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(२३४२) तेणप्पयोग अन्निधानराजेन्डः।
तेतलिसुय निर्व्यापारास्तिष्ठत?, यदि वो नक्ताऽऽदिनास्ति, तदाऽऽहं तहदा- लिपुत्ते अमच्चे एहाए आसखंधवरगए महया भमचमगरहमि; भवदानीतमोषस्य वा यदि विक्रायको न विद्यते,तदाऽहंवि
पासवाहणियाए णिज्जायमाणे कलायस्स मूसियारदारग-- ऋष्ये येवंविधवचनैश्चौरान व्यापारयतः स्वकल्पनया तघ्यापारणं परिहरतो व्रतसापेक्षस्यासावतिचारः । इति द्वितीयोऽ
स्स गिहस्स अदूरसामंतेणं बीतीवयति । तते एं से तेतिचारः। (४५ गा०) ध०२ अधि।
तलिपुत्ते मूसियारदारगस्स गिहस्स अदरसामतेणं वीतेणाणुबंधि (ण)-स्तेनानुबन्धिन-पुं० । 'रुद्दज्झाण' शब्दे- तीवयमाणे बीतीवयमाणे पोट्टिनं दारियं नपि आऽर्थोऽस्य द्रष्टव्यः । ध०२ अधिः।
गासतलगंसि कणगमएणं तिंदूमएणं कीलमाणी पासति; तेणाहम-स्तेनाऽऽहत-पुं०.। चौराऽऽनीते स्थूलादत्ताऽऽदान- पासित्ता पोहिलाए दारियाए रूवेण य जोवणेण य लाविरते प्रथमेऽतिचारे, तत्सामर्थ्यमतिलोभाकाणक्रयेण गृहृतो. वएणेण य०जाव अज्जोवनएणे कोडुंबियपुरिसे सदावेति, उतिचरति तृतीयव्रतमित्यतिचारहेतुस्वारस्तेनाऽऽतम । अ- सदावेइत्ता एवं वयासी- एस णं देवाणुप्पिया ! कस्स तिचारता चाऽस्य साक्षाचार्यप्रवृत्तः। उपा० १ ०। वृ० ।
दारिया, किंणामधेजा य ?। तए णं ते कोडुंबियपुरिसे पश्चा०श्रा०ास्तेनाश्चौराः, तैर्वधमानाऽऽनीतं किञ्चित्कुङ्कुमाऽऽदि देशान्तरात्स्तेनाऽऽमृतम् । आव० ६ ०।
तेतलिपुत्तं एवं बयासी-एस ए सामी ! कलायस्स तेणिक-स्तैनिक्य-न । स्तेये, प्रश्न. ३ आश्रद्वार।
मूसियारस्स धूया जहाए अत्तिया पोट्टिला णाम
दारिया रूवेण य जाव सरीरा । तए णं से तेतलिपुत्ते तेगिकहरणबुकि-स्तैनिक्यहरणबुधि-त्रि० । स्तेयेन हरणे
प्रासवाहणियाओ पमिनियत्ते समाणे अजितराणिबुद्धिर्येषां ते तथा । स्तेयहरणमतियुक्तेषु, प्रइन० ३ माश्र०
ज्जे पुरिसे सद्दावेति, सद्दावेतित्ता एवं बयासी-गच्छह द्वार। तेणिस-तैनिस-त्रि० । तिनसानिधानवृत्तसंबन्धिनि, न. ७ णं तुब्भे देवाणुप्पिया ! कलायस मूसियारदारगस्स धूयं श०६३०॥
जहाए अत्तथं पोट्टिन्नं दारियं मम जारियत्ताए वरेह । तए तेएण-स्तैन्य-म० । चौथे, नि० चू.१०।
एं ते अभितरवाणिज्जा पुरिसा तेतलिणा एवं बुत्ता समातेतल-तेतल-पुं० । धरणस्य नागकुमारकस्य गन्धर्वानीकाधि- णा हतुट्ठा करयल तह त्ति जेणेव कमायस्स मूसियार. पता, स्था.७ ग०।
स्स गिहे, तेणेव उवागया । तए णं से कमाए मसियारए तेतसि (ण)-तेतलिन-पुं०। तेतलिपुरराजस्य कनकरथस्या- तेतलिपुत्ते पुरिसे एज्जमाणे पासति, पासित्ता हतुट्ठा प्रा. मात्यापितरि, आ० म०१ अ०१खक । दर्श०। मनुष्यजातिजेदे, सणाओ अब्भुढेशअन्तु इत्ता सत्तट्ठपयाई अणुगच्छति, अजं.१वक०।
गचित्ता पासणेणं उवनिमंतेति । भासत्थे वीसत्थे महातेतलिसुय-तेतलिमुत-पुं०। तेतलिपुरराजस्य कनकरथस्या
सणवरगए अजितरद्वाणिज्जे पुरिसे एवं वयासी-संदिसह मात्ये, ज्ञा०।
ण देवाणुप्पिया! किमागमणप्पोयणं । तते णं ते अजिततत्कथा चैवम्
रद्वाणिज्जा कसायं मूसियं एवं बयासी-अम्हं णं देवाणुतेणं कालेणं तेणं समएणं तेतन्निपुरे नाम नगरे होत्था।
पिया ! तव धूयं जहाए अत्तयं पोट्टिनं दारियं तेतलिसस्स णं तेतलिपुरस्स बहिया उत्तरपुरच्छिमे दिसीनाए
पुत्तस्स अमच्चस्स नारियत्ताए बरेमो । तं जति ण एत्थ णं पमयत्रणे णामं नज्जाण होत्था । तत्थ णं तेत
जाणसि देवाणुप्पिया! जुत्तं वा पत्तं वा सलाहणिज्जं वा लिपरे एयरे कणगरहे णाम राया होत्था । तस्स णं
सरिसो संजोगो वा, तादिज्जर ण पोट्रिना दारिया तेत. कणगरहस्स रएणो पनमावतीणाम देवी होत्था । तस्सणं
लिपुत्तस्स, ता जण देवाणुप्पिया! किं दलामो सुकं । तते कणगरहस्स रएणो तेतलिपुत्ते णाम अमच्चे होत्था सा
एं कमाए मूसियारदारए ते अभितरद्वाणिज्जे पुरिसे मदामनेयद । तत्थ णं नेतलिपूरे कलाए नाम मुसि
एवं वयासी-एस चेव देवाणुप्पिया! मम सुके, जे तेतशियारदारप होत्था, भले जाव अपरिलूए । तस्स णं न
पुत्ते मम दारियानिमित्तेणं अणुग्गहं करिति । ते अभितरदा नाम भारिया होत्या। तस्स णं कमायस्स मूसियारदा
हाणिज्जे पुरिसे विनलेणं असणपाणखाइमसाइमपुप्फरगस्स धूया नहाए अत्तया पोटिला णामं दारिया
वत्थ जाव मसालंकारेणं सकारेति, संमायेति, पमिविहोत्या, रूपेण य जोवणेण य उकिट्ठा उकिसरीरा।
सज्जेति । तए पं कमायस्स मूसियारदारयस्स गिहातो तए णं पोहिला दारिया अप्सया कयाइ एहाया सब्बा
पडिनिक्खमति, जेणेव तेतलिपुत्ते अमच्चे तेणेव उवागच्छक, संकाराविनूसिया चेमियाचकवालसकिं संपरिखमा न
नवागच्छइत्ता तेतलिपुत्तं अमच्चं एयमढे निवेदेति । तए णं दिप पामायवरगया आगामतलगंसि कणगमयेणं ति- कमाए मूसियारए अप्पया कयाई सोहपसि तिहिकदसएणं कीलमाणी विहरति । इमं च ण तेत- रणणखत्तमुहुर्तसि पोविंदारियं एहायं सव्वासंकार
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(२३५३) तेतलिसुय अभिधानराजेन्छः ।
तेतलिसय विजूसियं सीयं पुरूहइ, दुरूहित्ता मित्तणातिसकिं संपरिवुमे अम्मधाई सद्दावेति, सद्दावेत्ता एवं बयासी-गच्छह एं साओ गिहाम्रो पमिणिक्खपति, पडिणिक्वमित्ता सबि. तुम देवाणुप्पिया! अम्मा! तेतलिपुत्तं रहस्सियं चेव सदाकीए० जाव रवेणं तेतलिपुरं एयरं मऊ मज्केणं जेणेव तेत- । बेहि । तए णं सा अम्मधाती तह त्ति एयमढे पमिसुणेति, लिस्स गिहे तेणेव नवागच्छद, नवागच्छित्ता पोट्टिनं दारियं अंतेउरस्स अवदारणं णिग्गच्छति, णिग्गच्छित्ता जेणेव तेतलिपुत्तस्स अमच्चस्स सयमेव नारियत्ताए दलयति । तए तेतलिस्स गिहे जेणेव तेतलिपुत्ते तेणेव उवागच्छति, उणं तेतलिपुत्ते पोट्टिनं दारियं भारियत्ताए उवणीयं पासति, वागच्छित्ता करयल जाव एवं वयासी-एवं खलु भो देपासित्ता हतुढे पोट्टिलाए सम् िपट्टयं दुरूहनि, दुरूहि- वाणाप्पिया! पनमावई देवी सहावेति । तए तेतसिपत्ते ता सेयपीएहि कलसेहिं अप्पाणं मज्जावेति, मज्जावे- अम्मधाईए अंतिए एयमह सोचा हट्टतुटे अम्मधाईए सकिं ता अग्गिहोमं कारेति, पाणिग्गहवं करेति, पोट्टि लाए साओ गिहाओ णिग्गच्छति, णिग्गच्छित्ता अंतेउरस्स भारियाए सकिं मित्तनाइ जाव परियणं विनलेणं असण- अवदारणं रहस्सियं चेव अणुप्पविसति, अणुप्पविसित्ता पाणखाइमसाइमेणं पुप्फवत्थ० जाव पदिविसज्जति । तते जेणेव पउमाई देवी तेणेव उवागच्छ, उवागच्छित्ता से तेतलिपुत्ते पोहिलाए भारियाए अणुरत्ते अविरत्ते उरा- करयल एवं क्यासी-संदिसह णं देवाणुप्पिए ! जं मए लाइंभोगजोगाईजाव विहरति । तते णं से कणगरहे राया कायव्वंतरण सा पनमावती देवी तेतलिपुतं अमच्च एवं रज्जेय रटे य बल्ले य चाहणे य कोसे य कोट्ठागारे य अंतेउरे य वयासी-एवं खलु कणगरहे राया जाब वियंगति, अहं च मुच्छिए गिछिए अभिसमयागए जाए पुत्ते वियंगेति, अप्पे- एं देवाणुप्पिया ! दारगं पयाया, तुमं च ण देवाणुप्पिया! गइयाणं हत्थंगुलियाई छिदति, अप्पेगइयाणं हत्ये अंगुट्ठए तं दारगं गएहाहि जाव तव मम समए जिक्खानायणे छिंदति, अप्पेगइयाणं पायंगुलियाओ बिंदति, एवं पायंगुट्ठए नविस्सति त्ति कह तेतलिपुत्तस्स हत्थे दनयति । तते गं वि, एवं कशासक्कुलीए वि, एवं नासापुमाइं फान्नेति, एवं अं- तेतलिपुत्ते पउमावतीए देवीए इत्थाओ दारगं गेएहति, गमंगाईवियंगेति। तए णं तीसे पनमावतीए देवीए अध्या नत्तरिजेणं पिहेइ, अंतेनरस्स रहस्सियं अवदारेणं कयाइं पुन्वरत्तावरत्तकाससमयसि अयमेयारूवे अन्नत्थिए णिग्गच्छति, णिग्गच्चित्ता जेणेव सए गिहे जेणेव पोहिला चिंतिए मणोगए संकप्पे समुप्पज्जित्था-एवं खलु कणगरहे जारिया तेणेव नवागच्कृति, नवागच्छित्ता पोटिलं च एवं राया रज्जे य जाव पुत्ते बियंगेति जाव अंगमंगाई वयासी-एवं खलु देवाणुप्पिया! कणगरहे राया रज्जे य वियगेनि, तं नइ पं अहं दारयं पयायामि तं जाब वियंगेति,अयं च णं दारए कणगरहस्स पुत्ते पउमावसेयं खलु ममं तं दारगं कणगरहस्स रहस्सियं ईए देवीए अत्तए, तं तुम देवाणप्पिए! इमं दारगं कण. चेव संरक्खमाणीए संगोवेमाणीए विहरित्तए ति कड गरहस्स रहस्सियं चेव अणुपुवेणं संरक्वाहि य, संगोवाएवं संपेहेति, संपेहेता तेतलिपुत्तं अमञ्च सदावेति, हि य, संबछेहि य, तए णं एस दारए उम्मुक्कबालनावे तव सहवित्ता एवं वयासी-एवं खलु देवाणुप्पिया ! य मम य पनमावईए य आहारे भविस्सइ त्ति कटु पोट्टिकणगरहे राया रज्जे य जाव वियंगति, तं जप लाए पासे णिक्खिवति, णिक्खिवित्ता पोहिलामो पासाणं अहं देवाणप्पिया ! दारगं पयायामि, तए एं ओ तं विणिहायमावलियं दारियं गएहति, उत्तरिजेणं तुमं कणगरहस्स रहस्सियं चेव भषुपुब्वेणं संर- पिहेश, पिहेइत्ता अंतेनरस्स अवदारेणं अणुप्पविसति, क्खमाणे संगोवेमाणे संवडि। तते से दारए उम्मुकबा
अणुप्पविसित्ता जेणेव पनमावती देवी तेणेव उवागच्छद, लभावे जाव जोवणगमणप्पत्ते तव मम जिक्खाभायणे
नवागरिकता पनमावतीए देवीए पासे ठावेति जाव पभविस्सति । तते णं से तेतलिपुत्ते पनमावतीए देवीए एय
डिनिग्गते । तए णं तीसे पनमावतीए देवीए अंगपमटुं पडिमुणेति, पमिणेत्ता पमिगए । तएणं पउमावती
डियारियाो पनमावति देवि विणिहायमावलियं देवी पोट्टिला य अमची सममेव गन्भं परिवहंति,
च दारियं पासंति, पासित्ता जेणेव कणगरहे राया करसममेव गम्भं परिवकृति । तए णं सा पउमावती
यल एवं वयासी-एवं खलु सामी ! पनमावतीए मतल्लियं देवी नवएडं मासाणं जा पियदंसणं सुरूवं दारगं
दारियं पयाया। तए णं कणगरहे राया तीसे मतसियाए पयाया, जं रयणि च णं पनपावती देवी दारगं पयाया तं
दारियाए नीहरणं करेति, बहई लोइयाइं मयकिच्चाई कचेव रयणि पोहिला अमच्ची नवाहं मासाणं वि-| रेति, करेश्त्ता कालेणं विगयसोए जाए । तए णं से तेणिहायमावम्पियंदारियं पयाया । तएप सा पउमावती देवी तलिपुत्ते कवं को डुंबियपुरिसे सहावइ, सद्दावेइत्ता एवं व
५न्
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तेतलि सुय
यासी - खिप्पामेव चारगसालाए सोहणं करेह जावविती मिया, जम्हाणं हे एस दारए कणगरहस्स रज्जे जाए, सं होऊण दारए णामेणं कणगज्झए० जाव अलं भोगसमत्थे जाए । तरणं सा पोट्टिया मया कयाई तेतलिपुत्तस्स अमञ्चस्स अणिट्ठा अमा अकंता अणिया जाया यावि होत्या । णेच्चड़ णं तेतलिपुत्ते अमचे पोट्टिन्झाए नामगोत्तमव सवणयाए, किं पुरा दरिसणं वा परिजोगं वा । तए
तीसे पोहिलाए अयया कयाई पुव्वरत्तावरतकालसमयंसि इमेयारूवे अन्नत्थिए चिंतिए पत्थिए मणोगए संकल्पे समुपज्जित्था - एवं खलु त्र्यहं तेतलिपुत्तस्म ममचस्स पुत्रि इडा कंता मला पिया प्रासि, श्याणि मणिट्ठा अकंता - मष्ठा अपिया जायाज्जाव नेच्छ तेतलिपुत्ते मचे मम नाम जाव परिजोगं वा ओहयमा संकप्पान्जाब क्रियाया । ततेां तेतलिपुत्ते अमचे पोडिलं श्रहयमणसं कप्पं० जान जियायमाणं पासति, पामइत्ता पोहिलं एवं वयासी- मा णं तुमं देवापिए ! इयमसंकप्पे, तुमं मम महाणसंसि विउल्लं असणं पारणं खाइमं साइमं उबक्खडावेहि, जबक्खमावेइत्ता बहूणं सममाहगाणंजाब बणीवगाणं देयमाणी य देवमाणय विरह । तए णं सा पोट्टिला तेतलिपुत्तेनं अमरचेणं एवं वृत्त समाधी हडतुडा तेसलिपुत्तस्स मच्चस् एयमहं सम्मं पडितुति, पढिसुपोइत्ता कल्लाकाल महाणसंसिविपुलं असणं पायां खाइमं साइमं० जाव देवावेमाची विह रति । तेणं कालणं तेणं समएणं सुव्वपाओ पामं अज्जियाओ इरियासमिया ओ०जाव गुत्तजयारिणी बहुस्सुयाओ बपरिवारा पुवापुवि जेणेव तेतसिपुरे यरे तेव उवागच्छर, नवागच्छित्ता महापमिरूवं नवग्गदं प्रगिरिहता संजणं तत्रा पाएं जावेमाणीओ विहति । तए
( २३५४ ) अभिधानराजेन्द्रः ।
तासि सुव्वाणं जाणं एगे संघामए पढमाए पोरिसीए सज्जाइयं करोति० जाव अम्माणी ओ तेतलिस्स गिहं अणुपत्रिकाओ । तर सा पोट्टिला ताओ अज्जाओ एज्जमा
पासात, पासइत्ता हट्ठतुका आसणाओ अब्भुट्ठेति, अनुत्ति वंद, णमंसति, वंदित्ता मंसित्ता विद्यलेणं असणं पाणं खाइमं साइमं परिलाभेइ० पकिलाजित्ता एवं वयासी एवं खलु अहं श्रज्जाओ ! तेतलिपुत्तस्स श्रमश्चस्स पुत्रि इट्ठा कंता पिया मछा आसि, इयाणिं आणिट्ठा अ कंता पिया अममा जाव दंसं वा परिभोगं वा । तं तुभे अज्जाओ ! बहुणायाओ बहुसिक्खियाओ बहुपमिया, तुम्मे बहूणि गामागरण जात्र आहिमेह, राईमा हाई अणुविस्सह, तं प्रत्थि याई जे अज्जाओ ! केइ कहिं वि चुष्पजोए वा पंतजोए वा
तेतलि सुय
कम्मजोए वा कम्मजोए वा हियउडावणे वा कायउड्डाad वा आभियोगए वा वसीकरणे वा कोउयकम्मे वा चूइकम्मे वा कंदे मूले बी वल्ली मूलिया वा गुझिया ना ओसहे वा सज्जे वा जबलपुत्रे. जेलाई तेतलिपुत्तस्स श्रमच्चस्स पुरवि इट्ठा कंता पिया मणुष्छा भवेज्जामि । तए
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ताजा पोट्टिलाए एवं वुत्ताओ समाधीओ दो विकणे ठायंति, पाहिलं एवं बयासी - श्रम्हे णं देवाणपिए! समणी निगंथीओ० जाब गुत्तबंजयारिणीओ, नो खलु कप्पति ग्रहं देवाप्पिए । एयप्पयारं कच्छे वि निसामेत्तए, किमंग ! पुण जवदिसित्तए वा, आयरियत्तए वा । अम्हे णं तव देवाणुप्पिए । विचित्तं केवलिपछत्तं धम्मं परिक ज्जामो । तए णं सा पोट्टिला ताओ अज्जाओ एवं बयासी - इच्छामि अज्जाओ ! तुब्जं अंतिए केवलिपत्तं धम्मं शिसामित्तए । तए णं ताओ अज्जाओ पोहिलाए विचित्तं धम्मं परिकर्हेति । तए णं सा पोहिला घ म्मं सोचा एिसम्म हट्ठतुट्ठा एवं बयासी सद्दद्दामि णं - जाओ ! निग्गंथं पात्रयणं पत्तिए०जाव से जहेयं तुब्जे वदह, इच्छामि प्रहं तुब्भं अंतिए पंचाणुव्वइयं जाव गिरिधम्मं बिज्जित्तए । महासू देवाणुपिया ! मा पनिबंधं करेह । तर सा पोट्टिला तासिं प्रजाणं अंतिए पंचाणुव्वयं० जाव गिहिधम्मं पमिवज्जति, ताम्रो अजाओ वंदर, नमंसति, नमसत्ता पमित्रिसज्जेति । तए णं सा पोहिला समगोवासिया जाया० जान पडिला भेमाणा २ विहरइ । तए णं तसे पाहिला एणया कयाई पुव्वरत्तावरचकाल समयसि कुटुंबनागरियं जागरमाणस्स अयमेयारूवे प्रभत्थिए चिं. तिए पत्थिए मध्योगए संकप्पे समुप्पज्जित्था एवं खलु श्रहं तेतलिपुत्तस्स पुवि इट्ठा कंता पिया मणुमा आसि, इयाणि अणिका कंता अप्पिया अमणुमा० जाव परिभोगं वा । तं सेयं खलु ममं सुव्वाणं अजाणं अंतिए पव्वत्तए, एवं संपति, संपेहेत्ता कल्लं पाप्रो जेणेव तेतलिपुत्ते प्रमचे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छत्ता करयक्षपरिग्गाहियं एवं खलु देवापिया ! म सुब्बयाणं अज्जाणं अंतिए धम्मे निसंतेजाव अन्भगुमाए पव्त्रइत्तए । तए णं तेतलिपुत्ते पो. हिलं एवं क्यासी एवं खलु तुमं देवाणुप्पिए! मुंगे जवित्ता पन्यासमाणी कालमा से कालं किच्चा अायरेसुं देवलोए देवता ववज्जिहि त्ति, तं जइ णं तुमं देवाष्णुप्पिए ! ममं ताओ देवलोगायो आगम्म केवलिपन्नत्ते धम्मे बोहेदि, वो अहं विसज्जेमि, ग्रहणं तुमं मम ए संबोहेसि, तो विसज्जेमि । नए एवं सा पोट्टिला तेतलिपुत्तस्स एमपमिति । तए एां तेतलिपुत्ते विडलं असणं पा
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(२३५५) अभिधानराजेन्द्रः ।
तेलिय
णं खाइमं साइमं उबक्खमाविति मित्तनाइ० जाव आमंतेति, श्रमंतेता जाव संमायेति, पोहिलं एहायं ० जाव पुरिससहस्वाहिणीयं सीयं दुरूह, दुरूदत्ता मित्तणाति० जाव परिवु मे सब ठी०जाव रवेणं तेतन्निपुरस्स मछं मेणं जेणेव सुब्बयाणं अज्जायं उवस्सए, तेथेव उबागच्छर, उवागच्छित्ता सीयाओ पच्चोरुहति, पच्चोरुहइत्ता पोहिलं पुरो कट्टु जेणेव सुब्वया प्रज्जा तेणेव उवागच्छति, उ-बागच्छत्ता वंदति णमंसति, नर्मसहसा एवं वयासी एवं खलु देवाणुपिया ! मम पोहिला भारिया इट्ठा पिया कंता मा एस णं संसारजयउब्बिग्गा० जाव पव्वइत्तए, पमिच्छंतु णं देवापुपिया ! सिस्सिरिणजिक्खं दक्षयामि । प्रहासु देबाणुपिया ! मा पनिबंधं करेह । तए णं सा पोहिल्ला सुन्वयाहिं जाहिं एवं वुत्ता समापी हट्ठतुट्ठा उत्तरपुर छिमे दिसीभाए सयमेव श्राचरणमस्त्रालंकारं मुयइ, मुयइत्ता सयमेव पंचमुट्ठियं लोयं करेइ, करेत्ता जेणेव सुन्वया भज्जाओ तेणेव उवागच्छछ, नबागच्छत्ता बंदर, नमसर, वंदित्ता नर्मसत्ता एवं वयासी-आलित्तेनं एवं जहा देवादा • जाव इकारस अंगाई बहूणि वासाि सामन्नपरियायं पाठणित्ता मासियाए संबेहलाए अप्पाणं कोसेता सहि जत्ताइं असणारं आलोय पमिकता समाहिपत्ता कालमासे कालं किच्चा अणुतरेसु देवलोएसु देवताए उवा। तां से कष्णगरहे राया या कयाई कालधम्मुया संजुत्ते यावि होत्या । तते णं ते ईसरपभिइओ० जाव पीहर छां करेति, करेतित्ता मां एवं वयासी एवं खलु देवाणुमिरहे राया रज्जे य०जाव पुत्ते वियंगं बित्ता अम्हे
देवापिया! याहीला रायाहिट्टिया रायाही एकज्जा, अयं च णं तेतक्षिप्रमच्चे कणगरहस्स रयो सम्बद्वाणेसु सव्वभूमियासु लरूपच्चए दिष्यवियारे सव्वकज्ज वढावए या विहोत्या, तं सेयं खलु म्हं तेतलिपुत्तं श्रमच्चं कुमारं जाइए तिकडु अप्पमास्स एयमहं पमिसृणेति, पनिसुणेइत्ता जेणेव तेतलिपुत्ते अमच्चे तेणेव जवागच्छ, उवागच्छइत्ता तेतलिपुत्तं अमचं एवं बयासी एवं खलु देवाणुपिया ! कणगरहे राया रज्जेय रहे य० नाव वियंगेति, अम्हे यणं देवाप्पिया ! रायाहीणा० जाव रायाहीएकज्जा, तुमं च णं देवाप्पिया ! कणगरहस्स रखो सव्वाणेसु० जाव रज्जधुराचितए । तं जइ एं देवाप्पिया ! प्रत्थि के कुमारे रायलक्खण संपले रायाजिसेयारिहे, तर णं तुमं दहि, जा अम्हे महया महया रायाभिसेएवं अनिसिचामो। तर णं तेतलिपुत्ते अमचे तेसि ईसर पभिए एवमहं
तेतलिय
परिसुति, पडिइत्ता करणगज्जयं कुमारं एहायं सव्वालंकारवि सियं० जाव सस्सिरीयं करेत्ता तेसिं ईसर० जाव उवणेति, नवइत्ता एवं क्यासी - एस णं देवाणुपिया ! कणगरइस्सरो पुत्ते पउमावईए देवीए अत्तर कण गज्जए यामं कुमारे जिसेयारिहे रायझक्खण संपध्ये मए कणगरस्स रो रहस्सियं संवडिए, तं एयं तुब्जे महया महया रायाजिसे अभिसिंह, सव्वं च से उट्ठाण पारियावणियं परिकईइ । तर ते ईसरकणगज्जयं कुमारं महया महया रायाभिसेrणं अभिसिंचति । तए णं कागज्ज कुमारे राया जाए महया हिमवंतजाए० जाव रज्जं पालेमाणे विहरइ । तए णं सा परमावती देवी का गज्जयं रायं सद्दावेति । सदावेत्ता एवं वयासी- एस यं पुत्ता ! तव रज्जे०जाव अंतेउरे य, तुमं च तेतलिपुत्तस्म मच्चस्म पहावेणं, तेतत्रिपुत्तं मच्चं आढाहि, परियाकाहि, सकारेहि, सम्मापोहितं अन्नुहि पज्जुवासेहि य, वयंतं परिसंसा हेहि, असणं उवनिमंतेहि, जोगं च से अवधेहि । तए ए से गए पमावतीए देवीए तह त्ति परिसुइ० जान जोगं च संवग्छे । तए णं से पोट्टिले देवे तेतलिपुत्तं अमचं अजिक्खणं अभिक्खणं केवलिपात्तं धम्मं संबोहेति, नो चेत्र णं से तेतलिपुत्ते संबुज्जइ । तते णं तस्स पोहिल देवरस इमेयारूवे अन्यत्थिए पत्थिए चिंतिए मणोगयसंकप्पे समुप्पज्जित्था एवं खलु कणगज्जए राया तेतलिपुत्तं आढाति० जाव भोगं च संवश्वेति, तए णं से तेतलिपुत्ते भिक्खणं क्खिणं संबोहेमाणे विधम्मे लो संबुज्छति, तं सेयं खलु मम कणगज्जयं रायं तेतलिपुत्ताओ विष्परिणामित्त त्ति कटु एवं संपेहेति, संपेहेता कणजयंत लिपुत्तातो विष्परिणामेति । तए णं तेत लिपुत्ते कहाए जाव पाय च्छित्ते स खंधवरगए बहूहिं पुरिसेसिपिरिडे साओ गिहाओ णिग्गच्छति णिगच्छत्ता जेणेव कागज्जए राया तेव पहारेत्यगमणाए । तर तेतलिपुत्तं अमच्चं जहा बहने राईसरतलवर जाव पनि पासंति, ते तद्देव आढायंति, परियाांति, अन्नुति, सक्कारेंति, सम्मार्णेति, अंजलिपरिग्गहियं करेंति । इट्ठाहिं कंताहिं पियाहिं मणुमाहिं मरणामाहिं उरालाहि कल्लापाहिं सिवाहिं पाहिं मंगलाहिं सस्सिरियाहि वग्गूहिं श्रवमाणाय संभवमाणा य पुरो य पिडओ य पास
यमग्गय समनुगच्छति । तए णं से तेतलिपुते जेपोब कागज्जए राया तेणेव उवागच्छइ । तर णं से कणगए राया तेतलिपुत्तं मच्चं एक्जमाणं पासति, पासेचाणो आदाति, णो परियाण, णो अन्नुट्टेति, अपाढा
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तेतलिसय
(२३५६) अनिधानराजेन्डः।
तेतलिसुय
यमाणे अपरियाणमाणे परंमुहे चिट्ठति । तते णं से सेत- अहं सह पुत्तेहिं अपुत्ते, को मेदं सद्दहिस्सति?, सह मित्ताह लिपुत्ते अमच्चे कणगज्जयस्स रहो अंजलिं करोति । तते णं | आमित्ते, को मेदं सद्दहिस्सति ?, एवं अत्थेणं दारोणं दासहि से कणगज्कए राया अणादिज्जमाणो तुसिणीए परंमुहे पेसेहिं परिजणेशं । एवं खलु तेतलिपुत्ते णं अमच्चे] कणगसंचिट्ठति । तए णं तेतलिपुत्ते अमच्चे कणगज्यं विप्प- करणं रमा अवज्कारणं समाणेणं तेतलिपुत्तेणं अमच्चेणं रिणयं जाणित्ता जीए० जाव संजायजए एवं वयासी-रुढे तालमडगे विसे आसगंसि पक्खित्ते, से वि य णं णो संणं मम कणगज्कए राया, होणे एणं मम कणगज्कए राया, कम, को मेदं सदहिस्सति ?,तेतलिपुत्तेणं अमच्चेणं नीलु. अवज्काए णं मम कणगाए राया, नं ण णज्नइ एं मम | प्पल. जाव खधंति असिं ओहरिए, तत्थ वि य से धारा केणइ कुमारेणं मारेहेति त्ति कह नीए तत्थे. जाव सणियं ओपल्ला, को मेदं सद्दहिस्सति ?, तेतलिपुत्ते अमच्चे पासगं सणियं पञ्चोसकेश, पञ्चोसकेइत्ता तमेव आसखधं दुरूहेति, दु-| गीवाए बंधित्तापजाब रज्जू विमा, को मेदं सदहिस्तति ?, ते. रूहइत्ता तेतलिपुरं यरं मऊ मज्केणं जेणेव सए गिहे | तलिपुत्ते अमच्चे महाभियं सिझंजाव बंधेत्ता अस्थाह० जाव तेणेव पहारेत्थगमणाप; तेतलिपुत्तं जे जहा ईसरन्जाव पासं- उदगंसि अप्पा मुक्के,तत्थ वियणं थाहे जाते,को मेदं सदहिति ते तहा नो पाढायंति,नो परियाणंति, नो अन्तुति,नो स्सति ?, तेतलिपुत्ते अमच्चे सुकंसि तणकूडे० अम्गी विज्काए, अंजलिं करिति, इटाहिं० जाब नो संलवंति, नो परमो य| को मेदं सद्दहिस्सति', ओहयमणसंकप्पे० जाव कियाया। पिट्टो य पासो य समणुगच्छति । तते णं तेतलिपुत्ते तए णं से पोट्टिले देवे पोट्टिमारूवं विनवति, विउचश्त्ता अमच्चे जेणेव मए गिहे तेणेव उवागच्छ । जा वि य से त-| तेतलिपुत्तस्स अमच्चस्स अदूरसामते विच्चा एवं चयासीस्थ बाहिरिया परिसा जवति । तं जहा-दासेइ वा,पेसेइ वा, ई भो तेतलिपुत्ता! पुरो पवाए,पिट्ठो हथिभयं, हो भाइलएइवा, सा वि य णं णो आढाइ०३। जा वि य अचक्बुपासे, मज्के सराणि परिसंति,गामे पलित्ते अरमे किसे अमितरिया परिसा नवति । तं जहा-पियाइवा, मायाइ याइ, अरले पलित्ते गामे कियाऊ, आउसे! तेतलिपुत्साको वा,भजाइ वा, सुपहाइ वा,सा वि य णं च नो आदाति० वयामो? । तएणं से तेतलिपुत्ते अमचे पोटिलं एवं क्यासीशतए ण से तेतलिपुत्ते जेणेव वासघरे जेणेव सए सयणिज्जे भीयस्स खबु जो पन्चज्जा सरणं, नकंठियस्स सदेसगमणं, तोणेव उवागच्छति, उवागच्छइत्ता सयणिज्जसि निसीयति, | बुहियस्स (छायस्स) अन्नं,तिसियस्स पाणं,आउरस्स नेसविसीयश्त्ता एवं वयासी-एवं खलु अहं सयाओ गिहाओ जं,माइयस्स (माइज्जस्स) रहस्सं, अजिजुत्तस्स पञ्चयकरणं, णिग्गच्छामि, तं चेव० जाव अजितरिया परिसा नो पाढा- | अच्छा परिस्संतस्स (तस्स) वाहणगमषं, तरिनकामस्स ति, नो अब्नुइ, तं सेयं खल्लु मम अप्पाणं जीवियाओ पवहणकिचं, परं अभिजिउकामस्स सहायकिच्चं । खंतस्स वरोवित्तए त्ति कटु एवं संपेहेति, संपेहेइत्ता तालउड विसं दंतस्स जिबिंदियस्स एत्तो एगमवि ण भवति । तए णं से पो.
आसगंसि पक्विवति, से य विसे णो संकम्मति। तए णं से | ट्टिले देवे तेतलिपुत्तं अमचं एवं वयासी-मुट्ठ णं तुमे तेतलितेतलिपुत्ते नीलप्पल जाव असिं खंधसि ओहरति,तत्थ विय पुत्ता ! एयम? आयाणाहित्ति कट्टु दोच्चं पि तच्चं पि एवं वपइ, से धारा ओपना । तएणं से तेतलिपुत्ते अमच्चे जेणेव असो. वयश्ता जामेव दिसि पाउनए तामेव दिसि पमिगए। तए गवणिया तेणेव उवागच्छति, नवागठित्ता पासगं गीवाए णं तस्स तेतलिपुत्तस्स अपच्चस्स सुनेणं परिणामेणं जाईबंधति, बंधत्ता रुक्खं दुरूह, दुरूहइत्ता पामे रुक्खे बंधइ, सरणे समुप्पएणे। तए णं तस्म तेतलिपुत्सस्स अमच्चस्स बंधइत्ता अप्पाणं मुयति,तत्थ वि य से रज्जू विधा । अयमेयारूचे अन्नत्थिए चिंतिए पत्थिए मणोगए संकप्पे तए णं से तेतलिपुत्ते महश्महाभियं सिलं गीचाए । समुप्पज्जित्था-एवं खबु अहं हेव जंबुद्दीवे दीये महाविदेद्दे बंधेति, बंधत्ता अत्याहमतारमपोरिसायंसि उदगंमि | वासे पुक्खलावईविजए पोंडरिगिहीए रायहाणीए महा. अप्पाणं मुयति, तत्य चि से थाहे जाते । तए | पउमे नामं राया होत्था । तए पं अहं थेराणं अंतिए मुंमे एं से तेतलिपुत्ते अमच्चे सुकंसि तण कूमंसि अ
भवित्ताजाव च उद्दस पुवाई बहषि वासाणि सामप्पपरिगणिकायं पक्खिवति, पक्खिवक्ता अप्पाएं मुयति, नत्थ
यायं पारणित्ता मासियाए संलेहणाए महामुक्के कप्पे देववि य से अगणिकाये विज्काए । तए णं तेत
| ताए उववन्ने । तए | अहं ताओ देवमोगाओ आनक्खलिपुत्ते अमच्चे एवं बयासी-सफेयं खलु जो समणा
एणं विक्खएणं भवक्खएणं इहेव तेतनिपुरे णयरे तेतलिवयंति, सफेयं खलु जो माणा वयंति, सधेयं खा स- स्स अमञ्चस्स जद्दाए नारियाए दारगत्ताए पयायाए; त सेयं मणा माहणा वयंति,अहं एगो अस्मफेयं वयामि,एवं खब। खलु मम पुबादहाई पंच महव्ययाई सयमेव नवसंपजित्ता
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(२३४७) तेतलिसुय अभिधानराजेन्ः।
तेतलिसुय णं विहरित्तए एवं संपेहेति, संपेहित्ता सयमेव पंच महन्न
बयासी-इच्छामो गं तुम्नेहिं अम्भणुनाए तेथलिपुरे नयरे उयाई पारुहति,पारुहइत्ता जेणेन पमयवणे नजाणे जेणव
पनीयमज्झिमाई कुलाई घरसमयाणस्स भिक्वायरियार अ
डित्तए । महासुदं देवाणुपियामा पमिबंधं करेह । तप राताअसोगवरपायवस्स अहे पुढविसिलापट्टयंसि मुहनिसरण
भो अज्जाप्रो सुब्वयाहिं अज्जादि अभयुष्मानो समाणीको स्स अणुचिंतेमाणस पुव्वा हियाई सामाश्याई इक्कारस सुब्बयाणं अज्जाणं अंतित्राओ उवस्सयामो पडिणिक्लमअंगाई चोदस पुवाई सयमेव अभिसमएणागया। ति, पडिणिसमत्ता अतुरिअमचवलमसंभंताए गईए जुर्गतते | तस्स तेतलिपुत्तस्स अणगारस्स मुजेणं परिणामेणं
तरपलोयणाए दिहीए पुरो इरिनं सोहेमाणीभो तेयलिपुरे
जयरे उमणीयमज्झिमा कुलाई घरसमुदाणस्स निक्वाय. जाव तयावरणिज्जाणं कम्माणंखभोवसमेणं कम्मरयवि
रियं भडमाणाश्रो।" इति । तत्र गृहेषु समुदान निका गृहसकरणकरं अन्धकरणं पविस्त अणंते अणुत्तरे णिवा- मुदानं, तस्मै गृहसमुदानाय, निक्षाचर्य भिक्कानिमित्तं विचरघाए णिरावरणे कसिणे पमिपुो केवलवरनाणदंसले समु. रणम्, अन्त्यः कुर्वाणाः । (अस्थि या भेत्ति)"याति" देशप्पन्ने । तए णं तेतलिपुरे गरे अहासन्निहिं वाणमंतरेहिं
भाषायां, 'नेत्ति' भवतीनाम्। (चुमजोए त्ति ) द्रव्यचूर्णानां
योगः, स्तम्जनाऽऽदिकर्मकारी (कम्मणजोए सि) कुष्ठाऽऽदिरोगदेवेहिं देवीहि य देवदुंदुजीओ समाहयाश्रो, दसकको
हेतुः (कम्मजोर सि)काम्ययोगः कमनीयताहेतुः, (हियाकुसुमे निवाइए, दिव्वे गीयं, गंधव्वक्षिणादे कयाए यावि हावणे त्ति) हृदयोडापनं चित्ताऽऽकर्षणदेतुः (कायउड़ावणे ति) होत्था । वएप से कणगए राया इमीसे कहाए लफडेस. कायाऽऽकर्षणदेतुः । (भाभियोगिए सि) पराभिनवनदेतुः (व. माणे एवं वयासी-एवं खबु तेतग्निपुत्ते अमच्चे मए अवज्काए
सीकरणे त्ति) वश्यतादेतुः (कोव्यकम्मे ति) सौभाग्यनिमि
सं स्नपनाऽऽदि (भुकम्मे ति) मन्त्राभिसंस्कृतनूतिदानम् । (राजाव मुमे भवित्ता पव्वइए, तं गच्चामिणं तेतलिपुत्तं अणगा
याहीणा इत्यादि) राजाधीना, राको दरेऽपि वर्तमाना राजव. रंवंदामि, णमंसामि, पज्जुवासामि, एयमटुं विणएपं जुज्जो शवर्तिन इत्यर्थः । राजाधिष्ठिताः, तेन स्वयमध्यासिता राजानुज्जो खामेमि एवं संपेहेइ, संपेहिता एहाए० जाव चादरं- धिष्ठिता, राजाधीनानि राजाऽऽयत्तानि कार्याणि येषां ते वयं गिणीए सेणाए जेणेव पमयवणे उज्जाणे, जेणेव तेतलिपुत्ते
राजाधानकार्याः । (सव्वं च से बहाणपारियावणियं ति)सर्व
च' से ' तस्य उत्थानं चोत्पत्तिः, पारितापनिका च कालान्तरं अणगारे तेणेव उवागच्च, उवागच्छइत्ता तेतलिपुत्तं प्रण
यावस्थिरतरत्युत्थानपारितापनकं तत्परिकथयतीति । (वयंत गारं वंदइ,णमंसइ,एयमहं च विणएणं जुज्जो भुजो स्वामति,
पडिसंसाहहि त्ति) विनयप्रस्तावाद् व्रजन्तं प्रतिसाधयाऽनुपचासको जाव पज्जुवासे । तते से तेतलिपुत्ते भ- बज । अथवा वाचा तं प्रतिसंश्लाघय-साधूक्तं सावित्येवं प्रशंसा णगारे कागज्यस्स रएणो तीसे य धम्म परिकहे । सए| कुवित्यर्थः । भोग वर्तनम्। "रुले णमित्यादौ" दीनोऽयं मम प्री. णं से कणगए राया तेतलिपुत्तस्स केवलिस्स अंतिए
स्येति गम्यते । अपध्यातो ऽचिन्ताबान् । ममेति ममोपरि क
नकचजः। पागन्तरेण-पुतोऽदं पुरचिन्ताविषयीकृतोऽहं धम्म सोचा णिसम्म पंचासुध्वइयं सत्त सिक्खावइयं सावग
कनकध्वजेन राज्ञा, तत् तस्मान्न ज्ञायते केनापि कुमारेण धम्म पभिवाजति, समणोवासए जाए अहिरायजीवा- विरूपमारणप्रकारेण मारयिष्यतीति । (संधंसि उवहरत्ति) जीवे । तए णं तेतलिपुत्ते केवल्ली बहाण वासाणि केव- स्कन्धे पहरति विनिवेशयतीति । धारा (ओपल त्ति) अवदीलिपरियागं पाणिचा जाव सिके।
, कुएनीजूतेत्यर्थः। (भत्थाई ति) प्रस्तं निरस्तमविद्यमान
मधस्तलं प्रतिष्ठानं यस्य तदस्ताधः, स्ताघो वा प्रतिष्ठानं, तद. अथ चतुर्दशज्ञातं विवियते-अस्य चायं पूर्वेण सहाभिसंबन्धः।
भावादस्ताघम । भतारं यस्य तरणं नास्ति, पुरुषः परिमाणं पूर्वस्मिन् सतां गुयानां सामध्यभावे हानिरुक्ता, श्ह तु तथा- यस्य तत्पौरुषेयं,तनिषेधादपौरुषेयम्। ततः पदत्रयस्य कर्मधाविधसामग्रीसद्भावे गुणसंपदुपजायत इत्यभिधीयते, इत्येवं सं
रयः। मकारौ च प्राकृतत्वात् । अतस्तत्र “सवं" इत्यादि । बन्धमिदं सर्व सुगम, नवरम (कलाप त्ति) कलादो नाम्ना, मूषि.
श्रद्धेय श्रमणा वदन्ति प्रात्मपरलोकपुण्यपापाऽऽदिकमर्थजातम्, कारदारक इति पितृव्यपदेशेनेति । (अम्भितरहाणिज्जे त्ति)
अतीन्द्रियस्याऽपि तस्य प्रमाणावाधितत्वेन अहानगोचराप्राभ्यन्तरस्थानीयनाम्नाश्त्यर्थः (१)। (बियंगेश त्ति) व्यङ्गयति,
त्। अहं पुनरेकोऽश्रद्धयं वदामि-पुत्राऽऽदिपरिवारयुक्तस्यात्पर्य विगतकर्णनासाहस्ताऽऽद्यङ्गान् करोतीत्यर्थः। अथवा-(वियंगेश
राजसंमतस्य च अपुत्राऽऽदित्वमराजसंमतत्वं च, विषसङ्कत्ति) विकृन्तति, विनत्तीत्यर्थः। (संरक्खमाणीप सि) संरक्वन्त्या
पासकजलनिभिरहिंस्यत्वं चाऽऽत्मनः प्रतिपादयतो मम यु. आपदः, संगोपयन्त्याः प्रच्छादनतः (भिक्खाभायणे त्ति) क्तिबाधितत्वेन जनप्रतीतेरविषयत्वेनाश्रद्धेयत्वादिति । प्रस्तुत. भिकाभाजनमिव भिक्काजाजनं, तदस्माकं भिकोरिव निर्वाह
सूत्रनावना-" तप यामित्यादि ।” हं नोः ! त्यामन्त्रणे । कारणमित्यर्थः । " पढमाए पोरिसीए सज्झाश्य" इत्यादौ
पुरतोऽग्रतः प्रपातो गर्तः, पृष्ठतो इस्तिभयं ( दुहनो ति) यावत्करणादिदं द्रष्टव्यमू-"बीयाए पोरिसीए काणं कियाय,
उभयतः। प्रचक्षुःस्पोऽन्धकारः, मध्ये मध्यभागे यत्र चयतश्याए पोरिसीए अतुरियमचवलमसंभंते मुहपोत्तियं पद्धि- मास्मदे, तत्र शरा बाणा निपतन्ति, ततश्च सर्वतो भयं वर्तते लेदेश, भायणवत्पाणि पमिलेहे, जायणाणि पमज्जा, भाय. श्त्यर्थः । तथा प्रामः प्रदीप्तोऽग्निना ज्वाति, अरपयं च णाणि उग्गाहेर, जेणेव सुब्बयानो अजामो, तेणेव नवागच्छ, मायतेऽनुपशान्तदाहं वर्तते । अथवा-यायतीव व्यायात, सुब्वयाभो बज्जाओ बंद, नमसर, बंदित्ता नमसित्ता एवं अग्नेरविध्यानेन जागतीवेत्यर्थः। अथवा-अरण्य प्रदाप्त, प्रामा
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(२३५८) तेतलिसुय अभिधानराजेन्छः ।
तेयपाल मायते न विध्यापयति, एवं सर्वस्यापि जयानकत्वात् स्थाना- शरीरस्य कान्ती, स्था०८101 नि०। शरीरसंबन्धिान रोन्तरस्य चानावात, आयुष्मस्ततलिपुत्र!(कचत्तिक बजामः?,क चिषि, प्रभावे च । औ०। "अह तेत्रो पुण देहे अणोतप्पया भीतैर्गन्तव्यमस्माभिरिवान्येनापि नवतीति प्रश्नः । उत्तरंच- चेव ।" तेजः पुनर्देहे शरीरेऽनवत्रभ्यता असज्जनयिता दीभीतस्य प्रव्रज्या शरणं, भवतीति गम्यते। अथ कथं भीतस्य प्र- प्तियुक्तत्वेनापरिभूतत्वम् । बृ०१ उ०। दीप्ती, उपा०२ अ०। यज्या शरणं भवति? । भनोच्यते-यथोत्कण्ठिताऽऽदीनां स्वदे. आचा० । तेजोलेश्यायाम, स्था० १ ठा० । शरीरप्रनाशगमनाऽऽदीनि । तत्र (बुहियस्स त्ति) बुभुक्तिस्य । मायिनो व. याम्, झा० १ श्रु०१०। आहारपाककारणनूतेषु तेजोनिश्वकस्य,रहस्यं गुप्तत्वं,शरणमिति सर्वत्र गमनीयम् । अभियुक्तस्य सर्गहेतुषु चोष्णपुंफलेषु, कर्म० ५ कर्म० । रसाऽऽद्याहारपाकसम्पादितदूषणस्य,प्रत्ययकरणं दूषणापोदेन प्रतीत्युत्पादनम्,अ- जनने तेजोनिसर्गलब्धिनिबंधने घ । अनु० । वृकनेदे, तिः । ध्वानं मार्ग गच्छतः परिश्रान्तस्य गन्तुमशक्तस्य (पाहणगमणं)श. स्तेये, नं। चौथे, विशे। पञ्चा। कटाऽऽद्याराहण शरणामात याज्यम् । तरातुकामस्व नचादिक तयंसी-तेजस्विन-त्रि०। तेजः शरीरप्रना, तांस्तेजस्खा । झा प्लवनं तरणं कृत्यं कार्य यस्य तत्क्षवनकत्वं तरकापमम् । पर
१७०१०। शरीरप्रतायुक्त, भ०२श०५०।सा नि। मभियोक्तुकामस्याभिभवितुकामस्य (सहायकम्मे त्ति)सहायक
| आचा० । दीप्तिमति, प्राचा० २ श्रु०१ यू० २१०१३० । वृ०॥ त्यं मित्राऽऽदिकृत्यं (खंतेत्यादि) कान्तस्य क्रोधनिग्रहेण,दान्तस्ये. कियनोइन्द्रियदमेन, जितेन्द्रियस्य विषयेषु रागाऽऽदिनिषेद्धः,
| तेयग-तैजस-न। तेजःपुलानां बिकारस्तैजसम् । “ विका. (पत्तोत्ति)पतेभ्योऽनन्तरोदितेभ्योऽग्रतःप्रपाताऽऽदिभ्यो नयेभ्यः
| रे" ॥६।२।३० । इत्यण । अमसिने, भुक्ताऽऽहारपरिणमनएकमपि जयं न भवति, प्रवजितस्य सामायिकपरिणत्या शरी.
कारणे शरीरभेदे, यवशाच विशिष्टतपासमुत्थलब्धिविशेराऽऽदिषु निरभिष्वङ्गत्वाद् मरणाऽऽदिभयाभावादिति। एवं देवे
बस्य पुंसस्तेजोलेश्याविनिर्गमः । उक्तं च-" सब्यस्स उम्दनामात्यः स्ववाचा भीतस्य प्रव्रज्या श्रेयसीत्यज्युपगम कारयित्वा सिद्ध, रसाऽऽश्राहारपाकजणगं च । तेयगलकिनिमित्तं च ते. एवमुक्ता-(सुटु इत्यादि ) अयमों भीतस्य प्रवज्या शरण
यग होइनायब्वं ॥१॥"जी०१ प्रति० । स्था० । प्रज्ञा । मिति यदि प्रतिज्ञायते, तदा सुष्ठ ते मतं, नयाभिचूतस्त्वमिदा.
। (तेजसशरीरख्यास्या सर्वा ' सरीर' शब्दे वक्ष्यते) वैश्वानीमसति एनमर्थमाजानीहि-अनुष्ठानद्वारेणावबुध्यस्व, प्रव.
नरे, पुं० स० ३० सम। ज्यां विधेहीति यावत् । इह च यद्यपि सत्रे उपनयो नोक्त-तेयगणाम-तैजसनाम (न्)न। तेजोनिबन्धनं नाम तैजसनाम, स्तथाऽप्येवं अपव्य:-" जाव न दुक्खं पत्ता, माणसं च। तेजसशरीरनिवन्धने नाममणि, यउदयवशात्तजसशरीरपाणिणो पाय । ताव न धम्मं गेएदं-ति भावो तेयलिसुउ | प्रायोग्यान पुफलानादाय तैजसशरीररूपतया परिणमयति, प
च॥१॥" इति । ज्ञा०१ श्रु०१४ अ.प्रा०म० । शा०का रिणमय्य च जीवप्रदेशः सहान्योऽन्यानुगमरूपतया संबन्धन विशे० । तेतलिसुतप्रतिबद्धवक्तव्यताके चतुर्दश ज्ञाताध्ययने, यतीति । कर्म०१ कम। प्रश्न ५ सम्ब० द्वार । शा• प्रा.चू०।
तेयगलद्धि-तैजसलब्धि-स्त्री०। क्रोधाऽऽधिफ्यात्प्रतिपन्थिनं प्रति तेतिन-तैतिल-पुं०। गण्डकपशौ, वाच० । सोचिसोचनापर
सुखेन विशिष्टतपोजन्यानेक योजनप्रमाणवेत्राऽऽश्रितवस्तुदहनपर्याये ववाऽऽदितश्चतुर्थे करणे, जंक ७ बका।
सामर्थ्यतो जाज्वल्यमानञ्चालामोचनशक्ती, मासा तु, यो यमी तेतिलिपुर-तेतलिपुर-न० । स्वनामख्याते पुरे, यत्र कनकरथ- नित्यं षष्ठं तपः करोति पारणके कुल्माषमुष्टया जलचुलुकेन स्यामात्य स्तेतलिसुत आसीत् । ज्ञा० १ २०१३ भ. प्रा० मा
चाऽऽस्ते, तस्य परमासान्ते सिद्भयतीति । ग०३ अधिक। दर्शामा० चू०।
तेयगममुग्याय-तैजससमुद्धात-पुं० । तेजसि विषये भवस्तैजसः, तेतीस-त्रयस्त्रिंशत्-स्त्री.। " एत् त्रयोदशाऽऽदौ स्वरस्य सस्व- स चासो समुद्घातश्च तैजससमुद्घातः । तेजोलेश्याविनिर्गरव्यञ्जनेन" ॥८।१।१६५ ॥ इत्यादेः स्वरस्य सस्वरव्यजने.
मकालभाविनि तैजसशरीरनामकर्माऽऽश्रये समुद्घातविशेष, न सह पद्भवति । यधिकायां त्रिंशत्संख्यायाम, प्रा. १
पं० सं० २द्वार । प्रशा० । स०। प्रव० । ( किश्चिद्वक्तव्यता
'तेउसमुग्घाय' शम्मेऽत्रैव नागे २३५. पृष्ठे गता )( अस्य पाद।
सर्वा बक्तव्यता तु 'समुग्धाय' शब्दे वचयते) तेत्ति-तावत-त्रि.। " इदंकिमश्च मेत्तिम-मेत्तिल-मेबहाः"
तेयजणण-तेजोजनन-न० । मादात्म्योत्पादने, १० ३००। ॥ ८ । २ । १५७॥ इति तच्चन्दात् 'मेत्ति' प्रत्ययः । तत्परिमावति, प्रा०२पाद।।
तेयपाल-तेजःपाल-पुं०। पोरवाडकुल जाते अणहिलपारणनतेत्तिर-तित्तिर-पुं० । लोमपविभेदे, जी. १ प्रति०।
गरराजस्य श्रीवीरधवलस्य मन्त्रिाणि, ती० ।
तेजःपालवस्तुपासकल्पःतेत्तुर-तावत-त्रि०। “ अतो डेतुः " ॥८।४। ४३५ ॥
"श्रीवस्तुपालतेजः-पाली मन्त्रीश्वरावुभावास्ताम् । इत्यपभ्रंश तच्छन्दात्परस्यातोः प्रत्ययस्य 'डे तुल्ल' इत्यादेशः । यौभ्रातरौ प्रसिद्धौ, कीर्तनसंख्यां तयोर्वमः" ॥१॥ मित्वाहिलोपः। प्रा०४पाद । तत्परिमाणवति, चाचा
पूर्व गुजरधरित्रिमरामनायां मण्डलीमहानगर्या श्रीवस्तुपासतेजःतेय-तेजस्-पुं० " स्नमदामशिरोऽननः" ॥१॥३२॥ इति सा- पालाऽऽद्या वसम्ति स्म। अन्यदा श्रीमत्पत्तनवास्तव्यप्राम्बाटास्तत्वात्तेजःशब्दस्य पुंस्त्वम् । प्रा० १ पाद । आभतापे, सूत्र. १ न्वयारश्रीचन्द्रपालाऽऽत्मजकरश्रीचन्नप्रासादाजमन्त्रिधु०५०१०। प्रभावे, अन्त.१ श्रु० ६ बर्ग ३ अ० ।। श्रीसोमकुलावतंसरश्रीआसराजनन्दनौ कुमारदेवीकुक्षिसवहीं, प्रक्षा. १ पाद । स्था० । कान्ती, उपा० २ ०।। रोवरराजहंसौ श्रीवस्तुपालतेजःपाली श्रीशत्रुञ्जयगिरिनारा55.
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तेयपाल
तो डागा यावत्स्यां विभूर्ति चिन्तयतस्तात्रयं सर्वस्वं जातम्। ततः सुरा मासस्य लतमेकमवन्यां निधातु निशीचे महास्वातं खानयामासतुः तयोः सानो कामः कनकपूर्ण शी कलश निरगाव, समादाय श्रीवस्तुपालः तेजःपानजायामनुपमादेवी मान्यतयाऽपृच्छत् चैतन्निधीयत इति । तयोक्तम्गिरिशिखरः स्थाप्यते यथा प्रस्तुतनिधिवन्नान्यसाद्भवेत् । तच्छ्रुत्वा विस्तुपालस्तद् अत्र्यं श्रीशत्रुञ्जयोज्जयन्तादयत् कृतयात्री व्यावृतो धचलकपुरमगात्त्रा सारे मायदेवी नाम कान्यकुजेश्वरता जनका (क) लिकापदे (?) गुर्जरधरित्रीमवाप्य तदाधिपत्यं मुक्त्वा मृता सतीतत्रैव देशाधिश्री देवता समजनि सेकदा खप्ने वीरनुपस्या पीक पद्धस्तुपासतेजपाल राज्यचिन्तक विधाय सुखेन राज्यं शाधि । इत्थं कृते राज्यराष्ट्र वृद्धिस्तव नवित्रीत्यादिश्य स्वं व प्रकाश्य तिरोदधे देवी । प्रातरुत्थाय नृपतिर्वस्तुपासतेजःपानावाहूय सत्कृत्य च ज्यायसः स्तम्नतीर्थधवल कयोराधिपत्यमेवादात् । तेजःपालस्य तु सर्व राज्यव्यापारमुद्रां ददौ । ततस्तौ बम्दशनदान - नानाविधधर्मस्थानविधापनाऽऽदिनिः सुकृतशतामितिः नित्यमनु समयम् । तथाहि लक्षमेकं सपाई जिन म्यानां कारितम्, भादको पारिश्रीय ती प्रविणं व्ययितम्, द्वादश कोट्योऽशीतिले क्षाः श्री उज्जयन्ते, द्वादश कोटयस्त्रिपञ्चाशद् लक्षा अर्बुद शिखरे, बूणिगवसत्यां नत्र शतानि चतुरशीतिथ्य पौषधाज्ञाकारिता, पञ्चशतानि दन्तमयसिंहासनानां शतानि पञ्चोतराणि समवसर णानां जादरमयानां ( ? ), ब्रह्मशालाः सप्त शतानि सप्त शतानि सत्रागाराणाम् सप्तशती तपस्विकापालिक मानस सर्वेषां भोजननिर्वापाऽऽदिदानं कृतं, त्रिंशच्छतानि द्रधुतराणि माहेश्वराऽपतनानां त्रयोदश शतानि चतुरुतराणि शिखरबद्ध जैनप्रासादानां त्रयोविंशतिशतानि जीर्णचेत्योद्धाराणाम्, अश दशकोटिसुवर्णव्ययेन सरस्वती भावमागाराणां स्थानत्रये मरणं तं शती ब्राह्मणानां वेदपारं करोति स्म वर्षमध्ये पूजा त्रितयं पञ्चाशच्छती श्रमणानां गृहे नित्यं विहति स्म, टिकापटिकानां सहस्रं साधिकं प्रत्ययोतीयात्राः सङ्घपतीभूय कृताः । तत्र प्रथमयात्रायां चत्वारि सह नाणि च पञ्चशतानि शकटानां सुख सिकानाम अासाठी वाहिनीनाम प्रकाशतिः शतानि श्रीकरिणाम, एकविंशतिः शतानि श्वेताम्बराणां, एकादश शतानि दिगम्बरार्णा चत्वारि शतानि सानियायतिवन्दिजनानाम् चतुरशीतिस्तडागाः सुबद्धाः, चतुःशती चतुःषष्ट्यधिका वापीनां पाषाणमयानि द्वाविशद दुर्गाणि दन्तमयजनरथानां चतुवैिशतिः, विशे कादिनानां सरस्वतीकराभरणादीनि चतु नि श्रीवस्तुपालस्य चतुःषष्टिमेसीतया कारिता । दक्षि पर्वतं पातु पश्चिमायां प्रभासं यावत् उत्तरस्यां केदारा वत्, पूर्वस्यां वाराणसीं यावत् तयोः कीर्त्तनानि सर्वाण त्रीणि कोटिशतानि चतुर्द्दश लका अष्टादश सहस्राणि श्रष्टशतानि लोष्टिकत्रितयोनानि अन्यव्ययतः त्रिषष्टिबारान् संग्रामे जैत्रपत्रं गृहीतमणियतिः । एवं तयोः पुरुष त्यानि कुर्वतः कियताऽपि कालेन
कालधर्म
"
(२३५८) निधानराजेन्द्रः ।
"
तेयाणुबंधि (ण)
मवापत् । ततस्तत्पट्टे तदीयस्तनयः श्रीमान् बीसलदेवस्ताभ्यां मन्त्रिप्रवराज्यां राज्येऽभिषिक्तः । सोऽपि समर्थः सन् क्रमेण दु· मंदः सचिवान्तरं विधाय मन्त्रितेजःपालमपाचकार । तदेतदवलोक्य पुरोधाः सोमेश्वरनामा महाकविमुद्दिश्य सा
नव्यं काव्यमपठत् । यथा
"मांसोन्मांसल पाटलापरिमलव्यालोल रोलम्बितः ( १ ), प्राप्य प्रौढिमिमां समीर ! महतीं पश्य त्वया यत्कृताम् । सूर्याचन्द्रमसौ निरस्ततमसौ दूरं तिरस्कृत्य यत्, पादस्पर्शस विहायसि रजः स्थाने तयोःस्थापितम् ॥१॥ इत्यादि तयोः पुरुषस्यशेषमादित उत्पत्तिस्वरूपं तु लोकप्रसिद्धित एवावगन्तव्यम् ।
'गीताच माज्ञाय कीर्तिता । कीर्तनानामियं संख्यामः ॥ १॥" श्रीमद्दामात्ययस्तुपासतेजपाल की संख्या कल्पः। " यदध्यासितमर्हद्भिः तत्तीर्थे प्रचकते । श्रन्तश्च तयोश्चित्त-मध्यवात्सुरहर्निशम् ॥ १ ॥ तीर्थरूपयोक्त्या पुरुषस्तयोः । कीर्तनकसेनेनापि याने किम् ? ॥ २ ॥ इत्यालोच्य हुदा कपलेशं मन्त्रीपोस्तयोः । एतं विरचयाञ्चकुः, श्रीजिनप्रभसूरयः ॥ ३॥ " ती ४१ कल्प । तेयमंडल - तेजोमण्डल - न० । प्रभापटले, स० ६ सम० । तेवमाहपतित ते जोमाहात्म्यकान्तियुक्त ० तेजो दीप्तिमदात्म्यं महानुभावता, कान्तिः काम्यता, तैर्युक्ते, उपा०
-
२ ० ।
तेयानपुर तेतझिपुर तेतिविपुर' शब्दा ० १५० १ ० ॥ तेयझेस्मा तेजोलेश्या श्री० [विशिष्टजन्ययिविशेष भवायां तेजोज्वालायाम, झा० १० २ श्र० । ( सा कथं भ योतिले 'शब्देनुपदमेव २३४८ पृष्ठे तेषवंत तेजस्विन्त्र प्रभापति ०४ सम्बद्वार तेयवीरिय-तेजोबीर्य - पुं० । भरतराजस्य पुत्रपरम्परायां भरतात्पञ्चमे महाबलस्य पुत्रे, स्था० ८ ठा० । तेया तेजस् त्रीयोदश्याम ज्यो० ४ पाडु० लोकोत्तररीत्या त्रयोदश्यां रात्रौ कल्प० ६ क्षण । त्रेता स्वी० सत्ययुगान्तरवर्तिनि युगमेरे, वा गे य दासरही रामो सीयालक्खणसंजुश्रो वि ।” ती०२७ कल्प । दक्षिणाग्निगार्हपत्याऽऽहवनीयाऽऽत्मके समुदिते श्रग्निये, घृतकमासाधनस्याकृस्य यस्मिन् पार्श्वे त्रयोऽङ्कास्तस्य पा र्श्वस्य उत्तानतया पतने द्यूतविशेषे, वराटकानां मध्ये त्रयाणातानतया पतनेच 'सस्यम्' इति मृच्छकटिक टीका । वाच० ।
० प्र० ।
1
"तेयाजु
तेयाधि (ए) स्तेयानुवधिन्- १० स्तेनस्य वीरस्य कर्म स्तेयं, तीव्रक्रोधाऽऽद्याकुलतया तदनुबन्धवत्स्तेयानुबन्धिनि न० २५ श० ७ उ० । रौद्रध्यानभेदे, दर्श० । अतितीव्रकोलोमाकुलमानसस्य श्रमणान्धयधिराजमादिष्यि प्राणमाययाऽपि परस्यापहरणेष्ठ प्राणप्रहाणबुद्ध्याऽपि
परलोकापाया
नीरोः । भत पवाऽऽद श्रीभगवान् जिनभद्रगणिकमाश्रमणः
-
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यापुबंधि (णू)
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।
तह तिप्पको खोदा उलरस भूषवाचणमराजं परवरणचित्तं परोगा बायनिरवेक्खं ॥ १ ॥ दर्श० ४ तस्व । तेयाली - तेयालिन् - पुं० । वृकभेदे, " ताले तमासे तक्कलितेयालीसालिसारको "प्रझा० १ पाद । तेरसी - त्रयोदशी - स्त्री० । चन्द्रस्य त्रयोदशकला क्रियारूपेति धौ, वाच० । त्रयोदश्यां यात्रा शुभकर । तदुक्तम्-" जे विहु हुति श्रमित्ता, ते तेरसिपट्टिश्रो जिगर । " द० प० । ज्यो० । तेरह - पोदश (न्) -पुं० त्रयोदशी स्वरस्य स स्वरय्यञ्जनेना" || छ ॥। ८ । १ । १६५ ॥ त्रयोदशन्नित्येवंप्रकारेषु संख्याशब्देष्वादेः स्वरस्य परेण सस्वरव्यञ्जनेन सहैकारः । प्रा० १ पाद | "संख्याग दे रः ॥ ८ । १ । २१ ॥ इति दस्य रः । प्रा० १ पाद । व्यधिकदशसंख्याऽन्विते, वाच० । तेरासिय- त्रैराशिक - पुं० । जीवाजीवनाजीवभेदास्त्रयो राशयः समताखितिप्रयोजनं येषां ते वैराशिकाः स्था० ७ aro | आ० म० । श्रीनू राशीन् जीवाजीवनोजीवरूपान् वदन्ति ये ते त्रैराशिकाः । श्र० । जीवोऽजीवो जीवाजीवश्च, लोकोऽलोको लोकालोकश्च सत् असत् सदसत् । नयचिमायामपि त्रिविधं नयमिति तद्यथा-व्यास्तिकम पर्यायास्तिकम्, उभयास्तिकं च । उक्तं च-त्रिभी राशिनिश्व रन्तीति वैराशिका | मं० त्रिराशिनिर्दोष्यतिजिगीषन्तीति त्रैराशिकाः । उत्त० ३ श्र० । जीवाजीवनोजीवराशित्रयवादिरोगुप्तमतानुसारिषु षष्ठेषु निवेषु, आ० क० ।
अथ षष्ठवक्तव्यतामभिधित्सुराह
पंच सया चोयाला, तझ्या सिद्धिं गयस्स वीरस्स । पुरिमंतरंजिया तेरासियादिकि उपमा ||२४५१ ।। पञ्चशतानि चतुधारिदधिकानि तदा सिद्धि] गतस्य श्रीमन्महावीरस्य अत्रान्तरे अन्तरजिकार्या पुर्यो राशिक ष्टिरुत्पन्नेति ॥ २४५१ ।।
( २३६०) निधानराजेन्द्रः ।
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कथमुत्पन्ना ?, इत्याद
पुरिमंतरंज गिद्द बलमिरि सिरिगुत रोहगुते य । परिवायपोट्टसाले, घोसा पमिसेदणा वाए || २४५२ ॥ संप्रद्गाथेयम् । अस्याश्च कथानकादर्थोऽवसेयः । तच्चेदम्अन्तरजिका नाम नगरी, तस्याश्च बहिर्भूतगृहं नाम चैत्यम् । रात्र व श्रीगुप्तनामाऽध्यायः स्थितः । तस्यां च नगर्यो ब
म राजा श्री गुप्ताऽऽचार्याणां च रोगुतो नाम शिष्यो ग्रामे स्थित मासीत्। गुरुवन्दनार्थमन्तकायामा गतः । तत्र चैकः परिवाजको लोहपट्टकेनोदरं बद्धा जम्बूवृकशाला च हस्ते दीपानाम्यति । किमेतदिति लोग बदति मदीयोरतीय ज्ञानेन ि
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तिलोपन बरु जम्बूदीपमध्ये च मम प्रतिवादी ना स्ति इत्यस्यार्थस्य सूचनायें जम्बूवृकशाखा हस्ते गृहीता । ततस्तेन परियाजन सर्वस्यामपि नगर्यो " सुम्याउन परप्रवादाः, नास्ति कश्चिन्मम प्रतिवादी । इत्युद्घोषणा पूर्वकः पटाम्बूायोगात स्य लोकेोब" इति नाम जान पदको नगरी प्रविशता रोहन, उषा श्रुता । ततोऽहं तेन सार्द्धं
तेरासिय
याददास्यामीत्यभिधाय गुरुनाऽपि निचिनास प कः । गुरुसमीपं चाऽऽगत्याऽऽलोचयता कथितोऽयं व्यतिकरस्तेषाम् । श्राचार्यैः प्रोकमन युकं स्वयाऽनुष्ठितम् दिप रियाजको वादे निर्जितोऽपि विद्यास्पतिकुरानिपतिठते, तस्य चैताः सप्त विद्या वाढं स्फुरन्ति ॥ २४५२ ॥ काः पुनस्ताः ?, श्याह
बिच्छु यसप्पे मूसग, मिगी वराही य काग पोयाई । एयादिविज्जाहिं मो व परिव्यामो कुसलो ॥ २४५३|| (विष्णुवति) वृश्चिकप्रधान विद्यागृहाते (सध्ये शि प्रधानविद्या (मूल नि मूकप्रधान तथा मृगीना म विद्या मृगीरूपेणोपघातकारिणी । एवं वराही च । (फाग पो याइति) काकविद्या, पोताकीविद्या न्र । पोताक्यः शकुनिकाः । एतासु विश्वासु, एतानिर्वा विद्याभिः स परिवाजकः कुशल इति ततो रोगलेनो कम्-पद्येवं तस्किमिदानीं काफि शक्यते नियितु। ततः सूरिभिः प्रोक, तहिं पठितसिद्धा एवेताः सप्तपि या गृहाण || २४५४ ॥
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काः पुनस्ताः ?, इत्याह
बिराली, बम्बी सीड़ीय बुगि चोलावी । विज्जाओ, गिएह परिव्वायमहणीओ || २४२४|| वृश्चिका प्रतिपक्षभूता मयूरी विद्या, सर्पाणां तु प्रतिपक नकुली सूचकाणां विमाली एवं स्यानी, सिदी की (लाचिति) पोता की प्रतिपक्षता विद्ये. स्वर्थः। ताः परिवाजकमधनीर्दिया दास्यम् इति सू रिणा प्रोक्ते गृह्णाति रोद्गुप्तः । तथा रजोहरणं चाभिमन्त्रय सूरिभिस्तस्य समर्पितम् । अभिदितश्च यथा - यद्यन्यदपि कितिविधानमुपसर्गज्ञातमुपतिष्ठते तदा तनिवारणार्थमेतन्मस्तकस्योपरि भ्रमणीयम् । ततश्चेन्द्राणाम प्यजेयो भविष्यसि, किमुत मनुष्यमात्रस्य तस्येति ? । ततश्च गतो राजसनां रोदगुप्तः । प्रोक्तं च तत्र तेन किमेष अमकः परिवाजको जानाति ? करोत्यमेव वा पूर्वपक्षम येनाहं निराकरोमि ततः परिवतितम-निपुणाः ख ल्वमी भवन्ति तदमीषामेव सम्मतं पक्षं परिगृह्णामि, येन निराकर्तुं न शक्नोति विग्त्यमयापि जीवा जीवामेति द्वावेव राशी तथैवोपलभ्यमानावात शुभा दिराशिद्वयवत् इत्यादि ततो रोहन परिभवनार्थ स्वसंमतोऽप्ययं पक्को निराकृतः । कथम् ? इति चेत् ? । उच्यतेअस्तिकोऽयं हेतु अन्धोपन जीवा अजीवा नोजवा ति राशिदर्शनात्त जीवा नरकतिर्यगादयः अजीवास्तु परमाणु घटाइ नोजी वास्तु युद्ध कोकिलाच्यः ततो जीवाजीनीयरूपा रायः तथैवोपलभ्यमानस्याद. अधममध्यमो मदिराशित्रयवद् इत्यादियुक्तिभिः निष्प्रश्नव्याकरणः कृत्वा जितः परिवाजको रोहगुप्तेन । ततोऽसौ
I
वृश्चिकविद्यया रोहतविनाशार्थं वृकान्मुति । ततो रोहगुप्तस्तत्प्रतिपकनूतमयूरीविद्यया मयूरान्मुञ्चति । तै श्च वृश्चिकेषु हतेषु परिव्राजकः सर्पान्मुञ्चति । इतरः तत्प्रतिघातार्थ नकुलबसृजति एवं मूषिकाणां बालान् मृगी णां व्याघ्रान् शूकराणां सिंहान्, काकाना मुलूकानू, पोती
मोरी न या
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तेरासिय
नामुलावकान् मुञ्चति । ततो गर्दभी मुक्ता, तां चाऽगच्छन्तीं eg रोहगुप्तेन रजोहरणं मस्तकस्योपरि भ्रमयित्वा तेनैव रजोरम साडिता सती परिवाजकस्योपरि मूत्रपुरीषोस कृत्वा गताऽसौ । ततः सनापतिना, सभ्यैः, समस्तलोकेन च निन्द्यमानो नगरानिर्वासितः परिवाजकः ॥ २४५४ ॥
(२३३१) अभिधानराजेन्द्रः ।
इतः परं यदत्तद्भाष्यकारः प्राऽऽह
"
नेऊरा पोहसाल, यूओं भणगुरुमूलमागंतुं । बायमिमए जिओ सुणह जहा सो महामते । २४२५ | रासिदुगगहिय पक्खो, तड़यं नोजीवरासिमादाय । गिरको किलाइ पुच्छच्छे प्रोदाहरण प्रोऽभिहिए | २४५६ | भाइ गुरु कर्य, किं पुरा जेऊ फीस नाभिहिये । मुटु ? यतो तओ नोजीवरासिनि ।। २४५७ ॥ एवं गए वि गंतुं, परिसामज्झम्मि जासु नायं णे । सितो किंतु मए बुद्धिं परिय सो समिश्र ॥ २४५० ।। बहुसो समायो गुरुणा परिभता किमवसितो है। ज नाम जीवदेसो, नोजीवो हुज्ज को दोसो १ ।। २४५५ ।। पोशाल परिक्षा जिल्ला गुरुवरणमूलमागत्य रोद्रगुप्तोऽ धरनाम्ना तु खडुबुको भणति स परिव्राजकाधमः समस्तनृपसभामध्ये यथा बादे मया विजितस्तथा शृणुत यूयम, कयामीति देवाराशियतका परिवाजको मया वादे विजित इति प्राक्तनेन संबन्धः । किं कृत्वा ?, इत्याद् - तृतीयं नोजीवराशिमादाय पक्कीकृत्य, कुतो दृष्टान्तादसी पकीकृत्य इत्याह-कोकिलाऽऽदीनां पुच्छमेव ि श्रत्वाच्छेदः, तदुदाहरणतस्तदृष्टान्तादित्यर्थः । एवं रोहगुनाजिहिते गुरुर्भणति सुष्ठु कृतं त्वया यदसौ जितः कि तु तत्रोसिष्ठना त्वया किमेतनाभिहितम् १ 1 किम् ? स्वाद तृतीयो नोजीवर शिरिस्ययं (ति) मो उस्माकमपसिद्धान्तः, जीवाजीवल कणराशिद्वयस्यैवाऽस्म सिद्धान्तेऽभिहितत्वादिति । तस्मादेवं गतेऽपि एतावत्यपि गते इत्यर्थः, तत्र परिषन्मध्ये गत्वा भण प्रतिपादय, ( नायं सि) नाकं नायं सिद्धान्त कि तु सपरिवाफदि परिय तिरस्कृत्य शमित उपशमं मोद त्याजित इत्यर्थः । एवं बहुशोऽनेकधा गुरुणा भण्यमानः स रोगुप्तः प्रतिभणति प्रत्युत्तरतिबाचा किमयमसि व्रतः ? यदि हि नोजी वलकण तृतीय राश्यभ्युपगमे कोऽपि दोषः स्यात्तदा स्यादयमपसिद्धान्तः, न चैतदस्ति । कुतः १, इत्यादयदि नाम कोकिलादि जीवदेशो नोजीयो भवेत्री. जीवनात सर्दि को दोषः स्यात् है न कमपि दोषमत्र पश्याम इत्यर्थः । ततः किमित्यपसिद्धान्तत्वे दोषपरिहा पुनम तत्र प्रेयसीति भावः ।
-
कस्मान्न दोष: ?, इत्याह
3
देसनिसेहपरो, नोसदो जीवबदेसोय । गिकोइलाड़पुच्छं विलक्खषं तेरा नोजीवी ॥२४६० || यद्यस्मान्नीय इत्यत्र नोशब्दो देशनिषेधपरो न तु सर्वनिषेधपरः, नोजीवो जीवैकदेशो, न तु सर्वस्यापि जीवस्या -
,
५६१
तेरासिय
भाव इत्यर्थः । भवत्वेवं देशनिषेधको नोशब्दः, परं गृहको किसादिपु जीवदेशो न भविष्यतीत्याह देशको कादियुष्म. आदिशदानपुरुषादि हस्त परिगृह्यन्ते कथं गृहको पुच्छ मणिम् जीवा इति नायटोकिदि जीवन व्य स्कायेदेसलिया जीवापा येते, स्फुरणाऽऽदिभिस्तेयोऽपि विलक्षणत्वात् येन तेन कारणेम पारिशेष्यान्नोजीव एतदुच्यत इति ॥ २४६० ॥
".
सिद्धान्तेऽपि धर्मास्तिकायाऽऽदिदेशवचनाडुक्तएव नोजीवः । कथम ?, इत्याह
त
धम्मासविहाऽऽदे - सओ य देसो विजं पिहुं वत्युं । किं पुण, निंगि कोलियापुच्छं १ । २४६१। इच्छ जीवपणसं, नोनी में च समजिरू । तेस्थित समय परदेसो नोपटो जड़ वा ।। २४६२ ।।
कारस्य किमत्याद्ययस्मात्कारणादे सोऽपीत्यपिशब्दा पिजि मस्तिकायादिदेशनः अपितु सि अथ ध्येयमादेशाः (पिहुंवर सि) सिफा पृथ वस्तु नर्णित इति शेषः पृथग निर्दि इत्यर्थः । किं पुनर्यच्छन्नमात्मनः पृथग्भूतं कृतं तद् गृह कोकिलाऽऽदिपुच्छं पृथग् वस्तुन भविष्यति ? भविष्यत्येवेति । तच्च जीवच्छिन्नत्वेन पृथस्फुरणादिना जीवविलक्षणत्वात्सामर्थ्या नोजीव एवेति जावः । कुतः पुनवेचनाऽऽदेशसिद्धान्ते पृथ ग् वस्तु भणितः १ इत्यादावहादेव सि) प मस्तिका 5581 मनोजीवानां विचादेशो दश विधत्वणनात् । एतदुक्तं भवति श्रजीवप्ररूपणां कुर्वद्भिरुक्तं परममुनिनि:- "अजीवा दुविहा पत्ता । तं जहा- रूविश्रजीवाय, अरुविअजीवा य। रुविअजीवा चनाहा पत्ता । तं जड़ा खंधा, देसा, परसा, परमाणुपोग्गला । अरूविश्रजीवा दसविहा पन्नता । तं जहा धम्मत्थिकाए, धम्मत्थिकायस्स देसे, ध म्मत्यिका यस्तपसे, एवं अस्मत्धिकार वि. धागाधिका वि. श्रासमए । " तदेवं धर्मास्तिकायाऽऽदीनां दशविधत्वभ• णनेन तद्देशस्य पृथग्वस्तुत्वमुक्तमेव, अन्यथा दशविधत्वानुपपत्तेः यदा च मोतिकादीनां देशस्तेभ्योऽपि पृथग्भूतो पिपृथग्वच्यते तदादिकं भवेन जी. चात् पृथग्भूतं सुतरां वस्तु भवति; तश्च जीवाजीवविकत्वाप्रोजीवति । अपि च यद्यस्मात्कारणीदे नोजीवं समभिरूढनयोऽपीच्छति, तेन तस्मात्तकोऽसौ नोजीवः समये सिद्धान्तेऽप्यस्ति न पुनर्मयैव केवलेनोच्यते, तथा चानुयोगद्वारेषु प्रमाणद्वारान्तर्गत नयप्रमाणं विचारयता प्रोक्तम्-" समभिरूढो सद्दतयं भणश्-जइ कम्मधारपण भ णसि तो एवं भणाहि-जीचे य से परसे य, से सपए से नोजी
" इति तदमेन प्रदेशलकृष्ण जीयेकदेशो नोजीच उक्तः, यथा घटेकदेशो नोघट इति । तस्मादस्ति नोजीवलक्षणस्तृतीयराशिः, युक्त्याऽऽगमसिद्धत्वात् जीवाजीवाऽऽदितत्वदिति ॥ २४६१ || २४६२ ॥
तदेवं गो बाचार्यः प्रतिविधानमाहजइसे सुपमा तो रासी तेसु ते सुतेमु ।
"
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(२३६२१ तेरासिय अनिधानराजेन्द्रः।
तेरासिय दो जीवाजीवागं, न सुए नोजीवरासि त्ति ॥२४६३||
यतश्चैवं ततः किम् ?, इत्याह" धम्माइदसविहाऽऽदेसओ य" इत्याद्युपन्यासारसूत्रप्रामा- देहरहियं न गिएहइ, निरतिसओ नातिमुहमदेहं व । एयवाद किल लदयते भवान्, तद्यदि सत्यमेव तब सूत्रं प्रमा
न य से होइ विवाहा, जीवस्स भवंतराने च ।२४६६। णम्, ततस्तर्हि तेषु तेषु सूत्रेषु जीवाजीवरूपी द्वावेच राशी प्रोक्तो। तथा च स्थानान्सूत्रम्-"वे रासी परमत्ता । तं जहा
देहाभावे जीवलकणानामनाबादेहरहितं मुक्ताऽऽत्मानं विन्नपुजीवा चेव, भजीबा चेव ।" तथाऽनुयोगद्वारस्त्रेऽप्युक्तम् -
च्गऽचन्तरामवर्तिनं वा जीवं निरतिशयः केवलज्ञानाऽऽद्य. "कशविहाणं भंते! दब्बा पणत्ता गोयमा! दुविहा पत्ता।
तिशयरहितो जन्तुर्न गृह्णाति । तथा-अतिसूदमो देहो यस्य तमतं जहा-जीवदवा य, अजीवदब्बा य।" तोत्तराध्ययनसूत्रे
तिसूक्ष्मदेहं निगोदाऽऽदिजीवं कार्मणकाययोगिनं वा जन्तुं ना. चाभिहितम्-"जीवा चेव अजीवा य, एस सोए वियाहिए।"
ऽसौ गृह्णाति । न च 'से' तस्य जीवस्थान्तरामवर्तिषु प्रदेशेवश्त्यायन्येष्वपि सूत्रेषु षष्टव्यम् । नोजीवराशिस्तु तृतीयः श्रुते
नन्तरदर्शितसिद्धान्तसूत्रोक्तयुक्त्या कुन्तासिसेल्लाऽऽदिशस्वै न कचिदप्यभिहिता, तत्कथं तत्सवप्ररूपणा न श्रुताऽऽशात
राग्निजलादिभिर्वा विबाधा पीमा काचिद्भवति, भवान्तराले नेति । न च धर्मास्तिकायाऽऽदीनां देशस्तेभ्यो भिन्नः कोऽ.
कार्मणशरीरवर्तिजीवप्रदेशवदिति ॥२४६६।। प्यस्ति, विवक्तामात्रेणैव तस्य भिन्नवस्तुत्वकल्पनात् ॥२४६३३॥
ननु गृहकोकिलाऽऽदिजीवस्य जिन्नत्वात्पुच्छाऽऽदिकं स्वराम एवं पुन्छाऽऽदिकपि गृहकोकिलाऽऽदिजीवेन्योऽभिन्नमेव, नष्टं, ततश्च तत्तस्मात्पृथस्नृतत्वानोजविः कस्मानोच्यते?, यथा तत्संबद्धत्वाद्, अतो जीव एव तत्, न तु नोजीब इति द
घटचिन्नत्वात्पृथग्भूतं रथ्यापतितं घटखएमं घटैकदेशत्वानोशयन्नाह
घटः?, तदयुक्तम् । कुतः१, इत्याहगिहकोलियाइपुच्छे, बिन्नम्मि तदंतरालसंबंधो। दब्बामुत्तत्ताऽकय-भावादविकारदरिसणाओ य । मुत्तेऽनिहियो सुहुमा-ऽमुत्ततणो तदग्गहणं ॥२४६४॥ अविणासकारणाहि य,ननसोन न खंमसोनासो श्व६७। गृहकोकिलाऽऽदीनां पुच्चाऽऽदिकेऽवयवे बुरिकाऽऽदिना नि.
खरमशो जीवस्य नाशो न भवतीति प्रतिज्ञा, अमूर्त द्रव्यत्वा. नेऽपि तयोगृहकोकिलापुच्छाऽऽदिवस्तुनार्यदन्तरानं विचालं त.
द्कृ तकभावात्-अकृतकत्वादित्यर्थः। तथा-घटाऽऽ कपात्रजीवप्रदेशानां संबन्धः संयोगस्तदन्तरालसंबन्धः स्त्रेऽभि
लाऽऽदिवाद्विकारदर्शनाभावाद्, अविनाशकारणत्वाच-विनाशहित पव। तथा च जगवतीसूत्रम्-"अह भंते ! कुम्मा कुम्माव
कारणानामग्निशस्त्राऽऽदीनामभावाश्चेत्यर्थः,श्त्येते हेतवः। सर्वेषु लिया, गोहा गोहावलिया, गोणे गोणावलिया, मणुस्से
नजस इव इति दृष्टान्त ति ॥ २४६७ ॥ मणुस्सावलिया, मदिसे महिसावलिया, पपाल णं दुहा
खण्डशो नाशे च जीवस्य दोषानाहवा, तिहा वा, असंखेजहा वा चिन्नाणं जे अंतरा, ते विणं नासे य सव्वनासो, जीवस्स नासो य जिएमयच्चाओ। तेहिं जीवपएसेहिं फुडा? हंता फुडा। पुरिसे ण नंते अंतरे द. तत्तो य अणिम्मोक्खो, दिक्खावेफल्लदोसाय४ि९) स्थण वा, पाएण वा, अंगुलियाए वा, कोण वा,किलिंचेण वा, आमुसमाणे वा, संमुसमाणे वा, प्रालिहमाणे वा, विमिहमा
शस्त्रच्छेदादिना जीवप्रदेशस्य नाशे चेष्यमाणे क्रमशः स. णे बा, अभयरेण वा तिक्खेणं सत्थजापणं आच्चिदमाणे वा,
र्वनाशोऽपि कदाचित्तस्य भवेत् । तथाहि-यत् खएमशो नविचिदमाणे वा, अगणिकापणं समोटुहमाणे तेर्सि जीवपएसा
श्यति तस्य सर्वनाशो दृष्टः, यथा घटाऽऽदे, तथा च त्वये. रणं किंचि श्रावाई वा विवाहं वा नपाए,विच्छेयं वा करे।
प्यते जीवः, ततः सर्वनाशस्तस्य प्राप्नोति । नवत्वेतदपि, किं नो इण समानो खलु तत्य सत्यं संकमाइ।" इति। यदि ना.
नः सूयते, इति चेत् । तदयुक्तम् । कुतः, इत्याह-(नासो मैवं सूत्रे जीवप्रदेशानां तदन्तरालसंबन्धोऽनिहितः, तर्हि त.
येत्यादि) स च जीवस्य सर्वनाशो न युक्तः, यस्माउिजनमदन्तराने ते जीवप्रदेशाः किमिति नोपलच्यन्ते?, इत्याह-(सु.
तत्यागहेतुत्वाजिनमतत्यागोऽसौ । जिनमते हि जीवस्य सतः हुमेत्यादि) कामेणशरीरस्य सूक्ष्मत्वात् , जीवप्रदेशानां चा.
सर्वथा बिनाशोऽसतश्च सर्वधोत्पादः सर्वत्र निषिक एव । य. मसत्वादन्तराले तेषां जीवप्रदेशानां सतामध्यग्रहणं तदग्रहण
दाह-"जीबा णं भंते! किं वहृति, हायति, अवठिया ?। गो.
यमा! नो वहुंति, नो हायति, अवट्टिया।" इत्यादि । अतो मिति ॥२४६४॥
जीवस्य सर्वथा नाशेऽभ्युपगम्यमाने जिनमतत्याग एव स्याननु यथा देहे पुच्चऽऽदीच स्फुरणाऽऽदिभिर्सिङ्गैर्जीवप्रदेशा गृह्यन्ते, तथा सन्तोऽप्यन्तराले किमि
त् । तथा ततस्तत्सर्वनाशादनिर्मोको मोवाभावः प्राप्नोति, मु.
मुकोः सर्वथा नाशात् । मोकानावे च दीकाऽऽदिकष्टानुष्ठानवै. ति ते न गृह्यन्ते ?, श्त्याह
फल्यं, क्रमेण च सर्वेषामपि जीवानां सर्वनाशे संसारस्य शून्यगमा मुत्तिगयाओ, नाऽऽगासे जह पश्चरस्सीयो । ताप्राप्तिः, कृतस्य च शुभाशुभकर्मणो जीवस्य सर्बनाश एवतह जीवनक्खणाई, देहे न तदंतराझम्मि ॥२४६॥ मेव नाशात्कृतनाशप्रसङ्ग इत्यादि बाच्यमिति न जीवस्य श्वभूकुड्यवरएमकान्धकाराऽदीनि वस्तुन्येव मूत्तियोगान्मू
खण्डशो नाशः। गृहकोकिलाऽऽदीनां पुच्चाऽऽदिखएमस्य पृथतिरुच्यते। ततश्च यथा मूत्तिंगता यथोक्तवस्तुगता एवेत्यर्थः,
ग्भूतत्वेम प्रत्यक्षत एव नाशो दृश्यत इति चेत् । तदयुक्तम् । प्रदीपरइमयो ग्राह्या नवन्ति, न तु केवल आकाशे प्रसूताः, त.
औदारिकशरीरस्यैव हि तत्खएममध्यकतो वीक्ष्यते, न तु जी. था तेनेव प्रकारेण जीवो लक्ष्यते यैस्तानि जीवनकणानि
वस्य, तस्यामूर्तत्वेन केनाऽपि खएमयितुमशक्यत्वादिति । भाषणोच्चासनिःश्वासघाबनवल्गनस्फुरणाऽऽदीनि देव पव
अथात्रैव पराभिप्रायमाशङ्कच दूषयतिगृह्यन्ते, न तु तदन्तराल ति ॥ २४६५॥
अह खंधो इव संघा-यभेयधम्मा स तो वि सम्वेसि ।
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( २३६३) अभिधानराजेन्द्रः ।
तेरासिय
अवरोप्पर संकर, सुहागुणसंकरो पत्तो ।। २४६७ ॥ अथ पुद्गलस्कन्ध श्व सावयवत्वात्स जीवः सङ्घातभेदधर्माउज्युपगम्यते यथा कचिद्विवचितलस्कन्धेऽन्यस्म्यगतं खण्डं समागत्य संदन्यते संबध्यते, तद्गतं च खण्डं निवाऽन्यत्र गच्छति, एवं जीवस्याप्यन्यजीवखण्डं संहन्यते, तद्गतं तु भिद्यत इत्येवं सङ्घातनेदधर्मा जीव इष्यत इति । अतः खएमशो नाशेऽपि संघातस्यापि सद्भावान्न तस्य सर्वनाश इति परस्याभिप्रायः । श्रत्र दूषणमाह- ( तो वि सव्वेंशियादि ) एवमपि च सति सर्वेषामपि सर्वलोकवर्तिनां जीवाना परस्प रसतः सुखादिगुप्राप्तः इदमुम्नयति यदेकं जी वसंबन्धि शुभाशुभकर्मान्वितं खएममन्यजीवस्य संबध्यते, भ
संधि तु खराडं तस्य संबध्यते, तदा तत्सुखाऽऽदयो यस्य प्रजन्ति, अन्यसुखाऽऽदयस्तु तस्य इत्येवं सर्वजीवानां परस्परं सुखादिगुणाइये स्वात् तचैकस्य कृतनाशः अन्यस्याकृताभ्यागम इत्यादि वाच्यमिति ॥ २४६६ ॥
अन्यमपि पराभियमाशङ्कच दूषणान्तरमाहयह निकोव तो नोजीवो तो पप्पएसं ते । जीवम्पि असलेला, नोजीचा नत्यि जीवो ते || २४७०|| अयेतद्दोषभवान्न जीवस्य देवोऽयुपगम्यते किं स्वि यो जीव संबद्धोऽपि तकोसी जीवदेशी गोजी स्वयेष्यते यथा धर्मास्तिकायाऽऽद्येकदेशकायादि॥ ततस्तदि प्रतिप्रदेशे ते तब नोजीवसद्भावादेकैकस्मिन्नात्मन्यसंख्येया नोजीवाः प्राप्ताः, ततस्ते तव नास्ति वाऽपि जीवसंभवः, सर्वेषामपि जीवानां प्रत्येकम संख्येनोजीवत्वप्राप्तेरिति ॥ २४७० ।।
दूषणान्तरमपि प्रसञ्जयन्नाह-एमजी विपयसभेषण नोजीवति | नस्थि जीवा केई, कयरे ते तिन्निरासित्ति ? ॥ २४७१ ॥ एवमजीवा अपि धर्मास्तिकाय काय घरऽऽयथ प्रतिप्रदेश भेदतोऽजीवैकदेशत्वाद गोजीबा देशनोति अतोऽजीवाः केचनानि सन्ति परमाणू नामपि पुरुतास्तिकापलाजीयेकदेशवेन नोऽजीवर वारस वैत्र नो जीवानामेवोपपद्यमानात कवरे ते प्रयो राशयःवया ये राजसभायां प्रतिष्ठिता, उन्हयायेन नोजीवनम जीवणराशिद्वयस्यैव सद्भावात् इति । तस्मादू बहुदोषप्र सङ्गान्न जीवश्छिद्यत इति स्थितम् || २४७१ ।।
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बासी तथापि न जीवसिद्धिरिति दर्शयन्नाद
छिलो व होड जीवो कोनोमीयो । एवमजीवस्स विदेसो तो नोजीवो ति॥२४७२ || एवं पराते, न निचिचारि संसति । जीवा तहा अजीवा, नोजीका नोअजीवा य || २४७३ || नोऽपि तु गृहको किलादि जी यः केवलं तस्य जीवस्य यानि स्फुरणादीनि यस्यासौ क्षणोऽपि सन्नसी पुराऽऽदिदेशः कथं केन हेतुना मोजो भते । नबति-सम्पूर्णोऽपि कोकिलाजीव
तेरासिय
स्फुरणाऽऽदिलक्षणैरेव जीवो भएयते, स्फुरणाऽऽदीनि च तकपानि जिन्नेऽपि पुच्छाऽऽदिके दृश्यन्ते अस्कृण युक्तोऽप्यसौ किमिति जीवोन भण्यते, येन नोजी कल्पनाऽत्र विधीयते इति (अपमिति) चै
रपि पुच्छाssदिकस्तदवयवो नोजीब एवेष्यते, न पुनः स्वाग्रहस्त्यज्यत इत्यर्थः । अत्र सूरिराह ( तो त्ति ) ततस्तर्हि अजीबस्थापि घारेंशो नोअजीवः प्राति जनकदेशनोजीचदिति निश्यतीति चेत् नैवम् । कुतः ?, इत्याह-- ( एवं पीत्यादि) एवमप्यभ्युपगम्यमाने ये भवतात्रय एव राशय इष्यन्ते, ते न घटन्ते, किं तु चत्वारो राशयः संप्रजन्ति । तद्यथा जीवाः, तथा श्रजीवाः, नोजीवाः, नो जीवाश्चेति ॥ २४७२ || २४७३ ॥
त्रयः परस्य परिहारस्तस्य स्वपकेऽपि समानतां दिदर्शयिषुः सूरिराहू
अह ते अमीषदेसो, गो नि । जिओ वीचि, न जीवदेसो वि किं जीवो। २४७४ | अयते तथाजीव जीवरकन्या देवेश एकदेशो भिन्नोऽपि स्कन्धात्यन्तो न तु नो अजीब कुतः इत्याहजीवन सामान्ये जाताजी सामान्यजातिङ्ग इति कृत्वा । तत्राजीवत्वं जातिः पुंखिङ्गकणं च लिङ्गम् ! पन्चद्वयमप्यजीवदेशयोः सामान्यमेत्र, ततस्तद्देशोऽध्यजीव एव । इन्त ! यद्येवं तर्हि जीवदेशोऽपि किमिति जीवो नेष्यते, तस्याऽपि जीवेन समानजातिलिङ्गत्वादिति || २४७४ ॥ गाथाचतुर्थपादोक्तमेवार्थ प्रमाणेन षढयन्नाहछिमगिफोनिया विहु जीवो मक्ख
सयलो ।
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अह देखो चिन जीवो, अजीवदे से सिनोऽमी २४७५ । निगृहको किलाsपि विन्नः पुन्नाssदिको गृहकोकिलाऽऽदिजीवावयवोऽपीत्यर्थः । किम् ?, इत्याह-जीवः, इति प्रतिज्ञा । हेतुमाह - (तल्लक्खणेहिं ति) तल्लकणैर्हेतुभूतैः- स्फुरणाऽऽदितल्लकणयुक्तत्वादित्यर्थः। (सयलो व त्ति) यथा सकलः परिपूर्णो ऽडिकोकिलादिजीवत्यर्थः परान्तः अथ गृदको किला छ। दकस्तदवयवो देश प्रतिकृत्यान जीव इष्यते, संपूर्ण स्यैव जीवत्वात्, यद्येवमजीवस्यापि घटा
देशीयः प्राप्नोति सम्पूर्णस्यैवाजयत्वात् । ततोऽयमजीवदेशोऽपि नोअजीव एव स्यात्, न त्वजीवः । तथा च सति स एव राशिचतुष्टयप्रसङ्ग इति ॥ २४७५ || यदुक्तम् -" इच्छा जीवपपसं, नो जीवं जं च समभिरूढो वि । " ( २४६२ ) इत्यादि । तत्राऽऽद
नोजीवं तिन जीवाद देस मिह समभिरुवि । इच्छह बेड़ समासं, जेवण समाग्राहिगरणं सो || २४७६ ।। जीवे य से परसे, जीवपए से एव नोजीवो। इच्छ न य जीवदलं, तुमं व गिफोसिया पुच्छं । २४७७ । न य रासिज्ञेयमिच्छइ, तुमं व नोजीवमिच्छमाणो वि ।
विनम्रो नेच्छ जीवाजीवाहिय किंपि । २४७० "जीने य से परसे य से सपपसे नोजीये" पत्रानुयो गद्वारोकसूत्रालापके समनिरूपोऽपि नोजीवमिति मे
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(२३६४) तेरासिय अभिधानराजेन्डः।
तेरासिय तीति संबन्धः-नोजीवत्वेन नेच्छतीत्यर्थः । के कमंताsप. जइसिन सत्तो सोउं, तो निग्गिएहामिणं कद्धं ॥श्चन्ए॥ नाम ? । देशम् । कथंभूतम? । जीवादन्यं जीवाद्यतिरिक्तं देशं |
प्रकटार्था एवैताः, नवरम्-(बहुजणनाओऽवसिओ त्ति) नौजीवं समभिरुदनयोऽपि नेच्कृति-किं स्वव्यतिरिक्तमेव तं
बहुजनस्य ज्ञातो विदितोऽवसितो मया जितः सनग्राह्यवचतस्मादिच्छतीत्यर्थः । कुत एतद्विज्ञायते?,त्याह-येन कारणेन
नः सर्वस्याऽपि भविष्यति । (तो बन्लसिरिनिवपुरो त्ति)त. देशदेशिनो कर्मधारयलकणं समानाधिकरणमेव समासमा तो बलश्रीनाम्नो राकः पुरत इत्यर्थः । (नाओवणीयमग्गाणं समभिरूढनयो ब्रवीत्यच्युपगच्छति, न पुन:गमाऽऽदिरिव त- ति) नीयते संवित्ति प्राप्यते वस्त्वनेनेति न्यायः प्रस्तुतार्थत्पुरुषमित्यर्थः । समानाधिकरणसमासश्च नीलोत्पलाऽऽदीना- साधकं प्रमाणं, येनोपन्यस्तेन सतोपनीतो दौकितः प्रसङ्गेना55. मिन विशेषणविशेष्याणामनेद एव भवति । अतो कायते-जीवा
गतः सकलस्यापि तस्य मार्गों येषां वे तथा, तेषां न्यायो. दनन्यरूपमेव देश नोजीवमिच्छति समनिरूढ इति, एवं कथं
पनीतमार्गाणां रोहगुप्तश्रीगुप्तसूरीणामिति । तृतीयराशिः स्याद् ?, इति । तदेव समभिरूढाभिमतं समाना
ततो द्वितीयदिने किमनूदित्याहधिकरणसमासं दर्शयति-(जीवे य से इत्यादि) जीवश्चासौ प्रदेशश्च जीवप्रदेशः, स एव (नोजीवो त्ति) स एव जीवादव्य
बीयदिणे बेड गुरू, नरिंद ! जं मेणीऍ सन्न्यं । तिरिक्तो जोबप्रदेशो नोजीव इत्येवमिच्कृति समनिरूढनयः, न
तं कुत्तियावणे स-ज्वमत्थि सवप्पतीयमियं ॥२४०६॥ पुनर्जीवदलं जीवात्पृथग्भूतं तत्खण्डं नो जीवमिच्छत्यसौ, यथा तं कुत्तियावणमुरो, नोजीवं देइ जइ न सो नत्थि । गृहकोकिसाऽऽदीनां पुच्छाऽऽदिखएम नोजीवं त्वमिच्छसीति । अह भणइ नत्यि तो न-स्थि किं व हेनप्पबंधेणं २८७ अपि च-मोजीवमिरछन्नपि समनिरूदनयो यथा त्वं तथा नो.
तं मग्गिजन मुद्दे-ण सव्ववत्यूणि किं त्य कालेणं । जीवराशेर्जीवाजीवराशिद्वयानेदं नेच्छति, किं तु जीवाजीबबरुण राशिद्वयमेवेच्छति, नोजीवस्यात्रैवान्तर्भावात् । तथाऽ.
श्य होन त्ति पवन्ने, नरिंदपश्चाइपरिसाहिं॥श्व ॥ न्योऽपि नैगमाऽऽदियो जीवा जीवेज्योऽधिकं किमपि मोजी- सिरिगुत्तेणं कलुगो, छम्मासा विकटिऊण वाएँ जिओ। ववस्तु नेत्येव । ततस्वदीय एवायं नूतनः कश्चिन्मार्ग इति ।। अहरण कुत्तियावण, चोयालसएण पुच्चाणं ॥२४॥ तथाऽज्युपगम्यापि सूरिराह
द्वितीयदिने ब्रवीति गुरुः श्रीगुप्तसूरिः-नरेन्ड ! पृथ्वीपते ! वह इच्लर व समनिरूदो, देसं नोजीवमेगनश्यं तु ।
मेदिन्यां पृथिव्यां बस्किमपि सद्तं विद्यमाने वस्तु तत्स
र्वमपि कुत्रिकाऽऽपणेऽस्तीति सर्वजनस्य नवतां च प्रतीतमिच्छत्तं सम्मत्तं, सवनयमयाचरोहेणं ॥२४७४।।
मेवेदम् । तत्र फूनां स्वर्गपातालमर्त्यभूमीनां त्रिकं कुत्रितं जइ सम्बनयमयं, जिणमयमिच्छसि पवज्ज दो रासी। कम; तात्स्थ्यात्तवचपदेश इति कृत्वा, तत्स्थलोका अपि पयविप्पमिवत्तीए, वि मिच्चत्तं किं नु रासीसु? ॥२४॥ कुत्रिकमुच्यते, कुत्रिकमापणयति व्यवहरति यत्र दद्देइच्छतु वा समभिरूढनयस्त्वमिव जीवाद्भिन्नमपि तद्देशं नोजी
सौ कुत्रिकाऽऽपणः। अथवा-धातुजीवमूल लक्षणेच्यस्त्रिभ्यो ब, तथाऽप्येकनयस्येदं मतमैकनयिक, मिथ्यात्वं चैतच्छाक्य
जातं त्रिजे, सर्वमपि वस्त्वित्यर्थः। कौ पृथिव्यां त्रिजमापणयति मतवत्, इत्यतो न तत्प्रमाणीकर्तव्यम् । सम्यक्त्वं तु सर्वन
व्यवहरति यत्र हट्टेऽसौ कुत्रिजाऽऽपणः, अस्मिश्व कुत्रिकायमतावरोधेन समस्तनयमतसंग्रहेणैव नवति । ततो यदि
ऽऽपणे वणिजः कस्यापि मन्त्राऽऽद्याराधितः सिको व्यन्तरसर्वनवमयं जिनमतं प्रमाणमिच्छसि, तदा प्रतिपद्यस्व जीवा
सुरः क्रायकजनसमीहितं सर्वमपि वस्तु कुतोऽप्यानीय सं. जीवलक्षणो द्वावेव राशी । अन्यथा-"पयमक्खरं पि एक, पि
पादयति । तन्मूल्यद्रव्यं तु वणिगेव गृह्णाति । अन्ये तु बदन्तिजो न रोप सुत्तनिद्दिटुं । सेसं रोयंतो वि हु, मिच्छद्दिकी
पणिग्राहिताः सुराधिष्ठिता एव ते आपणा भवन्ति । ततो मूल्या मुणेयम्बो ॥१॥" इत्यादिवचनात्पदविप्रतिपल्याऽपि मिथ्यात्व
व्यमपि सव व्यन्तरसुरःस्वीकरोति। पते च कुत्रिकाऽऽपणा: मापद्यते, किमुत सकलेषु राशिषु विप्रतिपल्या तन्ननविष्य
प्रतिनियतेम्वेवोजयिनीभूगुकच्छनगराऽऽदिस्थानेषु कापि कियति?, इति ॥२०॥
न्तोऽप्यासन्नित्यागमेऽभिदितम् । ततस्तस्मात् कुत्रिकाऽऽपण
सुरो यदि मूल्येन याचितः सन् नोजीवं जीवाजीवव्यतिरिक्त तदेवं युक्तिभिर्गुरुणा संबोध्यमाने रोहगुप्तेऽग्रतः किं
बस्तुरूपं कमपि ददाति, तदाऽसौ न नास्ति, अपि तु निर्विवा. संजातम् ?, इत्याद
दमस्त्येव । अथायमेव वदति-नास्ति तद्व्यतिरिक्तः कोऽपि एवं पि जलमाणो, न पवजा सो जो तो गुरुणा । नोजीबः, तदा नास्त्येवा ऽसौ, किं तन्नास्तित्वसाधनाय युष्मकाचिंतियमय पण्डो, नासिहई मा बढुं लोगं ॥२४८॥ ज्यप्रयोजनततिकारिणा क्वेशफलेन हेतुप्रबन्धोपन्यासेन, तो णं रायसनाए, निग्गिबहामि बहुलोगपञ्चक्खं ।
शति । तत्तस्माद याच्यन्तां मूल्येन सर्ववस्तूनि कुत्रिकाऽऽपणसु
र, किमत्र कालेन कालविलम्बेन, इत्यर्थः । एवं गुरुभिरुक्त बहुजणनाओऽवसिओ, होही अग्गेज्कपक्खो तिश्च२
बनश्रीनरेखण, प्रतिवादिना रोहगुप्तेन, सत्यपर्षदा च युक्ति- तो बलसिरिनिवपुरओ, वार्य नाअोवणीयमग्गाणं । युक्तत्वादेवं नवतु इति प्रतिपन्ने श्रीगुप्ताऽऽचार्येण पदुलूको कुणमाणाणमईया,सीसाऽऽयरियाण उम्मासा ॥४॥
रोहगुप्तः पूर्व षण्मासान्विकृष्यातिबाह्य वादे जितोनिगृहीतः। एको वि नावसिज्जइ, जाहे तो भणइ नरवई नाई।
केन, इत्याह-कुत्रिकाऽऽपणे यानि वक्ष्यमाणभूजलज्वलनान
चाहरणानि उदाहरणानि तद्विषयपृच्चानां चतुश्चत्वारिशन सत्तो सोउं सीयं-ति रज्जकजाणि मे भगवं॥२४॥
शतेन, प्राकृतशैल्या छन्दोबन्धाऽऽनुलोम्यावार्षत्वादत्र व्यत्ययेन गुरुणाऽभिहिम्रो भो , सुणावणत्यमियमेचियं चणिय। निर्देश इति ॥ २४८६ ॥ २४८७ ॥ २४०८ ॥ २४८६॥
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तेरासिय अभिधानराजेन्डः।
तेरासिय कथं पुनरिदं चतुश्चत्वारिंशं शतं पृच्छानां भवतीत्याह- नोजीवं याचितो यद्यसौ जीवाजीवव्यतिरिक्तं तं दास्यति नूजलजन्मणानिलनह-कालदिसाऽऽया मणो य दवाई।।
तदाऽयमस्ति, नान्यथा इत्येवमेव प्रतिज्ञातत्वात् । ततो याचना
अलतास्तत्वतः पृच्छा एवेत्यदोषः। नन्नति नवेयाई, सत्तरस गुणा इमे अन्ने ॥ २४ए० ॥
कथं पुनरेताः कुत्रिकाऽऽपणसुरस्य पृच्छाः कृताः?, इत्याशङ्कच रूवरस-गंधफासा, संखा परिमाणमहमह पुहुत्तं च ।
दिग्मात्रोपदर्शनार्थमाद्यं पृथ्वीनक्षणं भेदमधिकृत्याऽऽहसंजोगविनागपरा-परत्तबुद्धी सुहं मुक्खं ॥२६१ ।।
पुढवि त्ति देश बेई, देसो वि समाणजाइलिंगो त्ति । इच्छा दोसपयत्ता, एत्तो कम्मं तयं च पंचविहं ।
पुढवि त्ति सो अपुढविं, देहि त्ति य देइ तोयाऽऽ वह। उक्खेवणऽवक्खेवण-पसारणाऽऽकुंचणं गमणं ।श्चहश
पृथ्वीं याचितः कुत्रिकाऽऽपणसुरोटेष्टुं ददाति । पाह-अप्रस्तुत. सत्ता साममं पि य, साममविसेसया विसेसो य।
मिदम्, अन्यस्मिन्याचिते अन्यस्य प्रदानात। नैवम् । कुतः?, इत्यासमवाओ य पयत्या, छ च्छत्तीसप्पभेया य ॥२४६३॥ ह-( देसो वीत्यादि ) देशोऽपि बेष्टुलकणः (पुढवि त्ति) पृथिपगई अगारेण य, नोगारोजयनिसेहो सके । व्येव मन्तव्या, पृथिवीत्वलक्वणाया जातेः स्त्रीमिङ्गलकणस्य गुणिया ओयालसयं, पुच्छाएं पुच्छिो देवो ॥२४
लिङ्गस्य च समानत्वात् । इह यत्र पृथ्वीत्वजातिः स्त्रीलिङ्गं च ॥
वर्तते तत् पृथिवीति व्यवहर्नव्यं, यथा- रत्नप्रभाऽऽदि, तथा च इह व्यगुणकर्मसामान्यविशेषसमवायत्रक्षणाः पम् सूत्रपदा
बेष्टुः, तस्मात्पृथ्वीति । अधिवी देहीत्येवंयाचितोऽसौ देवस्तोस्तेिन षडुबूकेन कल्पिताः । तत्र द्रव्यं नवधा। कथम्?, इत्या.
याऽऽदि प्रयच्छति ॥ २४५५ ॥ ह-(भूजलेत्यादि )तूमिः, जलं, ज्यवनः, अनिलः,ननः, कालः,
नोपृथ्वीं याचितस्तहि किं ददातीत्याहदिक, आत्मा, मनश्चेत्येतानि नव व्याणि भण्यन्ते । गुणाः सप्तदश भवन्ति । तद्यथा-रूप, रसा, गन्धः, स्पर्श, संख्या, देसपमिसेहपक्खे, नोपुढविं देश सेट्ठदेसं सो। परिमाणं, महत्व, पृथक्त्वं, संयोगः, विभागः, परापरत्वे, लेहदवावेक्खो, कीरइ देसोश्यारो से ॥१६॥ बुद्धिः, सुखं, पुःखम्, इच्छा, द्वेषः, प्रयत्नश्चेति । इतः कर्म । त.
इहरा पुढवि चिय सो, लेटु व्व सपाणजाइलक्षण ओ। त्पुनः पञ्चविधम् । तद्यथा-उत्क्षेपणम, अवक्षेपणम, आकुञ्चनं,
लेहदनं ति व देसो, जई तो ले वि जूदेसो ॥ ४॥७॥ प्रसारणं, गमनमिति । सामान्यं त्रिविधम् । तद्यथा-सत्ता, सामान्यं, सामान्यविशेषचति । तत्र व्यगुण कमल कणेषु त्रिषु
नोशब्दस्य देशप्रतिषेधपके नोपृथ्वी याचितोऽनन्तरमेष पदार्थेषु सद्बुकिहेतुः सत्ता । सामान्य व्यत्वगुणत्वाऽऽदि ।
समस्त पृथ्वीत्वेनोपचरितस्य लेष्टोरेव देशं तत्खएमरूपं ददा.
त्यसौ देवः । श्राह-ननु देश निषेधपके नोपृथ्वी तद्देश एव सामान्यविशेषस्तु-पृथीस्वजनत्वकृष्णत्वनीत्वाऽऽद्यवान्तरसामान्यरूप इति । अन्ये वित्थं सामान्यस्य त्रैविध्यमुपवर्णयन्ति.
गृह्यते, यस्तु लेष्टुदेशः स पृथिवीदेशस्याऽपि देश एव, न तु अविकल्पं महासामान्यं, त्रिपदार्थहेतुसद्बुमिनूता सत्ता, सामा
पृथ्वीदेशः, तत्कथं नोपृथिवीं याचितस्तं ददाति ?, इत्याहन्यविशेषो व्यत्वाऽऽदि। महासामान्यसत्तयोचिशेषणव्यत्यय
(बेवुदब्वेत्यादि ) लेवुद्रव्यापेक्षः 'से' तस्य लेछुदेशस्य इत्यन्ये । व्यगुणकर्मपदार्थत्रयसवुछिदेतुः सामान्यम्, अवि
देशोपचारः क्रियते । इदमुक्तं भवति--लेष्टा तावदनन्तरोक्तयु. कल्पा सत्तेत्यर्थः। सामान्यविशेषस्तु व्यत्वाऽऽदिरूप एव । ३.
क्तेः सम्पूर्णपृथ्वीव्यत्वमारोपितं, ततो लेष्टुलकणपृथ्वीव्यात्य प्रसङ्गेनेति । विशेषश्चान्त्यः । समवायपदार्यश्चेति । तदेव
पेकया तद्देशस्याऽपि पृथ्वीदेशत्वमुपचर्यते, इतरथा अन्यथा मेते व्याऽऽदयः षट् पदार्थाः पत्रिंशत्प्रजेदाः-नवानां व्यायां,
पुनः परमार्थतो लेटुवत्समानजात्यादिलकणत्वादिति पूर्वोक्तसप्तदशानां गुणानां, पञ्चानां कर्मणां, त्रयाणां सामान्यानां,
हेतोः सोऽपि लेवेशः पृथिव्यव मन्तव्या । अथ पराभिप्रायमाविशेषसमवाययोश्च मीलने ट्त्रिंशद्विकल्पा भवन्तीत्यर्थः । विष्कृत्य परिहारार्थमाह-(लेख्दल ति व देसो जत्ति) यदि तु पते च सर्वे प्रकृत्या, अकारण नोकारेण, उभयनिषेधतश्चेत्येते. नो पर ! त्वं मन्यसे--योऽयं लेष्टोर्देशः स दल लेधोरेव श्चतुर्भिः प्रकारेगुणिताः सन्तो यच्चतुश्चत्वारिंश शतं पृच्छानां स्त्र एममात्र, ततः समानजातिलकणत्वेऽपि नाऽसौ पृथ्वीति । भवति तत्पृष्टः कुत्रिकाऽऽपणदेवः । इदमत्र हृदयम् नहितं शुरूं अत्र परिहारमाह-( तो लेछ वि नदेसो ति) ततस्तहि पदमिह प्रकृतिरुच्यते, तया शुद्ध पदरूपया प्रकृत्या पृधिव्या
" पुढघि त्ति देश बे देसो वि " इत्यादौ यः पूर्व लेष्टुः दयः पदार्थाः पृच्छ्यन्ते । तद्यथा-" पृथिवीं देहि " इत्यादि।
पृथ्वीत्वेनोक्तः सोऽपि जुवः पृथिव्या देश एव । ततस्त्वदतथा लुप्तस्य नञः स्थाने योऽकारस्तेन चाकारेण संयुक्तया प्रक
निप्रायेण सोऽपि पृथ्वीदलरूपत्वाद् न पृथ्वी, लेछुदेशवदित्या पृच्छा विधीयते । यथा-'अपृथिवीं देहि' इत्यादि । तथा नो
ति ।। २४५६ ॥२४ ॥ कारण संयुक्तया प्रकृत्या पृच्छा । यथा-'नोपृथ्वी देहि इत्यादि ।
___ अस्त्वेवमिति चेत् , तदयुक्तम् । कुतः ?, इत्याह.. तथा नोकाराकारलकणं यदुभयं तेन योऽसौ प्रकृत्या निषेधः तस्माच्च पृष्टः सुरः । यथा-"नोअपृथ्वीं देहि" इत्यादि । एवं ज.
देहि नुवं तो जणिए, सव्वाऽऽणेया न यावि सा सव्वा । साऽऽदिष्वपि प्रत्येकमेते प्रकृत्यकारनोकारोभयनिषेधलकणाश्च- सक्का सक्कण वि या-णेउ किमयावसेसेणं? ॥२४ ॥ त्वारः पृच्छाप्रकारा वक्तव्या इति । एतदभिप्रायवता प्रोक्तम्- | यदि लेन पृथ्वी, ततस्तहि भुवं देहीत्युक्ते सर्वाऽपि संपूर्णा (सब्वेगुणिय त्ति) आह-ननु " पृथ्वी देहि " इत्यादिका या- साऽऽने या प्रसज्यते, न च सा सर्वा शक्रेणाप्यानतुं शक्या, चना एवं कथं प्रगः प्रोच्यन्ते ?। सत्यं, किं तु 'पृथ्वीं देहि' इ. | किमुतावशेषेण कुत्रिकाऽऽपणदेवाऽऽदिमात्रण ?, इति । तहि कित्यादियाचनाद्वारेण पृथिव्याचस्तित्वमेवासी देवः पृच्छचते, मत्र तखम् ?, इति भवन्त एव कथयन्तु इति ॥ २४ ॥
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(२३६६) तेरासिय प्राभिधानराजेन्द्रः ।
तेरासिय इत्यं प्रेरके उपसन्ने दृष्टान्तोपन्यासद्वारेण सारः प्रस्तुता
ति याचिते जलाऽऽदिरूपा पृथिव्यकदेशं देवो ददातीनिर्णयमाह
त्यर्थः ॥ २५०२ ॥ जह घढमाणय भणिए,न हि सव्वाऽऽयणसंजयो किंतु।
अथ प्रस्तुतार्थतात्पर्यमाह
नवयाराओ तिविहं, जुवमभुवं नोजुवं च सो दे । देसाइविसिटुंचिय, तमत्थवसओ समप्पे ॥ २४ ॥
निच्चयो जुवमनुवं, तह सावयवाइँ सवाई ॥२५०३।। पुढवि त्ति तहा भणिए, तदेगदसे वि पगरणवसाओ।
स कुत्रिकाऽऽपणदेवो याचितः सन् वस्तु ददाति कतिविधम्?, लेझुम्मि जायऽ मई, जहा तहा सेट्टदेसे वि ॥ २५०० ॥ किंवा तत? , इत्याह--त्रिविधं त्रिप्रकारं, चतुर्थस्य नोअयथा सामान्यम घटमानय[पटमानय] इत्युक्तेऽपि न खलु सर्व- नूपकस्य प्रथमपक्क एवान्तर्भावात् । तत्र भुवं लेटुम्, अनुवं स्याऽपि घटस्य सामान्यतयैवाऽऽनयनसंभवोऽस्ति, किं तु सर्व. जलाऽऽदि, नोनुवं तूम्येकदेशं ददाति । कुतः?, इत्याद-उपचारास्याऽऽनेतुमशक्यत्वात्, प्रायः सर्वेण प्रयोजनाभावाञ्च, अर्थव- दु-व्यवहारनयमताऽऽश्रयणादित्यर्थः स एव हि देशदेशिव्यव. शारसामर्थ्यत एव नियतदेशका बाऽऽद्यवच्छिन्नं विशिष्टमेव क
हारं मन्यते, न तु निश्चय इति नावः । अत एवा 556--(निच्चञ्चिद् घटमानीय समर्पयति, तथाऽत्रापि पुथ्वी देहीति जणिते भो इत्यादि) निश्चयतस्तु तुबमभुवं चत्येवं झिविधमेव वस्तु सर्वस्या पानेतुमशक्यत्वात, प्रायस्तया प्रयोजनाभावाच, यथा ददाति, तृतीयस्य नोनपकस्य देशदेशिव्यवहार एवोपपद्यतदेकदेशेऽपि पृथिव्येकांशेऽपि लेष्टो देवस्य समर्पणमति.. मानत्वातू, तस्य च निश्चयनयेनानच्युपगमादिति । तदेव "नूजर्जायते । कुतः?, इत्याह-प्रकरणवशाद्, 'अनेनाऽपि तदेकदेशेन लजलण" (२४६०) इत्यादा पृथिव्याः प्रथम निर्दिष्टत्वात्तामधि. लेषुना प्रस्तुतार्थः सेत्स्यति' इत्येवं प्रस्ताववशादित्यर्थः । कृत्योक्तम् । अथ शेषाणि जलाऽऽदिवस्तून्यधिकृत्याऽऽह-(तह प्रकृतमाह-(तहा लेदेसे वित्ति ) यथा पृथिवी देहीत्युक्ते
सावयवाई ति )न केवलमित्थं भुवं ददाति, तथा शेषाण्यपि सति प्रतिपादितन्यायेन तदेकदेशेऽपि लेष्टौ समर्पणमति
जलाऽऽदिवस्तूनि "पगईप अगारेणं" (२४६४) इत्यादिप्रकारेण र्जायते । तथा तेनैव प्रकारेण नोपृथ्वी देहीत्युक्ते तत्खामरूपे
विशेष्य याचितः सन् व्यवहारनयमतेन यथोक्तविधिना त्रितदेकदेशेऽपि समर्पणबुद्धिरुत्पद्यत इति ।। २४६९ ॥२५०० ।।
प्रकाराणि ददाति । कुतः ?. इति चेत्। उच्यते-यतः सावयवानि
सदेशान्येतानि सर्वाण्यपि जलाऽऽदिवस्तूनि, अतस्तृतीयोऽपि आह-ननु " इहरा पुढवि चिय सो, लेहब्ब
देशविषयो दानप्रकार एतेषु संभवतीति भावः । निश्चयनसमाणजाइल क्खणभो।" (२४६७) इति
यमतेन तु देशदेशिव्यवहाराभावादेतान्यपि जबाऽऽदीनि द्विप्रवचनालेष्ट्येकदेशः पूर्व भवद्भिः पृथिवी
कारारपेव ददातीति । तदेवं सावयवे वस्तुनि प्रकारत्रयेण प्रकात्वेनोक्तः स कमिदानीं नोपृथिवी
रद्वयन च यथोक्तरीत्या दानं संभवति ॥ २५०३।। स्याद् ?, इत्याशझ्याऽऽह--
अथ निरवयवे वस्तुनि प्रकारद्वयेनेच दानसंजव ति लेहदव्बावेक्खाए, तह वी तद्देसनावो तम्मि ।
दर्शयन्नाद
जीवमजीवं दाउं, नोनीवं जाओ पुणरजीवं । उवयारो नो पुढवी, पुढवि च्चिय जाइलक्खणो २५०१॥
दे चरिमम्मि जीवं, न तु नोजीवं सजीवदनं ॥२५०४|| यद्यपि बेष्टुकदेशः पृथिव्येव, तथाऽपि (उवयारोत्ति ) त
जीवं देदीति याचितः सुरो जीव शुकसारिकाऽऽदिक दवा, स्मिन् सेष्ट्येकदेशे नोपृथिवीत्वस्योपचारः क्रियत इत्यर्थः । कया?,
'अजीवं देहि' इति याचितस्त्वजीवमुपलखएडाऽऽदिकं दावा कृ. श्त्याह-लेटण्यापेक्षया लेष्टोः प्रागुक्तन्यायेन यत्पृथिवीऽव्य
तार्थो जायते, नोजवं याचितः पुनरजीवमुपलखरामाऽऽदिकमे. त्वमारोपित, तदपेक्तयत्यर्थः। कुतः?, इत्याह-तद्देशभावतो लेछु
व ददाति, नोशब्दस्य सर्वनिषेधपरत्वात् । चरमे तु नोअजी७व्यैकदेशत्वादित्यर्थः । प्रागुक्तन्यायेन तावल्लेष्टुरेवेह पृथ्वी
बलवणे विकल्पे जीवमेव शुकाऽऽदिकं ददाति, द्वयोर्नोःप्रकृ. व्यं, तदक्कया च तदेकदेशे नोपृथ्वीत्युपर्यत इति भावः । तार्थगमकत्वात् , नोशब्दस्य च सर्वनिषेधकत्वादिति, न तु परमार्थतस्त्वियं लेष्ट्येकदेशलकणं नोपृथिव्येव मन्तव्यम्,
स कुत्रिकाऽऽपणदेवो जीवं जीवदलं जीवखण्डरूपं क्वापि समानजातिलक्षणत्वादिति को वैन मन्यते, अस्माभिरेव
विकल्पे ददाति । इति जीवाजीवरकणो द्वादेव राशी, न तु प्रागुक्तस्वात्, इदानीमपि च मर्यमाणत्वादिति ? ॥ २५०१ ॥
तृतीयः, असवात्, खरविपाणवदिति ॥२५.४॥ नोअकारोभयनिषेधपक्कमधिकृत्याऽऽह
ततः किमभूदित्याहपमिसेहगं पगई, गमे जं तेण नोअपुदवि त्ति। तो निग्महिमो छलुओ, गुरू वि सकारमुत्तमं पत्तो। भणिए पुढवि त्ति गई, देसनिसेहे वि तद्देसो।। २५०शा घिधिकारोवहो, बोविसभाहि निच्बूढो॥२५०५।। "द्वौ नौ प्रकृतमर्थ गमयतः" इति वचनाद् नोकाराकार.
ततो यदा कुत्रिकाऽऽपणसुरेण जीवव्यतिरिक्तो नोजीवो न दलकणं प्रतिषेधद्वयं यस्मात्प्रकृतिं गमयति-प्रकृतमेवार्थ प्रतिपाद
ता, असवात, तदा निगृहीतो निर्जितः षडबूकः । गुरुरपि यतीत्यर्थः। तेन कारणेन ' नोअपृथ्वी' इति नाणते नोशब्दस्य
श्रीगुप्ताचार्यों नरनाथाद् लोकाच सत्कारमुत्तमं प्राप्तः । षडलू. सर्वनिषेधपरत्वात् पृथिवीगतिर्भवति-पृथिव्याः प्रतिपत्तिर्भ
कोपि गुरुप्रत्यनीकत्वाज्जनप्रयुक्तधिकारोपहतो राजसभातो वतीत्यर्थः । (देसनिसेहे वि तद्देसो ति) देशनिषधेवाचके तु
निष्काशित इति ॥ २५०५॥ नोशब्दे तस्या जसाऽऽदिरूपाया अपृथिव्या एबोत्तरपदे भूयमा.
ततः किम् ?, इत्याहणाया देशस्तद्देशो गम्यते, देशनिषेधके नोशब्दे नोअपृथ्वी-
वाए पराजिमो सो, निविसओ कारिओ नरिंदेण । बाए पराजिमा सा, निाबस
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( १३६७ ) अभिधानराजेन्द्रः ।
तेरासिय
घोसावियं चनयरे, जय जिलो कमाणो चि २५०६ । तेथा जिनिवेसाओ, समयविगवियपयत्यमादाय
सेसि पणीयं फाकयमत्रमहिं ।। २५०७ ॥
स रोड गुप्त गुरुणा वादे पराजितः सन् नरपतिना निर्विषयः समाज्ञातः, पटहकेन च वाद्यमानेन घोषापितं समस्तनगरे "जयति जिनः श्रीमान्बर्द्धमानः" इति । रोद्गुप्तस्य च वादे निजितस्यापि प्रत्यनीको जितेन गुरुणा शि स्फोटितः । ततो भस्मरनिय तेनाभिनिवेशाथ कापतान्याऽऽदिपदार्थांनात्यवैशेषिकमतं प्रणीत धान्याऽऽदिनिरियन्तं कालं यावतिमानीत मिति || २५०६ || २५०७ ॥
ननु रोहगुप्त इत्येवास्य नाम, तत्कथं षमुलूक इत्यत्यागुकोऽसौ ? इत्याहनामेल रोडगुतो, गुत्तेशय झप्प सोओ। दव्वाsssछप्पयत्थो - वएसओ बलूओ त्ति ।। २५०८ || नानासी गोत्रेण च पुनरुको सम्भूत्वादसा कालयइन्यकर्मसामान्यविशेषमा
पदार्थप्ररूपणेन प्रधान उलूकः क इत्यं य दिश्यते ।। २५०८ ॥ विशे० । सूत्र० । कल्प० स० अ० म० । श्र० चू० । नपुंसके, पिं तेरितैरनिर्यग्योन त्रि० विर्यग्योनियो वस्तै स्थानः तिर्यग्योनिकृते विशे०
।
झ-पुं० प्रायम्। द्विस्य विकारः, अए तैल- न० । । " तैलाऽऽदौ वा " || ८|२६|| इत्यनादौ वर्तमानस्य व्यञ्जनस्य या विम्प्रा०२ पाद "तिलादिस्निग्धवस्तूनां स्नेह मुदाहृतम् । ” इत्युक्ते तिलसर्षपातसप्रिभृतीनां स्निग्धवस्तूनां स्नेहरूपे विकारे, वाव "बसारि दोति तेला, विल यसिकुसुंभसरिसवाणं च बिगोसाईन । वि गई भो ॥१॥ " पं०व० २ द्वार । स्था० । उत्तरत्र स्थितस्य चात्र संबन्धात् तैलानि चत्वारि जवन्ति । केषां संबन्धीनि । तत्राऽऽहतिला सर्वपाणां शेषाणां होलाऽऽदीनां मधूकफसाऽऽदीनाम, श्रादिशब्दा नालिकेर परएक शिशपाऽऽदीनां संबन्धीनि तैलानि न विकृतयः । प्रव० ४ द्वार घ० । अनु० सूत्र० । ज्ञा० । श्रा० चू० । निo चू० | नि० । श्रव० । तेलकेला तैलकेला - स्त्री० । सौराष्ट्रप्रसिद्धे मृन्मये तैलजाजनविशेषे, स च जङ्गभयात् सुष्ठु संगोप्यते । ज्ञा० १ ० १ ० । भ० । तं । नि० ।
तेल चम्मच १० तैलाभ्यस्य यत्र स्थितस्य संवाध ना क्रियते तचैलचर्म । ० १ ० १ ० । तैलायकस्य संवाधनाकरणसाधने चर्मणि, औ० ।
तेलुक - त्रैलोक्यन० श्यो बोकाखिलोका, त्रिलोकलाक्यम् । जादिवासनार्थे र प्रत्ययः नं०"" ॥ ८ । १ । १४८ ॥ इत्यादौ वर्त्तमानस्यैकारस्य त्वम् । प्रा० १ पा । त्रनपतिभ्यन्तरविद्याधरज्योतिष्क वैमानिकेषु, नं० । स्वर्गमत्यपातालगणे, ग०१० जुवनत्रये, प्रश्न०५ सम्बद्वार। "तेलुकणमिय कमजुयला । " त्रै.
तेलसुरभियाकरण
लोक्पेन स्पर्गमत्पाणेन विप्रापणेनेत्यर्थः । नमितं कमयुग येषां ते
अधि०। “ तेलुक्करंगमज्जे । " त्रैलोक्यमेव यो रङ्गः । मल्लयुद्धमएमपे, कल्प०५ कृण ।
तेलुकगुरु- त्रैलोक्यगुरु- पुं० । त्रैलोक्यवासिसत्वेभ्यो गृणाति शास्त्रार्थमिति वैगुरवः सद्गुणाधिकत्वाम्मासमीपस्थाद्वा । तीर्थकरेषु, पं० सू० १ सूत्र ।
तेयुकसि (ए) वैज्ञोक्पदानि पुं०, २० तेलुकनिरिक्खियमयि त्रैलोक्य निरीक्षितमहितपूजित० निरीहता महिला पूजिताश्रेति निरीक्षितमहितपूजि ये ते तपासण
-
ते कमत्थपत्थ- त्रैलोक्यमस्तकस्य पुं० [लोक्यस्य मस्तकं सर्वोपरिवर्ती सिद्धिक्षेत्रविभागस्तस्मिस्तिष्ठतीति त्रैलोक्यम. स्तकस्थः । बो० १५ विव० | सकललोकचूकामणिभूते, पं०
व० ४ द्वार ।
तेलुकसुंदर त्रैलोक्यसुन्दरपुं०
प्रधान, ०१५
विव० । त्रैलोक्यसुन्दरतायाम्, त्रैलोक्ये सर्वस्मिन्नपि जगति शेषवस्तुच्यः सुन्दरता शोभनता तां तथोक्ताम् । पो०१५ विव तेलोकदेवमपि त्रैलोक्यदेवमाद्दित पुं० हयनत्रयवासिभिः सुरासुरैरभ्यर्चितेषु, बृ० ३ उ० । त्रिभुवनवासिभिर्भवन पत्यादिभिर्देवैर्महितेषु व्य० २ उ० ।
तेल-तैल-पुं० । 'तेल' शब्दार्थे, प्रा० २ पाद | तेल केसा तैलकेला स्त्री तेलकेला शब्दायें, ०१
. ।
'
--
श्रु० १ ० ।
तेलग-तैलक-पुं० । सुराविशेषे, जी० ३ प्रति० ४ उ० । तेखचम्य-वैलचर्म १० 'तेलचम्म' शब्दार्थे ०१०१० तेसपन तैपन्य-२० तैलपेदाऽये सौराष्ट्रप्रसिके गृम्मवे । तैलस्य भाजनविशेषे, स च भङ्गनयात्सुष्ठु सङ्गोष्यते । दशा० १० अभ्या० ।
तेलपाश्या तैलपायिका - स्त्री० । जीवभेदे, "तेल पाइयातो तातो तिक्खेदि तुहि अतीव दंसंति ।" श्र० म० १ ० २ ख । तेपूप-तैलपूप पुं० तेप्रधाने पूरे चाचा २०१० १
अ० ६ उ० । जी० ।
तेलपाणात्रिय-तैलपूपसंस्थानसंस्थित-पुं० तैलेन प
पूलेन दि को प्रायः परिपूर्णो भवति न कति विशेषसाम्यम, तस्येव संस्थानं तेन स्थितः। तस्मिन् अत्र तैलादिवाकारस्य द्वित्वम् ज० १ वक० । जी० ।
मुग्गय वैज्ञसमुक पुं० सुगन्धितैलधारविशेषे उकं मायाम"समुद्रः सुगन्धिमा
रः । " जी० ३ प्रति० ४ उ० । रा० ।
ते सुरभियाकरण तैलसुरभिकाकरण नः श्रीणां पि त्कायां कलायाम्, कल्प० 9 कृण ।
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( २३६८ ) अनिधान राजेन्द्रः ।
तेलिय
तोय तैलिक० विक्रयकारिणि व्य० ६४० प्रा० । तेल्लोकविद्दियमहियपूइय- त्रैलोक्यविहितमहितपूजित - पुं० । त्रैलोक्येन त्रिलोकवासिना जनेन (विहियति ) समग्रैश्वर्या ऽऽयतिशय सदोददर्शनसमा अचेतसा हर्षनर निर्भरण प्रय लकुन्डलवलादनिमिषयोचनाचलोकित (मदिय ) से व्यतया वाञ्चितः पूजिता पुष्पाऽऽदिनिर्यः स तथा । तस्मिन्,
उपा० ७ श्र० ।
सेवा - त्रिचत्वारिंशत- "गोनाऽयः” । २। १७४॥ इति निपातनात् त्रिचत्वारिंशदित्यस्य ' तेवस' इत्यादेशः । त्र्यधिका यां चत्वारिंशत्संख्यायाम्, प्रा० २ पाद । तेरित्रिप्रति स्त्री०धिकायां सप्ततिसंख्यायाम्
कसकपत्रैलोक्य सत्कृत-पुं० लोकपूजिते, पा० । तेव-तथा-अव्य० । प्राकृतलक्कणेन निष्पन्नस्य तेम इत्यस्य "मोअनुनासिको वो वा " ॥ ८ । ४ । ३६७ ॥ इत्यपभ्रंशेऽनादौ व तमावस्यासंयुक्तस्य मकारस्यानुनासिको विकल्पेन का कचिल्लावणिकस्याऽपि । तेन प्रकारेणेत्यर्थे, प्रा० ४ पाद । तेग्ग-त्रिवर्ग-पुं० त्रयोगः लोकरूड्याधा
तोणीर - तूणीर - पुं० । “ श्रोत्कूष्मामी - तूणीर कूर्पर-स्थूल-ताम्बूल - गुड्न्री मूल्ये " ॥ ८ । १ । १२४ ॥ इत्युत श्रत्वम् । प्रा० १ पाद । इधौ, वाच० ।
मेषु, नं०
।
तेववि-त्रिषष्टि-स्त्री० [धिकायां पटिसंख्यायाम, "तेवडीव तोएम-तुराट" संयोगे | ७|१| ११६ ॥ इति सं " ॥ | राइदिएहि । " स० ६३ सम० । योगे परे श्रादेरुत श्रत्वम्। मुने, प्रा० १ पाद ।
तोतमी - देशी-करम्बे, दे० ना० ५ वर्ग ४ गाथा ।
तेत्रम - तावत् त्रि० । " वा यत्तदेतोर्देवडः " ॥ ८ । ४ । ४०७ ॥ इत्यपभ्रंशे तावतो वकारस्य मित्संहका पवड 'इस्यादेश प्रा० ४ पाद । तत्परिमाणवति, वाच० ।
6
,
०
७२ सम० ।
तेवीस त्रयोविंशति श्री० "त्ययादशाऽध्दी स्वरस्य सस्यव्यञ्जनेन " ॥ ८ । १ । १६५ ॥ इत्यादेः स्वरस्य परेण सस्वव्यजनेन सह पकारः । इयधिकायां विंशतिसंख्यायाम्, प्रा०
१ पाद ।
त्रयोविंशत्रि० । यधिकविंशतिसंख्यापूरके, प्रा० १ पाद तेवीसइम त्रयोविंशतितमत्रि व्यधिकविंशतिसंदापूरके
स्था० ६ ० ।
2
तेहि तेहि-य"
केहि तेहि-रे-रेखिता।" ॥ ८ । ४ । ४२५ ॥ इत्यपभ्रंशे तादर्थ्ये द्योत्ये ' तेहि ' इति निपातः । प्रा० ४ पाद ।
तेहु - तादृश त्रि०।":
यादृक्-- तादृक्-- कीदृगीदृशां दादेमेंहुः ॥ ८ । ४ । ४०२ ॥ इत्यपभ्रंशे दादेरवयवस्य मित्संज्ञक 'एहु' इत्यादेशः । तथाविधेऽर्थे, प्रा० ४ पाद ।
तो रामदा
।। 5 । ४ । ११६ ।। इत्यादिना ' तोड' इत्यादेशः । 'तोमइ' । तुडति । प्रा० ४ पाद । आचा० ।
"
तोमन-तोदन - न० । व्यथने, सूत्र० १० ५ ० १ ० | अस हने, दे० ना० ५ वर्ग १७ गाथा । तो महिया तोमद्दिकाखी० शेषे, आचा० २ श्रु० २ ० ४ श्र० । तोड़-तोड़ पुं० चतुरिन्द्रजी
खरमुदी हत्याये वाद्यवि
प्रा० १ पद
33
।
तो- तूण पुं० " स्थूणा तूने वा ॥ ८१ ॥ १२५ ॥ इति " तूणस्योत श्रोत्वम् । प्रा० १ पाद । शरभस्त्रायाम, शा० १ २०१ श्र० । शरधीत्यपरनामधेये वाणाऽऽश्रये, त्रिपा० १ ० ३० । जी० । इषौ, नि० १ ० १ वर्ग १ श्र० ।
14
3
तोतातिगतौतालिक पुं०। मीमांसकने नित्य निर शिवं यत्सुखं तद्व्यक्तिर्मुक्ति तौताविका द्वा०३१ द्वा सांगतोक ० उ० २००
-
तोमर-तोमर-पुं० । वाणविशेषे, जं० ३ बक्क० । प्रश्न०|आचा●| वयमासु "सूत्र०१
अखिति कौतोमर
श्रु० ५० १ ३० । श्रौ० 1
तोमर - देशी - शस्त्रप्रमार्जके, दे० ना०५ वर्ग ४ गाथा । तोमरी - देशी - वल्ल्याम्, दे० ना० ५ वर्ग १७ गाथा । तोय-तोय-न० । जले, व्य० २३० । आव० । व्यथायाम्, स्था०
66
४ ० ४ उ० ।
तोयधारा - तोयधारा - स्त्री० । ऊर्ध्व लोक वास्तव्यायां पञ्चम्यां दिक्कुमारिकायाम, प्रा० म० १ ० १ खरम । श्राव० ति० श्र० चू० जंग लोकादेयता नसमातृकम्त गन्धाम्बुपुष्पौध-वर्षे हर्षाद्वितेनिरे ॥ १ ॥ " ० क० । तोयपिट्ट - तोयपृष्ठ - न० । जलोपरितनभागे, औ० ।
तोरण - तोरण- न० | द्वारावयवविशेषे, पञ्चा० २ विव० | स्थान आचा० । रा० । प्रश्न० जी० । प्रज्ञा० औ० । स० । बहिद्वारे स्तम्नोपरिस्थे सिंहाऽऽकारे काष्ठे, द्वारबाह्यभागे च कन्धरायाम्, न० वाच० स्थान
तो - तस्मात् पुं० । “तदो डोः " ॥ ८ । ३ । ६७ ॥ इति तच्छब्दा- तोरणमादि-तारेणाऽऽदि - न० । इह मकारः प्राकृतत्वात्। डा
स्परस्य डसेर्डो इत्यादेशः । प्रा० ३ पाद | मं० ।
रायविशेषप्रभृतिषु, आदित्यदेव पुष्यकार एयादिपरिग्रहो भवति । पञ्चा० २ चित्र० ।
तो - देशी चातके, दे० ना० ५ वर्ग १८ गाथा ।
तोक - देशी.. श्रनिमित्ततत्परे, दे० ना०५ वर्ग १८ गाथा । सोड तुम धाने तु पर०-सक०सेद् "तुमेस्तोम०."
तोरामदा-त्वरामत्-न - न० । नेत्ररोगनेदे, "सन्जूकडक्खा तारामदा महालसा का विकासका।" महा० ३ ० ।
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तोल
(२३६५) अन्निधानराजेन्दः।
तोसिय सोन-तोल-पुं० । न० । मगधदेशप्रसिद्ध पले, तं० । गुञ्जाशी- | मख्याते प्राचार्य, प्राचा०ा अत्र कथानकामिदम-"तोसली नामातिपरिमाणे करें, वाच०। स्वार्थे कन्, एवुय बा। तोलकम- ऽऽचार्योऽरएयमहिषीभिः प्रारब्धः, तोसलिदश वा बह्वयो महिप्यत्र । वाचः।
प्यःसम्वन्ति, ताभिश्च कदाचिदेकः साधुरटव्यम्तर्वारब्धः। तोझण-तोलन-न•| माने, प्राचा०१७०४० १ ० । स च ताभिः कुद्यमानोऽनिर्वाहमवगम्य चतुर्विधाऽऽहारं प्रत्यापुरुषे, देना.५ वर्ग १७ गाथा ।
ख्यातवानिति । आचा०१ श्रु० ८ ० १ ००। तोवड-देशी-कर्णाऽऽभरणनेदे, कमलकर्णिकायां च । दे० ना०५सोसलिपुत्त-तोसलिपुत्र-पुं० । दशपुरनगरस्थे स्वनामख्याते वर्ग १३ गाथा ।
प्राचार्य, यत्र सोमदेवव्राह्मणस्य रुक्सेनायां नायर्यायामुत्पन्नश्चतोस-तोष-पुं० । प्रमोदे, पञ्चा. २विव०।धने, दे० ना० ५ वर्ग | तुर्दशविद्यापारगोरक्षितो नाम पुत्रो बनूव । तेन च मातृप्रेरितेन १७ गाथा।
तोसलिपुत्राचार्याणां समीपे दीका प्रतिपन्ना। बिशे। आ. तोसग-तोसक-पु. वनामख्यातेऽवन्तिराजे, ति०।
म० । प्रा००। प्रा० क०। तोषक-त्रि० । परितोषकारके, वाच ।
तोसलिय-तोसलिक-पुं० । तोसलिग्रामाधपे कृत्रिये, प्रा. म० तोसलि (ण)-तोसनिन्-पुं० । स्वनामख्याते ग्रामे, यत्र गच्छन् |
| १०१ खण्ड । आ० । वीरः सप्त वारान् रज्ज्वा बद्धः, ततस्तोसबिकक्षत्रियण मोचितः। तोसिय-तोषित-त्रि० । संतोषं प्रापिते, श्रा० म.१०१ आ०म०११०२खएम। पा.चू० । तोसलिदेशस्थे स्वना.। खएम ।
444444444444444444444444444444444444444 ek stoelootoolooloolaslodeslooto en otroleelontoeloeloeloelosteotoolooloolcolodoalcatootestoslostratuetootpotcolootesto
इति श्रीमत्सौधर्मबृहत्तपागच्छीय-कलिकालसर्वज्ञकल्पश्रीमद्भट्टारक-जैन श्वेताम्बराऽऽचार्य-श्री १००० श्रीविजयराजेन्द्रसूरीश्वरविरचिते 'अनिधानराजेन्'
तकाराऽऽदिशब्दसङ्कलनं समाप्तम् ।
SPOR
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थ
-
-- पुं० | दन्तस्थानोऽयं स्पर्शसंज्ञको वर्णः । पका । घुमव्याधिभेदेभयनिक
डः भवा
-
ले, भये च । न० । वाच० १
66
थः पुमानिन्दुकल्लोल - विरामेषु महीघरे (४५ ) स्यादास्फालनशब्दे च ज्वाले या तु स्त्रियां नदी || थं नपुंसकलिङ्गेतुन ४६ ॥ बिलियन कासी सितासित" इति
माधवः । एका० ।
मध्यावाचके धान्ते, शोके धारव्यवस्तुनि । निमग्ने चातिगम्जीरे, यं स्तोकार्थे नपुंसकम् ॥ ६४ ॥ मरुदेशप्रदेशेऽपि थाऽऽवन्तः स्थलयोषिति । देवकूटे कषाये स्त्री, दृढे परिवृढेऽपि था ॥ ६५ ॥ भुः पितेो मान् विभूते तो जाजने भुवि ।। ६६ ।। " इति विश्वदेवशंजुमुनिः । एका० । वाक्यालङ्कारे, झा० १ श्रु० ८ श्र० । पादपूरणे च । अव्य० । पञ्चा० ११ विव० ।
थनड्डु - देशी-भलातके, दे० ना० ५ वर्ग २६ गाथा ।
मिल स्थण्डिल न० परानुपरोधाप्राके मागे ग० २ अधि० । श्राव० ।
अथ स्थनिमात्र गमनविधिरुचाव त्सर्जनं च । तत्र च स्थरिमाने वक्तव्ये येऽर्थाधिकारास्तानभिचिरगाथामाद
थकारः
-
या सोधि अपाया जणया लघु तहा अच्छा य कारण विजय मिले होति अहिगारा।। ४२१ ।। प्रथमतो भेदाः स्थण्डिलस्य वक्तव्याः, तदनन्तरं स्थएिमले व्युत्सृजतः शोधिः प्रायश्चित्तम् ततोऽपायाः, तदनन्तरं वजैनद्रारम्, ततः परमनुझा, ततः कारणविधिः, तदनन्तरं य. तना । एते वयमाणाः स्थरिम अधिकाराः।
प्रतिपादनार्थमाद
( २३७० ) अभिधानराजेन्द्रः ।
"
चित् अचित्तं मीमेण अचित्त कमीसेणं । सचित्त छक्कणं, अचित्त चउजंग एकेके || ४२२ ॥ अस्पतिमले पन्थानमधित्यो स्थ रिमलमचित्तेन पथा गम्यते । अचित्तं मिश्रेण पथा २, केन मिथेपण, इत्यत आह-कायमिश्रेण २ तथा श्रचित्तं सचित्तेन पथा इस पन्थाः सवितः कथम्? इत्यादयमभिजनका
-
थंडिल
वैः ३ । एवमचि स्थमिले यो भेदाः। एवं मिधे ३। सचि चरे । एतेषामचित्तमिव सवित्तानामेकैकस्मिन् भङ्गे चतुङ्गी । सामेवोपदर्शयति
अमझो, अचार व होति संलोए ।
त्रायमलोए, आप चैव संझोए ।। ४२३ ।। अनापातमसंलोकमिति प्रथमो भङ्गः । श्रनापातं संलोकव दिति द्वितीयः । आपात लोकमिति तृतीयः पातयत् लोकवदिति चतुर्थः । गाधायां मत्वर्थीयप्रत्ययस्य लोपः प्राकृतत्वाद्, अभ्राऽऽदित्वाद्वा अकारप्रत्ययः । अमीषां चतुर्ण भङ्गानां प्रथमो नङ्गोऽनुज्ञातः । शेषाः प्रतिक्रुष्टाः । निर्ग्रन्थीनां तृतीयोऽनुतः।
चतुर्थ स्थएिमलं व्याख्यानयतितत्थाssवायं विहं, सपक्ख- परपक्वतो न गायव्वं । हिं होइ सपक्ले, संजय तह संमतीयं च ॥४२४|| संविग्गमसंविग्गा, संविग्गमणुष्प - एतरा चैत्र ।
त्रिवि विहा, तपक्खिऍ एयरा चैन | ४२५|| पापात्तमध्ये आपतमापात
व्यम् । तद्यथा-स्वपक्कतः, परपचतश्च; स्वपक्काऽऽपातवत्, प
रपकाऽऽपातवच्चत्यर्थः ः। तत्र स्वपक्के स्वपकविषये द्विविधमापासंतानां संयतीनां चसंयतात् संयत्यापातवच्चेति भावः । संयता श्रपि द्विविधाः संविग्नाः-उ द्यतविहारिणः संविग्नाः शिथिताः पार्थस्थादयः । संविनापि द्विविधाः- मनोज्ञाः सांयोगिका, इतरे अमनोशा असांजोगका असविना अपि द्विविधाः तत्याक्षिकाः संविग्नपाक्षिकाः, इतरे असंविग्नपाक्षिकाः । उक्तं स्वपक्षाऽऽपातवत् ॥ ४२५ ॥
।
सम्प्रति परपक्षाऽऽपातवत्प्राऽऽहपरकरखे वियदुविहं माणुस तेरिच्छगं च नाय एजे पि यतिविहं पुरिसिथिनपुंसगं चैव ॥। ४२६ ॥ परचक्रेऽपि परपकविषयावद्विविधम्-मा नुष्यं तैरथं च मनुष्यमास चेत्यर्थः । कै कमपि मानुषं तैरश्चं च त्रिविधम । तद्यथा-पुरुषवत्, स्त्रीवत, नपुंसकवच्च । पुरिसाssवातं विविधं दंमिएँ को मंत्रिए य पागतिए । ते सोय सोपवाई एसइबी ।। ४२७ ॥ पुरुषाऽवविधम् तद्यथा दधिर के कोटुम्बिके, प्राकृते च दगिमा कोयिक पुरुषायान वन् प्राकृतरूपार्थः दरिडका - राजकुबानुग ता कोयिकाः शेषा महाका तरे प्राकृताः । ते च त्रयोऽपि प्रत्येकं द्विधा- शौचवादिनः शचवादिनश्च यमेव अनेनैव प्रकारेण नपुंसकोिरवयम् । किमुक्तं भवति ? - नपुंसकाऽऽपातवच्च प्रत्येकं प्रथमतो दण्डिकादिन ततः शौचाद्यशौयवादिनेदतः पुनरेकैकं विविधम् । उक्तं मनुष्याऽऽपातवत् ।
अधुना तिर्यगापातवदाह
दिचमदित्ता तिरिया, जहएको समाजमा विविधा |
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(२३७१) थंमिल अनिधानराजेन्दः।
थंडिल एमोवित्थिनपुंसा, दुर्गुनिअमुगुंबिया नवरं ॥२॥ तेषामेव शौचवादिनां प्राकृत पुरुषाणामापाते त एव चत्वारो तिर्यञ्चो द्विविधाः-दृप्ताः,अदृप्ताश्च । हप्ता दपंवन्तः,अदृप्ताः शा
लघवा,कालगुरुकाः। कौटुम्बिकानामशौचवादिनां पुरुषाणामा
पाते कानगुरुकाः,चत्वारो लघवः। तेषामेव कौटुम्बिकपुरुषाणां न्ताः। ते प्रत्यकें विविधाः-जघन्याः, नत्कृष्टाः, मध्यमाश्च । जघ.
शौचवादिनामापाते चन्वारो लघवः, तपोगुरुका। दण्डिकपुरुन्या एमकाऽऽदयः, मध्यमा महिषाऽऽदया, उत्कृष्टा हस्त्यादयः।
षाणामशौचवादिनामापाते तपोगुरवश्चतुलंघवः । तेषामेव शौपते किल पुरुषा उक्ताः । एवमेव स्त्रीनसका अपि वक्तव्याः,
चवादिनामापाते चतुर्लघवो, द्वाज्यां गुरुकास्तपसा कालेन च। नवरं ते दप्ताः, अहप्ताश्च प्रत्यकं द्विविधा बिज्ञयाः। तद्यथा
नक्तंचजुगुप्सिताः, अजुगुप्सिताश्च । जुगुप्सिता गर्दज्यादयः । इतरे
“पागश्यसोयवादी-पुरिसाणं लहुग दोहि वी बहुगा। अजुगुणिलताः । उक्तमापातवत् । संलोकवद् मनुष्येवध अष्ट
ते चेव य कालगुरू, तेसि चिय सोयवादीणं ॥१॥ व्यम्। ते च मनुष्यास्त्रिविधाः। तद्यथा-पुरुषाः, खियो,नपुंसका.
ते शिय लहु कालगुरू, कोबीगणं असोयवादीणं । श्च । एकैके प्रत्यक त्रिविधाः-प्राकृताः,कौटुम्बिका दण्डिकाश्च । पुनरेकै द्विविधाः-शौचवादिनः, अशौचवादिनश्च ।
तेसि चिय ते चेव उ, तवगुरुगा सोयवादीम् ॥२॥
दंमिएँ असोयमि चिय, सोयम्मि य दोदि गुरुग चउबगा। नक्तंच
एस पुरिसाण भणिो , त्थिनपुंसाण वी एवं ॥३॥" "मालोगो मणुएसुं, पुरिसित्थिनपुंसगाण बोधब्यो ।
(चगुरुगा जमलपया इति) यमलपदानि स्त्रीनपुंसकलकपाययकुडंविदंडिय-असोय तह सोयवादीणं" ॥१॥
णानि चतुर्गुरुकानि वक्तव्यानि। तानि चैवम्-प्राकृतस्त्रीणामशी. तत्रैव चाऽऽपातसंलोको चरमभङ्गे. द्वितीये मापातः, तृतीये
वादिनीनामापाते चत्वारो गुरुकाः, द्वाभ्यां बघवः। तद्यथासलोकः । उक्ता भेदप्रभेदयुक्ता एते स्थएिमजेदाः । गतं
तपसा, कालेन च । तासामेव शौचवादिनीनां चत्वारो गुरुकाः। भेदहारम्।
कौटुम्बिकस्त्रीणामशौचवादिनीनामापाते कालगुरव श्चत्वारो अधुना शोधिद्वारमाह
गुरुकाः । तासामेव शौचवादिनीनामापाते तपोगुरुकाश्चत्वामणुयतिरिएसु बगा, चउरो गुरुगा य दित्ततिरिएमु । रो गुरवः । एवमेव दण्मिकस्त्रीणामशौचवादिनीनामपि, शौतिरियनपुंसिस्थीमु य, मणुसित्थिनपुंसगे गुरुगा॥४२६॥
चवादिनीनां च चत्वारो गुरुकाः द्वाज्यां गुरवः-तपसा, कालेन मनुष्याणां शौचवादिनां पुरुषाणां, तिरश्चां च पुरुषाणामह.
च । एवमेष नपुंसकानामप्यापाते वक्तव्यम् । अत्र च मतान्तर
माह-अथवा स्त्रीणामापाते चतुर्गुरुकाः, उक्तप्रकारेण तपसा सानामापाते [गाथायां सप्तमी षष्ट्यथे] संज्ञां व्युत्सृजतः प्रायः श्चित्तं चत्वारो बघुकाः । (गुरुगा य दित्ततिरिपसुत्ति) दृप्तानां
कालेन च विशेषिताः, नपुंसकानामापाते षम् लघवो यथोक्ततिरश्चामापाते चत्वारो गुरुकाः । तथा-तिर्यग्नपुंसकस्त्रीषु
क्रमेण तपःकाल विशेषिताः। तियग्योनीनां नपुंसकत्रीणां हप्तानामापाते ( मासित्थिनपुं.
सम्प्रति तियंगापातमधिकृत्यापिक्रान्तिमाहसगे इति) मनुष्याणां स्त्रीमपुंसकानां शौचवादिनामापाते प्र. तिरिपसु वि एवं चित्र, अमुगुंउदुगुंछदित्तऽदित्तेसु । त्यकं प्रायश्चित्तं चत्वारो गुरुकाः।
अमायर लहगो, संजतिवग्गम्मि चनगुरुगा ॥४३॥ मणुयतिरियपुरिसेसुं, दोसु वि लहुगा तवेण कालेण। । एवमेवाऽनेनैव प्रकारेण तिर्यगजुगुप्सिताजुगुप्सितहप्तादृप्तध्वकामगुरू तवगुरुगा, दोहिँ गुरू अछुकंती वा ॥४३०॥ पक्रान्तिरवसेया। तद्यथा-प्राकृत पुरुषगृहीतानामहप्तानां तिमनुष्याणामशौचवादिनां पुरुषाणां, तिरश्चां सहप्तानां पुरुषा
यंक्पुरुषाणामापाते चत्वारो लघवः, बायां लघुकाः, तपसा रमामापाते द्वयानामपि पृथक् पृथक् प्रायश्चित्तं चत्वारो लघु
कालेन च । तेषामेव च दृप्तानां त एव चत्वारोघवः कारगुरुकाः, तपसा कालेन च लघवः। मनुष्यस्त्रीनपुंसकानामशौ.
काः।कौटुम्बिकपरिगृहीतानामपि तिर्यक्पुरुषाणामहप्तानामापाचवादिनामापाते चत्वारो गुरुकाः। घाज्यां गुरुकाः । तद्यथा
तेच त एव कालगुरुकाश्चत्वारो लघवः। तेषामेव हप्तानां तपोकालगुरुकाः, तपोगुरुकाः। अर्द्धपक्रान्तिर्वा अष्टव्या । सा चैष.
गुरबश्चत्वारो लघुकाः दिपिमकपरिगृहीतानां तिर्थक्पुरुषापाम्-तिरश्चांदृप्तानां पुरुषाणामापाते,न (?) मनुष्याणां गृहिणांपा
मरमानामापाते त एवं चत्वारो लघवः, तपोगुरुकाः । तेषामेव पण्डिनांवा पुरुषाणामशौचबादिनामापाते चत्वारो लघुकाः,ति
दृप्तानामापाते चतुर्वघुकाः, द्वाभ्यां गुरवः-तपसा, कालेन च । र्यकत्रीनपुसकानामहप्तानामजुगुप्सितानां वाऽऽपाते कासगुरु
तथा प्राकृतपरिगृहीतानां स्त्रीणां नपुंसकानां च तिरश्चामजुकाश्चत्वारो लघुकाः । तेषामेव तिर्यस्त्रीनपुंसकानां दृप्तानां
गुप्सितानामापाते चत्वारो गुरुकाः, द्वाभ्यां लघवा-तपसा, काजुगुप्सितानां चाऽऽपाते चत्वारो गुरुल घुकाः, तपागुरवः । मनु
सेन च। तेषामेव जुगुप्सितानामापाते चत्वारो गुरुकाः कालयस्त्रीनपुसकानामशौचवादिनामपि त एव तपोगुरवः, चत्वारो
गुरवः । कौटुम्बिकपरिगृहीतानां तिर्यस्त्रीनपुंसकानामापातेत लघुकाः । इयमेकेषामाचार्याणां मतेना पक्रान्तिरूपदथिता।
एव कालगुरुकाश्चत्वारो गुरवः । तेषामेव च जुगुप्सितानामासम्प्रति भाष्यकारोऽन्यथाऽ पक्रान्तिमाह
पाते चत्वारो गुमकास्तपोगुरवः । एवमेव दरिमकपरिगृहीता
नामपि तिर्यस्त्रीनपुंसकानामदृप्तानामापाते इष्टव्याः । दृप्तापागऍ को मुंवीए, दंडिऍ अस्सोयसोयवादीसु ।
नामापाते चत्वारो गुरुकाः, द्वाज्यां गुरवः-कालेन, तपसा च । चउगुरुगा जमनपया, अहवाचन छच्च गुरु-लहुगा ।४३१॥ उक्तास्तिर्यदवप्य पक्रान्तिः । सम्प्रति स्वपक्काऽऽपाते शोधिमाप्राकृते, कौटुम्बिके, दरिमनि च प्रत्येकमशौचवादिनि चार्मा- द-अमनोज्ञानामसांभोगिकानां सांभोगिकानां संविमानामितपक्रान्तिरवसेया। सा चैवम्-प्राकृतानामशौचवादिनां पुरुषा- रेषां वासंविग्नानामापाते प्रायश्चित्तं लघुको मासः । संयती. गामापावे चत्वारो लघुकाः, तपसा कालेन च लघवः ।। बर्गे समापतति संयतीनामापाते चत्वारो गुरुकाः।
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थंमिल
( २३७२ ) अभिधानराजेन्द्रः ।
सम्प्रति प्रागुक्तमेवार्थमुपदि दर्शयिषुराहतिरियपासंदे-पासोपहिँ दोहिं बहुलगा । कालगुरू वगुरुगा, दोहिं गुरु अकुकंति दुगे ॥ ४२३॥ भद्रेष्वदृतेषु तिर्यक्षु पुरुषेषु, मनुष्येषु गृहस्थेषु पाखाऐमषु चाशौचवादिषु प्रपतत्सु चत्वारो लघुकाः, द्वाभ्यां लघवः । मनुष्यखानपुंसकानां शौचवादिनामापाते चत्वारो गुरुका द्वा भ्यां गुरक तथा तपोगुरुकाः कालगुरुका। शेषेषु तु ति मनुष्यमेषु द्विक सपकाल सकपकान्तिः कचित्त गुरुका गुरु के त्येचं रूपाऽव सातव्या सा च प्राक दर्शिता । गतं शोधिद्वारम् ।
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इदानीमपायद्वारमाह
अतरगमणे, तिहाऽऽपरणाम्ब होइ अहिगरां । परदकरण दर्द, कुसीने सेहाऽऽदिगमणं च ||४२४४॥
अमनोज्ञानामसांजोगकाम संविग्नानामितरेषां वासविना नामागमने श्रापाते सति वितथाऽऽचरणे दृश्यमाने नवति परपरमधिकरणम् । श्यमत्र भावना - आचार्याणां परस्परमन्यथा सामाचार्थ ततोऽसाि सामाचार शेने नेषा सामाचारीति परस्परमधिकरणं तु वर्तते । इतरे कुशीलाः पार्श्वस्थाऽऽदयः, ते प्रचुरण वारिणा पुतप्रकालनं कुर्वन्ति ततस्तेषां कुशलानां प्रचुरद्रवेण पुतनिकर शैककाणास आदिशब्दादशीदिमधर्मियां गमन तेषां समीपे जवति ।
।
निगाणं पद, सेमा खघु होति ते पमिकुडा | दव अप्प कस असती, वपुरिसेसु पमिसेहो |४३५ | यत एवमापाते दोषास्तस्मान्निर्ग्रन्थानां प्रथमं स्थापिमलमनापात लोकमित्येवंरूपं शेषाणि त्रीणि खलु तेषां निधान प्रतिकुष्टानि प्रतिषिद्धानि अथ परपक्षापाले त पुरु तत्रापि पतितानियमतो चमक परिपूर्ण तथ्य म् । अन्यथा वे पानीये अलो कलुषे वा यदि वा असति-विना पानीयेन गतो भवेत् ततस्ते दृष्ट्वाऽवर्णमश्लाघां कुर्यु:, यथामचयोऽमीन के कु किं तु प्रतिषेधः क्रियते, यथा-माकोष्यमीषामशुचीनां भक्तं, पानं वा दद्यात् । एष पुरुषेषु पुरुषापाते दोषः ।
सम्प्रति स्त्रीनपुंसकाऽऽपाते दोषानाहआप परत वा संकाईया इति दोमा र । भिसिंगे गद्दिते उट्टाहो पमिगमणमादी ।। ४३६ ।। स्त्रीणां नपुंसकानां वाऽऽपाते आत्मनि परे, तदुभयस्मिन् शङ्काऽऽदवोदोषा नवन्ति । तत्राऽऽत्मनि साधुः शङ्काविषयः क्रियते, यथा- किमप्युदामयति परे। स्त्री, नपुंसक पापकर्मसाधुं कामयन्त इति
भवस्मिन् यथाती परस्परममैथुनार्थमागती । तदेवमुक्का आदि शब्दादवर्णाऽऽदिदोषपरिग्रहः । तथाख्यापाते नपुंसकाssपाते वास साधुरामपरोभवसमुत्थेन दोषेण खिया पएमकेन वा सानं कुर्यात्तत्र केचिरागेण दृष्ट्रा गृहीतः स्यात्, ततः प्रवचनस्योड्डाहः, , तथा स उडाहित इति कृत्वा प्र तिगमनानि कुर्यात्।
थंडिल
अस्मिन्नेव चतुर्थे स्मगावात दोषानाहआमाबादी दिने, गरहियतिरिए संकपादी य । एमेव व झोप, तिरिए पनि म ।। ४३७ ।। हप्ते दृप्ततिर्यगापाते आहननाऽऽदयो दोषाः, श्रहननं शृङ्गाऽऽदिजिस्तामनस्, आदिशब्दान्मृगमनमारणाऽऽदिपरिग्रहः । गर्हितेषु तिर्यक्षु गर्हिततियं कुस्त्रीनपुंसकाऽऽपाते शङ्का मैथुने, आदिशब्दात् प्रतितापीत्यादयो दोषाः । यथाप्रापाते दोषा उक्त पथमेव संलोकेऽपि तियंग्योनिका बजयित्वा मनुष्येषु द्रष्टव्याः किमु एषां संजोके नास्ति कचिदनन्तरोदितो दोषः मनुष्याणां तु स्त्रीपुरुषनपुंसकान लोके आपाते दोष दियाः ।
यदि कदाचिदात्मपरोभयसमुत्था मैथुनदोषा न नवेयुः तथाऽप्यमी संभाव्यन्ते
जत्य म्हे पासामो, जस्य य पर नातियग्गो ने। परिजवकामेमाणो, संकेयगदित्तको वा वि ॥ ४३८ ॥ यत्र वयममुमागच्छन्तं पश्यामो यत्र वाऽस्माकं ज्ञानियों निरन्तर संचरति विचारार्थे गच्छति, तत्रास्माकं परिभवं कामयमानो संकेतो वा समागच्छति । किं -
कलुस दवे असती, पुरिसाऽऽलोए हवेति दोसा उ । पदस्थी नियता के लिए मुच्छा ।। ४३५ ॥
पानी असत विद्यमाने च पुरुषाऽऽलो के दोषाः प्रागुक्ता अवर्णाऽऽदयो भवन्ति । तथा--परमा नपुंसकाः, पण्डेषु स्त्रीषु च लोकमानेषु वैकुर्विक वा सामारिके टे भवेत् । श्यमत्र भावना नपुंसकः स्त्री वा सागारिकं स्वजावत यातिस्थूलं यदि वा कषायितम सदोषेण वैकुकिं तद्विषयामित्रापमुमापन्नादृष्ट्रा स्तं साधुमुपसर्गयेत, तस्मात् त्रयाणामपि संलोको वर्जनीयः । गतं चतुर्थ स्थण्डिलम् ।
अथवा.
इदानीं तृतीयमापातवदसंलोकमधिकृत्य दोषानादआवसमुत्या तिरिए, पुरुसे दवस असति उङ्गादो । आयोभय इत्यी अ, आगच्छते य आसंका ||४४०|| सिगापाले आत्ममुग्धा दोषा तथा स्त्रीयां नपुंसकानां थापाले मेयो दोषानां तिरुषाणामा पाते श्रात्मन उपघातः । तथा-पुरुषे मनुष्यपुरुषाऽऽपाते वे क लुषे, असति वा प्रवचनस्योड्डाः । तथा स्त्रीषु चशब्दान्नपुंसकेषु गच्छन्तु आत्मोभयविषया श्रात्मोपग्रह परस्वीपलकणम्, आत्मपरोजयविषया श्राशङ्का । सा च प्रागेव भाविता । यात्रायदोस तइए, विश्ए संलोयतो भवे दोसा ।
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ते दो वि नत्यि पढमे, तद्दि गमणं तरिथमा मेरा ॥ ४४१॥ तृतीये स्थएिकले श्रापातदोषाः, द्वितीये च संलोकतो दोषा प्रतिवेदिताः। ते च द्वेऽपि आपातदोषाः लोकदोपाध प्रथमे स्थरिमले न सन्ति ततस्तत्र गमनं विधेयम् । तत्रेयं म यदा ।
तामेवाऽऽहकालकाले सन्ना, कालो तयाऍ सगमकालो ।
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( २३७३) अभिधानराजेन्ध |
थंडिल
पढमापारिसि आपुच्छ्पारणगमपुष्फि अन्नादसिं ||४४२॥ द्विविधा सा तद्यथा काले काले च तत्र कालस्तृतीयस्यां पौरुष्यां, शेषकं सर्वमपि प्रातःप्रभृतिकमकालः। तत्र तावदकाले-यम्, यदि प्रथमायां पोरुप भवेत् तदा पात्रसुद्धा पानकमिथिनो दूग्राहयति पात्र, ततो लोको जानीयात; यथा- एष बहिर्गमननि. पानी गृहात रसिनो हिते पात्रेयमधिको गुणः कोऽपि श्राद्धो ग्रामान्तरं, नगरान्तरं वागन्तुकामः प्रधावितः, श्रद्धन्युत्पन्नायां संज्ञायां तं प्रतिला भोजयेत्सोऽपि न भवति शङ्काच नोपजायते, यथा- एष वहिर्गमनाय पानकनिमित्तं हिएमते । स पुनः की पानी वाममचतु थेरसिकं न भवति, तादृशं तत उष्णोदकाऽऽदि गृह्णीयात् । (अन्न दिसिमिति ) यस्यां दिशि संज्ञाभूमिस्तस्यां पानकस्य न गन्तव्यम् । यदि पुनस्तस्यां गच्छति, ततोऽतिरिक्तं ग्रहीतव्यं, यदि दो जनो तदा बधाय किंबहुना यात व्रजन्ति तावतां योग्यमतिरिक्तं तथा गृह्णाति यथा एकस्यो रति । एवं पानीयं गृहीत्वा समागतो बहिः प्रतिश्रयस्य पादौ प्रमा दमके स्थापथिला देवधिको प्रतिक्रम्य सोच्य गुरोः पानकं दर्शयि जामीति गच्छति । तत्र जघन्योऽपि कश्चित् व्रजति, तहिं यथा एकस्योद्वरति तावत्प्रमाणमात्रके पानकं गृह्णाति तथादित पात्रमन्यम्य समर्प्य दशमकं प्रमार्ण्य आवश्यक कृत्वा व्रजति । योकविधैरकरणे सर्वत्र प्रायधिसलघु
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उमेवार्थ स्पष्टतरमुपदर्शयति
अतिरेगगढ़ मुग्गा - हियम्मि आलोय पुष्यं गच्छे । एसा अकालम्मी, अहिंडिए हिंमिए काले ॥ ४४३ ॥ पाचे उद्घाहिने एकजनातिरेकेण पानीयस्य ग्रहणं कर्त्तव्यं कृत्वा च गुरोः पुरत आलोच्य गुरुमापृच्छध संज्ञाभूमिं गच्छेत् । वा श्रकाले संज्ञा उक्ता । संप्रति कालसंज्ञा वक्तव्या । काले का लसंज्ञा (श्रहिंमिते हिंडितेति) श्यमत्र नाचना - तृतीयस्यां पोरुभ्यां कालस्य प्रतिक्रमणे यानाद्यापि भवति
तावत् संज्ञाभूमिं व्रजति । श्रथाहिरिमते समुद्दिष्टे भाजनेषु च प्रकल्पेषु बावनावाहते चतुये पीरुपी काल
थोत्रे मिळाला, चिरं वा दिदिडतः ततोऽवगाढायामपि चरमपौरुष्यां गच्छति ।
तत्र को विधिरित्याह
कप्पेतू पाए, एकेक्स मुवे भागे।
दानं दो दो गच्छे, तिराह दवं च घेणं ॥ ४४४ || पात्राणि कल्पयित्वा विशोध्य श्रीनू कल्पान् पात्राणां निर्लेपनाय दवा एकैकस्याऽऽत्मीयाऽऽत्मीय संघाटकस्य द्वौ द्वौ पतहकी दवा हो हो संाभूमिं स्याताम् कचमिवाद क्या णामर्थाय गृहीत्वा पानकं हि ताबा प्रतिय्यं यावत्पश्चादेकस्योरति । श्यमत्र जावना ये ये संघादवन्तस्तेषां तेषामेको द्वौ पतग्रहौ धारयति, द्वितीयश्चान्येन समं याति, तेषु चागतेषु ये प्रागितरे स्थितास्ते व्रजन्ति, इतरे चाऽऽगताः पात्राणि धारयन्ति यावन्तश्च गच्छन्ति तावतां योग्यमेकातिरिक्तं पानकं मात्रके गुद्धन्ति ।
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KEY
कथं पुनस्ते गच्छन्तीत
अजुगलिया अतुरंत विगहारहिया वयंति पढमं तु । निसिजु गन्नगहणं, आवडणं वच्चपासन ॥ ४४५ ।। अयुगलिता न समझेनिकयुगमरूपतया स्थिताः भवरि ताः, विकथारहिताः स्त्रीभक्ताऽऽदिकथा अकुर्वाणाः प्रथममनापाता लोकलणं स्थरिमलं व्रजन्ति । तत्र निषद्य उपवि श्योस्थित थे। उस्थितानां सम्प्रक्षेपण संभ वात् । मंगलग्रहणं कुर्वन्ति ये भूमाव संबद्धाः पुनर्निर्लेपनाय लेटुकास्ते मगलकाः, तानाददते । आदाय चैतेषां भूमावापातनं कु वृदिस्ततोऽवसरते । इतेरुले टिडियाविस्तृगादी, सो अवसरति" इति ते दलका प्रमाणं वर्ष पुरीषमासाद्य प्रतिपत यो भिन्नवचः स श्रीनू मगलकान् गृह्णाति अन्य हावेकं वा । आलोक दिसा संदासगमेव संपमज्जिता । पेपिमय जगणार मिले शिमिरे ॥ ४४६ ॥ स्थमित्र गत्वा तत्र दिशामापातसं लोक वर्जनार्थमालोकनं कुर्यात् दिश आलोक्य तदनन्तरं समासकं संप्रमाज्ये प्रति
प्रमतेषु च नत्र प्रदेशेषु स्थ िरी निसृजेत् व्युजे पमित्याद्यनया "दिलिपामयि। " इत्यादिवच्यमाणलक्षणया तत्पुनरनापातासंलोकं स्थारमलमेभिमादेशभिः स्थानयम् ।
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सान्वाऽऽह यमलोए परस्स अणुवातिए ।
समे सिरे यात्रिऽचिरकालकम्पिय ॥ ४४७ ॥ वित्थिदूरमोगाडे-नासन्ने बिलरज्जिए । तस पाणीपरहिए, उच्चाराऽऽदीणि बोसिरे ॥ ४४७॥ नाम परस्यानुपधातिकं समम् अपि अि कालकृतं विस्तीर्ण, दूरमवगाढम् अनासन्नं, बिलवर्जित, प्रस प्राणबीजरहितं यत् स्थरिमलं तत्र उच्चाराऽऽदीनि उच्चारप्रव भूतानि युजेत्। एष एकका संयोगोदर्शितः । संतसंयोगानुपदर्शयतिइगदुगतिगच उपंचग-उगसतगअन गद्सगो । संजोगा काया, जंगसी ॥ ४४ ॥ अमीषामनन्तरोदितानां दशानां पादानामेक सप्ताष्टनवदशकैः संयोगाः कर्त्तव्याः तेषु च भङ्गाः सर्व संख्यया चतुर्विंशत्यधिकं सहस्रम् । अथ कस्मिन् संयोगे कियन्तो भङ्गका उच्यते भङ्गनामानयन करणमिदम् दशयोऽ एकैकेन हीनास्तावत् स्थाप्यन्ते यावत् पर्यन्ते एकः, ततस्ते यथाक्रममेनी राशिभिर्गुनाथ दशक एककेन न बकः पञ्चचिः, अष्टकः पञ्चदशनिः सप्तकत्रिशता, षङ्को द्वाचत्वा रिंशता, पञ्चकोऽपि द्वाचत्वारिंशता, चतुष्कत्रिशता, त्रिकः एककेन । स्थापनाभद्विका पक्षकैन, एकक अमीषां ५ १. चामीभि
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१०
८
६
३ * ५
२
१ ५ १५ ३० ४२ ४२३०१५
गुणाकारैर्गुणने जाता एककाऽऽदिसंयोगेध्वियं त्रङ्गसंस्था | तथा एककोगे दशको पञ्चाशत्क
थंडिल
,
の
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(२३७४) थंमिल अन्निधानराजेन्द्रः।
थंमिल संयोगे विंशत्युत्तरं शतम्। चतुष्कसंयोगे वे शते दशोत्तरे।प चउरंगुलप्पमाणं, जहन्नयं दूरमोगाढं। ४५३॥ श्वसंयोगे द्वे शते द्विपञ्चाशदधिके। षटूसंयोगेद्वे शते दशोत्तरे।
जघन्य विस्तीर्णं चतुरस्रं चतसृष्वपि दिक्षुहस्ताऽऽयामम, उसप्तकसयोगे विशं शतम् । अष्टकसयोगे पञ्चचत्वारिंशत् । नवकसयोग दश । दशकसंयोगे एकः । एक व वसत्यादिषु
स्कृष्टं द्वादशयोजनानि, तञ्च चक्रवर्तिस्कन्धावारनिवेशे प्रतिप
त्तव्यम् । दूरावगाढमाह-यत्राधस्ताच्चतुरङ्गलप्रमाणमचित्तमविविक्ते प्रदेश स्थण्डिलमिति सर्वजनसंख्या एकत्र मीलयित्वा रूपाधिका क्रियते, ततश्चतुर्विशं नङ्गसहस्रं भवति ।
चत्वारि अङ्गलान्यचित्ता नूमिः, तजघन्यं दूरमवगाढम, अर्था"समनंगणयणे करणं, दसगाऽऽति ओसरंति जावेको।
त्पश्चादगुलप्रभृतिकमचितं यस्याधस्तात्तदुत्कृष्टं दूरमबगाढम्। एए न गुणेयचा, श्मेहिँ रासीहिँ जहकमसो ॥१॥
साम्प्रतमासनमाहपक्कग पंचग पन्नर, तीसा वायास पंच जा गणा।
दव्वाऽऽसन्नं जवणा-दियाण तहियं तु संजमाऽऽयाए । परतो बायालीसा, पमिलोममवेहि जावको ॥२॥
पायापवयणसंजम-दोसा पुण जावासयो ॥४५॥ पक्कगसंजोगादी, गुणिया लद्धा हवंति एमेते।
आसन्नं द्विविधम्-व्यतो, भावतश्च। तत्र द्रव्याऽऽसन्नं भवनामिशिया रूवाहिकया, भंगसहस्सं चनवीसं ॥३॥" उदीनां निकटम् । श्रादिग्रहणाद् देवकुलानां,ग्रामस्य,पयो,वृक
संप्रत्येतानि दश शुरूानि पदानि व्याख्यातव्यानि, यत्र यत्र स्य च परिग्रहः । यस्य हि वृकस्य हस्तिपादप्रमाणस्कन्धः,तस्य दोषास्ते तत्र तत्र कथनीयाः, तत्रापातवत् संलोकवच्च पू. समन्ततो हस्तो बर्जयितव्यः। तत्र यदि व्याऽऽसन्ने व्युत्सृजति, व व्याख्यातम् । इदानी परस्यौपघातिकमाह
ततः संयमेअात्मनि च विराधना। तत्र यद् गृहाऽऽदीनामासन्नं आया पवयण संजम, तिविहं उक्यातियं मुणेयन। तत स्थारमल परित्यज्यान्यत्र स्थरिमलं कुर्युः, अथवा पानीयेन आराम वञ्च अगणी, घायाऽऽदसुई य अन्नत्य ॥४५०॥
तत्प्रक्षालयेयुः ततः संयमविराधना । आत्मविराधना पिट्टनाss
विजावात् ।भावाऽऽसन्नं नाम तावत्तिष्ठति, यावत्संज्ञा मनाग ना. इह पूर्वार्द्धपदानां पश्चापदानां च यथाक्रम योजना । सा
गच्छति, ततोऽनधिसहः स्थएिडलं गन्तुमशक्नुवन अस्थीरामचैवम्-श्रीपपातिकमुपधातप्रयोजनक स्थरिमलं त्रिविध शा.
ले, भवनाऽऽदीनां वा प्रत्यासन्ने व्युत्सृजेत् । तत्र चाऽऽत्मविरातव्यम् । तद्यथा-आत्मोपघाति, प्रवचनोपघाति, संयमोपघाति
धना, संयमविराधना च प्राग्वत् । अत्रास्थाण्डलमिति कृत्वा च। तत्राऽऽत्मोपघाति श्रारामः,तत्राहि संज्ञां व्युत्सृजतो घाताऽऽ
सागारिको वा तिष्ठतीति संज्ञां धारयति श्रात्मविराधना, मरदिपिट्टनाऽऽदि । प्रवचनोपघाति-वों गुह, तकि जुगुदिसतम.
णस्य म्लानत्वस्य चावश्यं जावात् । अनधिसहेन च सता तेन शुच्यात्मकत्वात, ततस्तत्र संझाव्युत्सगे ईदृशा एते इति प्रव.
लोकपुरतोऽस्थाने संझाव्युत्सर्ग पुनर्जवाऽऽदिलेपने बा प्रवचचनोपघातः। संयमोपघाति-अग्निरग्निस्थान, तत्र हि संझाव्यु.
नोपघातः । त्सर्ग ते अम्यारम्भिणोऽन्यत्रास्थपिडझे अम्निस्थानं कुर्वन्ति,
सविले, असप्राणबीजोपेते दोषानाहत्यजन्ति वा तां संझामस्थरिडो। संप्रति विषमस्थण्डिले दोघानाह
होति विने दो दोसा, तसेमु बीएसु वा वि ते चेत्र ।
संजोगतो य दोसा, मूलगमा होति सविसेसा ॥ ४५५॥ विसमपनोणि आया, इयरस्स पलोट्टणम्मि बक्काया।
विखे संका व्युत्पजतो द्वौ दोषो। तद्यथा-आत्मविराधना, सं. कसिराम्म विच्छगादी, उभयकमणे तसादीया ॥४५१॥
यमविराधना च । तत्र यदा विले प्रविशन्त्या संझया प्रस्रवणेन विषमे स्थरिमले साधुः प्रश्नाटेत, पतेदिति भावः । तत्र चाऽऽ.
ताता जीवा बाध्यन्ते तदा संयमविराधना । सर्पाऽऽदिभवणे स्मा विराध्येत । इतरस्य पुरीषस्य, प्रस्रवणस्य च प्रलोटने पद
आत्मविराधना । त्रसेषु, बीजेषु च तावेव द्वौ दोपी संयमाकाया विराध्यन्ते । तथाहि-प्रतीतमेवैतत-पुरीषं, प्रस्रवणं वा
ऽऽत्मविराधनालवणी। तत्र त्रसेषु बीजेषु प्राणव्यपरोपणात्सं. प्रलोटेन षटकायान् विराघयति । एषा संयमविराधना । शुधिरे सं.
यमविराधना सुप्रतीता । त्रसेम्बात्मविराधना, तेत्य उपद्रवसं. शाऽऽदि व्युत्सृजतो वृश्चिकाऽऽदितिरात्मनो विराधना । आदि.
भवात् । बोजेवात्मविराधना-बीजशूकाऽवयवानामतितीक्ष्णानां शब्देन सऽऽदिपरिग्रहः। उन्नयं संज्ञाप्रस्रवणं, तेनाऽक्रमणे
पदेषु लम्नतः पादप्रलोटनतः पतनतो वा। तदेवकै कस्मिन् त्रसादयः त्रसस्थावराणा विराध्यन्ते । एषा संयमविराधना।
वर्जनीये स्थगिमले दोषा उक्ताः । अस्माश्च मूगमदिकैकसंयोअथ कीदृशं चिरकालकृतं स्थएिमलमत पाह-- गरूपात द्विकत्रिकाऽऽदिपदानां संयोगतः सविशेषा बहुबहुतरजे जम्मि उउम्मि कया, पयावणादीहिँ थमित्रा ते न । का भवन्ति ज्ञातव्याः। द्विकसंयोगे द्विगुणाषिकसंयोगे त्रिहोति इयरे चिरकया, वामावामे य वारसगं ॥ ५३॥
गुणा यावद्दशसंयोगे दशगुणा इति । यानि स्थपिमलानि यस्मिन् ऋतौ प्रतापनाऽऽदिभिः कृतानि ता.
सम्प्रति प्रागुक्तमपि प्रायश्चित्तमन्याऽऽचार्यपरिपाट्या, नि तस्मिन्नचिरकाल कृतानि भवन्ति । यथा-हेमन्तकृतानि हेम.
मनाक विशेषप्रदर्शनार्थतया च पुनराह.. मत एवाचिरकालकृतानि । इतराणि तु ऋत्वन्तरव्यवहितानि चि. पंथम्मि य आलोए, फुसिरम्मि तसेसु चेच चउबहुगा । रकालकृतानि, अस्थएिमलानि तानीति भावः। यत्र पुनरकं व- पुरिसावाए य तहा, तिरियावाए य ते चेव ॥४॥६॥ (रात्रं सगोधने ग्रामे उषितस्तत्र द्वादशकं द्वादश संवत्सराणि
पथ आसन्ने पुरुषाणामालोके, शुषिरे, त्रससंकुले च संज्ञा स्थण्मिलं, परमस्थगिमलं नवति ।
व्युत्सृजतः प्रायश्चित्तं चत्वारो लघुकाः। तथा सबमनुष्यपुरु____सम्प्रति विस्तीर्णमाह--
पाऽऽपाते, सर्वतिर्यकपुरुषाऽऽपाते च प्रत्येकं त एवं चत्वारोल. हत्थाऽऽयामं चउरस, जहएण नक्कोस जोयण विकं । । धवः । सर्वग्रहणं मनुष्येषु कौटुम्बिका :ऽदिभेदपरिग्रहार्थम्।
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(२३७५) थंडिल प्राभिधानराजन्छः।
चंडिल तिर्यक्ष्त्कृष्टाऽऽदिभेदसंग्रहार्थमाह
उपलकणमेतत्-प्रत्युपेक्ष्य च व्युत्सृजेत् । तत्राप्रत्युपेक्षणे अशत्थिनपुंसाऽऽवाए, भावासन्ने विले य चनगुरुगा। प्रमार्जने, प्रत्युपेकणे दुष्प्रमार्जने च प्रायश्चितं प्रागुक्तम् । तथा पणगं लहुयं गुरुगं, बीए सेसे मासलहुं ॥ ४५७ ॥
यस्यावग्रहः सोऽनुजानीयादिति अनुशाय व्युत्सृजेत्, आचमेद्वा।
एष गाथार्थः। सर्वासां प्राकृताऽऽदिभेदनिन्नानां स्त्रीणामापाते च, तथा नावा
साम्प्रतमेनामेव विवरीषुराह-- सन्ने बित्रसहिते च स्थपिमझे व्युत्सृजतः प्रत्येक चत्वारो गुरुकाः, प्रत्येकबीजसंकुले स्थाएमले अधूनि पञ्चरात्रिन्दिवानि, उत्तर पुव्वा पुज्जा, जम्माए निसियरा अनिवति । अनन्तबीजसंकुले गुरुकानि,शेषेष्वशुरूषु स्थण्डिलेषु मासलघु। घाणारसा य पवणे, सूरियगामे अवन्नोन ॥ ४६१ ।। यश्चान्यदा पर्यन्ते तदपि सर्वमानोति । यत्रासामाचारीकरणं उत्तरा, पूर्वा च लाके पूज्यते, ततो दिवा रात्री च पूर्वस्यामुतत्रापि मासलघु।
त्तरस्यां वा पृष्ठ न दद्यात, तथा न याम्या दकिणा, तस्यां रात्री अपमज्जणा अपडिते-हणा य दुपमजणा उपमिनेहा। निशाचरा देवा अभिपतीन्त समागच्चन्ति, ततस्तस्यां रात्री तिऍ मासिय पणगं लहुकालतवे वा चरिममुको ।।४एन।।
पृष्ठं न दद्यात, तथा यतः पवनस्ततः पृष्ठ करणे अशुभगन्धघ्रा
जिर्नासिकायां चाीस्युपजायन्ते । तस्मात्पवनस्यापि पृष्ठं न संज्ञा व्युत्म्रएकामो न प्रत्युपकते न प्रमार्जयति मासलघु,
कर्तव्यम् । सूर्यस्य, ग्रामस्य च पृष्ठकरमे श्रवणों लोकमध्ये यथाकालगुरु, तपोलघु । न प्रमार्जयति प्रत्युपेकते मासलघु, द्वाभ्यां सधु । एवं त्रिकेषु स्थानेषु मासिकं लघु, कावेन तपसा चोक्त
ऽभिहितः प्राकु, ततम्तयोरपि न दातव्यं पृष्टमिति । प्रकारेण विशेषितम् । अथ प्रत्युपेकते प्रमार्जयति, तत्र दुष्प्रत्यु.
"गयाए " इनि व्याख्यानार्थमाह-- पेक्किते दुष्प्रमार्जिते रात्रिन्दिवपञ्चकं लघु, दुष्प्रत्युपेक्षिते
संसत्तग्गहणी पुण, गयाए निग्गयाइँ वोसिरई। प्रमार्जिते रात्रिन्दिवपश्चकं लघु, तपोधघु, कालगुरु । प्रत्युफे गयासति नाहम्मि वि, वोसरिय मुहत्तगं चिछे ॥४६॥ क्विते दुष्प्रमार्जितेरात्रिन्दिवपञ्चकं लघु, द्वाज्यां लघुकम् ।
संसक्ता द्वौद्रिये ग्रहणिः पाशर्यस्यासौ संसक्तग्रहणिः,स द्वीन्द्रिएवं त्रिकेषु त्रिस्थानेषु पञ्चक, कालेन तपसा चोक्तप्रकारेण
यरक्षणार्थ गयायां वृक्ताऽऽदिनिर्गतायां व्युत्सृजति । अथ बायाविशेषितं, चरमेषु प्रत्युपेवितं सुप्रमार्जितमित्येवंरूपे भने शुद्धो
ऽद्याऽपि न निगच्छीत, मध्याह्ने एव संझा प्रवृत्ता, ततः छायाया न प्रायश्चित्तभाक् ।
'असति' अभावे उष्णेऽपि स्वशरीरच्चायायां पुरीषस्य कृत्वा खुड्डो धावणे कुसिरे, तह खुत्तो अपमिलेहणा बहुगो।
व्युत्सृजति, व्युत्सृज्य च मुहूर्त तथैव तिष्ठति, येनैतावता घरवाविवञ्चगोवय-ठिअमलगट्टणे बहुगा ॥ ४५६ ।। का लेन स्वयोगतः परिणमन्ति, अन्यथोष्णेन मदती परितापइयमपि गाथाऽन्याऽऽचार्यपरिपाटिचिका, ततो न पुनरुक्तता, ना स्यात् । नापि विरोधो, मतान्तरत्वात् । कल्लकं स्तोकं यदि धावनं प्रनो अथ व्युत्सृजन् स्वोपकरणं कथं धरतीत्यत पाहटनमित्यर्थः। तत्र तथा सुचिरस्थपिडले तथाकृत्वा प्रत्युपेक्षणा.
नवगरण वामगऊ-रुगम्मि मत्तो य दाहिणे हत्थे । यां प्रत्येक प्रायश्चित्तं बघुको मासः । तथा-गृहे यदि संझा व्युत्सृजति वाप्यां वर्चसि गृहे वर्चस उपरि वा गोष्पदे वा कर्द्ध
तत्थऽमात्थ व पुंडे, तिहिँ आयमणं अदूरीम्म ॥४६३।। स्थितो बा तथा मनके व्युत्सृज्य यदि परिष्ठापयति तदा
उपकरणं दएमकं रजोहरणं च वामे करौ स्थापयति, मात्र सर्ववतेषु स्थानेषु प्रायश्चित्तं प्रत्येकं चत्वारो लघवः । गत- दक्किणहस्ते क्रियते, मंगलकानि च वामहस्तने धारणीयानि, ततः मपायद्वारम्।
संझा व्युत्सृज्य तत्रान्यत्र वा प्रदेशे डगलकैः पुतं पुंसयति इदानी वर्जनाद्वारमाह
रुक्कयति, पुंसयित्वा त्रिभिन वापूरकैश्चुबुकरित्यर्थः । आचमन दिसिपवणगाममूरिय-गयाएँ पमजिकाग तिकबुत्तो।
निर्लेपनं करोति। तथा चोक्तम्-"तिहि नावाए पूरपहिं प्रायमइ,
निल्लेवेति वा। नावा पूरओ नाम-पसती।" इति। तदपि चाऽऽच. जस्सुग्गहो ति काऊ-ण वोसिरे आयमे वा वि ॥४६॥
मनमद्रे करोति । यदि पुनरे पाचमति तत उड्डाहः, कश्चित उत्तरदिक, पूर्नदिक् च लोके पूज्या, ततस्तस्याः पृष्ठप्रदाने लोक
दृष्टा चिन्तयेतू-अनिःप्यपुतो गत एष इति । मध्ये अवर्णवादो भवति, वानमन्तरं वा किश्चित् मिथ्यादृष्टिः कुप्येत । तथा च सति जीवितव्यस्य विनाशः, तस्मात् दिवा रा.
संप्रत्यालोके प्रायश्चित्तविधिमाहत्रौ च पृष्ठ पूर्वस्याम, उत्तरस्यां तु दिवा। दक्षिणस्यां दिशि रात्री
आलोग पि य तिविहं, पुरिसित्थिनपुंसकं च बोधव्यं । निशाचराः संचरन्ति । ततस्तस्यां पृष्ठं रात्रौ वर्जयेत् । नक्तं च- बहुगा पुस्सिाऽऽलोए, गुरुगा य नपुंसइत्थीमु ॥४६४। "उभे मूत्र पुरीपे तु, दिवा कुर्यादुदङ्मुखः। रात्रौ दक्षिणतश्चैव,
आवातं पि य दुविहं, माणुसतेरिच्चयं च नायव्यं । तथा चाऽऽयने हीयते ॥१॥" तथा यतः पवनस्ततः पृष्ठं न कुर्यात, मा लोको ब्रूयात्-अघयन्त्येतदेते इति, नासिकायां
एकेकं पि यतिविहं, पुरिसित्थिनपुंसगे चेव ॥ ४६५।। चाशीसि मा नबन् । तथा ग्रामस्य, सूर्यस्य च पृष्ठं न दात
भानोकमपि च त्रिविधं त्रिप्रकारम् । तद्यथा-पुरुषाऽऽलोक, ज्याव्य, लोकेऽवर्णवादसनवात् । तथाहि-सूर्यस्य, ग्रामस्य वा लोकं, नपुंसका बोकम् । गाथायां पदैकदेशे पदसमुदायोपलक्षपृपदाने लोको ब्रतेन किश्चित् जानन्स्यते यल्लोकोद्योतकर. जानि। तर पुरुषाऽऽोके प्रायश्चित्तं चत्वारो लघुकाः। स्यालोस्यापि सूर्यस्य, यस्मिन् ग्रामे स्थीयते तस्याऽपि च पृष्ठं दद- के नपुंसकाऽऽलोके च चत्वारो गुरुकाः। तदेवमचित्तं स्थाएम. तीति । तथा समक्तग्रहणिश्छायायां व्युत्सृजेत्, यन द्वीडिय- लमचित्तेन पथा भणितम् । अथ सचित्तम मिश्रेण वा यदा तद यिनाशो न भवति । तथा त्रिकृत्वस्त्रीन् वारान् प्रमाज्य।। गच्छति तदा तदेव प्रायश्चित्तम् ।
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(२३७६) अभिधानराजेन्द्रः ।
मिल
बक्काय - चसु बहुगा, परित्ते लहुगा य गुरुग साहारे । संघट्टेण परियावर्णे, लड्डु गुरुग निवाय मूलं ||४६६॥ पाया:- पृथिव्यतेजाचा युवनस्पतिषसरूपाः तेषां मध्ये चतुर्षु पृथिव्यप्तेजोवायुरूपेषु संघट्टनाऽऽदिषु लघुकाः प्रायश्चित्तम् । परि सकवनस्पतिकायेऽपि लघुकाः साधारणे वनस्पतिका पिके संपादक तथा न्द्रियानां संघट्टने परि तापने च यथायोगं लघुका गुरुकाश्च प्रायश्चितम् । अर्पितनिपातने विनाशे मूत्रम् । इयं तत्र जावना पृथिवीकार्य संघयति मास परितापयति, जीविताद् व्यपरोपयतीत्यर्थः, चतुर्लघु । एवमप्कातेजाकावे, प्रत्येकवनस्पतिकाये च द्रव्यम्बके चकवादियच तद् य परिचम्म होति बलका लहु गुरु मालो चडलहु, घट्टण परितावलवणे ॥ १॥ " पतत् प्रायश्वितमेकैकस्मिन् दिवसे संघट्टनादिकर यदि न दिवस पृथिव्यादिसंघट्टपाते तदा मासगुरु, परितापयति य तुर्लघु, जीविताश्च व्यपरोपयति चतुर्गुरु, श्रीन् दिवसान् निर
""
पृथिव्यादीन् संघट्टपति चतुसंषु परितापयति चतुर्गुरु पावयति लघु निरन्तरं तु निरन्तरं चतुरोदिवसन् संघट्टने चतुर्गुरु, परितापने षलघु, अपावणे पम्गुरु, पदिवसा निरन्तरं पृथिव्यादीनां संघट्टने लघु परिता ने पगु अपापले मासिकच्छेद पर दिवसान् निरन्तरं संघट्टने पगु परितापने मासिकच्छेद पावस च्छेदः परितापने मासिक अपकावणे मूलम् । उच् च "दोहिं दिवसेहिं मासगुरुप श्राढवेत्ता चउगुरुप गति० जाव अ हर्दि संपयंति। " अनन्त वनस्पतिकं यदि संघट्टयति तदा मासगुरु, परितापयति चनुले अपायति चतुर्गुरु दिवसा 55वि निरन्तरं संघट्टना3उदित रोसरे कैकस्थानवृद्धिः स मिर्दिनीयं संघट्टपतिपरितापयति तुरु जीविताद् व्यपरोपयति षम्लघु । अत्र प्रयादिदिवसं निरन्तरं संघट्टवादिषु सम्मिश्री संततुरु परितापयतः लघु जीवितापरोपयतः पम्गुण । अत्र पञ्चभिर्दिव सर्मूलं चतुरिन्द्रियं संघट्टयतः लघु, परितापयतः गुरुव्यपरोपयतो मासिकश्छेदः - दिवसेयं संयतः परितापयतश् अपायतो मूलम् अत्र योवाच्यं त्रिषु दिबसेषु पातितं वनाद्वारम् ।
अधुनाऽनुशद्वारमाद
पदयुगस असती, बाघातो वा इमे वाणेहिं । तेणें नाले, खेदय निविडची अपुर्व ||४६७| प्रथममेव 'पढमिल्लुक ' प्राकृतत्वात् स्वार्थे इल्लुकप्रत्ययः प्रथममनापाता लोकल कृणं स्थण्डिलं तद् नास्ति, ततस्तस्य प्रथमस्याभावे अथवा स्वतोऽप्येभिः स्थानैर्व्याघातो भवेत् । तान्येच स्थानान्याह - " पमिणी " इत्यादि । प्रत्यनीकस्तत्र तिष्ठति, स्तेना वा पथि विविधाः । तद् यथा-उपकरणस्तनाः, शरी• रस्तेना वा । व्याला वा तत्र सर्पाऽऽदयो विद्यन्ते, क्षेत्र वा तत्र ज्ञातम, उदकेन वा तत् स्थपित्रमास्तृतम् । ग्रामो व्रजिका स्कन्धामारो वा तत्र निविशी नको या तत्र मैना संय तानागच्छतः प्रतीक्षते ।
पदमासति वाघा, पुरिसाऽऽलोम्मि ढोति जयकार |
थंमिल
मगपमज्जा मगल कुरुकु तिविहे विद्ध ने दो |४६८ एवं प्रथमस्य स्थरिमत्तस्याभावे, व्याघाते वा द्वितीय स्थ पापा कब मन्तव्यम् । तत्र संतान सोनिकानां संविद्यानामालोके गन्तव्यं तद्भावेोकानामपि । तत्रापरिगत पूर्वमेव प्रायितयाः यथा केपादाचार्यणां दिशमाच ततो दूधमा तान् वितधामाचारीका न र प्रतिनोद वे यदि मोतिहा स्तिष्ठथ । एवमसंखडाऽऽदयो दोषाः परिहृता भवन्ति । श्रसां भोगिकानामध्यापास्यानवे यत्र पार्थस्थानामा लोकतन गच्छन्ति, तस्याप्यजावे यत्र पार्श्वस्थाऽऽदीनामापातस्तन - जन्ति तबकादयोपरिगताः पूर्व प्रायः यथा एते निर्धर्माणो जिनाऽऽप्रकोपिनो वितथमाचरन्ति तन्मा यूयमेतेषां चेष्टितं चित्ते कुरुत, यथैतत् सुन्दरमिति । संयत्यापातवश्च सर्वप्रयत्नेन परित् । अन्यथा कृतसङ्केतका त्र समागच्छन्तीतिशङ्काऽऽदयः, आत्मपरोजयसमुत्थाश्व दोषाः संभवन्ति । एषा स्वपक्षे यतना । संप्रति परपक्षेऽभिधीयते तत्र धानापावतोऽभवे ( पुरिसालोयम्प्रि होति जपणार प्रति पुरुष पुरुषोकवति गन्तव्यं तत्र यतनया नयति क र्तव्यमाचमनाssदि । तामेव यतनामाद्- (मत्त गश्रपमज्जण मगलकुरुकुत्र त्ति) प्रत्येकं च प्रचुरं रूवं, मगलकानां चाप्रमार्जनं, न तानि मगलकानि प्रमार्जन्ते, हीनानां दोषसंभवाद्, कुरुकुचाश्चाचमनानन्तरं कर्तव्यातिथि विहखशत) त्रिविधे प्रत्येकं द्विविधो भेदो अष्टव्यः । इयमत्र नावना-त्रिविधः परपक्कः । तद्यथा पुरुषस्त्रीपुंसकैकः पुनर्द्वविधः शचवादी, अशौचवादी च । श्रथवाऽन्यथा प्रत्येकं विनेदः - श्रावको. ऽश्रावकश्च । अथवा-त्रिविधो भेदो नाम - स्थविरो, मध्यमः,
| यदि वा प्राकृतः, कौटुम्बिको दधिपतेच यो भेदा यथा पुरुषस्य, तथा स्त्रीनपुंसकयोरपि रूयाः । तेषु यतनया गन्तव्यम् ।
कथमित्यत आह
ते परं पुराणं, असोयवादी व आवायं । इस्थिनसलो, परंमुद्दो कुरुकुवा सा व ॥ ४६।। ततः पुरुषाऽऽलोकवतः स्थएिमलात्परतः, पुरुषाऽऽलोकवतः पति पुरुषाणामचयादिनामापातमा पत् स्थरिमलं व्रजेत तत्र च यतना प्रागुक्ता इष्टव्या । तस्याऽप्यसंभपेशीवादिनामध्यापानद् गन्तव्यम्। तस्यासंभवे स्थानके, नपुंसकाऽऽलोके वा गन्तव्यम् । श्यमत्र भावना - प्रथमतोऽशौच घादिनीनां स्त्रीणामालोके गन्तव्यम्, तत्र गतः सन् तासां पराइमुख उपविशेत्, यतना च सा कुरुकुचाऽऽदिका कर्तव्या । त स्वाऽप्यसंभवे शौचादिनीनामध्यासो गन्तव्यं तदभावे न पुंसकानामशी चवादिनामा लोके, तस्याऽसंभवे सोचनादिनामप्यालोके । यतना सर्वत्र सैव ।
ते परं श्रावायं, पुरिसेयरइत्थियाण तिरियाणं । तत्य विपरिहरेजा, दुबिए दिन दिने य ॥४७०|| ततः परं शौचयादिनामपि नपुंसकानामालोकस्यासंभवे पुरुपेतरस्त्रीणां तिरश्चामापाते व्रजेत् तत्रापि दशानसाँध जु गुसितान् परित् अपरिहारे पतन कुर्यात् श्रयमत्र नावा * कुरुकुचा -बहुना जवेन पादप्रकालनाऽऽदि ।
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(२३७७) थंमिल अनिधानराजेन्छः।
थंडिल र्थः-शौचचादिनां नपुंसकानामालोकासंभवे तिर्यक्पुरुषाणाम | तदपि चानापातासंलोकाऽऽदिनेदतश्चतुःप्रकारम, तस्यापि च दुष्टानामापाते व्रजेत् । तत्रेयं यतना-दण्डहस्ता वारंवारेण व्यु- त्रयः पन्धानः । तद्यथा-अचित्तः, मिश्रः, सचित्तश्च । त्यजन्ति । उक्तं च
तानेवाऽऽह" तेण परं पुरिसाणं, असोयवादीण बच्चे आवायं ।
अच्चित्तेणं मीसं, मीसं मीसेण छक्कमीसेणं । अथिस्थिनपुंसाणं, पालोयपरम्मुहा कुरुया ॥१॥
सच्चित्तबकरणं, मीसे चननंगियपदेसे ॥ ४७३ ॥ पच्चा तिरिपुरिसाणं, अदुन्दुट्ठाण बच्चें पाबायं ।।
मिश्रस्थाण्डिलमाचित्तेन पथा गम्यं, तदभावे मिश्रेणेत्यन दुट्टेसु दंमहत्था, वारं वारेण बोसिरणं ॥२॥"
श्राह-षटू मिश्रेण षमजीवनिकायमिश्रेण, तदनाचे मिश्रे स्थरिमो तस्याप्यभावे तिर्यस्त्रीणामजुगुप्सितानामापातं व्रजेत, तदसं.
षटकायसचित्तेन पथा गन्तव्यम् । उक्तं च-" पढममचित्तपहेणं, भवे जुगुप्सितानामप्यापातं, तदनावे तिर्यछनपुंसकानामजुगुप
मीसं मीसेणं छक्कमीसेणं । सञ्चित्तछकपणं, मीसं तू धीमसितानामापातं, तदनावे जुगुप्सितानामप्यापातम्, केवलं तत्र
लं गच्छे ॥१॥" तच्च मिश्रं स्थरिमझमध्वनि ग्रामात् ग्राम प्रति तथोपविशन्ति, यथा परस्परं सर्व प्रेकन्ते ।
बजतो इष्टव्यम्। तत्र मात्रकैर्यतना कर्तव्या । अथ मात्रकामि
न विद्यन्ते व्युत्सृजतां परिष्ठापयतां च सागारिकसंपात:, तदा तत्तो इत्थिनपुंसा, तिविहा तत्थ वि असोयवाईणं ।
धर्मास्तिकायाऽऽदिप्रदेशान् निधाकृत्य व्युत्स्रष्टव्यम्। नक्तं च-"ज. तहियं च सद्दकरणं, आनलगमणं कुरुकुया य ॥१॥ हियं पुण सागारिय-धम्मादिपएस तहिएँ निस्साए । बोसिर ततः स्त्रीनपुंसकानामापाते गन्तव्यं, ते च स्त्रीनपुंसकास्त्रिवि
एय मीस, नणिय समासेण थीमन्वं ॥१॥" उक्तं मिथ स्थपिड. भाःतधधा-प्राकृताः, कौटुम्बिकाः, दाण्डिकाश्च । ते च प्रत्ये.
लम् । तदभावेऽपवादतः सचित्तमपि गन्तव्यं, तदप्यनापाता. कं द्विधा-शौचवादिनः, अशौचवादिनश्च । तत्र प्रथमतोऽशौच.
संखोकादिभेदतश्चतुःप्रकार, तस्याऽपिच त्रयः पन्धानः। तद्य. चादिनामापाते व्रजनीयम्, तत्र च शब्दकरणम,प्राकुअगमनं,कुरु
था-प्रचित्तः, मिश्रः, सचित्तश्च । कुचा च कार्या। श्यमत्र जावना-जुगुप्सितानामपि नपुंसकाना
तत्र येन क्रमेण गन्तव्यं, तं क्रममाहमापातवतोऽसंभवे मनुष्यस्त्रीणामशौचवादिनीनामापाते गन्त- अचित्तेण सच्चित्तं, मीसेण सचित्त छकपीसेण । व्यम्, केवलं स्थविरसहितः प्रविशद्भिश्च परस्परं महान्तःशब्दा सच्चित्त बकपण, सचित्त चननंगियपदेमे || १७४॥ उच्चारणीयाः, येन तास्तान् श्रुत्वा निर्गच्छन्ति, आकुलीनूता. सचित्तमपि स्थपिमल चतुर्भङ्गिकम्, तत्र प्रथमतोऽनापाश्व तत्र प्रविशन्ति, येन 'व्याकुला अमी' इति ता दृष्टिविक्षेपा.
तासंलोकं गन्तव्यम्, तदभावे द्वितीय, तदभावे तृतीय, दिकं न कुर्वन्ति, अगाऽऽदिषु च स्थानेषु सझा व्युत्सृजन्ति, य
तदभावे चतुर्थमपि । तत्र यतना प्रागेवोक्ता । तत्र च प्रथ. था शेषोऽपि लोको दूरस्थः प्रेक्षते, तेऽपि च साधवस्तथा उ
मतोऽचित्तेन पथा गन्तव्यं, तदभाचे तत् सचित्तं मिश्रेण पविशति यथा परस्परं प्रेकन्ते, तत एवमात्मपरोनयदोषा न
पथा गम्यम् । केन मिश्रेणेत्यत श्राह-षटूमिश्रेण षटजीसंभवन्ति ।
वनिकायमिश्रेण, तस्याऽसन सचित्तन पथा सचित्तं गन्तउक्तं च
व्यम्, केन?, सचित्तेन षट्केन षट्जीवनिकायः । अत्रापि मात्र. "तत्थ पुण थेरसहिया, अाउनसहं करिति पविसंता।
कैयतना कर्तव्या।मात्रकाणामभावे व्यत्सगें परिष्ठापने वा सागाजह सद्देणं ताभो, निति ततो अगत्तमादीसु॥
रिकसंभवे धर्मास्तिकायाऽऽदिप्रदेशानां निश्रा कर्तव्या । नक्तं ठाणेसु चोसिरिती, पेच्वंति य जह परोप्परं सब्वे ।
च-"ज चिय मीसे जयणा, सेव सचित्ते वि दोश कायव्वा । पायपरोभयदोला, ते एवं वज्जिया हाँति" ॥२॥
मत्तादिअपरिसेसा, जा धम्मादीपपसा उ ॥१॥" श्रावमनानन्तरं च कुरुकुचा कर्तव्या, चशब्दादू मृत्तिकया तदेवमुक्तं स्थपिडलमिदानीमेतस्य यः कल्पिक, तमनिहस्तपुतप्रवालनं, बहिर्मात्रकस्य कल्प इति परिग्रहः। तदसंजवे
धित्सुराहशौचवादिनीनामपि मनुष्यस्त्रीणामापाते, तस्याभावे नपुंसका- पढियसुयगुणियमगुणिय-धारमधार उवउत्तों परिहरति । कानामशौचवादिनामप्यापाते, तदसंभवे शौचवादिनामप्यापा- बालोणाऽऽयरियाऽऽदी, आयरिउ विसोहिकारो से ४७५ ते गन्तब्यम् । सर्वत्रापि यतनाऽनन्तरोक्कैव ।
यस्मादजानतः प्रायश्चितं, तस्माद् येन सप्तसप्तकाऽऽदि सूत्रं पइत्थिनपुंसाऽऽवाते, मा उण जयणा उ मत्तगादीया।।
ठितं पावतः, श्रुतमर्थतः, तश्च गुणितमभ्यस्तं वास्पदे ऽगुणित
वाधारितं वाऽऽस्पपदेऽनवधारितं वा, तथापि य उपयुक्तः सन् पुरिसाऽऽवाए जयणा, सब्वे च न मत्तगादीया।।७।।
स्थमिलं परिहरति-उक्तप्रकारेणोपयुक्तः परिभोगयति, स विस्त्र्यापाते, नपुंसकाऽऽपाते च या पुनर्यतना मात्रकाऽऽदिका मन
चारकल्पिकः। तथा तेन स्थरिमलसूत्रेण पवितेन वाऽपवितेन स्तरमुक्ता, सैव पुरुषाऽऽपातेऽपि प्राक् मात्राऽऽदिका यतना द्रष्ट- चा अगुणितेन वा धारितन वा अधारितेन वा उपयुक्तो वाऽनुपव्या। एवं तावदचित्तं स्थपिमलं चतुःप्रकारमचित्तेन पथा गम्य युक्तो वा यां विराधनां करोति, तामाचार्याऽऽदेरासोचयति, तद. मुक्तम् । तदभावे मिश्रेणापि पथा तदपवादेन गच्छेत्। तदभावे जावेऽन्यस्याप्युपाध्यायाऽऽदेः, आलोचिते 'से' तस्य विशोधिकासचित्तनाऽपि । तत्राऽपियतना सैव प्रागुक्ता। उक्तं च-"पवम. रःप्रायश्चित्तप्रदानेन शुद्धिकर्ता आचार्यः किमुक्तं भवति?-यदा चित्तण पदेण, जयणा उ भणिया चउम्भंगे । मीससचित्तप- आचार्यःप्रायश्चित्तं ददाति, ततः स शुझिमापद्यते। गतं विचार. हेसु य, पस च्चिय भंगजयणा उ" ॥१॥ संप्रति मिश्रं वक्त- द्वारम्बु०१उ० प्रतिकापञ्चाश्राधoानिवृ०। ('णिग्गंधी' व्यं, यतोऽचित्तस्थाएमलासंनवेऽपवादतो मिश्रमपि गम्बते, | शब्दे २०४८ पृष्ठे ऽत्रैव जागे तासां स्थएिमवं प्रतिपादितम्)
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थं मिल
( १३७० ) अभिधान राजेन्द्रः ।
स्थपिमलगमनविधिः
से निक्खु वा भिक्खुशी वा उच्चारपासवण किरियाए उाहिज्ञमाणे सयस पायपुंकूणस्स असतीए तो पच्छा साहम्मियं जाएज्जा ।।
"से" इत्यादि । स जितुः कदाचिदुच्चार प्रस्रवण कर्त्तव्यत पो त्याबल्येन बाध्यमानः स्वकीयपाद पुज्छनसमाध्यादावुच्चाराऽऽदिकं कुर्यात्, स्वकीयस्याजावे ज्यसाधम्मिकं साधुं याचेत, पूर्वप्रत्युपेकितं पादपुकून कं समाध्या दिकमिति । तदनेनैतत् प्रतिपादितं भवति-वेगधारणं न कर्तव्यमिति ।
अपि च
सेभिक्खू वा जिक्खुणी वा मेज्जं पुण थंमिल्लं जाणेज्जासमं सपाएं० नाव मक्कडासंताणयंसि तदप्पगारंसि थं मिसि णो उच्चारपासवणं वोसिरेज्जा ।
" से " इत्यादि । स भिरुच्चारप्रस्रवणाऽऽशङ्कायां पूर्वमेच स्थरिमलं गच्छेत्तस्मिंश्च साएमाऽऽदि के अप्रासुकत्वाडकचाराऽऽदि न कुर्यात् ।
किञ्च -
से निक्खु वा भिक्खुली वा सेज्जं पुण थंडिलं जाणेज्जा - अप्पपाणं अपवीयं० जाव मक्कमासंताणयंसि तहप्पगारसि यंमिलसि उच्चारपासवरणं वोसिरेज्जा ।
" से " इत्यादि । अल्पारमकाऽऽदिके प्रासुके कार्यमिति । औद्देशिकं स्थापिमलम्
से जिक्खू वा निक्खुली वा सेज्जं पुण मित्रं जाणेज्जा - असि पडियाए एवं साहम्मियं समुद्दिस्स, सि पडियाए बहवे साहम्भिया समुद्दिस्स, असि पमियाए एवं साहम्पिा समुदस्स, असि पनियाए बडवे साइम्मिणी
समुद्दिस सि पडियार बहने समयमाहवशी वगे पगणिय २ समुद्दिस्स पाणाई ४ जाव उद्देसियं चेतेति, तहृवगारं मिले पुरिसंतरकरुं वा ०जाव बहिया बीहड वा यरंसि वा तप्पगारंसि थंडिलंसि पो उच्चारपासवर्ण वोसिरेज्जा ।
" से " इत्यादि । स भिक्षुर्यत पुनरेवंभूतं स्थरिमलं जानीयात् । तद्यथा-एकं बहुन् वा साधर्मिकान् समुद्दिश्य तत्प्रतिज्ञया कदाचित् कश्चित् स्थण्डिलं कुर्यात् । तथा श्रमणाऽऽदीन् प्रग णय्य वा कुर्यात्, तच्चैवंभूतं पुरुषान्तरस्वीकृतमस्त्रीकृतं वा मूलगुणदुष्टमुद्देशिकं स्थएिमलमाश्रित्योच्चाराऽऽदि न कुर्यादिति । fisa - भपुरुषान्तरकृते स्थएिमले उच्चाराऽऽदि न कुर्यात्सेनिक्खु वा निक्खुणी वा सेज्जं पुण थंमिलं जाणेज्जा - बहवे सममाहण किवणवणीवगप्रतिही समुद्दिस्स पाणाई ४ ०जाव उद्देसियं चैतेति, तद्गारं यंमिले अपुरिसंतरकर्म • जाव बहिया अणीहमं वा श्रायरंसि वा तहपगारास या उच्चारपासवणं वोसिरेजा, ग्रह पुरा एवं
थंडिल
यरं
जाऐज्जा - पुरिसंतर कडं जाव बहिया पीहरु वा सिवा तहष्पगारंसि किलंसि उच्चारपासवर्ण वोसिरेज्जा । "से" इत्यादि । स भिक्षुर्यावदन्तिके स्थणिमले पुरुषान्तरस्वीकृते उच्चाराssदि न कुर्यात्, पुरुषान्तरस्वीकृते कुर्यादिति । अपित्र क्रीतकृताऽऽदिस्थण्डिलमसेभिक्खू वा भिक्खुणी वा सेज्जं पुरा थं मिलं जाणेज्जासि पमिया कथं वा कारियं वा पामिचियं वाणं वा वामहं वा लिवा समङ्कं वा संपवितं वा श्रायरं सि तहगारंसि यंमिनंसि णो उच्चारपासवर्ण वोसिरेज्जा । " से " इत्यादि । स निक्षुः साधुमुद्दिश्य क्रीताऽऽदान्तरगुशुद्धे स्थपिकले उच्चाराऽऽदि न कुर्यादिति ।
किञ्च यत्र गृहपतिपुत्राऽऽदय आगच्छन्तिसेभिक्खू वा निक्खुणी वा सेज्जं पुण थंडिलं जाणेज्जा - इह खलु गाहावई वा गाहावइपुत्ता वा कंदाणि वा मूलाणि वा० जाव हरियाणि वा अंतातो वा बाहिं णीहरिति, वाहवा तो साहरंति, श्रयरंसि वा तहपगारंसि थंडिलंसि णो उच्चारपासवणं वोसिरेज्जा । "से" इत्यादि । स भिक्षुर्गृहपत्यादिना कन्दाऽऽदिके स्थरिमलान्निष्कास्यमाने तत्र वा निक्षिप्यमाणे नोवाराऽऽदि कुर्यादिति ।
तथा
सेभिक्खू वा भिक्खु वा सेज्जं पुण थं मिलं जाणे- खंसि वा पीढांस वा मंचंसि वा मालंसि वा हंसि वा पासायंसि वा अएण यरंसि वा यंमिलंसि पो उच्चारपासवणं वोसिरेज्जा ।
"से" इत्यादि । समिक्षुः स्कन्धाऽऽदौ स्थरिकले नोच्चाराssदि कुर्यादिति ।
किञ्चसेभिक्खु वा भिक्खुणी वा सेज्जं पुण मिल जायेज्जानंतरहिया पुढत्रीए ससशिकार पुढवीए ससरक्खा - पुढबीए मट्टियाए मक्कमाए चित्तमंताए सिलाए चित्तमंतार लेलुए चित्तताए कोलावासंसि वा दारुयंसि वा जीवपडियंसि वाण्जाव मकमासंतापयंसि प्रणयरंसि वा तहप्पगारंसि मिसंसि णो उच्चारपासवणं बोसिरेज्जा ।
"से" इत्यादि । स निकुर्यत्पुनरेवंभूतं स्थण्डिलं जानीयात् । तद्यथा - अनन्तरितायां सचित्तायां पृथिव्यां तत्रोच्चाराऽऽदि न कुर्यात् शेषं सुगमम् । नवरं ( कोलावासंसि ति) घुणत्रासम् ।
श्रपिच यत्र गृहकन्दाऽऽदीनि परिशादयन्तिसेभिक्खू वा भिक्खुणी वा सेज्जं पुरा थंडिलं जाणे- इह खलु गाहाबई वा गाहापुत्ता वा कंदाणि वा० जाब बीयाणि वा परिसास वा, परिसार्डेति वा, परिसामिसंति वा अष्यरंसि वा तहप्पगारंसि मिसि पो उच्चार पासवणं बोसिरेज्जा ।
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(२३७९) थंमिल अन्निधानराजेन्डः।
थंमिल "से" इत्यादि । स निकुर्यपुनरेवंचूतं स्थपिमलं जानी- आरामाणि वा उज्जाणाणि वा वणाणि वा वसंमाणि यात् । तद्यथा-यत्र गृहपत्यादयः कन्दबी जाऽऽदिपरिोपणा
वा देवकुलाणि वा सजाणि वा पवाणि वा अएणयरंसि वा ऽऽदिकाः क्रियाः कालत्रयवर्तिन्यः कुर्युः, तत्रैदिकाऽऽमुष्मिका
तहप्पगारंसि थंडिलंसि णो नचारपासवणं वोसिरेजा। पायभयाकुच्चाराऽऽदि न कुर्यादिति। तथा यत्र गृहपतिपुत्राः शाल्याऽऽदीनि धपन्ति
'से" इत्यादि । स भिबिहानसस्थानानि मानुकोखम्बनस्था. से भिक्खू वा भिक्खुणी वा सेज्ज पुण यमिन्नं जाणे
नानि, गृध्रस्पृष्ट स्थानानि यत्र मुमूर्षवो गृध्राऽऽदिभवणार्थ रु
धिरादिलिप्तदेहा निपत्याऽऽसते, तरुपतनस्थानानि यत्र मुम. ज्जा-यह खलु गाहावई वा गाहावतीपुत्ता वा सालीणि
व पचानशनेन तरुवत्पतितास्तिष्ठन्ति, तरुभ्यो बा यत्र पतन्ति, वा बहीणि वा मुग्गाणि वा मासाणि वा तिलाणि वा एवं मेरुपतनस्थानान्यपि । मेरुश्चात्र पर्वतोऽभिधीयत इति । कुलत्याणि वा जवाणि वा जवजवाणि वा परिंसु वा,
एवं विषजवणाग्निप्रवेशस्थानाऽऽदिषु नोच्चारादि कुर्यादिति। परिंति वा, पइरिस्संति वा अप्पयासि वा तहप्पगारांस
अपि च-"से" इत्यादि । भारामदेबकुलाऽऽदो नोच्चाराऽऽदि
विदध्यादिति । थंमिलंसि णो उच्चारपासवणं वोसिरेजा।
तथा अट्टालकाऽऽदिषु"से" इत्यादि । यत्र च गृहपत्यादयः झाल्याऽऽदीन्युप्तवन्तो, से जिक्खू वा भिक्खुणी वा सेज्ज पुण थंमिल जाणेज्जावपन्ति, वस्यन्ति वा तत्राप्युच्चाराऽऽदि न विदध्यादिति ।
प्रहालयाणि वा चरियाणि वा दाराणि वा गोपुराणि वा किंच-यत्र फचवराऽऽदिपुजा:से भिक्खू वा भिक्षुणी वा सज्जं पुण थंमिलं जाणे
अमयरंसि थंडियंसि पो उच्चारपासवणं वोसिरेज्जा ॥
" से " इत्यादि । प्राकारसम्बन्धिन्यहालकाऽऽदौ नोच्चाजा-आमोयाणि वा घसाणि वा भिलुहाणि वा विज्जुला
राऽऽदि कुर्यादिति । णि वा खाणुयाणि वा कमपाणि वा पगहाणि वा दरीणि
किश्चवा पदुग्गाणि वा समाणि वा विसमाणि वा भएणयरंसि से निक्खू वा भिक्खुणी वा सेज्ज पुण थंडिलं जाणेवा तहप्पगारंसि णो उच्चारपासवणं वोसिरेज्जा। ज्जा-तियाणि वा चनक्काणि वा चच्नराणि वाचनम्मु"से" इत्यादि । स भिर्यत्पुनरवंचूतं स्थरिमसं जानीयात् ।त.
हाणि वा अएणयरंसि वा तहप्पगारंसि णो उच्चारपासउथा भामोकानि कचबरपुजाः, घसा वृहत्योभूमिराजयः, भि
वणं वोसिरेज्जा । मुहाणि लक्षणभूमिराजयः, बिज्जलं पिच्छलं, स्थाणुः प्रतीतः, "कमयाणि" कुपातन्निकाऽऽदिदएमकः, प्रगर्ता महागतः, दरी
त्रिकचत्वराऽऽदौ च नोच्चाराऽऽदि व्युत्सृजोदिति । प्रतीता, प्रमुर्गाणि कुज्यप्राकाराऽऽदीनि । एतानि च समानि
किञ्च-- वा विषमाणि वा भवेयुः, तदेतेप्वात्मसंयमविराधनासंजवानो.
से निक्खू वा भिक्खुणी वा सेज्ज पुण थंडिलं जाणेचाराऽऽदि कुर्यादिति।
ज्जा-इंगालमाहेसु वा खारडाहेसु वा ममयमाहेसु वा ममकिंच मानुषरन्धनाऽऽदिस्थएिमलानि--
ययूजियासु वा मढयचेश्एस वा अएणयरंसि वा तहप्पगासे जिक्खू वा भिक्खुणी वा सेज्ज पुण थंडिलं जाणेजा- रंसि थंडिसि पो नच्चारपासवणं वोमिरेज्जा। माणुसरंधणाणि वा महिसकरणाणि वा वसभकरणाणि _ 'से' इत्यादि । स निकुरङ्गारदाहस्थाने श्मशानाऽऽदौ नोच्चावा अस्सकरणाणि वा कुकुमकरणाणि वा मक्कडकरणाणि
रादि विदध्यादिति ।
___ अपिच-पङ्काऽऽद्यापतनघुवा लावयकरणाणि वा वट्टयकरणाणि वा तित्तिरकरणा
से निक्खू वा भिक्खुणी वा सेज्नं पुण थंडिलं जाणेणि वा कवोयकरणाणि वा कपिजलकरणाणि वा अप्प
ज्जा-णदियाययणेसु वा पंकाययणेमु वा उग्घाययणेसु यरंसि वा तहप्पगारंसि णो उच्चारपासवणं वोसिरेज्जा ।
वा सेयणवहंसि वा अप्पयरंसि तहप्पगारंसि थंडिलंसियो "से" इत्यादि । स निकुयत्पुनरेवंभूत स्थरिडलं जानीयात् । तद्यथा-मानुषरन्धनानि चुयादीनि, तथा महिष्यादीनुदिश्य
उच्चारपासवणं बोसिरेज्जा । यत्र किञ्चित्क्रियते, तथा तत्र स्थाप्यन्ते, तत्र लोकविरुष्प्रवच. "से" इत्यादि । नद्यायतनानि यत्र तीर्थस्थानेषु लोकाः पु. नोपघाताऽऽदिभयाद् नोच्चाराऽऽदि कुर्यादिति ।
एयार्थ स्नानाऽऽदि कुर्वान्ते । पङ्कायतनानि यत्र पङ्किलप्रदेशे लोतथा वैदानसस्थानाऽऽदि पारामाऽऽदि परिोत
का धर्मार्थ लोटनाऽऽदिक्रियां कुर्वन्ति, उद्घायतनानि यानि प्रवा. से भिक्खू वा जिक्खुणी वा सेज्ज पुण थंमिलं जाणे
हत एव पूज्यस्थानानि, तमागजलप्रवेशोऽथ मार्गो वा से
चनपयेऽवनिकाऽऽदा नोच्चाराऽऽदि विधेयमिति । उजा-वेहाणसहाणेसु वा गिछपिट्ठट्ठाणसु वा तरुपतणहा.
तथा मृत्खन्यादिषुणेसु वा मेरुपवमाटाणेसु वा विसभक्खाहाणेसु वा अ. से भिक्खू वा मिक्खुषी वा सेज्जं पुण थंमिलं जाणेगणिकंमयहाणेसु वा एणयरंसि वा तहप्पगारंसि णो जा-णवियासु वा मट्टियखाणियासु णवियासु गोप्पयझेचारपासवणं वोसिरज्जा ।
हियासु गवायणीसु वा खाणीसु वा अप्पयासि वातहप्पसे मिक्ख वा भिक्षुणीवा सेज्ज पुण थंडिलं जाणोज्जा-| गारंसि थंमिलसि पो उच्चारपासवणं वोसिरेज्जा ।
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(१२) थंडिल अभिधानराजेन्द्रः।
यांडिल "से" इत्यादि । स भिकुरभिनवासु मृत्वनिषु, तथा नवा- (स्थरिमलयतना नगरोपरोधे 'वरोह' शब्दे द्वितीयत्नागे सु गोप्रलेह्यासु गवादनीषु, सामान्येन वा गवादनीषु वा खनिषु ६१. पृष्ठे उक्ता) ('पज्जुसणा' शब्दे तात्कालिक्यो हमनोचाराऽऽदि विध्यादिति ।
यो प्रायाः) (स्थण्डिले उच्चारप्रस्रवणपरिष्ठापना परिहवणा' शब्द दर्शयिष्यते ) ( स्थरिकलविषये शिष्यपरी
का 'आलोयणा'शब्दे द्वितीयन्नागे ४१० पृष्ठे गता ) संज्ञा से भिक्खू वा निक्खुणी वा सेजं पुण मित्रं जाणे- |
प्युत्सृज्याचार्येण वसती रक्कणीयेति 'बसहि' शब्दे पकाज्जा-ढागवच्चंसि वा सागवच्चंसि वा मूलगवच्चंसि वाह- किनां वसतिरकणप्रस्तावे बक्ष्यते) स्थकरवध्वंसि वा अप्पयरंसि वा तहप्पगारंसि मिले
गोचरचर्याविषयःणो नच्चारपासवणं वोसिरेजा।
गोअरग्गपविको य, वच्चं मुत्तं न धारए । "से" इत्यादि । 'मागे त्ति' मागप्रधानं शाकं पत्रप्रधानं तु शाक- प्रोगासं फासुग्रं नचा, अन्नविन वोसिरे ॥ १५ ॥ मेव, तद्वति स्थाने मूलगाऽऽदिवति च नोचारादि कुर्यादिति । गोचराग्रप्रविष्टस्तु वर्गों मूत्रं वा न धारयेत्, अवकाशं प्रासुकं तथा
सात्वाऽनुज्ञाप्य व्युत्सजेदिति । अस्य विषयो वृक्षसंप्रदायादव
सेयः । स चाऽयम-पुत्वमेव साहुणा सन्नाकारोवयोगं कासे जिक्रव वा भिक्खुणीवा सेज्जं पुण थंडिलं जाणेज्जा
कण गोयरे पविसिव्वं । कहंचि ण को, कप वा पुणो असणवणंसि वा सणवणंसि वा धायइवणं सि वा केयइ
दोना, ताहे वच्चं मुलं न धारयन्व, जो मुत्तनिरोहे वर्षसि वा अंबवणंसि वा असोगवणं सि वा णागवणंसि चक्खुवघाओ भवति । वश्चनिरोहे जीविभोवघामो असो. वा पुस्मागवणंसि वा चुगवणसि वा एणयरेसु वा तह
हणा अ भायविराहणा । जो भणिभं-" सम्वत्थ संजम
मित्यादि । अओ संघामयस्स सयन्नाणाणि समप्पिन पप्पगारेमु वा पत्नोवएमु वा पुष्फोवएस वा फलोवएसु वा
मिस्सए पाणयं गहाय सन्नाभूमीए विहिणा बोसिरिज्जा । विवीओवएसु वा हरिओवएमु वा यो उच्चारपासवणं
स्थरो जहा ओहणिज्जुत्तीए ॥” इति सूत्रार्थः ॥१५॥ वोसिरेज्जा।
दश०५ अ.। "से" इत्यादि । प्रशनो बीयकः, तनाऽऽदौ च नोचारा- आचार्येणानेकवारं स्थपिडलभूमौ न गन्तव्यमिति ' परऽऽदि कुर्यादिति।
सेस' शब्द प्रथमभागे १५ पृष्ठे उक्तम् ) (ग्लानार्य गच्छतो तथा पत्रपुष्पफबाऽऽद्युपवेष्टिते कथं वोच्चाराऽऽदि मध्ये व्युत्लगों ‘गोयरचरिया' शब्दे तृतीयभागे ६६६ पृष्ठे उक्तः) कुर्यादिति दर्शयति स्वपात्रं गृहीत्वा यथा
धाबकस्य मलोत्सर्गःकर्तव्यमुच्चारप्रस्रवणम्
तत्र च मलोत्सर्गों मौनेन निरवद्याईस्थानाऽऽदिविधिनैवोसे निक्रव वा जिक्खणी वा सयपाययं वा परपाययं वा |
चितः। यत:-"मुत्रोत्सर्ग मलोत्सर्ग, मैथुनं स्नानभोजनम् । स
अध्याऽऽदिकर्म पूजां च, कुर्यात् पश्चच मौनवान'॥१॥विवेकगहाय से तमायाए एगंतमवकमेज्जा, अणावायसि असं- बिलासेऽपि-" मौनी वस्त्राऽऽवृतः कुर्याद, दिनसन्ध्याक्ष्येऽपिसोइयंसि अप्पपाणं सिजाव मक्कडासंताणयंसि अहारामंसि | च। उदङ्मुखः शकुन्मूत्रे, रात्रौ याम्याननः पुनः॥ १॥ इति । वा नवसायंसि ततो संजयामेव नच्चारपासवणं वोसिरे
ध०२ अधि।
भत्राऽऽहजा,वोसिरित्ता से तमादाय एगतमवक्कमेज्जा,अणावायंसि०
जे भिक्खू उच्चारपासवणं परिदृविता ण पुति, ण पुंजाव मक्कमासंताणयंसि अहारामंसि वा कामथंमिलसि |
छतं वा साइज्ज ॥१४॥ वा अहायरंसि वा तहपगारसि थंडिलंसि अचित्तंसि ततो
ण बति ण णिपुगवेति । संजयामेव जच्चारपासवणं परिहवेज्जा, इयं खलु तस्स
जे निक्खू उच्चारपासवणं परिहवित्ता कडेण वा कनिनिक्खुस्स वा जिक्खणीए वा सामरिगयं जाव जएज्जा ।
वेण वा अंगुलियाए वा सिलागरण वा पुंब, पुंछतं वा सित्ति वेमि।
साइज्जइ ॥१४३ ॥ "से" इत्यादि। स निक्षुः स्वकीय परकीय वा पात्रकं समा- कलिवा-बसकप्परी एणतरकटुघमिया सलागा, तस्स धिस्थानं गृहीत्वा स्थरिमलमनापातमसंलोकं गत्वोच्चार,प्रसव- माससहूं। ण वा कुर्यात्प्रतिष्ठापयेदिति । शेषमध्ययनसमाप्तिं यावत् पूर्वव
गाहादिति। प्राचा०२ ७०२ चू०३००। (स्थविरकल्पिकाः स्थ- नच्चारमायरित्ता, जे निक्खू ण पुंबती अहिहाएं। एिमले गुदप्रमार्जनं कुर्वन्ति,न तु जिनकल्पिका इति'लेव' शब्द
पुंछिज्ज व अविहीए, सो पावति आणमादीणि ॥३०॥ बक्ष्यते)(सार्थेन सहगमने रात्रिविहारे सर्वथैव स्थएिमसं न प्रार्थयन्ते, धर्माधर्माऽऽकाशास्तिकायप्रदेशेषु अपि व्युत्सृ.
आयरित्ता बोसिरित्ता, प्रविधी कट्ठातिया विदियसुत्ते । जन्ति 'विहार' शब्दे वक्ष्यन्ते)(निग्रन्थानां निग्रंथीनां च
गाहा: मिथ उपाश्रयगमने स्थरिमलदोषा 'वसहि' शब्दे वक्ष्यन्ते)
पखालणं दवेणं, जुत्तमजुत्तेण जावणादोसा । (रात्री विचारभूमौ न गन्तव्यमिति 'विहार' शन्दे वक्ष्यते) |
संजम आयविराहण, अविधीय पुत्रणे दोसा ॥३०॥
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थं मिल
अणमगमिते अतीय सच्चरियं दवेज सेण धोत्रेणेति भणि होति तेण सुछति असु दिठे उड्डाहो, सेहो वा विपरिणमेज्ज । श्रह अजुसेण बहुणा दवेण घोषति तो पलाचनादिदोसा, पते अपुंजित दोसा । श्रविधीप पुंछिते इमं पन, अविधिविपहिं श्रायविराहणा । श्रह जीवकाओ चि संजमविराणा य ।
श्मा अविधी
( २३०१ ) अभिधानराजेन्द्र
कट्ठे कलिवेरण व पत्तसलागाएँ अंगुलीए वा । एसा अविधी भणिता, मगलगमादी विधी चैव ।।३०५ || पं पापादिगले वा चीरेण वा वास तिविधा विधीला दुविधा संवाद हुआ म संबद्धा वा होज । जे श्रसंबा ते तिविधा उक्कोसा तिउबला लेट्ठू मसिणा मज्जिमा, इट्टालं जहराणं । जम्दा एते दोसा
तम्हा पुंगदाणं, काऊ डगलगाण बडज्जा । उत्थाणोसहपाणे, सती व सण कुज्ज आदाणं ॥ ३०६ ॥ पाषाणं मगनगादीण इमेज उपचारं योसिरिया वि तियपदं गाड़ा पच्बषं-उत्थाणं अतिसारो, श्रसहपीतो वाण गेति प्रती वाण ति जे भिक्खू उच्चारपासवाणं परिहविचा शायमा, थायमंतं वा साइज्जइ ॥ १४४ ॥
जे भिक्खू उच्चार पासवणं परिवित्ता तत्थेव आयमति, आयतं वा साइज ।। १४५ ।। जे भिक्खू उच्चारपावणं परिद्ववित्ता अइदूरे प्राथमति, आयतं वा साइज्जइ ॥ १४६ ॥
तिथि सुताचारे बोसिरिमाणे अस्सं पासव भवति तेण गदितं पाप पुंछाओ अगर मंति जहा उच्चारे तत्थेव ति; मिले जत्थ सराणा ओसरिया, भतिदूरे दत्थसय पमाणमेत्ते ।
गाहा
उच्चारं बोसिरिता ने भिक्खू नेव आयमेला वि। दूरे अच्चासरणे, सो पापति भाणमादीथि ||३०७ ।। श्रयमणं णिलेवणं, आसपणं तत्थेव मंडिले । अणायते श्मे दोस्रा - अपमोपपाणी, विष्परिणामेव मेहऍ गुंग । दोसा अयं दूराऽऽसएणाऽऽवर्धते व ॥ २०० ॥
सोमे असोत पति पयंत म पणे विपचयं वारेति । पचयणहाणी- हंसणे चरित्ते वा अन् वगमं कालं कामस्स विष्परिणामो भवति, सेक्षण वा मा एतेहिं विसिद फार्स करे, पसा कुछ दूरे विपते दोसा, आसव एते से दोसा कई सामाजि पोखितिं दूरंगतो. सागरियो विवि पराभ णणिवंत लोगस्स कहेति । श्रासो तत्थेव संजतो पिल्लेवेनं सामारि जमुखियं पेक्खति तं संकातिश्रंण शिवेवितं पच्छा लोगस्स कदैति ।
५०६
,
गाड़ा..
उत्थाणोसहपाणे, दवे असती व पायमेजाहि ।
मिलस्सव असती असणे वा विदूरे वा । ३० । प्रश्नस्स थंमिलस्स असति तत्थेव निल्लेवेति, थंमिलाओ वा दूरंतु निवेति सामारियो पुणो या सेवावेति । जे जिक्यू उचारपासव परिहविचा पर लिए यात्रापूराणं आयम, प्राक्मंतं वा साइज्जइ ॥ १४७ ॥ पायचि पती, ताहि तिहिं प्रायमिति जीणातिहा करोति, अवयवे विचित् विति शावापूर तिहा करेसा सम्मावयवं विसोहिति ततियं णावा पूरं विदा करेला तिथि कप्पे करेति सुकं अतो परं जति तो मासलडु ।
पंजणय
गाहा
उचारमापरिचा, परेण लिएदं तु खानपुराणं ।
जे भिक्खू आयामति, सो पावति श्राणमादीणि ॥ ३१० ।। इमे दोसा
उच्छोलणुपिलावण- परुणं तसपाणतरुगणादीगां । कुरुपपदोसा च पुणो, परेण तरहाऽऽयमंतस्म ॥। ३११ ।। उबोलना पथोचित सोषितारिपच्या दोसा भवंति, पिपीलिगाऽऽहीणं वा पासणाण उपिलावणावति, जिल्लगंधे तसा पति, तरुगणपताणि वा पुप्फाणि वा फ माणि या पति प्रतिग्ाहणं पुढविधा पाऊण य यत्राग्निस्तत्र वायुना भवितयमिति कृत्वा ऊरुवयकरणे य पाबसत्तं भवति ।
कारणे अतिरिसे ण श्रायमेवितियपद मसहरो - गरिमा सागार सोयवादीसु | उत्यायोसहपाणे परेण दिएदाऽऽयमेनासि ॥ ३१२ ॥ जेण वा जिल्लेवं जिग्गंधं भवतीत्यर्थः । नि० चू० ४ उ० । यदुदयेनारमा सदसद्विवेक विकलत्वात् स्थण्डिलबद् भवति स स्थण्डिलः । क्रोधे, सुत्र• १ ० ६ अ० । मिदेशीले ०५ वर्ग २५ गाया। यंब - देशी - विषमे दे० ना० ५ वर्ग २४ गाथा ।
यंभ स्तम्न- पुं० | [चापदे ॥ ८ | २ | ए ॥ इति स्पन्दावस्तस्तस्य कारक 'नो' जी" ० २ पाद उच्चजातीयोऽहं कथमेतेषां भिखावराणां होनाश्रीयानां पार्श्वे गजात्याद्यभिमाने, आ० म० १ अ० २ स्वराम । उत्स० । आव० दश० । श्रहङ्कारे, उत्त० ११ ० । अवमाननायाम, न० १२०५ उ० । गर्ने, सूत्र० १ श्रु० १३ श्र० । शैलदारुमयाऽऽदौ, आचा० २ ० १ ० १ ० ७ उ० । स्थाणी, स्था० वा० २ ० । पंजण स्तम्भन न करणे, औ पंजणय स्वम्जनक नवभयपार्श्वनाथपुर भैदे, ती० ४३ कल्प ।
" थंभणयकप्पमज्जे, जं संगहियं न वित्थरभरणं । सिरिज
कर१॥"
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( २३०२ ) अभिधानराजेन्द्रः ।
जय
वक्खारपब्व रयणसीहराया, तस्स भोपालनामिमं धूमं रुवलासंपदा सासुरास्तं सेवमाणस वा सुमिणो दिको पुत्त नागो नाम जाश्रो । सो अ जपण पुत्तसिणेहमोहिमा महो मही फजाई जाई दलाई कंदाईच जावितपनावे सो महासिद्धिर्दिकि सत्तिविषखाओ पुर्वि विश्ररंतो सालवाहणे रन्नो कलागुरु जाओ । सो अ गयथगामिणिविज्जा अज्झयणत्थं पालित्तयपुरसिरिपासारिए सेवेश | अन्नया भोअणावसरे पायष्पलेवचलेण गयणे उप्पश्य पास, श्रद्धावयाई तित्याणि नमसिना स हाणमुवाचासि पाऊण सनुतरसयमहोसहाणं
सायनामाईऊण गुरुवा यं सेवं काउं कुक्कुरुप व उप्पयंतो अवडतमे निवडिओ वणजरिगो को किमेवं तेन जट्टिए युद्धे तस्स फोसलयमकमिता आयरिया तस्स सिरेम दाई भति सहित दुलोइगेण ताणि सहाणि वडिता पायप सेब काउं गयणे चक्कि आसित्ति। तो तं सिद्धिं पाविअ परितुझे पुणो कथा वि गुरुमुहाश्र मुणेइ-जहा सिरिपासनाहफु राम्रो साहितो महासईवि लयाए अमदिजतो रलो कोडिबेही हवश । तं सोऊण सो पानामाको वार सारेणं लिखिनेमिनाहमुद्राओ महासयं नाऊन सिरि पासनाहपडिमा पासायम्मि ववित्ता पूरना । बारवईदादानंतरं समुद्देण पाचिया सा पत्रिमा सहेच समुहमा ठिया काण कंतीवासिणो धणवइनामस्स संजतिभस्त जाणवतं देवया इसयाओ खलिश्रं जत्थ जिणबिंबं चिरुइ त्ति दिव्ववायाए निपरिचित्ता संदाणिम उद्धारापमा परी पासाय साइरिचापदि
पद तो सम्याश्वाइतं वित्रं नाऊप नागज्जुणो सिफरससिद्धिनिमित्तं श्रवहरिऊण सेदीसमेत पुरी ससाणा सिरिसा पादण ददामिदा महासदेवं विद्यतरसनिद्वेण तत्थ श्राणाविश्र पइनिसं रसमद्दणं कारेश। एवं तत्थ तुजो भुजो गयागरणं तीए बुद्धु त्ति पमिवन्नो । सा तेसिं श्रोहाणं मद्दणकारणं पुच्बेश सो कोमीरसवेदे वुतं जहिि कहे या दुराद निभपुत्ताणं तीए निवेश जहा एअस्स रससिद्धी होहि ति । ते रसलुका निश्ररज्जं मुत्तुं नागज्जुणपास. मागया अवेण तं रसं वित्तुमणा पच्छन्नवेला जत्थ नागज्जुयो भुंजद्द तत्थ रससिद्धिवत्तं पुच्छंति । सा य तज्जाअत्यंत समूर्ण रसवई सादेश, मासे इकते खारिति दूसिया तेण रसव, तो इंगिराई रसं सिर्फ नाऊण पुत्ताण निवेश्श्चं तोए । तेहिं च परंपरा नायं, जहा वासुगिनाए अस्त दम्भंकुराओ मच्चू कहियो चि ते च सत्येण नागज्जुणो निहओ । जत्थ य रसो यभिश्रो तत्थ थंभणयं नाम नयरं संजायं । तत्र कालंतरेण तं बिंबं वयणमित्त विजं भूमिअंतरिअंगं संवृत्तं ॥ इश्रो श्र चंदकुले सिरिबरूमाणरिसीसजिणेखरसूरीचं सीसो सिनियदेवसूरी गुजरा प संभाषयाणे विहरियो । तत्थ महावादिवसेण अईसार रोगेज पचनगारगामेदितो पक्लिपडिकमणत्थमार्गतुकामो विलेसेण हूओ, मिच्छादुक्कडदा णत्थं सब्बो विसा
भणया
वयसंघो । तेरसीभद्धरते अ भणिभं पहुणी सासणदेवयाट भववं ! जग्गहसु । अह तत्र मंदसरेणं दुतं पहुणा के तुमे? । निद्रादेवीय भवि-ओन कुडो उम्मोदे पहुणा भणिनं न सक्केमि । तीए भणिनं कह न सकेसि १, भज्ज वि वीरतित्थं वीर ! पभावेसि, नवंगविसीओ अकादिसि । भय वया प्रणियं भहमेवंविहसरीरे कोहामि । देवया बुतं-यंत्रणपुरे सेडीगस्य शंखरपहासमा सयं सर्वभूमिरिपासनाहो अत्थर, तत्थ पुरे देवे वंदेह, जेण सुत्थसरीरा हो । त गोसे साहू अ सावयसंघेण वंदिया पहुणा भणियं थंभणए पासना मंदिराम संघेण विना-नू को णं, तो एवं संत तो सिंघेण मोतो बाण गच्छंतर पण घणयं सरीरं अमोघवलक्कयाभो परश्रो चरणचारेण विहरता पत्ता यंत्रण
प
दिवसजायें।
पुरं गुरु, सावया सव्वत्थ पासनाहमवलोति । गुरुणा भणिआखंखरपलासमज्जे पलोपद, तेहिं तहा कप दि सिरिपास• नाहपडिमा मुदं । तत्थ य पार्दणं एगा घेणू आगम्म पनि - मामत्थर बीरं जर तो पहिठेहिं साबरहिं जहा दिठं निवेश् गुरुणो । अभयदेवसूरी वि तत्थ गंतुं मुहदंसणमेतेण थोडमा दत्तो" जयतिकरणप्याइतका विि तो सोलससु वित्तेसु करसु पश्चक्खी हुआ सवंगपमिमा । अश्रो वेब-"जय पश्च क्खजिणेसर सि" सत्तरसमे वित्ते पढिनं । सभो बत्तीसार पुछा अंतिम देवयाट्रिक ति माऊण देवयाप विनन्तं न य बत्तीसार विवित्तो सनिज्जं करिस्सामिति, अंतिमचित्त डुगं तस्सारह, मा अहं कलियुगे आगमणं दुक्खाय होति । पहुणा तदा कथं । संघेण सह चिइवंदना कया । तत्थ संघेण उत्सुंगं देवहरयं कारिकां । त उबसंतरोगेण पहुणा तोसिनो सिरिपाससामी, तं च महासिर्फ पसिद्धं कालमेव कथा णा गाणं बिसी, आधारंगधरंगाणं तु पुबि पि सोलंगारियण कथा - सि । तो परं चिरं वीरतित्यं पनाविश्रं पहुण प्ति।" इति स्तम्जनकल्पशीतोऽच्छुः । ती० ए२ कल्प |
'दवादिविशिंगा असणगहणत्यमा विश्वसंपा। नवसुत्त कुक्कुडिविमोक्खणाय भणिया निसि सुरी ॥ १ ॥ दोत्थी, नचंगविवरणकदायमुरिया । यंत्रणादण उवाय॥ २ ॥
#4
जाओ बलिया, धवलकपुराउ पयचरणचारी । पंजणपुरम पचा सेढीत जरयनाभवणे ॥ ३४ गोपयवरपुबलक्खिय भुवि 'जय तिहुश्रण' थयरूपन्त्रकले । पासे विणा गोविच सकलं बित्तदुमा 8 ॥ संघ कराविव गयरोगा विम पासहुपभिमा सिरिभभयदेवसूरी, बि जयंतु नवंगवित्तिकरा ॥ ५ ॥ यन्मार्गेऽपि चतुःसहखसरदो देवालये योऽतिः स्वामी वासवासुदेववरुणैः स्वर्वार्धिमध्ये ततः । कान्यामिभ्यधनेश्वरेण महता नागार्जुनेनार्चितः पायात् स्तम्जनके पुरे स प्रवतः श्रीपार्श्वनाथो जिनः ॥ १॥" ती० ६ कल्प ।
थंभणयपुर-स्तम्ननक - न० । भवजयहराऽऽक्य पार्श्वनाथ खाने पुरनेदे, ती ६ कल्प |
थंजाया-स्तम्भनता - स्त्री० । ग्रीवायां धमन्यादीनां तिष्ठतो
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(२२८३) अन्निधानराजेन्द्रः।
थय
यंत्रणाया
चाऽऽत्मनोऽङ्गप्रदेशानामवरोधे, प्रका० १६ पद । प्रा०म० । यणियकुमार--स्तनितकुमार-पुं० । नुषणनियुक्तहयवररूपचि. सूत्र०।
इधरे दशमे भवनपतिनिकाये, प्रशा०२ पद । स्था० । थंभणी-स्तम्जनी-स्त्री० । स्तम्भनकारीिण विद्याभेदे, सूत्र०२|
"बावत्तरि थणियकुमाराचाससयसहस्सा पाता।" भ०१६ भु०२ १०। ज्ञा•
श०१३ ०। थंभिय-स्तम्जित-त्रि० । स्तम्धीकृते, स्था० म० "कडगतु.
थणियसब-स्तनितशब्द-पुं० । मेघगर्जिते, स्था• ३ ग १ डियधभियभुया।" प्रज्ञा०२२ पद । औ० स० प्रज्ञा प्रा०म०।
थत्ति-देशी-विश्रामे, दे० ना०५ वर्ग २६ गाथा। थक-फक-धागतो, "फक्कस्थकः" ॥018 |७॥ इति फकतेस्थमा.उदेशः । प्रा०४ पाद । अवसरे, दे. ना०५ वर्ग
थक-स्तब्ध-त्रि.। मानवति, स०३० सम० । भदकारिणि, २४ गाथा । 'थक्कर' फकति । "धातवोऽऽर्थान्तरेऽपि ॥ ४॥
उत्त०२७०ा ग । यहिकञ्चनकारिणि मानिनि, सूत्र०व०२ २५९ ।। इति नीचां गतिं करोति विडम्बयति धा तदर्थे बोक
अस्तब्धकृते द्वितीयदोषपुष्टे वन्दने, वृ०३०। भाव० । व्याः। प्रा०४पाद ।
प्रव० । स्तब्धस्ताबत-व्यतो, जावतश्च । प्रवस्यत्र चतुर्भनिका। स्था-धा० । गतिनिवृत्ती, " स्थष्ठा-थक-चिह-निरप्पाः" ।।८।
तद्यथा द्रव्यतः स्तब्धो न भावतः, भावतः स्तम्धो न व्यतः ।
अपरो द्रव्यतो नावतश्च । अन्यः पुनर्न व्यतो नाऽपि भावत ४।१६॥ इति तिष्ठतेस्थकाऽऽदेशः। "थकई"-तिष्ठति । प्रा० ४ पाद । प्रस्तावे, पुं० । " यो भातो ति नाकणं" व्य०६ उ० ।
इति । अत्र चरमोनङ्गः शुकः। शेषभनकेष्वपि भावतस्तब्धो. देशोऽवसरः स्थमिति पर्यायाः। विशे।
शुद्ध पचा व्यतस्तु नक्तो विकल्पितः सदरपृष्ठस्थूलविवा
दिवाधितोऽवनामं कर्त्तमशक्तः कारणिकः स्यादपि स्तम्धी यकारेंत-थकारयत्-त्रि०। 'थक्का' श्त्येवं महान्तं शब्दं कुर्वति,
न तु निष्कारणिक इति भावः । वृ०३ उ०। प्रा० म०१ भ० १ स्वएड ।
थभरदह-स्तब्धरहूद-पुं० । अयोध्यायां स्वर्गद्वारस्थाने हदे, थगण-स्थगन-न। पिधाने, स्था०४ ठा. ४२० । संवरणे, गोमहजक्खो जत्थ थम्भरददो सरऊनईए सम मिलितो श्राव०६अ।
सम्गमुचारं ति पसिद्धिमावन्नो।" ती०१२ कल्प। थगिय-स्थगित-त्रि० । पिहिते, दश. ५.१० । संवृते, थमिय-देशी-विस्मृते, दे० ना० ५ वर्ग २५ गाथा । परिव्यक्ते, प्रा० म.१०२ नएमा प्राव० ।
यय-स्तव-पुं० । 'टुञ्' स्तुतावित्यस्मादच् । आ० चू० ३ ०। थग्गया-देशी-वचौ, दे० मा०५ वर्ग २६ गाथा।
गुणकीर्तने, व्य। थग्य-पुं०। देशी-गाधे, दे. ना०५ वर्ग २४ गाथा।
अथ स्तुतिस्तवयोर्विशेषमनिधित्सुराह
एगपुगे तिसनोका, थुतीसु अन्नेसि होइ जा सत्त । थट्टी-देशी-पशी, दे० ना०५ वर्ग २४ गाथा।
देविंदत्ययमादी, तेणं तु परं थया होइ॥ यण-स्तन-पुं० । वकोजे, पयोधरे, मांसगोले, ज्ञा० २ ० १ एकश्लोका, विश्लोका त्रिश्लोका वा स्तुतिर्भवति । परतश्च. वर्ग १ अ.! अनु० । कुचे, है० । आव ।
तुःश्लोकाऽऽदिकः स्तवः । अन्येषामाचार्याणां मतेन एकश्लोकाथणगच्चीर-स्तनकक्षीर-न । पयोधरदुग्धे, तं०।
ऽऽदिका यावत् सप्त स्तवः, यथा देवेन्द्रस्तवाऽऽदयः। श्रादि
शब्दाकर्मस्तवाऽऽदिपरिग्रहः । व्य.७ उ०। "संथा। थो यणष-स्तनन-न० । रारटने, सूत्र०१ श्रु.५ अ. २ ०'
चउब्धिहो, णामग्बणाओ गताभो"प्रा००१०भा० प्राक्रन्दने, सूत्र०१७०५.१ उ. । आक्रोशे, आचा०१
मासूत्र.1 पश्चा०॥ श्रु० ६.१ उ०। सूत्र। सशब्दनिःश्वासे, सूत्र० १ श्रु० २
अधुना स्तवनिक्केपप्रतिपादनार्थमाह०३. थणदोस-स्तनदोष-पुं० । कायोत्सर्गदोषभेदे, "प्रोच्चाकण य
नाम ववणा दविए, जावे य थयस्स होइ निक्खेवो । यणे, चोलगपट्टेण गर नस्लग्ग।" बच्चाद्य स्थगयित्वा स्तनौ
दन्वयमो पुप्फादी, संतगुणुकित्तणा जावे ॥३॥ चोसपट्रेन देशाऽऽदीनां रक्षणार्थम् । अथवा--भनाजोगदोषेण वा (नामं ति) नामस्तवः, स्थापनास्तवः, व्यविषयो द्रव्यअज्ञानदोषण करोत्युत्सर्गमिति स्तनदोषः॥ प्रब०५ द्वार। स्तवः। (भावे त्ति) भावविषयो भावस्तवः । श्यं स्तवस्य नि. थणपीक्षण-स्थनपीमन-न०। पयोधरचम्पने, तं० ।
केपो न्यासो जवति, चतुष्प्रकार शति शेषः । तत्र शुष्ठत्वा
श्रामस्थापने अनाहत्य व्यस्तवस्वरूपमाह-द्रव्यस्तवः पुष्पा. थाहर-स्तनभर-पुं०।"ख-ध-य-ध-नाम्"।८।१।१८७॥
दिः, आदिशब्दाद् गन्धरूपाऽऽदिपरिग्रहः । कारणे कार्यो. इति भस्य हः । वत्कोजगौरवे, प्रा०१पाद ।
पचाराचवमाह--अन्यथा द्रव्यस्तवः पुष्पाऽऽदिनिः समयथणिय-स्तनित-न० । मेघगर्जिते, प्रश्न. ४ आश्र. द्वार। चन मिति द्रष्टव्यम् । तथा सद्गुणोत्कीर्तना भावे शति । सन्तअनु०। प्रव० । दीर्घविस्वराऽऽक्रन्दने, सूत्र.१ श्रु०५०१ उ0 चते गुणाश्च सद्गुणाः । अनेन असत्सु गुणेषु कीर्तनानिरसिते,स.। भोगसमये दूरतरघनगर्जितानुकारिशब्दे, उत्त० धमाह, करणे मृषाबाददोषसनात् । सद्गुणानामुत्कीत१६ अ०। कृतमन्दध्वनी,
त्रिझा.१ श्रु०१०ास्तनितकुमारे नात् प्राबल्येन परया नक्त्या कीर्तना संस्तवना । यथाप्रबनपतिनेदे, त।
" प्रकाशितं तथैकेन, त्वया सम्यक् जगत्त्रयम् ।
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(२३०४) घय भनिधानराजेन्रः
श्रय समप्रैरपि नो नाथ, परतीर्थाधिपैस्तथा ॥१॥
अकृत्स्नं, संयममिति सामर्थ्यानम्यते.प्रवर्चयन्तीत्वकृत्स्नप्रब. विद्योतयति वा लोकं, यथैकोऽपि निशाकरः ।
काः, तेषां विरताविरतानां श्रावकाणामेष रूग्यस्तवः खलु समुमतसमग्रोऽपि, किं तथा तारकागणः?"॥२॥
युक्त एव । खलुशब्दस्यावधारणार्थत्वात् । किंकृतोऽयमित्याहइत्यादि लक्षणा भावे इतिहारपरामशों भावस्तव इत्यर्थः। संसारप्रतनुकरणः संसारकयकारक इति भावः । पाह-न्यः इति चामितप्रतिष्ठितोऽर्थः सम्यग् कानाब प्रभवतीति चालना प्रकृत्यैवासुन्दरः स कथं भावकाणामपि युक्तः । उच्यते प्रत्र कदाचित् विनेयः करोति, कदाचित् स्वयमेव गुरुरपि । तथा कृपरष्टान्त:--"जहा नवनगराइसनिवेसे का पनूयजमाभावतो चोकम्-"कत्थर पुन्वत सासो, कार्हि व पुटा कहंति माय- तएदादिपरिगया तदपनोदार्थ कूपं खणंति, तेसिं च जर वि रिया।" इत्यादि।
तएहाऽऽक्या वहृति, महियाकइमादीहिय मलिपिज्जति, तहा तत्र वित्तपरित्यागादिना व्यस्तव पव ज्यायानित्यल्पबु
वि तमुभएणं तेसि तिराहाइयसोयमलो पुग्वगो य फिदृश, कीनामाशङ्कासंत्रवः, तदुदासाथै तदनुवादपुरःसरमाह
सेसकालं च ते तदने य लोगा सुहन्नायणा भवंति, एवं दम्ब.
थए जह वि असंजमो, तहावि तत्तो चेव सा परिणामबुकी भ. दन्वत्थओ य नाव-स्थ भो य दम्वत्थो बहुगुणे ति।
पति । जा असंजमवजिय अन्नं च निरवसेसं नवेति तदा ऽवि बुधि सिया अनिनण-मइवयणमिणं छजीवहिअं ॥४॥ रता विही एस दब्बत्थो कायवो सुजाणुबंधी, पभूयनिजराव्यस्तबो, भावस्तव श्त्यनयोमध्ये द्रव्यस्तवो बहुगुणः । प्र.
फलोयत्तिा" उक्तः स्तवः। मा० म.२ अ० सत्रा पश्चा०। (भूततरगुण इत्येवंबुद्धिः स्यादेवं चेन्मन्यसे इति नावः। तथा
व्यस्तबो व्यासेन 'चेश्य' शब्दे तृतीयभागे २४४५ पृष्ठे प्र. हि-किसाऽस्मिन् क्रियमाणे विपरित्यागात शुभ पच व्यवसा
त्यपादि) यः, तीर्थस्य चोप्रतिकरणं हा च तं क्रियमाणमन्येऽपि कयमत्थ पसंगणं, जहोचिया चेव दबजावथया । प्रतिवुण्यन्ते इति स्वपरानुग्रहः, सर्वमिदं संप्रति पर्क प्रयोपसमाविका, नियमेणं होति नायव्वा ॥१॥ चेतसि निधाय व्यस्तवो बगण इत्यस्यासारताश्याप.
कृतमत्र प्रसङ्गेन व्यस्तबाऽऽदिविचारे एवं यथोदितभावे च नायाऽऽह-( अनिवणमश्चयणमिति ) अनिपुणमतेचन
प्रधानगुणभावतः द्रव्यभावस्तवादिति अन्योऽन्यसमनुविकी मिदस-यद् व्यस्तबो बहुगुण इति । किमित्यत पाह-पम्जीव
नियमेन नवतः ज्ञातव्यौ भन्यथा स्वरूपाभावः। इति गाथार्थः। हितं षवां पृथिवीकायादीनां जीवहितं जिनास्तीर्थकृतो
अनयोवृद्धिमाहझुवते। किं षट्जीवहितमित्यत पाह
अप्पपिरिअस्स पढमो, सहकारिविसेसजूमो सेओ। छजीवकायसंजमो, दवथए सो विरुज्कई कसिलो।
इधरस्स बज्मचाया, इअरो चि एस परमत्थो ॥२॥
मल्पवीर्यस्य प्राणिनः प्रथमो न्यस्तव: सहकारिविशेषतो कसिणसंजमविऊ, पुप्फाईयं न इच्छति ॥५॥
भूतो वीर्यस्य श्रेयानिति । इतरस्य बहुवीर्यस्य साधो हत्यापयां जीवनिकायानां पृथिव्यादिलक्षणानां संयमः संघटना प. गादिति वायव्यस्तवत्यागेन इतर एव श्रेयान भावस्तव इ. रित्यागःबटीवकायसंयमाएपहितम्। यदिवा-मैवं, ततः कि. स्येष परमार्थोऽत्र द्रष्टव्यः । इति गाथार्थः। मित्यत आह-दव्यस्तो पुमाऽऽदिसमयचनलकणे षट्जी--
विपर्यये दोषमाहबमिकायसंयमः कृत्स्ना संपूर्णो विरुध्यतेन सम्यक् संपवते, दबत्थयं पि काउं, ण तर जो अप्पवीरित्तेणं । पुष्पादिसलुवनसंघनाऽऽदिनाकृत्स्नसंयमव्याघातभावात,यतश्चैवं (तोत्ति)तस्मात्कृत्स्नसंयमप्रधानं विद्वांसस्ते तत्वतः-सा
परिमुकं भावथयं, काही सो संनयो एस ॥३॥ धव उच्यन्ते कृत्स्मसंयमग्रहणमकृत्वासंयमविदां श्रावकाणांप्य
त्यस्तवमपि कर्तुमौचित्येन न शक्नोति यः स सवोऽल्पवीपोदार्थम-पुष्पाऽऽदिकं द्रव्यस्तवं नेच्छति-न बहुमन्यन्ते।योक्तम्
येत्वेन दिनापरिशुरूंभावस्तवं यथोक्तमित्यर्थः । करिष्यत्यसाद्रव्यस्तवे क्रियमाणे वित्तपरित्यागात् शुभ एबाध्यबसाय इत्यादि।
घसंभव एषः, बलाभावात् । ति गाथार्थः। तदपि यकिश्चित्ाव्यभिचारात, कस्यचिदल्पसत्वस्य मविवेकि.
एतदेवाऽऽहनोवा शुजाभ्यवसायानुपपत्ते दृश्यतेच कीर्याद्यर्थमपि तस्या
जसो नक्किट्ठयरं, अवैक्खई वीरिअं इहं णिमा । नां व्यस्तवे प्रवृत्तिः। शुभाध्यवसायभावे तु-स एव जावस्तवः। _ण हि पलसयं पि वोढुं, असमत्थो सच यं वह ॥४॥ इतरस्तु तत्कारणत्वेनाप्रधानमिति । तथा भावस्तव एव सति यदसौभावस्तव उत्कृष्टतरमपेक्षते वीर्य शुभाऽऽत्मपरिणामरूप. तरवतस्तीर्थस्योन्नतिकारणं भावस्तवमतःसम्यगमराऽऽदिभिरपि मिह नियमात् अतोऽल्पवीयः कथं करोत्येनमिति । न हि पलपूज्यत्वात्तमेव च दृष्ट्वा क्रियमाणमन्येऽपि सुतरां प्रतिबुध्यन्ते । शतमपि चोदुमसमर्थः मन्दवीर्यः सवः सर्व तं वहति पन्न. शिष्टा इति स्वपरानुग्रहोऽपोहैयेति गाथाभावार्थः।
शततुल्यो द्रव्यस्तवः, सर्वतस्तुव्यश्च भावस्तवः। इति गाथार्थः । आह-यद्येवं किमयं व्यस्तव एकान्ततो देय एवं वर्तते,
एतदेव स्पष्टयति-- माहोस्विदुपादेयोऽपीति ? उच्यते-साधूनां हेय एव, श्रावका
जो बझचएणं, जो इत्तिरिअं पिणिग्गहं कुणइ । णामुपादेयोऽपि। तथा चाहनाध्यकार:
इह अप्पणो सयासे, सम्वच्चारण कह कुज्जा ? ॥५॥
यो बाद्यात्यागेन बाह्य वित्तं नेत्वरमपि निग्रहं करोति । व. अकसिणपवत्तगाणं, चिरयाविरयाण एस खलु जुत्तो।।
दनाउदा हाऽऽत्मनः कुरुः सदाऽऽसौ यावज्जीयं सर्वत्यागेन संसारपयाकरणे, दबत्थऍ कूवदिलुतो ॥ ६ ॥ बायाऽऽज्यन्तरत्यागेन कथं कुर्यादात्मनो निग्रहम्। इति गाथाय।
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(२३८५) थय अभिधानराजेन्डः।
थयविहि भनयोरेव नु गुरुत्वाधवविधिमाह
सतां वक्तुमेवानुचितमिति किं प्रतिवचनेन ? । १३ प्र०ा ही०१ प्रारंमच्चाएणं, पाणाऽऽइगुप्मेसु वठ्ठमाणेसु ।
प्रका० । शकस्तवपा, उत्त० २ए अ०। श्रीमादिनाथवारके ये
चतुर्विंशतिस्तवं पवितवन्तः, तमेवार्थतः श्रीमहावीरवारकेपि, दव्यत्ययहाणी वि हु, न होई दोसाय परिसुका ॥६॥
परं सूत्रपाठनियमो नास्तीति परम्पराऽस्तीति युक्तिरपि च त. प्रारम्भस्वागेन हेतुना झानाऽऽदिगुणेषु बर्द्धमानेषु सत्सुकन्य
यैव दृश्यते । १७ प्र० । सेन०४ उल्ला । स्तवहानिरपि कर्तुन नवति दोषाय परिशुद्धा सानुबन्धा ।। ति गाथाऽर्थः॥६॥
| थयण-स्तवन-न० । स्तुती, "थुश्थयएवंदणनमं-सणाणि एगइहैव तन्त्रयुक्तिमाह
हियाणि एप्राणि।" श्राव.२० । एत्तो विय णिहिट्ठो, धम्मम्मि चउबिहम्मि वि कयो । | थयथुश्मंगल-स्तवस्तुतिमङ्गल-नास्तवः शक्रस्तवपावः, स्तु. इह दाणसीलतवजा-बणामय अम्रहाजोगा ॥७॥ तिस्तूर्तीभूय कयनम् । स्तवाश्च स्तुतयश्च स्तषस्तुतयः, ता
प्राप्त एष व्यस्तवाऽऽदिनावाद् निर्दिष्टो भगवद्भिर्धर्मे चतु- एव मङ्गलं स्तवस्तुतिमङ्गलम् । स्तबस्तुतिरूपे भावमङ्गले, विधेऽपि क्रमोऽयं बक्ष्यमाणः, इह प्रवचने दानशीलतपोभाव- उत्त०१५ ०। नामये धर्मेऽन्यथायोगादस्य धर्मस्येति गाथाऽर्थः॥७॥
स्तवफलप्रतिपादनम्तदेवाऽऽह
थयथुइमंगलेणं भंते ! जीवे किं जणयइ ? । यययुश्मंगसंतं बकमणिचं, गणे दाणं पि जो ण विअरे । लेणं नाणदंसएचरित्तबोहिला जणयह । नाणदंसाचश्य खुड्डगो कई सो, सीलं अइदुद्धरं धरइ ? ||॥ रित्तबोहिलाभसंपन्ने यजीवे अंतकिरियं कप्पविमाणोचवसद्विधमान, बाह्यमात्मनो भिन्नम, अनित्यमशाश्वतं, स्थाने त्तियं राहणं आराहे ॥ १४ ॥ पात्राऽऽदौ, वान पिएमाऽदि यो न वितरति न ददाति कौद्रयात्
हे भदन्त ! स्तवः शकस्तवरूपः, स्तुतिर्या उद्धीभूय कथनरू(श्य) एवं तुझको वराकः कथमसौ शीलं महापुरुषसेवितम
पा । अथवा-एकाऽऽदिसप्तश्लोकान्ता यावदष्टोत्तरशतश्लोका तिदुर्द्धरं धारयति !, नैवेति गाथाऽर्थः॥८॥
वाच्या स्तुतिश्च स्तवश्व स्तुतिस्तबो, तो पब मजलं भावमङ्गअस्सीलो पण जाय, सुचस्स तवस्स हंदि विसो वि। रूपं स्तुतिस्तवमङ्गलं, तेन स्तुतिस्तवमलेन जीवः किं जहसत्तीऍ तबस्सी, जावइ कह नावणाजालं ॥ ए॥
जनयति ? । स्तबस्तुतिमङ्गलेनेति पाठस्तु आर्षत्वात । गुरुःप्र. 'प्रशीलच न जायते' नियम एप शसस्य तपसो मोवाङ्गभूत.
भोत्तरमाह-हे शिष्य ! स्तवस्तुतिमङ्गलेन जीवो शानद. क्य, हन्दि विषयोऽपि यथाशक्त्या तपस्वी मोहपरं तत्र नाव
र्शनचारित्रबोधिलाभं जनयति । तत्र ज्ञानं मतिभुताऽऽदि, यति कथं भावनानालम् , तत्वतो नैव । इति गाथार्थः ॥६॥
दर्शनं कायिकसम्यक्त्वं, चारित्रं विरतिरूपं, तद्रूप एव बो
धिलाभो जैनधर्मप्राप्तिानदर्शनचारित्रबोधिलाभस्तं जनएत्यं च दाणधम्मो, दव्वत्थयरूवमो गद्देअब्यो ।
यति, ज्ञानदर्शनचारित्रबोधिनाभसम्पन्नश्च जीव श्राराधनां सेसा न सुपरिसुका, णेया नावत्थयसरूवा ॥ १० ॥
शानादीनामासेवनामाराधयति साधयति । कोशीमाराध. अत्र च प्रक्रमे दानधर्मो द्रव्यस्तवरूप एवं ग्राह्योऽप्रधानत्वात्, नाम् ?-कल्पविमानोत्पत्तिका, कल्पाश्च विमानानि च तेषु उत्प. शेषास्तु सुपरिशुरूाः शीलधर्माऽऽदयो या भावस्तवस्वरूपाः सियेस्याः सा कल्पविमानोत्पत्तिका, ताम् । पुनः कीटशीमाराधप्रधानत्वादिति गाथाऽर्थः॥ १०॥
नाम्, अन्तक्रियाम-अन्तस्य संसारस्य, कर्मणांवा अवसानस्य इहैवातिदेशमाह
क्रिया अन्तक्रिया,तामेवनूतां ज्ञानाऽऽद्याराधनांसाधयति,कल्पा:
सौधर्माऽऽदयो देवसोका,विमानानि नवप्रैवेयकपञ्चानुत्तरविमाश्य आगमजुत्तीहि, तं तं सुत्तमहिगिच्च धीरेहिं ।
नानि झानाऽऽद्याराधनया कश्चिद्भरताऽदिवत् दीर्घकालेन मुक्ति दव्वत्थयाऽऽदिरूवं, विवेश्यव्वं सबुखीए ॥ ११॥ |
प्राप्नोति । कश्चिद गजसुकुमालवत् स्वल्पकालेनैव मुक्ति प्राप्नो(इय) पवमागमयुक्तिभिस्तत्तत्सूत्रमधिकृत्य धीरैर्बुद्धिमद्भि- तीति भावः ॥ १४ ॥ उत्त०२५ १० (तद्वक्तव्यता ‘गयसुकु. व्यस्तवाऽऽदिरूपं विवेक्तव्यं-सम्यगासोच्येति वक्तव्यं स्वबु- मान' शन्दे तृतीयभागे ७४३ पृष्ठे कष्टव्या) या । इति गाथाऽर्थः ॥ ११ ॥
थयपरिधा-स्तवपरिझा-स्त्री०। "वमिज्जा जीए श्व, विहो उपसंहरन्नाह
विगुणाऽभावेण।" वपर्यते यस्यां ग्रन्थपती स्तवः द्विविधोएसेह थयपरिमा, समासो वधिमा मए तुम्म । ऽपि द्रव्यभावरूपो गुणाऽऽदिभावेन गुणप्रधानरूपतया। प्राभृत.
विशेषे, पं.०४ द्वार प्रति०। (साच सूत्ररूपा इदानीमनवित्थरो भावत्यो, इमीऍ सुत्ताउ णायचो ॥ १॥
तिप्रसिका, गाधारूपपञ्चवस्तुकप्रकरणे प्रतिपादिता, अस्माएषेद स्तवपरिज्ञा स्तवपद्धतिः समासतो वर्णिता मया युष्माकं भिः 'चेश्य' शब्दे तृतीयभागे १२२० पृष्ठे विन्यस्ता) विस्तरतो भावार्थोऽस्थाः स्तवपरिक्षायाः सूत्राज्ञातव्यः । इति गाथायः ॥१२॥ पं०व०४ द्वार प्रति । दर्शाध० । परपाकि
थयपाउ-स्तवपाउ-पुं० । शकस्तवाऽऽदिस्तवपउने, पश्चा. कसंपादितस्तोत्रादिकं माततुरुष्कसंपादितरसवतीबदना
३विव०। स्वायमेव, कश्चिद्विशेषो वा, इति प्रश्ने, उत्तरम्-परपालिकसं थयविहि-स्तवविधि-पुं० । स्तवः पूजा तस्य विधिविधानं प्र. पादितस्तोत्राऽऽदीनां मातङ्गतुरुकाऽऽदिसपादितरसवत्युपमा । कारः स्तवविधिः। स्तवपरिक्षायाम, " नामऊण जिणं वीरं,
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घयविहि अभिधानराजेन्द्रः।
थविर तिमोगपुज्ज समालो वोच्छं। थयविहिमागमसुरू, सपरे- जलयराणं तहेव चउक्को नेभो । एवं नुयगपरिसप्पाण सिमणुगट्ठाए ॥१॥" पञ्चा० ६ विव० ।
वि भाणियच्चा। सेज नुयंगपरिसप्पथलवरपांचंदियतिरिथयसरण-स्तवस्मरण-न। चतुर्विंशतिस्तवानुचिन्तने, पञ्चाo
क्खजोणिया। सेतं थायरपंचिंदियतिरिक्खजाणिया। ८विव०।
अथ के ते पञ्चेन्द्रियतिर्यगयोनिकाः। पश्चेन्जियतिर्यथर-पुं० । देशी-दधिसरे, दे ना०५ वर्ग २४ गाथा। गयोनिकास्त्रिविधाः प्रज्ञप्ताः । तद्यथा-जलचराः, स्थलचथरहरिश्र-न० । देशी-कम्पिते, देना० ५ बर्ग २७ गाथा। राः, खचराश्च । अथ के ते जलचराः? जलचरा द्विविधाः
प्राप्ताः । तद्यथा-समूचिमाश्च, गर्भव्युत्क्रान्तिकाश्च । अथ के थरू-पुंज देशी-त्सरौ, दे० ना० ५ वर्ग २४ गाथा
ते समूछिमाः? समूच्छिमा द्विविधाः प्राप्ताः । तद्यथा-पर्याथल-स्थल-न। अटव्याम्, दशा०७० । उच्चभूमिमगे, प्तकाश्च, अपर्याप्तकाश्च । अथ केते मव्युत्क्रान्तिकाः ?। गर्भउत्त० २ अ०। जूमिप्रदेशबिशेषे, स्था० ५ वा० ३ उ०। १० । व्युत्क्रान्तिका द्विविधाः। तद्यथा पर्याप्तकाः, अपर्याप्तकाश्च एवं "थलेसु बीयाई।" यदा प्रचुरा वर्षा जवति तदा स्थोषु फला
चतुष्पदा मरम्परिसी भुजपरिसः पक्विणश्च प्रत्येक पाप्तिः । उत्त० १२ अ० । अाकाशे, नि० चू० १००। (स्था. चतुष्प्रकारा, वक्तव्याः । जी. ३ प्रति० ४ उ०। प्रका० । व्याख्या 'णसतार' शब्देऽस्मिन्नेव भागे १७४०,पृष्ठे द्रष्टव्या) थली-स्थली-स्त्री० । देवडोण्याम्, नि० चू०१०। थलम-j० । देशी-मएडपे, दे० ना० ५ बर्ग २५ गाथा। थलीघोमय-स्थलीघोटक-पुं० । देवमङ्गरापरपर्याये पशुविशेषे, थलकुककुडियंम-स्थलकुक्कुटयाड-न० । इह कवखप्रक्षेप. व्य०१०। णाय मुखे विमम्बिते यदाकाशं भवति तत्स्थलं भरायते, स्थल- थव-स्तव-पुं० 'थय' शब्दार्थे, प्रा० चू० ३ ०। मेव कुक्कुट्याडकं स्थबकुकुट्यएमकम् । कवलप्रकेपार्थ वि- थवश्य-स्तवकित-त्रि.। संजातपुष्पस्तबके, न०१ श०१०। काशिते मुखे, व्य०७ उ० ।
जी० । औ०।शा जं० । रा०। थलकुककुडियंटप्पमाण-स्थलकुकाटयएमप्रमाण-न। मुख- थवइस-पुं० । देशी-प्रसारितोरुद्वयोपविष्टे, दे० ना० ५ बर्ग विवरप्रमाणे कबजे, यावत्प्रमाणमात्रेण कवोन मुख प्रक्षिप्य
२६ गाथा । माणेन मुखं न विकृतं भवति । व्य०७ उ० ।
थवण-स्तवन-न० 'थयण' शब्दार्थे, आव०५अप। थलचार-स्थलचार-पुं० । स्थले रथाऽऽदिना देशान्तराचाप्ती,
थवथुश्मंगल-स्तवस्तुतिमङ्गल-न। थयपुश्मंगल' शब्दाप्राचा०१ श्रु० ५ ० १ ००।
थे, उस० २६ ०/ थायपुष्फ-स्थलजपुष्प-न० । विचकिसकोरएटकाऽऽदिके स्थल
थवपरिएणा-स्तवपरिक्षा-स्त्री० । 'थयपरिणा' शब्दाथै, एवं जायमाने कुसुमे, प्रा० म०१ अ.१ स्वरामा प्रसा।
पञ्चा०६ विव० थलयर-स्यलचर-पुं० । स्थले चरतीति स्थलचरः। स्था०१.
थवपाठ-स्तवपाठ-पुं०। ययपाठ ' शब्दार्थे, पञ्चा०३विव०॥ ग। स्थलजेषु पश्चेन्जियतिर्यकु, स्था० १.०।स। स्थलचरभेदाः
थवय-स्तवक-पुं०। पुष्पगुच्छे, जी०३ प्रतिक उ०। से कितं यलयरपंचिंदियतिरिक्खजोणियाथलयरपंचि
थवविहि-स्तवविधि-पुं० । 'थयविहि' शब्दार्थे, पश्चा० ६विवा दियतिरिक्खजोणिया दुविहा पक्षणात्ता। तं जहा-घउप्प
यवसरण-स्तवस्मरण-न ।' थयसरण ' शब्दार्थ, पश्चा. यथलयरपंचिंदियतिरिक्खजोणिया, परिसप्पथनयरपंचिदि
विव०।
थविर-स्थविर-पुं०। प्रवर्तितव्यापारान् संयमयोगेषु सीदतः यतिरिक्खजोणिया। से किं तं चनप्पयथक्षयरपंचिंदियति
साधून ज्ञानाऽऽदिषु ऐहिकाऽऽमुष्मिकापायदर्शनतः स्थिरीकरोरिक्खजोणिया। चनप्पययलयरपंचिंदियतिरिक्खजोणिया
तीति स्थविरः। प्रव०२द्वार । प्रति । स्था० ध। उत्त० । सुविहापपत्ता। तं जहा-समुचिमचउपययक्षयरपांचंदि- श्राचा०1"स्थविरविचकिवायस्कारे "॥८।१।१६६॥ इति यतिरिक्खजोणिया, मनवकंतियच उप्पयथलयरपचिंदियति- आदः स्वरस्य परेण सखरव्यजनेन सहत् 'थैरो'। आर्षरिक्खजोणिया । जहेव जलयराणं तहेव चउक्को
'थविरो'श्त्यपि। प्रा०१पादा "अनादौ शेषाऽऽदेशयोर्द्वित्वम"।
८।२८॥ इति थद्वित्वनिषेधः। प्रा०२ पाद । सदितां स्थिनेदो । सेत्तं चउप्पय थलयरपंचिंदियतिरिक्खजोणिया।
रीकरया हेतौ, दश०९'०१०। द्वा०। व्य० । ध०। से किं तं . परिसप्पयलयरपंचिंदियतिरिक्खजोणिया ।
अधुना स्थविरस्वरूपमाह१ । परिसप्पथक्षयरपंचिंदिया सुविहा पएणता । तं
संविग्गो मद्दविओ, पियधम्मो नाणदंसाचरित्ते । जहा-उरपरिसप्पयलयरपंचिंदियतिरिक्खजोणिया, नुय
जे अटे परिहायश, सारेंतो ते हवइ थेरो॥ परिसप्पयनयरपंचिंदियतिरिक्ख जोणिया। से किं तं जर
यः संविग्नो मोकाभिलाषी, मार्दवितः संज्ञातमाविकः,प्रियपरिसप्पयनयरपंचिंदियतिरिक्खजोणिया। नरपारसप्पथ
धर्मा पकान्तवल्लना, संयमानुष्ठानेयो शानदर्शनचारित्रेषु मध्ये लयरपंचिंदियतिरिक्खोणिया विहा पपणत्ता । जहेव | यानर्थानुपादेयानुष्ठानविशेषान् परिहापयति हानि नयति
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(१३७७) थविर अभिधानग़जेन्दः ।
थविरकाप तान् तं स्मारयन् भवति स्थविरः, सीदमानान्साधून ऐहिका- (दसेत्यादि) स्थापयन्ति पुर्व्यवस्थितं जनं सन्मार्ग स्थिऽऽमुमिकापायप्रदर्शनतो मोकमार्गे स्थिरीकरोतीति स्थबिर रोकुर्वन्तीति स्थविराः, तत्र ये ग्रामनगरराष्ट्रेषुव्यवस्थाकारिणो इति व्युत्पत्तेः ।
बुझिमन्त श्रादेयाः प्रभविष्णवस्ते तत्तत्स्थविरा इति ३। तथा चाऽऽह
प्रशासति शिक्कयन्ति ये ते प्रशास्तारो धर्मोपदेशकाः, तेच ते थिरकरणा पुण थेरो, पदत्तिवाधारिएसु अत्थेसु ।
स्थिरीकरणास्थविराश्चेति प्रशास्तृस्थविराः ४ । ये कुलस्य
गणस्य सवस्य च सौकिकस्य लोकोत्तरस्य च व्यवस्थाकाजो जत्थ जई सीयह, तं सबझो तं पचोदेति ॥
रिणस्तद्भक्तुश्च निग्राहकास्ते तयोच्यन्ते ७। जातिस्थविराः पप्रवृत्तिव्यापारितेवर्थेषुयो,यत्र यतिः सीदति, सद् विद्यमानं बझं ष्टिवर्षप्रमाणजन्मपर्यायाः। श्रुतस्थविराः समवायाऽद्याधारियस्य स सद्धलः तथाभूतः स प्रचोदयति प्रकर्षेण शिक्कयति स णः । पर्यायस्थविरा विंशतिवर्षप्रमाणप्रत्रज्यापर्यायवन्त इति स्थिरकरणात्। स्थविर इति । उक्तं स्थविरस्य स्वरूपम् । व्य०१ उ०। १० । स्था० १० ठा। तपस्तेजःस्थविरेभ्यः कान्तिकमास्थविराः अथ स्थविरपदयोग्यगुणानाह
अनन्तगुणविशिष्टा इति गोशाले जगवदुक्तिः। भ०१५श०। तेन व्यापारितेष्वर्थे-वनगाराँश्च सीदतः।
पं.ना। (स्थविरो गोचरचर्यायै नपकरणान्यपि नयेदिति स्थिरीकरोति सच्छक्तिः, स्थविरो जवतीह सः ॥७३॥
'उदि' शब्दे द्वितीयभागे २०७० पृष्ठे गतम्) तेन प्रवर्तकेन व्यापारितेषु नियोजितेश्वर्थेषु तपःसंयमाऽदि.
थविरकंचुडज-स्थविरकञ्चुकीय-पुं० । अन्तःपुरप्रयोजननिकार्येषु सीदतः प्रमादाऽऽदिनाऽप्रवर्तमानानगारान् साधून यः
वेदके प्रतीहारे, नए श३३ १०। स्थिरीकरोति तनदुपायेन दृढीकरोति। कीदृशः ?, सच्चक्तिः
थविरकप्प-स्थचिरकल्प-पुं०६त। आचार्याऽऽदीनां गच्छप्रतिसरसामर्थ्यः, स साधु ह जिनमते स्थविरो भवति नान्य इति बद्धानां सामाचार्याम् , स्था० ३ ठा०४०। भावः ॥ ७३ ॥ ध. ३ अधि० । सप्ततिवर्षायां षष्टि
का पुनरसौ स्थविरकल्पक्रमः ?, इत्याहवर्षाणां वोपरिवर्तिनि (ध० ३ अधि० । कल्प० । व्य०) श्रुतवृद्ध, पवजा सिक्खावय-मऽत्थग्गहणं च अनियो वासो । भ०२ २०५ उ० । ज्ञा० । चतुर्दशपूर्वविदि (प्राचा० १ श्रु. १
निष्फत्ती य विहारो, सामायारी ठिई चेव ॥ ७ ॥ चू०१०१ उ.)भबाहुस्वाम्यादौ, विशे०। आचार्याऽऽ. दिगुरी, स०२ सम० । गच्चप्रतिबद्धे, स्था०३ ०४ उ० गच्च- इह स्थविराणामयं क्रमः-यदुत प्रथमं तावद्योग्याय बिनीत. महति, व्य० ३ उ०। प्रव. जरसा जीणे, स्थविरभूमिप्राप्ते सू. शिध्याय विधिवद्दापितालोचनाय प्रशस्तेषु व्याऽऽदिषु स्वयं प्रार्थतजयोपेते, व्य०२० । धर्मपरिणत्या निवृत्या समक्ष गुणसुस्थितेन गुरुणा विधिनैव प्रवज्या प्रदातव्या । ततः सक्रियामती, जी०१ प्रति० । भ० । प्रा० क० प्रा० म०। ध०॥ शिक्षापदमिति शिक्षायाः पदं स्थानं शिकापदम्, शिकैव वा झा०। (स्थविराणां जातिश्रुतपर्यायाः 'थविरभूमि' शब्दे वक्ष्यन्ते) पदं स्थानं शिकापदमः विधिना प्रवजितस्य शिष्यस्य ततः
तमोथेरन्नूमीमो पत्ताओ। तं जहा-जास्थेरे, सुयथेरे, प- शिकाऽधिकारो भवतीत्यर्थः । सा च शिक्का द्विविधा-ग्रहणशिरियायथेरे । सहिवासजाए समणे निग्गंथे जाइथेरे,गणसम
का, आसेवनाशिका च । तत्र द्वादश वर्षाणि यावत्सूत्रं त्वयाऽ. वायवरे णं निग्गये सुर्यथेरे, वीसवासपरियाए समणे
ध्येतव्यमित्युपदेशो ग्रहणशिक्का । पासवनाशिका तु-प्रत्युपेत्त
णाऽऽदिक्रियोपदेशः । आह च-“सा पुण दुविहासिक्स्था, गहणे निग्गंथे परियायथेरे ॥
आसेवणे य णायब्बा । गहणे सुत्ताहिजण, आसेवण पच्चुवे. "तो थेरे" इत्यादि कराठ्यम् । नवरं स्थविरो वृरुस्त- क्वाई ॥१॥" अन्ये तु-शिक्काशब्दाद् व्रतमिति पदं पृथक कृत्वा स्थ भूमयः पदव्यः स्थविरन्नुमय इति । जातिर्जन्म, श्रुतमा- व्रतमिति कोऽर्थः?-शिकाऽनन्तरं रात्रिभोजनविरमणषष्ठेषु पञ्चसु गमः, पर्यायः प्रव्रज्या, तैः स्थविरा वृका ये ते तथोक्ता महावतेषपस्थाप्यते शिष्यः, इत्येतदपि द्वितीयं व्याख्यानं कुर्वइति । इह च भूमिकानूमिवतोरभेदादेवमुपन्यासः, अन्यथा न्ति, पतञ्च कल्सचूगयो चिरन्तनटीकायां च न इष्टमित्यस्माभिरुनूमिका उद्दिष्टा इति ता एव वाच्याः स्युरिति । पतेषां त्रया- पेक्कितम । ततः सूत्रेऽधीते यद्विनयः कार्यते, तदाह-(अस्थम्गहणां क्रमेणानुकम्पापूजनवन्दनानि विधेयानि । यत उक्तं व्यव- णं च त्ति) द्वादश वर्षारयधीतसूत्रः भन्नसावथग्रहणं का
यते, तस्य पूर्वाधीतसूत्रस्य द्वादश वर्षाणि यावदेषोऽथ प्रा"आहारे उवहिसेज्जा-संधारे खेत्तसंकमे ।
ह्यत इत्यर्थः । यथाहि हलारघट्टगन्यादिमुक्तो बुभुक्तिो वली. किश्चंदाणुवत्तीहि, अणुकंपा धेरगं ॥१॥
बद: प्रथम तावच्छोलनमशोभनं वा तृणाऽऽदिकमास्वादमनव. चढाणाऽऽसणदाणाई, जोगाहारप्यसंसणा।
गच्छन्नपि सर्वमभ्यवहरति, पश्चाश्च रोमन्धावस्थायां तदावानीयसेवाणिद्देस-वत्तिए पूयए सुयं ॥२॥
दमवगच्चति, एवं विनेयोऽर्धमनवबुध्यमानोऽपि द्वादश वर्मासहाणं बंदणं चेव, गदणं दमगस्स य ।
णि सर्व सूत्रमधीते, अर्थावगमाभावे च तत्तस्यानास्वाद भवति, अगुरुणो वि य णिसे, तश्याए पवत्तए ॥३॥" शति । अर्थग्रहणावस्थायां तु तदवगमात्सुस्वादमाप्यायकं च जायते, स्थविरा इति । स्था० ३ ० २ उ०।
अतोऽधीतसूत्रेण द्वादश वर्षाण्यवश्यमर्थः श्रोतव्यः । यथा दस थेरा पएणत्ता। तं जहा-गामथेरा नगरथेरा स्टुथेरा
वा-कृपाबलः शाल्यादिधान्यं प्रथमं वपति, ततः पालयति, पसत्यारथरा कुलथेरा गणथेरा संघयेरा जाइथेरा सुयथेरा
लुनाति, मनति, पुनीते, गृहमानयति, पश्चात्तु निराकुल
चित्तस्तदुपभोगं करोति,तदजाये वपनाऽऽदिपरिश्रमस्य निष्फपरियायथेरा॥
बत्वप्रसात् एवं शिष्योऽपि सूत्रमधीत्य यदि तदर्थ नर
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(१९८८) थविरकप्प अन्निधानराजेन्द्रः।
थविरकप्प गुयात् तदा तदध्ययनप्रयासो विफल एव स्यात; तस्मात्सूत्रा- दिप्रतिपित्सुना आदावेव पूर्वपररात्रकावे तावदिदे चिध्ययनानन्तरमवश्यमेव द्वादश वर्षाणि तदर्थः श्रोतव्यः । त- न्तनीयम्-बिगुरुचारित्राऽनुष्ठानेन कृतं मयाऽऽत्मरितम, स्मायत एवं स्थविरकल्पक्रमो-यदुत प्रथमं प्रवज्या,ततः सूत्रा- शिष्याशुपकारतः परहितं च, निष्पन्नाश्चेदानी मम गच्छपरिध्ययनं, ततोऽप्यर्थग्रहणमिति । अतोऽनुयोगप्रदानक्रमणवहाधि. पालनक्षमाः शिष्याः, ततो विशेषेणव साम्प्रतं ममाऽऽत्माहकार इत्येवं प्रस्तुतमभिसंबध्यते । सूत्राध्ययनानन्तरभावी हि तमनुष्टातुर्मुचितमिति, विचिन्त्य चेदं सति परिझाने आत्मीयमातदर्थव्याख्यानरूपः स्थविरकल्पक्रमष्टोऽनुयोग एवाऽऽवश्य- युःशेष स्वयमेव पर्यालोचयति, तदभावेऽन्यमतिशयिनमाचार्याकस्य शास्त्रकृता वक्तुमारब्धः, अतः सूत्राध्ययनकानस्याति- प्रदिकं पृच्चति, तत्र स्तोके स्वायुषि भक्तपरिक्षाऽऽदीनामन्य। क्रान्तत्वेनेह विवक्षितत्वादनुयोगस्यैवाऽभिधिसितत्वात् तत्प्र- तरन्मरणं प्रतिपद्यते । अथ दीर्घमायुः, केवल जवाबलपरिक्षा. धानक्रमेशवाधिकार शति-भावः । एतावच्चास्यां गाथायां प्र. णः, तदा वृद्धवासं स्वीकुरुते, पुटायां तु शक्तौ जिनकल्पाकृतोपयोगि। यत् पुनरन्ययाख्यास्यते-" अनियो वासो । नि- दिप्रतिपत्तिमुररीकरोति । तत्र जिनकल्पं प्रतिपित्सुना प्रथम फत्त) य विहारो” इत्यादि, तत्प्रासङ्गिकमित्यवगन्तव्यम् । मेव तावत्पञ्चभिस्तुलनानिरात्मा तोबनीयः । तद्यथातत्र (अनियत्रो वासो त्ति) ततोऽस्य गृहीतसूत्रार्थस्य शि- " तवेण सत्तेण सुत्तेण, एगत्तेण बलेण य । ध्यस्यानियतो वासः क्रियते,ग्रामनगरसन्निवेशाऽऽदिष्वनियत- तुक्षणा पंचदा चुत्ता, जिणकप्पं पडिवजो"॥१॥ निवासेनैष गृहीतसूत्रार्थः शिष्यो यद्याचार्यपदयोग्यः,तदा जघ- तुलना,नावना,परिकर्म चेत्येकार्थानि। तत्राऽऽचार्योपाध्यायप्रन्यतोऽपि सहायद्वयं दत्त्वाऽऽत्मतृतीयो द्वादश वर्षाणि याव- वर्तकस्थविरगणावच्छेदकसकणाः प्रायः पञ्चैव जना प्रशस्ताभि. मानादेशदर्शनं नियमेन कार्यत इत्यर्थः, प्राचार्यपदाऽनहस्य रेताभिः पञ्चमि वनाभिर्जिनकल्पं प्रतिपित्सवः प्रथममेवाऽऽ. स्वनियमः। आचार्यपदार्थोऽपि किमिति देशदर्शनं कार्यत इति?, त्मानं जावयन्ति । अप्रशस्तास्तु कन्दर्पदेवकिल्विपिकाऽऽजियोगिचेत् । उच्यते-स हि नानादेशेषु पर्यटस्तीर्थकराणां जन्माऽऽदि. कासुरसंमोहस्वरूपाः पञ्च भावना:सर्वथा दतः परित्यजन्ति। दिभूमीः पश्यति; ताश्च दृष्ट्वा अत्र जाताः, इह दीका प्रतिपन्नाः, तत्र तपसाऽऽत्मानं भावयंस्तथा बुभुकां पराजयते पथा देवाअस्मिश्च देशे निवृता भगवन्तः,इत्याद्यभ्यवसायतो हर्षातिरेका. 5ऽयुपसर्गाऽऽदिनाउनेषणादिकरणतो यदि षण्मासान याबदातस्य सम्यक्त्वस्थैर्य जवति; अन्येषां च स पश्चात् तस्थिरता- हारन क्षमते,तथाऽपि न बाध्यते । सत्वभावनया तु भयं परामुत्पादयति,थुताऽऽचतिशायिनश्चाऽचार्याऽऽदीनानास्थानेषु प. जयते । तत्र भयजयाथै रात्रौ सुप्तेषु शेषसाधुष्पाश्रय एव काश्यतः सूत्रार्थेषु सामाचार्या चाऽस्य विशेषोपलम्भो भवति, ना- योत्सर्ग कुर्वतः प्रथमा सवभावना भवति। द्वितीयाऽऽदिकास्तुनादेशभाषासमाचारांश्चैव बुद्धयते, ततश्च तत्तद्देशजानामपिवि. पाश्रयबाह्याऽऽदिनदेशेषु । श्राह.च-“पढमा उपस्सयम्मी, बीया नेयानां तत्तद्भाषया धर्म कथयति, ततः प्रतिबोध्य तान् प्रवा- बादि तश्यच उकम्मि । सुषहरम्मि चउत्थी, अद पंचमिया जयति, पूर्वप्रनजितास्तु तदुपसंपदं प्रतिपद्यन्ते, निःशेषास्म- मसाणम्मि ॥१॥" सूत्रभावनया तु स्वनामवत् सूत्रं परिचितं द्भापासमाचारकुशलोऽयमिति शिष्याणां तदुपरि प्रीतियोगश्च तथा करोति यथा रात्री दिचा चोच्चास-प्राण-स्तोक-बवमुजायते, इत्यादिगुणदर्शनादनियतवासः । (निष्फत्तीपति) एवं हाअदिकं कालं सुत्रपरावर्तनानुसारेणैव सर्व सभ्यगबबुरूच. चाऽनियतवासेन द्वादश वर्षाणि पर्यटतस्तस्याऽऽचार्यपदाई स्य ते, एकत्वभावनया चाऽऽत्मानं भावयन् सङ्घाटकसावादिना शिष्यत्वेनाऽऽत्मनो निष्पत्तिनवति, अन्येषां च प्रसूतशिघ्याय सह पूर्वप्रवृत्तानासापसुत्रार्थसुखदुःखाऽऽदिप्रश्नीमथःकथाss. तदन्तिके मिष्पत्तिर्जायत इति । (विहारो त्ति) एवं शिष्यत्वेन दिव्यतिकरान् सर्वानपि परिहरति, ततो बाह्यममत्वे मूसत निष्पत्ती, सूरिपदे च प्राप्ते, स्वपरोपकारकरणेन दीर्घ च पर्या- एव व्यवच्छेदिते पश्चाद्देहोपध्यादिभ्योऽपिभिन्नमात्मानं पश्यन् ये परिपालिते, अन्यस्मिंश्च योग्यशिप्पे आचार्यपदे व्यवस्थापि- सर्वथा तेष्वपि निरनिघङ्गो भवति। (मत्रोदाहरणम-'एगत्तते ततोऽनन्तरं विहरणं विशेषेण भगवदभिहितमार्गे पराक्रम नाधणा' शम्दे तृतीयभागे १२ पृष्ठे अष्टव्यम) बननाबनायां विहारो विशेषानुष्ठानरूपोऽनेन कर्तव्यः । स च द्विविधः- बलं द्विविधम्-शारीरं, मानसधृतिबलं च । तत्र शारीरमपिब. जक्तपरिझेङ्गिनीपादपोपगमनलकणमन्युद्यतमरणं, जिनकल्पप. लं जिनकल्पाहस्य शेषजनाऽतिशयिकमेष्टव्यम, तपःप्रभृतिभिरिहारविशुद्धिककल्पयथानन्दिककल्पप्रतिपत्तिर्वा । अस्मिश्च स्त्वपकृष्यमाणस्य यद्यपि शारीरं बलं तथाविधं न नवति,तया. विविधेऽपि विहारे सामाचारी ज्ञात्वाऽनुष्ठेया । सा चाऽऽद्ये
ऽपि धृलियलेनाऽऽत्मा तथा भावयितव्यो यथा महद्भिरपिपरीमरणलक्षणे विहारे
षदोपसगैने बाध्यते । एताभिः पञ्चभिर्भावनामि विताऽऽत्मा "निष्काश्या य सीसा, सउण। जह अंडयं पयत्तेणं ।
जिनकल्पिकप्रतिरूपो गच्छेऽपि प्रतिवसन्नाहाराऽऽदिपरिकर्म प्र. बारस संवरियं, सो संलेहं अह करे ॥१॥
थममेव करोति, तत्राऽऽहारे तृतीयपौरुभ्यामवगाढायां वचचत्तारि विचित्ताई, बिगनिजहियाइँ चत्तारि।
याकादिकमन्तं प्रान्तं रूकं च । “संसहमसंसट्टा, नद्धमतद संबच्चरे न दोन्नि उ, एगंतरिय च आयाम ॥२॥
हो अपलेवा य । उम्गहिआ पाहिया, कियधम्मा य स.
त्तमिया"॥१॥ पतासां सप्तानां पिएमैषणानां मध्ये आद्यद्वयवर्ज नाविगिहो य तवो, छम्मासे परिमिदं च आयामं ।
शेषपश्चानां मध्यादन्यतरेषणाद्वयानिग्रहेणाऽऽहारं गृह्णाति,एकअन्ने वि य छम्मामे, होइ विगिळं तवोकम्मं ॥ ३॥
या नक्तम, अपरया त्वेषणया पानकमिति । एवमाद्याऽऽगमोक्तवासं कोमीसहियं, पायाम कट्ट प्राणुपुब्बीए ।
विधिना गच्चान्तर्गतः पूर्वमेवात्मानं परिकर्म्य ततो जिनकरूपं गिरिकंदरं तु गंतुं, पायवगमणं श्रह करे ॥४॥"
प्रतिपित्सुः सडं मील यति, तदभाचे स्वगणं तावदवश्यमायते, इत्यादिका शातव्याः । द्वितीये तु विहारे जिनकल्पा- ततस्तीर्थकरसमीपे, तदनावे गणधरसन्निधाने, तदसवे च. उदिप्रतिपत्ती सामाचारी निद्दिश्यते-तत्र जिनकल्पा55. । तुर्दशपूर्वधरान्तिके, तदसंजबे दशपूर्वधराउभ्यो , तदलामे तु
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(१३०९) थविरकप्प प्राभिधानराजेन्द्रः।
थविरकप्प बटाश्वत्थाशोकवृत्ताऽऽदीनामासत्तौ जिनकल्पमभ्युपगच्छति, यारकेऽपि, अवसर्पिण्या तु जन्मना तृतीयचतुरिकयोरेव, निजपदव्यवस्थापितं सूरिम्, सबालवृहं गच्चं, विशेषतः पृ
व्रतस्थस्तु पश्चमारकेऽपि, संहरणेन तु सर्वस्मिन्नपि काने विरुद्धाँच कमयति । तद्यथा
प्राप्यते । प्रतिपद्यमानकः सामायिकच्छेदोपस्थापनीयचारित्र. "ज किचि पमापणं, न सुटु ने पट्टियं मर पुटिव । योः, पूर्वप्रतिपन्नस्तु सूक्ष्मसंपरायवधाख्यातचारित्रयोरप्युतंभे! खामेमि अहं, निस्सलो निक्कसाओ य॥१॥
पशमश्रेण्यामवाप्यते । प्रतिपद्यमानानामुत्कएतः शतपृथक्त्वआणंदमंसुपाय, कुणमाणा ते वि नूमिगयसीसा ।
म् , पूर्वप्रतिपनानां तु सहपृथक्त्वं जिनकल्पिकानां लज्यखामंति तं जहरिहं, जहारिहं खामिया तेण ॥२॥
ते । जिनकल्पिकः प्रायोऽपवादं नासेवते, जहावलपरिकीणखामतस्स गुणा खलु, निस्सनुयविणयदीवणा मग्गे । स्त्वविहरमाणोऽप्याराधकः । आवश्यकीनषेधिकीमियापुकलाघविश्र एगत्तं, अप्परिबंधो य जिणकप्पे ॥३॥" तगृहिविषयपृच्छोपसंपल्लकणाः पञ्च सामाचार्योऽस्य भवन्ति, निजपदस्थापितसूरिप्रभृतीनामनुशास्ति प्रयच्चति । तद्यथा- न विच्छाऽऽदयः । मन्ये स्वाहुः-आवश्यकीनैपेधिकीगृहस्थोप"पानिज सगणमेयं, अप्पमिबद्धो य होज सम्बत्थ । संपल्लक्षणास्तिन एव नवन्ति, पारामाऽऽदिनिवासिन ओघ. एसो हु परंपरो , तुम पि अंते कुणसु एवं ॥१॥
तः पृच्छादीनामध्यसंभवादिति । लोचं चाऽसौ नित्यमेव करोपुवपत्तं विणयं, मा हुपमाएहि बिणयजोग्गेसु ।
ति, इत्येवमाद्यपराऽपि स्थितिर्जिनकल्पिकानामागमादवसेया। जो जेण पगारेणं, नवजुज्जर तं च जाणादि ॥२॥
परिहारविधिककल्पसामाचार्यादिवक्तव्यतात्रैव प्रन्थे पुरओमो समराणियो,अप्पतरसुत्रो य मा पेणं तुम्भे। स्ताक्ष्यते। परिमवह एस तुम्द वि, विसेसओ संपयं पुज्जो ॥३॥" यथालन्दिकानां तु-"तवेण सत्तेण सुतेण" इत्यादिका प्रावना. इत्यादि शिक्षा दचा गच्छाद्विनिर्गते चक्षुर्गोचराऽतीते तस्मि- ऽऽदिवक्तव्यता यथा जिनकल्पिकानाम् । यस्तु विशेषः स खेमानन्दिताः साधवः प्रतिनिवर्तन्ते । उक्तं च
शतःप्रोच्यते-तत्रोदकार्ड: करो यावता शुष्यति, तत पार" पक्खी व पत्तसहिओ, संभमगो वच्चए निरबश्क्यो ।
भ्योत्कृष्टतः पञ्चरात्रिन्दिवानि यावत्कारोऽत्र समयपरिभाषया धीरो घणवंदामो, नीहरिओ विजपुंजो व्व ॥१॥
लन्दमित्युच्यते। ततश्च पञ्चरात्रिन्दिवलक्षणस्योत्कृष्टस्य लसीहम्मि व मंदरकं-दराउ गच्छा विणिग्गए तम्मि ।
न्दस्याऽनतिक्रमेण चरन्तीति यथानन्दिकाः । पञ्चको हिगणोऽ. चक्खुविसयमइगए, अ इंति आणंदिया साद्॥२॥
मुकं कल्पं प्रतिपद्यते। ग्रामं च गृहपतिरूपाभिः परभिर्वीधीपानोप खेतं, निम्बाधारण मासनिम्बादि।
निर्जिनकल्पिकवत्परिकल्पयन्ति, किं त्वेकैकस्यां पीथ्यां पञ्चप. गंतूण तत्थ विहरे, सादू पडिवन्नजिणकप्पो ॥ ३॥"
श्च दिनानि पर्यटन्तीत्युस्कृष्टलन्दचारिणो यथासन्दिका सच्यन्ते । एवं च प्रतिपन्नजिनकल्पो यत्र ग्रामे मासकल्पं,चतुमासकंवा
पते १ प्रतिपद्यमानका जघन्यतः पश्चदश भवन्ति, उत्कृष्टतस्तु करिष्यति, नत्र षागान् कल्पयति । ततश्च यत्र भागे एक
सहस्रपृथक्त्वम् । पूर्वप्रतिपन्नास्तु जघन्यतः कोटिपृथक्त्वम्, स्मिन् दिने गोचरचर्यायां हिरिमतस्तत्र पुनरपि सप्तम एव
उस्कृष्टतोऽपि कोटिपृथक्त्वं भवन्ति । एते च यथालन्दिका दिवसे पर्यटति, भिक्षाचर्या ग्रामान्तरगमनं व तृतीयपौरुष्या
द्विविधा भवन्ति-गच्छे प्रतिबकाः, अप्रतिवद्धाश्च । गच्छे
च प्रतिबन्धोऽमीषां कारणतः, किश्चिदश्रुतस्यार्थस्य श्रवणार्थमेव करोति, चतुर्थपौरुषी च यत्राघमाहते, तत्र नियमादधतिष्ठते । नक्तं पानकं च पूर्वोक्षणाद्वयाभिग्रहेस्थालेपकृदेव गृ.
मिति मन्तव्यमिति । पुनरेकैकशी द्विधा-जिनकल्पिकाः, द्वाति । एषणाऽऽदिविषयं मुक्त्वा न केनाऽपि सा जल्पति ।
स्थविरकल्पिकाश्च । ये जिनकल्पं प्रतिपत्स्यन्ते ते जिनकल्पिएकस्यां च बसती यद्यप्युत्कृष्टतः सप्त जिनकरियका प्रतिव.
काः, ये तु पुनरपि स्थविरकल्प समाश्रयिष्यन्ते ते स्थविसन्ति, तथाऽपि परस्परं न जायन्ते । उपसर्गपरीषहान् स.
रकल्पिकाः । एतेषां च स्थविरकल्पिकजिनकल्पिकभेदभित्रानिविसहत एच, रोगेषु विचिकित्सां न कारयस्यैत्र, तवेदन तु
नां यथालन्दिकानां परस्परमयं विशेषः । यदारसम्यगेव विषहते, मापातसंलोकादिदोषरहित एव स्थगिमसे
"थेराणं नाणतं, अतरतं अप्पिणति गच्चस्स । उच्चाराऽऽदीन करोति, नाऽस्थपिडले,"श्रममत्त अपरिकम्मा,
गच्छे निरवज्जणं, करेंति सव्वं पि पडिफम्म ॥१॥ णियमा जिणकप्पियाण वसहीनो । पमेव यथेराणं, मोत्तण
एक्केक्कपमिम्गहगा, सप्पानरणा हवंति थेरा छ। पमज्जणं पकं ॥१॥" इति बचनात्परिकर्मरहितायां बसतो
जेसिं उण जिणकप्पे, न य तेसिं पत्थपायाणि ॥२॥ तिष्ठति, यापविशति तदा नियमादुत्कुमुक एब, न तु निष
निप्पमिकम्मसरीरा, अवि अचिमनं पि नेव अवणिति। द्यायाम, औपनहिकोपकरणस्यैवानावादिति । मत्तकरिव्याघ्र
विसहंति जिणा रोगं, कारति कयाइन तिगिच्छ ॥३॥" सिंहाऽऽदिकेच संमुखे समापतत्युन्मार्गगमनाऽऽदिना ईयांसमि
इत्यलं विस्तरेण । तदर्थना तु कल्पग्रन्थोऽन्वेषणीय इति(७)। तिं न भिनत्ति, इत्याद्यन्याऽपि जिनकल्पिकानां सामा
विशे। (संक्षेपत एष स्थविरकल्पः)(विस्तरतस्तु 'महालंद' चारी समयसमुकादवगन्तव्या। (ईि चेव त्ति) तथा पूर्वोक्त
शब्दे प्रथमभागे ०६६ पृष्ठे प्रतिपादितः) (शेषाणि तु द्विविधेऽपि विहारे स्थितिः श्रुतसंहननाऽऽदिका ज्ञातव्या । त. सर्वापयपि जिनकल्यतुल्यवक्तव्याम्यवेत्युक्तं शुरूपरिहारथाहि-जिनकल्पिकस्य तावजघन्यतो नवमस्य पूर्वस्य तृतीयमा- नानात्वम)(विदारद्वारं 'विहार' शब्दे वदयते) (खापनाकचारवस्तु, नत्कर्षतस्त्वसंपूर्णानि दशपूर्वाणि श्रुतं नवति । प्रथम- ल्पविधिः 'ठवणाकुल' शब्दे तृतीयत्नागे १६८६ पृष्ठे गतः) संहननो बजकुख्यसमानावष्टम्भश्चायं जबति । स्वरूपेण पञ्चद- यदि ज्ञानाऽऽदिपुष्टालम्बनं प्रवति तदा चिकित्साऽऽदिविधाशस्वपि कर्मभूमिषु, संहतस्त्वकर्मभूमिध्वपि भवति । नत्स- नान् न सहन्ते, इतरथा न सम्यगदीन मनसः सहन्त इतिपिएयां व्रतस्थस्तृतीयचतुर्थारकयोरेव; जन्ममात्रेण तु द्विती। दुवि पि वेयणं ते, निकारणओ सहति नश्या वा।
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(२३४.) निधानराजेन्डः।
थविरकप्प
थविरकप्प
अममत्त अपरिकम्मा, वसही वि पमजणं मोत्तुं ।। ३६३॥ |
न परितुञ्जते । संरकता नाम-यत्र तिष्ठतामगारिणो नणन्ति-गवा.
दिभिर्भज्यमानां वसतिमन्या समीपवर्ति गृहं संरक्कत,तत्राद्विविधामप्याभ्युपगमिकामापऋमिकी च वेदनां निष्कारणतः
प्यशिवाऽऽदिनिः कारणैः तिष्ठन्तो नणन्ति-यदि वयं तदानी सहन्ते, भाज्या वा असहिष्णुत्वाऽऽदिकारणवसतो न सहन्तेऽपीति भावः। तथा वसतिरपि तेषामममत्वा ममेयमित्यनिव
पक्ष्यामस्ततो रक्ष्यिाम ति । संस्थापनता नाम-बसतेः सं.
स्कारकरणं, तस्यामपि नियुक्ता जणन्ति-वयमकुशलाः संरहिता । “अपरिकम्मा" उपलेपनाऽऽदिपरिकर्मवर्जिता। किं सर्वथैव?, नेत्याह-प्रमार्जनामेकां मुक्त्वा , कारणे तु सममत्वा
स्थापनाकर्मणि कर्तव्ये, समानृतिकायामपि वसतो कारणतः
स्थिता देशतः सर्वतो वा क्रियमाणायां प्रावृतिकायां स्वकीयसपरिकाऽपि जवति, परिणतचारित्राणशक्षादीनां ममै
मुपकरणं प्रयत्नेन संरक्षन्ति, यावत्प्रानृतिका क्रियते ताबयमित्यनिष्वङ्गविधानात् सममत्वा सपरिकर्मा स्वपरिकर्माया
देकस्मिन् पार्श्वे तिष्ठन्ति, सदीपायां साग्निकायां बसती कावसतेरलाभे घटण्या।
रणे स्थिता आवश्यक बहिः कुर्वन्ति । अवधानं नाम-यदि अथ विशेषमाह
गृहस्थाः केत्रादि गच्छन्तो भणन्ति-अस्माकमपि गृदेष्पयोतिगमाईया गच्छा, सहस्स-बत्तीसई उमभसेणे । गो दातव्यो, मा शुनस्तेनकाऽऽदयः प्रविश्योपनवं कार्युरिति, त. थमिवं पि य पढम, वयंति सेसे वि श्रागाढे ॥ ७ ॥
त्रापि कारणे स्थिताः स्वयमेवावधानं ददति, अनुपस्थापित्रिकाऽऽदयस्त्रिचतुःप्रभृतिपुरुषपरिमाणा गच्चा भवेयुः। किमुक्तं
तशैकैर्वा दापयति । यत्र च कति जना वत्स्यथेति पृष्ठे सति
कारणतस्तिष्ठद्भिः परिमाणनियमः कृतः-यथैतावद्भिः स्थातभवति?-एकस्मिन् गच्चे जघन्यतस्त्रयो जना भवन्ति, गच्चस्य
व्यं नाधिकः, ततो यद्यन्ये प्राघूर्णकाः समागच्छन्ति तदा तेसाधुसमुदायरूपत्वात्, तस्य च त्रयाणामधस्ताद जावादिति ।
पामेव स्थापनाय भूयोऽप्यनुज्ञापनीयः सागारिका, यद्यनुजातत कवये चतुःपञ्चप्रजतिपुरुषसंख्याका गच्छास्ते मध्यमपारमाणतः प्रतिपत्तव्यास्तावद्याचदुत्कृष्टं परिमाणं न प्राप्नोति । कि
नाति, ततः सुन्दरमेव, मथ नानुजानाति, ततोऽन्यस्यां वसता पुनस्तदिति चेत् ?, अत भाह-( सहस्सवत्तीसई उसभसेणे
स्थापनीयास्ते प्राचूर्णका इति। त्ति ) द्वात्रिंशत्सहस्राण्येकस्मिन् गच्छे उत्कृष्टं साधूनां परि
जिक्षाचर्याऽऽदीनामवशिष्यमाणहाराणां विशेषमाहमाणं, यथा श्रीऋषभस्वामिप्रथमगणधरस्य भगवत ऋष- निययाऽनियया भिक्खा-यरिया पाणऽमोवऽलेवाम । भसेनस्यति । तथा स्थगिमलमपि प्रथमम्-श्रनापातमसंसोक
अंबिलमणं बिलं वा, पडिमा सव्वा वि अविरुघा ७५७) मतदगच्छवासिनो व्रजन्ति । आगाद तु भावासन्नताऽऽदौ कारणे शेषाएयपि अनापातसंलोकप्रभृतीनि स्थएिमलानि ग
भिक्षाचर्या नियता कदाचिदाभिग्रहिकी,अनियता कदाचिदनाच्छन्ति ।
भिग्रहिकी, पानमन्नं वा बेपकृतं च भवेदलेपकृतं वा, द्राका
चिश्वापानकाऽदितक्रतीमनादिकंच लेपकृतं सौवीराजदकं, कियच्चिरमिति द्वारं विशेषयन्नाह
वडचणकादिकंचालेपकृतमाचाम्लमनाचाम्यं वा द्वयमपि कुकेचिर कालं वसिहिह, णति निकारणम्मि इइ पुट्ठा ।।
वन्ति, प्रतिमाश्च मासिक्यादिका जबादिका वा सर्वाश्चाप्य. अन्नं वा मग्गंती, उचिंति साहारणमतंने ॥ ७६५ ॥ मीषामविरुद्धा इति । उक्तं सामाचारीद्वारम् । कियच्चिरं कालं यूयमस्यां वसती वत्स्यथेति पृष्टाः सन्तो अथ स्थितिद्वारमभिधित्सुरिगाथाद्वयमाहनिष्कारणे न तिष्ठन्ति, किं तु केत्रान्तरं गच्छन्ति । अथ बहिर- खेत्ते काले चरित्ते, तित्थे परियाएँ आगमे वेए । शिवाऽऽदीनां कारणानि, ततस्तत्रैव केत्रे अन्यां वसतिं मार्गय.
कप्पे लिंगे बेसा, काणे गणणा अभिगहा य ।। ७६०॥ न्ति । अथ मृग्यमाणाऽप्यन्या न लभ्यते, ततः साधारणं वचने स्थापयन्ति, यथा नियाघाते तावद् वयं मासं यावद् तिष्ठामहे,
पबावण मुंमावण, मपसाऽऽवन्ने उ नस्थि पच्छित्तं । व्याघाते तु हीनाधिकमलाघवार्यम् ।
कारण पमिकम्बम्मि य, भत्तं पंथो य भयणाए॥७ ॥ शेषद्वाराणि तुल्यवक्तव्यत्वादतिदिशन्नाह
क्षेत्र का चरित्रे तीर्थ पर्याय अागमे वेदे कल्पे लिङ्गे ले. एमेच सेसएमु चि, केवइया वसिहिह त्ति जाणेयं ।
श्यायां ध्याने गणनायाम, पतेपस्थितिर्वक्तव्या। अभिग्रहावा.
मीषामजिमातम्याः। एवं प्रवाजना, मुएमापना, मनसाऽऽपनेऽप्यनिकारण पमिसेहो, कारणे जयणं तु कुव्वंति ॥७५६।।
पराधे नास्ति प्रायश्चित्तं, कारणे प्रतिकर्मणि च स्थितिः नक्तं एवमेव कियच्चिरद्वारवत्, शेषेष्वपि उच्चारप्रस्रवणाऽऽदिषु पन्यानश्च जजनया । इति गाथाद्वयसमुदायार्थः । कियद्वारेषु, कियन्तो वत्स्यथेति द्वारं यावनेयम् । फिमित्याह- ___ अवयवार्थ तु प्रतिद्वारं विभणिपुराहपतेष्वपि निष्कारणे प्रतिषेधो, न वसन्तीति भावः । कारणे तु यतनां कुर्वन्ति। किमुकं भवति?-यदि तिष्ठतामुच्चारप्रस्त्रवणयोः
पन्नरस कम्मन्नूमिसु, खेत्तऽच्छोसप्पिणी य तिसु होज्जा। परिष्ठापनमकाले फलिहकाम्यन्तरतो नानुजानन्तीत्यतस्त
तिसुदोमु य उस्सप्पे, चनरो पलिनाग माहरणा 16000 त्र नतिष्ठन्ति । अधाशिवाऽऽदिजिः कारणेस्तिष्ठन्ति तत उच्चार केबद्वारे जन्मतः, सद्भावतश्च स्थविरकल्पिकाः पञ्चदशप्रश्रवणं चा मात्रकेषु व्युत्सृज्य बहिः परिष्ठापयन्ति । एवमव. स्वपि कर्मभूमिषु जस्तैरावतविदेहपञ्चकत्रकणासु भवन्ति, सं. काशादिष्वपि अष्टव्य, नबरमवकाशे यत्र प्रदेशे नपवेशन- हरणतः पश्चदशानां कर्मनूमीनां त्रिंशतामकर्ममीनामन्यतर. नाजनधावनाऽऽदि नानुझातं,तत्र नोपदिशान्ति । कमक्काऽऽदिषु स्यां नूमौ नवेयुः, अशा कालः, तमङ्गीकृल्यावसर्पिक्ष्यां जन्मचनाजनानि धावन्ति,तृषालकान्यपि यानि नानुमातानि, तानि । तः, सद्भावतच विषुतुतीयपश्चमारकेषु भवेयुः । (तिसु दोसु
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(२३ ) थविरकप्प अभिधानराजेन्छः।
थविरकप्प य उस्सप्पे त्ति) उत्सर्पिण्यां जन्मतस्त्रिषु द्वितीयतृतीयचतुर्थेषु
अथ गणनाद्वारमाहआरकेषु, सद्भावतस्तु द्वयोस्तृतीयचतुर्थारकयोवन्ति,नोअवस.
पडिवज्जमाणभश्या, एको व सहस्ससो व नकोसो। पिव्युत्सर्पिणीकाले जन्मतः, सद्भावतश्च पुषमसुषमाप्रति
कोमिसहस्सपुहत्तं, जहन्न उक्कोसपडिवमा ।। ८१० ॥ भागे भवन्ति । संहरणतस्तु चत्वारोऽपि प्रतिभागा अमीषां विषयतया प्रतिपत्तव्याः । तद्यथा-सुषमसुषमाप्रतिभागः, जुम्षम
स्थबिरकल्पस्य प्रतिपद्यमानका भाज्या विवक्कितकाले भवेयुः,
तत एको द्वौ वा त्रयो वा उत्कर्षतो यावत् सहस्रपृथक्त्व, पू. दुःषमाप्रतिनागः, सुषमःषमाप्रतिभागः, पुषमसुषमाप्रति
प्रतिपन्नाः जघन्यतोऽपि कोटिसहस्रपृथक्त्वं, नवरं जघन्यपभागश्चेति ।
दादुत्कृष्टपदे विशेषाधिकत्वम् । गतं गणनाद्वारम् । वृ०१ज । पढमविइएमु पमिव-ज्जमाण इयरे उ सव्वचरणेसु।। ('अभिग्गह' शब्दे प्रथमभागे ७१३ पृष्ठे उनिग्रहा उक्ता ) पते नियमा तित्थे जम्म-5g जहन्ने कोमि उक्कोसे ॥८०१॥ च द्रव्याऽऽदयश्चतुर्विधा अप्यभिग्रहास्तीर्थकरैरपि यथायोग. पव्वज्जाएँ मुहतो, जहन्नमुक्कोसिया उ देसूणा ।
माचीपत्वाद्, मोहमदापनयनप्रत्यबस्वाश्च गच्छवासिनां तथाआगमकरणे भइया, ठियकप्पे अट्ठिए वा वि ।।००२॥
विधसहिष्णुपुरुषविशेषापेक्कया महान्तः कर्मनिबन्धने प्रतिप
त्तव्या इति । प्रतिपयमानका श्रमी प्रथमेवा सामायिकाऽऽख्ये, द्वितीये वा
अथ प्रवाजनामुएमापनाद्वारे भावयतिछेदोपस्थापनीयाऽऽख्ये चारित्रे भवेयुः। इतरे नाम-पूर्वप्रतिपन्नाः, ते सर्वेष्वपि चरणेष जवन्ति,सामायिकाऽऽदिषु यथाख्यातपर्यन्ते.
सच्चित्तदवियकप्पं, विहमवि प्रायरंति थे। उ । विति भावः । तथा नियमादानी तीर्थे भवन्ति, नातीर्थे । पर्या- कारणो असहू वा, नवएसं दिति अन्नत्थ ।। ७१७॥ यो द्विधा-गृह पीयः, प्रवज्यापर्यायश्च । तत्र गृहपर्यायो जघ
प्रवाजनामुण्डापनाभ्याम,उपलकणत्वात् पमिधोऽपि सचित्तन्यतो जन्मन प्रारज्याऽष्टौ वर्षाणि, उत्कर्षतः पूर्वकोटी। प्रव्रज्या. अव्यकल्पो गृहीतः। तद्यथा-प्रजाजना, मुण्मापना, शिक्कापना, पर्यायो जघन्यतोऽन्तर्मुहूर्तः,तदनन्तरं मरणात्प्रतिपाताद्वा । उत्क- उपस्थापना, संन्नुञ्जना, संचायना चेति । तमेवंविधं पमिधमपि पंतस्तु देशोना पूर्वकोटी । श्रागमोऽपूर्वश्रुताध्ययन, तस्य करणे सचित्तद्रव्य कल्पमाचरन्ति स्थविरा गच्छवासिनः।(कारण ओ जाज्या-अमी कुर्वन्ति वा. न वा तमिति जावः । कल्पद्वारे-स्थि: त्ति) तथाविधैरनान्नाव्यताऽऽदिभिः कारणैः, असहिष्णवो वा तिकल्पे वा अस्थितकल्पे वा नवेयुः । वेदद्वारं सुझानत्वाद्भाष्यकृता स्वयं वस्त्रपात्राऽऽदिन्निानाऽऽदिभिश्च शिष्याणां संग्रहोपग्रहो न भावितम् । इत्थं तु द्रष्टव्यम्-वेदः स्त्रीपुनपुंसक भेदात् त्रिवि
कर्तुमसमर्था उपदेशमन्यत्र गच्चान्तरे, ददति प्रयच्चन्ति-अ. धोऽप्यमीषां प्रतिपत्तिकाले भवेत् । किमुकं भवति?-पूर्वप्रतिप
सुकत्र गच्छे संविग्नगीतार्था आचार्याः सन्ति तेषां समीपे नव. नानां त्ववेदकत्वमपि भवतीति ।
ता दीका प्रतिपत्तव्यति । अथ मनसाऽऽपन्ने नास्ति प्रायश्चित्तम् । नइया उ दवलिंगे, पमिवत्ती सुचलेसधम्मेहिं ।
दं व्याख्यानयतिपुचपमिवन्नगा पुण, लेसामाणे य अन्नयरे ॥ ७०३ ॥ जीवो पमायबहुलो, पमिवक्खे मुक्करं ठनेनं जे । प्रतिपद्यमानकाः, पूर्वप्रतिपन्नकाश्च व्यसिङ्गे भक्ता विक- कित्तियमेत्तं वोच्छिति, पच्चित्तं दुग्गतारिणीव? ॥१॥ ल्पिता:-कश्चित्तन्न भवत्यपीति, नाबनिङ्गं तु नियमात्सर्वदैव
अयं जीवः प्रमादबहुलेोऽनादिभवाज्यस्तप्रमादभावनानाभवति । तथा प्रतिपत्तिः शुद्धोश्याधर्मध्यानयोनवेत् । किमुक्त भवति?-प्रथमतः प्रतिपद्यमानकाः शुद्धास्वेव तिसृषु लेश्यासु
वितः, तप्तः प्रतिपक्षेऽप्रमादे स्थापयितुं पुष्करं भवति, दुःखेना.
प्रमादभाबनायां स्थाप्यते इत्यर्थः । "जे" इति पादपूरणे । आशाविषयाऽऽदौ च धर्मभ्याने वर्तमाना प्रतिपत्तव्याः । पूर्व
अतो पुगत ऋणिक श्व अतिप्रतृत ऋण अतिचपलचित्तसंप्रतिपन्नकाः पुनः षामा लेश्यानामन्यतरस्यां श्यायामार्त्ता.
जवापराधवशादयं प्रमादबहुलो जीव उपदेशमापद्यमानं कियऽऽदीनां च ध्यानानामन्यतरस्मिन् ध्याने भवेयुः । वृ०१०।
मात्रं प्रायश्चित्तं वक्ष्यति वोढुं शक्नोतीति मनसाऽऽपन्ने ऽप्यअथैताभिभावलेश्याभिरुपचितस्य कर्मणः कथमुदयो
पराधे नास्ति तपःप्रायश्चित्तं स्थविरकस्पिकानाम्मालोचनाप्रजबति ?, इत्याह
तिक्रमणप्रायश्चित्तं तु तत्रापि भवत इति मन्तव्यम् । अथ "काजं चिजए न कम्म, जलेसं परिणतस्स तस्सुदए। रणे पडिकम्मम्मि य ति (७६६)" पदं व्याख्यायते-कारणम. अमुनो सुभो व गीतो, अपस्थपत्यन्न उदबोध ॥८०६॥
शिवावमौदर्याऽऽदि, तत्रोत्पन्ने द्वितीयपदमप्यासेवन्ते । तथा नि( ज लेसं ति ) सप्तम्यर्थे द्वितीया । ततोऽयमर्थः-यस्यां कृ.
कारणे निष्प्रतिकर्मशरीराः, कारणे तु ग्लानमाचार्यवादिनं पणाऽऽदीनामन्यतरस्यां ले श्यायां परिणतस्य जीवस्य यदशुनं
धर्मकथिकं च प्रतीत्य पादधावनमुखमार्जनशरीरसंबाधना-- शुनं वा कर्म ज्ञानाऽऽवरणाऽऽदि चीयते। कर्मकर्तर्यय प्रयोगः,
ऽऽदिकरणात् सप्रतिकर्माण इति । "भत्तं पंथो य भयणाए त्ति चयं बन्धमुपगच्छतात्यर्थः । तस्यैवमशुजरूपतया, शुनरूपतया
(७१)" नक्तं पन्धाश्च भजनया । किमुक्तं भवति ?-उत्सर्गत. वा बहस्य कर्मण उदयाऽऽवलिकां प्राप्तस्याशुभ:, शुभो वा
स्तावत्तीयपौरुष्यां भिक्षाटनं विहारं कुर्वन्ति । अपवादतस्तु तथाऽनुरूप एवोदयो गीतः संशब्दितस्तीर्थकरैः । दृष्टान्त
तदानी भिकाया असाभे काले बा पूर्यमाण शेषास्वपि पौरुषीमाह-अपथ्यपथ्यानउदय श्व । यथा अपथ्यान्नं तुक्तवतो ज्व
विति । गतं स्थितिहारम् । राऽऽदिरोगवारेणापथ्य एवोदयो जवति, पथ्यान्नं तु नुक्तवतो
अथोपसंहरनाहमुखनासिकाऽऽविद्वारेण पथ्यः, एवं कर्मणोऽपि प्रशस्ताप्रश.
गच्छम्मि य एम विही, नायव्यो हो प्राणुपुबीए । स्तलेश्यपरिणामबरूस्य विपाकः शुभाशुनो जवतीति ।
जं एत्य णाणतं, तमहं बोच्छं समासेणं ॥ १६ ॥
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(२३०१) यविरकप्प अन्निधानराजेन्डः।
थविरकप्प गच्छे गच्चवासिनामेषोऽनन्तरोक्तो विधिर्शातव्य प्रानुपूर्त्या
अयनामेव नियुक्तिगाथां व्याख्यानयतिपरिपाब्या, यदत्र नानात्वं विशेषस्तदहं बढ्ये समासेन । गहिए भिक्खं जोर्नु, सोहिय आवस्स प्रालयमुवे । एतदेव सविशेषमाह.
महि.णिग्गतो तहिं चिय, एमेव य खित्तसंकमणे ॥३॥ सामायारी पुणरवि, तेसि श्मा होइ गच्छवासीणं ।
निरपेक्को भगवान् तृतीयपौरुष्यामुपाश्रयान्निगत्य भिकामटिपमिसेहो व जिहाणं, जं जुज्जइ वा तगं वोच्छ । स्वा गृहीते सति भैदये अनापाते असंझोके च स्थाने जुक्त्वा सामाचारी पुनरपि तेषां गच्यवासिनां मासकल्पेन विहरता- आवश्यकं च संज्ञाकायिकीलकण्यं शोधयित्वा, यस्यामेव मेषा वक्ष्यमाणा भवति, जिनानां जिनकल्पिनामस्या एवं पौरुष्यां निर्गतस्तस्यामेव भूय आलयमुपाश्रयमुपैति, तृतीयसामाचार्याः प्रतिषेधो वा वक्तव्यः । बद्धा-प्रत्युपेक्षणादिकं ते. स्यामित्यर्थः । एवमेव च केत्रसंक्रयेऽपिअष्टव्यम्, क्षेत्रात् केत्रा. पामपि युज्यते तत् किमपि वक्ष्ये ।
न्तरगमनमपि तृतीयस्यां करोतीति जावः । स्थविरकल्पिका प्रतिज्ञातमेव निर्वाहयति
अपि निष्कारणे तृतीयस्यामेव भिकामटित्वा प्रतिश्रयमनुद्दिश्य पमिलेहण निक्खपणे, पाइमिया भिक्ख कप्पकरणे य ।।
संज्ञामि गत्वा तस्यामेव प्रत्यागच्छन्ति, केत्रसंक्रमणमप्येव
मेव, कारणतस्तु न कोऽपि प्रतिनियमः। गच्छ सतिए अकप्पे, अंबिल भरिए अ ऊसित्ते ।
तथा चाहपरिहरणा अणुजाणे, पर कम्मे खलु तहेव गेलने।
अतरंतबालवुक्के, तबस्सिाएसमाइकज्जेसु । गच्छपमिबंधऽहासं-दि उपरिदोसाय अववाद।।॥
बहुस्रो बिहोज विसणं, कुझाश्कज्जेसु य विभासा।०३५॥ प्रथमतःप्रत्युपक्कणा वक्तव्या, ततो निष्क्रमणम्-कतिबारा उपा. श्रयाद् निर्गन्तव्यमिति। प्राभृतिका सूक्ष्मवादरभेदाद् द्विविधा,
उच्चारविहारादी, संभमजयचेश्वंदणाऽऽईया । भिका गोचरचर्या, कल्पकरणं च भाजनस्य धावनविधि
प्रायपरोजयडे, विणिग्गमा वप्पिया गच्चे ॥ ३६॥ लकणमित्येतानि वक्तव्यानि । (गच्छ सइए ति) शतिकाः भतरन्तो ग्लानस्तस्य, तथा बालवृद्धयोः, तपस्विनः कपकस्य, शतसंख्यपुरुषपरिमाणा ये गच्छास्तेषु प्रभूतेन पालकेन प्रयो। प्रादेशस्य प्राघूर्णकस्य, भादिशब्दादाचार्योपाध्याय शैककलजनं जवेत् । ता (कप्पे अंबिल त्ति)कल्यं कल्पनीयम्, अम्ल ब्धिमत्प्रनृतीनां यानि कार्याणि तत्प्रायोम्यभक्तपानौषधाऽऽदिग्रहच सौवीरं ग्रहीतव्यम, अनेन संबन्धेन सौचारिणीसप्तकमनि. णकपाणि, तेषु बहुशोऽपि बदूनपि वारान् गृहपतिगृहेषु प्रवेशनं धानीयम् । (भरिए ति) तस्याः सौबीरिण्या:सप्तविधं भरणं गच्छसाधूनां भवति। तथा कुलं नागेन्चान्द्रादि,मादिशब्दाद् पाच्यम । (कसित्त सि ) उत्सेचनमुत्सितं, सौवीरस्यास्ति- गणः कुन्नसमुदायो, गणसमुदायः सङ्घः, चतुर्वमरूपोवा, त. श्वनमित्यर्थः, तत्स्वरूपं च निरूपणीयम् । (परिहरप सि) स्कायेंषु च विभाषा कर्सव्या । सा चैषां कुशे गणे सो वा मा. नोदका प्रश्नयिष्यति-यदि साम्प्रतं केपि गच्छेधित्थमाधा- भाग्याऽनानाव्यविषयः कोऽपि व्यवहार समुपस्थितस्य यथाकर्माऽऽदयो दोषा उद्भवन्ति, तत् पूर्व सहस्रेषु गच्चेषु साधवः पत्परिच्छेदन कर्तव्यस, प्रत्यनीको वा कोऽपि साधूनामुपस्थित. कथमाधाकर्माऽऽदीनां परिहरणं कृतवन्त इति । अत्राचार्यः स्तस्य शिकणं विधेयम्, चैत्यव्यं वा कश्चिनिःश मुख्याति स प्रतिवक्ष्यति । अनुयानं रथयात्रा, उपनक्कणत्वात् स्नात्राऽऽदेरपि शासितव्यो वर्तत इत्यादि । तथा-नचारः पुरीषं, तस्योपलकपरिग्रहः । ततो यथा संप्रति रथयात्राऽऽदी समवसरणे सह- णत्वात्प्रस्रवणाऽऽदयुत्सर्जनार्थ बहिर्गन्तव्यम, विहारो नामनसंख्याका अपि साधवो मिलिताः सन्तश्चाधाकर्मादिक बसतावस्वाध्यायिके समुत्पन्ने सति स्वाध्यायनिमित्तमन्यत्र ग. परिहरन्ति, तथा पूर्वमपि परिहृतवन्त इत्यनेन संबन्धेनानुया. मनम, आदिग्रहणात् पूर्वगृहीतपीठफकप्रत्यर्पणप्रतिपरिग्रहः। नविषयो बिधिवक्तव्यः । ततः परं कर्मस्वरूपं निरूपयितव्यम्, संम्रमोनाम-उदकाऽग्निहस्स्याचागमनसमुत्य आकस्मिकः संत्राखलुाक्यालङ्कारे । तथैव ग्नानविधिः प्रतिपादनीयः। गच. सः। भयं तु सामान्येन समुत्थं पुष्टस्तेनाऽऽधुपरुवप्रभवस, चै. प्रतिपकानां यथालन्दिकानां सामाचारी दर्शनीया । तत त्यानि जिनबिम्बानि, तेषां बम्दनम् । श्रादिशब्दादपूर्वबहुश्रुताऽऽ. उपरि मासकल्पाढे तिष्ठता स्थविरकल्पिकानां दोषा अ- चार्यवन्दनाऽऽदिपरिप्रहः । एवमादीनि यान्यात्मनः परेषामुभय. भिधातव्याः । ततोऽपवादो द्वितीयपदमुपदर्शनीयमिति द्वार. स्य वा देतोः कार्याणि तनिमित्तं बहुशोऽपि प्रतिमाऽऽश्रयाद्विनिर्गगाथाद्वयसमासार्थः । वृ० १ उ० । ( प्रत्युपेकणा' पमि. मा वचिंता प्रतिपादिता इति । गतं निष्क्रमणहारम् । (प्राभृतिलेहणा' शब्दे बयते)
का 'वसहि' शब्दे वक्ष्यते) (निक्षा 'गोयरचरिया.' शब्दे तृतीअथ निष्क्रमणद्वारमाह
यभागे १६७ पृष्ठे अष्टव्या)(कल्पकरणं 'लेव' शब्दे वक्ष्यते) निरवेक्खो तड्याए, गच्चे निकारणम्मि तह चेव । । (ग्लानाऽऽदिद्वाराणि-ग्लानाऽऽदिशब्देषु षष्टव्यानि) बहुविवेव दसविहे, साविक्खे निग्गमोजइप्रो॥३३॥
एत्तो उ थेरकप्पं, समासो मे निसामेहि। निरपेको जिनकल्पिकः प्रतिमाप्रतिपन्नकाऽऽदिगन्धसत्कापेक्षा- तिविहम्मि संजमम्मि उ, बोषव्वो होति येरकप्पो तु ॥ रहित, स तृतीयस्यामेव पौरुष्यामुपाश्रयाद् निर्गच्छति, गच्छे सामाश्यछेदपरिहा-रिए य तिविहम्मि एमम्मि । गच्छवासिनोऽपि साधबो निष्कारणे तथैव निर्गचन्ति, तृती. विऍ अहिए व कप्पे, सामाश्यसंजमो मुणेयन्यो ।। यस्यां पौरुष्यामित्यर्थे । परंगनवे यदाऽऽचार्योपाध्यायाऽऽदि. विषयभेदाद् दशविध वैयावृत्य, तेन यो बहुविधो व्याकेपः,
छेदपरिहारिया पुण, णियमाओ हवंति वितकप्पे । तेन सापळे गच्छवासिनि निर्गमो भजनीयः, कदाचितृतीयस्यां,
एतेसु थेरकप्पो, जह जिणकप्पीण अग्गहो दोसु ॥ कदाचित्प्रथमद्वितीयचतुर्थीपु वा पौषीविति।
गहणं चऽभिग्गहाणं, पंचहि दोहिं च ण तह इत्तं ।
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(२३३) अभिधान राजेन्द्रः |
विरकल्प
--
"
बाले वृड्डे सेहे - गीतत्ये पाणदंसणपेढी ॥ दुब्बन संपवणम्य गच्छे य इहेसहा नणिता । जइसंभवं तु सेसा, स्वताऽऽदि विज्ञासियन्न दारा तु ॥ उवरिं तु मासकप्पे, वित्थरियों विज्ञासते तेसिं। पं०मा० "श्याणि थेरकप्पो तत्थ, गाहा (तिबिम्मि संजमम्मि ) थेरकप्पो । सो तिविदो सामाश्रो, छेओवडावाणि मो, परिहारबिसुद्ध सामाइनो जिपकापे, अट्टियकण्ये या देशोद्वावणिमो.परिहारब सुकिप्पे चैव तथ्य सामाइयसंजमो-वियकप्पे वा, प्र ठिकण्ये वा विरुो नाम प्रेावणिमो लोक नि या तो परिहारविसुद्ध सोनिया विकल्पे परिहार बिसुश्रिो तप्पढमयाप जिवापायमूले पडिबजति, जहा मास. कप्पे, नवरि उदीरणमेस, गणप्पमाणेणं जमेणं तिमि गणा, कोमल पुरिसप्पमा दशेण सत्तावीस कोसेण सपुहुतं । छठे उद्देसे तेसि सुतं बिभासिज्जइ । ते दुबिहा जिण कप्पिया, थेरकधिया य। जिणकप्पिया अधकहिया, थेरकलिया अठारसमासे अस्थिकण कयाइ जिएकप्पं पमित्रजंति, कया तमेत्र कप्पं सब संपजिता गं विहरति, अहवा पुखवि तमेव गच्छं पंति। सेसं जहा मासकप्पे, पुपडिन्नए पडुच्च जइ अस्थि जत्रेण सयपुत्तं, उक्कोसेप सदस्सग्गासो । हादिया वि एमेव, नवरि दुविहा गच्छपमिवाय, गरनिदा प. जहा मास जे पदा से दुविधा जिसक प्रिया य, थेरकप्पिया य। जिणकपिया किंचि पक्किम न करेति । धेरकपिया गच्छ्रमाणं ति नियमा पडिग्राहधारी । तत्थ वि गिलाणस्स पमिक्कमं थेरकप्पिया फासूपण पडायारे अहालंदियस्स करेति । सेसं जहा मालकप्पे । नवरं गणमाशेण जहषेण तओ गणा, उक्कोसेण सयग्गलो। एवं पडि वज्जमानयं पुरिसपमाणे जहोणं पारस, चक्कोलेण सवगसो पुण्यपवित्रप पहुन्च जहस्रेण सम्सो उद्यो सेण सदस्यहरु सेसा जदा जिणकपिाण वि एत्थ थेरकपिया ते नैयन्वा जड़ा कप्पे, अज्जाण मासकप्पो नेयो, जहा कप्पो सिभ । जिनकल्पाया पत्रकालाभिगृहपणाया श्रादारादिगृति स्थविरकल्पिकः किमर्थ प्राय आद्वारादि गृह्णन्ति प्रकीया इत्यर्थः । भावार्थ आद "बालपुराणं वाला बुद्धाय कारणे पाविया से जद श्रभिग्गहिया एसणाए गएहति । अभिग्गदिए एसणार य च दयावेखा सरियो लामो व प्रभावियाणं दुम्बलसंघयणानं नाचरिया परिषदार्थ दिवसेदिताणं वनिता संपवणेण अभावितक्षेण य संजमं कूड़ेति, पासत्यादि परतित्थपछि वा गमिस्संति, पारियो भविस्य गच्छ य महिोस वा लवुवाओ लोयरायणायरभूआ, जिणकप्पियत्रोणं च गच्छाम्रो चेत्र प्रसूतिः, प्रवृत्तिरित्यर्थः । जम्दा गच्छेपि किं रहाए बिसु द्वा दिवमाणा उम्ममा दारात भुता जहोण अटु प्रवयणमायाश्रो, उक्कोसेण चोइस पुण्याणि अहिज्जति, अवच्छित्तिकरा य हुंति, ओहि मणपज्नक्कैब लाएं यति सम्मको जायसव पति पत्र कारण मिसा जहा संग
35
3
५६६
थविरकप्पsिs
थिरकप्पियाणं वित्तकाला जदा मास कप्पे, पावणाई व जदा माकप्पे । " पं० चू• ।
,
महुणा न पेरकप्पे, वोच्छामि विहिं समासेणं ॥ गये चम्ब तीए गढ़णं तु परमजते । जं पाणवीयरहियं, हवेज्ज तरमाणए सोही ॥ गहणं चचव्त्रि ती, वत्थं पातं च सेज्ज भाहारो । एतेसिं असतीए, गहणं पढमं तु बीयस्स ।। मिति पातं भाति किं कारणं तस्स गण पदमं तु । मेण विना बोहिमिया, गिरिजाणजोगी हाथी ॥ अपतु असणादी सत्य भोजगद्दणं तु । तस्य तु विति पाणं तस्स तु गइ पडताए । असतीऍ फासूयस्सा, तस्सदिए कंदवीय सहिए वा । किं कारण तेण विद्या, असुं पाणवतो दोना ॥ तरमाणे गिरहति सु-द्धं अतरो पेलेज्ज तह संथारे । संथरतो गेएरंतो, पात्रति सहाणपच्चित्तं ॥ सत्त दुए दस बा, अणेगठायेण वा भवग्गणं । एतो तिगातिरित्तं, उग्गमउपाय सासुद्धं ॥
"
इयं ति कप्पति त्ती, तस्सऽसतीए असुद्धं पि । एसो तु थेरकप्पो, ॥ पं० भा० । यारको गाड़ा-गहणे चढता पा यं श्राहारो, सेज्जा । च उपहवि अस पढमया य घेवर । किं का रणं तेण विणा पमिमारहाणी चेव । महवा-मलणार पढमं तत्थ विदयं पायग्गणं परमपय तेण नयमाणो पढमं संघरमाथो तसपाचवीपरहिया कंदमूर राहतो पुण तपास दिवादनसहिए या गेह किं कारणं तेण विणा मासु पाणक्खो होज्जा । तरमाणो सुद्धं गेपज्जा । अतरंतो
गाहा (सत हुए) विडेनपासणाओ (इनपत्ति) दस पसणादोसा (अणेगगणे त्ति) उमामाइ पश्नरस सोलस । एतो तिगादिरित्तं नाम- सग्गमउपाय सणासुद्धं । तन्विरीयं जं एतेहिं चैव उग्गमाईदि सुरूं तं गेराद्देज्जा गच्छ संरक्खपदेनं गच्छ्रवासीदि । भश्यं नाम कारणे कप्पर, इयरहा
"
न कप्प | पस थेरकप्पो । पं० चू० । ( स्थविरकल्पिनामुपधिः उदि ' शब्दे द्वितीयभागे १०६१ पृष्ठे उक्तः ) ( स्थबिरकल्पो जिनकल्पश्च द्वावप्येतौ महर्द्धिकाविति भागे ८०४ पृष्ठे चक्तम् )
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मच्छ' शब्दे तृतीय
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पनिरकप्प डिइ स्थविरकल्पस्थिति-श्री
दयो गच्छप्रतिवद्वास्तेषां कल्पस्थितिः खविरकल्प स्थिति। बृ० ४ उ० । कल्पस्थितिभेदे, वृ० ५ ४० | स्था० । पं० ० । पं० प्रा० ।
संप्रति रूपविकल्पस्थितिमादसंजयकरज्जोया, णिष्फातग पाणदंसणचरितें । दीहाउ वृठवासे, वसहीदोसेहि य विमुक्का || ४०७ ॥ संयमः पञ्चाअवधि रमणादिरूपः पृथिव्यादिरकाकपचाससदशविधः तं कुर्यन्ति यथा तत्पालयन्तीति संयाकरणाः । न
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(२३४) थविरकप्पट्टि प्राभिघानराजेन्यः ।
थविरायली न्यादिदर्शनात् कर्तयनट्प्रत्ययः । उद्घोतका:-तपसा प्रवच. नीयसेन्जाएँ निदेस-वत्तित्तं पूयए सुयं ॥ नस्योज्ज्वालकाः। ततः संयमकरवाश्च ते उदयोनकाश्चेति वि.
उड्डाणं बंदणं चेव, गहणं दंगस्स य । शेषणसमासः । यहा-पूर्वपौरुषीकरणेन संयमकरणमुद्द्योतय. न्तीति संयमकरणोद्योतकाः । तथा-शानदर्शनचारित्रेषु शि.
परियायथेरगस्स, करेंति अगुरोरवि ॥
जातिस्थविरस्य कालस्वभावानुमत आहारो दातव्या, उपव्याणां निष्पादकाः, तेषां चाहानाऽऽदीनामव्यवस्थितिकारका भवन्तीति शेषः, यदा च ते दीर्घाऽऽयुषो जलायलपरिक्कीणाश्च
पियांपता संस्तरति तावत्प्रमाणः, शय्या वसतिः, सा ऋतु. जयन्ति, तदा वृद्धाऽऽवासमभ्यासते, तत्रैव क्षेत्रे वसन्तोऽपि व
कमा बातम्या, संस्तारको मृदुकः। केसंक्रमे केत्रान्तरं संक्रामसतिदोषैः कामातिक्रान्ताऽऽदिभिः, चशब्दादाहारोपधिदोषैश्च
वितव्ये तस्योपधिमन्ये वहन्ति, पानी येन वाऽनुकम्पना । उक्ता वियुक्ता बर्जिता भवन्ति, न तैर्लिप्यन्त इत्यर्थः ॥ ४०७ ॥
जातिस्थविरस्याऽनुकम्पा । भुतस्थचिरस्य पूजामाह-(कितिह
स्पादि)कृतिच्छन्दोऽनुवृत्तियां स्थविरं श्रुतस्थविरमनुवर्तयन्ति । मोत्तुं जिणकप्पठिई, जा मेरा एस वन्निया हेटा।
फिमुक्तं भवति?-श्रुतस्थविरस्य कृतिकर्म वन्दनकं दातव्यम, एसा उ उपदजुत्ता, होति विती येरकप्पस्स ॥४०॥ न्दतच तस्याऽनुवर्तनीयम् । तथा-(उद्यापत्ति) आगतस्या:जिनकल्पस्थितिग्रहणेन, उपलक्षणत्वात् सर्वेषामपि गच्चनि. न्युत्थानं कर्तव्यम्, आसनप्रदानमा आदिशब्दात् पादप्रमार्जनागतानां स्थितिः परिगृह्यते । ततस्तां मुक्त्या,या अधस्तादस्मिने- अविपरिग्रहः । तथा योग्याऽऽहारोपनयनम्, समक्वपरोक्षत्वा. बाध्ययने मर्यादा स्थितिरेषा अनन्तरमेव वर्णिता। यद्वा-सामा- ज्यां प्रशंसना गुणकीर्तनम् । तथा-तत्समर्छ नीचशय्यायामवयिकाध्ययनमादौ कृत्वा यावदस्मिन्नेवाध्ययने इदं षड्विधकल्प- स्थातव्यं, निर्देशपतित्वम,एवं भुतं श्रुतस्थविर पूजयेत् । तथास्थितिसूत्रमत्रान्तरे गच्चनिर्मतसामाचारी मुक्त्वा या शेषा पर्यायस्थविरस्थाऽगुरोरप्यप्रव्राजकस्याप्यवाचनाऽऽचार्यस्यासामाचारी वर्णिता सा द्विपदयुक्ता उत्सर्गापवादपदध्ययुक्ता उप्यागच्छत सस्थानं कुर्वन्ति, बन्दनक,बत्यमाणतो दण्मकस्य स्थविरकल्पसंस्थितिर्भवति ॥ ४०७॥ वृ०६०।
चप्रहणमिति सूत्रम् । स. १० उ.। थविरकणिय-स्यविरकल्पिक-पुं०। स्थविरकल्पमाधिते,प्रव. [थविरजभिपत्त-स्यविरजमिप्राप्त-त्रिका प्राचार्यपदप्राप्ते, व्य० ७० द्वार । बृ.।
१ उ० । स्त्रार्थतदुभयोपेते, वृ० १००। थबिरजूमि-स्थविरभूमि-स्त्री० । स्थविरो वृहस्तस्य नूमयः- | यविरय-स्थविरक-पुं०। जीणे, प्राचा• १५० १०२ न०। घिरतूमयः। वृद्धपदवीषु, स्था० ३ वा०२०।
सत्र। शतातीते वृद्ध, "पिया ते थेरो तात! ससा ते खुड़िस्थविरभूमय:
पा मा।" (३) सूत्र० १ श्रु• ३ ०२ उ० । तो थेरनुपीओ पन्नत्तायो । तं जहा-जातिथेरे, सुय
थविरवेयावच्च-स्यविरवैयाहत्य-न० । स्थविराणां भक्तपानाथेरे, परियाययेरे य । सटिवरिसजाए जातिथेरे, गणसम
ऽऽदिनिरुपएम्मे, नौ । (स्थबिरवैयावृत्यं 'थविरभूमि' शब्दे
उनुपदमेव संकेषतः प्रोक्तम् ) वायधरे सुयथेरे, वीसवासपरियाए परियाययेरे ॥
थपिरावनी-स्थविराऽऽवली-स्त्री०। पदयुगीनसाधूनामुपकाअस्य सूत्रस्य संबन्धमाह
रार्थ प्रवचननेतृणामावलिकायाम, नं०। थेरापमंतिए वासो, सो य घेरो इमो तिहा।
सा च सुधर्मस्वामिनःप्रवृत्ताजमि त्ति य गणं ति य, एगट्ठा होंति कालो य॥
मुहम्मं अग्गिवेसाणं, जंबनामं च कासवं । अनन्तरम् अन्तयासिन सक्ता अन्तिके निवास स्थविरा. पनवं कच्चायथं वंदे, वच्छ सिजनवं तहा ॥२५॥ बाम, स च स्थविरोऽयं वक्ष्यमाणखिधेत्यमेन क्रमेण सूत्रमिदं
बसभदं तुगियं वंदे, जूयं चेत्र य माढरं । समापतितमित्येष सूत्रसंबन्धः । संप्रत्यस्य व्याख्या-तिस्रः स्थविराणां समयः प्रज्ञप्ताः-तमिरिति स्थानमिति भवस्था.
भद्दबाहुं च पाइनं, यूवजदं च गोयम् ।। २६ ॥ कपःकाल ति त्रयोऽपि शब्दा एकार्धाः। "थेरमितिबा, एलावचसगोतं, बंदायि महागिरि मुहत्यि च । धेरठाणं ति बा, थेरकालोत्ति या एगट्ठमिति ।"
तत्तो कोसियगुत्तं, बहलस्स सरिब्बयं बंदे॥ २७ ।। तिविम्मि य पेरम्मी, परूवणा जा जहिं सए ठाणे । हारियगुत् साई, बंदामो हारियं च सामन्जं । प्राकंप मुए पूआ, परियाए बंदणाऽऽदीणि ॥
बंदे कोसियगुत्तं, संदिनं अजजीयधरं ।। २७॥ विविधस्थविर त्रिविधस्थविरविषये या पत्र स्थके स्थाने प्र. तिसमुहखायकित्ति, दीवसमुद्देसु गहियपेयासं । कपणा सा सूत्रतः कर्तव्या। तद्यथा-पष्टिवर्षजातो जातिस्थ.
वंदे अजसमुदं, अक्खुभियस मुद्दगंभीरं ॥ २५॥ बिरः, स्थानसमचायधरः श्रुतस्थविरः, विशतिवर्षपर्यायः
नागं करगं करगं, पभावगं पाणदंसणगुणाणं । पर्यापस्थविरः । तथा जातिस्थविरस्यानुकम्पा कर्तव्या, भुते अतस्थविरस्य पूजा, पर्याये पर्याय स्थविरस्य बन्दनाऽऽदीनि ।
वंदामि अज्जम, सुयसागरपारगं धीरं ॥ ३०॥ संप्रत्येतान्येव त्रीणि कर्तव्यानि विस्तरेणाऽऽह
वंदामि अजधम्मं, तत्तो वंदे य जद्दगुत्तं च ।। प्राहारोवहिसेजा-संथारे खेत्तसंकमे ।
तत्तो य अज्जवइरं, तवनियमगुच्छेहि वरसमं ॥३१॥ कितिबंदाणुवत्तीहिं, अणुवतंति थेरगं ।
बंदामि अज्नरक्खिय-खम रक्खियचरित्तसव्वस्सो। नाणाऽऽसणदाणाऽऽदी, जोग्गाऽऽधरप्पसंसणा। | *"सरिष्वयं" सस्वयसम् ।
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(MARY) अभिधान राजेन्द्रः।
याविरावली
रयणकरंडगश्रा, अणुओगा रक्खिया जेहिं ||३२|| नाम्म सम्म य, तववियच्च कालमुज्जुत्तं । प्रज्जयनंदिलखमणं, सिरसा वंदे पसंतमणं ॥ ३३॥ वतु वायगवंसो, जसवंसो अज्ञनागइत्यीणं । वागरणकरण जंगिय-कम्पप्पयमीपहाणार्थं ॥ ३४ ॥ जच्चजणधाऊसम-पहाणमुद्दियगत्रलयनिहाष्णं ।
तु वायगवंसो, रेवनक्खत्तनामाएं || ३५ ॥ अयलपुरा क्खिते, कालियमुय आणुओगिए धीरे । जीसी, वायगपयमुत्तमं पत्ते ।। ३६ ।। जेसु इमो प्रोगो, पयरइ अज्जावि श्ररूभरइम्मि । बहुनयरनिग्गयजसे, तं वंदे खंदिवायरिए ॥ ३७ ॥ तत्तो हिमवंतमहूं-तविकमे धिइपरकममहंते । सज्जायमणंतरे, हिमवंते वंदिमो सिरसा ॥ ३८ ॥ कालिय-गधारए धारए य पुत्राणं । हिमवंत मासमणे, वंदे नागज्जुणायरिए || ३९ ॥ मिउमद्दवसंपन्ने, अणुपुच्वि वायगत्तणं पत्ते ।
हसुयसमायारे, नागज्जु वायए वंदे ॥ ४० ॥ गोविंदा पि नमो अणुओगे विउल्लधारणिंदाणं । निच्चं स्वतिदयाणं, परूवणे दुभे दाणं ॥४१॥ तत्तो य जूयदिनं, निच्चं तवसंजमे अनिच्चित्तं । पंडियन सायनं, वंदामी संजमविहिन्नू ॥ ধ ॥ वरकणगतवियचं पग-विजलवरकमन्न गन्भ सरिवन्ने । न वियजब हिययदइए, दगागुणविसारए धीरे ॥ ४३ ॥
नरप्पहाणे, बहुविहसज्जाय सुमुणियपहाणे | पुगियवरवसते, नाइलकुलवंसनंदिकरे ॥ ४४ ॥ यहियकर पगब्जे, वंदेहं भूय दिन्नमारिए । भवभयवच्छेयकरे, सीसे नागज्जुरिसीणं ॥ ४५ ॥ सुमुणियनिच्चानिच्चं, सुमुणियसुत्तत्यधारयं निच्चं । वंदेहं लोहिच्च सन्मावुब्भावणातच्चं ॥ ४६ ॥ प्रत्थमहत्ययखारिंग, सुसमणचक्खाणकण निव्वाणि । पईऍ महुरवाणि, पोपणमामि दूसगणिं ॥ ४७ ॥ तवनियमसच्च संजम - विलयऽज्जनखंतिपदवरयाणं । सीलगुणग्गहियाणं, अणुप्रोगजुमपहाणां ॥ ४८ ॥ सुकुमालकोमनतले, तेसिं पणमामि लक्खणपसत्थे । पाए पात्रयणी, पमिच्ठगस एहिं पणिवए || ४५ ॥ जे अभे जगवंते, कालिय सुय अणुगिए धीरे । ते मिळणं सिरसा, नाणस्स परूवणं वोच्छं ॥ ५० ॥ रह स्थविराssवलिका सुधर्मस्वामिनः प्रवृत्ता, शेषगणधराणां सन्तानप्रवृत्तेरभावात् । नं० ।
तदाह
वसेसा गणहरा निरवच्चा बुच्छिन्ना ४ । समये भगवं
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थविरावली
महात्रीरे कासत्रगुत्ते | समणस्स णं जगवत्र्य महावीरस्म का सवगुता अज्जम्मे थेरे अंतेवासी अगिवेसायणगोते । थेरस्म णं अज्जसुम्मस्स अगिवेसायणसगोतस्स अज्जजंबूनामे णं घेरे अंतेवासी कासवगुत्ते । येरस मं अज्जजंबूनामस्स कासवगोत्तस्स अज्जप्पभवे थेरे प्रवासी कच्चायणगोत्ते । येरस्स णं अज्जप्पभवस्स कच्चायण सगोत्तस्स श्रज्जसिज्जनवे येरे प्रवासी मणगपिया वच्छसगोत्ते । थेरस्स णं अज्जसिज्जंभवस्स मणगपिणो वच्छगोत्तस्स अजजसभद्दे येरे प्रवासी तुंगया सगोचे ए । संखित्तत्रायणाए अज्जजसनदाओ श्रम एवं थेरावली जणिया । तं जहा-थेरहम अज्जजसमद्दस्त तुंगियायणसगोत्तस्स अंतेवासी दुबे थेरायेरे अज्ज संजूइजिए माढरसगुत्ते, थेरे अज्जभदवाहू पाईस | थेरस्स अज्जसंनूइ विजयस्स माढरसगुत्तस्स अंतेवासी घेरे अज्जधूलजदे गोयमसगोत्ते । थेरस्स णं अज्जथूलजद्दस्स गोयमसगोत्तस्स अंतेवासी दुबे थेराथेरे अज्जमहागिरी एलाबच्चसगोत्ते, थेरे अज्जसुहत्थी वासिद्धमगोत्ते । रस्सां ज्जहस्थिस्स वासिडसगुत्तस्तेवासी दुबे येरा - सुट्टियमुप्पामेबुद्धा, कोडियकाकंदगा वग्घावच्चसगोत्ता । येराणं सुट्ठियसुप्पदिबुकाणं कोमियाकंद गाणं बघावच्चस गुत्ताणं अंतेवासी धेरै - जददो कोसियगुते । येरस्स णं अज्जइंददिमास कोसियगुत्तस्स अंतेवासी थेरे अज्जदि गोअमसगुत्ते | थेरस्स यां अज्जदिस गोयममगोत्तस्स अंतेवासी थेरे अज्जमीहगिरी जाईसरे को सियसगोत्ते । थैरस्स णं अज्जसीह गिरिम जाईसरस कोसिस गुत्तस्म अंतेवासी येरे प्रज्जवरे गोयमसगोते । थेरस्स णं अज्जवरस्त गोयमसगोजस्स अंतेवासी थेरे अज्ज इरसेणे उकोसियगोत्ते । येरस्स प्रज्जवइरसेएस्स नकोसियगोत्तस्स अंतेवासी चत्तारि थेरा-थेरे अज्जनाले, थेरे अज्जपोमिले, थेरे अज्जजयंते, थेरे अज्जतावसे | येराओ अज्जनाइलाओ अज्जनाइला साहा निग्गया । येराओ अज्जपोमिलाओ अज्जपोमिला सादा निग्गया । चेराश्रो अज्जजयंताओ अज्जजयंती साहा निग्गया । येराम्रो अज्जतावसाओ अज्जतावसी साहा निगया शते ।। ६ ।। वित्यरवायणार पुणे अज्जजसजद्दाओ पुरो येरावली एवं पलोइज्जइ । तं जहा - थेरस्स णं अज्जजसमद्दस्म तुंगियाय सगोत्तंस इमे दो घेरा अंतेवासी अहावच्चा अभिनाया होत्या । तं जहा-थेरे भज्जभद्दवाहू पाईणसगोत्ते, घेरे अज्जसंनूइक्जिए माढरसगुत्ते | थेरस्स णं अज्जनदवा हुस्स पाईपसमोत्तस्स इमे
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पाहा
(१६) थविरावली अभिधानराजेन्छः।
पविरावली चत्तारि थेरा अंतेवासी महापच्चा अभिनाया होत्था । जहा- उच्चरिज्जिया, मासपूरिया, मंइपत्तिया, पुनपत्तितं जहा-येरे गोदासे, येरे अग्गिदत्ते,येरे जपादत्ते, थेरे सो. या। सेत्तं साहाभो । से किं तं कुलाई कुलाई एवमाहिमदत्ते कासवगोत्ते । येरेहिंतो गोदासीहतो कासवगुत्ते- ज्जति । तं जहाहिंतो इत्य णं गोदासे गणे नामंगणे निम्गए। तस्स इ- " पढमं च नागजयं, बीघ्र पूण सोमनाभं होइ। माओ चत्तारि साहामो एवमाहिज्जति । तं जहा-तापलि- मह नन्नगच्छ तश्यं, चउत्थयं हत्यसिज्जंतु ।।१।। त्तिमा, कोमिवरिसिया, पॉडक्दणिया, दासीखन्नमिया । पंचमगं नंदिजं, छटुं पुण पारिहासयं दोइ। थेरस्स णं अज्जसंशविजयस्स माढरसगोत्तस्स इमे दुवा- उद्देहगणस्सेए, छच्च कुला इंति नायव्चा ॥॥" सस थेरा अंतेवासी अहावच्चा अभिनाया होत्था । तं जहा
पेरेहिंतो णं सिरिगुत्तेदितो हारियसगोत्तेहितो इ“नंदणभद्दे थेरे, उवणंदे तीसभ जसलदे ।
त्थ णं चारणगणे नाम गणे णिग्गए । तस्स ६ इमामो थेरे अ सुमणजद्दे, मणिभद्दे पुषभदे य ।।१॥
चत्तारि साहाओ, सत्त य कुलाई एवमाहिति । से थेरे अ थूलभद्दे, नज्जुमई जंबुनामधिज्जे य ।
किंतं साहायो? साहाओ एवमाहिज्जति। तं जहा-हारिमथेरे य दीहनद्दे, थेरे तह पंमुनदे य ॥५॥"
मानागारी, संकासिमा, गवेधुआ, वजनागरी । सेत्साहा
श्रो। से किं तं कुलाई । कुलाइएवमाहिति । तं जहाथेरस्स णं अज्जसंनूइविजयस्स माढरसगुत्तस्स श्माओ मत्त अंवेवासिणीओ अहावच्चाओ अजिन्नाया होत्था ।
"पढमित्थ वत्यलिज्जं, वीयं पुण पीइधम्मिश्र हो । तं जहा
सइयं पुण हालिज्ज, चउत्थयं पृसमित्तिज्जं ॥१॥ "जक्खा य जक्वदिन्ना, नृया तह चेव जयदिन्ना य।
पंचमगं मालिज्जं, छठं एण अज्जवेमयं हो। सेणा वेणा रेणा, नाषीओ शूलजस्स ॥ १ ॥"
सत्तमगं कएहसह, सत्त कुला चारणगणस्स ॥॥"
थेहिंतो एं भद्दजसेहितो नारहायसगोत्तेहिंतो एत्य येरस्स णं अज्जथूलजस्म गोयमसगुत्तस्स इमे दो थेरा
एं बहुधादिगणे नामं गणे णिग्गए। तस्स एं इमाओ चअंतेवासी अहावच्चा अजिन्नाया होत्था। तं जहा-थेरेप- |
त्तारि साहाओ, तिनि कुनाई एवमाहिज्जति । से किं तं जमहागिरी एलाबच्चसगोत्ते, थेरे अज्जमुहत्थी वासिहस
साहायो। साहायो एवमाहिज्जति । तं जहा-चंपिज्जिगोत्ते । थेरस्स अज्जमहागिरिस्स एनावच्चसगोत्तस्स इ.
या, जद्दिजिया, काकंदिया, मेहलिज्जिया । सेत्तं साहामे अट्ठ थेरा अंतेवासी अहावच्चा अभिन्नाया होत्या।।
ओ।से किं तं कुनाई। कुलाई एवमाहिजति । तंजहातं जहा-थेरे उत्तरे, थेरे खिस्सहे, थेरे धण, धेरै सिरि
"जहाजसितह जद्दगु-त्तिअंतअंच होइ जसजई। जदे, थेरे कोमिन्ने, येरे नागे, थेरे नागमित्ते,येरे छमथए रो
एयाई उमुवामिय-गणस्स तिन्नेव य कुलाइं॥१॥" डगुत्ते कोसियगुत्ते णं ॥ थेरेहितो णं छमुलहितो
थेरोहिंतो णं कामिहीहिंतो इत्थ णं वेसवामियगणे णामंगणे रोहगुत्तेहिंतो कोसियगुत्तीहतो तत्थ णं तेरासिया साहा
निग्गए। तस्स णं इमामो चत्तारिसाहाओ, चनारि कुलाई जिग्गया। येरेहिंतो पं उत्तरबलिस्सहहिंतो तत्थ ण नत्तर
एवमादिज्जति । से किं तं साहाओ साहायो एवमाहिबलिस्महे नामं गये जिग्गए । तस्स ण श्माओ चत्तारि
हिज्जति । तं जहा-सावस्थिया,रजपालिया,अंतरिज्जिया, साहामो एवमाहिज्जति। तं जहा-कोसषिया, सोइत्तिया,
खेमलिजिया। से साहायो । से कि तं कुलाइं?। कुलाई कोमवाणी, चंदनागरी । थेरस्स गं अज्जसुहत्थिस्स
एवमाहिज्जति । तं जहावासिहसगोत्तस्स इमे वालस थेरा अंतेवासी अहावच्चा
"गणि मेहिय काम-छिअंच तह होइ इंदपुरंग च । अभिन्नाया होत्या । तं जहा
एयाई वेसवामिय-गयास्स चत्तारिन फुलाई॥१॥" " थेरे अ अज्ञरोहणे, भद्दजसे मेहगणिअ कामिझी।। थेरोहिंतो णं इसिगुत्तेहिंतो कार्कदिएहिंतो वासिमुट्टिय सुप्पडिबुद्ध, रक्खिय तह रोहगुत्ते य ॥१॥ दृसगोत्तेहिंतो एत्थ माणवगणे पामिंगणे निग्गए । तस्स इसिगुत्ते मिरिगुत्ते, गणी य ने गपी य तह सोमे ।। णं श्माओ चत्तारि साहायो, तिनि य कुलाई एवमाहिज्जं. दस दो अ गणहरा खचु, एए सीसा मुहथिस्स ॥२॥" ति । से किं तं साहायो। साहाओ एवमाहिज्जंति। जहा
थेरेहितो णं अज्जरोहणेहिंतो कासवगुत्तेहितो तत्य णं कासविज्जिया,गोअभिजिया,वासिहा, सोरविमा सेतं उद्देहगणे णामं गधे निग्गए । तस्सिमारो चत्तारि सा- साहायो । से किं तं कुझाई। कुलाइएवमाहिति । तं जहा. हाम्रो निग्गयामो, उच्च कुलाई एवमाहिति । "शसिगत्तियऽस्य पढपं.बीय इसिदत्तिअंमुणे अव्वं । से किं तं साहाओ ? । साहाओ एवमाहिज्जति । तं तश्यं च मजि जयंतं, तिन्नेि कुला माधवगणरम ॥ ॥"
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(२७) अभिधानराजेन्त्रः ।
थविराधली
थावरावली
थेरोहितो णं मुट्ठियमुप्पमिबुद्धेहिंतो कोमियकाकंदरहितो थेरेहितो पं अज्जपनमेहिंतो अज्जपउमा साहा निपग्यावच्चसगोत्तेहिंतो इत्थणं कोमियगणे णामं गणे निग्गए। ग्गया, थेरेहिंतो णं अज्जरडेहिंतो इत्थ णं अज्जतस्स एणं माओ चत्तारिसाहाओ,चतारि कुलाइंच एवमा
जयंती साहा निग्गया। थेरस्स णं अज्जरहस्स वच्छहिज्जति । से किंत साहायो। साहायो एवमाहिति । तं सगुत्तस्स अजपूसगिरी थेरे अंतेवासी कोसियगुत्ते । थेरस्य जहा-"उच्चानागरिविज्जा-हरी य वरीय मजिकमिक्षा य। एं अज्जपूसगिरिस्स कोसियगुत्तस्स अज्जफग्गुमित्ते थेरे कोडियगणस्स एया, हवंति चत्वारि साहाओ ।।१॥" सेत्तं अंतेवासी गोयमसगुसे । थेरस्स णं अज्जफरगुमित्तस्स साहाभो। से किं तं कुनाई। कुलाई एवमाहिजति । तं जहा- गोयममगुत्तस्स अज्जधणगिरी थेरे अंतेवासी वा"पढपित्य बंभसिज,विश्यं नामेण वत्यनिज तु । तइयं पुण सिट्ठसगोत्ते । थेरस्स णं अज्जधणगिरिस्स वासिहसवाणिज, चउत्ययं पए हवाहणयं ॥१॥" थेराणं सुष्ठियमुप्प- गोत्तस्स अज्जसिवई येरे अंतेवासी कुच्छसगुत्ते । मिघुकाणं कोमियकाकंदगाणं वग्धावच्चसगोत्ताणं इमे थेरस्स पं अज्जसिवइस्म कुच्छसगोत्तस्स मज्जपंच थेरा अंतेवासी अहावच्चा अभिन्नाया होत्या । तं जहा- जहे थेरे अंनेवासी कासवगुने । रस्स एं अज्जथेरे अज्जइंददिने पियगंये, थेरे विनाहरगोवाले कासव- जहस्स कासवगुत्तस्स अज्जनक्खत्ते थेरे अंतेवासी कागुत्ते णं, थेरे सिदत्ते, थेरे अरिहदत्ते । थेरेहितोणं पिपगंथे- सबगोले । थेरस्स णं अज्जनक्खत्तस्स कासवगुत्तस्स हिंतो एत्य एवं मज्झिमा साहा निग्गया, थेरेहिनो एं वि- अज्जरक्खे थेरे अंतेवासी कासवगोत्ते । थेरस्स णं ज्जाहरगोवालेहिंतो कासवगोत्तेहिंतो एत्य णं विज्जाहरी अज्जरक्खस्स कासवगोत्तस्स अज्जनागे थेरे अंतेवासी साहा निग्गया। थेरस्त णं अज्जददिपस्स कासवगुत्तस्स गोयमसगुत्ते । थेरस्स णं अज्जनागस्स गोयमसगोअज्जदिने थेरे अंतेवासी गोयमसगोत्ते। थेरस्स णं अज्ज- त्तस्स अज्जजेहिले थेरे अंतेवासी वासिहसगुत्ते । दिखस्स गोयमसगुत्तस्स इमे दो थेरा अंतेवासी अहावच्चा थेरस्म णं अज्जजेहिलस्स चासिहसगोत्तस्स अज्जविअजिन्नाया होत्या । तं जहा-थेरे अज्जसंतिसेणिए माढर- एहू थेरे अंतेवासी माढरसगोत्ते । थेरस्स गं अज्जसगुत्ते, थेरे अज्जसाहगिरी जाईसरे कोसियगोत्ते । थेरेहिं- विएहुस्स माढरमगोत्तस्स अज्जकाझए थेरे अंतेवातो णं अज्जसंतिसेणिएहिंतो माढरसगोत्तेहिंतो एत्य णं सी गोयमसगोत्ते । थेरस णं अज्जकालियस्स गोयउच्चनागरी साहा निग्गया । थेरस्म णं अज्जसंतिमेणियस्स मसगोत्तस्स इमे चुवे थेरा अंतेवासी गोयमसगोत्ता-थेरे माढरसगोत्तस्स इमे चत्तारि थेरा अंतेवासी अहावच्चा अजि- अज्जसंपलिए, थेरे अजनद्दे । एएसि णं एहं थेराणं न्नाया होत्था। तं जहा-थैरे अज्जसेपिए, थेरे अज्जतावसे, गोयमसगुत्ताणं अज्जवुले येरे अंतेवासी गोयमसगुत्ते । येरे अजकुबेरे, थेरे अज्जनसिपालिए । थेरेहिंतोणं अज्ज- थेरस्त ण प्रज्जबुस्स गोयमसगोत्तस्स अज्जसंघपालिए सणिएहिंतो एत्थ णं अजसणियो साहा निग्गया। थेरे- थेरे अंतेवासी गोयमसगोत्ते । थेरस्स पं अज्जसंघपाहिंतो णं अज्जतावसहिंतो एत्व णं अज्जतावसी साहा लियस्स गोयमसगोत्तस्स अज्जहत्थी थेरे अंतेवासी निग्गया। थेरेहिंतो णं अज्जकुवेरेहिंतो णं इत्य णं अज्ज- कासवगुत्ते । थेरस्स णं अज्जहात्थिस्स कासवगोत्तस्स कुबेरा साहा निग्गया। येरेहितो अज्नइमिकालिएहिंतो इत्थ अज्जधम्मे थेरे अंतेवासी मुव्ययगोत्ते । थेरस्स एं णं अजसिपालिया साहा निग्गया । थेरस्स पं अज्ज- अज्जधम्मस्स सुव्वयमोत्तस्स अजसीहे थेरे अंतेवासीहगिरिस्स जाईसरस्म कोसियगुत्तस्स इमे चत्तार थेरा सी कासवगुत्ते । थेरस णं अज्जसीहस्स कासवगुअंतेवासी अहावच्चा अभिन्नाया होत्था । तं जहा--थेरे | त्तस्स अज्जधम्मे थेरे अंतेवासी कासवगुत्ते । थेरस्स धणगिरी, थेरे अजवहरे, थेरे अज्जसमिए, थेरेअरिहदिन्ने। णं अज्जधम्मस्स कासवगोत्तस्स अजसंमिधे थेरे थेरेहिंतो णं अज्जसमिएहितो गोयमसगुत्तेहिंतो इत्थ णं अंतवासी । बंनदीबिया साहा निग्गया । थेरेहिंतो णं अजवइरेहितो
"बंदामि फग्गुमित्तं च गोयम धणगिरिंच वासिट्ठ। . गोयमसगोत्तेहिंतो इत्य णं अजवरी साहा निग्गया। थेरस्स
कुच्छं सिवाई पि य, कोसिय दुज्जत कएहे य ॥१॥ ण अज्जवइरस्स गोयमसगुत्तस्स इमे तिन्नि थेरा अंतेवा
तं वंदिऊण सिरसा, भदं वदामि कासवमगुत्तं । सी अहावच्चा अजिन्नाया होत्या । तं जहा-थेरे अज्जव
नक्खं कासवगुत्तं, रक्खं पि य कासवं वंदे ॥२॥ इरसेणे, थेरे अज्जपउमे, थेरे अज्जरहे । थेरेहिंतो अज्ज
वंदामि अज्जमागं, च गोयमं हिलं च वामिह । वहरसेोहितो इत्थ णं अज्जनाइली साहा निग्गया।।
विएहं माढरगुतं, कालगवि गोयमं वंदे ॥३॥
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थविरावली
गोयमगुत्तकुमारं संपक्षियं तदय भयं वंदे | थेरं च अज्जव, गोयमगुत्तं नम॑सामि ॥ ४ ॥ तं बंदिऊण सिरसा, पिरसनचरिता संपन्नं । येरंच संघवालिय- कासवगुणं पचियामि ॥५ ॥ दामि च कासखेतिसागरं परं । निम्हण पदमासे कालगयं चैव कस्स ||६ ॥ वंदामि अज्जधम्मं च सुव्वयं सीलल सिंपन्नं । अस्म (स) निवखमणे देवो, द वरमुत्तमं बहु ||७|| हत्यं कासवगुत्तं, धम्मं सिवसाहगं पणिवयामि । सी कासवत्तं धम्मं पि कासवं वंदे ||८|| तं बंदिऊण सिरसा, थिरसत्तचरित्तनाणसंपन्नं । थेरं च मे गोययगुतं नम॑सामि ॥६॥ मिठमदवसंपन्नं, उवउत्तं नापदंसणचरिते । थेरं च नंदिमं पिय, कासवगुणं पणिवयामि ॥१०॥ तत्तो अथिरचरितं, उत्तमसम्मत्तसत्तसंजुत्तं । देवमासमणं, माढस्त्तं नम॑सामि ॥११॥ तत्तो अनुभोगपरं वीरं महसागरं महासचं | थिरगुत्तखमासपर्ण, वगुवं पवियामि ।। १२ ।। ततो नादंसण-परिचत गुण थेरं कुमार, चंदामि गोयं ॥ १३ ॥ तत्यरण भरिए खमममदमुळे संपन्ने। देवास, कासवगुते पणिवयामि ॥ १४ ॥
कल्प० ४ कृप ।
व्यविशेवपाय- स्थविरोपघातिक-पुं । स्थविरा प्राचार्यादिगुरबस्तान् आचारदोषेण शीलाबादपीत्ये शीलदोषेणावज्ञाऽऽदिभित्र वंशीलः, स एव वा स्थविरोपघातिकः। दशा ०२ श्र० । स्था० ॥ पठासमाधिस्थे श्र०क० ४ श्र० । दशा० । श्रा० चू० । यत्री-स्त्री.] देश प्रविना वर्ग २४ गाथा । थम- पुं० [देशी विस्त०० वर्ग २५ गाथा । यह - पुं० । देशी-निलये, दे० ना० ५ वर्ग २४ गाथा । पाणी स्थापिनी खो० प्रतिविजननशीलायाम्, स्था यिन्यो नाम वडवास्ता उच्यन्ते वर्षे वर्षे विजायन्ते याः । बृ० ३ उ० ।
(२३५० ) अभिधान राजेन्द्रः ।
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बाऊण स्थित्वात् प्रा० ४ पाद थान-स्थान- न० । " स्थः वा थक्क चिट्ठ-निरप्पाः " ॥ ८|४| १६ ॥ इति स्थाघातोष्ठादेशो वाहुलकत्वान्न | प्रा० ४ पाद । था णिउत्त-स्थाननियुक्त - त्रि० स्थाने पदे नियुक्ताः स्थाननियुक्ताः प्रवर्तकस्थविरगाव का रूयेषु पदस्थगीतार्थेषु वृ० १४० ।
थाणय- देशी न० । श्रालवाले, दे० ना० ५ वर्ग २७ गाथा ।
थावच्चा-पुत
थापविसेस - स्थानविशेष-पुं० । आसनविशेषे, विशे० । पाणात्स्थिानानियुक्त त्रिसामान्या ०१० थाडु स्वाणु पुं० "स्व" ।। २ । ७ ॥ इति हरेऽर्थे स्थस्य न खः । प्रा० २ पाद । हरे, शिवे, को० । स्तम्ने, स्था० ४ वा० २ उ० । कीलके, विशे० । थाम-स्थामन्न० | वीर्ये, बृ० १ ८० । " जोगो बीरियं थामं” इत्येकार्थाः : । श्रा० म० १ ० २ खण्ड श्रा० चू० नि० चू० । पं० सं० । क्रियायाम्, ( ग० ) सामर्थ्ये, ग० १ अधि० । सूत्रण प्राणे, शारीरबनयुक्ते, अघ० । ० । पिं० । स्था० । बलवति, त्रि० नि० चू० ११ उ० । विस्तीर्णार्थेषु दे० ना० ५ वर्ग
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२५ गाथा ।
थामस्यापत्र - वि० स्थान वनं तस्य संयमविषमस्तीति स्थामवान् । चत० २ अ । शीताऽऽतपाऽऽदिसदनं प्रति सामति ०२ अ०म० उस० २ अ० ।
यामावदारविन्द स्वामापहारविमुक्त-त्रि अनिगृदीय यल
वीर्ये, वृ० १ उ० ।
चार पुं० देखी घने देना ५ वर्ग २७ गाथा ।
वानप्रस्थ नि० ५०
थाल - स्याल - न० । त्रट्टे, भ० १५ श० । पाकपात्रे । आचा० २ ० १ ० १ ० १ उ० रा० । जं० । यासह स्यानकिन्दा १ वर्ग० ७ अ० । श्री० भ० । थालपाणय- स्थालपानक- न० । स्थालं त्रहं तत्पानकमित्र दाहोपशमदेतुत्वात् स्थालपानकम् | आजीविकानामकल्पनी ये स्थानके, भ० १५ श० ।
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पाली-स्पासी०जी०३ प्रति२४० फि वयम् स्थाने ३ ठा० १ उ० सू० प्र० । आ० म० । थालीपाग स्थालीपाक- वि० स्थाल्यामुखायां पाको दस्य तत्स्थालीपाकम् | स्थास्यां पक्के स्थान "थालीपागसुद्धं मां जोयं । " स्थालीपिठरी, तस्यां पाको यस्य तत्तथा । श्रन्यत्र हि पक्कमपर्क वा तथाविधं स्यादितीदं विशेषणमिति । शुद्धं भक्त दोषवर्जितं, स्थालीपाकं च तच्छुद्धं स्थालीपाकेन वा शुरू मिति विग्रहः । स्था० ३ चा० १ उ० ।
यावथा स्थापत्या स्त्री० । द्वारवतीवासिन्यां स्वनामख्यातायां गृहपतिकायाम्, शा० १०५ श्र० । यावयात स्थापत्यापुत्र पुं० [स्थापत्याचा गृहपतिकायाः सुते, झा० १ ० ४ भ०
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तक्तव्यता
जंबू का ते समपर्ण पारवई या नपरी होत्या; पापडीयामा नदीणदाहिणवित्थिता नवजोविरा दुवासनोषणाऽऽपामायण मलिम्माया चामीयरपवरपागारा णाणामणिपंचवक (वि) सीमग
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(२३ ) थावच्चापुत्त अभिधानराजेन्द्रः।
यावच्चापुत्त सोहिया अलयापुरीसंकासा पमुश्यपक्कीलिया पञ्चक्खं देव- स्स जक्खस्स लक्खायतणे जेणेव असोगवरपायचे तेणेव लोगभ्या। तीसे णं वारवईए णयरीए बहिया उत्तरपुर- उवागच्च, उवागच्छत्तिा अहापमिरूवं उग्गहं उग्गिणिहत्ता च्छिमे दिसीजाए रेवतगे णामं पन्चए होत्या; तुंगे ग- संजपेणं तवसा अप्पाणं जावेमाणे विहरति । परिसा णिगणतन्त्रमणुलिहंतसि हरे णाणाविहगुचगुम्मलयावल्लिप-| गया, धम्मो कहिओ । तए णं से कराहे वासुदेवे इमीसे रिंगते हंसमिगमयूरोंचसरिसचकवायमयणसारकोइल- कहाए बढे समाणे कोमुंबियपुरिसे सहावेति, सद्दावेइत्ता कुलोववेए अणेगतमकमगविवरउज्करपावयफभारसिह- एवं बयासी-खिप्पामेव जो देवाणुप्पिया! सहम्माए सभारपउरे अचरगणदेवसंघचारणविज्ञाहरमिहुणसंकिएणे ए मेघोघरसियं गंभीरं महुरसदं कोमुईयं भेरि तालेह । तए निच्चत्थाणए दसारवरवीरपुरिसतेलोकवलवगाणं, सोमे एणं ते कोमुंबियपुरिसा कएहेणं वासुदेवणं एवं वुत्ता समाण। मुभगे पियसाये मुरूवे पासादीए दरिसपीए अनिरूप- हन्तुट्ठा जाव मत्थए अंजलिं कडे एवं बयासी-सामी ! मिरूवे । तस्स णं रेवयास्स पचयस्स अदसामंते एत्थ णं तहत्ति जाव पमिसुणेति, पम्भुिणेत्ता कएहस्स वासुदेवस्स नंदणवणे णामं उजाणे होत्या; सम्बो य पुप्फफझस- | अंतियाओ पडिनिक्खमंति, पामिनिक्खमइत्ता जेणेच मुहम्मा मिछे रम्मे णंदणवणप्पगासे पासादीए । तस्सणं नज्जाण- सजा जेणेच भेरी तेणेव उवागच्छति, उवागच्छइत्तातं मेस्स बहुमज्जदेसभाए सुरप्पिए णामं जक्खाययणे होत्था, घोघरसियगंभीरं महुरसदं कोमुईयं भेरिं तालेति। ततो णिदिब्बे वमओ। तत्थ एणं वारवईए गरीए कएहे नामं वा- कमहुरगंजीरपमिस्सुएणं पि व सारइएणं बलाहएषममुदेवे राया परिवसति । से णं तत्य समुद्दविजयपामोक्खाणं णुरसियं भेरीए। तए णं तीसे कोमुईयाए भेरीए तालियादसएहं दसाराणं वनदेवपामोक्खाणं पंचएहं महावीराणं ए समाणीए वारवईए नयरीए नवजोयपवित्थिमाए चानग्गसेणपामोक्खाणं सोझसएडं राईसहस्साएं पज्जुम- लसजोषणाऽऽयामाए संघाम्गतिगचउकचच्चरकंदरदरीयपामोक्खाणं अफुटाणं कुमारकोमीणं संबपामोक्खाणं विवरकुहरगिरिसिहरणगरगोपुरपासायदुवारभवणदेवनलसट्ठीणं इंतसाहस्सीणं वीरसेणपामोक्खाणं एकवीसाए । पदिस्यासयसहस्ससंकुनं सई करेमाणा वारवई नयरिं वीरसहस्सीणं महासेणपामोक्खाणं उपमाए बलयगासा- सन्नितरियवाहिरियं सयो समंता से सद्दे विप्पसरित्या। इस्सीथं रुपिणिपामोक्खाणं बत्तीसाए महिलामाहस्सीj
तए णं तीसे वारवतीए नयरीए नवजोअणविस्थिमाए दुवाअणंगसेणपामोक्खाणं अणेगाणं गणियासाहमीणं अमे
सजोप्रणाऽऽयामाए समुद्दविजयपामोक्खा दस दसारा. सिंच बहूणं राईसरतमनर जाव सत्यवाहप्पनिई वेय- जाव गणियासहस्साए कोमुईयाए जेरीए सदं सोच्ना णिगिरिसागरपेरंसस्स दाहिणखतरहस्स य वारवईए पगरी सम्म हटतुट्ठा जाव एहाया आविष्वग्धारियमलदामकलावा ए माहेवच्चं जाव पालेमाणे विहरति । तत्थ णं वारव- प्रहयवस्यचंदणोकिएणगाथसरीरा अप्पेगइया हयगयरतीए णयरीए यावच्चा णामं माहावतिणी परिवमति । हसीयासंदमाणी अप्पेगइया पायविहारचारेणं पुरिसवग्गुरा असा जाब अपरिजूया । तीसे णं यावच्चाए गाहा. परिक्खित्ता कएहस्स वासुदेवस्स अंतियं पाउन्भवित्था । वतिणीए पुत्ते 'यावच्चापुत्ते' णामं सत्यवाहदारए होत्था, तए णं से काहे वासुदेवे समुद्दविजयपामोक्खे दसदमारे० मुकुमालपाणिपाए जाव मुरूवे । तए णं सा थावच्चा गा- जाव अंतियं पानभवगाणे पासित्ता हतुटेजाव कोडुबि. हावनी तं दारगं साइरेगअहवाससयं जाणित्ता सोहणं सि यपुरिसे सदावेति, सदाबेइत्ता एवं वयासी-खिप्पामेव भो तिहिकरणणखत्तमुहुत्तंसि कसाऽऽयरियस्स उवर्षोंतिण्जाव देवाणुप्पिया! चानुरंगिणिं सेणं सजेह,विजयं च गंधहत्यि च भोगसमत्थं जाणेत्ता बत्तीसाए बालियाणं एगदिवसेणं पा- उवट्ठवेह । ते वि तहेव उबटुवेतिन्जाव पज्जुवासंति । थावकिं गिएहावेइ, बत्तीसाओ दानो जाव बत्तीसाए इन्भकु- चापुत्ते विणिग्गए, जहा मेहो तहेच धम्म सोचा निसम्म जेलवालियाहिं सदि विपुले सदफरिसरसरूवगंधे जाव भुं- ऐव थावच्चा गाहावज्ञणी तेपेव उवाग, नागच्चना जमाणे विहरति । तेणं काोणं तेणं समएणं अरिहा पायग्गहणं करेति, जहा मेहस्स तहा चेव णिवेयणा, जाहे अरिहनेमी सो चेव वमो -दसवणुस्सेहे नीलुप्पनगव- नो संचाएति विसयाणुरोमाहि य विसयपडिकूलाहिय बहहिं सगुलियअयसीकुसुमायगासे अट्ठारसएहि समणसाहस्सीहिं आचरणादि य पहावणाहिय विष्णवणाहिय समवणाहि य सदि संपरिवुढे चत्तालीसं अज्जियासाहस्सीहिं सद्धि आपवित्तएवा, ताहे अकामिया चेव थावच्चापुत्तस्स दारगसंपरिवुमे पुव्वाणुपुद्धि चरमाणे जाव जेणेव वारवती गरी
स्स निक्खमणमामषित्था। तएणं सा थावचा गाहावइणी जेणेव रेवयगे पचए जेणेव णंदणवणउजाणेजेणेव सुरपिय- आसणामो अन्तुडेति, अब्भुट्टेइत्ता महत्य महग्यं महरिह
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(२४००) थावश्चापुत्त अभिधानराजेन्द्रः।
थावच्चापुत्त रायारिहं पाहुमं गेएहति,गएिहत्ता मित्तणाइन्जाव संपरि- सद्देणं नग्धोसेमाणा उग्घोसेमाणा उग्घोसणं करेह । एवं वुमा जेणेव कएहस्स वासुदेवस्स भवणवरपमिदुवारदेसभाए खलु देवाधुपिया ! थावच्चापुत्ते संसारजयनविग्गे भीए तेणेव नवागच्चति, उवागच्छित्ता पमिहारदेसिएणं म- जम्मणजरामरणाएं इच्छति अरहो अरिहनेमिस्स अंतिए ग्गेणं जेणेव कएहे वासुदेवे तेणेव उवागच्छति,उवागच्चित्ता मुंमे भवित्ता पव्वात्तए। जो खलु देवाणुप्पिया ! राया वा करयलं वच्छवेति, वचावेत्ता तं महग्यं महरिहं रायारिहं जुवराया वा देवी वा कुमारे वा ईसरे वा तलवरे वा कोपाहुमं च उवणेति, नवणेइत्ता एवं क्यासी-एवं खलु देवा- मुंबियपुरिसा माडंबियइनसेडिसेणावश्सत्यवाहे वा थावणुप्पिया ! मम एगे पुत्ते यावचापुत्ते णाम दारए इढे कंते. च्चापुत्तं पव्वयंतमणुपव्वयति, तस्स णं कराहे वासुदेवे जाव से णं संसारलवजन्विग्गे इच्छति रहओ णं अरहि. अणु नाणति, पच्छाऽऽतुरस्स विय से मित्तणाश्जोगक्खेम नेमिस्स जाव पन्चत्तए,अहं णं णिक्खमणसकारं करेमि, वट्टमाणी पमिवहति ति कटु घोसणं घोसेह० जाव घोसंति । तं इच्छामि ए देवाणुप्पिया! थावचापुत्तस्स निक्खममा- तए पं थावच्चापुत्तस्स अखुराएणं पुरिससहस्सं निक्खमणस्म छत्तमउमचायरानो वि दिमाओ । तए णं से कएहे पाभिमुहं एहायं सव्वाझंकारविनूसियं पत्तेयं पत्तेयं पुरिवासुदेवे थावच्चागाहावइणि एवं बयासी-अत्याहि तुम ससहस्सवादिधीसु सिवियासु सुरूढं समाणं मित्तपातिदेवाणुप्पिया! मुणिवुया वीसत्या, अहं णं सयपेव थाव- परिवुमं थावच्चापुत्तस्स अंतियं पानमवित्या। तए णं से चावुत्तस्स दारगस्स निफ्खमणसकारं करिस्सामि । तए णं कएहे वासुदेवे पुरिससहस्सं तिरं पाउब्भवमाणं पामइ, से कएहे वासुदेवे चाउरंगिणीए सेणाप विजयं हत्थिर- पासश्त्ता कोडुंबियपुरिसे सद्दावेति, सद्दावेत्ता एवं वयासीयणं दुरूढे समाणे जेणेव थावच्चाए गाहावतिणीए जवणे | जहा मेहस्स निक्खपणाजिसे तहेव सीयपीएहिं कलसेहि तेणेव नवागच्चइ, नवागवत्ता यावच्चापुत्तं एवं वया- एहावेति, एहावेपत्ता तए णं से थावचापुत्ते सहस्सपुमी-माणं तुम देवाणुप्पिया ! मुंडे भवित्ता पवादि, मुं- रिसेहिं सकिं सिवियाए पुरूढे समापे जाव रवेणं वारव. जाहि देवाणुप्पिया! विपुल्ने माणुस्सए कामभोगे ममं बा- ईगरि मज् मज्केणं जेणेव अरहो अरिहनेमिस्स उत्ताहुच्छायापरिग्गहिए, केरलं देवाणुपियस्स अहं नो संचा- तिउत्तं पडागाइपमार्ग पासंति, पासंतित्ता विजाहरचारण. एमि वाउकायं नवरि, सेणं गच्छमिणं निवारेत्तए,अप्लोमं जान पासेत्ता सिवियाओ पच्चोरुहंति । तए णं से कराहे वा. देवाणुप्पियाण जं किंचि वि आबाई वा पनाहं वा ज
देवे थावच्चापुत्तं पुरो कट्ट जेणेव अरहा अरिहनेमी सव्वं प्पाए, तं सव्वं निवारेमि । तए पंथावच्चापुत्ते कएहेणं तं चेव बाजरणं । तए णं थावच्चा गाहावणी हंसमक्खवासुदेवणं एवं वुसे समायणे किएई वासुदेवं एवं वयासो- णेणं मसाझएणं आजरणामवालंकारं पडिच्च,हारवारिजाणं तुमं देवाणुप्पिया! ममं जीवियंतकरणं मच एज्ज
धारच्छिन्नमुत्तावलिप्पगासाई अंमूणि विणिम्मुयमाणी माणं निवारेसि,जरं वा सरीररूपं विणासिणि सरीरं अ
विणिम्मुयमाणी एवं वयासी-जइअव्वं जाया ! घमिअव्वं वश्यमाणिं णिवारोस, तए णं अहं तव बाहुच्छायापरि
जाया! परिमिय जाया!अस्सि च णं अटेणो पमादेअ. ग्गहिए विनले माणुस्सए कामनोगे तुंजमाणे विहरामि ।
5वं,जामेव दिसि पाडब्लूबा तामेव दिसिं पमिगया। तए से तए णं से काहे वासुदेवे थावच्चापुत्तेणं एवं वुत्ते समा
थावच्चापुत्ते पुरिससहस्सेणं सचिसयमेव पंचमुट्टियं सोयं कणे थावच्चापुत्तं एवं वयासी-एएणं देवाणुप्पिया! रति
रोति जाव पब्बइए । तए णं से थावच्चापुने अणगारे जाए कमणिजा णो खा सक्का सुबझिएणावि देवेण वा दा
इरियासमिए भासासमिए एसणासमिए आयाणममत्तणवेण वा णिवारेसए, णमत्य अपणो कम्मक्खएणं । तए | णिक्खेवणासमिए उच्चारपासवणखेलजससंघाणपारिहाणं से थावचापुत्ते कराई वासुदेवं एवं वयासी-जइ णं एए वणियासमिए । तए 4 से थावच्चापुत्ते अणगारे अरिहओ दुरनिक्कमाणिज्जा णो खलु सक्काळ जाव एमत्य अपणो
अरिहनेमिस्स तहारूवाणं थेराणं अंतिए सामाश्यमाइयाई कम्मक्खपणं,तं इच्छामि णं देवाणप्पिया! अम्माणमिच्छत्त
चनदसपुबाई अहिज्जइ,बहूहिं० जाव चनत्यं विहरे। तए अविरइकमायमंचियस्स अप्पाणो कम्मक्खयं करेत्तए । तए
णं अरिहा अरिहनेमी थावच्चापुत्तस्स अणगारस्प्स तं इन्जाण से कराहे वासुदेवे थावरचापुत्तेपणं एवं वृत्ते समाणे को.
इयं अणगारसहस्सं सीसत्ताए दलयप्ति । तए णं से थावमुंबियपुरिसे सद्दावेति, सद्दावेइत्ता एवं वयासी-गच्छह
च्चापुत्ते अपगारे अभया कयाई अरहं अरिघ्नेमि वंदति, तुम्हे देवाणुप्पिया!बारवईए एयरीए सिंघाडगतिगचउक्क. णसइ,णमसइत्ता एवं बयासी-इच्छामि णं भंते ! तुब्यहि चच्चर नाव महापहेसु हत्यिवंपवरगया महमा महया अम्मघुमाए समाणे सहस्सेणं अपगारेणं सछि पहिया
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(१४०१) थावच्चापुत्त अभिधानराजेन्द्रः।
थावच्चापुत्त जणवयविहारं विहरित्तए । अहासुहं देवाणुप्पिया!। तए णं जंणं अम्हं देवाणुप्पिया ! किंचि अमुई भवति, तं सव्वं से थावच्चापुत्ते अणगारसहस्सणं सकिं तेणं उरालेणं उ- सजपुढबीए प्रालिंपति, तो पच्छा मुछेण वारिणा पदग्गेणं पयत्तेणं पग्गहिएणं बहिया जण वयविहारं विहरइ।। क्खालिज्जर, तो त भई मुईभवद एवं खलु जीवाजतेणं कालेणं तेणं समएणं सेलगपुरे णाम एगरे होत्था। ब- लानिसेयपूयप्पाको प्रक्णिं सग्गं गच्छति । सए पं छाओ। तस्स णं सेलगपुरस्स बहिया उत्तरपुरच्छिमे दिसी- सुदंसणे सुयस्स अंतिए धम्म सोचा हातु मुपस्म अंतियं नाए सुनूमिभागे णामं उजाणे होत्था। तस्स एणं सेनगपु- सोयमूसं धम्मं गिएहेइ, गिएहेत्ता परिवापर सुपिउले रस्स सेलए णाम राया होत्या,पनमावती देवी, नए कुमारे णं असणपाणखाइमसाइमवत्ये पडिलानेमाणे भाव विहर. जुवराया। तस्स णं सेझगस्स पंथगपामोक्खाणं पंच मंति- इ । तए णं से सुए परिवायए सोगंधियाभो परीओ सया होत्या; चरबिहाए बुकीए नववेए रज्जधुरचिंतए । णिग्गच्छ, णिग्गच्छित्ता बहिया जणवयविहारं पिहरइ। यावि होत्था। तर णं यात्रश्चापूते णामं अणगारे सहस्सेणं तेणं कालेणं तेणं समएणं थावच्चापुते णामंणगारे सहअणगारेणं सकिं जेणेव सेलमपुरे जेणेव सुमिजागे स्सेणं अणगारणं सकिं पुन्वाणुपुछि घरमाणे ग्रामाणुपाम उजाणे तेणेव समोसढे । सेलए वि राया णि- गाम दूइज्जमाणे सुहं सुहेणं विहरमाणे नेणेव सोगंधिगए | धम्मो कहिओ। धम्मं सोचा जहा णं देवाणुप्पियाणं या गयरी जेणेव णीलासोए नजाणे तेणेव समोसढे । परिसा अंतिए बहवे जग्गा भोगा जाव चइत्ता हिरणं विहरति० णिग्गया । सुदंसणं वि णिग्गए थावच्चापुत्तं णाम अणगारं जाव पचइए, लहा हां नो संचाएमि पवइत्तए । तओ गं आयाहिणपयाहिणं करे, करेइना बंद, णमंसद, णअहं देवाणुप्पियाणं अंतिएपंचाययंजाब समणोवासप मंसइत्ता एवं वयासी-तुम्हाणं किंमूलए धम्मे पहात्त ।
जाव अभिगयजीवाजीवेजाव अप्पाणं भावेमाणे विहरति। तते णं थावच्चापुत्ते सुदंसणेणं एवं कुत्ते समाणे मुदसणं एवं पंथग्रपामोक्खाणं पंच मंतिसया समणोवासगा जाया। थाव- वयासी-सुदंसणा ! विणयमूले धम्मे पत्ते । से वि य एं चापुत्ते बहिया जणयविहारं विहरति । तेणं कालेणं विणए दुविहे पणत्ते । तं जहा-आगारविणए य, अणतेणं समएणं सोगंधिया णाम णमरी होत्था। वमओ।नी- गारविणए य । तत्थ णं जे से श्रागारविणए, से ए पंच असासोए उज्जाणे । वायो। तत्थ एं सोगंधियाए णयरीए गुब्बयाई, सत्त सिक्खावयाई, एगारस नवासगपमिमाओ। सुदंसणे णाम ण गरसेट्ठी परिवसइ, अले जाव अपरिजूए ।
तत्थ णं जे से अणगारविणए से णं पंच महब्बयाई पमतेणं कालेणं तेणं समएणं सुए पामं परिवा- त्ताई। सं जहा-सव्वाश्रो पाणाइवायाश्रो वेरपणं,सन्चाओ या होत्या, रिनन्धेय-जजुबेय-सामनेय-अथवणवेय- मुसावायायो वेरमणं, सव्वाश्रो अदिनादाणाश्रो चरमणं, सद्वितंतकुसने संखसमए लम्हे पंच जमपंचणियमजुत्तं सवाओ मेहुणाप्रो वेरमणं, सव्वाश्रो परिग्गहाम्रो वेरम. सोयमूलयं दसप्पयारं परिवायगधम्म दाणधम्मं च एं,सब्बाओ राईनोयणाओ वेरमा जाब मिच्छादसणससोयधम्मं च तित्याभिसेयं च आपवेमाणे पनवेमाणे धार- बायो। दमविहे पचखाणे, बारस जिक्खूपमिमाओ। हचे. रत्तवत्थपरिहियए तिदमकुंमियच्छत्तच्छमालियाअंकुस- एणं दुबिहेणं विणयमलेणं धम्मेणं प्राणुपुत्रेणं मट्ठ कपवित्तियकेसरिहत्थगए परिवायगसहस्सेणं सकिं संपरितुडे म्मपद्दीओ खवेत्ता लोयग्गपट्टाणे भवइ । तए णं थाजेणेव सोगंधिया एयरी जेणेव परिवायगावसहे तेणेब वच्चापुत्ते सुदंसणं एवं वयासी-तुब्ने णं मुदंसणा! किंमू. उवागइ, उवागच्छइत्ता परियायगाऽऽवसहंसि भंडाण. लए धम्मे परमत्ते ?। अम्हाणं देवाणुप्पिया ! सोयमूले धम्मे क्खेवणं करेइ, करेइत्ता संखसमरणं अप्पाणं भावमाणे पपत्ते जाव सग्गं गच्छति । तए णं यावच्चापुत्ते मुदंसणं एवं विहरइ । तए णं सोगंधियाए सिंघाडगबहुजणो अप्लम- बयासी-सुदंसणा!से जहानामए के पुरिसे एगं महं रुहिसास्स एवं खलु मुए परिवायए ह हन्नमागते जार रकयं वत्वं रुहिरेणं चेव धोएज्जा, तए णं सुदंमणा! तस्स विहरति । परिसा णिम्गया । सुदंसणे विणिग्गए । तए एं रुहिरकयस्स बत्यस्स रुहिरणं चेव पक्खालिज्जमाणस्स से मुए परिवायए तीसे परिसाए सुदंसणस्स य अ- अस्थि सोही, नो इणडे समढे, एवामेव मुदंसणा! तुम पि छोसिं च बहूर्ण संखाणं परिकहेइ । एवं खत्रु सुदंसणा! पाणातिवाएणं जाव पिच्छादसणसवेणं पास्थि सोही,जअम्हं सोयमूलए धम्मे पत्ते।से वि य सोए दुविहे प- हा तस्स रुहिरकयवत्थस्स रुहिरेणं चेव पक्वालिजमाणस्स पत्ते । तं जहा-दवसोए य, भावसोए य । दव्यसोए य | णस्थि सोही। मुदंसणा से जहाणामए केइ पुरिसे एगंमई रुउदएणं, मट्टियाए य । नाव सोए य दब्नहि य, मंतोह य ।। हिरकयवत्थं सजियक्खारेणं अणुलिप,अणुलिंपइचा पय
६०२
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(२४०२) थावच्चापत्त अभिधानराजेन्छः।
थावच्चापुत्त *पारुहेति,नण्हंगाहेति,उपहंगाहेत्ता तमो पच्छा सुदेणं मे से इमाई हाइं० जाव नो वागरेइ, सते णं अहं एएहिं वारिणा धोवेजा, से पूणं सुदंसणा! तस्स रुहिरकयवत्थस्स | चेच अहहिं हेऊहिं निप्पपसिणवागरणं करिस्सामि । मज्जियाखारेणं अणूलित्तस्स पयणं पारुहियस्स नएहं गाहि- तए णं से सुए परिवायगसहस्सेणं सुदंसणेण य सेट्टियस्स मुकेणं वारिणा पक्खानिजमाणस्स सोही जवा। णा सछि जेणेव नीलासाए उन्नाणे जेणेव थावच्चापुत्ते इंता जवइ । एवामेव सुदंसणा! अम्हं पिपाणाइवायवेरमाणेणं अणगारे तेणेष नवागच्छति, उवागच्छइत्ता थावच्चापुत्तं ए
नाव मिच्छादसणसवेरमणेणं अत्थि सोही, जहा वि वं बयासी-जत्ता ने ते!, जवणिज, अन्यावाह, फासुर्य तस्स रुहिरकयस्स वत्थस्सजाव सुकेणं वारिणा पक्खा- विहारं? तए णं यावच्चापुत्ते सुएणं एवं वुत्ते समाणे सुयं सिज्जमाणस्स अस्थि सोही।तत्य णं सुदंसणे संयुके थावच्चा- परियाय एवं बयासी-मुया! जत्ता वि मे,जबणिज्जं वि मे, पुत्तं बंदति, णमंसति, णमंसित्ता एवं वयासी-इच्छामि ॥ अब्बावाहं पि मे, फासुयं विहारं पि मे। तए णं से सुए नंते ! धम्मं सोचा जाणित्तए.जाव समणोवासए० जान
थावच्चापुत्तं एवं क्यासी-से किं तं भंते! जत्ता । सुया ! जं अहिंगयजीवाजीवे जाव पडिझानेमाणे विहरति । तए णं णं मम णापदंसणचरित्ततवसंजममाइएहिं जोएहिं जोयणा तस्स मुयस्त परिवायगस्स इमीसे कहाए लट्ठस्स समा- सेयं जत्ता । से किं तं भंते ! जवाणिजं ? । सुया ! जवाणणस्स अयमेयारूवेजाव समुप्पज्जित्था-एवं खयु सुदंसणणं | ज्जे विहे पहाते । तं जहा-इंदियजवाणिज्जे य, नोइंदिसोयमूनं धम्मं विपजहाय विणयमृले धम्मे पमिवणे, तं यजवणिजे य। से किं तं इंदियनवाणिज्जं । मुया ! सेयं खलु ममं सुदंसाणस्स दिहिं वामत्तए, पुणरवि सो- णं मम सोइंदियचविखदियघाणिदियजिभिदियफासिंदियाई यमूले धमें आघवित्तए त्ति कटु एवं संपेहेति, संपेहेतित्ता निरुवहयाई बसे चट्टति से तं इंदियजवाधिजे । से किं तं परिवायगसहस्सेणं सा जेणेव सोगंधिया णयरी जेणेव णोइंदियजवणिज्जे?। सुया! कोहमाणमायालोभखीणा परिवायगावमहे तेणेव उवागच्चति, उवागच्छइत्ता परि- उवसंता नो उदयंति से तं नोइंदियजवणिज्जे । से किं तं नंनायगाऽऽसहसि भमगनिक्खेवणं करेति,करेइत्ता धानर- ते! अब्बावाहं ?। सुया! जणं मम वाइयपित्तियसिंनियमत्तवत्थपरिहिएपविरलपरिचायगसफि संपरिखुढे परिवा
भिवाश्यविविहरोगायंकाको उदीरेंति से तं अव्वावाहं । यगाऽऽवसहायो पमिणिक्खमइ,पडिणिक्खमइत्ता सोगंधि- से किं तं भंते ! फामुयविहारं ?। मुया ! जं णं आरामेसु उजायाए एयरीए मज्कं मज्केणं जेणेव सुदंसणस्स गिहे जे-| णेसु देव उत्सु सनासु पवासु इत्थीपसुपंमगविवज्जियासु णेच सुईसणे तेणेव नवागच्कइ । तए णं से सुदंसणे तं
वसहीसु पामिहारियं पीढफजगसिज्जासंथारंग श्रोगिएिहमुयं एन्जमाणं पासति, पासश्त्ता नो अब्भुढेति, नो पच्चु- ताणं विहरामि सेतं फासुयं विहारं ।। सरिसवया ते भंते ! ग्गच्छति, नो आढाति, नो परियाणाइ, नो वंदति, तुसिणीए
किंजक्खया,अभक्खया। सुया! सरिसवया जवखेया वि,अ. मंचिट्ठति । तए णं से सुए परिवायगे सुदंसणं आणुन्नुट्टि
भक्या वि।से केणटेणं नंते ! एवं बुच्च-सरिसक्या ज. यं पासेत्ता एवं बयासी-तुमे एं सुदंसणा! अमया ममं
क्खया वि,अभक्खया विसुया! सरिसवयाऽविहा पक्षएज्जमाणं पासेत्ता मनुढेसिजाव वंदसि, झ्याणिं सुदसणा!
त्ता। तं जहा-मित्तसरिसवया, धन्नसरिसवया । तत्थ णं जे तुमं ममं एजमाणं पासत्ताजाव नो वंदइ, तं कस्स णं तुमे
ते मित्तसरिसवया ते तिविहा पत्ता । तं जहा-सहजाया, सुदंसणा! इमेयारूवे विषयमूले धम्मे पमिव । तए णंसुः ।
सहवलिया, सहपसुकीलिया य, ते णं समणाणं निग्गंयाणं दंसणे मुएणं परिवायएणं एवं वुत्ते समाणे आसणामो
णिग्गंधीणं अभक्खेया । तत्य णं जे ते घमसरिसवया वे अन्तुढेइ. करयान्सुयं परिवायगं एवं बयासी-एवं खल
दुबिहा पम्पत्ता । तं जहा-सत्यपरिमया य,असत्यपरिया देवाणुप्पिया ! अरहो अरिहन मिस्स अंतवासी थाव
य। तत्थ णं जे ते असत्यपरिणया ते समणाणं णिग्गंयाणं चापुत्ते पाम अणगारे जाच इहमागए, इह चेव नीनासोए
अजक्खेया। तत्थ णं जे ते सत्यपरिमया ते विहा पमउजाणे विहर, तस्स णं अंतिए विणयमुझे धम्मे पडि
चा। तं जहा-फासुया थ, अफामुया य । तत्थ ण जे अ. वणे । तए णं से सुए परिवायए मुदंसणं एवं यासी-तंग
फासुया ते मुया! नो नक्खेया। तत्थ णं जे ते फासुया ते जामोणं सुदंसणा! तब धम्मायारेयस्स थावचापुत्तस्स अं
सुविहा पत्ता। तं जहा-जाझ्या य, अनाश्या य । तत्य तियं पाउन्भवामो,इमं च णं एयारूवाइं अट्ठाई हेकई पसिणाई
णं जे ते अजाश्या ते अभवखेया। तत्थ णं जे ते जाध्या ते कारणाई वागरणाई पुच्छामो, तं जहणं मे से एयाई अ
दविहा पामत्ता । तं जहा-एसणिज्जा य, अणेसणिज्जा य। हाईजाव वागरेति, ततो णं अहं वंदामि, मंसामि, प्रह तत्थ णं जे ते प्रणेसणिज्जा ते णं अभक्खया । तत्थ * चुल्ल्युपरि।
जे ते एसणिज्जा ते विहा पत्ता । तं जहा-सकाय,
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(२४०३) थावञ्चापुच अभिधानराजेन्डः।
थावच्चापुत्त अलकाय। तत्थणं जे अलका ते अभक्खेया। तत्य | जे पच्छा सिके बुझेजाव सव्वयुक्खप्पहीणे । तए से सु. लछा ते निग्गंयाणं भक्खेया । एएणं अटेणं सुया! एवं
ए एणया कयाइ जेणेव सेनगपुरे णगरे जेणेव मुनूवृञ्चश्-सरिसवया नक्खेया वि, अजवखेया वि । एवं कु.| निभागे नजाणे तेणेव ममोसरिए । परिसा जिग्गया। सेलत्था विभाणियव्वा। नवरं इसणाणतं-इत्थिकुन्नत्था य, लओ विणिग्गओ, धम्म सोचा जाच देवाणुप्पिया ! धामकुलत्था य। शत्थिकुलत्था तिविहा परमत्ता। तं जहा- पंथगपामोक्खाई पंचमंतिप्तया आपुच्चामि, मंडुअं कुमार कुलवधूया य, कुनमाउया य, कुलधूया य । धमाकुलत्था | रज्जे गवेमि, तो पच्छा देवाणुप्पियाणं अंतिए मुंमे तहेव । एवं मासावि। नवरं मंणाणतं-मासा तिविहा पम
भवित्ता अगाराओ अणगारियं पध्वयामि ? । अहामुई ता। तं जहा-कालमासा य, अत्थमासा य, धाममासा य।।
देवाणुपिया। तए णं से सेलए राया सेनगपुरंगरं मतत्थणं जे ते कालमासा ते सुवालसाविहा पभत्ता। तं जहा.
ज्कं मज्केणं अणुप्पविसइ ,जेणेव सए गेहे जेणेच बासावणेजाव आसाढे । तेणं अनक्खेया। अत्यमासादुविहा
हिरिया उबट्ठाणसाझा तेणेव उवागच्चइ, नवागच्चइत्ता पपत्ता । तं जहा-हिरममासा य, मुवष्यमासा य । ते एं
सीहासणे सारणसन्ने । तए एं से सेलए राया पंथयपामोअभक्खेया।धमासा तहेव ।। एगे भवं,दुवे नवं,प्रणेगे जवं,
क्खे पंचमंतिसए सद्दावेति, सद्दावेइत्ता एवं बयासी-एवं अक्खए नवं,अव्वए भवं,अवटिए भवं, अणेगनूयत्नावभविए
खलु देवाणुपिया ! मए मुयस्म अंतिए धम्मे निसले, से न। सुया! एगे कि अहं,दुवे वि अहंजाव अणेगनूयत्ना.
वि य मे धम्मे इच्छिए पमिच्छिए अभिरुइए, अहं पं देवनविए वि अहं । से केणटेणं भंते! एवं बुच्च-एगेवि अहं.
नाणप्पिया! संसारभयउब्विग्गे जाव पचयामि, तुब्ने गं जाव अपेगनूयनावभत्रिए वि अहं सुयादवदयाए एगे अहं,
देवाणुप्पिया ! किं करेह, कि वसह, किंवा ते हिययणाणदंसणट्ठयाए दुवे अहं,पएसट्टयाए अक्खए वि अहं,अ.
च्छिए सामत्थे?। तए पं ते पंथगपामोक्खा पंचमतिसया बए वि अहं,अवट्टिए वि अहं,उवओगट्टयाए अणेगयत्ना
सेलयं रायं एवं बयासी-जाणं तुम्भे देवाणाप्पया ! संबलविए वि अहं । एत्य णं से मुए संबुझे । तए णं थावचापुत्तं
सार जाव पचयह, अम्हाणं देवाणप्पिया ! किं अमे अणगारं वंदर, णमंसइ, णमंसइत्ता एवं वयासी-इच्छामि णं
आहारे वा, आनंवे वा । अम्हे विय देवाणुप्पिया ! भंते ! तुब्नं अंतिए केवझिपात्तं धम्मं निसामित्तए । धम्म
संसारनयनविग्गाजाव पव्वयामो। जहाणं देवाणुपिया! कहा भाणियव्वा । तए णं से सुए परिवायए थावच्चापुत्तस्स अंतिए धम्म सोचा निसम्म एवं बयासी-इच्छामि एं भंते!
अम्हं बहुसु कज्जेसु य कारणेमु य जाव तहाणं परिवायगसहस्से सद्धिं संपरिवुमे देवाणुप्पियाणं अंतिए
पव्वक्ष्याण वि समग्राणं बहुसु० जाव चक्खू । तए णं से मुंमे नवित्ता पव्वात्तए?। अहामुहं देवाणुप्पिया !। तो
सेनए राया पंथयपामुक्खे पंच मंतिसए एवं वयासी-जइ
णं देवाणपिया! तुम्ने संसारजय उचिग्गाजाच पब्बयह, उत्तरपुरच्छिमे दिसीनाए तिम्याप्रोण जाव धाउरत्तामो य एगते एमेति, एमेइत्ता सयमेव सिहं नप्पामेति, उपामे.
तं गच्छह णं देवाणुप्पिया ! सएसु सएमु कोमुंबसु जेहपुत्ते
कुइंचमके गवता पुरिससहस्तवाहिणीयाओ सीयाओ इत्ता जेणेच थावच्चापुत्ते नाव मुंमे नवित्ता जाब पन्चइए, सामाइयमाइयाई चनद्दस पुवाई अहिज्जति । तए णं
दुरूढा समाणा मम अंतियं पानुब्नवह। ते वि तहेव पा
नबनवंति। तए णं से सेनाए राया पंचमंतिसयाई पानभथावच्चापुत्ते सुयस्स अणगारसहस्सं सीसत्ताए विहरति । तए णं थावच्चापुत्ते सोगंधियाओ नीतासोयाओ
बमाणाई पासति, पासइत्ता हत? कोडुवियपुरिसे सद्दावेनज्जाणाओ पडिणिक्खम, पडिणिक्खमइत्ता बहियाज
इ, सदावेत्ता एवं बयासी-खिप्पामेव भो देवाणुपिया ! णत्रयविहारं विहरइ । तए णं से थावच्चापुत्ते अणगा
मंमुयस्स कुमारस्स महत्थं जाव रायानिमेषं उवट्ठवेह,
जाव अभिसिंचंति, जाव राया जाए विहरइ । तए रसहस्सणं सकिं संपरिचुडे जेणेव पुंमरीए पयए तेणेव
एं से सेलए राया मंमयं आपुच्छति । तए णं से नवागच्छ, उवागच्छश्ता पुंमरीयं पव्वयं सणियं सणियं उरूहति, दुरूहतित्ता सेयघासनिगासं देवसभिवायपुढवी
मंमुए राया को मुंबियपुरिसे सद्दावेइ, सदावेइत्ता एवं बयासिनापट्टयं जाव पाओवगमणं समापसे । तए णं से
सी-खिप्पामेव सेलगपुरं नगरं आसियं जाव गंधवाहिथावञ्चापुत्ते णाम अणगारे बहूणि वासाणि सामन्नप
नूयं करेह, कारवेद य, एवमाणत्तिअंपञ्चप्पिणह । तए णं
से मंमुए राया दोचं पि कोमुंधियपुरिसे सहावेश, सदावे-- रियागं पाउणित्ता मासियाए संलेहणाए सहि जताई
इत्सा एवं वयासी-खिप्पामेव सेल यस्स रन्नो महत्थं जाव असणाए जाव केवलवरनाणदंसणं समुप्पाडिता तो निक्खमणाभिसेयं, जहा मेष्टस्स तहेव, नवरं पनमावता
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(२४०४) थावच्चापुत्त अभिधानराजेन्द्रः।
थावच्चापुत्त देवी अग्गकेसे पहिस्डः सव्वे विपमिगह गहाय सीयं पाणेहिं तिगिच्छं आउंटेंति, मज्जपाणयं च उपदिसंति । तए दुरूहंति, अवसेसं तहेवण्जाव सामाइयमाइयाई कारस अं- णं तस्स सेलपस्स अहापवत्तेहिं० जाव मनपाणएण य गाई अहिजइ, बहुहिं चनत्थ जाब विहरइ । तए एं से से रोगायंके उवसते यावि होत्या, हढे जाव बलियसरीरे सुए सेलगस्स अणगारस्स ताई पंथगपामुक्खाइं पंच अ- जाए बरगयरोगायके । तए णं से सेलए तम्मि रोगायकसि णगारसयाई सीसत्ताए वियरइ । तए णं से सुए अणगारे उवसंतसि समाणंसि तसि विउले असणं पाणं खाइम अप्पया कयाई सेझगपुराओ सुमिभागाओ नज्जाणा-| साइमं मज्जपाणए य मुच्छिए गढिए गिके अज्कोववन्न ओ पमिणिक्खमति, पडिणिक्खमइत्ता बहिया जणयवि- पासत्ये पासत्यविहारी प्रोसमे श्रोसम्पविहारी कुसीहारं विहर । तए णं से सुए आएगारे अप्पया कयाइ । से कुसीलविहारी पपत्ते पमत्तविहारी संसत्ते संसत्ततेणं अणगारसहस्सेणं सम् िसंपरिवुढे पुब्वाणपुब्धि
विहारी उपकपीढफलगसज्जासंथारए पमत्ते यावि होत्या, चरमाणे गामाणुगामं विहरमाणे जेणेव पुंमरीए पचए नो संचाएति फासुयं एसणिज्ज पीढफलगं पञ्चप्पि
जाव सिधा बुधा मुत्ता अंतगमा । तर ण णित्ता मंमुयं च रायं प्रापुच्चित्ता बहिया जखवयविहारं तस्स सेझगस्म रायरिसिस्म तेहिं अंतहि य पंतेहि य विहरितए । तए णं तेसिं पंथगवज्जाणं पंचएई अणगारतुच्छोह य लूहेहि य अरसेहि य विरसेहि य सीएहि य | सयाणं अएणया कयाई एगो सहियाणं० जाच पुवरउएहेहि य कालाकंतेहि य पमाणाकंतेहि य णिचं त्तावरत्तकालसमयंसि धम्मजागरियं जागरमाणाणं अयमेपाणभोयणे हि य पयश्सुकुमानस्स य सुहाचियस्स सरी
पारूबे अब्भस्थिए० जाव समुप्पज्जित्था । एवं खलु सेलए रगंसि वेयपा पाउन्भूया उज्जला० जाव रहियासा, कं- रायरिसी चइत्ता रजंजाव पव्वइए, विउसे णं असणं पाइदाहपित्तजरपरिगयसरीरे०जाव विहरइ। तर णं से सेनए ण खाइमं साइमं मज पाणए मुच्छिए नो संचाएतिजाव रायरिसीएएणं रोगायंकणं मुक्के किसे जाए यावि होत्था। विहारत्तए, नो खड्बु कप्पइ देवाणुप्पिया ! समणाणंजाव तए णं से सेलए रायरिसी अप्पया कयाई पुब्बाणुपुर्दिछ ।
पमत्ताणं विहरितए, सेयं खलु देवाणुप्पिया! अम्हं कस्लं चरमाणेजाव जेणेव सुमिनागे नज्जाणे तेणेव विहर। सेलयं रायरिसिं आपुच्छित्ता पामिहारियं पीढफमगसिज्जापरिसा णिग्गया। मंसुओ वि राया णिग्गो, सेत्रयं अण- संथारयं पञ्चप्पिणित्ता सेकयस्स अणगारस्स पंथयं अणगारं गारं वंदति, नमसति, पज्जुवासति । तए ए से मंजुए रा- वेयावच्चकरं ठवित्ता बहिया अब्भुजाणं० जाव विहरित्तए, या सेलयस्स अणपारस्स सरीरयं सुकं नुक्खं सुक्खं० एवं संपेहइ,कचं जेणेव सेलए रायरिसी तणेव नवागच्छित्ता जाव सव्वाबाहं सरोगं पासइ, पासइत्ता एवं वयासी-अह सेलयं आपुच्छित्ता पाडिहारियं पीढफनग० जाव पच्चणं भंते ! तुम्नं अहापत्ती तिगिच्छिएहिं महापबत्तेणं | पिणंति, पंथयं अणगारं वेयावच्चकर गति,बहिया. जाव पोसह नेसन्जभत्तपाणथं तिगिच्छं आउंटामि, तुम्भे णं विहरंति। तएणं से पंथए अणगारे सेनयस्स रायरिसिस्स से. भंते ! मम जाणसाझासु समोसरह, फामुयं एसणिजंपी- ज्जासंथारनच्चारपासवणखलमल्ल सहलेसजनत्तपाणएवं ढफलगसिज्जासंथारय अोगिरिहत्ता एं विहरह। नए एणं से अगिनाणविणएणं वेथावडियं करेति । तए णं से सेलए सेलए अाणगारे मंमुयस्स रलो एयमढे 'तह' त्ति पमिसुणे। रायरिसी अाया कयाई कत्तियचाउम्मासियंसि विपुलं तए ण से मंमुए राया सेवयं रायरिसिं वंदति,एमसति,ण- असामं पाणं खाइमं साइमं आहारमाहरिए मुबहुं च मजमंसत्ता जामेव दिसि पाउन्भूए तामेव दिसिं पझिगए। तएणं पाण्यं पीए पुवावरएहकानसमयंसि सुहपमुत्ते । तए णं से सेलए रायरिसी कल्लं नाव जलते सभंम्मत्तोरगरणमायाए पंथए कत्तियचानम्मासियंसि कयकाउस्सग्गे देवसिय पपंथगपामोक्खेहिं पंचहि अणगारसएहिं सदि सेलगपुर
मिकमणं पडिकते चानम्मासियं पमिक्कमणं कान कामे सेलयं मणुपविसति, जेणेत्र पंडुयस्स रएणो जाणसालाओ तेणेव रायरिसिं खामणट्टयाए सीसे णं पाएमु संघहति । तए णं से उवागच्छइ,उवागच्छइत्ता फासुयं पीईजाव विहर । तए । सेलए रायरिसी पंथएणं सीसे गं पाएमु संघटिए ममाणे णं से मंमुए राया तिशिच्चिए सदावेति, सद्दावेतित्ता एवं आसुरुत्ते जाव मिसिमिसेमाणे उद्वेइ, उद्वेत्ता एवं बयासीवयासी-तुबभे णं देवाणु प्पिया ! सेनयस्स रायरिसिस्स से केएटेणं नो एस अपत्थियपत्थिएजाव परिवजिए,जेणं फामयं एसणिज्जंजान तिगिच्छं आउंटेह। तएणं तेति- मम मुहपमुत्तं पाए संघति । तए णं पंथए अणगारे सेगिछिया मंमुएणं रमा एवं वुत्ता समाणा हटा सेल- खएणं एवं वृत्ते समाणे जीए तत्ये तसिए करयन जाव यस्स रायरिसिम्स अहापवत्तेहिं ओसहनेसज्जभत्त-| कट्ट एवं बयासी-अहं णं नंते ! पंथए सिस्से कयकाउ
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(२४०५) थावच्चापुस अनिधानराजेन्डः।
यावच्चापुत्त स्सग्गे देव सियं पमिकमणं पमिकते चानम्मासियं खामे-| इत्यादिको दायो दानं षाच्यः, यथा मेघकुमारस्य । ( सो चेच माणे देवाणुपियं वंदमाणे सीसे णं पाएमु संघमि, तं ख.
बमउ ति) “भागरे तित्थगरे" इत्यादियों महाबीरस्य
भभिहितः (गवल ति) महिषधं, गुलिका मीली, गवसस्य मंत मं देवाणुप्पिया ! पाइ तुज्जो नुजो एवं करणयाए
वा गुलिका गवगुलिका । मतसी मालपकप्रसिदो धाबविशेत्ति कह सेलयं आणणारं एयमहूँ सम्मं विणएणं नुज्जो षः। (कोमुईयति) उत्सवधायम्। कचित्सामुदाधिकीमिति पान। भुजो खामेति । तए तस्स सेलयस्स रायरिसिस्स पं-1 तत्र सामुदायिकी जनमीसकप्रबोजना । (णिमहरगंभीरपथएणं अणगारेणं एवं वृत्तस्स अयमेयारूवे० जाव समुप्प
मिस्सुएणं पिवत्ति) स्निग्धमधुरगम्भीरं प्रतिभुतं प्रतिशब्दो जित्या-एवं खलु अहं रज्जं चल जाव प्रोसमजाव उउब
यस्य स तथा, तेनैव । केनत्याह-शारदिकेन शरकाबनातेन,
बझादकेन मेघेन रसितं शब्दायितं प्रेयी । कारकादीनि द्धपीव०विहरामि,तं खलु णो कप्पइ समणाणं पासस्थाणं.
प्राग्वत् । गोपुरं नगरद्वार,प्रासादो राजगृहंकाराथि प्रतीतानि, जाव विहरित्तए, तं सेयं खलु कम्यं मंमुभं रायं पापु- प्रधनानि पृहाणि, देवकुलानि प्रतीतानि, तेषु याः (पडिम. कित्ता पामिहारिनं पीढफलमसेन्जासंचारमं पञ्चपि- म ति) प्रतिश्रुतः प्रतिशम्दः, तासां यानि शतसहस्राणि ब. णित्ता पंथएणं प्रणगारेणं सकिं पहिया अन्तुम्जए.
काः, तैः संकुना या सा तथा, तां कुर्वन् । कामित्याह-द्वारका
द्वारषी नगरी, कथंभूतामित्याह-(सम्भितरबाहिरियं ति) स. जाव जणवयविहारं विहरित्तए, एवं संपेहेति, संपेहेइत्ता का
हान्यन्तरेण मध्यभागेन, पाहिरिकया च, प्राकाराद्वहिर्नगरनाव विहर । एकामेच सममानसो!० जाब पिग्गयो देशेन पा खाध्यन्तरबाहिरिका. ताम् । (से इति) सरीवा णिग्गंथी वा पोसतो जाच संथारए पमते विहर से संबन्धी हाब्दः (विप्पसरित्थ ति) विप्रासरत् । ( पामोक्ता णं इहलोए चेव बहूगं समणाणं बहूणं समभीषं बहूणं इति) प्रमुखाः (आविरुवग्धारियमल्लदामकलाव ति) परि. सावयाणं बहूणं साबियाणं हीबपिज्जे संसारो नाणि
हितप्रलम्बपुष्पमालासमूहा इत्यादिवर्णकः प्राग्बत् । (पुरिस.
सवग्गुरा परिक्खिता) वागुरा भृगबन्धनं, बागुरेष वागुग यो । तए णं ते पंथगवज्जा पंच अरणगारसया इमीसे
समुदायः। (नन्नत्य अपणो कम्मक्खएपंति) न इति यदेता. कहाए लफडा समाणा अमममं सदावेइ, सद्दावश्त्ता एवं रणाऽऽदिवारणशक्तनिषेधनं, तदन्यत्राऽऽत्मनः कृतात् । श्रात्मनो वयासी-सेलए रायरिसी पंथरणं पहिया नाव चिहाइ ।। वा संबन्धिनः कर्मवयात, आत्मना क्रियमाणमात्मीयं वा कर्म. तं सेयं खबु देवाणुप्पिया ! भम्हं सेलयं रापरिसिं उब
तयं, पर्जयित्वेत्यर्थः भात्मनेत्यादी (अत्ताणे अप्पणी घा फमा
क्खयं करिसर ति)फर्माण ह षष्ठी द्रष्टव्या । (पच्छाऽऽ. संपज्जित्ता पं विहारत्तए, एवं संपेहेंति, संपेहेइत्ता सेलयं
रस्स इत्यादि ) पश्चादस्मिन् राजाऽऽदौ प्रबजिते सति भातुर. रायरिसिं नवसंपज्जित्ता णं विहरति । वए पं ते सेलयपा
क्यापि च न्याऽऽधभावाद् दुःस्थस्य 'से' तस्य, तदीयस्यमोक्खा पंच प्रणगारसया बहूणि पासाणि सापनपरियायं त्यर्थः । मित्रशातिनिजकसंबन्धिपरिजनस्य, योगक्केमवार्तमानों पाउणित्ता जेणेष घुमरीए पधए लोणेष उबागच्छद, नवा.
प्रतिवहति । तत्रालब्धस्येप्सितस्यैव वस्तुनो साभो योगः, . गच्छता जव थावच्चापुचे तहेव सिद्धा। एचामेच सम
म्धस्य परिपालनं दोमः, ताभ्यां वर्तमानकालभवा वार्तमाना
योगक्षेमवार्तमानी, तां-निहिं, राजा करोतीति तात्पर्यम् । णानसो! जो निग्गंयो वा णिगंथी वा जाव विहरइ।
(हति कट्ट) इति कृत्वा इतिहेतोरेवंरूपामेव घोषणां घोषयत झा० १ श्रु० ५ अ०।
कुरुत । (पुरिससहस्समित्यादि) इह पुरुषसहस्रं स्नानाऽऽदि. ( धणयामनिम्माय सि ) धनपतिभवषः, तम्मत्या नि. विशेषणम् । स्थापत्यापुत्रस्यान्तिके प्रास्तमिति संबन्धः । मापिता निरूपिता, मलकापुरी चैश्रवषयकपुरी, प्रमुदितम्र- (विज्जाहरचारणे ति)" इह जंभए य देखे उवयमाणे" इकीमिता, तद्वासिजनानां प्रमुदितप्रकीमितत्वात् । रैवतक - त्यादि अव्यम्। एवमन्यदपि मेघकुमारचरितानुसारेण पूर्ववदे. ज्जयन्तः ( चकवाय ति) चक्रवाकः (मयणसार ति) तदभ्येतव्यमिति । (हरियासमिए इत्यादि) (पसणासमिय मदनसारिका, अनेकानि तटानि करकाश्च गरामशैला पत्र मायाणगंडमणिक्नेवणासमिए) प्रादानेन प्रहणेन सह भा. स तथा । ( विवर सि) विवराणि च, अबकराश्च निऊ
एममात्राया उपकरणलकणपरिच्छदस्य या निक्षेपमा मोचन रविशेषाः, प्रपाताश्च भृगवा, प्रारभाराच ईपदवनता गिरि- तस्यां समितः सम्यकप्रवृत्तिमान् (रचारपासवणवेमजल्ल. देशाः, शिवराणि च कूटानि प्रचुराणि यत्र स तथा; ततः क
संघाणपारिद्वावणियासमिए) उचारः पुरीषं, मन्नवणं मूत्र, मंधारयः । अप्सरोगणैर्देचसक्क चारणै जलाचारणाऽऽदिनिः
खेतो निष्ठीवन, सिंघामो नासामल, जल्लः शरीरमनः । इह साधुधिशेषैबिद्याधरामधुनश्च (संकिसा ति) संकीर्ण मासे- यावत्करणादिदं दृश्यम्-"मणसमिए वयसमिए कायसवितो यः स तथा । नित्यं सर्वदा कणा उत्सवा यत्राऽसौ
मिए ।" चित्ताऽऽदीनां कुशलामा प्रवर्तक इत्यर्थः । "मण. नित्यक्षणिकः । केषामित्याह-दशाराः समुद्रविजयाऽऽदयः, ते
गुत्ते वयगुत्ते कायगुत्ते"चित्ताऽऽदीनामधुभावां निषेधकः। ए. पु मध्ये परास्त पर वीरा धीरपुरुषा येते तथा । (ते. देवाऽऽह-"गुत्ते।" योगापेकया "गुत्तिदिए।" इन्ष्यिाणां वि लोकपलबगाणं) लोफ्यादपि घलवन्तोऽतुलबलिनेमिनाथ- येप्तसत्प्रवृत्तिनिरोधात् । “गुत्तबंभचारी ।" घसत्यादिनपन्ना युक्तस्वाद येते तथा, तेच ते च तेषाम् । (बत्तीसाओदाओ) चर्य गुप्तियोगात् । “अकोहे ४।" कथमित्यत माह-"संते। द्वाधिसत्प्रासादाः, द्वात्रिंशत्सुवर्णकोट्यः, द्वात्रिंशफिरण्यकोट्य | सौम्यमूर्तिस्वात् । "पसंते।" कषायोदयस्य विफलीकरणात ।
६०२
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घायच्चापुत
"ते" पायोदयाभावात् "परिनिष्युरे "स्वास्थ्यतिरेकातू । “अणासवे ।” हिंसाऽऽदिनिवृत्तेः । "श्रममे ।" ममेत्युलेख - स्याभिष्वङ्गतोऽसद्भावात् । "अकिंचऐ ।" निर्ब्रव्यत्वात् । " छि
"
"मिध्यात्यादिनायग्रन्थिदात "निश्वलेवे।" तथाविपन्नापेन तथाविधकमनुपादानात् एतदेवोपमानैरुच्यते - "कंसपाई व मुक्कतोए।" बन्धहेतुत्वेन तोयाssकारस्य स्नेहस्याजावात् । "संखो इव निरंजणे।" रञ्जनस्य रागस्य कर्तुमशक्यत्वात् "जीयो अव्यय।" सर्वत्रचित्ये. नास्थलविहारित्वात् "गगणप्रिय निरालंबणे" देशग्रामकु बाऽऽदीनामना लम्बकत्वात् । "वायुरिव अप्प बिके।" के त्राSSदो प्रभावीचित्वेन समतविहारित्वात् "सारपस लिलं व सुरूहियए । कषायणगडुलत्ववर्जनात् । "पुक्खरपत्तं पिव निरुव लेवे ।” पद्मपत्रमित्र जोगनबाबलेपाभावात् । "कुम्मो श्व गुतिदिए ।" कूर्मः कच्छपः । खमावि सायं व एगजाए ।" खग आरण्यः पशुविशेषः, तस्य विषाणं शूभवति तदेक जातो यो ऽसङ्गतः सहाययागेन स तथा । "विहग श्व विप्यमुक्के।" आलयाप्रतिबन्धेन । “भारं रुपक्खी व अपमन्ते ।" भारएकपक्किणो हि "कोदराः पृथग्ग्री - वाः, अग्योऽन्य फल भक्षिणः । प्रमत्ता इव नश्यन्ति यथा भारएड. पक्षिणः ॥ १ ॥ " जीवद्वयरूपा भवन्ति ते च सर्वदा चकितयति इति । "कुंजरो व सोमीरे ।" सैन्यं प्रति शूर थे" व जायथामे " धारोपितमहातभार चलो, निर्वादकात् "सीदो इस दुरिसे" दुगीय उपसर्गः "मंद व निष्य" पपपः। "सागगंभीरे" अनुचितत्वात्। "बंदो मस्से।" परिणामित्वात् "सुरो इस दिसतेय" परेषां "जब जाय" गोष व्यत्वेनोत्पन्नस्वस्वजाबः "वसुंधर व्व सम्बफास सहे" पृथ्वीवत् शापाद्यनेकविध स्पर्शमः "बहुपासणो यतेयसा जलते" तादितर्पितयश्वानरवत् प्रभषा दीप्यमानः "नस्थि णं तस्स भगवंतस्स कत्थर पडिबंधो भव" नास्त्ययं पक्षो यदुत तस्य कुत्रापि प्रतिबन्धो भवति । "से य परिबंधे प
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ते । तं जड़ा-दव्य ओ खित्त श्रो, कालओ, भावओ। दव्वओ-स. गामे वा नगरे वासे वा खते वा घरे वा अंगणे वा । " खलं धान्यमलनाऽऽदि स्थरिमन्नम् । "कालो समय वा श्रावलियाए वा । असंख्यात समयरूपायाम् ।" श्रापारवा" उच्ामनिवास काले धोयेवा" सप्तोसरू "ख पा" बहुतरोासरूपे "सप्तस्तकरूपामु ते वा" लव सप्तसप्तति रूपे "अहोर ते वा पक्खे वा मासे वा अयणे वा ।" दक्षिणायनेतररूपे प्रत्येकं बरमास प्रमाणे, संवत्सरे वा "अरे दीदा संजोए "युगादी भाइयो को या मा वामाए वा लोहे वा भए वा हासे वा ।" हास्ये हर्षे वा । "एवं तस्स न भवइ ।" एवमनेकधा तस्य प्रतिबन्धो न जवति । "से भगर्व बालोदक" वा बन्दनको स तथायुपकारकारीत्यर्थः वाद तं चन्दनं कल्पयति यः स तथा ।
"
समतिगमणिनेडुकं --
सम" समापि
( २४०६ ) अभिधानराजेन्द्रः |
66
स्पस तथा प
कंधे संसारपारगामी नियाणा अडिए प बं च णं विहरइति । " एवमीर्यासमित्यादिगुणयोगेनेति ।
पंचायात्करणादेव
थावच्चापुत मनि क्खावश्यं दुवालविहं गिहिधम्मं परिवज्जिसव अहासुढं दे बाया मा परिबंध कादसिं तर गं से सेल राया थावच्चापुत्तस्स अणगारस्स अंतिर पंचा पुण्यश्यंजाब व संप ज्जत से सेलए राया लमणोवालप जाए" (अनिगयजीवा जीचे) इह यावत्करणादिदं दृश्यम् उपपरनिज्जर किरियादिगणबंध मोक्ले" किया कावि क्यादिका, अधिकरणं खङ्गनिर्वत्तनाऽऽदि । एतेन च शानितोक्ता । "असाहज्जे ।" श्रविद्यमान सहायः, कुतीर्थिक प्रेरितः सम्यक्त्वा ssधविचलनं प्रति न परसाहाय्यमपेक्षते इति भावः । अत एवाइड६." देवासुरनागजक्सर सकिनर किंपुगियो गाइ देवमर्दिनियाओ पावणामणि" देवा वैमानिका ज्योतिष्काः, शेषा नवनपतिव्यन्तरविशेषाः, गरुमाः सुपर्णकुमाराः । एवं चैतत् यतः " निग्गंथे पावयणे निस्संकिए निक्कखिए।" मुक्तदर्शनान्तरपक्षपातः । "निदितिगच्छे" फक्तं प्रति निःशङ्क"" अर्थश्रवणतः "गढ़ियट्टे ।" अर्थयधारणेम "बुद्धिपट्टे "संत "अभिगयङ्के "बोधात् । "विधि" पर्योपलम्भात् श्रत एव" अजिमा पुरागरते ।" अस्थानि व प्रसिद्धानि, मिज्जा च तन्मध्यवर्ती धातुः अस्थिमज्ञाताः प्रेमानुरागे सार्व कणकुसुम्भाऽऽदिरागेण रक्ता श्व रक्ता यस्य स तथा । केनोल्लेखेनेत्याह- "अयमा उसो ! निमगंथे पावयणे श्रठे, श्रय परमठे, से अ" उसो त युध्यति पुत्राऽऽदेशमन्त्रणम् शेषं धनधान्यपुत्रदारराज्य कुप्रवचनाऽऽदि । "ऊस्सिय फलिहे” बच्छ्रितं स्फटिकमिव स्फटिकमन्तःकरणं यस्य स तथा । मौनी प्रवचनावाच्या परितुष्टमना इत्यर्थः । इति वृद्धव्याख्या । केचित्वा
उच्छ्रित अर्गलास्थावादपनीय ऊतन तिर कपाटपश्चाङ्गागादपनीत इत्यर्थः । उत्सृतो वा अपगतः परिघौअर्गला गृहद्वारे यस्याऽसौ उत्मृत परिघः, उच्कृतपरिघो वा । औदार्यातिरेकादतिशयदानदायित्वेन भिक्षुकप्रवेशार्थममलद्वार इत्यर्थः "अगुवारे" अपावृद्वा कपा दिभिः प्रवेश | र्थमेवास्यगिद्वार इत्यर्थः इत्येकी व्याख्यानम् । वृद्धानां तु भावनावाक्यमेवम्-यहुत सद्दर्शन लाने, न कस्माञ्चित्पाषण्डिकाद्विभेति, शोजनमार्गपरिग्रहेणोद्वाटशिरास्प्रितीति भावः "बियरघरदार" (स) नामीतिर भारद्वारं नाद्वारेण प्रवेशः शिष्टजनोचि
प्रवेशनं यस्य स तथा । श्रनीयत्वं चास्यानेनोक्तम् | अथवा (वियत्तोचि लोकानां प्रीतिकर एव अन्तःपुरे वा गृहे वा गृहद्वारे वा प्रवेशो यस्य स तथा अतिधार्मिकतया सर्वत्रानाशङ्क नीयत्वादिति विमसि पो सम् अपमाणे" उद्दिश अमावास्यापषधमहारं पोषधादिरूपम्। मनिका अ पाणामसाहमे बत्थड कंबल "प तग्रहं पात्र, पादप्रोज्जनं रजोहरणम् । "ओसह भेसज्जेणं” भेपजं पश्यम् " पारिहारिपलं पीठफलगसेज्जासंधारप पडिलामणे" प्रतिद्वारिकेगा पुनःसमर्पणी पीठमासनं फलकम्भार्थ सध्या वसति शयनं वा यत्र प्रातिपदि स्वध्य, संस्तरको अपरिगडिया कम्मेद अप्पा जायेमाणे विहर।" (सुए परिव्ययगेति) शुको व्यासपुत्रः पादाय
सा
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( २४०७ ) अभिधानराजेन्द्रः ।
यायच्चापुत
समये साङ्ख्य समाचार लार्थः वाचनान्तरे तु यावत्करणादेवमिदमवगम्यम् वेदजुर्वेद सामवेदवेदानामि-तिहासपचमानामितिहासः पुराणं निघण्टुरा कौशः, साङ्गोपाङ्गानामङ्गानि शिकाऽऽदोनि, उपाङ्गानि तदुक्तप्रपञ्चनपराः प्रबन्धाः सरद स्थानमिदं काम सरक नद्वारेण प्रवर्त्तकः, स्मारको वाऽन्येषां विस्मृतस्य स्मारणात् ! वाकोपनिषेधक, पारगः पारगामी विपति विशारदः परियमेनासंख्याने गणितस्कन्धे, शिक्षा कल्पे शिक्षायामन्तरस्वरूपनिरूपके शास्त्रे तथाविधसामाचारीप्रतिपाद के करणे शब्दसणे बन्दसि पद्यवचनलकण निरूपके, निरुक्ते शब्दनिरुकप्रतिपादके, ज्योतिषाने ज्योतिश से सम्पेषु च शाखेच परिनिष्ठित इति वाचनान्तरम् ॥ पञ्चयमपञ्चनियमयुक्तम् । तत्र प याप्राणातिपात विनियमास्तु शीतोषतपःस्वाध्यायेश्वरप्रणिधानानि शौचमूलकं यमनियममीलनाद्दशप्रकारम् । धातुरकानि वस्त्राणि प्रवराणि परिहितो यः स तथा । त्रिमाऽऽदीनि सप्त हस्ते गतानि यस्य स तथा । तत्र कुमिका कमरामः कचित्करोतेि च क्रमेण रुद्राक्षकृतमाला मृद्भाजनं चोच्यते । मालिकं त्रिकाष्ठिका, अङ्कुशो वृकपल्लवच्छेदार्थः, पवित्रकं ताम्रमयमङ्गुत्रीय कं, केसरी चीवरखरमं प्रमार्जनार्थम । ( संखाणं ति ) साङ्ख्यमसमत) कुमारपृथिवी ( पचवणं आहे ) पाकस्थाने पादावारोपयति ऊष्मारामुडा ग्राहय विदित ) मतं याजयितु मित्यर्थः । (अति) अन् अमानत्वादधिगायमानत्वादित्यर्थः । प्रार्थ्यमानत्वाद्वा याच्यमानत्वादित्यर्थः । वयमाणयात्रायापनीयाऽऽङ्गीन् तथा साने (ऊस) हेमन् अन्यम्पिास्तदीयज्ञानसंपदा गमकात् (परिणाति ) प्रश्नान् पृच्छद्यमानत्वात् । (कारणाएं ति) कारणानि, विवकियार्थनिव्ययस्य जनकानि (पागरणाएं ति) व्याकरणानि प्रत्युत्तरतया व्याक्रियमाणत्वादेषामिति । (निष्पट्टपलिबागर ति ) निर्गतानि स्पष्टानि स्फुटानि प्रश्नव्याकरणानि प्रश्नो उत्तराणि यस्य स तथा तम् । (खीणाउवसंत त्ति ) क्योपशममुपगता इत्यर्थः । एतेषां च यात्त्राऽऽविपदानामागमिकगम्भीरार्थत्वेनाऽऽचार्यस्य तदर्थपरिज्ञानम संभावयताऽपभ्राजनार्थे प्रश्नः कृत इति । ( सरिसवय त्ति ) एकत्र सवयसः सदृशवयसः, अन्यत्र सर्षपाः सिकार्थकाः । ( कुत्रत्थति ) एकत्र कुले तिष्ठन्तीति कुलस्थाः अन्यत्र कुलत्था धान्यविशेषाः । सरिसवयाऽऽदिपदप्रश्नश्च कूल ग्रहणेनोपदासार्थे कृत इति । एगे भवंति ) एको भवान् इति एकत्वाभ्युपगमे आत्मनः कृते सूरिणा श्रोत्राऽऽदिविज्ञानानामवयवानां चमकती पलया एकत्वं दूषयिष्यामीति बुद्ध्य प नुयोगः शुक्रेन कृतः ( दुवे नवं ति) द्वौ भवानिति च द्वित्वा. पवमे श्रमित्येकवावशिष्टस्थार्थस्य द्वित्वविरोधेन द्वित्वं दू यिष्यामीति बुद्ध्या पर्यनुयोगो विहितः। अक्षयः श्रपयः; श्रवस्थि. तौ भवान् श्रनेन नित्यात्मपक्त्रः पर्यनुयुक्तः। श्रनेके भूता श्रतीता भावाः सच्खाः परिणामा वा भाव्याश्च जाविनो यस्य स तथा । अनेन चातिकान्तभाविसत्ताप्रश्नेन श्रनित्याऽऽत्मपक्कः पर्यनुयुक्तः। एकतरपरिग्रहै अन्यतरस्य दूषरणायैति । तत्राऽऽचार्येण स्वाहा. [दस्य निखितकार रामवजयोत्तरमाथि ए
को पदमा जीव
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थावच्यापुत्त
शाया तथा करवाम्म मेत्य वयवादी नाम का पोपलो न वाधकः । तथा कञ्चित्स्वभावमाश्रित्यकत्व संख्या विशिष्टस्या• उपाय स्वभावान्तरापेकृपा.
स्थान
स्वभावदो कोहि देवदत्तादिपुरुषः एकदेव तथापि तृत्वपुत्रत्वभ्रातृत्वभ्रातृश्य त्वपितृव्यत्वमातुलत्वजागिनेयत्वादीननैकान् स्वजावाँलजत इति । तथा प्रदेशार्थतया असंख्येयप्रदेशतामाधित्याः सर्वया प्रदेशानां यानावात्
,
तामपि च व्ययाजावात् । किमुक्तं भवति ? - अवस्थितो नित्यः । संदेह न कदाचनापि पनि निताऽभ्युपगमेऽपि न दोषः उपयोगात विविधयानुयोगनाबित्व अनेक भूतभावभविकोऽपि प्रतीतानागबोर्ड कालो नेकविषयबोधानामात्मनः कथञ्चिदभिन्नानामुत्पादाद्विगमाछा निम्न दोषायेति पुराण आदिदेवगणचण नि पर्वतः तस्य तत्र प्रथमं क
35
पर्वतः शत्रुञ्जयः । ( अंतेहि येत्यादि ) अन्तैर्वलचणकाऽऽदिभिः • प्रान्तैस्तैरेव झुकावशेषैः पर्युषितैर्वा, रुक्कैर्निस्ने हैंः, तुच्चैरस्पैः, अरसैः हिमवादिजिरसंस्कृतैः, विरसैः पुराणत्वाद्विगतरसैः, शी'तैः शीतलैः, उष्णैः प्रतीतैः, • कालातिक्रान्तैः तृष्णावुभुकाकालाप्राय प्रमाणातिक्रान्तेः हापिसातुकारा समुच्चयार्थाः। एवंविधविशेषणान्यपि पानामिनिष्ठुर रस्य न भवन्ति बाधायै । श्रत आह-प्रकृतिसुकुमारकस्येत्यादि । " वेयणा पाउनुया इत्यस्य स्थाने " रोगायंके " इति क जिदृश्यते तत्र रोगाबाबात ब मासः । कण्डूः कराकूतिः, दाहः प्रतीतः, तत्प्रधानेन पित्तज्वरेण परिगतं शरीरं यस्य स तथा । ते इच्छन्ति चिकित्साम् । (श्र:उंटामि) आपसंयामि कारयामि (समावगरण मायाए चि) भाण्डमात्रा पतद्रपरिच्छदश्च, उपकरणं च वर्षाक पादि भाण्डमात्रोपकरणं, स्वं च तदात्मीयं जाएकमात्रोपकरणं च स्वभाषमात्रोपकरणं तदादाय वा अयुधतेन सोद्यमेव प्रश्न गुरु तेन गुरुसकाशादी तेन विहारेण तु झाला न बहिस्तिष्ठतीति पार्श्वस्थः । गाढग्लानत्वाऽऽदिकारणं विनाशतराश्यानादिविराम भोजकन्यादागमोतविशेषणः स ब सकृदनुचितकरणेनाल्पकालमपि भवति तत उच्यते-पार्श्वस्था नां योनि दिनानाथवारः सोऽस्यास्तीति पार्श्वस्थ विहारी । एवमवसन्नाऽऽदिविशेषणान्यपि, नवरमवसन्नो विवदितानुष्ठानालसः, श्रावश्यकस्वा क्षणाच्या नामसारीलःकुलविनयादिनिशानां दर्शनाराचाराणां विराधक इत्यर्थः । प्रमत्तः पञ्चविधप्रमादयोगात्, सं खता कदाचिगुणानां कदाचित्स्थाददोषाणां सं बन्धात्रयतिले दिपी उफलका शिव्यासंस्तारकं यस्य स तथा
पर्व
करणयाप त्ति) नैव यः पुनरपि ( एवं ) इत्थं करणाय, प्रत्रतिष्ये इति शेषः । एवमेवेत्यादिरुपनयः । इह गाथा - "सिद्धिलियसंजमकज्ज्ञा, वि होइउ उज्जमंति जइ पच्छा | संवेगाश्रो ते से-लव आराध्या होति ॥ १ ॥ " ज्ञा० १ ० ५ ० ।
ध० र० अ० ।
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(२४०) थावय भाभिधानराजेन्कः।
थावरदसग थावय-स्थापक-jo। स्थापयति पक्कमपेण प्रसिबध्याप्तिक- धं पुनरोधता स्थावर मन्तव्यम् । पुनःशब्दो विशेषणार्यः। कि स्थात् समयति यः स तथा । हेतु (स्था) पथा परिवा
विशिनधि, स्वगतान प्रेदानातयथा-भूमिः क्षेत्र, तसविधा-सेतु जकधूता-मोकमध्यभागे वयाफलं भवति तत्राहमेष जाना.
केतु, प्रलेसुकेतुच,गृहाणि प्रासादा। तेऽपित्रिविधागजातो. भीति मायया प्रतिप्राममन्यान्यलोकमध्य प्रबपति सति तनि.
तोभयरूपातगणानालिकेर्याचारामा इति । चक्रारबद्धमानु. प्रहाय कश्चित् भाषको बोकमध्यस्यैकत्वात्कथं बहुषु प्रामाss
पमिति । चकारवयं गच्यादि.मानुषं दासादि । एवं द्विपदं दिषु तरसम्भव इत्येवंविधोपया वाशितो लोकमध्यन्नागोन
पुनर्भवति विविधम । इति गाथार्थः ॥२२॥ दश. ६.राज. प्रवतीति पक्कं स्थापितामिति स्थापको देतुक्तंच-"यो. गृहजाते वीरजिनस्य चतुर्दशपूर्वभवजीचे स्वनामक्याते विक्रे गस्स मग्झजाणण, चावयहेऊउदाहरणं । (८७)" (श०१०) कल्प०२कणामा०चूामा मातिष्ठम्तीत्येवंशीमा उच्णाऽऽध. इति । स चायम-भग्निरत्र धूमात,तथा नित्यानित्यं वस्तु.कन्यप- नितापेऽपि तत्परिहारासमर्थाः स्थावराः । “स्थेशभासपिसक. र्यायतस्तथैव प्रतीयमानत्वादिति। मनयोच प्रतीतिव्याप्तिकतया
सोपर"शा॥२॥(हैम०)ति परप्रत्ययः पृथिवीकायिका कालकेपण साध्यस्थापनात स्थापक इति । स्था०४ ग०३७०। प्रकायिकाः, तेजस्कायिकाः, पायुकायिकाः, वनस्पतिकायिका साम्प्रतं स्थापकहेतुमधिकृत्याऽऽह
एकेन्धिया। द्विपाकवेधं कमाऽपि स्थाबरनाम । तेजोषायूनां
तु स्थाबरनामोइवेऽपि चमनं स्वाभाषिकमेष, पुनरुष्णाऽऽध. लोगस्म मज्झजाणण, पावयहेकउदाहरणं ।(७) भितापैन द्वान्छियाऽदीनामिव विशिष्मिति । कर्म०१ कर्म। लोकस्य बशरयामकस्य मध्यज्ञान,किम,स्थापकहेतावु-यासकाय-याबाय-पालावरनामकोवयात स्थायराः धारणमित्यरार्थः। प्राचार्थः कथानकादबसेयः। तबेदम् ।
वृधिव्यावया, तेषां काया राशयः। स्थायरोषा कायः शरी"एगो परिमायगो हिमति।सोय पकवावेत्तेदाणाऽऽदि सफर ||
ये ते खावरकायाः। पूधिबाकायाऽऽविषु, स्था। ति कट्ट समस्ने ते कायब्वं । अहं मोयल मऊ जाणामि, व पुण
थावरकाए दुविडे पाएणते । तं जहा-नबसिकिए चेन, अ. धाशो। तो लोगो तमाढाति । पुचिमा पसंतोषउसुवि दिसासु
जवसिछिए चेव । स्था० २ ग. १० । सीलए णिहणिऊण राजूए पमाणं कारण माहाणिमो भणति. पय लोयमऊ ति। तमोलोनो बिम्हय गच्छति-महोमवारपण (एतव्याक्या तु स्वस्वस्थाने बटव्या ) जारिणयंति। एगो य साधो, तेण मापं । कहं धुत्तोलोयं पया.
पंच यावरकाया पक्षला। तं जहा-इंदे याबरकाये,बंभे थासति?, तो पिपंचामि सिकसिऊण भणिय-ण पस मोयमको तुझो तुमं ति। तभी साषपण पुणो भाषेकण प्रयो के
बरकाये, सिप्पे यारकाये, समई थावरकाये, पयावए सो कहिमो-जोस लोयमको तिलोगो हो। मधे भणंति- थावरकाये। पंच थावरकायाहिई पएणत्ता । तं जहाप्रणेगासु म म माझ पकवंतयं पण विरोधो चोदय- ईदे थावरकायाहिबई० जाच पयावर थावरकायाहिबई । ति, एवं सौतेण परिव्यायगो णिप्पिट्टपसिणवागरणी कमी ।
(चेत्यादि) स्थाबरनामकर्मोदयात् स्थायराः पृथिव्यादपलो मोमो पावगहेक । लोउसरे विपरणकरणासुनोगे
पः, तेषां काया राशबा, स्थायरो का कायः शरीरं येषां ते कुस्तुतीसु भसंभाषीणजसम्गादरमो सोलो एवं चेत्र प.
स्थापरकायाः। संबन्धित्यादिन्छः स्थावरकायः पृथिवीबेयायो प्याभोगेण थि लाणा तारिसं प्राणियच्या ता
काया, पचे महाशिष्पसंमतिमाजापस्था अपि अपकायाऽऽदित्वेन रिसो प पक्खो गेपित्यम्यो। जस्म पुरोत्तर वेष बान पाच्या इति । एतचापकामाह-(पंचत्वादि) स्थावरका. तीर । पुष्वाधारविरुको दोसोय ण इति।" दश १ ०। बामां पृथिव्यावीणामिति संभाष्यन्ते. अधिपतयो नायका थावर-स्थावर-पुं० । तिप्रतीत्येशीमा स्थावरः । जी०१ प्रतिः। दिशामिवेडाम्यादयो,नत्राणामिवाश्वियमबदनाऽऽदयो,दक्किशीताऽऽतपाऽऽपेतत्वेऽपि स्थानान्तरं प्रत्याभिलर्पितया स्थान
पोत्तरलोकायोरिख शकेशानाविति स्थावरकामाधिपतय शीले, हत्त. ० । स्थाबरनामकर्मोदयात् पृथिव्यादिके,
इति । स्था०५०१३.।। सूत्र. १४०१० ४ ० । मा००। स्था.नं.। यावरचनक-स्थावरचतुफ-१० । स्थाधरपक्षमापर्याप्तसाधारस्थापरा:पृषिष्यतेजोषायुवनस्पतयः । मच्चा० १९०६ प्र. णलको स्थायरोपसक्षिते चतुष्के, कर्म० २ कम। १उ०। सूत्रका विविधः स्थावर, स्वमवादरभेदात् । सूक्वस्था
थावरजाइ-स्थावरजाति-खी.। एकैम्झियजाती, क० प्र० १ बरो पनपत्यादिः । पादरस्थावर पृथिव्यादिःपात्र.।
प्रक०। तिविहा थावरा पएणना । तं जहा-पुतबिकाश्या, पाउ-|
थावरणाम(ण)-स्थावरनापन्-नास्पन्दनत्यनियन्धने नामकर्म: काइया, वणस्सइकाइया।
नेदे, भा० । यतुदयवशादुष्णाऽऽधभितापेऽपि तत्स्थानपरिहारास्थानशीनत्वात, स्थावरनामकर्मोदयाद षा स्थावराः । शे- समर्थाः पृथिव्यप्तेजोवायुवनस्पतयः स्थावरा जायन्ते । पं० पं व्यक्तमेवेति । स्था० ३ ०२ उ०।
सं०३ द्वार । कर्म० । प्रब०। स्थावराऽऽदिविभाममाह--
थावरतिग-स्थावरत्रिक-म० । स्थावरसूक्ष्मापर्याप्तकलक्षणे नमी घरा य तरुगण, तिविहं पुण थावरं मुणेयन्न । | स्थाबरोपत्नक्किने त्रिके, कर्म० ५ कर्म । चकारवछमास, दुविपुण होइ दुपयं तु ॥ १०॥थावरदमग-स्थावरदशक-न । स्थावरोपलहिते दशके, कर्मण भूमिः,गृहाणि,तरुगणश्च,चशब्दस्य व्यवहित उपन्यास:त्रिवि-इतरत्रसदशकात मधाबरदशकं विपर्यस्तं विपरीतार्थ
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(१४०ए) थावरदसग अन्निधानराजेन्दः।
थिरणाम भवति । तथादि-तिष्ठन्तीत्यवंशीला उष्णाऽऽद्यन्नितापेऽपि तत्प- थिमिन-स्तिमितुम्-अन्य० । आर्कीकर्तुमित्यर्थे, ल०प्र० । रिदारासमर्थाः स्थावराः । " स्पेशभासपिसकसो घर: "
थिमिओदय-स्तिमितोदक-न । यस्याधः कर्दमो नास्ति ताद॥५॥२२॥ (हेम०) इति वरप्रत्ययः । पृथिवीकायिका प्रकायिकाः तेजस्कायिका घायुकायिका वनस्पतिकायिका एके
शेजने, औ०। छियाः, तद्विपाकवेद्यं कर्मापि स्थावरनाम, तेजोवायनां तु स्था
थिमिय-स्तिमित-त्रि स्वचक्रपरचक्रतस्करकमराऽऽदिसमुत्थवरनामोदयेऽपि चननं स्वाभाविकमेव, न पुनरुष्णाऽऽद्यभिता.
भयकहोलमालाविवर्जिते, सू० प्र०१पाहु०॥रा । प्रश्नाना पेम हीन्द्रियाऽऽदीनामिव विशिष्टमिति ॥१॥ कर्म०१ कर्म ।
भयवर्जितत्वेन स्थिरे, औ०। विपा । झा०। निजूते, सूत्र० १ थावरमुहुमत्रपज्ज, साहारणअथिरमसुभदुजगाणि ।
भु० ३ ० ४ ० । दशारपुरुषाणां तृतीये पुरुष, अन्त० १
शु०१ वर्ग १ पास च अन्धकवृष्णेधारण्यामुत्पद्यारिष्टनेमेदुस्मरणाजाऽजसं,"...................." ॥१७॥
रन्तिके प्रवज्य शत्रुञ्जये सिद्ध इति अन्तकृद्दशानां प्रथमइहापि नामशब्दस्य संबन्धात् स्थावरनाम सदमनाम अप- घर्गे चतुर्थे ऽध्ययने चिन्तितम् । अन्त.१०१ वर्ग १०। यातनाम साधारणनाम अस्थिरनाम अशुभनाम पुर्जगनाम स्थान। दुःस्वरनाम अनादेयनाम (अजस ति) अयश-कीर्तिनाम ।।
थिमियमक-स्तिमितमध्य-त्रि० । स्तिमितं स्थिरं मध्यं देहि. (१७) कर्म०१ कर्म।
मोऽन्तःकरणं यस्मिन् सति तत्तथा। निश्चममनस्के, प्रश्न ४ थावरसुग-स्थावरद्विक-न० लावरसूदमलक्षणे खाचरोपलक्किासंघ द्वार । ते विके, कर्म• २ कर्म० ।
थिमियमणी-स्तिमितमेदिनी-स्त्री०। निर्जरजनपदे, प्रति । थावरविस-स्थावरविष-न० । विषभेदे, पकि भुक्तं सत्पीमयति। थिर-स्थिर-त्रि०। संहननधृतिज्यां पलवति, आव०४०। स्था०६ ग०।
प्राचा०। सूत्र । निश्चले, 'का० १७००म० । व्य । प्रश्न।
उत्तमप्रकम्पे, भ० ११ श०११ उ०माव। अनतिलथासग-स्थासक-पुं० । दर्पणाऽऽकारे, का०१०१०।०।
थे, जी० ३ प्रति०४ उ०। रढे, आचा०२४०१० ५ अ. विपा० । प्रादर्शकाऽऽकारे, भ.११ श०११ उ० औ । हस्तबि.
२०।नं। प्रा० मा । वृ० । नि०५० स्थायिनि, पश्चा०१७ म्ब, का० १.१० । अश्वाऽऽभरणविशेषे, पुं० । अनु० ।
विवः । असंख्येयकालावस्थायिनि, सूत्र० १७०१० १ उ.। थासगावली-स्थासकाऽऽवली-स्त्री०।६ सादर्पणाऽऽकृती
तत्रावस्थाया ध्रुबकर्मिके, व्य०६०। स्थिरा नाम वषां तत्रैव नां स्थासकानां स्फूरकाऽऽदिषु उपर्युपरि स्थितानां पकतो, गृहाणि। वृ०१०। ध्रुवे, नि० ०५उ०। प्रारब्धकार्यस्यापातअणु० १ घर्ग २ अ०।
राख पचापरित्यागकारिणि, ध०३ अधि। स्थिरोमाम उ. थाह-स्नाघ-न । यापति जले नासिका म छुमति ताचति जले, घोगं कुर्वन्नपि न परिताम्यति । व्य०३ स० । "कदा बहुसंन्या, वृ०४ उ. । गाधे, ज्ञा० १ ०५०। दीघे, दे० ना० ५ वर्ग
थिराषा प्रोसढा विश्रा(३५)" स्थिरा निष्पन्ना । दश०७०। ३० गाथा।
थिरगहत्थ-स्थिराग्रहस्त-त्रि० । स्थिरोऽग्रहस्तो यस्य स स्थिथिग्गल-स्थिरंगा-न०। प्रदेशपतितसंस्कृते याचा०२०१चू.१ राग्रहस्तः । जी० ३ प्रति०२ उ० । सुलेखकवत् तथाविधहस्ते, अ०६ उ० । प्रा० । चित्ते, "श्रामोय थिगवं दारं, संधि दग.
उत्त०४ अ० भ०। भवणाणि य । चरंतो न विनिज्झाए, संकटाणविधज्जए"थिरचित्त-स्थिरचित्त-पि० । अविचलमानसे, जीचा०६अधिक। ॥ १५ ॥ दश ५ अ० १ उ. । साधुर्वस्त्रे थिग्गाकं ददाति, थिरक-स्थिरषदक-न । स्थिरशुनशुभगसुस्वराऽऽदेययशाकीन घेति प्रभे उत्तरम-यो भिक्षुर्वस्त्रस्यै कं धिग्गळं ददाति, दद- | तिरूपे स्थिरोपलहिते, कर्म०१ कर्म० । तं वा अनुमोदयति तस्य दोषाः, यः कारणे त्रयाणां यिम्गलानां|
थिरजम-स्थिरयम-पुं० । यमभेदे, द्वा । परतश्चतुर्थे थिग्गलं ददाति, तस्य प्रायश्चित्तं निशीथसूत्रप्रध. मोद्देशके, एतदनुसारेण साधूनां धिग्गादानं न कल्पत इति । ४३५ प्र० । सेन० ३ उदा० ।
सत्कयोपशमोत्कर्षा-दतिचाराऽऽदिचिन्तया। थिय-स्त्यान-त्रि० । “ई: स्त्यानखल्वाटे" ॥८।१।७४ ॥
रहिता यमसेवा तु, तृतीयो यम नच्यते ॥ २७॥ इति स्त्यास्थाने स्त्यी यत्नुक, स्त्यानेव स्ती थी, मो णः । प्रा.
( सदिति ) सतो विशिष्टम्य क्लयोपशमस्योत्कर्षादुद्रेकादति. २पाद । सेवाऽऽदित्वाद् द्वित्वम् । प्रा०२पाद । करिने,झा.
चारादीनां चिन्तया रहिता, तदन्नावस्यैव विनिश्चयात, यम. १ श्रु०६ अनिःस्ने हे, दृप्ते च । दे० ना० ५ वर्ग ३. गाथा ।
सेवा तु तृतीयो यमः स्थिरयम उच्यते ॥ २७ ॥ द्वा० १६ द्वा०। थिण-तृष-धा० । तृप्ती, "तृपः स्थिप्पः" ॥८।४ । १३८ ॥
थिरजस-स्थिरयशस्-त्रि० । अनश्वरकीर्ती, " समणगणपवर
गंधहत्थीणं थिरजसाणं।" स० ७ अङ्क । इति तृप्यतेः धिप्पत्यादेशः । 'थिप्प।' तृप्यति । प्रा०४ पाद ।
थिरजाय-स्थिरमात-पुं० । स्थिरेण निर्विनेन जात सत्पन्नो गर्ने विगत-धा० । विकरणे, “ विगलेः थिप्प-णिहह।" ॥ ८।४।
स्थिरजातः । चिरेण जाते, तं०। १७॥ ॥ इति विगलतेः स्थिप्पाऽदेशः। 'थिप्प।' विगलति । विरणाम(ण)-स्थिरनामन्-न । नामकर्मभेदे, यऽदयात् शरी. प्रा० ३ पाद।
रावयवानां शिरोऽस्थिदन्तानां स्थिरता नवति। "दंतअहिथिमिअ-न० । देशी स्थिरे, दे० ना० ५ बर्ग २७ गाथा।
| माइथिरा (४६)" स्थिरंस्थिरनामोदयेन दन्तास्थ्यादि निश्चलं ६०३
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(२४१०) थिरणाम प्राभिधानराजेम्सः ।
थिरा नवति, यदुदयाद् शिरोऽस्थिग्रीवाऽऽदीनामवयवानां स्थि-थिरसीस-पुं०। देशी-निर्जीके, निर्भरे, पद्धशिरसाणे, दे० ना.५ रता भवति तत स्थिरनाम (४६) । कर्म. १ कमे० ।। वर्ग ३१ गाथा। पं० सं० ।
थिरसुह-स्थिरसुख-न । निःप्रकम्पानुवेजनीये, "स्थिरसुखथिरतरय-स्थिरतरक-पु.। अतिशयस्थिरे, पश्चा. ११ बिब०।
मासनम्," इति पतञ्जलिः। द्वा०२५ द्वा । थिरता-स्थिरता-स्त्री० । उत्कर्षकाष्ठाप्राप्ती, द्वा० १७ द्वा० । थिरा-स्थिरा-स्त्री० । योगदृष्टिभेदे, द्वा० । स्थिरा च निन्नग्रन्थेमहावतेषु एव धर्म धा स्थैर्य देती निश्चलत्वे, पा० । ध० । रेष, सा च रत्नाभा, तबोधो हि रत्ननास्समानः,तद्भावोऽप्रस्थैर्य, ०४०। स्थिरता-जिनधर्म प्रति परस्य स्थिरता- तिपाती प्रवर्कमानो निरपायो नापरपरितापकृत् परितोषदेतुः ऽऽपादनं, स्वस्य वा परतीर्थिकसमृझिदर्शनेऽपि जिनप्रवचनं प्र- प्रायेण प्रणिधानाऽऽदियोनिरिति । (२६) द्वा० २० द्वा० । ति निष्प्रकम्पता । ध० २ अधिः ।
प्रत्याहारः स्थिरायां स्या-दर्शनं नित्यमन्नूपम् । वत्स ! किं चञ्चलस्वान्तो, ब्रान्त्वा वान्ता विषीदसि । तथा निरतिचारायां, मूल्यबोधसमन्वितम् ।। १॥ निधि स्वसनिधावेव, स्थिरता दर्शयिष्यति ॥१॥ (प्रत्याहार इति) स्थिरायां दृष्टौ प्रत्याहारः स्याद्वक्ष्यमाझानदुग्धं विनश्येत, लोजविकोलकूर्चकैः ।
जलवणः । तथा-निरतिचारायां दर्शनं नित्यमप्रतिपाति, सा
तिचारायांत प्रवीणनयनपटनोपद्रवस्य तदुत्कोपाऽऽद्यनवबोअम्लघव्यादिवास्थर्या-दिति मत्वा स्थिरो भव ॥३॥
धकल्पमपि भवति, तथाऽतिचारभावाद, रत्नप्रभायामिव धू. अस्थिरे हृदये चित्रा, वाग्नेत्राऽऽकारगोपना ।
ल्यादेरुपद्रवः, अभ्रम भ्रमरहितम्, तथा सूक्ष्मबोधेन सम. पुंश्चल्या इव कल्याण-कारिणी न प्रकीर्तिता ॥३॥ न्वितम् ॥१॥ अन्तर्गतं महाशल्य-मस्थैर्य यदि नोकतम् ।
विषयासंप्रयोगेऽन्तः-स्वरूपानुकृतिः किल । क्रियौषधस्य को दोष-स्तदा गुणमयच्चतः॥४॥
प्रत्याहारो हृषीकाणा-मेतदायत्तताफनः॥॥ स्थिरता वामनःकायै-र्येषामङ्गाङ्गितां गता।
(विषवति) विषयाणां चतुरादिग्राह्याणां रूपाऽऽदीनामसंप्रयोगे
तद्ग्रहणानिमुण्यत्यागेन स्वरूपमात्रावस्थाने सति अन्तःस्वरूपायोगिनः समशीलास्ते, ग्रामेऽरण्ये दिवा निशि ॥५॥
नुकृतिश्चित्तनिरोधनिरोभ्यतासंपत्तिः किल हृषीकाणां चक्षुरा. स्थैर्यरत्नप्रदीपश्चे-दीपः संकल्पदीपजैः।
दीनामिन्द्रियाणां प्रत्याहारः । यत उक्तम्-" स्वविषयासंप्रयोतद्विकल्पैरसं घूमै-रलं धूमैस्त याऽऽश्रवैः ।। ६ ॥
गेचित्तस्वरूपानुकार श्वेन्द्रियाणां प्रत्याहारः।" इति ।(२-५४) उदीरयिष्यसि स्वान्ता-दस्थैर्यपवनं यदि ।
कीदशोऽयमित्याह-एतदायत्तताफा इन्द्रियवशीकरणकफलः।
अन्यस्यमाने दि प्रत्याहारे तथायत्तानीम्ब्यिाणि भवन्ति य. समाधैर्धर्ममेघस्य, घटा विघटयिष्यसि ॥ ७॥
था बाह्यविषयाभिमुखतां नीयमानान्यपि न यान्तीति। तदुचारित्रं स्थिरतारूप-मतः सिष्वपीष्यते ।
कम्-"ततः परमा चश्यतेन्द्रियाणामिति ।" (१-५५) ॥२॥ यतन्तां यतयोऽवश्य-मस्या एव ममिफये॥८॥
अतो ग्रन्थिविनेदेन, विवेकोपेतचेतसाम् । अष्ट०३ अष्ट।
अपायें भवचेवा स्या-द्वालक्रीमोपमाऽखिला ॥३॥ थिरपश्म-स्थिरपतिल-
त्रिभाषितस्यानन्यथाकारके, आव. (अत इति) अतः प्रत्याहाराद्, प्रन्धिविनदेन विवेकोपेतचे६०।
तसां भवचेष्टाऽखिला चकवादिसुखरूपाऽपि बालक्रीथिरपरिवाडि-स्थिरपरिपाटि-पुं० स्थिरा अतिशयेन निरन्त- डोपमा बालधूलीगृहक्रीडातुल्या, प्रकृत्यसुन्दरत्वास्थिरत्वाराज्यासतः स्थैर्यमापना अनुयोगपरिपाट्यो यस्य स स्थिर.
ज्यां पायै स्यात् ॥ ३ ॥ परिपाटिः । प्रव०६५ द्वार । व्य०। अनुगपरिचितसुत्रा
तत्वमन परं ज्योति-ईस्वभावैकमर्तिकम् । थे, माचा०१०१०१०।
विकरूपतल्पमारूढः, शेषः पुनरुपप्लवः ॥ ४॥ थिरब्बय-स्थिरव्रत-पुं०। व्रतेषु स्थिरे, प्रा०म०११०२ सएम।। (तत्त्वमिति ) अत्र स्थिरायां स्वभाव एका मूर्तिर्यस्य तत्तथिरसंघयण-स्थिरसंहनन-पुं०। स्थिरं दृढं (प्रथममित्यर्थः) सं.
था, कानाऽऽदिगुणनेदस्याऽपि व्यावहारिकत्वात् । पर ज्योतिहननं यस्य सः। प्रा० म०१ अ.१खएम। बलवत्तरशरीरे,
रात्मरूपं तवं परमार्थसत् । शेषः पुनर्भवप्रपञ्चो विकल्पसकदशा.४० । अविघटमानसंहनने, भ०१५ श०।
णं तल्पमारूढ उपप्लवो नमविषयः, परिदृश्यमानरूपस्याभा
वात् ॥४॥ थिरसंघयणया-स्थिरसंहननता-स्त्री० । तपःप्रवृतिषु शक्तियु
भवनोगिफणाऽऽनोगो, भोगोऽस्यामवभासते ।। क्ततायाम्, उत्त० १ अ०। शरीरसंपदर्भदे, श्या०८ ठा०। प्रव०।
फलं ह्यनात्मधर्मत्वा-तुल्यं यत्पुण्यपापयोः ॥५॥ यिरसत्त-स्थिरसच-पु.। स्थिर परीषहाऽऽदिसंपातेऽप्यन्व
(प्रवेति) अस्यां स्थिरायाम, लोग इन्द्रियार्थसुखसंबन्धः,भ. सात्सवं यस्य स स्थिरसवः । तस्मिन्, स्था० ४ ठा०३ उ० ।
बनोगिफणाऽऽभोगः संसारसर्पफणाऽऽटोपोऽवभासते, बहुमु. निश्चलमानसावष्टम्भे, बृ० १००।
खहेतुत्वात् । नानुपहत्य भूतानि भोगः संभवति, ततश्व पापम्, थिरसरीर-स्थिरशरीर-पुं० । शारीरबलोपेते, पृ० १ उ०। । ततो दारुणदुःखपरम्परेति । धर्मप्रनबस्वागोगो नमुःखदो भ
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थिरा
अन्निधानराजेन्द्रः।
थिरीकरण
विष्यतीत्यत्राऽऽह-यद यस्मात् पुण्यपापयायोहिं फनमनात्मध- एतेमुं चिअखमणा-ऽऽदिएसु सीदति चोयणा जा तु । मत्वातुल्यम् । व्यवहारतः सुशीलस्वकुशी लत्वाच्या द्वयोविभेदे
बहुदोसे माणुस्से, मा सीद थिरीकरणमेयं ॥२०॥ अपि निश्चयतः संसारप्रवेशकत्वेन कुशीलत्वाविशेषात् ॥५॥
सीदंतोणाम-जो धिरसंघयणोधितिसंपामो हट्ठो य ण उज्जमति धर्मादपि भवन भोगा, मायोऽनर्याय देहिनाम् ।
खमणाऽऽदिपसु, एसा सीयणा । चोयणा प्रेरणा, नियोजनेत्यचन्दनादपि संजूतो, यहत्येप हुताशनः ॥६॥
र्थः, तं पुण चोयणं करेति अवार्य सेउं । जो जाति-(बहु(धर्मादिति) धर्मादपि भवन भोगो देष लोकाऽऽदौ, प्रायोबा
दोसे माणुस्से)दोसा अवाया। ते य"दंडकसंसत्थगाहा" अहवाहुल्येन, अनीय देहिनां, तथा प्रमादविधानात् । प्रायोग्रहणं जरसासकासत्रयकुटाऽऽदओ संपभोगविप्पओगदोसहिय जुसं। शुरुधर्माक्षेपिभोगनिरासार्थम, तस्य प्रमादबी जत्वायोगात् । मा इति पमिसे। एवं बयणकिरियासहायत्तेणं संजमे थिरं क. अत्यन्तानवद्यतीर्थकराऽऽदिफलशुके पुण्य शुद्ध्यादावागमाभिः रेति तिथिरीकरण सेसं कंठं नि चू०१ उ01 "जहा उज्जेणीए निवेशार्मसारचित्तोपपत्तेरिति । सामान्यतो दृष्टान्तमाह-च. प्रजाऽऽसाढोकासं करतेसंजए अप्पाहे । ममदरिसावं दिज्जह, दनादपि तथा शीतप्रकृतेः संभूतो दहत्येव हुताशनः, दहनस्य जहा उत्तरज्जयणे सुए,तं अक्वाणयं सम्बं तहेव । तम्हा यो दाइस्वभावापरावृत्ते। प्राय एतदेवं न हत्यपि कश्चित, सत्य
जहा मज्जासाढो थिरोको , एवं जेऽनविया ते थिरीकरेमन्त्राभिसंस्कृताहाहासिको सकललोकसिद्धत्वादिति वदति। यम्वा।" दश० ३ मा रढीकरणे, नि० ० ४ उ०। युक्तं चैतत्,निश्चयतो येनांशेन शानाऽऽदिकं तेनांशेनाऽबन्धनमेव,
थिरीकरणे प्रासाढो उदाहरणं-" उज्जेणीए पासाढो आय. येन च प्रमादाऽमदिकंतेन बन्धनमेव । सम्यक्त्वाऽऽदीनां तीर्यकर
रिश्रो कासं करित साहु समाहीए णिज्जवति, अप्पादेति यनामकर्मादिबन्धकत्वस्याऽऽपि तदबिनाभूतयोगकपायगतस्यो
जहा ममं दरिसावं देजह, ते य ण देति। सो य सम्वयं गतोप. पचारेणैव संभवाद्, इन्द्रियार्थसंबन्धाऽऽदिकं तूदासीनमेवेत्य
बचाप, तभो हाविमओय, सलिगण सिम्सेण य से श्रोही पउ. न्यत्र विस्तरः॥६॥
ता, विट्ठा पोहावंतो मागतो, अंतरा य गामविउवणं णहियाकस्कन्धात्स्कन्धान्तरारोपे, नारस्येव न तात्तिकी ।
रणं, पम्पयं सरयकाचवसंथारोपधावणं, अंतरा य प्रमइच्छाया विरतिनोंगा-त्तत्संस्कारानतिक्रमात् ॥७॥ गाममका स तलागछद्दारगविलब्धणं जलमज्झे खेलणं मा. (स्कन्धादिति) स्कन्धात स्कन्धान्तराऽऽरोपेभारस्येव भोगा. परिमो पासित्ता विती । तेहिं समाणं धाणमंतरवसडिमुवागतो, दिलाया बिरतिर्न ताच्चिकी, तत्संस्कारस्य कर्मबन्धजनिता- पच्छा कालिया ते एगमेगस्स प्राभरणाणि हरिचमारको, पनिष्टभोगसंस्कारक्याऽनतिकमात् । तदतिक्रमो हि प्रतिपक्कभा. घा तेसि विहंता कहयंति परिवामीप । बनया तत्तनूकरणेन स्यात, न तु विच्छेदेन प्रसुप्ततामात्रेण के
पढमो भणति-- ति।श्त्य नोगासारताविभावनेन स्थिरायां स्थैर्यमुपजायते,स- "जेण भिक्खं वास देमि, जेण पोसेमि णायप। स्यामस्यामपरैरपि योगाऽऽचारखाव्याऽदयो गुणाः प्रोड्यन्ते। सा मे मही अकमति, जायं सरणतो भयं । १२४॥" यथोक्तम्
सो भणति-प्रतिपंमितो सि, मुंचाभरणाणि । "अबोल्यमारोग्यमनिष्ठुरत्वं,
वितिमो वि भारको, सो भणतिगन्धः शुनो मूत्रपुरीषमत्यम् ।
"बहुम्सुयं चित्तक, गंगा वह पारसं। कान्तिःप्रसादः स्वरसौम्यता च,
बुज्झमाणग! भदंते, नप ता किंचि सुहासियं ॥१२५॥" योगप्रवृत्तेः प्रथमं हि चिह्नम् ॥१॥
ततिभो भणति, सुणेहि प्रक्वाणयंमैग्यादियुक्तं विषयेषु चेतः,
"जेण रोहंति बीयाणि, जेण जीयंति कासगा। प्रजाववद्धैर्यसमन्वितं च।
तस्स मज्जे विवजामि, जायं सरणतो मयं ।। १२६ ॥ इन्द्ररघृष्यत्वमभीष्टलाभो,
जमहं दिया य रामो य, तप्पोम मसापिसा। जनप्रियत्वं च तथा परं स्यात् ॥२॥
तेण मे उमो दलो, जायं सरणतो भयं ॥ १२७॥" दोषव्यपायः परमा च तृप्तिरौचित्ययोगः समता च गुर्वी।
"बग्घस्स भएँ भीतेणं, पावनो सरणं कतो । वैराउदिनाशोऽथ ऋतम्जरा धी
तेण दळूममं अंग, जायं सरणमो भयं ।। १२८ ॥" निष्पन्नयोगस्य तु चिहमेतत्"॥३॥ इति ।
चउत्थो भणतिशहाप्येतदकृत्रिमं गुणजातमित एचाऽरज्य वियम् ॥७॥ "संघणपवणसमत्यो, पुज्य होऊण संप; कोस। द्वा० २४ दा०।
दम्यगरियग्गहत्यो, बयंस ! को जामो वाही? ॥११॥" थिरावलिया-स्थिरावलिका-स्त्री० । वृजपरिसर्पिणीभेदे,
सो भणजी०२ प्रति.।
"जेहासाडेसु मासेसु, मारुनो सुहसीयलो।
तेय मे भज्जते भंग, जायं सरणतो प्रयं ॥ १३०॥ थिरासयत्त-स्थिराशयत्व-चित्तस्यैर्य, पं० सू०४ सूत्र।
जेण जीवंति सत्ताणि, निरोहम्मि अणंतए । थिरीकरण-स्थिरीकरण-ना सीदतां चारित्राऽदिषु स्थैर्यहे. तेण मे भजए भंग, जायं सरणश्रो भयं ॥ १३१॥" तो. जीत। धर्मादू विषीदतां तत्र चाबचनचातुर्यादवस्था
पंचमो भयरपने, प्रव०६द्वार । पञ्चा।दश। ध० । स्वगतपरगतधर्म- "जाब षुच्छ सुहं बुचं, पाद निरुवदवे । व्यापाराणां स्थिरत्वाऽऽधाने, पचा०४विव.नि.चू०। । मूलामो सहिता बछी, जातं सरणतो भयं ।। १३२ ॥"
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बिरीकरणा
हो प्रणति
"ममितरया खुभिया, पेांति बाहिरा जणा । दिसं भयह मायंगा !, जायं सरखतो नयं ॥ १३३॥
अहवा
" जत्थ राया सयं चोरो, डिओ य पुरोहिओ । दिसं भयह णायरिया !, जायं लरणओ जयं” ॥ १३४ ॥
श्रहवा
"अश्रुग्गयए य सुरिए, चेइयथूनगर व बायसे । मिया सखि अप्पो न बु॥१३५॥ तुम पत्र य धम्म हे! लबे, मा हु विमाणय जक्खमागयं । जलाइए हु तायर, अ िदाणि विमग्ग ताययं ॥ १३६ ॥ नवमालय कुवालिया, पालवणे पुलिले यमद्दिए । धूया मेगेदिए ढडे, सलगए असलगर व मे जायए" | १३७ | एवं सम्मानरणा घेय या अंतरा संजीव भणति
"सयमेव यक्स सोविया,
अप्पाचा विचाई गिया।
मोवाइल सि.
प
( २४१२ ) अभिधानराजेन्द्रः ।
किं बेला ! बेबेति वाससी ?" ॥ १३८ ॥
"
कडप से कुंडले य ते,
अंजिअक्खि ! तिलयते व ते । पत्रकारि !,
ठा सेहि ! कतोऽसि आगता ? ॥ १३२ ॥ " " राईस रिसमेाणि परदायि पासा । अपणो विल्लमिताखि, पातों
साथ पडिभपति
पाससि ॥ १४० ॥ ।
समयोऽसि संजतो बसि, बंगवारी समलोकं बेहारियवायश्रो य ते, जिघ्ज्ज ! किं ते पमिग्गहे ? || १४१ ।। " ( उस० नि० २ भ० ) ( पतासां गाथानामर्थः "दंसणपरीसह" शब्देऽग्रे वक्ष्यते) पुणरबि यं पयाओ रायरुवसंघावार चिव, परिबुको य । जहा तेरा देवेण तस्ल आसाढभूतिस्स थिरीकरणं कतं, एवं जहासत्तिओ धिरीकरणं कायन्त्रं ।" नि० घू० १ ० ।
चिनि विहिल-श्री० [वेगखराऽऽद्वियानिर्मिते यानविशे दशा • ६ ० सूत्र जं० रा० । लाटानां यत् 'अडपल्लाणं रूढं तदन्यविषयेषु चिच्यते जी ३ प्रति००। श्र०
० । का० न० 1
66
विवचितस्तिस्तिपत्०ायमाने सं० "चि चिथिवि वीभच्छं ।" थिविथिवायमानैरन्त्रैर्वीभत्सं, रौ मित्यर्थः । तं । शिवुग-स्तिक-पुं० [पानीयविन्दी ० ० १ ० ० म० । प्रज्ञा० | दर्श० । विशे० ।
शिवुग संकम - स्तिवुकसंक्रम- पुं० । पिमपगण जा उदयसंगया तीय श्रमुदयगयाउ संकामिऊण वेयर जं एसो थियुगकामो || ७ ||" इत्युकल संक्रमने पं० [सं०] [५] -
र । क० प्र० ।
थिहु-स्तिनु- स्त्री० | साधारण बाद वनस्पतिकायने दे, जी ०१प्रति०| थीण-स्थान- त्रि० । संघातमापन्ने, स्था० ६ ठा० ।
-
थीि थीगिद्धि - स्त्यानगृद्धि स्त्री० । स्त्याना बहुत्वेन सङ्घातमापन्ना द्धिराजाग्रदयस्था उच्चपसि तार्थसाधनविषया यस्यां स्वापावस्थायां सा स्त्यानगृद्धिः तस्यां हि सत्यां जाग्रदवस्वाध्यवसितमर्थमुत्थाय साधयति, स्याना वा पिरामीभूता ऋरात्मशक्तिरूपा यस्यामिति स्यानरित्युच्यते। त कावे हि खप्तुः केशवासी नियति । अथवात्याना जमता मिति स्थान विपाकवैद्या कर्मप्रकृतिरपि स्त्यानकिः स्त्यानगृद्धिरिति वा । स्था० वा० प्रव। उत्त०| "गोणाऽऽदयः ॥ ८ । २ । १७४ ॥ इति प्राकृतसूत्रे श्रीणीतिनिपातः कर्म १ कर्म० निद्राविशेषे कर्म कर्म
-
थी कि स्त्यानकि श्री नापिकीभूतात्म शक्तिरूपा बोलावावस्थायां सा स्
कर्षतः प्रथमदननस्य केशवाईची शकयत कथानक आग कोको वि. पाकप्राशस्त्यागमासहितो द्विरदेन दियाः सतः स तस्मिन् वाभिनिवेशो रजन्यां स्थान वर्तमाना समुत्थाय तद्दन्तयुगलमुत्पाट्घ स्वोपाश्रयद्वारि व प्रक्षिप्य पुनः सुप्तवान् इत्यादि । तद्विपाकवेद्या कर्मप्रकृतिरपि स्त्यानकिः । ( ६ गा० ) कर्म • ६ कर्म० | ग० | पं सं० । जीत० । स्यानतिवाद
पौग्गलमोयगफरुसग - दंते बडसालगंजणे पत्ते । एतेहि पुणो तस्सा, विषिणा होति जय ॥ २४० ॥ पुलं पिशितं, मोदको लमूमुकः, फरुसकः कुम्भकारो, दन्ताः प्रतीताः वटशालाभञ्जनम्, पलानि पञ्चोदादरणानि सुते त्याना भवन्ति ते स्थान परि
परिज्ञाय तस्य स्थानमा साना त्यागः कर्त्तव्यो भवति ।
"
तत्र पुनदृष्टान्तमाह
पिसियासि पुत्र महिस, विगिंचियं दिस्स तत्थ निसि गंतुं । अहं खायति, उपस्मयं सगं खेति ॥ १४१ ॥ "गम्मि गामे एगो कुकुंबी पक्काणि य तलियाणि य निम्मणेसु अऐगलो मंसप्पगारे प्रक्खेछ । सो अ तहारूवाएं थेराणं अंतिर धम्मं सोउं पञ्चाइओ गामाइसु बिहर । तेण
एत्थ गाम महिसो विर्गियमाणो दिट्ठो । तस्स मंसे अभिलासो जातो। तेण अभिलासेण अन्योच्तेिणेव जिक्खू हिंहा विचार िगतो परिमा सुपरिसी
कया । भवस्त्रयं काउं पातोलिया पोरिसी विदिता । तलास सुत्त सुरास्सेव चीणी जाया । सो उश्रो महिअणाभोगनिन्पिणं कारणं यतो समंगलं । श्रनं महिसं हंतुं नक्खिता से आनेतुं उपस्थपरस उपरि उचितं गुरूणं भाप परिसो सुषोदिसाह दिखावा करते वकुमं जा णियं जहा एस थीणद्धी, ताहे लिंगपारंचियं पच्चित्तं से दि । " अथ गाथारार्थः पिशिताशी कचित्पूर्व गृहवासे आसीत्। स महिषं विकर्ति डा संजातजामि लापस्तत्र महिषमएमले निशि रात्रौ गत्वा अन्यं महिषं दरवर खादति शेषमुद्वरितमुपाश्रये नयति ।
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थी कि
( २४१३) अभिधानराजेन्द्रः ।
मोदक दृष्टान्तमाह
मोयगजमल मंतु कवामे घरस्स निसि खाति । नाणं च भरेऊणं, आगतों आवस्सए विगढे ॥ १४२॥ एकः साधुण्डिमानो मोदकमकं पश्यति सु चिरमवलोकितमत्र भाषितं च परं न लब्धं ततस्तरलब्ध्वा तद्व्यवसाय परिणत एव प्रसुप्तः । रात्रौ तत्र गत्वा गृहस्य कपा भक्त्वा मोदकान् भक्षयति शेपैकेजनं नृत्या समागतः । प्राभातिके श्रावश्यके त्रिकटयति- ईदृशः स्वप्नो मया दृष्ट इति । ततः प्रभाते मोदकनृतजाजनं दृष्ट्रा ज्ञातम् - यथा त्यानकिरिति, तस्यापि लिङ्गपाराचिकं दशम् । शेषं पुनलाSSख्यानकवाद्वक्तव्यम् ।
अथ फरुसकदृष्टान्तमाह
"
अवरो फल्समो महियमे व छिंदि सीसे । एगते अवयऊ पासूचा णं विगटणा य ।। १४३ ।।
अथ दन्तदृष्टान्तमाह
अवरो विपादियो म चढविणा पुरकवायें तू । स्क्वणित दंते, वसही बाहिं विगडणा य ॥ १४४ ॥ अपरः कोऽपि साधुर्गृहस्थनावे मत्तस्तिना शुण्डामुत्किय घावता घाटितः पलायमानो महता कष्टेन उज्झितः, एष चूहर्यभिप्रायः । निशीथचूर्णिता तु " एगो साहू गोयरनिगतो हरियणा पनि तो ।” इति लिखितम. । एवमुभयथाऽपि हस्तिकृतं पराभवं स्मृत्वा स साधुस्तस्योपरि प्रद्वेषमापन्नः प्रसुप्तः । उदीर्णस्त्यानर्द्धिश्चोत्थाय पुरकपाटौ जक्त्वा हस्तिशात्र गत्वा तस्य हस्तिमो व्यापादनं कृत्वा दन्तानुत्यन्य वसतेदिः स्थापयिस्वा नूयोऽपि सुप्तः । प्रजाते व विकटना-स्वप्नमालोचयति । सामि दिन कुक्षितः मितिः कृतः ।
चटशाखाभञ्जनदृष्टान्तमाह
उन्भाग वडसाले - ण घट्टितो के पुत्रवणहत्थी । वालचं जणाss गण, उस्सगाऽऽलोयणा गोसे | १४९ । एकः साधुनामकः भिक्काचर्यो गतः,
"
अपरः कश्चित् फरसकः कुम्नकारः कापि गच्छे मुण्डो जातः प्रव्रजित इत्यर्थः । तस्य रात्रौ प्रसुप्तस्य स्त्यानकिंरुदीर्णा । स च पूर्व मृत्तिकाच्छेदाभ्यासी, ततो मृत्तिकापिण्डानीव समीपप्रसुतानां साधूनां शिरांसि बेतुमारब्धः । तानि च शिरांसि कमेराणि चैकान्ते पति शेषः साधवोऽयथुः ताः । स च भूयोऽपि प्रसुप्तः । ततः प्रभाते ईदृशः स्वप्नो मया दृष्ट इति विकटना कृता । प्रभाते न साधूनां शिरांसि क. मैवराणि च पृथक् भूतानि दृष्ट्वा ज्ञातम यथा स्त्यानकिरिति लिङ्गपाराञ्चिकं दतम् ।
तत्र ग्राम
यस्यापान्तराले वटवृको महान् विद्यते स च साधुर्गाइतरमुष्णादितो भरिताजनस्तृषितबुद्धचित ईयोपयुको वेगेनाऽऽगच्छत् । ( वडलालेण सि ) लिङ्गव्यत्ययाद् वटपादपस्य शाखया शिरास घट्टितः सुष्ठुतरं परितापितः, ततो वटस्योपरि प्रद्वेषमुपगता तद्यवसायपरित प्रसुप्तः । उद्दी स्त्यानाश्चोत्थाय तत्र गत्वा वटपादपं कस्वा तम्मूत टीयां शाखमानी पोपापस्थापितवान्
६०४
थुइ
श्यक कायोत्सर्गत्रिकेतेचे गुरूणामालोचयति ततो दिय लोके कृते तथैव ज्ञातम, लिङ्गपाराञ्चिकश्च कृतः । केचिदाचार्या ब्रुवते सप्तमभवे वनद्स्ती बभूव ततो मनुजजवमागतस्य प्रवजितस्योदी मस्त्यानः पूर्वजवाभ्यासाद्वरशाला भज्जनमभवत् । शेषं प्रागत् ।
कथं पुनरलौ परित्यजनीय इत्याहकेवलं पाति मुय लिंग स्थि तु चरणं । णेच्छस्स हर संधो, या वि एको मा पदोर्स तु ॥१४६॥ केशवो वासुदेवस्तस्य बलादर्द्धबलं स्त्यानमितो भवतीति दादयः प्रज्ञापयन्ति । पतच प्रथम संदनिनामी रोकम् । इत्यादि । बृ० ४ उ० ।
चिकितिग-स्यानिित्रक०
निद्राप्रचलाप्रचला कर्म
स्थानकिल
स्त्यानभि कर्म
स्तस्य थोऽसमस्तस्तम्बे" || |२| ४५ ॥ इति स्तस्य थः । प्रा०२ पाद ।
थुंडू किप्र - न० | देशी दरकुपितवदनसंकोचने, मौने च । दे० ना० ५ वर्ग ३१ गाथा |
स्तुति स्त्री० स्तवने प्रा० २ ० ० स्तुतिधा-प्रणामरूपा, असाधारण गुणो की तनरूपा च । नं० । लोकोरसद्भूततद्गुणवर्णनयां (म० १ द्वार) एक
3
प्रापविद्धय जघन्येन चतुरयस्तुतिप्रकथने, मध्य मेनाष्टस्तुतिकथने, उत्कृष्टेन १०८ स्तुतिकथने, उत्त० १४ श्र० । घ० । नि० चू० । अनुशिष्टौ व्य० १ ४० संघा० (स्तुतिस्तवोषधयशब्देस्मिन्नेव भागे २३०३ पृष्ठे उक्तः ) चैत्यवन्दनायां यत्कायोसर्गानन्तरं जायते तरस्तुतय इति रूढाः । (तास्तिस्रश्चत - स्रो वा दीयन्ते इति वेदयचंद शब्दे तृतीय मागे १३२२ पृष्ठे स्तुतिप्रस्तावे प्रत्यादि) तिखः स्तुतीराती
"
या दरिद्रता स्तुतो नियमो के चित्तु श्रन्या अपि पठन्ति न च तत्र नियम इति न तद्व्याख्यानक्रिया । एवमेतत्पठितापचितपुपसंभारा चितेषूपयोगफ मेतदिति ज्ञापनार्थे पठन्ति-" वेयावच्चगरां संतिगरा सम्मदिट्टि समादिगराणं करोमि कामां।" इत्यादि या "बोसि रामि व्याख्या पूर्ववत् नवरं वैयाकराचा
नभावानां यथाभ्यः कृष्या यादीनां शान्तिकराणां शुद्रोपद्रवेषु सम्यगृीनां सामान्येषां समाधिकराणां स्वपरयोस्ते षामेव स्वरूपमेतदेवैषामिति वृद्ध संप्रदायः । एतेषां संबन्धि नं, सप्तम्ब वा षष्ठी, एतद्विषयम्-एतानाश्रित्य करोमि का योत्सर्गमिति । कायोत्सर्गविस्तरः पूर्ववत् स्तुतिश्च, नवरमेषां वैयावृत्य कराणां तथा तद्भाववृमेरित्युक्तप्रायं तदपरिज्ञानेयस्मात्तमसिद्धादिमेव वचनं झापना
भिचारी व कृणात्, सौचित्यप्रवृत्या सर्वत्र प्रवर्तित यमित्यमस्य तदेव सप्रयोग बन्दनादिप्रत्ययमि स्वादि न पते अविनेत्यादि द.सामान्यमेवोपकारदर्शनात् पचनप्रामाश्यादिव्याख्यातम् "सि" इत्यादिसूत्रम् । ल० ।
ति श्राव० । ध० 1
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(२४१४)
अभिधानराजेन्द्रः । "ता नस्सगं किच्चा, वितीयविसिलोगिया य इह थुति । उ०(वंदण' शब्दे विशेषो वक्ष्य)"तं काउं आवस्सगं अम्मे तिमि जा अहवा घस-माणाश्सवजिर्णिदाण ॥ २६ ॥
थुतीभो कति । अहवा-एगा एकसिलोगा,बितिया विसितोगा, पुव्वुत्तकयं विहिणा, कति सुत्तत्थवं च संविम्गा ।
ततिया तिसिलोगा।" प्रा० ० ४ ० । पाव०। सम्पूर्णचैत्यसुअस्स जगचं नाणं, उस्सग्गठिो थुगइ संथुति ॥२७॥ बन्दना स्तुतित्रयेण संपूणी भवति । पञ्चा०३ विवा(चतुर्थस्तुतत्तिया अहवा चट्ट माणा तिसिलोगिया य सुहवमा । तिस्तु किलाऽवाचनिोत 'चेश्यवंदण' शब्दे १३१२ पृष्ठे कष्ट कम्मरस निजरटुं, महया सहेण घासंति ॥ २० ॥
व्यम्) ( स्तुतिविषये विशेषः . चेयबंदण' शन्दे १३२० हिचा तु पुत्रविहिणा, सकभयं कहर जाच पणिहाणं।" (२६) पृष्ठे तृतीयभागे द्रष्टव्यः) “ सुयस्स जगवो करोमि काबन्द०प०।
उस्सगं चंदणबत्तियाए।" इत्यादि प्राग्वत यावदु"बोसिरामि, " तिन्नि वा कई जाव, थुईश्रोतिसिलोइया।
एयं सुत्तं पठित्ता पम्पवीसुस्सासमेव का उस्सग्गं करैति।"पाह ताब तत्थ अम्पाय, कारणेण परेण चि॥१॥"
च-"सुयनाणस्स चवथोत्ति ततो नमोक्कारेण पारिता विसुतिम्रः स्तुतयः कायोत्सर्गानन्तरं या दीयन्त ता यावत्कर्षति, द्धचरणदसणसुयातियारा मंगलनिमित्तं चरणदसणसुयदेसभणतीत्यर्थः । किविशिष्ठाः १. तत्राऽऽह-विश्लोकिकाः त्रयः गाणं सिकाण पुतिं कळंति, भणियं च सिकाणं थुईए।" इति । श्लोकाः उन्दोविशेषरूपा आधिक्येन यासु तास्तथा ।" सि- सा चेयं स्ततिः-"सिसाणं बद्धाणं" इत्यादि । आव०५ अ० । द्धाणं बुद्धाणं." इत्येकः श्लोकः । “जो देवाण वि ०" इति द्वितीयः । “पक्को वि नमोकारो०" इति तृतीय इति । ध०२ -
थुजुयक्ष-स्तुतियुगल-न० । समयपरिजापया स्तुतिचतुष्टये, धि००। ओघ०। प्रति०।
पश्चा० ३ विव०। पौर्याघातकारणैः समुपस्थितः देशतः सर्वतो वाऽऽवश्यक- युइमंगल-स्तुतिमङ्गन-न०प्रतिक्रमणस्यान्ते स्तुतित्रयभणमकृत्वा गच्छन्ति । तत्र देशतः कथमकृत्वेत्यत पाह
ने, भोघ०। युतिमंगलकितिकम्मे, काउस्सग्गे य तिचिहकिइकम्मे। । युइवति-स्तुतिवृषि-स्त्री० । प्रबर्कमानस्तुतिपरिपाने, पञ्चा० ८ तत्तो य पमिकमणे, आयोयणयाएँ कितिकम्मे ।। विव। स्तुतिमङ्गलमकृत्या,स्तुतिमङ्गलाकरणे चाऽयं विधिः-प्रावश्य- थुक्कार-यूत्कार-पुं० । महता शब्देन पुगितिकरणे, रा०। के समाते हे स्तुती उच्चार्य तृतीयां स्तुतिमकृत्वा अभिशय्यां गच्छन्ति । तत्र न गत्वा ऐयापथिकी प्रतिक्रम्य तृतीयां
थकिम-१० । देशी-उन्नते, दे. ना०५ वर्ग २८ गाथा। स्तुर्ति ददति । अथवा-याचश्यके समाप्ते एका स्तुतिं कृत्वा युड-स्थुम-न । बनस्पतीमा स्कन्धभागे, स्था. १.ग. के स्तुती अभिशय्यां गत्वा पूर्वविधिनोच्चरन्ति । अथवा-समा. गुड़हीर-न० । देशी-चामरे, दे. ना.५ वर्ग २८ गाथा । से आवश्यक निशरयां गत्वा तत्र तिम्रः स्तुतीदर्दति । अथवास्तुतिभ्यो यद् बक्ति तत कृतिकर्म, तस्मिन्नकृते तेऽनिशय्यां ग
शुण-स्तवन-न० । स्तोत्रगुणकीर्तने, आचा०२ श्रु० ३ चू० त्वा तत्रापथिकी प्रतिक्रम्य मुखवत्रिकां च प्रत्युपेक्ष्य कृति- १५० दशा०। कर्म कृत्वा स्तुतीददति । व्य. ३० । (इत्यादि प्र० भागे युप-पु.। देशी-दृप्ते, दे० ना० ५ वर्ग २७ गाया। ७२४ पृष्ठे विस्तरः)
थुरुणझणय-न। देशी-शय्यायाम्, देना० ५ वर्ग २८ गाथा। श्रावस्सय काऊणं, जियोवष्टुं गुरूवएसेणं ।
गुनम-पुं०। देशी-पटकुवाम, देना.५ वर्ग २५ गाथा । तिमि युती पमिलेहा, कालस्स विही इमो तत्य ॥ पावश्यकं जिनोपदिष्ट गुरूपदेशेन कृत्वा पर्यन्ते तिस्रः स्तु
यन-थोर-त्रि० । रस्य लः। “सेवाऽऽदो वा"।८।२१९६॥ तयः प्रवर्तमाना वक्तव्याः। तद्यथा-प्रथमा एकश्लोकिका, द्वि
इति लद्वित्वम् । प्रा०२पाद । परिवर्तने, दे. ना.५ वर्ग २७ तीया द्विश्लोकिका, तृतीया त्रिश्लोकिका। श्यादि । व्य. ७
गाथा। उ०। पं०व० । पञ्चा०।
| स्पन्न-त्रि.। मोहे, प्राचा. २७.१.४ भ०१००। मुकयं प्राणतिं पिब, लोए काऊण सुकयकिइकिम्मा। युवा-स्तावक-त्रि०।" उः सास्नास्तावके" ॥८१७५॥ कृतीनो थुइओ, गुरुपुइगहणे कए तिमि ॥६॥
इति प्रादेरात उत्वम् । स्तोतरि, प्रा० १ पाद । सुकतामाकामिव बोके कृत्वा कचिाहिनीतः माथुब्बत-स्तूयमान-त्रि• I“न वा कर्मभावे ब्वः क्यस्य च लु. सनिवेदयत्येवमेतदपि इष्टव्यम् । तदनु कायप्रमाज्जनोत्तरकासं
क"011 २४५ ॥ इति भावे कर्मणि वा वर्तमानस्य - वर्षमानाः स्तुतयो रूपतः शब्दतश्व गुरुस्तुतिग्रहणे कृते सति
धातोरन्ते द्विरुक्तो वकाराऽऽगमो बा । प्रा.४पाद । मानतिमस्तिस्त्रो भवन्ति । इति गाथाऽर्थः ॥ पं० ब०२ द्वार । नन्धमाने, ज०१५ श०। निस्सकममनिस्सकमे, वि चेइए सबहिं थुई तिमि । -यू-भव्य.। "थू कुत्साबाम्"।।२।२.०॥''ति बेवं च चेइयाणि य, नावं एकिकिया वा नि॥
कुत्सायां प्रयोक्तव्यम । कुत्सायाम," निलज्जो सोभो।" प्रा. निभाते गच्छप्रतिबके, अनिश्रावते च तद्विपरीते, त्यै स. " क्षेत्र तिनः स्तुतयो दीयन्ते, मथ प्रतिचत्यं स्तुतित्रये दीयमाने | यूवा-स्तन-पु०॥"कः स्तन वा” ॥ रारमा बेलाया अतिक्रमो भवति, भूयासि वा तत्र चैत्यानि,ततो वेलां, नशनस्येतो वा ऊरयम । 'थणो।' पक्षे-'येणो।' चौरे, प्रा० १ चैत्यानि वा ज्ञात्वा, प्रतिचैत्यमेकैकाऽपि स्तुतिदातव्यति। वृ०१ पाद । स्तेने, दे० मा०५ वर्ग १ए गाथा ।
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धूणा-स्थूणा - स्त्री० | बादनाऽऽदिस्तम्भनार्थबनी काष्ठे, नि० चू० १३ उ० । “ चूणा णं नंते ! उ ऊसिया समाणी जावइयं खैत्तं भोगाहित्ता णं चिठेति, तिरियं पि य णं श्रायता समाणो तावश्यं चैव खेत्तं श्रोगाहित्ता गं चिटुइ ? | दंता गोमा! णाणं उडुं ऊलिया तं चेव चिट्ठर । " प्रज्ञा • ०१५पद पूर्व जनपद मेवे, पूर्वस्थां दिशि स्गुणाविषयं यावद विहरेत् । वृ० १ ० । अभ्बे, दे० ना० ५ वर्ग २० गाथा | नामख्याते सनिवेदयत्र एक सा स्थविहरतो वीरजिनस्य लक्षणानि विस्मि
घृणागस्यूरक-पुं० मुषिकः
दृष्ट्रा
तः शक्रेण प्रत्युक्तः । श्र० म० १ अ० १ खण्ड । घृणा मंडव-स्थूणामण्डप पुं० । स्थूणाप्रधान वस्त्राऽऽच्छादिते मराम, झा० १ ० ३ श्र० ।
धून स्तूप पुं० संघातावयविनि सुत्र १० १० १ ०पी०२० चननगयदे 35 विदग्ध । ऋषजजगवद्देहा स्थानेषु भरतेन स्तूपाः प्रावर्तन्त । श्राचा० (१) । रा० । आ० क० । व्य० । (आयारपकप्प शब्द द्वितीयभागे ३५५ पृष्ठे देवता विकुर्वितस्तु वैरनुपदैर्विवादो दशित) समूदे, विशे" मा पुर्ण विश्वमा दोति" "गा दिबियाचा जो नयति ।" नि० ० ३४० ॥ शुभकरंद स्तुपकरएम न० ऋषभपुराने धन्ययाबासे उद्याने, विपा• २ ० २ ० ।
यूज मढ़ स्तूपमहपुं० स्तूपस्य चिशि का पूजायाम्, आ
चा० २ ० १ ० १ ० २३० ।
थूनिया - स्तूपिका- स्त्री० । लघु शिखरे, जं० १ वक्ष• । जी०
रा० । झा० ।
थूरी - स्त्री० | देशी - तन्तुवायोपकरणे, दे० ना०५ वर्ग २० गाथा । धूल-स्थूल-त्रि० । प्रमाणतः मौल्यतश्च (घाचा० १ ० ५ श्र० २० । प्र०) महति, प्रश्न० ५ संब० द्वार । बृहति सूत्र० १ ० १ ० १ ४० बृहत्कावे उपचितमांसशोभिते श्रु० ६ प्र० । उत्त• । अनिपुणे, उ० १ ० ।
(२४१५) अभिधान राजेन्द्रः ।
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लगअ दिपादाण-स्थूलादताऽऽदान - न० स्थूल परिस्थूल - पयत्वेन प्रसिद्धमिदं चौर्याऽऽरोपण हेतुत्वेन प्रसिद्धमदत्ताऽऽदानम्। ०६० तृतीयेते । परिस्थूलविषयं चौर्यारोपणहेतुत्वेन प्रसिद्धमिति दुष्टाभ्यवसायपूर्वकं स्थूलं विपरीतमितरमेव स्यू च तद सादानं चेिति समासः । प्राव० ६ ० ।
धूम्रगभदिशा दायरमा स्थूलकाद साऽऽदानविरमण -१० भावकस्य तृतीयेऽवते, आव० ६ ० । ( ' प्रदिष्यादाणबेरमण शब्दे प्रथमभागे ५४० पृष्ठे व्याख्यातमिदम) लघोण-पुं० [देशी करे दे० ० २५ गाथा । धूम्रत्यंतर खासता स्मार्थान्तरनाशताखीमार्थान्त राम, विशेषस्य सामान्यरूपानि मा० ११ अध्या• ।
धूल गपाण-स्थूलक प्राण- पुं० । द्वीन्द्रियाऽऽदिजीवे, आ००६०।
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घुलभद
धूलगपाणवदविरयाइ - स्थूलकप्राणबधविरत्यादि - पुं० | असुदमसत्वहिंसाविरमण प्रनृतौ पञ्चा० ६ विव० । थूलगपाण वहवेरमण-स्थूलकप्राणवधविरमण - न० 1 प्रथमापुव्रते, पञ्चा० । स्थूला असूक्ष्माः कुदृष्टिभिरपि प्राणित्वेन प्रायः प्रतीयमानत्वाद् इन्द्रियाऽऽदयः, त एव स्थूलकाः । प्रतेनैकेन्द्रियाणां व्युदासः । सम्यग्दृष्टिभिरेव प्रायः प्रतीयमा नत्वेन तेषां सूक्ष्मत्वात् । प्राणा चच्वास्साऽऽदयः, तद्योगात्प्राणाः प्राणिनः, श्रमेनाचेतनानां व्युदासः, तद्वधस्ये हा प्रत्याख्येयत्वात् । तेषां बधो हिंसा, तस्य विरमणं विरतिः स्थूलकप्राणबधवि रमणम् । पञ्चा० १ विव० ।
थूक्षगपाणाइत्राय - स्थूलकप्रारणातिपात-पुं० | स्थूला एव स्थूलकाः प्राणा इन्द्रियादयः तेषामतिपातः प्राणातिपातः । ह्रीन्द्रियाऽऽदिजीवबधे, भाव० ६ श्र० ।
धूलगपा भाइचायमेरमण - स्थूलकमा शाविपातविरमख १० । प्रथमते ०६००० (पाणाश्वायवेरमण' शब्दे व्याक्यास्यते ) यूज़गमुसावाय-स्थूलकमृषावाद - पुं० । परिस्थूलवस्तुविषये . तिपुष्टविवकासमुद्भवः स्थूलः, स्थूल एव स्थूलकः, स्थूलकश्चासौ मृषावादश्चेति समासः । श्रब० ६ भ० । श्रा० । स्थूलानृतबादे, पञ्चा० १ वि० । चूलगमुसावापवेरमण-स्थूलपारि
१०
यावते, आव० ६ ० । ( ' मुसावाब' शब्दे व्याख्यास्यते ) यूलनद-स्थूलभ-पुं० शकटालपुत्रे विजयस् शिष्ये, कल्प०८ कृण ।
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"अथाभूमे नये मन्त्रिराट्र कल्प (५६) शकटाल सुती तस्य स्वनसिरीयो । या च यकदिना च भूताऽथ भूतदिनका ॥ ५७ ॥ सेना बेणा तथा रेणा, तत्पुत्र्यः सप्त चाभवन् । द्विजो वररुचिस्वासी अवनन्दं स शंसति ॥५८॥ अष्टोत्तरशते । मन्त्री नदिचे तद्भार्याथ सोऽस्तवीत् ॥५॥ पृष्टस्तयोचे त्वती, मस्काव्यानि प्रशंसतु । उस्त मनमियात्वं स्वीम्यहम् ॥१०॥ मुस्योपको सतकं सुभाषितम् । दीनारास्तस्थादात ६२४ मन्युश्श ! कि बच सोऽवदत्शंसा । मयूचे बौकिकानि पायो॥५२॥ मत्पुत्रयोsपि पठन्त्यूचे, राज्ञा स्वः पाठः सुताः । दास्ताः मािऽर्दिता पृताः ॥३॥ रामसोघे द्विजोऽथाऽऽगा-तास्तत्पाठेऽपठन् क्रमात् । राज्ञा बररुवेरं वारितं स ततो निशि ॥६४॥ दीनारा, गन्तास्तीति सोहि ताम् । हत्यांsहिला तदादाय, दते गङ्गेति सोऽवदत् ॥ ६५ ॥ सा पार्थिवोऽमात्य
मन्यु वे मयि तत्रस्थे, बेदास्यति ददाति तत् ॥ ६६ ॥ उन्मादापयन्मन्त्री, तद् द्विजस्थापितं जले। प्रातो ऽगमा श्रीमन्त्रयुक्तः स्तम् ॥६७॥ स्तवान्ते ऽन्तर्जलं मग्नः, किशिम प्राप स द्विजः ।
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थूलभद
मन्त्री पोहलिकां राज्ञः, प्रदइर्यादत्त तस्य ताम् ॥ ६० ॥ मावीत्युद्भावितोभ्यासी-माणि वीते। श्रीयकस्याथ बीबादे, माङ्गलिक्याय भूञ्चजः ॥ ६५ ॥ सामग्री क्रियमाणां बोसीदासीमुखाचतः । क्रीडन्ति पाणि, दार्थ दायं सुखाऽऽदिका ॥७५॥ पाठयद्वररुचिः सर्वेष्वपि पदम । "तं न विजाणर लोओ, जं सगकालो करेसिङ्ग । मंडरा मारेकर, सिरियर उस राजपाट्यां नृपः श्रुत्वा तचरैवक्ष्य चाकुपत् । नमतो मन्त्रिणः दमानृ-ततो जज्ञे पराङ्मुखः ॥ ७२ ॥ मन्त्री गृहं गतः पुत्र-मूचे भोः ! मम मृत्युना । कुटुम्बं जीवति ॥ ७३ ॥ ततो नृपं नमन्तं मां वत्स ! खङ्गेन घातयेः ।
॥ ७१ ॥
पापमित्यवदत्स, मलबे मां विषान्मृतम् ॥ ७४ ॥ नतः पापं न ते सोऽथ तदादिष्टं तथाऽकरोत् । हा हा अकार्यमित्यूचे, राज्ञाज्य श्रीयकोऽवदत् ॥ ७५ ॥ यो वो नेष्टः स नोऽप्येवं ततः संस्कार्य तं नृपः । श्रीकं स्माऽह मन्त्री स्याः, सोऽवग् भ्राताऽस्ति मे बृहत् ॥ ७६ ॥ कोशागृहे स्थूलभरू - स्तमथाजूह यन्नृपः । निर्ययौ द्वादशाब्दान्ते, राज्ञेोक्तः स्माऽऽह चिन्तये ॥ ७७ ॥ राजाचे शोकवन्यन्त श्चिन्तयान्यत्र मा गमः । सोऽथ तत्र गतो दध्यौ,क्व भोगा राज्य चिन्तने ? ॥ ७८ ॥ "मुझे सुपारवश्यजननी सच्छिदेदिनां नित्यं कर्कश कर्मबन्धनकरी धर्मान्तरायाऽऽवहा । राजापैकपरेव संप्रति पुनः स्वायंत्रार्थापत् तद् ब्रूमः किमतः परं मतिमतां लोकद्वयापायकृत ! ||७|| गतिश्च नरकाता स्याकृत्वा लोचं ततस्तदा । रत्न कम्बलशाली रजोहरणमप्यथ ॥८०॥ नृपमेत्यावदकर्म सामस्तेऽस्विति चिन्तितम् । राजोचे निर्वहेः सुष्ठु, , यातोऽसौ दध्यिवान्नृपः ॥८१॥ मित्रात् कोशा परिस्थितः । मृतकेम्पो जनोऽपैति मुखानि विद्धाति च ॥ ८२ ॥ निर्विकारः स भगवान्, ययौ दृष्ट्राऽथ सूनृता । श्रीयकःस्थापितो मन्त्री, स्थूलभद्रः पुनर्मुनिः ॥ ८३ ॥ संतरे शिष्योऽन्यको रजसा । मिलितुं याति कोशायाः, स्थूलभद्ररता च सा ॥८४॥ मनुष्यमीहते नान्यमुपकोशा तु तत्स्वसा । तत्संभोक्ता वररुचिस्तत्कोशां श्रीयकोऽवदत् ॥ ८५ ॥ इतो मृतः पिताऽस्माकं प्रातुश्च विरहोऽजवत् । तब प्रियवियोगोऽनू-सदेतं पाययाऽऽलवम् ॥ ८६ ॥ स्वना तदुक्तया चन्द्रप्रभां स पार्थितः सुराम् । श्रीति कोश 53 सोऽय नावितमम्बुजम् ॥ ७ ॥ नृपाssस्थाने वररुचे-रापयत्कस्यचित्करात् । देवकामदाखयम् ॥ ८ ॥ निःसारितोऽथ ही बिल्वा, प्रायश्चित्तं द्विजा ददुः । तप्तस्य त्रपुणः पानं, तेनाऽसौ पञ्चतां गतः ॥ ८६ ॥ स्थूलभस्तपः कुर्वन् विहरन् गुरुभिः सह । बागमा वर्षाकालमयद जग्राहानिग्रहं साधु-रेकः सिंहगुहास्थितौ । अन्यः सर्पविले चान्यः, कूपका ऽञ्चनदारुणि ॥ ६१ ॥
( २४१६ ) अभिधान राजेन्द्रः ।
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स्थूननश्चतुर्मासी, कर्ते कोशागृहे पुनः ।
सिंह शमं याती, तुष्टा कोशा प्रियाऽऽगमात् ॥ २ ॥ उत्थायचे किं. तुमस्यायो सैव वश्चित्रशालाऽस्ति, स्थितस्तस्यां प्रभुस्ततः ॥ ९३ ॥ रात्री शुङ्गारमाधाय प्रभुको मार्थमागता । न पारितः क्षोभयितुं प्रभुमन्दरखोदरः ॥ ए४ ॥ धर्मे श्रुत्वा ततो जज्ञे, श्राविका धर्मतत्ववित् । राजादिष्टं नरं मुक्त्वा सा ब्रह्मव्रतमग्रहीत् ॥ ९५ ॥ चतुमासागमे सिंह गुहागतान् मुनी । गुरुः श्माऽऽह स्वागतं वो, इंहो ! पुष्करकारकाः ! ॥६६॥॥ आयाते स्थूभड़े तु गुरुरुत्थाय सम्भ्रमात् । ऊचे ते स्वागत साचो कृतदुष्करकर! ॥ योऽपि तेऽथ सास्या, मिथः स्माऽऽर तपस्विनः । अमात्यपुत्र इत्येवं, बहमन्यन्त सूरयः ॥ ९८ ॥ अथ सिंहगुहासाधु-रन्यप्रावृषि मत्सरात् । कोशागृहे चतुर्मासी कृतेऽनिग्रहमग्रहीत् ॥ ६६ ॥ श्राचार्यैरुपयुज्याऽथ वारितोऽपि जगाम सः । वसतिमगिता दत्ता, तथा तां स निरीक्ष्य च ॥ १०० ॥ अनुरकोऽर्थयामास सा नेणति स्म राम्र आनय व्यकं मे, सोऽवदम्मे कुतो धनम् १ ॥ १०१ ॥ सोचे नेपाल भूपालः साधूनां रक्तकम्बलम् । ददाति लकमूल्यं स तत्रागालब्धवाँश्च तत् ॥ १०२ ॥ श्रागच्छतश्च चौराणां, लक्कं यातीत्यवकू शुकः । नसेनापतिया-पात १०३ ।। गते तत्र पुनः कीरो ऽवादीलकं गतं गतम् । ततस्तमनुगत्योबे, सोऽवन्दरामेऽस्ति कम्बलम् ॥ १०४ ॥ नये वेश्याकृते मुक्तो, ययौ तस्या ददौ च सम ।
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तया चन्द निकायां स किप्तो वारयतो मुनेः ॥ १०५ ।। सोचे शोचस्यभुं न स्वं त्वमपीदृग् जविष्यसि । मग्नो विषयः स प्रयुकोऽथ स १०६ ॥ मिथ्यादुष्कृतमुत्या गाद गुरोरानोचयन्ततः । उपालब्धोऽथ गुरुणा, ज्ञातमात्मपरान्तरम् ॥ १०७ ॥ तां चिरं परिचितामपि ।
चूलभद
जवाँस्तु प्रार्थयामास, विगुप्तोऽथर्जनेन च ॥ १०८ ॥ गुरुमकमयन्ननः, स्थूलनरूं च सोऽथ तम् । रथिकस्याम्यदा कोशां, ददौ राजा पुरोऽस्य सा ॥ १०५ ॥ स्थूलभषगुणानाख्य-न तथोपाचरश्च तम् ।
( इतः कथाखरामं वैनयिक्यामुक्तम् )
कालेज, दुष्कालो द्वादशाब्दकः । इतस्ततोऽम्बुधरेतीरे तमतिक्रम्य साधुभिः ॥ ११० ॥ विस्मृतिं याति सिद्धान्त, गुणनाऽभावतस्तदा । पाटलीप स्थित्वा यचस्याऽऽयाति तच्छ्रुत ॥ १११ ॥ मेद्भिः समस्तं ते मिलितास्का ।
पाठ ११२ ॥ सङ्घः सङ्घाटकेनोचे, पूर्वाएयध्यापयेति तम् । गुरुरुचे महाप्राणं प्रविष्टोऽस्मि ततोऽधुना ॥ ११३ ॥ न कमोद, संघस्थापयिस पुनः संघटनांचे ते ११४ ॥ को दएमस्तस्य सोऽयोच देवघाट्यते हि सः ।
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(२४१७) थलजद्द अनिधानराजेन्द्रः।
थूलनद ततोऽधुना किं क्रियते, सोऽवग्मोद्घाटनं कुरु ॥ ११५ ॥ तेषु सिंहगुहास्थायी मुनिगुरुणा निवार्यमाणोऽपि द्वितीयचतुशिष्यान् प्रेषयतां प्राज्ञान्, दास्ये सप्ताहि वाचनाः । मास्यां कोशागृहे गतो, दृष्ट्वा च तां दिव्यरूपां चलचित्तोऽजनि, भिक्काचर्याः समायातः, कालवेलाविकासयोः ।। ११६ ॥
तदनु तया नेपालदेशाऽऽनायितरत्नकम्बलं खाते क्षिप्त्या प्रसंकानूम्बागतश्चैव, तिम्रश्वाऽऽवश्यके पुनः।
तिबोधितः सन्नागत्योवाचसिके ध्याने महाप्राणे, स परावर्तते श्रुतम् ॥ ११७॥
" स्थूल नकः स्यूनभः, स एकोऽखिनसाधुषु । मादेरन्तं ततोऽप्यादि, यावदन्तर्मुहूर्ततः।
युक्तं दुष्कर दुष्कर-कारको गुरुणा जगे"॥१॥ स्थूलभद्राऽऽदिकाऽऽयासी-ठिप्यपश्चशती ततः ॥११॥
"पुप्फफताणं च रसं, सुराण मंसाण महिलियाणं च। निरन्तरं वाचनाना मभावेश्येतुमकमाः।
जाणता जे विरया, ते दुक्करकारए वंदे" ॥२॥ स्थूलभ विना सर्वे, पराभज्याऽपरे ययुः ॥११॥
कोशाऽपि तत्प्रतिबोधिता सती स्वकामिनं पुजार्पितवाण. ध्याने स्तोकाचशेप स, पृष्टः श्रीभद्रबाहुना।
र्दूरस्थानलुम्ब्यानयन गर्वितं रथकारं सर्वपराशिस्थसूच्यप्रस्थ. कि खिद्यसे न खिद्येऽहं, कञ्चित्कासं कमस्व तत् ॥१२०॥
पुष्पोपरि नृत्यन्ती प्राऽऽहमिध्यानः सदा सर्व-दिनं दास्यामि वाचनाम् ।
"न दुकर भम्बयझुंबितोडणं, न मुक्करं सरिसवनश्चिवाई। सोऽप्राकर्तिकं मयाऽधीतं, शेषं वा सूरयोज्यधुः ॥१२॥ तं दुकरं तं च महाणुलाचं, सो मुणी पमयवणम्मि बुच्चगे।" माशीतिर्दि सूत्राण्यौ-पम्यं सिद्धार्थमन्दरौ।
कबयोपितो न्यूमेनाऽपि पर, समयेन पठिष्यसि ॥१२२॥
"गिरौ गुहायां विजने वनान्तरे , पशपूर्वी द्विवस्तूना-ऽध्यापि भ्याने समर्थिते ।
पा संश्रयन्तो वशिनः सहस्रशः। अत्रान्तरे विहारण, प्रययुः पाटलीपुरे ॥१२३॥
हम्ये ऽतिरम्ये युवतीजनान्तिके, सप्ताप्यासनतास्तत्र, स्थूलभद्रस्य जामयः ।
घशी स एकः शकटासनन्दनः॥४॥ उद्यानस्थान गुरुन् स्थूल-भकं चाऽऽनन्तुमाययुः॥१४॥
योऽग्नी प्रवियोऽपि हि नैव दग्धगुरुत्वाऽवदन् कुत्र, ज्यष्ठाऽऽयः सूरयोऽभ्यधुः।
शिग्नो न खड्गाप्रकृतप्रचारः। पर गुणयन्नस्ति, वीक्ष्याऽऽयान्तीः सदोदराः॥१२५॥ ऋर्ति दर्शयितुं सिंह-रूपमाधाय तस्थिवान् ।
कृष्णाहिरन्ध्रप्युषितो न दष्टो, ताः सिंदं वीक्ष्य पूच्चक्रु-रायः सिंहन भक्वितः ॥१२६॥ नाक्तोऽजनागारनिवास्यहो यः ॥ ५॥ गुरुकचे न सिंहः स, भ्राता घो लब्धिमैकयत् ।
वेश्या रागवती सदा तदनुगा षमी रसभोजनं, यस्तास्तमथाऽऽनेमु-रप्राकीत्सोऽपि कौशनम् ॥१७॥ रानं धाम मनोहरं वपुरदो नव्यो वयःसङ्गमः। यहोवाच परिव्रज्य, श्रीयको वर्षपर्वणि।
कालोऽयं जनदाऽऽचिलस्तदपि यः कामं जिगायाऽऽदरात्, भभक्तार्थ मयाऽकारि, निशीथे मृत्युमाप्तवान् ॥१८॥ तं वन्दे युवतिप्रबोधकुशलं श्रीस्थूलभकं मुनिम् ॥ ६ ॥ ततश्च मामभुजानां, विदेहे देवताऽनयत् ।
रे.काम! वामनपना तक मुख्यमस्र, वत्र पृष्टः प्रतुः प्राऽऽह, ऋषिहत्यानते न तत ॥१२॥ बीरा वसन्तपिकपश्चमचन्हमुख्याः। मया निन्येऽध्ययने, स्वाम्युक्ते मुक्तिभावने (?)।
स्वत्सेवका हरिविरञ्चिमहेश्वराऽऽद्याः पन्दित्वा तास्ततो याताः, द्वितीयेऽहघुपतस्थुषः ॥ १३०॥ हा हा हताश! मुनिनाऽपि कथं हतस्त्वम्॥७॥ न गुरुवाचनां दत्ते, स कात्वा यःकृतं ततः ।
श्रीनन्दिषणरथनेमिमुनीश्वराईनेतत्पुनः कारिष्यामी-त्येचं कष्टेन भूयसा ॥१३॥
बुख्या त्वया मदन रे! मुनिरेष दृष्टः । कामितोऽध्यापयच्छेष-मुक्तो माऽयं ददो पुनः।
ज्ञातं न नेमिमुनिजम्बुसुदर्शनानां, ध्युजिन्नाऽथ चतुःपूर्वी, दशमाऽन्त्यद्विवस्तुयुक् ॥१३१॥ तुर्यो नविष्यति निहत्य रणाङ्गणे माम् ॥८॥ योगसंग्राहिता चैवं, शिक्षायां स्यूलभद्रवत् ।" प्रा०क०। श्रीनमितोऽपि शकटालसुतं विचार्य थेरस णं अज्जमंजूइविजयसा माढरसगुत्तस्स अंतेवा
मन्यामहे चयम, भटमेकमेव ।
देवोऽभिदुर्गमधिरुह्य जिगाय मोई सी थेरे अजथूलभद्दे गायमसगुत्ते॥
यन्मोहनाऽऽलयमयं तु वशी प्रविश्य ॥॥" स्थविरस्यायसंभृतिविजयस्य माठरगोत्रस्य शिष्यः स्थवि
भन्यदा द्वादशवर्षदुर्भिकमान्ते संघाऽऽग्रहेण श्रीप्ररूबाहुनिः र आर्यः स्यूलभस्रो गौतमगोत्रोऽनत् । तत्संबन्धश्चाऽयम्- साधुपञ्चशत्याः प्रत्यहं वाचनासप्तकेन रहिवादे पाव्यमाने पाटलिपुरे शकटालमन्त्रिपुत्रः श्रीस्थूलभद्रो द्वादश वर्षाणि को
सप्तभिर्वाचनानिरम्येषु साधुषु उद्विमेषु श्रीस्यूलजको वस्तुशागृहे स्थितो वररुविद्विजप्रयोगापितरि मृते नन्दराजे
द्वयोनां दशपूर्वी पपा । अपैकदा यकसाचीप्रभृतीनां वनाSSकार्य मन्त्रिमुकादानायापतिः सन् पितृमृत्यं स्वचित्ते
न्दनार्थमागतानां स्वभगिनीनां सिंहरूपदर्शनेन दनाः श्रीविचिन्त्य दीकामादत्त,पश्चाश्च संनूतविजयान्तिके वतानि प्रति
भवादयो 'वाचनायाम योग्यस्त्वम्' इति श्रीस्थूलभमचिपद्य तदादेशपूर्वकं कोशागृहे चतुर्मासीमस्थात्, तदन्ते च बहु
बांसः। पुनः संघाऽऽग्रहात 'अथाऽन्यस्मै वाचना न देया 'त्युहावभावविधायिनीमपि तां प्रतिबोध गुरुसमीपमागतः सन्
क्त्वा सूत्रतो वाचनां ददुः । तैर्दुकरदुष्करकारक इति संघसमक्षं प्रोचे, तद्वचसा पूर्वा
तथा चाऽऽहुःयाताः सिंहगुहासर्पबिलकूपकाष्ठस्थायिनत्रयो मुनयो दूनाः, "केवली चरमो जम्बू-स्वाम्यथ प्रभवप्रभुः।
६०५
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घोष
(२४१८) युलन्नद्द
भाभिधानराजन्छः । शरयंभवो यशोजरूः, संभूतविजयस्तथा ॥१॥
थे अ-स्थित-त्रि०।"फाग-ट-म-त-द-प-श-प-स.."|| 0।२। नद्रबाहुः स्यूलभः, श्रुतकेवझिनो हि षट् ॥" कल्प०८कण । | ७७।। इत्यादिना सलुक् । “युवर्णस्य गुणः "॥ ४।२३७ ॥ तिः । प्रा० क० । तं०। प्रा० चू० । नं०। भाव। "क-गा-च-ज-त...॥ १।१७७॥ इत्यादिना तलुक। गतेनि. स्था० । उत्त।
वृत्ते, प्रा० ९.४ पाद । " थेरस णं अज्जसंभूविजयस्स माढरसगुस्सस्स इ-| थेग-थेग-पुं० । कन्दावशेष, ध०२ अधिः । प्रव०। मानो सत्त अंतेवासिणीश्रो अदावच्चाओ अनिन्नायाो हो-शेत--नास्थिरतायाम, औ०। अष्ट। स्थेये, त्रि०। त्था । तं जहा"जक्खा य जक्खदिना, भृया तह चेव भूयदिना य ।
प्रीतिकरतया गच्छचिन्तायाः प्रमाणभूते, अनेकशी वा प्रीतिसेणा बेणा रेणा, नइणो यूलभहस्स॥ १॥" कल्प.
करीकृते, व्य०३ उ०। ८कण ।
थेजकरण-स्थैर्यकरण-न । चित्तस्थिरतासंपादने, पञ्चा० १ जसजदं तुंगियं वंदे, नूयं चेव य माढरं ।
विव०। जद्दबाहुं च पाइन्न, शूलजई च गोयमं ॥३६ ।।
थेण-पुं० । देशी-स्तेने, दे० ना० ५ वर्ग २६ गाथा। स्थूलमऊं, चः समुच्चये । गौतम गौतमस्थापत्यम गौतमः ।। थेणिनि-न । देशी-हृते, भीते च । देण्ना०५वर्ग३२गाथा । "ऋष्यन्धकवृष्णिकुरुभ्यश्च"।४।१ । १४४ ॥ श्त्य प्रत्य
थेमिच्च-स्थैमित्य-ना। निश्चलत्वे, द्वा० १७ द्वा । यः । तं, वन्दे इति क्रियायोगः ।। श्रीस्थूलभको कोशागृहावस्थिताबाहारमपि गृहीतवानिति
| थेय-स्तेय-न० । परस्वापहरणे, द्वा० ३० द्वा० । जनप्रवादः, परं शय्यातरपिएडत्वेन कथं न जनप्रवादनिब- | थेर-स्यविर-पुं० । 'थविर' शब्दाथै, प्रव. २ द्वार । चतुर्मुने न्धनमिति प्रश्ने, उत्तरम-श्रीस्थूलजस्य कोशागृहेऽवस्थि.
| ब्रह्मणि, दे० ना०५ वर्ग २६ गाथा । तिरागमव्यवहार्यनुज्ञातत्वेन यथा नानुचिता, तथा शय्यातरपिएमपदणमपि झेयम् । ते हिसातिशयज्ञामवत्तया त्रैकालिकवि.
थेरकंचुज्ज-स्थविरकञ्चुकिन्-पुं० । 'थविरकंचुज'शहितं विमृश्यैव सर्वमप्यनुजानन्त इति । ११० प्र० ।
न्दाथै, भ०६ श० ३३००। सेन० १ उदा० । श्रीस्थूलभस्य यतित्वे वेश्यागृहस्थितिः, थेरकप्प-स्थविरकल्प-पुं०। थविरकप्प' शब्दार्थे, स्था. ३ सा सिकान्तोक्का, नवा?, यदि सिकान्तोक्ता, स सिकान्तो ना- | ठा०४ न०। मप्रादं प्रसाध इति प्रश्ने,उत्तरम्-नन्दीसूत्रे पारिणारियां बुद्धौ | थेरकप्पाह-स्यविरकल्पस्थिति-स्त्री.।' थविरकप्पहिर'शस्चूलनका,कार्मिक्यां तु वेश्या,सारथिश्च उदाहरणतयोक्ताः स. | दार्थ, वृ० ४ उ०। न्ति,पतदर्थप्रतिपादने स्चूसनस्य यतित्वेऽपि वेश्यागृहेऽवस्थानमुक्तमस्तीति । प्र० २२६ प्र० । सेन० ३ नमा० । श्री
थेरकप्पिय-स्थविरकल्पिक-पुं०। 'थविरकल्पिय' शब्दार्थ, स्थूलभस्य नाम चतुरशीतिचतुर्विशति यावत्तिष्ठति, तत्कुत्र
प्रव० ७० हार। प्रन्येऽस्तीति प्रश्ने, उत्तरम्--श्रीस्थूल जास्य नाम चतुरशीति-थेरजमि-स्थविरजूमि-जातिश्रुतपर्यायस्थीवरेषु, स्थविरभूमिचतुर्विशति यावसिष्ठति, तच्चारित्राऽऽदिवस्तीति बंध्यम् । त्रिधा । स्था० ३ ठा०२ उ०। ('थविरहमि' शब्दे २३६४ पृष्ठे ५१ प्र.। सेन.४ उला० ।
ব্যানা) एलरोग-स्थलरोटक-पुं०। वृहदुरोटके 'वाटी' इति प्रसिद्ध, जतिपत-मशविग्नमिप्राप्र-त्रि० । 'थविरमिपत्त' श. ध०५ अधिः ।
दार्थे, व्य. ११०।१०। थूलवय-स्थूलवचम्-पुं० । स्थूलमनिपुणं वचो येषां ते स्थूलत्र
थेरय-स्थविरक-पुं० । 'यविरय' शब्दार्थे, भाचा १०१ चसः। भविचार्यभाषिषु, ध०२ अधिः। उत्त।
०२ उ०। यूनादत्तादाण-स्थूलादत्ताऽऽदान-न.। स्थूलं च तददत्त. थेरवेयावच्च-स्थविरवैयावृत्य-न० । 'थविरवेयावत' शब्दास्याऽवितीर्णस्य द्रव्यस्याऽऽदानं ग्रहणं स्थूलादत्ताऽऽदानम् । | थे, व्य०१ उ०। पश्चा० १ विव०। परिस्थूलवस्तुविषये चौर्याऽऽरोपणहेतुत्वेन | थेरावनी-स्थविरावली-स्त्री.।'थविरावली' शब्दाथ, न.। प्रसिद्ध भतिपुष्टाध्यवसायपूर्वके चौर्ये, स्था०५ ग.१ उ.।। यूल-धूल-स्त्री०1"चूसिकापैशाचिके ततीयतरीयोगाला थेरासण-नादेशी-पो, दे० ना०५ वर्ग २ए गाथा। तीयो"। । ४ । ३२५ ॥ इति धकारस्य थकारः। रेणौ,
रोवघाश्य-स्थविरोपघातिक-पुं० ।' थविरोवघाश्य ' शब्दाप्रा० ४ पाद ।
थे, दशा० २ भ०। यूली-स्थूली-स्त्री०। गोधूमस्थलचूणे, गोधमानां स्थनचर्णःथेव-स्तोक-त्रि० । स्तोके, "येवं पि हुतं बहू होर।" (१५०) सपिंषा सिकः स्थास्यां पक्कः स्यूनीति मालवप्रसिद्धा । घ.२ श्राव. नि०१ म.पा. म० । विशे० । देशी-विन्दौ, दे० ना० अधि ।
५ वर्ग २६ गाथा। थूह-पुं० । देशी-प्रासादशिखरे, चातके, वल्मीके च । देना थेवरिअ-देशी-जन्मनि, ये च । दे० ना• वर्ग २६ गाथा। वर्ग ३२ गाथा।
थोअ-पुंo देशी-रजके, मूलके च। दे० ना०५ वर्ग ३२ गाथा।
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(२४२) थोक अन्निधानराजेन्धः।
थोहरी थोक-स्तोक-त्रि.। " स्तोकस्य थोक-थोव--थेवा:" ।5।२] यायच्च-स्तोतव्य-त्रि०। पूजनीये, पञ्चा। ११२५॥ इति स्तोकस्य थोक्काऽऽदेशः । प्रा०५ पाद । अपर्याप्ते चराएपमिवत्तिरूवो,योयव्योचियपवित्तिमो गुरुओ। (२४) आचा०१०१०४ उ० को "अणथोवं वणथोचं, अग्गी
चरणप्रतिपत्तिरूपश्चारित्राभ्युपगमस्वनावः, नावस्तव इति थो कसायधोवं च । न हु भेवासासयब्वं, पेयं पि हुतंबई
प्रकृतम् । स्तोतव्ये पूजनीय भगवति वीतरागे विषयनूते या हो" ॥ १२० ॥ प्राय० १ अ०। प्रा० म० । विशे।
उचिता संगता प्रवृत्तिः प्रवर्तन, सा स्तोतव्योचितप्रवृनिः,तथोगुच्चय-स्तोकोच्चय-पुस्तोकस्योद्धरणे, ज्यो १ पादु।। स्याः स्तोतव्योचितप्रवृत्त तोगुरुको गरीयान् ऽव्यस्तवापेक्वया। थोणा-स्थूणा-खी । “स्थूणातूणे वा"॥८।१।१२५ ॥ इति
पञ्चा०६ चित्र।
थोर-स्थल-त्रि० । " स्थूले लो रः" ॥११५५५।। इति लस्य उत प्रोत्वम् । छादनस्तम्भे, प्रा०१ पाद। थोत्त-स्तोत्र-न । “ स्तस्य थोऽसमस्तस्तम्बे" ।२।४॥
स। प्रा० १ पाद । “ ओत्कृष्माएमी--तणार -रि--स्थूल०."
।८।१।१२४ ॥ इत्यादिना नत ोत्वम् । पृथुले, प्रा०१पाद । इति स्तस्य थः । प्रा०२पाद । बहुश्लोकप्रमाणे स्तबे, पञ्चा.
क्रमपृथुन परिवर्तुले, दे० ना० ५ वर्ग ३० गाथा । विव० ।कास्तोत्राणि तु जिनानाम् (आप्तानाम्)पव।
थोल-पुं० । देशी-वस्पैकदेशे, दे ना० ५ वगै ३० गाया। . पौविव०। योत्तगरूई-स्तोत्रगीं-स्त्री० । स्तोत्रमहत्यां पूजायाम् , पञ्चा०
थोव-स्तोक--पुं०। सप्तप्राणाऽऽरम के कालविशेष, "सत्त पाणा४ विव०।
णि से थोव, सत्त थोवाणि से लवे।" भ०१ श. १ उ०। तच
प्राणाः सप्त सप्तसंख्याका पका स्तोकः। ज्यो०१ पाहातं। थोत्तस्यएकोस-स्तोत्ररत्नकोश-पुं। नूतिसुन्दरसूरिविरचिते
कल्प० । कर्म।ज्ञा। अनु। स्था० । प्रव०। भल्पे, प्रश्न.२ जिनस्तवनग्रन्ये, कटप० ।
आश्रद्वार । स्था. विशे०। स्वटपे, आव०४०। गणनातथोक्तं श्रीमुनिसुन्दरसूरिभिः स्वकृतस्तोत्ररत्नकोशे
प्रमाणहीने, त्रि. विशेश दर्श। "धोवाऽऽहारो थोनभणियो "वीरास्त्रिनन्दाङ्क (९६३) शरद्यचीकरत् ,
अ, जो होई योवणिहो । योचोवहिउयगरणे, तस्स दु देवा त्वच्चैत्यपूते ध्रुवसेनजपतिः ।
वि परिणमंति ॥१॥" सूत्र १ श्रु०८ अ०। । यस्मिन्महै। संसदि कल्पवाचनामाद्यां तदानन्दपुरं न कः स्तुते ? ॥१॥" कल्प० ७ कण।
योवभ-स्तोकक-पुं० । वातकपक्विणि, शा०१ श्रु०१०। थोजग-स्तोजक-पुं० । चकारहिकारतुशब्दवाशन्दादिषु नि-योह-न० । देशी बने, दे० ना०५ वर्ग ३० गाथा । पातेषु, विशेष । प्रा०म० ।
| थोहरी-थोहरी-स्त्री० । स्नुहीतरी, ध०३ भाधि । प्रव०।
storicolorlechackeatrolortcotnaselestostostosteotentororistictestoolooterlostaloricolestertonealestonloatestostootiate FFERESTRITISMITH
A animedia
GREEN
इति श्रीमत्सौधर्मबृहत्तपागच्छीय-कलिकालसर्वकल्पश्रीमद्भहारक-जैन श्वेताम्बराऽऽचार्य-श्री १००७ श्रीविजयराजेन्द्रसूरीश्वरविरचिते 'अनिधानराजेन्छे'
थकाराऽऽदिशब्दसङ्कलनं समाप्तम् ।
एक
ORAND
PANISATIREME
N
arendra F0RF
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(२४२.) अभिधानराजेन्डः।
दंड
R
दकारः
etcolodloslaalous
4444444444
दइवयप्पनाव-दैवकमनाव-पुं०।विधिसामयें, प्रश्न. २ प्रा. salcolvoi dsalwalaolog
श्र0 द्वार। दश्व-देव-न० । देवादागतम । देवो देवताऽस्य देवस्येदं या माए । वाच । "सेवाऽऽदो वा" ॥८॥२६॥ति अन्त्यस्य बा द्वित्वम् । 'दइन्वं।' 'दइवं ।' प्रा०२ पाद । भाग्ये, फलोन्मुखे
शुभाशुनकर्मणि, “प्राग्जन्मनि कृतं कर्म, शुनं वा यदि पा Ranegeseayosyeareseayee.kee
शुभम् । दैवशब्देन निर्दिष्ट-मिहजन्मनि त दुधैः ॥१॥" वाच। दउलताबाद-दौलताऽऽवाद-पारसीकः शब्दः । प्रान्तदेशीये
स्वनामख्याते नगरे, यत्र जिनप्रजसूरिविंदतः । ती०४८ कल्प। द-द-पुं० । दा-दैप-वा कः। पर्वते. दत्ते, खण्डने, वाच० ।
दानास-दकाभास-पुं० । शिवकस्य वेलन्धरनागराजस्य दाने, पूजने, क्षीणे, दानशौएम, पालके, देवे, दीप्तौ, पुराधर्ष,
भावासपर्वते, जी०३ प्रति०४ ० । स्था० । दयायाम, दमने, दीने, दन्दशूके, बके, बन्धने, बोधे, बाले, बोजे, बलोदिते, विदोषे, चालने, चीवरे, घरे, प्राणे च। का
दोदर-दकोदर-न० । जलोदरे, का०१ श्रु० १ अ.। कायाम्, कुल, कालकृते, उपदायाम, नैवेद्य, नि-दोह-दकौघ-पुं० । पानीयप्रचाहे, वृ० १२० । स्था। नाथवनितायाम, नाय्यायां च । खाद, संबोधने, पाने, वैराग्ये, अपलोचने, दातरि च । त्रि०।ए. को०।
दम-दएम-पुं० । दण्मयते व्यापाद्यते प्राणिनो यो सदरमः। "दः पुमान् दातरि प्राणे, दा स्त्रियां कान्तिदानयोः ॥४७॥ आचा० १ ० १ ० ३ उ० । प्राणिन आत्मानं वा दण्डयती. छेदे संबोधने पाने, वैराग्ये चापलोचने।
ति दण्यः । आचा०१७०४०१०। स्था० । एकचते दस्त्रिालियां भवेद् मूके, ग्राहकेन्प्रवकेशशि (?) ॥४॥" इति । पापकर्मण। लुप्यते येन सदएमः।ध०२ अधि० । दुमयमाधवः । एका०।
तमनोवाकायलकणैहिलामात्रे, " पगे दंडे।" एकत्वं चाऽस्य "दो दाने पूजने काणे, दानशौरमे च पालके ।
सामान्यतयोद्देशात् । स० २ सम० । प्रातु० । भूतोपमदेवे दीप्तौ पुराधर्षे, दोर्तुजे दीर्घदेशके ॥६७॥
दें, ध.२ अधिः । आचा० । सूत्र। प्राणव्यपरोपणविधौ, सु. दयायां दमने दीने, दंदशुकेऽपि दः स्मृतः।
१०१ श्रु० १३ १० । बधाऽऽदिरूपे परनिग्रहे. स्था० ३ ग० ३ बोच बन्धने बोधे, बाले बीजे बलोदिते ॥६॥
बा दरम्यति पीडामुत्पादयतीति दण्डः। सुखविशेषे, सू. विदोषेऽपि पुमानेष, चासने चीवरे वरे।
त्र.११०५०१ उ० । परितापकारिणि, प्राचा०१ श्रु०७ दाऽऽधन्तो दिवि गङ्गायां, कुले कालकृते चदा ॥६६॥
अ.३० । पापोपादानसङ्कटपे, सूत्र०२ श्रु० २ ० । उउपदायां च नैवेये, निर्माधवनिता च दा।"
पतापे, सूत्र.२ श्रु०६०मनोवाक्कायानामसव्यापारे, न. शति विश्वदेवशंखमुनिः। एका
त्त.१६ अ०। प्राचा•। प्राणिपीडाकारके, प्राचा०२ श्रु०१ दअरी-स्त्री० । देशी-सुरायाम्, दे० ना०५ वर्ग ३४ गाथा । च०१०१०। दण्डयन्ते धनापहारेण प्राणी येस्तेदएमा। दाल-दयालु-त्रि० । दय-भालुच् । वाच । " क-ख-च
ध०२ अधिगचारित्रैश्वर्यापहारतोऽसारीक्रियते पाभरात्मा इति
दपमाः । दुष्प्रयुक्तमनोवाकायेषु, ध.३ अधि० । माचा० । ज-त-द-प-य-बां प्रायो लुक" ॥ ८।१।१७७ । इति स्व. रात्परस्यानादिनूतस्यासंयुक्तस्य यस्य प्रायिको लुक । प्रा० १ |
स्था दुरध्यवसाये, उत्त० ३१ अ०। पाद ! कृपायुक्ते, वाचः।
दण्डं निरूपयन्नाहदइ-न० । देशी-रक्षिते, दे० ना०५ वर्ग ३५ गाथा।
दो दंमा पसत्ता। तं जहा-अट्ठादंमे चेच, महादंमेचेव। दइच-दैत्य-पुं० । दितेरपत्यम् । दिति-रायः । वाच० " मार्दै णेरइयाणं दो दंडा पएणत्ता । तं जहा-अहादंडे चेच, त्याऽऽदौ च"।।१। १५१॥ ति दैत्यशब्दे ऐतो भ . अणहादंढे चेव । एवं चउचीसदमो० जाव माणियाएं । त्यादेशः। 'दश्च्चो ।' असुरे, प्रा०१पाद । दमण-दैन्य-नादीनस्य नावः व्यञ् । वाच०।" अश्त्या
(दो दमा इत्यादि) दरमः प्राणातिपाताऽऽदिः, सचार्यायन्छिदो च" ।।१।१५१ ।। ति दैन्यशब्दे ऐतो मर इत्या
याऽऽदिप्रयोजनाय यः सोऽर्थदण्डः, निष्प्रयोजनस्त्वनर्यदएम इ.
ति। उक्तरूपमेघ दण्डं सर्वजीवेषु चतुर्विशतिदएमकेन निरूपयदेशः। 'दनं।' प्रा०१पाद । दीनस्वे, कार्पराये च ।वाच०।
नाद-(नेरहयाणं इत्यादि) एवमिति नारकवदर्थदपमानर्थद. दश्य-दयित-पुं०। दय-क्तः । पत्यो. 'लुने, रक्षिते, नं0। प्रा.
एमाभित्रापेम चतुर्विशतिदण्डको नेयो, नवरं नारकस्य स्वशरीचा।का।श्रा०म० । प्रियमात्रे । त्रि० । भार्यायाम, ररतार्थ परस्योपहननमर्धदएमः, प्रद्वेषमात्रादनर्थदएमः । पृ. स्त्री०।वाच०।
थिव्यादीनामनाभोगेनाप्याहारग्रहणे जीववधनावादर्थदएमा, दश्वज-देव-पुं० । दैवं पूर्वजन्मार्जितं शुभं जनानां जन्मन
अन्यथा तु अनर्थदरामः । अथवा-बभयमपि जवान्तरार्थदनाऽऽदिना जानाति । कः । चाचा "को प्रः" ॥८॥ एडाऽऽदिपरिणतेरिति सम्यग्दर्शनाऽऽदित्रयवतामेव त्वनद. । ८३॥ सम्बन्धिनो अस्य लुग्वा भवति । 'दरवज्जो।' प्रा० । पमो नास्तीति । स्वा०२ ग०१० त्रयोदएमाः मन प्रादयः। २पाद । गणके, ज्योतिर्विदि च । बाच.।
खा०३.१३०।
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(२४२१) अभिधानराजेन्द्रः ।
दंग
तो दंगा पचाचा महा-मामे, वयमे, फायदे । नेरात दंगा पण्णत्ता व जड़ा-मदेदे, वयदंगे, कायदंडे । निििदया चं० नाव वैमाणियाणं । कठ्यम्, नवरं मनसा दमनमात्मनः परेषां वेति मनोदएमः । अथवा दण्ड्यतेऽनेनेति दण्मा, मन एव द एमो मनोदण्ड इति । एमित विशेष चिन्तायां चतुशिनियम (रा यदि यामानिकानामिति
1
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(विगलित)
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३४०
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र्थः । तेषां हि दरमत्रयं न सम्भवति, यथायोगं बायन सोरभावादिति । स्था० ३ठा०३० स०| ( "कायदेम” शब्दे तृ० भागे ४६२ पूछे तथा चोदण्डादिशब्देषु उदाहरणानि नि) राजनीति भेदे, स्था । स च " वधश्चैव परिक्लेशो, घनस्य हरणं तथा । इति दविधान-ईसमोऽपि त्रिविधः स्मृतः ॥ १ ॥ स्था० ३ aro झा० । आ० म० | मियादनमायानिदान २ अधि० । शरीरधनयोरपहारे, विपा० १ ० ४ अ० । निग्रहे, भाव० । दण्डो, निग्रहो, यातना, विनाश इति पर्य्यायाः । अत्र० ६ ० । विपा० । पञ्चार अपराधानुसा रेण राजग्राह्ये रूध्ये झा० १४० १ अ० । राजाऽऽझायाम, अपराधिदने, स्था० ५ ० ३ ० । सैन्ये, प्रायश्चित्त दानावसरे राजस्थापितद एकपुरुषाणां स्वेच्छाचारिणे दएकः । व्य० १ Đ० | स्वपरदण्डहेतौ च सुत्र० २ ० ४ ० । प्राजिन दमती, आयुर्वे घृतमित्यादिवत्कार्ये कारवत्योपचारा त् । श्राचा० १ ० १ ० ४ ३० । दमनं दण्मः परिधीनामनुशासनम् । खा० ७ ० नि० चू० । दण्डयतीति दएमः । यष्टिविशेषे, जं० २ बज्र० । सूत्र० । उत०।" सही आयपमा
?
विडिओ गुजेन परिदगा दंडो बाहुपमायो, वि दंमओ कक्खमितो य ॥ १ ॥ " इति दकयष्टयोर्भेदः । जी८० | पं० भा० । उत० । नि० चु० ।
चिदारुड 53 योनि करोति
जे भिक्ख सचित्ताई दारुदंडाणि वा वेणुदंडाणि वा बेचदंमाया करे करने वा साइनइ ||२७|| जे जिक्सचिचाई दारुदंमाणि वा वेणुदंमाणि वा वेतदंमाणि वा भरेई, घरं वा साइज्जइ ||२८|| जे भिक्खू सचिचाई दारुदंमाणि वा वेणुदंमाणि वा वेत्तदंडाणि वा परितुंज, परिभुंजं वा साइज्ज || २ए ॥
दो तारेचा सचिता जीवसहिता, वेणू स विधाते दासीसवादिकरणं परस्ताद् ग्रहणमित्यर्थः । ग्रहण | तरकालं अपरिभोगेन धरणमित्यर्थः ।
गाद्दा
सच्चित्तमीसगे वा, जे जिक्खू दंमए करे व धारे वा । सो आणा अणवत्थं, मिच्छत्तविराधणं पावे ॥ ७ ॥ सयमेव छेदणम्पी, जीवा दिडे परेश उङ्गादो। परापीमदोसा भारेण विराहणा विधा ॥ ६८ ॥ सात पण दिले उादो भवति परि
६०६
-
दैन
च्छिवि मालवणस्लति चि जीवोषघातो भवति, सावागुरुः गुरुत्वादात्पपातः ।
गाड़ा
परविष्ठ होति दंडए तिविधे । खबु, सेसे बहुगा व गुरुगा य ॥ ६६ ॥ तिविधो-यं सदारुमयो म सो बेब पर पति, पत्थ सुतति सवितो, चलअं, अनंत चडगुरुमं ।
गाहा
वित्तिय पदमण पज्जे, गेलस काण संजमभए वा । उपड़ीसरीरतेने पाणीए साणमादीसु ॥ १०० ॥ अणपज्जो करोति ।
गिलाण श्रद्धासु इमं वक्त्राएं। गाहावह तु गिलाणस्पा, बालादुवही पलंब अकाले । च्चिते मीसेतर, सेसेसु वि गहण जतणाए ।। १०१ ।। गिबाणो, बालो, नवदी, पलंबाणि वा प्राणे वज्यंति, साचयभरण वारणट्टा घेप्पंति, उवहिसरीराणां वहणा, तेणगपडिजीवामीण निवारा, अचितं पच्छा मोसं सेसा परिताता, पुढचं परिता, पच्छा अनंता ।
सुत्तणिवातो एत्थं सो व मीस
मीसो न परिचिते
सूत्रम्
जे भिक्खू चिलाई दारुदंमाणि वा वेणुदंमाणि वा वेदंडाणि वा कारे, कारंतं वा साज्जइ ॥ ३० ॥ जे भिक्खू चिताई दारुदंडाणि वा वेणुदंमाणि वा बेतदंगाशिवा धारेश, धारतं वा साइज्ज६ ।। ३१ ।। जे भिक्खू चिनाई दारुमाणि वा बेकुदंमाणि वा वेदंडाणि वा प रिभुंज, परिजुतं वा साइज्जइ ||३२|| जे भिक्खु विचिचाई दारुमाथि वा वेणुदंडाणि वा बेचदंदाणि वा करे, करं वा साइज ।। ३३ ।। जे जिक्खु विचिचाई दारुदंडाणि वा दंडाणि वा वेत्तदंमाणि वा धारेहै, धारं वा साइज्जइ ॥ ३४ ॥ जे जिक्खू विचित्तारं दारुमाथि माथि वा बेतदंमाणि वा परिजुन, परि वा साइज्जइ ॥ ३५ ॥
पत्र विचित् विदो आलावगा । चित्रक एकवर्णः, विचित्र नानाव:, करेति चरेति था, तस्स मासल
गाहा
चित्ते व विचित्ते वा, जे जिक्ख दंगए कए य धारेवा । सो आणा अथवत्यं मिच्छत्तविराधणं पांवे ॥ १०३ ॥ चिसो नाम एगतरेण परमेण उनलो विचितो दोदि प मोहिं, चित्तविचित्तो पंचचरणेदि ।
गाहा
सहजेा अतर विचितपणं । पतिपुण, विचित्त अविसिते सुखं । १०३ ॥ सहजो णाम-तद्द्रव्योत्थितः, कल्माषिका वंशदरमकवत्, आगन्तु
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दंड
(२४२२) प्रनिधानराजेन्द्रः।
दमपाणग कः-चित्रकराऽऽदिचित्रितः, सूत्रस्थाभिप्रायोविभूषाभूषिते प्रा- म० । कल्प० । श्रा० चू० । ( कस्य कुलकरस्य कीशी यश्चित्तं भवति ।
दएनीतिरिति 'कुलगर' शब्दे नृतीयभागे ५९३ पृष्ठे उक्तम्) गाहा.
दंमतयविरह-दएकत्रयविरति-स्त्री० । दण्ड्यते चारित्रैश्वर्यावितियपदं गमे, असती अछाणसंजमभए वा। पहारतोऽसारीक्रियते एभिरात्मेति दण्डा युक्तमनोवाक्कायाः, उवहीसरीरतणगे, पमिणीए आणमादीणि ॥ १०४ तेषां त्रयं तस्य विरतिरशुनप्रवृत्तिनिरोधः । दर्युक्तमनोवाकाय. अमेसि मंमगाणं अनावे चित्तविचित्ताऽऽदि गेराहति।" निचू०
त्रयाऽशुनप्रवृत्तिनिरोधे, ध०३ अधिक। ५३०ासूत्रका प्रब० (दएकपञ्चकं 'दंपणग' शब्देऽनुपदमेष बच्य
दंमदारु-दण्डदारु-न० । ब्रह्मचारिणामोदक्षिणतः स्थाप्ये ते)चतुहस्ते (स०४ सम०) धनुःपर्याये माननेदे, अनुना | सप्ताङ्गानामन्यतमेऽङ्गे, ज०११श०३ उ०। ज्यो । कुक्किइयनिष्पन्नो दण्डः । अनु० । दण्ड श्व दपमः।- | दंमपणग-दामपञ्चक-न० । यष्टवादिदण्डपञ्चक, प्रव० ।
रीरबाहल्ये जीवप्रदेशकमपुल समूहे, शा. लट्ठी तहा विलट्ठी, दमो अविदंमत्रो अनानी अ। १ श्रु०१०। प्रा०चू.("पढमे समये दंड करे।" इति । 'केवलिसमुग्घाय' शब्दे तृतीयजागे ६६३ पृष्ठे व्याख्यातम् )
भणि अं दंम्यपणगं, वक्खाणमिणं नवे तस्स ।।६७६॥
यष्टिः, तथा-बियष्टिः, तथा-दरामः, तथा-विदएमः, तथादंमकिरिया-दएमक्रिया-स्त्री०। सर्वविषनिवारियां विद्याया
नालिका, एतद्दएमपञ्चक भणितं तीर्थकरगणधरैः, तस्य च द. म्, श्राव० ४ अ०।
पडपश्चकस्येदं बक्ष्यमाणरूपं व्याख्यानं नवेत् । दंडखाय-दएमखात-न० । बाराणसीस्थे तीर्थभेदे, यत्र भव्य
एतदेवाहपुष्कराऽऽवर्तकः पूज्यते । ती० ४३ कल्प ।
लट्ठी पायपमाणा, विलट्टि चउरंगुलेण परिहीणा। दंग-दएडक-पुं० । साधूपकरणे, स्त्र. २ श्रु० २ अ०। पादप्रो
दंमो बाहुपमाणो, विदंडो कक्खमेत्ताओ॥६७७॥ कनके, जीत। ध० । वृ०। "अरिहंतचेााणं"इत्यादौ चैत्य
“लही” इत्यादि । यष्टिरात्मप्रमाणः, सार्कदस्तत्रयमानो वन्दनस्तवेध०२ अधिक वाक्यपछतौ,स्था०१1०("चउवीस
वियष्टिर्योः सकाशाचतुर्भिरङ्गुलैः परिहानो न्यूनो नवति, दंम्य" शब्दे तृतीयभागे १०५८ पृष्ठे व्याख्यातम्) वेत्रलताया
दएको बाहुप्रमाणः स्कन्धप्रदेशप्रमाणः, विदण्डः कक्षामावः म, प्रोघ. चतुर्विशतिदएमकमध्ये भवनद्वीपानां दपडकदश
कलाप्रमाणः। कोकमपरेषां व्यन्तरादिकानां दरामक पकैकः प्रोक्तस्तत्र लट्ठीए चनरंगुल-समूसिया दंमपंचगे नाली । किं कारणमिति प्रभे, उत्तरम-पत्र सत्रकृतां विवव प्रमाण- नश्पमुहजबुत्तारे, तीए थग्गिजए सन्निलं ॥ ६७० ॥ मिति । ७० प्र० । सेन०१ उल्ला० ।
यः सकाशात् चतुरङ्गुनसमुच्छ्रिता आत्मप्रमाणाच्चतुर्भिरदमगथुइजुगल-दएककस्तुतियुगल-न० । दण्मकश्च "अरहं. गुलैः अतिरिक्ता, षोमशागुलाधिकहस्तत्रयमानेत्यर्थः। दामतचेश्ाण" इत्यादि, स्तुतिश्च प्रतीता, तयोर्युगलं युग्मम, पञ्चके दरामपञ्चकमध्ये नाली नाम दएमपश्चमक इति । इदापते एव वा युगलं , दएमकस्तुतियुगलम् । स्वनामस्पाते स्तु.
नीमेतेषां पश्चानामापदपमानां प्रयोजन प्रतिपिपादयिषुरनातियुगले, पञ्चा० २ विवः।
नुपूर्त्या अपि व्याख्याऽङ्गत्वात्प्रथमं नासिकायाः प्रयोजनदंगमई-दएमकमयी-स्त्री० । दण्मको वंशवत्राऽऽदिमयी यष्टि- माद-नदीप्रमुखजलोत्तारे नदीहदाऽऽदिकमुत्तरीतुमनोनिर्मुनिस्तैर्निवृत्तायां चिलिमिलिकायाम, वृ०१०। नि००।
जिस्तया नालिकया स्ताच्यते सलिनमिदं गाधमगाधं वा
इति परिमीयते । दंडगराय-दएडकराज-पुं० । जनस्थानराजे, यो हि शुक्राय
अथ यश्चादीनां प्रयोजनमाहदुहितुर्देवजान्याः शीवं भजयन् शप्तः सन् सराज्य: कारतां
बकर बहीए जब-णिया विलट्ठीऍ कत्था दुवारं । प्राप्तः। ती० २७ कल्प।
घट्टिन्जए जबस्सय-तयणं तेणाइरक्खा दंडगुरुय-दएमगुरुक-पुं०। दण्डेन गुरुको वएमगुरुकः । यस्थ
॥६७६ ॥
"ब " इत्यादि । बटया यष्टिदण्डकेन उपाभये भोजनाऽऽदिमहान् दको प्रवति श्री दएमेन गुरु भवति । तस्मिन्,
बेसायां सागारिकाऽऽदिरकणार्थ यवनिका तिरस्करिणी अभ्यते, सूत्र०२ २०५०।
तथा-बियष्टया वियष्टिदएमकेन कुत्राऽपि प्रत्यन्तप्रामाउदी तदंगणायग-दएमनायक-पुं०। ठन्त्रपालके, राष्ट्ररकके, का.१
स्कराऽऽदिरकणार्थमुपाश्रयसत्कं द्वारं घटघते आहन्यते, येन श्रु.१ अारा। औ०।भ.। नृपाले, स्वदेशचिन्ताकर्तरि
खाद्वारश्रवणात तस्करशुनकाऽऽदयो नश्यन्तीति। च । कम्प. ३ कण।
उउबम्मि न दंमो, विदंडयो धिप्पए वरिसकाले । दंगणिक्खेव-दएडनिक्केप-पुं० दएमा प्राणिपीमानक्षणः, तस्य
जं सो बहुमो निजइ, कप्पंतरित्रो जन्मजएणं ॥६॥ निक्षेपः परित्यागः। संयमे, भाचा०२ . १चू० १ ०१ तथा ऋतुधरे काले जिवाभ्रमणाऽऽदिवेवायां वएको गृ
घते, तेन हि प्रद्विष्टानां द्विपदानां मनुष्याऽऽदीनां चतुदंगणीइ-दएकनीति--स्त्री.दएमनं दएकः परिधीनामनुशा-- पदानां गवाश्वाऽऽदीनां, बहुपदानां शरजाऽऽदीनां निसनं, तत्र तस्य बा स एव नीतिर्नयो दएकनीतिः । स्था० ७ पारणं क्रियते, दुर्गस्थानेषु च व्याघ्रचौराऽऽदिनये प्रहरणं म० दण्डेनोपलक्षितायां नीती, स्था०९गति . मा० भवति, वृद्धस्य च अवष्टम्भन हेतुर्भवतीत्यादिप्रयोजनम् ।
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दंडपाग
तथा वर्षाकाले विदएकको गृह्यते, यद् यस्मात् लघुको भवति, ततः कल्पान्तरितः कल्पस्याभ्यन्तरे कृतः सुखेनैतन्नीयते जनभयेन यथाकायेन न स्पृश्यत इति ॥ ६८० ॥
( २४२३ )
अभिधान राजेन्द्रः ।
इदानीमेतेषां दण्मानां शुभाशुनस्वरूपप्रतिपादनायाऽऽहविसमा वकमाई, दस य पव्वाइ एगवन्नाइ |
दंडे पोलाई, सुहाइँ सेसाइँ अमुहाई || ६८१ ॥ पूर्वोपदके पर्याणि धिमयानि पानि नियतीतिसम्बन्धमाणिक पाच तथा दश दशसंख्याति तथा वर्तमानानि उप परि प्रवमानानि । तथा एकवर्णानि न पुनचित्रलकानि । तथा(अपोलाइ ति) अशुचिराणि निविदामीत्यर्थः एवंविधविशेषण शिव मसृणा वा दण्डका यतिजनस्य प्रशस्ता इति भावः । ( सेसाई असुदाई ति ) पाणि पूर्वीकविपरीतस्वरूपाणि पर्याणि अशुभान्यप्रशस्ता मोतिकादिपर्वणां च शुभाशुभफलमित्यमोघनिर्युताषुकम् । यथा
एगफ पसंति, दुवा कलहकारिका । तिपव्वा लाजसंपन्ना, चउपचा मारणंतिया ॥ १ ॥ पंचफवा उ जा लड्डी, पंथे कलहनिवारिणी ।
पाप श्रायको, सन्तपव्वा निरोगिया ॥ २ ॥ अपवा असंपत्ती, नवव्या जसकारिया | दसपब्वा उ जा लट्ठी, तहियं सव्वसंपई ॥ ३ ॥ " इति । प्रब० ०१ द्वार | पं० ना० ।
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जे जिक्खू दंमगं वा लडिया अवहेलणयं वा वेणुसइयं वा सयमेव परिघट्टवा, संठवे वा, अम्माइवेएइ वा, परिघट्टतं या संयं वा जम्माश्वेतं वा साइज्जइ ॥ २५ ॥ इदमपि प्रथमोदेशक
।
गाड़ा
दंग विभए वा हि विलट्ठी यतिविधतिविधातु । वेणुमय बेत दारुय, बहु अप्प अहाकमे चैव ॥ १७० ॥ नि० चू० २ उ० |
दंडपरिहार -- दण्डपरिहार पुं० । महत्यां जर्णिकम्बलिकायाम् बृ० १ ० ।
दंरूपह-दण्मपथ-- पुं० । गोदराममार्गे, सूत्र० ।
धे व से दरुपदं गहाय,
अविओसिए पासति पावकम्मी ( ५ )
यथा धन्यधकिलो दण्डपथं गोदकमार्गे प्रभुखोज्ज्वलं गृहीत्वाऽऽश्रित्य व्रजन् सम्यगकोविदतया घृयसे कटकश्यापदाऽऽदिभिः पीयते, एवं केवललिगघानुपशान्तकोषः माध्यधिकरणेोद्दीपकस्तथा । (अविसिय अनुपात पापमनायें कमछानं यस्यासी पापकर्मा, पृभ्यते चतुर्गति संसारे यात नास्थानगतः पौनःपुन्येन पीरुद्यत इति ॥ ५ ॥ सूत्र०१ ०१३ २०
देवइ
दंरुपासि (ए) दरमपाश्र्श्विन्- पुं०दिएकस्य पार्श्वे दमपार्श्वे तद्विद्यते यस्याऽसौ दण्डपार्श्वी स्वल्पतया स्तोकापराधेऽपि कुप्यतिदण्डं च पातयति यः तस्मिन् दशा० ६ अ० । सूत्र० ।
दंरुपुंण्य दण्डञ्जनक- न० | दरमयुक्तायां संमार्जन्याम्, जं० ॥ वक्क० | सणक हस्त केशरपर्णाऽऽदिशलाका समुदाये च, आ० म०१ अ० १ खराम ।
दंमपुरकम - दण्डपुरस्कृत - पं० । सदा पुरस्कृतद एमे, दशा० ६
--
अ० । सूत्र० ।
कप्पयार-दमप्रकार पुं० [आाविशेषे स०
दमप्रचार पु० सैन्यवियर, स० ।
दंमजी इएमभी स्त्री० [दपरं जीवकर्मसमार भूपावादादिकं, दण्डादिभेतीति दरक भीः। दएकभीते, आचा० १०८
अ० १४० ।
दंमपाइ दयमाऽऽदि पुं० मञ्जानां धरणिपाताऽसुनवायुप्र कृतिषु पिं० ।
० ।
1
दंडय - दण्डक - पुं० | दंरुग' शब्दार्थे, सूत्र० २ ० २ दंगरयण-दमरल-२० खविशेषे भा० ० १ ० ..... ........डर परासणं भये दंडणं चयं वइरसारमध्यं त्रिणासणं सन्बसत्तू सेन्नाणं खंधावारेण खइयरस गुद्दादविसमारगिरिवतर्ण समीकरणं संतिकरणं सु मकर रो हिदमोहर दिव्यमपरि यं गहाय सतट्ठपदे पश्चोक्कर ।" आ० चू० १ ० ।
स्था० । प्रज्ञा० ।
दंडरुइ-दए मरुाचे-पुं०
एतदंरुरुयो । " हिंसन,
प्रश्नः ३ श्राश्र० द्वार ।
दंगलक्खण-दएफलक्षण - न० | दयमस्वरूपनिरूपणे, जं० ।
द एमलकणम्
61
यद्यातपचावितानकुन्तध्वजचामराणाम् । व्यापासीमधुकवर्थ
66
कलाक्रमेणेव दितायदाः (१) ॥ १ ॥ मन्त्रनावदा रोग मृत्यु६ जननाच पर्वभिः 1 व्यादिनिधिकविः कमाद्वारशान्तविरतैः समैः फलम् ॥ २ ॥ यात्रानाश २,
नानाः प्रभूताः ३ वसुधाऽऽगमय । वृद्धिः पशूनामभिचार्थः ६,
यादिष्वयुम्मेषु तदीश्वराणाम् ॥ ३ ॥ जं० २ चक्क० । ० । सुत्र० । औ० स० । ( अत्र विशेषो ' लठि ' शब्दे वीक्ष्यः ) दंतिय-दएझातिक- पुं०। दएको गृहीतो येन स द एमलातः, सुखादिना मिठान्तस्य परनिपातः दात प दातिकत्वात्) स्वार्थिकया। यथा पृथि वीकायिक इत्यत्र । गृहीतदपमे राशि, व्य० १ उ० ।
दंग दण्डपति-पुं० पुनस्तं मयति तस्मिन्
बृ० २३० ।
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(२४२४) दंडविज्जा अभिधानराजेन्डः।
दंतवाणिज्ज दंमविजा-दएडविद्या-स्त्री.वंशदएडाऽऽदिपर्वसंख्याफलक- | प्रा . म०। इन्द्रियजयसम्पन्ने, व्य०१०। समय, स्था० थने, उत्त० १५ मा
७ ठा। वश्यन्छिये, धर्मध्यायिनि च । सूत्र०१ भु०११ अ.। दमवीरिय-दएडवीर्य-पुं० । भरतचक्रवर्तिवंशोद्भवे भरता.
पर्वतैकदेशे, दे० ना०५ वर्ग ३३ गाथा। सप्तमे स्वनामख्याते नृपे, स्था० ८ ठा0। आवाआ. चू०।।
| दंतकम्म-दन्तकर्म-न । दन्तपुत्तालिकाऽऽदिषु, प्राचा० २ श्रु
। १० ४ अ०। दंमसत्थपरिजम-दाडशस्वपरिजीर्ण-पुं० । दएका वेत्रदण्डा. ऽऽदयः, शस्त्राणि खनाऽऽदीनि, ताभ्यां परिजीणे समन्ततो
दंतकलह-दन्तकलह-पुं० । वाग्युके, " अदन्तकलदो यत्र, तत्र दुर्बलभावमापादिते, दश० ६ ० २ ० ।
शक्र ! वसाम्यहम् ।" सूत्र०१ श्रु० ३ ०२०। दंडममायाण-दएमसमादान-न० । समादीयते कर्म पभिरिति
दंतकुंमी-दन्तकुण्डी-स्त्री०। हडनाजने, नकारोऽनाकणिकः। समादानानि कर्मोपादानहतेवा, दण्डा एच मनोदएमाऽऽदयः
तं०। प्राणव्यपरोपणाध्यवसायरूपाः समादानानि दरामसमादानानि ।
| दंगकुमी-दन्तकुटी-स्त्रीय दंष्ट्रासु, तं ।। कोपादानहेतुषु प्राणव्यपरोपणाध्यवसायरूपेषु मनोदएकाss. | दंतणिवाय-दन्तनिपात-पुं० । दशनच्छेचरूपेऽसंप्राप्तकामे, द. दिषु, जी३ प्रति०२ उ०।दएमयतीति दएमा पापोपादानसं श०६०। कल्पः, तस्य समादाने ग्रहणे, सूत्र २ भु० २० । प्रति। दंतधावण-दन्तधावन-न० । दन्तकाष्ठे, नि० चू० ३ उ० । भाचा०। प्रा० चू०।
( दन्तधावनविधिः ' एहाण ' शमेऽस्मिन्नेव भागे २१६३ दंमायश्य-दएडाऽऽयतिक-jo।दएडस्येषाऽऽयतिर्दीर्घत्वं पाद| पृष्टे गतः) प्रसारणेन यस्यास्ति सदएमाऽऽयतिकः । स्था. म. दंतप्पक्खालण-दन्तमलालन-न० । दन्ताःप्रकाल्यन्ते अपगतउ०। प्रसारितदेहे, स्था० ७ ग । मो० । सूत्रः ।
मलाः क्रियन्ते येन तद्दन्तप्रकासनम् । दन्तकाष्ठे, सूत्र.१ श्रु. दंमायत-दएमाऽऽपत-पुं०।दएमवष्टिवदायतो दीर्घो दएमा-1
४०१उ०। प्राचा० अनु०।। ऽऽयतः । भून्यस्ताऽऽयतशरीरे, पश्चा०१८ चित्र० स० दतप्पहावण-दन्तपधावन-न । अगुल्यादिना क्षालने, दप्रव०।
श० ३०। दंमारक्खिग-दएकाऽऽरतिक-पुं० । दरामधरे, नि. चू. दंतपाय-दन्तपात्र-न० । दन्तनिर्मिते पात्रे, प्राचा०२ ० १ "दंडधरो माऽऽरक्विगो दंगहियम्गहत्थो सबतो अंते- चू० ६५० १.।। बरं रक्खर, रमो वयणेज त्थिं पुरिसंवा अंतेपुरं जीणेति, दंतपुर-दन्तपुर-स्वनामख्याते दन्तवक्रस्य राझो नगरे, व्यक पवेसेति वा । एस दमाऽऽरक्खिगो।" नि० चू०४०। १ उ० । उत्त। श्राव। श्रा• कानि0 चू० । प्रा० चू० । दंमासणिय-दएमाऽऽसनिक-पुं० । दमस्येवाऽऽयतं पादप्र-दंतमणि-दन्तमाणि-०। प्रधानदन्ते, हस्निप्रभृतीनां दन्तजे सारणेन तद्दीधैं यदासनं तहण्डाऽऽसनं,तदस्यास्तीति दएडा- मणौ च । प्रश्न ५ संव.द्वार ।
सनिकः । भासनविशेषाभिग्रहवति, पृ० ५ उ० । दंतमल-दन्तमझ-पुं० । दन्तकिट्टे, नि० चू०३ उ० । दांड (ण)-दण्डिन-पुं० । दरामधारिणि, जं० ३ वक्षः ।
१० दंतमममइन-दन्तमसमलिन-न । दन्तमनमत्रीमसे, तं• । औ० । दशा । सूत्रकनके, दे. ना०५ वर्ग ३३ गाथा ।।
दंतमान-दन्तमाल-पुं० । दुमजातिविशेषे, जं. २ वक्षः। दमिय-दएिमक-पुं० । राजनि, व्य०४०।३०। करणपती च । व्य०१ उ० । स्था०।।
दंतवक-दन्तव-पुं। दन्तपुरराजे, यद्भार्यायाः सत्यवत्याः
दन्तमयसोधकरणे दोहदो जातः,तनगर एव धनमित्रवणिम्भादंदिया-दएिमका-स्त्री० । लेखोपरि राजमुद्रायाम, बृ.१००।
यायाः धनश्रियास्तथैव दोहदं पूरयितुकामस्य दृढमित्रस्य दमुका-दण्डोत्कट-jo 1 दएम आझा,अपराधिदएमनं वा, से
बन्धमाप्तस्य मुमोचयिषुर्धनमित्रो यथातथं वदन मुक्तो राजन्यं वा उत्कटः प्रकृष्टो यस्य, तेन वोत्कटो यः स दण्डोत्कटः।। कुवात् । व्य०१० । नि०चू० । भाव० । उत्त०। प्रा. ०। उत्कटभेदे, स्था० ५ ठा०३ उ० ।
(इति आलोचनायो' पच्चिस' शब्दे व्याख्यास्यते) दामोत्का-पुं० । दरामेन उत्कलति वृद्धिं याति यः स द-दंत (पा)वण-दन्तपावन-न० । दन्ताः पूयन्ते पवित्रीक्रियन्ते रामोत्कलः । उत्कटभेदे, स्था० ५ ठा० ३ ००।
येन काष्ठखएमेन तद् दन्तपावनम् प्रव०४ द्वार। दन्तमलापकर्षक दंत-दन्त-पुं० । दशने, "दशनानि च कुन्दकविकाः स्युः।"दे०।णकाष्ठे, उपा०१ अ० दश० । दशननिर्वेपनकाष्ठे यष्टिमध्वादी, श्राचा । (साधोदन्तघर्षणाचारनिषेधः 'अणायार' शब्दे
पञ्चा. ५ विव० । स्था० । दर्श० । प्रथमभागे ३१२ पृष्ठे उक्तः)
दंत(पा)वणविधि-दन्तपावनविधि-पुंगदम्बमलापकर्षणविधी, दान्त-०। दाम्यतीन्द्रियाऽऽदिदमं करोतीति दान्तः । दश ०१ अग('प्राणद' शब्दे द्वितीयजागे १०६ पृष्ठे विस्तर.) १०अ० पापेभ्य उपरते, व्य०१० उ. इन्डियनोइन्डियदमने, दंतवाणिज्ज-दन्तवाणिज्य-ना दन्ताऽऽश्रितं दन्तविषय वाणिनज्ञा० १ श्रु०१४ ० । सूत्र। जितेन्द्रिये, शा.१ धु०१४ | ज्यम। दन्तऋयविक्रययो, ध०२ अधिक। यत्र प्रथमत एव पुलिअ०। सूत्र० । दश०। प्रश्न० । उत्त। व्य। प्राचा०। ग०। म्दानां दन्ताऽऽनयननिमित्तं मृल्यं ददाति, आकरे वा गरवा स्वयं क्रोधाऽऽदिरहिते, उच०२ अ०भाजपशान्ते, सूत्र०१ श्रु.६ क्रीणाति,ततस्ते वनाऽऽदी गत्वा तदर्थ जन्ति तद्विक्रयपूर्व यदा
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दतवाणिज्ज
जीवनं तस्मिन् प्रव० ६ द्वार ध० र० । श्राव० आ० चू० श्रा० । पञ्चा० । दंतवेषणा दग्वेदना-खी० दस्तायाम् जी ३ प्रति०
1
। भ० ।
(२४२५) अभिधानराजेन्द्रः ।
४ उ० ।
दंतसेढी - दन्तश्रेणी - स्त्री० । दशनपङ्कौ, जं० १ बक्ष० औ० दंतसेणी-दन्तश्रेणी खी० 'दंतसेड़ी 'शब्दार्थे जं०२ पक्क इन्तानां मलनिःसारणसाध
,
सोग- दन्तशोधनक-न० ने उपकरणभेदे, पं० भा० पविरलदंतो थेरो, सेच्छाऽऽदीणं तु दंतलग्गाएं । सेवादारतिसारिय- रक्खडारोड सोडणयं ॥
मादिसुं चिय, पिप्पलतो विकरणड कंदाणं । माणाहिगवत्यादी पगासमुदजाणकरवाडा | पं० भा० "तसोमास [सि।" (२७) मकारोऽलाक्षणिकः अपिशब्द गम्यमानत्वादन्तशोचना उद्देश्यतिष्यस्य भास्ताम
० ।
न्यस्य । ( 29 ) ३० १६ म० । दंतामय - दन्ताssमय-पुं० । दन्तरोगे, नि० ० ३ दंतार-दन्तकार - पुं० । दन्ताशल्पिनि प्रज्ञा०] १ पद । दंति ( ) दन्तिन्पुं० हस्तिनि
वनस्पतिभेदे, प्रज्ञा० १ पद दंति पुं० देशी शासके, ३० ना०५ वर्ग ३४ गाया। दंनिंदिय दान्तेजिता
१७ मोकाशीकादिकं वि
दैनिक दन्तिक-म०
।
धं दन्तखाद्यकं तस्मिन् ०१०१ ०नि०० ०" मंसनिवित्तिकाचं, सेवर दंतिकथं ति । " पं० ६० १ द्वार । इंतिक चुप-दन्तिकचूर्ण पुं० सम्म दिखान्छे, "तिक यदन्तिकं
पूर्णमा
था" तिकचूर्णस्तललोहः । तु मोदकादिवाद्यक चूर्णम् ।
बृ० १ उ० ।
दंतियां - दन्तिका स्त्री० । गुल्मभेदे, प्रशा० १ पद । दतिलिया- दन्तवती स्त्री०/ पत्रकाऽऽलय प्रामवास्तव्यस्य स्कन्दकनाम्नो प्रामकूरपुत्रस्य दास्याम् आ० चू. १ अ० । मा० म० । दंतुक्खनिषदन्तोत्खनिक ५० फलनोजिए, नि० १०३
वर्ग ३ म० । औ० । भ० । दंतुङ- दन्तोष्ठ - पुं० । दन्तानामोष्टयोका समाहारे
10126
० १ ० नव
स्वा०
दंतुर - दन्तुर त्रि । उन्नता दन्ताः सन्त्यस्य, दन्त-उरच् । उन तदन्तयुके, उन्नताssनते विषमस्थाने च । चाच●। आ० म० । दंद-न्- पुं० । शीतोष्णाऽऽदिषु द्वा०२२ द्वा० । समुच्चयप्रधा ने समासभेदे, अनु० ।
से किं वंदे ? दंदे-दन्ताथ ओष्ठौ च दन्तोष्ठम्, स्वनौ च उदरं च स्वनोदरम्, न च पात्रं च वस्त्रपात्रम्, अमहिषध अश्वमहिषम् हि नकुलथ अहिनकुलम् । सेचं दंदे |
६०७
दंसण
समुपधानो इन्द्रः दस्ताोष्ठी च दन्तोष्ठम, स्तन उदरं च स्तनोदरमिति प्राण्यङ्गत्वात् समाहारः । वस्त्रपात्रमियादतिवाद पुनः शाश्वत याम्यप्युदाहरणानि भावनीयानि अनु
दंभ-दम्न- पुं० । मायया परवञ्चने, सूत्र० २ ० २ श्र० । सन स्त्रीला भेदे, कल्प० ७ ॠण ।
दंभग-दम्नक-१०
तलशलाकाभिः परशरी
अङ्का उत्पाद्यन्ते तेषु विश० १ ० ६ श्र० । घञ्चने च । प्रय० २ द्वार ।
1
दंभवहुल-दम्ब०ि दस्तो मायया परपञ्चनं दुकटे, सूत्र० २ ० २ भ० ।
दंनुब्जव-दम्भो छिननाश । ध० १ अधि० । दंनोलि-दम्मोक्षि-पुं० [दति यति-निः।
वाच । वज्रे, अत्रे, प्रति० अ० । दंसन्धा प्रवर्तने, दशेद-सदक्खनाः ॥ ८ | ४ | ३२ ॥ इति दृशेपर्यन्तस्य एते त्रय आदेशाः स्युः । “दावर । दंसइ । दक्खव । दरिसइ । " दर्शयति । प्रा० ४ पाद ।
"
दंश-पुं० । दन् श अच् । " शपोः सः " ॥ | १ | २६० ॥ इति शकारस्य सकारः । दंशः । प्रा० १ पाद । वनमक्किकायाम्, आचा० १ ० ६ श्र० ३ उ० । भव० । उत्तः ।
दन्श करणाऽऽदौ घञ् । कर्मणि, मर्मणि, दोषे, खएमने, सपऽऽघाते, दन्ते च । वाच० ।
-
दर्श-पुं० | दर्शनं दर्शः । सम्यक्त्वे, आ० म० १५० १ ख । दंसण दर्शन न दृश्यन्ते श्रयन्ते काय या जीवाद पदार्थां अनेनास्मादस्मिन्वेति दर्शनम् । श्- स्युद्। "शे-र्ष तप्तबज्रे वा " ॥ ८ । २ । १०५ ॥ इति र्शस्य संयुक्तास्यान्त्यव्यज्जनात् पूर्वमिकारी था। "दरिस स" प्रा० २ पाद दृष्टि दर्शनम् । सम्यक्त्वाऽपरपये दर्शनमोहनीययाऽऽयाविनेनात्मपरिणामे, "इसणे । स्वा० १ठा० | सोपाधिभेदादनेकविधमपि श्रद्धानास्यादेकम एकजीवस्य बैकदा एकस्यैव माचादिति । नन्ववबोधसामान्याद् ज्ञान सम्यक्त्वयोः कः प्रतिविशेषः १, उच् रुचिः सम्यक्त्वं, रुचिकारणं तु ज्ञानम् । यथोक्तम्- "नाणमवायसिमि जो देहाओ (१) तह तच सम्म रोज जेण तं नाणं ॥ १ ॥ " ० १ ० । दर्श० । श्रचा० । सूत्र० । उत० । झा० । चौ० । ध० र० । अव० । ६० । ० । संचा० द्वा० प्र० । प्रथ० प्रा० म० । स० । श्रातु० । श्रोघ० । नं० ।
सम्यक मिथ्याभेदाद् विविधं दर्शन
दुवि दंसणे पते । तं जहा सम्मदंसणे चैत्र, मिच्छादंमणे चैव ।
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० खनामध्याते राजनि यो हि महा
दुबिदेस" इत्यादि सप्तसूत्राणि सुगमाम्येच न दृष्टिर्दर्शनं तयेषु रुचिः, तच्च सम्यगविपरीतं जिनोकानुसा रि, तथा मिथ्या विपरीतमिति ।
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दसण
सम्यग्दर्शनमेरमाह
सम्मर्दसणे सुविहे पत्ते । तं जहा- सिग्गसम्मदंसणे चेद, अजिगसम्म व
(२४२६)
अभिधानराजेन्द्रः |
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सिग्गसम्पदंस दुविटे पन्नते । तं जहा परिवाई चैत्र, अपमिचाई के | अभिगम्यले दुनि पद्मने । तं जहा पडिवाई व अपटिवाई चेत्र ।
1
सम्मादि) निसर्गः स्वनायोऽनुपदेश इत्यनथतरम् अभिगम गुरूपदेश दिरिति तथा कमेण मध्देय भरतदिति (यादि) प्रतिपतनशी प्रतिपाति सम्यग्दर्शनोपशमिकं वा प्रतिपाति ज्ञातियां क्रमेण लक्षण-पशमणिमनुषिस्वानुदर्शनमनीयस्य चोपशमादीपशमिकं भवति, यो वाऽनादिमिध्यादृष्टिरकृत सम्यक्त्वमिध्यात्व मिश्रामिचानशुद्धाशुद्धमयरूपमिच्या स्वपुत्र विपुजीक एवा मिथ्यादर्शनो कृषक सम्प्रतिपद्यते तखोपरा मिकं जयतीति । कथम् ह यहस्य मिथ्यादर्शनमनीयमु तदनुभवेनैवोपणम् अन्यश्च मन्दपरिणामता नोदितम् ब तस्तदन्तमुदुमात्रमुपशान्तमास्ते विटम्भितोयमित्यर्थः । तावन्तं कालमस्या पशमिक सम्यक्त्वलाभ इति ।
,
श्राह च
"नवसामग सैढिगय-स्स दोति नवसामियं तु सम्मतं । जो वा अकपतिपुंजे अवियमि सदर सम्म ॥ १ ॥
मी अदज्य सेसमच्छ । अंतोमुत्तकालं, उवसमसम्मं लहर जीवो ॥ २ ॥ " इति । अन्तर्मुद मात्र कालत्या देवाय प्रतिपातित्वम्। यचानन्तानुष न्युये भीपशमिकसम्यत्वात्प्रतिपततः सस्यादमुच्यते तदपशमिकमेव, तदपि च प्रतिपात्यैव जघन्यतः समयमात्रस्वात्, उत्कृष्टतस्तु षडावलिकमानत्वादस्येति । तथा इह यदस्य मुद्दतीर्ण चानुदतदुपशान्तम उपशास्त्रं नाम विभितोयमुपनीत मिथ्यामा ि योपशमस्वभावमनुभूयमानं कायोपशमिक नप शर्मिकेऽपि यया कोपरामश्चत चेहापीति को नयोविंशेष है। उच्यते-अयमेव हि विशेषो यदि वेद्यते दलिकं, न तत्र, इह हि क्षायोपशमिक पूर्वमुदेति बेचते कांयते ब औपशमिके तूदयविष्टम्भन मात्रमेव । श्राह - मिच्कुले ज मुदिष्यं तं वीं अणुदियं च तवसंतं । मीसीनावपरिणय, बेइज्जतं खओवसमं ॥ १॥" इति । एतदपि जघन्यतोऽन्तर्मुहूर्त स्थिनित्वात् उत्कर्षतः सागरोपमस्थितिकत्वाच्च प्रतियासीति पकस्य सम्यग्दर्शनलिनु नरूपं पेदकमित्युच्यते तदपि कायोपशमिकत्वात्प्रति पात्येवेति । तथा मिथ्यात्वसम्यग्मिथ्यात्व सम्यक्व मोहनीयतयात् कायिकमिति आह च खीछे इंसणमो नवनियाणमासम्म खाइये दो ॥ १ ॥ " इति । इदं तु कायिकत्वादेवाप्रतिपाति । श्रत एव सि. नुवर्त्तते ।
मिच्छादंसणे दुविहे पाते । तं जहा - अभिगहियमिच्छादंसणे चैव, अभिग्ग हियमिच्छादंसणे चैत्र ।
अ
स
भिग्गमिच्छा दुविड़े पहने। तं जहा सजव सिए चैव, अफज्जवसिए चैव । एवमभिग्गहियमिच्छादं
स
,
(मिच्छासणे इत्यादि ) अभिग्रहः कुमतपरिग्रहः, स यत्रास्ति तदाभिग्रां सद्वीपरीतमनभिप्राकमिति । (अभिय हियेत्यादि ) आजिग्रहिक मिथ्यादर्शनं सपर्यवसितं सपर्यव सां सम्यक्त्वा यस्य सम्यक्त्वाप्राप्त तथ्यमिवाश्वमात्रमध्यतीतकालतयानुवृत्वाऽभिग्रहि कमिति
पश्यते ॥६॥ अभिनित्यस्य सपर्यवसितम् इतरस्याऽपर्यवसितमिति । स्था० २ ठा० १० आ० म० /दर्शनं त्रिविधम्। तद्यथा मिथ्यादर्शनं सम्पर मध्यादर्शनम सम्यग्दर्शनं च । आ० म० १ ० १ खरम | दर्शनं मिथ्यात्वमिसम्यक्त्वदारित्रविधम् विशेष हाथियोपशमिक पशमिकमेवादर्शनं विविध बहुचधिकेवल दर्शन मे दाद्ददर्शनं चतुर्धा । विशे० । औपशमिकसास्वादनक्कायोपशमिकायिकमंदा०ि ० ० भा०
1
दर्शनस्य सप्तविधया
सचपि सो पाते। जहा सम्मम ये, मिच्छ सम्पामिच्छादंसणे, चक्खुदंसणे, भचक्खुदंसणे, मोहिदसके।
,
"सणे" इत्यादि सुगमम्न सम्यग्दर्शनं सम्म दर्शनमात्समिध्यादर्शनं मिश्रमिति । एतच्च त्रि विधमपि दर्शन मोहनीयभेदानां कषयोपशमोदयेभ्यो जायते, तथाविधयचिस्वभावादि तु दर्शनाऽध्वरथीयभेदचतुष्पस्य यथाजनं क्षयोपशमरूपाभ्यां जायते सा मान्यग्रहणस्वभावं चेति । तदेवं श्रद्धानसामान्यग्रहणयोदेर्शनशब्दवाच्यत्वाद्दर्शनं साधकमिति । अनन्तरं केवलदर्शनमुकं, तच्च छद्मस्थावस्थाया श्रनन्तरं भवतीति । स्था० ७ ० । अष्टविधत्वम्.
विदे दंसणे पाते । तं जहा सम्मदंसणे, मिच्छदंसणे, सम्मामिच्छदंसणे, चक्खुदंसणे० जात्र केवलदंसणे, सुविणदंसणे ।
"अविहे दंसणे" इत्यादि कण्ठ्यम् । केवलं स्वप्रदर्शनस्याचक्षुर्दर्शनान्तर्भावेऽपि सुप्तावस्थोपाधितो भेदो विवक्षित इति । स्था० ८ ठा० | पं० ना० । कारकरोचकदीपकभेदाद्वा दर्शन त्रिविधम् (मे'' फुटीभवन्ति, सम्यक्त्वदर्शनस्य यरमिह दर्शनादेश स्पर्शनीय
व्य बसाये, व्यवसायांशत्वात्तस्य । स्था०३ ना० ३ उ० । 'दृशिर् प्रेक्षणे, दृश्यते सम्यक् परिज्ञायते सावद्यमनेनेति दर्शनम् । चारित्रे, श्रनेकार्थत्वाद्धातूनाम् । संथा० । सम्यक्त्वनायकशात्रे, आव० ४ ० । स्था० । शास्त्रमात्रे, विशे० दर्शनविशोध के सूत्रे, व्य० १ उ० | बृ० । उत्त० । " गोविंद निज्जुत्तिमादी इंसणं ।" नि० ० ११ उ० । श्रभिप्राये, उपदेशे, आचा० १ ० ३ अ० ४ उ० । दइते सामान्यरूपेण वस्त्विति दर्शनम् उत्त० ८ म० । दृश्यते विलोक्यते वस्त्वनेनेति दर्शनम् । यद् वा-दृष्टि
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(२४२७) अभिधान राजेन्द्रः ।
दंसण
दर्शनम् । कर्म० ४ कर्म० । दर्शनाऽऽवरणकर्मक्षयोपशमाऽऽदिजे सामान्यमात्रग्रहणे, अनु० । स्था० ।
सणावर णिज्जे दुबिहे पण ते । तं जहा- देस दंसणावरसव्वदंसण्यावर पिज्जे 1
पिजे,
दर्शनं सामान्यार्थबाधरूपमातृणातीति दर्शनाऽऽवरणीयम् । उक्तं च- "दसपसीले जीवे, दंसणघायं करे जं कम्मं । तं पमिहारसमाणं, दंसणवरणं नवे जीवे ॥ १ ॥ " ( देस त्ति ) देशदर्शनाssवरणीयं चक्षुरव धिदर्शनाऽऽवरणीयम् । सर्वद शनावरणीयं तु निकषापञ्चकं, केवलदर्शनावरणीयं चेत्यर्थः । स्था० २ ना० ४ उ० । सूत्र० । सामान्यविशेषाऽऽत्मके वस्तुनि, सामान्याऽऽत्मके बोधे, कर्म० ४ कर्म० । श्र० । श्राचा० । मं० । निर्विशेषविशेषाणां ग्रहणे श्र० म० २ ० | नं० । "पासह त्ति इंसणं, जं सामन्नम्ग्रहणं तं दंसणं, श्रागारमित्यथेः । " नं० । विशे० । ( "जं सामणगहणं, दंसणमेचं विसेलियं नाणे । " ( सम्म० १ गा० २ काण्ड ) इति व्यपय्यायास्तिकनययोर्मतेन 'उनओग' शब्दे द्वितीयभागे ८६० पृष्ठे चिन्तितम् ) चक्खु चक्खू श्रोही, केवनदंसण अणागारा । (१२)
देशावधिदर्शन केवलदर्शनरूपाणि चत्वारि दर्शनानि । तत्र चक्षुषा दर्शनं वस्तुलामान्यांशाऽऽत्मकं ग्रहणं चक्षुदेशनम्, अचक्षुषा चक्षुर्वर्ज शेषेन्द्रियचतुष्ट येन मनसा च यदर्शनं सामान्यांशाSSत्मकं ग्रहणं तदचतुर्दर्शनम् अवधिना रूपिद्रव्यमर्यादेया दर्शनं सामान्यांशग्रहणमधिदर्शनम्, केवलेन संपूर्णवस्तुतस्वग्राहक बोधविशेषरूपेण यद्दर्शनं सामान्यांशग्रहणं तत्केवलदर्शनमिति । किंरूपारातानि दर्शनानि ?, अत आह-अनाकाराणि सामान्याऽऽकारयुतत्वे सत्यपि न विद्यते विशिष्ट व्यक्त आकारो येषु तान्यनाकाराणि । कर्म० ४ कर्म० । अष्ट पं० चू० | प्रब० । अवलेकिने, पिं० । पञ्चा० । श्रात्मनः प्रकटने व्य०१ उ० । दंसण कप्प - दर्शन कल्प - पुं० | कल्पभेदे, पं० भा०
एत्तो वच्छामि दंसणे कप्पं । सक्खणं तू, जिणोवदिट्ठेसु जावे तु । उवगतक्ळक्कायस्सा, आयरियपरंपरागते अत्ये ।
गाढकारणे, सदसु पिवेसणं तत्थ । छक्काए सदद्दितं इ-मण पुणो त्रि सद्दयन्त्रं । आगाढमणागाढे, आयरियच्वं तु जं तत्थ | दवै खेत्ते काले, जावे पुरिसे तिमिच्छ असहाए । एतेहि कारणेहिं, सत्तविहं होइ आगाढं । एमादीया वृष्टी, एगुत्तरिया य होति दव्वाणं । औपत्यगपरिहाणी, दव्त्रागा विद्यालाहि । जंपेति पुणो वेज्जो, सच्चिनं दुल्झनं च दव्वं च । अमितो अत्यति, उद्दिसिडं जाव सो गति | जाहे उद्दिडाली, ताहे श्रमत्यहाणिए भणति । अह करेमो जोगं, अलं एक्स्स किं कुणिमो ? | एवं तु हावयंता, खेत्तं कालं च भावमासज्ज |
दंसणकप्प
ता जूढ़ती जाव तु, संभे जेसिं तु दव्वाणं । ग्रह पुए भज्ज एवं प्रवस्तमेतेहि कजदव्वेहिं । एतं दव्त्रागाढं, तहिं जए परणगहाणीए । खेत्तागाढं इणमो, असती खेत्ताण मासजोग्गाणं । असिना अन्नत्था, एदीत्रया होज्ज रुषा तु । आयरियादिश्रहारग, अहवा अन्नत्थ सावया होज्ज । अंतर जहिं च गम्मति, वाल्ला तर तेा खुत्तियं वा वि । एते हि कारणेहिं, खेतागाढम्म एरिसे पत्तो । अत्यंति असदभावा, एगक्खेत्ते वि जयणाए । कालस्स वा चि असती, वासावासे वियारणा पत्थि । एतेहि कारणेहिं, कालागाढं वियाणाहि । वासाजोग्गं खेत्तं, पडिलेहित्ता तु कालो बहुए । वच्चताण य अंतर - वासं तू विडिनु पवत्तं । महरं चंडवरखेत्तं, ताहे तं चैत्र पुव्वखेत्तं तु । गंतू वसती वामं, समतीते बीतिदमरातं । अतिकमं व दुक्खं, अप्पा वा वेदणाभए प्रभु । एतेहि कारणेोदें, भावागाढं वियाणाहि । अन्नुकममूलाऽऽदी, अहिरुक्काई तु वेद अथा | तत्थऽग्गितावणाssदी, दाहच्छेदोवगाढाऽऽदी । जम्मिलिडे गच्छस्स विणासो तह य णाणचराणं । एतेहि कारणेहिं, पुरिसागाढं वियाणाहि । तस तु सुकाने, जावज्जीवं पिहोति सुद्देणं । कायन्त्रं तू शियमा पुरिसागाढं भत्रे एतं । जेण कुल आयत्तं तं पुरिसं आदरेण रक्खाहि ।
हु बम्म विट्टे, अरया साहारगा होति । संजोगदिपाठी, फासुगनवदेसासु जो कुसलो । एतारिसस्स असती, गायन्त्र तिमिच्छमागाढं ॥ मज्जणतूलिविभासा, अरणे पाउरणए य पाणे य । केमियाण पदाणे, अन्नध वत्तो गिलाको तु ॥ उज्जव सहावरहितो, अव्वत्ता वावि अहब असमत्या । एयसहायागाढं, तम्हा मुखी स विहरेज्ज ॥ जावंति पवयणम्पी, षमिसेवा मूलमुत्तरगुणेमु । ता सत्तसु सुद्देसुं, सुखमसुद्धा मुद्देसु || आगाढमागाढे, एवं जं जत्य होति करणिज्जं । तं तद सद्दहमाणे, दंसणप्पो भवति एसो || पं० ना० । इयादिंसणप्पो । तत्थ गाहा (छकाए) बक्कासु विसुनगएसु मम सहियवं, जो श्रयरियपरंपराए आगो अत्थो, आगाढे गाढे य श्रायरिज तं सद्दहियवं तत्थिमाणि सत्तागाढा । गाहा - (०वे खेत्ते ) दव्वे ताव वेजो पुच्छ्रियवो जात्र याणिदव्वाणि उब इस तात्रयाणि न पडिसेविजीत । जहाएवं श्रम्ह न कप । जाहे नवइद्वाणि तांडे व मंथरपरिहाणी| गाढ़ा (एगादीम) एगाईए बुद्दीप अम्हे करे, जो
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(२४२०) दसणकप्प अभिधानराजेन्द्रः।
दसण्ठ गं मग्गसु, तं चेव जाव कलमसाली (खेतं कालंगाहा) तहेव य पशमाऽऽदिजं सामान्यमात्रग्रहणं दर्शनमिति । उक्तं च-"सज्जं जहि सानो तहिं गायति । अहवा जणेजा-श्रावस्सियाणि सामनग्गहण,भावाणं नेव कट्टुमागारं । अविसेसऊण अत्थे, दब्वाणि जाणियवाणि, दुबहाणि परिजाणह, स तेम्बमाईणि दसणमिड वुचए समए ।।" तदेवाऽऽत्मनो गुणः, स एव प्रमाणं षषश्स, ताहे तं दव्यागाढं पणगपरिहाणीए जयंति, जाव दर्शनगुणप्रमाणम् । इदं च चकुर्दर्शनाऽऽदिभेदाच्चतुर्विधम् । तत्र चनगुरुपण वि गेएहति । (खेसागाढं गाहा)ोत्सस्स वा भावचकुरिन्जियाऽऽवरणकयोपशमाद्, व्यन्छियानुपघाताच, अखंभे असइ मासपातम्गाणं खेत्ताणं पगत्थ अच्छति, असि- चक्दशनिनश्वकर्दर्शनलब्धिमतो जीवस्य घटाऽऽदिषु द्रव्येषु चं वा, अमत्थ नईतीरं ति गंतूण अकारगं वा पायरिया. चकषी दर्शनं चकुर्नर्शनं, जयतीति क्रियाऽध्याहारः । सामान्यणं अम्मत्थ सावया वा, तत्य मंतरा वा दिग्घजाईया वा अम- विषयत्वेऽपि चास्य यद् घटाऽऽदिविशेषानिधानं तत्सामान्यवि. म्मि देसे अंतरा वा ताहे पगत्थ अत्यति । अहवा खेत्तागाद शेषयोः कश्चिदभेदादेकान्तेन विशेषेज्यो व्यतिरित्तस्य साप्रमाणे अद्धाणकप्पनिक्खवसहिसम्माभूमिपालगपलवासु मान्यस्याऽग्रहणण्यापनार्थम् । उक्तं च-" निर्विशेषं विशेषाणां, जयाणा,सा सहहियन्या । एवं खेसागाई। कालो कालेण बहुतो ग्रहो दर्शनसुच्यते ।" इत्यादि । चकुर्वर्जशेषन्ज्यिचतुष्टयं, मनवासावासपाचग्गं खेत्तं वच्चंताणं अंतरा वासं पमिय, तं च भाचकुरुच्यते, तस्य दर्शने न चकुदर्शनं, तदपि जावचक्कुरिन्छिअंतरा खेत्तं सन्निसद्धगं, ताहे तं चेव पुवपमिलहियं खेत्तं याऽऽवरणकयोपशमाद् द्रव्येन्द्रियानुपघाताच, अचकुर्दर्शनिनोजंति, नखंता वि अजिए वा वासावासे जर वास मम्ग- अचवर्दर्शनलब्धिमतो जीवस्याऽऽत्मभावे भवति, आत्मनि श्रासिरेदस राया तिरिण होति, उक्कोसेण प्रोमोयरियाए वा, जा स्मनि जीवे भावः संश्लिष्टतया संबन्धो, विषयस्य घटादेरिति जयणा आहाराऽऽश्सु। पयं कालागाढं। श्याणि भावागाढं। (गा- गम्यते, तस्मिन् सति इदं प्रार्भवति रूपम् । इदमुक्तं भवति-चहा अइनक्कडं च) अर उक्क ति विसूइयाइ, अदिदविसअप्पा कुरप्राप्यकारि, ततो दूरस्थमपि स्वविषयं परिच्छिनत्तीत्यस्यावा वेयणादि य पसूलाइ, तत्थ अम्गी कंदा वा परित्ताण- यस्य ख्यापनार्थ घटाऽऽदिषुचकुर्दशनं भवतीति पूर्व विषयस्य ताइ दायब्धं । एयं नावागाढं । पुरिसागाढे जम्मि विण? ग. भेदनानिधानम्।श्रोत्राऽऽदीनि तु प्राप्यकारीणि, ततो द्रव्यन्छिकछस्स विणासो नापदरिसणचरित्ताऽऽईणं विणासो। (न ह यसंलेषद्वारेण जीवेम सह संबरूमेव विषयं परिच्छिन्दन्तीत्येतुंबम्मि विण गाहा) ताहे तस्स असुद्धेणाविकीर, जाव जी. तदर्शनार्थमात्मभावि भवतीत्येवमिद विषयस्यानेदेन प्रतिपादनव। एयं पुरिसाऽऽगाढं । (गाहा-संजोगदिद्रपाठी) वेजस्समा मकारीप्ति । उक्तं च-"पुठं सुणे सइं, स्वं पुण पासई अपुळं संजोगदिद्वपाठिस्स असर गोयत्यसंविग्यस्स, तादे गीयत्यवे- तु।" इत्यादि । अवधेर्दशनमवधिदर्शनम् । अवधिदर्शनिनोऽ. ज्जस्स जा पाहुझिया कीर एहाणभोरणचोयणादतं सहहह। बधिदर्शनाऽऽधरणकयोपशमसमुद्न्ताऽवधिदर्शनलब्धिमतो पयं तितिगिच्चागाढं। (गाहा-होज्ज सहाय)सहाया चा से जीवस्य सर्वरूपित्रव्येषु नवति, न पुनः सर्वपर्यायेषु, यतोऽवधेनत्थि अवत्तक्या सुसेण पादोसा य हिंममाणस्स चा पगा- रुतकृष्टतोऽप्येकवस्तुगताः संस्येथा असंख्येया वा पर्याया गियरस ताहे पगत्य प्रत्या,पगत्थ अत्यंतो अपायचित्तो जाव विषयत्येनोक्ताः, जघन्यतस्तु द्वौ पर्यायौ द्विगुणिती, रूपरसगसहाप न लभ पानग्गे । (प्यऽसहायागादगाहा)जावंति पच- न्धस्पर्शल कणाश्चत्वारः पर्याया इत्यर्थः । उक्तं च." दवाओ माश्याश्रो, जावंति पमिसेवणाओ मुलुत्तरगुणेसु, तापो एपसु असंखेज्जे, संज्जेश्रा वि पनवेलहा ।दो पज्जवे दुगुणिए, सत्तसु कारणेसु सुद्धसु सुद्धाओ, एएसु सत्तसु कारणेसु म लद य पगाल दवाओ ॥१॥" अत्राऽऽह-ननु पर्याया विशेषा अप्पत्तेसु करेइ असुद्धाओ । एसदसणकप्पो ।" पं० चू। उच्यन्ते, न च दर्शनं विशेषविषयं भवितुमर्हति, ज्ञानस्यैव दसणकुसीन-दर्शनकुशील-पुं० । कुशीलशब्दप्रदर्शितस्वरूपे तद्विषयत्वात्कथमिहावधिदर्शनविषयत्वेन पर्याया निर्दिष्टाः, कुशीलभेदे, महा ३ ।
साधूक्तं केवलं पर्यायैरपि घटशरावोदश्चनाऽऽदिनिमृदादंसपखवग-दर्शनकपक-पुं० । पदैकदेशे पदप्रयोगात् दर्शनमो.
दिसामान्यमेव तथा तथा विशिष्यते, न पुनस्तेन एका
न्तेन व्यतिरिच्यन्ते, अतो मुख्यतः सामान्यं, गुणीनूतास्तु विहनीयस्य क्षपके, कर्म० ५ कर्म० । दर्शनमोहनीयकये, क्षयो
शेषा अप्यस्थ विषयी भवन्तीतिस्थापनाथोंऽत्र तदुपन्यासः, पशमे च । स्था• १ ग.।
केवलं सकलदृश्यविषयत्वेन परिपूर्णदर्शनं, केवलदर्शनिनस्तदसणगुणप्पमाण-दर्शनगुणप्रमाण-न । गुणप्रमाणनेदे,अनु।
दावरणकयाऽऽविभूततद्वन्धिमतो जीवस्य सर्वव्येषु मूर्त्ताअथ दर्शनगुणप्रमाणमाह
मूर्नेषु सर्वपर्यायेषु च भवतीति । मनःपर्यायकानं तु तथाविसे किं तं दंसणगुणप्पमाणे?। दमणगुणप्पमाणे चनबिहे | धक्षयोपशमपाटवात् सर्वदा विशेषानेव गृहउत्पद्यते, न सामा. पस्मत्ते । तं जहा-चक्रवदंसशगुणप्पमाणे, अचक्खुदंसण- न्यम्, अतस्तदर्शनं नोक्तमिति। तदेतदर्शनगुणप्रमाणम् । अनु०॥ गुणप्पमाणे, मोहिंदसणगुणप्पमाणे, केवसदसणगुणप्प
दसणग्गह-दर्शनग्रह-पुं० । मताऽऽग्रहे, पो० ११ विव० । माणे । चकावुदसणं चक्खुदंसणस्स घपडकमरहाऽऽइएम
('णाण' शब्नेऽस्मिन्नेव भागे १९८१ पृष्ठे गतमस्य विवेचनम) दवेम, अचक्खुदंसणं अचखुदसणस्स प्रायनावे, ओ
दंसणचरितमोह-दर्शनचारित्रमोह-पुं० द्विरूपमोहनीये कर्म.
णि, प्रश्न ननु चारित्रमोहस्य देतुमैथुनमिति प्रतीतम् । तदाहहिसणं ओहिदसएस्स सनरूचिदहिं, न पुण सम्बप.
"तिब्वकसाओ बहुमो-हपरिणोरागदोस मुत्तो।" प्रश्न जवेडिं, केवलदसणं केवलदंसस्स सम्बदबोहि अ, स- आश्रद्वार। नपजवेहि अ। सत्तं दंसणगुणप्पमाणे।
दंसाह-दर्शनार्थ-त्रि दर्शनं तवानां श्रद्धानं, तदर्थे वस्तुनि, (से किं तदसणगुणप्पमाणे इत्यादि)दर्शनाऽऽवरणकर्मक्कयो । स्था०५ ना० ३३० ।
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दंसाठ्या माभिधानराजन्छः।
दसणणय दंसहया-दर्शनार्थता-स्त्री० । दर्शनप्रजावकशास्त्रार्थिकत्वे,
इत्थं चोदकेनोक्त सत्याहाऽऽचायःस्था• ५ ग. २००।
नाणस्स जइ वि हेऊ, सविसयनिअयं तहा वि संमत्तं । दसणणय-दर्शननय-पुं० । दर्शनिन एव सम्यक्त्वमित्येवंचू- तम्हा फलसंपत्ती, न जुज्जई नाणपक्खे च ॥ 50 ।। ते नये, भाव० । 'णाणण्य' शब्दे १६८९ पृष्ठे ज्ञानप्राधान्यं चारि. जह तिक्खरुई वि नरो, गंतुं देसंतरं नयविहूणो। त्रप्राधान्यं च वर्णयित्वाऽह तत्र दर्शननयमतावलम्बी अ.
पावेइ न तं देस, नयजुत्तो चेव पानणइ ॥ नए॥ धिगतज्ञाननये श्दमाह
इय नाणचरणरहिओ, सम्मादडी वि मुक्खदेसं तु । जह नाणेणं न विणा, चरणं नादसाणस्स अनाथं ।
पानणइ नेव नाणाऽऽ-इसंजुओ चेव पानण | ए॥ न य दंसणं न भावो, तेन य दिलुि पणिवयामोना
इदमन्यकर्तृक गाथात्रयं सोपयोगमितिकृत्या व्याख्यायतेयथा शानेन विना न चरणं, किं तु सहैव, नादर्शनिन एवं ज्ञानं,
झानस्य यद्यपि हेतुः कारणं, सम्यक्त्वमिति योगः। अपिशकिं तु दर्शनिन एव । “सम्यग्दृष्टान, मिथ्यादृष्टेविपर्यासः।"
ब्दोऽज्युएगमवादसंसूचकः । अन्युपगम्याऽपि ब्रूमः । तस्वतस्तु इति वचनात् । तथा न च दर्शन न भावः, किंतु भाव एव:
कारणमेव न भवति, उन्नयोरपि विशिष्टयोपशमकार्यत्वात्स्व. मावनिङ्गान्तर्गतमित्यर्थः । तेन कारणेन ज्ञानस्य सद्भावमा
विषयनियतमिति कृत्वा । स्वविषयश्चास्य तस्वेषु रुचिरेच । तथावित्वाइशनस्य ज्ञानोपकारकत्वात् प्राग्वद (दिट्ठिति) प्राकृ
ऽपि तस्मात् सम्यक्त्वात् (फत्रसंपत्ती न जुज्जई) फलसंप्राप्तिसशैल्या दर्शनमस्यास्तीति दर्शनी, तं दर्शनिनं प्रणमामः पूज
न युज्यते, मोकसुखप्राप्तिनं घटत इत्यर्थः। स्वविषयनियतत्वा. यामः । इति गायाऽर्थः॥४॥
देव, असहायत्वादित्यर्थः । ज्ञानपक इव । अनेन तत्प्रतिपादि. स्यादेतत् सम्यक्त्वज्ञानयोयुगपद्भावादुपकार्योपका.
तसकदृष्टान्तसंग्रहमाह-यथा ज्ञानपक्को मार्गकाऽऽदिभिदृष्टान्तैरकभावानुपपत्तिरित्येतच्चासत; यतः
रसहायस्य ज्ञानस्यैहिकाऽऽमुष्मिकफत्रासाधकत्वमुक्तम् एवमजुग पि समुप्पन, सम्मत् अहिगमं विसोहे।
त्रापि दर्शनाभिलापेन कष्टव्यम् । दिङ्मात्रं तु प्रदर्यते-यथा ती. जह कयगमंजणाई, जलदिट्ठीओ विसोहंति ।। ०५॥
क्षणचिरपि नरः तीवनकोऽपि पुरुषः,गन्तुं देशान्तरं, देशाम्तर
गमन इत्यर्थः। नयविहीनः,ज्ञानाऽऽगमक्रियाशकणनयशून्य इत्ययुगपदपि तुल्यकालमपि समुत्पन्नं मंजातं सम्यक्त्वं ज्ञानेनस.
यः। प्राप्नोति न तं देशं गन्तुमिष्टं तद्विषयश्रमायुक्तोऽपि, नयह अधिगम्यन्ते परिच्छिद्यन्ते पदार्थी येन सोधिगमः, ज्ञानमे
युक्त एव प्राप्नोति । (इय) एवं ज्ञानचरणरहितः सम्यग्दृष्टिरपि बोच्यते, तमधिगमं विशोधयति, ज्ञानं विगलीकरोतीत्यर्थः ।
तषश्रकानयुक्तोऽपि मोकदेशं तु प्राप्नोति नैव सम्यक्त्वप्रभाअत्रायें दृष्टान्तमाह-यथा कातकाजने जलदृष्टी विशोधयत इ.
वादेव,
किंतु ज्ञानाऽदिसंयुक्त एव प्राप्नोति। तस्मात् तत् त्रितयं ति। कतको वृकस्तस्यदं कातकं फनम्, अज्जनं सौवीराऽऽदि,
प्रधानम,एतत्रितययुक्तस्यैव कृतिकर्म कार्य,त्रितयं चाऽऽमना कातकं चाजनं च कातकाञ्जने, अनुस्वारोऽत्रानाक्षणिको, ज
सेवनीयम, "सम्यग्दर्शनशानचारित्राणि मोक्षमार्गः" इति लमुदक, दृष्टिः स्वविषये लोचनप्रसरलकणा, जलं च विश्व जसरष्टी, ते शोधयतः । इति गाथाऽर्थः।
वचनात् । अयं गाथात्रितयार्थः।
एवमपि तस्ये समाख्याते ये खल्वधर्मभूयिष्ठाः, वानि चाससाम्प्रतमुपन्यस्तधान्तस्य दाष्ट्रान्तिकेनांशतोनावनिका प्रतिपादयन्नाह
दालम्बनानि प्रतिपायन्ति, तदेतदभिधित्सुराहजह जह मुज्झइ समिक्षं,तह तह रूवा पासई दट्ठा ।
धम्मनियत्तमईआ, परझोयपरम्मुहा विसयगिदा। श्य जह जह तत्तरुई, तह तह तत्तागमो होइ ॥ ६ ॥
चरण करणे असत्ता, सेपिअरज्जं ववइसंति ॥ १ ॥ यथा यथा शुद्ध्यति सलिलं कातकफलसंयोगात्तथा तथा रूपाणि
धर्मश्चारित्रधर्मः परिगृह्यते, तस्मानिवृत्ता मतियेषां ते धर्मतातानि पश्यति वा ।(इय) एवं यथा यथा तस्वरूचिःसम्यक्रव.
निवृसमतयः, परः प्रधानो लोकः परलोकः मोक्षः, तस्मात लक्षणा,संजायत इति क्रिया। तथा तथा तत्त्वाऽऽगमः तपरिच्छे.
पराकमुखाः, विषयगृद्धाः शब्दाऽऽदिविषयानुरक्ता ते एवंदोनवतीति । एवमुपकारकं सम्यक्त्वज्ञानस्येतिगाथाऽर्थः८६।
भूताश्चरणकरणे अशक्का असमर्थाः सन्तः श्रेणिकराज्य स्यादेतन्निश्चयता कार्यकारणभाव एवोपकार्योपकारकभावः व्यदिशन्त्यालम्बनमिति गाथाऽर्थः ।।११॥ स चासम्भवी युगपद्नाविनोरित्यत्रोच्यते
न सेणिो आसि तया बहुस्सुमो, कारण कजविजागो, दीवपगासाण जुगवजम्मे वि।
न यावि पन्नत्तिधरो न वायगो । जुगवुष्पन्नं पितहा, हेक नाए स्स संमत्तं ।। ७॥ सो आगमिस्सा जिणो नविस्सई, यह कारणकार्यविभागो दीपप्रकाशयोयुगपज्जन्मनि युगप- समिक्ख पन्नाइ, वरं खु दंसणं ।। ए॥ दुत्पादेऽपीत्यर्थः, युगपदुत्पन्नमपि तथा देतुः कारणं ज्ञानस्य (न सणिश्रो इत्यादि)न श्रेणिको नरपतिः श्रासीत्सदा तसम्यक्त्वम् । यस्मादेवं तस्मात्सकनगुणमूत्रत्वाद् दर्शनस्य द- स्मिन्काले बहुश्रुतो बागमः, महाकल्पाऽऽदिश्रुतधर श्त्यर्थः।। शनिन एव कृतिकर्म कार्यमात्मनाऽपि तत्रैव यत्नः कार्यः, स- चाऽपि प्रज्ञप्तिधरोन चापि भगवतीवेत्ता, न वाचका-न पूर्वकल गुण मूलत्वादेवेति । उक्तं च-"द्वारं मतं प्रतिस्थान-माधारो धरः, तथाऽपि सोऽसहायो दर्शनप्रभावादेव (आगमिस्सा भाजन निधिः। धर्महतोषिट्कस्य, सम्यगदर्शनामिप्यते ॥१॥"
त्ति) प्रायत्यामागामिनि काले, जिनो भविष्यति तीर्थकरो प्र. अयं गाथाऽभिप्रायः
विध्यति । यतश्चैवमतः समीक्ष्य रणा प्रक्रया बुद्ध्या दर्शनवि
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(२४३०) दसणणय प्राभिधानराजेन्छः ।
दसण परीसह पार्क तीर्थकराऽऽख्यफलप्रसाधकम(वरंखुदंसणं ति)'खु'शब्द- दुव त्ति) अथवा किंबहुना?,वञ्चितोऽस्मि,नागानामिति गम्य स्थावधारणार्थत्वात् वरं दर्शन मेव, अङ्गीकृतमिति वाक्यशेषः। ते। (इति) इत्यमुना शिरस्तुएकमुण्डनोपवालाऽऽदिना यातना. अयं वृत्तार्थः। किं च शक्य एवोपाये प्रेक्षावतः प्रवृत्तियुज्यते, ऽऽत्मकेन धर्मानुष्ठानेन । उक्तं च-" तपांसि यातनाश्चित्रा, न पुनरशको शिरम्शूनशमनाय तक्षकफणाऽलङ्कारग्रहणकल्पे संयमो भोगवश्चना । " इत्यादि । ( इति) इत्यनन्तरमुपदचारित्रे,चारित्रं च तवतःमोकोपायत्वे सत्यप्यशक्याऽऽसेवनं, शिंतं जिक्षुने चिन्तयेत न ध्यायेत, परिफल्गुरूपत्वादस्य । तथासूचमापराधैरपि अनुपयुक्तगमनाऽऽदिभिर्विराध्यमानत्वादाया- हि यत्तावदुक्तम्-"नूतचतुष्टयाऽऽश्मकत्वाच्छरीरस्य जन्मान्तसरूपत्वाश्च नियमेन ग्नस्थस्य तदंश उपजायते सर्वस्यैवा१२। राउन्नाव इति।" तदसत् । न हि शरीरस्य जन्मान्तरानुयायि
स्वमस्माभिरुच्यते, किं त्वात्मनः, न च नूतधर्म एव चैतन्य अतः
आत्मव्यपदेशः, तस्य तद्धमत्वेनोत्तरत्र निषेत्स्यमानत्वात् । भडेण चरित्ताओ, सुअरं दंसणं गहेअव्वं ।
यदपि ऋद्धिर्वा तपस्विनो नास्ति, तदपि बचनमात्रमेव । अथा. सिकंति चरणरहिआ, दंसणराहिआ न सिति ।। ऽऽत्मन ऋद्धीनां चाऽभावे अनुपयम्भो हेतुरुक्त,सोऽपि स्वसंब. अष्टेन च्युतेन, कुतः १, चारित्रात्, सुतरां दर्शनं ग्रहीतव्यं, न्धी, सर्वसम्बन्धी वा। तत्र न तावदात्मनोऽभावे स्वसम्बन्ध्यपुनबोधिलाभानुबन्धि,स्वर्गाऽऽदेर्या ग्रहीतव्येऽशक्यमोक्षोपाय- नुपलम्भो हेतुः, स्वयं तस्य घटाऽऽदिवदुपलभ्यमानत्वात,यथे. स्वात् । तथा च सिरुपन्ति चरणरहिताः प्राणिनः दीकाप्र- व हि घटाऽऽदिगता रूपाऽऽदय उपलच्यन्ते, तथा प्रात्मगता वृश्यनन्तरमृतान्तकृत्केवलिनः, दर्शनरहितास्तु न सिद्ध्यन्ति, अपि ज्ञानसुखाऽऽदय इति नात्र मददन्तरमुत्पश्यामः। उक्तं चाऽ. अतो दर्शनमेव प्रघानं सिफिकारणं, तदभावनावित्वादित्य- श्वसेनवाचकेन-"मात्मप्रत्यक प्रात्माऽयम्" इत्यादि । अथाऽयं न यं गाथाऽर्थः ॥ १३ ॥ श्राव. ३ ०।
दृग्गोचर इति नास्तीत्युच्यते,नाऽयमप्येकान्तः। यतस्तेनेवोक्तमदसणतह-दर्शनतथ्य-शङ्काऽऽधतिचाररहिते जीवाऽऽदितवश्र- "न च नास्तीह तत्सर्व, चकुवा यन्न गृह्यते।" अन्यथा-चैतन्य. द्धाने, सूत्र. १७०१३ अ०।
मपि न दृग्गोचर इति तस्याऽप्यसवं स्यात, भय तत वसं. दंसापमिमा-दर्शनपतिमा-खी० । उपासकानां प्रथमप्रतिमा
विदितमिति सदुच्यते, अयमपि तथालत पवेति सनस्तु। अक्तं
हि-"अस्येव चाऽऽस्मा प्रत्यक्को, जीवो ह्यात्मानमात्मना । अहमयाम, ध०१ अधिः । प्रव० । पञ्चा०। ('उवासगपमिमा' शब्दे
स्मीति संवेत्ति, रूपाऽऽदीनि यथेन्द्रियः॥१॥" इति । किं बहु. द्वितीयजागे १०६४ पृष्ठे व्याख्यातेयम)
ना?, यथा चैतन्यमस्तीत्यभ्युपगम्यते, तथाऽऽत्माऽप्यन्युपगदसणपनावग-दर्शनपनावक-पुं० । सर्वशासनप्रकाशके,
स्तव्यः,तथा चाऽऽह-"कानं स्वस्थं परस्थं वा,यथा कानेन गृहाते। जीवा १३ अधि।
झाता स्वस्थः परस्थोषा, तथा ज्ञानेन गृह्यताम्" ॥१॥ इति। दंसपपरिणाम-दर्शनपरिणाम-पुं० । सम्पग्दर्शनपरिणामे,प्र.
अथ सर्वसम्बन्ध्यनुपझम्भ आत्माभावे हेतु, अयमप्यसिद्धः, शा० १३ पद।
अहमस्मीतिप्रत्ययेन प्रतिप्राणि स्वात्मनः केवग्निनां च सर्वाऽऽत्मदंसणपरीसह-दर्शनपरीषह-पुं० । दर्शनं सम्यग्दर्शनं तदेष नामुपलम्भस्य प्रतिद्धमशक्यत्वात् एवमृशीनामप्यभावे सर्व. क्रियाऽऽविवादिनां विचित्रमतश्रवणेऽपि सम्यकपरिपह्यमाणं
संबन्ध्यनुपल्लम्भोऽसिकः । स्वसंबन्धी तु नियतदेशकामापेनिश्चनचित्ततया धार्यमाणं परीषदः। यद्वा-दर्शनशब्देन दर्शन
क्षोऽन्यथा वा । प्रथमपक्ष को वा किमाद ?, क्वचित्कदाचित्ताव्यामोहहेतुरेहिकाऽऽमुष्मिकफलानुपलम्भाऽऽदिरिह गृह्यते,ततः
सामनुपक्षम्भस्य (उपलम्नस्थ) चास्माकमपि सम्मतत्वात्।हिस एव परीषहः दर्शनपरोषहः । दर्शनपरीषहे, उत्त० २० ।
तीयपके पुनरनैकान्तिकता, देशाऽऽदिविप्रकृष्टानामनुपलम्भेऽपि स० । प्रव० । जिनानां जिनोक्तभावानां चाश्रज्ञानवर्जगरूपे प. सवातहश्यते च कचित्कदाचिचरणरेणुस्पर्शनाऽऽदितो रोगो. रीपदे, भ०८ श०८ उ०। "जिनास्तमुक्तजीवा वा, धर्माधम्मों
पशमाऽऽदिततश्चेहापि कालान्तरमहाविदेहाऽदिषु च सर्वकाभवान्तरम । परोकत्वान्मृषा नैव, चिन्तयेत्याप्तदर्शनः ॥१॥"
लमृष्यन्तराणामपि संभवस्थानुमीयमानत्वात् । यदपियश्चितो. ध०३ अधि०।
ऽस्मीति भोगसुखानामनेन शिरस्तुगमुण्डनोपवासाऽऽदिना या. एतदेव सूत्रकृदाह
तनाऽऽत्म केन धर्मानुष्ठानेनेति । तदप्यसमीक्षिताभिधानम् । भो.
गसुखाना दुःखानुवक्तत्वेन तत्ववेदिनामनादेयत्वात्। तथा च वा. नत्थि एणं परे लोए, इसी वा वि तवस्सिणो।
स्स्यायनोऽप्याह । तद्यथा-"विषसंपृक्तमन्त्रमनादेयम,एवं दुःखानुअदुवा वंचिओ मि त्ति, इइ भिक्खू ण चिंतए ॥an षतं सुखमनादेयमिति"प्रयोगश्च-यद्विपक्षानुविद्धं न तत्तवत. नास्ति न विद्यते (पूर्ण) निश्चितं परसोको,जन्मान्तरमित्यर्थः। स्तदेव, यथाविषव्यामिश्रमन्नम, अतृप्तिकाङ्काशोकाऽऽदिमिमि. जूतचतुष्टयाऽऽस्मकत्वाच्चरीरस्य, तस्य चेहेव पातात,बैतन्यस्य संचवैषयिकं सुखम् ।न चास्यासिद्धता,कालत्रये यथायोगमतचभूतधर्मजूतत्वात्। तदतिरिक्तस्य चाऽऽत्मनःप्रत्यक्षतोज्नुपल- पत्यादीनां प्रतिप्राणि स्वसंविदितत्वात, नाऽपि तपसो यातना. भ्यमानत्वात,ऋद्धिर्वा तपोमाहात्म्यरूपा। अपिःपूरणे । कस्य?, ऽऽत्मकत्वम्, मनइन्द्रिययोगानामहान्यैव तत्प्रतिपादनात् । उक्तं तपस्विनः, सा चाऽऽमौषध्यादिः
हि." मनम्झिययोगाना-महानिश्वोदिता जिनःवितोऽत्र तत्कथं " पादरजसा प्रशमनं, सर्परुजां साधवः कणात कुर्युः । तस्थ, युक्ता स्यात् दुःखरूपता ? ॥१॥" शिरस्तुण्डमुरामनाssत्रिनुबनविस्मयजननान् , दद्युः कामाँस्तृणाग्राद्वा ॥१॥ देश्व किञ्चित्पीमाऽऽत्मकत्वेऽपि समीहितार्थसम्पादकत्वेन न धर्माद्रत्नोमिश्रित-काश्चनवर्षाऽऽदिसर्गसामथ्र्यम् ।
पुःखदायकता । यमुक्तम्-"दृष्टा चेष्टार्थसंसिद्धौ,कायपीमाऽप्यअद्भुतनीमोरुशिला--सहसंपातशक्तिश्च ॥ २॥"
दुःखदा । रत्नाऽऽदिवनिगादीनां तद्वदत्रापि भाव्यताम्॥१॥"प्रइत्यादिकाच, तस्या अध्यनुपसत्यमानत्वादिति भावः। (अ.] योगश्च-यदिष्टार्थप्रसाधकं, नतत् कायपीमाऽऽत्मकत्वेऽपि दुःख
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सापरीसह
दापि पावणार्यप्रसाधकं च तपः, न चास्याप्यसिद्धता, प्रशमहेतुत्वेन तपसस्तत्परिपक्कतारतस्यात्परमाऽऽनन्दतारतम्यस्यानुभूयमानत्वेन तत्प्रकर्षे त स्यापि प्रकर्षानुमानात् प्रयोग तारतम्येन यस्य तारतम्यं तस्य प्रकर्षे तत्प्रकर्षः यथाऽस्मितापप्रकर्षे तपनीयविशुद्धि प्रकर्षः, अनुभूयते च प्रशमतारतम्येन परमाऽऽनन्द तारतम्यम्, लोकप्रतीतत्वाश्चेति सूत्रार्थः ॥ ४४ ॥
तथा
श्रनू जिला प्रत्थि जिणा, अनुवाऽवि जविस | मुर्स से एवमासु इति क्वूिन चितए ||४५ ||
सन् जनाः रामादिजेतारः मस्तीति दिनप्रति को विद्यन्ते जिवा अस्य कर्मवादपूर्वस सरसप्राभृतोद्धृततया वस्तुतः सुपस्वामिनैय जम्बूस्वामिनं प्रति प्रीतत्वात् तत्काले जिनवादित्यम् विदे हाऽऽदिया पेति भावनीयम् (अनुदेति) अथवा अपिर्मिश्रक्रमः । भविस्सर ति) पचनव्यत्ययाद्भविष्यन्ति, जिनाः, इत्यपि मृषा अलीकम्, ते जिनास्तित्ववादिनः, ( एवं ) अनन्तरोक्तन्यायेन (आसु ति) आहुः ब्रुवते इति भिक्षुर्न चि तत् जिनस्य सर्वाधिक्षेपप्रतिकृपाऽऽदिषु प्रमाणोपपत या प्रतिपादनादुपदेशनायाच सकतेदि कामिकम्पव हाराणामिति सूत्रार्थ ॥५॥
(२४३१) अभिधानराजे |
दानी शिष्यागमनद्वारम् "त्थि परे लो (४४)" इति सूत्रावयवसूत्रितमुदाहरणं निर्मुक्तिकृदाहहाकिमोsa य, अज्जासादो न पणियभूमीप । काळण रायस्वं पच्छा सीसेण प्रसिद्धो ॥ १२३ ॥ अवधावितुकामोऽपि निष्क्रमितुकामोऽपि चः पूरणे, आयोस्तु पतिभूमी व्यवहारभूमी मध्यर्थः कृत्वा राज पचानुशिष्टः इति बाधारार्थः ॥ १२३ ॥ भावार्थस्तु वृद्धसंप्रदायादवलेयः स चायम्-"मी असा नामाऽऽयरिया बहुस्सुया, बहुसी सपरिवारा य । तत्थ म गच्छे जो कालं करोति तं णिज्जार्वेति भत्त पच्चक्त्राणssइणा । तो बहवे णिज्जामिया । श्रष्णया एगो अध्यतो सीसो भारतरेण भणितदेवखोगाओ भागंतून मम दरिणं दे जासु । ण य सो मागतो वक्त्रित्तचित्तत्तणो । पच्छा सोचतेइकाफिलोऽहं सक्षिण व प्रोायति पच्छाते सीमेण देवलोगगरण प्रोतो, पेच्छा
तस्स पट्टे गामो विउचितो, णमपेच्छा य। सो तत्थ बम्माले पेतो स्थितो न बुदं न तराईका वा दि
1
ति, पच्छातं संहरिडं गामस्स बर्डि विजणे उज्जाणे बहारए सव्वालंकारचिसिए विकवति संजमपरिक्वत्थं दिठा तेण से, गिद्दामि पसिमाहरणगाव, परं जीवंत सो पगं पुढविदारयं जगति - श्राहि आमरणगाणि । सो भणतिजगवं ! एवं ताव मे अक्खाणयं सुमेहि, ततो पच्छा गेहिजासि भवति सुमि सोनी कुंमकारो, सो महि खंतो तडीप अक्कंतो। सो भणति
1
जेण जिव बलिं देवि ने पोसेमिणाय । सा मे मही अकमर, जायं सरओ जयं ॥ १२४ ॥
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दसपपरीसह
(जेल)
यया भिक्षा बलिदा कर्म भिक्षु इति गम्यते पापायत्ति ) ज्ञातीन् सा (मेत्ति) मां मडी श्राक्रामति श्रवनातिः जातम् उत्पन्नम, शरणतो भयमिति श्लोकार्थः ॥ १२४ ॥
66
अयमिद्दोपनः बौरभयाददं भवन्तं शरणमागतः स्वं विलुम्पसि, ततो ममाऽपि जातं शरणतो भयम्, एवमुत रत्राप्युपनया जावनीयाः । तेज भाइ प्रतिपंमियवादतो ग्राभरणमाणि पठिउदा गो पुढधिकाइयो इयाणि आकाओ बोधो सो विधाय कहेति जड़ा एगो तालायरो कहाकहश्रो पामलओ णाम, सो अन्नया गंग उत्तरंतो उपरि बुद्धोदपण हारति तं पासिऊण जणो भणति "
बहुस्यं चितक गंगा बद्दति पाडलं ।
!
माणगई ते झवता किंचि मुनासिवं ।। १२५ ।। बहुविधं चित्रकथं नानाकथाकथक, गङ्गा यति पा टलं पाटलनामकम, उह्यमानक ! भद्रं ते लप ब्रूहि ( ता इति ) तावाद्यापि दूरं न नीयख इति भावः किञ्चिदस्य सु भाषितं सूक्तमिति श्लोकार्थः ॥ १२५ ॥
सोऽवादीत्
जेण रोहंति बीयाणि, जेण जीवंति कासया । तस मलाम, जावं सरणतो भये ।। १२६ ।।
येन जलेन रोहन्ति प्रति बीजानि येन जीवन्ति प्राणधारणं कुर्वन्ति कर्मकार कृषीवलाः, तस्य मध्ये (विषामि ति) विपद्ये प्रिये, जातं शरणतो जयमिति श्लोकार्थः ॥ १२६॥
तस्स वि तव एहति । एस श्राउक्कानो गतो । इयाणि ते उक्काओ ततिश्री, तदेव अक्खाणयं कट्टेति एगस्स तावसस्स अग्गिणा उमओ दडो, पच्छा सो भणति "
जयहं दिया प राम्रो य, तप्येमि महसध्विसा ।
तेण मे उमओ दढो, जायं सराम्रो भयं ॥ १२७ ॥ यमदं दिवा रात्रीच तर्पयामि प्रीणयामि मधु नार्थाद्-अग्निना मे चटजस्तापसाऽऽथमां दग्धो, जातं शरणतो जयमिति लेोकार्थः ॥ १२७ ॥
अथवा
बम्पस मए भीएणं, पावगो सरणं कओ ।
तो दऊं ममं अंगं, जायं सर ओ भयं ॥ १२८ ॥
( दग्धस्स सि ) सुळ्यत्ययाद् व्याघ्रात् पुण्डरीकाढू मया भीतेन पावकः अग्निः शरणीकृतः तेनाङ्गं शरीरं मम दग्धं, जातं शरणतो भयमिति श्लोकार्थः ॥ १२८ ॥
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"तस्स वि तदेव गितिकाओ चढत्यो तब कति अदा एगो जुवाणो घणनिचिपसरी सोहन भण्यति"
पुण्यं होऊण संपयं कीस १ ।
महिय गहत्थो, वयंस ! किं नामओ वाही १ ॥ १२७ ॥ (संघणेत्यादि) लङ्घनम्--लुत्य गमनं, वगं धावनं तत्समर्थः पूर्व भूत्वा साम्प्रतम् (कीस सि) कस्मादू (दंरुगहियग्गप्राकृतस्याद एस्तो गति गम्यते । तयं ते वयस्य ! किंनामको व्याधिरिति गाथाऽर्थः ॥ १२९ ॥
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(२४३५) अभिधान राजेन्द्रः ।
दंसणपरीसह
स प्राऽऽद
जिडाssसामु पासेसु, जो सुडो बाइ मारुथ्यो ।
तेरा मे जज्जए अंग, जायं सरओ जयं ॥ १३० ॥ मनादिगुणा
माता से मे मम भज्यतेऽङ्गम, तस्य मेघो तिसंभवत्वेन वातप्रकोपादिति भावः । एवं च जातं शरणतो भयम्, धर्मार्दितानां हि शरणमयमिति श्लोकार्थः ॥१३०॥
अथवा
जेण जीवति सत्ताणि, गिरोहम्मि अांतर । मेजर जाये सरणओ जयं ॥ १३१ ।। येन वातेन जीवन्ति सस्वानि, निरोधे प्रक्रमाद्वातस्य श्र अपरिमिते तेन मे ते जातं शरतो भयमिति श्लोकार्थः ॥ १३१ ॥ "तस्स वि तद्देव गेएइति । एसो वाउक्काओ गतो । इयाणि वणस्लइकाइओ पंचमो, तदेव श्रश्वाणयं कहेति जहा एगम्मि रुकखे केसि पि सडणाणं श्रवासो, तहियं पिलगाणि जायाणि, पालभासाओ यही उड़िया, रुक् ती रिं वि लग्गा, बेली अणुसारेण सप्पेण बिलग्गिऊण ते पिलगा खाश्या । पच्छा सेलगा जयंति "--
जावुच्छं पादने निरुवद्दवे ।
मूलाओ उडिया बी, जायं सरणतो भयं ॥ १३२ ॥ यावदुषितं सुखमुषितं पादपे निरुपषवे, इदानीं मूलादुत्थिता वल्ली, ततो वृक्षादेव तवतो भयं स चोक्तनीत्या शर णमिति जातं शरणतो भयमिति श्लोकार्थः ॥ १३२ ॥ "तस्स वि तद्देव गेइति। एस वणस्सतिकातो गतो । इयाणि स सकाओ बट्टो, तदेव अक्खायं कति जदा एगं नगरं परचकेण रोदियं तस्थ व पारिवार मागा जति बाहिर अतिरभिया पिति य बाहिरा जणा।
पति पछाण विभत"
3
दिसं जयह मायंगा !, जायं सरणओ जयं । १३३ ।। अभ्यन्तरकाः नगरमध्यवर्तिनः क्षुभिताः परचक्रात्रस्ताः प्रेर यन्ति निष्काशयन्ति मा भूदनाऽऽदिक्षय एभ्यो वा भेदः, नश दो निक्रमः, ततो बाह्याश्च परचकलोका उपद्रवन्ति, नचत इति गम्यते । नगरस का पत इति अतो दिशं भजत मातङ्गाः !, यतो जातं शरणतो भयं नगरं हि भवतां शरणं तत पत्र भयमिति श्लोकार्थः ॥ १३३ ॥
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"अथवा एगत्थ नयरे सयमेव राया बोरो, पुरोहितो मंमिश्र ति, ततो दो वि विहरति । पच्छा लोभो भमयं जगति "जरथ राया सर्व चोरों, डिभो य पुरोहितो | दिसं व नागरिया जाये सराओ भयं ॥१३४॥ पत्र राजा स्वयं मुष्णाति भारश्च पुरोहिता दिशं प्रजत नागरका !, जातं शरणतो भयमिति श्लोकार्थः । १३४ । अदवा एगस्त्र धिजातीयस्ल धूया, सा य जोव्वणत्था, पडिणिज्जा, सो जातियोतं पण को घराणो, तोसे करण अतीव दुब्बलीभूओ, बंभणी पु च्छितो निब्बंधे कप कहियं । ताए भष्मतिमा अधिदं क
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सयपरीसह
रेसु तदा करेमि जहा केणइ पोषण संपक्षी हवति । पूर्व मणति मन्दारिपच्छा घरस्स दिज्जति, तो तब कालपक्खचउद्दसीए जक्खो एहि, मातं विमासु मा य तत्थ तुमं बज्जोयं काहिसि । तीचिमेव दीवस सरापेण उत्रियो पीओ, सो आगो पर कितपत मा प कोउपण सरावं फेरियं, नवरं पेच्छति पियरं, ताए णायंजं होतं होउ, इच्छाए भुंजामि भोए, पच्चा ताई रतिकि ताई उभ्गए सूरेन पडिवुज्छंति । पच्छा बंभणी मागद्दियं जण ति"अग्गए सूरिए, बेतियनगर व वायसे । भितीगयर य आयचे,
सहि ! सुहि हु जो ण बुझइ || १३५ ।। अचिरोतके च सूर्ये, कोऽनिप्रायः १ - प्रथमोदिते रवौ, चैत्यस्तूपगते च वायसे, श्रनेनोडचे विवस्वतीत्याद, नित्तिगते चा ssतपे, अनेन चोच्चतर इति । सखि ! सुखितो, दुर्वाक्यालङ्कारे, जनो न बुध्यतेन निद्रां जहाति अनेनात्मनो दुखितत्वं कटयति सा दिविरददुःखिता रात्री न निद्रां लम्बवत ति मागधिकाऽर्थः ॥ १३५ ॥
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पच्छा सा तीसे धूया परिसुणित्ता पडिभणति मागहियं”तुम एव य अम्म हे ! लवे,
मा हु विमाण जक्खमागयं । जक्खाइड हु तायए, आ दाणि विभग्ग ताय ।। १३६ ।।
स्वमेव चास्य मातः हे! त्यामन्त्री, शि. झासमये यथा- (माहुति) मेव (विमाणयति विध्याविमुखं कृथा यक्रमागतम्, पक्काऽऽहतको (हु प्ति) खलु तातकोऽन्यमिदामी बिमाय अन्वेषय तातकमिति मागधिकाऽर्थः ॥ १३६ ॥ पच्छा सा धिज्जारणी भणति "मासे कुछ घालिया,
पासपणे पुलिसे य मदिए ।
धूप मे गेड़िए हमे,
सलए अगर य मे जायए ।। १३७ ॥
"नव मासान् कुक्कौ धारिता या, प्रस्रवणं पुरीषं च मर्दितं यस्या इति गम्यते । (धूम सि) डुहिता च गम्यमानत्वात्तथा मे मम गे हको भर्ता, हृतश्चौरितोऽतो देतो, शरकमशरणकम, अपकारित्वान्मे जातमिति मागधिकाऽर्थः ॥ १३७ ॥
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अदना एगेण धिज्जाश्रण तत्वायं स्वणावियं, तत्थेव पालीप देसे देउलमारामो को तत्थ तेरा जो पवत्तिश्रो, गन्ना जत्य मारिज्जति । श्रम्या कयाइ सो भिज्जातिओ मरिऊण छगलगी चेत्र आयातो, सो य घेतूं अप्पणिज्जेहिं पुतेहि तस्स चैत्र तलाए जसे मारिडं निज्जति, सोय जाईसरो णिज्जमा अप्पणिजियार भाषाए बुब्बुयति, अप्पणा चेव सोयमाणोजहा मम चेत्र पवत्तियं, एवं सो वेवमाणो साहुणा श्रतिस यणाणिणा पगेण दीसति । तेण नणियं "
सयमेव क्लोबिया अध्यायायवियाई वाणिया ।
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दसणपरीसह अन्निधानराजेन्दः ।
दंसबोहि (ग) श्रोवाइयलछोय सि, किं ना! वेतति वाससी १।१३। बुदति, ताव पेचति आदरणयाणि, तेण सो खरंटितो, नवा.
लकोय । पूणो वि संबोदितो-जहा ण जन्जति तुम्हं एवं विपरिस्वयमेव च आत्मनैव च (लुक्ख त्ति) सुब् लोपाद वृक्षा रोपि.
णामो, मज्झं च अणागमणकारणं सुणेसु-" संकेतदिब्वम्मा, ताः, भवतेति गम्यते। आत्मीया च "वियाई" इति देशीवचनत:
विमयपसत्ताऽसमत्तकत्तचा। अणहीगणमायकज्जा.णरभवमसडागिका वानिता । याचितस्य प्रार्थितस्य प्राप्तरुपरि देवेन्यो
सुह ए इति सुरा ॥२॥" पच्छा दिवं देवरूखं काऊण पडिगतो, देयमुपयाचितं, तेनैव लब्धः अवसरः दुरापत्वेनोपयाचितलअधः, स एवोपयाचितबन्धकोऽसि त्वमिति, किं गलक!
तेण पुचि सणपरीसहो नाहियासिओ, पच्छा अहियासि
तो;" एवं शेषसाधुनिरपि सहनीयो दर्शनपरीषहः । इहोदाहर(वेवेति वाससी) पारसनीति मागधिकाऽर्थः ।। १३० ॥
जोपदर्शकत्वात्प्रकृतिनियुक्तः कथं सूत्रस्पर्शकत्वमिति यत्क"ततो सोछगल को तेण पढिएणं तुरहको वितो,तेण धिज्जा
श्चिमुच्यते । तदयुक्तम् । सूबसूचितार्थाभिधायित्वात्तस्याः, तदपण चितियं-किंपिपवायगंण पढियं, तेण पस तुण्डिको वितो,
भिधानस्य नरवतः सूत्रव्याख्यानरूपत्वेन सूत्रस्पर्शकत्वादिति । ततो सो तं तवस्सिनणति-किं जगवं! एस उगनको तुभेदि
किं च "कालीपावंगसंकास"(३गा०)इत्यादिना क्षुदादिभिरत्य. पढियमेत्ते चेव तुपिहको ठिो?। तेण माहुणा तस्स कहियं
न्तपीडितस्याऽपि यत्परीषहणमुक्त, तत्र मन्दसत्त्वस्य कस्यचि. जदापम तुजपिया । किमजिम्मा ? | तेण भणियं-अई जाणा.
दश्रद्धानात्प्तम्यक्त्वविचलितमपि संनवेदिति तदूढीकरणाथै मि। किं पुण एसो कहिहि ति । तण गगनगण पुवनवे पुरेण समं निदाणगं निहियं, तं गतूण पापहिं खमखडेति, एयम
दृष्टान्तानिधानमर्थतः सूत्रस्पर्शकमिति व्यक्तमेवैतत्, न च केषां. भिमाणं । पच्छा तेण मुक्को, साहुसमीये धम्म सोऊण भत्तं
चिदिहोदाहरणानां नियुक्तिकालादाक्कालभावितेत्यन्योकत्वपञ्चकक्षाएऊण देवलोगं गतो। एवं तेण सरणमिति काउं त
माशङ्कनीयम् , स हि भगवांश्चतुर्दशपूर्ववित् श्रुन केवली का. मागाऽऽरामे जम्मो य पत्तिो ,तमेव असरणं जायं।" एवंवि.
लत्रयविषयं वस्तु पश्यत्येवेति कथमन्यकृतत्वाऽऽशङ्केति । धोऽत्र समवतारः। “एवं तुम्हं अम्हे गया सरणं ।" इह च पूर्व
उत्त.१०। मनुष्यजातेस्रसस्य स्मरणार्थमुदाहरणत्रयमिदं तु तिर्यगजाते. दंसणपरीसहविजय-दर्शनपरीषहविजय-पुं० । दर्शनपरीषदमरिति भावनीयम्। "सो तहेव तस्स आहरणगाणि घेत्तुग सिग्धं ॥ हने, पं०सं०स चैवम्-“दंसण ति" (२२)दर्शनविषयपरीषहो गंतुं समादत्तोपंथे, नवरि संजरं पासति,ममियं टिविडिक्कियं । ऽपि दर्शनमित्युक्तम्, तत्र सर्वपापस्थानेज्यो विरतः प्रकृतपोऽ. तेण सा जम्मति"
नुष्ठायी निःसङ्गवाहं. तयाऽपि न धर्माधर्मफलभूतान् देवनार. कडए य ते कुंडले य ते
काऽऽदीन पश्यामि ततो महोपवासाऽऽधनुष्ठायिनां प्रातिहार्यवि. अंजियक्खि ! तिलयए य ते ।
शेषाःप्रापुरनूवन्निति प्रज्ञापमात्रम्,श्त्येवं यद् मिथ्यादर्शनमोह. पवयणस उडाइकारिए !,
नीयस्य प्रदेशोदयतः कदध्यवसायस्योत्यानं स दर्शनपरीषहास
चैवं सोढव्य:-देवा मनुष्यनोकानामपेकया परमसुखिनः, न च दुहासेहि! कतोऽसि भागया? ॥१३॥
संप्रति दुःषमाऽनुभावतस्तीर्थकराऽऽदिरस्ति,ततः परमसुखाऽऽकरके च ते तव, कुएमले च ते, अजिताक्षि ! तिलकच ते
स्तत्वान्मनुष्यलोके च कार्याभावात्र संप्रति मनुष्याणां दर्शनस्वया कृतः, प्रवचनस्य उड़ादकारिके !ष्टाशिक्षिते! कुतो- पथगोचरतामायान्ति । नारकास्तु निरन्तरं तीवतरवेदनाऽऽत. उस्यागतेति मागधिकाऽर्थः॥१३॥
स्वात् पूर्वकृतपुरकर्मविपाकोदयनिगमनिगमितत्वाश गमना53दर्शनपरीकाऽर्थं च साध्वीविकरणम् । सैवमुक्ता सतीदमाह- गमन शक्तिविकलाः, ततस्तेऽपि नेहाऽऽगच्छन्ति । नापि दुःषमाराईसारमवपित्ताणि, परछिदाणि पाससि ।
उनुभावत उसमलंहननासंभ संप्रति तारशी तपोधिशेषशअपणो विल्लभेत्ताणि, पासंतो विन पाससि ॥१४॥
क्तिरस्ति नावनोल्लासो वा, येन ज्ञामातिशयोत्पादनतस्तत्स्था।
ने देवनारकाम्पश्यति; चिरन्तनपुरुषाणां तत्तमसंहननवशादुराजिकासपमात्राणि परच्छिमाणि पश्यस्यात्मनो विस्व
नमा नपोविशेषाशक्तिरुत्तमा च भावना समासीव, ततः सर्व मात्राणि पश्यन्नपि न पश्यसीति लोकार्थः ॥ १४० ।।
तषामुपपद्यत इति । (२२)पं० सं०५द्वार । तथासमणो सि संजनो असि, बंजयारी समलेकंचणे।
दसणपायच्छित-दर्शनप्रायश्चित्त-न । प्रायश्चित्तनेदे, स्था. वेहारियवाअोय ते, जिट्ठज्ज!किं ते पमिगडे?१४ा ३०४ ('पचित्त'शने चैतव न्यास्यास्यते) भ्रमणोसि संयतोऽसि बहिर्वृत्त्या ब्रह्मचारी समलोष्टकादमणपुरिस-दर्शनपुरुष-पुं०। सम्यक्त्वयुकपुरुषे, स्था० ३ नोविहारिकवातकवते यथाऽहं वहारिक इत्यादिम्पो ज्येष्ठार्य! ठा. १०। किं ते तव पतब्राहक इति श्लोकार्थः ॥ १४१ ।।
दंसपवल-दर्शनवल-पुं० । रददर्शने, प्रश्न १ संब० द्वार। "एवं तार उड़ाहितो समाणो पुणो वि गमति, नवरं पेच्छ|
दर्शनवलं सर्ववेदिवचनप्रामाण्यादतीम्ब्यिाऽऽदियुक्तिगम्यपबंधाचारमितं,तस्स किर जिवट्टमायो दंडियस्सेव सवडहुत्तो गतो,तेण हत्यिखंधा ओकहित्ता बंदियो,भणिनोय-भय अहो
दार्थरोचनलकणम् । स्था० १० ठा०। परमं मंगसं निमित्तंच,जं साहुअज्जमए दिट्टो भयचं!ममाणु
दंसाबुक-दर्शनबुक-न- बुद्धभेदे;"दुविहा बुन्दा पत्ताातं गह्त्थं फासुयएसणिज्जं श्मं मोयगाऽऽदि संबलो घेप्पति,
| जहा-जाणबुका चेव, सणबुद्धाचेव।" खा०५ ग.४. सो च्गत, भायणे मानरणगाणि खूढाणि मा दीसिद्धिति सणवोहि (ण)-दर्शनबोधिन्-पुं० । दर्शनमोहनीयक्षयोपशतण दांडिपण घसा मोडिमण पमिगहोगहितो, जाव मोयगे। माऽदिसम्पन्नशानक्षाभे, स्था० ग.४०।
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(२४३५) दसणनावणा अन्निधानराजेन्फः।
दसणरश्य दंसणभावणा-दर्शनभावना-स्त्री० । सम्यक्त्वपोलोचने' होइ असंमृढपणा, दमणसुचीइ काणम्मि ॥ ३॥ प्राचा०।
शङ्काऽऽदिदोषरहित इति-शङ्कनं शङ्का । श्रादिशब्दात्काङ्क्षातित्थगराण जगवओ, पवयणपावयणिभइसइटीणं ।। दिपरिग्रहः। उक्तं च-" शङ्काकासाविचिकित्साऽभ्यष्टिप्रशंसाअहिगमणणमणदरिमण-कित्तणो पूयणा थुणणा |
परपाषरामसंस्तयाः सम्यम्हालेरतीचाराः"इति । पतेषां च स्वरूप
प्रत्याख्यानाध्ययन न्यण बक्ष्यामः। तत्र शङ्काऽऽदय पत्र सम्य. तीर्थंकता जगवतां. प्रवचनस्य च हादशाङ्गस्य गणिपिटकस्य,
क्त्वाऽख्यप्रशमगुणातिचारवाहोषाः शङ्काऽऽदिदोषाः,ते रहितः तथा प्रावचनिनामात्रायोऽदीनांयुगप्रधानानां, तथाऽतिशायिना.
स्यक्ता उक्तदोषरहितत्वादेव किम्?,प्रशमर्याऽऽदिगुणगणोपेतः, मृष्मिता केवनिमनःपर्यायावधिमरचतुदेशपूर्वविधां, तथाऽम- तत्र प्रकर्षेण श्रमः प्रश्रमः खेदः, स च स्वपरसमयताधेिगम. पौषध्यादिप्राप्तऋद्धीनां यदभिगमन, गत्वा च दर्शनम, तथा रूपः, स्थैर्य तु जिनशासने निप्रकम्पिता । प्रादिशब्दात्मजावनमतम, गुणोत्की सन, संपूजनं गन्धाऽऽदिना, स्तोत्रैः स्तवनम,
नाऽऽदिपरिग्रहः । उक्तं च-"सपरसमयकोसळ, थिरया जिणइत्यादिका दर्शन नावना । अनया हि दर्शनभावनयाऽनवरतं
सासणे पजावणया । श्राययणबभत्ती, सदावा गुणा पं. भाग्यमानया दर्शन शुर्भिवतीति ॥४॥
च" ॥१॥ प्रशमस्थैर्याऽऽदय एष गुणाः, तेषां गणः समूहः, ते.
नोपेतो युक्तो यः स तथाविधः। अथवा-प्रशमाऽऽदिना स्थैर्याजम्मानिसेयणिक्खम- चरण णाणुप्पती य णिवाणी। ऽऽदिगुणगणेनोपेतः । तत्र प्रशम ऽऽदिगुणगणः प्रशमसंधेगनिदियलोय नवमंदिर-पंदीसरभोमनगरेसं ।।५।। केंदानुकम्पाऽऽस्तिक्यालिव्यक्तिलकणः, स्थैर्याऽऽदिस्तु दर्शित तीर्थकृतां जन्माभिषेकचूमिषु, नथा निष्करण चरण झानोत्पत्ति
एव । य इत्थंभूतः असौ भवत्यसंमूढमनाः, तत्त्वान्तरेऽतान्तचित्त निर्वाणमिषु, तथा देवलोकभवनेषु, मन्दिरेषु, तथा नन्दी- इत्यर्थः। दर्शनशुवोक्तअक्षणया हेतुभूतया। व?, याने। इति श्वरद्वीपादी, भौमेषु च पातानभवनेषु, यानि शाश्वतानि। गाथाऽऽथः ॥ ३२॥ प्राव०४०। चैत्यानि, तानि वन्देऽहमिति द्वितीयगाथाऽन्ते क्रिया ॥ ५॥ दमणभेइणी-दर्शननेदिनी-स्त्री० । ज्ञानाऽऽद्यतिशयतः कुतीप्रहावयमुज्जंते, गयग्गपयए य धम्मचके य ।
र्थिकप्रशमारूपायर्या विकथायाम, तद्यथा-"सूक्ष्मयुक्तिशतोपेतं. पासरहावत्तणयं, चमरुप्पायं च वंदामि ॥ ६॥
सूक्ष्मबुद्धिकरं परम । सूक्ष्मार्थदर्शिभिदृष्ट, श्रोतव्यं बुरुशासएवमापके, तथा श्रीमजयन्तगिरौ, गजानपदे दशार्णकूट
मम ॥१॥" इत्यादि । एवं हि श्रोतृणां तदनुरागात् सम्यग्दर्शनपर्तिनि, तथा तकशिनायां धर्मचक्रे, तथा अहिच्छत्रायां पाव
भेद इति । स्था०७० । ध० । ग० । नाथस्य धरणेन्द्रमामास्थाने,एवं रथाऽऽवते पर्वते वैरस्वामिना दंसणमत्त-दर्शनमात्र-न । रष्टिमात्रे, पञ्चा. १२ विवः। यत्र पादपोपगमनं कृतं, यत्र च श्रीवर्द्धमानमाश्रित्य चमरे णो- दसणमूह-दर्शनमूह-पुं० मिथ्यास्विषु, दर्शनमूढा मिथ्याख्या. स्पतनं कृतम्, पतेषु च स्थानेषु यथासम्भवमभिगमनवन्दनपू. दयः। स्था०३ ग०१०। जनगुणोत्कीर्तनाऽऽदिकाः क्रियाः कुर्वतो दर्शनशुजिवती
दसण मोह-दर्शनमोह-पुं० । रष्टिदर्शनं यथावस्थितवस्तुपति ॥ ६ ॥
रिच्छेदः, तन्मोत्यतीति "कर्मणोऽण्" ॥५॥१। ७२ ॥ श्त्या
प्रत्ययः ! मोहनीयकम्र्म मेदे, कर्म। गणियं णिमित्त जत्ती, संदिट्ठी अवितहं इमंणाणं।
दसण मोहं तिविहं, सम्भं मीसं तहेव पिच्चत्तं । श्य एगंतमुवगया, गुण पच्चइया इमे अत्या ।। ७॥
मुकं अचविमुछ, अविसुदं तं हवइ कममो ॥१४।। प्रवचनविदाममी गुणप्रत्ययिका अर्था भवन्ति । तद्यथा--गणि
दर्शनमोई पूर्वोक्तशब्दार्थ, त्रिविधं त्रिकारं भवति । (सम्म ति) तविषये बीजगणिताऽऽदौ परं पारमुपगतोऽयम् । तथा अष्टा.
सम्यक्त्वं, मित्रं सम्यगमिथ्यात्वं,तथैव मिथ्यात्वम्। पतदेय स्वअस्य निमित्तस्य पारगोश्यम् । तथा-दृष्टिपातोक्ता नानाविधा
रूपत माह-शुद्धम: विशुद्धमविशुर तद्भवति क्रमशः क्रमेणेयुक्तिव्यसंयोगादू, हेतुत्वाद्वति । तथा सम्यगविपरीता दृष्टि
ति । अयमत्रार्थ:-मिथ्यात्वयुदगल कदम्बकं मदनकोषवम्यायेन दर्शनमस्य त्रिदशरपि चालयितभशक्या । तथा अवितथम- शोधितं सद् विकागजनकत्वेन शुरूं सम्यक्वं भवति, तदेव स्येदंशानं यथैवायमाह तत्तथैव प्रावचनिकस्याऽऽचार्याऽऽदेः किञ्चिद्विकारजनकत्वेनाविशुद्धं मिश्रम्, तदेव सर्वथाऽप्यप्रशंसां कुर्वतो दर्शनविशुद्धिर्भवति।
विशुद्धं मिथ्यात्वमिति । उक्तं हिएवमन्यदपि--
" तद्यथेद प्रदीपस्य, स्वच्छाभ्रपटलैगृहम् । गुणमाहप्पं ऽमिणा-मकित्तणं मुरण रिंदपूया य ।
न करोत्यावृति कावि-देवमेतद्रुचेरपि ॥१॥ पोराणचेडयाणि य, एसा दंसणे होश ।। 6॥ एकपुजी द्विपुजी च, त्रियुजी वाऽननुक्रमात् । गुणमाहात्म्यमाचार्याऽऽदेव यतः, तथा पूर्वमहीणां च ना- दर्शन्युनयवाश्चैव, मिथ्यादृष्टिः प्रकीर्तितः॥ २॥" मोरकीर्तनं कुर्वतः, तेषामेव च सुरनोपजाऽऽदिकं कथयतः, प्रबाह सम्यक्त्वं कथं दर्शनमोहनीयं स्यात, न हि तदर्शनं तथा चिरन्तनचल्यानि पूजयत इत्येवमादिकां क्रियां कुर्वत- मोहयति, तम्यैव दर्शनत्वात् ? । उच्यते--मिथ्यात्वप्रकृतित्वेनास्तद्वासनावासितस्य दर्शनविशुद्धिजयतीत्येषा प्रशस्ता दर्शन. तिवारसंभवादोपशमिकाऽऽदिमोहत्याच्च दर्शनमोहनीयमिविषया भावनेति । आचा०२श्रु०३चू०१५ अ०।
नि । कर्म १ कर्म । स्था० । साम्प्रतं दर्शनजावनास्वरूपगुणदर्शनार्थमिदमाह- दंसबरडय-दर्शनरचित-त्रि । दर्शने दृष्टिमार्ग रचितो विदिसंकाऽऽइदोसरहियो, पसमाथि जाऽऽइगुणगणोवेश्रो। | तो दर्शनरचितः । दृष्टिमार्गविहिते वस्तुनि, और।
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सरइय
दंससुद्ध
दर्शनरत
नं संजय
दः । दर्शने सति सुखप्रदे वस्तुनि, औ० ।
प्रतिसमयमा परेोपयोग पोत्पद्यमानेग घटयन्। संयोजनं च भेदेऽपि स्यादत आह-जावयँस्ते नाऽऽत्मानमात्मसानयन् विहरति भवस्थ केवलितया मुक्ततया चाss• स्ते । पठन्ति च " अणुतरेणं णाणदंसणं विहरन्ति ।" अत्र लक्षणे तृतीया । च० पा० २० अ० ॥
दर्शननकीरा०
दंसणरय - दर्शनरत - त्रि । दर्शनानुरके, बाच० । " बहुसु अस मरसुपरावसु देवचरर समंती कलई सदविदंसह समादि-दर्शनसमाधि- पुं० प्रावसमाधिमे, सुन गवेसमाणे । का० १ ० १६ अ० । दर्शनसमाधी यवस्थितो जिनभारित क्षणलकव-दर्शन-म० शरणप्रदीपत्रन्न कुमतवायुभिर्भ्राम्यते । सुत्र० १० १० प्र० । दमणमावग-दर्शन आवक तत्प्रतिपक्षा भवको दर्शनाका उपाशका प्रथमप्रतिमायाम्, स० १० सम• । प्रा० चू० । तत्र दर्शनं सम्यक्त्वं तत्प्रतिपन्नः श्रावको दर्शनायकः च प्रतिमान कातरखेऽपि प्रतिमाप्रतिमायतोरनेदोपचारात्प्रतिमतः कृतः। अयमत्र श्रावको दर्शन श्रावकः । इह च प्रतिमानां प्रक्रान्तत्वेऽपि प्रतिमाभावार्थः सम्यग्दर्शनस्य श15 दिशस्व राहतस्वप्रतादिगुणामयुपगमः सा प्रतिमा प्रथमत स० १० सम० ।
दंसण सावय-दर्शन श्रावक - पुं० । ' दंसणसावग' शब्दार्थ,
(२४३५) अभिधान राजेन्द्र
तिर सुखद
० श० २३० ।
दंसण ( ) दर्शनचिन्पुं० सम्यखिनि
असदनुष्ठानेन स्वतो भ्रष्टे, श्राचा० १ ० ६ अ० ४ ४० । दंसणवादभग-दर्शन पापचक पुं० [दर्शनं सम्यक व्याप भ्रष्टं येषां ते तथा । निहवेषु प्रज्ञा० २३ द्वार । दंसनिय दर्शनचिनय दर्शनका देव यो दर्शनिय दर्शनस्य वा सदस्यतिरेकादनवाधि कान सुश्रूषणानाशानारूपो विनय दर्शनविनयः स्था० ७ ठा० | सम्यग्दर्शनगुणाधिकेषु सुश्रूषाऽऽदिरूपे विनये,भ०२५० 930 उक्तं च-“ पवयणमसेस संघो, दंसणमिच्छति इत्य सम्मतं । विदंसणसं, कायन्त्रा चैव एयं तु ॥ १५ ॥" संथा | दंसणाराहणा-दर्शनविराधना श्री विराधना बरमना, । दर्शनं सम्यदर्शनं क्षायिकादि तस्य निदर्श मा | दर्शनप्रत्यतीतानियादिरूपायां तपोविराधनायाम
स०३ सम० ।
दंसण विसोहि - दर्शन विशुद्धि स्त्री० । दर्शनाऽऽचारपरिपालन तो त्रिशुद्दिदर्शनविशुद्धिः । विशुद्धिभेरे, स्था० १० ठा० । दर्शनविशुद्धिकारकाणि शास्त्राणि, तदर्थमध्वानं गच्छेत्। वृ० १ उ० दंसयसंकिलेस- दर्शनसंक्लेश-पुं० | दर्शनस्य संक्लेशोऽविशुद्ध्य
मानतास दर्शन संक्लेशः । संक्लेशभेदे, स्था० १० वा० । दंससंग - दर्शनसङ्ग - पुं० । दर्शनेऽवलोकनऽभिष्वङ्गो दर्शनसङ्गः । अवलोकनाभिष्वङ्ग, पञ्चा० १७ विव० । दस संपण्य-दर्शनसम्पन पुं० अविरतम्यष्टी, बृ०१४० स्था० | दर्शनसम्पन्नः कोऽहमित्येवं श्ररूत्ते । स्था० छा० । सपा- दर्शनसंपता श्री दर्शनस्य कायोपशमि कस्य सम्पन्नता । तस्याः काबोपशमसम्यक्त्वसहितत्व, ਭਾਰ दंसण संपन्नयाए भंते ! जीवे किं जएगई है। दंसणसंपन्नगाए णं जवमिच्छत्तच्छेयां करेई, परं न विज्जायर, [ परं कायमाणे] अणुशरो नाणदंसणं अप्पा सं जोएमा सम्म जानेमाणे विहरइ ।। ६० । दर्शनसम्पन्नतया कायोपशमिकसम्यक्त्वसमन्वितया भ हेतुभूतं मिथ्यात्वं तस्य प्रेदनं रुपयं करोति ।
को
-कान्ति परमित्युत्तरकालग्नस्तव भये मध्यमजयन्यापेचामु बा जम्मन्युरोन न मानारूपं विपाप्रोति करे क्षाधिकत्वात् प्रधान, ज्ञानं च दर्शनं च ज्ञानदर्शनं, तेनात्मा
स० १० सम० ।
। दंसणमुक दर्शनशु की सम्यग्दर्शन निर्मलतायाम् ०४० प्रति नितिपाद श्री प्रभसूरिविरचित स्वनामस्याले अन्धे च दर्श०१ संप्रति स्वयं सौम्य वस्तुगृहीतनामधेयो भगवान् प्रन्थ-कारः स्वनाम व्युत्पश्या प्रकटयन् प्रन्थ स्वरूपं प्रयोजनं च दर्शयभिदं गाथाद्वयमाद-चंदपरहरिसूर रिद्धिपयनिप्पडयन मेि जेसिं नामं तेहिं, परोवयारम्मि निरएहिं ।। ५७ ॥ पार्थब्बाऽऽपरि रइयगाहाय संगहो एसो । विडिओ अणुहत्यं, कुमग्गग्गाख जीवाणं ॥ ५० ॥ दानां प्रथमःमारेषां नामाभितैः सूरिभिरित्यर्थः कथं भूतेः परोपकारनिरते। इति निगदितप्रकारेण प्रायः निरेष मो विहितो मिध्यादनुग्रहाच कुमार्गांकुचनकुदेशना चाखितान्तर णिनामिति गाथाद्वयार्थः ॥ ५७ ॥ ५८ ॥
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अस्य हि सकलशास्त्रगर्नार्थप्रतिपादकस्य सकल-सुपति सुश्रावकसमाचार प्रकाशकस्य सफल संवेदावानलसुधाधाराप्रपातसदृशस्य शास्त्रस्य को नामापि ग्रहीष्यतीत्याह-
जे मज्जत्था धम्म- स्थिणो य जेसिं च श्रागमे दिट्ठी । तेर्सि उवयारकरो, एसो न न संकिलिडाणं || ए || ये केचनामिर्दिवमायाः प्राणिनः किंभूताः १-मध्यस्था अत्यु कटरागद्वेलितया समवेतसः पर्थिन शिवसुनाभिपिपासपरिहारेण पूर्वीपरपयांचा बा ssगमे दिलोचनं तेषामुपकारकर एषोऽनन्तरोदितः, न चैव सक्लिष्टानां मिथ्यात्वानिनिवेशवशवर्त्तिबुद्धिविभवानां ते
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(२४३६) दसणसुद्धि
अन्निधानराजेन्द्रः।
दसणायारातियारपायच्छित्त हिधूकवत्प्रकृत्यैव विपरीतस्वभावाः, अतो वस्त्वपि अवस्तु
युक्त्याऽऽगमोपपनेऽप्य फलं प्रति संमोहः, तदन्नावोनिर्विचि. खुरूचा गृहन्तीति गाथाऽर्थः ॥ En
कित्सम । यद्वा-विद्वजुगुप्सामल मलिना पते इत्यादि साधुजुगु संप्रति प्रन्धकार एवास्य यथावस्थितार्थावनासका- पसा, तदभावो निर्विद्वज्जुगुप्सं,तत एषां द्वन्द्वः, पुंलिङ्गनिर्देशश्च नि नामान्यजिधातुकाम भाद
प्राकृतत्वात्।तथा-अमूढा तपोविद्याऽतिशयाऽऽदिकुतीथिकम्दिउवएसरयणकोस,संदेहविसोसहिं व विनयजा ।
शनेऽप्यमोहवतावा अविचलिता,साच सादृष्टिश्च सम्यग्दर्शनप्रहवा वि पंचरयणं, दंमासुकि इमं भणह ॥६॥
म अमूढष्टिः। अथवा-निर्गताः शङ्किताऽऽदित्यो ये तेनिःशङ्कित.
निःकान्तिनिर्विचिकित्सा जीवा,अमूढा दृष्टिरस्यत्यमूढधि उपदेशा देयोपादेयोपेकणीयार्थेषु हानोपादानोपेकणीयभण
जीव पवं,तत पते धर्मधर्मिणोरजेदोपचाराद् दशेनाऽऽचारजेदा नानि, त पव रत्नानि तेषां कोश व भारामारवदुपदेशरत्नको.
भवन्तीति । तया-नुप→हण मुपवृहा-समानधार्मिकाणां कमणावे शः, तम्; संदेहो दोलायमानता, स एव विषं तस्यैवौषधिः
यावृत्वाऽऽदिसद्गुणप्रशंसनेन तत्तगुणवृद्धिकरणम,स्थिरीकरणं संदेहविषापहारित्वादस्याः संदेहविौषधिः, ताम्; वेति वि.
तु-धर्माद्विषीदतां तत्रैव चारुवचनचातुर्यादवस्थापनम, उपहा कल्पनार्थः। विद्वज्जना हि कृतिनः, अथवाऽपि पञ्चरत्न, सक
च स्थिरीकरणं च उपचूहास्थिरीकरणे। तथा तेषां वात्सल्यं च लसुबमूल हेतुपञ्चपदार्थप्रकाशकत्वादस्याः । दर्शनशुधिमिमां
प्रतावना वात्सल्यप्रभावने। तत्र वात्सल्यं-समानदेवगुरुधभणत प्रतिपादयत । इति गाथाऽर्थः॥६॥
माणां भोजनबसनदानोपकाराऽऽदिभिः संमानने, प्रजापना-ध. सामान्यमभिधायेदानीमस्यैव माहात्म्योपदर्श
मकथाप्रतिवादिनिर्जयदुष्करतपश्चरण करणाऽऽदिभिर्जिनवचन नायाऽऽह--
प्रकाशनम् । यद्यपि च प्रवचनं शाश्वतस्वात्तीर्थकरनाषितस्वाहा मिच्छपहलवतारध-तरियं आगमसमुद्दबिंदुसमं ।
सुरासुरनमस्कृतत्वाद्वा स्वयमेव दीप्यते,तथापि दर्शनशुस्मिा. कुग्गाहग्गहमंतं, संदेहविसोसहि परमं ।। ६१॥ स्मनोऽभीप्सुर्यों येन गुणेनाधिकः स तेन तत्प्रयच नं प्रभावयति, मिश्वात्वमहार्णवतारणतरिका कुवासनोदधिपरमयानपात्रम्, यथा भगवदाचार्यवनस्वामिप्रतिक इति। पते अष्टौ दर्शनाss. भागमसमुद्रविन्दुसम सिमान्तोदधिनिस्यन्द्रिबिन्दुकल्पं, कु- चाराः॥ २६६॥ प्रव.६द्वार । नि०चूध.ति । ग.। ग्राहग्रहमन्त्रं, निर्णाशकमित्यर्थः । संदेहविौषधि परमा प्रकृ. नं। प्राचा० । दश । (विशेषस्तु 'प्रायार' शब्दे द्वितीय हामिति गाथाऽर्थः ॥६॥
भागे ३४० पृष्ठे अष्टव्यः) संप्रति पुनरपि शास्त्रगतोपदेशमाद
दसणायाराइयार-दर्शनाऽऽचारातिचार-पुं० । सम्यक्त्वव्यव. एयं दंससोहिं, सब्ने भन्दा पढंतु निमुणंतु ।
हारातिचरणे, जीत० । जाणंत कांत बह-तु सिवसई सासयंक त्ति ॥६॥ सपायारातियारपायच्छित्त-दर्शनाऽऽचारातिचारप्रायश्चित्तपतां दर्शनशुद्धिं सर्वेऽपि भव्याः पठन्तु सूत्रतः,निशएवन्तु अ- न० । प्रायश्चित्तदे, जीत०। र्यतः, जानन्तु पुनःपुनरज्यासतः कुर्वन्तु एतदुक्तमनुतिष्ठन्तु,स- अधुना दर्शनाऽऽचारातिचारप्रायश्चित्तमाहभन्तां शियसुखं शाश्वतं झटितीति गापाऽर्थः।६। दर्श०५ तस्व। "यावत्पायोधयोऽयं सुरगिरिरखिलाऽऽलोकलोकोदरस्थो,
संकाऽऽइएमु दोसे, खमणं मिच्छोबवूहणाऽऽईमु । यावद् द्वीपोऽथ जम्बूखिनुबनतिलकः पूर्णचन्नाऽऽकृतिश्च ।
पुरिमाऽऽई खपवंत, निक्खूपनिईण य चनएहं ॥२०॥ यावज्जैनोऽत्र धर्मः प्रभवति हि शशी भूतलं ताबदेना,
एयं चिय पत्त, उबवूहाऽऽईणमकरणे जयणा । भन्याः शवन्तु श्रव्यां विषयविमुखताऽऽपादिकांबोधिदांच" प्रआयामतं निन्नी-यगाऽऽइ पौसत्थसप्लेसु॥२॥ ॥१॥ दर्श० ५ तव।
शह दर्शनाचारातिचारोऽष्टधा । तद्यथा-शङ्का,आकाङ्कन, वि. दंसणाभिगम-दर्शनाभिगम-पुं० । दर्शनं सामान्य ग्राही बोधः, चिकित्सा, मूढरष्टिः,उपहा, स्थिरीकरण, वात्सल्यं, प्रभावना तद गुणप्रत्ययावभ्यादिप्रत्यकरूपम् । तेनाभिगमे वस्तुनः प.
चेति । तत्र संशयकरणं शङ्का । सा हिंधा-देशता, सर्वत. रिच्छेदे, तत्प्राप्तौ च । स्था०६ ग०।
श्व । तत्र देशतस्तुल्येऽपि जीयत्वे कथमेके भव्याः, अपरे दसणाऽऽया-स्त्री० । दर्शनाऽऽत्मन-पुं० । षष्ठे अात्मनो भेरे,
स्वभव्या इत्यादि । सर्वतस्तु प्राकृतजापानिबद्ध मिदं श्रुतं न दर्शनाऽऽत्मा सर्वजीवानाम् । जा। प्राकृतत्वाच्च सत्रे स्त्रीत्वनि
ज्ञायते-किं सर्वक्षेन प्रणीतम, आहोस्वित् कुशसमतिनाऽपि देशः। भ• ११ श०१० उ० ।
परिकल्पितमिति ॥१॥ प्राकाङ्काऽपि-देशतः कुतीथिकमत
माकाङ्कति-अस्मिन्नपि खल्वहिसैव धर्मों, मोकश्च फनमुच्यत दसणायार-दर्शनाऽऽचार-पुं० । आचरणमाचारो व्यवहारो, द.
इति।सर्वतः सर्वकुमतान्याकाङ्कति कृषी बन्न व सर्वधान्यान्यु. शंनं सम्यक्त्वं, तदाचारः। स्था०५ म० ३३०सम्यक्त्ववतां
चावचानि कदाचित्किश्चित्फलतीतिधिया ॥२॥ विचिकित्साव्यवहारे, ४०१ अङ्गा पत्रा
मात्मनः फलं प्रत्यनाश्वासः, यथा-प्रासीत्तादृशानुष्ठायिनां पुरामथ दर्शनाऽऽचारभेदानाह
तनानां महासरवानां मोक्षः, अस्मादशानां त्यस्नानकेशलुचनानिस्संकिय निकंखिय, निबितिगिच्छा अमूद दिही य ।
दि कष्टमेव, मन्दसस्वत्वात् क मोक्षसंभवः, इति देशतःस्तोनववह-थिरीकरणे, वच्छापभावणे अट्ठ ॥२६ए।। कोडनाश्वासः। स सर्वतस्तु सर्वथाऽनाश्वासः । यथा-"विदक" शङ्कितं शङ्का संदेहः तस्याऽभावो निःशक्षितम्,दर्शनस्थ सम्य. झाने (धातुपाठे) बिदन्तीति विदः साधवः,तेषां जुगुप्सा विज्जु. कत्वस्याऽऽचारा इत्येवमन्यत्रापि। तथा काङ्कितं काका अन्यान्य. गुप्सा । देशतोऽहो! मलदुर्गन्धा श्मे मनुजा यद्यदुकेन स्नायुपशनग्रहः तदभावो निष्कासित,तथा विचिकित्सा मतिविनमः- स्तदा को दोषः स्यादिति ? । सर्वतस्तु मएकल्यादिनैकत्र देशे
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दसणायारातियारपायच्छित्त अभिधानराजेन्सः।
दसणावरण मिथः संसृष्टभाजिनो गुप्तिगृहवासिम श्व महामझामसाङ्गपा- साधर्मिक इति. समानधार्मिकोऽसाविति, संयम चासो मत्संस. ससः प्रागदत्तदानस्वेनाऽऽजन्म भिकाचरा इत्यादि ॥३॥ मृढह. गौत्करिष्यतीति हेतोः,वाशब्दत्वात कुअगणसग्लानाऽऽदिकाटि:-परतीथिनां राजाऽऽदिकृतां पूजां, मन्त्राऽऽधतिशयान् वा र्येषु सहायाऽऽदिकं करिष्यतीत्यादिबुद्धया सर्वस्मिन्ममत्वाऽऽदि. दृधा, तदागमान् वा श्रुत्वा देशतः स्तोको मतिव्यामोहः । सर्व. के बारसख्ये कृतेऽपि शुका॥३०॥ इत्युक्तं दर्शनाचारातिचारतस्तु सर्वथा ॥४॥ उपहा-प्रशंसा ज्ञानदर्शनतपःसंयमययावृ. प्रायश्चितम् । जीत। "दाणि एपर्सि पच्चित्तंजापति-तीसु वि स्योद्यतानां साध्वादीनामुत्साहवृद्धि हेतुःप्रशस्ता मिथ्याऽऽशंसा, संका, कंखा, विनिगिच्या य,एताई तिन्नि । पतासु तिमु वि देसे शाक्यचरकाऽऽदीनां त्वसावप्रशस्ता ॥५॥ स्थिरीकरणं-सीदत- पत्तेयं पत्तेयं गुरुगा मूल मिति, सव्ये दो, पुणसहो सव्यसं. श्वारित्राऽऽदिषु स्थैर्य हेतुःप्रशस्ता, अप्सयमविषये पुनस्तदप्रश- काऽऽदिविसेसाबधारणे दहश्वो। सन्येदि ति सव्व सकाए सस्ता ॥ ६ ॥ वात्सल्यम्-प्राचार्यग्लानप्राघूर्णकबालवृद्धा. ब्वखाप सम्बचितिगिछाए य, होति जयन्तीत्यर्थः किं त.
दीनामाहारोपण्यादिना समाधिसंपादनं प्रशस्त, गृह । त?, मूलमिति अनुकरिसणवकं ददुव्वं ।" नि० चू० १००। स्थपार्श्वस्थाऽऽद्यपष्टम्जरूपं तदप्रशस्तम् ॥ ७॥ प्रत्नावना च
श्याणि पच्छित्ता भमंतितीर्थकरप्रवचनाऽऽदिविषया प्रशस्ता,कुतीर्थिकविषया स्वप्रश
दिट्ठीमोहे अपसं-सणे य अथिरीकरणे य बहुआ तु । स्ता ॥७॥ ह च प्रशस्ताऽऽदीनां प्रशस्तानामकरणे ऽतिचार. खा. अप्रशस्तानां तु करणे देशसर्वभेदाचोपवृहाऽऽदीनामपि
वच्छसपनावणाण य, अकरणेण सहाणपच्छित्तं ॥३४॥ शङ्काऽऽदीनामिव शेय इति दर्शनाचारातिचारस्याष्टा जेदाः ।
"दिट्टीमोहं करेति,प्रहबा उवहं न करेति, अडवा अणुबहितत्र शङ्काऽऽदिकेषु चतुर्यु नेदेषु देशतः क्षपणं मिथ्योपवृंदणा
ते केवि पायरिया मासल हुं भणति । सम्मनाऽदीसुधिरीकर. ऽऽदिषु च सूचकत्वात् सूत्रस्य मिथ्याशब्देन मिथ्यात्वाऽऽदयो
गंण करेति, अहवा केति मपण वा मासाहू,बच्छद्ध सामीण गृह्यन्ते, तेषामुपबृंहणा मिथ्योपवृंहणा, अप्रशस्तेत्यर्थः । तथा
विसेसेण य भणिय,तं चेव सहाणं इमाए गाहाप भणिय,"श्राश्रादिशब्दात् स्थिरीकरणवात्सल्यप्रभावना गृह्यन्ते, ततश्चाप्र.
यरिए य गिलाणे गुरुगा गाहा।" पभावणं अकरेतस्स सामशस्तेष्वपि चतुर्दशतः कपणमेव । एतच्चौघतः पुरुषानपेक्कया झे.
ण च गुरुगा, विससेण सहाणपच्छित्तं तं च इम-प्रतिसेसियम्। अत्राह-ननु शकाऽऽदिकेचित्यनेनैव समानप्रायश्चित्त
निधिम्म कहिवादिविजरायलम्मतो, गणसम्मतो अतीतणिस्वादष्टापि भेदा गृहीष्यन्ते, किं मिथ्योपबृंहणाऽऽदिषु चेति पृथगु.
मित्तेण य पते ससत्तीए पवयणपजावणं ण करति चउबहुगा, तं, विशेषाजाबात् । नच्यते-उपहाऽऽदयो हिप्रशस्ताः, अप्रश.
परप्पपाऽपाागतेण य पनावणं ण करेंति चउलहुगा, पदुपएण. स्ताच नवन्ति । तत्राप्रशस्ता एव समानप्रायश्चित्ताः, न प्रशस्ता,
जागतेण य पभावणं णा करेति च उगुरुगा। एवं सहाणपच्चित्तं। अतस्तव्यवच्छेदार्थं मिथ्योपतहणाऽऽदिषु विविच्य प्रोच्यते,प्र.
अहवा-अतिलेसमादिणो पुरिसा इमैसि पंच एटं पुरिसाणं - न्यथा प्रशस्तोपवृहणाऽऽदीनामपि शङ्काऽऽदिवत् प्रायश्चित्तं स्यात्।
तरगता । तं जहा-पायरियन्वज्जायभिक्खुधेरखुड्या, एप न च तेषु प्रायश्चित्तं भवति, तेषां विशिपुण्यानुबन्धहेतुत्वात ।
सहाणपच्छित्ता भमंति, पायरियो पभावण ए करेति च नुगु विजागतः पुनः शङ्काऽऽदिकेषु मिथ्योपवृहणाऽऽदिषु चेत्यष्टस्वपि
रुगा, बझाओण करोति, हवा भिक्खण करेति मासगुरू, देशतः पुरिमा ऽऽदि कपणान्तं भिकुप्रनृतीनां चतुर्णाम्, तत्र
थेरो ण करेति माखल हु, खुट्टो ण करेति भिममासो । भणिश्री भिको पुरिमाईः,वृषभस्यैकाशनम्, नपाध्यायस्य श्राचामाम्ल.
दसणायारो।" नि० चू०१ उ०।। म, आचार्यस्य कपणमिति । सर्वतस्त्वेतेष्वपि मूनं वक्ष्यति । प्र
दंगणाराहाणा-दर्शनाऽऽराधना-स्त्री० । सम्यक्त्वाऽऽराधने, शस्तोपवृहाऽऽयकरणे प्रायश्चित्तमाह-प्रत्येकं भिवप्रभृतीनां य.
___ " तिबिहा दंसणाऽऽराहणा-उकोसा, मज्झिमा, जहएणा।" तेरुपक्षणत्वात् प्रवचनाऽऽदेश्चोपवहाऽद्यकरणे, एतदेवानन्त- | स्था०३ ठा०४०। रोद्दिष्टं पुरिमाहीऽऽदि प्रायश्चित्तम् । अयं नावार्थ:-यदि भिक्या-दंसाणारिय-दशनाऽऽये-पुं० । अष्टमे अनृहिप्राप्ताऽऽर्यभेदे, उदयो हि प्रवचनाऽऽदिरूपां वहामादिशब्दात स्थिरीकरणं वात्स- | प्रज्ञा० १ १६ । (दर्शनार्यभेदाऽऽदयस्तु पारिय' शब्दे व्यं प्रभावनां वा न कुन्ति, तदा भिको पुरिमाद्धो, वृषभस्य । द्वितीयभागे ३३६ पृष्ठे उक्ताः) काशनम्, नपाध्यायस्याऽचाम्नम,आचार्यस्य क्षपणमिति । उ
दसणावरण-दर्शनाऽऽवरण-न । दर्शनं सम्यक्त्वमावृणोतीति त्तरार्द्धस्तूत्तरगाथासंबरुत्वात्तया सह व्याख्यास्यते।
दर्शनाऽऽवरणम् । उत्त०३३अगदृश्यतेऽनेनेति दृधिदर्शनम् । सासा चेयम्
मान्यविशेषाऽऽत्मके वस्तुनि सामान्य ग्रहणात्मको बोधः। श्रापरिवाराऽऽऽनिमित्तं, ममत्तपरिपालणाऽऽइवच्छवे।।
वियते भाच्चाद्यतेऽने नेत्यावरणम्।यद्वा-आवृणोति आच्छादयति, साहम्मिश्रोत्ति संजम-हेज वा सव्वहा मुछा ॥३०॥
रम्पादिन्यः कत्तय्यन प्रत्यये आवरणं मिथ्यात्वाऽऽदि, परिवार: सहायरूपः, आदिशन्दादाहारोपधिशव्याः,तेषां नि. सच जीवच्यापारात कमवर्गणान्तःपाती विशिष्टपुत्रसमित्तम् । अयमाशयः-पार्श्वस्थाऽऽद्यानुकूल्येन सहायाऽऽधारोपधि.
मूहः ततो दर्शनस्याऽऽपरणं दर्शनाऽऽबरणम् । कम० १ कर्म० । शल्या लप्स्यन्त इति कृत्वा (पासत्थससु त्ति) उपनक्षणत्या- प्रावरणीयकर्मनेदे, प्रव० ७२ द्वार । स्था० । पं० सं० । कर्म० । पाश्चीस्थावसन्नकुशीलसंसक्तयथाछन्द:55दिषु, श्रावकस्वज
(दर्शनावरणस्य बन्धोदयस तास्थानानां संबेधः 'कम्म' श. नाऽऽदिषु च विषये ममत्वपरिपालनाऽऽदिवात्सल्ये ममत्वं प्रति
ब्दे तृतीयभागे २६६ पृष्ठे अश्व्यः ) बन्धरूपं, परिपालना स्वौषधाऽऽद्यः, आदिशब्दारसंतोगसंवास
नवविहे दंसणावरणे कम्मे पामते। तं जहा-निदा.निहासूत्रार्थदानानि, इत्यादिके वात्सल्ये कृते सति ( आयामत निवीयगाइत्ति) भिवृषभोपाध्यायाऽऽचार्याणां निर्विकृतिकपुरि
निद्दा,पयला,पयशापयसाथीण गिछी,चक्खुद रिमणाचरणे, माई काशनाऽऽचामाम्लानि यथासंस्यं भवन्ति । अथ पुनः। अचखुदंगणावरणे,ओहिदसणावरणे, केवसदसणावरण।
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( २४३८ ) अभिधानराजेन्द्रः ।
दंसणावरण
( नवैत्यादि) सामान्यविशेषाऽऽत्मके वस्तुनि सामान्यग्रहणाकरणमा कर्म दर्शनावरणं त वविधम्। तत्र निद्रापञ्चकं तावत्- 'काकू' कुत्सायां गतौ, नियतं जाति कुल्लितत्वमविस्पष्टत्वं गच्छति चैतन्यमनयेति निद्रा सुखप्रबोधा स्वापावस्था, नखच्छोटिका मात्रेणाऽपि यत्र प्रबोधो जयति तद्विपाकया प्रकृति नितिकार्येण व्यपद इने तथा निद्रा मनशायिनी निद्रा निष्ठानि शाकपार्थिवा दित्वान्मध्यपदलोपी भमासः । सा पुनर्दुःखप्रबोधा स्वापावस्थानां हि श्रत्यर्थमस्फुरतरीत चैतन्यत्वाद् दुःखेन बहुभि घनादिजः प्रबोधां नवत्यतः सुप्रबोधनिद्राऽपेक्षया अस्था प्रतिज्ञाविनीयमद्विपाका कर्मप्रकृति कार्यद्वारेण निश्रनित्युच्यते । उपविष्ट ऊर्द्धस्थितो वा प्रचलात्यस्यां स्वापावस्थायामिति प्रचता । सा ह्युपविष्टस्योद्वेस्थितस्य वा घूर्णमानस्य स्वप्तुर्भवति । तथाविधविपाकवेद्या कर्मप्रकृतिरपि प्रचतेत्युच्य ते । तथैव प्रचलाऽतिशायिनी प्रचला प्रचलाप्रचला । सा हि च स्थानस्थितस्वप्नयां पत्रनामपेक्ष्यातिशायिनी । तद्विपाका कर्मप्रकृतिरपि प्रचलाप्रच ला । स्याना बहुत्वेन संघातमापन्ना गृद्धिरभिकाङ्क्षा जाग्रदवस्थाऽभ्यवसितार्थसाधनविषया यस्यां स्वापावस्थायां सा दिपा सितमर्थमुत्याय शक्तिरूपा ययामितिस्त्यानरित्यप्युच्यते, तद्भावे हि स्वप्तुः केशवाई बलसरशी शक्तिर्भवति । अथवा स्याना जीजूता चैतन्यरिस्यामिति स्थानरिति तथा कर्मकृतिरपि सवाना, त्यानगृद्धिरिति था । तदेवं पिके दर्शनाऽऽवरणचायोपरामा बम्बात्मलानानां दर्शनलब्धीनामावारकमुक्तम् । मधुना यद्दर्शनीनां मूलत एव बाजमावृयोति तदिदं दर्शनाssaरण चतुमुच्यते । चषा दर्शन सामान्यवादीनं तस्याऽऽवरणं चकुर्दर्शनावरणम् । अवकृपा चकुर्वर्जेन्द्रियच. तुष्टयेन मनसा वा दर्शनं यत्र तदचकुर्दर्शनं, तस्याऽऽवरणमचक्षुर्दर्शनाऽऽवरणम् । अवधिमा रूपिमर्यादयाऽवधिरेव वा करणनिरपेको बोधरूप दर्शनं सामान्यार्थग्रहणमवधिदर्शनम्, रास्यावरणमनाऽऽवरण तथा केवल तश्च तदर्शनं च तस्वाऽऽवरणं केवलदर्शनाऽऽवरमित्युक्तं नवविचं दर्शनाssवरणम् । स्था० ए ग० ।
इदानीं नवविधं दर्शनाऽऽवरणं कर्म व्याख्यानयनाहदंसणच पण निदा, वेत्तिसमं दंसणाssवरणं ॥ (ए) 'भीमो भीमसेनः' इति न्यायात् पदेकदेशे पद समुदायो [पचारासवड इतिशब्देन दर्शनावरणकं दर्शनं ते परिने सामान्यरूपं वस्व नेनेति दर्शनं तस्य परणाम्याच्छादनादिनि तेषां चतुष्कं दर्शनाऽऽवरण चतुष्कम् । तथा "पण निद्दति" • झांकू' कुत्सितगतौ ( धातुपाठः ) जाति कुत्सितत्वमवि स्पष्टत्वं गच्छति चैतन्यं यासु ता निशाः । " भिदादयः ५।३ | १०८ ॥ इति ( सूत्रेण ) अप्रत्ययः । पञ्श्चेति पञ्चसंख्या:निद्राविद्वानिद्राय चलाप्रचाप्रचलापानारूपाः निद्राः पञ्च गार्थ तती दर्शनावरणक मिति दर्शनावरणं भवति विशिमियाद (वेसिमेति त्रिणा प्रतदारे समं तु समम् । यथा >
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पंखावरण
राजानं षटुकामस्याप्यनभिप्रेतस्य लोकस्य वेत्रिणा स्खलितस्य दर्शनं नोपजायते तथा ददर्शनस्वमावस्या - गायुतस्य कुम्भालोद 55दिन मुपजायते, तद्वेत्रिसमं दर्शनाऽऽवरणम् । उक्तं च"सीजी देखणा करे जं कम्मे । तं पडिहारसमाणं, दंसणवरणं जये कम्मं ॥ १ ॥ जड़ रनो पडिहारो, श्रणभिप्पेयस्स सो उ लोगस्स । तह दरिसावं न दे दपि कामस्तं ॥ २ ॥ जह राया तह जीवो, परिहारसमं तु देसणाssवरणं । तेण हि विबंधगेणं, न पेच्चई सो घडाईयं ॥ ३ ॥ " इति || अथ दर्शनावरणचतुष्कं याचिकासुराह चक्खुद्दिधिक्क्यू सेसिंदिप ओसिंहिं च ।। दंसणमिह सामन्नं, तस्पाssवरणं तयं चहा | १० || चक्षुशन अपशब्देन सद ति" चतुर्वर्ज शेषेन्द्रियाणि गृह्यन्ते । ततश्च चर्तुवाचकुश्वा[[चिव च चतु
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रधिपः । चाकुःशेषेन्द्रिय मनसः सं प्रकः दर्शनमिह प्रवचन सामान्यं सामान्योपयोग उच्यते । यडुकम् - " जं सामन्नाहणं, भावाणं नेव कट्टु आगारं । अविसेसिण अत्थे, दंसणमिय वुश्च समए ॥ १ ॥ 59 तस्या33वरणं माऽऽचरणं भवति कुम जुनावरमयधिदर्शनावरणं केवलदर्शनावरणमिति मायाऽक्करार्थः । भाषार्थस्त्वयम्-इह चतुर्ददर्शनं नाम यच्चकुषा रूपसामान्यग्रहणं तस्याऽध्वरनं चक्षुदर्शनावरणं चक्षुः सामान्यमतियावत् पाच येन मनसा च यद्दर्शनं स्वस्पविषय सामान्यपरिच्छेदोर्दी नं, तस्याssवरणमचक्षुर्दर्शनाऽऽवरणम् । अवधिमा रूपिद्रव्यमयादर्शनं सामान्यार्थग्रहणमवधिदर्शनं. तस्याऽऽवरणमवधि. दर्शन केवलेन सम्पूर्ण वस्तुताविशेषरूपे यद्दर्शनं वस्तुसामान्यांसग्रहणं तद केलायरणं रणम् 5रकम ननस्यापि दर्शनावरण कर्म किमिति । उच्यते ज्ञानं तथाविध समपादवात् सदा विशेषानेष दुत्पद्यते न सामान्यम अतस्तद्दर्शनाभावा सावरणं कर्माऽपि न प्रयति । अत्र च चखुर्दर्शनाssवरणोदय एकद्वित्रीन्द्रियाणां मूलत एव चक्षुर्न भव, चतुःपञ्चेन्द्रियाणां तु भूतमपि चतुस्तथाविधे तदुदये विनश्यनि, तिमिराऽऽदिना घाऽस्पष्टं भवांत । चक्षुर्वशेषेन्द्रियमनसां पुनर्यथासम्भवमजवनमस्पष्टभवनं वाऽचदादित्यमिति दर्शनावरणचतुष्कम् ॥१॥ कर्म का दर्शनं च तस्याऽवरणं च गावरणम् मनोजदर्शनमच कुर्दर्शनं, तस्याऽऽवरणन च कुर्दर्शनाऽऽवरणम् | 9 | अवधिरेव दर्शनं रूपद्रव्यसामान्यग्रहसम् अवधिदर्शनं, त स्याssवरणमवधिदर्शनाऽऽवरणम् । । केवलमेव सकलजगविवस्तुस्वसामान्यपदक दर्शन केवलदर्शनं 35
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चरणं केवलदर्शनावरण म । १ । अत्र निद्रापञ्चकं प्राप्ताया दर्शनलब्धेरुपघातकृत्, चकुर्दर्शनावरणादिचतुष्टयं तु मून्नत एव दर्शनलब्धिमुपहन्ति । श्राह च गन्धहस्ती - निषाऽऽदयः समः
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(२४३५) दसणावरगा अभिधानराजेन्द्रः ।
दसमसगपरीसह धिगताया एव दर्शनलब्धरुपघाते वर्तन्ते, दर्शनावरणचतु- दयत्स्वपि तेम्वनिवारणनय द्वेषाभावकरणरूपे परीषहे. भ. प्रयं तु नामोच्छेदित्वात्समूलघातं हन्ति दर्शनलब्धिमिति । १२.३० । "दष्टोऽपि दंशैर्मशकैः, सर्वाहारप्रियत्ववित् । (६ गाथा) कर्म० ६ कर्म० । दर्शनाबरणस्य नवोत्तरप्रक- त्रासं द्वेषं निरासं न, कुर्यात्कुर्याउपेकणम् ॥१॥"ध. ३ म. तयः । तद्यथा-निद्रा, निजानिका, प्रचना, प्रचलाप्रचना, स्त्या- धिः । उत्त। सूत्र। नःि। (एषां पूर्वोक्तानां व्याख्या स्वस्वस्थाने अव्या) चक्कु
एतदेव सूत्रकृदाहदर्शनाबरणम, अचकुदेर्शनावरणम्, अवधिदर्शनाव
पुट्ठो य दंसमसएहिं, समरे-व महामुणी। रणम, केवनदर्शनाऽऽबरणं च । (६ गाथा) कर्म.६ कर्म० । श्रा० । पं० सं०। (अत्र विशेष: 'कम्म' शब्द तृतीयभागे २६४
पागो संगामसीसे व, सूरे अभिहवे परं ॥१०॥ पृष्ठे, २५ए पृष्ठे च षष्टव्यः)
स्पृष्टः-अभिद्रुतः। चः पुरणे । देशमशकैः, उपनकणवाद् युकादंसहावरणिज्ज-दर्शनाऽऽवरणीय-न। दर्शनाऽऽबरणप्रक
ऽऽदिनिश्च (समरे वत्ति) “एदोउरलोपाविसर्जनीयस्य ॥” इति तो, स. ए सम । प्राचा प्रश्न।
रेफात्, ततः सम एव-तदगणनया स्पृष्टास्पृष्टावस्थयोस्तुल्य
एव। यद्वा--समन्तादरयः,शत्रवो यस्मिस्तत्समर तस्मिन्नात सं. दमणावरणिज्जवग्ग-दर्शनावरणीयवर्ग-पु. दर्शनावरणप्र.
ग्रामशिरोविशेषणम्। वेति पूरणे।महामुनिः प्रशस्तयतिः। किकृतिसमुदाये, क. प्र० १ प्रक०।
मित्याह-(णागो संगामसीसे वेति) श्वार्थस्य वाशब्दस्य भिन्नदंसणि (ए)-दर्शनिन्-पुं० । दर्शनमस्यास्तीति दर्शन । स- क्रमवानाग इव दस्तीव संग्रामस्य शिर श्व शिरः प्रकर्षावम्यक्त्ववति, आव० ३ भ० । “दसणेणं दसणी।" अनु०। प्रा.
स्था संग्रामशिरस्तस्मिन् शुरः पराक्रमवान । यद्वा-शूरो योधः, वारा०।
ततोऽन्तर्भावितोपमार्थत्वाद् वाशब्दस्य च गम्यमानत्वात्
शूरबद्वाऽभिहन्यात्, कोऽर्थ:-- अभिनवेत्।परं शत्रुम् । अयमदंसणिज्ज-दर्शनीय-पुं०। आदेयदर्शनो यः स तथा । झा० १
भिप्रायः यथा शूरः करी, यद्वा यथा वा योधः शरैस्तुद्यमा. श्रु०१ श्र० । दर्शनयोग्ये, सूत्र०२ श्रु०७ अ0 यानि पश्यतश्च.
नोऽपि तदगणनया रणशिरसि पद जयति, एवमयमपि दं. कवी श्रमं न गच्कृतः। जी०३ प्रति०४उ०।का। स्था० । शाऽऽदिनिरनियमाणोऽपि भावश@ क्रोधाऽऽदिकं जयेदिति सू०प्र०।
सूत्रार्यः॥१०॥ दंसणिक-दर्शनर्षि-स्त्री०। दर्शनाकः प्रशमाऽऽदिरूपा । तथा
यथा च भावशत्रुजेतव्यस्तोपदेष्टुमाह" सम्महिछी जीवो, विमाणवजन बंधए आउं । जति _ण संतसे. ण वारेज्जा,मणं पिन पोसए । ति ण सम्मत्तजढो, अहव ण बहारो पुचि ॥१॥" (दश. उहे नो हणे पाणे, लुजेते मंससोणिए ।। ११॥ नि० २०६ गाथाटी०) इत्याद्युक्तलक्षणायां प्रशमाऽऽदिरूपायां
न संत्रसेनोद्विजेत,दंशाऽऽदिभ्य इति गम्यते । यद्वा-अनेकार्यसम्यक्त्वसम्पत्ती, दश० ३०।
स्वाद्धातूनां न कम्पयेत्, तैस्तुधमानोऽपि, अनानीति शेषः । न दंसणिंद-दर्शनेन्छ-पुं०। इन्द्रोदे, स्था० १० ग०। (व्याया- निवारयेद्न निषेधयेत्,प्रक्रमाद्दंशाऽऽदीनेव तुदतो,मा भूदन्त. ऽस्य: द 'शब्दे मितीयमागे ५३४ पृष्ठे गता)
राय इति, मनश्चित्तं तदपि,प्रास्तां वचनाऽऽदि,न प्रदूषयेत्रप्रदसणारघाय-दर्शनोपघात-पुं० । शङ्काऽऽदिभिः सम्यक्त्वषि- दुष्टं कुर्यात्, किंतु ( उदेदे ति) उपेकेत औदासीन्येन पश्येत, राधनायाम्, स्था० १० ग०।
अत एव न हन्यात प्राखान् प्राणिनो तुञ्जानान् प्रादारवतो मां
सशोणितम श्रियमिहाशया-अत्यन्तवाघम्वपिदंशकादिषुदसणोनसंवया-दर्शनोपसम्पत-स्त्री । सम्पद्भदे, दर्शनप्रभाव.]
“शृगालवृकरूपैश्च, नदद्भि|रनिष्ठुरम । नीयसम्मत्यादिशात्रपरिभावनार्थमेव दर्शनोपसम्पदिति । ध०
आक्षेपत्रोटितस्नायु, नक्षन्ते रुधिरोहिताः॥१॥ ३ अधि।
स्वरूपैःश्यामसव-बालपुच्र्भयान्वितैः। दंसतिग-दर्शत्रिक-न। चकुर्दर्शनाचतुर्दशनावधिदर्शनलक्ष
परस्परं विरुभ्यशि-विसुप्यन्ते दिशो दिशम् ॥२॥ जे, कर्म० ४ कर्म।
काकगृधाऽदिलपैश्च, लोहतुगमववान्वितैः। दंसमसग-दंशमशक-पुं० दशाश्व मशकाच दंशमशकार, उभये विनिकृष्टाक्तिजिहान्त्राः, विचेष्टन्ते महीतले ॥३॥ अध्येते चतुरिन्द्रिया, महत्वामहस्वकृत वैषां विशेषः । अथवा- प्राणोपक्रमधोर-दुःखरेबंविधैरपि । दंशो दशनं, भकणमित्यर्थः । तत्प्रधामा मशका दंशमशकाः। आयुष्यवपितेनैव,म्रियन्ते पुःखनागिनः॥४॥"श्त्यादि। चतुरिन्छिय जीवनेदेषु, स०२१ सम०।
तथा-प्रसंकिन पते पाहारार्थिनश्च भोज्यमेतेषां मच्चदंसमसगपरीसह-दंशमशकपरीपह-० । दशन्तीति दंशाः, प- रोरं बहुसाधारणं च यदि भक्षयन्ति किमत्र प्रद्वेषेणेति च चाऽऽदित्वादच्प्रत्ययः। मारयितुं शक्नुवन्तीति मशकागदंशाश्च
विचिन्तयन् तपेक्षणपरो न तपघातं विदध्यादिति सूमशकाश्च दंशमशकाः। अथवा दंशो दंशनं, नक्षणमित्यर्थः, तत्
त्रार्थः ॥११॥
इदानी पथिद्वारं, तत्र स्पृष्टो दंशमशकैरित्यादिसुत्रसुप्रधाना मशका दंशमशकाः चतुरिन्द्रियविशेषाः,यूकाऽऽद्युपसक्वणं चैते एव परीषदो दंशमशकपरीषदः । उत्त० १ अ०।
चितमुदाहरणमाहप्रवास.दंशमशकाऽऽदिनिर्दश्यमानोऽपिन ततः स्थानाद.
चंपाए सुमणुजद्दो, जुवराया धम्मघोससीसो य। पगच्छेन च तदपनयनाथै धूमाऽऽदिना यतेत,न च व्यजनाऽऽदि. पंयम्मि मसगपरिपी-यसोणितो सोवि कालगतो ॥३॥ मा निवारयेदित्यनुतिष्ठतः (आव०१५. ) देहव्यथामुत्पा- चम्पायां सुमनुभद्रो युवराजो धर्मघोषशिष्यश्व पथि मशक
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(२४४.) दंसमसगपरीसह अभिधानराजेन्द्रः।
दक्खत्त परिपीतशोणितः,सोऽपि कालगतः। इति गाथाऽकरार्थः॥४३॥ | माणेमो । ते गया अन्नं नयरं जत्थ ण णज्जंति। जाणे प्रा. भावार्थस्तु वृद्धसंप्रदायादवसेयः । स चायम्--" चंपार भयरी. वासिता । दक्खस्स आदेसो दिनो-सिग्छ भसपरिव्वयं प्रा. एजियसत्तुस्स रो पुत्तो सुमाभत्रो जुबराया, धम्मघोसस्स
णेहि । सो बाहिं गतुं एगस्स थेरवाणिययस्स आवणे ठियो। अंतिए धम्म सोऊण निधिमकामनोगो पञ्चश्तो, ताहे चेव तस्स बहुया कश्या पंति । तदिवसं को वि ऊसवो, सो ण पदु. मगल्लविहारपडिम पमिवन्नो, पच्छा हेढाभूमीए विहरंतो सर. पति पुडए बंधे। ततो मत्यवाहपत्तो दक्वत्तणेण जस्स जं यकाले अमवीए पमिमागतो रातिं मसपाहिं खजा, सो ते ण प. उवा जति लवणतेवघयगुडसुंधमिरिय पवमादि तस्स तं दे. मज्जति, सम्म सदा, रत्तीए पीयसोणितो कालगतो । एवं ति। अतिविसिट्ठो लाभोलको। तुछो भणति-तुम्हेऽत्य आगंतुअहियासेचं । " इत्यवसितो दंशमशकपरीषहः । उत्त०
या, न्याहु वत्थबया। सो भणति-प्रागतया। तो अम्ह गिहे पाई. १०।
असणपरिगई करेजह । सो भणति-अने मम सदाया उजा
णे अत्यति, तेहि विणा णाई भुजामि । तेण नणियं-सव्वे वि दंसमभगपरीसहविजय-दंशमशकपरीषहविजय-पुं० । दंशम.
पंतु, भागया। तेण तेसि भत्तसमासहणतंबोलादि उवउत्तं, शकाऽऽदिव्यधपीमासहने, पं० सं० । तथा दंशपरीषह
तं पंचगह रूबयाणं । वितीयदिवसे रुवस्सी वणियपुत्रो वुत्तो. श्त्यत्र दशग्रहणमशेषशरीरोपघातकसवोपलकणम् , यथा
भज्ज तुमे दायचो भत्तपरिब्बओ। एवं भवन त्ति सो उठेऊण काकेभ्यो रक्षतां सर्दिया, इत्यत्र काकग्रहणमुपघातफोपल
गणियापामगं गो अप्पयं मंडेउं । तत्थ य देवदत्ता नाम गणिया कणम । तेन दंशमशकमक्षिकामकुणकोदपिपीलिकावृश्चि
पुरिसवेसिणी बहूहिं रायपुत्तसेहपुत्ताऽऽदीहिं मग्गिया णेकाऽऽदिभिर्वाश्यमानस्यापि ततः स्थानादनपगच्छतः, तेषां च दंशमशकाऽऽदीनां त्रिविधं त्रिविधन बाधामकुर्वतो, व्यज
च्छति । तस्स य तं रूबसमुदायं दट्टण खुभिया। पडिदासि.
याप गंतूण तीए माउए कहियं-जहा दारिया सुंदरजुधाणे माऽऽदिनाऽपि तान् न निवारयतो यत्सम्यक दंशमशकाऽऽदि
दिदि देश । तो सा मणति-प्रण एयं मम गिहमाघरोदेण व्यधपीडासहनं स दंशपरीषहविजयः। पं० सं०४द्वार ।
एजह । बहेव जत्तवेलं करेजह । तहेव ागता । सइओ दब्बदंसमाण-दशत-त्रिका भक्कणं कुर्वति," अप्पे जणे णिबारेइ
बओ को। तइयदिबसे बुद्धिमतो अमच्चपुत्तो संदिछो-अज्ज लूसणए सुणए समाणे ।" प्राचा० १ ० ए ०२०।। तुमे अत्तपरिचो दायब्वो । एवं हवउ ति सो गओ करण. दंसिय-दशित-त्रि। प्रकटिते, मनु । प्रकाशिते च । उत्त०९
सालं । तत्थ य तओ दिवसो ववदारस्सकिज्जंतस्स परिच्छेद
न गन्छ । दोसवत्तीयो। तासि नत्ता नवरो। पक्काप पुत्तो अ.प्रज्ञा ।
अस्थि, इतरी अकुत्ता य । सा तं दारय हेण उवचरति, भ. दक्ख-दक-त्रि० । दक-अन् । निपुणे, कल्प०५ कण । सूत्र०।
णति य-मम पुत्तो। पुत्तमाया जण य-मम पुत्तो। तासिन चतुरे, स्था० ७ ठा०। उत्त० । सूत्र० शीघ्रकारिणि, उत्त०५
परिच्छिज्ज। तेण भणितं-अहं जिंदामि ववहारं दारो हा ० । नि० चू० । का० । अनु०। भामकलकलाकुश ले, कल्प०६ कज्जतु, दवं पि दुहा एव । पुत्तमाया तणति-न मे दम्वेण क्षण । कार्याणामविलम्बकारिणि, उपा०७०जी०। श्रा० कर्ज, दारगो वितीप भवतु, जीवंतं पासिहामि पुत्तं । इतरी म० । कलपकारा०। उत्त०। जूतानन्दस्य नागकुमारेन्द्रस्य ना- तुसिणीया अत्यति। ताहे पुत्तो मायाए दिनो। तहेव सहस्स गकुमारराजस्य स्वनामख्याते पदात्यानीकाधिपती च । स्था० नबोगो । चनत्थे दिवसे रायपुसो भणितो-अज्ज रायपुत्त ! ५ ठा० १ उ०॥
तुम्हेहि पुमाहिएहि जोगवहण वहियब्वं । एवं दवउ ति, तो दक्खन-पुं० । देशी-गृधे, दे० ना०५ वर्ग ३४ गाया।
रायपुत्तो तेसिं अंतियाो णिग्गंतुं उज्जाणे विभो । तम्मि य न.
यरे अपुत्तो राया मो। पासो अहिवासिओ,जम्मि रुक्खच्चग. दक्खत्त-दक्षत्व-न० । आश्रयकारित्वे, उत्त० ३ मा
याए रायपुत्तो निसामोसा ण यत्त ति। तो आसेण तस्लो. साम्प्रतं दक्तत्वं, तत्सप्रसङ्गमाह
वरि वाकण हिंसितं। राया य अभिसित्तो । अणेगाणि सय. सत्याहसुओ दक्ख-त्तणेण सेट्ठीसुत्रो य रूवेण । सहस्साणिजाताणि । एवं अत्युपपत्ती नव । दक्खत्तणं ति बुधीऍ अमच्चसुओ, जीवइ पुनहि रायसुओ ।।१६६॥
दारं गतं ॥ इदाणि सामभयदंमुवप्पयाहिं च नहिं जहा अत्यो
विढप्पति । पत्थिमं उदाहरणं-सीयालेण भमतेण हत्थी मो दक्खत्तणयं पुरिस-स्स पंचगं सइगमाह सुंदरं।
दिहो । सो चिते-लद्धो मए नवारण ताच णिच्छपण खाबुछी पुण साहस्सा, सयसाहस्साइँ पुन्नाई ॥ १७ ॥
इयचो जाव सीहो आगतो। तेण चिंतियं-सचिट्रेण वाइय. दक्तत्वं पुरुषस्य सार्थवाहसुतस्य पञ्चकमिति पश्चरूपफलम् । ज्वं । एतस्स साहेण जणियं-किं अरे! भाणज्ज! अच्छिज्जशतिकं शतफत्रमाह सौन्दर्य श्रेष्ठिपुत्रस्य । बुद्धिः पुनः सह- ति?। सीयालेण भणियं-श्राम ति माम!। सीहोजणति-किमेयं स्रवती सहस्रफमा मन्त्रिपुत्रस्य । शतसहस्राणि पुण्यानि शत- मयं ति?। सियालो जणति-हस्थी । केण मारिश्रो ?। बग्घेण । सहस्रफलानि राजपुत्रस्येति गाथाऽकरार्थः। भावार्थस्तु कथा- सीहो चिंते-कहमहं ऊणजातिएण मारियं भक्खामि ? गो नकादवसेयः । तच्छेदम्-" जहा बंभदत्तो कुमारी, कुमाराम- सीहो । णवर बग्यो श्रागतो । तस्स कहियं-सीहेण मारियो । चपुत्तो, समिपुत्तो, सत्यवाहपुत्तो । पते चनरो वि पंरो- सो पाणियं पाणिग्गतो। वग्यो नहो। पस नेत्रो। जाव कापरं उदावे-जहा को भे केण जीवति? तत्थ रायपुत्तेण श्रो श्रागतो। तेण चिंतियं-जइ एयरस न देमि तो काउ कान भणिय-अई पुनेहिं जीवाम । कुमारामच्चपुत्तेण जणियं- त्ति बासियसद्देणं अमे कागा पहिति । तेसिं कागरमणसहेणं अहं बुद्धी। सेट्टिपुत्तेण भणियं-अहं रूवस्सित्तणेण । सत्यवा। सियाला अन्ने बहवे पर्दिति । कित्तिया वारेहामि । अोए. हपुत्तो भणति-अहं दक्खत्तणेण । ते भणति-अमत्य गंतुं वि.] तस्स उचप्पयाशं देमि, तेण तो तस्स खंड लिसा दियं । सो
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(२४४१) दक्खत्त भाभिधानराजेन्डः ।
दक्खुवाहिय तं चित्तण गतो । जाब सियालो आगतो । तेण णायं-एयस्म दक्खिणा-दक्षिणा-मव्य० । दिदेशवृत्तेदक्षिणशब्दात प्रथमा. दढेण वारणं करेमि, भिउमि काऊण वेगो दियो । णछो सि
पञ्चमीसतम्यर्थे माच् । प्रथमाऽऽद्यर्थविशेषिते दक्विणदिग्देशार्थे यालो । उक्तं च-" उत्तम प्रणिपातेन, शूरं देन योजयेत् ।
याम्यदिशि, यज्ञशेष कर्मणः साङ्गताऽधे देये व्ये च । वाच । नीचमल्पप्रदानेन, समं तुल्यपराक्रमैः॥१॥" इत्युक्तः कयागा- दाने, शा०१ श्रु०१६ अ०। प्रा०म० । "दक्षिणाए पमिल. थाया भावार्थः ॥ १६६ ॥ १६७ ॥ दश० ३ ०।
म्भो, अस्थि वा णस्थि वा पुणो।" मुत्र.२१०५ अ० । स्था दक्खत्तं भंते ! साहू,पालसियत्तं साह? जयंती ! अस्थे- यझपन्याम, "अध्वरस्येव दकिणा।" इति रघुः । प्रतिष्ठायाम, गझ्याणं जीवाणं दक्खत्तं साहू, अत्थेगड्याणं जीवाणं श्रा
दक्विणकालिकायां रुचिप्रजापतेः कन्यायाम्, परिक्रयऽव्य, लसियतं माहू । सेकेण टेणं नंते ! एवं बुच्चइ-तं चेव जाव
मायिकाभेदे च । स्त्री० । वाच । साद ?| जयंती ! जे इमेजीचा अहम्मिया० जाब विहरंति,
दक्षिणायण-दक्षिणायन-न० । दक्षिणस्यामयनं गमनम् ।
तत् यस्मिन् काले, कर्कटे वा रविसंक्रमणे तदादि पएमासे एएसिणं जीवाणं आससियत्तं साहू । एएसि णं जीवा
काझे च । वाच । ज्यो० (अत्राधिकं तु 'अयण'शम्दे प्रथम. अलसाजमाणा गो बहूणं जहा मुत्ता तहा अलसा ना- भागे ७५० पृष्ठे कटव्यम् ) णियन्त्रा, जहा जागरा तहा दक्खा जाणियमा जाव
खा जााणयबा० जाव | दक्षिणावह-दक्षिणापथ-पुं०।७ तावदवन्तिनगी. संजोएत्तारो जवति । एएणं जीवा दक्खा समाणा बदहि । मतिक्रम्य दक्विणदिवर्तिदेशभेदे, वाच० । “इतो य वरस्साप्रापरिययावच्चेहिं नवज्कायवेयावच्चेहि थेरवेशावचेहि | मी दक्खिणाव विदरह।" प्रा० म० १ ० २ सपा । तवस्सिवेयावच्चेहिं गिझाणवेयावच्चेहिं मेहवेयावच्चेहिं कुल
आ० चू० । वाचः। वेयावच्चाह गणवेयाश्च्चेहि संघवे यावच्चेहि साहमियते-दक्षिण-दाक्षिण्य-न० । दक्विणस्य भावः व्यञ् । अनुकूलत्वे, यावच्चेहिं अत्ताणं संजोएत्तारो नवति । एएसि पं जी
दर्श० २ तव । दक्षिणाहे ऋत्विजि, वाच० । मार्दवे, वाणं दक्खत्तं साह, से तेरेणं तं चेव जाव साहू।
द्वा० ६ द्वा०।
दाक्किएयलक्षणमाहज० १५ २०५०।
दाक्षिण्यं परकृत्ये-ध्वपि योगपरः शुजाऽऽशयो हेयः। दक्खपम-दवनि-पुं० । दक्का निपुणा प्रतिज्ञा यस्य स गाम्नीर्यधैर्यसचिवो, मात्सर्यविघातकृत परमः ॥ ४ ॥ तथा । समीचीनामेव प्रतिज्ञां करोति,नां च सम्यनिहियति । कृतायाः समीचीनप्रतिझायाः सम्यनिर्वाहके,
दाक्किण्यं पूर्वोक्तस्वरूपं परकृत्येष्वपि परकायेंव्यपि योगपर उ. कल्प.५क्षण।
साहपरःशुभाशयः शुभाध्यवसायो शेयः,गाम्नीर्यधैर्यसचिन:
परैरलब्धमध्यो गम्नीरस्तद्भावो गाम्भीर्य, धैर्य धीरता स्थिरत्वं दखा-साक्षा-स्त्री० । मृद्धीकायाम, स्था० ४ ठा० ३
ते गाम्भीर्यधैर्ये सचिवी सहायावस्थेति, मात्सर्यविघातकृत् स०। प्रव.।
परप्रशंसाऽसहिष्णुत्वविघातकृत, परमः प्रधानः शुजाऽऽशय दक्खिण-दक्षिण-पुं०। दक-इनन् । सर्वनायिकासु समानुरागे इति ॥ ४ ॥ षो०४ विव०।। नायकोदे, मध्यदेशाविणे देशे च । वाच० ज० । ज्यो। दक्खु-दक-त्रिक निपुणे, स्त्र.१ ७०२ अ०३ १०। शरीरस्य दक्षिणे भागे, अनुतरे, सरल, परच्चन्दानुवर्ति- दृष्ट-न। दर्शने, सूत्र. १ श्रु० २ १०३००। नि, अवामभागस्थे, औदार्यवति च । त्रि० । वाच०। श्रा.
पश्य-पुं० पश्यतीति पश्यः। दर्शक, सूत्र. १ श्रु० २ १० म०कल्प.
३ उ०। दक्खिा कुलग-दक्षिणकलक-पुं० । यैर्गङ्गाया इक्किणकून पव वस्तव्यं तेषु, औ० । न । नि.।
दकावदसण-दक्षदर्शन-न। सर्वदर्शने, सत्र०१ श्रु. २० दक्षिणत-दक्षिणत-न० । षष्ठे सत्यवचनातिशये, रा०।
३१०। सर्वोक्तशासनानुयायिनि च । सूत्र० १ श्रु० २ श्र. दाक्षिणात्य-त्रिका दकिणस्यां दिशि नवः । दक्किणा-त्यक । ना. प्रदर्शन-नः । सर्वदर्शने, सर्वोक्तशासनानुवर्तिनि च । रिको, दकिणदिग्जवमात्रे. त्रि।वाच० । दाक्षिणात्यानामसु- सूत्र. १ श्रु० २ ० ३००। रकुमाराऽऽदीनाम् । प्रशा०२ पद ।।
पश्यदर्शन-न । सर्वज्ञाज्युपगमे, सूत्र०१ श्रु०२ अ०३ उ०। दक्षिणपच्छिमा-दक्षिण पश्चिमा-स्त्री० । नैर्ऋत्यकोणे, प्रा.
दक्खवाहिय-दकव्याहृत-त्रि.। सर्वज्ञोक्ते सर्वज्ञाऽगमे, सूत्रः म.१०२खराम।
१ ० २ अ. ३ उ०। दक्खिणपुचा-दक्षिणपूर्वा-स्त्री० । दक्षिणपूर्वयोरन्तराला दिक
दृष्टव्याहृत-त्रि० । दृष्टातीतानागतव्यवहितसूक्ष्मपदार्थदर्शिदक्विणपूर्वा । अग्निकोणे, वाच । च० प्र।
नाऽनिहिते सर्वाऽऽगमे, सूत्र०१ श्रु० २ अ० ३ उ० । दक्षिणमहरा-दक्षिणमयुरा-स्त्री० । उत्तरमथुरायाः सकाशा. पश्यव्याहत-त्रि०। पश्येन संवझेन व्याहृतमुक्तं पश्यव्याहइक्विणस्यां दिशि स्थितायां मथुरायाम्, दर्श०१ तव । | तम्। सर्वधोते सर्वाऽऽगमे, सूत्र १ श्रु० १५० ३ उ) ।
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( २४४२ )
अभिधानराजेन्धः ।
दग
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दग - दक- न० । पानीये, ग० ३ अधि० । स्था० । प्रश्न० । श्रा० म० । दश । प्रज्ञा० नि० चू० कल्प० । वृ० अष्काये, श्रा० चू० ४ अ० । श्राव० । अष्टाशीतिमहाग्रहान्तर्गते स्वनामख्याते ग्रह, चं० प्र० २० पाहु | " दो दगा । " स्था० २ aro ३ ० | कल्प० । सु० प्र० ।
दगकझ सग - दककलशक-पुं० । उदकभृते भृङ्गारे, रा० । दगकुंजग- दककुम्भक-पुं० | दकघटे, रा० । दगदगर्भ पुं० [दकस्योदकर गर्माएक गर्भाः । कालान्तरे जन्नवर्षणस्य हेतुषु तत्संसूचकेषु, स्था० ४ वा० ४ ० । ( चतुर्द्धा दकगर्भाः 'उद्गगम्भ' शब्द द्वितीयनागे ७७१ पृष्ठे द्रष्टव्याः) दगा दउर्दन १० उदकप्रतिष्ठापने उदकप्रक्षेपस्था ने च । आचा० २ ० १ ० १ ० ६ उ० । दगवत-दर्दनाक पुं० [उकप्रतिष्ठापनमा त्रके, उपकरण धावनोदक प्रक्षेपस्थाने च । आचा० २ श्रु० १ यू० १ ० ६ उ० ।
दगम-उदक निर्णय पुं० [जवीचिकायाथ, नि००
१० उ० ।
दगतीर - उदकतीर - न० । उदकाऽऽकरायतो नीयते उदकं त स्मिन् ति० चू० १६ उ० । उदकोपकण्ठेो वृ० १ ० ।
नो कष्प निधाण या निमंचीय वा दगतीरंसि च द्वित्तए वा निसीइचए वा तुयट्टिसर वा शिद्दा इतर बापयत्राइत्तए वा असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा आहारमाहारिचर, उच्चारं वा पाचवा खेलं बा सिंघाणं वा परिहविनए, सज्जायं वा करितर, धम्मं जागरिचर, जा वा काश्चर, कास्पा ठा बाइच ॥ १५ ॥
न कम्पनिन्यानां वा निनां वा कती उदकोषक पठे स्थातुं वा ऊर्द्धस्थितस्यासितुम्, निषत्तुं वा उपविष्टस्य स्थातुकाराम वा सुखप्रतिबोधावस्थया निद्रया शयितुम, प्रचलायितुं वा स्थितस्य स्वप्तुम्, अशनं वा पानं वा खादिमं वा स्वादिमं वाऽऽहारमाहारचितुम. उचारं वा प्रणाा परिि तुम्, स्वाध्यायं वा वाचनाऽऽदिकं कर्तुम, धर्म ध्यानलक्षणं जाग
तुम धातूनामनेकार्थत्वाणं वा कासर) ध्यानम नुस्मर्तुमिति, कायोत्सर्ग वा चेष्टाऽभिनव भेदाद द्विविधकायोस्थानंस्था कर्तुमर्थः एव सूत्रार्थः ॥१६॥ अथ नितिविस्तरादगती चिह्नणाssदी, जूनमें आयाणा व बोधव्या । अभोला या तत्थ व आखाइणो दासा ॥ २५२ ॥ कती स्थानादीनि कुर्वता प्रत्येकं अघुको मात्रा खूपके वक्ष्रमाणलक्षणे वसतिं गृह्णति चतुर्लघुकाः, आतापना प्रसीमा, तामदिकता का प्राय बो कन्यापि प्रत्येकमायो दोषाः ।
अत्र दकतीरम्य प्रमाने आदेश सन्ति तानेव दर्शयतिनयों पूरे दिघे, तदिचिणमेव पुढे य अत्यंत बार-गामपइत्यीओ || २५२ ।।
दगतीर
नोक आह- उदकाकराद्यत्रोदकं नीयते तद्दकतीरम् । या वन्मात्र नदी पूरेणाऽऽक्रम्यते तदकतीरम् । यद्वा-यत्र स्थितै जेलं दृश्यते तद्दकतीरम् | अथवा या नद्यास्ती भवति । यदि बा-यत्र जले स्थिते जलस्थितेन शृङ्गकाऽऽदिना सिच्यते । श्रथ यावन्तं भूभागं वीचयः स्पृशन्ति । यदि वा यात्रान् प्रदेशो जलेन स्पृष्टः तदुद्दती राह यानि वदती र कृणानि प्रतिपादितानि तानि न नवन्तीति किं तु आरण्यका प्रामेयका वा पशवो मनुष्याः स्त्रियो वा जन्नार्थिन श्रागच्छन्तः साधुं यत्र स्थिति निवातकवीरमुध्यते । एतदेव सविशेषमाहू
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सिंचीपुडा, दगतीरं होइ न पुण सम्पतं ।
उत्तरमा, जहिँ दडु तसंति तं तीरं ॥ २५४॥ नयनपुरतीनां सप्तानामादेशानां मध्यास्रमाणि सिनीविस्पृष्टत कृष्णानि वीरं नयन्ति
तामा मेव किं तु श्रारणयका ग्रामयेका वा तिर्यग्मनुष्या जलपानाऽऽचर्थमवतरीतुमुत्तरीतुमनसो जलचरा वा यत्र स्थितं साधुं द स्पन्ति तस्यभिचारि दकतीरमुध्यते ।
तत्र च स्थाननिषीदनाऽऽदिकरणे दोषान् दर्शयतिअहिगरणमंतराए छेद कमान हिया से य । ग्रहण सिंचजनवर-सहा वित्तासो।। २५५॥
कती विकृतः साधीरधिकरणं वाणं प चतरा भवति तथा साथ
छेदनका सुनाया उडी पानीये निपतेयुः । याम प्राचिन साधु र प्रतिनिवृत सन्तो हरिताऽऽदिच्छेदनं कुर्वते । ( ऊसास सि ) उच्चासविमुकाः निपतन्ति कायविराधना यदि वा तेषां शाखांपामुद्रासोदनं भदेव, मरणमित्यर्थः । ( श्रपहिया से इति) अनधिक्षहास्तृषामसहिष्णवस्ते श्रतीर्थ जलमवतरेयुः, साधु कश्चिदनधि सह स्तृषार्त्तः पानीयं विवेत् नया तस्थादन प्रवेग दकतीरस्य पा अनुकम्पया प्रत्यनीकतया वा कश्चिद् दृष्ट्रा सिञ्चनं कुर्यात्, जलचरखचरस्थल वरप्राणिनां च चित्रासो जवेत् । तत्राधिकरणं व्याचिख्यासुराह
दश वा नियणण अनि वा वि अमरूदेव । गामाऽऽरापसूणं, जा जहिँ आरोवणा जणिया ||२९६ ॥ साधुं दृष्ट्रा आयकादिनिवर्त्तनं भवति । अभि हननं ना परस्परं तेषां भवेत् । (अनरूवणं ति ) अन्यतीर्थेन वा ते जलमवतरेयुः । तेषां च प्रामाऽऽरण्यपशूनां निवर्त्तनादौ चट्कायोपमर्दः संभवेत्। " क्काय च वसु लहुगा " इत्यादिना या यत्राऽऽरोषणा सा तत्र षष्टव्या । एष नियुक्तिगाथासमासार्थः।
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पपियनियत्तमा-म्मि अंतरायं च विमरणे चरिमं ।
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(२४४३) दगतीर अन्निधानराजेन्द्रः।
दगतीर सिग्धगइ तनिमित्तं, अभिघातो काय आयाए||२५७॥
ययुत जगुप्सिता अदुष्टास्तेषु दोषानाहआरण्यकास्तिर्यञ्चः तिर्यकत्रियो वा पानीयं विवाम इत्या- तृत्तित्तरदोसे कु-च्छियपमिणीयगेमें गिएहणाऽऽदीया । शया तीर्थानिमुखमायान्तं साधुं दृष्ट्वा, दकतीरस्थितं वा इष्टु
प्रारममायथासु वि, ते चेव नियत्तणाऽऽईया ॥३६०॥ प्रतिपधेन निवर्तन्ते, निवर्तमाने च तत्राऽऽरण्यकप्राणिगणे साधारधिकरणं भवति । तेषां च तृषाऽऽानामन्त राय,शब्दात
येन साधुना महाशब्दिका,या जुगुप्सिता तिरश्ची-गृहस्थकाले परितापना च कृता भवति । तत्रैकस्मिन् परितापिते बेदः,
चुक्ता, तस्य तां दृष्टा स्मृतिः, इतरस्य कौतुकम्, एवं भुक्ता.
नुक्तसमुत्धा दोषा भवन्ति । अथवा तासु जुगुप्सितासु तिद्वयोस्तु मूत्रं, त्रिननवस्थाप्यं, चतुर्ष परितापितेषु पाराश्चिकम्।
रश्चीसु पाववर्तिनीषु प्रत्यनीकः कोऽपि (गेभ त्ति) अपतेनान्तरायपद व्याख्यातम्। (तिमरणे चरिमं ति) यद्येक
भ्याख्यानं दद्यातू-" मयैष श्रमणको महाशब्दिको प्रतिसे. स्तृषाऽऽतों मियते ततो मलं, द्वयोर्मियमाणयोरनवस्थाप्यं, त्रिषु
वमानो रपः।" इति । तत्र ग्रहणाऽऽकर्षणप्रभृतयो दोषाः । मियमाणेषु साधोः पाराश्चिकम् । पतेनोच्चासपदं विवृतम।
एवं ग्रामेयकाऽऽरण्यकेषु तिर्यक्षु दोषा उपदशिताः । अथ म. साधु हुएा ते तियेचा नीताः शीघ्रगत्या पलायमाना अन्यम
नुष्येष्वभिधीयते-(आरम इत्यादि) मनुष्या द्विविधा:-पारन्योऽन्य वा अभिघातयेयुः, षट्रायानां वा तन्निमित्तमाभ
रायकाः, ग्रामे यकाश्च । तत्रारण्यकेष पुरुषेषु त पव दोषाः, घातं विदध्युः । तत्र “छकाय चनसु लहगा " इत्यादिकं
स्त्रीवप्यारण्यकासु त एव निवर्तनान्तरायाऽऽदयो दोषाः । कायविराधनानिष्पन्नं प्रायश्चित्तम् तृप्ता वा तिर्यञ्चस्तस्यैव साधोराहननाऽऽदिना आत्मविराधनां कुर्युः । अनेन हननपदं व्या
एते चान्ये अज्यधिका:ख्यातम् ।
पायं अपानमाओ, सवराईया तहेव निच्छेका । "अणहियासे अन्नरूयेणं (२५६)" इति पदद्वयं जावयति- आरियपुरिसकुतूहल, आननय पुनिंद आम वहे ॥२६१॥ अतमें पाते सोचे-व मग्गों अपरिहत्तहरियाऽऽदी। प्रायो बाहुल्येन शबरीप्रभृतय श्रारण्यका अनार्य स्त्रियोऽपा. ओवगे कमे मगरा, जइ घुटे तसे य दुहओ वि।।२५८।। वृता वस्त्रविरहिता निश्का निर्लज्जाश्च भवन्ति, ततः साधु अथ तृषामसहिष्णवस्ते गवादय अतटेनादीर्धेण वाऽवतरेयुः,
दृष्ट्वा पार्योऽयं पुरुष इति कृत्वा कौतूहलेन तत्राऽऽगच्छेयुः,ताश्च
दृष्ट्वा साधारात्मपरोजयसमुत्था दोषा भवेयुः। तदीयपुलिन्दश्च विन्भट बाऽवपातं दधुः,ततः परितापनाऽऽद्युत्था सैषाऽऽरोपणा। अध वा स एवाऽऽभिर्नवो मार्गः प्रवर्नते, तत्र चापरिनुकेन
तां साधुसमीपाऽऽयातां विलोक्य ईर्ष्यानरेण प्रेरितः साधो, चा काशेन गच्चन्तो हरिताऽऽदीनां वेदनं कुर्युः, तत्र तनिष्पन्नं
पुलिन्द्याः , उभयस्य वा आशु शीघ्र बधं कुर्यात् । प्रायश्चित्तम् । एतेन वेदनपदं व्याख्यातम् । (ोवग त्ति) गर्ता, थीपुरिसअणायारे, खोभो सागारियं ति वा पहणे । तत्र प्रपतेयुः, अतीर्थे वा केनचित् कूटं स्थापितं भवेत् तेन गामित्थीपुरिसेहि वि, तच्चिय दोसा इमे अन्ने ॥२६॥ कूटेन बका विनाशमश्नुवते । एतोपि वेदनपदं व्याख्या
अथवा स पुलिन्दः पुलिन्द्या सहानाचारमाचरेत् ततः स्त्रीतम् । बदकेन वा जलमवतीर्णा मकराऽऽदिभिः कवली.
पुरुषानाचारे दृष्टे चित्तकोभो भवेत, क्षुनिते च चित्ते प्रतिगामक्रियन्ते । अन्यतीर्थनातीर्थन वा साधुनिमित्तमवतीर्णास्तु स. नाऽऽदयो दोपाः । यद्वा-स पुलिन्दस्तां प्रतिसेवितुकामः सामविरहिते अपकाये यावतः घुएटान् कुर्वन्ति तावन्ति चतु.
गारिकमिति कृत्वा तं साधु प्रहण्यात् । एते पारण्य केषु स्त्रीपुबघूनि । ( तसे य त्ति) अचित्ते अपकाये यदि द्वान्छियमनाति
रुषेषु दोषा उक्ताः । ग्रामेय कस्त्रीपुरुषेष्वपि त एव दोषाः । एते ततः षट्ल धुकं, चतुरिन्द्रिये वेदः, पश्चेन्द्रिये एकस्मिन् मूलं,
चाऽन्ये ऽधिका भवन्तिद्वयोरनवस्थाप्यम्, विषु पञ्चेन्डियेषु पाराश्चिकम् । (अहो वि त्ति ) यत्राप्कायोऽपि, सचित्तजीन्द्रियाऽऽदयश्च त्रसास्तत्र
चंकमणं निवेवण, चिटित्ता तम्मि चेवमहियं तु । द्वाच्यामप्काय त्रसविराधनाज्यां निष्पन्नं प्रायश्चित्तम् । सर्वत्रापि अत्यंते संकापद, मजण दई सतीकरणं ॥२६३ ॥ च द्वौद्रियेषु षट्सु त्रीन्द्रियेषु.."(१) चतुरिन्द्रियेषु चतुर्यु प- चङ्क्रमणं, निलेपनं वा तत्र गृहस्थः कतुकामोऽपि साधुं दृष्ट्वा ञ्चन्क्रियेषु त्रिषु पाराश्चिकम् । एते तावदारण्यकतिर्यक्समुल्या कश्चिदन्यत्र गत्वा करोति,कश्चित्तु तत्रैव तीर्थ साधुसमीपे गत्वा दोषा उक्ताः।
करोति, तथा (चिहित्तत्ति) कश्चिद् गृहस्थः साधुना सह गो. अथ प्रामयकतिर्यसमुत्थान् दोषानुपदर्शयति
ष्ठीनिमित्तं तत्रैव स्थित्वा पश्चादन्यत्र गच्छति, रवमधिकंजवेत्।
तथा दकतीरे तिष्ठति साधौ शङ्कापदं वक्ष्यमाणलवणमगागामेयकुच्चियाऽकु-च्छि या य एकेक दुघऽदुहा य।।
रिणां जायते, मज्जनं च विधीयमानं दृष्ट्वा स्मृतिकरणं भुक्तदुट्ठा जह आरमा, उगुंछियऽदुगुंडिया नेया ॥ २५ ॥ भोगिनाम, उपलक्कणत्वात् अक्तजोगिनां कौतुकमुपजायते । ते प्रामयकाम्तियंञ्चो द्विविधाः-कुत्सिता जुगुप्सिताः, अकु
अथैनामेव नियुक्तिगाथां विवृणोतिसिता अजुगुदिसताः, ते द्वयेऽपि यथा श्रारण्यकाः तथैव दोषानाश्रित्य झेया, जुगुपिसताः साधुना गर्दभाऽऽदया, अजु
अन्नत्थ व चंकम्मति, पायमणऽप्यात्थ वा वि वोसिर । गुप्सिता गवाऽऽदयः। पुनरेकैके द्विविधा:-दुष्टा अदुष्टाश्च । तत्र
कोनानी चंकमाणे, परकृलातो वि तत्थेइ ।। ३६४॥ ये जगत्सिता अजुगुप्सिता पुष्टाः ते द्वयेऽपि यथा भार- कश्चिहकतीरे चक्रमणं करिष्यामीति भुक्तभोगिनामुपलक्वण. रायकास्तथैव दोषानाश्रित्य ज्ञेयाः। ये अजुगुप्सिता अदुपा- त्वादचुक्तभोगिनां च कौतुकान्निप्रायेणाऽऽयातः साधुं दृष्ट्वा स्तेष्वपि ययासंनयं दोषा नपयुज्य वक्तव्याः ।
ततः स्थानादन्यत्र चक्रम्यते। वाशब्दात् कश्चिदन्यत्र चङ्क
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दगतीर
म्यमाणं साधुं विलोक्य तत्राऽऽगत्य चक्रम्यते । एवमाचमनं निपतत्कर्तुकामः संवायुकामः साधु रा अन्य त्र गत्या, अन्यतो वा तत्राऽऽगत्य निर्लेपयति, व्युत्सृजति वा । तथा कचिदगारों गन्तुकामोऽपरचयमा साधुनि(कोनाति) गोठीत साधुना सद् करिष्यामीति मरवा दणं तु परलाच तथाऽगति सर्वत्र साघुनिमित्तमाङ्कनागतस्तिष्ठति पदका विराधयेद
इत्यत्राऽऽद्द
" अत्यंत संकापयं (२६३) दगमेहुण संकार, बहुगा गुरुगा उ मूल निस्संके । दगतूरकोंचवी रग-पस के सादलंकारे ।। २६५ ।। साधुं कमी तितं दृष्ट्रा कचिदगारः कुर्यात् किमेष उपायें तिष्ठति उत मैथुने दत्तसंकेतांका दागी प्रतीकृतोदकपानशङ्कायां चतु ssशङ्कायां चतुर्गुरु, निःशङ्कते मूत्रम् । "मजण दहं सतीकरणं (२६३) " इति पदं व्याख्यायते । कोऽपि मज्जनं कुर्वस्तथा कथडिजलमास्फालयति यथा मुमुखादि तृणां शब्दो भवति या कोऽपि को चीरकेण जनमा दिएको नाम पे जलयाननिवे (पद्येस चि) स्नात्वा परसादः स्वशरीरं कोऽपि प्रति यद्वा (खादकारे शिकेावानरसालका रात्मानमलङ्करोति, एतद् मज्जनाऽऽदिकं दृष्ट्वा भुक्तानुक्तसमुस्याः स्मृत्यादयो दोषाः वयं पुरुषेषु भणिताः । अथ श्रीदोषान् दर्शयतिमजबडाणे सुस्तेति गहणाऽऽदी | एमेव कुच्छितेतर - इत्थी सविसेस मिडणेसु ॥ २६६ ॥ परिम्लादिपर्वणि अन्याया अलका यद्वा सामान्यतो मला पशमनार्थ स्नानं सन्मानमुयते । तेषु जन्नवदनस्थानेषु स्त्रीणां संबन्धिषु तिष्ठन्तं तं दृष्ट्रा त दीयो इतिवन्तियति प्रपत्र मनाउदा प श्रमणः परिजवेन कामयमानो वा तिष्ठति, ततो दुष्टशील इतिग्रहणपर्णऽऽङ्गीनि कुर्यात् । याः पुनरपि यस्ताः कुत्सिता रजक्यादयः, इतरा अकुत्सिता ब्राह्मण्यादयः, तत्राप्येयमेषामपराजयसमुत्यादयो दोषाः मिथुनेषु पुरुषेषु मैथुनकीया रममाणेषु सविशेषतय दोषा भवति। ये चक्रमणाऽऽदयो दोषाः पूर्वमुक्तास्ते ऽप्यत्र तथैव प्रष्टव्याः । यत एते दोषा अतो दकतीरे श्रमूनि सूत्रोक्ताऽऽदीनि न कुर्यात् । चिनिया तुयट्ट निदा य पगल सफार काणाऽऽहारविचारे, काग् य मासल ।। २६७ || खाने २ खाये ६ध्याने ७ आहारे विचारे कायोत्सर्गे चेति १० दशसु पदेषु दकतीरे विधीयमानेषु प्रत्येकं माखलघुः समाचारीनिष्पन मिति भावः । ( वृ० ) ( निशास्वरूपं ' णिद्दा शब्दे तथानिद्रानिद्वासरूपं च णिहाणिद्दा ' शब्देऽस्मिन्नेव भागे २०७२ पृष्ठे ऽयम् ) ( प्रचलाखरूपं पयवा ' शब्दे वक्ष्यते, प्रचलाप्रचला स्वरूपं च पयलापयज्ञा' शब्दे वक्ष्यते ) अथ विस्तरतः प्रायश्चित्तं वर्णयितुकाम श्राह संपामे असंपा -इमेय दिट्ठे तव दिछे ।
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( २४४४ ) अनिधानराजेन्द्रः ।
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3
दगतीर
झट्ट गुरु अनुगा, गुरुग अहालंदपोरंसी अहिया २६६ दकतीरे संपातिमे असंपातिमे वा उभयस्मिन्नपि वक्ष्यमाणलक्षणे दृष्टोऽडो वा तिष्ठति, कियन्तं पुनः कालमित्याड- यथा लन्दपौरुषीम् । तत्र यथालन्दं त्रिधा - जघन्यं, । मध्यमम्, उत्कृष्टं वा । तत्र तरुण स्त्रिया उदकार्डः करो यावता कालेन दुष्यति तज्जघन्यम्, उत्कृष्टं पूर्व कोटीप्रमाणम् । तयोरपान्तराले सर्वमपि मध्यमम् । तत्र जघन्येन यथालन्देनाधिकारः । एवं यथाल म्हात्र का इति पञ्चकं मधुको ....... (?) गुरुत्वारो मासा प्रायश्चितम् करिष्यते ।
अथ संपातिमासंपातिम उपयातिजलजा तु संपाती, संपातिम सेसगा उ पंचिंदी | अनामो विहंगे होंति असंपातिमा सेसा ||२७० || जलजा मत्स्यमएमूकाऽऽदयः, तेऽसंपातिमाः, तैर्युकं दकतीरमध्यसंपातिमम् शेषाः पचेन्द्रियस्थपराः खेचरा था ये उत्तरादागत्य संपतन्ति ते संपातिमाकं तत्संपतिमम् । अथवा विहङ्गाः पक्षिणो यत्राऽऽगत्य संपतन्ति तत्संपातिमप, तान् सुक्त्वा शेषाः स्थलचरा जलचरा वा सर्वे ऽप्यसंपातिमाः, तद्युक्तं दकतीरमसंपातिमम् ।
अथ पूर्वेकं प्रायश्चित्तं
स्पाइ अहा- दे अदिडे पंच दिट्ठि मासो छ । पोरिसिप्रदि दिडे, लहूगुरु अहिगुरुगन आयो । २७१।
संपादिकतीरे अपत्यं यथालन्द
दस्तिति मासलघु, असंपातिमे पीड श्रीमति मासलपुति मासगुरु अधिकां पौरुष मस्तिष्ठति मासगुरु, दृष्टस्तिष्ठति चतुर्लघु । एवमसंपानि भणितम् ।
संपामे वि एवं मासादी नवार वाइ चउगुरुए । जिक्खूत्र सभायरिए तत्रकाल विसेसिया अहवा || २७२ || तिमेध्येयमेवाप्रि
मासदार
चतुर्गुरुनिष्ठा प्रायश्चित्तमुतम् । अथवा ताम्येवन्पनानिषेकावार्य तपःका विशेष तानि नयति तथाहि पूर्वोकं सर्वमपि प्रायभिनित सा कालेन च लघुक्रम, वृषभस्य कालगुरु तपोन्त्रघु, अभिषेकस्य तपोगुरु काललघु, आचार्यस्य तपसा कालेन च गुरुकम् । अत्र बनियेकपदं गाथायामनुकमपि तन्मध्यपतितन गृह्यते' इति न्यायात्प्रतिपत्तव्यम् । एष द्वितीय आदेश: । अवा निवखुरतेनं बसमे लडुगार गाइ हुए । जिसे गुरुगादी, छग्गुरुल हुनेदॉ (१) आयरिए | २७३ | अथ यदेतत्प्रायश्चितमुकं तद्भियमस्तु मासघुकादारभ्य तिष्ठति तत्रापातिमे य पालन्दपौरुषी समाधिपौरुषीषु मादारम्य चतुर्गुरुके तिष्ठति, संपातिमे एतेष्वेच स्थानेषु मासगुरुकादारभ्य षट्यघुके पर्यवस्यति । श्रभिषेकस्योपाध्याय स्य असंपातिमें मालगुरुकादारभ्य षट्लघुके तिष्ठति, सं. पातिमेचकादारभ्य रुतिति
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दगतीर
( २४४५) अनिधानराजेन्द्रः ।
कादारम्भपद्गुरु तिष्ठति संवाचिकादारभ्य बेष्ठितसः ।
श्रथ चतुर्थमादेशमाद
अहवा पंचरहं सं-जईल समणा चैव पंचएडं । पणगादी र नेपथ्यं जाब चरिमपदं ||३७४॥ अथवा कादिभ्रमणानां देव पञ्चानां काऽऽदेरारब्धं प्रायश्चित्तं तावन्नेतव्यं यावच्चरमपदं पाराखिकम् ।
एतदेव सविशेषमाह
संजइ संजय तह सं- पसंप अहलंदपोरिसी अहिया । चिट्ठाई दिडे, दिडे पागा जा चरिमं ॥ २७५ ॥ संत्यास्थविरा, भिणी, अभिषेकाप्रति पञ्चविधा संयता अपि कुलकराम कोपाध्यायाचार्य दातू पञ्चधा (संपऽसंपत्ति) सूचकत्वात् सूत्रस्य संपातिममसं: पातिवादी पक्ष कार्य स्थाननिषदनाऽऽदीनि च दशपदानि, अदृष्टे चेति पदद्वयम, पपादिकं यथाय
क्रियन्ति पिति पुनः प्रायश्चित्तस्थानानि भवन्तीति दर्शयतिपण दस पनरस पीसा, पणवीसा मास चहरों
लढ गुरुगा सव्वेते, छेदो मूलं गं चेत्र ।। २७६ ।। पञ्चरात्रिन्दियानि दशरात्रिन्दियानि पञ्चदशरात्रन्दिवानि विंशतिरात्रिन्दिवानि, पञ्चविंशतिरात्रिन्दिवानि, मासिकं, चत्वा रोमासाः षण्मासाश्च । एतानि सर्वाणि लघुकानि गुरुकाणि च। तद्यथा लघुकं पञ्चरात्रिन्दियानि इत्यादि । एतानि षोमश संतान देदो किंवागम् । एवं विंशतिरात्रिन्दिवानि प्रायश्चित्तस्थानानि भवन्ति ।
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"
पाह पथगाइ अपाय संपाम दिवमेव च । चलगुरु बाइ खुड्डी, सेसाणं वृद्धि एकेकं ॥ 299 ॥ असंपानि यथान्दा तिष्ठति अप तिष्ठति गुरु पौरुपमा निति शुरु तिष्ठति दशकम् अधिकपौरुषीमदृष्ट्रा तिष्ठति लघुशकम, दृष्टायां गुरुदशकम् । संपातिमे यथालन्दमष्टा तिष्ठति गुरुति प्रदशकं पौरुषीमष्ठित लघुदश दशकं समधिकां पौरुषीरुदशकस्, दृष्टायां लघुपश्चदशकम् । एवमूर्द्धस्थानमाश्रित्यक्ति म् । निषीदन्त्यास्तु गुरुकं पञ्चरात्रिन्दिवेन्यः प्रारभ्य गुरुपञ्चदशकुया सदरादिवादारभ्य लघुविशतिदिमाया गुरुवंशतिरात्रि
ये उच्च मासे, स्वाधिन या मागुरुके, धर्मजागरिकया जाग्रत्याश्चतुर्लघुके. कायोत्सर्ग कुर्वत्याश्चतुर्गुरु के इति । एवं कुल्लिकायाः प्रायश्चित्तमुक्तम् । शे पातु परादीनामेकं स्थानमुपरि वर्तते, अस्ताच एकैकं स्थान दिया गुरुकादार कं यावदा पातम् अतिषे काया गुरुदशकादारब्धं छेदपर्यन्तम् । प्रवर्त्तिन्या लघुपञ्चदशकादारब्धं मूलान्तमवज्ञातव्यम् ।
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६१२
दगतीर
एतदेवाऽऽह
छलहुऍ बाइ बेरी, नितिगुरु देदे गणिणी तु । मूले पवति पुष, जह जिक्सुणि खुट्टए एवं ||29८ || विभिणगुरुके, गणिती अभिषेका
पुनले तिष्ठतीति । यथा च निष्यामेवं दशदिवेज्यः पद्गुरुकान्तमसंपातिमाऽऽदिषु प्रायश्वितं जवतीत्यर्थः । गणि सिरिलो उथेरो, पवतिरिण विभागमरिमो भिक्ख । पपये गणगुरुणं ।। २७ ।। गणिनी अनिषेका, तस्याः सदृशः स्थविरो, यथा अभिषेकायाः गुरुदशकमादौ कृत्वा वेदान्तं प्रणितं, तथा स्थविर स्यापि नणनीयमिति भावः । प्रवत्तिन्याः प्रायश्चित्तविभागेन सदृशो भिकुर्जयति, घुपञ्चदशकात्प्रभृति मूलान्तं प्रायश्चितं सापि क्षेत्रमिति एकखोपरिया गणी उपाध्याय गुहराचार्य, तयोरपि स्वपदं स्यात्यायचियं वयम्। तत उपाध्यायस्य गुरुपपादों कृत्वा स्वस्थाय आचार्यश्व विद्यारभ्य पाराचिकं यावद्दष्टव्यम् ।
एवं तु चिडालाssदि, सव्वेसु पदेसु जात्र नस्सग्गो । साइकिचित्तारि ॥ २८० ॥
यमुना प्रकारेण स्थाननिषद
सर्वेपिपदेषु का पाचवे कस्मिन् परे प्रायआिदेशा जयति तथथापकं तायदोघि प्रदे तपःकालवितान्तमवारणिकाप्राय श्चित्तम् । गतं दकतीरद्वारम् ।
"
अथ यूपकस्यावसरः, तमेवानिधित्सुराहसंजू चलो, चलो य लहूगो य ढुंति लहुगा य । सम्मिविसोत्र गमो वरि गिल्ला इमं होई ॥२८१ ॥ यूपकं नाम खेटाऽऽख्यं जनमध्यवर्त्ति तटं तत्र देवकुलिका गृ भवेत् तच यूपं संक्रमेण वा गम्येत, जलेन वा । संक्रमो द्विविधः चन्नोऽचलश्च । अत्रलेन गच्छतो मासलघु । चलो द्विविधः सप्रत्यपायः, निष्प्रत्यपायश्च । निष्प्रत्यपायेन गच्छतश्चतुर्गुरुकं नवति । सप्रत्यपायेन व्रजतश्चत्वारो लघुकाः । तस्मिन्नपि यूपके, स एव गमः ला वकव्यता या दकतीरे भणिता ! " अहिगरण मंतराए" (२५५ ) इत्यारभ्य यावदेकैकस्मिन् पदे चत्वार आदेश । इति । नवरं ग्ज्ञानं प्रतीत्य इदमन्यदधिकं दोषजानं भवतिदावसकर, प्रभासण विर िय आपणं परिता चनबहुगा, कप्प परिक्षेत्र मूल दुगं ||२२|| वानस्य दृङ्गा स्मृतिकरणमोदी द वाम्यहमुदकम् । ततो सोऽवभाषणं करोति यदि दीयते ततः संयमविराधना, अथ न दीयते, ततो ग्लानः परितापितः। विरहिते व कारणतः साधुभिः प्रतिश्रये उदकस्याऽऽपानं कुर्यात्, यदि स्वकिम् अथ (
च, तेनाकल्य्यमप्कायं प्रतिसेवते ततो मूलं, तेन चापथ्येनानागाढपरितापना यो शेषाः तष्यमार्थस्य शयधिराम ।
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दगतीर
(२४४६) अभिधानराजेन्डः।
दगथालग अथवा-(थकप्प पडिसेच मूत्रदुर्ग ति) प्रकलप्यं प्रतिसेव्य भग्न- यतरिकामहाशदिकाऽऽदिविषयमयशः प्रदाः । अथैष सं. व्रतोऽहमिति कृत्वा योको सानोऽवधावते तत आचार्यस्य यतोऽस्माभिद्यतरिका महाशब्दिकां वा प्रतिसवमानो रष्ट मूलं, द्वयोरनवस्थाप्य, त्रिषु पाराश्चिकम् ।
इति । तत्र ये प्रत्यनीकास्तेषां शक्का भवति । तत्र च गुरुकाः।
निःशङ्किते मूत्रम् । अथवा ये प्रत्यनीकास्ते शङ्करते-कस्मादेष भानकाए लहुगा, पूतरगादीतसेसु जा चरिमं ।
तीर्थस्थाने आतापयति, कि स्तन्यार्थीति। गतं वृत्तिद्वारम् । अथ जे गेलन्ने दोसा, धिइदुब्बते सेहेते चेव ।। २३ ॥
"पच्चक्खदेव (२८६)" इत्यादि पश्चाई भाव्यते-यत्रासाबा. अपकाये प्रतिसेविते चतुर्लघुकाः,पूतरकाऽऽदित्रसेषु चरमं पा. तापयति तत्र प्रत्यासना देवता वर्तते, तस्या लोकः सर्वोऽपि राञ्चिकं यावन्नेतव्यमातत्र पूतरकाऽऽदिषु द्वीजियेषुषम्नघुकम्, पूर्व पूजापर आसीत्, तं च साधुं तत्राऽऽतापयन्तं दृष्ट्वा अयं श्रीन्छियेषु परगुरुकम् चतुरिन्ज्येिषुवेदः, पञ्चेम्झिये मत्स्याऽऽदौ प्रत्यक्वदेवतमिति कृत्वा लोकः संपूजयितुं बग्नः, ततः सा दे. उदकेन सद गिलिते एकस्मिन् मूत्रद्वयोरनवस्याप्य, त्रिषु पारा- वता अपृज्यमाना प्रद्विष्टा सती नतरिकाऽऽद्यभ्याख्यानं दद्यात्। चिकम, ये च मान्ये ग्लानस्य स्मृतिकरणाऽऽदयो दोषा उक्ताः, अथवा साधुरूपमावृत्य तत्प्रतिरूपं कृत्वा द्वय करिकां तिरश्चीं धृतिबले मन्दाश्रये शकेतएव अष्टव्याः। गतं यूपक हारम् । वा प्रतिसेवमानं दर्शयत, किप्तचित्तं वा कुर्यात, अपगं अथ तापनाद्वारमाह नियुक्तिकार:
च अकल्प्यप्रतिसेवनाऽऽदिकामकियां दर्शयेत्, यस्माआयावण तह चेव य, नवरि इमं तत्थ होइ नापत्तं ।
दियन्तो दोषास्तस्मादकतीरे यूपके बा न स्थानाऽऽदीनि मज्नण सिंचण परिणा-मवित्ति तह देवया पंता॥२०४॥
पदानि कुर्यात। येदकतीरेअधिकरणान्तरायाऽऽदयो दोषा उक्ताः, ते यथासंभवं
अथ कुर्यादपि, कथमित्याहदकतीरेश्व,पूरकेश्व वा आतापनां कुर्वतः तथैव भणितव्याः, न. पढमे गिलाणकारणे, वीए वसहीए असइए वसई । वरमिदं नानात्वं विशेषो भवति-तत्राऽऽतापयतो मज्जनं धा
राणियकजकारण, ततिए वितियपद जतणाए ॥२८॥ सिवनं वा कश्चित्कुर्यात्,परिणामो वा तस्य स्नानादिविषयो
प्रथमं दकतीरं, तत्र वानकारणात तिष्ठेत्, द्वितीयं यूपक, तत्र जवेत, वृत्तिर्वा जीविका मण्डूकानां व्यवच्छिद्यत, प्रान्ता वा
निर्दोषाया वसतेरसत्यनावे वसति तिष्ठति, तृतीयमातापना. दवेता लोकेनाऽपूज्यमाना साधोरुपसर्ग कुर्यात् ।
पदं, तत्र रनिको राजा, तदायत्तं यत् कुलगणसङ्घकातत्र मज्जनसिचनपरिणामद्वाराणि व्याख्यान यति
ये, तत्कारणं तिष्ठत् । एवं त्रिवपि दकतीराऽऽदिषु यतनया मज्जति व सिंचतिव, पमिणीयऽणुकंपया व णं के ।। वक्ष्यमाणलकणया द्वितीयपदं तत्रावस्थानलकणं सेवेत । तएहुएहपरिगयस्म व,परिणामो एहाणपियाणेसु ॥२७॥
अथैनामेव नियुक्तिगाथां भावयतिणमिति तमातापकं प्रत्यनीकतया,अनुकम्पया वा केचिन्मज
विजदवियऽट्ठयाए, निजंतो गिलाणों असति वसहीए। यन्ति वा स्नपयन्ति, सिञ्चन्ति वा शृङ्गाटीभिरञ्जलीनिर्वा निपियन्ति । यद्वा-तस्याऽऽतापकस्य तृषितोऽहमित्यवं तृष्णाप
जोग्गाए वा असती, चिट्ठे दगतीर णोतारे ॥२॥ रिगतस्य, धर्मानितमात्रोऽहमित्येवमुष्णपरिगतस्य वा स्नान
ग्लाने वैद्यस्य समीपं नीयमाने, व्यमौषधं तदर्य वा अन्यपानयोः परिणामः संजायते।
अनीयमाने ऽन्यत्र बसतेरजावे दकतारेऽपि तिष्ठेत् । अथवा
विद्यते वसतिः परं न ग्लानयोग्या, ग्वानयोग्यवसतेरसति वृत्तिद्वार, प्रान्तदेवताद्वारं चाऽऽह
तत्र वसेत् । अथवा-विश्रमणाथै दकतीरे मुहूर्तमानं ग्लानस्तिआउट्टजणो मरुगा- अदाणे खरितिरिक्ख गेनाऽऽदी।
प्ठेत्, तमपि मनुष्यतिरश्चामनवतारे अप्रवेशमार्गेऽवतारयेत् । पञ्चक्खदेवपूयण, खरियावरणं च खित्ताऽऽई । २०६॥
तत्र च स्थितानामियं यतनातस्य तापनया श्रावृतो जनो मरुकानां दानं ददाति, त. तस्तेषामदाने, खरी लकरिका, तिरश्ची महाशब्दि काप्रभृतिका,
उदगंतण चिलिमिली, पमियरए मोत्तु सेस अमत्थ । तद्विषयं क्षोभाभ्याख्यानद्वन्द्वाऽऽदयो दोषा भवेयुः। तथा प्रत्य
पमियर पमिसबीणा, करिज सव्वाणि वि पदाणि ।२६। क्षदेवता इयमिति कृत्वा तस्य साधोः पूजनं, देवतायाश्च __ उदकं यनान्तेन पावन भवति ततश्चिलिमिली कोहको वा अपूजनम्, ततः (खरियावरणं ति) संयतवेषमावृत्य तत्प्रति- दीयते, ये च ज्ञानस्य प्रतिचरकास्तान् मुक्त्वा शेषाः सर्वेरूपं कृत्वा यतारका प्रतिमेवमानां देवता दर्शयेत् । क्षिप्तचि. ऽप्यन्यत्र तिवन्ति, प्रतिचरका अपि प्रतिसलीनास्तथा तिताऽऽदिक वा तं श्रमणं सा देवता कुर्यादिति ।
ठन्ति यथा संपातिमसरवानां संत्रासो न भवति, एवं सर्वारय. अथैनामेव नियुक्तिगाथां स्पष्यति
पि स्थाननिषदनाऽऽदीनि पदानि कुर्यात् । गता दकतारयतआयावण साहुस्सा, अणुकंपं तस्स कुण गामो ।
ना । वृ. १०। मरुयाणं च पओसो, पमणीयाणं च संका तु ।। २०७॥ दगतुंड-दकतुएफ-पु० । पाद
| दगड-दकतुएम-पुं० । पक्किभेदे, प्रश्न १ श्राध० द्वार। तस्य साधोर्द कतीरे प्रातापनां कुर्वतो ग्रामजनः सर्वोs. दगतर-उदकतूर्य-न० । उदके मुखाऽऽदितूर्याणां शब्दे, प्यावृतः, ततश्चानुकम्प तस्य करोति, पारणदिवसे भक्ताऽऽदि.
बृ० १७०। के सविशेषं तस्य ददातीत्यर्थः; अयं प्रत्यक्कदेवः, किम स्माकमन्येषां मरुकाऽऽदीनां इत्तेन, पतस्य दत्तं बहुफलं भव
| दगथालग-दकस्थालक-पुं० । कंसाऽऽदिमये उदकनृतभातीति कृत्वा । ततो महकाणामदीयमाने प्रद्वेषः संजातः, ततस्ते / जने, रा०।
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(२४४७) दगपंचवल अभिधानराजेन्दः।
दक्ष दगपंचव-दकपञ्चवर्ण-पुं० । अष्टाशीतिमहाग्रहाणां चतु- | दगवारग-नदकवाग्क-पुं० । लघुपानीय घटे, वृ० १ ० । रा०। स्त्रिंशत्तमे स्वनामख्याते आहे, स्था० । 'दो दगपंचवमा।' स्था• गमुके, नि० चू० १२ उ० । जी । २ठा०३० । कल्प० । दगपासाय-दकप्रासाद-पुं० । स्फटिकप्रासादे, जं० १ वक्त ।
दगवीणिया-दकवीणिका-दकस्य वीणिका दकीणिका ।
उदकवाहे, नि० चू०१०। दगपिप्पली-उदकपिप्पली-स्त्री. । हरितबनस्पतिनेदे, प्रशा. दगसंघट्ट-दकस-न० । अर्द्धजङ्घाप्रमाणं यावदुरुपतार्य १ पद ।
जलं तादृशे क्षेत्रे, नि० चू० १० उ० । कल्प० । दगफासिया-दकस्पर्शिका-स्त्री० । अवश्याये, कल्प० ६ कण ।
दगसंसट्ठहमा-उदकसंसष्टाहता-स्त्री० । उदकसंबन्धानोता. दगवाह-दकवाह-पुं० । उदकमार्गे, नि० ०८ उ० ।
यां हस्तमात्रगतोदकसंसृष्टायां परिष्ठापनायाम, श्राव०४०। दगलवण-उदकभवन-न। जलगृहे, आचा०२ श्रु०१चू. १०६ उ०।
दगसत्तघाइ(ण)-दकसत्त्वघातिन्-पुं० । जलप्राणिहिंसके,
सूत्र० दीपि०१ श्रु० ७०। दगनास-दकाभास-पुं०।शिवकस्य बेनन्धरनागराजस्य श्रावासपर्वते, स० ७ सम।
दगसीम-नुदकसीमन-पुं०। मनःशिलाकस्थ वेलन्धरनागराजदगमंचग-दकमञ्चक-पुं० । स्फटिकमश्चके, जं०१ चक्का जी।
स्याऽऽवासपर्वते, स०८७ सम। जी ।
दगसोकरिग-दगसौकरिक-पुं० । परिवाजके, वृ० १ ००। दगमग-दकमएमप-पुं० । स्फाटिके मामपे, रा।
दगाजास-दकाभास-पुं० । 'दगभास ' शब्दार्थे, स००७ दगर्ममव-नदकमएमप-पुं० । न । उदककरणयुक्त मएमपे, प्र.
समः। इन०५ संब० द्वार। दगमंडवग-दकमएमपक-पुं० । न0। स्फटिकमरामपके, जं.१ दगाहरण-नदकाऽऽहरण-म० । उदकमाहियते येन तद.
वक्ष० जी० । उदककरणयुक्त मएम्पे, प्रश्न०५ संबद्वार। काऽऽहरणम् । कुटवर्कनिकाऽऽदी, सुत्र. १२.४०५उ०। दगमग्ग-उदकमार्ग-पुं० । उदकवाहे, नि० चू०८१०। । दचा-दवा-अव्यादानं कृत्वेत्यर्थ, स्था०३ ०२ उ०। उत्ता दगपट्टिया-उदकमृत्तिका-स्त्री० । उदकप्रधानायां मृत्तिका दच्छ-दक्क-त्रि० । अच् । “छोऽक्ष्यादौ" ॥२॥१७॥ इति संयाम, प्राचा. २ श्रु० १ ० १ ० । अचिराप्काया- युक्तस्य छः। प्रा० २ पाद । निपुणे, घाच.। तीक्ष्णे, दे० ना०५ 3ऽर्जीकृतमृत्तिकायाम्, प्राचा० १ ६० ८ अ० ६.।। वर्ग ३३ गाथा । (निरूपितमस्य सर्व 'दक्ख' शब्देऽस्मिदशा० । अनुगहतनूमौ चिक्खिल्ले, ध०। दकमकायो, मृत्ति-1 नेव भागे १४४० पृष्ठे) का पृथ्वी काया, तयोर्द्वन्द, ध०२ अधि०। प्रा० चू। अा-दक-दग्ध-त्रि०। दह-क्तः। भस्मीकृते कत्तृणे, न० । प्रश्न. व.। सचित्ते मिश्रे च कर्दमे, बृ०४ ० । दकसंयुक्ता मृत्ति- १पाश्रद्वार। का, विकेकाव्यप्रयोगपूर्विका तद्विवेचनकलाऽप्युपचाराद्दक-द-दृष्प-न० । दृश-क्तः।"शस्तेन ः" बा४।२१३॥ हशोमृत्तिका । तस्यां हासप्ततिकताअन्तर्गतायां पञ्चदश्यां कला
उन्त्यस्य तकारेण सह द्विरुक्तष्ठकारो.भवति । ति उकाराऽऽदेयाम्, जं०२ वक्षः । ज्ञा० । स०।
शः। 'द।' प्रा० ढुं०४ पाद । “दट्ठवं।" "दहण । "प्रा०४ दगमट्टिआयाण-नदकमृत्तिकाऽऽदान-न । आदीयते अनेने।
पाद । स्वपरचक्रभ ये वीक्किते, बौकिके च । वाच । त्यादानो मार्गः । उदकमृत्तिकाऽऽदानमार्गे, दश०५ अ०१०।।
दद्वंतिय-दान्तिक-त्रि.। दृष्टान्तपरिच्छेद्ये, प्राय०४ अ.। दगमट्टिया-नुदकमृत्तिका-स्त्री० । 'दगमट्टिा ' शब्दार्थे, आ.
दट्टच- द्रष्टव्य-त्रि० । अवगन्तव्ये, पञ्चा०४ विवः। चा० २ श्रु० १ चू० १ ० १ उ० ।
दहण-दृष्टा-अव्य० । “क्त्वस्तुमतूणतुणाः " ॥८१४६॥ दगमानग-दकमालक-न। स्फटिकमाल के, जं. १ वक।
इति क्त्वाप्रत्ययस्य तूणाऽऽदेशः। प्रा०२पाद । चकुषा उपलभ्येजी०।
त्यर्थे, पञ्चा०विव०। प्रश्नः । नि० चू०। दगरक्खस-उदकराक्षस-पुं० । जलमानुषाकृती जलचरबि
दमनम-अवस्कन्द-धाराअवस्कन्द-प्राधारे घञ् । "शीघ्रा. शेषे, सूत्र०१श्रु.७ अ०।
दीनां बहिवाऽऽदयः" ॥४४२२।। इति अपभ्रंश अवस्कन्दस्य दगरय-नदकरजस्-न । विन्दुमात्रे, कल्प०९कण । पानी.
दडवडाऽऽदेशः। धाट्याम्, (माका) इति प्रसिद्धायाम, "त. यकणिकायाम्, जी० ३ प्रति०४० । ०। । जं० ।। हिमयरयदरव,पर अपूहकासि।" प्रा०४ पाद। "निरा। आ० म०। कल्प० । प्रज्ञा० । उदकरेणी , प्रइन० ३ हुए गमिहीरत्ती ,दडवम हो विहाणु।" प्रा० दु.४पाद । आश्र0 द्वार।
धाट्याम्, दे० ना.५ वर्ग ३५ गाथा। दगनेव-दकलेप-पुं०।नाभिप्रमाण जलावतरणे, स्था०५ठा० दक-दग्ध-
त्रिभस्मीकृते, प्राब०४०। प्रश्न।" अग्गिद१०. श्राव।
खाणं।" औ01"दहमुडाई करेजा।"नि चू०१ उ० । “एवं दगवस-दकवर्ण-पुं० । अष्टाशीतिमहाग्रहाणां चतुस्त्रिंशत्तम | दीहदकृस्स किरियणिमित्तं जोइ घेप्पत्ति।" नि००१ उ० । ग्रहे, सू० प्र०२० पाहु० । पञ्चत्रिंशत्तमे च प्रहे, चं. प्र०]
बृ० । संथा०। प्रश्न । २० पाहु.।
दष्ट-त्रि०ादशनाऽऽहते, प्रा०१ पाद ।
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( २४४८ )
अभिधानराजेन्धः |
दव
प० १२००
दाढ १० दच्छवि- दग्धच्छवि- त्रि० । शीताऽऽदिभिरुपहतत्वचि प्रश्न०
३ श्राश्र० द्वार ।
,
दव तिल्ल - दग्धतैल - न० । पक्कान्नोसीर्णतैले, घ० २ अधि० । दह-१०ः० रूपककाव्यले नितान्ते, वाचः । श्रतिशये, पञ्चा० १ विव० । श्रत्यर्थे, पञ्चा० ७ विष० । पं० ० । तद्वति, बलवति श्र० । झा० । निप्रकम्पे, नं० | विस्रोतसिकारहिते, आचा० १०२ श्र०१० | स्थिरे, उत्त० १० ०। निश्चले, सूत्र ०१ ४०४ ०१ उ० । समर्थे, सूत्र० १ श्रु० ३ ० १ ३० । प्रतिनिधिमे, रा० । स्थूले, प्रगाढे, शक्ते, कठिने च । त्रि० । वाच० । प्रश्न० । स्था० । " एवं तासिं दर्द सोहियं जायं । " श्र० म० १ ० २ खएम । दढकेन - दृढकेतु-पुं० । ऐरवते जनिष्यमाणे चतुर्दशे जिने, प्र०
|
1
9 द्वार | ती० ।
शि० ।
दढम
ढमति - त्रि० । दृढा निश्चला मतिर्यस्य स तथा । नि लमतौ सूत्र० १ ० ४ श्र० १० ।
दमणकय-कृत-१००४०
दमित्त दमित्र पुं० इन्तपुरनगरवास्तव्यस्य धनमित्रना म्नो वणिजः स्वनामस्याने मित्रे, आव० ४ ० । (कथा ऽन्यत्र )
|
दढरइ - दृढरथ- पुं० । जम्बूद्वीपे भारते वर्षे श्रतीतायामवसर्पि
दमिदमि-पुं० [द्वारवत्यां समुद्र विजयस्य शिवाना मशिन मैत्रीत्व न०० १४० । यां भार्यायामुत्पन्ने पुत्रे, अन्त । स चारिष्टनेमेरन्तिके प्रव्रज्य श्रोमशवर्षपर्यायः शत्रुञ्जये सिद्ध इति श्रन्तकृद्दशानां चतुर्थक गैस्य दशमेऽध्ययने सूचितम् । श्रन्त० ३ वर्ग ८ अ० । दणु-दृढधनुष्- पुं० । जम्बूद्वीपे द्वीपे भारते वर्षे आगमिष्यत्यामुत्सर्पिष्यां प्रविष्यत्यष्टमे कुलकरे, स्था० १० वा० । जम्बूद्वीपे भागमिष्यन्त्यामुत्सर्पिष्यामैरवते वर्षे प्रविष्यति सप्तमे कुलकरे, स० | ती० |
यां जातेsg कुलकरे, स० । स्था० । श्रस्यामेवावसर्पिण्यां जातस्य दशमतीर्थकरस्य शीतलस्य पितरि स० । स्था० । आ व० ति० | प्रब० | नवनवतितमे ॠषभनन्दने, कल्प०७क्षण | दढरहा-दृढरथा - स्त्री० । व्यन्तरेन्द्राणां कालाऽऽदीनां तत्सामा निकाग्रमदिषीणां च बाह्यायां पर्षदि धरणाऽऽदीनां जवनपतीद्राणां कपालप्रमद्दिपी सत्कापदि स्था०३०१ उ० । जीवा० ।
धम्म- धर्मन ५० तचारिक घो
दढवइर-दृढवैर-त्रि० । अतिशयवैरशालिनि, दृढवैराः स्त्रियः, दापरण दादरकर सं
दढव्त्रय-दृढव्रत- त्रि० । दृढानि निश्चतानि व्रतानि नियमा उसरगुणा इत्यर्थो यस्याऽसौ दृढव्रतः । निश्चलनियमे, ग०२ श्र धि० । घ० । श्राफलोदयं प्रारब्धका र्थ्यात्यागिनि च । वाच० । दढायु-दृढाऽऽयुष्- पुं० । पञ्चमतीर्थकरस्य पूर्वजवजी, "सर्वा नुभूतिनामानं, दृढायुषो जीवपञ्चमं वन्दे ।" प्र० ४६ द्वार । स० । ती० । जी० ।
द्यापदुदयेऽपि निश्चलः स दृढधर्मा । राजदन्ताऽऽदित्वाद् हद शब्दस्य पूर्वनिपातः । वृ० १ उ० । स्था० | व्यं० आ० म० । "सारे
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तमणेच्चाणि, चिइचिरियकिसो पदमजंगो ॥१॥ " श्रङ्गीकृतापरित्यागे, स्वा० ४ ० ३ ० । दृढः स्थिरः निश्चनः धर्मो यस्य स तथा । ओघ० । श्रापद्यपि धर्मादविचले, ज्ञा० १० अ० । कर्म० । स्था० । दृढे चारित्रे स्थिरे, बृ० ३ ० । दृढः समर्थो धर्मः स्वनावः संग्रामाभङ्गरूपो यस्य स तथा । समर्थस्वभावे, सूत्र० १ ० ३ ० १ उ० । स्वनामख्याते देवे च, ईसा देवसयसमवातो ददधम्मो नाम देवो भगतो भणइ । म० १ अ० १ खराम । - दृढधर्मता- स्त्री० । दृढधर्मत्वे, स० ३२ सम० । श्र दढधम्मयाब० । आ० चू० । श्या० क० । स० ( श्रापत्सु दृढधर्मता सोदा हरणा' आवई' शब्दे द्वितीयभागे २४५ पृष्ठे व्याख्याता ) दढपण - दृढप्रतिज्ञ - पुं० | सूर्यानस्य देवस्य देवलोकाच्च्युतस्य महाविदेदेकस्यचित्पा
श्रा०
3
।
इत्पची सत्यां तन्मातापित्रोदा प्रतिज्ञा भविष्यतीति त दन्वर्थनामकरण ० ० ( सूरियान दे ति मजागे तश्चरितं वक्ष्यते ) दढपरकम-टपराक्रम पुं० संयमे, रियाज ० १६ अ० ।
दत्त
दडपाणिपापपाश्चपितरोरुपरिणय दृढपाणिपादपार्श्वपृष्ठान्त - रोरुपरिणत बाई पाणिपादं यस्व तथा पार्थी पृष्ठस्तरे व ऊरू च परिणते परिनिष्ठितां गते यस्य स तथा । उत्तमसंहनने, भ० १४ श० १ ० । जी० । दढप्पहारी
महारी ००१०१८
ती० । सिद्धभेदे, पुं० । ० म० १ ० २ खराम । आ० क० । ( कथा ' तवसिद्ध ' शब्देऽत्रैव मागे २२०७ पृष्टे द्रष्टव्या ) दढभूमि - दृढभूमि - त्रि० । स्थिरे, द्वा० १० द्वा० । बहुम्लेच्छुदेशे, यत्र श्रीजगवान् वीरः कोष्ठे चैत्ये एकरात्रिकया प्रतिमया स्थितः । श्रा० म० १ अ० २ खण्ड । श्रा० चू० दृढा भूमिरस्य । योगविशेषेण संस्कृतान्तःकरणे विषयसुखरोगादिना बाल
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लुग्भाजनदनुजराजकुले जः स दणुवह - दनुजवध-पुं० । स्वरस्य न वा ॥ | १ | २६७ ॥ इत्यनेन सस्वरजकारस्य वा सुकू । दानवमारणे, प्रा० १ पाद ।
दणुयवह- दनुजगंध- पुं० । 'दणुश्रवद' शब्दार्थे, प्रा० १ बाद । दलिया-दर्शिकावृद्धि स्त्री० । द्वात्रिंशत्तमे स्त्रीक लाभेदे,
कल्प० 9 कण ।
दत्त दत्त त्रि० । दातः । विसृष्टे त्यक्ते, रचिते, वाच० । श्र नुज्ञाते, प्रश्न०३ संघ द्वारा वितीर्णे, स्था० पठा०१० | न्यस्ते, ज०१ भारते वर्षेऽयमेवो जाने वासुदे स०३५ सम० । आव मेतागणधर पितरि श्रा०म०१०२ खण्ड । श्रा० चू० । जम्बूद्वीपे भारते वर्षे आगमिष्यन्त्या मुत्सपियां भविष्यति पञ्चमे कुलकरे, स० । ति० । स्था० | ती ।
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(२ ) अभिधानराजेन्द्रः।
दत्ति प्रभा जे कालिकाचार्यजामिजे, प्रा० फ० । दर्श० । दिबासकृतेन गालमाऽऽदिना अन्तः पतग्रहे अवनम्य दद्यात, मा० चू०। प्रा० म०। (यो हि तुर्मिणीपुराधिपं मारयित्वा साऽपि, णमिति बाक्पालङ्कारे, एका दत्तिरिति वक्तव्यं स्यात्। राजा नूत्वा भनेकान् यक्कानिए! कालिकाऽऽचायवचनानु- तत्र 'से' तस्य साधोहयो आना भिक्कार्थ साधुमागतं रवा सारेण मृत्वा नारको जात इति " सम्मावाय" शब्नेऽन्ति सर्वे ते स्वीयं स्वीय पिण्डं संहत्य एकं पिपमं कृत्वा अन्त: मभागे कथा वच्यते) भारते वर्षेऽतीतायामुत्सर्पिपयामतीते पतनदे (उबिदसा) अवनम्य दद्यात,सर्वाऽविणमिति पूर्ववत्, सप्तमे जिने, प्रव. ७ द्वार | सङ्गमस्थविराणां जावलप. एका दत्तिरिति वक्तव्यम् । एतत्सूत्र पतनधारिण नक्तम् । रिक्षण नियतवासं प्रतिपन्नानां शिष्ये. प्रा. क. । प्रा०
सम्प्रति पाणिपतग्रहविषयमाह। उत्साण्यादा प्रविष्यति जिनधम्मौकारके महाराजे, संखा दात्तयस्स भिक्खुस्स पाणिपडिग्गहस्स गाहातिः । विपाकश्रुते नवमेश्ययने उदारतावा देवदत्तायाः
बइकुलं पिमनायपमियाए अणुप्पविट्ठस्स जावतियं जावपितरि, स्था०१०म०। गन्धर्वनागदत्तस्य पितरि समीपुरवास्तव्ये श्रेलिनि, प्रा० क. । पावस्वामिनन्दनकृत ईश्वरराजस्थ
तियं अंतो पाणिसि उविश्त्ता दनएज्जा, तावड्याप्रो तामो पूर्वभवे वसन्तपुरवास्तव्ये पुरोहितपुत्रजीके, ती. १४. क- दत्तीभो बत्तन्वं सिया। तत्थ से केइ छजएगण वा दूसएका। समुज्तटवर्तिविश्वपुरीवास्तव्ये स्वनामख्याते सांया- ण वा बाल एण वा अंतो पाणिसि नविडत्ता दनएज्जा, त्रिके, ध० ० । स्वनामख्याते चम्पानगरीराजे महानन्ध
सव्वा विणं सा एगा दत्तीति वत्तव्वं सिपा। तत्थ से बहने स्य कुमारस्य पितरि, विपा० १ श्रु. १ ० । वन्दनाउगते स्वनामस्पाते गृहपतौ, सच वीरास्तिके प्रवज्य प्र.
नजमाणा सव्वे ते सयं सयं पिंम साहणिय अंतो पानशनेन मृत्वा सुधर्मायां सनायां तप्ते सिंहासने गङ्गदत्तया दे. पिंसि उविइत्ता दझएजा, सना विणं सा एगा दत्तीति बतया द्विसागरोपमस्थितिक उपपन्न इति सप्तमे पुधिकाऽभयय- वत्तव्यं सिया॥४०॥ ने सूचितम । नि०१ श्रु० ३ वर्ग ६अ। स्वनामख्याते कस्कि- (पाणीत्यादि) पाणिपतग्रहस्यापि विषये एवमेव सूत्रं राजपुत्रे, “पारस तितरे विक्कमबरिसे सत्तुंजे सारं
वक्तव्यमिति सूत्रसकेपार्थः । करिता जिणभवण मेमिकं च वसुई काउं अज्जियतित्थयरना
सम्प्रति भाष्यविस्तर:मो सगं गंतुं चित्तशुतो नाम जिणवरो होति।" ती०१० कल्प। स्वनामख्याते वेश्यायामश्रधाने पुरुष, पुं० । सूत्र. १७०
हत्थेष व मत्तेण व, जिरवा होई समुज्जया । ४१.१ उ.। दाने, न० । उत्त०१०।
दत्तियो जत्तिए वारे, खिवती होति तत्तिया ।। १० ।। दात्र-न० । शस्त्रभेदे, आचा० १ श्रु.१०५ १० ।
हस्तन वा, मात्रण वा.या समुद्यता उत्पादिता भिका साभिदत्ति-दत्ति-स्त्री० । अविच्छिन्नदाने, पञ्चा• १८ विध० । “द.
क्वेत्युच्यते । दत्तयः पुनस्तामेव भिकां यावतो बारान् वि
छिद्य किपति नाचन्यो भवन्ति । तीनो जत्तिए वारे, खिवाई होति तत्तिया । अवोच्छिन्नानि वा पावो, दत्ती होइ दवंतर ॥१॥"इति । स्था०५ ठा०१ उ० पश्चा।
अव्योच्छिन्ननिवायाओ, दत्ती होइन वेतरा। कल्प० । करस्थास्यारियो अव्यवच्छिन्नधारया पतति भिती
एगाणेगासु चत्तारि, विभागा निक्खदत्तिम् ॥११॥ या, सा दत्तिरभिधीयते । भिकाविच्छेदे च द्वितीया दत्तिः, अन्यच्चिननिपाताद दत्तिर्भवति, इतरावा निक्का च भवति, एवं सियमात्रेऽपि पतिते मित्रैव दत्तिरिति । प्रव०४ द्वार। भिक्कादत्तिषु च एकानेकासु विषये चत्वारोविज्ञागा विकापा। दत्तिसंख्यासूत्रम्
तानेवादसंखा दत्तियस्स पं भिक्खस्स पमिग्गहधारिस्स गा- इग जिक्खा इग दत्ती, एगा जिक्खा यऐगदत्तीयो। हावाकुलं पिमवायपमियाए अणुप्पविट्ठस्स जावतियं जा- णेगा वि य एगाओ, णेगाओ चेव गायो।। १११ ।। वतियं अंतो पडिम्गहस्स उविइत्ता दन्नएजा, तावइ
एका भिका एका दत्तिरिति प्रथमो विकल्पः । एका भिक्षा यामो सामो दत्तीमो बत्तन्वं सिया । तत्य से के उज्ज
अनेका दत्तय ति द्वितीयः। अनेका निक्का पका दत्ति
रिति तृतीयः । अनेका भिका अनेका दत्तय इति चतुर्थः । तत्र एण वास एण चा बालपण वा अंता पडिग्गसि नविइत्ता
प्रथमभा बदायकेन अव्यवच्छिन्ना निक्का दत्ता, सा पका दलएज्जा, सम्वा वि सा एगा दत्तीति दत्तवं सिया। जिक्ता एका च दत्तिः । हितीयनले व्यवछिन्ना दत्ता। तत्य से बहवे झुंजमाणा सन्चे ते सयं सगं पिं साहणि- तृतीयभङ्गे सूत्रमिदम-"तत्थ से बढ़ाये जमाणा" इत्यादि य अंतो पमिग्गइंसि उविश्त्ता दक्षएज्जा, सम्बा विसा
"जाब सा पगा दत्ती वत्तव्य सिया । (४० स०)" मस्येयं प्रा.
चना-केचित्पथिकाः कर्मकरा वा एकत्रावकाशे पृथक पृथक एगा दत्तीति वत्तव्वं सिया ॥ ३९ ॥
उपस्कृत्य तुजते, तेषामेकः साधुना तत्र च भिकार्यमागत्य संख्या परिमाणं दत्तिकायाः,सूत्रे पुंस्त्वमविवाद,यावद यावद् | धर्मलाभः समुद्दिष्टस्ततः स परिवेषक प्रात्मीयाद् ददामीति कश्चिदन्तः पतग्रहे (नवित्ता) अवगम्य दद्यात्, तत्र तावत्यो व्यवसितः, ततस्तैरपि शेषकैः स भएयते-प्रत्येकं प्रत्येकमस्मदी. दत्तय इति वक्तव्यं स्यात् । किमुक्तं भवति? एकस्थामपि भि- यमध्यादपि साध भिकां देहि, ततस्तेन परिवेषकेण सर्वेषां कायामुत्पाटितायां यावतो यावतो वारान् विश्म्यि विधि सत्कान् गृहीत्वा एकत्र संमोल्यायवच्छिन्नं दत्सम, पवमेनका ददाति तावत्यस्तत्र दत्तय इति । तत्र 'से'तस्य साधोः कश्चित्म- भिक्षा एका दत्तिरित्युपपद्यते। चतुर्थभङ्गोऽप्येवमेव, नवरं व्य. धकेन वंशदलमयेन,दूष्यण वा वरण,बालकन वा गोमहिण्या- बच्किन्न दानमिति ।
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( २४५० ) अनिधानराजेन्द्रः ।
दत्ति
अत्र दक्षिण्येकानेक कामका भेद तोटो भङ्गा, तानुपदिदर्शयिषुः प्रथमन एकानेकदायक काविषयां चतुर्भीमामेवगे दाग होति चलनंगा | गोप देती, गोडलेगा उ रोग एवं च ॥ ११२ ॥ गाय अगाओ, पाणीसु पमिग्गहधरेसु । एवमेव अनेनैव प्रकारेण कविमन ने दाय एकानेकानेक्षासु च चतुर्भङ्गी भवति । गाथायां पुंस्त्वं प्राकृतत्वात् । तामेव चतुर्भङ्गमाह-एक दायक एकां भिकां ददातिर, एकोऽनेका २, अनेके एकाम् ३, अने अनेकाः ४ । एते चत्वारो नद्राः पाणिषु पाणिषु च द्रष्टव्यः । अत्र यया दत्तिव भङ्गास्तथा दर्शयति-एगो एवं एकसि एगो एवं चणेगसो बारे ।
,
गोगा एकसि एगो ग्रेगा तु बहुसो तु ।। ११३ ।। कोदायक निकामेकवारं ददाति ॥३१॥ कदायक एक एकां जितां बहुशो वारान् विच्छिद्य विच्छिद्य ददाति ॥ २॥पको हायको उनका जिका एकवारमदति ॥३॥ एको दायको नेका निक्का बहुशो वारान् विच्छिद्य विविध ददाति ॥४॥ पवमेकमधिकृत्य एकानेकभिक्षासु दत्तिविषया चतुर्भङ्गयभिहिता । साम्यतमनेकान् हा काचित् एकानेकनिका दतिविषयतुमाह
येगा एवं एकसि, ऐगा एगं चऽऐमसो बारे । नेगा मेगा एकमि, होगा जेना बहुवारे ॥ ११४ ॥ श्रनेके दायका एकां भिक्षामेकवारमव्यवच्छेदेन ददति ॥ ५ ॥ अनेकदायका एकां जिज्ञामनेकशो वारान् विवि ददति ॥ ६ ॥ अनेके दायका अनेका भिक्का एकत्र संपिण्डच एकवारं ददति ॥ ७ ॥ श्रनेके दायका अनेका भिक्षा विच्छिय विच्छिद्य बढ्न् वारान् ददति ॥ ८ ॥ पापिडिस्सिबि एसेव कपो भने निरवसेो । गणनासे निरवेक्खो सो पुसपभिगो जस्तो ।। ११५ ।। पादिकस्यापि पत्र पवानन्तरोको भवति निरवशेषो ज्ञातव्यः, स च पाणिपतद्ग्रहभोजी गणनासे निरपेकः सपतग्रहो भाजितो विकल्पितः कदाचित्स्यात् कदाचि प्रेति, ततस्तस्य पाणिपतद्ग्रह भोजिता । व्य०६४० ।
सणं
जे भिक्खू गिलास्साए परं तिएदं वियमदत्तीणं डिगाइ, परिगातं वा साइज्जइ || ए ||
दत्तीय पलमाणं पसंती, तिएई पसतीणं परेण चउत्था पसती गिलाणकज्जेण वि ण घेत्तव्वा, जो गिरइति तस्स चडल हुँ ।
गाहा..
जे भिक्खु गिवाणस्सा, परेण लिएदं तु त्रियमदनीं । गिएढेज्ज आदिएज व, सो पावति आमादीणि ॥ १० ॥ तिएदं दत्तणं परतो गहणे वि चडल हूं, (श्रादिपणे ति) पिवंतइस विचहूं ।
तिरहं दत्तीणं परतो आहरणे, आदियणे वा इमे दोसाअप गरहा मददोसो दिवणं चेन ।
दद्दुर
तिएढ़ परं मे एढते, पररेश खिंसाऽऽइयं चैव ॥ ११ ॥ (पति) जहा एस पच्चइतो होउं वियमं गिवहति, पिवति वा, तहा एस श्रपि कति मेहुणाऽऽदियं ( गरह तिर्ण जाति वावा । पुणो पुणो गहणे वा वियडे गेही वट्टांत । खिसाधिरत्यु ते परिपवज्जाए त्ति ।
गाड़ा
दिडं कारणगहणं तस्स प्रमाणं तु तिथि दशमी । असागर, सेहादि असंतोष ॥ १२॥
तिमि दत्तीओतिष्ठि, पसतीओ, कारणाओ ताओ पाप असागारिगे श्रत्थति, णित्तो तिमि पसती णिजइ वा, अभावियराम सर्विाणं करोति गिदा नि० चू० १६ उ० । ( द्वितीयपदं 'पस' शब्दे वक्ष्यते ) सुतिप्रमाणं भिक्खुपडिमा 'शब्दे पूर्ण चर्मणि २००१४०
दक्षिण-दधिक-पुं०
।
।
दतिया दात्रिका-बी० खाने शस्त्रे, आबा० १ ० १ - ।
अ०५ उ० ।
दगाहम्मदकादिदनिग्रह पुं० प्राकृते पूर्वापरनिपानोतमिति पूर्वनिपातः शेष पा १८ विव० । दत्तेसणिज्ज- दत्तेषणीय न० । उत्पादाऽऽद्येषणादोषरहिते, सूत्र० १ ० ३ ० १ ३० ।
० ।
दत्थर - पुं० | देशी वस्त्रशाटके, दे० ना० ५ वर्ग ३४ गाथा । ददंत - ददत् - न० | दायके, नृ० १ दद्दर-दर्दर[- न० 1 बदले, झा० १ ० १ ० । ० । जं० । जी० । ० म० । प्रज्ञा० । श्र० । चीरावनरुकुण्डिकाऽऽदि भाजनमुखे, शा० १ ० १ भ० जी० । भा०म० रा० यस्य चतुमिधरणैरेवस्थानं मुवि तस्मिन् गोधाच वाद्यविशेषे, जं० २ यक्क० जी० रा० । चपेटाप्रकारे, प्रज्ञा २ पद । आ० म० । जी० ज्ञा० रा० । औ० । निरन्तरकाष्ठफ लकमये निःश्रेणिविशेषे, पिं० सोपानवी ध्याम्, स० । घने, पुं० । ० । दद्दरषिहाण - दर्दरपिधानन० बन्धने ० १४० दद्दरिया- दर्दरिका - स्त्री० । उत्तामनेन वाद्यमाने वाद्यविशेषे, आ० चू० १ ० । चउचलणपइठाणा गोदिया । ' चतुर्भिचरणैः
1
6
प्रतिष्ठानं जुवि यस्याः सा तथा गोधाचमणा श्रवनद्धेति गोधिका वाद्यविशेषः, दईरिकेति यत्पर्यायः । स्था० ७ वा । अनु० रा० ।
दहु-दद्रु-पुं० । वद-मः । क्षुषकुष्ठभेदे, "दाद” इति प्रसिक, जं० २ ब० । भ० | कच्छ, वाच० ।" दकिडि भनिफुमियफरुसच्छविचित्तलंगा । " प्र० ७ श० ६४० । ददुर-दर्दुर-पुं० मासिक शब्देामके, व्य० १४० प्रश्न० भ० ज्ञा० औ० । स्वनामख्याते पर्वते, शा० १ श्रु० १६ अ० । जं० ॥ भ० । रादौ सू० प्र०१७ पाहु० ।
1
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(१४५१) अभिधानराजेन्त्रः ।
चम्मौवनद्ध मुखे कलशे, प्रश्न०५ संब० द्वार । मएमूको जूत्वा
हाया कयाई गिम्हकालममयंसि जेद्यामसि मासंसि अदर्दुरावतंस के जाते देवे, झा।
हमनत्तं परिगिएहति, पोसहसालाए जार विहरति । तए जंबू! तेणं कानेणं तोगं समएणं गयगिहे णामं णगरे
णं णंदस्स अट्ठमभत्तसि परिणममाणसि ताहाए होत्था । तत्य णं रायगिहे ण यरे सेणिए णामं राया हो.
बुहाए अभिनयस्स समाणस्म इमेयारूचे अनथिए एस्था। तस्स एणं रायगिहस्स नयरस्स बहिया उत्तरपुरच्छिमे |
धम्मा णं तेजाव ईमरपनिइओ, जेसिणं रायगिहस्म बहिदिसीभाए एत्य गुण सिलए णामं चेहए होत्था । तेणं
या बदुओ वाचीओ पोक्खरणीमो जाच मरपंतियाओ, काझेणं तेणं समएणं समणे जगवं महाबीरे चनसाहिं
जत्थ णं बहुजपो एहाइ अ, पियति य, पाणियं च संवहति, समसाहस्सीहिं० जाव सकिं पुन्वाणधि चरमाणे गा
तं सेयं खलु मम कवं पउब्जवाए सेणियं रायं आपुच्छिमाणगामं दृश्जमाणे सुहं सुहेणं विहरमाणे जेणेव रायगिहे
ता रायगिहस्स यरस्स बहिया उत्तरपुराच्छिमे दिसीभागयरे जेणेव गुणसिन्नए चेइए तोणेव समोसढे अहापमि
ए वब्भारपब्वयस्स अदूरसामंते वत्थुपामगरोऽयंसि जमिरूवं उबग्गहं उग्गिएिहत्ता संजमेणं तवसा अप्पाणं ना.
भागसिजाव दं पोक्खरणि खाणावित्तए त्ति कट्ट एवं चेमाणे विहरइ । तेण कालेणं तेणं समएणं सोहम्मे कप्पे
संपेहेति,संपेहेइत्ता कनं पामो पोसह पारेति,पारेइत्ता एहाए दहरवम्सिए विमाणे सनाए सुहम्माए ददुरंमि सीहासणं
कयवसिकम्मे मित्तणाइ नाव सकिं संपरिवुमे महत्थं सि दहुरे देवे चाहिं सामाणियसाहस्सीहि चनहि अग्गम
जाव पाहुमं रायारिहं गिएहति, गिएहत्ता जेणेव सेणिहिमीहिं तिहिं परिसाहिं एवं जहा सूरियाभेजाव दिव्वाई भोगभोगाई तुंजमाणे विहरति । इमं च णं केवलकप्पं
ए राया तेणेव उवागच्छति, नवागच्छइत्ता जाव पादु जंबुद्दीवं दीनं विनलेषं ओहिणा प्रानोएमाणेजाव नट्ट
उपवेति, उबहवेइत्ता एवं वयासी-इच्छामि णं सामी ! विहिं नवदंमित्ता पझिगए, जहा मूरियाभे ते त्ति भगवं
तुब्नेहिं अजमाए समाणे रायगिहस्स णयरस्स बहिया गोयमे समणं जगवं महावीरं आयाहिणं पयाहिणं क
नाव खणावित्तए । अहासुहं देवाणुप्पिया ! । तए णं रेइ,वंदति,णमंमति, णमंसइत्ता एवं वयासो-अहो णं भंते !
णंदे सेणि एणं रमा अब्जणुमाए समाणे हन्तुट्टे रायगिई
एयरं मऊ मऊोणं णिग्गच्छति, णिगगच्छतित्ता वत्युपाटदहरे देवे महिलिए । ददुरस्स गं भंते ! देवस्स सादिव्या
गरोइयसि जमिनागंसि णंदं पुक्खरिणिं खणावेउं पयत्ते देवी ३ कहिं गता,कहिं गुणविट्ठा। गोयमा! सरीरं गया,
यानि होत्या। तए णं मा गंदा पुक्खरिणी आणपयेणं सरीरं अप्पविट्ठा, कूडागारदिटुंते *। ददरेणं भंते ! देवेणं सा दिना देवी किष्मा लछा किष्णा पत्ताजाव अनिसम
खणमाणा खगामाणा पोखरिणी जाए यावि होत्या; मागया। एवं खलु गोयमा ! हेव जंबुद्दी दीने भारहे
चाउकोणा समतीरा अगुपुत्वं सुजायरप्पसीयल जमा संवासे रायगिहे णाम णयरे होत्या। गुणसिलए चेए । तस्स
उन्नपत्तजिसमुणाला बहुनप्पझपनमकुमुदनलिणीसुजगएं रायगिहस्स एयरस्स सेणिए णामं राया होत्या । तत्थ
सोगंधियघुमरीयमहापुंमरीयमयपत्तसहस्सपत्तफुसकेसरो
ववेया परिहत्य नमतपत्तप्पयअणेगस उमणमिणविएं रायगिहे पयरे गंदे णाम मणियारसेट्ठी परिवसइ, अले
वियरियसहइमदुरसरणाझ्या पासादीमा दरिसणीया अदिले जाव अपरिजूए । तेणं काझेणं तेणं समएणं अहं गो
भिरूवा पभिरूवा । तए णं से वंदे मणियारसेट्ठी दाए यमा ! रायगिह एयरे जेणेव गुणसिलए चेइए तेणेव समो
पोक्खरिणीए चनदिमि चत्तारि वसंडे रोवावति । तए सढे । परिसा णिग्गया। सेणि ओवि राया णिगतो। तर एं से गंदे मणियारसट्ठी इमीसे कहाए बढे समाणे एहाए
णं ते वणसंमा आणुपुत्वेण संरक्विजमाणा संगोविजमाणा पायविहारचारेणंजाव पज्जुवासति । तए णंदे मधियार
संवटिजमाणा वाममा जाया किएहा जाव निकुरंबतूया सेट्ठी धम्मं सोचा समणोवासए जाते, जामेव दिमि पाउ
पत्तिया पुफिया० जाच उवमोभेमाणा उचसोनेमाणा चि. न्नुए तामेव दिसि पमिगए । तर णं अहं गोयमा रायाग
टुंति । तए णं णंदे मणियारसेट्ठी पुरच्छिमिले वणसंमे एग हात्रो एयराश्रो पडिणिक्खंतो बहिया जावयविहारे
महं चित्तसनं करावेति, अणेगखंभसयसमिचिटु पासाध्या एग विहरामि । तए पं से गदे मणियारसेडी अपया क
दरिसणीया अभिरूवा पमिरूवा। तत्थ णं बहूणि किएहाणि याई असाहुदसणेण य अपज्जुवासणाए य अणाणुसा
यजाव सुक्किझाणि य कट्ठकम्माणि य पोत्यकम्माणि य चिसणाए य असुस्ससाणाए य सम्मत्तपज्ज वेहिं परिहायमा.
तलेपगंथिमवेढिमपूरिमसंघाइमाई उवदंसिजमाणा चिट्ठति । णेहि, मिनकृत्तपज्जवहिं पवमाणेहि मिच्छनं विप्पडि- तत्थ णं बहणि आसणाणि य सयणाणि य अच्चयपच्चया वणे जाते याचि होत्या । तए पंदे मणियारसेधी अ-| यचिट्ठति । तत्य एंबडवे पट्टा य० जाव दिनभत्तवेतणा
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ददुर
(२४५२)
अभिधानराजेन्सः। तालायरकम्मं करेमाणाविहरति । रायगिहविणिग्गओय _णयरे सिंघाडग० जाव बहुजणो अमममस्स एवमाइजत्थ बहुजणो तेसु पुन्चनत्थेमु आसणेसु य सयमोसु प सं- क्खइ, एवं नासद, एवं परूवेई, एवं विएणवेइ-धरणे निसलो य संतुट्टो य मुहमाणो य सोहमाणो य मुहं मुहेणं णं देवाणुप्पिया ! णंदे मणियारसेट्टी, सो चेव गमो. विहरति। तए ण णंदे मणियारसेकी दाहिणिवे वणसंडे एगं | जाब मुहं मुहेणं विहरति । तए णं से णदे मणियारसेट्ठी महं महापससालं कारावेति,पणेगखंभ० जावरूवं । तत्थ णं बहुजणस्स अंतिए एयमडे सोचा णिसम्म हतुढे धाराहयबहवे पुरिसा दिनभत्तवेतणा विपुलं असणं पाणं खाइमं साइमं कलंबुगंपि व समुस्ससियरोमकूवे परं साया सोक्खमणुभवउपक्व मेंति, बहूणं समणमाहणप्रतिहिकिविणवणीवगाणं माणो विहरति ।। तए ए तस्स गंदस्स मषियारसेहिस्स परिभाएमाणा पविनाएमाणा विहरति । तए णं गंदे मलया कयाइ सरीरगंसि सोलस रोगायंका पाजन्तूया । मणियारसेही पञ्चच्छिमिद्धे वणसंमे एगं महं तेगिछियसालं तं जहा-"सासे १ कासे २जरे३ दाहे, ४ कुच्छिसूले ५ कारावेइ, अणेगखंजसय तत्थ एं बहने वेजाय वेज- जगंदरे । प्ररिसा अजीरए दिट्टी-ए मुकमूले १० पुत्ता य जाणुया य जाणुपुत्ता य कुसमा य कुसलपुत्ता य अकारए ११॥२॥" अचिकृयणा१श्कामवेयणा१३कंड़य दिपजत्तवेतमा बहूणं बाहियाण य गिनाणाण य रोगियाण | २४ उदरे १५कोढे १६ । तए णं से गंदे मणियारसेट्ठी सोलयदुन्नमाण य तेगिच्छं कम्मं करेमाणा विहरति । अमेय पत्थ सहि रोगायंकोहिं अनिलूए ममाणे कोमुंबियपुरिसे सहावे, बहवे पुरिसा दिनभत्तवेतणा तेसिं बहणं वाहियाण यरोगि. सद्दावेइना एवं बयासी-गच्छदणं तुम्ने देवाणप्पिया! राययाण य गिन्माणाण यदुबमाण य भोसहनेसज्जभत्तपाणेणं गिहे णयरे सिंघाडगाजाव महापहेमु महया महया सद्देणं नपडिचारं करेमाणा विहरति । तए णं से पंदे मणियारसेट्टी ग्योसेमाणा उग्योमेमाणा एवं वयह-एवं खलु देवाणुप्पिया ! नत्तरिझे वासंडे एग महं अलंकारियसनं कारेइ भणेग- णंदस्स मणियारसेहिस्स सरीरगंसि सोलस रोगायंका पानखंभसयसमिविटुं० जाव पासाईया दरिसणीया अभिरूवा ब्लूया । तं जहा-सासेन्जाव कोढे । तं जो णं इच्छति देवाणुपमिरूवा । तत्य पं बहवे अलंकारियमणुस्सा दिन- पिया विज्जो वा विजपुत्तो वा जाणुओ वा जाणुपुत्तो वा नत्तवेतणा बहूर्ण समणाण य अणाहाण य गिलाणाण प कुसलो वा कुसलपुत्तो वा गंदस्स मणियारसेहिस्स तेसिं च रोगियाण य सुब्बलाण य अलंकारियकम्मं करेमाणा णं सोलसएहं रोगाणं एगमवि रोगायकं उवसामेत्तए, तस्स विहरति । तए णं तीए गंदाए पाक्खारिणीए वहवे स- णं गंदे मणियारसेट्ठी विउलं अत्यसंपयाणं दापति त्ति कटु पाहा य अणाहा य पंथिया य पथियकरोडिका य त- दोच्चं पि तच्चं पिघोसेहम्जाव पच्चप्पिणहते वि तहेव० णाहारा कहाहारा पत्ताहारा अप्पेगइया एहायंति, अ- जाव पच्चप्पिणंति । तएणं रायगिहे णयरे इमेयारूचे घोसणं प्पेगमा पाणिय पियंति, अप्पेगडया पाणिय संवहंति, सोचा णिसम्म बहवे वेज्जा य वेजपुत्ता य० जाव कुसलपुत्ता अप्पगइया विसज्जियसेयजलमनपरिस्समनिहखुप्पिवासा य सत्थकोसहत्थगता य सिलियाहत्थगता य गुलियाहमुहं मुहणं विहरति । रायगिहविणिग्गो वि जत्य त्यगता य ओसहलेसज्जहत्यगता य सएहि सरहिं गिहेहिं. बहुजणो, किं ते?,जलरमणावविहमजणकयलिनयाहरय. तो णिक्खमंति,णिक्खमहत्ता रायगिह णगर मउ मज्झेणं कुसुमपत्थरयपणेगसउणिगणरुयरिभियसंकुलेम सहं महेणं जेणेव दस्स मणियारसेहिस्स गिहे तेणेव नवागच्च, अनिरममाणा अभिरममाणा विहरति । तए णं दाए उवागच्चइत्ता गंदस्स मणियारसेहिस्स मरीरं पासंति, तेसिं पोक्खरिणीए बहुजपो एहायमाणो य पीयमाणो य पाणिय रोगायंकाणं नियाणं पुच्छंति, पुच्छत्तिा दस्स मणियाच संवहमाणो य अम्मममं एवं बयासी-धणं दे- रस्स बहुहिं उबाणेहि य उबट्टणेहि य सिणेहपाणेहि य वाणुप्पिया! गंदे मणियारसेट्ठी, कयत्थेजाव जम्मजीवि- वमणेहि य विरेयणेहि य सेयणोहि य अवदहणोहि य यफले । जस्स णं इमेयारूवा गंदा पाक्खरिणी चाउकोणाo प्रवाहाणेहि य अण्वासणेहि य वत्यिकम्मेहि य निरूहेहि जाव पभिरूवा । जस्स णं पुरच्छिमिद्धे तं चेन सव्वं य सिराहहि य तच्छणाहि य पच्छणाहि सिरोवत्थाहि चनम् वि वणसंमेमु० जाव रायगिहणयरविणिगो । यतप्पणाहि य पुडपाएहि य नहीहि य वक्षीहि य मूझेहि य नत्थ बहुजो पासणमु य सयणेमु य मणिसमे य संतु- कंदेशिय पत्तोह य पुप्फेहि य फलेहिय बीएहि य सिलेियहो य पेच्छमाणो य साहेमाणो य सुहं मुहेणं विहरति ।। याहिं य गुनियाहि य ओसहेहि य सज्जेहि य इच्छति तेसिं तएणं धमे कयत्येकयपुमै कयाणुलोया मुन्नद्धे माणुस्सए
सोलसएहं रोगायकाणं एगमावि रोगायंकं उबसामित्तए, जम्मजीवियफले पंदस्स मणियारस्स | तए पं रायगिहे। नो चेव णं संचाए उवसामित्तए । तए णं ते वहवे वेज्जा य
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(१४५३) ददर अनिधानराजेन्द्रः।
दद्दर जान मो संचाति तेसिं सोलसएलु रोगाणं एगमवि रोगा| पुक्खरिणीए परिपेरंतेम फामुएणमएहोदएणं उम्महणा तकं उत्सामित्तए,ताहे संता तंता परिततान्जाव पडिगया। लोमियाहि य वित्ति कप्पेमाणस्स विहरित्तए, इमेयारूवं तते णं वंदे मणियारसेही तेहिं सोझसहि रोगायकेहिं अ. अजिग्गहं अभिगिएहति, अभिगिएहइत्ता जावनीवाए जिजूए समाणे हांदाए पुक्खरिणीए मुछिए तिरिक्ख जो- बटुं छटेणं जाव विहरति । तेणं कालेणं ते समाप्त अहं णिपहिं निबद्धाउए बद्धपएसिए अहवसट्टे काममासे गोयमा! रायगिहे ण यरे गुण सिलए चेहए समोसढे । परिसा काझं किच्चा एंदाए पुक्खरिणीय ददुरीए कुञ्चिसि द. मिग्गया। तए ण णंदाए पुक्खरिणीए बहुजणो एहायड,पादुरत्ताए उपवरले । तते गं पंदे मणियारजीवे ददरीए शियं पियर, पाणियं संवहइ,अमममं प्राइक्खइ० जाव सगन्नातो रिणिम्मुक्के समाणे उम्मुक्कवाझभावे विमायपरि- मणे जगवं महावीरे इहेव गुणसिलए चेइए समोसढे, तं णयमित्ते जोवणगमणुप्पने दाए पोक्खरिणीए अभि- | गच्छामो णं देवाणुप्पिया! समणं नगरं महावीरं वंदामो, रममाणे अभिरममाणे विहरति । तए णं दाए पोक्खरि- मसामोजाव पज्जुवासामो,इहानवे परभवे हियाए सुहाए णीए बहुजणो एडायमाणो य पाणियं पियमाणो य खमाए हिस्सेसार अणुगामियत्ताए भविस्सति । तते ण त. पाणियं संवहमाणो य श्रममतास्स एवमाइक्खइ-धन्ने एं। स्स दउरस्स बहुजणस्स अंतिए एयमटुं सोचा णिसम्म देवाणुप्पिया ! णंदे मणियारसेट्टी, जस्स णं इमेयारूवा | अयमेयारूने अब्भस्थिए समुप्पन्जित्था-एवं खलु समणे भगवं गंदा पुक्खरिणी चाउकोणा जाव पडिरूवा, जस्स णं महावीरे,तं गच्छामि णं वंदामि, मंसामि, एवं संपेहेति,पं. पुरच्छिमिद्धे वणसंमे चित्तसभा अणेगखंभसय तह | दायो पुक्खरिणीओ सणियं सणियं उत्तरति,उत्तरित्ताजेचत्तारि मनाओ जाव जम्मजीवियफले।तएणं तस्स दद्- णेव रायमग्गे तेणेव उवागच्छ,उवागच्छइत्ता ताए नकिटाए दुरस्म तं अभिक्खणं अभिक्खणं बहुजणस्त अंतिए एय- दददरगईए वीईवयमाणे जेणेव मम अंतिए तेणेव पहारेमढे सोचा णिसम्म इमेयारूवे अन्नत्यिए चिंतिए पत्यिए स्थ गमणाए, इमंच णं सेणिए राया भिभसारे एहाए कयमणोगयसंकप्पे समुप्पज्जित्या-कहिं मछे मए इमेयारूवे को उय जाव सन्नाझंकारविभूसिए हस्थिखंधवरगते सकोरंसद्दे णिसंतपुव्वे त्ति कटु मुज्केणं परिणामेणंजाव जाई- टमधदामेणं उत्तणं धारिजमाणेणं सेयवरचामराहिं महया सरणे समुप्पन्ने, पुनजातिसमरणं समागच्छति । तते णं तस्स हयगयरहजमचमगचाउरंगिणीए सेणाए सचि संपरिवुमे ददरस्स इमेयारूवे अब्भत्थिए चिंतिए पत्थिए मणोगय-1 । मम पायं वंदए हव्वमागच्चति, तते णं से दद्दुरे सेणियस्स संकप्पे समुप्पन्जित्था-एवं खनु अहं इहेव रायगिहे ण गरे रमो एगणं आसकिसोरेणं वामपाएगं अकंते समाणे अंत. एदे णामं मणियारसेट्ठी होत्या अक्लेजाव अपरिज़ए । तेणं | णिग्याइए कयावि होत्या। तए णं से ददरे अथामे अपने कानेणं तेणं समएणं समणे जगवं महावीरे०जाव समोसढे । अवीरिए अपुरिमकारपरक्कमे अधारिणजाम्म त्ति कट्ट तए णं मए समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतिए पंचा- एगतमवक्कपति, अबक्कमइत्ता करतनपरिग्गहियं तिक्खुत्तो गुन्नाइयं सत्त सिक्खावश्यं जाव पमिव । तएणं अहं अ-| सिरसावत्तं मत्थए अंजनि कह एवं बयासी-नमोऽत्य पं मया कयाइ असाधुदंसणेण य जाब मिच्चत्तं विप्पमित्र- अरुहंताणं भगवंताएंजाब संपत्ताणं,नमोऽत्थु । समणस्स मे, तए णं अहं सम्पया कयाइ गिम्हकालसमयंसि जाव नगव ओ महावीरस्स मम धम्मायरियस्स० जाव संपाविउनवसंपन्जित्ता णं विहरामि, एवं जहेब चिंता, पापुच्छणं च, कामस्स, पुद्धि पि य णं मए समणस्म लगवो महावी
दा पुक्खरिणी,वणसंडा,सभाओ, सेसं तं चेव सव्वंजाव रस्स० जाव संपत्तेणं अंतिए थूलगपाणातिवाए पच्चक्खाए० णंदाए पुक्खरिणीए ददुरीए कुटिसि ददुरत्ताए उव- जाव थूत्रए परिग्गहे पच्चक्खाए । तं श्याणि पि तस्सेव वो। तं अहो! णं अहं अहले अकयत्ये अकयपुरो णिग्गं- अंतिए सव्वं पाणाश्वायं पच्चस्वामिजाव सव्वं परिग्गडं थाओ पावपणाओ नढे ज? परिभहे, तं सेयं खलु मम सयमेव पच्चखाए जावज्जीवाए सवं असणं पाणं खामं पाइभ पुनपमिवनाई पंचाणुव्वयाई सत्त सिक्खावयाई उपसंप- पञ्चक्खाए जावजीवाए, जंपि य इमं सरीरं इथं कंतं० जित्ता ६ विहरित्तए, एवं संपेहति, संपेहिता पुवपडिव- जाव सम्मं फुसतं, एवं पि य णं चरिमोहिं ऊसासेहिं वो. पाई पंचाणुब्बयाई जाव पारुहति, प्रारुह इत्ता इमेयारूवं सिरामि त्ति कहतए णं से दद्दरे कानमासे कालं किच्चा० अजिग्गहं अभिगिएहति, कप्पइ मे जावजीबाए टुंढे- जाव सोहम्मे कप्पे ददुरवमिसए विपाणे नववायसजाए एं अणिक्खित्तेणं तबोकम्मेणं अपाणं भावमाणस्स विह- दहरदेवताए उनमे । एवं खन गोयमा! दडुरेणं देवेणं रित्तए । छहस्स वि य णं पारणगसि कप्पड़ मे दाए मा दिव्या देविही लका पत्ता अभिप्तममागया। दडुरस्स
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(२४५४) ददुर
अनिधानराजेन्मः। एं भंते ! देवस्स केवयं कालं विती पाना। गोय- | मंशालाम् । (विसजिय इत्यादि) विमृष्टस्वेदजद्वमल परिश्रमा ! चनारि पलिप्रोवमाई विती पामत्ता । से णं दद्दुरे
मनिशाकुत्पिपाशाः। तत्र जन्ः स्थिरो मानिन्यहेतुः, मलम्तु स
एव कठिनीभूत शति। राजगृहावनिर्मतोऽपि च यत्र बहुजनः किं देवे आउक्खएणं नवखएणं विश्वखएणं अणंतरं चयं
ते ति) किं तद्यत्करोति उच्यते-जलरमणजनकीमाभिः,विधिचश्त्ता महाविदेहे वासे सिजिहिति, वकिहिति जाव धमजनैः बहुप्रकारस्नानः, कदलानां लतानां च गृह कैः कुसुमअंतं करोहिति ।
स (प्र)स्तरैः, अनेकशकुनिगणरुतश्च। कीदृशैः?, रिनितैः स्वर
घोल नावद्भिर्मधुरैरित्यर्थः। संकुत्रानि यानि तानि तथा तेषु, पु. ( एवं सूरियाभ ति ) यथा राजप्रश्नकुते सूर्या नो देवो वणि
करिणीवनखएकलकणेषु पञ्चसु वस्तुस्विति प्रक्रमः । (संतुयट्टो तः, एवमयमपि वर्णनीयःकियता वर्ण केनेत्याह-( जाव दि.
यति। शयितः (साहेमाणो यत्ति) प्रतिपादयन । (गमोति) ब्वाई इत्यादि)स चायं वर्णकः-" तिहि परिसाहिं सत्तहि
पूर्वोक्तपाठः। (साया मोक्खं ति) सातात् सातवेदनीयोदयात् अपीएहि सत्तहिं अगीयाहिवाई हिं।" इत्यादि । (इमंच ण
सौख्यं सुखम् । " सासे” इत्यादि श्लोकः प्रतीतार्थः, नबरम् केवलकप्पं ति) म च-केवलः परिपूर्णः, स चासौ कल्पश्च
(अजीरप त्ति ) आहारापरिणतिः । (दिछीमुद्धसुले ति) दृष्टि स्वकार्यकरणसमर्थ ति केवलकल्पः, केवन एव वा केवलक
शूलं नेत्रशूलं, मुशूलं मस्तकशुबम्। (अकारप त्ति) भक्तल्पा,तम् । (प्राभोएमाणे त्ति) हि यावत्करणादिदं रश्यम्-"पा
द्वेषः । "अधेियणा' इत्यादि श्लोकातिरिक्तम । (कंदु त्ति) सममण भगवं महावीरं।" इत्यादि । (कृमागारदिइंते
खर्जुः। (नदरे त्ति) उदरं, जलोदरमित्यर्थः। (सस्थको सेत्यादि) त्ति)एवं चाउमौ-से केणणं भत ! एवं वुच्चाइ-सीरगं
शखकोशः कुरन खरदनाऽऽविभाजनं,स हस्ते गतः स्थितो येषां गया,सरीरंग अणुप्पविट्ठा? गोयमा! से जहानामप कुमागार
ते तथा । एवं सर्वत्रा नवरं शिलिकाः किराततिक्तकाऽऽदितृणसाला सिया दुहो।"बाहरन्तश्च "गुत्ता लित्ता।" सावरण
रूपा, प्रतलपापाणरूपा वा शस्त्रतीक्ष्णी करणार्थी तथा-गुटिस्वेन,गोमयाऽऽद्युपलेपनेन च । उभयतो गुप्तत्वमेवाऽऽह-"गुत्ता"
का व्यसंयोगनिष्पादितगोलिकाः । औषधभेषजे तथैव । वहिप्राकागवृता। 'गुत्तवारा।" अन्तर्गुप्तेत्यर्थः अथवा-गुप्ता
(उचलणेहीत्यादि) उद्वलनानि देहोपत्रेपनविशेषाः,यानि देहाद गुप्तधाराणां केषाश्चिद स्थगितत्वात, केषाश्चिश्वास्थगितत्वा
हस्तामर्शनेनापनीयमानानि मलाऽऽदिकमादायोद्वसन्तीति। न. दिति । "निवाया।" वायोरप्रवेशात् । "निचायगंभीरा।" किल
द्वर्तनानि तान्येव । विशेषस्तु लोकरूढिसमवसेय इति । स्नेहपामहद् गृहं निवातं प्रायो न भवतीत्यत आह-"निशातगंभीरा।"
नानि द्रव्यविशेषपक्वताऽऽदिपानानि। वमनानि प्रसिफानि । वि. निर्वातविशालेत्यर्थः।" तीसे णं कूमागारसालाए अदूरसा
रेचनान्यधाविरकाः। स्वेदनानि सप्तधान्येकादिभिः(?)। अवदहमंते पत्थ णं मई पगे जणसमूहे चिछातए णं से जणसमूहे पगं
नानि दम्भनानि । अपनानानि स्नेहापनयनहेतुषव्यसंस्कृतजक्षेन महं अभवद्दलयं वा वासबद्दलयं वा महावायं वा एजमाणं पा
स्नानानि । अनुवासनाश्चर्मयन्त्रप्रयोगेणापानेन जठरे तेलप्रवे. सपासश्त्तातं कूमागारसालं अंतो अपविसित्ताणं चिट।
शनानि । वस्तिकर्माणि चर्मवेटनप्रयोगेण शिरःप्रभृतीनां स्नेहपू. से तेणणं गोयमा! एवं बच्च-सरीरगं गया, सरीरगं अ.
नि.गुदे वा वादिक्केपणानि। निरूहा अनुवासना एव, केवल गुपवित्ति ।" असाधुदर्शनेनेति,साधूनामदर्शनेन,अत पवाप
रूव्यकृतो विशेषः शिरावधा नामीवेधनानि, रुधिरमोकणानीयुपासनया अनासेवनया, अननुशासनया शिकाया अनावेन.
त्यर्थः। तक्षणानि त्वचः कुरप्राऽऽदिना तनूकरणानि। प्रकणानि अशुषपणया श्रवणेच्या अजावेन,सम्यक्त्वपर्यः सम्यक्त्व.
हस्वानि त्वचो विदारणानि । शिरोधस्तयः शिरसि बकस्य च. रुपपरिणामविशेषैरेचं मिथ्यात्वं विशेषेण प्रतिपन्नः विप्रतिपन्नः,
भकोशस्य संस्कृततेलापूरलक्षणः । प्रागुक्तानि वस्तिकर्माणि काष्ठकर्माणि दारुमयपुत्रिकाऽऽविनिर्मापणानि । एवं सर्वत्र, नवरं
सामान्बानि, अनुवासनानिरूदशिरोवस्तयस्तु तद्भेदाः। तर्पणा. पुस्तं वस्त्रे चित्र बेप्य च प्रसिहं, प्रन्थिमानि यानि सूत्रेण प्र.
नि स्नेहव्यविशेषैवेदणानि । पुटपाकाः कुष्टिकानां कणिकावेथ्यन्ते, मालावत। वेष्टिमानि वेष्टनतो निष्पाद्यन्ते, पुष्पमालाल- ष्टितानामग्निना पचनानि । अथवा-पुटपाकाः पाकविशेषनिम्चूसकवत्। पूरिमाणि यानि पूरणतो जवन्ति, कनकादिप्रति- पन्ना औषधविशेषाः। उल्लयो रोहिणीप्रनृतयः, वडयो गुसूचीप्र. मावत ।संघातिमानि संघातनिष्पाद्यानि,रथाऽऽदिवत्।नपदय.
नृतयः।कन्दादीनि प्रसिद्धानि। एतरिच्छन्ति एकमपि रोगमु. मानानि लोकैरन्योऽन्यमित्यर्थः । (तालायरकम्मं ति) प्रेकणक
पशमयितुमिति । (निबछाउपत्ति)प्रकृतिस्थित्यनुभागबम्धापे. कर्मविशेषः । (तेगिछियासावं ति)चिकित्साशालामरोगशालां,
क्षया । (बद्धपपसिप त्ति) प्रदेशबन्धापेक्कयेति । ( अंतनिघाइ. चैद्या भिषग्बरा श्रायुर्वेदपाठकाः, वैद्यपुत्रास्तत्पुत्रा एव,
पति) निर्धातितान्तः। ( सव्वं पाणाश्वायं पक्खामि ) (जाय त्ति) झायकाः, शास्त्रानध्यायिनोऽपि शास्त्रज्ञप्रवृनि
इत्यनेन यद्यपि सर्वग्रहणम, तथापि तिरश्चां देशविरतिरेव । दर्शनेन रोगस्वरूपतश्चिकित्सावेदिनः । कुशवाः स्ववितकीश्चि
इहाथै गाथे. कित्सादिप्रवीणाः। (वाहियाणं ति) व्याधितामांविशिष्ठचि. सपीमावतां, शोकाऽऽदिविप्नुतचित्तानामित्यर्थः । अथवा-वि
"तिरियाणं चारित, निवारियं अह जतो पुणो तेसि । शिष्टा प्राधियस्मात्स व्याधिः स्थिररोगः कुष्ठाऽऽदिः, ततां
सुब्बाह बयाणं पिय, महब्वयारोहणं समए ॥१॥ ग्लानानां कीणहर्षाणामशक्तानामित्यर्थः। रोगितानां संजातज्व
न महब्वयसम्भावे, विचरणपरिणामसंनयो तेसिं । रकुष्ठाऽऽदिरोगिणाम्, आशुघातिरोगाणां वा (ओसहमित्यादि)
न बहुगणाण पिजश्रो, केवल संतपरिणामो॥२॥" इति। औषधमेकद्रव्यरूपं, भेषजं व्यसंयोगरूपम् । अथवा-औषधमे- इह यद्यपि सूत्रे उपनयो नोक्तस्तथाऽप्येवं अष्टव्यःकानेकाव्यरूपम,भेषजं तु पथ्यम्। भकं तु भोजनमात्रम, प्रति- "संपन्नगुणो विजओ, सुसाहुसंमग्गिवाग्जिो पायं । चारककम्म प्रतिचारकत्यम् । (अलंकारियसनं तिनापितक । पाव गुणपरिहाणि, दहरजीबो व मणियारो ॥१॥" त्ति।
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दहर
अभिधानगजेन्डः ।
दमदत अयवा
कशेमबभून जोत्या दर्भदाभेद इत्यन्ये । ज्ञा० १ श्रु० २ ० । "तित्थयरवंदणत्थं, चनिओ नावण पावए सगं ।
"कशाः काशाः वल्वजाश्च, नयाऽन्ये तृणरोमशाः । मौञ्जाश्च जह दहरदेवेणं, पत्तं वेमाणियसुरस । ॥" इति।
शाहलाश्चैव, पर दीः परिकीर्तिताः॥१॥"इत्युक्तेषु काशा
दिपु षट्सु तृणेषु, वाच । झा० १ श्रु। १३ अ । सेमुकत्र ह्मणस्य उत्तरभवजीचे, आo क) । ( ' सेमुय' शब्दोऽत्र अपव्यः )
दब्नपुप्फ-दर्नपुष्प-पुं० दकरसंपविशेषे,प्रशा०१पद । प्रश्न दहरवळिसग-दतुरावतंसक-न० । दर्दुरदेवाधिष्ठिते विमाने, दब्जय-दर्जक--पुं०। समूले कुशे, भ०१७ श० ११०। झा० १० १३ अ०।
दभवण-दर्भवन-न । दर्भकानने, “जातणाहिं किं ते असिदप-दर्प-पुं० । दृप्-घ, अन् वा । निष्कारणेऽनाचारे, व्य०४
वर्ग दम्भवणं ?।" दर्भवनं प्रतीत, दर्भपत्राणि वेदकानि, सदग्रा.
णि च भेदकानि भवन्तीति तद्धातनाहेतुत्वनोक्तम् । प्रश्न.१ १०। अरच्या कामभोगे, नि चु०१० । माने, स. १ समः । धृपलायाम्, भ० १२ श० ५ ० । अधमे गौण। ब्रह्मणि,
आश्र द्वार । दो देहदप्तता, तजनकत्वादस्य दर्प इत्युच्यते । अाह च--"रमा
दब्जवत्तिय-दर्नवतित-पुं० । न. । दर्मिणः शरीरविकर्तने, पगामं न निसेवियम्वा, परं रसा दित्तिकरा हवति । दित्तं च दशा० ६ ० । कामा समभिवंति, धर्म जहा साफतु पक्खी ॥ १॥" दमविज्जा-दर्भविद्या-स्त्री० । रोगप्रतीकरणविद्याभेदे, अअथवा-दर्पःसौजन्याऽऽद्यभिमानः, तत्र भवं चेदं न हि प्रश
| न्या दर्जे दर्भबिषया जवति विद्या, यथा दभैरपमृत्यमान आमान्याद्वा पुरुषस्यात्र प्रवृत्तिः सम्भवतीति दर्प एबोच्यते !
तुरः प्रगुणो भवति । व्य० ५ न.। तमुक्तम्-"प्रशान्तवाहिचित्तम्य, सम्भवन्त्यखिलाः क्रियाः । मैयुनव्यनिरोकण्यो, यदि रागोन मैथुने ॥२॥" प्रश्न०४ संव.
दभियायाण--दाायण-पुं० । दर्न गोत्रापत्ये, “चित्ता ण. द्वार । स्त्रीणां मानमर्दनादुत्पन्ने गर्व, उत्त. १ अ०। धावनव- खत्त किगोत्र पाते । दाभयायणसगात्त पम्पत्त। सू० लगन मेपनाऽऽदी, जीन। पञ्चाधि० । "दप्पो पुण होश्वम्ग- प्र० १० पाहु । जं० । चं० २०।। णाईयो।" इति । स्था०१०म०।" जो अगवायामजोग्गं दम-दम-पुं०। दम-घञ् । शन्द्रियनिग्रहे, प्रश्न. ४ संघ द्वार । वगणाऽऽदिकिरिय करेति णिकारणे सो दप्पो।" नि. चू०१ साइन्जियोपशमे, नं। प्राचा० । उन। दएमे, बाह्येन्द्रियाणां उ०। प्रमादे, नि० चू० ।।
ध्येयविषयव्यतिरिक्तच्यो निवर्तने, “निग्रहो बाह्यवृत्तीनां, दम "दस दारा दप्पे" इत्यस्य व्याख्या
श्त्य निधीयते ।" इत्युक्ते बाह्यन्छियच्यापाररोधे विकारहेतुमवायामवग्गणाऽऽदी, णिकारणधावणं तु तह चेव ।
निधाने ऽपि मनसः स्थैर्ये, “कुत्सितात्कर्मणो विप्र!, यश्च चि.
त्तनिवारणम् । स कीर्तितो दमः" इत्युक्त कुकर्मच्यो मनसो कायाऽपरिण यगहणं, अकपों जं वा अगीतेणं ॥४६॥
निवारणे, कदमे, दमने च । वाच०। घायामो जढा-लगुडिभमाझणं, उवायकहाणं बम्गणं, मल्लुव
दमअ-पुं० । देशी-दरिने दे० ना० ५ वर्ग ३४ गाथा । त् । आदिसहग्गहरणा बाहुजुद्धकरण, वीवरामवणं । णिकारणेण धावणं खड़यप्पयाणं । दप्पो गतो। नि० चू०१ उ०।।
दमग-दमक-पुं० । इस्त्यश्वाऽऽदीनां प्रथमं बिनयमाह के, नि. दप्पा-दर्पण-पुं० । पुरुषप्रतिबिम्बदर्शनाऽऽधारे, वाच । श्रा
मक-पुं० । पुर्नगे, रके, व्य० ३ ० । दरिद्रे, नि. चू०१५ दर्श, शा. १७०१ अ.। पं०५०। नि० चू० । प्रश्न । जं। आ0 चू० । रा०।
न। प्रा०म० । श्रा० क० । वृ ।का० । विशे० | प्राव० ।
जमको नाम दरिनो भूत्वा यः प्रवजति । बृ० १ ००। दप्पणिज-दर्पणीय-त्रि० । बल करे, उत्साहवृद्धिकरे च ।
दमगभत्त-मकभक्त-न० । रङ्केभ्यो दीयमाने भक्त, मि०० स्था०६ ग० । कल्प० ।ज्ञा० । औ० । प्रका० । जी० । दप्पपडिसेवणा-दर्पप्रतिसेवना-स्त्री० । भागमप्रतिषिद्धप्रा
| दमघोम-दमघोष-पुं० । शिशुपालपितरि, ज्ञा० १ श्रु० १६ णातिपाताऽऽद्यासेवायाम, स्था० १००। नि० चू० । (वि. अ० । बसुदेवस्वसुः पत्यौ, सूत्र. १ श्रु०३ अ.१ उ०। स्तरस्तु 'पमिसेवणा ' शब्दे बयते)
दमण-दमन-न । उपतापे, प्रश्न०१आश्र• हार । पशूनां दप्पिय-दर्पित-त्रि० । दृप्ते, प्रश्न १ आश्र द्वार । दद्विराध
शिक्षाग्रहणे, प्रश्न. ३ आश्रद्वार। का भवन्ति झानाऽऽदीनाम् । नि० चू०१०। दर्पयति, प्रश्न दमणग-दमनक-पुं० । पुष्पजातिविशेषे 'दवना' इतिख्याते, ३ श्राश्र० द्वार।
प्रश्न. ५ संव. द्वार । रा० । गन्धव्यविशेषे च । प्राचा. १ दप्यूझ-दर्पवत-त्रि० । “प्राविडोद्धास--वन्त-मन्तेसेर-मणा श्रु०१०५ उ० । प्रज्ञा । ज्ञा० । आ० म०। "दमणगपुडाण मतोः" ॥८।२॥१५६ ॥ इति मतो स्थाने उल्लाऽऽदेशः । रप्ते, वा।" जं०१वक.। रा०। प्रा०२ पाद ।
दमण-दमना-खी। गम्भाव्यविशेषे, आ० म०१०१ दन्ज-दर्भ-पुं० । 'भ' ग्रन्थे । घश् । वाच । सम्ले कुशे, खएड। समूला दी, अमूनाः कुशाः । ज०८ श० ६ १०० दमदंत-दमदन्त-पुं० । स्वनामख्याते दस्तिशीपकपुराधिपती, माप्राचा०नि० विपासना अन्त०। प्रशा०। दभैरग्रस्तः । येन हस्तिनागपुरं रुदम् । ग०।
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(२४१६) दमदंत प्रन्निधानराजेन्द्रः।
दया अथ दमदन्तसंबन्धो यथा-" अस्थि तिबुद्धपुरं पिव विबुह
चपरभवदुर्गगणिज्जं मुणिवरावमाणणं किं तए कयं?,तश्या कि जणसमा उबटुणं व पुन्नागपमिपुन्नमयारोवरि दिप्तरयक.
तुमं कत्थ वि गो प्रालि, किं वा तस्स परक्कम गीयमाणं विसीसं हस्थिसीसं नाम नयरं। "जत्थ धुवं वणियाणं, ववहार
न तए सुयं, जश्या तेन बोढयं हत्था हस्थिणाचरं ?, अणेण य पराण अइसभिकाणं। वधियारयाण लालं, धणो वि न पावर रायरिसिणा पुढिव पंचावि वयं जिया, संप पुण पंच वि कह चि॥१॥" तत्थ समरचत्तरवेरिवारपोरियदतिभम्गदंतो
इंदिया । धरिओ य पुरूरो महव्ययभारो, अतो को तं निज्जि. दमदंतो नाम राया। "कित्ती रणहयरिनवय-संनूया जस्स
णिउं सकर, तो सो वि रायरिसी त दुम्सई परिमहं सहने चंदकरसरिसा । मउझ करेइ पुजण-जणमणदहणं हुयासु व्य
संवेगावसेण झाणंतरिय पमित्रज्जिय गुणसेणिमारुहिय स॥१॥" अन्नया सो दमदंतराया तिखंडभरहेसरं दुसरवैरि
पत्तकेबलनाणो सिवपुरं गो। "वुत्तंतमेयं दमदंतसाहुणो, रायपमिवासुदेव सेवे रायगिहं नगरं गो। तम्मि समए ह
चित्ते निसित्ता सममित्तसनु हो । संवेगरंगंगणनहसीलया, स्थिणा नराश्रोनीहरिऊण सपरियणेहिं पंमवेहिं तस्स देसोग्लं हवेह सिमि परिणेह लीलया ॥१॥" ॥७॥ ग.२ अधिक लहिय बसिनो। इमं सरूवं दमदंतरमा रायगिहाओ वन्निएण श्रा क० । प्रा० चू० । आ० म०। सणिय परमं पोसमञ्चहतेण नासियदिन्नेणं नियसिनेण सह | दमदमाय-दमदमाय-नामधा० । आमम्बरकरणे, अदमद् दमहत्थिणानरं समंतो,जंबृदीवं पि व लवणसायरेणं, वेढियंात.
द्भवति । “अबक्तानुकरणादनेकस्वरात कृजस्तिना अनितौ प्रो सोयनुहेणं पंडवे विस्मवेइ-अम्ह देसो तुम्होर्ह वीरजणग
द्विश्व" ॥ ७।२।१४५ ॥ (हैम०) इति कान्प्रत्ययः, दमवद्रहणिज्जेण उलेण उवलो,न बनेण । जओ-"छलमुचियं की
विचनं च । “माच्यादौ" ॥७।२। १४९॥ (हैम.) इति वाणं, कीबाण वधं णियविरहिए वाणे । बलवताण नराण, न
तलुक । “डित्यन्त्यस्वराऽऽ” ॥२।१।११४ ॥ ( हैम.) एस मग्गो सुर्वसाणं ॥१॥" ता जइ तुम्हाण पय तुयदम
श्त्यलुक । “माचलोहताऽऽदित्यः पित" ॥३।४ । ३० ॥ बलमत्यि, तो पुराओ निम्गतूण दमपरक्कमपश्चसिहाए सबभ. (हैम०) इति क्पचप्रत्ययः । “क्यकोर्थलुक" ॥८।३। लीलमुबहह । तो एकविहं दूरण तजिया मवि पंमवा
१३७ ॥ इतिक्यजन्तसम्बन्धिनो यस्य लुक । 'दमदमाइ ।' भयभीया न नीहरिया सनयराश्रो जुकिछ । तो बहुदि.
'दमदमाअइ ।' दमदमायति । प्रा. ३ पाद । ण रोहणनिविझो दमदं नो हस्थिसीसपुरं गओ एवं चि
दमय-मक-पुं० । कर्मकरे, वृ. १०। तिऊण-" स्खत्तियकुलम्भवाणं, समुहपत्ताण सिंहपोय व ।
दमयंती-दमयन्ती-स्त्री० । भीमपुध्यां नानृपमहिप्याम, ती०। जुज्कं काउं उचियं, अन्नद अजस्रो फुरड लोप ॥१॥” इओ य नापणं रज्जं पालयतो दमदतो काबयदिह वरकते
(कथाऽन्यव) हिं सिरिनेमिनाहसीससिरिधम्मघ.ससूरिवयणपहसंनूयपभू- दमसायर-दमसागर-पुं० । दम इन्द्रियदमोऽर्थात् चारित्रमा द. यसंबेगरसरंगततरंगिणीप धम्मदेसणाए एहाऊण विगय- | म एव दुस्तरत्वात् सागर इन दमसागरः। तरितुमशक्यत्वात पावसंतावो रजमकजं, भमारे कारागारे, पेयसीओ रक्ख. सागरकल्पे दमे, उत्स० १६ अ०। सीओ, विसए विसे, चमरंगसाहणं सुग्गइसाहणं च मन्नतो | दमिम-द्रविड-पुं० । देशनेदे, तद्देशस्थे च । चाचा नं० प्रव० संवेगं गो संसारसुखमुकिय वज्जियसव्वसाबज्जकज्ज
दमिल-मिल-पुं० । अनार्यक्षेत्रे, तज्जे मनुष्ये च । प्रज्ञा० १ मणबज्जं पबज्ज पडिज्जा । तमो रायरिसी कमेण गीयत्यो हो विहरतो पंमवानिए हथिणानरे गोउरारे
पद । नि. चू० । सूत्र० । प्रव.। मेरु ब्व निप्पकंपो पडिमं विभो । तम्मि समए रायवामियाए | दामझा-द्राभला-खा० ।
| दमिझा-द्रमिला-स्त्री० । अनार्यदेशोत्पन्नायां योषिति, भ० ए निग्गच्छतोह पंचहि मवेहि पलोइय वाहणोहिं उत्तरिय न-[ श०३३ न०। मंसिओ जावसारं मणीसरो। अहो! दुकरकारो एस राय-दम-दमिन-jo|दमो विद्यते येषां ते दमिनः । उपशमवत्सु रिसी श्य अभिनंदिप पुरो पस्थिपसु तेसु तत्थ अागो साधष, उत्त. १६ अ । जितेन्छिये, उत्त० २२ अ०। उवृत्त. मपरियणो पयईए दुज्जणो दुज्नोहणो,तं मुणिदं पिक्खिय अ
| दमनशीले च । उत्त०१६ अ० । णेण अम्हाणं कुवपुरिसागयं कित्तिसम्बस्समक्हरियं, पुवा
|दमीसर-दमीश्वर-पुं० । दमो विद्यते येषां ते दमिनो जिते. वश्रमणुसरंतो माउसिंगेण तामे, तब्भावं मुणतेण तप्परियणे पाहाणखडेहिं आदणिकण लिदरासी कओ, रायवामीए
जियाः, तेषामीश्वरो दमीश्वरः । उपशमवतां साधूनामैश्वर्य
धारिणि, उत्त० १६ अ०। बलिपण जुहिडिररना तत्थ तं मुणिमपिच्छतेण तटाणे लिट्रछुरासिं पलोयतण नियपरियगो पुट्ठो-कहि विहरियो स मह.
दमेयर-दमितव्य-त्रि० । वशीकर्तव्ये, उत्त.१०। या धम्मकपपदुकप्पो । तेणावि दुज्जोहणतंतोतप्परो व.दम्म-दम्य-
त्रिभनयोम्ये, प्राचा०२ श्रु०१ चू०४ अ.२ तो। तं सुणिय व अधिई कुणतो पायकेहि मिठुरासिं दूरे| उ० । दश । श्राक० । काराविय अंगसंवाहगेहितो अंगं सज्जं निम्माविय सय तं | दम्म-पुं० । पणषोडशको वाच । मुणिवरं खामिय पत्तो पासायं जुहिद्विरनरवरो। दमदंतो वि
दय-न । देशी-जले, शोके, देना०५ वर्ग ३३ गाथा। संवेगवेगेण एवं भावेर-"एस मे सास भी अप्पा, नाणसणसंजुप्रो । सेसा मे बाहिरा भावा, सब्वे संजोगलक्खणा ॥१॥"
| दयपत्त-दयापाप्त-त्रि० । प्राप्तकरुणागुणे, औ० । दयाकारिण तो स कोरवेसु अबकारकारिस, पंमवेसु य नबयारपरेसु सम
च । स्था०६०। रा०। चित्तविति धार। प्रहहिहिरराम्रो सेवायसराऽऽगयं दुजो-दया-दया-खा
जाहारराम्रो सेवायसराऽऽगयं दजो-दया-दया-स्त्री. । दय-निदा-अछ । " यत्नादपि परक्लेश, दण एव निम्मत्या-परे कुगर!अंगीकयमायंगायार!] तं या हदि जायते । इच्छा भूमिसुरधष्ठ, सा दया पारका
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(२०५७) दया अभिधानराजेन्डः ।
दरिसपरइय तिता ॥१॥" इत्युक्तलकणे इच्छान्नेदे, बाच० । कृपायाम् ,हा०२४ | दराजिमिम-दराजिमित-त्रि० । अनुक्ते, बृ० ३००। अष्ट । प्राचा० । स० सूत्र । अनुकम्पायाम् , दश० १ ० १७० । भाव । प्रश्न । जीवरक्षायाम , दश०१०च्या
दरदिम-दरदत्त-त्रि । ईषद्वितीर्ण, पञ्चा० १०वि०॥ नावस्वपरप्राणरक्षणायाम्, अष्ट० २० अष्ट० । दु:खितजन्तु
दरपटावित-दरप्रस्थापित-त्रिका अर्क प्रस्थापिते,नि.चू०१६ उ० दुःखत्राणानिला, ध० १ अधि। “न तहानं न तद्ध्यान, | दरमत्त-पुं०। देशी-बशात्कारे, दे० ना०५ वर्ग ३७ गाथा | न तज्ज्ञानं न तपः। न सादीका न सा भिका, दया यत्र न विद्यते ॥१॥" संथा।
दरवंदिय-दरवन्दित-न। द्वाविंशइन्दनकदोपे, " देसीकह
वित्तंते, कदेति दरवंदिप कुंचो।" देशीकथावृत्तान्तान् यत्र क. दयाइअ-न० । देशी-रहिते, दे. ना०५ वर्ग ३५ गाथा । । रोति तरि परिकुश्चितम् । वृ० ३७०।। दयालु-दयालु-त्रि० । दव-पालुच् । कृपायुक्ते, वाच०। दरविंदर-पुंoादेशी-दीर्धे, विरने व । देखना०५ धर्ग५२ गाथा।
दयावत्-त्रि० । “प्राल्विालोखास-वन्तमन्तेत्र-मणा मतो" दरसण-दर्शन-न० । मते, यथा-"पागारमावसंता पा, घरसे ।। ७ । २ । १५ए ॥ इति मतोः स्थाने प्रामु इत्यादेशः।
पा विपन्वया । इमं दरसणमाव, सन्नदुक्खा चिमुचई मा०२ पाद । सघृणे, दर्श०२ तव । सश्वानुकम्पके, ध०
॥१॥" अनु०।
॥५॥ अतु। र० । इखितजन्तुत्राणाभिलाषुके, प्रव० २३६ द्वार । दरसज्जि -दर्शनीय-त्रि० । इष्टुं योग्ये, • प्र०१८ पाहु । संप्रति दशमं गुणं प्रयिकटयिषुराह
पश्यचक्षुन भ्राम्यति तस्मिंश्च । भ.१श० ५ उ०। मूलं धम्मस्स. दया, तयागयं सव्वमेवऽपुट्ठाणं । दरहिंपिय-दरहिरिमत-त्रि.। अर्द्धपर्यटिते, वृ०४ १०। सिर्फ जिणिदममए, मग्गिज्जइ तेणि दयालू ॥१७॥ हरिश-पं0 देशी-हप्ते, दे० ना० ५ वर्ग ३५ गाथा। मूलमाचं कारणं धर्मस्योक्तनिरुक्तस्य दया प्राणिरहा । यदुक्तं
दरिद-दरि-त्रि० । धनविहीने, स्था० ४ ग. ३..। भनीश्रीभाचाराणसूत्रे-"से वेमि जे धईया,जे पडुप्पना, जेय श्रागमिस्सा घरहंता भगवंता ते सखे पवमाक्खति, एवं भासंति,
श्वरे, दुस्थे च । स्था० ३ ठा० १०.। एवं पनवेति, एवं परूवयति-सब्वे पाणासन्वेभयासवे जीवा
दरिदकुल-दरिकुन-न । अनीश्वरे, स्था० ग.। निनसव्वे सत्ता न हंतचा,न वज्कावेयवान परितावेयब्धा, न सव.
कुझे । कल्प०१क्षण। हधेयवा, एस धम्मे सुके निश्ए सासए समिश्च स्रोयं स्नेयन्नेदि
| दरिद्दबेर-दरिस्थचिर-पुं०। कृताङ्गलानगरीवास्तव्ये समहिपाए।" इत्यादि । यतोऽस्या एवरक्षार्थ शेषव्रतानि तथा चाऽवाचि-"अहिंसेष मता मुख्या, स्वर्गमोक्षप्रसाधनी । अस्याः
ले साऽऽरम्भे स्वनामख्याते स्थबिरे, मा०म० भ०२ खम्म । संरक्कणार्थ च,न्याय्यं सत्याऽऽदिपालनम ॥१॥" इति। अत एव
दरिद्दीय-दरिद्रीजूत-त्रि. । अदरिने दरिलतां गते, स्था० ३ तदनुगतं जीवदयासहजावि, सर्वमेव विहाराऽऽहारतपोवैयावृ.
ठा० १ उ०। त्यादि सदनुष्ठान, सिद्धं प्रतीतं,जिनेन्समये पारगतगदित
दरिय-दृप्त-त्रि० । हप-क्तः। "मरिदृप्ते" ॥८।१।१४४ ॥ रत. सिकान्ते । तथा चोक्तं श्रीशय्यभवसूरिपाद:-" जयं चरे जयं
शब्दे ऋतोऽरिरादेशो नवति । 'दरिमो' । प्रा०१ पाद । "हप्ते" चिके, जयमासे जयं सर । जय भुजंतो भासतो, पावं कम्म
।।शए। दृप्तशरद शेषस्य द्वित्वं न भवति । "भम धम्मि. न बंधर ॥१॥" (दश०) इति। अन्यैरप्युक्तम् "न सा दीक्षा न सा
प! बीसत्थो, सो सुणश्रो अजमारियो तेण । गोदाराईकच्छभिका,न तहानं न तत्तपः। न तद्नानं न ध्यान,रया यत्र न कुंज-वालिमा दरियसी हेण ॥१॥" (इति गाथासप्तशत्याम)प्रा. विद्यते ॥१॥" इति । मृग्यते अन्धिध्यते तेन कारणेनेह धर्मा- २ पाए । गर्षिते, वाच। औलादोऽऽध्माते,रा. प्रभ०।"द. धिकारे दयाबुदंयाशीलस हिकिल स्वल्पस्याऽपि जीवध- रियनागदप्पमहण।।" हप्तनागदर्पमधना । प्रश्न.४ प्राभा द्वार । स्य यशोधरजीवसुरेन्ऽदत्तमहाराजस्येव दारुणविपाकमवबुरियम-नामह-पु०। चाशए ध्यमानो न जीववधे प्रवर्तते इति ॥१७॥ध०र०।
वपाकमवारियम-प्रसह-jo। विशिए कासे दपात्पूजायाम, प्राचा दयावण-पुं० । देशी-दीने, देना०५ वर्ग ३५ गाथा।
त्रु०१० १ ० १ उ.।
दरिस-द-(धा० चाक्षुषझाने, ज्वा०-पर०-सक-अनिदयामूरि-दयासूरि-पुं० । द्रव्यानुयोगायोपदेशके तपागच्चप्र
र । पाच । "वृषाऽऽदीनामरिः" ॥ 0।४।१३५ ॥ इति रपे. धाने स्वनामख्याते सरी, व्या० १५ माया।
ररिः। 'दरिसई।'प्रा०४ पाद। पश्यति। मदर्शत, भद्राकीत् । दर-दर-अव्य०। ईषदथें, माय च । "दरापे"॥ER बाचा "श दर्श सुरूपां खीम।" मा० का। ।११५॥ दर इत्यव्ययमका ईषदर्यै च प्रयोक्तव्यम् ।"दरवि. दरिसण-दर्शन-न । “शर्षतप्तबजे धा" ॥८।२ । १०५ ॥ असियं ।" अर्द्धनेषता विकसितमित्यर्थः । प्रा०२ पाद। प्रव०।
इति संयुक्तस्यान्त्यव्यजनात्पूर्व इकारो धा भवति । 'दरिसणं ।' विशे० । न्यूनतायाम्, दरा द्विविधाः । तद्यथा-पेट्टदरा, धान्य.
'दसणं।' प्रा०२पाद । सम्यक्त्वे, प्रा.कामातुका मागमे, भाजनदराश्च । पेहमुदरं,तद्रूपा दराः पेट्टदराः। धान्यभाजनानि
पनि सूत्र.११.१०२ उ०। संवेदने, स०१.सम०। प्रकाश कटपल्यादयः, तान्येव दरा धान्यभाजनदराः। १०१..
ने, स०५ अङ्ग। प्रासोकने, रा०ा वाक्ये च । स०६ भक। नि० चू० । अझै, ३० ना०५ वर्ग ३३ गाया।
दरिसणारश्य-दर्शनरतिक-त्रि.। दर्शने भाखोकने रतिर्यस्मिदरंदर-पुं०। देशी-उहाले, दे० ना०५ वर्ग ३७ गाथाr
न स दर्शनरतिकः । दिदृक्षणीये, रा०।
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( २४५८) दरिसणावरणिज्ज अभिधानराजेन्द्रः ।
दवदप्पसील दरिसणावरणिज्ज-दर्शनाऽऽवरणीय-
नदर्शनं सामान्यार्थ- द्रव-पुं० । द्रु-अण् । रसे, वेगे, गती, पन्नायने, परिहासे, बा. बोधरूपमावृणोतीति दर्शनाऽऽवरणीयम् । दर्शनाऽऽबरणकर्मणि, चः । जले, पि० । विकृति विशेषे, भाव. ६ अ० [सप्तदशबिधे स्थानकं च-"दसणसीने जीवे, दसथायं करे जे कम्मं । संयपेच, कर्मकाविन्यज्वणकारित्वाद् विलय हेतुत्वाचा भा
तं पमिदारसमाणं, सणवरणं भवे जीधे ॥१॥” इति । स्था. चा. १५० १०७ उ० । सूत्र । पानके, वृ० १०० । यच सौ. २०४ उ० । अस्य सर्वा वक्तव्यता 'कम्म' शब्दे तृतीयभागे वारं वाऽऽदिकमझेपकृतं, यश्च दुग्धतैलवसाट्रबघृताऽऽदिक २५६ पृष्ठे अष्टव्या)
ले पकृतं तदुभयमपि भवमित्युच्यते । वृ. ५०नि०.चू० । दरिमाणिज्ज-दर्शनीय-त्रि० । दर्शनाय चायापाराय हितं
गादे, दे० ना.५ वर्ग ३३ गाथा। दर्शनीयम । औ०। यं पश्यंश्चक्तया श्रमं न गच्छति तस्मिन.दवकर-द्रवकर-त्रिका परिदासकारिणि, न०एश० ३३ उ.। स० । का० । नि० । बिपा० । दर्शनयोग्ये, जं. १षक । रा०।
औ०। प्रशा० । रूपातिशये, आ०म० १०१ वराम । आचा०। दवकारी-द्रवकारी-स्त्री० । परिहासकारिण्याम् , ० ११ श. रा० । सू० प्र० । औ० । शोभने, सूत्र. २ श्रु०१ अ० ।
११ उ०। दरिसयंत-दर्शयत-त्रि० प्रकटयति, स० २ अङ्ग ।
दवगंधित्त-द्रवगन्धित्व-न। द्रवस्य गूथस्य कुथितनकाऽऽदे. दरिसावण-दर्शन-न० । कृपायां प्रेरणे, आव०१०
रिव गन्धो यस्यास्ति । तस्मिन्, ध०१ अधि० ।
दवगुम-द्रवगुम-पुं० । अपिण्डीकृते अद्रगुडे, प्रश्न०४ भाश्र. दरी-दरी-स्त्री०। पर्वतकन्दराविशेषे, भ० ३ ० २ उ० । झा । जं.। प्राचा० । आव० । शुगालाऽऽद्युत्कीर्णनूमिविशेषेषु, ।
द्वार । पं० १०। झा०१ श्रु०१ अ०भ०। मूषिकाऽऽदिकृतायां लघ्व्यां खड्डा-।
दवग्गि-द (दा) वाग्नि-पुं० । दवस्य बनस्य अग्निः दवाग्निः। याम, जं० २ वक०।
घाच० । “वाययोत्स्नाताऽऽदायदातः" ॥ ८ । १। ६७ ॥ इति दरुम्मिट्स-न० । देशी-घने, दे० ना० ५ बर्ग ३७ गाया।
आदेराकारस्य अद्वा । "दवगी। दावगी।" प्रा.१पाद । वनो.
गवेऽग्नी, ग्रौल। प्रश्न । उत्त०। "दवग्गिजालाभिहए।" जी0 दल-दद-धा० । दाने, “दस्थडः, मस्य लः । 'दल ।' सूत्र०१
१ प्रति० । " दर्वाग्गणा" दबाग्निना वह्निज्वालनेन निर्दयं यथा भु० ३ ०३ उ.1 आचा० । अंग०।
भवति । प्रश्न १ आश्र० घार। दल-न० । दल-अच् । पत्रे, विशे० । नागे, पं० सं०५ द्वार । दवगिकम्प-दवाग्निकर्म-ना केत्ररक्षानिमित्तं बने दवदाने,प. उपादानकरणे, पञ्चा० ७ विधः । ध। जिनभवननिष्पस्यङ्गके, | थोत्तरापथे दग्धे हि तत्र तरुणं तृणमुत्तिष्ठति । पञ्चा०१ बिवा दर्श. १ तव । शनच्छे दे, अपकृष्टव्ये, तमाल पत्रे, उच्च-दवगिदाण-दवाग्निदान-न । भूमिषु तरुण तृणरोहणार्य बने तायाम्, पड़े, च । वाच० । अपडे, विशे० । सत्सेधव- क्रियमाणे दचकर्मणि, ध०२अधिः। स्तुनि च । पुं० । वाच ।
दवग्गिदावणया-दवाग्निदापनता-स्त्री० । दवाग्नेर्दवस्य दापनं दलयित्ता-हवा-अव्यः । दानं कृत्वेत्यर्थे, आचा०२ श्रु०३चू०।।
दाने प्रयोजकत्वमुपलवणत्वादानं च दवाग्निदापनं, तदेव प्राकदयंती-दलयती-स्त्री. घरट्टेन गोधूमाऽऽदिचूर्णयन्त्याम, पिं०।।
तत्वात् "दवगिदावणया।" कमेत उपभोगपरिजोगवतातिदलयमाण-ददत-त्रि० । दानं कुर्वति, स्था० ३ ० १००। बाररूपाणां पश्चदशकर्मादानानामन्यतमे, ( म०८ श०५ उ०। " हत्थतालं दलयमाणे।" हस्तेन तामनं हस्ततालः, तं "द.
भा०) क्षेत्राऽऽदिशोधमनिमित्तं बनानेबितरणे, उत्त०१ अ. नयमाणे " ददद् यष्टिमुष्टिलकुटादिभिर्मरणाऽऽदिनिरपेक आव०। आत्मनः परस्य वा प्रहरन्निति जावः। स्था.३०४०० ।। दवण-दवन-
नयाने, सूत्र.१ श्रु०१० । "अस्थादाणं दनमाणो त्ति।" अर्थादानं अव्योपादनकारणमष्टावधामग्ग-दवनमागे-पु.। दवनमिति यानं, तन्मागों दवनमा. अनिमित्तं ददत प्रयुजान इत्यर्थः । स्था० ३ ग०४ उ० । गः। तस्मिन् , सूत्र० १ श्रु० १ अ.। दलागणि-दनाग्नि-पुं० । दलानि पत्राणि तेषामग्निस्तहहनप्र
दवदप्पसील-द्रुतदर्पशील-त्रि• । भसमीक्ष्य कारिणि, पं० वृसो बह्निः तस्मिन् , स्था००।
व०४द्वार। दनिअ-न० । देशी-निकूणिताक्षे, दे. ना.५ वर्ग ५२ गाथा।
भासइ दुधे दुभं ग-रछए प्रदरितो व गोविसो सरए । दलिद-दरिष-पुं० । दरिषा-अन् आलोपः। वाच०। हरि
सव्वदुयदुयकारी, फुट्ट व विओ वि दप्पेणं ॥४६॥ सादीनः"॥८।१।२५४॥ इत्यसंयुक्तस्य रस्य लः। प्रा.
दुतं द्रुतम् असमीक्ष्य संभ्रमावेशवशाद्यो नापते,यश्व इतं इतं १ पाद । निर्मने, दीने च । वाच ।
गच्चति । क श्वेत्याह-शरदिदर्पित इव दोगुर व गोवृषो घ. दनिय-दलिक-न । यां प्रकृति बध्नाति जीवस्तदनुभावेन प्रकृ.
श्रीवर्दविशेषः। शरदि हि प्रचुरचारिघ्राणतया,मकिकाऽऽापज्वस्यन्तरस्थं दनिकम् । तस्मिन्, स्था०४ ठा०२ उ० । पं.सं.। रहिततया च गोवृपो मदोद्रेकाहिलः पर्यटतीत्येवमसापरमारावात्मके, पं० सं०५ द्वार । वस्तु दक्षिकं यं योग्यमह- बपि निरङकुशस्त्वरितं त्वरितं गच्छति, यश्च सर्वतद्तकारी मित्यनान्तरम् । श्रा० म० १ ० २ खएम । विशे० । प्रत्युपेकणाऽऽदीनां सर्वासामपि क्रियाणाम्रतित्वरितकारी, यश्व दव-टव-पुं० । दुनोति-दु-अच । वने, वाच० । बनानसे च।। दर्पण तीवोद्रेकवशात स्फुटतीव स्थितोऽपि सन् गमनाऽऽदिका दर्श. १ तच्च । प्रव। उत्तामाबे-अप् । उपतापे, घाच.।। क्रिपामकुर्वन्नपि श्त्यथः । एप दुतदर्पशील उच्यते। बृ० १०॥
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दववव
दवदव-ततम् - अव्य०। त्वरिते, दश०१ श्र० । नि० चू० । वृ० । दवदवचारि (ए) - दुतदुतचारिन् - पुं० । बुतगमनशीले, दशा० १०० । आवश्। सः। आ० चू । ( ' असमाहिठाण' शब्दे प्रथम पृष्ठे प्रतिपादितमस्य स्वरूपम) दवदारण- दवदान - न० दवस्य दातृणाऽऽदिदहननिमित्तं दानं वितरणं दवदानम् । प्रव० ६ द्वार । अरण्ये श्रग्निप्रज्वालने, ध० २ अधि । तच्च द्विधा भवति व्यसनात् फलनिरपेक्कप्रवृतिरूपात, फलापेकप्रवृत्तिरूपाद्वा । यथा वनेचरा एवमेव तृrssदावग्नि प्रज्वालयन्ति, पुण्यबुद्ध्या का, यथा मे यदा मरणसमयस्तदा श्यन्तो मम श्रेयोऽर्थ धर्मदीपोत्सवाः करणीयाः अथवा जीर्ण तृणदाता चरन्तीति क्षेत्रे वा सस्यसंपत्तिनिमित्तमनि ज्वालयन्तीति । यदुक्तम्-" वणश्वदाणमरम्ने, दवग्गिवाणं तु जीववहजण
ये।" प्रव० ६ द्वार ध० सूत्र० । दवर- पुं० । देशी-तन्तौ दे० ना०५ वर्ग ३५ गाथा । दवरग- दवरक - पुं०। रज्जौ, झा० १ श्रु० ८ भ० । ० म० । रा० । सून० । दोरके, श्रा०म० १ अ० २ खाम । दवरिया-दरिकाश्री पलाशादित्वा लनाऽऽदिसंस्कृतो विशिष्टावस्थां प्राप्तः सन् घटकलो दवरिकेत्युच्यते । विशे० सू० प्र० । दवविरोह- इनविरोध-पुं० जिन सह विरोधे, घोघ दवमोलवशील त्रि० इतगमनभापणा स्था०४ ठा०४ उ० । वृ० । ( अनुपदमेव दवदपसल' शब्दे २४५० पृष्ठे व्याया दनहु १० देशी श्रीम. दे० ना० वर्ग १६ गाथा दवावण-दापन - न० । दानक्रियायां प्रेरणे, नि० चू० २ ० । दवावेमाण- दापयत्-त्रिए । दानं कारयति, स्था० ४ डा० २३० विविम० धनाध्यदेश मेरे, तो मनुष्येव प्रश्न० १ श्राश्रo द्वार शत्रुञ्जये दशभिः कोटिभिः साकं सिद्धिं गते नृपे, ती०१ कल्पविमदेशोत्पन्नायां योषिति च । तत्र ङीप् । शा० १ ० १ अ० । दक्षिण - प्रविण. [न० । दु-इनन् । धने, व्य० १ ० । पो० । स्था० । काञ्चने, पराक्रमे, बले । वाच० । दविण संहरणाइ-द्रविणसंहरणाऽऽदि - पुं० । पितुर्वेश्मनि निक्कै पाssदौ, कल्प ७ क्षण ।
दविय विक० वः संयमः सप्तदशविधानः कर्मकाि रिविजया ०११ ०७० कर्मग्रन्थिद्रावणो रूवः संयमः, व विद्यते यस्यासौ विकः । सूत्र० २ ० २ ० | आचा । सम्यक् संयमोत्थानेनोत्थिते, सूत्र० १ ० १ ० १ ० । तृणाऽऽदिव्य समुदाय, भ० १ ० ८ उ० । सूत्र० । व्य-१०
(२४) अभिधानराजेन्कः ।
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ति गच्छति तांस्तान् ज्ञानादिप्रकारानिति व्यम् । दश० २ ० तत्तद्गुणानां भाजने, कल्प०५ ण । रागद्वेषरहिते, दश० १० अ० । आचा० सूत्र भव्ये मुक्तिगमनयोग्ये, सूत्र० १० २ ० १ ० । श्राचा० । 'दबिए
दवियकष्ण
सुके, वणिबंधणे । "भयो मुक्तिगमनयोग्यः, " द्रव्यं च नमः इति वचनात् । रागद्वेषविरहाद्वा Soभूतोऽकपायीत्यर्थः । यदि वा वीतराग इति, वीतरागोऽपकषाय इत्यर्थः । तथा चोक्तम्- " किं सक्का वो जुंजे, सरागधम्मम्म कोइ असायी । सेतै वि जो कसा, निगिष्ट् सो वि तो ॥ १ ॥ " सूत्र ० १ ०८ अ० । रागद्वेष कलि कोपवरदितखाद्वा जातसुवर्णवच्छुरुव्यभृते सूत्र० १ ० १६ श्र० १ धर्माधर्माऽकाश पुत्र जाँचका साऽअमके गुणाधारे सूत्र० २ श्रु० ५ श्र० ।
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२४० ॥ एककानां चतुर्विशब्दे तृतीयभागे २ पृष्ठे गतम्)
दवियकप्प- इव्यकल्प-पुं० । कल्पनीयव्ये, पं० जा० । जेण परिग्गहिएणं, दव्वणं कप्पों होति शोकप्पे । तं दव्वमेव कप्पो, कारण कज्जीवयाराओ ॥ सोतिषि बोधो, जनमजीवेय मीसको देव । एतेसिं तु विभागं वोच्छ्ामि महापुपुच्चीए । पं०जा० । (जीवकल्पाऽऽदीनां तु व्याख्या स्वस्वस्थाने) प्रवाजना १मुएमापनार-शिक्कापना ३ - उपस्थापना- संभोजनाए संबसना ६-रूपे षट्के, पं० चू० । ( एते कल्पाः बटुवाकप्प शब्दे ८०४ पृष्ठे द्रष्टव्याः ) दयिकष्प समति खियनं डिह तं भणामिति । सो जन्नती विसेसो, इमोसमासे ॥ सुगति गविसथा बिहा सहि अविएवा अनिदीमुवं ॥ दव्वाणि जाणि काणि ति, गहणं झोए बर्बेति साहूणं । तेसिं तु संभम गाणें न तु माने अत्यं ॥ अविहीऍ दोस पिंडुव-हिसे ज्ज सज्जायणिग्गमपत्रेसो | एकहगदुयचनके, एते सव्वेण पाति ॥ साली बीमादी, आहारे फलहिमादि सबडिम्पि । रुक्खा पुए से जहा एयागमा साहू || होना एनाई पु·ा कर एयाणि ताई तां गच्छे। विगि एसा, जह भणिता पिंमणिजुतीए ॥ आहारोवसेज्जा ण ाद होनि निष्कती । समिर पनि अलगवादी ॥ ओए मिरिचाण होति उप्पी | हिंगुस रमसिए, जीरगमादी य जो जत्य || मा अाए, गावो कीया बस्छ । फलगादी मायरोषितो अम् अट्टाए । मादिति भाणादिया परिवाणी । तह वत्यपायसेज्जा - मरति सो अंतरा चैव ॥ एवं सोहिमेत जपावावया
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(१४६०) दवियकप्प अभिधानराजेन्डः।
दवियकप्प कह उग्गमेड कहवा, सायं कुणतु हिंडतो ?॥ ताणि तु गवेसमाणे, हाथी सव्वेव पाणादी ॥ जो णिक्खमणपसे, कालो जणितो उ वासउदुबके। तम्हा पप्पं परिहर, अपप्प चिय बजतो वि वज्जति हु। दुचकं उबके, विहारों हेमंतगिम्हेसु ॥
अप्पप्पं सातो, विवज्जति ण तं च साहेति ॥ णवमो वासावासे, एसो कप्पो जिणेहि पनत्तो । जिप्फत्ती समणहा, समणट्ठा चेव मातु णिप्फमं । एयस्स संखमाणं, वोच्चामि अहं समासेणं ॥
गहितं होज्ज जयंते-ण तत्य सोही कई होति ॥ दोगिह सया चत्ताला, नत्रके एत्तिो बिहारे तु । एवमवि अप्पमत्तो, उवउत्तो नज्जयं गवसंतो। वासाम् पासासा, पणगं पणगं हु सति सीयहा॥ मुको जइ चावलो, खमयो इव सो असहजावो । पुरपश्चिममकाणं, सब्बेसि एस कालदो तु ।
जो पुण मुकधुराओ,णिरुज्जमो जइ विसो उणाऽऽवमो । गिचं हिंमतेणं, बिराहितो होति सो नियमा ॥
तह वि य भावप्रो चिय, आहाकम्मं परिणत व्य ।। तम्हा खलु उप्पत्ती, ण एसियव्वा तु तेसि दबाएं। एयस्स साहबई, अहवा अठां पि नगए पत्थ । जस्सट्ठा निप्फन, तं गंतुं एसते मतिमं ॥
कारगसुत्तं इणमो, तमहं वोच्छं समासेणं ॥ अतिबहुयउझनट्ठा, णातुं दव्यकुलदेसजावे य ।
एगम्मि वितिपएँ तय-म्मि जे अत्थकुसल जियादिहा । पुच्चति मुझममुळं, ताहे गहणं अगहणं वा ॥
एतेसु जुत्तजोगी, विहरतो अहानयं सुज्के । प्रहवा पुट्ठों भरेजा, समपाहिकयं व अहव निक्वित्तं । भंगग्गहणं पढम, आयारो तस्स वितियमुयखंधे । पच्चित्तं वा वि नवे, तत्थ तु दारा इमे होनि ॥
तस्स वि वीयफयणे, नसे तस्स ततियाम्मि । समणे समणी सावय, साविय संबंधि हिमामाए । ज सुचं खबु सेयर-वस्सेणं होज्न सुलभे छ । रायातु पिक्खेवे, या णिक्खेवयं कुज्जा ।
अहवा वी तइ एत्ती, अकयएम्मी तान्नम्मी ॥ दमए दूलग जट्टे, समणच्छएहे वाय तेणे य ।
तस्स वि तइनसे, आदीसुत्तम्मि जं समक्खाय । पण यणाम ण वत्तव्बं, पुढे रुढे जहा बयणं ।
जदि संकमो असुको, ताहे जयणाएँ जुत्तो न॥ एतेसिंदाराणं, विभास भणिता जहा च कप्पम्मि । देसूर्ण पि दु कोडिं, अत्यंतो मो वि मुमती णियमा। सम्बे व निरवसेसा, णायव्वा सम्बदव्वेसु॥
तम्हा विमुचनावो, मुज्जति णियमा जिणमयम्मि जं पुष जत्था इपहं, दव्वे खेत्ते य होज काले य । बाहिरकरणे जुत्तो, नवोग मचिमिओ सुयधराणं । तेहिं का पुच्छा तू, जह उज्जेणी मंडेसु ।।
जं दोससमावप्मो, विष्मायं जिणवयणतो मुद्धो । एमेव माहमासे, किसराए संखमीऍ का-पुच्छा। दव्वेण य भावेण य, सुखासुदे य होति चभंगो।। विइ तिएहेव कुलम्मी, बहुए दबम्मि का पुच्छा?॥ ततिो दोसु वि सुखो, चटत्यो नभयह विमुको । तम्हा तु गहणकाले, मूत्रगुणे चेव उत्तरगुणे य । वीओ भावविभुको, दवविसुदो य पदपो होति । सो होज्जा दबस्स तु, ए मृलो तस्स अप्पत्ती ॥ अहवा वि दोसकरणं, दव्वे जावे य दुविहं तु ॥ कीते पामिच्चे छि-जए य णिप्फत्तिए य निष्फरहे। भावविसृछा-राहगों, दव्वतों मुझो य होतऽसुदो य । कजं हिप्फत्तिमयं, समाणिते होति निष्फएहं ।। जे जिणदिवा दोसा, रागादी तेहिं न न निप्पे ॥ कंमिनकीताऽऽदीया, तंदुलमादी तु होज्ज समट्ठा । एतेसामनतरं, कीयादी अणुवनत्त जो गिएहे। णिप्फत्तीसा तु भवे, आयटायासु निष्फलं ॥
तवाणगावराहे, संवठियमोऽराहाणं ॥ तं होति कप्पणिज, जे पुण समण होज्ज पिफमां । भावएणे सहाणं, दिजति अह पुण बहुं तु प्रावरणे । तंतुन कप्पति एत्यं, च चोयए चोदो इणमो॥
तहियं किं दायव्वं, भएणति इणमो मुणह वोच्छं। णिप्फत्तिोय पिप्फ-नोय गहणं तु होज समएस्स। सुजाइ तवेण दिज्जा, तबु छेदो वा तहेव मूलं वा । णिप्फत्तियो य सुके, कहंण पिष्फमए सोही?॥ कत्थेदं जयंती, जएहति तु णिसादमामम्मि ।। एवं गवेसियन्वं, तं एगट्टाणगं परिच्चत्तं ।
वीसतिमे उद्देसे, मास चउमास तह य छम्मासं । नहाति अफामुद्रव्ये-ण चेव गहणं तु साहूणं॥
नम्घातमाग्यात, जणितं सव्वं जहाकमसो।। तो ते साहूणं, किं कर्ज होति तु गविटेणं ।
एसो तुदवियकप्पो, जहकमं वएिणतो समासेणं । अपि य एगकुले, ण दु आकरो सव्वदव्याणं ॥
"अज्जमए सुयं, गादा-(दब्धाणि) जाणि पुण साहुस्साहा
राईणि दब्वाणि गेहणं पंति, तेसिं जहसंभवे मग्गा, कत्रो एस तित्तकमुयमादियाएं, सव्वदव्याण संभवेगकुटो ।
साली उपधादिघोसणपाहुमियाए (?) नीणियाए? भागारि
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दवियकप्प अभिधानराजेन्द्रः
दवियकप्प भणति को एयाणि तंदुनाणि आणीयाणि?|अत्याहि ताव जाव ज्जामो, तो साहूण देज्जाह, संभोश्याणं घेप्पा, असंभोश्यार्ण पुच्चामि । ताप सिहं-वणानो । अत्थ साविप ! मा साहुनिमित्तं पासस्थाइए व संथरमाणो न गेराइंति, दमो भगो रज्जनको साली चाबिया होजा । एवं फहीनो वच्छे नीणिए फलहीण पा आहारा पुच्चिोभणेज्जा-कस्सेयं तिलिज्जा-सामि!कि उप्पतिं गवेसति, तुवाओ वा गवेस तुवीण उत्पत्ति लाउए मम पाहाराबत्थपायाई विनस्थि दिनो-जा अहं रनो अ. नीणिप,रुक्खा वा सज्जानिमित्ता एवं सोपुच्चिकण कत्थ एयाणि विरश्याप,अविरहया वा भोगियम्स,तो मम वस्थाईणि विनस्थि। उप्पन्नाणि ति, ताहे तहिं गच्छति, जहा मिनिज्जुसीप, एपीस जो भणेज्जाज अहं राजाओईसरियाो भहो, तोऽहं किमा. पाहाराण मूयुप्पत्ती,तंदुला विगवेसमाणो अत्थं न सोहय।" हाराईणं पिताहामि, सेसं जहा पेढियाए । गाहा-(न य नाम न
आहारादीनां निष्पत्तौ च ज्ञानदर्शनचारित्रार्थसिकिः । "जत्ते पत्तब्वं, पट्टे रुके जहा बयणं ।) अप्रया जत्थ पुण प्राइमं खेते पाणे गाहा-(पवं सौ हिंडतो, भत्तं पाणं च ताणमुवहिं वा। कह काले वा भवर, जं जस्स देसे पवत्ता, परं च जहा उग्गमेउ कह वा, समायं कुणउ हिंमतो) सज्जोबा वा सो- उज्जेणीप मंगया। तत्थ का पुच्चा? । जत्थ पुण दबकुलदेस. हे निहितो। जे य निक्खमणपवेसणकाला अट्टो उव- भावे अपुवकरणं दहण पुच्छा-किं निमित्तं पयाणि आहाराहिया मासा निक्खमणकालो त्ति जम्मइ, पवेसकालो य वासा. ईणि कयाणि । मूलगुण उत्तरगुणेसु आहारोबहिसेज्जाणं गहणं पासो नबमो, ते तस्स न भवंति हिंडतस्स। (दुचउक्कत्ति) च. विसोहेयध्वं साहुणा। गाहा-(कीते पामिशे) एवं कीयपामिच्चचारि हेमंतिया, चत्तारि गिम्हिया, एएसु अणुमाओ विहारो। च्चेज्जा असणाइणि निप्पजंति, तंमुला वालाच्या वा संजगाहा-(दोषिह सया चत्ताला) हेमंतगिम्हासु होति दिवसाणं यहाए कीयाणि वा कत्तियाणि वा सुत्ताणि, लाउयाणि वा मासकप्पेण, वासामु य पंचासा पंचधा दसियठा, तम्स न भ.
संजयटाए रुत्ताणि, पच्ग आयट्ठा निष्फमाणि कप्पंति,संजयाव निच हिमंतरल संवच्छरेण तिथि सहाई दिवससयाईवि.
पं रुक्खा वा संजयहाए रुत्ता, पच्चा आयहाए छिमाणि य हारकाने दुपक्ने वि साहूण साहुणीण य । गादा-(पुरपच्छि.
घराणि य कयाणि, प्रायछाए निष्फाश्यामि ताहे कप्पति, जंतं मममाणं)पुरछिमपञ्चक्किममज्झिमाणं तित्थयराणं सब्वेसि।।
निष्फत्तीतो आयट्टानिष्फलं तं कप्पाइ, कजं निप्फतिमयं ति। गाहा-(एस कामच्छेत्रोतु)तिविहम्मि वितिविहे वि माहारोब. कजं नाम-आहाराहमयंति ।जहा तंदुलमय श्राहारं,सुत्तमयाणि हिसज्जाणं अणेगेहिं दबेहिं संभवो भव, आहारे ताव पिप्प.
पत्थाणि समाणिए ति, तस्स कडं-तस्स निफणं । गाहा (णिलिघयवेसणेहि, ताहे कित्तियस्स हिंमम्सइ जत्थ ताणि निष्फ- प्फत्तिमोय)एवं अगवसणानिप्फ तो गवेसणं,गहणं वा । गाहामाणि"निप्पत्तिरुत्पत्तिरित्यर्थः।"पिप्पलीश्रो हिमवंते,मरियाणि पच्छके,चोदगाह-णिप्फत्तिप्रोविनिप्फमो व साहुस्स आ. मलए, हिंगु रमणेसु, वच्चाणि तामवित्तीय घुमबद्धणसिंधुसोर- हारा गहणं होजा। मिष्फत्तिो असुद्धं कहं निप्फने गेएहद ट्ठासु बच्चगणं उप्पत्तीओ,जाव ताणि हिंमताव णाणार परिहा
उच्यते-पवं ताव गवेसियव(पगमिति)निष्फलं गवेसिज्जन तु णी.अंतराव मराएवं पाए सेज्जाए या तम्हा नो निष्फत्ती मूलनिष्फली दव्याणं, मूलनिष्फत्तिए गविटाए बहुदोसा। श्राहमम्गियस्वा । निप्फसी णाम-मूतसंभवो,णिप्फमं हि तस्स सया- जर एवं गवेसिज्जइ,जं गेझा निष्फळ किं एगहाणं परिचय। सानो कडे, तस्स निहिए चलभंगो । एत्य णि फोणाहिगारो। एगट्ठाणयं नाम-उप्पत्ती तंदुलाईणं, वत्थाईणं च। उच्यते-न पच्चुप्पयो नाम-तहेव दब्बकुलदेसनावे य मगद, जहा पिंड- हु सम्वदन्वा, न हु पगकुले नाणादब्वाणि तित्तकमुयाईणि निज्जुत्तीए । नोम्बुग्गमं पुबह दवाणं, एयं पुच्चइ-किनिमि. संभवति । कि तु एवं गवेसमाणस तुझ सम्पदव्वाणं मूलुतमुववस्त्रमियं, एवं पुच्छिऊण गिएहइ । गाहा-(समणे समणी), प्पत्ती माहाराण सुकी चेवन नपिस्सइ । मज्झमाईणं च जहा भत्तपाणे वत्थपाएसु वा नीणिपसु पुच्चय-कस्सेय । सो पुः। जिद्दोसा हिंडंतस्स । गाहा-(एवमवि अप्पमत्तो) पवमित्यव. चिओ भणेज्जा-तुम्भं चेव निमित्तं उवक्खमियं, कीयं, पा. धारणे । किमवधारणीय। एवमप्पमत्तस्स गवेममाणस्स जमिश्चयं परियाट्टियर, वत्यं वा तूणावियं,कीयं,पामिच्चयं परियट्टि- वि निष्फलं संजयकाए न जाणेज तमोतं च परिभुजेज्जा य, वच्छ वा वुणाविय, पामिश्चियं परियट्टियाश्याणि तुम्भ- आदारोवहिसेज्जा, ताहे तम्मि परिभुरे विसुज्झ, जहा सो छाए मह कयं, वीयाणि वा प्रवणीयाणि, कीयमा बा, एवं खममो सुरूंगवेसमाणो, जो पुण मुकधुराओ । मुकधुरो नाम. साहेज्जा, समणेष वा समगीए वा सावरण वा सावि- पाहारा उम्गमाईहिमको तत्तो सो लग्गजहा सर। गाहायाए वा शमितेण वा मामएण वा दमपण वा दृभएण (श्राहाकम्भ परिणउ व्व) अन्नसु आयारग्गेसु सेज्जाणं तइए उ. वा रजभण वा वायाए वा तेणएण वा पक्खेवयाणि - देसप शायाणाए। इह खलु नो सुलभे उवस्सए भवइ, जुत्तजोग। ढाणि, समणं समणी वा सिंगत्था भांति-अम्हं न गेएहति, ते गवसंतो सुद्धो चेव भवन, उम्गमाश्यातुके वि। अहवा तश्यम्मि य संधगं करेजा, सावो वा साविया घा, तेसि साहो न अज्यणे श्रारियाणं जा सकम असुद्धो को । अहवा-संकमण गिएहंति, आहाराइते पक्खेवणं कुज्जा, संबंधिओ संबंधिणी वा, उज्कर,असिवाश्कारणेसु तत्थ वि तहेब देसूणं पि पुब्धकोमि भसो तेसि न गेएहक, आहारा ते पक्खेवगं कुजा, शक्लिमंतो वा स्थमाणो सुकाएपसु उग्गमाइसुआहारासु जुत्तोगी परिमंमनंमभोड्याइ, तेसि साहवो न गेएहति, ते पाहाराह पक्ष- हरंतो आहाउयं पालेमाणो सिज्म । गाहा-(वाहिरकरणे ) एवं गं कुज्जा । मामश्रो नाम-माम कोइ घरे दुक्कल, सालयत्तणेण जह वाहिरकरणेण संपत्तो उवोगो होतो महिडिओ सुयध. लोइया सही,सा पक्खेवयं कुन्जा। राया ममरापिडे न गेएह. राख"महर्डिक इति महारिद्धित्वमावहति । "को दिउँतो,गाहाति, तो पक्वेवयं कुज्जा आहारा। तेणयम्स वा साहयो न (जं दोससमावन्नो वि) खमो सुद्धो। सुयणासपमाणेण दोस. गएइंति, सो आहारा पक्खेवयं कुजा। निक्खेषं पुण-वस्थं पत्तं कारणम्मि दब्यो नाम एगो सुद्धो,नो भावो। चउर्जगो। तइवा संविग्गा असंविग्गा वा साहवो असिवाइस कारणसु अएड. श्रो दव्वं भावो सुको। चनत्यो दोहिं वि अमुद्धो। तस्स का देसं गच्छमाणा निक्खेबिज्जा । तेहिं भणियं-अमुए काले ए. कहा?, जे पढमवितिया तेसु मग्गणा,विश्य भंगे दव्या असुको
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दव्य
(२४६२) दवियकप्प
अभिघानराजेन्डः। वि, भावो मुद्धो। अहवा-सुविहं कारणे दव्ये, भाचे य सु. वः कदाचनापि संभवति, जीवत्वहानेः। तथा पर्याया अपि माखो वा । भावओ सुको पाराहो होइ,जे जिणदिट्टा भावा रागा- नुषत्ववाल्याऽऽदयः कालकृतावस्थालवणाः तत्र सन्त्येत्यतो दयो, तोह न लेप्पड जम्हा । गाहा-(पतेसामनयरं) पसि की. नवत्यसौ गुणपर्यायवत्वाव्यमित्यादि द्रव्यानुयोगः। स्था. याणं पाहाराईण था जो (अणुवउत्त जो गिरहे) तस्साऽs. १. ग. (मातृकानुयोगाऽऽदीनां शब्दार्थः पृथक् पृथक) रोवणपचित्तं,जया पुण बहुइथा आलोयणा होजा।" तब कथं
दवियाऽऽता-स्त्री०-७व्याऽऽत्मन्-पुं० । 'दवियत्ता' शब्दार्थे, दातव्यम् । उच्यते-“सम्वत्थ हे उ समक्खिऊण ज तवेण सु
भ० १२ श० १० उ०। ज्झर तो तवो दिज्जा, इहरहा ठेश्रो वा, मूलं वा । कह एवंपमाणं प्रणिय । उच्यते-निसीहस्स बीसश्मे मद्देसए । एस
दध-व्य-न। द्रवति गच्छति ताँस्तान् पर्यायानिति भव्यम। ताव दवियकप्पो।" पं० चू०।
"कृद्वहुलम् ॥” इति वचनात्कर्तरि यः। प्रा०म०१०१खरामा
नि० चू० । जं०। अनु। अनादिमदुत्प्रेक्षितपायशृङ्खलाऽऽपंचएडं असणादी-ण पणवीस तिहा भवे विसोही उ।। धारेऽथै, विशे०ला स्था०॥ अहवा वि उबद्दसिया, एत्तो तिगवलिया सोही॥
अथ ध्यलकणमाह-- असणं पाणं वत्यं, पायं सेज्जा य पंच एतेर्सि।
दवए सुयए दोरव-यवो विगारो गुणाण संदावो। सुकी पण वीसति वा, उग्गम तह एसपाए य ।। दव्वं भव्वं भाव-स्म नअनावं च जं जोरगं ॥ २० ॥ सुयणाणपपाणेण तु, गहियममुद्दे वि होति मुछो तु। 'दु' 'द्रु'गताविति धातुः, ततश्च भवति ताँस्तान् स्वपर्यायान् प्रा. अहवा वि तुउद्दसिया, सोसस उपायणादोसा। मोति मुञ्चति बैति तद्व्य म,' इत्युत्तरार्द्धादानाय सर्वत्र सएएसिं सवेसिं, हाणपयणकिणादि णवहि कोडीहिं ।
म्बध्यते । तथा द्रूयते स्वपर्यायैरेव प्राप्यते मुच्यते चेति द्रव्यं,
यान्कि पर्यायान् द्रव्यं प्राप्नोति, तैस्तदपि प्राप्यते, यांश्च कपकारिताणुमोदित, एसा तिगवहिता सोही ॥पंजान
मुञ्चति, तैस्तदपि मुच्यत इति भावः । तथा भवति तत्थ दब्वकप्पो ताव अाहारमाइ । गाहा-(असणं पाणं वत्थं
तांस्तान् पर्यायान् गच्चति इति दुः ससा, तस्या एवापायंसेज्जा) पासिं पंचएह वि पंचपंचगविसोहिति। पंचपंच
घयवो, विकारो घेति व्यम् । अवान्तरसत्तारूपाणि दिद्रगा नाम-पहारस उम्गमदोसा, दस एसणादोसा । एप पंचपंच
व्याणि महासत्ताया अवयवा विकारा वा भवन्त्येवेति भावः । गा पंचवीस आघेतो पणवीसाप सुयनाणमाणओ सुका। अह.
तथा गुणा रूपरलाऽऽदयः, तेषां,संवर्ण संघावः समुदायो घ. वा- इस य-सोबस उपायणा दोसा, एपसिं सबेसि पिति
टाऽऽदिरूपो ऽव्यम् । तथा-(भवं भावस्स ति) भविष्यतीति यवलिया सोहि त्ति ।" न हण न हणावे, हर्जातं नाणुजाण ।
भावः, तस्य भावस्य भाविनः पर्यायस्य यद्भव्यं योग्यं तदपि द्रव्य. न पयन पयावे, पयंतं नाणुजाण ॥१॥ न किण न कि
म,राज्यपर्यायाईकुमारवत्। तथा भूतभावं चेति-भूतः पश्चात्कृतो णावेइ, किणतं नाणुजाण ।" एस दबकप्पो । पं० चू०।
भावः पर्यायो यस्य तदू नृतजावं, तदपि च्यम्, अनुजूतघृतादवियत्ता-स्त्री०-द्रव्याऽऽत्पन्-पुं०। द्रव्यं त्रिकालानुगामि उपस.
ऽऽधारत्वपर्यायरिक्तघृतघटबत् । चशब्दाद् भूतनविष्यत्पर्यायं च
द्रव्यमिति ज्ञातव्यम्। भूतभविष्यद्धृताऽऽधारत्वपर्यायरिक्तघृत. जनीकृतकपायाऽदिपाय, तद्रूप आत्मा द्रव्याऽऽत्मा । श्रात्म
घटवादिति । एतदपि भूतभावम।तथा भूतभविष्यद्रावं च । कथं. भेदे, स च सर्वेषां जीवानाम् । न. १५ श० १०००।
नूतं सद्व्यम , इत्याह-यद्योग्यं नृतस्य भावस्य, नूतभविष्यदवियरस--वितरस-पुं० । अवयुक्तनिर्यासे, श्रोघः । तोश्च जावयोरिदानीमसत्वेऽपि यद्योग्यमई तदेव ऽव्यमुच्यते, दरियाणुरोग-द्रव्यानुयोग-पुं० । अनुयोगभेदे, था।
नान्यत् । अन्यथा सर्वेषामपि पर्यायाणामनूतस्वादनुभविष्य
माणत्वाच्च सर्वस्यापि पुलाऽदेव्यत्वप्रसङ्गात् । इति गाथातत्स्वरूपम
थः ॥२८॥ विशे० स्था। व्या० । अनुस। नि०चू। दसविहे दवियाओगे पणते । ते जहा-दवियानोगे, नं०। सूत्र० । आव०। मानयाणुओगे, एगट्ठियाओगे,करणाअोगे,अप्पियाण
गुणपर्यायाऽधारो द्रव्यम्प्पिए, जावियानापिए, बाहिराबाहिरे, सासयासासए, गुण पर्याययोः स्थान-मेकरूपं सदाऽपि यत । तहणाणे, अतहणाणे ।।
स्वजात्या व्यमाख्यात, मध्ये जेदो न तस्य वै ॥१॥ (दसंविहे इत्यादि) अनुयोजन सूत्रस्यार्थेन संबन्धनम, अ- गुणपाययोभोजनं कालत्रये एकरूपं व्यं स्वजात्या निज. नुरूपोऽनुकूलो वा योगः सूत्रस्याभिधेयार्थ प्रति व्यापारोऽनुयो- त्वेन एकस्वरूपं भवति, परं पर्यायवद् न परावृत्ति लनते, तगः, व्याख्यानमिति भावः। स च चतुर्दा,व्याख्येयभेदात् । तद्यथा- दव्यमुच्यते। यथा-शानाऽऽदिगुणपर्यायभाजन जीवाव्यम्, चरणकरणानुयोगी,धर्मकथाऽनुयोगो, गणितानुयोगो. व्यानु: रूपाऽऽदिगुणपर्यायभाजनं पुद्गलव्यम्.सर्वरक्तत्वाऽऽदिघटत्वायोगश्च । तत्र व्यस्य जीवाऽऽदेरनुयोगो विचारोव्यानुयोगः। ऽऽदिगुणपर्याय नाजनं मृद्रव्यम । यथा वा तन्तवः पटापेकया सच दशधातत्र (दवियाघुरोगेति) यज्जीवाऽऽदेव्यत्वं वि. सव्यम, पुनस्तन्तंवोऽवयवापेक्षया पर्याया। कथम्?, यत: पटचायते स द्रव्यानुयोगः। यथा-वति गच्छति तांस्तान् पर्यायान्, विचाले पटावस्थाविचाझे च तन्तूनां दो नास्ति, तन्त्ववयवादूयते वा तैस्तैः पर्यायैरिति अन्यम्, गुणपर्यायवानर्थः, तत्र सति । वस्थायामन्वयस्वरूपो भेदोऽस्ति , तस्मात पडलस्कन्धमध्ये जीचे ज्ञानाऽऽदयः सहलायित्व लकया गुणाः, न हिनद्वियुक्तो जी. कल्यपर्यायत्वमावेकिक बोध्यम् । अथ कश्चिदेवं कथयिष्यति
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(२४६३) दव्य अनिघानराजेन्डः।
व्व्व द्रवपत्वं तु स्वाभाविकं न जातम् , अापेक्षिकं जातं, तदा तं स यत्वे सत्यमस्तु, तथा गुणेष्वपि नवपुराणाऽऽदिपर्यायाः प्र. माधत्ते-भोः तार्किक शृणु । यत् सकल वस्तूनां व्यवहाराऽपे- त्यक्षप्रतीता, एके कियत्काल नाविनः, प्रतिसमयभाविनस्तु क्षयैव जायते, न तु स्वभावेन, तस्मादत्र न कश्चिद्दोषः । ये पुराणत्वाऽऽधन्यथाऽनुपपत्तेरनुमानतोऽवसीयते। ततश्च व्यच समवायिकारणभमुखैव्य लकणं मन्यते, तेषामप्यपेक्षामनु- गुणपर्यायाऽऽत्मकमेकं सबसमणिवचित्रपतङ्गाऽऽदिवा ब सर्तव्यचेति । गुणपर्यायवव्यामिति तरबार्थे । विस्तरस्तु व्या- स्त्विति स्थितमिति सूत्रार्थः। उत्त० पाई० २० अ. प्रका० । णामुद्देशल कणपरीकाभिस्तत्रैवास्ति, अतस्ततोऽवसेयः॥१॥ (" दवं पज्जवविजुधे, दबवित्ता य पज्जवा नास्थ । द्रव्या०२ अध्या।
उप्पायभिंगा, हंदि दवियनक्खणं एयं ॥१२॥" इति " सहभावी गुणो धर्मः, पर्यायः क्रममाव्यथ ।
द्रव्यनक्षिका प्रथमकाएझस्था सम्मतितर्क ग्रन्थगाथा 'जय' भिन्ना अभिन्नास्त्रिविधा-निलकणयुता श्मे ॥२॥
शब्देऽस्मिन्नेव भागे १०८ पृष्ठे व्यपर्यायार्थिकप्रस्तावे व्या. मुक्ताभ्यः श्वेतताऽऽदिभ्यो, मुक्कादाम यथा पृथक।
ख्याता) (पष एवार्थो "दवणय" शब्दे उपपादयिष्यते) द्रव्यगुणपर्याययोध्यक्त-उंब्यशक्तिस्तथाऽऽश्रिता।३।"द्रव्या०१अध्या- गुणपर्यायाश्च यथोत्तरं सूक्ष्माः । श्रा०म० १५०१खएम । गुणाऽऽश्रयो ऽव्यम्
(“दव्वं जहा परिणयं, तदेव अस्थि त्ति तम्मि समयम्मि । गुणाणमासो दवं, एगदयस्सिया गुणा।
बिगयभविस्सेहि उ प-ज्जएहि जयणा बिजयणा वा ॥४॥"
(सम्म०३ काएड) इत्यादिगाथोक्तं व्यस्य नित्यत्वाऽऽद्यसक्ख गं पज्जवाणं तु, दुहनो अस्सिया जवे ॥६॥
नेकधान्वितस्वम 'अणेगंतवाय' शब्दे प्र. भागे ४२६ पृष्ठे गुणानां वक्ष्यमाणानामाश्रय आधारो,यत्रस्थास्ते नुत्पद्यन्ते,नत्प
उक्तम् ) ( उत्पादव्ययध्रौव्ययुक्तं सदिति नक्षणमपि 'अणे. । चावतिष्ठन्ते,प्रशीयन्ते च तद्रव्यम् । अनेन रूपाऽऽदय एव व
गंतवाय' शब्दे प्रथमभागे ४२६ पृष्ठे समुक्तम् ) स्तु, न तह्यतिरिक्तमन्यदिति तथागतमतमपास्तम् । तथाहि-य.
अथ गृहीमो गुणानामाश्रयो अव्यलकणं, तच्चैवलकणं द्रव्यं उत्पाद विनाशयोनं यस्योत्पादविनाशी, न तत्ततोऽभिन्नम, यथा
किमेकम् ?, उत तस्य भेदा अपि सन्तीति ?, माहघटात्पदः, न नवतः पर्यायोत्पादविनाशयोव्यस्योत्पादवि
धम्मो अहम्मो आगासं, कालो पुग्गल-जंतवो । नाशौ । न चायमसिद्धो हेतुः, स्थासकोशकुशूलाऽऽयवस्थासु मृदादिजव्यस्याऽऽनुगामित्वेन दर्शनातू । न चास्य मिथ्यात्वं,
एस लोगो त्ति पहातो, जिणेहिं वरदंसिहि ॥ ७॥ कदाचिदन्यथादर्शनासिके।
धर्म इति धम्मास्तिकायः, अधर्म इति अधम्मास्तिकाया, उक्तं हि
आकाशमिति प्राकाशास्तिकायः, कालोऽहा समयाऽऽत्मका, • यो ह्यन्यरूपसंवेद्यः, संख्येय्बेतान्यथा पुनः।
पुल जन्तव इति-पुमलास्तिकायः, जीवास्तिकायः। एतानि स मिथ्या न तु तेनैव, यो नित्यमवगम्यते ॥ १॥" द्रव्याणीत शेषः । प्रसङ्गनो लोकस्वरूपमप्याह-एष इत्यादि तथै कस्मिन् व्ये स्वाऽऽधारजूते प्राधिताः, के ते?, गुणा
सुगममेव । नबरमेष इति सामान्यतः प्रतीतो, लोक इत्येवस्व.
रूपः,कोऽर्धः?, अनन्तरोक्तद्रव्यषट्काऽऽत्मकः । उक्तं हि-"ध. रूपाऽऽदयः । एतेन च ये ऽव्यमेवेचन्ति, तद्व्यतिरिक्ताँश्च रूपाऽऽदीन् अविद्योपदर्शिताना हुः, तन्मतनिषेधः कृतः। सं
म्र्माऽऽदीनां वृत्ति-ईव्यापां नवति यत्र ततकेत्रम् । तव्यः सह विनिष्ठा हि विषयव्यवस्थितयः । न च रूपाऽऽद्युत्कवित.
सोक-स्तद्विपरीतं ह्यलोकाऽऽख्यम्" ॥१॥ इति सूत्रार्थः।७॥ रूपं कदाचित केनचित् व्यमवगतम्, अवगम्यते वा,अतस्त.
आह-किमेतेऽपि धर्माऽऽदयो भेदवन्त:, उतान्यथा?। उभद्विवर्त पव रूपाऽऽदयो, न तु तास्विकाः केचन तद्भेदेन सन्ति ।
यथाऽपीति क्रमः । तथा चाऽऽहनन्वेव रूपाऽऽदिविवों द्रव्यमित्यपि किं न कल्पते ?। अथ
धम्मो अहम्मो आगास, एगं दव्वं वियाहियं । तथैव प्रतीतिः। एवं सति प्रतीतिरुभयत्र साधारणेत्युभयमुभया
अयंताणि न दबाई, कालो पोग्गल-जंतवो ।। ७॥ मकमस्तु ।लक्ष्यतेऽनेनेति लक्षणस,पर्यायाणां वक्ष्यमाणरूपा- धर्मोऽधर्म अाकाशं, द्रव्यमिति धर्मादिभिः प्रत्येक योज्यते, णां तु, विशेषेण उभयोईयोः प्राकृतत्वाद् द्रव्य गुणयोराश्रिताः एकैकमेकसंख्याया पब, एतेषु भावादाख्याते तीर्थकृद्भिरिति (भवे ति) जयेयुः स्युः । अनेन च य एवमाहुः-यदाद्यन्तयारसद्, गम्यते। ततः किं कालाऽऽदिव्याएयप्येवमेवेत्याह-अनन्तान्य. मध्ये ऽपि तत्तथैव, यथा मरीचिकाऽऽदी जलाऽऽदिन सन्ति च नन्तसंख्यानि, स्वगतभेदानन्यात्। च: पुनरर्थे उत्तरत्र योदयते । कुशवकपानाऽऽद्यवस्थयोघंटाऽदिपर्यायाः, ततो जयमेवा55. कानि न्याणि कतमानि, काल, पुजसं, जन्तवश्चोक्तरूपाः, दिमध्यान्तेषु सत, पर्यायाः पुनरसन्तो यैराकाशकेशा उदिनिः कालस्य चानन्त्यमतीतादागतापेक्षयेति सूत्रार्थः । नत्त० २८ सहशा अपित्रान्तः सत्यतया लक्ष्यन्ते । यथोक्तम्--" आदावा
अ०। आचा०स०। न्ते च यत्रास्ति, मध्येऽपिहिन तत् तथा। वितयैः सहशाः
__षम्य निगमनमसन्तो-ऽवितथा व लक्विताः॥ १॥"ते अपाकृताः । त
एवं समासेन पमेव दान, थाहि-आद्यन्तयोरसवेन मध्ये ऽप्यसवं माधयतामिदमाकून
जव्यस्य विस्तारतयाऽऽगमेच्यः । म्-यदु कचिदसत्तत्सर्वस्मिन्नसदिति, ततश्च मृद्रव्ये अप द्रव्यस्यासपात्सर्वस्मिन्नप्यसत्यप्रसङ्गः । अथेष्टमेवैतत्, सत्ता
श्रुत्वा समभ्यस्य च नव्यझोकाः!, मावस्यैव तवत इष्टत्वात् । वक्तं हि-"सर्वमेकं सदविशेषात्।"
अहत्क्रमाम्भोजयुगं भजन्तु ॥ १ ॥ नम्येवमभावेजावाजावाद्भावस्यापि सर्वत्राभावप्रसङ्गः, तस्मा- एवं पूर्वोक्तप्रकारेण समासेन संक्षेपेण च षडेव षट्संख्यावतो द्वाधकप्रत्ययोदय पचासत्वेऽपि निबन्धनमिति न क्वचिदसखे जीवधाऽधमाकाशकालपुलमन भेदान् व्यस्य पदार्थस्य तस्यावश्यं जायः, कठो जव्ययत्पर्यायाणामप्पबाधितबोधविष- । षषामपि कव्यशब्दः पृथग युक्तः सन् पम्जव्यत्यमापादय
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(१६६४) व्व अनिघानराजेन्द्रः।
दव्व ति । अतो द्रव्यस्य पडेव भेदान् सूत्रोक्तान् श्रुत्वा विस्तार- से तेणढेणं. जाव हव्यमागच्छति । णेरड्या णं भंते ! - तया विस्तारयुक्त्या, आगमेयः स्याद्वादसमुद्दिष्टेज्यः, आक
जीवदवा परिभोगत्ताए हव्यमागच्छंति, अजीवदव्वा एं एये, श्रवणविषयीकरणं श्रवणं, तत्र विस्तारेणैव श्रुतानामवगमो जायतेऽतो विस्तारतया श्रुत्वा, च पुनः, समन्यस्य वाचा.
पोरइया परिजोगत्ताए. हव्वमागच्छंति ?। गोयमा ! ऐरइउद्घोषणद्वारा कण्ठे कृत्वा,मनसि निदिध्यास्य,भो भव्य लोकाः! या णं अजीबदबा परिनोगत्ताए जाव हवमागच्चंति, सम्यक्त्वप्राणिनः ! अहत्क्रमाम्भोजयुगं श्रीजिनचरणभजम- जो अजीवदव्वाणं णेरइया जाव हबमागच्छंति।से केणस्थैर्य भजन्तु,श्रुत्वा समन्यस्य च श्रीप्रभुस्मृतिरेव साधीयसी, देणं । गोयमा! णेरइयाणं अजीवदव्वे परियादियंति, अतत्कृत्वा तस्करणं श्रेयो निबन्धनमिति । तथा भोजेति संकेतेन संदर्भकतुनामनिदर्शनमिति । अत्राध्याये सम्यक्त्वदायाय स.
जीवदव्वे परियादियंतित्ता वेउब्वियं तेयगं कम्मगं सोईबनेदाऽऽख्यानमिति प्रयोजनं चेति ॥ २१॥ व्या० १.अध्या।
दियं० जाच फासिंदियं आणापाणुत्तं च णिव्यत्तयति । द्रव्यभेदानाह
से तेणद्वेषं गोयमा! एवं बुच्चइ-एवं जान वेमाणिया, णकाविहाणं ते ! दवा पम्मत्ता?। गोयमा! दुविहा द
वरं सरीरइंदियजोगा जाणियव्वा जस्स जं अत्थि ॥ व्या पप्पत्ता । तं जहा-जीवदया य, अजीवदव्वा य ।
(जीवदब्बाणं भते! अजीबदब्बा इत्यादि) इह जीवाव्या.
णि परिजनोजकानि, सचेतनत्वेन प्राहकत्वात् । इतराणि तु पअजीवदवाण भंते! कइविहा पहात्ता। गोयमा! दुविहा | रिभोग्यानि, अचेतनतया ग्राह्यत्वादिति । पपत्ता । तं जहा-रूवी अजीवदवा य, अरूबी अजी.
व्याधिकारादेवेदमाहवदन्या य । एवं एएणं अभिसावेणं जहा अजीवपज्जवा.
से णणं ते! असंखेजे लोए अणंताई दवाई श्राजाव से तेणटेणं गोयमा ! एवं वुच्चइ-ते णं णो संखेज्जा, गासे भइयव्वाई। हंता ! गोयमा! असंखेज्जे लोए जाव णो असंखेजा, अणंता। जीवदवाएं भंते ! किं संखेज्जा,
जइयव्वाई। लोगस्स एं नंते ! एगम्मि भागासपएसे कइअसंखेजा, अएंता १। गोयमा ! णो संखेजा, जो असं
दिसिं पोग्गला चिजति ? गोयमा !णिव्वाघाएणं बहखेज्जा, अणंता । से केपट्ठणं भंते ! एवं बुच्चय-जीवद
सिं, वाघायं पमुच्च सिय तिदिसि सिय चउदिमि सिय व्वा पणो संखेज्जा, णो असंखेज्जा, अपंता। गोयमा!
पंचदिसि ।। असंखेज्जा पोरइया० नाव असंखेज्जा बाउकाश्या, अ- ( से गुणमित्यादि) (असंखेज्ज त्ति ) असलयातप्रदेसंता बणस्सइकाश्या, असंखेज्जा वेइंदिया, एवं०जाव वे. शाऽऽत्मक इत्यर्थः । ( अणंताई दवा ति ) जीवपरमा. माणिया, अयंता सिका।से तेण्टेणं० जाव अवंता।
एवादीनि । “मागासे भश्यवाई ति" काकाऽस्य पा(अजीवपज्जव ति) यथा प्रशापनायां विशेषाभिधाने पञ्चमे
व, सप्तम्याश्च षष्ठयर्थत्वादाकाशस्य भक्तव्यानि भर्तव्यानि, पद जीवपर्यवाः पठिताः,तथेहाजीबद्रव्यसूत्राण्यध्येयानि । ता.
धारणीयानीत्यर्थः पृच्छतोऽयमभिप्राय:-कधमसंख्यातप्रदेशानि चैवम्-" अरूविधजीवदवा गं ते! काविहा पत्ता।
ऽऽस्मके लोकाऽऽकाशेऽनन्तानां व्याणामवस्थानम्हंता!इ. गोयमा ! दसविहा पसात्ता । तं जहा-धम्मस्टिकाए।" इत्या
त्यादिना तत्र तेषामनन्तानामप्यवस्थानमावदितम । श्रावेदयदि । तथा-"कविजीवदवा णं नंते ! कश्विदा पाता।
तश्चायमनिप्रायः-यथा प्रतिनियतेऽपवरकाऽऽकाशे प्रदीपप्रभा. गोयमा ! दसविदा पपत्ता। तं जहा-खंधा।' इत्यादि । तथा.
पुलपरिपूर्णेऽप्यपरापरप्रदीपप्रभापुमला अवतिष्ठन्ते, तथावि"तेणं भंते !किंसंखज्जा, किं असंखेजा,अणंता गोयमा! गो
धपुलपरिणामसामर्थ्यात्, पवमसंख्यातेऽपि लोके तेष्वेवरप्रदेमखेज्जा,णो प्रसंस्खेजा,अणंता । से केण?णं भंते ! एवं बुच्च
शेषु व्याणां तथाविधपरिणामवशेनावस्थानात्, अनन्ताना?। गोयमा! अणंता परमाणू, अणंता दुषपसिया खंधा, भर्णता
मपि तेषामवस्थानमविरुकमिति । असंख्याते लोकेऽनन्तव्यातिपएसिया बंधा. जाव अणंता अणंतपएसिया खंध ति।"
णामवस्थाममुक्तं, तश्चैकै कस्मिन् प्रदेशे तेषां चयापचयाऽऽदिमद्रव्याधिकारादेवेदमाह
द्भवतीत्यत आह-(लोगस्सेत्यादि) ( कादिसि पोग्गस्ता
चिजति ) कतिज्यो दिग्ज्य आगत्य एकत्राऽऽकाशप्रदेशे चीजीवदयाएं भंते ! अजीवदव्या परिजोगत्ताए हबमा
यन्ते लीयन्ते। गच्छति । अजीवदया णं जीवदव्या परिभोगताए हन्ध
आकाशप्रदेशे कव्याणिमागच्छति । गोयमा! जीवदव्या अजीवदव्यापरिभोग- लोगस्स णं भंते ! एगम्मि आगासपएसे कइ दिसिं पोचाए हव्वमागच्छति । णो अजीवदव्या णं जीवदव्या ग्गना विजंति । एवं चेव । एवं नवचिजति, एवं अवपरिजोगत्ताए हन्धमागच्छति । सेकेणटेणं ते! एवं बुच्च- चिजति ॥ ३० जाव हव्यमागच्छति । गोयमा! जीवदव्या णं अजी
(छिजति त्ति ) व्यतिरिक्ता भवन्ति ( उचिज्जति त्ति) बदव्या परियादियंति, अजीवदचा परियादियत्ता ओशनियं
स्कन्धरूपाः पुजला: पुद्गलान्तरसंपर्कादुपचिता भवन्ति । (प्र
बचिजति ति ) स्कन्धरूपा एव प्रदेशविचटनेनापचीयन्ते । बेउब्धियं आहारगं तेयगं कम्मगं सोइंदियंजाब फासिंदियं, जव्याधिकारादेवेदमाह । भाषाऽऽदिरूपेण व्यग्रहणम्मणजोमं वइजोगं कायजोगं आणापागुत्तं च णिवत्तयंति, जीवे णं नंते ! जाईदयाई ओरासियसरीरत्ताए गे
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दव्व
"
एहरु ताई किं वियाई गेएहइ, अट्टियाई गेएहइ ? । गोयमानियाई पि गेण्डर, अट्टियाई पि गएद ताई मंते ! किं दव्वओ गेएटर, खेत्तत्र गेरहइ, कालो गएes, जाओ गेहइ १ । गोयमा ! दव्बओ वि गेराइइ, खेत्ताओ विएइ, कालओ वि गेएदर, जावओो वि एडइ । ताई दओ अणतपए सियाई दव्वाई, खेत्तो असंखेजपरसोगादाई, एवं जहा पावणार पढने आहारुदेस ए० जाव शिव्याघाप बद्दिसिं, वाघायं पमुच्च सिय तिदिसिं, सिय
दिसि सिप पंचदिसिं जीवे जंते ! जाई दबाई वेव्वयसरी रचाए गएहति, वाई कि ठियाई एवं चेव, एवरं खियमे बहिसि एवं आहारगसरीरचाए वि जीवे यां ते ! जाई दव्बाई तेयगसरीरत्ताए गेएहति पुच्छा है। गोयमानियाई मेहति णो अडियाई गेहइति से जहा
|
रानिय सरीरस्स कम्पगसरीरे एवं चेत्र, एवं० जान जाओ गेदर, ताई किं एगपएसवाई गए, परसियाई गेहइ, एवं जहा जातापदे० जाव आणुपुत्रि गेशहर, यो अापुपि एट् ताई भंते! कह दिर्सि गे एह १। गोयमा ! णिकवाघाएणं जहा ओरालियस्स । जीवे णं ते! जाई दब्बाई सोईदियचाए गए, जहा वेड यसरीरं, एवं जाव जिजिदियत्ताए, फासिंदियत्ताए जहा घोराक्षिपसरीरं, पण जोगचाए जहा कम्मगसरीरं, नवरं पियमा छदिति, एवं वश्जोगत्ताए वि, कायजोगत्ताए वि जहा ओराक्षियसरीरस जीवे णं भंते ! जाई दम्बाई आपाताप एहति, जहेब ओरालिय सरीरत्तापु०जाव सिय पंचदिसि ||
(२४६५) अभिधानराजरूः ।
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(वियाई ति ) स्थितानि जीवप्रदेशाव गाढ क्षेत्रस्याभ्यन्तरपनि अस्थितानिवसनि तानि पुनरोदा रिकशरीर परिणामविशेषादाकृष्य गृह्णाति । अन्ये त्वाहु:स्थितानि तानि यानि जन्ते तद्विपरीतानि स्वस्थितानि, (फि दो मिटर ति ) किं रूपमाथि गृहाति यतः किस्वरूपाणि गृह्णातीत्यर्थः । एवं क्षेत्रतः क्षेत्रमाश्रित्य कति प्रदेशाचादानी थे कि सरीराधिकारे नियम - दिति चैकियशरीरी पचेन्द्रिय एव प्रायो भवति, स च त्रसनाड्या मध्य एव तत्र च षमपि दिशामनस्यमलोकेन विवचितलोकदेशस्येत्यत उच्यते( नियमं छद्दिसि ति ) यच्च वायुकायिकानां त्रसनाड्या यदिरपि वैकियकर जति दिन वि तस्य तथाविकान्तनिष्कुटे वा बैकियशरीरी वायुर्न संभवतीति तेज-(विि
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भातरी नूताम्बेय गृहाति (नो मया मिटर ति ) मनन्तरवनि पदाति, तस्यापरिणामाभावात् । अथवा स्थितानि स्थिराणि गृह्णाति, नोऽस्थितान्यस्थिराणि, तथाविधस्वभावत्वात् । ( जहा नासापदेत्ति ) यथा प्रज्ञापनाया एकादशे पड़े तथा वाच्यम्। तच्च (विपयसिपाई गिन्दर
-
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दव्य
•जाय अणतपसिया गटाद) यसरी ति यथा वैकियसरी
- (जटा स्थितास्थितद्रव्यविषयं पदिकं च, एवमिदमपि श्रोत्रेन्द्रियव्यग्रहणं हि मामीमध्य एव तत्र च (सिय तिदिसिमित्यादि) नास्ति व्याघावाभावादिति ( फालिदिया जा भोसरीरं ति) अयमर्थः- स्पर्शनेन्द्रियतया तथा वाणि पदाति दार कशरीरं स्थितास्थितानि षन्दिगागतप्रभृतीनि चेति प्राषः । (मणजोगताप जदा कम्मगलरीरं, नवरं नियमा छाइसिं, ति) मनोयोगता तथा इय्याणि गृह्णाति यथा कार्मणस्थितान्येव गृह्णातीति भावः । केवलं तत्र व्याघातेनेत्याद्युक्तमिद् तु नियमात् पदिश्येव वाच्यम्, नामीमध्य एवं मनोपजावात् । अपसानां हितास्तीति (एयं यशोया) मनो द्रव्यवद्वाग्व्याणि गृह्णातीत्यर्थः । ( कायजोगतार खड़ा ओरालिय सरीरस्स चि) काययोगद्रव्याणि स्थितास्थितानि दिगागतप्रभृतीनि चेत्यर्थः । ० २५० २४० ।
दुवा] दवा पणता । तं जहा गइसमाचगाव, अग समावन्नगा चैव ॥
द्रव्यसुत्रे गतिर्गमनमात्रमेव, शेषं तथैवेति पृथ्वीकायवत् । स्था०१ वा० । (किं इव्यं गुरु, किं वा सध्विति 'अगुरुल हुय' शब्दे प्रथमभागे १५७ पुस्तकादेशः किं रूप्यमिति पथिकाशब्दे श्यते) (द्रव्यक्षेत्रका नावानां परस्परं समावेशः अयोगशब्दे प्रथमभागे ३४३ पृष्ठेतितः) ( जीवास्तिका प्रदेशार्थतया ऽल्पबहुत्वम् अत्थिकाय ' शब्दे प्रथमभागे ५१४ पृष्ठे रुष्टव्यम् ) संयमे, आचा० १ ० ० भ० ८ ३० । वैशेषिकरीत्या रूपाणि यत्र दोषश्च
4
पृथिव्यप्तेजोवायुराकाशं कालो दिगात्मा मन इति नव 5व्याणि । तदत्र पृथिव्यप्तेजोवायूनां पृथग्व्यत्वमनुपपन्नम् । तथादित एव परमायचः प्रयोगाम्यां पृथिव्यादिन परिणमन्तोऽपि न स्वकीयं इव्यत्वं त्यजन्ति न चावस्था भेदेन द्रव्यभेदो युक्ता, अतिप्रसङ्गादिति आकाशको
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मरयमभ्युपगतमेव दिशाकाशापभू ताया अनुपपन्नं पृथग्द्रव्यत्वम् अतिप्रसङ्गदोषादेव । श्र त्मनश्च स्वशरीरमात्रव्यापिन उपयोगलक्षणस्याभ्युपगतव्यस्वमिति मनसा पुत्रविशेषतया पुद्गल - ति परमावान्मनस जीवगुणत्वादात्मन्यस्तनीवति । यदपि तैरभिधीयते यथा पृथिवीत्वयोगात्पृथिवीति, तदपि स्वप्रक्रियामात्रमेव । यतो न हि पृथिव्याः पृथग्भूतं पृथिवीत्व मनाचियी भवेत् अपितु सर्वमपि रा माम्यविशेषात्मक राकारमुपस्वनावमिति ।
तथा चोक्तम्
" नान्वयः सहमेदत्वा न भेदोऽन्वयवृत्तितः । मृद्भेदद्वयसंसर्ग-वृत्ति जात्यन्तरं घटः ॥ १ ॥ "
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तथा-
'नरस्य सिंहरूपत्वान्न सिंहो नररूपतः । शब्दविज्ञानकार्याणां भेदारान्तरं दिसादि। अथ रूपरसगन्धस्पर्श रूपित्र्यवृतेर्विशेषगुणाः, तथा सं ख्यापरिमाणानि पृथक्त्वं सयोगविभागौ परत्वापरत्वे इत्येते सामान्यगुणा, सर्वद्रव्यवृतित्व तथा बुद्धिः सुखखे
।
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दव्य
( २४६६ )
श्रभिधान राजेन्खः ।
हो
द्वेषप्रयत्नधर्मधर्मसंस्कारा श्रात्मगुणाः । गुरुत्वं पृथिव कयोः स्वभावत्वेन परोपाधिकत्वं चिप्का स्वगार्तगुणः शब्द इति । तत्र संख्याऽऽद यः सामान्यगुणा रूपाऽऽदिवय स्वभावत्वेन परोपाधिकत्वाद् गुणा एव न जयन्ति । अथापि स्युस्तथाऽपि न गुणानां पृथकत्वव्यवस्था तत्वावे. पर्याय अपमितिव ग्रहणं न्याय्यमिति न पृथग्भावः । किं च तस्य भावस्तस्वमित्युच्यते । भावप्रत्ययश्च यस्य गुणस्य हि भावाद द्रव्ये शब्दनिवेशस्त्रभिधाने स्वतावित्यनेन भवति । तत्र घटो रक्त उदकस्याऽऽहारको जलवान् सर्वैरेव घट उच्यते । अत्र च घ टस्य नाम्रो घटत्वं रक्तस्य जावो रक्तत्वम्, आहारकस्य भाव आहारकत्वं, जलवतो जावो जलश्वमित्यत्र घटसामान्यरक्तगुकारूपाणां गुणानां सद्भावात्
दशपरितियुकं बाहुल्यास्यन्तिरम सम्म० ३ का राम । पच्चुपपन्नं भावं, विगयनविस्महि जं समाणेइ । पयं पद्दुच्च वयणं, दव्वंतरणिस्त्रियं जं च ॥३॥ सम्म० ३ का राम ।
""
कार उदकाऽऽद्याहारणकमे कुटकाऽऽख्ये शब्दस्य घटादेरनिनिवेशः, तत्र स्वतली, इद्द व रक्ताऽऽख्यको गुणो, यत्सद्भावाकतरच तद् त्र्यं यत्र शब्दनिवेशो येन भावप्रत्ययः स्यादिति । किमिदानीं रक्तस्य भावो रक्तवमिति न प्रवितव्यम् ?, भवितव्यमुपचारेण । तथाहि एक इत्ये र्थ्य तस्य सामान्यं भाव इति रकत्वमिति । न चोपचारस्त यामुपयुज्यते कृतार्थादिति शब्दश्वाऽकाशस्य गुण एव न जवति, तस्य पौलिकत्वादाकाशस्य चामूर्त्तत्वादिति । शेषं तु प्रक्रियामानसाधनं योरगम । क्रियाऽपि द्रव्यसमवायिनी गुणवत्पृथगाश्रयितुं न युक्तेति । सूत्र० १० १२ श्र० । ० ० ॥ श्र०म० | स्या० ।
दव्वक द्रव्य षट्क- न० । षडेव पट्कं द्रव्याणां षट्कं व्यष्ट्रकम पृथिव्यतेजोवानस्पतिकास्वनाचे समुदाये दर्श० १ त ।
दननाथ द्रव्यजात विशे २० भ० । व्यप्रकारे, प्रश्न० ३ संव० द्वार | दव्वपए सपा- प्रव्यार्यप्रदेशार्थता स्त्री० | द्रव्यार्थ प्रदेशाजयाऽऽश्रयणे भ० २५ ० ३ ० ।
ताश का प्रार्थनास्तु
पृथिव्या गुरित्येततुः मेदाद्व कारं द्रव्यम् । तत्र परमाणुरूपं नित्यम्, सहकार व नित्यमिति वचनात् । तदारब्धं तु यशुकाऽऽदिकार्यद्रव्यमनित्यम् । श्राका शादिकं तु नित्यमेव, अनुत्पत्तिमध्यात्। एषां च द्रव्यत्यासं चम्बा पनि मेन ताने
यस्याभिसंबन्धपतिस्तपति कादिगुणादिभ्यो व्यावृत
दवडिय
येन व्यत्वमपरं तेषु तक्राऽऽदिषु पृथक पृथक् श्रस्वादवत्त्वं, न तु नामत्वमतस्तत्र कया रीत्या द्रव्यसंख्या गण्यते इति प्रश्ने, उत्तरम् - गोमहिष्य जाप्रभृतीनां सर्पिषः कारमिष्टाऽऽदिपानीपानांच गोदिष्यादिताणां चैकद्रव्यत्वं गमते. यत उभयनित्वे सति न्निध्यत्वं स्पादिति । २०२ प्र० । सेन० २ उम्बा० । अहमदावाद संघकृतप्रश्नस्तदुत्तरं च । यथाआतमधुरतको तयोदशीको तथा मेजलकूपोरके गए पृथग बेति प्र रम् श्रमुतक्रमधुरतकप्रमुखाणामेकद्रव्यत्वं गएयत इति । १२४ प्र० । सैन० ४ उल्ला० । ( भाषाद्रव्यस्य अनुतटिकादिनेदाः सदायो)
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दव्वंतर-व्यान्तर- - न० एकक्रव्यादन्यस्मिन् द्रव्ये तद्द्रव्यसशे.सम्म यथागोरस परिणा
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वार्थो द्रव्यार्थः, तदूजावस्तत्ता भ० १० श० ४ ० । क्रयअनु तस्य भावार्था प्रदेशगुण पर्यायाऽधारता यामव्यविब्रव्यतायाम्, स्था० १ ठा० । द्रव्यास्तिकनयमते, "दब्बट्टयाए सासया, पज्जबध्या असासा" याइयास्तिकयमतेन शास्त कनयो हि यमेव विनिमयते न पर्यायान् इयं चान्वयपरिणामित्वात् । अन्यथा द्रव्यत्वायोगात् श्रन्वयिस्वाच्च सकन्नकालभावीति जयति व्यार्थतया शाश्वती जी० ३ प्रति० ४ ४० |
कवकानि पृथिवीत्वाभिय
स्वादिणमिवहारे दावे चा
साध्ये केव्यतिरेकिभेदत्वाकाशकालदिव्या उपस्यानाऽऽपुण्यं पुल, नस्य व्याणामनादिसितवान्यता या सम्म ३ का राम । (भिक्षायां प्राह्यज्यविचारो 'गोयरचरिया 'शब्दे तृजाये ६०६ पृष्ठे उक्तः पानकसंसक्ताऽऽदिशब्देषु च वक्ष्यते) पित्तले, वि. ते विलेपनये. मेत्र जे भध्ये जन्तुनि, चिनये, मद्ये, व्याकरणोनाविकार
यत् । वृकविकारे, तत्संबन्धिनि च । त्रि० । वाच० | पं० देवविजयगणित कधित् खः खग्वेण प्रतियां, क श्चित्पुस्तकं च कारयति, निखति वा तदा प्रतिमा कर्तुर्देवयं पु· नकलेखकस्य ज्ञानभ्यं व लगति, न वेति प्रश्ने, उत्तरम् - उभ योरपि यथाकामं ते उजे न लगत इति सभाव्यते । १६७ प्र० । सेना २०० ग्रमहिष्य समे गोमयादितकार्या
विविधं प्रोक्तम्-त्पृथक पृथक नामाऽऽस्वादव
स्थानं नेदः परमाणुद्विप्रदेशकाऽऽदि, तस्याऽऽयुः स्थितिः । श्रथवा द्रव्यस्यान्याऽऽदिभावेन यत्स्थानमवस्थानं तद्रूपमायुव्यस्थानाऽऽयुः । अव्यस्थितौ भ० ५ ० ७ ० | व्यधिज्यस्थित श्री०
( सा च चतुर्विधा 'काल' शब्दे तृतीयजागे ४७१ पृष्ठे गता ) ( उचचय' शब्दे द्वितीयजागे ८८१ पृष्ठे वस्त्रहन्तेन च ) दव्वद्विय-व्यार्थिक-पुं । व्यमेवार्थो यस्य, न तु पर्यायः, स व्यार्थिकः । नयप्रेदे, आ० म० १ ० २ खण्ड । अव्यस्थित पुं० । द्रव्ये च वस्तुतच्यबुद्ध्या स्थितो, न तु पर्या ये इति व्यस्थितः । नयनेदे, आ० म० १ २० २ खएम । व्यास्तिक- पुं० । अस्तीति मतिरस्य आस्तिकः । " दैष्टि
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(२४६७) दत्वडिय अभिधानराजेन्द्रः ।
दव्वडिय कास्तिकनास्तिक-॥” इति निपातनादिकाण, व्ये आस्तिको, | श्वाभिव्यज्यत इति । एवं कालाऽदयोऽप्यसत्तश्चेन्न शशश्रद्भाद्भिन तु पर्याये प्रति व्यास्तिकः । प्रा०म०१ अ० २ खपम । घेरन,सदात्मका कथं नास्तिवादभिन्नाः १) इति मत्व निङ जं. द्रव्यमात्रप्ररूपके मूखनयमेदे, रत्ना०७ परि०।
तस्यार्थः,घटोऽस्तीत्यस्याएँ यद्वाक्यं प्रयुज्यते घटः सन्निति,तत्र व्यार्थिकमतम्
भावाभिधायिता पदद्वयम्यापि। तथाहि घट इति विशेषण, स. जव्याथिकमते ऽव्यं, तवं नेष्टमतः पृथक् । (१२)
निति विशेष्यम् । अत्र येनाऽपि वा भावविपरीतेन भाव्यमान न्यार्थिकस्य मते व्यं परमार्थतः सत, तोव्यात् पृथग्
ह्यन्यथा तद्विशेषणं, नापि तद्विशेष्यं स्यादू. निरुपाख्यत्वात्, अ. भिनं विकल्पसिकं गुणपर्यायस्वरूपं तत्वं नेष्टम्, सवृत्ति मतोऽपि
त्यन्तानाववत् । यदि पुनरभावविपरीतं तदिष्यते, विशेषणतस्य परमार्यतोऽसत्वादिति भावः । नयो०। ("तित्थयरवणसं.
विशेष्ययोः कथं न जावरूपता ? । तेन यदेव घटस्य भावो गह-विसेसपत्थारमूलबागरणीदवाट्रिो य,"(३ गाथा)
घटत्वं, तदेव घटः, यच्च सतो भावः सच्वं, तदेव सन्निति त्यादिगाथ या 'रणय' शब्देऽस्मिन्नेव जागे १८७६ पृष्ठे द्रव्या
सर्वत्र संग्रहाभिप्रायतः प्ररूपरणाविषयो भाव एव । उक्त थिकनयो विवृतः) स च शुद्वाऽशुद्धनेदेन द्विधा । तत्र शु
चैतत् समयसद्भावमभिधताऽन्येनापि.. द्धो व्यास्तिको नयग्रहनयाभिमतविषयप्ररूपका। सर्वमेक " अस्त्यर्थः सर्वशब्दाना--मिति प्रत्याय्य लक्कणम् । सदविशेषादिति शुद्धजन्यास्तिकाभिप्रायः। अशुद्धस्तु व्या. अपूर्वदेवताशब्दैः, सम प्राऽऽहुर्गचदिपु॥५॥ थिको व्यवहारनयमतार्धावलम्बी एकान्तनित्यचेतनाचेतनव घटाऽऽदीनां न चाकारा-प्रत्यापयति वाचकः । स्तुद्वयप्रतिपादकसाइख्यदर्शनाऽऽश्रितः,अत एव तम्मतानुसा. वस्तुमात्रनिवेशित्वा-त्तमतिर्नान्तरीयका ॥२॥” इति। रिणः साइख्याः । सम्म० १ काण्ड । वक्ष्यति चाऽऽचार्य:-"जं
अत एव “यत्र विशेषक्रिया नैव श्रूयते तत्रास्तिनवन्तीपरः प्रकाबिलं दरिसणं, एयं दञ्चट्टियस्स वत्तब्ध।" इति नैगमनया. निप्रायः । द्रव्यास्तिकः शुभाशुरूतया श्राचार्येण न प्रदर्शित
थमपुरुषे प्रयुज्यमानोऽप्यस्तीति गम्यते," इत्युक्तं शब्दसमयवि.
द्भिरिति । अवगतिश्च युक्ता-यदि सत्तां पदार्थो न व्यनिचरेत्, एच । नैगमस्य सामान्यग्राहिणः संग्रहेऽन्तर्भूतत्वाधिशेषग्राहिण
अव्यभिचरेत्। अव्यनिचारे च तदावेशात्तदात्मकतैव,आसन्नापश्व व्यवहारे इति नैगमाभावादिति व्यप्रतिपादकनयप्रत्ययरा.
रित्यागे वा स्वरूपहानमिति न सन्मात्रमेवाध्य कस्य,शब्दस्य वा शिमूलव्याकरणी च्यास्तिकः शुद्धाशुरुतया व्यवस्थितः,
विषपः, निःशेषमशेषपृधव्यवस्थापितमधुराऽऽदिर सपानक. श्रात्र पर्यायास्तिक ऋजुमूत्रशब्दसमभिरूढे नूतनयप्रत्ययराशि
व्यवत् । भेदप्रतिभासस्तु भेदप्रतिपादकाऽऽगमोपहतान्तःकरमुमव्याकरणी शुद्धाशुद्धतया व्यवस्थितः । सम्म०१ कापम ।
णानां तिभिरोपप्सुनदृशामेकशशलाचनमण्डलस्यानेकत्वावनयो । स्या "दव्यटिअनयपयमी" ( सम्म०१ काएम ४ गाथा) अस्याश्च
भासनबदसदिति सर्वमेदानपन्हुवानः सर्व सन्मात्रतया संगृ. गाथायाः सर्वमेव शास्त्रं विवरणम् । “दवष्टुिो
हून् संग्रहः, शुका ध्यास्तिकप्रकृतिरिति स्थितम् । तामेव शुद्धां
अपज्जवन. श्रो य" (३) इत्यादिपश्चाकदेशस्य विवरणायाऽऽह सूरि:
'पमिरूवे पुण(४)' इत्यादिगाथापश्चाद्धन दर्शयत्याचार्यः-प्रतिरूपं
प्रतिबिम्ब,प्रतिनिधिरिति यावत् । विशेषेण घटाऽऽदिना येण दव्यट्ठिअनयपपडी, सुच्छा संगहपरूवणाविसओ ।
संकीर्णा सत्ता, पुनरिति प्रकृति स्मारयति। तेनाऽयमर्थः-विशेषण पमिरूने पुण वया-त्यनिच्छो तस्स ववहारो॥४॥ सकीणां सत्ता प्रकृतिः स्वनायो वचनार्थनिश्चय शति हेयोपादयो. इति गाथासूत्रमे । अत्र च संग्रह नयप्रत्ययः शूको च्यास्ति- पेक्षणीयवस्तुविषयनिवृत्तिप्रवृत्युपेशाबवणव्यवहारसंपादनार्यको, व्यवहारनय प्रत्ययस्त्वशुरु इति तात्पर्यायः ॥ अवयवार्थ- म्, उच्यत इति वचनं, तस्य घट इति विभक्तरूपतयाऽस्तीत्यवि. स्तु-व्यास्तिकनयस्य व्यावर्णितस्वरूपस्थ, प्रकृतिः स्वजावा, भक्ताऽऽत्मतया प्रतीयमानो व्यवहारक्षमोऽर्थः,तस्य निश्चयो नि. शुद्धत्यसंकीर्णा विशेषासंस्पर्शवती, संग्रहस्याभेदतया (?) हि र्गतः पृथग्नूतश्च यः परिच्छेदः, तस्येति व्यास्तिकस्य, व्यवहार नयस्य प्ररूपणा-प्ररूप्यते नये नैव कृत्वापरणंना पदसंहतिः, इति लोकप्रसिहव्यवहारप्रवर्तन परो नयः सोऽभिमन्यते । यदि तस्या विषयोऽनिधेयः, विषयाऽऽकारेण विषयिणो वृत्तस्य वि. हि हेयोपादेयोपेकणीयस्वरूपाः परस्परतो विभिन्न स्वभावाः षयव्यवस्थापकत्वात्, उपचारेण विषयाम विषयिप्रकथनमे-- सद्यतया शब्दप्रभवे संचिदने भावाः प्रतिभान्ति, ततो निवृत्ति तत् । अन्यथा का प्रस्तावः शुद्धव्यास्तिके विधातुं प्रक्रान्ते प्रवृत्युपेकपो व्यवहारस्तद्विषयः प्रवृत्तिमासादयति नान्यथा।न संग्रहप्ररूपणाया:?. स च संग्रहप्ररूपणाभिप्रायेण भाव एव । चैकान्ततःसन्मात्राविशिषु संग्रहामिमतेषु पृथक्स्वरूपतया पतथाहि-जातिव्यगुणक्रियापरिजाषितरूपेण, स्वार्थऽव्याले- रिच्छेदो बाधितरूपो व्यवहारनिबन्धनः संभवतीति । तथाहि-य. ङ्गकर्मादिप्रकारेण वा सुबन्तस्य योऽर्थः स भावाद् व्यतिरि. दाद्याऽऽकारे निरपेक्कतया स्वग्राहिणो ज्ञाने प्रतिभासमाधत्ते,तत्ततो वा नवेदव्यतिरिक्तो वा? यदि व्यतिरिक्तस्तदा निरुपाख्य- थैव सदिति व्यवदर्तव्यं,यथा प्रतिनियतं सत्ताऽऽदिरूपम,सन्निस्वादत्यन्ताभाववत्तिङन्ताऽऽदिरूप इति कथं सुबन्तवाच्यः। अ- वेशवटाद्याकारनिरपेकं च घटाऽऽदिकं स्थावभासिनि ज्ञाने स्वरूव्यतिरिक्तश्चेत्कथं न भावमात्रता सुवन्तार्थस्य, तिङन्तार्थस्यापि पं सन्निवेशयतीति वनावहेतुः घटाऽऽदिनिरपेकत्वं च पटाऽऽदे: क्रियाकाल कारकपुरकोपग्रहवचनाऽऽदिरूपेण परिभाध्यमागास्य घटाऽऽद्यभावेऽपि नावाद वभासमानाञ्च लिम् । यद्वा-प्रतिशसनारूपतेव । तथाहि पचतीत्यत्र क्रिया विक्लित्तिलक्षणा,काल ब्दो वीफ्लायाम, रूपशब्दश्च वस्तुन्यत्र प्रवर्तते। तेनायमर्थ:-रूपं भारम्नप्रतिरपवर्गपर्यन्तो वर्तमानस्वरूपः,कारकः कर्ता,पुरुषः रूपं प्रति प्रतिवस्तु, वस्तु प्रति यो वचनार्थनिश्चयः,तस्य प्रकृतिः परः,भावात्मकरुपग्रहः परार्थता, वचनमेकत्वं यद्यपि प्रतिप. स्वभावः स व्यवहार ति । तथाहि-प्रतिरूपमेव वचनार्थनितिविषयः, तथाऽपि सत्यमेवैतत् । यतः क्रिया ह्यसती चत्कारकै- श्चयो व्यवहारहेतुः,न पुनरस्तित्वमात्रनिश्चयः,यतोऽस्तीत्युक्तेऽ. ने साध्येत,खपुष्पाऽऽदिवत् सतीचेदस्तित्वमात्रमेय,सा कारकै । पिश्रोता शङ्कामुपगच्चन् लक्ष्यबे,अतः किमिन्छन् लक्ष्यतेऽस्ती
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दव्वाढिय
(२४६०) अनिधानराजेन्द्रः।
दव्यद्विप त्याशक्कायां द्रव्यमित्युच्यते,तदपि किम्?,पृथिवी,साऽपिका?, नन्वेचं भ्रमाधिष्ठानत्वमेव सत्यत्वं, नमविषयत्वं चासत्यत्वमिवृतः, सोऽपि का?.चूतः, तत्राप्यधित्वे यावत्पुष्पितः फलितः,इ. स्वागतम्,न चासत्यत्वं प्रत्यक्षप्रमीयमानेषु पर्यायैप्वव्यापकम,एवं त्यादि तावनिश्चिनोति यावद् व्यवहारसिफिरिति । व्यवहारो तत्र तदसवरूपसत्यस्वमक्तेिश्वव्यापकमिति चेदून,सत्यरजत. दिनानारूपतया सत्ता व्यवस्थापयति, तथैव संव्यवहारसंन्न- स्याऽपि प्रतिभासकाले सत्ताभानेन कालत्रयसत पवैतभये स. वात्। अतो व्यवहरतीति व्यवहार इत्यन्वर्थसंज्ञा विभ्रदशुद्धा त्यत्वस्वीकारात्। अत एव कालवृश्यत्यन्तानावाप्रतियोगित्व. द्रव्यास्तिकप्रकृतिर्भवति ।
मेव परमार्थसत्यस्वमित्यभिप्रेत्याऽऽहैतत्साम्प्रदायिकः ॥१३॥ विशेषप्रस्तारस्य पर्यायतया मूलव्याकरणी, शब्दाऽऽदयश्च
मादायन्ते च यमास्ति, मध्येऽपि हि न तत्तथा। शेषाः पर्यायनयमेदा इति प्रागुक्तं, तत्समर्थनार्थम्
वितथैः सदृशाः सन्तो-ऽवितथा इव लक्षिताः॥१४॥ मूलणिमेणं पज्जव-णयस्स उज्जुसुअवयण विच्छेदो ।
(श्रादाविति) श्रादायन्ते च यवस्तु नास्ति.तन्मध्येऽपि मध्यकातस्स ल सदाईआ, साहपसाहा मुहुमभेया ॥५॥
पिन तथा,नास्ति इत्यर्थः। न हि प्रागभावध्वंसावच्छिन्नकाइति गाथासूत्रम् । अस्य तात्पर्यार्थः-पर्यायनयस्य प्रकृतिराद्या
ससंबायः सत्य इत्यभ्युपगन्तुं शक्यम्, उत्पत्तिविनश्यत्तासमा ऋजुसूत्रास त्वाखा, शब्दः शुद्धाशुद्धतरा समभिरुढः,अत्यन्त.
ययोम्पत्तिविनाशव्यापारव्यप्रयोरन्वयिव्यवहारातनच तद्विशुधा त्वेवंत इति । अवयवार्थस्तु-मूलनिमेणमाधार,पर्यायो वेके मध्यन्नागः कश्चिदवशिष्यते, इक्षुदण्डस्येव सकलमूत्रान. विशेषः, तस्य नय नपपत्तिबलात्परिच्छेदः, तस्य, ऋजु वर्ग जागच्छेदे । किं च-पूर्व पश्चाचासत्स्वन्नावस्य कथं मध्यमकणे मानसमयं वस्तु,स्वरूपावस्थितत्वात,तदेव सूत्रयति परिच्चिन- सरस्वजावत्वम,स्वभावविरोधाद, मध्यमकणे समेव पर्यायः पू. ति, नातीतानागतं,तस्यासत्त्वेन कुटिलत्वात् । तस्य वचन पदं चीपरकालयोरसद्व्यवहारकारीति न स्वनावविरोध ति चेत्, वाक्य वा,तस्य विच्छेदोऽन्तःलीमेति यावत्। जसूत्रवचनस्ये- तर्हि पूर्वापरकालयोरसत्स्वभाव एवायं मध्यमकणसंबन्धेन स. ति कर्मणि षष्ठी । तेन ऋजुसूत्रस्यायमों मान्यस्येति प्ररूपयतो यवहारकारीत्येव किं न स्वीक्रियते?, तस्मान्न निरपेक्वापारमावचनं विच्छिद्यमानं यत्तन्मूलनिमेणमत्र गृह्यते। ननु कथं वचनावि- र्थिकसत्ताक (१) न पर्यायाः,किं तु वितयैःशशविषाणाऽऽदिन्नि: च्छेदः शब्दरूपः परिच्छेदस्यनावस्य नयस्याऽऽधारः। नैष दोषः, काल्पनिकत्वेन सदृशाः सन्तोऽनादिशौकिकव्यवहारवासनाव. विषयेण विषयिकथनरूपत्वादस्य । न च पचनार्थोऽस्य विषयो, शादवितथा श्व तंक्षिताः, सोकैरिति शेषः ॥ १४ ॥ न शब्द इति वक्तव्य, वचनार्थयोरभेदात् पचनमपि यतो विषयः।
नन्वेयं व्यार्थिकनये पर्यायाणां शशविषाणप्रायत्वात्सदवअथ विषय एव किन्नोक्त इति न प्रेरणीयम् शब्दाभिहितस्यैव प्रमा
गाहिकानमलोकविषयत्वेन मिथ्या स्याद्न च घटाऽऽ. णत्वमिति झापनार्थत्वादेवमभिधानम, तस्य च पूर्वापरपर्याय
दिज्ञानविनिमुक्तविषयको द्रव्योपयोगः कश्चिदवशि. विविक्ते एकपर्याय एव प्ररूपयतो वचन विच्छिद्यते,एकपर्यायस्य
प्यते, शति नामशेषता च तस्य स्यादित्याशङ्कर परपर्यायासंस्पर्शात । उक्तं च तन्मतमर्थ प्ररूपयद्भिः-" पक्षानं
शुद्धावान्तरव्यार्थिकभेदेन तस्य वैविध्यान दहत्यनि-दह्यते न गिरिः कचित् । नासंयतः प्रवजति, ज
नानुपपत्तिरित्यभिप्रायवानाहव्यजीवो न सिध्यति ॥१॥" पलालपर्यायस्याग्निसाद्भावपर्यायादत्यन्तजिन्नत्वाद् यः पलालो नाऽसौ दह्यते,यश्च प्रस्मभाव
अयं व्योपयोगः स्या-छिकस्पेऽन्त्ये व्यवस्थितः । मनुजवति, नासी पलालपर्याय इति। सम्म०१काराम । ("नामं
अन्तरा द्रव्यपर्याव-धीः सामान्यविशेषवत् ॥ १५॥ ग्बणा दविपत्ति एस दबहियस्स जिक्खेवो।" (६ गाथा (अयमिति) अयं व्योपयोगो द्रव्याथिकनयजन्यो बोधोऽन्स्ये सम्म०१ काण्ड) इत्यादिगाथाया 'णय ' शब्देऽस्मिन्नेव भागे विपाल्पे शुद्धसंग्रहाऽऽरुये व्यवस्थितः पर्यायबुद्ध्या अविचशितः १७७८ पृष्ठे व्याख्यातोऽर्थः)
स्यात, अन्तरा शुरूसंग्रहशुद्धर्जुपूत्रविषयमध्ये व्यपर्यायधीरेव ___एतदेवाऽऽह
स्यात, सामान्यविशेषबुझिवत् । यथा हि परेषां व्यत्वाऽऽदिक
जव्यापेक्कया सामान्य सद् गुणाऽऽद्यपेकया विशेषाऽऽस्यांनभते, तिर्यगूईप्रचयिनः, पर्यायाः खबु कस्पिताः ।
तथाऽस्माकं घटाऽऽदिकंवपर्यायापेक्षयासामान्य सद् गुणाऽऽद्य. सत्यं तेष्वन्वयि द्रव्यं, कुएमलाऽऽदिषु हेमवत् ॥१३ ।।। पेक्षया पर्यायाऽऽस्यां लभते,इति यद्यवगाही अवान्तरजव्याथिका (तिर्थगिति ) तिर्यप्रचयिनः परस्परसमानाधिकरणत्वे पर्यायोपसर्जनतां, 5व्यमुख्यतां चाऽवगाहमानोनविरुभ्यते,अ. सति परस्परसमानका लीना रूपरसाऽऽदय अणुत्वस्थौड्या- सतोऽप्युपसर्जनतया आश्रयणं च कर्णशाकुल्यवच्छिन्नाकाशस्य ऽऽदयश्च, ऊर्द्धप्रचयिनः परस्परसमानाधिकरणत्वे सति पर- शब्दग्राहकां वदतां तार्किकाणाम, प्रानुपूर्वीविशेषविशिष्टस्य स्परभिन्नकाबीना रक्तश्यामत्वाऽऽदयः, संयोगविभागाss- शब्दस्य श्रोत्रग्राह्यतां वदतां मीमांसकाऽऽदीनां च दृश्यत पवेति दयश्च, पर्यायाः खलु निश्चितं, कल्पिता वासनाविशेषप्रनव- भावः। यता-घटाऽऽदेद्रव्यार्थिकेन पर्यायविनिर्मुक्ताव्याऽऽकारणविकरूपसिद्धा अपारमार्थिका ति यावत् । तेषु कल्पनारूदेषु वग्रहः, पर्यायनयेन तत्र पर्यायत्वाऽऽपादने च पर्यायविशिष्टतया पर्यायवन्वयि व्यापकतया प्रतीयमानं व्यं सत्यं, कुएमला- ग्रहणमित्येवं सूक्कोक्षिकार्या शुद्धसंग्रहादन्न्य विशेषं यावदव्यव. ऽऽदिषु नानाकाञ्चनपर्यायवन्वीयमानं, हेमवत् । अयं भावः-यथा स्थितिः,अन्त्यविशेषविकल्पे च शुर्जुसूत्रसवणे कारणाभावादेव शुको रजतभ्रान्ती बाधाऽवतारानन्तरं रजतानावनानेऽपि शुक्त | व्योपयोगी व्यवस्थितः स्यावापरतः म्यादिति व्याख्येयमान भासमानत्वाद् शुक्तः सत्यत्व, रजतस्य चासत्यत्वं, तथा कुराम- चानयाsनवस्थकस्याऽपि बोधस्थानापत्तिः, तत्तवान्तरने. लाऽऽद्यलावजानेऽपि हेम्नो भानात् कुएमलादिपर्यायाणा- | दप्रवृत्ती वा विषयान्तरसंचारानुपपत्तिः,पर्यायान्तरजिज्ञासोपमसत्यत्वं ट्रेमध्यस्य सत्यत्वम् । एवमन्यत्रापि नावमीयमिति । रमे तद्वोधविश्रान्तरिति भाषनीयम् । तदिदमुक्तं सम्मती
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दव्वट्टिय अमिधानराजेन्धः।
दवढिय "पजनवर्णयचुकंत,वत्धुं दबट्टियस्स वणिज्नं।
यमुक्तं विशेषाऽऽवश्यकवृसौ--"दवए ऽयए दोरव-ययो बिगारो जाच दविमोव प्रोगो, अपच्चिमविअप्पखिन्वयणो ॥८॥" गुणाण संदावो। दबभब्धं भाव-स्स जूअभावंच जंजोगा२८॥" ( पूर्व · सय ! शन्देऽस्मिन्नेव भागे १७८६ पृष्ठे गाथेयं (दब' शब्देऽनुपद मेवास्याः २४६२पृष्ठे व्याख्या गता) द्रवति ताँ. व्याख्याता) किं विहायुपयुक्तत्वेन किश्चिद् वित्रियते-न वि. स्साम्पर्यायान् प्राप्नोति मुश्चति वा । दूयते स्वपर्यायैरेव प्राप्यते घते पश्चिमे विकल्पनिर्वचने सविल्पधीव्यवहारलकणे मुश्ते बाहुः सत्ता, तस्या एवाययवोविकारो वेति द्रव्यम्। यत्र स तथा, संग्रहावसान इति यावत् । ततः परं वि. ३.-४। बान्तरसत्तारूपाणि व्याणि महासत्ताया अवयबो कल्पवचनाप्रवृत्तेरीरशो यावद् व्योपयोगः प्रवर्तते ताबद् विकारो भवत्येवेति भावःगुणाः सपरसादयः,तेषां संझाव: रुयायिकस्य वचनीय वस्तु, तश्च पर्यायनयेन वि-विशेषेण .
समूहो घटाऽऽदिरूपो जव्यम् ५ । तथा( भन्ध विस्सति). दूद्ध क्रान्तमेव विषयीकृतमेव पर्यायनया 55फ्रान्तं सत्तायां
विष्यतीति भावः,तस्य नाविनः पर्यायस्य योग्य पद्भव्यं तदपि मानाभाचादित्येकोऽर्थः।
जव्यम्, रानपर्यायाईकुमारवन ६ । तथा नूतं हि पश्चात्कृतो
भाबः पर्यायो यस्य तदपि ब्यमा ति दिकातदेव यमर्थः यद्वा-यद् वस्तु सूक्ष्मतरसूक्ष्मतमाऽऽदिबुहिना पर्यायन
प्रयोजनं यस्यासौ अध्यार्थिका, अस्त्यर्थ ठप्रत्ययः । येन स्थूलरूपं त्यजता व्युत्क्रान्तं-गृहीत्वा मुक्तं, किमिदं
शुद्धः कर्मोपाधिरहितश्वाऽसौ रुप्याधिकश्च शुद्धष्व्यार्थिक मृत्सामान्यं, यद् घटाऽऽदिविशेषानुपरक्तविषयोजवदन्त्य
इति ॥ ५ ॥ माकारेण (?) यावच्युक्तरूपतमोऽस्यो विशेषस्तावत्तत्सर्व द. ज्यार्थिकस्य वचनीयमतो यावदपश्चिमविकल्पनिर्वचनो योऽ
अथ तस्य द्रव्यार्थिकस्य शुरूताया विषयं त्यो विशेषस्तावद् व्योपयोगः प्रवर्तते इति द्वितीयोऽर्थः ।
दर्शयन्नाहअत एव अव्यपर्यायविषयतया, तदितराविषयतया बान शुक- पथा संसारिणः सन्ति, प्राणिनः सिघसनिजाः। जातीयव्यार्थिकपर्यायाथिकव्यवस्था, किं तपसर्जनी कृतानर्य
शुदाऽऽत्मानं पुरस्कृत्य, नवपर्यायतां विना ॥ १० ॥ प्रधानीकृत स्वार्थविषयतया। तदुक्तम्
उत्पादव्यययोर्गोणे, सत्तामुख्यतयाऽपरः । "दब्वट्टिो तितम्हा, णधि णो नियमसुद्धजाओ। ण य पज्जवढिओ णा-म को अभयणाय उ विसेसो ॥ " |
शुकडव्यार्थिको भेदो, यो व्यस्य नित्यवत ॥११॥ प्रजनोपमजनप्रधानभावावगाहनादसामान्यसंग्रहेऽपि शुद्ध
प्राणान्यभावभिन्नाः सन्ति येषां ते प्राणिनः। संसारो गतिच. सब्याकान्तिको न स्यादिति चेन. स्यादेवं पर्यायनयविचा
तुष्काऽऽविर्भावासोऽस्ति येषां ते संसारिणः। यथा येन प्रकारेण रानवतारदशायामेव तस्य शुरुत्वव्यवस्थितेः, तदवतारे तु पूर्व
शुरूाऽऽत्मत्वाऽऽदिलवणेन, सिम्सन्निभाऽटकर्मनिर्मुक्तजीनिप्रवृत्तव्यार्थिकाप्रामाएयनिश्चयेन तदर्थाभावस्यैव निश्चयात्।
भाविद्यन्ते। किं कृत्वा सन्ति?,शुरूात्मानं भूलनाव,तथा सहज. तमुक्तम्
भावं शुद्धाऽऽत्मनः स्वरूपं,पुरस्कृत्याग्रे कृत्वा,कथम्?,बिना,केन "दचट्ठिअवसवं, अवधु णियमेण हो पज्जाए ।
विना ?,भवपर्यायतां जबः संसारस्तस्य पर्यायो भावस्तत्ता भव. तह पज्जववत्थु अव-त्थुमेव दब्धष्ठिअणयस्स ॥१०॥"
पर्यायता,तां विना। एतावता याचनादिकाशिकी जीवस्य सं(सम्म०१ कापम)
सारावस्था वर्तते, सा प्रस्तुताऽपि न गएयते। अविद्यमानोऽपि अवस्तु इतरनयप्राधान्योपस्थितिजनितं नयाप्रामाण्यनिश्व. बाह्याऽऽकारेण सिकाकारः,तथाऽपि गृह्यतेऽन्तर्विद्यमानत्वात् । यकृतावस्तुवनिश्चयविषयः, तस्मात्पर्यायविनिर्मक्तप्रकारता- तदायमात्मा शुरुषव्यार्थिकनयेन सिम्सम एवास्तीति जावः। कस्य पर्यायनिष्ठोपसर्जनत्वस्य विषयताकस्य वा द्रव्याधि- अत्र भावमात्रपरा द्रव्यसंग्रहगाथा-" मम्गणगणवाहि.च. कस्य तत्तत्तापनीतस्वार्थविचारदशायामेव शुद्धत्वं, पर्याय- उदसा हवति तद असुरुण्या । विमेया संसारी, सम्बे सुद्धा नयाऽऽयातनावाऽऽकाङ्क्षायां चाशुद्धत्वमिति विवेकः । नयो०।। हु सुरुणया ॥१॥"।१०। (उत्पादोति) उत्पादस्य व्ययअथ नवसु नयेषु प्रथमो द्रव्याथिकनय उक्तः, अतस्तस्य
स्य च गौणतायां तथा सत्ताया ध्रवात्मकतायाश्च मुख्यातायाम, भैदा दश, तेषु प्रथमं भेदं विवरीषुराह
अपर शति द्वितीयो नेदःशुद्धद्रव्यार्थिकस्य ज्ञेयः। यतः उत्पाद
व्यययाणत्वेन सत्ताप्राहकः शुरुजव्यार्थिको नाम द्वितीयो भे. द्रव्याथिकन यस्त्वाद्यो, दशधा समुदाहृतः ।
दः । अस्य मते द्रव्यं नित्यं गृह्यते, नित्यं तु कालत्रयेऽप्यविचचव्यार्थिकस्तत्र, ह्यकर्मोपाधितो जवेत ॥ ए॥ लितस्वरूप,सत्तामादायवेदं युज्यते,कथम?,पर्यायाणां प्रतिक्षणं (अध्याधिकेति ) च्यार्थिकपर्यायाथिकाऽऽदिक्रमेण नया
भवसिनां परिणामित्वेनानित्यत्वोलब्धेः,परंतु जीवपुस्खाऽदिनव वर्तन्ते, तेषु प्राद्यः प्रयमो ऽव्याधिको नयः दशधा द.
व्याणां सत्ता अव्यजिचारिणी नित्यभावमबलम्ब्य त्रिकालाशप्रकार: समुदाहृतः, तत्र च प्रथमो व्यार्थिकनयः शुद्ध
विचलितस्वरूपाऽवतिष्ठते, ततो व्यस्य नित्यवदिति व्यस्य द्रव्यार्थिक इति अकोपधितः कर्मणामपाधितो रहितः शु.
नित्यत्वेन द्वितीयो मेदः॥ ११ ॥ द्धव्याधिकः कथ्यते । सद्व्य म् । सतणं स्विदम-सीदति
। अथ तृतीयनेदमुपदिशनाहस्वकीयान् गुणपर्यायान् व्यानातीति सत, उत्पादव्ययध्रौव्ययुक्तं सद्, अर्थक्रियाकारि च सत्य देवार्थक्रियाकारि तदेव परमा.
कल्पनारहितो भेदः, शुकडच्यार्थिकाऽजिधः । सत्,यश्च नार्थक्रियाकारि तदेव परतोऽप्यसत, इति निजनिज
तृतीयो गुणपर्याया-दभिन्नः कथ्यते ध्रुवम् ।। १२॥ प्रदेशसमूह रखराबवृत्तास्स्वभावविभावपर्यायाद द्रवति, द्रोण्यति, नेदः कल्पनया रहितः कल्पनारहितम्तृतीयो नेदःशुरुजव्याथिअदुश्पत् इति व्यमा गुणपर्यायवद्व्य म् गुमाश्रयो व्यं वा। कनामास्ति ३। यथा जीवऽव्यं, पुलाऽअदम्य च निजान
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दव्बडिय
जगुणपर्यविपानिपत यद्यपि भेदो वर्तते गुणपर्यायेभ्यः, तथाऽपि मिन्नविषयिण्यर्पणा न कृता, अभेदाख्यैवार्पणा कृता, अतः कारणाद्यद् यद् इव्यं तचद् द्रव्यजन्यगुणपति देव तदेव गुणो यदेव इयं तदेव पर्यायो, महापटजन्यख एम पटवत्तदात्मकत्वात् । अत्र हि विवक्षावशाद् मिन्नाभिन्नत्वं ज्ञेयमिति ॥ १२ ॥ अथ चतुर्थ भेदमाह-
( २४७० ) अभिधानराजेन्द्रः ।
।
कमपरकाख्य धतुर्थो भेद ईरितः । कर्मभागमयत्वात्मा, क्रोध मानी दुतु ।। १३ ।। ( कर्मेति) कर्मोपाधेः सकाशात् कर्ममिश्रजील्यस्याशुजायते ततः कर्माचार्थभेदक चितः। यतः कर्मसियार्थिक इति मेदः - स्य चणं कथयति-यथा कर्मनावमयः कर्मणां ज्ञानाssवरणादीनां भावाः प्रकृतयस्ते प्रचुरा यत्रेति कर्मभावमयः, श्रात्मा ताहगुरूपो लक्ष्यते । येन येन कर्मणा श्रागत्य आत्मा निरुद्धयते तदा तत्कर्म स्वभाव तुल्यपरिणतः सन् व्यवह्निय
यता जीवः क्रोधोति व्यपदिश्यमानम दयाज्जीवो मानीति व्यपदिश्यते । एवं यदा यद् इव्यं येन भाबेन परिणमति, तदा तद् द्रव्यं तन्मयं कृत्वा यम् । यथालोहोऽग्निना परिपतो यदा काले प्राप्यते तदा अग्निरूप एवो
तेन तु रूप मारमाऽपि मोडीयादिकमादयेन यदा कोsssदपरिणतः स्यात् तदा क्रोधाऽऽदिरूप एव बोद्धव्यः । अत एवाष्टावात्मनो नेदाः सिद्धान्ते व्याख्याता इति । अथ पञ्चमं भेदमाहउत्पादव्ययसापेक्षो-शुद्धव्यार्थिको ऽग्रिमः । एकस्मिन्समये मुत्पादव्ययव्ययुक् ॥ १४ ॥ उत्पादव्ययसापेक्षां पञ्चमो नेदोद्धव्यार्थिको केयः । यतःउत्पादव्ययसापेक्ष सताम्राहको व्यार्थिकः पञ्चम इति || यथा एकस्मिन्समये इयमुत्पादव्ययरूपं कथ्यते । कथं यः कटकारादयः स एव केयूराऽऽदिषि परं तु कनकसत्ता कटक केयूरयोः परिणामिन्याचजेनीयैव । एवं सति त्रैलइएयग्राहकत्वेनेदं प्रमाणवचनमेव स्यान्न तु नयवचनमिति चेन्न । मुख्यगौणनावेनैवानेन नयेन बैलचएयग्रहणान्मुपनयं स्वस्वार्थमेन नयनां सप्तनङ्गीमुखनैव व्यापारात् ॥ १४ ॥
नाशसमयः,
अथ पष्ठनेदमाहभेदस्य कल्पनां एक पष्ठ इष्यते ।
essत्मनो हि ज्ञानाऽऽदि गुणः शुद्धः प्रकल्पनात्॥ १५ ॥ (मेन) अरूयार्थिकः पो भेदो भेदस्य भेदभावस्य कल्पमां गृहन् सन् जायते, यथाहि ज्ञानाऽऽदयो गुणाः शुद्धा श्रात्मनः कथ्यन्ते इत्यत्र पष्ट विनक्तिर्भेदं कथयति, निक्षोः पात्रमितियत् परमार्थतस्तु गुणगुएिमोर्भेद र नास्ति त स्मात् कल्पितो जेदोऽत्र शेयो, न तु साहजिकः ॥ १५ ॥ अथ सप्तमं भेदं कथयति
अन्य सप्तमक - स्वजावः समुदाहृतः । यथोक्तं गुपचितम् ||१६||
( श्रन्ययीति ) अन्वयव्यार्थिकः सप्तमो भेद एकस्वभाव
?
दव्यडिय
उक्तः। यथा-द्रव्यं चैकं गुणैः पर्यायैश्च भावितं वर्त्ततेऽयमेकं गुणपर्यायस्वभावमस्ति गुणेषु रूपादिषु कम्बुग्रीवा ssदिषु प्रव्यस्य घटस्यान्वयेोऽस्ति यतस्तत्सध्ये तत्सत्वमन्वयः । अथवा सति सद्भावोऽन्वयः । यथा-सति दरामै घटोत्पतिः । श्रत एव यदा द्रव्यं ज्ञायते तदा व्यार्थाऽऽदेशेन तद नुगतसर्वगुणपर्याया अपि ज्ञायन्ते । यथा - सामान्य प्रत्यासत्या परस्य सर्वा व्यक्तिरपि अवगन्तव्या, तथा अत्रापि ज्ञेयमि त्यन्वयःयार्थिकः सप्तम इति ॥ १६ ॥
अथाष्टममेदो की नाह
कथि
स्वद्रव्याssदिकसंग्राही, ह्यष्टमो नेद श्राहितः । स्वयाऽऽदिचतुष्केज्यः समर्यो दृश्यते यथा ||१७|| ( स्वेति ) स्वादिग्राको म्यार्थिको तः । यथा श्रर्थो घटाऽऽदिः स्वद्रव्यतः स्वक्षेत्रतः स्वकालतः स्वभावतः सन्नेव प्रवर्तते । स्वद्रव्यादू घटः काञ्चनो, मृन्मयो वा ॥ १ ॥ स्वकेत्राद् घटः । : पाटलिपुत्र, माधुरो वा ॥२॥ स्वकालाद् घटो वासन्तिको ग्रैष्भो वा ॥ ३॥ स्वभावात् घटः श्यामो, रक्तो वा ||४|| एवं चतुर्ष्वपि घटद्रव्यस्य सत्ता प्रमाणसिद्वैवाऽस्ति । स्वकीयार्थिको भेदइति ॥ १७ ॥ अथ नवमं जेदमाहपरपादिकग्राही, नवमी जेद उच्यते । परम्पादिकेभ्योऽसमर्थः संज्ञान्पते यथा ||१८|| तेषु पदको ध्यार्थिको यमः ॥३॥ बचायों घटादि पर। घटापेकया परद्रव्यं पटः, अतस्तत्त्वादिज्यो घटोऽसन्नस्ति ॥ १ ॥ घटक्षेत्र पर यथा घटना किंतु मथुरा, तदपेक्षया काशी भिन्ना । श्रत एव परकेारकाशीलक खादसन् घटः ॥ ॥ा परकालाद् यथा घटो वसन्ते निष्पन्नोऽतो घासन्तिको घटः, वसन्तापेक्षया वैष्मो भिन्नस्ततो ग्रीष्मकाल जातिको मो३॥ परभावाद भावापेकवारको घटोस बजे ४ पर्व परऽऽदिग्राहको द्रव्याधिको नवमः ॥ १८ ॥
"
अथ मनमाह
परमनावसंग्राही, दशमो नेद प्राप्यते । ज्ञानस्वरूपकत्वात्मानं सर्वत्र सुन्दरम् ||१५|| परमभावग्राही परमनापाको दशमो भेदः कथितः यथा-ज्ञानस्वरूपक श्रात्मा ज्ञानस्वरूपी कथितः, दर्शनचारित्रमनोगुणा अनन्त सन्ति परं तु तेषु एकं ज्ञानं सारतरं वर्त्तते । अन्यरूव्येभ्य श्रात्मनेो भे दो ज्ञानगुणेन दर्शयिष्यते । तस्मात्कारणाच्छी घोपस्थितिकत्वेनाSSत्मनः परमस्वभावो ज्ञानमेवाऽऽस्ते । इत्थमन्येषामपि त्र्याणां परमभावा असाधारणगुणा ग्रहीतव्याः । परमभावप्राको पार्थिको दशम शति । अत्रास्यभावानां मध्ये ज्ञानाssख्यः परमस्वभावो गृहीत इति व्यार्थिकस्य दश भेदाः ॥ १६ ॥ द्रव्या० ॥ श्रध्या० ।
त्याधिकदानाडु:आयो नैगमसंव्यवहारभेदात् त्रिया ।। ६ ।।
श्राद्यो व्यार्थिकः । रत्ना० ७ परि० ( तत्र नैममाऽऽदीनां व्याख्याऽन्यत्र )
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( २४७१ )
अभिधानराजे
देव्याय
देव्बणय- प्रव्यनय-पुं०
व्यार्थिकनये, उत्तः ।
अव्यनय आह- "यथा नामाऽऽदि नाऽऽकार, विना संवेद्यते तथा। नाऽऽकारोऽपि विना द्रव्यं, सबै व्याऽऽत्मकं ततः ॥ १॥" तथादिव्यमेव मृदादि निखिलस्थास कोटकपा35चाकारानुपायि वस्तु स तस्यैतत् कानु कायाकाराणां तु द्रव्यतिरे किग कपिलना तो5दिकविकारविर हितं तथातथाऽविमतिजायमात्रान्तं सर्वत्र भेदनिर्भेदवीजं द्रव्यमागृहीततरङ्गाऽऽदिप्रजेदस्तिमितसरःस लिवचत् । उत्त० १ श्र० ।
आइ च
दन्त्रपरिणाममिर्च, मोतॄणाऽऽगारदरिणं किं तं ? | उपायव्त्रयहियं दव्वं चिय निव्वियारं तं ।। ६६ ।। कोहि नाम स्थापनानयस्याऽऽकारग्रहः ?, यस्माद्रवतीति द्रव्यममादिम दुस्प्रेतिपर्यायाचा मृदादिपूर्वपति भावेऽनर्थामाऽभिः परिणामो द्रव्यस्य परिणामो परिणाम किमन्यदाकारदर्शनं,
येनोच्यते "आगारो थिय मधु ।" इत्यादि ननु - मेव तत् किंविशिष्टम पर निर्विकार उत्प त्रिफण - कुएमलिताऽऽकारसमन्वित सर्वद्रव्यवद् विकाररहितं; किंहि नाम तत्राऽपूर्वमुत्पन्नं, विद्यमानं वा विनष्टं, येन विकारः स्यादिति भावः । इति गाथाऽर्थः ॥ ६६ ॥ ननु कथमुत्पादाऽऽदिरहितमुच्यता
के
मध्ये उत्फसविणादयः पर्याया उत्पद्यमाना निवर्त्तमानाश्च प्रत्यक्षेणैव दृश्यन्ते ?, इत्याहविन्धाय तिरोभावमेत परिणामकारण मर्चितं । निचं बहुरूपिय, नडो व्व वेसंतराssवन्नो ।। ६७ ॥ श्राविर्भावश्च तिरोभावश्च, तावेव तन्मात्रं, तदेव परिणामः, त स्य कारणं व्यं यथा सर्प नृत्फणविफणाऽवस्थयोरिति न पूर्वेत्पद्यते, किं तर्हि ?, विद्यमानमेवाछन्नरूपतया त्रिर्भवति विभूतं सद्विनयति किं तु रूपाति भावमेवाssसादयति । एवं च सत्याविर्भावतिरोभावमात्र एव कार्योपचारकारणत्वमस्योपचारिकमेव तस्मादुपादादि रहितं मुध्यत इति आह ननु यद्येकस्वभाव निर्विकार अभ्यं तर्ह्यनन्तकाल भाचिनामनन्तानामप्याधिभवति रोजावानामेकवयव कारणं किमिति न भवति इत्याह-अनित्यपिं तेनैकस्य भावस्यापि कर्मवि शांतिरोभावप्रकृतिः सर्पादिकस्वभावेष्वप्युफणवि फणादिपषयकमवृत्तेः प्रत्यदित्यादिति । ननु यद्येवम् चल्फविफणादिबहुरूपत्वात्पूर्वावस्था परित्यागेन चोसराव. स्वाधिनादनित्यता व्यस्य किमिति न भवति ?, इति चेत्. इत्याह-पेषाम्सर पानटप बहुरूपमपि व मुकं नयति यथा नाय कविदूध कपिदिपात्रावसरेषु वेषान्तरायापनो वेत्रान्तराऽऽपनो नटो बहुरूपः पवमुत्फण वफादिनाद्यरूपम् यमं स्वयमविकारित्वात, आकाशवत् यथाहि घटपटाऽऽदिसंबन्धेन बहुरूपमप्याकाशं स्वयमविकारित्वाद् नित्यम् प यमपीति भावः । इति गाथाऽर्थः ॥ ६७ ॥
दव्यत्व
कारणमेव च सर्वत्र
विद्या यच्च कारणं तत् सबै अयमेव इति दर्शयन्नाहपिंडो कारण, पय व परिणामओ तदा सव्वं । आगाराड़ न युं, निकारण यो खपुष्कं व् ॥ ६८ ॥ मृदादिपिण्डः कारणमिष्टं कारणमात्रमेवाभ्युपगम्यते । कुतः ?, इत्याह-परिणामिवात् परिणमनशीलत्वात योग्य यथावपि तथाऽन्यदपि सबै स्वादिकं
वास्तवस्तुकारमात्रमेव परिणामित्वात् पयो त् यद् यत् कारणं तत् सर्वे यमेव इति व्ययस्य स्वप सिकिः नतु स्पिन कार्यभूतः स्थासको लघटादयः प्रत्यक्षेणैव दृश्यन्ते, संबन्धिशब्दश्च कारणशब्दः सर्वदैव कार्यापेक एव प्रवर्तते, तत् कथं कारणमात्रमेवास्नि, न कार्यम है शते चेत् नैवम् आविभवतिरोभावमात्र एव कार्योपचारात् उपचारस्य चावस्तुत्वात् । इति स्वपक्षं व्यबस्थाप्य परपकं दूषयितुमाह- आगारेत्यादि) मा विहाय स्थापना दिन पेदाकारादिकमभ्युपग र्वमवस्तु । कुतः ?, इत्याह-- निष्कारणत्वात् कारणमात्ररूपतया नज्युपगमात् तदभ्युपगमे त्वस्मत्पक्षवर्तित्वप्रसङ्गात् इह यत् कारणं न भवति तद् न वस्तु यथा गगनकुसुमम्, अकारणं च परैरभ्युपगम्यते सर्वमाकाराऽऽदिकम्, अता वस्तु । इति गाथाऽर्थः ॥ ६८ ॥ विशे० ।
दव्त्रणाम - प्रव्यनामन् न० द्रव्यलकणे ऽर्थे, अनु० । तच्च"से किं तं दग्वणामे ?। दवणामे छबिहे पत्ते । तं जहा धम्मत्थिकाप० जाव श्रद्धासमए य । सेत्तं दव्वणामे ।" अनु) । दब्बती-पतम् अभ्यनापत्येनायागतया यथार्थमि त्यर्थे पञ्चा० १६ विव० ।
दन्वत्त-व्यत्व - न० । वति तौस्तान् पर्यायान् गच्छतीति इव्यं तस्य नावस्तस्कम । द्रव्यभावे, द्रव्या० ।
त्वं पर्यापाऽऽपारसोनयः । प्रमाणेन परिच्छेद्यं प्रमेयं प्रणिगद्यते ॥ ३ ॥
1
यति तस्तान् पर्यायान् गच्छतीति द्रव्यं, तस्य भावस्तस्वम् । इम्यभावोदि पर्यायाऽधाराभिव्यङ्ग जातिविशेषः वं जातिरूपत्वादगुणाधिकादिवास नया आशङ्का न कर्त्तव्या यतः-- "सहभाविनो गुणाः, क्रमभुवः पर्यायाः । " इद्दश्येव जैनशासने व्यवस्थाऽस्तीति । द्रव्यत्वं चे गुणः स्यादस्पानि स्यादिति तु एकस्वाऽऽदि संख्यायाः परमतेऽपि व्यभिचारेण तथा व्याप्त्यभावादेव निरसनीयम् ॥ ३ ॥ द्रव्या० ११ अध्या० । दव्वत्थव - व्यस्तत्र - पुं० । ह्रव्ये द्रव्यविषयः स्तवः पूजा द्रव्यस्तवः । भावस्तवकारणभूते स्तबभेदे, पञ्चा० । सचदव्बे भावे य यत्रो दव्बे जावथयरागओ सम्मं । जिभवाऽऽदिविद्वायां, चावथओ चरणपमिवती ||२|| द्रव्ये त्र्यविषयः, भावस्तवकारणभूत इत्यर्थः । भावें भाववि यः पारमार्थिकः, परिणामविशेवरूपो वेत्यर्थः । चशब्दः समुश्चये । लवः स्तोतव्यपूजन, जयतीति गम्यम् । तत्राऽऽयं तावदाह-व्ये प्रव्यविषयः स्तथः । क इत्याह- ( जिणभवणाऽऽ६
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(२४७२) दव्वत्थव अनिपानराजेन्द्रः।
दव्यत्थव विहाण) अहंद्गृहप्रतिमाऽऽदीनां करणम, उपलक्षणन्वाकारणं व्यस्तबोऽप्युक्तनिर्वचनो न केवलं नावस्तवा, उत्सूत्रत्वात् , न चाकथं?,सम्यगागमनीत्या। कुतः?,मावस्तवरागतः सर्वविर- भवति न जायते । इति गाथाऽर्थः॥५॥ तिबहुमानात् । चरण हि निर्वाणैकहेतुत्वाच्चरणं, ततस्तत्प्रा. सक्तविधिविपरीततायामपि तद् द्रव्यस्तबो भविष्यतीत्याशप्युपायश्च न्यस्तव इति विधेयोऽसावित्येवरूपादिति । इयाऽऽहअथ भावस्तवखरूपमाह--नावस्तरः परमार्थपूजनमध्यात्म भावे प्रश्प्पसंगो, प्राणाविवरीयमेव ज किंचि । पूजा वा। क इत्याह-चरणप्रतिपत्ति:- सर्वविरत्यभ्युपगमः। शति
इह चित्ताण्डाणं, तं दव्वच प्रो नवे सव्वं ।। ६ ।। गाथाऽर्थः ॥२॥
नावे च सत्तायां पुनद्रव्यस्तवस्योक्तविपरीतत्वेऽपि । कि অথ বলল মা
स्थादित्याद-मतिप्रसङ्गोऽतिव्यतिलकणानिष्टाऽऽपत्तिरित्यर्थः । जिणनवणविंबठावण-जत्तापूनाऽऽइ मुत्तो विहिणा। अतिप्रप्तमेव व्यनक्ति--माझाविपरीतमेव प्राप्तवचनविपर्यदबत्यो त्ति नेयं, जावत्ययकारणत्तेण ॥ ३ ॥
स्तमपि । पवकारस्थापिशब्दार्थत्वादू, यदित्यनुष्ठानम् किश्चिद
नियतस्वरूपम् , इह स्तवविचारे, चित्रानुष्ठानं नानाप्रकारा जिनस्याहतो भवन च गृहं, बिम्बं च प्रतिमा, स्थापमं च
हिंसाऽदिक्रिया, तदनुष्ठानम, ७व्यस्तो निर्णीत शब्दार्थों, भप्रतिष्ठा, यात्रा चाटाह्निको महिमा, पूजा च पुष्पाऽऽधर्चनम्, वेतू जावेत । सर्वे समस्तम् । श्राझारिपरीतत्वानिर्विशेषेण श्रादियस्य जिणगुणगानाऽऽदेस्तजिनभवनबिम्बस्थापनयात्रा
जिनभवनाऽऽदिविधानवदिति गाथाऽर्थः ॥ ६॥ पूजादि । व्यस्तव इति शेयमिति योगः। तच्च न यथा
हार्थे परमतमाशङ्कय परिहरमाहकथश्चिदित्याह-सुत्रत श्रागममाश्रित्य, तदपि विधिना। "ज.
जंबीयरागगामी, अह तं णणु गरहित पि हु स एवं । ह रेह तह सम्म" इत्यादिना विधानेन द्रव्यस्तवो भावस्तवकारणभूतपूजा, इतिशब्द उपप्रदर्शनार्थः । क्षेयं ज्ञातव्यम् । सिय नचियमेव जं तं, माणाआराहणा एवं ॥७॥ केन हेतुनेत्याह-नावम्तयकारणत्वेन चरणप्रतिपत्तिरूपन्नाव- यदित्यनुष्ठानम, वीतरागगामि जिनविषयम, अयेति परप्र. स्तबहेतुत्वात् । द्रव्यशब्दो ह्यत्र कारणपर्यायः। इति गाथाऽर्थः॥३॥ भार्थः , तदनुष्ठानमाशाविपरीतमपि व्यस्तवो भवति, न पु. कथं पुनरिंदं जिनभवनाऽऽदि भावस्तवहेतुतां
नयत्किश्चन हिंसाऽऽदिकम, अतः कथमतिप्रसङ्ग इति परमतम । प्रतिपद्यत इत्याद
पतस्परिहरबाह--(नन्विति ) परमताक्षमायाम, गर्दितमपि
निम्धमपि गालीप्रदानाऽऽदिकम,आस्तामगर्हितम् । हुशब्दो वा. विहियाणुहाणमिणं, ति एवमेयं सया करताणं ।
क्यालङ्कृती,स इति द्रव्यस्तवः, नवेद् । पवमनेन भवदच्युप. होइ चरणस्म हेऊ, जो इहलोगादवेक्वाए ॥४॥ गतन्यायेनानाविपरीतमप्यनुष्ठान वीतरागविषयं अभ्यस्तव विदितमाप्ताऽऽगमे विधेयतयाऽनुमतं यदनुष्ठानं क्रिया तद्विहिता
इत्येवंलक्षणेन । पुनः परमतमाशङ्कमान पाह-स्थाद्भवेत, तव म. नुष्ठानम् , इदं जिनभवनाऽऽदिकरणलकणम , ति अनेनोले
तिरिति गम्यम । यत चितमेव सङ्गनमेव, यदित्याशाविरीतं खेन , षवमनेन जावस्तवानुरागलवणेन स्तवविधिमकणेन
वीतरागगामि, तदित्यनुष्ठानं व्यस्तवो नवति, न पुनगेहितमा या प्रकारेण । एजिननवनाऽऽदिविधानम, सदा सर्व
पीति नातिप्रसङ्गः । इत्यत्रोत्तरमाह--प्राज्ञाऽराधनाला देश. कासम् , कुर्वनां विधताम्, भवति जायते , चरणस्य सर्व.
पालनैव । एबमनेनैव प्रकारेणाऽऽज्ञाविपरीतमपि यमुचितमनु. विरतिरूपचारित्रस्य, हेतुनिमित्तम् । पतदेव जिन भवनाऽऽदि ।
ष्ठानं तद् व्यस्तव इत्येवंनवणेन द्रव्यस्तधान्युपगमे प्राकाउक्तविपर्यये यद्भवति तदाह--( नो ) नैव । इहलोकाऽऽद्यपेक्कया
ऽनुपासनारूपत्वाऽचितस्य। नाह्याझोत्तीर्णमप्युचितं नवितुम. पहभविककीयोदिपारभविकदेवत्वराज्याऽऽदिपदार्थावश्यम्ब
हति । इति गाथाऽर्थः॥७॥ नेन चरणम्य हेतुभवति । एतन्जिनभवनाऽऽदिविधान निदानदू
उचितानुष्ठानस्याऽऽशाऽनुपासनारूपत्वमेव दर्शयन्नाह - षितत्वात् । ति गाथाऽर्थः ॥४॥
नचियं खलु कायचं, सव्वत्य सया गरेण बुछिमता । नावस्तवकारणत्वं तदबुरागश्च व्यम्तवमिन
इय फासिद्धीशियमा, एस चिय होइ आणं ति ॥3॥ न्धनमुक्कम, तत्राऽसौ यथा नावस्तवतुः
उचितमेव देशका लावस्थाऽऽद्यपेक्षया सङ्गतमेव,खसुरवधारणे, स्यात्तथा दर्शितं, न पुनस्तदनुराग
कर्तव्य विधेयम, सर्वत्र समस्ते देशे, पाचे वा । सदा सर्वदा, श्त्याशङ्कयाऽऽह
नरेण पुरुषेण । नरग्रहणं प्राणिमात्रोपल कपम । धर्मोपदेशे न. एवं चिय भावथए, आणाआराहम्णा न रागो वि।
राणां प्राधान्यात्, बुद्धिमता मतिमता,बुद्धिविकलो हि न तत् जं पुण इय विवरीयं, तं व्यथो विणो होइ ॥५॥
कर्नु कमते, बुद्धिवकल्यादेव । अथ कस्मादेवमुपदिश्यत इत्या
४-इत्यनेनोचितकरशेन, फलसिद्धिः साध्यनिष्पत्ति, नि( एवं चिय) एवमेव घिहितानुष्ठानमिदमित्यभिप्रायेणैव, यमान्निश्चयेन, साध्यश्च मुख्यवृत्या मोक्कार्थः, ताकारणतया ध. प्रावस्तवे चरणप्रतिरूपे, रागोऽपि बहुमानोऽपि, म केवलं मार्थः, प्रसङ्गतश्चेतराविति । प्रकृतार्थयोजनायाऽऽद-पंधानचरणदेतुत्वमित्यपिशब्दार्थः । कुत एतदेवमित्याह-प्राशा55- स्तरोक्ता उचितक्रिया, भवति वर्तते , प्रज्ञा प्राप्तोपदेशः, तत राधनादाप्तापदेशानुपासमात्, निर्निदानतामेव हि जिनाः उचितकरणमाझा 35राधनोति स्थितम् । शतिशब्दः समाप्तावुपप्र. समनुमन्यन्ते । नक्तविपर्ययमाद्द-यज्जिनभवनाऽऽदिविधानम् , दर्शने वा । इति गाथाऽर्थः॥८॥ पुनरिति पूर्धोक्तार्थविलकणताप्रलिपादनार्थः, इति विपरीत. उचितकरणं व्यस्तव इत्युक्तम, अर्थतस्यैव विपर्ययमाहमनन्तरोक्रविधिविपर्ययः, तम्, तजिननवनाऽऽदिविधानम, . जं पुण एयविनतं, एगंतेणेव भावमुष्मं ति ।
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(२४७३ ) अभिधानराजेन्षः ।
दब्वत्थव
तं विसयपि विण तमो, जावथयादेजतो ऐयं ॥ ए॥ यदित्यनुष्ठानम् पुनःशब्दविशेषद्योतनार्थ कमीविरहितम् । तथा एकान्तेनैव सर्वचैव बहुमान. म एकान्तग्रहणाद् भावलेशयुकस्य कथचिदौचित्यवियु कस्यापि न्यस्तवत्वमाह, इलिशब्द उपप्रदर्शनार्थी निकम का तदित्यनुष्ठानम विषयेऽपि वीतरागेऽपि विधीयमानम् आस्तामविषये । न तको न द्रव्यस्तवो भवतीति ज्ञेयं ज्ञातव्यम् । कुतः ? इत्याह- भावस्तवाहेतुतः, शह नावप्रत्ययस्य लुप्तस्य दर्शनाद्भवस्त बाद तुरवाद्भवस्तथाकारणत्वात् । इति गाथाऽर्थः ॥ एए ॥
अथ कस्माद्भावस्तवाहेतुहूत मनुष्ठानं रूष्यस्तवो न नवतीत्यत्राऽऽशक्कायामाह - समयम्म दवस, पायं जं जोग्गयाएँ रूढो चि । विचरितो व बहुद्दा, ओगजेदोवलं जाओ ॥१०॥ समये सिद्धान्ते द्रव्यशब्दो अव्यमित्येष ध्वनिः, प्रायो बाहुस्पेन प्राणात् कचिचाम्बेऽपि वर्तत इति सूचनार्थः । यदिति यस्माद अयं च भवत्यपदेऊ (१२)" इत्यने वहितगाथाऽवयवेन संभत्स्यते । योग्यतायां योग्यतावाचित्वे, रूद्रः प्रसिद्ध इत्येवं वक्ष्यमासोदाहरणम्बाधन उपचरिता पचारान्निष्क्रान्तो निरुपचरितोऽकाल्पनिकः, तुशब्द पत्रकारा थे:, तेन निरुपचरित एव । कुत एतदेवमित्याह-बहुधा बहुनिः प्रकारैः, प्रयोगनेदोपलम्भात् प्रयुक्तविशेषदर्शनात् । इति गाथाऽर्थः ॥ १० ॥
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प्रयोगभेदानेव दर्शयन्नाह पिसावो वह मदब्दसाडु चि । साहू य दम्पदेो, एमाइ सुए ओ माये ॥११॥ मृत्पिण्डी] [मृतिकापिएको टोइम्यतो कोम्यतथा घटो रूoयघटः, सुभाषकः शोत्रनः श्रमणोपासकः, तथा बेसि स. मुच्चये। तो योग्यतया खाधुव्यसाधुः । इतिशब्द उपप्र दर्शनार्थः । साधु संतान योग्यतथा देवः सुरो अन्यदेवः । (पमा सि) इद चशब्दलोपः प्राकृतत्वात्, ततश्च एवमादि च इत्यादि प्रयोगजातम् । आदिशब्दाद् यनारकाssदिवः ते प्रवचने, यतो बातिमुक्तम्, ततः प्रयोग दोपलम्ना द्रव्यशब्दो योग्यतायां कदः इति गाथा ११॥ यतो योग्यतायां अव्यशब्दः
ता भावत्यय देऊ, जो सो दव्वत्य इदं इडो । जो उण एवंभू, सपहाणो परं होति ||१२|| तस्माद्भाव स्तव हेतुश्वरणप्रतिपत्तिकारणं साकात्परम्परया बायो जिनभवनविधानाऽऽद्यनुष्ठानविशेषः । ( सो इति) असौ द्रव्यस्तवः पूर्वोक्तस्वरूपः । इह रूव्यस्तत्राधिकारे, अन्यत्र पुनः वातानुपपुरुषादिव पिभिमतो रूपस्तवस्वरूपविदुषाम् । ननु भावस्तवाहेतुरपि द्रव्यस्तवोऽनामिष्यते तत्कथाः पुनर्द्वज्यतविशेषः, (न) नैत्र, एवंभूतोऽमुं प्रकारं भावस्तवकारणत्वलक्षणं प्राप्तः, स व्यस्तवः, अप्रधानोऽशोमनः परं केवलम, भवति जायधान्येऽपि प्रवृचे अशोजनत्वं चास्यनाथस्तवाहेतुत्वादेवेति गाथाऽर्थः ॥ १२॥
६१ए
दव्वत्यव
प्राधान्यार्थतामेव स्यन्ददर्शयाहपाव इ, करन दिछेउ दम्बसदो चि । अंगारमदगो जह, दव्वापरिश्रो समाजम्यो ।।१३।। अप्राधान्येऽप्यप्रधानत्वेऽपि न केवलं योग्यतायामेव । इह प्र वचने, क्वचित् शब्दविषये, दृष्टस्तु उपलब्ध एव, रून्यशब्दो ब व्य इति ध्वनिः, इतिशब्दो वाक्यार्थसमाप्तौ । इहैव निदर्शनामाहअङ्गारमर्दकः प्रवचनप्रतीतः । यथेति दृष्टान्तार्थः । सब्बाऽऽचार्य बायोग्याया श्रमावादप्रधानाचार्थः कियन्तं का यावदित्याह सदा आजन्माऽपीत्यर्थः । अथवा स च स पुनः मुरग्यो यततेः ॥१३॥ क संविधातुरम' प्र० भागे ४३ पृष्ठे गतम) "जोड न स अप्पा परं दो (१२)" इत्येवं पूर्वोकमर्थं निगमनाद
t
अप्पा
एवं इमस्स दम्पत्यवचमविरुकं । अणावकराणो, न होड़ मोक्खंगया णवरं ||१४||
धान्याद्भास्तवातुत्वेनाशोभना पचमुकेन न्यायेनाप्राधान्यायें पदर्शिनलन (मस्स ति) अस्य भावस्तवातोर्द्धन्यस्तवस्य, द्रव्यस्त षत्वं द्रव्यस्तवता, अविरु
मे सर्दि भावस्ततास्तदद्देतोय इपस्तयत्याविरुरूतायां सत्यामविशेष पब तयोः। सत्यम् । नवरं केवलमन भवति न जाते मानिर्माण देतुता 'इम' इति 'बर्चते । कुतः ? श्राज्ञा बाह्यत्वादाघव चनवहिष्कृतत्वात् । यदाज्ञाभवति तथाविधाईखाऽऽदिवत् हावा. भाभावस्तयादेतुस्तव । इति गाथाऽर्थः ॥ १४ ॥ यथाऽस्मादप्रधानान्मोक्षो न भवति, तथा फलान्तरमपि किं नास्तीत्याह
भोगाss दिफलविसेसो, न अस्थि एसो वि बिसयनेदेा । तुच्छ उ तगो जम्हा, हवति पगारंतरेणावि ।। १५ ।। भोला मनोः दिशदकुलपति भशरीरादपरिग्रहः से पच विशेषः साध्यभेद भोगादि. कफलविशेषः, पुनरस्ति भवति, इतोऽपि श्रप्रधानरूष्यस्तवादपि, न केवलं प्रधानद्रभ्यस्तवादेव । अथ कथमाशाबा ह्यानुष्ठानस्यैवं फ लाविषयमेन गोचरविशेषेण निविज्ञातिशयमाणिक्यमकराकर भगतरागकणेन हेतुना न हि भवि माझा विकसमप्यनुष्ठानमफलम पात्राचान्तदिति । मनुयये वं फलमाहा बाह्यानुष्ठानं, तदा कथमस्याप्रधान द्रव्यस्त बते त्याSSह-तुरु पुस्वल्पः पुनः, तकोऽसौ नोगाऽऽदिन विशेषो, नाऽसौ विवेकिनां फलतयाऽवभासते । कस्मादेवमित्याह यस्मात् कारणात्, भवति जायते तको जोगाऽऽदिफलविशेष इति प्रकृसम्प्रकारान्तरेायुपायान्तरेणापि जननयनादयतिरेकेणापि अभूतिमिरपीत्यर्थः । " त्वदोषमणिप्राप्तिपटीयसः । पारावाराज्जरत्काच-खण्डप्राप्तिः फलं किमु ॥१॥ इति गायाऽर्थः ॥ १५ ॥
33
अथ रूपस्तवस्या ऽद्रव्य स्तक्तामाशङ्कय परिदरमाह-उचियाद्वाणा, विचिचजजोगतुझ मो एस । जंता कह दव्ययश्रो, तापभावाओ ।। १६ ।। विओ भाषप्रत्ययस्य लुपयेोचितानु
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(२४७४ ) अभिधानराजेन्द्रः ।
दव्वत्यव
दव्वजावतदुजयकप्प
दासत्वेन विहितत्वाद्विविषयतियोग ज्यो प्रत्यहं भाववृाssसे जीवयज्ञः प्रकीर्त्तितः ॥ ए ॥ ग्लानप्रति चरण स्वायायादिरूपनानाविधसाधुयापारसको Sतिशुभ इत्यर्थः । मकारोऽत्र प्राकृतशैलीप्रभवः । एषोऽनन्तरो
जिनंमनविधानादि को ऽनुष्ठानविशेषः । (यदिति वा देवम्, तत्तस्मात् कथं केन प्रकारेण द्रव्यस्तवो भवति । न कथञ्चिदित्यर्थः । जावस्तव एवायमिति हृदयम् ।
नरमाह-तद्द्वारेण जिनभवनाऽऽदिविधानमुखेन अल्पः साधुयोगापेक्तया स्तोको, भावः शुभाध्यवसायो यस्मात्स तथा तस्मात् इह च नावप्रत्ययो दृश्यः, अतोऽल्पभावत्वात् । इति गाथाऽर्थः ॥ १६॥
अमुमेव गाथार्थ भावयन्नाहजिजवणाऽऽदिविहाण-दारेां एस होति सुहजोगो । उचियाद्वापि य, तुच्छो जजोगतो नवरं ।। १७ ।। जिननवनाऽऽदिविधानद्वारेण श्रहंदाश्रयबिम्बप्रभृतिकरणम् खेन, एप व्यस्तवः, भवति वर्तते, शुभयोगो यतियोगवत् प्रशस्तव्यापारः । तथा उचितानुष्ठानमपि च विहितक्रियाऽपि च जिन भवनाऽऽदिविधानद्वारेणैव । अपि चेति समुच्चये । यद्यप्येवं साऽपि सारः अल्पनारूपत्वा यतियोगतः साधुव्यापारात्सकाशात् नवरं केवलम्। यतियोगो हि स्वरूपेणैव शुभः, उचितनुष्ठान पश्चायं पुनर्जनमनादिद्वारेच व तु स्वरूपतः स्वरूपेण तस्य मनागवद्यरूपत्वात् । इति गाथाअर्थः ॥ १७ ॥ पञ्चा०] [६] वि० [दर्श० आ० म० पं० २० प्रति । तं । दर्श० । ( 'थय' शब्देऽस्मिन्नेव भागे २३८४ पृष्ठे विशेषोऽस्य वाक्यः ) ( व्यस्तवस्य करणे कारणे च श्रायकोअधिकारीति अनुमोदने च साधुपीति शब्दे वेश्य ' तीमा १२२२ पृष्ठे प्रत्यपादि )
श्रयमिहापि व्यस्तवस्य संक्षिप्तोऽर्थ:खानामयं पूर्ण सूत्रोक्ताऽऽचारपालनात | अव्यस्तत्राद् गृहस्थानां, देशतस्तद्विधिस्त्वयम् ॥ १ ॥ न्यायार्जितधनो धीरः, सदाचारः शुनाऽऽशयः । भवनं कारयेज्जैनं गृही गुर्वादिसंयतः ||२|| तत्र शुरू महीमादी, गृहीयाच्छाखनीतिः । परोपतापरहितां, भविष्यङ्गप्रसन्ततिम् ||३||
प्रीतिर्नैव कस्याऽपि, कार्या धर्मोद्यतेन वै । इत्थं शुभानुबन्धः स्यादत्रोदाहरणं प्रभुः ||४ प्रसन्नोऽपि जनस्तत्र माग्यो दानाऽऽदिना यतः । इथं नाऽऽशयस्फात्या, वोधिवृडिः शरीरिणाम् ||५|| इकादिद चारु, दारु वा सारययम् ।
वापीडया प्रायं मन्थौचित्येन यत्नतः ॥ ६॥ भृतका अपि सन्तोष्याः, स्वयं प्रकृतिसाधवः । धर्मो ज्ञान न व्याज्या कर्ममित्रेषु तेषु तु ॥७॥ स्वाशयश्च विधेयोsवा-निदानो जिनरागतः । अन्याऽऽरम्भपरित्यागा- उनझाऽऽदिगतनावता ॥ ८ ॥ इत्थं चैषोऽधिकरयागारसदारम्भः फलान्वितः ।
जिनगेहूं विधानं शुचि। शाक्त कारयेद्विम्वं साधिष्ठानं हि वृद्धिमत् ॥ १० ॥ तमूल्येन कर्तुः पूजापुरस्सरम् ।
,
देयं तस्यैव यथा चित्तं न नश्यति ॥ ११ ॥ द्वा० ए द्वा० । दव्वदेवत्त - व्यदेवत्व - न० । साध्ववस्थायाम् भ० १४०
७ उ० ।
दबधम्म-धर्म-पुं० न० दानधर्मे यो नः स
व्यधर्मोऽवगन्तव्य इति । तथा चोक्तम्- " श्रन्नं पानं च वस्त्रं च, आलयः शयनाऽऽलनम्। शुश्रूषा वन्दनं तुष्टिः पुण्यं नवविधं स्मृतम् " ॥ १ ॥ सूत्र० १ ० ० अ० । दन्यपिय-द्रव्यप्रिय त्रि० । ह्रव्यं परिहासः तत्प्रिये, श्र० । दव्बपुरिस- इव्यपुरुष-पुं० । पुरुषत्वेन उत्पत्स्यते यस्तस्मिन्, उत्पन्नपूर्वे च । स्था॰ । विशेषोऽत्रैन्द्रसूत्राद् इष्टव्यः । भवत्यत्र नाध्यगाथा-" श्रागमयोऽवडतो, श्य पुरोहित इश्रो । एगभवियाइ तिविहो, मूलुत्तरणिम्मित्र वा बि " ॥ १ ॥ मूलगुण निर्मितः पुरुषायोग्यानि इत्याणि उत्तरगुण निर्मि तस्तु तदाकारवन्ति तान्येवेति जावपुरुषनेदाः । स्था० ३ aro
२ ३० ।
दव्यपोग्यलपरिषहलपरिवर्त-०७ ० इल्य विषय के पुत्रपरिवर्त्त, कर्म्म० ५ कर्म० । पं० [सं० । प्रव० । ( तद्व्याख्या 'पोग्गल परियट्ट' शब्दे वक्ष्यते ) दव्वप्यमाण- द्रव्यप्रमाण- न० । व्याणां गणनायाम, यथा एयस्तो दमेशा पतावन्ति च शाकविधानानि इयम्श्व खाद्यविशेषाः, एतावन्ति च द्राक्कापानकाऽऽदीनि पानकानि ।
०ब० ६ ० | अनु० ।
दव्यभाषत
पकप्प-द्रव्यभारतयकल्प-०संमिलित कल्पे, पं० प्रा० ।
तदुपप्पा एते चिचय व्यजावकप्पा तु । दोहि वि मिलिया एते, जयकप्पो यो सो प ॥ हारे अवि, सेज्जोवहि पंचपंचगविसोही । दंसणचरितगुत्तो, तत्रसमितिगुणेहिँ सोहेति ॥ असणाऽऽदीतो चनहा, उवकारि चडव्विहो य तस्सेव । एसविहाऽऽहारो, परूवणा तस्सिमा होति ॥ असणं तु दणissदी, तदुबकारी उ खीरकुप्याऽऽदी | पातु पाणमेव तु कप्पूरादी तु जवकारी ॥ खाइम फलाइयं तू, सूताऽदी होति तमुत्रकारी तु । साइम तंबोला, तुएहाऽऽदी तदुबकारी तु ॥ एतं आहाराssदी, उग्गमउपायले सणासुद्धं । छप्पाएँ दंसणाऽदी दि जुतो वा तदा। पं० ना० या उभयकरणी पर दो भाव मेलिया एगठाय उजयकप्पो जवइ, दविवयकप्परस पुरिम, भावक यसमा आदारे अवहे
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(२४७५) दव्वन्नावतदुभयकप्प प्राभिधानराजेन्छः ।
दव्यागुनोगतकणा आहारे असणे मूलगुणसुद्धे, नत्तरगुणसुके य । एवं पाणे, एवं देहदेशस्य स्वमात्रस्येव, कणं, नत प्रभूतकासं, प्रायः शुद्धि. खाइमे मूलगुण उत्तरगुणसुद्धे, एवं सादिमे सेजोवहीणं, एमेव हेतुने त्येकान्तेन.ताहग रोगग्रस्तस्य कृणमप्यशुद्ध, प्रक्वालनाई. पंचपंचगविसोही, जावो य दंसणचरित्ततवाश्गुणोई सोहे। मझादन्यस्य मलस्य कर्णनासाऽऽद्यन्तर्गतस्यानुपरोधनाप्रतिषे. एस उभयकप्पो । पं० चूल।
धेन । यद्वा-प्रायो जनादन्येषां प्राणिनामनुपरोधेनाऽव्यापादनेन दवन्य-द्रव्यनूत-पुं० । अनुपयुक्ते, नि० चू० २१०।
व्यस्नानं बाह्यस्नानमित्यर्थः । ध०२अधिः । दव्वरामि-द्रव्यराशि-पुं० । पुरीषाऽऽदिव्यसमूहे, प्रश्न० ५
दवसील-व्यशील-न० । चेतनाचेतनाऽऽदेव्यस्य स्वभावे, सव० द्वार।
सूत्र०१ ७० ७.। दधलिंग-द्रव्यलिडर-न.भावविकलत्वेनाप्रधानप्रवजिता- दब्वमुच्छ-६वशुछ-न । उद्गमाऽऽदिदोषराहते व्ये, भ०१५
श०। प्राशुके, विपा०२ श्रु० १७०। 5ऽदिनेपथ्यचरणलकणे वेषे, पञ्चा० ४ विव० । जी।
दबहलिया-द्रव्यहलिका-स्त्री० । कुहमाऽऽख्यवनस्पतिनेदे, दवलिंगधर-5व्यनिङ्गधर-पुं० । विझम्बकप्राये, पं० घ. ४
प्रा० १ पद। घार । द्रव्यलिङ्गी जानानो यदि स्वयं महावतीनुय विहरति, I.
दबहोमा-द्रव्यहोमा-स्त्रीला नानाविधैव्यैः कणवीरपुणाऽऽदि. तदाऽऽराधको अवति, न वेति प्रश्ने, उत्तरम-गुवादिसामग्यभावे यदि स्वयं महाव्रतीनूय विहरति, तदाऽऽराधकः, अन्यथा
भिर्मधुघृतादिभिर्वोच्चाटनाऽऽदिकैः कार्य: होमो हवन नेति। १२३ प्र० । सेन०१ सल्ला व्यलिङ्गिनो द्रव्यांजनप्रासा.
यस्यां सा व्यहोमा तस्याम, सूत्र०२ १०२०। दे वा प्रतिमायां वा जीवदयायां वा ज्ञानकोशे वा कुत्र कुत्र व्या
दव्वाणं तय-द्रव्यानन्तक-न। जीवद्रव्याणां पुद्गलव्याणां पार्यते ?, इति प्रश्ने, उत्तरम्-व्यालिङ्गिनो व्यजिनानां प्रा.
वा यदनन्तकं तस्मिन, स्था० १० वा। सादे प्रतिमायां च नोपयोगः, जीवदयायां ज्ञानकोशे चोपयो- | दवाणुओग-द्रव्यानुयोग-पुं० । पम्द्रव्यविचारे, द्रव्या० १ गीति ज्ञातमस्ति । १६३ प्र० । सेन ३ उल्ला० ।
अध्या। आचा०। ('दबियाणुप्रोग'शब्दे २०६५ पृष्ठे व्याख्याऽस्य) दव्वलेस्सा-द्रव्यलेश्या-नी। औदारिकशरीराऽऽदिवणे, भ०१ | दवाणुओगतकणा-व्यानुयोगतकाणा-स्त्री० कव्यगुणपर्याश०एन०
यविचारे, तत्प्रतिपादके ग्रन्थे च । व्या। दबलोय-व्यलोक-पुं० । लोकभेदे, भ०११ श० १० १० । श्रीयुगादिजिनं नत्वा, कृत्वा श्रीगुरुवन्दनम् । ("लोग" शब्दे व्याख्यास्यते चैषः)
आत्मोपकृतये कुर्वे, द्रव्यानुयोगतर्कणाम् ॥१॥ दबवणाहरण-द्रव्यत्रयोदाहरण-पुं० । कतझाते, पञ्चा०
विना द्रव्यानुयोगोई, चरणकरणाऽऽख्ययोः। १६विव०।
सारं नेति कृतिप्रेष्ठं, निर्दिष्टं सम्मतौ स्फुटम् ।। २॥ दबव-घव्यव्यय-पुं०। अव्यव्यये, सेन० । सप्तकेत्रमुक्त व्या
( श्रीयुगाऽऽदीत्यादि ) तत्र प्रथममिष्टदेवतानमस्करणेन न्तः साधुसाचाव्यस्य व्ययः साधुसाध्वीनां कस्मिन् स्थाने सप्रयोजनाभिधेयो दर्शितः । आद्यपदद्वयेन मङ्गलाचरणं, योज्यते श्रावैरिति प्रइने, उत्तरम्-सप्तक्षेत्रीमुक्ताव्यस्य व्ययः नमस्कारकरणं च १। श्रात्माधिन इहाधिकारिणः २। तेसाधुसाध्वीकेत्रयोरापतत्राणवैद्याऽऽनयनमागसाहाय्यकरणा- पामर्थबोधो नविष्यतीत्युपकाररूपं प्रयोजनम् ३ । व्याणाम. ऽऽदिषु श्राकैः कार्यत इति । ३७१ प्र० । लेन०३ उखा। नुयोगेऽत्राधिकारः ४॥ अथ द्रव्यानुयोग इति कः शब्दार्थः ?, दबवेय-व्यवेद-पुं० । स्त्री पुसोनपुंसकस्य च बाह्ये आका-| अनुयोगो हि सुत्रार्ययोाख्यानम्, तस्य चत्वारो भेदाः । तत्र रे, कर्म. ४ कर्म।
प्रथमश्चरणानुयोगः, प्राचारवचनमाचाराकाऽऽदिसूत्राणि १।
द्वितीयो गणितानुयोगः संख्याशास्त्र, चन्द्रप्रज्ञप्यादिसूत्रादव्यसंभारिय-व्यसंभारित-ना व्यैः कर्पूरपाटलाऽऽदिभिः
गि २ तृतीयो धर्मकथानुयोगः-आख्याधिकावचनम,झाताध. संभारित बासितं व्यसंभारितम् । कर्पूरपाटलाऽऽदिवासिते
मकथामाऽऽदिसूत्राणि ३ । चतुर्थो द्रव्यानुयोगः पमन्यविचाजले, वृ०२ उ०।
रस, सूचकृताङ्गाऽऽदिसूत्राणि. संमतितरवार्थप्रमुखप्रकरणानि च दव्यसंमत्त-द्रव्यसम्यक्त्व-न० । अनानोगवदुचितमात्रे सम्य
महाशाखाणि, ततोऽन्त्यभेदविचारणामहं कुर्वे ॥१॥ (विना . क्त्वे, “जिनवयणमेव तत्तं, एत्य रुई होइ दब्बसम्मत्तं।"
व्येति) व्यानुयोगोई व्यगुणपर्यायविचारं बिना चरणजिनवचनमेव तवं नान्यदित्यत्र रुचिर्भवतीति व्यसम्यक्त्वम। करणयोः सारन, चरणसप्तत्याः करणसप्तत्याश्च सारं केवलं पं० २०४ द्वार । ध०।
रूव्यानयोग एब, इत्ययं निष्कर्षः। सम्मतिग्रन्ये स्फर्ट प्रकटं, दबसमय-व्यसमय-पुं०। व्यस्य सम्यगयनं व्यसमयः।।
कृतिप्रेष्ठं बुधजनबद्धनं, मिहिएं कथित, बुधा एवं जानते, न तु द्रव्यपरिणतिविशेषे, सूत्र १ श्रु० १ अ. १००।
बाह्यदृष्टयः । यता-" चरणकरणप्पहाणा, ससमयपरसमयदव्बसार-व्यसार-पुं० । द्रव्यलकणसारे, प्रश्न. ५ श्राश्र० मुकवावारा। चरणकरणस्स सारं, णिश्वपसुद्धं न याति" द्वार।
॥६७॥(सम्म०३ काराम) इतीय गाथा सम्मती कधिता,
अतश्चरणकरणानुयोगमूत्र इहोपायो च्यानुयोग एवं उक्तः । दव्यमिगणाण-व्यस्नान-न० । बाह्यस्माने, ध०। व्यस्नानं चःपावियसुखकरत्वाऽऽदिना भावाहिहेतुः। उक्तं चाष्टके.
अन्या०१ अध्या। "जोन देहदेशस्य, कर्ण यच्छझिकारणम् ।
गुणानां हि विकाराः स्युः, पर्याया व्यपर्यवाः। प्रायोऽन्याउपरोधेन, व्यसनानं तदुच्यते ॥१॥"
इत्यादि कययन् देव-सेनो जानाति किं हृदि ? ॥१७॥
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(२४७६) दव्याणुओगतक्कणा अन्निधानराजेन्डः।
दस इत्थं पदार्याः प्रणिधाय मूर्टिन,
दव्यायरिय-व्याऽऽचार्य-पुं० । प्राचार्यत्वयोग्यताया प्रभा. परीक्षिता ज्ञानगुरोः सदाझाम् ।
वादप्रधानाचार्य, पञ्चा० ६ विव० । तुच्छोक्तिमुत्सृज्य विमोहमूसा
दवालंकार-व्यालडार-पुं० । स्वनामख्याते ग्रन्थे, यत्र चावा. महेत्क्रमाम्भोजरतेन सर्वे ॥१॥
कमतखएमनं कृतम । स्या। गुणविकाराः पर्याया एवं कथयित्वा तेषां भेदाधिकारे पर्याया| दबाव-व्याऽऽपत-स्त्री० । कल्पनीयाऽशनाऽऽदिव्यदुद्विविधाः-द्रव्यपर्याया गुणपर्यायाश्चेति कथयश्च देवसेनो दि.] र्लनतायाम्, जीता। गम्बराऽऽचायों नवग्रन्थकत्ताइदिचित्ते किंजानाति!,अ.] दवावस्मय-व्याऽऽवश्यक-न० । व्यरूपमावश्यक प्रकृतं, पि तु संभाविताथै न किमपि जामातीत्यर्थः । पूर्वापरविरुरू- तत्राऽवश्यकोपयोगाधिष्ठितः साध्वादिदेदाऽवन्दनकाऽऽदिसू. भाषणावसत्प्रलापमाय एवेदमित्यभिप्रायः। किञ्च-व्ययर्याया| त्रोचारणलकणश्चाऽगम आवर्तकाऽऽदिका क्रिया चाss. पव कथनीयाः, परं तु गुणपर्याया इति पृथग्भेदोत्कीतनंम क- चश्यकमुच्यते, आवश्यकोपयोगशून्यस्तु ता एव देहाऽऽग
व्यं, कल्ये गुणत्याधिरोपाद,गुणे च गुणत्वाभावादिति मिष्कर्षः मक्रिया कन्याऽवश्यकम् । तस्मिन्, अनु। ॥ १७॥ इत्थमनया रीत्या पदार्था व्यगुणपर्यायाः परीक्किता: | दम्बिद-व्येन्छ-पुं०। इन्धभेदे, स्था० ३ ०१०। (व्यास्वरूपलकणनेदाऽऽदिकथनेन विशदीकृताः।किंकृत्वा ?, ज्ञानगु.
ख्यां तु 'इंद' शम्दे द्वितीयजागे ५३३ पृष्ठे गता) रोः परम्पराऽऽगतश्रुताचार्यस्य, सदाज्ञां सत्यनिदेशं, मूर्ट्सि मस्तके,निधाय संस्थाप्य । पुनः किंकृत्वा?, विमोहमूलांभ्रमनिव
दब्बिय-दैविक-पुं०। देवेन कृतोपत्रवे, ध्य० उ०। Fधनां, तुच्चोक्ति तुचबुद्धिप्रणीतवचनम्,चत्सृज्यापाकृत्य की-दवी-दी-स्त्री० । भाजनविशेषे, आचा०१६०१चू०१० रशेन मया?, अर्हत्क्रमाम्भोजरतेन बीतरागचरणकमबसेबन. | ६. आव० । पिं० । प्रज्ञा। रसिकेन, सबै पदार्या मया परीक्षिता इत्यर्थः । भोजेति नामनिरूपणं चेति ॥ १८॥ व्या. १४ अध्या।
दबीअर-पुं। देशी-सपें, दे. ना.५ घर्ग ३७ गाया। व्याऽऽदिकानां तु विचारमेवं,
दध्वीकर-दींकर-पुंज दवि दर्षी फणा तत्करणशीला दर्वीविजावयिष्यन्ति सुमेधसो ये ।
कराः। अहिभेदे, प्रज्ञा ।
दर्वीकरभेदाननिधित्सुराहप्राप्स्यन्ति वे सन्ति पशांसि लदम्यः,
से किं तं दठवीकरा। दब्बीकरा अोगविहा पत्ता। तं सौख्यानि सर्वाणि च वाञ्छितानि ॥ १॥
जहा-आसीविसा, दिडीविसा, उग्गविसा, भोगविसा, त. गुरोः श्रुतेश्वानुभवात्मकाशितः,
याविसा, लालाविसा, जस्सासविसा, णिस्सासविसा, कपरो हि द्रव्याऽऽद्यनुयोग प्रान्तरः।
एहसप्पा, सेट्ठसप्पा, कउदरा, दब्भपुप्फा, कोलाहा, मेजिमेशवाधीजलधौ सुधाकरः,
लिमिंदा, सेसिंदा,जे यावले तहप्पगारा। से तं दव्वीकरा। सदा शिवश्रीपरिभोगनागरः ॥३॥
पाइयो दंष्ट्रास्तासु विषं येषां से प्राशीविषाः । उक्तं चएवमनया रीत्मा, च्याऽदिकानां विचार वे सुबुझ्यो विज्ञा. "भासी दाढा तम्गय-महाविसा आसीविसा मुणेयव्या" इति । बयिष्यन्ति, ते सुमेधसः, इह सन्ति शोजनानि यशासि । पुनःल.
रष्टौ विषं येषां ते रष्टिविषाः, उग्रं विषं येषां ते उग्रविषाः, भो. क्ष्म्यः,परत्र सर्वाणि पाक्रितानि सुखानि प्रास्वन्तीति भावः॥१५
गः शरीरं, तत्र विषं येषां ते भोगविषाः, स्वचि विषं येषां ते गुरोः कानगुरो', श्रुतेः सिद्धान्ताव, अनुजवात् स्वानुरते:, प्रा.
स्वविधाः, प्राकृतत्वाच्च 'तयाविसा' इति पाठः। लाला मुखान्तरोऽन्तानमयः, परः प्रकृष्टो द्रव्यानुयोगः प्रकाशितः । कीर
उसावः, तत्र विषयेषां ते लालाधिषाः, निःश्वासे विषं येषां ते शः १, वीतरागवचनसमुद्रे च स चन्ः, निरन्तरं शिवल
निःश्वासविषाः, कृष्णसांऽदयो जातिन्जेदा लोकतः प्रतिपत्त. क्ष्मीविनासे नायक व नागर इति ॥२॥ द्रव्या. १५ अध्या०।
| व्याः। उपसंहारमाह-" से तं दधीकरा ।" प्रज्ञा० १ पद । दन्वादेस-चच्याऽऽदेश-पुं.मादेशः प्रकारो व्यरूप आदेशो
दन्बोवोग-व्योपयोग-पुं० । द्रव्यार्थिकनयजन्यबोधे, नं.। द्रव्याऽदेशः । ज०१४।०४ उ०। ग्यप्रकारेण व्यत इत्यर्थे ।'
दबोवगाहणा-१व्यावगाहना-स्त्री० । व्यस्य पर्यायैरवगा. परमाणुत्वाऽऽद्याश्रित्येति यावत् । खा०५ ग.१ उ.।
हना आश्रयणं व्यावगाहना। अवगाहनादे, स्था०४ ना। दवाभाव-व्याभाव-पुंग। निष्परिग्रहवनार्थासत्तायाम्, प.
| ('मोगाहणा' शन्ने तृभागे ७६ पृष्ठे व्याख्यातेयम्) ञ्चा०६विव०।
| दन्बोसह-व्योषध-न० । बहुजव्यसमुदायौषधे,नि चू०२०। दव्वाभिग्गह-व्याभिग्रह-पुं० । लेपकृताऽऽदिद्रव्यविषये, दस-दश-वि० । सङ्ख्याभेदे, दश । ग० १ अधिः ।
णाम ग्वणा दविए, खेत्ते काले तहेब नावे य। दव्वाभिग्गहचरय-व्यानिग्रहचरक-पुं०। व्याभिग्रहेण चर- एसो खनु निक्खेवो, दसगस्स उ बिहो हो । ति भिक्कामटति द्रव्याऽऽश्रिताभिग्र वा चरत्यासेवते यास - पाह-किमिति यादीन् विहाय दशशब्द उपन्यस्तः। उच्यव्यानिग्रहचरकः । भौ०। भिकाचर्याचति, भिक्षाचव्यास्त-1 ते-पतत्प्रतिपादनादेव यादीनां गम्यमानत्वात् । तत्र नामबतानाजदाववक्षणादू निक्षायां च । भ०२५ श०७०।ग स्थापने सुगमे द्रव्यदशक दश व्याणि-सचित्तचित्तमिश्रा
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दस
अभिधानराजेन् ।
दसउर
णि मनुष्यरूपकटकाऽऽदिविभूषितानीति । केत्रदशकं दश केत्रप्र. देशाः,काबदशक-दश काला वर्तनाऽऽदिरूपत्वात्कालस्य दशावस्थाविशेषा इत्यर्थः वक्ष्यति च-"बाला किडा मंदा" इत्यादिना । भावदशकं-दश भावाः, ते च सान्निपातिकभावे स्वरूपतो भाबनीयाः। अथ चैत एव विवक्तया दशाध्ययनविशेषा इति । एष एवंनूतः स्खलु निकैपो न्यासः, दशशब्दस्य बहुवचनत्वाइशानां पद्विधो नवति । तत्र खलुशब्दोऽवधारणार्थः । एष एवं प्रक्रान्तोपयोगीतिातुशब्दो विशेषणार्थः। किं विशिनष्टिनाऽयं दशशब्दमात्रस्प, किं तु तद्वाच्यस्याऽर्थस्याऽपीति गाथा. ऽर्थः ॥ ६ ॥ दश०१ अ.। अनु० । कस्प० । स्था। दसनर-दशपुर-. । साम्प्रतं 'मन्दसोर' इति प्रसिद्ध स्वनामख्याते नगरे, प्रा००। "आस्तां ताबक्षिताऽऽर्यो, वक्ष्ये दशपुरोझमम् (२) अस्त्यकम्पा पुरी चम्पा, तत्राऽऽसीत्स्वर्णहारकः। कुमारनन्दिः स्त्रीलोमः, श्रीमान श्रीद श्वापरः ॥३॥ दर्श दर्श सुरूमा स्त्री, पञ्चवर्णशताऽऽहतेः। उद्वहन् लम्पटः सोऽनू-द्योषित्पञ्चशतीपतिः॥४॥ अतीयालुस्ततः सौध-मेकस्तम्भंविधाप्य सः। विल लास समं ताभि-देवीभिरब देवराट् ॥ ५॥ अथान्यदा पञ्चशैत्र-द्वीपगं व्यन्तरीयुगम् । गच्चनन्दीश्वरद्वीप-यात्रायां वृत्रहावया ॥६॥ विद्यन्मालीव तत्कान्तः, प्रच्यतः पञ्चशैलराद। सतो बिरहदुःखार्त, शून्यं पश्यदितस्ततः ॥ ७ ॥ कुमारनन्दि चम्पायां, दृष्ट्वोद्याने व्यचिन्तयत् । एषोऽस्मद्वल्लभोनावी, तत्तस्य स्वमदर्शयत् ॥ ८॥ के युवामिति तेनोक्ते, ताज्यां देव्यावितीरितम् । ऊचे च याचनागच्छेः, पश्चशैलमधो गते ॥९॥ नृपमुक्त्वा स तद्भक्तोऽ-बादयत् पटहं पुरे। कुमारनन्दि यः पश्च-शले नयति तस्य सः ॥१०॥ स्वर्ण कोर्टि प्रदत्ते तं, दधे वृद्धनियामकः। पुत्राणां तकनं दचा, तं पोते न्यस्य सोऽचलत् ॥११॥ दूरं गत्वा बजाये तं, निर्यामः किञ्चिदीकसे । सोऽज्यधाकिमपि श्याम, प्रेके निर्यामकोऽधवीत ॥१२॥ नितम्बेऽद्रेचटोऽस्त्येष, पोतोऽस्याऽधोऽयमेष्यति । तवमावलम्बेथाः, पोतोऽस्याधः स्फुटिष्यति ॥ १३ ॥ गतस्य तव शैलोर्ट्स, भारुपमाः पञ्चशलतः। द्विजावारूयंहपो धास्या, एष्यन्त्येकोदरा: खगाः॥ १४ ॥ तन्मध्यपदक्षनस्त्वं, पञ्चशले गमिष्यसि । श्त्युक्तः स तथाऽकार्षीत्, पञ्चशलं जगाम च ॥१५॥ नियामकः पुनः पोत-स्फोटादने गतो मृतः। व्यन्तरीच्यां तु ताच्यां स, रष्टः श्रीस्तस्य दर्शिता ॥१६॥ उक्तश्चानेन देहेन, भोम्ये प्रावन ते ततः। दासाप्रहासाकान्तः स्यां, पञ्चशमाधिपो मृतः ॥१७॥ इत्युक्त्वाऽग्निप्रवेशाऽऽद्यं, कुथा दानपूर्वकम् । तत्कथं याम्ययोद्याने, नीत्वा ताभ्याममोटि सः ॥ १८ ॥ अधाऽऽगत्य जनोऽप्राक्षी-प्रोक्तिं तत्र किं त्वया?। सोऽवदत्ते मया दृष्टे, व्यन्तयौं मर्यउर्लभे ॥ १९ ॥ श्रमणोपासको मित्रं, नागिनस्तत्र तेन सः। वारितोऽप्यविशाही, दावा दानं निदानवान् ॥ २०॥ पञ्चशैलाधिपः सोऽभू द्यारिखनोऽध नागिलः ।
परिवज्याऽच्युते जातः, शकसामानिकः सुरः।। १ ।। अधान्यदाऽयमद्वीपे, यात्रायां पटढाऽग्रहे । परहोडक्केपि शक्रेण, बिद्युन्मासिगले बलात् ॥ २२॥ वादयन्नथ भीतोऽगात, ज्ञात्वा तं भागिलोऽवधेः। श्रागाएं स तत्तेजो-ऽसहमानः पलायत ।। २३॥ तेजः संहत्य मां बेत्सी-युक्तोऽयम्वेत्ति को नवः?। श्राद्धरूपमथाऽवय, ज्ञापितो धर्मवैभवम् ॥ २४॥ संविग्नः सोऽवदन्मित्र., कर्तव्यमधुना दिश। तेनोक्तं कुरु वीराची, सम्यक्त्वं भावि ते ततः ॥ २५ ॥ महादिमवतः सोऽथा-दाय गोशीर्षचन्दनम् । कृत्वाऽची तेन वीरस्य, न्यक्विपत्काष्ठसंपुटे ॥ २६॥ प्रेक्ष्यान्तःसागरं पोतं, पएमासोत्पातबाधितम् । निवर्य तेषामुत्पात-मार्पयत तं समुद्गकम् ॥२७॥ उक्तश्चास्तीह देवाधि-देवार्चा भूतुजेऽऽय ताम् । श्रागत्योऽन्तःपुरे वीत-भये वीतजयस्ततः॥२८॥ सदायनो नृपस्तत्र, जौतभातिमानसः। सस्य प्रभावती देवी, प्रेयसी परमाईता ।। २६॥ राज्ञः सर्मपितः पोत-वणिनिः स समुद्गकः । देवाधिदेवप्रतिमा, मध्येऽस्त्यस्येत्यभाषत ।। ३०॥ पशुस्तस्येन्डाऽऽद्यर्चाऽर्थ, वाहितोऽपि हि नाऽवत् । प्रभावत्युक्तदेवाधि-देवधीवीरमूर्तये ।। ३१॥ स्पर्शऽपि परशोः प्रा. रासाऽऽची दयनिर्मिता। कृतमन्तापुरे चैत्यं, सदाऽऽनर्च प्रजावती॥ ३२॥ देवी तत्रान्यदाऽनृत्य--हाजा वीणामवादयत् । देव्याः शीर्षमष्टाऽस्य, भ्रष्टं तद्वादनं करात् ।। ३३ ।। देवी रुटाऽवइद उम, नृतं कि मे, न सोऽवदत् । निर्बन्धात् कथिते देवी, स्माऽहाऽईत्या न मेस्ति भी॥३॥ देवी स्नात्वाऽन्यदा चेटी--मूचे वासांस्युपानय । साऽनयम(द्भक्तवासांसि, देव्यूचे किमिदं हो !॥ ३५ ॥ देवा प्रगुणां मां किं, न जानासीति तां धा। करस्थदर्पणेनाह-ममीऽऽघाताच सा मृता ॥ ३६ ।। मृतां तां वीदय देवीति, दध्या हा खण्डितं व्रतम् । ततो राजानमापृश्या-उनशनं विदधाम्यहम् ।। ३७ ।। निर्बन्धेऽमस्त ताजा, बोध्योऽहमिति चाब्रवीत् । कृत्वाऽथाऽनशनं मृत्वा, देवी देवोऽनवहिचि ॥ ३० ॥ प्रतिमा देवदत्तांच, कुम्जा देव्यायाऽचयत् । देवी देवेन स्वनाऽऽधैर्बोधितोऽप्यबुधन्न राट् ॥ ३६ ।। ततः प्रभावती देवी, भौता भूत्वाऽगमत्सभाम् । गुफलान्यार्पयद्राक्षे, राजा तान्याद सादरः ॥ ४०॥ सन्ति कैतान्यपृच्च, भौतं सोऽधम्मदाश्रमे । ततस्तेन सम राजा, तत्कृतेमासदाश्रमे ।। ४१ ।। सोऽध तैोष्टमारेभे, नश्वस्तेच्यो ययौ बने । साधूनालोक्य तत्रास्थात्, श्रुत्वा धर्ममबुद्ध च ॥४२॥ ततः प्रजावतीदेवो, दर्शयित्वा स्वमूचिवान् । राजनितो मे देवर्कि-स्तत् त्वमत्र दृढो भव ॥४३॥ स्मरेः कार्ये च गाढे मा-मित्युक्त्वा तत्र जग्मुत्री। वीक्ष्याऽऽस्थाने तथैव स्वं, सोऽर्हद्धर्मे दृढोऽभवत् ॥४४॥ इतश्च श्राद्धो गान्धारो, नत्वा तीर्थबोऽखिलाः। नन्तुं वैताढय चैत्यानि, तन्मोऽस्थाऽपोषितः ।। ४५॥ तत्र शासनदेव्या स, नित्यचैत्यान्यवन्द्यता
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(२४७८) दसतर अभिधानराजेन्द्रः।
दसमकम तोषाचास्मै सर्वकाम- गुटिकानां शतं ददौ ॥४६॥
ममाऽपि मातापितरौ, श्राबको यद् बन्नवतुः॥ ७१॥ सोऽथ वीतभये दिव्य--प्रतिमां नन्तुमागमत् ।
सूदाध्यक्षो नृपस्याऽऽस्य-बाजोचे धूर्त एषकः । तवाभूदतिसारोऽस्य, पालितो देवदत्तया ॥४७॥
किं पुनर्मम बकेऽस्मिन्, प्रतिक्रान्तिन सेत्स्यति ।। ७२ ।। उल्लाघः सोऽथ तास्तस्यै, दवा प्रवजितः स्वयम् ।
ततः स क्वामितो मुक्त्वा, दत्तास्तस्यैव माझवाः। वर्णः स्वर्णसमा मे ऽस्त्वि-त्याशैकां गुटिकामसौ ॥ ४८॥ ललाटे पट्टवन्धश्च, बकोऽकच्चगदनाकृते॥ ७३|| तत्प्रभावात्तथानता, दध्यो भोगार्थिनी पुनः।
नृपा मुकुटवद्धाः प्राक, बझपट्टा इतोऽजवन् । एष राजा पितृप्रायः, परे चास्य मुखेक्षकाः॥४॥
वर्षाव्यतिक्रमेऽयासी--निजं पुरमुदायनः।। ७४ ।। प्रद्योताथमथ प्राऽऽश, द्वितीयां गुटिकामसौ।
आगत्याऽऽगत्य यस्तत्र, घसति स्म वणिग्जनः। सुवर्णगुटिका रूपं, तस्य तपथाऽब्रवीत् ॥५०॥
सोऽस्थात्तत्रैव तज्जझे, पुरं दशपुरं ततः॥ ७॥" तेन त्रैष्यत दुतोऽस्यै, प्रेक्ष्ये तं तावदाह सा।
प्रा० का दश । विशे० प्रा०चू० प्रा०म०। उत्त।नं। अनलगिरिणाऽथाऽऽगा-जात्रौ दृष्टोऽरुदच्च सः ॥५१॥ दसकालिय-दशकालिक-न। कालेन निर्वृत्तं कामिक, प्रमाणअहमेष्यामि यद्येतां प्रतिमांसह नेष्यसि ।
कालेनैति जावः । दशाध्ययनभेदाऽऽत्मकत्वाइशप्रकार कालि. स तत्प्रपद्य तत्पात्रे, निशां निर्गम्य जम्मिवान्॥ ५२ ॥
कम, प्रकारशब्दसोपाद्दशकालिकम् । दशवैकालिकाऽऽख्ये तत्समा प्रतिमामन्यां, कारयित्वाऽगम पुनः ।
ग्रन्थे, दश०१०। मुक्त्वतां तां गृहीत्वा च, सुवर्णगुटिकां च सः ॥ १३ ॥ तत्रानगिरेमंत्रोच्चारगन्धेन बाधिताः ।
दसगुण-दशगुण-पुं० । एकगुणापेकया दशाज्यस्ते, स्था० १० उदायनगजाः सर्वे- ऽप्यनवनिर्मदास्तदा ॥ ५४॥
ठा०। राजपुंभिस्ततो राझो, विज्ञप्तं देव! दासिका।
दसगुणाकालग-दशगुणकालक--पुं० । दशगुण एकगुणकामापेहता प्रद्योतराजेन, रात्रावागत्य चोरवत् ॥ ५५ ॥
क्वया दशाज्यस्तः कालो वर्णविशेषो येषां तेषु, स्था. या त्वसौ प्रतिमा सास्ति, तेऽभ्यधुर्देव! विद्यते ।
१० ठा। पूजाकालेज्य पुष्पाणि, वा स्नानान्यचिन्तयत् ।। ५६ ॥ दसजाइकुलकोमिजोणिप्पमुहस्यसहस्स-दशजातिकुलकोटिप्रतिविम्ब विमुच्याऽत्र, प्रतिमा सा हताऽमुना।
योनिप्रमुखशतसहस्र-न० । दशैव जाती यानि कुलकोटीनां प्रतिमां मुश्च चेटवस्तु, दूतनोचे ऽथ तं नृपः।। ५७॥
जातिविशेषज्ञक्षणानां योनिप्रमुखाणि उत्पत्तिस्थानद्वारका णि नार्पयत्तां स राजाऽथा-चालीज्येष्ठेऽपि तं प्रति ।
शतसहस्राणि अाणि तेषु, स्था• १० ठा। दशापि गणराजान-स्तस्य तेन सहाचलन् ।।५८ ।। तापत्ति चमरौ सैन्य, जलाभावादबाध्यत ।
दसटाण-दशस्थान-न० । दशसु प्रकारेषु, दश स्थानानि नैरततःप्रभावतीदेवः, स्मृतोऽका त्रिपुष्करीम ।। ५६ ।।
यिकाणामनिष्टानि, देवानां चेष्टानि शब्दाऽऽदीनीति । भ० १४ श्रादिमध्यान्तगां सैन्य-मुस्थोऽथोजयिनी यया।
श. ५ २०(वीश्वयण' शब्दे प्रसंगाद् वक्ष्यन्ते ) पुनतेन राजाचे, प्रद्योत को जनक्कयः? ॥६॥
दसट्टाणणिव्यत्तिय-दशस्थाननिर्वतित-पुं० । दशभिः स्थानः द्वयेऽपि सनिकाः सन्तु, पश्यन्तः पारिपार्श्वकाः ।
प्रथमसमयैकेन्द्रियत्वादिभिः पर्यायहें तुभिर्यर्मिता बन्धयोआरूढयोः पदात्योर्वा, तुल्यस्थित्यो रणोऽस्तु नौ ।। ६१॥ ग्यतया निष्पादितास्ताः तेषु, दशभिः स्थाननिवृत्तिर्वा येषां ऊचे प्रयोतराजोऽपि, सावष्टम्भमिदं वचः ।
तेषु च । स्वा० १० वा०। योत्स्यावहे रथेनाऽऽवां, प्रागभ्येत्य रणाङ्गणे ।। ६२॥ दसण-दशन-पुं० । 'दशनानि च कुन्दकक्षिकाः स्युः।' है । द. अथाऽऽरुह्यानलगिरि, प्रद्योतः प्रातरागतः।
श्यते अनेन । दन्ते, शिखरे च । करणे ल्युट् । फवचे, भावे ल्युट्। सदायनो रथेनाऽऽगा-दवन्तीशं जगाद च ॥६३॥
देशने, दन्ताऽऽदिना आघाते च । प्रव० ३० हार । चाच० राजन्नसत्य सन्धोऽसि, नास्ति मोवस्तथापि ते।
दसणाम-दशनामन्-न० । दशविधपदार्थनामनि, अनु। भाबी प्रद्योत! खद्योत स्त्वं मे वाणार्क सङ्गतः।।६४॥
अथ दशनामाभिधानार्थमाहरथं न्यस्याथ मएमल्यां, प्रद्योतेनमुदायनः।
से कितं दसनामे दसनामे दसविहे पाते । तं जहाउकिप्तोरिकप्तपादान्तः, क्षिप्त्वा वाणानपातयत् ॥६५॥ प्रद्योतो निपतन्नागाद्, बद्धोदायननूभुजा।
गोषणे, नोगोणे, आयाणपएणं,पमिवक्खपएणं, पहाणयाए, जाले दासीपतिरिति, दयाकं धरणे कृतः॥६६॥
अणाइयसिके, नामेणं, अवयवेणं, संजोगणं, पमाणेणं । गत्वा राजा ततोऽवम्त्यां, दयाऽऽखां सर्वतो निजाम।
अनु० । (टीका सुगमा) निषिद्धः प्रतिमां गृह-नधिष्ठाच्याऽचत्ततः॥ ६७॥
दस-दशार्ण-jo । दश ऋजानि पुर्गाणि जमानि वा यत्र । वर्षाकाले विचालेऽस्था-दवस्कन्दभयादथ ।
ऋणशब्दे वृभिः। बाच०। मृत्तिकावतीपुरीप्रतिबके देशविशेषे, धृलीव विधायाऽस्थु-र्दशाऽपि परितो नृपाः ॥ ६॥
प्रका०१ पद । सूत्रस०। प्रव०। पा० म० । नदीभेदे, प्रद्योतो धरणस्थोऽपि, बुद्धजे तुभुजा सह ।
स्त्री० । वाच। पृषः पर्युपपायां च, भोज्यं सूदेन नेऽस्तु किम् ? ॥६॥ चएमोऽवादीद्भयान्मृत्योः, का पृच्छा मेऽध सूदप!।
दसम्बकूड-दशार्णकूट-न० । स्वनामख्याते कूटे, मा० कापा. स बभाषे पर्युषणा, राजेन्डोद्याम्त्युपोषितः ।। ७०॥
म० । माना०। पा. चू०। प्रति. ('गयम्गपय' शब्दे तुतीसोऽभ्यधान्मेऽप्यनतार्थः, पर्वपर्युषणाऽप चेत् ।
यभागे ८४२ पृष्ठेऽस्य व्याख्या)
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( २४७६ १
अभिधानराजेन्द्रः ।
दसपुर
दसपुर- दशार्णपुरम खनामध्या नगरे यत्रदशामद्रो नृपः श्रीभगवन्तं महावीरं दशाटनगरनिकट समयसूत वन्दे | स्था० १० वा० । आव० । आ० चू० । श्र० म० । दसष्पभद्द - दशार्णन - पुं० । स्वनामख्याते दशार्णपुरराजे, स्था० दान दशपुरनगर निवासी विश्वस्रावियों भगवन्तं महावीरं दशाणे कूटनगरनिकट मदनमुद्यानपालय नादुपलभ्य यथा न केनापि वन्दितो भगवांस्तथा मया बन्दनीय इति राज्यसंपदवलेपाङ्गक्तितश्च चिन्तयामास । ततः प्रातः सविशेषकृतविलेपनाऽभरणाऽऽदिविषः प्रकल्पितप्र धाद्विपपतिको नाऽऽदिविविध क्रियाकारिसर्पतुरङ्गसैन्यसमन्वितः पुण्यमाणवक समुद्र घुष्यमा काऽगपितगुणः सामन्तामात्यमन्त्रिराजचारिकादिपरि तः सान्तःपुरपौरजनपरिवृत आनन्दमयमिव संपादयन्महीमरामलमाखयमल श्यामरावत्या नगरान्निर्जगाम। निर्गत्य च स मवसरण मनिराम्य यथाविधि भगवन्तं भव्यजननलिनयनविबोचनामिनानुमन्तं महाबीर दोपविवेश दशाननृपाभित्र सम्मानवनोदचनं कृतमुखे प्र तिमुखं विहिताष्टन्ते प्रतिदन्तं कृताष्टपुष्करिणीके प्रतिपुष्क रिणि निरूपिताष्टपुष्करे प्रतिपुष्करं विरचिताष्टले प्रतिदलं रिद्धिनाटके वारणेन्द्र वा निखिलं गगनमण्डलमापूरयन्ममपतिमवलोक्य फुलोमामीट शी विभूतिः ?, कृतो ऽनेन निरवद्यो धर्म इति, ततोऽहमपि तं क रोमि, इति विज्ञाव्य प्रववाज, जितोऽहमधुना त्वयेति भणित्वा यमिन्द्रः प्रणिपपातेति । सोऽयं दशार्णनद्रः संभाव्यते, परमनुश्वरोपपातिका नाधीतः क्वचित्सिद्धश्च श्रूयत इति । तथा अतिमुक पुनरेबिज
यस्य राज्ञः श्री देवा अतिमुक्तको नाम पुनः पार्थिको गगरागड्डमवाद के खूप कि पर्यट ततो गौतमोऽवादीत् श्रमणा वयं, निकार्थं च पर्यदामः । तहिं दन्ताः आगच्छत तुभ्यं भिदापयामीति भ
!
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भगवन्तं गृहीत्वा स्वगुमानीत्। ततः श्रीदेवी हुए भगव प्रतिलभ्नयावास अतिमुक्तः पुनरवोचत्र पंकज भगवानुवाच न ! मम धर्माऽऽचार्याः श्रीवईमानस्वामिन उद्याने वसन्ति, तत्र वयं परिवसामः । जहन्ताः ! गच्छाम्यइं भवद्भिः सार्द्ध जगवतो महावीरस्य पादान् वन्दितुम् ? । गौतमोऽवादीत्यथासुखं देवानां प्रिय है। सह गत्वाऽतिमुक्तकः कुमारो भगवन्तं वन्दते स्म । धर्मे श्रुत्वा मागत्य पितराय या संसारानिर्विषोऽई जानीजानीत वामातुः किं जानासि रातो ऽतिमुकोऽन्यात बचा जानामि तदेव जानामीति । ततस्तौ तमवादिष्टाम् । कथमेतत् । सोsaवीत्-अम्ब ! तात ! जानाम्यहं यदुत जातेनाऽऽवश्य मर्तव्यं, न जानामि तु कदा वा कस्मिन् वा कियचिराद्वा । तथा न जानामि के कर्मभिर्निया जीवा उत्पद्यन्ते पुन नामि, यथा-स्वयं कृतैः कर्मभिरिति । तदेवं मातापितरौ प्रतिबोध्य प्रववाज, तपः कृत्वा च सिद्ध इति । इह स्वयमनुत्तरोपपातिकेषु इस माध्ययनतयोकस्तदपर एवाभ्यं भविष्यतीति । स्था• १० वा० । श्रब० । उत्त० अ०म० अ० चू० । ० क० । तथा च "सद्विकरिसहस्स" इति गाथाया व्याख्यानं प्रसाद्यमिति ने उत्तर दस्तिसालिक
दसव
णाः सदा तेर्यानि तानि सान्तानि संख्या निशि रांसि अशिरांसि साष्टदन्तानि च तानि श्रष्टशिरांसि च सा टइन्ताष्टशिरांसि चतुःषष्टिगुणीकृतानि साटदन्ताष्टशिरांसि षष्टिष्टन्ताष्ट शिरसः अत्र मध्यपदलोप समा सो ज्ञेयः । अष्टानां च चतुःषष्ट्या गणने छादशोत्तराणि पञ्चश तानि शिरांसि प्रतिगर्जति दिते रिण्य इति । ५३ प्र० । सेन०२ उद्धा० । तथा दशांभा कारे हस्तिमुख दिबिणा किमिव कृता, किराय देवेन वेति प्रश्ने, उत्तरम् - आवश्यकचूर्याद्यनुसारेण ह निमुखादि सर्वमिन्द्राऽऽदेशादेरावणेन विचक्रे, आवश्यक वृत्याद्यनुसारेण तु तत्सर्व स्वयं विमजसेवि । ११७ २० सेन० २ उल्ला० ।
दसतिग-दशत्रिक - न० । दशात्र्यस्ते व्यवयवे समुदाये, संघा १ अधि० १ प्रस्ता० ( ' बेइयवंदण ' शब्दे तृतीयजागे १८९८ पृष्ठे दशत्रिकाणि प्रतिपादितानि ) दसदसमिया-दशदशमिकाखी० दश दशमानि दिनाने य स्यां सा दशदशमिका । दशदशक निष्पन्नायां निकुप्रतिमायाम्, स्था० ।
दसदसमिया भिक्खुमा राईदियस प्रक हि य भिक्खा एहिं प्रहासुतं० जाव श्राराहिया जवइ ।
(दसेत्यादि) दश दशमानि दिनानि यां मा दादशमिका दशदशक निष्पत्यर्थः भिकूण प्रतिमा प्रतिज्ञाभिप्रतिमा एकेनेत्यादि दशदशकानि दिनानां शतं भवतीति प्रथमे दशदश. भिका द्विती विंशतिः । एवं दशमे शतम् । सर्वमीझने पञ्चशतानिधिका भवन्तीति हासेत्यादि) (महा) सूत्रानतिक्रमे यावरचात् (हानिका देरनतिक्रमेण (सात) शब्दार्थाननिकमेख ( अदामग्गं ) कायोपशमिकानाधानतिक्रमेण ( श्रहाकप्पं ) तदाचारानतिक्र मेस, सम्यक्कायेन, न मनोरथमात्रेण, (फास्सिया ) विशुद्धपरि णामप्रतिपश्या (पलिया) सीमां यावत्तत्परिणामाहान्दा 'शोपितानि वित्
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तारित तारं गीता प्रतिज्ञाकलोपर्यप्यनुष्ठानात कीर्तिता नाम इदं चेदं च कर्त्तव्यमस्यां तत्कृतं मयेत्येवमिति । श्राराधिता सर्वपदमीलनातू, भवति जायत इति प्रतिमाऽभ्यासः । स्वा० १० वा० प्र० । । स० । अन्त०
दसदसय - दशदशक न० । शते स्था० १० ० ॥ दसदिहंत-दशदृष्टान्त-पुं० | मनुष्यलाभे दशसु दृष्टान्तेषु, श्रा• म० १ ० २ खण्म । ( ते च 'मानुसन्त' शब्दे वक्ष्यन्ते ) दस दिवसिय - दशदिवसिक- त्रि० । दशाहिके, " दखदिवसिय विश्वमियं ।" झा० १ ० १ ० ।
दसधणु - दशधनुष्- पुं० । जम्बूफीपे द्वीपे भागमिष्यन्त्या मुरलपिया मैरवते वर्षे भविष्यति षष्ठे कुलकरे, स०ति०। जम्बूद्वीपे द्वीपे भारते वर्षे आगमिष्यन्नयामुत्सपियां दशमे कुलकरे
च। स्था० १० aro
दसकवच-दशार्द्धवर्ण–त्रि० । पञ्चवर्णे, स० ३४ सम० | रा
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(२४०) दसहयल अन्निधानराजेन्कः।
दसवेयालिय मो०। जी० । “दसद्धवरणस्स कुसुमस्स जाणुस्सेहपमाण
यह तुमेत्तं ।"रा।
एयाइँ परूवे, कप्पे बघियगुणेण गुरुणा उ । दसपएसिय-दशप्रदेशिक-पुं० । दशाणुके, स्था० १० ठा० ।
अणुप्रोगो दसवेया-लियस्स विहिणा कहेयब्बो ॥ ६ ॥ दसपएसोगाढ-दशप्रदेशावगाढ-पुं० । दशप्रदेशेवाकाशस्या.
एतानि निकेपादिधाराणि ('अणुओग' शब्दे ) प्ररुप्य वगाढा आथिता दशप्रदेशावगाढाः । प्राकाशस्य दशसु प्रदे व्याख्याय कल्पे वर्णितगुणेन गुरुणा, पत्रिंशद्गुणसमन्धिशेषु आश्रिते, स्था० १० वा०।
तेनेत्यर्थः । अनुयोगो दशवकालिकस्य, विधिना प्रवचनोक्तेन दसपुचि(पा)-दशपूर्विन-पुंगधीतोत्पादाऽऽदिपूर्वदशके,कल्प कथयितव्य आख्यातव्यः। इति गाथार्थः ॥ ६॥ सम्प्रत्यजा"महागिरिः सुहस्ती च, सूरिः श्रीगुणसुन्दरः।
नानः शिष्यः पृच्छति-यदि दशकालिकस्यानुयोगः, ततस्तद्दश्यामाऽऽर्यः स्कन्दिलाऽऽचायों, रेवतीमित्रसूरिराट् ॥१॥ शकलिक भदन्त! किमङ्गमङ्गानि, श्रुतस्कन्धः श्रुतस्कन्धाः, अ. श्रीधर्मो भगुप्तश्च, श्रीगुप्तो धज्रमूरिराट् ।
ध्ययनम्, अध्ययनानि, उद्देशक उद्देशका इत्यो प्रश्नाः । एतेषां युगप्रधानप्रबराः, दशैते दशपूर्षिणः ॥२॥" कल्प. कण । मध्ये त्रयो बिकल्पाः खलु प्रयुज्यन्ते, तद्यथा- दशकालिक, थुदसबल-दशवल-पुं० । " दशपापाणे हः" ॥८।१ । २६२ ॥
तस्कन्धः,अध्ययनानि, उद्देशकाश्चेति, यतश्चैयमतो दशाऽऽदीनां
निक्केपः कर्तव्यः । नद्यथा--दशानां कालस्य श्रुतस्कन्धस्याध्ययइति शकारस्य वैकल्पिको हकारः। 'दसयलो। दहबरो।"प्रा०१
नस्य, उद्देशकस्य चेति । पाद । दश बलानि यस्य सः। बुद्धभगवति, को० । “दानशीनक्षमावीर्य- ध्यानप्रज्ञावनानि च । उपायाः प्रणिधिझान, दश
तथा चाऽऽह नियुक्तिकारः-- बुझबलानि चै" ॥ १॥ वाच।।
दमकालियं ति नाम, संखाए कालो य निदेसो। दसम-दशम-त्रि० । दशानां पूर्णः, डटि मद । येन दश दसकालिय सुप्रखधं, अज्यणुदेस निक्खिीव ।। ए॥ सहळया पृश्यते तस्मिन्, आचा० १ ० ए ०४ दशकालिकं प्राग्निरूपितशब्दार्थम,इति एबंजूतं, यन्नाम अभि. उ०। पञ्चा०।
धानम् । इदं किम् ? , संख्यानं संख्या, तया, कालतश्व दसमजत्तिय-दशमभक्तिक-पुं०। दिनचतुष्टयमुपोषिते, प्रश्न कालेन चाय निदेशा-निर्देशन निर्देशः, विशेषानिधानमित्यर्थः। ३ संव. द्वार।
अस्य च निबन्धनं विशेषेण वक्ष्यामः " मणगं पडुच्च" इ. दसमी-दशमी-स्त्री० । ङीप् । सा च "शताऽऽयुर्वं पुरुषः" इति
त्यादिना प्रन्थेन । यतश्चैवमतः-(दसकात्रियं ति ) कालेन नि.
व॒सं कालिकं, दशशब्दस्य का शब्दम्य च निक्केपः। निवृत्ताश्रुतेः पुरुषस्याऽऽयुःकालस्य शतसंख्यकतया दशभिर्वि
यस्तु निकेपः । तथा श्रुतस्कन्धम्, तथाऽध्ययनमुद्देशं तदेकदेशभागः। नवतेरुटुं दशवर्षावच्छिन्ने काले पुरुषावस्थाऽऽदौ,बाचा
नृतम् । किम् ? । निक्षप्तुमनुयोगोऽस्य कर्तव्य ति गाथाऽर्थः। ६०प० । ज्यो०। (तिहि ' शब्देऽस्मिन्नेव भागे २३३० पृष्ठे
दश०.१ अ०। (दशशब्दस्य निक्षेपः 'दल' शब्देऽस्मिन्नेव दशमीफलान्युक्तानि)
भागे २४७६ पृष्ठे गतः) (कालशब्दस्य च 'काल 'शब्दे दसमुद्दामंमियग्गहत्य-दशमुडामएिमताग्रहस्त-पुं० । दशनि. तृतीयभागे ४७० पृष्ठादारभ्य बिशेषो द्रष्टव्यः) मुंजानिमगिमती अग्रहस्तौ येषां तेषु, जी० ३ प्रति० ४ १०। इह पुनर्दिवसप्रमाणकालेनाऽधिकारः, तत्रापि तृतीयपौदसमुद्दियार्णतय-दशमुनिकानन्तक-न । हस्ताङ्गलीमुधिका
रुष्या, तत्रापि बह्वतिक्रान्तयति । पाह-यदुक्तम-" पगयं तु दशके, भ. ६ श० ३३ उ० ।
भावेणंति," तत्कयं न विरुध्यत इति ? । उच्यते-क्षायोपमि
कभाचकाने शय्यभवेन नियूंढं, प्रमाणकावे चोक्तलकणमित्यदसरचट्ठिश्वमिया-दशरात्रस्थितिपतिता-स्त्री०। कुमक्रमादागा।
विरोधः। अथवा-प्रमाणकालोऽपि भावकाल एव , तस्या. ते पुत्रजन्मानुष्ठाने, विपा० १ श्रु. ३ अ०।
काकालस्वरूपत्वात्, तस्य च भावत्वादिति । दसरह-दशरथ-पुं० । जम्बूद्वीपे भारते बर्षेऽस्यामेवोत्सपि.
तथा चाऽऽह नियुक्तिकार:रायां जातेऽष्टमस्य वासुदेवस्य पितरि, स्था० ए वाश्राव।
सामाश्यअणुकमओ, बन्नेनं विगयपोरसीए उ। तिः। स० । जम्बूद्वीपे जारते वर्षेऽतीतायामुत्सपियां जाते नवमे कुलकरे, स्था० १० ठा० । स०।
निम्बूढं किर सिज्जं-भवण दसकालियं तेणं ॥ १॥ दप्सविह-दशविध-त्रि० । दशप्रकारके, प्रश्न. ३ संब० द्वार।
सामायिकमावश्यकप्रथमाध्ययनं, तस्यानुक्रमः परिपाटीवि
शेषः, सामायिके वाऽनुकमः सामायिकानुक्रमः, ततः सामायि. दसावहकप्प-दशविधकल्प-पुं० । कल्पविकल्पाऽऽदिके दश
कानुकमतः सामायिकानुक्रमेण, वर्षयितुम, अनन्तरोपन्यस्तप्रकारे कल्पे, पं० भा०। (दशविधकल्पाः 'कप्प' शब्दे तृतीय- गाथाद्वाराणीति प्रक्रमाद्गम्यते । विगतपारुष्यामेव,तुशब्दस्याऽच. नागे २२० पृष्ठे सक्ताः)
धारणायवाद, निव्यूढं पूर्वगताउदृत्य विरचितम् । किलशब्दः दसवेयालिय-दशवकालिक-न० । विकालेनापरावलक्षणेन नि. परोक्काऽऽप्ताऽऽगमवादसंसूचकः। शल्यंभवेन चतुर्दशपर्वबिदा,द. वृत्तं वैकालिकम, दशाध्ययननिमाणं च तद्वैकालिकंच मध्यप. शकालिकं प्राग्निरूपिताकरार्थ,तेन कारणे नोच्यत इति गाथार्थ: दलोपार्शवकासिकम् । पा. नं० । शय्यम्जवसूरिकृते स्व. ॥१२॥ श्रुतस्कन्धयोश्च निकेपश्चतुर्विधो कष्टव्यः, यथाऽनुयोगनामख्याते श्रुतग्रन्थे, अस्य दशवकालिकस्यानुयोगः । तत्रानु- द्वारेषु, स्थानाशून्याथै किचिमुच्यते-इड नोभागमतः शरीयोगव्याख्या स्वस्थाने निरवशेषोक्ता।
रजन्यशरीरव्यतिरिकं जयश्रुतं पुस्तकपत्रन्यस्तम् । अथवा
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(२४०१) दसवेयालिय प्रान्निधानराजेन्द्रः।
दसवेयालिय सूत्रमण्मलादि ।नावश्रुतं वागमतोकाता उपयुक्तः । नोभागमा जा मे तुमं तसं न कदेसि । तो प्रावो नणति-पुत्ता! तस्विदमेष दशकालिक,मोशन्दस्व देशवचनत्वात् । पर्व नोमा
मम समये भणियमेयं घेदत्थे, पर सीसच्चेदे कहियम्ब ति गमतो शरीरभव्यशरीरव्यतिरिक्तो व्यभुतस्कन्धः सचेतना. संपर्य कायामि जं एत्थ तत्तं, एतस्स जूवस्स का सबऽऽदिः। तत्र सचित्तो विपदादिः। अचित्तो छिप्रदेशिकाऽऽदिः। रयणमई पमिमा भरहओ साधुन्ब ति मारिही धम्मो ततं । मिश्रा सेनाऽऽदिर्देशाऽऽविरिति । तथा-जावस्कन्धस्त्वागमतस्त- तादे सो तस्स पापमु पमितो । सोब जमवामभो - दर्थोपयोगपरिणाम एव । नोमागमतस्तु दशकालिक तस्कन्ध. खोचि तास चेव दियो । ताहे सो गंतूण ते साहु गवसमापवेति, मोशब्दस्य देशपचनत्वादितिाइदानीमध्ययनोदेशकन्या- णे गमो पायरियसगासं । मायरियं वंदित्ता साहुणो य प्रसप्रस्तावःतं चानुयोगद्वारप्रक्रमाऽयातं प्रत्यध्ययनं पधासंजय. णति-मम धम्मं करे। ताहे मायरिया उबउत्सा-जहा श्मो मोघनिष्प निक्केपे लाघवा बदयाम इति । ततश्च यदुक्तम्- सो ति, ताहे मायरिएहि साहुधम्मो कहियो । संबुद्धो प"सकालियसुथबंध, भज्यणुरेस शिक्विवि"(Oअनुयो.
वश्नो सो चउद्दसपुब्बी जामो । जबा यसो पम्वरमो त. गोऽस्य कर्तव्य इति तदंशतः संपादितमिति ।
याब तस्स गुन्धिणी महिला होत्या । सम्मि व पश्य साम्प्रतं प्रस्तुतशास्त्रसमुत्थानवक्तव्यताऽभिधित्सयाह- बोगो णियचो तं तमस्सति-जहा तरुणाए भत्ता पब्धश्तो, जेण व जंब पमुच्चा, जत्तो जाति जह य ते ठविया ।
अपुत्साए अवि भत्थि तब किवि पोट्टेति पुच्छति।साभणति
उवलक्वमि मणगं । तमो समपण दारगो जामो, तारे जि. सो तं च तो ताणि य, तहा य कमसो कहेयव्वं ॥१३॥
व्वत्तवारसाहस्स णियलग्गदि जम्दा पुच्चिज्जंतीए मायाए से येन वाऽऽचार्यण,पदा वस्तु,प्रतीत्याङ्गीकृत्य,बतइचाऽऽत्मप्रवा-- भणिो मणगं ति, तम्दा मणो से णाम कय ति। जवा सोमदाऽऽदिपूर्वतो,यावन्ति वाध्ययनानि,यथा चयन प्रकारेण तान्य- दुचरिसो जामो तादे सो मातरं पुच्चति-को मम पिया। ध्ययनानि,स्थापितानि न्यस्तानि,स चाऽवार्यः, तब वस्तु,तत- सा भण-तब पिबा पम्चयो । ताहे सो दारो णासिकस्तस्मात्पूर्वात् तानि चान्वयनानि, तथा च तेनैव प्रकारेण, क- णं पिसगासं पट्टियो । पायरिया य तं, कालं चंपार बिहमशः क्रमेणानुपूर्वा कथयितव्यं प्रतिपादयितव्यमिति गाथा
रति । सो वि.दारको चंपामेवाऽऽगतो । प्रायरिएण य समासार्थः। भवयवाय तु प्रतिद्वारं नियुक्तिकार एवं वथाs- सषाभूमि गपण सो दारो दिको । दारपण बंदिभो मायरिवसरं षट्पति।
भो। श्रावरियस्सषतं दारगं पेच्छतस्स हो जामो। तस्स वि तत्राधिकृतशास्त्रकर्तुः स्तवद्वारेणाऽऽचद्वाराष
दारगत सहेष । मायरिपटि पुच्छियं-नो दारग! कुतो ते मा. यवार्थप्रतिपादनायाऽऽह
गमणं । सो दारगो भणति-रायगिहातो। पायरिएण भणियं. सेजंभवं गणहरं, जिण परिमादसणेण पमिबुद्धं । रायगि तुम कस्स पुत्तो, नत्री वा सो भण-सज्जमणगपियरं इसका-लियस्स निज्जूहगं बंदे ॥१४॥
भवो नाम पंजसो ति तस्साहं पुत्तो, सो पकिर पब्वश्मो।
तेहिं भरिणय-तुम केण कण भागोऽसि ।सो भणइ-महं पि सेन्जनवमिति नाम, गणधरमिति अनुत्तरकानदर्शनाऽऽदि
पवस्सापच्छा सो दारो जणति-तो प्रणह, बंभं तुम्हे जा. धर्मगणं धारयतीति गणधरस्तम्, जिनप्रतिमादर्शनेन प्रति
जह पायरिया भणंति-जापेमो । तेण भणियं-सो कदि ति?ते बुक, तत्ररागषकपायेन्द्रियपरीपहोपसगाऽऽविजेतृत्वाज्जिनः,
प्रणंति-सोमम मित्तो एगसरीरजूतो, पव्वयाहि तुम मम सगा. तस्य प्रतिमा सद्भावस्थापनाम्पा, तस्याः दर्शनमिति समासः।
से। तेज भलिव-पषं करेमि । तो श्रावरिया श्रागंतुं पहिस्सए तेन देतुभूतेन, प्रतिबुवं मिथ्यात्वाज्ञाननिकाऽपगमेन सम्यक्त्व. मालोपंति सचिचोपमुप्पनो । सो पचहतो । पच्छा मायरिया बिकाशं प्राप्तम्। मनकपितरमितिमनकाऽऽण्यापत्वजनकम,दश
उत्साकेवत्तियं कालं एस जिपत्ति । गाय-जाब रम्मासा। कालिकस्य प्राग्निरूपिताकरार्थस्य, निर्यहरू पूर्वगतोयुतार्थवि
ताहेपायरियाणं की समुप्पना-मस्सयोवगं माउं,किंकायचं रचनाकार, बन्द स्तौमि । ति गाथाऽकरार्थः। भावार्थःक
ति!तंचोहसपुत्री कम्हि विकारणे समुप्पन्ने णिज्जहति, दसथानकावबसेयः । तदम् "पत्य बखमाणसामिस्स चरमतिस्थगरस्स सीसो तित्यसामी सुहम्मो नाम गणञ्चरो भासि । त
पुन्बी पुल अपच्छिमो अवस्समेव णिजदति । मम पि इम सवि जंबूणामो, तस्स विय पभवोति। तस्स ऽनया कयाइ
कारणं समुप्पचं, तो भहमचि थिज्यूहामि।तादेमादत्तो निग्ज
दिउं।तेनिज्जहिजेतो चियाले निन्दा थोवाचसेस दिवसे। पुज्वरत्तावरत्तम्मि चितासमुप्पन्ना-को मे गणधरो होजातिप्र.
तेण तं दसवैयालियं प्रणिज्जति" अनेन बकथानकेन न केवलं प्पणो गणेय संघे व सध्यमो उबोगो कतो, पदीसह कोश अन्योकित्तिकरो। ताहेगारत्येसु स्वउत्तो, वयोगेकर राब
बेन बेस्यस्यैव द्वारसभावार्थोऽभिहितः, किंतु पदा प्रती
स्वतस्थापीति। गिहे सेजंभवं माहवं जपं जयमाणं पाप्तति । ताहे राबगिहं नगरं मागंतूण संघारवंबाबारेति जयवाम गंतुं भिक्खट्टा
तथा बाद नियुक्तिकार:धम्म लादेहतत्थ तुम्मे प्रतिस्था विजिजहिहता तुम्ने
मणगं पमुच्च सेज-नवेण निहिया दसझयणा । प्रषिजह-"अहो कर तन ज्ञायते इति ।" तो गया साह, बेयालिया बिया, तम्हा दसकान्तियं नाम ॥१५॥ पतित्था विवाय तेहि भाणतं-"मो कष्ट तवं न ज्ञायते।" मनकंप्रतात्य मनकाऽऽस्यमपत्यमाभित्य, शाम्यप्रपेनाऽऽचार्यण, तेण व सज्जंजवेख दारमूले पिणं तं पयर्ष सुवं । ताहे नियंढानि पूर्वगतादुकृत्य बिरचित्तानि, दशाध्ययनानि दुमपुसो चिर्चिते-पते उबसंता तबास्सयो, सच्चं जयंति सि पिकालीनि। (बेयालिया षिषति) विगतः कामो विकालः, का प्रज्झावगसगासं गंतुं भपति-कितासो प्रणति-थे- विकलनं वा विकास इति। विकालः शकलः सएमधेत्यनदा तत्तं । ताहे सो असि कठिकण भणति-सीसं ते निंदामि, न्तिरम् । तस्मिन् विकालेऽपराहे स्थापितानि यस्तानि हुमपु
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(२४८५) दसवेयालिय मन्निधानराजेन्डः।
दसवेयालिय पिकाऽऽदीयध्ययनानि यतः, तस्माइशकालिकं नाम । व्युत्प
वयणविभत्ती पुण स-त्तमम्मि पणिहाणमट्टमे भणिय । तिः पूर्ववत् । दशबैकालिकं वा चिकानेन निवृत्तम्, संकासा. ऽऽदिपागचातुरर्थिकष्ठक। "तद्धितेवचामादेः" ॥७।२।११७॥
णवमे विणो दसमे, समाणियं एस भिक्खत्ति ॥२२॥ इत्यादिवृद्धकालिकम। दशाध्ययननिर्माणं च तद्वैकाविकं च | प्रथमेऽध्ययने कोऽर्थाधिकारः?, इत्यत श्राद-धर्मप्रशंसा। दुर्गदशवैकासिकमिति गाथार्थः ।
तो प्रपतन्तमात्मानं धारयताति धर्मः, तस्य प्रशंसा स्तवः, सएवं येन वा यहा प्रतीत्येति व्याख्यातम् । इदानी कनपुरूषार्थीनामेव धर्मः प्रधानमित्येवंरूपा। तथाऽन्यैरप्युक्त___ यतो नियूढानीत्येतनाचिख्यासुराह
म्-"धनदोऽर्थाथिनां प्रोक्तः, कामिनां सर्वकामदः । धर्म आयप्पवायपुवा, निज्जूढा होइ धम्मपन्नत्ती।
एवापवर्गस्य, पारम्पर्येण साधकः ॥ १॥ " इत्यादि । स कम्पप्पवायपुवा, मिस्स उ एसणा तिविहा ॥१६॥
चात्रैव जिनशासने धर्मो, नाऽन्यत्र, इहैव निरवद्यवृत्तिसद्भा
वात । पतधोतरत्र न्यकेण वक्ष्यामः । धर्माभ्युपगमे च सत्यपि सच्चप्पवायपुत्रा, निज्जूढा होइ वक्कसुछी ।।
मा नूदभिनवप्रव्रजितस्याधृतेः संमोह इत्यतस्तानराकरणाअवसेसा निज्जूहा, नवमस्स उ तइयवत्यूओ॥ १७ ॥ र्थाधिकारवदेव द्वितीयाध्ययनम् । आह च-हितीयेऽध्ययने वीओ कि य आएसो, गणिपिमगाओ वालसंगाओ। अयमर्थाधिकारः। धृत्या हेतुनूतया शक्यते कर्तुम् । 'जे' शति एवं किर निज्जूई, मणगस्त अणुग्गहहाए।। १० ।
पूरणार्थों निपातः, एष जैनो धर्म इति । उक्तं च-" जस्स इहाऽऽत्मप्रवाद पूर्व यत्राऽऽत्मनः संसारिमुक्ताऽऽद्यनेकभेदभिन्नस्य धिई तस्स तवो, जस्स तवो तस्स सा गती सुलभा । जे श्र. प्रवदनमिति, तस्मानियूंढा नबति धर्मप्राप्तिः, षम्जीवनिके
धितिमंतपुरिसा, तवो वि खलु दुललो तेसिं ॥१॥" सा पुनधृतित्यर्थः। तथा-कर्मप्रवादपूर्वात । किम् ? पिएमस्य तु पपणा
राचारे कार्या, न स्वनाचारे, इत्यतस्तदर्थाधिकारवदेव तृती. त्रिविधा निर्मूदेति वर्तते । कर्मप्रवाहपूर्व नाम-यत्र ज्ञानाऽऽबर.
याध्ययनम् । प्राह च-तृतीयेऽध्ययने कोऽर्धाधिकारः?, इत्यत जीयाऽऽदिकर्मणो निदानाऽऽदिप्रवदनमिति। तस्मात किमपि- आह-माचारगोचरा कथा प्राचारकथा, सा चेहै वाणुविपमस्यैषणा त्रिविधा गवेषणा-ग्रहणैषणा-प्रासैषणाभेदनिन्ना। स्तर मेदात । यत आद-तुल्लिका लध्वी, सा च आत्मसंजमोनि!ढा सा पुनस्तत्राऽमुना संबन्धेन पतति । भाषाकर्मोपत्रोक्ता
पायः। संयमनं संयमः, आत्मनः संयम आत्मसंयमस्तपायः। कानाऽऽवरणीयाऽऽदिकर्मप्रकृतीबंधनानि । उक्तंच-"आहाकम्म
उक्तंच-"तस्पाऽऽत्मा संयमे यो हि, सदाचारे रतः सदा। नुजमाणे समणे अट्ट कम्मपगडीश्रो बंधा"इत्यादि । शुद्धपि
स एव धृतिमान् धर्मस्तस्यैव च जिनोदितः॥१॥" इति । स एमोपभोक्ता चाशुभान बनातीत्यरं प्रसङ्गेन । प्रकृतं प्रस्तुमः। सत्य
चाऽचारः षम्जीवनिकायगोचरः प्राय इत्यतश्चतुर्थमध्ययनम् । प्रवादपूर्वाद् नियूंढा जवति वाक्य शुमिस्तु । तत्र सत्यप्रवादं
अथवाऽऽत्मसंयमस्तदन्यजीवपारपालनमेव तश्वतः,श्त्यतस्तनाम-यत्र जनपदसत्याऽऽदेः प्रवदनमिति । वाक्यशुद्धिर्नाम
दाधिकारवदेव चतुर्थमध्ययनम् । प्राह च--तथा जीवसंजमो. सप्तममध्ययनम् । अवशेषाणि प्रथमद्वितीयाऽऽदीनि नियंदानि
ऽपि भवति चतुर्थेऽध्ययनेाधिकार इति । अपिशब्दादात्मनवमस्यैव प्रत्याख्यानपूर्वस्य तृतीयवस्तुन इति। द्वितीयोऽपि
संयमोऽपि तद्भाव्येव वर्तते । उक्तं च-"ग्सु जीवनिकापसुं, जे चाऽऽदेशः। आदेशो विध्यन्तरम्, गणिपिटकादाचार्यसर्वस्वाद
बुहे संजए सदा । से चेव होति विष्मये, परमत्येण संजए ॥१॥" द्वादशाहादाचाराऽऽदिलकणात, इदं दशकालिक,किलेति पूर्व.
इत्यादि । एवमेव धर्मः,स च देहे स्वस्थे सति पाल्यतेस चाsचत, नि!ढमिति च। किमर्थम् ? मनकस्योक्तस्वरूपस्य अनु
हारमन्तरेण प्रायः स्वस्थो न जबति, सच सावघेतरभेद इत्यनप्रहार्थमिति गाथात्रयार्थः। एवं यत इति व्याख्यातम् ।। १८॥
वद्यो ग्राह्य त्यतस्तदाधिकारबदेव पञ्चममध्ययनमिति । आह अधुना यावन्तीत्येतत्प्रतिपाद्यते
च-भिक्काविशोधिस्तपःसंयमस्य गुणकारिकैव पञ्चमेऽध्ययने.
ििधकार शति । तत्र भिक्षणं भिका, तस्या विशोधिः सावधदुमपुफियाश्या खलु, दस अज्जयणा सनिक्खुयं जाव।।
परिहारेणेतरस्वरूपकथनमित्यर्थः, तपःप्रधानः संयमस्तपःअहिगारा वि य एत्तो, वोच्छं पत्तेयमेकेके ।। १७॥
संयमः,तस्य गुणकारिकैवेयं वर्तते इति । उक्तं च-" से संजते तत्र दुमपुष्पिकेति प्रथमाध्ययननाम, तदादीनि दशाध्ययनानि।
समक्खाते, निरवजादार जे बिऊ । धम्मकायट्रिते सम्मं, सुद(सभिक्खुयं जाब त्ति)स भिदबध्ययनं यावत, सलुशब्दो वि.
जोगाण साहए ॥१॥" इत्यादि । गोचरप्रविष्टेन च सता स्वाचार शेषणार्थः । किं विशिनधि ? । तदन्ये द्वे चूमे । यावन्तीति व्या- पृष्ठेन तद्विदाऽपिन महाजनसमकं तत्रैव विस्तरतः कथयितव्यः, ण्यातम् । यथा चेत्येतत् पुनराधिकाराभिधानद्वारेणैव च व्या-|
अपि तु आनये । गुरवो वा कथयन्तीति बक्तव्यम् । अतस्तदर्थाचिख्यासुः संबन्धकत्वेनेदं गाथादनमाह-भधिकारादपि चातो
धिकारवदेव षष्ठमध्ययनमिति । आह च-षष्ठेऽध्ययनेऽर्धाधिकारः बक्ष्ये प्रत्येकमैकैकस्मिन्नध्ययने। तत्राध्ययनपरिसमाप्तेर्योऽनु.
प्राचारकथा । साऽपि महतो,न क्षुद्धिका, योग्या उचिता, महावर्तते सोऽधिकारः । इति गाथाऽर्थः ।। १६ ।।
जनस्य विशिष्टपरिषद इत्यर्थः । वक्ष्यति च-" गोयरग्गपविट्रो पहमे धम्मपसंसा, सो य श्हेव जिपसासम्मि ति । उ, न निसिज कत्थई । कहं च ण पबंधिज्जा, चिट्टिन्जा व विइए घिदए सका, काउं जे एस धम्मो त्ति ।। २० ॥ संजए॥१॥" इत्यादि । प्रालयगतेनापि तेन, गुरुणा बावचनदो
षगुणानिक्षेन निरवद्यवचसा कथयितव्यमिति । अतस्तदातए आयारकहा, न खुड्डिया आयसंजमोवाओ।
धिकारवदेव सप्तममध्ययनमिति । माद च--"बयण विभत्ती" तह जीवसंजमो वि य, होइ चउत्यम्मि अज्य णे।।१।
इत्यादि । वचनस्य विभक्तिर्वचनविभक्तिः, विमजनं विनक्तिरेवं. निक्सविसोही तवसं-जमस्स गुणकारिया उ पंचमए । नृतमनवद्यम्, इत्थंभूतं च सावद्यमित्यर्थः, पुनःशब्दः शेषाछडे पायारकहा, महई जोग्गा महयाणस्त ॥३॥ ध्ययनार्थाधिकारज्य प्रस्थाधिकृताधिकारस्य विशेषणार्य
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(२४८३) अभिधानराजेन्द्रः ।
दसवालिय
इति सप्तमेऽध्ययने ऽर्थाधिकार इति । उक्तं च-" सावजऽणवज्जाणं, वयणाणं जो न याति विसेसं । बोपि तस्स न मं, किमंग ! पुण देखणं काउं ॥ १ ॥ " इत्यादि । तच्च निस्वयं वचः स्वाचारे प्रति भवतीत्यतस्तदधिकारवदेवाष्टममध्ययनमिति । श्राह च प्रणिधानमष्टमेऽध्ययनेअधिकतम प्रथिनं नाम विशिष्टतधर्म इति । उक्तं च" पणिहाणरहियस्सेह, निरवज्रं पि भासियं । सावज विषेयं, मज्जत्थेणेद संबुमं ॥१॥" इत्यादि । आचा रप्रणिहितश्च यथोचितविनयसंपन्न एव भवतीत्यतस्तदर्थाधिकारवदेव नवममध्ययनमिति । आह च-नवमेऽध्ययने चिन योऽथधिकार इति । उक्तं च " आयारपणिहाणम्मि, से सम्म
तीमुढेही विणतेजेोगिनिय १ एतेष्वेव नयस्यध्ययनार्थेषु यो व्यवस्थितः स सम्यग्भिरित्यनेन संबन्धेन स भिवध्ययनमिति आद दशमेऽध्ययने समाप्ति नीतमिदं साधुकिया निधायक शा स्त्रम् । एतत्क्रियासमन्वित एव निक्षुर्भवति । अत श्राह एप निकुरिति गाथाचतुष्टार्थः ।
पिनिका कदाचित कर्मपाकर्म श्च बलवत्वात्सीदेत्, ततस्तस्य स्थिरीकरणं कर्तव्यमतस्तदश्रधिकारवदेव चूमाद्वयमित्याहदो ज्या चूलिय, विसीययंते थिरीकरण मेगं । विविवित्तवरिया, असीपणगुणागफला ॥ २४ ॥ द्वे अध्ययने । किम् ? | चूमा चूडेव चूमा, तत्र प्रमादवशाद्विसीदति सति साधी संजमे स्थिरीकरण प्रथमम् स्थिरीकरणफलमित्यर्थः । तथा च तत्रावधावप्रेक्षिणः साधोर्दुःजीवि नरकपालादयो दोषा वयन्ते इति तथा तीयेग्ध्ययने विधिकलता है, मसीनगुणातिरेकफला, तत्र विचिचान्तच इम्प क्षेत्रका सभाध्य संता उपलक्षणं चैषा नियतीनामिति प्रसादनगुणातिरेकः फलं यस्याः सा तथाविधेति गाथाऽर्थः ॥ २४ ॥ दसकालियस्स एसो, पिंमत्यो वनिओ समासेणं ।
एत्तो एक्केकं पुष्प, अज्जयां कित्तइस्सामि ॥ २५ ॥ दशकालिकस्य प्रानिरूपितशब्दार्थस्य एषोऽनन्तरोदितः पि राडार्थः सामान्यार्थः, वर्णितः प्रतिपादितः समासेन संके
, अत ऊर्द्ध पुनरेकैकमध्ययनं कीर्तयिष्यामि प्रतिपादयि यामीति पुनः शब्दस्य व्यवहित उपन्यासः । इति गाथाऽर्थः । २५। दश० १ अ० ।
"
अथ शास्त्रकर्तुः स्तवमाहसिभवं गहरे नियममादंसणेण परिबुद्धं । अविसका मिस्स निज्जुहर्ग बंदे ॥ १ ॥ शय्यंभवम्, अनुत्तरज्ञानाऽऽदिधमंगणं धारयतीति गणधरस्तं जनप्रतिननिमियात्वादित्यानमिद्राऽपगमेन सम्यक्त्वविकाशं प्राप्तं, निर्यूहकं पूर्वगतोद्धृतार्थविरचनाकर्तारं मनकपितरं दशवेकालिककृतं बन्दे स्तोमीति गाथाऽकरार्थः । भावार्थ कथानकानसेवाश्रीसुधर्मशिष्यो दि जम्बू, तस्य श्रीप्रभवः, तस्य शय्यम्भवः ॥ १ ॥
वेण निहिया दसज्जपथा । . बेसिआइ रवि, तम्हा दसकालिअं नाम ॥ २ ॥
दसवेयालियबिज्जुत्ति
मनकं प्रतीत्य मनकाSSख्यमपत्यमाश्रित्य शय्यं भवेन नियूंदा नि पूर्वगतादुद्धृत्य विरचितानि दश अध्ययनानि द्रुमपुष्पिकाssदीनि सनिध्ययनानि विगतः कालो चिकाला वि फलनं वा विकालः, शकलः खएकश्चेति । तस्मिन् विकाले नि वृचं दशाध्ययननिर्माणं च इदं वैकालिकम् ॥ २ ॥
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यं प्रतीत्य कृतं तद्गतवक्तव्यतामाह
मासेहिँ ग्रहीयं, अज्जयणमिणं तु अज्जमणगेण । उम्मासा परिश्रानो, अह कालगओ समाही ॥ ३ ॥
निर्मासैरधीतं पतिमध्ययनमिदं तु अधीयत इत्यध्ययनम् । इदमेव दशवेकालिकायं शास्त्रम् केनासा मणकेन भावाऽऽराधनयोगात् आरादू यातः सर्वदेयधर्मेभ्य इ त्यार्थः, आर्यश्चासौ मणकश्चेति विग्रहः । तेन, पणमालाः पर्याय छति । तस्याऽऽर्यमणकस्य परमासा एव प्रव्रज्याकालः, अल्पजीवितत्वात्। श्रत एवाऽऽह अथ काल गतः समाधिनेति । यधोकशास्त्राध्ययनपर्यायानन्तरं कालगत आगमोक्तेन विधिना मृतः, समाधिना शुभवेश्याध्यानयोगेनेति गाथाऽर्थः ॥ ३ ॥ अन चैवं वादः यथा तेनेावतानामे मन्येऽप्येतदध्ययनानुष्ठानत आराधका भवत्विति ।
आणंद सुपायं, कासी सिज्जनवा तर्हि घेरा ।
जसजद्दस्स य पुच्छा, कहणा य विश्रह्मणा संघे ॥ ४ ॥ आनन्दाश्रुपातम् श्रदो श्राराधितमनेनेति हर्षाश्रमोकणमकार्षुः कृतवन्तः प्राख्यावर्णितस्वरूपाः, शयंभवाः तत्र तस्मिन् काले स्थविरा: पर्यायाः प्रवचनगुरव पूजार्थ बहुवचनमिति । यशोनस्य च शय्य भवप्रधान शिष्यस्य दर्शन कि स्थितस्यतः पूर्वमता है। कथना च भगवतः संसारस्नेह ईदृशः सुतो ममाऽयमित्येवरूपा शाप शोना दो! गुरावि गुरुपुषके वर्तितव्यमिति न कृतमानिरित्येवंभूततिबन्धदोषपरिहारार्थम् । न मया कथितं नात्र भवतां दोष इति गुरुपरिसंस्थापनं च । विचारणा सध इति । शय्यं भवेनापानत्यमवेदशाखं निदं किमन युक्तमिति निवेदिते विचारणात् प्रभूतवानामिदमेवोपकारकत्वनेदित्येवंभूता बापना बेति गा थाऽर्थः । दश० २ ० । वीरमोका 'वासाऍ सहस्सेहि. रिसले गर्दा पोच्छेदो दसवेयालयसुतस दिसाहम्मि बोद्धव्व ॥१९॥ ति०। दसवेपालि दशवेकालिकनियुक्ति - श्री० दश कालिकस्य बाहुस्वामिरचितनिर्युक्तिग्रन्थे, दश० । "जयति विजितान्यतेजाः सुरासुराधीश सेवितः श्रीमान् । विमलासविरति-स्त्रिलोकचिन्तामणिवरः ॥ १ ॥ "
हार्थतोऽत्प्रणीतस्य सुलतो गणधरोपनिबरूपूर्वगतोद्धृतस्य शारीरमानसाऽऽदि कटुक दुःखसन्तानविनाशहे तो देशकालिकाभिधानस्य शास्त्रादिदार्थगोचरस्य व्याख्या प्रस्तूय ते तत्र प्रस्तुतानिकट देवतानमस्कारद्वारेणाशेषविघ्नविनायकापोह समय परममङ्गलायामिमां प्र तिगाथामा नियुकिका
।
सिद्धिगइ मुनगाणं, कम्पवितण सव्वसिद्धाणं ।
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दसवेयालियबिज्जूति
नमिळणं दसकालिय-लिज्जुति कित्तइस्लामि ॥ १ ॥ सिद्धिगतिमुपगतज्यो मत्वा दशकालिक नियुक्ति की बि यामीति किया। तन्ति निताषां भवत्वस्यामिति सिद्धिसका क्षेत्र सक्षणा तथा चोक्तम्-" इह बौदि बहता णं, तत्य गंतूय सिज्जर। (औ०२ गा० ) गम्यत इति गतिः, कम्मसाधनम्। सिफिरेव गम्यमानत्याइि प सामीप्येन गताः प्राप्तास्तेभ्यः सकललो काम क्षेत्र प्राप्तभ्य इत्वर्थः । प्राकृताची यथोक्तविभ सीम "केन्द्रियाः पृथिव्यादयः सकर्मका अपि तदुपगमनमात्रमधिकृत्य यथोक्तस्वरूपा भवन्त्यत आद कर्मविदेभ्यः क्रियत इति कर्म ज्ञानाऽऽबरखी बाऽऽद्दिबिधियुक्ताः कर्मविका, कर्मकरहिता इत्यर्थः । तेज्यः कर्मविशुस्यः । माह-एवं तहिं वक्तव्यं न सिद्धिगतमुपगतेभ्योऽन्यभिचारात् तचादिकर्मचि सिद्धिगतिमुपगता एव भवन्ति । न विभा गोपगत सिद्धप्रतिपादनपर दुनेयनिरासा बेत्वादस्व । तथाबाहुरे रामाऽऽदिवासनामुक्तं चितमेव निरामयम्दा नियतदेशस्थं, सिद्ध इत्यभिधीयते ॥ १ ॥ इत्यवं प्रसङ्गेन । दश• १ श्र० ।
दससयाविण दशसंज्ञा विष्क०
च ता संज्ञाच तासां विष्कम्भणं निरोधस्तस्मिन् पो०५ विष० । दससमय द्विय- दशसमयस्थितिक त्रि दश समयान्
स्थितिर्येषां तेषु, स्था० १० ठा० ।
दस सय- दशशत - न० । सहस्रसङ्गयायाम, स्था० १० ० । चाऽमिका सं
दस सबसहस्य- दशशतसहस्र-१०
(अ) अभिधानराजेन्द्रः ।
ब्यायाम्, अनु० ।
दस सहस्स - दशसहस्र-म० । क्याभेदे, अनु० । दसहा- दशधा - अव्य०। दशविधे, उत्त० २३ अ० बाय० । दसहासामायारी - दशधासामाचारी श्री रामधानं यस्याः सा । दशप्रकारलक्षणायामिच्छाकाराऽऽदिसामाचाय्यम्, घ० ३ अधि० । (ताश्च दश' सामायारी ' शब्दे ब क्ष्यन्ते )
दसा-दशा-स्त्री० । दन्-श-भङ्, मिष्नलोपः । चरितगतिसिद्विगमन कृणायामवस्थायाम, नं० । अनुभागेन युक्तो षिभागो दशा ० ० ११४० वर्षायुष्यापेक्षया वर्षशुकप्रमाणायां कान कृतायां जन्श्ववस्थायाम् दश० ।
साम्प्रतं प्रस्तुतोपयोगित्वाकाल विशेषार्थप्रतिषिपादवेदमा
कालकद्वारे
बाला किडा मंदा, बलाय पचाय हायणि पचा पन्भार मम्मुही सा- यणी य दसमा च कालदसा ||१०|| बाला क्रीमा च मन्दा च बता च प्रज्ञा च हायिनी ईषत्प्रपचा प्राग्भारा मृत्सुखी शायिनी । तथाहि एता दश दशा अस्ववस्थाविशेषा नयन्ति ।
आसां च स्वरूपमिदमुक्तं पूर्वमुनिभिः"समितरस जंतुस्स जा सा पदमिया दूस
ण तत्थ सुहदुखाई, बहु जाणंति बालया ॥ १ ॥ वितियं च दसंपतो, जाणा किड्डादि किड् । न तत्थ कामभोगोई, तिब्बा उप्पज्जई मई ॥ २ ॥ ततियं च द प पंचम नरो समज से घिरे बहू ।। ३ ।।
रथी उबला नाम, जं नरो दसमस्सिओ । समायो दरिसिजोद ॥ ४ ॥ पंचदी जो नरो
यति कुवाभवति ॥ ५ ॥ की हायणी नाम नरो सम्रिो । विरज्ज व कामेसु, इंदिप व हायति ॥ ६ ॥ दिसंपतो, जो नरो। निट्नुहश् चिक्कणं खेलं, खासति य अनिक्वणं ॥ ७ ॥ संचिप, संपते अदि ।
जारीण मणभिप्पेश्रो, जराए परिणामितो ॥ ८ ॥ नवमी मम्मुद्दी नाम न समस्मि । जराघरे बिजस्तो, जीवो बस प्रकामम्रो ॥ ३ ॥ मसिनो विविविमो
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डुम्बलो दुकिलो सुवर, संपतो दसमिं दतं ॥ १० ॥ " दश० १ अ० । स्था० नं० नि० चू० । दीपत्रयम, "अपेक्षते न च स्नेहं न पात्रं न दशाऽम्तरम् । परोपकारनिरताः मणिदीपोतमा बि से कामकृते विरहिणां ने रागाद्यवस्थादशके वाच खाते, चाच० । दशैव दशसंख्या एव दशा दशाधिकाराभास्वाद इति बहुवचनान् श्रीलिङ्ग शास्त्रस्याभि घाने बा० दशाध्ययनप्रतिबद्ध प्रथमचयेोगादशान्यविशेषे, , अणु० १ ० १ वर्ग १ अ० ।
दसा
"
दस दसाओ पाओ । तं जहा- कम्मविवागद साओ, उवासगदसाओ, अंतगमदसाओ, अणुत्तरोववाइयदसाम्रो, आयारदसा, पएढ़ावागरणदसाओ, बंधदसाप्रो, दोगिकदसा दीहदसाओ, संखेवियदस्त ॥ (दस) संख्या: (दसाओ ति) दशाधिकारानि
कासा इति बहुवचनानि शास्याभिधान इति । कर्मोन विपाकः फलं कर्मविपाकः तत्प्रतिपादिका दशाध्ययनाऽऽत्मकत्वाद् दशाः कर्मविपाकदशाः विपाकश्रुता
यस्यैकादशाङ्गस्य प्रथमभुतस्कन्धो, द्वितीयतस्कन्धोऽ यस्य दशाध्ययनाऽऽत्मक एव । न चासाविदाभिमतः, उत्तरत्र विवरिष्यमाणत्वादिति तथा साधूनुपासते सेवन्त इत्युषासकाः श्रावकाः, तद्गतक्रियाकलापप्रतिषका दशा दशाभ्ययमोपलक्षिता उपाशकदशाः सप्तमममिति । तथा-भन्तो बिनाशः स च कर्मणस्तत्फलस्य वा संसार सो बैस्तकृतः, तेच तीर्थकराऽऽदयः तेषां दशा अन्तकृद्दशाः, श्ह चाऽष्टमास्य प्रथमवर्गे दशाम्यथनामीति तत्संक्ययोपलचितत्वादन्तकृद्दशा इत्यभिधानेनाष्टममङ्गमभिहितम् । तथोसरः प्रधानो नायो विद्यत इतर उपपतनमुपपातो जन्मेत्यनुस
साबुण्यातल्यनुत्तरोपपातः सोऽस्ति येत काः सर्वार्थ सिद्धाऽऽदिविमानपञ्चको पपातिन इत्यर्थः, तद्वक्तव्यता प्रतिबद्वा दशा दशाध्ययनोपलचिता अनुतरोपपातिकदशा
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(२४८५) अभिधानराजेन्द्रः |
दसा
नवममङ्गमिति । तथा चरणमाचारी ज्ञानाऽऽदिविषयः पञ्चधा आचारप्रतिपादनपरा दशा दशाध्ययनाऽऽत्मिका आचारदशा दशाश्रुतस्कन्ध इति या रूढाः, तथा प्रश्नश्च पृच्छा, व्याकरणानि च निर्वचनानि प्रश्नव्याकरणानि तत्प्रतिपादिका दशा दशाध्ययनrssत्मिकाः प्रश्नव्याकरणदशा दशममङ्गमिति । तथा-व
दशा द्विदिशा दशाः केचिदमीता इति । स्वा० १० वा०पा० अष्ट | "दस उद्देसणकाक्षा, दसाण कम्परुल हुति बश्चेव । दस चैव य बबहार- इस हुंति विसं ॥४८॥ " प्रा०यू० १म० ।" बीसाप दस्साकवाराणं उद्देणुकाहि । " आव० ४ ० । ज्योतिषोके नक्षत्रानुसारेण सूर्याऽऽदिमाणां स्वामित्वेन नौम्यकाले पाचश दसार- दशाई पुं०" दशादे" || २८५॥ इति हस्य लुक् । प्रा० २ पाद । हरिवंशकुलोद्भवेषु, सूत्र० २ ० १ ० । श्या० म० । समुद्रविजयाऽऽदिवसुदेवान्ता दश दशाराः । स० । अन्तः । समयभाषया वासुदेवे, स्था० २ ० ३० । वासुदेवकुलीनप्रजासु, स० । वन्धदशानां चतुर्थऽध्ययने दशाराण कव्यता उता सा चेदानी नोपलभ्यते, बन्दानां शत्वात् । स्था० १० वा० । बलदेवे, घा० म० १ ० २ खण्ड । अ० ०" दसपदं दसाराणं बलदेवखाणं" ० १ ० ४ वर्ग १ श्र० ।
दसारगंडिया-दशाई गथिमका स्त्री० । दशा कवक्तव्यतार्थाधिकारानुगतासु वाक्यपरुतिषु यत्र दशादियां पूर्वजन्माSSद्यभिधीयते । स० । दसारचक दशाईचक्र-१० या
उत" दुसारचक्केण य सो, सन्वश्रो परिवारिओ ।" उत्त० २२ श्र० । दसारमंडण दर्शाईमएटन-नाहीनानां मरमनाः शोनाकारिणो दशार्द्धमण्डनाः। दशार्दोत्तमपुरुषेषु, स० । दसारमंदन-दशाईमएमलन० दशाहीनां वासुदेवानां मण्ड आनि दशालानि, बलदेव वासुदेव समुद शामलाल बलदेव वासुदेव समुदाये, स० (दक्षदेववासुदेवयोः सर्वा वक्तव्यता 'तित्थयर' शब्देऽस्मिन्नेव जागे २२७४ पृष्ठे का) (बलदेववासुदेव' शब्दयो। भविष्यदे वासुदेवायन्ते)
दशरतवर्षे प्रविष्यदूयलदेवचासुदेवपितृमातृभूतिनामनिर्देश:
जंबुद्दीवे यां दीवे भारहे वासे प्रागमिस्साए उस्सप्पि - पीएन वलदेव वासुदेवपियरो जावस्सति । नव वसुदेवमायरो भविस्संति, नत्र बलदेवमायरो भविस्संति । नव दसारमंमला नविस्संति । तं जहा उत्तमपुरिसा, मक्रिमपुरिसा, पहा पुरिसा, तेयंसी०एवं सो चैत्र एओ नापियो० नाव नीलपीता। वे दुबे रामकेसवा जायरो जविस्संति । तं जहा
"नंदे व नंदवने दीडवाहूय मड़वाहू
बजे महावले, बलभद्दे य सत्तमे || १ || तिचिव यि आगमण वो जयंते विजए भद्दे, ग्रुपने य सुदंसणे ||२||
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दसायच
आणंदे नंदी पढमे, संकरिसा अपच्छिये।" पूर्वभवनामाऽऽदीनि -
एसि नगए बन्नदेवामुदेवाणं पुण्यन्नविया नत्र नामभेज्जा नविस्संति, नव धम्माऽऽयरिया जविस्संति, नव निपाणभूमीओ विस्संति, नव नियाणकारणा नबस् विनय पास भविस्संति तंजातिलए प सोधे वरचे केसरी पाए अपराजिए, भीमसेथे महाजीमे सुग्गीवे य पच्छिमे ।
“ख पसिन्, किसी पुरिमाण वासुदेवाणं । सच्चे विनोदी, दमिता सपके ि॥ १ ॥ " पितृमातृभृतयः
जंबूद्दीने दीवे एव वासे आगमिस्साए उस्मप्पिणी नव बलदेव वासुदेव पियरो जविस्संति, व वासुदेवमायरो नविस्संति, पाव बलदेवमायरो भविस्संति व दसारमंमला नविस्संति । तं जहा - उत्तमपुरिसा, मज्जिमपुरिसा, पहाणपुरिसा० जाव 5वे 5वे रामकेसमा जायरो भविस्संति, पव पमिस भविस्संति भवद्यामज्जा व धम्मायरिया व शियाणर्माम एशियाणकारणा आयाए परवर आगामस्साए जाणियव्वा, एवं दोन वि आगमि - स्साए जाणिव्वा । स० ।
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।
-
दसारवण- दशाई वर्ग - ५० दशाईसमुदाये दश० १० । दशार्हाणां दसारवर वीरपुरिस- दशाईचरवीरपुरुष पुं० [दशायां समु विजयादीनां दशास्य वा वासुदेवस्य ये बराच पुरुषास्ते । [झा० १ ० १६ अ० | दशार्हाः समुद्रविजयाऽऽदयस्तेषु मध्ये व रास्त एव वा या वीरपुरुषास्ते दशाईपरवीरपुरुषाः। दशा श्रेष्ठपुरुषेषु ज्ञा १ ४० ५. श्र० ।
दसारवंस-दशाईवंश-पुं० बलदेववासुदेववंदो, "तीखे स माए तो वंसा समुप्पज्जित्था ।" जं०२ चक्क० ति० स० । दसायच दशासुतस्कन्य-५० दसान्ययनप्रतिपादको ग्रन्थो दशा, सचासौ श्रुतस्कन्धश्च दशाश्रुतस्कन्धः । द समाधिस्थानाऽथविधायको वर्द्धमानस्वाम्युक्ते सूत्रतो द्वादशस्वनेषु गणधरैस्ततोऽपि मन्दमेधसामनुग्रद्दायातिशायिभिः प्रत्याख्यान पूर्वाद्धृत्य पृथक दशाध्ययनत्वेन व्यवस्थापिते ग्रन्थे, दशा० ।
" यथास्थिताशेषपदार्थसार्थमाधानविधिप्रवीणम् । जिनं जनानन्दकरं कृपाधिं नमामि सम्याम्बुवोधरम्। १। स्तुमे महावरिजिनस्य तेजो, नवाख्यनीराऽऽकरपारगस्य । अनादिदुष्कर्मणस्य नित्यं खातं यत्र सुखापमेव (!) ॥२॥ श्रीवसुभूतितनूज, बन्दे श्रीगौतमाभिधं सदा साधु | सकललब्ध्ये कनिलयं मयं गुणचन्दनीयस्य ॥ २ ॥ येषां समाखाय जायते शाखफीशलम श्रीगुरूणामहं तेषां वन्दे चरणपङ्कजम् ॥ ४ ॥ अध्ययनदशकमेतत् चूर्णिकृता यदपि वर्णितं सम्यक तदपि वरयत मामिह वृत्तिविधवाः॥५॥" रागद्वेषामि संसारपारावारसारि
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(२४८६) दसासुयखंध अनिधानराजेन्सः।
दह ज्यतममानसानेकातिकटुकडःस्वोपरिपातपीडितेन तत्परिहा
रपयएसु दो महदहा पत्ता बहसमक्षा अविसेममणाणता राय हेयोपादेयपदार्थसार्थविज्ञानविधी यत्नः कर्तव्यः, स च न विशिष्ठविवेकमृते, विवेकोऽपि न प्राप्ताशेषातिशयकलापाऽऽप्तो.
अममं नाइवटुंति मायामविखंभउब्वेहसंगणपरिणापदेशं विमा, म चाऽऽप्त भास्यन्तिकदोषप्रक्षयादेव भवितुमई- हेणं । तं जहा-पउमदहे थेव, पुढरीयहहे चेव । तत्थ णं दो ति । स च धीतरागस्यैव, अत प्रारभ्यते अहवचनानुयोगः। अ. देवयामो महिछियाओ जाच पलि ओवमडियाओ परिषयं च दशाश्रुतस्कन्धोऽतिगम्मीरोल्पाकरैयाणितश्चूर्णिक
संवि । तं जहा-सिरि चेव, लच्छी चेव । एवं महाहिमवंतता, अत पवापबुछीनामुपकारासमथः, तेन तेषामनुग्रहार्य मया तस्य किश्चिद्विस्तरतो व्याख्यानमातन्यते-अथ दशा.
रुप्पिसु वासहरपन्चएमु दो महदहा पएणत्ता बहुसमतुल्ला श्रुतस्कन्ध इति का शब्दार्थः ? । नुच्यते-दशापयनप्रतिपाद- जाच महापनमबहे चेव, महापोगरीयहहे चेव । देवताओको ग्रन्थो दशा, स चासौ ध्रुतस्कन्धश्चेति दशायुतस्कन्धः, द. हिरि चेव, बुद्धि चेव । एवं निसहनीसवतेसु तिगिच्चिरहे शाकल्प इति वा पर्यायनाम । अयञ्च ग्रन्थोसमाधिस्थानाऽऽ.
चेव, केसरिदहे चेव । देवताओ-धिई चेव, कित्तीचेव । दिपदार्थशासनाच्छास्त्रम्। ननु दशाश्र्तस्कम्पप्रारम्भोऽयुक्तः, प्रयोजनाऽऽदिनी रहितत्वात, कण्टकशाखामदमाऽऽदिवदित्या. (जंबू इत्यादि) इह च हिमवदादिषु षट् वर्षधरेषु क्रमेणेते शासनादाय प्रयोजनादिकमादावुमन्यसनीयम् । यमुक्तम्- पद्माऽऽदयाघडेच हुदाः। तद्यथा-" परमे य महापनमे, तिगि. "पूर्ववह संबन्धः, सानिधेयं प्रयोजनम् । मङ्गलं चैव शा- कि केसरिददे चेव । हर महपुंगरीए, पुंमरीए चेव य . स्त्रस्य, प्रयोक्तव्यं प्रवर्तकम ॥१॥"दशा०१ श्र० । तत्र प्र
हायो॥१॥" हिमवत उपरि बहुमध्यभागे पश्भहर एष शिखथमेऽध्ययने विशतिरसमाधिस्थानानि । वित्तीयेऽध्ययने एक
रिणः पौरासरीकाः,ते च पूचापराऽऽयता सहसपश्चशतविस्तृती विशतिः शवसा । तृतीये प्रयास्त्रशदाशातनाः । चतुर्थेऽष्टी
चतुकोणौ दशयोजनावगाढौ रजतकूलो वज्रमयपाषाशी तप. गणिसम्पदः । पञ्चमे दश चित्तसमाधिस्थानानि । पष्ठे एका
नीयतला सुवर्णमध्यरजतमणिवायुको चतुरंशमणि सोपानो स्वदशोपासकप्रतिमाः । सप्तमे द्वादश भिक्षुप्रतिमाः। अष्टममध्य
भावतारौ तोरणध्वजपत्राऽऽदिविज्ञषितो नीलोत्पल पुण्डरी. यन कल्पमत्राऽऽयं पृथास्ति, तत्र तीथरूचरितं, पण्र्युषणाक.
काऽऽविचितौ विचित्रशकुनिमास्यविरचितरचा षट्पदपटलोपरूपः, साविराउवही चेत्यधिकाराः। नवमे त्रिंशन्मोहनीयस्था
भोण्याविति । (तत्य गंति ) तयोर्महाहायोद्धे देवते परिनानि । दशमे नव निवातस्थानानि । दशा०१७अध"णितो
बसता-पाहदे धीः, पौण्मरीके लक्ष्मीः। ते च भवनपतिनिका. दसाण बेदो, जत्थ सरतपहिहोर सरिसाणं । समणम्मि
पाज्यस्तरने, पस्योपस्थितिकस्वात । व्यस्तरदेवानां हि फगुमित्ते, गोयमगोत्ते महासत्ते ॥१॥" ति०।
पल्योपमार्चमेवाऽऽयुरुत्कर्षतो भवति। भवनपतिदेवीनां तत्कर्ष.
तोऽपञ्चपल्यापमान्यायुवति । श्राह च-" अद्धअद्धपचमदसाहिया-दशाहिका-स्त्री० । दशदिवसप्रमाणायां पुत्रजन्म
पलि भोवमनसुरजुयादेवीणं । सेसनवणदेवयाण य, देसूर्ण कियायाम, भ. ११० ११ न.
अरुपनियमकोसं ॥५॥” इति । तयोश्च महाहदयोमध्ये योजदसाहुस्सव-दशाहोत्सव-पु. दशदिवसमहे, प्रति० । नमाने पझे अर्सयोजनबाहव्ये दशावगाहे जलान्ताद् द्विक्रोदसिया-दशिका-स्त्री० । वखाञ्चले, वृ० ३ . । वर्तिकायां
शोच्छुपे बजारिष्टवैषमूलकन्दनाले बैडूर्यजाम्बूनदमयबाह्या
भ्यम्तरपत्रे कमककर्णिके तपनीयकनकके झरे तयोः कर्णिके. च। दपमस्याग्रभागे ऊणि कादशिका वध्यन्ते । वृ. ७ उ०।
योजनमाने तबबाहल्ये तदुपरि देव्योभवने इति । ( पक्ष. दमुत्तरा-दशोत्तरा-स्त्री.। दशाधिके अप्टौ रेखा दशोत्तरा दश- मित्यादि) महादिमात महापद्मो, रुक्मिणि तु महापडरीका, कवृद्ध्या पल परिमाणसूचिकाः। ज्यो० २ पाहु ।
ती च विसहस्राऽऽयामी तवर्द्धविष्कम्भी द्वियोजनमानपद्म. दस-देशी-शोके, दे० ना.५ वर्ग ३४ गाथा।
ग्यासवन्तौ । सयोदेवते परिवसतः। महापद्मे ही, पौएमरीके
बुकिरिति । (पमित्यादि) निराधे तिगिच्छिवदे धृतिर्देवता, दसर-पुं०। देशी-सूत्रकनके, दे०.५ वर्ग ३३ गाया।
नीलवति केशरिहदे कीर्तिदेवता । तो चखौ चतुर्विसहस्रा. दस्मु-दस्यु-पुं०। चौरे, भाचा. २७० १ ० ३.१०।
ऽऽयामविष्कम्भाविति । भवति चात्र गाथा-"एएसु सुरवहनो, अइत्ताऽऽहरो वा दस्युाऽपहरति । भाचा० १ ० ५। घसंति पलिग्रोवमद्वितीप्राओ । सिरिरिरिधीकित्तीमो, दुखीभ०३०
मच्छीसमाणाश्रो १॥” इति । सा• २ ग• ३००।द्वारबत्यां दड-दशन्-त्रि.। वन-श-कनिन् । वाच० । “दशपाषाणे ह', | बलदेवस्य राज्ञः रेवत्यां जाते स्वनामग्याते पुत्रे, नि.सच.
रिष्टनेमितीर्थकरानगारस्य वरदत्तानिधानस्यान्तिके प्रवज्या॥८।१। २६॥ इति दशनशम्दे शकारस्य हकारः । 'दह ।
मशनेन मृत्वा देवलोके उत्पन्नः, ततइब्युरवा महाविदेहे वर्षे दखा'प्रा. १ पार । सश्स्याविशेष, वाच ।
सेल्यतीति निरयावलिकाऽन्तर्गत वृदिशानां तृतीयेऽधयने घर-पुं०।"बेरोनबा"।।३।८.॥ति रेफस्य बा।
सूचितम् । नि.१०४ वर्ग १० म०। लुक । जलाशये, प्रा.२ाद।
नंदू! मंदरस्म दाहियेणं तमो महादहा पायचा । तं जहाहद-go। “देदः "E५।१२०॥ इति कारदकार. योयत्ययः । प्रा०२ पाद । भगाधजलाऽऽशदे, जं. ब.।
पउमदरे, महापउपदरे, तिगिच्छिदहे । तत्य पं तो देवयाप्राचा. .प्र. नं. । प्रज्ञा ।
| प्रो महिथियात्रो० जाब पग्निभोवपट्टिईयारो परिवसंति। जंबू! मंदरस्स उत्तरदाहिपोणंचुदाईमवंतासहरीसुवासह-| तं जहा-सिरी,हिरी,धिई। एवं.नत्तरेण वि, पावरं केसरि
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दह
दहे महापौरपद पोंडरीपद देवपाओ किती, बुफी, बच्छी । स्था० ३ ० ४ ० । षष्ठे स्थाने
(२४८१) अभिधानराजेन्द्रः |
-
"
जंबूदीवे दीने छ महरा पत्ता तं जहा-पठमद, म हाउ तिमिले केसरिदडे, पुंडरीदडे, महाडयद । तत्थ छ देवया महिष्ठियाओ०जाब पनिओद्वितीया परिवसंति | वं जहा- सिरि, हिरि, भिइ, कित्ती, बुद्धी. बच्ची । स्था० ६ ० ।
महा दस जोयणाई डब्बे पद्मना ।
स्था० ।
दद्गल - ददगलन न० 1 ह्रस्य मध्ये मत्स्याऽऽदिग्रहणार्थे भ्रमणे, जलनिःसारखे च विपा० १ ० ० ।
दहण - दहन - पुं० दह-रुद्र। दहतीति दमः । अनौ विशे० । आ० ० | ज्वान्नाभिर्भस्मीकरणे, प्रश्न० १०द्वा । छ त्तिकानकात्रे, इडनः कृतिकाबा देवता । ० २ ० ३ ० पाटलिपुत्रनगर बास्तव्यस्य हुताशननाम्नः श्रावकस्य ज्वलनशिखायां प्रायां जाते स्वनामस्या से पुत्रे, प्रा०क० । विश्क वृक्के, भल्लातके, डुप्रचेतसि च । भावे क्युट् । दाडे, बाच० । दहसील - दहनशील पुं० । बालस्वप्रावे, सं० t पुत्रइब मूहबाँ विधवा च कम्या, शरं व मित्रं आपलं कलत्रम् । विलाश
..
कादरच पञ्च दन्ति देह सं दद्दण्पवहण - हृदमवण न० हजवस्त्र प्रकृष्टे बहने, बिपाο १ भु०८ श्र० ।
दक्षिणा ददचिकाखी०
[१] प दहबल - दशबल - पुं० [ इसयन' शब्दार्थे, प्रा० १ पाद । दरमर-हरमर्दन-द्वयमध्ये पौनःपुम्पेन परि
निःसारिते पमर्दने च । विपा० १ ० ० दहमदल- इदमर्द-न ५०००।
-२० | दम ' शब्दार्थे, विषा १
दहमह-हृदमन-द्वस्व विशिष्टे काले पूजायाम, आचा० २ ५० १ ० १ ० १३० ।
दहमहण - इदपथन - न० । इरजलस्य तकशास्त्राभिविंलोडने, विपा० १ ० ० म० ।
दहमुह - दशमुख- पुं । " दशपाषाणे हः " ॥ ८ । १ । ४६२ ॥ इति शकारस्य वैकल्पिको इकारः । 'दहमुदो। दस मुखी। रा बणे, प्रा० १ पाद । दहवई-हृदवती । " बोदवर्ध ठा० ३ उ० ।' दहावई ' शब्दार्थे, स्था० ६ दवड-हृदपटुन-१०
।
० । निर्गमे, शि
•
२०८० ।
दहोली - श्री० 1 देशी स्थास्याम, दे० ना० ५ वर्ग ३६ गाथा । दहावई इदावती०रा मगाधजलाभ्याम ति०० जम्बू मेरोः पूर्ववदिशि
स्था●
दहि
शीताया महानद्या दक्षिणतः सङ्गतायामन्तर्णकाम, स्था
६ ठा० ।
तस्स
·
दहावईकुंस्स दाहियां तोरणं दद्दा महाराई पन्नूढा समाणी कच्छवई यावत्ते विजए उहा त्रि भयमाणं भयमाणं दाहियेणं सीओ महाई समप्पे से जहा गाहाबईए नं ४ पक्ष० । दहावईकुंड - ददावती कुएमनः । द्वदावतीनाम्या अन्तरांचा उद्गमकुमे, जं०।
महादेबसे हाईकुंडे - मे पाचे ?। गोयमा ! आवचस्स विजयम्म पन्चच्छिमे काई विजयपुरदाहि निंबे एत्यं मद्दाविडे वासे दहाईकुंडे णामं कुंमे पण माहामा भो ।
1
दावली
स्वरुपा स्यानं प्रादावनं द्वीप परिमाण मंचन वर्ष कनामार्थकथनप्रमुखं त पानी बामा समि
हदा बगाव जलाऽऽशवाः स्वभ्यस्यामिति इदावती | साधनि का प्राग्वत् । जं ४ ष० ।
दहि-दधि-न । दध-इन् । दुग्धविकृर्तिभेदे, प्र० ४ द्वार श्री० । उच• । प्रज्ञा । स्था० प्रश्नः । दचिनवनीत घृतानि बत्बासेंज मचादिस्तम्बम्धीनि रस्म दुष्ट्रीणां तानि दध्यादीनिव भवन्ति । पं० २०२ द्वारा भू० । भाष० । स्पा०| दिनवातीते रम्यरि बीच" जड़ विरो
तास
Ki
कालिद मनादि चायुतीत""ध्य हद्विवबातीतम् । " इति ममपि बखः । ध० २ श्रविण । भाचा । वने च ा कि द्विस्वम् कर्तरि बि० । बाच• । " पद्दयोः सवि" । इति सन्धिविकल्पः। "सि" दिगरमचंद कुं दवासंतिय मुलाच्छविमलदखा।” जी०३ प्रति०४ ४०। विर्विकृतिक वजं दधि निर्विकृवि, विकृतिवेति प्रश्ने, रविधदुग्धनिर्दितिपरं
46
परम्पराविपाच मिति:१००० सेन० २ ना० । षोडश प्रहरानन्तरं दृष्यभक्ष्यं स्यात्, द्वादशप्रानन्तरं देवि व्यत्यासाद्यनिति प्रश्ने, उत्तरमाम कि वाजपेत् ' १ इति बाखवृतीयप्रकाशे । एत यो बाहि
प्रतिकः स्थास्वामोर
तु
ताहिर बाली
मे
कामिभिस्वामगोरख दिइबादि भोजनं वर्जयेदिति तद्भोजनादिदोपादिति अद्वित
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दहि
तीतमिति कोऽर्थ, दिनद्वयातिक्रमेऽभक्ष्यम् । दिवसग्रहणेन रात्रिसमागतमेव द
र्थः। एतावना रात्रिद्वयातिक्रमं द्वादशाऽप्रातिकान्तं दृश्यभक्ष्यं, यदा प्रथमदिवसे प्रभाते मेसि तदा प्रहरानन्तरमेवात्रयं भवति । परं पोडश प्रहरनियमो नेति संभाब्यत इति । यतः पूर्वदिने संध्यायां मेलिते द्वादशमानन्तरमध्यभक्ष्यं जवतीति । २३ प्र० । सेन० है उना० ।
दद्दिष्फन | देशी - नवनीते, ३० ना० २ वर्ग ३५ माथा । दक्षिण-दधिधन - पुं० । दधिपिएमे, जं० १ वक्ष० । प्रज्ञा०
-
-
जी० रा० । दहिंदु पुं० [देवी कथित् ००५ वर्ग ३५ गाया । दहिंस्थार पुं० [देशी-दधिरे दे० ना० १ ३६ गाथा । दहि मुह पव्वय-दधिमुखपर्वत पुं० पर्वत भेदे, स्था० । दधिवत् श्वेतं मुखं शिरो रजतमत्वाद्येषां ते दवाः । खकं "संविल निम्मल-दद्दिनगीरदार संकासा गला सोईने दधिमुदारा " १ इलि [४] डा० ३ ० नदीवरी प्रत्येकं चतुर्दि पुष्करियां मध्यभागस्येषु खनामश्यानेषु पर्वतेषु स० सव्त्रे त्रि णं दधिमुहा पव्वया पक्षासंगणसंठिया सव्वत्य समा विक्रमेणं चतसा चउस जोगणसहस्साई पाचा ।
( सव्ये विणमित्यादि ) इतोऽष्टमे नन्दीश्वराऽऽये द्वीपे पूर्वाssदिषु दिक्षु चत्वारोऽञ्जनकपर्वता भवन्ति तेषां च प्रत्येकं चतदितु चतस्रः पुष्करिण्यो भवन्ति वासां व मध्यभागेषु प्रत्येक दपि इकसंस्थानसंस्थिताः समानाः सर्वत्र समा विष्कम्भेण मूलादिषु शस्त्राविष्कतश्वापाम्। कचि "विदे " इति पाठः तृतीयैकवचन लोपदर्शनाद्विष्कम्नणेति व्याख्येयम् । तथा उसेघेनोचत्वेन चतुष्यष्टिरिति । स०६४ स म० । (अस्य वस्तु 'अंजणग' शब्दे प्रथमभागे ४० पृष्ठे उक्तः )
( २४८०) अभिधानराजेन्
दक्षिण-दधिपणे पुं० [० १०० प्रा० | स्था० । । स० । औ० । ति० । ० ।
66
.
दहित्राया-दधिवासुका - स्त्री । वनस्पतिविशेषे, जी० । ददिवाया मंड दधिवासुका नाम वनस्पतिविशेषः, तन्मया भएकपका दधिवासुका मण्डपकाः । जी०
३ प्रति० ४ उ० । जं० श० ।
19
दहिवाहण-दधिवादन- पुं० । चेटक महाराजदुहितुः पशवत्थाः पत्यौ चम्पाराजे, ना० ० ० ० वय स्वभार्यया पपूरणार्धात सेन - स्तिना उपधमानीतो प्रातः पद्मावती तु बने हृता म
व्रजिता च पुत्रमेकं जनयिष्वा मातङ्गेषु श्रक्षिपत्, सच कर्कसु नामा कमेश राजा भूत्वा पकस्मै ब्राह्मणाय ग्रामदानाथै दधि वाहनं प्रचोद्य सुयुत्सुः स्वलाचा पद्मावत्या निवारितः क्रमेण प्रावाजी, बांधवादनोऽपि प्रव्रजितः । श्रा० क० । श्रा० ० |
|
दादियालि
चाव•| ती• । उत्त० । ( श्यं कथा 'करकंसु' शब्दे तृतीयभागे ३५७ पृष्ठे उक्ता ) दहिब्वय-दधिव्रत- पुं० । न दभ्यति दधिव्रतः । दधिप्रत्याख्यान पति, प्रा० ४ पयोव्रतो न दभ्यति, न पयोऽत्ति दधिवस" रस्ना० । दा-दा-धा० । जुद्दो· - उभ० - सक० सेट् । दाने, बाच० । " स्वराणां स्वराः ॥ ८ । ४ । १३८ ॥ " इति धातोराकारस्यैकारः । “देश | दाई । प्रा० ४ पाद । दान-पुं० | देशी - प्रतिवि, दे० ना० ५ वर्ग ३८ गाथा ।
"
दाइ दाइ अय० । अभिप्रायाभिदर्शने, नि० ० २४० । दाइनमाण दर्श्यमाण- पुं० [षाप्रत्यक्षं कारायेष्यमाणे वस्तुनि, कल्प०५ कृण ।
I
दाइय- दायाद - पुं० । पुत्राऽऽदिषु, म० ९ ० ३३० । दायिक गोत्रके, कल्पण "दामाणि क्यः, प्रेरितवानस्मदादिजनान् ।” भ०४१ श० १९ उ० । दाइया-दारिका - स्त्री० । बालिकायाम, आ० म० १ ० २ खराम | "एवं परिवाडीप सुंदरी दाश्या । " श्र० म० १ ० १ खएम।
64
दा
दानं दातुं - अय० । सकृद्दानं कर्तुमित्यर्थे, उपा० १ अ० ! " दाउ वा अपुष्पदाणत्थं रायाभिओगेणं ।" प्रति० । दाकलस- उदककलश-पुं० । लघुतरे घटे, न० १५ श० । दाकुंभ- उदककुम्न-पुं० । महदटे, भ० १५ श० । दाय दाड़-पुं० दादशायें ०१ पाद दामिष- दामिय १० मोलः ॥ ८ ।। २०२ ॥ स्वासंयुक्तस्पानादेर्मस्य प्रायो लुग्भवति दाडिम ।' वाच० | जी० । औ० । श्राचा० । ज्ञा० ओघ० । ० । दामित्रपुष्करपगासपीव शहरा - दामिमपुष्पप्रकाशपीवराधराखामपुष्यप्रकाशापः सुभगोरो यासां तादामिमपुष्पप्रकाशपीवराधराः । सुन्दराधरोष्ठासु योषित्सु, जी. ३ प्रति०४ उ० । दादा-दंश-स्त्री०" दंष्ट्राया दादा " ॥ २१२० ॥ श ८ | स्य 'दादा' इत्यादेशो भवति । प्रा०२ पाद । दशनविशेषे, प्रश्न १ श्राश्र० द्वार। श्राव० | "करादं दाढाए।" अनु० । दंष्ट्रार्थ बरा हाऽऽदय व्यापाद्यन्ते । आाचा० १ ० १ ० ६ उ० । दाढिकालि दंष्ट्रिकाऽऽवलि स्त्री० । यमलतन्तुद्वयव्यूतायां पठ्या. मू, जीत० यथा मुखमध्ये यमलितोभयदन्तपरुपादादि कालिकासिमिरी एवं धौतपलिकाद्वा सशस्त्र परिधानरूपा दृश्यमाना दाढिकालिरित्र प्रतिज्ञातीति कुत्वा दाहिकातिरुच्यते । बृ० ३३० । दादिगादिधिफाऽऽझि स्त्री० 'दाडिका लिहाज दाढिया दंष्ट्रिका स्त्री० । उत्तरोष्ठुकेशगुच्छे दशनविशेषे, श्री४स्याधोनागे च । ० १ ० २ ० । ० | विशिष्टदंष्ट्राशाfafa, faoi g
दाढियालि दंष्ट्रिकाssवझि स्त्री० 'दाढिकालि' शब्दार्थ, जीतन
पर
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दादुधिय
(२४८) अनिधानराजेन्द्रः।
दाण
दादुधिय-दंशोघृत-त्रि। उत्खातदंष्ट्रे, दश०१ चू० । सोइयऽधेगविधं पुण, लोनत्तरियं इमं तत्थ ॥ २०॥ दाण-दान-न० । दा--भावे ल्युट् । वितरणे, प्रव० ६ द्वार ।। समासतो दुविहं दाणफलं-बोश्य, बोत्तरियं च । सोय पश्चा०प्रश्नका लब्धस्याऽन्नाऽऽदेर्लानाऽऽदिभ्यो वितरणे, प्रश्न अणेगविहं-गोदानं, नूमिदान, हिरएणदानं, नक्तप्रदानाऽऽदि । ३संब. द्वार। अशनाऽऽदिप्रदाने, प्राप०अगस्वपरानुग्रहार्थ- सोउचरियं श्म। मर्थिने दीयत इति दानम् । सूत्र०१२०११ अ०। उत्त । कल्प।
गाहाकर्म । याचकाभीप्सितार्थे धने, कल्प.५ कण । उत्त०। "दाने. असे पाणे नेस-ज्जपत्तवत्ये य से ज्जसंथारे । न महाभोगो, देहिनां सुरगतिश्च शीलेन । भावनया च विमुक्ति
भोजविहि पाणऽरोगे, जायणनूमाधिविहसयणा ॥१०॥ स्तपसा सर्वाणि सिद्ध्यम्ति "॥१॥ सूत्र. १ श्रु० १२ १०। "दाणं च तत्थ तिविहं, नाणपयाण च अभयदाच।
पाणाऽऽदियाण सत्तरहं पच्छद्धणं जहासंखफला । अधम्मोवग्गहदाणं, चनाणदाणं इमं तत्थ ॥१॥"
मदाणे भोज्जविही नवति,पानकदाने साक्षापानकविधी,नेस" सरिसे विमणुयजम्मे, पयं सयलं पि केह कयपुन्ना ।
जदाणेण प्रारोग्गो, पत्तदाणेण भायणविधी, वत्थदाणेण वि. ज जाणंति जए तं, सुनाणदाणप्पनावेण || ६४ ॥
भूसणविधी, सेजादाणेण विविहा, संधारगदाणेण अणेग. दितो य नाणदाण, नुवणे जिणसासणं समुद्धर।
भोगंगादिसेन्जाविहाणा नवति । सिरिपुंडरीयगणहर, श्व पावइ परमपयम उलं ॥१५॥
संखेवो वा फसं श्मता दायब्वं नाणं, अणुसरियवा सुनाणिणो मणिणो ।
अहवाऽवि समासेणं, साधणं पीतिकारओ पुरिसो। नाणस्स सया भत्ती, कायव्वा कुसल काहि ।। ६६॥
शह य परत्य य पावति, पीदीओ पीवरतराओ॥२१॥ घीयं तु अभयदाण, तंह अभएण सयल जीवाणं ।
अहवासद्दो विगप्पवायगो । समासो संखेबो, साधूणं जत्तपाभभउ त्ति धम्ममूलं, दयाधम्मो पसिद्धमिण ।। ६७॥ इक चिय अभयपया-मित्थ दाऊण सम्वसत्ताणं।
रोहिं पीतातो नपाणतो इहलोए परलोए य पीवरात्रो पाती.
प्रो पावति, पीवरं प्रधानं, तरशब्दः श्राधिक्यतरकर्मवाचकः, घज्जावह व्व कमसो, सिकंति पहीजरमरणा ॥६॥
सर्वजनाधिक्यतरा प्रीत्यः, प्राप्नोतीत्यर्थः। शेषं पूर्ववत्, णवरंनाऊण श्म जयनी-कयाण जीवाण सरणहियाणं । साहीणं दायब्व, भविपहिं अन्नयदाणमिणं ।। ६६ ॥
एसेव गमो णियमा, दुविधा नवहिम्मि होति णायन्यो। धम्मोवग्गहदाणं, तश्यं पुण असणवसणमाईणि ।
पुव्वे अवरे य पदे, मेजाऽऽहारे वि य तहेव ॥२१२॥ आरंभनियत्ताण, साहूण हुँति देयाणि ॥ १० ॥
दुविहे उपकरणे-ओहिए, उवग्गहिए य। उस्सग्गाचवाएहिं तित्थयरचक्रवट्टी, बलदेवा वासुदेवमंडलिया।
पसेव गमो, सेजमाहारेसु वि एसेव विही जाणियबो। नि जायंति जगम्भहिया, सुपत्तदाणप्पनांवेण || १०१॥
चू० २००। जह भयवं रिसहजिणो, घयदाणबत्रेण सयलजयनाहो।
दशविधं दानम्जाओ जह जरहवई, नरहो मुणिभत्तदाणेण ॥ १०॥
दसविहे दाणे पछत्ते । तं जहाअवि य
"अणुकंपा संगहे चेवा-ऽभया कालुणिए ति य । दसणमित्तेण वि मुणि-वराण नासह दिणकयं पावं । जो देइ ताण दाणं, तेण जए कि न सुविढतं ॥ १०३ ॥
लज्जाए गारवेणं च, अधम्मे पुण सत्तमे ॥ १॥ ते सुपवितं भवणं, मुणिणो विहरंति जत्थ समभावा ।
धम्म य अट्ठमे वुत्ते, काहि य कयंति य।" स्था०१०म०। न कया वि साहुरहिश्रो, जिणधम्मो पायडो होइ ॥१०४॥ (अनुकम्पादानव्याख्या 'अणुकंपादाण' शब्दे प्रथमभागे ३६० ता तेसि दायव्व. सुकं दाणं गिहादि जत्तीए ।
पृष्ठे अश्या)(संग्रहदानविस्तरः 'मंगदाण'शब्दे वक्ष्यते ) अणुकंपोचियदाणं, दायव्वं निययसत्तीए ॥ १०५॥
(अभयदानव्याख्या 'अभयदाण' शब्दे प्र० भागे ७०६ पृष्ठे किंच.
प्रतिपादिता) (कारुणिकदानव्य ख्या ' कानुणिय ' शब्द न तयो सुछ गिहाणं, विसयाऽऽसत्ताण होइन हु सीलं ।
तृतीयभागे ५०२ पृष्ठे अश्या ) ( लज्जादानविस्तर: सारंभाण न भावो, तो साहाणं सया दाणं ॥ १०६॥
' लज्जादाण' शब्दे बक्ष्यते ) ( गौरवदानव्याख्या श्य तिविहं पिदु दाणं, नरबर! संखेवो तुहऽपखायं ।
' गारवदाण ' शन्दे तृतीयभागे ८७१ पृष्ठे अश्व्या )
(अधर्मदानव्याख्या 'अधम्मदाण'शब्दे प्रथमभागे ५६० पृष्ठे वियरियसिवसुहसीलं, सेप सीखे निसामेसु ॥ १०७॥ ध० र० (७०)!
गता ) ( धर्मदानव्याख्यानम् ' धम्मदाण ' शब्दे व
यते ) ( करिष्यतिदानविस्तरस्तु ' काहीइदा' शब्दे दाणफलं लवितणं, लावावे तु गिहिअतिथीहिं।
तृतीयभागे ५०६ पृष्ठे प्रव्यः ) ( कृतदानविषयः जो पादं नपाए, वंगविटुं तु तं होति ॥२०॥
'कयदाण' शब्दे तृतीयभागे ३५४ पृष्ठे समुक्तः) १० ॥ दाणफलं अप्पणा कहेति, गिहिअम्मतिथिपहिं वा कहावेत्ता
शिष्येभ्यो विसर्जने, बिशे० । (लोके दानप्रकारश्च प्रथममृषजो पादं उप्पादेति, एयं लवंगविटुं भष्मति ।
नस्वामिना प्रवर्तित इति 'सह' शब्दे द्वितीयभागे ११२७ तस्सिमे विहाणा
पृष्ठे उक्तः ) दाने लौकिका प्राहु:-" वारिदस्तृप्तिमानोति, सु.
खमकयमन्त्रदः । तिलप्रदः प्रजामिष्टा-मायुष्कमभयप्रदः "॥१॥ लोइय लोनत्तरियं, दाएफलं तु सुविधं समासण। अत्र चैकमेव सुनाषितमभयप्रदानमिति, तुषमध्ये कणिकावत् ।
६५३
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दाण
।
"
श्राचा० १ ० १ ० १ उ० दाणा सेडुं श्रभयप्रयाणं ।" (२३) सूत्र० १ श्रु० ६ श्र० । "मध्य तु सत्पात्र - दानपूर्ये तु भोजनम् । (६५) सत्पात्रं साध्वादि, त स्मिन् दानपूर्व दानं दत्यर्थ भोजनमयदर कारार्थः । ततः सत्पादनपूर्वमेव भोजनमिति निष्कर्षः। (६५) ६० २ अधि० ( साधुच्यो दानप्रकार: ' अइहिसंविभाग' शब्दे प्रथमभागे ३३ पृष्ठे उक्तम ) इह तत्रानुतं तत्स्वरूपम्आहारवपात्राऽऽदे, मदानपतिर्मुदा । नदीरितं तदतिथि- संविभागवतं जनैः ||४०||
अतिथेः साधो मुदा यतिशयेन ननु कम्पाऽऽदिनेत्यर्थः । प्रदानम् प्रकर्षेण मनोवाक्कायशुद्ध्या दानं विधानम् कस्य? आहाराऽऽ नाहारोऽशना
चतुर्विधः पापादिमा दिशा वसतिपीठफलकशास्तारकाम अनेन दिरादिदाननिषेधः तेषां पतेरनधिकारित्वात्। तइतिथिसंगितम् । जनैः उदीरितं प्रतिपादितम् । चाकमनिस्वारिं शद्दोषरहितो, विशिष्ट भागो विभागः पश्चात्कर्माऽऽदिदोषपरिहारायाशनदानरूपोऽतिथिमंविभागः, तद्रूपं व्रतम् । अतिथिसंगितमहाराज्याबार्जितानां प्रापणीया
चिकूण
देशकालाकारकमपूर्वकमरमानुष
यदि तत्र शास्यादिनिष्यति भागो देश: १, सुमादिः कालः २,विशुद्धश्चित्त परिणामः श्र द्धा ३, अभ्युत्थानाऽऽसनानवन्दनानुवजनाऽऽदिः सत्कारः ४, यथासंजय पाकस्य पेयाऽऽदिपरिपाट्या प्रदानं क्रमः ५, तत्पूर्वक देशकाल 5 चचियेनेत्यर्थः " नायागयाणं कप्पणिजाणं श्रन्नपाणणं दवाएं देसकाल सद्धासक्का रकमजुनसीपी संजयादा अविहिसंविभागो ।
अनूदितं तत श्रीमन:"प्रायः शुधनिधि प्रापणीये. नयेः । काले प्राप्तान् लदनमसमश्ररूया साधुवर्गान् धन्याः केचित्रमविदिता ममानयन्ति ॥ १ ॥ प्रशनमखिलं खायं स्वाद्यं भवेदथ पानकं, पतिजनहितं वस्त्रं पालनम्। वसतिफलकप्रख्यं मुख्य चरित्रविवर्द्धनं, निजकमनलः प्रीत्याधायि प्रदेयमुपासकैः ॥ २ ॥ ”
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तथा
साहू पनि
किंचित
धीरा जहुत्तकारी, सुसावगा तं न मुंजति ॥ ३ ॥ वसहीसयणाऽऽसणभत्तपाणभे सज्जवत्थपायाई ।
जर विन पजत्तघणो, थोत्रा वि हु धोवयं दिज्जा ॥ ४ ॥ " वाचक मुख्य स्त्वाह
किश्चित् शुकल्ण्यम कल्यं स्यादकमपि कल्प्यम् । पिएमः शय्या वस्त्रं, पात्रं बा बजाऽऽद्यं वा ॥ १ ॥ देशं कालं पुरुषम-वस्यामुपयोग शुष्पिरिणामान् ।
( २४०० ) अभिधानराजेन्द्रः ।
दाम
प्रसमीक्ष्य भवति कल्यं, नैकान्तात् कल्पते कल्यम् ॥ २ ॥
ननु यथा शास्त्रे आहारदातारः श्रूयन्ते न तथा बस्त्राssदिदातारः, न च वस्त्राऽऽदिदानस्य फलं श्रूयते तन्न वस्त्राssदिदानं युक्तम् । नैवम् । भगवत्यादौ वस्त्राऽऽदिदानस्य साकादु कत्वात् । यथा-" समणे निग्गंधे फायर सणिज्जेणं अणपाखामा मेणं वत्थमिही ढफलग सिज्जासंधारपणं पमिलाजेमाणे विहरति । इत्यादारवत्यमाऽऽचारशरीरोपकारकत्वादयोऽपि साधुज्यो देयाः । ध०२ अधि० । पञ्चा० । (पोषधं पारयता श्रावके नियमात्साधुभ्यो दयामिति रणशि
"
-
काले देशे कल्यं, घायुक्तेन शुद्धमनसा च । सत्कृत्य च दातव्यं दानं प्रयताऽऽत्मना सद्भयः ॥ १ ॥ "
तथा
"दाने
के नियन चटकणिकेव महान्तं न्यग्रोधं सत्फलं कुरुते ॥ २ ॥ इत्यादि ।
"दुःखमुद्रं प्रास्तानि दानेन । लघुतेक १ ॥
श्रु० ८ ० २ ० ।
यदाह
"पपनस पुस्तकवस्तुभिः। प्रतिदिनं कुरुते य उपग्रहं स इद सर्वविदेव भवेन्नरः ॥ १ ॥ " लिखित पुस्तान्यो पूर्व व्याख्यापनं व्याख्यापनार्थ दानं व्याख्यायमानानां च प्रतिदिन पूजापूर्वक अवेतनानुसारेण सम्य चारित्रमनुपालय मनुष्यजन्म सफल पर्य व
आचा० १
तीन पावतानामतीर्थकर
नदी यो योतितपश्चा धनवपनं यथा उपयुज्यमानस्य चतुर्विचारा न हि तदस्ति कालावाडनुपकारकं नाम, तत्सर्वस्वस्याऽपि दानं साधुधर्मोद्यतस्य स्वपुप्रदेश समर्पणं च । ६०२ अधि० प्र० । स्था० । दश० । धमणेभ्योऽनेनाऽयुप्रासुकानन दीपपुरिति 'आज' द्वितीयभागे १२ पृष्ठे प्रतिपातितम्) "दानीि सुवाखादानात्सीमानाकामार्थमोक्षः स्य दोनधर्मो वरस्ततः ॥ १ ॥ पञ्चा० वि० ।
"
" दानेन सत्वानि वशभिवन्ति, दानेन वैराण्यपि यान्ति नाशम् । परोऽमुपैति दाना
तस्माद्धि दानं सततं प्रदेयम् ॥ १ ॥ " ध० २०१ व्यायामपि हि त्यानुरोधतो महादानम् । दीपस्यादी गुवा दानमभ्यं ॥ १३ ॥ न्यायाऽऽत्तं ब्राह्मणचत्रियविाणां स्वजातिविदितम्यायोपासम्मदिकमपिदिभृत्यानुरोधतो नृत्या नुपरोधेन पोष्यवर्गाविघातेन, महादानं विशिष्टदानम्, दीनपित्रादिपुरुषानुक्रया दे विशेषणं तन्महादानम् । दानमन्यत्तु न्यायाऽनुपात नृत्याद्युप
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(३४ ) दाब अनिघानराजन्छः ।
दाण रोधाऽऽदिना विपर्ययेण दीयमानमन्यत् पुनर्दानमेव भव. विवाहितस्ततो मात्रा, क्षिप्तो खलितेषु सः॥१२॥ ति ॥१३॥ षो.५विव०।
तैः प्रावेशि स वेश्योक-स्तत्रांऽस्थाद द्वादशान्दिकाम् । नाऽऽतुरापथ्यतुल्यं य-दानं तदपि चेष्यते ।
पिता मृतोऽपि नाझायि, मात्रा मा भत्सुतोऽसुखी ॥१३॥ पात्रे दीनाऽऽदिवर्गे च, पोष्यवर्गाऽविरोधतः ॥११॥
वित्तमानायितं नित्यं, प्रैपयत्पुत्रवत्सला।
मृत्यौ तस्याः स्नुपाऽप्येवं, स्वप्रिय प्रीतये व्यधात् ॥ १४॥ यत् पातुरापथ्यतुल्यं वराऽऽदिरोगविधुरस्य घृताऽऽदि
नष्टितेऽथ धने कृत्स्ने, चेटीदस्ते तरङ्गना । दानसरशं मुशक्षाऽऽदिदानं दायकग्राहकयोरपकारि न भवति, तहानमपि चेष्यते । पात्रे दीनाऽऽदिवर्गे च,पोष्यवर्गस्य मातापि
निजमाभरणं प्रैषी-द्विवेदाऽक्का ऽय नि:स्वताम् ।। १५ ।। त्रादिपोषणायलोकस्याऽविरोधतो वृत्तेरनुच्छेदात् ॥ ११ ॥
सदीनारसहस्रं त-तस्याः प्रत्यर्पितं तया।
अथाऽकया सुनानाणि, नि:स्वो निःसार्यतामयम् ॥ १६ ॥ सिङ्गिकृपणाऽऽद्याः पात्रम्
स नैवदथ बञ्चित्वा, गृहमार्जनदम्भतः। सिकिनः पात्रमपचाः, विशिष्य स्त्रक्रियाकृताः।
उत्तारितोऽप्यस्तिष्ठ-नृचे दास्या स्थितोऽसि किम?॥ १७॥ दीनान्धकृपणाऽऽदीनां, वर्गः कार्यान्तरातमः ।। १२॥
अङ्गपशुरेवासि, निरस्तोऽपि न यासि यत् ।
सोऽथ दध्मौ कयायोक्तो, धिवेश्यावश्चितोऽस्म्यहम् ।।१८।। ( लिङ्गिन इति) सिङ्गिनो व्रतसूचकतथाविधनेपथ्यवन्तः
गृहवरमाऽविदन् पृछ-नूचे तैः क्वास्ति तद्गृहम है। सामान्यतः पात्रमादिधार्मिकस्य । विशिष्य विशेषतोऽपत्राः
वेश्या 55सक्तस्तत्सुतोऽभू-त्ततः सर्व वयं गतम् ॥ १६॥ स्वयमपानकाः, उपलक्कणात्परैरपाचयितारः, पच्यमानाननु
ततः कयश्चित् ज्ञात्वाऽगा-ज्जीर्ण शीर्ण निजे गृहे। मन्तारश्च । स्वक्रियाकृतः स्वशास्त्रोक्तानुष्ठानाप्रमत्ताः। तमुक्त- नायर्या च सहसोत्थाय, कुसीना विनयं व्यधात् ॥ २० ॥ म्-" प्रतस्था लिङ्गिनः पात्र--मपचास्तु विशेषतः ।। अस्तितो विनयात्तस्याः, मातापित्रोश्च शोकतः। स्वसिमान्ताविरोधेन, वर्तन्ते ये सदैव हि ॥१॥" दीनाम्यप.
सवेस्वहरणाचाभूद, दुःखरम्नत्रयाधिपः ॥२१॥ हाऽऽदीनां वर्गः समुदायः, कार्यान्तराकमो भिक्षाऽतिरिक्तनिर्वा.
तदेकजीविता साऽपि, गणिकाऽगात्तदन्तिके। हतुव्यापारासमर्थः । यत उक्तम्-" दीनान्धकृपणा ये तु, व्या.
तं शोकदुःखचिन्ताऽऽर्स, प्रिया प्राणेशमब्रवीत् ।। २२।। धिग्रस्ता विशेषतः। निःस्वाः क्रियाऽन्तराशक्ताः,पतद्वों दि मी
अक्काटसहस्त्रं तं, निजान्याभरणानि च । लकः ॥१॥" इति। दीनाः तीण सकलपुरुषार्थशक्तयः, अन्धा
पुरो विमुच्य हे प्रतः !,नीवीयं तत्पशाय्यताम् ॥२३॥ (युग्मम) नयनरहिताः, कपणा स्वभावत एव सतां कृपास्थानम, व्याधिप्रस्ताः कुष्ठाऽऽधनिभूताः, निस्वा निनाः॥ १२॥ द्वा०१२
मासमेकं स तत्रास्था-प्रियाविनयरजितः। द्वा० । यो वि०॥
ततः साऽऽपन्नसरचाऽभूत् गुक्तिवट मौक्तिकोदरा ।। २४।।
सार्थेऽथ प्रस्थितेऽचानी, मुक्त्वा तत्सत्कृते धनम् । अथ दाने कृतपुण्यकथा
कृतपुण्यः पुण्यधनो, धनोपार्जनहेतवे ॥२५॥ "शालिग्राम इति ग्राम-स्तत्रैका स्थविराऽभवत् ।
नपदेवकुलं सार्थ-मध्ये पल्यङ्कगं निशि। तत्पुत्रो बसपालोऽभूत्, सोऽन्यदा पायसोत्सचे ॥१॥ प्रिय विमुच्य नार्ये ते, वपुषेव गृहं गते ॥ २६ ॥ हष्ट्रा पायसमश्नन्ति, डिम्नरूपाणि सोऽपि च ।
श्रेष्ठिन्या चैकया तत्र, भिन्नः पतिः सुतो मृतः । ऊचे मातर्ममाप्यर्थ-मद्य राजुदि पायसम् ॥२॥
श्रुत्वेत्यचिन्त्य पुषत्वा-मा गाळाजकुले धनम् ॥२७॥ नास्ति बस्त्वित्यरोदोत्सा-ऽपृच्छन्नुपगृहं स्त्रियः ।
नारोदयन्न चाऽरोदोतां वात्तामध्यदारयत् । निबन्धेऽकथयत्ताश्च, कृपया सर्वमापयन् ॥ ३॥
वार्ताकृतो धनं दरखा, सोचे माऽऽख्य इदं कचित् ॥२८॥ तयाऽथ पायसं रड़ा, सुतस्प परिवेषितम् ।
चतस्रोमपि स्नुषाश्चोक्ताः, कश्चिदानायते पुमान् । स्थविराऽन्तंगता साधुरागतो मासपारणे ॥४॥
स्युर्युष्माकं यथा पुत्राः, गृहसर्वस्वरक्षकाः ॥२६॥ ततध्यशं स ददौ साधो ग्यौ स्तोकमिदं ततः।
ऊचुस्ताः किमिदं श्वश्रु:, युज्यते सा जगाद ताः। द्वितीयकं ददौ ऽयंशे, पुनश्चिन्तयत्ति स्म सः ॥ ५ ॥
अकार्यमपि कार्येण, क्रियते नास्ति दूबएम ॥ ३०॥ क्षेप्स्यत्यत्रापरः किश्चि-यत्तदेतद्विनयति ।
साऽधागात सस्नुषा साथै, कृतपुण्यं विलोक्य तम्। तृतीयमप्यदायश, स्वर्गस्तेनजितस्तदा ॥ ६॥
सर्वाः सतल्पमुत्पाट्य, सुप्ते स्वगृहमानयन ॥ ३१॥ कात्वाऽम्बा जेमित भूयः कैरेय्या ऽभृत भाजनम् ।
वृका जागरिते तस्मि-प्रज्यधारकपटे पटुः। भाकपट वुमुजे! सोऽथ, विसूच्या मृतवानिशि ॥ ७ ॥ कुलदेवतया नीतो, वत्स ! त्वमसि मे सुतः ॥ ३२ ।। गतः स्वर्ग ततश्च्युत्वाऽ-त्रैव राजगृहे पुरे।
एताश्चतस्ते कान्ता, कात्याऽमस्तसुराङ्गनाः । श्रेणिको यत्र राजेन्दुर-नयो मन्त्रिपुङ्गवः ॥ ८॥
सौधं जितविमानाश्रि, नुव भोगान् यथासुखम् ॥३३॥ महाजनस्य मुख्योऽभूत्, तत्र श्रेष्ठी धनावदः ।
कृतपुण्योऽखिल वीक्ष्य, वृद्धोक्तं दध्यिवानिति । यदूजव्यसंख्या नाझायि, विन्मुसंख्येव वारिधेः ॥ ६॥ किमेतत्कुचिन्ताऽ-4जे भोंगानुपस्थितान् ॥३४॥ नव्य नव्योल्लसद्भा, भजा तस्थानवनिया।
तत्र हादशभिवः, क्रीडन् स्वे बेश्मनीव सः। स तदीयोदरे जीवः, सुतत्वेनावतीर्णवान् ॥१०॥
सर्वासामपि पत्नीनां, पुत्रान् द्विवानजीजनत् ॥३॥ कृतपुण्यो ऽयमात्मेति, तत्रोचे गधंगे जनः ।
इतस्तत्परिणीतायाः, गुर्याः पल्याः सुतोऽभवत् । कृतपुरपाभिधश्चक्रे, जन्मतो द्वादशाति सः॥ ११॥
मोऽप्येकादशवर्षोस्ति, पठन् परिमतसन्निधौ ॥३६॥ वमानः पावोग्यो, ग्रादितः सकलाः कक्षा
हादशाब्यात पा 551-सार्यस्त त्रैव चाचप्सत् ।
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(२४५२) भन्निधानराजेन्द्रः।
दाण
दाण
कचे स्नुषाः पुनः स्वधू-नीत्वाऽसौ तत्र मुच्यताम् ॥३७॥ कचिरेऽथ स्नुषा नैतदू, युज्यते श्वश्रु ! साध्वदत। यूयं जाताः सपुत्रिएयः, कार्य किमधुना ऽमुना ? ॥३॥ प्रकृत्यमपि कार्यात्कि. कृत्वा पश्चान्न मुच्यते । अजय भुक्तमत्याा , तकि भक्ष्यं सदैव तत् ॥३६॥ दुग्धभ्रान्त्या चन्द्रकान्तां, पायवित्या स शायितः। तत्कान्तानिः शम्बलार्थ, मोदका रत्नगर्भिताः ॥४०॥ तस्याकियन्त लोहेन, मुक्ता उच्छी पेके च ते। अथोत्पाट्य यथा नीतो, मुक्तस्तत्र तथैव सः ॥४१॥ प्रबुद्धोऽचिन्तयद्याव-त्ततः कथमिहागमम ? तावत्सत्राऽऽगते पल्यौ, तथैव तमपश्यताम ॥ ताभ्यामचेऽथ कि नाथ!, व्योम्नोऽकागिताऽऽगतम् । मार्गच्छाया न काऽप्यत्र, दृश्यते ऽङ्गेषु येन वा (?) ॥४॥ ददी शून्यान् स हुङ्कारान्, धृष्टोऽहमिति चिन्तयन् । अथोत्थाय ययौ गेहं, प्रियाऽऽत्ततलाशम्बलः ॥४४॥ पाययौ देखशालायाः, पितरि स्माति चाऽऽत्मजः। तस्यादाद्दतो वेश्या, शम्बत्राम्मोदकं करे ॥४५॥ सोऽनन्यया बहिस्तात्त, तत्र रत्नं विलोक्य च । आर्पयत्कान्दविकस्य, प्रत्यहं मोदकाऽऽप्तये ॥४६॥ जलान्तःक्षेपणाद् झातं, जसकान्तं च तेन तत्। भुजाना मोदके नग्ने, दृष्ट्वा रत्न प्रियाऽवदत् ॥४७॥ रत्नीकृत्य लाघवार्थ- मर्जनां किं प्रियाऽनयः ? । हुमित्युक्त्वा प्रवियोऽन्त-स्तत्प्रियाप्रेम भावयन ॥४८॥ इतश्च सेचनाऽऽस्ये नो, नद्यामग्राहि तन्तुना । मन्त्रिणा पदहोऽदायि, योऽधुना जलकान्तदः ॥४॥ तस्य राजा निजां पुत्री, राज्याई च प्रयच्छति । तदाऽर्पयन्कान्दविक-स्तं तु तेनामुचद्गजम् ॥५०॥ पृष्टः कान्दविको राज्ञा, कुतस्तेऽभूदिदं वद ?। चौर्यादाप्तं स भीत्याऽऽह, ददौ मे कृतपुण्यजः॥५॥ राजो न चेद् वेद य-तत्वं व्रज निजे गृहे । अकार्षीत् कृतपुण्यस्य, देशं पुत्री च दत्तवान् ॥५२॥ स विजार्यानुनम् भोगा-नन्यदाऽभयमूचिवान् । प्रियाचतुष्टयोदन्त-मयपूर्व यथा तथा ॥५३॥ अचीकरत्ततश्चैत्यं, द्विद्वारमन्नयो बहिः। कृतपुण्यसमं तत्र, लेप्ययक्ष न्यवेशयत् ॥५४॥ सापत्याभिः समस्तानिः, स्त्रीजियकोऽयमय॑ताम् । भावी रोगोऽन्यथानीणा-मिति चाऽघोषयत्पुरे ॥५५॥ अन्नयः कृतपुण्यश्च, निविष्टौ यत्तमण्डपे । प्रायान्तीः पश्यतः पौरी-यांवत्ताः समुपागताः ॥५६॥ यकं पतिमिव प्रेक्ष्या-वस्ताः प्रेमसाश्रयः । यशोत्सङ्गेऽपि नृधिया, तदपत्यान्युपाविशन् ॥४७॥ उपनयानयो वुध्या, स्यविरांतामर्जियत् । कृतपायस्य ताः पन्नीः, सर्वस्वमपि चापयन् ॥५॥ पत्नीभिः मप्ततिः मार्क, संसारसुखमन्वभूत् । कृतयुगयो यथार्थाऽऽख्यो, मसोके उपमय॑वत् ॥५॥ भन्यदा समवासार्षीत, श्रीवरस्तंत्र तीर्थकृत् । कृत पायो नमस्कृत्य, स्वामिनं पृश्यान् सुधीः ॥६॥ मपत्तिश्च विपत्तिश्व, कथमामीन्मम प्रभो !। स्वाम्यूचे हन्त ते जझे, नक्ष्मीः पायसदानतः ॥६११
रेखा द्वयविधानाच, बभूवान्तरिकाद्वयम् । तच्या तत्वमात्सर्व, सामायिकमुपाददे ॥२॥" श्रा०क०। "नो कप्पा अजप्पभि" इत्यारज्य " तेसि असणं वा दाउ अणुप्पदाउं" इति सम्यक्त्वग्रहणममये प्रत्याख्यायते। अत्राऽऽ. ह-रह पुनः को दोषः स्यायेनेत्थं तेषामन्ययथिकानामन्नाऽऽदि. दाने प्रतिषेध इति ?। उच्यते-तेषां तद्भक्तानां च मिथ्यात्वस्थिरीकरण, धर्मबुध्या ददतः सम्पक्त्वलाञ्छना, तथा प्रारम्भादिदोषाश्च । पुनरापनानामनुकम्पया दद्यादपि ।
यत उक्तम्-- " सब्बेहि पि जिणेहि, पुजयजियरागदोसमोदेहिं । सत्ताएकंपणटा, दाणं न कहिं वि पमिसिद्ध " ॥१॥ तथा च भगवन्तस्तीर्थकरा अघि त्रिभुवनैकनाथाः प्रविवजिषवः सांवत्सरिकमनुकम्पया प्रयच्छन्ति दानमित्यलं विस्तरे. ण । आव० ६ ० । प्राचा० । उपा० ।
से समाणुएणे अममस्म असणं पाणं खाइमं साइम वा पो पाएज्जा, पो णिमंतेज्जा, णो कुज्जा वेयावमियं परं आढायमाणा ति वेमि। (से समणुष्णे इत्यादि ) न केवलं गृहस्थेभ्यः कुशीमेच्यो वाऽकम्प्यमिति कृत्वाऽऽहाराऽऽदिकं न गृह्णीयालमनोकः, अस मनोशाय तत्पूर्वोक्तम् अशनादिकं न प्रदद्याद, नाऽपि परमत्यर्थमाप्रियमाणोऽशनाऽऽदिनिमन्त्रणतोऽन्यथा वा तेषां वैयावृ. प्य कुर्यादिति । वीमीतिशब्दावधिकारपरिसमाप्त्यर्थी।
किंनुतस्तहि किंभूताय दद्यादित्याहधम्ममायाणह पवेदियं वकमाणेण ममया, समारणे समणुएस्स असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइम वा वत्थं वा पायं वा सेजं वा० पाएज्जा, णिमंतेजा, कुज्जा वेयावमियं परं पादायमाणे त्ति वेमि। (धम्मं त्यादि) धर्म दानधर्म जानीत यूयं प्रवेदितं कथितं, केन श्रीवर्कमानस्वामिना?,किंभूतेन ?. मतिमता केवलिना । किनतं धर्ममिति दर्शयति-यथा समनोक्षः साधुरुयुक्तविदारी, अपरस्मै समनोज्ञाय चारित्रवते सविनाय सांभोगिकार्यकसामाचारीप्रविष्टायाशनाऽऽदिकं चतुर्विधं तथा वस्त्राऽऽदिकमपि चतुही,प्रदद्यात् प्रयच्छेत् । तथा तदर्थ च निमन्त्रयत्, पेशलमन्यद्वा वैयावृत्यमनमर्दनाऽऽदिकं कुर्याद, नैतविपर्यस्तेच्यो गृहस्थेच्या कुतीथिज्यः पार्श्वस्थाऽऽदिभ्योऽसविग्नेभ्योऽसमनोझेन्यो वत्यैतत् पूर्वोक्तं कुर्यादिति । किं तु समना भ्य एव, परमत्यमाझियमाणस्तदर्थसीदने परमुत्तप्यमानःसम्यग् वैयावृ. स्यं कुर्यात, तदेवं गृहस्थाऽऽदयः कुशी लास्त्याज्या इति निदर्शि. तम् । अयं तु विशेषः-गृहस्थेभ्यो यावद्वज्यते तावद् गृह्यते, केबल कल्पनीयं प्रतिषिच्यते, असमनोझेभ्यस्तु दानग्रहणं प्रति सर्वनिषेधः। श्राचा० १ श्रु० ८ ० २ उ० । ( 'अम्म उ. स्चिय' शब्द प्रयमभागे ४६३ पृष्ठे तभ्योऽशनाऽऽदिदानप्रतिपेधपराणि सूत्राणि प्रतिपादितानि)
पावस्थाऽऽदित्योऽशनाऽऽदि न देयम्जे भिक्खू पापत्यस्स अस वा पाणं वा खाइसंवा साइम
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(२४३) दाण प्रन्निधानराजेन्द्रः।
दाण वा देवा, देयंतं वा साइजइ ।। 60 || जे जिक्खू पास
सज्ज गाहा (!)त्यस्स असणं वा पाणं वा खाइमं वा सामं वा पमिच्छ,
जो पासत्यादिमाण देति तस्स पासत्थादिलु रागो लक्विज, पमिच्छंतं वा साइज ॥८॥ जे भिक्खू पासत्यं वत्थं वा
जो पुण तेसि हत्था गेएहति तस्स तेसु मज्भेयं पाती लक्खि. परिगहं वा कंबलं वा पायपुंडणं वा देयक, देयंत वा साइ
जति, तम्हा ते जा बाणगहणे रागपाती, सा बज्जेयम्बा । जहाजे जिक्खू पासत्यं वत्यं वा पमिग्गडंबा कंबलं कम्हा?, जम्हा ठसंगातो बहू दोमा, अहससम्गातो य गुणा वा पायपुंछणं वा परिच्छइ, पढिच्छंतं वा साजा ॥३॥
भवति। तम्हा ते घट्टससम्गिकते दोसे परिहरेजा। गाहा
शवि रागो गाहा (?)
सुहसीलजणो पासस्थादी, तेसुण वि रागो, ण विदोसो। जे भिक्खु पासत्यो-साणकुसीलाण नितियवासाणं ।
अस्थ चोदकः-पवं अत्थावत्तीमोणज्जति, तेमु संसम्मि पमुच्च देजा अहव पमिच्चे, सो पावति प्राणमादीणि ॥२७॥
णाम्बा, णाधि पडिसेहो। जति प्रहापवसीए संसग्गी भवति, पासत्यस्स असणं वा पटिच्छद इत्यादि, एवं मोसमे विदो भवतु णाम, ण दोसो? । उच्यते-जति वितहिण रागोण दोसो सुत्ता, ससत्ते वि दो, णितिए विदो। पतसिं जो देति, तेसिं बा, तहा बितेहिं जा संसगी सा बखणिजा। कहं ! । उच्यतेबा हत्यारो परिच्छति, तस्स आणाऽऽद।।
वणे सुको वणसुको, वणचरेण षा गहितो सुको बलमुको, तेण अहवा
कयं उवमं सवारणं, तंदळूण जाणिऊण बुधा पंमिता पतिपासत्यादी पुरिसा, जत्तियमेचा नाहिया मुत्ते । करो संसग्गी, तंणेच्कंति । जेणाणभुविहियाणं,ण होति करणेण समणुमा २७८।
“ माताप्येका पिताऽप्येको, मम तस्य च पक्षियः।
महं मुनिभिरानीतः, सच नीतो गवाशनैः ॥१॥ कंग।
गवाशनानां स गिरःशुणोति,पयं च राजन् ! मुनिपुचानाम् । किं कारणं तेहिं समाणं दाणग्गहणं पमिसिज्झति । भवति
प्रस्थवमेतद्भवताऽपि हवं, संसर्गजा दोषगुणा भवन्ति ॥२॥" पासत्थमहाछंदे, कुसीने ओसान संसत्ते ।
भयं च पमिसिकं तिस्थकरेटिं, जहा अकुसीलेण सदा उग्गमउपायणए-सणा य वातालमबराहा ।। २७४
भवियम्, पुणो पडिसिज्झति-जो कसीलो शेण सह सं. अम्हा जबमाणाणं साधूणं ते पासस्थादी करणेणं ति कि सम्गो णकायबो, एस पडिसेहो । भसंधिग्गस्स पाहुणस्स रिचार समामा सरशा न भवन्ति, सम्हा दागहणं तिमि बार देति माश्ट्ठाणविमुक्को । तस्स पाउदृतस्स परिस पडिसिज्झति । महवा-जम्हा ते करणेणं तुजाण प्रति, मासमई, दो तिमिव वारेवि मासलहुं ततियवारामो पर सम्हा तेहि सह समणुराणया ण भवति, संभोगीण भवती
नियमा मास्स मासगुरूं,विसंनोगेय जीतं भविमुकं संजत्यर्थः । किं चान्यत् । पासस्थगाहा-ते पासस्थादी उम्गम- ति,तस्स चपगुरुगादरे सोबारणं काउति भोतके प्रदेमं दोसेसु सोसससु उपायणादोसेमु य सोलससु दससु य संभोतिबा गता, तन्थ एणे गंतुमहापुजा-ते म्हं किसएसणादोसेसु एतेसु बाबालमवरादेसु णिशं बट्टति, भतो भोतिया। तत्थ पायरियो जति पगतेख भणति संभोतिया, तो देतेण तेति ते सातिजिजता, भगुमोदिता श्यर्थः। तेसिंहस्था- मासमा मह भणति-असंतोदया,तो विमासन, असंबमादी भो गेरहंतेण उम्गमदोसा पमिसेविता नवति ।
दोसा । तम्हा मायरिएणं साधारणं काबबं, भो सुण-संत्रोती गाहा
होश्या दाणि न णज्जति, तुम्मे जाई जेजह । जम्मा उग्गमनप्पायण-सणा यतिविहेण तिकरण विसोही। एवमादी दोसगुणा नवति तम्हा तेसिंण दोबन्च, जावि तेसि पासत्ये अहाबंदे, कुसीले नितिए वि एमेव ॥ २०॥ हत्याओ पमिस्त्रियवं। उग्गमाऽऽदियाणं तिएहं पितिकरणविसोहि ति सयं ण करें।
श्मो मषवादोति,अमंपिप कारति,अमच करतंण समणुजाणतिा एकक असिने प्रोमोयरिए, राय भए व गेल एणे । मणवयणकापदि तिविहं । एवं तिकरणविसोहि ण करेंति त्ति
एएहि कारणहि, देज व गिएहेज जयणाए ॥२०॥ पक्सेसं । एवंण करति पासत्थादी चउरो महादपंचमा । णितियवासी पुण किरियकसावं जति वि असेसं करोत, तदा
मदाणम्मि विवित्ता, हिमदेसे सिंधु एव प्रोमम्मि । विणितियवासित्तणो एवं चेव दहचो।
गेक्षएण कोहकंवन्न-अहिमाइ पमेण प्रोम्जे ॥८॥ एयाणि गाहा (?)
गाहा कंठा। "पतेहि असुपडिसे-वया य प्रविसुद्धे 3 गुरुगा।"
जऊण गाढा(?). एमाई सेहार ते पासत्यादी गणासाधिते से मग्गणं करोतिति
जाऊण मासिएहिं ति। जे उ उद्देसिबमादी ठाणा तेसु पुष्वं वुत्तं भवति । सो णियचरितविसोहेहाएपसुपुण असुद्धसुनिय
गिराहति सि वुतं भवति, जता तेसुण सम्भति तदा पासत्यादि मा चरितमेदो, अशुद्धिरित्यर्थः। चरित्तेणं असुदेणं मोक्खा
उदिसु गिहेसु गिरहेति,तहावि अप्लतीए,ताहे पुष्वगतो पाजावो, तेण पमिकुटुं दाणकरणं पतेसु, जो पुण पतेसु तिकरण
सत्यो परिचियघरेसु दबायेति, तहा बि असतीए पासत्थसं. विसोदि करेति सो णियमा चरित्तं विसोहेति ।
धामेण हिंडति, पसा तेसिं समीवातो गहणे जयणा, सिपा उम्गमदोसा गाहा (?)
असंघरे देउजा, ण दोसो। जम्हा जग्गमादिदोसा पासत्यादीण पति,तम्हा विसुकिति
जे भिक्खू प्रोसास्त असणं वा पाणं वा खाइम वा साइमं चारित्तविमुकीत इच्चतो तपिपासत्यादी वजेजा,एसणियमो।। वा देयइ, देयंतं वा साइजइ॥॥ जे भिक्खू ओसम्मस्स
६२४
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(२४५४ ) अभिधानराजेन्द्र
दागा
असणं वा४ पमिच्छ, पडिच्वंतं वा साइज्जइ ॥ ८५ ॥ जे भिक्खू प्रसस्स वत्थं वा पमिम्गदं वा कंबनं वा पायपुंबणं बा देव देयं वा साइज || ६ || जे भिक्खू प्रोस
स् वत्थं वा पमिग्गदं वा कंबलं वा पायपुंत्रणं वा पडि
पच्तिा साइज्ज |15|| जे भिक्खू कुसीलस्स असा देव देयं वा साइज ||८|| जे भिक्खू कुसीलस्म असणं वा ४ पमिच्छर, पडिच्छंतं वा साइज्जइ || जे भिक्खू कुसीन्सस्स पस्थं वा परि वा कंव वा पायपुंणं वा देयइ, देयंतं वा साइज्जइ ॥ ०॥ जे भिक्खू कुस |लस्स वत्थं वा पमिग्गहं वा कंबलं चा पाय पुंणं वा परिच्छ, परिच्छेतं वा साइनइ ||१|| जे जिक्लूि पिनास असा ४ देय देवतं वा साइनइ ||६२|| जे भिक्खू णितियस्स असणं वा ४ पमिच्छर, पमिच्छतं वा साइ
|||जे पि नितियं वयं वा पडिग्गई या कंबलं वा पायपुंछ वा देयइ, देयंतं वा साइज्जइ ॥ ७४ ॥ जे भिक्खू णितियं वत्यं वा पडिग्गाहं वा कंत्रलं वा पाय पुंछगं वाप पतिं वा साइज ||५|| जे भिक्खू सं सत्तस्स असणं वा ४ देय, देयंतं वा साइज्जइ ॥ ६६ ॥ जे भिक्खू सतस्स असणं वा परिपा साइज्जइ || ७ || जे भिक्खू संसत्तस्स वत्थं वा पडिग्ग
वाचलं वा पावा देय देयं वा साइन ||८|| जे भिक्खू संसत्तस्स वत्थं वा पडिग्गदं वा कंबलं वा पायापछि पनि वा साइज ॥ ६६ ॥
जे निक्खू गाहा । पासत्यादी गाहा। पासत्यगाहा । उग्गमगाहा । पताणि गाहा । उग्गमदोलगाहा। सूरजइ गाहा । ण वि रागो गाहा प्रसिवे गाहा । जत्थ सुलभं वत्थं तम्मि विसर, अतरे वा असिवादिकारणे होजा. पवमादिकारणे ितं विलयमेव गच्छंतो ६ असतो पासत्यादिवत्थं गए हेज्जा, देख वा तेसिं । श्रहवा
गाढा २८२ श्रद्धा वा विवित्ता मुलिया अक्षता पासस्वादादिमा तानिपामिहारियंगे. रहेजा मेवमादिविस सोमम्मि जोि समति, अप्पणो तम्मि उज्जलवत्थे असंते पासत्थादियाण मेला किमिकुद्धादि कंबरपणं पावत्या दियाण जगदेश, हिमादिणा म पागल श्रमउस काय, असा
वा तेसिं । नि० चू० १५ २०१
जे भिक्खू अरे मिगं खुट्टगस्स वा खुट्टयाए वा थेरगस्स वा थेरियाए वा अहत्यस्ति अपायपिस्न अछिएणस्स अनासजिएलस्स भलोडबिस सत्तस्स देय, देयंतं वा साइज ॥ ६ ॥ हत्या अभिलाप सध्ये पदा सो समर्थ पोसिदितरस बरसहूं।
1
दाय
गाहा
१३६ ॥
अन्नदात्थी पुरिसाव गितार्थं या । सुत्तत्थर्व रिएण व पज्जत्तसकोविताणं वा ॥ अबाला बालभाव प्रतिद्धंता, अदुवा बुरुभावं श्रप्राप्ता, सरीरेण जातीया, सुतं जेवतो. गोमत्था इत्यर्थः । वीर्ये वा उत्पादणशक्तिः, गीयत्यन्तणातो चेक पज्जतो, पादकपितो सिवुत्तं भवति, सकोचिता गमनागमणुमचेट्ठा, ते थ लवीरित्तणतो चेच सकोविता, पतेसि जो इत्थीवा पुरिसाण वा अतिरेगपडिग्गहं देति श्रहवा ।
गाहा
भिवपुराणगतिं पात
निद्दिमणिडिं, पाते देताण आबादी ।। १३७ ॥
अभिणवं पुराणं वाजं तं श्रािं विषं वा गणिमादियाण जिदि वा माि जो देश तस्यादिया दोसा चहुं च से पछि सं, जो सुत्तपमितिकाणं देति । इमाण यदेतस्स दोसा । गाहा
प्राणग्गियादी - ए देतो. दोसा तु बनिता पुत्रि । रोगजओनेस, शिवस्स कमोहिं तु ॥ १२० ॥ दिनंतर उपचारों, जो दादादिविगलो, तर गुरु दाणं, समत्यस्सा दिज्जति?, गंतुं सयमेव श्रणे सि,सेस कंठं । इमेदि पुण कारणेदि समस्तअसित्रे ओमोयरिए, रायहुडे नए व गेल | सेहे रिसाव भए अकाण जपणार ॥१३०॥ एते सिवादिकारचा दाणमायण तुमीप दोखा, अंतर से बा अकारो बाबुद्वादियाण दाखं प्रति जयणा कायन्त्रा, जत्थ बहुतरा णिञ्जरा, जत्थ वा बहुतरा दाणी दास, पुवं तस्स दायव्यं जो वा पादच्छ्रिादि कमो भणितो, तेण दायव्यं ।
गाहा
एहि कारणेहिं, सक्काण विदेति संसत्ती | सिंहोतिरे वा, तो पुण स परिहाणी ॥ १४०॥ दित्यादिया सका, ते िदेश जेण तेलि असंसत्ती । असंसती णाम-प्रायणचोच्छेदो प्रभाव इत्यर्थः । इतरे हत्थपादादिया, तेसिं परिहाणी होय वा, वा, सिपुण सक्काणं भायणाभावे सांति, वट्टते चैव परिहाणी, तम्हा तैसि दायव्यं ।
गाहा
जे घेव सकदा, असक असती दोस पार्वेति । असतीए सक्काण वि, ते चैव अदेति पार्श्वेति ॥ १४१ ॥ जं ने अधरंता असणं जं च भानुमी । पातितहासावय तेणादिविराणा जं च ।। १४२ ।। सक्कस्स देतो जे दोसा प्रणिता, असक्कस्स य प्रदेतो जे दोसा प्रणिया, ते व दोसा सण वि असती देतो पाति, तम्हा असिवादिकारणे अवेकिखरं सक्कस्स विदायक ॥ १४१ ॥ देवि वो हमे दोसा
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दाण
दिया असंता अपेक्षित
प्रायय
भूमीप अंतरा असिवादि वा पाविस्संति, नायणभूमी गयाण वा सयणेहिं सेहो उणिक्खमाविज्ञति, भायणाण वा गच्छंता सावरण खति तेोहिं वा घोडज्भंति, जं चां किं वि सरीरसंजयहि पातितं देते पावति। अहवा इमाए जयणाय भायणा दायव्वा । गाड़ा
पुत्रं तु संजोगी, दुगतिगचद्धं तदेव हुंमादी | तो पच्छा इतराण वि, तेर्सि देतो जवे को ॥ १४३॥ देसि सा सिवादिकारणेदिते पुण्वं असंतो इयं पादं तं दिज्जति, दोसु वा तिसु वा गणेसु जं बरू, तं दिना तादा वा अदिति, जति से णत्थि तो पच्छा इयराण वि संभोश्याणि श्रभिष्ठाणि समयसानिलखाणि य देतो सुको भवति ।
अतिरेक प्रतिग्रहं ददाति
(२४९५ ) अभिधानराजेन्द्र
जे जिक्खू इरेगपडिग्गहगं खुम्मगस्स वा खुड्डियाए वा थेरगस्स वा थेरियाए वा इत्यम्स्सि पायबि कबिस्सासबिस्स असकं ण देश, देयं तं
वा साइज्जइ ॥ ७ ॥
इमं सुतं पतिं कि प्राणादिया अत्यतो भविता सुचतो वे
गाड़ा
पूर्व प भगति ।
प्राण बालवुड्डा-55 विहाय गिताणं च । सुत्तत्थवीरिएणं, अपजतऽविकोवितायां वा ॥ १४४॥ दुविधा जुंगिता - जातीए, सरीरेण वा । सेसं पूर्ववत् ।
गाढा
अभिानपुराणगडितं पापमद्विषां तदेव छियां च । हिमादिहं तेसिँ अदेताण आणादी ।। १४५ ।। कंठा पूर्ववत् ।
गाड़ा
अमसि, उद्दिष्ठासति देते जं पावे । पायसनापाए, चेरस्स व कांचे नं कुजा ।। १४६ ।। पूर्ववत् ।
गाहा
दुविजयचातुराणं तप्पटिवरगाणा विज्ञदाणी व । जुंगिता पुव्वनिसिग्दो, भष्यति देसेतरो पच्छा ॥ १४७॥ श्रासुकारी दीहरोगेण वा महवा श्रागंतुश्रो तदुत्थेण वा प्रायणाणि विणा जा परिहाणी, तं श्रदेतो पावति । ण दु विहो जुंगतो - अणलसुते पुत्रं जिसिद्धो, ण पो विश्वभतिजा देखो इतरो ति सरीरजुंगियो पव्वज्जाए वितो, पच्छा जाते तेसिं श्मा विही अस्थियन्त्रा ।
गाड़ा
जाती पहुंगतो खघु जस्य जति तर्हि तु सो अत्य मुगणिमित्तं विगो, इतरो जहि राजति तर्हितु | १४८ | पूर्ववत्कंठा (
गाहा
य
जं सच्चता कारा-येति विकरेंति उड्डाई | किं गिहिसाबले, वि जुंगिता सकर्मका तु॥१४६॥ कंठा पूर्ववत् ।
सर रविकले दाएं पडुच्च इमो कमो । गादा
पाद ऽच्छिनासकरके - जुंगिने जातिजुंगितो चेत्र । वोचत्ये च लहुगा, सरिसे पुत्रं तु समणीणं ॥। १५० ।। पादादिविकलं मखिय कमातो जो पोस्देति तस्स चल साहुबाजीनं सरिसे विकलभावे दोपह] विदा अति दोरादवि समीपं दावं ।
अदाणे इमो भवदातो । गाहाविविपदमणजे, देख
कित्रिय अप
प्रज्जेज्जा ॥ १५१ ॥
जाणतो असतीए, उ मंदधम्मे अजय दिवा अकोवितो गु
"
दोसेसु सो वाण देश या जातो असती नायणस्स ण देज, विजमाणं पि पासत्यादिसुया मंदधम्मेसु ण देउजा, एत्रमादिकारणेसु भदेतो बिसुको । नि० चू० १४ उ० ।
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श्रम पुन्नमभक्तीप, पत्ते दाखं भवे अणत्थाय । जद कहा, नागसिरिनवमि दोब॥१॥ [झा० १ ० १६ भ० । ( मन्त्र 'दुबई' शब्दे विशेषो षष्टव्यः ) दाने जातिर्न निमित्तम्- " जे वा जास्नाइपकखवारण साहूणं दामगुणागुता से लभायणं । तम्हा गुणा पूयणिज्जा, ते चैव दाणाश्सु पयट्टतेण निमित्तं कज्जतु, किंजाइनाइपनिईहिं, जओ स जाईए निद्धम्मा वि अस्थि, ता तेसु दाणं महाफलं होज्जा, श्रइ तेसु य गुणा अस्थि, तदा वि ते श्चिव पवित्तिनिमित्तं दाणासु करिंतु, न किचि जाइणाइणा । " दर्श० ३ तव ।
दाण
सीमावानं महादजायते तर णं तस्स निवस गाहावस्त्र तेथे दन्त्रमुदेश दावगमुपाहणं तिरिदं तिकरण दा ऐणं मए पडिलाभिए समाणे देवाउयणिबद्धं संसारपरिसीकर गिसिप से इमाई पंच दिव्याई पापाई तं जहा - वसुहारा बुट्टा १, दसवणे कुसुमे पिवातिते २, चेलु - कस्बे करे, याओ देव, अंतरा विव आगासे अहो दाणे अहो दावे त्ति घुडे ए। भ०१० श० । दाने फलम् शब्दे द्वितीय १२
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पृष्ठे दर्शितम् )
यकृत दानं तम् अनन्तरं जगद्गुहादान मुक्तम् । तच्च न युक्तमिति परमतमाचेदमादकविदाहास्य दानेन क इवार्थ सिद्धयति । मोगामी भुवं शेष यतस्तेनैव जन्मना ॥ १॥
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कमिति न वितरन कश्वन कश्चिदित्यर्थः, अर्थः पुरुषार्थो, धर्मार्थकाममोक्षाणामन्य
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दाण
समः कर्म वा प्रतिदितस्य निरपेक स्वात् । दानधर्मस्य च तत्कारणत्वान्मोकार्थः सिद्ध्यतीति वेनेत्याद- मोकं निर्वाणं गमिष्यति यास्वतीति मोक्षगामी, ध्रुवं नि हिरा जिनालय प्रयोजनाभावभावनार्थः । पप जगद्गुरुर्वनो ययकारणाय वातेन पस्मिन् जन्मनि दानं ददाति न जन्मपरम्परया, जन्मना भवेन, दानं हि भवपरम्परा मोफ येन चावश्यं नियतव्यं तस्य दानेन न कश्चिदर्थं इति ॥ १ ॥
अधोतरमाहउच्यते कल्प एवास्य तीर्थकुन्नामकर्मणः । उदद्यात् सर्वसच्चानां हित एवं प्रवर्त्तते ॥ २ ॥
उच्यते भगत रोदिताऽऽक्षेपस्य समात्रिरभिधीयते, कल्पशब्दः करणार्थः । यदाह " सामर्थ्य वर्धनायां च वेदने करणे तथा । श्रीपम्ये चाधिवासे विचाः ॥ १ ॥ "करणं च क्रिया, समाचार इत्यर्थः । ततश्च कल्प एव जीतमेव, व. दवमाणे दानादिना सर्व जगद्गुरो पुनः फलविशेष प्रति प्रत्याशा । किंरूपोऽसौ कल्प इत्याद तीर्थकृतस्तर्थकरस्य संबन्धि तीर्थकरत्वनिबन्धनं यथामाऽऽख्यं कम तथा तीर्थकर्मण उदद्याद्विपाकात् सर्वसारीरिणाम् च दियोऽपि न चतुर्थी, संवयस्यैव विदिते
इह यदिति शेषो दृश्यः तेन यदेतत् प्रवर्तते व्याप्रियते जग वानिति ततश्चाष्य दानात कल्पपरिपालनं बिना नान्यत् फलमस्तीति भावनेति ॥ २ ॥
परिहारासरमाह
धर्माख्यापनार्थं च दानस्यापि महामतिः । अवस्थचित्ययोगेन सर्वस्यैवानुकम्पया ॥ ३ ॥
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(२४०६ अभिधानराजेन्ः
धर्मस्य कुशखाऽऽत्मपरिणामविशेषस्याङ्गमनयत्रः कारणे वा धर्मातस्य क्याप प्रकाशन धर्मानं मापनार्थ नायत्वमत्याधिक्याप नार्थमिति इष्टव्यम | महादानं दत्तवानिति प्रक्रमगम्यम् | धर्माङ्ग दानं भगवता प्रवृत्तत्वाच्छी सवदिति भव्यजन संप्रत्यवार्थमित्यर्थः । चशब्दः पूर्वोक्तपरिहारापेक्षया परिदारान्तरसमुच्चयाथेरानस्यापि विधानस्यापि न केवलं - त्यहि महामतिरवाइतोष गवान् किं यथाकथञ्चिदस्य धर्माङ्गतायाः ख्यापनं, नेत्याह श्रवस्था - या भूमिकाया प्रीवियोगानुरूप मोतियेनेत्यर्थः धर्मात त रूप किं गृहिणामेव नेत्याह-सर्वस्वाऽपिश त्यास केवलं पिव निरवशेषस्यापि दातुि मानुकम्पया कृपया न तु गृहखामनुकम्पादानमुचितम् अकंपा दाणं पुष्प, जिणेहिं न कयाइ पमिसि । " इति व चनात् । यत् पुनः साधुः साधवे ददाति तदनुकम्पानिमित्तं न भवति प्रतिनिमित्तस्तस्य यत् पुनरवतायानं तत् साधनं संभवति, " गिहिणो वेयावमियं, न कुजा अभिवायवंदणपूयणं च ।” इति वचनात् । ततः सर्वस्याऽपि गृहस्थस्यैव विशिष्ट नायक दानसंभव इति न दोषः । श्रमुं चार्य प्रन्धकार पत्र व्यक्तीक
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दाण
दामा
रिष्यति । ते चास्याचार्यस्य पादानं साधुसंत पायरिया गां अपि महाभागो " इति वचनादिति ॥ ३ ॥ धर्मामेव दानं यतःशुभाशयकरं होत - दाग्रहच्छेदकारि च । सदज्युदय साराङ्गमनुकम्पामृति च ॥ ४ ॥
शुनं प्रशस्तमाशयं चित्तं कर्तुं शीलमस्येति भाऽऽशयकर, हि इति यस्मादेवं तस्माद्धर्माङ्गता दानस्येति प्रकृतम् । एतदिति दानम् । तथा आग्रहच्छेदकारि च वित्तं प्रति ममकारल कणाभिनिवेशनाशकर्तृ, चशब्दः समुच्चये । तथा सन् शोमनोऽभ्युदयान्तरानुः कल्याणायाप्तिः स स्व सारा प्रधानकारणं सदभ्युदयसाराङ्गम । भाइ च" दानेन भोगानामोति यत्र यत्रोपपद्यते । शीलेन भोगान् स्वर्गे च निर्वाणं चाधिगच्छति ॥ १ ॥ " तथाऽनुकम्पाया दयायाः सकाशात् प्रसृतिः प्रभवो वस्य तदनुकम्पा प्रसृतिः । चश ब्दः समुचय इति ॥ ४ ॥ द्वा० २ ० । पञ्चा० । कल्प० । [झा० (प्रायश्वितदानविधिः पक्षिशब्दे श्यते) अथ दानं प्रति विधिनिषेधविचार:
से पाईप यादियान, या समभागानि (०७) । येत्यादि) समितका गृह्णीयान्नाप्यपरमादापयेद् ग्राहयेत् नाप्यपरममंत्रणीयमाददानं लमनुजानीयात् । अथवा सहकाल सधूमं वा नाद्यान्न भकयेचापरमादयेददन्तं वा न समनुजानीयादिति । माचा० १ ० २ ० ५ उ० ।
दाणच्या य जे पारणा, इति तस्थावरा ।
सिं संरक्खणट्टाए, सम्हा अस्थि ति णो वर ॥ १८ ॥ अपानदानार्थमाहारमुदकं पञ्चनपालनादिकयाक्रिया कूपखननादिकया चीपकल्पयेत्। तान्या असाः स्थावराश्च जन्तवस्तस्मात्तेषां रक्कानिमित्तं साधुरात्मगुप्तो जितेन्द्रियग्भवदीपानुष्ठाने पुष्यमित्येवं नो देदिति ॥१६चा यद्येवं नास्ति पुण्यमिति ब्रूयातदेतदपि न ब्रूयादित्याहजेसि तं वप्पति, अन्नपाणं तद्वात्रिहं ।
तिराति तम्हा हरि नि यो बए ॥१॥ (जेसियां जन्तूनां तदपानादिधर्मयापकल्पयन्ति, तथाविधं प्राण्युपमर्ददोषदुष्टं निष्पादयन्ति तनिषेधेा लेवामाहारयानार्थिनां
भवेत् तदभावे तु परन्तपननादि के कर्मणि नास्ति पुण्यमित्येतदपि न वदेदिति ॥१९॥
पनमेवार्थे पुनरपि समासतः स्पष्टतरं त्रिभणिषुराह जे य दानं पसंसंति, वहमिच्छंति पाणिं ।
ने यणं पमिति, वित्तिच्छेयं करेंति ते ॥ २० ॥ (जे दामित्यादि) ये केचन प्रासादिक दाबनन्तूनामुपकारीति कृत्वा प्रशंसन्ति ते परमि प्रततरप्राणिनां तत्प्रशंसाद्वारेण बधं प्राणानिधानमन्ति सदानस्य प्राणातिपातमन्तरेणानुपपत्तेः
धियो वयमित्येवं मन्यमाना श्रागमसद्भावानभिज्ञाः प्रतिषेधति निषेधयन्ति ते
वर्तना
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दाण
यविघ्नं कुर्वन्तीति ॥ २०॥ सूत्र०१ ०११ अ० श्राचा० । श्राव० | क्यानोऽशनादिदानं न कुर्यादिति
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शब्दे जाने देयो न देयमसं यत पोषणज्ञयादिति विस्तरेव षयते ) " दे. दशमे दानमनुकम्पासमन्वितम्। नक्त्यानं तु. मोकद देशितं जिनैः ॥ १ ॥ द्वा० १ द्वा० । (अनुकम्पा० (२) इत्यादिभिर्दशनिः श्लोकैरनुकम्पादानम् ' प्रणुपादान' शब्दे प्रथमभागे ३६० पृष्ठे व्याख्यातम् )
नन्वेवं " गिरिणो बेयावडियं न कुज्जा " इत्याद्यागमविरोधः ?, इत्यत आहवैयात्ये गृहस्थानां निषेधः श्रूयते तु यः । स औरमर्गिकतां पिद नैतस्यार्थस्य बाधकः ||१२|| (वैयावृत्य इति ) गृहस्थानां वैयावृत्ये तु साधोयों निषेधः भूते सकिन विक्रेतव्यापचादिकस्यार्थस्य बाध काबा न तुसादमिति ॥१२॥ सुप्रान्तरं समाधये तु दानं प्रशंसन्ती स्वादिसूत्रेऽपि संगतः। विहाय विषयो मृम्पो, दशानेदं विपश्चिता ॥ १२ ॥ (त) वे तु दानं प्रशंसन्तीत्यादिसूत्रे " जे उदा यां पसंसंति, बहमिच्छंति पाणिणं । जे श्रयं पमिसेदंति, विति ते ॥ २० ॥ इति सूत्रदशाहाय संगत को पियो विपश्चिता सुम्पे विचारणीयो, न तु पदार्थमात्रे मूढतया प्राव्यम् श्रपुष्टाऽऽल नविषयतयास्योपपादनात् आ "ये तु दानं प्रशंस सीत्यादि तु पत् स्मृतम् । अवस्थानविषयं द्रव्यं तन्महात्मभिः ॥ १ ॥ " इति ॥ १३॥ पुनः राते
99
नन्वेवं पुण्यबन्धः स्यात् साधोर्न च स ष्यते । पुण्यबन्धान्यमाज्या व जु यतो गतिः ॥ २४॥ ( नन्विति नचैवमपवादतोऽपि साधोरनुकम्पादानेऽज्युप) गम्यमाने पुण्यबन्धः स्यात्, अनुकम्पायाः सातबन्धहेतुत्वात् । न स पुण्यबन्ध इष्यते साधोः यतो यस्माद् यतिः पुण्यधान्याज्य हेतु मुद्दे ॥१४॥
तदेव पयति
दीनाऽऽदिदाने एवं स्पा- तददानं च पीमनम् । शक्ती पीमाऽपतीकारे, शाखार्यस्य च बाधनम् ।।१५।। (दीनाssiति) प्रकटं भोजने दीनाऽऽदीनां याचमानानां दाने पुण्यं स्वाद्, न चानुकम्पा वाँस्तेषामदश्वा कदापि भोक्तुं शक्तः । अतिधाष्टचेमवलम्ब्य कथञ्चित्तेषामदाने व पीमनं स्यात्तेषां त दानीमप्रीतिक, शासनद्वेषात्परत्र च कुगतिसगतिरूपम्। तद्प्रीतिदानपरिणामाभावान्न दोषो भविष्यतीत्याशक्याऽऽह-शको सत्य पीडायाः परदुःखस्याप्रतीकारेनुकारे
"
,
६२५.
२४७ ) अभिधानराजेन्द्रः |
शाखार्थ परातिपरिहारप्रतिपादनरूपस्य बाघनं रागद्वेषयोरिव शक्तिनिगूहनस्यापि चारित्रप्रतिपक्षत्वात् । प्रसिद्धोऽयमर्थः सप्तमाष्टके ॥ १५ ॥
किञ्च दानेन भोगisऽप्ति-स्ततो भवपरम्परा ।
मुक्तिमुदिः ।। १६ ।।
दागा
किं च दानेन हेतुना प्रोगाऽऽविनयति ततो भवपरम्परा मोहधारावृद्धे:, तथा धर्माधर्मयोः पुण्यपापयोः क्यान्मुक्तिः, इति हेतोरदोऽनुकम्पाम् ॥ १६ ॥
सिद्धानयतिधोऽपि धर्महेतुः शुभोदयः ।
हेर्दा विनाश्येव नवरस्यात् स्वतो मतः ।। १७ ।। तथा प्रागुक्तम्, यत् यस्मात्पुण्यबन्धो इनोदय को धर्महेतु दिशे
""
पङ्गः पुण्यानुबन्धिबन्धात् प्राणातिपाणिदी तथाऽवधारणात् । न चायं मुक्तिपरिपन्थी, दाहां विनाश्यव हेरिव तस्य पापं विनाश्य स्वतो नश्वरत्वान्नाशशालित्वात् । शास्त्रार्थाचा निर्जराप्रतिबन्धकपुण्यबन्धाभावाचा दोष इति गर्भाऽर्थः ॥ १७ ॥
भोगाऽऽप्तिरपि नैतस्मा दनोगपरिणामतः ।
मन्त्रितं श्रद्धया पुंसां, जन्नमध्यमृतायते ॥ १८ ॥ (नोगाऽऽप्तिरिति) जोगप्राप्तिरपि नैतस्मादापवादिकादनुकम्पा दानात, श्रभोगपरिणामतो भोगानुभवोपनाय का ध्यवसायाभाबातू । दृष्टान्तमाह-मन्त्रितं जलमपि पुंसां अया भक्ताऽमृतायते मृतकार्यकारि जवति । एवं हि जोगहेतोरप्यत्राध्यवसायविशेषाङ्गोगानुपनतिरुपपद्यत इति प्रायः ॥ १८ ॥
गहिरित्या वयस्थाच्यते ते यानिमिवेश्योक मिग्या
न च स्वानपोषार्थमुक्तमेतदवेशनम् । हरिष दोना पतः संविग्नपाक्षिकः ।। १ ।। ( न वेति न च स्वदानस्य स्त्रीयासंयतदानस्य पोषार्थ समपेशलम सुन्दरम् यतो यस्मात्पाकको हरिः प्रागुकं हितमभाणी हि संवा किको मनमा "स्व. कीवासंपतदानसमर्थनामधिकमिदं प्रकरणं णि कृतमि ति केचित्कल्पयन्ति । हरिभाऽचार्यो हि भोजनकाले शङ्खत्रापूर्वको जति तेन ताते कि हासेन संविग्नस्य तत्पातिकस्य बा5नागमिकार्योपदेशः संभवति वानिप्रसाद - "संविदेसि विवा जातो तम्मि तहा, अतहक्कारो उ मिच्छतं " ॥ १ ॥ इति ॥ १९ ॥ भक्तिस्तु भवनिस्तार-वाडा स्वस्थ सुपात्रतः । तथा दक्षं सुपात्रा, बहुकर्मक्षयमम् ।। २० ।। ( नक्तिस्त्विति ) भक्तिस्तु स्वस्य सुपात्रतो भवनिस्तारया
| आराध्यत्वेन ज्ञानं प्रक्तिः, आराधना च गौरवितप्रीतिहेतुः, क्रिया गौरवितसेवा चेत्येतदपि फलतो नैतकणमतिशेते तथा भक्त्या सुपात्राय दतं बहुकर्म समर्थ नवति ॥ २० ॥
तथादिपात्रदान चतुर्भदामाचः शुरू इष्यते । द्वितीये भजना शेषा-निदो तो ॥ २१ ॥ ( पात्रेति ) पात्रदानविषयिणी या चतुङ्गी संयताय शुरू
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(२४ ) अभिधानराजेन्डः ।
दाण
दाण
दानम, संयतायाशुद्धदानम्, असंयताय शुद्धदानम, अ- एवं हि तदनाचारश्रुते श्रूयते-"अहागमाई जंति, अनमने संयतायाऽरुदानमित्यजिलापा । तस्यामायो भङ्गः सम्य- सकम्मुणा । नवलित्ते वियाणिज्जा-ऽणुवलिते ति वा पुणो" गतिशयेन शुरू भ्यते, निर्जरावा एव जनकत्वात् । द्वितीये ॥१॥ अत्र ह्याधाकर्मिकस्य फले नजनैव व्यक्तीकृना,अन्योऽन्यप. भनेकामादिभेदेन फलभावाजावाभ्यां भजना विकल्पा. दग्रहणेनान्तरस्य कर्तुमशक्यत्वात, स्वरूपतोऽसावधे नज5ऽत्मिका । शेषा तृतीयचतुर्थभनौ अनिष्टफलदो एकान्तकर्म- नान्युत्पादनस्थानतिप्रयोजनवाच्चीत संकेपः ॥ २६ ॥ बन्धहेतुत्वान्मतौ ॥ २१॥
शुद्ध वा यदशुई वा-ऽसंयताय प्रदीयते । शुकं दत्ता सुपात्राय, सानुबन्धमार्जनात् ।
गुरुत्वबुद्ध्या तत्कर्म-बन्धकृन्नाऽनुकम्पया ॥ २७॥ सानुवन्धं न बध्नाति, पापं बकं च मुञ्चति ।। ॥ (शुरूं वेति) भमयताय यच्छुद्ध वाऽशुरू वा गुरुत्वबुद्ध्या (शुद्धमिति) सुपात्राय प्रतिहतप्रत्यास्यातपापकर्मणे शुरूम- प्रदीयते तदसाधुषु साधुसंझया कर्मबन्धकृत्, न पुनग्नुकम्पया। माऽदिकं दया सानुबन्धस्य पुण्यानुबन्धिनः शुजस्य पुण्य- अनुकम्पादानस्य काऽप्यनिषिकत्वात् । "अणुकंपादणं पुण, स्यार्जनात् सानुबन्धमनुबन्धसहितं पापं न बध्नाति, बद्धं जिणेहि न कयाइ पमिसिद्धं । " इति वचनात् ॥ २७ ॥ च पूर्व पापं मुञ्चति त्यजति । इत्थ च पापनिवृत्ती प्रयाण. दोषपोषकतां ज्ञात्वा, तामुपेदय ददजनः। भाप्रयोजकपुपयन मोक्षसनियमावेदितं भवति ॥२२॥
प्रज्ज्वास्य चन्दनं कुर्यात, कष्टामगारजीविकाम् ॥२८॥ भवेत्पात्रविशेषे वा, कारणे वा तथाविधे।
अतः पात्रं परीक्षेत, दानशौएमः स्वयं धिया । अशुषस्यापि दानं हि, द्वयो भाय नान्यथा ॥३॥
तत् त्रिधा स्यान्मुनिःश्राफः, सम्यग्दृधिस्तथाऽपरः।२६। ( भवेदिति ) पात्रविशेषे वाऽऽगमाभिहितस्वरूपकपकाss.
एतेषां दानमेतत्स्थ-गुणानामनुमोदनात । दिरूपे, कारणे वा तथाविधे दुर्भिक्षदीर्घाध्वम्मानस्वाऽऽदिरूपे
औचित्यानतिच्या च, सर्वसंपत्करं मतम् ॥ ३०॥ आगादे, अशुद्धस्याऽपि दानं हि सुपात्राय द्वयोर्दातृगृहीत्रोलाभाय नवेत्, दातुर्विवेकशुद्धान्तःकरणत्वाद्, गृहीतुश्च गो
दोषेति स्पष्टः ॥ २८ ॥ अत इति स्पष्टः ॥ २५ ॥ (पतेषातार्थाऽऽदिपदबत्वात् नान्यथा पात्रविशेषस्य कारणविशेषस्य
मिति ) एतेषां मुनिश्राइसम्यग्दृशां दानम्, एतत्स्थानामेतद्वा चिरहे।॥ २३ ॥
वृत्तीनां गुणानामनुमोदनात्तहानस्य तद्भक्तिपूर्वकत्वात् । औचिनम्वेवं संयतायाशुरुदाने फत्रे द्वयोनिबतु भजनर, दातुर्व
त्यानतिवृष्या स्वाचारानुल्ल हुनेन च, सर्वसंपत्करं शानपूर्वकदुतरानिर्जराऽपितरपापकर्मबन्धनागित्वं तु जगवत्युक्तं कथम.
स्वेन परम्परया महानन्दप्रदं मतम् ॥ ३०॥ पवादाऽऽदावपि भावशुद्ध्या फलाविशेषादित्यत आह
शुभयोगेऽपि यो दोपो, व्यतः कोऽपि जायते । अथवा यो गृही मुग्धो, बुन्धकझातभाषितः ।
कुपझातेन स पुन-नोनिष्टो यतनावनः ।। ३१ ।। तस्य तत् स्वरूपबन्याय, बहुनिर्जरणाय च ।। २४ ।। (शुभयोगेश्याति ) पात्रदानबद्धबुद्धीनां सार्मिकवात्सल्या. ( अथवेति ) अथवा पतान्तरे, यो गृही मुग्धोऽसत्- दो शुनयोगेऽपि प्रशस्तव्यापारेऽपि यः कोऽपि व्यतो दोपणे शास्त्राधों मुन्धकहातेन मृगेषु सुन्धकानामिव साधुषु श्राकानां
जायते, स कृपयातेन भागमप्रसिद्धकृपरान्तेन, यतनावतो पयाकश्चिदन्नाऽऽद्युपढौ कनेनानुधावनमेव युक्तमिति पार्श्व- यतनापरायणस्य नानिष्टः, स्वरूपतः सायद्यत्वेऽप्यनुबन्धतो स्थप्रदर्शितेन भावितो बासितः, तस्य तत्संयतायाऽशुरूदानं
निरवद्यत्वात् । तदिदमुक्तम्-"जा जयमाणस्स भवे, बिरादतु मुग्यत्वादेव स्वल्पपापबन्धाय, बहुकमनिर्जरणाय च जबति ॥ णा सुत्तविहिसमग्गस्ल । सा दो णिउजरफला, अज्झत्यवि. अस्पाऽऽयुष्कत्वम्
सोदि जुत्तस्स॥१॥" अहि अपवादपदप्रत्ययाया विराधनाया इत्थमाशयवैचिम्पा-दत्रापाऽऽयुष्कहेतुता ।
व्याख्यानात फसनेदोपयिको ज्ञान पूर्वकत्वेन कियाभेद पवलयुक्ता चाशुनदीर्घाऽऽयु-हेतुता सूत्रदार्शता ॥ २५ ॥
भ्यते । यत्तु वर्जनाभिप्रायजन्यां निर्जरा प्रति जीवघातपरिणा
माजन्यत्वेन जीवविराधनायाः प्रतिबन्धकाभावत्वेनैवात्र देतु(इस्थमिति) इत्थममुना प्रकारेण, श्राशयवैचियाद्भावभेदात,
स्वमिति कश्चिदाह साहसिकः, तस्यापूर्वमेव व्याख्यानमपूर्वमेव अत्रसंयता शुरुदाने, अल्पाऽऽयुष्कहेतुताऽशुनदीर्धाऽऽयुहेतुता
चाऽऽगमतर्ककौशलं,केवलायास्तस्याः प्रतिबन्धकस्वाभावाज्जीच,सूत्रदर्शिता स्थानाङ्गाऽऽझुक्का, युक्ता,मुग्धानिनिविष्टयोरेत.
वघातपरिणामविशष्टत्वेन प्रतिबन्धकत्वे च विशेषणाभावप्रयुक्तपपत्तेः । शुधदायकापेक्षयाऽशुद्धदायके मुम्बेऽल्पाभाऽऽयुर्व.
स्य बिशिष्टानावस्य शुरुविशष्यस्वरूपत्वे विशेष्याभावप्रयुकन्धसंनयात् । कुल्लकनवग्रहणरूपाया अस्पतायाश्च सूत्रान्तर
स्य तस्य शुद्धविशेषणरूपस्यापि संभाजीवघातपरिणामोऽविरोधेनासंभवादिति । व्यक्तमदः स्थानाङ्गवृष्यादौ ॥२५॥
पि देवानां प्रियस्य निर्जराहेतुः प्रसन्येत । श्रथ वर्जनानिमायेयस्तूत्तरगुणाशुद्धं, प्रतिविषयं वदेत् ।।
ण जीवघातपरिणामजन्यत्वन्नकणं स्वरूपमेव विराधनायातेनात्र भजनासूत्रं, दृष्टं सूत्रकृते कथम् ॥ २६ ॥ स्त्याज्यतेऽतो नेयमसती प्रतिबन्धिकेति चेत्, किमेतद्विराध( यस्त्विति) बस्तु आधार्मिकस्यैकान्तदुपत्वं मन्यमानः नापदं प्रवृत्तिनिमित्तं, विशेषणं बा?। श्राद्ये प्रवृत्तिनिमित्तं नाप्रकृतेऽय, प्राप्तिगोचरं जगवतीविषयम, उत्तरगुणाशुद्धं वदेत्।। स्तिपदं चोच्पत इत्ययमुन्मत्त प्रलापः । अस्ये चोक्तदोषतादशक्यपरित्यागबाजाऽऽदिसंसक्तानाऽऽदिस्थ लेऽप्यप्रासुकानेष- चस्यामिति शिष्यम्धनमात्रमेतत् । श्रथ यमविशिएं यद्वणायपरप्रवृत्तिदर्शनात् । तेन चैवं यूकापरिजवनयात्परिधान स्तु निजस्वरूपं जहाति स धर्मस्तत्रोपाधिरिति नियमावर्जना, परित्यजता, अत्र विषये, स्नकते, भजनासूत्रम् , कथं दृष्टम् । अभिप्रायविशिष्ट हि जीयविराधना जीवघातपरिणामजन्यत्वं
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(२४ ) अन्निधानराजेन्ड:
दाण
दाममग
संयमनाशहेतुं परित्यजतीति भावार्थपर्यालोचनादनुपहितवि- | दाणविंद-दानवेन्द्र-पुं० । चमराऽऽदौ, भा०म०१ १०१ स्वराम । राधनात्वेन प्रतिबन्धकत्वं लभत इत्युपहितायास्तस्याः प्रतिबन्धका भावत्वमकतमिति चेन्न, प्रकृतधिराधनाव्यक्ती जीवघात
दाणविप्पणास-दान विपनाश-पुं० । दत्तापक्षापे, प्रश्न. ३ संपरिणामजन्यत्वस्यासन त्याजयितुमशक्यत्वात् । अत एव
व द्वार। तत्प्रकारकप्रमितिप्रतिवन्धरूपस्यापि तद्दामस्थानुपपसे। स्याद |दाणस-दानश्राक-पुंगप्रकृत्यवदानरुचौ, ध०३ अधिक वृ०। तत् । वर्जनाभिप्रायानावविशिष्टविराधनात्वेन प्रतिबन्धकत्ये न कोऽपि दोषः, प्रयुत वर्जनानिप्रायस्य पृथक्वारपत्वाकल्पनाला
दाणमूर-दानशुर-पुं० । तृतीये शूरभेदे, "दाणसुरे वेसमणे।" घमिति। मैवम । विशेषणविशेष्यभावे विनिगमनाविरहादू, अ.
दानशूरोवैश्रवण उत्तराशालोकपालस्तीर्थकराऽऽदिजन्मपारणन्यथा दोषाभावविशिबाधत्वेनैव दुष्टज्ञाने प्रतिबन्धकरवप्रसा
काऽऽदिरखवृष्टिपातना दिनेति । उक्तंच-"वेसमणवयणसंचोद, विशेष्याभावस्थलेऽतिप्रसदाश्च। तस्माद वर्जनाभिप्रायस्यैव
श्यान ते तिरियजंजगा देवा । कोमिग्गसो हिराम, रयणाणि य फल विशेषे मिश्चयतो हेतत्व, व्यवहारेण च तत्तद्राक्तीनां भावा
तत्थ उबणेति ॥ १॥" इति। स्था०४ वा० ३ ३० । संथा। नुगतानां निमित्तत्वमिति साम्प्रतम् । विपश्चित चेदमन्यत्रेति
दाणा-दानाऽऽदि-पुं० । वितरणप्रभृतौ, आदिशब्दाद् गुरुसे. नेह विस्तरः ॥ ३१॥
वातपःप्रभृतीनां च संग्रहः । पञ्चा० २ विव०। इत्थं दानविधिज्ञाना, धीर: पुण्यप्रभावकः।
दाणामा-दानमयी-स्त्री० । प्रव्रज्यायाम, "दाणामाए पब्वज्जायथाशक्ति दददान, परमाऽऽनन्दभाग् भवेत् ॥ ३५॥ । इत्यमिति स्पष्टः ।। ३२ ॥ द्वा० १द्वा० ।
ए पब्वइए।" न. ३ श.२ उ०। दक्षिणायाम्, सूत्र० २ श्रु०.५ अ० । 'हो' अवखएमने |
दाणिं-इदानीम-अव्य० । " इदानीमो दार्णि" ।। २७७॥ ल्युट । खराउने, विशेः । श्राव० । गजमदे, झा० १ श्रु०
शौरसेन्याभिदानीमः स्थाने ' दाणि ' इत्यादेशः। प्रा ४ (ए अ० । मदकारिण, "दाणवासिकपोलमुलं । " कस्प०
पाद । सम्प्रतीत्यर्थे, भ०३ श०२०। सूत्र.। "अणंतरकर२क्षण । तीर्थकदानमजव्याः प्राप्नुवन्ति,न वेति प्रइने, उत्तरम,
णीयं दाणि प्राणवेदु अय्यो।" व्यत्ययात्प्राकृतेऽपि-"अनं दाणि ते नाप्नुवन्तीति बृद्धवादः, अक्षराणि, तु ग्रन्ये दृष्टानि न
देहि । "प्रा०४ पाद। "शुणध दाणि हगे! शक्कावयासतित्यनिस्मरन्तीति । १६८ प्र.। सेन०२ उखा० । केनापि स्वगृहं
वासी धीवले!।" प्रा० ४ पाद । वाक्यालङ्कारे, वृ० १ उ० । जिनगृहे मुक्त, तत्र श्राद्धः कोऽपि भाटकं दवा तिष्ठति, न दागुवएस-दानोपदेश-पुं० । अन्नाऽऽदारप्रदानोपदेशे, आव०६ बोति प्रश्ने, उतरम्-यद्यपि साधिकनाटकप्रदानपूर्व कमवस्थाने अ०। पश्चा०। दोषो न लगति, तथाऽपि तथाविधकारणमन्तरेदं युक्तिमन्न प्रनिमाति, देवजयभोगाऽऽदो निःशूकताप्रसङ्गादिति। ४१७३०।
दाथालय-नदकस्यानक-न०। उदकाईस्थालके, भ.१५ शा सेन.३उद्वाज पौषधमध्ये याचकाऽऽदेनं दातुं कल्पले,न बोत
दादक्षिा -स्त्री० । देशी-अगुली, दे० ना०५ वर्ग०३० गाथा । प्रश्ते, उत्तरम् मुक्यवृत्धा पौषधमध्ये याचकाउदेदानं दातुन दाम-दामन्-न । दो-मनिन् । " स्नप्रदामशिरोऽननः" ॥ कल्पते, कस्मिंश्चित्कारणविशेषे तथा जिनशासनोति ज्ञावा कदाचिद्यदि ददाति तदा निषेधो ज्ञातो नास्तीति । ४३३
। १॥ ३२ ॥ इति पयुवासानपुंस्त्वम् । 'दामं ।' प्रा० १ पाद । प्र० । सेन० ३ उदा०।
घजि, ज्ञा०१ श्रु०१०। मालायाम, भ०११ श०११००।क
ल्प प्रज्ञा० । औ० । प्रा. क०। स्था० । रज्जा, प्रश्न. ३ आदाणंतराय-दानान्तराय-न० । दीयते इति दानं, तद्विषयमन्त
श्रद्वार। खियां माच । दामा । मनःशिलाकस्य वेसम्धररायं दानान्तरायम् । प्रथमायामन्तरायस्योत्तरप्रकृतौ यदय. नागराजस्याऽऽवासपर्वते, स्था०४ ठा०श्च० स्त्रियां माच । वशात् सति विभवेऽपि समागते च गुणवति पात्रे दवाऽस्मै दामादामे । बाच० । पाशकविशेषे, विपा. १ श्रु०३१०। बहुफलमिति जाननपि दातुं नोत्सहते, तहानान्तरायम् । त. स्मिन्, कर्मः ६ कर्म । पं० सं० । स०।
दामग-दामक-न। रज्जुमयपादसंयमने, प्रश्न०३ आथ द्वार । दाणग्गहण-दानग्रहण-न।प्रदानाऽऽदानयोः, निचाउादामट्टि-दामास्थि-jo शक्रस्य देवेन्द्रस्य देघराज्ञः स्वनामदाणजुय-दानयुत-पुं। दानरुचौ, कर्म १ कर्मः।
ख्याते वृषभानीकाधिपता, स्था०५ ग०१०। दाणह-दानाये-न०। दानमों यस्य तानार्थमा दाननिमिर दामण-दामन-न । बन्धने, प्रव० ३८ द्वार । प्रश्न० ५ संव० द्वार । पत्र।
दामणी-दामनी-स्त्री० । गवादीनां बन्धनविशेषभूतायां रउजी, दाणधम्म-दानधर्म-पुं० । दानधर्मकर्तव्यतायाम्, “दानात्की. | भ०१६ २०६उ० । ज०। अष्टादशतमायां तीर्थकरप्रवर्तिन्या. तिः सघाशभ्रा, दानासौभाग्यमुत्तमम् । दानात्कामायमोकाः | म्, प्रवद्वार । “कुन्थुस्स दामणी खलु । " ति० दामस्यु-दानधर्म बरस्ततः ॥१॥" पश्चा०२चिव ।
म्याकारे स्त्रीणां सुलक्षणविशेष च। जं.२ वक। प्रसवे, नयादाणव-दानव-पुं० । दनोरपत्यम, अण् । झा० १ श्रु० ८ अ०। नयोश्च । दे० ना.५ वर्ग ५२ गाथा। "कगच जतदपयवां प्रायो लुक"|८।१।१७७॥ इति प्रायःदाममग-दामनक-पुं० । राजगृहनगरबास्तव्यस्य मणिकार)प्रहणास्वरात्परश्यानादि नूतस्यासंयुक्तस्यापि वकारस्यामुक । ठिनः स्वनामख्याते पुत्रे, आव०६ अ०। आ००। (सच पूर्वभवे 'दाणबो।' प्रा०१पाद । भवनपतिविशेष, पन्नरभेद ज्ञावर मत्स्यमांसप्रत्याख्यानपरिक्षनाद मणि कारश्रेष्ठिनः पुत्रत्वेनोध्रु.८० असुर, अनु। स्था० । उत्त० प्रा० म०
प न्नः कमेण सागरपतिसार्थवाहस्य गृहस्वामी जातः । ततो
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(१५००) दामाग अभिधानराजेन्मः।
दायगदोस देवलोकं गत्वा ततश्च्युवा सेत्स्यतीति' पश्चक्वाण' शब्दे १७॥६.४॥ भर्जमाना चुल्लयां कमिल्लकाऽऽदि वनीपकादौस्फोटउदाहरिभ्यते)
यन्ती१८,वसन्तीऽरघट्टेन गोधूमाऽदि चूर्णवन्ती१६, कण्डयन्ती दामदुग-दामद्विक-न० । मालाद्वये, भ० १६ श०६ उ.। स्था। दूखले तन्दुलादिकंग्ड्यन्ती २०,पिषन्ती शिलायां तिलामन. दामलिवि-दामलिपि-स्त्री० । ब्राह्मघा लिपेः सप्तदशे भेदे,
काऽऽदि प्रमृज्जन्ती२१.पिञ्जन्ती पिञ्जनेन रुताऽऽदिकं बिरलं कुर्वती
२२, रुम्बन्ती कापस लोठिन्या लोयन्ती २३, कतन्ती कर्सने स० १० सम।
कुर्वती २४, प्रमृदन्ती रुतं कराभ्यां पौनःपुन्येन विरलं कुर्वती २५ दामिली-हाविमी-स्त्री०। द्रविडदेशोद्भवायां तद्भाषानिया- | ॥६०॥ षट्कायव्यग्रहस्ता षटकाययक्तहस्ता २६,तथा श्रमणार्थ
यां मन्त्रविशेषरूपायां विद्यायाम, सूत्र.२.२ अ०। भिक्कामादाय तानेव षटकायान् भूमौ निक्तिप्य ददती२७, तानेदामोअर-दामोदर-पुं० । “ नादियुज्योरन्येषाम् " ॥5॥४॥
च षटायानषगाहमाना पादाभ्यां बालयन्ती २८, संघट्टयन्ती
तानेव षटकायान् शेषशरीरावयवन च स्पृशन्ती २६, भार३२७॥चूलिकापैशाचिकेऽप्यन्येवामाचार्याणां मतेऽनादौ वर्त
भमाणा तामेव षट्रायान् विनाशयन्ती ३.॥६०६॥ ससक्तन द. मानस्य तृतीयो न । दामोदरो । प्रा०४ पाद । जीर्णदुर्गस्योत्त
ध्यादिना कव्येण लिप्तहस्ता स्वरण्टितहस्ता ३१, तथा तेनैव रदिशि गिरिद्वारे पञ्चमवासुदेवस्य प्रतिमायाम्, ती•४ कल्प ।
व्येण भ्यादिना संसक्तेन लिप्तमात्रा खरष्टितमात्रा ३२, 3. दाय-दाय-पुं० । दा-कमणि घञ्।" विभागोऽर्थस्य पियस्य, द्वर्तयन्ती महत्पिनराऽअदिकमुद्वर्त्य तन्मभ्याइदती ३३, साधारण पुत्रैर्यत्र प्रकल्पते।"श्त्युक्त पित्रादिसम्बन्धवति तऽपरमे त- बहूनां सत्कं ददती ३४, तथा चोरितं ददती ३५॥६.७। अग्नि सम्बन्धवति पुत्राऽऽदिभिर्विभजनीये कव्ये, विवाहकाले जा- कूरादिनिमित्तं मूलस्थास्यामाकृष्य स्थगतिकाऽऽदी मुञ्चन्ती मात्रादिभ्यो देये धने च । भावे घम् । वाच• । पर्वदिवसाउदी ३६, सप्रत्यपाया संभाव्यमानापायदात्री ३७, तथा विवक्कितसादाने, झा० १ ० २ अ०। कल्प० । सामान्यदाने च । न० । धुव्यतिरेकेण परमन्यं साध्वादिकमुद्दिश्य हठात् स्थापित औ० । ज्ञा। भ.। 'दो' भावे घम् । खएमने, 'दै' फरणाऽऽदौ तहदती ३८, तथा-मानोगेन साधूनामित्थं न कल्पत इति घञ् । अम्बुनि, स्थाने, लये, सोल्लुएग्नवाक्ये च । चाचा परिकाप्याप्यावं ददती ३६, अथवा-अनानोगेना शुरू ददती दायग-दायक-पुं० । दातरि, प्राचा• २ भु० १ चू• १०७
४०, सर्वसंख्यया चस्वारिंशदोषाः॥ह प्रविताऽऽदिद्वारेषु-"सं. न. । प्रश्न।
सज्जिमेहि बज अगारिहिदिपि गोरसदवहिं।" इत्यादिग्रन्थे
न संसक्ताऽऽदिदोषाणामभिधानेऽपि यदू भूयोऽप्यत्र "संस. दायगदोस-दायकदोष-पुं० । ग्रहणैषणायाः षष्ठे दोष, पिं०।
सेण व दबे-ण लित्तहत्था य लित्तमत्ता व । (६.७)"श्त्याच. अथ दायकद्वारं गाथाषट्रेनाऽऽह
भिधानं, तदशेषदायकदोषाणामेकत्रोपदर्शनार्थमित्यदोषः।६०। बाले व मत्ते, उम्मत्ते वेविए य जरिए य ।
संप्रत्येतेषामष दायकानामपवादमधिकृत्य बर्जनापर्जनषि
भागमाहअंधेदए पगलिए, आरूढे पानयाहिं च ॥६०३ ॥ हत्थेदुनियलबच्छ, विवजए चेव हत्थपाएहिं ।
एएसि दायगाणं, गहणं केसि वि होइ भइयन्न । तेरासि गुबिणी बा-लवच्छ मुंजति घुसनंती ॥६०४॥
कसि वी अग्गहणं, तबिवरीए नवे गहएं ॥६०६ ॥
एतेषां बालाऽऽदीनां दायकानां मध्ये केषाशिमूसत भारज्य जजंतीय दवंती, कंमंती चेव तह य पीसंती।
पञ्चविंशतिसंख्यानां ग्रहणं भजनीय कदाचित्तथाविधं महः पिंजती रुवंती, कत्ती पमहमाणी य ।। ६०५॥ प्रयोजनमुद्दिश्य कल्प्यते, शेषकाल नेति । तथा केषाश्चित्वदायछक्कायवग्नहत्था, समणटा निक्खिवित्तु ते चेव । व्यग्रहस्ताऽऽदीनां पञ्चदशानां हस्तादग्रहणं भिवाया,तहिपरीते ते चेत्रोगाहंती, संघटुंताऽऽरभंती य ।। ६०६ ॥
तु बालाऽऽदिबिपरीतेषु दातरि भवेद ग्रहणम् ।
संप्रति बालादीनां हस्ताऽऽदेमिकाग्रहणे ये दोषाः संनवन्ति संसत्तेण य दब्बे-ण लित्तहत्था य वित्तमत्ता य।
ते दर्शनीवाः, तत्र प्रथमतो बालमधिकृत्य दोषानाहनबत्ती साहा-रणं व दिंती य चोरिययं ॥ ६०७ ॥
का सहिग अप्पाहण, दिने वनग्गहण पजते । पाइडियं व वंती, सपच्चवाया परं च उदिस्स।
कंजियमग्गण दिले, नहाहपोमचारजमा ।। ६१०॥ आभोगमणाभोगे-ण दनंती बज्जणिज्जा य ॥६०८॥ काचिदभिनवा श्राद्धिका श्रमणेभ्यो निवां दद्या इति निजबालाऽऽदिका वर्जनीया ति क्रियायोगः। तत्र बालो जम्मतोव- | पुत्रिका (अप्पाहणं ति) सदिश्य नक्तं गृहीत्वा केत्रं टिकस्यान्तर्वी १.वृधः सप्ततिवर्षाणां, मतान्तरापेक्षया पष्टि- जगाम, गताय तस्यां कोऽपि साधुसंघाटको भिक्कामागतः, तया वर्षाणां वा परिवर्ती २,मत्तःपीतमदिराऽऽदिः३, उन्मत्तो दृप्तो, च बालिकया तस्मै तन्दुलौदनो वितीर्णः, सोऽपि च संघा. ग्रहगृहीतो वा ४,वेपमानः कम्पमानशरीर.५,ज्वरितो ज्वररोग- टकमुख्यः साधुस्तां बालिका मुग्धतरामवगत्य लाम्पट्यतो त. पीमितः६, अन्धश्चक्षुर्विकलः ७, प्रगलितो गमत्कुष्ठः८, पारूढः यो नूय उवाच-पुनर्देहि पुनर्देहीति। ततस्तया समस्तोऽप्योपादुकयोः काष्ठमयोपान ॥६०३॥ तथा हस्तेन्दुना करबि- दनो दत्तः । तत एवमुद्धत्य घृततकदध्यादिकमपि । अपराहे च पयकाष्ठबन्धनेन निगडेन च पादविषयलोहमयबन्धेन बरुः१०, समागता जननी, उपविश्य जोजनाय भणिताच निजपुत्रिकाहस्तान्यां पादाभ्यां वर्जितश्छिन्नत्वात् ११-१२, त्रैराशिको नपुं. देहि पुत्रि!मह्यमोदनमिति । साध्वोचत्-दत्तः समस्तोऽप्योदनः सकः १३,गुर्विणी आपनसषा १४,बालवत्सा स्तम्योपजीविशि- साधवे। साऽब्रवीत्-शोभनं कृतवती, मुशान्नं मे देहि। सा प्राद. शुका १५, भुजाना नोजनं कुर्वती १६,धुसुन्तीदध्यादि मश्नती । मुद्दा अपि साधवे सर्वे प्रदत्ताः । एवं यद् यत् किमपि सा
पहिस्सा
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(२५०१ दायगदोस भनिधानराजेन्जः।
दायगदोस याचते, तत्तत्सर्व साधवे दत्तमिति । ततः पर्यन्ते काजिकमा- वेपितातु दातुः सकाशाद्भिकाग्रहणे देयवस्तुनः परिशाटनं भ. प्रमयाचि। बात्रिका भणति तदपि साधवे दत्तमिति । ततः सा- | वति । यद्वा-पार्वे साधुनाजनाद बहिःस पितो देयं वस्तु कि. उभिनयश्राफिका रुघा सती पुत्रिकामेवमपवदति-किमिति त्व- पेत् । यद्वा-येन स्थाल्यादिना भाजनेन कृत्वा भिकामानयति त. या सर्व माधवे दत्तम्। सा ते-स साधुर्नयो यो यात्रते,ततो स्य भूमौ निपाते भेदः स्फोटन स्यात् । एवमेव ज्वरितेऽपि दोषा मया सर्वमंदायि । ततः सा साधोरुपरि कोपाध्येशमाविशन्ती भावनीयाः। किं घ-ज्वरिताद् ग्रहणे जवरसंक्रमणमपि साधो. सूरीणामन्तिकमगमन् । अचकथञ्च सकलमपि साधुवृत्तान्तं, नंवत्, तथा जनोड़ाहो यथा-अहो ! अमी आहारसम्पदा, य. यथा- भवदीयः साधुरित्यमित्थं मत्पुत्रिकायाः सकाशात या- दित्थं ज्वरपीमितादपि भिक्कां गृहन्तीति । चित्वा याचित्वा सर्वमोदनाऽऽदिकमानीतवानिति । एवं तस्यां
अन्धगलस्कुष्ठावाश्रित्य दोषानाहमदता शब्देन कथयन्त्यां शब्दश्रवणतः प्रातिबशिकजनोऽन्यो- नडाह कायपडणं, अंधे नेओ य पासबुहणं वा । ऽपि च परम्परया नूयाम्मिनितो, झातश्च सर्वैरपि साधुवृत्ता
तदोसी संकमणं, गलंतनिसनिबदेहे य ॥ ६१४ ।। तः,ततो विदधति तेऽपि कोपावेशिनः साधूनामवर्णवादम-नून
अन्धाद्भिक्षाग्रहणे उहाहः, स चायम्-अहो! मी मौदारिका ममी साधुवेषविडम्बिनचारजटा श्व लुण्टाकाः, न साधुसद्वृत्ता इति । ततः प्रबचनावणवादापनोदाय सूरिन्निस्तस्याः
यदन्धादपि निकां दातुमशक्नुवना भिकां गृह्यन्तीति । तथासर्वजनस्य च समकं स साधुनिर्भस्योपकरणं च सकसमागृ
अन्धोऽपश्यन् पादाच्या भूम्याश्रितपरजीवनिकायघातं विदधाव वसतेनिकाशितः, तत एवं तस्मिनिष्काशिते श्राविकायाः
ति। तथा-लोष्ठाऽऽदौ स्खलितः सन् नुमौ निपतेत् । तथा-बसकोपः शममगमत् । ततः सूरीणामुक्तवती-कमाश्रमण ! भ
तिनिकादानायोत्पाटितहतगृहीतस्थावादिनाजनभङ्गः । तथागवन्! मा मनिमित्तमेष निष्काश्यतां, कमस्वैकं ममापराधमि
स देयं वस्तु पार्श्व भाजनबहिस्तात् प्रतिपेत्, प्रदर्शनात् । त. ति, ततो भूयोऽपि यथावत्साधुः शिक्षित्वा प्रवेशितः। सूत्रं सु.
स्माइन्धादपि न ग्राह्यम्। तथा स्वदोषिनि, किविशिष्ठे?,. गम, नवरम् (नहाइपोसचारजमा ति)लोके उद्दाहस्ततो
त्याह-गलितनृशनिन्नदेहे । अत्राऽऽर्षत्वाद् व्यत्यासेन पदयोलोकम्य प्रवेषभावतश्चारभटा इव मुण्टाका अमीन साधव
जना । सा चैवम् -तृशमतिशयेन गनन् अर्द्धपकं रुधिरं इत्यवर्णवादः। यत एवं बालाद्भिक्षाग्रहणे दोषाः, ततो वासाम्न
च बहिर्वहन भित्रश्च स्फुटितो देहो यस्य स तथा तस्मि
न्, तदादिसंक्रमणे कुष्ठःचाधिसंक्रान्तिः स्यात, तस्मात्ततोऽपि प्रामिति ।
न ग्राह्यम् । संप्रति स्थविरदायकदोषानाह
___ संप्रति पादुकाऽऽरूढादिचतुष्टयदोघानाहथेरो गलंतलालो, कंपण हत्थो पमिज्ज वा देतो।।
पाउयरूहपळणं, बके परियाव असुइखिंसा य । अपहु ति य अवियत्त,एगयरे वा उजयो वा ॥६११।।
करछिन्नाऽसुइरिखसा,ते चिय पायम्मि पमणं च ॥६१।। अत्यन्तस्थविरो हि प्रायो गलद्वानो भवति , ततो देयमपि
पादुकाऽऽरूढन्य जिकादानाय प्रचलतः कदाचिद् स्थितत्वात घस्तु लालया खरगिटतं भवतीति तद्ग्रहणे मोके जुगुप्सा तथा.
पतनं स्यात् । तथा-बद्धे दातरि भिकां प्रयच्छति परितापो कम्पमानदस्तो भवति, ततो हस्तकम्पनवशतो तद वस्तु नुमौ निपतति । तथा च-षम्जीवनिकायविराधना तथा स्वयं वा स्थ
दुःखं तस्य भवेत्। तथा-(असुरत्ति) तत्राप्युत्सर्गाऽऽदो जोन
तस्याशौच करणासंजवात्, ततो निकाग्रहणे लोके जुगुप्सा, य. बिरो ददत् निपतेत, तथा च सति तस्य पीमा, तूम्याश्रितषम्जीवनिकायविराधना च । अपि च-प्रायः स्थविरो गृहस्थाप्रभु
था-अमी अशुचयो यदेतस्मादप्यशुचिपूतत्वात् निकामाददत रस्वामी भवति, ततस्तेन दीयमानेनाप्रतुरेष इति विचिन्त्य गृदे
शति । एवं चिन्नकरेऽपि भिकां प्रयच्छति लोके जुगुप्सा, तथा. स्वामित्वेन नियुक्तस्य "अवियत्त" प्रद्वेषः स्यात्, सच एकतर
दस्ताभावेन शौचकरणासंभवात् । एतच्चोपल क्षणम,तेन हस्ता. स्मिन् साधी, यद्वा-उभयोरपीति ।
भावे येन कृत्वा नाजने न भिकां ददाति । यहा-देयं वस्तु तस्य मत्तोन्मत्तावाश्रित्य दोषानाह
पतनमपि भवति । तथा च सति षाजीवनिकायव्याघातः। पत
एव दोषाः पादेऽपि चिन्नपादेऽपि दातरि एण्याः, केवलं पादाअवयास भाणनेप्रो, वमपं असुइ त्ति लोगगरिहा य।
भावेन तस्य भिक्कादानाय प्रचलनः प्रायो नियमतः पतनं पातो पंतावणं च मत्ते, वमणविवज्जा य उम्मत्ते ।। ६१३॥
भवेत् । तथा च सति भूम्याश्रितकीटिकाऽऽदिकसरवव्याघातः । मत्तः कदाचिन्मत्ततया साधोरालिङ्गनं विदधाति, भाजनं वा
संप्रति नपुंसकमधिकृत्य दोषानाहजिनत्ति । यद्वा-कदाचित् पीतमासबं ददानो चमति, वमश्च साधु,
आयपरोजयदोसा,अभिक्खगहणम्मि खोनणे नपुंसे । साधुपात्र वा खरपटयति । ततो लोके जुगुप्ता-धिगमी साध. वोऽशुचयो ये मत्तादपीत्थं भिक्षां गृहन्तीति।तथा कोऽपि मत्तो
सोगदुगुंछा संका, एरिसया नूणमेए वि ॥१६॥ मदवशबिवतया-रे मुराम! किमत्राच्यात इति वन् घातमपि
नपुंसके भिक्षां प्रयच्चति प्रात्मपरोभयदोषाः। तथादि-नपुंसविदधाति, तत एवं यतो मतेऽवयासाऽऽदयो दोषाः, तस्मा
काद भिन्नाग्रहणेऽतिपरिचयो भवति, अतीव परिचयात् तस्य न ततो ग्राह्यम् । एत एवाऽऽलिङ्गनाऽऽदयो दोषा वमनवर्जा
नपुंसकस्थ साधो कोभो वेदोदयरूपः समुपजायते । ततो
नपुंसकस्य साधुलिङ्गाऽऽद्यासेवनेन द्वयस्थापि मैथुनसेवया कउन्मने ऽपि, तस्मात्ततो पि न ग्राह्यम्। संप्रति बेपितज्वरितावाश्रित्य दोषानाह
मबन्धः, अभीक्षणग्रहणशब्दोपादानाच्च कदाचित् निकाग्रहणे
दोषाभावमाह, परिचयाभावात्। तथा लोके जुगुप्सा-ययैते नपुं. वेवण परिसामणया, पासे व बुभेज भाणनेो वा।
सकादपि निकृष्टाद्भिदामाददते इति, साधूनामप्युपरि जनस्य एमेव य जरियम्मि वि, जरसंकमणं व नडाहो ॥६१।। शला भवति तस्माद् ययेतेऽपि साधवो ननमीदृशा नपुंसका।
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(२५०२) दायगदोस अभिधानराजेन्धः ।
दायगदोस कथमल्यासन्नेन सदनिकाग्रहणण्याजतोऽतिपरिचयं विदध
___ संप्रति पेषणाऽऽदिदोषानुपदर्शयतित इति ।
दगवीए संघट्टप, पोसणकंमदलजज्जणे उहणं । संप्रति गुपिणीबालवत्से आश्रित्य दोषानुपदर्शयति-- पिंजंतं रुवणाई, दिन्ने झित्ते करे उदगं ।। ६५०॥ गुधिणि गब्ने संघ-दृणा न उटुंत-वेसमाणाए। पेषणकएमनदलनानि कुर्वतीनां हस्तादिकाग्रहणे सुदकबाबाई मंसें उग, मज्जाराई विराहिज्जा ।। ६१७॥
वीजसंघट्टनं स्यात् । तथाहि-पिषन्ती यदा भिकादानायो
त्तिष्ठति तथा पिष्यमाणतिलाऽऽदिसस्काः काश्चिन्मक्षिकाः सचिगुपिया भिक्षादानार्यमुत्तिष्ठन्त्या भित्तां दया स्थाने उप
सा अपि हस्ताऽऽदी लगिताः संनयन्ति, ततो भिवादानाय हविशन्त्याश्च गर्भस्य संघट्टनं संवलनं भवति, तस्मात्र
स्ताऽऽदिप्रस्फोटने निकांवाददत्या भिकासंपर्कतलासां विराध. ततो ग्राह्यम् । (बाबाई मंसुदुग त्ति) अत्राऽऽत्वाद् व्यत्या
ना भवति। भिक्षां वा दवा निकाऽवयवस्वरपिटतो हस्ती जोन सेन पदयोजना-बालमिति शिशु मौ,मश्चिकाऽऽदौ वा निक्षिष्य
प्रवालयेत् । ततः पेपणे नदकबीजसंघटना । एवं कएमनदलयदि भिकां ददाति,ाई तंबावं मार्जाराऽऽदयो विमानसारमे.
नयोरपि यथायोगं भावनीयम । तथा-नर्जने निक्षां ददत्या वे. याऽऽदयो मांसेन्दुकाऽऽदि मांसखण्डं शशकशिशुरिति वा कृत्या
लालगनेन कमिल्लक्षिप्तगोधूमाऽऽदीनां दहनं स्यात् । तथा-पिविराधयेत् विनाशयेत । तथा आहारस्वरण्टितौ शुष्की हस्ती
प्रजनं, रुम्जनमादिशब्दाकतनप्रमर्दने वा कुर्वती भिकां दत्वा भवतः,ततो भिकां दत्वा पुनर्दाच्या हस्ताभ्यां गृह्यमाणस्य बा. भिवाऽवयवस्वरण्टितौ दस्तो जोन प्रक्षासयेत, ततस्तत्राप्युदकं लस्य पीडा भवेत,ततो बालवत्सातोऽपि न ग्राह्यम् ॥६१७॥पिं०॥ विनश्यतीति न नतोनिका कल्पते। किच
सम्मति कायव्यग्रहस्ताऽऽदिपञ्चकस्वरूपं गाथाद्वयेनाऽऽहथणगं पिज्जमाणी य, दारगं वा कुमारियं ।
लोणदगअगणिवत्थी, फलाह मच्चाइ सजीय हत्थम्मि । तं निविखवित्तु रोयंतं, आहरे पाणनोयणं ।।४॥ पाएछोगाहण्या, संघट्टण सेसकाएणं ।। ६२१ ॥ स्तनं पाययन्ती, कमित्याह-दारकं वा, कुमारिकाम् । वाशब्द. खएमाणी आरनए, मज्जऍ धोएज्ज सिंचए किंचि । स्थ व्यवहितः संबन्धः । अत एव नपुंसकं वा । तदारकाऽऽदि, छेयविसारणमाई, बिंदहबहे फुरफुरते ।। ६२॥ निक्तिप्य रुद भूम्यादी प्राहरेत् पाननोजनम्। अत्रायं वृद्धसंप्र.
इह सा षटूायव्यग्रहस्ता उच्यते, यस्या हस्ते सजावं लवण. दाय:-" गच्छवासी, जथणजीबी पियंतो णिक्खिलो, तो म
मुदकमनिर्वायुपूरितोवावस्तिः,फत्रादिकं बीजपूराऽऽदिकं म. गिएहति । रोवर वा, मा बा; अह अन्नं पिाहारेइ, तो जति
स्थाऽऽदयोवा विद्यन्ते ततः सायद्येतेषां सजीवनवणाऽऽदीनाम: ण रोव,तो गिगहंति, अह रोवानो न गिपहंति । अह अपियं.
न्यतमादपि श्रमणभिकादानार्थ नुम्यादौ निक्षिप्तः,तहि न करपते। तोणिक्खित्तो थणजीवीरोय,तो ण गिराहंति। अहन रोबति,
तथा-अवगाहना नाम यत्तेषां पम्जीवनिकायानां पादेन संघट्टतो गिएहति । गच्चणिग्गया पुण जाव थणजीवी ताव रोवर
नं शेषकायेन हस्ताऽऽदिना संमर्दनं संघट्टनमारजमाणा॥६२१॥ चा,मा वा, पिवंतश्रीवा, अपिवंतो वाण गिएदंति। जाहे
कुश्यादिना भूम्यादि स्खनन्ती, अनेन पृथिवीकायाऽऽरम्भ उक्तः । मंपिाहारेउं पादत्तो भवति, ताहे जर पिवंतओ, तो रोब.
यद्वा-मजन्ती शुद्धेन जलेन स्नाती। अथवा धावन्ती शुद्धनोदउवा, मा वा,ण गिपहंति । अह अपितओ, तो जर रोवइ, तो
केन वस्त्राणि प्रतालयन्ती। यदि वा-किश्चिद् वृक्तवल्ल्यादि सिपरिहरंति, अरोविए गेएहति । सीसो श्राह-को तत्थ दोसोऽ.
चन्ती,पतेनाप्कायाऽऽरम्भोदर्शितः। पक्षणमेतत् । ज्वन्नयन्ती स्थि? श्रायरिओ भण-तस्स निक्विप्पमाणस्स खरेहिं ह.
वाफकारेण वैश्वानरं वस्त्यादिकं वा सचित्तवातभृतमितस्ततःप्र. त्यहिं घिपमाणस्त अधिरत्तणेण परितावणा दोसा,मज्जाराss. क्षिपन्ती,पतेनाम्निवास्तुसमारम्न उक्तः। तथा शाकाऽऽदे दविदिवा अवहरेज ।" इति सूत्रार्थः ॥४२॥
सारण कुर्वती तत्र दः पुष्पफमाऽदेखण्डनं. विशरणं तेषामेव नं जवे जत्नपाणं तु, संजयाण अकप्पियं ।
खरामानां शोषणायाऽऽतपे मोचनम् । श्रादिशब्दात्तन्मुलमुझाऽऽदितियं पमिप्राइकरखे, न मे कप्पा तारिसं ॥४३॥
दीनां शोधनाऽऽदिपरिग्रहः। तथा-चिन्दन्ती षष्ठान् प्रसकायान्
मत्स्याऽऽदीन् "फुरफुरते' इति पोस्फूर्यमाणान् , पीमयोटेलानितद्भवेद् भक्तपानं स्वनन्तरोदितं संयतानामकल्पिक, यतश्चैव
त्यर्थः । अनेन त्रसकायाऽऽरम्भ उक्तः । इत्थं परजीवनिकायामतो ददती प्रत्याचक्कीत, न मम कल्पते तारशमिति सूत्रार्थः ।
भारभाणाया हस्तान्न कल्पते । ॥४३॥ दश०५ अ०१०।
संप्रति षटूायव्यग्रहस्तेतिपदस्य व्याख्याने मतान्तरमुपदनुजानां मध्नन्ती चाऽश्रित्य दोषानाद
र्शयतिभुंजंती प्रायमणे, उदगं वोमी योगगरिहा य । छक्कायवग्महत्या, केई कोनाइ कन्नलाया। घुसुननी संसत्ते, करम्मिलित्ते बहे रसगा ।। ६१५ ॥ सिद्धत्यगपुप्फाणि य, सिरम्मि दिनाइ बजेति ॥२३॥ नुम्जाना दात्री भिक्कादानार्थमाचमनं करोति, प्राचमने च
केचिदाचार्याः बदायमग्रहस्तेतिवचनतः कोमाऽऽदानि बदगक्रियमाणे नदकं विराध्यते, अथ न करोत्याचमनं, तर्हि लोके
दीनि, धादिशब्दारकरीराऽऽदिपरिग्रहः। (कन्नलम्या इति)कर्ण बोटिरितिकृत्वा गहीं स्यात्। तथा-"घुसुलती" दध्यादि मनन्ती
पिनहानि। तथा सिद्धार्थ कपुष्पाणि शिरसि दत्तानि बर्जयन्ती। यदि तद दभ्यादिससक्तं मध्नाति, तर्हि तेन संसक्तदध्यादिना मिते करे तस्था मिकां ददत्या,तेषां रसजीयानां वधो भवति,
अन्ने भणति दसम वि,एसणदोसेसु अत्यि तग्गहणं । ततस्तस्या अपि हस्तान्न कल्पते ।
तेण न बज भाद, न तु गहणं दायए गहणे ॥२४॥
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(२५.३) दायगदोस अनिधानराजेन्छः।
दारपमियरग मन्ये त्वाचार्यदेशीश भणन्ति । यथा-दशवपि शङ्किताऽऽदिषु यतानामकल्पिकम् । इद च स्थविरकल्पिकानामनिपीदनोएषणादोषघु मध्ये तद्ग्रहणं पायव्यग्रहस्तेत्युपादानमस्ति, स्थानान्यां यथावस्थितया दीयमानं कल्पिकम । जिन कल्पितेन कारणेन लोकाऽऽदियुक्तदेशविवक्षाग्रहणं न बज्र्य, तदेतत्पा- कानां त्वापन्नसत्ववा प्रथमदिचसादारज्य सर्वथा दीयमानमक। पीयो, यत पाह-जायते अत्रोत्तरं दीयते, न तु दायकग्रहणादे. लिएकमेवेति संप्रदायः। यतश्चैवमतो ददती प्रत्याचक्षीतन मन घणादोषमध्ये पटकायव्य ग्रहस्तेत्यस्य ग्रहणं विद्यते, तत्कथमु. कल्पते तादृशमित्येतत्पूर्ववदेवेति सूत्रार्थः॥४३॥ दश०५ ०१ च्यते, न तद्ग्रहणमिति ।
उ० । केचिदायकदोवेषु जीतकल्पानुसारेण निर्विकृतिकं प्रायसम्प्रति ससक्तिमद्रव्यदाध्यादिदोषानाह--
श्चित्तम । जीतप्रव०।आचा उत्साग० धाओघकादश मंसजिमम्मि देमे, संमज्जिमदव्वलितकरमत्ते ।
पश्चा। प्राचा०नि० चू०। स्था०। (नौगतोऽशनाऽदि ददाति संचारायत्ता ओ, उक्खिपने वि ते चेव ।। ६५५॥ इत्यत्र ' गोयरचरिया' शब्दे तृतीयभागे ६६५ पृष्ठे उक्तम् ) ससक्तिमति ससक्तिमअन्यचति, देशे मगमले,संसक्तिमता 5.
दायगमुछ-दायकशु-क-त्रिकादायकः शुको यत्राऽऽशंसाऽऽदिव्येण प्रिप्तः करा मात्र वा यस्याः सा तथाविधा दात्री भिकांद- | दोषरहितत्वात्। दायकदोषरहिते, भ०१५ श० । दायकशुद्ध दती करविलनान् सत्वान् हन्ति,तस्मात्सायज्यते। तथा-महतः। तु यत्र दाता ऑदायोंदिगुणान्वितः। विपा० १०१.। पिपराऽऽदेरपवर्तने संचारः, सूचनासमिति संचारिमकीटिका-दाया-दापन-न । यधा गृहीतनक्तपानयोनिवेदने, प्रश्न मत्कोटाऽऽदिसायव्याघातः । इदमुक्त भवति-महत पिठरं यदा १संव० द्वार। तदा वानोत्पाट्यते, नापि यथा तथा वा संचायते, महादेव, दायणा-दापना-स्त्री०पृच्छाप्रतिपृष्ठम्यास्य व्याख्याने,“दाय. किंतु प्रयोजनविशेषोत्पत्ता सकृत, ततस्तदाश्रित्य प्रायः कीटि
णा तयत्थस्स वक्त्राणं।"(२६३२) विशे० प्रा०म० प्रा०चू। काऽऽदयः सस्वाः सनवन्ति । ततो यदा तत्पितराऽदिकमुख्य किञ्चिददाति तदा तदाश्रितजन्तुपापादः। एते च दोषाउत्पाट्य
दायन-दातव्य-त्रि. । दातुं योग्य, आचा०२ श्रु. १०१
अ०२ उ.। मानेऽपि मत पिउराऽऽदौ, तत्रापि हि भूयो निवेपणे हस्त. सम्पर्शतो वा संचारिमकीटिकाऽऽदिसत्यव्याघातः । अपि च. दायाद-दायाद-पुं० । दायं विभजनीयधनमादते । श्रा-दा-कः। तथाजूतस्य महत उत्पाटने दाध्याः पीडाऽपि भवति, तस्मान्न पुत्रे, सपिएमे, बाच.। पितृपिएमोदकदानयोग्ये, प्राचा. १ तमुत्पाटनेऽपि भिक्का कल्पते ।
श्रु. २ ० ३ उ०। सम्पति साधारण चोरितं वा ददस्या दोषानाह- दायार-दायार-पुं० । दायाय दानार्थमिति मागच्छन्तीति साधारणं बहूणं, तस्य न दोसा जहव अणिमहे ।।
दायाराः। याचके, कल्प० १ अधि०५क्षण। चोरियए गहणाई, भयए सुण्डाइ वा देंते ॥ ६२६ ॥
दार-दार-पुं० । वद. । दारयन्ति विदारयन्ति पुरुषस्यान्त. बहूनां साधारणं यदि ददाति, तर्हि तत्र यथा प्राक् अनिसृष्टे
रजगुणानिति दारापातुलादारयन्ति भ्रातृस्नेहम, ह-णिच, दोषा उक्तास्तथैव एव्याः। तथा चौर्येण नृतककर्मकरे स्नुषा
श्रप । पन्याम, सा दिपायुः भ्रातृम्नेदं भिनतीति लोकप्रसि. उदो वा ददति प्रणाऽऽदयो ग्रहणबन्धनतामनाऽऽदयो
रूम । बाब० । कलत्रे, प्रव० ६कार । श्रा० चू।। भावः । दोपा द्रष्टव्याः, तस्मात्ततोऽपि न कल्पते। पि.
स्त्रियाम् , उत्त० २१ अ.। विशेषमाहगुन्निपीए उवमत्य, विविहं पाणभोय।
द्वार-न । प्रासादभवनदेवकुलाउदीनां (रा०) प्रवेशभुंजमाणं विवजिजा, जनसेसं पमिच्छप ॥३॥
मुखे, विशे०। प्रव०।भ। दश प्रशासनि० चू। अनुरा गुर्विण्या गर्भवल्या उपन्यस्तमुपकल्पितम् । किं तदित्याद
(विजयादीनां जम्बूद्वीपहाराणां वक्तव्यता 'जंबूदीय' शब्दे. विविधमनेकप्रकारं, पानभोजम काक्षापानखण्डखाद्यकाऽऽदि ।
ऽस्मिनेव भागे १३७२ पृष्ठे उता)(मर्याविमानद्वारवक्तव्य
ता 'सुरियाज' शब्दे एव्या) गृहाऽऽदिनिर्गमस्थाने, प्रतीहारे, तत्र नज्यमानं तया विवज्यममा मृत्तस्यापत्येनाऽभिलाषानिवृत्या गर्भपतनाऽऽदिदोष इति । नुक्तशेषं नुक्तोधरित, प्रती
उपाये, मुखे च । वाच०। कटिसूत्रे, देना०५ वर्ग ३८ गाथा। चेत, यत्र तस्या निवृत्तोऽभिलाष इति सूत्रार्थः ॥ ३६॥
दारग-दारक-पु.। रणाति भिनत्ति उदरं ह. एस् । बाच.।
बालके, व्य०२उ० । दश रा. प्रा.क. । सूत्र । झा०। सिया य समणटाए, गुठिवणी कालमामिणी।
प्रा० म० । डिम्भदारककुमारकाणामल्पबहुबहुतरकाल कृतो
विशेषः । ज्ञा० १७०२ अ० । बालिकायाम् , स्त्री० । टाप् । अत जहिया वा निसीएजा, निस्सन्ना वा पुग्णुहए ॥४०॥
इस्थम । वाच । श्रा० म. प्रश्न । अन्तः। श्राचा । दके, स्थाच्च कदाचिच्च,श्रमणार्थ साधुनिमित्तं, गुर्विणी पूर्वोक्ता,
ग्रामशूकरे, पुं० । चाच.। कालमासवती गर्भाधानानवममासवतीत्यर्थः । उत्थिता वा
दारनक्खिप्पी-द्वारयतिणी-खी। द्वारस्थायां यकिरायाम् । यथाकञ्चिनिधीदेनिषा-ददामीति साधुनिमित्तम । निषमा घा स्वव्यापारेण पुनरुत्तिष्ठत-ददामीति साधुनिमित्तमेवेति
आव०४ अ०। सूत्रार्थः ॥ ४०॥
दारट्ठ-द्वारस्थ-पु. । द्वारपाले, वृ०१ उ० । तं जवे भत्तपाणं तु, संजयाण अकप्पियं ।
दारचंता-स्त्री०। देशी--पेटायाम, दे. ना० ५ वर्ग ३८ गाथा! हिनियं पमिप्राइवखे, न मे कप्पइ तारिसं ॥४१॥ दारपमियरग-हारप्रतिचरक-पु.। अभ्यन्तरमूसस्थायिनि, पू तद्भवेद् भक्तपानं तु, तथा निषीदनोत्थानाच्यां दीयमानं सं| ०७१ द्वार ।
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(१५) दार्षिम अनिधानराजेन्द्रः।
दावरजस्म दारपिंड-द्वारपिएह-पुं० । द्वारशाखायाम्, जे. १ वक्त । जी भयानकरसे, ब्राच । रौत्र । झा० १ ०२ भ० प्र । दारपिहाण-द्वारपिधान-नाद्वारकपारस्थगने, (तत्रद्वार-|
दारयन्ति मन्दसरवानां संयमविषयां धृतिमिति दारुणाः ।
भाषायाम्, स्त्री०। उत्त०२०। भयानके, सूत्र० १६०२ पिपाने दोषाः । कारणे तत्कर्तव्यता च 'बस' शब्दे वक्ष्यते)।
अ०२२० । असो, आचा० १ श्रु०४० ४००। भयावडे, पो पिहे ण यावपंगुणे,
दुःसहे, भीषणे, भयहेतौ च । वाच० । दारं मुमघरस्स संजए।
दारुणनाव-दारुणभाव-पुं०। रौद्राभ्यवसाये, पृ० ३ उ.। पुढे ण उदाहरे वायं,
दारुणमति-दारुणमति-स्त्री०रोधमती, प्रश्न० १ भाद्वार। ण समुच्छे णो संथरे तणं ॥१३॥ केनचिन्छयनाऽऽदिनिमित्तेन शून्यं गृहमाश्रितो भितः, तस्य |
दारुणविवाग-दारुणविपाक-पुं०। नरकाऽऽदिदुःखकारणत्वेन गृहस्य द्वारं कपाटाऽऽदिना न पिदधीत न स्थगयेनापि तचा.
घोरोदये, पञ्चा० ८ धिवः । रौषफरे, पञ्चा० १५ विव० । ती. बयेत । यावत् (ण यावपंगुणे सि) नोद्घाटयेत्, तत्रस्थोऽन्यत्र
व्रविपाके कर्मणि, पो. १ विव०। घा केनचिमादिकं मार्ग वा पृष्टः सन् सावधां वाचं नोदाह- | दारुपासहाव-दारुणस्वभाव-त्रि० । दारुणः क्रोधान्वितः स्वजा. रेद नयात् । माभिमहिको जिनकस्पिकाऽऽदिनिरवद्यामपि न वो यस्याऽसौ दारुणस्वभावः। क्रोधान्वितस्वनांचे, व्य०१ उ01 चूगात्। तथा न समुच्छिन्द्यात तृणानि कचवरं च प्रमार्जनेन ना
| दारुदंम्य-दारुदएमक-न । रजोहरणस्य काष्ठमयेऽल्पदण्डे, पनयेत, नापि शयनार्थी कश्चिदाभिप्राहिकस्तृणाऽऽदिकं संस्त.
यत्र दारुमयस्य दरमस्याग्रभागे कर्णिका दशिका वध्यन्ते तदा रेत्, तृणैरपि संस्तारकं न कुर्यात, किं पुनः कम्बलाऽऽदिनाऽन्यो
रुदण्मकम् । वृ०५ उ०। षा शुषिरतुणं न संस्तरेदिति ॥१३॥ सूत्र०१ श्रु.२ ० २७०।
दारुपचय-दारुपर्वत-पुं० । दारुनिर्मापित इष पर्वतविशेष, दारवाल-द्वारपाल-पु. । हाररतके, मा० म०१ म०१ सएम।
| जी० ३ प्रति.४ उ० । रा। दारविलजोग-द्वारविझयोग-पुं० । स्थगने, पं० व• द्वार। दारुपाय-दारुपात्र-न० । काष्ठमये पात्रे, स्था० ३ ठा० ३.। दारमंतनेय-दारमन्त्रभेद-पुंगदाराणांकलत्राणामुपलक्षणत्वा. प्राचाo1 मित्राऽऽदीनां च मन्त्रो मन्त्रणं तस्य नेदः प्रकाशनं दारमन्त्र- | दारुय-दारुक-पुं०। वसुदेवस्य धारिपयां जाते स्वनामख्याते पु. भेवः । खदारसन्तोषस्य द्वितीयव्रतस्य तृतीयेऽतिचारभेदे, प्र. त्रे, तद्वक्तव्यता गजसुकुमारस्येव । मन्त०२ ७० ३ वर्ग १ अ.। धामस्य चानुवादरूपत्वेन सत्यत्वाद् यद्यपि नातिचारत्वं घटते, तथाऽपि विश्रधभाषितार्थप्रकटनजनित लज्जाऽऽदितः
दारुसंकम-दारुसंक्रम-पुं० । जले सेत्वादिकरणे, स्थले गालकल त्रमित्राऽऽदेमरणाऽऽदिसंभवेन परमार्थतोऽस्यासत्यत्वात्
नादिके च । भाचा. १९०५ ० १ उ० । कथचिद्भारूपत्वेनातिचारतैव । रहस्यदक्षणे दि रहस्यमाका. दालण-दारुण-न । विदारणे, प्रश्न०१ भाश्र द्वार । राऽऽदिना विज्ञायानधिकृत पव प्रकाशयति, व तु मन्त्रयितैव दालि-दालि-स्त्री० । मुहाऽऽदिद्विदले, प्रव० ३८ द्वार । स्वयं मन्त्र भिनत्तीत्यनयो दः। प्रथ. ६ द्वार।
उत्त० । ध०। दारावती-द्वारावती-स्त्री० । सौराष्ट्रदेशप्रतिषमायां राजधान्या- दालिअ-देशी-चक्षुषि, दे० ना०५ वर्ग ३८ गाथा । म्, प्रज्ञा० १ पद।
दालिद-दारिक-न। "हरिद्राऽदौलः"॥७।११२५४॥ ति दारिश्रा-देशी-वेश्यायाम् दे. ना० ५ वर्ग ३० गाथा।
असंयुक्तस्य रस्य लः । 'दालिहं।' धनराहित्ये, प्रा० १ पाद । दारु-दारु-म० | काठे, सूत्र० १ ०२५. ३ उ० । स्था० ।।
दालियंत्र-दालिकाम्न-नादाल्या मुझाऽऽदिमस्या निष्पादिते. शा० । नि• चू।
उम्ले, उपा० १ ० दाग-दारुक-पुं० । वासुदेवस्य धारिण्यां देव्यामुत्पने पुत्रे, सदानिमरसिय-दामिमरासिक-त्रि० । दामिमरससंसृष्टे, विपा०
चारिटनेमेरन्तिके प्रवज्य सिद्ध इत्यन्तकृशानां तृतीयवर्गस्य | १५०००। द्वादशेऽध्ययने चितम् । अन्त०३ बर्ग १०। दारुकोऽनगा. रो वासुदेवस्य पुत्रो नगवतोरिष्टनेमिनाथस्य शिष्योऽनुत्तरी-दा
दाव-दाव-पुं० । दवानले, भाव०४०। पपातिकोक्तचरित इति । स्था० ना० । कृष्णसारीवादावग्गि-दावाग्नि-पुं० ।'दबगि' शब्दार्थे, जी। झा० १ श्रु०१६ अ० दारु-स्वाथे कन । देवदारुवृक्के, पाच ।। दाबद्दव-दावधव-पुं० । समुन्नटवृत्तविशेषे, शा. १ धु. १ काष्ठे, न । भाचा.२७.५चू०३० प्रा० म०प्रावन । स०। प्रश्न । श्राव. श्रा० चू।( 'श्राराहग' शब्दे उत्त।
द्वितीयभागे ३७७ पृष्ठेऽस्थ वक्तव्यता) दारुघर-दारुगृह-न० करपत्रस्फाटितदारुफलकमये गहे. व्य.
दावर-द्वापर-न । यदा प्रत्येकस्यापि प्रधमो भलो न प्राप्यते ४ उ०।
तदा द्वापर इति। समयपरिभाषया द्वितीये, वृ० १ उ० । दारुण-दारुण-पुं० । '' भये उनत्। दारयति विदारयति चि. दावरजुम्म-द्वापरयुग्म-न । द्वान्यामादित एव कृतयुग्माद्वोपतमिति दारुणः। चित्तके, वाचकादारयन्ति जनमनांसि इति रिवर्तिभ्यां यदपरं युग्म कृतयुग्मादन्यत्तन्निपातनविधेद्वापरयुदारुणाः । चिलपिताऽऽकन्दिताऽऽदिषु, मुत्तक ६ अरोरसे, मे, ना "जेणं रासीच उकएणं अवहारेणं अवहीरमाणे प्र.
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(२५०५) दावरजुम्म प्रनिधानराजेन्द्रः।
दिन वहीरमाणे दुपज्जवसिए । से तं दावजुम्मे ।" भ० १८ श.४दाहिण-दक्षिण-त्रि.।"दुःखदैकिणतीर्थे वा" श७॥ उ०। द्विपयसिते राशौ च । स्था०४ मा ३०। सूत्र०। । पषु संयुक्तस्य हः । 'दाहिणो । दक्षिणो।' प्रा.२पाद । भ. दावापल-दावानन्न-पुं० । वनहुताशने, श्राव० ४ अ०। वामभागस्थे, वाचासु० प्र० । भाचा। दावारय-नुदकवारक-न । जलपात्रे, ज० १५ श.। दाहिणगामुय-दक्षिणगामुक-पु.। दकिणस्यां दिशि गमनशी. दास-दास-पुंगूहदास्याः सजाते,पुर्भिकाऽऽदिश्वाऽऽदिना
ले, सूत्र. २ श्रु०२०। वा क्रीते,ऋणाऽदिव्यतिरेके वा अवरुद्ध,ग०१ अधि० ।।
दाहिणभरह-दक्षिणाईजरत-पु. । भरतक्त्रस्य दक्षिणा, दाला दासीपुत्राऽऽदयः । स्था० ३०१ उ.। सूत्र।जी।
कल्प० १ कण। वृ०। भृतकविशेज्ञा० १ ० २ ०। चेटके, औ• प्रश्न०। दाहिणजरहकम-दक्षिणाईजरतकृट-न । दक्विणार्द्धजरतरा। पं० भा० । पं० चू०।
नाम्नो देवस्याऽऽवासभूते कृटे, जं० १ वक। राने कीते अणए, मुब्लिक्खे सावराहरुले वा । दाहिणमाणुस्मखेत-दक्षिणाईमनुष्यक्षेत्र-पुं० दक्षिणामसमणाण व समणीण व, न करपती वारिसे दिक्खा ॥३८॥ नुष्यकेत्रनवेषु, " दाहिणहमाणुस्सखेतारणं बादि चंदा पप्रा.
गन्ने ति ओगालिदासो, किणित्ता दासी कतो, रिणं अदेतो | सिसुवा, पन्नासंति वा, पभाविरसंति चा, गवष्टुिं सूरिया तदासत्तणेण पश्ठो, दुभिक्खे ठाति दासत्तणेण पइठो, किमवि विसु वा, तवंति धा, तविस्संति वा ।" स० ६५ सम। कारणे अवराधा दंड अदितो रमा दासो कतो.वंदिगो णिरुद्धो
|दाहिणलोगाहिबई-दक्षिणासोकाधिपति-पुं० । लोकल्या. दविणं अदेतो दासो कतो । एते दिखेतुं ण कप्पति । निः |
कम लोको दक्विणो योऽर्कलोको दक्षिणाईलौकस्तस्य योऽ. चू० ११ १०।
धिपतिः। तस्मिन्, उपा० २७०। कल्प० । दासचेडन-दासचेटक-पुं० । दासस्य भृतकविशेषस्य चेटफः
| दाहिणत-दक्षिणत्व-न। सरलत्वे, स. ३५ समः। कुमारकः दासचेटकः । अथवा-दासचासौ चेटकश्चेति दासचेटकः। दासकुमारे, का० १७०२०।
दाहिणदारिय-दक्षिद्वारिक-न। दक्षिणं द्वारं येषामस्तिता. दासत्त-दासत्व-न०। गृहदासीपुत्रतायाम्, भ०१२२.७ उ० नि दक्षिणद्वारिकाणि । अश्विन्यादिषु सतनक्षत्रेषु,स्था०७वा.।
दक्षिणदिशि येषु गतः शुनं नवति । स० ७ सम० । दासपोरुस-दासपौरुष-न । चेटकचेटीपतिप्रमुखाऽऽदिके, उ
दाहिणपञ्चच्छिमा-दक्षिणपश्चिमा-स्त्री० । नैऋत्यकोणे, रा.। स०३०। दासरहि-दासाथि-पुं० । दशरथापत्ये, “तेयाजुगे व दास
स्था। रही रामो मीयालक्ख संजुओ पिचप्राणाप वनवासं गओ।" |
दाहिणाभुय-दक्किएभुज-पुं० दविणहस्ते, रा० । सू० प्र.। सी०२५ कल्प।
दाहिणवाय-दक्षिणवात-पुं०। दक्षिणस्याः दिशः समागमति दासवाय-दामवाद-पुं०। दासोज्यमाचार्य इति वायाम, | चाते, प्रका०११द । स्था० । स्था०६ वा०।
दाहिणा-दक्षिणा-स्त्री० । दक्षिणस्यां दिशि, स्था०६०। दासी-दासी-स्त्री० । चेटिकायाम, प्रश्न २ श्राश्र० हार ।।
दाहिणायण-दक्षिणायन-पुं०। २० । रयः कर्कसंक्रमादमन्तरं बी0 100 । दास्यो घटयोषितः सर्वापसदाः, ताभिरपि सद| षण्मासात्मके समये, सू० प्र०१० पाहु०।। सम्पर्क परिहरेत् । सूत्र.१ श्रु०४ मा १००।
दाहिणावत्त-दक्षिणाऽऽवत-पु.। अनुकूलप्रवृत्तावाचते,स्था. दासीखव्यमिया-दामीकटिका-स्त्री० । स्थविरानोदासानि ४०२०।
गतस्प गोदासगणस्थ चतुर्थशाखायाम, कल्प.८क्षण | दाहिणिन-दाक्षिणात्य-त्रि० । दकिणदिग्भवमात्रे, स्था०४ दासीचार-दासीचौर-पुं०। चेटीचौरे, प्रश्न० ३ आध० द्वार । | ठा०२ उ० । प्रसा। दाद-दाह-पु.।" हो घोऽनुस्वारात"।।१।२६४ ॥ इति समानतीया।"भेदि०-101३॥३६॥ इत्यादिना स्वया इत्य. सूत्र क्वचिदननुस्वारादिति वचनादु हस्य घः। 'दाहो । दाघो।' | यमधानेन इत्यादेशः । प्रा०३ पाद । मा०१पाद । बाह्ये संतापे, प्रा० म०१०२खएम। प्रस्मी-
नादिजायते जन-मः। वृत्ती संख्याया वाराधत्व करणे, निवृ० १ उ. रोगजेदे, जी. ३ प्रति. ४०० ।
म्। वाच० "सर्वत्र सवरामचन्द्रे"॥८1। ७६ ॥ इति विपा ज्ञा० । आ. म. । "महोत्था चिजलो दाहो,
संयुक्तस्याधः स्थितस्य वकारस्य लुक । द्विजः । दिओ।प्रा. सधगत्तेसु पस्थिवा!" (१५) २०२० अ० । गात्र
२पाद । “द्विन्योरुत्" ॥८।१।९४॥ इति सूत्रे क्वचिति सन्तापे च । वाच।
वचनाद्न उत्वम । दियो । प्रा० १पाद । ब्राह्मणे, मानदाहवकंतिय-दाहव्युत्क्रान्तिक-त्रि० । दाहो व्युत्क्रान्त उत्पन्न
णाऽऽदिवर्ण त्रये, "जन्मना जायते शूधः.संस्कार द्विज अच्यते।" वस्याऽसौ दाहव्युत्कान्तः, स एव दाहव्युत्क्रान्तिकः । दाहोत्प. | दन्ते, अएमजे विदगाऽऽदी, तुम्बुरुवृके च। चाच.. तो, भ०६ श०३३ उ०।का।
दिप-पुं० । द्वाज्यां मुखशुण्डाच्यां पिबति ।पा-काहस्तिनि, दाहा-दाहा-स्त्री०। प्रहरणविशेष, ज्ञा० १७० १० प्र.। | वाच ।
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(२५०६) दिअंबर भाभिधानराजेन्धः ।
दिक्खा दिअंबर-दिगम्बर-पुं० । शिवे, नग्ने, आईतभेदे, वाय० । सा- का प्रतरूपा, बसन्तनृपसन्निभा विमम्बनाप्राया चैत्रमासप. धुभेदे, प्रा० म.ही। माचा० ।
रिहासकृतराजसन्निना मुख्यनृपदीकावत्कार्याकरणेन केया दिअंबरदसण-दिगम्बरदर्शन-न० । दिगम्बराणां शाखे, प्रा.
ज्ञातव्या १॥ म० १ ०१खएम।
अधुना दीकाया निरुक्तमुपदर्शयन् शामिन एव तां नियमदिक-देशी-सुवर्णकारे, दे० ना०५ वर्ग ३६ गाथा।
यत्राहदिअधुत्त-देशी-काके, दे० नार्ग ४१ गाथा ।
श्रेयोदानादशिव-कपणाच्च सतां मतहदीतति । दिअर-देवर-पुं०देव अरच् । "एत वा वेदना-चपेटा-देवर- सा झानिनो नियोगाद, यथोदितस्यैव साध्वीति ॥२॥ केसरे" ॥८।१।१४६॥ इति एत श्त्वम् । 'दिअरो। देवरो।' भेयोदानाच्यः सुन्दरं तस्य दानं वितरणं तस्मात्, अप्रा०१पाद । पत्युः कनिष्टभ्रातीर, वाच ।
शिवं प्रत्यवायस्तरक्षपणाच तन्निरसनाच, सतां मुनीनां मतादिग्रनि-देशी-मूख, देना०५ वर्ग ३६ गाथा।
उनिप्रेता, वह प्रवचने, दीक्केति प्रागुक्ता। इत्येवमनया निरुतमदिअसिन-देशी-सदाभोजने, अनुदिने च । दे० ना० ५ वर्ग क्रियया, सादीका, शानिनो ज्ञातवतो, नियोगाग्नियोगेन, यथो४० गाथा।
दितस्यैवाधिकारिण पब, साध्वीति निरवद्या धर्तते ॥२॥ दिग्रह-दिवस-पुं० । दीव्यत्यत्र दिव-असच् किश्च । षष्टिद- ननु च यदि ज्ञानिन एव नियमेन साध्वी दीका, ततः कर्थ एमाऽऽत्मके समये, "दिअहा जति झडप्पमहि, पमहिमणो. पूर्वोक्तज्ञानत्रयविकलानां माषतुषप्रनतीनां समये सा श्रेयसी रह पच्छि ।"प्रा.४पाद।
श्रूयत इत्याशझकयाऽऽहदिअहम-दिवस-पुं० । षष्टिदएमाऽऽत्मके समये, "जे मह दिम्मा यो निरनुबन्धदोपा-च्छाच्छोऽनाजोगवान् जिननीरुः। दिभहडा, दश्य पवसंतेण । तागण गणतिएँ अङ्गलिउ, जजरि- गुरुजक्तो ग्रहरहितः, सोऽपि शान्येव तत्फलतः ॥ ३ ॥ श्रा उनहेण ।। "प्रा०४पाद। प्रवसता चलता दयितेन ये मम |
य एवंविधो निरनुबन्धदोषाच्वाद्धः । निरनुबन्धो व्यवच्छिन्न. दिवसा दत्तामतान् गणयन्त्या ममाहुल्यो नखेन अजरिताः । सन्तानो दोषो रागाऽदिनिरनुबन्धश्चासौ दोषश्च तस्माच्चा. प्रा० ९०४ पाद ।
द्धः श्रद्धावान् । यस्तु सानुबन्धदोषानिरूपक्रमक्लिएकर्मक्षक" नामीष्टिमितस्तत्र, सावनो दिवसः स्मृतः।
णात कथञ्चिच्याद्धो भवति, सनेह पृश्यते । अनाभोगवान् - त्रिंशद्भागोऽर्कराशेस्तु, दिवसः सौर उच्यते ॥१॥
नाभोगोऽपरिकानमात्रमेव केवलं प्रन्यार्थाऽऽदिषु सूक्ष्मबुद्धिचानस्तु तिथ्यवच्छिन्नो, भौमो तपरिधर्मतः। "
गम्येषु स विद्यते यस्य स तथा वृजिनं पापं तस्माफीपुंजि इत्युक्तषु सावनाऽऽदिषु दिनेषु च । वाच । " जमरा पत्थु नभीरुः संसारविरक्तत्वेन । गुरवः पूज्यास्तेषु भक्तो गुरुबहुमा. बिनम्बडा, केवि दिअहमा विक्षस्बु ।" प्रा० ४ पाद । नात् । ग्रह श्राग्रहो मिध्याऽनिनिवेशस्तेन रहितो प्रहरहितो. दिमहत्त-देशी-पूर्व भोजने, दे० ना० ५ वर्ग ४० गाधा। ऽनेन सम्यग्दर्शनवरयमस्याऽऽवेदयति, सोअप य एवमुक्तधिशेदिग्राहम-देशी-भासपक्किणि, दे० ना०५ वर्ग ३६ गाथा। पणवान, ज्ञान्येव ज्ञानवानेव । तत्फलतो ज्ञानफलसंपषस्येन,
बानस्याऽपि ह्येतदेव फवं समारविरक्तत्वगुरुनकत्वाऽऽदि, दिइ-दृति-स्त्री०।-तिन् । जलाधारे चर्ममये भाजने, का०
तदस्याऽपि विद्यत इति कृत्वा ॥ ३ ॥ १६० १८०। अनु।
कथं पुनशानफलं माषतुषाऽऽदेगुरुबहुमानमात्रेण तथाविध. दिपा-दृतिका-स्त्री० । चर्मनिर्मितोदकपात्रे, मत्स्यमदेच।।
कानयिकलस्य सन्मार्गगमनाऽऽदीत्याशक्याऽऽदवाचा अनु।
चकुष्मानेका स्या-दन्धोऽन्यस्तन्मतानुत्तिपरः । दिकाण-जेष्काण-०। मेघाऽऽदीनां लमानां दशांशाऽऽत्मके विनवे, " कृणदिकाणलोगेसुं, उत्तमहं तु कारए । पवं
गन्तारो गन्तव्यं, प्राप्त एतौ युगपदेव ॥ बग्गाणि जाणिजे, दिक्काणेसु ण संसओ ॥१॥" २.५०।। चक्षुरमलमनुपहतं विद्यते यस्य स चक्षुष्मानेकः कश्चित स्यादिक्खकाल-दीक्षाका-पुं० । योगकाले, मा0 म.१०२ द्भवेत्पुरुषो मार्गगमनप्रवृत्तः, अन्धो धिधिकलोऽन्यस्तापर, खण्ड।
केवलं मार्गानुसारितया विशिष्टविवेकसंपन्नत्येन च। सम्मतादिक्वभाव-दीकाभाव-पुं० प्रवज्याया भावे, पञ्चा०१८विधा नुवृत्तिपरस्तस्य चक्षुष्मतो मतमभिप्रायो वचनं या तम्मनं तदा
नुवृत्तिपरस्तदनुवर्तनप्रधानःशेषानुमतवचनपरित्यागेन। पता दिक्खा-दीक्षा-स्त्री० । दीक्षणं दीक्षा। प्रवज्यायाम, भोघ०।।
द्वावपि चक्षुष्मरसदन्धी गन्तारी गमनशीलाबनवरत प्रयाणकस्था०।
वृया गन्तव्यं विवकितनगराऽऽदि। प्राप्नुत पती युगपदेवैककासाम्प्रतं ज्ञानत्रयभावाभावयोदीका अधिकारित्वानधिकारि.
समेवा दरमुक्तं भवति-चक्षुष्मान पुरस्ताद् वजस्यम्धस्तु पृष्ठतः, स्वप्रतिपादनायाऽऽ
पवमनयोजतोरेकपदन्यास एवान्तरं नापरं महत, यदि वा. अस्मिन् मति दीवाया, अधिकारी तवतो भवति सवा
तदपि समानपदन्यासयोः साहित्येन चाहुलग्नयोजतो स्ती. इतरस्य पुनर्दीक्षा, वसन्तनृपसन्निना झेया ॥१॥ स्येवमेककालाप्राप्तव्य नगराउदिस्थानप्राप्तद्वंयोरपीति । यथेअस्मिन् ज्ञानत्रये, सति विद्यमाने, दीकाया विरतिरूपाया,
धमेतयोर्नान्तरं तथा गुरुमापतुपकल्पशिष्ययोहान्यज्ञानिनः भधिकारी अधिकारवान, शास्त्रनयोदितत्वेन स्वतः परमा- फलं प्रति सम्मागंगमनप्रवृत्तयोर्मार्गपर्यन्तप्राप्त मुक्त्यवस्थायां घेतो भवति, सप्वः पुमान्, तिरस्याऽनधिकारिणः, पुनी- नकिश्चिदन्तरमिति गभीर्थ ॥४॥
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(२५०७) दिक्खा अभिधानराजेन्डः।
दिक्खा एवं समानफलत्वं ज्ञान्यज्ञानिनो प्रतिपाद्य दीवाऽईत्वं विशे- | | कीर्तिः श्लाघा, आरोग्यं नीरुजवं, प्राक्तनसहजौरपातिकरोपज्ञानासमन्वितस्यापि दर्शयति
गधिरहेण, धूपं स्थैर्य भावप्राधान्यान्निईशस्य । पदं स्थान विपस्यास्ति सत्क्रियाया-मित्वं सामर्थ्ययोग्यताऽविकला । शिष्टपुरुषावस्थारूपमाचार्यत्वादि। कीर्तिश्चारोग्यं च ध्रुवं च
पदं च फीर्यारोग्यध्रुवपदानि, तेषां संप्राप्तिर पूर्ववानः, तस्या गुरुनावप्रतिबन्धाद, दीक्षोचित एव सोऽपि किक्ष ॥५॥
अप्राप्तिपूर्विकायाः प्राप्तः सूचकानि गमकानि नियमेनावश्यंतपस्य विशिपज्ञानरहितस्याप्यस्ति विद्यते सत्क्रियायां सदा
या, नामस्थापनाद्रव्यभावरूपाण्याचार्याः पूज्या वदन्ति हुन चारे,इत्थमनेन प्रकारेण,सामर्थ्य योग्यता सामयन समानफल.
ते । तत्तस्मातेपु नामाऽऽदिषु यतितव्यं यत्नो विधेयः। यह चेदं साधकत्वकोण योग्यताऽविकला परिपूर्णा, गुरुषु धर्माऽऽचार्या
तात्पर्यमवलेयम-अन्बर्थनाम्नो हि कीर्तनमात्रादेव शब्दार्थप्र. ऽऽदिषु भावप्रतिबन्धाद् भावतःप्रतिबद्धत्वेन हेतुना दोकोचित तिपत्तर्विदुषां प्राकृतजनस्य च मनःप्रसादात्कोतिराविवति । एव दीक्षायोग्य एव प्रस्तुतः,किलेत्याप्ताऽऽगमवादः,यतः संसा
यथा सुधर्मभद्रबाहुस्वामिप्रभृतीनामुत्तमपुरुषाणं प्रवचने की. रविरक्त एवास्या अधिकारी शेषगुणवैकल्येऽपायुक्तम् ॥५॥
तिरुदपादि । स्थापनाऽप्याकारवती रजोहरणमुखवत्रिकाऽऽदि. इदानी दीवायाः समानफनतया देयत्वमभिदधानो विषमफ
धारणद्वारेण भावगर्भप्रवृत्या आरोग्यमुपजनयति, द्रव्यमप्याचा. लस्य चाऽदेयत्वमुपदर्शयन्निदमाह
राऽऽदिश्रुतं सकलसाधुक्रिया चाभ्यस्यमाना, व्रतस्थैयोपपत्तये देयाऽस्मै विधिपूर्व, सम्यक्तन्त्रानुसारती दीक्षा ।।
प्रभवति,जावोऽपि सम्यग्दर्शनाऽऽदिरूपः पूर्वोक्तपदावाप्तये संप. निर्वाणबीजमेपे-त्यनिष्टफलदाऽन्यथाऽत्यन्तम् ॥ ६॥ द्यते । न दिविशिनावमन्तरेणाऽऽगमोक्तविशिष्टपदावामिनीव. ইহা বানান যাত্যায় বিধি বিধান ব্যাব- तो भवति । अथवा सामान्य नैव कारोग्यमोक्षसंप्राप्तेः सू. रोयेन तन्त्रानुसारतः शास्त्रानुसारतो दीका व्रतरूपा निर्वाण- चकानि सर्वाण्येव नामाऽऽदनिति ॥९॥ म्य बीज मोक्वसुखयोहेतुत्वेन । एपेति दीवैषाऽनिष्टफलदा फिमिति दीकाप्रस्तावे नामाऽऽदिषु यतितव्यमित्याशविपर्ययफला संसारफलाऽन्यथाऽयोग्याय दीयमानाऽत्यन्तमा
चाऽऽहतिशयेनेति ॥६॥
तत्संस्कारादेपा, दीक्षा संपद्यते महापुंसः। __ का पुनरियं दी केल्याह
पापविषापगमात् खलु, सम्यग्गुरुधारणायोगात् ।।१०॥ देशसमयाऽऽरुपेयं, विरतिन्यांसोऽत्र तद्वति च सम्यक् ।
तत्संस्कारानामाऽऽदिसंस्कादादेषा द्विविधा दोका व्रतरूपा संपतन्नामाऽऽदिस्थापन-यविद्रुतं स्वगुरुयोजनतः ॥७॥
द्यते संनयति महापुंसो महापुरुषस्य, न ह्यमहापुरुषा बनधारि. देशाऽऽख्या,समग्राऽऽख्या चेयं दीका विरतिरुच्यते,देशविरति । जो भवन्ति । पापं विषमित्र पापविणं, तस्यापगमात खल्वपगटीका, मर्यविरतिदीका नेत्यर्थः । न्यासो निकेशेऽत्र दीक्षायां मादेव, पापविषयो पगमात् । विषापहारिणी हीति केषावतन्यास इत्यर्थः । सा विद्यते यस्य तद्वांस्तस्मिस्तद्वति च
श्चित् प्रसिद्धिस्तदनुरोधादिदमुकम् । पापविषापगमादेव दीकेपुरुधे देशदीकावति सर्वदी कानति च सम्यग् समीचीनं संग.
ति सम्यगपरीत्येन गुरुश्च धारणा च गुरुधारणे, ताभ्यां योगः तम् । तन्नामाऽऽविस्थापनं तेषां प्रवचनासिकानां नामाऽऽदीनां संबन्धस्तस्मादू गुरुधारणायोगात् । गुरुयोगात्पापापगमो, चतुध स्थापनमारोपणमचिद्रुतं पडवरहितमनुपप्लवमिति धारणायोगादेव विषापगम इति ॥ १०॥ यावत् । कथं तन्नामादिस्थापनम् । स्वगुरुयोजनतः स्थगुरु
दीक्षा सम्पद्यने महापुंस इत्युक्तं तत्समासौ सर्ववि. निरात्मीय पूज्ययोजनं संबन्धनमोचिंत्येन यत्र तत्रामादीनां
रतस्य यद्भवति तदाहततः सकाशात ॥७॥
संपन्नायां चास्यां, लिड्गं व्यावर्णयन्ति समयविदः। कथं पुनर्विशिष्टनामन्यासस्य स्वगुरुभिः प्रसादीकृतस्य दीकानिमित्तत्वमिति मन्यमानं परं प्रत्याह
धर्मैकनिष्ठतेच हि, शेषत्यागेन विधिपूर्वम् ।। ११ ॥ नामानिमित्तं तवं, तथा तया चोद्धृतं पुरा यदिद।
सपनायां च संजातायां चास्या दीक्षाया लिङ्गलकणं व्यावतत्स्थापना तु दीक्षा, तवेनान्यस्तमुपचार: ।। 0॥
जयन्ति कथयन्ति समयविदः प्रागमवेदिनः, धर्मैकनिष्टवादि नामनिमित्तं नामहेतुकं तद्भावस्तत्वं नामप्रतिपाद्यगुणात्मक
धर्मतत्परतव हि, शेषत्यागेन धर्मादन्यः शेषस्तथागेन तत्पस्वम् कृतप्रशान्तादिनाम्नः प्रशमाऽदिखरूपोपलम्नात् । तना
रिहारण, विधिपूर्ण शास्त्रोक्तविधानपुरःसरं यथावत्येवं
शेषत्यागेन धर्मैकनिष्टता सेवनीया नान्यथेति भावः। म्निच तद्गुण स्मरणाऽऽद्युपलब्धस्तथा तथा चोवृतं तेन तेन स्व.
अस्यामेव सर्वविरतिदीवायां कान्त्यादियोजनामार्यादयेन रूपेणोद्धतमुदृढं कृतनिर्वाहम् । पुरा पूर्व, यद्यस्मादिह प्रबचने,मु. नितिः तत् स्थापना तु तस्यैव नाम्नः स्थापना तु स्थापनैव नाम
दर्शयतिम्यास एव दीका प्रस्तुता,तत्वेन परमार्थनान्यस्तपुरवारोऽम्य
वचनकान्तिरिहाऽऽदौ, धर्मक्षान्त्यादिसाधनं जवति । क्रियाकलापस्तमुपवारस्तस्या दीकाया उपचारो वर्तते, विद्यो
शुद्धं च तपोनियमाद्, यमश्च सत्यं च शौचं च ॥१॥ पचारात् ॥ ॥
आकिञ्चन्यं मुख्य, ब्रह्मापि परं सदागमविशघम् । कस्मात्पुनर्नामाऽऽदिन्यासे महानादरः कियत श्या- सर्व शुक्लमिदं खलु, नियमात्संवत्सरादूर्ध्वम् ।। १३ ॥ शक्या356
वचनक्षान्तिरागमकान्तिरिह दीक्षायामादौ प्रथमं धर्मक्षान्त्या. कीरोग्यधुवपद-संप्रातः सचकानि नियमेन ।
दिसाधनं भवति । प्रादिशब्दार्ममार्दबाऽऽदिग्रहन धर्मक्षान्त्या. नामाऽऽदीन्याचार्याः, बदन्ति तत्तेषु यतिलव्यम् ॥ ॥ दीनां साधनं वचनकान्तिनवति,तत्पूर्वकत्वापाम,शुई चकित
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दिगु
दिक्खा
प्रन्निधानगजेन्धः। एं च तपो द्वादशभेदं नियमानियमेन यमश्च संयमश्व, सत्यं कारणवशात तदपि विजयदशम्यनन्तरं दायतीति योगोपधाचाविसंवादनादिरूपं शौचं च बाह्याभ्यन्तरभेदम् ॥ १२॥
नवतोचारादीनां तु दिन शुद्धिरेव विलोक्या न मासवर्षाऽऽदि। अकिञ्चनस्य भाव पाकिञ्चन्य, मुख्यं निरूपचरितम, ब्रह्मा
१२४ प्र. सेन.२ उद्वा०। ('पवजा' शब्दे दीकाविधिर्वक्यते) विब्रह्मचर्यमपि, परं प्रधानम, सदागमविशुरूं सदर्थप्रतिपा- सर्वमस्वाभयप्रदानेन भावसत्रे,पं०व०१द्वारा योग,मा० म० दक प्रागमः सदागमः,तेन विशुबै निर्दोवं,सर्व पूर्वोक्तं दशवि. | १०२खएम | प्रव०। पश्चा०। (नपुंसकाऽऽदीनां दीक्कितानां धमपि कान्त्यादिशुक्रमिदं खलु निरतिचारमिदमेव नियमादि- परिष्टापना 'परिटुवणा' शब्दे वक्ष्यते) तरज्यावृत्या शुक्लस्याऽशुक्रनिवर्तकत्वात्संवत्सरादूर्व क्रियाम-दिक्खागुण-दीक्षागुण-पुं० । जिनदीकाधर्मे, जिनसावागमलत्यागेन संवत्सरकालात्ययेन शुक्लं भवतीति ॥ १३॥ भक्तिप्रभावनाऽऽदौ च । पश्चा०विव । पो०।
अस्यैव दीवावतः पूर्वोत्तरकालभाविगुणयोगमाह- दिक्खादावण-दीवादापन-नन प्रौढोत्सवैः सुताऽऽदीनां प्रमा. ध्यानाध्ययनाभिरतिः, प्रथमं पश्चात्तु भवति तन्मयता । | जने, प्रव०। तथैव प्रौढोत्सवः सुताऽऽदीनामादिशब्दात्पुत्रन्नात. सूक्ष्मार्थालोचनया, संवेगः स्पर्शयोगश्च ।। १४ ॥ भ्रातृब्यस्वजनसुहस्परिजनाऽऽदीनां दीकादापनम, उपलक्षणत्वाध्यानं धयं शुक्रं च स्थिराध्यवसानरूपं, यथोक्तम्-"एकाल
उपस्थापनाकारणं च, श्रूयतेऽपि कृष्णचेटकनुपयो स्थापत्यविम्बनसंस्थस्य, सदृशप्रत्ययस्य च । प्रत्ययाम्तरनिर्मुक्तः, प्रबा
वाहनेपिनियमवतोः स्वपुड्यादीनामन्येांच थावश्चापुत्राऽऽदीनां से ध्यानमुच्यते॥१॥" अध्ययनं स्वाध्यायपान,ध्यानं चाध्य.
प्रौढोत्सवः प्रजाजना,श्यं च महाफना । यतः-"ते धन्ना कय. यनं च ध्यानाध्ययने । अध्ययनपूर्वकावेऽपि पानस्याल्पा.
पुन्ना,जण यो जणणी असयणगो अजेसि कुसम्मि जाया, चतरत्वादभ्यईणीयत्वाञ्च पूर्वनिपातः, तबोरजिरतिराशक्तिरन-|
चारित्तधरो मदापुत्तो"॥१॥ इति। (६५ ध०२ अधि.। बरतप्रवृत्तिः प्रथममादौ दीकासंपन्त्रस्य, पश्चातु पश्चात्पुनर्भव-दिक्खावयपरिणय-दीक्षावय:परिणत-पि. । दीक्षावयोभ्यां धति । तन्मयता तन्मयत्वं तत्परता, सदमाम तेऽश्व बन्धमो. | सम्प्रात, ध०२ अधिक। शादयः, तेपामालोचना,तया सूदमार्थाऽऽलोचनया, संवेगोटिक्वाविहाण-दीक्षाविधान-
मदीक्षाविधी,पश्चा०२विव०॥ मोक्षानिलापः स्पर्शयांगश्च स्पर्शस्तस्यज्ञानं तेन योगः संबन्धः संभवतीति ॥१४॥
दिक्खिका-प्रेक्षित्वा-मव्यः । दृष्ट्वेत्यर्थे, ती० ३ कल्प। स्पर्शयोगश्चेत्युक्तं तत्र स्पर्शलकणमाद
| दिक्खियजियोमाण-दीक्षितजिनावमान-अधिवासितजिनमो. स्पर्शस्तत्तवाऽऽप्तिः, संवेदनमात्रमविदितं त्वन्पत । लणके, पञ्चा०वि०। बन्ध्यमपि स्यादेतत्, स्पर्शस्त्वक्षेपतत्फलदः ॥ १५॥ दिक्खोवयार-दीक्षोपकार-पुं० । भव्यसस्वस्य दीकादानेनानु. स्पृश्यतेऽनेन वस्तुनस्तत्वमिति स्पर्शः,सच कडिगित्पाह-तत्त. ग्रहे, पश्चा० १८ विव०।। स्वाप्तिस्तस्य तस्य वस्तुनो जीवाऽऽदेस्तवं स्वरूपं तस्याऽऽप्तिक- | दिगंबर-दिगम्बर-पुं० । दिसंबर' शब्दार्थे, मा. म. १ पलम्मो ज्ञान स्पर्श उच्यते,संबेदनमात्र वस्तुखरूपपरामर्शशून्य. । अ० १ वए। मविदितं त्वन्यत कयश्चिस्तुग्राहित्वेऽपि न विदित वस्तु त.
दिगायरिय-दिगाचार्य-पुं०। दिगाचार्यशब्देन किमुच्यत इति दित्यविदितमुच्यते,बन्भ्यमपि विफलमपि स्यादेतत् संवेदनमात्र,
प्रश्ने, उत्तरम्-सचित्ताचित्तमिश्रवस्त्वनुशाया दिगाचार्य इति स्पर्शस्तु स्पर्शः पुनरक्षेपतत्फलदोऽपेशव तत् स्वसाध्य फलं
योगशास्त्रप्रकाशवृतौ प्रायश्चित्तं वैयावृत्यमिति श्लोकव्याख्याने ददातीत्ययमनयोः स्पर्शसंवेदनयोर्विशेष इति ॥१५॥
दिगाचार्यशब्दार्थो शेय इति ।१३२ प्र० । सेन०१ सल्ला। संवेगस्पर्शयोगेन दीक्षावान् यत् करोति, तदाह
दिगंबा-देशी--बुजुकायाम् , आचा० १ शु. ६ श्र. ४७०। व्याध्यनिनूतो यद-निर्बिणस्तेन तक्रियां यत्नात् ।
स० ज०। सम्यक्करोति तद-दीक्षित इह साधुसचेष्टाम् ।।१६।।
दिगिंगपरिगय-दिगिछपरिगत-त्रि० । तुधाव्याप्ते, उत्त. प्याधिना कुष्ठाऽऽदिनाऽनिभूतो ग्रस्तो यद्द्यया,निर्बिलो निर्वेद माहितस्तेन व्याधिना तरिक्रयां तश्चिकित्सा व्याधिपतीकारणं
प्र० प्रा०चू०। पत्नाद्यनेन सम्यकरोति विधत्ते, तत्तथा दीकित इह प्रक्रमे
दिगिंछापरिसह-दिगिच्छा परि (री) पह-पुं० । इह च दिगि. साधूनां सच्चेष्टा विनयाऽऽदिरूपात साधुसच्चेष्टाम् ॥१६॥ बो०१२
छति देशीषचनेन बुचकोच्यते,सवात्यातव्याफुलस्वहेतुरप्यसं. चित्र । अथ वृष्पं० शुभविजयगणिकृतप्रश्नस्तदुत्तरं च-यथा
यमभीरतया माहारपरिपाकाऽऽदिवाइगविनिवर्सनेन परीतिस. तीर्थकृद्भिः सह ये दोकां गृह्णन्ति ते किं तीर्थकदत्यामेधारा- प्रकारेण सह्यत इति परीषदः । सुत्परीपहे, उत्त०१०। दिकं कुर्वन्त्युत भिन्नमिति प्रइने,उत्तरम-तीर्थकरैः सा दीक्षान- भ. स०। ('खुहा' शब्दे तृतीयभागे ७५५ पृष्ठे व्याख्यातम) हणं कुर्वद्भिः स्वयं दकत्वात्तत्तत्केत्रकामाऽऽद्यनुसारेण तपस्यान- दिगिकापरीसह-दिगिलापरीपह-पुं०। 'दिनिवापरिसह' दणं क्रियते,न तु तीर्थकरवत्,प्रथमतीर्थकृता सार्द्ध तु तीर्थकर- | शदायें, उत्त०२०। चन् पागेचार कुर्वन्तीति ज्ञायते ॥२८७प्रसेन.२ उवाासिंदिग-दिग-पुं०। संख्यापूर्वे समासनेदे, “संख्यापूर्वो द्विगुर" हाऽऽदिसंक्रान्तित्रयमध्ये तयाऽऽवर्तिकामासमध्ये च कानि कानि
॥२।१ । ५२ ॥ इति पाणिमिवचनम् । अनु० । धम्र्मकार्याणि शुद्धयन्ति,कानि नेति प्रश्ने,उत्तरम-दिकाप्रतिष्ठाऽ5दिकन शुद्धयत्यन्यानि तु शुद्धयन्तीति, चतुर्मासकमध्येऽपि उप.
से किं तं दिगुसमासे । दिगममासे प्रगविहे पम्पत्ते । ते स्थापनामाक्षारोपणाऽऽदि बिना धर्मकार्याणि सर्वाणि शुद्धयन्ति । जहा-तिमि कमुगाणि तिकमुर्ग, तिमि महुराणि तिमहरं,
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(२५०ए) दिगु अभिधानराजेन्डः ।
दिदंतपरिणाम तिमि गुणाणि तिगुणं, तिमि पुराणि तिपुरं, तिमि सराणि । यदि दृष्टान्तादर्थानां सिद्धिस्तहि माझाग्राह्याणां निगोदभ. तिसरं, तिमि पुक्खराणि तिपक्खरं, तिमि विंदुआणि ति
व्यानव्याऽऽदीनामर्थानामसिद्धिः प्रसज्येत. अथ ते तवाऽऽक
या तेषां प्रसिस्तितः किं नुरिति वितर्के । किमेवं दृष्टान्त. विंडअं, तिमि पहाणि तिपह, पंच नदीओ पंचनदि, सत्त
तोऽर्थसिकिः क्रियते।। गया सत्तगयं, नव तुरंगा नवतुरंग, दस गामा दसगाम,
कि चान्यत्दस पुराशि दसपुर । सेत्तं दिगुसमासे ।
कप्पम्मि अकप्पम्मि य, दिटुंता जेन हॉति अविरुका। "संख्यापूर्वो द्विगुः" ॥२॥१॥५२॥ त्रीणि कटुकानि समाह.
तम्हा न तेसि सिझी, विहि अविहि विमोवजोग इव ॥२०॥ तानि त्रिकटुकम् । एवम् त्रीणि मधुराणि समाहृतानि त्रिमधुरं, पत्रादिगणे दर्शनादिह पञ्चमूलीत्यादिषु खियामीप्रत्ययो न
दृष्टान्तेन यद्यदात्मन इष्टं तत्सर्व यदृच्छया प्रसाध्यते, तथा भवति, एवं शेषारयप्युदाहरणानि भावनीयानि । अनु ।
कल्यते हिंसा कर्तुं विधिनेति प्रतिज्ञा, निष्प्रत्यपायत्वादिति दिग्ध-दीर्घ-०।-घञ् । घस्य नेत्वम् । “दोघे वा" ॥८।।
हेतुः। यथा विधिना विषोपभोगदृष्टान्तः । अस्य च नावना २१९१॥ दीर्घशब्दे शेषस्य धस्य उपरि पूर्वो वा भवति ।
यथा-विधिना मन्त्रपरिगृहीतं विषं स्वायमानमदेवाय भ
वति, अविधिना पुनः स्वाद्यमानं महान्तमनर्थमुण्ढोकयति । "दिग्यो । दोहो।" प्रा०५ पाद । शाललतावृके, उष्टे, द्विमात्रे
एवं हिंसाऽपि विधिना विधीयमाना न गतिगमनाय प्रनवस्वरवणे च । भायते, वाच । स्थूले च। त्रि० । जं०२ धक।
ति, अघिधिना तु विधीयमाना दुर्गतिगमनायोपदिष्टा, यतदिच्छा-दित्सा-स्त्री० । दातुमिच्चायाम, अनु० ।
धमतो निष्प्रत्यपायत्वात् कल्प्यते कर्तु हिंसेति निगमनम् । दिदृ-दि-न दिश-कः । भाग्ये, "न दिष्टमिष्टं कुरुते" इति. पवं कल्पोऽकल्पो वा येन कारणेन दृष्टान्ता अविरुद्धा भ. माघः । काले, पुं० । उपदिष्टे, वाच०। प्रतिपादिते च । त्रि.। वन्ति, कल्प्यमप्यकल्प्यम्, प्रकलण्यमपि कल्प्यम् । यरच्छनयो०।
या हटान्तबोन क्रियत इति नावः । तस्माच तेयो हटान्ते. इष्ट-
न श-ता। स्वपरचक्रभये पोक्किते, वाच०। दर्शने, भ्योऽर्थानां सिधिर्भवति । गाथायां पञ्चम्यर्थे षष्ठी । विधिनावृ.१००। नि० चू• । स्था । अवलोकिते, पश्चा०७ विव०।
विधिना च विषोपभोग श्वेति। प्रशा० । दर्श। प्रअावास्थासूत्राच्या उत्त।
इत्यं मोदकेन स्वपके स्थापिते मति सरिराहजपलब्धे, हा. ३१ अष्ट० । अभिमते, अनु० । लौकिके च ।।
असिच्ची जइ नाएण, नायं किमिह उच्चते । त्रिवाच ।
अहते नायतो सिघी, नायं किं पमिसिजाए।२०१॥ पागमतवं ज्ञेयं, तदृष्टेष्टाविरुद्धवाक्यतया ।। (१०)
यदिशातेन दृष्टान्तेनार्थानामसिद्धिः, ततस्वया ज्ञातं विषहभागमतस्वं ज्ञेयं भवति, तत्कय केयम् ? । दृष्ट प्रत्यक्वानुमान
टान्त इह किमुच्यते किमेवमभिधीयते ? । अथ ते ज्ञाततो प्रमाणोपमधमिष्टमागमेन स्ववचनैरेवाभ्युपगतं, ताभ्यामधि
दृष्टान्तसिद्धिः, ततोऽस्मानिरुच्यमानं ज्ञातं किं प्रतिषिध्यते । रुमानि वाक्यानि यस्मिन्नागमतस्थे तद् दृष्टेष्टाविरुरूवाक्य
किं चम्, तद्नावस्तया । (१०) षो• १विव० ।
अंधकारो पदीवेण, क्जए न उ अन्नहा। दित-दृष्टान्त-पुं० । हटोऽन्तो नाशोऽवसानं यस्मिन् । मरणे, तहा दितिओ भावो, तेणेव न विसुज्जति ॥२०॥ वाच । दृप्टमर्थमन्तं नयतीति रटान्तः, अतीन्जियप्रमाणदृष्ट अन्धकारशब्दस्य पुनपुंसकलिङ्गत्वाद् यथाऽन्धकारो रात्री संवेदनं निष्टां नयतीत्यर्थः । दश०१०। प्रा० म० । रष्टोऽ- प्रदीपेनच वय॑ने विशोध्यते, न तु नैवान्यथा । विशोधिते च त. म्तः परिच्छेदो बिक्रितः साध्यसाधनयोः संबन्धस्याविः | स्मिन् घटाऽऽदिकं वस्तु परिस्फुटमुपलभ्यते,तथाऽत्रापि दा. नानावरूपस्य प्रमाणेन यत्र ते दृष्टान्ताः । प्रज्ञा० ३. पद ।। मितको दृष्टान्तग्राह्यो जावः पदार्थोऽधकारवदतिगहनोऽपि ते. साध्यस्योपमानते, नं० । उदाहरणे, विशे०।
नैव रटान्तेन प्रदीपकपेन विशुद्ध्य ते निर्मलीभवति, विशुद्धेच दृष्टान्तफलम्
तस्मिन् परिस्फुटा विवक्षितार्थप्रतिपत्तिर्भवतीति दृष्टान्तोपदर्शपुबमजिना निन्ना, य वारिया कहमियाणि कप्पंति । नमत्रक्रियते। किञ्च-सौख्यप्रीणिता वयं,स्ववाक्येनेवाजवता यद मुषण आहरणं चोयग!, ण कति सम्बत्थ दिलुतो ॥१६॥ दृष्टान्तेनार्थप्रसाधनमभ्युपगतम., अस्माकमपित्वदीय एव दृष्टा. पूर्वसूत्रे भवद्भिरनिन्नानि भिन्नानि च बारितानि प्रतिषिद्धानि,क
न्तः सूत्रस्य सार्थकत्वं प्रसाधयिष्यति । वृ. १ उ० २ प्रक० । थमिदानीमस्मिन् सूत्रे कलपन्ते ?,इति भणत, न युक्तं पूर्वापरब्या
प्रा०चूनि चू० विशे० प्राव०(न दृष्टान्तमात्रादर्थहतमीदृशं वक्तुमिति जावः । अत्राचार्यः प्राऽऽह-ए निशम
सिकिरिति 'पलंब' शब्दे वक्यते) शास्त्रे, अलङ्कारोक्ते अक्ष. य, आहरणं दृष्टान्तम्.हे नोदक! यथा कल्पते । अत्र नोदको गुरु- कारभेदे च । वाचा
कार वचनमनाकण्ये इर्विदग्धतादमातः प्रतिवक्ति-प्राचार्या दिट्रंतपरिणाम-दृप्रान्तपरिणाम-पुoा दृष्टान्तेन श्रद्धापयितव्ये, न सर्वत्राप्यर्थे रष्टान्तः क्रमते, स्टान्तमन्तरेणाप्यर्थप्रतिपत्तेः।। व्य० । तथाहि
दृष्टान्तपरिणामकमाहजड़ दिहंता सिसी, एवमसिछी उ आणगेज्माणं । परोक्खं हेनगं अत्यं, पञ्चक्षण न साहियं । ग्रह ते तेसि पसिष्ठी, साहए किंतु दिहता ||१|| जिणेहिं एस अक्खातो, दिटुंतपरिणामगो ॥ ५७॥
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(२५१०) दिदंतपरिणाम अनिधानराजेन्द्रः ।
दिटुंतानास परोकं. हेतुकं हेतुना लिङ्गेन गम्यं हेतुकम्, अर्थ प्रत्यक्षेण प्र.
यद्यपीटपुरुषे रागाऽऽदिमत्त्वं च वक्तृत्वं च साध्यसाधनधाँ स्यकप्रसिकेन रष्टान्तेन साधयन् आत्मबुद्धावारोपयन् यो वर्त
सृष्टी, तथापि यो यो वक्ता सस रागाऽदिमानिति व्याप्त्यसिते एष दृष्टान्तपरिणामको जिनराख्यातो, दृष्टान्तम विवक्तितमर्थ
केरनन्वयत्वम् (७)॥६६॥ परिणामयत्यात्मबुझाचारोपयतीति दृष्टान्तपरिणामक इति व्यु
अनित्यः शब्दः कृतकत्वाद् घटवदित्यपदर्शितान्वय: त्पत्तेः। व्य. १० उ०।
(८)॥६७॥ दिढतानास-दृष्टान्ताऽऽभास-पुं० । दुष्टरष्टान्ते, रत्ना।
अत्र यद्यपि वास्तवोऽन्वयोऽस्ति तथाऽपि वादिना वचनेन न अप दृशान्ताऽऽभासान् भासयन्ति
प्रकाशित इत्यप्रदर्शितान्वयत्वम् । यद्यप्यत्र वस्तुनिष्ठो न कश्चि. साधम्र्येण दृष्टान्ताऽऽभासो नवप्रकारः ॥ ५० ॥ होषः, तथाऽपि परार्थानुमाने वचनगुण दोषानुसारेण वक्तृगुणरष्टान्तो हि प्राग द्विप्रकारः प्रोक्तः, साधम्र्येण वैधयेण च ।
दोघी परीक्षणीयाविति प्रवत्यस्य वाचनिकं दुष्टत्वम् । एवं
विपरीतान्वयाप्रदर्शितव्यतिरेकविपरीतव्यतिरेकेष्वपि रुष्टव्यम्। ततस्तदाभासोऽपि तयैव वाच्य इति साधर्म्यष्टान्ताऽऽभास. स्तावत् प्रकारतो दर्शितः ॥ ५० ॥
(८)॥ ६७॥ प्रकारानेय कीर्तयन्ति
अनित्यः शब्दः कृतकत्वात्, यदनित्यं तत्कृतकं घटरदि
ति विपरीतान्वयः (0)॥ ६८॥ साध्यधर्मविकलः १, साधनधर्मविकन्नः २, नभयधर्मवि
प्रसिहानुवादेन ह्यप्रसिद्धं विधेय, प्रसिचाव कृतकत्वं हे. कलः ३, संदिग्घमाध्यक्ष, संदिग्धसाधनधर्मा ए, सं
तुत्वेनोपादानात; अप्रसिद्धं त्वनित्यत्वं साध्यत्वेन निर्देशाद; दिग्पोभयधर्मा ६, अनन्वयः ७, अप्रदर्शितान्वयः ७, वि
इति प्रसिकस्य कृतकत्वस्यैवानवादसनाम्ना यच्छन्देन परीतान्वयश्व इति ।। ५५ ॥
निर्देशो युक्तः, न पुनरभसिकस्यानित्यत्वस्य; अनित्यत्यस्यैव च इतिशब्दः प्रकारपरिसमाप्ती, एतावन्त एव साधर्म्यदृष्टा-] विधिसर्वनाम्ना यच्छब्देन परामर्श उपपनो, न तु शकत्वस्य म्ताऽऽनासप्रकारा इत्ययः ॥ ५॥
(६)॥६ ॥ कमेणामूदुहरन्ति
भय वैधदृष्टान्ताऽभासमाहु:तत्रापौरुषेयः शब्दोऽमूतत्वाद् दुःखकदिति साध्यधर्मवि- वैधयेाऽपि प्रान्ताऽऽभासो नवधा ।। ६७ ॥ काः (१)॥ ६०॥
सानेव प्रकारानुदिशन्तिपुरुषव्यापारामा दुःखानुत्पादेन पुःस्वस्य पौरुषेयत्वात् । असिमसाध्यव्यतिरेकः १, असिसमाधनव्यतिरेकः २, तत्रापौषे यवसाध्यस्थावृत्रयं साध्य धर्मविका कति । (१)। असिद्धोभयव्यतिरेफः ३, संदिग्बसाध्यव्यतिरेक ४, सं
दिग्धसाधनव्यतिरेकःए,संदिग्धोभय व्यतिरेकः ६,अव्यतितस्यामेव प्रतिक्षायां वस्मिन्नेव देतो परमाणुचदिति सा
रेकः ७, अप्रदर्शितव्यतिरेकः ८, विपरीतव्यतिरेकथए, धनधर्म विकलः (२)॥६१ ॥ परमाणी हि साध्यधर्मोऽपौरुषेयत्वमस्ति, साधनधर्मस्त्वमूतत्वं नास्ति, मूर्तस्वात्परमाणोः (२)॥६१ ॥
प्रथैतान् क्रमेणोदाहरन्तिकलशयदित्युभयधर्मविकलः (३)॥६॥
तेषु भ्रान्तमनुगानं प्रमाणत्वाद्यधुनीन्तं न जवति न तस्यम्मेव प्रतिज्ञायां तमिनेन च हेतौ कलशष्टान्तस्य परुषः । तत्मसाणं यथा स्वमहानमिति,असिछमाध्यव्यतिरेकः स्व. यत्वापूरवाच साध्यलाधनोनयधर्मविकलता (३)॥६॥ प्नज्ञानामान्तत्वस्यानिवृत्तेः (१)॥७१ ॥
रागाऽऽदिमानयं वक्तृत्वादेवदत्तदिति संदिग्धसाध्यधर्मा निर्विकल्पकं प्रत्यक्ष प्रमाणत्वाद्, यतु सविकल्पकं न (४)। ६३ ॥
तत्पमाणं यथा लैनिकमित्यसिसाधनव्यतिरेको लैङ्गिदेवदत्ते दि रागाऽऽदयः सदसत्याभ्यां संदिग्धाः, परचेतोवि. कात्प्रमाणत्वस्याऽनिवृत्तेः (२)॥ ७॥ काराणां परोकत्वाकागाऽऽद्यव्यनिवारिसिङ्गादर्शनाच(४)॥३॥
नित्यानित्यः शब्दः सच्चाद्यस्तु न नित्यानित्यः स न सं. परमाधर्माऽयं रागाऽऽदिप्रयान्वदिति संदिग्धसाधनधर्मा
स्तद्यया-स्तम्भ इत्यसिदोनयव्यतिरेकः स्तम्भाभित्या(५)॥६५॥
नित्यत्वस्य सच्चस्य चाव्यावृत्तेः (३)॥ ७३ ॥ मैत्रे हि माघनघो रागाऽऽदिमत्त्वाऽऽस्यःसंदिग्धः (५) ॥६॥
व्यक्तमेतत्सूत्रत्रयमपि (३)॥७३॥ नायं सर्वदर्श रानाऽऽदिनवान्भुनिविशेषवदिति संदिग्धो- असर्वझोऽनाप्तो वा कपिलोऽक्षणिकै कान्तवादित्वाद्य: जयधर्मा (६)। ६५ ।।
सर्वक प्राप्तो वा स इणिकैकान्तवादी यथा मुगत इति निविर लशिवरागाऽऽदिमश्वाऽऽसौ साध्यसाधनधौं
संदिग्धसाध्यव्यतिरेकः सुगतेऽसर्वऊतानाप्तत्वयोःसाध्यधसंदिहोते, तदव्यभिचारिलिङ्गादर्शनात (६)॥६५॥ रागाऽऽदिमान्निक्षितः पुरुषो वक्तृत्वादिष्टपुरुषवादित्यन
मयो-वृत्तेः संदेहात् (४) ॥ ४॥
अयं च परमार्थतोऽसिद्धसाध्यव्यतिरेक एव कणिकैकान्तभवयः (७)॥६ ॥
स्य प्रमाणबाधितत्वेन तदभिधातुरसर्वज्ञतानातत्यप्राप्तेः केबल
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( २५११) अभिघांनराजेन्द्रः ।
विद्रुताभास
तत्प्रतिक्षेपप्रमाणमाहात्म्य परामर्शनशून्यानां प्रमातृ ग्धसाध्यव्यतिरेकत्वेनाऽऽभास इति तथैव कथितः (४) ॥७४॥
11 99 || यद्यपि
दिहि
दिदिट्ठपष्टपथ० ट ज्ञानाऽऽदिको मोस्य पन्था येन स दृष्टपथः । दृष्टमोकमार्गे, आचा० १ ० २ ० ६ उ० । दिट्ठपाठी- दृष्टपाठी-पुं० । दृष्टः पाठो येन स दृष्टपाठी । अधी
श्रनादेयवचनः कश्चिद्विवक्षितः पुरुषो रागाऽऽदिमवायः पुनरादेयवचनः स वीतरागः, तद्यथा-शौखोदनिरिति संदिग्ध साधनव्यतिरेकः शौद्धोदनो रागाऽऽदिमवस्य निवृत्तेः संशयात् (५) ॥ ७५ ॥
यद्यपि तद्दर्शनानुरागिणां शौद्धोदनेरादेयवचनत्वं प्रसिकं, त थापि रागादिमश्वानावस्ताियकमाराकम्पतः संदिग्ध एव (५) ॥ ७५ ॥
न वीतरागः कपिलः करुणाssस्पदेष्वपि परमकृपयाऽनपिं निजपिशितत्वात् यस्तु वीतरागः स करुणाऽऽस्पदेषु परमकृपया समर्पितनिजपिशितशकलः, तद्यथा - तपनबन्धुरिति संदिग्धोपयतिरेक इति तपनबन्यो बीतरागस्वा भावस्य करुणाssस्पदेष्वपि परमकृपया तर्पितनिजपिशिशकत्वस्य च व्यावृतेः संदा (६) ।। ७६ ।। वैधः समुपन्यस्तः सन यतै किं रागाऽऽदिधात वीतरागः, तथा करुणाऽऽस्पदेषु परमकृपया निजपिशितशकलाति समर्पितवान वा तनिवाप्रमाणा परिस्फुरणात् ( ६ ) ॥ ७६ ॥ नवीतरागः कविदितः पुरुषलाइ यः पुनर्जी तरागो न स वक्ता यथोपलखएम इत्यव्यतिरेकः ( ७ )
न व्यावृतं तथापि व्याप्याय तिरेकाविरज्यतिरेकाव ( ७ ) ॥ ७9 ॥ अनित्यः शब्दः कृतकत्वादाकाशय दित्यमदर्शितव्यतिरेकः ( 5 ) ॥ ८ ॥
अत्र यदनित्यं न भवति तत् कृतकमपि न भवतीति विद्यमा मोऽपि व्यतिरेक वाहिना स्ववचनेन नोति इत्यप्रदर्शितव्यतिरेकत्वम ( 0 ) ॥ ७८ ॥
अनित्यः शब्दः कृतकत्वाद्यदतकं तन्नित्यं यथाssकाशमिति विपरीतव्यतिरेकः ( ) ॥ ७६ ॥
प्रयोग हिसाच्या प्रायः साधनानायकाम्सो दर्शनीयो, न चैवमत्रेति विपरीतव्यतिरेकत्वम् (९) ॥ ७६ ॥ रत्ना ०६ परि० । दितिय दाष्टतिक प्रथमेऽभिनय, स्था० ४ ०
४ उ० । ० प्रा० म० ।
दिगुणदृष्टगुण- पुं० [दृष्टाः प्रत्यक्षादिप्रमाणतो
णधर्मा यस्य तस्मिन् स्या० ।
दित्य दृष्टार्थ पु० एताभिरूप येन स दृष्टार्थः । गीतार्थे, बृ० १३० ।
दिदो सपतिता-दृष्टदोषपतिता स्त्री० । दृष्टः दोषञ्चर्थ्याऽऽदिर्यस्याः सा तथा । सा चासौ पतिता च दृष्टदोषपतिता । जास्यादिबहिस्कृतायाम, अन्त० ३० वर्ग ० अ० । चिम्पास्थित धर्मः
चारित्राssस्यो येन स तथा । अवगतधर्मे, सूत्र० १० १३ अ० ।
०००
दिट्ठफल-दृष्टफन - पुं० । दृष्टमेव प्रत्यक्षं फलं पूजा ऽऽदिकं फलमर्थः प्रयोजनं यस्याउसी रफलः अपरोक्षकले विशे० दिट्ठभय-दृष्टभय - पुं० । दृष्टं संसाराद्भयं सप्तप्रकार वा येन स तथा । श्रवगत सप्तप्रकारभये, श्राचा० १ ० ३ अ० २ उ० ।
से हु दिट्टभए मुणी, जस्स मत्थि ममाइयं ।
शरीरा। परिमहात्माकात्पारम्पर्येण वा पर्यालोच्यमानं सप्तप्रकारमपि भयमापनपद्यत इत्यतः परिग्रहपरित्यागे ज्ञानभवत्यमवसीयते। अवगत संसारभये, साचा० १० २
अ० ६ उ० ।
दिपविड राष्ट्र-१०
तासा
चंदती वंदती उ दोसंतो।" वहुषु वन्दमानेषु साध्वादिना के. नचिदन्तस्तमसि वा सान्धकारप्रदेशे व्यवस्थितो मानं विधा योपविश्याssस्ते, न तु बन्द ते दृश्यमानस्तु चन्द 1
-
टादृष्टं चन्दनकम् । वृ० ३ ०० । श्राव । ना० चू० । ६० । दिवसानिय दृष्टलानिक-पुं । दृष्टस्यैव मक्का दे श्रमः स्थापनका दोष निय प्रकाऽऽदेलीनस्तेनानि निज्ञानविशेषयुक्ते, सूत्र० २ ० २ श्र० । ध०० चू० । स्था० ओ० । दिसार- हमार - पुं० । उपलब्धतध्ये व्य० १० उ० । दिमादम्बसाधर्म्य १० ह न पूर्वोपास साथ सामान्यताअनु
दिट्ठा भट्ट - भाषित - त्रि । कृतदर्शनाऽडलापे, भ०३० १३०॥ दिडि रहि स्त्री० [दविशे
अनु० | स्था० । सूत्र । विशे० व्या । प्राचा० । श्रातु० । मंदार्थगते सम्म सू० १ ० ३ ०३ न० 1 तद्धति, प्र० ६ श० ४ ० । धर्मप्रज्ञापनायाम्, सूत्र• १ ०३०३० नीतवस्तुप्रतिपती, प्रज्ञा ३४
पद | जी० । सूत्र । स्था० ।
जीवा
ते ! सम्मादेशी मिच्छा दिडी सम्मामिच्छादिट्ठी ? | गोगमा ! जीवा सम्पद्दिट्ठी त्रि, मिच्चादिट्ठी त्रि सम्मामिच्छादिवि। एवं रया विरकुमारावि एवं चेत्र जावं यणियकुमारा । पुढविकाइयाणं पुच्छा ? । गोषमा विकाश्यानो सम्माहिडी, मिच्वादिडी, को सम्मामिच्छादिट्ठी । एवं० जात्र वणस्सइकाइया । वेइंदिया
णं पुच्छा ? । गोयमा ! वेइंदिया सम्मादिट्ठी वि, मिच्छादिडी वि, नो सम्मामिच्छादिष्ठी । एवं० जात्र चउरिदिया । पंचिदियतिरिषखजोखिममाणमंत रजोइ सियवेपाणिया सम्पदिट्ठी वि, मिच्छादिडी वि, सम्मामिच्छादिट्ठी वि । सिद्धाणं पुच्छा ! । गोयमा ! सिद्धाणं सम्मदिट्ठी, यो मिच्छदिट्ठी, पो सम्मामिच्वदिट्ठी ।
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दिडि
( जीवाणं भंते! किं सम्मदि इत्यादि) सुगममापदपरि समाते नवरं सास्वादनसम्यक्त्वयुक्तोऽपि सूषाऽभिप्रायेण पृथिव्यादिपद्यते "उभयाभाषो वासु" इति वचना त् । द्वीप्रियाऽऽदिषु साखादन सम्यक्त्वयुक्त उपपद्यते। ततः पृचिया सम्ययः प्रतिषिका दीद्राऽऽयो भिदिताः ॥ सम्पादष्टिपरिणामः पुनः संभ पाणां तथास्याभाय्यात् । अत येऽपि सम्यगृमिध्यादृष्टयः प्रतिषिद्धाः प्रा०] १६ पद जी० भ० [पये दमच शब्दे प्रथमभागे ६७२ पृष्ठे तकम्) भ न्तःकरणप्रवृत्तौ सुत्र० २ श्रु० २ भ० । बुझौ, उत्त० २ ० । नेत्रे, ग० १ अधि० ।
दिट्टिश्रा - दिष्टया - अव्य० । दिश-यकू
अन्ध्यादि० नि० । वा
66
श्री ही
क्रिया
31
इत्यनेन यापूर्व शकारः
33
०दिया दिया इति विशेषे दिष्टघास्वित् ।। ६ । २ । १०४ ॥ लोकातू स्यानुष्ट्रेष्ट संदष्टे ॥ ८ । २ । ३४ ॥ इति टस्य वः । " अनादी शेषाऽऽदेशयोद्वित्वम् " ॥ ८२ ॥ ८६ ॥ इति कि " कगचजतदपयवां प्रायो लुक 39 110121 १७७॥ इति यलुक्। 'दिठिया ।' प्रा० ० २ पाद । मङ्गले, दर्बे, भाग्येनेत्यर्थे च । वाच० । दिडकीवी० मिनिमलिकान्ततः सर्वतः सबै करोति तावे"दिद्धिकीयो यं विलिमिलितरतो करेति । " नि० चू० ४ उ० ।
-
"
( २५१२)
अभिधानराजे |
दिडिजुक दृष्टियुद्ध
योधप्रतियोधयोपनिर्निमेषाय
स्थाने, जं० २ पक्ष० । दिहिव्विति दृष्टिनिर्वृति-स्त्री० । निर्वर्तनं निर्वृत्तिनिष्पतिः, निर्वृतिः दृष्टिनितिः । दृष्टिनिष्पत्तौ प्र० ।
कविदा णं ते!- दिडिशिन्ती पत्ता || गोयमा ! तिविहा दिट्टिणिती पत्ता । तं जहा सम्मदिडिणिव्वत्ती, मिच्छादिद्विव्विती, सम्मामिच्छादिट्टिणिव्यत्ती । एवं०जान बेमाशिवा जस्स नविदा दिडी न० १६००३० दिडिदंग दृष्टिदण्ड- पुं० [क्रियास्थानभेदे भाव०
।
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-
दिवस इमो होइ ।
जो मित्तममित्तं ती, काउं घाइज्ज श्रहवा वि ॥ ४५ ॥ गामापासुन मते ते वि वा पाइला । दिविवज्जा से सो, किरिआठाणं तु पंचमयं ॥ ५० ॥ आव० ४ ० । दिड-दृष्टिमत् पु० दर्शनं दृष्टः सनुठानं वा यस्यासी ह ष्टिमान्। श्राचा० १ ० ६ अ०५ ० । यथावस्थितान् प दार्थान् धाने ० ५० १४ अ सम्यदर्शन, सूत्र० १ ० ४ ० १ ० । डिया दृष्टिका (जा) स्वी०
टेजोता रहा। अथवादर्शस्तु निमित्ततया यस्यास्ति सा किरद नार्थे या गतिक्रिया, दर्शनाद्वा यत्कर्मेति सा दृष्टिजा, दृष्टिका वा । स्था० २ बा० १ ३० । प्रा० ।
दिडिवाय
दिडिराग-दृष्टिराग त्रि० । दिट्टिरागो असियमियं किरिया - फिरियादी माह"मसी विसनट्टी, बेव श्रीसं ।" स्वकीयायां स्वकीयायां दृष्टौ रक्ता होते, यतो "जिणवयबहिरम, रागेण सदमे, मो क्खपदं न तु पवजंति" ॥१॥ स्वकीयायां स्वकीयायां दृष्टौ रक्ते, आ०सू० १ श्र० । “रागेण” (४) दृष्टिरागाऽऽदिरूपेण गोविन्दवाचको मायामिव । ध० २ अधि० आ० म० । दिडिवाय दृष्टिपात (बाद)- पुं०
[दर्शनिया
यन्ते अभिधीयन्ते पतन्ति वा अवतरति दशासी विद दृष्टिपातो वा । प्रवचन पुरुषस्य द्वादशेऽङ्गे, स्था० ४ ० १ ० सम्यक्त्वादि बदनं वादोनां वादोविदः ।
प्र६० १४४ द्वार ।
दृष्टिवाद पर्यायतो दशधाऽऽद
दिट्टिवापस णं दस नामधिज्जा पत्ता । तं जहा-दिहिवाएड या हेवा वा न्यवाए वा तच्चापाना सम्मात्राएड्वा धम्मावाएइ वा मासाविजएइ वा पुब्वगएइ वा ओगगइया पाणभूय जीवस समुदाय वा । हिनोति गमयति जातिममितिदेतु अनुमानोत्याप लिङ्गमुपचारावनुमानमेव वा वाद हेतुवादः तथाभूताः ख
नूताः पदार्थः तेषां वादो नूतवादः। तथा तवानि वस्तूगाणि तेषां बायादः तथ्य वा सत्यो बास्त वादस्तस्ववादः, श्यवादः । तथा सम्यगविपरीतो वादः सम्यग्वादः । तथाधर्मा वस्तुपर्याणां धर्मस्य वा चारित्रस्यवादी धर्मवादः । तथा भाषा सत्याऽऽदिका, तस्था विषयो निर्णयो भाषाविचयः, जाषाया चाचो विजयः समृद्धिर्थस्मिन् स भाषाविजयः । तथासर्वश्रुतात्पूर्व क्रियन्त इति पूर्वाणि उत्पाद पूर्वाऽऽदीनि चतुर्दश, तेषु गतोऽभ्यन्तरीभूतस्तत्स्वभाव इत्यर्य इति पूर्वगतः । तथा अनुयोगः प्रथमानुयोगस्ती थे कराऽऽदिपूर्वमवाऽऽदिव्याख्यानयोगािऽनुयोग भरतनरपतिवंश जागा नुत्तरविमानगमनवकापतान्याख्यानग्रन्थ इति द्विरूपेऽनुयोगे
गतोऽनुयोगपती पूर्वानुयोगन विदयावयवे समुदायोपचारादितिसबि श्वेते व ते प्राणाश्च द्वीन्द्रियाऽऽदयो भूताश्च तरवो जीवास प या सध्या पृथिव्यादय इति छन् सति कर्मधारयः स तस्तेषां सुखं शुभं या प्रतीति सर्वप्राणभूत जीवध्यसुखावह सुखादत्वं च संयमप्रतिपादन हेतुत्वाश्चेति । स्था० १० ठा० ।
से किं तं दिडिवाए । दिडिवाए णं सव्वभावपरूवणा प्राघविज्जइ । से समासच पंचविहं पात्तं । तं जहा - परिक मे १, सुसाइ २, पुत्रगण २, अणुओगे ४, चूलिया ।
यो दर्शनानि बादो यत्र सष्टिवादः अथवा पतनं पातो, हृष्टीनां पातो यत्र स दृष्टिपातः । तथाहितत्र सर्वनयदृष्ट्य श्राख्यायते । तथा चाऽऽह सूरिः " दिट्टिवा
" इत्यादि । दृष्टिवादिनः । अथवा दृष्टिपातेन । यद्वा-दृष्टिसमिति द्वारे सर्वभावप्ररूपणा मा व्यायते ( से समासतो पंचविधे पनते इत्यादि) सर्वमिदं प्रायस्तथाऽपि तो बधागतसंप्रदाय
किि
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(१५१३) दिदिवाय अभिधानराजेन्द्र: ।
दिहिवाय धाण्यायते स दृष्टिवादो, दृष्टिपातो वा समासतः पश्च
गासपयाइं १, केउलयं . रासिबर्ष ३, एगगुणं ४, विधः प्रातः । तद्यथा--परिकर्म१, सूत्राणि २, पूर्वगतम ३,
दुगुणं ५, तिगुणं ६, के नजूए ७, पमिग्गहे ८, संसारपअनुयोगः४, चूलिका ५ । से किं तं परिकम्मे । परिकम्मे सत्तविहे पप्म ते । तं जहा
डिग्गहे ए, नंदावत्तं १०, विप्पजहणावत्तं ११ । सेतं
विप्पजहणसेणियापरिकम्मे ॥ ६॥ सिबसेणियापरिकम्मे १, मास्ससेणियापरिकम्मे २, पुट्ठः सेणियापरिकम्मे ३, ओगाढसेणियापरिकम्मे ४, नवसंप
से किंतं चुयाचुयसेणियापरिकम्मे ? | चुयाचुयसेणियाप
रिकम्मे एकारसविहे पत्ते । तं जहा-आगामपयाई १, ज्जणसेणियापरिकम्मे ५, विपजहणसेणियापरिकम्मे ६, चुयाचुयसेलियापरिकम्मे ।
के उतूयं २, रासिवद्धं ३, एगगुणं ४, दुगुणं ५, तिगुणंद,
केउजूए ७, पमिगहे८, संसारपमिग्गहे ए, नंदावतं १०, से किं तं सिखसेणियापरिकम्मे । सिघसेणियापरि
चुयाचुयावत्तं ११, सेतं त्याच्यसेणियापरिकम्मे ।। ७॥ कम्मे चन्दसबिहे पत्ते । तं जहा-माउयापयाई १,
छ चमकनइयाई, सत्त तेरासियाई। सेतं परिकम्मे ॥शा एगट्ठियपयांई ५, पादोदृपयाई ३, आगासपयाई ४,
तत्र परिकर्मनामयोग्यताऽपादनं तद्धप्तः शास्त्रमपि परिकर्म । केउजूयं ५, रासिवद्धं ६, एगगुणं ७, दुगुणं ८, तिगुणं
किमुक्तं भवति?-सूत्रपूर्वगतानुयोगः, तत्रार्थग्रहणयोग्यतासंपा६, के नन्नूर १०, पडिग्गहे ११, संसारपमिग्गहे १२, दनसमनि परिकर्माणि, यथा गणितशास्त्रे संकलनाऽऽदीन्यानंदावतं १३, सिकावतं १४ । सेतं सिद्धसेबियाप- द्यानि षोमश परिकर्माणि शेषगणित सूत्राथग्रहणयोग्य नासंपा. रिकम्मे ॥ १॥
दनसमर्थानि । तथाहि-यथा गणितशास्त्रे तद्योग्य-बोडशप
रिकमगृहीतसूत्रार्थः सन् शेषगणितशास्त्रज्रहणयोग्यो भयति, से किं न मणुस्ससेणियापरिकम्मे । मस्ससेणियापरिकम्मे नान्यथा, तथा गृहीतविवक्तितपरिकर्मसूत्रार्थः सन् शेपसूत्राच उद्दमविहे पणत्ते । तं जहा-ताईचेव माउयापयाई१, एग- ऽऽदिरूपदृष्टिवाद शुभग्रहणयोग्यो भवति, नेतरथा। तथा चोक्तं ट्टियपया, पादाढपयाई ३, आगासपयाई ४, केउनूयं चौँ-" पारेकम्मति योग्यताकरणं, जहा गणियस्स सोलस ५, रासिबछ ६, एगगुणं ७, दुगुषं , तिगुण है, केतुनूए
परिका, नगहियासुन्तत्थो सेसगणियस्स जोग्गो नवति, एवं
गहियपरिकम्मसुलत्थो सेसमुत्ताई दिठिवायसुयम्म जो. १०, परिग्गहे ११, संसारपरिणः १२, नंदावत्तं १३,
गो भव । सति" तश्च परिकर्म सिश्रोणिकापरियाऽऽदिमूस. माणुस्सावत् २४ । सेत माणुस्ससेणियापरिकम्भे ॥ २॥
नेशपाया मतविध, मातृकापदाऽऽधनरभेदापेक्कया उपशीतिः से कि तं पुढसेगियापरिकम्मे पहसेणियापरिकम्मे विध, सव समूहोत्तरभेम्वनोऽधतश्च व्यवनि यथागतसं. इकारसविहे पहाते । तं जहा-यागासपयाई, के
प्रायतोवाच्यम, पतेषां सिमणिकापरिकमीऽऽदीनां सप्ता
नां परिकर्मणामाद्यानिषट् परिकर्माणि स्वसमयवक्तव्यताऽनु. नजयं, रासिबळ ३, एगगुणं ४, दुगुणं ५, तिथं ६, गतानि, स्वसिकान्तप्रकाशकानत्यिर्थः। ये तु गोशालकप्रवर्तिता के उनए ७, परिगहे , संसारपमिग्गहे, नंदावतं १०, श्राजीविकाः पापरिमना, तन्मलेन च्युताच्युतश्रोणिकापरिपुहावतं ११ । सेतं पुडसेणियापरिकम्मे ॥३॥
कर्मसहितानि समापि परिकोणि, स्वसमय वक्तव्यता तु प्र
ज्ञाप्यन्ते । मंप्रायवेव परिकर्भसु न्यचिन्ता। तत्र-नया सप्त से किं तं मोगाढसेणियापरिकम्मे ?। प्रोगाढसेणियाप
नेगमाऽऽदयःनिगमोऽपिद्विधा-सामान्य ग्राही, विशेषनाही च। रिफम्मे इक्कारमविहे पछने । तं जहा-आगास- तत्र यः सामान्यग्राही स संग्रह प्रविष्टः, यस्तु विशेषग्राहीस पयाई, केनज्यं २, रासिबदं ३, एगगुणं ४, दुगुणं व्यवहारम् । श्राद च भाष्यकृत-"जो सामनग्गाही. स नेगमो ५, तिगुणं ६, केजजूए ७, पमिग्गहे ७, संसारपडिग्गडे संगहं गओ अहया । इयरो ववहारमिओ, जो रोण समाणनि६, नंदावत्तं १०, प्रोगाढावत्तं ११। सेतं श्रोगाढसेणि
हेसो॥ ३९ ॥" ( विशे०) शब्दाऽऽदयश्च त्रयोऽपि नया एक
एष नयः परिकल्प्यते, तत एवं चत्वार एव नया:, पतेश्व. यापमिकम्मे ॥४॥
तुभिनय राद्यानि षट् परिकर्माणि स्वममयवक्तव्यतया परिचि. से किंतं नवसंपजणसेणियापरिकम्मे । उपसंपज्जासे- न्त्यन्ते । तथा चाह चूर्णिकृत्-" इयाणि परिकम्मन यचिंता, णियापरिकम्मे इक्कारसविहे पाते । तं जहा-प्रा.
नेगमो दुविहो-संगहिरोसंगहि ओ यासंगई पविठोसंगहि.
ओ, असंगहिओ ववहारं । तम्हा संगहो, बहारो, उजुसुरो, गासपयाई, के नुनूयं २, रासिवई ३, एगगुणं ४, सहार य को, पवं च नरोनया पहिं चनाई नपहिं ससमय. दुगुणं ५, तिगुणं ६, के उनए ७, पमिग्गहे , संसारप- गइपरिकम्मा चिति जति ।" तथा चाऽऽह चूर्णिकृत्-"चउक मिग्गहे, नंदावतं१०, उपसंपज्जाणावत्तं ११ । सेतं
नश्याई ति।" आद्यानि पट परिकर्माणि । चतुर्नयिकानि चननवसंपजणसेणियापरिकम्मे ॥५॥
नयोपेतानि । तथा-ते एव गोशालकप्रवर्तिता श्राजीविका:
पापण्डिनः त्रैराशिका उच्यन्ते । कस्मादिति चेत् ?, उच्यते-द से किं तं विप्पजहणसोणेयापरिकम्मे ! विप्पजहणसेणि-] ते सर्व वस्तु सात्मकमिच्छन्ति । तद्यथा-जीयः, अजीयः, जी. यापरिकम्भे एक्कारसबिहे पछते । तं जहा-श्रा- बाजीचश्च । लोकः, श्रलोकः, लोकाझोकश्च । सत्, असद,
६२
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(२५२४) दिढिवाय भनिधानराजेन्द्रः।
दिहिवाय सदसत् । नयचिन्तायामपि त्रिविधं नयमिच्छन्ति । तद्यथा-1 कानि,अत्र "अतोऽनेकस्वराद्"।9।२।६॥ (हेम0) इति म. कच्यास्तिकम, पर्यायास्तिकम, उन्नयास्तिकं च । उक्तं च-तत' स्वर्थीय कप्रत्ययः। ततोम्यमर्थः-छिन्नछेदनयवन्ति सुव्यानि । सिनी राशिभिश्चरन्तीति त्रैराशिकाः, तन्मतेन सप्ताऽपि परि
तथा (इशेश्याई इत्यादि इत्येतानि द्वाविंशतिसूत्राणि आजीधि. कर्माणि चिन्त्यन्ते । तथा चाऽऽह सूत्रकृत्-"सत्त तेरासिया।" कसूत्रपरिपाट्यां गोशाल प्रवर्तिताउजीविकपापरिममतेन सूत्रइति । सप्त परिकर्माणि त्रैराशिक्यानि त्रैराशिकमतानुसा- परिपाट्यां विवक्षितायामच्चिनच्छेदनथिकानि। इयमत्र भावना. राणि । एतदुक्तं भवति-पुर्वसूरयो नयचिन्तायां त्रैराशिकमत- अच्छिन्नच्छेदनयो नाम यः सूत्रं सूत्रान्तरेण निन्नमर्थतःसूत्र समवलम्बमानाः सप्तापि परिकर्माणि त्रिविधयाऽपि नचिन्त- त्रान्तरेण सदाग्निमित्यर्थः, तत्संबन्धमनिग्रेति । यथा-"धम्मो या चिन्तयाते स्मति। (सेतं परिकम्मे) तत् एतत्परिकर्म ॥१॥ मंगलमुक्किटुं" इति श्लोकम् । तथा ह्ययं श्लोकोऽचिनच्छेदनयमतेन
व्याख्यायमानो द्वितीयाऽऽदीन् श्लोकानपेक्षते,द्वितीयादयोऽपि से किं तंमुत्ताई ?। सुत्ताई वावीसं पसत्ताई । तं जहा-उज्जु. श्लोका पनं श्लोकम् । एवमेतान्यपि द्वाविंशतिसूत्राणि अकररच. सुयं १, परिणयापरिणयं २, बहुगियं ३, विपञ्चइयं ४, नामधिकृत्य परस्परं विभक्तान्यप्यनिच्छेदनयमतेनार्थसंबन्धअणंतरंए, परंपरसमाणं ६, संजूहं ७, संभिमंज, अहञ्चायं ।
मपेक्ष्य सापेक्वाणि वर्तन्ते । तदेवं नयाभिप्रायेण परस्परं सूत्रा
णां संबन्धावधिकृत्य भेदो दर्शितः। संप्रत्यम्यथा नयविभागमा ए, सोवत्थियं १०, घंटं ११, नंदावत् ११, बहुलं १३,
धिकृत्य भेदं दर्शयन्ति-(चेहयाई इत्यादि ) इत्येतानि द्वावि. पुढपुढं १४, बियावत्तं १५, एवंनूयं १६, यावत्तं १७, शतिसूत्राणि त्रैराशिकसूत्रपरिपाट्यां विवक्षितायां त्रिकनयकावत्तमाणुप्पयं १७, समनिरूढ २ए, सव्वोज २०, नि, त्रिकेति प्राकृतत्वात्स्वार्थे कप्रत्ययः। ततोऽयमर्थः-त्रिनयि. पणुमं २१, दुपमिग्गई । इञ्चेश्याई वावीसं सु
कानि त्रिनयोपेतानि । किमुक्तं भवति?-त्रैराशिकमतमवलम्म्य
च्यास्तिकाऽदिनयनिकण चिन्त्यन्ते इति । तथा इत्येतानि द्वाविं. ताई छिन्नछेयनइयाणि ससमयमुत्तपरिवामीए, इच्चेश्याई
शतिसूत्राणि स्वसमयसूत्रपरिपाट्यां स्वसमयवक्तव्यतामधिबावीसं मुत्ताई अक्किनछेयनझ्याणि आजीवियसुत्तपरि
कृत्य सूत्रपरिपाट्यां विवकितायां चतुर्नयिकानि संग्रहव्यवहारबामीए, श्चेड्याई बाबीसं सुत्ताई तिगनइयाधि तेरासि- ऋजुसूत्रशब्दरूपनयचतुष्टयोपेतानि संग्रहाऽऽदिनयचतुष्टयेन यमुत्तपरिवामीए, इञ्चेइयाई बाबीसं सुत्ताई चनक्कनइया
चिन्त्यन्ते इत्ययः । एवमेवोक्तेनैव प्रकारेण (पुब्वावरेणं ति) पूणि ससमयसुत्तपरिवाम ए. एवामेव सुपुब्वावरेणं अट्ठा
वर्वाणि चापराणि च पूर्वापर, समाहारप्रधानो द्वन्द्वः, पूर्वापरस.
मुदाय इत्यर्थः। तत एतदुक्तं भवति-नयबिनागतो विजिन्नानि सीई सुत्ताई भवंतीति मक्खाई । सेतं सुत्ताई ॥२॥
पूर्वाणि अपराणि च सूत्राणि समुदितानि सर्वसंख्यया अष्ठा(से किं तं सुत्ता ति) अप कानि सूत्राणि? । सर्वस्य पूर्वगत.
शीतिसूत्राणि जवन्ति, चतमृणां द्वाविशतीनामष्टाशीतिमानस्य सूत्रार्थस्य सूचनात्सत्राणि । तथाहि-तानि सूत्राणि सर्व.
स्वाद.त्यागयातं तीर्थकरगण धरैः (से तं सुत्ताई) तान्येतानि व्याणां सर्वपर्यायाणां सर्वनयानां सर्वभङ्गविकल्पानां प्रदर्श
सूत्राणि । कानि । तथा चोक्तं चूर्णिकृता-"ताणि य सुत्तागि सब्बदब्वाणं
से किं तं पुव्वगए। पुव्वगए चउद्दसविहे पणत्ते । तं जहासयपज्जयाणं सब्बनयाणं सब्वभंगविकप्पाण य पदंसगाणि उपायपुब्वं १, अगषीयं २, बीरियप्पवायं३, अस्थिनसम्वस्स पुधगयस्स सुयस्स अत्यस्स य स्यग ति सूयण त्यिप्पवायं , नाणपवायं ५, सच्चप्पवायं ६, आयप्पत्ति सूया अणिया जहामिहाणत्या ।" इति । प्राचार्य आह
वायं ७, कम्मप्पवायं८, पच्चक्वाणप्पवायं 0, विज्जासूत्राणि द्वाविंशतिः प्रज्ञप्तानि । तद्यथा-ऋजुसूत्रमित्यादि । पतान्यपि संप्रति सूत्राणि सूत्रतोऽर्थतश्च व्यवच्छिन्नानि
एप्पयायं १०, अबझं ११, पाणा १२, किरियाविसावं यथागतसंप्रदायता वा याच्यानि, तानि सूत्राणि नयधि- १३, लोकनुिसारं १४ गप्पायपुबस्स एणं दस बत्थू च. भागतो विभज्यमानानि अधाशीतिसंख्यानि नवन्ति । कथमिति
तारि चूलयावत्पू पत्ता । अग्गेणीयपुचस्मणं चोइस पत्यू चेदत आह-(इञ्चेयाई वावासं सुत्ताई इत्यादि) ह यो नाम नयसूत्र वेदेन चिन्नमेवानिप्रेति न द्वितीयेन सूत्रेण सह सं
बालस चूलियावत्थू पत्ता । बीरियपुव्यस्स णं अट्ठ पत्थू बन्धयति । यथा-" धम्मो मंगल मुकि," इति श्लोकम, तथा
अट्ठ चूलियावत्यू पामत्ता । आत्यिशस्थिप्पवायपुनस्स अट्ठाघयं ग्लोकः चिन्नच्छेदनयमतेन व्याख्यायमानो न द्वितीयाऽऽदीन रस वत्य दस चूचियावत्यू पम्मत्ता। नाणप्पवायपुवस्स वारश्लोकानपेक्षते, नाऽपि द्वितीयाऽऽदयः श्लोका अमुम । अय. सवत्यू परमत्ता । सबप्पवायपुधस्स णं दोशी वत्थू परमत्ता। मत्राभिप्राय:-तथा कथञ्चनाप्य, श्लोक पूर्वसूरयः विनवेदनय. मते व्याख्याम्ति स्म, यथा न मनागपि द्वितीयाऽऽदिश्लोकानाम
आयपवायपुवस्स णं सोलस बत्यू परमत्ता । कम्मापवा. पेका नवनि,द्वितीयाऽऽदीनपि लोकान् तथा व्याख्यानयन्ति स्म,
यपुध्वस्स हां तीसं वत्य पामत्ता । पञ्चक्खाणपुवस्स वीसं यथा न तेषां प्रथमश्लोकस्यापेक्षा, तथा सूत्रागयपि यन्नयाभि- वत्य पमात्ता। विजापुप्पवायपुव्यस्स ण पप्परस बत्यू पधाप्रायेण परस्परं निरपेकाणि व्याख्यान्ति स्म, सचिनच्छेदनया त्ता। बंभपुचस्स णं वारस वत्यू पम्पत्ता। पाणानपुनस्स किन्नो द्विधाकृतः पृथक्कतः छेदः पर्यन्तो येन सः छिन्नछेदः, प्र
गणं तेरस वत्य पम्मत्ता। किरियापिसाझपुचस्स णं तीसं वत्यू स्येकं कल्पितपर्यन्त इत्यर्थः। स चाऽसौ नयश्च किन्नच्छेदमयः, इत्येतानि द्वाविंशतिसूत्रााणे स्वसमयस्त्रपरिपाट्या स्वसमय.
पाता। बोगरिदुसारपुवस्स एणं पणवीसं वत्यू पत्ता। वक्तव्यतामधिकृत्य सूत्रपरिपाट्यां विवक्षितायांनिच्छद नाय.] “दस चोद्दस अट्ठ अट्ठा-रसेव वारस मुवे य वत्चणि ।
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(१५१५) दिट्टिवाय अन्निधानराजेन्द्रः।
दिहिवाय सोनस तीसा वीसा, पारस आप्पवायम्मि ॥१॥ स्थानप्रवादामिति कष्टव्यम् । प्रत्याख्यानं सप्रनेवं यदतितपारस इकारसमे, वारसमे तेरसेव वत्थूणि।
स्प्रत्याख्यानप्रवाद, तस्य पदप्रमाणं चतुरशीतिपदमकाणि ।
दशमं विद्याऽनुप्रवादं,विद्याऽनेकातिशयसंपना अनुप्रवदति सा. तीसा पुण तेरसमे, चोइसमे पशवीसा उ॥॥
धनानुकूल्यन सिभिप्रकर्षण प्रवदतीति विद्याऽनुप्रयाद, तस्य चत्तारि दुवालस अ-5 चेव दस चेव चूनवत्यणि । पदपरिमाणम, एका पदकोटी दश च पदलकाः । एकादशमश्राश्वाण चउएएं, सेसाणं चूनिया नस्थि ।। ३ ।। वन्ध्य, बन्ध्यं नाम-निष्फलं,न विद्यते वन्ध्यं यत्र तदवयमाकिमुसेतं पुवगए ३ ॥
के भवति?-यत्र सर्वेऽपिज्ञानतपःसंयमाऽऽदयाशुभफमा,सर्वच
प्रमादाऽऽदयोऽशुभफमा यत्र वर्ण्यन्ते तदवन्ध्यं नाम,तस्य पदपरि. (से किं तं इत्यादि) अध किं तत् पूर्वगतम इह तीर्थकर- माणं ट्विंशतिपदकोटयः। द्वादशं प्राणायुः,प्राणाः पञ्चन्छियास्तीर्थप्रवर्तनकाले गणधरान् सकल श्रुतार्थावगाहनसमर्थानधि- णि, त्रीणि मानसाऽऽदीनि बझानि, उच्चासनिःश्वासोच मायुध कस्य पूर्व पूर्वगतसूत्रार्थ भाषते, ततस्तानि पूर्वाण्युच्यन्ते, प्रतीतं, ततो यत्र प्राणा आयुश्च सप्रमेदमुपवर्ण्यते,तदुपचारतः गणधरा: पुनस्तत्र रचनां विदधते आचाराऽऽदिक्रमेण प्राणाऽऽयुरित्युच्यते, तस्य पदपरिमाणमेका पदकोटी षट्पश्चाविदधति, स्थापयन्ति वा । अन्ये तु व्याचकते-पूर्व पूर्वगतसू- शव पदलकाणि । त्रयोदशं क्रियाविशालम्-क्रियाः कायिक्यात्रार्थमहन् भाषते, गणधरा अपि पूर्व पूर्वगतसूत्रं विरचय. दयः, संयमक्रियाउन्दःक्रियाऽऽदयश्च, ताभिः प्ररुप्यमाणाभिर्भाव. न्ति, पश्चादाचाराऽऽदिकम् । अत्र चोदक माह मन्विदं पूर्वापर- शासं,तस्य पदपरिमाप नव पदकोटयः। चतुर्दश लोकविन्दुसारविरुद्धं, यस्मादाचारनियुक्तायुक्तम्-"सब्बोर्स आयारो पढमो" म्लोके जगति श्रुतलोक बाप्रकरस्योपरि विन्दुरिव सारं सोंइत्यादि । सत्यमुक्तम् किं तु तत्स्थापनामधिकृत्योक्तम् । अक्षरर- समं सर्वाक्षरसन्निपातलब्धिहेतुत्वाद लोकविन्दुसार, तस्य प. चनामधिकृत्य पुनः पूर्व पूर्वाणि कृतानि, ततो न कश्चित्पूर्वा- दपरिमाणमत्रयोदश पदकोटयः। (उप्पायपुवस्स णं) इत्यादि परविरोधः। सरिराह-(पुब्वगतो इत्यादि) पूर्वगतं श्रुतं च- काञ्चनवर वस्तु अन्धविच्छेदविशेषः,तदेव बघुनरकुलकंध. तुर्दशविध प्रकप्तम् । तद्यथा-उत्पादपूर्वमिन्यादि । तत्रोत्पादन- स्तु,तानि चाऽऽदि मेष्वेव चतुषु पूर्वेषु न शेषेषु । तथा चाह-"प्रा. तिपादकं पूर्वमुत्पादपूर्वम् । तथाहि-तत्र सर्वव्याणां सर्वपर्या- इलाण चउएर,सेसाणं चलिया नस्थि सेतं पुब्वगए।"तदेतत पू. याणां चोत्पादमधिकृत्य प्ररूपणा क्रियते । प्राह चणिकृत्- धंगतम्। नं०। (अनुयोगव्याख्या अणुप्रोग'शब्दे प्रथमभागे ३४१ "पढभं उपायपुव्वं, तत्थ सब्बदब्याणं पजयाण य उपाय- पृष्ठादारभ्य च्या) (मूलप्रथमानुयोगः 'मूल पढमाणु ओग' मंगीकाउं पावणा कया।" इति । तस्य पद परिमाणमेका प
शब्दे वक्ष्यते) (गाएमकानुयोगव्याख्या गंडियाोग' दकोटी। द्वितीयममायणीयम । अयं परिमाणं तस्य प्रयनं गमनं,
शब्दे वृतीयभागे ७०१ पृष्ठे अष्टव्या) परिच्छेद इत्यर्थः। तस्मै हितमग्रायणीयम्, सर्वव्याऽदिपरिमाणपरिच्छेदकारीति भावार्थः । तथाहि-तत्र सर्वव्याणां सर्वप
से किं तं चूनियाओ? चूनियामो पाइलाणं चनएहं याणां सर्वजीवविशेषाणां च परिमाणमुपवर्ण्यते । यत उक्त
पुव्वाणं, सेसाई पुच्वाइं अचूचियाई । सेतं चून्नियाओ। चणि कृता-"वियं अग्गेणीय, तत्थ सव्वदवाणं पजवाण य दिडिवायस्स एं] परित्ता वायणा, संखिजा अणुओगदारा, सब्ध जीवाण य अम्गं परिमाणं वनिजा।" इति। अग्रायणीय,त.
संखिज्जा बढा, संखिजा सिलोगा, संखिज्जाओ पडिवत्ती. स्य पद परिमाणं पहावतिपदशतसहस्राणि तृतीयं पूर्व विरचयन्ति । पदेकदेशे पदसमुदायोपचारात् बीयप्रवादं तब स
श्रो,संखिज्जाओ निज्जुत्तीओ,संखिज्जाओ संगहणी,से कमेतराणां जवानामजीवानां च वीर्य प्रवदन्तीति वीर्यप्र.
पं अंगठ्ठयाए वारसमे अंगे एगे सुयखंधे,चोद्दस पुच्चाई,संबाद, कर्मणि अयप्रत्ययः । तस्य पदपरिमाणं सप्ततिपदशतस- खिज्जा वत्य,संखिज्जा चूलवत्य,मंखिज्जा पाहुडा,संखेज्जा हस्राणि । चतुर्थम अस्तिनास्तिप्रवादं, तत्र यद्वस्तु लोकेऽस्ति पाहुमपाहुडा, संखिज्जायो पाहुमियाओ,संखिज्जाओ पाधर्मास्तिकायाऽऽदि, यश्च नास्ति खरगृङ्गादि, तत्प्रयदतीत्य
दुढपादुडियाओ,संखिज्जाइं पयसयसहस्साईपयम्गणं संखिस्तिनास्तिप्रवादम | अथवा--- सर्व वस्तु स्वरूपेणास्ति, पररूपेण नास्तीति अस्तिनास्तिप्रवाद,तस्य पदपरिमाण पछिः पदश
जना अक्खरा, अयंता गमा, प्रतापउजवा, परित्ता तसा, तसहस्राणि । पञ्चमं ज्ञानप्रबाद-ज्ञानं मतिज्ञानाऽदिभेदभिन्न पता थावरा, सासया कडनिबच्छनिकाइया जिणपन्नत्ता पश्चप्रकारं तत्सप्रपञ्चं वदतीति ज्ञानप्रवाई,तस्य पदपरिमाणम. भावा आघविज्जति, पन्नविज्जंति, परूविज्जति,दसिज्जंति, एका पदकोटी पदेनैकेन न्यूना । षष्ठं सत्यप्रवाद, सत्यं सं- निदसिज्जति, उवदंसिज्जति। एवं आया, एवं नाया, एवं यमो वचनं बा तत्सत्यसंयम वचनं या प्रकर्षेण सप्रपचं बदतीति सत्यप्रवाद, तस्थ पदपरिमाणम् एका पदकोटी
विधाया, एवं चरणकरण परूवणा प्राधाविज्जति । सेतं बसभिः पदैरधिका । सप्तमं पूर्वम्-आत्मप्रवादमात्मानं जीवमने
दिहिवाए ॥ १॥ कथा नयमतभेदेन यत्प्रवदतीति तदात्मप्रवाई, तस्य पदप्रमा- अथ कास्ताश्चूलाः १ । इह चूसा शिखरमुच्यते । यथा मेरी ण पमिशतिपदकोटयः । अष्टमं कर्मप्रवादं कर्म ज्ञानाऽऽवरणी- चूला,तत्र चूला श्व चला दृष्टिवादे परिकर्मसुत्रपूर्वानुयोगोक्तायाऽऽदिकमष्टप्रकारं, तत्प्रकर्षण प्रकृतिस्थित्यनुभागप्रदेशाss. नुक्तार्थसंग्रहपरा ग्रन्थपतयः। तया चाऽऽद चूर्णिकृत्-"दिदि. दिनिदैः सप्रपञ्चं वदति कर्मप्रवादं, तस्य पदपरिमाणम्- वाए जं परिकम्मसुत्तपुब्बाणुजोगे चूलिन भणिय,तंचलासुजपका कोटी अशीतिश्च घट्स हमाणि, नवम ( पश्चक्खाणं णियं ति।" अत्र सूरिराह-चूना आदिमानां चतुर्णी पूर्वाणाम.शे. ति) अत्रापि पदेकदेकदेशे पदसमुदायोपचारात् प्रत्या- षाणि पूर्वारय निकानि, ता एव चूला, आदिमानां चतुणी पू.
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(२५२६) दिहिवाय अनिधानराजेन्डः।
दिद्विसम्मोह र्षाणां प्राक् पूर्ववक्तव्यताप्रस्तावे चूनावातूनीति भणिताः । प्रहावरे पंचमे दंमसमादाणे दिहिविपरियासिया दंमव. आह च चूर्णिकृत्-" ताओ अचूलाश्रो पालपुवाणं चयह
त्तिए त्ति आहिज्जइसे जहाणामए के पुरिसे माइहिं वा चलावत्थू भणियं ।" पताश्च वैस्यापि दृष्टिवादस्योपरि किन स्थापिनाः । तथैव च पठ्यन्ते,ततः श्रुतपर्वते चूना श्व राजन्ते
पिइहिं वा जाहिं वा भगिणीहि वा भज्जाहिं वा पुत्तेहिं इति चूला इत्युक्ताः । तथा चोक्तं चूर्णिकृता-"ते सव्वुवरिलि. वा धूताहि वा मुबहाहि वा सद्धिं संवसमाणे मित्तं अमिया पढिज्जति य असो तेसु य पवयचना इच चुना।" इति । त्तमेव मन्नमाणे मित्ते हयपुग्ने जवइ, दिविविपरियामिया दंतासां च चूलानामियं संख्या प्रथमपूर्वसताश्चतः, हितीयपू
हे ॥ १२ ॥ से जहाणामए के पुरिसे गामघायंसि वा बसका द्वादश,तृतीयपूर्वसक्ता अष्टौ,चतुर्थपूर्वसक्ता दश । तथा च पूर्वमुक्तं स्त्रे-"चत्तारि ज्वालस अटु चेव दस चेव चूला
गरपायमि वा खेडकब्बडममक्यायसि वा दोणमुइयायपत्थूणि माश्लाणं च उपदं,सेसायं चूलिया नत्थिा" सर्वसंख्यया सि चा पट्टण घायंसि वा श्रासमघायंसि वा सनिवेसघायं. चतुरिंशत् चूलिकाः (सेप्तं चूलिय त्ति) अयैताइचूलिकाः सिवा निगमघायंसि वा रायहाणिघायंसि वा अतणं ते. (दिडिवायरस ण) इत्यादि पासिद्धं, नवरम् (संस्खेजा घ. णमिति मन्त्रमाणे अतणं हयपुवे जवइ दिविविपरियासित्यु त्ति) संख्येयानि वस्तूनि, तानि च पञ्चविंशत्युत्तरे द्वे शते ।
या दंडे, एवं खलु तस्स तप्पत्तियं सावजं ति पाहिजइ, कथमिति चेत् । नच्यते-प्रथमे पूर्व दश वस्तूनि,द्वितीये चतुर्दश, नृतीयेऽष्टी,चतुर्थे अडादश.पञ्चमे द्वादश, षष्ठ द्वे, सप्तमे षोडश,
पंचपे दंगममादाणे दिहिविपरियासिया दंमबत्तिए त्ति आ. अष्टमे त्रिंशत्, नवमे विंशतिः, दशमे पञ्चदशा, द्वादश एकादशे, प्रयोदश द्वादशे, त्रिंशत्त्रयोदशे, चतुर्दशे पञ्चविंशतिः।तथा च
अथाऽपरं पश्चनं दण्डसमादानं दृष्टिविपर्यासदएप्रत्ययिकसूत्रे प्राक् पूर्ववक्तव्यतायामुक्तम्
मित्याख्यायते । तदु यथानाम कश्चित्पुरुपश्चारजटादिको मा. " दस चोइस अह अट्ठा-रसेघ वारस इवे य चन्थूणि । तृपितृवातृभगिनीभार्यापुत्रदुहितृस्नुचादिभिः साधे वसंस्तिसोलस तीसा वीसा, पनरस अणुप्पवायम्मि ॥१॥
ठन् ज्ञातिपाल नाते मित्रमेष दृष्टिविपर्यासादमित्रोऽपमित्येचं बारस एक्कारसमे, वारसमे तेरलेध यत्थूरिण।
मन्यमानो हन्याद् व्यापादयेत्. तेन च दृष्टिविपर्यासयता मित्रतीसा पुण तेरसमे, चदसमे पम्पधीसायो॥॥"
मेष हतपूर्व भवतीति, अतो रष्टिविपर्यासदएमोऽयम् ॥१२॥ सर्वसंख्यया चामूनि द्वे शते पञ्चविंशत्यधिक,तथा संख्येयानि
पुनरपयन्यथा तमेषाऽऽह-(से जत्यादि) तद्यथा नाम कश्चि. चूधावस्तूनि, नानि च चतुस्त्रिंशत्संख्याकानि । नं0 ।स. वृ०॥
त्पुरुषः पुरुषकारभुवन ग्रामघाताऽदिके विभ्रने भ्रान्त चेता श्रा० म० । दश । प्रज्ञा० । सूत्र । व्य० । कर्म । अनु० । श्रो दृष्टिविपर्यासाद चौरमेघ चौरोऽयमित्येवं मन्यमानो व्यापादअपेकया सूक्ष्मजीवाऽऽदिभावकथने, ध०१ अधि० । स्था० ।
येत, तदेवं तेन नान्तमनला विनमाऽऽकुलेनाचौर एव हनपूर्वी सर्वशीनां तत्र समवतारस्तस्य जनके, पं.च.।।
भवति. सोऽयं दृष्टिविपर्यासंदण्डः । तदेवं तु तस्य दृष्टिवि. मनु स्त्रीणां दृष्टिवादः किमिति न दीयते ?,श्त्याह
पर्यासवत् तत्प्रत्ययिकं साबा कर्माधीयते, तदेवं पञ्चमं द. तुच्छा गारवबहुसा, चबिंदिया दुब्बना धिईए य । पडसमादान दृष्टिविपर्यास प्रत्यायिकमारूपातमिति ॥१शा सत्र इय अश्सेसज्जयणा, तूयावायो य नो थीयं ॥५५२॥ २शु. २ अ । ५० प्रा० चू० । स्था। यदि हि दृष्टिवादः स्त्रियाः कथमपि दीयेत,तदा तुरछाऽऽदिस्व. | दिद्विविस-दृष्टिविष-पुं० । दृष्टौ विषं येषां ते दृष्टिविषाः । ६. भावतया अहो ! अहं या दृष्टिवादमपि पनामीत्येवंगssमात.
| करसपनेदे, जी० १ प्रति० । प्रज्ञा । स्था० । मानसाऽसौ पुरुषपरिभवाऽऽदिष्वपिप्रवृत्ति विधाय दुगंतिमनिगमत् । अतो निरवधिकृपानीरनीरधिभिः परानुग्रहप्रवृते.
दिषिविसजावणा-दृष्टिविषनावना-स्त्री० । दृष्टौ विर्ष येषां ते भगवतिः तीर्थकरैरुत्थानसमुत्थानश्रुताऽऽदीन्यतिशयवस्यध्य- दृष्टिविषाः, नत्स्यरूपप्रतिपादिका दृष्टिविषया भावना । पा। यनानि दृष्टिवादश्च स्त्रीणां नानुझातः । अनुग्रहार्थ पुनस्तास अयाह्यकालिकभुतविशेष, .पं0 4. । व्य। मपि किञ्चित श्रुतं देयमित्येकादशादिविरचनं सफल- दिहिसंचाल-दृधिसंचार-पुं० । निमेषादी, ध०२ अभिः। मिति गाथाऽर्थः ॥ ५५॥विशेछ । कर्म ।।।
आषाला दिहिवायअक्खेवणी-दृष्टिवादाऽऽक्षेपणी-स्त्री० । दिष्टिपादस्य कथाभेदे, स्था० ४ ठा। ('अक्खेवणी' शब्दे प्रथमन्नागे
दिद्विसंपा-दृष्टिमंपन्न-पुं० । सम्यग्दृष्टियुक्त, 'ध. ३ अधिः। १५२ पृष्ठे व्याख्या)
भाव । स्था। दिहिवाय नवएसा-दृष्टिवादोपदेशा-स्त्री० । दृष्टिदर्शनं सम्य-दिहिमपामया-दृष्टिसम्पन्नना-नी० । सम्यग्दृष्टितायाम्, स्था० परवाऽऽदि चादो दृष्टीनां वादो दृष्टिवादस्तद्विषय उपदेशःप्ररूपणं १०3101 यस्याः सा दृष्टिबादोपदेशा इति। तृतीये संज्ञाभेदे प्रवदिहिसंबंध-दृष्टिसम्बन्ध-पुं० । संयतीनां दधिरामायया .. १४४द्वार।
या संबानाति । संयते, व्य०७०। दिद्विविपन्जय-दृष्टिविपर्यय-पुं०। मिथ्याऽनिनिवेशे, द्वा०द्वान
दिहिसम्मोह-दृष्टिसम्मोह-पुं० । अन्यथादर्शनहेती, पो।। दिहिविपरियासदंग-दृष्टिविपर्यासदएक-पुं० । दृष्टेविपर्यासोर
सिंमोहलकणम्ज्जुमिव सर्पबुद्धिस्तया दरामो दृष्टिविपर्यासदामः। श्रेष्ठकाऽऽदि. बुद्ध्या शराऽऽयनिघातेन वटकाऽऽदिव्यापादने सूत्र०२७०२मा गुणतस्तुल्ये तत्वे, संझानेदाऽऽगमान्यथादृष्टिः।
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( २५१७) दिहिसम्मोह अनिधानराजेन्डः।
दित्तचित्त भवति यतोऽसावधमो, दोषः खलु दृष्टिसंमोहः ॥११॥ दिणक्खय-दिनदय-पुं०। “एकस्मिन्सायने त्यहि, तिथीनां त्रि. गुण उपकारफलं, तदाश्रित्य तुव्ये समाने द्वयोवस्तुनोः,नद्भा
| तयं यदा । तदा दिनकयः प्रोक्तः" इत्युक्ते एकसावनदिनवृत्ति. वस्तव तस्मिस्तुल्ये सति । संज्ञाभेदाऽऽगमान्यथा दृष्टिः,आगमेन
तिथित्रयरूपे काले, वाच। स्था० ६ ठा। भागमविषये अन्यथा विपरीता दृष्टिर्मतिरस्येत्यागमान्यथा- दि बुद्धि-दिनछि-स्त्री० । अधिकदिने, भतिरात्रोऽधिकदिदृष्टिहुवी हिसमाप्तः। संज्ञानेदेन नामभेदनाऽऽगमान्यथादृष्टि नवकिरिति यावत् । स्था०६ ठा। रिति पुरुषः परिगृह्यते । भवति जायते, यतो यस्माहोषादसौ
दिणरामि-दिनराशि-पुं० । अहोरात्रपुळे. व्य. १ उ०। दोषोऽधमो निकृष्टः, स्त्रबुशब्दोऽवधारणे, अधम एव दोषो दृष्टिसंमोहाभिधानः । श्दमत्र हृदयम्-निदर्शनमात्रेण द्वयो
| दिणसूरि-दिनमूरि-पुं० । इन्द्रदत्तरिशिध्ये सिंदगिरिसूरिरारम्भयोोंगोपभोगलकणं फसमाश्रित्य तुल्यमेव तस्वम् । तत्र
| गुरौ स्वनामख्याते सूरौ, ग.४ अधि०। कस्मिन्त्रारम्ने प्रवृत्तः पुरुषः तत्फलोपयोगी तमारम्भं सावध दिम-दत्त-१०
दिस-दत्त-त्रि० । दा-क्तः। विसृप, त्यक्ते, रक्षिते च । द्वाद. मन्यते,अपरस्तु तत्समान एवं प्रवृत्तस्तमारम्भ निर्दोष मन्यते ।। शपुत्रमध्ये (पत्तक) पुत्रभेदे । वाच०। प्रशा० २५६ । श्रा० । तत्फलं च स्वयमेवोपभुक्त, यतो दोषात् स दृष्टिसंमोह इति । रा० । आचा० । सत्ता वितीण, झा. १०८ प्र. । अथवा-गुणः परिणामो नावोऽध्यवसाबविशेषस्तदङ्गीकरणेन प्रश्नः। प्राचा० । नमेरेकविंशतिजिनस्म प्रथमनिकादायके, सुल्ये तस्ये संज्ञानेदाऽऽगनान्यथाष्टिः पुरुषो यतो दोधात प्रवर्तते स। प्रा०मा निबेशिते, प्रश्न.१ श्राश्र० द्वार । चन्द्रप्रनस दृष्टिसमोटो नाम दोषो नवति । यत्र तु गुण तो भावाऽऽख्या
स्याष्टमजिनस्य प्रथमे शिष्ये, स.। श्रेयांसस्थैकादशमस्य जि. गुणान तुल्यं तव स्वरूप द्वयोरारम्नाऽऽत्मनोव्यक्तिभेदेन वस्तु.
नस्य पूर्वनवे जीवे. स०। अष्टापदपर्वतस्थे स्त्रनामस्वाते ताप. नोस्तत्र त्याऽऽयतनाऽऽदिविषये केत्रहिरण्यग्रामाऽऽदी शास्त्री
से च। पुं०। उत्त०१०१०। प्रा. म. । भावे क्तः। दाने, याध्यवसायभेदेन प्रवृत्तत्वात् स्वयं च तत्फलस्यानुपनोगात्
"दत्तं सप्तविध प्रोक्त-मदतं षोडशात्मकम् । पण्यमूल्यं भृ. कवसमागमानुप्सारितया तत्रोपेक्षापरित्यागेन ग्राम केत्राऽऽद्या
तिम्तुष्टचा, नेहास्प्रत्युपकारतः ॥२॥ स्त्रीणां चानुग्रहार्थ च, रम्नमपरिहरतोऽपि न दृष्टिसमोहाऽऽख्यो दोषः, तस्वतस्त
दत्तं सप्तविध स्मृतम्" इत्युक्ते दाननेदे च । नवाच । "दि. म्याssरम्भपरिवर्जनात् । दर्शनमागमो जिनमतं, तत्र संमोहः
सभश्नत्तयणा ।" दत्तं भृतिभक्तल कण व्यं भोजनस्वरूप समूढता,अन्यथोक्तस्याभ्यथाप्रतिपत्तिदर्शनसमोहः। न चैवंविध. वतेनं मूल्य येभ्यस्ते तथा । ज्ञा० १ श्रु०७० । पा० उत्त स्याऽऽगमिकम्य दोषः संभवतीति । तथाचागम:--"चोप दैन्य-नादीनस्य भावः व्य। दीनत्वे, कार्पषये च । चाचा चेप्राणं, खत्तहिर मार गामगावाइ । लग्गंतस्स उ जश्णो, तिकरणसोही कहनु भवे? ॥१॥" अयं च स चोद्यः परिहा.
| शोके च । स्था०१०म० । भाव। रोऽबसेयः । यदि वा-अहिलाप्रशमाऽऽदीनां सम्त्रान्तरेष्यपि
दिनमणि (ण)-दत्तगणिन्-पुं०। वीरमोक्षात् साद्वादशशते तुल्ये तव परिजाषाभेदमात्रेणागवन्यथाष्टिः पुरुषो यतो
वर्षे जाते स्वनामख्याते प्रसिद्ध गणिनि, ति। नवति स हिसंमोह इति ॥ ११ ॥षो०४विव०।
|दिस्य-दत्तक-पुं० । स्वाथै कन् । “दद्याद् माता पिता वा यं, दिहिसार-दृष्टिसार-पुं० । राष्टिसद्भावे, आo चू०१०। । स पुत्रो दत्तको भवंत" इत्युक्त
स पुत्रो दत्तको भवेत्" इत्युक्ते स्वनामयाते पुत्रनेदे, बाच०। दिहिमन-दृष्टिाल-न० । नेत्रशुभे, झा० १ ६० १३ अ01
दसकः पुत्रतया वितीर्णो, यथा बाहुबलिनाडानम्वेगः श्रूयते,
स च पुत्रवत्पुत्रः । स्था०१०म०। दिहिसेवा-रष्टिसेवा-स्त्री० । हावनाधानुसारेण दृष्टदृष्टिमीसने,
'दिमवयाण-दीप्तवचन-न। कुपितवचने,प्रइन०५ संवद्वार। प्रय) १६६ द्वार । दश। दिय-दृष्ट-त्रि०। चकुषा उपलब्धे, भा० म०१ प्र. २
दित्त-दीप्त-पुं० । दीप-क्तः । निम्बूके, सिंहे च । स्वणे, हिङ्गनि
च। न । वाच०। जाज्वल्यमाने, चं० प्र०१ पाहु । जं०। खामा
भ० । नं0। नि। झा. वझे, नं• कान्तिमति, रा० । दिण-दिन-.। चति तमः सूर्यकिरणोपनकिते षष्टिदगमा.
ज्वलिते, दग्धे, भासिने, दीप्तिमति, वाच० । नास्वरे च । ऽऽत्मके तविशिष्ट बा चतुर्षामाऽऽमके काले, वाच । पञ्चा० । त्रिीचं. प्र०१६ पाहु० । हालाङ्गलकायाम, अग्निशिविव० । घन-सूर्याङ्क-दपक-यामेति पर्यायाः, दिन-दिवस-- खौषधी, ज्योतिष्मत्यां च । टाप । वाच० । धातुबनवीयर्यावासराणां पुनपुंसकत्वम् । है ।
ऽऽदियुके, " दित्तं च कामा समनिइवंति।" उत्त० ३४० दिणकय-दिनकृत-पुं० । सूर्ये, स्था०२ वा०३ उ० ।
प्रसिके, "भा दित्ता वित्यिमविपुलभवणसयणास जाणवाहदिणकर-दिनकर-पुं० दिन करोति खोदयेन कृ-टकादिने करः
णाश्णा ।"भ० २६ श० ३० । स्था० ।
दृप्त-त्रि० । उप-क्तः । गर्विते, नाचा दर्पति, श्री।दश। किरणो यस्व वा । सर, वाच०। अनु० । दिनकरणशाले, झा०१श्रु०१०। रा०। सू०प्र०। प्रा०यू० प्रा० म०।
भ० झा० । प्रश्न । स्था०ाज। स्था .1
दित्तचित्त-दीप्तचित्त-पुं०। स्त्री० । हर्षातिरकेणापत्तचित्ते, दिणकरपम्पत्ति-दिनकरपझप्ति-श्री. । सूर्य प्रज्ञप्तिनामके ग्रन्थे, वृ० ३ ००। ज्यो० २१ पाहु।
दीप्तचित्तस्य चिकित्सादिणकिच-दिनकृत्य-न० । स्वनामख्याते ग्रन्थे, ध०२ अधिः।। दित्तचित्तं निक गिलायमाणं नो कप्पइ तस्स गणावदिवसकायें, बाव०।
चेदियस्म निज्जहित्तए अगिज्ञाए तस्स कराणिज वे
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दिचचित्त
यामियं जाव ततो रोगार्तकात विप्यमुको, ततो पच्छा तस्म महालहस्सेगे नाम बवहारे पविचेसिया ॥ ११ ॥
अस्य व्याख्या संपतः प्राग्वत् ॥ ११ ॥
संप्रति माध्यकारी
राहूएसेव गमो नियमा, दित्ताऽऽदी पि होति नायन्त्रो । जो दोइ दित्तचित्तो, सो पलवति अनिच्छियाई । १४६ । एप पत्रामन्तरः प्तिचितस्तत्र गमः प्रकारो लौकिक लोकोस. रिकerssदिरूपणे, दीसानामपि दीप्तचित्तप्रभृतीनामपि नियनिर्मातात्वं तदातव्यम्। तदेवाति सूबेनिधित्सु (जादि यो भवति सतिः सोऽनीप्सितव्याने बहूनि प्रलपति, बहुनीप्सितमलपनं तस्य लक्षणं तितिस्पतिया मीनेनाप्यवतिष्ठते इति परस्परं सूत्रयोविंशेष इति भावः ॥ १४६ ॥
श्रथ कथमेष दीप्तचित्तो भवतीति तत्कारणप्रतिपादनार्थमाहइति एस श्रमणा, खित्तो सम्माणतो हवति दितो । अमी दिव्य चितं इतुि ।। १५० ।। ताकेन प्रकारेण एप मा प्तितोऽमागतोऽप मानतो जयति दीप्तो वित्तः पुनः सम्माि नावाप्तितो भवति । दीप्तचित्तो नाम-यस्य दीप्तं चित्तं तच्च चित्तं दध्यते अग्निरिवेन्धनैरेभिर्वदयमाणैखभमदाऽऽदिभिः१५०० सानेवा35
( २५१० ) अभिधानराजेन्द्रः ।
लाजमदेव अहवा जेऊरा जर सन् । दिसम्म सातवाहनों तमहं वृच्छं समायेनं ॥ १५१ ॥ वाभमदेन वा मत्तः सन् दीप्तचिसो जवति अथवा दुर्जयान् शत्रुजिवादी लोकिकोष्टान्तः शातवाहन राजा, तमहं शातवाहनदृष्टान्तं समासेन वक्ष्ये ॥१५२॥
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यथाप्रतिज्ञातमेव करोति
महरा दंगाची, निम्गय सहसा अपुच्चियं परं । वस्य निक्खा आणा, जुड़ा गया दो चि पामे ॥ १५२॥ गोयावरी नदी तर्फे श्र पठाणं नयरं तत्थ सालवाहणो राया, तस्स खरगश्रो श्रमचो, अन्नया सो सालवाइणो राया दमनाय श्राणवेश - महुरं घेतूण सिग्घमागच्छ । सो य सहसा अच्छिऊण दर्द सह निग्गतो । ततो चिंता जाया का म रामरा, उत्तरमडुरा वाटीत आणा ति
पुनीता काऊ दो वि पेसिया, गहिया तो दो वि महराओ। ततो बागो पेसिओ । तू राया या देव! महरा गरियो अन् आगतो देव! अमुवाथ पसे विपुलो निपायको जातो ततो रुवरि कलानिवेदन हरियमाणहि यत्र परवसो जात। ततो दरिसं परिमात सर्वाणि बुट्टर, खंभे ग्रहण, कुडे विद्दवर, वहूणिय असमंजसाि पतवति । ततो खरगेणामश्वेणं तमुवापण परियोहिन कामेण भाव दिया। राणि विवि है। सोम
दिवो नम सम्मुनलीयमेवं जगतिवि रन्ना खरगो पापण ताडियो । ततो संकेइयपुरिसेहि उप्पाडितो,
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दित्तचित्त
अन्नत्थ गोविश्रो य । ततो कम्हि पश्रयणे समावडिए रक्षा पुच्किर मोहित है। संकेतियपुरिमेहि कहि देव! तुम्हं अविषयकारि ति सो मारितो । राया त्रिसुरियं -कमत ततोभावस्थ जातो. ताई फेरि देव! गाजि कथा डादि रचित हुआ। ततो गवेसिको, राया संतुो मन सम्मायो कथितो, तुरेण चिडला भोगा दिया" साम्प्रतमतवाहन मरा ग्रहणाय दण्डस्य दलस्याऽऽज्ञप्तिः कृता, ते दरमाः सहसा कां मथुरां गृहीम इत्यपृष्ट्वा निर्गताः, तस्य च राइ आशा तीक्ष्णा, ततो भूयः प्रष्टुं न शक्नुवन्ति, ततस्ते दण्डा द्विविधा गता द्विधा विनय एके दक्षिणमधुरायामपरे उत्तरमपुरा बता इत्यर्थः । द्वे अपि च मथुरे पातयित्वा ते समागताः ॥१५२॥ सुयजम्ममहुरपाडल - निहितंजानिवेयणा जुगव दित्तो | सयाविज्जखंज कुड्डे, घट्टे इमाइँ पलवतो ॥ १५३॥
सुतस्य जन्म, मथुरयोः पातनं, निधेर्वाभस्तस्य च युगपन्निवेनासा दीचित्ततया श मानि पश्यमाणानि प्रलपन् शयनय ति ॥ १५३ ॥
तत्र यानि प्रज्ञपनि ताम्याह
सच्चं जण गोयावरि ! पुव्त्रसमुद्देण साहिया संती । साझालरि जति ते कु कुलं अस्थि ॥१५४॥ हे गोदावरी पूर्वसमुद्रेणखाधिकृताश सत्यं भण ब्रूहि, यदि तब कूले शातवाहन कुलसदृशं कुल मस्ति । १५४ उत्तरतो हिमवतो, दाहिणतो सालवाहको राया । समभारभरकंता, तेण न पल्हत्थए पुइवी || १५५ ।। उत्तरे उत्तरस्यां दिशि दक्षिणः शतवाद राजा, तेन समभारभराक्रान्ता सती पृथिवी न पर्यस्यति ! अन्यथा वा दक्षिणतो न स्यां ततो हिमबद्वारा नि यमतः पर्यस्येत् ॥ १५५ ॥
याणि य अन्नाणि य, पलवंतो सो अनाणियव्याई । कुसझेण मचेणं, खरगेणं सो नवाएं ।। १५६ ॥ एतान्यनन्तरोदितानि श्रन्यानि च सोऽनणितव्यानि बहूनि प्रलपितवान, ततः कुशलेन खरकनाम्नाऽमात्येनोपायेन प्र तिबोधयितुकामेन ।
किमित्याहविद्दवियं केणं ति य, तुब्नेहिं पायतालला खरए । कत्यचि मारितो सो, चि य दंसणे भोगा ॥ १५७ ॥ विविना समस्तं स्तम्भकुरुच
विनाशितम् । श्रमात्यः संभूस निक युष्माभिः । ततो राज्ञा कुपितेन तस्य पादेन तारुना कृता, त दनन्तरं संकेतितपुरुषैः स उत्पादितः, संगोषितश्च । ततः समा गते कस्मिंश्चित्प्रयोजने राज्ञा पृष्ठम- कुत्रामात्यो वर्त्तते ? | संफेलितपुरुषतम्-देव! युध्यस्वादानामविनयकारी मारितः। तोतंत प्रस्तावस्यस्मिन् ज्ञाते संकेतितपुरुपैरमात्यदर्शनं कारितम् । सद्भावकथनानन्तरं राज्ञा तस्मै विपुला भोगाः प्रदत्ता इति ॥ १५७ ॥
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(२५१) दित्तचित्त अभिधानराजेन्दः ।
दित्ता उक्तो लौकिको दीप्तचित्तो, लोकोत्तरिकमाह- . हर्द्धिकस्य, विद्याऽऽदि, मादिशब्दाद् मन्त्रचूर्णाऽऽदिपरिग्रहः, महऽज्जयण भत्तखीरे, कंबलगपमिग्गहे फलगसके । यावत्कर्मापि प्रयुज्य, ततोऽवमतरस्य विशिष्टप्रासादाऽऽदि.
संपादने तस्यापनाजना संपादनीया, येन प्रगुणो भवति । पासाए कप्प, वायं काऊण वा दित्तो ।। १५८ ।।
ततः पश्चाविद्याऽऽदिप्रयोगजनितपापविशुध्ये विशोधिःप्रायमहाध्ययनं पौएमरीकाऽऽदिकं दिवसेन,पौरुष्याचा समागतम्,
श्चितं प्रतिपत्तव्येति ॥ १२ ॥ अथवा-नक्तमुत्कृष्टं लब्धं, नास्मिन्केत्रे भक्तमीदृशं केनापि लब्ध.
साम्प्रतमेतदेव विधरीषुराहपूर्व, यदि वा-कोर चातुजातकसंमिश्रमवाप्तं, नैतादृशमुत्कृष्ट
नकोस बहुविहियं, आहारोवगरणफनगमादीयं । क्षीरं केनापि लच्यते, यदिवा-कम्बनरत्नमतीवोत्कृषम,अथवा
खुडेणोमतरेणं, आणीतो नामितो पणो ॥ १६३ ॥ विशिष्ठवर्णाऽऽदिगुणोपेतम,अपनवणहीनं पतग्रह (फलग ति) या-फक चम्पकपट्टाऽजदिकम् । अथवा-श्राद्धमीश्वरमतिदा
उत्कृष्ट बहुविधिकं बहुदमाहारं भक्तक्षीराऽऽदिकमुपकरणं कसारमुपासकत्वेन प्रतिपनं लब्धम् । यदि वा-प्रासादे सर्वोत्कृष्ट
म्बनरनप्रभृति फलकं चम्पकपट्टतिनिसपट्टादिकम, प्रादिशउपाश्रयत्वेन बब्धे, (कप्पटे इति ) ईश्वरपुत्र रूपवति प्र
ब्दः स्वगतानेकभेदसूचकः, तथाविधश्रारूप्रज्ञापनेन विद्याऽऽदि. कानिधाने बन्धे प्रमोदते, प्रमोदभरवशाचदीप्तचित्तो भवति ।
प्रयोगेण वा संपाद्य क्षुण बुद्धकेन,गुणतोऽवमतरेण शतभा पतेन सान्नमदेन वा मत्त इति लोकोत्तरे योजितम् । अधुना दुर्ज.
गसहभागादिना हीनेन आनीतमुपदर्य सोऽपत्राजितः यान् शत्रून् जिस्वेत्येतद्योजयति-(वायं काऊण बत्ति) बादं वा
क्रियते, ततः प्रगुणो भवति ॥ १६३॥ परप्रवादिना दुर्जयेन सह कृत्वा तं पराजित्यातिहर्षवशतो
प्रासादाऽऽदिविषये यतनामाहदीप्तो दीप्तचित्तो भवति ॥१५८॥
अद्दिसहकहणं, पाउचा अभिगवो य पासाम्रो । साम्प्रतमेनामेव गाथां विनेयजनानुग्रहाय विवरं षुराह
कयमिते य विवाहे, सिछादिभुया कश्यवेणं ॥१६॥
यस्तेन श्राद्धो न दृष्टोऽदृष्टपूर्वः, तस्यारस्य श्राद्धस्य कथन पुंडरियमाश्यं खन, भज्यणं कथिकाण दिवसेणं ।
प्रज्ञापना,उपलकणमेतत-अन्यस्य महर्षिकस्य विद्याऽऽदिप्रयोगः हरिसेण दित्तचित्तो, एवं होनाहि कोई न ।। १५ ।।
तोऽनिमुखीकरणं था, ततस्ते श्रावृताः सन्तस्तस्य लब्धमानिन: कश्चित्पाएमरीकाऽऽदिकमध्ययनं खझु दिवसेन, उपनक्कणमे- समीपमागत्य ब्रुघते-वयमेतेन क्षुख केन प्रज्ञापिताः, ततोऽभितत्-पौरुष्यादिना वा, कर्षित्वा पवित्वा, हर्षेण दीप्तचित्तो नव एवं कृतमात्र एव युध्माकं मे प्रासादो दत्त इति । तथा भवेत्, एवमध्ययनलाभेन दीप्तचित्तता ॥ १५॥
सिद्धपुत्रादिकेषु प्रज्ञापन, विद्याऽऽदिप्रयोग वा कृत्वा तत्सुतः दुसहदब्वे देसे, पमिसेविय तं असद्धपुलं वा ।
कृतमात्रधीर्बाह्य एव व्रतार्थ तत्समकमुपस्थापनीयो, येन आहारोवाहिवसही, अहणविवाहो व कप्यट्ठो ॥१६॥
तस्यापत्र जानोपजायते, ततः पश्चादत्तः। तथा केतवेन कपटेन संभाव्ये देशे, तद्र्वभव्यं, केनाप्यलब्धपूर्व, वाशब्दः
सिद्धाऽऽदिसुताः सिरूपुत्राऽऽदिसुताः कृतमात्र एवं विवाहे च.
त्पादनीया, शकुनाऽऽदिवैगुण्यमुद्भाव्य मुच्यन्ते, यदि न स्यात् समुच्चये, प्रतिसेव्य सम्वा, दीप्तचित्तो जवति । एयमाहारे भ
तावकी व्रतक्षेति ॥ १६४॥ ककीराऽऽदिके,उपधी कम्बवरत्नाऽऽदिके,वसतौ प्रासादाऽऽदि. रूपायां बधायाम् यदि वा-(कप्पट्ठोक्ति) ईश्वरपुत्रोऽधुना कृत.
“वायं काऊण व" इत्यत्र यतनामाहविवादः प्रज्ञानिधानं शिष्यत्वेन लब्ध शति हर्षेण दातचित्तो
चरगाऽऽदि पन्न, पुव्वं तस्स पुरतो जिगाति । भूयात् ॥ १६०॥
ओमतरगेण तत्तो, पगुणति ओनामितो एवं ॥१६॥ तत्रैतेषु दीप्तचिन्तेषु यतनामाद
चरकाऽऽदिकं प्रचराऊ परबादिनमधाकृतसाधो दे वाऽसाध्य दिवमेण पोरिसीए, तुमए ठवियं इमेण अद्धेण ।
पूर्व प्रज्ञाप्य प्ररूपितस्याधिकृतस्व वादाभमानिनः साधोपु.
रतोऽधमतरण चरकाऽऽदिकं जापयन्ति वरवृषभानतःस पवएयस्स नत्यि गयो, दुम्मेहतरस्स को तुऊं? ॥१६१॥ |
मपना जितः सन् प्रगुणायते प्रगुप्पो भवति ॥१६५ ॥ व्य दिवसेन,पौरुष्या वा त्वया पौण्डरीकाऽऽदिकमध्ययनं स्था
२ उ०।०। पितं परितं, तदनेन दिवसस्य, पौरुध्या वा अन, तथाप्येत- दित्तं निग्गंथि निग्गंथे गिएहमाणे वा अवलंबमाणे वा स्य नास्ति गर्वः, तब पुनईमेधसः को गर्यः ?, नैव युक्त शति
नाइकमा ।। ११॥ जावः । एतस्मादपि तव हीनप्रज्ञत्वात् ॥ १६१।।
दीप्तचित्तां निर्ग्रन्थी गएहन्नवलम्बमानो वा नातिक्रामत्याकातद्दबस्स दुगुंछण, दिलुतो जावणा असरिसेणं ।
मा तत्र निर्ग्रन्धस्य निग्रंथ्या वा अपि वक्तव्यता वक्तव्या,नवरपगयम्मि पालवेत्ता,विजाऽऽदि विसोहि जा कम्म।।१६। मेतत्प्रत्यजिलापः कर्तव्यः । बृ०६ उ० । स्था। नि० ओघ। यतो दुर्लभषव्यं नक्ष्यं क्षीराऽऽदि तेन लब्धं, तस्य व्यस्य
दित्तनव-दीप्ततपस-पुं०। दीप्तं तपो यस्य स दीप्ततपः । हुताशन जुगुप्सनं क्रियते,यथा नेदमतिशोभनम, अमुको वाऽस्य दोष इ.
व कर्मवनदाहकत्वेन ज्वलत्तेजस्के तपस्विनि, विपा. १ श्र. त्यादि । यद्वा-दृष्टान्तोन्येनापीरशमानीतमिति प्रदर्शन क्रिया ते । तस्य हटान्तम्य नावना असदृशेन तस्मात शतभागेन, I
। १०।का। स्था० । औ । नि०भ०। सहस्रभागेन वा यो हीनस्तेन कर्तव्या। तथा (पगयम्मि इ-
|दित्तधर-दीप्तधर-पु.। ज्वलितधारके, स्था० १.ग.। । अधमतरस्य विशिष्ट प्रासादाsपि दृप्तधर-पुं०। दर्पवकारके, स्था० १० ठा० । तथाविधं श्रावकमितरं वा प्राप्य तदभावे कस्यापि मदित्ता-दीप्ता-खी । ज्वलन्त्याम् , उत्त० १६ अ.
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(२५२०) दित्ति अभिधानराजेन्डः।
दिप्पा दित्ति-दिति (ती)-स्त्री।दोऽवस्खएमने, तिच् वा डीप् ।। दस्याः । तमुक्तम्-" भवाम्बोधिसमुत्तारात. कमैवज्रविनेदतः। दैत्यमातरि कश्यपपन्याम, भावे क्तिन् । स्वएडने, वाच ।। शेष व्याप्तेश्च कात्स्ये न, सूक्ष्मत्वं नाऽयमत्र तु ॥१॥" ॥२३॥ पुनर्वसुनकत्राधिष्ठातृदेबतायाम , स्था० २ ठा० ३ उ• । अवेद्यसंवेद्यपदं, चतसृष्वामु दृष्टिषु । चं०प्र०।
पदिच्छायाजाचर-प्रवृत्यानं यमुस्वणम् ॥ २४ ॥ दीप्ति-स्त्री० । दीप-क्तिन् । कान्तौ, "कान्तिरेव वयोभोग-दे.
(अवेद्येति) आंसु मित्राऽऽद्यासुचतसृषु दृष्टिषु यद्यस्मादवेद्यशकालगुणाऽऽदिभिः। उद्दीपिताऽतिविस्तारं, प्राप्ता दीप्तिरिहो. संवेद्यपदम् उल्वणमधिकम् । पक्किच्छायायां जलसंसर्गियां च्यते ॥१॥"श्त्युक्त स्त्रीणां गुणभेद, वाच । दीपने, शा०१ जलधिया जलचरप्रवृत्तिरियाऽऽभा वेद्यपदसंवेधसम्बन्धिनी भु०१०प्र०।
यत्र तत्तथा । तत्र हिन तास्विकं वेद्यसंवेद्यपदं,किं त्वारोपादित्तिम-दीप्तिमत-पुं० । परवादिनामकोज्ये वात्रिंशतसूरि..
धिष्ठानसंसर्गितयाऽतारिखकम, अत एवानुल्यणमित्यर्थः ।
एतदपि चरमासु चरमयथाप्रवृत्तकरणेन पंवेस्याचार्याः । गुणानां चतुस्त्रिंशत्तमे गुणे, ग० १ अधिः । प्राचा० । प्रवः ।।
तदिदमभिप्रेत्योक्तम-"अवेद्यसंवेद्यपदं, यस्मादासु तथोल्वदिन्या-दित्सा-स्त्री० । दातुमिच्छायाम, सूत्र. २ श्रु० ४ ० ।।
णम् । पक्षिच्चायाजलचर-प्रवृस्वानमतः परम् ॥ १॥" ॥२६॥ दिदिक्खा-दिक्षा-स्त्री० । इष्टुमिच्या दिरका । दर्शनेच्छाया- वेयं संवेद्यते यस्मि-नपायाऽऽदिनिवन्धनम् । म्, नं० । षो।
पदं तद् वेद्यसंवेद्य-मन्यदेतद्विपर्ययात् ।। २५।। दिका भवबीजं चा-विद्या चाऽनादिवासना ।
(वेद्यमिति) वेद्यं वेदनीयं वस्तुस्थित्या, तथा भावयोगिसाभङ्गयेषैवाऽऽश्रिता माङ्ख्य-शैववेदान्तिसौगतैः ॥श्या मान्येनाविकल्पक ज्ञानग्राह्यमित्यर्थः । संवेद्यते क्षयोपशमानुरूपं (दिडकैति) पुरुषस्य प्रकृतिविकारान् अष्टुमिच्छा दिक्षा निश्चयबुद्ध्या विज्ञायते, यस्मिन्नाशयस्थाने, अपायाऽऽदिनिवसैबेयमिति सारख्याः, भवोजमिति शवाः, अविद्येति बेदा- धनं नरकस्वर्गाऽदिकारण हिंसाऽऽहिंसाऽऽदि तद्वेद्यसंवद्य स्तिकाः, अनादिवासनेति सौगताः ॥ १६ ॥ द्वा० १२६०। पदम,अन्य दवेद्यसंवेद्यपदमेतद्विपर्ययायुक्तल वणव्यत्ययात् । य. दिक-दिग्ध-। दिह-तः । विषाक्तवाणे, बह्रौ च । भावे
धपि शुद्ध यथावद्वद्यसंवेदनं मापतुषाऽऽदावसम्नचि, योग्यता. तः। स्नेहे, अपने, न० । कर्मणि क्तः । लिप्ते, वाच० । नि.
मात्रेण च मित्रादिष्टिष्वपि संभधि,तथाऽपि वेद्यसंवेद्यपदप्र.
वृत्तिनिमित्तं प्रन्धिभेद जनितो रुचिविशेष एवेति न दोषः।२५। चू०१उ०। दिप्प-दीप्र-त्रि० । प्रकाशिते, "दीप्रदीपाकुरायते ।" रत्ना०
अपायशक्तिमालिन्यं, सूक्ष्मबोधविघातकृत् । १ परि० ।
न वेद्यसंवेद्यपदे, वज्रतएमुलसन्निने ॥ २६ ॥ दिप्पंत-दीप्यमान-त्रि०। भासमाने, मि०चू०१०ादीप्यमान
(अपायेति) अपायशक्तिमालिन्यं नरकाऽऽद्यपायशक्तिमलिनत्वं. बिमलग्रहगणसमप्रभाः। दीप्यमानो रजन्यां भास्वान् विमलो
सुक्ष्मबोधस्य विघातकृत् अपायहेत्वासेवनक्लिष्टबीजसनावात्त.
स्य सद्ज्ञानाऽऽवरणक्षयोपशमाभावनियतत्वात् । न वेद्यसंवेद्य. उत्र धृव्याद्यपगमेन ग्रहगणो प्रहसमूहस्तेन समा प्रना यासां
पदे उक्तलक्षणे वनतरामुवसन्निभे, प्रायो पुगतावपि मानसदु:ताः। जी. ३ प्रति० ४ ००। अनथे, देना०५ वर्ग ३६ गाथा ।
स्वानावेन तद्वद्वेद्यसंबेद्यपदवतो नावपाकायोगात् । एतच्च व्या. दिप्पमाण-दीप्यमान-पि० । भासमाने, औ० । कल्प० । "दि.
चहारिकं वेद्यसंवेद्यपदं नावमाश्रित्योक्तम् । निश्चयतस्तु प्रतिप्पमाणसोह।" दीप्यमाना शोभा यस्य तम। कल्प० ३ कण । पतितसद्दर्शनानामनन्तसंसारिणां नास्त्येव वेद्यसंवेद्यपदभावः। दिपा-दीपा-स्त्री० । दीपप्रभासदश्याम, ध०१ अभिः । नैश्चयिकतद्वति क्वायिकसम्यम्दृष्टौ श्रेणिकाऽऽदाविव पुनर्दुर्गयोगदृष्टिभेदे, द्वा०।
त्ययोगेन तप्तलोहपदन्यासतुल्याया अपि पापप्रवृत्तेश्वरमाया
एवोपपत्तेः। प्राणायामवती दीपा, योगोत्यानविवर्जिता ।
यथोक्तम्तषश्रवणसंयुक्ता, सूकमबोधमनाश्रिता ॥ १६ ॥
"अतो उन्मपुत्तरा स्वस्मात्, पापे कर्माऽऽगसोऽपि हि। प्राणायामवती प्राणायामसहिना दीपा दृष्टिः योगोत्थानेन
तप्तमोहपदन्यास-तुल्या वृत्तिः कचिद।१॥ विर्जिता, प्रशाम्तवाहितासाभात्। तस्वश्रवणेन संयुक्ता, शुश्रू- वेद्यसंवेद्यपदता, संवेगातिशयादिति । घाफलभावात् । सुक्ष्मबोधेन विवर्जिता, वेद्यसंवेद्यपदाप्राप्तेः॥ चरमैव भमत्येषा, पुनर्गत्ययोगतः ॥ २ ॥” इति ॥ २६ ॥ १६ ॥ द्वा०२२ द्वा० । (प्राणायामव्याख्या 'पाणायाम'श
तच्कृक्तिः स्थूलबोधस्य,बीजमन्यत्र चाक्षतम् । ब्दे अष्टव्या) (तषश्रुतिश्व ' तत्तसुर' शब्देऽस्मिन्नेव जागे
तत्र यत्पुण्यबन्धोऽपि, हन्तापायोत्तरः स्मृतः ॥ २७ ॥ २१८३ पृष्ठे गता) कर्मवजूविभेदेना-नन्तधर्मकगोचरे।
(तस्यक्तिरिति ) अन्यत्र चावेद्यसंवेद्यपदे तच्चक्तिरपायश
क्तिः स्थूलबोधस्य बीजमकतमनभिनुतम् । तत्रावेद्यसंवेद्यपदे वेद्यसंवेद्यपदजे, बोधे मूदमत्वमत्र न ॥ २३ ॥
यद्यस्मात् पुण्यबन्धोऽपि हन्तापायोत्तरो विघ्ननान्तरीयका ( कति) कैमैव वज्रमतिदुर्भेदत्वात् तस्य विभेदेनानन्त--
स्मृतः, ततस्तत्पुण्यस्थ पापानुबन्धित्वात् ॥ २७॥ धर्मकं भेदाभेद नित्यत्वानित्यत्वाऽऽद्यनन्तधर्मशवनं यद्वस्तु तद्गोचरे वस्तुनस्तथात्यपरिच्छेदिनि, बेद्यसंवेद्यपदजे बोध सू
प्रवृत्तिरपि योगस्य, वैराग्यान्मोहगर्भतः। मत्वं यत्तदत्र दीप्रायां दृष्टी न भवति, तदधोभूमिकारूपत्वा
प्रसूतेऽपाय जननी-मुत्तरां मोहवासनाम् ॥ २८ ॥
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दिप्पा
दिवस
ण्
पारिदिवसे प्र
सिरप) तामापतत्र मोहन- दिवसभवारि (ए) दिवस तो वैराग्यायोगस्य प्रवृत्तिरपि सद्गुरुपाराभावेऽपायज चरतीत्येवंशी दिवारी दिवसे मैथुनस्यामिनि, मन मोहवास ते मोहजानुस् मोवा पञ्चा० १० बि० । स० । ० चू० । नान्यजस्यात् अतो योगप्रवृतिरप्यकिञ्चित्करोदिया-दिवा दियकः दिवसे पा
ति भावः ॥ २० ॥
अथसंपदेयं निरनुबन्धकम् ।
दियाभोवणादिवाजोजन न० दिवसभोजने, मि० ०११ उ० (दिवाभोजनस्य बारे प्रायश्चितम् शब्देयते)
जवाभिनन्दनम्नां पापं स्यात्सानुबन्धकम् ॥२७॥ (अति अवेद्यसंवेद्यपदे पुरायं मनुबन्धकमनुवम्बर दिवं स्यात् । यदि कदाचित स्वात् पापानुबन्धि सानुबन्धे तत्र ग्रन्थिभेदस्य नियामकत्वात् । भवाभिनन्दिनां क्षुत्वाss
दियालोच्य देवलोकीभूते "श्यालग वामदेवलोकीभूते देव लोकच्युताऽऽभाषितानि स ३० ।
शेषजन्तूना सानुबन्धमनुबन्धमद्दितं स्यादरामदिरा - द्विरद-पुं०""॥ ८१ २४ ॥ इत्यत्र द्वेषाऽऽदिप्राबल्यस्य तदनुबन्धा बन्ध्यबीजत्वात् ॥ २६॥
बाचिका
पादरी स्थ सः। दस्तिनि, वाच० । दिलिवेढय - दिलिवेष्टक- पुं० । ग्राहनेदे, प्रश्न ०१ श्राश्र० द्वार । दिलिदिन देशी बा० बजे ४० गाथा | दिल्लीपुर-दिल्लीपुर - न० | यमुनातटस्थे इन्द्रप्रस्थनामके नगरे, ती० १६ कल्प ।
दिव-दिव- न० । स्वर्गे, सूत्र० १ श्रु० ६ अ० । दिवर्कभिद्वितीयम यस्य ताम्सा सू० प्र० १० पाहु० चं० प्र० । अ० म० । ज्यो० । स० । पार्कतियपात्र तद् पार्थम् सायें, स्था० ६ Jio l
4
कुकृत्यं कृत्यमाजाति, कृत्यं चाकृत्यमेव हि । छत्र व्यामूढचित्तानां कराकम्पनाऽऽदिवत् ||२०|| (त्यमिति) कुकृत्यं प्राणातिपातादित्यं करणीयमामा ति कृत्य चाहिसात्यमेव हि अनावरणीयमेव अत्रा वेधसंवेद्यपदेव्यामूढचित्तानां मोहग्रस्तमानसानां कण्डूनानां रायनादेव आहिना म्याकुला कुष्टोऽन ग्रहः । कण्डूयादीनां कामादेरिव जवाभिनन्दिनामवेद्यसं द्यपदादेव विपर्ययधीरिति भावः ॥ ३० ॥ एतेऽसमानं कुर्वते । मिशाssमिषच्छे, प्रसक्ता भोगजे सुखे ॥ ३१ ॥ (पत इति ते भवासिये महारात्रिवृलिया नजमात्मानं कुर्वते कर्मजः सन् डिशाऽऽभिषवद् मत्स्यगलमांसवत् । तुच्छेऽल्पे रौऽविपाके प्रसक्ताः भोगजे भोगप्रभवे सुखे ॥ ३१ ॥
अवेध संवेद्य पदं, सत्सङ्गाऽऽगमयेोगतः । दुर्गतिमदं जेयं परमानन्दमिच्छता ||३२||
(२५२१) अभिधानराजेन्
(अवेद्यति ) यतो ऽस्यायं दारुणो विपाकः, तत्तस्मादवेद्य संवे पदं दुर्गतिप्रदं नरकादितिकारणम् समायामय गतो विशिष्टसंगमागम सम्बन्धात् । परमानन्दं मोक्षसुखमिच्छता जेक्म्, अस्यामेव भूमिकायामन्यदा जेतुमशक्यत्वात्। अतएवानुवादपरोऽध्यायम इति योगाचा अयोग्यनियोगा सिकेरिति ॥३२॥ द्वा० २२ द्वा० । दिय-द्विज-पुं० । द्विजयते, सुजर्थे वृत्तौ द्विशब्दः, जन-डः । संस्कृतब्राह्मणे, वाच०। श्राचा० । सूत्र०
दिव-न० दिव-कः । स्वर्ग, दिवौकस इत्यत्रादन्तता । दिवसे
वने च । वाच० । स० ४३ सम० ।
द्विक त्रि००० द्विकार्यातच त्रि० । वाच० । दियपोष द्विजपोत पुं० पक्षिशी सूत्र० १० १४० दिवस-दिवस- पुं० | दीव्यन्त्यत्र, दिव असत् किञ्च । सूर्य्यकरणोपलक्षिते पञ्चदशमुहुर्त्ताऽऽत्मके काले, तं० | ज्यो० । मासस्य त्रिंशत्तमे जागे, ज्यो० २ पाहु० 1 दिवसयर - दिवसकर पु० । सूर्ये, को० ।
६३१
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दिववाक्षेत्र०प्र०१० दित्र हुक्खेत्तिय-व्यपार्द्धक्षेत्रिक - त्रि० । द्व्यपार्द्ध केत्रं येषां ते । सार्क के लिके, स्था० ६ ग० ।
त्रिक येषां ते त स० ४५ सम० | ज्यो० सू० प्र० चं० प्र० । श्रा० म० । सः " ॥ | | दिवस-दिवस-पुं० " दिवसे १२६३ ॥ इ सस्य पाक्तिको इः । प्रा०१ पाद । दिवसकर प्रभाप्रकाशितनभःसूर्यकिरणाऽस्पृष्टम्योमखरूपे या चतुरा चतुःप्रहरा sser के समये, विशे० स०॥ श्र० । घ० । प्रश्न० । द्वी० ।
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ता कहं ते दिवसा आहियत्ति वएजा ? । ता एगमेगस्स गां पक्खस्स पन्नरस दिवसा पत्ता । तं जहा-निवादिवसे, वितियदिवसे, जावपारसे दिवसे । ता एतेसि परमई दिवसा पथरस शामभेजा पाता । तं जहा"रमेय ततो मोटरे ।
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जसजदे व जसोध, सम्यकामसमिकेवि य ॥ १ ॥ इंदमुकामसिते, सोमण बांध अत्यभिके अनिजिते असतं चैव ॥ २ ॥ अग्निवेसे उसमे दिवसाणं नामलाई "
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इत्यादि) 'ता' इति पूर्ववत् कथं केन प्रकारेण केन क्रमेवेत्यर्थः । भगवन् ! त्वया दिवसा श्राख्याता इति ब
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( २५२२ ) अभिधानराजेन्द्रः ।
दिवस
देत् । भगवानाह - (गमेगस समित्यादि ) 'ता' इति पूर्व यत् । एकैकस्य अत्रायान्तरालवर्ती, मकारों का प मिति वाक्यालङ्कारे । पक्कस्य पञ्चदश दिवसाः प्रकृताः, चदयमाणक्रमयुक्ताः। तमेव क्रममाह - ( तं जद्देत्यादि ) तद्यथा प्रति दिवस द्वितीया द्वितीय दिवसः तृतीया तृतीयो दिवसा पर्व यावर दिवसः ता पसि पमित्यादि तत्र तेषां पञ्चदशानां दिवसा क्रमेण पक्ष दश नामधेयानि प्राप्तानि । तद्यथा- प्रथमः प्रतिपल्लकलः पूर्वानाम द्वितीयः किमनोरमा गुठीयो मनोहर, बतुर्थी - शोभद्र, पञ्चमो यशोधरः पः सर्वकामसमृद्धा सप्तमन्द्र मूर्द्धाभिषिक्तः, अष्टमः सौमनसो, नत्रमो धनञ्जयो, दशमोऽथे. सिकादशोऽभिजित द्वादशोऽत्यसमं यशः खा प्रवेशदश उपशमः । एतानि दिवानां
व
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मेण नामधेयानि । चं०प्र०१० पाहु०१३ पाहु० पाहु० । छादशादिवसः ० ० २ ० अहोरात्रे स्था०५० ३४० दिनानि सुरमेल शब्दे दिवसविडि-दिवसतिथि- स्त्री० तिथेः पूर्वभागे, सू० १० १० पाहु● ० । चं० प्र० । दिवसभयग-दिवसनृतक
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पतितः
"
काककर इत्यर्थः प्रचिदिवं नियतमूल्यने क करतेस प्रतिनियतमध्ये कर्मकरणार्थ गृहीते भृत्ये, स्था० ४ ठा० १३० । पं० चू० । पं० भा० । दिवसृज्जुत - दिवसोद्युक्त-त्रि० । प्रतिदिनमुद्यते, प्रश्म० ३
आश्र● द्वार ।
दिव-दिवस- पुं० दिवस ' शब्दार्थे, प्रा० १ पाद । दिवाकर - दिवाकर - पुं० । सूर्खे, उत० ११ श्र० । रा० । ज्ञा० ॥ श्री० ।" उत्तिते दिवायरे जलंत श्व । उत्त० ११ अ• । दिवाकरकूम - दिवाकर कूट- पुं० । जम्बूमन्दरदक्षिणे रुचक्रवरपर्वतस्याष्टमे कूटे, स्था० ० ० ॥
दिनागर - दिवाकर- पुं० [दिवाकर' शब्दायें, उ ११० दिवागरकूम दिवाकरकूट- पुं० [दिवाकरम शब्दार्थ - । '
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स्था०पा० ।
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दिविष्ठ द्विपृष्ठपुं० द्वितीये वासुदेवे ति० प्रा० । दिवे-दिवा - अव्य०। " किलाऽथवा-दिवा-सह-नहेः किराह व दिवे सहुं नाहिं " ॥ ८ । ४ । ४१६ ॥ इति दिवा इत्यस्य 'दिवे' इत्यादेशः । दिवसे पाच दिवे दिये गंग पड़ा।" प्रा० ४ पाद ।
दिव्य दिव्य वि० [दव्यतेऽनेन दिक्क्यप् उसमे १० सम० । श्र० । प्रधाने, रा० । प्रश्न० जी० | ज० ॥ श्र० । ज्ञा० ॥ स्था० चं० प्र० । सू० प्र० । प्रज्ञा विशिष्टे, स०१० सम० । नं० स्वर्गगतवस्तुविषये, स्था० ३ ० ३ ० आ० क० भ० सुनिर्मिते, आ० म० १ अ० २ खराम । स्था० । श्रा० क० । देवोचिते, औ० | कल्प० । देवरमणे, रा० । व्यन्तराट्टहासाऽऽदिविषये पापश्रुतने, ध० ३ अधि० । व्यन्तरादिकृते उपसर्गे, श्र० ५ ० । विशे० । उत्त० । कल्प० । सूत्र० । आ० चू० । देवजन्ये वासी देवोऽपसारा द्योत भ
दिस्प
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यो दिन 11 देदेवसम्बन्धिनि स्था० डाउन दिव्वं ठाणं मण निव्वुश्करं । " झा० १ ० १ ० | "दिव्य जुयल परिदिश्रो । उत्त० २२ श्र० । मनोहरे, घोलनाऽऽत्म के च । दिवि भवं यत् । लवङ्गे, चन्दने, शपथरूपे, अलौकिकप्र माणगुली के मामेदे च न नायकभेदे, पुं० । वाच० । दिव्यग-दिव्यक-त्रि० व्यन्तरादिना हायमद्वेषादि जमिले उपसर्गमेदे, सुत्र० १० २ ० २ ० । दिव्यनाग- दिव्ययाग-पुं० जिनपूजायाम कल्प०५ । कण । दिव्वतु मिय-दिव्य त्रुटित-न - न०। वेणुवीणामृदङ्गाऽऽतोष रा दिव्यतू - न० । बाद्यभेदे, रा० । दिवदेवति दिव्यदेवयुति-श्री० [विशिष्टायां शराभर णाऽऽदितौ स०१० सम० स्था० । दिव्यदेव-दिव्यदेवी०
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1
प्रधानपरिवाराऽऽदिरूपाय
देव, स० १० सम० । स्था० ।
दिव्वदेवाभाव - दिव्यदेवानुज्ञात्रि उत्तमवेक्रिय करणाssदिनाचे, स० १० सम० । स्था० ।
दिव्य-दिव्यध्वनि-पुं० [सर्वप्राणिश्रुतिसुखदायांना पापरिणामियां संशयम्यच्ययोजनव्यापिन्यां भगव द्वायाम, दर्श० १ तव ।
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दिव्याग दिव्याक पुं० मसिमे ० १ पद दिव्वायपत्त - दिव्याऽऽतपत्र - स्त्री० । शोभने प्रातपत्रे, रा दिव्वासा - स्त्री० देशी - चामुण्मायाम्, दे०ना० ॥ वर्ग ३६ गाथा । दिसा दिक्-स्त्री" दिक्प्रावृषः ॥ ८१२८
अन्त्यव्यञ्जनस्य सः। 'दिला' । प्रा०१ पाद। दि किप् वा टाप् । आशायां ककुभि च । वाच० । दिशतीति दिकू । श्राचा० १ ०१०१ दिश्यते व्यपदिश्यते पूर्वाऽऽदित येति दिकू । स्था० ३ ठा० ३३० ।
तां निर्युक्तिकृत्रिकेतुमाह
नाम उपणा दविए, खेते तावे व पारगजावे | एस दिसानिक्खेवो, सत्तविहो होइ नायब्बो ॥ ४० ॥ नामस्थापनाद्रव्य क्षेत्रतापप्रज्ञापकभावरूपः सप्तधा दिग्निकेपो ज्ञातव्यः, तत्र सचित्ताऽऽदेर्द्रव्यस्य दिगित्यनिधानं नामदिकू, चित्रलिखितजम्बूद्वीप दिग्विभागस्थापनं स्थापनादिक
अव्यदिङ्गिक्के पार्थमाहतेरसपएसियं खलु, तावइएसुं भवे पएसेसुं ।
जं दव्वं श्रगाढं, जहागं तं दसदिसागं ॥ ४१ ॥ अव्यदिग् द्वेधा - आगमतो, नोश्रागमतश्च । श्रागमतो ज्ञातानुपयुक्तः, नोआगमतो इशरीरभव्यशरीरव्यतिरिक्ता त्वियम्प्रयोदशदेशिकं प्रयमाश्रित्य या प्रवृत्ता ससुरवधारणे, त्रयोदशप्रदेशिक किं यत् केचिदुक्त मिति प्रदेशा: परमाणवस्तेमिध्यादितं कार्यद्रव्यं तावत्येव क्षेत्र प्रदेशेष्यवगाढं जयम्यं प्रयमाधित्व दशदिग्विनागरि कल्पनातो यदि गियमिति । तत्स्थापना (२) । त्रिबाहुकं नवप्रदेशिकममिलिष्य चतसृदिकार्यो।
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दिसा
(२५२३) अभिधान राजेन्द्रः ।
क्षेत्रविशमाह
अट्टपरसो रुपगो, तिरियं लोस्स मझवारम्मि | एस प्रभवो दिसाणं, एसेव जवे अणुदिसाणं ॥ ४२ ॥ तिर्यक्त्रोकमध्ये रत्नापृथिव्या उपरि बहुमध्यदेशे मे [ल सर्व कमतरी, तयोरुपरितनस्य चत्वारः प्रदेश गो स्तनाऽऽकार संस्थाना अधस्तनस्यापि चत्वारस्तथाभूता एवेत्येटाकाशप्रदेश त्मकश्चतुरस्रो रुचको दिशामनुदिशां च प्र भव उत्पत्तिस्यानमिति । स्थापना (३) ।
आसामभिधानान्याह -
इंदम्मेई जम्मा, य नेरई वारुणी य वायया । मोमाईसाविप, विमला य तथा य बोधव्या ॥४३॥ श्रासामाद्यैन्द्री विजयद्वारानुसारेण शेषाः प्रदक्षिणतः सप्ताबसेयाः, ऊर्द्ध विमला तमा बोढव्या इति । श्रासामेव स्वरूपनिरूपणायाऽऽददुपसा दुरुचर एगपएसा अनुचरा चैव
चरो चउरो य दिसा, चउराइ अणुत्तरा दुष्टि ॥४४॥ चतस्रो महादिशो हिप्रदेशाऽऽद्या द्विद्विप्रदेशोत्तरवृद्धाः, विदि शतत्र एकप्रदेशरचनाऽऽस्मिकाः अनुत्तरा वृद्धिरहिताः धोदरानुत्तरमेव चतुःप्रदेश नामक
तो साईया
बाहिरपासे अजबसियाओ । सच्चापमा सन्याय भवंति कमलुम्या ॥ ४५ ॥ सर्वाऽप्यन्तर्मध्ये सादिका रुचकाऽऽद्या इति कृत्वा दिवालो काकाशाऽवणादपर्यवसिताः सर्वाश्च दशाप्यनन्तप्रदेशाSsस्मिका प्रवन्ति । (सव्वा य हवंति कमजुम्म) सर्वासां दिशां प्रत्येकं ये प्रदेशास्ते चतुष्ककेनापहियमाणाश्चतुष्कावशेषा नवन्तीति कृत्वा तत्प्रदेशाऽऽत्मिकाच दिश श्रागमसंकम जुम्म शब्देनाभिधीयन्ते । तथा चाऽऽगमः" कइ णं भंते! जुम्मा पासा ?। गोयमा ! चत्तारि जुम्मा प पत्ता । तं जहा- कमजुम्मे, तेउए, दावरजुम्मे, कलि श्रोए । से केणणं भंते ! एवं वुश्चइ ? । गोयमा ! जे णं रासीच ठक्कगांवहारेअवीरमाणे अवहीरमाणे उपचयसिए सिया से णं जुम्मे एवं पियसि ते दुपारसदार एगपज्जवलिए कलिओए ति ।
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इया
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पुनरप्यास संस्थानमादसगमुपसंतिया महादिसाओ य होंति चत्तारि । मुत्तावली य चउरो, दो चैव य होति रुयगनिभा ||४६ ॥ महादिशतोऽपि को संस्थाना विदिशश्च मुकाब लिनिभाः ऊर्द्धाधोदिग्द्वयं रुचकाऽऽकारमिति । वापदिशमाह -
जस्स जो आइचो, उएड़ सा तस्स होइ पुन्त्रादसा | जतो य अत्यमेइ उ, अवरदिसा सा उ नायव्वा ॥ ४७ ॥ दाहिणपासाम्य व दाहिना दिया उत्तरा छ वामेणं । या चत्तारि दिसा तारखेचे अक्लाया ||४०|| तापयतीति तापादित्यादिकतापि
दिसा
सुगम, केवलं दक्षिणपाश्व दिव्यपदेशः पूर्वाऽनिमुखरूपेति
रुष्टव्यः ।
सापादेगकरणान्योऽपि व्यपदेशो जयतीति प्रसङ्गत ग्रह
जे मंदरस्स पुब्बे - मणुस्सा दाहिणेण अवरेणं । जे यावि उत्तरेणं, सब्वेसिं उत्तरी मेरू ॥ ४५ ॥ सव्वेसि उत्तरेणं, मेरू लवणो य छोड़ दाहिएओ । पुवेणं उट्टेई, अरे अत्यम सूरो ।। ५० ।।
ये मन्दरस्य मेरो: पूर्वेण मनुष्याः क्षेत्र दिगङ्गीकरणेन, रुचकापेकं पूर्वादिविदास मेरुदक्षिणेन लवण इति तापदगंङ्गीकरणेन, शेषं रूपष्टम् ।
प्रज्ञापकादेशमाह
जत्यय जो पावो, कस्स वि सादर दिसासु य निमित्तं । जोहो पाई, साना पच्छ अवरा ॥ ५१ ॥ प्रज्ञापको यत्र कचित् स्थितः दिशां मारकरूपविधिमि कथयति, स यदभिमुखस्तिष्ठति सा पूर्वा पृष्ठश्वापरेति, निमित्तकथन चोपलकणमन्योऽपि व्याख्याता ग्राह्य इति । शेषदिक साधनार्थमाद
दापासम्म उ दा हिला दिया उत्तग़ उ वामेणं । वासितरेणं अथ चत्तारि विदिसाओ।। ५२ ।। एतासि चेव एमेतरा अट्ट होत असाओ । सोलस सरीरउस्सय- बादल्ला सव्वतिरियदिसा || ३ || ट्ठा पायताणं, अहोदिसा सीसउवरिमा उड्ढा । एया अट्ठारस बी, पणत्रगदिमा मुणेयव्त्रा ।। ५४ ॥ एवं कविया दसएट ए चे व दिसावां । नामाई बोच्छामी, गढ़कर्म आपुच्ची ।। ५५ ।। पुवाय वदविणा दविखण तह दक्खियाऽवरा चैव । अवराय व्यवरउत्तर, उत्तर पुब्वुत्तरा थेव ।। ५६ ।। सामुत्याणी कविला, खेल्लेज्जा खलु तहेब अहिधम्मा | परियाचा यता साविती पावती य ॥ ए७ ॥ ट्ठा नेरइयाणं, अहोदिसा उवारमा उ देवाणं । एका नामाई, पावगस्सा दिसाकं तु ।। ५० ।। एताः सप्त गाथाः कण्ठ्याः, नवरं द्वितीयगाथायां सर्वविदिशां बाहर पिएमा शरीरोप्रमाणमिति । साम्प्रतमालां संस्थानमाड़
सोलस तिरियदिसाओ, सगकुकडिया मुयया । दो मलमूला, उडेय अहे वि य दिसाओ || ५ || पोतियेग्दिशः शकटोसंस्थानाप्रहा प्रदेशे संकटा बहिर्दिशाला नारदेवा धोगामिन्यौ शरावाऽऽकारे भवतः, यतः शिरोमूले पादमूले च स्वल्पत्वान्मल्लकबुध्नाऽऽकारे गच्छन्त्यौ च विशाले भवत इति । कास सर्वासां तारपये यन्त्रका सेयम् (४) । भावदिनिरूपणार्थमाह
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या तिरिया काया, वानीया चढकगा चहरो ।
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दिसा
देवा रइया था अारस ति जारदिसा ॥ ६० ॥ मनुष्याश्चतुर्भेदाः, तद्यथा-संमूर्च्छनजाः, कर्मभूमिजाः, अकर्मभूमिजा, अन्तखीति तथा पायरिया पात चतुर्दा, कायाः पृथिव्यतेजोवायवश्वत्वारः, तथा श्रममूस स्कन्धपर्वबीजाश्चत्वार एव एते घोमश देवनारकप्रकेपादष्टादश, पभिर्भवैिवनाजीवो व्यपदिश्यत इति भावदिच सामान्यदिग्रहऽपि यस्यां दिशि जीवानामनित्यमती पटे सर्वत्र संभवतः तथैवेाधिकार इति तामेव निकित्साकादयति नादिकाविनानाविनी सामर्थ्याधितेव
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यतस्तदर्थमन्या दिशश्चिन्त्यन्त इत्यत आहपन्नगदिस अट्ठारस, भावदिसाओ वि तत्तिया चेव । एकेकं विधेज्जा, हवंति अट्ठारस द्वारा ॥ ६१ ॥ पवर्गादिसाए पुण, हिगारो एत्य होइ शायव्वो । जीवाण पोरगाण य, एया गया गई प्रत्थि ॥ ६२॥ प्रज्ञापकापेक्षया श्रष्टादशभेदा दिशः अत्र च भावदिशोऽपि तावत्प्रमाणा एव प्रत्येकं संभवन्तीत्यत एकैकां प्रज्ञापकदिशं मादिगादशकेन चित्ताचे अतोदशाादशका तेच संख्या श्रीणि शतानि चतुर्विंशत्यधिकानि प्रवन्तीति, पोपलक्षणम्, तापदिगादावपि यथासंभवमायोजनीयमिति । त्रदिशि तु चतसृष्वेव मद्दादिकु संभवो, न विदिगादिषु, तासामेकप्रदेशिकत्वाचतुष्यदेशिकत्वाच्चेति गाथाद्वयार्थः । वियोगकलाप:-" अयरीओ दिलामो आगम अस" इत्यनेन परिगृहीतः सूत्राचा दि ग्रहणात् प्रज्ञापकदिशश्च तत्रः पूर्वाऽऽदिका ऊद्धीऽधोदिशौ च परिगृह्येते भावदिशस्त्वष्टादशाऽपि, अनुदिग्ग्रहणासु प्रज्ञापकविदिशो द्वादशेनि तचासंहिनां नैषोऽयस्त साईगामपि केषाञ्चिद्भवति, केषाञ्चिन्नेति यथाऽहममुष्या दिशः समा गत इहेति । " पत्र मेगेसि णो णायं भवति " एवमित्यनेन प्रकारेण प्रतिविशिष्टदिविदिगागमनं नेकेषांविदितं भवतीत्ये तदुपसंहारवाक्यम् ।
"
(२५२४) अभिधानराजेन्
"
तदेव नियुक्तिदाहकेसिंथि पानसा अत्थी सिंचि नस्थि जीवाणं । कोदं परम्म झोए भासी कपरा दिसाओ वा ॥ ६३॥ केवानां वाऽध्वरणीय कयोपशमयतां नास्त पतिदावृतिमतां न भवतीति पराभूता संज्ञान भव ति तां दर्शयति-कोऽहं परस्मिन् लोके जन्मनि मनुष्याऽऽदिरासम, अनेन भावदिग् गृहीता, फतरस्या वा दिशः समायातः, इत्यनेन तु प्रत्यक दिगुपाति यथा कचिमदिरामपूर्णि तमोललोचनोरा मार्गनिपतितस्त
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कृष्टश्वगणापसिहामात्ययेन जानाति कुलोमा इतिथा प्रकृतो मनुष्यादिस्पीति गाथाऽर्थः । न केवलमेवात अपराऽपि नास्तीति
"
सूत्रदाह
अत्थि मे आया उपवाइए, नत्थि मे आया लवाइए, के अहं आसी के वाइओ चुए इह पेच्चा जविस्सामि १ | ३ | स्वयमेवमेतेन शरीरं निर्दिशति ममा
दिमा
प्रमाण.
स्थ शरीरकस्वाधिष्ठाता, मतति-गति सततगतिमतः आत्मा जीवोऽस्तीति, किंभूतः ?, औपपातिकः, उपपातः-- प्रादु भयो जन्मान्तरसंक्रान्तिः उपपाते भय पातकइति न संसारिणः स्वरूपं दर्शयति, स एवंभूत आत्मा ममास्ति नास्तीति चेवंता संज्ञा के वालिदज्ञानावष्टब्धचेतसां न जायत इति तथा कोडं नारकतिर्यगमनुष्यादिः पूर्वजन्मन्यासम को वा देवाssदिः 'तो' मनुष्याऽऽदेर्जन्मनः च्युतो विनष्टः, इह संसारे प्रेत्य जन्मान्तरे जविष्यामि उत्पत्स्ये, एषा च संज्ञा नभपतीति । इह च यद्यपि सर्वभावदशाधिकारः प्रापक दिशा च तथाऽपि पूर्वसूचे साक्षात् महापदिगुपासा, अत्र तु भावदिगित्यवगन्तव्यम् । ननु चात्र संसारिणां दिमित्रदिगगमनादिना विशिष्ट संज्ञा निश्यिते न सामान्यसंशेति एतच्च संज्ञिनि धमित्यात्मनि सिद्धे सति नाते सति मणि धर्माधियते" ते वचनात् सत्यादिवमाणगोचराती तस्यापपादः तथाहिनासावच्य णायसाक्षात्कारिणाविषयी य स्वादू, अतीन्द्रियत्वं च स्वनावविप्रकृत्वात् श्रतीन्द्रियत्वादेव च तद्व्यभिचारिकादिसम्बन्धानुमाने न तस्याप्रत्यक्षत्वं तत्सामान्यग्रहणशक्त्यनुपपत्तेः, नाप्युपमामेन, आगमस्वाऽपि प्रतिपाद्यमानायामनुमान. वात् । अन्यत्र च बाह्येऽर्थे संबन्धाभावादप्रमाणत्वम्, प्रमाणस्वापविविमेनपा पपीता विषयत्वादभाव एवाऽऽत्मनः । प्रयोगश्चायम्- नास्त्यात्मा प्र माणपञ्चकविषयातीतत्वात् खरविषाणवदिति, तदभावे च विशिष्टसंज्ञाप्रतिषेधाभाव संभवेनानुत्थानमेव सूत्रस्येति पतत्वमनुपासितादिप्रामाण स्य ज्ञानस्य स्वसंवित्सिद्धत्वात्, स्वसंविनिष्ठाश्त्र विषयव्यवस्थितयः, घटपटाssदीनामपि रूपाऽऽदिगुण प्रत्यकत्वादेवाध्यकत्वमि ति मराभासत्य न दूतगुणतम्यमानयम् सदा सधिनसंभवादिति देयोपादेयपरिहारोपादानप्रवृ धानुमानेन परात्मनि सिद्धिर्भवतीति एवमनयैव दिशोपमानाऽऽदिकमपि स्वचिया रूपविषये यथासंभवमायोज्य के वलं मौनान्नेनैवाऽऽगमेन विशिष्टसंज्ञा निषेधद्वारेणाह मिति चाऽऽत्मोल खेताऽऽत्मसङ्गावः प्रतिपादितः शेषाऽऽगमानां चानाप्तप्रणीतस्वादप्रामाण्यमेवेति । अत्र चात्मेत्यनेन किया दिन सप्रनेनास्तीत्यनेन चाकियाचादिन तदन्तःपाति स्वाच्चाङ्गानिकपैनधिकारच समनेदा बाम"तिं किरिया अकिरियाई होगी। अन्नाणि य सतही, वेणश्याणं च बत्तीसा ॥१॥ तत्र जीवाजीवपापचरन जेरामोक्षाया नय पदार्थाः स्वपरदाभ्यां नित्यानित्यविकल्पद्वयेन च कालनियतिस्व भावेश्वरामाऽऽदशीत्युक्तमेव भवति कियाबादिनाम, पते चास्तित्ववादिनोऽभिधीयन्ते । इयमत्र भावना-अस्ति जीवः स्वतो नित्यः कालतः ॥ १ ॥ अस्ति जीवः स्वतोऽनित्यः कालतः ||२|| अस्ति जीवः परतो नित्यः कालतः ॥३॥ अस्ति जीवः परतो ऽनित्यः कालतः ॥४॥ इत्येवं कालेन चत्वा रो जेदा लब्धाः पवं नियतिस्वभावेश्वरात्मभिरप्येकैकेन च स्वारश्वत्वारो विकल्पा लभ्यन्ते, एते च पञ्च चतुष्कका वि. शतिर्भवति । इयं च जीवपदार्थेन लब्धा, एवमजीवाऽऽदयो
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(२५२५) दिसा अभिधानराजेन्द्रः । ।
दिसा प्यधौ प्रत्येक विंशतिभेदा भवन्ति । ततश्च नव विंशतयः शत- दिना, तेषामपि जीवाजीवाश्रबन्धसंवरनिर्जरामोक्काऽऽख्याः मशीत्युत्तरं भवति १०। तत्र स्वत इति स्वेनैव रूपेण जी- सप्त पदार्थाः स्वपरभेदद्वयेन तथा कायदृच्चगनियतिस्वभावेघोऽस्ति, न परोपाध्यपेकया स्वत्वदीर्घत्वे श्व, नित्यः-शा- श्वराऽऽत्मभिः षनिश्चिन्त्यमानाश्चतुरशीतिविकल्पा भवन्ति । श्वतो न क्षणिका, पूर्वोत्तरकानयारवस्थितत्वात्, कालत इति तद्यथा-नास्ति जीवः स्वतःकालतः,नास्ति जीवः परतःकालतः, काल एव विश्वस्य स्थित्युत्पत्तिप्रलयकारणम् । नक्तं च-"का- इति कालेन द्वौ बब्धी, एवं यदृच्छानियत्यादिष्वपि द्वौ द्वौ भेदी स: पचति भूतानि, कालः संहरते प्रजाः। कालः सप्तषु जा. प्रत्येकं भवतः, सर्वेऽपि जीवपदार्थे द्वादश भवन्ति, पचमगति, कालो हि दुरतिक्रमः ॥ १॥" स चातीन्छियो युगप- जीवाऽऽदिप प्रत्येक द्वादशैते सप्त द्वादशकाश्चतुरशीतिरिचिरविप्रक्रियाऽभिव्यङ्गयो हिमोष्णवर्षाव्यवस्थाहेतुः कणलव- ति ४ । अयमत्रार्थ:- नास्ति जीवः स्वतः कामत इति, ह प. मुहूर्तयामाहोरात्रमासवयनसंवत्सरयुगकल्पपल्योपमसागरो-- दार्थानां लकणेन सत्ता निश्चीयते. कार्यतो वा?। न चाऽऽन्मन. पोत्सपिण्यवसर्पिणीपुलपरावर्तातीतानागतवर्तमानसर्वाका स्ताहगस्ति किश्चिल्लकणं, येन सनां प्रतिपद्यमहिनाऽपि काऽऽदिव्यवहाररूपः॥१॥ द्वितीयविकल्पे तु कामादेवाऽऽस्मनो. यमधूनामिव महीध्राऽऽदि संभवति, यच्च बक्कणकार्याच्यां नाऽस्तित्वमभ्युपेयं, किं त्वनित्योऽसाविति विशेषोऽयं पूर्ववि. निगम्यते वस्तु तन्नास्त्येव वियदिन्दीवरवत, तस्मानास्त्या. कल्पात् ॥ २॥ तृतीयविकल्प तु परत एवास्तित्वमन्युपगम्यते, त्मेति । तिीयविकल्पोऽपि यच स्वतो नात्मानं विभति गगकथं पुनः परतोऽस्तित्वमात्मनोऽभ्युपेयते ?, नन्वेतत्प्रसिम्मेव नारविन्दाऽऽदिकं तत्परतोऽपि नास्त्येव,अथ वा सर्वपदार्थानासर्वपदार्थानां परपदार्थस्वरूपापेकया स्वरूपपरिच्छेदो, यथा मेव परजागादर्शनात्सर्वाऽर्वाग्भागसूदमत्वाच्चोजयानुपक्षधेः दीर्घत्यापेक्षया स्वत्वपरिच्छेदो, स्वत्वापेक्वया च दीर्घ- सर्वानुपलब्धितो नास्तित्वमध्यवसीयते । उक्तं च--" यावद् स्वस्येति । एवमेव चानात्मनस्तम्भकुम्भाऽऽदीन समीक्ष्य दृश्यं परस्ताव-द्भागः स च न दृश्यते" इत्यादि । तथा “य. तयतिरिके वस्तुन्यात्मबुद्धिः प्रवर्तत इति, अतो यदात्मनः दृच्छातोऽपि नास्तित्वमात्मनः, का पुनर्यदृच्छा ? , अनभिस्वरूपं तत्परत एवावधार्यते, न स्वत इति ॥ ३॥ चतुर्थवि- सन्धिपूविकाऽर्थप्राप्तिर्यदृच्छ । कल्पोऽपि प्राम्बदिति चत्वारो विकल्पाः॥४॥ तथाऽन्ये निय
" अतर्कितोपस्थितमेव सर्वे, तित पात्मनः स्वरूपमवधारयन्ति, का पुनरियं नियतिरि
चित्रं जनानां सुखदुःखजातम् । लि। उच्यते-पदाधानामवइयतया यद्यथाभवने प्रयोजककी
काकस्य ताझेन यथाऽनिघातो, नियतिः । उक्तं च-"प्राप्तव्यो नियतिबलाऽथयण योऽर्थः,
न बुधिपूर्वोऽत्र वृथाऽभिमानः॥१॥ मोऽवश्यं भवति नृणां गुभोऽशुनो वा । भूतानां महति कृतेs
सत्यं पिशाचाः स्म वने वसामो, विहि प्रयत्ने, नानाव्यं भवति न भाविनोऽस्ति नाशः॥१॥"
नेरी करानरपिन स्पृशामः । इयं च मस्करिपरिवारमतानुसारिण) प्राय इति । अपरे पुनः
यच्या सिध्यति सोकयात्रा, स्वनाबादेव संसारव्यवस्थामभ्युपयन्ति, कः पुनरयं स्वभावः?,
मेरी पिशाचाः परितामयन्ति ॥२॥" वस्तुनः स्वत एव तथापरिणतिभावः स्वभावः । उक च
यथा काकतालीयमबुझिपूर्वकं, न काकस्य बुद्धिरस्ति. माये "कः कएटकानां प्रकरोति तैदण्य,
तालं पतिष्यति, नापि तालस्याभिप्राय:- काकोपरि पतिष्याविचित्रभावं मृगपरिणां च ।
मि, अथ च तत्तथैव भवति, एवमन्यमप्यतर्कितोपनतमस्वभावतः सर्वमिदं प्रवृत्त ।
जाकृपाणीयमातुरभेषजीयमन्धकएटकीयमित्यादि अष्टव्यम् . न कामचारोऽस्ति कुतः प्रयत्नः? ॥१॥
एवं सर्व जातिजरामरणाऽऽदिक लोके यादृच्छिक काकतास्वभावतः प्रवृत्तानां, निवृत्तानां स्वभावतः ।
श्रीयाऽऽदिकल्पमवसेयमिति । एवं नियतिस्वभावेश्वराऽऽत्मनाहं फतेति भूतानां, यः पश्यति स पश्यति ॥२॥
जिरप्यात्मा निराकर्तव्यः । तथा-ज्ञानिकानां सप्तपटिनेदाः । केनाश्चितानि नयनानि मृगाछगनानां,
ते चामी-जीवाऽऽदयो नव पदार्थाः, उत्पत्तिश्च दशमी, सत्, को रोति रुचिराङ्गरुहान् मयूरान् ।
असत, सदसत, अवक्तव्यः, सदवक्तव्यः, असदवक्तव्यः, सदकश्चोत्पनेषु दबसन्निचयं करोति,
सदवक्तव्यः, इत्येतैः सप्तभिः प्रकारोविज्ञातुं न शक्यन्ते, न को वा दधाति विनयं कुलजेषु पुंसु? ॥३॥"
च विज्ञातः प्रयोजनमस्ति । भावना चेयम्-सन् जीव इति को तथा ऽन्येऽभिदधते-समस्तमेतजीवादीश्वरात्प्रसूतं, तलादेव |
वेत्ति, किं वा तेन झातेन ?, असन् जीव इति को जानास्वरूपेऽवतिष्ठते, कः पुनरयमीश्वरः?, अणिमाऽऽयैश्वर्ययो- ति?. किंवा तेन झातेनेत्यादि । एवमजीवाऽऽदिष्वपि प्रत्येक गादीश्वरः । उक्तं च-" अझो जन्तुरनशिः स्या-दात्मनः सुख
सप्त विकल्पाः, नव सप्तकात्रिषष्टिः, अमी चान्ये चत्वारास्त्रिमुखयोः । ईश्वरप्रेरितो गच्छेन्द्रभ्रं वा स्वर्गमेव वा ॥१॥"
षष्टिमध्ये प्रक्षिप्यन्त । तद्यथा- सति भावोत्पत्तिरिति को तथाऽन्ये ऽवते-न जीवाऽऽदयः पदार्थः कामादिभ्यः
जानाति ?, किं वाऽनया ज्ञातया?, एवमसति सदसती अव. स्वरूप प्रतिपद्यन्ते, कि तर्हि ?, आत्मनः, कः पुनरयमात्मा?.
तव्या नावोत्पत्तिरिति को वेत्ति?, कि बाऽनया ज्ञातयति,शेषश्रास्माद्वतवादिनां विश्वपरिणतिरूपः । उक्तश्च-" एक एव
विकल्पत्रयमुत्पत्युत्तरकालं पदार्थावयवापेक्कमतोऽत्र न संजय. दि भूताऽऽम्मा, नूते नूते व्यवस्थितः। एकधा बहुधा वैव,
तीति नोक्तम, पतञ्चतुष्टयप्रतेपात्सप्तपष्टिनवन्ति । तत्र सन् जीव दृश्यते जनचन्ऽवत् ।। १॥" तथा " पुरुष पवेदं सर्व यद
इति को वेत्ति?, इत्यस्यायमर्थ:-न कस्यचिद्विशिष्टं ज्ञानमनृतं यच भाव्यम्" इत्यादि । एवमम्त्य जीवः स्वतः नित्यः का. स्ति, योऽतीन्द्रियान जीवाऽऽदीनवभोत्स्यते, न च तैतिः किं लव इत्येवं सर्वत्र योज्यम् । तथा-प्रक्रियावादिनो-नास्तित्ववा- | चित्फामस्ति। तथादि-यदि नित्यः सपंगतो मूत्ता कानाऽऽदिगु
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(२५२६) दिसा अभिधानराजेन्त्रः ।
दिसा गोपेतः,पतद्गुणव्यतिरिक्तो चा?,ततः कतमस्य पुरुषार्थस्य सि. देवाऽऽदिर्भविष्यामीत्येतत्परापृश्यते,जानीयादवगच्वेद, दमुक्तं द्धिरिति, तस्मादज्ञानमेव श्रेयः अपि च-तुल्येऽप्यपराधे भका. जयति-न कश्चिदनादी संसृतौ पर्यटनसुमान् दिगागमनाऽऽदि. मकरणे लोके स्वल्पो दोषो, लोकोत्तरे ऽपि प्राकुट्टिकानाभोगस. के जानीयात्, यः पुनजानीयात्स एवम-(महसम्मइयाए त्ति) हसाकाराऽऽदिषु कुलकभिक्षुस्थविरोपाध्यायसूरीणां यथाक्रम- सहशब्दः संबन्धवाची, सदिति प्रशंसायां, मातिः ज्ञानम् । मुत्तरोत्तरं प्रार्याश्चत्तमित्येवमन्येष्वपि विकल्पेवायोज्यम । त. अयमत्र वाक्यार्थ:-श्रात्मना सह सदा या सन्मतिबनते, तया था बैनयिकानां हात्रिंशद्देदाः,ते चानेन विधिना भावनीयाः, सन्मत्या काश्च जानीते,सहशब्दविशेपणाच सदामस्वभावसुरनृपयतिझातिस्थविराधममातृपितृष्वष्टसु मनोवाक्कायप्रदान- त्वं मतरावेदितं भवति, न पुनयथा वैशेषिकाणां व्यतिरिक्ता चतुर्विधविनयकरणात् । तद्यथा-देवानां धिनयं करोति मनसा सती समवायघृश्यात्मनि समयेतेति । यदि चा (सम्पइए त्ति) बाचा कायेन, तया- देशकानोपपन दानेनेत्येवमादि । पते च स्वकीयया मत्या स्वमत्यति, तत्र निमप्यश्चादिकं स्वकीय विनयादेव स्वर्गापवर्गमार्गमज्यपयन्ति नाचवृस्य नुत्सकलकणो दृष्टमतः सहशब्दविशेषणं, सहशब्दश्चासमस्त इति, सत्यपि विनया,सर्वत्र चैवंविधन बिनयेन देवाऽदिपूपतिष्ठमानः स्वर्गा
चाऽऽमनः सदा मतितनिधाने प्रयत्रज्ञान ऽऽधरणाऽऽवृतत्वान्न पवर्गभार जवति। उकंच-"विणया णाणं क्षाणा-यो दसणं दं
सदा विशिष्टोऽवबोध इति,सा पुनः सन्मतिः,स्वमतिर्वा अवधिसणाहि चरणं च । चरणास्तिो मोक्खो, मोक्ने सोक्खं अणा
मनःपर्यायकेवाज्ञानजातिस्मरणभेदाच्चतुर्विधा शेयाः,तत्रावधिमपाई।१।" अत्र च क्रियावादिनामस्तित्वे सत्यापै केपाश्चित्सर्व.
नःपर्यायकेवतानां स्वरूपमन्यत्र विस्तरेणोक्तं, जातिस्मरणं स्वा. गतो नित्योऽनित्यः कर्ताऽकर्ता मूत्तों मूतः श्यामाकतण्डुलमात्रो.
भिनियोधिकविशेषः, तदेवं चतुर्थिधया मत्यात्मनः कश्चिद्धिठपर्वमात्रो दीपशिखोपमो हृदयाधिष्ठान इत्यादिकः। अस्ति
शिएदिभात्यागती जानाति, कश्चिच्च परस्तीर्थकृत्सर्वज्ञः, तचौषपातिकश्च, प्रक्रियावादिनां त्वात्मैव न विद्यते,कुतः पुनरोप
स्यैव परमार्थतः पराब्दवाच्यत्वात्परत्वं, तस्य तेन वा व्यापातिकत्वम् , अज्ञानिकास्तु नात्मानं प्रति विप्रतिपद्यन्ते, किं
करणम्-उपदेशस्तेन जीवांस्त दाँश्च पृथिव्यादीन तद्गत्यातु तज्ज्ञानमकिञ्चित्करमेषामिति, वैनयिकानामपि नात्मास्ति
गतीच जानाति, अपर: पुनरन्येषां तीर्थकरत्यांतरिक्तानामस्वे विप्रतिपत्तिः, किंत्वन्यन्मोतसाधनं विनयाहते न संभवती
तिशयज्ञानिनामन्तिके श्रुत्वा जानातीति, यच्च जानाति तत् ति प्रतिपन्नाः । तत्रानेन सामान्यात्मास्तित्वप्रतिपादनेनाकि
सूत्रावयवेन दर्शयति । तद्यथा-पूर्वस्या दिश भागतोऽहम. यावादिनो निरस्ता अपव्याः। श्रास्मास्तिस्थानभ्युपगमे च
स्मि, एवं दक्षिणस्याः पश्चिमाया उत्तरस्या उर्द्धदिशोऽधोदि"शास्ता शास्त्रं शिष्यः, प्रयोजन वचनदेनुपान्ताः ।
शोऽभ्यतरस्याः दिशोऽनुदिशो वा प्रागतोऽहमस्मीत्येवमेके.
षां विशियोपशमाऽऽदिमतांतीर्थकरान्यातिशयज्ञानिबोधिसन्ति न शून्य त्रुवत-स्तदभावाच्चाप्रमाणं स्यात् ॥१॥
तानां च ज्ञानं भवति, तथा प्रतिविशिष्टदिगागमनपरिवानाप्रतिषेच्यप्रतिषेधा, स्तश्चेच्छून्यं कथं नवेत्सर्वम् ? ।
न्तरमेषामेतदपि झानं भवति, यथास्ति मेऽस्य शारीरका तदभावेन तु सिका, अप्रतिसिद्धा जगत्याः ॥५॥"
स्याधिष्ठाता शागदर्शनोपयोगल कण उपपादुको नवान्तरसं. एवं शेषाणामप्यत्रैव यथासंभवं निराकरणमुत्प्रेयमिति ॥३॥
क्रान्तिभागलयंगतो भोक्ता मूर्तिरहितोऽविनाशी शरीरमान. गतमानुपक्लिकम् । प्रकतमनुस्रियते-तत्रेद " एवमेगेसि णो व्यापीत्यादिगुण वानात्मेति । स च व्यकपाययोगोपयोगका. णायं भव" इत्यनेन केपाश्चिदन संहानिऐभारफेषाश्चित्तु भव- नदर्शन चारित्रवीर्याऽऽत्मनेदादपधा, तत्रोपयोगाऽऽत्मना बाहुल्ये. तीत्युक्तं नवनि, तत्र सामान्यसंज्ञायाः प्रतिपागि सिद्धत्वा- नेहाधिकारः, शेषास्तु तदंशतयोपयुज्यन्त इति उपन्यस्ताः । सत्कारणपरिज्ञानस्य चेहाकिश्चित्करत्वाद्विशिप्रसंज्ञायास्तु के. तथा-अस्ति च ममामा, यो ऽमुण्या दिशोऽनुदिशश्च सकापाश्चिदेव भावात तस्याश्च भवान्तरगाम्यात्मस्पष्टप्रतिपादने
शादनुसश्चरति गतिप्रायोग्यकोपादानादनु पश्चात् संचरसोपयोगित्यात् सामान्यसंज्ञाकारणप्रतिपादनमनात्य विशि
त्यनसंचरति, पावान्तरं घा-(अणुसंसर त्ति ) दिग्विदिशां संकायाः कारणं स्वकृद्दर्शयिनुमाह
गमनं जावदिगागमनं वा स्मरतीत्यर्थः । साम्प्रतं सूत्रावययेन से जं पुण जाज्जा सह संमझ्याए परवागरणेणं अ
पूर्वसूत्रोक्तमेवार्थमुपसंहरति-सर्वस्या दिशः सर्वस्याइचानुदि. मि अतिए वा सोचा, तं जहा-पुरथिमाओ वा दिसा
शो य मागतोऽनु लञ्चरति, अनुसंस्मरतीति वा सः, अहमित्या.
त्मोन्ले स्नः, अहंप्रत्ययग्राह्यत्वादात्मनः, अनेन पूर्वाऽऽद्याः प्रज्ञा. ओ आगो अहमंसिक जाव प्राण यो दिसाओ प्र
पकदिशः सवा गृहीताः, भावदिशश्वेति । प्राचा० १०१ दिमाओ वा आगो अहमंसि,एवमेगेसिं जगायं ज-1 अ०१०। श्रा०चू० । स्था० । (अहं कस्या दिशागत इति वति-अस्थि मे आया जबवाइए, जो इमाओ दिसाओ विचारः 'आता' शब्दे द्वितीयमागे १७२ पृष्ठे निदर्शितः) अणुदिसाओ वा अणुमंचरइ, सयाओ दिसाओ अणु
द्वाज्यां दिग्भ्यां प्रवाजनाऽऽदि प्रवर्ततेदिमाओ, सोऽहं ॥४॥
दो दिसाओ अभिगिक कप्पइ निग्गंधापां वा विगं'सेज पुण जाणेजति' मूत्रं यावत् 'मोऽहमिति ।' 'से' इति | थीणं वा पनावित्तए पाईणं चेव, नदीणं चेत्र । एवं निशो मागधीमया प्रथमैकवचनाम्ना, स इत्यनेन च यः प्राग्निदिष्टो ज्ञाना विशिएकयोपशमाऽऽदिमास प्रत्यवमृश्यते,
मुंमावित्तए १ सिक्खावित्तए २ उपहावितए ३ संन्नुंजित्तए यदित्यनेनापि याप्राग्निर्दि दिग्विादिगागमनं, तथा कोऽहम
संवसित्तर ५ सम्झायं नहिसित्तए ६ सज्जायं समुदि. भूवमतीत जन्मनि यो नारकस्तियम्योनो मनुष्यो घा? , खी।
सित्तए ७ सज्झायमाणुजाणित्तए ८ आमोइत्तए । पुमानपुंसको वा ? को वाऽमुतो मनुष्य जन्मनः प्रचष्टोऽहं प्रेत्य पडिकमित्तए १० निंदित्तर ११ गरहितए १२ विउट्टि
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(२५२७) दिसा अनिधानराजेन्द्रः।
दिसा त्तए १३ निसोहित्तए १४ अकरण याए १५ अन्न्नुहि
तिभिर्दिनिर्गत्यादि प्रवर्ततेत्तए वादारिहं पायच्चित्तं तवोकम्मं पमिवन्जित्तए १६ । । तम्रो दिसाओ पात्ताप्रो । तं जहा-नुका,अहो,तिरिया।
द्वे दिशौ काष्ठे अनिगृह्याऽङ्गीकृत्य, तदनिमुखीनूयेत्यर्थः ।क। (स्था० ) एवं आगई वकंती श्राहारे वुढी णिवुद्धी गइल्यते युज्यते,निर्गता अन्धाहनाऽऽदेरिति निर्ग्रन्थाः साधवः,ते- परियाए समुग्याए काझसंजोगे दंसणाजिगमे णाणाभिगमे षां निग्रेथ्या साध्या, तासां प्रवाजयितुं रजोहरणाऽऽदिदानेन
जीवानिगमे । तिहिं ठाणेहिं जीवाणं अजीवाभिगमे पसत्ते। प्राचीनां प्राची, पूर्णमित्यर्थः । उदीचीनामुदीची मुत्तरामित्यर्थः। नक्तंच-"पुष्यामुहो उ उत्तर-मुदो ब्व देजाऽहवा पमिज्जा ।
तं जहा-नाए, अहोए, तिरियाए । एवं पंचिंदियतिरिजाए जिणादयो बाहवेज जिणचेश्याई वा ॥१॥" इति । (ए क्खजोणियाणं । एवं मणुस्साण वि। वमिति) यथा प्रवाजनसूत्रं दिग्द्वयाभिलापेन अधीतम, एवं दिनिरूपणपूर्वकं तासु गत्यादि निरूपयन "तो दिसाओ" मुगमनाऽऽदिसूत्राएयपि षोडशाऽध्येतव्यानीति । तत्र मुण्डयितुं
इत्यादि स्त्राणि चतुर्दशानि, सुगमानि च, नवरं दिश्यते व्यपशिरोमुश्चनेन १, शिक्षयितुं ग्रहणशिक्कापेकया सूत्रार्थी ग्राह- दिश्यते पूर्वाऽऽदितया वस्त्वनयेति दिक,सा च नामाऽऽदिभेदेन यितुमासेवनाशिकापेक्षया तु प्रत्युपेकणाऽऽदिशिवयितुमिति सप्तधा । आह च नियुक्तिकृत्-"णामं बणा दक्षिए,खेत्तदिसा २, उत्थापयितुं महावतेषु व्यवस्थापितुम् ३, संभोजयितुं भो- तावखेत पमवए । सत्तमिया भावदिसा, सा होऽहारसबिहा जनमरामस्यां निवेशयितुम् ४, संवासयितुं संस्तारकमएडल्यां उ॥४०॥"(प्राचा०नि०)तत्र व्यस्य पद्यस्कन्धाऽऽदेटिंग व्यनिवेशयितुम् ५. सुष्ठ श्रा मर्यादयाऽधीयत इति स्वाध्यायोऽङ्गा- दिक १,केत्रस्याऽऽकाशस्य दिक के प्रदिक। सा चैवम्-"अपऽऽदिस्तमुपदेषु योगविधिक्रमेण सम्यग्योगेनाधीवेदमित्येवमु. एसो रुगयो, तिरिय लोगस्स मज्भयारम्मि । एस पभवो दि. पदमिति ६, सगुद्देष्टुं योगसमाचार्यैव स्थिरपरिचितं कुर्विद- साणं, एसेव नवे अणुदिसाणं ॥४२॥"(प्राचा०नि०) तत्र पूर्वामिति वक्तुमिति ७, अनुनातं तथैव सम्यगेतद्धारयाऽन्येषां च ऽऽघा महादिशश्चतम्रोऽपिद्विप्रदेशाऽऽदिकाऽऽद्युत्तरा अनुदिशप्रवेदयेत्येवमनिधातुमिति ८, प्रायोचयितुं गुरवेऽपराधान् नि. स्तु एकप्रदेशा अनुत्तरा ऊद्धोधोदिशौ तु चतुराद अनुत्तरे। चेदयितुमिति ६, प्रतिक्रामितुं प्रतिक्रमणं कर्तुमिति १०, निन्दि
यतोऽवाचितुमतिचारान् स्वसमकं जुगुप्सितुम् ११ । श्राह च-"सचरि
"दुपपसाऽऽदि पुरुत्तर, एगपएसा अणुत्तरा चेव । त्तपत्थयावो।" निन्दति गर्हितं गुरुसमकं तानेव जुगुम्सितुम ।
चउरो चउरो य दिसा, चउरा अणुत्तरा दोनि ॥४४॥ आह च-" अचरित्तपत्थयावो ।" निन्दति गहितं गुरु
सगाकिसंग्यिाओ, महादिसामो हति-चत्तारि। समकं तानेव जुगुप्सितुम् १२। आह च-" गरहा वि तहा
मुत्तावली य चतरो, दो चेव य होति रुयगनिन्ना ॥ ४६॥" जातीयमेव, नवरं परप्पयासणय त्ति।"(विउत्तिए ति)
नामानि चासाम्-" इंदग्गेयी जम्मा. य नेरई बारुणी य व्यतिवयितुं विनोदयितुं विकुट्टयितुं वा, अतिचारानुबन्धि
वायचा । सोमा ईसाणा वि य, विमला य तमा य बोधव्या विच्छेदयितुमित्यर्थः १३, विशोधयितुमतिचारपसापेक्षयाss
॥४३॥" तापः सविता तपसक्तिता क्षेत्रदिक् तापक्केत्रदिक्ला त्मानं विमलीकर्तुमिति २४, अकरणतया पुनर्न करिष्यामीत्ये.
चाऽनियता । यत उक्तम्-"जेसि जत्तो सूरो,उदेश्तेसिं तई इ. चमभ्युत्थातुमभ्युपगन्तुमिति १५, यथाई मतिचाराऽऽद्यपेक्वया
वइ पुवा। तावक्खेत्तदिसायो,पयाहिणं सेसयाओ सा॥४७॥" यथोचितं पापच्छेदकत्वात्, प्रायश्चित्तविशोधकत्वाद्वा प्राय
इति । (आचा०नि०)तथा प्रज्ञापकस्याऽऽचार्यादेर्दिक प्रज्ञापकदिश्चित्तम् । उक्तं च-"पाचं चिंद जम्हा, पायच्कृित्तं तु जन्नए
कासा चैवम्-"पवनो जो अनिमुहोसा पुब्बा सेसिया प. तेण । पापण वा विचित्तं, विसोहर तेण पच्चित्तं ॥१॥" शति।
याहिणो । तस्सेवाणुगंतब्बा,अमोयाई दिसा नियमा ॥५१॥" तपःकर्म निर्षिकृतिकाऽऽदिकं प्रतिपतुमभ्युपगन्तुमिति १६ ।
भावदिक चाष्टादशविधासप्तदशं मृत्रं साकादेवाऽऽह
"पुढवि-जल-जलण-वाया, मूनो वंधग्गपोरवाया य । दो दिसाओ अभिगिक कप्पर णिगंथाणं वाणिग्गं- विति चत पंचिंदिय-तिरि-य-नारगा देवसंघाया ॥१॥ थीणं वा अपच्चिममारणंतियसंझेहणाफूसणासियाणं
संमुच्छिम-कम्माक-म्मनुमगनरा तहंऽतरहीवा।
भावदिसा दिस्सइ जं, संसारी निययमहोहिं ॥२॥" इति। भत्तपाणपमियाइक्खेत्ता पाओवगयाणं काझं 'अणवर्क
इह च केत्रतापप्रज्ञापकदिग्मिरेवाधिकारः,तत्र च तिर्यग्ग्रहणेखमाणाणं विहरित्तए । तं जहा-पाईणं चेव, उदीणं चेव।।
न पूर्वाऽऽद्याश्चतस्र एव दिशो गृह्यन्ते, विदिक्कु जीवानामनुश्रे. पश्चिमैवामङ्गनपरिहारार्थमपश्चिमा, सा चासो मरणमेव यो- जिगामितया वक्ष्यमाणगत्या गतिव्युत्क्रान्तीनामयुज्यमानत्वात्, ऽन्तस्तत्र भवा मारणान्तिकी, सा चासौ संलिख्यतेऽनया श. शेषपदेषु च विदिशामविवक्षितत्वात् । यतोऽत्रैव वक्ष्यति-"तिरीरकपायाऽऽदीति संलेखना तपोविशेषः, सा चेति अपश्चिम- हिं दिसाहि जीवाणं गई पवस्तइ । " इत्यादि । तथा मारणास्तिकसोखना, तस्याः (भूसण त्ति) जोषणा सेवा,त. ग्रन्थान्तरेऽप्याहारमाश्रित्योक्तम्-" निवाघाएणं नियमा बया तलकणधोणेत्यर्थः । (भूलियाणं लि) सेविताना,ताका- हिसिं ति । " तत्र “तिहिं दिसाहिं ति " सप्तमी तृतीया नामित्यर्थः। तया वा झूषितानां क्षपितानां कषितदेहानामित्य- पञ्चमी वा यथायोगं व्याख्येयेति, गतिः प्रज्ञापकस्थानार्थः, तथा भकपाने प्रत्याख्याते यैस्ते तया, तेणं,पादपबदुप- पेकया मृत्वाऽन्यत्र गमनमेवमिति पूर्वोक्ताभिलापसूचनार्थः । गतानामचेष्टतया स्थितानामनशनविशेष प्रतिपन्नानामित्यर्थः, श्रागतिः प्रज्ञापकप्रत्यासन्नस्थाने श्रागमन मिति, व्युत्क्रान्तिरकालं मरणकालमनवकाधिणां तत्रानुत्सुकानां विहर्तुं स्थातु- त्पत्तिः, आहारः प्रतीतः, वृद्धिः शरीरस्य वईनं, हानिः शरीर. मिति ॥ १७॥ स्था० २०१उ० । नि० चू० ।
स्यैव हानिः, गतिपर्यायश्चलन जीवत एव, समुद्धातो वेदनाऽऽ.
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(२५२०) दिसा अभिधानराजेन्द्रः।
दिसा दिनकणः,कालसंयोगो वर्तनाऽऽदिकाबवणानुनूतिमरणयोगो वप्रत्ययावधिपके तु नारकज्योतिष्कास्तिर्यगवधयो, भवनपतिघा, दर्शनेनावश्यादिना प्रत्यक्षप्रमाण नूतेनाभिगमो बोधो दर्श. व्यन्तरा विधयो, वैमानिकास्वधोऽवधयः, शेषा निरवधय नाभिगमः.एवं ज्ञानानिगमः जीवानां झेयानामवध्यादिनैवाभिग. पवेति भावना । विवकाप्रधानानि च प्रायोऽन्यत्राऽपि सूत्राणीमो जीवाभिगम इति।" तिहि दिसाहि जीवाणं अजीवानिगमे ति । स्था० ६ ०। पन्नते। तं जहा-उठा,अहो,तिरिया।"एवं सर्वत्राजिलापनीयमिति रायगिहे. जाव एवं वयासी-किमियं भंते ! पाईणे त्ति पदर्शनार्थपरिपूर्णान्त्यसूत्रानिधानमिति । एतान्यजीवानिगमान्ता
बुच । गोयमा ! जीवा चेक, अजीव चेव । किनि सामान्यजीवसूत्राणि । चतुर्विंशतिदएमकचिन्तायां तु नारका.
मियं मंते ! पमीणे ति पवुच्चइ ? । गोयमा! एवं दिपदेषु दिकत्रये गत्यादीनां त्रयोदशानामपि पदानां सामस्त्ये. नासम्भवात,पञ्चेन्जियतिर्थ मनुष्येषु च तत्संजवात् । तदतिदे
चेव । एवं च दाहिणा, एवं च नदीणा, एवं नश, एवं शमाह-(एवमित्यादि ) यथा सामान्यसूत्रेषु गत्यादीनि त्रयो- अहो वि | का पं भंते ! दिसाओ पात्ताओ। गोयमा ! दशपदानि दिक्त्रयेऽजिहितान्येवं पञ्चेन्द्रियतियम्मनुष्येषु इति
दस दिसाओ पम्पत्ताो । तं जहा-पुरच्चिमा, पुरनावः। एवं नैतानि शितिसुत्राणि नवन्तीति । अथैषां नारका.
च्छिमदाहिणा, दाहिणा, दाहिणपञ्चच्छिमा, पञ्चच्छिमा, ऽऽदिषु कथमसम्नव इति?,नच्यते-नारकाऽऽदीनां द्वाविंशतेजीयविशेषाणां नारकदेवेषुत्पादाभावादधिोदिशोर्विवक्षया गया. पञ्चच्छिमुत्तरा, उत्तरा, उत्तरपुरच्छिमा, ना, अहो॥ गस्पोरभावःतथा दर्शनशान जीवाजीवाभिगमा गुणप्रत्यया अब. (किमिय भंते ! पाइण त्ति पचत्ति ) किमेतद्वस्तु य. ध्यादिप्रत्यक्षरूपा दिक्त्रये न सन्त्येव । भवप्रत्ययावधिपके तु प्रागेव प्राचीनं दिग्विवक्षायां प्राचीना प्राची पूर्वति प्रोच्यते ?. नारकज्योतिषकास्तिर्यगवधयो भवनपतिव्यन्तरा ऊविधयो उत्तरं तु जीवाश्चैवाऽजीवाश्चैव जीवाजीवरूपा प्राची, तत्र वैमानिका अधोऽवधय एकेन्द्रियविकलेन्द्रियाणां स्ववधि - जीवा पकेजियादयोऽजीवास्तु धर्मास्तिकायाऽऽविदेशा55. स्येवेति । स्था० ३ ग. २०।
दया। इदमुक्तं भवति-प्राच्यां दिशि जीधा अजीवाश्च सन्तीति। बमभिर्दिभिश्च गत्यागती प्रवर्तते--
एयंसि ण नंते ! दसाहं दिसामं का नामधेजा पशकहिं दिसाहिं जीवाणं गई पत्तः। तं जहा-पाणाए ता। गोयमा ! दस नामधेज्जा पप्पत्ता । तं जहा-" इंदा जान अहाए, एवमागई बकंती आहारे वुधी निवती वि- अग्गेयी य जमा, य नेरई वारुणी य वापव्या । सोमा गुब्बणा गइपरियाए समुग्याए कानसंजोगे दंसणानिगमे ईसाणीया, विमला य तमा य बोधव्या ॥१॥" जीवाऽभिगमे अजीवाभिगमे, एवं पंचेंदियतिरिक्खजोणि
| (इदेत्यादि ) इम्रो देवता यस्याः सन्जी,अग्निदेवता यस्याः याण वि, मास्सा वि॥
सा आग्नेयी, एवं यमो देवता याम्या, नितिदेवता नर्ऋती, षमभिर्दिभिर्जीवानां गतिरुत्पत्तिस्थानं गमनं प्रवर्तते । अनु
वरुणो देवता वारुणी, वायुदेवता वायव्या,सोमदेवता सौम्या, श्रेणिगमनात्तेषामित्येवमेतानि चतुर्दश सूत्राणि नेयानि । नवरं
ईशानदेवता ऐशानी, विमलतया विमला, तमा रात्रिस्तदाका. गतिरागतिश्च । प्रज्ञापकस्थानापेकिरायौ प्रसिद्ध एव, ट्युत्का.
रस्वात्तमाऽधकारेत्यर्थः, अत्र ऐन्द्री पूर्वा, शेषाः क्रमेण, विमला
तुद्धे, तमा पुनरधोदिगिति, इहच दिशः शकटाद्धसंस्थिताः, तिरुत्पत्तिस्थानप्राप्तस्थोत्पाद, सोऽपि ऋजुगतौ षट्स्वेव दिनु, तथा श्राहारः प्रतीतः, सोऽपि पदम्वेव दिक्कु,पत व्यवस्थितप्रदे.
विदिशस्तु मुक्तावल्या काराः, ऊर्द्धाधोदिशा च रुचकाकारे । शावगाढपुजलानामेव जीयेन स्पर्शनात्, स्पृशनामेवाऽऽहरणा.
भाह च-"सगमुकिसंग्यिाश्रो, महादिसानो हबंति चत्तादित्येवं पदिकता यथासं नवं वृध्यादिष्वप्योति । तथा वृद्धि
रि। मुत्तावली य चउरो, दो चेव य होति रुयगनिभा।"(४६) शरीरस्य, निवृष्टिनिस्तस्यैव, विकुर्बणा वैक्रियकरणं, गतिप.
इति (प्राचा०) र्यायो गमनमात्रं न परलोकगमनरूपः, तस्य गत्यागतिग्रहणेन
इंदा ते ! दिसा किं जीवा जीवदेसा जीवप्पामा: गृहीनत्वादितिासमुद्धातो वेदनाऽऽदिका सप्तविधः,काससंयोगः अजीवा, अजीवदेसा, अजीवपएसा ?। गोयमा ! जीवा वि, समयकेत्रमध्ये आदित्याऽऽदिप्रकाशसंबन्धनकण,दर्शनं सामा- तं चेव. जाव अजीवप्पएसा वि। जे जीवा ते शियम एन्यग्राही बोधः, तच्चे गुणप्रत्ययावध्यादिप्रत्यक्तरूपं, तेनाभिगमो वस्तुनः परिच्छेदस्तत्प्राप्तिा दर्शनाजिगमः। एवं ज्ञानाभिग.
गिदिया वेशंदिया० जाव पंचिंदिया अगिदिया; जे जीवमोऽपि. जीवाभिगमः सरवाऽजिगमो, गुणप्रत्ययावध्यादिप्रत्यक
देमा ते णियम एनिंदियदेमा० जान अएिंदियदेमा, जे तः। अजीचाभिगमः पुद्गवास्तिकायाऽऽद्यनिगमः सोऽपि तथैवे.
जीवप्पएसा तेणियमं एगिदिशप्पएसा० जाय अस्तिदिति। एवमिति,तथा "हिं दिनाहिं जीवाणं गई पवत्तइ" इत्या- यापएमा । जे अजीचा ते विहा पाता । तं जहा-रूपी दिसूत्रागयुक्तानि । एवं चतुरिक्षतिदग कचिन्तायाम्--"पंचिदि
अजीवा, अरूवी अगीवा य । जे रूची अजावा ते चउयनिरिक्ष जोणियाणं कह दिसाहि गई।" इत्यादीन्यपि वा. च्यानि । तथा मनुष्यस्वारयपि, शेषेषु नारकाऽऽदिपदेषु षट्सु
बिहा पासत्ता । तं जहा-खंधा, खंधदेसा, बंधप्पएसा,पदिच गत्यादीनां सामस्त्येनासंजयः। तथादि-नारकाऽऽदीनां द्वा
रमाणुपोग्गला। विशने वविशेषाणां नारकदेवेपूत्पादाजावादद्धधादिशोर्षिय- (जीवा चीत्यादि) ऐन्धी दिग् जीवाः, तस्यां जीवानामस्तिक्षया गत्यागस्योरभावः, तथा दर्शनझानजीवाऽजीवानिगमा त्वात् । एवं जीवदेशाः,जीवप्रदेशाश्चेति । तथा अजीचानां - गुगप्रत्ययावधिज क्षणाप्रत्यकलन्तानरूपा न सन्त्येव, तेषां भ. | साउदीनामस्तित्वाइजीयाः, धर्मास्तिकायादिदेशानां पुनर
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( २५२५ ) अभिधानराजेन्छ ।
दिसा
स्वाद मजीदेश अति ये जीवास्ते एकेन्द्रियादयोऽनिन्द्रियाश्च केवलिनो, ये तु जीवदेशास्ते एकेन्द्रियादीनामपदेशा अपि ।
जे अरूषी अभीवा से सत्तविहा पचचा । वं जहा नो धम्मत्किाए, धम्मत्थि कायस्स देसे, धम्मत्थि कायस्त पएसानो अपम्मत्यिकांप, अधम्मस्थिकायस्स देते, अ धम्पत्यास परसा नो आगासत्यिकार, आगासरिय कायस्थ देसे, आगासत्विकायस्स परसा, अकासमए । (जे अरूबी अजीवा ते सत्तविह त्ति) कथम् ? (नोधम्मस्थिकाप) अयमर्थः- धर्मास्तिकायः समस्त एवोच्यते, स च प्राची दिन जवति, तदेकदेशतत्वात्तस्याः, किं तु 'धर्मास्तिकायस्य देशः, सा सत्रेकदेशभागरूपेति तथा तस्यैव प्रदेशाः सा भवति ये दे। मकावास्याः २मधर्मास्तिकायस्थ देशः, प्रदेशाश्व २ । एवमाकाशास्तिकायस्य देशः, प्रदेशाश्च २ | श्रद्धासमयश्चेति । तदेवं सप्तप्रकारा रूप्यजीवरूपा ऐन्द्री दिगिति ।
अयी णं भंते! दिसा किं जीवा, जीवदेसा, जीवप्पएमा पुच्छा ? । गोयमा ! णो जीवा, जीवदेसा वि, जीवप्रसा अजीवि, अजीवदेसा वि, अजीवप्पा बि जे जीवदेखा ते णियमा एगिदियदेसा |
"अमेय" इत्यादि प्रश्नः उत्तरं तु जीवा निषेधनीया विदिशामेकप्रादेशिकत्वादेकप्रदेशे च जीवानामवगाहाभावात्, अन्याप्रदेशावास्यात्तेषाम रात्र जे जीवसा ते नियमा पर्मिदिवसे ति" केद्राणां सकललोकन्यायकत्वादाने नियमादन्द्रयदेशाः सन्तीति ।
छावा एगिंदियदेसा य, वेइंदियस्स देसे १, अहवा एगिंदियदेसाय वेदियस्स देसा २, हवा एगिंदियदेसा य, इंद्रियाण य देना ३, ग्रहवा एगिंदियदेसा, तेईदियस्स देने एवं चैवतियभंग भासियो । एवं० जा दियाणं तियभंगो, जे जीवप्पएसा ते पियमा एगिंदिययमा, अनापििदप्पसा व बेईदिवस पएमा, अदवा एर्गिदियष्यसा प बेदियाण व परसा एवं आदिखरिरहिओ०जाव आणिदिया ने अभी से विदा प ताजा-रूपी अनीवाय जे
जीवा ते चब्बा पत्ता तं जड़ा-खंधा, खंधदेसा, धप्पएमा, परमाणुपोग्गला । जे अरूवी अजीवा ते सतविद्दापाता से जहानो धम्मस्थिकाए, धम्मस्थिकायस्त देसे, धम्मत्यिकायस्स परसा, एवं अधम्मस्थिकायरूस वि० जान आागासत्यिकायस्त परसा, कासम वि दिसामु नात्य, जीत्रा देसे भंगो होइ सव्वत्य | जाणं ते! दिसा किं जीवा है। जहा धंदा तहेव रिवसेसं,
या जहा अग्गेयी, वारुणी जहा इंदा, बायव्त्रा जहा - यी सोपा जहा इंदा, ईशाणी जहा अपी, विमलाए
६३३
दिसा
जीवा जहा
पीए, अजीवा जहा इंदाए, एवं समा त्रि परं वी विहा प्रकासमो न जाइ ॥
एकेन्द्र
( अहल्यादि) केन्द्रियान सफललोकव्यापकत्वादेव हीन्द्रियाणां चाल्पत्वेन क्वचिदेकस्याऽपि तस्य संभवाडुव्यते केन्द्रियाणां देशाश्व यस्य देश इति द्वियोगे प्रथमः १ अथवा एकेन्द्रियपदं तथैव दे स्वेकवचनं देश नमित द्वितीयाम बढ़ा इन्द्रियोदशेस्तां स्पृशति तदा स्यादिति अथवा देव बहुवचनान्तमि ति तृतीयः । स्थापना- एके० देशाः ३, द्वी० १ देशः १ । एके० देशाः ३, द्वी० १ देशः ३ । एके० देशाः ३, द्वी० १ देशाः ३ । एवं श्री पञ्चेन्द्रिय सह प्रत्येक भयं दृश्यम् एवं प्रदेशोऽपि वाच्यो नवरमिट न्यादिषु प्रदेपदं बहुवचनान्तमेव यतो लोकन्यापकावस्थानिन्द्रियय जीवनप्रदेशास्ते भवन्ति होकल्या पकावस्थानिन्द्रियस्य पुनर्वद्यप्येकत्र क्षेत्रप्रदेशे एक एव प्र देशस्तथाऽपि तत्प्रदेशपदे बहुवचनमेवाग्नेय्यां तरप्रदेशानामसख्यातानामवगाढत्वादतः सर्वेषु द्विकसंयोगेष्वाद्यविरहितं भङ्गकइयमेव जयती SSK (वि. कभङ्ग इति शेषः । ( विमलाए जीवा जहा भग्गेर्याीए ति ) विमलायामपि जीवानामनवगाहात् ( अजीवा जहा इंदाए ति ) समानवक्तव्यत्वात् एवं (तमा वित्ति) विमलावत्समा पिपाश्वर्थ॥ अथ मिलायामनिन्द्रियसम्भवास देशा उदयो युक्ताः, तमायां तु तस्यासम्भवात्कथं त इति ? उच्यते-द एमाऽऽद्यवस्थं तमाश्रित्य तस्य देशो, देशाः, प्रदेशाश्च विवक्कया तत्र पि युक्ता ययेति । अथ तमायां विशेषमाहू-वरमित्यादि) (श्रामत्रो न भारत्ति) समयव्यवहारो हि सञ्चरिष्णुयदिप्रकाशकृतः स च समाय भारतीति ताद्वासन भण्यत इति । अथ विमलायामपि नास्त्य साविति, कथं तत्र समयव्यबहारः १, इत्युच्यते- मन्दराचयवनूतस्फटिक कामे सूss प्रभासंक्रान्तिद्वारेण तत्र सञ्चरिष्णु सूर्याऽऽदि प्रकाशभावादिति । भ० १० श० १ उ० ।
-
दिग्निदिप्रवडहारे
इंदाणं भंते! दिसा किमादिया, किपवहा, कइपदेसा दिया, कइपदेसुत्तरा, कइपदेसिया, किंपज्जबसिया, किंसठिया पष्ठता? गोयमा ! इंदाणं दिसा रुपगादिया रुयगप्पा दुपदेमिया दुपदेसुत्तरा, लोगं पकुच्च श्रसंखेज्जप एसिया, अलोगं प सुपरसिया, खोग मन सादिया सज्जबसिया, प्र. लोगं पशु सादिया अपतनसिया लोगे पमुख मुरमविया, भलोग पमुच सगयसंठिया पाता। - यी जंते । दिसा किमादिया. किंपवडा, कइपएसादिया, कइपएस वित्थिष्मा, कइपएसिया, किं पज्जवसिया, किंसंटिगोमा ! अषीणं दिसा रुपगादिया रूपगप्पा एगपदेसादिया एगपदेसविस्थिमा अणुत्तरा, लोगं पमुच पथ असंखेलपदेसिया, अलोगं पमुख अतपदेसिया, लोग पहुच सादिया सज्जबसिया, अलोग पशु अपन
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( २५३०) अभिधानराजेन्द्रः ।
दिसा
सिया
मुतावन्निसंठिता पत्ता । जमा जहा इंदा । रई जहा अगोयी एवं जहा हंदा तहा दिसा बारि । जहा अग्गेयी तहा चचारि विदिमा मिलाप भंते! दिसा किमादिया पुच्छा ।। गोयमा ! जहा अग्गेयी, विमला णं दिसा रुयगादिया रुयगध्पवहा चउपदेसादिया दुपदेसविता अराक्षगं पमुख से जहा अोपी, बरं रूपगडिया एवं तथापि ।।
( किमादियति ) क श्रादिः प्रथमो यस्याः सा किमादिका, आदिकवि विषयेयेणापि स्यादित्यत आह-कपयहति) प्रति प्रति कः प्रवहो यस्याः सा तथा । ( कतिपएलाइयत्ति) कति प्रदेशा आदिर्यस्याः सा विदेशका कति प्रदेश उत्तरे वृ यस्याः सा तथा । (लोगं पमुश्च मुरजसंतिय त्ति) लोकान्तस्य परिमएमप्राकारखेन मुरजसंस्थानता दिशः स्यात्ततश्च लोका तं प्रतीत्य मुरज संस्थितेत्युक्तम् । एतस्य च पूर्वाऽऽदिदिशमाधिय कारकृतेयं भावना" दुसरा पहाणी तदा दाहिणवाद रूप से मुख्य दिसिद दुब्वा, मज् य तुरुं इचति न्ति । " ( मनोगं परुश्च लगकुकसं. ठियति) रुचके तुमं कल्पनीयम्, आदी सङ्कीर्णत्वात्तत उत्तरोसरं विस्तीर्णत्वादिति । भ० १३ श० ४ ० । ० । स्था० । जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स बहुमज्जदे सजाए श्मीसे
भार पुढवी उबरिमदेसि सुगपपरेमु एत्य णं असिम रुयगे पत्ते, जओ णं इमाओ दस दि साधो पवईति । तं जहा- पुरच्चिमा, पुरच्छिमदाहिणा, दाहिणा, दाहिणचच्चिमा, पचचिमा पर्याछमुत्तरा उत्तरा, उत्तरपुरच्छिमा, उम्रा, अहो । स्था० १० वा० । तुच्वस्य दरिद्रश्रावकस्य दिगाद्यपेचया दिश्यते यया शिष्यः सा दिगाचार्योपाध्यायापाि
एगपविवयस्स जिवसुस्म कष्पति ३तरियं दिसं वा अदिवानिए, जहा या तस्स गणस्स पत्तियं सिया |
एकः समानः पक्क एकपक्कः, सोऽस्यास्तीति एकपक्तिकः, प्रवज्यया श्रुतेन च स्ववर्गस्य, भिक्षोः कल्पते इत्वरां कियत्काल भाविनीम् इत्वरणमुपल कृणम्। यावत्यधिकदिशमा चार्यत्वमुपाध्यायत्वं वा अनुदाचार्योध्याय द्वितीयशब्दविकल्पार्थः उपदेषु वा तस्य वा स्वयं धारयितुं यथा वा तस्य गणस्य प्रीतिकं स्यात्, तथा वा दिशमदिशं वा दिशेत् किमुतं प्रतिपक्षमध्य यादयदेव स्वगप्रीत्याचार्या दिपायातिं कुर्यादिति पार्थः ।
"
यासाचे तु माध्यद्वियः प्रथमतः पूर्वसूत्रेण सह संवन्धमाद निक्खिसम्म लिंगे, सातिणाएँ एहाणाऽऽदी। दिएनेमु य होइ दिसा सुविधा वि य एस संबंधी ११
"
यदि लिङ्गं रजोहरणं निक्खित्तं ' परित्यक्तं नवति, ततस्त स्मिन्निक्षिप्ते सिनेपदि वा लिङ्कापरित्यागेऽपि स्मानाऽऽदेः "सा
दिसा
इजमाणे अनुमनने, मूलं नाम प्रायश्चित्तं दानेन समस्तपयो प्रविधि
"
स्वरूपादिक दीयते, ततोऽयधावनसूत्रानन्तरं दिसूत्रोपन्यासः, पूर्वसूत्रेण सहाऽस्य सुत्रस्य संबन्धः । साम्प्रतमेकपनियत
विहो य एगपक्खी, पव्वज्ज सुए य होइ नायन्यो । सुगवाण पक्जाए कुक्षिन्याऽऽदी ||३३० ॥ द्विविधो द्विप्रकार एकपातिको भवति ज्ञातव्यः । तद्यथाप्रव्रज्यायां श्रुते च । तत्र सूत्रे सूत्रविषय एकपातिकवाचन एका समाना परस्परं वाचना येच्यः स तथा एकगुरुकुलाधीत - त्यर्थः प्रथमा बैंकपाक्षिक एकर्ती आदिदा पर्तिशिष्य सहाध्यायादिपरिग्रहः।
एतदेव स्पष्टतरमाह
सकुञ्जिन्त्र उ पव्वज्जा, पक्खित्तो एगवायण सुम्मि |
जुतपरिकम्मे, मोहे रोगे च इरियो ।। ३२१ ।। प्रवस्यापाहिको नाम (सकुति त स्कुल उपलते स्वगणभवी स्वशिष्य त्याच
यम् तपाक्षिका पुनरेकचाचः सूत्रे ग्रहणाद्यावधिक दिकसूचिता तामुभयमपि व्याया यति इत्यादि आचार्योऽज्युद्यतविहारपरिकर्मकामः, उपलक्षणमेतत् श्रभ्युद्यतमरणं वा प्रतिपत्तुमनाः। यावत्क चिकमाचार्यमुपाध्यायं वा स्थापयितुमाह-चिकित्सां वा कर्तु काम इश्वरम् | अकराभ्युद्यतमरणी वाया चकचिकावाचावाच्यावादिति शेषः मोरोगे बहुवचन द्विवेऽपि प्राकृतत्वाद आचार्य यावत्कचिका चार्यस्थापने द्विविधः- सापेक्को, निरपेक्षश्च ।
तथा चात्र राजदृष्टान्तः, तमेवाऽऽह
दिहंतो जह राया, सावेक्खो खलु तदेव निरवेखो। साक्खो जुत्रनरिदं, वे इय गच्चुवज्झायं ॥ ३२२ ॥ दृष्टान्तोऽत्र यथा राजा । तथाहि राजा द्विविधः सावेक्को, निरपे कश्च । तत्र यः सापेक्तः स जीवन्नेव युवराजं स्थापयति, युवरा जश्य सस्थापनीयोपरिमनुका परिषत्। ततः कालगतेऽपि राचिन वैराग्यमुपजायते किंतु सद्यस्थमेव राज्यम यस्तु निरपेक्षः सन् स्थापयति सुदरा विस्थापित राशि कालगते दायादानां परस्परकलढतो राज्यं विनाशमाविशति । एवमाचार्योऽपि द्विविधः सापेको, निरपेकश्च । तत्र यो जीवन गणपरं स्थापयति तस्मिय स्थापिते कालगते ऽप्याचार्ये गच्छो न सीदति । तथा चाऽऽहइति एवं सापेकराज पनरेन्द्र सापक भाषा जीव शेवेति वाक्यशेषः, गच्छोपाध्यायं गच्छनायकं स्थापयति । पुनर्गच्छनिरपेक्षः सन् आचार्य जीवन् स्थापयति । तस्मिन् कालगते परस्पर कलह भावतो गच्छो विनाशमुपयाति, तस्माद् जीवत्येव गणधरे आचार्य उपाध्यायो वा स्थापयितव्यः । सामाचार्योपाध्यावस्थापनाविषयमादगणहरपाजग्गासति, पमापकाते व कागते । येराण पगार्सेती, जावो न ठावितो तत्थ ॥ ३२३ ॥ गणधरस्य गणधरपदस्य प्रायोग्यो गणधरप्रायोग्यस्तस्यासति प्रभावे अथापि वाचायें काम
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(२५३१) अनिधानराजेन्द्रः ।
दिसा
गते इत्वर श्राचार्य उपाध्यायो वा स्याप्यते स च यैः स्थाव्यते, ते स्थविराणां गच्छबृहत्तराणां प्रकाशयन्ति यावत्तत्र, मूसाssवार्यपदे वाऽन्यो न स्थापितो जवति तावदेव युष्माकमा चार्य उपाध्यायो वा प्रवर्त्तक इति । इह एकपातिको द्विविध उक्तः प्रवज्यया श्रुतेन च । श्रत्र च भङ्गचतुष्टयम् । तद् यथा-प्रव्रज्यया एकपाक्षिकभूतेन १, प्रवज्यया न श्रुतेन २, न प्रव्रज्या श्रुतेन ३, न प्रवज्यया नापि श्रुतेन ४ । एतदपि भङ्गचतुष्टयं कुलादिश्वषि योजनीयम् ।
तथा चाऽऽहू
पव्वज्जाएँ कुलस्य, गणस्स संघस्स चेत्र पत्ते । समगं सुए जंगा, कुज्जा कमसो दिसाबंधे ॥ ३२४ ॥ दिग्बन्धेबाबा उपाध्याय वा स्था ज्या कुलस्य गणस्य सङ्घस्य च प्रत्येकं श्रुतेन साई भङ्गचतुष्टयं प्रत्येकं योजयेदिति नायः । तत्र प्रव्रज्यया भङ्गचतुष्टयमुपदर्शितम् । इदानीं कुलस्योपदर्श्यते कुलेनेकेपकः श्रुतेन च १ कुलेनैकपको न किं तु न श्रुतेन नापि कुबेन ४ । एवं गणेन सङ्खेन च प्रत्येकं भङ्गचतु· ष्टयं जावनीयम् । तत्र प्रवज्यां कुलं गणं वाऽधिकृत्य यः प्रथमभङ्गवर्त्तीस इत्वरो, यावत्कथिको वा स्थापनीयः, तदभावे तृतीयभङ्गवर्ती यदि पुनर्द्वितीयङ्गवर्त्तिनं, चतुर्थभङ्गवर्त्तिनं वा स्थापयति, तदा तस्य स्थापयितुः प्रायश्चित्तं चत्वारो गुरुमासा न केवलमेतत् प्रायश्चित्तं कि चाऽऽज्ञादयोऽपि दोषा तथा चाऽऽड्
।
पाणो य दोसा, विराहणा होइ-मेहिँ गणेहिं । सेकिएँ अनिणगहणे, तस्स व दीहेण कालेन || ३२५|| आज्ञाऽऽदय आङ्गाऽनवस्थाप्यमित्या देवनारूपा अनुप्रायश्चित्तसमुचये । तथ प्रायश्विनं प्रागेोपदर्शितम्, तथा विराधना गच्छस्य भेदो भवति, आज्यां वक्ष्यमाणाज्यां स्थानात दर्शयति सान यदि महानावस्था स्थापयितुः दीर्येण कालेन रोगचिकित्सा पा कृत्वा समागतस्य शङ्कते ।
एतदेव विभावयिषुः प्रथमत इत्वरस्य यावत्कथिकस्य च स्था
प
परिकम्मं कुणमाणे, मरणस्सऽनुज्जयस्स वबहारे ।
"
मांडे रोगनिमिच्छा ओहाते व आरिए ।। २२६ ।। अभ्युद्यतस्य मरणस्य पादपोपगमन कृणस्य परिकर्म द्वादसांसारिकरूपं यदि वा अभ्युपावहारस्य जनप्रतिपचिणस्परिक तपोभावना लक्षणं कुर्वति यावत्कधिक वाचार्यः स्थापनीयः मोहे मोह चिकित्सा, रोगचिदिवा त्याचा इर आचार्यः स्थापयितव्यः ।
नेकपाकेरबराचार्यस्थापनेोपमाददुविहतिमिच्छे काम आगत संकियमि के पुछे । पुच्छंतु च कं इयरे, गणनेदो पुच्छाहेडं || ३२७ ॥ परिवार्यस्थापनेद्विविमो चिकित्सा, रोगचिकित्सा दीर्घकालं कृत्या समागतः सन्रात्रे के नेवनेति भावः ।
दिसा पावास्याचा तरे या गवासिनि या मोदचिकित्सा कुर्वन्तः केन पू. वौक्कादेव हेतोः । ततस्ते वाचनाप्रदायकमलभमाना गच्छान्तर सुपसंपद्येरन्, गच्छान्तरोप संपत्तौ च प्रश्नहेतोर्गणभेदः स्यात् । संप्रति नेकपा कियावत्कचिकायार्यस्थापन दोषमादन तर सो संघानं, अप्पाधारी व पुच्छिउं देश | अनत्य व पुच्छंते, सबित्ताऽऽदी जगहंति ।। २२० ।। स नेकपाका स्थापितो यावत्कचिक आचार्यो भन वाचकत्वाद् न शक्नोति संधातुं विस्मृतमालापकं दातुम् । अथवा श्रुताने कपाक्षिकोऽल्पश्रुतोऽप्युच्यते, ततोऽल्पाधारः, अल्पस्य सूत्रार्थस्य वाऽऽश्रय इति पृष्टः सन्नव्यं पृष्टमानापर्क ददाति, अन्यत्र च गणान्तरे गत्वा पृच्छति, ते गच्छान्तरवतिन पायस्मत्यादि सादिकं गृद्धति, अगीतार्थानां न किञ्चिदाभाव्यमिति जिनवचनात्तस्य च तेषां समीपे
प्रस्थापना च ।
उपसंहारमाह
सुतो अगपखि, एए दोसा जवे वर्वेतस्स |
जगपखि, उपयंते इमे भवे दोसा ॥ २२९ ॥ नेकपणमित्यरं यावत्कथिकं वाचायें स्थापयत प अनन्तरोदिता दोषा नवन्ति, प्रव्रज्याऽनेकपक्षिणं पुनरित्वरं, या वत्कथिकं वा स्थापयत इमे वक्ष्यमाणा भवन्ति दोषाः । तानेव प्रतिपिपादयिषुराह
दोह वे बाहिरभायो, सचिचाऽदी मंगनियमा । हो गणस्स उभेदो, सुधिरेण न एस अहं ति ।।३२०|| प्रव्रज्यानेकपक्विक इत्वरयावत्कथिकाssवार्यस्थापने योरपि, गच्छस्याssचार्यस्य चेत्यर्थः । बहिर्जावो बढिर्जावाध्यवलायो भवति । तथाहि योऽसौ स्थापयति श्राचार्यः स गच्छ पर्ति साधूम्समस्तानपि परकीयान्मन्यते साधवोच् पर्तिनस्तं परमभिमन्यन्ते एवं परस्परहित्रांवाध्यवसाये म ति स्थापितस्य साधूनामनामध्यानि सचि तादीनि गृह्णतां नियमतो भएमनं कलहो नवति, तथा च सति प्रवचनोम्माहः प्राक्कल्पे व्यावर्णितः, प्रायश्चित्ताऽऽपत्ति
अन्य पनि सामन्यन्ते सुबिरेणापि प्रभूतेनाsपि कालेन गच्छता नास्माकमेव, परकीयत्वात् । उपलक्षणमेव सोऽप्यनिमरेणाप्येते परकीया इत्येवं पर स्परमध्यवसायनावतो गणस्य गच्छस्य भेदो भवति, तस्मादिवरो, यावत्कथिको वा प्रथमनङ्गवर्ती स्थापयितव्यः । अत्रैवापवादमाह
अन्नयरति गिच्छाए, पढमासति तइयभंगमित्तरियं । तयसेव असती, वितिम्रो तस्सासति चटस्थ। ३३२ । श्रन्यतरीचकित्सायां मोहचिकित्सायां रोगचिकित्सायां वा । आचार्य मिश्रणमेतद अभ्युद्यतमरणप्रतिपत्तावभ्युद्य विहारपरिकर्मप्राचिकमाचार्य तथ मनङ्गवर्तिनं स्थापयेत् प्रथमभङ्गमिति अवे यं तृतीयभङ्गवर्तिनमित्रम् उपलक्षणमेतद्याधिक वा स्थापयेत् । तत्र सूत्रेऽर्थे च स शीघ्रं निष्पादयितव्यः । तुवीपासुन शोभ
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( २५३२)
अभिधानराजेन्ः |
दिसा
सत्यनावे द्वितीयवर्ती तस्यासति चतुर्थः त योग्योतुवर्ती स्थापयिो भवति सारण:-- पती महा पगती संगतं विषयं वा । नाऊण गणस्स गुरु, गति गपक्खं पि ॥ ३३२ ॥ श्रनेकपक्षिणमपि प्रवज्यापकरहितश्रुनसमान पक्ष राहतमपि प्रथमद्वितीयतृतीयभङ्गवर्ण्यसंभवे प्रकृत्या, स्वनावेन स्वक परभावतो मृदुस्वभावमरोषणस्वभावं तथा प्रकृत्या स्वभा वेन सम्मतमजिमतं, समस्तस्याऽपि गच्छस्येति गम्यते । स्वजनसंबन्धभावतो वा निजकमात्मीयं ज्ञात्वा गणस्य गुरुः स्थापयितभ्यः ।
तस्य चतुर्भङ्गवर्त्तिनः सचित्ताऽऽदिषु य श्राभवनव्यवहा रमनिरा
साहारणं तु पढमे, विए खेत्तम्मि तइऍ सहक्खे |
हां सीसे ते एकारस विभागा ॥। १३३ ।। प्रथमे वर्षे साधारणम्, किमुक्तं जवति? - यावल्लजते तस्य तद्, द्विती वर्षे यरक्षेत्रे तदीये लभ्यते तच्त्रवर्तिनां साधूनां शेषं गण धरस्य तृतीये व समता व लभते तसेषामेव गच्छबर्त्तिनामाभावयति, शेषं गणधरस्य चतुर्थाऽऽदिषु वर्षेषु सर्व गणधरस्य, एष आभवनव्यवहारोऽनधीयाने शिष्ये । किमु यतिसमयेन पतितान् प्रतिष्टव्यः ये पुनराचार्यस्य समीपे न पठन्ति तेषामेकादश विभागाः। तथा चाऽऽह शेषेऽवधाने एकादश विभागाः प्रकारा भाभवद्व्यवहारस्य ।
प्रतिपिपराह पुदिई तस्सा, पचतु दिडं पवाययतस्स ।
संदरम पढमे, परिच्छए जस्थ सच्चित्तं ॥ ३३४ ॥ प्रतीच्छिके गलान्तरादध्ययनार्थमधिकृत गोपसंपदं प्रपन्न यत् श्राचार्य पदस्थापनातः पूर्वमुद्दिष्टं सचित्तम, उपलक्षणमेतअतिप्रथर्षे प्रति
च प्रथमो विकल्पः
तस्य प्रतीकस्य स्थापनाः पश्चाडुद्दिष्टं प्रथमे वर्षे संपद्यते सचित्ताऽऽदिकं त. सर्वे प्रवाचयतोऽधिकृत स्थापनाऽऽचार्यस्याभ्यापयितुः, एष द्विती यो
पुत्रं परबुद्दि, पमिच्छप जं तु होइ सञ्चितं । संवरम्मि चितिए, तं सव्वं पत्राययंतस्स ॥ ३३५ ॥ प्रार्थयानातः पूर्वपचादि समि उपल रामेवाद्विती संवत्सरे जयसिंयाटुप्र सीके गदागत्य सूत्रार्थस्य वा प्रीतीच्या. तया चति प्रतीप्रियार धिकृतस्थापिताऽऽचार्यस्य वेदितव्यम् । एष तृतीयोऽपि विकल्पः ।
म्वं पच्छुदि, सीसम्म छ जं तु होइ सचितं । र पढने तं स गुरुस्म भवति ।। २३६ ।। आचार्य पदस्थापनातः पूर्व पश्चाद्वा उद्दिष्टं यत् सवित्तम्पपदस्याचितं वस्त्रादिकं शि प्रथमवर्षे प्रवति संपयते तत् सर्वे गुरोराजत्रति । एष चतुर्थी विभागः । पुम्बुद्धिं तस्सा, पच्छुपित्रातस्स ।
दिसा
परम् पिइए, सीसम्म जंतु सचिषं ॥ ३३७|| यसमितिं वाचापदस्थापना पूर्वसचि समचित्तं वा शिष्ये द्वितीये संवत्सरे भवति संपद्यते, तत्सवै तस्य शिष्यस्याऽऽभवति । एष पञ्चमो विभागः । यत्पुनराचार्यपदस्थापनातः पश्चाडुद्दिष्टं सचित्तमचित्तं वा शिष्ये तृतीये सं बत्सरे भवति संपद्यते, तत्सर्वे प्रवाचयतोऽधिकृत गुरोराज बति । एष सप्तमो विभागः ।
पुदि तस्सा, पदि पत्रायतस्स ।
संचरम्मि पढमे, तं मिस्सिणिए उ सच्चित्तं ॥ ३३८ ॥ आचार्य पदस्थापनात पूर्वमपि प्रथमे स वत्सरे शिष्यिष्याः शिष्याया अभवति । एषोऽष्टमो विभागः ८ । यत्पुनराचार्य पदस्थापना सचित्ताऽऽदिकं प्रथ मेरे शिष्यायाः संयते तत् प्राचतोय गुरोराभाव्यम् । एष नत्रमो विभागः ए । पुर्व पहिं सिस्सी उ जं तु सचितं । संवच्चरम्मि वितिए, एतं सव्वं पत्राययंतस्स ॥ ३३० ॥ पूर्व पश्चादुद्दिष्टं सचित्तमचित्तं वा द्वितीये संवत्सरे शिष्यायाः संपद्यते, तत्सर्व प्रवाचयतो ऽधिकृतस्य गुरोः । एष दशमो विभागः ।
पुर्व पदे पनिछवा तु सचिनं । संच्चरम्म पढमे, तं सव्वं पवाययंतस्स ॥ ३४० ॥
पूर्व पश्चाद्वा यदुद्दिष्टं सवित्तमुपलक्षणमेतदचित्तं वा प्रथमे वर्षे प्रातीकियाः शिष्यायाः संपद्यते, तत्सर्वे प्रचाचयतोऽधिकृतस्य गुरोः एवं श्यायेन द्वितीयादिष्वपि संवत्सरेकः । एकादशोऽपि नागः ।
सामुपसंहारमाह
जम्हा एते दोसा, डुविदे विपक्खि तु वियम्पि तन्हा उठयन्त्रो, कमेणमेणं तु आयरिश्र ।। ३४१ ॥ द्विविधे अन्य पाक्षिके श्रुतप्रव्रज्यापकरहिते वेत्यर्थः । स्थापिते चावायें यस्मादेतदोषास्तस्यादनेनान्वरोदितेन " पदमासति तय (३३२) इत्यादिलक्षणेन क्रमे स्थापयितव्य प्राचार्य इति ।
33
अथ प्रथमभवर्त्ती केन विधिना स्थापति उच्यतेएस्मेगदुगादी, निष्फला तसे बंध दिसाम्रो। संपुच्छ बोलोय - दाणे मिलिए दितो ॥ ३४२॥ पतस्य प्रथमभङ्गवर्त्तिनः स्थापिताऽऽचार्यस्य एकद्विका दय एकद्वित्रिचतुरादयः शिष्या निष्पन्ना यदि भवन्ति, ततदिशमुत्यर्थः । बध्नाति तथा
वाचा दिशेनापदे स्थापनीयस्तस्य पितगणधरेणाचार्य पदे स्थापितस्य शिष्याणां विप्रतारणार्थे संप्ररूनं, तहतवहनमवलोकनं ला क्षात्समीपं गत्वा संयमयात्रा निर्वहन् प्रच्छन्नं दानं वस्त्रपात्राऽऽदेः । एतेषां समाहारो द्वन्दः तस्मिन्नपि कृते विपरिणामाभावे मिलितेन गोपालद्वयमिलनेन दृष्टान्तो वक्तयो योगपायोर्मिलितयोः प्रभूता धनवृद्धिरभूत तथा युष्माकमस्माकं च मिलितानां विहरतां भूयान् ज्ञानाऽऽदिलामों भवतीति ममेति ।
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(२५३३) दिसा माभिधानराजेन्डः ।
दिसा साम्प्रतमेनामेव गाथां विवरीषुरिदमाह
एवं गीयं काउं, दिजाहि दिसं अणुदिम वा ॥३४न। गीयमगीया बहवो, गीयत्यसलक्खया न जे तत्थ । अ) नाम लक्षणोपेततयाऽऽचार्यपदयोग्यः, परमद्यापि सूत्रे. तेन्सिं दिसान दानं, वियरति सेसे जहरिहंतु ॥३४॥
ऽर्थे चन निर्मातस्तमईमनिर्मातं ज्ञात्वा यो गणधरस्तकासं गच्छे बहवः साधो (गीयमगीया इति) गीतार्था अगीता
स्थापितस्तं स्थविरा वृद्धा प्राचार्या नणन्ति-यथा एनं साधु गीतं श्चि, तत्र गीतार्थास्तत्रापि सलकण। आचार्यसकणोपताः,
गीतार्थ कृत्वा दद्यात् भवान् दिशमनुदिशं वा । तेषां दिश आचार्यपदानि. दत्वा शेषान्साधून्यथा यथायोग्य, सो निम्माविय नवितो, अत्यति जइ तो सह जितो लटुं । तथा केषाञ्चिदनुरत्नाधिकत्वेन केषाञ्चिसामान्यतः शिष्यत्वेन
अह न वि चिट्ठइ तहियं,संघामो ता से दायन्यो।३४। वितरति प्रयच्छति। पतञ्च तदा इष्टव्यं यदा प्रत्येक बहवः शिप्याः प्राप्यन्ते, अन्यथा त्वेक एवाचार्यः स्थापनीयः, शेषाः
योऽसावाचार्येण संदिष्टो-यथैतं साधु निर्माप्य एतस्मै दिशमनुदि. समस्त्रा अपि शिष्यत्वेन संबध्यन्ते, तत्रापि सलक्षणानां देशो
श वा दद्यात् स निर्मापितो निर्माप्याऽऽचार्यपद स्थापितः, ततः ज्ञायते ।
स यदि निर्मापितः स्थापितस्तेन सह तिष्ठति विहरति ततो नए एतदेव सुव्यक्तमभिसुराह
समीचीनम् । अथ नैव, अपिशब्द पवकारार्थो, न तिष्ठति तत्र
तस्य समीपे तर्हि (ले) तस्य सङ्घाटो दातव्या,यस्य पूर्वाssमनायरि रायणियो, अणुमरिसो तस्स होनबज्जाओ।
चार्येण वैयावृत्य करो दत्तः,सोऽपि तेन मा विहरति । गीयमगीया सेसा, माझया होति सीसाह॥३४४॥
तत्र ये स्थापितगणधरेणैको द्वौ त्रयो वा सहाया दत्तश्च मूलाऽऽचार्यो नाम रानिको रत्नाधिकः, तस्य मूलाचार्य
पूर्वाऽचार्यप्रदसोचैयावृस्यकरस्तान् पाठयति,ये चाभिनवौकस्यानुसदृशोऽनुरूप उपाध्यायः, शेषास्तु ये गीतागीतार्थास्ते का उपस्थापिताः प्रवाजिता,तेऽयात्मनः शिष्यत्वेन संबन्धनीतस्य । मजिजगा ' अनुरत्नाधिकाः, हकारोऽक्षाकणिका, याः, एवं संजात पृष्ठविहारः सन अन्यत्र बिहारेण गतः, तस्य शिष्या भवन्ति ।
तत्र विहरतः शिष्यान् संस्थापितगणघरो विपरिणयितुकाम रायपिया गीयत्या, अलछिया पारयंति पुवादिस। यत् समाचरति तदुपदर्शयति. अपहुचने सबकखणे, केवलमेगे दिसाबंधो ॥३४॥
पेसेइ गंतुं व सयं.व पुच्छे, ये पुना रास्निका वनपर्यायेणाधिकाः, गीतार्थाः श्रुतसंपता संबंधमाणो नचाहिं व देती। घतश्रुतनिष्पनाच केवलं संग्रहे उपनहे चालब्धिकाः, ते पूर्व
सऊत्तिया सिं व समसिया वि, दिश पूर्वाचार्यप्रदत्तं दिशमनुरत्नाधिकत्तल कणं धारयन्ति,
सचित्तमेवं न लभे करेंतो ।। ३५० ॥ नत्वाचार्यपदमुपाध्यायत्वं वा तेषामारोप्यते,तबब्धिहीनत्वात्। एप विधिः-यावन्तः स्थापिता श्राचार्यास्तेषां प्रत्येक मनुगन्त
यत्र स निर्मापितः स्थापितो विहरति तत्रोदन्तवाहका'व्यम्, एतच्च तदा क्रियते यदा भृयांसः साधवःस्थाप्यन्ते। (अ. साधून् ततशिष्याणां प्रेषयति । अथवा-खयमन्तराऽन्तरा पहुरूचंते इत्यादि ) अप्रभवति प्रत्येकमाचार्याणां साधुपरिबारे गत्वा तान्पृच्छति । यथा-संस्तरथ यूयं सुखेन, यद् भो भवतां भूयस्य प्राप्यमाणे केवलमेकस्मिन् सलकणे विशिष्टाऽऽचार्यल. नास्ति तत्कथयत, येनाऽहं ददामीति । तथा तान् शिष्यानाक्षणोपेते दिग्बन्ध प्राचार्यपदाभ्यारोपः क्रियते ।
त्मनः संबन्धयन उपधि चान्तराऽन्तरा ददाति । तथा ये
स्वाध्यायनिमित्तं समीपस्थायिनोऽनुरत्नाधिका गीतार्था इपतदेवाऽऽह
त्यर्थः, तान् तेषां निमोप्यस्थापितानामाचार्याणां मुक्त्वा नासीसे य पडुच्चंते, सव्येसि सि होति दायव्यो।।
स्मनः समालापयति संश्लेषयति, 'लीङ्' संश्लेषणे इतिवचनाअपहुच्चंतेसुं पुण, केवलमेगे दिमाबंधो ॥ ३४६ ॥
त। एवं तेन गीतार्थाः शिष्याश्च विपरिणम्यमाना निर्मापित. शिष्ये शिष्यवर्गे प्रत्येक प्रभवति तेशमाचार्यलक्षणोपतानां स्थापितस्य समीपं मुक्त्वा तं स्थापितगणधरमुपसंपद्यन्ते । स सवेषामपि देशो दातव्यः । अप्रतवत्सु प्रत्येक पूर्णतया साधु- चैवं सचित्त साधुवगरकणमात्मसात् कुर्वन् न लभते, व्यवहा
कवलमकास्मन् सलकणतरे दिग्बन्धः कत्तभ्यः, | रतो न ते तस्याऽऽभवन्तीति भावः। शेषाणां तु सशक्षणानां दिशोऽनुज्ञाप्याः।
अथैवमपि ते विपरिणम्यमाना न विपरिणमन्ति, नाऽपि साम्प्रतं तेष्वाचार्यपदस्थापितेषूपकरणदानविधिमाह
तस्य समीपमायान्ति, ततोऽनेन दृष्टान्तेन तावत्संबअच्चित्तं व जहरिह, दिज्जइ तेमुंव बहुसु गीएसु ।
न्धयन्ति, तमेव दृष्टान्तमाहएस विही अक्खाओ, अग्गीएसुं इमोउ विही॥३४॥ गोवालगदितं, करेति जह दोसि भाजणो गोवा । तेषु वाऽऽचार्यपदस्थापितेषु बहुषु गोतार्थेषु अचित्तं वस्तु 'रक्खती गोणीओ, पिहप्पिहा असाहया दोषि ॥३५१।। पात्राऽऽदि उपकरणं यथाऽहं यो यावन्मात्राहस्तस्य तावन्मात्रं गेलमे एगस्स उ, दिणा गोणी उ ताहे अन्नस्स । दीयते, एष विधिराख्यातो गीतार्थेषु सूत्रार्थनिष्पन्नेवाचायलणोपेतेषु, अजीतेष्वनधिगतसूत्रार्थेष्वाचार्यकणोपेतेवयं
श्य नाऊणं ताहे, सहिया जाया दुवे गोवा ।। ३५५ ।। बक्ष्यमाणो विधिद्रष्टव्यः ।
"दोलि गोवाला स होयरभाउगा भंडणं करेत्ता पत्तेयं पत्तेय
धेयणएणं गावीश्रो रक्खंति, अन्नया तेसिं एगो रोगी जातो, तमेवाऽऽह
ततो तेण जाव न रखिया तो गावीतो परिहाणो जातो,अन्नया अरिहं व अनिम्मायं, ना थेरा जणंत जो पवितो। । वितिनो पमिलगो, सोवि तहेव परिहीणो। ततो तेहिएगागि
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दिसा
(२५३४) दिसा
अनिधानराजेन्द्रः।। यस्स न सोहणमिति चितिऊण परोप्परं पीती कया, ततो णो वा सत्तमतो, तीसतिवरिसो तिदसो इव वयवं, अप्पाइ. एको पडिलम्गो तस्ल वितिश्रो गाबीओ रफ्ना, एवं श्य- यादिचउचिहबुझिसु बेदो बुझिम, बहुं धरोति, बहाविधं धरे, रस्स वि, एवं तेर्सि दब्बपरिवुद्धी जाया । एवं अम्हं पि अणिक्सियं धरेति, असंदिटुंधरोति,दुद्धरं धरेश,धुर्व धरेछ, एवं बीसु वासु विदरताणं परिहाणी जवति, तम्हा मिनिया वि. जगहणे वि खमादी,सीलउववेतो सीमवं, चक्कवालसमायारीप हरामो, जेणं विउला नाणादाणं वुडी हवा, ज तुम्भं तं तुम्भं जुत्तो कुसलो य। चेव नादं तं हरामि । एवं समल्लेयावेसा सीसे लम्भंति, एवं
एवंविपरिणामेश्, तह वि सो न लहर।"
एतेहिं नववेतं, रागेण परं च उद्दिसति कोइ । संप्रत्यकरयोजना । गोपात्रकदृष्टान्तं करोति-यथा द्वौ गोपी जच्चाइविहूणं वा, उज्जति कोई परिजवेणं ॥१२॥ भ्रातृकी, नौ द्वावस्यसहितौ पृथक पृथग् बेतनेन गा रजतः,
एतेहिं उववयं को रागेणं अम आयरियं उद्दिसति, पतेहिं अन्यदा पकस्य ग्लानत्वे गा अन्यस्य गोस्वामिना दत्ता, स
नेव जच्चादिपहिं बिहूण को परिभवेण परिच्चयति, दोवेतनात् परिन्नष्टः। एवमितरोऽपि जानत्वे वेतनपरिहीणो जा
घेणेत्यर्थः। तः, तत इति पृथक् असंहतस्थितस्य महती व्यहानिरिति
गाहाकृत्वा जाती द्वावपि सहिताविति।
अहवण मेत्ती पुग्वं, प्यानदिपरिवारतो रागे । उपसंहारमाह
अहिकरणमसंमाणे, सभावऽणिटुं च दोसेणं ।। १२० ॥ एवं दोमि वि अम्हे, पिहप्पिहा तह विहरिमो समगं।
'अहवण' शब्दो विकल्पप्रदर्शने,मित्रभावो मैत्री, तत्पूर्व तन्निवाघाते णऽस्मोले, सीसा न परं व न भयंति ॥३५३॥
मित्त,महायणपूइयं,तेण वा सोपडतो अट्ठारादिवद्धिसपम्म परिएवं द्वयेऽपि वयं यद्यपि पृथक पृथक् तिष्ठामः, तथाऽपि वारसंपमं वा,पतेहिं गुणहि उववेयं रागेण आयरियं पमिवजाति, समकं संदिततया बिहरामो,यन व्याघाते ग्लानत्वाऽऽदिसकणे, आयरिएण पुण सकिं अधिकरणे उप्परणे पायरिएण वा असं. अन्योऽन्यस्य ज्ञानाऽऽदिहानिर्नोपजायते,शिष्या वा परं न भज- माणिो , सभावेण वा अणिटुं आयरिय परिचयति एस न्ते, पवमपि सत्कुर्वाणो न लभते शिष्यम् । व्य०२००।
दोसेण । दिविपरिणामे
पुरिसंतरियपरिरचाए अण्णमुदसेण य इमे दोसाजे भिक्खू दिसं विप्परिणामे,विप्परिणामंतं वा साइज्ज
आणादियो य दोसा, विराहणा होत संजमाऽऽताए। ॥१२॥ जे निक्खू दिसं अवहरह, अवहरंतं वा सा.
दुसनबोहीयत्तं, वितियपय विराहणा चेव ॥ १६ ॥
तित्थकराणं आणाजंगो, आदिसद्दाश्रो अणवत्था--जहा एय. इजइ ।। १३ ॥
स्स एयमसच्च तहा अपण पि, एवं मिच्चत्तं जणथति, वितिदिशेति व्यपदेशः-प्रव्रजनकाले, नुपस्थापनाकाले वा य
यपदविराहणे संजबिराहणा । अमेण भणितो-किमायरियं प्राचार्य उपाध्यायो वा व्यपदिश्यते सा तस्य दिशा इ- परिश्चयसि ?, उत्तराउत्तरेण अधिकरणं, एत्थ प्राय संजमत्यर्थः । तस्यापहारः, तं परित्यज्य अस्यमाचार्यमुपाध्यायं विराहणा, दुल्लमबोधीयत्तं च णिवत्तेति, तम्हा दिसाबहार बा प्रतिपद्यते इत्यर्थः। संजतीए पवत्तिणी ।
णो करे। अवि य
वितियपदेण असमायरियं उद्दिसिजारागेण व दोसेण व, दिसावहारं करोति जो निक्ख ।
वितियपए आयरिए, ओसछोवाइए य कानगते ।
भोसणे छविहो खलु, वत्तमवत्तस्स मग्गणया॥१३॥ सो आणा अणवत्थं, मिच्चत्तविराहणं पावे ॥ १२५॥
जइ अायरिओ ओसरणो जातो, ओहाश्तो घा, कागतो रागेण-किंचि णीयचगं पासित्ता रागो जातो, ताहेतं दिसंगे.
वा,पप तिमि दारा । पत्थ ओसम्मो उम्विहो-पासस्थो, ओस. पहति,पुरिल्ले आयरिश्रोवज्झाए उज्केति । दोसेण-को वि कम्हि
नो,कुसीलो, संहत्तो,अहामंदो,णितियो य । तम्मि गच्छे आय. ति कारणे उडुसद्धो समणो अझ आयरियं संदिसंति, तस्स रियो जो संकप्पिओ वत्तो अवत्तो वा सो वत्तावत्तो कई चउगुरुं पच्छितं, आणादिणो दोसा नवति ।
गणं धरेति ति चउभंगण मग्गणा कजति। सोससबरिसाऽऽरोण अहवा इमो रागण उद्दिसति
वयसा अवत्तो, परेण बत्तो, अणधी यणिसीहो अगीयस्थो सुत्तेजातिकुझरूपन्नासा-धणबलपरिवारजसतवे लाभे। ण अत्यतोवा, सुत्तेण गीयत्थो वपण वत्तो, सुत्तेण वि वत्तो सत्तवयबुष्धिारण, उग्गहसीले समायारी ।। १२६ ।।
वएण वि बत्तो, पढमनंगो। वितियो सुप्रवत्तोण वरण | ततिमाउपक्वविसुझारु जाती, पियापक्षविसुरू इक्खागुमादियं
आ सुपण अणुबत्तो वपण वत्तो। चउत्थो दोहिं वि अवत्तो। कुलं.सुविमत्तंडगोबंगअहीणपचेदियत्तत्तणं रुवं, मियहरकडु
वत्ते खलु गाहानिदाणा नासा, धरिणमं पब्बतियस्स ता तत्थ मेऽस्थि,उववेय.
वत्ते खबु गीयत्ये, अव्वत्ते वतेप हवइजीयत्ये । मंससोणिो बक्षवं,विरियंतरायखोवसमेण वा बनवं,ससम. ओसएणो बिहो खन्नु, अहवोसएणे य संगमणा १३१ यपरसमयविसारत्तणेण मोगुत्तरे य जसो,चउत्थादिणा बाहि- चरण बत्तो गीयत्यो एस पढमभंगो, खबु पादपूरणे, रम्भंतरेण वा तवेण वा जुत्तोपाहारोवकरणक्षाभसंपये। विहि- अवत्तो वरण एस वितियनंगो, पढमभंगे हवा अगीआईसुअणुस्सुप्रो प्रश्विकमो य सत्तमंतो, पुरज्जवसा- यत्थे एस ततियभंगो, पढमभंगिल्लो उभयवत्तो, तस्स
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दिसा
( २५३५) अभिधान राजेन्द्रः । सोबतोमो ओस पारि सारेति चोदयतीत्यर्थः क ग सति, श्रहवा श्रोस सयं गंतुं चोदते तं, एस च सयं चा गच्छति ।
मारिया
-
गाड़ा
गाह पण पक्खे, चमासे वरिसें जत्थ वा मिलति । चोदेति पोदती, अणिच्छे बाएँ सयं तु ॥ १३२ ॥ एगो चिसो दिने दिणे गंतुं सारेति, एगाहो वा एगंतर पंचपदं पंचराई दिणाण वा सारेति एवं पक्खे, चाटमासे, परिसंते य, जत्थ वा समोसरणादिसु मिलति, तत्थ वा सारेति सम्माणिच्तं वयमेव यद्वायेति ।
श्रं च
अणं च उद्दिमात्रे, पत्रेयणट्टा ए संगहडाए ।
जति णाम गारवेात्रि, मुएज्जऽपिच्छे सयं गति । १३३ । सोन वा परियं हिसति स्यात्किमर्थं १, पवेयणा ण गच्छस्स संगहड्डा वग्गल गहणट्ठा, स्व. यमेव शक्तत्वात् मम जीवंते चेव असमायरियं उद्दिसंति, जति नाम एरिसेण गारवेण श्रसालणं मुएज, तहा वि साधू सन्वा णिच्छे, सयमेव आयरियपदे वायति । गतो पदमभंगो ।
इमिंगो तो वाहूसुबवतो वयडवतो, जगति गणं तेऽहं धारितौ। सारेहि सगणमेयं, असं याम परियं ।। १३४।।
जो सुत्तेण बत्तो वरण अवत्तो सो तं आयरियं भणतिएयं ते गणं अहं पहुष्पवयत्तणाओ य धारिलं असतो, एहि तुम एयं सगणं सारोदे, श्रहवा ण सारेहि तो अम्छे अपं आयरियं वदामो इत्यर्थः ।
आयरियगाहा
आयरियमुकायं पुच्छेने अपणो व असमस्ये । तिगवच्चरम, कुलगणसंघे दिसाबंधो ||१३||
यादुपजातो गणं बद्धा वेडमसमरथो असे आ पनि उसिमियायरियं भवति अम्दे अस्स आयरियस्स खो उवसंपजामो, सो गं जबसंपणापण म्हं सचित्तादी हरति, तुमं जति सगणंण सारेति, तो अम्दे दिल ने शायरियं पडिवलामो कुपिं कुलसमचार्थ कुसादे फुलेण जो इस स लेखिि
"
साणि सवितादि जो इरति एवं गणे संधे यतिषिद्ध परिखाणि । परतो इमा विधी
सच्चित्तादि हरंति ण, कुनं पिणेच्छामों जं कुलं तुज्छं । बच्चामा अागणं, संघं वा जति तुम ण ठासि ॥ १३६ ॥ पुत्रायरियस्ल अग्गतो नणितं जं तुइ कुनं तं कुलिन्यो, अहं तिष्द वरिमाणं वरि सचित्तादी हरति, जर तुम्हं अम्हारिण वासितो म्हे तो विपरतो गणं सं वा दूरतरं वयामोता है गणायरियो ण ठासि, तो म्हे तो त्रि परभागेणं संघ वा दूरतरं वयामो, ताहे गणायरियं लहि
दिसा
सार्वेति, गणलमचाप वा उबड्डायंति, सौ वि संवध्वरं स चित्तादी ण हरति, एवं संघे उठायंसि सो वि बम्मासेसचितादी हरति एवं वितियपदेश दिसावहार करेंति ।
बादा
,
एवं विभावेतुं पंचमे रिसे सयमेत्र घरेति गर्ग, अनुलोमन
सारेइ ॥ १३७ ॥ चोदा तावेवं अब
एवं अयमे परिवार तावे जाहे सो मे परसों व वतीभूतो सयमेव गणं धरेति, जन्थ य पासति तत्थ य पुवायरियं श्रगुलोमेहिं वयणेहिं सारेति चोदयतीत्यर्थः ।
गाहा
अहवा जति प्रत्य येरा, सत्ता परिकविलं ण तं गच्छं । पदमजंगसरिस, तस्स न गमओ मुणेयव्त्रो ॥१३८॥ अयवेति विकल्पवाची, अप्पणा गीयत्थे श्रय से थेरा छपरा स्थित परियं पण उद्दिसंति कन्दा न उद्दिसंति ?, भाति-जतो पदमभंगसरिसो चेघ पक्ष गमो भवति । गतो वितियभंगो ।
दाणि ततियभंगो । गाद्दाबत्तव्त्रयो अगीयो, जति थेरा तत्य केइ गीतत्था । तेऽति पढ़तो चोदते असति अधस्थ ।। १३५ ।। जो पुण वयसा प्राग्यो स वयोधतो. श्रगीयत्यो पुण जइ सग. च्छे थेरा, गीयत्थो तो सो तेहि थेराणं अंतिए समीवे पढतो गच्छस्स चोदणादि सारणं करोति श्रोसायरियं वा चोदेति, सिगास मां संपति चट्टानं बट्टा गतो ततियमंगो
1
"
इदाणि चचत्थो । गादा
जो पुसा छजोडतो, बन्दावन असति सो छ उदिमति । सब्वे वि उदिता, मोचू इमे तु उद्दिमति ॥ १४० ॥ जो सुखेण चरण अवतो सो गणबावगरस असत अ सत्य आयरियं उद्दिसति संपद्यतेत्यर्थः । पते चडनंगिठ्ठा सवेत्रि मे मोतुं उद्दिसंति ।
गाड़ासंविग्गमगीयत्थं, अस्संविग्गं अ गीयत्थं । आपरिपवज्जाया, उदिसमास्स च गुरुमा ॥ १४१ ॥ सत्तरचं तवो होति, तो बेदो पहावति । छेद्रेण निपरियार, तो मूलं ततो दुगं ॥ १४२ ॥
||
विरयिं वा विजयपत्यं । चतुरोया तस्य वि भाणादिलो दोसा | १४३ । संदित्थं अवि गोवा पते आयरियजयउझायत्तेण उद्दिसंतस्स चउगुरुगं जवति ॥ १४१ ॥ श्र सत्तदिणे चउगुरु, बेदो, एवं छल्लदु, उग्गुरुगा चि बेदो सत्त दिये वा ततो एक्केकदिणं मूत्र, अणवठा, पारंचिया नवन्ति । अहबा-उग्गुरुपतत्रो परियररागादिभो, वेदो सत्तदिणेसु
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(२५३६) दिसा प्रन्निधानराजेन्द्रः ।
दिसा यो, ततो पर मून, अगावपारंचियाए पच्चित्त बियाणमाणेण तिण्डं-मातु पितु धम्मायारयस्स य, पते परमोवकारिणो, संचिम्मो गीयत्थो उद्दिसियचो ॥१४॥ द्राणविरहियं सदोस। एतेसिं दुक्खेण पच्चुवकारो का सकति । किं चान्यत, जो संविगं गीयत्थं सदोसं जति उद्दिसति, तो चउगुरुगा पाय- जेण धम्मावदेसप्पदाणादिणा दंसणे बरणे वा गवितो, सो चित, श्राणादिया य दोसा नवंति ।
तं गुरुं दसणचरणहिंतो चुयंते देवदंसणचरणेसु नाविलं 'छठाणविरहिय त्ति' (१४३) अस्य व्याख्या
णिग्गयरिणो नवति, कृत्युपकारेत्यर्थः। लट्ठाण जाणि तेहिं, तविरहित काहिया चउरो। न मायरियउबज्माया गणपरिखुमा अण्णायरियं उपसंपजते चिय उद्दिममाणा, ढाणगयाण जे दोसा ॥१४॥ | ति, तदा श्मो विधीपासत्यो, ओसयो,कुसीलो,संसत्तो अदाबंदो,णितिो य, पते. मिक्खिवणे चिय अप्पणो, परे य संतस तस्स ते देति । दि छहि ठाणेहिं विरहितो सदोसोको भवति ? भन्मति-का. संघाड देयऽसंतो, सो विण वाबारेणापुच्छा ।।१५१॥ हियादिया च उरो-कोवाप, ममाए, संपसारप, पासणिए । अहवा-काहिए, पासणिए, मासाए, अकयकिरिए। एते उहिसमा
जया तेहिं आयरिओवज्काहिं प्राखोयणप्पदाणेण अप्पा चजस्स ते चेव दोसा, जे छठाणगते नणिया। ओसरणेत्ति गयं।
वणिक्वित्तो जवति, तदा भणंति-इमे य भे साहू,पस पणिइदाणि श्रोहाइयकालगते ति दो दारा
क्खेबो, तेण वि आयरिपण अप्पणो संतेसु साहुसु ण घेत्त
वा, तस्स चेव ते देति, अह बत्यवायरियस्स असति साहुणं ओहानियकालगते, जाविच्छा ताहे उद्दिसावेनि ।
ता सम्वे घेतु पामिच्चायरियस्स एगसंघामगं कप्पगं देति, अन्चत्ते तिबिहे वी, नियमा पूण संगहहाए । १४५॥ सो वि अपाडिच्छायरियो बत्थब्बायरियस्स प्रणापुच्चाए तीसुवि दीवितकजा-सि पन्जिया जति य तस्मतं पत्थि। | ते सिस्से ण यावारेति एसणाऽऽदिसु । निक्खिविय वयंति दुबे,गिरव किंदाणि णिक्खिवितुं १५६
सुत्तदोएहऽद्वाए दोएह वि,णिक्खमणा होति उज्जमंतेसु ।
जे निक्खू दिसं विप्परिणामेइ, दिसं विप्परिणामंतं वा सीयंतेमु तु सगणो, पचति मा ते विणासेजा॥१७॥
साइज्जइ ॥ १४॥
इमो सुसस्स सुत्तेण सह संबंधः । गाहावत्तम्मि जो गमो खबु, गणवच्छे सो गमोन पायरिए।
सयमेव य अवहारो, होति दिसाए ए मे गुरू तो से। णिक्खमणे तम्मि चत्ता, जमुदिसे तम्मितेपच्छा ॥४॥
महं भणिता विपरिणा-मा। उ अमोसिमा होति ।१५। ओहातियोमरणे, भणति अणाहा वयं विणा तुकं ।
सयभिति स्वयम अतिक्रान्तसूत्रे विपरियामणा प्रारमकमसीसमसागरिए, दुप्पमितरगं जतो तिएई ।।१४॥ | गता अनिहिता। जो जेण जम्मि गण-म्बि गवितो दंसणे व चरणे वा।। इमा पुण वक्खमाणसुत्ने अएणे अमरस दिसाविप्परिसोतं ततो सुयं त-म्मि चेव का भवे पिरिणो॥१५॥
णामणं करोतजति वि आयरियो ओहातिओ। ओहावणं च दुविध-सारूचिं.
रागेण व दोसण ब, विपरिणामं करेति जो जिक्खू । यत्तणेण, गिदत्यत्तनेण वा । कागते आयरिए जो पढमिसु दुविहं तिविह दिसाए, सो पावति भाषामादीधि १५३। तिसु भंगेसु अवत्ता तिमि भणिया,तेसिं जाहे इच्छा श्रायरि- दिसं विपरिणामेति रागेण वा दोसेण बा,रागेा-तम्मि सेहे यवफा एमु श्मो विधी ।। वत्तम्मिगाहा । इह गणायच्छतितो अज्कोषवातो गाढं, ताहे तेण रानेए विपरिणाम अपणो सयज्झाओ, जया उवज्झाओ आयरिश्रो चा अशं प्रायरियं उ- अंते आकति, दोसेण-मा तस्स सीसो भवति वि विप्प. दिसति तादे जो उभयवनम्मि भिक्खुम्मि विधी,सच्चेष ग-। रिणामेति, आयरिशा नवज्झाया दुविदा दिसा साहणं, मागावच्छेए प्रायरिए य विधी दध्यो, णवरं गमणिक्खेवं काउं| यरियुवज्झाए वत्तिणी यतिविहा संजतीण दिसा, एया दिसा ययति सगणे, जे अमे मायरियनबज्झाया संविम्गा गायत्था | विप्परिणामेंतस्स प्राणादिया दोसा । तेनसिं गणणिक्वेव करोति, असंधिमा अगीतेसु तेसु जति णि
सो पुण इमेहि विष्परिणामेति । गाहाखति तो तेण णिक्विपमाणा चत्ता भवंति, तम्हा असं. महरो अकुलीणो त्ति य, दुम्भेहो दमग मंदबुधित्ति। विग्गा गीतेसु णिक्नेवे अप्रभवे सगणा चेवं बच्चति, जमु. दिसति आयरिओ (तम्मि त्ति) तस्य ते सर्वे शिष्या भवंति, प.
अवि य सपनाभनवी,सीसो परिभवति आयरियं ।१५४ चित्तअणुवसंपकालाश्रो पच्छा, उपसंपजणकालादारज्यो
महरो एस तव गुरू,तुमं च थेरोन जुज्जते जोगो। त्यर्थः। ओहाश्यगाहा । ओहाइयं प्रोसम्म चा पायरियं जत्थ अविपकबुद्धि एसो, बए करेजा वि जं किं वि ॥१५॥ पासत्ति उत्थिमं भणति-तुज्झहिं विणा अणाहा वयं, चयमि. कोई सेहो परिणयवतो तरुणायरियस समीपे पञ्चतितुत्यात्मनिर्देशे । असागारिए पदेसे तस्स ओसराणो धाबित्ता | कामो अमेण भष्मति-महरो एस तव गुरू, तुमं च परिणयवमायरियस्ल कमेसु पदेसुमीलेण णिवमति. जणइ-एहि पसा- ओ,ण एस आयरियसीससंजोगो जुजति । कहं पुत्तण अस देण अन्जुहासगादी करहे, अम्हे भो सुयमाच्यमिभयं पि माणस्स सीसो भविस्ससि?,कई वा विणयं काहिसि,किं च ते व इश्रो तश्रो मुलुउसेमो॥
सजणादिजणो जणिहिति त्ति?। अहवा भणाति--सो महरो सीसो पुति-तस्स गिडीनूतस्स अचारित्तिणो कि पा- अविपकबुझी, अविपकूबुझित्तणेण अकसं पि कज्जं चयति, देसु णियडिजति ? । प्रायरिओ जणात दुप्पामतरग जो अविपकवद्धि सणातो कि विदोस कलेज्जा।
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दिसा
गाहा
एमेव सेसएसुवि, तं निंदंतो सयं परं वाऽवि ।
संतेण असंते व, पसंसए तं कुलादीहिं ॥ १५६ ॥ सेखा कुलादिवा पाहिल
जस्स चवहितो, सो पुरा सभी परश्रो वा संतहि वा असंतेहि वा कुलाऽऽदिहि जस्स पदुट्टो सयं परं वा तं दिति, तस्स सेहस्व जमुद्दिसति तम्म संदि वा सयं पश्यगं या पसंसि इमो कुनो सो अली, मो मेहावी, सम्मे हो, इमो ईसरणिक्खतो, लो दमगो । श्रहवा इमो वस्थपतादिप इसरो, सो दमगो, इमो. बुद्धिसंपो, सो अयुकि । अपि चासो अस्पलालको श्मो सम इमो कारण सिस्सो परो वाए परिज्ञवति श्रायरियं । अहवा-पसंसते कुल्लाssवीहिं सेहं तं कुलमंतो, सो अकुलजो । सेवेकारणां विकरेज्ज |
(२५३७) अभिधानराजेन्द्रः ।
गाड़ा
।
नाक यो पुनगए कालिवाओगे सृत्तत्यजाणगस्सा, कप्पति विस्तारणा ताहे ॥ १५७ ॥ पूर्ववत् । नि० चू० १० ०1 "दिवा
रात्री दक्षिण
प्रब० १०६ घार । दिकसिद्धिः - दिग्धमोंपेतं इव्यं प्रमाणतः सिद्धम् । तथाहिमूर्तेष्वेव येषु मूर्त द्रव्यमवायें कृत्वैतदस्मात्, अतः पूर्वेण दकिन पश्चिमेनोसरेण पूर्वदनि दक्षिणापरेण परेणोरे पोतरपूर्वस्नादुपरी प्रत्यायया भवन्ति सा दिगिति । तथा च सूत्रम्-" श्रत इदमिति यतस्तद्दिशो विह्नमिति । " एते हि विशेषप्रत्यया नाऽऽकस्मिकाः संभ चन्ति तथा च परस्परानिमित्तानामितरेतरा
।
तथा चाऽऽ हीयते ॥१॥"
C
13
यत्वेऽपि प्राच्यादिभेदेन नानाखं कार्यविशेषाद् व्यवस्थि नम् । प्रयोगश्चाषयता व्यतिरिक्तपदार्थनिबन्धनं, तत्प्रत्ययविलक्षणत्वात् । सम्म० ३ काराम | सूत्र० । दिसो दिसि एकस्या दिशोऽन्यां दिशं पुनस्तस्या अन्यां दिशमित्यर्थः । प्रश्न० ३ श्राश्र० द्वार | त्रिपा० भ० नरकपृथिवी देवलोकेषु वासुद चनसृषु वा शिशुपतिनगरका 35वास विमानविचारः प्र वर्तते तत्र नाम-स्थापना- व्य-क्षेत्र ताप-प्रज्ञापकभावदि शामावश्याम मध्येका पितासां दिशां मध्यवर्त्तिनी का च दिकू, तथा का च देवलोकाऽऽदिषु दिक् प्रवर्त्तने, तत्सहेतुकं प्रसाद्यमिति प्रश्ने, उत्तरम् पङ्किगत नरकासविमानवाधिकारे नाम दिशां
मध्ये के दिग् ज्ञायत इति । १८ प्र० । सेन० २ उ० । दिसाकुमार - दिक्कुमार - पुं० । भूषनियुक्तगजरूप चिह्नघरे न वनवासिदेवभेदे, ६, प्रज्ञा० २ पद । ल० । प्र० । स्था० । औौ० । प्रव० । ( दिकुकुमारसंख्या 'तारा' शब्देऽस्मिन्नेव भागे १७०५ पृष्ठे )
,
दिसाकुमारावास दिक्कुमार वास० विभ नाssवाले, "बावन्तरि दिसा कुमाराणं बाससय सहस्सा पष्ठहा । " स० १५ सम० ।
૬×
-
दिसाकुमारिया
दिसाकुमारिया - दिककुमारिका - स्त्री० | दिक्कुमारभवन पतिदेवविशेष जातीय देवीषु, आ० म० अ० १ खण्ड ०० कविकुमारिका:
चत्तारि दिमाकुमारी महत्तरिया ओ पण्णत्ता । तं जहारूवा, रूवंसा, सुरूवा, रूवावई ॥
“चन्तारि दिला” इत्यादि सुगमं, नवरं दिक्कुमार्यश्च ता मह तरिकाश्च प्रधानतमाः, एतासां वा महत्तरिका दिक्कुमारी मह तरिकाः पता मध्यरुचकवास्तव्या अर्हतो जातमात्रस्य नालकनाऽऽदि कुर्वन्तीति । स्था० ४ ठा० १ उ० । चित्राऽऽद्याश्चतनो दिक्कुप्रार्यः । श्रा०म० १ ० १ ख एक । आ० चू० । रूपाssधाः पर दिशा कुमारिका:
1
दिसाकुमारीमहनरिया ओपाओ तं महा-रूपा, रूसा, सुरूवा, रूवावई, रूपकंता, रूप्पभा । स्था०६० रिटाकून किमार्थ :तत्य णं अदिमाकुमारीमहनरिवाओ महिषाओ० जान पनियाओ परिवति । तं जहा "डुउत्तराय गंदा य, आणंदा मंदिवरूणा । विजया बेजयंवीं व जयंती अपरानिया ।। १ ।। " ०००। आ० म० । आ० चू० ।
कनकाssदिकूटेषु समाहाराऽऽद्यष्टौ दिक्कुमार्थ्य:सत्य णं अह दिसाकुमारीमहरिया महिड्डियाओ० जाव पविमट्टियाओ परिवसंति । तं जहा - "समाहारा सुइना, सुप्पबुद्धा जसोहरा । अच्छीवर्ड सेसवई, चिगुत्ता वसुंधरा || १ || " स्था० वा० । ० म० । स्वस्तिकादिविदिक्कुमारःतत्थ एंड दिसाकुमारी महत्तरिया महिनिया०जान पलिष्यवनाओ परिवर्तति तं जहा- "इनादे वीरादेवी पुरवी पक्षमा एमनासा यया मया जदाय मा || १ ||" स्था० वा० आ०म० आ००| रत्नादिकूलाः
तत्य णं अट्ठ दिसा कुमारी महत्तरिवाम्रो महिडियाओ० नाव पनि परिवति तं जहा“ अनं बुसा मित्तकेंसी, पुंरुरी गीयवारुणी । आसा य सब्बगा चैव उत्तराओ सिरी हिरी || १||" स्या० ० ० ० म० । ० चू० ।
अधोलोकयासिम्पो नोगा अष्टदिक्कुमार्थ:अह होनोगवत्यवाओ दिसाकुमारीमहत्तरियाओ - सत्ता । तं जहा - "जोगंकरा जोगवती, सुजोगा भोगमाक्षिणी। सुवच्छताय, वारिणा बलागा ॥ १ ॥ " स्था० ० ० ० म० ।
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(३५३७) दिसाकुमारिया अभिधानराजेन्दः ।
दिसाहत्थिकूम ऊर्ध्व नोकवासिन्यो मेघराऽऽद्या अष्टौ दिक्कुमार्य:- दिसापरिमाण-दिक्परिमाण-न० । सर्वतोऽमुकदिशि वा श्यश्रक उपलोगवत्यवाओ दिसाकुमार्गमहत्तरियाओ प- दवधि गमनादिनियमने, घ०२ अधिक। मत्तायो। तं जहा-"मेहंकरा मेहवई, सुमेघा मघमालिनी।। दिसापोक्खि(ण)-दिक्मोक्षिण-पुं० । नद केन दिशः प्रोदय ये तोयधारा विचित्ता य, पुप्फमाझा आपंदिया ॥१॥" फलपुष्पाऽऽदि समुश्विम्वन्ति तादृशेषु तपस्विवानप्रस्थेषु, प्रौला
निभ०। प्रा० चू। स्था०००। प्रा० म० । (ताच तीर्थजन्ममहोत्सवे आगता ति 'तित्ययर'
दिसाबंध-दिग्बन्ध-पुं० । प्राचार्यत्वाऽऽदिलक्षणे दिशो बन्धे, शब्देऽस्मिन्नेव भागे १२७६ पृष्ठे अष्टव्याः ) षट्पञ्चाशदिक्क
ध०२ अधि०। म्यकानां कुमारीति संज्ञा कथमिति प्रइने, उत्तरम-अत्र नव
| दिसावाल-दिक्पाल-पुं० । दिशामधीश्वरेषु,वाच । मा०म०। नपतयः सर्वेऽपि यः क्रीमाप्रिया भवन्तीति कुमारा सच्य- दिसामूढ-दिङमढ-त्रि० । पूर्वस्यामपि पश्चिमा इत्याकारकक्षाते, तथा एता दिक्कुमार्योऽपि नवनपतित्वेन तद्वद्वोध्या ति। नवति, “दिसामोहो से जातो, अहवा मूढे दिसं पदुश्च।" ३३५ प्र० । सेन. ३ चल्ला ।
नि० चू० १९ उ०। दिसागइंद-दिग्गजन्छ-पु. । मिधारणाय दिक्ष्यवस्थितेषु दिसामोह-दिडमोह-पुंoापूर्वस्यामपि पश्चिमा श्त्याकारके ज्ञागजेषु, द्वं.।
ने, ध.२ अधिनि० चू० जोयणसाहस्सीया, एए कूमा हवंति चत्तारि । दिसायरिय-दिगाचार्य-पुं०। गुर्वादिषु दिग्वर्तिसाधूनां सारणापुन्वाइयाऽऽणुपुब्बी, दिसागदाण ते होंति ॥ १४१ ॥ दि कर्तरि, ही०१प्रका० । पञ्चा। पनमुत्तरे नीलवंतं, मुहत्थिया अंजणागिरी चेव ।। दिसावलो-दिगवनोक-पुं० । दिग्दर्शने, “सागाग्यिसरएए दिमागइंदा, दिवहपनिोवमद्वितिया ॥ १४२ ॥ क्खणट्ठा उमदो तिरियं च दिसावलोगो कायवो।" निचू० पुनेण होइ विमनं, सयंपमे दक्षिणे दिसाभाए ।
४ .।
दिसावेरमण-दिग्विरमण-न । प्रथमे गुणवतभेदे०२अधिक। अवरे पुण पच्छिमओ,णिवु जोयं च उत्तरो।१४ादी। दिसाचकवाक्ष-दिक्चक्रमाल-न० दिकमण्डले, पोविशेष
दिसासुद्धि-दिकशकि-स्त्रीका तत्कालोचलितशपणवाऽऽदि. च। एकत्र पारणके पूर्वस्यां दिशि यानि फाऽऽदीनि तान्याहत्य
निनादश्रवण पूर्णकुम्भनृङ्गारच्छत्रध्वजचामराऽऽद्यवलोकनशुभ
गन्धाऽऽघ्राणाऽऽदिस्वन्नावायां स्वनामख्यातायां शुद्धौ, ध० हुते, द्वितीये तु दकिणस्यामित्येवं दिकचक्रवालेन तत्र तपःकर्मणि पारषककरणं तत्तपःकर्म दिक्चक्रवाक्षमुच्यते । नि०
२ अधि०। १ .३ वर्ग० ३ ०। भ.।
| दिसासोवत्थिय-दिक्स्वास्तिक-पुं० । जम्बूद्वीपे मेरुपूर्व रुचकदिसाचर-दिक्चर-पुं०। जगबस्कूिष्येषु देशाटेष, पापीये। पर्वतस्थाष्टमे कूटे, स्था० वा.। विति पूर्णिकारः। दिशायां चन्ति यन्ति मन्यन्ते भगवतो
दिक्सौवस्तिक-पुं० । दिक्प्रोतके, दक्षिणाऽऽवते स्वस्तिके च । वयं शिम्या इति दिकचराः, देशाटा वा दिक्चरा भगवधि
जी०३ प्रति०४०।ौ० । जं० । या पार्श्वस्थीभूता इति । भ०१५ श०।
दिसासोवत्थियासण-दिकसौवस्तिकाऽऽसन-न० । येषामधोदिमाजत्तिय-दिग्यात्रा-स्त्री.। देशान्तरगमने, उपा०१०। । नागे दिक्स्वस्तिका आलिखिताः सन्ति तेम्बासनविशेषेषु, जी० दिसाढाइ-दिग्दाह-पुं० । अन्यतमस्यां दिशि अधोऽन्धकारे | ३ प्रति० ४ ० । जं० । उपरि च प्रकाशामके दहधमानमहानगरप्रकाशकल्पे, भ० | दिसाहात्थकूम-दिग्यास्तकूट३०७ उ० जी० । नि०चू०। प्रा००। अनु० । व्य०। | जं.। स्था०1 दिग्दाहो वायव्यादिषु मण्डलेपु भवन् शस्नाग्नि
दिग्गजकूटवक्तव्यतामाहजुत्पीडाविधायी भवति । सूत्र. ५ शु. २ अ.।
__ मंदरे णं भंते ! पबए जद्दमालवणे कइ दिसाहत्थिकमा दिसाणाग-दिड्न्नाग-पुं० । स्वनामख्याते बौद्धविऽपि, स. पसत्ता। गोयमा ! अह दिसाहत्थिकूमा पमत्ता । तं जहाम्म. १ काएक ।
"पउमुत्तरे णीलवंते, सुहत्थी अंजणागिरी। दिसावाय-दिगनुपात-पुं० । दिगनुसरणे, प्रा० ३ पद ।
कुमुदे अपलासे अ, वडेंसे रोणागिरी ॥१॥" दिसादवेक्वा-दिगाद्यपेक्का-स्त्री. । आचार्योपाध्यायाऽऽदिप-|
काहि णं ते! मंदरे पचए जद्दसाझवणे पनमुत्तरे णारिवाराऽऽसम्बने, पश्चा०५विव० ।
मंदिसाहत्थिकमे पामते। गोयमा ! मंदरस्स पव्ययस्म उ. दिसादाह-दिग्दाह-पुं० । दिसाडाह ' शब्दार्थे, भ० ३|
त्तरपुरच्छिमिसाए सीआए उत्तरेणं एत्य एं पनमुत्तरे श० ७ उ०।
णाम दिसाहत्यिकूमे पपत्ते । पंच जोअणसयाई नकं नच्चदिमादि-दिगादि-पुं० । मेरुमध्यवर्तिनि रुचके, मेरो च । दिशा
तेणं, पंच गाउअसयाई नब्बेहेणं, एवं विक्खंजपरिक्खेको मादिदि गादिः। तथाहि-रुचकाऽऽदिदिशां विदिशां च प्रभ.
नाणियब्यो चल्लहिमवंतसरिसो, पासायाणं तं चेव,पउमुत्तवो रुच कश्चाष्टप्रदेशाऽऽन्मको मेरुमध्यवर्ती, ततो मेरुरपि दिगादिरुच्यते। सू००५ पादु ! चं० प्र.।
रो देवो, रायहाणी उत्तरपुरच्छिमेणं ॥१॥
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(२५३४) दिसाहत्थिकड अभिधानराजेन्छः।
दिसाहत्थिकूड एवं पीलवंतदिमाहरिणकूमे मंदरस्स दाहिणपुरच्छिमेणं तुहिमवतकूटपतिप्रासादस्येति । अत्र बहुवचननिर्देशो वय. पुरच्छिमियाए सीआए दक्खिणेण, एअस्स विनीलवंतो
माणदिगहस्तिकूटवर्तिपासादेष्वपि समानप्रमाणसूचनार्थम्।प.
भोत्तरदिगहस्ती पद्मोत्सरोऽत्र देवः तस्य राजधान्युत्तरपूर्वस्यामुत्तदेवो, रायहाणी दाहिणपुरच्किमेणं ।। ५॥
रविदिगवतिकूटाधिपत्वादस्योतिशअथ शेषेवृक्तन्यायेन प्रदकिएवं मुहत्थिदिसाहस्थिकूमे मंदरस्स दाहिणपुरच्छिमेणं णाक्रमेण दर्शयन्नाह-"एवं नामवंत" इत्यादि व्यक्तं, नवरम दक्खिणिवाए सीओपाए पुरच्किमेणं, एअस्स वि सुह-1
( एवमिति) पद्मोत्तरन्यायेन नीलवनाम्ना दिग्हस्तिकूटः । स्थी देवो, रायहाणी दाहिणपुरच्छिमेणं ॥ ३॥
मन्दरस्य दक्षिणपूर्वस्यां पौरस्त्यायाः दकिणस्था, ततोऽयं प्रा.
च्यजिन नवनाऽऽअनेयप्रासादयोमध्ये इयः। एतस्यापि मानवान् एवं चेव अंजणागिरिदिसाहत्थिक मंदरस्स दाहिणप
देवःप्रनु,तस्य राजधानी दक्षिणपूर्वस्यामिति ।"एवं सुहत्यि" बच्चिमेषं दक्खिणिद्वाए सीओआए पञ्चच्छिमेणं ए अस्स इत्यादि व्यक्तं, नवरं दाक्षिणात्याया मेरुतो दक्षिणदिग्वातिन्याः वि अंजणागिरी देवो, रायहाणी पञ्चच्छिमेणं ।। ४ ॥
शीतोदायाः पूर्वतः। अनेन मेरुतः पश्चिमदिग्बातम्याः शी
तोदायाः व्यवच्छेदः कृतः, अत्रान्तरे सुहस्तिदिग्हस्तिकूटः । एवं कुमुदे वि दिसाहत्यिकूमे मंदरस्स दाहिणपञ्चच्छिमे.
आग्नेयप्रासाददाक्षिणात्यजिननवनमध्यवर्तीत्यर्थः। एतस्याऽपि णं पञ्चच्चिभिराए सीओआए दकिवणेणं, एअस्स वि| सुहस्ती देवः, राजधानी तस्य दक्षिणपूर्षस्यां, नीलवतः सुकुमुदो देवो, रायहाणी दाहिणपञ्चच्छिमग ए
हस्तिनारकस्यामेव दिशि राजधानीत्यर्थः ३। एवं समविएवं पनासे वि दिसाहत्यिकूमे मंदरस्स उत्तरपञ्चच्छिमे
दिगहमितकूदाधिपयोरेकस्यां विदिशि राजधानीद्वयम् २ अ.
प्रेऽपि भाव्यम् । “एवं चेव" इत्यादि व्यक्तं, नवरं दाक्तिणं पच्चच्छिमिसाए सीअोआए नत्तरेणं, एयस्स णं वि
णात्यजिनगृहनेतप्रासादयोर्मध्ये इत्यर्थः ४ । एवमित्यादि पलासो देवो, रायहाणी उत्तरपच्चच्चिमेणं ६।
व्यक्तं, नवरं पाश्चात्यायाः पश्चिमाभिमुखं वहन्त्याः शीतोदाया एवं बडेसे वि दिसाहत्यिकडे मंदरस्स उत्तरपञ्चच्छिमे उ- दक्षिणस्यामिति नैर्ऋतप्रासादपाश्चात्यजिनभवनयोर्मध्यवर्ती. त्तरिद्वाए सीआए महाणए पच्चच्छिमेणं,अस्स विवमेंसो
त्यर्थः ५ । एवमिति व्यकं, पाश्चात्यजिनमवनवायव्यप्रासाद
योरन्तरे इत्यर्थः ६। " एवं बसे विदिसाहत्यिकृमे" इत्यादेवो, रायहाणी उत्तरपञ्चच्छिमेगं ७।
दि गतार्थ, नवरमुत्तरायां मेरुत उ,रदिग्वत्तिन्या: शीता. एवं रोणागिरी दिसाहात्थकूडे मंदरस्स उत्तरपुरच्छि
याः पश्चिमता, अनेन पूर्वदिग्बत्तिन्या: शीताया व्यवच्छेद: मोणं उत्तरिझाए सीआए पुरच्छिमेणं, एअस्स वि रोप- कृता, वायव्यप्रासादोत्तराहिमवनयोमध्यवर्तीत्यर्थः ७ ।"५५ णागिरी देवो, रायहाणी इत्तरपुरच्छिमेणं, उत्तरिवाए सी.
रोणागिरी दिसाहस्थि " इत्यादि व्यक्तं, नवरम् उत्तरा
याः शीतायाः पूर्वतः, उत्तरादिजिननवनेशानप्रासादयोरआए पुरछिमेणं८।
तराले इत्यर्थः । एषु च बहुभिः पूर्वाचार्यः शाश्यतजिन"मंदरे णं भंते ! पवए' श्त्यादि प्रश्नस्त्रे दिक्षु ऐशान्यादि
जवनस्तोत्रेषु जिनभवनान्युच्यन्ते, इह तु सूत्रकृता नोक्तानि, विदिक्प्रनृतिषु दस्त्याकाराणि कुटानि विग्हस्तिकूटानि, कूट- तेन तत्वं केवलिनो बिदन्ति । अत एवोत रत्नशेखरसूशिलः शब्दवाच्यानामप्येषां पर्वतत्वव्यवहार ऋषभकूटप्रकरण इव
स्वोपत्रविचारे-“करिकूर्म नइदडं, कुरुकंचण जमलसमपि झेयः । स्थानाङ्गेऽधमस्थाने तु पूर्वाऽऽदिषु दिक्षु हस्त्याकाराणि।
अकेस ।जिणजवणविसंवाो , जो तं जाणंति गीअत्था ॥२॥" उत्तरसत्रे पद्मोत्तरेति श्लोकः। पद्मोत्तरः, नीलवान्, सुस्ती,अ.। इति । अथैया वापी चतुष्कप्रासादानां जिननवनानां करिक अनागिरिः। "अञ्जनाऽऽदीनां गिरौ" || ३१२१७७॥ (हेम०)श्त्या- टानां च स्थाननियमने । अत्र वृद्धानां संप्रदायः। तथाहि-भदिना दीर्घः । कुमुदः, पलाशः,अवतंसः, रोचनागरिः । अन्यत्र
शासबने हि मेरोश्चतस्रोऽपि दिशो नदीद्वयप्रवाहैः रुद्धा अतो रोहणागिरिः, अत्रापि दीर्घत्वं प्राग्वत । अथैषां दिगव्यवस्था दिवेव नवनानि भवन्ति, किं तु नदीतटनिकटस्थानि भवनापृच्छन्नाह-(कहि णमित्यादि) क भदन्त ! मेरोनिशानवने
नि,गजदन्तनिकटस्थाः प्रासादाः,भवनप्राग्भावित्वात.शीतायाः, पद्मोत्तरो नाम दिग्दस्तिकूटः प्रज्ञप्तः ? । गौतम ! मन्दरस्यशा- शीतोदाऽन्तरालेष्वष्टसु करिकुटाः, अत एव विशेषतो दाते. न्यां पौरस्त्याया मेरुतापूर्वदिगतिन्याः शीताया नुत्तरस्यामा श्र- मेरोरुत्तरपूर्वस्यामुत्तरकुरूणां बहिः शीताया उत्तरदिग्नागपनेनोत्तरदिग्वर्तिन्याः शीताया व्यवच्छेदः कृतः । अत्रान्तरे पद्मो- ञ्चाशद्योजनेभ्योऽपरः प्रासादः, तत्परिकैपिण्यश्चतस्रो वाप्यः । सरो नाम दिग्रहस्तिकृटोऽपि मेरुतः पञ्चाशद्योजनातिक्रम एव भ. एवं शेषेष्वपि प्रासादेषु केयम् । मेरोः पूर्वस्यां शीतायाः दक्किण. बति,प्रासादजिनसमवेणिस्थितत्वात् । पञ्च पोजनशतान्यूद्धाच. सः ५० योजनेच्यः परतः मिळायतनं, मेरोतिणपूर्वस्थां ५० वेन,पञ्चगव्यतशतान्यद्वेधन,पवमुञ्चत्वन्यायेन विष्कम्भः। अत्र योजनातिक्रमे देवकुरूणां बहिः शीताया दकिणत पव प्रासाविभक्तिलेापः प्राकृतः। परिकेपश्च भणितव्यः। तथादि-मूले पश्च- दाः, मेरोदक्णितः ५० योजनातिक्रमे देवकुरूणां मध्ये शी. यो जनशतानि, मध्ये श्रीणि योजनशतानि पञ्चसप्तत्यधिकानि, तोदायाः पूर्वतः सिहायतनं, मेरारेपरदक्किणतः ५० योजना.
परि अर्द्ध तृतीयानि योजनशतानीत्येवंरूपो विष्कम्भः, तथा न्यवगाहा देवकुरूणां बहिः शीतोदाया दक्षिणतः प्रासादः, प. मुत्रे पश्चदश योजनशतानि एकाशीत्यधिकानि, मध्ये एकादश श्चिमायां ५० योजनातिक्रमे शीतोदाया उन्तरतः मिद्धायतनं, योजनशतानि पाशीत्यधिकानि किञ्चिदनानि,उपरितः सप्त यो- मेरोरपरस्यां ५० योजनान्यवगाहा उत्तर कुरूणां बहिः शा. जनशतान्येकनवत्यधिकानि किन्दिनानि शति परिक्केपः प्रासा | तोदायाः पश्चिमतः सिद्धायतनमिति। एतेषां चाष्टस्वन्तरेष्वदादीनां च पततिदेवसत्कानां तदेव प्रमाणामिति गम्यं, गत् । ौ करितटा इति । जं.५वत । स्था।
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(२५४०) दिसिदेवया अन्निधानराजेन्द्रः।
दीण परिणय दिसिदेवया-दिग्देवता-स्त्री० । इन्धाऽऽदिषु, पश्चा० ८ विव० ।
णातिकमियब्बं । खेत्तबुडी साबण न कायब्वा। कह?,सोपुवेण ध०।
नंमगं गहाय गो जाव तं परिमाणं, ततो परेण भई अग्घर दिसिब्बय-दिगवत-न० । प्रथमे गुणवतभेदे, प्राव ६ अ०। त्ति कार्य अवरेण जाणि जोयणाणि ताणि पुन्वदिसाए संबहर, साम्प्रनं तेषामेवाणुवतानां परिपालनाय भावनाभूतानि गुणव.
पसा खेत्तबुझी, से न कप्पर कार, मिय ति बोलीणो होउजा, तान्यनिधीयन्ते । तानि पुनस्त्रीणि भवन्ति । तद्यथा-दिग्वतम्
णियसियध्वं विस्सरिए वा न गंतव्वं, अनओ विन विसज्जिय. १, उपभोगपरिजोगे परिमाणम् २, अनर्थदएडवर्जनमिति ३ ।
ब्बो,जे प्रमाणाए को विगो होजा, जं विसुमरिय खेतगण तत्राऽऽद्यगुणवतस्वरूपाभिधित्सयाऽऽह
लकं, तन्त्र गेपहेजति"॥३६ ॥ प्राव०६अ।ध० उपा०।
श्रा | पञ्चा। ध०र०मा००। दिसिधए तिविहे पन्नते । तं जहा-उदिसिमए,अहो । दिसिन्नए, तिरिअदिसिव्वए ॥ ३५॥
दिसीविजाय-दिग्विनाग-पुं०। ईशानाऽऽदिषु कोणेषु,स०प्र०१
पाहु० । रा०। (दिसिब्बर तिविहे इत्यादि) दिशो बनेकप्रकाराः शास्त्रे बर्णिता, तत्र सूर्योपलकिता पूर्वा, शेषाश्च दक्विणादिका
दिस्स-दृश्य-अव्य० । सत्प्रेक्षपेत्य),सूत्र. १६० ३ ०३ उ०। स्तरनुक्रमेण बटव्याः। तत्र दिशासंबन्धि, दिचु वा व्रत
दिस्समाण-दिश्यमान-त्रि० । उपदिश्यमाने, प्राचा०५४०३ म-पतावत्सु पूर्वाऽऽदिदिग्विभागेषु मया गमनाऽऽधनुष्ठेय, | अ०१उ० न परत इत्येवंभूतं दिग्वतम् । पतशोधतत्रिविधं प्रप्तम, श्यमान-त्रि। चक्षुषा उपलभ्यमाने,प्राव०५ 40 प्राचा। तीर्थकरगणधरैः । तद्यथेति पूर्ववत् । अर्द्ध दिक्, तत्संबन्धि दिस्सा-दृष्टा-अव्य० । उत्प्रेक्येत्यर्थे, भ० १० श० ८1०। तस्या वा ब्रतम् एतावती दिगू पर्वताऽऽद्यारोहणादवगाहनीया,
| दिह-दिह-धा• । उपनये, अनु० । अदा०-उन-सकo-प्रन परत इत्येवंभूतमिति भावना । अधः दिगधोदिक, तत्संबधि तस्या चाव्रतमधोदिखतम्-एतावती दिगधः कृपाऽऽधव.
निट् । देग्धि, दिग्धे । अधिकत । अदिग्ध । बाच० । तरणादवगाहनीया,न परत इत्येवनूतमिति हृदयम् । तिर्यगदि- दिहागअ-विधागत-त्रि० । " सर्वत्र लवरामचन्छे "॥ ५॥२ शः पूर्वाऽऽदिका तासां संबन्धि तासु वा व्रतंतिर्यदिग्बतम्- ७६ ॥ इति वलोपः । धस्य हः । द्विप्रकारं प्राप्ते, प्रा० ९.१ एनाचती दिक पूर्वेणावगाहनीया, एतावती दक्किापनेत्यादि, न | पाद । परत इत्येवंततेतिभावार्थः। अस्मिश्च सत्यवग्रहीतकेत्रादू बहिः दिहि-धृति-खी०। 'दिहि' श्त्येतदर्थ तु " धृतेर्दिहिः "॥८। स्थावरजङ्गमप्राणिगोचरो दएमः परित्यक्तो भवतीति गुणः। । ।१३१॥ इति वक्ष्याम इति धृतदिदिः । प्रा० १ पाद । इदमपि चातिचाररहितमनुपालनीयमतोऽस्यैवातिचा- "धृतेर्दिहिः" ॥८२।१३१ ॥ इति धृतिशब्दस्य दिहिरिरानभिधित्सुराह
त्यादेशो वा । 'दिही । धिई ।' प्रा०२पाद । स्त्री०। धृ.क्तिन् । दिसिब्बयस्स समणोवामएणं इमे पंच अश्यारा जा
तुश, धारण, योगे, विष्कम्भावधिक अष्टमे योगे, सुखे, धारणि अव्वा, न समायरिअब्धा । तं जहा- उदिसिप्पमाणाड्.
णायाम, अवसादेऽपि शरीराऽऽदेः स्तम्भनशक्ती, अष्टादशाक्षर.
पादके बन्दोभेदे, अष्टादशसङ्ख्यायां च । वाच । कमे, अहोदिसिप्पमाणाइक्कमे, तिरि अदिसिप्पमाणाइक्कमे,
दीण-दीन-त्रि.। दीक्तः,तस्य नः खिते, भीते च । वाच । खेत्त वुट्टी, सअंतरधानं ॥ ३६॥
रहके,पञ्चा० एविव० । दैन्य वति,विपा. १०५ अाया। (दिसिवयस्स संमणोवासपणमित्यादि) दिग्वतस्पोक्तस्व- कीणसकलपुरुषार्थशक्ती,द्वा० १२ द्वा। पं०व० । करुणाऽऽस्प. रूपस्य श्रमणोपासकेनामी पञ्चातिधारा ज्ञातव्याः, न समाच- दे, सूत्र १ श्रु०१० भ०। 5स्थे, ज्ञा० १ श्रु० १० । सूत्र० । रितव्याः । तद्यथा-ऊद्वंदिग्वतप्रमाणातिक्रमः, यावत्प्रमाण परि
प्रइन0 । अणु० । शुगालत्वविहारिणि, श्राचा० १५०६ अ०। गृहीतं तस्यातिल कुनमित्यर्थः । एवमन्यत्रापि भावना कार्या । "दीणाजासंदीणे, गति दीणजंपिनं पुरिलं । कं पच्चसि नदं. श्रचोदिकप्रमाणातिक्रमः, तिर्यगदिकप्रमाणातिक्रमः, केत्रस्य तं, दीणाए दिटिप सत्य ॥१॥" व्य० ३ उ०। वृद्धि केत्रवृकिरित्यकेतो योजनशतपरिमाणमभिगृहीतमन्यतो
दी जाइ-दीनजाति-त्रि० । दीना बा होना जातिरस्येति दीदश योजनान्यभिगृहीतानि, तस्यां दिशि समुत्पन्ने कार्य योजः। नशतमायादपनीयान्यानि दश योजनानि, तत्रैव सुबुद्धया प्रकि
नजातिः । हीनजाती, स्था० ४ ० २२० । पति संबद्धयत्येकत इत्यर्थः । स्मृतेभ्रशोऽन्तकौन स्मृत्यन्त दीपदाण-दीनदान-न । कृपणेभ्योऽनुकम्पावितरणे, पश्चा) नम्-किमया परिगृहीतं, कया मर्यादया व्रतमित्येवमननुस्मरण- | विव० । मित्यर्थः। स्मृतिमूलं नियमानुष्ठान,भ्रंशे नियमत एव नियमभ्रश दीपणादिहि-दीनदृष्टि-पुं० विच्छायचक्षुषि, स्था०४ ग०२ ००। इत्यतिचारः। "पत्थ य सामायारी-उर्छ पमाणं गहियं तस्स |
दीपपप-दीनपह-पुं० । दीनसूक्ष्मार्थाऽऽलोचने, स्था०४० चबरि पन्बयसिहरे रुस्खे वा मळभो य पक्खी वा सावयस्स बत्थं पाभरणं वा गेसिंहलं पमाणावरगं वरिभूमि वचेज्जा, तस्थ से न कप्पर गंतु, जाहे तं पभियं अनेण वा आणीय ताहे
दीणपरक्कम-दीनपराक्रम-पुं० । हीनपुरुषकारे, स्था. ४010 कपा एयं पुण अहावयहेमकूडसम्मेयसुपाचज्जतचित्तकूम- २० ।
| २उ.। अजणगमंदराजदेसु पचपसुनवेता । पचं अहे कृवियाऽऽदि दीमापरिणय-दीनपरिणत-पुं०। अदीनः सन् दीनतया परिमुविभासा तिरियं जं पमाणं गहियं तं तिधिहेण वितिकरणण तो यस्तस्मिन् , स्था० ४ ठा० २ उ० ।
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(२५४१) अभिधानराजेन्द्रः ।
दीपपरियाय
दी परियाय - दीनपर्य्याय- पुं० । दीनस्यैव पयोवस्था प्रव्रज्या SSदिलक्षणो यस्य तस्मिन्, स्था० ४ ठा० १ ० । परिवास-दीनपरिवार पुं० [दीनः परिवारों पश्यत
स्मिन, स्था० ४ ० २४० । दीपजावया दीनभावताखी० प्रत्यनीकमान दो देवे दोनो भावो मानवाध्यवसायो यस्यासी दीनभायो, दीनमावस्य भात्रो दीनमाता धातु
-
भाषणशीले दी
मासि (ए) दीनजापिए पुं० दोन नवद्दीनं वा नापते । स्था० ४ ठा० २ ० दीरामण-दीनपनम् पुं० माता
चेतसि स्था
४० १३० ।
दीपा पा दीनता अब देग्ये स्पा ४ ० २४० ॥ दीपववहार- दीनव्यवहार
क्रिये, हीनाधिवादे च । स्था० ४ ० २ उ० । दीवित- दीनवृत्ति-पुं० । दीनस्येव वृत्तिर्वर्तनं जीविका यस्य तस्मिन् स्था० ४ ० २ न० । (म्) - दीनविनम०
दी
नोम्पनदिनादि
नोवाम
शून्यचित्तः, दीनासौ विमनाश्च दीन विमनाः। दैन्यवच्छून्याचेत्ते, विपा० १ ० २ श्र० । दमण-दीनविमनोवदन-प्रि० दीनस्वेव विमनस श्व वदनं यस्य तस्मिन्, न०९ श० ३३ ८० । त्रिपा० । दीए संकल्प- दीन संकल्प-विनयेऽपि कचविमर्श, स्था० ४ ठा० २ ० ॥ दीप सीख समापार- दीनशीलसमाचार
डा.
ने, स्था० ४ ०२ उ० ।
दी सेवि (ए) - दीनसेविन् पुं०। दीनं नायकं सेवते यस्तस्मिन्,
स्था० ४ ० २३० ।
दीप- दीनानुकम्पन-म०
चिरपयेगा
प्रतिष्यनुकम्पा करणे, ६० २ अधि० । दोणार दीनार गम० दी अर] तुद्र व स्वर्णपणे मु
यां, सुवर्णकर्षद्वये, निष्कमाने, बाच० । श्राचा० । श्रा० क० । औ० नि० चू० । श्रा० म० । दीपारमालिया - दीनारमाझिका स्त्री० । दीनाराऽऽकृतिमात्रा
1
ग्राम. श्र० ।
दशोभासी दीनावभासि (पिन-५०
प्रति भाति, अवभाषते वा याचत इत्येवंशीत्रे, स्था० वा० २३० ॥ दीप-दीप - त्रि० । जावरे, स्था० वा० । दीपा - दीपा - स्त्री० | दीपप्रभायां योगदृष्टौ च । द्वा० २० द्वा० । ( अस्या व्याख्या 'दिप्पा' शब्देऽनुपदमेत्र २५२० पृष्ठे गता ) दीव-दीप-पुं० [दीप का प्रदीपे दर्श
वि०० श० तैलादिस्नेयोग वर्तिका स्वाऽस्त्रिठे, वाच० प्रकाशके वस्तुनि, स्था० १० ठा० | दीपशिखायाम्, स०१० सम० । दीपन क्रियाविकल्पे च । विशे० । त्रिविधा दीवार-शुबाबा इत्यर्थः । उत्कम्पनदीपा ऊर्द्धदण्डवन्तः । पञ्जरदीपा अभ्रपटलाऽऽदिपखरयुक्ताः । त्रयोऽप्येते त्रिविधाः सुत्र एकिप्यत दुभयत्वादिति । ज्ञा० ६३६
दीव
१०१ श्र० । 'दीपी' दीप्तौ । दीपयति प्रकाशयतीति दीपः । भावतानाजी अम्म वि स सरिसवारेण । अत्थाइजर पच्छा, सारिम्से दीवगे उ बिद्दी |||" इत्यादि 'प' दीपाश प्रदीप्यते ज्वलति, लोऽपि च प्रदीप्यते, दीपो न पुनरन्यान्यदीपोपायपि ०१ पदनिर्जिन फलाऽदिकं च 'चेश्य' शब्दे तृतीयभागे १२८६ पृष्ठे अटव्यम् ) द्वीप - न० । द्विर्गता आपोऽत्र । श्रच् श्रादेरत इश्च । चाच० । द्वाप्रकाराभ्यां स्थानदातृत्वाऽऽहाऽऽप एम्देतुलणा प्राणिनः पान्तीति द्वीपा जनवावास भूतविशेषविशे नु० । जलवृते भूदेशे, प्रश्न० ४ श्राश्र० द्वार । प्रशा० । द्वीपो3पि पूर्ववच्चतुर्धा तत्र नामद्वीपो यस्य द्वीप इति नाम । स्थापनाद्वीपो-या द्वीपस्य स्थापना । यथा-चित्रलिखित जम्बूद्वीपा SSदिः । द्रव्यद्वीपो द्विधा- श्रागमतो, नोश्रागमतश्च । तत्राऽऽगमततनुपयुक्तस्तु शरीरीपौ सुबोधौ । व्यतिरिक्तद्रव्यद्वीपो द्विधा-लंदीनः, असंदीन तत्र यो दिपाकेन प्लान्पते संमो विपदमापो
श्रागतो, नोखागमस्त ज्ञातोपयुक्त नो आगमतस्तु साधुः कथमित्याह यथादि नदीसमुयमध्यप्रदेशे सांयात्रिका द्रव्यद्वीपमवाप्याऽऽश्वसन्ति, तथा पारातीतसंसारपारावारान्तरचारखेद मेदखिनो मेहिनः परमपरोपका
प्रवृत्तं साधु समन्ततोभावतः परमार्थतो पो थप उच्यते। सोऽपि संदनादीना ि धान्तत्र परीषदोपदी तिर दीनः । श्रथवा भावद्वीपः सम्यक्त्वं तच्च प्रतिपातित्वादपशमिकं, क्षायोपशमिकं च । संदीनो भावद्वीपः क्षायिकं चासंदीन इति । ननु कचित् तत्पर्यायाऽऽपन्नं वस्तु जावनिकेपे निशिष्य था जम्पयमनाथ जम्न मितिः क्वचित्तदम्य पर्यायाsपन्नं वस्तु भावनिक्केपे निचिप्यते, यथाऽत्रैव भावद्वीपपयमनुवन् साधुः सम्यक्त्वं चेति परस्परमुदाह रणवैषम्यं कथं युत्तिमदिति ? । अत्रोच्यते- वस्तुगत्या तत्पर्ययाःधारतया भवनं भाव इति कृत्वा तत्पर्यायधायें वस्तु भावनिकेपे निकिप्यते । यत्तु तद्वस्तु भावनिकेपे निक्षिप्यते तत्तद्र भावगुण रोपापमिति
प्रत्यादिति स्तुद्वा गतादिति - वर्थवश दूद्वीपस्थं पृथिव्यादिपरिणामरूपत्वाद्यत्वं तत्र च यद्वीपेनानाधिकारः, तत्राप्यसंदीनेनेति । अथ वेत्थं नामादिसमीप द्वीप इति नाममात्र तोरनेदोपचारात्। स्थापनाद्वीपो द्वीपस्य स्थालवलयाऽऽद्याका ः। पद्वीप द्वीपस्याणि पृथि
स्वाद पाना जं०] भाव द्वीपस्तुल्यायकृतिमाम कं सर्वतः समुद्रजलप्लावितं केवख एकम् । जं० १ वक्क० । स चामेवाद्विधाद्वीप आयासद्वीपः, आश्वास्यतेऽस्मिनित्याश्वासः स चासौ पश्चाऽश्वासद्वीपः । यदिवा श्वसनमाश्वासः, श्राश्वासाय द्वीप थाइवासद्वीपः तत्र नदीसमुद्धबहु मध्य प्रदेशे निम्नबोधिस्थाssयस्तमवाप्याऽऽश्वसन्ति श्रसावपि द्वेधा दीनो ऽदोनति । यो हि पक्षमामावुदकेन प्लाव्यते स सदीनो, विपरीतस्त्वसंदीनात्रिका द्वीपसमुद
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। २५४२) दीव अभिधानराजेन्फः ।
दीवसमुद्द चदादेरुत्तितीर्षवः समवाप्याश्वसन्त्येवं तं भावसंधानायोस्थिदीवकुमारावास-दीपकुमाराऽऽवास-पुं०। द्वीपकुमाराणां भवतं साधुमवाप्यापरे प्राणिनः समाश्वसन्ति । यदि या दीप प्रति | नाऽऽवासे,"छावतार दीवकुमाराणं वाससयसहस्सा पत्ता।" प्रकाशदीपः प्रकाशाय दीपःप्रकाशदीपः, स चाऽऽदित्यचन्द्रमा | स०७५ समः। श्यादिरसंदीनः अपरस्तु विद्युदुल्काऽऽदिः संदीनः। यदि वा प्रदीग-दीपक-पुं० । दीप-स्वार्थ कन् । प्रदीपे, आम.१ अ०२ चुरोधनतया विवक्कितकालावस्थाय्यमदीनो.विपरीतस्तु संदी.
खण्ड। श्येनपक्विाण, रागभेदे च । वाच । सम्यक्त्वजेदे, स्व. न इति । यथा ह्यसी स्फुटावेदनतो हेयोपादेयहानोपादानवतां
यं तत्वज्ञानरहित एव भिध्यादृष्टिः परस्य धर्मकथादिभिनिमित्तजावमुपयाति तथा कचिलमुबाऽद्यन्नतिनामाश्वासकारिभवति,एवं ज्ञानसंधानायोत्थितः परीषहोपसर्गाकोच्या
स्तषश्रदानं दीपयति प्रकाशयति, तत्सम्बन्धि सम्यक्त्वं दी.
पकमुच्यते । विशे०।। तयाऽसंहीनः साधुधिशिष्टोपदेशदानतोऽपरेषामुपकारायेति । अ.
सयमिह मिच्छद्दिट्ठी, धम्मकडाईहि दीवद परस्स । परेभावताप, भावदीपंचान्यथा व्याचकते । तद्यथा-भावद्वीपः सम्यकाचं,तच्च प्रतिपातिवादोपशनिक,कायोपशमिकं च ।सं.
सम्पत्तमिणं दीवग, कारणसभाव ओणेयं ॥ ५० ॥ दोनो भावद्वीपः, कायिक स्वसंदीन इति । तं द्विविधमध्यवाप्य
स्वयमिद मिथ्यादृष्टिरभव्यो जव्यो वा कश्चिद बारमर्द कव. परीतसंमारत्वात्प्राणिन माश्यासन्ति । भावदीपस्तु संदीनः श्रु
त । अथ च-धर्मकथाऽदिभिर्धर्मकथया मातृस्थानानुष्टानेनातशानम. असंदीमस्तु केवझमिति । तच्चावाप्य प्राणिनोऽवश्य
तिशयेन वा केनचिद्दीपयतीति प्रकाशयति परस्य श्रोतुः स. माश्वासन्त्येवेति प्राचा०१थु.६ अ०३३० समुहान्तःपति तस्य
म्यक्त्वमिदं व्यजकम् । आह-मिथ्यारष्टेः सम्यक्त्वमिति विजन्तोजसकहोलाऽऽकुनितस्य समृर्षीरतिधान्तस्य विधामहेता,
रोधः सत्यम्,
किंतु कारणफलभावतो ज्ञेयं तस्य हि मिथ्यासम्यक्त्वाऽऽदिके संसारजमणविश्राम हेतो,स्त्र०१ श्रु०११ अ०।
रष्टेरपि यः परिणामः स खलु प्रतिपत्तसम्यक्त्वस्य कारण(जम्बूदीपाऽऽदीनां गणना 'श्रा पुवी' शब्दे कितीयभागे। जावं प्रतिपद्यते, तद्भावनावित्वात्तस्य, अतः कारण एव का. १४७ पृष्ठे गता) (जम्बूद्धापनाम्ना कियन्तो द्वीपा इति 'जं. योपचारात्सम्यक्याविरोधा, यथाऽऽयुघृतमिति ॥५०॥ प्रा० । बूटीव 'शम्देऽस्मिन्नेव जागे १३७६ पृष्ठे गताः) (अन्तीपा रथवीपुरनामनगराट् बहिःस्थे स्वनामख्याते उद्याने, उत्त०३ 'अंतरदीच' शब्दे प्रथमभागे ८६ पृष्ठ नक्ताः)
अ० विशे। आ० म. । प्रा. चू आ० क० । कुडूमे, भ. दीव-देशी-कृकलासे, दे० ना०५ वर्ग ४१ गाया ।
थालङ्कारभेदे च । न वाच । दीपयति-मिगच-बुस् । यमा
भ्याम्, स्त्री० । कार्यप्रकाशके, कुशले च । त्रि०ास्त्रियां टाप, दीवंग-दीपाङ्ग-पुं० । सुचमसुषमा जाते चतुर्थे कल्पवृक्षभेदे,दी
अत इत्वम् । बाच.। पः प्रकाशक वस्तु, तत्करणवाद्दीपाङ्गः । स्था० १० ठा० । प्रश्न। यह स्निग्धं प्रज्वलन्त्यः काञ्चनमय्योदपिका उद्योत
दीवचंद-दीपचन्छ-पुं० । ज्ञानधर्माऽऽग्यपाठकशिष्ये स्वनामकुर्वाणा दृश्यन्ते तद दीपाको विस्र सापरिणतः प्रकृष्टोद्योतेन
ख्याते पाके, अष्ट. ३२ अष्ट। सर्वमुद्द्योतयन् वर्तते । तं० ।
दीवचंपय-दीपचम्पक-न० । दीपस्थगनके, भ. 0 श. ६ दीवालिया-दीपकनिका-स्त्री० ! दीपशिखायाम्, अनु.। । 60 । रा०। दीन कुमार-दीपकुमार-पुं० । भूषणनियुक्तसिंहरूपधरेषु भवन
दीवचंवग-दीपचम्पक-न । 'दीवचंपय' शब्दार्थे, भ० बास्तिविशेष, प्रा० 9 पद । स्था० । औ० । भ० ।
श० ६ न। द्वीपकुमासः सर्वे समाहारा इत्यादिवक्तव्यता- दीवण-दीपन-पुं०। त्रि.। प्रकाशने, वाचा ओघ । दीपनं दीवकुमाग भने ! मव्वे समाहारा, सव्वे समुस्सास- | करोति कययतीत्य, बृ० १ ०२ प्रक०। हिम्मासा ?णो इ8 समढे । एवं जहा पढममए चिति-दीवणिज-दीपनीय-त्रिकादीपयति जठराग्निमिति दीपनीयः, यनसिप दीवकुमारा वत्तब्धया नवजाब समानया स
| बादुलकारकत्तरर्यनीयप्रत्ययः । अग्निवृद्धिकरे, जी. ३ प्रति० ४
उ० । स्था०। झा०। प्रज्ञा०। मुस्मामणिमतासा। एवं पागाऽवि । दीवक्रमाग णं भंते !
दीव-दीव्यत्-पुं० । क्रीमति, सूत्र १ श्रु०२०२० । कर लेस्माओ पामत्तानो ? गोयमा : चत्तारिलेस्माोप
दीव यंत-दीपयत-पुं० । शोभयति, कल्प. २ क्षण। मनायो । तं नहा-कादमेस्सा. जाव तेउलेस्मा । एएसि
दीवय-द्वीपक-पुं० । चित्रके, जी०१ प्रति० । ण भने : दीव कुमाग कराइम्सा जाब तेनस्माण
दीववंदिर-द्वीपवन्दिर-न० । स्वनामख्याते श्रावक प्रधाने नगरे, य कय कयरेहिनो, जाव विमेमाहिया ? । गोयमा ! स
पं०व०४ द्वार। वयोवा दीव कुमाग नेलेम्सा, काउलेस्सा असंखेज- |
दीवसमुद्द-द्वीपसमध-पुं० । जम्बूद्वीपाऽऽदिखवणसमुकाउदि. गणालिन्लेम्मा विसेमाहिया,काबलेस्सा विसेसाहिया। | घु, जी ।
द्वीपममुऽवक्तव्यतामाहपामिने ! दीव क्रमाग कण्होसाणं जाब ने उ
कहि ए ने दीनसमुद्दा, केवड्या गं भंते ! दीवसमुद्दा, सेम्माण.य कयो कयरेहिंनो अपहिया वा, महिम्ध्यिा
के महालया णं नंते ! दीवसमुद्दा, किंसंठिया बागोमा ! काहोम्सेहिनो गीतलेस्सा महिमिया जान मन पहिया वा ने नम्सा । सेवं लेने ! भने चि
ते ! दीवसमुद्दा, किमागारभावपमोयारा णं नंते ! जाब विहाद।। ब० ११ श०१३ ।
। दीवस मुद्दा पम्पत्ता । गोयमा ! जंबुद्दीवा दीवा, स
।
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(२५४३) दीवसमुद्द अनिधानराजेन्भः।
दीवसमुद वहादिया समुद्दा. संगणतो एकविदिविहामाा, वित्या- शि, कुमुदं चन्छविकाशि, नलिनीषक्तपऱ्या, सुभगं पद्मवि. रतो अणेगविहिविहाणा-मुमुणा दुशुणा पमुपाएमाणा
शेषः, सौगन्धिकं कहार, पुण्डरीक शताम्बुजं, तदेव पृहत्
महापुरामरीकं. शतपत्रसहस्रपत्रे पाविशेषौ पत्रसंख्याकृतजे. पमुप्पाएपाणा पवित्यरमाणा पवित्यरमाणा प्रोनासमा
दौ। (पत्तेयं पत्तेयमिति) प्रतिशब्दोऽधानिमुख्ये, "वकणेनाभिवीश्या बहुनप्पलपनमकुमुदणझिएसजगसोगंधियपोम- प्रती आभिमुख्ये" ॥२।१।१४ ॥ इति च समासः, ततो रीयमहापोमरीयमतपत्तसहस्तपत्तयफुक्षकेतरोवचिया, पत्ते. वीप्साविबकायां प्रत्येकशब्दस्य निर्वचनं, पनवरवदिका परियं पत्तेयं परमवरवेश्या परिक्खित्ता, पत्तेयं पत्तेयं वणसंम- किप्ता, प्रत्येक प्रत्येक वनखण्डपरिक्षिताश्च (सयंतरमणपज्जपरिक्खित्ता अस्सि तिरियलोए असंखेजा दीवसमुद्दा
धसाणा इति ) जम्बूद्वीपाऽऽदयो द्वीपा:स्वयंभूरमणद्वीपपर्यव
साना:- लवणसमुजाऽऽदयः स्वयं नूरमणसमुपर्यवसानाः । सयंजूरमणपज्जवमाणा पसत्ता समानसो।।
अस्मिन् तियकोके यत्र वयं स्थिता असंख्येया द्वीपसमुखाःप्र. ( कदि गं भंते ! दीवममुद्दा इत्यादि) ककस्मिन् णमिति वा. इप्ताः। हे श्रमण! आयुष्मन् ! श्ह अस्मिन् "तिरियलोप". क्यालङ्कारे, भदन्त ! परमकल्याणयोगिन् !, द्वीपसमुखाः प्र. त्यनेने संस्थानमुक्तम । असंख्येया इत्यनेन संस्थानम," 5 कप्ताः । अनेन द्वीपसमुषाणामवस्थानं पृष्टम । (केवश्या गं अंते ! गुणा दुगुणा" इत्यादिना महत्वम्, “संगणतो" इत्यादिना दीवसनुहा इति) कियन्तः कियत्संख्याकाः, भदन्स! द्वीपसमु. संस्थानम् । जी. ३ प्रति०४ उ० । का? अनेन द्वीपसमुद्राणां संख्यानं पृतम (के माइलयाणं ते! कियन्ति दीपसमुषाणां नामधयानीति नगवानाहदीवसमुद्दा इति) किं महानाय श्राश्रयो व्याप्यत्ररूपो येषां
केवतिया णं ते ! दीवममुद्दा नामधेजोहिं पछत्ता। ते महानया, किंप्रमाणामहालया:, णमिति प्राग्वत् । द्वीपसमु. द्राः प्रज्ञप्ताः । किपमाणं दापसमुत्राणां महत्वमिति पाठः। ए.
गोयमा ! जावड्या लोगे सुभा नामा मुना बना० जाव सुतेन हापसमुजाणामायामाऽदिपरिमाण पृष्ठम् । तथा-(किंसं. जा फासा, एवतिया दीवसमुद्दा णामधेजेहिं पछत्ता । चिया णं भंते! दोवसमुद्दा इति) किं संस्थितं संस्थानं येषां ते
गौतम ! यावन्ति लोके सामान्यतः शुभानि नामानि शङ्खचक्रफिसंस्थिताः, णमिति पूर्ववत् । भदन्त!ीपलमुत्राः प्रज्ञप्ता?
स्वस्तिककनशश्रीवत्साऽऽदीनि, शुभाः वर्णाः, शुभा गन्धाः,शुअनेन संस्थानं पप्रच्छ । (किमागारनावपडोयारा ण भंते!दी
भारसा, शुजाः स्पर्शा:-शुभवर्णनामानि, शुजगन्धनामानि, गुघसमुद्दा पप्पत्ता इति ) आकारजावः स्वरूपविशेषः,कस्याऽऽका
भरसनामानि, शुनम्पर्शनामानि च, एतावन्तो द्वीपसमुहा नामरजावस्य प्रत्यवतारो येषां ते किमाकारभावप्रत्यवताराः।ब.
धेयैः प्राप्ताः, एतान्ति द्वीपसमुखाणां नामधेयानीति भावः। हनग्रहणायधिकरण्येऽपि समासः। णमिति पूर्ववत् । बीपस. मका? किं स्वरूपं बीपसमुडाणामिति भावः । अनेन स्वरूप.
सागरोपमप्रमाणतो द्वीपसमुपरिमाणमादविशेषविषयः प्रश्नः कृतः। भगवानाह-(गोयमेत्यादि) गौतम! केवइया णं भंते ! दीवसमुद्दा उकारसमएणं पसत्ता ?। जम्बूद्वीपाइयो छीपा,तवगाऽदिका लवणसमुत्राऽऽदिकाः गोयमा ! जावइया अठाइजाई नछारसागरोवमाणं उसमुहाः, अनेन छीपानां समुत्राणांचाऽऽदिरुतः। एतच्चा पृष्टमपि
कारसमया, एवतिया दीवसमुद्दा उछारसमएणं पसत्ता । जगवता कथितमुत्तरत्रोपयोगित्वात् , गुणवते शिप्यायापृष्टमपि कथनीयमिति ख्यापनाच । (संगणतो इत्यादि) सं.
(केवश्या णते! इत्यादि)कियन्तो भदन्त ! द्वीपसमुद्रा उद्धास्थानतः संस्थानमाश्रित्य (एगविहिविहाणा इति) एकविधि
रसमयेन उद्धारपल्यौपमसागरोपमप्रामाणेन प्राप्ताः ? । भगएकप्रकारं विधानं येषां ते एकविधिविधानाः, एकस्वरूपा इति
वानाह-गौतम! यावन्तोऽद्धतृतीयानामुबारसागरोपमाणा मुद्धा. भावः। सर्वेषां वृत्तसंस्थानसंस्थितत्वात् ।विस्तरतो विस्तारम
रसमया पकैकसूदमबालाग्रापहारसमया:,पतावन्तो द्वीपसमुखा धिकृत्य पुनरनेकविधिविधानाः, अनेकविधानि अनेकप्रकाराणि उकारण प्रताः। उत्तं.च-"उद्धारसागराणं,अाइजाण जतिविधानानि येषां ते तथा, विस्तारमधिकृत्य नानारूपा इत्यर्थः । या समया। उगुणा पुगुणपवित्थर-दोबोदहिरज्जु पवाया॥१॥" तदेव नानारूपत्वमुपदर्शयति-(दुगुणा दुगुणा पमुप्पाएमाणा दीवसमुदाणं नंते ! किं पुढवीपरिणामा, भानपरिणामा, पमुप्पापमाणा पवित्थरमाणा पवित्थरमाणा इति)द्विगुणं द्विगुणं
जीवपरिणामा, पोग्गलपरिणामा ? | गोयमा! पुढविपरियथा भवति एवं प्रत्युत्पद्यमानाः प्रत्युत्पद्यमानाः, गुपयमामा श्त्यर्थः । प्रविस्तरम्तः प्रविस्तरन्तः, प्रकर्षेण विस्तारं गच्च
माणा वि, आउपरिणामा चि, जीवपरिणामा बि, पोग्गनन्तः। तथाहि-जम्बूद्वीप एक सक्ष, लवणसमुकोलकेधात.
परिणामा वि॥ कीखएमश्चत्वारि बकाणीत्यादि । (ोभासमागणवीइया इ. (दायममुद्दा णं भंते ! इत्यादि) द्वीपसमुडा, णमिति पूर्ववत् । ति) अवभासमाना वीच यः कयोद्धा येषां तेऽवभासमान- भदन्त ! पृथिवीपरिणामा अप्परिणामाः । नगवानाह-गौतम! वीचयः । इदं विशेषणं समुजाण प्रतीतमेव, द्वीपानामपि वेदि. पृथिवीपरिणामा अपि अप्परिणामा अपि, पृथिव्य एव जीतव्यम, तेष्वपि हुइनदीतडागाऽऽदिषु कात्रसंभवात् । तथा ब. वपुद्गल परिणामाऽऽत्मकत्वात् सर्वद्वीपसमुहाणाम। हुभिरुत्पमपाकुमुदनाल नसुभगसौगन्धिकपुपमरीकमहापुएड. दीवसमुद्देसु णं जंते ! सबपाणा सव्वतृया सव्वजीवा रीकशतपत्रसहस्रपत्रैः (फुल्ल त्ति) प्रफुलैर्षिकसितैः (केसरे
सव्वसत्ता पुढनिकाइयत्ताए० जाव तसकाइयत्ता नववष्ठत्ति) केसरोपलक्षितरुपचिता उपचितशोभाका बहुत्पनप.
पुवा ? । हंता गोयमा ! असति अदुवा अणतखुत्तो, इति अकुमुदनझिनसुनगसौगन्धिकपुण्डरीकमहापुरमरोकशतपत्रस. हमात्रफुल्ल केसरोवचिताःतत्र उत्पल गर्दभक, पयंस्यविका- दीवसमुद्दा समत्ता ।
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(२५४४ ) निधानराजेन्द्रः ।
दीवसमुद्द
( दीवसमुद्देसु णं भंते! सञ्चपाणा सम्वया इत्यादि) द्वीपस मुद्रेषु णमिति पूर्ववत् सर्वेष्विति गम्यते । नदन्त ! सर्वे प्राणा ब्रीडयाऽऽयः सर्वे छूताः तरवः सर्वे जीवाः पञ्चेन्द्रियाः, सर्वे सचाः पृथिव्यादय उत्पन्न पूर्वाः १ । भगवानाह - गौतम ! असकृत्पन्न पूर्वाः । अथवा अनन्तकृत्वः सर्वेषामपि सांध्यव द्वारिकान्तानां जीवानां सर्वेषु स्थानेषु प्रायोऽनन्तश उत्पादात् ॥ जी० ३ प्रति० ४ उ० । द्वीपसमुद्राण सुबत्यम
सच्चेपण दीवसमुद्दा दस जोयसाई उम्मेद्देणं पछता । "सचे दिवादि सुगनं वरमुपति मि दोइ ।" द्वीपानाम "श्रमरुणाभावे वि” मधदेशि सहस्रं याव देश जम्बूद्वीपे तु पश्चिमी "भमनमवि अस्थि त्ति ।” स्था०१० ठा० । द्वीपसमुपपत्तिप्रतिपाद के दीर्घदाने स्था० १० दीवसागरपयति-द्वीपमागरमइति श्री द्वीपसागराणां प्र कमयों यस्यां प्रत्यपती साडीपसागरः पाद रामे कालिकत पा० ०
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दीहकालिगी
( जं स्यणि च णं इत्यादि ) यस्यां रात्रौ श्रमणो भगवान् महावीरः कालगतः, यावत् सर्वदुःखप्रक्षीणः, तस्यां रात्रौ (न मई इत्यादि ) नधमल्लिकाजातीयाः काशिदेशस्य राजानः, नवलेच्छकाजातीयाः कोशल देशस्य राजानः, ते च कार्यवा [इ] गणमेलापकं कुर्वन्ति इति गणराजानोऽष्टादश ये टकमहाराजस्य सामन्ताः श्रूयन्ते, ते तस्याममावास्यायां पारं संसारपारमाभोगपति प्रापयति तमेवंविधं ( पोसोव वासंति ) पौषधोपवासं कृतवन्तः, भाहारत्यागपापरूपम् उपवासं चक्रुरित्यर्थः । अन्यथा दीपकरणं न संभवति, ततश्च गतः स ज्ञावोद्योतः ततो द्रव्योद्योतं करिष्याम इति तैः दीपाप्रपतिताः ततः प्रभृति दीपोत्सवः संवृतः कार्तिक प्रतिपदि च श्रीगौतमस्य केवलमहिमा देवैश्चक्रे श्रतस्तत्रापि जनप्रमोदः, नन्दिवर्द्धन नरेन्द्रश्च जगवतोऽस्तं श्रुत्वा शोकार्त्तः सुदर्शनया भगिन्या संबोद्ध्य सादरं स्ववेश्मनि द्वितीयायां जोजितस्ततो भ्रातृद्वितीयापर्यंरूढिः । कल्प० १ अधि० [६] [पण ती पालिका पणि सुखमसिकादि करने मिथ्यात्वमारम्भो वेति प्रश्ने, उत्तरम् - आरम्भो लगतीति ज्ञातमस्ति, न तु मिथ्यात्वमिति ॥ २२४ प्र० । सेन० ३ उला० ।
दीवसिहा- दीपशिखा - स्त्री० । ब्रह्मदत्त चक्रवर्तिभाय्यायां साग दीचि - देशी - उपदेहिकायां मृगाऽऽकर्षएयां च । दे० ना० ५ रयणसुतायाम् उ० १३०० ति० ।
दीवान भेव दीपाऽऽदिज्वलनभेद- पुं० [ दीपचन्द्रतारका
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ssदीनां दीपनविशेत्रे, पञ्चा० २ विव० ।
दीवा - दीपापह - त्रि० । दीपविनाशके, द्वा० २४aro | दीवायण द्वैपायन-पुं० द्वीपमयनं जन्मभूमिर्यस्य स द्वीपा यनः, स एव प्रज्ञाऽऽद्यत् । "द्वीपे न्यस्तस्तया बाल-स्ततो द्वैपायनोऽभवत् । " इत्युक्ते व्यासे, वाच० सूत्र ० १ ० ३ ० ४ छ० । षष्ठे ब्राह्मण परिवाजके, औौ० । स्था० । ० । दश० श्रा० म० । स चाऽऽगमिष्यन्त्यामुत्सर्पिण्यां विंशतितमस्तीर्थकरो भविष्यति । स० ।
दीवाली - दीपावली - स्त्री० । दीपपङ्की, कार्तिका मायां च । २०२० फल्प श्रीमहावीरस्य निर्वाणसमये श्रमावास्या | विधिः, स्वाविनवं चाभूताम, दीपालिका संधिगुणसमये स्वातिनक्षत्रं कस्मिश्चिद्वर्षे ते भवतः कस्मिंश्चिच्च नेति । एतडुपरि केचनेत्थं कययन्ति यद्यदा स्वात्यमावास्ये भवतस्तदा गुणनीयम् । अन्ये च यस्मिन् दिने " मेरश्या " इति लोकप्रसिक्रियाविशेषस्तस्मिन् दिने गुणनीयमिति । तत्र " मेरइया " करणे नेदो भवति देशमध्ये गुर्जोका सन्ततेः पादितानि तानि तदेशीयैस्तु द्विवासरे ततः किं स्वस्यदेशानुसारंगा "मेरा" करणादिने गणनीयम् उत गुर्जरदेशानुसारेणेति उत्तर-पत्रिकागुनमाश्रित्य स्वस्वदेशीयलोका यस्मिन् दिने दीपाऽऽलिकां कुर्वन्ति तस्मिन् दिने गुणनीयमिति । ३ प्र० । है ० ४ प्रका० । कल्प० । जं रचिणं समणे जगवं महावीरे कालगए० जाव सम्बदुखप्पडणे, तं स्यचिणं नयमाई - नालेच्छई कालीकोसलमा अहारसवि गणरायाणो अमावासाए पारामो पोमोवा पह गए से भाजु, द जुयं करिस्तामो ॥ १२० ॥
वर्ग ३ गाथा ।
दीजिय-दीपित त्रि० कथिते ओघ० ।
1
द्वीपिक-पुं । शाकुनिक पुरुष संबन्धि पज्जर स्थतित्तिरौ, ज्ञा० १ श्रु० १७ श्र० ।
द्वीपिन्- पुं० । चित्रके, श्रा० म०१ २०१ ख एक । न० प्रश्न० । प्रज्ञा० । झा० । जं० । स्था० । सूत्र० । प्रति० । श्राचा० । दीवियग- द्वैप्यवि० ०१०११ ० दीविया-दीपिका - स्त्री० । ह्रस्वो दीपो दीपिका | हस्ये दीपे जं० २ ० | " दं)वियाचक्कवालविंदं ।" दीपिकानां चक्रवासं सर्वपरिमण्डरूपं वृन्दं दीपिकाचक्रवालवृन्दम् | जी० ३ प्रति० ४ उ० । जे० ।
।
दीवस्व दीपोत्सव पुं० ०३२ अ - । दीपमालिकायाम, दसय अपावसा दीोत्सवमावास्याली | कार्तिकामाचा - स्थायाम्, ती० २० कल्प । दीसंत इयमान त्रिपात्
०१०३०४० दीह - दीर्घ- पुं० | - घञ्, घस्य नेश्वम् । शाललतावृक्के, उष्ट्रे, द्विमात्रे स्वरवर्णे च । वाचः। "पगे दोहे " श्रायते, स्था०ठा० । सूत्र० । विशे० प्रा० औ० रा० । प्रचुरे, भ० १ ० ६ उ० । असंख्येये, त्रि० । विशे० " दी दरदस्सदि मपक्काणि । " विपा० १० ८ ० ।
दीहुकाल - दीर्घकाल -त्रि० । दीर्घः सन्तानापेक्षया अनादित्यात् कालः स्थितिबन्धकालो यस्य तद् दीर्घकालम् । दीर्घस्थितिके. अ०म० १ श्र० २ खण्ड ।
काङ्क्षिणी दीर्घकाशिकी स्त्री० काशिसंज्ञायाम्, विशे० ॥ । । इह दीहकालिगी का-लिग तिसएला जया सुदीहं पि । संभर यमे, चिवेश व किड काय १ ।। ५००। लुगाद दोधेकानिकी काि
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(१५४५) दीहकालिगी अभिधानराजेन्छः ।
दीहदसा त्युच्यते, कालि की चासो संज्ञा च पुषद्भावात् 'कालिकसंझा' ह्मणोऽयमभवत, पाश्वनाथं चाऽपच्छत-"तं भंते ! जवणिजं." पति इष्टव्यम् । यया सुदीर्घमवि कालं नृतमतीतमय स्मरति, तथा-"सरिसवया मामा कुलत्था य ते भोजा," तथा-"एगे पभ्यश्च भविष्यवस्तु चिन्तयति-कथं नु नाम कर्तव्यम?,श्त्येषा भयं दुवे भवं।" इत्यादि। भगवना चेतेषु विभक्तेष्वाक्षिप्तः श्राचिन्तामाश्रित्य दोऽतीताऽनागतवस्तुविषयः कालो यस्यां | वको भूत्वा पुनर्विपर्यासादारामाऽदिलौकिकधर्मस्थानानि का. सा दधिकाशिकी कालिकसंझोच्यत इत्यर्थः ॥५.८॥ विशे०।। रयित्वा दिकप्रोतकतापमत्वेन प्रव्रज्य प्रतिषष्पारणकं क्रमेण ('सराणी' शब्द चैतया संझिनो द्रष्टव्याः)
पूर्वाऽऽदिदिग्भ्य आनीय कन्दाऽऽदिकमभ्यवजहार। अन्यदासो दोहकालिय-दीर्घकालिक-त्रि । दीर्घः कालो विद्यते यस्य स | यत्र कचन गर्ताऽऽदौ पनिध्यामि तत्रैव प्राणांम्त्य दयाम इत्यभि. दीर्घकालिकः। स्था० ३ ठा० १ ० । चिरन्तने,दशा० ७ अ० ।
ग्रहमाभगृह्य काष्ठमुच्या मुखं बद्धा उत्तराभिमुखःप्रतस्थौ,तत्र दीहकालियउचएस-दीर्घकालिकोपदेश-पुं० दीर्घः कालो
प्रथमदिवसे पराह्नसमये अशोकतरोरधो होमाऽऽदिक कृत्यो.
घास, तत्र देवेन केनाप्युक्तः-अहो सौमिल ब्राह्मण महर्षे! 5:दीर्घकालः, सोऽस्यास्तीति दीर्घकालिकः, स चासावुपदेशश्च,
प्रवजितं ते, पुनर्द्वितीयेऽहनि तथैव सप्तपर्णस्याध उपित उक्तः, उपदेशो भणनं, दीर्घकालोपदेशः । दीर्घकालिके भणने, प्रा.
तृतीयाऽऽदिषु दिनेषु अश्वत्थवटोदुम्बराणामध उषितो भणितो म०१०१खराम।
देवेन,ततः पञ्चमदिनेऽवादीदमौ-कथं नु नाम मे दुःप्रवजितम। दोहखक-दीर्घखद्ध *-त्रि० । प्रचुरतरे, व्य. ४००। देवोऽवोचतू -त्वं पाश्र्वनाथस्य जगवतः समीपे अणुवताऽऽदिक
श्रावकधम्म प्रतिपद्याधुनाऽन्यथा वर्तसे ति कुप्रबजितं तव, दीहगोरवपरिणाम-दीर्घगौरवपरिणाम-पुं० । यत आयुः स्व
ततोऽद्यापितमेवाणुवताऽऽदिक धर्म प्रतिपद्यख, यन सुप्रवजितं भावाद् जीवस्य दीर्घ दीर्घगमनतया लोकान्ता लोकान्तं याबद् गमनशक्तिर्भवति स दीर्घगौरवपरिणामः । अष्टमे श्रायुषः
तब जवतीति । एवमुक्तः तथैव चकार, ततः श्रावकत्वं प्रतिपा
ख्यानासोचितप्रतिकान्तः कालं कृत्वा शुक्रावतंसके विमाने शु. परिणामे, इह गौरवशब्दो गमनपर्यायः । स्था० ६ ग।
करवेनोत्पन्न इति । तथा श्रीदेवीसमाश्रयमध्ययनाश्रीदेवीति । त. दोहनीह-देशी-शो, दे० ना०५ वर्ग ४१ गाथा ।
थादि-रमा राजगृहे महावीरबन्दनाय सौधर्मादाजगाम, नाट्य दीदमक-दीर्घदष्ट-त्रि० । सर्पदष्टे, नि० चू०१ उ०।
दर्शयित्वा प्रतिजगाम च, गौतमम्तत्पूर्वभवं पप्रच्छ। भगवास्त दोहण-दृष्टान्त-पुं०। देशीयशब्दमेतत् । उदाहरणे, दर्श०१|
जगाद-राजगृहे सुदर्शनष्ठी बभूव, प्रियानिधाना च तद्भार्या,
तयोः सुता भूता नाम बृहत्कुमारिका पार्श्वनाथसमीपे प्रव. तत्व।
जिता शरीरवकुशा जाता साति चारा च मृत्वा दिवं गता, म. दहिणिद्दा-दीघनिजा-स्त्री० । मरणे, चिरकालव्यापिन्यां निमा
हाथिदेहे च सेत्स्यतीति। तथा प्रभावती चेटकहिता वीतनय. याम, आचा० श्रु०२ अ०४ ०। तुम्नाऽऽदित्वान्न णत्वम्। बाचा नगरनायकोदायनमहाराजभार्या,य या जिनबिम्बपूजाऽर्य स्नाना. दीहणिव-दीर्घनृप-पु. । काम्पिल्यपुरराजे, यो दि ब्रह्मदत्तेन नन्तरं चेट्या सितवसनार्पणेऽपि विभ्रमाद्रक्तवसनमुपनीतमनहतः। उत्त० १३ अ।
वसरमनयेति मन्यमानया मन्युना दपणेन चेटिका इता.मृताच, दीदत-दीर्घदन्त-पुं०। जम्बूद्वीपे द्वीपे भारते वर्षे आगमिष्यन्त्या
सा ततो वैराग्यादनशनं प्रतिपद्य देवत्वं प्रतिपन्ना, यया चो. मुत्सपियां भविष्यति द्वितीये चक्रवर्तिनि, म ति। ती।
जयनीराजानं प्रति विकेपेण प्रस्थितस्य ग्रीष्मे मासि विपा
सानिभूतसमस्तसैन्यस्योदायनमहाराजस्य स्वच्छशीतमजदीहदखा-दीर्घदशा-स्त्री० । ब० व० । दशाध्ययने ग्रन्थविशे.
लपरिपूर्णत्रिपुष्करकरणेनोपकारोऽकारीत्येवंलक्षणप्रभावतीच. षे, स्था।
रितयुक्तमध्ययनं प्रजावतीति संभाव्यते, न चैव निरयावलिका. दीहदमाणं दस अज्या पत्ता । तं जहा
श्रुत स्कन्धे दृश्यत इति पञ्चमम । तया बहुपुत्रिकादेवीप्रतिबद्धं "चंदे सूरे य सुके य, सिरिदेवी पहावई ।
सेवाध्ययनमुच्यते। तथाहि-राजगृहे महावीरवन्दनार्थ सौधर्मा. दीवसमुद्दोववनी, बहुपुत्ती मंदरे इय ॥ १ ॥
दबहुपुत्रिकाभिधाना देवी समवततार, वन्दित्वा च प्रतिजगाम,
केयमिति पृष्टे गौतमेन भगवानवादीत्-वाराणस्थां नगर्थी भथेरे संजूयविजए, पम्ह उस्सासनिस्ससे॥"
काभिधानस्य सार्थवाहस्य सुभद्राऽभिधाना भार्येयं बभूव,सा दीघदशाः स्वरूपतोऽनवगता एव, तदध्ययनानि तु कानिचि.
च बन्ध्या पुत्रार्थिनी निकायमागतमार्यासंघाटकं पुत्रलाभ निरयाऽऽवलिकाश्रुतस्कन्धं उपलच्यन्ते, सत्र चवक्तव्यताप्र
पप्रच्छ । स च धर्ममचीकथत् । प्रावाजीच सा बहुजनापत्येषु तिब चन्द्रमध्ययनम् । तथाहि-राजगृहे महावीरस्य चन्छ- प्रीत्याऽत्योधर्तनापरायणा सातिचारा मृत्वा सौधर्ममगमत, ज्योतिष्कराजो वन्दनं कृत्वा नाट्यविधिं चोपदश्यं प्रतिगतः, ततश्च्यत्वा च विमेलसंनिवेशे ब्राह्मणीत्वेनोत्पत्स्यते, ततः पि. गौतमश्च भगवन्तं तद्वक्तव्यतां पप्रच्च, नगवाँश्चोवाच
तनागिनेयनार्या नविष्यति युगक्षप्रसवा च, सा पोडशभिवाश्रावस्त्यामङ्गजिन्नामाऽयं गृहपतिरभूपार्श्वनाथसमीपे च
त्रिंशदपत्यानि जनयिष्यति, ततोऽसौ तन्निर्वेदादार्याः प्रक्ष्यति, प्रवजितो विराध्य च मनाक श्रामण्यं चन्डतयोत्पन्नो, महावि.
ताश्च धर्म कथयिष्यन्ति,श्रावकत्वं च सा प्रतिपस्यते, काला. देहे च सेत्स्थतीति । तथा सूरबक्तव्य ताप्रतिबकं सूरं, सूरव. स्तरे प्रवजिष्यति, सौधर्मे चन्छसामानिकतयोत्पद्य महाविकन्यता चवद, नवरं सुप्रतिष्ठो नाम्ना बनूवेति । शुक्रो ग्रहः, देहे सेत्स्यतीति। तथा स्थविरः संभूत विजयो भड़बाहुस्वामितक्तव्यता चैवम्-राजगृहे भगवन्तं वन्दित्वा के प्रतिगते
नो गुरुभ्राता स्थूल भस्य सगमाल पुत्रस्य दीकादाता, नद्वक्तगौतमेन पृटे तथैव जगवानुवाच- वाराणस्यां सौमिलनामा ब्रा
व्यताप्रतिवरूमध्ययनं स पयोच्यत इति नवमम् । शेषाणि त्री. खद्ध शब्देन प्रचुरमभिधीयते । प्रव.२द्वार।
एयप्रतीतानि ।
स्थाग।
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(२५४६) दीहदिहि अनिधानराजेन्द्रः।
दीहवेय दीहदिद्वि-दीर्घदृष्टि-पुं० । दीर्घकालभाविवादस्यार्थस्यानर्थस्य गोयमा ! पमुष्पन्नवणस्सकाइयाणं नस्थि निल्लेबगा।" तथाचरष्टिः परखिोचनम् । विमृश्यकारित्वे, अविमृश्यकारित्वे शरीरोच्याच दीघों वनस्पतिः, “वणस्सइकाइया णं ते! हि महादोषसम्भवात् । यत उक्तम-" सहसा विदीत न
के महालिया सरीरोगाहणा पत्ता ? गोयमा!साइरेगं जो. क्रिया-मविवेकः परमाऽपदां पदम् । वृणते हि विमृश्यकारिगा,
यणसहस्सं सरीरोगाहणा।" न तथाऽन्येषामेकेन्छियाणाम्, गुणमुग्धाः स्वयमेव सम्पदः ॥१॥” इति । १०१ अधिकादीर्घा अतः स्थितमेतत्सर्वथा दीर्घलोको बनस्पतिरिति । प्राचा०१ रष्टिरम्य । परिमते, दीर्घा दूरगा दृष्टिर्यया । रवीक्षणे ज. श्रु०१ १०४ उ०। त्रभेदे, याच०।
दीहलोयसत्थ-दीर्घलोकशस्त्र-न० । वनस्पत्युत्सादकेऽनी, प्रा. दीहछा-दीर्धाका-स्त्री० । पर्याशाद्धायाम, 20 प्र० १ प्रक०। चा० । अस्य च शस्नमम्निः, यस्मात्स हि प्रवृद्धज्वालाकलापादाहपट्ठ-दीर्घपृष्ठ-पुं० । यवराजामात्ये, बृ० १ ० २ प्रक०।
ऽऽकुनः सकनतरुगणप्रश्वसनाय प्रभवति, अतोऽसौ तदुत्सा
दकत्वाच्छनम् । आचा० १ ० १ ० ४ उ० । दीहपास-दीर्घपार्श्व-पुं० । परबते भाविनि षोमशे जिनेन्के, प्र. व.७ द्वार । ति०।
दीहवच्छ-दीर्घवृक्ष-पुं० । महति वृके,प्राचा० २ २०१०४ दीहवाह-दीर्घबाहु-पुं० । ऋषभस्य त्रिसप्ततितमे पुत्रे, कस्प १
अ०२३०। अधि०७ कृण । जम्बूद्वीपे भारते वर्षे श्रागमिध्यन्त्यामुत्स
दीहवेथ छ-दीर्घ (विजयाई) वैताध्य-पुं० । दीघे अकेत्रविपिण्यां तृतीये बनदेवे, सः। जम्बूद्वीपे भारते वर्षे अस्यामेवो.
भागकारके पवर्तविशेषे, स्था० । सधियां चन्द्रप्रभजिनस्य पूर्वभवे जीवे, स०।
जंबू! मंदरस्स पचयस्स उत्तरदाहिणेणं दोदीहवेयरूपन्चदीहभद-दीभ-पुं० । मानरसगोत्रस्याऽऽयसभूतिविजयस्य या पामत्ता । तं जहा-बहुसमउल्लाजाव भारहे चेव दीहवेयर, स्थविरस्यैकादशे स्वनामख्याते स्थविरेऽन्तेवासिनि, कल्प. २ एरावए चेव दीवय। भारहे दीडवेयढे दो गुहाभोपालअधि०८ कण।
ताओ। तं जहा-बहुममउवाओ अविसेसमणाणताओ दीहमक-दीर्घाय-न । दीर्घा मका कालो यस्य तदीर्घाद्धम् ।
अन्नमन्त्रणाश्वदृति पायामविक्खंभुच्चत्तसंगण परिणाहेणं । मकार मागमिकः । दीर्घकालगम्ये, स्था० २ ० १ उ०।
तं जहा-तिमिसगुहा चेव, खंगप्पवायगुहा चेव । तत्य प्रइन। जल।सूत्राशा। दीर्याध्व-नादीर्घोऽचा मार्गों यस्मिन् तद्दीघोचम् दीर्घमा.
एं दो देवा महकिया जाव पनिोवमहिश्या परिवति । गंगम्ये, स्था० २ ० १ उ.। प्रश्न । भ० । सूत्राबा०।
तं जहा-कयमालए चेत्र,ण मालए चेव । एरावए दीहदीर्घमार्ग, स्था०३०४३०।
वेग दो गुहा पमत्ता । तं जहा-जाव कयमालए चेव, दीहमका-दीघा-स्त्री. दीर्घोद्धा कानो यस्यां सा दोघी-| एमालए चेव । दा,मकारस्स्वागमिकी दीघकालगम्यायाम,स्था०५ मा०२०।। (दो दीदवेयकृत्ति) वृत्तवताठ्यव्यवच्छेदार्थ दीघग्रहण, वैतादी ध्वा-स्त्री० । दीर्घोऽभ्वा मार्गों यस्यां सा दा_ध्वा ।
ब्यौ विजयाल्चों चेति संस्कारः, तौ च भरतरवतयोमध्यभागे दीघमागगम्यायाम, स्था० ५ ठा० २२० । औ०।
पूर्वापरतो लवणोदधि स्पृष्टवन्तौ पञ्चविंशतियोजनोच्छितो
तत्पादावगाढी पञ्चाश द्विस्तृतौ अायतसंस्थती सर्वराजतावु. दीहमान-दीर्घाऽऽयुष्-न | चिरजीविते, शुभमितीह विशेषणं
भयतो बहिः काञ्चनमएमनाङ्काविति । श्राह च-"पणवीसं उदृश्यमिति । स्था० १००।
विको, पहसासं जोपणाणि वित्थिनो । यो रययमो, भर
दक्वत्तस्स मज्जम्मि ॥१॥" इति । (भारहे णमित्यादि) चैतालये दीहर-दीघ-पु.। "रो दीर्घात् "८ ।। १७१॥ इति
अपरतस्तमिस्रागुहागिरिविस्ताराऽऽयामा द्वादशयोजनविस्तारा दीर्घशब्दात्स्वार्थे । 'दोहरं । दाहं ।' प्रा. २पाद । “ सर्वत्र
अष्टयोजनोच्छूया आयतचतुरस्रसंस्थाना विजय हारप्रमाणसवरामचन्" ॥G ।२। ७६॥ इति रझुक । "वघवधभाम्" ॥
द्वारा बजकपाटपिहिता बहुमध्ये द्वियोजनान्तराभ्यां त्रियोजन८।१।१८।। इति घस्य हः । प्रा० दु. १पाद । आयते,
विस्ताराभ्यामुन्मग्ननिमनजनाभिधानाभ्यां नदीभ्यां युक्ता, तद्व"अन्ने ते दोहरलोअण अन्नु ते भुअजुअञ्ज । " प्रा० २पाद।
त्पूर्वतः खरामप्रपातगुहेति । (तत्य णं ति)तयोस्तमिस्रायां गु. दीहराय-घरात्र-न । यावज्जोवे, आव० ४ अ० । प्राचा। हायां कृतमासकर,श्तरस्यां नृत्तमासक इति । (परचए) इत्यादि
तथैव । स्था०२ठा०३ उ०। दीढलोय-दीर्घलोक-पुं० । वनस्पती, प्राचा० । यस्मादसौ का. यस्थित्या परिमाणेन शरीरोच्येण च शेधैकेन्धियेभ्यो दी
-जंब ! मंदरस्म पुरच्छिमेणं सीआर महाणईए उत्तरे घों वर्तते । तथाहि-कास्थित्या तावत् “वणस्सइकाइए णं
अट्ठ दीहवे यहा, अतिमिसगुहाओ, अह खमंगप्पवायभंते ! वणस्सइकाए त्ति कालो केवञ्चिर होर ?। गोयमा ! गुहायो, अ कयमालगा देवा,अट्ठ णट्टमाझगा देवा, मट्ठ अर्गतं कालं अणं ताओ उस्लाप्पणिनवसप्पिणी श्रो, खेत्तो
गंगाओ, अह सिंधुओ, अट्ठ गंगाकुंमा, असिंधुकुंमा, अगणता झोया असंखेजा पोगनपारियट्टा, ते णं पुगनपरियट्टा श्रावलियाए असंखेजश्भागे ।" परिमाणनस्तु-" पंमुप्पन्न
अट्ट नसभकूमा पमत्ता, अट्ठ उसभकूडा देवा पप्पत्ता। घणस्सइकाइया रंग भंते ! केवतिकालस्स निलेवणा सिया?।जंबू! पंदरपुरस्चिमेणं सीयाए महाणइए दाहिणेणं अहदी.
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( २५४७ ) अभिधानराजेन्द्र
दोdes
डवेयता एवं चैव जात्र अटु उसभकूडा देवा पत्ता, नत्र रमेत्य रतारचईताचे डायूमंदरच णं सोपा महाई दाहिणेणं अड दौडवेषद्वा० जाव नगालगा देवा श्र गंगामा असिंधुकुंडा अ गंगाओ असिंधू अड उसजकुडपण्या अटु उसकूटा देवा छत्ता मंबू मंदरपुरमेणं सीओए महापाईए उत्तरों ग्रह दीहवेया० जाव अह णट्टमाझगा देवा अह रचकुंदा डरनाईकुंडा भट्टरताओ० जाव अड उसनकूमदेवा पणता । स्था० ० ठा० | स० ज० ॥ कूटानि 'फू' शब्दे तृतीयमा ६६
दी हसद दीर्घशब्द०
यानि मेऽदिशब्दव
द् दूरश्रान्ये च / स्था० १० वा० । दहिसुत्त - दीर्घसूत्र - न० - न० । बृहत्सूत्रे नि ०। जे जिक्खू सकप्पासामो वा पोमकप्पासाओ वा कप्पासाओका मिलकप्पामाओवादीहचाई करे, करं वा साइज ॥ २६ ॥ नि० ० ५ ३० । (' सुत्त' शब्दे व्याख्यास्यते चैतत् ) दी हसेण - दीर्घसेन पुं० । भरतकेत्रजचन्द्रप्रभजिन समकालिके ऐवत जे जिने, ति० । श्रेणिकस्य राज्ञो धारण्यां जाते स्वनामख्याते पुत्रे, स च महावीरस्वामिनो ऽन्तिके प्रव्रज्य षोडशवर्षपर्याय: संलेखनया मृत्या विजये देवलोके उपपद्य ततश्च्युत्वा महाविदेहे सेत्स्यतीत्यनुत्तरोपपातिकदशानां द्वितीयवर्गस्य प्रथमेऽध्ययने सुचितम् । श्र० १० २ वर्ग १ श्र० । अश्रेणिक धारणीसुत एतनामा वीरान्तिके प्रव्रज्य द्वाद स्मादन्यः शवर्षपर्यायः लेखनया मृत्वा सर्वार्थसि उपपन्नो महाविदेहे त्स्यतीत्यनुतरोपपातिकदशानां प्रथमवर्गस्य षष्ठेऽध्ययने सुचितम् । श्र० १ वर्ग १ अ० । भरत क्षेत्रजशान्तिनाथजिनसमकालिके ऐरवतजे जिने च । ति० । दीहाउ-दीर्घाऽऽयुष्-न - न० "आयुरप्सरसोर्वा ॥ ८ । १ । २० ॥ इत्यन्त्यव्यञ्जनस्य सो वा । 'दोहानसो । दीहाऊ ।' प्रा०१ पाद । दीर्घ सागरोपमपरिमिततया श्रायुरेषामिति दीर्घाऽऽयुः । उत्त० ५ श्र० । चिरजीवित्वे, कल्प० १ क्षण ।
दीहाता दीर्घायुष्ट स्त्री० [स्थितिकी वितहेतुकर्मस्वे स्था० ३ टा० १ ० । ( एतत्कारणानि आउ ' शब्दे द्विकानि
दीहा सण दीर्घाऽऽसन - न० शय्यारूपे श्रासने, जं०१ व ० जी० ॥ दीहिया दीर्घिका - स्त्री० । ऋजुसारिएयाम्, झा० १ ० १ श्र० रा० ॥ जं० । अनु० । श्राचा० जी० । प्रज्ञा० भ० । नि० चू० ॥ श्र० ।
बु- दुर्-अव्य० । अभावे, श्राचा० १ श्रु० २ अ० ५ ० । जुगुसायाम्, श्रा० म०१०२ खएम
दुअं - हुतम् - अध्य० | त्वरिते, अनु० । श्राव० ।
बखर - देशी - पढे, ३० ना० ५ वर्ग ४७ गाथा ।
दमिअ दुअक्खरय-व्यक्षरक-पुं० । दासे, भृतकः कर्मकरस्तद्विषयोऽ• क्षरको यकरकः, द्वय हरकानिधान दास इत्यर्थः । पि० । अक्खरिया-चरिका ० दास्याम् आ० अ० म०१
अ०२ खण्ड |
दुअल - दुकूल न - न० | "दुकूले वा लश्च द्विः ॥ ८ । १ । ११.६ ।। इति उकारस्य वैकल्पिको ऽकारः, तत्सन्नियोगे लस्य त्विम् । 'दुअ ' 'दुगु ०१ यादव भ० । दु - ऊचच् -कुक् च । पृष्टं कृतति । कूल' आवरणे । कौ माम्बरे, श्लक्ष्णवस्त्रे, न० 1 सूक्ष्मवस्त्रे च । वाच० ।
16
H
दुआइ-द्विजाति-पुं० । द्विन्योरुत् " ॥ = | १ | ९४ ॥ इति इकारस्य चत्वम् । प्रा० १ पाद" सर्वत्र लघरामचन् ८ । २ । ७९ ॥ इति बलुक । प्रा० २ पाद बाच। द्वे जाती जन्मनि यस्य "ब्रह्मणः क्षत्रियो वैश्यस्त्रयो वर्णा द्विजातयः । " इति मनू के पत्र "मातुरचिननं द्वितीयं इत्युक्तस्तषां तथात्वम् । वाचः ।
रायन स्
दुआल ०१ उ० ।
दुआर द्वार - न० । प्रवेशनिर्गममार्गे, झा० १ ० १८० | प्र तोल्यां च । झा० १ ० १ २० ।
दुआरिया- द्वारिका - स्त्री० । अपद्वारे, झा० १ ० २ ० । दुआवत्त-द्विकाऽऽवर्त्त पुं० । षोऽच्छिन्नच्छेदनयिके हविग्दस्य सूत्रे, स० १२ श्रङ्ग ।
1
66
दुइअ - द्वितीय - त्रि० " द्विन्योरुत् " ॥ ८ । १ । १४ ॥ इतीकारस्योकारः । 'डुश्श्रो' प्रा० १ पाद। "पानीयाऽऽदिष्वित् ॥ ८ ॥ १।१०१ ॥ इति ईकारस्य इकारः । 'दुश्अ ।' प्रा० १ पाद । "समंत्र वरा - " ॥ छ । २ ७६ ॥ इत्यादिना वलुक् । प्रा० २ पात्र | कगचजत०- " ॥ छ। १ । १७६ ॥ इत्यादिना तलोपः । द्वयोः द्वितीयः । द्वयोः पूरणे द्वितीये भागे, वाच० । दुःखितोतुम्ययस्था ०२.४० । दु उच्छ - गुप्-धा० ०वा० आत्म० श्रक० सेट् । कुत्सने, वाचण 'जुगुप्सेः कुणडुगुच्छ दुगुष्ाः ॥ ८४ ॥ ४० ॥ इति डुगुचाऽऽदेशः । "कग० ॥ । १ । १७७ ॥ इति गलोपे, "डुबच्छ । दुछ। " प्रा० ४ पाद । पुरुष द्विमुत्र०" पोस्तु " ॥ १६४॥ कारस्योकारः । ' दुउणो । विणो । 'प्रा० १ पाद । द्वाभ्यां गु रायते, गुण- घञर्थे कः । द्वाभ्यां गुणिते चान्र० । ऊल-कूल १० 'दुम' शब्दार्थ प्रा० १ पाद दुओणय - श्यवनत - न० 1 अवनतिरवनतमुत्तमाङ्कप्रधानं प्रणमनमित्यर्थः द्वे अवनते यस्मिन् तद् द्व्यवनतम् । द्विरवनम्य वन् ने, ब० । एवं यदा प्रथममेव "इच्छामि खमासमणो बंदिडं जावणिजाए निसीहियाए । ' इत्यभिधाय च्छन्दोऽनुज्ञापनायाद्वितीयं पुनः हामि" इत्यादि सूत्रमभिधाय छन्दोऽनुज्ञापनायैवाऽवनतमिति । श्राव०३ अ० । बृ० प्र० ।
"
दमिदेशी ०२४५ गाथा
पूरणः
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०
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इंदुजगवुन्दुजक पुं० [अष्टादशे महा दो दुनुभगा ।"
( २५४८ )
अभिधानराजेन्द्र
स्था०२ वा०३ उ० । चं०प्र० । कल्प० । जं० । सू० प्र० ।
बुंदुभिदुन्दुनिपुं०
चू० । श्र० रा० । कल्प० । जं० । महत्प्रमाणे मुरजे, नि० चू० १ उ० । भेकारे संकटमुखे देवाऽऽतोद्यविशेषे, रा० ज० । प्रश्न० | जी० । ज्ञा० ।
कमकम्म- दुष्कृतकर्म्म १० दुष्टं
-
२०१०३३४००
दुमिणी - देशी रूपवत्याम् दे० ना० ५ वर्ग ५ गाथा । दुहि दुन्दुभि-पुं० । ' इंदुनि ' शब्दार्थे, रा० । डुंबती - देशी-सरिति, दे० ना०५ वर्ग ४८ गाथा । दुक्कम - दुष्कृत - न० | दुष्टं कृतं दुष्कृतम्। पापे, सूत्र० १० ५ अ० ३० । श्रचा० आ० म० । स० । असदनुष्ठाने, असातावेदनीयोदयरूपे पापकले ०१० ५० १३० पापकरणे, सूत्र० १ ० ४ अ० १३० । श्रा०म० । अकर्तव्ये, आ. ०४ अ० । पापचिपाके, सूत्र० २ ० १ श्र० । दुःखे च । सूत्र० १ श्रु० ५ अ० २ उ० । “मिच्छार मणदुक्कमार वयदुक्क डाए काय फुक्कडाए ।" श्र० ३ भ० ।" दुक्कमं ति वा, सावजमरहितं ति वा, पावकम्ममा सेवितं ति वा वितद्दमानं ति बा एगठा । आ० ० १ अ०
33
ने, दुष्कृतेन कम्ने
नारादिकं
तद् दुष्कृतकर्म । सूत्र० १ श्रु०५ अ० २ उ० । बुक्कडकम्पकारि(श्)-दुष्कृतकर्मकारिण्- पुं० । दुष्कृतं कर्म कर्तुं दुष्कृतकर्मकारिणः पापानुकरणशीखेषु
सूत्र० १० ५ श्र० २ ० ।
दुक्कडकारि (ए) दुष्कृतकारिपुं पापविधायिनि
१ श्रु० अ० ।
कडगरा-ष्कृतगखं दुष्कृतेष्विह परमतेषु महीं। अकबुद्धिसारापत्साहिकाम् ०१० दुष्कृतेनाविराव
दुकान (दुष्कृतनापिन् पुं
नेन तथ्यले अनुना करोतीत्येवंशीला दुष्कृतापी अतिबाराऽऽसेवनानुतापकरणशीले, पञ्चा० १५ विघ० ।
दुक्करकरण- दुष्करकरण - न० । दुकरकारितायाम्, व्य० १० उ० । मि० चू० । “दुक्करकरणं च कई ?, उच्यते-ण दुक्करं जं प मिसेचियं तं जीवस्ल संफुद्रागुकूल दुक्कर, तओ जं चिरानिवित्तिकरणं तं दुक्करकरणं ति । " नि० ० २० उ० ॥ दुकाल - दुष्काल पुं० । धान्यमहाऽऽदिना दुष्टे समय, जं०
-
१ वक० ।
दुक्कुक्कणि आ-देशी- पतदूग्रहे, दे० ना० वर्ग ४० गाथा | देवमनुक्कुप्यत्तिजन्यमस्ति स्त्री०
शबर 55 दिसंबन्धिषु 45
सदाचारास प्रा. णि प्रादुर्भावस्तस्य प्रशस्ति प्रज्ञा असदाचाराणां प्रादुर्भावप्रज्ञापनायाम् ध० । तत्र बोत्पन्नानां किमित्या ह - "डुःखपरम्परानिवेदनमिति ।" दुःखानां शारीरमानमाशर्मल कुणानां या परम्परा प्रवाहस्तम्या निवेदनं प्ररूपणम् । यथा श्रमदाचार पारवश्याज्जीवा पुष्कुलेषूत्पद्यन्ते तत्र चासुन्दरपरसगन्धस्पातेषां दुःखनिराकरण धनस्य धर्मस्य स्वप्नेऽप्यनुपलम्भाद् हिंसाऽनृत स्तेया शुरू क प्रवणानां नरकादिफलः पापकर्मोपचय एव संपद्यते, तदमिभृतानामिह परायानुबन्धादुःखपरम्पराप्र सूयते यदुच्यते" कर्मभिरेव स जीयो, विवश संसारचक्रमुपयाति यः॥१॥" ध १ अधि० ।
फुक्कुड - देशी- असहने, दे० ना० ५ वर्ग ४४ गाया ! दुख-दुःख
१३३॥ इति पुंसि वा प्रयोगः ।' दुक्खा दुखाई ।' प्रा० १ पाद । " कगटमतदपशक : पामूर्द्ध लुक ॥ । २ । ७७॥ पषां संयुक्तर्वणसंबन्धिनामूर्ध्व स्थितानां लुग् भवति | दुःखम् | प्रा०२ पाद: करोति दुःपतिः । पापकर्मणि, उत्त० ६ श्र० । सूत्र० । प्रश्न० | उपा०| मद्दा० । आचा० ॥ श्र० । पुष्करे, बृ० ६ उ० । क्लेशे, म• ६ सम० । संसारे, उत्त० ३२ श्र० । रोगे, उत्त० २ श्र० । सूत्र० । अमनोशसम्त्पादे, सूत्र० १ ० १ अ० ३ उ० | दुष्कृतकर्मफले, दश० १ अ० । असातावेदनीयोदये, आचा० २ श्रु० ४ ० १ ० | प्रतिकूलवाऽयभावमाने राज द्वा० २.१ उदयेन असातावेदनीयोदयं प्राप्ते ( सूत्र० १ श्रु० २ श्र० ३ च०) कष्टे, श्रा० म० १ २०२ खएम । श्राचा० । श्रज्ञाने, मोहनाये, श्राचा० १ ० ५ ० ५ उ० । श्रसुखरूपे भ० ४
दुकमि (ए) दुष्कृतिन्- त्रिविले नारकेषु, सूत्र० १० ५ ० १ ० । महापापेषु, सूत्र• १० ५ श्र० २ उ० ।
दुकामय दुष्कृतिक- त्रि० । दुष्कृतमसदनुष्ठानं पापं वा तत्फ सेवा सामावेदनीयरूपं तद्वियते निष्कृतिः । असद मुष्ठायिनि सूत्र० १० ५ ० १ ० । डुकम्प दुष्कप-पुं० [पाश्वरथादीनां प्रवचन
कल्पे, पं० भा० ।
दंसणनाथ चरिते तत्रवि चिकाल पात्यो । धनं पप-पणम्य तं जाए दुरुपं ॥ दुष्पविहारीणं, एगंताऽऽसातगाऍ बंधो य । पदोदो होतु संसारो || पं०जा०|
या
दुक्ख
याणि दुक्कयो । तत्थ सो दंसणाईहि पामत्थो अत्थर, निश्च निंदिओ गरहिओ य पवयणम्मि, जेण ताई वाणापिडि सेवा (हापाि
5क्कय दुष्कृत त्रि० । पापे, बो० १३ वि० । पापकर्मणि, प्रश्न० १ अाश्र० द्वार ।
दुक्कर- दुष्कर-त्रि कृ खल् | दुष्करमेव पुष्करम् कष्टसाध्ये, पञ्चा० १३ विव । कर्तुमशक्ये, आव० ५ अ० । नि० चू० । ज्यो० । “अव्यो ! ढुकरकारअ ।” प्रा० २ पाइ। “पस्विपर मणोरहई, एक्कम द करे । " प्रा० ४ पाद । दुःखेन की। कृखलू । आकाशे, वाच्च । माघे, रात्रौ चतुर्थीयस्नाने, दे० ना०५ वर्ग ४ गाथा ।
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दुक्ख
(२५४५) दुक्ख
अनिधानराजेन्द्रः। श० ६ ० । तापानुभवरूपे, दश० १० असंवेद्य, सूत्र संखित्तमिमं भणिय, सम्वेसि जगजंतुणं ।। १७०२ ० ३ उ० । विविधबाधनायोगरूपे, सत्र० १०
दुक्खं माणसजाईणं, गोयम ! जंतं निबोधत । १२ अ. । असातोदयाऽऽदिरूपे कर्मफने, सूत्र० १ ध्रु० १ अ० १ न. । अष्टप्रकारके कर्मणि, सत्र० १ श्रु० ए
जमणुसमयमणुलवंताण, सयहा नव्वेश्याण वि ।। अ० । असातोदये, अट० २१ अष्ट० । आचा० । सूत्रः ।
निधिलाएं पिदुक्खेहि, वेरगं न तहा वि नवे । असातोदयकारणे, आचा०१ श्रु० ३ ०४०।३० । सूत्र० । दुविहं समासो मुणसु, सुक्खं सारीर माणसं घोरं ।। उत्त० । असातवेदनीयविपाकजनिते, प्राचा०१ श्रु०५ अ०२ उ०।
एए चंममहारोई, तिविहं एक्कक्कयं भवे । परीषहोपसर्गजनितपीडायां च । सूत्र० १ श्रु० ७ ० । "पु:खं स्नीकुक्षिमध्ये प्रथममिह भवेद् गर्भवासे नराणां,
घोरं जाणमुहुत्त, घोरपयंडं महारोई ॥ बालत्वे चाऽपि दुःखं मललुलिततनुस्त्रीपयःपानामश्रम । आणुममयमविस्सायं, मुण.......... तारुण्ये चाऽपि दुःखं भवति बिरहजं वृष्भावोऽप्यसारः, घोरं मणुस्सजाईणं, घोरपयंडे मुणे तिरिच्चासु ॥ संसारे रे मनुष्याः! वदत यदि सुखं स्वल्पमप्यस्ति किश्चित्॥" घोरपयंममहारोदं, नारयजीवाण गोयमा । ध०र०1
माणुस्सं तिविहं जाणे, जहन्न मज्मुत्तमं दुई । तथाहिजाणंति अणुहति य, अणुजम्म जरामरणसंभवे दुक्खे ।
नत्थि जहन्नं तिरिच्छाणं, दुहमुक्कोस तु नारयं । न य विमयेसु विरजति,गोयमा! दुग्गइगमणपत्थए जीवे ।।
जं तं जहएणगं दुक्खं, माणुस्सं तं दुहा मुणे । महा० ६ अ०।
मुहुमवायरभेएणं, निबित्नागे इतरे थे। दुक्खमेवमवीमामं, सव्वेसि जगजंतुणं ।
समुच्चि मेसु मणएम, सुहमं देवेसु वायरं ।। एग समयं तमभावे, सम्म अहियासियं ।। महा०अ०।
चवएकाले महट्टी, आजम्मं आजिोगिया । सर्व परवशं दुःखं, सर्वमात्मवशं सुखम् ।
सारीरं नत्थि देवाणं, दुक्खं णं माणुसेण य । एतदुक्तं समासेन, लक्षणं सुखदुःखयोः ॥ १५ ॥
अइबलियं मन्किम हिययं, सयखं जहन्न वी फुमे । सर्व परवशं पराधीनं दुःखं, तखकणयागात् । सर्वमात्मवशम
णिविजागे य जे जणिए, दोन्नि मज्जुत्तमे दुहे। पराधीनं सुखम, अत एव हेतोः, एतदुक्तं मुनिना संक्षेपेण माणुयाणं ते समक्खाए, गब्भवतियाण न। समासेन, लवणं स्वरूपं सुखदुःस्त्रयोः। श्थं च ध्यानजमेव असंखया उ मणुयाणं, दुक्खं जाणे विमजिकम ।। तरवतः सुखं, न तु पुण्योदयनवमपीत्यावेदितं भवति । तदा. ह-"पुण्यापेक्षमपि ह्येवं, सुखं परवशं स्थितम् । ततश्च :
संखेयावसाणं तु, दुक्खं चेव उक्कोसगं । खमेवैतद, ध्यान तात्त्विकं सुखम् ॥१॥" द्वा० २४ द्वा०।
असोक्खं वेयणा, वाही पीमा दुक्खमणिन्वुई । सूईहिं अग्गिवनाहिं, संजिन्नस्स निरंतरं ।
अ (ण) रागमरई केसं, एवमादी एगट्ठिया बहू । जावइयं गोयमा! दुक्खं, गब्भे अवगुणं तो॥
सारीरेयरजेदम्मि, जं नणियं तं पचक्रवइ ॥ गब्भाओ निप्पदंतस्स, जोणिजंतुनिपीक्षणे ।
सारीरं गोयमा! उक्खं, सुपरिफुडं तमवधारय । कोमीगुणं तयं दुक्खं, कोमाकोमीगुणं पि वा ॥
बालग्गकोमिलक्खमयं, जागमित्तं विवे धुवे॥ जायमाणाण जं दुक्खं, मरमाणाण जंतुणो।
अस्थिर अएणगणपदे-ससरं कुंथुमणुहबित्ति खणं । तेण दुक्खविवागे,जाइन सरंति अप्पणो । महा०५०।
तण विकरकत्ति सल्ले, हिययमक.सए तणू ॥ एगे सुक्खे जीवाणं।
सीयंती अंगपंगाई, गुरुप्रो वेइ सय ... । (पगे दुक्खे) एकमेवान्तिमनवग्रहण सम्नवं दुःखं यस्य स सव्वसरीरस्सऽनंतर, कंपे थरथरस्स य॥ एकदुःखः । “गे अक्खे ति" पाठान्तरे त्वेकधैवाऽऽख्या संशु- कुंथुफरसियमेत्तस्स, जं सलसले तण। काऽऽदिळपदेशो यस्य न त्वसंशुका,संयुद्धासंयुद्ध इत्यादिकोऽपि व्यपदेशान्तनिमित्तस्य करायाऽऽदेरभावादिति संभवस्ये
तमेव संजिन्नसन्मंगे, फनए मऊतमाणसे ॥ कधाऽस्यः। एकधा अको वा जीवो यस्य स तथेति जीवानां
चिंतंतो हा किं किमय, बाहे गुरुमीमाकरं । प्राणिनामेकनूत पकवाऽऽत्मोपम इत्यर्थः । एकान्सहितवृति। दीहुएहमुकनीसासे, दुक्खं दुक्खेछ नित्थरे ।। स्वाता एकत्वं चास्य बहुनामपि समस्वभावत्वादिति । अथवा- किमेयं किंचिरं वाऽयं, कियचिरेण वा पहिही। पत्यादिसूत्रान्तरमुक्तरूपसंशुम्कादम्वेषां स्वरूपप्रतिपादनापरं,
कहं वाऽहं विमुच्चिस्स, इमामो दुस्वसंकमा ।। तत्र प्राकृतत्वासू प्रत्येकमेकं दखं प्रत्येकैकदुःखं जीवाना स्वकृतकर्मफलभोगित्वात् । किन्ततं तदित्याह-एकजूतमनन्यता
गच्छ चिट्ठ मुबं उडे, धावणेसं पलामि। मा व्यवलितं प्राणिषु,न सामानामिव बाह्यमिति । ०१ ग.)
कंग किं च पुरे कार्ड, किंवा पच्चं करोमि ॥ जीवानां दुःखावर्णकः
एवं तिबग्गवाचार, निचोरं दुक्रवसंकम। कासं गति सुक्खोहिं, मपया पुहिँ उकिया।
पविडो बाट संखेना, प्रावनियाउ फिनिस्सयं ।। ६३०
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दुक्ख
(२५५०) प्राभिधानराजन्धः ।
दुक्ख पुरणाहिं के मुपामेस, कंमू मे अन्नहा णो उवस्समे। गम्भात्रा नीहरंतस्स, जोणिजंतुनिपीलणे। ता एयस्मुबसाएणं, गोयम ! णिसुणेमु जं करे।।
सबसाहाम्सनं सुक्खं, कोडाकोमीगुणं पिघा॥२॥
चारगनिरोहवहवं-धरोगधणहरणमरणवसणाई । अहंत कुंथु वावाए, जद यो अन्नत्थ गयं भवे ।
मणसताबो अजसो, विग्गोवणया व माणुस्से ॥ ३॥ कंमयमाणोहि निनादी, अणुपसमं णो किलम्पए । चितासंतावेहि अ, दारिहरुमाहि ऽप्यनत्ताहिं। जड़ वावाएज तं कुंथु, कंमुयमाणो व श्यरहा।
सद्धण वि माणुस्सं, मरंति केई सुनिम्विमा ॥४॥ तो तं अइरोदकाणम्मि, पविहं णिच्चयो मुणे॥
ईसाविमायमयको-हमायुलोहीहूँ एत्रमाइदि।
देवादिसमभिभूत्रा, तेसिं कत्तोसुहं नाम? ॥५॥"ध०२ अधिका श्रह किलामे तो भयणा, रोइज्माणेयरस्स ल ।
दुःखत्रयाभिहतस्य पुरुषस्य तदपंप तहेतुन्वाद जिज्ञासोकंमूगमाणस्स उण, देहं सुधमट्टज्माणं मुणे ॥
त्पद्यते । आध्यात्मिकमाधिदैविकमाधिभौतिक चेति दुःखत्र. समजे रोकापट्ठो, नकोसं नारगाउयं ।
यम् । तत्राभ्यात्मिक द्विविधम-शारीरं, मानसं च । शा. दुब्जगिश्योपंगतेरिच्छं, अट्टजाणं समन्जिणे॥
रीरं वातपित्तश्लेष्मणां वैषम्यनिमित्तम् । मानसं कामक्रोकुंयुपदफरिसजणिया-प्रो सुक्खाओ नवसमित्थया।
धलोजमोहे विषयादर्शननिबन्धनम् । सर्व चैतदान्तरोपाय
साध्यस्वादाध्यामिक दुःखम् । बाह्योपायसाध्यं पु:खं द्वेषाएत्थ इल्जफन्त्रीजूते, जमवत्थंतरं वए ।
श्राधिभौतिकमाधिदैविकं चेति । तत्राधिभौतिक-मानुषपशुविवएणमुहसावले, अइदीणविमण दुम्मणे ।
पतिमृगसरीसृपस्थावरनिमित्तम । प्राधिदैविकं यकरावससुन्ने वएणे य मूढदिसे, मंददरदी हनिस्ससे ।।
ग्रहाऽद्यावेशहेतुकम । अनेन दुःखत्रयेण रजःपरिणामभेदेन बु. अविस्सामं दुक्खहेनयं. असुहं तेरिच्छनारयं ।
किवातना चेतनाशक्तः प्रतिकूलतया अभिसंबन्धोऽभिघातः।
(१५) स्या। कम्मं निबंधइत्ता गं, नमिही जवपरंपरं ।। एवं खउवममाओ तं, कुंथुवइरजं दुहं।
दुक्खी नंते ! दुक्खेणं फुमे । गोयमा ! दुक्खी दुक्खेणं कह कह बहुकिन्से णं, जड़ खणमेकं पि नवसमे ।।
फुडे, नो अदुवखी दुक्खेणं फुमे । दुक्ख। नंते ! नेरइए ता मह किन्नेममुत्तित्तुं, सुहियं से प्राणयं ।
दुक्खेणं फुडे, अदुक्खी नेरइए दुक्खेण फुझे ?। गोयमा ! मन्नतो पमुइओ हिट्ठो, सत्यतिनो वि चिट्ठः ।। दुक्ख । नेरइए दुक्खेणं फुमे, नो अदुवी नेरइए दुचिंता किल निव्वुरो मि अहं, निदसियं दुक्खं पिमे।।
क्खणं फुके, एवं दंमो० जाव बमाणियाएं, एवं पंच दंकंडुयणा-दिहिं सयमेव, न मुणे एवं जहा मए ।
मंगा नेयवा-दुक्खी दुक्खेणं फुमे, दुक्खी दुक्खं परिरोदज्काणगएण इह, अट्टकाणे तहेव य ।
याइयइ, दुक्खी दुक्खं उदीरे,दुक्खी दुक्खं वेएइ, दुक्खी संबग्गइत्ता न तं , पागताणंतगुणं कम ।।
दुक्खं निज्जरेइ । जं वाऽणुसमयमाणवरयं, जहा राई तहा दिणं । (मुक्ती नंते ! दुक्नेणं फुझे ति) दुःस्वनिमित्तत्वाद् दुःख दुहमेवाणुभवमाणस्स, वीसामो नो वेज्ज मे॥ कर्म, तद्वान् जीवो पुःखी भदन्त ! दुःस्नेन दुःखहेतुत्वात् खशं पि नरयतिरिएसु, सागोवमसंखया।
कर्मणा स्पृष्ठो बकः, (नो अदुवस्वी इत्यादि ) नो नैषा दुःखी
अकर्मा दुःखेन स्पृष्टः,सिद्धस्यापि तत्प्रमादिति । ( एवं पंच रसरसविक्षन्जए हिययं, जंवा इत्यं ततो वि॥
दंगा णेयबत्ति) एवमित्यनन्तरोक्ताभिशापेन पश्च दरमका अहवा किं कुंपुजणिया, नमुक्को सो दुक्खसंकडा। नेतन्याः,तत्र दु:खी पुःखेन स्पृष्ट इत्यक नक एव (दुक्खी दुक्खं खीणऽढकम्ममरिमा मो, भवेज्ज जमेत्तेण वो।। परियाइय ति) द्वितीया,तत्र पुःखी कर्मवान् फुःखं कर्मपर्याकुंयुमुवलक्खणं शहा, सव्वं पच्चक्खदुक्ख ।
यं ददाति.सामम्त्यनोपादत्ते, निधत्तादि करोतीत्यर्थः । (उ
दीरेश चि) तृतीयः। (बेएहत्ति) चतुर्थः। (निजरेहति) अणुनवमाणो वि जं पाणी, ण य संती तेणुक्खइ ।
पञ्चमः । नदीरणवेदननिर्जरणानि तु व्याख्यातानि प्रागिति । अन्ने वि गुरुयरे दुक्खे,सम्बेसि संसारिणं । महा०३ मा ज०७ श०१ उ०।
नारकतिरश्चां दुःस्वबाहुल्यं प्रतीतमेव"अचिनिमीलणमित्तं, नस्थि सुहं दक्वमेव अणुबकं ।
(जीयन कृतं दुःस्वमिति 'किंजय' शब्दे तृतीयभागे ५२६ नरप नेराणं, अहोनिसं पच्चमाणाणं ॥१॥
पृष्ठे प्रतिपादितम्) जं नरप नेरआ, दुक्खं पार्वति गोयमा ! तिक्त्रं ।
जीवा भंते ! किं अत्तकमे दुक्खे, परकमे दुक्खे, तदु. तं पुण निगोअमज्के, अणतगुणिभं मुणेयब्वं ॥२॥"
भयकमे दुक्खे ?। गोयमा ! अत्तकमे दुक्खे, पो परकमे मानुष्यके गजन्मजरामरणीवीवधाधिव्याधिदौस्याऽऽापद्रवैखितेव,देवत्वेऽपि च्यवनदास्यपगभवेयाऽऽदिभिः। ऊचेच
दुक्खे,णो तदुभयकडे दुक्खे । एवंजाव वेमाणियाणं । नन " सूइंहिं अग्गिवमाहि, संनिस्स निरंतरं ।
१७ श०३ उ०। जारिसं गोत्रमा सुक्खं, गम्भे अट्टगुणं तभो॥१॥
जघने, दे० ना.५ वर्ग ४२ गाथा । .
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(२५५१) दुक्खक्खध अनिधानराजेन्द्रः।
दुक्खि (ण) दुक्खक्खध-दुःखस्कन्ध-पुं० । असातोदयपरम्परायाम, सूत्र० | दुक्खरिय-दुष्करिक-पुं० । दासे, नि० चू०१६ २० । र ६०१ अ० उ०।
दुक्खरिया-मुष्करिका-स्त्री० । दास्याम्. महाश्राद्धयाम, नि. दुक्खक्खम-दुःखक्षम-त्रि०। पुःस्त्रसहे, दुःखमसातवेदनीयो- चू० १६ उ० । वेश्यायां च । नि० चू०१ उ० । दयस्तदुदीर्ण सम्यक् मते सहते न वैक्तव्यमुपयाति नापिन-दुक्खविमोक्ख-दुःखविमोक्ष-पुं० । घातिकर्मभवोपनाहिकमदउपशमार्थ वैद्यौषधाऽऽदि मृग्यते । आचा०२ श्रु०४ चू०१ अ० विमोके, पं० १०४ द्वार। झुकावक्खय-दुःखवय-पुं०। शारीरमानसानेकक्लेशविलये,
पादुक्ख विमोक्खय-दुःखविमोक्षक-पुं० । दुःखविमोचके, सूत्र. १ दुक्खक्खव-दुःखक्षय-पुं० । दुःखमसुखं तत्कारणत्वाद्वा कर्म| ध्रु० १ ० २ ०० ।
तत् कपयतीति दुःख कयः। प्रमुख कये, स्था.४०१०। दुक्खविमोयग-दुःखविमोचक-पुं० । अष्टप्रकारकाऊपनेतरि, दुक्खग्महण-दुःखग्रहण-न । दुःखसकटे, पं०व०१द्वार। | सूत्र० १ श्रु० ए०। दुक्खंत-दुःखान्त-त्रि० । दुःखानामन्तो खान्तः । दुःखा- |
दुक्खसंजव-दुःखसंभव-पुं०। दुःखस्य संभवो येषु ते दुःखसवसाने, बो० १६ विव।।
म्नवाः । दुःखन्नाजनेषु, दुःखं करोति ततो दुःखयतीति वा दुःखं दुक्खंतकर दुःखान्तकर-त्रि० । असुखस्य तद्धेतुनूतस्य भवस्य
पापकर्म, ततः संनय उत्पत्तिर्येषां ते दुःखसम्भवाः । पापकर्मकर्मणो वा विनाशकारिणि, पश्चा० १४ विव० ।
जेषु, उत्त० ६ ०। दुक्खत्त-दु:खाऽऽर्त-त्रि० । दुःखपीडिते, प्रव०६हार। ।
दुक्खसंभार-दुःखसम्भार-पुं० । दुःखधाहुल्ये, प्रश्न. ३ मा.
ध०द्वार। दुक्खत्तगवेसण-दुःखाऽऽनगवेषण-101 पुःखाऽऽतस्य दुःखपीमितस्य गवेषणमौषधाऽऽदिना प्रतिजागरणं दुःस्वाऽऽर्सगवेषः ।
दुक्खसमुदीरण-दुःखसमुदीरण-त्रि० । असुखप्रवर्तके, प्रश्न णम् । प्रब ६ द्वार । दुःखितस्य प्रतीकारकरणे, पश्चा०
३ श्राश्र० द्वार। १६ विव०।
दुक्खसह-दुःखसह-त्रि०। परीषहोपसर्गकृतं दुःखं सहते इति दुक्खपडिकूल-दुःखप्रतिकून-त्रि० । पुःखद्वेषिणि, प्राचा० १॥ दुःखसहः। प्राचा० १६०० अ०४००परीषहजेतरि, दश्रु० २ ० ३ उ०।
श०७० दुक्खपरंपरा-दुःखपरम्परा-स्त्री० । दुःखजन्ममरणेषु वियोगा- सुक्खावणता-दुःखापनता-स्त्री० ताशब्दोऽत्र प्राकृतः। मरणअदिरूपासु संकष्टश्रेणिषु, भातु।
सक्कणदुःखप्रापणायाम, इष्टवियोगाऽऽदिदुःखहेतुप्रापणायां च । दुक्ख परंपराणिवेयण-दुःखपरम्परा निवेदन-नाखानां शा.
न०३ श०३०। रीरमानसाशमलकणानां प्रवाहह्मरूपणे, श्रातु० ।
दुक्खाविजंत-दुःखाप्यमान-त्रि० । दुःखमनुन्नाव्यमाने, प्रा० दुक्खपालिया-दुःखपालिता-स्त्री० । दुःखेन पालयितुं शक्यायां
म.१ .खपम् । बालावस्थायाम, तं०।
दुक्खासिया-दुःखासिका-स्त्री० । उपसर्गाऽऽदिसम्पायवेदना. दुक्खफास-दुःखस्पर्श-पुं० । दुःखं स्पृरातीति दुःखस्पर्शः । - याम, स्था० ३ ०४०। आचा। • सातोदयविपाकिनि, सूत्र० १ श्रु०८ ० ।
दुक्खाहह-दुःखाऽऽहुत-त्रि० । दुःखेनाऽऽहियते इति दुःस्वा.
हृतम् । दुःखोत्पाद्ये, उत्त० ७ अ०। सुक्खजय-दुःखभय-त्रि० । दुःखान्मरणाऽऽदिरूपाद्यमेषा. मिति दुःखभयाः । मरणाऽऽदिभीतेषु, स्था०३ ठा०२०।
दुक्खि (ण)-दु:खिन्-त्रि० । दुःखमसातवेदनीयमुदयेन यत् दुक्खमज्जिय-अर्जितदान-पुं० । अर्जितमुपार्जितं दुःख यैस्ते
प्राप्तं तत्कारणं वा दुःखयतीति दुःखं, तदस्यास्तीति दुःखी। अर्जितदुःखाः । मकारोऽनाक्षणिकः, प्राकृतत्वात्परनिपातः।स.
दुःखविशिष्टे, सूत्र० १ श्रु० २ १०३ न० । प्राचा। श्चित दुःखे, नत्त० ६ अ०।
दुक्खी मोहे पुणो पुणो, निविदेज मिलाघ पूयणं । दुक्खमत्ता-दुःखमात्रा-स्त्री.। दुःखसेशे, प्राचा०१० ३ एवं सहितेऽहिपासए, आयतुलं पालेहि संजए ॥१॥ अ०४ उ०।
दुःखमसातवेदनीयोदयेन यत्प्राप्त, तत्कारणं वा, दुःखयतीति दुक्खमा-दुःषमा-स्त्री। अधमकालाख्यायाम, दश० १ चू। दुःखं, तदस्यास्तीति दुःखी सन् प्राणी पौन:पुन्येन मोह यामुक्खमोक्ख-दुःखमोक्ष-त्रि० । दुःस्त्रानामसातोदयजनितानां ति सदसद्विवकविकलो भवति । श्दमुक्तं भवति-असातादविनाशे, सूत्र० १ श्रु० १३ अ०।
याद दुरस्त्र मनुजवनातों मूढस्तत्करोति येन पुनः पुनः सुखी
संसारसागरमनन्तमस्येति तदेवन्तं मोई परित्यज्य सम्यगुदुक्खर-दुष्कर-त्रि । दुःखेन क्रियते इति दुष्करः । दुरनुष्ठाने
स्थाननोत्थाय निर्वद्येत जुगुप्सेत परिहरेदात्मश्लाघां स्तुतिरूउत्त० ३ अ०।
पाम,तथा पूजनं बस्त्राऽऽदिवाभरूपं परिहरेत् । एनमनन्तरोक्त. दुक्खरक्खिया-दुःखरक्षिता-स्त्री० । कष्टेन रकणयोग्यायाम्, रीत्या परिवर्तमानः सह हितेन वर्तत इति सहितो ज्ञाना"दुस्वरक्खियाओ।" तं । दुःखरकिताः कष्टेन रक्कणयोग्या |
दियुक्तो वा संयतः प्रवजितोऽपरप्राणिनिः सुखायिनिरात्मयौवनावस्थायां (ब्रिया)।
तुलामात्मतुल्यतां दुःखामियत्वसुखपियस्वरूपामधिकं पश्येत.
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(२५५२) दुक्खि (ण)
भाभिधानराजेन्ः । श्रात्मनुल्यान् सर्वानपि प्राणिनः पालयेदिति ॥ १२ ॥ सूत्र. १ कालद्विकं च भवति बोकव्य,तथा भावे च भावविषयं च द्विक. ध्रु० २ ० ३ 30।
म.एवं द्विके द्विशब्दस्य पटो भवति निक्केपः । तत्र नामद्विकं वे क्खिय-दुःखित-त्रि.। "पुःखदक्किणतीय वा" ॥८।२। ७२॥
नामनी अथवा यस्य द्विकमिति नाम नामद्धिक, स्थापनद्विकं इति संयुक्तस्य वा हः । 'दुई। दुवस्वं ।' प्रा०२ पाद। "
निरो
द्वे स्थापने, दिकस्य स्थापना वा द्विकम् । वो" ॥८।१।१३ ॥ इति पुरोऽन्त्यव्य जनस्य वा शुक । “दु
संप्रति व्यक्केत्रकाअद्विकप्रतिपादनार्थमाहकिखनो। पुहिश्रो" प्रा० १ पाद। पुःखमसाताऽऽत्मकं जातमे. चित्तमचित्तं एके-कयस्स जे जत्तिया दुगे भेया। वामिनि पु:खिताः। जातदुःखेषु,उत्त० ३ अ.।"परदुक्खेण दु. खेत्ते दुपएसाऽऽदी, दुसमयमादी उ कामम्मि ॥ ५ ॥ क्खिा बिरक्षा।"प्रा० २ पाद । रोगाऽऽदिमिासक्तव्या- व्यतिक द्विविधम् प्रागमतो,नो आगमतश्चातत्राऽऽगमतो विकते,तं०।
शब्दार्थज्ञाता,तत्र चानुपयुक्तः। नो पागमतस्तु त्रिविधम् शरीदुक्खुच्छेया (ण )-दुःखोच्छेदार्थिन-पुं० । संसारकलेशजि- रभव्यशरीरतव्यतिरिक्तभेदात् । तत्र शरीरजव्यशरीरे प्राग्व. हासुनु, द्वा० २२ द्वा० ।
त्। तद्व्यतिरिक्त सचित्तमचित्तं च । एकैकस्य ये यावन्तो द्विकतुकावुमेय-दुःखोन्नेय-वि० । कृच्छ्रबोध्ये, जीवा० ३३ अधि०।। नेदाः संभवन्ति ते सर्वे वक्तव्याः । ते चेमे-सचित्तं व्यं द्विक
द्विधा-संसारस्थ,निवृत्तं च । संसारस्थं द्विधा-एकेन्द्रियम्,अ. मुक्खुत्त-द्विःकृत्वस्-अव्य०। द्वौ वारावित्यथे, स्था० ५ ठा०
नेकेन्ऽियं च । तत्रैकेन्द्रियं पञ्चप्रकारम्-पृथिव्यप्तेजोवायुवन. २००।
स्पतिभेदात् । एकैकमपि द्विधा-पयांप्तम्, अपर्याप्त च । अने. सुक्खव्वेय-दुःखोग-पुं० । दुःखाउद्वेगो यस्य स दुःखोद्वेगः।।
केन्द्रियं द्विधा-विकन्डियं, पञ्चेन्द्रियं च । विकलेन्द्रियं त्रि. दुःखोद्विग्ने, " दुक्खुश्वेयसुहेसप।" सुखस्यैषकः सुखैपकः धा-द्वित्रिचतुरिन्द्रियभेदात(?) पुनः प्रत्येक द्विधा-पर्याप्तम,अप. सुःखोद्वेगनासो सुखैष कश्च दुःखोद्वेगसुखैषकः । प्राचा० १ प्तिम । पञ्चेन्द्रियं विधा-संख्यातवर्षाऽऽयुष्कम,असंख्यातवर्षाअ० २ ०३ उ०।
ऽऽयुष्कं च । एकैकं द्विधा-पर्याप्तम,अपर्याप्तं च । निवृत्तमपि द्विमुखर-द्विखुर-पुं०। द्वौ खुरौ प्रतिपदं येषां ते हिखुराः। प्रशा०१
धा-अनन्तरसिद्धम,परम्परसिकं च । अथवा-सचित्तं त्रिविधम । पद । गोमहिपाऽऽदिषु,मृत्र०२ श्रु० ३ ०। उत्त० स्था० । जी०।
तद्यथा-द्विपदं,चतुष्पदम् अपदंच। तत्र द्विपदं द्वौ पुरुषावित्यादि।
चतुष्पदं द्वौ बलीव वित्यादि। अचित्तं द्वौ परिमाणू द्वौ द्विप्रदेसुग-ट्रिक-न । द्वैक्रियनिलये, उत्तरपदलोपादेकसमये के क्रिये
शिकौ,हौ त्रिपदेशकौ,यावद् द्वौ सख्यातप्रदेशिको, द्वावनन्त. समुदिते द्विक्रिय, तदधीयते तद्वादिनो वा क्रियाः । कालने. प्रदेशिको । संख्यातस्य सङ्ख्याता नेदाः । असंख्यातस्य - देन क्रियानुजयप्ररूपिण इत्यर्थः। प्रा0 म०१०३ खण्ड ।
संण्यानाः। अनन्तस्य अनन्ताः। उक्तं व्यष्किम् । पाह- (खे से उत० । स्था० । द्वौ साधम्मको संविग्नसांभोगिकादिरू- दुपदेसादी) के क्षेत्रविषयं द्विप्रदेशाऽऽदि द्वाबाकाशप्रदेशावापावेकन एकस्मिन् स्थाने समुदितौ विहरतः,तत्रैकोऽन्यतरतू अ. दिशब्दाद् द्विपदेशावगाढं वा व्यं केत्रविक, नेत्रे द्विके तस्याकृत्यं स्थान प्रतिसेव्य आलोचयेत् । यद्यगीतार्थः प्रतिसेवि
चस्थानात् । यदिवा--तस्य वे भारते, द्वे ऐरावते त्यातवान् ततस्तस्मै शुद्धतपो दातव्यम् । अथ गीतार्थस्तहिं यदि दिपरिग्रहः । उक्त केत्रद्विकम्। कालद्विकमाह-द्विसमयाऽऽदिक, परिदारतपोयोग्यमापन्नस्ततः परिहारतपो दद्यात्, तदनन्तरं द्वौ समयावादिशब्दाद द्वे आवशिके, द्वौ मुहर्नावित्यादिपरिग्र. स्थाप्यते विविक्तं कृत्वा प्ररूप्यते इति स्थापनीयं परिहारत- दः । भथवा-हिसमयस्थिलिकं व्यं कालहिके अवस्थानात पोयोग्यमनुष्ठानं तत् स्थापयित्वा प्ररूप्य य ापत्रः स परि- कालविंकमादिशब्दादू सावलिकास्थितिकाऽऽदिपरिग्रहः । हारतपः प्रतिपद्यते, इतरः कल्पस्थितो भवति, स एव चत. उक्तं काल हिकम। स्थानुपारिहारिकस्ततस्तेन तस्य करणीययावृष्यमित्येष सत्र.
मधुना जावकिमाह-- संकेपार्थः।
(भावे पसत्यमपस-स्थगं च दविधं दुयं च णायब्वं । अधुना नियुक्तिविस्तर:
अविरयपमायमेव य, अपसत्यं होति दुविधं तु ॥६॥) दोमाहम्मिय छध्वा-रसेव लिंगम्मि होइ चननंगो।।
भावे पसत्यमियरं, होइ पसत्यं तु नाणे णोनाणे । चत्तारि विहारम्मिन, दुविडो नावम्मि लेदोन ॥३॥
केवमउमत्य नाणे, नो नाणे दिहि चरणे य ॥६।। हिशब्दस्य, साधम्मकशब्दस्य च यथाक्रमं पद कादश नामाऽऽदयो निक्षेपाः, विशब्दस्य षट,साधमिकशब्दस्य द्वाद
नावद्विकं विधा-प्रागमतो, नोबागमतश्च । तत्रागमतो शको निकेप इत्यर्थः। लिङ्गे लिविषये चतुर्भङ्गो जवति।सत्रेच
द्विकसदार्थकाता, तत्र चोपयुक्तः। " उपयोगो नाचनिकेपः" पुस्त्वनिर्देशः प्राकृतत्वात् । तथा विहारे चत्वारो नामाऽऽदयो
इति वचनात् । नोमागमतो द्विधा । तद्यथा--प्रशस्तम्,श्तरषा निक्षेपाः। तत्र भावे द्विविधो भेदः । एष द्वारगाथासंक्षेपार्थ।।
इतरं नामाप्रशस्तम् । तदम्-रागो, वैषश्च । प्रशस्तं हिधाव्यासाय च प्रतिपदमभिधित्मः प्रथमतो दिशब्दस्य षटुनि
कानं, नोकानं च। तत्रज्ञाने ज्ञानविषयं द्विकमिदमातद्यथा-कै
बक्षिक, छानस्थिकं च ।नो ज्ञाने नोज्ञानविषयं हिकम-रष्टिः, क्षेपमाह
चरणं चारधिः सम्यक्त्वं, चरणं चारित्रम । नाम ठवणा दविए, खेत्ते काले य होइ बोधव्यो।
एतदेव सामेदं प्ररूपयति. नावे य दुगे एसो, निकखेयो चिहो होइ॥४॥
एकेक पि यतिविहं, सहाणे नस्थि स्वइऍ भइयारो। नामधिकं,स्थापनाद्विक,अध्ये अध्यविश्वयं द्विकम, पवं केत्रधिकं उक्सामिएमु दोमु अ, अइयारो होज सेसेमु ॥७॥
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(२५५३) पन्निधानराजेन्द्रः।
दुगुंठियकुल एकैकमपि दर्शनं, चरणं च.प्रत्ये कमित्यर्थः । त्रिविधं त्रिप्रका- | त्येवं प्रत्ययो यत्र तत्तथा । प्रवचन निन्दायाम, स्था० ३ ० रम् । तद्यथा-कामिकम, औपशमिक, कायोपशमिकं च । त- ३१०। त्र कायिकं सम्यक्त्वं क्षायिकसम्यगष्टाचौपशमिकमुप-दगंछाकम्म-जगमाकर्म-न। यदुदयने चविष्ठाऽऽदिवीभत्सप. शमश्रायां, शेषकालं क्षायोपशमिक, चरणमपि कायिक कप दाभ्यो जगपसत नउज गुप्साकर्म । कमभेद, स्था०१० ठा। कनिन्यस्य, पशमिकम्पशमिकश्रेण्याम्, अन्यदा कायोपडा.
दुगुंछामोहणीय-जुगुप्मामोहनीय-न०। यदुनामनिमित्तममिकतत्र कायिके जाने दर्शने चारित्रे च स्वस्थाने नास्त्यतीचारः। तथाहि-केवलिनस्विपि ज्ञानदर्शनचारित्रेषु कायिकेधु व.
निमित्तं वा जीवस्याशुभवस्तुविषया जुगमा नवनि, नजुगुमानस्य न तद्विपमा काचिदपि विराधना । पर स्थानेषु संज
प्सामोहनीयम् । कर्म० १ कर्म० । यददयवशात्पुनर्जन्तोः शुभा. घेदपि, तथा थुतकेवल्यादेः कायिके दर्शने वर्तमानस्य दर्शने ना.
शुभवस्तुविषयं व्यल।कमुपजायते तजुगुप्सामोहनीयम् । क. स्ति विराधना, शानचरणयोस्तु जजनेति । (उबलामिपसु दोसु
ममेद, कर्म. ६ कम। त्ति) योदेशनचरणयोरोपशामके भावे वर्तमानयोः स्वस्थानी दुगंनि-जुगप्सित्वा-व्य० । धिम्मा पापकारिणमित्यादिना चाऽस्त्यतीचार, श्रीपशमिकं हि दर्शनं चारित्रं नियमाद| निन्दा कृत्वेत्यर्थ, ध०२ अधि। पशमशेरायां भवति, तत्र कषायाणामुपशान्तस्वान्नास्ति क-दगंजिय-जगप्सित-त्रि० । गहिते, प्राचा०२.०१). अ. श्चिदतीचारसम्नवः । ज्ञानविराधनात् सम्जवेद प्यनुयोगतो. २००। जगुप्सितावद्यगर्हिताः समानार्थाः ! प्रा० म०१ अ. ऽन्यथा प्ररूपणाचिन्तनाऽऽदिसम्भवात् । उपशमश्रेणीतः पाते। २खएक । तु जयत्यतीचारः, आदयिकभावे वर्तमानत्वात्। शेषेषु पुनः दगंछियन-जाप्सितकुल-न) । छिम्पकादिकुल पु. कायोपशमे स्वस्थाने चातिचारो भवेत, क्षायोपशमिकत्वात् । ।
चर्मकारकुनाऽऽदिषु, प्राचा०२ श्रु० १ ० १ ० २ उ० । एतदेवाऽऽह
सूत्रम्सट्ठाणु परहाणे, खोवसमिएमु तीसु वी जयणा ।
जे जिक्खू दुछियकुझेस असा वा पाणं वा खाइम दंमणनवसमरखए, परगणे होति भयणा उ ॥ ॥ ।
वा सामं वा पमिग्गाहेश, पमिग्गाहंतं वा साजा ॥७६।। क्षायोपशमिके नावे वर्तमानेषु त्रिवपि झानाऽऽदिषु स्थस्थाने परस्थाने चातिचारः,कदाचिद् भवति, कदाचिन भवतीत्यर्थः ।
जे भिक्खू दुगंठियकुलेमु वत्थं वा पडिग्गरं वा कंबलं वा दर्शने, नपलकणमेतत, चरणे च, श्रापशमिके कायिके च स्व- ।
पायपुंछगां वा पमिग्गाहेइ, पडिग्गाहंनं वा साइज ।२७। स्थानेऽतीचारो भवति, परस्थाने तु भजना।
जे भिक्खू दुगुंजियकुक्षेमु वसहि पमिग्गाहेइ, पडिग्गाहंतं अत्र येन द्विकेनाधिकारः तदनिधित्सुराह
वा साइजह ।। २७ ।। जे निक्खू दुगंग्यिकु सु सजायं दव्यदुए दुपएणं, सञ्चित्तणं च पत्य अहियारो। करेड, करतं वा साइजह! जे निक्खू दुगुंछियकु. मीमेणोदइएण य, जावम्मिवि हाति दाहिं पि ।।।।। लेस मकाध्यं उदिस, उदिसंतं पा साइजड ।। ३० ।। अत्र व्यद्विकन चाऽधिकार:-तत्र व्यद्विकेन सचित्तेन ते.
जे भिवू दुगछियकुलमु सज्झायं ममुद्दिमा, ममदिसतं नाऽपि च द्विपदेन साधर्मिमकद्वयस्य चिन्त्यमानत्वात्, भाघे मिथ्रण कायोपशमिकेन औयिकेन चेति द्वाभ्यां भावाच्या
वा साइज ।। ३१ ॥ जे भिक्खू दुगुछियकुलेसु सकार्य मधिकारः। अनयोरेव द्वयोर्भावयोर्वर्तमानस्यातीचारसंभवात् ।।
अ] जायह, अणुजायंतं वा साइज्जइ ।। ३२ ॥ जे जिक्रव व्य. २० । द्वौ ककारी यत्रासौ द्विकः । कृतके, पुं०। दुगंछियकुलेसु सायं वाएइ, वायंतं वा माइजह ॥३३॥ रत्ना० ८ परि।
जे निक्व दुगुंछियकुलेसु सकायं पमिच्छ, पमिच्छतं सुगंध-गुप-धा० । फुत्सने, ज्वा०-आरम-अक० सेट् । वा साइजः ।। ३४ ॥ जे जिव दगुंछियकुमेसु सायं वाच । “जुगुप्से फूण गुच्चपुगुञ्चाः " ||८|४|४॥ इति
परियटेड, परियट्टनं वा साइजः ॥ ३५ ।। जुगुप्से दुगुच्छ दुगुञ्छा वादशी । 'गुन्न । दुगुछ।' प्रा ४ पाद । जुगुप्सते ! अजुगुप्सिट । वाच०।
चबहु तेसिं पतितं । दुगुंछग-जुगुप्सक-पुं० । गहँके, प्राव० ३ अ.। मुनीनां ज़
तेसि मे भेदा, सरूवं च । गाहागुम्सां कर्तुं योग्यायां योषिति, त।
दुविहा गुंछिता खन, इत्तरिया होति आवकहिया य । दुगुंकण-जुगुप्सन-न० । गहणे,प्राचा० १ श्रु. १ अ०७ उ० । एपसिं गायतं, वोच्छामि अहापुबीए ।। ६६१ ।।
गंकमाण-जगुप्समान-त्रि० । गहमाणे, सूत्र०२ श्रु०६ अ०। मूगमातंगकला, इत्तरिया ते य होति निज्जूढा । दुगुंछा-जगुप्सा-स्त्री० । लोकविहितायां निन्दायाम, विशे० । जे तत्थ जुगिता खल, ते होंती आवकहिया य ।।६६२।।
प्रा.च.उत्त। सूत्र० । आचा। यत्पुनरस्नानदस्तधावनम- गिज्जूढा जे वाकया मलंगपमिय त्ति, भावकहिगा. एमलीभोजनादिकमपरं मृतकलेवविष्ठाऽऽदिकं जुगुप्सते
जे जस्थ चिसए जात्वादिसुंगिता, जहा दक्खिणापहे लोहे लोसा जुगुप्सा । साध्वाचारनिन्दारूपे आन्तरग्रन्थे, वृ० १ उ.२ हकारकल्ला. लासु णावरुमचम्मकारादि ते आवकहिया। प्रक० । " अपहाणमाइपहि, साहुं तु दुगुंति दगुंग।" उत्त.
गाहा४१० । जगुप्सा प्रवचनखिसा विकृताङ्गदर्शनेन मा भांदा तेसु असणवत्थादी, बसही अहव वापणादाण ।
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दुर्गाछिय कुल
जे निक्खु गिजा, विसेज कुज्जा व आणादी ६६३२|| असणवत्थादियाण गहणं, जो वसहीए वा विसेज प्रविलति, वायणादि या सज्जायं कुज्जा, तस्स आणादिया दोसा ।
(२५५४ ) अभिधानराजेन्द्रः ।
गाहा
सोपवणहाणी, विष्परिणामो तह दुर्गुछा य । तोच होति संका, सध्ये एयारिसा सपणा ॥ ६६४ ॥ सिने ओमोरिए, रायहुडे भए व गेलो | श्राणराए वा प्रयाणमाणे वि वितियपदं ॥ ६६५ ॥ सर्वे साधवो नीचा इत्यादि भयसः, असंभोज संपक्कत्ति काचस्वजतीति एवं पवयणहानी, श्रभोजे दुभक्तादिग्रहणं दृष्ट्वा ध स्माभिमुखा पूर्वप्रतिपन्नगा वा विपरिणमंते, स्वपाकादिसमाना इति गुप्ता, सुविसु विकास पयलिंगधारिणो पारिपरिमो मो
यदि भवादिकारयति तदा पण गपरिदाणी, जाहे चहुं पत्तो ताहे इमाए जयणाप गण्डति । गाहाअस्थाई लिंगविवेका पविसेना । काऊण व उवओगं, यदि मत्तादिसंवरितो ।। ६६६ ।। सादी मप्यसारियं प्रत्य सुधरा दिसु वाजिति तं वि पच्छा गेरादति, श्रहवा रोहरणादि उ वकरणं त्ववेत्तु सरकखादि परलिंग काळं जहा अदलादिदोसा ण जयंति तदा पविसिउं गेण्छति । श्रहवा मज्झरहादिविश्रणकाले दिगावलोयणं काउं अपेण अदिस्संतो मेत्तयं पतं वा वासकप्पमादिणा श्रवरेसा पविसति, गेराद्दर पसुड्डु दियं पि जहा अविरुद्धं तहा गेराहति, वसाई अन्नत्थ अलतो वाहिं सावयवसगिरिजा ण णमति सायं करोति यदुठादिषु मतिगत अप्पसागारिकाय धम्मक दादी वि करेज । नि० चू० १६ उ० । दुगुणा गुण द्विवृते सू० १०५ ० १ ४० । आचा० । स० । " दुगुणं करेश स पावं ।" सूत्र० १ ० ४ म० १ ० ।
ण
-न
दुगुख- दुकूल न० | मौडविषये विशिष्टे कार्पासिके वस्त्रे, श्राचा० २ ० १ ० ५ श्र० १० जी० । दुकूत्रो वृक्कविशेषस्तस्य गृहीत्वले जलेन सह कुकृत्य सूत्रीकृत्य वयते यत्तद् दुकूलम । जं० २वक० प्रश्न० । दुकू लाभियानकत्वग्निष्य जातिविशेषे २०११ २०१२ ब० । जी० ज्ञा० । सु० प्र० प्रा० म० । दशा० । नि०
।
“दुगुल्ल पट्टपमिच्छये । ” दुकूलं वस्त्रं तस्य यः पट्टो युगलावे.
क्या एकपट्ट:, तेन आच्छादितः । कल्प० २ कण । रा० । दुगून - दुकूल - न० -न० ।' दुगुल ' शब्दार्थे, ग्रात्रा० २ ० १ ० ५
अ० १ उ० ।
दुगोय-द्विगोत्र - न० । गोत्र वेदनीय कर्मद्विके, कर्म्म० । " गोयचेपणियं।" इतिवचनात गोगनी दाशिव भातासाठभेद दीपिताइचतस्रः प्रकृतयो गोत्रद्विकशब्देन गृह्यन्ते । कर्म० ५ कर्म० । दुःखी कर्म का विषमे
०
-
-1
दुग्गइव
१०५ श्र० १० । गहने, पुर्विशेये, सुत्र० १ श्रु० ५ ० १ उ० । दर्श० । अपराजितायां नील्यां च । स्त्री० । गुग्गुलौ, पुं० । दुःखेन गच्छत्यत्र दुर्गम आधारे कः पर्वता पुरे को (किल्ला) (ग) इति
दुर्गम
ने, दुःखेन संस्तरे संसारे, न० । वाच• खातबलय प्राकाराऽऽ दिदुर्गमे, भ० ७ श० ६ उ० । स्तेनपरचक्राऽऽद्यगध्यस्थाने च । बृ० ३ उ० । भ० । जं० । कष्टसाध्ये, ज० ६ श० ३ ७ | दुःखा
अपणी ० ० ६० पर्यादिदुर्गमय कथमकि लङ्घयितुमशक्ये, स्था० ५ ० २ उ० । दुर्गमप्रवेशे च विपाο १ श्रु० ३ अ० । दशा० ।
तिविद्धं च होति फुग्गं, रुक्खे साथ मणुदुग्गं वा । निकारणम्मि गुरुगा, तत्य वि आणादिको दोसा । ११श त्रिविधं च भवति दुर्गम् । तद्यथा-वृक्षडुर्गे, श्वापद दुर्गे, मनुयदुर्गे चाय वृक्षैरतीव गहनतया दुर्गमं यत्र वा पथि वृक्षः प तितस्तद् वृकदुर्गम यत्र व्याप्रसिद्द भाद दुर्गम । यत्र यधिकाऽऽदीनां मनुष्याणां भयं तन्मनुष्यगंम् । एतेषु त्रिष्वपि दुर्गेषु यदि निष्कारणे निर्मन्थीं गृह्णाति अवलम्बते वा चतुर्गुरु, श्रज्ञाऽऽदयश्च दोषा । बृ० ६३० । दुःखे, कट्यां च । दे० ना० ५ वर्ग ५३ गाथा । दुग्गइ दुर्गति खी० ए गतिदुखि दुागती, स्था
तओ दुग्गश्रो पत्ताओ । तं जहा- शेरइयदुग्गई, ति रिक्खदुई, मस्साई (देवराई) |
मनुष्य दुर्गतिः खितमनुष्यापेक्कया, देवदुर्गतिः किल्विषिकाssद्यपेक्षया इति । स्था० ४ ० १ न० । चातु० । पंचहि ठाणेहिं जीवा दुग्गई गच्छति । तं जहा-पाणाइत्रा
33
० जाव परिम्गणं । स्वा० ५० १ ० । "तम्रो जिए सई होश, दुविहं दोग्गहं गए। डुल्लहा तस्स - स्मगा, अकार सुचिरादवि ॥ १८ ॥ उस० 9 प्र० । दुग्गगम-दुर्गतिगत दुर्गति प्राप्ते स्था० ४ ० ३ ४० दुम्माम ( ) - दुर्गतिगामिन् शि० तिवार रूपाभयन्ति प्राणिनमिति दुर्गतिगामिन्यः । दुर्गतिगमनती तिस्रो लेश्याः दुर्गतिगमनहेतवः । स्था० ३ ठा० ४ ० । डुगतो सद्गति गमिष्यतीति दुर्गतिगामी दुर्गतिगम नशीले च । पुं० । स्था० ४ ० ३ ४० । दुग्गइपद्ददायग- दुर्गतिपथदायक - पुं० । तिर्यग्नारककुमानुपकुदेवरुप दुर्गतिमार्गमा ०२०
दुग्गइप्पवा - दुर्गतिप्रपात - त्रि० | दुर्गतौ नरकाऽऽदिकायां कर्तादुर्गा दुर्गतीमा प्रपातो वात्स तथा। दुर्गतिपतन हेतौ प्रश्न० १ श्राश्र० द्वार ! दुग्गड़फल- दुर्गतिफा०] दुर्गतिः यस्य स दुर्ग सूत्र० १ ० ११ अ० । कुदेवत्वाऽऽदिप्रयोजन, पञ्च०४ विव० । दुग्गफलवाइ (ए) दुर्गतिफलवादिन्
दुर्गति शीला दुर्गतिफलादिनः दुर्गतिफलमार्गोपदेष्टरि मिथ्यादृष्टौ सूत्र० १० ११ अ० । दुर्गवि० सं०६० ।
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(२५५५) दुग्गउ भनिधानराजेन्स
दुज्जाय दुग्गउ-दुर्गो-पुं० । गलिबलीवर्दे, दश १०२ उ०।
दुग्घुट-देशी-हस्तिनि, दे. ना०५ वर्ग ४४ गाथा। दुग्गंध-दर्गन्ध-पुं० । दुष्टो गन्धो पुरजिगन्धो यस्यासौ पुर्ग- दुघण-द्रुघण-पु.। एहन्ति अनेन । हन करणे अप, हस्वः कुत्वं
धः । दुरभिगन्धयुक्त, दर्श० ३ तव । सुरभिगन्धे, स्था० ३ | च । मुमरे,परश्वधे भूमिकम्पे च । वाच । अनुसत्राचट्टठा०६ उ• । भ• । अाचा ।
करे च । प्रश्न०३प्राभ० द्वार। दुग्गग्गहण-दुर्गग्रहण-न. । पर्वतवनाऽऽदिगांऽऽश्रयणे, दुचकन-द्विचक्रमूल-न० । मन्त्रीसमीपे, भौ०। पश्चा० ३ विव०।
दुच्चय-मुस्त्यज-त्रि० । दुःखेन त्यक्तुं योग्य,भ. ७ श०१०। दुग्गदि-दुषि-पुं० । विषमपर्वते, अष्ट० २३ अष्टः । दुच्चर-दुश्वर-त्रि० । दुःखेन चर्यतेऽस्मिन्निति ऽश्वरः । दुःसुगम-दुर्गम-त्रि०। पुस्खन गम्यते इति दुर्गमः । कृच्छगतिके,
स्खन चम्यन्त इति शुभराणि । ग्रामाऽऽदिषु, भाचा.got
अ. उ01 प्रश्न० १ आश्रद्वार । गन्तुमशक्ये, अष्ट०२२ अष्ट० । दुस्तरे, सूत्र०१(०२ अ०२ न०। कृच्छवृत्ता,स्था०५०१
दुल्चरलाढचारि (ण)-दुश्चरलाढचारिण-पुं० । दुश्चरश्चासौ 1०। पुस्खेन गम्यत इति दुर्गमम् । भाव-साधनोऽयम्, कृच्छ्रवृ.
बाढस्त चीर्णवान् विहतवान् सः। दुःश्चरे देशे प्रामे च विहारं त्तिरित्यर्थः। तद्भवति विनेयानामृजुजमरवेन, वक्रजमत्वेन च ।
कृतवति, आचा० १ ० १ ० ३ १०।। स्था०५० १ उ01
दुश्चिम-दुश्चीर्ण-न। मृपावादनपारदार्याऽऽनो पुश्चरिते, तकेवाय-दर्गत-त्रिः । मुगतिरेषामस्तीत्यचि प्रत्यये पुगतः । तुके कर्मणि च । का०१ ०१६ अभाविपा। स्था। औ००। दुस्थ, स्था० ४ ठा०१ उ.। प्रभादरि, धनविहीने, का. | दुच्चेट्ठिय-दुश्चेष्टित-न । दुष्टं प्रतिषिद्धं धावनवल्गनाऽऽदिकार्यनविहीने च पुरुष, स्था. ग. ३ उ०।
क्रियारूपं चषितं यत्र तत्तथा । प्रतिषिके धावनवल्गनादौ तो दुग्गया पएणत्ता। तं जहा-णेरइयदुग्गया, तिरि
कायक्रियारूपे चेष्टिते, तद्भवे च । ध०२ अधि० । क्खजोणि यदुग्गया, मस्सदुग्गया । स्था० ३ ग.
दुच्चंमिश्र-देशी-दुर्लखिते, दुर्विदग्धे च । दे. ना० ५ वर्ग
५५ गाथा।
दुरचंबास--देशी-कल इनिरते, दुचरिते, परुषवचने च देना. "दुग्गयरयणाऽऽयररयणगहणतुद्धं (४०)।" दुर्गतस्य दरि
५ वर्ग ५४ गाथा। कस्य रत्नाकरे विचित्रमाणिक्योत्पादस्थाने प्राप्तस्य यस्नग्रहणं माणिक्योपादानं तेन यसुल्य सहशमभिलाषोपरमाभा
दुञ्चितिय-दुश्चिन्तित-न० । दुष्टमातरौद्रभ्यानतया चिन्तितं यत्र वसाधत्तिद् दुर्गतरत्नाऽऽकररत्नग्रहणतुल्यम । पश्चा०
स तथा । आर्तरौद्रध्यानतया चिन्तिते, तद्भवे च । ध०९ १३ विव०।
अधि.। जीत.। प्रा० चू०। दुग्गयणारी-भूर्गतनारी-बीनदारिद्रयोपहतयोषायाम,पशा.
दुक-द्विषदक-त्रि.। द्वादशभेदे, ध० २ भधिः । ए विव०।
दुजमि। ण् )--द्विजटिन्-पुं० । चतुरशीतितमे महाग्रहे, "दो. दुग्गय नव-दुर्गतभव-पु. । दरिखकुलोत्पत्ती, वृ०६ ००। दुजमी।" स्था०२३ उ०।०प्र०/० प्र०।
दुजुगल--दियुगल-न•। द्वयोर्युगक्षयोः समाहारो हियुगलम् । दुग्गयमुय-दुर्गतसुत-पुं० । दरिफपुत्रे, पं० ३० ३ द्वार।
हास्यरत्यरतिशोकसतणे नामकम्मोत्तरप्रकृतिद्वन्द, कर्म. ५ दुग्गसामि-दुर्गस्वामिन-पुं० । सिर्षिगुरुचातुर्देलामहत्तरस्य कर्म०। शिष्ये, सिपिकृतस्य उपमितभवप्रपञ्चस्य प्रथमादर्श एतत्सा- | दुज्जा --दुर्जन--पुं०। मिथ्या दृष्टिलोके,वृ.१० ३ प्रक० । प्रा० ध्वीनिलिखितः । जै००।
चू० ।"शकटं पञ्चहस्तेन, दशहस्तेन शृङ्गिणम । हस्तिनं श. दुग्गह-ग्रह-पुं० । दुर्गृहीतत्वे, द्वा० १५६०।
तहस्तेन, देशत्यागेन पुर्जनम् ॥१॥" परिहरोदित्यर्थः। वाचा दुग्गा-दुगो-स्त्री०। महिषाऽऽरूढायामा-याम, ग०२ अधि०। दुजा बज्म--दुज्जनवजे--त्रि० । दुःशीलरहिते, वृ०१ उ० आचा० । अनु०।
३प्रक०। दुग्गावी-दुर्गादेवी-स्त्री. । “दुर्गादेव्युवम्बरपादपतनपादपी. दुज्जंत-दुर्यन्त--पुं० । स्वनामख्याते भाचार्ये, कल्प.। “कोसिय वेऽन्तर्दः" ।।१।२७० ॥ इति सस्वरस्य मध्ये वर्तमान- दुभंत कण्हे या" कला० २ अधि०८ कण । स्य दकारस्य वा लुक । 'दुग्गावी।' महिषाऽऽरूढायामार्या दुज्जय--दुर्जय-त्रि०। अभिन्नावनानहें, प्रा. म. १०२ याम, प्रा० १पाद ।
खएक । षट्पञ्चाशत्तमे ऋषभनन्दने च । कल्प०७ गा • दुःखन दुग्गुह-गुढ-त्रि० । दुग्गोंपिति, नि० चू• १ उ. । प्रच्चन्नप्र.
जीयते ऽनिभूयते इति जयः । पुस्त्यजे, उत्त०१३ अ.।
दुज्जर-दूजेर--दुःखेन जोयते अन् । " प्राहिणी बातला की, देशाऽऽदिनाविनि च । व्य. ७००।
पुर्जरा तक्रकृर्चिका।" वाच ।स्था ४०४ उ.: दबडयमिय-दुर्घटघटित-त्रि०। पुराच्छादनया स्पृष्टे, प्रभ०३
दुज्जाय-तुर्यात-015ष्टं यातं दुर्यातम् । गमनक्रियागार:भाभ्र० द्वार।
म. प्राचा. १ श्रु०५१०३१० । व्यसने, दे. ना० ५ वर्ग दुग्यास- स-मुं० । दुनिने, वृ० ३ उ० ।
४४ गाथा।
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( २५५६) दुजोहमा अभिधानराजेन्सः ।
दुणाम दुज्जोहण-दुर्योधन-पुं० । स्वनामख्याते धृतराष्ट्रपुत्रे, ज्ञा० १ कारौ समुच्चयाथै। तत्रैकाकरिके-हीलज्जा,देवताविशेषो या। श्रु० १६ अ.। भा० म० । सिंहपुरनगरराजस्य सिंहरथा- भीदेवताविशेषः। धीर्बुद्धिः। स्त्री योषिदिति । अनेकाक्षरिका कभिधानस्य स्वनामख्याते गुप्तिपाले, स्था० १०म० । विपा०।। म्येत्यादि । उपयक्कणं चेदं बलाकापताकाऽऽदीनामाद्यक्षरमिप. दुज्मा-दोह्या-स्त्री. । दोहाायाम, दश०७०।
चनाम्नामिति। तदेवं यदस्ति वस्तु तत्सर्वमेकाक्षरेण वा नाम्नादुज्माण-दुान--न । मातरौधरूपे ध्याने, ध० २ अधिः ।
ऽभिधीयतेऽनेकाकरेण वाऽतोऽनेन नामध्येन विवक्तितस्य सर्व
स्यापि वस्तुजातस्यानिधानाद द्विनामोच्यते, द्विरूपं तत्तदुज्झाय-दुात--त्रि० । दुष्टो ध्यातो दुर्ध्यातः । एकाग्रचित्ततया
बस्य नाम हिनाम, द्वयोर्वा नाम्नोः समाहारो द्विनामेति। आत्तरौद्ररकणे, ध० २ अधिः। श्राव० । दुष्टचिन्ताविषयीकृते, शा. १ श्रु० १० अ०।
एतदेव प्रकारान्तरेणाऽऽहदुज्झोस दोष--पुं० । उकये, प्राचा०१श्रु०५०३ उ०॥
अहवा दुनामे दुविहे पणाने । तं जहा-जीवणामे अ, अजी.
वणामे असे किं तं जीवणामे ?। जीवणामे-देवदत्तो, दुह--दुष्ट--त्रि) । दोषवति, प्रति० । वृ० । (स च विषयकषायभेदाद द्विधति पारंचिय' शब्दे व्याख्यास्यते) प्रद्विष्टे च रा
जएणदत्तो,विएहुदत्तो, सोमदत्तो। सेतं नीवणामे । से कि जनि, नि० चू०१ उ० । सूत्र० । दुर्मनसि,सूत्र०२७०२ अ०।
तं अजीवणामे । अजीवणामे-घमो, पमो, कमो, रहो। द्विष्ट-त्रि०। तत्त्वं प्रज्ञापकं बा प्रति द्वेष वति, स्था० ३ ठा०
सेतं अजीवणामे ।। ४० किष्टो द्वषवान् प्रत्युत्कटवेषाद्यत्र द्विपस्तं प्राणप्राई
(अहवा दुनामे इत्यादि) जीवस्य नाम जीवनाम, अजीबविना न मुञ्चति । दर्श० २ तव ।
स्य नाम अजीवनाम । अत्रापि यदस्ति, नेन जीवनाम्ना, अजी.
चनाम्ना बा भवितव्यमिति । जीवाजीवनामभ्यां विवक्षितसदुग्गाह-दुष्टग्राह-पुं० । नियमहामकराऽऽदिषु, तं०।
वस्तुसंग्रहो जावनीयः। शेषं सुगमम् । सुट्टचेय-दुष्ट नेतस्-पुं० । कलुपान्तःकरणे, प्राचा०२ श्रु०४
पुनरेतदेवान्यथा प्राऽह.. चू० १ ०२ उ०।
अहवा दुनामे दुविहे पत्ते । तं जहा-विससिए, दुटकम्मणिहाग-दुष्टाष्टकर्मनिष्ठापक-पुं० । दुष्टानामष्टानां
अविसेसिए य । अविसेमिए जीवदव्वे, अजीवदकर्मणां निष्पापके विनाशके केवल जिने, पं० सं० १ द्वार।
ब्वे य । विमेसिए णेरइए तिरिक्वजोणिए माणुदुहवाइ (ण)-दुष्टवादिन-पुं० । प्रत्यकग्राहिणि, प्रश्न० २
स्से दुवे, अविसेसिए णेरइए, विसेसिए रयणप्पनाए प्राथ० द्वार। दुहस्स-उष्टाश्व-पुं० । कुलकणघोटके, तं० । गर्दने च । वृ० १ सकरप्पभाए बालुअप्पनाए पंकपनाए धूमप्पभाए उ०२ प्रक० ।
तमाए तमतमाए, अविससिए रयणप्पनाए पुढवितोदुस्सहत्थिमाइ-दुष्टाश्वहस्त्यादि-पुं०। मारकतुरगकरिवरप्र- रइए, विसेसिए पज्जत्तए अ अपज्जत्तए अ, अविभेमिए नृती, पञ्चा० १८ विक।
तिरिक्खजोणिए,विसेसिए एगिदिए इंदिए तेदिए चीरदुहमावयसमाहय दुष्टश्वापदसमाहत-त्रिका दुधाः जुजाः श्वाप.
दिए पंचिंदिए, अविमेसिए पुढविकाइए आनकाइए ते उका. दा व्याघ्राऽऽदयस्तैः समाहतेष्वभिन्तेषु, प्रश्न०३ आधण्कार।
इए वान काइए वाण स्सइकाइए, विसेसिए पुढविकाशए, अविसे. उहियय-दृष्टहृदय-त्रि० । दुष्टचित्ते, तं० ।
मिए एगिदिए, पिसेसिए पुढविकाइए मुहमकाए अ बादरपुउहा-दु:स्थान-न0 । शीताऽऽतपदंशमशकाऽऽदियुक्तेषु का
ढविकाइए अ,अविसेसिए मुडमपुढविकाइए,विसे सिए पज्जयोत्सर्गाऽऽसनाऽऽद्याश्रयेषु, भ०१६ श०२ उ०। दुधाणय-द्विस्थानक-न० । स्वनामख्याते स्थानाङ्गस्य द्वितीये.
त्तयमुहुमपुढविकाइए अ, अविसेसिए अ बादरपुढविकाइए,
विसे सिए पजत्तयबादरपुढाधिकाइए अअपज्जत्तयवादरपुढ. ऽध्ययने, स्था.२०१०।
विकाइए । एवं आनकाइए तेनकाइए वानकाइए वगणस्सह. दृट्ठामण-दुष्टासन-न० । पादोपरि पादस्थापना दिकेनौचित्योपवेशने, प्रव० ३० हार । ध०।
काइए अ विसेसिअनेदेहि नाशिअव्वा । अविससिए वेई. दुणाम-द्विनामन-न । विविध द्विप्रकारकं च तद् नाम द्विनाम । दिए, विससिए पजत्तयवेदिए अ अपज्जत्तयवेईदिए य । नामभेदे, अनु।
एवं तेइंदिअचउरिदिया वि नाणि अव्वा । अविसेसिए मे किं तं नामे। नामे दुबिहे पाते। जहा-एगक्ख- पंचिंदि अतिरिक्ख जाणिए, विससिए जलयरपंचिंदिरिए अ, अणेगक्खरिए अ । से किं तं एगकावरिए ?।। तिरिक्वजोणिए थलयरपंचिंदिअतिरिक्ख जोणिए खयरएगवखरिए ही:, श्री, धीः, स्त्री। सेतं एगवरिए ।। पंपिंदिअतिरिकखजोगिए अ, अविसेसिए जलयरपंचिंदिसे किं तं प्राणेगवरिए ?। आगेगक्वरिए-कन्ना,वीणा, | अतिरिक्व जोणिए, विसेमिए संमुस्लिमजन्नयरपंचिंदितिसता, माझा । संत आणेगक्वरिए ।
रिक्वजाणिए अ गब्भवति अजलयरपंचिंदिअतिरिक्ख(म किं दुनामे इत्यादि) यत एवेदं हिनामात एव विविध जाणिए अ, अविसेसिए समुच्छिमजलयरपंचिंदिअतिरिद्विप्रकारम् । तद्यथा-पकं च तदकरंच नेन निर्वयमकाकरिक- । क्वजोणिए, विसेसिए अपज्जत्तयसंमुच्छिमजनय पंचिंदि. म्, अनेकाति च तान्यक्षराणि च तैनिवृतमनेकाक्षरिकम् । च- | अतिरिक्ख भोलिए अ अपज्जत्तयसमुनिउमजलयरपंचिंदिअ.
अ, अविमए अपजत
उमज
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( २५५७ ) अभिधान राजेन्द्रः ।
दुणाम
तिरिक्खजोलिए अ, अविसेसिए गब्भवकंति जलयरपंचिंदिव्यतिरिक्ख जोणिए, विसेसिए पज्जत्तयगब्भवति जलयरपंचिदिअतिरिक्खजोशिए अपज्जत्तयगन्धवकंतियजलयरपंचिदि अतिरिक्ख जोणिए अ, अविसेसिए थलयर पंचिदिअतिरिक्खजोणिए, विसेसिए चनुप्पययलयरपंचिदिअतिरिक्खजोणिए अपरिसप्पयलयरपंचिंदिअतिरिक्खजाणिएअ, अविसेसिए चउपयथलयर०, विसोसेए समुच्चिलपयथलयरपंचिदिअतिरिक्खजोणिए अ गग्भवति चउपयथलयर पंचिदिव्यतिरिक्ख जोणिए अविसे सिए संभुच्छिमच उप्पय यल यर०, त्रिसेसिए पज्जत्तय संमुच्छिमच उप्पयथलयरपंचिदित्र्यतिरिक्खजोलिए अपज्जत्तयमंमुच्छिमचउप्पययलयरपंचिंदिअतिरिक्खजोगिए अ, अविसेसिए नवकंनि प्रचउपयथलयर पंचिंदिम ०, त्रिसेसिए पज्जतयगन्नवकंतिप्रचउप्पयथलयरपंचिदिअतिरिक्खजोणिए अ अपज्जत्तयगब्भत्रकंति अच उप्पयथक्षयरपंचिदिअतिरिक्खजोगिए, विसेसिए परिसप्पथलयर ०, विसेसिए नरपरिसप्पथलयरपंचिदित्र्यतिरिक्लजोलिए अ जुअपरिसप्पयलयरपंचिदि अतिरिक्खजोगिए अ, एते वि संमुच्छिमा पज्जतगा अपज्जत्तगाय, गन्भवक्कंतिय वि पज्जत्तगा अपनत्तगा य जाणिवा । अत्रिसेसिए खहयरपंविदिय० विसेसिए संमुच्छ्रिमखदयरपंचिदिअतिरिक्ख जोणिए अ गव्भवर्कविश्वखइयर पंचिंदिअतिरिक्खजोगिए म, अविसेसिए संमुचिमखह पर पंचिंदिप्र० विसेसिए पज्जत्तय संमुच्छिम खइयरपंचिदितिरिक्खजोगिए म अपज्जत्तयसंमुच्छिम खह यरपं चिंदिअतिरिक्खजोगिए अ, अविसेसिए गब्जवकंति अख हरपंचिदिय० विसेसिए पज्जत्तयगन्जवकंति अखइयर पंचिंदियतिरिक्खजोणिए अ, अबिसेसिए मणुस्से, त्रिसेसिए संमुच्छिमणुस्से गज्जवकंतिमस्से अ, अविसेसिए मुच्छिमणुस्से, विसेसिए पज्जत्तगसंमुच्छिममस्से अ. पज्जत्तगसंमुच्छ्रिममणुस्ने प्रविसेसिए गन्नवकंति अपणु - इसे विसेसिए पज्जत्तयगन्जवकंतिमणुस्से पज्जतगगन्भत्र कंतिमस्से, अविसेसि देवे, विसेसिए जब
वासी वाणमंतरे जोइसिए बेमालिए अ, अविनेसिए जव - णवासी, विसेसिए असुरकुमारे नागकुमारे सुबकुमारे अग्गिकुमारे दीवकुमारे उदधिकुमारे दिसाकुमारे वाउकुमारे यणि
कुमारे, सच्चेमिं पि अविसेतिविसेसि अपज्जत्तगपज्जतगमंदा जाणिव्वा । अविसेसिए वाणमंतरे, विसेसिए पिसाए जूते जक्खे रक्खसे किष्परे किंपुरिसे महोरगे गंधब्बे, एतेखिं पित्र्यत्रिसेसियविसेसियपज्जतगअपज्जत्तगभेदा जाणि कुणावेढ–देशी - अशक्ये, तागे च । दे० ना० ५ वर्ग ६६ अन्या । अक्सिसिए जोइसिए. विसेसिए चंदे सूरे गहगणन
गाथा ।
६५०
दु
क्ख ने तारारूबे, एतेसि पि विसे सियविसेसियापजत्तयपज्जत्तयज्ञे आ जाणिव्वा । अविसेसिए वेमाणिए, बिसेसिए कपोगो कप्पातीत अ, अबिसेसिए कप्पोवग्गो, विसेसिए सोहम्मए ईसाए सणकुमारए माहिंदए बंभलो ए संतयए सुकर सहस्सारए आयए पाणयए आरणयए अ च्यए, एतेसिं अविसे सियवि से मिश्र पज्जत्तगपज्जत्तगभेदा भाणि श्रन्वा । अविसेसिए कप्पातीतए, विसेसिए गेवेज्जए अ अणुत्तरोववाइए अ, अविसेमिए गेवेज्जए, विसेसिए हेडिमहैट्टिम विज्जए हेट्टिममज्जिम गेविज्जए हिट्टिमउवरिमगेत्रिजए, अविसेसिए ममिगेविज्जए, विसेसिए हैडिममज्जिमगेवेज्जए मज्जिममज्झिमवेज्जए मज्झिमनबरिमगेवेज्जए अ विसेसिए उवरिमगेवेज्जए, विसेसिए उवरिमहेहिमवेज्जए उवरिममज्जिम गेवेज्जए उवरिमउवरिमगेवेज्जए अ, एतेसिं पि सव्वेसि अविससिविसेस अपज्जतगाअपज्जत्तगनेदा भाणि अन्ना । अत्रिसेसिए अणुत्तरोवarre, विसेसिए विजयए बेजयंत जयंतए अपराजि सन्वहसिए , एतेसि पि सब्बेसि श्रविसेसिश्रविसेसिश्चपज्जतगाऽपज्जत्तगभेदा भाणिमन्त्रा । श्रविसेसिए
जीवदब्बे, विसोसेर धम्मत्थिकाए अधम्मत्यिकार - गासत्यिकार पोग्गलत्थिकाए श्रद्धासमए अ, विसेसे पोग्गल स्थिकाए, विसेसिए परमाणुपोग्गले दुपए सिए ति एसिए० जाव अनंतपएसिए । सेतं नामे ।।
( अहवा दुनामे इत्यादि) रूव्य मित्यविशेषनाम, जीवे श्रजीवे च सर्वत्र सद्भावात् । जीवरून्यमजीवद्रव्यमिति व विशेषनाम, एकस्य जीव एवान्यस्य त्वजीव एव सद्भावादिति । ततः पुनरुसरापेकायां जीवव्यमित्याद्यविशेषनाम, नारकस्तिर्यगित्यादि तु विशेषनाम, पुनरप्युत्तरापेक्क्या नारका ऽऽदिकमविशेषनाम, रत्नप्रभायां वो रत्नप्रभ इत्यादि तु विशेषनाम एवं पूर्वमविशेषनाम, उत्तरोत्तरं तु विशेषनाम सर्वत्र नावनीयम् शेषं सुगम, नवरं संमूर्च्छन्ति तथाविधकम्मोदयाद गर्नमन्तरेणैवोपद्यन्त इति संमूहिमाः, गर्भे व्युत्क्रान्तिरुत्पत्तिर्येषां ते ग व्यु क्रान्तिकाः, उरसा भुजाभ्यां च परिसर्पन्ति गच्छन्तीति विषधरगोधानकुलाऽऽदयः सामान्येन परिसर्पाः, विशेषतस्तूर सा परिसर्पन्तस्रः परिसर्पाः सर्पाऽऽदय एव, भुजाभ्यां परिसर्पन्तीति परिसर्पा गोधानकुलाऽऽदय एव, शेषं सुखोनेयम् । तदेवमुक्ताः सामान्यविशेषनामज्यां जीवद्रव्यस्य सम्भविनो जेाः । साम्प्रतं प्रागुद्दिष्मजीवद्रव्यमपि भेदतस्तथे बोदाहर्तुमाह - ( श्रविसेसिए अजीवब्बे ) इत्यादि गतार्थे, तदेवं यदस्ति वस्तु तत्सर्व सामान्यनाम्ना विशेषनाम्ना वा अभिधीयतेऽन्यत्रापि द्विनामत्वं भावनीयम् । "खेतं नामे " इति निगमनम् । अनु० 1
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दुम्मय
दुसय पुर्नय - त्रि० । स्वायंप्राहिणि इतरांशप्रतिक्षेपिणि, इग्या० ५ अभ्या० । नयाऽऽभासे, श्रा० म० । यस्तु नयान्तरनिरपेकः स दुर्नयो नयाभास इति ।
तथा चाऽऽहाकलङ्क:
( २५५८ )
अभिधानराजेन्द्र
"मेदाभेदाभेदानेदाभिसन्धयः ।
ये स्वयन्ते, यास्ते यदुर्नयः ॥ १ ॥ "
श्रस्याः कारिकाया लेशतो व्याख्या-नेदो विशेषोऽभेदस्तु सामान्यं तदस्म के सामान्यविशेपाम के प रिमेामेदाभिः सामान्यविशेषयोः पुरुषा माया अपेक्षा नया व्याः किमुक्तं भवति ? - विशेषसाकाङ्क्षः सामान्य ग्राहकाऽनिप्रायो विशेषपरिग्राहको वा सामान्यसापेक्षो नयः, इतरेतराकाङ्गारदितस्तु दुर्नयः ॥ श्र० म० १ श्र० २ खरम | इतरप्रति केपी तुनयना दुष
"प
पुनरपि सहनीयोऽन्यत्र तेस् त्रयमनुपदमापो
नयदु
यो सुनोति दिगम्बरस्थान नययोरथविशेषात् । नयो । परामशी श्रभिप्रेतधर्माबधा रणामकता शेषधर्मतिरस्कारेण प्रर्तमान दुयादुत्युरुमदेसी-पुरुषे, कलशीमायां खियां च । दे० मा० ४ मश्नुवते । स्था० । पते मिथः परस्परं पृथग् भिनं निनं प्रतिपादनामिति नयाः दुर्नया इत्यर्थः । अष्ट० ३३ श्रष्ट० ।
वर्ग ४७ गाथा |
दुदंसण द्विदर्शन- १० इयेोईशनयोः समादारो दिनम चक्षुर्दर्शनाचक्षुर्दशनद्वये, कम्मं० ४ कर्म० ।
-
दुदंत - दुर्दान्त त्रि० । दमयतुमशक्ये, उस० २७ श्र० । चक्षुषि, चत्त० ३२ प्र० । श्रा० म० । बुम बुम० उ० १० स्वनामस्यतेऽभ्य ग्रीवराजदूते, श्रा० क० । दम्म - देशी- देवरे, दे० ना० ५ वर्ग ४४ गाथा ।
33
दुसा दुर्दशा स्त्री० [दीनावस्थायाम, [अ० अ० ० ॥ बुद्दिष्ठ दुष्ट ० ० ० ४ ० २४० । पुद्दिण - दुर्दिन - न० । मेघतिमिरदिने, पि० । दोसी देश की ३०० वर्ग ७३ गाथा ० क-गट क त द प श ष स क पार्श्व दुख- दुग्ध-- न० बुक्" K ८ । २ । ७७ ॥ इति संयुक्तवर्णाऽऽदिनुतस्य गकारस्य लुक् । प्रा० २ पाद । " श्रनादौ शेषाऽऽदेशयोर्द्वित्वम् ८ । २ । ८६ ॥ इत्यनादौ वर्त्तमानस्य शेषस्य प्रकारस्य द्वित्वम् । 'दुद्धं । प्रा० २ पाद । तीरे, दुग्ध पञ्च भेदं गोमडिपीकर गति कारिका ४ "पांसरू इति नाम्ना द्वार उस० भ० म० । प्रसिकस्य दुग्धस्य भक्षणे कोऽपि दोषो न वेति प्रश्ने, उत्तरम् का दोषः भूपतेन स्वास्मीयत ८० प्र० । लेन० २ ० । अथ पं० नगर्षिगणिकृतप्रश्नदुसरं च यथा उत्तमप्रमादचकिया निर्विकृतस्येति
भवशतगति दे तुर्जायतेऽनिच्कृतस्ते ॥ १ ॥ " आचा० १० ५ श्र० २ उ० । सर्वे सावधारणाः सन्तो दुनेयाः, अवधारणविर द्वितास्ते सुनयाः सर्वैश्च सुनयः स्याद्वादः । अनु० । दुमदुमदुमदुम इतना भेदे भ० १२० ५ ० । दुम्मामधिज्ज-दुर्नामधेय - त्रि० । पुराणः पतित इति कुत्सितनाम -
ये दश० १ ० १
०५ गाथा ।
दुमिदुर्निष्कम दुःखेन नितरां क्रमः क्रमयं यत्र त स्मिन, भ० ७ ० ६० । दुख-देखते दुई ० ०५ वर्ग ४५ गाथा | दुम्सि द्विनि इद्रियोः समाहारो द्विनिम निद्रा प्रचलालक्षणे निद्राद्विके, कर्म० ५ कर्म० ।
दुर्नी दुमदुम दुष्कृते १० अ० । अप्रावृने, नि० चू० १ ० । दुष्टिवत्थ- देशी - जघन वस्त्रे, जघने व दे० ना० ५ वर्ग५ ३ गाथा | दुरवरून दुर्निरीक्ष्यरूप ० ० त्रिविले निर्भरे, नि०० ११० पुष्टिवोह दुर्निबोध- त्रि० । दुष्प्रापके, सूत्र० १ ० १५० । दुम्मिनंदिया-वृर्भिपद्या स्त्री० । दुःखहेतुस्वाध्यायभूमौ भ०
१६ २० २३० 1
दुखकाय
दुछेय- दुर्ज्ञेय - त्रि० । दुखगमे, आव०४ अ० । मा० म० । दुर्लक्ष्ये, दश० ४ ० ।
-
3
दुत द्रुत त्रि० । शीघ्र, पञ्चा० ७ बिब० । स्वरिते, स्था० ७ वाय पो० ९०। दुत्तर- दुस्तर - त्रि० । दुर्लध्ये सूत्र० १० ३ श्र० । उत्त० । दुति - देशी शीघ्र दे० ना० ५ वर्ग ४१ गाथा | दुतितिक्ख- दुस्तितिक्ष- त्रि० । परीषदाऽऽदौ दुःसहे, "पुरिमपचित्राणं जिणाणं दुग्गमं जवछ । तं जहा श्राइक्खं दुविभजं दुखित "स्था ५०१० तिथपर शब्देऽस्मिन्नेव भागे २२६२ पृष्ठे व्याख्या )
उत्तोस - स्तोष त्रि० । यस्य तुष्टिः कर्तुं न शक्यते तस्मिन् त्तोस-ष-त्रिविम
दश० ५ अ० । • । दुर्गते, स्था० ३ उ० । जघने, दे० ना० दुत्थ-दुस्थ-त्रि• ५ वर्ग ४२ गाथा |
दुत्याह- देशी दुभंगे, दे० ना० ५ वर्ग ४३ गाथा ।
-
म् धूमादितियकरण दिप्राप्तं च भवति तत्रिविकृतिकं भवतीति । १०० प्र० । सेन०
२ उन्ना० ।
देशी समूहे. दे० ०५ वर्ग ४२ गाथा
दुद्धकाय - दुग्धकाय - पुं० | दुग्धघटकाये, परिहरणायां दुग्ध
घटकाय दृष्टान्त उक्तः । श्राब० ३ ० | आ० क० ।
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दुगंधियमुह
दुधगंधियमुह-देश)- बाले, दे० ना० ५ वर्ग ४० गाथा ।
दुबजाइ दुग्धजातिख० बाम, जी० ३ प्रति० ४ उ० ।
बाइकरयां माय
दुद्धी - दुग्धाटी-स्त्री०। आम्विलेन युक्ते दुग्धे जातायां किलाटिकायाम् बलाहिकायामित्यन्ये । प्रव० ४ द्वारा घ० । बुर-दुर दुर दर्श०४० गहने, स्था० ६०
To | अनुकरणीये, प्रशा० १ पद । दुरधर- दुर्धरधर-त्रि० । दुर्धराणि प्राणतिपाताऽऽदिनिवृत्ति लक्षणानि पञ्च महाव्रतानि धारयतीति दुईरधरः । पञ्चमहाव्रतिके, प्रज्ञा० १ पाद ।
दुद्धरपड करवेग दुरपयकरवेग दि०
दुई पन्धानं सम्बदर्शनादिकं मोकमार्ग करोतीति दुरचकरस्तथा विधो वेगः प्रसरो यस्येति तस्मिन् । बृ० १ ० । करिस-दुईप पुं० चतुःपास ऋषमनन्दने, कल्प० ११ अधि० 9 कृण । अनभिभवनीये, त्रि० नं० । दुकक्लेडिया दुग्धावटिकाखी ग्धे प्रव० ॥ चार । ध० २ अधि० । दुसाडिया दुग्धशाटिकाखीमराजे झुग्थे, दु
चूर्णसिके दु
(२५५) अभिधानराजेन्द्र
स० धारयितुमशक्ये व्य०३ दुपकोआर द्विपदावतारयोः स्थानयोः पर्यवसिते,
"
गंध शटति गच्छतीति व्युत्पत्तेः । प्रव० ५ द्वार | दुधसामी - दुग्धशाटी-स्त्री० | द्राक्कासहिते पयसि ध० २ अधि० ।
दुखामी दुग्धाटी - स्त्री० । अम्लयुक्ते दुग्धे, घ० श्रधि० दुनिया देशी स्नेहस्थापना
०५
वर्ग ५४ गाथा |
दुकिणी देशी स्थापना दे०मा०५ वर्ग
५४ गाथा ।
दुबोलणी-देशी या दुग्धाऽपि पृह्यते तस्याम्, दे० ना० ५ वर्ग ४६ गाथा |
दुपद्विप पुं०द्वाज्यां मुखेन करेण चेत्यर्थः । पिवतीति द्विपः। "मूलांचभुजा ऽऽदयः” ॥५ । १ । १४४ ॥ इतिकप्रत्ययः । दस्तिनि, जी० ३ प्रति० १ ० । ० म० ।
"
दुपएस - द्विपदेश - त्रि० । छौ प्रदेशावारम्भकावस्येति द्विप्रदेशः । ख्यणुके, उत्तः १ श्र० । द्विवंशी प्रवेश स्मितप्रवेशमबारी प्रवेश, प्रथमो गुरुमनुज्ञाप्य प्रविशतः, द्वितीयः पुनर्निर्गत्य प्रविशत इति । प्रब० २ द्वार |
-
दुपए सिय- द्विपदेशिक- त्रि० । प्रदेशद्वयावस्थिते, ज०५ श०
१ ० ।
दुष्टः पत्रो दुष्पकः । श्रसत्प्रतिज्ञाऽभ्युपदुपकख- दुष्पक- पुं०। गमे, सुत्र० ६ श्रु० ३ ० ३ उ० । दिपकन० डी पोसमात इति द्विपक्षपक संगतकयोः समाहारे, बृ० १० । सुत्र० । रागद्वेषाऽऽत्मके प कन्ये, सूत्र० १० २ ० ३ ० ।" मं दुपक इसमेगप
दुपार
क्खं, भाइंसु बलायतणं च कम्मं ( ६ ) " द्वौ पक्षावस्येति किम् प्रतिपदेऽनैकान्तिके पूर्वापरविरु र्थाऽभिधायितयाऽविरोधिवचने, ( सूत्र ) कर्मबन्धनिजरणे, सूत्र० १ ० १२० । द्विपकं कर्म सेवन्ते । तद्यथा प्रतश्यामाचा कमित्या सेवा गृहस्थाच राग द्वेषं च ईश्यपथं साम्परायिकं चेत्यादि । श्राचा० २ श्रु० १ ० २ अ० २ ० ।
स्था० ।
जदत्थि एं लोगे तं सव्वं पोरं । तं जहा-जीव च्चेव, अजीव क्षेत्र, तस च्चेव, यावर क्षेत्र, सजोणिय क्षेत्र, अ जोणिय क्षेत्र, साउय क्षेत्र, अणाजय चेव, मइंदिय च्चेव, पिदिय चचेत्र, सवेयग च्चेव, अवेयग च्चेव, सरूवि च्चत्र,
रूवि च्चेत्र, सपोग्गल च्चेत्र, प्रपोग्गल च्चेव, संसारममावन्नग च्चेव, असंसारसमावन्नग चैव, सामय च्चेव, असासय वेव आगासे व नोगाचेव धम्मे चेव, अप चैत्र, गंधे चेत्र, मोक्खे चेव, पुन्ने चेत्र, पात्रे चैत्र, आसवे चैव संवरे चैव देवया चैव खिचरा चैव ॥
अस्थीत्यादि) संहितादिः पूर्ववत् जीवादिकं वस्तु अ स्ति विद्यते, णमिति वाक्यालङ्कारे। कचित्पाठः - ( जदत्थि चं ति) तनुस्वार श्रागमिशब्दः पुनरर्थः । एवं चास्य प्रयोगात्मादि वस्तु पूर्वाध्ययनतस्वात् यच्चा स्ति मोके पञ्चास्तिकाया 332मके प्रति लोक इति त्यस्था श्रीकालोकरूपे वा तत्सर्व निरवशेषं पदयोः स्थानयोः पयोर्विवक्षित
तस्य तद् द्विपाचतारमिति । "दुपडोबा" इति क्वचित्पठ्यते, तत्र द्वयोः प्रत्यवतारो यस्य तद् द्विप्रत्यचतारमिति स्वरूपवत्, प्रतिपक्षवच्चेत्यर्थः । तद्यथेत्युदाहरणोपन्यासे । ( जीव व अजीव श्चैव त्ति ) जीवाश्चैव श्रजीवाश्चैव, प्राकृतत्यु हस्या चारी समुचयार्थीका ववधारणे । तेन च राश्यन्तरापोहमाह-नोजीवाऽऽख्यं राज्यन्तमस्तीति योजनाजी
44
व पत्र प्रतीयते, देशनिषेधकत्वे तु जीवदेश पत्र प्रतीयते, न च देशदेशियोभयतिरिदिवासाविति इति वा एवकारार्थः । चिय श्रेय एवार्थे इतिवचनात् । ततख जीवा एवेति विवक्तिवस्त्वजीवा एवेति च तत्प्रतिपक्ष इति । एवं सर्वत्र अथवा यदस्तीति यत् सन्मात्रं यदित्यर्थः । तत् द्विपदातारं विविधं जीवाजीवभेदादिति शेष तथैव अथ प्रसंत्यादिना जीवतश्वस्यैव मेान् सतिपक्षान पदर्शयति नामकमखस्यतीन्द्रयाऽऽदयः, स्थावरनामकर्मोदयात्तिष्ठन्तीत्येवंशीलाः स्थावराः पृ चियादयः सह योग्योपनि सयानकाः संसारिणः द्विपर्यासभूता अयोनिकाः सिद्धाः, सहाऽऽयुषा वर्तन्त इतियुपयुषः सिद्धा एवं सेन्द्रियाः संसारिणः, अनिद्र या वेदका दाखि काऽऽदयः, सद् रूपेण मूर्त्या वर्तन्ते इति समासान्ते इन्प्रत्यये सति सविणः संवन्तिःशरीरार्थन
"
33
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दुपार
रूपिणो मुक्ताः सपुजाः कर्माऽऽदि पुञ्जयन्तो जीवाः, अपुगलाः सिद्धाः, संसारं भयं समापनका श्राश्रिताः संसारसमापनकाः संसार
वितरे सिद्धा शाश्वताः सिखाः जग्ममरादिरहितत्वात् । अशाश्वताः संसारिणस्तयुक्तत्वादिति । एवं जीवतत्वस्य द्विपदावतारं निरूप्याजीवतत्वस्य तं निरूपयन्नाद - (आ. गासे इत्यादि) आकाशं व्योम,नो आकाशं तदन्यद्धर्मास्तिकायादिधर्मास्तिकादयोऽथमचम
( २५६० ) अभिधानराजेन्द्रः ।
निकायः स्थिरः सविपक्षबन्धादि तदत्राणि चत्वारि प्राम्यदिति । स्था० २ ठा० १३० । दुपको पार- द्विपत्यवतारयोः प्रत्ययता यस्य द्विप्रत्यवतारम् । स्वरूपवति, प्रतिपक्क्वति च । स्था० २ ० १ उ० । दुपयद्विपद-पुं० द्वे पदे यस्याउसी द्विपद मनुष्ये ० १२ श्रङ्ग । अनु० । गन्ध्याम् ध०२ अधि० । विशे० । सूत्र० । श्राचा० । आव । देवे, पक्षिणि, राकसे च । "मिथुनतुलाघटकन्याः द्विपदा क्या पूर्व नाग" इति ज्योतिष राशिभेदे चावाच । प्रव० नि० ० ० ० । उत्त० । ध० र० । "आसाढे मासे दुपवा दोष पोरिसी ।" परिमिते ।
उत्त० २६ प्र० ।
द्रुपद - पुं० । स्वनामवयाते काम्पिल्यपुरराजे ० १ ४०
१६ अ० ।
दुपयच उपयपमाणाइकम-द्विपदचतुष्पदयमाणातिक्रम-पुं० । स्थूत्रपरिग्रहविरमणलऋणस्य पञ्चमस्याऽणुव्रतस्य चतुर्थेऽति. चार तथा परे येषां तानि द्विपानवासी दासकर्मकरदात्यादीनि समयूरकुककूटशुकसारिकाय कोर पारापत्प्रभृतीनि च पदानि येषां तानि चतुष्पदाम गोमहिषमेवाविककरनरास नतुरहसवादी द यति सोऽतिचार इति संबन्धः । यथा किल केनाऽपि संवत्सराऽध्ययनाद्विपचतुष्पदानां परिमाणं कृतं तेषां
संवत्सराऽऽद्यवधिमध्य एव प्रसवेऽधिकद्विपदाऽऽदिजावाद अनास्थादिति तद्भवारिकवत्यपि काले गा बतो गर्भद्वादिभावेन दिमा भङ्गाङ्गरूपोऽतिचार इति चतुर्थः । प्रव० ६ द्वार । घ० । उत्त० नि० चू० । भाव० । दुप्पउत- दुष्पयुक्तत्र प्रयोगवति, स्था० १० । अकुशले, स्था० ५ ० १ ० । दुष्पलत्त काय किरिया प्ययुक्तका व क्रिया-स्त्री० पृष्टं प्रयुकं प्र योगो यस्य स कस्तस्य कार्यक्रियायाम्प्रयुको दुख क्तः, स चाऽसौ कायश्च दुष्प्रयुक्तकायस्तस्य क्रियायां च भ० ३
श० १३० ।
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दुप्पउल्ल - दुष्पक- त्रि० । अस्विन्ने, पञ्चा० १ विव० । दुप्पएसिय- द्विपदेशिक-पुं०।" दुपपसिया संधा । " रुक
ssदिषु स्था० २ ० ४ ४० ।
दुष्प योग-दुपयोग- पुं० दुऐ मनोवा
प्रयोगेोदानमा
कृणमयोग, बाग्दुष्प्रयोगस्तु दिपा चचनत्रणः, काय दुष्प्रयोगस्तु घावनवल्गनाऽऽदिः । दश०
४ अ० ।
दुप्पढियार
दुप्पञ्च पेक्खिय- दुष्प्रत्युपेक्षित - त्रि० । विभ्रान्तचक्षुषा निरीक्षित,
प्रव० ६ द्वार ।
दुष्पजीवि ( ) - दुष्पजीविन् पुं० खेन च् गोदारोगापेक्षा जानि दश०१०। दुष्पमिकंत- दुष्परिक्रान्त-त्रि० । दुराक्रान्ते, आचा० । गामा गामं दूइज्जमाणस्स दुज्जातं दुष्परिकंतं नवति अविपचस्स भिक्खुणो ।। १५६ ।।
गुणानिति प्रामः प्रमादनुपश्चादपरो मा मो प्रामानुग्रामस्तं मानस्यानेकार्थत्वातून विहरत - काकिना साचोयादुग नक्रियाया गां गच्कृत एवानुक्प्रतिकूलोपसर्गसद्भावादबकस्येव कृतांतभेदस्य दुत्यन्तरीजश्वत् मेकाकिनो पतिस्थू पितोरिति यदा तु षित साधोरिव तस्य महासत्वतया भोभेऽपि दुष्पराक्रान्तमेवेति । आचा० १ ० ५ अ० ४ ० । दुःशब्दो ऽजावार्थस्तेन प्रायप्रतिपादिना प्रतिकान्तानामनिवर्तितविपाकानां कर्म्मणि, बिपा० १ ० १ अ० ।
बुप्पामगर - दुष्प्रतिकर - त्रि० । दुःखेन प्रतिकर्तुमशकवे, धृ० ३८० दुष्परिगह- द्विप्रतिग्रह-न० | दृष्टिवादस्त्र स्वसमय परिपाट्या स्थिते सूत्रविशेषे, स० १२ अङ्ग । दुष्पकपूर - दुष्प्रतिपूर- त्रि । पूरयितुमशक्ये तं दुष्परिणीय दुष्यनीयतमायुष्कं तत् क्षीणं सत् दुष्प्रतिबृंहणीयम, दुरभावार्थो नैव वृनिस्तपालना, अधजीवितं
मजीवितं तद्धतिवृंहणीय कामानुपादु खेन निष्प्रत्यूह संयम प्रतिपालय इति । श्राचा०२ ०२ २०५०। दुनिपाद दुष्यत्यानन्दयत्रि बहुरि संतापकाररनुत्पाद्यमानसंतोषे, विपा०१ २० २ अ० । दुःखेन प्रत्यानन्द्यत इति दुष्प्रत्यानन्द्यः । इदमुकं भवति तैरानन्दितेनापरेण केनचित् प्रत्युपकारेण हेतुनानन्दयते यदि वा सत्युपकारे प्रत्युपकाराला उपकारे दोषमेोपादयति तथा चोकम" प्रतिमा, नराः पूर्वोपकारिणाम् । दोषमुत्पाद्य गच्छन्ति मद्गूनामिव चा तः ||१|| " इति । दशा० ६ श्र० । दुष्परियार-दुष्यत्युपकर०1प्रतिक्रिय तोपकारेण पुंसा प्रत्यये दुष्वत्युपकरः । प्रत्युपकर्तुमशक्ये, स्था० ।
तिएडं दुप्पदियारं समणामो तं जहा अम्मापउणो, जहिस्स, धम्मायरियरस, संपाओ त्रियां केइ पुरिसे अम्मापियरं सयपागसहस्सपागेहिं तिनेहिं अनंगेत्ता सुरजणा पट्टणं उपहिता तिर्हि सदगेहिं मनाता सव्वाकार विसिय करेसा पशु पालीपागमुषं अहासर्वजण जो जो आवेता जावज्जीवं पिट्टयासिया ते परिवज्जा, तेणात्रि तस्स अम्मापनस्स दुष्परिपारं भव ।।
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(24 ) दुष्पमियार अभिधानराजेन्द्रः।
दुप्पागहास हे श्रमण ! हे आयुष्मन् !, समस्तनिदेशोवा-हे श्रमणाऽऽयुष्मा कयाई दरिदीढ़ए समाणे तस्स दरिदस्म अंतियं हन्नपाचिति भगवता शिष्यःसम्बोधितः। अम्वया मात्रा सह पिता जन- गच्छेज्जा । तए णं मे दागिद्दे तस्स नहिस्स सन्चस्मं वि का अम्बापिता,तस्यैकं स्थानम, जनकत्वेनैकत्वविवकणात्। तथा (भट्टिम्प्स तिन ः पोषकस्य,स्वामिन इत्यर्थः। इति द्वितीयम् ।
दलयमाणे तेणावि तस्स दुप्पडियारं जव । धर्मदाताचार्यों धर्माचार्यस्तस्येति तृतीयम् । आह च "दु.
कश्चित् कोपि, महती ऐश्वरलकणाऽचा नाला पूजा वाय. प्रतिकारौ माता-पितरी स्वामी गुरुश्च सोकेऽस्मिन् । तत्र गुरु
स्य । अथवा-महांश्वासावर्थपतितयाऽर्चश्च पृज्य इति महारिहामुत्र च, सुदुष्करतरप्रतीकारः ॥१॥” इति । तत्र जनक- चों, महायों वा, माहत्य महत्वं, तद्योगान्मादन्यो बा, ईश्व. दुष्प्रतिकार्यतामाह-(संपाओ त्ति) प्रातः प्रभातं तेन संयुतः र इत्यर्थः । दरिफमनीश्वरं कश्चन पुरुषमतिदुःस्थं समुत्कर्षयेत् संप्रातः, संप्रातरपि च प्रभातसमकासमपि च, यदेव प्रातः
धनदानाऽऽदिनोत्कृष्ट कुर्यात, ततः समुत्कर्षणानन्तरं स दरिः संवृत्तं तदैनेत्यर्थः । अनेन मर्यान्तराव्यग्रतां दर्शयति, संश
समुत्कृष्टो धनाऽऽदिभिः (समाणे त्ति) सन् (पच्छत्ति) पश्चात् दस्यातिशयार्थत्वाद्वाऽतिप्रभाते, प्रतिशब्दार्थत्वाद् वाऽस्थ काले (पुरं च ण ति) पूर्वकाले च, समुत्कर्षणकाल एवेत्यर्थः । प्रतिप्रजातमित्यर्थः। कश्चिदिति कुशीन एव, न तु सर्वोऽपि,पु.
अथवा पश्चात् भर्तुरसमकं. पुरश्च भत्तेः समकं च, विपुलया रूपो मानयो, देवतिरश्चोरेवंविधव्यतिकरासम्भवात् । शतं पा.
भोगसमित्या भोगसमुदयेन समन्वागतो युक्तो यः स तथा, स. कानामौषधिक्काथानां पाके यस्य, औषधिशतेन वा सह पच्यते
चापि विहेरत वत्तते, ततोऽनन्तरं स महाञ्चों भत्ती । (स. यत, शतकृत्वो वा पाको यस्य, शतेन या रूपकाणां मूल्यतःप.
ब्वस्सं ति), सर्व च तत स्वं च व्यं चेति सर्वस्वं, त. च्यते यत्तच्छनपाकम,एवं सहस्रपाकमपि, तान्यां तैनाभ्याम् ।
दपि प्रास्ताम, अल्पमिति । (दलयमाण त्ति) ददन्, न कृतप्र. (अभिपित्ता) श्रन्पङ्गं कृत्वा । (गंधपणं ति) गन्धाटकेन गन्ध.
स्युपकारो भवेदिति शेषः। अतम्तेनापि सर्वस्वदानेन स. व्यक्तादेन, उहत्याद्वलनं कृत्वा, त्रिनिरुदकैर्गन्धोदकोष्णोदक
स्वदायकेनापि वा दुष्प्रतिकरमेवेति । स्था० ३ ग १ उ० । शीतोन कर्मजयित्वा स्त्रापयित्वा. मनाई कामोदनाऽऽदि,स्थाली
अथ धर्माचार्यदुष्प्रतिकार्यतामाहपिपरी तस्यां पाको यस्य तत्तथा । अन्यत्र हि पक्कमपकं वा न के तहारूनस्म समास्स वा माहणस्स वा नियमेगतथाविधं स्यादितीदं विशेषणमिति । शुकं भक्तदोषर्जितं, स्था. मवि आरियं धम्म सोचा निसम्म कालमासे कानं किलीपाकं च तच्चद्धं, स्थाझी पाकेन धा शुद्धमिति विग्रहः । प्र- च्चा अन्नयरेस देवलोएमु देवत्ताए उववन्ने । तए णं से शादजिर्लोकप्रतीतर्य अनैः शालनकैः सुपाऽऽदिभिव्याकुलं स. कासे यत्तत्तथा । अथवा-अष्टादशभेदं तयजनाऽऽकुलं चेति।
देवे तं धम्मायरियं दुग्जिक्खाओ वा देसाओ सुनिक्खं अत्र नेदपदलोपेन समासः, भोजनं भोजयित्वा ।
देसं साहरेज्जा, कंतारामो वाणिकंतारं करेज्जा, दीहपते चाष्टादश भेदाः
कालिएणं वा रोप्रातकेण अभिन्नूयं विमोइज्जा, तेणा"सूबोदगोश् जयहां ३, तिन्नि य मंसा६ गौरसो७ जूसोम। | वि तस्स धम्मायरियस्स दुप्पमियारं भव। भक्खागुल लावणिया१०.मूसफला११हरियगं१२सागो१३ ॥१॥ (केइ श्त्यादि) (रिय ति) पापकर्मज्य पाराद्यातमिति हो रमालूइतहा१४, पाणं पाणीय१६ पाणगं चेच १७।
पार्यमत एवं धार्मिमकमत एव सुवचनं श्रुत्वा श्रोत्रेण निशम्य अटारसमो मागो१८, निरुवहओ लोश्रो पिमो ॥२॥" मनसाऽवधार्य, अन्यतरेषु देवलोकेष्वन्यतरदेवानां मध्ये इत्यअस्य व्याख्या-मांस त्रयं जनजाऽऽदिसत्कंजूषो मुद्नन्दुमजी- यः । देवत्वेनोत्पन्न इति । दुर्सजा भिका यस्मिन् देशे स पुर्भिक्ष. रककटुभापमाऽऽदिरसः,जदयाणि खएखाद्याऽऽदानि,गुलला. स्तस्मात्संहरेत् नयेतोकान्तारमरण्यं निर्णतः, कान्तारानिष्काचाणका गुलपर्पटिका लोकप्रसिद्धा, गुमधाना चामलफनान्ये- न्तो निष्क्रान्तारस्तं, निष्कामितारं वा, दीर्घः कालो विद्यते कमेव पदं दरितकं जीरकाऽऽदि, शाको वस्तुलाऽऽदिभर्जिका, यस्य सः दीर्घकालिकस्तेन रोगः कालसहः कुष्ठाऽऽदिरातङ्क: रसालू मजिका। नल्लतणमिदम्-"दो घयपना महुपलं, दहिस्स कृच्चजीवितकारी सद्योघातीत्ययः, शूक्षाऽऽदिः,अनयोर्द्वन्द्वकत्वे भकाढयं मिरियवीसा । दस स्वमगुलपलाई, एस रसाव निव- रोगाऽऽतङ्क, तेनेति धर्मस्थापके न तु नवति कृतापकारः । शेष जोगा ॥१॥" इति । पानं सुरादि,पानीयं जझं, पानकं द्राक्षा- सुगमम् । स्था० ३ ग० १ उ० । पानकादि, शाकस्तऋसिक इति ।
दुप्पडिलेह-दुष्पत्युपेक्ष्य-त्रि० । यच सम्यक् न शक्यते प्रत्युयावजीवं यावत्प्राणधारणं पृ? स्कन्धे अवतंस वावतंसः शेस्वरस्तस्य करणमवतंसिका पृष्टयवतंसिका, तया परिवहेत,
पेक्षितुं तस्मिन्, प्रव० ०४ द्वार । पृष्ठ्यारोपितमित्यर्थः। तेनापि परवाहकेन परिवहनेन वा त
| दुप्पडिलेवण-दुष्पत्युपेक्षण-त्रि०ादुधमुभ्रान्तचेतसा प्रत्युपेकस्याम्बापितुर्दुष्प्रत्युपकरमशक्यप्रतीकार इत्यर्थः । अनुभतोपः। ण दुष्प्रत्युपेकणम । आव ४० । दुर्निरीकणे, आव०४ कारतया प्रत्युपकारकारित्वात् । श्राह च-"कय वयारो जो | भ० । आ० चू० । हो- सज्जणो होउ को गुणी तस्स? वयारबाहिरा जे, हवंदप्पमिलोहिय-दुष्प्रत्युपेक्षित-त्रि. दुनिरीक्विते, प्राचा० १ तिते सुंदरा सुराणा ॥१॥" इति । स्था० ३ ठा०१ उ०। । श्रु०१०।। अथ नर्तुर्दुप्रतिकार्यतामाद
दणखिहाण-दुष्पणिधान-न । प्रणिधानं प्रयोगः, दुई प्र. समणाउसो! केइ महच्चे दरिदं 'समकसेज्जा, तए से | णिधानं दुष्पणिधानम् । श्राव० ६अ। अशुभमनःप्रवृश्या. दरिदे समुक्ति समाणे पच्छा पुरं च णं विनमनोगसमि- दिरूपे प्रयोगे, स्था० । इसमम्मागर यावि विहरेजना। तर से महच्चे अन्नया। तिबिहे दुपणिहाणे पपत्ते । तं जहा-मण दुप्पणिहाणे,व
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१२५६३) दुप्पणिहाण अन्निधानगजेन्द्रः।
दुफास यदप्पणिहाणे, कायदुप्पणिहाणे। एवं पंचिंदियाणं० जाव | सुपरिवत्तणसीन-दुष्परिवर्तनशील-त्रि० । 'दुप्परिबत्तणसीवेगाणिया ।।
ल'शब्दार्थे, त०। सुप्रणिधानम शुभमनःप्रवृस्पादिसामान्यप्रणिधानवत् व्याख्ये- दुष्परिस-दुष्प्रधृष्य-त्रि। अपरिभवनीये, प्रश्न.५ सेब द्वार । यमिति । स्था० ३ ठा० १ १० । प्रव०। प्रा० चू । भ० । ध० ।। चनविहे दुप्पणिहाणे पएणत्ते । तं जहा-मदुप्पणिहा
दुप्पलिओसहिनक्खणया-दुष्पकौषधिजतणता-स्त्री.। भो
जनतः परिभोग उपजोगव्रतस्यातिचारविशेषे, “टुप्पकोस. णेजाव उवगरणदुप्पणिहाणे, एवं पंचेंदियाएंजाब वे. हिनक्खणया ।" दुष्प का अग्निना अचित्ता औषधयस्तद्भकमाणियाणं । स्या० ४ग०१०।
णता । अति चारता चास्य पक्कबुद्ध्या नक्षयतः। उपा० १०॥ दुपणिहिय-दुष्पपिहित-त्रि । विश्रोतोगामिनि, दश. ८
ध० । ध०र० श्राव।। अ० । स्था। प्राचा०।
दुप्पलितोसहिभक्खाया-दुष्पौषधिभक्षणता-स्त्री०। 'दुष्प. दुप्पणोनिय-दुष्प्रणोद्य-त्रि० । दुःखेन प्रणोद्यते इति दुष्प्रणो-| लिओसहिभक्मणया' शब्दार्थे, उपा० अ० । द्यः। दुस्त्यजे, सूत्र १ श्रु० ३ ० १ उ० ।
दुप्पलिय-दुष्पक-त्रि) । मन्द पक्के, ध०२ अधिः । दुप्पानाज-दुष्पकाप्य-न । दुःखेन प्राप्तुं योग्ये, पुःखेन | दुप्पवियम-दृष्यावृत-त्रि० । परिधानबज्जिते, तं०। धर्मसंझोपदेशेनानाय॑सङ्कल्पानिवर्तन्ते । श्राचा०१०१०ढप्पवेस-दुष्प्रवेश-त्रि०ादुरवगाहे,प्रा०म० अ०२ खण्ड । प्रौ०। ३०१ उ०।
दुप्पवेसतरग-दुष्पवेशतरक-त्रि• । प्रवेष्टुमशक्ये, प्रश्न ३ दुप्पत-दुष्पत-न० । अपतनशीले पात्रविशेषे, “जं ठविजतं
आश्र० द्वार। उठं गायति, चालियं पुण पलोट्टति, तं दुप्पतं ।" नि० चू०पसह-दष्पसह-पुं०। कल्किनृपसमकालिके राजोपद्रुतसर१उ०।
केके स्वनामख्याते प्राचार्य, ती० २० कल्प । “समपजते दुप्पतर-दुष्पतर-त्रि० । दुरुत्तरे, सूत्र० १ श्रु०५ अ० १ उ० । चारसवरिसिभोगवश्य दुहफूलियतरण दसवेयालियागमध. दुप्प,मग-दष्पवर्षक-त्रि० । दुर्धर्ष एव दुर्धर्षकः। उत्त० प्र०
रो अट्ठसिलोगप्पमाणगणहरमंतजावी ?उकितवो दुप्पशत्रुभिर्दुराकलनीये, उत्त० प्र०।
सहो नाम आयरिश्रो चरमजुगप्पहाणो अहवासाई सामान
पालित्ता वासवरिसाओ अहमभत्तणं कथाणसणो सोहम्मे दुप्पमज्जण-जुष्पमान-त्रि. । प्रविधिना प्रमार्जने, ध.३
कप्प पलि प्रोवमाप्रोसरी एगावयारो उप्पिजहद दुप्पसहो सूरी अधि ।
फगुसिरी अज्जा, नाइलो सावगो,सब्यासिरी साविया, एस - दुप्पमज्जिय-दुष्प्रमार्जित-त्रि० । पावाधना अनुपयुक्ततया च पश्चिमो संघो।" ती. २० कल्पा । तिः।
रजोहरणाऽऽदिना विशोधिते,प्रव०६हार | प्राचा० । श्रावका दुप्पसहंतं चरणं, जे जणियं भगवया ऽहं खेत्ते । दुप्पमज्जियचारि (ए )-दुष्पयाजितचारिण-०। पुष्प्रमा
आणाजुत्ताएमिणं, न होई अहुणो त्ति वामोहो॥७॥ जितेऽवस्थाननिपाचनशयनीयकरनिक्केपोच्चाराऽऽदिपरिष्ठापन
( दुप्पसहनमिति ) बुःखेन प्रकर्षप्राप्ततया सह्यत इति कारके, दशा० १ अ०स० । प्रा० ० । प्रश्न ।
दुष्प्रमह, तद्गुणयोगादाचार्योऽपि दुशसहः । यथा दरामदुप्पय-दुष्पद-न । पुष्पकमूलेन प्रतिस्विते, . ३ उ.। योगाद्दण्डः पुरुष इति । स एवान्ते पर्यन्ते यस्य तत्तथा, चरणं दुप्पयारप्पमण-दुष्पचारप्रमर्दन-त्रिका दुष्प्रचाराश्चौराऽऽदयो. चारित्रं भणितं प्रतिपादितं जगवता श्रीमन्महावीरेण, हा. उन्यायकारिणस्तान् प्रमर्दयति यस्तस्मिन् । अन्यायकारि
स्मिन् केत्रे भरतानिधाने यद्यस्मात्कारणात तस्मादाज्ञायुप्रचारनिवारके, कल्प०१ अधि० ३ कण ।
क्तानामपि, न केवलमाझाबाह्यानामिदं प्रस्तुतं चारिन
भवति न जायतेऽधुनेति साम्प्रतं तत्साध्यातिशयदर्शनाच इति पुष्परकंत-दुष्पराकान्त-न० । प्राणिधातादत्तापहाराऽऽदौ क.
तेपामसग्राहगृहीतचेतसां व्यामोहो मृढतेति यावत् । मृढता म्मणि, झा० १६० १६ श्र० ।
च तेषामागमवचनान्यथाकरणादिति गाथार्थः ॥ ५७॥ दर्श. दप्परिअल-देशी-अशक्ये दुगुणे, अनम्यरते च । देना०५
२ तश्च । शत्रुञ्जयतीर्थस्योछारके, "सुमनत्रः शूरसेन इत्यस्यो वर्ग ५५ गाथा।
द्धारकारकाः । अवकू दुष्प्रसहोदन्त,नावी विमानवाहनः।१३." दूपरिकम्मतर-मुष्परिकर्मतर-न० । कष्टकर्तव्यतेजोजननभ- ती.१ कल्प। "अस्याः पश्चिममुद्धार, राजा.चिमबवाहनः । श्री अकरणाऽऽदिप्रक्रिये, न. ६ श० १००।
दुष्प्रसहमूरीणा-मुपदेशाब्धिास्यति । १॥" ती १ कल्प । दुप्परिचय-दुष्परित्यज-त्रि) । दुःखेन परित्यक्तुं योग्ये, उत्त०।। दुष्पस्म-दर्श-त्रि। दुःखेन दर्यत इति दुर्दर्शः । परीष हाss. "दुप्परिचया इमे कामा, नो सुजढा अधीरपुरिसेहि।" उत्त०
दौ दुर्दर्श, “ मक्किमगाणं जिणागं, दुप्परसं दुग्गम भवद।" ८ अ०।
स्था० ५०१ उ०। ('तित्थयर' शब्देऽस्मिन्नेव भागे २२६२ दुष्परियत्नमील-दुष्परिवर्तनशील-त्रि० । महता कष्टेन प- पृष्ठे व्याख्या) आसनशीले, “ मच्छो विव दुष्परियत्तणसीनाओ।" मत्स्य-उपहसय-दु
दुप्पहंसय-दुष्पहंस्यक-त्रिका पुरभिनवे, उत्त ११ अ०। वत् दुष्परिवत्त नशीला महता कष्टेन परिवत्तन पश्चाद्वानयितं दफाम-द्विस्पश-त्रि० । द्वावविरुको स्निग्धशीताऽऽद्यात्मको शानं स्वभावो यासा तास्तथा स्त्रियः । तं०।
स्पर्शावस्येति द्विस्पर्श उत्त• पाई०१०। स्निग्धरूकशीतो.
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दुफास अभिधानराजेन्डः।
दुव्वलपच्चयमित णस्पर्शानामन्यतराविरुद्धस्पर्शययुक्ते, भ० १८ श०६
प्रश्न. ३ श्राश्र. द्वार । रा० । अविद्यमाननियमे, विपा० १ उ०। स्था।
श्रु० २ अ । व्याधिपीडिते, प्रश्न. १ प्राश्रकार । अढेनि. दुवालस-द्वादशन-पुं०। हो च दश च,बधिका वा दश, प्रा. चू०२ उ०। शारीरमानसावष्टम्भरहिते जी. ३ प्रति०२ उ०। त्वम् । (वारा) सख्याभेदे, वाच० । प्रश्न०। सू. प्र०।
धृतिबलविकने, वृ०४०। नि० चूछ।दुबलिकापुष्पमित्रे,प्रा. आचा० । हिरावृत्ता दश । विंशतिसख्यायाम, वाच ।
चू.१०। ग्लानस्वादधुनवोस्थिते ऽसमर्थशरीरे,०३२०॥
न विद्यते बलं गमने यस्मिन् स गाढाऽऽतपासंजवादिना पुर्वदुवालसंग-द्वादशाङ्ग--न। पार्षे 'दुवालसंगे' इत्याद्यपि ।
लो, दु:शब्दोऽनाववाची। जेष्ठाषाढाऽऽदिके च । व्य. २०० । प्रा० १ पाद । परमपुरुषस्याङ्गानीवाङ्गानि हादश अमान्या
दुवसचारित्त-दुबॅनचारित्र-पुं० । दुर्बलश्चारित्रे इति दुर्थक्ष. चाराऽऽदीनि यत्र तद् द्वादशाङ्गम । श्रुते, अनु० ।
चारित्रः । विनाकारणेन मूनोत्तरगुणपरिषेविनि, नि चू. दुवालसंगं गणिपिमगं । तं जहा-आयारो, सूयगमो,
१ उ०। व्य। गणं, समवाओ, विवाहपधत्ती, नायाधम्मकहाओ,
संप्रति दुचारित्रद्वारमाहउवासगदसाओ, अंतगमदसाओ, अत्तरोववाइअदसाओ, मूत्रगुण उत्तरगुधो, पडिसेवा पागमाइ जा चरिमं । पएहावागरणार्ड, विवागसुनं, दिहिवाश्रो अ। (४२)
धिश्वीरियपरिहीणो, दुव्यावरणो अणहाए । अनु० । पा० । सूत्र० । स० । नं० । स्था।
मूल गुणोत्सरगुणविषयानपराधान् यः प्रतिसेयते सेवते । क'
थमित्याह-पञ्चकाऽऽदि यावच्चरमम् । इह पञ्चकशब्देन यत्र - दवालसंगि (ए)-हादशाङ्गिन-पुं० । श्रुतकेवलिनि, ध.
तिसेविते रात्रिन्दिवपश्चकमापद्यते स सर्वजधन्यश्चरणापराधः ३ अधिo।
परिगृह्यते, आदिशब्दाद् दशरात्रिन्दिवाऽऽदिप्रायश्चित्तस्थानानि दुनालसंगी-द्वादशाङ्गी-खी । अङ्गप्रविष्ट श्रुते, सूत्र० १७०१
यावश्चरम सर्वोत्कृष्ट चरणापराधक्षक्षणं पाराश्चिकप्रायश्चित्त. अ० १ उ०।
स्थानमिति । कथंनूतः सन् प्रतिसेवते?,श्त्याह-धृतिवीर्यपरिही. दुवालसंसिय-द्वादशाधिक-त्रि० । द्वादश अश्रयः कोटयो यत्र यो मानसिकावष्टम्भबलरहितः सोऽपि यदि पुष्टाऽऽलम्बनतः तस्मिन् द्वादशकोणोपेते, अनु० । स्था।
प्रतिसेवते ततो,न दोषभाग् भवेदित्याह (अणटाए त्ति) अर्थों
दर्शनझानाऽऽदिकं प्रयोजन, तदभावोऽनर्थ, तेन यः प्रतिसेवते दवाबमम-द्वादशम-त्रि० । द्वादशमङ्ख्यापूर्वके, स्था०६०।
स एष दुबलचरणः । दुवालसविह-द्वादशविध-त्रि.। द्वादशप्रकारे, प्रश्न २ संब. एवंविधस्य छेदश्रुतार्धदाने दोषबाहुव्यस्थापनार्थमिदमाहद्वार । प्रा० चू।
पंचमहब्बयभेदो, छकायवहो अ तेण ऽणुमायो । वालसायतण-द्वादशायतन-न० । द्वादशवरसुषु, सूत्र०। सुहमीलवियत्ताणं, कहेइ जो पबयणरहस्सं ॥ अथ बोकमतं निरूप्यते
तेनाऽऽचार्येण पञ्चमहाव्रतभेदः, षट्कायवधश्चानुज्ञातः यः सुख. तत्र दि पदार्था द्वादशायतनानि । तद्यथा-चक्षुरादीनि पञ्च,
शीलाव्यक्तानां शरीर झवाऽऽदिकं शीलयन्तीति सुखशीनाःपा. रूपाऽदयश्च विषयाः पश्च, शब्दायतनं, धर्मायतनं च । धर्मा
वस्थाऽऽदयः, अव्यक्ताः श्रुतेन, वयसाच,सुम्नशीलाश्चाव्यका
चति द्वन्तः । तेषामिति चूर्णितः। निशीथचूर्णिकृतः पुनरयम्सुखाऽऽदयो, द्वादशायतनपरिच्छेदकत्वे प्रत्यकानुमाने द्वे एव प्र.
मुस्खे शरीरसौख्ये शीलं स्वभावो व्यक्तः परिस्पष्टो येषां ते सुखधाने प्रमाणे, तत्र चक्षुरादीन्द्रियाएयजीवग्रहणेनैवोपात्तानि,
शीलब्यक्तास्तेषाम् । यद्वा सुखं मोकसौख्य, तद्विषयं तत् शील भावेन्द्रियाणि तु जीवग्रहणेनेति । रूपाऽऽदयश्च विषया अजीबापादनेनोपात्ता न पृथगुपादातव्याः । शब्दायतनं तु पौगलि.
म्लोत्तरगुणानुष्ठानं,ततो विगतो यत्न उद्यम श्रात्मा वा येषां ते कत्वाच्छब्दस्थाजीव ग्रहणेन ग्रहणम् । न च प्रतिव्यक्ति पृथक्
सुखशालवियत्नाः,सुखशीलव्यात्मनो वा,तेषामुनयत्रापिपाव. पदार्थता युक्तिसङ्गति।धर्माऽऽन्मकं सुखं पुःखं च यद्यसातो
स्थाऽऽदीनमित्यर्थः । प्रवचनरहस्यं दयथार्थतत्वं कथयति । दयरूपं,ततो जीवगुणत्वाजीवेऽन्तर्भावः । अथ तत्कारणं कर्म,
कथं पुनस्तेन पञ्चमहावतभेदः, षट्कायवधश्चानुज्ञातोभवततः पौलिकत्वादजीव इति। प्रत्यक्षं च तैनिर्षिकस्यकमिभ्यते,
तीति?। उच्यते-- तयानिश्चयात्मकतया प्रवृत्तिनिवृश्योरनमित्यप्रमाणमेव । त.
निस्साणपदं पीहर निस्मापाविहारियं न रोएड । दप्रामाण्ये तत्पूर्वकत्वादनुमानमपीति। शेषस्त्वाक्पपरिहारोऽ- तं जाण मंदधम्भ, इहोगगवेसगं समषं। न्यत्र सुविचारित इति नेह प्रतन्यते । सूत्र.१ श्रु०१३ १०। निश्रायते मन्दधाकरासेव्यते इति निश्राण तच्च तत्पदं च दविलय-दुविक्षक-पुं० । अनार्यदेशभेदे, प्रब० २७४ द्वार ।
निश्राणपदम, अपवादपदमित्यर्थः । तदेव यः स्पृहयात, अनि सूत्र।
श्राणविहारितां तु न रोचयति, तमेवंविधं श्रमणं जानीहिमदुवेयग-द्विवेदक-पुं० । स्त्रीपुरुषवेदयुक्ते, वृ०४ १०।
दधर्माणमिहलोकगवेषकं, मनोजक्तपानाऽऽापभोगेन केवल.
स्यैवेहलोकस्य चिन्तकं परलोकपरामुखम, एवंविधस्य च दुबछ-दुर्बद्ध-त्रि० । प्रविधिना बद्ध, आचा० २ ०१ चू० प्रवचनरहस्यप्रदाने विशेषतः पञ्चमहावतभेदः, षट्रायवधश्च ११०३०
भवतीति युक्तमुक्तम् । वृ०१ उ० १ प्रक० । दुचन-दुबल-त्रि०ा कशा जादाने, प्रश्न.१आश्र० द्वार। सूत्र०बलपञ्चवभित्त-दवलपत्यवमित्र-पु.। अबलप्रतिवेशिक. ताहीनन्दले, विपा०१७.७ अ० । स्था। भ० असमर्थ, राजे, स्था. दुर्बलानामकारणवत्सो , रा० । सूत्र ।
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दुम
(२ ) दुब्वसियत्त
अनिघानराजेन्द्रः। दुबलियत्त-दुर्बलिकत्व-न० । दुष्टं सलमस्यास्तीति दुर्बनिक | सुब्भिगंध-पुरभिगन्ध-त्रि०। दुर्गन्धे,स्था० ३ ठा०३ उ०।ती. स्तनाबो दुर्बनिकत्वम । दौर्बल्ये, भ• १५ श०१ उ. । नि. बतराष्टगन्धोपेते.शा.१ भु० अ० । कुथितकमेवरकाऽऽदौ,प्रा. चु०।
चा०१७०ए०२०रा०। दुरनिगन्धेन कुधितकलेव. दुबलियापसमित्त-दुर्वलिकापुष्यमित्र-न। प्रात्मार्थमेव भि. रातिशायिनि नरके, सुत्र० १२.५ अ० १० । अमका दिएममानो बहूनां दुर्बलिनामाहारं संपादयन् दुर्बलिकापु.
छगन्धे, सूत्र० २९० २ ०। एगन्धे च । झा०९ श्रु.॥ ध्यमित्र इति । आयरक्तिसूरिपितरि स्वनामख्याते प्राचा
अ)। "पगे भिगन्धे।" स्था०१० । सुरभिगन्धपरिग्यय, स चाऽऽयरक्षितस्वामिनि दिवंगते स्वगण परिपासयन् क
ता सुनाऽऽदिवत् । प्रज्ञा० १ पद । र्मविषये विनयेन साकं विप्रतिपद्यमानं गोष्ठमाहिलमुकाटि सुभिसह-सुरभिशन्द-पुंग पुरीभशुभः मनोझो यो न भवति । तवान् । स्था०७ग००र० । विशे० प्रा०म० प्रा००।। "फो दुन्जिसद्दे।" स्था० १० । अशुभशब्दे, प्रज्ञा• १३ पद। दुन्निनज-दुर्विभन-ज० । कष्टविभजनीये,स्था०५ ग. १ उ०।।
दुम्भू-दुति-स्त्री० । अशिवे, वृ० ३ उ०। ('तित्थयर' शम्देऽस्मिन्नेव भागे २१६२ पृष्ठेऽस्य व्याख्या) दुन्न-दुह-धा० । अदा०-उभ-हिक-अनिट् ।दोहे, "भो दु.
सुन्नुय-धुर्भूत-त्रि० । दुष्टा जनधान्याऽऽदीनामुपध्वदेतुत्वाद् हलिहवहरुधामुचातः" ।।४। २४५ ॥ इति दुहेरन्त्यस्य
धर्नुताः यूकामत्कुणोन्दुरतिप्रभृतिघीतिविशेषेषु सत्वेषु, भ. कर्मभावे द्विरुक्तो ब्नो वा, तत्सन्नियोगे क्यस्य लुक । 'दुम्भ ।
३ श०२ उ० । शिवे, जी० ३ प्रति०४ उ०। हिज।' प्रा.४पाद।
पुग्नेय-दुर्भेद-त्रि० । दुर्मोचे दुःकरणीये, विशे० । रा०। दुभग-दुर्भग-त्रि० । सर्वैः परित्यक्ते निगति के सूत्र. १६०३ दुभागपत्त-द्विजागमाप्त-त्रि० । द्विभागोऽर्द्ध तत्प्राप्तो विभागप्रा. अ०१०। अनिष्टे, प्रश्न. २ आश्र द्वार।
तः । विभागप्राप्ते आहारे, द्विभागो वा प्रामोऽनेनेति द्विभागमा. दुन्भगणाम-दूजेगनाम-न० । द्विचत्वारिंशन्नामकर्मजेदे, यदुद | सः । द्विभागप्राप्ते साधी च । ज०७ २०१०। यवशादुपकारकृदपि जनम्याप्रियो भवति तद दुर्भगनाम । उक्त दुम-धवनि-नामधा० । इवतीकरणे, "धववेद्रुमः" ॥ २॥ च-" नवकारकारगो वि हु, न रुच्च दुभम्गे उ जस्सुदए।"
इति धवलयतेण्यन्तस्य वा द्रुमाऽऽदेशः। 'म । धवल।' इति । कर्म० १ कर्म। प्रव० । पं० सं०। श्रा।
प्रा०१ पाद । दुन्नगतिग-दुर्भगत्रिक-न । दुभंगदुःखरानादेयस्वभावरूपे,
रुप-पुं०। दुःशाखाऽस्त्यस्य दुमः। वृचे.उत्त०३२० । वास। कर्म कर्म ।
'दु द्रुगताविस्यस्य दुः,दुरस्मिन्देशे विद्यत इति तदस्यास्यस्मिदुब्लगाकरा-दुर्लगाऽऽकरा-स्त्री० । सुभगमपि दुर्भगमाकरोति
निति मतुपि प्राप्ते "फुहुभ्यां मः (७४४ नणाo)" इति मप्रत्ययाइति दुब्भर्गाऽऽकरा । सुनगस्य दुर्भगकार के विद्याभेदे, सूत्र. २ न्तस्य दुम इति भवति । दश० १० । श्रु०२०।
साम्प्रतं दुमनिकैपप्ररूपणायाऽऽहदुभासिय-दुर्भाषित-न0 1 दुष्ठं सावधवागरूपं जाषितं यत्र त.
नाममुमो उवणदुमो, दव्यदुमो चेव हो जावदुमो। तथा ।ध. २ अधि । अनागमिकार्थोपदेशे,पञ्चा०११ विव०। असद्भूतोजावे, जीता। गर्वे, प्रा. म. २ ० १ खण्ड । 5
एमेव य पुप्फस्स वि, चनधिहो होइ निक्खेवो ॥३४॥ _चा प्रतिकान्ते च । भा० म०१.२ खण्ड।
नामदुमो यस्य तुम इति नाम अनिधान । स्थापनादुमो दुम दुन्जि-दुरनि-पुं० । दुर्गन्धे वैमुख्यकृति, स्था० १ ठा० । नि०
इति स्थापना। व्यद्रुमश्चैव भवति । जावद्रुमः । तत्र व्यहुमो चू० । प्रज्ञा । श्राचा०।
द्विधा प्रागमतो,नोमागमतश्च । आगमते कातानुपयुक्तो,नोमा
गमतस्तु-ज्ञशरीरजव्यशरीरोजयव्यतिरिक्तस्त्रिविधः। तद्यथादुन्निक्ख-दक्षि-न। सस्योत्पस्यभावेन (दर्श० १ख)।
एकभविको,बहाऽऽयुष्कोऽभिमुखनामगोत्रश्वातंत्रकविको ना. दुर्लभा भिका यस्मिन्देश स दुर्मिकः । अलज्यभिकाके देशे,
म य पकेन नवेनानन्तरं तुमेषूत्रस्यते। बद्धाऽऽयुष्कस्तु येन दुम. स्था ३०१ उ० । भिकाभावे, स्था०५०२ उ० । काल- नामगोवे कम्मंणी बद्ध इति । अभिमुखनामगोत्रम्तु ये नामविद्धमे,आव०६अ। दुष्काले.स. ३४ सम०प्रव०। औ०। गोत्रे कर्मणी उदीरणावनिकायां प्रक्किप्ते इति । अयं च त्रिविधीअन्नाकाले, दश० १ ० । वीरात्कियन्तो दुर्भिका अनवन् ,
ऽपि भाविजावदुमकारणत्वाद् द्रव्य दुम इति । भावगुमोऽपि हियतः केऽप्येवं कथयन्ति-दुनिकद्वयमन्नवत्, परशिष्टपर्वाऽऽदौ च
विधः-पागमतो,नोप्रागमतश्च । नत्राऽऽगमतो ज्ञातोपयुक्तः। नो. बहवः सन्तीति प्रश्न,उत्तरम्-वीरादर्वाक दुष्कामा भूयांसो बनू
बागमतस्तु द्रुम एव ठुमनामगो कर्मणी वेदय निति । एवमे. वुः,परं साकाद् द्वादशाब्दं दुष्कालत्रयं शास्त्रे प्रोक्तं दृश्यते, तत्र
व च यथा दुमस्य तथा, किम् ?, पुष्पस्यापि वस्तुतस्तद्विकारभू परिशिष्टपर्वणि यं,नन्दीबृत्तौ चैक इति । ये तु दुष्कालद्वयमेव
तस्य, चतुर्वेधो भवति निकेप इति गाथाऽर्थः ॥ ३४ ॥ कधयन्ति तत्कस्मिन् शास्त्रे वतेते,सन्नान ज्ञापनीयं,पश्चात्तदुत्त. रविषये झास्यते इति । ३७० प्र० । सेन• ३ उल्ला।
साम्प्रतं नानादेशजविनेयगणासंमोहामागमे दुमपर्याय
शब्दान् प्रतिपादयन्नाहदुभिवभत्त-दुर्भितभत न०। यद् भिक्षुकार्थ दुर्जि के संस्क्रिय. ताभक्तलेदे,शा० १७० १ ० । स्था० । “अमविनिम्गयाणं भु.
दुमा य पावया रुक्खा, आगमा विमिमा तरू। स्वत्तागणं जं दुभिने राया देति तं दुम्भिक्त्रमतं ।" निच
कुजा महीरुहा बच्छा, रोगा रुंजगा वि य॥ ३५ ॥ बुमाघ पादपा वृक्काः भागमा विटपिनस्तरवः कुजा महीक
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(२५६५) श्रभिधानराजेन्द्रः ।
दुम
दा वत्था रोपका रुज्जकाऽऽदयश्च । तत्र दुमाऽन्वर्थसंज्ञा पूर्ववतू । पद्भ्यां पिवन्तीति पादपा इति । एवमन्येषामपि यथासंनधमन्वर्थसंज्ञा वक्तव्या । रुढिदेशीशब्दा वा पते । इति गाथाऽर्थः ॥ ३५ ॥ दश० १ अ० । उत्तः । चमरस्यासुरेन्द्रस्यासुर कुमारराज्ञः स्वनामख्याते पदात्यनीकाधिपतौ, स्था० ७ ० | - णिकस्य राज्ञो धारण्यां जाते स्वनामख्याते पुत्र, स च महावीरस्वामिनो ऽन्तिके प्रव्रज्य षोमशवर्षपर्याय: संलेखनया मृस्वाऽपराजिते देवलोके उपपद्य ततश्चुत्वा महाविदेहे सेत्स्यतीत्यनुत्तरोपपातिकदशानां द्वितीयवर्गस्य सप्तमेऽध्ययने सूचितम् । श्र० २ श्रु० १ वर्ग २ श्र० । श्रारणे कल्पे स्वनामख्याते विमानभेदे, स० ६ सम० । पारिजाते, कु. बेरे च । वाच०। दुमंता - देशी - केशबन्धे, दे० ना०५ वर्ग ४७ गाथा । दुमगण-डुमगण- पुं० । वृक्षसङ्घाते, दश० १ ० । दुम-धवलन - न० । सेटिकया स्वेती करणे, प्रश्न० ३ संब०
द्वार ।
39
-
दुई देशी सुवाषाम दे० ना०५ वर्ग ४४ गाथा । दुश्चदिमात्र त्रिम्बत् ॥ १२४॥ इति द्विशब्दे इकारस्योकारः 'डुमत्तो ।' मात्रद्वययुक्ते, प्रा० १ पाद । दुपपत्तय-दुमपत्रक - न० । ष० त० | वृक्कपर्णे, उत्त० ।
अथ वृकपर्णतया श्रायुषश्चलत्वमुपदर्शयन्नाददुमपोयमयं अडिए उनकमेणं च ।
,
एत्य कर्म आम्भी तो दुमपति ऊणं ।। १८ ।। पपर्णेमपत्रं तेनौपम्यमुपमा, प्रमादायु यः केन पुनर्गुनी पश्यमित्याह यया स्वकालपरिपा कतः पातरूपपातः, तथा उपक्रमणं दीर्घकालभाविन्याः स्थिते: स्वल्पकालताऽऽपादनमुपक्रमः । कोऽर्थः १- पाकादारत एव बाताऽऽदिनाऽवस्थितिविनाशनं तेन च मत्राध्ययने कृतं विदिवमादौ प्रथमं यस्मात तो हुमपत्रमित्यध्ययनमिदमुच्यते इति शेषः । इति गाथाऽर्थः ।
यथा चास्य समुत्थानं तथा दर्शयंस्त्रयोविंशतिसङ्ख्यं
गाथा कदम्बकमाह
मगढापुरनगरा, वीरेण त्रिसज्जणं तु सीसाणं । साल महासामार्थ, पिट्टीचंच आगमणं ।। १५ ।। पव्वज्जा गागिलस्स य, नाणस्स य उपयाज तिराई पि । आगमणं चंपाए, वीरस्स य वंदणं तेसिं ॥ २० ॥ चंपाऍ पुनजद्द - म्पि चेइए पायओ पहियकित्ती । आमंते समणे, कहेइ भगवं महावीरे ।। २१ । अट्ठविह्नकम्ममहण-स्स तस्स पर्याईऍ सुसस्स । अट्ठावर नगवरे, निसीहियानिडियहस्स ॥ २२ ॥ उपहस्स जर पिठो, तेलोकपगासनिग्गय जमस्स । जो आरोढुं बंदर, चरिमसरीरो य सो साहू ॥ २३ ॥ साई सेवासे, असा या फिर संसा
अह सिद्धपत्र सो, पासे बेयसिहरस्स ॥ २४ ॥ मिसरी साहू, भाई नगबरं न अन्नोऽत्य ।
।
६४२
दुमपत्तय
एयं तु उदाहरणं, कासी य तहिं जिणवरिंदो ||२५|| सोकण तं जगवप्रो, गच्छइ तहि गोपमो पहियकित्ती । चारु तं नगबरं, पडिवाओ बंदर जिणाणं ॥ २६ ॥ अद आगयो सपरिसो, सब्बिडीए तहिं तु बेसमणो । वंदित्तु चेहयाई, यह बंदर गोयमं भयवं ॥ २७ ॥
पुंडरीयनामं, कश् तर्हि गोमो पहियकिती । दसमस्स य पारणए, पव्वावे सीयकोमीणं ॥ २८ ॥ तस्स य समस् य, परिसाए सुरवरो य तणुकम्मो । तं पुंसरीयनामं, गोयम ! कहिये निसामे ||२५| घेत् पुंडरीयं, वग्गुविमाणात सो चुओ संतो तुंबवणे पण गिरिस्सा, अजमुनंदाओ जाओ ||२०|| दिग्ने व कोमिदिन्ने सेवाले चैव हो तड़प एक्क्क्स्स य तेसिं, परिवारो पंचपंचसया ॥ ३१ ॥ हिट्टिलाण चउत्थं, मज्जिल्लाणं तु होड़ बहं तु । अपवरिता आहारो तेसिमो होइ ।। ३२ ।। कंदाई सातो लिएं तु होइ आहारो । बियाणं अचित्तो, तश्याणं वा ।। ३३ ।। तं पासिऊण इष्टिं, गोयमरिसिणो तौ तित्रग्गा वि । अणगारापचया सप्परिवारा विजयमोहा ॥ २४ ॥ एगस्स खीरजोयण - हे नाणुप्पया मुणेयव्त्रा । एगस्स य परिसा दंसणेण एगस्स य जिणम्मि ||३५|| केवलिपरिसं तत्तो, वच्चता गोयमेल ते भणिया । इस एह बंदह निर्णय किया जिले सो भो |२६| सोऊण तं रओ, दियएणं गोयमो विचितः । नामे न उपज मणियो व जिले सो ताहे ॥ २७॥ चिरसंसिद्धं चिरपरि - त्रियं च चिरमणुगयं च मे जाए । देहस्स य जेयम्मी दुन्नि वि तुम्ना भविस्सामो ||३८|| जह पन्नें एम अम्हे जाकामो खीसंसारा । वह मन्न एवम मावी जागवि ॥ २६ ॥ जाखमपुच्छे पुच्छ, अरा फिर गोयमं परिफिती । किं देवाणं वयणं, गज्ऊं आओ जिणवराणं ॥ ४० ॥ सोलणं च जगओ मिच्छाचारस्स सो उजाड़ । तन्निस्साएँ भगवओ, सीसाणं दे असहिं ॥ ४१ ॥ उत्त० नि० ।
,
ताक्षराचे प्रति स्पष्टमेव नरं मगधापुरनगरं राजगृहंत स्यैव तत्काल पक्क्या मगधासु प्रधानपुरत्वादविद्यमान करत्वाथ, तथा (नायश्रो पहियाका ते त्ति ) नायकः सकलजगत्स्वामी, ज्ञात एव वा ज्ञातक उदारक्षत्रियः, न्यायतो वा प्रथिता सकलजग प्रख्याता कीर्त्तिर्यस्य स तथा, प्रकृत्या स्वनावेन शुकाऽत्यन्तनिर्मला लेश्या यस्य स तथा, (निस)हियति) निबिनिराकियन्ते अस्यां कति नैधिका निर्वाणभूमिः, "कृस्पस्पुटों बलम्॥१२॥ इति बहु
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(२५६६) दुमपत्तय माभिधानराजेन्डः ।
दुमपत्तय निष्ठितार्थस्य समाप्तसकनकृत्यस्य, यद्वा निषेधे सकसकर्मनि- जम्भितमित्युक्तं प्रवति। श्रुत्वा तऽपालम्भं भगवतःसंबन्धि (मि. राकरणलक्कणे भवा नषेधिका मुक्तिगतिस्तया निष्ठिताओं य- छाचारस्सत्ति) पार्षत्वाद् मिथ्यात्वाऽक्तरूपाझम्यमानत्वात् स्तम्य, ऋषजस्य ऋषभनाम्नः। स चान्यो ऽपि संभवत्यत पाह- प्रतिक्रमितुमुपतिष्ठतीत्युद्यच्छति,तनिधयेति गौतमानश्रया अनु. भरतपितुरिति । वन्दते स्तीति,प्रक्रमानवधिकांप्रतिमांबा,तथा । शिष्टि शिक्षाम् । पतद्भावार्थस्तु सम्प्रदायादवसेयः। स चायम्साधु. समिति भृशं वासयति संवासयति; कोऽधेः ?-रात्रि- "तेणं कालेणं तेणं समपणं पिडिचंपा नाम नयरी, तत्थ सानो दिवं व्यवस्थापयति, नोऽसाधु संहरणाऽदिना नतिमपि, राया, महासालो जुवराया, तेसिं सासमहासालाणं भगिणी किलेति परोक्काऽऽतवादसूचकः,अथेत्युपन्यासे, सिद्धरुपलक्षितः जसवतीति । से पिढरो मत्तारो, जसवतीए अत्तो पिढरपुत्तो पर्वतः सिकपर्वतः, तात्स्यात्तापदेश इति तदधिष्ठायकदेव- गागली नाम कुमारो, तत्थ वक्षमाणसामी समोसढो सुभूमिताविशेष पवोक्तः । यद्वा-तत्तीर्थानुनाव एवायं यदसाधोस्त. भागे उजाणे, सालो निग्गतो, धम्म सोचा जण वरं महासालं श्रावस्थानमेव न संपद्यते। तथा चरमशरीरः साधुरारोहती. रजे गमि, सो प्रगतो, तेण प्रापुच्चितो महासासोनणास्यत्र पदप्रचारेखेति गम्यते । उदाहरणं कथनं, (कासी य अहं पि संसारजयलब्धिम्मो जहा तुम्भे, हं मढीपरिमाणं तति) अकार्षीत्, अनेन चैवंविधादेव प्रवादोऽस्थानकारणमुक्तम्। हा पवश्यवस्स वि। ताहे गागझि कंपिल्लाप्रो सहाविऊण " चित्तण पुमरीय" इत्यादिना च प्रसङ्गाऽऽगतं वैरस्वामिज- पट्टो बद्धो, अभिसित्तो, राया जातो, तस्स माया कंपिल्ल पुरे मोक्तम् तथा-(पासिऊण वित्ति) तामेव प्रतीतामेव भग- नयरे दिमिल्लिया पिढरस्स, तेण तो सहावितो, सो पुण बति जरुधाचारणलब्धिरूपां तथा-(तिवग्गा वित्ति)प्रयो तेसिं दो सिचियाओ कारेतिम्जाव ते पब्वश्या,सा भगिणी समबगा येषां ते त्रिवर्गाः, तेऽपि प्रक्रमाद् दिनकोडिदिन्नशैवलिन- णोपासिया जाया। तते णं ते समणा होतगा पक्कारस अंगाई खयोऽपि, नेको, ही बेत्यपिशव्दार्थः। (आपगारे त्ति) अविद्य- अदिज्जिया, तते पं समणे भगवं महावीरे बहिया जणवयवि. मानगृहाः, ते सताएसाऽऽदयोऽपि स्युरत आह-प्रकर्षण बजि. र विहार । तेणं कालेणं तेणं समपणं रायगि नाम नयरं, त त्य तामिथ्यास्वाऽऽदियो विनिर्गताः प्रजिताः, तथा-( एगस्स साम) समोसढो, ताहे सामी पुणो विनिमातो, पं पदाबिओं, वीरभोयणहेछ ति) कोरान्नभोजनमेव विशुकाध्यवसायधि- तादे सासमहासाला सामी प्रापुच्छंति, अम्हे वि पिहीचंपंवशेषोत्पत्तिनिबन्धनतया हेतुःकारणं क्षीरभोजनहेतुः,मयूरव्यं- चामो, जर नाम ता ण कोवि वुज्झिज्जा, सम्मत्तं वा लहिज्जा, सकाऽऽदित्वात्समासः,तमाश्रित्येतिशेषः। (नाणुप्पय त्तिज्ञान- सामी विजाण जहा ताणि संबुज्जिहति, ताहे सामिणा गोयमस्योत्पादनमुत्पत्, संपदादित्वात किए ज्ञानोत्पत्। तथा (चिरसं. सामी सेविज्जो दिनो,सामी चंपंगतो, गोयमसामी पिट्टिचंसिटु ति) चिरं प्रजूतकावं संसष्टः स्वस्वाम्यादिसंबन्धेन संबद्धो पंगतो.तत्थ समोसरणं, गागलीपितरो जसवती य निमायाणि, यस्तं,चिरं परिचितःसहवासाऽऽदिना स पूर्वो यस्तम् । उन्नयत्र भगवं धम्म कहे,ताणिय धम्मं सोमण संविम्गाणि, ताहे गागविस्पष्टं पटुर्दिस्पष्टपटुरितिवत् "सहसुपा" ॥२॥१॥४॥ इ. सी नण३० जनवरं अम्मापियरो आपुच्छामि,जेहपुतंच रजे ठ. त्यत्र सुपेतियोगविभागासमासः।चिरमनुगतमनिप्रायानुवर्तिः | घेमि,ताणि आपुच्छियाणि भणति-जा तुम संसारभय उम्बिग्गो, नम, आस्मानमिति शेषःममेत्यात्मनिर्देशः । ततः प्रजूतमोहनी. अम्हे वि,ता एसो पुत्तं रज्जे ठावित्ता अम्मापीतिहिं समं पधयाच्छादिततया न ते ज्ञानोत्पत्तिरित्यभिप्रायः देहस्य तु शरी•|
तितो, गोयमसामी ताणि घेत्तूण चंपं यच्चा.तेसि सालमहारस्य भेदे विनाशे द्वावघ्यावां तुल्यौ मुक्तिपदप्राप्स्या समा भवि.
सालाणं पंथ वच्चंताणं हरिसो जाओ, जहा संसारं उत्तारियाथाव इति। मा त्वमति कथा ति जावः। तथा येन प्रकारे- णि, एवं तेर्सि सुहेण अज्जवसाणेण केवलणाण उप्पलं । - जयथा (मनेत्ति) आर्षत्वात् पुरुषव्यत्ययः, ततो मन्यसे, त्वमेतं यरेसि पिचिंता जाया-जहा एपहिं भम्दे रज्जे ठाविया. ज्ञानावाप्तिलकणमय वस्तु, वयं जानीमोऽवबुध्यामहे, किंविशि. (ण, संसाराश्रो मोश्याणि, एवं चितंताणं सुहेण अज्झरसाटाः सन्त इत्याद-कीमा पुनर्भवाभावतः संसारो येषां ते कोण- जेणं तिरह पि केवलनाणं उप्पन्न, एवं ताणि उप्पन्नणाणासंसारा, तेन प्रकारेण तथा व्यवच्छेइफलत्वात्तथैव । कि- | णि चपं गयाणि, सामीपयाहिणं करेमाणााणि तित्थं पणाममित्याद-( मा ति) प्राग्वत् , मन्यसे पतमर्थमनन्त- कण केवलि परिसं पहावियाणि । गोयमसामी भगवं वदिक. रोक्तं, विमानवासिनोऽपि देवा जानन्यवबुद्धान्ते ?। एवं च ण तिखुत्तो पापसु पमितो नहितो भणइ-कहिं वरुचद. पर यथा तीजसंसारा जानन्ति, तथा विमानवासिनोऽपि जान- तित्थयरं बंदह ? । ताहे साम) जण-मा गोयम ! केवली न्तीत्वाशयवतः क्षीणसंसारिणां च परिक्षानं प्रति साम्यमन्नि- आसापहि, ताहे पानट्टोखामेश, संवेगं च गतो । तत्थ गोमतमित्यहो तवाविवेकितेत्युपालब्धः। तथा (जाणगपुच्छति) यमसामिस्स संका जाया-मा हं च णं सिफिजामि त्ति, कापकपृच्छया-पुञ्चति, न हि तस्य जगवतः समस्त शेय. एवं गोयमसामी विचिंते । ओ य देवाण संसायो बट्टतिविषयविज्ञानचक्षुषः क्वचिदकानमस्ति, कि तु गौतम प्रतियो- जो अहावयं विलिम्गाइ, चेत्याणि य वंदति धरणी गोयरो, धयितुमित्थमुपालभते-यथा, किम?,दीव्यन्ति क्रीमन्तीति देवा- सो तेण भवभाहणेण सिझर, ताहे सामी तस्स चित्तं जाणम्तेषां वचनं वाचो (गऊ ति) ग्राह्यमुपादेयम । (आओ
कताव सयणसंबोदणयं एयस्स वि थिरता नविस्स त्ति त्ति) आर्यत्वात आहोस्वित,जिनानां वराः प्रधाना जिनवरा उ. दो वि कयाणि भविस्संति, एयस्स बि पच्च श्रो, ते विसंबु. त्पन्न केवनास्ताकृतः,तेषां, तदनेन एकमस्मत्परिक्षानस्थ देवप.
झिस्संति त्ति । सो वि सामि आपुच्चति-अहावयं जामित्ति। रिझानस्य च साम्याऽऽपादनम्, अपरंतु साम्ये सत्यपि"देदस्स
तत्थ भगवया भणियं-वच अहावयं, चेइयाणि वंदह । ते एवं य भेयम्मिवि, दोसि वि तुला भविस्तामो ति" अस्मद्वचनतः
भगवं हतुको बंदित्ता गतो,तत्थ य असावर जणाववायं सो. शतशोऽपि भूतान विनिश्चयमपि विहितवान् देववचनातु सकृद.
कण तिन्नि तावसा पंच पंच सयपरिवारा पत्तेयं ते अहावयं वि. नाकर्णितात्तथेति प्रतिपाद्यापपदं प्रति प्रयात श्त्यहो ते मोहवि सम्गामो ति, तत्थ किलिस्सति-कोडिनो, दि.नो, सेवाजी, जो
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( २५६७ ) अभिधानराजेन्द्रः ।
दुमपत्तय
कोमियो सो वत्थं स्थं काऊ पच्चा मूलकंदाणि श्राहारे सविताणि, सो पढमं मेहलं विलग्गो दिनो य उहुं छठे काऊण परिलमियं पंमुपाणि आहारे, सो विय मेहलं बिलग्गो । सेवाली अहम २ काऊण जो सेवालो सयं मलओ तं श्राहारे, सो तश्यं मेवं विलग्यो । एवं ते विताव किनिस्संति । भयवं च गोयमे श्रोरालिए सरीरे अवदिवडरविकिरणसरिसते पत्ते से भयंतिएस किर पत्थ बुद्धश्रो समणो विलग्गिहि त्ति, जं अभ्छे महालस्सी का क्या न राम्रो बिलग्गितं प्रगवं च गोधमे जंघाचाणबद्धी लयातंतुपुडगं पिव निस्साए उपय२०जाब ते य पलोपंति, एस आगश्रो, एसो अदंसणं गतो ति, ताई ते विम्हिया जाया पसंसंति, अत्यंतिय पलोईता,ज भोयर, तो एयरस वयं सीसा, एवं ते पमिच्छता अत्यंति, सामी वि येश्याई बंदिता उत्तरपुरछिमे दिसीभार पुढविलापट्ट जयहो असोगवरपायवस्स श्रद्दे तं रयणीवासाए उवगतो । इतो व सक्कस्स लोगपालो बेसमणो, सो वि अठावयं चेश्यं दो हो बेयाणि बंदिता गोयमसादिता सो धम्मं कहे, भगवं वा परिकहे तो ताहारा पं. ताहारा पयं वप, बेसमणो वितेश-पस भगवं परिलो साहुगुणेवणे, श्रप्पणो य से श्मा सरीरसुकुमारया जारिसा देवाण विनत्थि, भयवं तस्स श्राकूयं नाउं पुंडरीयं नामज्जयणं प नवे-जहा पोरीगिरी मनिणवणे वज्जाणे समोसढे, महापचमे निग्गए, धम्मं सोचा जं०णबरं देवा ! पुंडरी कुमारं रहते हम अहा मा पमिबंध करेह । एवं०जाव पुंगरीष राया जाए० जाव विहर। तणं से कंमरीप कुमारे जुत्रराया जाए । तर गं से पचमे राया पुंडरीवरावं आयुच्छ तय से मरो सिवियं न० जात्र व वरं चउदसपुरवाई दिज्जर, बहुईि बहुम मावोबादि बहूनि वासागि सामग्नं पालि मालि या संलेदणाए सद्धिं गत्तार कोसिता• जाव सिके । अन्या तेरा भगवंतापुरिमाणे०जाव पुंडरीगिलीए समोसढे, परिक्षा शिग्गया। तप गं से पुंमरोप राया कंमरीएणं जुबरम्ना सकिं श्मीले कहाए बरूठे समाणे हट्टे० नाव गए, धम्मक ढा०जाब सो पुंमरीप सावगधम्मं पडिवो जाव पडिगए सावए जाए । तर णं, से कंमरीर जुवराया थेराणं धम्मं सोचा हठे० जाव जहेव तुम्भे वदह, जनवरं देवान सुधिया बरो आच्छामि, तर पं० जापाम है। श्रहासुरं पञ्चय । तप णं से कंडरीए• जाव धेरे नमसर, नमसित्ता अंतियाओ पडिनिक्खमइ, निक्खमित्ता तामेव चाउघंटे आसरहं दुरूह २० जाव पश्चोरुहर, जेणेव पुंमरी रा या तेणेव उवागच्छद्द, करयल०जाव पुंरुरीयं रायं एवं वयासीएवं खलु मए देवापिया | थेराणं अंतिपन्जाव धम्म निसंते, से धम्मे इच्छिर पमिति अहिरुद्दए । तर णं श्र देवाणुथिया! संसारज भी जम्मणमरणा मि तुभेद्दि अणु समाणे येराणं अंतिए० जाव पव्वसनि तम से पुंमरीष राया एवं वयासी मा णं तुमं देवापिया ! श्याणि येणं अंतिर जाव फबयाहि । अहं णं तुमं महया २ यदि निखिचामि तप से कंमरी मरीयमनोमानी परिजन चि
इस
तपणं सेकंडरी रायं दो पि तत्र्यं पि एवं वयासी इच्छा
दुमपसव
मि णं देवान्पिया ! नाव पत्रश्तर तिर से पुंमरोप रायमरी कुमार जानो संचार विभाई बहूद्दि भणादि व पावणाई व विविपायावर या०४ पिपला संजमन
करीहिंपवणाहि पटवेमाणे २ एवं वयासी एवं खलु जाया ! निग्गंधे पावणे सच्चे अणुत्तरे केवलिए, एवं जड़ा प क्किमणे० जाव सञ्चदुक्खा अंत करेश, किं तु ग्रहीय एगंतदिठी, खुते व एगतधारा, सोमया जवाचावया बालुवाकवले व निस्सारे, गंगा व महानई पामसोयं गमणीए, महासमुदे व नुवादि दुसरे, विश्वं कमि अधिार व तवं चरिभ्वं नो य खलु कप्पर जाया ! समाणं निधाणं पाणावा वा०जाव मिच्छादंसणसछेद वा महाकम्मे वा उदिलेर वा मिस्सजाए वा श्रभावरए पूरं की पामिचे मच्छि अमहदेवा वितिय का तारा मि वालाचे पापाचे वा
दवा समयमे या दोषाफल नोयाबीन यश वा हरियोयणेश्वा भोत्तर वा पायाए बा, तुमं च र्ण जाया समुचिप, जो बेवणं समुचिरासी संव पहासं खुहा णालं पिवासा पालं चोरा णालं वाला जालं दंसाणा मुखापायं पाश्वचितियसिनिया विविछे रोगाने वा गाम वा वावी परीसदोवसउदि सम्मं श्रहियासिए चि णो खलु जाया ! श्रध्दे इच्छा मोतुम्भं खणमवि विषयगं तं अत्याहि ताव जाया ! अन्नवाहि रज्जसिरिं पच्छा पञ्चद्दिसि । तप णं ले कंमरोप एवं व यासी तद्देव णं तं देवालिया ! जं णं तुग्ने वयह, किं पुण दे
या निचेपा की काराणं किंपुरा योगपरमुद्वाणं विश्वतिलिपाएं चरे पागयजणस्ल, वीरस्ल निच्छियस्त अविसियस्स नो खलु ए स्थ किंचिदुक्करं करणाए, तं इच्छामि णं देवालिया ! जाव प वसति तपणं कंमरीयं पुंमरीप राया जाहे नो संचार बहू आघवणाहि य०४ श्राघविच वा०४, ताहे काम चेव नि. खणं अनुमति से कोरसे सदा
साववासी जहा म मरिनिद्ययहिमं करेह० जाव पश्तो, सामाइयमाश्याई पगारल अंगा अ हिल र बहुद्दिमाता ०जाव विरह, अया तस्स कंमरीयस्स अंतेद्दि य पंतेहि य० जब रोगार्थ के पावती या िविहरति । तर मंते थेरा जगवंतो भाया कयाएं पुत्रापुत्रि चरमाया मागावरमाणा मरीनवीय सिमोस दात से पुंडरी राया श्मीसे कहाए लकडे० जाव पज्जुवास | पत्थुया धम्मकहा भगवया । तर खं से पुंडरीप राजा धम्मं सोचा जेणेव कंडरी अणगारे तेणेव उवागच्छर । उवागच्छत्ता कंडीयं बंदर, नर्मस, नमसत्ता कंड रीयल सरीरं सग्वावादं रूवं पास, पासेत्ता जेणेव थेरा तसेच बागच्या थेरं बंदर, बंदिता एवं वयाली बर्द जेते ! कमीपणगाररस महापदि गर्हि फार प्रापयतो बोलाई तिमि आते ! मम जाणसासासु समोर तणं घेरा पुंडरीपल रोम मिवैति पनि विहरति उप णं स
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(२०१८) दुमपत्तय अभिधानराजेन्द्रः।
दुमपत्तय घुमरोए कमरीयस्स तेगिच्चं प्राउटेह, तं मणुनं असणं पाणं तत्थाऽऽगच्छ जाव तंतहा पासे,पासित्ता पुंडरीयस्स साहे. स्वाश्म साइम पादारितस्स समणस्स से रोगायके खिप्पा- इसे वि य णं अंतेउरपरियालसंपक्षिमे तत्थ गागनिसा मेष नवसंते, हटे जाए, आरोगे पलियसरीरे, ततो रोगाय- तिक्खुत्तो प्रायादिणपयाहिणं. जाव धमे सिण सव्वं जाव तु. कामुके वि समाणे सि मणुमंसि असणे०४ मुच्चिए० जाव सिणीए । तप ण पुंगरीप एवं वयासी-अटो नंते ! भोगेहि ? हन! धोववन्ने विविहे य पाणगंसि, णो संचाए बहिया अन्नु अहो। तए ण कोवियपुरिसे सहावे,सद्दावेचा कलिकलुसेणे ज्जरणं विहारेणं विहरित्तर ति । तप ण से पुंडरीए इमी से चाऽभिसित्तोरायादिसेएणंजाव रज्जं पसाहमाणे विहरह। तर कहाए दुहेसमाणे जेणेव कमरीप तेणेव उवागच्छदावा- णं से पुंडरीए सयमेव पंचमुठियं लोयं करेश, करेत्ता चारगच्छित्ता कमरीयं तिक्खुत्तो आयाहिण पयाहिणं करे३, करेत्ता | ज्जामं धम्म पमिवज्जद, कंडरीयस्स प्राधार भंमगं सम्ब वंद, वंदश्त्ता एवं वयासी-धन्ने सि णं तुम देवाणुपिया! एवं सुहसमुदयमित गेराहरु, गेपहेत्ता इमं अजिग्गहं गिएछह-क. संपुणे सिणं कयत्ये कयलक्खणं सुलकेण तव देवाणप्पिया! पश्मे थेराणं अंतिए धम्म पमिवजित्ता पच्ग आहारं पाहमाणुस्सप जम्मे जीबियफले जण तमं रज्जं च जाव अंतेनरं रित्तपत्ति कटु थेराभिमुहे निग्गए कंडरीयस्स उ तं पाणीयं च वित्तिा जाब पव्वश्प अहं णं अहमे अकय पुम्मे, जंण पाणभोयणं आहारियस्स नो सम्मं परियणे वेयणा पाउनूया माणुस्सए मवे अणेगजाजरामरणरोगसोगसारीरमाणसए उज्जला विउला जाव दुरहियासा । तर णं से रज्जे य० जाव कामदुक्ख वेयणवसणसखुपवानिभूए अधुके अणितिए असा- अंतेउरे य मुच्छिए जाए अज्झोक्यो अ वसट्टे अका. सए संकारागसरिसे जमवुवुयसमाणे कुसगजलबिंदुसन्निजे मए कालं किच्चा सत्तम पुढवीए तेत्तीससागरोवमट्टिाए सुमिणगदमणोवमे विज्जुबयाचंचले अणिच्चे सडणपडणविद्धं- जाते । पुंडरीए वि य ण येरे पप्प एसि अंतिए ते दोश्च पि सणधम्मके पुन्धि पच्छा वा अवस्सं विष्पजहियब्वे इति, त. चाउज्जामे धम्मे पमिवज्जति ट्रमखमणपारणगास अदीणे. हा माणुस्सयं सरीरयं पि दुक्खाययणं विविह वाहिसय- जाव माद्वारे, तेण य कालाश्तं सीयन बुक्न प्ररसचिसप्लिकेयं अष्ट्रियकुबुट्टियसिराएहारूजाल नव्वद्धं संपिणकं म. रसेण अपरिणएण वेयणा पुहियासा जाया, तप णं से अ. हियभंडं व दुम्बलं असुइसकिमि अणि पि य सम्बकाल- धारणिज्जमिइ कट्ट करयनपरिम्गाहियंजाय अंजलि कट्ट-"नमोसंदप्पयं जराथुधियजज्जरघरं व समणपणविकंसणधम्म- त्थु णं अरदंताण जाव संपत्ताण," " नमोत्यु णं थेराणं भगवं. यं पुरुवं वा पच्छा घा अवस्सविप्पजहियवं, कामनोगा वि य
ताणं मम धम्मायरियाणं धम्मोवए साणं पुबि पि य णं मए येणं माणुस्सा वा अमुई असासया चंवासवा एवं पित्ता खे
राणं अंतिए सब्बे पाणाश्चाए पश्चक्वाए जावज्जीवाए. जाव सा सुक्का सोणिया सव्वा उच्चारपासवणखेलसिंघाणगवं. सम्वे अकरिज्जे जोग पश्चक्खाए,श्याणि पि य णं तेसि व णं तपित्तसक्कसोणियसमुभवा अमापदुख्यमुत्तपूरपुरीसपुष्पा भगवंताणं अंतिए सबपाणाइवायं• जाव सब्वं अकरणिज्जमयगंधुस्मास असुननिस्सास उम्वियएगा वीजच्चा अप्पकालि- जोगं पच्चक्वामि, जंपि य इमे इमं सरीरगं• जाव एवं पि या लहुस्सगा कलमलाहिया सुदुक्खा बहुजणसाहारणा प- चरिमेहि ऊसासनीसासेहिं वोसिरामिति," एवं श्रामोश्यपमिरिकिसकिच्छदुक्खसम्मा अबुद्धजणनिसेविया सदा साहुग- कते समाहिपत्ते कालमासे कालं किया सबसिके तेत्तीस. रहणिज्जा अगतसंसारखधा कमुगफलविवागनहुझि ब्व सागरोवमाऊ देवो जातो,ततो चदत्ता महाविदेहे सिकिहि ति। अमुश्चमाणा दुक्खाणुबंधिणो सिकिंगमणविग्घा पुर्व वा पच्छा तं मा तुमं दुम्बनतं बलियत्तं वा गेराहादि, जदा सो कंमरीओ वा अवस्सं विप्पजहियवा जति ति। जे वि य ग रज्जे तेण दोब्बल्लेणं अट्ठदुहवसहो सत्तमाए नववन्नो, मुमश्रिी हिरसे सुबो य० जाव सावपज्जे, से विय णं अग्गिसाहिए पडिपुष्पगलकवोलो सम्वसिद्धे उवबमो। देवाणपिया!ब. चोरसाहिप रायसाहिए मच्चुसाहिए दाश्यसाहिए अधुवे अ. लितो मुम्बसो वा अकारणं पत्थ झाणनिम्गहो कायब्बो, काणितिय असासए पुधि वा पच्चा वा अवस्सं विप्पजहियब्वे एनिग्गहो परमं पमाणं, तत्य वेसमणो महो भगवया म. नविस्ता त्ति, पविहम्मि रज्जे. जाव अंते उरे य मातुस्लप- क्खयं नायं ति,पत्थ भईव संवेगमावष्लो त्ति बंदित्ता पलिंगतो सु य कामनोगेसु मुछिए नो संचाए मि. जाव पब्बरसप, तं त्ति, तत्थ वेसमणस्स एगो सामाणितो देवो, तेण तं पुंडरीधध्ये सिगं तुमजाव सुलखे एं मणुयजम्ने,जंण पचाय । तप यज्झयणं प्रोगाहियं, पंच सयाणि सम्मत्तं च प्रडिवमो ति। णं से कमरीए पुमरीपण एवं वुत्ते तुसिणीए संचिहातपणं केश भणंति-जंभगो सो तादे जग कल्ले चेश्याणि बंदिता से पुंडरीए दोनचं पितच्च पि एवं वयासी-धयो मि तुम,अहं पश्चारुदर, ते ताचसा नणंति-तुब्ने अम्हाणं मायरिया, भम्हे अहो । तर ण से दोघं तच्च पि एवं वुते समाणे काम अ. तुम्भं सीसा । सामी भण-तुम्नं अम्ह य तिलोगगुरू भायरिवसंबमे बजाए गारवेस य पुमरीयं राय आपुच्छ, धेरेहि स- या । भणंति-तुभ वि अम्मो आबरिश्रोताहे सामी नगर्व. दि बहिया जणवयविहार विहरहातपण से कंडरीप थेरेहि तो गुणसंथवं करेछ, पन्चश्या देवया, तेसिं लिंगाणि नवसद्धि किंचि कासं पाउग्गं आऊग्गण विदरित्ता ततो पच्चास- णीयाणि, ताहेते भगवया स िवचंति, भिक्खावेसा य जामणत्तणनिम्वले समणत्तणनिभंछिए समणगुणमुक्कजोगे घे. या,भगवं भणइ-कि श्राणिजओ। ते भणति-पायसो,भगवंच गणं अंतियाश्रो सणियं सणिय पञ्चोसक्कर, जेणेध पुमरीगि- सवलद्धिसंपतो पडिमादम महुसंजुत्तस्स पायसस्स न. ण) नयरी जेणेव पुमरीयस्त रन्नो भवणे जेणेव असोगवाण- रेत्ता मागतो । ताहे नण-परिवाडीए गह,ते चिया, भगवं च या जेणेव असोगवरपायवे जेणेव पुढवीसिलाबद्दप, तेणेव उ- अक्खीणमहाणसिओ, ते धाया,ते सुट्ठयरं प्राउट्टा, ताहे सय. बागच्चक, नवागच्छित्ताजाव सिलापट्टयं दुरूह, सहित्ता माहारेइ. ताहे पुणरवि पहिया, तेसिं च सेबालभक्खगाण जेभोदयमणसंकप्पे० जाब मियादातर मरीयस्स भस्मता मित्ताणं चेव नाणं उप्पयं, दिमस्स वम्गो उत्साच्च पेच्वं
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(२५६५ ) अभिधान राजेन्कः ।
दुमपत्तय
1
ताणं, कौमिष्टगे सामि ददूध उवयवं । गोयमसामी पुण पुरतो पकमाये सामी पयाहिणीकरेश । ते वि केवलिपरिसं पहाविया । गोयमसामी भण-एह सामि बंदद । सामी प्रणमा गोयमा ! केवढी आसापदि । गोयमसामी आवट्टो मि करे। ततो गोयमसामिस्स अि जाया । ताहे सामी गोयमं भाइ-किं देवाणं वयणं गज्ऊं, आतो जिणाएं ? । गोयमो प्रणह-जिणवराणं । तो कीस अधिई करेसि १ । तासामी चत्तारि कडे पात्रे । तं जड़ा-सुकमे, चित्रलकडे, चम्मकसे, कंबकमे । एवं सामी वि गोयमस्वामीतो केबल कडस माणो । किं च चिरसंसिठो सि मे गोयमा !, चिरपरिचिश्रो सि मे गोयमा !o जाव श्रविसेसमणाणत्ता भवि - सामो, ताहे सामी 'डुमपत्तयं' नामऽज्झयणं पावे । देवो वि
समसामाणि ततो वाण गिरी नाम गाड़ावई, सो अढो, सो य पव्बइडकामो तस्स य मायापियरो बारेइ, पच्छा से जत्थ जत्थ वारेति, तत्थ सत्य विपरिणामेति जापवतुकामो तस्स तथाणुरुवस्स गाहावश्स्स सुगंदा नाम धूया । सा जणइममं देह । ताई सा दिष्वा । तीसे य भाया अज्जलमितो नाम तव दास देव
वाहे भणs धणगिरी एस ते गन्भो वितिजतो दौड़िश, सो सीह गिरिस्स पासे पञ्चाइयो। इतो व नत्र एवं मासाणं दारो जातो" इत्यादि भगवद्वैरथामिका आवश्यकर्णितोऽवसे येत्युक्तो नामनिष्पन्ननिकेपः ।
संप्रति सूत्रालायक निष्पननिकेपा खास सूत्रे सतीस्वतः सूत्रानुगमे सूत्रमुचारणीयम् । तचेदम्
मत पंडुपए, जह निवड रायगयाण अच्चए। एवं मण्या जीवियं, समयं गोयम ! मा पमायए ।। १ ।। दुमा वृकः, तस्य पत्रे पलाशं तदेव तथाविधावस्थाप्राप्त्याऽनुक मित्र (पं) वापर कर ग्रामतस्तथाविधरोगाऽऽदेव प्राप्तबल कभावं, येन प्रकारेण यथा, निपतति शिथिवृत्तबन्धनत्वाद् भ्रस्यति, प्रक्रमाद् द्रुमत एव त्रिदिना विनाभावित्वा गलकृत्रि समुदानाम् अत्ययेऽतिक्रमेारं मनुष्याणां मनुजा मां शेषमपि दिग पानामतिक्रमे यथास्थित्या स्थितिख एक का पहाSSतम केनाध्यव• सायाजिनोपक्रमणेन वा जीवप्रदेश्यो भ्रश्यतीत्येवमु तोऽत्यकिः कालः शब्द स्य गम्यमानत्वात् समयमपि, आस्तामावलिकाऽऽदि । गौतमे सि गीतगोत्रेपेग्राम मा प्रमादीमा प्रसाई कृपा शेष शिष्यो गीतम् उतं हि निकिता सीखाएं देश अहि"
I
"
अत्र च पापमुरकपदाऽऽक्षिप्तं यौवनस्याप्यनित्यत्वमाविश्विकीरा नियंत्ि
परियट्टियावां, चलंत संधि मुयंत बिदागं ।
पत्तं बसणं पत्तं, का पत्तं जण गाहं ॥ ४२ ॥ जड़ तुब्भे तह अम्दे, तुम्भेत्रिय होहि य जहा अम्हे । अप्पा हेर पडतं, पंडुयपत्तं किसलयाणं ॥ ४३ ॥ नविन वो कमलपचार्थ
६४३
दुमपतय
वायु एस कथा भविषजणविमोहडाए ||४४|| परिवर्तितं कालपरिणत्या ऽन्यथा कृतं, लावण्यमभिरामगुणाss. रमकमस्येति परिवर्तितावश्यं यतोनलस्य प्रागिव सीकुमा rissदि विद्यते। तथा चलन्तः शिथिलीभवन्तः सन्धयो यस्मिंस्ततथा, अत पत्र (मुतबिंटागं ति) मुञ्चत् त्यजत् सामर्थ्याद् वृकं वृन्तं पत्र बन्धनं यस्य तन्मुञ्चवृन्तकं, वृन्तस्य च वृकमोचने पत्रस्य सममेव भवतीत्येतदित्युकं भवति पत्रमा प्राप् व्यसनप्राप्तं तथा कालः प्रक्रमात पतनप्रस्तावः तं प्राप्तं गतं का गाथा दोविशेषरूपाय | सामेवान्यथेति सात संप्रति किसा यमनुभवन्तः निम् दिगंद्रदतोऽस्मानुपद तथा वषमतीतदशायां तथा यूयमपि च भविष्यथ वा वयमिति । जीर्णभावे हि यथा वयमिदानीं विवर्णविच्छायतयोपहास्यान्येवं यूयमपि भावीनीति । (अप्पा हेइ सि) उक्तन्यायेनोपदिशति पितेय पुत्रस्य पत अन्यत्पाण्डुकप जीप शिलानामनिव पाखा नतु किमेवं पत्रकार संजयति येनेद मुच्यते । श्रत आह-नैवास्ति नैव विद्यते नैव जविष्यति, उपस त्याभूतः कोसी बचनं केपाम किया मुत्राणामुतरूपाणाम् आर्यत्वाच खोप तदिह किय मिति आह रुपमा उपमितिः सकाराः उपमेयेषानन्त रोक्का, कृता भवियजाति) प्रतीतमेव । ये किशान पाए पत्रेणानुशिष्यन्ते तथा अन्य यौनगर्वितोऽनुशासन तथा चेतनुवादिना चकेवाचि रिमलिकमिति लोकं, जरसा परिजर्जर] कृतशरीरम् । अचिरात् स्वमसि नकिमु १।" सजीवत यौवनयोरनित्यत्वमनाविधेष इति गाथायार्थः ।
पुनरापोऽनित्यत्वं स्थापयितुमाह
सम्मे जह ओबिंदुए, पोषं च संमाण | एवं मयाण जीवियं समयं गोयम ! मा पमायए || २ || कुशोदर्भ सदृशस्तृणविशेषः, तनुकत्वाश्च तस्योपादानं, तस्या ग्रं प्रान्तस्तस्मिन् यथेत्युपमाप्रदर्शकः, अवश्यायः शरत्कालभावी बिन्दुरेदिन्दुकोऽवश्यायबिन्दुकः स्तोक मल्पं, कालमिति गम्यते त्यास्ते, सम्मानको मनाए नि पतन, बद्धाssस्पदो हि कदाचित कालान्तरमपि कमेतेत्येवं वि शिष्यते। दिशं मनुजागां मनुष्याणां मनुज प्राग्वत् । (जीवियति) जीवितं यत एवं ततः समयं गौतम ! मा प्रमादरितार्थः।
अमुमेवार्थमुपसंहरनुपदेशमाह
परियमि आए जीवियर बहुपदपाए । वारि पुरे कर्म समर्थ गोमा पाए ॥ ३॥ इतीत्युक्तन्यायेन, इत्वरे अयनशीत्रे, कोऽर्थः ? स्वल्पकाल भावि नि. प्रत्युपक्रमतुभिरनपत्या यथास्थित्थैवानु
त्यायुः तमिमेव तन तथाकि तं जीवितकं, चशब्दस्य गम्यमानत्वाच मिश्चार्थात सोपक्रमाऽऽयु. पिप्रभूताः प्रत्यय उपघात देत योग्यसनिमित यो अनेन चानुकम्पता एवं बोरू पोदार रूपकर्म सोपमं
कुशालविन्दुदाहरि वरम, अतोऽस्याप्यनित्यतां मत्वा विधुन
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(२५००) अभिधानराजेम्स /
दुमपराय
जीवात् पृथक् कुरु, रजः कर्म, (पुरे कडं ति) पुरा पूर्व तत्कालापेक्क्या. कृतं चिह्नितं पुराकृतम्। तदूविधुननोपायमाह-समयमपि गौतम ! मा प्रमादीः । पठन्ति च "एवं मनुयाण जीविए,
इतरिय बहुपञ्चवायए । " इति सुगममेवेति सूत्रार्थः । स्वात् पुनर्मनुष्यभावावस्थामइत्याहदुल्लभे लख माणुसे जये, चिरकाले सम्पाणिणं । गाडा य विवागको समयं गोयम मा पमायण ॥४॥ दुर्लभो दुरवापः, खलु विशेषणे, अकृतसुकृतानामिति विशेषं द्योतयति । मानुषो मनुष्यसंबन्धी, भवो जन्म, चिरकालेनापि प्रभूतकालेनापि, आस्ताम् अल्पकालेनेत्यपिशब्दार्थः । सर्वप्रा निनां सर्वेषामपि जीवानामन मुक्तिगमनं प्रति प्रत्यानामिव पामिनाप्रति विशेष कमे अत आह-गाढा: विनाशयितुमशक्यतया दृढाः च इति यस्मादू ( विभागकम्मुणो त्ति ) विपाका उदयाः कर्मणां मनुष्यगतिविधातिप्रकृतिरूपाणां यतएवमतः समयमपि गौतम ! मा प्रमादरिति सूत्रार्थः ।
कथं पुनर्मनुजत्वं दुर्लभं यद्वा-यदुक्तं सर्वप्राणिनां दुर्लभं मनु. जत्वमिति, तत्रैकेयाऽऽदिप्राणिनां तद्नत्वं दर्शयितुकामः कार्यस्थितिमाह
पुत्रिकायमगतो, उक्कोसं जीवो न संवसे ।
1
॥ ६ ॥
उ
का खाईये, समयं गोषम मा पमाय ॥ ५ ॥ आक्कायमइगतो, उक्कोसं जीवो उ सक्से । कालं खाईये, समयं गोयम मा पमाय कायमगओ, उको जीत्रो त बसे । कालं संखाईयं, समयं गोयम ! मा पमायए ॥ ७ ॥ वारकायमगओ को जो सबसे । कालं संस्खाईयं, समयं गोयम ! मा पमायए ॥ ८ ॥ स्कायमागतो, ठको जीप उ सबसे । कारं समयं गोषम ! मा पमाय ॥ ५ ॥ बेदिकामतो फोर्स जीवो सबसे । काले संखेज्जस समयं गोयम मा पमाय ॥ १० ॥ तेईदियकायम गतो, उक्कोसं जीवो उ संवसे ।
उ
!
काक्षं संखेजसभयं समयं गोयममा पमाय ॥१२॥ चरिंदिकायमागतो, नक्कोसं जीवो ज संबसे । कार्ल जसनि समयं गोयम मा पमायण ||१२|| पंचिदियकायमश्गतो, नकोसं जीवो उ संवसे । सत्तभवगाणं समयं गोयम मा पमाय ॥ १३ ॥ देवे नेरइए य मइगतो, उक्कोसं जीवो उ संक्से । एकेका समयं गोयम मा मायए ।। १४ ।। पृथ्वी कठिनरूपा, सैव कायः शरीरं पृथ्वी कायः, तम्, अतिश येन मृत्या त्या तदुत्पचिणेन गतः प्राप्तोऽतिमतः (उ कोसं ति) उत्कर्षतो जीवः प्राणी, तुः पूरणे, संवसेसद्रूपतयेवावतिष्ठेत कापीत्यर्थः ततः समयमपि गौतम! मा प्रमादरिति ॥ काय ते जरकायचायु
"
दुमपत्तय
काय सूत्रत्रयमपि व्याख्येयम् ॥ तथा वनस्पतिसूत्रं, नवरं कालममन्तमिति । अनन्त कायिका पेक्षमतेत्, प्रत्येकवनस्पतीनां काय स्थिरत्यात् तथा दुष्टो तो येति दुरन्तम् इदमवि साधारणापेकयैव, ते ह्यत्यन्तापबोधतया तत उद्धृता अपि न प्रायो विशिष्टं मानुषाऽऽदिभवमाप्नुवन्ति । इह च का सङ्ख्या समितिविशेषाभिधानेऽप्ययोत्यसमानम अनन्तमिनि चानन्तरसर्पिस्य सर्पिणीयमात्यन्तस्यम् । यत श्रागमः-“श्रस्संखोसपिसि-पिणीतों एगिंदियाण च चचरा । ता वेब अनंताओ, वएस्सइए उ बोधन्वा ॥ १ ॥ " तथा द्वे सिख्ये इन्द्रिये स्पर्शनरसनाऽऽख्ये येषां ते द्वी याः कृम्यादयः, तत्कायमतिगत उत्कर्षतो जीवस्तु संघ सेत्काल सख्येयसंज्ञितं सङ्ख्यातवर्षसहस्राऽऽत्मकम्, अतः समयमपि गौतम ! मा प्रमादीः ॥ एवं त्रीन्द्रियचतुरिन्द्रियसूत्रे अपि जाबनीये ॥ तथा पन्द्रयाणि स्पर्शाने बो सर देवनारकयोरनिधानाद् मनुष्यत्वस्य दुर्लभत्वेन प्रका स्तत्वात्तिर्यञ्च एव गृह्यन्ते, तत्कायमतिगतः, तत्कायोत्पन्न त्य थेः । उत्कर्ष जीवस्तु व सेत्सप्त पाउनु पनि तानि च तानि भवग्रहणानि च जन्मोपादानानि सप्ताष्टभवग्रह पानिपतोः समयमपि गौतम ! मा प्रमादी तथा देवान् नैरधिकांस अतिगत उत्कर्षतो जीवस्तु संवत् केकय
?
यं ततः परमवश्यं नरेषु नियेोत्पादयत् ॥ पावको ति उत्कृष्यते तद्येभ्य इत्युत्कर्षः
सागरोपमानम्, (एक्केकभवग्ग्रहणं ति) अपेर्गम्यमानत्वादे केकमवणमपि संवदतः समयमपिगीतम मा प्रमादरिति कार्यः । उक्तमेवार्थमाह-
एवं भवसंसारे, संसर सुहासुद्देहि कम्मेहिं ।
जीवोपायच समयं गोयम मा पमाय ||१५||
9
एवमुकप्रकारेण पृथिव्यादिकापस्थिति कृणेन भए गादिजन्मनः सत्रियमाणत्वारसा भवसंसारस्तमसंसरतिपदति शुभानि शुकृत्यात्मकानि चाशुप्रकृतिरूपाभिः पृथ्वी
ति बन्धनैर्जीवः प्राणी, प्रमादैः बहुलो व्याप्तः प्रमाद बहुलः, यद्वाबहून् भेदान्ातीति बहुलो मद्याऽऽयनेकभेदः प्रमादो धर्म प्र त्यनुद्यमाssस्मको यस्य स बहुल प्रमादः, सूत्रे त्र व्यत्ययनिर्देशः प्राग्वत्। इह चायमाशयः यताऽयं जीवः प्रमाद बहुलः सन् शुभाशुमानि कामपचिनोति उपत्य च तदनुरूपासु तिष् भवं जीवभावमुपगम्य भ्राम्यति ततो नत्वान्नमनुपत्यस्य प्रमादमूलत्वाच्च सकलानर्थपरम्परायाः, समयमपि गौतम ! मा प्रमादरिति सूत्रार्थः । एवं मनुजभवडुर्व्वभत्वमुक्तम् । इदानीं तदवाप्तावप्युत्तरोत्तरगुणावाप्तिरिति दुराबादबडूवि माणुसणं, आयरियत्तं पुणरावि दुलहं । बढ़वे दसुया मिलखुवा, समयं गोयममा पाए |१६|
वारियन, अदीयपंचिदियता हु दुखहा । निगदिता दीस, समयं गोयममा पमाय १७1 अही पंचिदियत्तं पिसे लने, उत्तमधम्मसुती हु दुलहा । कुत्तित्थिणिसेवए जणे, समयं गोयम ! मा पमायए | १८ | वि उत्तमं सदहया पुष्परानि सदा ।
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दुमपत्तय
"
मिच्छसेि जो समयं गोयममा पमाय ।। १२५ ।। ! पिसता बुझया कारण फासया । टु इद कामगुणेहिँ मुच्छिया, समयं गोयम ! मा पमायए । २० स्वाऽपि प्राप्यापि मानुषत्वमिदं तावदतिदुजमेव कथञ्चिल वाऽपीत्यपिशब्दार्थः। अथैवं मगधाचार्यदेशपक्षिणं पुनरपि भूयोऽपि आकारस्त्वन्वाक्षणिकः । दुर्लभं वापम्. किमि प्रभूतादयो देशप्रत्यन्तवासिनः निशि व्यक्तान दुका कवचनश्रादिदेशोद्धाः वेचना प्राप्यापि मनुज जन्तु रुत्पद्यते, ते च सर्वेऽपि धर्माधर्म्मगम्यागम्यनदयानयाऽऽदिसकलाऽयवहारयष्कृितानि एव वा । इति समयमपि गीतमा रथमार्थदेशोपा रूपमाश्वमपि दुर्लनम्। तथाविधमपि पश्यमकरूपमहीनान्यविकलानि पञ्चेन्द्रियाणि स्पर्शनादीनि यस्य स तथा तद्भावोऽनप ता। हुरवधारणे भिन्नक्रमश्च, दुर्लभैव ! यद्वा दुः पुनरर्थे । श्रहीपातुमाह-विताना दिभिरुपानी विकलेन्द्रियता, दुरिति नियालोऽनेकार्थतया वा ततो ब विकलेन्द्रियता दृश्यते, ततो दुर्लभाऽहोनपञ्चेन्द्रियता, तथा च समयमपि गौतम! मा प्रमादी तथा कथञ्चिहीनप तामप्यु कन्यायतोऽतिदुर्लजामपि स इति जन्तुर्लभेत प्राप्नुयाद तथाऽप्युतमः प्रधानो यो धर्मस्तस्य सुतिराकर्णना या सा तथा दुरवधारणे ततो दुर्लभैव, किमि. ति यतः कुत्सितानि च तानि तीर्थानि कुर्तीर्थानि शापो कादिप्रपितानि तानि विद्यन्ते येषामनुपता स्वीकृत स्वासे कुतीर्थिनः तानितरां सेवते यः कुतीर्थिकनिषेवको जन लोकः, कुतीर्थिनो हि यशःसत्काराऽऽद्येषिणो यदेव प्राणिप्रियं विदिताप्यात् ।
दि-" सत्कारशोलामा चिभिध मूढैरिहन्यतीर्थंकरैः । अवसादितं जगदिदं प्रियाण्यपश्यान्युपदिशद्भिः ॥ १ ॥ " इति सुकरैव तेषां सेवा । तत्सेवनाच्च कुत उत्तमधर्मश्रुतिः ? | पचतिरणिसे जणे " इति स्पष्टम् एवं प्रत्यवधार्य समयमपि गौतम! मा प्रमादी किंवा अपे उनमधर्मविषयत्वादुचनांत तिरूपानंतरच रूपं पुनरपि दुर्लभं दुरापमपि । श्व देतुमाद मिथ्याभावो मि ध्यात्वम् तस्त्रेऽपि तत्वप्रत्ययरूपं तं निषेवते यः स मिथ्यात्वनिषेवको, जनो लोकोऽनादिजवाज्यस्ततया गुरुकर्मतया च तत्रैव च प्रायः प्रवृत्तेः । यत एवमतः समयमपि गौतम ! मा प्रमादः । [सम्यच्चणीतम अपिभित्रकमः, लङ्कारे। ततः श्रयतोऽपि कर्तुमलियन्तोऽपि दु प्रकाः कायेन शरीरेण उपलक्षणस्वादू मनसा वाचा च, स्पर्शका अनुष्ठातारः । कारणमाह- श्हास्मिन् जगति कामगुणेषु म्चिता मूढाः, गृद्धिमन्त इत्यर्थः । जन्तव इति शेषः । प्रायेण ह्यप ध्येयेव विषयेष्वभिष्वङ्गः प्राणिनाम् । यत तम्-"प्रायेण हि यदपथ्यं तदेव चाऽऽतुरजनप्रियं भवति । विषयाऽऽतुरस्य ज. गतस्तथाऽनुकूलाः प्रिया विषयाः॥१॥” पाठान्तरभः कामगुणैर्मूविलुप्तधर्मविषयतयस्यात्मतो रापामिमामविकां धर्मसामग्रीमवाप्य समयमपि गौतम ! मा प्रमादरिति सूपकार्थः ।
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(२५७१) अभिधानराजेन्द्रः ।
दुमपचम श्रन्यश्च सति शरीरे तत्सामध्ये च सति धर्मस्पर्शनेति तद्निश्पतानिधानद्वारेण प्रमादोपदेशमादपरिजूर ते सरीरयं,
केसा पंमुरया वंति ते । से सोयबले य हायए,
समयं गोयम ! मा पमाय ||२१|| परिजूरइ ते सरीरयं, फेसा मुरा इति ते । से चक्खुबले य हायए,
समयं गोयम ! मा पमायए ।। २२ ।। परिजूर ते सरीरयं, केसा पंकुरया इति ते से घाणवले य हायए,
समयं गोयम ! मा पमायए ।। २३ ।। परिजूर ते सरीरयं,
केसा पंमुरया हति ते ।
से जिन्नबले य हायए,
समयं गोयम ! मा पमाय ॥ २४ ॥ परिजूरह से सरीरयं
केसा सुरया इति ते । से फासबले थ हायए,
समयं गोषम ! मा पमायए ।। २५ ।। परिजूर ते सरीर, सामुरया इति ते । से सम्ययसे व हायर,
समयं गोयम ! मा पमायए ।। २६ ।।
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परिजयैति सर्वप्रकारं वयोहानिमनुभवति ते तव श रीरमेव जरादिनिरभिभूयमानतयाऽनुकम्पनीयमिति शरीरकमया (परिजूर) निम्" इति प्राकृतणात् परिनिन्दतीवात्मानमिति गम्यते । यथा धिग्मां कीदृशं यातमिति । क्रिमिति, यतः केशाः शिरसिजाः, उपलक्षणत्वालोमानि च पारमुरा एव पाएकुरका भवन्ति, पूर्व जननयनहारिणोऽत्यन्तकृष्णा, सम्प्रति तां भजन्ते ते तच पुनस्ते शब्दोपादानं श्रियापश्चादुपदेशाधिकाराचा दुधम् । एवमुत रापि तथा इति तद् प्रथममासीत् या राऽऽदिवसामध्ये ओवलं.चा समुचये दोबजरातः पति या शरीराचा भात
यमपि योज्यं यथा च परिजीर्यति शरीरकं तथा च सति केशाः पाण्डुरका नवन्ति । ( से इति ) अथ श्रोत्रबलं हीयते यतः ततः शरीरस्य तत्सामर्थ्यस्य चास्थिरत्वात् समयम गौतममा प्रमादी एवं सूत्रपञ्चकमपि यम्, नवरमिद प्रथमतः श्रोत्रोपादानं प्रधानत्वात्, प्रधानत्वं च तस्मिन्सति शेषेन्द्रियाणामवश्यंभावाद, पटुतरक्षयोपशमत्याच तयोषदेशाधिकारादुपदेशस्य ग्राह्यत्वात् । तथा सर्वसम
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(१५७२) दुमपत्तय अनिधानराजेन्द्रः ।
दुमपत्तय सर्वेषां करचरणाद्यवयवानां स्वस्वव्यापारसामर्थ्यम् । यद्वा-स
कथं च वान्तपानं भवतीत्याह-- घेषां मनोवाकायानां ध्यानाध्ययनचक्रमणादिचेष्टाविषया
अवउन्किय मित्तबंधवं, ऽशक्तिरिति सूत्रषट्रार्थः ।
विउलं चेव धणोहसंचयं । जरातः शरीराशक्तिभक्ता । सम्पति गितस्तमाहअरई गंमं विसूइया,
मा तं विश्यं गवेसए, आयंका विविहा फुसति ते ।
समयं गोयम ! मा पमायए ॥ ३०॥ विहमह विछस ते सरीरयं,
अपोह्य त्यक्त्वा, मित्राणि सुहृदो, बान्धवाश्च स्वजना इति स
माहारः। मित्रबान्धवं, विपुलं विस्तीर्ण, चः समुच्चये भिन्नक्रसमयं गोयम ! मा पमायए ॥१७॥
मश्च । एवेति पूरणे । ततो धन कनकाऽऽदिव्यं, तस्मोघः समूहअरतिर्वाताऽऽदिजनितश्चित्तोद्वैगः,गाएमं गगम,विध्यतीव शरीरं
स्तस्य संचयो राशीकरणं धनौघसंचयः, तंच,मा, तदिति मिसूचिभिरिति विसूचिका अजीर्णविशेषः, श्राङिति सर्वाऽऽत्मप्रदे
त्राऽऽदिकं, द्वितीय, पुनर्गदणार्थमिति गम्यते । गवेषयान्वेषय, शाभिव्याप्यातङ्कयन्ति कृच्छ्रजीवितमात्मानं कुर्वन्तीत्यातङ्काः
तत्परित्यागाच्छ्रामपयमङ्गीकृत्य पुनस्तदनिचङ्गवान् मा भूः, सद्योघातिनोरोगविशेषाः,विविधा अनेकप्रकाराः,स्पृशन्ति परा
त्यक्तं हि तद्वान्तोपम, तदभिवङ्गश्च वान्तपानभाय इत्यभिप्रा. मृशन्ति, 'ते' तव,शरीरकमिति गम्यते । ततश्च विपतति विशे- यः। किं तु समयमपि गौतम! मा प्रमादीः । इति सूत्रार्थः। पेण बलोपचयादपैति विश्वस्यति जीवं विमुक्त विशेषेणाधः
इत्थं प्रतिबन्धनिराकरणार्थमभिधाय दर्शनविशुद्ध्यर्यमाहपतति शरीरकम् । अतःसमयमपि गौतम ! मा प्रमादी । सर्वत्र वर्तमाननिर्देशः प्राग्वत् । केशपाण्डुरत्वाऽऽदि च यद्यपि गौतमे
न हु जियो अज्ज दिस्सई, न सम्भवति तथाऽपि तन्निश्रयाऽशेषशिष्यप्रतिबोधनार्थत्वाद
बहुपऍ दिस्सइ मग्गदेसिए । दुष्टमिति सूत्रार्थः।
संपणानए पहे, * यथा चाप्रमादो विधेयस्तथाऽऽहवोच्चिद सिणेहमप्पयो,
समयं गोयम ! मा पमायए ॥३१॥
'न हु' नैव जिनस्तीर्थकृदयास्मिन काले, दृश्यते अवलोक्यते, कुमुयं सारश्यं व पाणियं ।
यद्यपीति गम्यते । तथाऽपि (बहुमप त्ति) पन्थाः । स च व्य. से सम्वसिणेहवज्जिए,
तो नगराऽऽदिमाग, भावतस्तु सातिशयशतकानदर्शनचारित्रासमयं गोयम ! मा पमायए ।॥ २० ॥
ऽऽत्मको मुक्तिमार्गः,तत्रेह भावमार्गः परिगृह्यते, दृश्यते उपल(वोदि ति) विविधैः प्रकारैरुत्प्राबल्येन छिनत्यपनयत्युच्चि- भ्यते, (मगदेसिए त्ति) भावप्रधानत्वानिदेशस्य मार्गस्येन्दकं, स्नेहमनिष्यनं, कस्य संबन्धिनम् ?, प्रात्मानं, किमिव ?,
नार्थाद् मुक्तेर्देशितो जिनैः कथितो मागदेशितः। अयमाशयः-स. कुमुदमिव चन्द्रोद्योतविकाश्युत्पलमिव, (सारश्य वत्ति)सूत्र
म्प्रति यद्यपि जिनो न दृश्यते, तदुपदिष्टस्तु मार्गो रश्यते, न त्वात शरदि भवं शारदं, वेत्युपमार्थो भिन्न क्रमश्च प्राग्योजितः।
चबिधोऽयमतीन्द्रियार्थदर्शिनं जिनं बिना संभवति, संदिग्धपानीयं जलं, यथा तत्प्रयमं जलमग्नमपि जनमपहाय वर्तते,
चेतसोजाविनोऽपि भव्यान प्रमादं विधास्यन्तीति । अतःसप्रति तथा स्वमपि चिरसंसृष्टचिरपरिचितत्वाऽऽदिनिमद्विषयस्नेहव
इदानी,सत्यपि मयि इति भावः नैयायिके निश्चितमुक्त्याख्यलाशगोऽपि तमपनय, अपनीय बस इति । अथानन्तरं सर्वस्नेहब
जप्रयोजने, पथि मागें, समयमपि गौतम ! केपलानुत्पत्तितः जिंतः सन्समयमपि गौतम! मा प्रमादी । इह च जनमपहाय
संशयविधामेन मा प्रमादी । यद्वा-त्रिकालविषयत्वात्सूत्रस्य पतावति सिद्धे यच्छारदपदोपादानं तच्छारदजन्नस्येव स्ने.
भावितव्योपदेशकमप्येतत् । ततोऽयमर्धः- यथा श्राद्यमाोपदेहस्याप्यतिमनोरमत्वख्यापनार्थमिति सूत्राः ।
शक नगरं वा पश्यन्तोऽपि पन्धानमवलोकयन्तस्तस्याविच्छिकिच
नोपदेशतस्ताप्रापकत्वं निश्चिनोति, तथा यद्यप्याद्यजिनः, उचिचा व धणं चनारियं,
पक्षक्षणत्वाद् मोकश्च, नैव दृश्यते, तपाऽपि तद्देशितः पन्था
मार्यमाणत्वादमागों मोक्तस्तस्य (देसिए त्ति) सूत्रत्वादेशको पवो हि सि अपगारियं ।
मागदेशको दृश्यते,सतस्तस्यापि तत्प्रापकत्वं मामपश्यद्भिरपि मा वर्त पुणो वि प्राविए,
भाविभत्र्यैनिश्चेतव्यं, यतश्चैवं भाविनव्यानामुपदिश्यते, अतः समयं गोयम ! मा पमायए ॥ २६ ॥
सम्प्रतीत्यादि प्राग्बत, द्विविधाऽपि चेत्थं व्याख्या, सूचकत्वात्यक्त्वा परिहत्य,णेति वाक्यालङ्कारे । धन चतुष्पदाऽदि,चश- तू सूत्रस्येति गाथाऽर्थः। ब्दो भिन्नक्रमः। ततो नार्या च कक्षत्रं च,प्रवजितो गृहान्निष्का
अत्रैवायें पुनरुपदिशन्नाहा ता, हिरिति यस्मात् (सीति) सूत्रत्वेनाकारलोपादसि भवसि,
अक्सोहिय कंदगाप, (अणगारियं ति) अनगारेषु भावनिक्षुषु भवमनगारिकम, अनु.
ओइयोऽसि पहं महालयं । ष्ठानं चास्य गम्यमानत्वात्,तच,प्रतिपन्नवानसीति शेषः। यद्वाप्रवजितं प्रतिपन्न: ( अणगारियं ति) अनगारतां,मा 'अ.
गच्छसि मग्गं विसोहिये, मा नोना' इति निषेधे । धान्तमुद्गीर्ण (पुणो वित्ति) पुनरपि
समयं गोपमा मा पमायए ॥ ३५॥ (आविपत्ति) आपिब, किंतु समयमपि गौतम! मा प्रमादी. (अवसाहिय सि) अवशोध्यापसार्य पृथक्कृत्य, परिहरिति एत्रार्थः ।
| स्येति यावत् । (कराटगापहंस) प्राक्वारोऽसाक्षणिका, क.
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(२५७३) दमपत्तय अन्निधानराजेन्षः।
दुमपत्तय पटकाश्च व्यतो बव्वूलकण्टकाऽऽदयो, भावतस्तु चरका55- | अथवा शेषशिष्यापेकया किमस्याप्रमादस्य फलं, यत् पुनदिकुश्रुतयः, तेरा कुत्रः पन्थाः कएटकपथस्तम, ततश्चावतीणों. | रयमुपदिश्यत श्त्याहऽस्यनुप्रविष्टो भवसि (पहं ति) पन्थानं (महालय नि) म.
अकमेवरसषिमुस्सिया, हान्तं महतां वा आलय आश्रयो महालयः। स च व्यतो रा
सिद्धिं गोयम ! लोयं गच्छसि । जमार्गों,भावतस्तु महद्भिस्तीर्थकराऽऽदिनिरप्याश्रितः सम्यग्दर्शनाऽऽदिमुक्तिमार्गस्तम्। कश्चिदवतीयोऽपि मार्ग न गच्वेदत
खमं च सिवं अणुत्तरं, श्राद-गच्छसि मार्ग, न पुनरवस्थित पवासि, सम्यग्दर्शमा.
समयं गोयम ! मा पमायए ।। ३५ ॥ ऽऽद्यनुपासनेन मुक्तिमार्गगमनप्रवृत्तत्वात । भवतस्तत्राप्यनि- कडेवरंशरीरम,अविद्यमानं कमेबरमेषामकमेघराःसिका,ते. श्वयेऽपायप्राप्तिरेव स्यादित्याह-बिशोध्यति विनिश्चित्य, तदेवं षां श्रेणिरिव श्रेणिरकमेवरश्रेणिः, ययोत्तरोत्तरशुभपरिणामप्राप्रवृत्तः सन् समयमपि गौतम ! मा प्रमादीरित सूत्रार्थः। निरूपया ते सिकिपदमारोहन्ति, क्षपकश्रेणिमित्यर्थः । यद्धा-क. एवं च पूर्वेण दर्शनीवशुद्धिमनेन च मागप्रतिपत्तिमभिधा- मेवराएयेकेन्द्रियशरीराणि, तन्मयत्वेन तेषांश्रेणिः कडेवरीणः य ततस्ततप्रतीतावपि कस्यचिदनुतापसंनब इति तम्भि
बंशाऽऽदिविरचिता प्रासादाऽऽदिवारोहण हेतुः, तथा च या न राचिकीर्षयाऽद
साकडेवर श्रेणिरनन्तरोक्तरूपंव, ताम् (उस्सिय ति) उच्छितां
गमिष्यसीति संबन्धः। यद्वा-( उस्सिय त्ति) उच्छ्रित्येवोच्छिअबले जह भारवाहए,
तोत्तरसंयमस्थानाचाप्त्या तामुच्छ्रितामिव कृत्वा, सिकिमिति मा मग्गे विसमेऽवगाहिया ।
सिद्धिनामानं, गौतम ! (सोयं गच्छसि ति) प्राग्वत् । लोकं ग. पच्बा पच्छाछुतावए,
मिष्यसि, संशथव्यवच्छेदफलत्वाचास्य गमिष्यस्येव, केम परसमयं गोयम ! मा पमायए ॥ ३३॥
चक्राऽऽद्युपवरदितम् । चासमुश्चये,भिन्नक्रमश्च । शिवमनुत्तर
च,तत्र शिवमशेषदुरितोपशमनेन, अनुत्तरं नास्योत्तरमन्यत्प्रधाअबस्रोऽविद्यमानशरीरसामथ्र्यो, यथेत्यौपम्ये, भारं बह
नमस्तीत्यनुत्तरं, सर्वोत्कृष्टमित्यर्थः । यतश्चैवं ततः समयमपि तीति भारवाहका । मा निषेधे । (मम्गेत्ति) मार्ग (विसमे
गौतम ! मा प्रमादीरिति सूत्रार्थः । सि) विषमं मन्दसवैरतिदुस्तरम्, (अवगाहिय ति)अवगा
सम्प्रति निगमयन्नुपदेशसर्वस्वमाहह्य प्रविश्य, त्यक्ताकीकृतनारः सन्निति गम्यते। पश्चात्तत्कालानन्तरं, पश्चादनुतापकः पश्चात्तापकृत्, अनूदिति शेषः । इदमुक्तं
बुके परिनिव्वुमे चरे, भवति-यथा कश्चिद्देशान्तरगतो बहुभिरुपायैः स्वर्णाऽऽदिकम
गापगए नगरे व संजए । पाय स्वगृहाभिमुखमागच्छन्नतिभीरुतयाऽन्यवस्वन्तर्हितं
संतीमग्गं च बूहए, स्वर्णाऽऽदिकं स्वशिरस्यारोप्य कतिचिाहनानि सम्यगुवदति,
समयं गोयम! मा पमायए ॥ ३६॥ अनन्तरं च कचिपलाऽऽदिसंकुले पथि अहो ! अहमनेन नारेणाऽऽक्रान्त इति तमुत्सृज्य स्वगृहमागतोऽत्यन्तनिर्कनठया.
बुद्धोऽवगतहेयाऽऽविविजागः, परिनिर्वृतः कषायाऽऽधुपशमतः ऽनुतप्यते. किमया मन्दभाग्येन तत्परित्यक्तमिति । एवं त्वम
समन्तातीभूतः,चरेरासवस्व, संयमामिति शेषः। (गाम ति) पि प्रमादपरतया स्यक्तसंयमभारः सनेवंविधो मा भूः, किंतु
सुपो लोपा प्रामे गतः स्थितो, नगरेवा, उपन्तकणस्वादरएयासमयमपि गौतम! मा प्रमादीरिति सूत्रार्थः ।
दिषु च। किमुक्तं भवति?, सर्वस्मिन्नन्निध्वजवान सम्यग्यतः
पापस्थानेम्य उपरतः संयतः,शाम्यन्त्यस्यां सर्वदुरितानीति शा. बहिदमद्यापि निस्तरणीयमल्पं च निस्तीर्णमित्यभिसं
न्तिः निर्वाणं, तस्या मार्गः पन्थाः। यद्वा-शान्तिरूपशमः, सैव धिनोत्साहभक्तोऽपि स्यादिति तदपनोदायाऽऽह
मुक्तिः तस्या हेतुर्गिः शान्तिमार्गों,दशधिधधर्मोपलकणं शान्तितिमो हु सि अमावं महं,
ग्रहणम् |तम्, चशब्दो भिन्नक्रमः,ततो बृहयस्व भव्यजनप्ररूपणकिं पुण चिट्ठसि तीरमागमो? ।
या वृ िनयेः,ततः समयमपि गौतम!मा प्रमादीरिति सूत्रार्थः। अनितुर पारं गमित्तए,
इत्थं भगवदभिहितमिदमाकार्य गौतमो यत् कृतवांस्तदाहसमयं गोयम ! मा पमायए ॥ ३४॥
बुधस्स निसम्म नासिय, (तिको सिसि)तीर्ण एवास्यर्णवमिवार्णवम्, (मह ति)
सुकहियमपओवसोहियं । महान्तं गुरूं, किमिति प्रश्ने, पुनरिति वाक्योपन्यासे । ततः किं
राग दोसं च चिंदिया, पुनस्तिष्ठसि तीरं पारमागतः प्राप्तः। किम कं भवति ?-भवत न.
सिधिगई गए गोयमे (त्ति बेमि)॥ ३७॥ स्कृष्ठस्थितीनि च कर्माणि जावतोऽर्णव उच्यते, स च द्विधिः बद्धस्य केवलाऽऽलोकादवलौकितसमस्तवस्तुतस्वस्य.प्रक्रमात् धोऽपि स्वयोतीर्णपाय एवेति केन हेतुना तीरप्राप्तेऽप्यौदासा.
श्रीमहावीरस्य,निशभ्याऽऽकरार्य,भाषितमुक्तं.सुषु शोभनेन नयापंजजसे ?, नैवेदं तवोचितमित्याशयः, किं तु अनितरन्ति नुगततरवाऽऽदिना प्रकारेण,कथितं प्रबन्धेन प्रतिपादितं सुकथि. अभ्याभिमुख्यन स्वरस्व शीघ्रो भव पारं परतीरं भावतोमुक्तिप- तम् । अत एवार्थप्रधानानि पदान्यर्थपदानि, तैरुपशोनितं जात. दम(गमेसप सि) गन्तुप। अतश्च समयमपि गौतम!.मा शोभमर्थपदोपशोभितम, रागंविषयाऽऽद्यनिष्वङ्गविषयम, द्वेषप्रमादीरिति सूत्रार्थः।
मपकारिण्यप्रीतिलकर्ण, चसमुच्चये। नित्त्वाऽपनीय, सिद्धिति अथापि स्याद् मम पारमाप्तियोग्यतैव न समस्त्यत- आह।। गतः प्राप्तो गौतम इन्भभूतिनामा जगवत्प्रथमगणधर इति स.
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दुमपत्तय
प्रार्थः । इतिः परिसमाप्तौ । ब्रवीमीति पूर्ववत् । उत्त०पा० १० अ० । आ० म० । श्रा० चू० स० नि० चू० । दुमपुष्यमपुष्पिकाध्ययन २०
तुमस्य पुष्पं
(२५०४) अनिधानराजेन्द
33
दुमपुष्पम् । श्रवयवलकृष्णः षष्ठीसमासः । द्रुमपुष्पशब्दस्य " प्रागिवास्कः ॥ ५ । ३ । ७० ॥ इति वर्त्तमान श्रज्ञाते कुत्सिते संज्ञायां कनि प्रत्यये नकारलोपे च कृते दुमपुष्विक इति प्रातिपदिकस्य त्वविवकायाम् “श्रजाऽऽद्यतष्टाप् ॥ ४ ॥ १ ॥ ४ ॥ इति डायस्पेऽनुबन्धलोपे च कृते यस्थात्पूर्वस्यात इदान्यसुपः ।। ७ । ३ । ४४ ॥ इतीत्वे कृते " अकः सवर्णे दीर्घः " ।। ८ । १ । १० ।। इति दीर्घत्वे परगमने च दुमपुष्यकेति तदुमपुष्पोदाहरणयुक्ता हुमधिकेति म पुचिका वासी अध्ययनं देति समानाधिकरण पुष्पिकाध्ययनमिति ।
33
अस्य वैकार्थिकानि प्रतिपादया
दुरंपुष्क्रिया व आहार गोयरे तथा रंगे। मेस जलूगा सप्पे, वक्खड़ सुगोल पुतुदगे || ३७ ॥ ( पष पदानामर्थस्तत्तस्वब्देषु ) दशवेकालिकस्य दुमपुष्पो दाहरणयुक्ते प्रथमेऽध्ययने, दश० नि० १ अ० । डुमराय - दुमराज - पुं० । प्रधानवृके, स्था० ४ वा० ४ ० | डुमसे दुमसेन पुं० [नवमवासुदेवयदेवयोः पूर्ववना मख्याते धर्माऽऽचायें, स० । श्रेणिकस्य राज्ञो धारण्यां जाते स्वनामख्याते पुत्रे, स च महावीरस्वामिनोऽन्तिके प्रव्रज्य
मशवर्षपर्याय संलेखनया मयाऽपराजिते देवलोके - पपय ततम्युवा महाविदेदे त्यतीत्यनुतरोपपातिकद शानां द्वितीयवर्गस्याष्टमेऽध्ययने सूचितम् । श्र०२ वर्ग १श्र० । दुमिय- धवलित - त्रि० । श्वेतीकृते, "दुमियघङ्कुमट्टे ।" 'दुमिए' सुधाधवलिते पूरे पाचाणाऽऽदिना उपरि घर्षिते तो ऐ मसृणीकृते । सू० प्र० २० पाहु० चं० प्र० । भ० । कल्प० । मिस्स द्विमित्र १० श्रदारिकमकारिक मिश्रद्विके, क० ४ कर्म० ।
-
दुम्ह द्विमुख पुंस्वनामस्या द्वितीये प्रत्येक बुके, उत्त काम्पिल्यपुरे जयवर्मराजा, तस्य गुणमाला प्रिया । अन्येदुर्जयवर्मा राजा स्थपतीनेवमाह - अद्भुतमास्थानमएमपं कु वास्तुपूजापुरस्सरं भूमिभागं परीक्ष्य सुमुहूर्ते खातं विरचितं, तत्र खाते पञ्चमदिवसे नानामणिममितः स्वमणिरिव प्रज्वलन् मुकुटो दृष्टः । तैर्विज्ञतो राजा सहर्ष भूमिमुपाद चित्रदर्शन महतो रसवेन तं मुकुटं स्वगृद्वे प्रावेशयत्। वस्त्राऽऽयैः सत्कृताः शिहिपनो विमानसदृशमास्थानमरामपं सद्यश्चकुः । चित्रकरैस्तत् सद्य एव विचित्रितम् । भूयः गुरूमुहूर्ते तं मुकुटं मस्तके निपायास्थानमा मुने समुदृश्यते तदनुस राजा लो द्विमुखतया विख्यातः ।
अधेयं मुकुटकथा अवन्तीशेन चएमप्रद्योतेन मुकुटवर्णकं श्रुत्वा स्वदूतः प्रहितः । दूतोऽपि तत्र गत्वा द्विमुखं प्रति एवमवादीत्राजन्! जयमुकुमिपतिमयति यदि तब जीवितेन कार्य, तदा तस्याऽयं प्रेध्यः । एवं दूतवचः श्रुत्वा द्विमु. ● मुकुटं फिरीटं पुत्रपुंसकमियमरः ।
दुमुद खनरेन्द्रः प्रोवाच-रे दूत ! तव स्वामिनो मम मुकुटमणालाघः स्वयस्तुहारणायैव जातोऽस्ति, त्वं तत्र गत्वा स्वस्वामिनं पाशिव देवी राही १. अनगिरिनामा हस्तीहमारा में जदुनामा ४ नभेति वस्तु माद्विमुत्वा निष्का सितमत्प्रद्योतयनयामास । क्रुद्धोऽथ चण्डप्रद्योतनृपतिर्गणनायक तुरगगजेन्द्ररथपदातिदपरिस्थाने स्थाने पूर्वमभ्यागतानेकराज म्यानपालदेशसीमं प्रापद्विगुसादोमुख नृपसैनिकले परितत्रोतगात्। तयोधरपामो बभूवाद्विमुखस्तदा द्विगुणं भुजबलं प्रससार । कृणेन सकलमपि चण्डप्रद्योतयनं तेन भग्नं नष्टुं च चरमप्रद्योतं स्थानिपात्य बद्धा च स्वपुरं नि. न्ये द्विमुखपः तं स्वाssवासे भव्यरीत्या रक्षितवान् | अभ्या एमप्रद्योतेन प्रकामस्वरूप सन्तायां कन्यां दृष्ट्रा यामिकानामेवमुकमश्रस्य द्विमुख राज्ञः कत्यपत्यानि सन्ति ?, इयमङ्गजा ब कस्य ?! यामिका ऊचुः - अस्य राशो बनमाला पक्षी सप्त सुनान् सुधुके, अन्यदा तथा निम्तितम्-मम सप्त पुत्रा जाता लाबिताश्च, पुत्री तु नै काऽपि जातेति स्वमनोरथ पूर्वये सामनय क्षमारध अन्यदासा कल्पकलिकां स्वमे ददर्श, क्रमेणेमां सुषुवे । योपयाचितं दत्वा ऽस्या मदनमज्जरीति नाम कृतम् । साम्प्रतं सर्वलोक चमत्कारकार। यौवनाऽऽगमे श्यं जातेति यामिकवचनं श्रुत्वा अप्सरोधिकं तद्रूपं च दृष्ट्वा कामार्त्तश्चराम प्रद्योतश्चिन्तयति-यं चेन्मम पत्नी स्यात्तदा मम जीवितं सफलं स्यात्, रा ज्यभ्रंशोऽपि मे कल्याणाय जातः, यदियं दृष्टा, चेद् द्विमुखराजा इमां मह्यं ददातु तदाऽहमस्य यावज्जीवं सेवको भवामि । चएमप्रद्योत परिणामस्तस्य वार्मिकेाद्विमुखर क थितः । राजाऽज्ञया यामिकैश्वण्डप्रद्योतः सनायामानीतः । द्विमुखराज्ञाऽभ्युत्थानं कृत्वा चण्डप्रद्योतः स्वाऽऽसने निवेशितः । स प्राञ्जलीभूय एवं बभाषे मत्प्राणास्तव वशगाः सन्ति, मच्छ्रियस्पदायत्ताः सन्ति, त्वं मम प्रभुरसि, श्रद्मतः परं सदैव तव सेवकोऽस्मि । श्रथ तद्भाववेत्ता द्विमुराजा चण्डताय तदेव निज पुत्र दो ज्योतिर्विि समुह दोराजपुत्रपरितवान् क रमोक्षावसरे च तस्मै घनं इव्यं दत्तमवन्ती देशं च दत्तवान् । कम्पासहितं चण्डद्यतं स्वदेखि विजितवान् । अ न्यदाद्विमुखनरेन्द्रस्य पुरे लोकैरिन्द्रस्तम्भोऽद्भुतः कृतः पूजित
द्विमुधोऽपि तं भृशं पूजितवाद समिप्यतीतेऽन्ये पुस्तमितनं विलुशोभनमेध्यान्तः पतितं खिराजा द दर्श पनि दि
मिश्च सरिता सोयमिन्द्रस्तम्भः साम्यती जातः थाऽयं नः पूर्वमा तथा सर्वोऽपि संखारो जिन्नां भिन्नामवस्थां प्राप्नोति, अवस्थाभेदकारणं रागद्वेषादेव, तत्प्रलयस्तु समताऽऽश्रयणाद्भवति, समता व ममता परित्यागा अति मारिया भवतीति वैराग्यमा प्रशासनदेवता समर्पित शेषः सर्वविरतिसामायिकं द्विमुख राजः स्वयं प्रतिपद्य प्रत्येक बुको बभूव । उक्तञ्च "वादयाचितं पौरजनैः सुरेश पलितं परेऽद्धि भूतित्व
यः ॥ १ ॥ इति । उत्त०६ अ० व्य० | मदा० । ती० ।
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(२५७५) भमिधानराजेन्द्रः।
दुमोदन
दुरस
दुभोक्ख-दुर्मोक्ष-त्रि० । दुःखेन मुध्यते इति दुर्मोकः । दुरुत्तरे, | दुय्या-दुर्जेन-पुं० । “जद्ययां यः" ।।४। २१२ ॥ मागध्यां सूत्र० १ श्रु० १२ अ०।
जधयां स्थाने यो भवतीति जस्य यः । प्रा० ४ पाद । दुष्टो दुम्मा-दुर्मति-त्रि० । अष्टा पापोपादानतया मतिर्यस्य सो 5.| जनो यस्मात, यदाचरणेन साधुरपि दुष्यति । खले, वाचा
मैतिः । सूत्र. १ श्रु० ११ १० । विपर्यस्तबुद्धौ, सूत्रः १ ७० | दुर-दुर-अव्य० । अभावे, व्य. २००। २०२उ०।
दुरकम-दुरतिक्रम-त्रि० । दुःखेनातिक्रमो सङ्घन विनाशो येदम्मणी-देशी-कलहशीवायां खियाम् । दे० ना० ५ बग ४७ बांते तथा आचा०१ २०२०५०। दुरतिक्षाहनीये, गाथा।
आचा०१ श्रु०५ अ०४०।। दुम्मण-दुर्मनस-त्रि० । दैन्याऽऽदिमति, द्विष्ट प्रत्यर्थः । स्था० ३
दुरंत-दुरन्त-न० । सुष्टोऽन्तो विनाशः प्रान्तो वा यस्य तद् दुरग० २ उ० । " दुम्मणजणदश्यवज्जियं।" कल्प० १ अधिo
न्तम । दुविनाशे, दुष्प्रान्ते, तं० आचा। पुरनान्तः पर्यन्तो
यस्य तद् पुरन्तम् । उत्त.॥अ दुम्मणिय-दौमनस्य-न0 । दुष्टमनोभावे, दश.अ. ३००।
ष्टपर्यन्ते, बा.१७०८
अ०। पुरवसाने, प्रइन०३ श्राधद्वार । विपाकदारुणे, प्रश्न उम्मय-दुर्मद-पुं०। पुणे मदो धर्मद। दुष्टेमदे,तवति च। त्रि.। २भाश्रद्वार । "दुरतपतलक्षणो।"पुरन्तानि दुष्टपर्यवसाआचा. १ श्रु० १ ०२ उ०।
नानि प्रान्तान्यसुन्दराणि लवणानि यस्य स तथा । उपा०२
01 भ.। दुम्मुह-दुर्मुख-पुं०। वसुदेवस्थ-धारण्यांजाते पुत्रे, अम्त० ३
दुरंदर-देशी-खोत्तीणे, दे० मा०५ वर्ग ४६ गाथा । वर्ग १०। (तक्तव्यता गजतुकुमारस्वब)मर्कटे, दे० ना० ५ वर्ग ४३ गाथा।
दुरणुचर-दुरनुचर-नाखा०५० १ उ०। ('तित्थयर' दुम्मेह-दुर्मेधस्-०। मुईया मेधा यस्वासौ दुर्मेधाः । उत्त. शब्देऽस्मिन्नेव भागे २२६२ पृष्ठे व्याख्या) पुःखाऽसेव्ये प्रवचने ७०।दुर्घौ, प्रइम० २ श्राश्र0 द्वार ।दश। विपा० । पुष्टा
च । भ६० ३३ उ०। झा । दुःखेनानुचर्यते सेव्यते यास विपर्ययाऽऽदिदोषदुष्टत्वेन मेधा वस्तुरूपाऽवधारणशक्तियां ते।
तथा । प्रश्न ३ाश्र•द्वार दःखाऽसेव्ये संयमे,पश्चा०१. दुर्मेधसः | विषयैर्जितेषु जन्तु, उत्त०७ अ.।
बिव०। मार्गे, संयमानुष्ठानविधौ च । पुं० । प्राचा.१७०४ दुम्भोय-दुर्गोच-त्रिका दुःकपणीये, विशे।
अ०४ उ०॥ दुय-दुत-न । शीघ्र, स्था• ७ ग० । नि० चूतं. नाट्यभेदे।
दुरणुपालय-दुरनुपालक-पुं० । दुःखेनानुपाल्यत इति दुरनुपा
खः, स एव पुरनुपालकः । दुःखानुपाननीये, उत्त• २३ ०। ज०५ वक-श्रा०चूका पा. मा गेयदोषे,दूतं यचरितं गीयते,
पश्चाo त्वरितगाने हि रागपुष्टिरकरव्यक्तिश्च न जवति । जं०१ वक०।
दरत्थ-दरस्थ-त्रि० । ग्रामाऽऽदेबहिःस्थे, आचा०१०८० जी० । द्रवत्यूवम्, हु-क्तः । वृके, पुं. शीघ्रतापति, रुवीभूते, पलायिते च त्रि.। बाच।
उ०। दय-द्विक-त्रि०। द्विपरिमाणे, भ०० श० १ उ.।
दुरप्प (ण)-दुरात्मन्-पुं० । धाऽऽचारप्रवृत्ते पात्मनि, उत्त० टिपद-त्रि० । विपदे, “ एवं यो भेश्रो।" पृथिन्यप्कायप्र
२००। श्रोघ० प्रा० म०। प्रश्न। योगपरिणतेचिव द्विको द्विपरिमाणो, द्विपदो बा । भ०८२०
दुरभि-दुरंभि-पुं० । मुख्यकृति, अनु। १उ०।
दुराभिगंध-दुरजिगन्ध-पु०। दुरभिः सर्वेषामाभिमुख्येन पुष्टो दयम्गा-देशी-द्वावपि दम्पती इत्यस्मिन्नथें, उत्त० । " बहु
गन्धो यस्यासौ पुरभिगन्धः । दुर्गन्धयुक्ते, जी. ३ प्रति० २ सो परितप्पंती दुयग्गा वि।" उत्त० १३ अ.।
उ०। प्राचा०।
दुरभिगंधणाम-दुरभिगन्धनाम-न0 । यदुदयात् शरीरेषु गन्धो दुय चारित्त-दुतचारित्व-न० । असमाधिस्थानभेदे, प्रश्न० ५
| दुरभिरुपजायते तद् दुरभिगन्धनाम । गन्धनामकर्मभेदे, कर्म. सम्ब० द्वार ।
६ कर्म । पं० सं०। दुयहाण-द्विकस्थान-न । मूनगुणात्तरगुणस्थाने, पं० चू।
दुरानिगम-दुरनिगम-त्रि० । दुःखेनाभिगन्तव्ये, “तो पच्चा तुयविलंषिय-दुतविलम्बिवना विलम्बितानिनये, रा० । प्रा.
अदेलोगेणं दुरभिगमे पालत्ते । " स्था० ३ ग०४ उ० । म०। छन्दोभेटे, वाच।।
अध इत्यधोखोकमभि समेति, एवं च सामोत्प्राप्तमधोनोको दुयसीलय-दुतशीलत्व-न० । अपर्यानोच्य संभ्रमाऽऽवेशाद हुतं दुरभिगम, क्रमेण पर्यान्ताभिगम्यत्वादिति । स्था० ३ ठा० दुतं भाषणाऽऽदिषु,ध तथाहि तशीलत्वं चाऽपर्या लोच्य सं. ४०० । दुरवबोधे च । स० १० अङ्ग । भ्रमाऽऽवेशाद् द्रुतं दुतं भाषण तथा दुतं दुतं गमनं दुतंदुतं कार्य- सुरवगाह-दुरवगाह-त्रि० । दुष्प्रवेशे, " स्वरेस्तरश्च" ||८ करणं स्वनावस्थितेनाऽपि तीवोद्रेकरशाहर्षेण स्फुटनमिवेति १।१४ ॥ इति पुरन्स्यव्यञ्जनस्य वरपरे सुझन । “पुरवगा. च । ध०३ अधिः ।
हं।" श्राव. १ अ.। पुष्प्रवेशे, विशे० प्रा० म०। दुःखाध्येये दुया-द्विता-स्त्री। द्वयोर्भावे, पो०१६ विवः।
च। स०१० असा दुवाह-द्विकाह-न। दिनद्वये, आचा० २श्रु०१० ३ ०दस्स-रिस-न० । रसद्वये, तद्वति च । त्रि० । भ.१ श.७ १०।
| उ०। स्था ।
द्वारा
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(२५७६) अग्निधानराजेन्ः
वुलभ दुरहि-दुरभि-पुं० । दुर्गन्धे, तं० ।
किकम, अनेन चोक्तन्यायाल्लोकोत्तरमप्याकितं चेदितव्यमिति, दुरहिगम-दुरनिगम-त्रि० । 'दुरभिगम' शब्दार्थे, स्था० ३ गाथादलाक्षरार्थः। भावार्थः कथानकादवसेयः । तच्चेदममा०४ उ०।
" कि कोई तम्बासीओ जालवावरकरो मच्छगवहाए चलि. दुरहिडिय-धुरधिष्ठित-त्रि० । दुराश्रये सेवे, दश०६ भ०।
श्रो। धुण भाम-आयरिय! अघणा ते कंथा। सोनण:दुरहियास-दुरध्यास-त्रि० । सोदुमशक्ये दुर्विषहे, न० १५ |
जासमेतं । " इत्यादि श्लोकाइबसेयम्
"कन्थाचार्याऽघना ते ननु शफरबधे जालमइनासि मत्स्यान्, श । दुरधिसह्ये, भ० ५ श०६ 30 । उपा० । विपा० । ते मे मद्योपदंशाः पिबसि ननु युतं वेश्यया यासि वेश्याम् । दुरहियासय-दुरध्यासक-त्रि। दुरधिसहनीये, प्राचा० १] कृत्वाऽरीणां गलेऽहिं क नु तव रिपबो येषु सन्धि बिनधि. श्रु० ६ ०२ उ० । सूत्र।
चौरस्त्वं छूतदेतोः कितव इति कथं येन दासीसुतोऽस्मि ॥१॥" दुरहिसह-दुरधिसह-त्रि० । सोदुमशक्ये, स्था० ०। । इदं लौकिकम । चरण करणानुयोगे तुदुराइ-द्विरात्र-न । द्वयो राज्योः समादारे,स्था०५ ठा०२०।। "श्य सासणस वएणो, जायइ जेणं न तारिसं बूया। दुराएवत्त-दुरानुवर्त-त्रि. । दुःखेनानुवत्ये, व्य० ३ उ०।।
वादे वि वहसिज्जा निगमणो जेण तं चेच ॥ १ ॥"
उदाहरणदोषता पुनरस्य स्पष्टैवेति । दश०१ अ०। दुराराह-दुराराध-त्रि० । दुःखेनाऽऽराध्ये, कल्प. ३ अधिकए
दुरुवयार-दुरुपचार-त्रि.।'दुरुवचार 'शब्दार्थे, तं० । दुरारोह-दुरारोह-त्रि०। पुःखेनाऽऽरुह्यते ऽभ्याम्यत इति पुरा- दुरुढत्त-दुरुद्वेष्टक-पुं० । दुःखनाद्वेष्टने, व्य. १ उ०। रोहः । पुरध्यासे, उत्त० १३ अ०।
दुरुहमाण-दरोहत-त्रि । इष्टमारोहति, "सेज्जासंथारए.. दुरालोअ-देशी-तिमिरे, दे० ना०५ वर्ग ४६ गाथा ।
रूहमाणे।" आचा. २ श्रु.१०२ अ० ३ उ." से भिदुरासय-दुराश्रय-त्रिका दुःखेनाऽऽश्रीयत इति दुराश्रयः। प्रश्न.
क्खू वा निक्खुणी वा णावं रुदभाणे।" आचा• २ श्रु ३ श्राश्र• द्वार । दुःखेनाऽऽश्रयन्ति यमतिकोपनत्वाऽऽदिनिरि
चू. ३ अ०१०। ति दुराश्रयः । उत्त पाई० १ ० । करे, उत्त०१०।
दुरुहियास-दुरध्यास-त्रि.। दुःखेनाधिसह्ये, सूत्र. २ भ्र. दुरासद-त्रि० । दुःखेनाऽऽसाद्यतेऽभिन्यते इति दुरासदम् ।। १.। जं०। दुरभिभवे, दश० २ ० । दुःसहे च । उत्त• २२ म०। दुरूद-दूरूढ-त्रि० । आरुढे,
स्था1०। जं.। दुरितारि-दुरितारि-स्त्री०। श्रीसंभवजिनस्व प्रवचनदेव्याम,
दुरूव-दूरूप-त्रि० । दुष्ट रूपं यस्य स दूरूपः। सूत्र० २ प्रव० २७ द्वार।
क्षु० ३ ०। बीभत्सदेदे, सूत्र०२ ० १ ० विरूपे, शा.१ दुरिय-दुरित-न० । दुमितं गमनं नरकादिस्थानमनेनेति ।
६०१०।" पगे पुरुवे।" अमनोरूपे, स्था०१8०।बाच०। पापे, पातु०।
स्वनावे च । भ० ७० ६० "दुरूवे पुग्ध । " भ. दुरियारि-पुरितारि-स्त्री०। 'दुरितारि' शब्दा, प्रब०३७द्वार।।
१० ८0 स्था। दुरुक-रुक्त-न । दुष्टमुक्तम् । बुटवचने, पाच० । भाचा दुरूवताय-दरूपताक-पुं० । दूरूपनादेतुतया परिणमति इ. २७.१चू. १०८००।
रूपतां करोतीत्यर्थ, न.७ श. १००। दुरुत्तर-दुरुत्तर-त्रि० । " स्वरऽन्तरइच" ॥८।१।१४॥- दुरूवभक्खि (ए)-दृरूपभाक्षिण-पुं० । भाच्यादिमाके, त्यस्यव्यम्जनस्य स्वरे परे लुक न । प्रा० १ पाद । दुःखन उ. सूत्र० १ ० ५ अ. १००। सीर्यते । दुर्-त्-तृ-स्थन् । ऽस्तरे, दुष्टमुत्तरम् । प्रा० १ पा. दुरूहण-दरोहण-न० । मारोदणे, मि. सू० १२ १०। द । दुष्टे उत्तरे, न० । वाच । दुले श्ये, सूत्र० १ ध्रु० ३
दुरूहित्तु-वृह्य-भव्य० । समारुह्येत्यर्थे, समारोप्येत्यर्थे । अ०५० । दुर्गमे च । त्रि.। सूत्र० १ ०३०१०।
सूत्र० १७०५० २३०। दुरुत्तार-दुरुत्तार-त्रि० । दुःखेनोत्तरणीये, पाव. ३ अ.।।
दुरूहिय-बूरुह्य-अव्य० । पारुह्येत्यर्थे, सूत्र.१७० ११० । दुरुक्कर-दुरुद्धर-त्रि० । दुःखेनोतु शक्ये, सूत्र०१४०२०
दुरेह-द्विरेफ-पु.। "द्विन्योरुत"॥८१।१४॥ इतीत उव. ५००।
म् । 'पुरेहो।' प्रा० १पाद । द्वौ रेफी वाचकनाम्नि यस्य सः। तुरुवचार-दुरुपचार-त्रि०ादुष्टे उपचारे,तहति च । 'दुरुवचारा.
भ्रमरे, तच्छब्दस्य रेफद्वयवस्वेन तद्वाच्यमधुकरपदाथै ऽपि ओ।" तं०। पुरुपवारा:-पुष्ट उपचार अपचाराम्बितवचना
द्विरेफत्वम् । वाच01 अदिविस्तारो यासां तास्तथा स्त्रियः । तं०।
दुली-देशी-, दे. ना.५ वर्ग ४२ गाथा। दुरुवणीय-दुरुपनीत-पुं० । दुष्टमुपनीतं निगमितमस्मिमिति | पु
वव-देशी-वखे, दे० ना.५ वर्ग ४१ गाथा। दुरुपनीतम् । उपन्यासदेतुभेदे. दश. १० स्था।
वस्नग्ग-देशी--अघटमाने, देना०५ वर्ग ४३ गाथा। दुरुपनीतद्वारं व्याचिख्यासुराहअणमिसगिएहणा निक्खुग, दुरुवपीए उदाहरणं (२) दुल्लन-दुर्लज-पुं० । उर्लन-खम् । कचूरे, दुराललायाम, भवानिमिषा मत्स्याः , तादणे भिक्षुस्दाहरणम, इदं च लौं] श्वेतकण्टकार्यों च । स्त्री । वाच। दुरापे, मि. । प्रश्न ३
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दुल्लभ
आश्र० द्वार । पञ्चा० । दश० । उत्त० । सूत्र० । श्र०म० अ० चू० । भ्रातुः । आचा० प्र० । "जीवियं चयर, डुच्चयं चयह, करं करेश, बहं लहर, बोर्डि बुज्झर ।" (व्याख्याऽस्य • आउ' शब्द द्वितीयभागे १३ पृष्ठे अष्टव्या) शतपाकसहस्र पाका १४० नि० चू०
।
दुभवगाढन्यागाद पुं० [दुमालानेनागाढे, "सतपागसहस्सपागं घयं तेलं तेण साडुणो कज्जं, त मांगा।" ०० ११० माि नधर्मप्राप्तिस्यासौ फुर्लभबोधिकः । भवान्तरे दुरापजिनधमेके प्रति० स्था० ( 'सुनभबोदिव' शब्दे वर्णको पदय परिवारपूपदेऊ, पामस्थाणं च आरसीए ।
जबोदिप दुर्लभवोधिक
जो न कहे विसुद्ध से दुलहवोहियं जाण ||२०|| परिवार आरमव्यतिरिका परिवारेण पूजा परिवारस्य वा पूजा परिवारपूजा ! अथवा परिवारपूजा ह्रस्वस्वप्रीतिप्रभवा, तस्या हेतुर्निमितमिति । पार्श्वः सम्यक्त्वं, तस्मिन् ज्ञानाऽऽदिपार्श्वे तिष्ठ तीति पावस्थाः तेषामनुतिरनुपतं गं बायो न कथयति न प्रकाशयति विशुद्धं सर्वविदिष्टं यावतिं मु क्तिमार्ग, तमाचार्य साधुं वा फुलंजयोधिकं जानीहि । श्रयमत्र भा यदि मनोज्ञसंविग्नो परिवारासा ध्याचारं न कथयति, अयमन्यथा प्रवृत्तः सम्यक्तकथनेन प्रकटो भविष्यति ततोऽयं विषष्यति ततः शरीरादिधिनि करिष्यति पूजावान प्रतीतितो पा
वा यत मामेते सम्यक कथयतः प्रकोपं वास्यन्त्यतो बरमारमा कृतमिति पते वा भवति सुन्दरमपि विदधानाः संसारसागरे निपतन्ति ।
यत उक्तम
"जिनानाय कुतानं तूर्ण मिध्यानकारणं । सुंदर पिसदीय सनिबंध | जे गयआरंभरया, ते जीवा होति अप्पदोसयरा । तड महपावयरा, जे भरंनं पसंसंति ॥ "
( २५७७) अनिधानराजेन्
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यतएवमतः परमाऽऽराध्य कालिक सुरभिरिव प्राणप्रहाणेऽपि परानुयाऽपि नैवान्यथा प्रापणीयमिति माघार्थः ॥ २६ ॥ दर्श० ३ तच्च । खुल्लनययिता दुईजोदिकता ख० दुर्लभा बोधिर्जिन म्र्मो यस्य स तथा तद्भावस्तता । दुर्लभ जिनधर्मतायाम्, स्था० ५ ठा० २ उ० । प्रति० रा० (पञ्चभिः कारणैदुबोधकताकर्म करोतीत्युकम् अथवा शब्दे - मनागे १२ पृष्ठे ) ल्ललिप कुर्बलिन न० 1 दुर्लल ईप्सायाम, भावे का वाचा दुवस्तुवायाम् महा० ६ ० दुल्ल सिआ - देशी- दास्याम्, दे० ना० ५ वर्ग ४६ गाथा | फुल्नह-दुर्लभ–त्रि०।' 'दुल्लभ' शब्दार्थे, प्रश्न० ३श्राश्र०द्वार । दुल्लवोहिय-दुर्लन वोधिक पुं० । ' डुल्लभबोहिय' शब्दार्थे,
प्रति० ।
दुन्द सेना हुनशय्याखी तो पश्चा० १७ विव० नि० चू। ६४५
3
दुबई
अण द्विवचन- न० | " द्विम्योरुत् " ॥ ८ । १ । ६४ ।। इति हिशब्देकारस्याकारः । " डुवनं।” प्रा०१ पाद । उच्यते ऽनेनोक्तिति वचनम् । द्वयोरर्थयोर्वचनं द्विवचनम् । स्था० ३ वा० ६ ३० | व्याकरणों के औतस्प्रमृतिप्रत्यये, घाच० । बस्तुयप्रतिपाद के वचने च । यया वृक्षौ । आचा० २ ० १ ० ४
भ० १ उ० प्र० म० । प्रज्ञा० ।
दुबई - Sौपदी - स्त्री० । द्रुपदराज डुहितरि, झा० ।
एवं खलु जंबू ! तेणं काले तेणं समरणं चंपा नामं नयरी होत्या । दीसे पाए गायरीए बढ़िया उत्तरपुरिचिमे दिसीनाए सुमिभागे णामं उज्जाणे होत्या । तत्थ
पाए गवरी कोशिए गर्म राया होत्या । महया हिमवंतत्र । तत्थ चंपाए एयरीए तओ माढणा जायरो परिवति तं जहा सोमे २, सोमदचे २, सो मई अड्डा जारि ४० जान सुपरिखिडिए या होत्था । तेमि माहाणं तत्र जारिया होस्था। तं जहा नागसिरी, नृतसिरी, जवखसिरी, क मालपा शिपाया०जाव तेर्सि के माहा इडा कंता पिया मां मामा विउले माणुस्सर कामजोए० जाव चिह्नरंतित सिमाहाणं अमाया कवाई गयो स वागयाण जान इमेपारुवे मिट्टी कासमुहाचे समुपति स्या एवं देवापिया अइये विषण० जान सार अलाहि० जाव प्रासतमाओ कुलसा पकार्य दार्ज पकामं जोतुं पकामं परिजानं तं सेयं खलु अम्हं देवापिया ! समास्स गिहेसु कलाकलि विज असणं पाणं खाइमं साइमं उबक्खमावेइ, उवक्खमावेत्ता परिमाणा विरिचर भणमस्य एयम पमिथुणेति, पमिणेत्ता कल्ला कति असस्स गिनु विचलं असणं पाणं खास उपक्समावेति, उपक्वमावेचा परिजमाणा विहति । तए णं तीसे लागसिरीए माइलीए
कवा जोषणवारए जाए यानि होत्या । तए साखागसिरी पिडलं असणं पानं स्वाइयं साइमं ववख डेति, उवक्खमेत्ता एवं मदं साझइयं तित्चालाउइयं बहुसंभारसंजुचं नेहागाई पक्वमावेति उपसमादेवा एवं विदुयं करयांसि आसाएति तं खारं कसूर्य वि. सत्यं जाणित्ता एवं वयासी-धिरत्धु हां मम लागसिरीए अयाए अाए दूजगाए दूजगसताए दुर्भागनियोलियाए, तं जाए णं मए सालइए बहुसंभारसंभिए नेहावतं गाडे भए सुबहुव्यवखय नेक्खए कए से ज णं मम जाउयाओ जाणिस्संति, ताओ णं मम खिसिस्संति, तं जाब ममं जाउया न जाणंति तात्र ममं सेयं एवं सालएवं विताना बहुसंभारनेहक एगंने गोविच अ
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दुवई
अनिधानराजेन्द्रः ।
दुवई
सालश्यं पहरालाउयं० जाब नेहावगान नवखमियए तुमं अकाले चेव जीवियाओ ववगेविजसि, तंमा णं तुम एवं संपेदेति, संपेहेता तं सालइयं० जाव गोवेति, गोवे. | देवाणपिया ! इमं सालश्यं० जाव आहारोस, मा णं तुम ता अमं सानइयं महरालानयं नवखहोति, उवक्खमेत्ता अकाले चेत्र जीवियाओ बबरोविज्जसि, तं गच्छह णं तुम तोस माहणाणं एहायाणं जाव सुहासणवरगयाणं तं वि. देवाणुप्पिया ! मं साबश्यं एगंतपणावाए अचित्ते मिउलं असणं पाणं खाइमं साइमं परिवेसे । तए णं ते प्से परिहवेह, परिहवेत्ता अमं फास्यं एसणिजं असणं माहा जिमियनुत्तुत्तरागया समाणा आयंता चोक्खा
पाणं खाइमं साइमं पमिग्गाहेत्ता आहारं आहारहि । तए परममुइनूया सकम्मसंपनत्ता जाया यावि होत्था । तए णं
णं से धम्मलई अणणारे धम्भघोसाणं थेराणं एवं वुत्ते तामो माहणीओ एहायाजाव विनूसियाओ तं विनवं समाणे धम्मयोसस्स थेरस्स अंतियानो पमिणिक्खमति, असणं पाएं खाइमं साइमं आहारेंति, आहारता जेणेव
पडिमिक्खमित्ता सुमिनागाश्रो नजाणाप्रो अदूरसासयाई गिहाई तेणेव नवागच्छंति, नवागच्छित्ता सकम्मसं. मंते थमिले पमिनेहेति, पमिलेहेत्ता तत्तो सालइयापउत्तानो जायाभो । तेणं कालेणं तेणं समएणं धम्मघोसा
| ओ एग बिंगं गहाय थंमिलंमि णिस्सर । तए णं नाम थेराजाव बहुपरिवारा जेणेव चंपा णामणगरी जेणेव
तस्स सानश्यस्स वित्तालान यस्म बहनेहावगाढस्स गंधेणं सुमिभागे उजाणे तेणेव उवागच्छंति,उवागच्छित्ता प्रहा
बहाण पिपीलिगासहस्साणि पाउन्नया, जं जहा णं पिपीपमिरूवं उग्गइं० जाव विहरति । परिसा णिगया,धम्मो क.
लिया माहारेति, तं तहा अकाले चेव जीवियाग्रो हिओ,परिसा पमिगया। तए णं तेसिं धम्मघोसाणं थेराएं
ववरोविजइ । तए णं तस्स धम्मरुस्स अणगारस्स इमेअंतेवासी धम्मरुई नामं अणगारे नराले० जाव तेपलेस्से
यारूवे अब्लस्थिए जाच समुप्पजित्या-जर ताच इमस्स मासं मासेणं खममाणे विहरइ । तए णं से धम्मरुई णाम
सामइयस्मजाव एगम्मिबिंदयम्मि पक्खित्तम्मि अणेगाई यणगारे मासखमापारणगंसि पढमाए पोरिसीए सज्झायं
पिपीलियासहस्साई ववरोविजंति, तं जाणं अहं एवं करेइ, वीयाए पोरिसीए झाणं जाए, तइयाए पोरिसीए
सालइयं यं मलंसि सवं णिसिरामि तए णं बहूणं पाजहा गायमसामी तहेब भोगाद्देश, ओगाहेत्ता तहेव धम्म.
पााणं चहणं नपाएं बहणं सत्ता बहणं जीवाणं वहघोस थेरं आपुच्चति,एच्चित्ता जाव जेणेव चंपा नयरी
करणं भविस्सति, तं सेयं खलु ममं तं साइयंजाब नेउच्चनीचमजिकमाई कुलाइं० जाव अम्माणाजेणेव नागसि
हावगाढं सयमेव आहारेत्तए, पमं येव एएणं सरीरएणं रीए माहणीए गिहे,तेणेन अणुप्पविहे । तए णं साणागसिरी
णिज्जान त्ति कह एवं संपेहेति, संपेहेत्ता मुहपोत्तियं धम्मरुईणाम अणगारं एजामा पासति,पासित्ता तस्स सा
पमिलेहेति, पमिलेहेता सीसोपरि कार्य पमज्जेई, पमलइयस्स तित्तक मुथस्स बहुनेहाए पमिट्टियाए हहतुवा
जेत्ता तं सामइयं तितकडुयं बहुणेहावगादं पिलभिव उठाए नहेति,जगेन भत्तघरे तेणेव उवागच्छा, नवागरिछत्ता
पएणगए अप्पाणेणं सव्यं सरीरकोटगंसि पक्विवति। तं सामइयंतित्तालाउयं बहुणेहावगाढं धम्परुइस्स अणगारस्स पडिम्महए सबमेव निस्सरति । तए एं से धम्मरुई अगारे
तए तस्स धम्मरुस्स तं सालइयं० जावणेहावगाढं
आहरियस्स समापस मुद्त्तरेणं परिणाममाणंसि स. अहापजत्तमिति कडु नागसिरीए माहणीए गिहाप्रो पडि.
रीरगांस वेयणा पाउन्नया नजला जाव दुरहियासा, णिक्खमति, पमिणिक्खमित्ता चपाए नयरीए मऊ मज्ोणं
तए पं धम्परुई अणगारे अथामे अबले अवीरिए अपुपमिणिक्खमति, पमिणिक्खमित्ता जेणेव मुमिनागे उ
रिसकारपरक्कमे अधाराणिज्जमिति कट्ट आयारनंदगं ए. जणे तेणेव नवागरछा, नवागच्छित्ता जेणेव धम्मघोसा
गंते ठवेइ, वेत्ता थमिदं पढिलेहेइ, पडिलेहेन्ता थेरा तेणे व नवागच्छड़, उवागच्चित्ता धम्मघोसस्स अ.
दब्भसंथारगं संयरेइ, संथरेत्ता दम्नसंथारगं दुरूहाति, सामंते शरियाबहियं पमिक्कमइ, पमिक्कमित्ता प्रहापाणं
दुरूहित्ता पुरस्थाभिमुहे संपलियंकणिसएणे करयनपरिपमिलेदेइ, पडिलेहेत्ता अध्नपाणं करयझसि पमिदंसेति । तर ते धम्मघोसा थेरा तस्स सालइयस्स बहुनेहा
ग्गाहियं सिरसावत्तं मत्थए अंजील कह एवं बयासी-"णवगाढस्स गंधेणं अनिन्या समाणा ताओ सालझ्याओ
मोऽत्यु णं अरुहंतासं भगवंताणं जाव संपत्ताणं,णमोऽत्यु णेहावगाढाओ एग बिंदुगं गहाय करयलंमि भासायंति,
एं धम्मघोसाणं थेराणं मम धम्मायरियाणं मम धम्मोवएतित्तगं खारं कमयं अखज्जं अनोज विसनयं जाणेत्ता
सगाणं पुब्धि पिय णं मए धम्मपोसा घेराणं अंतिधम्मरु अणगारं एवं बयासी-जाणं तुम देवाणु
ए सव्वं पाणाइवाए पच्चक्खाए जावजीचाए जाव सम्वं प्पिया ! एयं सालइयं० भाव बहुणेहावगाई आहारेइ, तो परिग्गहे, इयाणि पि णं अहं तास चेध नगवंताप
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(२५७५) अभियानराजेन्रुः ।
दुवई अंतियं सब्ध पाणातिवायं पच्चक्खामि जान सव्वं परि- गसिरीए माहणीए अहमाए अपुमाए. जाव निंबोलियाए ग्गहं पच्चक्खामि जावज्जीचाए जहा खंदी० जाव चरिमे- जहणं तहारूवे साहूणं साहुरूचे धम्मरुई णामं अणगारेमाहिं उसासेहिं वोसिरामि" त्ति कट्टालोइयपमिकंते समा- सखमणपारणगंसि सालइएवंजाब णेहावगाढणं अकाले हिपत्ते कालगए । तर ते धम्मघोसा थेरा धम्मरुइं अ- चेर जीवियाश्रो ववरोविए । तए णं ते समणा निग्गंगा पागारं चिरगयं जाणेत्ता समणे निग्गंथे सदाति, सद्दावे- धम्मघोमाणं येराणं अंतिए एयपटुं सोचा णिसम्म चंपाए 'ता एवं वयासी-एवं खबु देवाणुप्पिया ! धम्मरुई णामं एयरीप सिंघाडगतिग. जाव बहुजास्स एक्माश्क्खंति० अपागारेमासखमण पारणगंसि सालइयस्स० जाव गाढस्स
४ घिरत्यु पं देवाणुपिया! णागसिरीए माहणीए० जाव निसरपट्ठयाए बहिया णिग्गए चिरगए, तं गच्छह णं तु- निंबोलियाए, जाए णं तहारूवे साहूर्ण सादुरूये सालश्रणं बन्ने देवाणुप्पिया! धम्मरुहस्त अणगारस्म सन्चो स- जीवियाओ ववरोवेति । तएणं तेसिं समयाणं अंतिए एयमद्वं मंता मग्गणगवेसणं करेह । तए णं ते समणा निग्गंया जाव | सोचा णिसम्म वहुजणो अमममस्स एवमाइक्वंतिवधिपमिसुगति, पमिणेत्ता धम्मघोसाणं थेराणं अंतियाओ रत्यु णं णागसिरीए माहणीए० जाव ववरोविए । तए णं पमिणिक्खमंति, पमिणिक्खमइत्ता धम्मरुश्स्स अणगारस्स ते माइणा चंपाए नयरीए बदुजणस्स अंतिए एयमटुं सोचा सन्चो समंता मग्गणगवेसणं करेमाणा जपत्र मिले। णिसम्म आमुरुत्ता जाव मिसमिसेमाणा जेणेव रणागसिरी तेणेव उवागच्छति, नवागच्चित्ता धम्मरुइस्स भणगार- माहणी, तेणेव नवागच्चंति, नवागच्छत्ता णागसिरिं माहस्स मरीरगं णिप्पाणं णिचहें जीवियाओ विप्पजदं पा- णि एवं वयासी-हं लोणागसिरी! अपत्थियपत्थिए तुरंसंति, पासइत्ता हा हा महो अज्जमिति कद्द धम्मरुस्स तपंतसक्खणे हीणपुमचाउद्दसे घिरत्यु णं तव अधपाए अ. अणगारस्स परिनिव्वाणवत्तियं काउस्सरगं करोति, धम्मरुइ- पुष्पार निंबोनियाए० जाव णं तुमं तहारूवे सादणं साहरूवे स्स आगारस्स भायारभमग गेएहति, गेएिहत्ता जेणेष मासखमाणपारणगंसि सालइएणं ० जाव ववरोविए, उखावधम्मघोसा थेरा तेणेव उवागच्छति, नवागच्चइत्ता गमणा- याहिं नकोसणाहिं अकोसंति, जच्चावयाहिं नसणाहिं उ. गमणाए पमिकमंति, पढिकमत्ता एवं बयासी-एवं खनु
छति, उच्चावयाहिं निब्भत्यणादि निन्नत्यति, उच्चावयाहिं अम्हे तुम्दं अंतिया ओपमिमिक्खमाणा मुनूमिभागस्स उ. निच्हणाहिं निच्चूहेंति, नचावयाहि निच्छोमणाहिं निच्छोजाणम परिपरंते णं धम्मस्स अणगारस्स सम्बं० जाव टेति, तज्जेति, तालेति, तन्जित्ता तालित्ता साओ गिहाओ करेमाणा जेणेव थमिले तेणेव उवागच्छइ, उवामनसा निम्भाग्छेति । तए णं सा नागसिरी माह सयाोगिहाम्रो
जाच हं हन्त्रमागया, तं कानगएणं ते! धम्मद अह- निच्छूदा समाणी चंपाए नयरीए सिंघाडगतिगचउक्कचच्चरगारे,इमीसे आयारनंमए । तएणं ते धम्मघोसा थेरा पुबमए चउम्भुहेमु बहुनयेणं हीलिजमाणी खिसिज्जमाणी निंदिन. उवणं गच्छति, नव भोग गच्छित्ता समणे णिगंथेणिग्ग- माणी गरहिज्जमाणी तज्जिज्जमाणी तालिजमाणी वहिथीमो य सदावेंति, सहावेत्ता एवं वयासी-एवं स्वसु जमाणी पव्यहिजमाणी धिकारिज्जमाणी युक्कारिन्नमाणी अज्नो ! मम अंतेवासी धम्मरुईणाम अणगारे पयइभदए कत्थइ चि गवं वानिलयं वा अलनमाणी दंमिखंडनिव
जाब विणीए मासं मासेणं अणिक्खित्तेयं तबोकम्मेणं० सणाखंडमायखंघद्गदत्यगया फुट्टामाइडसीमा मच्छियाजाव णागसिरीए पाहणीए गिई अणुप्पवितु । तर म सा चमगरणं अभिजमग्गा जाव गेहे गेहे णं देवलियाए णागसिरी माहणी जाव णिसिरह । तए णं से धम्मरूई वित्ति कप्पमाणी विहरति । तए णं तीसे नागसिरीए णाम अणगारे अहापज्जत्तमिति कहा जाच कामं प्रणव
माहणीए तम्जवसि चेव सोलस रोगायंका पानन्नया । कंखमाणे विहरति, सेण धम्मरुई णाम आएगारे बहणि तं जहा-“सासे १ खासे ५ जरे ३ दाहे ४, कुच्चिसूले वासाणि सामासपरियाग पाउणित्ता पालोइयपमकतेसमा- नगंदरे ६। अरसा ७ जोणिसूले जाव कोढे १६।" तए हिपत्ते कालपासे कालं किच्चा उ, सोहम्मेजाव सन्मट्ठ- णं सा नागसिरी माणी सोलसहि रोगायंकेहिं अनिन्सिमहाविमाणे देवत्ता नववस्मे । नत्थ णं अजहममाणु- या समापी अट्टदुइववसट्टा कालमासे कालं किच्चा छडीए कासेणं तेत्तीसं सागरोवमाई ठिई पसत्ता । तत्थ णं धम्मरु- पुढवीए उकासेणं बावीसं सागरोवमहितीए नेरइयत्ताए इस्स वि तेत्तीसं सागरोवपाइं ठिती पत्ता।से पं धम्मरुई नववष्या। सा गं तोऽणंतरं उबट्टित्ता मच्छेसु उववरण। देवेताओ देवसोगाऔजाव महाविदेहे वासे सिफिहिति, तत्थ णं सत्थवजा दाहवकंतीए कालमासे कानं किच्चा बुकिहितिजाव अंतं काहिति । तं धिरत्यु णं अज्जो ! ना. अहे सत्तमाए पुढवीए नकोसोणं तेनीसं सागरोवमहिए
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(२५७०) दुवई अभिधानराजेन्छः।
दुबई नेरइयत्ताए नववणा। साणं तोऽणंतरं उच्चट्टित्ता दोच्चं पि
अनुस्वारो नैपातिकः । (सत्वज्क त्ति ) शस्त्रबध्या, जानेति
गम्यते । (दाहवक्रतीप ति ) दाहव्युत्क्रान्त्या दाहोपरया, "ख. मच्छेमु नववज्जति । तत्य वियएं सत्थवज्का दाहवकंतीए
इयरबिहाणाई० जाव अत्तरं च" इत्यत्र गोशालकाध्ययनस. दोच्चं पि अहे सत्तमाए पदवीए उक्कोसेणं तेत्तीसं सागरोव
मानं सत्रं तत एव दृश्यं, बहुत्वात तु न लिखितम् । महिपसु नेरइएसु उववजति । साणं तओहितो. जाच उ.
तए एं सा नद्दा सत्यवाही नवएहं मासाणं बव्यट्टित्ता तचं पिमच्चेसु उववमा । तत्थ वियणं सत्थवज्का०
हुपमिपुरमाणं जाव दारियं पयाया सुकुमालकोमलियगजाव कानमासे कालं किच्चादोच्चपिनाए पुढचीए नको- यतालुयसमाणा, तीसे एंदारियाए निव्वत्ताए वारसाहियाए सेणं, तोऽयंतरं उचट्टित्ता उरगेन, एवं जहा गोसालो
अम्मापियरो इमं एयारूवं गोणं गुणनिप्फन्नं नामधेनं पुढवी तहा नेयध्वं. जाव रयणप्पनामो सत्तमु उव- करेंति-जम्हा णं एसा दारिया सुकुमालगयताबुयसमाणा, वस्मा, तो उन्पट्टित्ता सप्लीस उपवाया, तो नुवाट्टि तं होऊणं अम्हं इमीसे दारियाए नामधेनं सुकुमासा जाई इमाई खयरविहाणाई० जाव अदुत्तरं च षं लिया । तए णं तीसे दारियाए अम्मापियरो णामखरवायरपुडविकाइयत्ताएसु अणेगसयसहस्सखुत्तो,साएं धेज करेंति सुकुमालियत्ति । तए णं मा सुकुमालिया दारितमोऽणंतरं नवट्टित्ता इहेव जंबुद्दीवे दीवे भारहे या पंचधाईपरिग्गहियो । तं जहा-खीरधाईए,मजणाईए, वासे चंपाए नयरीए सागरदत्तस्स सत्यवाहस्स भद्दाए | मंडणधाईए, अंकाईए,कीमावणाईए,गिरिकंदरमब्बीणा इव भारियाए कुञ्चिसि दारियत्ताए पयाया।
चंपगलया णिवाया निव्वाघायंसि.जाव परिवद । तए एं इदं सर्व सुगमम् । नवरं (साबश्य ति) शारदिक, सारेण वा सा सुकुमालिया दारिया उम्मुक्कचाभावा रूवेण य जाब्वरसेन चितं युक्तम्-सारचितम्, (तित्ताबाउयं तिकटुकतुम्बक- णेण य लावणेण य उकिट्ठा उक्किट्ठसरीरा जाया प्रावि म्, (बहुसंभारसंजुत्तं ) बदुभिः संभारव्यरुपरि प्रकपडव्य.
होत्या। तत्थ | चंपाए गयरीए जिणदत्ते णाम सम्त्वगेलाप्रभृतिभिः संयुक्तं यत्तत्तथा,स्नेहाबगाढं स्नेहव्याप्तम् । (दूनगसत्ताप त्ति) दुर्भगः सवः प्राणी यस्याः सा तथा ।
स्थवाहे परिवसइ अले । तस्स एं जिणदत्तस्म नद्दा भारि(भगनिबोबियाप ति) निम्धगुलिकेव निम्बफलमिव अत्यना
या सुकुमाला शहाजाद माणुस्सए काम भोगे पच्चभदेयत्वसाधाद् दुर्नगानां मध्ये निम्बगुलिका दुर्भगनिम्बगुनि- वमाणा विहरति । तस्स णं जिणदत्तस्स पुत्ते नहाए भा. का। अथवा-उगानां मध्ये निम्बोनिता निमजिता उर्भगनि.
रियाए अत्तए सागरए णामं दारए मूकुमाले० जाव सुम्बोबिता, (जाच्याउ त्ति) देवराणां जाया भार्या इत्यर्थः1 (वि
रूवे । तए णं से जिदले सत्यवाहे प्रणया कयाइ लमिवन्यादि) बिले श्व रन्ध्र व पन्नगभूतेन सर्पकल्पन श्रात्मना करणभूतेन सर्व तदताबु शरीरकोप्टकेन प्रक्षिपति । सयाओ गिहाओ पमिणिक्खमति, पमिणिक्खमइत्ता सायथा किल बिते मर्प पारमानं प्रतिपति प्रवेशयति पार्वान् गरदत्तस्स सत्यवाहस्स अदरसामतेण बीतीवयति, इमं च असंस्पृशन्, पवमसी बदनकन्दरपाश्र्वान् असंस्पृशन्नाहारेण
पणं सुकुमानिया दारिया एहाया चेमियासंपरिखमा - तरसंचारणतस्तदलाबु जगरबिले प्रवेशितवानिति जावः । (ग
पिं आगासतलगंलि कणगमइतंदुसणं कीझमाणी की. मणागमणाए पडिक्कमति त्ति) गमनागमनामीयोपधिकीम (उ. चाबाहिति) असप्रजमानिः (अक्कोसणाहिं ति) मृतासि त्व.
लमाणी विहरति । तए णं से जिणादत्ते सत्यवाहे मित्यादिभिवंचनैः (उद्धसणाहिं ति) दुष्कुबीनेत्यादिन्निः कुला- मुकुमालियं दारियं पासर, पासत्ता मुकुमालियाए दा
धभिमानपातनार्थः (निच्छ्हणा ति) नि:सराऽस्मद्गेहादि- रियाए रूवेण य जायविम्हए कोमुंबियपुरिसे सद्दात्यादितिः (निच्चोमणार्हि ति) त्यजास्मदीयं वस्त्राऽऽदीत्यादि।
बे, सहावेइत्ता एवं वयासी-एस णं देवाणप्पिया ! कस्स भिः (तति सि) ज्ञास्यसि पापे! इत्यादिनणनतः। (तामिति ति) चपेटादिभिः। हील्यमाना जात्युदघट्टनेन, खिस्यमाना
दारिया, किं णामधेनं । तए णं से कोमुंबियपुरिसा जिपरोककुत्सनेन,निन्द्यमाना मनसा जनेन, गद्यमाणा तत्समक्रमे
णदत्तेणं सत्यवाहेणं एवं वुत्ता समाणा हजुतुहा करघ,तय॑माना अङ्गलीचालनेन ज्ञास्यास पापे! इत्यादिभणनतः। यल० जाव एवं बयासी-पस णं देवाणुप्पिया ! सागरदप्रयध्यमाना यचादितामनेन, धिष्क्रियमाणा धिकशब्दविषथोक्रियमाणा, एवं यूरिक्रयमाणा,दयिक कृतसंधानं जीर्णवलं,त.
त्तम सत्यवाहस्स धूया भद्दाए अत्तए सुकुमालिया णाम स्य एड निवसनं परिधान यस्याः सा तथा,खराममहलकं ख.
दारिया सुकुमालपाणि जाव उकिट्टा । तए णं से जिणएशरावं नितानाजन,सएमघटकं च पानीयभाजन, ती हस्त
दत्ते सत्यवाहे तेसिं कोकुंबिवाणं अंतिए एयमढे सोच्चा योगता यस्याः सा तथा । (फुट्ट ति) स्फुटितं स्फुटेतकेशसंच- जेणेव सर गेहे तेणेव उवागच्छद, उकागच्छइत्ता एहा. यत्वेन विकीर्णकेशं. (हमाह ति) अत्यर्थ, शीर्ष शिरो य
एमित्तनातिसद्धिं संपरिवुझे संपाए णयरीए मऊ मस्याः सा तथा । मांककाचटकरेण मक्किकाममुदायेन,अन्वीयमानमागी अनुगम्यमानमार्गा, मलाविश्नं हि वस्तु माक्षिकाभि
झणं जेणेव सागरदत्तस्स सत्यवाहस्स गिहे तेणेव उवाबंटचन पवेति । देहवलिमित्यव्याख्यानं देवीलका, तया । एतए से सागरदत्ते सत्यवाहे जिणदत्तं सत्यवाई
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दुवई
(२५50 दुवई
प्राभिधानराजेन्द्रः । एज्जमाणं पासति, पासइत्ता आसणाओ अन्नुहोति, अ- गिएडावेई । तए णं सागरए दारए सुकुमालियाए दा
देता आसगेणं उवनिमंतेति, उवनिमतेता आस- रियाए इमं एयारूवं पाणिफासं पडिसंवेदेति-से जहात्यं बीसत्य महासणवरगयं जिणदत्तं सत्यवाहं एवं व- णामए असिपत्तेइ वा जाव मुम्मुरेइ वा,एत्तो अणितराए यासी-जण देवाणुप्पिया! किमागमएप्पोयणं । तए णं | चेव पाणिफसं संवेदेति । तए णं से सागरदारए अकामए से जिणदत्ते सत्यवाहे सागरदत्तं सत्मवाहं एवं वया | अवसवसे मुहृत्तमेत्तं संचितुति । तर णं सागरदत्ते सत्यवाहे सी-एवं खलु अहं देवाणुप्पिया! तव धूयं नहाए अ- सागरस्स दारयस्स अम्मापियरो मित्तणाई विउलं असणं तयं सुकुमालियं सागरदत्तस्स भारियत्ताए वरोमि, जाएं पाणं खाइमं साइमं पुप्फवस्थ० जाव सम्माणेत्ता पमिजाणह देवाणुप्पिया ! जुत्तं वा पत्तं वा सलाहणिज्जं वा | विसजेई । तप णं सागरए दारए मुकुमालियाए सद्धिं सरिसो वा संजोगो, तो दिजउ एं सुकुमानिया दा-1 जेणेव वासघरे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छेत्ता सुकुमारिया सागरस्स दारगस्स, तए णं देवाणुप्पिया ! नण लियाए दारियाए सछि तझिमंसि निवज्जइ । तए णं किं दलयामो सुकं भुकुमानियाए ?। तए ण से सागरदत्ते स- से सागरए दारए सुकुमालियाए दारियाए इमं एयारूवं त्यवाहे जिणदत्तं सत्यवाहं एवं वयासी-एवं खलु दे. अंगफासं संवेदेति-से जहाणामए असिपत्तेइ वा जाव वाणुप्पिया! सुकुमालिया दारिया एगा जाया इटा०५जा- अमणामतराए चे अंगफासं पञ्चज्जवमाणे विहरति । ब किमंग! पुण पासणयाए, तं नो खलु अहं इच्छामि तए एं तं सागरदारए अंगफासं असहमाणे अवमवसे सुकुमालियाए दारियाए खएमवि विप्पभोगं, तं जा मुत्तमेत्तं संचिट्ठति । तए णं सागरए दारए सुकृमालियं णं देवाणुप्पिया ! सागरए दारए ममं घरजामाउए जबइ, सुहपमुत्तं जाणेना सुकुमालिया ए दारियाए पासाो उतो अहं सागरस्स दारगस्स सुकुमाझियं दारियं होत, नत्ता जेणेव सए सयणिजे ते व बागच्चइ. दलयामि ? । तए णं से जिणदत्ते सत्यवाहे सागरद- नवागत्तिा सयपीयंसि निवजइ । तए णं सुकुमालिया तेणं सत्यवाहणं एवं वुत्ते समाणे जेणेच सए गिहे ते- दारिया तमो मुटुत्तंतरस्स पमिबुछा समाषी पतिव्यया णेव उवागच्छद, उवागच्चइत्ता सागरं दारयं सदावेति,स- पतिमणरत्ता पति पासे अपासमागी तबिमाओ उद्वेति, हावेत्ता एवं वयासी-एनं खल्ल पुत्ता ! सागरदत्ते सत्थ- नवेत्ता जेणेव सए सयणिज्जे तेणेव उवागच्छद, उवागबाई म एवं वयासी-एवं खलु देवाणुपिया! सुकुमालि- च्छत्ता सागरस्स दारगस्स पासे णिवज्जति । तए णं से या दारिया इट्ठा ५,नं जइ णं सागरए दारए ममं सागरए दारए सुकुमालियाए दारियाए दोचं पि इमं एया. घरजामाउए भवति जाव दलयामि । तए णं से सागरए रूवं अंगफासं पडिसंवेदेति-से जहाणामए असिपत्तेइ वा. दारए जिणदत्तेणं सत्थवाहेणं एवं वुत्ते समाणे तुसिणीए जाव अमणामतराए चेव अंगफम्सं पञ्चणुन्नवमाणे विहरइ । संचिट्टइ । तए णं से जिणदत्ते सत्यवाहे अपया कयाइ तए णं सागरए दारए तं अंगफासं असहमाणे अकाममासोहणंसि तिहिकरणे विउलं असणं पाणं खाइमं साइमं | णे अवसवसे मुदुत्तमेत्तं संचिति । तए णं सागरए दारए उपक्खडावेति, नवकाखमावेत्ता मित्तनाई पामतेति, प्राम- सुकुमालियं दारियं सुहपसुतं जाणेत्ता सपणिज्जाओ तेना सकारत्ता सम्माणेत्ता सागरं दाग्यं एहायं० जाव नहेति, उद्वेत्ता वासघरस्स दारं विहामेति, विहाडेत्ता सवालंकारविजूसियं करेति, करेत्ता पुरिससहस्सवाहि
मारामुके चित्र कागए जामेव दिसिं पाउब्लूए तामेव दिसिं णीयं सीपं दुरूहावेति, पुरूहावेत्ता मित्तनाइ० जाव परि- पडिगए । तए णं सुकुमालिया दारिया तो मुहुरंतरस्स जुमे सविहीए साओ गिदाओ णिग्गच्छड,णिग्गच्चश्त्ता पमिबुच्छा पतिव्वया जाव अपासमाणी सपणिज्जायोनचंपा नगरिं जेणेव सागरदत्तस्स गिहे तेणेव उवागच्छा, टेति,नवेत्ता सागरस्स दारयस्स सम्बयो समंता मग्गणगनयागच्छइत्तासीयायो पञ्चोरुहेति, पचोरुहेत्ता सागरं दारगं वेसणं करमाणीकरेमाप वासघरस्स दारं विहाडियं पासति, सागरदत्तस्स जवणे । तए णं से सागरदत्ते सत्यवाहे पासेत्ता एवं वयासी-गए णं से सागरए दारए त्ति कह . विपुलं असणं पाणं खाइमं साइमं उवक्खमावेड, उवक्ख
प्रोहयमणसंकप्पाजाव कियायति। तए णं सा भद्दा सत्थमावेत्ता० जाव सम्मापत्ता सागरं दारगं सकुमालिया | वाही कवं पाउ० दासचेमी सद्दावेति,सद्दावेत्ता एवं क्यादारियाए सछि पट्टयं दुरूहावेति, दुरूहावेत्ता सेयापीत- सी-गच्छह णं तुमं देवाणुप्पिया ! बहूपरस्स मुहयोवणियं एहिं कलसहिं मज्जावेति, मजावेत्ता होम कारावति, कारा- उवणेहि। तए णं सा दासचेडी भद्दाए सत्यवाहीए एवं बेत्ता सागरदत्तं दार सुकुमालियाए दारियाए पाणिं | वृत्ता समापी एयम तह त्ति पमिसुणेति, पडिसुणेत्ता मुह
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(9.453) अभिधानराजेन्द्रः ।
दुबई
घोणियं गिएहेइ, गिएहेत्ता जेणेत्र वासघरे तेणेव उवागच्छ. जवागच्छिता सुकुमालियं दारियं० जाव कियायमा
पासेति, पासेत्ता एवं क्यासी- किं णं तुमं देवापिए ! हमजाव कियादि । तए णं सा सुकुमालिया दारिया तं दाराचेमियं एवं बयासी एवं खलु देवाणुपिया ! सागरए दारए ममं सुहपसुत्तं जाणित्ता मम पासाग्रो उट्टेति, नट्टेत्ता वासवदुवारं अवगुणेति, अवगुणेत्ता० जाव मगर, तर मुहुत्तंतरस्स० जाव दारं विहामियं पासामि, गए गं से सागरए त्ति कट्टु ग्रहयमण० जाव जियामि । तर ं सा दासचेडी सुकुमालियाए दारियाए एयमहं सोचा जेणेव सागरदत्ते सत्यवाहे तेणेव उवागच्छ, उवागच्छित्ता सागरदत्तस्स एयमहं निवेदोति । तए णं से सागरदते दासचेडीए अंतिए एनई सोचा खिसम्म
मुहत्ते ० ५ जेणेत्र मिणदत्तस्त्र सत्यवाहस्स गिहे तेऐत्र उत्रागच्छ, नत्रागच्छित्ता जिणदत्तं सत्यवाई एवं बयासी - किं णं देवाप्पिया! एवं जुतं वा पत्तं वा कुलागुरूवं वा कुलसरिसं वा, जं गं सागरए दारए सुकुमालियं
दारियं दिवमयं विष्पजहाय इहमागए, बहूहिं खिजगियाहिय रुंटणियाहि य नत्रालभति । तए एं जिलदत्ते सत्यवाहे सागरदत्तस्म सत्यवाहस्स एयमहं सोचा जेणेव सागरए द्वारए तथेव उवागच्छति, नवागच्छित्ता सागरं दारयं एवं बयासी-5 पुत्ता ! तुभे कयं, सागरदत्तस्स ர் सत्यवास्स गिड़ाओ इह हव्यमानं तं गच्छहणं तुम पुत्ता ! एवमधि गए सागरदत्तस्स सत्यवाहस्स गिद्दे । तर मां से सागरए निगदत्तं सत्यवाई एवं बयासी- अविया अहं ताओ गिरिपमणं वा तरुपमणं वा मरुपत्रायं वा जलपत्रे वा जलणपत्रेसं वा विसनक्खणं वा वेहालसंवासत्यावारुणं वा गिद्धपट्टु वा पव्वज्जं वा विदेसगमणं वा अन्वगच्छेज्जामि, नो खलु अहं सागरदत्तस्स मत्थबाहस्स सिंहं गच्छेज्जामि । तए से सागरदत्ते सत्यबाहे कुतरिए मागरस्त एयमहं निसामेति, लज्जिए कि पट्टेि विव जिदत्तस्स गिदाओ पमिक्खिमति, पमिणिक्खमत्ता जेणेत्र मए गेहे ब्रेव उवागच्छ, वागच्छिता सुकुपालियं दारियं सदावेति, सदावत्ता अंके नित्रे सेति, पिवेत्ता एवं वयासी- किं णं तव पुत्ता ! सागरएणं दारएणं मुका, अहं गं तुमं तस्स दाहामि, जस्स
तुम इ० जान मणाभिरामा जस्सिसि त्तिसुकुमालियं दारिताहि इडा०ि जाव बहूहिं वग्गुर्हि समामासे, ममासामेत्ता पमित्रिमज्जेति । तर णं से सागरदने सत्यवादे अक्षया उपि आगासतन्नगंसि गु
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दुबई
दनिसन्ने रायमगं अवलोएमाणे अवलोएमाणे चिट्ठति । तए णं सागरदत्ते सत्यवाहे एवं मदं दमगपुरिसं पासति दमक निवमणं खं ममलगखं मघ महत्यगयं मच्छियासह - स्सेहिं० जाव असिजमाए मग्गं । तए एं से सागरदत्ते मत्यवाहे कोयिपुर सदावेति, सहावेत्ता एवं त्रयासीतुब्ने देवापिया ! एतं दमगं पुरिसं विलेणं - स पाणं खाइमं साइमं पमिलोमेह, पढिलोनेता गिहं
पसे, अणुपवसेत्ता खंगमलगं खंडघडगं च से एगंते पामेद, पामेता अलंकारियकम्मं करेह, करेता एड्रायं कयवलिकम्मं० जात्र विभूसियं करेह, करता मणूं असणं पाणं खाइमं साइमं जोयावेड, भोयावेत्ता ममं अंतियं नवरोह । तए णं ते कोमुंबिय पुरिसा ० जाव पमिति, परिमुत्ता जेणेत्र से दमगरिसे तेव उवागच्छ, उवागच्छित्ता तं दमगं असणं पाएं खाइम साइमं पमिलोति, सयं गिद्धं अणुष्पत्रेसंति, अप्प - सेत्ता तं नगं खघडगं च तस्स दमगपुरसस्स एते पार्डेति । तए णं से दमगपुरिसे तंमि मपबसि खंडघसि य पाडिजमाएंसि महया महया सद्देणं आरसति । तए से सागरदत्ते सत्यवादे तस्स दमपुरिमस्स तं महया महथा आरसिय सदं सोच्चा एिसम्म [ तए णं ] सागरदत्ते कोमुत्रियपुरिसे सदावे, सदावेत्ता एवं बयासी - किं णं देवापिया ! एस दमगपुरिसे महया महया सदेणं आरमति । तए णं ते कोमुं बियपुरिसा तं सागरदत्तं सत्यवादं एवं बयासी एस णं सामी ! तंसि
ममल्ल गंसि वरुघमगंसि य पामिज्जमाणमिमहया महया सद्देणं आरसति । तए एं से सागरद ते सत्यवाहे तं को मुंबिय पुरिसं एवं बयासी - मा गं तुब्भे देवाणुप्पि - या ! यस दमगपुरसस्स तं खममार्ग जात्र पाडेह, पासे वेह, जहा णं पत्तियं भवति । ते वि तहेव ठवेंति, उवेत्ता तस्स दमगस्स पुरिसस्स अझकारियं कम्मं करेंति, करेत्ता सयपागसहस्सपागेहिं तेब्लेहिं जगति, अजिगिए समाघे सुरभिरणा गंधुन्बट्टएवं गायं उन्नति, उसिणोदगगंधोदगेणं एहाएंति, सीओदगेणं एहावेति, एहावेत्ता प म्हलसुकुमालाए गंधकासाइए गाया लूति, बुहेत्ता हूंसनक्खणपमझामगं परिहिंति, परिहिता मन्त्रालंकारविजूसियं करोति, करेता विलं असणं पाएं खाइमं साइमं भोयावेंति, जोयावेत्ता सागरदत्तस्स सत्यवाहस्स उवर्णेति । तए णं से सागरदत्ते सत्यवाहे सुकुमालियं दारियं एहायं० जाव सव्त्रालंकारविनूसियं करेत्ता तं दमगपुरिसं एवं बयासी - एस णं देवाणुपिया ! मम बूया
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दुवई
अभिधानराजेन्द्रः।
दुवई हा एयं णं अहं तव नारियत्ताए दलामि, भदियाए भ- तिव्रता पतिमनुरक्ता भर्तारं प्रति रागवतीति । (मारामुक्के विव इंजवेज्जामि। तए णं से दागपुरिसे सागरदत्तस्स सत्थ- कागए सि) मायन्ते प्राणिनो यस्यां शालायां सा मारा शूना, वाहस्स एयमई पमिसुणेति, पमिसुणेत्ता सुकुमानियाए
तस्या मुक्तो यः स मारामुक्तो माराद्वा मरणान्मारकपुरुषाद्वा
मुक्तो विच्छुट्टितः, काको वायसः । (बहुवरस्स त्ति ) बदारियाए सदि वासघरं अणुप्पविसति, सुकुमानियाए
धूइच वरश्च वधूवरं, तस्य, (कुलाणुरुवं ति) कुलोचितं, दारियाए सछिततिमंसि निवज्जति। तए णं से दमग पु
वणिजां वाणिज्यमिव (कुलसरिसं ति) श्रीमद्वणिजां रत्नरिसे सुकुमानियाए दारियाए मछि इमेयारूवं अंगफासं प. वाणिज्यमिव (अदिदोसवमियं ति) न दृष्टे उपलक्ष्यस्वरूप मिसंवेदेति, सेसंजहा सागरस्म जाव सयाणिज्जाओ अ- दोषे दुषणे पतिता समापन्ना अदृष्टदोषपतिता तां (खिज्जणि
या ति ) खेदक्रियाभिः, रुपटनिकानिः रूदितक्रियानिः, न्टेति, अन्नद्वेत्ता वासघरायोणिग्गच्छति, णिच्छि
(मरुपवायं वत्ति) निर्जलदेशे प्रपातं (सत्थावामणं ति) त्ता खंढमहलगं खंडघमगं च गहाय मारामुक्के विव कागए
शरणावपाटनं विदारणमात्मन इत्यर्थः । (गिकप ति) जामेव दिसिं पानब्लूए तामेव दिसि पडिगए । तए सा गृध्रस्पृष्टं गृधैः स्पर्शनं कलेवराणां मध्ये निपत्य गृधेरात्मनो सुकुमालिया दारिया० जाव गए णं से दमगपुरिसे त्ति कटु
नवणमित्यर्थः । (अतुवगच्छेज्जामि त्ति) अभ्युपैमि।"पुरा
पुराणाण " इत्यत्र यावत्करणादेवं इष्टव्यम्-“ पुश्चिमाणं ओहयमण जाव क्रियायति । तए णं सा भद्दा कहनं पा
सुप्पमिकताणं कमाएं पाबाण कम्माणं पावगं फल वित्तिउन्नया दामोमि सदावेति, सहावेत्ता० जाव सागरदनस्स विसेसं ति । " भयमर्थः-पुरा पूर्वे भरे पुराणानामतीमत्यवाहस्स एपम निवेदेति। तए एंण से सागरदत्ते स- तकालभाविनां तथा दुश्चीर्ण पुश्चरितं मृपावादस्थवाहे तहेव संजते समाणे जेणेव वासघरे तेणेव वा- नपारदारिकाऽऽदि, तद्धतुकानि कमाएयपि दुश्चीरानि गच्छइ, उवागच्छित्ता सुकुमान्नियं दारियं अंके निवेसेइ,
ध्यपदिश्यन्ते, अतस्तेषामेव पराकान्तं प्राणिघातादसा
पहारादिकृतानां प्रकृत्यादि भेदेन, पुराशब्दस्यह संबन्धः, निवसेत्ता एवं बयासी-अहो तुमं पुत्ता ! पुरा पुराणाणं.
पापानामपुपयरूपाणां कर्मणां ज्ञानाऽऽवरणादीनां पापकी जाव पच्चारुभवमाणी विहरसि, तं मा णं तुमं पुत्ता! ओह- अशुभं फत्रवृत्तिविशेषम्, उदयवर्तनन्नेदं प्रत्यनुभवन्ती विहरसि यमण जाव कियाहि, तुथं णं पुत्ता ! मम महाण संसि वि- वर्तसे । पुलं असणं पाणं खाइमं साइमं जहा पोट्टिना जाव प- तेणं कामेणं तेणं समएणं गोवालियाओ अजाओ ब. रिजाएमाणी विहराहि । तए ए मा सुकुमालिया दारिया हुस्सुयाओ एवं जहेव तेयन्मिनाए सुव्ययाश्री, तहेव समोएयमढें पढिसुणोत, पडिमुणेत्ता महाणसंसि विपुलं सढाओ, तहेव संघामो० जाब गिहं अणुप्पविट्ठो, तहेव० असणं पाणं खाइमं साइमं० जाव दलमाणी विहरति । जाव सुकुमालिया पमिसाभेड़,पडिझालेत्ता एवं बयासी-एवं सुकुमालके कोमले काममत्यर्थ गजतालुकसमामा, गज- खव अज्जायो ! अहं सागरस्स दारगस्स अणिवा जाव तासुकं हत्यर्थ च सुकुमाले भवतीति । "जुतं त्यादि"
श्रमणामा,णेच्छा ए सागरदारए मम नाम वा जाव परियुक्तं संगतं ( पत्तं ति ) प्राप्त प्राप्तकालं, पानं या गुणानामेष पुत्रः । श्लाघनीयं वा, सशो वा संयोगो
जोगं वा,जस्स जस्स विय दिज्जामि तस्स तस्स वि यणं विबाह्ययोरिति ।" से जहानामए असिपत्नई वा ".
अणिहाजाव अमणामा जवामि,तुम्भे य एं अज्जाओबहुत्यत्र यावत्करणादिदं भव्यम-" करपत्तरे वा खुरपत्ते णायाश्रो, एवं जहा पोटिला जाव नवलच्छे, जेणं अहं बा कलं बचीरिकापत्तेइ वा सत्सिअग्गेइ वा कोतमोह बा तोम
सागरदारगस्स इट्ठा कंता० जार जवजामि । अज्जाओ रग्गर बा भिमिमालग्गेई बा सूचिकलावएइ या विच्छयकडेश् वा कविकच्छूर बा इंगाबेश वा मुमुरे३ वा अच्ची
तहेव भणंति, तहेव साविया जाया,तहेव चिंता, तहेव सागथा जालई वा अलाप वा सुहागणी वा नवे एयारुवे । नो
रदतं सत्यवाहं प्रापुच्छति,आपुच्छित्ताजाव गोवालियाइणट्रेसमटे। पत्तो अगिहतराप चेव अकंततराप चेव.अप्पिया। णं अजाणं अंतियं पव्वइया | तए णं सा सुकुमालिया तराए चेव, अमणुमतराव चेव, श्रमणामतराप चव त्ति।" अज्जा जाया रियासमिया जाच गुत्तवं नयारिणी बहीहं तत्रासिपत्रं खङ्गः, करपवं क्रकचं, खुरपत्रं तुरः, कदम्बचीरिकाऽऽदीनि लोकरूढ्या ऽवसेयानि, वृश्चिककण्टकः, कपिकच्चूः
चउत्थच्छट्ठम० जाब विहरति । तए णं सा मुकुमालिया खजूकारी वनस्पतिविशेषः,अङ्गारोविज्वरो विज्वानोऽग्निकरण,
अजा अप्पया कयाई जेणेव गोवालियाओ अज्जाओ मुम्मुरोऽग्निकणमिश्र जस्म, अविरिन्धनप्रतिबका ज्वाक्षा, स्वा. तेणेव उवागच्छइ,उवागच्चित्ता वंदति, नमसति, नमंसित्ता ता तु इन्धनच्छिना,अज्ञातगलमुकं शुकाग्निरयस्पिरामान्तर्गतो. एवं बयासी-इच्छामि णं अना! तुम्हहिं अभणुमाया सअग्निरिति । (अकामए त्ति ) अकामको निरनिलाषः। (अव
माणी चंपाए एयरीए बाहिं सुनूमिभागस्त नज्जास्स मामे ति) अपस्ववशः, अपगतात्मा तन्त्रत्वे इत्यर्थः । (तलिमंसि निवजाति)तस्पेशयनीये निषद्यते,(पईवय ति)प.
मदरसामतेणं बटुं कृणं श्रणिक्खित्तेणं तबोकम्मशं स. तिवारं बतयति तमेवाभिगच्छामीत्व नियमं करोतीति। रानिमही पायावेमाणी विहरित्तए । तए णं ताओ गोवान्नि।
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दुपई
(25) अनिधानराजेन्द्रः ।
दुई याो अंजाओ सुकुमात्रियं अजं एवं बयासी-अम्हे अभिक्खणं अजिक्खणं हत्थे धोवेसिजाव चेतसितं तुम णं अज्जो! समणीओ निग्गंधीमो इरियासमियाअोजाव देवाणुप्पिया! एयस्स गणस्स आलोएहिजाब पमित्र ज्जागुत्तबंभयारिणीओ, नो खलु अहंकापति बहिया गामस्स हि। तए णं सुकुमालिया अज्जा गोवाशियाणं अज्जाणं अंवाजावसभिवेसस्स वा जाव बटुं छटेणंजावविहरित्तए,। तिए एयमहं सोचा नो पाढाइ, नो परियाणइ, प्राणाढाइमाणा कप्पति णं अम्हं अंतो उस्सयस्स वत्तिपरिक्खित्तस्स सं-- अपरिजाणमाणा विहरति । तए णं ताओ अज्जाओ मुकुमाघाडिपद्धियाए णं समतलपइयाए आयावित्तए । तए णं सा लियं अज्जं अनिक्खएं अनिवणं हीतिजाव परिजर्वसुकुमालिया अज्जा गोचालियाए अनाए एयमद्वं नो स- ति, अजिक्खणं अभिक्खणं एयमह निवारैति। तएणं तीसे दहति, नो पत्तियति,नो रोवति,एयमटुं असदहमाणे अप- सुकुमानियाए अज्जाए समणीहिं निग्गयीहिं हीलित्तियमाणे मुत्तूमिनागस्स नजाणत अदूरसामंते उढे ब
उजमाणीए० जाव वारिज्जमाणीए इमयारूवे अन्नटेणंजाव विहरति । तत्य णं चंपाए नयरीए ललियनामं स्थिए चिंतिए पत्थिए मणोगयसंकप्पे समुप्पन्जिगोही परिवगड, नरवइदिनवियारा अम्मापिई निययान- त्या-जया णं अहं अगारमज्झे वसामि, तया एणं अहं भिवासा वेसविहारकयरिण केया णाणाविह अविण्यपहा
अप्परसा, जया णं अहं मुंमा पवइया. तया णं अहं णा अवा० जाब अपरिजूया। तत्थ णं चंपाए एयरीए परवसा, पुचि च मम समीओ प्रादंति, इयाणं तु देवदत्ता णामं गणिया होत्था सुकमाना जहा अंमणा । तए
नो आदति, तं सेयं खलु ममं कवं पाउन्नूया गोवालियाणं णं तीसे अनियए गोडीए अम्पया कयाइ पंच गोहिलगपु
अजाणं अंतियाो पमिणिक्खमेत्ता पाडिएकं नवस्सयं रिसा देवदत्ताए गणियाए सछि सुनूमिनागस्स उज्जा
उवसंपज्जित्ता 4 विहरित्तए त्ति कट्ट एवं सपेहेति, णसिर पञ्चभवमाणा विहरति । तत्य णं एगे गोहिल्सपु
संपेहेत्ता कल्लं गोवालिया अजाणं अंतियाओ पमिनिरिसे देवदत्तं गणियं उच्छगे धरेश, एगे पुरिसे पिट्ठो पाय- क्खमंति, पडिनिक्खमित्ता पामिएकं उस्मयं उपसंपन्जिवत्तं धरेइ,एगे पुरिसे पुप्फपूरियं स्यति, एगे पुरिसे पाए रए, ताणं विहरति । नए सा सुकुमानिया अज्जा आणाहट्टिया एगे पुरिसे चामरुक्खेवं करोति । तए एणं सासुकुमाझिया अज्जा अणिवारिया सच्छंदमई अनिक्खणं अभिक्खणं हत्थं धोवदेवदत्तं गणियं तेहिं पंचहि गोहिल्लपुरिसेहिं सकिं नराहिं तिजाव चेएति । तत्य वि य णं पसत्या पासत्यविहारिणी माणुस्सगाई जोगभोगाईगंजमाणी पासति, पासेत्ता इमेया- श्रोसमा ओसमविहारिणी कुसीला कुसीनविहारिणी संसरूवे अब्नत्यिए चिंतिए पत्थिर मणोगयसंकप्पे समुप्प- तासंमत्तविहारिणी बहूणि वासाणिसाममपरियागं पाउणज्जित्था-अहो णं इमा इत्थिया पुरा पोराणाणंजाब बि त्ता अफमासियाए संदेहणाए तस्स ठाणस्स अणास्रोश्यहरति । तं जइ णं मे इमस्स मुचरियस्स तवनियमबंजचे-1 पमिकता काममासे कानं किच्चा ईसाणे कप्पे अप्लायरसि वि. रवासस्म कलाहो फन्नवित्तिबिसेसे अस्थि , तो णं अहमवि माणंसि देवगणियत्ताए नववष्या। तत्येगश्याएं देवीणं नवआगमिस्सोणं नवम्महणेणं इमयारूवाई नरालाई माणु- पनिनोवमाइं विती पपत्ता। तत्थ एं सुकुमाझियाए देवीए स्सगाईन्जाव विहरेज्जामि त्ति कहणियाणं करेड, करे- नवपलिओवमाइं ठिती पम्पत्ता । तेणं काझेणं तेणं समएणं इहेव ता पायावणमीए पच्चोरुहः । तए णं मा सुकुमानिया | जंबुद्दीवे दीवे जारहे वासे पंचालेमुजणवएसु कंपियपुरे णाम अज्जा सरीरपानसिया जाया यावि होत्था। प्रजिक्रवणं णयरे होत्या । वायो । तत्य एंवए णामं राया होत्या । अजिक्रवणं हत्ये धोबेइ, अनि पाए धोवेइ, अनि. वाओ। तस्स ण दुवयस्स रसो चुलपी णामं देवी होत्या, सीसं धोवेह, अभि. २ मुहं धोवेइ, अजि०२थणंतराई सुकुमामाजाव मुरूवा । तस्स दुवयस्स रप्लो पुत्ते चुलणीए धोवेइ, अभि.२ कक्खंतराई धोवति, अभि. गुज्झतगई। देवीए अत्तए धज्जु णामं कुमारे जुबराया होत्था । तए णं धावेति । जत्थ एणं ठाणं वा सेज्नं वा निसीहियं वा चेएइ, सा सुकुमानियादेवी ताो देवोगाओ पाउक्खएणं भवतत्थ वि यण पुधामेव उदएणं अन्मुक्वित्ता तो पच्छा। क्खएणं विइक्खएणं प्रणतरै चयं चश्ना इहेब जंबुद्दीचे दीये गणं वा सिज्ज वा णिसीहियं वा चए । तए एं ताओ जारहे वासे पंचालेसु जणवएस कंपिल्लपुरे नगरे दुवयस्स गोवालियाओ अज्जाओ सुकुमान्नियं अज्ज एवं बयासी- रामो चुक्षणीए देवीए कुच्छिसि दारियत्ताए पयाया । तए एवं खञ्ज अज्जे ! अम्हे समणीओ निग्गंधीओ रियास- एं सा चुनाणी देवी नवएहं मासाणं बहुपमिपुशाणं अमियाजाव बंभचेरधारिणीओ, नो खलु कप्पति अम्हं छहमाणं राइंदियाणं वइक्वंताणं सुकुयालपाणिपाय - सरीरपाउसियाए होत्तए, तुमं च णं अज्ने सरीरपाउसिया हीणपडिपुमपंचिंदियसरीरं दारियं पाया । तर
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(२५८५ ) अभिधानराजेन्द्रः ।
दुबई
तीसे दारिया निव्वत्ते वारसाहिए दिवसे इमं एयारूवं णामं, जम्हा णं एसा दारिया दुवयस्भ रह्यो धूया, चुनणीए देवीए अत्तया, तं होऊणं श्रम्हं इमीसे दारियाए णामधिज्जं दोवई । तरणं तीसे अम्मापियरो इमं एयारूवं गोणं गु
निफन्नं पामघेज्जं करिंति दोवई । तए णं सा दोबई दा रिया पंचधाईपरिग्गढ़िया । तं जहा-खीरधाईए, अंकधाईए, मंडणाईए, कीला घाईए, मज्जधाईए । गिरिकंदरमस्त्रीणा इव चंपगञ्जया शिवाया निव्वाघायांस सुद्धं सृहेणं परिवहु । तए णं सा दोबई रायवरकमा जम्मुकबालभावा० जाव उकिदुसरीरा जाया यानि होत्या । तए णं सा दोवई रायवरया माया कयाई अंतउरिया एहायं ०जाव विचूसियं करेति, दुवयस्स रनो पायबंदियं पेसेइ । तए सा दोवई रायवरकष्णा जेणेव हुए राया तेणेव उबागच्छ, उवागच्छइत्ता दुत्रयस्म रमो पायग्गहणं करेति । तए
सेदुए राया दोवई दारियं के निवेसेति दोवईए रावरकमाए रूवेण य जोब्बणेण य लावणेण य जायविम्हए दोवई रायवरक एवं बयासी - जत्य णं श्रहं तु पुता ! रायस्स वा जुवरायस्स वा भारियचाए सयमेव दलस्सामि, तत्य णं तुमं दुहिया वा सुहिया वाजवेज्जासि ?, तरणं ममं जावज्जीवाए हिययदाहे भविस्सतितं णं महं पुता! अज्जयाइ सयंवरं रयामि, अज्जो ! पाएणं तुमं दिष्वासयंबरा, जंणं तु सयमेव रायं जुवरायं वा वरेहिसि, से णं तत्र भतारे भविस्सइत्ति कट्टु ताहिं इट्ठाहिं कंताहिं०जात्र आसानेइ, परिविमज्जेति । तए णं से दुवए राया दूयं सदावेति, सहावेत्ता एवं बयासी - गच्छहणं तुमं देवाणुपिया ! वारवई नगर, तत्य
तुम कहं वासुदेवं समुदविजयपापोक्खं दसदसारे बन्नदेवपामुक्खं पंचमहावीरे लग्ग से पामोक्खे सोलस रायसहस्से पज्जुपामोक्खाओ अबुट्टाओ कुमारकोमीओ संबपामोक्खाओ सहि दुदंतसाहस्सी यो वीरसेणपामुक्खाओ एकनीसं वीरपुरिससाहस्सीग्रो महसेणपामुक्खाओ छप्प ं नव गसाहस्सीओ असे य बहवे राईसरतझवरमा मंबिय कोटुंबिय - इब्नमेट्ठिमेणात्रइसत्यवाप्यभिओ करयल परिग्गहियं दसएवं सिरसावत्तं मत्थए अंजलिं कट्टु जए विजए बचावेहि, बद्धविना एवं बयाहि एवं खलु देव। णुपिया ! कंपिल पुरे नगरे दुवयस्स रोधूयाए चुलणीए देवीए अत्याए घट्टज्जुणकुमारस्स जगिणीए दोबईए रायवरकष्णाए सयंवरे विस्सइ, तं णं तुब्ने दुवयं रायं अणुगिरहमाणा अकालपरिदीपा चैव कंपिनपुरे नगरे समोसरह । तए ां से दूए करबल० जात्र कट्टु डुवयस्स रखो एयमहं विणएणं परिसुति, डिसुता जेणेव सए गिहे तेणेव जत्रागच्छ, उवागच्छ
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दुबई
इत्ता काकुंबियपुर से सद्दावेति, सहावेत्ता एवं बयासी - खिपामेत्र भौ देवाणुपिया ! चाउग्घंटं आसरहं जुत्तामेव उवडह० जाव उबवेति । तए गं से दूए एहाए०जात्र सस्सिरीए चाट सरहं दुरूहति, दुरूदत्ता वहिं पुरिसेहिं सन्नद्धबच्च० जाव गहिया उपहरणेहिं सद्धिं संपरिवुडे कंपिल पुरं गरं म मज्जेणं णिग्गच्छति, णिग्गच्छत्ता पंचालजणवयस्त मऊं मज्जेणं जेणेव देसप्पंते तेणेव जवागच्छति, उवागच्छत्ता सुरट्ठजणवयस्स मज्ऊं मज्जेणं जेत्र वारवती गरी तेणेव उवागच्छ, उवागच्छत्ता वारवरं नगरं मज्जं मज्जे अणुष्पविसति, जेणेव कएहस्सासुदेवस बाहिरिया उबष्ठाणसाला तेथेच उबागच्छइ, नवागच्छित्ता चा उग्वंटं आसरहं वेति, उजेता रहाओ पचोरुहेइ, मणुस्वग्गु। परिक्खित्ते पायचारविहारेणं जेक्षेत्र कहे वासुदेवे तेत्र उवागच्छति, नबागच्छित्ता क एवं वासुदेवं समुदविजयपामुक्खे य दसदसारे० जाव बलवगसाहस्सी करयल ० तं चैव ० जाव समोसरह । तए से कण्डे वासुदेत्रे तस्स दुयस्स अंतिए एयमहं सोच्चा सिम्प
० जाहिए तं दूयं सकारेइ, सकारिता माइ, संमाणित्ता परिविसज्जेइ । तए णं से कएडे वासुदेवे कोबियपुरिसे सहावे, सहावेत्ता एवं क्यासी - गच्छह एं तुमं देवापिया ! सभाए सुहम्माए सामुदाणियं नेरिंताहि । तए से कोकुंबिय पुरिसे करयल ०जाव कएहस्स वासुदेवस्स एयमहं पडिसुणेति, परिणेत्ता जेणेव सभाए हम्मा सामुदाणिया मेरी तेथेच नवागच्छर, नवागच्छि
सामुदायिं भेरिं महया महया सद्देणं तालेड़ । तर तार सामुदालियार जेरीए ताझियाए समाणीए समुद्दविजयपामुक्खा दस दसारा० जाव महसेापामुक्खाओ छपनं च बल्लबगसाहसीओ एहाया० जाव विनूसिया ज हाविभवं इष्टिकारसमुदपणं अपेगइया हयगयगया, - पेगइया०जाब पायविहारचारेणं जेणेव कण्ठे वासुदेवे तेव नवागच्छंति, उवागच्छित्ता करयल०जाब कएहं वासुदेव जए विज बार्तेति । तए गं से कहे वासुदेवे को कुंविपुरिसे सदा सदावेत्ता एवं बयासी - खिप्पामेत्र भी देवापिया! अभिसेक हत्थिरयणं पटिकप्पेह, हयगय० जाव पञ्चप्पियंति । तए णं से कपडे वासुदेवे जेणेव मज्जणघरे तेथेव उवागच्छड़, जवागच्छित्ता समुत्तजाला लाजिरामे० जाब अंजणगिरिकूडसमिभं गयवरं नरवई दुरूढे । तए सेवासुदेवे समुहविजय पामोक्रखेहिं दस दसारेहिं०जाब
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गणपा मोक्खाहि अगाहिं गणिया साहस्सीहिं सच्चि संपरिवु सब्बडीए० जाव खेणं वारवई एगरिं म
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(२५८६) प्रन्निधानराजेन्द्रः।
दुवई गऊ मझेणं णिग्गच्छति,णिग्गच्छइत्ता मुरटुजणवयस्स म. 1 णं से दुवए गया वासुदेवपामुक्खाणं बहणं रायसहस्सा
मजणं जेणेच देसप्पंते तेणेव उवागच्छद, नवागच्छइ- | णं आगमणं जाणेत्ता पत्तेयं पत्तेयं० जाव हस्थिखंधन त्ता पंचामजणवयस्म मऊ मऊणं जेणेव कंपिपुरे ण- | जाव सहिं संपरिवुमे अग्धं च पज्जं च गहाय सबकीए गरे तेणेव पहारेत्थगमणाए ?। तए णं से दुवए राया दोचं कंपियपुराओ एयरात्रो णिम्गच्छा, ग्गिचिकृत्ता दूयं सदावेति, सहावेत्ता एवं बयासी-गच्छह णं तुम देवाणु- जेणेच ते वासुदेवपामोक्खा बहवे रायसहस्सा तेणेव पिया! हत्थिणापुरं णयरं, तत्य णं तुमं पंकुरायं सपुत्तयं नवागच्छ, उवागच्छइत्ता ताई वासुदेवपामुक्रवाई अग्घेण जुहिहिवं भीमसेणं अज्जुर्ण नननं सहदेवं दुजोहणं जा- य पज्जेण य सक्कारेति, सम्माणे, सम्मारणेना तोस यसयसमग्ग गंगेयं विरं दोणं जयदहं सउणं कीवं अस्स- | वासुदेवपामुक्खाणं पत्तेयं पत्तेयं पावासे वियरति । तए त्यामं करयलजाब कट्ट तहेवजाव समोसरह । तए णं | णं ते वासुदेवपामुक्खा जेणेव सयाई सयाई भावासे दुए एवं बयासी जहा वासुदेवे, वरं भेरी नत्यिजाव साई तेणेव उवागच्छति, उवागच्छित्ता हत्यिखंधाहितो जेणेव कंपिल्लपुरे णगरे तेणेव पहारेत्थगमणाए शपएणेच पञ्चोरुहंति, पत्तेयं पत्तेयं खंधावारनिवेसं करेंति, करेत्ता कमेणं तरचं यं चपं नयार, तत्य ग तुमं कामं अंगरायं स- सएमु सएम आवासेमु अणुप्पविसंति, सएमु सए आस्मनंदिरायं करयल तहेव०जाव समोसरह ३ । चउत्यं यं | वासेसु य पासणेमु य सणिसम्मा य संतुट्ठा य बहिं गं. सोत्थिमइंगरिं,तत्य णं तुमंसिसुपालं दमघोसमयं पंचना | धन्वेहि यणामएहिय उवगिजमाणा य नवागन्जमाणा य इसयं संपरिवुमं करया तहेव. जाव समोप्सरह ।। पंचमं विहरंति । तए णं से वए राया कंपितपुरं नगरं माणुप्प.
यं हथिमीसंणयरं,तत्थ णं तुम दपदंतं रायं करयन जाव विसति, अणुप्पविसित्ता विउलं असणं पाणं खाइमं सामं समोमरह ५। छठं दूयं महुरि नगरि, तत्थ णं तुभं धर- उबक्खमावेति, उवक्खमावेत्ता कोकुंबियपुरिसे सहावेति, राया करया जाच समोसरह ६ । सत्तमं दूयं रायगिह सहावेत्ता एवं बयासी-गच्छह णं तुम्ने देवाणप्पिया ! यगरं, तत्थ णं तुमं सहदेवं जरासंधसुयं करयल० जाव विउझं असणं पाणं खाइमं साइमं सुरं च मज्जं च मंसं च समोसरह ७ । अट्ठमं दयं कोमिमं णगरं, तत्य णं तुम रु- सीधुं च पसम्मं च सुबहुं पुष्फवत्थगंधमदालंकारं च वासुदेकिं भीसगसुयं करयन्न तहेव० जाव समोसरह । नवयं वपामोक्खाणं रायसहस्साणं आवासेसु साहरह, ते वि
यं विराटं एगरं, तत्थ णं तुमं कीयगं जाउयसयसमग्गं साहरति । तए णं ते वासुदेवपामुक्खा तं विउलं असणं करयल० जाव समोसरह हादसमं यं श्रवसेसेमु गामा- पाणं खामं साइमं० जाव पसएणं च प्रासाएमाणा० ४ गरणगरेसु अणगाई रायसहस्साइं० जाव समोसरह १०। जाब विहरति । जिमियनुत्तुत्तरागया विय णं समाणा तपणं से दूर तहेव णिग्गच्छति, णिग्गच्छइत्ता जेणेव गामा- श्रायंता चोक्खा जान सुहासणवरगया णं बहूहिं गंधगरणगर० जाव समोसर । तए णं ताई अणेगाई राय- ब्बेहि य० जाब विहरति । तए णं से दुवए राया पुचासहस्साई तस्स दूयस्स अंतिए एयमढे सोचा णिसम्म हट्ट- वराहकालसमयंसि कोपुंबियपुरिसे सहावेति, सहावेत्ता तुट्ठा तं दूर्य सकारोति, संमाणेति, संमाणेत्ता पझिविस- एवं बयासी-गच्छह णं तुन्भे देवाणुप्पिया! कंपियपुर ज्जेति । तए णं ते वासुदेवपामुक्खा बहवे रायसहस्सा पत्तेयं णयरं सिंघामगतिगचनक्कचचरमहापहेसु वासुदेवपामोपत्तेय पहाया सएणबहत्यिखंधवरगया हयगयरह- खाण य रायसहस्साणं आवासेमु हत्यिस्खंधवरगया भडचमगरपहकर०सएहिं श्णगरेहितो अनिणिग्गच्छंति, महया महया सद्देणं उग्रोसेमाणा नग्योसेमाणा एवं बयहअभिणिग्गच्छतित्ता जेणेव पंचाझे जणवए तेणेव पहारेत्य. एवं खलु देवाणुप्पिया! कल्लं पाचप्पभाए दुवयस्स रमो गमणाए । तए णं से दुवए राया कोमुंबियपुरिसे सदावेति, धूयाए चुलणीए देवीए अत्तयाए धज्जुणस्स नगिणीए सहावेत्ता एवं बयासी-मच्छह णं तुमं देवाणुप्पिया! कं- दोवईए रायवरकमाए सयंवरे जविस्सइ, तं तुम्भेणं देवा. पिस्नपुरे णगरे बहिया गंगाए महानदीए अदरसामंतेणं पिया ! दुवयं रायाणं अगिएहमाणा एहाया० जाव एग महयं सयंवरमंगवं करेह अणगखंजसयसनिविद्वं सी- विनसिया इत्थिखंधवरगया सकोरंटमलदायेणं उत्तेणं सट्टियसालिनजियागंजाव पञ्चपियति । तर णं से दुव- धारिजमाणेणं सेयवरचामराहिं महया हयगयरहममचए राया कोमुंबियपुरिसे सदावति, सद्दावेत्ता एवं बयासी- डगरेणंजाव परिक्खित्ता जेणेव सयंवरे मंगवे तेणेव उवाखिप्पामेव जो देवाणुप्पिया! वासुदेवपामुक्खाणं बहणं रा- गच्छह, नवागच्चत्ता पत्तेयं पत्तेयं नामंकेस आसणेम यसहस्साशं प्रावासे करेह, ते वि करेता पचमिति । तर निसीयह, दोबई रायवरकन्नं पहिवालेमाणा पमित्रालेमाणा
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CRUE) अभिधानराजेन्थः ।
दुबई
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चिड, घोसणं घोसेह, मम एयमाणत्तियं पच्चप्पियह । तए ते कोरिसा तहेब पच्चधिति । तएषं से पराया कोटुंबियपुरिसे सदावेति, सहावेचा एवं बयासी - गच्छह णं तुब्भे देवाणुप्पिया ! सयंवरमंत्रं आ सियं मज्जित सुपवरगंधियं पंच पुष्कोपार कलिये कालागुरुकुंदुरुकरुक० नाव गंधवमिं वामंचलिये करेड, फरेता वासुदेवपायोक्खाणं बहूणं रायवरमस्माकं पचेयं पचे नामकिवाई आसणाई से यवस्थपाई रहि रचायमाणतियं पचपिण्ड, तेवि तहेव० जाव पच्चध्विति । तए णं ते वासुदेवपामोक्खा बहुवे रापालो कई पाउप्यभार एडाया० जान विसिया इत्यखंचतरगया सकोरंटमदामेणं चचे धारिज्जमाणेणं सेयवरचामराहिं उडुन्त्रमाणेहिं महया हयगयरहभमचमगरेणं सधि संपरिवुमा सन्ची०जाव रखेणं जेणेव सयंवरमंडवे तेणेव उवागच्छंति, नवागच्छत्ता सर्ववरं अणुष्पविसंति, अणुष्पविसहता पत्ते 2 नार्थकिस असणे निसीयंति, विसीतित्ता बुनयरायवरकसं परिवालेमाणा चिद्वंति । तए णं से दुबए राया
पापा एाया जाय विनूसिए इस्थिर गए सकोरंटमदामेणं छतेणं धारिज्जमायेणं सेयवरचामरेहिं उदुव्यमाणे मइया हयगय० जाब सद्धिं संप कंपिनपुरं नगरं मऊं मज्जेणं णिग्गच्छति, णिग्गच्छत्ता जेणेव सयंवरमंत्रे जेणेव वासुदेवपायोक्खा बहवे रायवरसहस्सा तेणेव उवागच्छइ, छत्रागच्छत्ता तेसिं वासुदेवपामोक्खाणं करपल०मा पापाचा कराइस वा सुदेवस्य सेयवरचामरं महाय उपवीयमाणे उपचीयमाणे चिति तसा दोबई रायवरका कल पाउप्पभाए जेणेव मारे तेथेच खागच्छा, वागच्छता मज्जाघरं अणुप्पविसति, अणुप्यविसत्ता सहाया कपबलिकम्मा कपको उपमंगलपापच्छित्ता मुद्धा बेसाई मंगलाई पचरथ
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परिहिया सकारविभूतिया मज घराओ पकिनिक्लम पमनिखमेचा शेव जिणपरे तेणेव उपागच्छना गच्छामिन अणुष्वसिति अणुण्यविसता जिलापरिमाणं आलोर पणामं करे, करेत्ता सोमहत्यगं परामुम, परामुखता एवं जहा सूरियामो निणपडियाओ प्रचेति तद्वेष नाणिपव्वं जात्र घुमहति ।
पति णं इत्यादि) अम् तिम जिताया इति गम्यते । अन्तर्मध्ये उपाश्रयस्य वसतेर्वृतिपरिक्षिप्तस्प, परेषामनालोकनत इत्यर्थः । संपादी निर्माधिकाप्रच्छदविशेषः, सा बद्धा निवेशिता, कार्य इति गम्यते । यया सा संघाटीद्विका, तस्याः, णमित्यलङ्कारे, समतले द्वयोरपि
दुबई
भुवि विन्यस्तत्वात्पदे पादौ यस्याः सा समतनपदिका, स स्याः, श्रातापयितुमातापनां कर्तु कल्पत इति योगः । (ब्रलियसि ) क्रीमप्रधाना ( गोष्ठि ति) जनस्य समुदायविशेषः । (नरवदिनवियार त्ति ) नृपानुज्ञानकामचारा ( अम्मापीईनियनिवास) दिन (सविहारक पनियस) वेश्याविहारेषु श्यामन्दिरेषु निकेो निवासो यया सा तथा । ( णाखावि श्रविणयपढाणा ) इति कराव्यम् । ( पुप्फपुरियं रएइ ति ) पुष्पशेखरं करोति । (पापपत्ति) पादावलक्तकाऽऽदिना रज्जयति । पाठान्तरे-" रोवे सि" घूतजलाभ्यामायति । (सरीरवासि सि कुराः शमयरित्र, स च शरीरत उपकरणतश्चेत्युक्तं, शरीरवकुशा तद्विभूषाऽनुवतिनीति । (गणं वि) कायोत्सर्गस्थानं निषवनस्थानं वा श स्वम्वर्तनं नैधिकी स्वाध्यायमि चिन्तयति करोति । " श्रश्नोपहि० जाब इत्यत्र यावत्करणात्-" निंदाहि गरिहाहि परिक्रमादि विउट्टादि विसोदेहि अकरण्याए श्रब्भुडेहि अहारिहं तवोकम्मं पायच्छित्तं पडिवजाहि ।" इति दृश्यमिति । तत्राऽऽलोचनं गुरोर्निवेदनं, निन्दनं पश्चातापो, गर्हणं गुरुसमक्षं निन्दनमेव, प्रतिक्रमणं मिथ्या दुष्कृतदानलक्षणम्. अकृयाविर्ता । विनमनुबन्धच्छेदनं विशोधनं न पुनर्नवीकरणं शुभं कयमिति (पादिति पृच (अणाहयित ) विद्यमानोषधको प
"
मानाया हस्तपादादिना निवर्तको यस्याः सा तथा । तथा नास्ति निवारको मैवं कार्षीरित्येवं निषेधको यस्याः सा तथा । ( अपारस ) अद्यप्रभृति दिन पूजाव्याणि (पजं व ति ) पाददितं पाद्यं पादप्रकाशनस्नेहनोद्वर्तनाऽऽदि । मद्यमधुप्रसन्नाऽऽरूयाः सुराभेदा एव। (जिणपि मसाविवदते । बाचनान्तरे तु "पायाजान साकारविभूसिया मक्षणघराम्रो परिक्खिम, पडिणिक्ख महत्ता जेणेव जिण घरे तेच उपागच्छति उपागता जिपरं विस, अयुध्यसिरसा जिपमा समोर ना करे करे ता लोमहत्थगं परासर, परा मुसद्दता पवं जहा सूरियाभो जिपमा अति तदेवभणिय वंजाब महर थि।" दयाकरणादयम्-लोमस्तकेन नियमां प्रमाहिं सुरभिदा गन्धोदकेन स्नपयति, गोशीर्षचन्दनेनानुलिम्पति, वस्त्राणि निवासयति, ततः पुष्पाणां माख्यानां ग्र थितानामित्यर्थः । गन्धानां चूर्णानां वस्त्राणामाभरणानां वाऽऽरोपणं करोति स मालाला पाचलम्बनं पुष्पप्रकरं तदुर्पणाऽऽद्यष्ट मङ्गलकाले रचनं करोति ।
महता वामं जाएं अंचेति, अचेत्ता दाहिणं जाएं धरणित शिसीय, णिसीयइता तिक्खुत्तो मुद्दाएं
"
निवेसे निवेसेचा ईसि पचचुसमद, प मत्ता करयन० जाव कट्टु एव बयासी - नमोऽत्यु अरिहंताणं जगवंताणं आदिगराणं तित्यगराणं स संबुद्धाणं० जाव ठगणं संपत्ताणं बंदर, नसइ, वंदिना णमंसित्ता जिघराओ पडिणिक्खमति, परिशिक्खमचा जेखे अंतेरे तेथेच उपागच्छ । तर णं तं दोवश्रायत्ररकां अंतेउरियाओ सब्वालंकार
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दुवई
(२५००) दुवई
अनिधानराजेन्डः। विनृसियं करेंति, किं ते बरपायपत्तनेउर० जाव चेडिया
कलसेहिं मज्जावेति, मज्जावेत्ता अग्निहोमं करोति, करेचकवानमयहरगदपरिक्खित्ता अंतेनरानो परिणि
त्ता पंचएहं पंवाणं दावईए य पाणिग्गहणं कारावेइ । क्खमति, पमिणिक्खमइत्ता जेणेव बाहिरिया उबट्ठाणसाला
तए णं से दुवए राया दोवईए रायवरकमाए इमं एजेोव चाउग्घंटे आमरहे तेणेव उवागच्छद, नवागच्छइत्ता
यारूवं पीइदाणं दलयति । तं जहा-अट्ट हिरमकोमीओ किड्डावियाए बेहियाए सकि चानुग्घंटं पासरहं सुरूह- जाव अस पेसणकारीओ, अट्ट दामीचे डीओ, अप्न च ति । तए णं मे धट्ठज्जाणे कुमारे दोवईए रायवरकन्नाए सा-| विपुलं घणकणगल जाव दलयति । तए से दुवए राया रत्ययं करति । तए णं सा दोबई रायवरकामा कंपिन पुरंण.
ताई वासुदेवपामोक्खाई विउलेणं असणं पाणं खाइम यरं मऊ मऊकेणं जेणेव संयंवरमंमवे तेणेच नागच्छइ,
साइमं वत्यगंधजाव पडिविसजेति । तप णं से पंसुए रानवगच्छदत्ता रहं ठवे वेत्ता रहाओ पच्चोरुहति,
या तसिं वासुदेवपामुक्खाणं बहूर्ण रायसहस्साणं करयन पच्चोरुहत्ता किड्डावियाए सेहियाए सकिं सयंवरमंडवं
जाव एनं बयासी-एवं खलु देवाणुप्पिया ! हथिणाअणुप्पविमति, अप्पविमत्ता करयन तसिं वासुदेवपामो
जरे णगरे पंचएहं पंवाणं दावइए देवीए कस्माणकरे क्खाणं बहूगणं रायवरसहस्साणं पणाम करेति । तए णं सा
भविस्सति, तं तुम्भे ण देवाणुप्पिया ! ममं - दोबई रायवरकत्सा एग महं गिरिदामगं,किं ते पामग्रम
गिएहमाणा समोसरह । तए णं ते वासुदेवपामुक्खा पत्तेयं नियं चंपय जाव सत्तच्च्याईहिं गंधकृणिम्मुयंतं परमसुहफासं दरिसणिज गिएहति । तए णं सा किड्डाविया सु
पत्तेय. जाव पहारेत्यगमणाए । तए णं से पंगुर राया
कोमुंबियपुरिसे सद्दावेति, सद्दानेत्ता एवं बयासी-गच्छह रूवाजाव वामहत्येणं चिदगं दप्पाणं गहेकाण सा सल
णं तुब्भे देवाणुप्पियाहित्थियाउरे गरे पंचएह पंवा नियं दप्पणसंकंतबिदलिए य से दाहिणेणं हत्येणं
पंच पासायसिए करेह,अब्भुग्गयत्नृभिय० वमोजाव दरिसेइ पवररायसीहे फुमविसयविसुद्धरिजियगंभीरमहरभ
पमिरुवे । तएणं ते को कुंबियपुरिसा पमिमुणेति जाव का. णिया मा तेसिं मवेसिं पत्थिवाणं अम्मापिनणं बंससत्त
राति । तए णं से पंमुए राया पंचहिं पंवोहि दोबईप देवीए सामत्यगोत्तविकतिकनिबहुविहागममाहप्परूव [जोवणगु
स िहयगयरहसंपरिचुढे कंपिल पुराओ पडिणिक्खमति, णलावम] कुलसीलजाणिया कित्तणं करोति, पढ़मं च ताव
पमिणिक्खमश्ता जेणेच हत्यिशाउरे तेणेव नवागए । तए वएिहपुंगवाणं दसारबरवीरपुरिसाणं तिल्लोकबलवगाणं
से पंडुए राया तेसिं वासुदेवपामुक्खाएं आगमणं जाणेत्ता सत्तुसयसहस्त्राणं माणोवमद्दगाणं भवसिछियवरपुमरी
कोबियपुरिसे सद्दावेति, सद्दावेत्ता एवं बयासी-गच्छह एं पाणं चिन्मगाणं वनवीरियरूवजोबाणगुणलावधकित्ति
तुम्भे देवाणुपिया! हत्यिणाउरस्स एयरस्स बहिया वासुया कित्तणं करेति । ततो पुणो उग्गसेणमाईणं जायवाणं जाणइ य सोहग्गरूवकालयवरेहिं वरपुरिसगंधहत्यीणं जो
देवपामुक्खाण बहूर्ण रायसहस्साणं आवामे करेह,अणेगवं
नसय तहेव० जाच पञ्चप्पिणंति । तए णं ते वासुदेवपामुक्खा हु ते होइ हिययदइओ । तए णं सा दोबई रायवरकस्मगा।
बहवे रायसहस्सा हरियणाउरे ण यरे तेणेव उवागच्छति । बहू रायवरसहस्साणं मझ मज्जेसं समइत्थमाणी
तपणं से पंमुए राया ते वासुदेवपामुक्खाजाव आगए जासमइत्यमाणी पुबकयणियाणेणं चोइज्जमाणी चोइज्जमा
णेत्ता हतुढे एहाए कयवनिकम्मे जहा वए राया जहाणी जेणेव पंच पंवा तेणेच नवागच्छ,नबागच्छइत्ता ते.
रिहं आवासे दनयति । तए णं ते वासुदेवपामुक्खा बहपंचपंडचे तेणं दसवणं कुमुपदामेणं आवेढियपरिवेढियं
बे रायसहस्सा जेणेव सयाई प्रावासाई तेणेव नवागच्छंति, करोति,करेत्ता एवं बयासी-एए णं मए पंच पंकबा चरि
उवागच्चत्ता तहेव० जाच विहरति । तए णं से पंमुए राया पा। तए ण ताई वासुदेवपामोक्खाणि बहूणि रायसहस्माणि महया महया सद्देणं नग्घोसेमाणे जग्योसेमाणे एवं
हत्थिणारं एयरं मऊ मज्जेणं अणुप्पविसम, अणुप्पवि
सइत्ता काटुंबियपुरिसे सदावति, सहावेत्ता एवं बयासीचयंति-मुवरियं खलु जो दोवईए रायवरकमाए त्ति कटु सयंवरमंडवामो पक्षिणिक्खमंति, पमिणिक्खमित्ता जेगेव
तुम्भे गं देवाणप्पिया ! विठलं असणं पार्ण खाइमं साइमं सयाई आवासे तेणेच नवागच्छति । तए णं धज्जुणे कु
तहेव जाव नवणेति । तए णं ते वासुदेवपामुक्खा बहवे मारे पंचमचे दोबई च रायवरकामं चा उग्घंटे पासरहं
राया एहाया कयवलिकम्मा तं विनलं असणं पाणं खादुरूहति, दुरूहेत्ता कंपिल्लपुरं मऊ मज्केणं जाव सयं । इमं साइमं तहेव जाव विहरांत । तए णं से पंमुए राया ते भवणं अणुप्पविसति । तपएंवए राया पंचवे दोव | पंचपंढवे दोवई च देविं पट्टयं दुरूहति, से यापीएहिं कलसेपिंच रायवरकथं पट्टे दुमदति, दुरूहिचा सेयापीपहिं हिं एहावेति, कलाकं करोति, करेत्ता ते वासुदेवपामोक्खे
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(२५ ) माभिधानराजन्धः ।
दुवई
बहवे रायसहस्से विउलेणं असणं पाणं खाइमं साइमं | बेहिं अवदवा सपाणी मम णो आढाति० जाब नो पज्जुपुप्फवस्था सक्कारेति, संमाणेति, सम्माणेत्ता जाव पढिवि- वासति, तं सेयं खलु ममं दोवईए देवीए विपियं करित्तए सन्जेति । तए णं ताई वासुदेवपामुक्खाई बहूरायाईजा- ति कडु एवं संपेहेति, संपेहेत्ता पंकुरायं आपुच्चति, आपुव पडिगयाई। तए ण ते पंच पंडवा दोबईए देवीए सकिं चमत्ता नप्पणियं विजं आवाहे।ताए उकिट्ठाएजाव कल्लाकल्लिं वारंवारेणं जराबाई जोगभोगाई नाव विहरति । विजाहरगहए लवणममुई मऊ मऊकेणं पुरत्यानिमुहे वीईव. तए से पंहुए राया अछाया कयाइ पंचहि मवेडिं.कुंती देवी यइ,उवपचे यावि होत्या । तेस कालेणं तेणं समएणं धादोवईए देवीए मकिं अंनेचरपरियालससिंपरिखुडा सी
यईसके दीवे पुरच्छिमदाहिण हजरहवासे अवरकका नाम हासणवरगया विहरति । इमं च णं कच्च्ब र नारए दंसपोणं
रायहाणी होत्था । तत्थ णं अवरकंकाए रायहाणीए पउमणाअइजदए विणीए अंतो अंतोय कबुसहियए ममत्थ उव
भेणामं राया होत्या महया हिमवंतवमओ।तस्सणं पउमणात्यिए य अवीणसोम्मपियदंसणे सुरूवे अमइलसगलप
जस्स रमो सत्त देवीसयाई अवरोधे होत्या। तस्स णं पउमरािहिए कालमियचम्मनत्तरामंगरइयवच्छे दमकममहत्ये नाभस्स रस्मो पुत्ते मुणाने पाम पुचे जुबराया विदोत्या। जमामउडदित्तासिरप जम्मोवइयगणेत्तियभंजमेहनवागाधर तएणं से,पउमणाने राया अंतेउरसि अवरोधे संपरिखडे सीहत्यकयकच्चनीए पियगंधब्बे धरणिगोयरप्पहाणे संवर-|
हासणवरणए विहरति । तए णं से कच्चुब्लनारए जेणेव णावरणि उयवयणप्पयणिलेसिणीसु य संकामणिमाजिओ
अवरकंका रायहाणी जेणेव पउमनाभस्म रछो भवणे तेणेगपएणत्तिगमणीयंजणीमु य बहुसु विज्जाहरीसु विज्ञासु
व उवागच्छइ, नवागच्चइत्ता पनमणाजस्स एणो जवणंविस्मयजसे इहे रामस्स य केसवस्स य पज्जुएषपईवसं
सि भत्ति वेगेणं समोवइए । तए से पमनाने राया वअनिरुकनिसहरस्सुयसारणगय मुमुहदुम्मुहाईणं जायवाणं
कच्जुननारयं एज्जमाणं पासति, पासइचा भासणाओ अट्ठाण य कुमारकोमीण हिययदइए संथवए कन्नहजुर
अन्भुट्ठति,अग्घेणंजाव प्रासणेणं उवनिमंते । तए णं कोलाहलप्पिए भमणाभिलासी बद्दस असमरेसु य संपरा।
से कच्चुननारए उदगपरिपोसियाए दन्जोपरि पम्वत्थएसुदंसागरए समंती का सदक्खिाएं अणुगवेसमाणे अ.
याए निसियाए निसीय३० जाव कुसलोदंतं प्रापुच्छति । समाहिकरे दमारवरवीर पुरिसतेयोकवझवगाणं आमतेऊणं तं
तएणं से पउमनाने राया णियोरोहे जायविम्हए कच्छु. भगवई एकमाणं गगणगमणदच्छं नप्पणियं आवाहइत्ता
बनारयं एवं बयासी-तुमं देवाणप्पिया! बहूणि गामाणिक गगतलमजिलंघयंतो गामागरनगरखेडकन्चममबदोणमु- जाब गिहाई अणुप्पविससितं अस्थियाइं वे कहिं वि देवाहपट्टणसंवाहसहस्समंमियं थिमियमेइणीयं णिन्जयजण- णुप्पिया! एग्सिए ओरोधे दिहपुन्चे, जारिसरणं मम अ पदं वमुहं अोलोईतो रम्मं हरियाणारं एयरं वागए, वरोधे । तर णं से कच्चुलनारए पउमेणं रखा एवं बुत्ते समाणे पंकुरायनवासि अइवेगेणं समोवय । तर से पंकुराया ईसिं विहसियं करेति, करेत्ता एवं बयासी-सरिसेणं तुम कच्चुलनारयं एज्जमाणं पासति, पासइत्ता पंचहि पंवहिं पउमनाभा! तस्स अगमददुरस्स। के णं देगणुप्पिया! मे अकुंतीए देवीए सम् िआसणाओ अन्नद्वेति, कच्छचना- गमददरे ? एवं बयासी।जहा महिलणाए। एवं खलु देवाणु. स्यं सत्तढण्याईपच्चुग्गच्छतिक्खुत्तो प्रायाहिणं पयाहि- पिया! जंघद्दीने दी भारहे वामे हत्यिणाउरे एयर - णं करोति, करेत्ता बंदइ, नमसइ, नमंसश्त्ता महरिहेणं वयस्स रमो ध्या चुलणीए देवीए अचया पंफुस्स मुपहा
आसणेणं उपनिमंतेति । तए णं से कच्चलनारए नदगप- पंचएहं पंडवाणं भारिया दोबई णाम देवी रूबेख य० जाव रिपोसियाए दन्नोवरि पव्वत्थयाए निसियाए निसी- उक्विटा नक्किडसरीरा,दोवईए देवीए विधस्स चि पायंगुहस्म यति, निसीयत्ता पंडुरायं रज्जे यजाव अंते नरे य कुस- अयं तव अवरोहे सयमं कझं ण अग्यः त्ति का पनमणाभं लोदंतं पुच्छति । तए पं से पंगुर राया कुंती देवी पंच य रायं श्रापुच्छति, आपुच्छरमा बार पबिगए । तर एं से पंकचा कच्चुलनारयं आदति० जाव पज्जुवासंति । तए णं पनपणाने राया कसनारयतिर एयमई सोचा णिमा दोबई देवी कच्चुलनारयं असंजय अविस्य अप्पडिहय- सम्म दोवईए देवीए रूवे प लावले य नोब्बणे य अपञ्चक्खायपावकम्मे त्ति कडु नो आढातिनाव जो पज्जु- मच्चिए गिक जागेव पोसहसाला तेणेव उवागच्छइ, - चासति । तए णं तस्स कच्चुनारयस्स इमेयारूवे अन्नात्य- वागच्चइत्ता पोसहसालं जाव तं मुख्यसंगइयं देवं एवं बए चिंतिए पस्थिए मणोगयसंकप्पे समुप्पज्जित्था-अहो यासी-एवं खबु देवाणुप्पिया! जंबुद्दीचे दीवे भारहे वासे णं दोबई देवी रूवेणू या जाव झावोण य पंच पंढ- हत्यिणारे एयरे जान सहीरा, तंइच्छामि देवाणप्पि.
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दुवई
(५०) भनिधानराजेन्डः।
दुवई या!दोवई देविं श्ड हबमाणीयं । तए णं पुनमंग- वासुदेवे मम पियाभाउए परिवसइ, तं जाणं से बएई
मासाणं मम कूर्व नो इन्चमागच्कृति, तए णं अहं देवाइए देवे पउमणानं एवं बयासी-नो खलु देवाणुप्पिया!
णप्पिया ! जं तुमं वदसि तस्स आपाउवायएयं तूयं वा, एयं जव्वं वा, एयं नविस्सं वा, जं पं दोवई
वयणणिदेसे चिहिस्सामि । तए ण से पउपणाभे दोवईए देषी पंचमवे मोत्तूण मम्मेणं पुरिसेणं सकिं नरालाई
देवीए एयम पमिमुणेति, पडिपुणेत्ता दोनई देविं कमभोगनोगाई० जाव विहरिस्सइ, तहा वि य णं अहं तब तेनरे व्वेति । तएणं सा दोबई देवी उ8 छ?णं प्रणिक्खिपीइट्ठाए दोबइं देवि इह हबमाणेमि त्ति कटु पनमणानं तेणं आयंबिलपरिग्गहिएणं तपोकम्मेणं अपाणं नावेआपुच्चइ, ताए उकिट्ठाए. जावसवणसमुदं मऊ मऊोणं
माणी विहरइ । तएणं से जुहिडिवे राया तो मुहुर्ततजेणेच इत्थिणारे नगरे तेणेव पहारेत्यगमणाए । तेणं रस्म पडिबुके समाणे दोवई देवि पासे अपासमाणे सयकालेणं तेणं सपएणं हत्यिणाउरे नयरे जुहिद्धेि राया
णिज्जाभो उद्धे, उठेत्ता दोबईए देवीए सव्व ओ ममता दोवईए देवीए सकि नापि आगासतासि मुहपसुत्ते या- मग्गणगवेसणं करेइ, दोवईए देवीए कत्थइ सुई वा खई वा वि होत्था । सए णं से पुत्रसंगइए देवे जेणेव जुद्दिहिवे पवित्तिं वा अक्षरमाणे जेणेब मुराया तेणेव उवागच्छद, राया जेणेव दोबई देवी तेणेव उबागच्चइ, उवागच्छदसा
नवागच्चत्ता पंडुरायं एवं बयासी-एवं खलु ताओ! ममं दोवईए देवीर सोवाण दलगइ, दायित्ता दोवई देविं
आगासतमगसि सुहपसुत्तस्स पासाओ दोवईए देवीए ण गेएहर, गेएदत्ता साए नविटाए० भाव जेणेव अवरकंका
णज्जति-केणाइ देवेण वा दाणवेण वा किंपरिसेण वा किरायहाणी जेणेव पनपणानस जपणे तेणेच उवागच्छद,
अरेण वा महोरगेण वा गंधव्वेण वा हिया बा, णीया वा, उवागच्चत्ता पनमणाजस्म जवर्णसि असोगवणियाए दो
उक्खित्ता वा,तं इच्छामि ताओ! दोवईए देवीए सन्चबइंदेवि गवे, सोवणिं अवहरति, जेणेव पनमणाने राया
मो समंता मग्गणगसणं करित्तए । तए णं से पंकुराया तेणेच उवागच्छद, उवागच्छइना एवं बयासी-एस गंदे
कोपुंबियपुरिसे सद्दावेद, सद्दावेत्ता एवं बयासी-गच्छह णं वाणुप्पिया! मए हत्यिणाउराओ जयरामो दाई देवी
तुम्मे देवाणप्पिया! हथिणाउरे नगरे सिंघामगतिगचनक्षयह इब्रमाणीया तव भोगवणियाए चिट्ठति, अप्रो परं
चच्चरमहापहपहेस महया मध्या सद्देणं नग्घोसेमाणा उम्पोतुम जाणासि ति कह जामेव दिसिं पानातूए तामेव
सेमाणा एवं बयह-एवं खलु देवाणुप्पिया ! जुहिहिट्यस्त दिसिं परिगए । तए णं सा दोई देवी तओ मुहुत्तंतरस्स
रमो आगासतमगंसि सुहपमुत्तस्स पासाओ दोवई देवीण पषिबुद्धा समाणी तं भवणं असोगवणियं च अपच्चई।
णजइ केण देवेण वा दाणवेण वा किंपुरिमेण वा किन्नरेण जाणमाणी एवं बयासी-नो खयु अम्हं इमे सए पासाए, वा महोरगेण वा गंधब्वेण वा हिया वाणीया वा उक्खित्ता वा। को खलु एसा अम्हं सगा असोगवणिया, तं ण जति (वामं जाणुं अंचे त्ति) नक्षिपतीत्यर्थः। (दाहिणं जाणु पर. णं अहं केण देवेण वा दाणवेण वा किम्मरेण वा किंपु- णितलंसि निहह) निहत्य,स्थापयित्येत्यर्थः। लिक्खुत्तो मुद्धाणं रिमेण वा महोरगेण वा गंधव्येण वा अग्रस्त रखो असोग
धरणितलंसि निवेसेड) निवेशयतीत्यर्थः। ( इसिं पच्चुम्ममति,
परचममहत्ता करयल परिम्गहियं अंजलि सत्थर कट्ट एवं ब. वणियं साहरियत्ति कह ओहयमणसंकप्पा० जाव कियायति ।
यासी-नमोऽन्धुणं अरहंताणंजाव संपत्ताणं चंदति, नमस, तए णं से पनमरणा राया एहाएन्जाव मचाबंकारविलू- णमंसात्ताजिणघराको पमिाणक्खमति,परिजिषमता।"त. सिए अंतेनरपरियालसद्धिं संपरिबुडे जेणेव असोगवणिया त्र वन्दति चस्य वन्दनविधिना प्रसिद्धन,नमस्यति पश्चात्प्रणिधाजेणेच दोबई देवी तेणेव उवागच्छक, नवागच्चइता दोबई
नाऽऽदियोगेनेति वृकाः । न च ौपद्याः प्रणिपातमकमात्र
चैत्यवन्दनमभिहितम,सूचनात सूत्र इति सूत्रप्रामाण्यादन्यस्यादेविं प्रोदय. जाव झियायमाणिं पास, पासता एवं पि श्रावका देस्तावदेव तदिति मन्तव्यमाचरितानुवादरूपत्वाबयामी किंणं तुमंदेवाणुप्पिए प्रोत्याजाव कियाहिएवं| दस्य । न च चरितानुवादवचनानि विधिनिषेधसाधकानि भ. खलु तुम देवाणुप्पिया ! ममं पुन्धसंगइएणं देवेणं जंबुद्दी
बन्ति, अन्यथा सूर्याभाऽऽदिदेववक्तव्यतायां बढ़ना शस्त्राऽऽदि.
वस्तुनामचंन भूयत इति तदपि विधेयं स्यात् । किं चाविबाओ जारहाओ वासाम्रो हस्थिणानराओ एयरात्रो।
रतानां प्रणिपातदएकमात्रमपि चैत्यवन्दनं संभाब्यते, यतो जुहिद्विलस्स रम्पो भवणामो साहरिया, तंमाणं तुम देवा
वन्दते, नमस्यतीतिपदद्वयस्य वृतान्तरव्याख्यानमेवमुपदर्शिपुप्पिया! ओहयजाव कियाहि, तुम णं मए सद्धि विन- तं जीवाभिगमवृत्तिकृता । विरतिमतामेव प्रसिम्त्य वन्दनः लाई जोगभोगाई० जाव विहराहि । तए णं सा दोबई देवी
विधिवति, अन्येषां तथाऽभ्युपगमपुरस्सरकायोत्सर्गासिके ।
ततो बन्दले सामान्येन, नमस्करोति माशयवृकेः प्रीत्युत्थानकपउमणाभं रायं एवं बयासी-एवं खल देवाणुपिया !
पनमस्कारेणेति । कि च-"समणेण सावएण य, अवस्स का. मंबुद्धीवे दी भारहे वासे वारवईए नयरीए कएहे पामा मन्वयं इवति जम्हा । अंतो प्रदो निसिस्स य, तम्हा माव
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(२५ ) अभिधानराजेन्द्रः।
सय नाम ॥१॥" तथा-"जणं समणो वा समणी वा
वलितं येन मनथा(काल मियचम्म उत्तरासंगरश्यवच्छे कामसावो वा सावित्रा घा तश्चित्ते तलेस्से तम्मणे उनी
मृगचर्म उत्सरासलेन रचितं वसि येन स तथा। (दमकमंडकालं आवस्सप चिठंति, तं णं लोउत्सरियए भावाव
लुहत्य जडामउमदित्तसिरए जण्णोवयगणेसियमुजमहलवा. स्सए।" इत्यादरनुयोगद्वारवचनात् । तथा सम्यग्दर्शनसंपन्नः
गधरे) गणेत्रिका रुद्राककृतं कनाचिकाभरणं मुजमेखना मु. प्रवचन भक्तिमान् परिधाऽवश्यकनिरतः षट्स्थानकयुक्तश्च
अमयः कटीदवरकावल्कनं तरुत्वक (हत्यकयकच्छभीए) कधायको भवतीत्युमास्वातिवाचकवचनात श्रावकस्य पहि- पिका तदुपकरणविशेषः। (पियगंधा) गन्धर्वप्रिया गीतप्रिघाऽऽघश्यकासकावावश्यकान्तर्गत प्रसिद्ध चैत्यवन्दनं सिद्धमेव
यः।(धरणिगोयरपढाण) अाकाशगामिस्वात। (संवरणावरभवतीति । (सारत्ययं ति) सारख्यं सारथिकर्म " तप ण णिन्यवयणुपयणि लेसणीसु य संकामणिमानिश्रोगपछात्तिगम. सा किट्टाविया" इत्यादौ यावत्करणादेवं श्यम-" साभाविय. णीयंभणीसु य बहुसु बिज्जाहरीसु विज्ञासु विस्सुयजसे)ह घस्सं चोदह जणस्स कसुयकरं विचिसमणिरयणबद्धछरु
संबरपयादिविद्यानामर्थः शब्दानुसारतो वाच्यः । (पिज्जाहमं ति । " तत्र क्रीडापिका कीमनधात्री, (सानावियघस्सं
रीसुत्ति) विद्याधरसंबन्धिनीषु. विश्रुनयशाः स्यातकीर्तिः। ति) स्वाभाविकोऽकैतवकृतो धर्षे घर्षणं यस्य स तथा तं, (इके रामस्स य केसवस्स य पज्नुनपश्वसंबअनिरुद्धनिसहरदर्पणमिति योगः। (चोद्दहजणरस असुयकरं ति) तरुणलोक स्सुयसारणगय सुमुहम्नुहाईणं जायवाणं अद्धाण य कुमारस्य औत्सुक्यकरं प्रेक्षणलम्पटत्वकर (विचित्तमणिरयणबद्ध कोडोणं दिययदइए)वलन इत्यर्थः (संयवए) तेषां संस्तावक: ग्रुअंति) विचित्रमणिरत्नबंद्धः छरुको मुष्टिग्रहणस्थानं यास (कलहजुष्कोलाहलप्पिए) कल हो वागगुरूं,युद्धं तु प्रायुधयुरू, तथा सं (चिल्लग)दीप्यमानं, दर्पणमादर्शम (दप्पणसंकंत- कोलाहलो बहुलोकमहाध्वनिः। (भंगणानिन्नासी) भए उन पिटा. बिंबसंदंखिए से सि)दपणे संक्रान्तानि यानि राज्ञां बिभ्वाणि तक ऽऽदिभिः (बहुतु य समरसंपरापसुसंग्रामवित्यर्थग (दसप्रतिबिम्बानि तैः संदर्शिता उपलम्निता येते तथा ताँच (से) णरए रूपंतो कल सदक्खिणं ति) सदानमित्यर्थ।। (सणुगतस्या; दकिण हस्तेन दर्शयति स्म, बौपद्या इति प्रक्रमः। प्रव. बेसमाणे भसमाडि करे इसारवरवीरपुरिसतेलोकवसयगाणं रराजसिंहान, स्फुटमर्थतो विशद, वर्णतः विशुरूं, शब्दार्थ- श्रामंताण तं भगति पकमणि गगगमणइच्छं उपणियं दोषरहितं, रिभितं स्वरघोलनाप्रकारांपेतं, गम्भीर मेघशब्दध. जाब गगणतनमभिलंघयंतो गामागरनगरस्ने कम्बममपदो. दूमधुरकर्णसुखकर भणितं नाषितं यस्याः क्रीमापिकायाः सा णमहपहुणसंवाहसहस्समंमियं थिमियमेाणीय णिम्भयजणपदं तथा तम, तथा (तेषां) मातापितरौ वंशाऽऽदिकं हरिवंशाऽऽदि. बमुहं प्रोनोईतो रम्मं दत्थिणाउरंणगरं उबागप) (असंजय. कं. सवमापत्स्ववलम्यकरमध्यवसानकरं च । सामय बनं.गोवं अधिरय अप्पमियअप्पचक्खायपावकम्मे त्ति कट्टु) असंयतः गौतमगोत्राऽऽदि.विक्रान्ति विक्रम,कान्ति प्रभा, पाठान्तरेण की- | संयमरहितत्वात अविरतोविशेषतपस्यरतत्वान्न प्रतिहतानि न तिचा प्रख्याति, बहुविधागमं नानाविधशाखविशारदतामि- प्रतिषेधितानि प्रतीतकालकूतानि निन्दनतः न प्रत्याख्यातानि त्यर्थः, माहात्म्यं महानुनावतां,कुसं बंशस्यावान्तरभेद, शीसंच च भविष्यकालभावीनि पापकर्माणि प्राणातिपाताऽऽविक्रिया स्वभावं जानाति या सा तथा, कीर्तनं करोति स्मेति । वृष्णिपु- येना अथवा-न प्रतिहतानि सागरोपमकोटाकोट्याउन्तःप्रवेशनेजवानां यदुप्रधानानां दशाराणां समुजविजयादीनां, दशार- न सम्यक्त्वलाभतः, न च प्रत्याख्यातानि सागरोपमकोटाको स्य वा वासुदेवस्य येवरा वीराश्च पुरुषास्ते तथा, तेच ते ट्या संख्यातसागरोपमैन्यूनताकरपेन सर्वविरतिमानतः पा. त्रैलोकोऽपि बलवन्तश्चेति विग्रहः। वीरास्तेषां शत्रुशतसह- पकर्माणि कानाधरणादीनि येन स तथेति पदमयस्य च त्राणां रिपुलक्षाणां मानमवमृद्रन्ति येते तथा तेषां तथा भ- कर्मधारयः। (कृति)कजकं व्यावर्तकबलमिति भावः। विष्यतीति नवा भाविनी सा सिद्धिर्येषां ते जवसिद्धिकास्तेषां मध्ये वरपुएकराकाणीव वरपुएर्गकाणि येते तथा तेषाम(चि.
तं जोणं देवाणुपिया!दोईए देवीए सुई वा खुई वा पवित्ति गाणं ति) दीप्यमानानां तेजसा। तथा-बलं शारीरं, बीर्य जी.
वा परिकदेश,तस्स पं ते पंकए राया विउलं अत्थसंपयाणं पप्रभवं. कसं शरीरसौन्दर्य, यौवनं तारुण्य, गुणान सौन्द- दलइ तिकड घोसणं घोसावेह, एयमाणत्तियं पञ्चप्पिणह। योऽन्दीन, लावण्यं च स्पृहणीयतां कीर्तयति या सा तथा,
तए णं ते कोमुबियपुरिसा. जाव पञ्चप्पिणंति । तर से क्रीमापिका कीर्तनं करोति स्मेति पूर्वोक्तमपि किश्चिद्विशेषाभिधानायाभिहितमिति न दुएम् । (समइत्यमाणी ति)समतिका
पंकुर राया दोवईए देवीए कत्थइ सुई वा. जार अलभ. मन्ती (दसद्धवम्मेणं ति)३६ श्रीदामगरमेन पूर्वगृहीतेनेति सम्ब.
माणे कुंतिं देवि सद्दावेति, सहावेत्ता एवं बयासी-गच्छा म्धनीयम । (कल्लाणकरे ति)कल्याणकरणं मालकरणमि- णं तुम देवाणु पिया ! वारवई णगरि कएहस्स वासुदेवस्स स्यर्थः । (मं च णं ति) इतश्च (कबुखए नारए सि) एतनामा
एयमद्वं पिवेदेहि,कएहेणं परं वासुदेवे दोवईए देवीए मग्गतापसः । शह कचिद् यावरकरणादिदंश्यम्-“दंसणेणं अक्ष भदप " भरूदर्शनमित्यर्थः। ( विणीए अंतो अंतो य कमु.
एगवेमणं करेजा, अनहा न नजद दोबईए देवीए सुई सहियर ) अन्तराऽन्तरा दुष्पचित्तः, केलीप्रियस्वादित्य
वा सुई वा पवित्ति वा अवनज्जा । तर णं सा कुंती देवी र्थः । (मज्फत्थनवस्थिए यत्ति) माध्यस्थ्य समताम- पंकुए रए एवं वुत्ता समाणी. जाव पटिमुणेति, पमि. भ्युपगतो, व्रतग्रहणत इति भावः । ( अजीणसोम्मपियदसण सुरुवे) मालीनानामाश्रितानां सौम्यम प्रियं चद
सुपत्ता एहाया कयवझिकम्पा इत्थिखंधवरगया इत्यिणाशनं यस्य स तथा । (अमलसगलपरिढिए) अमलिनं सक.
उरणयरं मऊ मऊणं णिग्गच्छाणिग्गाश्त्ता कुरुजबमबकाशक वा खएडवल्कवास इति गस्यते।परिहितंति भवयं ए मकेणं जेणेव मुरडा जाणवए जेणेव बार
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(२॥५२) अभिधानराजेन्दः ।
बई पायरी जणेव अगुजाणे तेणेव उवागच्छा, नवा- जाव वनका। तए णं से कच्चुलए णारए कएहं वासुदेवं गच्छत्तिा हत्यिखंधाश्रो पचोरुहइ, पञ्चोरुहित्ता को- एवं बयासी-एवं खयु देवाणुप्पिया ! अम या कयाइ धायमुंबियपुरिसे सद्दावेश, सदावेत्ता एवं बयासी-
गह गं ईसंदीपुरच्चिमिवं दाहिण हजरह वासं अवरककं रायतुम्भे देवाणुपिया ! जेणेव वारवई नगरी तेणेव वारवई ण. हामि गए । तत्थ एमए पउमाणाभस्स रमो भवणंसि दोबई गरिं अणुप्पविसह, अप्पविसित्ता कएई वासुदेवं क- देवी जारिसिया दिडपुत्वा यावि होत्था। तए णं से कराहे रयल०माव एवं वयह-एवं खनु सामी! तुम्नं पिउत्था कुं- वासुदेवे कच्चुवं णारयं एवं वयासी-तुब्नं चेव देवाप्पिती देवी हरियणाउराओ जगराओ इह इन्वमागया तुभं या! एयं पुनकम्म। तएणं से कच्चुसनारए कएहणं वा. दंसणं कंख । तएणं ते कोबियपुरिसा. जाव कहिं- मुदेवेणं एवं वुत्ते समाणे उप्पयाणियं विजं आचाइति, जानि। तए णं काहे वासुदेवे कोकुंबियपुरिमाणं अंतिए ए- मेव दिसिं पाउब्लूए तामेव दिसि पझिगए । तए णं से यमटुं सोचा शिसम्म हडतुढे हत्थिखंधवरगए हयगय. कराई वामदेवे दृतं सदावेद, सहावेत्ता एवं बयासी-गजाव वारवईए एयरीए मऊ मऊफेणं जेणेव कुंती देवी च्छह णं तुमं देवाणप्पिया! हरियाणारं एयरं पंगुस्स रहो तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छत्ता हत्यिखंधाओ पञ्चोरुहइ, एयमढे निवदेह-एवं खबु देवाणुप्पिया ! धायसमे दीवे पञ्चोकहइत्ता कुंतीए देवीए पायग्गहणं करेति, करेत्ता कुंतीए पुरच्छिमके अवरकंकाएरायहाणीए पउमणाजस्म भवगंमि देवीए सधि हस्थिखंधं रूहति, दुरूहइत्ता वारवई न
दोवईप देवीए पवत्ती नवाचा, तं गच्छंतु पंच परवा चाउरंगरि मऊ मऊोणं जेणेव सए शहे तेणेध नवागच्छ, गिणीप सेणाए सर्वि संपारवुमे पुरच्छिमवेयानिममुद्दाए ममं उवागच्चइत्ता सयं गिहं अणुप्पविसति । तर एणं से कएहे वा. पमिवासमाणाचिटुंतु । तएणं से दृतेजाव भएइ-पमिवाने मुदेवे कुंति देविं एहायं कयनिकम्म जिमियत्नुत्तुत्तरागयं० माणाम् जाव चिह. ते वि० जाव चिहति । तए से कराई जाव सुहासणवरगयं एवं बयासी-संदिसह पिनत्या ! वासुदेवे कोमबियपुरिसे सहावे,सद्दावेत्ता एवं बयासी-गकिमागमणपओयणं । तए णं सा कुंती देवी कएहं वासु- च्छह णं तुम्ने देवाणुप्पिया! सप्ताहियं भेरि सालेह,ते वि देवं एवं बयासी-एवं खलु पुत्ता! हथिणारे एयरे जाहहि. ताजेति। तए तीए समाहिपाए नेरीए सई मोचा समुद्दबस्स रएणो भागातलगंसि मुहप्पमुत्तस्स दोबईए देवीए विजयपामोक्खा दम दमाराजाच उप्पमं बनवगसाहसीपासाओ ण णज केण अवहिया वा० नाव नक्खित्ता वा, प्रो समबद्धा० जाव गहियानहप्पहरणा अप्पेगड्या तं इछामि पुत्ता ! दोबई ए देवीए मग्गणगवेसणं कयं । हयगया अप्पेगया गयगया० जाव वग्गुरापरिक्खित्ता तए | से कराहे वासुदेवे कुंतिं देविं पिनत्यं एवं बयासी- जेणेच सजा सुहम्मा जेणेव काहे वासुदेवे तेणेव नवागच्छं. जं नवरं पिनत्या ! दोवईए देवीए कत्या सुई वा जाबन- ति,उवागच्चइत्ता करयल जाव बचावति। तएणं से कए हे नापि, तो णं अहं पायालाओ वा भवणाओ वा अचभर- वासुदेवे हत्यिखंधवरगए सकोरंटमल्लदाम छनेणं धारिहाओवासमंताप्रो दुवईदेवि साहत्यि उवणमित्तिक कुंति जमाणे सेयवरचामराहिं उद्धव्यमाणीहिं महया हयगयपिउत्य सकारेऽ, सम्माणे,सम्माणेत्ता जाव पडिविसाजे । भमचमगरपह करेणं वारवतीए नगरीए मज्कं मज्केणं नितए णं सा कुंती देवी कण्हेणं वासुदेवेणं पमिविसज्जिया गच्छति, णिगच्छइत्ता जोगव पुरच्छिपवेयाजीसमुदे तेगेव समाणी जामेव दिसिं पानब्ल्या तामेव दिसि पगिया । उवागच्चइ,उवागच्छइत्ता पंचहि पंझयेहि सकिं एगो मिन्नतए रंग से काहे वासुदेवे कोचियपुरिसे सदावेइ, सद्दा- ति,खंधावारनिवेमं करोत,करेत्ता पोमहमालं कारावेड,कारावेत्ता एवं वपासी-गच्छह णं तुम्ने देवाणुप्पिया! वावई वेत्ता पोसहमालं अणुप्पविसति, अणुप्पविसइत्ता मुट्टियं पायरि एवं जहा पं तहा घोसणं घोसाति, घोसावेत्ता० देवं मणसीकरमाणे चिति । तए णं काहस्स वासुदेवस्म जाव पञ्चप्पिणंति, पंकुस्स जहा । तर णं से कराहे वासुदेवे अहमजतंसि परिणममाएं मि मुट्टियो जाच आगओ। भण अमया कयाई अंतो अंते उरगए ओरोहे नाव विहरति । देवाणुप्पिया! जमए कायव्वं ?। तए णं से कण्हे वासदेवे इमं च ६ करणारए जागेव कएहस्स राणो गिहं सुट्टियं देवं एवं बयासी-एवं खलु देवाणु प्पिया! दोबई देतेणेव जाव समोवप० जाच शिसीइत्ता कएई वासुदेवं कु- वीजाव पनमणानस्स जवणंसि माहरिया,तं | तुम देवासन्नोदंतं पुच्छड़ । तए ए से करदे वासुदेवे कच्चुलं णारयं एप्पिया! मम पंचहिं पंम्वेहि सफि अप्पस्स बएई रएवं बयासी-तुमं णं देवाणुप्पिया! बहणि गामाणि जाव हाणं लवणसमद्दे मग्गं वियराहि, जणं अहं अवरकंकंगप्रणप्पविससि, अस्थियाई त कहिं विदोबईप देवीप सुईचा। यहाणं दोबई ए देवीए कूवं गच्छामि । तए णं से सुट्टिए देवे
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(५५३) अभिधानराजेन्डः।
दुवई कएहं वासुदेवं एवं वयासी-किं णं देवाणप्पिया! जहा चेव च्छामि त्ति कह दारुयं सारहिं एवं बयासी-केवलं जो पउमणाभस्स रप्लो पुवसंगतिरणं देवेणं दोबई० जाव सा- रायमत्थेमू दुते अवज्के त्ति कट्टु असकारिय असमाणिय हरिया, तह चेव दोवई देविंधार्यईसंझाओ दीवाओनारहा- अबद्दारेणं णिचुनावेमि । तए णं से दारुए सारही पउभणा. श्रो चासाओ०जाव हत्यिणानरं साहरामि,नदाह पउमणानं | भेणं असकारिए असंमाणे० जाव निच्ढे समाणे जेणेव रायं सपुरबन्नवाहणं सवणसमुद्दे पक्खिवामि ? । तए णं कराहे वामदेवे तेणेव उवागच्चइ,नवागच्छत्ता करयलबजाव में काहे वासुदेवे मुट्ठियं देवं एवं बयासी-मा णं तुम कएह वासुदेवं एवं बयासी-एवं खा अहं सामी ! तुम्ह देवाणुप्पिया ! जाव साहराहि । तुम णं देवाणुप्पिया ! क्यणेांजाव णिच्चुभावे । तए णं से पउमणाभे राया लवणसमुद्दे अप्पछट्स्स बाहं रहाणं मग्गं नितराहि, बनवाउयं सदावेति, सद्दावेत्ता एवं बयासी-खिप्पापेव भो मयमेवाहं दोए देवीए कूवं गच्छामि । तए णं से मुट्ठिए देवाणप्पिया! आनिसेकं हत्यिरयणं पमिकप्पेह । तयाणंतरं देवे कराई वासुदेव एवं बयासी-एवं होउ, पंचहिं पंडवेहिं | च | व्यायरियउवदेसमर्शयगप्पणाविगप्पोहिं० जाव उवसकिं अप्परहस्स छएहं रहाणं बवणसमुद्दे मग्गं वियर ।। णेति । तएणं से पउमणाने राया सप्रूवले जाव प्राभितए णं से कएहे वासुदेवे चानुरंगिणिं सेणं पमिविसजेति, | सेकं हत्यिरयणं सुरूहति, दुरूहेत्ता हयगयचाउरंगिणीए पमिविमज्जेत्ता पंचहिं पंमरहिं सदि अप्पछडे छहिं रहेहिं सेणाए परिकलिए जेणेव कएहे वासुदेवे तेणेव पहारेत्थलवणसमुई मज्कं मज्केणं बीईचयनि, जेणेव अवरकंकाए गमणाए । तए णं से काहे वासुदेवे पउमणाभं रायं एजगयहाणीए अग्गुजाणे तेणेव उवागच्छति, उवागच्छइत्ता माणं पासति, पासइत्ता ते पंचवे एवं व्यासी-हं जो रहे ठावेति, ठावेत्ता दारुयं सारहिं सदावेइ, सद्दावेत्ता दारगा! किं णं तुम्भे पउमणाजेणं सदि जुज्नेह, व्याहु एवं बयासी-गह णं तुमं देवाणुप्पिया ! अवरक पिच्छेह । तए णं ते पंच पंवा कएह वासुदेवं एवं बयारायहाणं अणुप्पविसाहिपनमणाजस्स रमो वामेणं पारणं सी-अम्हे णं सामी! जुमामो, तुम्हे पेच्छह । तए णं में पायपीढं सावक्कमेत्ता कुंतग्गेणं नेहं पाणामेहि, पणामेत्ता पंच पाडवा सन्नबह जाव पहरणा रहे दुरूहंति, दुरूतिवक्षियं भिउडिं निलामे साहह आसुरुत्ते रुढे कुविए चं.
हेता जेणेव पउमणाने राया तेणेव उवागच्छति, उवागडक्किए एवं बयाहि-हं नोपनमाणाना! अप्पत्थियपत्थिया च्छइत्ता एवं बयासी-अम्हे वा पनमणाने वा राय ति दुरंतपंतनक्खणा हीणपुमचानमा सिरिहिरािधिइकि
कट्ट पउमणाजेणं सकिं संपलग्गे यावि होत्था। तए णं से त्तिपरिवज्जिया अज्ज न जवसि, किंणं तुमं न या
पनमणाभे राया ते पंच पंझवे खिप्पामेव हयमहियपवरपास कएहस्स वासुदेवस्स नगिणि दोवई दे िहं ह
विवमियचिंधद्धयपमागाजाव दिसो दिसि पमिसे हेति । तए ममाणेसि, तं एयमट्ट विणएवं पञ्चप्पिणाहि-जं दोबई णं ते पंच पंडवा पनमणाजेणं रना हयमहियपवरविवदेविं कएहस्स वासुदेवस्स पञ्चप्पिणाहि, अहवा जुजा- मिय जाब पमिसेहिया समाणा अथामा अबला जाव सज्जो णिग्गच्छाहि, एस णं काहे वासुदेवे पंचहि पं- अधारणिज्ज मिति कट्टु जेणेव कण्हे वासुदेवे तेणेव उ
वहिं सदि अप्पउढे दोबईए देवीए कूवं हव्यमागए ।। वागच्छति । तए णं से कराहे वासुदेवे ते पंच पंडवे एवं बयातए णं से दारुए मारही कराहेणं वासुदेवणं एवं | सी-कहं तुम्भे देवाणुपिया ! पउमणानेणं रना सद्धिं युत्त समाणे हतुटे पडिसुणेति, पमिणेत्ता अवरक- संपझग्गा। तए णं ते पंच पंडवा कराई वासुदेवं एवं बयाकं रायहाणि अणुप्पविसह, जेणेव पनमनाने राया ते- सी-एवं खलु देवाणुप्पिया ! अम्हे तुम्हेहिं अब्भणुणेच नवागच्छइ, उवागच्छइत्ता करयन जाव बछायेइ. माया समाणा सम्व दा रहे दुरूहामो जेणेव पनमणाने बघावेत्ता एवं बधामी-एस ए सामी! मम विणयपडि- राया० जाव पडिहए। तए णं से कएहे वासुदेवे ते बत्ती, इमा अम्मा मम सामिस्म समूहाऽऽगत्ति कट्ट प्रा
पंचपंवे एवं बयासी-जइ एणं तुब्ने देवाणुप्पिया ! एवं मुरुने ५ वामपाएणं पायपीढं अवकमइ, अवकमित्ता कुं-| बयंता अम्हे णो पउमणाने राय त्ति कटु पचमणाभेणं तम्गेणं लेहंपणामेड,पणामेत्ताजाव कूहबमागए । तर एं सब्धि संपक्षग्गा, ततो तुब्भेणोपनमणाने इयमहियपमे पनमणाने राया दारुएणं सारहिया एवं बुत्ते समाणे वर० जाव पमिसे हिया । तं पेच्छहणं तुब्ने देवाणुप्पिया ! भामुरुत्ते तिवन्झिमिमि निलामे माहट्ट एवं बयासी-|
अहं णो पनमणामे राय त्ति कटु पनमणानेणं रन्ना सद्धिं ए अप्पणामि णं अहं देवा गुपिया! कएहस्स वासुदेव-। जुज्कामि, रहं दुरूदति, पुरूत्ता जेणेव पनमणाने राया सदोवई देविंवम णं अई सयमेव जसज्जे बिग- तेणेव उवागच्छह, उचागच्छइत्ता सेयं गोखीरहारधवलं.
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दुवई
(२५y) अभिधानराजेन्दः ।
दुवई
तणुसोझियसिंदुवारं कुंदेंदुसन्निगासं निययस्स वनस्स हरिसजणणं रिउसेणाविणामकरं पंचजम्म संखं परामुसति, परामुसइत्ता मुहवाउपूरियं करोति । तए णं तस्म पउमानस्स तेणं संखसद्देणं बनविभाए हए० जाव पमिसेहिए । (सुवति) श्रूयत इति श्रुतिः शब्दस्ताम्, (खुति बसि) कवणं सुतिः गत्काराऽऽदिः शम्न विशेष एव, ताम्, प्रयुक्ति वार्सी, वार्तापर्यायाधैन इति। (दिया व तिता प्रदेशान्तरे स्थापिता, नीता नेत्रा स्वस्थान प्रापिता,प्राक्षिप्ता आकृष्टैवेति। (इमा अन्नेत्यादि) इयमन्या अपरामदीयस्वामिनः संबन्धिनी, विनयप्रति. पत्तिरिति वर्तते । (समुहाणत्ति कह) स्वमुखेन स्वकीयवदनेन भणिता प्राप्तिपदेशः स्वमुखाऽऽज्ञप्तिरिति कृत्वा,एवमानिधाय (मामुरुते ति) क्रुः (बलवाउप त्ति) बलव्यापृतः, सैम्य. व्यापारवान्। (प्राभिमेकं ति) अनिषेकमहतीत्याभिषेक्य, मु.
भिषिक्तमित्यर्थः । (छयायरियउवरसमविगप्पणाविगष्पेदि ति)छको निपुणो य प्राचार्यः कलाचार्यः, तस्योपदेशात्तरपूर्वकाया मतेर्बुदेर्याः कल्पनाविकल्पाः कृतिभेदास्ते तथा तैरिति । इड यावरकरणादिदं श्यम्-" सुनिउणेहिं ति" सुनिपुणैर्नरः (उज्जानेवस्थहत्थपरिवच्छियं ति) उज्ज्वझनेपथ्येन निर्भक्षवेषण (ढत्थं ति) शीघ्र, पारपाकतः परिगृहीतः परिवृतो यः स तथा। नम् । (सुसज्ज) सुष्ठ प्रगुणं (वम्मियसन्नदबद्धकवञ्चिय उपी. लियकच्चवबद्गेज्जगलपवरभसणविरायंत) वर्मणि नियुक्ता बार्मिकास्तैः सन्नाः कृतसन्नाहो यः सबार्मिकसम्नद्धः, बई कवचं सम्नादविशेषो यस्य स बरूकवचा, स एव बद्धकव. चिकः। अथवा-वमितः सन्नद्धो बद्धस्त्वकुत्राणबन्धनात् कचितश्च यः स तथा,भेदश्चतेषां शोकतोऽबसेयः । एकार्थाश्चैते शब्दाः, संनद्धता प्रकर्षाभिधानायोक्ता इति । तथा उत्पीडिता गाढीकृता कका हृदयरज्जुर्वकसि यस्य स तथा। ग्रैवेयकं ग्रीवाss. भरणं बरूंगने का यस्य स तथा। प्रवरभूषणविराजमानो याम तथा। ततो वमिताऽऽदिपदानां कर्मधारयोऽतस्तम् । (आहयते. यजुत्तं सलीलतबरकरापूरविराश्तं पसंबओचूलमहुयर कयंधगारं) प्रलम्बानि अवचूनानि कटकन्यस्ताधे मुखकूर्चका यस्य स प्रनम्बावचूमा, मधुकरैभ्रमरमदजनगन्धाऽऽकृष्टः कृतमम्धकरं येन स तथा। ततः कर्मधारयोऽतस्तम् (चित्तपरिच्छेयपच्चदं) चित्रो विचित्र: परिच्छेको सघुःप्रच्छदो वस्त्रविशेषो यस्य स तथा तम्। (पहरणावरणभरियजुसज)प्रहरणानां कुन्तादी. नामावरणानां च ककटानां भृतो यः स तथा। सच युद्धसउजरचेति कर्मधारयोऽतस्तम् । (सन्धत्तं सच्कायं सज्झयं सघंटे पंचामेलयपरिमंमियाभिरामं ) पञ्चभिरापीडैः शेखरः परिमापकतोऽत एवाभिरामश्च रभ्यो यःस तथा। (भोसारियजमलजुयलघंट) अवसारितमवलम्बितं यमलं समं युगलं द्वयोर्घण्टयोर्यत्र स तथा तम् । (विज्जुपिणव कालमेह) घ. पटाप्रहरणाऽऽदीनामुज्वलत्वेनविद्युत्कल्पस्वात् हस्तिदेहस्य च कालत्वेन महरवेन च मेघकस्यत्वादिति। (उपाइयपवयं बचकमत ) चक्रममाणमिवोत्पातिकपर्वतम् । पानान्तरेण-श्री. स्वातिर्फ पर्वतमिव (सक्खं ति)साक्षात् (मत्तं ति) मवन्तं ( गुसु गुसुगुतं मणपवणजइणवर्ग) मनःपवनजयी वेगो यस्य स तथा तं जीमम्, [मंगामिमाोग] संग्रामिक
भायोगः परिकरो यस्य स तथा तम्। (प्राभिसेक हस्थिरयणं परिकप्पेति, पडिकप्पेत्ता उवणेति ति) हयमहियपवरविधमिचिंधद्धयपमागे) इतमथिता अत्यथै हताः, अथवा हताः प्रहारतो, मथिता मानमथनाद हतमथिताः, तथा प्रवरा वि. पतिताश्चिद्वश्वजाः कपिध्वजाऽऽदया, पताकाश्च तदन्या येष ते तथा । ततः कर्मधारयोऽतल्लान् । यावत्करणात-"किच्चोवगयपाणे ति" दृश्यम् । कष्टगतजीवितव्यानीत्यर्थः। (अम्हे वा पढमनाने वा राय ति कठ्ठ इति) अस्माकं पद्मनाभस्य च बलवरवादिह संग्रामे वयं वा भवामः, पद्मनाभी वा, नोभयेषामपीह संयुगे प्राणमस्तीति कृत्वा इति निश्चयं वि. धाय संप्रलग्नाः, योद्धमिति शेषः । ( अम्हे भो पमनाने राय त्ति कटु ति) वयमेवेह रणे जयामो न पद्मनाभो राजेति यदि स्वविषये बिजयनिश्वयं कृत्वा पद्मनाभेन सार्क योद्धं संप्रालगिप्यथ, ततो न पराजय प्राप्स्यथ, निश्चयसारत्वात्फलप्राप्तः। प्राह च"शुभाशुनानि सर्वाणि, निमित्तानि स्युरेकतः। पकप्तस्तु मनो याति, तद्विशुरूं जयावहम् ॥ १॥
तथास्थानिश्चयैकनिष्ठानां कर्यसिकिः परा नृणाम् । संशयकम्नचित्तानां, कार्ये संशोतिरेव हि ॥२॥" शवविशेषणानि कचिद् दृश्यन्ते (सेयं गोखारहारधवसंतगुसोल्लियर्सिऽवारं कुर्देऽसन्निगास) (तणुसोल्लिय त्ति ) मलिका, सिन्नारो निगुशिमा (निययस्स बलस्स हरिस जणणं रिसेणाविणासकर पंचजनं ति) पाश्चजन्याभिधानम् । तए णं से कण्हे वासुदेवे धणु परामुसति,वेढो धणुं पूरेझ,पूरेइत्ता धणुसई करेइ । तएणं तस्स पउमणानस्स दोच्चे बक्षीतजाए तेणं धणुसद्देणं हयमहिय जाव पमिस हेति । तए से पउमणाने राया तिनागबन्नावसेसे अथामे अवले अवीरिए अपरिमकारपरक्कमे अधारणिज मिति कट्टु सिग्यं तुरियं चवलं जेणेव अवरकंका रायहाणी तेणेव नवागच्छा , नवागच्छइत्ता अवरकंकं रायहाणि अणुप्पविसति, अणुप्पविसित्ता दुदाराई पिहेति, रोहसजे चिट्ठः । तए णं से कराहे वासुदेवे जेणेव अवरकंका एयरी तेणेव नवागच्चइ, बागच्चइत्ता रहं ग्वेड, वेत्ता रहाओं पञ्चोरुडेति, पचोरुहिता उब्धियसमुग्याएणं समोहणइ, एगं महं नरसीहरूवं विउमति, विनयइत्ता महया महया सद्देणं पाददद्दरं करोति । तए णं से कराहेणं वासुदेवेणं पहया महया सदेणं पादददरेणं करणं समाणेणं अवरकका रायहाणी संभग्गपायापुरहालयचरियतोरणपल्हत्यियपवरनवण सिरिघराओ सरसरस्स धरणियले सम्मिवाझ्या । तए णं से पनमणाभे राया अवरकंक रायहाणि संनगंजाव पासित्ता भीए तसिए नबिग्गे दोवई देविं सरणं नवे। तए णं सा दोबई देवी पउमणानं रायं एवं बयासी-किं णं तुम देवाणुपिया!ण जापासि कएहस्स वासुदेवस्स
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(२६२५ ) अभिधान राजेन्द्रः ।
दुबई
उत्तमपुरिमस्स विष्वियं करेमाणे, तं चेत्रमवि गते गच्छद तुमं देवापिया ! हाए उम्र पडसामए ओचून गत्याणयत्ये अंतरपरियालसर्फि संपरिवुमे अम्गाई पवराई रयगाई गहाय मम पुरओ काउं कएडं वासुदेवं करयल० जाव पाय किए सरणं उवेहि, पणइवच्छला णं देवा णुपिया ! उत्तमपुरिसा । तए णं से पमणाने राया दोवईए देबीए एयम पडिसुगेति, पडिमुत्ता एढाए० जान सरणं
बे, जवेत्ता करयक्ष० जाव कट्टु एवं बयासी दिट्ठा णं देवाणिया ! उत्तमपुरिसाणं दृड्डी०जाव परकमे, तं खामेमि गां देवापिया ! जाव खमंतु णं देवाप्पिया ! ०जाव नाहं भुज्जो भुज्जो एवं अकरणयाए त्ति कट्टु पंजलिङके पायवडिए कएहस्स वासुदेवस्स दोवई देविं साहत्थि उत्रणे । तर गं से कहे वासुदेवे पमनानं रायं एवं बयासी-हं भी पउमलामा ! पत्थियपत्थिया ५ किं गां तुमं न याणासि ममग दोई देनं इह हन्त्रमा ऐसि । तं एत्रमवि गए नत्थि ते ममाहिंतो इयाणि भयमत्थि त्ति कट्टु पमलाई रायं पमिसिनेश, पत्रिसज्जेता दोवतिं देवं गिएहति, गिएहइत्ता रहं दुरुदेति, पुरूदेवा जेणेव पंच पंमत्रा तेणेव जवागच्छति, उबागच्छत्ता पंचपंडवाणं दोवई देविं साइरिंथ उबणे । तए णं से कहे वासुदेवे पंचमवेहिं सद्धि
पहिं रहेहिं लवणसमुदं मज्जं मज्जेणं जेणेव जंबुद्द - दीवे जेणेव भार वासे तेथे पहारेत्यगमणाए । तेणं कालेणं तेणं समरणं धायईसंके दीवे पुरच्छिमडे भारदे वासे चंपा नाम नयरी होत्या, पुष्पदे णामं चेइए । तत्य णं चंपाए
यरीए कपिले णामं वासुदेवे राया होत्या, महया हिमवंतत्राओ । तेषां काढणं तेषं समर्पणं मुणिसुब्बए अरिहंते पाए गए जेणेव पुछान दे चेइए तेणेत्र समोसढे, कपि
वासुदेवे धम्मं सुणे । तए एं से कपिले वासुदेवे मुविसुव्यस्त रहो धम्मं सुणेमाणे कएहस्स वासुदेवस्स संखसदं सुणेइ । तरणं तस्स कपिलस्स वासुदेवस्स इमेयारूवे अन्नतिथए चिंतिष पत्थिर मद्योगय संकध्ये समुप्पज्जित्था - किं मन्ने धायईसके दीवे भारहे वाले दोघे वासुदेवे समुप्पने, जस्तय अयं संखसद्दे ममं पित्र मुहवायपूरियं कीयं च वइ । तर पं मुणिसुन्त्रए अरहा कपिलं वासुदेवं एवं बयासी-से गं कपिला वासुदेवा ! मम अंतिर धम्मं णिसम्ममाणस्स संखसई आकस्मित्ता इमेयारूवे अन्जस्थिए किं म धायसंडे दीवे०जाब वीयं भवइ, से खूणं कविला वासुदेवा ! महेसपट्टे हंता अस्थि । तं यो खबु कविला ! एवं जूयं वा भवियं वा जविस्सं वा, जं णं एगखेत्ते एगजुगे एगमणं दुबे दुवे अरिहंता वा चकवट्टी वा पद्मदेवा वा ।
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दुवई
वासुदेवा वा उपजिंसु वा, उपज्जिति वा, उप्पजिस्संति बा, एवं खलु कपिना बासुदेवा ! जंबुद्दीवाओ भारहाओ बासा इत्थिणाराओ यराओ पंकुस रष्ठो मुहा पंच पंवाणं भारिमा दोवई देवी तत्र पचमनानस्सरणो पुत्र संगणं देवेणं अवरकंकं रायहाणि साहरिया । तए सेक वासुदेवे पंचहि पंडवेहिं सर्फि अप्पर हिं रहेहिं अवरकंकं रायहाणिं दोवईए देवीए मूत्रं हन्यमागए । तर णं तस्स कएइस्स वासुदेवस्स पलमनाभेणं रक्षा सकि संगममाणस्स जाव अयं संखसद्दे तब मुहवायपुरिए इव वीर्य जवइ । तर से कविले वासुदेवे मुणिसुव्त्रयं भरहं बंदर, णर्मसर, मंसइत्ता एवं बयासी - गच्छामि एां अहं जंते ! कएडं वासुदेवं उत्तमपुरिसं सरिस पुरिसं पासामि । तए णं मुनिसुव्व
रिहा कपिलं वासुदेवं एवं बयासी - णो खलु देवापिआ ! एवं जयं वा भव्वं वा जविस्सं वा, जं णं अरिहंता वा अरिहंत पाति, चक्कत्रट्टी वा चकत्रहिं पासंति, बलदेवा वा बलदेव पासंति, वासुदेवा वा वासुदेवं पासंति, तह वि य णं तुमं कएहस्स वासुदेवस्स लवणसमुदं मऊं मज्जेणं वीईवयमाणस्स सेापीयाई गाई पामिहिसि । तर ां से कविले वासुदेवे मुणिसृव्त्रयं अरिहंतं बंद, मंस, एमंसता हत्यि खं दुरूह, दुरूदत्ता सिग्घं जेणेव वेलाङले तेखेव - बागच्छति, उवागच्छत्ता कएहस्स वासुदेवस्स सबय समुदं ॐ के बीईवयमाणस्स सेयापीयाई घयम्गाई पास, पासइत्ता एवं बयासी - एस णं मम सरिसपुरिसे उत्तमपुरिसे कहे वासुदेवे लवणसमुहं मज्ऊं मझेणं बीईवयतितिक पंचज संखं परामुसह, परामुसदचा मुहवायपूरियं करे । तर से से कपड़े वासुदेवे कविलस्स बासुदेबस्स संखसई भयमेह, आयछेड़ता पंजां संखं मुहवायपूरियं करेति । तए दो वि वासुदेवा संखसद्द सामायारिंकरेति । तए एं से कविज्ञे वासुदेवे जेणेव अवरकंका यरी तेऐत्र उवागच्छति, नवागच्छत्ता अवरकंकं रायहाणिं संभग्गतोरणं० जाव पासइ, पासइत्ता पलमनाभं रायं एवं बयासीकिं मं देवापिया ! एसा अबरकंका एयरी संजग्गा ० जाब सन्निवाइया । तर से पजमनाने कविलं वासुदेवं एवं बयासी एवं खलु सामी ! जंबुद्दीवाओ भरहाओ वासाओ इहं दन्त्रमागम्म कएदेणं वासुदेवेणं तुग्भे परिनूय अत्र रकका लयरी जावसन्निवाइया । तए णं से कविले वासुदेवे
मनास्सरह्यो श्रीतए एयमहं सोचा पचमनाजं रायं एवं बयासी - हं जो पडमणाना ! अपत्थियपत्थिया! किं णं तुझं न जाणासि मम सरिसस पुरिसस्स करहरूम वासुदेवस्स विपि यं करे माणा, कविले वासुदेवे आमुरुचे० जाव पलमणानं
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(२५६) प्रन्निधानराजेन्द्रः ।
दुई
णिबिसयं भाणवेइ, प्राणवेत्ता पनमनाहस्स पुत्तं अ-| जिनमि निलामे कट्ट एवं बयासी-अहो जया णं मए बरकंकाए रायहाणीए महया महया रायाभिसएणं अनि- लवणसमुदं दुन्नि जोयणसयसहस्सवित्यिन्नं वीईवसिंचइ, अनिसित्ता जाव पझिगए । तए णं से काहे त्ता पउमणाहेणं हयमहिय० जाच पमिसहित्ता अवरकंका वासुदेवे लवणासमुई बज्कं मकणं वीईवइत्ता गंगं उचा- संभग्गा, दोवई देवी साहत्यि उवणीया, तया णं तुम्हे मम गए ते पंच पंकचे एवं बयासी-गच्छह णं सुभे देवाणप्पि- माहप्पं न विलायं, झ्याणि जाणिस्सइ त्ति कटु लोहदंड या ! गंगं महानई उत्तरह जाव ताव मुढिय लवणा- परामुसह, परामुसइत्ता पंचएई पंवाणं रहं चूरेइ, चरेत्ता हिवई पासानि।सए वं ते पंच पंगवा कण्हेवं वासुदेवेणं णिब्बिसर प्राणवे। तत्य णं रहमद्दणे णाम कोठे निएवं वुत्ता समाणा जेणेव गंगा महानई तेणेर उवागमछति, विढे । तए णं से कराहे वासुदेवे जेणेव सए खंधावारे नवागच्छइत्ता एगडियाए नावाए मग्गणगवसणं कति, | तेव नवागच्छद, उबागच्चइत्ता सएणं खंधाबारेणं करेता एगट्टियाए नावाए गंगं महान उत्तरंति, असम- सफि अभिसमन्नागए यावि होत्या । तए से क. नं एवं बयासी-पनू णं देवाणप्पिया ! कए हे वामदेव गंगं एहे वासुदेवे जेणेव वारवई नयरी तेणेव नवागच्चति, उ. महानई बाहाहिं उत्तरित्तए, उदाहु गो पन् उत्तरित्तए बागकता अप्पविसति। तए णं ते पच पंवा जेणेव त्ति का एगट्ठियणावं मुसंति, मुसंतिचा कराहं वासुदेवं हस्थिणारे णयरे तेणेव उवागच्छंति, उबागच्छश्ता जे. पहिवालेमाणा चिट्ठति । तए छां से कण्हे वासुदेवे सुटियं णव पंकर राया तेणेव नवागमति, उवागच्छइत्ता करसवणाहिवई पासइ, पासइत्ता जेणेव गंगा महानई तेणेव यल जाव एवं वयासी-एवं खलु ताओ! अम्हे कराहेणं उवागच्छइ, नवागच्छइत्ता एगट्ठियाए नाबाए सबओ स-| वासुदेवणं निनिमया आणत्ता । तए णं पंमुराया तं मंता मग्गणगवेसणं करेति, एगहिनावं अपासमाणे ए- पंचमवं एवं बयामी-कह णं पुत्ता ! तुब्भे करणं गाए बाहाए रहे सतुरंगपसारहिं गिराहर, गिएट्ता ए- वासुदेवणं णिबिसया आणचा। तए णं ते पंच पंकवा गाए बाहाए गंगं महानई वासद्धिं जोयाणाई अडजोयणं | पंकुरायं एवं बयासी- एवं खत्रु ताओ ! अम्हे अबरव विस्थिन्नं उत्तरि पवते यावि होत्या । तए में से क- कंकामा पमिणियत्ता लवासमुदं दुनि जोयणमयसहएडे वामदेव गंगाए महानईए बहमऊदेसजाए संपत्ते स- स्साई वीईवइता, तए णं मे कएहे वासुदेवे अम्हं एवं माणे संते तंते परितंते बसेए जाए याविहीत्था। बए | पयासी-गच्चह णं तुन्भे देवाणूप्पिया ! गंगं महान नत्तसस्त कएहस्स नासुदेवस्स इमेयारूके अग्नस्थिएजार स. रेहण्जाव चिट्ठद जाव ताव अहं एवं तदेव० जाव चिट्ठामुप्पजित्या-महोणं पंच पंडवा महाबनवगा, जेहिं गंगा मो । तए णं से कराहे वासुदेवे मुठियं अवणाहिबई इट्टणं महानई वामहिजोयणाईअफजायणं च वित्यिन्ना बानाहिं तं चेव सव्वं, णवरं कएहस्स चिंताण वुच्चइजाव निधिउत्तिमा, इच्छंतएहिं पंचहिं मवेहि पउमनाभे राया हय. सए प्राणवेइ । तए से पंसुराया ते पंचपंझये एवं बमहिया नावणो पमिसेहिए। तए एं गंगा देवी कएहस्स यासी-दुटु पुत्ता! कयं कएहस्स वासुदेवस्स विपियं क. वासुदेवस्स इमं पयारूवं अभत्यियं जाब जाणित्ता थाहं
रेमापोह । तए णं से पंडुराया कुंतिं देविं सद्दावेति, मवितरह। तए णं से कराहे वासुदेवे मुदुत्तरं समासासेस- दावेत्ता एवं बयासी-गच्छह णं तुमं देवाप्पिया! वा. मासासत्ता गंगं महानदि वासद्धिजाव उत्तरह, जेणेव पंच रखई णयरिं कएहस्स वासुदेवस्स निवेशहि-एवं खलु दपंढवा तेणेव उवागच्चति,उवानाचा पंचवे एवं बयासी- वाणप्पिया! तुमे पंचपंवा णं निधिसया आणता, तुम अहे। णं तुम्भे देवाणपिया! महावनवगा, जेणं तुम्नेहि चणं देवाणप्पिया! दाहिणहजरहस्स सामी, तं मंदिसत णं गंगा महानई वासष्टुिंजाव उत्तिमाछतएहिं तुम्भेहिं प- देवाणुप्पिया! ते पंच पंडवा कयरं देसं वादिसि वा विदिसिं उमनाहे.जाव नो पमिसेहिए । तर शंने पंच पंवा कएहएं वा गच्छंतु पं । तए णं सा कुंती पंमुशा रम्मा एवं वृत्ता यासुदेवेणं एवं बुत्ता ममाणा कराई वासुदेवं एवं बयासी- समाण हस्थिखंधं पुरूहति,दुरूइत्ता जहा हिहाजाव मेंएवं खस देवाणप्पिया! अम्हे तुम्नेहिं विसजिया समा-| दिसत णं पिउत्या ! किमागमणपोयणं । तरण सा कुं. या जेणेव गंगा महानई तेहोव चागचित्ता एगट्टिाए। ती कएई वासुदेवं एवं चयासी-एवं खनु तुमं पुत्ता ! पंच णावाए मग्गणगवसणं तं चेव. नाव तुम्हे पमिवालेमाचे पंढना णिविसया माणत्ता, तुमं च पं दाहिण नरचिट्ठामो। तए णं से काहे वासदेवे तसिं पंचएड पंडवाणं सामी० जाव दिसि वा विदिसि वा गच्छतु । तए णं अंतिए एयमई सोचा घिसम्म प्रासरुत्तेजाव तिवत्तियं | से करहे. वासदेवे कुंति देबि एवं बयासी- अपूड वयण
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(२५००) अभिधान राजेन्द्रः |
दुबई
णं पिउत्या ! उत्तमपुरिसा चक्कत्रट्टी वा वासुदेवा वा बलदेवावा, तं गच्छंतु णं पंच पंमवा दाहिणां बेयालिं, तस्य पंमुमहुरं णिवेतु मम दिसेवगा भवंतु त्ति कट्टु कुंतिं देवि सकारे, सम्माणेइ, सम्माणेता० जाव पमिविसज्जे । तए गं सा कुंती देवी० जाव पंमुस्स एम शिवेएइ । तए णं पंमुराया पंचपंमत्रे सहावेइ. सदाबेता एवं बयासी- गच्छछ णं तुम्भे पुत्ता ! दाहिणि वेयालि, तत्थ णं तुम्मे पंमुमहुरं पिवेसेह । तए णं ते पंच
पंडुसरो जाव तह त्ति परिसुति, परिसुणेत्ता सबलवाहणा हयगय० जाब हरियणा नराम्रो जयराम्रो पमि क्विमंति, पमिणिक्खमइत्ता जेणेव दक्खिगिल्ला नेपाली तेव उवागच्छंति, उवागच्छत्ता पंडुमहुरं निवेसंति, नि बेसित्ता तत्थ णं ते विपुलभोगसमिसमन्नागया कि हो त्यात सा दोवई देवी अन्नया कयाई आव नसता जया विहोत्या । तरणं सा दोबई एवएहं मासाणं जाव सुरूचं दारयं पयाया० जाब सुकुमाझे, निव्वत्तवारसाहस्स इमं एवं गुणनिष्पन्नं नामधिज्जं करिति, जम्हा गं म्हं एस दार पंच पंडवाणं पुत्ते दोवईए असर, तं हो
-
अहं इमस्स दारगम्स णामधेज्जं पंमुसेणेत्ति, बावतरि कक्षाओ० जाव असं जोगसमत्ये जाए जुबराया जाव विरइ | तेणं कालेणं तेणं समएणं धम्मघोसा थेस समोसदा, परिसा ग्गिया, पंडवा निग्गया, धम्मं सोचा एवं बयासी - जं वरं देवाप्पिया ! दोवई देविं प्रपुच्छामो, पंमुसेां च कुमारं रज्जे वामो, तो पच्छा देवापिया अंतिर मुंजविता जाव पव्त्रयामो ? । अहामुहं देवापुप्पिया ! मा पडिबंधं करह । तए णं पंच पंमत्रा जेणेव सए गिहे तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छत्ता दोबरं देवं सदावेंति, सहावेत्ता एवं बयासी एवं खलु देवापिए ! अम्हेडिं थेराणं प्रति धम्मं णिसंते०जात्र पन्त्रयामो। तुमं देवापिए ! किं करोसि ? । तए णं सा दोवई देवी पंच पंमत्रे एवं बयासी जणं तुब्जे देवाचुप्पिया ! संसारभयडविगा० जाव पव्वज्जढ़, मम के असे आलंबे वा जात्र जविस १ । अहं पि य णं संसारभयनब्बिग्गा दे
जाए
पिएहिं सहि पव्वइस्सामि । तए णं ते पंच पंमवा पंडुसेणस्स कुमारस्स अभिसे अं० जाव राया • जाव रज्जं पसाहेमाणे विहरड़ । तए णं ते पंच पंवा दोवई देवीय या कमाई पंमुसे रायं पुच्छति । तप णं से पंडुसेणे राया कोटुंबिय पुरिसे महावे, सदावेत्ता एवं बयासी - विप्पामेव भो देवालिया ! क्खिमणात्जिसेयं जाव बडवेह, पुरिससहस्सवाहणी सिबियाओ उ
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दुवई
वेह जाव पचोरुति, जेणेव थेरा आयरिया आि ०जाव समणा जाया चउदस पुव्बाई अहिज्जंति, बहूणि वासाणिजार पदसमासेहिं मासमासखमणेहिं अपाणं जावेमाणे विरह । तए णं सा दोवई देवी सीयाओ पच्चरुड, पचोरुहताजाब एव्त्रया सुव्वयाए अजाए सिस्मणियार नयति, एक्कार संगाई जाव अहिज्ज, हिज्जइत्ता बहूणि वासाणि छट्टट्टमदसमजुबान सेहिं० जाव अप्पाष्यं भावेमा विहरड़ । तए णं ते येरा जगवंतो अन्नया काई मुमहुगओ नवरात्र सहस्संबवणाओ उज्जाणाओ पमिनिग्गच्छंति, पडिनिग्गच्छित्ता बढ़िया जणनयविहारं विहरति । तेणं कारणं तेणं समदणं अरहा अरिनेमी जेणेव सुरट्टाजवए तेणेव उवागच्बई, उवागच्छत्ता सुराजण वयंसि संजमेणं तवसा अप्पाणं जावेमाणे विद्ध5। तए बहुजणो अन्नमन्नस्स एवमाइक्खड़ ० ४ - एवं खलु देवाणुपिया ! अरिहा अरिनेमी सुरहाजणवए० जाव विहरइ । तप णं ते जुहि हिलपाभोक्खा पंच अणगारा बहुजणस्स अंतिए एयमहं सोचा अन्नमन्नं सद्दार्वेति, सहावेत्ता एवं बयासी एवं खलु देवाणुपिया ! हारिनेभी पुब्वापुवि० जाव विहरड़, तं सेयं खनु म्हं थेरा आपुच्छित्ता अरिहं अरिष्टनेमेिं दाए गमित्तए, मस्स एयमहं पडिसुर्णेति, पमिसुपित्ता पत्र येरा भगवंतो तेणेव उवागच्छंति, नवागच्छछतारे जगवंते बंदति, एमंसेति सत्ता एवं बयासीइच्छामि णं तुब्नेहिं अब्भणुमाया समाधा अरिहं अहिले मिं० जाव गमित्तए ? । अहामुहं देवाणपिया ! मा पमिबंध करे । तए णं ते जुडिडिलामोक्खा पंच अणगारा थेरेहिं अन्नान्नाया समा
थेरे जगवंते बंदति, एमंसंति, मंसइना येराणं - तिया पमिनिक्खमति, पडिनिक्खमित्ता मासं मासेणं अ शिक्खित्तेणं तवोकम्मेणं गामाणुगामं दूइज्जमाणा० जान जेणेव इत्यिकप्पे णयरे तथेव उवागच्छंति, उवागच्छत्ता हरियप्पस वहिया सहस्वत्रणे उज्जाणे० जाव विहरंति । तां ते जुद्दिनवज्जा चत्तारि अलगारा मासखमपारण पढमाए पोरिसीए सज्जायं करेंति, बीयाए एवं जहा गोयमसामी, वरं जुडिद्धिं आपुच्छंति०जाव अममा
हत्यिकप्पे नरे बहुजणस्स सदं निसार्मेति एवं खलु देवालिया ! अरहारिनेमी उज्जत से सिहरे मासिएणं जत्तेणं अपाणएणं पंचहिं छत्तीसंहिं अणगारसहिं सार्द्ध कालगए० जाव सच्चदुक्खप्पीथे । तर जुहिडिनबज्जा चत्तारि अणगारा बहुजणस्स अंतिए एवमहं सोचा हत्यिकपायरा पमिक्खिमंति, पमिणिक्खमइत्ता
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मंभिघानराजेन्यः ।
दुवारपिहाणं
जेणेव सहस्संबवणे उजाणे जेणेव जुहिच्झेि अणगारे धुदिव तरुणाः प्रत्यप्राः किरणा यस्य तत्ता, तस्य तफ्नीयस्य तेणेव उवागच्छंति, उवागच्चित्ता नत्तपाणं पञ्चक्खति, ग- संबन्धीनि बद्धानि चिह्नानि बाचनानि यत्र तत्तथा । "पदरम. मणागमषं पमिकशि,एसाणमधेसणं आलोयंति, भत्तपाएं
बयगिरिसिहरकेसरचामरबालयद्धचंदधिं।" दहरमलयानि
धानो यौ गिरी,तयोर्यानि शिखराणि,तत्संबन्धिनो ये केसरचापमिदंसेंति,पमिदंसेत्ता एवं बयासी-एवं खलु देवाणुप्पि
मरबालाःसिंहस्कन्धचमरपुच्चकेशा अचम्भाश्च तखवणानि या! जाव अरिहा अरिहनेभी कानगए,तं मेयं खलु अम्हं | चिह्नानि यत्र तत्तथा। " कालहरियरत्तपीयसुक्किल बहुपहारुसंदेवाणुपिया ! इमं पुवगहिअंनत्तपाणं परिदृवित्ता सेत्तुं..
पिनरूजी।" कालाऽदिवा या बहवः स्नायवः शरीरान्त.
बंडास्ताभिः सपिनद्धा जीवाः प्रत्यश्चा यस्य स तत्तथा । नए पवए सणियं सणियं दुरूहित्तए संजेहणाए झोस
"जीवियंतकरण ति।"शत्रूणामिति गम्यते। (समग्गेत्यादि) पाए जसिया कालं अणवखमाणाणं विहरित्तए त्ति भन्नानि प्राकारो गोपुराणि च प्रतोल्या,अट्टालकाश्च प्राकारोकटु श्रमायमस्त एयमढे पमिसुणेति, पडिमुगणेत्ता त पुच्च- परिस्थानविशेषाः, चरिका च नगरप्राकारान्तरेऽरहस्तो मार्गः, गहियं जत्तपाणं एगंते परिचेति, परिहवेत्ता जेणेव सेतुं
तोरणानि च यस्यां सा तथा । पर्यस्तितानि पर्यस्तीकृतानि,स
वतः किसानीत्यर्थः। प्रवरभवनानि श्रीगृहाणि चनाएमागारानए पब्बए तेणेव नवागच्छति,उवागच्चइत्ता सेचुंजयं पञ्च
णि यदयां सा तशातत्तः परवयश्य कर्मधारयः। ( सरसरस पंसणियं दुरूहंति, दुरूहइत्ताजाव काझं अणवकंखमाणा
शि) अनुकरणशब्दोऽयमिति । ( उल्लपडसाडप ति) सद्यः विहरति । तर णं ते जुडिडिसपामोक्खा पंच अणगारा स्नानेन आईओं पटशारकी उत्तरीयवस्त्रपरिधाने यस्य मतथा । सामाइयमाइयाई चनहसपुदाई अदिजित्ता बहृणि वासा
(ोचलगवत्थनियत्थे ति) अवचूलमधोमुखचूलं मुकलाणि सामन्नपरियागं पाउणिचा दोमासियाए संलेहणाए
श्चलं यथा भवतीत्येवं वस्त्रं निवसितं येन स तथा । (तं पवन
वि गए नत्थि ते ममाहितो श्याणि भयमस्थि ति) तत्तस्मादिअत्ताणं सित्ता जस्सहाए कीरइ नग्गभावे. जाव तमट्ठ
त्थमपि गत अस्मिन् कायें नास्ति अयं पक्को-यत ते तव प्रत्तो माराति,अणंतेजाव केवसवरणाणदसणे समुप्पामे जाव भयमस्ति जयति (पगठिय ति) तो (मुसति ति) गोग्यन्ति । सिखा । तए णं सा दोबई अज्जा सुव्बयाणं अज्जियाणं अंते श्रान्तः खिन्नः, तान्तः सूर काण्डकाङ्कावान जातः, परितान्तः
सर्वथा खिन्नः। एकाथिकाश्चैते । (इच्छंतपार्ह ति) हया कसामाइयमाइयाई इक्कारम अंगाई अहिजइ, अहिन्जित्ता ब
याचिदित्यर्थः। (वेयालीए ति) वेत्रातटे इति । श्वापि सूत्रे उपहणि वासाणि सामनपरियागं पाणित्ता पासियाए सं-।
नयो दृश्यते । एवं चासो व्यःबेहणाए आलोइयपमिकते समाहिपत्ता कानमासे कालं "सुबह वितकिलेलो, निमाणदोलण सिओ संतो। किच्चा बनलोए कप्पे देवत्ताए उववमा । तत्थ णं अत्ये- मसिवायदोवतीए,जह किस उमाविघा जम्मे॥१॥" गइयाणं देवाणं दससागरोचमाइंटिई पन्नत्ता । तत्थ एं दुब.
अथवा-- यस्स देवस्स दससागरोषमाई लिई पमत्ता । से णं भंते !
"श्रमणुन्नमभत्तीए, पत्ते हाणं नवे अणत्थाय। सुवर देवो नाओ देवलोगाओ ग्राउक्खएणं महाविदेहे वासे
जह कम्यतुंबहारणं, नागसिरिजवम्मि दोवाए ॥२॥” इति ।
झा. १२० १६० ।ता.स्था। प्रइन। आ० म०। सिज्मिाहितिजाव संसारस्म अंतं काहिति । एवं खलु जंबू! | हो । प्रति।। समणेणं भगवया महावीरेणं सोनसमस्स णायज्कयएस्स | बग्ग-द्विवर्ग-पुं० । उभयकोटी, नि० चू. १५ उ० । साचा । अयमझे पपत्ते ति बेमि ।
उवण-वन-न० । उपतापने, प्रश्न० २ आश्र0 द्वार। (वेढो त्ति) वेष्क एकवस्तुविषयपदपद्धतिः । स चेह धनुर्वि.
सुचय-द्विपद-पुं० । 'दुपय' शब्दार्थे, स. १२ अङ्ग । पयो जम्बूदीपप्रचलिप्रसिकोऽध्येतव्यः। तद्यथा-"अश्रुग्गयबालचंदईदधणुसनिगा।" अचिरोदगतो यो बालचन्द्रः शुक्लपक्क- पुवामतस्य-मुर्वाम्यतरक-पुं० । दुस्त्याज्यतरकलङ्के, भ०६ द्वितीयाचा ,तेनेधनुषा च वक्रतया सन्निकाशं सदृशं यत्त. श०१ उ०। नथा।"वरमाहसदरियदपियदढघणीसगमगारश्यसार।" वरम- वार-द्वार-न। "पद्मछद्ममूर्सद्वारे वा" ॥८।२।११२॥ इति हिषस्य दृप्तदपितम्य संजातदातिशयस्य यानि रढानि धनानि संयुकस्यान्त्यव्यजनात्पूर्व उद्वा । 'दुवारं।'पके बारं।' 'देर।' चङ्गाग्राणि तेः चितं सारं च यत्तत्तथा । "उरगवरपवरगव.
'दारं ।' प्रा०२पाद । प्रतोल्याम, प्रा०म० अ०१खगड । ग्रालपवरपरहुयभमरकुलनीतिनिद्धातधोयप।" उरगपरो नाग
मस्य मुखे, वृ०१ १०३ प्रक०। प्रासादजवनदेवकुलादीनां प्र. वरः,प्रवरगवलं वरमहिषश्रृङ्गं प्रवरपरवृतो वरकोकियो,भमरकु- बेशमखेचा वृ०१०३प्रक० । प्रा०। (अपावृतद्वारवस.
मधुकरनिफरो,नीश्री सिका,पतानीव स्निग्धं कालकान्तिमत्, तौ द्वारपिधानं संयतीभिः कर्तव्यमिति 'वसई' शब्दे वक्ष्यते) भातमिव ध्मात च तेजसा चलत, धौतमिव धोतं च निर्म पृष्ठ यस्य तत्तथा । "निउणोचियमिसिमिसिंतमणिरयणट
मुबारकम्म-द्वारक-नाद्वारस्य विषमायाः नूमेः समीकरयाजाल परिक्खित्तं । " निपुणेन शिहिपना उपचितानामुज्ज्वा
णे. नि० चू० ५ उ०। नितानां मणिरत्नघएिट कानां यजालं तेन परिक्षितं वेष्टितं य-1
दुवारपिहाण-द्वारपिधान-२० । कपाटमाश्रित्य द्वारस्थगने, सत्तथा। "तमितरुणकिरणत वणिज्जबकचिंधं" तमिदिव वि.। भाचा०२ श्रु०१चू०२ म० २००।
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(२५ ) दुवारवाहा अभिधानराजेन्द्रः।
दुब्बियड दुवारवाहा-द्वारवाहा-सी० । द्वारद्धावे, शाजा० ३ शु० १ चू० विषयेग्विष्टानिटेषु माध्यस्थतांभावयितुं,प्रान्तकाणि नोक्तुम्.५ १०५०।
घं यथोद्दिष्टया मौनीन्छाशया असिधारकलण्या दुष्करं सञ्चरितु. हुवारसाहा-द्वारशाखा-स्त्री०। द्वारपार्श्वस्थकाष्ठाऽऽदौ,माचा० म्, अनुकूल प्रतिकूनच नानाप्रकारानुपसर्गान् सोदुमा असहने
च कर्मोदयोऽनाद्यतीतकाल सुखभावना च कारणं,जीवोडिस्क २ शु०१ चू० १ ०६०।
भावतो दुःखनीरनिरोधसुखप्रियोऽतो निरोधकल्यायामाज्ञायाँ बुवारि-दौवारिक-पुं० । “उत्सौदी "॥ १।१६०॥
दुःखं वसनि । श्रवश्व किंभूतो भवतीत्याह-(तुच्छए इत्यादि) इति औत उत् । 'वारियो।' प्रा० १ पाद ।
तुच्छो रिक्त,सच व्यतो निर्धनो, घटाऽदिरिव जलाऽऽदिर. दौवारिक-पुं० । द्वारे नियुक्तः, ग्क। द्वारपाले चाचा हितो,भावतो ज्ञानादिरहितः।झावाऽऽदिरहितोहि कचित्सं.
शातिविषये केनचित्पृष्टोऽपरिज्ञानात् ग्लायति वक्तुं, झानसवानसावत्त-द्वादशाऽऽवर्त-२० । "पुवाललावसे कितिकम्मे
मन्वितो वा चारित्ररिक्तः पूजासत्कारजयाच्छुरूमार्गप्ररूपणापाते। तं जहा-'श्रोणयं जहाजायं, कितिकम्मं वारसावयं ।
बसरे ग्लायति यथावस्थितं प्रझापयितुम् । तथाहि-प्रवृसस. चउसिरं तिगुत्ते दुपवेसं एगनिक्खमणं ॥१॥" इति सूत्रानि
निधिः सनिधिीनदोषतामाचष्टे । एवमन्य नापीति । यस्तु कषाधानगर्भेषु कायव्यापारविशेषषु, स. १सन।
यमहाविषगदकल्पनगवदाझोपजीवकः स सुवसुमुनिर्भवत्य. दुविट्ठ-द्विविष्टप-पुं० । द्वितीचे वातुदेवे, हि नवमे भविष्यति ।
रिक्तो न ग्लायति च वक्तुम, स्थावस्थितवस्तुपरिज्ञानादनुष्ठा. वासुदेवे, सती ।
नात् । श्राइच-(पल इत्यादि) एष ति सुबमानीनाऽऽद्यरिक्तो दुविह-विविध-त्रि०।" वियोरुत्" ।।१।४॥ इति यथावस्थितमार्गप्ररूपको वीरः कर्मविदारणात, प्रशंसितस्तद्विशब्देकारस्योकारः। 'मुविदो।' प्रा०१ पाए। वे विक्षेपपारा.
द्विदैः श्लाघित इति । प्राचा० १ ० १ ० ६ उ०। घस्येति विविधः । आचा. १ श्रु.१० ० । द्विप्रकारे, दुव्यह-दुर्वह-त्रि० । वोदुमशक्य, उत्त. १२ अ०। सूत्र०१ श्रु० ८ अ पाया । विशे। उत्त० । स्थान प्रश्न।
मुवाइ-दुर्वाक-पुं० । अप्रियवक्तार, दश २ भ० । बुविहनूमिपत्त-द्विविधतमिप्राप्त-त्रि० । वयः (व्यअनजातत्या
दुनिअ-दुर्विदग्ध-पुं० । ज्ञानबनगोंडुरे, जीवा० २० म. दि)श्रुतपर्याय ( यावपर्यायस्य यातं दीयते) रूपनु. तवाचनायोग्यता प्राप्ते, नि0 चू० १९ उ०।
| धिः । पपिमतम्मन्ये, स्या। दुव्वा-वर्ण-न। अशुभवणे, नि०चू । “पंचषधोवयं दु-दुनिअवा-हुादग्धा-ना० । मध्याहरूकारविमम्बितायां
पर्षदि, नं०। व्यमं ।" एकस्मिन्नपि पततीत्यर्थः। "अहवा-प्रधानाकुरसंनिमें सुबम, ससा सवे दुव्यमा ।" अनिष्टा इत्यर्थः । नि०.१| दुावाचातय-दुावाचान्तत-पु० । दुध वाचान्तता दुवैचि. ४० । भ० । कुरूपे च । त्रि०। सूत्र०२ शु. २ अ०।
| न्तितः। चलचित्ततया अशुने विचिन्तित, "जं थिरसज्जवसा.
रंग, तं जाणं जं चल तयं चित्तं" इति वचनात् । ध०२ अधिक। हुन्धय-दव्रत-त्रि० । असम्यग्बते, स्था०४ ठा० ३ ० । दुष्टानि तानि येषां ते तथा। यथा मांसलक्षणं, व्रतकालसमाप्ती
दुबिजाण-धुर्विद्ध-त्रि० । दुर्विज्ञातरि, प्रश्न.१ आश्रद्वार। प्रन्ततरसम्वोपघातन मांलप्रदानम्, अन्यदपि नक्तनोजना-दधिमाय-बुर्विज्ञात-
त्रिपुष्टं विज्ञात जीवशातम । दुहे ऽदिकं दुखवतमिति । तथाऽज्यस्मिन् जन्मान्तरेमधुमघमांसा
विज्ञाते, आचा० १ ० ए ०२०। ऽऽदिकमभ्यवरिष्यामीत्येवमहानाम्धा जन्मान्तरविधिद्वारेण सनिदानमेव व्रतं गृहन्ति । सुत्र०श्च०२०। प्रतवर्जित, कुपिण
दाविणीय-दुर्विनीत-त्रि० । दुनिययुक्ते, प्रश्न. ३ आश्र. विपा० १ ० १ ० । दशा ।
द्वार । आव०। प्रा. म०। दुव्वल चारित्त-दुर्वनचारित्र-पुं० । दुर्वलश्चारित्रे इति दुर्बल- दुबिद-दुर्विदग्ध-jor 'युविच अ' शब्दार्थे, जीवा०२०अधिo
चारित्रः । विना कारणेन मलोत्सरगुणपरिचिणि, नि० चतुब्बिदछ-दुर्विदग्ध-पुं० । 'दुविधम्द' शब्दार्थे, जीवा.. १०। व्य०।
। अधिक। दुधसुमुगि-दुर्वमुमुनि-पुं. ! मोकगमनायोग्य, प्राचा०।। दुबिदबुद्धि-दुर्विदग्धबुछि-पुं० । स्वाभिप्रायेणाऽऽगमानु
दुव्यम्मुणी प्रणाणाए तुच्छए गिलाइ बचए, एस वी-| सारिणि, दर्श• ६ तच्च । रे पसंसिए (१००)
सुधिभन-दुर्विभज-त्रि० । कष्टवित्रजनीये. "मज्किमगाणं दु(डुब्बसु इत्यादि) वसुजव्यम्, पतश्च भन्येऽर्थे व्युत्पादितं.ऽव्यं
विभज टुम्गम भवज्ञा" माख्यातेऽपि तत्र दुर्विभजं कष्टच भव्य इत्यनेन । भव्यश्च मुक्तिगमनयोग्यः, ततश्च मुक्तिगमन
विजजनीयम, ऋजुजमत्वादेव तद्भवतीति । दुःशक शियोग्यं यद् द्रव्यं तद वसु, दुष्टं वसु दुर्वसु.र्वसु चासो मुनिश्च
प्याणां वस्तुतश्वस्य विजागेनावस्थापनमित्यर्थः । दुभिव. दुर्वमुमुनिः-मोकगमनायोग्यः । स च कुतो नवति?, अनाझया
मित्यत्र पागन्तरे दुर्विनाव्यम्, पुशका विभावना कर्तुं तस्येतीर्थकरोपदेशशून्यः,स्वैरत्यिर्थः किमत्र तीर्थकरोपदेशे दुष्कर,
त्यर्थः । स्था०५०१ उ० । बेन स्वैरित्रिमभ्युपगम्यते। तदुच्यते-उद्देशकाऽऽदेशरज्य सर्व
| दुविभाव-दुर्विनाव-त्रि० । दुर्लदये, विशे। यथासंभवमायोज्यम् । तथाहिनमिथ्यात्वमोहितं लोकं सम्बोद्ध,दबियम-दुर्विवत-त्रि०। अष्टाववृता दुषवृत्त पुष्करण्यात्मानमध्यारोपयितुं,रत्यरती निग्रहीतु,शम्दादि ते. स्था० ५ ० १ उ• ।
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(१९००" दुवियड अन्निधानराजेन्कः।
दुसमा दुब्बियक-दुर्विदग्ध-पुं० । 'दुन्विअ' शब्दार्थे, जी० १०
किमर्थमेते प्रतिषिकाः ?, इत्याहअधि।
जं तेहिँ अजिग्गहियं, अामरणंता य तं न मुंचति । दुब्बियत-दुर्विदग्ध-पुं०। 'दुविअकृ' शब्दार्थे, जीवा० २० |
सम्पत्तं पि ण लग्गति, तेसिं कत्तो चरित्तगुणा ।।३३१॥ अधि।
यतैर्युग्राहिताऽऽदिनिः किमपि शाक्याऽऽदिदर्शनमन्यद्वा दुनिसह-दुर्विषह-त्रि.। दुस्सहे, भ० ७ श.६ उ० ।
भारताऽऽदिकं मिथ्याश्रुतमनिगृहीतमाभिमुख्येनोपादेयतया स्वीदुन्निसोक-दुर्विशोध्य-त्रि० । दुःखेन शुद्धिप्रकर्षप्रापणीये, |
कृतं तदामरणात न मुञ्चन्ति । अथ चैतेषां सम्यक्त्वमपि न पञ्चा० ११ विव०।
लगति, कुतश्चारित्रगुणा इति?। दुबिहिय-दर्विहित-पुं० । पावस्थाऽऽदौ, आव० ३ ०।
कथं पुनरमायां सम्यक्त्वमपि न लगतीत्याहदुब्बोल-देशी- उपालम्भे, दे. ना० ५ वर्ग ४२ गाथा ।
सोयमुयघोररणमुह-दारनरण पेयकिञ्चमइएसु । दुस-ष-धा० । दिवा०-पर-का-अनिट् । वाच। वैकृत्ये,
सग्गेसु देवपूयण-चिरजीवणदाणदिवेसु ॥ ३३॥ विशे० । पुष्यति, अदुषत, अदुकत् । दान।
इचवमाइलोइय-कुस्मुडबुग्गाहणाकुहियकामा । दुसंणप्प-दुम्संज्ञाप्य-पुं० । दुःखेन कृच्छेण संज्ञाप्यन्ते प्रका.
फुडमवि दाइज्जतं, गिएहति न कारणं केइ ।। ३३३ ॥ प्यन्ते योद्धयन्त इति दुःसंशाप्याः । स्था० ३ वा०४०।
हजारनाऽऽदी शौचसुतघोररणमुखदारभरणप्रेतकृत्यमयेषु तो दुसाणप्पा पत्ता। तं जहा-दुहे, मढे, बुग्गाहिए॥७॥
देवपूजनचिरजीवनदानदृष्टेषु च स्वर्गेषु ये भाविता भयन्ति, अस्य संबन्धमाह
तथा हि-शौचविधानाद् पुत्रोत्पादनाद् घोरसमरशिरःप्रवेशाद सम्मत्ते वि अजोग्गा, किमु दिक्वणवायणासु दुवादी । धर्मपत्नीपोषणात् नियमप्रदानाऽऽदिप्रेतकर्मविधानाद् वैश्वादुस्समप्पाऽऽरंभो, मा मोहपरिस्समो होजा।। ३२७ ।।
नराऽऽदिदेवपूजनात् चन्स हस्राऽऽदिरूपचिरकामजीवनाद ध.
नधरियादिदानात स्वर्गा अवाप्यन्ते, इत्येवमादिलौकिककु. दुदयत्रयः सम्यक्त्यग्रहणेऽव्ययोग्या:.किं पुनदीक्षावाचन
श्रुतिव्युग्राहणाकुथिनकर्माः सन्तस्तस्याः कुथुतेरघटनायां योः। अतस्तेषां प्रज्ञापने मोघो निष्फनःप्रज्ञापकस्य परिश्रमोना
स्फुटमपि दर्यमाम कारणमुपपत्ति केबिद्रुको मन प्रतिप. नूदिति :संज्ञाप्यसूत्रमारज्यते। अनेन संबन्धेमाऽऽयातस्थास्य
द्यन्ते, अतस्ते दुःसंज्ञाप्या मन्तव्याः । बृ०४ उ०।। व्याख्या-प्रयो दुःखेन कृस्छेण संशाप्यन्ते प्रतियोद्धयन्त इति दुःसंशाध्याः प्राप्ताः। तद्यथा-दुष्टस्तत्वप्रकापकं प्रति द्वेषवा.
दुममदुममा-दु:पपतुःपमा-स्त्री० । अवसर्पिण्याः षष्ठे उत्सर्पिन्, स चाप्रज्ञापनीयो द्वेषेणोपदेशाप्रतिपत्तेः । एवं मूढो गुण
एयाश्च प्रथमेऽरके, न । " एकवीमयाससहम्माई कालो बु. दोघाननिमः,व्युहाहितो नाम कुप्रज्ञापकदृढीकृतविपरीतबोधः ।
समदुसमा । " न. ६ श०७० । स्था० । ती0। ति।ा. एष सूत्रार्थः।
चूतिं । ज्यो० । (अस्या वर्णकः “ोसप्पिणी" शब्दे
तृ जागे १२२ पृष्ठे, 'सस्तप्पिणी' शब्दे हि० भाये २१६६ अथ भाष्यविस्तर:
पृष्ठे च अपव्यः) दुस्समाप्पो तिविहो, दुहाई दुबभितो पुचि ।
बुसमय-द्विसमय-त्रिः। द्वै समयौ यत्र सद्विसमयः ! सममृहस्स य णिकवेवो, अविहो होइ कायब्बो ॥३२॥
यद्वयजाते, ज०१४ २०१ उ० । दुःसंज्ञाप्यो दुष्टाऽऽदिभेदात्त्रिविधः, तत्र दुष्टः पूर्व पराश्चिक
समयसिक-द्विसमयसिक-पुं० । सिम्त्वसमयात्रितीयसमसूत्रे यथा वर्णिस्तथाऽत्रापि मन्तव्यः । मुढस्य पुनरष्टविधो नि केपो घमनमाणनीत्या कर्तव्यो नवति ।
यतिनि, प्रकारान्तरेण तृतीयसमयबर्तिनि परम्परसिकनेदे, तत्र पदत्रयनिष्पन्नामष्टभजीमाह
प्रज्ञा० १ पद। दुढे मूढे बुग्गा-हिते य जयणा न अट्टहा हो।
दुसममुसमा-दुःपमसुषमा-स्त्री०। अवसर्पिण्याचतुर्थे उत्सर्पि. पढमगभंगे सुत्तं, पदम विश्यं तु चरिमम्मि ॥ ३२॥
एयास्तृतीये चारके, न० । “एगा सागरोवमकोमाकोमा प्रो
वायालीसए वाससहस्सेहिं ऊणिया कानो दुसमसुसमा।" दुयो मुढो ब्युदाहित इति त्रिभिः पदैरएधा भजना भवति, भ० ६ श०७ न. । जं० । (अस्या वर्णक स्तु 'भोसअग ना इत्यर्थः । अत्र च प्रथमे भने प्रथमं सूत्रं चिपत. पिणी' शब्द तृ० भागे १२१ पृष्ठे, · उस्सप्पिणी' शब्दे ति, चरनेऽष्टमे भऽ दुशोऽमूढोऽन्युग्रादित इत्येवल कणे द्वि भागे ११७१ पृष्ठे च द्रष्टव्यः)"एगा उसमसुसमा ।" द्वितीयं बक्ष्यमाणं सूत्रमिति । ०४३.।
स्था० १ ठा०1 अपैषां मध्ये के प्रवाजयितुं योग्या:?, केवा नेत्याहमोत्तूण वेदमहं, अप्पडिसिघार सेसगा मुढा ।
दुसमा-दुःषमा-स्रो। अवसपिण्याः पञ्चमे उत्सपिण्या द्विती
ये चारके, भ० । " एकवीसं वाससहस्लाई कानो दुसमा ।" बुग्गाहिता य दुट्ठा, पमिसिघा कारणं मोक्षु ॥३३॥
भ.६ श०७ उ० । स्था० ।सी।ति०। प्रा००। ज्यो०। वेदमूदं मुक्त्वा ये शेषा व्यकेत्रमुढाऽऽदयस्ते ऽप्रतिषिद्धाः, तं० । (अस्या वर्णकस्तु 'ओसपिणी' शब्द तृतीय नागे प्रवाजयितुं कलपन्ते इत्यर्थः । वे तु व्युदग्राहिता दुश्राम १२१ पृष्ठे, 'उस्सप्पिणी' शब्दे द्वि० भागे ११६६ पृष्टेऽपि कपायदुदयस्ते कारणं मुक्त्वा प्रतिषिद्धाः, कारणे तु अष्टव्यः)"दसहिं ठाणोहि ओगाढं दुस्सम जाणेजा। जहाकल्पन्ते इति जावः।
भकाले परिस, काले न वरिस, असाह पूइज्जति, सादुन
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(२६.१) दुसमा प्रानिधानराजन्मः।
दुस्सील पूजंति, गुरुमु जगो मि पमिवम्मो श्रमणुप्पा सहा. जाव म्मचारितं ति रचायित्ता तहाविहं मुरूजनं मोहम्मि पामिफासा।" स्था० १० ठा.(अस्य वकव्यता 'कलिजुग' शब्दे ता उस्सुत्तभासिणो अप्पयुइपरनिंदापरायणा य के होसृ. भागे ३८० पृछ) नवरं " तो गोयमलामी जाणगपुग्वं पु- हिंति, बलवंता अनिनिया,अप्पवला पूअनिवा भविस्संति।"
-भय तुम्हं निवाणानंतरं किं कि भविस्सा ? । पहुणा ती. २० कल्प। भणियं सोम! मम मुक्खायस्स तिहिं वासेहिं अद्धनबमेहि य
दुसमाकाल-दुःषमाकाल-पुं० । अवसर्पिण्याः पञ्चमे उत्सर्पिमासेहि पंचम अरओ दूसमा बगिस्सह । मह मुक्नगमणाओ
एया हिताये च समये, जं० २ धक्षः । " एकवीसं वाससह. चासाणं च उसडीए अपच्छिमकेवली जंबूसामी सिम् िगमिही।
साई कालो सुसमा ।" भ०६ श.७३०। प्राचार्याणातेणं समप पजवनाणं, परमोही, पुलायलझी, आहारगस.
मुपाध्यायानां धर्माचार्याणां साधुसाध्वीश्रावकथाविकाणां या रोरखवगसेढी, उवसमगसेढी,जिणकप्पो,परिहारविसुद्धि-सुहु
प्रसहं यावद दुषमायां या संख्या दीपालिकाकल्पाऽऽदिषु मसंपराय-अहक्खायचारित्ताणि, केवलनाणं, सिद्धिगमणं च
उक्ताऽस्ति, सा कया विवतया?,पश्चमारके दिनानि स्तोकानि त्ति दुवालस गणाई भारदे वासे वुच्छिजिहिति । “ अजा
जाबरते, संख्या च बहीति लोकाः पृच्छन्ति, तत्र किमत्तरं सुहम्मप्पमुढा, होहिंति जुगप्पहाणायरिया । दुप्पसहो जा
दीयत इति प्रश्ने, उत्तरम्-अत्र भरतकेने दुःषमाया अल्पसूरी, च नरहिया दोमि य सहस्सा ॥१॥" सत्तरिसमाऽदि
कालत्वेऽपि भूमेः प्राचुर्याद् बहुषु देशेषु सावादिसंभवेन प वाससए थूलभद्दम्मि सम्गगए चरमाणि चत्तारि पुवा
दीपालिकाकल्पाऽऽद्युतयुगप्रधानाऽऽदिसंख्याऽयत: संगच्यते, णि, सम्भच उरंससंगणं, बजरिसहनारायं संघयणं, महापाण.
नत्वात्मज्ञातसाध्वादिनेति बोध्यम् । ३८ प्र० । सेन०२ बल्ला० । ज्माणं च बुचिन्जिहि । वासपंचसपहिं अजवारे दसमं पुब्वं संघवणं चउ च अवगच्छिही । मह मुक्खगमणाम्रो पालय.
| दुमह-दुःसह-पुं० । “टुंकि दुरो वा" ॥ ८।१ । ११५ ॥ दुर नंदचंदगुत्ताइराइसु वोलीणेमु चउसयसत्तरेहिं विकमाश्यो उपसर्गस्य रेफनोपे सति उत ऊत्वं वा । "दूसरो,उसहो।" रे. राया होही । तस्य सट्टिवारिसाणं पाबगरस रशं, पणपस्म
फनोपाभावे " दुस्सहो ।" प्रा०१ पाद । “निर्दुरोर्वा" ॥२ सब नंदाणं, अठोत्तरं सयं मोरिवबंसाणं, तीसं दूसमित्त- ।।१।१३॥ इति पुरस्य व्यम्जनस्य वा लुक ।“स्सहो।" स्ल, सही बलमित्तभाणुमित्ताणं, वाशीसं नरवाहणस्स, ते. | प्रा० १ पाद । चित्रानापरनामके कल्पवृकभेदे, तिः । रस गहनिस्स, चत्तारि""गस्स, तमो विकमाइयो । सो
सुमिण-दुःस्वप्र-ना अशुभसूचके स्वन, प्रश्न०१ आश्रद्वार। साहियसुबमपुरिसो पुरविं परिणं का नियसंवधरं पव. सेही । “तह गद्दभिल्लरजस्स नायगो कालिगारियो हो
दुरसंचार-दुःसंचार-त्रि.। दुर्गमार्ग, दशा० १० १०। हो। तेवपच उसएकिं, गुणसयकलिओ सु अपउत्तो ॥१॥" दुस्संबोह-दुःसम्बोध-पुं० । दुःखेन सम्बोभ्यते धर्मचरणप्रतिपदृसमाप वट्टमाणीप नवराणि गामनूगाणि होहिति, मसाण तः कार्यत इति दःसम्बोधः। दानेन धर्माचरणं प्रतिपाय रूवा गामा, जसदंगसमा रावाए, दासाबा कुटुंबिणो, माने, बोधयितुमशक्ये च । प्राचा.१० १० १००। लंचगहणपरा निओगिणो. सामिदोहिणो निशा, कालरत्तितुज्ञामो सासूत्रो, सपिणीतुबानो बहूओ, विजया कमक्ख.
दुस्समाण-दुष्यमाण-पुं० । देष कुर्वति, स्त्र० १७० १२ १०। पिक्विबाहिं सिक्खिया वेसाचरियाओ कुलंगणाओ, सच्च- दुस्सरणाम-दु:स्वरनाम-न० यऽदयवशात्खरः श्रोतृणां कर्णदबारिणो पुत्ता य, सीसा य अकालवासिणो कालप्रवासि
कटुःप्रार्भवति तद् दुःस्वरनामा नामकर्मदे, कर्म०६ कर्म०। णो य,महामुहिया रिहिसंमाणभायणा च जणा, दुदिाच
पं० सं०। प्रब०। श्रा० । कर्महीनस्थरे, कर्म०१ कर्मः। मारपत्ता अप्पिट्टिया य सज्जणा, परचक्कडमरदुम्भिक्खजुया
इस्सल-दुःशल-स्त्री० । दुर्घहे, कुर्बिनीते, पृ. उ.। देला,खुद्दमत्तबहुला मेश्णी, असज्काबपरा अत्थबुद्धा विप्पा, गुरुकुमवासवाश्णो मंदधम्मा कसायकलुसियमणा समणा,
दुस्सह-दु:षड-पु.।' दुसह ' शब्दार्थ, प्रश्न १ प्रा० अप्पबना सम्मदिहिणो सुरनरा, ते चेव परबत्रा मिगदिहि
द्वार। रणो होहिति । देवा न दादिति दरिसणं, न सहा फुरतप. बस्सहिय-दासहित-त्रि०। सुखेनाधिसहिते, सत्र०१४०३ उापा विज्जामंता, प्रोसहीणं गोरसकापूरसक्कराइदम्बाएं च
म.१उ०। रसामगंधहाणी, नराणं बलमेदाभाऊणि हाइस्संति, मास. दुस्माहम-दुःसंहत-त्रि० । दुःखेन संहियते मील्यते स्मेति दुःकम्पा न पाउम्गाणि खित्ताणि न भविस्संति, पडिमारूवो
। संहृतम् । कुर्मिले, उत्त.७ अ.। सावयधम्मो वुच्छिज्जिहइ, मायरिया वि सीसाणं सम्मं सु. यं न दाहिति ।
दुस्सिज्जा-दाशय्या-खी। विषमभ्रमाऽऽदिरूपायां शय्यायाम, " कहकरा कमरकरा, असमाटिकरा अनिव्वुश्करा य ।
दश०८.। होहिंति स्थ समणा, दससु वि खितेसु सयरा ॥१॥ दुस्सील-दुःशील-त्रि०। दुष्ट रागद्वेषाऽऽदिदोषविकृतं शील स्व. ववहार मंताएँ, मुनिविज्जयाण य मुनीणं ।
भावः समाधिराचारो वा यस्बासौ दुःशीक्षः । उत्त०१०। गतिहिति प्रागमत्था, अणत्थसुद्धा य तदियहं ॥२॥ दशा०विपा० ।शुभस्वभावडीने, विपा० १ ० १ ०। उवगरणवत्थपत्ता-इयाण बसहीण सकृयाणं च ।
ऽष्टाचारे, ग०१अधि०। प्रश्न उत्त० । । दुःसमाधीच। उकिस्संति कापणं, जह नरवश्णो कुठंबोणं ॥ ३५" पिएमोलके च । “दुस्सीले गरगाओ ण मुश्च।" सुत्र.१७० कि बहुणा-बहवे भंमा अप्पे समणा होहिंति, पुवायरियपरं । १०प्र०1"दस्सीलाओ खरो विव।" खरवद् विष्ठाभक्तकगई। पराग सामायारि मुत्तण नियगमविगप्पियं सामायारि स. भवत तशीला पाचारा निले जत्वन यत्र तत्र ग्रामनगरा55.
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दुरसील
दुहविबाग
रयमार्ग क्षेत्र गृहोपाध्य चैत्यगृह गतवटिकाऽऽदौ पुरुषाणं वा- दुहओवंका-द्विधावक्रा - स्त्री० । यस्यां वारद्वयं वक्रं कुर्वन्ति याकारित्वात् तथाविध वेश्या दासीर कामुकाऽदीनामव। (त्रिघः ) तं० | जिनदाल श्रावकस्य भार्यायाम्, सा प्रतिमां प्रतिपन्नस्य स्वपत्युर्वेदे लोहकीलकेन व्यथयाञ्चकार ।
o क० ।
( २१०२ ) धनिधानराजेन्द्रः ।
दुस्सु दुःखत अवणं यत्रासः
पृश्रुते, प्रश्न० २ श्र० द्वार दुष्टं श्रुतं दुःश्रुतम् । दुष्टे श्रुते, न० श्राचा० १ ० ४ ० २ ४०
दुसेजा दुःखीःपादकसती १०१०
६ ० ।
-
दुइ-दुःख- न० | " दुःखद किणतीर्थे वा " ॥ ८ । २ । ७२ ॥ शति संयुक्तस्य हः । ' ऽहं । दुक्खं । ' प्रा० २ पाद । नरके, नरकाssवासे, सूत्र० १ ० ५ ० १ ३० । नरकाऽऽदियातनास्थाने १० प्र समवेदनीयोदयात् तीव्र पीडा ऽऽत्मके असते, सूत्र० १० ५ अ० १ ० | असातावेदनीयोदये, सूत्र० १० ५ ० १ ० । पीकायाम्, सुत्र० १ ० ५ ० १ उ० । शरीरमनसोरननुकूले, आचा० १ ० ३ ० १ ० | दुःखोत्पादकेन । सूत्र० १० १० अ० । विपुलककलाय गाढा चंका दुद्धा तिब्बा दुरहिप्यासा । इति एकार्थः । विपा० १ ० १ अ० ।
66
17
दोह - पुं० 1 दुइ-कर्म्मणि घञ् । दुग्धे, "संदोढश्चाप्रमेऽहनि ।” इति स्मृतिः । घ्राधारे धम् दोनपाचे पाच नावे पत्र दोहने, गोदोहनस्याने च । बृ० १ ० ।
द्वितायां तो हि ते, भाचा १ ० ३ ० ३ ० । दुभाग्ये ० १ पाह
दुइओ - द्विधा - अव्य० । प्रकारये, आचा० १ ० ३ श्र० ३
उ० | रा० सुत्र । उत्त० ।
द्विघातस्
- प्रय० । द्वयोना॑गयोः न० १६ श० ६ उ० । उभत्यस्यां वृ० १०००
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था ।" बहिरन्तश्च गोमयाऽऽदिना लिप्ता । रा०।" बुद्दतो सं विनियमाधियस्वालं । द्विघातयोः पार्श्वयोः संवेज्ञितानि
प्राणि वस्तदपस्तं समयचरं येते तथा तेषाम् । रा० चूर्णित, दे० मा०५ वर्ग । दुष्य-द्विषोन्नत - त्रि० । उन्नते. भ० ११ श० ११ उ० ।
रिन्द्रियार्थसाधन परे गतिप्रत्यनीके, भ०
बुद्ध दुई वि० दुषं दो दुईत दुहते, आचा० १ ० ३ व दुभंग-० । लुकि बुथा ॥
1
G
अ० ३ ० ।
जी• ।
बुयोला- द्विपाखा-स्त्री० [यतोऽकुश कारायां घेण्या
म्. स्था• ७ जा• ॥ भ० । नाड्या बामपाश्र्वाऽऽदेनडी : प्रविश्य तथैव गत्वा अथा एव दक्षिणपाश्र्वाऽऽदौ ययोत्पद्यते सा ि पानीपतियो मणिपालणाशत्रेयोस्तया स्पृष्टत्वादिति । भ० २५ श० ३ ४० ।
श्रोत - द्विधाऽनन्तक-न० । सर्वाद्धायाम, स्था०१०टा०| दुइ मोझोमा सप्पयोग- द्विधानो काऽऽशंसामयोग - पुं० । नबेमन्द्रस्ततश्चक्रवतीत्येवंरूपेऽथै, स्था० १० वा० भ०
1
सा द्विधावका । श्यं चोर्ध्व क्षेत्रादाग्नेय दिशोऽधःक्षेत्रे वायव्यशिगत्वा य उत्पद्यते तस्य भवति । तथाहि प्रथमसमये श्र वास्तपाति ततस्तव -
यश्यामेवेति । त्रिसमयेयं त्रसनामया मध्ये बहियां भवतीति । भ० २५ श० ३ उ० । श्रेणी भेदे, उभयतो वक्रायां स्थापनायाम् ।
स्था० ७ ना० 1
दुइ दुर्घटने, उपा० २० पा०
१ ० २ ० ।
-
grass-pikir, are ? go! wo
हट्टिय- दुःखार्तित त्रि० । दुःखयताति दुःखं रोयः, तेन श्रार्त्तः पीडितः क्रियते इति दुःखार्तितः । रोगपीरिते, उस० २ ० । दुःखाई दुःखमेवार्थी यसिन् स दुःखान
सूत्र० १ ० ५ अ० १४० ।
दुहण-दुध-पुंट्टकरे, प्रम• ३ आभार मुगरविशेषे च प्रश्न १ ० द्वार उपाय । दोहन- न० | दोई, प्रश्नः २ श्रभ• द्वार ।
दुहतोयावता - द्विधातत्र्यावृत्ता- स्त्री द्वीयजीयमेवे, जी० १ प्रति ।
सोगपरिणीय द्विवालोकप्रत्यनीक-मुं
श० ६ ० |
११९५३
दुर उपसर्गस्य रेफलोपे छत ऊत्वं वा । प्रा० १ पाद । " क घधभाम् " ॥ ८ । ४ । २४९ ॥ इति भस्य हः । "दुमसु वः” ॥ ८ । १ । ११२ ॥ इति गस्य वः । 'दुवो ।' 'बूढो ।' प्रा० ढुं० ४ पाद | वाच० । त्रि । दुष्ट भगं नाभ्यं यस्य । अल्पभाये पति स्नेहशून्यायां स्त्रियाम, स्त्री० । वाच० । मुहविमोयणतर- दुःखविमोचनतर- त्रि. विमोच्ये, भ० १३ श० २ उ० ।
• अतिशयेन दुःख
दुहविभाग दुःखषिपाक-पुं० पाककले विषा
पदमस भंते! सुपरपस दुविवागाणं समनं० जावप के पचे तर सुम्मे अणगारे जंबू अणगारं एवं बयासी एवं लघु बू समरों श्राइ गरे०जाव संपत्तेणं दुहवित्रागाणं दस अज्या पचा- "मित्र, पर, अजों सगमे, बहुस्सई नंदी । लंबरे, सोरियते य देवदत्ताय अंजू व ॥ १ ॥ "
"
(मिव त्यादिगाथा) तत्र (मिडते ) मृगानिधानराज सुनवाभ्यामध्ययनं सुपुत्र एवं एवं सर्वत्र वरम् (उप) को नाम सार्थवाहपुत्र ( अभगत) सूत्रत्वाद भन्नलेन विजयाभिधान चौर सेनापतिपुत्रः । (सगति) शकटाभिधानलार्थ वाढ सुतः । (बइस्सर ति) सूत्रत्वादेव बृहस्पतिइचनामा पुरोहितपुत्रः ( ) सुत्रत्वादेव नन्दिवर्द्धगो राजकुमारः । (उंबर ति ) सूत्रत्वादेव उम्बरको नाम सार्थक सोरिय सरो
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(२६०३) दह विवाग अभिधानराजेन्डः।
दुहिल नाम मत्स्यबन्धपुत्रः। चशब्दः समुञ्चये। (देवदत्ता यत्ति) देच.
न्यथा घेति । कमुषसमापन्नो नैतदेवामति विपर्यस्त शर्त । न दत्ता नाम गृहपतिसुता। चः समुचये। अब्ज़ नाम सार्थवाह- श्रहत्ते सामान्येनैवमिदमिति, नो प्रत्येति प्रतिपंचते प्रतिद्वासुता। चशब्दः समुच्चये। इति गाथासमासार्थ:। विपा०१थु.
रेण,नो रोचयति अभिलाषातिरेकेणाऽऽसेवनानिमुखतयेति ।म१०। स । “न हि दुक्ख विवागाहिं,उबवणार्ड तहिं ताहिं।
नश्चित्तमच्चायचमसमजसं, निर्गति नियोति,करोतीत्यर्थः। म य जीवो अजीबो उ, कयपुब्यो उ चिंतए ॥१॥" द०५०। तसो विनिपातं धर्मभ्रशं संसारं वा प्रापद्यते, एवमसौ श्रादुहवेयणतर-खवेदनतर-त्रि०ा अतिशयेन खोये,न०१६ मण्यशय्यायां पुःखमास्ते इत्येका । तथा केन स्वकीयेन लश. २००।
भ्यते लम्भनं वेति लाभोऽनादिरनाऽऽदेर्वा,तेन माशां करोत्या.
शयति-स नूनं मे दास्यतीत्येवमिति । मास्वादयति वा लभ. दुहसयविवाग-दुःखशतविपाक-पुं०। खश तरूप कर्म फले,
ते चेत् तद तुङ्क्ते । एवं स्पृहयति वाचति, प्रार्थयति याचते, प्रइन० ३.श्राश्रद्वार।
अभिनषति सब्धेऽप्यधिकतरं बाम्तीत्यर्थः । शेषमुक्तार्थमुहसिजा-दुःखशय्या-खी।शेरते पास्थिति शय्या, ख. ।
मेवमप्यसौ पुःखमास्ते इति द्वितीया । तृतीया कराव्या । अदाः शय्या दुःशय्याः । पा० ।
गारवालो गृहवासस्तमावसामि, तत्र वर्त सम्बाधनं शरीचत्तारि दुइसेन्जायो पत्ताओ। तं जहा-तत्थ खत्रु
रस्यास्थिसुखत्याऽऽदिना नैपुण्येन मर्दनविशेषः, परिमर्दन तु पृ. इमा पढमा दुइभेन्ना-से णं मुंझे नवित्ता अगाराओ
ष्ठाऽऽदेमननमात्रम्,परिशब्दस्य धात्वर्थमात्रवृनित्वात् गात्रात्य
गस्तैलाऽऽदिनाङ्गम्रक्षण,गात्रोतकालनमङ्गधावनमेतानि लभेत अणगारियं पकए निग्नथे पावयणे संकिए कंखिए
कश्चिन्निषेधयतीति । शेष कण्ठ्यमिति चतुर्थी । स्था.४ ठा०३ वितिमिस्किए भेयसमावा कसमभावो निग्गं पाबयणं
उ० । ध०। प्राचा। णो सदइयो पत्तियणो रोए, निग्गं पावयचं अस- दुहमेज्जा-दुःखशय्या-स्त्री० । 'दुहसिज्जा' शब्दार्थे, स्था० दहमाणे अपत्तियमाणे अरोएमाणे मणं उच्चावचं नियच्च- ४० ३ उ०। इ, विणिवायगाव जह, पढमा दुहसेज्जा। अहाबरा दोच्चा चहा-विधा-खी । प्रकारद्वये, प्राचा. १ श्रु. ३ अ. ३ उ०। दुहसेज्जा-से एंमुं सक्तिा अगारामो प्रणमारियं | ध०। पश्चा०। पव्याप, एस सं लामेषं थो तुस्सह,परस्स यानयासाए।
विविध-त्रि. । द्वे विधे प्रकारावस्येति द्विविधः । द्विप्रकारे, पीदेश, पत्येइ. अनिलसह, परस्स लानमासाएमाणे० जा-
सूत्र०१७०७०। व अनिलसमाणे मणं नच्चावयं ति विशिवायमावग्जा,
मुहापभिवक-द्विधापतिबद्ध-त्रि०। ('पवजा' शब्देऽस्य दोचा दुइसेज्जा । अहावरा तथा दुहसेन्जा-से णं झुंमे
व्याख्या) द्विप्रकारेण बके, स्था० ३ ० २ २० ।
दुहाव-उद-धा० । धाo-उभ०-सक०-अनिद । द्वैधीकरनवित्ता अगाराओ अमारियं पव्याप दिन्वे माणुस्सए
ज, वाचः। “विदेऽहावणिच्चले"॥G४।१२४॥ इत्यादिकामनोगे आसाएमाणेण्जाव अभिलसमाणे मणं जच्चा- ना छिदेहाबादेशे 'उहाव।'प्रा. ४ पाद। चिनत्ति। वनं णियरछः, विणिवायमावज, तथा दुहसेम्जा । - चिन्ते । अच्छत्सात, अच्चिदत् । अच्चित् । ग्दिा । वाच । हावरा चनत्या दुहसेना से णं मुंके भपित्ता० जाव पदहावह-दुःखावह-त्रि० । दुःखमावहतीति । खोपार्जके, ब्बडए, तस्स णमेवं भवइ-जया अहमगारवासमाव- नि.चु.१०। पु:खदायके,उत्सा "सम्बे कामा उहावहा।" सामि तया महं संवाहपरिमदएगाउनंगगाउच्छोलणाई
सर्व कामाः शब्दाऽऽदयो दु:खाऽऽवहाः मृगाऽऽदीनामिव यतो
दुःखावाप्तिहेतुत्वाम्मत्सरेयाविषादाऽऽदिभिश्चित्तव्याकुन्नत्वो-- लनाभि, जप्पभिई चणं अहं मुंजवित्ताजाव पब्याए,
त्पादकत्वानरकाऽऽदिहेतुत्वाश्चेति । उत्त० पाई०१३ अ० सूत्रा तप्पनि च ॥ अहं संवाहण जाव गाउछोनणाई
दुहावास-दुःखाऽऽवास-पुं० मरकादिषु,सूत्र०१ श्रु०८ अ० आमाएमिजाव अनिमइ, से णं संवाहण जाच गान
दुहि ()-दुःखिन्-९० । मुखयुक्ते, सूत्र० दी०१ श्रु० १ च्छोलणाई प्रासाएमाणे. जाव मणं नच्चावच नियच्छ,
अ.३ उ० । उत्त। श्रा०प्र०। पिणिभायमावज्जद, चन्त्था दुहसेज्मा ।
इडिय-दाखित-बि)। स्वाथे कश्च वा1८।२।१६४॥ (चत्तारीत्यादि) चतस्रश्चतु:संख्या पुःखदाः शय्याः दुःख
इति कः । 'हिए, महियथए ।' संजातमुख, प्रा० २ पाद । शय्याः,ताश्च व्यतोऽतथाविधखवाऽऽदिरूपा, भावतस्तु दु:स्थचित्ततया :श्रमण स्वभावाः प्रवचनाश्रद्धानपरक्षाजप्रार्थ- बुहिय-दु:खित-त्रि• । दुःखं संजातमस्येति दुखतः। सजानकामाशंसनस्तानाऽऽदिप्रार्थनविशेषिताः प्राप्ताः सत्रे इति। तदुःखे,उत्त० अ० । 'इक्खिय' शब्दार्थे च । प्रा.२ पाद । तासु मध्ये स कश्चिद् गुरुकर्मा, अधार्थो चाऽयम. स च बा.
दुहिया-दुहिता-स्त्री.।" स्वनादेडा" ॥ ८।३। ३५॥ ति क्योपके,प्रवचने शासने,दीर्घत्वं च प्रकटाऽदित्वादिति । शकित एकभावविषयसंशये संयुक्तः, काड़ितो मतान्तरमपि
दुहितृशब्दादू माप्रत्ययः, 'पुहियाहि ।' प्रा० ३ पाद । इहितः साध्वितिबुद्धिः, विचिकित्सतः फल प्रति शकावान्, भेदसमा
पतिः । अमुक्समासः। जामातीर, वाच० । ० म०। पलो बुबीनाव, 55न:- एवमिदं सर्व जिन शासनोकाम?,
अ हिल-द्रहिल ना द्रोहस्वभावं दुहि लम्।
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(२६०४) दुहिम
अभिधानराजेन्द्रः। यथा
दूत।। एकैकाऽपिच द्विधा तद्यथा-प्रकटा, छन्ना च । तत्र सा " यस्य चुमिन लिप्येत, दरवा सर्वमिदं जगत् ।
तब माता, स च तव पिता एवं भणति संदेशं कथयति, सा आकाशमिव पक्केन, नासौ पापेन युज्यते ॥१॥
प्रकटा । या तु तं संदेश छन्नवचनेन कथयति सा छन्ना । कसुषं बाहुहिलं, समता पुण्यपापयोः।" आ० म.१०
एनमेवार्थ च सविशेष व्यक्तीकरोति२ खण्ड । पुण्यपापनपनाऽऽदौ, वृ० १ उ०।
एकेका वि य दुविहा, पागड छन्ना य छन्न दुविहा उ । यथा
मोगुत्तरे तत्येगा, वीया पण उभयपक्खे वि ।। " पताबामेव लोकोऽयं, याबानिन्जियगोचरः।
इह दूतीसमाचरणमपि दुती, साऽपि चैकैका स्वग्रामविषया, भद्रे! वृकपदं पश्य, यदन्त्यबहुश्रुताः ॥ ११
परग्रामविषया च द्विधा । तद्यथा-प्रकटा, उन्ना च। तत्र उन्ना पु. पिव खाद च जातु शोभने !, यदतीतं बरगात्रि! तत्र ते। नरपिद्विधा तद्यथा--एका लोकोत्तरे लोकोत्तर पब, द्वितीयसन हि नीरु गतं मिवर्तते, समुदयमात्रमिदं कलेवरम् ॥२॥" | घाटकसाधोरपि गुप्ता इत्यर्थः। द्वितीया पुनरुभयपक्केऽपि इत्यादि वेदवचनाऽऽदिवत्तथाविधयुक्तिरहितम् । अनु। लोकोत्तरे वा, पाश्ववर्तिनो जनस्य संघाटकसत्कद्वितीयसाबुहोवणीय-दुःखोपनीत-त्रिका सामीप्येन प्राप्तःखे, दश०१ धोरपि च गुप्तेति भावः । चू०। दुःखेन पीमयोपनीतान्युश्चारितानि मुखोपनीतानि ।
तत्र स्वग्रामपर ग्रामविषयां प्रकटां दृतीमाहपीमयोधरितेषु, न० । सूत्र. १७०५ १०१ उ०।
भिक्खाई वच्चंतो, अप्पाहणि नेइ खतियाईणं । दम-दत-पुं० । अन्येषां गत्वा राजाऽऽदेशनिवेदके, कल्प०१
सा ते अमुगं माया, सो य पिया ते इमं भणइ॥ अधि०३ कण ।
भिक्काऽऽदौ भिक्षाऽऽदिनिमित्तं चेत्यर्थः, वजन्तस्यैव ग्रामस्य दुज्जत-यमान-त्रि.। गच्छति, व्य0001
सत्के, संघाटकान्तरे परग्रामे वा (खंतियाईण) जनन्यादीनाम् ।
(अप्पाहणि ) संदेशं कथयति । यथा सा ते माता अमुकं भ. धरत-त्रि० । ग्रामानुग्रामं गच्छति, “दूरजंता दुविधा, णिका.
णति, स बा ते पिता इदं भणति । रणिगा तहेच कारणिगा। असिवादी कारणमा, बके मूला- संप्रति स्वग्रामपरग्रामविषयां बोकोत्तरे उन्नां दूतीमाहश्या इतरे ॥१॥" वृ०५०
दूश्त्तं खु गरहियं, अप्पाहिउ विश्यपञ्चया नणा। दुइज्जतग-जन्तक-पुं० । मोराकसनिवेशस्थेषु स्वनाम
अविकोविया सुया ते, जा इह इमं जणमु खंतिं ।। ख्यातेषु पास्त्रएिडषु, "तत्थ मोराए दूधम्जंतगा नाम पासमा
कोऽपि साधुः कस्याश्चित् पुत्रिकाया अप्पाहितः संदिष्टः तेसिं तत्थ पावासो।" स्वनामख्याते तेषामधिपतौ, भगवतो
सन् एवं चिन्तयति-दृतीत्वं खलु गर्दितं, सावद्यत्वात्, तत महावीरस्य पितुः सिफार्थकस्य वयस्ये, मित्रेच। प्रा. म० । मौराकसनिवेश प्राप्तस्य (तनिवासी इज्जन्तकानिधानपाव
एवं विचिस्य द्वितीयप्रत्ययाद् द्वितीयसंघाटकसाधुर्मी दूतीएमस्थो दूज्जन्तक वाच्यते) पितुः सिद्धार्थस्य वयस्यो मित्रं
दोषदुष्ट सोदयत्येवमर्थ भरपन्तरेणेदं भणति-यथा अविको
बिदा अकुशला जिनशासने सा तव सुता, या वह दं भणस भगवन्तमभिवाद्य वसतिं दत्तवानिति। प्रा०म० १०
मदीयां खन्ती जननीमिति । साऽध्यवगतार्थसंदेशका द्वितीयसंखरामा मा० चू।
घाटकसाधुचितरक्कणार्थमेवं नणति-धारयिष्यामि तां निजइन्जमाण-धमान-त्रि० । विहरति, चातूनामनकायस्वाल ।
सुतां येन पुनरेवं न संदिशतीति । प्राचा०२ शु०१चू. १.४.।
संप्रति स्वग्रामपरप्रामविषयामुजयपक्कप्रच्छन्नां दूतीमाहघवत्-त्रि० । गति, ०। राका विपा० । का0। प्राचारमा
उत्जए वि य पच्छना, खंत कहेजाहि खंतियाएँ तुमं । दृजित्तय-द्रोतुम्-प्राय० । विदतुमित्यर्थे, स्था• ५ ग० । सं तह संजायं ति य, तहेब अह तं करेज्जासि ।। उ० । “गामाणुगाम जिजत्तए त्ति।" प्रामानुग्रामं दिमितुम। उभयस्मिन्नपि च लोकलोकोत्तररूपे पक्षे प्रच्छन्ना दूती श्य कल्प० ३ अधिक ६ कण ।
यथा (खत त्ति) विभक्तिलोपात खन्तस्य पितुः, अधषा सन्तिबुझपलासय-दृतिपनाशक-न•। वाणिजकग्रामे स्वनामक्याते काया जमन्यास्त्वं कथयन्यथा तद्विदितं विवक्तितं कार्य तथैव चैत्ये, यत्र श्रीमहावीरस्वामी समरसृतः । भ०१० श. ३
संजातम् । अथवा--तद् विवक्तितं तथैव कुर्यात् । उ० । आ० चू०।
संप्रति प्रकट रग्रामदूतीमाश्रित्य दोषान् दृष्टान्तेनोपददई-वृती-स्त्री०। परस्परसंदिष्टार्थकथिका दूती । पि.। हि. र्शयतितीये उत्पादनदोषे, स्था० ३ ग०४ उ०।
गामाण दोएह वेरं, सेज्जायरि बूय तत्य खंतस्स | तीपिण्डो यथा
बदपरियणखंतन-स्थणं च नाए कए जुकं॥ सग्गामे परग्गासे, दुविदा दूई न होइ नायव्वा ।
जामाइपुत्तपतिमा-रणं च केई कहिंति जणवाओ। सा वा सो वा पजणइ, भणई ते छनवयणेण ।।
जामाइपुत्तपइमा-रणं च खंतेण मे सिद्ध । इह ती विषा । तद्यथा-स्वग्रामे,परनामे च। तत्र यस्मिन् प्रा. | विस्तीणों नाम ग्राम,तस्योपकएने गोकुलानिधो ग्रामः,विस्ती. मे साधुबसति तस्मिन्नेव ग्रामे यदि संदेशककथिका,ता सा णेग्राम च धनदत्तो नाम कुटुम्बी,तस्य भार्या प्रियमती,तस्या दुस्वग्रामदूतीया तु परग्रामे गत्वा संदेशं कथयति, सा परग्राम- 1 दिता देवका,सा च तस्मिन्नेव ग्रामे सुन्दरेण परिणीता, तस्याः
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अन्निधानराजेन्द्रः।
दूरालश्य पुत्रो बसियो,दुहिता रेवती। सा च गोकुलग्रामे संगमेन परिणी-दृत्नगसत्ता-दर्भगसवा-स्त्री० । दुर्भगः सखः प्राणी यस्याः ता, प्रियमती स्वाऽऽयुक्तियात् पञ्चत्वमुपगता, धनदत्तोऽपि सं. सा तथा। दुर्जगप्राणिकायां योषिति, ज्ञा० १७०१६अ। सारभयभीतः प्रवज्यामग्रदीव, गुरुभिश्च साई विहरति । ततः कालान्तरे पुनरपि यथाविहारक्रम तत्रैव ग्रामे समागतो निज
भगनिंबोलिया-दर्जगनिम्बालिका-स्त्री० । निम्बगुलिकेब दुहितुर्देवक्या वसतावस्थात् । तदानी च तयोयोरपि ग्रामयोः
निम्बफलमिव अत्यनादेयत्वसाधाद् दुभंगानां मध्ये निपरस्परं वैरं वर्तते स्म। विस्तीर्ण ग्रामवासिना च गोकुञ्जेन गोकुल
म्वगुलिका भगनिम्बगुमिका। दुलंगत्वात्रिम्बगुलिकावदनाग्रामस्योपरि घाटी सूत्रिता,धनदत्तश्च तन्निवारणाय ग्रामे भि- देयायाम, झा० १७० १६ अ०।। काय त्रजितवांस्ततो देषक्या हिव्या शय्यातर्या जषितः यथा दुर्भगनिर्वोलिता-स्त्री० । दुर्भगानां मध्ये निर्वोलिता निमथिहे पितः! त्वं गोकुलग्रामे यास्यसि ततो निजदौडिया रेवत्याः कथय-यथा तब जनन्या संदिष्टम्-अगं ग्रामस्योपरि उन्नधाटया
ता निमनिता दुर्नगगिर्वोलिता। गानां मध्ये निमजितासमागमिष्यति,ततः पकलमपि स्वकीयमेकान्ते स्थापयेरिति ।
याम, झा०१ श्रु० १६ श्रा ततः साधुनापि तस्यै कथितं,तया च निजभर्तुः, तेन च स. दूमग-दावक-त्रि। उपतापके, प्रश्न. ३ आश्रद्वार। कलग्रामस्य कषितम् । ततः सर्वोऽपि प्रामः सन्नकबहकवनो
यण-दवन-म० । उपतापने, प्रश्न०३ आश्रद्वार। भवत, मागतश्च द्वितीयदिने धाटघा विस्तीर्णग्रामो, जातं पर. स्परं महाकम्,तत्र सुन्दरो बलिष्ठश्च धाट्या सह मतो,संगमश्च
धवलन-न० । श्वेतीकरणे, व्य०४ उ०। गोकुल ग्रामे वसति,प्रयोऽपि च युद्ध पञ्चत्वमुपजग्मुः, देवकी च
दुर्मनस-न। त्रि० । दुष्टमनसि, सूत्र०१० २ १०२ उ०। पतिपुत्र जामातमरणमाकर्य विज्ञपितुं प्रावर्तिट,लोकश्च सम्निया. रखाच समागतोवादीत-वदि गोकुल ग्रामो घाटीयागबान्ती ना- | मिन-धवलित-त्रि०। “धबले मः"॥८।४।२४॥ इति झास्यत,ततोऽसन्नद्धो वायोत्स्यत् । तथा बन पत्यादयो घ्रिपत्र- धवलयतेर्यन्तस्य पुमादेशे " स्वराणां स्वरा बहुलम् ।" न् । ततः केन दुरात्मना गोकुलनामो झापितः। पतशोकसब- 1८1। २३०॥ इति दीर्घत्वम । 'दृमि अं।' प्रा०४ पाद । सेचः श्रुत्वा संजातकोपा सैकमवादीत मा अज्ञानस्वा फिना ट्यादिना श्वेतीकृते,ध०३ अधि। कल्प० शानि००। दुहितुः संदिर,ततस्तेन साधुवेषविम्बकेन मस्पतिपुत्रजामात. दूमिया नाम सुकुमारोपेन सुकुमारीकृतकुडया,सेटिकया धवमारकेण पित्रा झापितः। ततः ख खोके स्थाने स्थाने घिद्धारं लम- लीकृतकुड्या वा । वृ०१ उ० । ते,प्रवचनस्य च माघिन्य मुद वादि । सूर्य सुषमा सिंगापश्चा० दमिय-धवलित-त्रि.।' दमिश्र'शब्दार्थ, प्रा०४ पाद । ध० । दा० । दर्श। नि०० । दूलविनाम ! १० १७०। दुईपिंड-दूतीपिएड-पुं० । कासारनाय दूरवं विधत शते
य-दूत-पुं० । श्रन्यष गत्वा राजाऽऽदेशनिवेदके, भ० ७० तृतीपिएकः। द्वितीये उत्पादनासाके, प्राजा. २०१० १
एउ०। प्रौ०। अ०एउ।
दयकम्म-दृतक-न।हितीये उत्पादनादोषे, उत्त०२४१०। जे भिक्खू दईपिंम नुन, मुंजतं वा सास्जद ।। ६०॥
यदा गृहस्थगृहे गुप्तप्रकटसमाचारान् स्वजनाऽऽदीनां कथयिगिहिसदेसग णेति, प्राणेति वा, ज तरिणमित्तं पिमं सभति,
स्वाऽऽहारं गृहाति तदा दृक्षकर्मास्यो द्वितीयो दोषः। उत्त० सो दूतीपिंडो।
२४ अ०। गाहा
दूयपनास-दतपन्नाश-10 | वाणिजकग्रामनगरस्येशानकोणे जे निक दृतिपिम, गेए हेज्ज सगं तु अहव सातिज्ने । । स्वनामख्याते चैत्ये, सपा०१ अ.। सो आणा अणवत्थं, मिच्छत्तविराहणं पाये ॥१३६॥ | दयविज्जा-दूतविद्या-स्त्री० । विद्याभेदे, व्य० १ उ०। अपणा गेएहति, असं वागेरहंत अणुजाणाति, तस्स आणा- -दर-
त्रिविप्रकृष्टे, भ. १श० १ उ० ।
निचू० । भगो दिया दोसा, चउलहुंच पच्चित्तं । (अमेतनपाउस्तु पिएडनियुक्तिपातो गतार्थः)
चरे च। भ० २ ० १ उ०। विप्रकर्षे, का० १६०१०। नि।
अत्यर्थे च । स. । दीर्घकाले, दरवर्तिस्वान्मोके च । । नवरं वितियपदे इमेहि कारणेहि करेज्जा
स्त्र० १ श्रु० २ ० २ ००। असिये प्रोमोयरिर, रायदुहे भए व गेलसे। अछाणरोहए वा, कुज्जा तं चा वि जयणाए ॥१४॥
दूरगइय-दूरगतिक-त्रि: । सौधर्माऽऽदिगतिकेषु, खा० ८ ठा। पूर्ववत् कगठ्या । नि० चू०१३ उ०।
दुरपाय-दूरपात-न० । दूरात्पतने, प्रश्न० ३ श्राश्र0 द्वार। दूण-देशी-हस्तिनि, दे० ना.५ वर्ग ४४ गाथा।
दूरय-दूरग-त्रिः । असमीपवर्तिनि, सूत्र. १ भु.५०२३० । दृव-दूत-पुं० । अन्येषां शात्वा राजाऽऽदेशनिवेदके,ौ०1०। दरसुच्चंत-दूरश्रूपमाण-त्रि० । पूर श्रूयमा कल्प० । ज्ञा० भ०।
द्वार। तविजा-दूतविद्या-स्त्री० । विद्याभेदे, व्य. १० । काचिद | दरालाइय-दरालयिक-त्रि० । दूराक्षयो मोवस्त दूतविद्या भवति, तया च दूतविद्यया यो दून आगच्छति. तस्य विद्यते यस्यति मत्वर्थी यष्ठन दूरालयिका मोकगामिनि,प्राचा दंशस्थानमापते,तेनेतरस्य दंशस्थानमुपशाम्यति । व्य०५उ०।। १७०३ अ. ३००।
६५२
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पा
(१०६) दरातय भनिधानयजन्तः ।
दुसियपंडग रामय-दूरालय-पुं० । मौके, मोक्षमार्गे च । भाचा. १९०३ | दढगालि धोयपोती, सेसपसिका जवे भेदा ।। ६७६ ॥ म०३०।
पहधिहस्त्यास्तरणं हस्तिनः पृष्ठे यदास्तीयंते, सरम इत्यर्थः । दूसर-दूरवत-त्रि० । दूरस्थे, माध०४.।
येचाम्ये प्रास्तरकाऽऽक्षयोऽस्परोमयुक्ता बहुरोमयुक्ता वा तेस
आयतनवन्ति । यमुक्तंनिशीथचूर्णी -"जे य बहा अत्थरगा इचाइदूरुश्ता -दुरारुह्य-श्रव्य. । दुधमारोत्यथै, अपा०२ था।
माणभेदा मउरोमा उम्भूतरोमा वा,ते सम्वे इत्य निवयंतिति।" दूरुहमाणी-दरारोहन्ती-स्त्री. । दुधमारोहन्याम् , 40 | (बडाप्रत्यरग ति) यः किल अष्ट्रोपरिन्यस्यते । तथा कोयविअ०१ उ०।
को रुतपुरितः पटः,बूरुढीति यमुच्यते। ये चान्ये सल्ल्वणरोमाणी दूस-वृष-धा० । दिवा-पर०-भक-अनिट् । बैकल्ये, नाच।। नेपालकम्बलप्रभृतयस्ते सर्वेऽत्रान्तर्भवन्ति । उक्तं च-"जे "रुषाऽऽदीनां दीः" ॥८।४।२३५॥ इति स्वरस्य दीर्घः।
अन्ने पवमाश्भेदा उखणरोमा कंवलगादि ते सव्वे इत्थ निव'दूसा।' प्रा. पाद । दुष्यति । प्रदुषता भइयत् । वाच ।
पंति।"तथा-दृढगालिधौतपोतिका ब्राह्मणानां संबन्धि सदशप
रिधानवस्त्रमित्यर्थः । ये चान्ये द्विसरसूत्रपटीप्रभृतयो दास्ते दृष्य-न० । तन्तुसन्तानसम्नवे, जं० २ वक्त । बने, काo
सर्वेऽत्र निपतन्ति । उक्तं च-"विरलिमाई भूरिभेदा सम्बे ए. १९.१०। उस० । भाचा । श्रा. म.। मि००। प्रा- स्थ निवयंति ति।" (विरसिमावित्ति) दोरियाप्रमुखा, शेषी च चादनबने, मो०। चनजातो, जी०३प्रति०४० चीयां- प्राबारकतबकलक्षणों प्रसिद्धावेव वेदो। तत्र प्रावरकःसनोमका शुकाऽऽदौ च । सूत्र.२ भु० २ ० । प्रब.।।
पटः। स च माणिकामनृतिकः। अन्ये तु प्रावारको वृहत्कम्बलः दूसंतर-दृष्यन्तर-न.1 वखरचितभित्यन्तरे, उत्त० १६०
परियस्थित्याहुः। प्रव.८ द्वार । बृ० । अप्रतिलेखितदृष्यपश्च.
के चैकाशनकम । प्रसवधेऽपि तदेव प्रायश्चित्तम् । जीत। दूसगणि (ए)-दृष्यगणिन्-पुं० । नन्धभ्ययनकर्तुषवाच
दूममा-दुःषपा-स्त्री० ।' दुममा' शब्दाथे, ०६ श०७०। कस्य स्वनामस्याते गुरौ, नं०। दूसण-दूषण-न । दूष-णिच्-न्युट् । कमरे, तं० । रावणस्व
दूसमित-दृष्यमित्र-पु.। पारलिपुत्रे मर्यवंशनाशे सत्यनि
पिक्के स्वनामस्याते राजनि, ती०२० कल्प। मातृबनेवे भ्रातरि च । वाच ।
| दूसरणाम-दुःस्वरनाम-न• । 'दुसरणाम 'शब्दावें, कर्म. दूसपट्टपरिपृय-वृष्यपट्टपरिपूत-न० । वनपढगालितेतं०।।
६ कर्म०। दूसपणग-दृष्यपञ्चक-10 । पत्रपञ्चके दश०।
दूसरयण-दृष्यरत्न-न। प्रधानवस्त्रे, झा०१४.१०। दुविहं च दूसपणगं, समास प्रोतं पि होइ नायब्वं ।
कल्प. औ. अप्पडिलेहिय सं, तुप्पडिलेहं च विमेयं ॥ ७॥ दश दमन-देशी-कुर्भगे, 2. मा०५ वर्मनाथा । १०।
सह-दुस्सह-पुं०।'दुसह 'शम्दार्थ, प्रश्न.१ आश्रद्वार। अप्पमिलेहियदसे, तूली नवहाणय च णायव्वं ।
दमासण-दुःशासन-पुं०। “लुप्तयरवशषसां शषलां दीधः" गंमुवधाणाऽऽनिगिणि, मसूरए चेव पोत्तमए ॥६८॥ ॥ १।४३ ॥ इति प्राकृतलकणवशाकुपरि लुप्त शकारस्य दृष्यं वयं तद् द्विविधम् । अप्रत्युपेक्ष्यं, दुष्प्रत्युपेकं च । तत्र
हास्याः स्वरस्य दीर्घः । 'दूसामणो।' प्रा० १पाद । सन:यत्सर्वथाऽपि न प्रत्युपेक्षितुं शक्यते तदप्रत्युपेक्ष्यम, यच्च स.
मख्याते ज्योधनम्रातरि, बाच०। म्यक न शक्यते प्रत्युपेक्तुिं तद् प्रत्युपेक्ष्यम् । तत्र अप्रत्यु-दसिय-दषित-त्रि०ा दत्तदूषणे, प्राप्तूषणे, अनिशस्ते, मैथुनापेक्षितप्यपञ्चकं यथा-तूलीसुसंस्कृतो रूतभृतोऽकतनाऽऽदिभृ- पवादयुक्ते, पाच । श्री.। तो वा विस्तीणी शयनीयविशेषः । तथा उपधानकं हंसरोमा
दृसियपंग-दुषितपएफक-पुं० । पम्मकभेदे, दृषितपएको दिपूर्णमुच्कीर्षकम् । तथा उपधानकस्योपरि कपोलप्रदेशे या |
द्विविधः-श्रासिता, उपसिक्तश्च । वृ० पवातपाडकोऽपि दीयतेसा गरडोपधानिका, गझमसरिकेत्यर्थः । तथा जानुकू
द्विविधो-वेदोपघाते, उपकरणोपघात च। पैराऽऽदिषु वा दीयते सा प्रालिङ्गिनी। तथा वनकृतं चर्मकृतं
तत्र दूषितं पप तायद्याख्यानयतिबा वृत्तं सतादिपूर्णमासनं मसूरकः । एतानि सर्वाण्यपि पो. तमधानि बनमयानि प्रायेणेति ।
दृसियवेत्रो इसिय, दोसु वि वेएसु सज्जए दूसी। अथ पुष्प्रत्युपकितपञ्चकमाह
मेति सेसवेदो, दोसु व सेविज्जए दूसी ॥ पन्हवि कोयवि पावा-रग तवए तह य दाढगाली य ।।
दृषितो वेदो यस्य स दृषितवेदः, पप दूषित उच्यते। तयोर्या
नपुंसकपुरुषवत्यो, अथवा नपुंसकत्रीवेदयोयः सजयति दुप्पडिलेहिवसे, एयं वीयं नवे पणगं ॥६५॥
प्रसनं करोति, स प्राकृतशल्या दूषी भएयते । यो वा शेषी पहविः, कोचविः, प्राबारका, तवक, तथा रढगानिश्च, एतद् स्त्रं पुरुषवेदी दूषयति निन्दति स दृषी, द्वाज्यां वा-श्रास्यक. दुभत्युपेकितण्याविषयं द्वितीयं पञ्चकं भवेत्।
पोलकान्यां यः सेव्यते, सेवते वा स दूषी। अथैतदेव व्याख्यानयनाह
अस्यैव भेदानाहपम्हवि हत्युत्थरणं, कोयविप्रो रूयपरिओ पमओ। । पासितो कसित्तो, दुविहो दूसी न होइ नायव्यो।
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सियांग
आसितो सावरचो, अपस्यो दोष कसिनो ॥
स दूषी द्विविधो ज्ञातव्यो भवति श्राखितः, उपसितश्च । श्रा पिच्छे मानसारो यस्यात्मज इति भावः । वस्तु पिवरलो, नित्यर्थः उपसिक्त उच्यते । वृ० ४ ० । नि० चू० | पं०जा०श पं०यू० । 1 दूसिया - दूषिका- स्त्री० दूषयति नेत्रं विनं करोति । दूष- णिच्एवुल् । वाच० । नेत्रयोर्मले नि० चू० ३ उ० । स्था० । बूसहल - देशी दुभंग, दे० ना० ५ वर्ग ४३ गाथा । हट्ट देखि ३० ना० वर्ग ४८ गाथा | प०""३८२१७२ ॥
इति गस्य वः । 'बृहचो ।' अल्पभाग्ये, प्रा० १ पाद । दे-दे - अध्य दे संमुखीकरणे । ' | | २ | १६६ ॥ सं
#L
33
-
(१९०७) श्रभिधानराजेन्द्रः ।
मुखीकरणे संख्या ग्रामप्रिय"
66
ताव सुंदरि !, दे श्रपसिअ निश्रससु । " प्रा० २पाद । देर-देवर- पुं० | कगचजतद पयचां०-८१ । १७७ ॥ ६त्यादिना बलुक् । 'देश्ररो ।' प्रा० १ पाद । वाचः । अनु० | देवा दिवसापा ॥ ८ । २ । २७१ ॥ जति सस्वरस्य धारदेवकुले मेवेया वकारस्यान्तर्वर्त्तमानस्य वा लुकू । 'देउन ।' प्रा० २ पाद। देवस्थाने, आ० म० १ ० १ स्वयम | रा० ।
देवनदरसण देवकुलदर्शन २० देवप्रतिमाने, पिंo
देवलिया देवकुलिका स्त्री०
मा
१०
२. प्रक० । देवकुलपरिपाक्षके, न० । ओष० ।
देक्ख दृश-धात्रा० पर० सक० अनिट् । चाक्षुषज्ञाने, वाच० | "शो नियच्छच्०-८४६८१ दिना tearssदेशः । 'देवख ।' प्रा० ४ पाव । पश्यति । प्रदर्शत् । भद्राकीत् । वाच० +
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देज देय ००१२० देविण दवा "विषकः " ||४| - अय० । ५४० || इत्यपभ्रंशे क्त्वाप्रत्ययस्यैपिश्वादेशः । दानं कृरवेत्यर्थे, 'जेप्पि असेसु कसायबलु. देपिषु प्रभव जयस्तु ।' प्रा० ४ पाद । अशेषकषायबलं जित्वा जगतोऽभयं वा । प्रा० ० ४ पाद | देगढ- हतिकार - पुं० | शिवाऽऽचार्यजेये, प्रज्ञा १ पत्र | ० | देर-द्वारमा १७९ ए । 'देरं ।' पक्के - 'आरं । दारं वाएं ।' निर्गमप्रवेशमुखे, प्रा० ९ पाद ।
देसमचर-देलमदचर-धुं सुरावा दुर्गम भयमाचायों ज्योतिर्मिमिताखेषु प्रतिबिद्वानात् ०० देव- पुं० न० | देव पुं० । “गुणादयः क्लीबे वा " || ८ | १ | ३४ ॥ इति वा क्लीवत्वम् | 'देवाणि ।' देवाः । प्रा० १ पाद । दीव्यति निरुपम की कामनुभवन्तीति देवाः नं. | दश० । स्था० । दद्रियन्ति यथेच्छं क्रीडन्तीति देवाः । श्र० म० १ अ० १ खएम । प्र | स्था० | दीव्यन्तिं स्वरूपे इति देवाः । अष्ट० २६०
देव
"
तदेवे पीछेजा से जहा माणुस्सर्ग मर्च, आरिए से पचाया। (पति) क्यूट आये नपदानामन्यतरं मग निवृतस्वजातिजन्म श्रायातियां गति कुलप्रस्थाजाति सुकुल प्रत्यायातिर्वा, तामिति । स्था० ३ ठा० ३ ० । (देवपरितापः ' परिताव ' शब्दे वक्ष्यते )
का
इथे तिहिं ठाणे देवे पदस्सामिति जाणड- विमाणाभरणाई छिप्पभाई पासित्ता, कप्परुक्खगं मित्रायमाणं पा सित्ता, अपणो तेयलेस्सं परिहायमाणं जाणिना । विमानाssभरणानां निष्प्रभत्वमौत्पातिकं, तथ्य दुर्विभ्रमरूपमा (करुकुम, वास, खासक थाइत्यादिनिगमन
भवन्ति
देवानां व्यवनकाले । उक्तं च-"माल्यग्लानिः कल्पवृक्षप्रकम्पः, श्रीहीनाशो वाससांचोपरागः । दैन्यं तन्त्रा कामरागाङ्गभङ्गो,
तिर्वेपथुर १" इति स्था०३०३० दयन्तिकादिधर्मभाजयन्ये ते देखा। स्थान डा० ०" हिंदु" कीमाविजिगीषाव्यवहारतिस्तुतिरिप्रत्यये देव प्रति सिकम् । दश० १ अ० । नवनपत्यादिषु प्रा० म० १ अ० २ खण्ड | अब० । आ० चू० । दर्श० । श्रघ० । पिं० स० । स्था० | द्वा० । प्रा० श्र०। सूत्र० । उत्त० । विशे० । ज्योतिष्कवैमानिकेषु, उस० १६ श्र० । अनुत्तरसुरान्तेषु, औ० ।
देवानामस्तित्वं खाघबन्सप्तमं गणधर मौर्य प्रत्याद भगवायाम्महावीरा
ते पहा सोठं, मोरभो ग्रागच्छा निणसगासं । वच्चामि ण वंदामी, वंदित्ता पज्जुवासाभि ।। १८६४ ॥ जो य निणेशं, जाजरामरणाविध्यमुकेणं । नामे व गोण य, सम्बरण सम्यदरिसी पंणं २०६५। गाथाद्वयमपि प्रकदार्थम् || १८६४ ॥ १८६५ ॥
श्राभाष्य ततः किमुक्तः ? इत्याह
किं मरणे श्रत्थि देवा, जयाहु नत्यित्ति संमयो तुज्छ । अन नागासी तेसियो अयो । २०६१।
आयुष्मन मौर्य ! स्वमेवं मन्यसे किं देवाः सन्ति, न वेति,
उपायु मानोऽसा स्वर्गलोकं गच्छति।" इत्यादि । तथा-"अपाम सोमममृता भूमगमन् ज्योतिराम देवान् कं नूनमद रातिः किमु मूर्त्तिममृतमस्य "हस्यादि । तथा' का जानाति मा बोमा देवान् गोवा विद्रवरुण कुबेर दि
यानामयमस्व की प्रतिभासते यथा स ए यह एक निवारणमत्वादप्रहरणं यस्यासी महायुधी जमानोजसा प्रयुजेन स्थान स्वर्गो मच्छति इति देवताप्रतिपतिः । तथा मपाम-पीतसोमं लतारसम, श्रमृता अमरणधर्माणः अभूम भूताः स्म, अगमन् गताः, ज्योतिः स्वर्गम्, अविदाम देवान्देवत्वं प्राप्ताः स्म किं नमस्मा तृपस्करिष्यति को साविश्वा
न्तः,
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प्रमिधानराजेन्द्रः। ह-भरातिः व्याधिः,तथा किमु प्रश्ने,मूर्ति जराम्, अमृतमयस्ये केचिसिन्ति, अतः कथं तेषां प्रत्यक्षत्वम् । अत्रोत्तरमाहति-कामृतत्वं प्राप्तस्य मय॑स्य, पुरुषस्येत्यर्थः । ममरपर्धामणो तथाऽपि तवासिन प्रालयवासिनः सामथ्याचे सिद्धास्ते देखा मनुष्यस्य किं करिष्यन्ति जराग्याधय इति भावः । अत्रापि देव- इति मता: संमताः। यो धालयः स सवापि तनिवासिना सत्ताप्रतिपतिः। "को जानाति मायोपमान्" इत्यादीनि तु देवा- अधिउितोरा,यथा प्रत्यकोपलभ्यमाना देवदत्ताऽऽद्यधिष्ठिता नावप्रतिपादकानि, मतस्तव संशयः प्रयुक्तश्चायम्। पलो- बसन्त पुराऽऽचासयाः, पालयाश्च ज्योतिकविमानाम्यत प्रामअमीषां वेदपदानामर्थ त्वं न जानासि,चशग्दायुक्ति चनवेस्सि। यत्वान्यथानुपपत्तेय तनिवासिनःसिद्धास्ते देवा इति मताः। एतेषां दि वेदपदानां नायमों, यस्सवाभिप्रेतः, किं त्वयं वन्य माह-ननु कथं ते देवाः सिवन्ति ?, यारशा दि प्रत्यक्केण देवेदमाण लक्षण इति।
साऽऽदयो रश्यन्ते तेऽपि तादृशा एव स्युरिति । तदयुक्तमूनिशिभत्र भाष्यम्
धा हि देघदत्ताधालयेज्यश्चकाद्यालया इत्यतस्तनिवासिनोs. तं मन्नसि नेरड्या, परतंता दुक्खसंपरत्ता य ।
पिविशिक्षाः सिध्यन्ति,तेच देवदत्ताऽऽदिषित कसा देवा इति ।
अपरस्स्वाह-जम्वालयस्वादिस्ययं हेतुस्तनिवासिजनसाधनेन तरंतीहागंतुं, सोया सुव्यमाणा वि ॥१७६७॥
उनैकान्तिकः, शून्याऽऽलयभिचारात् । अत्रोत्तरमाह-(न सच्छंदयारिणो पुण, देवा दिवपनावजुत्ता य।
य निझयेत्यादि) म च निलया प्रालया नित्यमेव शून्या भजं न कयाइ वि दसिण-मुति तो संसो तेसुरन्द वन्ति। अयमाभप्राय:-ये केचिदानयास्ते प्राण, इदानीमेष्यति मौर्य स्वमेवं मन्यसे-नारकाः स्वकृतपापनरकपालाऽऽदिपर
चा कालेऽवश्यमेव तन्निवासिभिरधिष्ठिता पव भवन्ति, न तु तन्त्राः पराधीनवृत्तयोऽतीबदुःखसंघातविलाश्च न शक्नुव
नित्यमेव परिशून्याः । ततो यदा तदा बा चन्द्राऽऽद्यालयनित्यत्राऽऽगन्तुमतः प्रत्यक्तीकरणोपायानावात भूषमाणा अपि
बासिनो देवाः सिध्यन्ति, इति । १८७१।। भद्धया भवन्तु, देवास्तु स्वच्छन्दचारिणो दिव्यप्रभावयुक्तान
पुनरप्यत्र परानिप्रायमाशङ्कय परिहारमादश्च तथाऽपि यस्मात्र कदाचिद्दर्शनपधमतरन्ति, धूयन्ते च | को जाणइ व किमयं, ति होज निस्संसयं विमाणाई। भुतिस्मृत्यादिषु, अतस्तेषु श डेति ॥ १८६७ ॥ १८६० ॥
रयणमयनभोगमना-दिह जह विज्जाहराईणं ।।१७।। . अत्रोत्तरमाह
यदि वा पवंचूता मतिः परस्य भवेद्यदुत-चन्द्राऽद्यालयमा कुरु संसयमेए, मुद्रमणुयाइभिनजाईए ।
स्पेन यज्ञीयते नवमिस्तदिदं को जानाति किश्चिद्भवेत्कि सूर्योपेउसु पञ्चक्खं चिय, चनविहे देवसंघाए ॥१६॥
ऽग्निमयो गोलश्चन्ऽस्त्वम्बुमय: स्वभावतः स्वतः, पाहोस्थि दे. मौर्यपुत्र ! देवेषु मा संशयं कास्त्वम् एतानेव हि सुदूरमस्य- भूता पवते भास्वररत्नमया गोत्रका ज्योतिष्कविमानान्यथै मनुजाऽऽदिभ्यो भिन्नजातीयान् दिव्याजरणाविलेपनवस. तः कथमेतेषामालयवसिकिः। अत्र प्रतिविधानमाह- नि: नसुमनोमा लाऽलस्कृतान् नवनपतिभ्यन्तरज्योतिकवैमानिक. संशयं विमानान्यतानि, रत्नमयत्वे सनि नभोगमनात्. पुष्पसक्कणांश्चतुर्विधदेवसंघातान् मम बन्दनार्थमिदैव समवसरणा. काऽऽदिविद्याधरतपः सिद्धिविमानदिति । अभ्रधिकारपगतान् प्रत्यक्कत एव पश्यति ॥ १८६६।।
बनाऽऽदिध्यवच्छेदार्थ रत्नमयावविशेषणमिति ।। १८७२ ॥ अयुतदर्शनात्पूर्व य प्रासीत्संशयः, स युक्तोऽभवत्।
, अपरमपि पराभिप्राथमाशङ्कय परिहरन्नादनेवम । कुतः१, श्त्याहपुव्वं पि न संदेहो, जुत्तो जं जोइसा सपञ्चक्खं ।
होज मई माएय, तहा बि तकारिणो सुरा जे ते । दीसंति तकया वि य, उवधायानुग्गहा जगओ।१०७०॥ न य मायाइविगारा, पुरं व निचावल जाओ ॥१७॥ यह समवसरणाऽऽआतदेवदर्शनात्पूर्वमपि तवाम्येषां च संश- अथ परस्य मतिवेनते चन्द्राऽऽदिविमानान्यालयाः, किंतु पो न युक्तो, पद्यस्माचन्द्राऽऽदित्याऽऽदिज्योतिटकारस्वया सर्वे. मायय मायाविना केनाऽपि प्रयुक्ता । अत्रोच्यते-मायात्वभगणापि च लोकेन स्वप्रत्यकृत एव सर्वधा रश्यन्ते, श्रतो देश. मीषामसिद्ध, वाङ्मात्रेणव भवताऽभिधानात्तथाऽप्यभ्युपगम्योताप्रत्यकत्वात् कथं समस्तामरास्तित्वशङ्का ? किं च सन्त्येव च्यते, ये तत्कारिणः तथाविधमायाप्रयोक्तारस्ते सुराः सिका देवाः, लोकस्य तस्कृतानुग्रहोपधातदर्शनात् । तथाहि दश्यन्ते एव, मध्याऽऽदीनां तथाविवक्रियकरणादर्शनात्, अन्युपगकचित्केचिस्त्रिदशाः कस्याऽपिकिञ्चिद्विन्नवप्रदानाऽऽदिनाउनुग्र. म्य च मायायममीषामभिहितं, न चैते मायाऽऽदिधिकाराः, नि. इं.तस्प्रहरणाऽऽदिना चोपघातं कुर्वन्तः, ततो राजाऽऽदिवत्कथ- स्योपसम्भात, सर्वेण सर्वदा दृश्यमानत्वादित्यर्थः, प्रमिपाटमेते न सन्तीति ।। १०७० ॥
लिपुत्राऽऽदिपुरयदिति। मायेन्द्रजाल कृतानि दि वस्तूनि न पुनरपि परमाशङ्कच ज्योतिष्कदेवास्तित्वं साधयन्नाद- नित्यमुपलभ्यन्त इति नित्यविशेषणोपादानमिति ।। १०७३ ॥ भालयमेत्तं च मई, पुरं च तवासिणो तह विसिका।
प्रकारान्तरेणा ऽपि देवास्तित्वं साधयन्नाद. जे ते देव त्ति मपा, न य निन्नया निच्चपरिसुम्मा १०७१।
ज नारगा पवना, पगिट्टपावफलभोइपो तेणं । अथैचभूता मतिः परस्य भवेत-मालया एव आलयमानं च
सुबहुगपुष्पफलतुजो, पवत्तियव्या सुरगणा वि।१८५४॥ बादिविमानानि, नतु देवा, सत्कथं ज्योतिषकदेवानां प्रत्य. इह स्वकृतप्रकृष्टपापफलभोगिनस्तावस्कचिन्नारकाः प्रतिपत्तकत्वमभिधीयते । किं तद्यथा ालयमात्रमित्याह-(पुरं ति) व्याः, ते च यदि प्रपन्नाः (तेणं ति) तहि तेनैव प्रकारेण पधा पुरं शुन्यं लोकानामालयमा स्थानमात्र,न तु तत्र लोकाः स्वोपार्जितसुष्टुबहु कपुण्यफलभुजः सुरगणा अपि प्रतिपसव्याः। सन्ति,एवं चलाइदिविमानान्ययालयमात्रमेव, न तु तत्र देवाः । अत्राऽऽह-नान्ववातिपुखितनरास्तियश्चश्वातिदुखिता:प्रकृष्टः
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टव
(१९०७)
अभिधानराजेन्द्रः । पापफलनुजो भविष्यन्ति तथा मनुष्या एवातिसुखिताः प्र. म्भादित्यर्थः। दूरविप्रकृष्टनगराऽऽदिवत् । तथा विद्यामन्त्रोपयाच. कृष्टपुण्यफलनुजो भविष्यन्ति, किमहष्टनारकदेवपरिकल्पन- नेच्या कार्यसिजे,प्रसादफलानुमितराजाऽऽदिवत् । तथा (गहयेति । तदयुक्तम् । प्रकृष्टपापफलजां सर्वप्रकारेणापि दुःखे. विगाराउति),अत्र प्रयोगः-ग्रहाधिष्ठितपुरुषदेहो जीवव्यतिरिन भवितव्यम्, न चातिःखितानामपि नरतिरश्चां सर्वप्रकार तारश्यवस्वाधिष्ठातका,पुरुषासंभाव्यविकारवतकियादर्शनान, दुःख रयते, सुखदपवनाऽऽलोकादिसुखस्य सर्वेषामपि दश- संचरिष्णुयन्त्रव्यतिारक्तमध्यप्रविष्टरश्यमानपुरुषाधिष्ठितयन्त्र.. नात् । प्रकृष्टपुण्यफलनुनामपि सर्वप्रकारेणापि सुखेन भवितव्य- बत् तथा तपोदानाऽऽदिक्रियासमुणर्जितात्कृष्टपुण्यसंभारफामन चेदातिसुखितानामपि नराणां सर्वप्रकारं सुखमवलोक्यते, सद्भावात,उत्कृष्टपापप्राग्जारफलसद्भावनिश्चितनारकवतापतच प्रतिदेहोद्भवस्य रोगजराऽऽदिप्रभवस्य च दुःखस्य तेषाम- प्रागेव भावितम् । तथा देवा इति यदभिधानं ततोऽपि च पि सद्भावात्, तस्मात्प्रकृष्टपापनिबन्धनसर्वप्रकारपुःखवेदिनो
देवानां सिकिः । एतच्चानन्तरगाथायां व्यक्तीकरिष्यते । तथा नारकाः,प्रकृष्षुपयदे तुकसर्वप्रकारसुखभोगिनो देवाश्चाज्युपग
सर्वच ते मागमाश्च सर्वाऽऽगमास्तेष्वविप्रतिपक्ष्या सिरुवाच्च स्तव्या एवेति ॥ १८७४ ॥
सन्ति देवा इति ॥१८७० ॥१८७५ ॥ ननु यदि देवाः सन्ति, तर्हि स्वच्छन्दचारिणोऽपि किमित्य- यदुक्तम्-"अभिहाणसिद्धीउ (१८७६) ति" तद्भावयन्नाइत्रते कदाचिदपि नाऽऽगच्चन्तीत्याह
देव त्ति सत्ययमिदं सुचत्तणो घडानिहाणं व । संकंतदिबपिम्मा, विसयपसत्ताऽममत्तकत्तव्वा ।
अह व मई मा प्रोश्चिय, देवो गुपरिचिसंपन्नो। १०८०। प्रणहीनमणुयकजा,नरभवमसुन्नं न एंति मुरा॥१८७॥
तं न जो तच्चत्थे, सिके बयारो मया सिकी। नाऽऽगच्छन्तीद सदैव सुरगणाः, संक्रान्तदिव्यप्रेमत्वाद्विषयप्र. सक्तस्वात् ,प्रकृष्टरूपाऽऽदिगुणकामिनीप्रसक्तरम्यदेशान्तरगतपु.
तच्चत्यसीहसिके, माणवसीहोवयारो व ॥१८॥ स्ववत् तथाऽसमाप्तकर्तव्यत्वाद, बहुकर्तव्यताप्रसाधननियुक्त
'देवाः' इत्येतत्पदं सार्थक, व्युत्पत्तिमबुद्धपदत्वात्, घटा. विनीतपुरुषवत् । तथा अनधीनं मनुजाना कार्य येषां तेऽनधीन- दिवत् । तत्र दीयन्तीतिदेवाशति व्युत्पत्तिमश्वम, समासतरिमनुजकार्याः, तद्भावस्तवं, तस्मान्नेहाऽगन्ति सुराः, अननि
तरहितत्वेन च शुभत्यम् । भावना चात्र प्रागुक्कैव । अथ परस्य मतगेहाऽऽदौ निःसनयतिवदिति । तथा अशुभत्वाद् नरभवस्य
मतिर्भवेन्ननु मनुष्य एवेह दृश्यमानो देवो भविष्यति,किमाए. तमन्धासहिष्णुतया नेहाऽऽगच्छन्ति देवाः, स्वपरित्यक्तकले.
देवकल्पनया? किं सर्वोऽपि मनुष्यो देव इति । नेत्याह-गुणपरवदिति ॥ १८७५॥
संपन्नो गणधराऽऽदिः, रिद्धिसंपन्नश्चक्रवादिः । अत्रोच्यतेतरिक सर्वथा तेऽत्र नाssगच्चन्ति ?,नैवम्, प्रत एवाss- तदेतत्र यस्मात्तथ्ये मुख्य वस्तुनि कबित्लिके सत्यन्यत्रोपचार
तस्तत्सिद्धिर्मता, यथा मुख्ये यथार्थे सिंहे ऽन्यत्र सिद्ध ततो मानवरि जिणजम्मदिक्खा केवलनिवाणयहनिप्रोगेणं ।
णवके सिंहोपचारः सिध्यति, एवमिहापि यदि मुख्या देवाः जत्तीए सोम्म ! संसय विच्छेयत्यं व एज सुरा ।।१८७६।।
क्वचिस्सिका भवेयुस्तदा राजाऽऽदेवोपचारो युज्यते, नाम्यपुवाणुरागो चा, समयनिबंधा तवोगुणाओ वा ।। थेति ॥ १८०॥ १८०१॥ नरगणपीमाऽग्गह-कंदप्पाईहिँ वा केश ॥ १८७७॥ देवाभावे चाग्निहोत्रक्रियाणां वैफल्यमिति दर्शयन्नाह-- नवरं जिनजन्मदी काकेवलनिर्वाणमहोत्सवनियोगेन तत्कर्त-1 देवाजावे विफलं, जमग्निहोत्ताइयाण किरियाणं । व्यतानियोनेह देवा आगच्छेयुः। तत्र सौम्य! केचिदिन्छाऽऽदयो सग्गीयं जन्माण य, दाणाश्फलं च तदजुत्तं ॥१८॥ निजनकल्या समागच्चन्ति, केचित् तदनुवृश्या, अन्ये संशयव्य. वच्छेदार्थम.अपरेतु पूर्वजविकपुत्रमित्राऽऽद्यनुरागात्,समयनिब
था इत्यथवा,दं दूषणम्-देवानावेऽभ्युपगम्यमाने,यदग्निहो. न्धः प्रतिबोधाऽऽदिनिमित्तः संकेतनिश्चया,तस्माच्च केचिद्देवा इ
त्रादिक्रियाणाम्, “अग्निहोत्रं जुहुयात् स्वर्गकामः" इत्यादिना हाऽऽगच्छन्ति,अन्ये तु महासवसाध्वादितपोगुणसमाकृष्टाः, के
स्वर्गीय फलमुक्त,तथा यज्ञानां च यत्फलमनिहितं,दानाऽऽदिफलं चित् पूर्ववैरिकनरगणपीमार्थम्, अपरे तु पूर्वसुहत्पुत्राऽऽद्यनुग्र.
च यत्समस्तलोकेप्रसिष्म,सत्सर्वमयुकं प्राप्नोति । स्वों घेतेषां हार्थम, केचिद्देवाः कन्दोऽदिनिरिहाऽऽगच्छन्ति । प्रादिशब्दा
फसमुक्त.स्वर्णिणां चाभावे कुतः स्वर्ग इति। "स एष यज्ञायुधी" साध्वादिपरीकाहेतोरिति इष्टव्यमिति। तदेवं निरूपितं देवा.
इत्यादीनि च वेदवाक्यानि देवास्तित्वप्रतिपादनपराणि वर्तन्ते। नामत्राऽऽगमनकारणम, अनागमनकारणं च ॥१८७६॥१८७७॥
अतः किं तान् न प्रतिपद्यसे। यद्यपि "को जानाति मायोपमान
गीर्वाणानिन्जयमवरुणकुवेराऽऽदीन्" इत्यादि वाक्यं, तदपि नं अथ देवसिद्धावन्यदपि कारणमाह
देवानां नास्तित्वाभिधायकं, किन्तु सुराणामपि मायोपमत्वाजाइस्सरकहणायो, कास, पच्चक्खदरिमणाओ य।
भिधानेन शेषसिमुदायानां सुतरामनित्यत्वप्रतिपादकं बोद्धविजापतोवायण-सिघीयो गहविगारामओ ।। १८७०॥ व्यम् । अन्यथा हि देवास्तित्वप्रतिपादकवाक्यानि, श्रुतिमन्त्रपदैजकिटपुतलसंचय-फलभावाप्रोऽनिहाण सिद्धीभो। रिन्काऽऽदीनामाह्वानं चानर्थकं स्यात् ।। १०८॥ सब्वाऽगमसिकाओ, य संति देव त्ति सकेयं ।।१८७।।
पतदेवाऽऽहसन्ति देवा इत्येतत् श्रयमिति प्रतिज्ञा, जातिस्मरणप्रत्याय
जमसोमसुरमुरगुरु-सारजाईणि जयइ जहिं । तपुरुषेण कथनात्, नानादेशविचारिप्रत्ययितपुरुषावलोकितक- मंतावाहणमेव य, इंदाहणं विहा सव्वं ।। १०३॥ थितविचित्रवृहदेवकुलाऽऽदिवस्तुबत्। तथा कस्याऽपि तपःप्रभृ.
यमेत्यादिपूर्सिम्यायमर्थः-सक्थपोमशिप्रभृत्तिक्रतुभिर्य था - तिगुणयुक्तस्य प्रत्यकदर्शन प्रवृत्तेश्र, केनचित्प्रत्यक्षप्रमाणेनोपल ति"यम सोम सूर्य-मुरगुरु-स्वाराज्यामि जति"इत्यादीनि देवा
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(२११०) अभिधामराजेन्द्रः ।
देव
स्तित्वसूचकानि वेदवाक्यानि देवानावे वृथैव स्युः । इट् चोक्थषोडाशप्रभृतयो यज्ञविशेषा मन्तव्याः, स यूपो यक्ष एव हि क्रतुरुच्यते, यूपरहितस्तु दानाऽऽदिक्रियायुक्तो यज्ञ इति । स्वः स्वर्णस्तत्र राज्यानि जयत्युजयतीत्यर्थइति तथा मन्त्रैरिन्द्रादीनामदेव एवोपपद्यते, अन्यथा चैव स्यात् इन्द्रादीनां मन्त्र पदैराह्नानमेवमवगन्तव्यम् -" इन्द्र ! आग मेघातिथे वृषण" इत्यादि । तस्माको बेद वाक्येभ्यश्च सन्ति देवा इवस्थितम्। तदेवं पुस् भगवता संशयः ॥ १८०३॥ विशे० । सूत्र० । स्था० प्रा० म० देवानां स्वरूपं यथाअमितायमादामा, अशिक्सिनपणा य नीरजसरीरा । रंगुले जर्मन पिसंति मुग जियो कहए ।।
सुरा देवाश्चतुर्निकायभाविनोऽपि अम्लानमाख्यदामानः, तथा न विद्यते निमेषो येषां ते, अनिमेषे नयने येषां ते अनिमेषन यनाः, तथा नीरजा निर्मलं शरीरं येषां ते नीरज शरीराः । तुरङ्गलेन चतुर्भिरश्गुलैर्भूमिं न स्पृशन्ति इति जिनः सर्वज्ञः कथयति । व्य० १ ४० ।
देवा दुबिहा पछता से जहा एगसरीरी चेन, विसरी चेन । स्था० २ ० १ ३० ।
देवाचतुधास्त यथा
से किसे देवा ? देवाच चिड़ा पद्याचा व जहा भ वावासी वाणमंत जोइसिया, नेमानिया || (सेकंद) अथ के ने देखा है। दि
.
धाः प्रकृताः। तद्यथा-भवनवासिनो व्यन्तराः, ज्योतिष्काः, वैभानिकाः । प्रज्ञा० १ पद । प्र० स० जी० । उत्त० ।
।
देवानाददेवा चरविदास, ते मे कित सुद्धा । भोमिज वाणमंतर, जोइस बेमागिया तहा ॥ २०३ ॥ देवा निरुकाश्चतुर्विधाश्चतुष्यकारा उक्ताः तीर्थकराऽऽदि भिरिति गम्यते । ' ते ' इति तान् देवान् मे मम कीर्तयतः प्रतिपादयतः शृण्वाकांय शिष्यं प्रतीदमाह । कीर्त्तनं भवन भेदानानभूमी दिवाना भवनानि
स्वादु भवनानाम् | उकं हि "मोसे रयणभाष पुढचीप श्रसी उत्तरजेोयण लय सदस्सबादचार उबार एगं जोयणस इस मेगम्मि जोषसह बजे म म हसरे जीवनसयस हस्से, पत्थ ं भवणवा देवास 'तत्रणकोमीओ बावन्तारं च भवणवाससयसहस्सा हवंती - निमा" वाणमंतर) आद्विविधात युत्कर्षापकर्षाविशेषणनिवासभूतानि वा गिरि कन्दर चित्रऽऽदीनि येषां तेऽमी व्यन्तराः । उक्तं हि " ते
तिर्यग चीनपि लोकान् स्पृशन्तः स्वातन्डयात् परा नियोगाच्च प्रायेण प्रतिपन्न नियत गतिप्रचारा मनुष्यानपि कत्रित तथाविधे चन्द रविवदिषु प्रसन्तरा युध्यन्ते (जीइस चि) द्योतयन्त इति ज्योतींषि विमानानि, तन्निवासित्वा
देव
देवा श्रपि ज्योतींषि, ग्रामः समागत इत्यादौ तन्निवासिजनग्रामवत् । विशेषेण मानयन्त्युपञ्जन्ति सुकृतिन एतानीति विमानानि तेषु भवा वैमानिकाः। तथेति समुचये इति सूत्रार्थः । एषामेवोत्तरमेदामाद
दसदाभवासी, अहा वाणमंतरा पंचविदा जोइसिया, दुविहा बेमाणिया तहा ॥ २०४ ॥ दशा स्थिति दशचैव भासिस ) अपनेषु वस्तु शील मेषामिति भवनवासिनः, अष्टधा अष्टप्रकारा वनेषु विचि त्रोपवनाऽऽदिषूपलक्कणत्वादन्येषु च विविधा ऽऽस्यदेषु कीमैकरसिकतया चरितुं शीलमेषामिति वनचारिणो व्यन्तराः, पञ्चविधाः पञ्चप्रकाराः ( जोइसिय सि ) ज्योतिःषु विमानेषु भवा ज्योतिष्काः ज्योतीध्येय वा ज्योतिष्कार द्विविधा वैमानिकाचेति सूत्रार्थः ।
एतानेव नामग्राहमाह
असुरा नाम सुन्ना, विज्जू अम्मी विप्रादिया । दीनदहिदिसावया चणिया नयवासिणो ॥ २०५ ॥ पिसाय नूय जक्खा य, रक्खमा किन्नरा किंपुरिसा । महोरगाव गंधवा, अडविहा वाणमंतरा ॥ २०६ ॥ चंदा राय नक्खत्ता, गहा तारागणा तहा | दिसाविचारिणो चेत्र पंचा मोइसालया ॥ २०७ ॥ बेमाणिया उ जे देवा, दुविहा ते वियाहिया ।
योगा व बोधव्वा कप्पाईया तव य ॥ २०८ ॥ कप्पोवगा वारसहा, सोहम्मीसाणगा तहा । सकुमारमाहिंद- बंजलोगा य संतगा ॥ २०७ ॥ महासहस्वारा, आळ्या पाळ्या तदा । आरणा अच्चुया चैत्र, इइ कप्पोवगा सुरा ॥ ११० ॥ कप्पाईया उ जे देना, दुबिदा ते विपाहिया ।
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वेज्जाऽणुत्तरा चैत्र, गेवेज्जा नवविहा तहिं ॥ २११ ॥ हिडिमादेष्टिमा बेव देडियामजिकमा तहा हेपिउपरिमा चैव ममादिना तदा ॥ ११२ ॥ मज्जिमामज्जिमा चेत्र, मक्रिमा उवरिमा तहा | उपरिमादिट्टिमा चैत्र, उपरिमापरिजमा तहा ॥२२३॥ उवरिमावरिमा चेव, इइ गेनगा सुरा । विजया जयंता जयंता अपराजिया ॥ २१४ ।। सय्यसिगा चैत्र, पंचहाणुत्तरा मुरा । इ बेमाणिया एए-गहा एवमादओ || २१५ ॥ सूत्राएयेकादश प्रायः प्रतीतान्येव, नवरम् असुरा इत्य सुरकुमाराः । एवं नागाऽऽदिष्वपि कुमारशब्दः संबन्धनीयः । सर्वेऽपि हामी कुमाराऽऽकारधारिण एव । यथोक्तम्- कुमारवदेव कान्तदर्शनाः कुमा सुमधुरखविगतयः शृङ्गाराभिजा तरूपविक्रियाः कुमारवश्च्चोद्धत रूपवेष जापाऽऽमरणप्रहरणवर्णयानवाहनाः कुमारवबोल्ल्वणरागाः श्रीमनपराश्चेत्यतः कुमारा इत्युच्यन्ते । ( तारागणा इति ) प्रकीर्णतारकासमूहाः, दिशासु
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विशेषेण मेरुप्रादकिय नित्य चारितालकोन चरन्ति परिनूमन्तीस्पेश दिशाविचारिणः तद्विमानानि होशमिरेकवि शैयोजनशतैमैराश्चतसृष्वपि दिवबाधया सततमेव प्रदधः पोन्यालया आश्रया येषां ते ज्योतिरालयाः, कल्प्यन्ते इन्द्रसामानिपत्रकार विनश्यन्ते देवापत क देवलोकानुत्पत्तिविषयतया प्राप्नुवन्तीति
(२९८२) अभिधानराजेन्
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कल्पमा कानुरूपानतीतापरिवर्तिस्थानस्पतया ऽतिक्रान्ताः कल्पातीताः । ( सोहम्मीसाग त्ति ) सुधर्मा नाम शक्रस्य सन्ना, साऽस्मिन्नस्तीति सौधर्म्मः कल्पः, स एषामवस्थितिविषयोऽस्तीति सौधर्मिणः । तथा ईशानो नाम द्वितीयदेवलोक, तनिवासिनो देवा अपि ईशानाः स एवेशानकाः । पत्रमुत्तरत्रापि व्युत्पत्तिः कार्या । प्रीवेव प्रांचा लोकपुरु• पस्य यदपरिवर्तिप्रदेश नियाजिन या च तदाभरणभूता ग्रैवेयका देवाऽश्वासाः, तन्निवासिनो दे वा अपि ग्रैवेयकाः । न विद्यन्ते उत्तराः प्रधानाः स्थितिप्रभाबलुखद्युतित्रेश्वादिनिरेज्योऽन्ये देवा इत्यनुत्तराः (हेड्डिम ति भस्मानुपतिनाथमा (देठिम ि अधस्तना श्रधस्तनाधस्तनाः प्रथमत्रिकाधोवर्तिनः, (हेट्टिममज्झिमा तह त्ति ) अधस्तनमध्यमाः प्रथमंत्रिक मध्यवर्तिनः (माउरिमा चेव त्ति ) श्रधस्तनोपरितनाः प्रथमत्रिकोपरिवर्तिनां मध्ये नवा मध्यमा मध्यम त्रिकवर्तिनः तेष्वपि अधस्तनाः । एवं मध्यममध्यमाः मध्यनोपरितना उपरिवर्तिनस्तेष्वधस्तना उपरितनाधस्तनाः । एवं उपरितनमध्यमा उपरितनोपरितनाः । इतिर्भेद समाप्तौ । तत एतावद्भेदा एव मैत्रेयकाः सुराः। अभ्यु दयविघदेतून विजयन्त इति विजयाः, तथैव वैजयन्ताः " उणादयो बहुतम् ॥ ३ । ३ । १ ॥ इति बहुलवचनात् क्तप्रत्यये उपसर्गैकारः । एवं जयन्ताः । अपरैरन्यैरभ्युदयरिजित अनमिना अपराजिताः सर्वे सिका सिद्धा येषां ते सर्वार्थसिकाः, ते हि विजितप्रायकम्मण निद्रा एवं तत्रोपत्तिमाज इतीत्यानि निगमनम | अत्र च वैमानिका इति वैमानिकभेदाः सामान्यविशेषयोः क थञ्चिदनन्यत्वात् एवमादय इति । आदिशब्दस्य प्रकारवचनत्वादेवंप्रकारा इत्येकादशसूत्रार्थः ।
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लोगस्स एस परिकित्तिया । तो कालविभागं तु
संत पप्प खाईया, अफ्ज्जनसिया विय । पिमुच्च साईया, साबसिया बिय ।। २१७ ॥ क्षेत्रकालानिया विसूत्रद्वयं प्रात् खादिपर्ववयिभाव नार्थम् ।
॥ २१६ ॥
साहियं सागरं एक उफोसेट नवे । नोमेज्जाणं जहणं, दस वाससहस्सिया ॥ २१० ॥ पक्षिओमेगं तु, कोसे लिई भये । अंतराणं होणं, दस वाससस्सिया ।। २१ ।। पलिमे तु वासवखेण साहियं । पविभागो, जोइसेसु जहलिया || २२० ॥ दो चैव सागरा, उक्कोसेणं वियाहिया ।
देवं
सोम्य जणं एकं च पलिओनमं ॥ २२२ ॥ सागरा साहिया दोनि, कोमे विपादिया । ईसायम्पि जणं, साहियं पलिओवर्म ।। २२२ ।। सागराणि ससेहो लिई जये । सकुमारे जद मेणं, दोषियो सागरोवमा ।। १२३ ।। साहिया सागरासत, कोई भ मादिम्पि जहमें, साहिया पुनि सागरा ॥ २२४ ॥ इस पे सागराई, कोमेणं डिई जवे ।
जलोए जहां सतओ सागरोत्रमा ॥ २२५ ॥ चन्दस सागराई, उक्कोसेणं विई भने । लंवगम्मि जहोणं, दसओ सागरोनमा ।। २२६ ।। सत्तरस मागराई, उकोई नये । महाके चोदस सागरोवमा ।। २२७ ॥
अहारस सागराई, उक्कोसेणं ठिई जवे । सहस्वारे होणं, सत्तरस सागरोत्रमा ॥ २२० ॥ सागराऊ वीसेतु उको लिई भने । आयम्पि, अहारस मागरोपमा ॥ २२५ ॥ बीसं तु सागराई, नकोसे विई जवे । पाम्यि नहुने, सागरा प्राणी सई ॥ २२० ॥ सागरा एकवीसं तु, उक्कोसेणं विई जवे । आरणम्मि जो बीसई सागरोवमा ।। २३१ ॥ यात्रीमा भागराई उको नई नवे
"
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अच्चुम्मिन सागरा इकचीसई ।। २३२ ।। तेवीस सागराई, जक्कोसेणं निई जवे ।
पदमम्मि जो वापीसं मागशेत्रमा ॥ २३३ ॥ चवीस सागराई, छक्कोसेणं
।
तेवीस सागरोवमा ।। २३४ ।। पीस मागराई, उसे लिई जये। तइयम्पि जहोणं, चडवीसं सागरोवमा ।। २३५ ॥ छब्बीस सागराई, कोण लिई जये । उत्यपि जणं, सागरा पानी यई । २३६ ॥ सागरा सत्तावीसं तु, उक्कोसेणं विई जवे । पंचमपि जनसागरोपमा ॥ २३७ ॥ सागरा अव उकोसेणं ठिई जवे । तु बम्म जम्ने, सागरा सतवीसई || २३८ ।। सागराणीतु उसे डिई भने । सत्तमपि जपेणं, सागरा बीसई ॥ २३९ ॥ तीसं तु सागराई, उक्कोसेणं टिई जवे । अमम्मि जहणं, सागरा अतशतीसई ॥ २४० ॥ सागरा इकतीसं तु, नक्कोसेण त्रियाहिया | नरमम्मिश्रेणं, तीसई सागरोवमा ।। २४१ ||
,
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( २६१२ ) अभिधानराजेन्द्रः ।
देव
"
बत्तीस सागरा, कोसेणं वियाहिया । चमुं वि विजमाईस, जहा इकतीसई ॥ २४२ ॥ अनएमको तेली सागरोनमा । महाविमा सम्म दिई एसा बियाहिया ॥ २४२ ॥ जा चैव य आरवि, देवाणं तु वियाहिया । सासिकावि, जामुकोसिया जवे ।। २४४ ॥ सप्तशति प्रायोगिक साहि ति) प्राकृतत्वात् साधिकम् । ( सागरं इति ) सागरोपममेकम, बरटेन स्थितिमेषति । भीमेाभनवासि नाम् श्यं च सामान्यावयुक्तरनिकायाधिपस्य बलेवा गन्तव्या । दक्षिणनिकाये स्त्रिन्द्रस्यापि सागरोपममेव । उक्तं हि"चमरं सागरमयिंति" जघन्येनमाणमस्या दशवर्षसहस्रिका । इयमपि सामान्योक्तावपि कि त्रियाणामेव स्थान देवेषु सदैव द्वासादिस्तु
त्रापि भावनीयम् । तथा पल्योपमबंबलक्काधिकमिति । ज्योतिषामुपस्थिस्य भिधानम्, चन्द्राक्रम्. सुर्यस्य तु वर्षसहस्रा धिकं पल्योपममायुः । ग्रहाणामपि तदेव नातिरिक्तं, नक्षत्राणां तस्यैवार्ज, तारकाणां चतुर्भागः तथा पत्थोपमाष्टभागो ज्यो तिःषु जघन्या स्थितिरित्यपि तारकापेकमेव । शेषाणां पल्योपमचतुर्थ जागस्यैव जघन्यस्थितित्वात् । यत उक्तम् चतुभांगः शेषाणामिति । इह च सर्वत्र उक्तरूपयोरुत्कृष्टजघन्य - स्थित्योरपान्तरालवर्त्तिनो मध्यमा स्थितिरिति रुष्टव्यं तथा प्रथम इति प्रकमा प्रवेयके तप द्वितीयाऽऽदि ध्यपि प्रेवेयकमितिसंबन्धयम् अविद्यमानं जयमिति जयस्यत्वमस्यामित्यजघन्या तथा विद्यमान कृत्यमस्यामित्यनुत्कृष्टा, अजघन्या चासावनुत्कृष्टा च जघस्यानुकुष्टा । मकारो लाकणिकः । महश्च तदायुः स्थित्याथपेका विमानं च महाविमानं तश्च तत् । सर्वे निरवशेषा - मानत्वादथ अनुतरसुखाऽऽदयो यक्तित् व व महाविमानं सर्वार्थ सर्वषाः स्थितप्र क्रमाद्देवानां तथा प्रायुःस्थितिरेव कापस्थितित्वाने नन्तरमनुत्पत्तिरेवेत्यभिप्राय इति सप्तविंशतिसूत्रार्थः । अन्तरविधानानिचायि च सूत्रद्वयं पूर्ववद्वाक्येयम् ।
तालमुकोर्स तो जहएणयं । जिम्मिएका देवा हो अंतरं ॥ २४५ ॥ एएसि तो चैत्र, गंध रसफास । संठाणदेसतो या वि, वाणाई सहस्सो ॥ २४६ ॥ सूत्र प्रायद्वचाक्यम् ।
त्यं जीवनजीव सविस्तरमुपदश्यं निगमयितुमाहसंसारत्या व सिकाय, जीवा विवाहिया । रूणि चेपचीय, अजीवा दुविधा विप ॥२४७॥ संसारस्याश्च सिमाच इतीत्येवंप्रकारा जीवा व्याख्याता वि शेषेण सकलदाऽऽयवाच्या प्रकथिताः । रूपषाधव (रूबी य (च) कारवादकपिषश्चाजीचा द्विविधा अपि व्याख्याता इति योग इति सूत्रार्थः । जीवाजीवकमनस इति तत्र जीवाजी
त्रिभिचायकमनसइतिवचनात्
दानमात्रेणैव कृतान्त नयनोदार्थमादइइ जीवमजी प मोचा सहिऊण य । सन्वनया अमए, रमेज्जा संजमे मुली ॥ २४८ ॥ इतीत्येवंप्रकारान् ( जीवमजीव त्ति ) जीवाजीवानेताननन्तरोक्तान् श्रुत्वा श्रवधार्य श्रद्धाय च तथेति प्रतिपद्य सर्वे च ते नया सर्वनाशानान्तर्गत नैगमाऽऽदय सेवामनुमनोऽभिप्रेतस्तस्मिन् कोथे सहित सम्पाि रूपे रमेत रति कुर्यात् कम्पनं पृथिव्यादि स्कायोपादाना उपरणं त स्मिन् मुनिरुकरूप इति सूत्रार्थः । उत्त० ३६ भ० । पशुविधा देवास्तद्यथा
कइविहाएं जंते देवा ! पाता ? | पंचात्रिहा देवा पत्ता । तं जहाजविपदव्यदेवा, नरदेवा, पम्पदेवा, देवाधिदेवा, भावदेवा |
देव
(कविदा पनित्यादि
कुर्वन्ति
वा स्तूयन्ते श्राराध्यतया ते देवाः ( जवियदत्रदेव ति ) - व्यभूता देवा देवाः, अग्यता चाप्राधान्यादू भूलभावत्वाद्वा, भाविमावत्या तापापान्यादेगा देवा देवान यथा साध्याभासा खव्यसाधवः । भूतभावपक्षे तु नूतस्य दे वत्व पर्यायस्य प्रपन्नकारण मात्र देवत्वाच्च्युता अन्यदेवाः । भा विनायकेतुमाविनो देवत्व पर्यायस्य योग्या देवतयो त्यमाना श्यदेवाः । तत्र भाविभावपक्ष परिग्रहार्थमाह-भव्यादेवा देवताssदिना देवा धर्मप्रधाना वा देवा धर्मदेवाः ( देवादेव ति ) देवान् शेषानतिक्रान्ताः पारमार्थिकदेवत्वयोगाद्देवा देवाविदेवाः देवादिदेव शि" ते तत्र देवानाम पिका पारमार्थिकदेगा देवाधिदेवाः नादेव सि ) नावेन देवगत्यादिकर्मोदय जातपर्यायेण देवा जावदेवाः । विकद्रव्यदेवा यथा
से केद्वेगं जंते ! एवं बुवइ-जवियदव्यदेवा भवियददेवा ? | गोया ! जे नवियपंचिदियतिरिक्खजोगिए वा मस्से वा देवेषु वज्जित्तए, से तेणद्वे गोयमा ! एवं बुच्च भविषदन्यदेवा ।
4.
(नविय इत्यादि) रह जानावेकवचन बहुवचनार्थ वाक्येयं तत ये मध्या योग्य प्रतियोनिका या मनुष्या या देवते यस्मादेवावा इति गम्यम् । अथार्थेन तेन कारणेन गतम! तान् प्रत्ये
देवा इति ।
से केणद्वेणं भंते ! एवं बुच्चइ-नरदेवा नरदेवा । गोयना ! जे इमे पाणो चातरंत चवही उप्पयम्मत करण पहला एपिपिणो समिद्धकोसा बत्ती रायवरस - इस्सा पाना सागरवरमेयाद्दिपविशो मधुसिदा से ते जाव नरदेवा | (जेइमेवादि (चारताया मर
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देव -
साथिया पते स्यामि इति चातुरताच वर्तनशी सत्वाच्त्र चक्रवर्त्तिनः, ततः कर्म्मधारयः । चतुरन्तग्रहणेन च वासुदेवादीनां व्युदासः, ते यस्मादिति वाक्यशेषः । (उप्पासमत्तचक्करयणप्पाणत्ति ) श्रार्थत्वानिर्देशस्य, उत्पन्नं समस्तरत्नप्रधानं चक्रं येषां ते तथा । ( सागरवर मेहला हिवद्दणो त्ति ) सागर एव वरा मेखला काबी यस्याः सागरवर मेख
पृथ्वी, तस्या अधिपतयो मे ते तथा सागरमेखलान्तपृथि व्यधिपतय इति भावः । ( से लेग ठेणं ति ) श्रथ तेनार्थेन तेन कारणेन गौतम ! तान् प्रत्वेदमुच्यते नरदेवा इति ।
मेण हे जंते ! एवं बुच्च धम्मदेवा धम्मदेवा । गोवमा ! जे इमे अणगारा जगवंतो इरिवासमिया० जान गुप्तवं जयारी से तेज जान पम्पदेना ||
( जे इमे प्रत्यादि ) वे इमे नज्ञानदर्शनधरा इत्यादि । सान् प्रति गौतम!
( जे इमे इत्यादि ) य इमे ऽनगारा भगवन्तस्ते यस्मादिति । सेकेणणं नंते ! एवं बुचड़ - देवाधिदेवा देवाधिदेवा ? | गोया ! जे इमे अरहंता भगवंतो उप्पलादंसणधरा० जात्र सव्यदरिसी, सेण्डेणं ० जाव देवाधिदेवा देवाधिदेवा ॥ आई तो जगवन्तस्ते बस्मात्प( से तेथां ति ) अथ तेनार्थन देवाधिदेवा देवाधिदेव इति । से केराडे जेते एवं वृथावदेवा जयदेवा । गोमाजे इथे माणमंतर जोइ सिक्नेमानिया देवा देवगमगोसाई कम्पाई वेदेति, से तेाट्टें० जाव जावदेवा भावदेषा |
(जे हमे इत्यादि) मे दस्ते यस्य गति गोकर्मी प्रत्ये देवा जावदेवा इति । भ० १२ २०६० भन्देवाऽऽः कुत उत्पद्यन्ते इति उबवाय ' शब्दे द्वितीयभागे ७६८ पृष्ठे समुकम् ) (विधानां 'लोगंटिव ' शब्दे सूत्रपदम् ) चवीमा देवेभिरा बानोइस बेमाणि
शब्देवयते तेनुप
भावे २०५४)
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(२६) अनिधानराजेन्द्रः ।
पंचगविहा अ चलवीसं देवा के गुण विति अरिहंता ||३०|| आत्र० ४ ० ० ० । प्रश्न० । मानाद''
6
-
अविश्
ज्ञानं
विभंग' शब्दे वयते) (पुरन्दराऽऽदिदेवानां लोकानि 'लोग' शब्दे प्रदर्शयिष्यन्ते) (देवानां जराभावाजाव वक्तव्यता 'जरा ' शब्देऽस्मिन्नेव भागे १४२५ पृष्ठे या ) शुक्रसहस्रारयोश्चतुर्हस्तदेवाः, अन्यत्र त्वन्यथा । बत श्राह" भवणवण जोइसोह-मसाणे सत्त होति यओ । एक्केकहाणि सेसे, दुडुगे य दुगे चउक्के य ॥ १ ॥
दुनिय एका रवनी अतरसुरे ॥" इति भवधारणं । वाम्येवमुत्तराणि संभवति, उ स्टेनैव जघन्यतस्त्वङ्गुला संख्येयभाग प्रमाणान्युत्पत्तिका - नवारणवानि किया गय नागप्रमाणानीति । स्था० ४ ' आहार' शब्दे द्वितीयभागे ५००
० ४ उ० । ( देवानामाहारः पृष्ठे गतः) (देवानां शब्द
६५४
देव
श्रवणं 'सह' शब्दे वक्ष्यते ) ( देवडुर्गतिः 'दुग्गड' शब्देऽस्मि नेव भागे २५५४ पृष्ठे द्रष्टव्या ) ( सदेवी कानाम देवीकानां देवामां परिवार परियार शब्दे पते ) ( देवानामाशातना
सायणा' शब्दे द्वितीयागे ४७८ पृष्ठे द्रष्टव्या ) ( देवानां धार्मिकत्वसिद्धिः 'वैश्य' शब्दे तृतीयभागे १२२४ पृष्ठे गला ) ( देवानामुद्वेगः 'वेग' शब्दे द्वितीयभागे १११३ पृष्ठे प्रतिपादितः स्तूयते केर्विभवपरम्परोप तीर्थकुशःमकमदयतो नमविपाधिकसुरमा धिपतिनिरिति देवाः । दर्श० १ तत्र । ज्ञानाऽऽदिप्रकृष्टगुणवति देवनातिशायिनि जिनादि देव दर्श
चडतीस बस, अमहापामिरेकयसोटो। असदोसरहिओ, सो देवो नत्यि संदेहो ।। ६ ।। तसकलातिशाधिमर्यानिधानभूत सर्वेश्वनि वेदनपरभुवनजननयनानन्दविधायकानन्यजन साधारण चतु-स्त्रिंशदतिशयैर्युतः समन्वितो यः स देव इति प्रकृतम् । अष्टमदाप्रातिहार्यैरशोकाऽऽदिभिः कृता विहिता शोभा यस्य सोऽपि देः दोहाना हिमी रहित विवर्जितः स देवः। अयमत्र जावार्थ:- यो हि देवो वा खेचरो वा वैक्रियाऽऽदिलब्धिमसरोवा इत्थं तस्फीतिमानपि वद्यष्टाददोषरहितो न न वति न स देवइति नात्र संशयः संदेड इति गाथाऽर्थः । दर्श०१ तस्य । अकस्पिक गणवरस्य पितरि धा० म० १ ०२ खण्ड । श्रा० चू० । प्रविष्यति चतुर्विंशतितमे जिने, ति० । “घाविसमोडजीवो देवो । " तो० २० कल्प | राजनि Mo म० १ २० २ खण्ड । स्वनामख्याते द्वीपे प्रज्ञा० १५ पद | "देवे खामं द वे बलवाऽऽकार संविते । " सू० प्र० १० पाहु० । स्वनामख्याते पे, समुझे व प्रज्ञा० १५ पद | सन्मान्ये, अनु० । श्राराध्यतमे च । पञ्चा० १ विव० । केचन प्रचुरकर्मतथा सत्यामपि सम्यक्त्वाऽऽदिकायां सामथ्र्यां न तद्भव एव मोमास्कन्दन्ति, अपि तु सौघम्मीऽऽद्याः पञ्चोत्तर विमानाव साना देवा भवन्तीति सूत्र० १ ० १५ अ० । स्था० ॥ श्र० । मेघाऽऽदीन स्थितान् देवदेवं वदेत् ।
सहेव मेई व नई व मा न देव देव सिगर वजा | समुट्टिए उन्नए वा पए, वएज्ज वा बुडवलाहय ति ।। ५२ ।।
तथैत्र मेघं वा नज्ञो वा मानत्रं वाऽऽश्रित्य नो देवदेव इति गिरंबदेवमेतदेव इति नो देव - वं नभ आकाशं मानवं राजानं वा देवमिति नो वदेत्, मिथ्यादावा कथं तबिदित्वाद-उष्ट्रा स्वमुत्थित उनतो या पयोद इति देश वृ बलाहक इति सूत्रार्थः । दश०७ श्र० । ( देवानां परितापकारणानि "प रिताय" शब्दे वच्यन्ते)
1
देव न० "वस्त्र देवे ॥ १॥ १५३॥ इति देव
श्रइश्च वा । "दिवं देवं दश्व्वं दश्वं । " प्रा० १ पाद पूर्वकृते कर्म्मणि, पो० ७ विष० ।
1
देवा णं जेते संजयाइ यच लिया ! गोषमा ! रोइट्टे सम अब्जकखाणमेयं देवागणं । देवा णं जंते !
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(१६४) प्रनिघानराजेन्द्रः।
देवकिदिवस असंजयाइ वत्तव्यं सिया। गोयमाणोइणडे गमढे णि- देक्कन्ज-देवकार्य-२० । देवकृत्ये, नि०१ श्रु. ३ वर्ग ३ अ०। हरवयणमेयं देवाणं । देवाणं ते ! संजयासंजयाइ बत्तव्यं तथा चाह-"तं नाणं तं च विन्नाण, तं कलासु पकासलं । सिया ? । गोयमा ! छो इपढे समटे असम्ज़यमेयं देवा
सा बुडी पोरिस तं च, देवकरजेण ज वर ॥१॥" इति । छ । से किं खाईणं भंते ! देवाइ वत्तव्य सिया । गोप
ध०२ अधि०। मा ! देवाणं नोसंजयाइ वत्तवं सिया।
देवकम्म( ण् )-देवकर्मन्-न । देवक्रियायाम, स्था०५ वा.
२००। (देवा णमित्यादि) (से किं स्वाइणं भंते ! देवास ध.
देवकार्मण-न० । देवश्च कार्मणं च । तथाविधव्यसंयोगे, सब सिय त्ति) "से" इति अथार्थः । किमिति प्रश्नार्थः (स्वाति) पुनरर्थःण वाक्यालङ्कारार्थः। (देवास त्ति) य.
| स्था० ५ ठा. २०० बस्तु तद्वक्तव्यं स्यादिति । (नोसंजया वत्तब्वं लियत्ति) देवकलिया-देवोत्कनिफा-स्त्री०। देवानां वातस्येवोत्कक्षिका नोसंयता इत्येताक्तव्यं स्पात् । असंयतशब्दपर्यायत्वेऽपि नो- देवोत्कनिका । देवलहरी, स्था० ४ ० ३ उ० । तत्समवाय. संयतशब्दस्यानिट्रवचनत्वाद् मृतशब्दापेकया परलोकीभूत परिशेषे च । स्था० ३ ग०१ उ० । जी। शब्दवदिति । भ.५ श०४०।
देवकहकहय-देवकहकहक-पुं० । देवानां प्रमोदभरवशतः स्व. देवई-देवकी-स्त्री० । कृष्णास्थ वासुदेवस्य मातरि, स० । गवचनोलः कोलाहलो देखकहकहकः । देवकोलाहले, प्रा. का प्राव । ति । सा च जम्बूद्वीपे भारते वर्षे श्रा- जी०३ प्रति०५०। आचाo। देवप्रमोद कलकले. स्था०४ गमिष्यन्त्यामुत्सपियां मुनिसुवतो नाम एकादशमो जि- म. ३०रा०। (अयं कुत्र भवति इति " लोगुज्जोय" नो भविष्यति । सा“ पारसमो देव जीवो मुणिसुब्बा | शन्दे वयते) ओ" ती १६ कल्प । प्रव।
देवकाम-देवकाम-पुं० । देवसंबन्धिविषये, उत्त० ७.। देवउत्त-देवोप्त-त्रि० । देवेनोप्तो देवोप्तः । देवनिष्पादिते, सू.
देवकिब्धिस-देवकिल्विप-पुं० । देवकिल्विषभावनाजनिते देवत्र० १ श्रु० १ ० ३ उ० ।
नेदे, स्था०४ 10 ४ उ०। देवगुप्त-देवराक्षते, सूत्र० १ ० १ ० ३ ०।
कइविहाणं भंते ! देवकिमिसिया पयत्ता । गोयमा! देवपुत्र-पुं० । देवस्य पुत्रो देवपुत्रः । देवसुते, सूत्र० १ ०
तिविहा देवकिब्धिसिया पपत्ता । तं जहा-तिपलियोवमट्टि. ११. ३ उ०।
ईया, तिसागरोवमट्टिईया, तेरससागरोवमट्टिईया । कहिणं देवनुत्तबाइ (ण)-देवोप्तवादिन्-पुं० । देवेनोप्तो देवोप्तः, कर्षके
भंते ! तिपलिअोवमधिईया देवकिबिसिया परिवसंति ?। णेव वीजवपन कृत्वा निष्पादितोऽयं झोक श्त्येवंवादिनि प
गोयमा ! उपि जोइसियाणं हिडिं सोहम्मीसासु कप्पेम। रतीथिंके, सूत्र० १६० १ ० ३ उ०।
एत्य णं तिपनिग्रोवमट्टिईया देवकिधिनिया पारिवसति । इदमन्नं तु अन्नाणं, इहमेगेसि आहियं ।
कहि भंते ! तिसागरोवमट्टिईया देवकिबिसिया परिदेवनुत्ते अयं लोए, ....."
वसति । गोयमा! । उप्पिं सोहम्मीसाणाणं कप्पा दमिति वक्ष्यमाणं, तुशब्दः पूर्वेच्यो विशेषणार्थः । अ.|
हिहि सपं कुभारमाहिंदेसु कप्पेमु, एत्य णं तिसागरोवपाहि. कानमिति मोहविज़म्भमिहास्मिन् लोके एकेषां न सबै
ईया देवकिब्विासया परिवसंति । कहि णं भंते ! तेरससापामारपातमजिप्रायः । किं पुनस्तदाख्यातमिति तदाह-देवे. नेप्तो देवोप्तः कर्षकेणेव बीजपवनं कृत्वा निष्पादितोऽयं लो.
गरोवमट्टिईया देवकिब्धिसिया परिवति । गोयमा ! क इत्यर्थः । देवैर्वा गुप्ता रक्तितो देवगुप्तो, देवपुत्रो वेत्या | उप्पिं बननोगस्त कप्पस्न हिटिं संतए कप्पे, एत्य गं दिकमनानमिति । सूत्र० १ श्रु० १ ० ३ उ० ।
तेरमसागरोवमट्टिईया देवकिनिसिया परिवति । देवकिदेवनपक-देशी-पक्कपुष्पे, दे. ना.५ वर्ग ४६ गाथा ।
बिसिया एं भंते ! केसु कम्मावाणेसु देवकिब्धिसियत्ता. देवउल-देवकुल-देवस्थाने, प्रा०म० १०६ खराम । प्रा० । ए उपउत्तारो नवंति ? । गोयमा जे इमे पायरियपमिदेवे-दातम्-प्रत्य० । “तुम एवमणाणहमणहिं च" ।।४।। पीया ज्झायपरिणीया कुलपमिणी या गणपमिणी॥ इति तुम पवादेशे 'देव ।' दान कर्तुमित्यर्थे, प्रा० | या संघपमिागीया आयरियउबकायाणं अयसकरा अव
एकरा अकित्तिकरा बहूहिं असम्नायुनावणादि मिदेवंधगार-देवान्धकार-पुं० । देवानामप्यऽन्धकारोऽसौ तच.
च्छत्ताजिनिवेसेहि य अप्पाणं वा ३ बुग्गाहेमाणावुप्पाएरीरप्रभाया अपि तत्राप्रभावनादिति देवान्धकारः । तिमिर
माया बहूहि वासाई सामामपरियागं पाउणंति, पाउणंकाये, स्था० ४ ग.२० । देवानामपि तत्रौद्योताभा.
तित्ता तस्स गणस्स प्रणालोइयपमिकता कालमासे चेनान्धकारनावात् । ज०६ श०५०। (अयं कुत्र भवतीति 'लोगुज्जोय' शब्दे यक्ष्यते)
कालं किचा पायरेसु देवकिनिसिएम देवेसु देवकिब्धि
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(२६१५) देवफिदिवस अभिधानराजेन्दः ।
देवकिन्विसियत्त सियत्ताए उबनतारो भवति, तं चेव तिपलिओवमहिईएसु चनहि गोहिं जीत्रा देवकिव्यिसियाए कम्म पवा,तिसागरोवमहिईएसु वा,तेरसमागरोवमट्टिईएसु वा । दे. गरेंति । तं जहा--अरहताणं अवएणं वयमाणे, वकिबिसिया णं भंते ! ताओ देवलोगाओ आन- अरहंतपएणतस्स धम्मस्स अवएणं वयमाणे, पायरियउक्खएणं जवखएणं विश्खपणं अतरं चयं चइत्ता वज्कायाणमवएणं क्यमाणे वा, चानव्यवस्स संघस्स अकहिं गच्छंति, कहिं उवज्जति। गोयमा ! जाब वरणं वयमाणे। चत्तारि पंच परइयतिरिक्खजोषियमणुस्सदेवनवम्गहपाई अवर्णोऽश्लाघाउसहोपोद्भावनमित्यर्थः । अयमर्थोऽन्यत्रैवमुसंसारं अणुपरियट्टित्ता तो पच्छा सिझति, चुकं
च्यते-" णाणस्स केवलीण, धम्मायरियाण सम्बसाहूर्ण ।
माई अवनवाई, किग्विसियं भावणं कुणा ॥१॥" इति । श्ह ति. जाव अंतं करेंति, अत्येगइया अगाइयं अगवदग्गं
कन्दर्पनाचना मोक्ता, चतु:स्थानकवादित्यवसरश्चायमस्या दोहमद्धं चानरंतमंसारकंतारं अणुपरियति । भ० एश.
इति सा प्रदर्यते-“कंदप्पे कुक्कुश्प, दवसीले याषि दा३३ उ०।
सणकरे य । विम्हावितो य सपरं, कंदप्पं भावणं कुणा ॥१॥" किविधिका देवास्त्रिधा । तद्यथा
इति । कन्दर्पः कन्दर्पकथावान्, कुकुचितो भएमचेष्टो वशीलो तिबिहा देवा किदिवसिया पनत्ता। तं जहा-निपनियोव- दर्पतगमनभाषणाऽऽदिः, हासनकरो वेषरचनादिना खपरमट्टिईया, तिसागरोवमट्टिईया, तेरससागरोवमट्टिया।क
दासोत्पादको, विस्मापक इन्जानी । स्था०४ ठा० ४००। हि नेते ! तिपलिअोवमट्टिईया देवा किचिसिया परि- तबतेणे वयतेणे, रूवतेणे अ जे नरे। वसंत । उगि जोइसिपाणं हिडिं सोहम्मीसाणेसु कप्पेस,ए- आयारभावतेणे अ, कुबई देवकिब्बिसं ॥४६॥ स्य ण तिपलि ग्रोवमट्टिईया देवा किञ्चिसिया परिवति । तपस्तेनो वागस्तनो रूपस्तनस्तु यो नरः कश्चित्,प्राचारनाकाह एंवे! तिसागरोवमछिईया देवा किन्चिसिया परिवसं.
वस्तेनइच पालयन्नपि क्रियां तथाभावदोषात्, किस्विषं करो
ति । किल्बिषिकं कर्म निवर्तयतीत्यर्थः। तपस्तेनो नाम क्षपकति?। उप्पि सोहम्मीसाणाणं कप्पाणं हेडिं सणकुमारमाहि-|
रूपकतुल्यः कश्चित्केनचित पृष्टस्त्वमसौ क्षपक इति।स पूजादकप्येसु, एत्य गं तिसायरोवमट्टिईया देवा किदिवसिया
ऽऽद्यर्थमाह-अहना अथवा वक्ति-साधव एव कपका, तूणी परिवति । कहिणं ते ! तेरस सागरोवमडिया देवकि- वाऽऽस्ते। एवं वास्तेनो धर्मकथिकाऽऽदितुल्परूपः कश्चित्केनचिसिया परिवसति। उप्पिं बंजनोयस्स कप्पस्स हिडिंसं- चित्पृध इति । एवं रूपस्तेनो राजपुत्राऽऽदितुम्परूपः । एवमाचारतगे कप्पे, एत्थ पं तेरससागरोवमहिया देवकिबिसिया |
मतेनो विशिष्टाचारवत्तुल्यरूप इति । भावस्तेनस्तु परोस्प्रेक्वितं
कश्चित् किश्चित् श्रुस्वा स्वयमनुत्प्रेक्कितमा मयैतत्प्रपञ्चन परिवसंति ॥
चर्चितमित्पादेति सत्रार्थः।। "तिधिहा" इत्यादि स्फुटम्, केवट (किग्विसिय त्ति)"भाणस्स केवलोणं, धम्माऽऽयरियस्स संघसारण । माई अवनवाई,
लकूण वि देवत्तं, जबवन्नो देवकिविसे । किदिवसियं भावणं कुग॥१॥" इति। एवंविधं भावनोपातं
तत्वावि से न याणाइ, किं मे किया इमं फलं ॥४७॥ किल्विषं पापमुदये विद्यते येषां ते किल्विषिका देवानां म- सध्वाऽपि देवत्वं तथाविधक्रियापालनबसेन उपपन्नो देवकिधो किल्विपिकाः पापा। अयवा देवाश्च ते किल्विाधिकारचे- ल्विधे देवकिल्विषिकाये इति, तत्राप्यसो न जानात्यविगुलाबति देवकिल्विषिकाः, मनुष्येषु चण्डाला श्वास्पृाः । स्था० धिर्ना, कि मम कृत्वा इदं फ किल्विाषकदेवत्वमिति सूत्रार्थः । ३ ठा०४ 101
अत्रैव दोषान्तरमाह-- देवकिदिवासिया-देवकिविषिकी-स्त्री।देवानां मध्ये किस्विषाः
ततो वि से चइत्ता णं, लन्जिही एलमूअयं । पापाः, अत एवाऽस्पृश्याऽऽदिधर्माणइचाण्मालप्राया,तेषामिय
नरगं तिरक्खजोणिं वा, बोही जत्थ सुलहा ॥४॥ देवकिल्बिषिकी। संविधुभावनानेदे,वृ०१ उ० । प्रव० । दशः।
ततोऽपि देवलोकादसौ च्युष्या लप्स्यते पलमूकतामजअथ दैवकिल्बिषिकी विभावयिषुराह
जापानुकारित्वं मानुषत्वे, तथा नरकं तियग्योनि वा पारम्पनाणस्स केवलीणं, धम्मायरियाण सव्यसाहणं ।
येवलप्स्यते,बोधिर्यत्र सुदुभा सकलसंपन्निबन्धना यत्र जि. माई अवन्नवाई, किविलियं नावणं कुणइ ॥
नधर्मप्राप्तिदुराया । इह च प्रामास्येलम्कतामिति वाच्ये ज्ञानस्य केवग्निनां धर्माऽऽचार्याणां सर्वसाधूनामेतेरामवर्ण
असकृद्भवप्राप्तिख्यापनाय लप्स्यत इति नविष्यकासनिर्देश वादी, तथा मायो स्वशक्तिगूहनान्मायावान्, एष किल्विषि
इति सूत्रार्थः। कां जायनां करीतीति नियुक्तिगाथासमासार्थः । वृ०१3०।
प्रकृतमुपसंहरातिदेवकिब्धिसियत्त-देवकिधिषिकत्व-ना देवानां मध्ये किलिव
एयं च दोसं दहणं, नायपुत्तेण भासियं । पश्चाएमालप्रायोडत एवास्पृश्याऽऽदिधम्मको, देवश्वासौ कि
अणुमायं पि मेहावी, मायामोसं विवज्जए ॥ ४ ॥ ल्विपश्चेति वा देवफिल्तिषः, तस्य भावस्तत्ता। किस्विषिक- पतंच दोषमनन्तरोदितं सत्यपि श्रामण्ये किस्विषिकस्बा देवत्वे, स्था.४०४०
| दिप्राप्तिकम हाऽऽगमतः सातपुत्रेण भमत्रता पर्वमानेन भा
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(२९६) देवकिदिवसियत अनिधानराजेन्छः।
देवबंद्ग पितमुक्तम् अणुमात्रमपि स्तोकमात्रमपि, किमुत प्रनूतं, मेधा- | देवकुरुमहनुमावास-देवकुरुमहाद्वमावास-पुं० । भावासभेदे, बी मर्यादावर्ती, माया मृषावादमनन्तरादितं वर्जयेत्परित्यजेत्।। "दो देवकुरुमहाद्रुमावासा।" स्था०३० ३००। इति सूत्रार्थः । दश० ५.२ उ०।
| देवकरुय-देवकुरुज-पुं० । अकर्मनूमिकमनुष्यानेदे, अनु० । देवकिनिसीया-दैवकिहिचषिकी-स्त्री० । देवकिब्विसिगा'
"पंचदि देवकुरुपदि।" प्रका० १५६ । शब्दार्थे, बृ०१उ०।
देवकुक्ष-देवकुल-न० । सशिखरे देवत्रासादे, प्रश्न १आश्र. देवकुमार-देवकुमार-पुं० । देवबालक, रा । तं । स्त्रियांडो
द्वार । बौ० । अनु0 । आमा । पू। देषमासिकायाम, रा०।
देवकुलिय-देवकुनिक-पुं० । देवस्थाननियुक्त देवपूजके, प्रा. देवकुर-देवकुरु-पुं० । जम्बूमन्दरपर्वतस्व दक्विणस्थे स्त्रना- भ राडा मख्याते देशषि शेषे, स्था०२.३ १० । जं.। जम्बूद्वीपे देवकनिया-देवकृलिका-स्त्री.देहाम्, सेन । जिनमन्दिरे द्वीपे दशसु केत्रेषु स्वनामख्याते ऽन्यतमे केबे, स्था.१.गा।
भ्रमत्यो देहरी इस्यपरपर्याचा देवकुखिकानयोविंशतिश्चमन्दरपर्वतस्य दक्षिणस्यां दिशि देवकुरुषु देशेषु स्वनामख्याते
तुविशतियों कार्या इति प्रश्शे, उत्तरम्-मूलनायकात्पृथक हदेन । स्था०५ ठा० २१० । जम्बूद्वीपे ही षत्सु न.
चतुर्विंशतिदेवकुनिकाः क्रियन्ते इत्यत्रस्या सूत्रधारा बदकर्मनूमिषु स्वनामख्यातायामन्यतमायां भूमौ, स्था.६.। तीति । २०३३०। सेन. खा। प्रव०। रतिकरपर्वते उत्तरस्थायामीशानस्य देवराजस रा- देवगड-देवगति-स्त्री० । देवेषु गतिर्यस्थासो देषगतिः, देवत्वमरक्दिताया अग्रमदिष्याः स्वनामख्यातायां राजधाम्यां च।
प्रसाधिका चा मतिषगतिः । स्था.५.३०ादीव्यस्त्री स्था०४ ठाउ० । जी० ।ती। जमीप सौमन
तीति देवाः नाकिना, तेषां गतिर्गम्यमानरवाद देवगतिः, से बकस्कारपर्वतस्थे स्वनामख्याते चतुर्थे कुटे, स्था० ७
| मामकम्मोदयसंपाखो देवत्वकरणः पयायविशेषो ति दे. म. । जम्बूद्वीपे हीपे विद्युत्प्रभवस्कारबर्वतश्थे स्वनाम
चगतिः । गतिभेदे, स्था...। उत्त । मा ख्याते तृतीये कूटे, स्था• 10 जम्बूद्वीपे द्वीपे मेरुपर्वतस्य
देवगाय-देवगत-नईदाभिते, दर्श• १ तव । दक्षिणपश्चिमायां दिशि सिद्धाऽऽयतनविदयुत्तमकृष्टयोईक्षिणपश्चिमस्थे स्वनामख्याते कूटे बान। ०४ वक्षस्था । देवगुण-देवगुण -पुं० । योतरागत्वाऽऽदौ,पो.५ विव०। "दो देवकुरायो।" स्था.२ ० १ उ.।
देवगुत्त-दे. गुप्त-० । नामख्याते सप्तमे प्राणपरिमाजके, कहिणं भंते ! महाविदेहे वासे देवकुरा णामं कुरा पाण
औ० । स्वनामन्याते भविध्यत्सु चतुर्विशतितिर्थकरेवन्यतमे
तीर्थकरे, ति। ता। गोयमा ! मंदरस्स पचयस्स दाहिणेणं णिसहस्स गावचंद्र-देवचन-पुं० ।दीपचन्द्रपारकशिष्ये खनामख्याते. सहरपवयस्स नत्तरण विज्जुप्पहस्स वखारपस्यस्स पु- ऽष्टकग्रन्थटीकाकर्तरि, आर० । रछिमेणं सोमासस्स बक्खारपव्ययस्स पचरिछमेयं - "सच्कृिष्येण सुबोध थै, देवचन्द्रेण धीमता। स्थ णं महाविदेहे वासे देव कुरा णामं कुरा पासा, पाई- बाख्याता सुगमा शुक्रा, दीकेय तयोधिनी ॥ ११॥" पापमीणायया उदीणदाहिणवित्थिमा इकारस जो प्रह
"श्रीस्थाद्वादरहस्यानां, ज्ञानात् लब्धोदयेन च।
देवचन्द्रेण बोधार्थ,सटीकेयं विनिर्मिता॥२७॥"अष्ट ३२ अष्टका सहस्साई अक य वायाने जोअसर दुधि श्रण- बृहत्केत्रसमासवृत्तिकारकस्य सिद्धसरोः प्रशिप्ये ककसूरेः वीसइनाए जोपास्स विक्वंनेणं जहा उत्तरकुरार बत्त- शिष्ये,अयमाचार्यः विक्रमसंवत् ११६५ मिते वर्तमान आसीत्। बयान जार अणुसज्जमाणा पम्हगंधा मिवनंधा अपमा द्वितीयो देवचन्द्रसूति:श्रीहेमचन्द्रसूरेः शिष्यः शान्तिनाथचरि.
प्रस्थानाङ्गवृत्तिग्रन्थयोः कर्ताऽऽसीत् । तृतीयः प्रधुम्नसूरिशसहा तेयमूली सणिचारी॥
ज्यो मानदेवसरिपूर्णचन्मसूरिणोर्गुरु, स स विक्रमसंवत् (कहिणं भंते ! इत्यादि)क भदस्त! महाविहेब देव-] १२६२ मिते वर्तमान प्रासीत् ।। कुरवो नाम कुरवः प्राप्ताः । गौतम ! मन्दरगिरेर्दक्षिणतो मिष देवचंदगणि-देवचन्छगणिन-पुं० । सटीकाकस्तुतेः कत्तेरि भारुत्तरतो विद्युत्प्रभव कस्काराने भूतकोणस्थगजदम्तको
गणिनि, स च विक्रमसंवत् १६४८ मिते विद्यमान आसीत् । गिरिः पर्वतः सौमनसवतस्काराः पश्चिमायाम् अत्रान्तरे दे. | जै० ३०। चकुरवो नाम कुरवः प्रज्ञताः । शेष प्राग्वत् । इमाइकोत्तरकु- रूणां यमलजातका श्वेति । तदतिदेशमाह-यथोत्तरकुरूप
चात्तरकु: | देवचितग-देवचिन्तक-पुं० । राज्ञां शुभाशुभचिन्तके, या वक्तव्यता। कियदूरमित्याह-यावदनुसज्जन्तः संतानेनानव. समानाः, सन्तीति वर्तमाननिर्देशः कक्षनयेऽप्येतेषां सत्ताप्रति.
देवचेइय-देवचैत्य-न० । जिनप्रतिमायाम्, दशा. १००। पादनार्थः। के ते इत्याह-पद्मगन्धा, मृगगन्धा, अममा,सहाः,
देवचण-देवार्चन-न० । देवपूजायाम, "देवगुणपरिज्ञाना-त. तेजलिना, शनैश्चारिणः । पठे मनुष्यजातिभेदाः । एतदेव द्भावानुगतमुत्तमं विधिना । स्यादादराऽऽदियुक्तं, यत्तदेवार्चने व्याख्यानं प्राक् सुषमावर्णनतो केयम् । जं.४ वक्षः।
चेष्टम् ॥" षो०५ विवः। दवकुरुमहदम-देवकरुमहाद्रम-पुंगमनेदे, "दो देवRAEE.देवनंदग-देवच्छन्दक-पुं० । देवाऽऽसने,जी• ३ प्रति•४०। मा"स्था. ग. ३ उ ।
। रा. मा. म.
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(२६७) देवजस भनिघानराजेन्डः।
देवदत्त देवजस-देवयशस-पुं० । भगवतोऽरिष्टनेमिनः शिध्ये स्वनाम- देवहिपत्त-देवक्षिप्राप्त-पुं० । देवरिविकुर्भणासमर्थेषु, कल्प. ख्यातेऽनगारे, प्रा० म० १ ० २ खण्ड । श्रा० चू। १ अाध०६ कण। देवजाण-देवयान-न । देववाहने, पञ्चा०२ विव०।
देवष्ठिवपण-देवर्दिवर्णन-न० । देवानामृविज्ञतिरूपाऽऽदिदेवजाणी-देवयानी-स्त्री० । शुक्रस्य महाग्रहस्य हितरि, ती० | सकणायाः प्रकाशने, ध०। यथा तत्रोत्तमा रूपसंपत्, सस्थि२७ कल्प।
तिप्रभावसुखातिलेश्यायोगो, विछोन्द्रियावधित्वलक्षणः, प्र
कृष्टानि भोगसाधनानि दिव्या विमाननिवह इत्यादि वक्ष्यमाणदेवजिए-देवजिन-पुं०। भारते वर्षे स्वनामयाते द्वाविंशतित.
मेव,तथा सुकुलाऽऽगमनोक्तिरिति । देवस्थानात च्युतावीप बि. में भविष्यति जिने, प्रव०७ द्वार।
शिष्टे देशे विशिष्टे कासे निष्कलकेऽन्वये उदग्रे सदाचारेणादेवजुइ-देवद्युति-स्त्री०। शरीराऽभरणाऽऽवीनां दीहियोगे, नि० ख्यायिकापुरुपयुक्ते अनेकमनोरथावपूरकमत्यन्तनिरवद्यं जन्मे१७० ३ वर्ग ४ अ. । रा०।
त्यादिवदयमाण लकणैव, तथा कल्याणपरम्पराऽऽख्यानमिति । देवज्जग-देवार्जक-पुं० । देवश्रेष्ठ, प्रा.म. १०२ सापम ।
ततः सुकुला उगमनादुत्तरं कल्याणपरम्परायास्तत्र सुन्दरं
रूपम, श्रालयो लक्षणानां, रहितमामयनेत्यादिरूपाया अश्रेष देवाण-देवस्थान-नादेवभेदे, "चवीसं देवट्ठाणा ।" धर्मफलाध्याये बढ्यमाणाया पाण्यानं निवेदनं कार्यमिति । चतुर्विशतिर्देवस्थानानि देवनेदाः दश मवनपतीनाम, अष्टौ | ध०१. अधिक। ज्यस्तराणां पञ्च ज्योतिष्काणाम, पकं कल्पोपप वैमानिका-समनिताsaar
देवदिवायग-देवद्धिवाचक-पुं० । स्वनामख्याते भाचाये, य. नाम् । एवं चतुर्विशतिः । स० २४ सम० ।
दाहुचर्द्धिवाचकवराः । कर्म० ५ कर्म । देवहिड-देवस्थिति-स्त्री.। देवमर्यादायाम, स्था० ।
देवणागसार-देवनागसूरि-पुं० । कर्मस्तवटीकाकृतो गोवि. चउब्धिहा देवाणं विई पत्ता। तं जहा-देवे णामंगे,
न्दगणिनो गुरौ, जै० ३० । देवसिणाए णामेगे, देवपुरोहिए पामेगे, देवपजसणे
देवणिकाय-देवनिकाय-पुं० । देवसमानधर्मप्राणिसके, स्था। पामेगे। ध्यानाद्देवत्वमपि स्यादतो देवस्थितिसूत्रम, स्थितिः क्रमो
नव देवनिकाया पामत्ता । तं जहामर्यादा, राजाऽमात्याऽऽदिमनुष्यस्थितियत, देवः सामान्यो,
" सारस्सय माइचा, वएही वरुणा य गद्दतोया य । मामेति बाक्यालङ्कारे । एकः कश्चित्, स्नातकः प्रधानो देव तुसिता अव्यावाहा, अग्गिच्चा चेन रिहा य ॥१॥" एव, देवानां वा स्नातक इति विग्रहः । एवमुत्सरत्रापि, नवरं
सारस्वता भादित्या बह्रयो वरुणा गई तोयास्तुषिता अपुरोहितः शान्तिकर्मकारी । (एजवणे ति) प्रज्वलयति दीए
व्याबाधा आग्नेया पते कृष्णराज्यन्तरेष्वष्टासु परिवसान्त, रियति वर्णवादकरणेन मागधवदिति प्रज्वलित इति । स्था० ४ एस्तु कृष्णराजिमध्यभागवर्तिनि रिष्टाभे विमानप्रस्तटे परि०१ उ० !
वसतीति । स्था० ६ ० । सूत्र । देवमहमुहक-देवदुदुहक-न० । देवदुह हेत्येवं शब्दप्रतिपाद. | देवतम-देवतमस-न। तमाकायदे, स्था०४०२००। ने, जी०३ प्रति०४०रा०।
देवता-देवत्व-म० । देवभावे, स्था० ४ ०४ उ०। देवति-देवर्द्धि-स्त्री० । विमानरत्नाऽऽदिसंपदि, स्था० ३ वा.
देवतानववण-देवतापवन-न० । व्यन्तरकानने, पञ्चा० ७ ३ उ० । परिवाराऽऽदि सम्पदि च । नि० १ श्रु० ३ वर्ग ४ अ० । बन्धदशानां स्वनामख्याने तृतीयेऽध्ययने, स्था• १० वा ।
विव० । ('इ' शब्द द्वितीय नागे ५८२ पृष्ठे वक्तव्यता गता) देवतिग-देवत्रिक-न० । देवगतिदेवानुपूर्वीदेवाऽऽयूरूपे, पं० देवगिणिखमासमण-देवर्षिगणिक्षमाश्रमण-पुं० । स्वनाम- सं० ५ द्वार। स्याते बालम्या वाचनायाः कारके प्राचार्य, जै०३०। अयमाचार्यः | देवती-देवकी-स्त्री० । कृष्णस्य वासुदेवस्य मातरि, अन्त० ३ चीरमाक्वात् ए८० मिते विक्रमसंवत् ५१० मिते विद्यमान आ- वर्ग.८०। सीत्। अनेन वलभीपूरे सर्व आगमः पुस्तकाऽऽरूढोकारि। पत.
देवयुइ-देवस्तुति-स्त्री.।“ समासे वा" ||२॥१७॥शेत्ममये एक पूर्व व्युच्छेदाऽवशिष्टमासीत्। जै०३०1"सुत्तत्थरयण
। षाऽऽदेशयोः समासे वा द्वित्वमिति वैकल्पिक थस्य द्वित्वम् । नरिए, स्वमदममवगुणेहि संपन्ने । देवखिमासमणे, कासव. गुत्ते पणिवयामि ॥ १४॥" कल्प० २ अधि०८ कण । श्रीक
'देवधु । देवपुई।' देवस्तबे, प्रा०२ पाद । ल्पसूत्रं धीमहावीरादनु नवशताशीतिवर्षातिक्रमे देवर्किगणिक. देवदत्त-देवदत्त-पुंगा देवा एनं देयासुरिति देवदत्तः। देवैर्दत्ते, माश्रमलिपितया पुस्तकाऽऽरुढं चके। ततः पुराऽन्यत्कि- | पिं०। “जावंति देवदत्ता, गिहीच अंगिही व तेसि दाहामि।" मपि पुस्तकमभून्न वेति प्रश्ने, उत्तरम्-सर्वोऽपि सिद्धान्तो । (अत्र देवदत्तपदस्य बहवोऽर्थाः 'प्राधाकम्म' शब्दे द्वितीयभामे देवर्किगणितमाश्रमणनवशताशीतिवोतिक्रमे पुस्तकाऽऽरूढः २२४ पुष्ठे प्रतिपादिताः) उत्तरमथुरावास्तव्ये स्वनामस्याते बणिकृतः, ततः पुराऽन्यपुस्तकानि बहन्यभूवनिति । २३ प्र०।। जि.दशे०४ तव । ती० । धातकीखगमभरते हरिषेणस्य राज्ञः सेन०४ उल्ला
समुदत्तायां जार्याया-जावे स्वनामख्याते पुत्रे, उत्त० ।
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(२६१८) देवदत्त प्रन्निधानराजेन्छः।
देवदत्ता ०(तत्कथा 'मि' शब्देऽस्मिन्नेव भागे १८०० पृष्ठे प्र- |
मोक्खहिं पंचहिं देवीसरहिं सकिं नरिपजाव वितिपादिता) देवदत्ता-देवदत्ता-स्त्री० । चम्पायां नगर्या स्वनामख्यातायां
हर । तए णं से महासेणे राया अमाया कयाइ कागणिकायाम् , दश० ३ ० । ती० । ज्ञा० । (तत्कथा
लधम्मुणा० णीहरणं राया जाए महया व तए णं से 'दक्खत्त'शब्दे अस्मिन्नेव भागे २४४० पृष्ठे द्रष्टव्या) बीत- सीहोघे राया सामाए देवीए मुछिए । अवमेसाओ भयनगरे लदायमनपतेमंहिष्याः प्रजावत्याः स्वनामख्यातायां
देवीओ पो आढाइ पो परिजाणाइ, अणाडाइमाणे चेट्याम, प्रा० म० ११० २ खराम । श्रा० क०। प्रश्न ।
अपरिजाणमाणे विहर । तए णं तासिं एगण गाणं पंचविपाकश्रुतस्य स्वनामण्याते नवमेऽभययने, स्था० । तत्र किल सुप्रतिष्ठे नगरे सिंहसेनो राजा इयामाभिधानदेव्या
एहं देवीमयानं एकृष्णा पंच माईसयाई इमीसे कहाए लमनुरक्तः,तवचनादेवैकोनानि पञ्च शतानि देवीनां तां मिमार- | दहाई समाणीयाए, एवं खलु सीइसेणे राया सामाए देयिषूणि ज्ञात्वा कुपिता सन् तन्मातृणामेकोनपञ्चशतान्युपनिमः वीए मुच्छिए ४, अम्हं धूया प्रो णो आढाइ, णो परिन्य महत्यगारे ग्रावासं दवा भक्ताऽऽदिभिः सम्पृश्य विश्रब्धानि
जाणइ, तं सेयं खलु अम्हं सामादेवि अग्गिपोगेण वा सदेवीकानि सपरिवाराणि सर्वतो द्वारबन्धनपूर्वकमग्निप्रदानेन दग्धवांस्ततोऽसौ राजा मृत्वा षष्ठयां पृथिव्यां च गत्वा रोहित.
विसप्पओगेण वा सत्यप्पओगेण वा जीवियानो ववरोवि. के नगरे दत्तसार्थवाहस्य ऽदिता देवदत्ताऽभिधानाऽभवत्।सा तए,एवं संपेहेइ संपेहेइत्ता सामादेवीए अंतराणि य बिदाच पुष्पनम्दिना राज्ञा परिणीता,स्वमातुर्नक्तिपरतया तस्कृत्यानि णि य विरहाणिय परिजागरमाणीओ विहरंति। तए सा कुर्वन्नासामास तया च जोगविनकारिणीति तन्मातुल लोह
सामादेवी इमसे कहाए लछट्ठा समाणे एवं बयासीदएमस्यापानप्रक्षेपात्सहसा दाहनवधो व्यधायि राज्ञा चासौ वि. विधविमम्बनाभिर्विमध्य विनाशितेति विपाकश्रुते देवदत्ताऽ.
एवं खलु मम पंचएहं सवतीसयाई; इमीसे कहाए बच्ढे भिधानं नवममिति । स्था० १० ठा० ।
समाणे अमममम एवं बयासी-एवं खलु सीहसेणे राया० एवं खलु जंबू ! तेणं कालेणं तेणं समरणं रो- जाव पमिजागरमाणीओ विहरंति, तं ण णजति णं मम हीढए पाामं जयरे होत्या रिक० २, पुढवीवडिं
केण कुमरपोणं मारेस्सति त्ति कहनीया जेणेव कोवघरे सए नजाणे, धरणे जवखे, वेसमणदत्तोराया, सिरी देवी, तेणेव उवागच्छइ, अोहयजाव किया। तए णं से सीहपूमणंदी कुमारे जुराया, रोहीमए णयरे दत्तणामं गा
सेणे राया इमीसे कहाए बछडे समाणे जेणेव कोवघरए हावई परिवसइ अ,कएह सिरी नारिया । तस्स णं दत्त
जेणेव सामादेवी तेणेव उवागच्छद उवागच्चइत्ता सामादेवि स्स धूया कएहसिरीए अत्तया देवदत्ता णामं दारिया हो
ओहयजाव पासइ,पासइत्ता एवं बयासी-किं णं तुम देवात्या,अहीनाव उकिसरीरा । तेणं कालेणं तेणं समए.
लुपिया! ओहय जाच कियाइ । तए सामादेवी सीहमेसामी समोसढे जाव परिक्षा णिग्गया । तेणं कालेणं
गणं रस्मा एवं वुत्ता समाणी उप्फेपा उप्फेणियं सीहसेणराय तेणं समएणं जेट्टे अंतेवासी छद्रुखमण तहेव० जाव राय- एवं बयासी-एवं खलु सामी! ममं एकृष्णं पंच सवत्तीसया। मग्गं प्रोगाहे हत्यी प्रासे पुरिसे पास, तेसिं पुरिसाणं इं,पंच सबत्तीसया इमीसे कहाए बचट्ठए सवधयाए अ. मज्गयं पासइ एगं शत्यियं अवनमगध उक्खित्तक- हम सद्दावेद,सहावेइत्ता एवं वयासी-एवं खत्रु मी हसेणे राया क्षणासं० जाव मूलभिज्जमाणं पासइ, इमे अनात्थए । सामादेवीए मुछिए । अम्हं धूयाओ णो आढाइ० जाव तहेव शिगए० जाव एवं बयासी-एसि | नंते ! इत्थिया |
अंतराणि य निहाणि यजाव पमिजागरमापीओ विहरति, पुबनने का प्रासी । एवं खलु गोयमा! तेणं कालेणं तेणं
तं ण णज्जदणं ममं केणइ कुमरणेणं मारिस्सइ नि कद्द समएणं हेव जंबूदीवे दीवे भारहे वासे मुपतिढे पाण
भीया ४ झियामि । तए णं से सीहसेणे राया सापादेवि यरे होत्था रिफ.०३,महासेणे राया,तस्स णं महासेणस्त एवं बयासी-मा णं तुमं देवाणुप्पिया ! ओहय० जाव किरमो धारणीपामोक्खं देवीसहस्सं ओरोहे यावि होत्या । त. याहि ति, अहं णं तहा वत्तिहामि, जहा णं तव त्यि कतो स्स णं महामेणस्स पुत्ते धारिणीए देवीए अत्तए सीहसे- वि सरीरस्स आवाहे वा पवाहे वा नविस्सइ त्ति कह णे काम कुमारे होत्या अहीण जुवराया,तएणं तस्स सीह
ताहिं हाहि समासासेति, तो पडिणिक्खम, पमि. सेणस्म कुमारस्स अम्मापियरो अम्पया कयाई पंच पा
णिक्खमइत्ता को मुंबियपुरिसे सद्दावेइ, सहावेत्ता एवं बयासायवमिसयाई करे अनुवगए। नए णं तस्स सीहसेण
सी-गच्छह णं तुब्ने देवाणुप्पिया! सुपइडियस्स नयरस्स स्स कुमारस्स अप्पया कया सामापामोक्खाध पंचएह बहिया एगं महं कृडागारसामं करेह,अणेगखजपासाईयं०४ रायवरकामगसयाचं एगदिवसेणं पाणि गिएहावई, पंचस- करेह, करेहत्ता मम एयमाण त्तियं पञ्चप्पिणह । तर ण ते य उदाओ । तए णं मीहोणम कुमारस्त सामापा- कोमुवियरिसा करयल० जाव पमिसुरणेइ, पमिमुपेत्ता
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(२६१५) निधान राजेन्द्रः ।
देवदत्ता
देवदत्ता
सुपडियस रस्म बहिया पच्चच्छि दिसिभाए एगं रिया एणया क्या एहाया० जाव विभूसिया बहूहिं खु महं कृमागारसा जाव करे, अणेगखंभपासाइया जेव जाहिं० जाव परिक्खित । उप्पि आगासतलगंसि कलगसीइसेणे राया तेक्षेत्र उबागच्छ, नवागच्छत्ता तमा- तिंदूसरणं कीलमाणी विहर। इमं च णं वेसमणदत्ते ग़एत्तियं पञ्चपिण्ड़ । तए एं से सीहसेणे राया अाया या हाया जाब विचूसिए श्रासं दुरूह, बहूहिं पुरिसेहि काइ एगूगगाणं पंचएहं देवीसयाणं एगुप्पाई पंच संपरिवुडे सवाहणियाए णिज्जायमाणे दत्तस्स गाहावमाईसयाई आमंते । तए णं तासि एगुणं पंचएहं इस्स गिहस्स दूरसामंते वीईवयमाणे । तए णं से बेसदेवसिया एगुणं पंच माइसयाई सीह सेणं रच्छा प्रा. मणे राया०जाव वीईत्रयमाणे देवदत्तं दारियं उपमंतियाई समापाई सव्वाकार विजूसियाई करे, जहा- गासतनगंसि कीलपाणिं पासइ, पासइता देवदत्ताए दा विनवे जेणेव सुपडे पायरे जेणेव सीइसेणे राया तेव रियाए रुवेण य जोन्त्र हो य यात्रमण य०जाव विडिए वागच्छ, तर णं से सीहसेणे राया एकूणं पंचदेवी- कोमुंबयपुरिसे सहावे, सदावेइत्ता एवं बयासी - कसणं सया एक पंचए माईसयाणं कृडागारसालं प्रावस देवापिया ! एसा दारिया, किं वा णामधेज्जेण । तए दल | तर से सीहसेणे राया को मुंबियपुरसे सदा- कोरिसा समरायं करयल • एवं बयासी-एस वे, सहावेत्ता एवं बयासी-गच्छह णं तुब्भे देवापि- सामी ! दत्तमत्यवास्स घूया कए इसिरिअत्तया देवदत्ता या ! विडलं असणं पाणं खामं साइमं नवणेह, सुबहु- मंदारिया ण य जोव्वणेण य लावमेण य उक्किट्ठा पुष्पवत्थगंधमाकारं च कूमागारसा साहर ह । तए णं कसरी । तर से वेसमणे राया प्रासवादणि प से कोमंत्रिय० तहेव० जाव सादरइ । तए णं तासि एगू- मिणियत्ते समाणे श्रभितरद्वाणिज्जे पुरिसे सहावेइ, सहाणगाणं पंचए देवीसयाणं एगूणपंचएहं माईसयाई जाव बेइत्ता एवं बयासी - गच्छह णं तुब्ने देवाप्पिया ! दत्तस्स सव्वालंकार विजूसियाई तं विउलं असणं पाणं खामं धूयं कण्हासितयं देवदत्तं दारियं पूसबंदिस्स जुवरमो साइमं सुरं च० ६ आसाएमाणा ४ गंधव्वेहिं णामहिय नारित्ताए वरेह, जइ वि य सव्वरज्जमुक्का । तए णं से श्रभितरट्ठाणिज्जा पुरिसा बेसमणरणा एवं वृत्ता समाणा इडाकरयल० जाव एवं परिणे, परिसुता एढाया जाव सुरूपास संपरिवुमा । तए णं जेणेव दत्तस्स गिहे तेव उवागच्छ, तर णं से दत्ते सत्यवादे ते पुरिसे एज्जमाणे पासइ, पासइत्ता हड सणाश्रो अन्नु, सत्तट्ठपयाई अन्तुम्गए आसणेणं उवणिमंते, उवणिमंतेइता ते पुरिसे
वर्गीयमाणाई विहर३ । तए एं से सीहसेणे राया अदरतकाल समयास बहूहिं पुरिसेहिं संपरिवुडे जेणेव कूडागारसाला तेणेत्र उत्रागच्छछ, उबागच्छछत्ता कूडागारसाल्झाए वारा पिडे, कमागारसान्झाओ समंता अगणिकार्य दक्षयति । तए णं तासि एगुणगाणं पंचएदं देवीसयाणं एगूणगाणं पंच माइसयाई सीइरणो प्रालीवियाई समालाई रोयमाणाई ३ अत्ताणाई असरलाई कालधम्मुणा संजुताई । तर से सहिसेणे राया एवकम्मे ४ सुबहु०जान समज्जिशित्ता चतीसं वाससयाई परमानं पानइत्ता कालमासे कालं किच्चा छडीए पुढत्रीए नकोसें बाबीसं सागरो
सत्येव सत्ये सुहास वरगए एवं बयासी - संदिसंतुणं देवापिया! किमागमणप्पप्रयणं । तए णं ते रायपुरिसा दत्तं सत्यवादं एवं बयासी-म्हे णं देवाप्पिया ! तव धूयं कएह सिरीअत्तयं देवदत्तं दारियं पूसणं दिस्स जुवरमो भारियत्ताए बरेमो, तं जणं सि देवाप्पिया ! जुतं वा पत्तं वा सन्नाहणिज्जं वा सरिसो वा संजोगो, दिज्जउ णं देवदत्ताजारिया पूस दिस्स जुवरो, भण देवाणुपिया ! किं दलामो सुकं । तए ां से दत्ते ते अभितर ठाणपुरिसस्स एवं बयासी - एयं च णं देवाप्पिया ! ममं सुकं
माई विती नववणे, से णं ताओ अंतरं नव्त्रहित्ता इदेव रोहीडए एयरे दत्तस्स सत्यवाहस्स कण्ह सिरीए भारियाए कुच्चिसि दारियत्ताए नववसे, तेणं साहसिरी व मासागं० जाव दारियं पयाया सुकुमाल० जाव सुरूवं । तए गं तीसे दारियाए अम्मापियरो वित्तवार साहियाए विडलं असणं पाणं खाइमं साइमं० जात्र मित्तलामधेज्जं करेश, होउ णं दारिया देवदत्ता यामेणं । तर एणं सा देवदत्ता पंचधाईपरिग्गहिया० जाव परिवइ । तएं सा देवदत्त । दारिया जम्मुकबाल नावे जोब्बणेण य ख्वेण य लावण य०जाव अव सरूत्रा किट्ठा कि इसरीरा जाया याच होत्या । तए णं सा देवदत्ता भा
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समदत्ते राया ममं दारियाणिमित्तेनं अणुगेएह, २ ते ठाणपुरिसे विउलेणं पुप्फवत्थगंधमलाकारणं सकारे, पमिविसज्जेइ । तर गं से ठगणपुरिसे जेणेव बेसमणे राया तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छइत्ता daमणस्स रणो एयमहं वेदे । तए णं से दत्ते गादाई या सोजांसि तिहिकरण दिवसणक्खच
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देवदत्ता
(२६२०) प्रमिधानराजेन्द्रः।
देवदत्ता
मुहत्तंसि विनखं असणं पाणं खाइमं साइमं जवक्खमावेश, खलु पूसणांदिराया सिरीए देवीए माइ भत्ते जाव विहर, उबक्खमावेइत्ता मित्तणाई आमतेइ,एहाएजाव पायच्छिते तं एएणं विधाएणं णो संचाएमि अहं असणंदिणा रमा मुहासावरगए तेणं मित्तणाइसद्धिं संपरिक्षी तं विजनं सधि उरालाई जोगजोगाई भुंजमाणे,एवं मंपेहेइ, मंपेहेअसणं पाणं खाइमं साइमं आसाएमाणा ४ । एवं च णं इत्ता सिरीए देवीए अंतराणि य ३ पमिजागरमाणी पविहरड, जिमियनुत्तुत्तरागए आयंते ३ तं मित्तणाई विउलं मिजागरमाणी विहर। तए णं सा सिरी देवी अपया कगंधपुप्फ जाव अबंकारेणं सकारेइ,सक्कारेइत्ता देवदत्तं दा- याइ मज्जावी विरहियसर्याणास मुत्ताजाया यावि होत्या। रियं एहायं० जाव विजूसियं सरीरं पुरिससहस्सवाहिणीयं । इमं च णं देवदत्ता देवी जेणेव सिरी देवी तोणेच उचागसीयं दुरूहेए,पुरूहिएत्ता सुबहुमित्त०जाव सकिं संपरिबुडे जइ, उवागच्चइत्ता सिरीदेवि मज्जावीय विरहियसयसविहीएज्जाव सब्बरवेणं रोहिडगं एयरं मऊं मकेणं णिज्जसि सुहपसुत्तं पास,पामइत्ता दिसामोयं करेइ, करेजेणेव वेसमाणे रक्षो मिहे जेणव वेसमणे तेणेव उवागच्चइ, इत्ता जेणेव भत्तघरे तेणेव नवागच्च,नवागच्छद्धत्ता लोहनवागच्चाइना करयल जाव बसावेड, बद्धावेइत्ता वेसमणे दंग परामुसइ, परामुसइत्ता लोहदंडं नावेइ, तावेइत्ता नत्तं देवदत्तं दारियं उवणेइ । तए ण से वेसमणे देवदत्तं दारियं समजोइनूयं फुखकिंमयमाणं संमासएणं गहाय जेहोव सिरी नवणीयं पास, पासइत्ता हट्ट विउलं असणं पाणं खाइम देवी तेणेव उवागच्छड,उवागच्चइत्ता सिरीए देवीए असाइमं उवक्खमावेइ, उवक्खमावेइत्ता मित्तणाई आमंतेइ, | पाणंसि पक्खेवेइ । तए णं सा सिरी देवी महया यहया स
जाव सकारेइ,सम्माणेइ,पूसणंदिकुमारं देवदत्तं दारियं प- देणं प्रारसित्ता काधम्मुपागतए णं से सिरीदेवीए दादृयं पुरूहेड, दरूहेत्ता सेयापीएहिं कलसदि मज्जाबेइ, सचेमीमो प्रारमियमई सोच्चा शिसस्प जव सिरी देमज्जावेश्ना वरणवत्थाई करेइ, करेइत्ता अग्गिहोमं करेइ, | वी तेणेव उवागच्छ३, उवागच्चइता देवदनं देवि तओ पृसणंदिकुमारं देवदत्ताए दारियाए पाणिं गिराहावेह । तए अवकम्ममाणिं पासह, पासात्ता जेणेव सिरी देवी तेणं से वेसमणदत्ते राया पूसणंदिस्स कुमारस्स देवदत्तं दा- व उवागच्चइ, उवागच्उइत्ता सिरीदेवि पिप्या हिरियं सन्नहीए० जाव रवेणं महया इवीसक्कारसमुदरणं पा. चेट्ठ जीवविप्पनढं पास, पामहत्ता हा हा अहो सकनणिग्गहणं करेइ, देवदत्ताए भारियाए अम्मापियरो मि-- | मिति कट्टु रोयमाणी जेगेव पृसणंदी राया तेणेव उ-- स० जाव परियणं च विउलं असणं पाणं खाइम साइम वागड, उचागच्चइत्ता यमणंदिरायं एवं बयासी-एवं वत्थगंधमसालंकारे य सकारेइ० जान पमिविसजे । तए खघु सामी! सिरी देवी देवदत्ताए देवीए अकाले चेव णं से पूसशंदिकुमारे देवदत्ताए दारियाए सहिं उप्पि जीवियाओ ववरोविया । तए णं से पूसणंदी राया तासि दापासायफुट्टवत्तीसं. उपगिज्मइ,उपगिज्मश्त्ताजाव विदग्इ। सचमीणं अंतिए एयमढे सोचा णिसम्म महया माइसोरणं तएणं तीमे बेसमणे राया अएण्या कयाइ कालधम्मु गा अफु समाणे फरमुणियत्ते विव चंपगपायवे धसइ धरणीणीहरणंजाव राया जाए पृसाणंदी। तए णं से पूसाणंदी तबंमि सन्चंगेहिं ममिपमिए । तर णं से फूसणंदी राया मुगया शिरीए देवीए मायाजत्ते यावि होत्था, कबाकाल्लं गे. इत्ततरणं आसत्थे समाणे बहहिं राईसर० जाव सत्यवाणेव सिरी देवी तेणेव नवागच्छ,उवागच्चइत्ता पायपमणं हाहि मितजाव सयणेण य मधि रोयमाणे ३मिरीए दे. करे, करेइत्ता सयपागसहस्सपागेहिं तेढेहिं अब्जिगावेइ, वीए इवीए पीहरणं करंड, करेइत्ता आमुत्ते ६ देवदत्तं अट्ठिमुहाए मंसमुहाए तया सुहाए रोपमुहाए चउचिहाए सं- देविं पुरसेहिं गिराहावे, गिराहावेइत्ता एएए विहाणेधं व. वाहणाई संवाहावे,संवाहावेइना सुरजिणा गंधवट्टएणं उन ।
हाच सवाहावइत्ता सुरांजणा गंधचट्टराणं उन्न. ज्झं आएवेश एवं खलु गोयमा! देवदत्ता देवी पुराजाहावे,उन्बट्टावइत्ता तिहितिपिपाणीए, एहवराव,नदएहिं व विहर । देवंदत्ता णं ते! देवी इओ काखमाने कामज्जावेड, मज्जावेश्त्ता तं जहा नलिणोदएणं, सीओदएणं, झं किच्चा कहिं गतिहिति,कहिं उववजिहिनि। गोयमा! गंधोदएणं,विउलं असणं पाएं खाइमं साइमं जोयावेड, सि. अमीश्वासाई पर० कालमासे कालं किया इमीसे ग्यारीए देवीए एहायाएन्जाव पायच्छित्ताए० जाव जिमियत्नु- पजाए पुढवीए णेरइय ताए उववो, संसारो वास्सह, तुत्तरागयाए तो पच्छा एहाइ, भुंजेई वा जरालाई माणु. तो प्रणतरं उचट्टित्ता गंगपुरे यरे इंसत्ताए पञ्चाया स्सगाई जोगभोगाई भुनमाणे विहरइ। तए णं तीसे देव- हिति, से णं तस्य साउणिएहिं बधिए समाणे तत्व मेंदत्ताए देवीए आपया पूब्बरतावरत्तकालसमयंसि कुडुंव- गपरे सेहिबोही सोहम्मे महाविदेहेसिफिहितिज्जाव ग्रं. नागरियं करेइ, करेइत्ता इमयारूवे अन्नत्थिर ४ एवं | तं काहिति ।
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(२६२१) देवदत्ता अभिधानराजेन्छः।
देवमिनमा ( अम्भुम्गय ति) इदमेवं दृश्यम्-" अनुगायमूसियप
युगपदेतद्विशेषेणाऽऽह-(संखपणचपडहभेरिफचरिखरमुहि हुहसिए विच।" अच्युतोवृतानि अत्यन्तोचानि प्रहसिता
मुक्कमुरवमुइंगमुहिनिग्योत्सनाश्यरवेणं) तत्र शक्खादीनां नीव हसिमारब्धान वेत्यर्थः। " मणिकरण गरयणचित्ते।" नितरां घोषो निर्घोषोमहाप्रयत्नोत्पादितः शब्दः नादितं भवनिइत्यादि । “एग च ण मदं नवग्ण करेति भणगखंभसयसंनिवि- मात्रमेतद्वयलक्षणो यो रवः स तथा तेनेति । (सयापीपहिति) ट्रं।" इत्यादि भवनवर्ण कसूर्य दृश्यम् । (पंचसया उदाउ ति)
रजतसुवर्णमयरित्यर्थः। (सिरीए देवीए मायाभत्ते याचि होहिरण्यकोटिसुवर्णकोटिप्रनृतीनां प्रेपणकारिकान्तानां पदा
स्वसि)श्रिया देव्याः, मातेति बहुमानबुबा भक्तः मातृभक्तर्थानां पज पश्च शतानि सिंहसेनकुमाराय पितारी दत्तवन्ताजि. श्वान्यनूदिति । (कल्ला कवं ति) प्रातः ५ (गंधवट्टपणं ति) त्यर्थः । स च प्रत्येक स्वजायाभ्यो दसवानिति । "महया" 5. गन्धचूर्णेन (जिमियनुत्तुत्तरागयाए त्ति) जेमितायां कृतभो. स्यनेन " मयाहिमचंतमहतमलयमंदरमहिंदसारे " इत्यादि जनाय तथा नुक्तोत्तरमागतायां स्वस्थानमिति भावार्थः। पदाराजवर्णको दृश्यः। (भीया जेत्ति)"भीरा तथा जेणेव।" इत्यर्थः। राममनोज्ञान् नोगान् भुजानो विहरति । (पुम्वरत्तावरससि) ४ यावत्करमादिदं रश्यम्-(ओहयमणसंकणा मिगयदिट्टी- पूर्वराजापररात्रकारसमये, रात्रेः पूर्वभागे पश्चाद्भागे चेत्यमा करयलपल्दत्यमुही अ णावमय सि)(सफेण उपफेणिय | धः । (मज्जाइय त्ति) पीतमद्या (विरदियसपणिज्जंसि त्ति) ति) सकोपोमवचनं यथा भवतीत्यर्थः। तोऽन्तरवाक्यस्यैके.
विरहिते बिजनस्याने शयनी विरहितशयनीयं तत्र (परा. कमकरं पुस्तकेषूपलभ्यते.तश्चैवमवगन्तव्यम्-"एवं खलु सामी! मुसति) गृह्णाति ( समजोनूयं ति) समस्तुल्यो ज्योतिममं एगणगाण पंचएहं सबत्तीसयाणं एगणं पंचमाईसयाई पाऽग्झिना भूतो जातो यः स तथा । ( रोयमाणीच ति) अधुमोसे कहाए नस्टाईसवणयाए अनमन्नं सदावेति,सदावेनि.
विमोचनात् । इहान्यदपि पदवयमध्येवम् । तद्यथा-(फंदसा एवं बधामी-एवं खलु स्वीहसेफ राया सामाए देबीर मुछि.
माणिो ) आफन्दशब्दं कुर्वन्यः ( विलवमाणीओ ति) ५४ अम्दं धूवागीणो प्रादाद, नो परिमाणह, अपाढायमाणे बिलापान् कुर्वन्यः (मासुरुत्ते त्ति ) प्राशु शीघ्रं रुपः अपरियाणमा विहरद जावेति ! यावत्करणाचे दृश्यम्-"से
कोपेन विमोदितः । इहान्यदपि पदचतुष्कं दृश्यम् । तद्यथा सेयं खलु अम्हं सामं हेवि अभिगोगेण वा विसरोगेण ( रुकेत्ति ) वितरोधः ( कुविए ति) प्रवृद्धकोपोदयः वा सस्थपोगेण वा जीवियाओ वघरोवित्त एवं संहि- (चंडिशिप ति) प्रकटितरूपः (मिसिमिसेमाणे त्ति) ति, संपेदित्ता ममं अंतराणि पडिजागरमाणीमो विहरति तं न
कोपामिना दीप्यमान इव । विपा० अ० । ब्रह्मसोकानजाण सामी! म केणइ कुमरणेणं मारिस्सतीति कटु दुपरि कि सम्यग्रहो देवा अधिका नत मिश्यादृशोऽधिका भीया।।" याबरकरणात्-" तत्य रासिया उठिकमा मोहयमा इति प्रश्ने, उत्तरम- पञ्चमदेवकात्परतो युक्त्या बिचा
संकप्पा भूमिगयदिष्टिया।" इत्यादि दृश्यम् । (वत्तिदामि यमाणे मिथ्याधिज्यः सम्यग्दृष्टयो देवा अधिकाः संभाति) यतिष्ये । (नस्थिति)न भवत्ययं पको, यदुत (कत्तो
व्यन्त इति । २१२ प्र० । सेन उल्ला•। चतुरिङ्गदेवा भूमि त्ति) कुतश्चिदपि शरीरकस्य आबाधो वा प्रवाधो वा भ. जम्पृशस्तीति यदुच्यते, तत् कुत्र स्थल इति प्रसाद्यमिति प्रविष्यति, तत्र पाबाध ईचत्पीमा, प्रवाधः प्रकृष्टा पीडेव । (ति
श्ने, उत्तरम्-मदीतलं कुत्रापि न स्पृशन्तीति संग्रहणीवृश्याध. कट्टु ति) पवमामघाय (गणेगखंजति) अनेकस्तम्भशतस
निप्रायः। १६ प्र. सेन०३ उल्लाल देवानां जवधारणीयेनात्रिविष्टमित्यर्थः। "पासा' इत्यनेन "पालाश्यं दरिसणिजं अ... पिचक्या कदाचित्कुत्रापि गमनं संभवति, न बेति प्रश्ने, उत्त. भिक पडिरू" ति रश्यम् ।(जनविय सा सरजसुकत्ति)
रम-संगमकसुरसंबन्धाद्यनुसारेण देवानां भवधारणीयेनापि वचपि सा स्वकीयराज्यशुल्का, स्वकीयराज्यलभ्येत्यर्थः । (जुत्तं
वपुषा कदाचिदत्राऽऽगमनं ज्ञायत इति । ३५२ प्र०। सेन० ३ वत्ति) संगतम्। (वत्तं वति) पावा, कायसराप्तं बा। (समा.
उन्ला । देवो देवी मूल शरीरेण भुके. उत बैक्रियेण वेति हणिज्ज व त्ति) श्लाध्यमिदं (सरिसो बलि) सन्तितः संयोगोय.
प्रइने, उत्तरम-उभयथापि भोगी भवतीत्यकराणि श्रीभगधूबरयोरिति। (प्रायंत ति) बाबान्तो बलग्रहणात् (चौक्स्से त्ति)
पतीप्रमापनाजीवाभिगमराजप्रश्नीयप्रमुखग्रन्थेषु सन्तीति । चोकः सिक्थलेपाऽऽद्यपनयनात्। किमुक्तं भवति-(परमसुरभू
३५ . सेन.३ उल्ला० । देवा मूलशरीरेण नमास्तित्ति) अत्यन्तं शुबीभूत इति (गहायं ति)यावत्करणादिरश्यम
सि, किं वा वस्त्राणि परिदधतीति प्रश्ने, उत्तरम्-मूलश"कयबक्षिकम्मं कयकोउयमंगल पायचित्त"(सम्बासकारे सि)
रीरेण वस्त्रपरिधाननिषेधो ज्ञातो नास्तीति । ३६१ प्र० । 'सुबहुमित्त' इत्यत्र यावत्करणात्-"भित्तणाणियगसयणसंबं.
सेन०३ चला। धिपरिजनेण।" इति रश्यम् । “सचिठीप" इत्यत्र यावत्करणा- देवश्विनमण-देवदिनमन-न० । श्रीकल्पसूत्रस्य स्थविरावलीदिदं दृश्यम्-"सम्बईए" सर्वात्याऽऽभरणाऽऽदिसंबन्धिम्या | प्रान्ते "देवक्कुिगणिं नमसामि।" इति गाथा पुस्तकाऽऽढकालीसर्वयुक्त्या वा नाचतेष्टरस्तुघटनालकणया, सबबलेन सबसे- ना, उत प्राकालीना?। यदि पुस्तकाऽऽरुदकालीना तहिं देवर्षि. न्येन सर्व समुदायेन पौराऽऽदिमाननेन । (मत्रायरेण ) सचों- गणिकृतत्वे स्वस्य नमस्करणमनुचितम् अन्यकृतत्वे तु सर्वा अपि चितरुत्यकरणरूपेण । (सम्बबिन ईए) सर्वसंपदा । (मब्यवि. स्थविरावलीगाधा अन्यकृताः कथं न भवन्ति, इत्यारेका । यदि भूसाए) समस्तशोभया । (सन्जसंभमेणा) प्रमोदकस्यौत्सुक्येन प्राकालीना तदाउप्रेतनानां नमस्करण कयमुचितमिति प्रश्ने, (सधपुष्फगंधमद्वालकारेण सम्बतूरसहसंनिनापण) सर्वतर्ष- उत्तरम्-इयं गाधा देवर्किगणितमाश्रमणशिष्येणान्येन वा पाशम्दानां मोलने यः संगतो नितरांनादो महान् घोषस्तानित्य- इचात्येन केनापि स्थविरेण कृतेति संजान्यते, तथैवं सर्वा यः। प्रत्येम्वपि वादिषु सर्वशन्दप्रवृतिईप्पा । भत माह- अपि ततकता: संभावनीयाः, अनुपपद्यमानत्वाभावात्। गतिस्त “ महता कीप महता जुईप महया बलेणं माया समुदएणं | स्थितस्यैव चिन्तनीया, प्रशमरतिवत्, यतस्तत्राप्युमास्वाति. महया वरतुभियजमगसमगपवारपर्णी" (जमगसमग ति) वाचककता प्रान्तगाधाकदम्बके तन्नमस्कारो दृश्यते, तेन
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(२०११) देवहिनमण अभिघानराजेन्दः ।
देवदीव तदेवान्यकृतं शेयं, न च संपूर्ण ग्रन्थोऽपि, तत्र विप्रनिपतेरभा- व्ये साधारणऽन्ये वा तत्समायातीत्यवधयम् । ४३२ प्र० सेवात् , प्रन्यस्योमास्वातिवाचककृतत्वेन सुपतीतत्वादिति । ५६ |
न० ३ नमा० । श्रादा देतद्रव्यं ब्याजेन गृहन्ति, न घेति प्र० । सेन०१ उस्मा०।
प्रश्ने, उत्तरम-महत्कारणं विना न गृहन्तीति । ४६१ प्र० से. देवदव्व-देवव्य-न० । चैत्यद्रव्ये, कर्म• १ कर्म । ही.।। न. ३ उदा० । अथ बटपल्लीवसंघकृतप्रभस्तदुतरं च यथाजीवा।
शतदोकमकपुष्पाणि मासिकपाश्चाद गृहीत्वा जिनप्रतिमायाश्च জিনাগ্রামনাবান্বিতাৱাৰ সকলৰ
यज्यते, मालिकस्य तद् व्यस्थाने धान्यवस्मादिकं सम. नफलोपदर्शनाय गायात्रयमाद
य॑ते, तदर्पणे च दोकडकदशकमुद्वरति तद् व्यं देवमकं
मालिक संबन्धि वेति प्रश्ने, उत्तरम्-शतदोक्कमकपुष्पाणि गृही. जिणपत्र या वुद्धिकरं, पभावगं णाणदसणगुणाणं ।
स्वा धाम्यादि समय॑ते, तदर्पणे च कमोशेरकण यद्वरति जक्खतो जिणदलं, अणंतसंसारियो होइ ।। ५७॥
तद्देवनव्यं जवति, न तु मालिकस्य, यतो लोके शतदोक्कमकजिणपवयण वुद्धिकरं, पत्नावगं पाणदंसणगुणाणं । पुष्पचढापनयशोवादो जायते, तस्मान्न्यूनचटापने दोषो लगरक्खंतो जिपदव्वं, परित्तमंसारिमो होइ ॥ १६ ॥
ति, तवरितं व्यं देवद्रव्यं प्रक्षिप्यते तदा दोषो न लग
तीति । ११ प्र०। सेन०४ नखा। जिणपत्रयणवुविकर, पभावगं णाणदसणगुणाणं । वतो जिणदव्वं, तित्थयरतं ब जीवो ॥ ६०॥ ।'
देवदवहरण-देवव्यहरण-न० । चैत्यव्यप्रदणे, कर्म
१ कर्म। आसामकरार्थः सुगमः। भावार्थस्तु समस्तोऽपि पूर्वकथानकादम्लेयः। यया-अनर्थ चूसेनाने कशोऽने कनवपरम्परासुमहद् दु:
| देवदार-देवदार-न० सिझाऽऽयवनस्य पूर्वदिकस्थे स्वनामखभनुभूत, यया च कश्वनरुचिना जिनसाधारपाचव्यं रक्षता वृ त्यात वार, स्या० ४ ० २ उ. द्विभापादयताऽनेकर्मवेषु कल्याणमासाद्य तीर्थकद भूत्वा शान्तिः | देवदारु-देवदारु-न । गन्धाकोदे, प्राचा० १ ० १ अ० ५ पदभुपगतः। ततः सर्वथाऽस्मिन्नर्थे यत्नवर्भिाव्यमिति गाथा
| उ । देवानां प्रियं दारु यस्य तत्काष्ठचन्दनस्य देवप्रियत्वात् । । दर्श• १ तव । दश । देवव्याधिकारे कथं श्रा- स्वनामण्याते वृके, अयं पुमानप्यत्र-" ममुं पुरः पश्यसि देव. देवव्यवृद्धिं कर्तुं शक्यते, यदुक्तमागमे-" मक्खंतो जिण
दारुम् ।" वाच । द, अणंतसंसारिनो भणि प्रो।" इति जाननप्यात्मव्यतिरिक्तानां यच्छंस्तेषां संसारवृद्धि प्रति कारणं भवति, न दि
| देवदासी-देवदासी-खी० बहुबीजके लताविशेषे,प्रका० १ पद । विर्ष कस्यापि विकारकृन स्यात्सर्वेषामधायकदेव स्यात, ग्रन्था-देवदित-देवदत्त-jo । राजगृहे नगरे धननाम्नः सार्थवाहस्तरे आसोचनाधिकारे मूध कादीनामपि दोपोत्पत्तिलाऽस्ति, स्य नहायां भार्यायां च जाते स्वनामख्याने पुत्रे, शा० १ श्रु० तदत्र का वृद्धि प्रति रीतिरिति प्रश्ने, उत्तरम-स्वपस्या श्राहा- अादेवप्रसादालन्धेषु सुनसाया द्वात्रिंशत्पुत्रेषु,प्रा० क.. नां देवव्यस्य विनाशन एव दोषो, यथाकाल मुचितव्याजदानपूर्वक प्रहणे तु न भूयान् दोषः, समधिकव्याजदामे पु.
देवदीव-देन्द्रीप-पुं० । स्वनामयाते द्वीपे, जी। नोपाभावोऽवसीयते,तेन तेषां यत्तद्वर्जन तनिःशूकताऽऽदिदो.
देवदीचे दो देवा महिम्दीया-देवभद्दा,महाभद्दा । पपरिहारार्थ शेयम्। किञ्च-श्रीजिनशासने देवरव्यस्व विनाशे "देथे ते! दीवे किं साक्वालसंधिप, विसमचकदुर्वजा बोधितात काऽऽदिदेशनादानोपेकणाऽऽदै साधोरपिज. वासंगिए । गोयमा ! समचक्वालसंठिप, नो विसमचक्वावदुःखं च शास्त्रे दर्शितम, ततस्तेन तइनिज्ञानं श्राकानां तस्या संदिर । देवे भंतेचि केवपं चक्रवातविक्खनेणं केवव्यापारणमेव यौक्तिकं मा कदाचित्प्रमादाऽऽदिना स्वल्पोऽपिता इवं परिक्वे णं पन्नसा ?। गोयमा! असंखजाई जायणसयमदुपभोगो भवस्थिति सुथानस्थापनप्रत्यहसाराऽऽदिकरणपुरस्मरं हस्सा चालविक्ख भेण असंखजाई जोयणसयसहस्सामहानिधानव तत्परिपालेन च तेषामपिन कोऽपि दोषः, किंतु परिपत्रेयेणं पम्नत्ते, से सं एगाए परमवरवेश्याए एगणं तीनामकम्मनिबन्धनाऽऽदिहेतुलाभ एयेति,इतरस्थ तु तद्भो
वणसमेणं परिक्खिते।" सुगम, नवरं पकया पावरवोदकया गदोघाननिझस्य निःशूकताऽऽद्यसंभवाद्धयर्थ ग्रहणकग्रहणपूर्व- अष्टयोजनोच्छुयजगत्युपरि नाविन्येति कष्टव्यम् । एवमेकेन वनकं समर्पणे न दोष इति तथा व्यवद्धियमाणमस्तीति संभाव्य- खरामेन च । इदं तु सूर्य बहुषु पुस्तकेषु न दृश्यते, केषुचित् न. ते, पूरकाऽऽदिषु तु वृद्धद्याद्यर्थ समर्पणव्यवहाराजावातेषां त- देवोत्पत्तिदेश इति लेखितम् । "करणं ते" इत्यादि । कति ज. द्भवणे दोष एवेति । १५६ प्र० । सेन. २ उन्ला । देवाव्यस्य दन्ती देवस्य द्वीपसय हाराणि प्रतानि ?। भगवानाह-गौतम! च. वृदिस्ते श्राद्धैःतत् स्वयं व्याजेन गृद्यते,न चेति, ग्राहकाणां स्वारि हाराणि प्राप्तानि तद्यथा-"विजयजयन्तजयन्तमपरादूरणं, किं वा भूषणमिति प्रश्शे, उत्तरम्-धाद्वानां देवा- जित।""कदिएँ भंते! दीवस्स दीवेत्यादि।"क भदन्त देवस्य व्यस्य व्याजेन न युज्यते ग्रहणं, निःशूकताप्रसङ्गात, ननु वाणि- द्वीपस्य विजयं नाम द्वारं प्राप्तम भगवानाद-गौतम देवद्वीपज्याऽऽदी पापारणीय स्वल्पस्य देवव्यभोगस्य वासंब- पूर्वाद्धपर्यन्ते देवसमुद्रपूर्वारस्य पश्चिमदिशि अत्र एतस्मिन्नधादिष्वनीवाऽऽक्ती दुविधाकजनकतया दर्शितत्वादिति । वकाशे विजयं नाम द्वारं प्राप्त, प्रमाणं वर्षकच जम्बूद्वीपबि. ३७४ प्रसेन. ३ उल्ला०। उपाश्रये सांवत्सरिकादिप्रति- जयद्वारवत,नामान्वर्धसूत्रमपि तथैव । “कहिणं भंते ! इत्यादि।" क्रमणावसरे यद् घुसृगौलाऽऽदिकमानीते तद्देवऽव्ये साधार- क नदन्त! विजयस्य विजया नाम राजधानी प्रज्ञप्ताजगवा. णव्ये वा समायातीति प्रश्ने, उत्तरम् यथाप्रतिज्ञ देवद- नाह-गौतम ! विजयस्य द्वारस्य पश्चिदिशि तिर्यगसंख्येयानि
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देवदीव अभिधानराजेन्द्रः ।
देवमहावर योजनशतसहस्रा एयवगाद्य अत्रान्तरे विजयस्म बिजया नाम | स्तकेषु लिपीकरणं तनत्यव्यवहारमाश्रित्य संभाव्यते, तदभिराजधानी प्रशता । साच जम्बूद्वीपविजयद्वाराधिपतिविजयस्य | धानं तु कुरापिपं नास्तीति । ७३ प्र० । सेन० २ सला० । देवस्येव वक्तव्या । एवं वैजयन्तजयन्तापराजितवारवक्तव्यता. देवपूपाइणाय-देवपूजादिहात-न० । देवतार्चनप्रभृत्युदाहरणे, अपि भावनीया, ज्योतिप्कवक्तव्यता सर्वाऽप्य संख्येयतया वक्त
| पञ्चा. - विव० । देवपूजास्नात्रतश्य (?) तेणानन्तरं श्राव्य मा. म्या, नामान्यर्थचिन्तायामपि (दो देव त्ति) नदेवमहानदी
रत्युत्तारणमङ्गलप्रदीपाऽऽदिकृत्यं कुर्वन्ति, न वेति प्रश्ने, उत्तरवक्तव्यौ । शेष सर्वमरुण पवत *। जी० ३ प्रति०४ उ०।।
म्-तथाकरणेऽधुना प्रवृत्तिने दृश्यते, निषेधस्तु शास्त्रे दृष्टो ना. देवस-देवदृष्य-न•। जिनवरस्य स्कन्धे संयमग्रहणावसरे सु- स्तीति क्वचिद्देशविशेषे तस्कुर्वन्तीति। १५४ प्र.सेन०२ उल्ला। रपतिर्यत्सुरदूष्यं मुञ्चति, तस्यावस्थानस्य मानं प्रसायमि | देवप्पहमूरि-देवप्रभसूरि-पुं० । स्वनामख्याते प्राचार्य, दर्श०५ ति प्रश्ने, उत्तरम्-दीकासमये देवेन्द्रमुक्तजिनवरस्कन्धस्थदेव. तष । स च विचारसारप्रकरणकृतः शुम्नसरेर्गुरोः पनप्रभसूदूध्यस्थावस्थानकालनियममाश्रित्य सप्ततिशतस्थानकानुसा
रेर्गुरुः। द्वितीयोऽपि मुनिचन्दसूरिशिष्यः ताराचन्गुरुः, तेन रेण धीवीरस्य साधिकं वर्ष यावच्चेषाणां च तीयकृतां जा.
च पारामवचरित्रमहाकाव्यं मृगावतीचरित्रं चेति ग्रन्धी रचि. बज्जीब देवदूषयावस्थानकालमान श्रीवीरवदिति केयमिति ।।
तौ । तृतीयोऽपि विक्रमसंवत् १२६४ वर्ष मुनिसुव्रतचरित्र. १३५ प्र० । सेन• १ उछा० ।
कारकस्य पद्मपत्रसूरेगुरुरासीत् । जै००। देवदूसजुगल-देवदूष्ययुगल-न० । देववस्त्रयुग्मे, जी० ३ प्रति० | देवप्पिय-देवप्रिय-पुं० । धसन्तपुरे स्वनामख्याते श्रेष्ठिनि, ग.
२ अधि०। (तत्कथा 'खुद्धक' शब्द तृतीयभागे ७५४ पृष्ठे देवदेव-देवदेव-पुं० । इन्प्रेषु, तीर्थकरेषु च । प्रा०चू. ५०। अष्टव्या) देवदेवमहिय-देवदेवाधिक-पुं० । इन्द्रादप्यधिक तीर्थकरराऽऽदौ, देवफलिक्खोभ-देवपरिक्षोज-पुं० । तमस्काये, “देवपलि.
क्खोभे वत्ति।" देवानां परिकोनहेतुत्वादिति । भ०६ श.५ आ. चू०५०।
न. । स्था। देवदेवमहित-पुं० । देवाधिदेवपूजिते जिने, प्रा. न्यू०५
अ
निव-देवपरिघ-देवानां परिघ श्वार्गव दुष्यदेवदोषी-देवघोणी-स्त्री० । स्थल्याम, "साधम्मियस्थलीसुं।" त्वाद्देवपरिघ इति। न.६ श०५.। तमस्काये, न०६ श० नि० चू०१ ३०।
| ५००।स्था। देवपंचिंदियसंसारसमावनजीव-देवपञ्चेन्जियसंसारसमापन्न
देवनद-देवन-पुं० । देवद्वीपस्थे स्वनामख्याते देवे, चं० प्र० जीव-पुं०। पञ्चेन्द्रियसंसारसमापन्नजीबभेदे, प्रका० १ पद ।
२पाहु. । सू.प्र.। वैधगच्छस्थे चुवनेन्धमूरिशिष्ये स्वनाम:
स्याते मणिनि, वृ०। देवपडिक्खोन-देवप्रतिकोभ-पुं० । तमाकाये, " देवपमि.
चैत्रगच्चमधिकृत्यक्खोभे वा।" देवप्रतिकोम इति वा, तरक्षोभहेतुत्वात् । भ. "तत्र श्रीनुबनेग्मसूरिसुगुरुभूभूषणं जासुरं६ श.५०
ज्योतिः सद्गुणरत्नरोहणगिरिः कालक्रमेणानवत् (८) देवपरियारण-देवपरिचारण-ज.। धीविजयराजगणिकृतप्रम- तत्पादाम्बुजमरामनं समभवत् पक्षद्वयीशुद्धिमास्तमुत्तरं च यया-शका ऽदयो देवाः संभोग कर्तकामा दे.
श्रीरकीरसरवदूषणगुणत्यागग्रहवाऽऽहतः। घलोकविमाने देवीनिः पारिचाराणं कुर्वन्ति, विमानावस्या वा
कालुष्यं च जमोद्भवं परिहरन् दरेण सम्मानसतदाश्रित्य प्रसाद्यमिति प्रश्ने, उत्सरम-शमाऽऽदयो देवा देवलो
स्थायी राजमरालवाणिवरः श्रीदेवनष्प्रतुः || " के स्वम्वधर्मसभायां देवीभिः सह परिचार न कुस्ति, तत्र वृ. ६० । ध• र०। ग० । द्वितीयोऽप्येतनामा रुद्रमाणचकत्यस्तम्भसमुहकस्थितजिनदंष्ट्राशातनाभयादित्यभि.. पाखीयगवस्थापकस्याभयदेवसूरेः शिष्यः प्रभानन्दसूरेगुरुः, प्रायः प्राप्तिदशमशतकपश्चमोद्देशकेऽस्तीत्युपलकणत्वादन्यत्र
स न विकमसंधत् १२९६ मिते आसीत् । तृतीयश्व चसिकाऽऽयतनव्यतिरिक्तस्थाने परिवारणां कुर्वन्तीति संभाव्यते गच्छे भश्वरसूरिशिष्यः, स विक्रमसंवत् १२४२ वर्षे इति । १०॥ प्र. । सेन• १ ग्वा ।
आसीत्, यच्छिष्मेण सिकिसेनेन प्रवचनसारोकारटीका रदेवपरिसा-देवपरिषत-स्त्री० । देवपरिवारे,ौ०।
चिता। चतुर्थश्च खरतरगच्छ प्रसन्नचन्द्राचार्यस्थ शिष्यः विक्र
मसंवत् ११६८ वर्षे विद्यमान आसीत, येन पार्श्वनाथचरित्रं देवपन्वय-देवपर्वत-पु.। जम्बूमन्दरपश्चिमस्थे सीतायाः महा- संवेगरमाला वीरचरित्रं कथारलकोशश्चेत्यादयोऽने के प्रथा नद्या उत्तरकुलस्थे स्वनामख्याते वक्षस्कारपर्वते, स्था०४ रचिताः । पञ्चमश्च चन्छसरेः शिध्यस्तकृतसङ्ग्रहिणीटीकाकगा. उ०। जंग। स्था० । पश्चिमवनस्त्र एमवेदिकान्स्यविजयाच्यां त । जै००। पूर्वस्थे स्वनामख्याते परंतयुगले च ।"दो देवपब्बया।"देवमा-देवमति-स्त्री.। स्वर्गिचातुयें, जं. ३ वक० । स्था० २ ठा० ३ ००।
देवमहानद-देवमहाजध-पुं०। देवद्वीपस्थे स्वनामययाते देवे, देवपुत्भय-देवपुस्तक-न । देवलोकपुस्तकेषु किंलिपीकृतम
सू.प्र. १६ पाहु० । चं० प्र०।जी। खामात प्रश्न, उत्तरम-देवलोकपु. देवमहावर-देवमहावर-पुं० । देवसमुझस्थे स्वनामयाते देवे, * पुस्तके मूल पाठो नोपलत्यते ।
सु० प्र० १६ पादु01 081 जी०।
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चेक्य
देवय दैवत १० देवतेच देवतम स्था० ३ ० १ ० देवे - | । ।
श्रघ० ।
( १६२४ ) अभिधानराजेन्द्रः ।
झा० १ ० १ म० । दशा० भ० श्र० । आव० । म० परमदेवतायां च । चं० प्र०१८ पाहु० । देवया देवता स्त्री० रागादिदोषरहिते (विशे०) जिननाय के, धर्माssचार्ये, पश्चा० १ वि० । प्रति । इन्द्राऽऽदिदेवेषु प्रति० । स्था० । श्रोघ० ।
देवयाणाम-देवतानामन् । देवयाणाम- देवतानामन्न देवतायनानि अनु
।
से किं तं देवपाणामे । देववाणामे अगविहे पण ते सं जड़ा-अगिदेवताहिं जाए अगिए अगिदिनो मसि गिधम्मेग्गिदेवे अग्गिदा से अगिसेणे अगिर विश्वए । एवं सधनख तदेवतानामा नाचिन्ना । प्रत्यपि संगही गाहाबो
"अरिंग पवाव सोमे, रुदो अदिती विस् मध्ये। पिति जग अज्जम सविआ, तट्ठा बाऊ अ इंदग्गी ॥ १ ॥ मिचो इंडो निरती, आओस् भि बसु वरुण अविव पूमा अग्गी जमे चैव ।। २ ।। " सेतं देवतानामे ।
( से किं तं देवयाणामे इत्यादि ) अग्निदेवतासु जात:-श्र निः। एवमादयदेवता स्वादिमायायंत्र कृतिकास्वाधिष्ठाताभिः रोहिया प्रजापतिः, एवं मृगशिरःप्रभृतीनां क्रमेण सोमो रुषोऽदितिः बृहस्पतिः सर्पः पितुभगाचर्यमा सविना खष्टा वायु मित्रः, इन्द्रः, निर्ऋतिः, श्रम्भः, विश्वः ब्रह्मा विष्णुः, १, वसुः, वरुणः, अजः, विवर्द्धिः । अस्य स्थानेऽन्यत्र अहिर्बुध्नः पठ्यते । पूषाः, अनि यमयेवेति । ( से तं देवतानामे) अनु देवयाणि भोग-देवतानियोग- पुं० । देवतोद्देशे, पञ्चा० १६ विव० ।
I
देवयापणिहाण - देवताप्रणिधान न० । सर्वक्रियाणां फलनि रपेक्षतयेश्वरसमर्पण २२० देवाभियोग-देवताभियोग- पुं० । देवपरतन्त्रतायाम, उपा
-
२ श्र० ।
देवयाहिमुत्ति देवताधिमुक्ति स्त्री० । बुद्धकपिलाऽऽदिदेवताविशेषभक्तौ, घ० १ अधि० ।
"
देवर-देवर पुं० [देवरा ०१ पाद देवरा देवारएव १० देवानामयमिव दानमान स्वाद्यः स देवारण्यमिति । तमस्काये, स्था० ४ ० २ ० । देवरमण - देवरम - न० । सौभाजन्या नग बढिरुत्तरपश्चिमायां दिशि स्थिते स्वनामख्याते उद्याने, बिपा० १ भु० ४ अ० ।
देवराय देवराज पुं० [देवेषु
राजमाने, कल्प० १ अधि० १ क्षण । उपा० । इन्द्रे, आद० ४ भ० कोये स्थिते स्वनामा कुटुम्बिन परमके पिं० देवराट् पुं० | देवेन्थे, "क्षेत्रीभिरिव देवराट्। " मा० क० ।
देवबंद विहि देवरायकुंजरमाण देवराजजरवरमाण- देवरा - पुं० |
जो देवेन्द्रस्तस्य कुज्जरो दस्ती तद्वद् वरं शास्त्रोकं प्रमाणं देहमानं यस्य स तथा । देवराजस्तिशरीरप्रमाणसदृशप्रमाणशरीरे, कल्प० १ अधि० २ क्षण ।
देवल देवल-पुं० । मुनिभेदे, व्यासशिष्ये, धौम्यस्य ज्येष्ठभ्रातरि देवान् जीविका लाति रूाकः । देवोपजीविनि खान थे कन् । भनैदार्थे, "देवकोषोपजीवी च नास्मा देवलको भवेद ।" इत्युले विशे, बाच। सूत्र ।
देवा
देवनादिनीनृपे अक० ग्रा०यू०
-
देवलोग देवलोक पुं देवानां लोक स्थानम सूत्र० १ श्रु० २ भ० ३ उ० । सौधर्माऽऽदिषु नादशसु लोकेषु, सूत्र० १० ५ ० १४० भ० ॥
कवि
देवलगा पाचा? गोपमा च हा देवलोग पत्ता । तं जहा जवणवासी, वाणमंतरा जोइसिया, वैमाशिया । भेषणं भरणवासी दसविडा, वामतराविहा, जोइसिया पंचविहा, वैमानिया दुबिहा ।
भ०५ श० ७ ० ।
देवलोके मिथ्यात्विदेवदेवीनां क आचार इति प्रश्ने, उत्तरमयथा सम्यकदृशां सिद्धाऽऽयतनेषु जिनानादिप्रवृत्तिरूप घायास्तथा मिया वर्तमानमा नाऽऽदिरूपः संजायत इति । एए प्र० । सेन० २ उता० । देवलोगगमण - देवलोकगमन - न० । सुकुक्षप्रत्यागतौ स०
श्रृङ्ग० ।
देवलोग समाण- देवलोकसमान त्रि० । देवलोक सदृशे, इश० १ चू. ।
देवलोय देवलोक पुं०।' देवलोग' शब्दार्थे, सूत्र० १४० २
भ० ३ उ० ।
देवलोयगमण-देवलोकगमन - न० । ' देवलोगगमण ' शब्दार्थे,
स० 9 अङ्ग ।
देवलोयसमाण- देवलोक समान त्रि० । 'देवयोगसमा 'श ब्दार्थे, दश० १ ० ।
देवबंद विहि-देववन्दनविधि-स्त्री० । देवस्तवनविधौ, घ०२० (अस्य व्याख्या 'वंदन' शब्दे ) विंशतिस्थानाऽऽदिषु देववन्दनं मुखां बिना घटते । न वेति प्रश्ने, उत्तरम् - मुख्यवृत्या मु स्वस्त्रिकां विना देववन्दनं न घटते । २०३ प्र० । सेन० ३ बल्ला | पदगणनमेकवारदेववन्दनं वा विस्मृतं द्वितीयदिने पारणातः प्राकू तत्करोति यदि तड़ा शुद्ध्यति, न वेति प्रश्ने, उत्तर-प्रथम विस्तृतपण न पकशोदे पर द्वितीयदि पारण करणादगदिमामानप्रति कियमाएं तु दृश्यत इति
त
तु तन्नियमो ज्ञातो नास्तीति । ३०६ प्र० । सेन० ३ उल्ला० । तथा भीत्रीरहीरसूरीणां प्रतिमा यो देवान् बन्दते, सवासकृत्या अन्यथा बेति प्रश्ने, उत्तरम् श्रीम देवान्दिता शुद्ध यदि माि ता भवति पट्टाऽऽ, तदा तदग्रे बासकेपं कृत्वा देवा व
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(१६२५ ) देववंदविहि भनिधानराजेन्द्रः।
देवसूरि न्दिताः शुद्धयन्तीति । १५४ प्र० । सेन. उदा० । पौषधिके मुषस्य विजयद्वारं देवोदकसमुषप्रापर्यन्ते नाम द्वीपपूर्वार्थत्रिसन्ध्यं विस्तरेण देवा वन्द्यन्ते, तदक्षराणिक सन्ति, मध्या- पश्चिमदिशि,अत्रेति वक्तव्यम्-राजधानी विजयद्वारस्य पश्चिम हे देवबन्दना तु सामाचारीपौषधविधिकरणाऽदिषु दृश्यते दिशि देवं समुतिर्यगसंख्येयानि योजनशतसहस्राणि भवइति प्रइने, उत्तरम्-यद्यपि पौषधिकथाद्धानां सामाचार्यादिषु । गाह्य वक्तव्या । एवं वैजयन्तजयन्तापराजितद्वारवक्तव्यताऽपि मध्याह्न पच वन्दनं दृश्यते, तथापि “पडिकमश्रो गिहिणो | जावनीया,नामान्वर्थचिन्तायामपि देववरदेवमहावरी देवी,शेष वि हु, सगवेला पंच वेल इअरस्स । पूनासु तिसंझासुम, तथैव यथा देवो द्वीपः । जी० ३ प्रति । होइ तिवेला जहन्नेणं" ॥१॥ इत्याद्यकरवशास्त्रिकाल पूजास्था- देवसम्मण-देवशर्मन-पुं० । काम्पियनगरासने कस्मिश्विद नीयत्वेन परम्परागतत्वेन च त्रिका देववन्दनं युक्तिम देवेति। ग्रामे स्थिते गौतमप्रतिबोधिते (तं०) स्वनामख्याते ब्राह्मणे, २९ प्र० । सेन०२ उल्ला० ।
उत्त०१३ अ. । श्रा० चू• । कल्पना०म० । जम्बूद्वीपे देववर-देववर-पुं०। देवसमुद्रे, स्वनामख्याते देवे, सू० प्र० | पेरवते वर्षे अस्यामेवोत्सपिण्यां जाते देवसेनापरनामके स्व१६ पाहु। चं० प्र०। जी० ।
नामख्याते एकादशे तीर्थकरे, स.। देववायग-देववाचक-पुं० । नन्द्यध्ययनकर्तरि दृष्यगणिशिष्ये देवसयाणिज्ज-देवशयनीय-न० । देवशय्यायाम, जी। स्वनामख्याते प्राचार्य, नं०।।
तीसे गं मणिपेढियाए उपि एत्थ णं एगे महं देवदेवविम्गहगह-देवविग्रहगति-स्त्री० । देवानां नाकिनां विन- सणिज्जे पएणते, तस्त णं देवसयणिजस्स अयमेतारूवे हान् क्षेत्रविभागानतिक्रम्य गतिगमनं देबविग्रहगतिः। स्थिति- वएणावासे पएणत्ते। तं जहा-नाणामणिमया पेढीपादा सो. निवृत्तिलक्षणायामृजुवक्ररूपायां विहायोगतिकमाऽऽपाद्याया
वलिया पादा नाणामणिमया पायसीया जंबूणदमयातिं गचा गती, स्था० १००।
ताई वइरामया संधी नानामणिमए वेजे रयतामया तुली लोदेववूह-देवव्यूह-पुं० 1 देवानां व्यूहः साङ्घामिकम्यूह श्व यो दुरधिगमत्वात्स देवव्यूहः । सागराऽऽदौ, स्था० ४०१
हियक्खमया विव्वोयणा तवणिजमई गंमोवहाणिया,सेणं उ० भ०।
देवसयणिज्जे सानिंगणवाहिए हओ विन्बोयणे हो देवसइ-देवस्मृति-स्त्री० । “नमो बीअरायाणं सचराणं तेलो. नएणए मज्कणए गंजीरे गंगापुझिणवालुउद्दालसालिसए कपूश्ाणं जहहिमवत्युवाईणं ।" इत्यादिरूपे जिनस्मरणे, नवचितखोमगुरपपमित्थयाणे मुविरइयत्ताणे रत्तंसुयध०२ अधि•।
संबुमे सुरम्भे आईणगरुत्तचूरणवर्णीयतून फासमनए पादेवसंघ-देवसङ्घ-पुं०। देवसमुदाये, औ०।
सातीए । जी० ३ प्रति०। देवसंसारविउस्सग्ग-देवसंसारव्युत्सर्ग-पुं० । संसारव्युत्सर्ग- | देवसिअ-दैवसिक-त्रि० । दिवसेन निवृत्तो दिवसपरिणामो भेदे, प्रा०।
बा देवसिकः । दिवसभवे, प्राब०४०। ध० । प्रव० । देवसक्खिय-देवसाक्षिक-त्रि० । देवताः साक्विणो यत्र तहे- श्रा०म० । प्रा०चू०। स्त्रियां की । दिवसे नया देवसिकी। वसाविकम् । देवसाक्किमति प्रत्याख्यानाऽऽदी, पा०।
दिवसभवायाम, औ० । प्रतिक्रमणभेदे, (तद्वक्तव्यता 'पद्धि
कमण' शब्दे वक्ष्यते) देवसम्पत्ति-देवसंज्ञप्ति-स्त्री० । देवसंज्ञप्तर्देवप्रतिवाधना या सा तथा । प्रवज्यानेदे, स्था० १. ठा. । " उदायणसंबोह।
देवसीह-देवसिंह-पुं० । मधुरानगरस्ये स्वनामस्याते श्रमणोपापजावाई देवसम्मानी।" पं0 ना० । पं० चू०।
सके, ती० ए कल्प। देवससिवाय-देवसन्निपात-पुंगदेवानां भुवि समवतारे, "ति- | देवमुंदर-देवसुन्दर-पुं०।सोमतिलकत्रिशिष्ये स्वनामख्याते हिंगणेहिं देवसन्निवाए सिया। तं जहा-अरहतेहिं जायमाणे
सूरी,ग०४ अधि। स च विक्रमसंवत् १४४७ मिते तपागच्छे हिं श्ररहंतेहि पम्वयमाणेहिं अरहताणं णाणुप्पयमहिमासु,
विद्यमान यासीत,विक्रमसंवत्-१३६६मितेऽस्य जन्म,विक्रमसं. एवं देवुकलियादेवकहकहए।" स्था० ३ग० १ उ०। (अ.
वतू-१४०४ मिते दीक्षा, विक्रम संवत्-१४२०मिते सूरिपदं कानईतां परिनिर्वाणमहिमासु देवसन्निपातो 'लोगुजोय' शब्द)
सागरकुलमएमनगुणरत्नसोमसुन्दराश्चेति शिष्यास्तस्याऽऽसन् ।
जै००। देवानां सन्निपातः समागमो रमणीयत्वाद्यत्र स तथा । देवसभागमापेते शिलापट्टकाऽऽदौ, भ० २श. १००। देवसङ्घाते देवसुय-देवश्रुत-पुं० । जम्बूद्वीपे भारते वर्षे स्वनामयाते षष्ठे च । रा०।
भविष्यति जिने, प्रब०७ द्वार। तथा षष्ठं देवश्रुतजिन बन्दे।" देवसत्त-देवशत-पुं०। नपुंसकभेदे, ग.१ अधि०। पं० भा०। प्रब० ४ द्वार । ती०। . देवेहि सत्तो देवसत्तो।" पं० चू०।
देवमूरि-देवसूरि-पुं० । स्याद्वादरत्नाकर-(रत्ना. १ परि०) देवसमुद्द-देवसमुघ-पुं० । स्वनामख्याते समुझे, " जत्थ देवोदे
जीवानुशासनवृत्तिकारके,जीवा०३६ अधिपतस्य महात्मनः ममुद्दे दो देवा महडिया देववरा देवमहावरा।"देवः समुछी वृ. संक्तिप्तमितिवृत्तम-गुर्जरदेशे मदाहृत ग्रामे देवनागगृहपतेतो वलयाकारसंस्थानसंस्थितो यावत् परिकिप्य तिष्ठति, अ- र्जिनदेव्यां भार्यायां पूर्णचन्छस्वप्नचितः सुतो जरे, स्वप्नाप्राऽपि समचक्रयालाऽऽदिसूत्राणि तथैव, नवरं देवोदकस्य स. नुसारेण पूर्णचन्द्र इति नाम्ना प्रसिकिमगमत् । भृगुकच्चपु
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(२६२६) देवसूरि अभिधानराजेन्धः ।
देवाणुभाग रे विक्रमसंवत्-११५२ वर्षे मुनिचन्छसरिपाचे दीक्षां जग्रा. | देवाऽदेव-देवातिदेव-पुं० । देवान् शेषानतिक्रान्ताः पारमाह । तदानीं रामचन्द्र इति नाम-लेभे, पश्चात्तव्याकरणसादि
| थिंकदेवत्वयोगाद्देवातिदेवाः पञ्चविधनव्यहव्यदेवाऽऽदिदेवत्याऽऽधने कशास्त्रेषु परिनिष्ठां प्राप्य विक्रमसंवत्-११७४ सूरि- भेदे, भ०१२ श०६ उ०। पदं सहैव च तेन देवसुरिरिति नाम लब्धम् । ततः क्रमेण
देवाज्य-देवाऽऽयुष्-न । देवानामायुकम्मणि, " चउहि ठाधवनकपुरे उदयश्रेष्टिकारितसीमन्धरस्वामिप्रतिमा प्रातिष्ठिपत,
यहि जीवा देवाउयत्ताप कम्मं पगरेति। तं जहा-पगइभदयाए. प्रणहिवपुरपट्टने वाहमश्रावकस्य वीरप्रनुप्रतिमामस्थापयत् । नागपुरराज सिद्धराजा ऽऽक्रान्तममोचयत् । कणांटकदेशे क.
विणीययाए, साकोसयाए, अमचारयाए । "स्था०४ ठा० वत्यां नगर्या गत्वा कुमुदच नाम बादप्रसिद्ध दिगम्ब
४ उ०। राऽऽवार्य वादे पाहूय अणहिल्लपुरपट्टने सिहराजसमक्षं तं प.
देवागमण-देवाऽऽगमन-न० । यद्यपि सुराणामचिन्त्यशक्या राजिग्ये । ततः संतुष्टेन सिराजेन तस्मै दीनारलकं दातुमु.
सर्वत्राऽऽगमनशक्तिरस्ति, तथापि सिद्धान्ते सुराणामागमनं त्सृष्ट, किं तु तेन निष्परिग्रहेण नाङ्गीकृतमिति तत्रैव श्री.
प्रायो निर्माणमार्गेणोक्तं दृश्यत इति । ४६ प्र.। सेन० ५ षभदेवचैत्य तव्येण कारितम् । विक्रमसंवत्-१२२६ वर्षेऽयं
। उल्ला। देवरिदेवलोकमगमत् । जै. इ० । जी० । मुनिचन्मसूरिशिष्ये
| देवाजीव-देवाऽऽजीव-त्रि० । देवं देवं प्रतिमाजव्यमाजीवति । रत्नप्रसूरेगुरौ स्वनामख्याते प्राचार्य, रत्ना०८ परि०। “यरन | जीव अण् । पूजादी, न स्वप्रजया, दिगम्बरस्याऽर्पिता पराभूतिः। प्रत्यक्ष विबुधानां, देवाणंद-देवाऽऽनन्द-पुं०। ऐरवते वर्षे भविष्यति चतुर्विंशतिजयन्तु ते देवसूरयो नव्याः॥२॥"निर्जित जयपरप्रवादाः श्रीदे तमे स्वनामख्याते जिने,स। “देवाणदे य अरहा,समाह पवसुरिपादाः। स्या० । सामन्तनद्रसूरिशिष्ये स्वनामख्याते मरौ, | डिदिसंतु मे।" ति। ग० । सर्वदेवसूरेगुरौ स्वनामख्याते सूरौ, न० ।
देवाणंदसूरि ( ण् )-देवानन्दसूरिन्-पुं० । जयदेवसूरीन्द्रशिवृद्धगच्छमधिकृत्य
प्ये स्वनामख्याते सूरौ, ग०४ अधि०। "अन्नवत्तत्र प्रथमः, सूरिः श्रीसर्वदेवाऽऽह्वः ॥ २१॥ रूपश्रीरिति नृपति-प्रदत्तविरुदोऽथ देवरिरभूत् ।
देवाणंदा-देवानन्दा-स्त्री० । ब्राह्मण कुएमग्रामे कोमालसगोत्रश्रीसर्वदेवसूरि-जज्ञे पुनरेव गुरुचः ॥२२॥" ग.४ अधि। स्य ऋषभदत्तानिधानस्य ब्राह्मणस्य जालन्धरायणसगोत्रादेवसेण-देवसेन-पुं० । देवा सेना यस्य, देवाधिष्ठिता वा
यां भाायां महावीरस्वामिनो मातरि, प्राचा०२७० ३ चू० सेना यस्य स देवसेन इति । शतद्वारनगरस्थे महापद्मापर
१ अ.। पुरन्दराऽऽदिऐन हरिनैगमेषिदेवेन यदुदरात त्रिशलानामके स्वनामण्याते नृपे, " तस्स महापउमस्स रनो दब्वे वि
भिधानाया राजपल्या उदरसंक्रामणं जगवतो महावीरस्य कृनामधिजे नविस्सर देवसेणे ति।" स्था० मन । (पत
तम् । स्था० १००। (पतञ्च 'महावीर'शब्दे स्फुटीनविष्यति) वक्तव्यता महापनम' शब्द बक्ष्यते ) ऐरवतवर्तमानजिनेषु यह खलु जंबुद्दीचे दीवे भारहे वासे दाहिणभरहे दा
बनामग्याते बोमशे जिने, प्रव० ७द्वार । जारते वर्षे भ. हिणमाहणकुंमपुरसधिवेसंसि उसजदत्तस्म माहणस्स विष्यज्जिनस्य विमलवादनस्य पूर्वभवजीवे, "देवसेणो वि- कोमानसगोत्तस्स देवाणंदाए माहपीए जालंधरायणमलवाहयो तित्थयरो । " ती० २० कल्प | नयचक्रप्रन्थकारके स्वनामख्याते दिगम्बराऽऽचार्य, " इत्थमेव समादिष्ट,
सगोत्ताए सीहन्जवनूएणं अप्पाणेणं कुञ्चिसि गम्नं वनयचक्रेऽपि तत्कृता।" द्रव्या० अध्यातजन्म विक्रमसंव.
कंते समणे भगवं महावीरे । प्राचा०२ श्रु० ३ ० १ तू-६५१ वर्षे रामसेनस्व स शिष्यः, तेन दर्शनसारभावसंग्रहत. अ० । स० | प्रा०म० । श्रा० ० । कम्प० । स्वसाराराधनासारधर्मसंग्रहाऽऽयापपस्यादयो ग्रन्था बि- (देवानन्दायाः प्रवज्याऽऽदिवक्तव्यता 'उसभदत्त' शब्दे रचिताः । जै. ० । जहिलपुरनगरे नागस्य गृहपतेः द्वितीयभागे ११५३ पृष्ठे द्रष्टव्या) पक्रस्य स्वनामख्यातायां सुलसानामभार्या यामुत्पन्ने स्वनामख्याते पुत्रे, स चारिएनेमे
पश्चदश्यां रात्रों, जं०७ वक्षः। चं०प्र० । कहप० ।" जहा रन्ति के प्रवज्य शत्रुजये सिक इत्यन्तकृशानां पञ्चमेऽभययने | देवाणंदा पुष्फचूनाणं अंतिए।" नि०१ श्रु०४ वर्ग २० । सूचितम् । अन्त.१ वर्ग १ अ०।
देवाणुपुवी-देवानुपूर्वी-श्री• । एकोनविंशतितमे शुभकर्म. देवसेणगणि-देवसेनगणिन्-पुं० । यशोभषसरिशिध्ये पृथ्वीच
भेदे, उत्त० ३३ अ०। न्द्रगुरौ,तेन च पर्युषणकल्पटिप्पणो नाम ग्रन्थो विरचितः। जै०६०। देवस्सपरिजोग-देवस्वपरिजोग-पुं०।देवस्वस्य जिनबिम्बनि
देवाणुपुष्वीए पुच्चा। गोयमा! महमेणं सागरोवमसहआपणार्थ कल्पितत्वेन जिनदेवव्यस्य परिमोगो नक्षणं दे.
स्सस्स एगं सत्तनागं पशिओवमस्स असंखेजजागूणं उवस्वपरिभोगः। जिनदेबद्रव्यभकणे, उपचारात्तद्धेतुकं कर्म दे।
कोसेणं दससागरोवमकोमाकोडीओ दस य वाससयाई वस्वपरिभोगः । तद्धेतुके कर्मणि च । पञ्चा.५विव०। अवाहा । प्रशा० २१ पद । देवा-दवा-स्त्री.दिव० च । पद्मवारियां लतायाम, भस- देवाचिय-देवानप्रिय-पुं० । सरलस्वभाव, करप० १ आध. नपा च । वाच०। प्रा।
| ३ कण । ज०। रा० । विपा० । देवाइ-देवादि-पुं० । देवाऽऽदियोगाद्देवाऽऽदिः । जिने, "देवाइ | देवाणुजाग-देवानुभाग-पु० अद्भुतवाक्रयशरार
वैक्रियशरीराऽदिशक्तियो समणे जगवं महावीरे।" रा०।
गे, नि० १२०३ वर्ग ४ अ०।
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(१६२७) देवाणुभाव अन्निधानराजेन्द्रः।
देवी देवाणुभाव-देवानुभाव-ना कोषदण्डाऽऽदिजाते देवानां तेजो- कायचो जहसत्ति, पवरो देविंदणाएणं ॥७॥ विशेषे, सामथ्र्य च । वाच0 । रा० । स्था० ।
यथा दि भगवतामईतां जन्ममदाऽऽदिषु सुरेन्द्रः सर्वविभूदेवातिदेव-देवातिदेव-पुं० । देवानां मध्पेऽतिशयवान देवातिदे- त्या सर्वाऽऽदरेण च शरीरसत्कारं विधचे, तदन्यैरप्यसो वः। अदति, स्था० ५ ठा० १ ० ।
विधेयः ॥ ७॥ पञ्चा• ए विवा। देवारण-देवारण्य-न० । देवानां क्रीमास्थाने, ज्यो०६ पाह। देविंदत्थव-देवन्धस्तव-पुं० । देवेन्द्रबक्तव्यताप्रतिषद्ध स्वना. तमस्काये, देवारण्यमिति वा बलवदेवभयानश्यतां देवानां त-1 मख्याते प्रकीर्णकग्रन्थभेदे, द.१०। थाविधाऽऽरण्यमिव शरणभूतत्वात् । भ०६ श० ५ उ01
देविंदपूइय-देवेन्द्रपूजित-पुं० । देवेन्द्राः शक्राऽऽदयस्तैः पूजिदेवावास-देवाऽऽवास-पुं० । देवानां वनपत्यादीनां स्थानेषु, | तेषु समभ्यर्चितेषु अईत्सु, पं० सू०१ सूत्र । भ० १३ श०२ उ०। (तद्वक्तव्यता 'गण' शब्देऽस्मिन्नेव | देविंदमुणीसर-देवेन्द्रमनीश्वर-पुं० । रुरुपासीयगगेभषे जागे १७०२ पृष्ठे अष्टपा) अश्वत्थबुके, चाच०।
सातिलकसरिशिष्ये, स च विक्रमसंवत् १४७० वर्षे विद्यदेवावासंतर-देवाऽऽघासान्तर-न। देवाऽऽवासविशेषे, भ. मान प्रासीत, तेन च प्रश्नोत्तररत्नमालावृत्तिनामा ग्रन्थो बि२००३ उ०।
रचितः। जै००।। देवावृक्कलिया-देवोत्कानका-स्त्री० । देवकलिया' शब्दाथै,
देविंदसूरि-देवेन्धसूरि-पुं० । जगश्चन्द्रसूरिशिष्ये, धर्मरत्नटीस्था०४ ग. ३००।
काकारके स्वनामख्याते प्राचारये, ध० र० । देवभवसरि
शिप्पे च ।बृ०६ उ०। "वाझतिणं निचं देविंदसुरी जियदेवासुरसंगाम-देवासुरमग्राम-पुं० । देवासुरयुद्धे, भ०। महविहवा जे सुयं गीश्नामं जयं ता हुँति।" सका० १ अधि.
अस्थि पं नं ! देवा अमुरा संगामा देवा असुरा। हंता| १ प्रस्ता० । अस्थि । देवासुरेणं भंते ! संगामेसु बट्टमाणेसु किं ण तेसिं| देविंदाइअणुगिति-देवेन्डा उद्यनुकृति-स्त्री० । देवाधिपदेवदेवाणं पहरणारयणत्ताए परिणमंति ?। गोयमा ! जा दानवप्रनृत्याचारानुकरणे, पञ्चा• ६ विव० । णं ते देवा तणं वा कटुं वा पत्तं वा सकरं वा परामसं-देविंदोग्गह-देवेन्डावग्रह-० । भवगृह्यते स्वामिना स्वीक्रियते ति, तं तेसिं पं देवाणं पहरणारयणत्ताए परिणमंति ।
यः सोऽवग्रहः। देवेन्जस्य शक्रस्य ईशानस्य वाऽवग्रहः। दक्किजहेव देवाणं तहेव असुरकुमाराणं । णो णढे समढे,।
णमोका, उत्तरे च । प्रति०। भ० । देवेन्द्रस्य झोकमध्यवर्तिरु
चकदक्तिणामवग्रहः। प्राचा०श्च०१०७ अ०१ उ.। अमरकुमारा पं देवा ण णिच विनब्धिया पहरणर-सोमवार देवेन्झोपपात-पुं० । स्वनामख्याते कानिकश्रुतयणा पमत्ता।
भेदे, पा। (जंण देवा तण वा कट बेत्यादि) इह च यद्देवानां तृणा.
देविंधयार-देवान्धकार-न० । अन्धकारभेदे, स्था । ऽद्यपि प्रहरणीयं भवति तदचिन्त्यपुण्यसंभारवशास्सुनुमचक्रवर्तिनः स्थानमिव, असुराणां तु यन्नित्यविकुर्वितानि तानि
तिहिं गणेहिं देविंधयारे सिया । तं जहा-अरिहंतेहिं जवन्ति तदेवापेकया,तेषां मन्दतरपुण्यत्वात्तथाविधपुरुषाणा.
वोच्छिजमाणेहिं, अरिहंतपन्नते धम्मे वोच्छिषमाणे, मिवेत्यवगन्तव्यमिति । भ०१८ श०७०।
पुव्वगए वोच्छिज्जमाणे ॥ देवाहिदेव-देवाधिदेव-पुं० । देवानामिन्द्राऽऽदीनामधिका देवाः देवानां भवनाऽऽदिष्वन्धकार देवान्धकार, लोकानुजावादेखेंपूज्यत्वाद्देवाधिदेवा इति । अष्टादशदोषरहितेषु, दर्श०१ तव ति, लोकास्धकारे उक्तेऽपि यद्देवान्धकारमुक्तं तत्सर्वत्रान्धकातीर्थकरेषु, ते च चतुर्विशत। स०२३ समाव (तद्वक्त- रसद्भावप्रतिपादनाथमिति । स्था० ३०१ उ०। ध्यता 'तित्थयर' शब्देऽस्मिन्नेव भागे २२७४ पृष्ठे व्या) देविकि-देवर्कि-स्त्री० त्रिधात्रिधा प्रकाराज्यां पट्धा देवभायलस्वामिगढस्थायां जिनप्रतिमायां च । भायलस्वामिगढे| धिः। स्था०३०४०। देवाधिदेवः। ती० ४३ कल्प । प्रा० क० । निचू०। रशीदेवती-स्त्री० । स्त्रीभेदे, जी०२ प्रति। (तद् वक्त. देवाहिवा-देवाधिपति-पुं० । देवेषु अधिपतिवाधिपतिः । दे. व्यता 'इत्थी' शब्दे द्वितीय नागे ५५ पृष्ठे गता) वेवधिककान्तिधारिणि, उत्त०११ अ०। सूत्र।इन्छे, सूत्र.टेनिवासय-देविनासत-पुं०। अनुरक्तलोचनायाः पत्यो स्व१व० ६ ०।
नामख्याते उज्जयनीनृपे, आव० ४ अ.(तद्वक्तव्यता 'सबदेविंद-देवेन्द्र-पुं० । दीयन्तीति देवा नवनवास्यादयस्तेपा- कामविरत्तया' शब्द वदयते) मिन्द्राः प्रभवो देवेन्द्राः। चमराऽऽदिषु, आव०४०। (० देवी-देवी-स्त्री० । दीव्यति, दिव अप गौरा ङीष् । दुर्गायाम, म०। कल्प। ते च द्वात्रिंशत् । स०।द०प०। उपा०। (त- वाचः। उत्त । "यत्प्रभावादवाप्यन्ते, पदार्थाः कल्पनां बिना। द्वक्तव्यता 'इंद' शब्दे द्वितीयत्नागे ५३५ पृष्ठे व्या) (दे.
सादेवी संविदे नः स्ता-दस्तकल्पलतोपमा ॥ ३॥" उत्त०१ बानां मनुलोकगमनं 'मणुस्सलोय' शब्दे वक्ष्यते)
अ० मूर्यायाम, स्पृक्कायां च । देवस्य पत्नी की । देवपल्याम, देबिंदणाय देवेन्द्रझान-न. । देवेन्द्रोदाहरणे, पञ्चा।
बाच.। स्था।"देवाणं गवणा मुणेयधा।" देवीनां सुरव.
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(२६९०) देवी अनिधानराजेन्दः।
देसकहा धूनाम् । पश्चा०२ विव० । प्रवराजानमाहष्याम, व्य०३ उ. देवेंदसीहसरि-देवेन्द्रसिंहसूरि-पुं० । अञ्चलगच्छीये अजित. सू०प्र०। प्रइन.1 "तस्स रणं सेजियम्स रएणो धारणी नाम | सिंहसुरिगुरौ, पतेन जैनमेघदृताऽऽद्या ग्रन्था रचिताः। विकमदेवी होत्था।"का०१ श्रु०१०। (देवीवर्णकः 'राज' शब्दे संवत्-१३७१ वर्षेऽयं स्वरगमत् । जै० इ०। वक्यते) जम्बती भारते वर्षे अस्यामेवात्सपिपयां सप्तमस्या- तसर-देउमग्नि-पं० । श्रीमज्जगबरूसूरितपागच्चस्थारनाम्नश्चक्रवर्तिनः स्वनामख्यातायां मातरि, स० । श्राव० ।
पकशिष्ये स्वनामख्याते सूरी, कर्म० १ कर्म० । अयमाचार्यः अत्रैव दशमस्य हरिषेणचक्रवर्तिनः स्वनामख्यातायां पत्न्याम्,
विक्रमसंवत्-१२७०-१३२७ वर्षाणामम्तराले मासीत्, तेन च स० । अस्यामेवात्सपिण्यामष्टादशमस्याऽरस्वामिनस्तीर्थकर
सटीका कर्मग्रन्थः, श्राद्धदिनकृत्यटीकावृत्तिः, नव्यकर्मग्रन्थपस्य स्वनामख्यातायां मातरि, स.।प्रध० । प्रायः । (देवीना.
ञ्चाशकवृत्तिः, सिपञ्चाशकवृत्तिः, धर्मरत्नवृत्तिः, सुदर्शनश्रेमाशातना 'आसायणा'शब्दे द्वितीयभागे ४८३ पृष्ठे व्या)
ष्ठिचरित्रं, देवबन्दनभाष्य, गुरुवन्दनभाध्यं, प्रत्याख्यानभाष्यमृ. विप्रस्त्रीणामुपधौ च । "देव्यस्ता विप्रयोषितः।" इत्युक्ते । वाच॥
षभाऽदिवर्द्धमानान्तस्तुतिः, पाक्तिकप्रतिक्रमणसूत्रवृत्तिरित्यातयेशाने सौधर्म ज्योतिश्चक्रे व्यन्तरनिकाये भसराऽऽदिनिकाये
धने के प्रधाविरचिताः।विक्रमसंवत्-१३२७ वर्षेऽयं स्वर्गतः। च प्रत्येक देवेज्यो देवीवों द्वात्रिंशदधिकद्वात्रिंशद्गुण इति
जै०३० । स्वनामख्याते सूरौ च । “कई पुण देविंदसूरीहिं चप्रज्ञापनायां महादएमके प्रोक्तमत्स्यन्यत्र तु " तिगुणातिरूवन
तारि बिंबाणि अचापुरानो प्राणीयाणि।" ती० १२ कल्प । हिमा।" इत्यादिवचनारसर्वसुरेन्यः सर्वदेवीवों द्वात्रिंशत्रूपा
देवेसरवंदिय-देवेश्वरवन्दित-पुं० । देवेन्द्रवन्दिते, "देवेसरवं. धिकद्वात्रिंशद्गुण इत्यत्रोत्तरवचनं कथं संगच्यते प्रज्ञापनायां सनतकुमाराऽऽदिदेवेभ्यो देवानामधिकत्वप्रतिपादानाऽऽदि.
दियं च मरुदेवं । " स.। प्रइने, उत्तरम्-ईशानाऽऽदिषु यद्देवापेकया देवीनां घात्रिंशद्गु.
देव-देव-पुं० । चतुर्थे विवाहनेदे, ध० । यत्र यज्ञार्थमृत्विजः णत्वं तदीशानाऽऽदिदेवभोग्यदेव्यपेजयाचगन्तव्यं,तेनाधिका अ
| कन्याप्रदानमेव दकिणा स देवः । ध०१ अधिः। पि तत्र देव्यः संभाव्यन्ते, ताश्च सनत्कुमाराऽऽदिदेवापेकया
देवोववाय-देवोपपात-पुं० । जम्बूद्वीपे भारते वर्षे आगमिष्यगएयमाना द्वात्रिंशदधिकद्वात्रिंशद्गुणा नवन्तीति न कइच- त्यामुत्सपिपयां त्रयोविंशतितमे स्वनामस्याते भविष्यति तीर्थ न प्रज्ञापनोपाले "तिगुणा तिरूव अहिश्र ति" गाथोक्तनाबा.| करे, स.। र्थयोर्भेद इति । ४१ प्र.। सेन० 1 उ•।
देस-देश-पुं.दिश-अच् । जनपदे, वृ. ४ ० । जीत० । देवीपमिमा-देवीप्रतिमा-स्त्री० । देण्या मूर्ती, " तत्य रक्षो दे. स्थामावनिचरामपाले. स्था.५०३००। पीओ य पडिमा कया।"प्रा. म.१०२ खण्ड। ।
जन्मक्षेत्राऽऽदी, स्था०३ ठा०३ उ०। प्रदेश, स्था०३०३ उ०। देवुक्कलिया-देवोत्कलिका-स्त्री०। देवानां वा तस्यैवोत्काले
भ.अनु.प्रकारे, विशे। स्था० । अवयवविशेष, स्था०
१ ठा। जी० । अंशे, प्रातु०। प्रश्न। पूर्वाऽऽदिदि कु. स्था•७ का देवोत्कलिका। प्रा० म०१ भ०१ खपम । प्रश्न तत्समवा. यविशेष, स्था० ३०१०।रा। देवल हरौ च । स्था०४
ठा। एकदेश, उपा-१ अ०। प्रस्तावे, विशे० । देशः प्रस्तावो
ऽवसरो विभागः पर्याय इत्यनान्तरम् । दश०१०। प्रा० ठा० ३.(देवोत्कलिका कुत्र अवति इति 'लोगुजोय' शब्दे वक्ष्यते)
म। विशे• । प्रामनगराऽऽदौ, हा०१२ अष्टादेशनं देशः।
कथने, विशे० । प्रा० म० । देवुज्जोय-देवोदद्योत-पु.। देवप्रकाशे, स्था।
देसकहा-देशकथा-स्त्री० । तृतीये विकथानेदे. ग.१ अधिः । तिहिं ठाणेहिं देवुज्जोओ सिया । तं जहा-अरहंतहिं देसकडा चउबिहा पता। तं जहा-देसविहिकहा, देसजायमाणेहिं, भरइतेहिं पचयमाणेहि, अरहंताणं णाणु विभप्पकहा, देसच्छंदकहा, देसनेवत्थकहा। प्पायमहिमासु । स्था० ३०१ उ० । आम० । रा०।
तथा देशे मगधाऽऽदौविधिविरचना जोजनमणिभूमिकाऽऽदी. (अर्हतां परिनिर्वाणमहिमामु देवोद्योतो नवति इति 'लो.
मां, तुज्यते वा यद्यत्र प्रथमतयेति देशविधिस्तकथा देशविधिगुजोय ' शब्दे बयते) -
कथा । एवमन्यत्रापि, नवरं विकल्पः सस्यनिष्पत्तिः, वप्रकृपादेवेंदगाणि (ण)-देवेन्जगणिन्-पुं० । देवभनगणिशिष्ये त-| दिदेवकुलनवनाऽदिविशेषश्चेति। बन्दो गम्यागविभागो पागधस्थे स्वनामख्याते गणिनि, देवभजगणिमधिकृत्य-"ते. यथा लाटदेश मातुनभगिनं। गम्या, अन्यत्राऽगम्येति । नेपथ्य षामुमो विनेयौ, देवेन्गणीन्द्रविजयचन्हाहौ।" ग०४ अ.
स्त्रीपुरुषाणां वेषः स्वभाषिको विभूषा प्रत्ययश्चेति शह दोषाः। धि०। वृकगच्छीये आमूदेवसूरिगुरी, स च चिक्रमसंवत्
स्था०४ ग. २ उ०। प्राव० । दर्श• । नि० चूः। श्री०। ११२६ मिते विद्यमान प्रासीत् । उसराभ्ययनसूत्रोपरि टीका
स०। प्रश्न प्रा००। प्रबचनसारोकारग्रन्थ पाख्यानमणि कोशश्चेत्यादिका अन्धा
श्याणि देसकदाअनेन चक्रिरे, अयमाचार्यः सैद्धान्तिकशिरोमणिनाम्ना प्रसि
छंदं विधी विकाप, णवत्थं वाहुविहं जणवयाणं । द्धः । जै० इ।
एता कथा कधिते, चतु जमला मुक्किमा चनरो॥१२॥ देवेंदवंदिय-देवेन्द्रवन्दित-पुं० । देवानां पनपतिव्यन्तरज्यो- गाहापच्चकं तदेव । तिकवैमानिकानामिकाः स्वामिनों देवेन्द्रास्तै वितेऽईति,
अम्गद्धस्सइमा वक्खाकर्म.२कम1
उंदो गंमं विधि रय-या चेव य ज य ज पुन्छ ।
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(२६२५) देसकहा अभिधानराजेन्डः ।
देसपाइ (ण) सारणिकूवविकल्पो, णवत्थं नोयमादीयं ॥ १६ ॥
भथाप्रशस्तस्य कार्यस्थ निश्चयोपापपूर्वक प्रस्तावकालमाहछंदो पायारो, गम्मा जहा लामाण मा उहिया, माउसस्स
निम्मच्छियं महुं पा-यमो निही खजगावणो सुनो। धूया वा गमा,विह। नाम वित्थरो,रयणा णाम जहा कोलज्ञावि. जा यंगणे पसुत्ता, पनत्यवइया य मत्ता य ॥२०६५॥ सए श्राहारभूमी हरितोवित्ता कजति, पउमिणिपत्ताइपहि निर्माक्विकमपगतसकलमाविक मधु, तथा प्रकटश्चाकाभूमी अत्यरिजति, ततो पुरणावयारो कजति, तो पत्ती शीनूतो निधिः, इत्येतद् दृष्ट्वा तद्ग्रहणस्य यः प्रस्तावो शा. उचिजति, ततो पासोहि करोडगा कट्टोरगा मंकुया सिप्पी-| यत सदेशकालः । तथा खाद्यकाऽऽपणः कल्सरिकहरः शन्य श्रो य ठविति,चजते य ज पुवं,जहा-कोकणे पया,उत्तराव. इत्यवलोक्य यस्तद्गतखाद्यानां ग्रहणप्रस्तावो निश्चीयते, तहे सत्तुया,अनेसु वा जे विसएस दाऊण पच्चा अगमवक्ख.
था या वाङ्गणे प्रस्तुप्ता प्रोषितपतिका द मदिरामत्ता च, तस्या प्पगारा दिअंति, सारणीकूवाईश्रो विकमा भएणति, णेवत्थं अपि तदानीमतीवमद नाऽऽकुनीकृतवाद्यो ग्रहणप्रस्तावो विज्ञाभोयमादीयं भवति । भोथमा णाम-जा मामाणं कच्ग साम- यते.स सर्वोऽपि देशकालः। इति नियुक्तिगाथाद्वयार्थः ॥२०६५।। रहयाण जोयमा जगति, तं च बाबप्पनिर्ति स्थिया ताव |
विशे०। बंधति,जाव परिणीया,जाव य आवएणसत्ता जाया, ततो भा
देसकाल जाणण-देशकालज्ञान-न । देशकालकतायाम्, प्रव. यणं कज्जति, सयण मेलेऊण पमओ दिजति, तप्पभि फिट्ट
६द्वार। जोयमा । इदाणि देसकदा दोसदरिसणथं भएणति
देसकालजुय-देशकालयत-
त्रिकेत्रकालोचिते, प्रशा०१ पद ।
देसकालएपाया-देशकालता-स्त्री० । अवसरोचितार्थसरागद्दोसुप्पत्ती, सपक्खपरपक्खो य अधिकरणं ।।
म्पादनरूपायां प्रस्तावइतायाम, भ० २५ श०७ उ० । बहुगुण इमो त्ति दोसो, मोत्तुं गमणं व प्राणेसिं ।१७।।
देसकालदाण-देशकालदान-न । कटकाऽऽदी विशिष्टनृपतेः देसकहा तं जं देसं वरणेति, तत्थ रागो, इयरे दोसो,
प्रस्तावदाने, दश ६ अ.१०। रागदोसो तं कम्मबंधो, किंच-सपक्खेण वा परएक्खेण चा सह अदिकरणं भवति, कह , साधू पगं विसयं पसंसति,
देसकामभावाण-देशकालभावक-पुं० । देशं कासं जावं च अवर जिंदति, ततो सपक्खण वा परपक्खेण वा जणितो-तुम
जानातीति देशकासभावक्षः । देशकालभावानां ज्ञातीर, प्रब० । किं जाणसि कूवमुक्को ?, तो उत्तरपच्चुत्तरातो अधिकरणं
देशं कालं भावं च लोकानां झारखा सुखेन विहरति शि. भवति । किं चान्यत-देसेवमिजमाणे अराणा साहू चितेति
प्याणां वाऽभिप्रायान् ज्ञात्वा सुखेनानुवर्तयति । प्रब० ६५ बहुगुणो इमो देसो परिणग्रो, सो वपिणी सोउं तत्थ गच्च
द्वार । आचा। ति। देसकाह ति दारं । नि० चू० १३.।
देसकामावइत्ता-देशकामाव्यतीतत्व-न० । प्रस्ताबोचितताकदेसकाल-देशकान-पुं० । देशः प्रस्तावोऽवसरो विभागः प
पेचतुर्दशे सत्यवचनातिशये, स. ३५ समारा
| देसकालसंवरण-देशकालसंस्मरण-न0 J स्मरणभेदे, व्य. र्याय इत्यनर्धान्तरम् । स देशरूपः कालो देशकालः। अभी. प्सितवस्त्तवाप्त्यवसरकालरूपे कालभेदे, विशे० । पातु० । मा०। चू०।
देसग-देशक-पु.। देशयति कथयतीति देशकः । कथके, स० इदानी देशकालमनिधित्सुस्तत्स्वरूपं विवृण्वन्नाह- १ सम । जो जस्स जयावसरो, कज्जस्स मुभासुभस्म सो पायं । | देसग्ग-दंशाग्र-न० । नहाइ स देसकायो,देसोऽवसरोत्ति थक्को त्ति ॥२०६।।। देसघात ( ण् ) देशघातिन्-न० । स्वघात्यज्ञानादेर्गुणस्य देशं देशः, अवसरः, थक्कमिति पर्यायाः, तद्रूपः कालो देश
मतिज्ञानाऽऽदिलकणं घातयन्तीत्येवंशीलानि देशघातीनि । दे. कामः,स भण्यते। क इत्याद-यो यस्य शुभस्याशुनस्य वा का
शघातिप्रकृतीनां रसस्पर्ककनेदे, पं० सं०५ द्वार। देशघायस्य निश्चितो यदाऽवसरः स देशकालो नरायते, कथं नि
तीनि रसस्पर्द्धकानि भवन्ति । स्वस्य शानाऽऽदेर्गुणस्य देशश्चितः, इत्याद-सोपायं वक्ष्यमाणोपायत इत्यर्थः । इति गा.
मेकदेशं मतिज्ञानाऽऽदिलवणं घातयन्तीत्येवं शीलानिदेशघाथार्थः ।। २०६३ ॥
तीनि तानि चानेकप्रकारविशतसकुलानि । तथाहि-कानि. तत्र शुभस्य साध्यादिनिकालकणस्य कार्यस्य निश्चयो
चिद् अनेकवृहच्छिद्रशतसंकुलानि, बंशदननिर्मापितकटवत ।
कानिचिन्मध्य मानेकच्चिद्रशतसकुमानि,कम्बलवत कानिचि. पायगर्म प्रस्तावकालमाद
त पुनरतीच सूक्ष्मानेकच्चिदशतसकुलानि,तथाविधवस्त्रवत । निछमगं च गाम, मिहिनाभं च सुष्मयं दटुं।
तथा तानि स्तोकस्नेहानि विशिष्टनर्मल्यरहितानि च भवन्ति । नीयं च काय श्रोनि-ति जाया निक्खस्स हरहरा।२०६४।
तथा चोक्तप-"देसविघाइतो , इयरो कडकंबल ससंओदनाऽऽदिपाकक्रियापरिसमाप्ती निर्द्रमकं च ग्राम, पानीय
कासो । बिविहबहुछिदभरित्रो, भप्पसिणेहो प्रविमनोय" वादिकामहिलास्तूनं च, कूपाऽऽदितट शून्यं दृष्ट्वा तथा नीचं
॥१॥क० प्र०।
देशघातिस्वरूपमाहच काकाः, (ोलिति ति) अवलीयन्ते गृहाणि प्रत्यागच्च. म्तीत्यादि च चिहं दृष्टा जानीयात् , यथा संजाता कस्य
देसविघाइत्ता ओ, श्यरो कमवलंसुसंकासो। (हरहर त्ति) अतीव भिवाप्रस्ताव इति ॥ २०६४।।
विविहबहुबिदभरियो, अप्पसिणेटो अविबलो य॥३०॥
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(२६३०) भन्निघानराजेन्द्रः |
देसघाइ ()
इतरो देशघाती देशवातित्वात् स्वविषयैकदेशघ विश्वास यति स च विविधतिः तद्यथा कश्चित् शनि
पारिसिंकुलः कश्चित्कस्थल मध्यमविवरशतसंकुन्नः, कोऽपि पुनस्तथाविधमसृणवासोवद तीव सूक्ष्मविवरसंवृतः । ( कडकंबलंसुसंकाल इति ) कटो वं.
देवणी देशनी स्त्री० [प्रापम्याम् दश० ७ ०
निर्मापितः कम्बल ऊर्जामया, अशुकं तत्का शः, तथा स्वरूपतोऽल्पस्नेहः स्तोकस्नेहा विभाग समुदायरू पः अविमलश्च नैर्मल्यरहितश्चेति गाथार्थः ॥ ३८ ॥ पं० सं. ३ द्वार। देशघातिर स्पर्धकान्ते प्रकृति स्त्री० । पं० [सं० ३ द्वार" देवम्याइरसेणं, पईओ होति दे सपाईयो।" देशातिरसेन देशखातिर प्र यो मतिनार 53दिरूपापविशतिदेवस्य देशनेपथ्य-म० देशानुकूलेपुरा घातिन्यो व्यवान्यन्ते । कर्म० ५ कर्म० पं० सं० ( ताइच विज्ञाना 35वरणादिः पञ्चविंशतिः 'काम' शब्दे तृतीयभागे २६६ पृष्ठे बक्ताः )
देखाइ (ण् ) देशत्यागिन् पुं० देशस्य जन्मक्षेत्र स्थानों देशत्यागः, स यस्मिन्नचिनये प्रभुगानी प्रदानाऽऽदावस्ति स देशत्यागी । जन्मक्कत्राऽऽदित्यागवत्यविनये, स्था० ३ वा० ३ उ० । निं० चु० ।
देसच्चाय - देशत्याग - पुं० । जन्म के त्राऽऽदित्यागे स्था० ३८०
३ उ० ।
देसच्छंद्र - देशच्छन्द -पुं० । देशविषयके गम्यागम्यविभागे,
स्था० ३ ठा० ३ उ० ।
कहदेशच्छन्दकच्या स्त्री० देशका ३ ठा० ३ उ० । ( व्याख्या "देसकहा " शब्दे गता ) देसजइ - देशयति- पुं० | " सध्वेण च देखेण च, तेण श्रो होइ देई । " सर्वेण द्वादशवताऽऽत्मकेन देशेन वाऽन्यतरत्र - तप्रतिपत्तिलक्षणेन युक्ते श्रावके, श्रातु० । " सम्मईसएसओदितो विरश्मप्पनसीए एगववाहचरिमो अणुमोति देसजई ॥१॥ " कर्म० २ कर्म० । देसजय - देशयत - पुं० । देश संकल्पनिरपराधत्र सवधविषये यतं यमन संयमो यस्य स देशयतः सम्यम्
ऽऽदिधारिणि अनुमतिमात्रश्रावके, यदाह श्रीशिव शर्मसूरिवरः कर्मकृतौ -" एगन्वयाइ चरमो अणुमोयर तत्ति देसजई । कर्म० ४ कर्म० ।
"
देसजुपदेशयुत-पुं०
गुणानां प्रथमे
यो मध्यदेशे जातो यो विशतिषु जनपदेस देशतः, स ह्यार्यदेशभणितं जानाति । ततः सुखेन तस्य समीपे शिष्याः सर्वेऽप्यधीयते । प्रव० ६४ द्वार | देड- देश - पुं० । " एवंपरंसमंधुवं मामनाकू एम्ब पर समाणु मं मणानं " ॥ ८ । ४ । ४१८ ॥ इत्यत्र प्रायोग्रहणाद् देशस्य देसडाऽऽदेशः । स्थाने, "माणि पश्ट्टश् जइ न तष्णु, तो देसमा बहुज । "माने यदि शस्त्यज्यते । प्रा० ढुं० ४ पाद । देसण-देशन - न० । प्ररूपणे, नं० ।
ध्रुवु
दे
०
देखणा देशना - स्त्री० । धर्मकथायाम्, घो० १४ विव० र० । स्था० । कथने, जी० २७ अधि० । श्राख्यातं भगवतेदं न
देसदंसण
कुयादिनिःस्मृतं यथा कचिदन्युपगम्यते "समिध्यानस मापदस्थ निःसरति यथाकामं कुमधा ssदियोऽपि देशनाः ॥ १ ॥ " स्था० १ ठा० । देसग्गिमण- देश निर्गमन न० । देशेषु विहारक्रमकरणे, व्य
३ उ० ।
देसरिणसूद्ग - देशनिषूदक - त्रि० । देशविनाश के, "विशास्त्र जूतिजीवश्च भवं भ्रान्त्वा ऽथ केसरी । जज्ञे तुङ्गगिरौ शङ्ख-पुरादेशनिकः ॥१॥" ०० ।
-
-
येथे
देशकथाभेदे, स्था• ४ ० २ ० । ( व्याख्या 'देसकड़ा' शब्देअनुपदमेव गता )
|सस - देशदर्शन - न० शनि ०
9
शिष्यः पृच्छति ?, तेन जिनकल्पिकपदवी संपादयितुमिच्छता प्रादश वर्षाणि सूत्रग्रहणं कृतं द्वादशवर्षैरर्थः समग्रोऽपि गृहीतः, अतो देशदर्शनेन विना किमिवास्य न सिद्ध्यतीत्युच्यतेजवि पगासोऽहिओ देसीनासाजुओ तहा वि खलु । तडुय सियाय बीसुं, परयामाई य पच्चक्खं ।
यद्यपि तेन प्रकाशोऽर्थः सूत्रस्याचिगतः सम्पतिः चापि खलु निश्वयेनासी विनेयो देशदर्शनेन देशीजापान कर्तव्यः । कुतः ?, इत्याह- (नकुय इत्यादि) उडुकमिति स्थानम्, (लियति स्वास्यादभवत्या भजनाचा तत्र भवत्यर्थे सुप्रसिद्धः । श्राशङ्कायां यथा-" दव्वथ जावथ, दथ बहुगुणो ति बुद्धि सिया । " जजनायां यथा-" लिय तिभागे सिय तिनागतिभागे" इत्यादि । (बीसुति) विश्वक्, पृथगित्यर्थः । परकागुन्द्रा मुस्तक - स्वर्थः ते आदिग्रहणात् पापिनीरमित्वादशापविद्धाः शब्दाः तेषु तेषु देशेषु लोकेन तथा तया हियमाणा देशदर्शनं कुर्वता, प्रत्यकमिति प्रत्यक्कृत उपसज्यन्त इति ।
आद-यद्यसौ तान् प्रत्यक्तो नोपलभेत, ततः का नाम न्यूनता भवेत् ?, उच्यते
जोनासो बस गुणिओ पथक्लओन बद्धो । स व चंदो, फुमो वि संतो तहास खनु योऽपि प्रकाशोऽथ बहुशो गुणितः स्वभ्यस्तीकृतः परं न प्रत्यक्षत उपलब्धः, स जात्यन्धस्येव चन्द्रः स्फुटोऽपि सन् खरवधारणे तथैवास्फुटएव मन्तः । त्रयमय था चन्द्रः प्रकटोऽपि साक्षादर्शनं विना जात्यन्धस्य न परिस्फुटाऽऽकारः प्रतिभासते, एवमस्यापि शास्त्रानुसारतः प्रक
अपि प्रत्यक्षदर्शनमन्तरेण न परिस्फुटा व्यवहारोपयोगिनो प्रतिभासन्ते ।
||
यतश्चैवं ततः
आयरियन अभियानो परी नियमे । अपनईयों जहने उजयं किं वाऽरियं तं ॥ भिजन न शदर्शनं कार्यते वा न वा यस्तु भव्य श्राचार्यपद योग्यः स नि.
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(२६३१) देसदसण भनिधानराजेन्द्रः।
देसदसण यमेन यति देशदर्शनाय पर्यटति । स चाऽऽत्मतृतीयो जघन्येना- पियधम्मच जमीरू, साहम्मियवच्छलो असढनावो । पश्यन्तया कृत्वा प्रेपणीयः । किं.च नभयमिति किमृतबहका
संविग्गावे परं, परदेसपवसणे साहू। लप्रायोग्यमिदं क्षेत्रम, नत वर्षावासयोग्यम् ?, तथा किमेतदार्य
नानाप्रकारा मगधमालवमहाराष्ट्रबाटकर्णाटविडगौ मविसापविशतिजनवदमध्यवर्ति, ग्राहोस्विदनाय?,पतत्सर्वमा
दी 55दिदेशभवा या देशी भाषा, तस्यां कुशलः सन् नानापि देशदर्शनं विदधानो जानाति ।
देशीकृतस्य नानादेशभाषानिबद्धस्य सूत्रस्याऽभिलापे नचाअथ देशदर्शनस्यैव गुणान्तराभिधित्सया द्वारगाथामाह
रणेऽर्थकथने च कुशलो भवति, यत एवं ततोऽनेन देशदर्शदंसणसोही थिरकरण, देस अइसेस जणवयपरिच्छा। नार्थ गन्तव्यम् । तथा-नत्रः कृत्सार्थत्वात् कुत्सिता अव्यक्तकाउ सुयं दायव्वं, अविणीया विवेगो य ।।
वर्णविन्नागा नापा येषां तेऽभाषिकास्तेषामप्यसौधर्म कथयति, देशदर्शनं कुर्वतो दर्शन किरात्मनः, स्थिरीकरणं चान्येषां
निःशेषदेशभाषानिष्णातत्वात् । अनाषिकाँश्चापि तद्देशनाषया जबति । (देस त्ति) नानादेशभाषासु कौशलम्, अतिशेषा
प्रतिबोध्य प्रव्राजयति;सर्वेऽपि च शिष्यास्तत्राऽऽचार्ये प्रीति बन्नअतिशया जनपद परवा च जायते, तत एतानि दर्शनशुद्ध्या
न्ति,स्वभाषिको "णेअस्माकमयीमतिकृत्वा। तथा प्रियधर्मा धर्मदीनि कृत्वा विनीतेच्यः श्रुतं दातव्यम् । अविनीतानां विवेक:
श्रधा रवा पापकर्म तस्माद्भीरुरबद्यभीरुः, साधर्मिकाः साधव. परित्यागः कर्तव्य इति द्वारगाथा समासार्थः ।
स्तेषां वत्सो व्यतो भक्तपानाऽऽदिना, भावतस्तु स्खलिता.
ऽऽदिषु सारणाऽऽदिना, अशभावो मातृस्थानरहितः, एवंवि. अथ विस्तरार्थ विभणिषुराइ--
धोऽसौ साधः परदेशप्रवेशने वर्तमानः परमन्यं संयमयोगेषु जम्मण निक्खमाणेसु य, तित्ययराणं महाणुभावाण ।
सीदन्तमपि संविग्नयति सदुपदेशदानाऽऽदिना संविग्नं क. इत्थ किर जिनवराणं, आगाह दंसणं होइ ।।
रोतीति । गतं देशद्वारम्, देशप्रवेशद्वारंवा। जन्मनिष्क्रमणशब्दाच्यां तदाधारभूता नूमयो गृह्यन्ते, जन्म
अधातिशयद्वारमाहभूमिषु अयोध्याऽऽदिषु, निष्कमणनूमिषु जयन्ताऽऽदिषु, चश- मुत्तत्थाथिरीकरणं, अइसेसाणं च होई उनकी। ब्द ज्ञानोत्पत्तिजूमिषु पुरिमतालाऽऽदिषु, निर्वाणभूमिषु स- आयरियदंसणेणं, तम्हा सेविज आयरिए । म्मेतशैलचम्पाऽऽदिपु, तीर्थकराणां महानुनाबानां सातिशया- प्राचार्याणां-दर्शनेन, सेवनेनेति यावत् । सूत्रार्थस्थिरीकरणमा चिस्यप्रभावानां सबम्धिनीषु विहरतोऽत्र किल भगवतां जि- तिशयानां च पूर्वाणामुपलब्धिः प्राप्तिर्भवति, यत एवं तस्माद् नवराणां जन्म जोऽत्र तु भगवन्तो दीक्षां प्रतिपन्नाः, इह सेवेत पर्युपासीताऽऽचार्यान् । केवल ज्ञानमासादितवन्तः, इह पुनः परिवृताः, एवं बहु
एतदेव व्याख्यानयतिजनमुखेन श्रन्या स्वयं च दृष्ट्वा निःशकितत्वभाबादा. गाढमतीव विशुद्धं दर्शनं सम्यक्त्वं भवतीति । गतं दर्श
उनए निसंकियाई, पुब्धि से जाइँ पुच्छमाणस्स । नद्वारम् ।
होइ जो सुत्तत्थे, बहुस्सुए सेवमाणस्स ॥ __ अथ स्थिरीकरणद्वारमाह
उभये सूत्रेऽथे च यानि पूर्व (से) तस्य शङ्कितानि पदानि, संवेगं संविग्गण, जणए मुविहिरो सुविहियाणं ।। तानि आचार्याणां समीपे पृच्छतो निःशङ्कितानि जायन्ते । एवं आउत्तो जुनाणं, विमुच्छझेस्सो सुलेस्साणं ।।
बहुश्रुतान् सेवमानस्य जयः सूत्रार्थविषयेत्यः सातिशयो भ.
वति, अतो बहुश्रुतपयुपासनं विधेयम् । संविग्नानां साधूनां संवेगं जनयति-अहो! अयं जव्याचार्योs
__ अपि चबगाहितसमस्तसिंघान्तसिन्धुरज्यस्तचरणकरणसामाचारीक
भवियाऽऽरिय देसाणं, दसणं कुणइ एस इय सोउं । इत्यं देशदर्शनं करोतीति नावनायाः स्थिरीकरण करोतीस्वर्थः । स्वयं सुविहितानुवानस्तेषामपि सुविहितानां स्व.
अन्ने वि नजमते, विणिकावते य से पासे ॥ यमायुक्तो विकथानिकाऽऽदिप्रमादैरप्रमत्तस्तेषामपि युक्ता
भव्याचार्य एष देशानां दर्शनं करोति इति श्रुत्याऽन्ये ऽपि पनामप्रमादिनां यश्च विशुरूलेश्यः तेषामपि सुलेश्यानामि
युपास्यमानाचार्यसंबन्धिनः शिष्या उद्यच्छन्ते सूत्रार्थग्रहणाऽऽ. ति । गत स्थिरीकरणबारम् । अत्र विशेषज्ञचूर्णिकृता दर्शन
दावुद्यम कुर्वन्ति गृहिणोऽपि च तद्गुणग्रामरजितमनसो वि. शुद्धिद्वारं विवृण्वतेयं गाथा गृहीता, संघेगस्य सम्यग्दर्श- निष्कामन्ति दीक्षां प्रतिपद्यन्ते । (से) तस्य नविष्यदाचार्यनलकणत्वात् संवेगदर्शनेन शुद्धिः कृता नवतीति कृत्वा स्थि.
स्य पार्वे इति । रीकरणद्वारं तु मूलत एव नोपात्तं, हारगाथायामपि " सण
अतिशयानामुपलब्धिः कथं भवतीत्याहसोही देख-पवेस अइसेस जागवयपरिग।" इत्येष एवं पागे मुत्तत्थे अइसेसा, सामायारी य विज्जजोगाऽऽई। गृहीतः, अतस्तदभिप्रायेण गतं दर्शनारिद्वारम् ।
बिज्जाजोगाइसुए, विसंति दुविहा अओ होति ।। अथ देशप्रवेशद्वारं व्यावहे
शहातिशयासिविधास्तद्यथा-सूत्रातिशयाः, सामाचार्यातिनाणादेसीकुसलो, नाणादेसीकयस्स सुत्तस्स ।
शयाः, विद्यायोगाः। श्रादिशब्दान्मन्त्राश्चेति त्रयोऽतिशयाः । अभियावे अत्थकुसलो, होइ तोडणे ण गंतव्यं ।।।
तत्र विद्या स्त्री देवताऽधिश्चिता, पूर्वसेवाऽऽदिप्रक्रियासाच्या वा,
योगाः पादपप्रभृतयो गगनगमनाऽऽदिफना, मन्त्राः पुसषकहयति अभासियाण वि, अजासिए आवि पनयाने।
देवता, परितसिद्धा बा । यद्वा-विद्यायोगाः, चशब्दान्मन्त्रासम्वे वि तत्थ पीई, बंधंति सनासि ओणे ति ।। श्च श्रुते एवं विशन्ति अन्तर्भवन्ति, प्रतो द्विविधा अति
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(१६३२) देसदसण अनिघानराजेन्द्रः।
देसविरइगुणहाण शया भवन्ति, तत्र सूत्रातिशयाः सामाचार्यातिशयाश्वे.
___ अपि चत्येतेषामतिशयानामुपलब्धिरत्राचार्यपर्युपासनायां जयति ।
सकायसंजमाहिए, दाणाइसमानले सुलनवित्ती। अथ सामाचार्या अतिशयं विभावयिषुराह
कालुभयहिए खित्ते, जाण पाक्षिणीयरहिए य ।। णिक्खमणे य पवेसे, आयरियाणं महाणुनावाणं ।
स्वाध्यायहित यत्राखएमे सूत्रार्थपौरुष्यो जबतः, संयमदित सामायारीकुसलो, अ हो गणसंपवेसेणं ।।
स्त्री दोषरहितमल्पबीजरहिताऽऽदि वा । (दाणा त्ति)दानश्रास देशदर्शनं कुर्वाणस्तेषु तेषु नगराऽऽदिषु बहुभुतानामाचा
रादिग्रहणादभिगमश्रारा समाकुलम् । अत एव सुसभा सु. र्याणां महानुभावानां संबन्धी यो गणो गच्छस्तम्मध्ये यः |
प्रापा वृत्तिहेतुराहारस्य सपत्तियत्र तत् सुलनवृत्तिक, तथा सम्यगकीभावेनैकत्रावस्थानलकणेन प्रवेशस्तेन बहुशो ग.
किमिदमागन्तुकभकम, उत वास्तव्यभद्रकमित्याग्रुपलक्षणाद खान्तरेषु निष्क्रमणे प्रवेशे च सामाचारीकुशलो भवति ।
ब्यम । (कालुनयदिए खित्ते त्ति) अमूनि वर्षावासप्रायोकथमित्याह
ग्याणि, भमूनि तु ऋतुबहकालयोग्यानि, इत्युनयकाल हि
तानि केत्राणि जानाति, तथा प्रत्यनीक: साध्वादीनामुपद्रवआगंतुसाहनाव-म्मि अविदिए धन्नसासमाइग्यिा ।।
कारी तहितानि च क्षेत्राणि सम्यग् जानातीति । गतं जनप. उत्पत्तियाउ थेरा, सामायारीउ ठाविति ।।
दपरीक्षाद्वारम् । वृ० १ उ० २ प्रक। भागन्तुकाः प्राघूर्णकाः, उपसंपन्ना बा, तेषां साधूनां भावेडाव. देसधम्म-देशधर्म-पुं० । देशाऽऽचारे, देशधों देशाऽऽचारः । दितै कोशेनाऽभिप्रायेणाऽऽगताः, के वाऽमीत्यपरिक्षाते कॅचि. स च प्रतिनियत एवं नेपथ्याऽऽदिभेदलिङ्ग इति । दश० १ अ01 तू स्थविरा प्राचार्या धान्य शाक्षायामादिशब्दात घृतशालाऽऽदि-देसप्पंत-देशप्रान्त-पुं०। देशस्य शेषसीमायाम्, विपा. १७० ववस्थिता औत्पत्तिकीरनुत्पन्नपूर्वाः सामाचारीः स्थापयन्ति।
। १०। कमित्याह
देसबंध-देशबन्ध-पुं० । देशतो देशापेक्षया बन्धः । बन्धभेदे, सब्बे वि पमिग्गहए, दंसे नीह पिमवायट्ठा ।
ज०० श०६ उ०। प्राहिमरमाइसंका, पमिलेहे व परिसंति ।।
| देसनासा-देशभाषा-स्त्री० । मालवमहाराष्ट्राऽऽदिप्रसिकनाते आचार्याः पिएमपातार्थ भिक्कानिमित्तं साधून निर्गच्छतो।
पायाम्, वृ० ६ उ० । पुरुषद्वासप्ततिकलाभभेदे, कल्प० १ अप्रान्ति-सर्वेऽपि प्रतिग्रहान् दर्शयित्वा निर्गच्चत, अद
धि०७ कण। शितप्रतिग्रहैन गन्तव्यम् । कुन्त इत्थं कुर्वन्तीत्याह-श्राभिमराऽऽद्याशङ्कया मा कश्चिदभिमर उदायिनृधमारकवत् भ्रम
देसय-देशक-पुं० : देशयतीति देशकः । उपदेष्टरि, प्रा० म. १ मधेषेणाऽऽगतो जवेत, आदिग्रहणेन चौरो वा मा धान्या- | अ० १ स्वएम। श्राव० । अदिमोषणायाऽऽगतो जवेदित्याद्याशङ्कयाऽपूर्वी सामाचारी | देसवासी-देशवर्षिन-पुं०। देशे आत्मनो वा देशेन वर्षतीति स्थापयन्ति, भिक्षाप्रतिनिवृत्ता अपि च गुरूणां पुरतः सर्व | देशवर्षी । एकदेशमात्रे वर्षणशीले, स्था०४ ठा०४ त। प्रत्युपेत्य ततः प्रविशद्भिरेवाभिमराऽऽदिभिः कारणैरिति । गतमतिशयद्वारम।
देवविअप्पकहा-देशविकल्पकथा-स्त्री० । देशकथानेदे, स्था। अथ जनपदपरीक्षाद्वारमाह
(व्याख्या ' देसकहा' शब्देऽनुपद मेव गता) अम्भे नदी तलावे, कूवे अश्पृरए य नाचे वाणी। देसविएणण-देशविज्ञान-न० । विविधमण्डझेषु सश्चरना मंस फनपुप्फभोगी, वित्थिन्ने खेत कप्पविही ॥ विचित्रलोकलोकोत्तरव्यवहारकाने, पञ्चा० १७ विधा। स देशदर्शनं कुर्वन् जनपदानां परीक्षा करोति-फस्मिन् देशे देसवित्थाराणंतय-देशविस्तारानन्तक-न । एक आकाशप्रकथं धान्यनिष्पत्तिः,तत्र कचिद्देशेऽभैः सस्यं निष्पद्यते, वृहिणा- तर सर्वविस्तारानन्तकसर्वाऽऽकाशास्तिकाय इत्येवंरूपेऽनन्तनीयरित्यर्थः। यथा लाटविषये, क्वापि नदीपानीयैर्यथा सिन्धुदो, ।
मधुदौ, भेदे, स्था० १० ठा०।। कचित्तु तमागजलैयथा विडविषये, कापि कृपपानी येर्य थोत्तरापथे, कचिदति पूरकेण,यथा उन्नासायां प्रादतिरिव्यमानायां
| देसविरइ-देशविरति-स्त्री० । देशः प्राणातिपाताऽऽदिः,एकदेशतत्पूरपानीयजाबितायां क्षेत्रभूमौ धान्यानि प्रकार्यन्ते । (नावेति)
स्तु वृक्तच्छेदनाऽऽदिः, तयोविरमणं विरतिर्यस्यां निवृत्ती सा यत्र नावमारोप्य धान्यमानीतमुपतुज्यते, यथा काननद्वीपे,
देशविरतिः। विशे०। अणुव्रतातिप्रतिपत्तिपरिणामे, पश्चा.१० (बाणि त्ति) यन्न बाणिज्येनैव बृत्तिरुपजायते,न कर्पणेन, यथा म.
विव. । देशविरतिसम्यक्त्वधारिणो हादशदेवलोके याता थुरायाम,(मंस ति) यत्र दुर्भिक्षे समापतिते मांसेन कासोऽति.
नति प्रश्ने, उत्तरम्--द्वादशदेवलोके याता इत्यराणि पन्नवबाह्यते । तथा यत्र पुष्पफलभोगी प्राचुर्येण लोको, यथा कोङ्क
णासूत्रे वृत्ती च सन्तीति । ७५ प्र० । सेन० ३ उल्ला। णाऽऽदिषु, तथा कानि विस्तीर्णामि केत्राणि,कानिया संकिप्ता- देसविरडगुणाण-देशविरतियणभ्यान-न । देशविरता एनि ( कप्पे त्ति) कस्मिन् क्षेत्रे कः कल्पो यथा सिन्धुविषयेऽनि. क द्याद्यणुव्रतवरभेदाः श्रावक, तेषां गुमशनम् । आव०४ मियाऽऽद्याहारा अहिताः।(विदित्ति) कस्मिन् देशे कीदृशः अ० । श्रावकसम्बन्धिणस्थाने, प्रय० । नथा सर्वसाव. समाचारो यथा सिन्धुषु रजकः संनोज्यो, महाराष्टविषये क- द्ययोगस्य देशे एकप्रतनिधयस्पलसावधयोगाऽऽहो सर्ववतपस्यपाला अपि संभाज्या इति ।
विषयानुमतियजलापद्ययोगानो विरतिर्यस्था सौ स देशवि.
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(२६३३) अभिधान राजेन्द्रः ।
देसावर गुहा
रतः, सर्वसावद्ययोगविरतिस्त्वस्य नास्ति, प्रत्याख्यानाऽश्वरणकषायोदयात् सर्वविरतिरूपं हि प्रत्याख्यानमावृण्वन्तीतिप्रत्याख्यानाssवरणा उच्यन्ते इति देशविरतः, तस्य गुणस्थानं देशविरत गुणस्थानम् । प्रत्र० २२ द्वार । कर्म० । पं० सं० | दर्श० ।
देशनिरतिसामायिक
देसममा | देशबितिक स्वरूपैव सामायिकमिति सामायिक ने अस्य पर्यायाः वि रयाविरई संवुडमसंवुमे बालपमिव चेत्र सिक्कदेसविर अधम्मो य ।" विशे० । श्रा० म० ( एषां पदानां व्याख्या तत्तच्वब्दे ) (वक्तव्यता सर्वेव 'सामायिय' शब्दे षष्या ) देखविराहय- देशविरोधक पुं० देशं स्तोकमंत्र रूपस्य मोहमार्गस्य तृतीयभागरूपं चारित्रं राधयति प्राप्त स्य चारित्रस्यपालनादप्रासेवी देशमानस्य विराधक भ श० ६ ० ।
बेसविरुद्ध देशविरुद्ध न०
देशमा ०। तत्र यद्यत्र देशे शिष्टजनैरनाचीर्ण तत्तत्र देशविरुरूम् । यथा-सौवी रेषु कृषिकर्मेत्यादि । अथवा जातिकुञ्जाऽऽद्यपेक्षयाऽनुचितं देशचिरुद्धं यथा ब्राह्मणस्य सुरापानमित्यादि । ध० २ अधि० । देसका देशविधिकथा०देशकथादे, स्था० ४ बा० २ च० । ( व्याख्या 'देशकहा' शब्दे ऽनुपदमेव गता ) देससंका- देशशङ्का - स्त्री० देशाविषये जीवाऽऽद्यन्यतमपदार्थैकदेशगोचरे शङ्काभेदे, प्रव• ६ द्वार । यथाऽस्ति जीवः केवलं सगोवा समदेोऽप्रदेशदेशि
जीवाऽन्यतमपदाचैकदेशगोचरेत्यर्थः प्रद्वा
नि० चू० । देससाणबंध देशसंहननबन्ध-पुं० [देशेन देशस्य संहन नबन्धसंबन्धा शकटादीनामिव देशम भेदे भ० श० ९ ३० ।
देसादायारण देश ऽऽयाचारलपन १० जनाम कुल प्रनृतिसमाचारातिक्रमे, पञ्चा० २ विव ।
देसाराहय- देशाऽऽराधक- पुं० । सम्बोधरहितत्वात्क्रियापरत्वा
दू देशं स्तोकमंशं मोकमार्गस्याऽऽराधयति । देशमात्राऽऽराधके भ० श० ६ ० ।
देसावगामिय- देशाकाशिक १० देशेतस्य दि कपरिमाणस्य विभागोऽवकाशोऽवनतारी विषयो यस्वदेशका देव देशाचकाशिकम् द दिपरिमाणस्य प्रतिदिनं संक्षेपकरण लकणे, सर्वसंप करणलक्षणे वा । स्था०४ ठा० ३ उ० |
तयाांतरं च देयावगासियस्स समशोपासणं पंच अश्या जाणिवान समायरिया से महा-आणण तं पोगे १, पेणपयोगे 2 सदावा बहिया पोग्गन्नपक्खेवे ए | उपा० १ अ० | आवण । अ० चू० सूत्र० । पञ्चा० । 1
४
श्रावकस्य द्वितीयशिक्षा त्रते श्रा० । ध० र० । ध०
६५०
अधुना देशावका शिकवतातिचारानाह-' प्रेषणानयने शब्द-रूपयोरनुपातने ।
एलमेरणं चेति, मता देशावकाशिके ।। ५६ ।। प्रेषणं चानयनं तिने शब्द रूपं तपोर नुपातनेऽवतारणे, शब्दानुपातो रूपानुपातश्चेत्यर्थः । पुलप्रेरणं चेति पञ्जातिवारा देशावका शिके देशावकाशिनानि व्रते ज्ञेयाः । अयं नावः- दिखतविशेष एव देशावकाशिकव्रतम् । इयांस्तु विशेषो दिग्वतं यावज्जीवं संवत्सरचतुर्मासीपरिमाण या देशाकाशिकं तु दिवप्रहरमुतदिपरिमाणं, तस्य च पञ्चाविचाराः तद्यथा प्रेषणं भृत्यादेर्विपतिशेषाद बहिः प्रयोजनाय व्यापारणम्, स्वयं गमने हि व्रतङ्गः स्या दिति अन्यस्य प्रेषणम्, देशावकाशिकवतं मा नूकमनागमनाss दिव्यापारजनितप्राण्युपमर्द इत्यभिप्रायेण गृह्यते स तु स्वयं कृतोऽन्येन वा कारित इति न कश्चित्फले विशेषः, प्रत्युत स्वयं गमने विगः परस्य पुनरनिपुणत्वादीय समित्यभावे दोष इति प्रथमोऽतिचारः । १। श्रानयनं विवस्थितस्यादिति प्रापणं सामर्थ्यात्प्रेष्येण, स्वयं गमने हि व्रतभङ्गः स्यात्, परेण स्वानयनेन भङ्ग इति बुद्ध्या यदाऽऽनाययति सचेतनाऽऽदि रूयं तदाऽतिवार इति द्वितीय स्कासिता रनुपातनं श्रोत्रेऽवतारणं शब्दानुपातनं यथा विदितस्वगृहतिप्राकारादिदेशयोजनेप कित क्षेत्राद बढिर्वभङ्गभयात्स्वयं गन्तुं बहिः स्थितं चाऽऽहातुम [क्यन् प्रतिमाकारादिप्रत्यावर्तीय कासिताऽऽदि मानवानां
:
तीति शब्दानुपालनमामातिवास्तृतीयः ३ एवं कानु तनं यथा रूपं शरीरसंबन्धि उत्पन्नप्रयोजनः शब्दमनुश्चारयश्रानीयानुपातयति तदर्शनाच्च तत्समीपमाग न्तीति रूपानुपातनाऽऽख्यो ऽतिचारश्चतुर्थः |४| तथा पुलाः प रमाणवस्तत्सङ्घातसमुद्भवा बादरपरिणामं प्राप्ता लोटाऽऽदयोऽपि तेषां प्रेरणं पणं विशिष्टदेशाभिग्रदे हि सति कार्या र्थी परगृहगमननिषेधाद्यदा लोष्टकान् परेषां बोधनाय विपति, तान्तरमेतत श्च तान् व्यापारयतः स्वयमगच्छतोऽप्यतिखारो जवतीति प ञ्चमः । इह चाssयद्वयमन्युत्पन्न बुद्धित्वेन सहसाकाराSSदिना वयं तु मायापता वि कः । रहाऽऽहुर्वृषाः दिग्वतसंकेपकरणमत्रताऽऽदि संपकर णस्याप्युपलते पाकदतिवारा दिपकरणस्यैव भूयन्ते न व्रतान्तर संक्षेप करणस्य, तत्कथं व्रतान्तरसंक्षेप करणं देशाकाशित है। प्राणातिपात संप करणेषु बधबन्धाऽऽदय एवातिचाराः, दिग्वत संकेपकरणे तु संविशेवस्य प्रेयप्रयोगाऽऽऽनिवारा वि चारसंभवाच्च दिखत संकेपकरणस्यैव देशावका शिकत्वं साक्षादुक्तम् ।। ५६ ।। इत्युक्ता देशावकाशिकत्र तातिचाराः । घ० २ अधिसंपूर्णदिवसे देशाकाशिक कि णविधिविनीयः, तथा तत्र सामायिकं गृहीतं पारितं च शु यति न था, तथा देशावकाशिकेन सह सामायिकमुश्वरति न वेति ने उस देश को चाराधिदे
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देसावगासिय
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देसावगासिय
बालभोगं पञ्चकखामि " इत्यादिको दृश्यते परं पारण माति तथा देशाकाशिकमध्ये सामादिकस्य ग्रहणं पारणंच शुरूयति, तेन सह सामायिकग्रहणमपिशुपतीति । ४२७ प्र० । सेन० ३ उल्ला• । देसाहिवइ - देशाऽधिपति-पुं० देशाऽऽरक्षिके, देशव्यापृति के बा ।
( २६३४ ) अभिधान राजेन्द्रः ।
दोकिरिय
देहणी-देशी-पके, दे० ना० ५ वर्ग ४० गाथा | देहव्वलदोस - देहदुर्बलदोष-पुं० । संहननडुबले, पं० ० । देहपरिणाम - देहपरिणाम- पुं० । प्रतिविशिष्टायां शरीरशक्तौ, आचा० १ ० १ ० ४ उ० ।
देहपलोयण - देहमलोकन - न० । आदर्शाऽऽदौ देददर्शने, दश०
३ अ० ।
देवल देवल न० संहननजनिते शरीरसामध्ये ०२४० देवलिया देवनिकाखी०म० १०
२ खएम ।
देहमाथ मेक्षमाण वि० पश्यति, " दिट्ठोरा छेदमाखो माण चिट्ठा । भ० ९ श० ३३ ८० । सूत्र० ।
19
देसी देहली-खो द्वारा प्रोते अधः मे आ०म०२ ० देह विनूसा देदविभूषा-श्री० [पय]
|
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देसिकदेस विरय- देशैकदेश विरत- पुं० । श्रावके, आतु० । ष पृथिष्यादिकानां पठत्वा देशस्त्रसाम्य परोप पालकृणः तस्यापि संवदत्वादेकदेशः संकल्प जमविनाशविवृतिरूपः पुनस्तस्यापि सावरानि रपराधभेदद्वयेन द्विप्रकारत्वादत्र निरपराध संकल्पज त्रसजीविनाश निवृत्तिरूप देशकदेशस्तेन स्वयं गनपातनाद्विरतो निवृत्तो देशविरतः ॥ ऋतु । दोसंगणि- देशगणि-पुं० [स्वनामख्याते आचायें, "तो अ विरयरितं उत्तमसम्म सततं देखिगणिमासमणं त सत्तसंत्तं । माढरगुत्तं नम॑सामि " ॥ ११ ॥ कल्प० २ अधि० ० कण । देसित देशि० प्रशिते ० १ ० ६० देसिता–देशित्त्रा-अव्य० । कथयित्वेत्यर्थे, आ० म० १ ० १ देसिय-देशिक - पुं० | देशनं देशः कथनं, सोऽस्यास्तीति देशि कः पा० २०१० विशे०
ख एक ।
उग्र० | देशयतीति देशिकः । अप्रयायिनि आव० ५ ० । बृहत् क्षेत्रव्यापिनि, आचा० २ ० १ ० १ ० ३ उ० । देशित - त्रि० । उपदिष्टे कथिते, विशे० । श्राव० पा० जी० । दैवसिफ त्रिदिवाते "देखिये विि
बृ० ४ उ० । स्था० ।
देसि देशिन बि० देशयति विनिविशे
पुग्वसो ।” उत्त० २६ अ० ।
वा पापड
देश-देशीयोज ३० वनकम् । नि० चू० १६ ब० । देसीतो - देशीत अव्य० । देशी भाषामा श्रित्येत्यर्थे, बृ० २ ० । देसीनाममाला - देशीनाममाला स्त्री०| देशी जात्रा नामकोषे, रा० । देसी पोर माणदेशी पर्वनाथ त्रि० अनुपपरिमितमुष्टिप्रमाणे, देशीशब्दस्याऽङ्गुष्ठवाचकत्वात् । व्य०८ उ० । नि०० | देसीनामा - देशी भाषा - स्त्री० । देशप्रसिकाऽपभ्रंश भाषायाम्,
I
[झा० चू० १ अ० । आचा० ।
देव-देश नम्ब० देशले देशः ) २०२५
श० ४ उ० ।
"
,
देसोहि - देशावधि-पुं० | देशप्रकाशके अवधिज्ञाने, स० । देह देह पुं० [दिद्द उपपये देह आहारपरिणामजनितोपचये शरीरे, अनु० उत्त० श्रावण विशे० प्र० । अ० चू० । अ० म० । स्था० । पिशाचनामभेदे, प्रज्ञा० १ पद । देवनिया - देहवलिका - स्त्री० । अनुस्वारो नैपातिकः देहबल० १ ० १६० मि. देवनिका नाम भिकावृत्तिः । अ० म० १ ० २ खएम ।
-
यायाम्, बृ० १४० ।
देहविमुक देहविमुक्त-००००। शरीरमा केनि
देहव्यानि देहम्पापिन् पुं०
श० ४ श्र० ।
देहसमाहि- देहसमाधि - पुं० । शरीरसमाधाने, पं० ० ४द्वार । देहसहाव- देहस्वनाव- पुं० । शरीरस्वरूपे, व्य० ५ ४० । देहादिविमल देहाऽऽदिनिमित्तन शरीरगृहयुवकप्रभृत्यर्थे, पश्चा० ४ विव० ।
देहि देहिन् पुं० भारमनि सू० १ ० १ ० १४०
दो- द्वौ - पुं० | " द्वेः दो वे " ॥ ८ । ३ । ११६ ॥ द्विशब्दस्य प्रथ मायां द्विवचने संस्कृते-द्वौ । प्राकृते- 'दो' इति । प्रा० ३ पाद । दोप्रा - देशी-वृषभ, दे० ना० ५ वर्ग ४६ गाथा । दो-दो अन्य 'दो' इति निपास विकणार्थे, “दो सि ह उबालब्धं । " बृ० ३४० । दोकिरिय-ट्रैकिय-पुं० वे किये समुद
डेदिनोया कियानाप्रवर्ततेषु पञ्चम०७० तद्वक्तव्यताअहामीसा दो वा समया 'या' सिद्धिं गयस्स वीरस्स । दोकिरिया दिडी लुगतीरे समुप्यमा ॥ २६२४ ॥ अष्टाविंशत्यधिके दे वर्षशते तदा सिद्धिं गतस्य श्रीम महावीरस्यशान्तरे वैयिनिहयानां दृहिकातीरे समु नेति ॥ २४२४ ॥
कथं पुनरियमुत्पन्ना ?, इत्यादनमजणवल्लुग, गिरिगु अनगंगे प किरिया दो रायगि, महातत्रोतीरमणिमाए ॥२४२५|| लुका नाम नहीं, पहिलो जनपदोका कनारे विकारामनगर विशेष - स्थानमासीत्, द्वितीये तु कातीरं नाम नगरम् अन्ये स्था
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दोकिरिय
(२६३५) अभिधानराजेन्द्रः ।
दाकिरिय
हुः-एतदेवोल्बुकातीरं धूलीप्राकाराऽऽवृतत्वाखेटमुच्यते, तत्र सूक्ष्मम आशुनरं च चित्तं मनः, तत्र सक्ष्म मृषभानाछियपुदचमहागिरिशिष्यो धनगुप्तो नाम,अस्यापि शिष्य श्रायगडोगा | गनस्कन्धनिनवादाशुचरंतु शीघ्रसंचरणशीन वात् । ततश्च माऽऽचार्यः । अयं च नद्याः पूर्वतटे, तदाचार्यास्त्वपरनटे । तदेवनूतं चित्त येनकायाऽद्याकारस्पशनाऽदिव्येन्ष्यिततोऽन्यदा शरत्समये सूरिवन्दनार्थ गच्छन् गङ्गो नदीमुत्त । संबन्धिना देशन मह यास्मन् काले लंबध्यते सयपते तस्मिन् रनि, स च खल्वाटः । ततस्तस्योपरिष्टा पुष्णेन दह्यते खल्ली ।। कासे तस्य मात्रज्ञान हेतुभवति-येन सशंना दिद्रव्योरू. अधस्तात्तु नद्याः शीतलजलेन शैत्यमुत्पद्यते,ततोत्रान्तरे कथ. यदेशेन संबध्यन तजन्यस्यैव शताऽऽदिविषयस्योष्णाऽऽदित्रिमपि मिथ्यात्वमोहनीयोदयादसौनिन्तिनवान्-अहो ! सिद्धान्ते षयस्य वा पकनर विज्ञानस्य हेतुर्जायते, न तु येनेन्जियदेशेन गमपत्क्रियाद्वयानुभवः किल निषिद्धोऽहं त्वेकास्मन्नेव ममये सह तत्काले स्वयं तन्न संबई नजन्यज्ञानस्यापि हेतुरित्यर्थः । शत्यमोठण्यं च वेदयामि, अतोऽनुजवविकत्वादमागमोक्तं इतिशब्दो वाक्यसमाप्त्यर्थः । येनैवं तेन कारणेन नो नैव दूरशोजनमाभातीति विचिन्त्य गुरुत्यो निवेदयामास । ततस्तैदय- भिन्न देशे हे। कये कोऽपि युगपपल नते संवेदयते इति संब. माण युक्तिभिः प्रज्ञापितोऽसौ । यदा च स्वाग्रहनम्तबुकिवान न्धः । कथंचन डे क्रिये इत्याह-पादशिरोमनशीतोष्णवेदनयोर. कि अप्रतिपद्यते,तदा उद्घाट्य बाह्यः कृतो बिहरन् राजगृहनग नुभवन मनुजवस्तद्रूपे तदात्मके । अत्र प्रयोगः-इह पादशिरोरमागतः तत्र च महातपस्तीरप्रभवनाम्नि प्रश्रवणे मणिनागना. गतशीतोषवेधने युगपन्न कोऽपि संवेदयते, जिनदेशवाद्विम्ना नागस्य चैत्यमस्ति ! तत्समीपेच स्थितो गङ्गः पर्षत्परःसरं । ध्यहिमवन्धिखरस्पर्शनक्रियाद्वयवदिति, अनुनवसिरूत्वात. युगा क्रियाद्वयवेदनं प्ररूपयति स्म । तच्च श्रुत्वा प्रकुपितो म-! त्यांसमोऽय हेतुरिति ॥ २४०६ । २४३०॥ fm स्तमवादीत्-अरे दुष्ट शिकक! किमेव प्रज्ञापयसि ?,य.
किञ्चवा । प्रदेशे समवसृतेन श्रीमद्वमानस्वामिना एकस्मिन्
नवोगपो जीवो. नव उमा जेण जम्मि जं कालं । समये पकस्या पर क्रियाया वेदनं प्ररूपितम, तहस्थितेन मयाऽपि श्रुतम्, तत्किं ततोऽपि लष्टतरः प्ररूपको जवान, येनैवं
सो तम्म आवोगो, हो जहिंदोवोगम्मि ॥२४३१॥ युगपक्रियाद्वयवेदनं प्ररूपयसि ?। तत्परित्यज चैतां कूटप्ररू
उपयोगेनैव केवझेन निवृत्त नपयोगमयो जीवः । ततः स ये. पणाम्, अन्यथा नाशयिष्यामि त्वाम् । इत्यादितऽदितभयवा
न केनापि स्पर्शनाऽऽदीन्द्रियदेशेन करणभूतेन यस्मिन् शीक्ययुक्तिवचनैश्च प्रत्रुघोऽसौ मिथ्याऽस्कृतं दत्त्वा गुरुमूलं ग.
तोष्णाऽऽधन्यतरविषये (ज का ति) यस्मिन् काले उपयुस्वा प्रतिक्रान्त इति ।। २४२५ ।।
ज्यते सावधान भवति तम्मयोपयोगो भवति-यत्र शीताऽऽद्य. अत्र भाष्यम्
न्यतरार्थ उपयुक्तस्तन्मयोपयोग एव भवति, नान्यथोपयुक्त इ. नइमु गमुत्तरओ, सरए सीय जलमज्जगंगस्स ।
त्यर्थः। उदाहरणमाह-(जहिंदोवोगम्मि ति)यया इन्द्रोपयो
गे वर्तमानो मागावकस्तन्मयोपयोग एव भवति,न पुनरर्थान्तसूरानितत्तसिरसो, सीउसिणवेयणोनयो॥२४२६।।
रमयोपयोगः । इदमत्र तात्पर्यम्-एकस्मिन्काले एकत्रैवार्थे उलग्गोऽयमसग्गाहो, जुगवं उभयकिरिअोवोगो ति। पयुको जीवः संभवति, न त्वर्थान्तरे, पूर्वोक्तसाकाऽऽदिजं दो वि समयमेव य,सीउसिणवेयणाओ मे ॥२४२७॥ दोधप्रसङ्गात । ततश्च युगपत्क्रियाद्वयोपयोगानुभवोऽसिद्ध ए. गतार्थे,नवरमार्यगङ्गस्य लग्नोऽयमसद्ग्रहो यत-युगपत्क्रिया.
वेति ।। २४३१॥ द्वयसंवेदनोपयोगोऽस्ति,यद्यस्मात् मे मम द्वे अपि शीतोष्णवे.
एकस्मिन्नर्थ उपयुक्तः किमित्यान्तरेऽपि नोपयुज्यते ?,श्त्याहदने समकालमेव स्तः । प्रयोगश्वात्र-युगपदुनयक्रियासंवेदनमा
सो तदुवोगमेनो-बनत्तसत्ति त्ति तस्सम चेव । स्ति, अनुजवसिद्धत्वात, मम पादशिरोगतशीतोष्णक्रियासंवे. अत्यं नरोच ओगं, नाउ कहं केण बंसेण ? ॥ २४३ ॥ दनवदिति ॥ २४२६ । २४२७ ।।
सजीवः ( तदुवोगमेत्तोवउत्तसत्तिति)तस्य विवक्तितेएवं गङ्गेनोक्त किमभूदित्याह
कास्योपयोगस्तमुपयोगः, स एव तन्मात्रं तत्रोपयुक्ताव्यातरतमजोगेणायं, गुरुणाऽनिहिओ तुम न लक्वेसि । पृता निष्टां गता शक्तिर्यस्य स तदुपयोगमात्रोपयुक्तशक्तिरिति समयाइमुहमयाओ,मणोऽतिचन्नमुहमयाओ य ।२४२०॥
कृत्वा कथं तत्समकानमेवार्थान्तर उपयोगं यातु?, न कथं गुरुणाऽभिहितोऽसौ-हन्त ! योऽयं युगपत्क्रियाद्वयानुभव..
विदित्यर्थः, सायांऽऽदिप्रसङ्गात् । किंच-सर्वैरपि स्वप्रदेशेरेस्त्वया गीयते, स तरतमयोगेन क्रमेणैव भवतः संपद्यते, न
कस्मिन्नर्थे उपयुक्तो जीवः केनोद्वरितेनांशेनान्तरोपयोगं
वजतु नास्त्येव हि स कश्चिद्वरितॊऽशो येन तत्समकमेवायुगपत्, परं सदपि क्रमनवनमस्य स्वं न लक्षयसि, समयाव.
र्थान्तरोपयोगमसौ गच्छेदिति भावः ॥२४३२॥ निकाऽऽदे कालस्य सूदमत्वातू, तथा मनसश्चातिच सत्वेनाति. सूक्ष्मत्वेनाऽऽशुसंचारित्वादिति । तस्मादनुभवसिम्त्वादित्य
___ यदि समकालमेव क्रियाद्वयोपयोगो न भवति, तर्हि कथं सिमोऽयं हेतुरिति ।। २४२८ ॥
तमहं संवेदयामि ?, इत्याशक्याऽऽहहेत्वसिक्रिमेव जावयति
समयाइमुहमयाओ, मन्नास जुगवं च भिन्नकालं पि। मुटुमासुचरं चित्तं, इंदियदेसेण जेण जं कालं ।
उप्पलदलसयवहं, वजह व तदनायचकं ति ॥२॥३३॥ संबर तं तम्म-त्तनाणदेउ त्ति नो तेण ॥ २४
समयावलिकाऽऽदिकासकृतविनागम्य सुदमत्वादू भिन्नका॥
लमपि कालविनागेन प्रवृत्तमपि क्रिपाद्वयमंवेदनमुत्पलपत्रशजवल भए किरियायो, जुग दो दरभिन्नदेसाओ।
तवेधनागपत्प्रवृत्तमिव मन्यसे त्वम्। न हि उत्पलपत्रशतमातपायसिरोगयसीउ-एहवेयणाऽणुभवरूवाओ ॥२४३०॥ । राधयण व्यवस्थापितं सुतीक्ष्ण्याऽपि सूच्या कोन समर्थना.
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(२६३६१ अनिधानराजेन्ः |
दोकिरिय
ऽपि च वेधक समामेषविते किंतु कालपर्युपरत अवस्थ
बेपक युगपद्विदितमेव मन्दमस्य सूक्ष्मत्वेन दुर्लक्षत्वात् । यथा वा तत्प्रसिकमनातच कामेदेन दि समपि कालभेदस्य सूक्ष्म दुरगमाचरन्तरमेव पत्रमिद्वापि शीतो यानुभयकाल नेदस्य सूक्ष्मत्येन पुरवसे पत्वाद्युगपदिवसभवं मन्यते भवानिति ॥ २४३३ ।।
मनोऽपि शिरः पादाऽऽदिनिः स्पर्शेनेन्द्रिय देशैरिन्द्रियान्तरैश्च युगपन संय किंतु मेरिन सूक्ष्म त्वेन च तस्य क्रमसंबन्धो न लक्ष्यत इति दर्शयन्नाहचित्तं पिनेंदियाई, समेइ सममइ य खिष्पचारिति । समयं व कसकुक्षि-दस सन्चोकि ति २४३४।। चितमपि नैवेद्रपाणि समनेवसमेत मनोऽपि यैः सह युगपत्संबध्यते इत्यर्थः । उपलक्षणत्वान्नाऽपि शिरःपा दिपने प्रचारि
विणिगंतरलाभे व किं त्थ नियमेण तो समं चैत्र ।
शीघ्र संचरणशीलं तदिति कृत्वा समकमिव युगपदिव सर्वत्र संबद्धं लक्ष्यते इति शेषः । दृष्टान्तमाद - ( समयं वेत्यादि ) समन्तरं योजितमध्यावृष्या पुनरपी योग्यते तत्र बाशब्दो यथार्थे, यथाशब्दश्च दृष्टान्तोपन्यासार्थे । यथा-शुष्कशकुलिकादशने सर्वेषामपि शष्कुलिकागत रूपरसगन्धस्पर्शशब्दानामुपः सर्वोपरि प्रताप समजयते, तथाऽत्रापि मनः शिरः पादाऽऽदिभिस्पर्शनेन्द्रियदेशैरिवोऽपि भवत्विति भावः । इह च " दवाउ असंखज्जे, संखेजे आवि पज्जवे सभइ । इति वचनादेकस्मिन्नर्थे समकालहोम्सच्या उपयोगाः प्राप्नुवन्ति शेषज्ञानिनां त्वनन्ता इत्यनिप्रायवता प्रोक्तम्- " पश्वत्थु अ संखेज्ज " इत्यादि ॥ २४३७ ॥
रथुममा वा जं न विशियोगा १ ।। २४३७ || कोपयोगका विनियोगान्तरस्यवियोगान्तरस्य वाला इष्यमाणे (तो ति) ततः किमत्र क्रियाद्वयोपयोग ऐन निय मेन (जति) वस्तु वा सममेव युग पदेच विनियोगा उपयोग ते भवति वेदनोयोगकाले उपयोगमन क्रियाद्वयोपयोगनैयत्येन यदसंख्येया अनन्ता वा प्रतिवस्तु युगपदुपयोग न भवन्ति, यथैककाले द्वितीयोपयामस्तथा व
मेरा संबध्यमानमपि युगपत्य क्ष्यत इत्यर्थः । इदमत्र हृदयम्-इह दीर्घा शुष्कां च शष्कुलि कां कस्यचिद्भयतस्तद्रूपं चक्षुषा वीक्ष्यमाणस्य रूपज्ञानमुपद्यते, तद्भन्धं च घ्राणेनाऽऽजिघ्रतो गन्धज्ञानम्, तसं च रसनया आस्वादयतो रसज्ञानं, तत्स्पर्श च स्पर्शनेन वेदयतः स्पर्शज्ञानं, चर्वणोरथं तब्दं च शृएवतः शब्दज्ञानमुपजायते । एतानि च पञ्चापि ज्ञानानि क्रमेणैव जायन्ते, अन्यथा साङ्कमित्यादिज्ञानोपयोगका
अत्र पराभिप्रायमधिकृत्य परिहारमाद
बहुबहुविहाइगणे नणून ओमनहुया सुनिदिया । तमगरगहणं चिय, नत्र ओगाऐगया न त्थि ॥२४३८ || मनु बहुविपक्षिया निमिता दिग्वसेतरवस्तुग्रणे पूर्वमिदेवानामाने एकस्मिन्नुपगता - नितैिवेति । " पवन्धुमसंखेज्जे " इत्यादि साधनमेवेति पाद-मत्यादि तद्वादरूपं तुमने पर्यायाणां सामान्यपणमात्रमेव ज्ञाने उपयोगयोग्यतामात्र व्यवस्थापनमेव एकस्मिंस्तु वस्तुन्येकयोगानेका कमे दिति ॥ २४३६ ॥
"
"य" इति तदुपजी पर सममा जइ सी ओ गिम्मिको दोस्रो । केवजशियं दोनो उत्र ओगडुगे विधारो ऽयं २४३। यथाचार्थ समकं युगपदाची
ज्ञायते, तदा शीतोष्ये गृह्यमाणे को दोषः, येन गतायुपगमो दृष्यते । दयादि) केन पुनि
रमनेकार्य दोषान् युगपदपि सामा पतया सेनावनग्रामनगरादिवदनकेऽर्था इत्येतन्न निवारयामः, वयमित्यर्थः, केवलमिहोपयोगद्वये विचारोऽयं प्रस्तुतः । स चोपयोग एकदा एक एव भवति, न रखनेक इति ।। २४३६ ॥
योगस्यापि प्रति एकं घटादिकम
नामपि घटाऽऽद्यर्थविकल्पानां प्रवृत्तिप्रसङ्गाच्च । न चैतदस्ति । ततः क्रमेण जायमानाम्यप्येतानि ज्ञानानि प्रतिपत्ता युगपत्पधन्ते इति मन्येत समानिकादिकाविनागस्य - वामपादादिभिः स्पन्द्रिया न्तरैश्च क्रमेण संबध्यमानमपि मनः। प्रतिपत्ता युगपत्संबध्यमानमध्यवस्यति, न तु तवतोऽसौ मनसः स्वभावः, तथा चोकम्-" युगपउज्ञानानुत्पत्तिर्मनसो लिङ्गमिति । " यदि चोक्तन्यायेन सर्वेन्द्रद्वारा उपलम्भे कमेरो म सः संवारो स्तर्हि स्वस्पर्शी तवेदनोपयोगादुष्ण वेदनोपयोगरूप उपयोगान्तरे जन्ये तत्संचारः सुलकः स्वाद्, अवक्ष्यमाणे च तत्क्रमसंचारे शीतोष्णक्रियायोपयोगविषये पदव्यवसाय नयत इति ॥२४३४॥ देवादविनिवलंभे, जइ संचारो मणस्स लक्खो । मेदिओरगं तरम्म कि दो याक्खो | २४२५ व्याख्याताथैव ।। २४३५ ॥
दो करिय उपयुकमपि मनोयोग को दोषः स्याद
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विणिउत्तम विभगं स ज मह तेणं । हथि पिठयं पुरओ, किमन्नचित्तो न लक्खेइ || २४३६ ॥ अन्यस्मिन् शीतदनादेकेऽर्थे विमिमुपयुकमन्यविनियुक्तम्, मनो यदि (श्रमं ति) अन्य उष्ण वेदनाऽऽदिकोऽस्तद्वि[पय] उपयोगोपस्तमम्यं विनियोगमुपयोग अन
तईि किमित्यन्यचित्तोऽन्यार्थीपयुक्तचित्तो देवदत्ताऽऽदिर्हस्तिनमपि पुरतो व्यवस्थितं न लकयति ?, तस्मादेकस्मिन्नर्थे उपक्यार्थोयोग २४२६ ।। यदि विकोपयोगे उपयोगान्तरमपीष्यते, तदेतदपि किं नेयते किमित्याह
यदि पुनरेक
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दोकिरिय
(१६३७) अभिधानराजेन्दः ।
दोकिरिय
पुनरपि परप्रश्नमाशझ्योत्तरमाह
जं च विसेसं नाणं, सामननाणपुवयमवस्वं । समयमणेगरगहणे, एगाणेगोवोगभेओ को?।
तो सामनविसेसं, नाणाई नेगसमयम्मि ॥४४॥ सामन्नमेगनोगो, खंधावारोवोगो व्च ।। २४४०॥ (तोति) तस्मात्सामान्य ग्राहक विशेषग्राहकं च ज्ञान द्वेऽपि खंधारोऽयं साम-नमेत्तमगोवोगया समयं ।
नेकसमये नैककालं भवत इति हितीयगाथायां संबन्धः । पश्वत्थुविनागो पुण,जो सोऽगेगोरोग त्ति ॥२४४१॥
कुत इत्याह-( लामोत्यादि) यद्यस्मात्सामान्यविशेषी पर
स्परमतीव विभिन्नकणौ भिन्नजातीयावतः कथ तावेकननु समकं युगपदनेकार्थग्रहणे अभ्युपगम्यमाने कोऽयमेकानेको
कालमेकझाने प्रतिनासेते?, एकत्वप्रसङ्गात, सामान्यतत्स्वरूपयोगभेदो नाम,यनाच्यते." उधोगाऐगया नस्थि।" इति।श्र
पद्विशेष तत्स्वरूपवहा?। मा भूत्तत्प्रतिजासस्तथापि तज्ज्ञाने भोत्तरमाह-(सामन मेगजोगो त्ति)यः सामान्योपयोगः स एको
युगपद्भविष्यत इत्याह- यस्माच तन्निबन्धनं सामान्यविशेष: पयोगोऽभिधीयते,स्कन्धावारोपयोगवदिति दृष्टान्तः। अमुमेवार्थ तुकं सर्वमपि ज्ञान, तत्कथं तत्प्रतिभासमन्तरेणोत्पद्येत ?। स्पश्यति-"बंधारोऽयमित्यादि ।" समकं युगपदेव स्कन्धावा
सामान्यविशेषज्ञानयोरेकत्वादेककालं ते भविष्यत इति चेत,तरोऽयमित्येवं यत्सामान्य सामान्यमात्र ग्राहकोय उपयोग श्त्यर्थः,
दयुक्तम्, कुतः ?, इत्याह-यस्माच सुदरं विभिन्नी सामान्यस एकोपयोगता भएयते । यः पुनः प्रतिवस्तु पते हस्तिनः,
विशेषज्ञानरूपी-प्रवग्रहावयाविति कथं समकालं भवतः । भी अश्वाः, इमे रथाः, पते पदातयः, पते खङ्गकुन्ताऽऽदयः, यद्यस्माचावश्यं सामान्य ग्राहकझानपूर्वकमेव विशेषग्राहकं ज्ञाशिरस्त्राणकवचाऽऽदयः, पटकुटिकाः, ध्वजाः, पताकाः, ढक्का- नं, नानवगृहीतमीह्यते, नानीहितं निश्चीयत इत्यादिवचनाशक्षकाहनाऽऽदया, करभरासभाऽऽदयश्वेत्यादिको विभागोने- दतः कथं तयोयुगपत्संभव इति ॥ २४४४ ॥ २४४५ ॥ दाध्यवसाय: सोऽनकोपयोग इति ॥२४४० । २४४१ ॥
पुनरपि परः प्राऽऽहपाह-परमेकानेकोपयोगनेदे भवद्भिर्युगपत्कि निषिध्यते ?, होज न विलक्षणाई, समयं सामन्नयनाणाई। इत्याह
बहूयाण को विरोहो,समयम्मि विसेसनाणाणं ॥२४४६॥ ते चिय न संति समयं, सामनाएगगहणमविरुम् ।
नवाचार्य ! एवं तर्थस्तु यदुत सामान्य वेदनामा त्रग्राहकं सा. एगमणेगं पि तयं, तम्हा सामानावेणं ॥२४४।।
मान्यज्ञानं, शीतोष्णवेदनाविशेषग्राहकं विशेषज्ञानरूपं भेदत पवाने कोपयोगाः समकं युगपन्न सन्ति न भवन्तीति झानं नेत्येते हे अपि सुदूरविल कणत्वात्समकं युगपन्न नवनिषिध्यन्ते अस्माभिः । यत्तु सामान्य नानकषामर्थानां युगप- तः; बहूनां तु शीतोष्णा 55दिविशेषज्ञानानां समये एकस्मिद ग्रहणं तदविरुद्धमेव । (तम्ह त्ति) तस्माद्युगपदनेकोपयोग न कालं जायमानानां विशेषझामरूपतया तेषां बहनामपि तुनिषेधेन । किमुक्तं भवतीत्याह- (एगमणेगं पीत्यादि) य. ल्यत्वेन चकरायाभावारको विरोधः?, येन शीतोष्णवंदनाधिदिदं स्कन्धावाराऽऽशुपयोगे युगपदनेका थग्रहणमस्मानिरनुझा. शेषज्ञाने युगपद् गङ्गस्य निषिध्येते इति ॥ २४४६॥ यते, (तयं ति) तदनेकमप्यनेकार्थग्रहणमपि सदित्यर्थः, (ए.
अत्रोत्तरमाहगं ति) एकमेव तत्वत एकार्थग्रहणमेवेत्यर्थः, केनेत्याह
बकवाजेया उ चिय,सामएं च जमणेगविसयं नि । (सामानावेणं ति) सामान्यरूपतयेत्यर्थः । अयमत्र तात्प. यार्थ:-यदनेकार्थग्रहणमनुज्ञायते तत् सामान्यमेव रुपमाश्रि.
तमवेत्तं न विसेस-न्नाणाई तेण समयम्मि ।। २४४७ ॥ त्य, विशेषरूपतया स्वनेकार्थग्रहणं नास्त्येव, एकस्मिन् तो सामनग्गहणा-यंतरमीहियमवेइ तब्भेयं । काले एकस्यैव विशेषोपयोगस्य सद्भावादिति ।। २४४१॥ य सामनविसेसा-वक्खो जातिमो नेत्रो।।श्चन॥ अमुमेवार्थ प्रकृते योजयन्नाह
तेन कारणेन समये एकस्मिन् काले बनि विशेषज्ञानानि उसिणेथं सीएयं, न विजागो नोवोगगमित्थं । । न भवन्ति । कुतः, इत्याद-लक शीतोष्णादिविशेषणस्वरूपं होज समं दुगगहणं, सामन्नं वेयणा मे त्ति ।। २४४३ ।।
तस्य परस्परं भेदाद्भिन्नत्वात तग्राहकाणि ज्ञानानि समकं उणे ये शीतयं वेदना इत्येवं योऽसौ विजागो भदोऽसौ मे.
भवन्ति, यस्माच्चानेकविषयमनेकाधारं सामान्यम्, इत्यतस्त. धः शीतोषणविभागेन शीतोगविशेषरूपतया युगपद् प्रहणं ने.
दगृहीत्वा न विशेषज्ञानसतिरस्तीत्यतोऽपि न युगपतिभूमित्यर्थः, अत एच तद्विषयमुपयोगद्वयं युगपन्नम् ।कि य.
शेषज्ञानानि । वमुक्तं भवति-पूर्व बेदनासामान्यं गृहीत्वा गतस्य ग्रहण सर्वबा नेएम् । नवं, कुत्तः, वाह-जयेत्
ततह प्रविश्य शीतेयं पादयोर्वेदनेति वेदनाविशेषं निश्चित समं युगपद्वम्तयग्रहणम । किं विशेषरूपतया?, नेत्याह-सा
नोति । शिरस्थपि प्रथा बेदनासामाम्वं गृहीत्वा तत ईद प्र. मान्य सामान्य रूपतयेत्यर्थः। कथम?,वेदना मे मम वर्तते इत्येवं
विश्य नष्णेयमिह बेदनेत्यध्यवस्यति । न हि घटविशेषक्षानायुगपद् द्वयग्रहसं भक्द,न तु शीतोष्णवेदनाविशेषरूपतयेत्यर्थः,
दनन्तरमेव पटाश्रयसामान्य रूपे वृहीते पटबिशेषकानमुपजायुगपदुपयोगयप्रसंगात, तत्र न दोषाणामुक्तत्वादिति।२४४३।
यते, " उगहो ईहरवाय" इत्यसव कमेए घटाऽऽदिविश्राह-ननु यदि वेदनामाग्राहक सामान्यज्ञानं, तदेवं शी.
शेषज्ञानोत्पस्पमिधामात । एवं च सति विशेषज्ञानादनन्तरमतोष्णवेदनाविशेष ग्राहकमपि तत् कस्मान्यो प्यते, त्याह
पि विशेषज्ञानं नोत्पद्यते, आस्तां पुना समका, सामा• . सामाविसेसा, विलक्खणा तनिबंध जं च ।
स्थानकविशेषाऽऽश्रयत्वात् । तच पूर्वम गृहीत्वा विशेषकान -
स्याग्रसवादिति। नाणं जं च विभिन्ना, सुदूरोवमाहाऽवाया ||२४४४॥ यतश्चैवं सामान्ये ऽगृहीते नास्ति विशेषज्ञानं, (तो ति) ततः
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दोकिरिय
सामान्य ज्ञानन्तरमीहितं तद्भेदं सामान्य भेदं घटत्वाऽऽदिसाबदाऽऽदिविशेषमित्यर्थः, श्रवैति घटाऽऽदिरेवायम् पीत्यर्थः । तत उत्तरभेदापे या घट एव सः गृहीते ईहित्वा धातुजोऽयं न मार्त इत्येवं नि विधातुमोच्युत्तरभेदापेक्षया सामान्यम् । तस्मि ग्रह हित्वा ताम्रोऽयं न तु राजताऽऽदिः इतीत्थं निश्चि नवीन एवं सामान्य
दो-दोष-वि० दोनो "जा"
भेदः स कश्चियदनन्तरमीहा न प्रवर्तते । ततश्चेत्रं न कचिद्विशेष
आवा० २ श्रु० १ ० ४ ०२३० ।
ज्ञानानां युगपत्प्रवृत्तिसंभवः, सामान्यरूपतया तु समकालमपि दोण - झोल-पुं० । माने, चत्वारः पुनराडकाः समुदिता को विशेषाणां ग्रहणं भवेत् । यथा-सेना, वनमित्यादि, न तु युग पदुपयोग इत्युक्तमेव । तथा च सति भिन्नकाले पत्र शीतोष्णाविशेषखाने । ततो घ्रान्तमेव समकालं शीतोष्णक्रियाद्वय वेदनं भवत इति ॥ २४४७ २४४८ ||
इत्यादियुक्ति शतैः प्रज्ञापितोऽपि न स्वाग्रहं मुक्तवान् गङ्गः, ततः किमित्याद
पत्रविपिनोन पर तोतयो को को। तो रायगि समयं किरियाओ दो पकतो || २४४५॥ मणिनागेशारको ओपिनियोदिओ पोतुं । इच्छामो गुरुमूलं, गंतॄण तो पडिकतो ।। २४५० ॥ व्याख्यातायें एवेति । २४४९ ।। २४५० ॥ विशे० । उत्तः । झा० सू० । आ० म० । श्र० । दोक्श्वर-द्रयक्षर-न० | पराडे, कृ० ।
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3
गती भने पश्चवलोइयं च मिदुत्तया सीयलगतया य । ध्रुवं भवे दोकरनामधेजा, सकार पश्चंतरिश्रो ढकारी ॥१॥"
( २६३८ ) अभिधानराजेन्द्रः ।
करनामधेयो भवेत्, तच्वाक्षरद्वयं मकारप्रत्यन्तरितो ढकार इति प्रतिपत्तव्यम्, प्राकृत शैल्या सण्ढा, संस्कृते तु षण्ढ इति । ० ४ ० | दामे, व्य० ४ ० । दोगच्च दौर्गत्य -
-२० | दुर्गतिमा, दारिये । पं० ० ४ द्वार | बृ । नि० च० पश्चा दोनो
म्. "दोगिद्धिदसाणं दस अभया पणत्ता । तं जहा "बाए विचार उबार णातीसं महासुविणा वायत्तरिसव्वसुमिणाहारेराम
तो
ऽप्यनवसिता । स्था० १० Jo
दो मुसि
मादारं विना धर्मधुराधररणा क्षमामत्येवंशीलो जुगुप्सी । उ-
रा० ६ प्र० ।
दोग्ग- देशी-युग्मे, दे० ना० ५ वर्ग ४६ गाथा |
दोगड़ - दुर्गति - स्त्री० । ष्टा गतिः दुर्गतिः । श्रथवा दुर्गा गतिः दुर्गतिः । अथवा दुःखं वा यत् सा दुर्गतिः । दुर्गती विषमेत्यर्थः । अथवा-- कुत्सिता गतिः दुर्गतिः । निषितार्थे दुःशब्दः । यथा - दुर्गभः । नरकगता तिर्यगूनच स्था
१ ० ।
।
दोग्गुण - दौरा - न० | दुर्गुणत्वे, हा० ३१ अ० । टोचंग-द्वितीयाङ्ग - न० शाक दिनाज्याम दोचंगत्ति " सामयिकी संज्ञा (ओटनाऽऽदि मूलापक्षय जोजनस्य रुपाणी द्वितीयाङ्गानि
शाक
३० ।
"
दोतिष्पभा
दोच्च दौत्य - त्रि० । दूतकर्मणि, का० १० ८ ० । द्वितीय- द्वित्वसंख्यापूरके, विपा० १ ० ३ ० भ० उपा दोषा-द्वितीया - स्त्री० । द्वितीय सप्तर। त्रिन्दिवप्रतिमायाम, पञ्चा० १५ वि० ।
ज्यां०२ पाहु० औ० । पत्रप्रमाणं द्रोणमानम् । तं । sोणाsssये सिन्धुलालयिते नगरे, सूत्र० २००२ अ० । इति प्र उत्तरम् चतुर्भिः कुरवः प्रस्थःप्रस्यैश्चतुर्भिराडकादि केन अब नाममालावृत्तौ कुडवशब्देन प्रसृतिद्वयव्याख्यातमस्ति, तदनुसारेण यद्भवति सद्रोणमानमत्रसेयं परमियन्मणमानो द्रोण इति तु कापि व्यक्तं दृष्टं न स्मरतीति । १०० प्र० सेन ३ उल्ला० । दोणदेशी बायु ० ० ४ वर्ग ५०
गाथा ।
दोणका - देशी - सरघायाम्, दे० ना० ५ वर्ग ५१ गाथा ।
दो मुहारेण मुरव - न० 1 द्वयोः पथेोर्मुखमस्येति द्रोणमुखम् । जनस्थलनिर्गमप्रवेशने, श्राचा० १ ० ८ श्र०६ ० | पट्टने, रा० । प्रश्न० व्य० भ० । जी० | बाहुल्येन जलनिर्गमप्रवेटो, दशा ०७ अ० । स्था० । गग यत्र जलस्थलपधावुभावपि भवतः । कल्प १ अधि० ४ क्षणु । जी० नि०चु०॥ जं०] अनु० । स्था० । उत्त| "दोणमुहं जन्त्रयन्त्रहेण ।" यस्य तु जलपथेन स्वत्रपथेन वां द्वाभ्यामपि प्रकाराज्यां भाण्डमागच्छति तद् द्वयोः पथयोर्मुखमिति निरुक्त्या द्रोणमुखमुच्यते तच्च तथा भृगुकच्छे ताम्रलिप्तं वा । बु० १ ० नि०० औ० । जनस्थल पथोपेते नगरे, प्रश्न० ३ आश्र० द्वार ।
दोण मेह-द्रोमेघ- पुं० । यावता वृष्टेनाऽऽकाशविन्दुभिर्महती गगरी जिते सामान मे दोरिरिपुं० [अलि पट्टननगरे
देि समकालिके स्वनामख्याते विद्वद्वरे, येन नवस्वङ्गेषु स्थानाकादिषु यदेकार "पटकनगरे संघमायुधः । येति ॥ १ ॥ "
'शास्त्रान
16
गणस्य च श्रीमान
श्री घोणसूरिश्वनद्य यशःपरागः ॥ २ ॥ " स्था० १० ना० । २०
णवप्रियेण संशयिता चेयम इ० १ ० ६ वर्ग १ श्र० । दोणी - द्रोणी - ० नौकायाम, प्रश्न ०१ श्राश्र० घार ज पण मदस्य कृषिकायाम् अनु ।
मायाम् ०१
भु० ६ वर्ग १ अ० ।
बी०
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(२६३) दोछि भभिधानराजेन्छः।
दास दोधिअ-देशी-चमकूप, दे० ना०५ वर्ग ४६ गाथा ।
अश दोषस्य द्वेषस्य वा व्याख्यामाददोधार-द्विधाकार-पुं। व्यस्य द्विधाकरणे, स्था. ५ ग. दूसंति तेण तम्मि व, दूसणमह देसणं व देसो वि । ३उ०
देसो च सो चउछा, दवे कम्मेयरविनिमो॥२॥६६॥ दोनागकर-दौाग्यकर-न । कलाभेदे, स० ७२ सम० । "दुष" वैकृत्य, दुष्यन्ति विकृति भजन्ति तेम तस्मिन् वा दोमणसिया-दौमनसिका-स्त्री० । वैमन्यस्ये, स्था० ५ ० प्राणिन इति दोषः, दूषणं वा दोषः, इति स्वयमेव द्रव्यम् ।
अथवा "द्विष" अप्रीती, द्विषन्ति अप्रीति भजन्ति तेन तस्मिन्
वा प्राणिन इति वेषः,द्वेषणं वा द्वेषः । इत्यपि स्वयमेव दृश्यम् । दोमासिय-दैमासिक-नाद्विमासपरिणाममस्येति द्वैमासिकम्।
कुतः पुनरिदं दृश्यते इत्याह-(अह देसणं व देसो त्ति) अथवा मासद्वयपरिमाणे, नि• चू• २० उ०।।
द्वेषणं द्वेष इति भाबसाधनपक्षोपन्यासादनम्तरोक्तः स्वयमेव दोमासियपमिमा-द्वैमासिकप्रतिमा-स्त्री० । मासदयप्रतिमा- दृश्यते । (देसो व सो चउद्ध त्ति) सच द्वेषो. वाशब्दाद् दो निर्वाहो साधुप्रतिक्षाविशेषे, तत्र हि द्वौ मासौ याबद् वेद
षो बा, नामादिमेदाचतुको व्यः । तत्र इत्रव्यशरीरव्यतो भक्तस्य, द्वे एव च पानकस्य । औ०।
तिरिके इव्ये विनाये (कम्प्रेयरविभिन्नो त्ति) कम्मंद्रव्यदो
षः, नोकर्मजव्यदोषश्च भवतीत्यर्थः ॥ २९६६ ।। दोमिलि-दोमिल्ली-स्त्री० । ब्राया लिपेलेग्यविधाने, प्रज्ञा० १
अस्य च द्विविधस्यापि स्वरूपमाहपद ।
जुग्गा बद्धा बऊ-तगा य पत्ता नदीरणाचनियं । दारे-दोर--स्त्री.। सूत्रदवरके,रजौ, श्रा० म.१०२ मण्ड। अह कम्मदव्वदोसो, इयरो मुट्ठवणाईश्रो ॥२०६७।। कटिस्त्रे, दे० ना० ५ वर्ग ३८ गाथा।
पूर्ववच्चतुर्विधाः पुमलाः कम्मंजव्यदोषः, नोकर्मण्यदो दोरन्ज-ट्रैराज्य-नाराज्यद्वयभावे, स्था० ३ ग.१ उ०। षस्तु बुटवणाऽऽदिरिति ।। २६६७॥
जावदोषं भाषचं वा प्राददोन-दोष-पुं० । अनार्यभेदे, प्रज्ञा०१ पद ।
जं दोसनेपणिज, समुइएणं एस भावो दोसो। दोचारिय-दौरिक--पुं० । प्रतीहारे द्वारपाल के, भ० ६ श.
वत्यधिकिइस्सहावो-शानच्च यमपीलिगो वा ॥२६६७।। ५ उ० । नि. चू० । ज्ञा० । रा!" दोवारिजा तु दारिता दो
यद्दोपवेदनीय द्वेषवेदनीयं वा कर्म समुदीर्णमुदयप्राप्तमेष बारिया दारे चेव ( अन्तःपुरस्य ) जेसि भिलेति ।" नि.
नावदोषो नावद्वेषो वा । अयं च स्वभावस्थस्य वस्तुनः शरीचूह उ००।
रदेशादेर्विकृतिस्वभावः कार्य कारणोपचाराद् प्रकृत्यन्यथादोपारियभत्त-दौवारिकनक्त-न० । द्वारपालस्य कृतवृत्तेः ज
भावरूपः । तत्र जावदोषोऽनीप्सितलिङ्गोऽनिष्टदुटवणादिरापङ्गलादेः पेट्टकाऽऽदिसते. नि चू० न०1
कार्यगम्यः । भावपस्त्वप्रीतिलिङ्ग इति ॥ २६६।।
अत्र च क्रोधमानयोः कोऽपि मिश्रपरिणामोप्रीतिजातिसादोविड-द्विविध-त्रि० । द्विविध एव द्वैविध्यम् । विम्प्रका
मान्यतः संग्रहमतेन द्वेषः, मायालोभौ तु प्रीतिजातिसामान्य. रे, उत्त०२ अ०।
तः, स एव रागमिच्कृतीति दर्शयन्नाद.. दोनी-देशो-सायं भोजने, दे ना०५ वर्ग ५० गाथा।
कोई माणं चापीइ,जाईनो चई संगहो दोस। दोस-दोप-पुं० । मिथ्यात्वाविरतिप्रमादकपाययोगेषु, सूत्र १ मायासोभे य म पी-इजाइसामन्नो रागं ॥२६॥ थु०११ अ । प्रश्न । मले, ध० ३ अधि । चौर्याऽऽदिके, अ. गतार्था ॥ २६६ए । मत०३बर्ग०५ ०। आत्मनः परस्य वा दूरगो, भ० १२ श०
व्यवहारनयमाश्रित्याऽऽद५ उ० । मालिन्यकारिचेष्टायाम,तं० । कालदोषो पुर्भिकाऽऽदिः,
मायं पिदोसमिच्छइ, ववहारो जं परोधघायाय । नेत्रदोषः संयमाननुगुणत्वाऽऽदिः, द्रव्यदोषो भक्कादिना शरीराननुकूलता,जावदोषो ग्बानत्वज्ञाना 55दिवास्यादिः । पञ्चा०
नाओवादाणे चिय,मुच्या लोजोत्ति तोरागो॥२७॥ १७ विक।
न केवलं कधिमानौ, किन्तु मायामपि द्वेषमिच्छत्ति व्यवहारदेष-द्विष्यत्यनेनेति द्वेषः द्वेषवेदनीये कम्र्मणि,यद्वा दूषणं द्वषः।। नयो.यस्मादियमपि परोपघाताय परवचनायैव विधीयते । त.
तो माया द्वेषः, परोपघातहेतुत्वात् क्रोधमानवदिति। न्यायेन घेदनीयकम्र्माऽऽपादिते जावे,अप्रीतिपरिणामे,पं०म०१ सूत्रः।
नीत्या मायां मम्तरेणोपाहीयते चपाज्यत इति न्यायोपादानं, त. "एगे दोसे।" स्था०१०। श्रावश्री. श्रा०चू० भ०।
स्मिन् न्यायोपादानेऽपि वित्ते यतो मूळ भवति, ततस्तदात्मको श्रा०म० । सूत्र । काति । निचू । कल्प० । प्रव)। उप
लोभो रागः। अन्यायोपात्ते तु वित्ते मायाऽऽदिकपायसंभवेन शमत्यागात्मके, विकारे, उत्त.६ अ०। परवेपाध्यवसाये,
द्वेष एव स्यादिति न्यायोपादानविशेषणमिति भावः ॥२६७०॥ पाना मुखाभिन्नस्य तदनुस्मृतिपूर्व कविगहणे, वा०५५ द्वा०।
ऋजुस्त्रमाहस्वपराऽऽश्मनोबांधारूप, सूत्र० १ श्रु०१६ ०। क्रोधमानकषायाऽमके, ग० २ अधि० । स्था० । "दोसे दुबिहे पत्ते । तं
उज्जसुयययं कोहो, दोसो सेसाएमयमणेगंतो। जदा-कोहे य, प्राणे य । " प्रका० २३ पद।
रागोत्ति वदोसो निवपरिणामवसेण उ बसेओ।२५७२।
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(२६४०) दोस भाभिधानराजेन्धः।
दोस ऋजुसूत्रनयस्येदं मतम्-क्रोधःप्रथमकषायो द्वेषः,अप्रीत्यात्म- यतः स स्वगुणोपकारोपयोगः स्वात्मनि मूछोऽऽत्मकत्वात न. कत्वाच्छेषाणां तु मानमायासोजानां रागद्वेषत्वविचारं प्रत्यत्तत् | त्रैव लोभेवरुद्धोऽन्तर्भूतः। तथा च सति समानमाययो स्वतस्य मतम् किमित्याह-अनेकान्तोऽनिश्चयः । एतदेव व्याचष्टे- गुणोपकारोपयोगः स्वात्मनि मृर्गऽऽत्मकत्वानश्च राग शेपे मानाऽऽदिकषायत्रयवर्गे कोऽपि रागः, कोऽपि वा द्वेषा, इत्यभिप्रायः । शेषास्तु परोपघातोपयोगरूपा मानमाययोरंशाः इत्ययं परिणामबशेनेवायसेयो निश्चयो नान्यथेति ॥२६७१॥ क्रोधश्च सर्वः, पते सर्वे परोपघातमयास्ततो द्वेष इति मन्तकुत श्त्याह
व्याः। न केवलमते तथा लोभोऽपि द्वेषः । किं सर्वः १. नेत्याह
यतस्तल्लकणः परोपघातोपयोगरूपः । अथ परानुपघातोपयोगसंपयगाहि त्ति नओ, न उपभोगदुगमेगकालम्मि ।।
रूपो मूर्गेपयोगाऽऽत्मको लोभः पृच्च्यते, तत्राऽऽह- केवलो राग अप्पीपीइमेत्तो-वोगो तं तहा दिस ॥ २७॥
एवासाविति । अथवा किंबहुनाक्तन ?, संक्षिप्य ब्रूमः । किमियतः साम्प्रतग्राही वर्तमान कक्षणवस्तुमाही तकोऽलो भू. त्याह- (मुच्छेत्यादि) यह सर्वेष्वपि क्रोधव्यतिरिक्तेषु मानमायाजुसूत्रः, ततः क्रोधमानी द्वेषो, मावालोभौतु राग इत्येषम. लोभकषायेषु यन्मूळऽऽत्मकमनुरजन यः कश्चिन्मूच्छेोपयोग सौ न मन्यते, मानाऽऽविकणकाले क्रोधाऽऽविकणाभावात्, प्रत्यर्थः । स रागो मन्तव्यः। अथ संदूषणमप्रीत्युपयोगम्ततोऽतदभावश्च तयोः क्रमभावित्वात, प्रातपस्व चोत्पश्यनन्तर- सौ द्वेषोशातव्यः । शब्दनयस्वेषं भजना विकल्पना । वाशमेव विनाशादिति । स एव मामो द्वेषो अवति, कदा ?, ब्दात् अजुसत्रस्य च । सयौ तु संग्रहव्यवहारमयो. नैगमस्यान. परगुणेषु यो द्वषोऽप्रीतिस्तदुपयोगे तदवसायपरिणतिका- योरेवान्तावादकै कस्थित पक्की-एकैक स्थिती नियमितः पत्तो ल इत्यर्थः । अस्तु वा कोषमानाऽऽदीनां समकालभाविता, यवोस्तावकै कस्थितपक्षौ । तथाहि-संग्रहनयः क्रोधमानौ तथाऽप्युपयोगद्वयमसावेक कालं न मयत इति कथं मिनकबा- द्वेषमेवेच्छानि, माया लोभौ तु रागम् । व्यबहारनयोऽपि लोभ यद्वयोपगाद् द्वेषो रागो वा स्यात् ।। इतदेवाऽऽह-(न नब
राममेव मन्यते, शेषकषायत्रयं तु द्वेषमेवेति । अतः शब्दाऽऽदिश्रोगगमेगकालम्मि ति) नव कवायच्योपयोगमेककाल- नया भजनाऽभ्युपगमपरत्वादेककस्थितपक्षवादिभ्यां ताज्यां मसौ मन्यते, येन क्रोधमानौ, हेयो, मायालोभी तु रागः जिन्ना इति । तदेवं व्याख्याती रागद्वेषौ ॥२९७५ ॥ २६७६ । स्यादिति । तहि किमसौ मन्यते ? , इत्याह-(अप्पी ईत्यादि) ॥ २७७ ॥ विश० । "दस दोसे पत्ते । तं जहा-तजायअप्रीतिप्रीतिमात्रोपयोगतस्तं तं मानाऽऽदिकपायं तथा तया- दोसे मइभंगदोसे पसत्यारदोसे परिहरणदासे सबक्षणव्यपदिशति ॥ २६७२ ॥
कारण हे नदोसे संकामरणनिग्गवत्यू दोसे । " स्था० १० टा०। एतदेव नावयति
(व्याख्या तत्तच्छन्दोपरि) माणो रागो त्ति मनो, साहंकारोवोगकालम्मि ।
द्वेषे उदाहरणमसो चेय होइ दोसो, परगुणदोसोवोगम्मि ||२|७३॥ "झोकेन बहुना सार्द्ध, नावा धर्मरुनि मुनिम् । माया मोजो चेवं, परोधाभोवोगो दोसो ।
गङ्गा मुतारयामास, नन्द नामकनाविकः ॥१॥
लोकाऽगादातरं दत्वा, मुनिस्तेन धृतः पुनः। मुच्छोरोगकाले, रागोऽभिस्संगग्निंगो ति ॥२७४||
भिकावेला व्यतिक्रान्ता, स तथाऽप्यमुचन्न तम् ॥२॥ मानो राग इति ऋजुसूत्रस्य सम्मतः । , साहङ्कारोप- अमुचपयानो रुष्टः सः, मुनिगविषत्रब्धिकः। योगकाले-स्वस्मिचास्मभ्यहोऽदं नमो मह्यमित्येवं योऽसाबह- शालोपय क्रूरया दृष्या, तमधाक्षात् पलालवत् ॥ ३॥ कारो निजगुणेषु बहुमानोऽभिध्वस्तदुपयोगकाले तदुपयो कापि ग्रामे सभायां सोऽभवद् मृत्वा गृहोलकः। गसमये इत्यर्थः, (स एव च मानो पो प्रमति, कदा?, सोऽपि साधुगतस्तत्रा--विशद्भोक्तुं च तां सभाम् ॥४॥ परगुणेषु यो पोऽप्रीतिस्तपमांगे तवयवसायपरिवतिसा- गृहोल कोऽपि तं दृष्टा, कोपेनाभूज्वलन्निव । भ इत्यर्थः ) एवं परोपघाताय व्याप्रियमाणो मायालोभी भुजानस्य मुनेरूद्ध, चिकेप पावकं ततः॥५॥ हेषः, स्वशरीरस्वधनस्व जनाऽऽदिषु मूर्योपयोगका से तु तावेव स मुनिर्यत्र यत्राऽऽस्ते तत्र तत्र तथैव सः । रागः। कुतः ?, स्वाह-अभियङ्गलिक इतिचा । अभिवको मुनिकात्वा स एवाय, नन्द इत्यदहलथा ॥६॥ हि रागो, यश्च स्वशरीराऽऽदिषु मूपिवोगः, ख व्यक्तोऽभिध्वज गङ्गा विशति पाथोधि, वर्षे वर्षे पराध्वना । इति युक्तमस्थ रागत्वमिति भावः ॥२५७३ ॥ २१७४॥ वाहस्तत्र चिरत्यक्तो, मृतगङ्गोते कथ्यते ॥ ७ ॥ কাপ্ত ছানিলন
हंसो उन्मृतगङ्गायां स नन्दाऽऽत्मा गृढोलकः । सद्दाइमयं मागे, मायाए चिय पुणोषगाराय ।
कर्मधर्मसमायोगात, साधेन सममन्यदा । ८॥
साधुः संचरमाणः स, महात्मा तेन वर्मना । नवओगोलोमो चिय, जमोस तत्थेव अरुको।७॥
माघमासे वसंस्तत्र, हंसस्तं प्रेक्ष्य सोऽकुपत् ॥ ६ ॥ सेससा कोहो वि य, परोवघाममध्य त्ति तो दोमो । पको भृत्वाऽथ नीरेण, शीकरैरशिनन्मुनिम । तसक्खपोय लोजो, अह सुच्छा केवलो रागो।।३६७६।। दग्धस्तत्रापि मृत्वा स, सिंहोऽजूदजनाऽचले ॥१०॥ मुच्चगणुरंजणं वा, रागो संदूसणं ति तो दोसो।
सोऽगात्तत्रापि सान, सिंहस्तं रुषितोऽभ्यगात् । सहस्स व भयपेयं, इयरे एकेकरियपक्खा
दग्धस्तेन तथैवात्पी, वाराणस्यामभूददुः ।। २१ ॥ || २६७७॥
सोऽपि तत्र गतः साधु-ईष्टा तं बटुरोर्णया। शब्दाऽऽदिन यानामिदं मतं, प्रामे मायायांचे स्वगुणोपकाराय जधान लघुभिर्ड, मत्वा तमपि सोऽदहत् ॥ १२ ॥ आत्मन उपकाराय व्याप्रियमारणायां य उपयोगः स लोभ एक, । अकामनिर्जरायोगान्द्राजा तत्रैव सोऽभवत्।
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दोस
प्रानिधानराजेन्द्रः।
दोसारण
जाती सस्मार नन्दाऽऽद्या-स्ततो दध्यौ भय दुतः ॥१३॥ खित ति ) कारक्तितो नाम नक्तपानपरसमयपाखराममतप. कथञ्चिद्यदि जाने तं, कमयाम्यधुनाऽपि तत।
रिझानान्यद्वस्तुदर्शनसमुत्पन्नाजिलापस्य का तत्प्राप्तिरू. तदज्ञानोपायनूतां, समस्यां स व्यधादिमाम् ॥१४॥
पांब्युच्छेदयिता तदनिवाघ बिनयिता भवति, प्रापयिता - गङ्गायां नाविको नन्दः, सभायां च गृहोलकः ।
त्ययः३। वस्वन्तरदर्शनात् तदनिझाषापनेता वा भवति मृतगङ्गातटे हंसः, सिंहश्चाजनपर्वते ।।१५।।
४। उक्तं च-"संपुष्पमेव तु भवे गणितं, जे कंखियाणं पवि. घटुाराणसीपुर्या, राजा तत्रैव चाभवत् ।
णे कंखं ।" इति । ( श्राय त्ति) आत्मसुप्रणिधितः, य पत्तां पूरयेतास्य, राज्यार्थ चितराम्यहम् ॥ १६ ॥
कथं मजवतीति चेत् ।। उच्यते-यदा स्वयमेतेष्वनन्तराक्ते. पठन्ति तत्र सर्वेऽपि, समस्यां तामिमां जनाः।
षु न प्रवर्तते, तदा स सुप्रणिधित उच्यते । प्रणिधानं वा विहरन् सोपि तत्रवा-55गत्यारामे मुनिः स्थितः ॥१७॥ प्रणिधिः, शोभना निधिः सुप्रसिधिः, सांश्चापि भवति । श्रा. तां चारामिकपठितां श्रुत्वा साधुरपूरयत।
काराम्नत्वं प्राकृतत्वात् । “सतं" इति व्यक्तम | दशा० ५ एतेषां घातको यश्व, सोऽप्यत्रैव समागतः ॥ १८ ॥
श्र०ा व्य अधीत्याऽऽरामिकस्तां स, पठति स्म नपाग्रतः।
दोसणिज्जत-देशी चन्ने, दे० ना०५ वर्ग ५१ गाथा । राजा मुमूर्ब तत् श्रुत्वा, जनुरारामिकं जनाः ॥ १६॥ सोऽवदन्न मयाऽपूरि, स्वस्थो राजा जगाद तम् ।
दोसाण स्मियं-द्वेषनिःसत-न । द्वेषे निःसृतं मत्सरिणां गुणवकेनेयं पूरिता बहि, स स्माऽऽहाऽऽगन्तुकसाधुना ॥ २०॥ त्यपि निर्गुणोऽयमित्यादिरूपे मृषाकादे, स्था० १० ठा० । नृपस्तत्र नरान् प्रेषीत, सुप्रसन्नः स चेन्मयि ।
दोसदास-दोमदर्शिन-त्रि०। दोषस्य स्वरूपतो वेत्तरि, प्राचाo तदे त्य स्वत्पदोपान्तं, नमामि कमयामि च ॥११॥
१ श्रु० ३.१०४ उ०। अनुज्ञातोऽज्येत्य मरवा, श्राडोऽभूद्देशनाश्रुतेः।
दोसपमिघायरिणय-दोषप्रतिघातविनय--पुं० । दोषाः क्रोधाप्रयाऽऽलोच्य प्रतिक्रान्तो, निवृति साधुरप्यगात् ।। २२॥"
ऽऽदयस्तेषां प्रतिघातो निर्यातना, स पव विनयो दोषप्रतिघात. श्रा० क०।
विनयः । दोषनिघतनाविनये, प्रव० ६५ हार । ( रागस्य रेषस्य च हेतवः " चरणविहि" शब्दे तृतीयभागे ११२८ पृष्ठे दर्शिताः) अधे,कोपे च । देना० ५ बर्ग ५१ गाथा। दासपाडयारणा-दापपातचारणा-पु० । दापनिषध, पञ्चा दोसंकाण-द्वेषध्यान-न । अप्रीतिमात्रं परद्रोहाध्यवसायो चा
पीतिमापदोडायवसायोपा १६ विव० । द्वेषः, तस्य श्वान,मधुदेवपिङ्गवाऽऽदयोरिव धर्मरुचिनाविकन-| द
दोसपमियारमाय-दोषप्रतिकारशात-jo। रोगचिकित्सोदान्दयोरिव वंशोत्पत्तौ वीरकदेवस्येव वा पुर्ध्याने, आतु।
| हरणे, पञ्चा० १० विवः ।
दोसपमिसेह-दोषप्रतिषेध-पुं०। निर्दोषतायाम्, पश्चा• १३ दोसउरिया-दोषोरिका-स्त्री० । ब्राह्मी लेख्यविधाने, स. १७
विव०। समः।
दोसबंधाण ववन्धन--न। द्विष्यत्यमेमेति वा द्वेषः, देष ए. दोसकिरिया-द्वेषक्रिया-स्त्री० । द्वेषजन्यक्रियाभेदे, प्रा. चूल
व बन्धनं देषबन्धनम् । द्वेषबन्धने, आ० चू० ४ अ०। द्वेष४ अ०।
मोदनीयसंबन्धे च । प्रज्ञा०२ पद । दोमणिग्यायपाविणय-दोषनिर्घातनाविनय-पुं० । क्रमाऽऽदेनोमारियदोषाद्रित-प० । दोषा गंगाऽऽदयः, तैः रहितः। क्रोधाऽऽद्यपनयनाऽऽत्मके विनयभेदे, दशा।
रोगाऽऽदिरहिते, सू० प्र० २० पाहु। से किं तं दोसनिग्घायणाविणए ?। दोसनिग्घायणाविणए नामोनिका दोषयुक्ते, पञ्चा०विवः । चबिहे पमाते । तं जहा-कुछस्स कोहं विण एता नवति,
दोसवत्तिया-ट्रेपनत्यया-स्त्री० । अप्रीतिकारकायां क्रियायाम, पुस्स दोसं गेएिहना जवति, कंखियस्म कंखं छिदित्ता
आव०४ अ० । सा दुविहा पत्ता-कोहपिस्सिया य. माणणिजवति, प्रायासुप्पणिधिते यावि जवति । सेतै दोसान
स्सिया य । कोहणिस्सिया अप्पणाकुप्पर, परस्म कोई नपाग्घायणाविणए ।
प। मारणणिस्सिया सयं मजति, परम्स वा माणं उप्पाप।" साम्प्रतं दोष निधीतनार्थ पिपृच्चिषुरिदमाह-" से किं तं "
श्राव०४ अ । मूगदे, स्था०२.४ उ० । क्रियाभेदे,
प्रा००४ अ०। इत्यादि प्रइनसूत्र कण्ठ्यम् । गुरुराह-दोषनिर्घातनाविनयश्चत. विधश्चतुःप्रकारः प्राप्तः । तद्यथा-(कुद्धस्लेति ) क्रुद्धस्य क्रोधं
दोससयगगगरी-दोषशतगर्गरी-स्त्री० । दोषाः परस्परकसहबिनयिना भवति १, दुधस्थ दोषं निगृहीता भवति ५, का. मत्सरगालिप्रदानमम्मीदघाटनकलप्रदानजल्पनशापप्रदानस्ववितस्य कालाध्युच्छेदयिता भवति ३, श्रात्मसुर्माणधित- परप्राणाघातबिन्तनादयस्तेषां शतानि तेषां गर्गरिका भाश्वापि भवति ।। तत्र युद्धस्थ किञ्चिनिमित्तमासाद्योदी- जनविशेषः । दोषशतभृतायां कुम्ज्याम्, त । क्रोधं मृउलवणं मृज्य चनाऽऽदिभिर्विनयिता अनेता भवति । दोसा-स्त्री० । ब्राहीलेख्यविधाने, प्रशा० १ पद । क्रोधपरित्यागझक्षणमाचारं वा शियिता भवनि १, दुष्ठस्य
देशी-निर्मनीकृते, दे० ना०५ वर्ग ५१ गाथा। कषायविषयपरिणामवचः, अहङ्कारविष्टस्य वा प्राचारजाव. शीलो विनभिता भवति । अथ बा दोपभिनेता प्रबति २।(क. दोसारण-देशी- कोपे. दे० ना०५ वर्ग ५१ गाथा ।
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(२६४२) अभिधानराजेन्द्रः ।
दोसिया
दोसिला - ज्योत्स्ना - स्त्री० चन्द्रलेश्यायाम्, चं० प्र० । ज्योत्स्नालकणम्
ता कहं ते दोखिणा लक्खले आहिता ति वदेज्जा ? | ता दोसिणा ति प्र चंदनेसाति । दोमिणा ति य किं आहे, किंलक्खणे ? । ता एगडे एगलक्खणे आहिता । सूरलेस्सा १ तिय आयतिय ग्रिडे किंलक्खणे १। ता एगडे एगअक्खा छायाति यति किं किं क्ख ? | ता एगट्टे एगलक्खणे । कथं प्रयोखनाल कृति तदेकमेव सूत्र माह (ता कहं ते इत्यादि ) 'ता' इति पूर्ववत् कथं केन प्रका रेण, भगवन् ! त्वया ज्योत्स्नाल क्षणमाख्यातमिति वदेत् ? । एवं सामान्यतः पृव विवचितमव्यार्थ प्रकटनाथ विशेषप्रश्नं करोति इत्यादि तइति पूर्ववद्र इया इति ज्योत्स्ना इति । श्रनयोः पदयोः । श्रयवा ज्योत्स्ना ६निद्राणामनुपूर्ववदेना
मेदो हो, यथा वदनं न दव इति पदानाम् । अपि चानुपूर्वीददर्शनं यथा पुत्रस्य गुरु गुरोः पुत्रइतिवत्। इहापि कदाचिदानुपूर्वी वादो भविष्यतू चन्द्रलेश्या इति ज्योत्स्ना इत्युक्त्वा, ज्योत्स्ना इति या युकम् अनयोः पदयोरानुपूज्य बापू
कोऽर्थः किं परस्परं जिने, उताभिने इति । स च किं क णः किं स्वरूपः लक्ष्यते तदन्यव्यवच्छेदेन ज्ञायते येन लक्षणमसाधारणं स्वरूपं यस्य स तथा । एवं प्रश्ने कृते भगवानाह - ( ता एग एगलक्खणे इति ) ता' इति पूर्व चन्द्रपति योना इत्यनयो। पयोधानुपूबोधनानु यो वा व्यवस्थितयोरेक एवाभिन्न एवार्थः । य एव एकस्य पदस्य वाच्योऽर्थः स एव द्वितीयस्यापीति भावः । ( एगलकवणे इति) एक मभिन्नम साधारणं बकणं यस्य स तथा । किमुक्तं भवति ?--यदेव चन्द्रलेश्या इत्यनेन पदेन चान्यस्य साधारणं स्वरूपं प्रतीयते तदेव ज्योत्स्ना इत्यनेनाऽपि पदेन यदेव च ज्योत्स्ना इत्यनेन पदेन तदेव चन्द्रश्या इत्यनेनाऽपि पदेनेति । एवम् आतप इति सूर्यलेइया इति । तथाऽन्धकार इति बा या इति । अथवा काया इति अन्धकार इति । एतेषु पदेषु विषये प्रश्ननिर्वचन सूत्राणि भावनीयानि । चं० प्र० २० पाहु० । ज्योत्स्नावृद्धिहानी -
ताकता ते दोसिणा बहू आहिता ति वदेज्जा ? । ता दोसि - पापले दोसिणा बहू आहिता ति जा ता कई से दोसि पक्खे दोसिणा बहू ग्राहिता ति वदेज्जा ! | ता - चकारपक्खातो दो पक्खे दोसिला बहू आहिता वि देना । ता कहते धकारपक्खातो दोसिया बहू आहिताति वदेजा। ता अंधकार पक्खातों दोसिपापक्खं अयमाथे चंदे चचारि वापाले मुसाली चाड भागे तर नाई चंदेरिति तं जा पाते जा जान पारसी पर भागे एवं खलु अंधकारातो दोखले दोसि बहू भारतात देता है। वा फेरवि ताणं दोसि पक्खे दोसिया आहिता ति बदेना है। ता परिचा
दोसिया
भागा ताकता से अंधकारे व आहिताि
1
? | ना अंधकारे पक्खे अंधकारे बहू आहिता ति वदेज्जा । ता कई से अंधकारे अंधकारे बहु आहिता ति देखा? ना दोसिणापक्खातो णं अंधकारपक्खे अंधकारे वढू आहिता नि देज्जा | ता कहं ते दोसिला पक्खातो अंधकारे बहू आहिना बिदेला ? ता दोसखापरखातो अंधकारप अयमाणे चंदे चत्तारि वायाले मुहुत्तसते बायालीसं च वाडिजांगे मुजा चंदे रज्जति तं जा पाते प जागंज पारसी परमं भागं एवं खत्रु दोमिणाप बस्वास धकारपत्रखे अंधकार वह आहिताि
केवति अंधकारपत्र अंधकार आहिता बिना परिचा असलेला जागा |
नाका दोदित इति
कदा
"
काले भगवन् ! ते त्वया ज्योत्स्ना प्रभुता आख्याता इति वदत् ? | भगवानाह - (ता दोसिणमित्यादि) 'ता' इति पूर्ववत् ज्यो त्स्नापके ज्योत्स्ना बहुराख्याता इति वत् ? । ( ना कहते इत्यादि ) 'ता' इति प्राग्वत् । कथं केन प्रकारेण भगवन् ! ज्योत्स्नापके ज्योत्स्ना बहुराख्याता इति वदेत् ? । भगवानाह - ( ता अंधकारे) इत्यादि सुगमम् ता कई ते इत्यादि प्र नवं निगदमिदमनकार श्री इत्यादि ) 'ता' इति पूर्ववत् । अन्धकारपकात् ज्योत्स्नापक्रमयमानमाद्वित्वारिंशद्व
""
33
याचिकानि
स्य यावत् ज्योत्स्ना निरन्तरं प्रवर्द्धते । तथा चाह यानि याव तू चन्द्रश्यते रामाकृतवरूप म बति, मुहूर्त्त संख्यागणिते भावना प्राग्वत् कर्त्तव्या । कथमनावृतो जवतीत्याह । तद्यथा- प्रथमायां प्रतिपक्षकणायां तिथौ प्र यमपराद्वापरिभागखत्कभागमा यानात भवति, द्वितीयस्यां तिथौ द्वितीयं भागं यावत् । एवं तावत् द्रष्टयं यावत् पञ्चदश्यां पञ्चदशमपि भागं यावदनावृतो भवति, सर्वाऽऽत्मना राहुविमानेनाऽऽवृतो भवतीति भावः । उपसंहारमाह-इत्यादिप्रकरणम श्चितमन्धकारपक्कात् ज्योत्स्ना बहुतराऽऽख्याता इति वदेत् । इयमत्र भावना इद शुक्लपक्के यथा प्रतिपत्प्रथमकणादारभ्य प्रतिमुहूर्त्त यावन्मात्रं शनैः शनैः बन्धः प्रकटो भवति तथा अन्धकारप्रतिपत्चणादारभ्य प्रतिहतमा शनैः २ बन्द्र आवृत उपजायते । तत एवं सति यावत्येवान्धकार पक्के ज्योत्स्ना तातत्येव शुक्लपक्के,या पञ्चदश्यां ज्योत्स्ना साऽन्धकारादधिकेति । अन्धकारपात् शुक्लपके ज्योत्स्ना प्रभूतापात ताकद 'ता' इति कियती ज्योत्स्नापक्षे ज्योस्ना आख्याता इति वदेत् ? । भगवानाद- परीताः परिमिता असंख्येया भागा निर्विभागा भागाः । एवमन्धकारसूत्राण्यप्युक्तानुसारेण नावनीयानि, नवरमन्धका रपते श्रमावास्यायां योऽन्धकारः स ज्योत्स्नापकाधिक इति ज्योत्स्नापक्कादन्धकारपके अन्धकारपक्कप्रभूत प्रख्यात इति । चं० प्र० २० पाहु० । सू० प्र० ।
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दोसिणामा
(२६४३) अभिधानराजेन्डः।
हितवर
दीसिणाना-ज्योत्स्नाभा-स्त्री० । ज्योतिषेन्जस्य चन्द्रस्याग्रम- दोहा-दिया-अव्य० । द्विप्रकारे, “ मोच्च द्विधा कृगः "100 हिण्याम्, स्था० ४ ० १२० । जं.। सू.प्र.। जी। १।१७॥ द्विधाशम्दे कृगधातोः प्रयोगे श्त श्रोत्वं,चकारादुत्वं दोसिणी-देशी-ज्योत्स्नायाम्, दे० ना०५ वर्ग ५० गाथा। च । 'दोहा किजा । दुहा किज्जा । दोहाश्या दहाभ।' रुग बोमिय-दौषिक-त्रि• । दृष्यं परमस्येति दौषिकः। दूषकक्रय.
इति किम-दिहागमं ।' कचित्केवलस्थापि-"हा वि सो विक्रयकारिणि,अनु। व्यः ।
सुरबहूसत्थो।" प्रा.१ पाद। दोसियान-दोषान-न० । रात्रिपर्युषितेऽन्ने, प्रश्न० ५ संब० द्वार। दोहासन-देशी-कटोतटे, देखना०५ वर्ग ५० गाया। दोह-घोह-पुं० । अनिष्टचिन्तने, अष्ट० २५ अष्ट० ।
दोहा-देशी-शवे, दे० ना०५ वर्ग ४६ गाथा। दोह-पुंगदुद-कर्मणि घम् । दुग्धे, 'सन्दोहश्चाएमेऽहानि'इति
चवक-नय-न.।"शीघ्राऽऽदीनां पहिल्लाऽऽदयः" ॥ स्मृतिः । प्राधारे घम् । दोहनपात्रे,भाचे घञ् । दोहने,वाच ।
४२२ ॥ इति सूत्रान्तरपम्तिन्नयस्य 'द्रवक' इति सूत्रेण भयस्य दोहट्टि-दोहट्टि-पुं० । स्वनामख्याते ग्रामे, "दोहट्टिवसतिवा
स्थाने अवकाऽऽदेशः। “दिवेहिं विदत्तउं वाहि वढ संचि म ए. से, श्रेष्ठिश्रीजा सकस्य दानवेः । तदुपटाम्भादपरं, च श्रावि.
कुवि जम्मु कोवि लवकर सो पड जेण समप्पर जम्मु "प्रा. काया वसुन्धर्याः॥१॥" जीवा० ३६ अधि।
४ पाद। दोहणवामण-दोहनपाटन-न० । यत्र ग्रामिका गाः दोधि ।।
हि-दष्प-न• "शीघ्राऽऽदीनां वहिलाऽदयः" HIN२२॥ गोदोहनस्थाने, नि० चू०२०।।
इति सूत्रान्तरपचितदष्टे-हिः इति सूत्रेण दष्टे स्थाने केहि आ. दोहणहारी-देशी-जलहारिण्याम्, पारिहारिण्यां च । देखना.
देशः।" एक्कमक्क जवि जो, णदिदरिसु दसव्वायरेण तो ५ वर्ग ५६ गाथा।
विकेहि। जहि कहि बिराहो को सक संचरे विदखनयणानेहि दोहणी-देशी-पके, दे० ना० ५ वर्ग ४८ गाथा।
पलुटाः।" प्रा०४पाद । दोहल-दौहद-पुं० । गर्भप्रभावोद्भुतेऽन्वर्वनफिलाऽऽदावाभ-दितवर-दितवर-पुं०। काकन्दीनगरीवास्तव्ये स्वनामख्याते गृलापविशेषे, कल्प १ अधि०४ कण । सूत्र० । षो। "प्रदीपि हपती, स च वीरान्तिके प्रव्रज्य पोशवर्षपर्यायो विपुले पर्वदोहदे बः"।८।१ । २२१ ॥ इति दस्य लः । 'दोहनोः ' ते सिक इत्यन्तकृद्दशायां षष्ठवर्गस्य षष्ठेऽध्ययने सुचितम । प्रा०१पाद।
अन्त.५ वर्ग।
444444444444444AAAAAAAAAA444444444444444 closinalealcaleaimalsakoolook aisalcokcaivalcalatootoakoaisoteatokratwalestootbalonisakoolbabakonloanatmatoalootoota IsaaNASHREERSIOETRRETARR
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इति श्रीसौधर्मवृहत्तपागच्छीय-कलिकालसर्वशकरूप-जट्टारक- जैन श्वेताम्बराऽऽचार्यश्री १००० श्रीमद्विजयराजेन्द्रसूरीश्वरविरचिते “ अनिधानराजेन्छे " दकाराऽऽदिशब्द
सङ्कलनं समाप्तम् ।
生生主要是生生虫主要是主去去去去去是是是是是是是是土生土生土生土土土生土生土土土土土土土土 deloPRODIAEERal
l aeolaharepaida Toyoyoyeyesyaayengegoryeposyorysayrayoraryopoarayoyoyo yoyo syoryesyo yo y oyoneyTETToyoy VTVVVVVVV
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धकार
घ- पुं० [ धावा ड च कुवेरे ब्रह्मणि, मुझे गु के, प्रबरे, पड़ो, या देशभेदे उपरिभागे, इन्कुम्भे ध न्वतरौ, ध्वनी, विशेषे निनादे, शशिनि च । पढे, पारुष्ये, जूनने सामस्य धने, चाम्ये च न आधारभूते यके, भूते, नीते च । त्रि० । "घो विधाता धनं घी के स्वरे । धश्च स्वाधारभूतेऽपि वहाँ वादे व धायके ॥ देशभेदे भृते भीते, धस्तथोपरि वर्त्तते ।
धं च षण्ढे च पारुष्ये,
एका
46
धः पुंसीन्द्रेभकुम्भे स्यादूः धन्वन्तरि तथा द्वयोः । स्याद् ध्वनौ च विशेषे च निनादशशिधातृषु ॥ ५० ॥ तु धूनने सामर्थ्यदन्तिषु। धनधान्ये
..........॥ ५१ ॥" एका० । वाहरध्याएकोदाहरण- १० काका बाहर विषेया ।" स्वावकोदाहरणेन काकज्ञातेन । पञ्चा० १२ विव० । (तत्स्त्ररूपं 'गुरुकुलवास' शब्दे तृ० जा० ०३० पृष्ठे दर्शितम्) भंग- देशी-भ्रमरार्थे, दे० ना० ५ वर्ग ५७ गाथा ।
........
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( २६४४ )
अभिधानराजेन्ऊ:
"
99
धंत - देशी - अतिशये, " घंतं पि दुरुकंखी, न लभर दुकं श्र धेश्रो । - (तंपत्ति) देशीवचनत्वादतिशये नाऽपि ग्धकाकी, न लभते रथमधेनोः सकाशादिति । बृ० १ उ० ।
ध्यान्त न० । ध्वनतः । अन्धकारे वाच० ।
ध्यात- त्रि । ध्माकः । दग्धे, आ० म० १ अ० २ खराम | वि शे० । श्रग्निसम्पर्केण निर्मलीकृते, आ० म० १ ० १ खएम । जी० नं० रा० । अग्निना तापिते च । औ० । शब्दिते, पिं० । दीर्घश्वासहेतुक शब्दयुक्ते च । वाच० | अग्निसंयोगे जी० ३ प्रति० ४ उ० । जं० । ज्ञा० । ' ध्मा' शब्दाग्निसंयोगयोरिति वचनात् । श्र० म० १ ० २ खएम ।
तपोषण गरु गरिसप्तकनकरुचकसदृशयनत्रि० । ध्यातमग्निना तापितं धौतं जलेन कालितं यत्कनक तस्य यो रुचको वर्णस्तत्सदृशप्रभः । गौराङ्गे, श्र० । पंथोपपट्टयातीतरूपपट्टनम् सम्पर्केण
निर्मश्रीकृतो पोतो भूतिरस्तिमनविजित रूप्यमयः पट्टः विशदीकृतो यो रूप्यपट्टो रजतपत्रम् | जी० ४ प्रति० ४ ० । विशदीकृतो यो रूप्यपट्टो रजतपत्र
कंसात धातरूपपट्टः । रा० । अन्ये तु व्याचकतेध्यातोअग्निसंयोगेन यो धौतः शोधितो रूप्यपट्टः स ध्यातधौतव्यपट्टः रा० । ० | अग्निसम्पर्केण निर्मन्नीकृते तिखरष्टित इस्तमानासले जनेोगेन शोध पत्र 44 धंतधोयरुप्पपट्टेइ वा जी० ४ प्रति० ४ उ० । जं० । तोरुपपट्टकचंद कुंदसापिरामिप्यनध्यात धौतरूप्यपट्टा ङ्कशङ्खचन्ऽकुन्दशालि पिष्टराशिसमपन - त्रि० ।
चन्द्रकु दशापिसाराम मे श
55
१ श्रु० १ श्र० । धंधा - देशी- बज्जायाम, दे० ना० ५ वर्ग ५७ गाथा । धंसण-ध्वंसन- न० । भ्रंशे, " धंसेइ जो श्रभूषणं । ध्वंसयति मायया भ्रंशयतीति । स०३० सम० । अपनयने, "सउणी जह पंसुगुंठिया, विहुणिय सइ ईसियं रयं । " ध्वंसयत्यपनयतीति । सूत्र० १० २ श्र० १ उ० । अधःपतने, गमने, नाशे
च, वाचः ।
पंचायतुमि "मु सामा"
मेरे
" ॥६।
४ । १ ॥ इति सूत्रेण मुञ्चते साडाऽऽदेशः । धंसामइ । ' पके- 'मुअइ ।' प्रा० ४ पाद । मुञ्चति, श्रमुचत् । वाच० धंसामिप्र देशी - व्यपगते, दे० ना० ५ वर्ग ५०० गाथा । धअ- देशी - पुरुषे, दे० ना० ५ वर्ग ५७ गाथा । धगधगंत धगधगायमान- वि० जायमाने "सं। जाज्वल्यमाने, रूपणं । " ० १ ० १ अ० । “पजलंति जत्थ धगधग-ध गस्त गुरुणा वि चोइए सीसा।" (धगधगधगस्स त्ति ) अनुकर शब्दोऽयम् । धगधगिति धगधगायमानं यथा स्यात्तथेत्यर्थः । प्राकृतत्वाच्चैवं प्रयोगः । ग० २ अधि० ।
धगधगाइय- धगधगायित- त्रि० धगधगति कुर्वति, " धगधगा जानिरा कल्प० १ अधि० ३ कण | घट्टज्जुण-धृष्टद्युन्नपुं। धृष्टं प्रगल्भं द्युम्नं बलं यस्य । "घृष्टघुम्ने णः || ८ |२| ६४ ॥ इति प्राकृतसूत्रेण एस्य न द्वित्वम् । प्रा० २पाइ । दुपदराजपुत्रे, वाच० ।
33
-
धगा
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धमिया- घटिका - स्त्री । "मणैर्दशनिरेका च घटिका कथिता बुधैः ।" इत्युक्तलक्षणे दशमणाऽऽत्म के मानविशेषे, तंत्रा कल्पण धण- घण घा० । ध्वाने, ज्वादि०-पर०- सक० सेट् । धति । अघाणीत्। अधर्णात् । वाच० ।
भ्रण- घा०। ध्याने, स्वादि०- पर० अक० सेट् । भ्रणति । अभ्रणीत् । अभ्राणीत् । वाच० ।
ध्वण- घा० । ध्याने, स्वादि० पर०क० सेट् । ध्वणति, श्र वाणीत् । श्रध्वणीत् । वाच०।
ध्वन-धा० शब्दे, चुरा०-०भ० सक० सेट् । ध्वनयति । श्रदिध्वनत् । अध्वनयीत् । वाच० । ध्वन घञ् । शब्दे, पुं० | वाच० । रवे, भ्वादि० पर० श्रक० सेट् । वा घटादिः । ध्वनति । श्रध्वानीत् । अध्यनीत् । ध्वनयति । ध्वानयति । वाच | धन-धानधान्योत्पादने, जुहो० पर० अक० सेट् । दधन्ति, अधानीत् । अवनीत् । वाचण, ज्यादि० पर० श्रक० सेट् । धनति ।
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(२६४५) अन्निधानराजेन्डः।
धण
धण
अधानीत् । अधनीत् । वाच॥धन-अच् । वस्तुनि, अर्थे, बाचा | रित्युक्तं भवति। नरकप्राप्तिक्षणश्चापायो न प्रत्यक्षेणावगम्येते. हिरण्यरूप्याऽऽदिके, उत्त० ६ ०रा०। "धमियमियरं तु हैबमृत्युनकणापायदर्शनमुदाहरणम | तत्र वृक्षसंप्रदाय:-"पगधणं ।" यद् घटितमितरद् वा अघटितं तद्धनमुच्यते । पृ०१ म्मि नयरे एगो चोरो, सो रत्ति विभवसंपन्नेसु घरेसु खत्तं १०। गोमहिप्यादिके, सूत्र०२ श्रु०१ अग आव०। औउत्त। स्त्रणियं, सुबहुं दविणजायं घेत्तुं अप्पणो घरेगदेसे कृवं सयगुमखरामशर्करादिके,धन गुमखरामशर्कराऽऽदि.गोमहिष्यजा- मेव स्खणित्ता तत्थ दविणजायं पक्खिपति, जहच्छियं च सं. विकाकरभतुरगाऽऽदि वा । आव०६०। भाएमाऽऽदिके,प्रा० के दाऊण कामगं बिहे उपसूयं ति बहवेत्ता तत्थवागमे पक्विचू.६ ।'धनम्' गणिम-धरिम-मेय-पारिच्छेद्य-भेदा- वह मा मे भज्जा बेडरूवाणि परूढपणयाणि होऊण रयणाणि चतुर्धा । यदाह-"गणिम जाईफलफोफाई, धरिमं तु परस्स पगार्सिति । एवं काले वञ्चति अम्मया तेणेगा ककुंकुमगुमाई। मेज्जं चोपडलोणाइ, रयणवत्था परिवेज्जं । " | या विवाहिया प्रतीवरूविणी सा पस्या संता तेण न मा॥१॥ (१७ श्लो०) ध०२ अधि० । मा००। दशा। क रिया। दारगो य सो अवरिसो जाओ। तेणं चितिय-प्र. ल्प० । औ० । झा० । भ०। धनं च न्यायेनैवोपार्जयदिति | चिरकालं विधारिया पय पुवं उद्दव पच्छा दारयं उद्दागृहिधर्मः । ध. १अधि० । धनार्थिनाऽपि धर्म एव कार्यः।। विस्सं, तेण सा उद्दवेडं अगमे पक्वित्ता, तेण दारगेण गिहाम्रो "धर्मोऽयं धनवल्लनेषु धनदः ।" "तो पडिभणेइ सेट्टी, ध. निम्गच्छिकण दाहा कया, लोगो मिलितो, तेण भम्पति-पपण णस्थिणो जइ तुमे तहा वि इमं । धम्म करेह जं ए-स देश धणं मे माया मारिय त्ति रायपुरिसहि सुयंतेहिं गहितो, दिट्टो कामधेणु समो॥" ध० र० । अर्थस्यापि पुरुषार्थतया सकलैहि- कूवो दब्बभरियो, अहियाणि य सुबहणि, सो बंधेऊण रायम. काऽऽमुष्मिकफननिबन्धनतया च तदुपार्जनं प्रत्यप्रमातो विधेय | भमुनणीओ, जायणापगारहि सव्वं दवं दवायेऊण कुमारणं इति केषाश्चित्कदाशयः । यत पाहुः-"धनै(कुलीनाः कुलीनाः मारिओ।" एवमन्ये ऽपि धनं प्रधानमिति तदर्थे प्रवर्तमानाः क्रियन्ते,घनैरेव पापात्पुनर्निम्तरन्ति । धनेभ्यो विशिष्टोन लोके- तदपहायेहैवानर्थावाप्तितो नरकमुपयान्तीति सूत्रार्थः । उत्त० ऽस्ति कश्चिद्धनान्यजयध्वं धनान्यर्जयध्वम् ॥ १॥" इति । पाई. ४ ०। (संयमस्थस्यधनेन चेत्प्रयोजनमुत्पद्यत तदा तन्मतमपाकर्तुमाह
किंकर्तव्यमिति तद्वक्तव्यता 'अटुजाय 'शब्दे प्रथमन्नागे २४१ जे पावकम्मेहिँ धणं मणूमा,
पृष्ठे नक्ता) स्नेहे, धनिष्ठान कत्रे च । वाच. | पाश्वनाथस्य
प्रथमभिकादायके, स. राजगृहनगरस्थे स्वनामख्याते सा. समाययंती अमति महाय ।
र्थवाहे, पा०म०द्वि० । प्राचू प्राचा०1(तद्वक्तव्यता 'चि. पहाय ते पास पयट्टिर नरे,
लातीपुत्त' शब्दे तृतीयभागे ११८७ पृष्ठे उका)("रोहिणी" वेराबघा नरयं उर्वति ॥॥
शब्दे च स्या) देवदत्तदारकस्य पितरि राजगृहनगरस्थे ये केचनाविवक्तितस्वरूपाः पापकर्मनिरिति पापोपादानहेतु. स्वनामख्याते सार्थवाहे, ज्ञा० । भिरनुष्ठानैर्धनं व्यं मनुष्या मनुजाः, तेषामेव प्रायस्तद.
तत्कथा राजगृहवर्णनमधिकृत्यर्थोपायप्रवर्तनादित्थमुक्तम् । समाददते स्वीकुर्वन्ति, अमतिमि- एवं खलु जंबू ! तेणं कालेणं तेणं समएणं रायगिहेणाम ति प्राग्वत्, नमः कुल्सायामपि दर्शनाकुमतिम् उक्तरूपां.(गहा- एयर होत्या, एगरस्स वाओ । तत्थ णं रायगिहे एय. यत्ति) गृहीत्वा संप्रधार्य। पठ्यतेच-"श्रमयं गहाए त्ति।" अशो.
रे सेणिए णामं राया होत्था, महया वयो । तत्य णं भनं मतममतं नास्तिकाऽऽदिदर्शनम्, अथवा-अमृतमिवाऽमृतम। भास्मनि परमानन्दोत्पादकतया तश्च प्रक्रमारूनम । (पहाय
रायगिहस्स हायरस्स बहिया उत्तरपुरच्छिमे दिसीभाए गुत्ति) प्रकर्षण तन्मध्यादस्पस्याप्यग्रहणात्मकेन हित्वा त्यक्त्वा,
ण सिन्नए णामं चेइए होत्या, बमओ । तस्स णं गुणसितानिति धनकरसिकान्, पश्यावलोकय । विनयमेवाह-(पया। बयस्स चेश्यस्स अदूरसामंते एत्थ णं महं एगे जिणुज्जाट्टिए ति) आर्षत्वात् स्वत एवाशुनानुभावतः प्रवृत्तान्प्रवर्ति- ण यावि होत्या, विणदेनझे पमियतोरणघरे णाणाविताम्बा, प्रक्रमापापकर्मोपार्जिजनधनेनैव मृत्युमुखमिति भावः। एतच्च गम्यते, नरान् पुरुषान, पुनरुपादानमादरम्यापकमेका
हगुच्छगुणमयावद्विवच्छच्छाइए प्रणेगवानसयसंकणिजे स्तकणिकपकनिरासार्थ वा । एकान्तकणिकपके हि नयेरेवं
यावि होत्था । तस्म ण जिणुज्जाणस बहुमज्कदेसभाए धनमुपार्जितं तेषामेव प्रवर्तनम् । तथा च बन्धमोत्ताभा
पत्थ " महं एगे जग्गकूवए याचि होत्या, तस्स णं जग्गवश्चेति जावः । पतञ्च पश्य वैरं कर्म" वेरे वजे य कम्मे य" कूवस्स अदूरमामंने एत्थ णं महं एगे मालुयाकच्छए यावि इतिवचनात् । तेनानुबकाः सततमनुगता मैरानुगताः, नरकं होत्था, किएहे किण्होभासे० जाव रम्मे महामेहनिरंरत्नप्रभाऽऽदिकं नारकनिवासं पयान्ति पतद्भवनावितया सामीप्येन गच्छन्ति, त पव मृत्युमुखप्रवृत्ता इति प्रक्रमः । य.
बलूए बहूहिं रुक्खेहि य गुच्छेहि य गुम्भेहि य नयाहि य दि वा-पाशा व पाशाः स्यादयस्तेषु प्रवृत्तास्तर्वा प्रव- वहीहि य ताणेहि य कुसेहि य कुमुमेहि य खाणएहि । तिना: पाशप्रवृत्ताः पाशप्रतिता वा नरकमयान्तीति सब- संगहि य परिचले अंतो कुसिरे बाहिं गंभीरे अणेगन्धः । ते हि कव्यमुपाय॑ रूयादिष्यनिरमन्ते, तदनिरन्या च
वालसयसंकणिजे यावि होत्था । तत्य णं रायगिहे णनरकगतिजाज पव भवन्तीति भावः। शेष प्रावत। तदनेन सु. श्रेण धमिव मृत्युहेतुतयों परत्र च नरकयापकत्वेन तत्व.
यर धाणे णामं सत्यवाहे अले दित्ते० जाब विनमजततः पुरुषार्थ पवन भवतीति तथागतो धौ प्रति मा प्रमाद।- पाणे, तस्स णं धएस्स मत्थवाहस्स भद्दा नाम जारिया
६६२
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( २६४६ ) अनिधानराजेन्द्रः ।
धण
होत्या, सुकुमानपाणिपाया अहीणपकिपुष्पंचिंदियसरीरा लक्खणर्वजणगुणोत्रेया मालुम्माणपमा परिपुष्पसुजायसब्बंग सुंदरगी ससिसोम्मा कारकंतपियदंसणा सुरूवा करयल परिमिवतित्रलियमज्जा कुंमलुल्लिदियगं मलेहा कोमुइयश्वशियरमा सोम्पत्रया सिंगारागारचास्त्रेसा० जाव पाडवा बंजा अभियानरी जाणुकोप्परमाया यानि होत्या । तस्स णं घणस्स सत्यवाहस्स पंथर णामं दासचेडर होत्या, सव्वंगसुंदरंगे मंसोबचिए बालकीलावणकुससे यात्रि होत्या । तए णं से घले सत्यवादे रायगिहे णपरे बहू नगरगम मेडिसत्यवाहाणं अट्ठारसएह य सेपिसणीणं बहु कज्जेसु य कुइंवेसु य०जाव चक्खुजुए यावि होत्था, नियमस्स वि य ग बहुसु कुकुंबे य बहुमु गुज्जेसु य० जाव चक्खजूए यात्रि होत्या । तत्थ णं रायगिहे जयरे बहिया विजए ग्रामं तकरे होत्या, पात्रे चंमानरूत्रे श्रीमतररुद्दकम्मे रूसियदित्तरत्तणयले खरपरुसमहलत्रिगयत्रीभच्छदाढिए असंपुमियउट्ठे उज्जयपालतमु मरहुब मिरणुकोसे पिस्नुताचे दारुणे पइजए एिस्संसइए णिरणुकं श्रहीत्र एतदिट्ठीए खुरेव प्रगधाराएं गिदेव आमिमत्तमित्ते अग्गमिव सव्वजक्खी जन्नमिव सव्वग्गाही उकं चणचणमायाशियमकूडकवममाइसंपयोग हुने चिरगरविलउडसीझायारचरिते जूयपसंगी मज्जपसंगी मंसपसंगी भोज्जपसंगी दारुण हिययदारए माहसिए संधिच्छेयए उबहिए विस्संभघाई आजीवगतित्य भेय सहहत्यसंपत्ते परस्स दव्वहरणे शिच्चं अणुबद्धेति
ववेरे रायगिहस्स णयरस्स बहूणि अतिगमणाणि य शिग्गमणाणि य दाराणि य अवदाराणि य बिडिओ यमीय रागरणिचमणाणि य संवदृणाणि य व्विहणाणि य जूयखञ्जयाणि य पाणागाराणि य वेमागाराणि य तक्करठाणाणि य तक्करवराणि यसिंघाडगाणि यतियाणि य चउकाणि य चच्चराणि य पागघराणि य न्यधराणि य जक्खदेउनाणि यसनाणि य पव्वतापि य पणियसाक्षाणि य सुष्मघराणि य आनोरमाणे मग्गमाणे गवेसमाणे बहुजणस्स छिदे य सिमेसु य विहुरेस य म य अब्भुद एस य उस्सवे य पसवेमु य तिहीसु य छऐसु य जोसु य पव्वणीस य जुळेसु य मत्तमत्तस्स य व क्वित्तस्स य वाउलस्स य सुहियरस य दुहियस्सय विदेसत्यस्य विष्पवसियस्स यमग्गं च बिदं च विहरं च अंतरं च मग्गमाणे गवेममाऐ एवं चणं विहर, बहिया वयां रायगिहस्स रायरस्स आरामेसु य उज्जाणेसु य सुस्राणेसु य वाविपोक्ख
For Private
धण
रिणीदी हियागुंजालियासु य सरेमु य सरपंतियासु य स - रसरपंतियासु य जिज्जाणेसु य जग्गकृत्रेसु य मालुयाकच्छएमु य सुमासु य गिरिकंदरायणनवट्टासु य ब - दुजणस्स बिदेसु य० जाव एवं च णं विहर । तए तीसे नदाए भारियाए अया कयाई पुञ्चरत्तावरतकालसमयंसि कुकुंबजागरियं जागरमालीए अयमेयारूबे अभस्थिर ० जाव समुप्यज्जित्था - अहं धणेणं सत्थवाहेणं सद्धिं बहूणि वासाणि सफरिसरसगंधरूत्राणि माणूसगाई कामभोगाई पच्चन्भवमाणी विहरामि । यो चैत्र अहं दारगं वा दारियं वा पयायामि । तं घण्णा गं ताो अम्मयाओ ०जाब सुलद्वेणं माणुस्मए जम्मजीवियफले, तासि अम्मयाणं जासिम नियमकुच्चिसंतूयाई थणद्धलुटयाई महरसमुल्लावगाई मम्मापयंपियाई
मूल कक्खदेस जागं असिरमाणाई मुद्धयाई थणियं पिवंति, तओ य कोमलकमलोमेहिं हत्थेहिं गिरिहऊणं - च्छंगे णिवेसियाई देतिं समुझावए पिए समहुरे पुणो पुणो मंजुल प्रभणिए, तंं हं अण्णा अम्मा अलक्खणा
पुणा एतो एगमवि एण पत्ता, तं सेयं मम कपाउपजाए रयणी ए० जात्र जलते घाणं सत्यवाई आपुच्छित्ता धणें सत्यवाद्देणं अब्भणुमाया समाणी सुबहु विपुलं अस
पाणं खाइमं साइमं उक्क्खकावेत्ता सुबहुपुष्पवत्य गंधमहालंकारं गहाय बहुमित्तणाइरिणयगसयण संबंधिपरियणमहिलाहिं सच्चिसंपरिवुडा जाई इमाई रायगिहस्स एयरस्स बहिया णागाणि य नूयाणि य जक्खाणि य इंदाणिय खंदाणि य रुद्दाणि य सिवाणि य वेसमणि य, तत्थ एणं वहूणं परिमाण य० जाव वेसमणपरिमाण य महरिहं पुष्पचणियं करेला जागृपायव किया एवं वइत्तए - जड़ सं अहं देवापिया ! दारगं वा दारियं वा पयायामि, तो णं अहं तु जायं च दायं च जायं च अक्खयाणिहिं च प्र
हेमित्तिक उवाध्यं उवयाइत्तर एवं संपेहेइ, संपेढेइत्ता क० जाव जलते जेणामेव धणे सत्यवाहे तेणामेव उवागच्छइ, उबागच्छइत्ता एवं बयासी एवं खलु अहं देवापिया ! तुब्नेहिं सद्धिं बहूणि वासाई० जाव विहरति सनाव सुमरे पुणो २ मुमंजुलप्पनथिए तेणं अहं अधमा अपुष्पा अकयलक्खणा एतो एगमविया पत्तो, तं इच्छामि देवापिया ! तुमेहिं अन्नभाया समाणी विपुलं असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा० जाव अणुत्रट्टेमि वाइयं करित्तए । तए णं धणे सत्यवाहे भदं जारियं एवं बयासी - मंपियां खलु देवापिए ! एस चेत्र मणोरहे, कहं णं तुमं दारगं वा दारियं वा पया
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(२६४७) अन्निधानराजेन्द्रः।
घण
एलसि नदाए सत्यवाहीए एयमटुं अणुजाणामि । तए विनूसियाओ विपुलं असाणं०४ासाएमाणीयो० जाव णं सा भद्दा सत्यवाही धणेणं सत्यवाहेणं अभणुमाया | परिनुंजमाणीओ दोहसं विणेति, एवं संपेहे, संपेहेतित्ता समाणी हडतुट्ठा जाब हियया विनझं असणपाणखाइ- कवं जाव जलते जेणेव धणे सत्यवाहे तेणेव उवागमप्ताइमं उबक्खमावेड, उवक्खडावेत्ता सुबई पुप्फगंधम- पछड, नवागच्चत्ता धणं सस्थवाहं एवं बयासी-पवं खलु झाझंकारं गिएहइ,गेएहश्त्ता सयाओ गिहाओ णिगइ, देवाणुपिया ! मम तस्स गब्भस्सजाव विणंति, तं इपिग्गच्छत्ता रायगिहं णयरं मज्झं मणं णिग्गच्छइ, च्छामि णं देवाणुप्पिया ! तुब्भेहिं अन्भुमाया समाणी णिग्गच्छत्ता जेणेव पोखरिणी तेणेव उवागच्चइ, उवाग- जाव विहरत्तिए ?। अहासुहं देवाणुप्पिया ! मा पमिपत्ता पुक्खरिणीए नीरे सुबहुं पुष्फगंधमदासंकारं ग्वेइ, बंधं करेह । तए ण सा नद्दा सत्यवाही धणेणं सत्थउबेइत्ता पुक्खरिग ओगाहे, ओगाहेइत्ता जलमजणं वाहेणं अब्जणुएणाया समाणी हट्ठा. जाव दियया करेड, करेइत्ता जलकी करेइ, करेइत्ता एहाया कयवलिक- विनलं असणं. ४ जाव रहाया कय. जाव उसगपम्मा उसपमसामिया जाई तत्थ उप्पलाइं० जाच सहस्स. गसामगा जेणेव णागघरए० जाव धृव महेश, महेइत्ता पपनाई ताई मिएहड, गिएहत्ता पुक्खरिणीओ पचोरुहइ, णामं करेइ, करेइत्ता जेणेव पुक्खरिणी तेणेव नवागच्छइ, तं सुबई पुष्फवत्थगंधमल्लं गिएहइ, गिएहत्ता जेणामेव नवागच्छइत्ता तए णं ताओ मित्तणाइ० जाव णयरमहिणागघरए य जाव वेममणघरए य तेणेव उवागच्छड़,
लाओ भई सत्यवाहिं सवालंकारविनृसियं करेंति । तए एं उवागच्कइत्ता तत्थ णं णागपडिमाण य० जाव वेसमण
सानदा सत्यवाही ताहिं मित्तणााणियगसयणसंबंधिपरिपमिमाण य आनोए पणाम करेइ, करेइत्ता ईसिं पच्चुम- यणणयरमहिनियाहिं सकिं विपुलं असणं. ४ जाव मइ, लोमहत्थगं परामुसह, णागपमिमाओ य० जाव वेसम. परि जमाणी य दोहनं विणेति, जामेव दिसिं पाउन्नूया पापडिमाओ य लोमहत्थेणं पमजइ, पमजइत्ता उदगधाराए। तामेव दिसिं पगिया । तए णं सा भद्दा सत्यवाही संअब्भुक्खे, अन्तुकवेइता पम्हनसुकुमालए गंधकासाईए | पुराणदोहला० जात्र तं गम्भं सुहं मुहेणं परिवहइ । तए णं गायाई बूढे, बूढेहत्ता महरिहं वत्थारुहणं महारुहणं| सा भद्दा सत्यवाही णवएहं मासाणं बहुपडिपुराणाणं अगंधारुहणं चुममारुहणं वमारुहणं च करेइ० नाव धूर्व महइ ।
चट्ठमाणं रायंदियाणं सुकुमालपाणिपायं० जाच दारगं प. जाणुपायवमिया पंजलि नडा एवं बयासी-जइ ण अहं दा
याया। तए णं तस्स दारगस्स अम्मापियरो पढमे दिवसे रगं वा दारियं वा पयायामि तोणं अहं तुम्भं जायं जाव।
जाइकम्मं करेंति,तहेवजाब विपुलं असणं नवखमाति, अणुबट्टेमि त्ति कट्ठ उवाइयं करेइ, जेणेव पोक्खरिणी तेणेव तहेव मित्तणाई जोयावेत्ता अयमेयारूवं गोणं गुणनिप्फर्म उवागच्चड, नवागच्चत्ता विउझं असणं वा पाणं वा खाइम
णामधिज्जं करेंति-जम्हा णं अम्हं मे दारए बहूर्ण बा साइमं वा आसाएमाणीपजाब विहर,जिमियाजाव सुइ
णागपडिमाण य० जाव वेसमणपडिमाण य नवाइयनया जेणव सए गिहे तेणेव उवागच्छइ, नवागच्छइत्ता अ.
लके, तं होकणं अम्हं इमे दारए देव दिएणे पाामेणं । दुत्तरं च णं जद्दा सत्यवाही चानदसट्ठमुदिपुलमासिणीसु
तए | तस्स दारगस्त धम्मापियरो णामधिज्नं करेंति विपुलं असणं० ४ उवक्खमेश, नवखमेइत्ता बहवे णागा
देवदिमे ति । तए णं तस्स दारगस्स अम्मापिय. जाव वेसमणा य उववायमाणी णमंसमाणी नाव एवं
यरो जायं च भायं च अक्खयणिहिं च अणुबट्टेति । तए च एंण विहर । तए एं सा नद्दा सत्यवाही एणया क
एं से पंथए दासचेडए देवदिस्स दारगस्स बालग्गाही याई केण कालंतरेणं आपलसत्ता जाया यावि होत्था ।
जाए देवदिशं दारगं कमीए गएहइ, गिएहइत्ता बाहिं तए णं तीसे भद्दाए सत्यवाहीए दोसु मासेसु विइकतेसु त
मिंजएहि य किंभियाहि य दारएहि य दारियादि इए मासे वट्टमाणे इमे एयारूवे दोहल्ले पानन्तए-धमा प्रो
य कुमारहि य कुमारियाहि य सकिं मंपरिवुमे अजिरमताओ अम्मयाओ० जाव कयलक्खणाओ ताओ अम्म
माणे अनिरम । नए णं सा भद्दा सत्यवाही अम्मया क. याभो जाओ णं विउलं असणं०४ मुबह पुप्फगंधमबाल
याइ देवदिम दारयं एहायं कयवनिकम्मं कयकोउयमंगल. कारं गहाय मित्तणाइणियगसयण संबंधिपरियाणमहिनाहिं
पायच्चित्तं सव्वालंकारविनूसियं करे, पंथयस्स दासचेडया सफि संपरिखुमाओ रायगिह णयरं मऊ मऊोणं पिग्ग
स्स हत्ययंसि दल यइ । तए णं से पंथए दासचेमए गिछइत्ता जेणेव पोक्खरिणी तेणेव भोगाहिति,
भदाए सत्यवाहीए हत्थाओ देवदि दारगं कमीए गिश्रोगाहितित्ता एहाया प्रो कयवनिकम्माओ सच्चाकार- एड, मिएहइत्ता सयानो गिहाम्रो पमिणिक्खमइ, पमि
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(२६८०) अभिधानराजेन्ः।
घण
धगा
णिक्खमइत्ता बहूहिं भिएहि य मिंजियाहि य० जाव कु- तिं वा अन्ननमाणे जेणेव सए गिहे तेणेव उवागच्चड़,उ-- मारियाहिं सदि संपरिचु जेणेव रायमग्गे तोपत्र उवागच्छइ, | वागच्चस्ता महत्थं पाहु गिएडा, गिबहइत्ता जेणेव ण. जवागच्छइत्ता देवदिनं दारयं एगते गवेइ, पहहिं भिएहि यरगुत्तिया तेणेव उवागच्च, उवागच्छत्ता तं महत्थं पायजाव कुमारियाहिं सकिं संपरिबुझे पमत्ते यानि वि- हुमं नवणे,नवणे इत्ता एवं बयासी-एवं खंसु देवाणुप्पिहरइ । इमं च णं विनयतकरं रायगिहस्स एयरस्स बहुणि या! मम पुत्ते नहाए नारियाए अत्तए देवदिम् णामं दादाराणि य प्रवदाराणि य तहेव जाव पाभोएमाणे म. रए इढे जाव चंबरपुप्फ पि व मुबहे मवण गाए, किमंग ! ग्गमाणे गवेसमाणे जेणेव देवदि दारए तेणेव नवागच्छा, पुण पासवणयाए । तए णं सा जहा देवदिमं दारयं
बागच्छइत्ता देवदिम दारयं सवालंकारविजूसियं पासइ, एहायं सन्नासंकारविस्तूसियं पंथगस्स दासस्स हत्थे दलपासतित्ता देवदिशास्स दारगस्स आभरणालंकारे समुच्चि. यइजाच पायवभिए, तं समं णिवेइ । तं इच्छामि णं देए गढिए गिक अज्कोवव पंथवं दासचेमयं पमत्तं पासह, वाणुप्पिया ! देवदिप्मस्स दारयस्स सन्चो समंता मग्गपासइत्ता दिसालोयं करेइ, करेइत्ता देवदि दारगं गि- गवेसणं करित्तए । तए ६ ते एयरगुत्तिया धणेणं सएहइ,गिएहइत्ता कक्खंसि अद्वियावे,अवियावेत्ता नत्तरि- स्थवाहेग एवं वुत्ता समाणा सम्पबचकवया उप्पालिजेणं पिहेइ,पिहेइत्ता सिग्धं तुरियं चवलं चेइयं रायगिहस्स यसरासणपट्टिया० जाव गहियाउह पहराणा धणेणं सणयरस्स अवदारेणं णिग्गच्छइ,णिग्गच्छत्ता जेणेव जिणु- स्थवाहेणं सधि रायगिइस्स णयरस्म बहूणि अइगमणाज्जाणे जेणेव भग्गकूवर तेणेव नवागड, नवागच्चत्ता णि य० जाव पवासु य मग्गणगवेसणं करेमाणा रायदेवदि दारयं जीवियाओ ववरोवेड़, ववरोवेला माजर- गिहाप्रो एयरानो पमिणिक्खमइ, पमिशिक्खमहत्ता जेणालंकारं गिएइ, गिएहइचा देवदिमस्स दारगस्स सरीरं
व जिजाणे जेणेव भगवए तेणेव नवागच्च, नणिप्पाणं णिचेटुं जाव विप्पजद भग्गवए पक्खिबइ, प.
वागच्छत्तिा देवदिखस्स दारयस्स सरीरं णिप्पाणं निच्चेक्खिवक्त्ता जेणेच मालुयाकच्छए तेणेव नवागच्छद, उवा
टुं जीवविप्पजदं पासंति, हा हा अहो अकजमिति कटु गच्छत्तिा मालुयाकच्चयं अणुप्पविसइ, अणुप्पविसइना
देवदिमं दारगं भग्गकूवाओ उत्तारेइ, उत्तारेइना धणपिचले णिफंदे तुसिणीए दिवसं खवेमाणे चिट । तए स्स सत्यवाहस्स हत्थे दमयंति । तए णं ते एयरगुपं से पंथए दासचेडए तो मुहत्तंतरस्स जेणेव देवदि त्तिया विजयस्स तकरस्स पयमग्गमगच्छमाणा जेणेव दारए विए तेणेव उवागच्छा, नवागच्छइत्ता देवदिवं मासुयाकच्छए तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छइत्ता पालुयादारयं तंसि गणंसि अपासमाणे रोयमाणे कंदमाणे विन
कच्चयसि थाप्पविसति,विजयं तकरं ससक्खं सहोदं सबमाणे देवदिखस्स दारणस्स सवओ समंता मग्गणगवेसणं
गेवेज जीवग्गाहं गिएड, गिएहइत्ता अढिमहिजाणकोकरे,करेइत्ता देवदिमस्स दारगस्स कत्था सुई वा खुइंवा
प्परप्पहारसंजग्गमाहियगत्तं करेंति, अवन्डाबंधणं करेंति, पउत्ति वा अलजमाणे जेणेव सए गिहे जेणेव धणे सत्य
करेंतित्ता देवदिप्स्स दारयस्स आभरणं गिएहति,गिएडबाहे तेणेव उवागाकड, नवागच्छइत्ता धणं सत्यवाहं एवं
तित्ता विजयस तक्करस्स गीवाए बंधइ, बंधइत्ता माबुयाबयासी-एवं खयु सामी!जद्दा सत्यवाही देवदिमं रघं
कच्छयाओ पडिणिक्खमंति, जेणेव रायमिहे एयरे तेव एहायं० जाव मम हत्यसि दलयइ । तए णं अहं देव
नवागच्छति, रायाहं जयरं अणुप्पविसंति,रायगिहे णयर दिम दारयं कमीए गिएहामि, गिएडइत्ता जाव मग्ग एग
सिंघाडगतिगचउक्कचचरमहापदपहेसु कसप्पहारोहि य बयावेसणं करोमि । तं ण णज्जइ सामी! देवदिप्ले दारए केण
प्पहारेहि य निवाप्पहारेहि य णिवाएमाणा गरं च धूलि तेणिए वा अवहरिए वा अक्खित्ते वा पायवडिए ध
च कयवरं च उबरि पक्खिबमाणा महया २ सद्देणं उणस्स सत्यवाहस्स एयमणिवेएइ । तएणं से धणे सत्यवाहे
ग्छोसेमाणा एवं बयासी-एस ण देवाणुप्पिया ! विजण पंचयस्स दासपेढयस्स एयपटु सोच्चा णिसम्म तेशव महः
णाम तकरेजाव गिछे निव आमिसभक्खी बालघायए य या पुत्तसोएणाभिनूप समाणे परमणियत्ते व चंपगपायवे |
बालकमारए,तं णो खटु देवाणुपिया! एयस्स केइ राया वा धस त्ति धरणियलंसि सव्वंगेहिं सचिवाए । तए णं से
रायमचे वा अवरजाइ, णमत्थ अप्पणो सयाई कम्माई धणे सत्यवाहे तो मुहुत्तरस्स आसत्ये पञ्चागयप्पाणे दे.
अवरकंति ति कट्ट जेणामेव चारगसाला ताणामेव नवाबदिमस्स दारगस्स सबओ समंता मग्गणगवेसणं करेइ, । गच्छति, उवागच्छतित्ता हडिबंधणं करिति, भत्तपाणणिरोह करेइत्ता देवदिखस्स दारगस्त कत्थइ मुई वा ईवा पउ-| करिति, तिसंऊ कसप्पहारेहि यजाव णिवाएमाणा विह
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(२६४) अनिधानराजेन्डः।
घण
रंति । तए णं से धणे मत्यवाहे मित्तणाइणि यगसय- विजया ! एगतमकपामो, जेणं अहं नच्चारपासवर्ण णसंबंधिपरियगणं मछि रोयमा जाब विक्षवमा- परिच्वेमि । तर पं से विजए तकरे धणं सत्यवाई णेणं देवदिएणस्स दारगस्म मरीरस्म महया इट्टीसक्कारस- एवं बयासी-तुब्भं देवाणुपिया ! विपुलं असणं वा पाणं मुदरणं णीहरणं करेति, करोतित्ता बहूई लोश्याई मय- वा खाइमं वा साइमं वा आहारियस्स अस्थि नच्चारे या किच्चाई करोत, केणइ कालंतरेणं अवगयसोए जाए यावि पासवणे वा, मम पं देवाणुप्पिया ! इमेहिं बहूहि कसप्पहोत्या । तए पं से धणे सत्यवाहे अएण्या कयाई हारोहि य० जाच लयाप्पहारेहि य तएहाए य खुहाए य बहसयंसि रायावराहसि मंपलिने जाए यावि होत्था ।तए परिनवमाणस्स णस्थि के उच्चारे वा पासवणे बा, तं शं ते णगरगुत्तिया धणं सत्यवाहं गिएहति, गिएहतित्ता छंदेणं तुभं देवाणप्पिया! एगते अवक्कमित्ता उच्चारपासवणं जेणेव चारगे तेणेव उवागच्छति, नवागच्चित्ता चारगं परिहवेह । तए एं से धणे सत्यवाहे विजएणं तकरणं एवं अणुप्पविसंति, अणुप्पविसंतिता विजएवं तक्करेणं सकिं वुते समाणे तुसिणीए संचिट्ठइ । तए णं से धणे सत्यवाहे एगओ पमिबंधणं करिति । तए णं सा जद्दा भारिया क-| मुहत्तरस्स बलियतरागं उच्चारपासवणेणं उब्वाहिजमावंजाव जलंते विननं असणं० ४ नवख मेनि, उबक्ख- णे विजयं तकरं एवं वयासी-एहि ताव विजया !. जाव मेवित्ता जोयणधिमयं करेइ, जोयणाई पक्खिवति, लं- अवकभामो । तए णं से विजए धणं सत्थवाई एवं बयाछियं मुद्दियं करोति, करोतित्ता एगं च सुरनिवारि- सी-जइ णं तुमं देवाणुप्पिया ! ताओ विपुलाओ असणं पहियुषं दगवारयं करोति, करेतित्ता पंथयं दासचेमयं स- ०४ संविजागं करेह, तो णं अहं तुहिं सकिं एगतं दावेइ, सद्दावेइत्ता एवं बयासी-गच्छह णं तुम देवाणुप्पि- अवकमामि । तए णं से धणे सत्थबाहे विजयं तकरं एवं या ! इमं विनसं असणं गहाय चारगसालाए ध- बयासी-अहं णं ताओ चिपुलाओ असणं ०४ संविणस्स सत्यवाहस्स नवणेहि। तए णं से पंथए भद्दाए जागं करेस्सामि । तए णं से विजए तकरे धणस्स सत्थसत्यवाहीए एवं कुत्ते समाणे हद्वतु तं जोयपपिमयं तं च वाहस्स एयमढे पभिमुणेइ । तए | से विजयप तकरे सुरभिवरवारिपडिपुराणं दगवारयं गिएहर, गिएहश्त्ता स. धणे सथि एगते अवक्कभइ, नच्चारपासवणं परिडवेइ, याओ गिहाओ पडिणिक्खमइ, पडिणिक्खमइना रायगिह आयते चोक्खे परमसुलूए तमेव गणं नवसंकमित्ता णं णयर मऊ मज्ोणं जेणेव चारगसाला जेणव धणे स- विहर । तए णं सा भद्दा कल्लं जाव जलते विपुलं त्यवाहे तेणेव उवागच्छड, नवागच्छदत्ता जोयणपिडयं. असणं ४ . जान परिवेसइ । तए से धणे सत्यबेति, ठवेतित्ता नवंछेइ, उझबेइत्ता भायणाई गिएहइ, गि- वाहे विजयस्स तकरस्स ताओ विपुलाभो असणं० ४ एहश्ता भायणाई धोबे, धोवस्त्ता हत्यसोयं दायइ, द- संविभागं करेइ । तए पं से धणे सत्यवाहे पंथयं दासचे. सयत्ता धणं सत्यवाहं तेणं विपलेणं असण० ४ परि- में विसन्जेइ , तर ग से पंथए भोयणपिमयं गहाय चारवेसेइ। तए णं से विजए तकरे धणं सत्यवाहं एवं ब- गसाझायो पमिणिक्वाइ, पमिणिक्खमइत्ता रायगिहं गयासी-तुमे एंण देवाणुपिया ! मम एत्तो विपुलाओ अ- यरं मो मजफेर्ष जेणेव सए गिहे जेणेव जदा भारिया सणं संविनागं करेह । तए णं से धणे सत्यवाहे।
तेणे वागच्चड, नवागच्छत्ता नई सत्यवाहिणिं एवं विजयं तकरं एवं बयासी-अवियाई अहं विजया! एवं वि. बयासी-एवं खलु देवाणप्पिए! धणे सत्यवाहे तव पुत्तपुलं असणं. ४ कागाणं वा मुणगाणं वा दसएज्जा,
घायस्स जाब पञ्चामित्तस्स ताओ विनायो असणं उकरमयाए वा ए बडेज्जा, णो चैव तव पुत्तघायगस्त
पाणं खाइमं साइमं संविनागं करेति । तए णं सा भदा पुत्तमारगस्स रिम्स वेरियस्स पमिणीपस्स पञ्चामित्तस्स
सत्यवाही पंथ यस्स दासचेमस्स अंतिए एयमहुँ सोचा एत्तो विपुलाओ असणं०४ संविभागं करेज्नामि । तए ।
प्रासुरुत्ता रुद्वा० जाब मिसिभिसेमाणा धस्स सत्यवाहसे धणे सत्यवाहे तं विपुलं असणं. ४ आहारेइ, तं पंथयं
स्स पोसमावजह । तए णं से धणे सत्यवाहे अप्पया क्सिजेइ । तए णं से पंयए दासचेडए तंजोयणपिमगं गिएहर, कथाइ पित्तणाइणियगसयएसंबंधिपरियणेणं सएण य अ. जामेव दिसं पानभूए तामेव दिसं पमिगए। तए णं तस्स स्थ सारेणं रायकजाओ अप्पाणं मोया, मोपावेइत्ता धास्स सत्यवाहस्स ते विपुलं असणं ४ाहारियस- चारगसासाओ पमिणिक्खपड़, पमिणिक्खमइत्ता जेणेव माणस्स उच्चारपासवणेणं उबाहित्था । तए णं से असंकारिसना तेणेव उवागच्च, नवागच्छत्तिा अनंधणे सत्यवाहे विजयं तकरं एवं बयासी-एहि ताव | कारियकम्मं करायेइ. करावेत्ता शेष पुक्खरिणी तेणेव
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(२६५०) भाभधानराजेन्दः ।
घण
धण
उवागच्छ, जवागच्चइत्ता प्रह धोयमट्टियं गिराहइ, गि-| नासे जाव वेयणं पच्चणुब्नवमाणा विहरति । सेग एहहत्ता पुक्खरािणं प्रोगाहेश, श्रोगाहेइत्ता जलमजणं | तो जव्वाट्टत्ता अणाइयं प्रणवदग्गं दीहमर चानरंकरहे, एहाए कयवलिकम्मे० जाव रायगिहं रायरं अणुप्प-। तसंसारकतारं परियटिस्सइ । एवामेव जंबू ! जेणं विसइ । रायगिहस्स एयरस्स मज्कं मजकेणं जेणेच सए अम्हं निग्गंथो वा निग्गंथी वा आयरियउबकायाणं अं. गिहे तेणेष पहारेत्थगमणाए । तए णं तं धणं सत्यवाहं तिए मुंडे नवित्ता अगारात्रो अणगारियं पन्चइए समाणे एज्जपाणं पासित्ता रायगिहे णयरे बहवे णयरणिगमसे- | विपुनमणिमुत्तियधणकण गरयणसारेणं बुब्भइ. से वि य द्विसत्यवाहपभित्रो प्रादयंति, पमिजाणंति, सकारेंति, सः | एवं चेव । तेणं कालेणं तणं समएणं धम्मघोसा णाम माणेति, अम्नुढेंति सरीरकुसझं पुच्छति । तए णं से | थेरा जगवंतो जाइसंपमा० जाव पुनाणुपुचि चरमाणा धणे सत्यवाहे जेणेच सए गिहे तेणेव नवागच्छइ, नवा- जाव जेणामवे रायगिहे एयरे जेणेव गुणसिलए नेइए गच्छइत्ता जा वि य से तत्य बाहिरिया परिसा भवइ, तं जाव अहापडिरूवं उग्गाहं उगिएिहत्ता संजोग तवसा दास तिवा, पेस तिवा,जइगा तिवा, नाइवेति वा,सा वि अप्पाणं भावमाणा विहरति, परिसा णिग्गया, धम्मो कयण धणं सत्यवाई एज्जमाएं पास इत्ता पायपझियाए खे. हिओ । तए णं तस्स धणस्स सत्यवाहस्त बहुजणस्स मकुसलं पुच्छइ, जे वि य से तत्प अतिरिया परि- अंतिए एयमढे सोच्चा णिसम्म इमेयारूवे अन्नथिए सा जवइ, तं माया इय वा पिया इय वा भाया ति वा नइ- जाव समुप्प जित्था । एवं खयु भगवंतो जाइसंपएणा इदणी ति वा, सा वि य णं धणं सत्यवाहं एन्जमाणं पासइ,। मागया, इह संपमा, तं इच्छामिण थेरे जगवंते बंदामि, णपासइत्ता आसणाओ अग्नुढेइ, कंगकंठियं अवदासियं । मंसामि, एहाएजाव सुचप्पावेसाई मंगलाई वत्याई पववाहप्यमोक्खणं करेइ । तए एं से धणे सत्यवाहे जेणेव रपरिहिए पायविहारचारेणं जेणेव गुणसिलए चेइए जेणेत्र चदा जारिया तेणेव नवागच्छइ । तए णं सा भदा जा. थेरे जगवते तेणेव उवागच्च, उवागच्छइत्ता बंद, णमंरिया सत्यवाही धणं सत्यवाहं एजमाण पासड, पासइत्ता सइ । तए णं थेरा भगवंतो धणस्स सत्थवाहस्स विणो आढाति, पो परियाणाइ, अणादायमाणी अपरिजा- चित्तं धम्ममाइकखंति । तए णं से धणे सत्यवाहे धम्म णमाणी तुसिणीया परंमुही संचिट्ठ । तए णं से धणे सोना एवं बयासी-सद्दहामि णं भंते ! एिगथे पावयसत्यवाहे जदं नारियं एवं बयासी-किं णं तुमं देवाणु- ० जाव पवइए० जाव बहणि वासाणि सामनपरिप्पिया ! ण तुट्ठा वा ण इरिसा वा णाणंदी वा, जं पए यागं पाणित्ता भन्नं पच्चक्खाइत्ता मासियाए संनेहपा. सेएणं अत्यसारेणं रायकजाओ अप्पा विमोइए । तए | ए सर्टि जत्ताई अणसणाई आदइत्ता कालमासे कालं किसा भद्दा धणं सत्यवाई एवं बयासी-कहं गं देवाणप्पिया! च्चा सोहम्मे कप्पे देवत्ताए उबवरो । तत्थ णं अत्येगहमम तुट्ठा वा० जाव आणंदे वा भविस्सइ । जेणं तुमं मम | याणं देवाणं चत्तारि पनिओवमाई दिई पम्पत्ता । तत्थ णं पुत्तघायकस्स० जान पञ्चामित्तस्स ताो विपुलाओ अ- धणस्स देवस्स चत्तारि पनिोवमाई दिई पप्मत्ता ।से एं सणं. ४ संविनागं करेसि । तर पं से धणे सत्यवाहे धणे देवे ताओ देवमोगाओ आउक्खएणं जवखएणं जदं सत्यवाहिं एवं बयासी-णो खलु देवाणुप्पिए ! धम्मो विइक्खएणं गइक्खएणं अतरं चयं चइता महाविदेहे त्ति वा तवो त्ति वा कयपमिकझ्या वा लोगजत्ता तिवा वासे सिकिहिति० जाच सव्वमुक्खाणमंतं करेहिति, जहा णायए त्ति वा घामियए ति वा सहाएइ वा मुहि त्ति णं जंबू ! धणेणं मत्थवाहेणं णो धम्मेइ वा जाब विजवा ततो विपुलामो असएं०४ संविनाए कए, एप्पत्य यस्स तकरस्म ताो विपुलाओ असणं०४ संविजागे कर, सरीरचिंताए । तए णं सा भद्दा सस्थवाही धणेणं सत्यवा- णापत्य सरीरस्स रक्खणट्ठाए,एवामेव जंब जोगा अम्हं रेणं एवं वुत्ता समाणी हट्टतुट्ठा० जाव आसणामो अ- णिगंथे वा णिग्गयी वाजाव पवइए समाणे ववगयएहाजोति, कंगाकोठा बतासेति,खेमकुसलं पुस्जद, पुच्चइ- णुमद्दण पुप्फगंधपसालंकारक्निसिए इपस्म ओरालियसरीसा पहाया० जाव पायच्चित्ता विपुलाई भोगभोगाई मुं
रस्स णो वाहे वा रूवहेउं वा विसयहे वा तं विपुलं जमाणी विहरइ । तए णं से विजए तकरे चारगसाझाए असणं०४ आहारमाहारेछ, णएणत्थ पाणदसण चरित्ताणं तोहिं बंधेहि य वहहि य कसप्पहारोहिय० जाव तएहाएहि | वहणट्टयाए, से णं इहलोए चेव बहूणं सपणाणं बदणं स. य छुहाएहि य पराजवमाणे काझमासे कालं किच्चा परएम मषीणं बहुएं सावगाणं बहूणं सावियाण अ अच्चरश्ताए नववो,से णं तत्थ ऐरए जाए कालेकासा- णिजे० जाव पन्जुवासणिजे भवइ, परसोए वि य एं
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(१६५१) धण अभिवानराजेन्द्रः ।
घण णो बहणि हत्यच्यणाणि य करणच्यणाणि य णा- भोगवांगसंपरसे विडियविउलभत्तपावेसि"व्यास्या साच्चयणाणि य एवं हिय उपायणाणि य बसणुप्पायणा-|
स्वस्थ मेघरुमारराजवर्णकवत्. प्रमावर्षकस्य तुचारिणीवर्ष
कवनवरं (करयलय त्ति) अनेन “करयनपरिमियतिवििण य वंगणाणि य पाविहिंति, अणादीयं च णं म.
लियमझाइ ति" इयम् । (झति) अपत्यफमापेक्रया णबदग्गं दी जान बीईवश्स्संति,जहा व से धणे सत्यवा
निष्फमा ( अबियाचरि ति) प्रसवानन्तरमपत्यमरणेनापि हे सिवसाहाणेसु आहारे विहरिउं जंण बट्टए सादु देहो फलवतो बन्ध्या भवतीत्यत उच्यते (भवियाउरिसि) अधितम्हा धणु व्य विजय सादू, तं तेण पोसिज्जा । एवं खयु।
जननशीला अपत्यानामत पवाऽऽड जानुकूपराणामेव माता जंबू ! समणेणं जगवया महावीरेणं. जाव संपत्तेणं दोच्चस्स
जननी जानुकूपरमाता। पताम्व शरीरांशभूतानि तस्याःस
नी स्पृशन्ति, नापत्यमित्यर्थः। अथवा-जानुकर्पराएब मात्रा णायजायणस्स अयमढे पएणत्ते त्ति बेमि ।।
परप्राणाऽऽदेः साहाय्यसमर्थ उत्सवनिवेशनीयो वा परिकरो एवं खलिवत्यादि त प्रकृताध्ययनार्थसूत्र, सुगमं चैतत्सर्वे, यस्याः न पुत्रसवणः सा जानुपरमात्रा(दासचेडे ति) नवरं जाणोंद्यानं चाप्यनूत,चापीति समुच्चये,अपिवेत्यादिवत् । दासस्य भृतकविशेषस्य चेटः कुमारकः दासचेटः । अथवा विनष्टानि देवकुलानि परिशटितानि तोरणानि प्राकारद्वारदे. दासश्चासौ चेटश्चेति दासचेटः । (तकर ति) चौरः, पापस्य बकुलसंबन्धीनि गृहाणि च यत्र तत्तथा । नानाविधा ये गुच्छा पापकर्मकारिणः चण्डालस्येच रूपं स्वनायो यस्य स तथा वृन्ता कीप्रतृतयः,गुरुमा वंशजालीप्रभृतयः,लता अशोकल ताड- चएमालकर्मापेक्षया भीमतराणि रोझाणि कर्माणि यस्य स दयः,वल्ल्यनपुधीप्रनृतयः, वृकाः सहकाराऽऽदयः, तैश्छादितं तथा । (आरुसिय त्ति) आरुष्टस्येव दीप्ते रक्त नयने यस्य स यत्तत्तथा। अनेकैलिशतः स्वापदशतैः शकनीयं भयजनक तथा खरपरुषे अतिकर्कशे महत्यौ विकृते वीभत्से दंष्ट्रिके उत्तरोचाप्यभूत्, शङ्कनोयमित्येतद्विशेषणसंबकस्वास्क्रियावचनस्य न केशगुच्छरूपे दशनविशेषरूपे वा यस्य स तथा । असंपतिमुनरुक्तता । (माबुकाकच्छ इति) एकास्थिकफला वृक्तविशेषाः तो असंपुटितो असंवृत्तौ वा परस्परालमा तुच्छत्वादशनमालुकाः प्रज्ञापनानिहिताः, तेषांकको गहनं मालुका ककः। दीघत्वाच प्रोष्ठी यस्य स तथा, उदधता वायुना प्रकीणी चिभिटिकाकच्छ इति तु जीचाभिगमचूर्णिकारः। (किराहे कि- विकीर्णा सम्बमाना मूजा यस्य स तथा, भ्रमरराहुवर्णः कराहोभासे ) इह यावरकरणादिदं दृश्यम्-"णीले णीलोभासे पण इत्यर्थः । निरनुक्रोशो निर्दयो, निरनुतापः पश्चात्तापरहिहरिए हरिश्रोभासे सीए सीओभासे गिद्धे गिद्धोभासे ति. तः, अत एव दारुणो रोषः, अत एव प्रतिभयो नयजनकः, वे तिव्योभासे किण्हे किराहच्चाए णीले णीलच्चाए हरिए निःसंशयिका शौर्यातिशयादेव तत्साधयिष्याम्यवेत्येवं प्रवृ. हरियच्छाए सीए सीयमाए णि णिच्छाए तिब्वे तिव्व. त्तिकः । पाठान्तरेण-" निसंसे" नृन्नरान् शंसति दिनस्तीनाए घणकमियकडिन्छाए त्ति ।" कृष्णः कृष्णवर्णाजनवत् ति नृशंसः। निशंतो वा विगतश्लाघः। (निरणुकंपत्ति)वि. स्वरूपेण कृष्ण एवावभासते, द्रष्टग्णां प्रतिभातीति कृष्णावभा. गतप्राणिरका, निर्गता वा जनानामनुकम्पा यत्र स तथा। सः, किन किश्चिद्वस्तुस्वरूपेण भवत्यन्यादृशं प्रतिभासते तु अहिरिव एकान्तग्राह्यमेवेदं मयेत्येवमेका निश्चया रधिर्यस्य सन्निधानविप्रकर्षाऽऽदेः कारणादन्यामिति । एवं क्वचिदसौ स तथा । (खुरे ब्व एगवधारापत्ति) एकत्रान्तरे वस्तुभानीलो मयूरग्रीववत्,कचित् हरितः शुकपिच्छवत्, हरितासान गेऽपहर्तव्यलकणे धारेव धारा परोपतापप्रधानप्रवृत्तिसक्षणा इति वृक्षाः। तथा शोतः स्पर्शतः वल्ल्याद्याक्रान्तत्वादिति च यस्य स तथा । यया तुर एकधार एवमसा मोषणसणेवृद्धाः । स्निग्धो न रूक्षः, तीवो वर्णाऽऽदिगुणप्रकर्षवान्, तथा कप्रवृत्तिक एवेति भावः । (जलमिब सम्बग्गादि ति) यथा कृष्णः मद् वर्णतः, कृष्णच्यायः गया च दीप्तिरादित्यकरावरण- जलं सर्व स्वविषयाऽऽपनमभ्यन्तरीकरोति तथाऽयमपि सर्च जनिता चेति । एवमन्यत्रापि। (घणकमियकमिच्चाए त्ति) अ- | गृहातीति भावः । तथा उत्कञ्चनवञ्चनमायानिकृतिकूटकपटैः म्योन्यशाखाउनुप्रवेशात् यन्निरन्तरच्छायारभ्यो महामेघानां सह योऽतिसंप्रयोगो गाय, तेन बहुलः प्रचुरो यः स तथा,तत्र निकुरम्बा समूहस्तद्वद्यः स महामेघनिकरम्बभूतः। वाचनान्तरे कर्द्ध कञ्चनं मूल्याऽऽद्यारोपणार्यमुत्कञ्चनं, हीनगुणस्य गुणोस्वदमधिक पठ्यते-"पत्तिए पुरिफर फलिए हरियगरे रिजमा. स्कर्षप्रतिपादनमित्यर्थः । वञ्चनं प्रतारणं,माया परचञ्चनबुद्धिः। थे।" हरितकश्चासी (रेरिजमाणे ति) भृदां राजमानश्य: निकृतिर्वकवृत्या गलकर्तकानामिवावस्थानं, कूटं काषांपणस तथा । (सिरीए अश्व २ उवसोभेमाणे चिट्ट ति) श्रिया
तुलादेः परवञ्चनार्थ न्यूनाधिककरणं, कपट नेपथ्यभाषाबनवदम्या अतीव २ उपशोभमानम्तिष्ठति। (कुसेहि यत्ति)
विपर्ययकरणम्, अथवा-पभिरुतकवनाऽऽदिनिस्सहातिश. दः। क्वचित्-"कूवाहय त्ति" पातत्र कूपिकाभिः लिङ्गव्य. येन यः संप्रयोगस्तेन यो बहुसःस तथा । यदि वा-सातिशयेन त्ययात् (खाणुएदि य त्ति) स्थाणुनिश्च । पावान्तरेण-(स्त्र- कव्येण कस्तूरिकाऽऽदिना परस्य द्रव्यस्थ संप्रयोगःसातिशयनएहि ति) खातेग रित्यर्थः । अथवा-( कृविपहिं ति) चौ.
संप्रयोगः । ततश्चोत्कञ्चना 55दिनिः सातिशयसंप्रयोगेण च यो गवेषकैः, (खत्तरहिति) खानकैः, केत्रस्येति गम्यते । चौरैरि. बहुलः स तथा । उक्तं च-“सो होइ साइजोगो, दव्वं जं त्यर्थः । अयमजिप्रायः-गहनत्वात्तस्य तत्र चौराः प्रविशन्ति
छुहिय अन्नदब्बेसु । दोसगुणा बयणेसु य, अत्यविसंवायणं नवेषणार्थमिरे चेति संछन्नो व्याप्तः, परिच्चन्नः समन्तात्
कुणा ॥१॥” इति एकीयं व्याख्यानम् । व्याख्यानान्तरं पुनरेवम अन्तमध्ये कु सावकाशत्वात् बहिर्गम्भीरो दृष्टरप्रक- उत्कश्चनमुत्कोचा, निकृातेर्वश्चनप्रच्चादनार्थ कर्म, साविविन्नमणात (अदिते) इह यावत्करणादिदं द्रष्टव्यम्-"दि. म्भपतत्संप्रयोगबहुल, शेष तर्थव, चिरं बहुकालं यावद से विकिमाविउलभवणसयणासण जाणवाहणाइले बहुदास- नगरे नगरस्य वा विनष्टो विप्लुतः चिरनगरविनष्टः बहुकाबीदासीगोपहिसगवेलगप्प भूए बहुधण बहुजायस्वरयए प्रा- नो यो नगरविनष्टो भवति स किलात्यन्तं धूता नवतीत्येवं.
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(२६५२) अभिधानराजेन्द्रः।
घण
धण
पिरोक्तिः, तथा दुई शीलं स्वजाब प्राकार आकृतिश्चरित्रं वा. | गमवि न पत्त त्ति) इतः पूर्वमेकमपि डिम्भकं न प्राताः। अअनुष्टानं यस्य स तथा । ततः कर्मधारयः। घूतप्रसङ्गी द्यूता55- थवा इत उक्तलकणात् मिम्भकविशेषणकापादेकमपि विशेष. सक्तः। एवमितराणि, नवरंजोज्यामि खण्डखाद्याऽऽदीनि, पुन- णं न प्राप्ता |"बहिया नागघराणि वा" इत्यादि प्रतीतम्। (जादक्षिणग्रहणं रदयदारक इत्यस्य विशेषणार्थत्वात् न पुनरुतम्। गुपायवडिय त्ति) जानुभ्यां पादपतिता जानुपादपतिता, जानु. लोकानां दयानि दारयति स्फोटयतीति हदसदारकः । पावा- मी तुवि विम्यस्य प्रणति गतत्यर्थः। “जाय च" इत्यादि। यानं मप्तरेण-(जणहियाकारप) जनहितस्याकसेत्यर्थः। साहसिको पूजा, दायं पत्र दिवलाऽऽदौ दानं भागं नाभांशम् । अकयनिधि. वितर्कितकारी, संधिच्छेदकः केत्रस्वानकः, औपधिको मा. मव्ययं भाएमागारम, अक्षयनीची वा सूत्रधनं, येन जीणीभूत . पित्वेन प्रकृन्नचारी, विसम्मघाती विश्वासघातका, प्रादीप.। स्य देवकुलस्योहारः करिष्यते । अक्षीण कां वा प्रतीतां बद्धकोऽनिदाता, तीर्थानि तीर्थ नूतदेवद्रोण्यादीनि, भिनत्ति द्विधा यामि, पूर्वकाले अल्प सन्तं महान्तं करोमीति जावः । (उपयाकरोति, तदव्यमोषणाय तत्परिकरजेदनेनेति तीर्थनेदः । ल. इयं ति) उपयाच्यते मृग्यते स्म यत्तत् उपयाचितमीप्सितं ध. शुन्या क्रियासु दक्षान्यां दस्ताच्यां संप्रयुक्तो यः स तथा, ततः स्तु याचितुं प्राधयितुम् । ( उल्लपमसामिय त्ति ) स्नानेनाईपदत्रयस्य कर्मधारयः । परस्य व्यहरणे नित्यमनुषः, प्रति- पटशाटिके उत्तरीयपरिधानबस्ने यस्थाः सा तथा । (आनोए बश्त्यर्थः । तीववैर अनुबद्धविरोधः, अतिगमनानि प्रवेश- | त्ति) दर्शने नागाऽऽदिप्रतिमानां प्रणाम करोति । ततः प्रत्युन्नमार्गान्, निर्गमनानि निस्सरणमार्गान्.काराणि प्रतोदयः, अपद्वा. मति,लोमहस्तकं प्रमार्जनिक परामृशति गृह्णाति, ततस्तेन ताः राणि द्वारिकाः, "छिरामी" चिण्डिकावृतिभिरूपाः,"ख एमी" प्रमाउर्जयति । (अनुक्खे त्ति) अभिषिञ्चति वस्त्रारोपणाप्राकारभिरूपाः, नगरनि मनानि नगरजलनिगमकालनान् दीनि प्रतीतानि । "चाउद्दसी" इत्यादी "उद्दष्ट त्ति" अमावा. संवर्तनानि मार्गमिलनस्थानानि,निवर्तनानि मार्गनिवर्तनस्था. स्था, (आपन्नसत्त त्ति) आपन्न उत्पन्नः सत्त्वो जीवो गर्ने यस्याः मानि,यूतखलकानि चूतस्थविमलानि, पानागाराणि मद्यगेहानि, सा तथा। डिम्भदारककुमार काणामल्पबहबहतरकाल कृतो वि. पेश्यागाराणि वेश्याभवनानि, तस्करस्थानानि शून्यदेवकुलागा. शेषः। मूचितो मूढो, गतविवेकचैतन्य इत्यर्थः । प्रथितो लोभ. राऽऽदीनि,तस्करगृहाणि तस्करनिवासान् नाटकाऽऽदीनि तन्तुभिः सन्दभितः, गृक आकाक्षावान्, अध्युपपन्न:-अधिक प्राण व्याख्यातानि सजाजनोपवेशनस्थानानि, प्रपा जन्नदानस्था- तदेकाग्रतां गत इति । शीघ्राऽऽदीनि एकाथिकानि शीघ्रनातिमानि, लिसव्यत्ययश्च प्राकृतत्वात् । पणितशालाहवान् शून्यगृ- शयण्यापनार्थानि । निःप्राणमुच्चासाऽऽदिरहितं, निश्चेष्ट व्यापाहाणि प्रतीतानि, आजोगयन पश्यन, मार्गयन् अम्बयधर्मपर्या- ररहितं ( जीवविप्पजढं ति) आत्मना विषमुक्तो निश्चलो लोचनतः, गवेषयन् व्यतिरेकधम्मपालोचनतः, पहुजनस्य गमनागमनाऽऽदिवर्जितः, निष्पन्दो हस्ताऽऽद्यवयवचलनरहिनिद्रेषु प्रबिरलपरिचारत्वाऽऽदिषु चौरप्रवेशावकाशेषु विषमेषु तः, तूष्णीको वचनरहितः, क्षेपयन् प्रेरयन्, श्रुति बातामात्र, वीवरोगाऽऽदिजनितातुरत्वेषु,विधुरेषु श्ष्टजनबियोगेषु व्यसनेषु कुर्ति तस्यैव संबन्धिनं शब्द, तश्चिह्न वा, प्रवृत्ति व्यक्त्यन्तरराजाऽऽद्युपपनवेषु, तथाऽभ्युदयेषु राजलदम्यादिलानेषु, उत्स- वाती नतिो मित्राऽऽदिना स्वगृहे अपहृतश्चौरेण पाक्षिप्त उ. बेषु इन्द्रोत्सवाऽऽदिषु, प्रसवेषु पुत्राऽऽदिजन्मसु,तिथिषु मदन- पलोभितः । ( परसुनियते व त्ति) परशुना कुवारेण निकृत्तः भयोदश्यादिषु,कणेषु बहुलोकनोजनदानादिरूपेषु, यज्ञेषु ना. किन्नो यः स तथा तद्वत । (नगरगुत्तिय त्ति) नगरस्य गुप्ति गाऽप्रदिपूजासु, पर्वणीषु कौमुदीप्रभृतिषु अधिकरणभूतासु रकां कुर्वन्तीति नगरगुप्तिका भारतिकाः । (संनद्धबध्व. मत्तः पीतमद्यतया, प्रमत्तश्च प्रमादवान् यः स तथा, तस्य ब- म्मियकवय त्ति) सनकाः संहननाभिः कृतसन्नाहाः, बद्धाः
जनस्येति योगः। व्याक्षिप्तस्य च प्रयोजनान्तरोपयुक्तस्य, व्या- कशाबन्धनेन चम्मिताश्च अङ्गरक्कीकृताः शरीरारोपणेन क. कुलस्य च नानाविधकार्याक्केपेण पुखितस्य दुःखितस्य च, वि- वचाः कवटा यैस्ते तथा । ततः कर्मधारयः । अथवा-धर्मितदेशस्थस्य च देशान्तरस्थस्य, विप्रोषितस्य च देशान्तरं गन्त शब्दः कचिन्नाधीयत एव । (उप्पीलिय सरासणपट्टिया) उत्पी. प्रवृत्तस्य,मार्ग च पन्यानं, छिच अपवारं,विरदं च बिजनम, मिता भाक्रान्ता गुणेन शराऽऽसनं नुस्तलक्षणा पट्टिका यैस्ते भन्तरं चाबसरमिति । आरामादिपदानि प्राम्बत् । (सुमाणेसु य तथा । अथवा-स्पीमिता बहा शरासनपट्टिका बाहुपट्टको ति) इमशानेषु, गिरिकन्दरेषु गिरिरन्धेषु, नयनेषु गिरिवर्ति- यैस्ते तथा ! दृश्यते च धनुकराणां व हौ चर्मपट्टवन्ध शत । पाषाणगृहेषु, उपस्थानेषु तथाविधमएमपेषु, बहुजनस्य न्द्रि श्व स्थाने यावरकरणादिदं दृश्यम्-" पिणरूगेवेबद्धयाविबित्यादि पुनरावर्तनीयम । (जाव एवं च णं विहर सि)। कविमलवरचिधपट्टा ।" पिनद्धानि परिहितानि धेयकाशि (कुटुंबजागरियं जागरमाणीए चि) कुटुम्बचिम्तायां जागर. प्रीवारकाणि यैस्ते तथा । बद्धो गाढीकरणेन प्राधिकः परि. णं निकालयः कुटुम्बजागरिका, द्वितीयायास्तृतीयार्थत्वात् । हितो मस्तके विमलो वरश्चिह्नहो वैस्ते तथा । ततः कर्मधातया जाग्रत्या विशुकमानया, अथवा कुट्रम्ब जागरिकां जान- रयः । “गहिया नहपहरणा।" गृहीतान्यायुधानि प्रहरणाय प्र. स्याः कुर्वन्त्याः (पयायामिति) प्रजनयामि । "तासि मन्ने।" इ. हारदानाय यैस्ते तथा । अथवाऽऽयुधप्रहरणयोः वेष्याक्षेप्यकृ. स्यत्र तासां सुसम्ध जन्म जीवितफलम, अहं मन्ये वितर्कया- तो विशेषः । (ससक्खं ति) ससाक साक्षिणायकान् वि. मि यासां निजककुक्तिसम्नूठानीत्येवमकरघटना कार्या; निजक- धायेत्यर्थः। (सहोद ति)समोषम्, (सगेवेनं ति) सह ग्रैवेकुक्तिसंजूतानि मिस्नरूपाणि इति गम्यते । स्तनदुग्धलुब्ध- यकेन ग्रीवाबन्धनेन यथा भवति तथा गृहन्ति । (जीयम्गाई कानि मधुरसमुद्धापकानि मन्मनं स्खलनजहिपतं येषां तानि गिएदति त्ति) जीवतीति जीवस्तं जीवं जीवन्तं गृहन्ति श्र. तथा । स्तनमूलात्ककादेशभागमभिसरन्ति संचरन्ति, स्तनजं
स्थिमुष्टिजानुकूपरेस्तषु वा ये प्रहारास्तैः संभग्नं मथितं मो. पिबन्ति, ततध कोमल कमलोपमाच्यां हस्ताभ्यां गृहीत्वा च | टित जर्जरित गात्रं शरीरं यस्य स तथा, तं कुर्यन्ति । (श्रसानियोशितानि ददति समुद्धापकान् समधुरान्, (एतो.। बउमगधणं ति) अवकोटनेनायमोटनेग कृकाटिकाया यादोश्च
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(१६५३) अभिधानराजेन्डः ।
धण
धणंजय
पश्चाद्भागे नयनेन बन्धनं यस्य स तथा तं कुर्वन्ति । (कस. लोनीभवति । (से वि एवं चेव त्ति) सोऽपि प्रवजितो विजयपहारे यत्ति)वधतामनानि, (ग्विति) श्लदणः कशः सता
वदेववनरकादिकमुक्तरूपं प्राप्नोति । “जहा ग" इत्यादिनापि कम्बा, बालघातका प्रहारदानेन, बाजमारकः प्राणवियोजनेन, कातमेव विज्ञापनीये नियोजितम् (नमस्थ सरीरसारखणहाए (रायमचे त्ति) राजामास्यः (अपराति) अपराध्यति म. तिन शरीररक्षणार्थादन्यत्र तदर्थमेवेत्यर्थः।(जहा से धणे नर्थ करोति, (नमत्थ सि) न स्वायवेत्यर्थः । वामनान्तरे
त्ति) राम्तनिमगनम् । इह पुनर्विशेषयोजनामिमामभिदधति स्विदं नाधीयत एव, स्वकानि निरुपचरितानि नोपचारे बहुक्षुताःहराजगृहनगरस्थानीयं मनुष्यक्षेत्रं, धनसार्थवाणाऽऽत्मनः संबन्धीनि, (लहुस्सगंसिसि)बघुः स्व प्रात्मा
हस्थानीयः साधुजीवः, विजयचौरस्थानीय शरीरं, पुषस्थानीयो स्वरूपं यस्य स लघुस्वका अल्पस्वरूपः, राशि विषये अप
निरुपम निरन्तराऽऽनन्दनिवन्धनत्वेन संयमो भवति। मसत्प्रवृ. राधो राजापराधस्तत्र संप्राप्त प्रतिपादितः, पिशुनैरिति भ.
त्तिकशरीरात्संयमविघातः। प्रानरणस्थानीयाः शब्दाऽऽदिबिम्यते । (भोयणपिमयं ति) भोजनस्थाल्बाधारसूतं वंशमयं
षयाः, तदर्थप्रवृत्तं दि शरीरं संयमविघाते प्रवर्तते, हडि
बन्धनस्थानीयं जीवशरीरयोरविभागेनावस्थानं, राजस्थानीय भाजनं पिटकं,तत्करोति सजीकरोतीत्यर्थः । पाठान्तरेण-(भ
कर्मपरिणामः, राजपुरुषस्थानीयाः कर्मभेदाः, सघस्वकासऐत्ति) पूरयति । पाठान्तरे-भोजनपिटकैः करोति-भशमा. दीनि लातिं रेखाइदिवानतो मुद्रितं कृतस्दादिमुझम,
राधस्थानीयाः मनुष्याऽऽयुकबन्धहेतवः मृत्राभविमलपरिहाप
नस्थानीयाः प्रत्युपेकणाऽऽदयो व्यापाराः, यतो भक्ताऽदि. ( उल्लछेत्ति) बिगतलाम्छनं करोति (परिबेसपति) भोजय
दानाभाचे यथाऽसौ विजयः प्रश्रवणाऽदिव्युत्सर्जनाय न प्र. ति (अविया ति) अपिः संभाबने । (जाति) भाषाबाम ।
वृत्तवान, एवं शरीरमपि निरशनं प्रत्युपेक्षणाऽऽदिषु न प्रवर्सअरेः शत्रोरिणः सानुबन्धशनुभावस्थ, प्रखनीकस्य प्रतिकृल.
ते । पान्धस्थानीको मुग्धलाधुः, सार्थवाहस्थानीया प्राचार्वाक, वृत्ते, प्रत्यमित्रस्य बस्तु बस्तु प्रति अमित्रस्य, (अणस्स सि)
ते हि विषक्तितसाधुंजक्ताऽऽदिनिःशरीरमुपष्टम्नयन्तं साध्व. कर्मणि षष्ठी, चारप्रस्रवणं कर्तृ, नमित्वलकारे। (इण्या
स्तरापश्रुत्योपालम्भयन्ति विवक्षितसाधुनैव निवेदिते वेदना. हित्य त्ति ) द्वाधपति स्म (रहि ताबबादि) एहि जागच्च
वैयावृत्यादिके भोजनकारणे परितुष्यन्ति वेति । पठ्यते च. ताबदिति नापामात्रे। हे विजय! एकान्तं विजनमापक्रमामो
"सिवसाहणेसु माहा-रविरहियो जन चट्टए देहो। यामः (जे ति) येनाह मुशाराऽऽदि परिष्ठापयामीति । (करे
सम्हा धणो व्य विजय, साहतं तेण पोसेज्जा ॥९॥" णं ति) अभिप्रायेण, बधारचीत्यर्थः। (अलंकारिबसह ति)
एवं स्वस्वित्यादि निगमनम, इतिशब्दः समाप्तौ । धीमीति यस्यां नापिताऽऽदिभिः शरीरसत्कारो विधीयते, अलंकारिक कर्म न स्वखरामनादि, दासा पृहदासीपुत्राः,प्रेमातथाथि.
पूर्वबदेवेति । का०१६०२ अ० । कौशाम्बीनगरस्थे स्वना
मख्याते सार्थवाहे, प्राचा०१शु०२ ५०१ उ०। (तस्कथा आ. धप्रयोजनेषु नगरान्तरादिषु प्रेष्यन्ते भृतका घेश्रामालत्पा. पोषिताः। (भाग ति) ये भागं लाभस्थ लजाते,ते बोम
तटु'शब्दे द्वितीयभागे १५७ पृष्ठे दृश्या) चम्पानगरीवास्त
बेसार्थवाहे, "चंपाए परममासरोधणोणाम सत्थवादो।" कुशलमनर्थानुभवानप्रतिघातरूपं, कराठे व गृहीत्वा पगकएि । यद्यपि व्याकरणे युद्धविषय
मा० म० १०५ सयम । प्रा० चू० । ( तद्वतन्यता
विधोऽभयाजाच प्यते, तथापि योगविमागाऽऽदिजिरेतस्थ साधुरापता ह
'चखिदिय' शब्द तृतीयभागे ११०५ पृष्ठे द्रष्टव्या ) चइयेति । (प्रवासिय ति) आशिया, नापत्रमोकसमानन्दा.
म्पानगरीवास्तव्येऽहिच्छधासंप्रस्थिते स्वनामख्याते सार्थश्रुजनप्रमोचनमा(नायप चेत्यादि)नायका प्रमुः,न्यायदो बाया
बाहे, शा० १६० १५०। (तत्कथा "दिफल" शब्.
ऽस्मिन्नेव भागे १७५३ पृष्ठे द्रव्या) बसन्तपुरस्थे स्वनामयदर्शी,हातको वा स्वजनपुत्रकः । इति रुपनदर्शने, बाधिकर। (घामियर सिसहचारी, सहायः साहासकारी, सहम्मित्रम,
ख्याते सार्थवाहे, आ. म० १ ०३ वम । पाटलिपुत्रन
गरस्थे स्वनामण्याते श्रेष्ठिनि, तस्य दुहिता भगवतो महा( बंधेहि यत्ति) बन्धो रज्जबादिक वन, वो बधादिसामनं,
बीरस्य सकाशे प्रबजिता । प्रा. चू० १० । अपरविदेहकशप्रहाराऽऽदयस्तु तहिशेषाः (काने कालाजास त्यादि)
स्वक्रितिप्रतिष्ठितनगरस्थे स्वनामख्याते सार्थवाहे, सच प्रयोकालः कृष्णवर्णः, काल एवावभासते कष्टणां, कालो वा अयभासो दीप्तिर्यस्य स कालावभासह यावत्करणाविद श्य
दशे भवे ऋषभनामा तीर्थकर मासीत्। श्रा० म०१ अ. १
खपम । श्रा.चू। कस्मिंश्चित् सन्निवेशे स्थिते प्रामाधिपतिसुके म्-" गतीरोमहरिसे जीमे उत्सासणए परमका वोणं, से
धनवतीपती स्वनामख्याते सार्थवाहे, पुं० । स च सीर्थकरनाण तत्थ निच भीए नि तत्थे नि तसिए नि परमसुह.
मकर्मोदयादरिष्टनेमिस्तीर्थकरोऽनृत् । उत्त० २५५० । संवर्क नरग ति।" तत्र गम्भीरो महान् रोमहा भयसन्तो रोमाञ्चोयम्ब यतोवा सकाशातस तथा। किमित्यवमित्याह- धणंजय-धनञ्जय-पु.। धनं जयति जि-खच मुम च । अर्जुभीमो भीष्मः, मत पयोतू त्रासकारित्वादुत्त्रामनकः । एतदपि ने, बद्दी, नागभेदे, पोपण करे देदस्वापिवायो, ककुलवृते, कुन इत्याह-परमकृष्णो धामनेति, परां प्रकृष्ट अशुभसंबड़ी चित्रक वृके च । वाच० । अपरविरेस्थमूकामअधानीभवे पापकर्मणोपनीनाम, (अजाइयमित्यादि) अनादिकम । (श्रण- स्वनामख्याते नृपे, यस्य पुत्रः नियमित्रो विशनिभिस्तीर्थकबदग्गं त्ति) अनन्तम् ( दीदमदं ति) दीर्धाबं दीर्घकाल,दी- रत्वकारणमतीर्थकरत्वमवाप। प्रा० म०१०१ खगड । आ. अंचवा दोघागंभ, चातुरन्तं चतुर्विभागं संसार एव कान्ता
क० । श्रा०चू० करूप० । सौर्यपुरनगरस्थे स्वनामख्याते थेरमरण्यं संसारकान्तारमिति । अतोऽधिकृतं ज्ञानं ज्ञापनीये ष्ठिनि, माव०४ म.पाकामाचा (तत्कथा शौचन योजयत्राह-( पवामेवेत्यादि) एवमेव विजयचौरवदेव, (सा. योगसंग्रहावसरे 'मुर' शब्दे दृश्या) पक्कस्य पश्चरशसु दिवसेषु रेणं ति) सारे, णमित्यनारे करणे तृतीया चेयम् । लुभ्यति नवमे दिवसे, ज्यो.४ पाहु० । जं०। कल्प. । स्वनामग्यावे
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धजय
गोत्रे च ।" उरापोडपदा से कि गोरो पाले, धणंजयसगोते पत्ते ।" सु० प्र० १० पाहु० 1 जं० । धनजयमा साद्विसन्धानमहाकाव्यविकृति जैनको कविः विक्रम
संवत् ८८४ मते विद्यमान आसीत् । जै० ६० । धएकता धनकान्ता-० कलियानपुर नगरस्यथनवदाम्
धणक्खय-धनक्षय- पुं० । धनहानी, व्य० ३ ० । धनक्षय इति बा। जी० ३ प्रति० ४ ० ।
धन गिरि-धनगिरि पुं० [अक्सीजनपदस्य तुम्बसवेशेापमाणाइकम- धनधान्यममाणातिक्रम - ।
स्थिते स्वनामख्याते इज्यपुत्रे, आ० म० १ अ० २ खडए । कल्प० । आ० क० । (तद्वक्तव्यता 'अजबहर' शब्दे प्रथमभागे २१६ पृष्ठे पता गिरिस्थविरस्य शिष्ये स्वनामध्याते स्थविरे (कल्पस्य शिष्ये स्वनामध्या ते वसिष्ठसगोत्रे स्थविरे व । " थेरस्स णं अज्ज फग्गुमित्तस्स गोपसमुत्तस्व गिरी घेरे अंतेवासी वासिहलगोत्ते । " ( कल्प० ) " धणगिरिं च वासिहं । " कल्प● २ अ. धि०८ कृण । धणगुत्त-धनगुप्त - पुं० । कस्मिँश्चिन्नगरे स्थिते स्वनामख्याते श्राचायें, श्रा०च० ४०। (तद्वक्तव्यता 'पच्चित्त' शब्दे वक्ष्यते )
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श्राचार्या धनगुप्ताख्याः, एकत्र नगरेऽभवन् ” (१) आ०क० । उल्लुकातीरनगरस्थे आचार्यमहागिरिशिष्य है किपञ्चमन्विधमोचार्थस्य गङ्गायार्थस्य स्वनामस्यारी, श्रा० म० १ अ० २ ख एक । विशे० । स्था० ।
धण गोव- धनगोप- पुं० । राजगृहनगरस्यधनसार्थवाहस्य पुत्रे,
शा० १ ० ७ अ० ।
घणनंदि (दी ) धननन्दि ( द ) पुं० [स्त्री० द्विगुणे दे बद्रव्ये, “देवदव्वं गुणं धणणंद भट्ट |" दर्श० १ तत्र । पण लिहिधननिधि-धुं को सदरमके सीकिके निधिमेरे
( २६५४) अभिधानराजेन्
,
च। स्था० ५ ० ३ ० ।
पणतोसग धनवोपक० धनवतीति धोका | चौessies, "धणतोसगा गहिया य जे नरगणा ।" प्रश्न० ३
श्राश्रण द्वार ।
घ) नार्थिन् वि० नाभिक्षाविधि
भणे सेठी, धणत्थिणो जर तुमे तदा वि श्मं ।" ध० २० । घनन घनन-पुं. राजगृहनगरस्येनापराधेनामख्याते सार्थवाहे, नं० आ० क० आ० म० । आ० न्यू० । ( तत्कथा ' चिलाई पुत्त' शब्दे तृतीयभागे ११८८ पृष्ठे गता ) बसन्तपुरये तिखट स्वनामस्या
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तापराव' शब्दे चते) विमस्येव नामख्याते कुटुम्बिनि च । पिं० ।
धणदेव - धनदेव - पुं० | मण्डिकगधरस्य पितरि श्रा० म० १ श्र० २ खण्ड | आ० चू० । अस्थिकग्रामा परनामधेये वईमानकनगरस्थे स्वनामख्याते वणिजि श्रा० न्यू० १ ० । श्र०म० । कल्प० । स्था० । (तद्वक्तव्यता 'बीर' शब्दे ) " धनदेवो वणि क् तत्राऽऽयातः प्रेत्य महानदीम " (१३) श्र०क० । द्वारव
धणमित्त
तीवास्तव्ये कमला मेल्लायाः पत्यौ उग्रसेनस्य नप्तरि, आ० म १ भ० १ खण्ड । श्रा०यू० । काम्पिल्यपुरस्थे स्वनामख्याते वणिजि, उत० १३ श्र० । (तद्वक्तव्यता बंभदस ' शब्द ) कौ शास्त्रनिगरस्थे स्वनामख्याते वणिजि, घ० ० । (तद्वक्तव्यता भसेण' शब्दे ) राजगृहनगरस्थधनसार्थवाहस्य स्वनामख्याते पुत्रे, ज्ञा० १ ० ७ अ० ।
धणधम्मदव्वजाय - धनधान्यद्रव्यजात- न० । धनधान्य रूप्य का रे, " निक्वित्ताणि य दरंति घणघणदव्वजायाणि । ” प्रश्न ३ आश्र० द्वार ।
C
पुं० ० । धनधान्ययोः प्रमाणस्य बन्धनतोऽतिक्रमात चारः धनधान्यप्रमाणातिक्रमः । घ० र० । इच्छापरिमाणस्य पञ्चमाणुव्रतस्यातिचारभेदे, धनधान्यस्य प्रमाणप्राप्तस्याऽधमर्णादिभ्यो ऽधिकलाभे समुपस्थिते यावज्ञातनं विक्रीणीते तावद् गृह एव तत्स्थायतः सत्कारेण वा स्वीकुर्वतः स्थूलसूकाऽऽदिया धनधान्यातिक्रमरूपः प्रथमोऽतिचार इति । ध० २ अधि० । ध०
र० । श्राव० उपा० ।
घणघणसंचय - धनधान्यसंचय - पुं० । धनं हिरण्याऽऽदि, धान्यं
शाल्यादि, तयोः संचयो राशिर्धनधान्यसंचयः । धनधान्ययोराशौ, उस० ६ श्र० ।
घणपाल - धनपाल - पुं० । राजगृहनगरस्थधनसार्थवाहस्ते स्वनामख्याते सार्थवाहे, शा ० १ ० ७ श्र० । कौशाम्बी नगरस्थे स्वनामख्याते नृपे, "कोसंत्री जयरी, घणपालो राया, वेसमणभद्दे अणगारे मिलाभिए इहं०जाव लिये ।” वि० २०४ अ० । अत्रन्ती जनपदस्थ तुम्बवनल शिवशस्ये स्वनामख्याते इभ्ये च आ० म० १ अ० २ खण्ड । सर्वदेवब्राह्मणपुत्रे चन्द्रगच्छीयमदेन्द्रसूरिशिष्येण शोभनाचार्येण प्रतिबोधिते भावके, श्रयं धनपाल भोजराजसमकाको महाकविरासीत्
i
० इ० ।
जै० धपना- धनप्रभा- स्त्री० । कुराकलवरद्वीपस्यवैश्रमणमननगरस्योत्तरपार्श्ववर्त्तिन्यां राजधान्याम, धणप्पा उत्तरे पासे ।" ई० ।
-त्रि० ।
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पनवर्द्धन पुं० [धनवृद्धिकारके स्था० १०० धणमण-धनवत्श्रादित्रोद्वाल-बन्तमन्ते ते रमणा मतोः ॥ ८ । २ । १०९ ॥ इति प्राकृतसूत्रेण मतोरेते आदेशाम प्रा० २ पाद । धनिनि, ध्य० ।
अधुना धनवतां स्वरूपमाह
कोमस हिरणं, मणिमुत्तसिलवालरयाणाई | अपिग एरिया होति ।।३३० ।। येषामार्यपिता पिता प्रतीतः पर्यायः प्रपितामहः, तेभ्य आगतं कोटा कोटिसंख्या हिरगमणिमुक्ताशिन चन्द्रायाः, मुकानिमि तनादीनि ते ईशा जवन्ति धनवन्तः व्य० १ ० ३ प्रक० । धणमंत धनवत्- त्रि० । धणमण ' शब्दार्थे, प्रा० २ पाद । धमित्त - धनमित्र - पुं० | विनयपुरस्थे वसुश्रेष्ठिते स्वनामख्याते श्रेष्ठिनि ध० र० ।
4
-
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(२६५५) धणमित्त अभिधानराजेन्द्रः।
धणमित्त किंबहुणा भणिएणं,-धम्मेण हवंति सयलसिकीओ। धनमित्रचरित्रं पुनरेवम्
धम्मेण विमुकाण उ, जियाण न कया वि फलसिद्धी ॥२४॥ "गुरुसत्तगणसमेयं, गाहाश्मद लामिवस्थि विणयपुरं।
तं सोउं धणमित्तो, कयंजली जंपए नमिय त्रि। तत्थाऽसि वसू सिट्ठी, जहा नामेण से भज्जा ॥१॥
एवमिणं मुणिपुंगव!, जं तुम्भेहिं समाई ।। २५ ॥ ताण सुमो धणमिसो, बाबाल वि तस्स उबरया पियरो।
जम्माउ वि मह दुक्खं, मुणद चिय पहु! तुमे सनाणेण । पुग्ने घणे पण हे, नहो विहवो नरवु च ।। २॥
को देक पुण हयं, तो कहइ गुरू सुणसु मह!॥ १६ ॥ परिबलियो हेणं, सो कमसो परियणेण वि विमुक्को।
ह भरहे विजयपुर-म्भि गंगदत्तु त्ति गिहबई पासि। परिणयणत्थं अधणु-सि को विनय देश से कनं ॥३॥
मगहा से दइया सो-उ धम्मनाम पिन मुख ॥२७॥ तो लजितो नवरा-उणिग्गओ दविण प्रजण सयराहे ।
धम्मकरणुज्जुयाणं, अनेसि पि हु करे बहुविग्धे । पिच्छ कत्थ वि मरगे, पारोहं किसुयतरुम्मि ॥४॥
मच्छरभरिभो कस्स वि, लाभ नहु सक्कप दवू ॥२८॥ तो सरह खत्तवायं, सो सुयपुव्वं जहा अखीरपुमे । .
जापुण कई पिसे पि-च्छिरक्स बवहर कोइ बहुलाभं । जइ दीसह पारोहो, ता तस्स अहे धणं मुणसु॥५॥
पर जरो सत्तमुहे-हि तस्स श्य वासरा जति ॥२६॥ विवपलासेसु धुवं, पारोहे थूलए यहूं दव्वं ।
अन्नदणे करुणाप, सुंदरनामेण सावपण इमो। तणुए थोवं तह निसि, जनरे यह थोबमियरम्मि ॥६॥
नीनो मुणीण पासे, कदिनो तो पिइय धम्मो ॥ ३०॥ विके पुण पारोहे, रत्तरसे निग्गयम्मि रयणाई।
उवसमविवेगसंवर--सारो जहसत्ति नियमतवपबरो। सेए रययं पीप, कणग न हुनीरसे कि पि॥७॥
जिणधम्मो कायम्बो, अतुच्छलम्कीइ कुलजवणं ॥ ३१ ॥ जत्तियमित्ते देसे, पारोहो बच्चोजवे वरि।
श्य सुणिय किंचि भावे-ण किंपि दक्खिनो वि गिरहे। तत्सियमिते देसे, अहे त्रिनिहियं क्षणं मुणसु ॥ ८॥
सो पविणचिश्वंदण-करणजुएऽजिग्गहे के वि ॥ ३२॥ तणुप उबरि परोहे, हिदा पिने घुवं धणं मुणसु।
मुणिण नमितु पत्तो, सगिहम्मि पमायपरवसो धणियं । विवरीए तयभावो, इय जिच्छेऊण धणमित्तो ॥१॥
नंजा अभिग्गहे के, त्रि के वि अश्यर मढमणो ॥३३॥ "नमो धनदास नमो धरणेन्डाय नमो धजपालाय" इति
इकं पुण चिइवंदण-अन्निग्गहं पालए निरहयारं। मन्त्र प- खनति स्म तं प्रदेशम्।
कालकमेण मरिच, संपर सो पस तं जाओ ॥ ३४॥ किं तु अन्नवसेण, केवल अंगारपूरियं निय।
पुवकयदुक्कयवसा, तए श्म परिसं फर्श पत्तं । तंबमयकलसजुयलं, तो इमो चिंता विसनो ॥१०॥ जिणवंदणप्पानावा, जायं निहिसणाईयं ॥ ३५ ॥ पारोहपायरसद-सरोज कणयम्मि निरिए विधुवं ।
इय सोउं धणमित्तो, संवेयगो नमि मुमिनाई। इंगाल हिय पिच्छे-लि केवलेही बिगयपुग्नो ।। ११ ।।
बहुदुक्खलक्खदलणं, गिदिधम्मं गिएहप सम्मं ॥३६॥ दविणस्थिणा नरेणं, न हु कायन्बो तदा विनिमेयो।
दिवसनिसिपदमपहरे, मुत्तुं धम्मक्खणं भई सेसं। ज सम्वस्थ वि गिफर, सिरी मूलं अनिस्वेश्रो ॥ १२ ॥ सहसाणानोगेणं, विणा पत्रोसं च वज्जिस्सं ॥ ३७॥ श्य चिंतिय पुरो वि हु, बहुनुभागे अणेश दविणकए । एवं गिरिदय घोरं, अभिग्गदं वंदिवं च गुरुचरणे । न य पाव काणवरा-डियं पि कत्थर अपुन्नवसा ॥ १३॥ पुरमके कस्सा सा-वगस्स गेदम्मि उत्तर ॥ ३८॥ सिक्खे धाउवायं, मुसुकिलेसं लहेदन अन्न ।
सुरुदय भोगेणं, सच्चिणि मालिणा समं कुसुमे । होउ वणि प्रो तो चडक, पवदणे भज्ज तयं तो ॥ १४ ॥ घरजिणहरजिणपमिमा- निच्चमच्चे जत्तीए॥३॥ अह यलमग्गवणिज, करेह अजेइ कहनि कि पि धणं । वोए पहरे मोया-गमाविरोहेण कुणश् ववसायं । तं पि नरेसरतकर-पमुहदि धिप्पए तस्स ॥१५॥
संपज्जा अकिलेसे-ण तेण खबु जोयणं तस्स ॥४०॥ तो सब्वपयत्तेणं, गोलग कुण निवश्पभिणं ।
जह जह धम्मम्मि थिरो.हवेह तह तह पवरुप बिदयो। तह वि तद पुन्नवसओ, न ते वि किंपितु पसीयति ॥ १६ ॥ विच्चे बहुं धम्मे, वीसु गिपहेह तो गेहं॥४१॥ एवं दुई सहतो, परिभमिरो माहियले कया पिइमो।
एगेण महिसियसा-वएण दिना य तस्स नियधृया। केवलकलियं गुणसा-यरं गुरुं गयतरे नियर ।।१७।।
अश्चम्मिन त्ति काउं, दुन्नि वि चिटुंति धम्मपरा ॥ ४२ ॥ संजायकम्मविवरो, बहुबहुमाणेण नम गुरुचरणे ।
पत्तो, कया बि सोगो, उत्सम्मि गुलतिमा विकिणिकं । तो कहर मुणवरो त--स्स समुचियं धम्मकदमे ॥ १० ॥ तं बझं पुण तं गुरु-मन्नगिहं गंतुमुच्चलियं ॥४३॥ धम्मेण धणसमिद्धी, जम्मो धम्मेण उत्तमकुनम्मि ।
तं मेहरो य निहिठबि-य तंबकलसे तो गहिउकामो । धम्मेण दीदमाउं, धम्मेण बदगमारुग्गं ॥ १६॥
बज्काव इंगाले, तं कणयं नियह धणमित्तो ॥४४॥ सयलचउजनाहवनय-म्मि निम्मला भमइ धम्मश्रो कित्ती । किमिणं उज्झाविज्जह य पुढे तेण मेहरों भणह। हसियरहरमणरूवं, रूवं धम्माउ ह हो ॥२०॥
कणगं ति कहिय पिउणा, पवंचिया इच्चिरं भम्हे ॥४५॥ जंतुंजति सुहाई, मणिरयणपहापहासियादसेसु।
संप झाबेमो, पप इंगासप निपऊण । जवणेसु भवणवणो, तं सब्वं धम्ममाहप्पं ॥२१॥
तो सेट्टी सुद्धमणो, भणेह भो भह ! सुवन्नमिणं ॥४६॥ जं हरिसनम्नंतं, निवचकं चक्किणो नम चलो।
जंपे मेहरो दढ-विमूढ ! कि बाउलो सि मत्तो सि। तं सुद्धधम्मकपद-दुमस्स कुसुमुम्गमं मन्ने ।। २२॥
धनुरिश्रो सि अहवा, सव्वं सुनं दरिद्दस्स ॥४७॥ सरहससुरसुंदरिफर-वालियचलचारुचामरुप्पी लो ।
जह कणगमिणं ताम-ज्क दाउ गुलतिल्लमाश्यं कि पि । सुरलोष सुरनाहो, हवे धम्मप्पभावेण ॥ २३ ॥
गिपहसु इमं तुम चिय, तह चेव करे सिही वि॥४८॥
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(२६५६) अभिधानराजेन्द्रः ।
धण मित्त तं सिविनियजाणे, सगिहे पत्तो नमितु जिविवं।
नियपुरिसाणं भप्पिय, इम्भं च गनो निवो सगिदं ॥७३ ॥ जा संभालता ती-स सहसमाणं तवं जायं ॥४॥
मह धणमित्तो नियमित-पउरनाबयगएण परियरियो। सेणं धम्मपरेणं, अपि समज्जियं बहुंदविणं ।
तित्व कणंतो, संपत्तो निययगेहम्मि ॥ ७४॥ जामोजणप्पबामो, उमद अहो धम्ममाहप्पं ॥५०॥
इसो तस्य पत्तो, गुखसावरकेपली तय नमि । रतो तत्येष पुरे, सुमितनामा बसेर महाम्भो।
धानिसोजबरजपो, अपरिजणो नरवाई बिगभो ॥ ५॥ रयणावहिं स विरए, कोमिमुछेहि रययोर्द।। ५१॥
रखा इम्भो वि साहि, भाभो निसुणिरं च धम्मकहं। केण वि गुरुकजेणं, तस्स बिवत्तहियस्स पासम्मि।
समए संतं, पुजी माजी कहा एवं ।। ७६ ॥ एगागी संपचो, धपमित्तो तह निसनो य ।। ५२ ।।
ह विजयपुरे मगरे, गेदवई मासि गंगदत्त ति। सचिवाझावं सहते-ण काउ जो पभोयणवसेह।
मालामाबाबहुला, मगहा नामेण तस्स पिया ।। ७७॥ पत्तो गिहमके का-3 फज्जमह पहजा तत्थ ॥ ५३॥
संबोसिवानिदाए, इसरवाणणो पियारवररयणं । तारयणाचसिमनिप, वि भणइ जा बिरहमो मए मुका।
पविसिय कहमवि तष्गिह-मबहरए लक्खमलं सा ॥ ७० ॥ सा कत्थ गया रयणावलि ति भो कहाँधणमित्त !॥५४||
नारमा तं मया, न य करी मनप वय बिरसे ।
तो देह बावंभं, वषिभना गंगदत्तस्स | SE || न तुम ममं च मुत्तुं, को विश्वासी तनो तुमे वेव।
भाजावेहनिमोहिय-मणो इमोजणा गिदमणुस्सेहिं। सा गहिया भष्पसुतं, मा भिरकावं विलंबेसु॥ ५५॥
तुह चेवतं अवहम, मा अलियं देसुणे पालं ।। ७० ॥ तो बितर धमित्तो, अहह अहो! कम्मबिलसिवं निबद ।
श्य मुणिय वणिबद्या , नियवररयणोवलंजता सा। संभकर वि व दोसे, श्य वयणिजाई जम्नंति ।। ५६ ।। इतु ब्चिय पमिसिब, परागहगमणं जिणेहि सहाणे ।
काऊण तापसभयं, उववम्ना बंतरण ।। ८१॥
विहियतहाविहकम्मा. जाया मगहा थि एस इन्शु ति। जं परगिहगमणाओ, कलंकमाई जियाण धुवं ॥ ५७॥
मरिजण गंगदत्तो, धमिसोएस उघयन्नो।। २ ।। ता परगेहे गेहो, अणजवणिजया दोसण ।
कुषिएण तेजतर- सुरेण निवरयणवश्यरे तम्मि। गुरुकज्जे विकया चि, एगामी नेव वरिवस्म ।। ५८॥
इजरस तिन्नि पसा, निहणं गमिया कमेणिस्थ ॥३॥ इय बितिय भणमई, इब्भ ! तुम पिवन किंचि जाणेमि ।
तो रम्ना भनुहे, पलोभए सो भणेह एवं ति । सो पाहन जिद, परिसवयणेहि धणमित्त॥५॥
कि तु मरलाम्म तेसि, हेरिद मप नाओ॥४॥ काउंचवहारं रा-डले बितं सेमि तुह सयासाओ।
पुण भसह गुरुत्यणावली चि, तेणेव भवहमा एसा। श्परो बि पमित्रणेई, जं जुसं कुणसुतंत ॥ ६.॥
पत्तं धणामसणं, पालं किल प्रालदाणाभो ॥ ८ ॥ तो धणमित्तो था-रुति साहिो निवाणो सुमित्तेणं ।
धणमित्तधम्मथिरभा-वरीजएदि सुद्दिछिअमरोहि। न इमं मम्मि संभव-कह चिपचित निबो वि ॥६॥
तंबंतरमक्कमिठ, रयणाचलि मोश्या तझ्या ॥ ०६॥ एस पुण निचएण, कहेता पुचिमो तयं चेव ।
श्राद निवो फि आज वि, श्मस्ल काही सुरो जण जाणी। अहहकारिख पुछो, बलमित्तो कहा जह बित्तं ॥ १२ ॥
रवणावीर सहियं, विहवं हरिदी सुमित्तम ।। ८७॥ पभणनियो विविमिहब-हिरभो भो इभ!किमिद कायम्बं?
तो अवसगो मरि- इब्नो नवे बहुं भमिट्टी। सो माह देव! इमिणा, गहिया रयणावनी नूणं ॥ ६३ ॥ चतरसुरजीपो वि हु, यहा निजाही धेरं ॥८८ ।। प्रद जंपर धमित्तो,देच!कॉक मं न सहेमि । पभणे जेण दिम्बे- तेणिमं पत्तिबावमि ॥ १४॥
ज्य सोउं संचिग्गो, राया रयणावलि सुमिसम्स ।
अप्पिसु उविनु सयं, रउजे गिएटेइ चारितं ॥८६ ।। प्रणा मित्रो जसुमं, होस सिरे जगहेर फालभिमा।
घणमित्तो वि हु जिदपुनं ठविऊण नियकुवाम्म । आमंतितेण भणिप, विश्रो दिवसो तो रम्ना ॥ ५ ॥
गिरिडय केवलिपासे, विस्वं कमसो गओ मुक्ख ॥४०॥" सगिद्देसुदो पि पसा, मह धणमित्तो बिसेसधम्मपरो।
"इत्यवेत्य धनमित्रवृत्तक, चिहामुविमुखमणो, पत्तो पुण दिब्वदिवसम्मि ।। ६६ ॥
शुम्वृत्तजनहर्षकारकम् । काउंसिणाण मठ-पयारपुवाद पृष्ऊण जिथे।
अन्यगेहगमनं बथा तथा. तह कान काउसागं, सम्मदिघीण देवारमं ॥ ६७ ।।
सत्यजन्तु भविनो हि सत्पथाः ॥११॥" फाले धम्मिजमाणे, पुरो निचिट्ठ निबम्मि लोए म ।
इति धनमित्रमरित्रम ॥ध०२०। बहुपउरजुमो पत्तो, धणमित्तो दिवठाणम्मि ।। ६८॥ दन्तपुरनगरस्थे स्वनामख्याते वणिजि, भाव.४ । नि. इम्भो वि तत्थ पत्तो, धणमित्तो जाब गिरिहही फालं ।
चू० प्रा० क०। प्रा००। (तद्वक्तव्यता 'हिरवलाय' श. इन्जस्स उहियाभो, पमिया रयणावली ताब॥६५॥ ब्देऽस्मिन्नेव भागे २१११ पृष्ठे दृष्या) उज्जयिनीनगरस्थे स्व. तोत्रणि नरबश्णा, भकिमेयं ति सो विखध्मणो।
नामख्याते वणिजि, ग०२अधि:। (नद्वक्तव्यमा ' प्रानकाजा देरे सत्तरं न हु, ता पुट्ठो तेण धणमित्तो ॥ ७० ॥ य' शब्दे द्वितीयभागे २४ पृष्ठे गता) (तद्वक्तव्यता 'पि. जीइ रयणावलीप, कर विवाओ तुमाण सा किमियं । बासापरीसह' शब्देऽपि अस्मिन्नेर भागे व्या ) च. दोहन बत्ति इमो विहु, जंपा सा चेव देव! श्मा ।। ७१॥ म्पानगरीवास्तब्ये स्वनामस्याते सार्थवाहे, आव०४ अ० । परमत्थमित्थ नवरं, मुणति सम्वन्नुवो तो राया।
प्रा० क० । (तद्वक्तव्यता 'संवेग' शब्दे) शत्रुअयशैनियनंमारियदत्ये स-बिम्हो तं समप्पे ।। ७२ ।।
ल स्वशान्तिमरुदेवयोश्चैत्यस्योद्धारकार के श्रावके, ती०१ कसम्म संमाणे, सुद्धं ति पमुज सिद्विधणमित्तं ।
रूप । अवपिण्यां जायमानस्य स्वयं वासुदेवस्य पूर्वनव.
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धणमित्त
( २६५७) प्रन्निधानराजेन्षः।
धणिहा
नामधेये, ति। स० । व्यक्तगणधरस्य स्वनामख्याते पितरि अ० (तत्कथा विपाक श्रुतस्य द्वितीये श्रुतस्कन्धे द्वितीयाध्यय. च। श्रा.म.१०२खण्ड।
ने 'भहणंदि' शब्दे वदयते) धणरक्खिय-धनरक्षित-पुं० । राजगृहनगरस्थस्य धनसार्थवा. धणविजय-धनविजय-पुं० । लोकनालिकासूत्रभाषावृत्तिकृति हस्य पुत्रे, शा० १ श्रु० ७ ०।
प्राचार्य, अयं विक्रमसंवत् ११४१ मिते विद्यमान मासीत् । धणराइ-धनराजि-स्त्री० । सिन्धुदत्तसुतायां काम्पित्यपुरस्थ
जै• ३०। स्य ब्रह्मदत्तस्यान्तःपुरप्रधानायां महिध्याम्, उत्त०१३ अ०। । धणसमिद्ध-धनसम्छ-त्रि० । धनेन समृद्ध, “ धणसमिके धणव-धनपति-पुं० । ६ त०। कुबेरे, वाच०।द्वारावतीवर्णनम- सत्यवाहकुबजाओ।" श्राव. ४ अ०। प्रश्न । धिकृत्य- "धणमणिम्मिया।" धनपतिश्रवण इति । ज्ञा. धणसम्म (ण)-धनशर्मन-पुं० । उज्जयिनीनगरस्थे धनमित्र११०४०। जयपुरनगरस्थे धनावहश्रेष्ठिनो चातरि, दर्श वणिक् सुते स्वनामख्याते वणि जि, ग.२ अधिः। नत्त । ४ तव । वसन्तपुरनगरस्थे धनावहश्रेष्ठिनो म्रातरि, प्रा० म०१
धणसिरी-धनश्री-स्त्री० । जयपुरनगरस्थयोर्धनपतिधनाबह4.२वराड । काञ्चीनगरनिवासिनि कस्मिंश्चिासायात्रिके, येन समुपविजयदशाई प्रतिष्ठापिता द्वारावतीस्थिता पार्श्वना
श्रेष्ठिनोः स्वनामख्यातायां भगिन्याम्, दर्श० ४ तत्त्व । थप्रतिमा द्वारावतीदाहानन्तरं समुप्लाधितायां द्वारावत्यां स.
वसन्तपुरस्थयोधनपतिधनावहश्रेष्ठिनोर्भगिन्यान, प्रा० म०१ मुद्रे स्थिता निजयानपात्र देवतातिशयेन स्खलितेऽत्रैव जिन
०२खएम । श्रेणिक स्य भार्यायाम् , तं०। दन्तपुरनगरबिम्बं तिष्ठतीति दिव्यवाचा निश्चिते नाविकैरकारिता स्थपुर
स्थस्य धनमित्रसार्थवाहम्य नार्यायाम, श्राव०४०। प्रा. मानीय प्रासादे स्थापितति । ती०५२ कप । कनकपुरनगर
क० । मा००नि०यू०। चम्पानगरीस्थस्य धनसाथेचाह. स्थस्य वैश्रवणकुमारभ्य युवराजस्य स्वनामख्याते पुत्रे, सुख
स्य नारर्यायाम, आव0अचम्पानगरीमधिकृत्य-" धनविपाकाध्ययनेषु षष्ठेऽध्य बने, विपा० २ श्रु. ६ अ० ।
मित्रसार्थवाहो, धनश्रीस्तस्य वल्लभा ।" प्रा० क० । हेमपुर
स्थस्थ सुरदत्तश्रेष्टिनः सुताया जिनमत्याः स्वनामख्यातायां कणगपुर एयरं, सेयासेए नजाणे, वीरभद्दो जक्खो,
सण्याम, दर्श०१ तत्व। पियचंदो राया, सुभद्दा देवी. वेसमणे कुमारे जुबराया, धणसेहि (ण)-धनश्रेष्टिन-पुं० । राजगृहनगरम्ये श्रेष्ठिनि, सिरीदेवीपामोक्खाणं पंचसया, तित्यगरागमणं, धावई झा० १ श्रु० ११०। (तत्कथा 'धण' शब्देऽनुपदमेव गता) जुवरायपुत्तो जाव पुबन मणिभया पयरी, मित्तो श्रावस्तीवास्तव्ये श्रेष्ठिनि, उत्त०८०(तत्कथा 'कविल' राया संभूतिविजए अणगारे पडिझाभिए० जाव सिद्धे॥ शब्दे तृतीयभागे ३०७ पृछे गता) पाटलिपुत्रनगरस्थे श्रेष्ठिनि;
यस्य कुहिता जगवतः सकाशे प्रव्रजिता । प्रा० म०१ अ०२ विपा० २ श्रु० ६ अ०।
खण्ड। कस्मिंश्चिन्नगरे स्थिते धनप्रियायाः पत्यौ स्वनामग्याते भणबई-धनवती-स्त्री० । कलिङ्गविषयस्थकाञ्चनपुरस्थस्य ध-| श्रेष्ठिनि च । पिं० । नावहश्रेष्ठिनः सुतायाम्, दर्श० १ तव । एकस्मिन् सनि-धणसेण-धनसेन-पुं० । द्वारावतीवास्तव्ये कमलामेसायाः पि. वेशे स्थितस्य कस्यचिद् प्रामाधिपतिसुत्रस्य धननाम्ना नवमे | तरि स्वनामख्याते नृपे, दर्श०४ तस्व । श्रा०म० प्रा००। भरे भविष्यदरिष्टनमितीर्थकरस्य भार्यायाम, उत्त. २२/ धणहाणि-धनहानि-स्त्री०। धनकये, तत्कारणीनूते राज्य. अ० । कल्प।
स्यापलकणनेदे च । यतः सर्वत्र धनकयः सम्भवति । व्य) धणवमु-धनवसु-पुं० । उज्जयिनीनगरस्थे स्वनामख्याते वणि
३ उ०। जि. आव०४०। (वक्तव्यता मावई'शब्दे द्वितीयभागे २४५ पृष्ठे गता ) " उज्जयिन्यां धनवसु-श्वम्पां गन्तुमना ब.
धणहारि ( ण् )-धनहारिण-त्रि० । धनं दरतीति धनहारी। णिक।"श्रा. क. श्रा० चू०।
धनहरणाले, प्रश्न० ३ भा० धार। घणवह-धनवह-पुं०। कलिङ्गविषयस्थकाञ्चनपुरस्थे स्वनाम- धणावह-धनाव-पुं०। 'धणबद' शब्दार्थे, दर्श०१ तव । ख्याते श्रेष्ठिनि, "तत्थ धणवदी णाम सेट्टी।" दर्श०१ तव ।
धणि-ध्वनि-पुं० । वन इन् । शब्दे, स्था०१ ठा० । विशे। जयपुरनगरस्थे धनपतिथेष्टिभ्रातरि, "जय उरं नाम नयर,जि- आब० । तूर्यनिनाद, श्रा०म०१०२खण्ड । अव्यक्ते मृदयसन नाम राया, घणवश्धणावद्दा चे नायरो सेही"दर्श झाऽऽदिशब्द, अनङ्कारोक्ते उत्तमकाव्य च । वाच.। ४ तत्व । वसन्तपुरनगरस्थे धनपतिश्रेष्ठिनातरि, " वसंतपुर | धनिन्-पुं० । धनवति, प्रा.२पाद । नगर, जियसत्तू राया, धणवरंधणावहा भायरो सेही।" आ० | धणि अ-देशी-गाढे, दे० मा० ५ वर्ग ५८ गाथा । म.१०२खएम । राजगृहनगरस्थे स्वनामख्याते श्रेष्ठिनि,
धणिया-देशी-प्रियायाम, दे. ना०५ वर्ग ५८ गाथा । "रायगिहेनयरे पहाणस्स धणावहस्स सेहिस्सा " प्रा० म० १०२ खरा । कौशाम्बीनगरवास्तव्ये मूत्रायाः पत्यो स्व
धणियोनालिय-धनितो( को ) उज्वानित-त्रि०। प्रत्यर्थमुनामख्याते श्रेष्ठिनि, प्रा०चू. १ अ० । "आसीद्धनावहः श्रेष्ठी, 1 जज्वासित, जा
उज्वाबिते, जी० ३ प्रति० ५ उ०। मूला तस्य च गेदिनी।" प्रा० क०।" तत्थेत्र एयरेधणावह धणिहा-धनिया-स्त्री० । अतिशयेन धनवती इष्ठन् श्नेलुक। सेठी, मूला भारिया।" प्रा०म०१.२खएक ऋषनपुर- वसदेवताके स्वनामख्याते नत्रभेदे, वाच । ज्यो । स्था। स्थस्तूप करण्ड कोद्यानस्थ स्वनामख्याते नृपे, विपा०२१०२ अनु०।०प्र० । जं० । सू० प्र० । स०।
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( २६५5 ) अभिधानराजेन्द्रः ।
घहासंवर
—
पणिकावर-पनिष्ठा संवत्सर पुं० [यमिन्संवत्सरे पनि नत्रण सह शनैश्वरो योगमुपादत्ते स धनिष्ठासम्बत्सरः । इशनैश्वरसं ७०
ध
श्रक्षिय धणिय- न० । अत्यर्थे, प्रश्न० ३ आश्र० द्वार नियं अप्पा निजो तच्चो । " धणियमत्यर्थमिति । व्य० २ उ० । श्राव० ।" धणियं पि समत्थचित्तेन । " धणियमत्यर्थमिति । भातु० । अत्यन्ते, उत्त० १ भ० ।
।
धनिक - न० । अत्यर्थे, "धीश्धणियणिष्यकं" धमि कमत्यर्थमि. ति । श्र० । “धणियमाणापाणे य । " धनिकमत्यर्थम् । ध० २ सचिन कायतिका धन्या. पुं० ० चने. पुं० धनं विद्यतेऽस्त्यस्य ठन् । धनस्वामिनि, वाच० स० ६ श्रङ्ग। उत्तमर्णे च । त्रि० । " धनिकस्य यथारुचि । " इति स्मृतिः । स्त्रियां टाप् । प्रियगुवृक्के, वध्वां च । वाच० ।
धनित - न० । अत्यर्थे, " धीश्घयिबद्धकच्छा ।" संथा० । ध्वनितत्र शब्द वाच
धणी-देश नायमयि निःशङ्केच दे० ना० ६२ गाथा |
धशु-धनुष्-न० । धन-उस् । " धनुषो वा " ॥ ८ ।१ २२ ॥ इति प्राकृतसूत्रेण धनुःशब्दस्यान्त्यव्यञ्जनस्य वा हः । कार्मुके, प्रा० ' पाद । प्रियाल, धनुईरे, त्रि० । वाच० । भ० । चापे, श्र• म० १ ० २ एम । स०| जं० 1 विपाο" जावं च णं से पु· रिसे धणुं परामुलइ ।" धनुईएमगुणाऽऽदि समुदायः । भ०५ श० ६ च० । चतुर्भिर्हस्तैर्निष्पत्रे अवमान विशेषे, अनु० । " दंडं ध य जून, नालिया य अक्खो मुखलं च चहत्थं । ज्यो० २ पाहु० । प्रव० जी० । प्रज्ञा । तं० ॥ जं० । स्था० । "अंगुत्राणि से एगे दंडेइ वा धणूइ वा जुपइ वा नात्रियाइ वा अखेर वा मुसलेइ वा ।" भ० ६ श० ७ ० । स० । "" पथि मार्गविधी अनुवा
33
|
परिसादिनैवायमानविशेषेध कियते, न तु दमाऽऽदिनिरिति । अनु० । मेषावधिके नवमे राशौ च । न० । याच धनुर्विमुका चन्द्र देवक दनदनाऽऽदि करोति स धनुः । नारकाणां कदर्थके दशमे परमधार्मिक, पुं० | प्रब० १०० द्वार । ज० । अनु० । सम० । ( ' असिपत्त' शब्दे प्रथमभागे ८४६ पृष्ठे ७९ गाथा गता ) धमल - कुटिलधनुष्-न० कुटिले धनुषि, "धलुकुमिल बंक पागारपरिक्खित्ता।" धनुष्कुटि कुटिलं धनुः । ततोऽपि वक्रेण प्राकारेण परिक्षिप्ता या सा तथा । रा० । ज्ञा० । घणुक - धनुष्क- न० । चापे, स० । चतुर्भिर्हस्तैर्निष्पन्ने अवमानविशेषे न० अनु० पा० पाञ्च सशस्थका म्पियर पते ब्रह्मदत्तपितुर्ब्रह्मराजस्य स्वनामख्याते सेनापतौ, उत्त० १३ अ० । ० क० । ( तद्वक्तव्यता बंभदत्त' शब्दे वक्ष्यते ) शुग्गनुर्ब्रह० विशेष धनुर्वेद इति वा । जी०३ प्रति० ४ ३० । धनुग्रेोऽपि वातविशेषो, यः शरीरं कु. ब्जीकरोति । ३० ३ उ० । व्य० ।
-
घणेसर
तासा- धनुस्त्रासना-श्री० [धनुषा] जयजनने, "स योगो नासणः "चानुवाणा कुर्वन्तिभयमुपजनयन्तीत्यधैः ०२०
धगुरू- धनुर्ध्वज - पुं० । जविष्यत्सर्पिएयां महापद्मस्य प्रथमतीर्थकरस्य सकाशे प्रवजिष्यति स्वनामख्याते नृपे, स्था०
Fro
प्रणुदर - धनुर्धर - पुं० । धनुर्धारयति धृ-अच् । धानुष्के, वा० धनुकोदरामप्रहरणा इति । स ।
धणुपिड - धनुष्पृष्ठ-न
- न० | मरामलखण्माऽऽकारे क्षेत्रे, स० ५७ स म० जम्बूदीपलक्षण क्षेत्रस्य यतैरन नस्याऽऽरोपित ज्या धनुष्पृष्टाकारे परिधिख च । हैमवतैरण्यवतोरधिकारे जम्बूद्वीपलकणवृतकेत्रस्य हैमवतैरण्यवाच्य द्वितीयान्नस्थापितानुष्ठकारे प रिधिखएमे धनुष्पृष्ठे, उच्येते स्पर्धतभूते सरलप्रदेशइक्ती तु जीवे श्व जीबे इति । स० ३७ सम० । ( तच्च कस्य वर्षस्य वर्षधरपर्वतस्य कियत्प्रमाणमिति 'बासहर' (शन्दे बहुयते )
-
धनुपुहत्तिया- धनुष्पृथक्त्वका स्त्री० । गयूते, "धपुसि या विवि" धनुःसहस्रप्रमाणमिति प्रा०
१ पत्र ।
धवन - धनुर्बल - न० । धनुर्द्धरवले, “धरणुबलं वा थालिंगति ।”
भ० ३ श० २ उ० ।
धणुय- धनुष्क- न० । धणुक' शब्दार्थे, स० ।
धन्य-धनुर्वेद - पुं० । धनुष उपचारात् तत्प्रकेपणीयास्त्रयोगाssदेरेपयोगी वेदः । यजुर्वेदस्योपवेदे, शस्त्रास्त्रप्रयोगोपसंहारप्रतिपादकमन्त्रसहिते शास्त्रभेदे, वाच० । धनुःशास्त्रे, जं० २ ० | शास्त्रे, तश्च जगवत ऋषभदेवस्य समये आसीत्। " "शाखं नाम धनुर्वेद स व तदैव राजधर्मे सति प्रावर्तत । श्र० म० १ ० १ ख एक । शिक्षाशास्त्रे, "कुलपुत्रक एकोऽत्र, धनुर्वेदविशारदः । कस्यापि धनिनः पुत्रान् धनुर्वेदमशिक्षयत् ॥१॥ अ० क० । प्राo म० । तदात्मके द्वासप्ततिकलान्तर्गते कन्नाभेदे, औ० । स० । [झा० । सूत्र । तदात्म के पापश्रुतभेदे च । श्राव० ४ श्र० । धम धनुःखयम-२० धनुः शकले, " सपोः संयोगे सो | मे" || ८ | ४ | २८९ ॥ इति सूत्रेण मागध्यां संयोगे वर्तमानयोः सकारयकारयोरूर्द्ध लोपाऽऽपवादः सः प्रा०४ पाद । धगुस्सग्गधनु- धनोत्सर्ग-पुं० [स्था ०२०
पढ़-धनुष-पुं० [०१ पाद घणेसर- पनेश्वर पुं० नामले परिजि० ६ कल्प कान्तीनगरवास्तव्ये स्वनामध्याते सार्थवाहे, येन द्वारा वासुदेवेन प्रतिष्ठापिता पार्श्वनाथप्रतिमा द्वारा बतीदादानन्तरं समुद्रेण द्वारावत्यां प्राचितामध्ये तागमने पानपात्रे देव यावेन समुद्रमध्ययुत् स्वनगरमासादे स्थापित
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धयोसर
(२६५ ) अन्निधानराजेन्द्रः।
घमंतरि
५ कल्प । नत्रबाहुस्वामिविरचितबृहत्कल्पनाध्यवृत्तिकर्तुः के- धान्य-न। धाने पोषणे साधु-यत । सतुषे ताकुलाऽऽदी, मकीर्तिसूरेगुरुपरम्परायां जाते स्वनामख्याते प्राचार्य, बृ०।
सीजे शामितिझयवाऽऽदौ च । दश०६ म० । वाच० । "श्रीजैनशासननभस्तलतिम्मरश्मिा,
उत्त० । सूत्र० । धान्यं व्रीहिकोरुवमुझमाषतिलगोधूमयबाश्रीपाबन्द्रकुलपद्मविकाशकारी।
ऽऽदि । आव० ६ म०। तच सप्तदशविधम्-" सणसत्तरपृज्यो निरावृतदिगम्बरडम्बरोभूत,
सबीया भवे धम्नं ।" शणं सप्तदशं येषां तानि शणसप्तदशाश्रीमान् धनेश्वरगुरुः प्रथितः पृथिव्याम् ॥७॥
नि बीजानि धान्यं भवेदिति । तानि चामनि-" ब्रीहियो श्रीमच्चैत्रपुरैकमएमनमहावीरप्रतिष्ठा कृत
मसुरो, गोधूमो मुद्रमापतिलषणकाः। प्रणवः प्रियङ्गकोद्रस्तस्मान्नैत्रपुरप्रयोधतरणिः श्रीचैत्रगच्चोऽजनि।
च-मकुष्टकाः शालिराढक्यः ॥१॥ किं च कलायकुखत्थी, तत्र श्रीभुवनेन्सूरिसुगुरुर्नुभूषणं भासुर
शणसप्तदशानि बीजानि।" वृ०११०२ प्रका० म.। ज्योतिः सद्गुणरत्नरोहणगिरिः कालक्रमेणाऽभवत् ॥ ६॥"
कुत्रचिद् धान्यानां चतुर्विशतिभेदा यथावृ०६१०। द्वितीयोऽप्येतनामा विशालगच्चीयो जिनयनुजसू. रिपबितमार्कशतकग्रन्थोपरि टीकाया रचयिताध्यमाचार्यः वि.
सणसत्तरसादीणं, धमाकाणं तु कोमिकोमीणं । क्रमसंवत्-११७१ वर्षे प्रासीत् । अपरोऽप्यतिप्राचीनः शिला
जेसिं तु जायणट्ठा, एरिसया हॉति णिइईया ॥ ३१॥ ऽऽदित्यराजस्य बलभीपुरराजस्यार्थे शत्रुञ्जयमाहात्म्य प्रन्धकद् शणः सप्तदशो येतानि शणसप्तदशानि । तानि चामनिधनेश्वरसूरिः। जै. इ.
शालिः, यवः, कोषवः, वौदिः, रामकः, तिलाः, मुगाः, माचा, धणाहसंचय-धनायसंचय-पुं० । धनस्यौघः समूहो धनौ- चवलाः, चणकाः, तुवरी, मसूरका कुलन्थाः, गांधूप्राः, निष्पाघस्तभ्य संचयो राशीकरणम् । कनकाऽऽदिद्रव्यसमूहस्य रा- वाः, मतसी, शणश्च । उक्तं च-"सासिजयकोववाहि-रालगशीकरण उत्त०१० ।
तिल मुग्गमासचवाचणा । तुबरिमसूरकुलत्था, गोडमनिष्काधन-धन्य-त्रि०। धनं लब्धा, धने साधुः,धनमईति। ज०२ श०
बप्रयसिसाणा ॥ १॥" व्य०१०।। १. । अन्त। स्था.नि.। धनाय हितं धनस्य नि
धनाइं चनवीसं, जब गोहम सानि वीहि सट्ठी य। मित्तं संयोग उत्पातो, धन प्रयोजनमस्य वा यत्। वाच. । कोहव अणुया कंग, रामग तिल मुग्ग मासा य।१०१। धनलम्निनि, शा. १७०१० । कल्प० । भ०। " धमाश्रो
अयसि हरिमंथतिउगन, निप्फावासलिंद राय मासा य । अणंतानो अंबगाओ।" प्रा०म.१०२ खगम । "अहो एयरस धाया।"10 म०प्र०२खएम। "धोसिणं तु.
इक्खू मसर तुबरी, कुलत्थ तह धनय कलाया ॥१०१।। म जाया!" धनं सम्धासि । न. ६० ३३ उ०। धनावहे,
धान्यानि चतुर्विशतिभवन्ति । यथा-जवान, गोधूमाः, शालयो, झा.१७०११। सौगाग्याऽऽदेयताऽऽदिना धनाई, द्वा० १४
बीहयः, षष्टिकाः, कोद्रवाः, अणुकाः, कङ्गा, रालका, तिलाः, द्वा•। धनवाजयोग्ये, प्रश्न०१ श्राश्र० द्वार । धनसाधौ पुण्य
मुदगा मापाश्च । तथा अतसी, हरिमन्थाः, त्रिपुटका निष्पावा बति, पञ्चा०विव.। पं० व. 1 " धमाणमेयजोगो, धमा
शिसिन्दा राजमाषाः, रक्तवः, मसुरा, तुबरी, कुलत्था, तथाचेटुंति एवणीतीए । धमा व ममंते, धमा जे जऽपसंति"
धान्यक, कलाय इति । एतानि च प्रायेण लोकप्रसिकानि प्रागु॥१॥ धन्यानां भावधनमधूणां तत्साधूनां वा सचानामिति
कानि,नवरं षष्टिकाः शालिभदा,ये षष्टिरात्रेण पच्यन्ते। अणुगम्यते, तद्योगेऽपि धन्या: पुण्यवम्तश्चेष्टन्ते प्रवर्तन्ते इति ।
का जुगन्धरी,बृहच्चिरा कङ्गः अल्पतरशिरा राक्षकः, हरिमन्थाः पश्चा• २विव। श्रेयस्करे, आव०४०। इलाध्ये, " ते
कृष्णचणका, शिलिन्दा मकुष्टाः, राजमाषाश्ववलकाः,धान्यं कु. धमा सप्पुरिसा।" पञ्चा०विव० । अश्वकर्णवृक्के, कृतायें,
स्तुम्भरी, .कझाया अत्र वृत्तचषका इति । प्रव०१५६ द्वार । धनोपयोगिभ्यर्थशाखे, धनाय हिते, धनकारणे च । वाच.।
केचन भूकटिका बदन्ति यथा धीमतां त्रिफलात्कटकधनं ज्ञानदर्शनचारित्रलकणमहन्तीति धन्याः । साध्वादिषु
व्यनिष्पन्नचर्मप्रक्केपे प्रासुकं पानीयं तथाऽस्माकमप्युत्कटक. कानदर्शनचारित्रधनेषु,“ धन्ना नाणाधणा।" विशे०। " ध. व्यजनितचूमप्रोपे धान्यादि प्रासुकीभवतीति किमत्र बाधमा श्रावकदाए, गुरुकुलवासंन मुंचंति।"धन्या धर्मधनं ल. कमिति प्रइने, उत्तरम् भूकटिककृताशङ्कामाश्रित्य यथा त्रि“धारः । पञ्चा० ११ विव० । भ.पार्श्वनाथस्य प्रथमनिकादा- फलाप्रक्षेपाऽदके वाऽऽदिपरावतों भवति तथा यदि धायके स्वनामण्याते श्रावके, प्रा० म०१०१खराम । काकन्दी
न्यफलाऽऽदाबपि भवेत्तदोदकवद् धाम्यादि प्रासुकं भवति वास्तव्ये स्वनामख्याते सार्थवाहेच । पुं०।तत्कथाऽनुत्तरोप
न च तस्मात्तरकथं प्रासुकं तदिति । २१ प्र०। सेन०३ पातिकदशायास्तृतीयवर्गस्य प्रथमेऽध्ययने । सा च ' धमग'
मद्वा० । पञ्चदशकर्माऽऽदाननिषेधवता धान्यनाबिकेराजदि. शब्द तद्वक्तव्यताप्रतिवऽनुत्तरोपपातिकदशायास्तृतीयवर्ग
फलगुलीहरितालपशूनां विक्रये भङ्गोऽभङ्गो वा, तथा सहास्य प्रथमेऽध्ययने च। अनु। आमलक्याम, धन्याके, वा.
लपुत्राऽऽदीनां श्राद्धानां कर्मादानस्य संभवो, निषेधो पेति च० । वाराणसीनगयों कोष्ठचैत्यवास्तब्यस्य सुरादेष गृहपते.
प्रश्ने, उत्तरम-धान्याऽऽदीनां कृतपरिमाणादृर्द्ध क्रयादिकरणे भायां च । स्त्री०। उपा० ४ अ० । (तत्कथा "सुरादेष"
भलोऽन्यथा न चेति, तथा सदाल पुत्राऽऽदीनां परिमितत्वादशीशब्दे वक्ष्यते)
लादिकर्मकरणेऽपि न कर्माऽऽदानसंशति वृद्धोक्तिः । ७६
प्र० । सेन० ३ ला०। । धन्व-न•। धन्व-अच् । चापे, वाच ।
धएणंतरि-धन्वन्तरि-पुंगधन्वन् शिल्पशास्त्रं तस्यान्तमिति धन्वन्-न० । धन्व० कनिन् । धनुषि, मरुदेशे च । वाच०।।
च०। । ऋश्न शक। "नारायणांशो नगवान्, स्वयं धन्वन्तरिमहान् ।
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धांतरि अभिधानराजेन्छः ।
धमय पुरा समुजप्रथने,समुत्तस्यौ महोदधेः ॥१॥" इत्युक्ते स्वर्गवैद्यनेदे, गिरी गत्वाऽनयसाधु, निःशल्यं विदधेऽचिरात् ॥ १६ ॥ दिवोदासे काशिराजे, विक्रमादित्यसन्नासदे पण्डितन्नेदे, साधारग्रे शिखित्वाऽऽख्य-सोऽथ प्राग्भवद्यताम। " धन्वन्तरिकपणकामरसिंहशाकु-बेतालभ" इत्यादि । धर्ममा स्यन्मुनिः सोऽधा-नशनेन मृतस्यहात् ॥ १७॥" पाच । वैद्यकशास्त्रप्रणेतरि स्वनामख्याते योगिनि, "जोगीब
अथ किं तस्यादित्याहजहा महावेजो।" योगी धन्वन्तरिः,तेन च विभङ्गशानबन्नेनाss. गामिनि काने प्राचुर्येण रोगसंभवं रष्टाऽष्टालाऽऽयुर्वेदरूपं वैद्य
"सो वानरजूहवई, कतारे सुविहिप्राणुकंपाए । कशासं चक्रे । ० १ ० २ प्रक० । विजयपुरराजस्य
भासुरवरदिधरो, देवो वेमाणिो जाओ॥ १८॥" कनकरथस्य स्वनामख्याते वैद्य, तत्कथा विपाकश्रुतस्याष्टमे
अनुकम्पा भक्तिः । वैमानिकः सहस्रारे। अध्ययने इति । स्था० १० म० । (सा च 'लंबरदत्त' "प्रयुज्यावधिमझाक्षी-तद्वपुस्तं मुनि च सः। शब्दे हितीयन्नागे ६०३ पृष्ठे दृश्पा ) जमदग्निपरी- बागेत्यादर्शयद्दिश्यां, देवर्द्धि तां मिजां मुनेः ॥ १६ ॥ कार्थे मनुष्यलोकमुपागते देवलोकस्थे स्वनामसपाते तापसे, ऊचे च त्वत्प्रसादम, प्राप्यत श्रीरियं प्रनो!। "इतश्च जैनमाहेशा-वभूतां द्वौ सुरी दिवि । स्वं स्वं धर्म प्रशंस- तेनाधोत्पाट्य स मुनि-नीतः स मुनिसन्निधौ ॥२०॥ ता-चतुः साधु तापसौ ॥१॥" प्रा.क० मा चू।"श्तो य रास्तेऽस्माहुरागास्त्वं, कथं शल्पमगाच्चते। दो देवा वेसानरो सहो धर्णतरी तावसन्नत्तो।"ति । भा०म०१
सोऽथ वानरवैद्यस्यो-दन्तं तेषामचीकथात् ॥२१॥ प्र. २ खएकाद्वारावतीवास्तव्ये कृष्णवासुदेवस्य स्वनामख्याते
वानरः साधुमक्त्येवं, सेभे सामायिकवतम्। बेचे, प्रा० क०।
अन्यथोपानदुःकर्मा, स्याद् वराकः स नारकः ॥२२॥" "बारवई वेअरणी, धनंतरि भविअ अभविए बिज्जे ।
श्रा• क०। कहणा य पुसिम्मी, गनिदेसे असंबोही" ॥१॥ प्रा०का घमंतरिकूव-धन्वन्तरिकूप-पुं० । अहिच्छत्रानगरोस्थे स्वनाम" नगरी द्वारवत्यासी--उपकएवं पयोनिधे ।
स्याते फे, "धमंतरिकूवस्स यावि पिंजरवम्पाए मट्टियाए गुजोगावतीव पाताला-दागता मापुरेकया ॥१॥
रूवएसा कंचण उप्पज ।" ती ६ कल्प। रत्नान्यतो गृहीत्वैव, सर्वरत्नमयी कृता।
धाम-धन्यंमन्य-त्रिका आत्मानं धन्यं मन्यमाने, " धन्यं मपुरीय वेधसाउथोऽनू-दब्धेरेबाधिरेष सः॥२॥
भ्योऽतिभक्तितः।" प्रा० क.। नाम्ना कृतो नृपस्तत्र, चरित्रर्धवाः पुनः । अहिमांशुः प्रतापेन, हिमांशुश्च प्रसत्तितः॥३॥
धमय-धन्यक-पुं० । शालिजानगिर्नापतौ, स्था० १० वा । विद्यते तत्र वैद्यौ हौ, वैद्यविद्याविशारखी।
काकन्दीनगरीवास्तव्ये स्वनामख्याते सार्थवाहे, तदक्तव्यताप्रनव्यो बैतरणीमामा, धन्वन्तरिरजव्यकः ॥ ४ ॥
तिबऽनुतरोपपातिकदशायास्तृतीयवर्गस्य द्वितीयेऽध्ययने चिकित्सा मानसाधूनां, नायः प्रासुकनेषजैः।
च। स्था०१००। विदधाति प्रदत्ते च, स्युश्चेत्तानि स्ववेश्मनि ॥५॥
दृश्यते तु प्रथमेऽध्ययनेभनव्यो ग्लानसाधूना-मास्यत्सावधषजम्।
जंबू! तेणं कालेगणं तेणं समरणं काकंदी णाम नयरी प्रामुकं हि नः किधि-दित्युक्त साधुभिः पुनः॥६॥
होत्था,रिचित्यमियसमिछा । सहसंबवणे उजाणे, ससकचेन मयाऽधीते, वैद्यकं भवतां कृते । एवं तौ द्वौ महारम्नां, चिकित्सां कुरुतःपुरि ॥७॥
म्योपरि य,जियसत्तू राया। तत्थ णं काकंदीए नयरीए भद्दा प्रतुं कृष्णोऽन्यदाऽप्राही धोकाऽनयोगैतिः ।
नामं सत्यवाही परिवस असा आव अपरिनता। तीसेणं जीवांशौषधिदानम, जीवहिंसाविधायिनो॥८॥
भदाए सत्यवाहीए पुत्ते धमे नामं दारए होत्था, अहीण. स्वाम्यूचे सप्तमी पृथ्वी, पापो धन्वन्तरिर्गमी ।
जाव मुरूवे पंचधाइपरिगहितो। तं जहा-खीरधातीए. प्रव्यो वैतरणीजीवो, गङ्गाविषयान्तरे हरिः॥६॥ स च तत्र वयाप्राप्तो, भावी यूथपतिः स्वयम् ।
जहा महाबलो. जाव बावत्तरिकझाओ अहीने जाव अनं गमिष्यन्त्यन्यदा तत्र, सार्थेन सह साधवः ॥१०॥
जोगसमत्थे जाते यावि होत्था। तते णं सा भद्दा सत्यवाही तत्रकस्थ मुनेः पादे, मग्नं शल्यं दुरुचरम्।
धनं दारयं जम्मुक्कबालना० जाव भोगसमत्यं विजाततस्तदर्य सर्वेऽस्थुः, सशस्यांहिर्मुनिर्जनौ ॥११॥
णित्ता बत्तीस पासायवमंसिए कारोति, अनुग्गयनूपीए. मदर्थ वो मृतिर्मा नूत, शल्यमेतन्ममान्तकृत् । नचल्योद्धरणाशक्ता, निबन्धात्तेन नोदिताः॥१२॥
जाव प्रणेगखंभसयसझिविटुं० जाब बत्तीसाए इब्नमुक्त्वा तं स्थपिडले शुरु, सच्छायस्य तरोस्तले। वरकमयाणं पगदिवसेणं पाणिं गिएडावेति, वत्तीसो तेऽपि जग्मुः कथमपि, शोकशख्येन शल्यिताः॥१३॥ दाओ० जाव उप्पि पासाय फुटृति० जाव विहरइ । तेणं तदा च तत्र स भ्राम्य-नागाद् वानरयूथपः।
कालेणं तो समएणं सामी समोसदे, परिसा निग्गया, राया पुरोगैस्तुमुनश्चके, साधु तं वीक्ष्य वानरैः॥१४॥ यूथपस्तमयोऽपश्य-ग्नूहापोहेन तत्क्षणात् ।
जहा कोणि ओतहा निग्गतो । ततेणं तस्स धम्मस्स दारगस्स जातजातिस्मृतिः सर्वे, प्राग्भवं स्मरति स्म सः॥१५॥
तम्मि महे जहा जमाली तहा निग्गते,नवरं पायचारहां जाव एटा शक्यं मुनेः शल्यो-दरणी शक्यरोदणीम्।
नवरं अम्मयं भदं सत्यवाहिं आपुकामि । तते पं अई
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धम (ग)य
प्रनिधानराजेन्डः ।
धम (ग) य
देवाणुप्पिए ! अंतिए जाव पव्वयामि जाव जहा जमाली चिट्ठति,घसस्स णं अणगारस्स पाणं अयमेयारूवे तवरूतहा आपुच्छति,पुच्चिया बुत्तं पडिबुत्तिया जहा महाबले० वसावले होत्था-से जहानामए रुक्खछबी ति का कट्टपाजाव जाहे नो संचाएति जहा थापच्चापुत्तस्स जियसत्तू आ-| अोया ति वा जरग्गाओ वा पहेति वा एवामेव धम्मस्स अपुच्छति, छत्तचामरामो सयमेव जितसत्तू निक्खमणं करे- णगारस्स पाया मुक्का निम्ममा अडिचम्मविरत्ता ते पणाति, जहा यावच्चापुत्तस्स कए हेम्जाव पवइए अणगारे जाए | यंति, नो चेव ण मंससोणियत्ताए धर्म अणगारयं ति पायं इरियाममिते जाव गुत्तबंभयारी। तते णं से धम्म प्रणगारे। अयमेयारूवे से जहानामए कलसंगलिया ति वा मुग्गमाजं चेव दिवसं मुंमे नबित्ताजाव पवइत्तए,तं चेव दिवसं | ससंगझिया ति वा तरुणिया मा उएहे दिना मुक्का ममासमयं जगवं महावीरं वंदति,नमंसति, नमसतित्ता एवं ब-1 णा गिनायमाणी चिट्ठति, एवामेव धम्मस्स पायंगुन्निनाए यासी-एवं खलु इच्छामि णं भंते ! तुब्भेहिं अन्नगुमाए मुक्कामोजाब सोणियत्ताए धस्स जंघाणं अयमेयारूवे से समाणा जावज्जीवाए छटुं छट्टेणं अणिक्खित्तेणं आयंबि- जहाणामए ककजंघा ति वा केकइजंधा ति वा मिणियाति वा सपरिग्गहिएणं तवोकम्मोणं अप्पाणं जावमाणस्स विहरि. जंघायं ति वाजाव सोणियत्ताए,धामस्स जाणणं अयमेतए, छट्ठस्म वि य णं पारणयसि कप्पति से आयंबिलं यारूबे, से जहानामए कानिपोरेइ वा मरपोरे वा डिणि. पमिग्गहित्तए नो चेवणं अणायविज्ञ, तं पिय संसटुं नो यानियापोरोति वाजाव सोणियत्ताए,धमस्स उरू अयमेचेत्र णं असमर्ट, तं पि यणं नजिकयधम्मियं नो चेव | यारूबे,से जहानामए सामकरिडोडवा नोरिकरिशवेवासअणुज्यिधम्मियं,तं पि य एंज अहो बहवे समणमाहण- लासामलितरूणं ते छिपिकणि जाव चिट्ठति, वामेवध. अतिहिकिवणवणीमगा नावकं खति। अहासुहं देवाणुप्पिया! | मस्स उरू वा सोणियत्ताए,घसस्स कडिपट्टस्स इमेथारूवे, मा पमिबंध करेह । तते णं से धधे अणगारे समणेणं भग- स जहानापए उट्टयाए ति वा उरूगपाए ति वा पहिसपावया महावीरोग अब्जणुमति समाणे हट्ठ जावजीवाए छटुं देइ वा० जाब सोणियत्ताए, धस्स उदरत्नाण यस्स इमेढणं अणिक्खियेणं तबोकम्मेणं अप्पाणं नावेमाणे वि. यारूवे, मे जहानामए मुक्कवसदित्तेइ वा भजणयकवलेइ हरति । तते णं से धो अणगारे पढमछट्टममणपारण यम्मि| वा कट्ठकोलंबथोमे व उदरं मुक्कं, धम्मस्स पांसुलियकंम्याणं पढमाए पोरिमीए सज्मायं करेति, जहा गोयमसामी तहेव इमेयारूवे,से जहानामए वंसयावली ति वा पाणावली तिवा आपुच्चति,जेणेव काकंदी नगरी तेणेव नवागच्छइ,उवाग- रूमावती तिवा,धस्स पिटकरंमयाणं इमेयारूचे,से जहामुत्ता काकंदीए नगरीए उच्चनीच जाव अडमाणे आय-| नामए चित्तयकमरेति वा वायपीपत्तेश्वा तासीय टपत्तेड़ वा, दिलं जो अणायविनं० जाव नावखति । तते णं से धरले एवामेव धम्मस्स बाहाणं इपेयारूवे,से जहानामए समिसंगअणगारे ताए भन्भुजतपवत्ताए परिगाहियत्ताए एसणाए झियाइ वा पहायासंगलिया ति वा अगच्चियसंगन्निया तिवा, पसमाणे जति णं जलभति,तो पाणं न लभति जति पाणं एनामेव धस्स हत्थाणं अयमेयारूवे,से जहानामए सुकनगा सनति,तो भत्तं न लभति । तते णं सेधले अणगारे अदीणे अ. णियाइ वा वमपत्त वा पलासपत्तेइ वा.एवामेव धास्महदीएमणे अकबुसे अविसाई अपरितंतयोगी जयणघमण- त्यंगुलीयाणं अयमेयारूचे,से जहानामए कुलसंगलियाति वा नोगचरित्ते अहापजत्तसमुदाणं पमिगाहिति,परिगाहिति- मग्गमासतरुणियाच्छिए प्रायवेदिणा सुक्का सपाणी,एवामव त्ता काकंदीनगरीतो पडिनिक्खमति जहा गोयमो तहा प- धम्मस्स गीवा,से जहानामए करगगोवाइवा कुंमियागीवाइवा मिदंति। तते णं से घझे अणगारे समणेणं जगवया अ- उवत्थवणाए वा,एवामेव धाम्स इणुयाए से जहानामपलाभन्नणुप्माते समाणे अमुच्छिए जाव अणकोवव विल. उफलेइति वा होवफलेइ वा अंबगट्टियाए वा,एवामेव घमित्र पएणगएणं अप्पाणं श्राहारं आहारेति, श्राहारेति- मस्स उट्ठाणं से जहाणामए सुक्कजसोया ति वा सेनेमुगनिया त्ता संजमेणं तवसा जाब विहरति।तरण से समाणे जगवं ति वा अलतंगगुलिया ति बा, एवामेव धास्स जिम्माए,से महावीरे आमया कया वि कादीनयरीतो सहसंववाणाओ जहा वडपत्तेति वा उंबरपत्तेति वा सागपत्तेति वा, एवामेव पमिनिकमति,बहिया जण वयविहारं विहरति । तए णं सेधी धामस्स नासियाए,से जहाणामए अंकगसियाइ वा माउभणगारे समणस्त भगवो महावीरस्मतहारूवाणं थेरा- खंगपसियाइ वा तरुणिया, एवामेव धायरस अच्छीणं, से एं अंतिए सामाइयमाश्याई एक्कारस अंगाई अहिज्जति, सं- जहानामए वीणाछिद्द त्ति वा पजाश्यतारगा तिवा, नमेणं तसा अप्पाणं जावेमाणे विहरति । तए ण मेधमे| एनामेव धएणस्स करणाणं, से जहाणामए सीसमझा अणगारे जहा खंदओ० जाव उवसोभेमाणे उसोभेमाणे | ऋद्धियाति वा बालुकबी वा करेक्षयागल्लेबाइ वा
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धम्म (ग) य
(२६६२) भनिधानराजेन्द्रः।
धएणप्पमाणा
एवामेव धमस्स(१) से जहाणामए तरुणगनायो ति वा समणं भगवं तिक्खुत्तो आयाहिणपयाहिणं करोति, करेतरुणगए साबुयत्ति वा सिल्हस्रएत्ति वा तरुण एजाव चि- तित्ता वंदति, नमसति, मंसित्ता जेणेव धणे अणगारे हृति,एचामेव धहस्स अणगारस्स सीसं सुक्खं निम्मंसं अ- तेणेव वागच्छद, उवागच्छत्ता घमं अरणगारं तिहिचम्मरित्तारपणायंति, नो चेत्रणं मंससोणियत्ताए, एवं| क्वुत्तो आयाहिणपयाहिणं करोत, वंदति, नमसति, सम्बत्थमव नवरं नदरजायणा कामा जिम्मा ओढाएपसिं णमंसित्ता एवं चयामी-धणेमि णं तुम देवाणप्पिए ! संपुग्ने अट्ठी न जवति चम्परित्ताए पणाइतं भणनिधिमेणं अ. मुकयत्थे कंतसक्खणे सुझकेणं देवाणप्पिया ! तब पागारणं मुखपायजंधोरुहणादिगतं तम्मिकरालणं क- माणुस्सए जम्मजीवियफन्ने ति कट्ट बंदति, नमंमति, णमं. कमाहेणं पिट्ठमंसिएणं उदरभायणणं वीतिजमाणोहिं सतित्ता जेनगेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छड़, नपांसुलिकदरहिं अक्खमुत्तमाला विव गणिजमाणेहिं पिट्ठ
वागच्कइना समणं जगवं तिक्खुत्तो वंदति, नमसति, मंकरंमगसंधीहिं गंगातरंगनूतणं नक्खंगदेसजायणेर्ण सु- सित्ता जामेव दिसिं पाउब्लूए तामेव दिसिं पडिगए । तते कसप्पसमाणेहिं बाहाहिं सिढिलकमाली चिव वंतहि य
णं तस्स धम्मस्स अणगारस्स अप्सया कयाइ पुन्चरत्तावरअग्गिदहेहिं कंपणाईमो विब वयमाणीएसीसघमाए पञ्चात
सकालसमयसि धम्मजागरियं जागरमाणे इमेपासवे अन्नवदनकमझे ओझगघडामुहे अोछट्ठणयकोसे जीवंजीवेणं
थिए-एवं खबु अहं इमेणं नरालेणं जहा खंदो तहेव गच्छति, जीवनीवेणं चिट्ठति, भासं भासिस्सामि, विगमा
चिंता आपुचणं थेरेहि सदि विपुलं उरूहति मासियाए इसे जहानामए इंगासगभियाति वा जहा खंद ओ तहा
संलहणार नवमासपरियामोजाव कालपासे कालं किच्चा जाव हुतासणाभासरासिपालिनि तवेण तए णं तवतेयं उस चंदिम नाव नवगेविजयविमाणपत्य मे नळं दूरं बीती. सिरीसउच्च सोभेमाणे सोभेमाणे चिट्ठति । तेणं कालेणं
वयति, बीतीवतित्ता सव्वट्ठसिद्धे विमाणे देवत्ताए उववधे तेणं समएणं रायगिहे नयरे गुणसिले चेइए सेणिए राया।
थेरा तहेव उत्तरति जाव इमीमे आयारभंमेति जंत त्ति न. तेणं कानेण तेणं समएणं समणे जगवं महावीरे समोसढे,
गवं गोयमे तहेवपुच्चति, पुच्छतित्ता जहा खंदयस्म नगद परिसा निग्गया, सेणिो निग्गो, धम्मकहा, परिसा नि
वागरेति जाव सव्वट्ठसिधे विमाणे उबवणे । धामस्स णं ग्गया तए ण से सेणिए राया समणस्स अंतिए धम्म सो
भंते ! देवस्स केवश्यं का लिई पन्नत्ता। गोयमा! तेतीसं चा निसम्म समणं भगवं वंदति, नमसति, नमसतित्ता एवं
सागरोचमा विती पाता। से णं भंते ! ततो देवमोगाओ बयासी-इमेसि गते ! इंदनतिपामोक्खाणं चउदसएई
कहिं गच्छहिति कहिं मिजिकहिति ? । गोयमा! महाविदेहे ममाणसाहस्सीण कयरे अणगारे महादुक्करकारए चेत्र महा.
वासे सिजिहिति०५,एवं खबु जंबू समशेणं जाव संपत्तेणं निजराए चेव ?। एवं खलु सेणिया! इमासिं इंदत्तूतिपामो
पदमस्स अज्य णस्स अयमढे पणत्ते। अण०३वर्ग?अ० क्खाणं चउदसएहं समणसाहस्सीणं धो अाणगारे महायु-|
धान्यक-न० । कुस्तुम्भरीनामके धान्यभेदे, दश० ६ अ०। करकारए चेव महानिज्जराए चेव । से कोसि णं जंते ! एवं धनगर-धान्यकर-न० । स्वनामख्याते पुरो, यत्र विमलजिनेन बुच्चति-इमासिंजाव साहस्सी धम्मे ग अणगारे णं महा
प्रथमभिक्षा लब्धोति । आ० म.१.१खाम। मुक्करकारए चेव महानिजराए चेवा एवं खलु सेणिया! तेणं
धमाजक्ख-धन्यवत-पुं० । ऋषजपुरस्थकररामकोद्यानम्थे यके,
विपा०२ श्रु० ५.अ.(तत्कथा 'भद्दणंदि' शब्दे वदयते) कालेणं तेणं समएणं काकंदीनामं नयरी होत्या उप्पि पासायवासिए विहरति। तते ॥ अहं अहाया कयाइ पुवा
धएणणिहि-धान्यनिधि-पुं० । कोष्ठागारे सौकिके निधिभेदे,
स्था० ५ ० ३ उ०। णुपुचि चरमाणे गामाणुगामं दुःज्जमाणे जेणेव काकंदी नयरी जेणेव सहसंबवणे उज्जाणे तेच उबागए अहा
धाणापत्यय-धान्यपस्यक-न। धान्यमानविशेषे, व्य०१० पमिरूवं उग्गई संजमेणं • जाब विहरामि, परिसा निग्गया |
धएपणापडक-धान्यपिटक-न० । धान्यप्रस्थके, व्य०१०। तहेवण्जाव पव्वतितेजाव विलमिव ० जाब अहारे।ते । ध
धएणपुंजियसमाणा-पुजितधान्यसमाना-स्त्री०। खोलनपूतएणस्स णं अनगारस्स पदाइसरीरवस्मतो सच्यो जाव उच-1
विशुद्ध पुजीकृतधान्यसमाना मकल तिचारकचवरविरहेण
बब्धस्वस्वनावस्थात् पुञ्जिनस्य धान्यविशेषणस्य परनिपाताप्रा. मोभेमाणे नवसोजेमाणे चिट्ठति,से तणतुणं मेगिया! एवं बु.।
कृतस्यात् (स्था०) प्रवज्यानेदस्था०४०४००। चति-इमासिं च च उद्दससहस्साणं धम्मे अणगारे महा
धाप्पमाण-धान्यप्रमाण-न०मानमेय प्रमाणं, धान्यविषयं मामुक्करकारए महानिज्जराए चेव । तते ए से मेणिए गया
| नं प्रमाण धान्य प्रमाणम्। मानप्रमाणभेद, अनु०। (धान्यप्रसमणस्स नगवो अंतिए एअमटुं सांचा निसम्म हतुट्ठ०। माणं 'माण' शब्दे वक्ष्यते)
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(२६६३) निधानराजेन्द्रः |
धममाण
धामाण - धान्यमान न० । धान्यप्रमाणे, नि० चू० १ ० । धामासफल - धान्यमाषफल न० । पोमशइवेत सर्पपाऽऽत्म के हिरण्याऽऽदिपरिमाणभेदे, स्था० = ठा० । धरण्य - धन्यक - पुं० । ' धरणग' शब्दार्थ, स्था० १० वा० । विविधान्यमाना स्त्री कि गोखुरम्मतया विक्षिप्तं धान्यं तत्समाना विक्षिप्तधान्य समाना, विकिप्तस्य धान्यविशेषणस्य परनिपातः प्राकृतत्यात् । स्था० ४ ठा० उ० । या हि सहसमुत्पन्नातिचारकच वरयुक्तत्वात् सामम्यन्तरापेकितया काल दोपलभ्य स्वस्वभावा सा धान्यवि
समान स्था० ४०
४ उ० ।
भयविरयिमाणा विरचिताना श्री० । खलक एव यद्वितिं विसारितं वायुना पूतपुञ्जीकृतं धान्यं तसमाना विरह्नितस्य धान्यविशेषणस्य परनिपातः प्राकृतत्वा त् । स्था० ४ ० ४ ० । या हि लघुनाऽपि यत्नेन स्वस्वभाव लप्स्यत इत्युक्तझकणे प्रव्रज्याभेदे, स्था० ४ ०४ उ० ॥ यमाणा संकर्षितान्यमानाखत्क र्षितं वदाकर्षितं खलमानीतं धान्यं तत्समाना | संकर्षितस्य धान्यविशेषणस्य परनिपातः प्राकृतत्वात् । स्था० ४ ठा० ४ उ० । या हि बहुतरातिवापेतत्वाद् बहुतरकाल प्राप्तव्यस्वस्वभाषा साधान्यसािना इत्युक्षणे प्रत्या स्था० ४ ठा० ४ उ० ।
पराविपापानि श्र०पण नेपभाबा
वृषेऽपि मेघे शस्य निष्पत्तिस्तादृशी नोपजायते । व्य० १० उ० । धरणाउस - देशी - कथ्यमानाऽऽशीर्वादे, दे० ना०५ वर्ग ५० गाथा । धरणागार - धान्यागार न० कोष्टागारे, नि० ० ८ उ० । धावनिपान्यावाप्तिी० पला, "फमिह धान्या
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वाप्तिः । " बो० 9 विव० । चापान्याह राजनगरस्येनाप्र धानश्रेष्ठिनि श्र० चू० १ ० । ऋषभपुरस्थस्तूपकर एडकोद्यानवास्तव्ये नृपे, विपा० २ ० २ श्र० । ध० र० । ( तरकथा
"
' मद्ददि' शब्दे )
धत्त - धत्त - पुं० । बहुबी जके वनस्पतिभेदे, जी०१ प्रति० । निहिते, त्रिo | आ०म० १ ० २ खराम । ननु " दधातेहिः" ||७|४४२॥ इतिहिशब्दाऽप्रदेशस्तादितमिति किम च्यते ?, प्राकृते देशीपदस्याविरुद्धत्वान्न दोषः । श्रथवा धत्त इति मित्थवदव्युत्पन्न एव यदृच्छाशब्दः । श्राव० १ श्र० । घात - त्रि । वातीति धः,ध आत्तो यस्मिन् स घातः, निष्ठातस्य" जातिकालादिभ्योऽनादनात को
पन्नाः ॥। ६ । २ । १७२ ॥ इति परनिपातः अथवा घेनाऽऽतो गृहीतो धात्तः । निहिते, आय० १ अ० । घमण-पत्र चम्पतेऽनेन
क्रूरे च । त्रि० । अग्निसंयोगे, न० । “वीयणधमणाद्दिधारणा । " श्राचा० नि० १ ० १ ० ७ उ० । धर्माणि धमनि स्त्री० । धम- अनि वा ङीप् । नामचाम, उत्त० २ अ० । वाव० । ० । प्रश्न भ० “नव धमशीओ।" धमन्यो
धम्म
रसवदा नामयः । तं । शिरायाम्, उत्त० पा० २ अ० | कोकरे, नाडीमा डुवे धमवितरेतु" धम म्यः कोष्ठक हृद्यन्तराणीति । विपा० १ ० १ ० | दडविला सिन्याम् ग्रीवायाम, हरिद्रायां च । वाच० । धमणिसंतय-निमंततधनमनितो
०
व्याप्तः । उत्त० २ अ० । नामी याते. झा० १०१ श्र० " किं से ध माणसंतए ।" धमनी संततो नाडी व्याप्तो, मांसकयेण दृश्यमाननामी कत्वात् । न० २ ० ५ उ० । यस्य शरीरं नशाभिर्व्याप्तं दृश्यत इत्यर्थः । उत्त० २ श्र० । धमनयः शिरास्ताभिः संततो व्याप्तो धमनि संततः । शिरानिर्व्याप्ते, उत्त० पाई० २ अ० । धमणी धमनी - स्त्री० ।' धमणि ' शब्दार्थे, उत्त० २ श्र० । धमधर्मेत- घमघमायमान- त्रि० । धमधमेति वर्णव्यक्तिमिवोल्पादयति, झा० १ ० ६ श्र० । घमघमेघोस-घमघमायमानघोष त्रि० । धमधमायमानो धमधमेति वर्णव्यक्तिमिवोत्पादयन् घोषः शब्दो यस्य स तथा । वादा १०९० धमद्दिसी देसी नारा दे०म० वर्ग ६१ गाथा धमास - धमास - पुं० । वृक्षभेदे, ल० प्र० । कपोतले श्याया वर्णकमधिकृत्य " धमाससारे वा । प्रज्ञा० १७ पद | धम्म- धर्म - पुं० | न० । धृ-मन् । दश० १ ० । स्वनावे, दर्श०१ तस्य । स्था•। आचा० । दश० | दशा० । ज्ञा० । विशे० । सूत्र०। उत्त०। “धम्मस्सनावोति एगठा धम्मो ति वा सभावोति वा दोविएगा।" नि०चू०२० उ० । परिणामः स्वभावः शक्ति इतिपर्यायाः । स्था० वा० । धर्माः सदभाविनः, क्रमभाविनश्च पर्य्याया इति । स्था० २४० १३० । "सव्यं धम्मं जातिजीवादित्यस्यनावमुपयोग स्पष्यादिकं भुताssदिरूपं वा । स० १० सम० । लोहो सुस्त धम्मो । " विशेष। विशेषे, भाचा० १० ८ ० ८३० ।
C
(१) धर्मधर्मिणारे कान्तेन भेदेऽभ्युपगम्यमाने धर्मिणो निःस्वनावताऽऽपत्तिः, स्वभावस्य धर्मत्वात्तस्य च ततोऽन्यत्वात् स्वो नावः स्वभावः, तस्यैवाऽऽत्मीया सत्ता, न तु तदर्थान्तर धर्मरूपं ततो न निःस्वभावताऽऽपत्तिरिति चेत्, न, इत्थं स्वरूपसत्ताऽभ्युपगमे तदपरसता सामान्ययोगकल्पनाया वैयअभिनययेकान्तेन धर्मपि
सर्वान ह्यज्ञेयस्वभावं ज्ञातुं शक्यते इति । तथा च सति तदजावप्रसङ्गः, कामिदमानवाचा
यस्यापि यस्य कस्यचित्कदाचित पार्थनाये माम
राम्रपत्यादभावाऽध्वनि हिराध संजयन्ति तथाऽनुपलब्धेः । श्रन्यश्च परस्परमपि तेषां धम्मांणाकामदाम्युपगमे लाना भावाभ्युपगमा
यदि स्थि कान्त भेदपक्षे धम्मंधमिजावां, नाऽप्येकान्तजे पक्के, यतस्तस्मिन्नज्युपगम्यमाने धर्ममात्रं वा स्यात्, धम्मिमात्रं वा ? | अन्य चैकान्त मेदानुपपत्तेः, अन्यतराभावा वा अन्यतरस्याप्यजावः, परस्परनान्तरीयकत्वात् । धर्म नान्तरीयको दि धर्मी, धर्मनान्तरीकाश्च धर्माः ततः कथमेकानावे पररूपावस्थानमिति ? | कल्पितो
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(२६६४) अभिधानराजेन्दः ।
धम्म
धर्मम्मिभाव,ततोन दूषणामति चेनहि वस्त्वभावप्रसन्मान हिधर्मधर्मिस्वभावरहितं किञ्चिदस्विति, धर्मर्मिनावश्व क. पित इति तदभावप्रसङ्गः । धर्मा एव कल्पिता न धर्मः, तत्कथमभावप्रसाइति चेत, न, धर्माणां कल्पनामात्रभावत्वाभ्यु. पगमेन परमार्थतोऽसरवान्युपगमात्, तदभावे च धर्मिणोऽप्यभाचाऽऽपत्तिः। अथ तदेवैक खन्नकणं सकलसजातीयविजातीयव्यावृष्येकस्वभावाः धर्मिव्यावृत्तिनिवन्धनाश्च या व्यावृत्तयो भित्रा श्व विकल्पितास्ता धर्मास्ततो न कश्चिदोषः । तदप्ययुक्तम् । एवं कल्पनायां वस्तुनोऽनेकान्तात्मकताप्रसक्तेः। अन्य. था सकलसजातीयविजातीयव्यावृत्तयोगान दियेन निजस्व. भावेन घटाद्व्यावर्तते परस्तेनैव स्तम्नादपि, स्तम्भस्य घ. टरूपताप्रसक्तेः। तथाहि-घटाव्यावर्तते घटव्यावृत्तिस्थभावतया स्तम्नादपि चेत् घटल्यावृत्तिस्वभावतयैव व्यावर्तते, तर्दि बलात् स्तम्भस्य घटरूपताप्रसक्तिः। अन्यथा-ततः तत्स्वजाच. तया व्यावृश्ययोगात् । तस्माद्यतो यतो व्यावर्तते तत्तद्वधावृतिनिमित्तभूताः स्वभावा- अवश्यमन्युपगन्तव्या. ते चानेका. न्सेन धर्मिणो भिन्नाः, तदनावप्रसङ्गात् । तथा च-तदवस्थ एव पूर्वोक्तो दोषः, तस्माद्भित्रा अभिन्नाश्च । नेदाभेदोऽपि धर्मध. मिणोः कथमिति चेत् । उच्यते-८ यद्यपि तादात्म्यतो ध. मिणा धर्माः सर्वेऽपि लोलीभावेन व्याप्ताः, तथाऽप्ययं धर्मी, पते धर्मा ति परस्परं भेदोऽप्यस्नि, अन्यथा तद्भावानुपपत्तिः। तथा च सति प्रतीतिबाधा, मिथो भेदेऽपि च विशिष्टान्योज्यानुवेधेन सर्यधर्माणां धर्मिणा व्याप्तत्वादभेदोऽप्यस्ति । अ. न्यथा तस्य धर्मा इति प्रसमानुपपत्तेः । ०। सम्म । (२) अथ चैतन्याऽऽदयो रूपाऽऽदयश्च धम्मां अात्माऽऽदेघंटा. ऽऽदेश्व धार्मिमणोऽत्यन्तं व्यतिरिक्ता अपि समवायसबन्धेन संब. सन्तो धमिधर्मव्यपदेशमनुबते, तन्मतं दूषयन्नाह
न धर्मधम्मित्वमतीव भेदे, वृत्त्याऽस्ति चेन त्रितयं चकास्ति । इडेदमित्यस्ति मतिश्च वृत्ती,
न गौण भेदोऽपि च लोकवाधः॥७॥ धर्मम्मिणोरतीय नेदेऽतीवेत्यत्रेवशन्दो वाक्यालकारे । तं च प्रायोतिशब्दारिकवृत्तेश्च प्रयुजते शाब्दिकाः। यथा-"श्राव. जिता किश्चिदिव स्तनाम्याम!""उद्वृतः कश्व सुखावह परे। पाम्" इत्यादि । ततश्चैकाम्तभिन्नत्वेऽङ्गीक्रियमाणे धम्मम्मित्वं न स्यात्। अस्य धर्मिण मेधर्माः, एषां च धर्माणामयमाभयन्तो धर्मीत्येवं सर्वप्रसिद्धो धर्मम्मियपदेशो न प्राप्नोति, तयोरत्यन्तभिन्नत्वेऽपि तत्करपनायां पदार्थान्तरधर्माणामपि विवक्तितधम्मम्मित्वाऽऽपाएवमकेसति परः प्रत्यवतिष्ठतेवृत्याऽस्तीति अयुतसिकामामाचायाँऽऽधारततानामिह प्रत्यय. हेतुःसंबन्धः समवायः । स च समवयनात्समवाय इति । द्रव्यगुणकर्म सामान्यविशेषेषु पश्चसु पदार्थेषु वर्तना इत्तिरिति चा
च्यायते। तया वृस्या समवायसंबन्धन तयोर्धम्र्ममणोरि. तरेतरविनिरिवतत्वेऽपि धर्मधर्ममव्यपदेश इष्यते । इति नानन्नरोक्तो दोष शति । अत्राचार्यः समाधते-चेदिति । यद्येवं तव मतिः, सा प्रत्यकप्रतिक्किप्ता, यतो न त्रितयं चकास्तिभयं धी, इमे चास्य धर्माः, अयं चैतत्सम्बन्धनिबन्धनं समचाय इत्येतस्त्रितयं वस्तुत्रयं न चकास्ति, ज्ञानविषयतया न प्रतिभासते । यया किल शिलाशकलयुगलस्य मिथोऽनुसं
धायकं रालाइदिव्यं तस्मात्पृथक् तृतीयतया प्रतिभासते, नैवमत्र समवायस्याऽपि प्रतिभानम । किन्त योरेव धर्मधमिमणोः इति शपथप्रत्यायनीयोऽयं समवाय इति भावार्थः । किंचायं तेन वादिना एको नित्यः सर्वव्यापको मूर्तश्च परिकल्ल्यते, ततो यथा घटाऽऽश्रिताःपाकजरूपाऽऽदयो धाःस. मवायसंबन्धेन समवेतास्तथा किं न पटेऽपि?, तम्यैकत्वनित्यत्वब्यापकत्वैः सर्वत्र तुल्यत्वात् । यथाऽऽकाश पको नित्यो व्यापकः, अमूर्तश्च सन्सः संबन्धिभिर्युगपदविशेषेण संबध्यते, तथा किं नायमपीति विनश्यदेकवस्तुसमवाया. भावे च समस्तवस्तुसमवायानावः प्रसज्यते । तत्सदवच्छेदकनेदान्नायं दोष इति चेदेवमनित्यत्वाऽऽपत्तिः । प्रतिवन्तु स्वजाबभेदादिति । अथ कथं समवायस्य न झाने प्रतिजासन, यतस्तस्येहेतिप्रत्ययः सावधानं साधनम् । इहप्रत्ययश्चानुभवसिद्ध एव । इह तन्तुषु पदः, महात्मनि शानमिह घटे पाऽऽदय इति प्रतीतेपलम्भात । अस्य च प्रत्ययस्य केवलधर्मधर्म्य. मालम्बनत्वादस्ति समबायाऽऽस्य पदार्थान्तरं तकेतु, इति प. राशङ्कामन्निसंधाय पुनराह-हेदमित्यस्ति मतिश्च वृत्ताविति । हेदमिति हेदमिति आश्रयाऽअयिभावहेतुक इहप्रत्ययो वृत्तावप्यस्ति समवायसंबन्धेऽपि विद्यते, चशब्दोऽपिशब्दार्थः, तस्य च व्यवहितसंबन्धः,नथैव च व्याख्यातम् । इदमत्र हद. यम-यथा त्वन्मसे पृथिवीत्वानिबन्धात्पृथिवी, तत्र पृथिवावं पृथिव्या एव स्वरूपमस्तित्वाच्यं,नापरं वस्त्वन्तरं,तेन स्वरूपेणव समं योऽसावभिसंबन्धः पृथिव्याः,स एव समवाय इत्युच्यते, "प्राप्तानामेव प्राप्तिः समवायः" इति वचनात् । एवं समवायत्वा. जिसंबन्धासमवाय इत्यपिकिंन कल्यते यतस्तस्यापि यत्स. मवायत्वं स्वस्वरूप, तेन सा संबन्धोऽस्त्येव । अन्यथा निःस्व. भावत्वात शशविषाणवदवस्तुत्वमेव नवेत्। ततश्च इह समवाये समवायित्वमित्युल्लेखेन इहप्रत्ययः समवायेऽपि युक्त्या घटत एव । ततो यथा पृथिव्यां पृथिवीत्वं समवायन समवेतम्, समवायेऽपि समवायत्वमेवं समवायान्तरेण संबन्धनोयं, नद. प्यपरणेत्येवं दुस्तराउनवस्थामहानदी। एवं समवायम्याऽपि समवायत्वान्निसंबन्धे युक्त्या पपादिते साहसिक्यमासमय पुनः पूर्वपक्कवादी वदति-ननु पृथिव्यादीनां पृथिवीत्यादिसंबन्धनिबन्धनं समवायो मुख्यस्तत्र स्वतलाऽऽदिप्रत्ययाभिव्य. अधस्य सगृहीतसकलाबाम्तरजाति लक्षणव्यक्तिभेदस्य सामा. न्यस्योद्भवात् । इह तु समवायस्यैकत्वेन व्यक्तिभेदाभावे जातेरनुभूतन्वागीणोऽयं युष्मपरिकल्पित हेतिप्रत्ययसाध्य: समवायस्वाभिसंबन्धः तत्साध्यश्च ममवाय इति । तदेतन्न विपश्चितश्चमत्कारकारणम् । यतोऽत्रापि जातिरुजयन्ती केन निरुध्येत व्यतेरभेदेनेति चेत । न तत्तदवच्छेदकवशात्तभेदोपपत्ती व्यक्तिभेदकल्पनाया निवारत्वात । श्रन्यो हि घटसमधायोऽभ्यश्च पटसमवाय इति व्यक्त पव समवायस्यापि व्याक्तनेद इति । तत्सिकी सिद्ध एव जात्युद्भवस्तस्मादन्यत्रापि मुख्य पव समतायः, इहप्रत्ययस्योभयत्राप्यन्यजिचारात् । तदेतत्सकल सपूर्वपक्कं समाधान मनसि निधाय सिद्धान्तवादी प्राऽऽह-न गौण इति योऽय जेदः स नास्ति, गौणलकणाभावात् । तसक्षणं चेत्यमाचक्षते-"अव्यभिचारी मुख्यो-विकलोऽसाधारणोऽन्तरश्च । विपरीतो गौणोऽर्थः, सति मुण्ये धीः कथं गाणे११"तस्माद्धर्मधर्मिणोः संबन्धेन मुस्यासमवायः,समवाये च समवायत्वालिसबन्धे गौण इत्ययं दो नानात्वं नास्तीति
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(२६६५) अभिधानराजेन्द्रः |
धम्म
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नावार्थः । किं च योग्यमिह तन्तुषु पट इत्यादिप्रत्ययात्समवा. सायनमनोहरले नपुंसकादम रथम पर स्वादिव्यहारस्यालक लपादानामपि इह पटे तन्तय इत्येव प्रतीतिदर्शनात् । इह भूतले घटानाव इत्यत्रापि समवायप्रसङ्गात् । अतएवाहअपि च लोकबाध इति । अपि चेति दूषणाच्युच्चये । लोक प्रामाणिक लोकः सामान्यलोकश्च तेन बाधो विरोधो लोकबाधस्तदप्रतीतव्यवहारसाधनात् बाधशब्दस्य "ईहाऽऽद्याः प्र स्वयजेतः" इति पुंखिङ्गता तस्मादर्मिणोरविश्वमा वलक्षण एव संबन्धः प्रतिपत्तव्यो नान्यः समवायाऽऽदिः । इति काव्यार्थः ॥ ७ ॥ स्या० ।
(३) धर्मानुरूपो हि सर्वत्रापि धर्मी । यथा काठिन्यं प्रति पृथिवी, यदि पुरुषः कान्विजायोराचिस नवेच तत्र भवति तस्माद चेतनाः पुरु ब्राः । तथा चोक्तम्
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वाइस भावममुचं, विसयपरिच्छेयगं च चेयन्नं । विवरीय सहावाणि य, छूढाणि जगप्पसियाणि ॥ १ ॥ भो, हमे भगाये।
अणुरुवत्तानावे, काविशजलाण किं न भवे ? || २ || " श्र० म० १ अ०२ खएम। जीवपुद्गलानां गतिपर्यायेण धारणाद धर्मः। धर्मास्तिकाये. भ०२० श० २ उ० । अनु० । “गे धम्मे।" धर्मो धर्मास्तिकायः । स० १ सम० । स्था० । धर्मो धर्मास्तिकायो गत्युपष्टभगुणः । स्था० २ ० १ ० । (वक्तव्यता 'धम्मत्थिकाय' शब्दे मायाम् धर्मः स्थिति, समय, या मर्यादेत्यन थौन्तरमिति । श्रा० ० २ श्र० । प्रति० । श्राचारे, पृ० १ उ० १ प्रक० । उत्तः । धर्म्मो यतिश्राकाचारवक्षण इति । ध० २ अधि दुर्गती प्रपततो जीवान् धारयति सुगतौ च तान्स्थापयतीति धर्मः । स्था० १ ० ।" दुर्गतिप्रसृतान् जजन्तून् यस्माद्धारयते पुनः । धसे चैतान् शुभे स्थाने, तस्माधर्म इति स्मृतः ॥ १ ॥ " नं० । श्रा० चू० । आव० | ओघ० । अ०म० । ल० । दश० । पश्चा० पा० सूत्र । इत्युक्तवकणे दुर्गतिगर्त्तनिपतजन्तुजातधरणप्रवणपरिणामपूर्वके ( पश्च ० १ विव० ) कुशलानुष्ठाने, पञ्चा० ४ विव० । सुत्र० । दुर्गनगनपातनमे इसे १ तत्व संसा करणस्वभावे, सूत्र० १० प्र० । स्वर्गापवर्गमार्गजूते, प्रा. चा० १ ० ३ अ० १ ० । दर्श० । ० ० । श्राव । अज्युदने, (१०) म
परिणामे स्वानुवादात्म णामरूपाविति । श्राव०४ अ० सुत्र० । (पुण्यभङ्गास्तष्कव्यता च 'स' शब्दे या) सम्यग्दर्शनाऽऽदि के कर्मकयकारणे श्रापरिणामे ० २ ० ० सम्यग्दर्शन सरगुणसं इतिस्वरूपो धर्म इति मं सानद] [न] रण 55स्मक इति । तं सम्यग्दर्शन जावज्ञान चारित्राऽऽत्मकं धर्ममिति । सूत्र० १० १५० | श्रुनचारित्राऽख्याऽश्म के कर्म कय कारणे जीवस्य त्मपरिणामे, सूत्र० २ श्र०५ श्र० । धर्मो भावतश्चारि
1 I
धर्मे धर्महेतुत्वात् श्रुतधर्मश्चेति । दश० १ ० । स० । आ० ० । धर्मो द्विविधः श्रुतधर्मश्चारित्रधर्मश्चेति । श्राव०५ अ० स० ॥ भ० । प्रति० । ० । पं० सू० । श्र० । स्था० । जं०। संथा० प्रश्न० सुत्र० । आचा० । उत्त । पा० । धर्मः संसा करणः नायमिति सूत्र ६६७
धम्म
श्रु०६श्र० । उत्त० स० । धर्मः क्षायिकचारित्राऽऽदिरिति । स्वा०३ ०१ ४० सू० दुगेतिनिषेधेन शोभन
तचारित्राऽऽख्यमिति सूत्र० १० ११ अ० | स्था० । अव० । " धम्माणं कासवो मुदं । " धर्माणां श्रुतधर्माणां चारित्रधर्माणां काश्यप मुवर्तते सर्वेऽपि तेनैव प्रकाशिता इत्यर्थः । उत्त० २५ प्र० । सर्ववित्प्रणीतेऽहिंसाऽऽदिक्षणे सम्यक्त्वे, दर्श० १ तत्व | सूत्र० । दश० । कान्त्यादि के श्रमणधर्मे, दश० ६ ० | प्रब० । न ते धम्मविऊ जणा ।" क्षान्त्यादिको दशविधो धर्म इति । सूत्र० १० १ श्र० १ ० । प्रति० उस० पा० स्था० श्रावण | प्राणातिपातविरमणाऽऽदिके श्रावकधर्मे, दश० ६ श्र० । सूत्र० । दानissदिके श्रावकधर्मे च । संथा । धर्मास्तित्वं विशेषावश्यके था" समासु तुल्यं विषयासुतु सती साप्ती सच फलं किमि देि नां सोऽस्ति न कोऽपि धर्मः १॥ १ ॥ " विशे० । (१९१७ गायादी ) ( विस्तरेखानुमानादिना सरिक 'कम्म' शब्दे २२२) कान
नु
तर मायुपेये इति शब्दे प्रभाग ४२६ पृष्ठे प्रोफम् )
.
(४) धर्मदाय
वचनादविरुद्धाद्यदनुष्ठानं यथोदितम् । मेष्पादिनासंविधं कर्म इति कीयते ॥ ३ ॥
उदयते इति वचनमागमः स्मानमनुत्यर्थः लोपे पञ्चमीयं यदनुष्ठानमिह लोक परलोकावपेदय हेयोपादेययोरर्थयोरिव शास्त्रे वक्ष्यमाणलक्षण्योर्हानोपादानलक्षणा प्रवृत्तिरिति तद्ध इति कीर्त्यते इत्युक्तरेण योगः । कीदृशाद्वचनादित्याह श्रविरुद्धात् कषच्छे तापेषु श्रविघटमानात, तविधिप्रतिषेधपमोचनं कपिप गम कारिक्रियोपदर्शनं बेदशुद्धिः, विधिप्रतिषेधतद्विषयाणां जीवाऽऽदिपदार्थानां च स्याद्वादपरीकया यथात्म्येन समर्थन चन्दिविधिप्रतिषेधरूपता
नयपालना पनि नभावादता इति।" तथाविरुद्धं वचनं जिनमे निमित्त वचनस्य हि बातमन्त रागद्वेषमोहपारसम यो
,
पति रागद्वेषमोहरूपात रिपुनितिशाचौपदिशब्दाभ्युपगमा निमित्त शुद्धय नावान्नाजिन प्रणीतवचनमविरुद्धं यतः कारणस्वरू पानुविधायिकार्य, तन दुष्टकारणाऽऽरब्धं कार्य मघुष्टं भवितुमर्ह निजदिकारणव्यवस्थोपरमप्र
सङ्गात् पचासेषु तीर्थापेषु रागादि किशोरकरणव्यपदेश विकिि
नमुपलभ्यते, मार्गानुसारिका प्राचिन कपि जनसमूलस्थाय टुकमुपदेश"सम्ययदुवाल अजिक्या
या
तो सव्यं सुंदरं तमि " ॥ १ ॥ इति । कीदृशमनुष्ठानं धर्म इस्याह -" यथोदितम् " यथा येन प्रकारण कालाऽऽद्याराधनानु. सारका प्रतिपादितं तव वचने इति गम्य
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(२६६६) अन्निधानराजेन्डः।
घग्म
म, अन्यथाप्रवृत्तौ तु तवेषित्वमेवाऽऽपद्यते न तु धर्मः। यथो. क्तम्-" तत्कारी स्यात्स नियमा-त्तद्वेष) चेति यो जडः । श्रा. गमार्थे तमुलक्ष्य, तत एव प्रवर्तते" ॥१॥ इति । धर्मदासक्षमाश्रमणैरप्युक्तम्-"जो जहवायं न कुण, मिछादिछी तमोर को प्रमो?। बई मिच्चतं. परम्स संकं जमाणो" ॥शा इति । पुनरपि कीशमित्याह-मैत्र्यादिभावसंमिश्रम् । मैज्यादयः मैत्रीमुदिताकरुणामाध्यस्थ्यलकणा ये भावा अन्त:करणपरिणामाः तत्पूर्वकाश्च बाह्यचाष्टाधिशेषाः सत्वगुणाऽधिकविश्यमानाऽविनयेषु तैः संमिश्रं संयुक्तं, मैञ्यादिभावानां निःश्रेयसान्युदयफाधर्मकल्पद्रुममूलत्वेन शास्त्रान्तरेषु प्रतिपादनात्, तत्र समस्तसत्वविषयः स्नेहपरिणामो मैत्री १, न. मनप्रसादाऽऽदिभिर्गुणाधिकष्वभिव्यज्यमानाऽन्तर्भक्तिरनुरागः प्रमोदः२.दीनाऽऽदिष्वनुकम्पा करुणा ३ अरागद्वेषनायो माध्यस्थ्यमिति ४। तदेवंविधमनुष्ठानं धर्म इति दुगतिप्रपतज्जन्तुजातधारणात्स्वर्गाऽऽदिसातौ धानाच धर्म इत्येवंरूपत्वेन कीर्यते शब्द्यते सकलाकल्पितभावकल्पनाकल्पनकुदाले सुधीभिरिति । नम्वेवं वचनानुष्ठानं धर्म इति प्राप्तं, तथा च प्रीतिजक्यसङ्गानुष्ठानेवव्याप्तिरिति चेन्न, वचनव्यवहारक्रियारूपधमस्यैवात्र सक्ष्यत्वेनाव्याप्स्यनावादिति । वस्तुतः प्रीतिभक्तित्वे इच्छागत. जातिविशेषी, तवजन्यत्वेन प्रीतिभक्त्यनुष्ठानयोजेदः, वचना. नुष्ठानत्वं वचनस्मरणनियतप्रवृत्तिकत्वम, पतत्रितयभित्रानुष्ठानत्वम् असङ्गानुष्ठानत्वं निर्विकल्पस्वरसवाहिप्रवृत्तिकसंवा । इह तु वचनादित्यत्र वेदात्प्रवृत्तिरित्यत्रेव प्रयोज्यत्वापिका पञ्चमी, तथा च वचनप्रयोज्यप्रवृत्तिकत्वं बकणमिति न कुत्राप्यव्याप्तिदोषावकाशः, प्रीतिभक्त्यसङ्गानुष्ठानानामपि व. चनप्रयोज्यत्वानपायात। "धर्मचित्तप्रनयो, यतः क्रियाऽधिकरणाऽऽश्रयं कार्यम् । मनविगमेनैतत् खमु, पुष्पयादिनदेष विज्ञेयः ।।.२॥ रागाऽऽदयो मला ख-वागमसद्योगतो विगम एषाम् । तदयं क्रियात पव हि, पुष्टिश्चित्तस्य शुरूस्य ॥ ३॥ पुष्टिः पुण्योपचयः, शुद्धिः पापकवेन निर्मलता। अनुबन्धिनि द्वयेऽस्मिन,क्रमेण मुक्तिः परा शेया ॥४॥" (पो.
विव०) इत्यादि पोमशन्धानुसारेण तु पुष्टियुझिमश्चित्तं भावधर्मस्य सवण,तदनुगता क्रिया च व्यवहारधर्मस्योत पर्यवसन्नम्। प्रति. पादित चेत्यमेव महोपाध्यायश्रीयशोविजयगाणिभिरपि स्वकतद्वात्रिंशिकायाम्। इत्थं च शुझानुष्ठानजन्या कर्ममतापगमनक्षणा सम्यग्दर्शनाऽऽदिनिर्वाणबीजवानफला जीवशुद्धिरेव धर्मः। यच्चेदाऽविरुद्धवचनादनुष्ठान धर्म इत्युच्यते, तत्तूपचारात । यथा-नमुलोदकं पादरोगाएतेन व्यवहारजावधर्मयोरुभयोरपि नवणे उपपादिते जवतः, भावकणस्यव्येपचारेणैव संज. चात्, अन्योऽन्यानुगतत्वं च तयोस्तत्र तत्र प्रसिद्धमिति ? ॥३॥ प्रदर्शितं धर्मलकणम् । अमुमेव धर्म भेदतः प्रभेदतश्च वि. भणिषुराहस द्विधा स्यादनुष्ठातृ-गृहिव्रतिविजागतः । सामान्यतो विशेषाच्च, गृहिधर्मोऽप्ययं द्विधा ॥४॥ स यः पूर्व प्रवक्तुमिष्टो धर्मों द्विधा द्वाच्या प्रकाराभ्यां याद भवेत् । कुत श्याह-"अनुष्ठातृगृहिवतिविभागत इति।" अन-
घातारौ धमानुष्यायको यौ गृहितिनौ तयोविभागतो विशेपात, गृहस्थधर्मो यतिधर्मश्चेति भावः । तत्र गृहमस्यास्तीति गृही, तकर्मश्च नित्यनैमित्तिकानुष्ठानरूपः, तानि महानतानि विद्यन्ते यस्मिन् स व्रती, तकर्मश्च चरणकरणरूपः । तत्र च गृहिधर्म विशिनष्टि-'गृहिधर्मोऽपीति । अयं साकादेव इदि वर्तमानतया प्रत्यक्षो गृहिधर्म उक्तलक्षण:, किं पुनः सामान्यधर्म इत्यपिशब्दार्थः। द्विधा द्विभेदः, वैविध्यं दर्शयति. सामान्यतो विशेषाञ्चेति । तत्र सामान्यतो नाम सर्वविशिष्टज. नसाधारणानुष्ठानरूपः, विशेषात् सम्यग्दर्शनाणुवताऽऽदिप्रतिपत्तिरूपः, चकार उक्तसमुच्चय इति ॥४॥ ध०१ अधिः । (गृहिधर्मः 'गिहिधम्म' शब्दे तृतीयन्नागे GED पृष्ठे एव्यः)
(.) अथ लोकोत्तरमाहधम्मो बाबीसविहो, अगारधम्मोऽणगारधम्मो य । पढमो य वारसविहो, दसहा पुण बीयत्रो होइ॥१॥ धम्मों द्वाविंशतिबिधः सामान्येन द्वाविंशतिप्रकारः, अगारधर्मो गृहस्थधर्मः, अनगारधर्मश्च साधुधर्मः । प्रथमश्चागारधर्मो द्वादशविधः । दशधा पुनर्द्वितीयोऽनगारधर्मो भवतीति गा. थासमासार्थः ।। १२॥ दश०६अ। उपा० । पश्चा• । स्था० । (यतिधर्मः 'जधम्म' शब्देऽस्मिन्नेव भागे १३६४ पृष्ठे द्रष्टव्यः)
(६) व्यासार्थ चाहसम्मत्तमूलमवय-पणगं तिन्नि न गुणवया होति । सिक्खावयाइँ चनरो, वारसहा होइ गिहिधम्मो ॥२॥ तत्र सम्यक्त्वं निःसङ्गेऽपि देशबनाऽऽयातमिथ्यात्वमोहनीयकममलपरिणामः, तन्मूलमाद्यं प्रथमं यस्य तत्सम्यक्त्वमूलम् , श्रणनि सघूनि व्रतानि अणुव्रतानि, महावतापेक्षया तेषामतिसूक्ष्मत्वात् । यदि वा-अनु पश्चात् महाव्रतकथनापेक्या कथनीयत्वेन व्रतानि अनुवतानि, तेषां पश्चकमणुव्रतपञ्चकमनुव्रतपञ्चकं वा । (तिमित्ति) संख्ययैतानि,तुशब्दस्यैवकारार्थस्वात् त्रीण्येव न तु पञ्चचत्वारि वा,तेषामन्यथारूढत्वात्।किम् ?,गुणवतानि,प्राकृतत्वात् पुंल्लिङ्गता,व्रतानि गुणव्रतानि भवन्ति जायन्ते, श्रावकधर्म इत्यध्याहारः । चतुश्चत्वारि शिकाs. भ्यासस्तद्रूपाणि व्रतानि चतु:शिक्षावतानि, तैः सहितः समन्वितः, इतिशब्दस्यह लुप्तदर्शनाद् व्रत इति श्रावकधम्मों द्वादशधा द्वादशप्रकार श्दमत्र हदयम-सम्यक्त्वमूखमणुवतपञ्चकं श्रावकधम्मी भवति, त्रीणि गुणग्रतानि च चतु:शिक्कापदसहितश्च श्रावकधम्मो भवति । यद्वा-सम्यक्त्वं मृलमस्य सम्यक्त्व. मूलः,नपुंसकता तु प्राकृतप्रजवा । अणुव्रतानां पञ्चकं यत्र सोअणुव्रतपञ्चकः,प्राकृतवशाचान्ययानिर्देशः ततः पञ्चावतिका, शेषं पूर्ववदिति गाथार्थः। दर्श०२ तव ।
तथा चपाणे य णाश्वाएन्जा, अदिन्नं पि य णादए।
सादियं ण मुसं बृया, एस धम्मे कुसीमो ॥ १४ ॥ • प्राणप्रियाणां प्राणिनां प्राणान्नातिपातयत् । तथा परेणादनं दन्तशोधनमात्रमपि, नाददीत न गृहयात्। तथा-सहाऽऽदिना मायया वर्तत इति सादिकं समायम,मृषाबादंन यात्। तथाहि-परवचनार्थ मृपावादोऽधिक्रियते, सच न मायामन्तरण भवतीत्यतो मृषावादस्य माया आदिनूता वर्तते। इदमुक्तं भव. ति-यो हि परवश्वनाध समायो मृषावादास परिहियते । यस्तु
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धम्म
संयमगुप्त्यर्थे न मया मृगा उपलब्धा इत्यादिकः स न दोषाये. ति यः प्रा निर्दिः नारिय (बुसीमउत्ति) छान्दसत्वान्निर्देशार्थस्त्वयम् । वस्तूनि ज्ञानाऽऽदनि, तद्वता ज्ञानाऽऽदिमत इत्यर्थः । यदि वा ( बुसीम त्ति ) वश्यस्य आत्मवशगस्य, वश्येन्द्रियस्येत्यर्थः ॥ १९ ॥ अपि च-अतिक्रमं ति वाया मासाविन पत्थ सम् संबुदे दंते, भाषणं सुसमाहरे ॥ २० ॥ (कादि) प्राणिनामतिकर्मीका माताति क्रमं वा मनोऽत्रष्टब्धतया परतिरस्कारं वा, इत्येवंभूतमतिक्र मं वाचा मनसाऽपि न प्रार्थयेत् । एतद्व्यनिषेधे व कायाति क्रमो दृरत एव निषिद्धो भवति । तदेवं मनोवाक्कायकृतका रितानुमतिनिध नवकेन भेदेनातिक्रमं न कुर्यात्तथा यमनेन तपसा वा दान्तः सन् मोक्कस्याऽऽदानमुपादानं सम्यदर्शनादिकं सुश्रूयुक्तः सम्यग्विस्रोतसिकारहित आदत आ ददीत, गृहीयादित्यर्थः ॥ २० ॥ सूत्र० १० ० (७) अधुना यतिधर्मस्यावसरः । यद्वा सम्यगज्यस्तश्राबधर्मस्यातितीयस्यैकान्ततो भवभ्रमणविमुखस्य संयतातिथि वसुखाभिलाषातिरेकस्य यतिधर्मकरणनोत्पद्यते, अतस्तत्स्वरूपनिरूपणमा
खंती य मद्दवज्जव, मुत्ती तत्रसंजमे य बोधव्वे । सर्व सोयं किं च वधं च जधम्मो ॥४॥
( २६६७ ) अभिधानराजेन्द्रः |
प्रायः प्रतीतार्थैव, नवरमाद्यपदचतुष्टयेन कषायजयः प्रतिपादितः तपः पुनद्वादशत्रकार, ताम्यतोऽवसेयम् । संघमा स तदशविधः । यत उक्तम्-" पञ्चाऽऽश्रवाद्विरमणं, पञ्चेन्द्रियनिप्रदः कषायजयः । दण्डप्रयविरतिश्चेति संयमः सप्तदशभेदः ॥ १ ॥ "सत्यं सर्वथाऽलोकपरिहरणं शौचं पचनक्रिययोरसिंचन सदाचारमुच्यते ततो न किञ्चनमकिञ्चनमकिञ्चनस्य नाव आकिञ्चन्यमरून्यतेत्यर्थः । यतिधर्म्मो भवतीति सर्वत्र योजनीयम् । मुक्तिपदोपादानेऽप्याकिचनस्य अन्यावादा किन पदोपादानं विशेषद्योतनार्थ म विशेष संयोपनिमितं किशिमकेपणीय मुपकरणं धारयन्नपि मुकतोपेत एव भवति। ननु पुनरति जडताsधमना दिगम्बर परिकल्पनया मुक्तिमान्, तस्या - संयमादिदोषत्वेनानिमतत्वात् तर्हि संयमोपकारायैव स निताऽपि भविष्यति मुक्ता, नेत्यादसो घातकस्बेमा तिवादिति शब्दः समुचयार्थः। ब्रह्मच ह्मचर्ये, स्त्री सेवा परिहार इति गाथार्थः । दर्श० २ तथ्व। स्था० । तिविहे धम्मे पथाचे । तं जहा पपम्मे, परितधम्मे, अ. किायधम्मे ।
(तिथिदेहाद ) तमेवः स्वाध्यायः एवं चारित्रधर्मः क्षान्त्यादिश्रमणधर्मः । श्रयं च द्विविधोऽपि द्रव्यभावभेदे धर्मे भावधर्म उक्तः । यदाह - "डुविहो उ जावधम्मो, सुयधम्मो खलु चरित्तधम्मो य । सुयधम्मे सज्झाओ, वरितधम्मे लमणधम्मो ॥१॥ " इति । अस्तिशब्देन प्रदेशा ৰच्यन्ते तेषां कायो राशिरस्तिकायः, स चासौ संज्ञया धर्मत्यस्ता युणाः।
श्रयं च द्रव्यधम् इति । स्था० ३ ० ३ उ० ।
धम्म
प्रकारान्तरेण धर्मजेदानाह
तिविहे भगवया धम्मे पष्मत्ते । तं जहा- सुप्रहिज्जिए, सुजाइए, तस्सिए । जया अहिज्जियं तदा - ज्झाइयं भवइ, जया सुज्जाइयं नवइ तया सुतवस्सियं वइ । से सुप्रहिज्जिए सुज्जाइए सुतवस्सिए सुयक्खाए णं भगवया धम्मे पत्ते ॥
" तिविहे" इत्यादि स्पष्टं, केवलं भगवता महावीरेणेत्येवं जगाद सुधर्मास्वामी जम्बूस्वामिनं प्रतीति, कालविनयाssधाराधनेनाधीतं गुरुसकाशात् सूत्रतः पठितं स्वधीतं तथा सुष्ठु विधिना तत पत्र व्याख्यानेनार्थतः श्रुत्वा ध्यातमनुप्रेतिं श्रुतमिति गम्यं सुध्यातम्, अनुप्रेक्कणाभावे तत्वानवग मेनाध्ययनश्रवणयोः प्रायोऽकृतार्थत्वादिति । अनेन भेदद्वयेन श्रुतधर्म उक्तः । तथा सुष्ठु इहलोकाऽऽद्याशंसारहितत्वेन तपसि तं तपस्यनुष्ठानं सुतपसितमिति चारित्रधर्म उक्त इति प्रया यामध्येयमुरतोऽचिनानावं दर्शयति" या " इत्यादि व्यक्तं परं निर्दोषाध्ययनं विना श्रुतार्थाप्रतीतेः सुभ्यातं न भ तितलिया सुपखितं न भवतीति भावः । यदेतत् स्वीताऽऽदित्रयं भगवता वर्द्धमानस्यामि धर्मः प्र इतः (सेति ) स स्वाख्यातः सुष्ठुक्तः सम्यक्ज्ञानक्रियारूपस्वादयन्तिक सुखान्योपारवे निरुपच तिघत्वात् सुगतिधारणादिधर्म इति ना पास सो तो संजोय गुटिक पिस माओोगो, मोक्खो जिणसासणे भणित्र ॥ १ ॥ " इति । णमितिपापा सुतपतिमिति स्था० ३ डा० ४४० (८) द्विविधं धर्मप्रतिषिपादयिषुराह दमजाव धम्मो, दब्बे दब्बस्स दयमेवं वा । तित्ताइसजावो वा, गम्पादित्यी कुलिंगो वा ॥ धर्मो द्विविधः । तद्यथा-झज्यधर्मो, नावधर्मश्च । तत्र इव्ये इति द्वारपरामर्शः । इत्यविषय धर्म उच्यते
I
युक्तस्य धर्मो मूलोजर गुणानुष्ठानं द्रव्यधर्मः, " इह अनुपयुक्तो रूप्यम्" इति वचनात् यमेव या धमन्यधर्मः धर्मास्तिकायः ( तित्तार सहाबो वा इति ) तिक्ताऽऽदिव sorer स्वभावो द्रव्यधर्मः । ( गम्मादित्थी कुलिंगो वलि) सम्बादि विषयः तत्र केषाञ्चित् मा तुला गम्या केषाञ्चिद्गम्येत्यादि तथा कुलिया कुतीर्थिक धर्मो रूव्य धर्मः ।
पाठान्तरम् -
वोडो धम्मो दध्यधम्मो य जावयम्पो य । धम्मस्थिका पद दव्वस्त व जस्स जो जावो ।
सुगमा ।
जावधर्मप्रतिपादनार्थमाह
sह होइ जावधम्मो, सुयचरणे वा सुयम्मि सज्जातो । चरणम्पि समणधम्मो, खंती मुक्ती नवे दसहा ॥ द्विविधो भवति ज्ञावधर्मः। तद्यथा श्रुतः चरण प्रकारः काम्यादिः ।
पाठान्तरम्
जाम होइ विहो, सुयधम्मो खतु चरिधम्मोप सुयधम्मो सज्जातो, चरित्तधम्मो समणधम्मो ॥
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(२६६८) अभिधानराजेन्द्रः।
धम्म
सुगमा । प्रा० म०२० । आ.चु० । धम्मों मुर्गतिगर्ता. (V)धर्मपदमधिकृत्यसूत्रस्पर्शिकनियुक्तिप्रतिपादनाया निपतउजन्तुजातत्राणदानकमः, सोऽपि नामस्थापनाऽव्य जाव
णाम उवणा धम्मो, दबधम्मो अभावधम्मो उ । मेदानियमानश्चतुर्धा संभवति । तत्र नाममो यथा-कस्यचि.
एएसिंणाणतं, वृच्गमि अहाणुपुच्चीए ।। ३ ।। त्पुरुषादेः सचेतनस्य धर्म इति नाम प्रदीयते । स्थापनाध. मों यथा-कस्यचिद्वस्तुनो धर्म ति स्थापना विधीयते-पष (णाम क्वणा धम्मो त्ति) अत्रधर्मशब्दःप्रत्येकमाभसंबध्यते। मया धर्मः पुनः समस्तान्यधार्मिकैर्धर्मबुध्या परप्रतारणबु.
नामधर्मः, स्थापनाधम्मों, व्यधम्मो, नावधर्मश्च । एतेषां स्या वा विधीयमानः सर्वोऽपि ध्यानाध्ययनाऽऽदिः व्यधर्म नानात्वं नेदं वक्ष्ये अनिधास्य, यथानुपा यथानुपरिपाट्यति एवा तथा-स्खदर्शनप्रतिपन्नानां श्रमणाऽऽदीनां चतुणामपि यचे. गाधार्थः ॥ ३६॥ त्यवन्दनप्रतिक्रमणस्वाध्यायाऽऽधनुष्ठानसेवनमविधिनाऽनुपयोगे साम्प्रतं नामस्थापने चुम्मत्वादागमतो नोप्रागमतश्च शात्रनुम तथा-परोपरोधपरचित्तरञ्जनवां पावस्थाऽऽदीनां च यदनु- पयुक्तशरीरेतरभेदाँश्वानादृत्य इशरीरभव्यशरीरव्यतिरिक्तछान तदपि व्यधर्म एव, विवक्षितार्थसाधकत्सादिति । (वि. व्यधर्माऽऽद्यभिधित्सयाऽऽहशेषश्चाऽत्र 'दब्वधम्म' शब्देऽस्मिन्नेव भागे २४७४ पृष्ठे कष्टव्यः) दव्वं च अस्थिकाओ, पयारधम्मो य भावधम्मो य। भावधर्मस्तु-श्रुतचारित्ररूपः साधुश्रावकाऽऽदिभिःसम्यगुपयो
दवस्स पज्जवा जे, ते धम्मा तस्स दव्यस्म ॥ ४०॥ गपूर्वक विधीयते। यच्च प्रामदेशकुअराजधर्मभेदाश्चतुर्विधः,
इह त्रिविधोऽधिकृतो धर्मः । तद्यथा-व्यधर्मः, अस्तितत्र ग्रामधर्मों प्रामाऽचारः, एवं देशाऽऽदिवप्यायोजनीयम्।
कायधर्मः, प्रचारधर्मश्चेति । तत्र व्यं चेत्यनेन धर्मधर्मिमदानादिभेदेन वा चातुर्विध्यम् । तच प्रतीतमेवातो नेह प्रत.
णोः कथञ्चिदभेदाव्यधर्ममाह । तथाऽस्तिकाय इत्यनेन म्यते । दर्श०४ तत्त्व।
तु सूचनात्सूत्रमिति कृत्वा उपलकणत्वादधयचे समुदायतथा च सूत्रकृताङ्गनियुक्ती धर्मस्य नामाऽऽदिनिक्षेपं दर्शयि- शब्दोपचारादस्तिकायधर्म इति । प्रचारधर्मश्चेत्यनेन तु माह
ग्रन्थेन व्यदेशमाह। भावधर्मश्चेत्यनेन तु भावधर्मस्य स्व.
रूपमाह । साम्प्रतं प्रथमोद्दिष्टऽव्यधर्मस्वरूपाभिधित्सयाहणाम ठवणा धम्मो, दव्यधम्मो य भावधम्मो य ।
द्रव्यस्य पर्याया ये उत्पाद विगमाऽऽदयस्तेच धास्तस्य - सचित्ताचित्तमीसग-गिहत्यदाणे दवियधम्मे ॥३॥ | व्यस्य, ततश्च व्यस्य धमा व्यधर्मा इत्यनासंसक्तकाव्य(नाम ठवणेत्यादि) नामस्थापनाजव्यभावभेदाचतुर्धा धर्मस्य
धम्माभावप्रदर्शनार्थों बहुवचन निर्देश इति गाथार्थः ॥ ४०॥ निकेपः। तत्रापि नामस्थापनेऽनादृत्य शरीरभव्यशरीरव्यतिरि
इदानीमस्तिकायाऽऽदिधर्मस्वरूपप्रतिपिपादयिषयाऽऽहतो धर्मः सचित्साचित्तमिश्रभेदात् विधा । तत्राऽपि सचित्त
धम्मत्यिकायधम्मा, पयारधम्मो य विसयधम्मो न । स्य जीवच्चरीरस्योपयोगक्षणो धर्मः स्वभावः । एवमचित्ता- सोध्य कुप्पावणिो , लोगुत्तरसोगिणेगविहो ॥४१॥ नामपि धर्मास्तिकायानां यो यस्य स्वभावः स तस्य धर्म इति। धर्मग्रहणाकास्तिकायपरिग्रहः । ततश्च धम्मास्तिकायतथादि-"गश्लक्खणो धम्मो, ठाणलक्खण अहम्मो य। एवं गत्युपष्टम्भकोऽसंख्येयप्रदेशात्मकोऽस्तिकायधर्म इति । भायणं सव्वदचाण, तह अवगाहलक्खणं ॥१॥" पुलास्ति- अन्ये तु व्याचक-धर्मास्तिकायाऽऽदिस्वभानोऽस्तिकायधर्म कायोऽपि ग्रहणलक्षण इति मिश्रषव्याणां च कारोदकाऽऽदीनां इत्येतच्चायुक्तम् । तत्र धम्मास्तिकायाऽऽदीनां द्रव्यत्वेन तस्य द्रयो यस्य स्वभावः स तमतयाऽवगन्तव्य इति । गृहस्थानांच व्यधम्मांव्यतिरेकादिति । तथा-प्रचारधर्मश्च विषयधर्म एव,तुयः कुलनगरमामाऽऽदिधर्मो गृहस्थेच्या गृहस्थानां वा यो दान
शब्दस्वकारार्थत्वात् । तत्र प्रचरणं प्रचारः, प्रकगम नमिधर्मः स अव्यधर्मः ( सूत्र० )।
त्यर्थः । स एवाऽऽत्मस्वभावत्वाद्धर्मः प्रचारधर्मः । स च किं नावधर्मस्वरूपनिरूपणायाऽऽह
विषीदन्त्येतेषु प्राणिन इति विषया रूपाऽऽदयः तद्धर्म एवा तथा
च धस्तुतो विषयधर्म पवाऽयं यजागाऽऽदिमान् सरयस्तेषु प्र. लोइयनोउत्तरिओ, दुविहो पुण होति जावधम्मो उ।
वतंत इति । चक्षुरादीन् द्रव्यवशतो रूपाऽऽदिषु प्रवृत्तिः प्र. दुविहो वि विहतिविहो, पंचविहो होति णायव्यो ।। चारधर्म इति हृदयम् । प्रधानसंसारनिबन्धनत्वेन चास्य प्रा.
धान्यख्यापनार्थ व्यधर्मात्पृथगुपन्यासः । इदानी जावधर्मः, (लोइय इत्यादि ) भावधर्मो नोप्रागमतो द्विविधः । तद्य
सच लौकिकाऽऽदिभेदजिन्न इति । श्राह च-लौकिकः प्राव. या-लौकिको, लोकोत्तरश्च । तत्र लौकिको द्विविधः-गृह
चनिकः । लोकोत्तरस्वत्र-(ोगो णेगविहो त्ति) बौकिकोस्थानां, पाखण्डिकानां च । लोकोत्तरत्रिविधः शानदर्शनचा.
उनेकविध इति गाथाऽर्थः ॥४१॥ रित्रनेदात् । तत्राऽप्याभिनिबोधिकं ज्ञाने पञ्चधा । दर्शनमध्यौ
तदेवानेकविधत्वमुपदर्शयन्नाहपशमिकलास्वादनकायोपशमिकवेदककाथिकनेदात् पश्चविधम्। चारित्रमपि सामायिकाऽऽदिभेदात् पञ्चविधम् । गाथाक्षरा.
गम्मपभुदेसरजे, पुरवरगामगणगोहिराणं । णि त्वेवं नेयानि । तद्यथा-भावधर्मों लौकिकलोकोत्तरभेदाद सावज्जो उ कुतित्यिय-धम्मो न जिणेहिँ उ पसत्थो वश द्विधा,धिविधोऽपि चाऽयं यथासंख्येन द्विविधत्रिविधः। तत्रैव तत्र गम्यधम्मों यथा दक्विणापथे मातुलदुहिता गम्या, सत्तलौकिको गृहस्थ-पाखण्डिकनेदाद-द्विविधः। लोकोत्तरोऽपि रापथे पुनरगम्यैव । एवं नदयानक्ष्यपेयापेयविनाषा कर्तकानदर्शनचारित्राभेदात् त्रिविधः । ज्ञानादीनि प्रत्येकं त्री-| व्येति । पशुधर्मो मात्रादिगमनलकणः । देशधों देशाचारः एयपि पञ्चधैवेति । सूत्र०१ श्रु० ए०
सच प्रतिनियत पव नेपथ्याऽऽदिलिङ्गभेद इति।राज्यधर्मःप्र.
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(२६) अभिधान राजेन्द्रः ।
धम्म
तिराज्यं चिन्नः स व करादि पुरवरच प्रतिपुरवरं भिन्नः कचित् षोऽपि परमापाप्रतिपादनाऽऽदिलक्षणः । सद्वितीया योषिदान्तरं गच्छतीत्यादिलक्षणो वा । प्रामधर्मः प्रतिग्रामं भिन्नः । गणधर्मो मल्लाऽऽदि गणव्यवस्था यथा लमपादपातेन विषमग्रह इत्यादि । गोष्ठी धर्मो गोष्ठीव्यवस्था । इह व समयः समुदायो गोष्ठी । तदूव्यवस्था पुनर्वसन्ता ऽऽदावेषंक संयमित्यादिला राजचन दुश्तर निप्रद परिपालना - दिरिति । भावधर्म्मता चाऽस्य गग्याऽऽदीनां विवक्कया नावरूपत्वादरुपपदस्य विपति स्वाद लोकिके भाव देशपाऽऽदिभेदकदेश एवानेकस्य सुचिया भाग्ययुको लौकिकः । कुप्राचनिक उच्यते- अलावपि सावद्यप्रायो लौ. किककल्प एच । यत श्राह ( सावजो उ इत्यादि ) श्रवद्यं पापं सहावद्येन सावद्यः । तुशब्दस्त्वेव कारार्थः । स चावधारणे। सा
द्य एव कः?, कुतीर्थिक धर्मश्चरक परिवाजकाऽऽदि धर्म इत्यर्थः । कुतपादन निरादन्ये प्रेका पूर्वकारि निः प्रशंसितः स्तुतः । सारस्नपरिग्रहस्वादू । अत्र बहुवक्तव्यमूतत्तु नोच्यते, गमनिका मात्र फलत्वात्प्रस्तु तव्यापारस्येति गाथार्थः ॥ ४२ ॥ उक्तः कुप्रावचनिकः ।
साम्प्रतं लोकोत्तरं प्रतिपादयन्नाहबुविदो लोगुतारिप्रो, सुयधम्मो खघु चरित्तधम्यो य । सुयधम्मो सज्जाओ, चरितमो समणधम्मो ॥ ४३ ॥ द्विविध पकारो, लोकोत्तरो लोकप्रधानो, धर्म इति वर्त्तते । श्रुतधर्मः, खलु चारित्रधर्मश्च । तत्र श्रुतं द्वादशाङ्गं तस्य विशेषणार्थ किं विशिनष्टि
तथा
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स हि वाचनाssदिभेदाचित्र इति । आह च श्रुतधर्म्मः स्वाध्यायवाचनाऽऽदिरूपस्तस्वचिन्तायां धम्मं हेतुत्वादू धर्म इति । तथा चारित्रधर्मश्च तत्र चर ' गतिभवणयोरित्यस्य " अर्तिलूधूसूखनसहचर इत्रः ।। ३ । २ । १८४ ॥ इति इत्रप्रत्ययान्तस्य चरित्रमिति भवति । चरन्त्यनिन्दितमनेनेति चरित्रं कयोपशमकर्पतस्य भावधारणमशेषकर्मयाय यर्थः । ततधारित्र मेव धर्मश्चारित्रधर्म इति । चः समुच्चये । श्रयं च भ्रमणधर्म एवेत्याह-चारित्रधर्म्मः श्रमणधर्म इति । तत्र श्राम्यतीति श्र मणः " कृत्यल्युटो बहुलम् " || ३ | ३ | ११३ ॥ इति वचनात् कतरि ल्युट्र श्राम्यतीति तपस्यतीति । एतदुक्तं भवति प्रव्रज्यादिवसादारभ्य सकनसावद्ययोगविरती गुरुपदेशादनमाऽऽदि यथाशक्त्या प्राणोपरमात्तपइचरतीति । उक्तं च-" यः समः सर्वभूतेषु प्रसेषु स्थावरेषु च । तपश्चरति शुद्धात्मा श्रमणोऽसौ प्रकीर्तितः ॥ १ ॥” इति । तस्य धर्मः स्वभावः । श्रमधर्मश्च कान्त्यादिलक्षणो वक्ष्यमाण इति गाथार्थः ॥ ४३ ॥ दश० १ ० ।
धर्मजेदार सामान्येन
दविदे धम्मे पते । तं जहा-गामधम्मे, नगरघम्मे, रट्ठधम्मे, पाखंरुमे, कुञ्जधम्मे, गणधम्मे, संघधम्मे, सुयधम्मे, चरितम्, अस्थिकायधम्मे । स्था० १० वा० ।
( कस्य दर्शने कति धर्मजेदा इति 'बाद' शब्दे वच्यते ) (१०) धर्मलचा मित्र सम्बन्धमुपरचयति प्रक
रणकारः
अस्य स्वलक्षणमिदं धर्मस्य बुधैः सदैव विज्ञेयम् ।
६६८
धम्म
सर्वागमपरिशुद्ध पदादिमध्यान्तकरूपाम् ॥ १ ॥
( श्रस्यत्यादि ) अस्य धर्मस्य स्वलक्षणं सक्ष्यते तदितर व्यावृत्तं वस्त्वनेनेति लक्षणम् । स्वं च तज्ञकणं नेति स्व. लक्षयमिदं वचवमा दुवैद्भिः सदेव सर्वकाममेय वि यह संकालयायालयान्यथात्वाभावमुपदर्शयति सगमैः परिशुद्धं निर्दोषं यदादिमध्यान्त कल्याणमादिमध्याबसानेषु सुन्दरमिति योऽर्थः ॥ १ ॥
किं पुनर्धर्मस्य स्वलक्षणमिवादधर्म्मवित्प्रभवो यतः क्रियाऽधिकरणाssश्रयं कार्यम् । मलविगत खलु पुष्टचादिमदेष विज्ञेयः ॥ २ ॥ ( धम्मं इत्यादि ) प्रभवत्यस्मादिति प्रनवः । चित्तरूपत्वाचिनुचरित्रे सिवासी प्रभवः विशेषः। विशेषकर
वित्तमेष परामृश्यते यसाविधिनिषेधविषया । सा च क्रिया कार्य चितनिष्पाद्यत्वात्। तथ स्वरूपेण किपालकणं कार्य कीदृशं यश्चित्तात्प्रवसंत इत्याह-अधिकरणाssश्रयमिह यद्यप्यधिकरणशब्दः सामान्येनाऽऽधारवचनस्तथापि प्रक्रमात् चित्तस्याधिकरणमाश्चयः शरीरं, चित्तस्य शरीरात्वाकार्यधिकरण शरीराऽऽयं यतः प्रवर्त्तते चित्तान्तवित्तं धर्म इत्युक्तम् । चित्तास्प्रभवतीति पुनरुच्यते चित्तस्य । एतत्पुष्ट्यादिमदित्यनेन सह संबन्धो न स्थात् । यत्र इत्यनेनापि केवलमेव चित्तं न गृह्येत । तथा धर्मस्यैव विशेषत्वं स्यान्न वित्तस्य ततश्च चित्तस्य विशेषणपदैरनिसंबन्धो न स्यादिति दोषः । एतदेव चितं
विगमेन रागादिमलापगमेन पुष्टचादिमत् पुष्टिशुद्वियसमन्वितमेष धर्मो विशेष इति ॥ २ ॥
मलचिगमेनैतत्खलु पुष्टिमदित्युक्तं तत्र के मलाः कथं च पुषादिमध्ये चिरात्येवं वक्तुकामनयां श्रमादसमाऽऽदयो मला स्व-स्वागम योग तो विगव एषाम् । तदयं क्रियात एव हि पुष्टिः शुचित्र चित्तस्य ॥ ३ ॥ ( रांगाऽऽदय इत्यादि ) इह मलाः प्रक्रमाश्चित्तस्यैव संधनः परिते से रामाऽऽद यो रागद्वेषमोदा जा तिसंग्रहीताः। पतिमेदेन तु भूयांसः बशम्दावधा रागाऽऽक्ष्य एव नान्ये आगमनमागमः सम्यक्परिच्छेदस्तेन सद्योगः सह्यापारः आगमसहितो वा यः सद्योगः सत् क्रियारूपः । ततः सकाशाद्विराम एषां रागाssदोनां मलापगमः संजायते । तत् तस्मादयमागममद्योगः क्रिया वर्त्तते सर्वाऽपि शास्त्रोक्ता विधिप्रतिषेधाऽऽत्मिका । अत पत्र ह्यागमद्योगात् किवरूपात पुरियमाणस्वरूप शुचि चित्तस्य संभवति ॥ ३ ॥
पुष्टिशुड्यो लक्षणं दर्शयतिपुष्टिः पुण्योपचयः, शाकः पापक्षपेक्ष निर्मलता । अनुबन्धिनि द्वयेऽस्मिन् क्रमेण मुक्तिः परा ज्ञेया || ४ || (पुष्टिरित्यादि) उपचीयमानयना पुष्टिरनिचीयते शुद्धिः पा पक्षपेण निम्नता, पापं ज्ञानावरणीयाऽऽदि च सम्यग्ज्ञानाssगुविधायेण पावती कावि शतोऽपि निर्मलता संभवति सा शुद्धिरुच्यते, अनुबन्धः सन्तानः
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(२६७०) अभिधानराजेन्द्रः।
धम्म
धम्म
प्रवाहोऽविच्छेद इत्यनर्थान्तरम् । स विद्यते यस्य द्वयस्य तदि- राभिशापातिरकस्तेन विजिना विरहिता प्रयत्नातिशयमेव दमनुबन्धि तस्मिन् पुष्टिशुद्धिद्धयेऽस्मिन् प्रत्यकीकृते सति क्रमे- | विधत्तेन त्वौत्सुक्यमिति भावः ॥ ॥ णाऽऽनुपूर्या पुण्योपचयपापलयाच्या प्रवर्कमानाज्यां तस्मिन्
अधुना विजयमादजन्मनि भवान्तरेषु वा प्रकृयमाणधीयस्य जीवस्य मुक्तिः विघ्नजयस्त्रिविधः खलु, विज्ञेयो हीनमध्यमास्कृष्टः । परा ताविकी सर्वकर्मकय अक्कणा शेयेति ॥४॥
मार्ग इह कएटकज्वर-माहेजयसमः प्रवृत्तिफलः॥ ६ ॥ कथं पुनरिदमनुबन्धियं न भवतीत्याहन प्रणिधानाऽऽद्याशय-संविध्यतिरेकतोऽनुबन्धि तत् ।
(विघ्नजयस्त्रिविधः खबु विझेय इति) विघ्नस्थ धर्मान्तराय
स्य जयः पराभवो निराकरणं स त्रिविधस्तिस्रो विधा अस्य भिन्नग्रन्थेनिर्मल-बोधवतः स्यादियं च परा ॥ ५ ॥
ति त्रिविधस्त्रिभेदः। खबुशब्दो वाक्यालङ्कारे। त्रैविध्यमेघाऽऽह( नेत्यादि) (प्रणिधानाऽऽद्याशयसंविद्व्यतिरेकत इति) प्रणि
हीनमध्यमास्कृष्टः हीनमध्यमाच्यां सहित उत्कृष्ट एको होनो धानादयश्च ते श्राशयाश्च वक्ष्यमाणाः पञ्चास्यवसायस्थानावे.
विघ्नजयोऽपरो मायमोऽपरस्तकृष्ट इति । त्रैविध्यमेव निदर्श. शेषास्तेषां सवित्संवित्तिः संवेदनमनुभवस्तस्याव्यतिरेकोऽ. नेन साधम्यगर्भमाह-मार्ग इद कएटकज्वरमोहजयसम इति । भावस्तस्मात्तदाशयसंविय तिरेकेणेतद्वयं पुष्टिशुकिरूपं ना.
मार्ग प्रवृत्तस्य पुंसः कण्टकविघ्नजयसमो ज्वरविनजयसमो नुबन्धि प्रवति, तस्मादेतद्द्वयमनुबन्धिक कामेन प्रणिधा
मोहविघ्नजयसमः । इदमत्र तात्पर्यम्-यथा नाम कस्यचित्पुरुमाऽऽदिषु यतितव्यम् । श्यं च कस्येत्याह-भिन्नग्रन्थेरपूर्वक
षस्य प्रयोजनवशान्मार्गप्रवृत्तस्य करटकाऽऽकीणेमार्गावतीणस्य रणबसेन कृतग्रन्धिभेदस्य तत्प्रभावादेव निर्मलबोधवतो
कपटकबिनो विशिष्टगमनविघातहेतुर्भवति । तहिते तु पथि विमलयोधसंपन्नस्य स्याद्भवदियं च प्रस्तुता प्रणिधानाऽऽद्या.
प्रवृत्तस्य गमनं निराकुलं संजायते । एवं कण्टकविजयसमः शयसंवित् परा प्रधाना ॥५॥
प्रथमो विजयः । कपटकाश्चेद सर्वे एव प्रतिमाः शीतो. प्रणिधानाऽऽदिराशय उक्तस्तमेष संख्याविशिएं नाममादमाह
णाऽऽदयो धर्मस्थानविनदेतवस्तैरनिद्रुतस्य धर्माधिनोऽपि निप्रणिधिप्रवृत्तिविघ्नन-यसिफिविनियोगनेदतः प्रायः।
राकुत्रप्रवृत्त्यसिको। श्राशयभेदश्चायं बाह्यकएटकविघ्नजयनाप. धर्महराख्यातः, शुजाऽऽशयः पञ्चधाऽत्र विधौ ॥ ६ ॥ लक्ष्यते। तथा-तस्यैव ज्वरवेदनाऽभिनूतशरीरस्य बिहलपा. प्रणिधिन प्रवृत्तिश्च विघ्नजयश्च सिद्धिश्च विनियोगश्च पत दन्यासस्य निराकुझं गमनं चिकीपारपि, कमशक्नुवतः कपव मेदास्तानाश्रित्य कर्मणिल्यत्रोपे पञ्चमी । प्रविधिप्रवृत्ति- पटकविप्नादभ्यधिको ज्वरविनस्तज्जयस्तु विशिष्टगमनप्रवृत्तिविजयसिद्धिविनियोगभेदतः (प्राय इति)प्राचुण शास्त्रेषु हेतुनिराकुनशरीरवन परिदृश्यते । इहापि ज्वरकल्पाः शारी. धम्म धम्भवदिभिराख्यातः कथितः शुभाऽऽशयः राजपरिणाम रा पब रोगाः परिगृह्यन्ते । तदभिभूतस्य विशिषुधर्मस्थानाऽऽरापञ्चधा पश्चप्रकारः । अत्र प्रक्रमे विधी कर्तव्योपदेशे प्रतिपादि- धनाऽकमत्वात् । ज्वरकल्पशारीरदुःख बिनजयस्तु सम्यग्धर्मताऽऽशयपश्चकव्यतिरेकेण। पुष्टिशुद्धिलकणं यमनुबन्धि नभ- स्थानाऽऽराधनाय प्रभवति । तस्यैवाध्वनि जिगमिषोः पुरुषस्य पतीति ॥६॥
दिम्मोहकल्पो मोहविघ्नस्तेनानिभूतस्य पुनः पुनः प्रेयमाणस्यातत्र प्रणिधानन्त्रणमाह
प्यध्वनीन गमनोत्साहः कश्चित् प्रादुर्भवति । मोहविघ्नजयप्रणिधानं तत्समये, स्थितिमत्तदधः कृपानुगं चैव । स्तु स्वयमेव मागसम्यकपरिज्ञानात् परैश्चोच्यमानमार्गश्रकानिरवद्यवस्तुविषयं, परार्थनिष्पत्तिसारं च ॥ ७॥
नाम्मन्दोत्साहतापरित्यागेन गमनप्रवृत्तिहतुभवति । इहापि
दिमोहगमनविधमकस्पो मिथ्यात्वाऽऽदि जनितो मनोधिनमःप(प्रणिधानमित्यादि) प्रणिधानं विशेध्यं, शेषपदानि विशेष णानि । तत्समये प्रतिपन्नविवक्तितधर्मस्थानमर्यादायां स्थिति.
रिगृह्यते। तज्जयस्तु मिथ्यात्वाऽऽदिदोषनिराकरणद्वारेण । मनो
विभ्रमापसारकत्वेन प्रस्तुतधर्ममार्गेऽनवरत प्रयाणकप्रवृप्या गममतप्रतिष्ठितमविचलितस्वनावं तदधः कृपानुगं चैव स्वप्रतिप. अधर्मस्थानस्यायोऽधस्ताचे वर्तन्ते जीवा न तावती धर्मपद
नाय संपद्यते। एवं कएटकम्बरमोहविघ्नजयसभत्रिविधो वि. बीमाराधयन्ति, तेषु कृपया करुणया अनुरागमनुगतं तेषु करु.
नक्षय उक्तः। स एव विशिष्यते-प्रवृत्तिफनः प्रवृत्तिधर्मस्थान
विषया फलमस्याऽऽशयावशेषस्य विधन जयसंज्ञितस्येति प्रवृणापरमान तु गुण हीनत्वात्तेषु द्वेषसमन्वितं निरवद्यवस्वविषयं,
त्तिफलः॥॥ निरवयं सावधपरिहारेण यद्वस्तु धर्मगतं तद्विषयो यस्य परार्थ निष्पत्तिसारं च परोपकारमिष्पत्तिप्रधानं चैवस्वरूपं प्र
एवं तृतीयमाशयभेदं प्रतिपाद्य सिद्धिरूपमाशयमाहणिधानमवसेयम् ॥ ७॥
सिधिस्तत्तधर्म-स्थानावाप्तिरिह तात्त्विकी शेया । ___इदानी प्रवृत्तिमाह
अधिकेविनयाऽऽदियुता,ीनेच दयाऽऽदिगुणसारा ॥१०॥ तत्रैव तु प्रवृत्तिः, शुजसारोपायसदगतात्यन्तम् ।
(सिद्धिरित्यादि) सिकिर्नामाऽशयभेदः,साच स्वरूपतः की. अधिकृतयत्नातिशया-दौत्सुक्यविजिता चैत्र ।। ॥ दशी,तत्तकर्मस्थानावाप्तिरिह तारिखकी झेया तस्य तस्य वि. (तत्रैवेत्यादि ) तत्रैव तु विवक्कितप्रतिपन्नधर्मस्थाने प्रवृत्ति.
वक्तितस्य धर्मस्थानस्याऽदिसाऽऽदेरवाप्तिः सिकिरुच्यते । मा स्वरूपा भवति । सा च न कियारूपा कि स्वाशयरूपा, शुभ
च तारिखकादं च विशेषणं तत्तधर्मस्थानावाप्रतारिखकरवपरिसारोपायसंगताऽवन्त बाह्यक्रियाद्वारेण विशेषणं सर्व योज
हारार्थम् । न ह्यताविकी सा सिर्भिवितुर्महति। सा च सिकिनीयम । शुनः सुन्दरः सारः प्रकृधोनपुण्याम्बितो य उपायस्तेन रधिके पुरुषविशेषे सूत्रार्थोनयवेदिन्यज्यस्ततावनामार्गे तीर्थसंगता युक्ता,अधिकृते धर्मस्थाने यत्नातिशयः प्रयत्नाऽऽशय- कल्पे गुरो विनयाऽऽदियुता विनययावृश्य बहुमानाऽऽदिसमस्तस्मात् सा संपद्यते, औत्सुक्यविवर्जिता चैव औत्सुक्यं स्व. विताहाने च स्वप्रतिपत्रधर्म स्थानापेकया हीनगुणे निर्गुणे वा,
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धम्म
(२६७२) धम्म
माभिधानराजन्तः । सामान्यन प्रारिण गरणे दयाऽऽदिगुणसारा दयादानव्यसनपति- स्तु पतदिह प्रस्तुतं भावस्वरूपं धर्मतत्वं नान्यत् परमा योग सदुःखापहाराऽदिगुणप्रधानाधिकहीनगुणग्रहणाद् मध्यमोप- इति । अयं भावः-परमो योगो वर्तते,सच कीरग-विमुक्तिरसः कारफलवत्यपि सा सिद्धिरित्युक्तं भवति ॥१०॥
विशिष्ट मुक्तिविमुक्तिस्तहिषयो रसः प्रीतिविशेषो यस्मिन् एवं सिद्धिमभिधाय तत्फबजूतमेव विनियोगमाह
योगे स विमुक्तिरसा, विमुक्तौ रसोऽस्येति वा गमकत्वात स
मासः। अथवा-पृथगेव पदान्तरं न विशेषेणं,तेनाध्य भावोवि. सिक्केश्चोत्तरकार्य, विनियोगेऽवन्ध्यमेतदेतस्मिन् । मुक्ती रसः प्रीतिविशेषो विमुक्तिरस उच्यते । एतदुक्तं भवतिसत्ययसंपल्या, मुन्दरमिति तत्परं यावत् ।। ११ ।।
भाव पव धर्मतत्वं भाव एव च परमो योगो नाव एव च वि. सिकेश्नोत्तरकार्य विनियोगः सिरुत्तरकालभावि । कार्य
मुक्तिरस इति ॥१३॥ विनियोगो नामाऽऽशयभेदो विज्ञेय इति संबन्धनीयम्। प्रवन्ध्यं ननु च नावाच्बुवन्तोऽवाप्यते इत्युक्तं, शुद्धिश्च पापक्षयण मफसंन कदाचिनिएफसमेत स्थानमहिसाऽऽदि,एतस्मिन् वि. प्रागुक्ता कथं पुनः पापमतीतेऽनादी काले यद् यो नूय प्रानियोगे सति संजानेऽस्वयसपल्याऽविच्छेदसंपरया हेतुनूतया सेवितं तस्यक्त्वा जावमेवाभिलपति न पुनः पापं बहु मन्यते सुन्दरमेतत्पूर्वोक्तं धर्मस्थानम्। इतिशब्दो भित्रक्रमः। परभित्य ने इत्याहन संबम्धनीयो यावत् (तत्परमिति) तकर्मम्थानं परं प्रकृएं अमृतरसाऽऽस्वादः,कुभक्तरसनालितोऽपि बहकालम् । पावसंपन्नमनेन विनियोगस्याऽनेकजन्मान्तरसन्तानक्रमेण प्र.
त्यक्त्वा तत्क्षणमेनं, वाञ्कृत्युच्चरमृतमः ॥ १४ ॥ कृष्धर्मस्थानाचाप्तिहेतुत्वमावेदयति । इदमत्र हृदयम् अहिंसा. दिनकणधर्म स्थानावाप्तौ सत्यां स्वपरयोरुपकारायाऽविच्छेदेन त.
(अमृतेत्यादि) अमृतरसस्याऽऽस्वादस्तं जानातीत्यमृतरसाऽऽस्यैव धम्मस्थानस्य विनियोगो व्यापारः स्वात्मतुल्यपरफलकर्तृ
स्वादः कुभक्तरसलालितोऽपि कुजक्तानां कदशनानां यो रसस्वमनिधीयते । एवं हि स्वयं सिद्धस्य वस्तुनो विनियोगः सम्य
स्तेन सालितोऽप्यभिरमितोऽपि पुरुषो बहुकाल प्रभूतकालं नैर
न्यवृत्याऽत एव" कालावनोरत्यन्तसंयोगे" ॥ २५॥ कृतो जवति । यदि परस्मिन्नपि तत्संपद्यते विशेषेण नियोगो नियोजनमध्यारोपणमिति कृत्वा प्राशयभेदत्वाच्च विनियोग
इति द्वितीया । त्यक्त्वा परित्यज्य ततकणं तस्मिन्नेव कणे,शीस्थाऽबन्ध्यत्वाप्रतिपादनप्रक्रियया स्वरूपोपकारदेतुत्वं दर्शयति
घ्रमेनं कुभक्तरसममृतरसत्वेन वाकृत्यभिजपत्पुरमृतमेव सु. सूत्रकारः ॥११॥
रभोज्यममतमभिधीयते। तद्धि सर्वरससंपन्नत्वात् स्पृहणीयमएवमेतामणिधानाऽऽदीननिधाय कथञ्चित् क्रियारूपत्वप्राप्ता.
तितरां भवति ॥ १४॥ वेगामाशयविशेषत्वसमर्थनायाऽऽह
एवं त्वपूर्वकरणात्, सम्यक्त्वामतरमा इद जीवः । आशयनेदा एते, सवऽपि हि तत्वतोऽवगन्तव्याः ।
चिरकामाऽऽसेवितमपि,न जातु बहु मन्यते पापम् ।।२।। जावोऽयमनन विना, चेष्टा व्यक्रिया तुच्छा ॥ १२ ॥
(पवं वित्यादि) एवं स्वपूर्वकरणात् । एवमेवापूर्वकरणाद.
पूर्वपरिणामात् सम्यक्त्वामृतरस रह जीवः सम्यक्त्वामृतर. आशयभेदा आशयप्रकारा पते पूर्वोक्ताः सर्वेऽपि हि सर्व एव ।
समनुभवद्वारेण जानातीति तज्ज्ञ नुच्यते । चिरकामाऽऽसेवित. कथञ्चित् क्रियारूपत्वेऽपि तमुपलक्ष्यतया ततः परमार्थना
मपि प्रभूतकामाभ्यस्तमति न जातुचित् न कदाचित् बहु मन्यते वगातव्या विज्ञेयाः परिणामविशेषा एते इति । शुनाऽऽशयः प. बहुमानविषयीकरोति पापं मिथ्यादर्शनमोहनीयं तत्कार्य बा अधा त्रिविधो वेत्युक्तं स किंजावादपरोऽथ भाव पवेत्याशङ्का. प्रवचनोपघातादि । इह च कुजक्तरसकल्पं पापमिथ्यात्वाऽऽदि। यामिदमाह-(भावोऽयमिति) अयं पश्चप्रकारोऽण्याशयोजाव
अमृतरसाऽऽस्वादकल्पो भावः सम्यक्त्वाऽऽदिरवसेय इति ॥१५॥ इत्यभिधीयते। अनेन भावेन विना चेटा व्यापाररूपा कायवाडा.
सम्यक्त्वामृतरसको जीवः पापं न बहु मन्यते इत्युक्तम् । नःसङ्गता व्यक्रिया तुच्छा नावविकला किया द्रव्यक्रिया तु
तत्र सम्यग्दृष्टिरपि विरतेरजावात पापं कुर्वन् दृश्यत एवे. ग असारा स्वफला साधकत्वेन ॥१२॥ कस्मात्पुन व्यक्रियायास्तुच्छत्वाऽऽपादनेन भावप्राधान्यमाश्री.
त्याशङ्कयाह
यद्यपि कर्मनियोगात्, करोति तत्तदपि नावशुन्यमबम् । यत इत्याहअस्माच सानुबन्धा-च्छुच्यन्तोऽवाप्यते द्रुतं क्रमशः ।
अत एव धर्मयोगात, क्षि तसिछिमामोति ।। १६॥ एतदिह धर्मतवं, परमो योगो विमुक्तिरसः ।। १३ ।।
यद्यपि कथञ्चित् कर्मनियोगात् कर्मव्यापारात् करोति वि. (अस्माश्चेत्यादि) अस्मात् पूर्वोक्ताद्भावादाशयपञ्चकरूपात् सानुब.
दधाति तत् पापं तनावशून्यमलं तदपि क्रियमाणं पापं भावधात् अनुबन्धः सन्तानस्तेन सह वर्तते यो नावः म सानुब
शून्यमिह पापवृत्तिहेतुभावः विष्टाध्यवसाथस्तेन शून्यमनमधस्त दविनाभूतः,स चाव्यवच्छिन्नसन्तानस्तस्मादेवंविधाद्भावा
त्यथै सम्यग्दृष्टिहिं पापं कुर्वाणोऽपिन भावतो बदु मन्यते । यबुद्धेरन्तःप्रकर्षः शुद्धयन्तोऽवाप्यते प्राप्यते दुतमविलम्बितं
धेदमेव साध्विति । अत एव पापाऽबहुमानद्वारेण । धर्मयोगाकप्रभूनकासात्ययविगमेन क्रमशः क्रमेणाऽनुपूा तस्मिन् ज
म्मत्सिाहाद्धर्मसंबन्धाद्वा क्किप्रमचिरेण ततसिकिमानोति ध. मन्यपरस्मिन्या कर्मक्कयप्रक| बम्यते । ननु चैष एव भावो
मनिष्पत्तिमवाप्नोतीति ॥ १६ ॥ षो०३ विव०। धर्मपरमार्थ पाहोस्विदन्यहम्मतत्वमित्यारेकायां परस्य नि
(११) अस्य स्ववकणमिदं धर्मस्यत्युक्तं प्राक तत्रास्यैव ध. चचनमाह-एतदिह धर्मतत्वम् । अत्र यद्यपि भावस्य प्रस्तुत
मर्मतस्त्रस्य विस्तरेण सिङ्गान्याहस्वारेतदित्यत्र पुंद्विङ्गतायामेष इति निर्देशः प्राप्नोति तथाऽपि
सिकस्य चास्य सम्यग, लिङ्गान्येतानि धर्मेतत्वस्य । धर्मतत्वमित्यस्य परस्य प्रधानापेकया नपुंसकनिर्देशोऽर्थ- I विहितानि तत्वविद्भिः, सुखावबोधाय भव्यानाम् ॥९॥
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धम्म
सिकस्य च निष्पन्नस्य चास्य प्रत्यकीकृतस्य सम्यगवैपरीत्येन प्रशस्तानि वा लिङ्गानि लक्षणान्येतानि वक्ष्यमाणानि धम्मेश्वस्य धर्मस्वरूपस्य विहितानि शखेऽभिहितानि वि परमार्थवेदिनः सुखाय सुराना न निसुखेनैव यानां योग्यानाम् ॥ १ ॥
तान्येव लिङ्गानि स्वरूपतो ग्रन्थकारः पठतिओदार्थ दाक्षिएवं पापजुगुप्साऽय निर्मलो बोधः । लिङ्गानि धर्वसिद्धेः प्रायेण जनमियत्वं च ॥ २ ॥ उदारस्य भाव औदार्य वक्ष्यमाणलक्षणं, दक्षिणोऽनुकूलहतझायो कि निर्देश्यमाणस्वरूपं पापगुप्सा पापरि रः । श्रथ निर्मलो बोधोऽभिधास्यमानस्वरूपः लिङ्गानि वि. ज्ञानदेवनिष्यतेः प्रायेण बाहुल्येन जनयित्व मोकप्रियत्वं च ॥ २ ॥
( २६७२ )
अभिधान राजेन्द्रः ।
साम्प्रतमोदामाद
औदार्य कार्य त्यागाद्विशेषमाश्वमहश्वम् । गुरुदीनादिष्वीच त्याच कार्ये तदस्यम्तम् ॥ ३ ॥ श्रदार्थ नाम धर्मतत्यागात् कृपणभावपारत्यागादतुच्कवृत्या विज्ञेयमाशय महस्वमाशयस्याध्यवसायस्य महवं वित् तदेव विशिष्यते गु
वृद्धि गुरू गौरवाधिकारेयथा पिता क खाssचार्यः एतेषां ज्ञातयस्तथा । वृद्धा धर्मोपदेष्टारो, गुरुवर्गः तां मतः ॥१॥ दीनादिषु बानाधारेषु श्रो चिनवृतिरदिामाद, कार्ये कार्यविषये तददामासमह वा अत्यन्तमतिशयेन विवृतिकारिबा एतद् गुर्यादिषु ॥ ३ ॥० (दाकिors [ ४ ] इत्यादिना दाक्षिष्यलकणं दक्खिशब्दे २४४१ पृष्ठेऽत्रैव भागे गतम् ) ( पापजुगुप्सा [५] इत्यादिना पापजुगुप्सालणं पादेयते ) (निमंत्र [६] इत्यादिना निशब्देव नागे २००४ पृष्ठे गतम् ) ( युक्तम् [9] इत्यादिना जनप्रियत्वव जयति 'पृष्ठे मुकम्
,
*
एवं लादीनि विधिमुखेन प्रतिपाद्य धर्मव्यवस्थितानां पुंसां व्यतिरेकमुखेन विषयतृष्णाऽऽईमां स्वरूपं प्रतिपिपादयिषुदृष्टान्तपूर्वकं विकाराभावमाविभीपयितुमाह
आरोग्य सति यद्याधिविकारा जयन्ति नो पुंसाम् ।
परोग्य, पापविकारा अपि देयाः ॥ ८ ॥
( आरोग्येत्यादि) रोजावे सति जायमाने प दिति यथा व्याधिविकारारोविकारात सामा यवतां तद्वदिति । तथा धर्म्माऽऽरोग्ये धर्मरूपमारोग्यं तस्मिन् सति पापविकारा अपि वक्ष्यमाणा न भवन्तीति विशेषाः । = | पापविकारा ये न भवन्ति तान् विशेषतो निर्दिशतितृष्णा, पत्युर्न दृष्टिसंमोहः ।
मास्य
अरुचिर्न धर्मपथ्ये, न च पापा क्रोधक एमूर्तिः ॥ ५ ॥ तदेवं स्थिते धर्मतत्वयुक्तस्य नास्य पुरुषस्य विषयतृष्णा वयमाणलक्षणा प्रनवति जायते उच्चैरत्यर्थे नरसिंमोहो व च्यमाणलक्षण पत्र अरुचिरभिलाषाभावो न धर्मपथ्ये न धर्म
धम्म
पश्यविषये न च पापा स्वरूपेण पापी कोकपि कोध पत्र मूर्ति कराशब्दः कण्ड्रादिषु पश्यते तस्य तिन्नन्तस्य रूपमेतत् ॥ ९ ॥ बो० ४ विष० । ( विषयतृष्णा लक्षणं 'वियतपदा' शब्दे वक्ष्यते ) ( दृष्टिसंमोहश्च ' दिट्टिसंमोह ' २४१७ पृष्ठे गतः) मोहमाय
धर्मपश्यविषयाया
धर्मज्ञा, तरसास्वादनमुखा चैव । धार्मिकसावाssसक्ति-थ वर्मपथ्येऽरुचिर्लिङ्गम् ||१२|| धर्मेत्यादि धर्मस्य श्रवमविपरीतार्थमान झाडनादरस्तये परमार्थे रस आसक्तिहेतुः तस्याऽऽस्वादस्तस्मिता स्वरसास्वाद मिका ये सवास्तैरसक्तिरसंयोगोऽसंपर्कों धार्मिकस्वासक्तिश्च । धर्मपथ्ये धर्मः पथ्यमिव तस्मिन्नरुचेर्लिङ्गमिति प्रत्येकमभिसंबन्धः करणीयः ॥ १२ ॥
धा
न पापा कोचतिरित्युकं तस्यासिमाहसस्येतर दोपश्रुति-भावादन्त हि यत् स्फुरणम् । कार्यचि को कहते ।। १३ ।।
(सत्येत्यादि) सत्यदोष श्रुतिजावाद सत्यदोष श्रुतिभावाच्चान्तयदिव्यश्यन्तरपरिणाममा भियान्ताका द्वारेण हि यत् स्फुरणं वा रिचा विवा नालोच्य कातस्यं कार्यपरमार्थं तच्चिहं लक्षणं क्रोधकमुतेः क्रोधकरमाः ॥ १३ ॥
मेविषयतृष्णादयो व्यतिरेकमुळे मोकास्तदभावमुद शयन् मैध्यादिगुण संभवमाद
एते पापचिकारा, न प्रजनन्यस्य धीमतः सततम् । धर्मामृतभावान्ति मैत्र्यादयश्च गुणाः ॥ १४ ॥ ( पते इत्यादि) पते पापविकाराः पूर्वोका न प्रभवन्ति न जा यन्नस्य पुरुषस्य धीमतो बुद्धिमतः सततमनवतं धर्मा प्रभावादवानं धर्मभूतं तत्प्रभवसंपन् मैश्यादयश्च गुणा वक्ष्यमाणस्वरूपाः ॥ १४ ॥ मैयादीनामेव लचणमाहपरहितचितामैत्री परदुःखविनाशिनी तथा करुया | परमुष्टिदिता, परदोषोपेक्षयाम्येका ।। १५ ।।
( परेश्यादि) परेषां प्राणिनां हितचिन्ता हितचिन्तनं मैत्री इति सर्वत्र पाकशेषः परेषां दुःखं तद्विनाशिनी तथा क रुणा कृपा, परेषां सुखं तेन तस्मिन् का तुष्टिः परितोषोऽप्रीतिपरिहारो मुदिता परेषां दोषा अविनया प्रतिम क्यास्तेषामुपज्ञामवधीरणमुपेक्षा संभवत्प्रतीकारेषु तु दोषेषु नोपेका विधेया ॥ १५ ॥
गुणान् भावनारूपामभिधाय कृणोप
हाि
एतज्जनप्रणीतं, लिङ्गं खलु धर्मसिद्धिमज्जन्तोः । रामादिसिकिसिक, सिर्फ मकेतुभावेन ॥ १६ ॥ दादर पूर्वोकं सर्वमेाऽऽदिति विषयं जनप्रणीतं जिना कं लिङ्गं लक्षणं, खलुशब्दो वाक्यालङ्कारे धर्मसिद्धिमतः धर्मनिष्पत्ति मज्जन्तोः प्राणिनः पुण्याऽऽदिसिद्धि पायनिय से सिर्फ प्रतिष्ठित सरका
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(२१७३) धम्म अभिधानराजेन्धः।
धम्म रणत्वेनाबश्य हेतुत्वेनेति यावत्। पुण्योपायाश्चत्वारः। यथोक्त- दृढं स्वशक्त्या जातेच्चः, संग्रहेऽस्य प्रवर्तते ॥ २०॥ म्-" दया भूतेषु वैराग्य , विधिदानं यथोचितम् । विशुझा एवमुक्तनीया (तच्छुते) तस्याः धर्मदेशनायाः श्रुतेः श्रवशीबवृत्तिइच । पुण्योपायाः प्रकीर्तिताः॥१॥"आदिग्रहणात
णानरः श्रोता पुमान् अनघो व्यावृपमतत्वप्रतिपत्तिबाधकमिशानयोगपरिग्रहः, ज्ञानयोगोपायपरिनष्पत्तेश्च सद्धेतुत्वेन सि
थ्यात्वमालिन्यः सनत एव ज्ञाततस्वः करकमलतलाऽऽकलित. द्धमेतसिङ्गमिति ।१६/ बो०४ विव०।
निस्तलास्थूशामलमुक्ताफलवच्छाखोचनयनाऽऽलोकितसक(१२) धर्मद्रुममूलप्रतिपादनपरां गाथामाह
लजीवाऽऽदिवस्तुवादः, तथा-(संविग्नः) संवेगमुक्तकणं प्रा. जीवदय सञ्चवयणं, परधणपरिवजाणं सुसीनं च ।
सः सन् जातको बन्धचिकीर्षापरिणामोऽर्थाकम (दृढम्) खंती पंचिंदियनि-ग्गहो य धम्मस्म मृलाई ॥१॥ अतिसूक्ष्माऽनोगपूर्व यथा स्यात्तथा स्वशक्या स्वसामथ्येन जीवाश्चेतनाऽऽदिनिङ्गव्यङ्गया एकेन्धियाऽऽदयः,तेषां दया रक्तः | हेतुभूतेन अस्य धर्मस्य संग्रहे सम्यग् वक्ष्यमाणयोगवन्द
जीवदयोति । हस्खत्वं प्राकृतप्रभवम् । धर्ममूल नवतीति सर्वत्र | नाऽदिशुद्धिरूपविधिपूर्व ग्रहे प्रतिपत्तौ (प्रवर्तते) प्रवृत्तिमाक्रियाश्याहारः कार्यः सत्यं यथार्थ वचनं सत्यवचनं,तदपि परे धत्ते । अढमयथाशक्ति च धर्मग्रहणप्रवृत्तौ भसंभवेन प्रत्यु
आत्मव्यतिरिक्ता जनास्तेषां धनं वित्तं परधनं तस्य परि तागर्थसंभव इति दृढस्वशक्त्योहणं कृतामांत विशेषगृहिसमन्ताद्वर्जन परिदरणं परधनपरिवर्जन, सुष्तु शोभनं शीवं धर्मग्रहणयोग्यताप्रतिपादिता भवति शास्त्रान्तरे चैकविंशसदाचारश्चतुर्थव्रतं त्रा सुशील, भावप्रधानत्वान्निशस्य । स- त्या गुणेमग्रहणा) भवतीति प्रतिपादितम् । ध०१ अधिक। दाचारत्वं चतुर्थव्रतनिःकसङ्कता चेत्यर्थः । कान्तिः कषायोप- । (तेच गुणा 'धम्मरयण' शब्दे बयन्ते) शमः, पञ्चेति पञ्चसंख्यानीन्द्रियाणि स्पशनरसनघ्राण नक्षुःश्रो.
(१५)धर्माधिकारिण:श्राऽऽस्पानि,तेषां निग्रहः, सविषयग्रहण त्यजतावपि रागद्वेषाक- जे पुवुद्याई णो पच्चा णिवाती, जे पुत्रुट्ठाई पच्छा रणं व्याघुटने धर्ममूलं भवति । यद्वा-तानि सर्वारयपि धर्म
णिवाती, जे णो पुब्बुवाई णो पच्चा णिवाती, सेऽवि लक्षणवृक्तस्य मूलानीव मूलानि । अयमत्र भावार्थः- चकारस्यैधकारार्थस्येह संबन्धादेतानि च प्रत्येकं समुदिनानि धर्म
तारिसिए मिया, जे परिमाय लोगमा सयंति ॥ १५॥ महाद्रुमस्य नरसुरशिवसौख्य कुसुमफल प्रदस्य मूलानि, न तु
यः कश्चिद्विदितसंसारस्वजावतया धम्मैचरणकप्रवणमनाः पुनः परपरिकल्पितयागपश्चाग्नितपशून्यारण्यनिवासकृतकारि.
पूर्व प्रवज्यावसरे संयमानुष्ठानेनोत्थातुं शीलमस्येति पूर्वोत्थायी, सभक्ताऽऽदिदानप्रभृतीनि तेषां जीवघातनिष्पाद्यत्वेनाधर्मरू
पश्चाच्च श्रद्धासंबगतया विशेषेण वईमानपरिणामोनो निपापत्वादिति गाथार्थः। दर्श.२ तव । "भक्ष्याभक्ष्यविवेकाच्च,ग.
ती,निपतितुं शीलमस्येति विगृह्य णिनिः। नियतनं वा निपातः, म्यागम्यविवकतः। तपोदयाविशेषाच,स धर्मों व्यवतिष्ठते॥१॥"
सोऽस्यास्तीति निपाती,सिंहतया निष्क्रान्तःसिंहनया विहारी द्वा०द्वा। धर्मावलम्बनानि-"धम्म णं चरमाणस्स पंच निस्सा
च गणधराऽऽदिवप्रथमो भङ्गः। द्वितीयभनं सूत्रेणेव दर्शयन्नागणा पत्ता। तं जहा-काया गणो राया गाहावई सरीरं।"
ह-पूर्वमुत्थातु शीलमस्यति पूर्वोत्थायी, पुनर्विचित्रत्वारक(अस्य व्याख्या'णिस्सागण' शब्देऽस्मिन्नेव भागे २१४ पृष्ठे द्रष्ट
परिणतेस्तथाविधभदितव्यतानियोगात्पश्चाग्निपाती स्यात्, व्या)"दोहिंगणेहिं आया केवलिपास धम्म नभेज सवणया
नन्दिषेण यत् । कश्चिद्दर्शनतोऽपि गोष्ठामाहिलवदिति । तृतीयए।" स्था.१०४ उ०। (विशेषः 'खोवसमिय'शादेतृतीय
भङ्गस्थ चाभावादनुपादानं, स चायम्-(जे णो पुबुझायीत्याभागे ६४. पृष्ठे गतः) (प्रारम्भपरिग्रहाभ्यां बिरताऽविर- दि) नो पूर्वोत्थायी पश्चान्निपातीति । तया ह्यत्याने सति नितस्य धर्मलाभासाभौ 'भारंभ 'शब्दे द्वितीयभागे ३७१ पृष्ठे
पातोऽनिपातो वा चिन्यते, सति धर्ममणि धम्मैचिन्ता, तद्रष्टव्यो)
स्थानप्रतिषेधे च दूरोत्सादितैव निपातचिन्तेति। चतुर्थभर (१३) धर्मानधिकारिण पाह
दर्शयज्ञाह यो हि नो पूर्वोत्थायीन च पश्चान्निपाती सोऽविसुत्तेण चोइओ जो, अप्पं उद्दिमिश्र तं पमिवज्जे ।
रत पव गृहस्थः सनोत्थायी भवति, सम्यग्विरतेरभावान्नापि
पश्चान्निपाती, नत्थानाचिनाजावित्वान्निपातस्य,शाक्याऽऽदयोवा सो तत्तवायबज्को, न होइ धम्मम्मि अहिगारी॥॥
चतुर्थनापतिता द्रष्टव्याः, तेषामप्युभयासावादिति । ननु च सूत्रेण चोदित इदमित्थमुक्तमचं यः सवः अन्यं प्राणिनमु.
गृहस्था एवं चतुर्थमङ्गपतिता युक्ता वक्तुं, तथादि-तेषां साव. द्दिश्याऽऽम्मतुल्पमुदाहरणतया तन्न प्रतिपद्यते सौत्रमुक्त, स ए
घयोगानुष्ठानेनानुत्थानतया प्रतिज्ञामन्दराऽऽरोपानावान्निपाताभूतस्तत्ववादबाह्यः परसोकमङ्गीकृत्य परमार्थवाद बाह्यो न भ.
जावः, शाक्याऽऽदिरपि चतुर्थ जङ्गपतित इत्यत आह-(सेऽवि पति धर्मे सकलपुरुषार्थ होतावधिकारी, सम्यग्विवेकाजावा.
इत्यादि)सोऽपि शाक्याऽऽदिगणः पञ्चमहावतभाराऽऽरोपणाभादिति गाथार्थः । पं० व०४द्वार | अथ कलिकालिमा
वेन सायद्ययोगानुष्ठानतया नो पूर्वोत्थायी, निपातस्य च तत्मलिनान्तरात्मानः सन्तः सन्तोऽपि किमेवंविधश्रावक श्रमण
पूर्वकत्वानोपश्चान्निपातीत्यतस्तादृश एव गृहस्थतुल्य एष स्यागुणगणं श्रोतुं श्रहां कर्तुं वा शक्नुवन्ति न सर्वेऽपोत्याह
त, श्राश्रवद्वाराणामुभयेषामप्यसंवृतत्वात्. उदायिनृपमारकव(रयण स्थिणो वीत्यादि ) अथवा-किमिदंयुगीनमानवाः सर्व.
त् । अन्येऽपि ये सावद्यानुष्ठायिनस्तेऽपि ताहका एवोत द. यैकान्ततो निराकार तामवलम्ब्येत्थंभूतगुणगणमदातुं दातुं
शेयन्नाह (जे परिक्षाय इत्यादि) येऽपि स्वयूथ्या: पावस्थासमर्था भवन्ति । दर्श० ३ तस्व ।
ऽऽदयो द्विविधयाऽपि परिझया लोकं परिज्ञाय पुनः पचनपाच. (१४) अथ सफर्मग्रहणयाम्यतामाह
नाऽऽद्ययं तमेव लोकमन्वाधिता अन्वेषयन्ति वा तेपि गृहस्थसंविग्नस्तच्छुतेरेवं, झानतो नरोऽनघः।
तुल्या एव नयेयुः ।। १५५॥ ६६६
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धम्म
( २६७४ )
अनिधानराजेन्द्रः ।
स्वीकारद्वारार्थमाह
शिवाय मुशणा पयोदेवं वह आणाखी पंडिते आणि, पुवावरायं जयमाणे, सया सीलं संपेहाए सुपि• या भने कामे इमेज व जुकादि, किं ते जु
जेण बज्जओ १ ।। १५३ ।। (द)
स्थाननिपातादिकं प्रामुपन्यस्तं तत्के नावलोकनेन (याति) झारवा मुनिना सीता प्र बेदिनं कचितम् इदं द स्मिन्मौनी प्रवचने व्यवस्थितः सन् आज्ञां तीर्थकृतोपदेशमाकावितुं शीलमस्येत्याज्ञाकाक्षी आगमानुसारप्रवृत्तिकः, कर्वभू तः पथिमतः सदसद्विवेकशोऽस्निहः स्नेह रहितो रागद्वेषविप्रमुनि गुरुनिर्देश यज्ञवान् स्यादित्येतदाह-पु. म्यावर इत्यादि) पूर्व के प्रथमो यामोऽपररात्रं रात्रेः पाश्चात्य एतद्यामद्वयमपि यतमानः सदाचारमाचरत् मध्यवर्त्तियामद्वयमपि यथोक्तविधिना स्वपन् वरात्रादिकं वि
•
,
त्रियातिपादनेन चापि प्रतिपादितैव भवति, आद्यन्तग्रहणे मध्यग्रहणस्यावश्यं जावित्वात् । किञ्च - ( सया सीलं इत्यादि ) सदा सर्वकालं शीलम अष्टादशभेदसहस्रयं, संयमं वा । यदि वा चतुर्धा शीलम् -महाव्रतसमाधान तिम्रो गुप्त पञ्चेन्द्रदमाकपायनिग्रह संत्रे मोनुपातमा कामो यात् शीलस्यादित्याह यो दिवशी संप्रेक्षणफलं निःशीच निर्वतानां च नरकाssदिपातविकारोऽगमात् भवेत् स्यात् काम इच्छामदनकामरहित इति । तथा नास्य भंभा माया, लोभेहा विद्यत इत्य कामकाप्रतिषेधाच मोदीदयः प्रतिषिद्धः, तत्प्रतिषेधाच्च शीलवान् स्थादिति, पतदुकं नवतिया स्वाद अकामोऽभम्भबेत्यनेन बोल गुणा गृहीता, उपवाहत ततः स्याद् अहिंसकः सत्यवादीत्याद्यपि द्रष्टव्यम् । ननु चान्यनानायुकस्यानिदीतलीश्व परा क्रममाणस्यादसी सहारिणोऽपि मे यथेापदेशं प्र वर्त्तमानस्यापि नाशेष कमला पगमोऽद्यापि भवतीत्यतस्तथाभूतमसाधारणकारणमाचव, येनाहमाश्येवाशेषमसकलरहितः स्याम् च भवदुपदेशादपि सिदेनापि सह युद्ध, मेवा प्रदिपस्त सूत्रवाद - मेवे इत्यादि अनेनैवोदारिकेण शरीरेपोन्योन्यात्मकेन विषयसुखपिपासुना स्वैरिणा सार्द्ध युध्यस्व इदमेव समाचितारो वशीकुरु किमपरेण वा हातस्तेन है, अन्तराषि कर्मा सबैति
तो नतोऽपरं करमस्तीति ॥ १३३ ॥ किं वियमेव सामग्री अगाधसंसारार्णवे पर्यटतो भवकोटिसहस्रेष्वपि दुष्प्रापेति दर्शयतुमाह
जुकारिहं खलु दुख्नहं जहित्यकुसलोहं परिष्ठाविवेगे जासिते, चुने हुनाले गम्पाति रज्जति, अस्सि चे प तिरूवंसि वा छांसि वा से हुए चिपडे सुकी, हा लोग इस कम्म परिक्षाय सव्वसो से हिंसति संजमती यो गम्मती, वेदमाणो पचेयं सायं
घम्म
छापसी पारभे कंचणं सम्झोए एगप्पमुद्दे विदिसपतिष्ठेपिविष्टचारी आरए पयासु ।। १५४ ॥
(काहिं इत्यादि) पतीदारिकं शरीरं भावयुद्धा खरवधारणे । स च मिश्रक्रमो दुर्लजमेव दुष्प्रापमंच, उ - ननु पुनरिदमतिदुर्लन-मगाधसंसारजलधिविष्टम् । मा नुष्यं स्वद्योतक - तद्धिताविलसितप्रतिमम् " ॥ १ । इत्यादि । पायान्तरं वायुरियं च झतानायें संग्रामयुद्धंपरीबहाऽऽदिरिपुयुद्धं स्वार्ये, तद् दुर्लभमेव तेन युध्यस्व ततो भवतोशेषको मोक्षो भावीतिनाषार्थ जावाई शरीरं कवि वेशेषकर्म विध स्वामिनी कति सप्तभिरहनियां नयेर्भरत श्चिदपार्द्ध पुन परावर्सेन, अपरो न सेत्स्यत्येव, किमित्येवं यत श्राह (जहाकुलेदि इत्यादि ) यथा येन प्रकारेणात्रास्मिन् संसारे कुराले परिका विवेकः परिज्ञानविशिष्टता करवोऽध्यवसायः संसारवैचित्र्य देतु भांतिः प्रातः सच मतिमता तथैवाभ्युपगन्तव्य इति तदेव परिज्ञाननाना दर्शयन्नाह - ( चुप इत्यादि ) लब्ध्वाऽपि दुर्लनं मनुजावं प्राप्य च मोकैकगमनहेतुं धर्मे पुनरपि कर्मोदयात् तस्मात्
तो गर्ना गर्न आदियां कुमारयौवनावस्थाविशेषाणां से गर्भावः तेष्वेव गायेमुपयाति यचैनिः सार्द्धं मम वियोगमा हायेतदा भवति । यदि वा धर्मात् युकोषिषु यातनास्थानेषु सङ्गमुपयाति ।" रिज्जर ति " वा क्वचित्पाठः, रीयते गच्छतीत्यर्थः । स्यात् क्वोक्तमिदम् ?, यत्प्राग् व्यावर्णितमित्याह( अस्ति चेयं पबुच्चा रूवंसि वा कूणांस वा से हु ए संविद्धप मुणी, अन्नदा ढोगमुवेहमाणे, श्य कम्मं परित्राय सव्वलो से हिंसति संजमती यो पगन्जर ) अस्मिया प्रवचने तत्पूर्वी कोयते प्रयत
मामय इति दर्शया-रूपे चरिद्रयविषये श्रध्युपपन्नो, वाशब्दादम्यत्र वा स्पर्शरसाऽऽदौ क्षणे प्रवर्तते, ''दिसायलो दिसा प्रवादय चानृतस्तेयाऽऽदाविति, रूपप्रधानत्वाद्विषयाणां रूपित्वाध रु पोपादानम्, आश्रवद्वाराणां च हिंसाप्रधानत्वात्तदादित्वाच तदुपादानमिति पालो रूपादिविषयनिधिस गर्भादयते मार्गे (मुच्यते यस्तु पुनर्गर्माssदिगमनहेतुं ज्ञात्वा विषयसङ्गं धर्मादच्युतो हिंसाद्याश्रमद्वारेज्यो निवर्त्तते स किंभूतः स्यादित्याह स जितेन्द्रियो दुधापक अद्वितीयो मुनासंविप सम्यग्विद्धस्तारितः क्षुः पन्था मोक्षमार्गों ज्ञानदर्शनचारित्राssख्यो येन स तथा । ( संविद्धन ति) वा पाठः संविजयो स्वर्थ यो दिसादिज्यो निवृत्तः स एवमुनिः मार्गः इति प्रायार्थः । किञ्च सम्येन प्रकारेसान्यचाविवयवायाभिनृतं हिंसादिकर्मसु प्रवृतं लोकम गृहस्थ लोकं वा पाखएिकश्लोकं वा, पचनपाचनौदेशिक सचि हाराssदिप्रवृत्तमुत्प्रेक्ष्यमाणोऽन्यथा वाऽऽत्मानं निवृत्ताशुजन्यापा
संस्यादिति
ए कि कुर्यादित्याह इति पूर्वोके तु कर्मदुपादानं च सर्वतः परा परिया प्रायायानपारायापि सर्वतः परिहरेत् । कथं परिहरतीत्याह - ( से ण हिंस
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धम्म
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ति ) स कर्मपरिहर्त्ता कायवाङ्मनोभिर्न हिनस्ति जन्तून्, न घातयत्यपरेप्यनुमन्यते पापादानसं यमयति, सप्तदशप्रकारं वा संयमं करोति संयमयति, आचारक्विवन्तं चैतत् संयम इवाऽऽचरति संयमयति । किं च (नो पगन्ज ) 'गल्भ ' धाष्टर्ये, श्रसंयमकर्मसु प्रवृत्तः सन् नभगनत्यमायाति रहस्यको जिद्वेति न पृटनामवलम्बते व उपलक्षणार्थवादस्य नोपयोमुनि मेष्यति न जात्यादिति
लुम्पति । किमा कुर्यादिमा सि उत्प्रेक्षमाणोऽवन् प्रत्येकं प्राणिनां वा मनोनुकूलं ना यमुनान्यः सुखीति नापि परखेन दुखतः प्राणिनो नदियात् इति प्रणिनां प्रत्येकं खातमा कि कुर्यादित्यस्यते येन सः साधुकारा शी वर्णाऽऽदेशी वर्णाभिलाषी सन्नारभते कञ्चन पापारम्भं सर्वस्मिन्नपि लोको यदि वा तपः संयमाऽऽदिकमप्यारम्भ यशः कीर्त्यर्थे नाऽऽरजते, प्रवचनोद्भावनार्थे त्वारभते । सद्भावका धामी
( २६७५ ) अभिधान राजेन्द्रः ।
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" प्रावखनी धर्मकथी, वादी नैमित्तिकस्तपस्वी च । विद्यासिद्धः ख्यातः, कविरपि बोद्भावकास्त्वष्टौ ॥ १ ॥ " यदि यावदादेशी
क्रिया श्रारजेत, किंजूतः सन्नेतत् कुर्यादित्याह - ( गप्पमुढे) एको मरहितत्वात् संयमो वा रामरहितत्या
प्रगतं मुखं यस्य स तथा, माके तदुपाये वा दत्तैकदृष्टिर्न कञ्चन पापाssरम्भमारभेत इति । किञ्च मोक्ष संयमाभिमुखा दिक् तसोयाविदितां विद्दिक
मी स्यात् कुमार्गपरित्यागेन न पा
स्वये (नारी) र अनुष्ठानं निधिस्पारो निर्विधावासोतीति चिरीि चेत् ?, यतः प्रजास्वरतः प्रजायन्त इति प्रजाः प्राणिनः, तत्रारतः तदारम्जादू निवृत्तो निर्ममत्वो वा यश्च शरीराऽऽदिष्वपि ममनिवार्ये भवति यदि वा प्रजाः विस्ता स्वरत श्रारम्भेऽपि निर्वेद मागच्छति, कारणाभावे कार्यस्याप्यभावादिति ।
यश्च प्रजास्वरक्त आरम्भरहितः स किंभूतः स्यादित्याहसे वसुमं सव्त्रसमयागयपच्छा लेणं अप्पाणेणं अकरणि
पार्श्व कम्यं तं णो असी में सम्मति पासा तं मोशांति पासहा जं मोणं ति पासहा तं सम्मति पासहा, ए इमं सर्क सिविल अदिजमाएहिं गुणासाहिं कसमाया
मत्तहिं गारमावसंतेहिं, मुणी मोणं समायाए धुणे सरीरगं, पंतं लूदं च सेवंति वीरा सम्मत्तदसिणो, एस दंतरे मुली, तिष्ये मुत्ते विरए वियाहिएत्ति वेमि || १५५|| (से वसुमं) वसु त्र्यं स नात्र संयमः तद्विद्यते यस्य सनिवृ
रम्भो मुनिर्वसुमान् (सन् समन्नागय त्ति) सर्वे सम्यगम्बागतं प्रज्ञानं पदार्थाऽऽविर्भावकं यस्याऽऽत्मनस्तेनाऽऽत्मना सर्वसमन्बागतमज्ञानरूपाऽऽपन्नेन यदकर्त्तव्यं पापं कर्म तन्नो कदाचि हृष्यम्प्रेषति, उपलब्धयपरमार्थरूपेणाग्रमना न सायानुविधा यी स्यादिति भावार्थः । यदेव सम्यम्प्रज्ञानं तदेव पापकर्म वर्जनं, तदेव च सम्यग्धानभिस्तत्रत्यागत
धम्म
सूनेवदर्शनुमा समिति
सहचरितम्, अनयोः सहभावादेकग्रहणे द्वितीयग्रहणं न्यासम्मुमोनं संयमानामेत्येतस्य मौन पत त्वम्यग्ज्ञानं नैश्चयिक सम्यक्त्वं वा पश्यत, ज्ञानस्य विरतिफलत्वात् सम्यक्त्वस्य चाभिव्यक्तिकारणत्वात् सम्यक्त्वा नचरणानामेकताऽध्यवसेयेति भावार्थः । पतश्च न येन केनचि
मनुष्ठमित्यादिषयं सम्पष्ठातुं शक्यं, कैः १. शिथिलैः ' अल्पपरिणामतया मन्दवीर्यैः संयमतपसोर्धृतिप्रढिमरहितैरिति । किञ्च (श्रादिज्जमां श्रा
पुत्रफलानुषजनितायमानैरेव पूर्वो कमशकयमिति संबन्धः, किड (गुणासादि) गुणाः शब्दा 35दयतेषु स्यादो देखि- पंक समाचारेहि वः समादेषां तथा तैरित्यर्थः (पतेहि विषयकपायाऽऽदिप्रमादः प्रमत्तैरिति । (गारमावसंतेहि सहायारलोप द्वारमित्युकं तदागारमावस ङ्गिः सेवमानः पापकर्म वर्जनरूपं मौनमनुष्ठानमशक्यमिति सर्वत्र योग्य कथं यमिक (मुखी मोणं समाया पुणे स
रगं पंतं ब्रूहं च सेवंति वीरा सम्मतदसिणो ) (मुणी मोणं ति) मुनिजगत्त्रयस्य मन्ता मीन मुनित्यमशेषाद्यानुष्ठानयन रूपं समादाय गृहीत्वा धुनीयाच्छरीरकमौदारिकं कर्मशरीरं वा । कथं च तस्य धुननमित्याद प्रान्तं पर्युषितं वलचणकाद्य ल्प वा तदपि रुकं विकृतेरभावान्तर सेवन्ते तदन्यत्र दन्ति, के ते कर्मणिसहिष्णा किता, सम्यन्यदर्शिनः समदर्शि सेवी सगुणस्यादवादपरेणी) विशेषणविि
बौघः संसारस्तं तरतीति । कोऽसौ ?, मुनिः " वर्तमानसामीप्ये वर्तमानवद्वा " ॥ ३ । ३ । १३१ ॥ इति तीर्ण एवासौ, स बाह्याभ्यन्तरसङ्गाभावान्मुक्तः, कश्चैवंभूतो १, यः साबधानुष्ठानाद्विरत इत्येवं व्याख्यातः । इतिरधिकारसमाप्तौ । ब्रवीमीति पूर्ववत् । आचा० १० ५ ० ३ ० ।
इह त्रीणि वयांसि युवा मध्यवया वृद्धश्चेति, तत्र मध्यवयाः परिपक्कबुकित्वाद् धर्माई इत्येतद्दर्शयति
मज्जिमेणं वयसा एगे संबुज्जमाणा समुट्ठिता सोचा मेधावी वयणं पंडियाणं विसामित्ता समयाए धम्मे आयरिएहिं पवेदिते ते वखमाणा अतिवाएमाणा अपरिम्यमाणा को परिग्गद्वातिसम्याति चणं लोगंसि विहाय दंमं पाणेहिं अकुव्वमाणे एस महं अगंथे विवाहिए । युवा मध्यवया वृद्धश्चेति । तत्र मध्यमवयाः परिपक्कबुकित्वादोस्तो दर्शयति-मध्यमेन वयसाध्ये संयमाना पचरणाय सम्बरियता इति सत्यपि प्रथमचरमो स्थाने यतो बाहुल्याद्योग्यत्वाश्ञ्च प्रायो विनिवृत्त भोगकुतूहलइति निष्प्रत्यू धर्माधिकारीति मध्यमत्रयो ग्रहणम् । कथं संबुद्धमानाः समुत्थिता इत्याद - ( सोच्चा इत्यादि ) २६ विविधाः संयुज्यमाना भवन्ति तथा स्वबुद्धाः प्रत्येका दधितात बोधितेनेाधिकार इति मे वीस्थित विदादीनां हिता दिनामपरिवर्तत्वापर्व पूर्वे
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धम्म
बधार्थ समतामालम्बेत । किमिति ?, यतः समतया माध्यस्थ्येनाताराः प्रवेदिन आदी प्रकर्षेण या कथित इति । ते स मध्यमे वयसि श्रुत्वा धर्मसंबुद्ध्यसामाः समुत्थिताः सन्तः किं कुरिवाद अभि माणा इत्यादि) ते निष्क्रान्ता मोकमभिप्रस्थिताः कामजो गानजिकान्तस्तथा प्राणिनोऽनतिपातयन्तः परिग्रहमपरिगृह्णन्त माद्यन्तयोर्ग्रहणे मध्योपादानमपि द्रष्टव्यम् । तथा मृषाचादन्तस्यायाः स वावति स ) सर्वस्मिन्नपि लोके, चः समुच्चये, स च भिन्नक्रमः । समितिवाक्यालङ्कारे । नोपरिग्रहवन्तश्च जवन्तीति या बत् । किञ्च - (शिदाय इत्यादि ) प्राणिनो दमयतीति दमः परितापकारी तं दण्डं प्राणिषु प्राणिभ्यो वा निवाय खा स्वत्वा पायोपादानं कर्मामेनि सोनाचरन्नेष महान विद्यते ग्रन्थः स बाह्याभ्यन्तरोऽस्यत्य ग्रन्थः व्याख्यातस्तीर्थकर गणधराऽऽदिनि प्रतिपादित इति आचा १. भु० ८ अ० ३ ० । इह हि दुरन्तानन्त चतुरन्तासारविसारि संसारापारपारावारे निमज्जता मध्यजन्तुमा निगम तीतादिदशनिदर्शन दुष्यायां कथमपि प्रशस्तमस्त मनुजजन्माऽऽदि सामग्रीमवाप्य भवजलधिसमुसरणप्रवणप्रत्र
(२६७६) अभिधानराजेन्द्रः ।
स्वधर्मसमंविधाने विधेयः यवादि-"त्रको दुष्प्रापा-मवाप्य नृभवाऽऽदिलकल सामग्रीम् । भवजलधियान पात्रे, धर्मे यत्नः सदा कार्यः ॥१॥" सङ्घा०१ अधि०१ प्रस्ताव० । कामार्थयोस्तु बाधायां धर्मो रक्क्षणीयः, धर्ममूलत्वादर्थकामयोः । वर्क धावसीदेत रूपालेनापि जीवतः यवगन्तव्यं, धर्मवित्ता हि साधवः ॥ १॥ " (१३) ध०१ अधि०। पुत्रकथा 'तेरा लिय' २३५२ पृष्ठे गा जाव न दुक्ख पत्ता, माणसं च पाणिणो पायं । ताव नत भाषाओं व
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“
१ ० १ ० १४० ने लोके सुखं कखादिना भूशम् । मितं च जीवितं नृणां तेन धर्मे मतिं कुरु ॥ १ ॥
०
म० १ ० २ खराम ।
प्रक्रान्तमेव समर्थयन्नाह
जरा आव न पीमेइ, बाही जात्र न बहु |
आत्रिंदिया न हायंति, ताव धम्मं समायरे ।। ३६ ।। जरा वयोहानिलकणा यावन्न पीमयति, व्याधिः क्रियासामदिद्रियाण कियासामध्योपकारीणि श्रोत्रादीनि न हीयते तावदत्रान्तरे प्रस्ताव इति कृत्वा धर्म स मायदेव चारिचमिति सूत्रार्थः ॥३६॥ दश०८० पापाद्विधर्ममेवाश्रयेत तथा ब वेरामिद्धे चियं करेति, इओ र दुगं । तम्दा उ मेधावि समिक्ख धम्मं,
चरे मुणी सओ विषमुके ॥ 8 ॥ येन केन कर्मणा परोपताप मनुबध्यते जन्मान्तरसानुयायि भवति, तत्र गृद्धो वैरानुगृद्धः । पाठान्तरं वा "आरमोति प्रारम्ने सानुष्ठानको निरनुक म्पो निवयं श्योपचयं तम्मापादिकर्मनि
लगा
धम्म
च्युतो जन्मान्तरं गतः सन् वा करोत्युपादत्ते स एवंभूत उपा सवेरः कृतकर्मापचय इत्यतोऽस्मात्स्थामा गतः सन् दुःखयतीति दुःखं नरकाऽऽदिकं यातनास्थानमर्थतः परमाथैतो दुर्गविषमं स्तरमुपैति । यत एवं त विवेकी माया या संपूर्ण समाचिगुणं जानानो धनवा रिक समयाऽयमुनिः साधुः बाह्याभ्यन्तरात्सङ्गाद्विप्रकोपनः संप
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कहेतुभूतं चरेदनुतिष्ठेत स्त्र्यारम्भाऽऽदिसङ्गाद्विप्रमुक्तो विश्रि सावन विहरेदिति यावत् ॥ ए ॥ सूत्र० १ ० १० अ० । (१६) तथा च
दियाई दोष तिथि, प्रकाणं होई जं तु सम्मेण । सात विसंगति ।
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जो पुण दीपवासो, चुलसीइ जोणिलक्खनियमें । तस्य तपसी वलयं न चिंतेह | जजह पहरे दिय, माससंवसरे ति बोलिति । तह तह गोयम ! जाणसु. 5के आसन्नमरणं च ॥ जस्स न नज्जइ कालं, न य बेला नेत्र दियहपरिमाणं । नाप कि सत्य को वि, जगम् अजरामरो एत्य ॥ पायो पायवसथ, जीवो संसारकज्जमुज्जुनो। एक्लेनि निषिको मुक्लेहिं न गोयमा तिप्ये ॥ जीवेण जाणि वि, सज्जयाणि जो इसएयु देहाणि । ये तो सगलं पित होत पनिहत्थं ॥ नदेत मुभमुह- क्खिकेसजीवेण विष्पमुसु । सह विवि कुलसेलमेरुगिरिसभ कुमे ॥ हिमवंत मलय मंदर - दीवोदहिधराणसरिसरासीओ । अहिवारो आहारो, श्रीवेाहारिओ अशांतनुतो ।। गुरुदुक्खनरकंत-स्स अंसुनिवारण जं जलं गन्नियं । गमतझापलाई समुदमाईसु यथा विहोता । वयं घणबीरं, सागरसलिलान बहुयरं होज्जा । संसार भने अमिता जोधी पकाए || सप्ताह विन्नकुसा जोशी सम्मि किमया केवल साथि मुकाणि देशी ।। तेसि सत्तमढवी - ए सिद्धिखेत्तं च पावओो कुरुडं । चोदसरज्जु लोगे, अनंतनागेण विनरेज्जा ॥ एते य कामनोगे, कालम इदं सभवभोगे य । प्रपुवं वियमन्न, जीवो तह विय विसय सोक्खं ॥ ज कबुलो तुमायो, पुढं मुइ सोक्खं । मोहरा मस्सा, तह कामदुई सुई पैति । जाणंति अणुवंतिय, अणुजम्मजरामर संजवे दुक्खे | न विसरतोय गणपरिवए जीवे ।। सन्त्रगहाणं पजवो, महागहो सच्चदोसपायट्टी | कामग्गहो दुरप्पा, जेणजिजूयं जगं सव्वं ॥
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(२६७७) धम्म अभिधानराजेन्द्रः।
धम्म तस्स वसं जे गया पाणी
चपनमन्ति पुनढाकन्ते । न ह्यतिकान्तो यौवनाऽऽदिकासः पुनः जाणंति जह नोगिटि-संपयासबमेव धम्मफलं ।
राबर्तत शति भावः । तथाहि-" भवकोटिभिरसुवभ, मानु.
पं प्राप्य का प्रमावो मे । न च गतमायुर्भूयः, प्रत्येत्यपि देवरा. तह वि दढमूलहियए,
जस्य" ||१||नो नैव संसारे सुलभं सुप्रापं संयमप्रधानं जी. पाचं काऊण दोग्गई जति ॥
वितम । यदि वा--जीवितमायुम्त्रटितं सत् तदेव संधातुं न बच्चा खणोण जीवो, पंतानिलधाउसिंभखोभेहिं । शक्यत इति वृतार्थः । सूत्र० १ ध्रु० २ ० १ उ० । नजमह मा विसीयह, तरनमजोगो इमो दुझहो।
अथ शतवायुष्कस्य जीवस्यान्यस्यापि धर्मोपदेशं ददाति-- पंचिंदियत्तणं मा-मत्तणं आरिए जणे सुकुम्नं ।
जो वाससयं जीवड, सुही जोगेय भुजई। सादुसमागममुणणा, सद्दहणा भोगपन्न ज्जा।।
तस्स वि सेवि से ओ, धम्मो य जिणदेसिनो ॥॥ मूल अहिविसविमृश्य-पाणियसत्थगिसंजमेहिं च । यो जीवो वर्षशतं जीवति, प्राणान् धरतीत्यर्थः । च पुनः देहंतरसंकमणं, करेइ जीवो मुटुत्तेण ॥
सुखी जोगान् भुनक्ति, तस्यापि जीवस्य सेवितुं सदा कर्तु
श्रेयो मङ्गलं धर्मो ऽगतिपतज्जीवाधारः, जिनदशितः केव. जावानसावसेमं, जाव य योवो वि अस्थि ववसाओ।।
निना भाषितः ॥ २२॥ ताव करेजऽपहिय, मा तप्पिह हा पुणो एत्थ ।।
किं पुण सपच्चवाए, जो नरो निच्चदक्खियो। मुरधाविज्जूखणदि-टुनटुसंशाणुरागसिमिण समं ।
सुध्यरं तेण काययो, धम्मो यजिएदेसियो ।। ३ ।। देहं इंति सुविपुनसं-मयं भवज नरिन॥
किं पुनः सप्रत्यपाये सकटे आयुषि काले वा सति इति इय जाच ण चुकास ए-रिसस्स खणभंगुरस्स देहस्स ।।
शेषः । यो नरो नित्यदुःखितः सदा दुःखाऽऽकुनो भवेत् तेन उग्गं कहें घोरं, चरसु तवं नत्यि परिवामी ॥
पुखित जीवेन जिनदोशतो धर्मः सुष्वुतरं विशेषतः कर्तव्यो वाससहस्सं पि जई, काऊणं संजमं मुविउन्नं पि ।
नन्दिषेण पूर्वभवब्राह्मणवदिति ॥ २२ ॥ अंते किलिनावो, न विसुज्का कंडरीय च ।। महा।
नंदमाणो चरे धम्मं, वरं मे लट्टतरं भवे । ६०॥
अनंदमाणो विचरे, मा मे पावतरं भवे ।। २४ ॥ (१७) ते धन्ना जे धम्म, चरिचं जिणदेसियं पयत्तेणं ।।
नन्दमानः सौख्यं जुञ्जन् धर्म जिनोक्तं चरेतू, कुर्यादित्यर्थः,
किनूतं धर्मम, वरं श्रेष्ठं शिवप्रापकत्वात, कया नावनया गिहिपासबंधणाओ, उम्मुक्का सवभावणं ।। द०प०।
धम्म कुर्यादित्याह-मे ममात्र भवे परभवे च एतरमतिधर्ममुपदिशन भगवानादितीर्थकरो भरततिरस्काराऽऽगतसं.
कल्या नवेदिति भावन येति । अनन्दमानोऽपि सौख्यमनुजवेगान् स्वपुत्रानुद्दिश्येदमाह । यदि वा सुरासुरनरोरगतिर
ऋषि धर्म कुर्यात्.कया नावनयेत्याह-मे मम पापतरं मा भवतु श्चः समुद्दिश्य प्रोवाच यथा--
ममातिपाप मा भवतु, एकं तावदहं पापफलं चुनज्मि, पुनर्धसंबुज्ह किं न कुन्ह,
माकरण मा भवतु मेऽतिपापमिति भावनयति ॥२४॥ संबोही खलु पेच्च दुलहा ।
किश्चणो हुवणमति राओ,
न वि जाई कुलं वा वि, विजा नावि सुसिक्खिया। नो सुननं पुणरवि जीवियं ॥ १॥
तारेइ नरं व नारिं वा, सव्वं पुहिँ बहई ॥१५॥ संबुध्यध्वं यूयं ज्ञानदर्शनचारित्रलकणे धर्मे बोधं कुरुत। यतः नरं पुरुष, वाशब्दाद्वानाऽऽदिभेदभिनं, नारी स्त्रियं, वाशब्दापुनरेवततोऽवसरो कुरापः। तथाहि मानुषं जन्म, तत्रापि स्क्लीव, जातिमातृपक्षः, ब्राह्मणादिका जातिर्वा, कुलं पितृपक्षः कर्मभूमिः पुनरार्यदेशः, सुकुलोत्पत्तिः, सन्द्रियपाटव, श्रवण- नग्रजोगादिकं कुलं बा, विद्या वा सुकिता वा सदज्यस्ता वा, धाऽऽदिप्राप्तौ सत्यां स्वसंबित्त्यवष्टम्मेनाह--किन बुध्यध्वमि. नापीति नैव तारयति नवाब्धितीरं प्रापयति सर्व स्वर्गापवास्यवश्यमेवविधसामन्यावाप्ती सत्यां सकर्णन तुच्छान् भो- दिसौख्यं पुण्यैः संविनसाधुदानाऽऽदिभिर्वते प्राप्यते इत्यगान् परित्यज्य सकर्मबोधो विधेय इति भावः।
र्यः । अत्राऽभ्यत्रापि चकारवकाराऽऽदिशब्दा यथायोग तथाहि
पूरणसमुद्ययाऽऽदिकेऽय शातव्या इति ॥२५॥ "निर्वाणाऽऽदिसुखप्रदे नरभवे जैनेन्द्रधान्विते,
पुन्नेहिं हीयमाणेहि, पुरिमागारो विहायई । अब्धे स्वपमचार कामजसुखं नो सवितुं युज्यते। वैमाऽऽदिमहोपलौघनिचिते प्राप्तेऽपि रत्नाकरे,
पुन्नेहिं वकृमाणेहि, पुरिसायारो विवई ।। २६ ॥ लातुं स्वल्पमदीप्ति काचशकलं कि चोचितं सांप्रतम्" ॥१॥
पुण्यैरनपानवापीठफकौषधाऽऽदिनिःसाधुदानाऽऽविभिअकृतधर्मचरणानां तु प्राणिनां संबोधिः सम्यकदर्शनझा- रुपातशुजफौहायमानः वयं गच्छद्भिः पुरुषकारः पुरुषानचारित्राऽवाप्तिल कणा प्रेत्य परलोकगतानां, खबुशब्दस्याउ
जिभानः, अपिशब्दादम्यादपि यशःकीर्तिस्फीतिलदम्यादिक चधारणार्थत्वात् सुजुल मेव । तथाहि विषयप्रमादबशात् स
हीयते, शनैः क्षयं यातीत्यर्थः, पुण्यवर्द्धमानः पुरुषकारोऽपि कृत् धर्माचरणाद् भ्रष्टस्याऽनन्तमपि काझं संसारे पर्यटनम |
बईते ॥२६॥ रणे । नैवातिक्रान्ता रात्रय पुणाई खस आनसो! किच्चाई करिणिजाई पीपकराई ६७०
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(१६७०) अन्निधानराजेन्द्रः ।
धम्म
धम्म
बालकराई धमकराई जसकराई कित्तिकराई, नो खनु पाउ- लिहगूढ°फा एणीकुरुबंदावत्तवट्टापुबजंघा समुग्गसो! एवं चिंतियध्वं-एसंति खलु बहवे समया श्रावलिया निमग्गगृढ जाणू गयसुमादकसुनायसनिनोरू वरवारणमखणा आणापाणू थोचा लवा मुहत्ता दिवसा अहोरत्ता
त्ततुल्लविक्कमविलासगई मुजायबरतुरयगुज्कदेसा आइएणपक्खा मासा नऊ यणा संवच्चरा जुग्गा बाससया बा.| हय म निरुवझेवा पमुध्यवरतुरयसीहाइरेगवट्टियकमी ससहस्सा बाससयसहस्सा नासकोडीश्रो वासकोमाको।
साहय सोणंदमुसलदप्पणनिवारियवरकाणगच्छरुसरिसवरमीओ जल्थ णं अम्हे बहू सीलाई वयाई गुणाई वेरमणाई वइरबलियमऊमा, गंगावत्तप्पयाहिणावत्ततरंगजंगुररविपञ्चक्खाणाई पोसहोपवासाई पडिवज्जिस्सामो पट्ठविस्सामो किरण वोहियकोसायपनमगंजीरविम्यनाभी उज्जुयसमकरिस्सामो, तो किमत्थं पानसो ! नो एवं चिंतेयवं| सहियमुजायजच्चताकसिणनिछाइज्जनमहमुकुमालमनजवइ अंतरायबहने खड्बु अयं जीविए, इमे बहवे बाइय- यरमणिज्जरोमराई सविहगसुजायपीणकुच्छी ऊसोयरा पित्तियसिभियसीयवाझ्या विविहा रोगायका फुसंति जी-| पम्हनियमनानी मंगयपासा सन्नयपासा मुंदरपासा मुजावियं ॥
यपासा मियमाईयपीएईयपासा. अकांमुयकणगरुयगनि"पुनाई" इत्यादि गद्यम् । स्वर निश्चये, हे आयुष्मन् ! पु- म्मलसुजायनिरुवहयदेहधारी पसत्यवत्तीसमक्खणधरा कपयानि शुभप्रकृतिरूपाणि कृत्यानि कार्याणि करणीयानि क
गसिलायब्रुजलपसत्यसमतला उवचियवित्थिन्नपिहुलतु योग्यानि (पीतिकराणि त्ति) मित्राऽऽदिना सह स्नेहोत्पादकाऽऽनि,वर्णकराणि एकदिभ्यापिसाधुवादकराणीत्यर्थः ।
बच्चा सिरिवच्छंकियवच्छा पुरवरफलिहवट्टियनूया जूधनकराणि सद्रत्नसमद्धिकराणि, कीर्तिकराणि सर्वदिम्या- यंगीसरविनक्षलोगआयाण फादउच्छृढदीहबाह जुगसंनिभपिसाधुवादकराणीत्यर्थः,नैव च खबु एवार्थत्वात्,हे आयुष्मन् ! पीणरइयपीवरपनहसंठियउवचिय (धण) थिरसुवट्टमुसिएवं वयमाणं चिन्तितव्यं मनसा विकल्पनीयम् (पसंती ति)
बिपन्वसंधी रत्तुप्पबलोचियमउयमंसलसुजायमक्खणपएण्यन्ति, श्रागमिष्यन्ति, खबुनिश्चये, बहवः समयाः बहवे
सत्य प्रच्चिदजालपाणी पीचरचट्टियसुजायकोमलवरंगुनिया श्त्यग्रेऽपि योज्यम् । तं० । यत्र समयावलिकाऽऽदौ, गं वाक्यालङ्कारे (अम्हे ति) वयं बहूनि प्रभूतानि, शीलानि तंवतलिगाइरुइरनिकनखा चंदपाणिन्नेहा मूरपाणिनेहा समाधानानि, प्रतानि महाव्रतानि (गुणाई ति ) गुणान संखपाणिनेहा चक्कपाणिलेहा सोस्यियपाणिनेहा ससि ?बिनयाऽऽदीन् । अत्र " गुणाद्याः क्लीवे वा " ॥ १॥ ३४॥
रविश्संख३चक४ सोत्थियएविजत्तमविरश्यपाणिनेहा वइति कीवस्वम् । (बेरमाणाई ति) असंयमाऽऽदिभ्यो निवर्तनानि प्रत्याख्यानानि, नमस्कारसहितपौरुष्यादीनि, पौषधः पर्वदिन.
रमहिसवराहसीहसहलनसजनागवरविउल उन्नयम उयक्वं. मष्टम्यादि, तत्रोपवासा अभक्तार्थकरणानि पौषधोपवासास्ता- धा चनरंगुलमुप्पमाणकंबुवरमरिसगीवा अवडियमुवि. न् प्रतिपत्स्यामहे भाचार्याऽऽदिपाश्वेऽङ्गीकरीष्यामः ( पट्ट- भत्तचित्तमंमूमंसन्नसंधियपसत्यमलविजनहत्या उपचिविस्सामो ति) प्रस्थापयिष्यामः अङ्गीकरणानन्तरं प्रथमत.
यसिलप्पवालबिंबफन्नसंनिजाधरुहा पंकुरमसिसगल विमया कर्तुमारप्स्यामः, करिष्याम इति साक्वारकारेण सततं निपादयिष्यामः।(तत्ति)ताबदादौ किमर्थ नैव चिन्तयितव्य
लसंखगोखीरकुंददगरयमुणाझियाधवलदंतसेढी. अखंम् । हे आयुष्मन् ! त्वं शृणु, यतो भवति, अन्तरायबहुसं वि. मदंता, अफ्फोमियदंता, अविरलदंता, सुनिकिदंता, नप्रचुरमिद,बलु निश्चये,जीवितमायुर्जीवानां,तथा इमे प्रत्यक्का सुजायदंना, एगदंतसेढी विच अणेगदंता,यवहानमंतधोबहव वातिका वातरोगोद्भवाः, पैत्तिकाः पित्तरोगजाः ( सिं.
यतत्ततवणि जरत्ततन्नताबुजीहा सारदनवथणियमहुरगंभीभिए सि) श्लेष्मभवाः सान्निपातिकाः सन्निपातजन्याः विधिधा अनेकप्रकाराः रोगा व्याधयस्ते च ते श्रातकाश्च कृच्छ्र
रकुंचनिग्योमदुंदुहिसरा गरुलाययउजुतुंगनासा अवदारियजीवितकारिण इति रोगातङ्का जीवितं स्पृशन्तीति ॥ पुंडरीयनयणा कोकामियधवनएमरीपत्तलच्ची,आनामियअय किं सत्र मनुजा एवंविधा भवन्ति,नेति दर्शयति इत्याद-1 चावरुइलाकन्दचिहुरराइमुसंठियमंगयआययसुनायभमुहा अ.
आसित खलु आउसो ! पुब्धि मण्या वगयरोगाय- लीणपमाणजुनसवणा, सुसवणा, पीणमंसनकपोझदेसका बहुवाससयसहस्सजीविणो । तं जहा-जुयधम्मिया | भागा, अइरुग्गयसमग्गमुचंदकसंठियानमाला, उमुअरिहंता वा चक्कवट्टी वा बझदेवा वा वासुदेवा वा चा- वइपमिपुन्नसोम्मवयणा, छत्तागारुत्तमंगदेमा, घणनिचियरणा विज्जाहराते णं मणुया अश्व सोमचारुरूवा नो- मुघलक्खान्नयकृमागारनिभनिरुवमपिमियग्गसिरा, हुयगुत्तमा जोगनक्खणधरा सुजायसवंगसुंदरंगा रत्तुप्पापन- वहनितधोयतत्ततनणि जकेसंतसत्तम), सामालिय:मकरचरणकोमलंगुलितला नगनगरमगरसागरचकंकवरन- घगनिचियगेमियमिउविसयमुदुमलक्खणपसत्यमुगंधिसुंदर
खणंकियतमा सुपइख्यिकुम्मचारुचक्षणा आणुपुब्धि | भयमोयगजिंगनीनकजलपहट्ठभमरगणनिरंबजूए निसुजायपीवरंगुझिया जन्नयतणुतंत्रनिकनहा संवियसुमि- चियकुंचियपयाहिणावत्तमुफसिरया सक्खएवंजणगुणो
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(२६७९) धम्म अन्निधानगजेन्द्रः।
धम्म बया, माणुम्माणपमाणपमिपुन्नमुजायसव्वंगसुंदरंगा, स
तुला तथा जनपदेसु मगधा ऽऽदिदेशेषु मानानि कुमवसेसिसोम्मागारकंतपियदंमणा, मनावसिंगारचारुरूवा, पा.
निकादिप्रमाणानि विषमाणि असमानि जातानि,चशब्दाद
नेकप्रकारवञ्चनानि । तथा-विषमाणि अनेकान्यायकारकाणि साईया, दरसणिज्जा, अनिरूवा, पमिरूवा, ते णं मणु
राजकुलानि वर्तन्तेऽद्य तेन कारणेन तुशब्दोऽप्यर्थः। वीण्यपि या श्रोहस्सरा मेहस्सरा हंसस्सरा कोचस्सरा नंदिस्सरा | संवत्सरापयपि विषमाणि दुःखरूपाणि जातानीति ॥ ३॥ नंदिघोसा तीहस्सरा सीघोसा, मंजुस्सरा मंजुघोसा मु- विसमेसु य वासेसुं, हुंति असारा ओसहिवलाई। स्सरा मुस्सरघोसा अनोमवाउवेगा कंकग्गहणी क- ओसहि सुब्बल्लेण य, ऊ परिहायइ नराणं ॥४॥ वायपरिणामा, सउणीपासपितरोरुपरिणया, पउमुप्प- विषमेषु वर्षेषु सत्सु भवन्तीति असाराणि सारवजितानि समुगंधसरिसनीसाससुरभिवयणा छवीनिरायंका, उत्तम
औषधिषलानि गोधूमाऽऽदिवीर्याणि औषधिपुर्बलत्वमे नराणा
मन्येषामपि आर्युजीवितं परिहीयते कीयते इति ॥४॥ पसत्य अइससेनिरुवमतणू, जसमवकलंकसेयरययदोमवन्जि.
एवं परिहायमाणे, लोए चंदु ब्व कालपक्खम्मि । यसरीरा, निरुवनेवा, गया नज्जोवियंगमंगा, वज्जरिस
जे धम्मिया मणुस्सा, सुजीवियं जीवियं तेसिं ॥५॥ हनारायसंघयणा, समचउरंससंगणसंठिया, छधणसह
एवमुक्तप्रकारेण परिहायमाने लोके कृष्णपके चन्व स्साई, उषं उच्चत्तेणं पसत्ता, ते णं पणुया दोएहउप्पएण- ये धार्मिका धर्मयुक्ता मनुष्यास्तेषां जीवितं जीवितकालः गपिढिकरंडगसया पएणत्ता, समणानसो! ते ए मणु- सुजीवितं सुष्ठ जीवितं ज्ञातव्यमिति ।। ५ ॥ तं०। या पगइनच्या पगविणीया पगनवसंता पगइपयणु- एवं निस्सारे मा-गृसत्तणे जीविए अविहरति । कोहमाणमायझोभा मिनुमद्दवसंपन्ना अब्बीणा जद्दया वि- न करेह चरणधम्म, पच्छा पच्छाणुतप्पिह हा ॥२४॥ पीया अप्पिच्छा असंनिहिसंचया अचमा असिमसिकि
एवम उक्तप्रकारेण निस्मारे असारे मानुषत्वे मनुजस्के, तथा
जीविते आयुषि रत्नकोटिकोटिनिरपि अप्राप्ये अधिपतति सिवाणिजविवजिया, विमितरनिवामिणो, इच्छियकाम
समये समये क्षयं गच्चतीत्यर्थः, न कुरुत ययं चरणधर्म कामिणो, गेहाकाररुक्खकयनिन्नया, पुढवीपुप्फफलाहारा ते ज्ञानदर्शनपूर्वकं देशसर्वचारित्रं दा इति महत्खेद, पश्चावायु:णं मणुयगणा पमत्ता,आमीय समणाउसो'पुटिन मणुयाणं क्षयानन्तरम आयु कयचरमकणे वा पश्चात्तापं कायवाश्मनोउनिहे संघयणे पामते । तं जहा-बजरिसहनारायसंघय- जिमहाखेदं करिष्यथ, नरकस्थशशिराजवदिति ।। २४ ।। णे १ रिमहनारायसंघयणेश नारायसंघयणे ३ अद्धनारा- नव्याः प्रश्नयन्ति कथं वयं नात्मस्वरूपं जानीमः, इत्युक्त यसंघयणे ४ कीनियासंघयणे । छेवसंघयणे ६ संपा
गुरुराह
घुटम्मि सयं मोहे, जिणेहि वरधम्मतित्यपग्गस्स । खलु आनसो! मणुयाणं बेवढे संघयणे वट्ट, आसिय
अत्ताणं च न यापह, इह जाए कम्मनूमीए ॥ २५॥ आनसो! पुधि मणुयाणं छबिहा संगणा पएणत्ता, तं
धर्मस्य जिनोक्तरूपस्य, तीर्थ पवित्रकरणस्थानकं,तस्य मार्गों जहा- समचउरंसे निग्गोहे साए वामणे खुज्जे वामणे
ज्ञानदर्शनचारित्ररूपः, वरश्वाऽसौ धर्मः तीर्थमार्गश्च संघः, त. हुंढे संपइ खलु आनमो ! मणुयाणं झुमे संगणे वट्ट । था तस्मिन् प्राकृतत्वाभिक्तिपरिणामः| जिनैः रागाऽऽदिजेतृभिः (१८) अथोपदेशं ददातीत्याह
स्वयमात्मना "घुझम्मीति "कथिते निरूपिते सति भास्मानं न संघयणं संगणं, उच्चत्तं आउयं च मणुयाणं । यूयं जानीत,कति? मोहे सति तीब्रमिथ्यात्वमिश्रमोहनीयक. अणुसमयं परिहायइ, ओसप्पिणिकालदोसणं ॥१॥
मोदये सतीत्यर्थः। वह कमजूमौ जाता अपि, अगम्यमानस्वा
दिति। अस्या अर्थोऽन्योऽपि सद्गुरुप्रसादात्कार्य इति ॥२५।। तं सहननं संस्थानं शरीराऽऽदेरुश्चत्वमुच्छयमानमायुश्च मनुजाना, चकारादन्येषां च अनुसमय समयं समयं प्रति परिदीयते अब.
एवं खु जरामरणं, पक्खिवइ वग्गुरं च मियजूहं ॥ सपिणीकालदोषणेति ॥ १॥
नयणं पिच्चह मिच्छ, संमूढा मोहजालेणं ॥१७॥ कोहमयमाणलोभा, ओसन्नं बकुए य मणुयाएं।
पतज्जरामरण,खु निश्चये,जीवमृगयूथं परिकपति परिवेष्टयति, कुडतुनकुममाणा, तेऽणणुमाणेण सव्वं ति ।।३।
च श्वार्थे, यथा बागुरा मृगगूथं परिक्कपति. न च पश्यत यूयं
प्राप्त जरामरणं मोहजालेन संमूढा मोहं गताः श्रीगौतमप्रति. क्रोधमानमाया लोभाइच (ोसन्नं ) प्रवाहेण वर्द्धन्ते ।
बोधितदेवशमद्विजवदिति ॥२७॥ तं । पूर्वमनुष्यापेकया विशेषतो वर्कयन्ति, मनुष्याणां कटतुलानि कूटतोलनाऽऽद्युपकरणानि कूटमानानि कूटकुमवप्रस्थादिमानानि
प्रयोपदेशान्तरं ददातीत्याहच वर्द्धयन्ति,तेन कूटनुलाऽऽदिनाऽनुमानेनानुसारेण (सब्ब ति) जहाणं वहाणं, निम्विन्नाणं च निविसेसाणं । याणकवाणिज्याऽऽदिकं कूटं वर्द्धते इति ॥२॥
संसारसूयराणं, कहियं पि निरत्ययं हो ॥४॥ विसमा अज तुलाओ,विसमाणि य जणवएमु माणाणि ।
जहानां द्रव्यनावमूर्खाणां बट्टानां केषाश्चिन्मठपारापतसरविसमा रायकुलाई, जोग न विसमाई वासाइँ ॥३॥
शानां वृकानां निर्विज्ञानां विशिष्टज्ञानरहितानां निर्विशेषाणाम. विषमा अर्पणायान्यग्रहणायान्याश्च मध दुम्पमा काले । पवादोत्सर्गज्येष्ठतरादिविशेषरहितानां संसारशूकराणामेषवि
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(२६८०) धम्म भनिधानराजेन्डः।
धम्म धानां गृहस्थानां साध्वाभासानामपि कथितमपि उक्तं वत्य- विज्ञानमनेकप्रकाररूपाऽऽदिकरण, झानं मतिश्रुताबधिरूपम् । माणं निरर्थकं भवति, ब्रह्मरसोदायिनृपमारकाऽऽदिवत्॥॥ यद्वा-देवेषु रूपाऽऽदयः प्राप्यन्ते,हच (विनाण सि) केवलज्ञान किं पुत्तेहिँ पियाहि य, अत्येण वि पिडिएण बहुएणं । (नाणं ति) ज्ञानचतुष्कं त्रिकं द्विकं चेति ॥ १४ ॥ जो मरणदेसकाले, न होई प्रालंबणं किंचि ॥ १० ॥ देविंदचकत्र टि-तणा' रज्जा' इच्छिया नोगा। पुत्रैरङ्गजैः किं न किञ्चित्, पितृभिर्वा किमयेनापि पिरिमतेन एया धम्ममानो, फझाई जं चावि निव्वाणं ॥१५॥ मीलितेन बहुकेन प्रनतेन किं नन्दमम्मणादिनेव योऽङ्गजाऽऽदि.
देवेन्चक्रवर्तित्वानि राज्यानि गजाश्वरथपदातिभागडागा. कलापः मरणदेशका मरणप्रस्तावेन भवति आलम्बनमाधाररूपं किञ्चिदिति ॥१०॥
रकोष्ठागारवप्रलक्षणानि, यद्वा-स्वाम्यमात्य २ जनपद ३ दुर्ग
बन्न५ शस्त्र ६ मित्राणि ७, ईपिता जोगाः । पतानि धर्मपुत्ता चयंति मित्ता, चयंति भज्जा विणंऽमयं चय।
लाभात् फलानि भवन्ति, यच्चापि निर्वाणमिति ॥ १५ ॥ तं०। तं मरणदेसकाने, न चय सविअज्जिो धम्मो ॥११॥
तथा च महानिशीथेमातापितरं पुत्रास्त्यजन्ति, मिनं मित्रास्त्यजन्ति, सहजमित्रपूर्वमित्रवत्, भााऽपि श्मं प्रत्यकं जीवन्तमित्यर्थः, मृतं वा ।
धम्मे य णमिट्टे पिए कंते परमत्थसही सयणजयस्वकान्तं स्यजति । यद्वा भार्या, णमिति वाक्यामकारे, पार्ष
मित्तबंधूपरिवग्गो धम्मे य णं दिट्टिकरे धम्मे य णं पुहिकरे स्वादकारविश्लेषे, (भमय मिति ) अमृतं जीवन्तं त्यजति, जी. धम्मे यां बनकरे धम्मे यणं नाहगरे धम्मे य णं वस्तमेव स्वकान्तं मुक्त्वाऽन्यत्पुरुषान्तरं जर्तृत्वेन प्रतिपद्यते, व.
निम्माजसकित्तिपसाहगे धम्मे य णं माइप्पजणगे धम्मे य नमा सावत् । यस्मिन् प्रस्तावे ते पुत्राऽऽदयः त्यजन्ति (तमिति) तस्मिन् प्रस्ताचे मरणदेशकाले च न त्यजति (सुइ सि जिना.
णं सुरु सोक्खपरंपरादायगे, से य णं सेवाणिज्जे, से य अक्षापूर्वकदभावेन (विसि) विशेषेण निरन्तरकरणेनार्जितः ।
णं पाराहणिजे,से य णं पोसणिज्जे,से य णं पालणिजे, धर्मः भुतचारित्ररूप इति ॥ ११ ॥
से यणं कारणिज्जे,से य णं चरणिज्जे, से य णं अहिजे,से अथ गाथाचतुष्टयेन धर्ममाहात्म्यं वर्णयतीस्याह- यणं नवश्सणिज्जे,से य कहणिजे,से य एंजणणिजे,से धम्मो ताणं धम्मो, सरणं धम्मो गई पट्टा य । यणं पामवाणिज्जे, से य एं कारवाणिज्जे, से य णं धुवे धम्मेण सुचरिएण य, गम्मइ अजरामरं गणं ॥१॥ सासए अक्खए अच्चए सयलसोक्खनिही धम्मे, से य एं धर्मः सम्यग्ज्ञानदर्शनचरणात्मकः त्राण मनथेप्रति हनन·
मन जणिज्जे से य णं अउन्नवझवीरिए पुरिससतपरक्कमे मर्थसंपादनं च तस्तुत्वात, धर्मः शरणं, रागादिजयनी रुक- संजुए पवरवरे हे पिए कंते दहए सयलसोक्खदालिद्दजनपरिरक्षणं, धम्मो गम्यते, दुःस्थितः सुस्थितार्थमाधीयत इ- संताबुद्देवगअयसदुक्खा संजजरामरणाइअसेसनयनिन्नासगे ति गतिः धर्मः प्रतिष्ठानं संसारगीपतत्प्राणिवर्गस्याऽऽधारः, धर्मेण सुचरितेन सुष्ठासेवितेन, चशब्दादनुमोदनेन, साहा
अणमसरिससहाए तेलोकक्कसामिसाले, ता अलं मुही यदानाऽऽदिना गम्यते, अवश्य प्राप्यते, अजरामरं स्थानं मो
सपणजणमित्तबंधुगणधाधष्ठमुवनाहिरहारयणोहनिही कोक्षलक्षणमित्यर्थः, देवकुमारवत् ॥१२॥
ससंवयाइसकवाविविज्जुनयाऽऽमोवचंचलाए मुमुणिंदनापीइकरो वाकरो, भासकरो जसकरो रइकरो य। अपरिसाए खणदिवाणभंगुराए अधुवाए अमासयाए संअजयकरो निवुइकरो, परत्त बी अजिओ धम्मो ॥१३॥ । सारवुहिकारगाए निरयावयारहेननूगाए मुगक्ष्मग्गविग्धप्रीतिकरः परमप्रीत्युत्पादकः, वर्णकर एकदिन्यापी की. दायगाए अणंतदुक्खपयायगाए रिकीए मृदुलहा हुवे ला. तिकरा, यद्वा वपुषि गौरवत्वाऽऽदिवर्णकरः। यद्वा दुरात्मक- ना धम्मस्स साहणी सम्मइंसणनाणचरित्ताराहिणी निकानकरः, नास्करः कान्तिकरः, यद्वा भाषाकरः वचनपटुत्व.
रुवयाइसामग्गी अमावस्यमहभिसाणसमएहि णं खंडखंमेमाधुर्याऽऽदिगुणकर इत्यर्थः । यशःकरः सर्वदिष्यापिकीर्तिकरः, चशब्दात् श्लाघाशब्दकरः, तत्र श्लाघा तत्स्थान पच सा
हिं तु परिसडइ, आदघोरनिट्ठरा अचंमा जरासणिसधुवादः । अन्नयकरो निर्भयकरः । नितिकरः सर्वकर्म- एिणवायसंचुलिए सहजज्ज रमणे व अकिंचिकरे भवड, क्यभावकरः । (परत्त वि अजिभो ति) परत्र द्वितीयेा नदिहाणादियण इमे तणुकिमलयदलगपरिसंनिय जनविं. जीवानां परलोके हितीय इत्यर्थः धर्मः ॥ १३ ॥
सुमिवामे निमिसभंतरेण बलिफुमन इजीविए अविढत्तपरअमरवरसु अणोरम-रूवं भोगोवभोगरिकीय। लोगपत्थयणाणं तु निप्फो चेव मणुयजम्मे तो भोण खविनाण नाणमेव य, सन्नइ मुकरण धम्मेण ॥ १४ ॥ मे तणुतणुयतरे वि ईसि पियमाए, जो णं एत्थ खबु सअमरवरेषु महामहकिदेवेषु अनुपमरूपं भोगोपभोगकद- वकानमेव समसत्तु मित्त भावेजिवियवं, अप्पमत्तेहिं च पं. द्वयं विज्ञानं ज्ञानमेव च बभ्यते, सुकृतेन धर्मेण प्रदेशीराजमेघकुमारबन्यानगाराऽऽनन्दादिनेव । तत्र जोगाः गन्धरसस्पर्शाः,
चमहव्वयं धारयव्वं । तं जहा-कसिण पाणावायविरती, उपभोगाः शब्दरूपविषयाः, यद्वा-सद्भोगा उपभोगाः, ते
अणलीयत्नासित्तं, दंतसोहण मित्तस्स वि अदिन्नस्स वचापानानुलेपनाऽऽदिरूपाः, ऋष्यो देवदेध्यादिपरिवारजूताः | जणं मणोवयकायजोगेहिं तु अखंडियअविराहियणवगु
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(२६१) अभिधानराजेन्द्रः ।
धम्म
त्तिपरिवोदयस्स णं परमपवित्तस्स सव्वकान्नमव दुघरवं- तस्साहसामणी, पत्ता भो भो बहू इहि ॥ नचरेस्स धारणं वत्थपत्तसंजमोवयरणेमु पि णिम्ममतया तो एत्थ ज ण पत्तं, तदत्थ भो उज्जम कुणह तुरियं । असण पाणाईणं तु चउबिहेणेव राईलोयाणचाओ उग्गम- निवुहजणाणं दियमिणं, उज्जह संसारअणुबंध ॥ प्यायणेसाणाईसु णं विमुछामिगहणं संजोयणाइपंचदो- बहिन भो धम्मसु, अणेगनवकोडिसक्खेसु । सविरहिएणं परमिएणं काले जिन्ने पंचसमितिविसोहणं विनलई जइ पाणुच्छ, सम्म ता पवरि दुदहं हाही॥ तिगुत्तिगुत्तिया शरियासमिइमाईओ नावाणाप्रो अणस- | महा०२.। पाइतवोव हाणुटाणं सामाइजिक्खूपमिमाओ विवित्ते द
तथा च पञ्चस्त्रेबाइअभिग्गहे, अहो णं नूमीसयणे केसोए निप्पढि
जायाए धम्मगुणपमिवत्तिसद्धाए जाविज्जा एएसिं सकम्मसरीरया सव्वकालमेव गुरुनिओगकरणं खुप्पिवासाइ
रूवं पयइमुंदरतं अणुगामित्तं परोक्यारितं परमत्थडे उत्तं, परीसहाहियासणं दिव्वाइनवसग्गाविजयनघावसवि
तहा दुरणु वरत्तं नंगे दारुणत्तं महामोहजणगत्तं जो दुत्तिया, किं बहुणा अचंतनहे भो वहियचे अवीसमतेहिं
बहत्तं ति, एवं जहासत्तीए उचियविहाणेणं अञ्चतपाचेव सिरिमहापुरिसछूढो अहारससीलंगसहस्मनारे त
बसारं पडिजिजा । तं जहा-यूनगपाणावायविरमणं, रियव्वे य भो वाहाहि महाहिसमुद्दे अविसाईहिं व एं
यूनगमुसावायविरमणं, थूलगअदत्तादाणविरमणं, धूलभो नक्खियने णिरासाए वायुयाकवलोपरि सकेयव्वं च
गमेहुणविरमणं, यूलगपरिग्गहविरमणमिच्चाइ पमित्रनोणिसियसुतिक्खदारुण करवानधाराए पाए चायणं भो
जिऊण पानाणे जइ जा सयाणागाहगे सिआ सपाणासुहुयवहजामावलीजरियन्ने णं जो सुहमपवणकोच्चलगे
भावगे सिपा सयाणापरतते सिया आणा हि मोहगमियन्वं च भो गंगापवाहपडिसोएणं तोनेयव्वं भो
विसपरममंतो जलं रोसाइजल एस्स कम्मराहितिगिच्छासाहसतुझाए मंदरगिरिं जेयव्वे यणं भो पगागिएहिं चेव
सत्य कप्पपायवो सिवफलस्स वजिजा अधम्ममित्तजोधीरताए सुदुज्जए चाउरंगे बने विधेयया ॥ भो परोप्पर
गं चिंतिजाऽभिगवपाविए गुणे प्रणाइनक्संगए अ अविवरीयनमंतअहचकोवरि वामच्छिनिउडी उद्विया गहेय
गुणे उदग्गसहकारितं अधम्ममित्ताणं उभयलोगगरहिया जो सयलतियणविजयाणि णिम्मलजसकित्तीज
अत्तं असुहजोगपरंपरं च, परिहरिज्जा सम्मं लोगविरुद्ध यपभागा, ता भो जो जाणा!
करुणापरे जणाणं न खिमाविज्जा धम्म संकिलेसो खु एसा "एया ओ धम्माणु-हाणान सुदुक्करंणत्थि किंचि मन्नति।
परमबोहिवीअमवोहिफझमप्पणो त्ति, एवमालोएज्जा न बुज्कंति नामनारा, ते चिय बुज्झति वीसमंतेहिं ॥
खनु इत्तो परो अणत्यो अंधत्तमेयं संसारामवीए जसीबजरो अइगुरुप्रो, जावजीवमाविस्सामो।
णगमणिटावायाणं अदारुणं सरूवेणं अमूहाणुबंधमच्चत्थं ता नजिकऊण पेम्म, घरमारं पुत्तदवेण ॥
सेविज्ज धम्ममित्ते विहाणेणं अधो विवाणकट्टए वाहिए माईयं णीसंगा, अविसाई पयर हसब्बुत्तभं धम्मं । विव विजे दरिद विव ईसरे नीओ विव महानायगे नो को धम्मस्स नमुक्का-उकंचण चणा य व हारो॥ सुंदरमन्नंति बहुमाण जुत्ते सिया आणावी आणापमिनिकम्मो भो धम्मो, मायादीसब्बरहिओ य ।
च्चगे प्राणाअविराहगे प्राणानिप्फायगे त्ति, पमिवामधतूपमु जंगमंतं, तेसु वि पंचिंदियत्तमुक्कोस ॥
म्मगुणारिहं च वट्टिज्जा गिहिसमुचिएसु गिहिसमायारेतेसु वि चिय माणुसत्तं, मणुयत्ते आरिए देसे । मु परिसुकाणुट्ठाणे परिसुचमणकिरिए परिसुवइकिरिए देसे कुलं पहाणं, कुन्ने पहाणेइ जाइमुक्कोसा ।। परिमुष्कायकिरिए वज्जिज्जा अगोवघायकारगं गरतीए रूवस मुद्दे, रूवे य वं पहाण वरं ।
हिणिज्ज बहुकिलेसं आयइविराहगं समारंज, न चिंहोड वझे वि य जीवं, जीए य पहाण्यं तु चिन्नाणं ॥ । तिज्ना परपीमं, न जाविजा दीण यं,न गच्छिज्जा हरिचिन्नाणे सम्मत्तं, सम्मत्ते सीलसंपत्ती।
सं, न सेविज्जा वितहाजिनिस, उचिमणपरत्तगे मिसीले खाइयभावो, खाइयभावे य केवनं नाणं ।। श्रा, न नासिज्जा अलियं, न फरुसं न पेसुन्नं नाकेवलिए पमिपुन्ने, पत्ते अयरामरो मोक्खो।
निबद्धं, हिअमि अनासगे सिपा, एवं न हिंसिज्जा ला. ण य संसारम्मि सुई, जाइजरामरणदुक्खगहियस्स । णि, नमिएिहज्ज अदत्तं, न निरिक्खिज्ज परदारं, न कुजीवस्स अस्थि जम्हा, तम्हा मोक्खोवधाए उ ।। ज्जा असत्यद, सुहकायजोगे सिपा, तहा लाहोआहिमिऊण सुइन, अणंतहत्तो हु जोणिलक्खेस । चिअदाये लाहोचि प्रभोगे लाहोचिअपरिवारे बाहोचि६७१
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(२६२) भनिधानराजेन्डः।
घम्म अनिहिकरे सिमा भसंतावगे परिवारस गुणकरे ज
एवं अपरिवडिए, सम्मत्ते देवमणुयजम्मेसु ।
अम्मतरसेदिवजं, एगनवेणं च सम्वा " हासत्ति अणुकंपापरे निम्ममे नावणं, एवं खु तप्पालणे
इत्यादि। (पडिजिजकण इत्यादि) प्रतिपद्य पालने यतेत्त, वि धम्मो जह अन्नपालणे ति । सने जीवा पुढो पुढो मप
अधिकतगुणानामा कथांमत्याह-सदाझाग्राहकः स्यात, मध्यसंबंधकारणं, तहा तेसु तेमु समायारेसु सइसमन्मागए यनश्रवणाज्याम् । पाहा आगम उच्यते,सदाकाभावकः स्यात, सिआ अमुगोऽहं अमुगकुले प्रमुगसिस्सै अमुगधम्मट्ठाण
अनुक्ताधारण, सदाशापरतन्त्रः स्यादनष्ठान प्रति । किमेष
मित्याह-माका हि मोहविषपरममन्त्रः तदपनयनेन, जसं, वेहिए न मे तबिराहणा न मे नदारंजो वुझी ममे अस्स ए
पाऽऽदिज्वलनस्य तद्विध्यापनेन । कर्मव्याधिचिकित्साशास्र, भमित्य सारं एयमायलय एअंहिअं असारमन्नं सम्म वि.
तरकय कारणस्येन, कल्पपादपः शिवफलस्य, तदवन्ध्यसाधनसेसो अविहिगहणेणं एवमाह तिलोगबंधू परमकारुणि- त्वेन । तथा (वजेज्जा इत्यादि) बजेयेत् अधर्ममित्रयोगम् । अ. गे सम्म संयुके नगवं अरहंतेत्ति, एवं समालोचित- कल्याणमित्रसंबन्ध, चिन्तयेत् अभिनवप्राप्तान गुणान् स्यूर.
प्राणातिपातविरमणाऽऽदीन् अनादिभनसतांच अगुणान्, स. दविरुचेसु समायारेसु सम्म वहिग्जा जावमंगलमेनं त
देवाविरतत्वेन, उदग्रसहकारित्वमधमैमित्राणाम, भगुणान्प्रति निष्फत्तीए तहा जागरेज धम्मजागरि प्राप, को मम का
उभयलोकगस्तित्वं तत्पापानुमत्यादिना, अशुभयोगपरम्परा लो किमअस्स उचिअं, असारा विसया नियमगामि गो च अकुशलानुबन्धतः । तथा (परिहरेज्जा इत्यादि) परिहरेविरसाबसाणा, जीसको मच्चू समाजावकारी अवि- सम्यग्सोकविरुद्धानि तदशुभाध्यवसायाऽऽदिनिबन्धनानि, प्र. मायागमणो अणिवारणिज्जो पुणो पुणोऽशुबंधी,
नुकम्पापरो जनानां मा नूत्तेषामधर्मः, न खिसयेद् धर्मम्, न
गह येज्जनैरित्यर्थः, संकेश पवैया स्त्रिसाऽशुभभावत्वेन, परमधम्मो एप्स ओसहं एगतविसुको महापुरिससेविप्रो
बोधियो, तत्प्रद्वेषेण । अबोधिफरमात्मन इति । जनानां त. सन्नहि अकारी निरश्यारो परमाणंदहेऊ, नमो इमस्स
निमित्तभावेन, तथा एवमालोच येत्सूत्रानुसारेण, न खल्वतः धम्मस्स, नमो एअधम्मप्पगासगाणं, नमो एमधम्मपाल- परोऽनर्थोऽयोधिफलात् तत्कारण नावाद्वा झोकविरुद्धत्वादिति । गाणं, नमो एअधम्मपरूवगाणं, नमो एअधम्मपर जगाणं,
अन्धत्वमेतत्समाराटव्यां हितदर्शनानावेन,जनकमनिष्टपातानां, इच्छामि अहमिणं धम्मं परिवन्जित्तए सम्म मणवयणका
नरकाऽऽद्युपपातकारणतया, अतिदारुणं स्वरूपेण सक्रेशप्रधा
नत्वात् । अशुभानुबन्धमत्यर्थ परम्परोपघातभावेमेत्यत एवोक्तम्यजोगेडिं,होउ ममेअं कहाणं परमकहाणाणं जिणाणम- "लोकः स्पल्वाधारः, सर्वेषां धर्मचारिणां यस्मात् । तस्मागुलाव प्रो,सुप्पणिहाणमेवं चिंतिजा पुणो पुणो एअधम्म- लोकविरुक, धर्मविरुकं च संत्याज्यम् ॥१॥" इत्यादि । तजुत्वाणयकवायकारी सिआ,पहाणं मोहच्छेप्रण मेअं,एवं वि-1 था (सेवेज इत्यादि ) सेवेत धर्ममित्राणि विधानेन सतप्रसुकमाणे भावणाए कम्मापगमेणं उवेइ एअयस्स जुग्गयं,
तिपस्यादिना,अन्ध इवानुकर्षकान,पाताऽऽदिभयेन व्याधित श्व
वैद्यान, दुःखभयेन दरिजश्वेश्वरान, स्थिति हेतुत्वेन । नीत श्व तहा संसारविरत्ते संविग्गो नबइ, अममे अपरोवतावी वि
महानायकान् आश्रयणीयस्वेन । तयान इतो धममित्रसेवनात् । मुझे विसुदमाणभावे ति।
सुन्दरतरमन्यदिति कृत्वा बहुमानयुक्तः स्यात् धर्ममित्रेषु । जातायां धर्मगुणप्रतिपत्तिकायां जावतस्तथाविधकर्मक
प्राज्ञाकाङ्की अदत्तायामस्यां तेषाम, प्राशाप्रतीच्छकः प्रदानयोपशमेन भावयेदेतेषां स्वरूपं धर्मगुणानाम । प्रकृतिसु
काले तेषामेव, आकाविराधकः प्रस्तुतायां तेषामेव, प्राकानिन्धरत्वं जीवसंकेशविशुद्धया, आनुगामुकत्वं भवान्तरवासना
पादक त्यौचित्येन तेषामेव । (पमिवमेध्यादि) प्रतिपक्षधनुगमन, परोपकारित्वं तथापीडादिनिवृत्या, परमार्थ हेतु
मंगुणा च वत्तेत सामान्येनैव गृहिसमुचितेषु गृहिसमाचारेषु स्वं परम्परया मोक्कसाधनत्वेन, तथा पुरनुचरत्वं सदैवान.
नानाप्रकारेषु परिशुझानुष्ठानः सामान्य नैव, परिशुद्धमनःक्रियः ग्यासात् , भने दारुणत्वं भगवदाज्ञाखरामनता, महामोह जन
शास्त्रानुसारेण, परिशुरूवाकक्रियोऽनेनेव, परिशकायकियोकरवं धर्मदूधकत्वेन, यो पुर्नजत्वं विपक्कानुबन्धपुष्ट घेति भाव
ऽनेनैव । एतद्विशेषणाभिधातुमाह-वर्जयेदनकोपघातकारक ति। एवमुक्तेन प्रकारेण यथाशक्ति शक्त्यनुरूपं, न त
सामान्यन, गईणीय प्रकृत्या, बहुक्लेशं प्रवृत्तौ, प्रायतिविराधकं खान्याधिक्याभ्यामुचितविधानमेव शास्त्रोक्तेन विधिना, अत्य.
परलोकपीमाकरं, समारम्नमारकर्माऽऽदिरूपम् । तथा न मतभावसारं महता प्रणिधानबलेन, प्रतिपद्यत धर्मगुणान्न रा
चिन्तयेत् परपीमा सामाग्येन । न भावयद दीनतां कस्यचिदसं. भसिकया प्रवृत्या, अस्या विपाकदारुणत्वात् । किंतूतांस्ता
प्रयोगे, न गच्छेहर्ष कस्यचित्संप्रयोगे,न सेवेत वितथाभिनिवे. नित्याह-(तं जहा इत्यादि) तद्यथा-स्थरप्राणातिपातविरम
शम्, अतस्वाभ्यवसायं, किन्तु उचितमनःप्रवर्तकः स्यावचनाणं, स्थूरमृपावादविरमणं स्यूराइत्तादानविरमणं, म्यूमैिथुनधि
नुसारेण एवं न भातानृतमयाख्यानाऽऽदि, न परु निष्ठरं, रमणं स्थूलपरिग्रहावरमणमित्यादि । श्रादिशब्दादिखताऽऽयत्त
न पेशून्यं परप्रीतिहारि, नानिबद्ध विकथाऽदि, किंतु हित. रगुणपरिग्रहः । मादावुपन्यासश्च भावत इत्थमेव प्राप्तेरिति ।
मिननायकः स्यात् सूत्रनीत्या। एवं न हिंस्याद् नूतानि पृथि.
व्यादीनि, न गृहीयाद दत्तं स्तोकमपि, न निरीकेत परदारान् , उक्तं चरागतः। न कुर्यादनथदएम अपध्यानाऽऽचरिताऽऽदि,
किंतु राना " सम्मत्तम्मि उ बद्ध, पत्रियपुहत्तेण साबो होजा । काययोगः स्यादागमनीत्या । तथा (लाभोचियदाणेत्यादि) चरणोवसमस्त्रयाणं, सागरसंखंतरा होति ॥१॥
तथा लामोचितदान:-अष्ठभागाऽऽद्यपेक्षया तथा,लाभोचितभो.
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(२६०३) अभिधानराजेन्द्र
धम्म
गः - श्रष्टनागाऽऽद्यपेया, लाभोचितपरिवारः चतुगादिपरिमातिनिधिकारः स्यात् चतुमगा पयैव । उकं चात्र लौकिकैः
" पादमायानिधिं कुर्यात्पाद विताय वर्द्धयेत् । धर्मोपभोगयोः पारं पादं भर्त्तव्यपोषणे ॥ १ ॥” तथाऽन्यैरप्युक्तम
" आयाइ नियुञ्जीत, धर्मे याऽधिकं ततः । शेषेण शेषं कुर्वीत, यत्नतस्तुच्छ मैहिकम् ॥ १ ॥ " इत्यादि । तया असंतापकः परिजनस्य स्यादिति वर्तते शुभप्रणिधानेन गुरुकरो यथाशक्ति मनस्थिति कथन शोलस्थेन अनुकम्पा प्रतिकृया निर्मा लोचना एवंगुणः स्वादिवाह एवं यस्मात्तापाने पि धर्मः जीवोपकार नावात् तथाऽन्य पातन इति जीवाविशेया सर्वे जीवा वर्तते कणभेदेन किं तु ममत्वं बन्धकारणं लोजरूपत्वात् । उक्तं च"संसारानिधी या कमर्मपरिघट्टिता संयुज्यन्ते वियुज्यन्ते तत्र कः कस्य बान्धवः १॥ १ ॥ "
तथा
" अत्यायतेऽस्मिन् संसारे, नूयो जन्मनि जन्मनि । सच्चो मेवायसी सियोन बन्धुरनेकधा ॥२॥ इत्यादि । सर्वथा परिभावनामात्रमेतत्स्वजनो न स्वजन इति । (तह तेसु इत्यादि) तथा तेषु तेषु समाचारेषु समु वर्त्तत, स्मृतिसमत्वाऽगतः स्यात् श्राभोगयुक्तः कथमित्याहrasts देवsarss दिनामा श्रमुककुले नाकापेक् अमुकशिष्यो धर्मतः तत्तदाचार्यपेक्षया, अनुकधर्मस्थानस्थितः अणुवनाऽऽद्यपेक्षया न मम तद्विराधना साम्प्रतम्, न म माचिनाम्नः तथा वृद्धिर्मतस्य धर्मस्था माधर्मानमभूनकर ए
सद्धितं सुन्दरपरिणामत्वेन, असारमन्यत्सर्वमर्थजाताऽऽदीति, विशेषतोऽग्रिमेन विपाकस्यायम्
1
"पायेनैवार्थान्धवत् । बडिशा मित्रवत्ततु, विना नाशं न जीर्यति ॥ १ ॥ " इति । तदेवमेवामा ोिकः समुपचितपुण्यसं नाराः परमकारुणिकः तथापत्यविचा ऽनुतरबोधितः जगक समविशेष इति । एवं समालोच्य तदविदेषु अधिनस्थानादिषु समाचारेषु विविधेषु सम्पत् पर्चेत सूचया भामल निवर्तनम् तेरावारनियो । ( तहा जागरिजेत्यादि ) तथा जागृयात् भावनिषाविरहण, धर्मजागरया तत्वाऽऽओोचनरूपया, को मम कान्त्रः यथारूपः १ किमेतस्याचितं धम्माऽनुष्ठानम् ? - सारा विषयाः, तुच्छाः शब्दाऽऽदयो, नियमगामिनो वियोगान्ताः, विरसावसानाः परिणामदारुणाः, तथा जयानको मृत्युः, महाभयजननः, सर्वाभावकारी तत्साध्यार्थक्रियाभावात् । अविज्ञाताऽऽगमनः, अदृश्यस्वभावत्वात् मृत्योः । निवारणीयः, स्वजनाऽऽदि बनेन । पुनः पुनरनुबन्धी, अनेकयोनिनावेन च एस्पीच मृत्यधिकचि
1
धम्म
शिष्टः ?, इत्याह- एकान्तविशुद्धः निवृतिरूपः, महापुरुषसेवि तस्तीकरादिसेवितः सर्वहितकारी मैत्र्यादिरूपतया । मिर तिवारी तथागृहीतपरिपालनेन, परमानन्द हेतुः निर्माणका रणमित्यर्थः । नम एतस्मै धर्माय अनन्तरोदितरूपाय नम एप्रकाशकन्योऽन्यः नम एतद्धर्मपालको तिज्यः, नमस्तकम्मंप्ररूपकेभ्यो यतिभ्य एव, नम एसमेत आयकादिज्य, इच्छा ठिपशुमपानमाह-सम्यमनोवाक्काययोगः - नेन तु सम्पूर्णप्रतिपतिरूपं प्रणिचिविशेषमाह-नवतु म तत् कल्याणम, अधिकृत धर्मप्रतिपत्तिरूपं परमकल्याणानां जिनानामनुनावतः, तदनुप्रणेत्यर्थः । सुप्रणिधानमेवं चिन्तयेत् पुनः पुनः । एवं हि स्वाऽऽशयादेव तनिमितोऽनुग्रह इति । तथा एनम्मंयुक्तानां यतीनामवपातकारी स्यात्, आशाकारीति जावः प्रधानं मोहनछेदनमेतत् । तदाज्ञाकारित्वं त म्योच्छेदन योगनिष्प्रकृतयेति हृदयम् प कुशाभ्यासेन विशुद्धयमानो विशुद्धयानसेवक इति प्रक्रमः । नायनयोकरुपया कमीपगमेन हेतुना उपेत्येतस्य धर्मस्य योग्यताम् । एतदेवाऽऽह तथा संसारविरक्तस्तदोषावनया, संविग्नो जवति मोक्षार्थी मरवरहित अपरोपतापी परमापारी विशुको न्यादिभेदेन विशुमानभावः शुभ पं० सू० २ सूत्र ।
(तमधिश्व धर्मस्तुतिः 'काउसमा ' शब्दे तु मा ४१६ पृष्ठे " तमतिमिर " इत्यादिगाथा निर्भाविता)
(१६) वा पदार्थ धम्मो मंगनमुकि, हिंसा संजमो तवो ।
देश निति जस्स घम्मे सवा महो ॥ १ ॥ घर्मो मङ्गलमुत्कृष्ट- महिंसा संयमस्तपः ।
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देवाऽपि तं नमस्यन्ति, यस्थ धर्मे सदा मनः ॥ १५ तत्र 'धृ' धारणे. इत्यस्य धातोः मप्रत्ययान्तस्येदं रूपं धर्म इति । मङ्गलरूपं पूर्ववत् । तथा 'कृष्' विलेखने, इत्यस्य धातोत्पूर्वस्य निष्ठान्तस्येवं रूपमुकमिति तथा 'हिसि' दिसायाम. इ त्यस्य शदितो धातोः ॥ ९५८ ॥” इति नुमि कृते स्थ नुम् धिकारे टायन्तस्य नञ्पूर्वस्येदं रूपम्, यदुनाहि सेति । तथा'य' उपरमेस्वरूपात संपूर्वस्यान्तस्य संयम रूपं भवति । तथा 'तप' सन्तापे, इत्यस्य धातोरसुन्प्रत्ययातस्य तप इति तथादिषु कीडाविजिगीषाव्यवहारति स्तुतिमोद मदन कान्तिगतिषु इत्यस्य धातोरव्यत्ययान्तस्य जसि देवा इति नवति । अपिशब्दो निपातः तदित्येतस्य सर्वनाम्नः पुंस्त्वचिवत्तायां द्वितीयैकवचनं तमिति भवति । तथा-नमसित्यस्य प्रातिपदिकस्य " नमो वरिवश्चित्रः कयच् ||३|११ १६॥ इति क्यजन्तस्य त्रक्रियान्तादेशः, ततश्च नमस्यन्तीति भ वति । यदिति सर्वनाम्नः षष्ठ्यन्तस्य यस्येति भवति, धर्मः पूर्ववत् । सदेति सर्वस्मिन् काले " सर्वेकान्यकिय सदः काले दा ॥ ५ । ३ । १५ ॥ इतिदाप्रत्ययः, " सर्वस्य सोऽन्यतरस्यां दि ॥ ५ । ३ । ६ ॥ इति स आदेशः सदा 1 तथा
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"
मन 'ज्ञाने इत्यस्य धातोरसुन्प्रत्ययान्तस्य मन इति - वति । इति पदानि । साम्प्रतं पदार्थ उच्यते-तत्र दुर्गती प्रगततमात्मानं धारयतीति धर्मः तथा "दुर्गतिप्रसृतान् जीवान्, यस्माद्धारयते ततः । धचे चैतान शुभे खाने, तमा
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घरम
(२६७४) अभिधानराजेन्द्रः।
धम्म
धर्म इति स्मृतः ॥ १॥" मङ्गयते हितमनेनेति मङ्गलमित्यादि नकं च-" रागावा हेषाद्वा. मोहाद्वा वाक्यमुच्यते धनुतम् । पूर्ववत् । उत्कृष्ट प्रधानम, न हिंसा अहिंसा, प्राणातिपातविर- यस्य तु नैते दोषा--स्तस्यानृनकारणं किं स्यात् ॥१॥" :तिरित्यर्थः। संयम अाश्रवद्वारोपरमः, तापयन्स्यनेकभवोपात्त. त्यादि । तथापि तथाविधश्रोत्रपेकया तत्रापि भएयते कचिदुमष्टप्रकारं कर्म इति तप,अनशनाऽऽदि । दीव्यन्तीति देवाः,क्री- दाहरण, तथाऽऽश्रित्य तु श्रोतारं हेतुरपि कचिद्भण्यते,न तुनिमन्तीत्यादिभावार्थः। अपिः संभावने, देवा अपि, मनुष्यास्तु योगतः,तुशब्दः श्रोतृविशेषणाथैः । किंविशिष्टं श्रोतारम ?, पटुसुतराम। तमित्येवंविशिष्ट जीवं नमस्पन्तीति प्रकटार्थम् । यम्य धियं, मध्यमधियं च, न तु मन्दधियमिति । तथाहि-पटुधियो जीवस्य किम् । धमें प्रागभिहितस्वरूपे, सदा सर्वकालं मन हेतुमात्रोपन्यासादेव प्रनुतार्थावगविर्भवति, मध्यमधीस्तु तेनैव इत्यन्तःकरणम् । अयं पदार्थ इति । पदविग्रहस्त परस्परापे बाध्यते,न वितर इत्यर्थः। तत्र साध्यसाधनान्वयव्यतिरेकप्रदर्शवसमासभाकत्वेनेह निधन्धनाजावान प्रदर्शित इति चानना. नमुदाहरणमुच्यते दृधान्त इत्यर्थः । साध्यधर्मान्वयव्यतिरेकप्रत्यवस्थाने तु प्रमाणचिन्तायां यथावसरमुपरिष्टावक्ष्यामः ।। सकप्पश्च हेतुः । इह च हेतुभुलय प्रथममुदाहरणानिधानं, (२०) प्रवृत्तिः पुनस्तयोरमुनोपायनेति प्रदर्शयन्नाह- न्यायानुगतत्वात्तबलेनैव हेतोः साध्यार्थसाधकरवोपपत्तेः । क. कत्थइ पुच्छ सीसो, कहिँ वि अपुछा कहंति मायरिया ।
चिकेतुमननिधाय दृष्टान्त एवोच्चत शति न्यायप्रदर्शनार्थे वा।
यथा गतिपरिणामपरिणतानां जीवपुलानां गत्युपष्टम्नको ध. सीसाणं तु हियट्ठा, विपुलतरागं तु पुच्चाए ॥ ३७॥
आस्तिकायश्चकुष्मतो ज्ञानस्य, दीपवत् । उक्तं चकचित् किश्चिदनवगच्छन् पृच्छति शिष्यः कथमेतदितीयमेव "जीवानां पुफलानां च, गत्युपष्टम्मकारणम। वासना, गुरुकथनं प्रत्यवस्थानम,श्त्थमन यो प्रवृत्तिः। तथा क्वचि. धम्मास्तिकायो ज्ञानस्य, दीपश्चकुष्मतो यथा ॥१॥" दपृष्टा एव सन्तः पूर्वपकमाशङ्कय किश्चित्कथयन्त्याचार्याः तत तथा कचितुरेव केवलोऽभिधीयते, न रष्टान्तः, यथा मदीप्रत्ययस्थानमिति गम्यते। किमर्थ कथयन्त्यत आह-शिष्याणामेव योऽयमइयो, विशिष्टचिह्नोपनम्यन्यथानुपपत्तेरित्यलं प्रसनेने. हितार्थ,तुशब्द एषकारार्थः,तथा विपुलतरं तु प्रभूततरंतु कथ. ति मायार्थः ॥ ४॥ पन्ति। (पुरुछाए त्ति) शिष्यप्रश्ने सति पटुप्रझोऽयमित्यवगमा
तथादिति गाथार्थः। "एवं तावत्समासेन, व्याख्या लक्षणयोजना । कतेवं प्रस्तुते सूत्रे, कार्यबमपरेवपि ॥१॥" प्रन्यविस्तरदोषान्न कत्या पंचावयव, दसहा वा सबहान पमिसिर्फ । पक्ष्यामः, उपयोगे तु वदयामः प्रति सूत्र,यतः सत्रस्पर्शकोऽधुना न य पुण सम्बं भाइ, हंदी सविआरमक्खायं ॥५०॥ प्रोच्यते । अनुगमनियुक्तिविनागश्च विशेषतः सामायिकहना. प्याज यः तत्रोदितं यतः
श्रोतारमेवाङ्गीकृत्य क्वचित्पञ्चावयव, दशधा वेति क
चिदशावय, सर्वथा गुरुश्रोत्रपेकया, न प्रतिषिमहाह" होइ कयत्थो वोत्तु, सपयच्छेनं सुअं सुप्राणुगमे ।
रणाभिधानमिति वाक्यशेषः । यद्यपि च न प्रतिसुत्तालावगनासो, जामादिमासविणियोग ॥१॥
विद्धं तथाप्यविशेषेणैव, न च पुनः सर्व जण्यते, उदाहरसुतप्फासियणिज्जु-त्तिणि प्रोगा सेसो पयत्या। पाय सोचिय णेगम-णयाइमयगोयरो हो॥२॥
णादि । किमित्यत पाह-(हंदी सवियारमक्खायं ति) हन्दी
त्युपप्रदर्शने, किमुपदर्शयति-यस्मादिहान्यत्र च शास्त्रान्तरेसएवं सुत्ताणुगमो, सुत्तालावगको अनिक्वेचो।
विचारं सप्रतिपकमाख्यातं, साकल्यत उदाहरणा-ऽधभिधानसुत्तफासियणिज्जु-त्तिणया अवचंति समग तु ॥३॥"
मिति गम्यते । पञ्चावयवाश्च प्रतिझाऽऽदयः । यथोक्तम्-"प्रतिइत्यलं प्रसनेत गमनिकामात्रतत् । दश. १ श्र.।
काहेतदाहरणोपनयनिगमनाः । अवयवा दश पुनः प्रतिझाविभधर्मो मङ्गलमुत्कृष्टमित्यादौ धर्मग्रहणे सति अहिंसासंयमत
त्यादयः। वक्ष्यति च-" ते उ पइयविहत्ती" इत्यादि । पोग्रहणमयुक्तं, तस्याऽहिंसासंयमतपोरूपत्वाव्यत्रिचारित्वादि
प्रयोगांश्चैतेषां लाघवामिहेव स्वस्थाने दर्शयिष्यामीति गा. तिनच्यते, नाहिंसाऽऽदीनां धर्मकारणवाद्धम्मस्य च कार्य
थार्थः। दश०१०। स्वात्कार्यकारणयोश्च कथञ्चिद् भेदात्. कथञ्चिदभेदश्चेति, तस्य द्रव्यपर्यायोभयरूपत्वात । उकं च-“णस्थि पुढवीविसिहो,घमो
"धम्मो मंग" इत्यादिलक्षणमधिकृत्य निर्दिश्यते-अहिंसात्ति जतेण जुमामा
संयमतपोरूपो धर्मों मङ्गलमतकृष्टमिति प्रतिक्षा, श्व च धम्मै जे पुण घत्ति पुत्र, नासी पुढवी इतो.मी ।।" इत्यादि। गम्यादिधर्मव्यवच्छेदेन तरस्वरूपचाप
इति धर्मनिर्देशः,दिसा संयमतपोरूप इति धर्मविशेषणमुस्कृष्ट नाय वा,महिंसाऽऽदिग्रहणमदुष्टमित्यविस्तरेण । माह-अहिं.
मङ्गलभिति साध्यो धर्मः धमिधर्मसमुदायः प्रतिज्ञा, श्यं भ सासंयमतपोरूपो धर्मो मनसमुत्कृष्टमित्येतद्वचः किमाशासिक
श्लोकानोक्तेति।देवादिदेवपूजितत्त्वादिति हेतुः,श्रादिशब्दा
सिविद्याधरनरपतिपरिग्रहः । अयं च श्लोकतृतीयपादेन ख. म, पाहोस्विटुक्तिसिकमपि ?.अत्रोच्यते-उभयसिद्धम्, कुतः !,
लूक्तोऽयसेय,महदादिवदिति दृष्टान्तः। अत्रापि चाऽऽदिशब्दाजिनपचनत्वात्,तस्य च विनेयसचामेवयाशाअदिसिद्धत्वात् ।
माधरादिपरिग्रहः । अयं च श्लोकचरमपादेनोक्तो चेदितव्य आह च नियुक्तिकारस जिणवयणं सिकंचे-व भाई कथई उदाहरणं ।
शति । न च भावमनोधिकल्याहद्दधान्ते भस्ति कश्चिविरोध
इति । शह यो यो देवाऽऽदिपूजितः स स सत्कृष्ट मङ्गलं यधाई. श्रासज्जा सोयारं, हे वि कहिं वि मज्जा ॥४ ॥ दादयस्तथा च देवाऽऽदिपूजितो धर्मम इत्युपनयः, तस्मादेवाजिनाः प्राग्निरूपितस्वरूपा, तेषां वचनं तदाशया सि. 55दिपूजितम्वादुत्कृष्ट मायामिति निगमनम् । इदं चावयवस्य कमेव सत्यमेष प्रतिष्ठितमेव, अविचार्यमेवत्यर्थः कुतः जि. | सूत्रोक्तावयवत्रयाविनाभूतमिति कृत्वा तेन सूचितमवगन्तव्यमानांरागादिरहितत्वालायाऽऽदिमतश्च सत्यवचनासंभवात् ।। मित्यवं विस्तरेण ।
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धम्म
साम्यतमेतावार्शिक नियुक्या प्रतिपादपाह
धम्मो गुणा अहिंसा-या उ ते परममंगलपइचा । देवा लोगपुजा पणमंत सुधयमिह हेऊ ॥ ८ए ॥ प्राग्निशियम व क इत्याह-गु यः श्रादिशब्दात्संयमतपःपरिग्रहः तुरेचकारार्थः मर्दि दय एव ते परममङ्गलं प्रधानमङ्गत्रमिति प्रतिज्ञा तथा देवा श्र पिप्रहारविद्याचर नरपतिपरिग्रहः लोकपूज्या लोक पूजनीयाः प्रणमति न शो व्यवस्थितमित्ययं हेतुरर्थ सुचकत्वाद्धेतुरिति गाथाऽर्थः । दितो अरहंता, अथगारा व बहवो व जिणसीमा । बचते नजर नं नरवणो विपणति ।। ६० ।। शन्तः प्राग्निरूपेतशब्दार्थः स नाशोकाद्याप्रतिहा ssदिरूप पूजा महेन्तीत्यईन्तः, तयानगाराश्च बहव पत्र जिनशि च्या इति । न गच्छन्तीत्यगा वृकास्तैः कृतमगारं गृहं तद्येषां वि द्यत इत्यर्शाऽऽराकृतिगणत्वादप्रत्ययः । श्रगारा गृहस्थाः, न श्रगारा अनगाराः, चशब्दः समुच्चयार्थः, तुरेचकारार्थः, ततः श्च बढ्न एव नाल्पाः रागाऽऽदि जेतृत्वाज्जिनाः, तविष्यास्तद्विनया गीतमा परोदातर मेवाका ते देवादिति इति। उच्यते यत्तावदुक्तम्-परोक्षत्वादिति तद् दुष्टम्, सूत्रस्य त्रिका लगोराव कहा कि वाईबा द्विनिश्वया-वृतमतिक्रान्तमनुवर्तमाना विना ज्ञायते कथमित्यत श्राह यद्यस्मात् नरपतयोऽपि रा जानोऽपि गमतीदानीमपि नासा हादगुणमिति गम्यते । अनेन गुणानां पुज्यत्वमावेदितं जवतीति गाथार्थः । उपसंहारो देवा, जह वह राया चि पण सुधम्मं । तम्हा धम्मो मंगल-मुकिडमि निगमणं ति ॥ १ ॥ उपसंहार उपनयः स चायम्--देवा यथा तीर्थकराऽऽदीतथा राजाऽप्यन्यो ऽपि जनः प्रणमतोदानीमपि सुम्मणमि तिस्तस्मा देवाऽऽपूजितस्यामष्ट मिनिगमनं प्रतिमाथार्थः ।
- भ
मेवायुक्तम्
उपनिपानाद्याधिकारोऽपि धर्मप्रशंसा साम्प्रतं दशावयवं तथा स चे हैव जिनशासन इत्ययधिकारं चो. पदर्शयति च दशावयवाः प्रतिज्ञाऽऽप एव प्रतिज्ञाऽऽदि दिसहिता भवन्ति अ
कारका प्रतिज्ञादीनामिव जायनीमिय तत्तु नोच्यते गमनिका मात्रत्वात्प्रारम्भस्येति । साम्यनमधिस्तदशायय प्रतिपादनायाऽऽ विजयास सार्हेति सायो प देऊन विष हिंसाइ जयंति ॥ ६२ ॥ द्वितीयापञ्चावयवोपमयनापूर्व
मावासी प्रतिका
माध
(२६८५) अभिधानराजेन्द्र
शब्दार्थः क्षेत्र
६७२
धम्म
सत्यं प्रतिज्ञानिर्देशः हेतुनिर्देशमाद हेतु स्मार द्भाविकेषु पारमार्थिकेषु निरुपचरितेष्वर्थेष्वत्यर्थः। अहिंसाऽऽदि यादिशब्दवादाऽऽदिविरतिपरिषद अध्यक (सनाविति ) सद्भावने निरुपचरितसक प्रदुःख कृपा येथे त्यर्थः । यतन्ते प्रयत्नं कुर्वन्तीति गाथार्थः ।
साम्प्रतं प्राधिकाजह जिणसामण निरया, धम्मं पार्लेति साहयो सुकं । न कुतित्यिएस एवं दीसइ परिपाल्लणोवाओ ||३|| यथा येन प्रकारेण जिनशासननिरता निश्चयेन रता धर्मे प्रतिशब्दार्थे पालयन्तिरकृतिस्कः प्रब्रजिताः जीवनका पनि कृतकारितादिपरिजने शुरू मफलान्तरीया या कृतीविद्या साधु
परियानोपायः परजीवनिकायपरिज्ञानाद्यमाचा तू, उपायग्रहणं च साभिप्रायक, शास्त्रोतः खलूपायोऽत्र चि पुरुषानं कारुषादि विधकारिणोऽपि सब न्त्येवेति गाथार्थः ।
अत्राऽऽह-
ते दोनच ते पसंति | नाणि सावज्जो कुतित्यधम्मो जिणवरेहिं |४| चितवान्तरीयमेषु किम्यमेश सोफे तथा जेवमेव यथातथं ते प्रशंसन्ति कथमेतदित्यत्रोवनस्य कुमायां भक्ति का पूर्व सा तीर्थश्रादधः के, नरे स्तीर्थकरैः, "ण जिरोहि उ पसन्थो " इति वचनात्, जीवनिकायपरिज्ञानाद्यभावादेवेत्यत्रापि बहु वनो
ते प्रम्यविस्तरभवादिति गाथार्थः।
तथा..
जो तेसु धम्मसद्दो, सो उत्रारेण निच्चएण इहं | जद सीद्दुसीहे पाहस्पारोऽस्य ॥ ५ ॥ यस्तेषु तन्त्रान्तरीयधर्मेषु धर्मशब्दः, स उपचारेण परमा• चैन, निश्चयेनात्र जिनशासने, कथम ?, यथा सिंहशब्दः सिंहे व्यवस्थित प्राधान्येन, उपचार उपचारेणान्यत्र माणवका यथा सिंहो माणवकः, उपचारनिमित्तं च शौर्यक्रौर्याssदयः, धर्मे त्वहिंलाऽऽद्यभिधानाऽऽदय इति गाथाऽर्थः । एस पद्मासुद्धी, हेड आईसाइ पनि । सम्मा जयंती, देवनिमुद्धी इमा वत्य ॥ ए६ ॥ एषा उतस्वरूपा प्रतिज्ञायाः शुद्धिः प्रतिज्ञाशुकः देतुरहिंसाऽऽदिषु पञ्चस्वपि सङ्गावेन यतन्त इत्ययं च प्राग् व्याख्यात एवं शुचिमभिधातुकामेन च भाष्यकृता पुनरुपम्यस्त इत्यत वाढद्धिर्हेतु विविषयविभाषाब शुद्धिः, श्मा श्यं तत्र प्रयोग इति गाथार्थः ।
।
भगवा वगरससासणासु नति फासून कय अकारिययादि भोई प || ७| यद्यस्माद्भकं च पानं चोपकरणं च वसतिश्च शयनाऽऽसनाssदयश्चेति समासस्तेषु । किम् ? यतन्ते प्रयत्नं कुर्वन्ति कथमेतदेवमित्यत्राss - यस्मा प्रासुकं चाकृतं चाकारितं चाननुमतं चाबुदिवशी येषां ते तथाविधाः प्रासा
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(२६६६) भनिधानराजेन्डः।
धम्म
धम्म
प्रगता असवःप्राणा यस्मादिति प्रासुकं निर्जीवम् | तश्च स्वकृतम पि भवत्यत पाह-अकृतं, तदपिकारितमपि भवत्यत आह-श्र. कारितम्, तदप्यनुमतमपि भवत्यात प्राइ-मननुमतम् । तदप्यु. हिटमपि नवति यथावदार्थकाऽऽदि, न च तदिध्यत श्स्यत अाहअनुद्दिएमिति, पतत्परिज्ञानोपायचोपन्यस्तसकसप्रदानाऽऽदि. लकणस्तनावगन्तव्य इति गाथार्थः।
तदन्ये पुनः किमित्यत पाहअप्फासुगकयकारिय-प्रणमय नदिभोश्णो हंदि । तसथावरहिंसाए, जणा अकुसला उ लिप्पीते ।। ए॥ अप्रासुककृतकारितानुमोदितोद्दिष्टभोजिनश्वरकाऽऽदयः, इन्दी. त्युपप्रदर्शने, किमुपप्रदर्शयति-बसन्तीति प्रसाद्वीन्छियाऽऽदयः, तिष्ठन्तीति स्थावराः पृथिव्यादयः, तेषां हिंसा प्राणव्यपरो पणलवणा, तया जनाः प्राणिनः, अकुशला अनिपुणा स्थूलमतयश्चरका उदयो लिप्यन्ते संबध्यन्त इत्यर्थः । ह च हिसाक्रियाजनितेन कर्मणा लिप्यन्त इति नावनीयं, कारणे कार्योपचारात् , ततश्च ते शुद्धधर्मसाधका ननवन्ति, साधव पव भवन्तीति गाथार्थः। एसा हेउविसुद्धी, दिलुतो तस्स चेव य विसुदी। मुत्ते जणिया उ फुमा, सुत्तफासे उ झ्यमन्ना || 0 | एषा अनन्तरोक्ता, हेतुविशुकिः प्राग्निरूपितशब्दार्था, अधुना दृष्टान्तः प्राग्निरूपितशब्दार्थः, तथा तस्यैव च दृष्टान्तस्य विशु. कि, किम्?,सूत्रे भणितोक्लेव, स्फुटा स्पष्टा ।
तच्चेदं सूत्रम्जहा मस्स पुप्फेम, जमरो आविया रसं । ण य पुप्फ किनामे, सो य पीणेइ अप्पयं ॥२॥ अत्राह-अथ कस्माद्दशावयवनिरूपणायां प्रतिझाउदीन विहाय सुत्रकृना दृष्टान्त एवोक्त इति । उच्यते-दृष्टान्तादेव हेतु. प्रतिज्ञे सभ्यूह्ये, इति न्यायप्रदर्शनार्थम । कृतं प्रसङ्गेन, प्रकृतं प्रस्तुमः । तत्र यथा येन प्रकारेण दुमस्य प्राग्निरूपितशब्दार्थस्य, पुष्षषु प्राग्निरूपितशब्दार्थेवेव, असमस्तपदानिधानमः नुमेयगृहिद्माणामाहाराऽऽदिषु पुष्पाण्यधिकृत्य विशिष्टसं. बन्धप्रतिपादनार्थीमति । तथा चान्यायोपार्जितचित्तदाने ऽपि ग्रहणं प्रतिषिद्धमेब, चमरश्चतुरिन्द्रियविशेषः, किम् ?, आपियति, मर्यादया पिबत्यापिबति, कम् ? , रस्यत इति रसस्तं निर्यासं, मकरन्दमित्यर्थः । एष दृष्टान्तः । अयं च तद्देशोदाहरणमधिकृत्य वेदितव्य इत्येतच्च सूत्रस्पशिकनियुक्ती दर्शयिष्यति । उक्तं च-सूत्रस्पर्श स्वियमन्येति ।
अधुना दृष्टान्तविशुठिमाह-न च नैव, पुष्पं प्राग्निरूपितस्वरूपं, क्लामयति पीडयति, स च भ्रमरः प्रीणाति तर्पयत्यास्मानमिति सुत्रसमुदायार्थः । अवयवार्थ तु नियुक्तिकारो म. इता प्रपश्चन व्याख्यास्यति ।
तथा चाऽऽहजह भमरो ति य एत्यं, दिटुंतो होइ अाहरणदेसे ।। चंदमुहि दारिग, सोम्मत्तवहारणं ण सेसं ।। १०० ॥ यथा भ्रमर इति चात्र प्रमाणे दृष्टान्तो नवत्युदाहरणदे शमधिकृत्य, यथा चन्मुखी दारिकेयमित्यत्र सौम्यत्वावधारणं गृह्यते, न शेष कलङ्काङ्कितत्वाऽनवस्थितत्वाऽऽदीति गा. थार्थः।
एवं जमराऽऽहरणे, अणिययवित्तित्तणं न सेसाणं । गहापं दिटुंतविमु-छि मुत्ने जणिया इमा चना ।।१०।। एवं चमरोदाहरणे अनियतवृत्तित्वं, गृह्यत इति शेषः, न शेषाणामविरत्यादीनां भ्रमरधर्माणां ग्रहण दृष्टान्त ति । एषा दृष्टान्तविशुकिः सूत्रे भणिता, इयं चान्या सूत्रस्पर्शिकनियुक्ताविति गाथार्थः।
एत्य य चणिज्ज कोई, समाणाणं कीरए मुविहियाणं । पागोवजीविणो त्ति य, लिपंतारंभदोसेण ॥ १०॥ अत्र चैवं व्यवस्थिते सति ज्याकश्चिद्, यथा-श्रमणानां कियते सुविहितानामिति । एतदुक्तं भवति-यदिदं पाकनिर्वतनं गृहिभिः क्रियते, इदं पुरायोपादानसंकल्पेन श्रमणानां क्रियते सुविहितानामिति तपस्विनां, गृहन्ति च ते ततो भिक्षामित्यतः पाकोपजीविन प्रति कृत्वा लिप्यन्ते, प्रारम्भदोषेण।55हारकरणक्रियाफमेनेत्यर्थः । तथा च लौकिका अप्याहु:"क्रयण क्रायको हन्ति, उपभोगेन खादकः । घातको वचि. तन, इत्येष त्रिविधो बधः ॥ १॥" इति गाथार्थः ।
____साम्प्रतमेतत्परिदरणाय गुरुराहवास न तणस्स कए, न तणं वह कए मयकुलाणं । न य रुक्खा सयसामा, फुचंति कए महुयराणं ॥१०३ ।। वर्षति न तृणस्य कृते, न तृणार्थमित्यर्थः । तथा न तृपं वर्द्धते कृते मृगकुलानामांय, तथा न च वृताः शतशाखाः पु. प्यन्ति ऋतेऽर्थाय मधुकराणाम, एवं गृहिणोऽपि न साध्वर्य पाकं निवर्तयन्तीत्यभिप्राय शति गाथार्थः ।
अत्र पुनरप्याहअग्गिम्मि हवी हूयर, आइचो तेण पीणिो संतो। वरिस पयाहियाए, तेणोसहिओ परोहंति ॥ १०४ ।। शह यमुक्तं वर्षति न तृणार्थमित्यादि, तदसाधु, यस्मादग्नी हविर्हयते, आदित्यस्तेन हविषा घृतेन प्रीणितः सन् वर्षति, किमर्थम?, प्रजाहितार्थ लोकहिताय, तेन बर्पितेन किम्?, औषभ्यः प्ररोहन्त्युमच्छन्ति । तथा चोक्तम्-" अग्नावाज्याऽऽहुतिः सम्य-गादित्यमुपतिष्ठते । श्रादित्याज्जायते वृष्टि-वृष्टेरनं ततः प्रजाः ॥१॥" इति गाथार्थः ।
अधुनैतत्परिहारायेदमाहकिं पुन्निक्खं जायइ, जद एवं अह भवे मुरिटं तु । किं जायइ मबत्या, सुन्निक्खं अह नवे इंदो।।१०।। किर्तिकं जायते यद्येवं कोऽभिप्रायः?,तद्धविः सदा इयत एव, ततश्च कारणाविच्छेदेन कार्यविच्छेदोऽयुक्त इति । अथ भवद् दु. रिष्टं तु दुर्नकत्रं दुर्यजन वा,अत्राप्युत्तरम्, किं जायते सर्वत्र पुभिक्कम् ?,नकत्रस्य दुरिष्टस्य वा नियतदेशविषयत्वात्,सदैव स. द्यज्वनां भावात?, उक्तं च-" सदैव देवाः सझावो, ब्राह्मणाश्च क्रियापराः । यतयः साधयश्चैव, विद्यन्ते स्थितिदेतवः।॥१॥" इत्यादि।
अथ भवदिन्द्र ति किम्?वास तो किं विग्धं, निग्घायाईचि जायए तस्स । अह वास ननसपए, न धागाई तो ताहाए । १०६॥
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( २६५७ ) अभिधानराजेन्द्रः ।
धम्म
वर्षति ततः किं विनोऽन्तरायः निर्घाताऽऽदिनिर्जायते, आदिशब्दादिन्दाहादिपरिग्रहः तस्येन्द्रस्य परमेश्वर्ययुक्तान दिनानुपपत्तेरिति भावना अथवर्षति
इति वाक्यशेषन वर्षांत तवस्तृणार्थ, तस्येत्यमभिसंप्रेरनाचादिति गाधायार्थः ।
किं च दुमा पुष्पंती, भमराणं कारणा महासपर्य मा भमरमनुयरिगणा, किआमएज्जा अणाहारा ॥ १०७ ॥ किं च द्रुमाः पुष्यन्ति भ्रमराणां कारणात् कारणेन यथासमयं यथाकालं मा भ्रमरमधुकरिगणाः क्लामे ग्लानिं प्रति पद्येरन्, अनाहारा अविद्यमानाऽऽहाराः सन्तः, काक्का नैवैदिस्थमिति गाथार्थः ।
साम्प्रतं पराभिप्रायमाह
कस बुकी एसा, वित्ती उवकपिया पयावरणा । सत्ताणं ते दुमा, पुष्पंती महुयरिगण्डा ।। १०७ ॥ अथ कपाचे बुद्धिः स्वाता वृ तिरुपकल्पिता, केन ?, प्रजापतिना केषाम्?, सवानां प्राणिनां तेन कारणेन द्रुमाः पुष्यन्ति, मधुकरिगणार्थमेवेति गाथार्थः । अत्रोत्तरमाद
तं न जब जेण दुमा, नामागोयस्स पुण्वविहियस्स । उदरणं पुप्फफलं निवसती इमे च ।। १०७ ।। यदुक्तं परेण तन्न भवति, कुत इत्याह--येन: दुमा नाम गोत्रस्य कर्मणः पूर्वविहितस्य जन्मान्तरोपात्तस्य, उदयेन विपाकाजबलपुष्पफलं निवर्त्तयन्ति कुर्वन्यथा सव
प्रसंग इति भावनीयम् । इदं चान्यत्कारणमामि ति गाथार्थः ।
अस्थि बहू संमा, जमरा जत्थ न उवेति न वसंति । तत्य चि पुष्कति दुमा, पराई एसा दुमगणाणं ॥ ११०॥ सन्ति यहूनि वनखरामानि तेषु तेषु स्थानेषु मत्रयान्ति अतोनवसन्ति तेष्वेव तथापि पुष्यन्ति मा, अतः प्रकृतिरेषा स्वताय गणानामिति गाथार्थः ।
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अत्राऽऽह
अ गई कीम पुणो, सच्वं कालं न देति पुष्कफलं । जं काझे पुप्फफलं, दयंति गुरुराह अत एव ॥ १११ ॥ यदि प्रकृतिः किमिति पुनः सर्वकालं न ददति न प्रयच्छन्ति, क्रिम ?, पुष्पफलम, एवमाशक्याऽऽ यद्यस्मात् कानियत एव पुष्पफलं ददति, गुरुराह अत एवास्मादेव हेतोः। पगई एस दुमा, ने उस आग संते। पुष्कति पायवगणा, फलं च काले बंधेति ॥ ११२ ॥ प्रकृतिरेषा हुमाणां वतुमये वसन्ता उदा. स्यन्ति पादपगणा वृक्षसंघातास्तथा फलं च कालेन बन्न ति, तदर्थानभ्युपगमे तु नित्यप्रसङ्ग इति गाथार्थः ।
प्रकृतेायोजनकु
किं नु गिनीमा कारणा महासमर्थ । मासमा भगवती किल्लामा अाहारा ।। ११३ ।।
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धम्म
किं नु गृहिणो राध्यन्ति पार्क निर्वर्त्तयन्ति श्रमणानां कारणे. न, यथाकालं, मा श्रमणा भगवन्त अक्लामन्ननाद्वारा इति पूर्ववदिति गाथार्थः।
अत्राऽऽह
समरण कंपनिमित्तं पुष्ठनिमित्तं च गिनिवासीओ | कोइ जणिज्जा पागं करेंति सो जन्नइन जम्हा १ ॥ ११४ ॥ । श्रमणेभ्योऽनुकम्पा अनुकम्या निमित्तं न होते हिर ग्रहणादिनायकमनुपकुर्वन्तीति
पार्क निर्वर्तयत्यतः मनुकम्पानिमिनं तथा सामान्ये न पुण्यनिमितं च गृहनिश्चित्यात् पार्क कु तिनैतदेवं कुतात्
कंतारे दुब्जिक्खे, आयंके वा महइ समुत्पन्ने ।
रति समविद्धिया सव्वाहारं न जुति ।। ११५ ।। कान्तारेऽरण्याssदौ, दुर्भिकेऽन्नाकाले आतङ्के वा ज्वरादौ महति समुत्यन्ने सति रात्री भ्रमणाः सुविहिताः शोभ मानुष्ठाना कि सर्वोदारमोदना दिन
अह कीस पुण मिहत्या, राणं परतरेण रंति । समणेहि सुविहिप, पटविहाहारविरहिं ।। १२६ ।। अथ किमिति यस्ता रात्री इतरेणात्या इरेण राज्यन्ति श्रमणैः सुहितैश्चतुर्विधाऽऽदारविरतैः सद्भिरिति गाथायार्थः ।
किञ्च
अस्थि बहुगामनगरा समाजस्य न वेति न वसंत सत्य विरंति गिद्दी, पगई एमा गित्थाणं ॥ ११७ ॥ सन्ति बहूनि ग्रामनगराणि तेषु तेषु देशेषु श्रमणाः साधवो यत्र नोपयान्ति श्रन्यतो न वसन्ति तत्रैव, श्रथ च तत्रापि राज्यतिगृहिया, प्रकृतिरेषा गृहस्थानामिति गाथार्थः । अमुमेवार्थ स्पष्टयन्नाह -
पगई एस गिद्दी में गिहियो मामनगरनिगमेसु । रंपति अपणो परिकाले अाए ।। ११० ।। प्रकृतिरेषा वृद्धियां वर्त्तते यद दिखो ग्रामनगरनिगमे मि गमः स्थानविशेषः, राध्यन्ति श्रात्मनः परिजनस्यार्थाय निमितं काति योग इति गाथाः।
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तत्थ समणा तवस्सी, परकरूपरनिट्ठियं विगयधूमं । आहारं पसंती जोगाणं साहणार ।। ११५ ।। तत्र भ्रमणः तपस्विनविहारिणो नेतरे पनि तिमिति कोऽर्थः १ पराये हमार परा
तं विगतधूमं धूमरहिमकीमतिया चिरागमत्यर्थः उर्फ "रामे स इंगाल, दोसेण सघूममं विषाणाहि "ब्राहारमोनाि णमेवन्ते गधेपन्ते किमर्थमाह-योगानां मोगा संयमयोगानां वा साधनार्थे, न तु वर्णाऽऽद्यर्थमिति गाथार्थः । नत्रको परिसुद्धं, उग्गम उप्पायनेसणामुद्धं ! छारखण्डा, अहिंसागुपालगडाए । १२० ॥ इयं किल मित्रकी, अस्या व्याख्यानयकोटिपर
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(२६५) भाभिधानराजेन्षः।
धम्म
रावं. तत्रैता नवकोट्या, यदुत-" हणणहणावेर, हणं | गवेषणाऽदिलवणे, निरताः सक्ताः,उपसंहारस्योपनयस्य. गु. तं नाणुजाण । एवं-न किणइ ३, एवं-न पय ३।" पतानि: किरियं वक्ष्यमाणलक्षणति गाथार्थः। परिशुरूं, तथा उम्मोत्पादनैषणाशुद्धमित्येतद्वस्तुतः सकलो.
अवि भमरमयरिंगणा,अविदिन्नं प्रावियंति कुसुमरसं । पाधिविशुद्धकोटल्यापनमेव, एवंनतमपि किमर्थ भुजते , प. स्थानरकणाम?,तानि चाम्नि-"वेयणवेयावरचे,शरियट्ठाए
समणा पुण जगवंतो, नादिनं नोत्तुमिच्छति ॥ १२॥ य संजमाप । तह पाणवित्तियाए, न पुण धम्मचिंता.
अपि भ्रमरमधुकारिगणाः, मधुकरीग्रहणमिहापि स्त्रीसंग्रह। प"॥१॥ अपि च-जबान्तरे प्रशस्तभावनाभ्यासादहिसा.
णार्थम । जातिसंग्रहार्थमिति चान्ये । प्रविदत्तं सन्तं,किम,प्रानुपालनार्थम । तथा चाऽऽह-नाहारत्यागतो भावितमते दे.
पिवन्ति,कुसुमरसं कुसुमाऽऽसवं, श्रमणाः पुनर्भगवन्तो नादत्त इत्यागो भवान्तरेऽप्यहिंसायैव जयतीति गाथार्थः ।
भोक्तुमिच्छन्तीसि विशेषः । इति गाथार्थः । दिलुतमुछि एसा, उपसंहारो य सुत्तनिहिट्ठो।
साम्प्रतं सूत्रेणधोपसंहारविशुद्धिरुच्यते-कश्चिदाह-" दाण
भरोसणे रया "इत्युक्तम. यत एवमत एव लोको भक्त्याकसंती विनंति त्ति य, संतिं सिकिं च साहेति ॥१२॥
समानसस्तेभ्यः प्रयच्छत्याधाकर्माऽऽदि। तस्य ग्रहणे सश्योपरोरान्तशुद्धिरेषा प्रतिपादिता, उपसंहारस्तु उपनयस्तु सूत्र
धः, अग्रहणेच स्ववृश्यलाभ इति । अत्रोच्यते-बयं चेत्यादि निर्दिष्टः सूत्रोक्तः।
सूत्रम्तचे सत्रम
वयं च वित्तिं लम्भामो, न य काइ नवदम्पइ । एमेए समणा मुत्ता, जे बोए संति साहुणो।
अहागमेसु रीयंते, पुप्फ भमरो जहा ॥ ४॥ विहंगमा व पुप्फेसु, दाग भत्तेसणे रया ।। ३ ।।
वयं च वृत्ति लप्स्यामः प्राप्स्यामस्तथा यथा न कश्चिदु. एवमनेन प्रकारण पते ये अधिकृताः प्रत्यक्षेण बा परि. पहन्यते । वर्तमान प्यत्काझोपन्यासबैकालिकन्यायप्रदर्शनार्थः। वमन्तो दृश्यन्ते, श्राम्यन्तीति श्रममास्तपस्यन्तीत्यर्थः । तथा चैते साधवः सर्वकालमेव यथाकृतेषु मारमार्थमभिनि एते च तन्त्रान्तरीया अपि भवन्ति । यथोक्तम्-" निग्ग
वैर्तितेवाहाराऽदिषु, रीयन्ते गच्चन्ति, वर्तन्त इत्यर्थः । पुष्पेषु यसकताबस-गेरुयाजीव पंचहा समणा।" अत पाह-मु- चमरा यथा। इत्येतच पूर्व भावितमेवेति सूत्रार्थः । का बाह्याभ्यन्तरेण प्रथेन,ये लोके अतृतीयद्वीपसमुष्परि
यतश्चैवमतो महुगारसमेत्यादि सूत्रममाण, सन्ति विद्यन्ते, अनेन समयको सदैव विद्यन्त, इत्येत.
महुगारसमा बुझा, जे नवंति अणिस्सिया । दाह-साधयन्तीति साधवः, किं साधयन्ति ?, शानाऽऽदीनि गम्यते । अत्राऽऽह-ये मुकास्ते साधव एवेत्यत श्दमयुक्तम ।
नाणा पिमरया दंता, तेग बुञ्चति साहुणो,त्ति बेमि ||२|| अत्रोच्यते-हव्यवहारेण निहवा अपि मुक्काजवन्धन च ते
मधुकरसमा भ्रमरतुल्याः, बुध्यन्ते स्म बुकाः, अधिगतन. साधव इति तद्व्यवच्छेदार्थत्वान्न दोषः । श्राह-नच ते सदैव
वा इत्यर्थः। एवंभूता इत्यत पाह--ये भवन्ति बा अनिश्रिसन्तीत्यनेनैव व्यवच्छिन्ना इत्युरूपन्ते, वर्तमानतीर्थापेकयैवेद
ताः कुलादिश्वप्रतिबद्धा इत्यर्थः । सूत्रमिति न दोषः । अथवाऽन्यथा व्यास्मायते-ये लोके सन्ति
भत्रा556साधव इत्यत्र य इत्युद्देशः, लोक इत्यनेन समयकेत्र एवं
अस्संजएहिँ नमरे-हिँ जइ समा संजया खल जवति । नाम्यन, किम् ,शान्तिःसिरिरुच्यते, तां साधयन्तीति शान्ति- एवं उपमं किच्चा, नृपणं अस्संजया समणा ॥ १३०॥ साधवः । तथा चोकं नियुक्तिकारेण-"संती विज्जति त्तिय, असंयतः कुतश्चिदप्यनिवृत्तः भ्रभरैः पट्पदैः,यदि समास्तुल्या, सति सिलिच साहेति ।" इदं व्याख्यातमेव, विहङ्गमा श्व संयताः साधवः, खाल्चति समा एव भवन्ति । ततश्चासंचिनोअमराव पुषषषु,किम। दाननषिणासु रतादानग्रहणाहत्तं ऽपि, ते अत पवैनामित्थंप्रकारामुपमां कृत्वा इदमापद्यते गृहन्ति नादत, भक्तग्रहणन सदपि नक्तं प्रामुकं, न पुनराधा. नूनमसंयताः श्रमणा इति गाथार्थः । कम्माऽऽदिपवणाग्रहणेन गवेषणाऽऽदित्रयपरिग्रहः, तेषु स्था. पवमुक्ते सत्याहाऽऽचार्यः, एतच्चायुक्तम्, सूत्रोक्तविशेषणतिर. नेषु रताः सता इति सूत्रसमासार्यः। दश० ११०।
स्कृतत्यात, तथा च बुधग्रहणादसंझिनो व्यवच्छेदः, अनिश्चित. (२१) विहङ्गमानां निकेपाऽऽद्युक्त्वा इत्थमनेकप्रकारं बिह- प्रहणात् स्वसंयतत्वस्येति । ममभिधाय प्रकृतोपयोगमुपदर्शयति
नियुक्तिकारस्वाहइइई पुण अहिगारो, विहासगमणेहिं नमरेहिँ (१२७) जवमा खयु एस क्या, पुश्वुत्ता देसलक्षणोरणया। इह सूत्रे, पुनःशब्दोऽवधारणे,इहैव, नान्यत्र,अधिकारः प्रस्ता. अणिययवित्तिनिमित्त, अहिंमअणुपालए हाए ॥२३॥ वः प्रयोजनम्। केरित्याह-विहायोगमनैरा काशगमनःभ्रमरैः प. नपमा, खल्वेषा, मधुकरसमेत्यादिरूपा, कृता, पूर्वोक्तात् पू. ट्पदैरिति गाथार्थः।
वोकेन, देशकणोपनयात देशल कणोपनयेन, यथा चन्द्रमुदाणेति दत्तगिएहण, जत्ते जन सेव फासुगेएहण या। स्वी कन्येति, तृतीयार्थी चेह पञ्चमी । इयं वानियतवृत्तिनिमित्त एसतिगम्मि निरया,उवमंहारस्त सुद्धिमा ।।१२।।
कृता अहिंसाऽनुपालनार्थमिदं च भावयत्येवेति गाथार्थः । दानेति सूत्रे दानग्रहणं दत्तग्रहणप्रतिपादनार्थम् , दत्तमेव
जह दुगणा न तह नग-रजएवया पयागपाय सहावा । पृरादम्ति नाऽदत्तम् जिक्तग्रहलं भज सेवायामित्यस्य निष्ठान्त- जह भमरा तह मुगिणो, नबरि अदत्तं न भुंजांत ।१३। स्थ भवति । अयेश्चास्य प्रासुकमहणं प्रासुकमाधाकाऽऽदिर- यथा दुमगणा वृक्षसंघाताः, स्वावत एव पुषफल नस्वभाहितं गृहन्ति, नेतरदिति। (पसण त्ति) एषणाग्रहणभेषणात्रितये। वास्तथैव नगरजनपदा नगगारोकाः स्वयमेव पचनपाच
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(२६०९) अभिधानराजेन्द्रः ।
धम्म
धम्म
नस्वभावा वर्तन्ते, यथा भ्रमग इति नावार्थ वक्ष्यति । तथा स्कृएं मजलं प्रधानं मङ्गलं, धर्मः प्रानिरूपितशब्दार्थः । इति मुनयो, नवरमेतावाविशेष:--अदत्त स्वामिभिन भुञ्जत ति गा. गाथार्थः ॥ १३७ ॥ थार्थः।
इदानीं निगमनविशुद्धिमभिधानुकाम पाहअमुमेवार्थ स्पष्टयति
निगमण सुखी तित्थं-तरा घि धम्मत्यमुज्जुया विहरे । कुसुभे सहावफुल्ले, आहारंति भमरा जह तहा न।
जन्नइ कायाणं ते, जयणं न मुणंति न करेंति ॥१२॥ भत्तं सहावसिई, समण सुविहिया गवसंति ।। १२३॥
निगमन शुकिः प्रतिपाद्यते। अत्राह तीर्थान्तरीयाःचरकपरिकुसुमे पुष्पे, स्वभावफुल्ले प्रकृतिविकसिते, श्राहारयन्ति कु.
वाजकाऽऽदयः किम?,धर्मार्थ धर्मायोद्यता उद्युक्ता चिहरन्ति, श्रसुमरसं पिबन्ति, नुमरा मधुकराः, यथा येन प्रकारेण कुसुम.
तस्तेऽपि साधव पवेत्यभिप्रायः। नएयतेऽत्र प्रतिवचनम्-का. पीडामनुत्पादयन्तः, तथा तेनैव प्रकारण, भक्तमोदनाऽऽदि,
यानां पृथिव्यादीनां ते चरकाऽऽदयः, किम्?, यतनां प्रयत्नकरण. वनावसिद्धमात्मार्थ कृतम, उद्माऽऽदिदोषरहितमित्यर्थः ।
सक्षणांन मन्यन्ते न जानन्ति, न मन्वते वा, तथाविधाऽगमाभ्रमणाश्च ते सुविहिताश्च श्रमणसुविदिताः, शोजनानुष्ठानव
ऽऽश्रवणान्न कुर्वन्ति परिज्ञानाभावाद्भावितमेवेदमधस्तादिति न्त इत्यर्थः । गवेषयन्ति अन्वेषयन्तीति गाथार्थः ।
गाथाऽर्थः ॥१३८॥ साम्प्रतं पूर्वोक्तो यो दोषो मधुकरसमा इत्यत्र, पतत्परिजि
किचहीयैव यावतोपसंहारः क्रियते तपदर्शयन्नाह
न य उग्गमाइसुद्धं, भुंनंती महयरा वणुवरोही। नवसंहारो भमरा, जह तह समणा वि अवहविति । दंत त्ति पुण पयम्मी, नायव्वं वक्तसममिणं ॥ १३ ॥
नेव य तिगुत्तिगुचा, जह साहू निचकानं पि ॥१३॥
नचोझमादिशुरूंनुअते, आदिशब्दाऽत्पादनाऽऽदिपरिग्रहः । उपसंहार उपनयः, भ्रमरा यथा अवधजीविनः, तथा श्रमणा अपि साधयोऽप्येतावतेयांशेनेति गाथादनार्थः । इतश्च भ्रम
मधुकरा इव भ्रमरा व सरवानामनुपरोधिनःसन्तोमेव च त्रि.
गुप्तिगुप्ता यथा साधा नित्यकाममपि। एतदुक्तं जवति यथा सारसाधनांनानात्वमवयम् । यत प्राह सूत्रकार:-"नानापिएम
धयो नित्यकाझं त्रिगुप्तिगुप्ता एवं तेन कदाचिदपि तत्परि. रवा दता" इति । नानाऽनेकप्रकाराभिप्रहविशेषात्पतिगृहम
झानशून्यत्वात्तस्मान्न पते साधवः । शति गाथार्थः ॥१३॥ ल्वाल्पग्रहणाच्च पिएम भाहारपिएमा, नाना चासौ पिण्डश्च मानापिएमः, अन्तप्रान्ताऽऽदिर्वा, तस्मिन् रता भनुद्वेगवन्तः ।
साधव एव तु साधवः, कथम्?, यतःबान्ता इन्डियनोन्डियद मेन । अनयोश्च स्वरूपमधस्तपसि प्र.
कायं वायं च मणं, इंदियाई च पंच दमयंति । तिपादितमय अत्र चोपन्यस्तगाथाचरमदत्रस्थावसर। दान्ता इ. धारति बंभचेरं, संजमयंती कसाए य ।। १४०।। ति पुनः पदे सौत्रे। किम् ?, ज्ञातव्यो वाक्यशेयोऽयमिति गाथार्थः।
कार्य, वाचं, मनश्च, इम्ध्यिाणि च पञ्च दमयन्ति । तत्र काये. किंविशिष्टो वाक्यशेषः, दान्ता र्याऽऽदिसमिताश्च
न सुलमाहितगाणिपादास्तिष्ठन्ति, गच्छन्ति बा । वाचा निष्प्र. तथा चाऽऽह
योजनं न बजे, प्रयोजनेऽप्यालोच्य सत्वानुपरोधेन । मनसा नह इत्य चेव इरियाइ-एमु सबम्मि दिक्खियपपारे । अकुरानमनोनिरोधं, कुशलमनजदीरणं च कुर्वन्ति । इन्द्रियाणि ससथावरनूयहियं, जयति सम्नावियं साहू ॥ १३५ ॥ पश्च दमयन्ति, शानिष्टविषयेषु रागद्वेषाकरणेन । पञ्चेति सा. यथाऽवाधिकृताध्ययने भ्रमरोपमयैषणासमिती यतन्ते, तथा
ख्यपरिकल्पितेकादशेन्डियावच्छेदार्थम् । तथा च-वापानि. ईर्याऽऽदिष्वपि तथा सर्वस्मिन् दीक्षितप्रचारे सापाचरित
पादपायपस्थ मनांसीन्द्रियाणि तेषामिति । धारयन्ति ब्रह्मचर्यम्, व्य इत्यर्थः। किम्?, प्रसस्थावरभूतहितम, यतन्ते सद्भाविक
सकल गुप्तिपरिपालनात् । तथा संयमयन्ति कषायांश्च, अनुदपारमार्थिक साधव इति गाथार्थः।
येनोदयविफलीकरणेन च । इति गाथार्थः ॥१०॥
जं च तवे उज्नुत्ता, तेणेन्सिं साहुनकवणं पुनं ।। अन्ये पुनरिदं गाधादलं निगमने व्याख्यानयन्ति, न च तद. तिचारु, यत पाह
तो साहुणो ति भन्न-तिमाहवो निगमणं चेयं ।।१४१॥ जवसंहारविमुछी, एस समत्ता न निगमणं तेणं । यच तपसि प्रागवर्णितस्वरूपे, किम्?, नाताः तेन प्रकारेणतेषां बुच्चंति साहुणोत्ती, जेणं ते महुगरसमाणा।। १३६ ॥ सातकणं पूर्णमविकलम, कथम्?, अनेम प्रकारेण साधयन्त्य. नपसंहारविशुभिरेषा समाप्त तु, अधुना निगमनावसरः, त.
पवर्गमिति साधवः। यतश्चैवं ततः साधव एव भरायन्तेसाधनो,
न चरकाऽऽदय शति । निगमन चैतत् । इति गाथार्थः ॥ १४१॥ म सौत्रमुपदर्शयति, निगमनमिति घारपरामर्शः। तेनोच्यन्ते
इत्थमुक्तं दशावयवम् । प्रयोग त्वं वृक्षा दर्शयन्ति-अहिंसा. साधव इति, येन कारणेन ते मधुकरसमाना उक्तन्यायेन न.
दिल कणधर्मसाधकाःसाधव पव, स्थावरजङ्गमनूतोपरोधपरिहा. मरतुल्या इति गाथार्थः। निगमनार्थमेव स्पष्टयति..
रिस्वात, तदन्यैवविधपुरुषबत्। विपक्को दिगम्बरभिक्षुभौता55
दिवत् । इह ये स्थावरजङ्गमनूतोपरोधपरिढारिणस्ते उभयप्रसितम्हा दयाऽऽइगुणसु-ट्ठिए भभरो व्ध अवहवित्तीहि ।
विविधपुरुषवदहिसाऽऽदिलक्षणधर्मसाधका दृष्टा तथा च सा. साहहिं साहिओ त्ती, नकिटं मंगलं धम्मो ॥ १३७॥ । धवः स्थावरजङ्गमजूतोपरोधपरिहारिण इत्युपनयः तस्मात्स्थातस्माइयाऽऽदिगुणसुस्थि तैरादिशब्दात्मत्याऽऽदिपरिग्रहः । भ्र. वरजङ्गमनू तोपरोधपरिहारित्वात्ते अहिंसाऽऽदिलक्षणधर्मसा. मर श्वावधवृत्तिभिः। कै:१, साधुभिः साधितोनिष्पादितः, स. धकाःसाधव पव इति निगमनमा पक्षाऽदिशष्यस्तु निदशिता
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धम्म
एवेति न प्रतन्यन्ते, एवमधिकारद्वयवशात्पञ्चावयवदशावयवाभ्यां वाक्याच्यां व्याख्यातमध्ययनम् । दश० १ ० । मरा जीवा ण हुंति नियमा, तो जत्तो तस्थ काययो ॥ जन धम्मान सोह. धम्मेणं हुति सयल रिद्धीओ । धम्मेण पररूवं, तसो संविग्गए भणियं ॥ दर्श० १ तत्व ।
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भद्दा सयलं किरियं. कुणति मुणिणो सिवत्थमेव सया । สี पुण बन गयलय-द्वरागदोखेण धम्मेण ॥ १३ ॥ धम्मेण सरागेण च, लग्न सग्गास्यं फलं सो वि । जाय परंपराए, नियमेणं सुक्खदेउ ति ॥ १४ ॥ श्रमाश्रो घणानो त्ति जंपि तं तयं पिन हु जुतं । विपुरित्थो, धम्माच श्चिय जओ भणिया ||१|| " वक्तं च
( २६०० ) अभिधानराजे |
6.
'धनदो धनार्थिनां धर्मः, कामदः सर्वकामिनाम | धर्म एवापवर्गस्य, पारम्पर्येण साधकः ।। १६ ।। " ६० र० । 'धर्मोऽयं धनवल्लभेषु धनदः कामार्थिनां कामदः, सौभाग्याषि राज्यार्थिष्वपि राज्यदः किमपरं नानाविकल्पैर्नृणां, रिंदा किं५०० " धर्माऽऽख्यः पुरुषार्थोऽयं, प्रधान इति गीयते । पापसातु चिग्रहितं नरम् ॥१॥" स्था० ३ ठा० ३३० ।
(२२) धर्मस्य मोक्षकारणत्वं यथासंखाय पेसलं धम्मं, दिट्टिमं परिनिव्वुडे । उपडियासिता आयोक्खा परिव्यय ||२२||
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संख्यायेति सम्यक् ज्ञात्वा स्वसंमत्या, अन्यतो वा श्रुत्वा (पे मोक्षगमनं तचारि दृष्टिमा सम्पन
भूतः परिमित था। उपकृतिल स्य नियम्याधिसह्याऽऽमोक्काय मोकं यावत् परि समन्ताद् घजेत् संयमानुष्ठानेन गच्छेदिति ॥ २२ ॥ सूत्र० १ ० ३
श्र० ४ उ० ।
"
अपि चधम्मस्स य पारए मुखी, आरंजस् य अंतर दिए । सोपंति ममाणो णो समेति नियं परि
धर्मस्य
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||||| चारित्रनेदभिन्नस्य, पारं गच्छतीति पारगः सिद्धा तपारगाम। सम्यक् चारित्राऽनुष्ठायी वेति । चारित्रमधिकृत्याssह-आरम्भस्य सावधानुष्ठानरूपस्यान्ते पर्यन्ते तदभावरूपे, स्थि तो मुनि पुन अ सेवासमुषितानं चन्ति समिति द्वारे यदि च मरणाऽऽदावर्धनाशे वा ( ममाणो ति ) ममे मह मस्य स्वामीत्येवमध्यवसायिनः शोचन्ति शोचमाना अप्येते निजमात्मीयं परि समन्ताद् गृह्यते श्रात्मसात्क्रियत इति प रिमोदिरिदियान
।
1
प्राप्नुवन्तति । यदि वा धर्मस्य पारगं मुनिमारस्तस्याऽन्ते व्यवास्थतमनमागत्य स्वजना मातापित्रादयः शोचन्ति सभ
धम्म
स्युः स्नेाचमन्ते जिमयात्मीपरिषद गृहीतमितितार्जुनीया
"सो त केहि विडिया। धम्मम्मि अत्तरे मुण, तं पि जिपिज्ज इमेण पंडिए || १ || " सूत्र० १ श्रु० २ श्र० २उ० । किं चान्यत्
जेतपमिममणेति ।
असिस
.
वाणं तस्स जम्पका कओ ।।२।। ये महापुरुषा वीतरागाः करतलाऽऽमनकवत्सकल जगदुष्टरस्त पर्वत पर सर्वो दम, धर्ममाख्यान्ति प्रतिपादयन्ति स्वतः समाचरन्ति च । प्र तमाचारिपूर्ण यथास्या । अनीशमन द स्यानन्यसदृशस्त्र ज्ञानचारित्रापेतस्य यत् स्थानं सर्वद्वन्द्वो परमरूपं तदवाप्तस्य कुतो जन्मकथा - जातो मृतो वेत्येवंरूपा कथा, स्वप्नान्तरेऽपि तस्य कर्मबी जाजावात् कुतो विद्यत ३ति । तथोक्तम्-" दग्धे बीजे यथाऽस्यन्तं प्रादुर्भवति ना कुरः । कर्मबीजे तथा दग्धे, न रोहति भवाङ्कुरः " ।। १ ।। इत्यादि ॥ १६॥
कान्यत् को कमाइ मेधावी, उप्पज्जेति तागया 1 तागया अप्पडना, चक्खू ओोगस्सऽणुत्तरा ॥ २० ॥ कर्मबी जाजावात्कुतः कस्मात्कदाचिदपि मेधाविनो ज्ञानाऽऽम कास्तथा पुनरावृत्याऽऽगतास्तथागताः पुनरस्मिन् संसारेऽशुसत्यते, न कथञ्चित्कदाचित्कमपादानामाचानुत्पद्यन्त इत्यर्थः । तथा तथागनास्तीर्थ कृणधराऽऽइयो न विद्यन्ते प्रतिज्ञामिदान
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3
राशंसाः सत्यहितकरणोद्यता अनुत्तरज्ञानत्वादनुत्तर लोकस्य जन्तुगणस्य सद्सदनिरूपणकारणतर्भूतादितप्राप्तिपरिहारं कुर्वन्तः सकललोकलोचनभूतास्तथागताः सर्वज्ञा भवन्तीति ।। २० ।। सूत्र० १ ० १५ ० । ( आपत्सु दृढधर्मता दृढता योगसंपदा आई शदे द्वितीयभागे १४५ पृष्ठे गता ) धर्माऽऽख्याने तु यथा पित्रादीनामुपकारस्तथा नान्यथा' (बोगंतिय ' शब्दे वेदं वक्ष्यते) केवलिप्रप्तश्रमंस्य श्रवणता दुर्लभा । यतोऽवाचि "सुबहा सरलोयासेरी मेला महीला भिरसुद जणिरु, जिएचयसुई जर डुला ॥ १ ॥ " इति । श्रुतस्य वा श्रद्धानता दुर्लभा । उक्तं च-" आहन्त्र सबणलजुं. सहा परमदुलहा । सोच्चा नेयाउयं मग्गं, बद्दचे प रिभस्तर " ॥ १ ॥ इति । स्था० ६ वा० |
उकं च
“ लग्भइ सुरसामित्तं, लब्ज पहुअत्तणं न संदेहो । इको नयनिनदेसि धम्मो ॥ १ ॥ धम्मो पत्रित्तियो, लब्भर कइयाचि निग्यमुक्ख भया । जो सुहायो सोमो लोए ॥ २ ॥ नियवन्धुधम्मसवणं, वह वुत्तं जिणिदत्राणाय ।
अंत फासणमेग त हुंति केसिबि धीराणं ॥ ३ ॥ " अनु० २
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(२६६१) अभिधानराजेन्छः।
धम्म
धम्म
"पसोय असह दोसा-सेवण यो धम्मवज्कचित्ताणं ।
(२४) पर्यायच्युतस्यैहिकं दोषमाहता धम्मे जयचं, सम्म सर धीरपुरिसेहि"१॥ इति ।
धम्माओं नटुं सिरिनोववे, स्था०६०। (२३) मनुजनवपुर्वनत्वमुक्त्वा तदवाप्तावनुत्तरोत्तरगुणा
जलग्गि विकायमिवऽप्पते। बाप्तिरति पुरापैवेत्याह--
हीसंति दुन्निहिश्र कुसीला, अहीणपंचिंदियत्तं पि से लहे,
दाढट्टि घोरविसं व नागं ॥१॥ उत्तमधम्ममुती हु दुवाहा ।
धमात् श्रमणधर्मतः,न, न्युतं, श्रियाऽपपेतं सपोलक्ष्या - कुत्तित्यणि सेवए जणे,
पगतं, याग्निमग्निष्टोमानिलं; विध्यातमिव यामावसाने ऽल्प. समयं गोयम ! मा पमायए ॥१॥
तेजसम, अल्पशब्दो भावतेजःशून्यं भस्मकल्पमित्यर्थः, ही.
लयन्ति कदर्थयन्ति, पतितस्त्वमिति पङ्क्त्याऽपसारणाऽऽदि. सण वि नत्तमं मुई,
ना, पनमुनिष्क्रान्तं, दुर्विहितमुनिष्क्रमणादेव दुष्टानुष्ठायिनं, कुसदहणा पुणरावि दुल्लहा।
शीमास्तरसङ्गोचिता लोकाः, स एवं विशेष्यते-(दाढट्टियं मिच्छत्तणि सेवए जण,
ति ) प्राकृतशैल्या उमृतदंष्ट्रमुत्स्वातदंष्ट्र, घोरविषमिव रौ. समयं गोयम ! मा पमायए ॥१५॥
द्रविषमिव, नाग सर्प यज्ञाग्निसोपमान, लोकनीत्या प्र.
धानभाषादप्रधानभावण्यापनार्थमिति सूत्रार्थः । १२॥ धम्म पि दु सद्दईतया,
एवमस्य भ्रष्टशीलस्यौपतयेहिकं दोषमभिधाय ऐहिकाऽभुमुसहया कारण फासया।
मिकमाइ-- व कामगुणेहिँ मुच्छिया,
इहेव धम्मो अयसो अकित्ती, समयं गोयम ! मा पमायए ॥ २० ॥
सुष्यामधिजं च पिहजणम्मि । कथञ्चिददीनपश्चेन्छियतामप्युक्तन्यायतोऽतिसंभामपि स इति जन्तुझेभेत प्राप्नुयात्, तथाऽप्युत्तमः प्रधानो यो
चुअस्स धम्माओं अहम्मसेविषो, धर्मस्तस्य श्रुतिराकर्णना या सा तथा, हुरवधारणे, भि
संनिम्मवित्तस्स य हिहो गई ॥१३॥ भक्रमश्च । ततो दुर्लभैव, किमिति, यतः कुत्सितानि च तानि इवेहमोके एवाधर्म इत्ययमधर्मफलेन दर्शयति, यदुताय. तीर्थानि च कुतीर्थानि शाक्योबूकाऽऽदिप्ररूपितानि, तानि वि. । शः अपराक्रमकृतं न्यूनत्वं, तथा-अकीर्तिरदानपुण्यफसप्रवाधन्ते येषामनुष्यतया स्वीकृतत्वात्ते कुतीथिनः, तानितरां से हरूपा, तथा-नामधेयं च 'पुराणः पतितः' इति कुत्सितनामबते यः कुतीर्थिनिचको जनो लोकः, कुतीथिनो हि यशास। धेयं च । त्याह--पृथगतने सामान्यलाकेऽप्यास्तां विशिष्ट लोकाराऽऽद्योषिणो यदेव प्राणिप्रिय विषयाऽऽदि, तदेवोपदिशान्ति, । के, कस्येत्याह-च्युतस्य धर्मात, उत्प्रवजितस्येति भावःनिथातत्तीयकृतामप्येवंविधत्वात् । स हि-"सत्कारयशोलाभार्थि- अधर्मसेविनः कात्राऽऽदिनिमित्तं षट्कायोपमदंकारिणः,तथानिश्च मूरिहान्यतीर्थकरैः। भवसादितं जगदिदं, प्रियापय. संभिनवृत्तस्य चास्त्ररामनीयस्खरिमतचारित्रस्य च किष्टकर्मपध्यान्युपदिशतिः॥ १॥" इति सुकरैव तेषां सेवा, तत्सेव. बन्धनात् अधस्तादतिर्नरकेषूपपात इति स्त्रार्थः ॥१३॥ माच्च कुत तत्समधम्मश्रुतिः ? । पठ्यते च-"कुत्तिस्थाणिसेवए
अस्यैव विशेषप्रत्यपायमादजणे" इति स्पष्टम् । एवं तदुर्बभत्वमवधार्य समयमपि गौतम!
सुजितु जोगाइँ पसाचे असा, मा प्रमादी। किं च-लस्वाऽपि उत्तमधर्मविषयत्वापुसमां तां अतिमुक्तरूपां, थकानं तखाचिरूपं, (पुणरावि ति) पुनरपि
तहाविहं कडु असंजमं बहुँ। दुभं रापमपि । इहैव हेतुमाह-मिथ्पाभावो मिथ्याश्वम्
गईच गच्छे अणभिजिअं मुहं, अतरवेऽपि तस्वप्रत्ययरूपं, तनिषेवते यः स मिथ्यात्वनिषेवकः, बोही असे नो सुलना पुणो पुणो ॥ २४ ॥ जनो लोकोऽनादिनवाच्यस्ततया गुरुकर्मतथा च तत्रैव च
स उत्प्रवजितो भुक्त्वा भोगान् शम्दाऽऽदीन्, प्रसनचेतसा धर्मप्रायः प्रवृत्तः । यत एवमतः समयमपि गौतम! मा प्रमादी । - न्यव-धर्म प्रक्रमात् सर्वप्रणीतम,अपिभिन्नक्रमः। हुर्वाक्यान.
निरपेकतया प्रकटेन चित्तेन, तथाविधमझोचितधर्मफलं, कृत्वा.
ऽभिनिवृश्य, असंयमंकृष्याद्यारम्भरूपं,बहुमसन्तोषात प्रभूतं,स कारे । ततः अहधतोऽपि कर्तुमभिलषन्तोऽपि दुल्छ नका: कायेन शरीरेण, उपनक्षणत्वान्मनसा वाचा च स्पर्श का अनुष्ठाता
इत्थं भूतो मृतः सन्, गति च गच्चत्यनमिध्यावा अनिध्यात्वा,
शानिष्टामित्यर्थः । काचित् सुखाऽप्येवभूता भवत्यत श्राहर।कारणमाह-इहास्मिन् जगति कामगुणेषु मूचिता मृढाः,
ढःखां प्रकृत्यैवासुन्दरा दुःखजननी, बधिश्चासौ जिनधर्मगृहिमन्त इत्यर्थः। जन्तवति शेषः। प्रायण ह्यपथ्योवेव विषये
प्राप्तिश्चास्योनिष्क्रान्तस्य न सुलभा पुनः पुनः प्रसूतेनअभिवतः प्राणिनाम्, यत उक्तम्-"प्रायेण हि यदपथ्य, तदेव
पि जन्मसु संभव, प्रवचनविराधकत्वादिति सूत्रार्थः॥ चाऽऽतुरजनप्रिय जवति । विषयाऽऽतुरस्य जगत-स्तथाऽनु
यस्मादेवं तस्मादेवं तदुत्पन्नदुःखोऽप्येतदनुचिन्त्य नोत्प्रनकलाः प्रिया विषयाः ॥१॥" पाठान्तरता-कामगुणमूचिता व मकिताः विलुप्तधर्मविषयचैतन्यत्वात् यतश्चैवमतो दुरापा
जेदित्याहमिमामविकलां धर्मसामग्रीमवाप्य समयमपि गौतम ! मा
इमस्स तानेरइ अस्म जंतुणो, प्रमादीरिति । उत्त. पाई०१. भ० । स्था।
दहोवणी अस्स किन्नेसवत्तिणो।
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(२६५२) अभिधानराजेन्द्रः ।
धम्म
क्ति तदुक्तैकक्रियापालनपरो भूयात, भवाय सिद्धौ तपलिमोवमं छिन्कइ सागरोवमं,
ततो मुक्तिसिद्धेरिति सूत्रार्थः ॥ १० ॥ दश०१०। किमंग! पुण मज्म इमं मणोऽहं ॥ २५ ॥
(२५) किमभिसन्य धर्ममाचक्षीतेति दर्शयतिअस्य तावदित्यात्मन एव निर्देशः, नारकस्य जन्तोः, नरक
दयं लोगस्स जाणित्ता पाइणं पमाणं दाहिणं मनुप्राप्तस्येत्यर्थः । दुःखोपनीतस्य सामीप्येन प्राप्तःस्खस्य,
नदीणं आइखे विजए कि? वेदवी मे लट्ठिएस वा अ. केशवृत्त-एकान्तकेशवेष्टितस्य सतो, नरक पत्र पल्योपमं क्षी. यते, सागरोपमं च यथाकर्मप्रत्ययम, किमल! पुनर्ममेद संय- एटिएमु वा सुस्सूसमाणेमु पवेदए संति विरतिं उबसमं मरतिनिष्पन्नं मनोदुःख तथाविधक्लेशदोषरहितम्, पतत्- णिवाणं सोयवियं प्रज्जवियं मद्दवियंसाघवियं प्रणवकीबत पवैतचिन्तनेन नोत्प्रवजितव्यमिति सूत्रार्थः ॥१५॥
त्तियं सम्बसिं पाणाणं सम्बेसि नूयाणं सम्बेसि जीवाणं विशेषेणतदेवाऽऽह
सम्बसि सत्ताणं अणुवीइ भिक्ख धम्ममाइक्खेजा। न मे चिरं दुक्खमिणं भविसई,
दयां कृपां लोकस्य जन्तुलोकस्योपरि व्यतो ज्ञात्वा, केत्रतः असासया भोगपिवास जंतुणो।
प्राचीनं, प्रतीचीनं दकिणमुदीचीनम्, अपरानपि दिग्विभागानन चे सरीरेण इमेणऽवस्साई,
जिसमीक्ष्य सर्वत्र दयां कुर्वन् धर्ममाचकीत, कालतो यावजीवं,
भावतोऽरक्तोऽद्विष्टः कथमाचक्कीत। तद्यथा-सवें जन्तबोधःखअवस्सई जीविभपज्जवेण मे ॥ १६॥
द्विषः सुखलिप्सव आत्मोपमया सदा अष्टव्या इति। उक्तं च "त. नमम चिरं प्रतूत कामं पुःखमिदं संयमारतिमकणं प्रविष्य- तत्परस्य संदध्या--प्रतिकूनं यदात्मनः । एष मंग्रहिको ध. ति। किमित्यात भाद-प्रशाश्वती प्रायो यौवनकालावस्थायि- मः, कामादन्यत् प्रवर्तते ॥१॥" इत्यादि । तथा धर्ममानी, मोगपिपासा विषयतृष्णा, जन्तोः प्राणिनः । अशाश्वती- चक्राणो विभजेद् अध्यकेत्रकालभावभेदैराक्षेपिण्यादिकथाविस्खे एव कारणान्तरमाह-न चेचरीरेणानेनापयास्यति न शेषेवा प्राणातिपातमृषावादादत्ताऽऽदानमैथुनपरिग्रहरात्रिभोयदि शरीरेणानेन करणभूतेन वृहस्यापि सतोऽपयास्यति, जनविरतिविशेष| धर्म विभजेत्, यदि बा कोऽयं पुरुषः तथाऽपि किमाकुलत्वं यतोऽपयास्यति जीवितपर्यायण जी-1 के नतो देवताविशेषमभिगृहीतोऽनजिगृहीतो वा एवं वि. वितस्थापगमेन, मरणेनेत्येवंनिश्चितः स्यादिति सूत्रार्थः ॥१६॥ मजेत,तथा कीतयेद् व्रतानुष्ठानफनं, कोऽसौ कोर्सयेद् ?, वेदवि. अस्यैव फलमाह
दागमविदिति । नागार्जुनीयास्तु पन्ति-"जे स्वमु भिक्खू बजस्वमप्पा न हविज निकृनो,
हुस्सुए बागमे आहरणहेउकुसले धम्मकहासद्धिसंप.
नो खेतं कासं पुरिसं समासज्ज कहेयं पुरिसे कं वा दरि. चइज देहं न हु धम्मसासणं ।
सणमभिसंपन्नो एवं पुण जातीए पनू धम्मस्ट आघवित्त. तं तारिसं नो पइलंति इंदिमा,
ए।" इति कण्ठ्यम् । स पुनः केषु निमित्तनूतेषु कीर्त यदिउति वाया व सुदंसणं गिरिं ।। १७॥
स्थाद-( से नहिपसु बा इत्यादि ) सागमवित् स्वसमबस्येति साधो, एवमुक्तेन प्रकारेण, प्रारमा, तुशमस्येव.
पपरसमय उत्थितेषु वा भावोत्थानेन यतिषु, वाशकारार्थत्वात प्रात्मैव, भवेनिश्चितो रदः, स त्यजेइहें क्वचि.
ब्द उत्तरपिकया पक्षान्तरद्योतकः । पाश्वनाथशिष्येषु चतुर्यो. हि उपस्थिते, न तु धर्मशासनं न पुनर्धर्मकानमिति, तं
मोत्थितेवर, वर्कमानतीर्धाऽऽचार्याऽऽदिः पञ्चयामं धर्म प्रवे. तारशं धर्मनिश्चितं, न प्रचालयन्ति संयमस्थानान कम्पय
दयेदिति स्वशिष्येषु वा सदोस्थितवज्ञानज्ञापनाय धर्म प्र. तीन्छियाणि चक्षुरादीनि । निदर्शनमाह-उत्पतद्वाता श्व
बेदयेदिति । अनुत्थितेषु धा भावकाऽऽदिषु शुश्रूषमाणेषु धर्म संपतत्पवना व सुदर्शनं गिरि मेरुम्। एतदुक्तं भवति-य
भोतुमिच्छत्सु गुर्वादेः पर्युपास्ति कुर्षत्सु वा संसारोत्त. था मेकं वाता न चाजयन्ति तथा तमपीझियाणीति सू.
रणाय धर्म प्रवेदयेत । तरिकभूतं प्रवेदयेदित्याह-"संति".
त्यादि, यावत् “ भिक्खू धम्ममाइक्खेजा" शमनं शान्तिरभार्थः ।। १७॥
हिंसेत्यर्थः। तामाचकीत, तथाविरतिम,अनेन च मृषावादाऽऽदि. उपसंहरमाह
शेषतसंग्रहः। तमुपशमं क्रोधजयाद.अनेन चोत्तरगुणसंग्रहः,त. इच्चेव संपस्सिअ बुद्धिम नरो,
था नितिनिर्वाणं मूलगुणोत्तरगुणयोरहिकाऽऽभुमिकफाभूप्रायं उवार्य विविहं विआणि मा।
तमाचक्षीत । तथा, शौचं सर्वोपाधिशुचित्वं निर्वाच्य व्रतधा
रणं, तथा आर्जवं मायावक्रतापरित्यागात, तथा मार्दवं मानकारण वाया अदु माणसेणं,
स्तब्धतापरित्यागात, तथा लाघवं सबाह्याभ्यन्तरग्रन्थिपरितिगुत्तिगुत्तो जिणक्यणमहिहिजासि ॥१६॥ त्यागात् । कथमाचक्की तेति दर्शयाति-अनतिपश्य । यथावस्थिइत्येवमभ्ययनोक्तं पुष्पजीवित्वाऽऽदि संप्रेदयाऽऽदित मा य
तं वस्त्वागमाभिहित, तथाऽना..कम्येत्यर्थः, केषां कथययथावद् रष्ट्वा बुद्धिमान्नरः सम्यक बुद्धघुपेना, आयमुपायं
ति, सर्वेषां प्राणिनां, दशविधाः प्राणा विद्यन्ते योगं ते प्राणिविविध विज्ञाय, प्रायः सम्यग्ज्ञानाऽऽदे, उपायस्तत्साधन
नस्तेषां सामान्यतः संक्षिपश्चेन्द्रियाणां, तथा सर्वेषां जूताप्रकारः कानविनयाऽऽदिविविधोऽनेकप्रकारस्तं कात्वा, किमि नां मुक्तिगमनयोग्येन भव्यत्वेन भूतानां व्यवस्थिताना, तथा स्याद-कायेन, वाचा, मध-मनसा, त्रिनिरपि करणैर्यथाप्रवृत्त सर्वेषां जीवानां जिजीविषूणां च, तथा सर्वेषां सवानां तित्रिगुप्तिगुप्तः सन जिनवचनईदुपदेशमधितिष्ठेत यथाश-| बनरामराणां संसारे क्लिश्यमानतया करुणाऽऽपदानाम,ए.
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(२६५३) अन्निधानराजन्तः ।
धम्म
धम्म
कार्थिकानि चैतानि प्राणाऽऽदीनि वचनानीत्यतस्तेषां कात्या. स्वयमात्मना परोपदेशमन्तरेण समेत्य झात्वा चतुर्गतिक दिक दशबिधं धर्म यथायोगं प्रागुपन्यस्तं शान्त्यादिपदा- संसारं, तत्कारणानि च मिथ्यात्वाविरतिप्रमादकषाययोगरू. भिहितमनु विचिन्त्य स्वपरोऽयं निवणशीनो भितुर्धर्मकथा
पाणि, तथाऽशेषकर्मक्षयनक्षणं मोकं, दत्कारणानि च सम्यग्द. सब्धिमानाचकीत प्रतिपादयेदिति ।
शनझानचारित्राणि, पप्तत्सर्व स्वत पवावबुद्ध्यान्यस्माद्वाऽऽयायथा च धर्म कथयत्तदाह
याऽऽदेः सकाशात् श्रुत्वा यस्मै मुमनवे धर्म धुतचारित्राऽऽस्यं अणुवी भिक्खू धम्ममाइक्खमाणे णो अत्ताणं प्रासा- भाषत । किनूतम, प्रजायन्त इति प्रमाःस्थावरजङ्गमा जन्तवः, इज्जा, णोपरं आसाएज्जा, णो अधाईपाणाई मूताई जी.
तेज्योहितं समुपदेशदानतः सदोपकारिणं धर्म बूपादिति । सपा
देयं प्रदश्य हेयं प्रदर्शयति--ये गर्हिता जुगुपिसता मिथ्यात्वावाई सत्ताई पासापज्जा, से अणासायए अणासायमाणे
विरतिप्रमादकषाययोमाः कर्मबन्धहेतवः, सह निदानेन व. बज्माणाणं पाणाणं भूयाणं जीवाणं सत्ताणं जहा | तन्त इति सनिदामाः, प्रयुज्यन्त इति प्रयोगा व्यापाराः, धर्मक से दीवे असंदीणे, एवं से सरणं नवति महामुणी। थाप्रबन्धा वा ममास्मात्सकाशात्पूजालाजसंस्काराऽऽदिक भचि. "अणुवीर निक्खू" इत्यादि यावत् "सरणं भवति महा.
प्यतीत्यनूतनिदानाऽऽशंसारूपांस्तांश्चारित्रविधनजूतान् मह. मुणि ति"। सन्निकुमुमुक्षुग्नविचिन्त्य पूर्षापरण धर्म पुरुष वा.
र्षयः सुधीरधर्माणो न खेवन्ते नानुतिष्ठन्ति । यदि वा-ये गलोच्य यो यस्त्र कथनयोग्यस्तं धर्ममाचकाणः, प्राङिति
हिताः सनिदाना बाक्प्रयोगाः, तद्यथा-कुतीथिकाः सापद्या. मर्यादायां, यथाऽनुष्ठान सम्बग्दर्शना शालना भाशातना,
नुष्ठानाविरता निःशीला अनिवृताः कुटिश्नचेएटनकारिण इत्वे. तमात्मानं नो आशातयेत, तथा धर्ममाचकीत, यथाऽमन प्रा.
नूतान् परदोषोद्घाटनया मर्मवेधिनः, सुधीरयमाणो बाकराटशातना न नवेत् । यदि वा आत्मन पाशातना किंधा-5व्य.
कान् न सेवन्ते न ब्रुवत इति ।। १६ ॥ तो, जावतश्च 1 व्यतो यथाऽऽहारोपकरणादेव्यस्य
किं चान्यत्कानातिपाताऽऽदिकृताऽऽशातना बाधा न भवति तथा कयये
केसिंचि सक्काइ अबुज्क नावं, त,भाहारादिद्रव्यबाधया च शरीरस्यापि पीडाभावाशा- खुदं पि गच्छेज्ज असहदाणे । तनारूपा स्यात्, कथयतो वा यथा गात्रभरूपा भावाऽऽशातना
अानस्स कामाश्चरं बघाए, म तस्य स्यात्तथा कथयेदिति तथा न पर शुश्रपुराशातयत, यतः परोहीझनया कुपितःसनादारोपकरण शरीरान्यतरपीमायै प्रव
अघाएमाणे य परेमु अहे ॥२०॥ तेताऽतस्तदाशातनां वर्जयन धर्म ब्यादिति । तथा नान्यान् वा.
केषाञ्चिन्मिथ्यादृष्टीनां कुतीथिंकभावितानां स्वदर्शनाग्राहिणां, सामान्यन प्राणिनो भूतान् जीवान् नो पाशातये वाधयेत्, वदे
तया बितव स्वमतिपयाँसोचनेन, भावमभिप्रायंटान्तःक. घंस मुनिः स्वतोऽनाशातकैरनाशातयन् तथा परानाशातयतो:
रणवृत्तित्वमबुध्वा कश्चित्साधुःभावको बा स्वधर्मस्थापनेच्या ननुमन्यमानोऽपरेषां वध्यमानानां प्राणिनां नतानां सवानां जी.
तीथिकतिरस्कारप्राय बचो पात्, सच किस्तयोsवानां यधा पादानोत्पद्यते तथा धर्म कथयेदिति तद्यथा यदि
श्रद्दधानोऽरोचयनप्रतिपाद्यमानोऽतिकटुकं प्रापयेत, कुरुत्व लौकिककुप्रावनिकपाश्वस्थाऽऽदिदानानि प्रशंसत्यवतमा
मपि गच्छेद्विरूपमपि कुर्यात, पायकपुरोहितवत् स्कन्दकाss. गादीनि बा, ततः पृथिवीकायाऽऽदयो व्यापादिता भवेयुः, प्र.
चार्यस्येति । कुमत्वगमन मेघ दर्शयति-स निन्दावचनकुपिथ दूषयति--ततोऽपरेषामन्तरायाऽऽपादनेन तस्कृतो बन्धविपा
तोऽपि वक्तुर्यवायुस्तस्याऽऽयुषो व्याघातरूपं परिवयस्वन्नावं कानुभव: स्यात् । उक्तं च-"जे उदाणं पसंसंति, वदामिन्छ
कामातिचारं दीघस्थितिकमप्यायुः संवर्तेत । एतदुक्तंत्रति पाणिणं । जे च णं पभिसेहंति, वित्तिच्छेय करंति ते॥१॥"
वति-धर्मदेशना हि पुरुषविशेषं ज्ञात्वा विधेया । तद्यथा-कोतस्मात्तदबटतमागाऽऽदिविधिप्रतिषेधब्युदासेन यथाऽवस्थित
ऽयं पुरुषो राजा दिः कश्चन देवताविशेषं गतः कतरद्वाद. दानं शुरू प्ररूपयेदसावद्यानुष्ठानं चेति । एवं च कुर्वन्नुभयदोषप
निमाश्रितोऽनिगृहीतोऽनभिगृहीतो वाऽयमित्येवं सम्यक प. रिहारी जन्तूनामाश्वासनूमिर्भवतीत्येतद् दृशन्तद्वारेण दर्शय.
रिक्षाय यथाई धर्मदेशना विधेया । यश्चैतदबुट्टा किञ्चिति- यथाऽसौ द्वीपोऽसदीनः शरणं नवत्येवमसाबपि महा
कर्मदेशनाद्वारेण परविरोधद्वचो ब्रूयात् स परस्मादेहिकाऽऽमुनिः तरुणोपायोपदेशतो वध्यमानानां बधकानां च तद
मुग्मिकयोमरणादिकम्पकारं प्राप्नुयादिति । यत एवं ततो भ्यवसायान्निवर्तते, न विशिष्टगुणस्थानाऽऽपादनाचरण्योभव.
लब्धमनुमानं येन पराभिप्रायपरिक्षाने स लब्धानुमानः प. ति। तथाहि यथोदिधन कथाविधानेन धर्मकां कथयन् काँकन
रेषु प्रतिपाद्यषु यथायोगं यथाईप्रतिपायाऽर्धाम् सद्धर्मप्रकप्रवाजयति, कांचन श्रावकान्विधत्ते, काँश्वन सम्पदर्शनयुतान्
पणादिकान् जीवाऽऽदीन स्वपरोपकाराय ब्यादिति ॥१०॥ करोति, केपाश्चित्प्रकृतिजातामापादयति । प्राचा० १६० ६
सूत्र १ श्रु० १३ अ०। ०५०।
से जिकाव मायने अन्नयरं दिनं अणदिम वा पमिवने किश्चान्यत्
धम्म आइखे विजए किटे नवट्ठिएमु वा अणुवटिएसु सयं समेचा अदुवा वि सोचा,
वा सुस्सूसमाणेसु पवेदए संतिविरतिं उबसमं निवाणं भासेज धम्म हिययं पयाणं ।
सोयवियं अज्जवियं मद्दवियं लावियं अणतिवातियं स. जे गरहिया सणियाणप्पोगा,
ब्देसि पाणामं सव्वेसि जूताणंजाव सत्ताणं भाषाई किण ताणि से वंति मुधीरधम्मा ।। १६ ।।
हिए धम्म ।। ५७॥ ६७४
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(२६८४) अभिधानराजेन्द्रः।
धम्म
स निकराहारोपधिशयनस्वभ्यावादीनां मात्र जानातीति न्ति के समीपे पूर्वोक्तविशेषणविशिष्टं धर्म श्रुत्वा निशम्यावगम्य तद्विधिका सन अन्यतरां दिशमनुदिशं वा प्रतिपन्नः समा- सम्यगुत्थाननोत्थाय धी(वी)राः कमेघिदारणसहिष्णवो,ये चैवंथिनो धर्ममाल्यापयेत् ,यद्येन विधेयस्तद्यथा-भोग विभजेकर्म- नूतास्ते एवं पूर्वोक्तविशेषणविशिष्टानुष्ठानतया सर्वस्मिन्नपि फवानि च कीर्तयेदाविर्भावयेद, सच्चैकार्थप्रवृत्तेन साधुना स. मोक्षकारणसम्यग्दर्शनाऽऽदिके उप सामीप्येन गताः सर्वोपगम्यगुपस्थितेषु वा कौतुकाऽऽदिप्रवृत्तेषु शुश्रूष माणेषु श्रोतुं प्र. तास्तथैवं सभ्य उपरताः सर्वोपरताः,तथा त एवं सोंपशावृत्तेषु स्वपराभिप्रायं वेश्येदावेदयेत्प्रकथये देति यावत् ।
म्ता जितकषायता शीतहीनता तथा पवं सवाऽमतया सर्वतुमुपस्थितेषु यत्कथयेत्तद्दर्शयितुमाह-(सीतविरर इत्यादि ) सामयेन सदनुष्ठानेनोद्यम कृतवन्तो, ये चैवंतास्तेऽशेषकर्मशान्तिरुपशमः क्रोधजयस्तस्प्रधाना प्राणातिपातियो बिरतिः कयं कृत्वा परि समन्तान्निवृत्ता अशेषकर्मवयं कृतवन्त इति शान्तिविरतिः। यदि वा-शान्तिरशेषकले शापगभरूपा तस्यैतद- धीमीति पूर्ववत् ॥ २६ ॥ सूत्र०२ श्रु० १ अ०। थे विरतिस्तां कथयत्, तथोपशममिन्छियोपशगरूपं रागद्वेषा. (२६) इह भवजलधिनिमग्नसरचाभ्युजिहीर्षाऽभ्युद्यतेन स्वहितनावअनितम् । तथा-निवृति निर्वाणमशेषचन्द्वोपरमरूपं, तथा संपादननिपुणेन गुरुलाघवचिन्तावता प्रश्नार्थव्याकरणसमर्थन ( सोयविय वि) शौचं, तदपि भाचशौचं, सर्वोपाधिशुरुता
विदुषा सद्धर्मपरीकायां यत्नो विधेयः, सा च परीककमन्तरेण बतामालिन्यम् । (अजवियं ति)आर्जवममायित्वं, तथा- न सजवनि, तदविनाभाधित्वात्परकायाः सकर्मपरीक्षकाऽदि. मार्द मृनावं सर्वत्र प्रश्रयवत्वं विनयनम्रतेति धावत् । त. भावप्रतिपादनार्थ च आरोषोम्शाधिकारप्रतिबकं प्रकरणमारे। था-(लाघवियं ति)कर्मणां लाघवाऽऽपादनं कर्मगुरोर्वाऽऽत्म. ने हरिमद्रसरिः, तस्य चाऽऽदावेव प्रयोजनानिधेयसम्बन्धप्रनः कर्मापनयनतो लध्ववस्थासंजननम् । साम्प्रतमुपसंहार- तिपादनार्थमिदमार्यास्त्रं जगादद्वारेण सर्वशुभानुष्ठानानां मूलकारणमाह-अतिपतनमतिपा
प्रणिपत्य जिनं वीरं, सधर्मपरीक्षकाऽऽदिनावानाम् । तः प्राएयपमर्दन, तद्विद्यते यस्यासायतिपातिकस्सत प्रतिषेधादनतिपातकस्तं, सवेषां प्राणिनां भूतानां यावत्सवानां ध. लिङ्गाऽऽदिभेदतः खलु, बये किञ्चित्समासेन ।।२।। ममनुविचिस्य वा कीर्तयेत्कथयेत् । इदमुक्तं भवति-सर्वप्राणिनां | प्रणिपत्य नमस्कृत्य, जिनं जितरागद्वेषमा सर्वशं वीरं सदेच. रक्षान्तं धर्म कथयदिति ।। ५७ ॥
मनुष्यासुरलोके श्रमणो भगवान् महावीर इत्यागमप्रसिकनासाम्प्रतं धर्मकीर्तनं यथानिरूपितमधिभवति तथा दर्शयि.
मानमनेनेटदेवतास्तवद्वारण मङ्गझमाद । सद्धर्मपरिक्वस्त्रि
विधो वक्ष्यमाणस्तदादयो ये नावास्तेषां किश्चिदित्यस्य स्व. तुमाह
रूपमात्राभिधायित्वावेशं वक्ष्ये सिङ्गाऽऽदिभेदतः खल्विति वि. से जिक्खू धम्म किमाणे णो अन्नस्स हे धम्ममाइ- वृत्ताऽऽदिविशेषप्रतिपादनद्वारेण यद्यप्यपरैरेव पूर्वाचार्यः स. क्खेजा, पो पाणस्स हेनं धम्ममाइक्खे ज्जा, णो वत्थस्स
कर्मपरिकाऽऽदयो जावाः स्फुटमेवानिहितास्तथाऽप्यहं समासे. हे धम्ममाइक्खेजा, पोस्रोएस्स हेडं धम्ममाइक्वेज्जा,
मेवाभिधास्यामीति (१)॥ यो सयणस्स हेनं धम्ममाइक्खजा, णो असि विरूवरू
सकर्मपरीक्षकस्य त्रिविधस्य व्यापारमुपदर्शयतिवाणं कामभोगाणं हे धम्ममाइक्खेजा, अगिलाए ध
बालः पश्यति निङ्ग, मध्यमबुछिर्विचारयति वृत्तम् । म्ममाइक्खेना, नन्नत्थ कम्मनिज्जरट्टाए धम्ममाइक्खे
आगमतत्वं तु बुधः, परीक्षते सर्वयनेन ॥ ॥ ज्जा ॥५ ॥
बालो विशिष्टबिवेकविकलो लिङ्गं वेषमाकारं बाह्यं पश्यति,
प्रधानेन धर्माधिनोऽपि तस्य तत्रैव तूयसा रुचिप्रवृत्तः । म. स भिक्षुः परकृतपरिनिष्ठिताऽऽहारभोजी यथाक्रियाकलाऽनुष्ठा- ध्यमबुद्धिमध्यमविवेकसंपन्नो, विचारयति मीमांसते, वृत्त यी शुश्रूषन् सुधर्म कीर्तयन्नाग्नस्य हेतमिमायमीश्वरो धर्मक- वक्ष्यमाणस्वरूप प्राधान्येन समाश्रयति, तत्रैवाभिलाषत्वात् । थाप्रश्रवणे विशिष्टमाहारजातं दास्यतीति, पतन्निमित्तं न ध- बागमतस्वं स्वागमपरमार्थमैदंपर्यरूप, बुधो विशिएविवेकममाचकीत, तथा पानवखसयन शयननिमित्तं न धर्ममाचक्षीत। संपन्नः, परीकने समीचीनमवलोकयति । सर्वयत्नेन सर्यानान्येषां धिरूपरूपाणामुच्चावचानां कार्याणां कामनोगानां बा ऽऽदरेण धर्माधर्मव्यवस्थाया आगमनिवन्धनत्वात् । यत निमित्तं तथा धर्ममाचक्षीत, सानिमुपगच्छन् न धर्ममाच
उक्तम्-" धर्माधर्मव्यवस्थायाः, शानमेव नियामकम । त5कीत । कर्मनिर्जरायाश्चान्यत्र न धर्म कथयदेपरप्रयोजननिरपेक ताऽऽसेबनाकर्म-स्त्वधर्मस्तद्विपर्ययात ॥१॥" ॥२॥ एव धर्म कथयेदिति ॥ ५ ॥
इदानी पूर्वोक्तानां बालाऽऽदीनामेव बक्कण माहधर्मकथाश्रवणफनदर्शनद्वारेणोपसजिघृकुराह
बाझो ह्यमदारम्भो, मध्यमबुधिस्तु मध्यमाऽऽचारः। इह खलु तस्स भिक्खुस्स अंतिए धम्मं सोचा णिसम्म |
ज्ञेय इह तच्चमार्ने, बुधस्तु मार्गानुसारी यः॥ ३ ॥ सम्मं नहाणेणं उढाय वीरा अस्सिं धम्मे समुट्ठिया जे ते बालो हि पूर्वोक्तः असनमुन्दर प्रारम्भोऽस्येत्यसदारम्भोऽविधएवं सम्बोधगता ते एवं सच्चोवरता ते एवं सबोबसंता
मान वा यदागमे व्यवच्छिन्नं नदारभन त्यसदारम्भः,न सदा
न सर्वदा स्वशक्तिकामाऽऽद्यपेक श्रारम्भोऽस्येति बा,मध्यमबुकिते एवं सब्बताए परिनिवुमे त्ति बेमि ।। एए॥
स्तु प्रयोक्तो मध्यमाचार आगमैदपयंविकलत्वात् प्रावचनिशहास्मिन् जगति, खलुक्याल कारे। तस्य भिवोर्गणवतो. ककार्याप्रवृत्तेःशेय इह प्रक्रमे तत्वमागे परमार्थमार्गे प्रवचनोन्न
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धम्म
(२६५) अनिधानराजेन्द्रः।
धम्म
तिनिमित्ते, बुधस्तूडलक्षण एव मार्गानुसारी ज्ञानाऽऽदित्रयानुः | रूपमहिसाऽऽद्यात्मकम् , ननु कथं सदनुष्ठानं चारित्रमभिधीयसारी स्वपरयोस्तवृद्धि हेतुत्वेन यः म विज्ञेय शति ॥३॥ ते । यतश्चारित्रमान्तरपरिणामरूपम , सदनुष्ठानं तु बाह्यकथं पुनबाह्यनिङ्गप्राधान्यदर्शिनो बानत्वमित्याह
सक्रियारूपं, तदनयोः स्वरूपभेदः परिस्फुट एवास्तीत्याशबाह्य लिङ्गमसारं, तत्प्रतिबछा न धर्मनिष्पत्तिः । क्याऽऽह-कार्य हेतूपचारेण कार्य सदनुष्ठानरूपे हेतूपचारण धारयति कार्यवशतो, यस्माच विझम्बकोऽप्येतत् ॥ ४ ॥
भावोपचरेण तत्पूर्वकत्वात सक्रियायाः, यश्चाऽऽन्तरपरिणाबाह्य बहिर्ति दृश्यम, लिङ्गमाकारो वेपस्तदसारम् । यत.
मविकलं तत् सदनुष्ठानमेव न भवतीति भावार्थः ॥ ७॥ स्तत्प्रतिबका तदविनानाचिनी, न धर्मनिष्पत्तिनं धर्मसं. पतश्च सदनुष्ठानं शुद्धाशुरुभेदं तद्वयमप्याहसिकिदिषां मता । धारयति कार्यवशतः कार्याङ्गीकरणन परिशकमिदं नियमा-दान्तरपरिणामतः सुपरिशुद्धात् । स्वाभिप्रेतफलसिहये, यस्माच विडम्बकोऽप्येतर्मनिष्पत्य
अन्यदतोऽन्यस्मादपि, बुधविडेयं त्वचारुतया ॥ ॥ नावविवतया यस्माद्धति हेत्वन्तरसूचनम् । एको हेतुबाह्य
परिशुद्ध सर्वप्रकारशुद्धमिदं सदनुष्ठानं नियमानियमेनान्तरशिकाद्धर्मनिष्पत्तेरभावो, द्वितीयस्तु कुतश्चिन्निमिसद्विडम्बक
परिणामतस्तथाविधचारित्रमोहनीयकर्मक्कयोपशमाऽऽदिजन्यास्याऽपि तकारणमाच्या बाह्यलिङ्गमसारम् । स तु बालस्तदेव प्राधान्यन मन्यत इति ॥४॥
त् सुपरिशुद्धाशास्त्रानुसारेण सम्यक्त्वज्ञानमूलादिति भावः।
अन्यदित्यपरिशुद्धमतोऽन्यस्मादान्तरपरिणामाद्योऽन्यः कश्चिननु च बाह्यलिङ्गस्य कथमप्राधान्यं जवद्भिरुच्यते, यतस्त
तुलाभपुत्राख्यात्यादिस्ततोऽन्य स्मादपि प्रवर्तते । ननु प. त्परिग्रहत्यागरूपमित्याशझ्याऽह
रिशुद्धाऽपरिशुरुयोः सदनुष्ठानयोः स्वरूपं तुल्यमेवोपल. बाह्यग्रन्थत्यागात्, न चारु न त्वत्र तदितरस्यापि ।
नामदे, तत्कथं प्रतिनियतस्वरूपतया ज्ञायत इत्याहकञ्चुकमात्रत्यागा-न हि भुजगो निर्विषो भवति ॥५॥ (बुधविडेयं त्वचारुतया ) बुधैस्तत्त्वविद्भिरेवाचारुतया अ(बाह्यत्यादि) बाह्यग्रन्थत्यागाद्धनधान्यस्वजनवस्त्राऽऽदित्यागा-1 सुन्दरवनेतररूपविविक्तं तबिज्ञायते, यथा-प्रचार्षिति न तन चारु न शोभनं बाह्यलिङ्गं, ननु मिश्चतमेतदत्र लोके ।। पुनरितरैस्तेषां तद्गतविशेषानुपलम्भादिति ॥८॥ तद बाह्य त्रिमितरस्यापि मनुष्यतिप्रभृतेः संभवति । का पुनर्विशेषो यदुपलम्भात् सदनुष्ठानासदनुएनमेवार्थ प्रतिवस्तूपमया दर्शयति-कञ्चकमात्रत्यागादुप.
छानयोरिदमवधार्यते, परिशुरुमेतदिति रिवर्तित्वयात्रपरित्यागान हि नैव तुजगः सरीसृपः कथ
तदुपदर्शनार्थमाहचिनिर्मिषो भवति ॥ ५ ॥
गुरुदोषाऽऽरमिनतया, तेष्वकरण यत्नतो निपुणधीभिः । प्रस्तुतमेवार्थ तन्त्रान्तरसंवादेनाऽऽह
सन्निन्दाऽऽदेश्च तथा, झायत एतनियोगेन ।।।। मिथ्याऽऽचारफल मिदं, ह्यपरैरपि गीतमशुजनावस्य ।
गुरून दोघान् प्रवचनोपघातकारिण प्रारम्धुं शीलमस्येति सूत्रेऽप्यविकलमेत-प्रोक्तममेध्योत्करम्यापि ॥ ६ ॥
गुरुदोषाऽऽरम्नी,तनावस्तया। लघुषु सूदमेघु दोषेष्वकरणयत्नः मिथ्या अलीको विशिष्टनावशून्य आचारो मिथ्याचारः, तस्य परिहाराऽऽदरस्तस्माञ्च निपुणधीभिः कुशल बुद्धिभिस्तथा सतां फर कार्यमिदं बाह्यलिङ्ग केवलमेव, हिर्यस्मादपरैरपि तन्त्रा. सत्पुरुषाणां साधुश्रावकप्रभृतीनां निन्दाऽऽदिमिन्दागर्हाप्रन्तर्रायातं कथितमशुभन्नावस्याऽऽन्तरशुभभावरहितस्य पुंसः। पाऽऽदिस्तस्माश्च ज्ञायत प.तदपरिशुद्धानुष्ठानं, नियोगेनाऽ5मिथ्याssचारस्वरूपं चेदम्--"बाह्ये छियाणि संयम्य, य श्रास्ते वश्यतया, यो हि गुरुदोषाऽऽदिषु प्रवर्तते, तस्यान्तःकरणमनसा स्मरन् । इन्डियार्थान् विमूढारमा, मिथ्याचारः स उच्य.
शुद्धरभावादसदनुष्टानमेतदिति निश्चीयते ।। ।। ते ॥१॥" जन्मान्तरोपार्जिताकुशल कर्मविपाक एवैष य.
"आगमतवं तु बुधः परीकते (२)" इत्युक्तं किंपुनस्त. ध्रांगोपभोगाऽऽदिरहितेन प्रेक्कावतपुरुषपरिनिन्दनीयं विन.
दित्याह{ जीविकाप्राय तथाविधबाह्यलिङ्गधारणामिति । तन्त्रान्तरप्र
आगमत , तददृष्टाविरुकवाक्यतया । सिद्धमिमममङ्गीकृत्यापरैरपि इत्युक्तम् । न केवलं तन्त्रान्त. रेषु, सूत्रेऽप्यागमेऽपि स्वकीये.ऽविकलं परिपूर्णमेतबाह्यलिङ्गं
उत्सर्गाऽऽदिसमन्वित-मलमैदम्पर्यशुद्धं च ॥१०॥ स्वकीयमेव प्रोक्तं प्रतिपादितमैहनाविकपारनाविकविता- बागमतत्वं ऊयं भवति, तत्कथम ?, झेयं, दृष्टं प्रत्यकानुमान्याश्रित्यामेध्योत्करस्याप्युच्चारनिकरकल्पस्यापि, प्रवचनो- नप्रमाणेनोपनब्धमिटमागमेन स्ववचनैरेवाभ्युपगतं ताज्यानिताशेषगुण शून्यस्योति यावत् । यत सक्तम्--"अगंतसो दब्ब- मविरुद्धानि वाक्यानि यस्मिन्मागमतले तत् टेटलिंगा।" ॥६॥
विरुद्ध वाक्यं तझावस्तया योऽयः प्रत्यक्षानुमानाज्यां परिमध्यमबुकिर्विचारयति वृत्तमित्युक्तम् तत्र किं तदित्याह- विद्यते तस्मिन् यथाऽगमतत्वमप्यविरोधि जयति,तद्विरुद्धस्य वृत्तं चारित्रं ख-स्वसदारम्भविनिवृत्तिमत्तच्च ।
ताज्यामेव मिराकरणात्, प्रत्यक्तानमानविरुद्धस्याऽऽगमस्याप्रसदसष्ठानं प्रोक्तं, कार्ये हेतूपचारेण ॥ ७ ॥
माणत्वात्,स्ववचनैरेवाऽऽगमेनाज्यपगतेऽथे प्रदेशान्तरवर्तिनाऽ.
स्यवाऽऽगमस्य वचनं यदि विरोधिन भवेदित्यर्थतस्तत प्रागवृत्तं वर्तन विधिप्रतिषेधरूपं, तच्च चारित्रमेव, खलुशब्दस्या- मतवमिटाविरोधिवाक्यं भवति, परस्पराविरोधि वचनमि. वधारणार्थत्वात्, तच्चेह सदनुष्ठानं प्रोक्त तत्कीरशम?, अस. त्यर्थः, तदेव विशिनधि-उत्सर्माऽऽदिसमन्विनमुत्सर्गसामान्य दारम्नविनिवृत्तिमत, अमदारम्नोशोभनाऽऽरम्भः प्राणाति- यथा-"न हिंस्याद् भूतानि" आदिशब्दादपवादो विशेषो ग्लापाताऽऽद्याश्रषपञ्चकरूपः,ततो विनिवृत्तिमद्धिसादिनिवृत्त- नाऽऽदिप्रयोजनमतस्तभ्यां युक्तम् । अल मत्यर्थमैदम्पर्यशुद्धं
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(२६ ) धम्म अन्निधानराजेन्डः।
धम्म च, इदं परं प्रधानमस्मिन्वाक्य इतीदंपरं तद्भाव ऐतर्मयम, | दि । ततो विधिश्व प्रतिषेधक्ष विधिप्रतिधौ, किमित्याह-कषः पाक्यस्य तात्पर्य शक्तिरित्यर्थस्तेन शुद्धं यदागमतवं तदिह | सुवर्णपरीक्षायामिव कपपट्टके रेस्त्रा । इदमुक्तं भवति-पत्र ध. केयमिति ॥१०॥
में वक्तलक्षणो विधिः,प्रतिषेधश्च पदे पदे सुपुष्कल उपलभ्यते तदेवाऽऽगमतस्वमुपन्यस्यति ग्रन्धकार:
स धर्मः कपशुखः । न पुन:-" अभ्यधर्मस्थिताः सचा, असुप्रात्माऽस्ति स परिणामी, बकः सत्कर्मणा विचित्रेण । राश्व विष्णुना । तच्छेदनीयास्तेषां हि, बधे दोषो न विद्यते मुक्तश्च तद्वियोगा-दिसाऽहिंसाऽऽदि तकेतुः॥११॥
॥१॥" इत्यादिकवाक्यगर्भ इति । दमाह--" तत्सनवपासना
चेष्टोक्तिश्छेद इति" । तयोबिंधिप्रतिषेधयोरनावि‘तयोः सं. (आत्माऽस्तीत्यादि ) आत्मा जीबः, सोस्ति लोकायतमत
नवः, प्रातयोश्च पालना रकारूपा, ततस्तत्संभवपालनार्थ निरासनैव या प्रतिपाद्यते, तदागमतस्यमित्येवं पदान्तरेष्वपि
या चेष्टा भिक्षामाऽऽदिवाह्यक्रियारूपा, तस्या उक्तिश्वेदः । सम्बन्धनीयम । स परिणामी, स पूर्वप्रस्तुत पारमा परिणामी
यथा कषशुकावण्यन्तरामशुकिमाशझकमानाः सौवर्णिकाः सुबपरिणायसहितः, पञ्चस्वपि गतिध्वन्वयी चैतम्यस्वरूपः पुरुषः,
मंगोलिकावेरेदमानियन्ते,तथा कषशुद्धाबपि धर्मस्थ दम. परिणामलकणं चेदम्-"परिणामो ह्यान्तर-गमनं न च स
पेक्वन्ते । स च दो विशुद्धबाह्यवेष्टारूपो,विशुरूाचचेधा सा य. वंथा व्यवस्थानम् । न च सर्वधा विनाशः, परिणामस्तद्विदा- त्रासम्ताबपि विधिप्रतिषेधाववाधित रूपी स्वात्मानं सभेते.सम्मा. मिष्टः ॥१॥" स च परिणामी जीवो बकः सरकर्मणा विचि- अरमानी चातीचारक्षक्षणापचारविरहिती, उत्तरोत्तरी वृद्धिमनश्रेण वस्तु सत्कर्म म काल्पनिकं बासनादिस्वभावं, तेन भवलासा पत्र धर्मे चेष्टा सपश्चाप्रोच्यते स धर्म छम शुरू बरो जीवप्रदेशकर्मपुद्गलान्योन्यानुगतिपरिणामेन । यथोक्तं इति । यथा कपच्छेद शुद्धमपि सुवर्ण तापमसहमानं कालिबन्धाधिकारे-" तत्र पौगलमात्मस्थ-मचेतनमतीन्द्रियम् । कोन्मीलनदोषाच सुवर्णभावमश्नुते,एवं धम्मो ऽपि सत्यामपि बन्ध प्रत्यादि सत्कर्म, संतति प्रत्यनादिकम् ॥१॥" (एक्तव कपच्चंदगुको तापपरीकायामनिर्वहमाणो न स्वभावमासाद. सद्वियोगात)कर्मवियोगात,प्रात्यस्तिककर्मपरिक्वयात (हिंसा.
यस्यतस्ताप प्रज्ञापयशाह-"उभयनिबन्धनभाववादस्तापति।" हिंसाऽऽदितकेतुरिति ) हिंसा प्रादिर्यस्य तकिसाऽऽदि, - उभयो। कपच्छेन्योरनन्तरमेवोक्तरूपयोनिबन्धनं परिणामि, णातिपाताऽऽदिपश्चकम् । अहिंसा प्रादियस्य तदहिसाऽऽदि, किमित्याह-तापोऽत्र शुतधर्मपरीक्वाऽधिकारे । इदमुक्तंनतिमहानतपञ्चकम, तयोर्बकमुक्तयोरर्थतो बन्धमोक्षयोर्वा हेतुर्वर्स- यत्र शाले व्यरूपतया उप्रच्युतानुत्पन्नः पर्यायात्मकतया च प्र. ते दिसाऽहिंसाऽऽदि चेति ॥ ११ ॥
तिवणमपरापरस्पनावाऽऽस्कन्दनेनानियस्वभावो जीवाऽऽदि. ऐदम्पर्य शुद्ध चेत्युक्तम् । का पुनरैदम्पर्यशुद्धिरित्याह-- रवस्थाप्यते स्यात्तत्र तापशुद्धिः। यतः परिणामिन्येवात्मापरलोकविधो मानं, वचनं तदतीन्धियार्थहर व्यक्तम् ।
दो तथाविधाशुरूपर्यायनिरोधन ध्यानाध्ययनाऽऽद्यपरासर्वमिदमनादि स्या-देदम्पर्यस्य शुकिरिति ॥ १२॥
द्धपर्यायप्रादुनाबादुक्तलक्षणः कषो बाह्यचष्टाशुद्धिलक्णश्च द परलोकविषयो विधिः कर्तव्योपदेशस्तस्मिन्, मानं प्रमाणं,
उपपचते, न पुनरन्यथेति । एतेषां मध्यात्को बलीयानितरो बचनमागमः, कीरशमित्याह-तद्वचनमतीन्छियानधान् पश्य
घेति प्रइने यत्कर्तव्यं तदाह-" अमीषामन्तरदर्शनमिति ।" सीत्यतीलियार्थरक, सर्वका सबंदी, तेन व्यक्तमनिक्यतार्थ
अमीषां त्रयाणां परीक्वाप्रकाराणां परस्परमन्तरस्य विशेषस्य
समर्थासमर्थरूपस्य दर्शन कार्यमुपदेशकेन, तदेव दर्शयतिप्रतिपादितार्थमिति यावत् । सर्वमिदं वचनमानादि स्यात् प्र.
"कपच्छेदयोरयन इति"। कपच्छेदयोः परीकाक्षमत्वेनाबाहतः सर्वक्षेत्राशीकरणेनेयमैदम्पर्यस्य गुद्धिरित्येवंप्रकाराऽब.
दरणीयतायामपनोऽतात्पर्य मतिमतामिति । कुत इत्याहसेयेति ॥ १२ ॥ पो०१ विधः।
" तदनावेऽपि तापाभावेऽभाव इति ।" तयोः कपच्छेदयोअन्यत्राध्यवाचि
भीषः सत्ता तद्भावस्तस्मिन्, किं पुनरतद्भावे इत्यपिशब्दा. "तं शम्नमात्रेण वदन्ति धम्मै,
थे। किमित्याह-'तापाभावे' उक्तलक्षण तापविरहे अन्नाव: विश्वेऽपि लोका न विचारयन्ति ।
परमार्थतोऽसत्तैव परीक्षणीयस्य, न हितापे विघटमान हेम स शमसास्येऽपि विचित्रभेद
कपच्छेदयोः सतोरपि स्वं स्वरूपं प्रतिपसुमलं, जातिसुवर्णविनिद्यते कीरमिवार्जुनीयम् ॥१॥
स्वातस्य। एतदपि कथमित्याद-" तब्बुद्धौ हि तत्साफल्यलक्ष्मी विधातुं सकलां समर्थ,
मिति । " तच्चूद्धी तापाकी, हियस्मात्तत्साफल्यं तयोः सुर्लभं विश्वजनीनमेनम । परीक्ष्य गृहन्ति विचारदक्षा,
कपच्छेदयोः सफलभावः । तथाहि-ध्यानाध्ययनादिकोऽधों सुवर्णवद्धं च न नीतचित्ताः
विधीयमानः प्रागुपात्तकमनिर्भरणफल, हिंसाऽऽदिकश्च प्र. ॥२॥" इति।
तिषियमानो नवकम्मोपादाननिरोधफलः, बाह्यचेष्टा गुद्धिश्चापरीकोपायमेवाऽऽह-कवादिप्ररूपणेतिायथा सुवर्णमात्रसा- नयोरेवानाविर्भूतयोयोगेनाऽऽविर्भूतयोश्च परिपाल नेन फल. म्येन तथाविधमुग्धलोकेष्वविचारेणैव शुद्धाशुद्धरूपस्य सुच- चती स्यात् , न चापरिगणा त्मन्युक्तलक्षणो कपच्छदौ
स्थ प्रवृत्ती कपच्छेदतापाः परीक्षणाय बिचकणैराडियन्ते । स्वकार्य कर्तुं प्रभविष्णू स्यास, तयोस्तापशुद्धावेव स. स्थाऽत्रापि अतधर्म परीक्षणीये कषादीनां प्ररूपणेति । फलस्वमुपपद्यते न पुनरन्यथेत्ति । मन फल विकमावपि ती भकपादानेवाह--"विधिप्रतिषेधी कप शति ।" "विभिरविक- विष्यत इत्यत आह-"फलवन्तौ च वास्तवाचिति ।" उक्तकब्धार्थोपदेशकं वाक्य" यथा-स्थगकेवत्वार्थिना तपो. लकणफल नाजी सन्तौ पुनस्तौ कपदी धास्तवी कपको ध्यानादि कर्सव्वं, समितिनुप्तिशुद्धा क्रिया इत्यादि । प्रतिषे. भवतः, स्वसाध्यक्रियाकारिणो हि वस्तुनो वस्तुत्य मुशान्त धःपुन:-"हिस्यात्सर्वभूतानि" "मानृतं वदेव" इत्या. सम्तः, विपके बाधामाह-" भन्यथा याचितकमरमनमिति।"
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धम्म
अन्यथा फलविकलौ सन्तौ वस्तुपरीक्षाधिकारे समबनारि तावपि तौ याचितकमएमनम् द्विविधं ह्यलङ्कारफलं, निर्वाहे सति परिमिमानिसुखजनका स्वशरीरशोमा कथ चिनिर्वहणाभावे च तेनैव निर्वाहः, न च याचितकमएमने पतवृद्धिनीयमप्यस्ति परकीरवासस्य तनो याचितकमएमनमित्रामिनम् इदमुकं भवति इव्यपर्यायोजनाचे जीवे कपच्छेदौ निरुपचरिततयोपस्थाप्य मानौ स्वफलं प्रत्ययस्थानिकान्तवादशोनार्थ तद्वादिभिः कल्पयमानावप्येतौ याचितकमण्डनाऽऽकारी प्रतिभासेते, न पुनः स्वकार्य कराविति । ध० १ अधि० । (२७) कथाssदिस्वरूपमादपाणावहाइत्र्याणं, पावद्वाणाए जो उ परिसेहो । काकणाई थे, जो विही एस धम्मको ॥ २२ ॥ प्राणवधादीनां पापस्थानानां सकललोकसम्मतानां यस्तुप्रतिषेधायास्तव ए धम्मको वर्तत इति गाथाः ॥ २१॥
अ
बज्जाणुडाणें, जेण न बहिज्जई तयं नियमा । जव अपरिमुसो उधम्म छेउ नि ॥ २२ ॥ येन न
बाह्मानुष्ठानेन इति प्रतिषेधनियमात् संभव पर निरतिचारं स पुनस्तादृशः प्रक्रमपदेशो यछेद इति गाथाऽर्थः जीवानामपाओ पंचायसागो इदं तावो
एहिं सुपरिको पम्मो चम्मचणमुने ॥ २३ ॥
"
जीवाऽऽदिभाववादः पदार्थवादः बन्धाऽऽदिप्रसाधको बन्ध मोक्काऽऽदिगुण इह ताप उच्यते । एभिः कषाऽऽदिभिः सुपरशुधर्मानुष्ठानरूपः धर्मत्वमुपैति सम्प भवतीति गाथार्थः ॥२३॥
(240) अभिधान राजेन्द्र
पाँजो न सुडो, अभयरम्मि उन
।
निम्यभिम्रो । सो तारिस धम्मो नियमेा फले विसंवय ।। २४ ।। एभिः कथाऽऽदिभिर्यो न शुरू स्त्रिभिरपि अन्यतरस्मिन् वा कथाssaौन सुष्ठु निर्घटितः, न व्यक्त इत्यर्थः । न तादृशो ध मे. नियमावश्यकविसं तत्साधयतीति गाथार्थः । पं० व० ४ द्वार । मच्चुमुहस्स प्रतिय
गाणागमो
इच्छापणीत काऽऽलिकेपा । कालगहिता चिर विडा,
६७५
पुढो पुढो जाई पकप्पयंति ॥ १३१ ॥ इमेसि तत्थ तत्थ संथवो भवति अहोववाइए फासे पडिसंवेदयंति, चिडं कूरेहिं कम्मेहिं चिडं परिचिट्ठति, अचिडं करेहिं कस्मेहिं को चि परिचिह्नति, एगे पति अदुवा विगाणी पाणी वयंति, अदुवा कि एगे ॥ १३२ ॥ आनंती केयावंती लोयंसि समणा य माहला य पुढो विबाई पति से दि च यो सूर्य चमच से विद्यार्थ तिरियं दिसा सम्म युष्प मिले च
धम्म
सध्ये पाणामध्ये या सजीवामध्ये मा तया अज्जावेयन्वा परियावेयव्वा किल्लामेयल्या, परिघेतब्बा, उद्दवेयव्वा, एत्यं पि जाणह पत्थित्य दोसो, अलारियवयमेयं, तत्थ जे आरिया ते एवं बयासी से दुहिहं च भे दुस्सुयं च ने दुरुपयं च मे दुब्विण्णायं च ने अहं तिरियं दिसामु सव्वतो दुष्पमिलेहियं च ने, जं एं तुब्ने एमाइक्खह एवं जासह एवं पण्णवेह एवं परुनेह सच्चे पाणा सव्ये नूया सच्चे जीवा सव्वे सत्ता हतब्बा, ज्जायन्त्रा, परितावेयव्वा, किल्ला मेयव्त्रा परिघतव्वा, उद्दवेतव्वा, एत्थं पि जाएह णत्थित्य दोसो. श्रणारियत्रयणमेयं, त्रयं पुण एवमाक्खामो एवं भासामो एवं परुवेमो एवं पावेमो सच्चेपणास चूया सच्चे जीवासने सत्ता तन्ना प्रायव्वा, परिधेतव्वाण किल्ला मेयव्वा, परितावे यव्वा, उद्दवेन्वा, एत्थं वि जालह पत्थित्य दोसो, श्रारियत्रयणमेचं एवं शिकायममयं पत्तेयं पतेयं पुच्छरमि-हं भो पाइया ! किं भे सायं 5क्खं, जयाहु - सायं समिया पमित्र यावि एवं व्यासव्वेसिं पाणा सन्यास जीवाणं सव्येसि सत्ताएं - सायं अपारशिवा मम वति देमि ।। १३३ ।। (पाणागमोत्यादि) नागमोत्योर्मुखस्य कस्यचि दपि संखारोवर्तिनोऽस्तीति । वर्क च " वदत पद सम्परिभोगलासितः । प्रयत्नशन परोऽपि विगतव्यथ-मायुरवाप्तवान्नरः ॥ १ ॥ न खलु नः सुरौसिका सुरकिरनाथको पि यः । सोsपि कृतान्तदन्तकुलि-शाऽऽकमेण कृशितो न नश्यति || २ || " पायविप्रतिषेधस्य न कश्चिदस्तीति ।
उक्तं च
नश्यति नौति याति वितनोति करोति रसायनक्रियां, चरति गुरुवतानि विवराण्यपि विशति विशेषकातरः । तपति तपांसि खादति मितानि करोति च मन्त्रसाधनं, तदपि कृतान्तदन्तयन्त्रककमविदार्यते ॥ १ ॥ " ये पुनर्विषपायानिष्वात् प्रमत्ता धम्मैनाकं भूता भवन्तीत्याह (इच्छा इत्यादि) इन्द्रियमनोनुकू सिरिया तथा विषयाऽभिमुख मनिकर्म संखाराभिमुखं वा प्रकर्षेण नीता इच्छाप्रणीताः, ये चैवंभूतास्ते 'बंकाऽऽनिकेता' यस्यासंयमस्य अमर्यादया संयमाधितया निकेतता या वङ्काऽऽनिकेताः, वङ्को वा निकेतो येषां ते का निकेता, पूर्वपदस्य दीर्घत्वम् ये येवंभूतास्ते कामगृहीताः कालेन मृत्युना गृहीताः कालगृहीताः, पौनःपुन्यमरणभाज इत्यर्थः धर्मचरणाय वा प्रतिसंचितः कालो येस्ते कामगृहीता आहितादित्याद्वा निष्ठान्तस्य परनि पातः । तथाहि--पाश्चात्ये वयसि परुपरारि वा अपत्यप रिणयनोत्तरकालं वा धर्म करिष्याम इत्येषं गृहीतकाला ये
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भूतास्ते निचये निविश किया सावद्यारम्भनिचये निविष्टा अभ्युपपन्नाः ये चेच्छाप्रणी
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धम्म
(२६ए) भाभिधानराजेन्द्रः ।
धम्म
सा वानिकताः कालगृहीता निवये निविष्टास्ते तकर्माण:
या जीचा न भवन्त्यपरे बनस्पतीनामध्यचेतनतामाहुः, तथाकिमपरं कुर्वन्तीति दर्शयितुमाह-( पुढो पुढो इत्यादि) पृ. द्वीन्द्रियाऽऽदीनामपि कृम्यादीनां न जन्तुस्वभाव प्रतिपद्यन्ते, थक पृथंगकेन्द्रियद्वीन्द्रियाऽऽदिकां जातिमनेकशः प्रकल्पय- सद्भावे वा न तद्वधे बन्धोऽल्पबन्धता वेति । तथा-हिंसायान्ति प्रकुर्वन्ति । पाठान्तर वा.." एत्य मोहे पुणा पुणो " मपि भिन्नवाक्यता । तदु कम्-" प्राणी प्राणिज्ञान, घातकअत्र अस्मिनिन्गप्रणाताऽऽदिके हृषीकानुकूले मोदे कर्म- चित्तं च ताता चेष्टा । प्राणैश्च विप्रयोगः, पञ्चनिरापद्यते रूपे वा मोहे निमग्नाः पुनः पुनस्तत्कुर्वन्ति येन तदप्र- हिंसा ॥१॥" इत्येवमादिक औद्देशिकपरिभोगाभ्यनुज्ञाऽऽदि. च्युतिः स्यात् । तदप्रच्युतौ च किं स्यादित्याह-(३हमेगेसि इत्या. कश्च विरुद्धो वादः स्वत एवाभ्यूह्यः। यदि वा-ब्रह्मणाः श्रमदि) दास्मिश्चतुर्दशरज्ज्वात्मके लोके पकेषां मिथ्यात्वाविर- णा धर्मविरुकं वादं यवदन्ति तत सुत्रेणैव दर्शयति-"से तिप्रमाकपायवतां तत्र तत्र नरकतिर्यग्गत्यादिषु यातनास्थान- दिलं च णं" इत्यादि यावत्-" णस्थिथ दोसे त्ति।" से केषु संस्तवः परिचयो योजयो गमनाद्भवति। ततः किमित्या- त्ति' तच्छदार्थे, यदहं वदये तद् दृष्टमुपलब्धं, दिव्यज्ञानेह.(अहोषवाए इत्यादि) त एवमिच्या प्रणीतत्वादिन्छियव- नास्माभिरस्माकं वा संबन्धिना तीर्थकता आगमप्रणायकेन, शगास्तशिस्वात्तदनुकूलमाचरन्तो नरकाऽऽदियातनास्थानजा- चशब्द उत्तरापेकया समुच्चयार्थः, श्रुतं चास्माभिवादे तसंस्तथास्तीथिका अप्योद्देशिकाऽऽदिनिर्दोषमा चक्काणाः। (अ. सकाशात, अस्मद्गुरुः शिष्यैर्वा तदन्तेवासिभिर्वाऽभिमतं होवाइप त्ति) अध औषपातिकानरकादिनवान् स्पर्शा- युक्तियुक्तवादस्माकमस्मत्तीर्थकराणां वा विज्ञानं च तखन दुःखानु नवान् प्रतिसंवेदयन्ति अनुभवन्ति । तथाहि-लौका- भेदपर्यायरस्मानिरस्मतीर्थकरण वा स्वतो न परोपदेशयतिका बुबते-"पिव खाद च चारुलोचने! यदतीतं वरमात्रि! दानेन । पतञ्चो धिस्तिर्यक दशस्वपि दिक्षु सर्वतः सः प्र. तन्नते । न हि भीरु ! गत निवर्तते, समुदयमात्रमिदं कलेव- त्यवानुमानापमानाऽऽगमार्थापत्यादिनिः प्रकारैः सुष्ठ प्रत्युपे रम् ॥१॥" वैशेषिका -अपि सावद्ययोगाऽऽरम्भिशः, तथाहि ते |
कितं च पर्या लोचितं च, मनःप्रणिधानाऽऽदिनाऽस्मानिरस्मत्तीजायन्ते-" अभिषेवनोपवासब्रह्मवर्य गुरुकुलवासवानप्रस्थयज्ञ
र्थकरेण वा । किंतदित्याह-सर्वे प्राणाः सर्वे जीवाः सर्वे नूताः दानमो(पोकणदिङ्नक्षत्रमन्त्रकालनियमाः" इत्यादि,अन्येऽपि
सर्वे सवा हन्तव्या आझापयितव्याः क्लामयितव्यः परिगृही. सावधयोगानुष्ठायनोऽनया-दिशा वाच्याः,स्थात् किं सर्वोऽपी.
तव्याः परितापयितव्या अपजावयितव्याः *। अत्रापि धर्मचिच्याप्रणीताऽऽदिवित्तत्र तत्र कृतसंस्तवोऽध औपपातिकान्
न्तायामप्ये, जानीथाः, यथा-नास्त्यत्र यागार्थ देवतोपयाचि. स्पशान् प्रतिसवेदयत्याहोस्वित्कश्चिदेव तद्योज्यकर्मकार्ये वा
तकतया वा प्राणिहननाऽऽदौ 'दोषः' पापानुबन्ध इति । ऽनुभवति?,न सर्वशति दर्शयति (चिठं इत्यादि) चिटुं' भृशम
एवं यावन्तः केचन पापरिमका प्रौद्दशिकभोजिनो ब्राह्मणा त्यर्थ,क्रूरै धबधाऽदिभिः कर्मतिः क्रियाजिः(चिमिति)भृश
वा धर्मविरुद्ध परलोकविरुकं वा वाद भाषन्ते । अयं च मत्यर्थमेव विरूपां दशां वैतरणीतरणासिपत्रवनपत्रपातानिघात. जीवोपमईकत्वात् पापानुबन्धी अनार्यप्रणीत इति । श्राह चशाल्मझीवृताऽऽविनाऽऽदिजनितामनुभवंस्तमम्तमाऽऽदिस्था- (अपारिय इत्यादि) पाराद्याताः सर्वहेयधर्मेभ्य इत्यास्तिनेषु परितिष्ठति, यस्तु नात्यर्थ हिंसाऽऽदिनिः कर्मनिवर्तते सो. द्विपर्यासादनार्याः क्रूरकर्मा एस्तेगं प्राण्युपघातकारीदं वच. उत्यन्तवेदनानिचितेवपि नरकेषु नोत्पद्यते । स्यात् क एवं व.
नम्।ये तुतधानता न ते नित प्रशापयन्तीत्याह-(तत्थ - दतीत्यत पाढ-(पगे वयंतीत्यादि) एके चतुर्दशपूर्वविदाद
त्यादि) तत्रति वाक्योपन्यासार्थे, निरणे वा। ये ते आर्या यो वदन्ति छुक्ते। अथवाऽपि ज्ञानी वदति, ज्ञान सकलपदार्था.
देशनावाचारित्रार्यास्त एवमवादिषुर्यथा-यत्तदनन्तरोक्तं मुईअविर्भावकमस्यास्तीति ज्ञानी, स चैतद् ब्रवीति-यदिव्यज्ञानी- टमेतद् पुष्टं दृएं दुर्दष्ट (जे) युष्माभिर्युष्मतीर्थकरेण बा, एवं केवली भापते, श्रुतकेवनिनोऽपि तदेव जायन्ते, यश्च श्रुतकेव- यावद् दुःप्रत्युपेकितमिति । तदेवं पुछाऽऽदिकं प्रतिपाद्य दु:सिनोऽपि भाषन्ते निरावरणज्ञानिनोऽपि तदेव बदन्तीत्येतात. प्रज्ञापनानुवादद्वारण तदभ्युपगमे दोषाऽऽविष्करणमाह-(जं प्रत्यागतमत्रेण दर्शयति-(णाणी इत्यादि) ज्ञानिनः केवलिनो य.
णमित्यादि)णमिति वाक्यालङ्कारे। यदेतद्वक्ष्यमाणं यूयमेवमाच. द्वदन्ति,अथवाऽध्येके श्रुतकेवलिनो यद्वदन्ति तयथार्थभावित्वा
क्षध्वमित्यादि । यावदत्रापि यागोपहाराऽऽदी जानीथ यूयम-यथा देकमेघ, एकेषां सर्वार्थप्रत्यकत्वादपरेषां तदुपदेशप्रवृत्तेरिति नास्त्येवात्र प्राण्युपमानुष्ठाने दोषः पापानुबन्ध रति, तदवं प. वचयमाणे ऽपये कवाक्यतेति । तदाद-(प्रावंतीस्पादि) यावन्तः,
रवादे दोषाऽऽवि वनेम धर्मविरुद्धतामाविर्भाव्य स्वमतवादमा. (केपार्वती नि) केचन लोके मनुष्यलोके श्रमणाः पापरिम
र्या प्रावि वयन्ति. (वयमित्यादि) पुनःशब्दः पूर्वस्माधिशेषमाका ब्राह्मणा द्विजाऽऽदयः पृथक् पृथग विरुमो वादो विवादस्तं ह-वयं पुनर्यथा धर्मविरुद्धवादो न भवति तथा प्रज्ञापयाम बदन्ति । एतदुक्तं भवति-यावन्तः केचन परलोक जीपलवस्ते इति, तान्यत्र पदानि सप्रतिषेधानि तु हन्तव्यादीनि यावन्न श्रात्मीयदर्शनानुरागितया पाराक्यं दर्शनमपवदन्तो विवदन्ते । केवनमत्रास्मदीये वचने नास्ति दोषोऽत्राप्यधिकारे जानीथ तथाहि नागवता युवते-"पञ्चर्वि शतितवपरिज्ञानान्मोक्तः, स. ययं यथाऽत्र हननाऽऽदिप्रतिषेधविधी नास्ति दोषः पापानव्याप्यात्मा निष्क्रियो निर्गुणश्चैतन्यशक्तणो, निर्विशेष सामान्य बन्धः, सावधारणत्वाद्वाक्यस्य नास्त्येव दोषः, प्रागयुपघाततस्वमिति।" वैशेषिकास्तु भापम्ते-ऽव्या:दिषट्पदार्थपरिझा
प्रतिषेधाचार्यवचनमतत् । एवमुक्ते सति ते पापण्डिका नान्मोक्का,समवायिज्ञानगुणेनेच्छाप्रयत्नद्वेषाऽऽदिभिश्व गुणैर्गु: ऊचुः-भवदीयमार्यवचनमस्मदीयं स्वनायमित्येतन्निरन्तराः णबानात्मा.परस्परनिरपेकं सामान्यविशेषाऽऽत्मक तवमिति।"
सुहृदः प्रत्येष्यन्ति , युक्तिचिकलत्वात् , तदत्राऽऽचार्यो शाक्यास्तु बदन्ति-"यथा-परलोकानुयाय्यात्मैव न विद्यते,निः ।
यथा परमतस्यानार्यता स्यात्तथा दिदर्शयिषुः स्वधाग्यसामान्य वस्तु क्षणिकं चेति” । मीमांस कास्तु मोक्तमवज्ञा
त्रिता वादिनो न विचलयिष्यन्तीति कृत्वा प्रत्येकमतप्रच्छनानावेन व्यवस्थिता इति । तया के वाश्चि पृथिव्यादब एकेन्द्रि. | *गुस्तके मूल टोकयोः पाव्यत्यास उपलभ्यते ।
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(२६ ) धम्म
अनिधानराजेन्दः। र्थमाह-( पुब्वामित्यादि) पूर्वमादाचेत्र समयम्--भागमं य
पक्खित्तचित्तेण ण मुटु नायं घदीयाऽऽगमेऽभिहितं तनिकाच्य व्यवस्थाप्य पुनस्तद्विरूपाऽऽपादनेन परमतानार्यता प्रतिपाद्यत्यतस्तदेव परमतं प्र
सकुंमलं वा वयणं न व ति ॥ १२ ॥ श्नयति, यदि वा पूर्व प्राचिनकान्निकाच्य ततः पाण्डिकान्
" फलोदएणं" श्त्यादि सुगम पूर्ववत् । प्रश्नयितुमाद-(पत्यमित्यादि) एकमेकं प्रति प्रत्येकं, भोः
तदनन्तरं शौद्धोदनिशिष्यकः प्राऽऽहप्रावादुकाः! भवतः प्रश्नयिष्यामि, किं (भे) यष्माकं सातं मन पानाविहारम्मि मएउज दिट्ठा, आहादकारि, दुःखमसातं मनःप्रतिकलम् । एवं पृष्टाः उवासिया कंचणसियंगी। सन्तो यदि सातमित्यवं युस्ततः प्रत्यक्काऽऽगमझोकबाधा स्यान,अधासातमित्येवं बयुस्ततः 'समिया' सम्यक प्रतिपक्षा
वक्खित्तचित्तेण न सुट्ट नायं, स्तान् प्रावापुकान स्ववाग्यन्त्रितानप्येवं ब्रूयात, अपिः संभा
सकुंमन्नं वा वयणं न वति ॥३०॥ बने, संभाव्यत पतगणनं, यथा न केवलं भवतां दुःखमसात, । पूर्ववत्,एवमनया दिशा सर्वेऽपि तीथिका वाच्याः। आईतस्तु सर्वेषामपि प्राणिनां दुःखमसातं, मनसोऽनभिप्रेतमपरिनिवार्ण
पुनर्न कश्चिदागत इति राजाऽभाणि, मन्त्रिणा स्वाहतमनिवृत्तिरूपं महद्भयं दुःखमित्येतत् परिगणय्य सर्वेऽपि प्रा.
खुल्लकोऽप्येवंनतपरिणाम इत्येवं संप्रत्यय एणं स्थादित्यतो णिनो न हन्तव्या इत्यादि वाच्यं, तदहनने च दोषः । यस्त्व.
भिकाथै प्रविष्टः प्रत्यूषस्य कुलकः समानीतः, तेनापि गाथादोषमाह तदनार्यवचनम् । इतिरधिकारपरिसमाप्ती, प्रवीमीति
पादं गृहीत्वा गाथां षभाये । पूर्ववत् । तदेवं प्रावादुकानां स्वचाग्नियन्त्रणयाऽनार्यता प्रतिपादिता, अत्रैव रोहगुप्तमन्त्रिणा विदिताऽऽगमसद्भावेन माध्य.
तद्यथा-- स्थ्यमवनम्बमानने तीथिकपरीक्षाद्वारेण यथा निराकरणं चके
खंतस्स दंतस्स जिइंदियस्स, तथा नियुक्तिकारो गाथाभिराचष्टे
अज्झप्पनोगे गयमाणसस्स । खुड्डगपायसमाम, धम्मकहं पिय अजंपमाणेण। किं मज एएण विचिंतिएणं, बसेण अएणनिंगी, परिच्छिया रोहगुत्तेणं ॥२१७ ॥ सकुंमन्नं वा वयणं न च त्ति ॥ १३१ ।। अनया गाथया संकेपतः सर्वे कथानकमावेदितम्-कन्नकस्य
सुगमा। अत्र च क्षान्त्यादिकमपरिज्ञाने कारणमुपन्यस्तं,न पु. पादसमासो गाथापादसंकपस्तमजल्पता धर्मकथां च कुन्ने
नव्या केप इत्यतो गाथासंवादात् कान्तिदम जितेन्द्रियस्वाभ्यानाप्रकटेनान्यलिक्लिनः प्रावादुकाः परीक्विता निरूपिता रोडगुप्ते. स्मयोगाधिगतेश्च कारणामाको धम्म प्रति जावोवासोऽनूत, न रोहगुप्तनाम्ना मन्त्रिणेति गाथासमासार्थः । भावार्थस्तु खुल्लकेन च धर्मप्रश्नोत्तरकालं पूर्वगृहीतशुष्केतरकईमगोलकथानकादवसेयः । तदम्-चम्पायां नगर्यो सिंहसेनस्य रा.
कच्यं नित्तौ निक्तिप्य गमनमारेभे, पुनर्गठन राज्ञोक्तम्-किको रोडगुप्ता नाम महामन्त्री, स चाहदर्शनभावितान्तःक
मिति भवान् धर्म पृष्ठोऽपि न कथयति?, स चाबोचत-हे मुरणो विज्ञातसदसद्वादः, तत्र च कदाचिरूाजाऽऽस्थानस्थो ध
ग्ध! ननु कथित एव धर्मों भवतः शुष्केतरगोलकाष्टान्तेन । मर्मविचारं प्रस्तावयति स्म.तत्र यो यस्याभिमतःस तं शोजनमवाच, स च तूष्णीभावं भजमानो राज्ञोक्तः-धर्मविचारं प्रति
एतदेव गाथाद्वयेनाहकिमपि न ब्रूते भवान् । स स्वाह-किमेभिः पकपातवचोभिर्वि.
उदो मुको य दो छुढा, गोझया मट्टियामया । मामः, स्वत एव धर्म परीक्कामहे तीथिकानित्यानिधाव रा. दो वि प्रावडिया कुडे, जो उन्बो सोऽय लग्गई ॥३२॥ जानुमत्या "सकुंमलं वा वदनं न बत्ति ।" अयं गाथा. एवं लग्गंति उम्मेहा, जे नरा कामलालसा । पादो नगरमध्ये बाल लम्बे, संपूर्णा तु गाथा भाएमागारिता,न.
विरत्ता उन लग्गति, जहा से सुक्कगोलए ॥२३॥ गर्यो चोदधुष्म्-यथा य एनं गाथापादं पूरयिष्यति, तस्य रा. जा यथेप्सितं दानं दास्यति, तद्भक्तश्च भविष्यतीति । तंच
(एवं लग्गति) अयमत्र नावार्थ:-ये बङ्गप्रत्यक्लनिरीक्षण गाथापादं सर्वेऽपि गृहीत्वा प्रावादुका निर्जग्मुः, पुनः सप्त.
व्यासङ्गात् कामिनीनां मुखं न पश्यन्ति, तदनावे तु पश्यन्ति, मऽह्नि राजानमास्थानस्थमुपस्थितास्तत्राऽऽदादेव परिवार ते कामगृनुनबा सार्बाः, सात्वाश्च संसारपद्धे कर्मकर्दमे बा
लगन्ति, ये तु पुनः कान्त्यादिगुणोपेताः संसारसुखपराङ्मुखाः भिक्खं परिटेण मएऽज्ज दिह,
काष्ठमुनयः ते शुभगोत्रकसन्निना न कचिज्ञगन्तीति गाथा
द्वयार्थः । श्राचा०१श्रु०४१०२ उ.। पमदामुहं कमल विलासनेतं ।
तथा चक्खित्तचित्तेण न मुटु नायं,
बहुजणणमणम्मि संवुमो, सकुंमलं वा वयणं न व ति ॥२०॥
सन्तुहिं णरे आणि स्सिए । सुगमा . नवरमपरिकाने व्याकेपः कारणमुपन्यस्तं, न पुन.
दह एवं सया प्रणाविले, धीतरागतेति पूर्वगाथाविसंवादादसौ तिरस्कृत्य निर्धाटितः। पुनस्तापसः पति
धम्म पाउरकासि कासवं ॥ ७॥ फलोदएणम्मि गिहं पविट्ठो,
(बहुजणनमणम्मीत्यादि) बहन् जनान् प्रात्मानं प्रति नामतत्थाऽऽसणस्था पमदा मे दिवा ।
| यति प्रहोकरोति, तेवा नम्यते स्तूयते बहुजननमनो धर्मः।
ब्रवीति..
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धम्म
अभिधानराजेन्छः।
धम्म
स एष बहुभिजनैरात्मीयाऽऽभीयाऽशयन यथाऽज्युपगम- वा-एवंविशिष्ट एवं काश्यपं तीर्थकरसंबन्धिनं धर्म प्रकाशप्रशंसया स्तूयते प्रशस्यते। कथम ?। अत्र कथानकम्--"रा- येत्, छान्दसत्वात 'वर्तमाने भूतनिर्देश इति' ॥७॥ जगृहे नगरे श्रेणिको महाराजा, कदाचिदसौ चतुर्विधबुद्धघुपे स बहुजननमने धर्मे व्यवस्थितो याग् धर्म प्रकाशयति तह. तेन पुत्रेण अजयकुमारेण सार्धमास्थानस्थितस्तानिस्तानिः शयितुमाह । यदि चोपदेशान्तरमेवाधिकृत्याऽऽह-- कथाभिरासाञ्चके, तर कदाचिदेवंजूता कथा उन्नत , तद्यथा..
बहवे पाणा पुढो सिया, पनेयं समतं उवोहिया । रहलोके धार्मिका बहवः, सत्ताऽधार्मिका इति । तत्र समस्तपर्षदाऽभिहितम-यथाऽत्रा धार्मिका बहवो लोकाः, धर्म तु शताना
जे मोणपदं उन हिते, विरति तत्थ अकासि पंमिए ।।।। मपि मध्ये कश्चिदेवको विधते, तदाकयाऽभयकुमारणोक्तम्- (बहवे श्त्यादि)बहयोऽनन्ताः,प्राणा दशविधप्राणभोक्तृत्वासदनेयथा प्रायशो लोकाः सर्व एव धार्मिकाः, यदि न निश्चयो भ. दोपचारात् प्राणिनः,पृथगिति पृथिव्यादिनेदेन सूक्ष्मवादरपर्याबतां, परीका क्रियते। पर्षदाऽप्य भिहितम-एवमस्तु । ततोऽनय. | सकापर्याप्तकनरकगत्यादिभेदेन वा संसारमाश्रितास्तेषां च पृथ. कुमारेण धवसतरं प्रासादद्वयं कारित, धाषितं च डिपिममेन गाश्रितानामपि प्रत्येक समतां दुःखद्वेषित्वं सुखप्रियं च समीक्ष्य नगरे, यथा यः कश्चिदिह धार्मिकः स सोऽपि धवलप्रा. रट्वा, यदिवा-समतां माध्यस्थ्यमुपेक्ष्य यो मौनीरूपदमुपस्थितः सादं गृहीतवलिः प्रविशतु, इतरस्त्वितरमिति । ततोऽसौ संयमाऽऽश्रितः स साधुस्तत्राऽमेकनेद भिन्नप्राणिगणे दुःखद्वे. लोकः सबोंऽपि धवलप्रासादमेव प्रविष्टः । निर्गच्छाच कथं त्वं षिसुखाभिलाषिणि सति तदुपघाते कर्तव्ये विरतिमकार्षीत् धार्मिकस्येवं पृष्टः कश्चिदाचष्टे-यथाऽहं कर्षकोऽनेकशकुनि- कुर्याद्वति, पापाद्धीनः पापानुष्ठानात् दबीयान् पपिमत इ. गणो मखान्यरात्मानं प्रीणयति, खलकसमागतधाम्यकण- ति॥॥ सूत्र०१ श्रु०१०२ उ०। मिकादानेन च मम धर्म इति । अपरस्त्वाह-यथाऽहं ब्रह्मणः (२८)सूत्रकृताङ्गस्य श्नुतस्कन्धीयनवमाध्ययनोक्तः साधूनाषट्कर्माभिरतस्तथा बहुशौचस्नानाऽऽदिभिवदविदितानुष्ठा- माचरणीयानाचरणीयो धर्मो यथानेम पितृदेवाँस्तर्पयामि । अन्यः कथयति--यथा वणिककुलोप
कयरे धम्मे अक्खाए, माहणेण मतीमता। जीवी भिकादानाऽऽदिप्रवृत्तः । अपरस्विदमाह-यथाऽहं कुलपुत्रको न्यायाऽऽगतं निर्गतिक कुटुम्बं पालयाम्येव । तावत् श्व
अंजु धर्म जहातचं, जिणाणं * तं पुणेह मे ॥ १ ॥ पाकोऽपीदमाहत्यथाऽहं कुलक्रमागतं धर्ममनपालयामीति, (कयरे इत्यादि) जम्बस्वामी सुधर्मस्वामिनमुहिश्येदमाह । मदाधिताइच बहवः पिशितभुजः प्राणान् धारयन्तीत्येवं तद्यथा-कतरःकिंभूतो दुर्गतिगमनलकणो धर्म पाण्यातः प्रतिसर्वोऽप्यात्मीयमात्मीयं व्यापारमुद्दिश्य धर्मे नियोजयति । पादितः (माहणेणं ति)मा जम्बून् व्यापादयेत्येवं विनेयेषु वाकतत्राऽपरमसितप्रासादं श्रावकद्वयेन प्रविष्ट, तप कि.मधर्माऽऽ- प्रवृत्तिर्यस्याऽसौ माहनो भगवान् वीरवर्धमानस्वामी तेन, तमेव चरणं भवघामकारीत्येचं पृष्ट सकृन्मद्यनिवृत्तिभनयलीक- विशिष्टि-मनुतेऽवगच्चति जगत्त्रयं कामयापेतं यया सा के. मकथयत् । तथा-साधव एवाऽत्र परमार्थतो धार्मिका यथा वनज्ञानाऽऽख्या मतिः,सा अस्याऽस्तीति मतिमान्,ते नोत्पन्नकगृहीतप्रतिज्ञानिर्वाहणसमर्थाः । अस्माभिस्तु.
बलकानेन भगवतेति पृष्ठे सुधर्मस्वाम्याह-रागद्वेषजितो जिना""भवाप्य मानुषं जन्म, लम्वा जैनं च शासनम् ।
स्तेषां संबन्धिनं धर्मम् । (अंजुमिति) ऋजुं मायाप्रपञ्चरकरवा निवृति मद्यस्य, सम्यक साऽपिन पालिता॥१॥
हितत्वादवर्क, तथा-(जहानश्चमिति) यथावस्थितं मम कथअनेन तभलेन, मन्यमाना अधार्मिकम् ।
यतः गृात यूयं, न तु यथाऽभ्यस्तीथिकैर्दम्भप्रधानो धर्मे।. अधमाधममात्मानं, कृष्णप्रासादमाश्रिताः॥२॥"
निहितस्तथा भगवताऽपीति। पागन्तरं वा-("जणगा! तं सुणे
रमे) जायन्त इति जना लोकास्त एवं जनकास्तेषा. तथाहि--
मामन्त्रणम्-दे जनकाः! तं धर्म शृणुत यूयमिति ॥१॥ "लजां गुणोघजननी जननीमियार्या--
अन्वयव्यतिरेकाच्यामुक्तोऽर्थः सूक्तो भवतीत्यतो यथोहि. मत्यन्तशुम्हदयामनुवर्तमानाः ।
प्रतिपक्कनूतोऽधर्मस्तदाश्रितांस्तावदर्शयितुमाहतेजस्विनः सुखमसूनपि संत्यजन्ति,
माहणा खत्तिया बेस्सा, चंमाना असु वोकसा। सत्यस्थितिव्यसनिनो न पुनः प्रतिझाम ॥३॥ बरं प्रवेष्टुं ज्वलितं हुताशनं,
एसिया बेसिया मुद्दा, जे य आरंभणिस्सिया ॥॥ म बापि भग्नं चिरसंचितवनम्।
(माहणेत्यादि) ब्राह्मणाः क्षत्रिया वैश्यास्तथा चाण्डालाः, घरं हि मृत्युः सुत्रिशुरुचेतसो,
अथ वोकसा अवान्तरजातीयाः । तद्यथा-ब्राह्मणेन शूष्यां न वाऽपि शीलस्वसितस्य जीवितम् ॥४॥"
जातो निषादो, ब्राह्मणेनैव वैश्यायां जातोऽम्बष्ठः, तथा नि
षादेनाम्बष्ठयां जातो वोकसः, तथा एषितुं शील मित्यषिका तदेवं सर्वोऽध्यात्मानं धार्मिकं मन्यत इति कृत्वा" बहुजन
मृगलुब्धिका हस्तितापसाइच मांसहेतो गान् हस्तिनश्च एण्य. ममनो धर्मः" इति स्थितमा तस्मिश्च संवृतः समाहितः सन
न्ति, तथा कन्दमूत्रफलाऽऽदिकं च । तथा ये चाऽन्ये पावधिममरः पुमान् सर्वार्थैर्बाह्यान्यन्तरर्धनधान्यकलत्रममत्वाऽऽदि. का नानाविधैरुपायभक्ष्यमेष्यन्स्यन्यानि वा विषयसाधनानि, भिरनिधितो प्रतिबद्धः सन् धर्म प्रकाशितवानित्युत्तरेण सह
ते सर्वेऽध्येषिका श्त्युच्यन्ते । तथा चशिका वणिजो मायाप्र. संबन्धः । निदर्शनमाद-हर इव स्वच्छगम्भसा भृतः सदाऽ. धानाः कलोपजीविनः, तथा शूजाः कृषीयलाऽऽदयाभीरनाविनोऽनेकमस्याऽऽदिजलचरसंक्रमेणाऽप्यनाकुलोऽ कलुषो
| जातीयाः कियन्तो वा वक्ष्यन्त शति दर्शयति । ये चाऽन्ये वापा शान्त्यादल कण धमे प्रापुरकार्षति प्रकट कृतवान् । यहि सा नानारूपसावद्यारम्भनिधिता यात्रपामनामनाउछन।
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धम्म
(२००१) अभिधानराजेन्द्रः |
कियाविशेये जीवोपमकारिणस्तेय
कर्माबाद सर्वेषामेच जीवापकारिणां रमेष प्रक्रि बेति ॥ २ ॥
परिग्गड निविद्वाणं, पावं तोस पबट्ट । आरंजसंजिया कामा, न ते दुक्खविमोयगा ॥ २ ॥ ( परिगाह इत्यादि) परि समन्ताद् गृह्यत इति परिग्रहो द्विपदचतुष्पदधनधान्यदिरण्य सुवर्णादिषु मसीकारः, तत्र नि. पानामभ्युपपन्नानागानां पापमान बेनीवा35दिकं तेषां प्रागुकानामारनिभिनानां परिग्रहेनिविशन प्रकर्षेण वर्द्धते वृद्धिमुपयाति जन्मान्तरेष्वपि दुमचं भवति । कचित्पाठः- बेरं तेसेि पवर ति । " तत्र येन यस्य यथा प्रापिन उप क्रियते सव खानपति जमदग्निकृतीनामिव पुत्रपौत्रानुगं बेर इति भावः किमित्येवम् यतस्ते कामेषु प्रा कामाचाssरम्भैः सम्यम्भृता आरम्भपुष्टा आरम्भाश्च जीवोपरि ते कामसंभृता आरम्भनिःश्चिताः परगृद्दे निविष्ठा दुयसीति दुःखकारं कर्म तद्विमोका भवन्ति तस्याऽपनेतारो भवन्तीत्यर्थः ॥ ३ ॥
किं चान्यत्पायकिचमा नाइओ सिसिणो ।
हरंति तं वित्तं कम्मी कम्मेदँ किचती ॥ ४ ॥ ( भायायमित्यादि यन्ते न विनश्यन्ते प्रा जिनां दशप्रकारा अपि प्राणा यस्मिन् स आघातो मरणं, तस्मै तत्र वा कृतमग्निसंस्कारजलाऽजलि प्रदान पितृपिण्डाssदिकमाघातकृत्यं तदाधातुमादाय कृत्वा पश्चात् ज्ञातयः स्वजन पुत्रकला तृप्या अदयः किंभूताः, विषयान श्रीमं येषां तेभ्येऽपि विषयैषिणः सन्तस्तस्य दुःखार्जितं वि. तं द्रव्यजातमवदन्ति स्वीकुर्वन्ति । तथा चोकम" ततस्ते. मार्जिते परिरक्षितैः की इत्यन्ये नरा राजन् ! इवास्तुष्टा हालङ्कृताः ॥ १ ॥ " स तु द्रव्यार्जनपरायणः सावधा मुहानकर्मवाद पापी स्वकर्मभिः संसारे ते, पीमधत इति यावत् ॥ ४ ॥
माया पिया हुमा जाया जज्जा पुता व प्रोरसा नानं ते तर वाणाय, लुप्तस्स सम्मुला ॥ ५ ॥
( माया पिया इत्यादि ) माता जननी, पिता जनकः, स्नुषा पुत्रवधूः भ्राता सहोदरः, तथा भार्या कल, पुत्राश्च श्रौरसाः स्वनिष्पादिताः एते सर्वेऽपि माश्रादयो ये चान्ये श्वराऽऽदयः, ते तव संसारचक्रवाले स्वकर्मभिविलुप्यमानस्य प्राणाय नालं समर्था भवन्तीति । इदाऽपि तावन्नैते त्राणाय किमुतामुत्रेति । दृष्टान्तचात्र कालसौकरिकसुतः सुलनामा अभयकुमारस्य सखा । तेन महासच्चन स्वजनाऽर्थितेनापि न प्राणिध्वपकृतमपि स्वात्मन्येघेति ॥ ५ ॥
किं चान्यत्एमस पेढाए परमाणुगामियं । निम्मो निरहंकारी, चरे भिक्खू जिणाऽऽदियं ॥६॥
६७६
धम्म
( यममित्यादि ) धर्मरहितानां स्वकृत कर्मविष्यमा नानामटिकाविति एवं पूर्वो स्वप्रेापूर्वका प्रत्युपेय विद्यायो ऽवगम्य च परमः प्रधानभूतो मोहः संयमो वा, तमनुगच्छतीति तच्छीला परमार्थानुगामुकः सम्यग्दर्शनादिः तं च प्रत्युपेक्ष्य, क्त्वाप्रत्ययान्तस्य पूर्वकालवाचित क्रियान्तरसम्यत्वात् नितं ममत्वं यतरेषु वस्तुषु यदसो निर्ममः तथा नि सोऽकारोऽनिमानः पूर्वेभ्यजात्यादि मदजनितः, तथा तपःस्वाध्यायमा विजवितो या मासोनिका रा मरहित इत्यर्थः स तो भिर्जिनैःप्रतिपद सोनुहितो या यो मार्गों जनानां या संबन्धी योनिमार्ग स्तं चरेदेनुतिष्ठेदिति ॥ ६ ॥
चिया वितं च पुणे यामो य परिगई । चिच्चा अंत सोपं, निरवेक्त्रो परिव्यए ॥ ७ ॥ संसारस्यायपरिज्ञानपरिकर्मितम तिथिदिवेद्यः सम्यकपरित्यज्य किस तथापुत्रांश्च यत् पुष्यधिकस्नेहो नवतीति पुत्रप्रदम् । तथा ज्ञातीन् स्वजनांश्च त्यक्त्वा तथा-परिग्रहं चाऽऽन्तरं ममरूपत्वं, णकारो वाक्यालङ्कारे । श्रन्तं गच्छतीत्यन्तगो, पुष्परित्यज इत्यर्थः । अन्तको विनाशकारीत्यर्थः । श्रात्मनि वा ग च्छतीत्यात्मगः, अन्तर इत्यर्थः । तं तथाभूतं शोकं त्यक्त्वा परित्यज्य श्रोतो वा मिथ्यात्वाविरतिप्रमादकपायाऽऽत्मक क मां
-
परित्यज्ञान्तरं विचा
सोयं । " अन्तं गच्छतीत्यन्तगं, न अन्तगमनन्तगं, श्रोतः शोकं परित्यज्य निरपेक्षः पुत्रदारधनधान्यहिरण्याऽऽदिकमनवेदयमाणः सन् मोक्काय परि समन्तात् संयमानुष्ठाने व्रजेद परिमजेदिति । तथा चोक्तम्
'कूलिया वक्ता, निरावयस्था गया प्रविधे । सम्हा पवयणसारे निरावयक्त्रेण होयध्वं ॥ १ ॥ भोगे प्रवक्ता पमति संसारसागरे घोरे । प्रोगेहिं निरवयक्खा, तरंति संसारकंतारं ॥ २ ॥ " इति । स एवं सुतापचिताऽऽरमा उ
प्रयतेत ॥ 9 ॥
"
तथाप्रसिध्यर्थमाहउणिवा । पोयजराज रससेभिया ॥ ८ ॥ एका विश्वं परिमाणया । मासा कायणारंभी ण परिमही ॥ ए ॥ "" इत्यादि कोयत पृथियीकाधिकार समारोपयन मिश्रा, तथा उकाधिका कायिका वायुकायिका श्वेता वनस्पतिका क्षः समेनाह तृणानि कुशपकादीनि वृक्षाश्ताशोका ssदिकाः । सह बीजैर्वर्तन्त इति सर्वजानि, मबीजानि तु शागोधून पते पन्द्रयापश्चापि कायाप कायनिरूपणायाऽऽह भएमजाः शकुनिगृहको किलक सरीसृपाssदयः । तथा पोता एव पोतजा हस्तिशरभाऽऽदयः । तथा जराजा जब सहिताः समुत्पद्यन्तेोमनुष्याचा स
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धम्म
या रसादू दधिसैौवीरकादू जाता रसजाः, तथा संस्वेदाज्जाताः संवेदना का माकुरीद 55दय इति । अज्ञात भेदा हि दुःखेन रक्ष्यन्त इत्यतो नेदेनोपन्या स इति ॥ एभिः पूपिकावररूपे सूक्ष्मबादपर्याप्तकानि रम्मी परिया दिति संबन्धः तदेतविज्ञानसधुनिक पपरिज्ञाय प्रत्याख्यानपरिधा मनोचाकायकर्मभिर्जीवोपमर्दकारिणमारम्भं परिग्रहं च परिहरेदिति ॥ ए ॥
शेषतान्यधिकृत्याह-
मुसावा बहिं च उग्गच अमाइयं ।
सत्या दाणा मोगंसि तं चि परिनाशिया ।। १० ।। (मुसावायमित्यादि) अद्भूत बाद मृपावाद विद्वान् प्रत्याख्यानपरिज्ञया परिहरेत्, तथा - ( अबहिष्ठमिति ) मैथुनम् श्रवग्रहं परिग्रद्म, अयाचितमदत्ताऽऽदानम् । यदि वा
(२००२) अभिधानराजेन्रू |
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' अधहिटुमिति ।" मैथुनप्रहो ऽवग्रहमयाचितमित्यनेनादलाssदानं गृहीतम । एतानि च मृषावादाऽऽदीनि प्राययुपतापकारिस्वात् शस्त्राशीव शस्त्राणि वर्तन्ते । तथा दीयते गृह्यतेऽष्टप्रकारं कर्मेंभिरिति कर्मोपादानकारणानि, अस्मिन् लोके तदेतत्सर्वे विद्वान् परिज्ञया परिज्ञाय प्रत्याख्यान परिज्ञया परिहरेदिति ॥१०॥ किं चान्यत्पलितंच चणं च किस्स्यणाणि य । धूणा दाणाइँ लोगंसि, तं विज्जं परिजाणिया ॥ ११ ॥ (पक्षिचमित्यादि ) पञ्चमदावतधारणमपि कषार्थियो निष्फलं स्यादतस्तरमा फन्याध्यादनार्थ कपायनिरोधी विधेय इति दर्शयति । परि समन्तात् कुच्यन्ते बक्रतामापद्यन्तेक्रिया येन मायानुष्ठानेन तत्परिकुञ्चनं मायेति भण्यते । तथामस्यते सर्वत्राते येन स भजनो समस्तम, तथा-यदुदयेन धारमा सदसद्विवेकाधकत्वात् स्थि बास पडिला को मश्व सत्यूचे अव ति जत्यादिना दर्पाऽऽध्मातः पुरुष उत्तानीजवति स उच्छ्रा योमानानपुंसकलिङ्गता जात्यादीनामेतत्स्था नानां बहुस्वात् तत्कार्यस्याऽपि मानस्य बहुत्वमतो बहुवचनम् । चकाराः स्वगतभेदसंसूचनार्थाः समुच्चयार्थ वा । धूनये. ति प्रत्येक क्रिया योजना तथा परिकुनं माय भू. नय, धून हि वा । तथा भजनं लोभं, तथा स्थपिक क्रोधं, तयामानं विचित्रत्वात् सूत्रस्य कमोननिर्देशो न दोषायेति । यदि वा रागस्य दुस्त्यजत्वात्. लोभस्य व मायापूर्वकत्वादित्यादावेच मायालाभयोरुपन्यास इति । कषायप
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विधेये पुनरपरं कारणमाह एतानि परि अस्मिन् लोके मानानि वर्त्तते तदेतद्विद्वान् परिया परिज्ञाय प्रत्यास्थानपरिश्या प्रत्याचक्कीत ॥ १९ ॥
..
पुनरप्युत्तर गुणानधिकृत्याऽऽह
घोणं पणं चैव स्वीकम्मं परेषणं । मणी
पिणं परिमाणिया ॥ १२ ॥
(घोषणमित्यादि) चा प्रका हस्तपाद पोखार म चि.......(या विरेचनं नाम कम धोविरेको वा यममरिका तथा मञ्जनं नयनयोरिति समादिकमन्यदपि
धम्म
शरीरसंस्कारादिकं यत् संयमपरिमन्धकार संयोपधान रूपं तदेतद्विज्ञान स्वरूपातश्च परिज्ञाय प्रत्याच कीत ॥ १२ ॥
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अपि चगंधणं च तपखाल तहा I परिगहिरिय कम्पं च तं परिजाणिया ।। १२ ।।
( गंधमल इत्यादि ) गन्धाः कोष्टपुटाऽऽदयः, माल्यं जात्यादिकम्, स्नानं च शरीरप्रकाशनं देशतः, सर्वतश्च । तथा दन्तप्रक्षालनं कदम्बकाष्ठाऽऽदिना, परिग्रहः सविता स्वीकरणम् । तथा स्त्रियो दिष्यमानुषतैरश्चः । तथा-कर्म हस्तकर्म, सावधानुष्ठानं वा । तदेतत्सर्व कर्मपादानतया संसारकारणत्वेन परिज्ञाय विद्वान् परित्यजेदिति ॥ १३ ॥ चाऽन्यत्
किं उद्देसि कीयगमं, पामिचं चैव ग्राहमं ।
पूर्व
सचिव विनं परिजाणिवा ॥ १४ ॥ (उयियिादि) पानावस्था प्यते तदुद्देशिकम् । तथा क्रीतं क्रयस्तेन क्रीतं गृहीतं क्रीतक्रीतं, ( पामि ति ) साध्वर्थमन्यत उद्यतकं यद् गृह्यते तत्तदुच्यते, चकारः समुध्वपार्थः एवकारोऽवचारणार्थः सामर्थे यद् गृहस्थेन नीयते तदाहृतम् । तथा ( पूयमिति ) श्रधाकर्मावयवसंपृक्तं शुरूमप्याहारजानं भवति । किं बहुनोक्तेन ?-यत् केनचिद्यपी यमकं तत्सबै विज्ञान परिय संसारकारणतया निस्पृहः सन् प्रत्याचक्कीतेति ॥ १४ ॥ किं च
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सूणिमक्खिरागं च रसगिडूबघायकम्पगं । उच्छोलणं च क च तं विज्जं परिजाणिया ।। १५ ।। ( आणि इत्यादि) येन घृतपानाऽऽदिना आहारविशेषेण रसायनक्रियया वा अशूनः सन् श्रा समन्तात् शूनीजयति बचानुपजायते, तदाशुनीत्युच्यते यदि वा ( मासू णि ति) घायतः वाघया क्रियमाणया था. समन्तात् शूननो मघुप्रकृति तस्वात् स्तब्धो भवति तथा भणां रागो रन्जनं सौवीराऽऽदिकमज्जनमिति यावत । परखेषु शब्ददिषु विषयेषु वा मा सेवा, तथोपघातकर्मेत्युच्यते । तदेव लेशतो दर्शयति- (बच्छोलणं ति ) अयतनया शीतोदकाऽऽदिना हस्तपादाऽऽदि कालनम, तथा कल्कं त्रोधादिव्य समुदायेन शरीरोफर्तनकं, तदेतत्सर्व बन्धनायेत्येवं विद्वान् परिमतो परिज्ञया प्र त्याच्यापरिया परिहरेदिति ॥ १५ ॥
अपि चसंपसारा य कयकिरिए. परिणाऽऽयतणाणि य सागारियं च पिंडं च तं विज्जं परिजाणिया ।। १६ ।। ( संपावादि सासझोचनं परिहरेदिति शेषः । एवं संयमानुष्ठानं प्रत्युष देशदानम । तथा-' कयकिरिप' नाम कृता शोभना गृहकरणाSsविक्रियायेन कृतकिय पेयमसंयतानुप्रशंसनम् । तथा प्रश्नस्याssदर्शः प्रश्नाऽऽदेरायतनमाविष्करणं कथनं यधावति नियनानि यदि वा प्रालीका
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(२७०३) प्रनिधानराजेन्द्रः।
धम्म
परस्परव्यवहारे मिथ्याशास्त्रगतसंशये वा प्रइने सति यथाच. परवलं तत् साधुरचेलोपि सन् पश्चात्कमाऽऽदिदोषजयाद, स्थितार्थकथनद्वारेणाऽऽयतनानि निर्णयनानीति । तथा-सागा. इतनाऽऽविदोषसंजवाचन विभृयात् । यदि वा-जिनकल्पिरिकः शय्यातरः, तस्य पिण्डमाहारम् । यदि बा-सागारिक- काऽऽदिकोऽचेलो जुत्वा सर्वमपि वसं परवस्त्रमिति कृत्वा न पिएडमिति सुतकगृहपिण्ड, जुगुप्सितं वर्णापसदपिएच। विभृयात्, पतसर्व परपात्रोअनादिकं संयमविराधकत्वेन चशब्दः समुच्चये । तदेतत्सर्व विद्वान् परिकया परिकाय प्र. परिकया परिकाय प्रत्याख्यानपरिकथा परिहरेदिति ॥१०॥ त्याख्यानपरिकया परिहरेदिति ॥१६॥
भासंदी पलियंके य, णिसिज्जं च गिहतरे । किं चान्यत्अहावयं न सिक्खि ज्जा, वेहाईयं च णो वए।
संपुच्छणं व सरणं वा, तं विजं परिजाणिया ॥ २१ ॥ हत्थकम्म विवायं च, तं विजं परिजाणिया ॥ १७ ॥
मासन्दीति भासनविशेषः। मस्य चोपसकणार्थत्वात्सर्वोऽप्या
सनविधिगृहीतः। तथा-पर्यः शबनविशेषः। तथा गृहस्थान्तमध्ये (अहावयमित्यादि) अर्यते इत्या धनधान्यतिरपयाs. गृहयोगी मध्ये निषद्यां वासनं बा संयमविरीधनानयात दिका, पद्यते गम्यते येनार्थस्तत् पदं शासम्, अर्थार्थ पदमर्थः परिहरेत् । तथा चोक्तम-"गंजीरपुसिरा पते. पाणा दुप्पमिपदं चाणक्याऽऽदिकमर्थशास्त्रं, तन्त्र शिक्कयनान्यसेनाप्यपरप्रा. सेहगा । अगुत्तीभचेरस्स, स्थीभोवापि संकणा ॥१॥" पयुपमईकारि शास्त्रं शिकयेत्, यदि वा अष्टापदं द्यूतक्री- इत्यादि । तथा-तत्र गृहस्थगृहे कुशलाऽविप्रच्चनमान्मीय. डाधिशेषस्तं न शिकयेत, नापि पूर्वशिक्कितमनुशीलयेदिति । शरीरावयवप्रच्छनं वा । तथा-पूर्वक्रीमितस्मरणं चेत्येतस्सतथा-वेधो धर्मानुवेधस्तस्मादतीतमधर्मप्रधानं वचो मो बै विद्वान् विदितवेद्यः समनयति परिक्षया परिक्षाय प्र. बदेत् । यदि वा-वेध इति बर्धवेधी वृतविशेषः, तद्गतं स्याख्यानपरिक्रया परिहरेत् ॥ २१ ॥ बचनमपि नो बदेत, मास्तां तावत्कीडनमिति । हस्तकर्म
मपि चप्रतीतम् । यदि वा-हस्तकर्म हस्तक्रिया परस्परं हस्त. जसं कित्तिं समाघं च, जा य वंदणपूयणा । व्यापारप्रधानः कलहस्तं, तथा विरुरूवादं, शुष्कवादमित्यर्थः।
सम्बसोयसि जे कामा, तं विज्जं परिजाणिया ॥२॥ चः समुच्चये । तदेतत्सर्वे संसारभ्रमणकारणं परिक्षया प. रिझाय प्रत्याख्यानपरिशया प्रत्याचक्कात ॥१७॥
(जसं कित्तिमित्यादि) बासमरसंघनिबंदणशौर्यलकणं
यश, दानसाध्या कीर्तिः, जातितपोबहुश्रुत्यादिजनिता श्लाघा, पाणहान य उत्तं च, णानीयं बालवीयणं ।
तथा-या च सुराऽसुराधिपतिचक्रवर्तिबलदेववासुदेवाऽऽदिभि.
बन्दना, तथा-तैरेव सत्कारपूर्विका बखाऽऽदिना पूजना । तथा. परकिरियं अनमन्नं च, तं विज्जं परिजाणिया ॥ १० ॥
सर्वस्मिन्नपि लोके इच्छामदनरूपा ये केचन कामाः, तदेतत्स. (पाणहा उ इत्यादि ) उपानही काष्ठपादुके च, तथा-मा
4 यशः कीर्तिमपकारितया परिक्षाय परिहरेदिति ॥ २२॥ तपाऽऽदिनिवारणाय स्त्रम् । तथा-नालिका द्यूतक्रीडाविशेषः।
किं चान्यत्तथा-बालै मयूरपिच्र्वा व्यजनकं, तथा--परेषां संबन्धिनी
जेणेह णिबहे भिक्खू, अन्नपाणं तहाविहं । क्रियामन्योऽभ्यां परस्परतोऽभ्यनिष्पाद्यामन्यः करोत्यपरनिष्पा. धां चापर इति । चः समुच्चये । तदेतत्सर्वे विद्वान् पधिमा
अणुप्पयाणमनोस, तं विज्जं परिजाणिया ।। २३ ॥ तः कर्मोपादानकारणत्वेन परिक्षया परिकाय प्रत्याक्यान
(जेणेहमित्यादि) येनाभेन पानेन था तथाविधेनेति सुपपरिकया परिहरेदिति ॥ १८ ॥
रिशुद्धन, कारणापेक्षया स्वशुरुन वा, हास्मिन् खोको इदं
संयमपात्राऽऽदिकं दुर्भिक्षरोगाऽऽतकाऽऽदिकं वा भिकुनिर्वतथा
हेनिर्वाहयेद्वा, यदन्नं पानं वा तथाविधं द्रव्यत्रकालभाषाउच्चारं पासवणं, हरिएसु ण करे मुणी ।
पेक्षया शुरू कम्यं गृहीयात, तथैतेषामन्नाऽऽदीनामनुप्रदानमवियडेण वावि साहब, णाऽऽचमे य कयाइ चि ।। १५॥ न्यस्मै साधवे संयममात्रानिवडणसमर्थमनुतिष्ठत् । यदि वा(उच्चारमिति ) उच्चारप्रस्रवणाऽऽदिकां क्रियां हरितेषूपरि येन केनचिदनुष्ठितेन संयम निर्वहेनिर्वाहयेदसारतामापादबीजेषु वा स्थण्मिले वा मुनिः साधनं कुर्यात, तथा--विकटेन येत् । तथाविधमशनं पानं वा, अन्यता तथाविधमनुष्ठानं न कु. विगतजीवनाप्युदकेन संहृत्यापनीय बीजानि हरितानि बा । यात् । तथा-पपामशनाऽऽदीनामनुप्रदानं गृहस्थानां परतीर्थनाऽऽचमेत न निलेपनं कुर्यात्, किमुताविकटेनेति भावः ॥१९॥ ।
कानां स्वयूथ्यानां वा संयमोपघातकं मानुशीरयेदिति । तदंत
सर्व परिक्रया ज्ञात्वा सम्यक परिढरेदिति ॥२३॥ परमत्ते अन्नपाणं, ण भुजेज कया वि ।
___ यमुपदेशेनैतत्कुर्यात्तदर्शयितुमाहपरवत्थं अचेलो कि, तं विजं परिजाणिया ॥३०॥
एवं उदाहु निग्गंथे, महावीरे महामुणी। (परमत्ते इत्यादि) परस्य गृहस्थस्यामत्रं भाजनं परामत्रं, अणंतनाणदंसी से, धम्म देसितवं सुतं ।। ४॥ तत्र पुरस्कर्म पश्चात्कर्म, तद्भयाद् इतनष्टाऽऽदिदोषसंजवा- (एवं उदाहु इत्यादि) पवमनन्तरोक्तया नीत्या उद्देशकाऽऽदे.
चान्न पान च मुनिर्न कदाचिदपि भुजीत । यदिवा-पतद्- राज्य (उदाहु त्ति) उदाहृतवानुक्तवान्, निर्गतो बाह्याभ्यन्त. प्रधारिणाऽच्छिद्रपाणेः पाणिपात्रं परपात्रं, यदि वा-पाणि- रो प्रन्यो यस्मात्स निर्ग्रन्यो, महावीर इति श्रीमद्वर्धमानपात्रस्याच्छिउपार्जनकल्पिकाऽऽदे पतग्रहः परपात्रं, तत्र स्वामी, महाँश्चासौ मुनिश्च महामुनिः, अनन्तं ज्ञानं दर्शन च संयमविराधनानयान्न भुजीत, तथा-परस्य गृहस्थस्य वखं यस्यासावनन्तज्ञानदी, स नगवान् , धमे चारित्रलक्षणं सं
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धम्म
सावरणसमर्थ था । तथा श्रुतं च जीवाऽऽदिपदार्थसूचकं, दे शितवान् प्रकाशितवान् ॥ २४ ॥
( २७०४ ) अभिधानराजेन्द्रः ।
किं चान्यत्
भासमाणो न भासेज्जा, क्षेत्र फेज्ज मम्मयं । मातिद्वाणं विवज्जेज्जा, चितिय बियागरे ॥ २५ ॥ ( नासमाणो इत्यादि) यो हि भाषासमितः स भाषमाणोऽपि धर्मकथासंबन्ध भाषक एव स्यात् । उक्तं च-" वयणविह सीकुसनो, पद्मोग बहुविधं वियागंतो दिवस पि भासमाणो साहू व गुरुत्तयं पतो ॥। १ ।" यदि वान्यत्रान्यः कश्चि arssesो भाषमाणस्तत्राऽन्तर पत्र सधुतिकोऽहमित्येवमि मानवान् न भाषेत । तथा मर्म गच्छतीति मर्मगं बच्चोन ( वंफेज चि) नाभिलपेत् । यद्वचनमुच्यमानं तथ्यमतथ्यं वः सद् यस्य कस्यचिम्मनः पीमामाधत्ते, तद्विवेकी न भाषेतेति भावः । यदि वा मामकं समीकारः पक्षपातस्तं भाषमाणो ( न बंफेका चि) नानिखपेत् । तथा मातृस्थानं मायाप्रधानं बच्चो बि बर्जयेत् । वमुकं भवति परवनका गूदान प्राषमाणोऽभाषमाणो वाऽन्यदा वा मातृस्थानं न कुर्यादिति । यदा तु वकुं कामो भवति, तदा नैतद्वचः परमात्मनोरुभ यो बाधकमित्येवंप्रातिविमय वचनमुदाहरेत् तदुक कम" पुत्रं बुद्दी पेहिचा, पच्छा वक्कमुदाह रे । " इत्यादि ॥ २५ ॥
1
अपि चवस्थिमा तया भासा, जं वदिताऽणुनप्पति ।
उन्नं तं न वचन्त्रं, एसा भाषा प्रियंठिया ॥ २६ ॥ (सत्यमेत्यादि) सत्यासत्यासत्यामृषा सामु त्येवंपासु चतसृषु भाषासु मध्ये तत्रेयं सत्यामृषेत्येतदन धानाद तृतीया भाषा, सा च किञ्चिन्मृषा किञ्चित्सत्या इत्येवंरूपा । तद्यथा दश दारका. अस्मिनगरे जाता मृताः, तदत्र न्यूनाधिकसंभवे सति संख्याया व्यभिचारात्सत्यामृषा त्वमिति । यांवरूप भाषामुदित्या अनुपश्चाद्भाषणान्मान्तरे बा नितेन दो सम्यते पराभाग्भवति । यदि वा मनुसध्यते किं ममैवं छूतेन भाषितेनेत्येवं पश्चातापं विधते । तदमुकं भवति मिश्र भाषा दोषाय कि पुनरस्थाि तीया समस्ताऽर्थविसंवादिनी । तथा-प्रथमाऽपि भाषा स स्था या पापेन दोषानुसा ऽन्यसत्यामृषा भाषा बुधैरनाचीर्णा सा न वक्तव्यति । सत्याया अपि दोषानुषङ्गित्वमधिकृत्याऽऽद - यद्वचः (ति) कदिसादिसाधन तथा बज्य चोरोग्यं दूष स्वां केदारा दम्यतां गोरका दृश्यादि यदि बा ति) लोकैरपि प्रच्छाद्यते तत्सत्यमपि न वक्तव्यमिति । एषाऽऽज्ञा अयमुपदेशो निर्मन्थो भगवांस्तस्येति ॥ २६ ॥ किंच
होलाषाएं सहीवार्थ, गोयावा च नो पदे ।
तु तुति अणु, सध्वसो बतए । २७ ।। (होमादि) ले वाद होलाबाद
त्वा तथा-गोत्रोटने वादोगोवाद बधाकाश्यपगोत्रो, बासिसमोजो पैति इत्येवंरूपं मा दं साधुर्वी देव तथा तु तु "तिरस्काराच
धम्म
मान्तं बहुवचनोचारणयनो मनःप्रतिकूपमन्ययेषं धूमपानपाद सर्वशः सर्वा तत् साधून इति किं निकिकरण तथा पात्यास कुसी - संथवो ण किल वहुए काउं । तदिदं" इत्यादि ॥२७॥ कुसने सया भिक्खू, शेव संसग्गियं जए ।
जि
-
सुहरू त्वमग्गा पनिबुज्जेन ने विक ॥ २० ॥ (असीमेत्यादि ) कुत्सितं शीलमस्येति कुप स्थानामन्यतमः सदा सर्वका कणशीलो निशुः कुशलो न भवे चापि कुशा साइ मजेत सेवेत राष स्वरूपाः सातागौरवस्वभावाः, तत्र तस्मिन् कुशील संसर्गे सं यमोपघातकारिण उपसर्गाः प्रादुःध्यन्ति । तथाहि कुशीस बकारो भवन्ति कः किल प्रासुकोदकेन हस्तपाददन्ताऽऽदिके प्र चाल्यमाने दोघः स्यात् । तथा-नाशरीरों धर्मो भवतीत्यतो येन केनचित्प्रकारेणाऽधा कर्मसानिध्याऽऽदिना, तथा उपानच् अदिना च शरीरं धर्माधारं वर्तयेत्। तच" बहु सेजा, एथं पंडिय लक्ख ।” इति । "शरीरं धर्मसंयुक्तं, रक्षणीयं प्रयत्नतः । शरीरात्वते पापं पर्वतात्सलिलं यथा ॥ १ ॥ 29 तथा साम्प्रतमल्पानि संहननानि, अल्पघृतया संयमे जन्तव इत्येवमादि कुशीलोक्तं श्रुत्वा अल्पसश्वास्त त्रानुष अन्त्येवं विज्ञानविवेकी प्रतिबुद्धकु शील संसर्ग परिहरेदिति ॥ २८ ॥
नम्रत्व अंतरापणं, परगेहे न विसीए । गामकुमारियं कि, नातिवेळं इसे मुणी ||२५|| (नमस्थेत्यादि) तत्र साधुत्रिकाऽऽदिनिमित्तं प्रामाऽऽदो प्रविष्टः सन् परो गृहस्थस्तस्य गृहं परगृहं तत्र न निषीदेशोपदिशेत्रसमेतोऽस्यापवादं दर्शयति-मायान्तरायेणेति । अन्तरायः शक्त्यजाबः, स च जरसा रोगाऽऽताभ्यां स्यात्तस्मि श्रान्तराये सत्युपविशेत । यदि वा-उपशमलब्धिमान् कधि
सोनु कस्यचिद्यद्याविषस्य धर्मदेशनानिमिसमुपविशेषतथा-मामे कुमारका ग्रामकुमारकस्तेषामि यं ग्रामकुमारिकाऽसौ क्रीमा हास्यकन्दर्पहस्त संस्पर्शनाऽऽनिङ्गनादिका । यदि वा वट्टक दुकाऽऽदिका, तां मुनिर्न कुर्यात तथा बेलमतिकान्तमसिन मर्यादातिकाय मुनिः साधुनाऽवरणीयाद्यधिकर्मबन्धभयान इसेत् । तथा चागमः- "जीवे णं मंते ! इसमाने उस्सूयमावा कर कम्पanta बंध है। गोथमा ! सत्तविहबंध वा विद बंध वा ।" इत्यादि ॥ २९ ॥
किं चअस्तुओहराले जयमाणो परिब्दए ।
चरियाए अप्पमत्तो, पुट्ठो तत्थऽहियासए ॥३०॥ (अस्सुश्री इत्यादि ) ठराला उदाराः शोभना मनोशा ये चक्रवदनां शब्दाऽऽदिषु विषयेषु कामजोगा वस्त्राभरण गीतगन्धर्धपानचाहनाऽऽय तथा प्राश्यपनेषु दृष्टेषु तेषु वानोत्सुकः स्यात् । पाठान्तरं वान्न निश्रितोऽनिधितोऽप्रतिश्वरूः स्यात् । यतमानश्च संयमानुष्ठाने, परि समन्तान्मूतरगुणेषु धर्म कुबेन वजेत्संयमं गच्छेत् तथा-पर्याय काका याप्रमादिषु
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धम्म
(२७.५) अभिधानराजेन्द्रः।
धम्म दिति । तथा-स्पृष्टवाभियुतश्च परीषदोपसगैस्तत्रादीनमन
ई सुलहा । जे अधिमंतपुरिसा, तवो विशालु शहो तो स्कः कर्मनिर्जरा मन्यमानो विषहेत सम्यक सह्यादिति ॥३०॥
॥१॥ " तथा-जितानि वशीकृतानि स्वविषयरागद्वेषविजयेपरीषहोपसगांधिसहनमेवाधिकृत्याऽऽह
नन्छियाणि स्पर्शनाऽऽदीनि यैस्ते जितेन्द्रियाः राषमाणा य
थोक्तविशेषणविशिश जवन्तीति ॥ ३३ ॥ हम्ममाणो ण कुप्पेज्जा, वृश्चमाणो न संजले ।
तदभिधित्सुराहसुमणे अहियासिज्जा, ण य कोलाहलं करे ॥ ३१ ॥ गिहे दीवमपासंता, पुरिसाऽऽदाणिया नरा। (इम्ममाणो इत्यादि) हन्यमानो यष्टिमुष्टिलकुटाऽऽदिनिरपि ते वीरा बंधम्मुक्का, नावखंति जीवियं ॥ ३४॥ न कुप्येन कोपवशगो भवेत् । तथा-दुर्वचनाम्युच्यमान प्रा. (गिहे दीवमित्यादि ) गृहे गृहवासे गृहपाशे वा, गहलमान श्यमानो निर्भय॑मानो न संज्यलेन प्रतीपं बदेश मनागपि
इति यावत् । (दीवं ति)दीपी दीप्ती, दीपयति प्रकाशयतीति मनोऽन्यथात्वं विदध्यात्, किं तु सुमनाः सर्वे कोलाहलमकु- दीपः,सच प्रावदीपः श्रुतज्ञानलामः। यदि वा-वीपः समुबादी बंधिसदेतेति ॥ ३१॥
प्राणिनामावामनूतः, स च प्रावद्वीपः संसारसमुके सर्वोक्तकिंचायत
चारित्रलाभः, तदेवनूतं दीपं द्वीप वा गृहस्थभावेऽपश्यन्तोऽ. लके कामे ण पत्थेजा, विवेगे एवमाहिए ।
प्राप्नुवन्तः सन्तः सम्यक प्रवज्योत्थानेनोस्थिता उत्तरोत्तरगु
णमानवंतता प्रवन्तीति दर्शयति-नराः पुरुषाः पुरुषोत्तमपायरियाई सिक्खेज्जा, बुद्धाणं अंतिए सया ॥ ३२॥
स्वामस्य नरोपादानम, अन्यथा स्त्रीणामप्येतद्गुणनाक्त्वं प्र(सखे कामे इत्यादि)लब्धान प्राप्तानप्राप्तानपि कामानिध्याम- पति, अथवा देवाऽऽदिव्युदासार्यमिति । मुमुक्षूणां पुरुषाणामा. दनरूपान् गन्धामकारवस्त्राऽऽदिरूपान् वा वैरखामिवन्न प्रार्थये- दानीया प्राश्रयणीया पुरुषाऽऽदानीया:महतोऽपि महीयांसो भ. भानुमन्येत,न गृहीयादित्यर्थः । यदि बा-पत्र कामावसायितया | धन्ति । यदि पा-प्रादानीयो हितैषिणां मोक्षस्तम्मागों वा सम्य. मानाऽऽदिलब्धिरूपान् कामांस्तपोविशेषत्रब्धानपिनोपजीव्या- ग्दर्शनादिकः पुरुषाणां मनुष्याणामादानीयः, स विद्यते येषा. सायनागतान् ब्रह्मदत्तवत्प्रार्थयेत्, एवं च कुर्वतो भावविवेक मिति विगध मत्वर्थीयः अर्श आदिभ्योऽ"।५।२।१२७॥ इति । भास्यात भाविभांवितो नवति । तथा-प्राण्यार्याणां कर्त-1 तथा य एवंभूतास्ते विशेषेणेरयम्स्पष्टप्रकारं कमेति वीरा तथा व्यानि अनार्यकर्तव्यपरिहारेण । यदि वा-प्राचर्याणि मुमु. बन्धनेन सबाह्याभ्यन्तरेण [पुत्रकन्नत्राऽऽदिनेहरूपेणोरमावस्येन कूणां यान्याचरणीयानि ज्ञानदर्शनचारित्राणि तानि बुकाना- मुक्ता बन्धनोन्मुक्ताः सन्तो जीवितमसंयमजीवितं, प्राणधारणं माचार्याणामन्तिके समीपे सदा सर्वकासं शिकेताभ्यसदिति । चा नाभिकावन्ति नाभिसषन्तीति ।। ३४॥ अनेन हि शीलवता नित्यं गुरुकुलवास भासेवनीय इत्या
किं चाम्यतबंदितं भवतीति ।। ३२॥
अगिके सदफासेसु, प्रारंजेसु अणिस्सिए । यदुक्तं बुद्धानामन्तिके शिकेत्तत्स्वरूपनिरूपणायाह- सम्वं तं समयातीतं, जमेतं सवियं बहु ।। ३५॥ सुस्सूसमाणो उचासेज्जा, सुप्पमं सुतवस्सियं ।
(अगिर इत्यादि) अगृद्धोऽनध्युपपन्नो मूर्वितः ।क,शम्दस्पवी (धी) रा जे अत्तपन्नेसी, घितिमंता जिइंदिया ॥३३॥ शेषु मनोकेषु,माद्यन्तग्रहणान्मभ्यग्रहणमतो मनोकेषु रूपेषुगन्धे. ( सुस्सूसमाण इत्यादि ) गुरोरादेश प्रति श्रोतुमिच्छा
षु रसेषु वा अगृद्ध इति कष्टव्यम् । तपेतरेषु वादिष्ट इत्यपि शुश्रूषा, गुर्वान्यावृष्यमित्यर्थः । तां कुर्वाणो गुरुमुपासीत
वाच्यः । तथा-प्रारम्भेषु सावधानुष्ठानरूपेष्वनिःधितोऽसंघ. सेवेत । तस्यैव प्रधानगुणद्वयद्वारेण विशेषणमाह-सुष्प
दोऽप्रवृत्त इत्यर्थः। उपसंहर्तुकाम माह-सर्वमेतदभ्ययनादेरा. शोभना वा प्रज्ञाऽस्येति सुप्रज्ञः स्वसमयपरसमयबदी गो
रभ्य प्रतिभ्यत्वेन यल्लपितमुक्तं मया बहु तत्समयादाईतादागतार्थ इत्यर्थः । तथा-सुन्तु शोभनं वा सबाह्याभ्यन्तरं तपो
मादतीतमतिक्रान्तमितिकृत्वा प्रतिषिद्धम् । यदपि च विधिद्वाऽस्यास्तीति सुतपस्वी, तमेवं नूतं शानिनं सम्यक चारि.
रेणोक्तं तदेतत्सर्व कुत्सितसमयातीतं लोकोत्तरं प्रधानं पर्तप्रवन्तं गुरुं परलोकार्थी सेवेत । तथा चोकम्-"नाणस्स होइ
ते ३५॥ भागी, धिरयरओ दंसणे चरित्ते य । धन्ना प्रावकहाप,गुरुकु
यदपि च तैः कुतीथिकैहु लपितं तदेतत्सर्व समयातीत. लवासं न मंचंति ॥१॥" (ग) य एवं कुर्वन्ति तान् दर्शयति ।
मिति कृत्वा नानुष्ठेयमिति प्रतिषिष्य प्रधाननिषेधद्वारेण मोकायदि वा केशानिनस्तपस्विन इत्याह-वीराः कर्मविदारणस.
भिसंधानेनाऽऽहहिष्णवो,धीरा वा परीषदोपसर्गाकोभ्याः,धिया बुद्ध्या राजन्ती
अइमाणं च मायं च, तं परियाय पंमिए। ति वा धीरा ये केचनाऽऽससिद्धिगमनाः आप्तो रागादिविप्र. गारवाणि य सम्माणि, णिचाणं संधए मुणी॥३२॥ मुतस्तस्य प्रज्ञा केवलज्ञानाऽऽख्या,तामन्वेष्ट शलिं येषां ते प्राप्तप्र. (भामाणं चेत्यादि) प्रतिमानो महामानस्तं, चशदात्सझान्वेषिणः, सर्वज्ञोकान्वेषिण इति यावत् । यदि बा-आत्मप्रशा. हचरितं क्रोधं च, तथा-मायां, चशमात्सत्कार्यतुतं लोभं च, न्वेषिण प्रास्मनः प्रज्ञा ज्ञानमारमप्रज्ञा तदन्वेषिण आत्मस्वा. तदेतत्सर्व परिमतो विवेकी परिझया परिकाय प्रत्यास्यावषिण आत्महितान्बोषिण इत्यर्थः। तथा-धृतिः संयमे रतिः, नपरिया परिहरेत् । तथा-सर्वाणि गारवाणि किरससा. सा विद्यते येषां ते धृतिमन्तः। संयमधृत्या हि पञ्चमहावतभारो. तरूपाणि सम्यक ज्ञात्वा संसारकारणस्वेन परिहरेत्परिहस्य द्वहनं सुसाध्यं भवतीति। तपःसाध्या च सुगतिहस्तप्राप्यति । च मुनिः लाधुनिर्वाणमशेषकर्मक्षयरूपं, विशिधाऽऽकाशदेशं या तक्तम- धिई तस्स तवो, जस्स तवो तस्स सम्ग- संधयेदभिसंदण्यात,प्रार्थयेदिति यावत् ॥ ५६ ॥ सूत्र०१०
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धम्म
अ० । ( का पुनरुत्पन्ननिरावरणानानां तीर्थकृतां वाग्योगो प्रवति येनासावा, उपधारे। किंभूतस्तैः पुनः प्रवेदितस्तद्वक्ष्यतेोगसार' शब्द )
तथा च
केवलिपतात्तो धम्मो मंगलं, केवलिपष्णत्तो धम्मो लोगचमो
केवलितः, कोसी धर्म धर्म चारित्रधर्मेश मङ्गलम अनेन कपिलाऽऽदिप्रकृतधर्मव्यवच्छेद माड् । श्राव० ४ श्र० । अपि च
कुजए अपराजिए जहा अक्खेहिं कुमले हि दीवयं । कममेव महाय णो कलि, नो तेयं नो चेव दावरं | २३ | कुत्सितो जयोऽस्येति कुजयो द्यूतकारः, मद्दतोऽपि द्यूतज. यस्य सद्भिर्निन्दितत्वादनर्थ हेतुत्वाश्च कुत्सितत्वमिति । तमेव विशिष्ट अपराजितो कुशलत्वादन्येन न जीयते । [व] पाशकेन की इंस्तस्पात कुशलो निपुणः यथा अस इतकारोऽः पाशकैः कपईकैवी रममाणः (कडमेव (स) चतुष्कमेव गृहीत्वा तलब्धजयत्वात् तेनैव दीव्यति । ततोऽसौ तलुब्धजयः सन्न कलिमेककं, नाऽपि त्रैतं त्रिकंद, नापि द्वापरं द्विकं गृह्णातीति ॥ २३ ॥
दातिकमा
एवं योगम्मिताझ्या,
बुर मे धम्मे अणुतरे ।
(२७.६) अभिधानराजेन्द्रः ।
तंगिएइह जंsतिउत्तमं,
कडमिन सेमवहाय पंमिए ॥ २४ ॥ यथा इतकार प्राप्तत्वात् सर्वोचमं दव्यं चतुष्कमेव गृहास्येव मरिमलोके मनुष्यलोके तायिना त्रायिणात्रा सर्वनकोऽयं धर्मः कामस्यादिलणः तचारित्राको वा नास्यो सरोऽधिकोऽस्तीत्यनुतर मेकान्तमपि कृत्वाप्रयुतमं स
समं च गुण विनोतसिकार द्वितः स्वीकुरु पुनरपि निग मनाये तमेव तं दर्शयति-यथा कधि तकारः कर्त कृतयुगं, चतुष्कमित्यर्थः, शेषमेकाऽऽचपहाय त्यक्त्वा दीव्यन् गृह्णाति एवं परिमतोऽपि साधुरपि शेषं गृहस्पकुप्रावानिकपास्थादिजायमपहाय संपूर्ण महान्तं सर्वोतमं धर्म गृडी या दिति भावः ॥ २४ ॥
उचर मवाण आद्दिया,
गामधम्मा इमे अस्तुयं । जंसी विरता समृडिया,
कासवस्य धम्मचारिणो ॥ २५ ॥ (उतरत्यादि) उत्तराः प्रधानाः, दुर्जयत्वात् । केषाम ?, उपदे शास्वान्मनुष्याणाम्के शब्दादिविषामेवेति
बराकपाताः मयेद्नुपधानम्। तच सर्वमेव
यक्ष्यमाणं वेदिता पुत्रानुदिश्याऽभिहितं सत् पायात्रा सुमिप्रभूतयः स्वशिष्येभ्यः प्रतिपादय न्स्यतो मयैतदनु श्रुतमित्यनवद्यम् । यस्मिन्निति कर्मणि ज्यो
धम्म
पे पञ्चमी, सप्तमी वेति । यान् ग्रामधर्मानाश्रित्य ये विरताः, पञ्चम्यर्थे वा सप्तमी । येभ्यो वा बिरताः सम्यक् संयमरूपेमोस्थिताः समुत्थितास्ते काश्यपस्यर्षनस्वामिनो वर्द्धमानस्वामिनो मा संबन्धी यो धर्मस्तदनुचारिणीय करमतान भवन्तीत्यर्थः ॥ २५ ॥
कि
जे एयं चरंति ग्राहियं,
नाएवं महया महेसिया । उडिय ते समुडिया,
अनं सारंति पम्म ।। २६ ।।
1
(जे एवं इत्यादि । ये मनुष्य धर्म प्रायुर्क धर्म ग्राम विरतणं कुर्वन्ति परति क्यालेन कालपुत्रेण ( मदयति ) महाविषयस्य ज्ञानस्याम्यनृतत्वाद महान् तेन तथाऽनुकूलतोपसर्गसदित्यान्महर्षिणा श्रममानस्यामिमा प्राक्यातं धर्म ये परस्ति से संयमाने कुर्तीर्थिक परिहारेणोत्थिताः । तथा मियाऽऽदिपरिहारेण त
सम्पदेशनाऽपरित्यागमोत्यताः समुत्थिता इति माये प्रवचनका जातियति माया त एव यथोक्तधर्मानुष्ठायिनोऽन्योऽन्यं परस्परं धर्मं तो धर्ममाश्रित्य धर्मतो वा भ्रश्यन्तं सारयन्ति चोदयन्ति, पुनरपि में प्रव र्तयन्तीति ॥ २६ ॥
मा पेड़ पुराणामजिक उपघुवित्तए । जे दूमण तेहिं णो णया, वे जायंति समाहिमाहियं ॥२७॥ (मापेत्यादि ति संसारं वा प्रणामयति कुर्वि प्राणिनां प्रणामकाः शब्दाऽऽदयो विषयास्तान् पुरा पूर्व नुक्तान् मा प्रेक्षस्व मा स्मर। तेषां स्मरणमपि यस्मान्मते नाग नदीत वाकादिति तथा अनिका मनिला बिन्तवेद्नुरूप किमर्थमिति दर्शयति-उपधीयते ढोक्यते दुर्गतिं प्रत्यात्मा येनाभ्युपधर्माचा प्रकारे कर्म नानायाऽभिकादिति सम्बन्धः । दुष्टधर्म प्रत्युपनताः कुमार्गागुष्ठायिनस्तीर्थिक यदि मति ) दुश्मनःकारिण उपतापकारिणो वा शब्दाऽऽदयो विषयास्तेषु ये महासवाः न नताः प्रह्वीभूतास्तदाचारानुष्ठायिनो न भवन्ति, ते च सन्मागोनुष्ठायिनो जानन्ति विदन्ति समाधि रागद्वेषपरित्यागरूपं धर्मध्यानं च हितमात्मनि व्यवस्थितम् । आ समन्ताद्धितं वा त एव जानन्ति नाऽन्य शति भावः ॥ २७ ॥
तथा-
णो काहिए होज्ज संजए, पासलिए ा व संपवार
नया धम्मं अतरं
कपकिरिए ण पावि मामए ॥ २० ॥
( णो काहिए इत्यादि) संयतः प्रवाजितः कथया चरति काधिक गराउन दि दनों सत्यादिकयां वा न कुर्यात् तथा प्रश्न राजाऽऽदिि वृत्तरूपेण, दर्पणादिप्रश्ननिमित्तरूपेण वा चरतीति प्राश्निको न जयेत् । नापि च संप्रसारको देववृष्ट्यनर्थका एडा ऽऽदिसूत्र
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(२७०७) अभिधानराजेन्डः।
धम्म
ककथाविस्तारको भवेदिति । किं कृत्वेति दर्शयति-ज्ञात्वाऽ. भवति बले चाऽयुष्कं, प्रकृष्टमायुष्कतोऽपि विज्ञानम् । बबुध्य नास्योत्तरो विद्यत इत्यनुत्तरस्तं श्रुतचारित्राऽऽख्यं धर्म
विज्ञाने सम्यक्त्वं, सम्यक्त्वे शीलसंप्राप्तिः ।। ३॥ सम्यगवगम्य, तस्य हि धर्मस्यैतदेव फलं यदुत विकथा- एतत्पूर्वश्चाऽयं, समासतो मोक्कसाधनोपायः। निमिनपरिहारेण सम्यक क्रियावान् स्यादिति तदर्शयति. तत्र च बहु संप्राप्तं, भवद्भिरल्प न संप्राप्यम् ॥४॥ कृता स्वभ्यस्ता क्रिया संयमानुष्ठानरूपा येन स कृतक्रिया
तत्कुरुतोद्यममधुना, ममुक्तमार्गे समाधिमाधाय । स्तथानृतश्च, न चाऽपि मामको ममेदमहमस्य स्वामीत्येवं स्पक्त्वा सामनाये, कार्य सद्भिः सदा श्रेयः ॥५॥" इति । परिग्रहाऽऽग्रहीनवेदिति ॥२८॥ बनं च पसंस णो करे, न य उकोस पगास माहणे । ।
पतच प्राणिनिन कदाचिदवाप्तपूर्वमित्येतदर्शयितुमाहतेसिं मुविवेगमाहिए, पणया हिँ सुजोसिअंधुयं ॥२॥
ण हि गुण पुरा अणुस्सुतं, (उन्नमित्यादि) 'छन्नं ति' माया, तस्याः स्वाभिप्रायप्र.
अजुवा तं तह णो समुट्ठियं । ध्यादनरूपत्वात्, तां न कुर्यात् । चशब्द उत्तरापेक्वया समुश्चयार्थः । तथा-प्रशस्यते सरावगानेनाऽद्रियत इति प्रशस्यो
मुणिणा सामाइआऽऽहितं, लोभः, तं च न कुर्यात् । तथा जात्यादिभिर्मदस्थानघुप्रकृति
नाएणं जगसव्वदंसिणा॥ ३१॥ पुरुषमुत्कर्षयतीत्युत्कर्षको मानः,तमपि न कुर्यादिति सम्बन्धः।। __ यदेतन्मुनिना जगतः सर्वभावदर्शिना ज्ञातपुत्रीयेण सामा. तथा अन्तर्व्यवस्थितोऽपि मुख दृष्टिभङ्गविकारः प्रकाशीनवती. यिकाऽऽद्याहितमाख्यातं तन्नूनं निश्चितं न हि नैव पुरा पूर्व ति प्रकाशः क्रोधः, तं च (माहणे त्ति) साधुन कुर्यात् । तेषां जन्तुभिरनुश्रुतं श्रवणपथमायातम् । अथवा-श्रुतमपि तत् कषायाणां महात्मानिर्विवेकः परित्याग आहिनो जनितम्त पव सामायिकाऽऽदि यथाऽवस्थितं तथा नाऽनुष्ठितम् । पागन्तरं वाधर्म प्रति प्रणता इति । यदि वा-तेषामेध सत्पुरुषाणां सुष्टु
"अवितह ति" अवितथं यथावन्नानुष्ठितमतः कारणादसुमताविवेकः परिज्ञानरूप अाहितः प्रथितः प्रसिकिं गतः, त एव च मात्मदितं सुलभमिति ॥ ३१॥ धर्म प्रति प्रणताः, यमहासवः सुष्टु जुधं सेवितं, धूयतेऽg.
पुनरप्युपदेशान्तरमधिकृत्याऽऽहप्रकार कर्म येन तद्भुतं संयमानुष्ठानम् । यदि वा यैः सदनुष्ठा
एवं मत्ता महंतरं, धम्ममिणं सहिया बहू जणा। यिभिः ( सुजोसिअंति) सुष्तु किप्तं धूननार्हत्वाद् धृतं कर्मति || २६॥
गुरुणो छंदाणुवत्तगा, विरया तिन्न महोघमाहितं ॥ ३॥ अपि च
(एवं मत्ता इत्यादि) एवमुक्तरीत्या आत्महितं सुदुलभं मपणिहे सहिए सुसंवुमे, धम्मट्ठी नवहाणवीरिए ।
स्वा ज्ञात्वा धर्माणां च महदन्तरं धर्मविशेष कर्मणो वा चिवरं
ज्ञात्वा । यदि बा- (महंतरं ति) मनुष्याऽऽर्यकेत्राऽऽदि कमवसरं विहरेज समाहिइंदिर, अत्तहिअंखु दुहेण सन्न ॥३०॥
सदनुष्ठानस्य ज्ञात्वा एनं जैन धर्म श्रुतचारित्राऽऽत्मकं,सह हि. (अणिहे इत्यादि ) स्निह्यत इति स्निहः। म स्निहा-अ. तेन वर्तत इति सहिता ज्ञानाऽऽदियुका बहवो जना बघुकास्निहः, सर्वत्र ममत्वरहित स्वर्थः । यदि वा--परीषहोपसर्ग- णः समाश्रिताः सन्तो गुरोराचार्याऽऽदेस्तीर्थंकरस्य वा गन्दानिदन्यते इति निहः, न निहोऽनिहः उपसगैरपराजित इत्यर्थः । नुवर्तकास्तमुक्तमार्यानुष्ठायिनो, विरताः पापेभ्यः कर्मज्य: पान्तरं बा-"अणदे सि ।" नास्याघमस्तीत्यनघो, निर. सन्तस्तीर्ण महोघमपारं संसारसागरमेवमाख्यातं मया वद्यानुष्ठायीत्यर्थः । सह हितेन वर्तत इति सहितः, सहितो भवतामपरैश्च तीर्थकृद्भिरन्येषाम् ॥ ३२॥ सूत्र. १७० युक्तो वा ज्ञानाऽऽदिभिः,स्वहित प्रात्महितो वा सदनुष्ठानप्रवृत्तः। तमेव दर्शयति-सुष्तु संवृत इन्ज्यिनो इन्द्रियैर्थिस्रोतसिका.
किंचरहित इत्यर्थः । तथा-धर्मः श्रुतचारित्राऽऽख्यस्तेनार्थः प्रयोजनं, स एवार्थः, तस्यैव सद्भिरमाणत्वाद् धर्मार्थः, स यस्ता संधए साहुधम्मं च, पावधम्म णिराकरे । ऽस्तीति स धर्मार्थी । तथापधानं तपः, तत्र वीर्यवान् , स ए- उवहाणवीरिए भिक्खू, कोहं माणं न पत्थए ।॥ ३५॥ चम्भूतो विहरेत् संयमानुष्ठानं कुर्यात् । समाहितेन्द्रियः सं.
(संधए इत्यादि ) साधूनां धर्मः क्षान्त्यादिको दशविधः,सयतेन्ष्यि एव । यत आत्महितं पुःखेनाऽसुमता संसारे प.
म्यग्दर्शनचारित्राऽऽण्यो वा,तमनुसंधयेद् वृहिमापादयेत् । तद्य. यंटता अकृतधर्मानुष्ठानेन लज्यते अवाप्यत इति । तथाहि-"न
था-प्रतिक्कणमपूर्वज्ञानग्रहणेन ज्ञानम् । तथा शङ्काऽऽदिदोषपरिहा. पुनरिदमतिबभ-मगाधसंसारजसधिविभ्रष्टम् । मानुष्यं खद्यो
रेण,सम्यग्जीवाऽऽदिपदार्थाधिगमेन च सम्यग्दर्शनमस्खलितम्तक तडिल्लनाविलसितप्रतिमम् ॥१॥" तथाहि-युगसमिलाऽऽ.
लोत्सरगुणसंपूर्ण पालनेन प्रत्यहमपूर्वज्ञानग्रहणेन चारित्रं वृद्धि दिदृष्टान्तनीत्या मनुष्यन्नव एव तावद् दुर्भभः,तत्राऽप्यायवेत्रा
मापादयदिति । पान्तरं वा-" सद्दहे साधुधम्म च" पूर्वो5ऽदिकं दुरापमित्यत भात्महितं दुःखनावाप्यत इति मन्तव्यम् ।
क्तविशेषणविशिष्टं माधुर्म मोकमार्गत्वेन श्रद्दधीत निःशङ्कअपि च
तया गृह्णीयात, चशब्दात्सम्यगनुपालयेश्च । तथा-पापं पापोनूतेषु जङ्गमत्वं, तस्मिन् पञ्चेन्जियत्वमुत्कृष्टम् ।
पादानकारणं धर्म प्राण्युपमर्दन प्रवृत्तं,निराकुर्यात् । तथा-पतस्मादपि मानुष्य, मानुष्ये ऽप्यायदेशश्च ॥ १॥
धानं तपः,तत्र यथाशक्त्या वीर्य यस्य स भवत्युपधानवीर्यः,त. देशे कुलं प्रधान, कुत्रे प्रधाने च जातिरुत्कृष्टा ।
देवभूतो भिक्षुः क्रोध, मानं च न प्रार्थयेन वधयेद्वति ॥ ३५।। जातौ रूपसमूही, रूपे च बलं विशिष्टतमम् ॥ २॥
सूत्र. १७०११ अ01
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धम्म
सोचा व धम्मं अरहंतजामियं.
समाहितं
पदोवमुषं ।
तं सद्दहारणा य जरणा अणाऊ,
ईदा व देवाहि आगमि ॥ २५ ॥ सोचा इत्यादि) दुर्गति तचारित्रारूपम सम्यमायामा पा
(2005) निधानराजेन्द्रः ।
तैरुपद्धमवदातं सयुक्तिकं सकेतुकं वा यदि वा अर्थैरभिधेयैः पदेश वाके शब्दरूप सामीप्येशु समेत मद्भिर्भाषितं धर्म श्रद्दधानाः । तथा अनुतिष्ठन्तो जना लोका धनायुषो अपगतायुष्कर्मान्तसिकाः सायुपायाः देवाधिपा आगमिष्यन्तीति ॥ २६ ॥ सूत्र० १ ० ७ अ० । (२१) धर्माधर्मविचार कर्तव् क्ष्मबुद्धेराश्रयणीयतामुपदिशन्नाहसूक्ष्मबुकचा सदा पो धर्मो धर्मादिभिर्नरैः ।
अन्यथा धर्ममुचैव तद्विघातः सभ्यते ॥ १ ॥ (मेति निपुणमत्या, सदा सर्वकालं या को विवाद धातरतुद
"
धामनबुद्धया मंदि वेलने फुकानामिव व धर्माभि घातो धर्मव्याहतिः । प्रसज्यते प्राप्नोतीति ॥ १॥ एनदेव दर्शयन्नाह
गृहीत्वा ज्ञानभैषज्य-प्रदानाभिग्रहं यथा । बदमास तदन्तेऽस्य शोकं समुपगच्छतः ॥ २ ॥ गृहीत्वा श्रदाय, ग्लानायाशक्ताय, मैषज्यप्रदाने औषधवित रविषये योऽभिग्रहः प्रतिज्ञा, ग्ज्ञानाय मया भैषज्यं दातव्यमित्येवंरूपः सततं यचेत्युदाहरणोपन्यासार्थः, तस्य महामत्वामानापमानस्याप्राप्तिरसंभवस्तद्मास्तस्य तस्य स्वाननैषज्यप्रदानाभिग्रहस्यान्तः कालावधिपूत्यां पर्यव सानतस्तत्र, शोकमुद्वेगं समुपगच्छतो बजतोऽभिग्रहीतुर्धर्मबुद्ध्याऽप्यधर्मो भवति । तथा सर्वत्रेति प्रकृतमिति ॥ २ ॥ शोकमेव दर्शयतिगृहीतोऽनिग्रहः श्रेष्ठो, ग्लानो जातो न च कचित् । घड़ो मेऽपता कष्टं न किमनिवाचितम् ॥ ३ ॥ गृहीत आसोनिग्रह] उरुवा प्रतिष्ठतिप्रशस्या, ग्ला यो रोगवाद जातो भूत वा मे मम धनं वा धन्यस्तङ्गावस्तत्ता, तन्निषेधोऽधन्यता, कष्टमिति खेदवचनं, न सि कं न निष्पन्नमभिवातिमभिमतमिति ॥ ३ ॥
प्रकृतयोजनायाऽऽदएवं तत्समादानं ज्ञानभावाभिसन्धियत् । सापून तो पद, दुष्टं ज्ञेयं महात्मभिः ॥ ४ ॥ एवमनेन प्रकारेणाभिग्रहविषयाप्राप्तौ शोकगमनलकणेन, दिशब्दोपिताप्रिय व्यापारूपाभावार्थः। एत रूप जाननेवपानादिस्य समादानं ग्रहणमेतत् समादानं, यब्दोऽत्र अष्टव्यो, यद्यस्मात् ग्लानजावे रोगव
निसरनायो यदि कश्चित् साधुन जति तदा शोजनं स्यादस्मदभिग्रहस्य सफलत्व प्राप्तेरित्येवं
धम्म
लकणो विद्यते यत्र तत् महानताकाभिसंधिमत् साधूनां मामेतत्समादानमिति योगः वासान जानमायानिसन्धिमनियोगःपरमार्थ
तस्मात्कारणादपानमा
बन्धहेतुत्वात् ज्ञेयं ज्ञातव्यं, महात्मभिः प्रशस्यस्वनावैरिति ||४|| एवमपया दोषातरन्यैरयुपलभ्येति दर्शयालौकिकैरपि चैषोऽर्थो, दृष्टः सूक्ष्मार्थदर्शिभिः । प्रकारान्तरतः कैश्रियतदुदाहृतम् ॥ ५ ॥ खोके विदिता सीकिका वामप्रभृतयः तैरपि चमकेजेनेरेव पोरोदितोऽर्थापसिजतिलकणो दृष्ट उपलब्धः । किंभूतैरित्याह- सूक्ष्मार्थदर्शिभिः पटुदृष्टिभिर्हेयवस्तुविवेचनं वै ह्यतिस्थूल बुरूयोऽर्थापत्तिगम्यानेवविधा नर्थान्हातुमभवति नतु मिथ्यादृशां कथं सूक्ष्मद मानव रसादि कयोमा अ
नं, तर्हि तेषां कथम्?, तत्राऽप्युच्यते सदसतोरविशेषात् आह च. " सय सयविसेसणाश्रो गाहा 39 प्रकारान्तरतः - श्रस्म डुकप्रकाराद्वानपथदानादिन्येन प्रकार के लि द्वाल्मीक्यादिभिरेव न सर्वैः, कथं तैर्दृष्टोऽयमित्यवसितमित्याइयतो मामनिदितमिति ॥ ५ ॥
प्रङ्गेष्वेव जरा यातु, यत्त्वयोपकृतं मम ।
नरः प्रत्युपकाराय विपस्सु लजते फलम् || ६ || किल सुग्रीवेण ताराऽऽवाप्तौ रामदेव पत्रमुक्तः - श्रङ्गेष्वेव म दीयगात्रेष्वेव जरा जरणपरिणामं यातु गच्छतु, मा प्रत्युपकारद्वारेगा प्रतियातनी विचारणार्थ किं तत् ? पाले सकाशात् तारां विमोच्य मम तदर्पणेन त्वया भवता उपकृतसुपकारः कृतः ममेत्यात्मानं निर्दिशति । तस्मा कि.मि. त्येवमित्याह - नर उपकारकारिमानवः उपकारं प्रतीत्याऽऽि त्योपकारः प्रत्युपकारः तस्मै प्रत्युपकाराय उपकृतनरेण क्रियमाणाय संपद्यते यत्फलं विपत्सु व्यसनेषु सत्सु लभते प्राप्नोति त त्फलमुपकारकारिक्रियायाः साध्यम् । अयमभिप्रायः- उपकारको व्यसनगत एवं उपकार क्रियायाः फलमुपकृतेन कृतं लभते, न पुनत्यदा गाभावे निरवसररवेन तदिति । किमुकं भवति मा स्वमापदं प्राप यम्यामदं भवन्तमुपकरां मीति । अन्ये त्वाहु:-नर उपकृतमानवः प्रत्युपकारार्थे दिपत्रकारकारि व्यसनेषु सभते फलं, फल हेतुत्वादववरमिति ॥ ६ ॥
एवं तामवृतावपि धर्मव्याघात नवरयनिपुण युद्धम ग्वाननैपज्याभिग्रहप्रवृत्ताविवेति समर्थितम् अधुनैवमेव सर्वा स्वपि प्रति दयाह
,
एवं विदानाsss हीनोगतेः सदा । मन्यादिविधाने च शास्त्रोक्कन्यायवाचिने ।। ७ ।। दिन पो पात एव हि । सम्पत् माध्यस्थ्यमासम्म नपव्यपेया ॥ ८ ॥ यथा मनपश्यदानादि बाद् धर्म्माघातः प्रसज्जत्येवमनेनैव न्यायेन विरुद्धस्य शास्त्रविनिवारितस्य जीवोपघात हेतुत्वाद्देयद्रव्यस्याssधाकर्माss ददर्श पिस्यादेवी शा
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(२७००) अभिधानराजेन्द्रः ।
धम्म
कृताय पात्राय, दानं वितरणं विरुद्धदानं, तदादिर्यस्य शीलतपोभावनाधर्मगुरुविनयऽऽदेवता पूजना देव सचिनदिस्तत्र व्याऽऽदिनेदतो धर्म्मव्याघात एव, ज्ञेय इति योगः कुत इ स्याह दीनस्य गुणविमुक्तस्य, देयव्यपात्रस्य वा उत्तमं प्रधानमेतदिति गतिरबगमो बोधो हीनोत्तमगतिः, ततो होनोत्तमगतेः सदा सर्वदा शाखनिराकृतादि दीनमपि देवं पात्रं योत्तममि ति बोधविपर्ययादवगच्छन् यदादाने प्रया घातः स्फुट एवेति । दातव्यद्रव्यविरुरूता च "नाईणं सुद्धा-सु अध्याय कालज्जुदा अमुवि गिहीन लि. यं वियं । १शेषण पात्रता पुनरेवमूसीय पर दिया दिकु प्रतां । तं खलु धोवह बत्थं, रुहिरकयं सोहितेव ॥ १ ॥ तथापि
"
रणं स्यादिविधानम आदिशब्दादेशवित्यादिसंग्रह | तत्र च न केवलं विरुद्धदानाऽऽदावेव किंभूते प्रव्रज्याऽऽदिविधारवाद शाखोचावाभिये भागमानिनियन डीनोत्तमगतेरिति हेतुरिहापि वर्तते, धर्मव्याघातो ज्ञेय इत्येतदपिबन्धनीयं तत्र देवाने शास्त्रोकोऽयं न्याय:"निनयायोयण अणवावाय गमजोगसुखीदि चचियचं माऊणं, निमित्तओ सह पट्टेजा ।। १ ।। ५
तथा
" पव्वज्जाए जोग्गा, आरियदेसम्म जे समुप्पन्ना 1 जाइकुलेहिं विसिष्ठा, तद् खीणप्पायकम्ममला ॥ १ ॥ " इत्यादी ।
देशविरतौ पुनः
"गुरुमूलेसु य धम्मो, संविग्गो इत्तर व इयरं वा । धजेषु तम्रो सरमं, वज्रेश् इमे अईयारे ॥ १॥"
जिनदीकायां तु
" दिखाऍ चैव रागो, लोगविरुद्वाण चैव चागोत्ति । सुंदरगुरुगोथिय जस्तो पत्थ उचित ॥१॥ तद्विपर्ययादेति पादिभेद
शेत्यादिविधाने हे यो ज्ञातव्यो धर्मव्याघातः। एवं च धर्मबांधव, न तु धर्माऽऽराधनं, तत्र विरुदाने द्रव्यतो धम्मंव्याघातो यथैषणीयत्वेनाविरुद्ध. ये कूरादौ साधुसंस्तरण देतौ सत्यपि भनेषणीयतया विरु कम्, अत एव हीनमु सममिति बुद्ध्या ददतः। एवं केत्रतोऽकान्तारा 55दि क्षेत्रे, कालतः सुभिककाले, जावतस्त्वग्लानावस्थायाम् । वक्तं च--"संघरणम्मि असुरू, दोपह वि गिरहंत देतयाण हियं : श्रावरहि तेण तं वेव हियं असंधरणे ॥ १ ॥" तथा प्रव्रज्या
धर्मशास्त्रबाधिते द्रन्याय था - शास्त्रनिराकृतं नपुंसकाऽऽदिकं जीवव्यं प्रवाजयतः, ते. तोऽकान्ताराऽऽदि क्षेत्रे, कालतः सुभिक्ककाले, भावतः स्व. स्थायामिति। दिशः स्फुटार्थः कथं
इत्याह- सम्यगविपरीतं, माध्यस्थ्यमनाग्रहत्वमा लम्ब्याऽऽश्रित्य सपि न स्वा किंतु आगमापेचया न तु तदनपेक्षयेति ॥ ८ ॥ हा० २१ अष्ट० । (अथ कस्य धर्मानुटानत्वं कस्य नेति 'धम्मागुट्ठाण' शब्देऽग्रे वक्ष्यते )
६७८
धम्म
(३०) संयतविप्रतिपा तत्वाधम्र्मस्थितत्वाऽऽदि यथा-
से नूणं ते! संजय विश्यपमिद्यपञ्चक्रखायपात्रकम्मे - मे लिए, संजय अविश्यपमिइयपच्चक्खायपात्र कम्मर हम्मे ठिए, संजया संजए धम्माधम्मे ठिए ? | हंता ! गोयमा ! संजयविरय०जाव धम्माधम्मे ठिए । एएसि अंते! धम्मंसि वा अम्स वा धम्माधम्पसिया पि या के सलए बाजाव तुयहिए ना है। यो इण्डे समड़े से खड़े खाइ जेते! एवं बुम जान धम्मम्मे लिए ! गोपमा संजयविश्य जाव पावकम्मे धम्मडिए धम्मं चैव उवसंपज्जित्ता एं बिहर, असंजय पावकम्मे हम्मे ठिए अहम्मं चैव नवसंपज्जिता णं विहरइ, संजया संजय धम्माधम्मेटिए - म्याथम् पक्षता णं विहर से तेरा गोयमा !o जान लिए ।
1
( से सूयं भंते! इत्यादि) (शि) संयमे चकिया के आसइतर वेति ) धर्म्माऽऽदौ शक्नुयात्कश्चिदासयितुम् ? । नायमर्थः समयों, धर्मारमूर्तस्वात् मूर्त्तपत्र वासनाssदिकरणस्य शक्यत्वादिति । भ० १७ श० २ ० । "तिविपते तं जहा धम्मे परमे कायधम्मे।” खा० ३ ०३ उ० । (व्याख्या स्वस्वशब्दे द्रष्टव्या)
अथ धर्मस्थितस्थादिक दगडफोन निरूपयाजीवाणं लंबे ! किं धम्मे विया, अहम्मे ठिया, धम्माषम्बे दिया है। गोमा ! जीवा धम्मेरि ठिया, अहम्मे वि ठिया, पम्याथम् पि डिया थेरड्या अंवे 1 पुच्छा है। गोषमा नेरइया को धम्मेठिया, अम्बे दिया णो पम्याथम्मे ठिमा एवं० नाव चलरिदिपाणं पंविदिपतिरिवखनोलिया पुच्छा । गोपमा ! पंचिदियतिरिक्खजोणिया णो धम्मे ठिया, ग्रहम्मे ठिया, धम्मम्मे विविया । मगुस्सा जहा जीवा, वाणमंरजोसियनेमाथिया जहा रश्या । म० १७ श० २ उ० ।
धर्मप्रतिपादके सूत्रकृताङ्गद्वितीयश्रुतस्कन्धस्य नवमे ऽध्ययने च । स• २१ सम• । प्रश्न• । श्रत्र (तदधिकारार्थवपता 'धम्म' राबते धर्मसारभूतत्वात् जीवनका बाद वैकालिकस्य चतुर्थेऽध्ययने, दश० ४ ० । ( तहधिकारार्थवक्तव्यता "उज्जीवणिकाय" शब्दे तृ० भा० १३४५ पृष्ठे गतामा गत ०० ४ ० चरणधर्मा नुगते ध्यानभेदे, घाब० ४ श्र० । “धम्मापुरंजियं धम्मं ।” भा० धू० ४ अ० । श्राव० । उत्त ( एतद्वक्तव्यता धम्मज्झाण शब्दे ) ग्रात्मनि देहचारणाद जीये. गुरूचे उपमायाम्म्याचे उपनिषदि यमे, सोमाभ्यायिनि | बाच• । दुर्गतौ प्रपतन्तं सध्वसङ्घातं धारयतीति धम्मंः ।
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धम्म
पञ्चदशे जिने, आा० म० अ० स० आ० चू० | प्रब० ती० । घ० । अनु० ( एतद्वक्तव्यता 'धम्मजिण 'शब्दे वक्ष्यते ) श्राचाय्यैदृस्य शिष्ये शारिमल्यस्य गुरौ काश्यप गोत्रोत्पन्ने स्वनामख्याते प्राचार्ये, ' पेरस्स णं अजसीदस्स कालवगुत्तस्स अजधम्मे घेरे अंतेवासी कासवगुत्ते । कस्प० २ अधि० ८ क्षण । " धम्मं पि भ कासवं वंदे ।” कल्प० २ अधि० ८ कण । श्राचार्य्यहस्तिनः शिष्ये श्राचार्य्यसिंहस्य गुरौ सुव्रत गोत्रे स्वनामख्याते भाचाय्यें, " येस्स णं अजदस्थिरस कासवगुत्तस्स अज्जधम्मे थेरे अंतेवासी सुयगोसे । " कल्प० २ अधि० कृण । " वंदामि जधम्मं, सुब्वयं सीललकि संपनं । कल्प० २ अधि० ८ ऋण विराटविषय. सिद्धपुरनगरस्थे खनामरूपात ग्रामची व पुं० [सं०] २ तव । धनुषि, " कोयमं गंडीवं धम्मं धयं सरासणं चा वं । " को० । ज्योतिषोक्ते लग्नान्नवमस्थाने च । न वाच० । विषयसूची
39
i
(१) धर्मधर्मिणोरेकान्त मेदस्वीकारे विप्रतिपतिः । (२) आत्मघाऽऽदेश्चैतन्यरूपाऽऽदयो धर्मिणोऽत्यन्तं व्यतिरिक्का अपि समवायेन संबद्धाः सन्तो धर्मधर्मिव्यपदेश इति परमतनिराकरणम्।
धर्मानुरूपो धर्मीति प्रतिपादम् । धर्मशब्दार्थनिरूपणम् ।
लोकोत्तरधर्म प्ररूपणम् । दृश्यासार्थनिर्देशः ।
(३) ( ४ )
(२७१०) अभिधान राजेन्द्रः |
(५)
(६)
(७) पापनिरूपणम् ।
(८) रूज्यभाव भेदेन धर्मस्य द्वैविध्यम । (ए) नामस्थापनाव्यनावधर्माणां नानात्वनिरूपणम् । (१०) धर्मस्य (११)स्य विद्वानि । (१२)प्रतिपादन
सा
(१३) मे धर्मानधिकारिणस्तेषां विचारः । (१४) सद्धर्मप्रणयोग्यतारूपणम् ।
(१५) धर्माधिकारिणां प्ररूपणम् ।
(१६) प्रति तेषां दुःखप्रतिपादनम्। (१७) धर्माभिमुखीकरणम् ।
(१८) उपदेशालय
(२१) भ्रमरदृष्टान्तेनादतग्रहणं प्रतिपाद्य तन्निराकरणम् । (२२) धर्मस्य मोककारणत्वम् । (२३) ममनुज देवाला सरगुणप्राप्तेराश्यतावणं
नम् ।
(२४) धर्मभ्रष्टस्यैहिकामुष्मिक दोषाभिधानम् । (२५) यदभिसन्ध्य धर्माऽऽख्यानं तन्निरूपणम् । (२३) समपरीकृकादिमाचप्रतिपादनम्। (२७) धर्मपाइ दिरूपरूपनिरूपणाम
(२८) साधूनामाचरणीयानाचरणम्। (२१) धर्मविचारे सूक्ष्मबुराश्रयणीया । (३०) संततिप्रतिपातपापकर्माधर्मस्थि सत्यधर्मस्थितत्वापादनम
धम्मकत्ता
धर्म्य - त्रि० । धर्मादनपेतः, धर्मेण प्राप्यो वा यत् । धम्मंयुक्ते, धर्मलज्ये च । वाच० । उत्त०] धर्मः कमाऽऽदिलक्षणः, तस्मादनपेतं धर्थम् प्रय ६ द्वार जिन भाषाऽऽदिलक्षणे ध्यानभेदे, न० । श्रव० ४ अ० ।
धम्मर - धर्मपुर - न० - न० | स्वनामख्याते पुरभेदे, दर्श• १ तत्व धम्मंग पर्याङ्ग ६- न० । धर्मस्य कुशलाऽऽत्मपरिणामविशेषस्याङ्गमवयवः कारणं वा धर्माङ्गम् । धर्मस्यावयवे, धर्मस्य कारणे च । " धर्माङ्गख्यापनार्थे च दानस्यापि महामतिः । (३) " हाल २७ अष्ट० ।
(१६) पदार्थनि
(२०) धर्मार्थे गुरुशिष्ययोः प्रवृत्तिर्येनोपायेन प्रति धर्कयि धर्मकादति त्रिः धर्मे फाड़ा संजाता ऽस्येति
तनिरूपणम् ।
धर्मकार्झक्षतः । धर्मेच्छावति, तः।
1
धम्मकत्ता-धर्मकर्ता - त्रि० । धर्मानुष्ठानविधायक, दर्श० । गुरोः स्वरूपमाविष्कुर्वन्नाह
धम्पन्नु धम्मकत्ता य, मया धम्मपरायणे । सना धम्मचत्य-देओ भयर गुरू ॥ ४२ ॥ धर्मशोधकर्ता च सदा धर्माधिका दि स्वपरोपकारकरणक्षमो विशेषेण भवति । यत उक्तम्- " गुगासुस्वयमपि माझ्या न सोहर, नेहविहरिणो जह पर्दवो ॥ १ ॥ " सदा सर्वकाल धर्मपरायो धर्मानुष्ठायामिद र्तते यस्तस्थोनयलोकविरोधकत्वात् । उक्तं च-" से दिया
धम्मंतराय धर्मान्तिकत्रित विध्या
स्ति येषु तान्यन्तरायिकाणि, धर्मस्य चारित्रप्रतिपत्तिलकस्यान्तरायकाणि धर्मातराधिकाणि । बोर्यान्तरायचारिश्रमोहनीयभेदे " धम्मंतराश्याणं कम्माणं । " ज०६ श० ३१ ३० ।
धम्मंतराय - धर्मान्तराय - पुं० । धर्मविधते, ग०
अथ धर्मान्तरायमाश्रित्य प्रस्तुतमेव निरूपयतिसीलदाणजावण-चढम्मंतरायनयभीए । जय बहू गीयत्था, गोयम ! गच्छं तयं जखियं ॥ १०० ॥ दानं शीलं तपो भावना, एतेषां द्वन्द्वः, ता एव चतस्रो विधाः प्रकारा यस्य दानशील तपोभावनाचतुर्विधः सूत्रे च बन्धानुलोक्यापत्ययनिर्देशः। एवंविधो धर्मः तस्यान्तरायो विष्ण तस्माद्ययं तेन भीताः साशङ्का यत्र गच्छे बहवो गीता - र्था भवन्ति, हे गौतम ! स गच्छो नणितः । इति गाथाछन्दः ॥ १०० ॥ ग० २ अधि० ।
धम्मंत्रास (ए) - धर्मान्तेवासिन पुं० । अन्ते समीपे वस्तुं शीलमपेत्यस्तेषासी धर्मान्तेवासी प्रवासी शिये स्था० १० वा० । धर्मप्रतिबोधनतः शिष्यो धर्मार्थतयोपपन्नो वा शिष्यो धर्मान्तेवासी । शिष्यभेदे स्था० ४ ० ३ ० । श्रहं णं तुभं धम्मंतेवासी । " शिल्पार्थग्रहणार्थमपि शिष्या भवन्तीत्यत उच्यते धर्मान्तेवासी । भ० १५ श० ।
fr
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धम्मकत्ता
या राश्रो वा एगो वा परिसागश्रो वा सुते वा जागरमाणे वा । तथा सच्चेभ्यो धर्मशास्त्रार्थोपदेशको गुरुरुच्यत इति गाथार्थः ॥ ४२ ॥ दर्श० ४ तत्र ।
39
धम्यकरण-धर्मकर-१०
कुशलानुष्ठानाने पा०
२ विव० ।
धम्पकमधर्मकप ० "पापाज मिसेहो | जाज्जयणाईणं, जो अ बिही एस धम्मको ॥१॥ इत्युकणे सम्यग्धर्मपरिशोधनोपायेषु प्रथमे उपाये, पं० ० ४ द्वार (तद्वक्तव्यता धर्मपरीकाऽवसरे 'धम्म' शब्देऽनुपदमेव गता )
चम्पकड़ा पर्वकथा-श्रीमंतीरयतीति धर्मः, तस्य कथनं कथा धर्मकथा | ओघ० । ध० । धर्मसम्बकाया वार्त्तायाः कथनं धर्मकथा | उत्त० २६ अ० । धर्मदेशनाऽऽदि कथा ३५धि । अहिंसाऽऽदिधर्मप्ररूपणा धर्मकथेति । श्र० । यत् पुनः इद परत्र च स्वयं च कर्मविपाकोपदर्शनं सा धर्मकथेति । वृ० १३० ३ प्रक० । धर्मकथा धर्मोपायकथा । उक्तं -" दयादान कमाऽऽद्येषु धर्माङ्गेषु प्रतिष्ठिता । धर्मोपादेयसागमयं बोराच्या दिरूपाऽवसेयेति । स्था० ३ ठा० ३ उ० ।
धर्मकामेव दर्शयति
(२७११ ) अभिधानराजेन्द्र
"
अस्थि लोए, अस्थिय अलोए, एवं जीवा, अजीवा, बंधे, मोक्खे, पुणे, पावे, यासवे, संवरे, वेयणा, णिज्जरा, अरिहंता, चकट्टी, बलदेवा, वासुदेवा, नरका, ऐरश्या, तिरिक्खजोणिया, तिरिक्खजोगिणी, माया, पिया, रिसओ, देवा, देवलोआ, सिद्धी, सिद्धा, परिणिन्त्राणं, परिणिच्या अस्थि पाणाइवाए, मुसावाए, दिपादाणे, मेहुणे, परिग्गदे । कोई, पाणे, माया, सोने० जाव विश्वासरास स्थि पाणाइवायवेरमणे, मुसावायवेरमणे, अदिसादाण वेरमणे.मेहुगावेरमणे, परिम्माद्दरमा जान मिच्छासविवेगे सस्था अस्थिवियति सत्यजावं णत्थि त्ति वयति, सुचिमा कम्मा सुचिमा फला तदुकमा फिन्नाभवंत फुपुला पाने, पचाति जीप सफले पाप श्र०
०
धम्मं दुहिं आवर वं जहा अगारप अगगारम् च अणगारपम्पो तात्र इह खघु सम्बो सभ्यता मे भविता अगारातो गगारिसबाओपाओ देणं, साओ मुसावायाओ वेरमणं, साओ दिन्नादारणाओ वेरमणं, सव्वा मे
गाओ रमणं मन्त्राओ परिग्गहाओ वेरमणं, राईभोअणाओ वेरमणं; अपमान अणगारलामाइ धम्मे पाते, एस धम्मस्स सिक्खाए जबट्टिए निग्ये वा निगंथी वा विहरमाणे आणाए आराहए जवति । अगारधम्मं
धम्मकहा दुवालसपि इक्व तं जहा पंच बनाई, तिथि गुणवयाई, चत्तारि सिक्खावयाई । पंच अणुब्वयाई । तं जहा थूलाओ पाणावाया ओ वेरमणं, यून्झाओ मुसावायायो रमणं, धूला अदिन्नादाणा वेरमणं,सदार संतोसे इच्छापरिमाणे तिष्ठ गुण जास्यदंग र मणं, दिसिव्ययं, उवजोगपरिभोगपरिमाणां । चत्तारि सिक्खाबयाई से जहां सामाअं देसावगामियं पोसहोपवासे, अतिहिसंविभागे, अपच्छिमा मारणंतिया संलेहणा भूमछाराहणा, अपमाउसो ! अगारसामा घम्मे पाते।
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औ० भ० । उपा० ।
भेदतो धर्मकथामाद
धम्मका बोधव्वा च लिहा परपुरिसपाना । क्वणि विपणि संवेगे चेत्र निम्मे || धर्मविषया कथा धर्मकया. असो मोया चतुर्विधा धीरपुरुष प्रप्ता, तीर्थकर गणधर प्ररूपितेत्यर्थः । चातुर्विध्यमे - बाssढ आक्षेपणी, विक्केपणी, संवेगश्चैव, निर्वेद इति । सूचनात् सुषमिति न्यायात् संजनी, निवेदन चैवेत्युपन्यासगाथाकरार्थः ॥ ६६ ॥ दश० ३ श्र० ।
आसां कथानां या यस्य कथनीयेत्येतदाहवेणवस्य पढया कहा अवणी कया । तो समय हियत्थे, कहिज्ज विक्खेवणी पच्छा ॥ १०॥ विनयेन चरति वैनयिकः शिष्यस्तस्मै प्रथमतया श्रादिकथनेन, कथा तु श्राकेपणी उक्तलक्षणा कथयितव्या । ततः स्वसमायें सति तस्मिन् कथयोषणमुक्षणाच पधादिति गायार्थः ॥ १० ॥
किमित्येतदेवमित्याह
अक्खेवण अविस्वत्ता, जे जीवा ते अनंतिम त्रिक्खेवणीऍ जज्जं, गाढतरागं च मिच्छत्तं ॥ ११ ॥
आपल्या कथया आकिता आवर्जिता आकेपण्याक्षिप्ता ये जीवास्ते लभन्ते सम्यक्त्वम् । तथा आवर्जन शुभ भावस्य मियावदनीचे योपियां नाज्यं सम्य स्कन्धविपरिणा मभावात् गाढतरं वा मिध्यात्वं जगमतेः परसमय दोषानवबोधा निन्दाकारिण एतेन द्रव्य इत्यभिनिवेशेनेति गाथाथेः ।। ११ ।। दश० ३ ० ।
धर्मकथाकर्तुः किं फलं स्यादतस्तत्फलमाहधम्महार णं भंते ! जीवे किं जाय ? | धम्मकड़ाए पं निज्जरं जणवड़, आगामिस्स जना कम्पं निबंध ||२३||
धर्मकथया व्याख्यानरूपया निर्जरां जनयति । पाठान्तर तश्चन्द्रवचनं प्रज्ञावयति प्रकाशयति । उक्तं हि -"पावयणी धम्मकही, बाई नेमित्तिय तवस्सी य। विज्ञासिद्धो य कवी, अहेब पभावया भणिया ॥१॥" ( श्रागमिस्स भद्दतार सिसुत्रत्वादागमिष्यदित्यागमिकालभावि भद्रं कल्याणं यस्मिंस्तथा तस्य नावस्तथा यदि या आगमिष्यतःस्थानम आगामि कालस्तस्मिन्
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१२७१२) भाभवानराजेन्द्रः।
धम्मकहा
धम्मकहा
शश्वद्भातया मनबरतकल्याणतयोषयक्तितं कर्म निबध्नाति
धर्मकथा यतीनां कीरशीत्याहशुनानुवन्धि शुभमुपार्जयतीति जावः ॥ २३॥ उत्त० २६ १०।। सज्काईसंतो, तित्थयरकुशाणुरूवधम्माणं । "गयरागदोसमोहा, धम्मकहंजे करति समयन्न।
कुज्जा कहं जईण, संवेगविहाणं विहिणा।। अणुदियहमवीसंता, सबपावाण मुञ्चति।" महा० ३५०।
स्वाध्यायाऽदिश्रान्तः संस्तीर्थकरकुलानुरूपधर्माणां मतथा च
हात्मनाम् , किमित्याह-कुर्यात् कथा यतीनां संवेगविवर्मनी संखाइ धम्मं च वियागरंति,
विधिनासनचलनाऽदिनोति गाथार्थः । पं.व. ३द्वार। बुधा हु ते अंतकरा नवंति।
पुरुषण केवलस्त्रीणां स्त्रिया चकेवलपुरुषाणामने धर्मकथा ते पारगा दाएह वि मोयणाए,
न कर्तव्या। तथा चोक्तम्संसोधितं पराहमुदाहरंति ॥ १०॥
बुढाणं तरुणाणं, रत्तिं अज्जा कहेइ जा धम्म । सम्यक व्यायते परिज्ञायते ययासा संख्या,सबुद्धिस्तया स्वतो
सागणिणी गुणसागर!,पमिणीया होइ गच्छस्स।।११६।। धर्म परिकाथाऽपरेषां यथावस्थितं धर्म श्रुतचारित्राऽऽस्यं ब्यागृ.
खुकानां स्थविराणां, तरुणानां यूनां पुरुषाणा केवलाना. णन्ति प्रतिपादयन्ति । यदि वा-स्वपरशक्ति परिक्षाय पर्षदं
मकेवनानांबा (रति ति)"सप्तम्या द्वितीया"३.१३७१ था प्रतिपाद्य चार्थ सम्यगवयुध्य धर्म प्रतिपादयन्ति, ते चैवं.
इति प्राकृतसूत्रेण सप्तमीस्थाने द्वितीयाऽऽदिविधानात् राविधा बुद्धाः कालत्रयवेदिनो जन्मान्तरसंचितानां कर्मणाम
त्रौ या प्रार्या गणिनी ( धम्मति ) धर्मकथां कथयति , तकरा भवन्ति । अन्येषां च कर्मापनयनसमर्थो जवतीति दर्श
उपसतणत्वाहिवसेउपिया केवलपुरुषाणां धर्मकथा कथपति-ते यथावखितधर्मप्ररूपकाद् द्वयोरपि पराऽऽत्मनो क.
यति , हे गुणसागर ! हे इन्द्रतते ! सा गणिनी गच्चस्य प्र. मपाशविमोचनया स्नेहाऽऽदिनिगडविमोचनया था करणनू.
स्यनीका भवति । अत्र च गणिनीग्रहणेन शेषसाध्वीनामपि तया संसारसमुहस्य पारगा जवन्ति । ते चैवभूताः सम्यक
तथाविधाने प्रत्यनीकत्वमवसेयमिति । ननु कथं साभ्यः केव. बोधितं पूर्वोत्तराविरुकं प्रश्न शब्दमुदाहरन्ति । तथाहि-पूर्व
लपुरुषाणामग्रे धर्मकथां न कथयन्ति? | उच्यते-यथा सा. बुद्धा पोलोच्य कोऽयं पुरुषः कस्य चार्थस्य प्रदणसमर्थो
धवः केवमानां स्त्रीणां धर्मकथां न कथयन्ति, तथा सा. ऽहं वा किनूतार्थातिपादनशक्क इत्येवं सम्यक परीक्ष्य व्या
भन्योऽपि केवलानां पुरुषाणामने धर्मका न कथयन्ति । कुर्यादिति । अथवा-परेण किञ्चिदर्थ पृष्टस्तं प्रश्नं सम्यक
यत उक्तं श्रीउत्तराभ्ययने-"नो इत्थीण कहं कत्ता हवा, परीक्योदाहरेत् सम्यगुत्तरं दद्यादिति । तथा चोक्तम-"मा.
से निम्गंथे, तं कहमिति च आयरियाऽऽह-निग्गंधस्स वसु यरियसयधारि-पणं प्रत्येण सरियमुणिपणं । तो संघमज्जयारे,
इत्थीणं कहं कहेमाणस्म बंभयारिस्म बंभचेरे संका वा कंखा बवहरि जे सुहं होति॥१॥" गीतार्था । यथावस्थितं .
बाबिगिच्छा वा समुप्पज्जेज्जा, भेदं वा लभेज्जा, उम्मायं वा में कथयन्तः स्वपरतारका भवन्तीति ॥ १० ॥ सूत्र.१ शु.
पाउणज्जा,दीहकात्रियं वा रोगायकं भवेजा,केचबिपनत्तानोबा १४ म०। (“ बोगविजय" शन्दे विस्तरतो वक्ष्यते)
धम्माओ भसिज्जा,तम्हा स्खलु नोश्थीणं कहं कहेजति ।"(नो
इत्थीणं ति)नो स्त्रीणामकाकिनीनां कथा कथयिता नवसुब्बसुमुणी भणाणाए तुच्छए गिलाइवत्तए एस वीरे | ति, यथेनं दशब्रह्मचर्यसमाधिस्थानमध्ये द्वितीयं ब्रह्मचर्यसपसंसिए अन्मे तिलोगसंजोगं एसणाए पवुचति-जं दुक्खं माधिस्थानं साधूनामुक्तं, तथा साधीनामप्येतद् युज्यते । त. पवेदितं शमाणवाणं तस्स दुक्खस्स कुसला परिम्ममुदा
साध्वीनां पुरुषाणामेव केवलानां कथाया अकथने भव. रंति इति कम्मं परिणाय सबसो जे अणएणदंसी से
तीति । तथा स्थानाङ्गेऽपि-"नो श्योणं कहं कहेत्ता हव।"
इदं नवब्रह्मचर्य गुप्तीनां मध्ये द्वितीयगुप्तिसूत्रम् । अस्य वृत्ति:प्रणएणारामे जे अणएणारामे से अणाणदंसी, जहा पु
नो स्त्रीणां, केवनानामिति गम्यते । कथां धर्मदेशनाऽऽदिलकएणस्स कत्थति तहा तुच्चस्स कत्थति जहा तुच्छस्स क- णवाक्यप्रतिबन्धरूपामित्यादि । यथा च-द्वितीयां गुप्ति साधवः स्थति तहा पुएणस्स कत्थति, अवि य हणे अगाइय- पालयन्ति तथा साख्योऽपि पालयन्ति, सा च साधीनां पुरुमाणे,पत्थं वि जाण सेयंनि एस्थि,केयं पूरिसे कंच गए,
षाणामेव केवलानामग्रे कथाया अकथने भवत्यतः प्रोच्या
ते, न केवल पुरुषाणां साध्या धम्मकथा कथयन्तीति गाएस वीरे पसंसिए, जे बछे पकिमोथए, उ अई,
थानन्दः ॥११६ ॥ ग० ३ अधि० । तिरियं दिसासु, से सब ओ सभपरिगणाचारी ण निष्प
तथा चछापदेया,वीरे से मेहावी जे अणुग्यापम खेयमे,जे य मुछजणखेत्तसुजबो-हसस्सविदवाण दक्ख समणीयो। घंधपमोक्खममेसी कुसले पुण णो बढेको मुक्के ॥१०२।। ईईओ वि य कान वि, अमंति धम्म कहतीओ। से जंच मारने जे चणारंजे, प्रागारमं च ण आरभे, मुग्धजनाः स्वल्पबुद्धि लोकास्त पथ केत्राणि बीजवपनभूउणं छाणं परिमाय सोगसमं च सव्यसो ॥१०३।। उद्देसो मयस्तेषु शुभबोधःप्रधानाऽऽशयः स एव सस्यं धान्यं, त. पासगस्स पत्थि बाले पुण णिहे कामसमणो असमित
सविद्वर्ण विनाशकरणं, तत्र दकाः पद्यः, प्राकृतत्वाचात्र
विनक्तिलोपः । श्रमण्य आर्यिका ईतय इव यथा तिहाधाः का. दुक्खे दुक्खी दुक्खाणमेव आवडं अपरियट्टइ ति वेपि ।
चन न सर्वा अटन्ति ग्रामाऽदिषु चरन्ति धम्मै दानाऽऽदिक प्राचा० १७०२ ० ६ उ० ।
कथयन्त्यो बुवाणा इतिगाथार्थः।
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धम्म कहा
पतदपि निराकर्तुमाह
एते चिय तं न सुंदरं जेण ताल परिसेहो । सिकं नसणार, कष्पपिए व माहाए || एकान्तेवासुन्द
सां साध्वीनां प्रतिषेधो निराकरणं, सिकान्तदेशनाया भागमकथनस्य, यथा प्रतिषेधः कल्पस्थितयैव गाथयेत्यर्थः । कल्पगाथामेवा
(२०१३) मन्निधानराजेन्द्रः ।
कुसमयसुईया महणो, विवोहयो भवियपुंडरीयाणं । धम्मो जिनपनतो, पकपणा कम्बो । कुलपतीनां कुखिनां मनो विनाशको थियोधको विकाशको मन्यकाणां मुक्तियोग्यप्रतिपा
धर्मो दानाssदिको, जिनप्रज्ञप्तो मुनीन्द्रगदितः, प्रकल्पयतिना निशाना, कथयितभ्यो वचम् न पुनः सा धयेति हृदयमिति गाथार्थः ।
मनु यदि ताहि संप पुणो न दिज्जइ, पकप्पगंथस्स ताण मुत्तत्यो । जाप दिलंत तया विप एस पटिसेहो ॥ साम्प्रतमधुना, पुनर्नैव दीयते वितीर्यते. प्रकल्पग्रन्थस्य नि. संन्यस्य तासामार्थिका सूत्रार्थ पदस्था सहितो
निधेयं सूत्रार्थः, उनयमिति हृदयम् । यदाऽपि वादीयते वितीर्यते स्म तदापि च तस्मिन्नपि काले, एष व्याक्यानकरणलक्षणः, प्रतिषेधो निवारणमिति गाथार्थः ॥ अमुमेवार्थान्तपूर्व दर्शा
हरिम्पी - ऍ किं च जाइ पिवत्तिणीए वि । एगोत्रिय गाढत्यो, नो सिट्ठो तु मुणियतत्ताए । सूचनात्सूत्रस्य हरिजिनापि धम्मंदावे प्रतिपक्षमात्रा, कि वायुवये पाकिनीप्रवर्तिता
महत्तरया न केवल मन्याभिरित्यपिशब्दार्थः । एकोऽपि च गाथार्थोऽनिधेयम्, आस्तां प्रभूत इत्यपेरर्थः, नो नैव शिष्टः कथितो मुणिततत्त्वया ज्ञातपरमार्थया । तथा च किल-" च किगं हरिपणगं ।" इत्यादिगाथायाः स्वार्थे पृष्टा हरिभद्रभ तया च कथित इति इति गाथार्थः ।
एवं ज्ञातजीवोपदेशमाह - बममा चरि, अतिसाथ तासिता । जीव ! जइ वा निवारिया, ता वारसु महुरवकेण ॥ बहु मन्यस्व भव्यमिदमिति संस्थाः, मेति निषेधे, चरित धम्र्मकधनलक्षणम, अवि सामार्थिकाणां, तस्माज्जीवाऽऽत्मन् ! यदि वा विकल्पार्थः, तिष्ठन्ति । निवारिता निषिद्धास्ततो वारय निषेधय, मधुरवाक्येन कोमलचचलेति गाथार्थः । जीवा० २७ अधि० ।
अमुणिय मुणी चरणा, केई .ज्जएहकाल समयम्मि । इत्यी केवली कहिंति धम्मं जयाभिरया || मुनीनामतिचरणा अविदितयतीशचारिशः केऽप्येके म आणि
समये
आ
६७६
बाधितानां कर्मादिकविशिष्टा है, भवाभिरताः संसारा। इसका इति गाथार्थः । पनि संगतमित्याह
सितामय परिपु - मकनपुरुयाण संमयं जम्हा । न इय धम्मकड़णम्पी, एए दोसा पसज्जति ॥ विकान्तामृत प्रतिपूर्ण पुट कानामागमा सं दपत्राणां संमतमजिप्रेतं, नेति निषेधे, इदमित्थं धर्मकथनं, मादित्येवं कथने प्रतिपादने माणा दोषा दूषणानि प्रसज्यते प्रादुर्भवन्तीति गाथार्थः । सानेचा55
इत्यिकदा अशी मज्जाडे वस्तपाऽऽगमे संका | पलिमयो दसवेका लियम्मि अनं इम जणियं ॥
धम्मकहा
-
स्त्रीषु केवलनारीषु कथा धर्मकथनम् इदं चोत्तराध्ययने द्विनितुःसमुतिः प्रत्य पदर्शनतोवरका का परिवह तासां मध्याह्न केवलानां यत्युपाश्रये श्रागमे आगमन मवस्थानतयाशार्थमेतानिः करिष्यतीत्येवं मन्दमकिपा पलिमन्थः स्वकायव्याघातः साधूनां तथा दशबैकालिके सम प्रसिद्धे अन्यदपरमिदं वक्ष्यमाणं प्रणितं तूकमिति गाथार्थः । तदेव श्लोकपञ्चकेनाह-विसाइयो, पण रसज्ञाय नरस्स भगवे मिस्स विसं ताल जहा ॥ जहा कुक्कडपोयस्स, निचं कुझलओ जयं । एवं तु बंजयारिस्स, इत्थीविग्गढ भयं ॥ हत्यापछि कमनामविगपियं । विवासनारि बंजवारी विजय ॥ अंग पच्चंगवणं, चारुह्नत्रियपेडियं । इत्थं तं न निज्काए, कामरागवित्र || चिराभित्तिं न निकाए, नारिं वा सुचलंकियं । भक्खरं पिव दहूण, दिहिं परिसमाहारे ॥ सर्वा अपि प्रकाष ।
यत एवमत आह
एतो चि केई पु-सूरिणो मोक्ख सोक्खतमिच्छा । सीप दिवा ते अहोमुहाऍ दिए । हु एतस्मादेव कारणातू, ३ केपि पुण्यभाजः पूर्वसुरयश्चिरन्तनाssचापोलिस निर्वानिलापनि आशिष मपि धर्मलानमपि न केवल धर्मकथामित्यपिशब्दार्थः, दुः पूर्वन्तः धाविकाथामिति शेषः अधोमुखा म्यग् स्ववक्रया दृष्ट्या लोचनेनेति गाथार्थः । अत्रापि जीवानुशिक्कामाह
सिद्धिवधूवर सुहसं-गलालसो जीव ! जइ तुमं ता मा । कहतुणिम् इत्यी अकालचारी ॥ सिद्धिवधूचर सुखलङ्गलाबसो मुक्तिकान्ताप्रधानाभिष्वङ्गलपटो,जीव ! प्राणिन ! यदि त्वं भवान् तस्मान्मा निषेधे, कथय
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(२७१४) अभिधानराजेन्द्रः।
धम्मकहा
धम्मघोस
पद च, नवान् जिनधर्म सर्वज्ञवृषम, अकालचारिणीषु प्रस्ता- ध्वस्तप्रज्ञाने पञ्चलिङ्गानि जाड्ये ॥१॥" इति च तद्वाक्यम् । वादागतासु स्त्रीषु नारीपुति गाथार्थः । जीवा २४ अधि० । आ० म० १ ० १ खरा । (यस्यां वसतो धमकथा शब्दः संयतीभिः श्रूयते, तत्र वस्तव्यं
धम्मकिरिया-धर्मक्रिया-स्त्री० । धर्मानुष्ठाने, यो वि०। न वेति । वस' शब्ने वक्ष्यते ) (अन्तहे धर्मकथा न कर्तव्यति · अंतरगिह ' शब्दे प्रथमभागे ८५ पृष्ठे
धम्मकुमार-धर्मकुमार-पुं० । नागेन्छगच्छीये विवुधप्रजसरिशि. गतम) ननु धाबकस्य धर्मकथनेधिकारोऽस्ति ?, अ- ज्ये, अयमाचार्यः विक्रमसंवत् १३३४ मिते विद्यमान आसीत् । स्तीति बमः, गीतार्थादधिगतस्त्रार्थस्य गुरुपरतन्त्रवचन- | शासिभरुचरित्रनाम ग्रन्थमरीरचत् । जै० ३० । स्व तस्यैव सूत्रार्थस्य कथने को नाम नाधिकार.. "पढ Uruar(M)-धर्माऽऽव्यायिन-पं० । धम्ममाश्याति भसुणे गुणेइ य, जणस्त धम्म परिकहेश्" इत्यादिवचनात् । नथा चूर्णि:-" सो जिणदाससावो अटुमिचाउद्दसीसुं उब.
व्यानां प्रतिपादयतीति धर्माख्यायी। धर्मप्रतिपादके, श्री० । घासं करेक, पुत्थयं च वाप।” इत्यादि । ध० २ अधिक।
सूत्र । ज्ञा। धर्मस्य अनरूपस्य कथा व्याख्या धर्मकथा । स्वाध्यायभेदे, स्था.
धर्मख्याति-त्रि.। धर्माद्वा ख्यातिः प्रसिद्धियस्य सः । ध५०३०। प्रवः । उत्त । ०। धर्मकथा ह्येवं स्वरूपतः मेंण प्रसिके, औः। " सुखं धम्मुवपसं, गुरुपपलाएण सम्ममवबुकं । सपरोवयार
धम्मगुज्झ-धर्मगद्य-न । धर्मरहस्ये, "श्दमत्र धर्मगुह्य, सर्व जणगं, जो मास्स कहिज धम्मत्थी।" इति । ध०३ अधि । धर्मप्रधाना कथा धर्मकथा । ज्ञाताधर्मकथाऽऽस्यस्य षष्ठः
चैतदेवास्य ।" षो०२ विव० । म्याङ्गस्य द्वितीये श्रुतस्कन्धे, ज्ञा० १ श्रु०१०।
धम्मगुरु-धर्मगुरु-पुं० । दीक्षाऽखाये, “स धर्मगुरुपूजकः।" तस्याधिकारार्थों यथा
हा. २५ अष्ट। दोच्चस्स णं नंते सुयक्खंघस्स धम्मकहाणं समएणं धम्मघोस-धर्मघोष-पुं० । मथुरास्थे पाश्वनाथस्य शिध्ये स्वनाजाव संपत्तेणं के अटे पसते । एवं वन जंबूधम्मकहाणं मण्याते प्राचार्य, ती कल्पदक्षिणमथुरास्थे स्वनामख्याते दस वग्गा पएणचा। ज्ञा० श्रु० १ वर्ग ? अ० ।
श्राचार्य, प्रा० . . . । महावीरस्वामिनः शिष्ये
स्वनामख्याते प्राचार्य, प्रा०.४०। आव०। विमल( अगामहिसी ' शब्दे प्रथमभागे ? पृष्ठे धर्मकथायाः
गणिशिष्ये स्वनामख्याते प्राचार्य, विमल गणिमधिकृत्यसर्वे वर्गाः)
"शिष्यो गकृपतिः प्रतापतरशिः श्रीधर्मघोषः प्रभुः।" दर्शक धम्पकहि (ण)-धभकथिन्-०। धर्मकथा प्रशस्ताऽस्या- ५ तव । कौशाम्बीनगरस्थे धर्मवसोराचार्यस्य शिष्ये स्वना. स्तीति धर्मकधी,शिखाऽऽदित्वादिन् । पाकेपणीबिकेपणीसंवेग
मख्याते प्राचार्य, आव०४ अ.। श्रा० चू० प्रा० क०। जननीनिवेदनीमकणां चतुर्विधां जनितजनमनःप्रमोद धर्म
आतुरप्रत्याख्यानप्रकीर्णकवृत्तिकारकस्य महेन्दसूरेगुरौ स्वकयां कथयति ,ध०२ अधि०। प्रव. प्रवचनप्रभावकभेदे,
नामख्याते प्राचार्य, प्रातुकास चाञ्चनगच्छीयो जयसिंहसूसंथा । नि• चू० । दश । पि।
रिशिष्यः। येन विक्रमसंवत् ११६३ मिते शतपदिका नाम ग्रन्थो आयपरसमुत्तारो, वित्थविवट्टी य होइ कहयंते ।
विरचितः । अस्य जन्म ११०८ वर्षे मरुदेशे आसीत्। जै००।
अन्योऽपि धर्मघोषमुरिर्नागेन्द्रगच्छे हेमप्रनसूरेः शिष्यः, सोमअन्नन्नाजिगोण य, प्याथिरया य बहुमायो ।
प्रभसूरेश्च गुरुः। अन्योऽप्येतनामा ऋषिमएडलस्तोत्रकर्ता जे. तीराश्रवाऽऽदिलब्धिसंपन्न आकेपणाविक्षेपणीसंवेगजननीनि.
इ.| चम्पानगरीवास्तव्ये स्वनामख्याते स्थविरे, का० १ श्रु. दनीनेदाच्चतुर्विधां धर्मकथां कथयन धर्मकथीत्युच्यते,तस्मिन् । १६ अ० तपागच्चस्थे देवेन्सूरेः शिष्ये स्वनामख्याते भाचा. धर्म कथयति प्रात्मनः परस्य च संसारसागरात समुत्तारो रथै, ग.४ अधिः । अयमाचार्यः सङ्काऽऽचार-कालसप्ततिनिस्तरणं भवति; तीथेविवृद्धिश्च, भवति, प्रभूतलोकस्य प्रव. | नामानी ग्रन्धी व्यधात्.विक्रमसंवत् १३२७ मितेऽयं मरिषदमा. ज्याप्रतिपत्ते तथा देशनाद्वारेण पुजाफन्त्रमपवरायान्यान्याभिग
पा. ३० । मगधजनपदस्थवसन्तपुरनगरस्थे स्वनामण्याते मेन अन्यान्यश्रावकबोधनेन पूजायां स्थिरता, बहुमानश्च कृतो
आचार्य, सूत्र०२७०६ अ०। प्रा. क०। वाराणसीनगरभवति । बृ० १ ० । धम्मकथाकथके, पिं०।
स्थे स्वनामख्यातेऽनगारे, प्रा. चू. ४ अ० । प्रा० क. । धम्मकाम-धर्मकाम-त्रि०। धर्मे शुतचारित्रलकणे कामो वा- ती। श्रावका चम्पानगरीनृमतोमत्रप्रभस्य स्वनामख्यातेमामग यस्य स धर्भकामः । धर्मवाञ्चगवति, त।
स्य, श्राव.४० । उन्नयिनीवास्तव्ये स्वनामण्यातेऽनगारे, धम्मकाय-धर्मकाय-पुंग धर्मसाधने शरीरे, "सुसिलिहाध.
श्राव.४ अ. श्रा० क. । विमलजिनस्य प्रपौत्रके शिष्य मकायपीमा वि।" धर्मसाधनशरीरवेदनेति । पश्चा०१७ विव०।
म्वनामख्याते स्थविरो, भ०।
तद्वक्तव्यता यथाधम्मकित्ति-धर्मकीर्ति-पुं० । स्वनामख्याते प्राचार्य, नं० ।
तेणं कालेणं तेणं समएणं विमनस्त अरहो पो" विधवरधर्मकीर्ति श्रीविद्यानन्दमूरिमुख्यबुधैः।"कर्म०२
पए धम्मघोसे णाम अणगारे जाइसंपर्छ । वम प्रो जहा कर्मः। "परिमतवरधर्मकीर्तिमुख्यबुधैः। " ध० र० । स्वनामख्याते चौकसूरौ, "वेदप्रामाण्यं कस्याचित्कबादः , स्नाने
केसिसामिस्स,जाव पंचहि अणगारस एहिं सकिं संपरिधमेच्छा जातिवादावोपः । सन्तापारम्नः पापहानाय चेति. बुमे पुयाणपुनि चरमाणे गामाणगामं दुइजमाणे जोगेक
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धम्मघोस
(२७१५) भनिधानराजेन्डः ।
धम्मऊयण
हत्यिणानरे पयरे जेणेव सहसंबवणे नजाणे तेणेव | धम्मजागरिया-धर्मजागरिका-स्त्री० । धर्मचिन्तायाम्, "सो उवाग , उवागच्छइत्ता अहापमिरूपं नम्गहं नग्गिएडइ, पुवावरकाले, जागरमाणो न धम्मजागरियं । " पं. प. ४ उग्गिएहत्ता संजमणं तवसा अप्पाणं जावेमाणे, जाव
द्वार | धर्मध्यानेन जागरिका धर्मजागरिका । कम्प०३ म.
धिक कण | धर्मध्यानानुस्मरणे, "धम्म जागरित्तप था।" विहरइ । भ० ११ श० ११ न०।।
धर्मध्यानलक्षणं जागरितुं, धातूनामनेकार्थत्वात, "माण वा धम्मचक-धर्मचक्र-न० । तीर्थकृतां धर्मप्रकाशकं चक्रं धर्मच- झाश्त्तप" धर्मभ्यानमनुस्मर्तव्यम् । वृ० १ ० १ प्रक०। कम । तीर्धकृतां पुरः पनप्रतिष्ठिते स्फकिरणचक्रे धर्मप्रका- धर्माय धर्मचिन्तया वा जागरिका जागरणं धर्मजागरिका। शके चक्रे, तच्च यत्र यत्र जगद्गुरुर्विचरति तत्र तत्र देवैर्नीयमानं
भ०१२ श.१०। धर्मप्रधाना जागरिका निकाकयेण बोधो गगनगतं गच्यतीति । प्रव०४० द्वार । प्रा० म०। प्रा.चू०।
धर्मजागरिका ! भावप्रत्युपेक्षायाम, सा चतशिलायां बाहुबलिना कारिते भगवत ऋषभदेवस्य ध. " किं कय किं वा सेसं, किं करणिज्जं तवं च न करेमि । मंप्रकाशके चकेत्र, पाव। भगवनस्तक्षशिलागमनमधिकृत्य पुवावरत्तकाले, जागरो भावपडिलेहो॥१॥" "कवं सब्सिडीए, पूर मह ददतु धम्मचकं तु ।" श्राव. १ " अहया को मम कालो, किमेयस्स चियं, प्रसारा अ०। "बाहुबलिना चिंतियं-कल्ले सब्बिलीए बंदिस्सामि त्ति बिसया नियमगामिणो बिरसावसाणा, भीसगो मच्च " निग्गओ,पभाए सामी गतो विहरमाणो अदिट्टे, अधिर्ति काऊण इत्यादिरूपा । "पुवावरत्तकालसमयसि नो धम्मजागरियं जहि जगचं बुच्छो,तत्थ धम्मचकचिंध कारिय, तं सवरयणा- जागरिता भवह।" स्था.४ ० २ ० । धर्मण कुमयं जोयणपरिमंमलं पंचजोयणुस्सियदं।" प्रा०म०१ ०१ लधर्मेण षष्ठयां रात्री जागरणं धर्मजागरिका । जन्मतः षष्ठे खराम। श्राव० । प्रा०चू० । "गयग्गपयए य धम्मचकेय।"| दिने जागरणमहोसवे, “छठे दिवसे धम्मजागरियं जागरे तक्षशिमायां धर्मचके । श्राचा. २ श्रु० ३ ० १५ अ० । ति।" कल्प०१ अधि० ५ क्षण। प्रति० । तक्षशिला यां बाहुबनिविनिर्मित धर्मवक्रम । ती धम्मजिण-धर्मजिन-पुं० । दुर्गती प्रपतन्तं सवसंघातं धारय४३ कल्प।
तीति धर्मः । तथा-गर्जस्थे जननी दानाऽऽदिधर्मपरा जातेति धम्मचकवट्टि (ए)-धर्मचक्रवर्तिन-पुं० । तीर्थकरे, प्रा. चू० धर्मः, स चाऽसौ जिनश्च धर्मजिनः । पञ्चदशे स्वनामस्याते १०।
जिने, ध० २ अधि० । तत्र सर्वेऽपि भगवन्त ईरशास्ततो धम्मचरण-धर्मचरण-न० । कात्याद्यासेवने,पं.व. १द्वार। विशेषमाह-" गम्भगए जं जणणी, जायसुधम्म सि तेण धम्म" धम्मचरण पहुच्च ।" जी०१ प्रति।
जिणो।" जगवति गर्जगते येन कारणेन विशेषतो जननी जातधम्मचिंतग-धर्मचिन्तक-पुं० । धर्मशास्त्रपारके सभासदे,
सुधर्मा दानदयाऽऽदिरूपशोजनधर्मपरायणा, तेन नामतो धम.
जिनः। प्रा०म०एस०स०कल्पा(एतद्वक्तव्यता 'तित्थपर' औ० । " धम्मचिंतए वा । " धर्मचिन्तको धर्मसंहिता शब्देऽस्मिन्नेव भागे १२६१ पृष्ठे अष्टव्या) "धम्मेणं भरहा परिज्ञातवान् सभासदः। शा० १६० १४ अ० । याज्ञवल्क्यप्र- दसवाससयसहस्साई सवाउयं पालश्ता सिके. जाव पभृत्यषिप्रणीतधर्मसंहिताश्चिन्तयन्ति,ताभिश्च व्यवहरन्ति येते | वीणे"। स्था०१०ठा।। धर्मचिन्तकाः । अनु० ।
धम्मजीवि (ए)-धर्मजीविन-पुं० । संयमैकजीचिनि, “णि. धम्मचिंता-धर्मचिन्ता-स्त्री. । धर्मा जीवाऽऽदिव्याणामनुयो.
ग्गथा धम्मजीवियो।" दश०६अ। गोत्पादाऽऽदयः स्वभावास्तेषां चिन्ताऽनुप्रेका, धर्मस्य वा श्रुतचारित्राऽऽत्मकस्य सर्वनाषितस्य हरिहराऽदिनिगदित.
धम्मजुवणकाम-धर्मयौवनकाल-पुं• । अन्त्यपुस्लपरावर्तधर्मेभ्यः प्रधानोऽयमित्येवं चिन्ता धर्मचिन्ता । स० १० सम्म
काले, अन्त्यद्रलपरावर्तकासो धर्मयौवनकालश्च कथ्यते । दशा। सूत्रार्थानुचिन्तनाऽऽदिनकणशुभचित्तप्रणिधाने, "न्ष्टुं
उक्तं च-" तुल्या परिणतिर्जिन-व्यक्तिषु यत्तदुच्यते । ति. पुण धम्मचिताए ।" ग०२ अधिः । स्था।
यसामान्यमित्येव, घटत्वं तु घटेचिव ॥ ५ ॥" कव्या०
२ अध्या। धम्मच्छेय-धर्मच्छेद-पुं० । " बकापुछाणेणं, जेणं न बहिजई।
| धम्मजोग-धर्मयोग-पुंगधर्मोत्सादे, धर्मसम्बन्धे च । "अत एव तयं नियमा । संभव अपरिसुकं, सोऊण धम्ममित्रो ।" इत्युक्तल करणे धर्मपरिशोधनोपायभेदे, पं०व०४ द्वार।
धर्मयोगात, तिनं तत्सिक्रिमाप्नोति ।" पो०३ विव०। धम्मजणणी-धर्मजननी-स्त्री०। धर्मदातृत्वेन प्रतिपन्नमातरि,
धम्मान्जिय-धर्मार्जित-त्रि० । धर्मेण कान्त्यादिरूपेणार्जितमुपायथा हरिभसूर्याकिनी महत्तरिका “ हरिभधम्मजणणी ऍ,
जितम् । धर्मेणोत्पादिते, "धम्मज्जियं च ववहारं ।" धर्मेण साकिं च जाणिपत्तिणीए वि।" जीवा०२७ प्राधि०। पञ्चा० ।
धुधर्मेणोत्पादितः । उत्त०१०। धम्मजस-धर्पयशम्-पुं०। कौशाम्बवास्तव्यस्य धर्मवसो- धम्मज्य-धर्मध्वज-पु.। धर्मचक्रवर्तित्वसूचके केतो, महेन्छराबार्यस्य शिष्य स्वनामख्याते प्राचार्य, प्रा. क० । आव०।
मजे । रा० । ऐरवते भविष्यति स्वनामख्याते जिन, ति। श्रा० चू० । महावीरस्वामिनः स्वनामख्याते शिष्ये, आव०४
प्रव. । स०। श्र० । श्रा० चू० । वाराणसीनगरस्थे स्वनामण्यातेऽनगारे, धम्मक्रयण-धमाध्ययन-न०। सूत्रकृताङ्गप्रथमथुतस्कन्धस्य भाव०४०। प्रा० चू•ाती।
धर्मप्रतिपादके नवमे ऽध्ययने, सूत्र० ।
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(२७१६) धम्मज्मयण
अभिधानराजेन्द्रः।
धम्माणि (ण) तथा च नियुक्तिकदाह
राऽऽदिरूपं बाह्यम् । आत्मनः स्वसंवेदनाग्राह्यमन्येषाम नुमेथ
माध्यात्मिकं तरवार्थसंग्रहाऽऽदो चातुर्विध्येन प्रदर्शितं संपतोऽधम्मो पुवुद्दिट्ठो, भावधम्मेण एत्थ अहिगारो।।
न्यत्र दशविधम् । तद्यथा-"अपायोपायजीवाजीवविपाकविरागएसेव होई धम्मं, एसेन समाहिमग्गो त्ति ॥१॥ भवसंस्थानाऽऽक्षा हेतुविचयानि चेति।" लोकसंसारविचय. (धम्मो पुबुद्दिको इत्यादि)ऽर्गनिगमनधारणलवणो धर्मः पूर्व योः संस्थानभवविनययान्तनांवानोदिष्टदशजेदेभ्यः पृथगप्राग् दशकाक्षिक श्रुतस्कन्धपष्ठाऽध्ययने धर्मार्थकामाऽऽख्येन- भिधानम् । तत्रापाये विचारो यस्मिंस्तदपायविचयम; एवमहिएः प्रतिपादितः । इह तु जावधर्मणाधिकारः । एष एव च न्यत्रापि योज्यम, पुष्टमनोवाकायच्यापारविशेषाणामपायः कथभावधर्मः परमार्थतो धर्मो भवति । अमुमेवार्थमुत्तरयोरप्यध्य- मनुमानं स्यादित्येवंभूतः संकल्पप्रबन्धो दोषपरिचर्जनस्य कुशलयनयोरतिदिशन्नाह-एष एव च नावसमाधिभावमार्गश्च भ. प्रवृत्तित्वादपायविचयम् । तेषामेव कुशलानां म्वीकरणमुपाय: वतीत्यवगन्तव्यमिति । यदि वा-एष एव च भाजधर्म एष एव स कथमनुमेयः स्यादिति संकल्पप्रबन्ध उपायविचयम्। अस. च भावसमाधिरेष एव च तथा भावमागों नवति, न तेषां पर- ख्येयप्रदेशात्मकसाकारानाकारोपयोगक्षणाऽनादिस्वकृतकमार्थतः कश्चिद्धरः। तथाहि-धर्मः श्रुतचारित्राऽऽरूप वान्त्यादि. मफरोपनोगित्वाऽऽदि जीवस्वरूपानुचिन्तनं जीवविचयम् । ध. लक्कणो वा दशप्रकारो भवेदू, भावसमाधिरप्येबंरकार एव ।
र्माधर्माऽऽकाशकालपुद्गलानामनन्तपर्यायाऽऽत्मकानामजीवानातथाहि-सम्यगाधानमारोपणं गुणानां कान्त्यादीनामिति स.
मनुचिन्तनमजीवविचयम्। मूत्रोत्तरप्रकृतिभेद भिन्त्रस्य पुलामाधिः, तदेव मुक्तिमार्गोऽपि ज्ञानदर्शनचारित्राऽऽस्यो भावध. त्मकस्य मधुरकटुफत्रस्य कर्मणः संसारिसम्वविषयविपाकमतया व्याख्यातयितव्य इति ॥ १ ॥ सूत्र १ श्रु० ६ ०।
विशेषानुचिन्तनं विपाक बिचयम् । कुत्सितमिदं शरीरकं शुक्र
शोणितसमुद्भूतमशुचिभृतघटोपममनित्यमपरित्राणं गदाशुचि, धम्मकाण-धर्म H )ध्यान-न । धर्ममाझा दिपदार्थस्व
न च विजतया सुशुचि, श्राधेयाशौच न किश्चिदत्र कमनीयतरं रूपपालोचन काग्रता । स० १ सम । धर्मभावं गतो धर्म्यः।
समस्ति, किम्पाकफोपभोगोपमाः प्रमुखरसिका विपाककटप्रा०चू०४ अ० धर्मः कमाऽऽदिदशलकणस्तस्माद नपेतं धये
वः प्रकृत्या भङ्गराः पराधीनाः सन्तोषामृताऽऽस्वादपरिपन्धिसर्वज्ञाऽझाऽनुचिन्तनम् । प्रव०६ द्वार । श्रुतचरणधर्मादनपेतं
नः सद्भिर्निन्दिता विषयाः, तद्भवं च सुख दुःखानुषति पुःखधर्म्यम् । स्वा०४ग०१ उ०। बाझाऽऽध्यात्मिकनावानां याथा
जनकं च नातोलोगिनां तृप्तिः। न चैतदात्यन्तिकमिति नात्राss. त्म्यं धर्मस्तस्मादनपेतं धर्म्यम् । सम्म ३ काराम । तदेय
स्था विवेकेनाऽऽधातुं युक्तेति विरतिरेवातः श्रेयस्कारिणीत्याध्यानं धर्म (W) ध्यानम् । भ्यानभेदे, भौ० । ग।
दिबिरागहेतुचिन्तनं वैराग्यवित्रयम्।प्रेत्य स्वकृतकर्मफरोपभोतस्वरूपं यथा
गाथै पुनः प्रादुर्भावो नवः। स चारघट्टघटीयन्त्रबन्मूत्रपुरीषान्त्र. * ঘনমানঘাবৗদ্ভু,
तन्त्रनिवदुर्गन्धजठरपुरकोटराऽऽदिश्वजनमावर्तनं, न चात्र बम्धप्रमोकगमनाऽऽगमतुचिन्ता ।
किं चिद् जन्तोः स्वकुतकर्मफलमनुभवतश्चेतनमचेतनं वा सहापञ्चेन्द्रियव्युपरमश्च दया च नूते,
यभूतं शरणतांप्रतिपद्यत इत्यादिभवसंक्रान्तिदोषपर्या लोचनं भ. ध्यानं तु धर्ममिति संप्रवदन्ति तजनाः ॥१॥" दश०१०। बविचयम् । नबनवननगसरित्समुद्रभरुहाऽऽदयः पृथ्वीव्यवस्थितच्चतुर्विधम
ताः, साऽपि घनोदधिधनवाततनुवातप्रतिष्ठा.तेऽध्याकाशप्रतिधम्मकाणे चनबिहे पन्नत्ते । तं जहा-प्राणाविजए, अ-1 टाः,तदपि स्वात्मप्रतिष्ठं, तश्चाधोमुखमलकसंस्थान वर्मयन्त्यधो वायविजए, विवागविजए, संगणविजए ।
लोकमित्यादि संस्थानानुचिन्तनं संस्थानविचयमा अतीन्द्रिय अथ धर्म चतुर्विधमिति स्वरूपेण चतुषु पदेषु स्वरूपाक्षणा
स्वाकेतूदाहरणाऽऽदिसतावेऽपि बुद्ध्यतिशयशक्तिविकलैः परलोअम्बनानुप्रेक्षालवणेष्ववतारो विचारणीयत्वेन यस्य तच्च
कबन्धमोक्षधर्माधर्माऽऽदिभाववत्यन्त दुःखषोधेवाप्तप्रामाण्यातुम्पदावतारं चतुर्विधस्यैव पर्यायोऽयमिति । कचित् "चउ
तू तद्विषयं तद्वचनं तथैवेत्याझाविचयम् । श्रागमविषयप्रतिपप्पडोयारं " इति पाठः । तत्र चतुर्षु पदेषु प्रत्यवतारो
सौ तर्कानुसारिबुद्धेः पुंसः पाद्वादमरूपकाउगमस्य कषच्छेदयस्येति विग्रह इति । स्था० ४ ग.१००। ('झाण'
सापशुद्धिसमाश्रयणीयत्वगुणानुचिन्तनं हेतुविचयम् । पतञ्च शब्देऽस्मिन्नेव भागे १६६३ पृष्ठे व्याख्यातम) उक्तंच
सर्व धर्मध्यानं, श्रेयोदेतुत्वात् । एतच "संवररूपमशुभाश्रवः " आगमनवपसेणं, निसमाओ जं जिण प्पणीयाणं । भा
त्यनीकत्वातू"पाश्रवानरोधः संघर"इति वचनान् । गुप्तिसामिति वाणं सद्दहणं, धम्मकाणस्स तं सिंग ॥ १॥" इति ।
धर्मानुप्रेकाऽऽदीनां चाऽऽश्रवप्रतिबन्धकारित्वात् । अयमपि जी. तवार्थश्रद्धानरूपं सम्यक्त्वं धर्मस्य लिङ्गमिति हृदयम् ।
बाजावाच्यां कथञ्चिदनिन्ना एव, एकान्त दोषोपपत्ते । न चा(स्था)। अथ धर्मस्याऽऽम्बनान्युच्यन्ते-" धम्मस्स ण
यमेकान्तबादिनां घटते, मिथ्याज्ञानान्मिथ्याज्ञानस्य निमि. झापस चत्तारि श्रालंबणा पत्ता । तं जहा-बायणा, प
त्तमनुपपत्तः । संबरशुधिस्तुः सवदेशभेदोत्पातपालेश्याबत्रामिपुच्छणा, परियट्टणा, अणुप्पेहा।" (स्था०) अथानुप्रेक्षा
ऽऽधानमप्रमत्तसंयतस्यान्त मुहूर्त कालप्रमाणं स्वर्गसुखनिबन्धसच्यते-"धम्मस्स ण माणस्स चत्तारि अणुप्पेहाभो पन्नत्ता
नमेतर्मध्यानं प्रतिपत्तव्यम् । सम्म० ३ काण्ड । श्रा० चू० । यो।तं जहा-एगाणुप्पहा,अणिश्चाणुप्पहा,प्रसरणाप्पहा.सं
(विस्तरतो वक्तव्यता 'काण' शब्देऽस्मिन्नेव जागे १६६१ पृष्ठे ) साराणुप्पेहा ।" स्था०४ग०१ उ. । औ०न। प्रचधम्मज्काणि (ए)-धर्मध्यानिन्-पुं०। धर्मध्यानवति, "जिभाव०॥ तच्च विविधम्-बाह्यम्, आध्यात्मिकं च । सूत्रार्थप णसाहुगुणुकित्तण-पसंखणादाणविणयसंपन्नो । सुनसीबयोलोचनं, दृढवतता, शीलगुणानुरागो, निभृतकायबागव्यापा- संजमरो, धम्मकाणी मुणेश्रब्धो ॥१॥" श्राव०४०।
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धम्मभागोवगय
(२७१७) अन्निधानराजेन्डः।
धम्मत्थकाम
धम्मकाणोवगय-धर्मध्यानोपगत-त्रि० । धर्मध्यानयुक्त, दर्श, सम । तद्वशीकरणात् तत्फलपरिजोगाच्च धर्मनायकः । जी. ४तव
३ प्रति । तीर्थकरे, कल्प०१ अधि०१क्षण | रा०।"धम्मधम्मट्ठ-धर्मार्थ-पुं। धर्मः श्रुतचारित्राऽऽख्यस्तेनार्थः प्रयोजन
णायगाणं ।" इह धर्मोऽधिकृत एव,तस्य [नायकाः] स्वा
मिनः, तलनकायोगेन, तद्यथा-तद्वशीकरण नावात् तदुत्तमाम धर्महेतुके प्रयोजने, सुत्र० १ श्रु० २०२ उ० धर्मनिमि
वाप्स्तत्फल परिभोगात्तद्विघातानपपत्तेः । तथाहि-एतद्वशिनो ते, श्राचा०१ श्रु० ५.१ उहा । धर्मश्चार्थः,परमार्थतोऽ
भगवन्तो विधिसमासादनेन विधिनायमाप्तो नगवतिः, तथा न्यस्यानर्थरूपत्वात् । सूत्र० १ श्रु. २ ० ३ उ० । तस्यैव स.
निरतिचारपरिपालनतया पालितश्चातिचारविरहण, एवं यथो द्रियमाणत्वात् (सूत्र०१श्रु०२१०२ उ० ) धर्मार्थः । सू.
चितदानतो दत्तश्च यथाजव्यम, तथा तत्रापंकाभावेन नामीषां १०१ श्रु० १६ अ।धर्मरूपेऽर्थे, " जे धम्मटुं वियागरे। "
दाने वचनापेका,एवं च तमुत्तमावाप्तयश्च भगवन्तः प्रधानक्षाजन्तुनां धर्मरुपमर्थ व्याकुर्वन्ति ये धर्मप्रतिपत्तियोग्या इत्य
यिकथावाप्त्या तीर्थकरत्वात्प्रधानोऽयं जगवतांतथा परार्थर्थः । सूत्र० १ श्रु०१५ अ०।
संपादनेन सवार्यकरणशीलतया, एव होनेऽपि प्रवृत्तः, अश्यबोधम्मढकाम-धर्मार्थकाम-पुं० । धर्मः चारित्रधर्मादिस्तस्यार्थः प्र
धाय गमनाऽऽकर्णनात् । तथा तथाजव्यत्वयोगात अत्युदारमेयोजनं मोक्षः, तं कामयतीचति विशुद्धविहितानुष्ठान करणे- तदेतेषाम्। एवं तत्फलपरिभोगयुक्ताः मकलसौन्दर्यण निरुपम नेति धर्मार्थकामः । मुमुक्को, दश. ६ अ. । धर्मार्थकामेषु, रूपाउदि भगवतां, तथा प्रातिहार्ययोगात् नान्यपामेतत्.पवमु. दश०६अ।
दारयनुभूतेः समग्रपुण्यसनारजेयं, तथा तदाधिपत्यतो ना. धम्मटवित्तेहा-धर्मार्थविचेहा-स्त्री० । धर्मनिमित्त काव्योपा- वात् न देवानां स्वातन्त्र्येण, एवं तद्विघातरहिता प्रबन्ध्यपुण्यजनचेपायाम, "धर्मार्थ यस्य वित्तेहा, तस्यानीहा गरीय.
बी जत्वात् पतेषां स्वाश्रयपुष्टमतत्, तथा अधिकानुपपत्तेनासी । प्रक्षालनाद्धि पङ्कस्य, दूरादस्पर्शनं वरम् ॥ ६ ॥" हा०४
तोऽधिकं पुए, एवं पापवयभावाद् निर्दग्धमेतत, तथाऽहेतु. अष्ट । प्रति।
कविधातासिकेः सदा सवाऽदिभावमे । एवं धर्मस्य नायका धम्मवाण-धर्म (य) स्थान-न । धर्मश्चासौ स्थान धर्मस्था
धर्मनायका इति ॥ २२॥ ल. ।
धम्मणाह-धर्मनाथ-पुं० । पश्चदशे स्वनामस्याते जिने, “श्री. नम् । धर्मरूपे आलये, “धम्मट्ठाणे चिया उजे परमे ।" दश. १ भ० । धर्मादनपेतं धर्मम्, तदेव स्थानम् । उपशमप्रधाने
धर्मनाथमानम्य, रत्नवाहपुरे स्थितम । तस्यैव पुररत्नस्य, क
पं किञ्चिद् ब्रवीम्यहम् ॥१॥" ती०१६ कल्प। द्वितीये क्रियास्थानभेदे, सूत्र०२ श्रु०२ अ.। तथा च क्रि. यास्थानस्याधर्मस्थानधर्मस्थानधर्माधर्मस्थानभेदेषु । द्वितीय
धम्मणिप्फत्ति-धर्मनिष्पत्ति-स्त्री० । धर्मसिकी, षो० ३ विवः। धर्मोपादानभूतं पक्वमाश्रित्य पुरुषविजयविभताद वक्ष्यति । धम्पणिरुच्छाह-धर्मनिरुत्साह-पुं० सदनुष्ठाननिरुद्यमे, "ण. सूत्र. २ धु०२०।
हुधम्मणिरुच्छाहो, पुरिलो स्रो सुवलिश्रो वि।" सूत्र. १ धम्महि (ण)-धर्मार्थिन-पुंग। धर्मः श्रुतचारित्राऽऽस्यस्तनाओं| धर्मार्थः। सूत्र०२७०१० धर्मः भुतचारित्राऽऽण्यस्तेनार्थः प्रयो-1 धम्म-धर्मऊ-पुं० । धर्मवेदिनि, षो० विव० । सकलशाजन,स एवार्थस्तस्यैव सन्निरयमाणस्वाद् धर्मार्थः, स यस्या- स्त्रार्थवेदिनि च । दर्श०४ तस्व। स्तीति धर्मार्थी । सूत्र.१ श्रु०२ अ०२ उ०। धर्मेणार्थों, धर्म
धम्मतत्त-धर्मतष-न। धर्मपरमार्थे, " एतदिह धर्मतस्वम्।" एवं वाऽर्थः परमार्थतोऽन्यस्यानर्थरूपत्वाद् धर्मार्थः, स विद्यते यस्याऽसौ धर्मार्थः। धर्मप्रयोजनवति, सूत्र०१ श्रु.५ अ.१०।
घो०३ विव।। धर्मस्वरूपे, पो ३ विव. । “लिलान्येतानि
धर्मतत्वस्य।" षो३ विव०। 'प्रतिषिद्धो धर्मतस्वः ' धर्मस्वजी० "धम्मही धम्मविऊ।"धर्मः श्रुतचारित्राऽऽख्यस्तेनार्थः,
रूपवेदिन्निः । षो० ६ विक०। स एवार्योधर्मार्थः स विद्यते यस्याऽसौ धर्मार्थी । न पूजाऽऽद्यर्थ क्रियासु प्रवर्तते, अपि तु धर्मार्थम् । सूत्र.१ श्रु. १६ ० ।
धम्पतित्थ-धर्मतीर्थ-न । तीयते संसारसागरोऽनेनेति तीर्थ, "धम्मट्ठी उवहाणवीरिए ।" सूत्र. १७०२ अ०२ २० । शिव
धर्म एव धर्मप्रधानं वा तीर्थ धर्मतीर्थम् । धर्मरूपे तीथै, धर्मसुखानिलावितया पनपातपरिहारेण पूर्यापरपालोचके,
प्रधाने तीर्थ च । श्रा० म०२ अ ध०। ल। दर्श०५ तव । परलोकभीरौ च । पं०व०।
धम्मतित्थयर-धर्मतीर्थकर-पुं। तीर्यतेऽनेनेति तीर्थ,धर्मप्रधानं धर्मार्थितायाः फलम्
तीर्थ धर्मतीर्थ, धर्मग्रहणाद् अव्यतीर्यस्य नद्यादेःशाक्याऽदि. धम्मत्यी दिहत्थे, दढो व्व पंकम्मि अपमिबंधाओ।
सम्बन्धिनश्वाधर्मप्रधानस्य परिहारः। तत्करणशीलो धर्मती
थेकरः । सदेवमनुजासुरायां पर्षदि सर्वभाषापरिणामिन्यां उत्तारिजात सुई, धन्ना अएणाणमलिलाश्रो ।।७६।। धर्मतीर्थप्रवर्तके जिने, ध० २ अधि० । श्रा० म. । ल। धार्थिनः प्राणिनः, दृष्टार्थे ऐहिके, दृढ़ इव वनस्पतिवि- | "अह तेणेव कालेणं, धम्मतित्थयरे जिणे।" उत्त० २३ अ०। शषः, इव पङ्कप्रतिबन्धात्कारणामुत्तार्यन्ते प्रथक क्रियन्ते, सखं घमतोलण-धमतोन्नन-न० । धर्माधिकरणकनीतिशास्त्रप्रसिधन्याः परायन्नाजः, कतः१. कानसलिलामोडादिति गाथा- धर्मतोलने. व्य.५००। ('अट्रजाय' शब्दे प्रथमजाग३ थः। पं०व०४द्वार ।
पृष्ठे साधुभिर्थमनोलने यथा विद्याऽऽदि उपयोक्तव्यं तथोक्तम) धम्प्रणायग-धमेनायक- धर्मस्य कायिक शानदर्शनचारित्राम्पत्यकाम-धर्मार्थकाम-पुं० । धमार्थ कामयताति । साधा, 5ऽत्मकस्य नायकः स्वामी, यथावपासनाद धर्मनायकः । स ह अ०। धर्मश्चारित्रधर्माऽऽदिस्तस्याः प्रयोजन मोक,
६८०
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(२७१७) अन्निधानराजेन्द्रः ।
धम्मत्थकाम
धम्मत्थिकाय
तं कामयन्ते इच्छन्ति विशुम्वेदानुष्टानकरणेनेति धर्मार्थका- स्था० १०। न यतो धर्मास्तिकायविचार:-कोऽसौ धर्मो मा। मुमुक्षुषु, दश०६ अ..
धर्मास्तिकायः । पाह-सि सति वस्तुनोऽस्तित्वे इदमनेन धम्मत्थिकाय-धर्मास्तिकाय-पुं० । जीदानां पुनानां च स्व.
लक्ष्यते इति वक्तुं युक्तम,अस्य तु सत्यमेवासिद्धम् । अत्राच्यते
यद्यगुद्धपदवाच्यं तत्तदस्ति । यथा स्तम्नाऽऽदिशुद्धपदवाच्य. भावन एव गतिपरिणामपरिणतानां तत्स्वभावधारणात् तत्
भावात् प्रमाणान्तरबाधितविषयत्वाख्यादोषरहितत्वन, न च स्वभावपोषणाद्धमे, अस्तयश्चेह प्रदेशातेपां कायः सातः,
सिहत्वात् , न च खपुष्पाऽऽदिषु संकेतितैः स्वादिशुद्धपदैरने"गणकाए य निकाप, खंधे वग्गे तव रासी य।"इति वचनात्।
कान्तो वृहपरम्पराऽऽयातसकेतविषयाणामेव शुरूपदानां बाअस्तिकायः प्रदेशसलात इत्यर्थः, धर्मश्चासी अस्तिकायश्च
च्यत्तस्यह हेतुत्वेनेष्ठत्वानिपुणेन प्रतिपत्रानाव्यम,अन्यथा धूमाधर्मास्तिकायः । प्रज्ञा १ पद । जी० । कर्मः । 'अनु० । “जी.
ऽऽदेपि गापासघटिकाऽऽदिष्वन्यथाभावदर्शनादेष प्रसको उर्मिधानां पुद्रलानां च, गत्युपग्रह कारणम् । धर्मास्तिकायो ज्ञानस्य,
चारः स्यात् । उक्तं च-"अस्थिति नियबिगप्पो,जीवो नियमान दीपश्चक्षुष्मतो यथा ॥१॥" इत्युक्तलक्षणे, धाव.४०।
सहतो सिकी । कम्मा सुद्धपयत्ता, घमस्वरसिंगाणुमाणाओ दर्श० । श्रा०। सकललोकव्याप्यसंख्येयप्रदेशाऽऽत्मकामूर्तः ।
॥ १ ॥" इत्याद्यलं प्रसङ्गेन । उत्त० पाई २८ अ० । (धर्माअजीवद्रव्यविशेधे, अनु०। दर्श० । (धर्मास्तिकायस्यास्तित्वम
स्तिकायस्य वर्णाऽऽदिव्याऽऽदिनेदतः स्वरूपं च 'अस्थिकाय' 'अस्थिकाय' शब्दे प्रथमभागे ५१६ पृष्ठे गतम्)
शब्दे प्रथमभागे ५१६ पृष्ठे गतम् ) धर्मास्विकायविषये हीअथ धर्मास्तिकायस्य लक्षणमाह
रप्रइने नगर्षिगणिकृतप्रश्नो यथा-सम्पूर्णो धर्मास्तिकायो द्रव्यपरिणामी गतेधर्मो, भवेत्युमनजीवयोः ।
मुच्यते, स्कन्धो बेति ? । अत्रोत्तरम-सम्पूर्णो धर्मास्तिकायो अपेक्षाकारणाडोके, मीनस्येव जनं सदा ॥४॥
व्यमुच्यते, कुत्रचित् स्कन्धोऽप्युपचारात्, नात्र किमपि गतेर्गमनस्य, परिणामी अर्थादूगतिपरिणामी, पुद्गल जोधयो
बाधकं ज्ञायते । ही० ३ प्रका। धर्मो धर्मास्तिकायो. नवेत् । कस्मालोके चतुर्दशरज्ज्वात्म
सकसमेव धर्मास्तिकायरूपमवयविव्यमाहकाऽऽकाशखएडे, अपेकाकारणात् परिणामव्यापाररहितादधि. अवयवी नाम अवयवानां तथारूपसंघातपरिणामविशेष पत्र, करणरूपौदासीन्यहेतोश्च । तत्र दृधान्तमाह-" मीनस्येष न पुनरवयवद्रव्येभ्यः पृथगर्थान्तरं व्यं,नयाऽनुपलम्भात् । तजलं सदेति।" सदा निरन्तरं, जल यथा मीनस्य मत्स्य नव एव हि श्रातानवितानरूपं संघात परिणाम विशेषमापना स्य गतिपरिणामि अस्ति, अपेक्षाकारणात-गमनाऽगम. लोके पटव्यपदेशभाज उपलभ्यन्ते,न तदतिरिक्तं पटाऽऽख्यं ना. नाऽऽदिक्रियापरिणतस्थ मत्स्यस्य जलमपेक्वाकारणमस्ति, त. म। उक्तं चान्यैरपि-"तत्वादिव्यतिरेकेण,न पटाऽऽद्युपक्षम्भनम् । थैव धर्मद्रव्यमपि शेयम्। निष्कर्षस्त्वयम्-स्थले ऊषक्रिया व्या- तन्वादयो विशिष्टा हि, पटाऽऽदिव्यपदशिनः ॥१॥" प्रज्ञा कुलतया चेष्टाहविच्चानावादेव न जवति , न तु जन्नाभावादिति गत्यपेक्षाकारणे मानानाव इति चेत् । न । अन्वयव्यतिरेकाच्यां
धर्मास्तिकायस्यैकाधिकान्याहसोकसिद्धव्यवहारादेव तद्धेतुत्वसिद्धरन्यथाऽन्यकारणेनेतरा. धम्मस्थिकायस्स णं नंते ! केवश्या अनिवयणा पाणखिलकारणासिफिप्रसङ्गादिति दिक ॥ ४ ॥ च्या० १० अ०। त्तागोयमा! अणेगा अनिवयाणा पएणत्ता । तं जहा-ध
धम्मत्यिकारणं भंते ! जीवाणं किं पवत्तइ ? | गोयमा ! म्मेात्त वा,धम्मत्यिकाएइ वा, पाणाइवायवरेमणेति वा, मुधम्मत्थिकारणं जीवाणं आगमागमणनामुम्मेसमण- सावायवरमणेति वा, एवं० जाच परिग्गहवरमणे कोहविवेजोगवश्जोगकायजोगा जे यावतहप्पगारा चलसजावास- गति वाजाव मिच्छादसणसवविवेगेति वाइरियासमिए ति
ने ते धम्पत्यिकाए पवतंति, गतिलक्खणेणं धम्म- वा,भासासमिए तिवा,एसणासमिए तिवा,आदाणनंडमत्तस्थिकाए ॥
निक्खेवाणासमिए ति वा, जच्चारपासवण खलजबर्मिघाणपा(भागमणगमणेत्यादि) आगमनगमने प्रतीते,भाषा व्यक्तव- रिचावणियासमिई तिवा, माणगुत्ती तिवा, वगुत्ती तिवा, चनप, नाष' व्यक्तायां वाचीति वचमात् । उन्मेषोऽक्विव्यापा
कायगुती तिवा, जे यावरी तहप्पगारा,सन्चे ते धम्मत्थिरविशेषः, मनोयोगवाग्योगकाययोगाः प्रीता एव । एतेषां च
कायस्स अजिव यणा। दुन्द्रततस्तेहच मनोयोगाऽऽदयः सामान्यरूपाः,प्रागमना55. दयस्तु तद्विशेषा इति देनोपात्ताः भवति च सामान्यग्रहगोड
(अनिवयण त्ति) अभि इत्यन्निधायकानि वचनानि शब्दा पि विशेषग्रहणं तत्स्वरूपोपदर्शनार्थमिति । (जे यावो त- अभिवचनानि, पर्यायशब्दा इत्यर्थः । ( धम्मे वत्ति) जीहप्पगारे त्ति) ये चाप्यन्ये आगमनाऽऽविज्योऽपरे तथाप्रकारा
वपुजलानां गतिपर्याये धारणाद्धर्मः, इती रूपप्रदर्शने, वा विआगमनाऽऽदिसदृशा भ्रमणवलनादयः । (चशसभाव त्ति) कल्पे । (धम्माथिकाए व त्ति) धर्मश्वासावस्तिकायश्च प्रदेशचलस्वभावाः पर्यायाः, सबै तेधम्मास्तिकाये सति प्रवर्त- राशिरिति धर्मास्तिकायः । (पाणाश्वायवेरमणे वा त्यान्ते : कुतः, इत्याह-"गतिबक्खणणं धम्मत्थिकाय त्ति।"भ०१३ दिइह धर्मश्चारित्रलकणः, म च प्राणातिपातविरमणादि. श.४१०। तथा च-"पगे धम्मे।"एका प्रदेशार्यतया संख्या- रूपः, ततश्च धर्मशब्दसाधादस्तिकायरूपस्यापि धर्मस्य तप्रदेशाऽऽत्मकत्वेऽपि व्यार्थतया तस्यैकत्वात् जीवपुगनानां प्राणातिपातविरमणाऽऽदयः पर्यायतया प्रवर्तन्त इति । (जे स्वाभाविके क्रियावावे सति परिणतानां तत्स्वभावधारणाद्धर्मः। | यावत्यादि) ये चान्ये ऽपि तथाप्रकाराश्चारित्रधानिधायसवारतीनां प्रदेशानां सङ्घऽत्मकत्वात कायोस्तिकाय इति। काः सामान्यतो विशेषतो वा शब्दाते लर्वे ऽपि धर्मास्ति
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धम्मत्थि काय
० । ( अस्तिकायाना४१६ पृष्ठे
कायस्याभिवचनानीति । भ०२० श०२ मस्तिकायत्वम् 'आस्था' शब्दे प्रथम धम्म स्विकाप देवधर्मास्तिकायदेश० धर्मास्तिकायस्य · तादिप्रदेशाऽसको विभागो धर्मास्तिकायदेशः । श्रजीयदे, प्रज्ञा० १ पद । दर्श० । जी० । धम्मत्यिका यप्पएस-धर्मास्तिकाय प्रदेश-पुं० । धर्मास्तिकायस्य प्रकृष्टो देशः प्रदेशः, निर्विभागो निरंशो भागो धर्मास्तिकाय प्रदेशः । प्रा० १ पद । श्रजीवयभेदे, दर्श० ५ तथ्य | जी० 61 श्रेष्ठ धम्मस्थिकाय मज्ऊप्पपला पत्ता ।" स्था० ८० धम्मद-पद-पुं० धर्मादिदा
जो०३ प्रतिo | चारित्रधर्मदाय के तीर्थंकरे, कल्प० १ अधि० १ कण । धम्मद--पुं० [स्वनामध्याते कल्किराजसुते
०
(२७१०) अभिधानराजेन्द्रः |
१ अधि० ६ कण | ती । " कल्किपुत्रो धर्मदत्तो, भावी सपरमाउन दिने दिने प्रतिय
1
ती० १ कला | धम्मदव- पर्व ० धर्म नामिकं दुर्गतिप्रपत स्तुधारणस्वभावं दयते ददातीति धर्मदयः । स०१ सम० । चारित्रधर्मदाय के तीर्थंकरे, न० १ ० १ ० । धम्पदा - धर्मदान-न० । धर्मकारणं दानं, धर्म एव वा दानम् । "समतृणमणिमुकायो यद्दानं ते सुपात्रेयः क्षयतु समनन्तं तद्दानं भवति धर्मीय ॥ १ ॥ " इत्युक्तलक्कणे दानभे दे स्था० १० वा० । धम्मदार धर्मशार नस्य द्वारमस द्वारे धर्मद्वारम् । काम्यादिके धपाये "सारि धम्मदारा प सातं जहा खंती, मुती, श्रज्ज के मद्दवे ।" धर्मस्य चारित्रल क्षणस्य द्वाराणीव द्वाराण्युपायाः चान्त्यादीनि धर्मधाराणि । स्थाo daro ४ उ० ।
,
धम्पदासमणि धर्मदासमणि पुं०
1
शे० ४ तस्व । घ० । अनेन जगवता उपदेशमाला नाम ग्रन्थो रचितः। श्रयमाचा वीरमरथि पूर्व बभूवेति प्रसिद्धि । जे० ए० तथा बाहुः प्रतित सफल याममा धर्मदा सगणिमिश्राः।" भ्र०र० । तथा चाऽऽह-नगवान् धर्मदालगणिः । ० ४ तत्र ।
धम्मदिवस - धर्मदिवस - पुं० । चतुर्दश्यष्टमाऽऽदि के धर्मदिने,
सूत्र० २ श्र० ७ भ० ।
धम्मदुम- धर्मद्रुम - पुं० । धर्मवृक्के, संथा० ।
धम्म-धर्मदून
वृद्धावस्यासूचके परिवादि
धर्मकरणयोग्या वस्योपदेशकत्वात्तथात्वम् । श्राव० ४ भ० । धम्मदेव-धर्मदेव - पुं० । धर्मेण श्रुताऽऽदिना देवो धर्मप्रधानो वा देवो धर्मदेवः । ज० १२ २०६ उ चारित्रवद्रूपे देवभेदे, स्था० ५० १ ३० ।
धम्मदेस-धर्मदेशक-पुं० धर्मचारिवादेशयतीति धर्मदेशकः । भ० १ ० १ उ० । धर्मोपदेशदायके, कल्प० १ अधि० १ कण | ० | घ० । ० । धम्मदेसणा-धर्मदेशना - स्त्री० । कुशलानुष्ठानप्ररूपणायाम्, इ०
३१ अष्ट० ।
#4
सरप्रदानविधिमाह
सा च संवेगकृत कार्या शुश्रूषोर्मुनिना पर । बाबाssदिभावं संज्ञाय, यथाबोधं महात्मना ॥ १७ ॥ सा च देशना संवेगकृत्संवेगकारिणी, संवेगलकणं वेदम्" तथ्ये धर्मे ध्वस्तहिंसाप्रबन्धे देवे रागद्वेषमोहाऽऽविमुक्ते । साधी सर्वदमेहसीलो नुगः॥१॥" मनासाधुना अन्य धर्मोपदेशेऽधिका यथोक्तं निशीथे
'संसारदुकखमद्दणो, विबोहणो नवियपुंमरीयाणं । धम्मो जिणपष्टत्तो, पकप्पजइणा कहे अब्बो " ॥ १ ॥ इति । ( प्रकल्पयतिनेति ) अधीतनिशीथाध्ययनेन । राशि प्रापनीयस्य पुरतः सा काहोः श्रोतुमुपस्थितस्य मुनिना च किं ज्ञानपूर्व माख्येये त्याह- (बालाऽऽदिभावमित्यादि) बालादीनां त्रयाणां धर्मपरीक्षणाम दि
बुधयोर्ग्रहणात, भावं परिणामविशेषं स्वरूपं वा संज्ञाय सम्यगवैपरीत्येनायुध १० (बालधर्मपरीकुकाणां स्वरूपं 'धम्म' शब्दे धर्मपरीक्षाऽवसरे २६७४ पृष्ठे गतम्) कथं सा कार्येत्याह- ( यथाबोधमिति ) बोधानतिक्रमेण, अनव बांधे धर्मान्मदेशना प्रत् न होमान्धः समाकृष्यमाणः सम्यगध्वानं प्रतिपद्यत इति । मुनिना की महात्मना तद्मकपणा महान् आत्मा यस्य स तेन इति संक्षेपतो धर्मदेशना प्रधानविधिः, वि स्तरतस्तु धर्ममन्दौ ( २ प्रक० ) बक्तः ।
99
स चायम्-" इदानीं तद्विधिमनुवर्णयिष्याम इति । इदानीं संप्रति द्विधि समदेशनाक्रमं वामन रूपयिष्यामो वयमिति । तद्यथा-" तत्प्रकृति-देवताधिमुक्तिज्ञानमिति । तस्य सम्देशनार्हस्य जन्तोः प्रकृतिः स्वरूपं गुणवत्सङ्गकोकप्रियत्वादिका देवताधिधि कपिला 55दिदेवताविशेषः प्रथमतो देशकेन कार्यम | ज्ञातप्रकृतिको हि पुमान् रक्तो विष्टो मूढः पूर्व व्युद्याहितरच चैत्र नवति, तदा कुशलैस्तथा तथाऽनुवत्यं लोको
गुमानीतेविदेवताविशेषात तदेवताप्रणीत मार्गानुसारिवचनोपदर्शनेन दूषणेन च सुखमंत्र मार्गेऽवतारयितुं शक्यइति तथा साधारणगुणप्रशंसति।" साधारणानां लोकलोकोत्तरयोः सामान्यानां गुणानां प्रशंसा पुरस्कारो देशनान्देस्याविधेयाचा" प्रदा गृहमुपगते संविधान सदसि कर्मचाप्युपकृतेः । अनुत्सेको लक्ष्म्यां निरभिभवसाराः परकथाः, श्रुते वासन्तोषः कथमननिजाते निवसति ? ॥ ९॥ " तथा " स स्पक् तदधिकाऽख्यानमिति । ” लम्यगविपरीतरूपतया तेभ्यः सगुणेोऽधिका विशेषयन्तो के गुणाः तेषामायनं कथनम्। यथा-"तानि पवित्राणि सर्वे चारिणाम अहिंसा सत्यमस्तेयं त्यागो मैथुन ॥१॥" इति तथा "अबोधेऽप्यनिन्देति ।" अबोधेऽप्यनवगमेऽपि सामान्यगुणानां वि शेषाध्यायावानामपि निन्दा महो
माध्ययमान वस्तुतस्तु तिरस्कारपरिहाररूपा निन्दित तर सन्दूरं किमित्यादाव
धम्मदेसया
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(२७१०) धम्मदेसणा अनिधानराजेन्द्रः।
धम्मदेसमा करणमिति।" धर्मशास्त्र प्रति श्रोतुमिच्छा शुश्रूपा,तहक्कणोभावः
ऽऽचाराऽऽदिविशेष एव, कत्तुंमपार्यमाणे कुतोऽपि धृतिसंह. परिणामः, तस्य करणं निर्वतनं श्रोतुस्तैस्तैर्वचनैरिति। शुश्रूषा
ननकानवनादिकल्यात् भावप्रतिपत्तिः । भावेनान्त:करणेमनुत्पाद्य धर्मकथने प्रत्युतानर्थसंभवः । पठ्यते च-"स खलु
न प्रतिपत्तिानुबन्धः, न पुनस्तत्र प्रवृत्तिरपि, भकालौत्सुक्यपिशाचकी वातकी वा,यः परेऽनधिनि बाचमुदीरयति । “भूयो
स्य तवत भार्तध्यानत्वादिति । तथा-" पालनोपायोपदेश नूय उपदेश इति।"भूयो भूयः पुनः पुनरुपदिश्यत इत्युपदेशः।
इति ।" एतस्मिन् शानाऽऽद्याचारे प्रतिपन्ने सति पालनाय उ. नपदेषुमिष्टो वस्तुविषयः कथञ्चिदनवगमे सति कार्यः । किं न
पायस्याधिकगुग्ग तुल्यगुणलोकमध्यसंबासमवणस्य निजगुणक्रियते दृढसन्निपातरोगिणां पुनः पुनःक्रिया तिक्ताऽऽदिक्वाथपा
स्थानकोचितक्रियापरिपाबनानुस्मारणस्वभावस्य चोपदेशोदा. नोपचार इति । तथा--" बोधे प्रकोपवर्णनमिति ।" बोधे सक
तव्य इति । तथा-"फलप्ररूपणेति।” अस्याऽऽचारस्य सम्यक् दुपदेशेन, त्यो भूय उपदेशेन वोपदिष्टवस्तुनः परिझाने तस्य
परिपालितस्य सतः फलनिदेव तावदुपयवहासो भावैश्वश्रोतुः प्रकोपवर्मन बुझिप्रशंसन, यथा-नाऽनघुकर्माणः प्राणि
यवृकिर्जनप्रियत्वं च, परत्र व सुगतिजन्मोत्तमस्थानाभः, परन एवंविधसूक्ष्मार्थबोकारो भवन्तीति । तथा-" तन्त्रावतार
म्परया निर्वाणावाप्तिश्चेति यत्कार्य तस्य प्ररूपणा प्रज्ञापना वि. इति ।" तन्त्र भागमेऽवतारः प्रवेश प्रागमबहुमानोत्पादन
धेयेति । ५० १ अधिक । ( देवर्षिवर्णनं देवहिवाण' श. द्वारेण तस्य विधयः । अागमबहुमानौवमुत्पादनीयः
ब्देस्मिन्नेव भागे २६१७ पृष्ठे गतम् ) ( असदाचारगहीं
• असदायार 'शन्दे प्रथम नागेन्४० पृष्ठे प्रतिपादिता)(ना. "परलोकविधी शास्त्रात प्रायो नान्यदक्कते।
रकःखोपवर्णनम् “ णारययुक्खोववाण ' शब्देऽस्मिन्नेव आसन्नभन्यो मतिमान्, श्रद्धाधनसमन्वितः॥ १॥
भागे २०१२ पृष्ठे गतम्) (दुष्कुल जन्मप्रशस्तिः " दुक्कुउपदेशं विनाऽप्यर्थ कामौ प्रति पटुजनः ।
लजम्मप्पसत्थि" शब्देऽस्मिन्नेव भागे २५४८ पृष्ठे प्रोक्ता ) धर्मस्तु न विना शास्त्रा--दिति तत्राऽऽदरो हितः ॥२॥
(मोहनिन्दा 'मोहनिंदा' शब्दे प्रतिपादयिष्यामि) (धर्मबीज अर्थाऽऽदावविधानेऽपि, तदभावः परं नृणाम् ।
च ' धम्मवीब' शब्देऽस्मिन्नेत्र भागेऽनुपरमेव वक्ष्यामि ) धर्मविधानतोऽनर्थः, क्रियोदाहरणात्परः ॥ ३ ॥
( संज्ञानप्रशंसनं 'साप्ताणप्पसंसण' शब्दे प्रतिपादयिष्यते) तस्मात्सदेव धर्मार्थी, शास्त्रयत्नः प्रशस्यते ।
"बीर्यदिवर्णनमिति।" वीर्यः प्रकर्षरूपायाःशुरूाऽऽचारबललोके मोहान्धकारेऽस्मिन्, शास्त्राऽऽलोकः प्रवर्तकः॥४॥"
लभ्यायास्तीर्थकरपर्यवसानाया वर्णनमति । यथा-" मेरु (शाखयत्न इति) शास्त्रे यत्नो यस्येति समासः।
दरामं धरां छत्रं, यत्कचित्कर्तुमीशते । तत्लदाचारकरूपतु-फल. "पापाऽऽमयौषधं शास्र, शास्त्रं पुण्यनियन्धनम् ।
माहुमहर्षयः॥२॥" तथापरिणते गम्नीराया: पूर्वदेशनापेक्षया. चक्षुः सर्वत्रगं शास्त्र, शालं सर्वार्थसाधमम ॥ ५ ॥
ऽस्यन्तसुषमाया पारमास्तित्वतद्वन्धमोक्काऽऽदिकाया देशनाया न यस्य जक्तिरेतस्मितस्य धम्मक्रियाऽपि हि।
योगो व्यापारः कार्यः । श्दमुक्तं भवति-यः पूर्व साधारणगुण. अन्धकाक्रियातुल्या, कर्मदोषादसत्फला ॥६॥
प्रशंसाऽदिरनेकधोपदेशः प्रोक्त प्रास्ते, स यदा तदाचारकयः भाको मन्यते मान्या-नहङ्कारविवर्जितः।
कर्महासातिशयादकातिनावल कणं परिणाममुपागतो भवति गुजरागी महाभाग-स्तस्य धर्मक्रिया परा ॥७॥
तदा जीः भोजनमिव गम्भीरदेशनायामसौ देशनादो ऽवता. यस्य स्वनादरः शाने, तस्य भ्रद्धाऽदयो गुणाः।
र्यत शति । ध०१ अधिक। अन्मत्तगुणतुल्यत्वा- प्रशंसाऽऽस्पदं सताम् ॥ ७॥
इत्यं देशनाविधि प्रपच्योपसंहरनाह-" एवं संवेगकर्म, मलिनस्य यथाऽस्यन्तं, जलं वस्त्रस्य शोधनम् ।
प्रास्ययो मुनिना परः। यथाबोधं हि शुश्रुषो-र्भावितेम महात्म. अन्तःकरणरत्नस्य, तथा शास्त्रं विबुधाः ॥६॥
ना ॥१॥" ति व्याख्यातप्रायम् । आह-धर्माख्यापने ऽपि यदा शास्त्रभक्तिर्जगद्वन्द्यै-मुक्तिदूती परोदिता।
तथाविधकर्मदोषान्नाचबोधः श्रोतुरुत्पद्यते, तदा किंफर ध. अत्रैवेयमतो न्याख्या, तत्प्राप्यासन्नन्नावतः॥१०॥"
मोऽसपानमित्याह-"प्रबोधेऽपि फवं प्रोक्तं,श्रोतां मुनिसत्तमः। (अत्रैवेति। मुक्तावेव (इयमिति) शास्त्रभक्तिः, "तत्प्राप्त्यासन कधकस्य विधानेन, नियमाच्छुद्धचेतसः ॥१॥" इति सुगमम् । भावत इति" मुक्तिप्राप्तिसमीपत्तावादिति । तथा.."प्रयोग प्रा. पाह-प्रकारान्तरेणापि देशनाफलस्य संभाव्यमानत्वादलमि. केपपया ति। "प्रयोगो व्यापारण, धर्मकथाका पाक्षिप्यन्ते
हैव यनेनेत्याशङ्कचाहश्राकृष्यन्ते मोहात्तत्वं प्रति जव्यप्राणिनोऽनयेति आक्षेपणी ।
___“नोपकारो जगस्मि -स्तादृशो विद्यते क्वचित । (तस्याः कथायाश्चातुर्विध्यम् ' अक्खेवणी' शब्दे प्रथमभागे __ यारशी दुःखबिच्चदा-दोदिनो धर्मदेशना ॥१॥" इति। १५२ पृष्ठे गतम्) तथा-"ज्ञानाऽऽद्याचारकथनमिति ।" ज्ञान
(न) नैवोपकारोऽनुग्रहो, जगलिनुवने, अस्मिन्नुपलज्यमाने, स्य श्रुतलतणस्य, प्राचारो ज्ञानाचारः, आदिशब्दार्श
तादशो विद्यते समस्ति, क्वचित्काले केत्रे वा, याशी यादृगरूपा, नाऽऽचारचारित्राचारस्तपआचारो बीयोऽऽचारश्चेति । ततो
पुःखविच्छेदात् शारीरमानसदुःखापनयनात्, देहिनां देशनाझानाऽऽद्याचाराणां कथन प्रज्ञापनमिति समासः। ध०१ अधिक।
हाणां,(धर्मदेशनेति)धर्मदेशनाजनितो मार्गश्रद्धानाऽऽदिर्गुणः अनन्तरोक्तषत्रिंशद्विधे झानदर्शनाऽऽयाचारे यथाशक्ति प्रति
तस्य निःशेषलेश लेशाकलङ्कमोक्काऽऽक्षेप प्रत्यवभयकारणत्वा. पत्तिलक्षणं पराक्रमण, प्रतिपत्तौ च ययाबलं पालनति । तथा
त् । इति निरूपितो धर्मबिन्दौ सर्मदेशनाप्रदानविधिः । ध० "निरीहशक्यपालनेति।" निरीहेणैदिकपारासिक फलेषु रा.
१ अधिक। सका। ज्यदेवत्वाऽऽदिलकोषु व्यावृत्ताभिलाषेण शक्यस्य ज्ञानाचा
बालादीनां सहर्मपरीक्षाकाणां सप्रपश्चं सामनिधाय राऽऽदेर्विहितमिदमिति बुब्या पालना कार्या इति च कथ्यत
तद्गतदेशनाविधिमाहशति । तपा-" अशक्प्रे भावप्रतिपत्तिरिति।" अशक्ये ज्ञाना-]
बालाऽऽदिभावमेवं, सम्यग् विज्ञाय देहिनां गुरुणा ।
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(२७२१) अन्निधानराजेन्द्रः।
धम्मदेसगा
धम्मदेसणा
सधर्मदेशनाऽपि हि, कर्तव्या तदनुसारेण ॥१३॥
तामेव बालस्य देशनामाहबालाऽऽदीनां भावः परिणामविशेषः, स्वरूपं बा,तमेवमुक्तनी.
सम्यग् लोचविधानं, ह्यनुपानकत्वमथ धरा शय्या । त्या सम्यगवैपरीत्येन, विझायाऽवबुध्य, देहिनां जीवानां, गुरुणा प्रहरद्वयं रजन्याः, स्वापः शीतोष्णसहनं च ।। ३ ।। शास्त्राभिहितस्वरूपेण । यथोक्तम्-"धर्मझो धर्मकत्ता च, सदा सम्यग लोचविधान लोचकरणं, कथनीय नवतीति योगः। धर्मप्रवर्तकः। सवेभ्यो धर्मशास्त्रार्थ-देशको गुरुरुच्यते ॥१॥" हिशब्दश्चार्थे सर्वत्राशिसंबन्धनीयः । अनुपानकत्वं च-न वि. मद्धर्मस्य देशनाऽपि दि प्रतिपादना कर्तव्या । तदनुसारेण द्यते उपानह। यस्य सोऽयमनुपानत्कस्तझावस्तत्वम् । अथ बालाऽऽदिपरिणामानुरूपेण यस्य यथोपकाराय संपद्यते देशना,
धरा शय्या-धरा पृथ्वी सैव शय्या शयनीय, मान्यत्पर्यङ्काऽऽदि, तस्य तथा विधेयति ॥ १३ ॥
प्रहरदयं रजन्याः स्वापा-प्रथमयामे स्वाध्यायकरणं सामाअत्रैव हेतुद्वारेण व्यतिरेकमाह
न्येनेव साधूनां, द्वितीयतृतीयप्रहरयोस्तु स्वापः स्वपनं, चतुर्थे यनापितं मुनीन्ः, पापं खलु देशना परस्थाने । पुनः स्वाध्यायकरणं, समयनीत्या शीतोष्णसहनं च.शीतोउन्मागेनयनमेत-नवगहने दारु विपाकम् ॥ १४॥
रणयोः सहनं स्वसामयापेकमार्सध्यानाऽऽदिपरिहारेण ॥ ३ ॥
पष्ठामाऽऽदिरूपं, चित्रं बाह्यं तपो महाकष्टम । यद्यस्माद्भाषितमुक्तम, मनीः समययुक्तः, पापं खबु बर्त
अस्पोपकरणसंधा-रणं च तजुद्धता चैव ॥४॥ ते । देशना परस्थाने बान संबन्धिनी मध्यमवुद्धस्तत्संबनिधनी बुधस्य स्थाने । किमित्याह-उन्मार्गनयनमुन्मार्गप्रा
षष्ठाटमाऽऽदिरूपं समयप्रसिद्ध चित्रं नानाप्रकारं,बाह्य तपो म. पण मेतद्विपरीतदेशनाकरणम् । नवगहने संसारगहने, दारु.
हाकष्टं पुरनुचरम् अस्पसरवैर्दुर्बलसंहननैश्चोते कृत्वा,अल्पोपणविपाक तीवविपाकम् । ते हि विपरीतदेशनया अन्यथा चा.
करणसंधारणं च अल्पमेवोपकरणम् [संधारणीयं तच्बुद्धता न्यथा च प्रवर्तन्त इति कृत्वा ॥ १४ ॥
चैव उद्गमाऽऽदिदोषविशुद्धया ॥४॥ कथं पुनर्देशनास्वरूपेण समयोक्तत्वेन सुन्दराऽपि सती पर
गुर्वी पिएमविशुधि-श्चित्रा व्याऽद्यभिग्रहाचैत्र । स्थाने ऽपायमित्याह
चिकृतीनां संत्याग-स्तथेकसिक्याऽऽदिपारणकम् ॥५॥ हितमपि वायोरौषध-महितं तत्वलेष्माणो यथाऽत्यन्तम् ।।
गुर्वी पिएमविशुद्धिराधाकर्माऽऽदित्यागेन चित्रा व्याऽऽद्यभि.
ग्रहाश्चैव अध्यकेत्रकालभावाभिग्रहाः समयप्रसिद्धाः। विकृतीनां मधर्मदेशनौषध-मेवं बालाऽऽद्यपेक्षमिति ॥१४॥
संत्यागः कीराऽऽदीनाम्, तथैकशिक्थाऽदिपारणकम् । एकं सि. हितमपि योग्यमपि, बायोः शरीरगतस्य बातस्यौषधं स्नेह- क्थं भोजनं पारसके । श्रादिशब्दादेककवलाऽऽदिग्रहः॥५॥ पानाऽऽदि अहितं, तदेवौषधं श्लेष्मणो यथाऽत्यन्तं भवति। तत्प्र- अनियतविहारकरूपः, कायोत्सर्गादिकरणमनिशं च । कोपहेतुत्वेन सद्धर्मस्य देशनौषधं स्वरूपेण सुन्दरमपि तदव- इत्यादि बाह्य मुच्चैः, कथनीयं नवति बालस्य ।। ६ ॥ कादेतुत्वेन एवमहितं भवति । (बाबाऽऽद्यपेक्वमिति ) बाल
अनियतविहारकल्पोऽनियतश्चासौ विहारश्च नैकवेत्रवासि. मध्यमबुझिवुधापेक्षं तस्मात्तदायभीरुणा तकितप्रवृत्तेन च
स्वम्, तस्य कल्पः समाचारः, कायोत्सर्गाऽऽदिकरणमनिशं चगुरुणा तेषां भावं विज्ञाय,देशना विधेयति शास्त्रोपदेशः ॥१५॥
कायोत्मर्गस्याऽऽदिशब्दाग्निषद्याकरणमासे वनमित्यादि बाह्यपो०१ विव०।
मुच्चैबांधमनुष्ठानं प्रतिश्रयप्रत्युपेक्षएप्रमार्जनकासग्रहणाऽऽदि कगुरुर्यालाऽऽदीना देशनां विदधातीत्युक्तम्, तत्र विधिमाह- | थनीयं नवति बालस्य सर्वथोपदेशव्यं हितकारीति ॥६॥ बासाउदीनामेषां, यथोचितं तद्विदो विधिगीतः।
इदानीं मध्यमबुझेर्देशनाविधिमादसफर्मदेशनाया-मयमिह सिधान्ततच्वः ॥१॥ मध्यमबुछस्त्वीर्या-समितिप्रभृति त्रिकोटिपरिशकम् । बामाऽऽदीनामेणं पूर्वोक्तानां, यथोचितं यथाहम, तद्विदो श्राद्यन्तमध्ययोगै-हितदं खलु साधुसद्वृत्तम् ।। ७॥ बालादिस्वरूपविदः, विधिर्मीतः कथितः । सद्धर्मदेशनायां मध्यमबुद्धेस्तु मध्यमबुद्धेः पुनरीर्यासमितिप्रभृति ईयांसमित्याविषये, अयमिह बक्ष्यमाणः, सिद्धान्ततच्यझैरागमपरमार्थनि- दिकम, प्रवचनमातृरूपं साधुसदवृत्त,समाख्येयमितियोगः। तच पुणैरिति ॥१॥
कीदृशं साधूनां सदवृत्तम । त्रिकोटिपरिशुद्ध रागद्वेषमोहत्रतत्र बाबस्य परिणाममाश्रित्य हितकारिणी देशनामाद- यपरिशुद्धम् । अथवा तिस्रः कोटयो हननपचनक्रयणरूपाः बाह्यचरणप्रधाना. कर्तव्या देशनेह बामस्य ।
कृतकारितानुमतिभेदेन श्रूयन्ते, ताभिः परिशुद्धम् । अथवास्वयमपि च तदाचार-स्तदग्रतो नियमतः सेव्यः ॥२॥
कपच्छेदतापकोटित्रयपरिशुद्धं, प्रवचनमात्रन्तर्गतत्वात् सक
प्रवचनस्य। तस्य च कषच्छेदतापपरिशुद्धत्वेनाभिधानात्तदेच बाह्यचरणप्रधाना बाह्यानुष्ठानप्रवरा, कर्तव्या विधेया, देशना च वचनमनुष्ठीयमानम, सवृत्तम्, साधुसवृत्तमेव विशिष्यतेप्ररूपणा,इह प्रक्रमे बासस्याऽऽद्यस्य धार्थिनः,स्वयमपि चाऽ5. श्राधन्तमध्य योगैर्दितदं खल्विति । आदियोगेन, मध्ययोगेनान्तस्मनाऽपि च,नदाचार:-स चासावाचारइचोपदिश्यमानाचा- योगेन वा, बयसो जीवितव्यस्य वा, हितदमुपकारि। अथवारस्तदग्रतो बालस्याऽग्रतो, नियमतो नियमेन, सेव्यो भवत्या. आदियोगेन प्रथमवयोऽवस्थागतेनाध्ययनाऽऽदिना,मध्यमयोगेन चरणीयः । यदि पुनः स्वयमन्यथा सेव्यते, अन्यथा चोपदि- द्वितीयचयोऽवस्थानाविनाऽर्थश्रवणाऽऽदिना, अन्तयोगेन चर• श्यते, तदा तष्तिथाशनं जनयति अतस्तद्भाववृहये समपदि- मवयोऽवस्थाभाविना धर्मध्यानाऽऽदिना । भावनाविशेषरूपण, श्यमानं तथैवाऽऽसेव्यमिति ॥२॥
हित हितकारि हितफरमेवेति ॥ ७ ॥
६८१
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धम्मदेवा
(२७२२) अभिधानराजेन्खः ।
तदेवाद
अौ साधुभिरनिशं मातर इस मातरः प्रवचनस्य । नियमेन न मोक्तव्याः परमं कन्याणमिच्छह्निः ॥ ८ ॥ अ) साधुभिरनिशं प्रवचनस्य मातरो न मोकाया इतिबन्धः । ताश्च मातर व पुत्रस्येति गम्यते । प्रवचनस्य प्रसूतिदेतुत्वेन हितकारिस्वेनाबेग की। साधु परमं कल्याण रेलीफिक पारलौकिक परम कल्याणमै ॥5
।
एतच्च समाख्येयम्
एतत्सचिवस्य सदा, साधोर्नियमान्न जवभयं जवति । भवति च हितमत्यन्तं फलदं विधिनाऽऽगमग्रहणम् |||| एतत्सचिवस्य प्रवचनमातृदिनस्य सदा सर्वका साध येतनियमाशियमेन, न भवभयं जयति संसारभयं न जायते, निःश्रेयसविषयेानिष्यतेः । जयति च संपद्यते च । प्रवच नमातृविधानस्य हितं माध्यायपरिहारसारस् प्रकर्षया फफऽऽदि ना. आगमग्रहणं वाचनाऽऽदिरूपेणेति ॥ ए ॥
आगम ग्रहणस्य गुर्वधीनत्वात् तद्वतमप्युपदे ध्रुव्यमित्याहगुरुवारतन्त्र्यमेव च तत्सदाशयानुगतम् । परमगुरुरि बीजं तस्माच मोक इति ॥ १० ॥
"
गुरुवारच सत्यम् तद्वदुमानरु
रीतिविशेष[स] गतम् सदाकायः संसारभूतः कुशखपरिणामः तेनानुगतं गुरुवारतम्यम् । परमगुरुयाप्तेरि सा जम, गुरुबहुमानाज्जन्मान्तरे तथाविध पुण्योपादानेन सर्वद वादगुरु सर्ववीजं भवति । तथाचैवं विधामा [इति देतोयारतन्त्र्यं साधुनाउ इयं विधेयमिति ] ॥ १० ॥
-
पूर्वोक पव वस्तुनि साउदी क्रिया इत्यादि साधुवृत्तं मध्यमबुद्धेः सदा समाख्येयम् । आगमतयं तु परं बुधस्य भावमपानं तु ॥ ११ ॥ मध्यमबुद्धेरेवमादि साधुवृत्तं प्रस्तुतम, सदा समाख्येयं प्रका शनीयम, श्रागमतस्वं तु पूर्वोक्तं परं केवलमेव, बुधस्य प्राङ्निविधानं तु परमार्थसारं समयेयमिति ॥११॥ कृनसंयमेव बुधोपदेशमाद
वचनाऽपनया खलु पस्तावा व इति । सर्वस्वं चैनदेवास्प || १२ || वचनाऽऽराधनया आगमाऽऽराधनयैव खलुशब्द एवकारार्थः ध र्मः श्रुतचारित्ररूपः संपद्यते । तदूबाधया तु वचनाच्या स्वधर्म विप्रतिषेधरूपं धर्मगु धर्म रहस्यम, सर्वस्वं चैतदेवाऽस्य धर्मस्य, एतद् वचनमेव सर्वस्वं सर्वसारो बर्त्तत इति ॥ १२ ॥
अथ किमर्थं स्यैवमुपदेशः क्रियते सकलानुष्ठानोपसर्ज सीमाचाऽपादानद्वारा तमू समा मुपदर्शपन्ना
यस्माकं भुवि निवचनम् ।
धम्मश्रण
धर्मतत्संस्थो, मौनीन् चेतदि परमम् ।। १३ ।
यस्मात् प्रवर्त्तकं स्वाध्यायभ्यानाऽऽदिषु विधेयेषु विजयोके, निवर्त्तकं च हिंसाऽनृतादिभ्यः सकाशादन्तरात्मनो मनसो वचनमागमरूपं, धर्मश्चैतत्संस्थो वचनसंस्थो वचने संतिष्ठत इति कृत्वा मौनीन्द्रं चैतद्वचनमिह प्रक्रमे परमं प्रधानम् । एतदुक्तम" सर्वशेोक्तेन शास्त्रेण, विदित्वा योऽत्र तत्वतः । न्यायतः क्रियते धर्मः स धर्मः स च सिद्धये ॥ १ ॥ ॥१३॥ किमेवं वचनमाहात्म्यं ख्याप्यत इत्याह
अस्मिन हृदयस्ये सति हृदयस्थतो मुनीन्ध इति । हृदयस्थिते च तस्मित्रियमात्सर्यमा सिकिः || १४ || अस्मिन् प्रवचने आगमे हृदय सि हृदयस्थति स्वस्त स्वतः परमार्थेन, सर्व इति कृत्वा, हृदयस्थिते च तस्मिन् जगवति मुनीन्द्रे नियमानियमेन, सर्वार्थसिद्धिः सर्वार्थनिष्पत्तिः ॥ १४ ॥
-
किमेवं सर्वप्रयोजन सिद्धिद्वारेण भगवान् संस्तूयत इत्याहचिन्तामणिः परोऽसौ तेनेनं जयति सपरसाऽऽपतिः । सैवेह योगिमाता, निर्वाणसमदा प्रोक्ता ।। १५ ।। चिन्ता रक्षं चिन्तामणिः, परः प्रकृष्टोऽसौ भगवान् सर्वज्ञस्तेन भगवतेयमागमवमानद्वारेण भवते जायते समाप समताऽऽपत्तिः। आगमाभिहितस्वरूपोपयोगोपयुक्तस्य तदुपयोगाऽनन्यवृत्तेः परमार्थतः सर्वज्ञरूपत्वाद् बाह्याऽऽलबनाऽऽकारोपरकत्वेन मनसः समापत्तिनविशेषरूपा, तत्फ लभूता वा समरसाऽऽपत्तिरित्यभिधीयते । यथोक्तं योगशास्त्रे"सेर भिस्यैव महामही तृपदर नुगता समापत्तिः ।" सेपेह प्रस्तुता समापत्तिरभिसंबध्यते योगिमाता योगिजननी, योगी बेड सम्यक्त्वाऽऽदिगुणः पुरुषः । यथोक्तम्- "सम्यक्त्वज्ञान चारित्र योगः सद्योग उच्यते । एतद्योगाद्वियोगी स्यात्परमब्रह्मसाधकः॥१॥” सैव विशिष्यते निर्वाणफनप्रदा निर्वाणकार्य प्रसाधनी प्रोक्ता तद्वेदिभिराचार्यैः ॥ १५ ॥ देशनविधिरधिकृतः मे इति यः कथयति धर्मे, विज्ञाय विश्वयोगमनयमतिः । जनयति स एनमतुलं श्रतृषु निर्वाण फलदमम् ॥। १६ ।। इति यः कथयति धर्ममेवमुक्तनीत्या यो गुरुधमैं कथयति, विज्ञाय ज्ञात्वा, औचित्य योग मौचित्यव्यापारं तत्संबन्धं वा श्र नमतिनिपबुद्धिर्जनयति स गुरुरेनं धर्ममनन्यसदृशं श्रोतृषु शुश्रूषा प्रवृत्तेषु, निर्वाणफलदं मोकफप्रदम, अलमत्यर्थमिति ॥ १६ ॥ षो० २ विव० । श्रीवीरतीर्थङ्करे देशनां दत्त्वा देवच्छन्दान्तः प्राप्ते सति एकादशगणदेशात स्थापितत्वात् । सुधर्मस्वामी वा अन्यो वा यः कचिदू गणधरो वेमित्सति गौतमस्थान गौत स्वधर्म व अति च तस्मिन्नन्वोऽपि यो ज्येष्ठो भवति स विधत्ते इति । २७७ प्र० । सेन० ३ उद्घा० । धम्मदेमणाजोग्ग-धर्मदेशना योग्य त्रि० । लोकोत्तरधर्मप्रज्ञापनाऽहे. "ख धर्मदेशना योग्यो, मध्यस्थत्वा जिनैर्मतः " घ० १ अधि० । घनन०मा० १२० दणिणि नाऊण
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(२७२३) धम्मधण
श्राभिधानराजेन्द्रः ।
धम्मप्पसोइ (म्) घि जिणवयणं, जे इह विहलंति धम्मधणं ॥१॥" संघा० १ धम्मपरंपरा-परम्पराधर्म-त्रि० । परम्परया धो यस्य स परअधि.१ प्रस्ता०।
म्पराधर्मः । प्राकृतत्वाश्च परम्पराशब्दस्य परनिपातः । परम्पधम्मधरोद्धरणमहावराह-धर्मधरोद्धरणमहावराह-पुं० । ध. | रया धर्म प्राप्ते, उत्त० १४ अ०। मः सर्वप्रणीतः, स एव जीवाऽऽदिपदार्थाऽऽधारत्वेन धरा पृ. धम्मपरायण-धर्मपरायण-त्रि०। धर्मानुष्ठायिनि, दर्श०४०। थिवी, तस्था यमुद्धरणं स्वरूपन्नशरक्षणाद् यथाऽवस्थितत्वेना.
धर्मध्यानतत्परे, उत्त. १४ अाधमैकनिष्ठे, उत्त० १४ म०। वस्थापनम्, तद्विषये महावराह अादिवराहो धर्मधरोहरणमा हावराहः। धराया महावराहवद धर्मस्यावस्थापके, "धम्मधरो
__ "एवं ते कमसो बुझा, सब्वे धम्मपरायणा।" उत्त०१४ म०। धरणमहा-वराहजिणचंदसरिसिस्साणं।" प्रव० २७६ द्वार।
"सया धम्मपरायणो।" दर्श०४ तस्व । धम्मधाम्पिपत्ति-धर्मधर्मिप्राप्ति-स्त्री० । धर्माणां धर्मिरूपेण प्रा
धम्मपरूवणा-धर्मप्ररूपणा-स्त्री० । धर्मविषयायां प्ररूपणाया. प्तिः धर्मधर्मिप्राप्तिः। धर्माणां धर्मिरूपेण प्राप्ती, अने०१ अधि०।
म, श्रीविमलनाधप्रपौत्रश्रीधर्मघोषस्थविरपा प्रषज्य महा
बमकुमारः पञ्चमकल्पे दशाब्धिस्थितिमनुपाख्यानम्तरं श्रीवी. धम्मधम्मिभाव-धर्मधर्मिभाव--पुं० । धर्ममितायाम, आ० म. रपा प्रमज्य सिद्ध इति भगवत्यकादशशतकादशोदेशका१ अ. १ खपम । ( धर्मधर्मिणोर्भेदाभेद विचारो 'धम्म' ऽऽदावुक्तम्, तथा सति श्रीविमझनाथवीरयोः श्री कल्पसूत्रा. शब्देऽनुपदमेव २६६३ पृष्ठे गतः)
ऽऽदिग्रन्थे महदन्तरं दृश्यते, तत्कथमिति प्रमे, उत्तरम्धम्मधुरा-धर्मधुरा-स्त्री० । धर्म एवातिसास्विकैरुद्यमानतया जगवतीवृत्तौ द्वितीयवृत्ती द्वितीयव्याख्यानप्रपौत्रके शिष्यधूरिव धूधर्मधुरा । उत्त०१४ अ०। धाऽऽत्मिकायां धुरि, "धणेण
सन्ताने इत्युक्तमस्ति, तेन कल्पसूत्रोक्तकालमानमाथित्य न कि धम्मधुरादिगारे।" धर्मधुराधिकारे दशविधयतिधर्मधू
काऽप्यनुपपत्तिरिति । १५३ प्र० । सेन० ३ उद्या । बहनाधिकारे। उत्त० १४ अ० । धर्मचिन्तायाम, वृ०१०। धम्मपाढग-धर्मपाक-त्रि० । धर्माध्यापके, प्रा. म. १० धम्मपइएण-धर्मप्रतिज्ञ-त्रि० । धर्मकरणाभ्युपगमपरे, व्य० १खएड।
धम्मपारग-धर्मपारग-त्रि०। धर्मस्य श्रुतचारित्राऽऽत्मकस्य पा. धम्मपक्षिय-धर्मपाक्षिक-त्रि० । पुरायोपादानभूते, सूत्र. २ रगः सम्यग् वेसा धर्मपारगः । धर्मस्य सम्यग् वेत्तरि, "दुका श्रु.२.०।
धम्मस्स पारगा।" प्राचा. १७०८.८ उ०।धम्मपमिमा-धर्मप्रतिमा-स्त्री०। धर्मः श्रुतचारित्रलकणः, तद्वि-धम्मपान-धर्मपाल-पुं० । कौशाम्बीवास्तव्यस्य धनयकस्य थेपया प्रतिमा प्रतिका, धर्मप्रधानं शरीरं वा धर्मप्रतिमा । धर्म ष्ठिनः स्वनामख्याते पुत्रे, हा०२३ अष्ट । विषयकप्रतिज्ञायाम्, धर्मप्रधाने शरीरे च । स्था०१ग। धम्मपिवासिय-धर्मपिपासित-त्रि.। पिपासेव पिपासा, प्राप्तेऽ. तत्स्वरूपमाह--
पि धर्मेऽतृप्तिः, धर्मपिपासा संजाताऽस्येति धर्मपिपासितः। "एगा धम्मपमिमा,जं से आया पञ्जवजाए।"प्राग्वन्नबरम- धर्मप्राप्तावतृप्ते, तं। भ०। पर्यवा ज्ञानाऽऽदिविशेषा जाता यस्य स पर्यवजातो, भवतीति | शेषः, विशुद्ध्यतीत्यर्थः। श्राहिताग्न्यादित्वाच जातशब्दस्यो- चम्म
धम्मपुरिस-धर्मपुरुष-पुं० । अर्हति, स्था० । ('पुरिस' शम्ने त्तरपदत्वमिति । अथवा--पर्यवान्, पर्यवेषु वा यातः प्राप्तः पर्य- व्याख्या वक्ष्यते) धर्मः कायिकचारित्राऽऽदिः, तदर्जनपरः पु. घयातः । अथवा--पर्यवः परिरका, परिकानं वा। शेषं तथैवेति। रूषो धर्मपुरुषः । " धम्मपुरिसो तदउजणवावारपरो जहा सास्था.१०।
है।" इत्युक्तलकणे पुरुषभेदे, स्था० ३ ०१०। विशे०। धम्मपत्ति-धर्मप्रज्ञप्ति-स्त्री० । धर्मप्ररूपणायाम, धर्मप्ररूपणा-1
मा०म० प्रा० चू० । “सुहावह धम्मपुरिसाणं ।" धर्मपुरुषाणां वति दर्शने च । उपा० ६ अ० । "महावीरस्संतिए धम्मपा
धर्मप्रधाननराणाम् । पञ्चा०६ विव० । ति सवसंपज्जित्ता णं विहरितए।" उपा०१ । धर्म-धम्मप्पएस-धर्मप्रदेश-पुं० । धर्मशब्देन धर्मास्तिकायो गृह्यते, प्राप्तियथावस्थितधर्मप्रज्ञापनात् । दशकालिकस्य पाजीव- सस्य प्रकृयो देशः प्रदेशो निर्विजागो भागो धर्मप्रदेशः । निकायाऽस्येऽध्ययने च । दश० ४ ०।" प्रायप्पवायपुब्बा, धर्मास्तिकायस्य निर्विभागे भागे, अनु० । निज्जूढा हो३ धम्मपाती।" दश०१ भ० ।
धम्मप्पभ-धर्मप्रभ-पुं० । अञ्चगच्छीये सिंहतिलकसरिगुरौ, धम्मपावणा-धर्मप्रज्ञापना-स्त्री० । धर्मस्य कास्यादिवशसक- | अयमाचार्यः विक्रमसंवत् १३३१ मिते जातः, १३६३ मिते णोपेतस्य प्रज्ञापना प्ररूपणा धर्मप्रज्ञापना । धर्मप्ररूपणायाम, | स्वर्गतः । जै० ३०। "धम्मपम्पवणा जा सा।"सत्र०१ श्रु.१ अ० २ उ०। धम्मप्पाजण-धर्मप्ररञ्जन-त्रि० । धर्म प्ररज्यते पासज्यते इ. धम्मपत्य-धर्मपथ्य-त्रिका धर्माय पथ्यमिवा धर्माय हिते,धर्मश्र- ति धर्मप्ररजनः । ० । धर्मप्रायेषु कर्मसु प्रकर्षण रज्यत वण-तपरमाऽऽस्वाद-धार्मिकसवसंसर्गादिरूपे,पो०४ विधा। इति धर्मप्ररन्जनः। रलयारेक्यमिति' कृत्वा रस्य स्थाने ल. धम्मपय-धर्मपद-न० । धर्मफल के सिद्धान्तपदे, "जस्संतिए कारः । धर्माऽऽसक्ते, ज्ञा० १ श्रु० १८ अ.। धम्मफलानि सिक्खे।" दश अ.१० । कान्स्यादिक धम्मप्पलो (ण)-धर्मप्रलोकिन्-पुं० । धर्म प्रलोकपत्युपादे. च । “विऊण ते धम्मपयं अत्तरं।" भाचा० ११०५ यतया प्रेकरो पाखधिषु वा गवेषयतीति धर्मप्रसोकी। धर्मभ०४ उ०।
स्थापादयतयारक्षके, पास्वरिडषु धर्मगवेषकेच । भौ० ।का.
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धम्मण्यवाद (यू)
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धम्मप्यवाद (ए) पर्ववादिन पुं० धर्मप्रवदितुं स्य स धर्मप्रवादी । धर्मप्रावाबुके, आचाराङ्गचतुर्थाध्ययनस्य द्वितीयोदेशकार्याधिकारमधिकृत्य विधम्मप्यवश्य परिक्खा ।" धर्मे प्रवदितुं शीलं येषां ते धर्मप्रवादिनः, त एव धर्मप्रवाहिका, धर्मप्रावादुका इत्यर्थः । तेषां परीक्षा युक्तायुक्तविचारणम् । आचा० १ ० ४ श्र० २ उ० । धर्म-पर्यान्तमात्मानं
रयतीति धर्मः, तस्य प्रशंसा धर्मप्रशंसा । सकलपुरुषार्थानामेव धर्मः प्रधानमित्येवंरूपे धर्मस्य स्तयं तथा उबेरप्युक्तम्" वो धनार्थिनां धर्म कामिनां सर्वकामदः । धर्म एवापवर्गस्य, पारम्पर्येण साधकः " ॥ १ ॥ दश० १ अ० । पो० ।
धम्मपाचाप धर्ममाचक० दिन बा० १ ० १४० १ ० । धम्मपिय-धर्मत्रिय धर्ममा २०१०
४ अ० १ ० ।
धम्मफल- धर्मफल न० धर्मस्य फलं धर्मफलम धर्मेण बा फलं धर्मपत्र | धर्मप्रयोजने, दश० १ श्र० । धर्मफलमाद
जया जीवमजीवा य, दो विएए विद्यासा । तथा गई सब्वजीवाण जाइ ॥ १४ ॥
(२७२४) अभिधानराजेन्द्रः ।
कालेज
वि
विधं जानाति, तदा तस्मिन् काले, गतिं नरकगत्यादिरूपां बदुनियां स्वपतमेदेनाने प्रकार सर्व जीवन जानाति यथाऽवस्थित जीवाजीव परिज्ञानमन्तरेण गतिपरिज्ञानाजावात् ॥ १४ ॥ उपरोच वृद्धमा
जया गई बहुविदं सब्बजीवाण नाइ ।
याच पाच बंध मोक्खं च जाण ।। १५ ।। यदा गति बहुविध सर्वजीवानां जानाति तदा पुण्यं च पापं च बहुविधगतिनिबन्धनं, तथा बन्धं जीवकयोग दुःख लक्षणं, मोकं च तद्वियोगसुख लक्षणं जानाति ॥१५॥ जया पुच पाच बंधं मोक्खं च जागा । तया निदिर भोए, जे दिव्बे जे य माणुसे ।। १६ ।। जया निदिर नो, जे दिवे जे व मासे । तथा चय संभोग, सन्जितरं च वाहिरं ॥ १७ ॥
यदा पुण्यं च पापं च बन्धं मोकं च जानाति तदा निर्विन्ते मोहाजबारसम्यग्विचारयत्यसार दुःखरूपतया भोगान् शब्दाssदान् यान् दिव्यान् श्राँश्च मानुषान् शेषास्तु वस्तुनो भोगा एव न भवन्ति ॥ १६ ॥ ( जया इत्यादि ) यदा निर्धिन्ते भोगान् यान् दिव्यान् यांश्च मानुषानू, तदा स्थ जति संयोग संबन्धं द्रव्यतो नावतः साच्यन्तरं बाह्यं क्रोचादिद्विरादिसंबन्धमित्यर्थः ॥ १७ ॥
बाहिरं पम्भलगारियं ॥ १० ॥
जया चय संजोगं, तथा मे भविता
"
धम्मफल
यदा त्यजति संयोगं साभ्यन्तरं बाह्यम्, तदा मुण्डो भूत्वा व्यतो भावतश्च प्रव्रजति प्रकर्षेण व्रजत्यपवर्गे प्रत्यनगारं यतो भावतश्चाविद्यमानागारमिति जावः ॥ १८ ॥ जया मे भविता नं, पम्बइ अगागारियं ।
तया संवरमुकिर्ड, धम्मं फासे अणुत्तरं ॥ १६ ॥
यहा मुण्डो भूखा प्रव्रजत्यनगारम् (तया संवरमुकिटुं ति ) प्राकृतशय उत्क संपर सर्वानिपातादिविनि तिरुपं, चारित्रधर्ममित्यर्थः स्पृशत्वनुत्तरं सम्यगासेवत - स्वर्थः ॥ १६ ॥
जया संघरकि
धम्मं फासे अतरं ।
तया पूयर कम्मर, अयोडिकलु कर्म ॥ २० ॥ महोत्सव धर्म स्पृशन्यनुषरं तदा नाति अनेकार्थत्वा स्पातयति कर्म्मरजः कम्मैवाऽऽत्मरज्जनाऽज श्व रजः । किंविशिष्टमित्याह-अयोधिक कृतम् - अयोधिकपेण मि ध्यादृष्टिनोपातमित्यर्थः ॥ २०॥
जया चूणइ कम्मर, अबोकि कर्म ॥
तया सव्यचगं नाव, दंसणं चाभिगच्छ ॥ २१ ॥ यदा पुनाति कर्मजः अयोधिकतम् त ज्ञानमशेपपचिषयं दर्शनं चाशेपश्यविषयम् अधिगत्या रणाभावादाधिक्येन प्राप्नोतीत्यर्थः ॥ २१ ॥
जया सव्यचर्ग नाम चाजिगच्छ ।
,
-
तया लोगमलोगं च, जियो जाइ केवली ॥ २२ ॥ यदा सर्वत्रगं ज्ञानं दर्शनं चाधिगच्छति, तदा लोकं चतुर्दशरज्ज्वात्मकमलोकं चानन्तं जिनो जानाति केवली, लोकौ च स. पूर्व, नान्यतरमेवेत्यर्थः ॥ २२ ॥
जया लोगमसोगं च जियो जागा केली ।
तथा जोगे निरंजिया, सेझेसि परिवज्जइ ॥ २३ ॥ यदा लोकमलोकं च जिनो जानाति केवली, तदोचितसमयेन योगमायाले प्रतिपद्यते भवोपप्राहि
कर्मशकयाय ॥ २३ ॥ जया जोगे निरंजिता सेल पडिवल
सपा कम् खविचाणं, सिद्धिं गच्छ नीरओ ॥ २४ ॥ यदा योगान्निरुध्य शैलेशीं प्रतिपद्यते, तदा कर्मकपयित्वा भवोपप्राह्यपि सिद्धिं गच्छति लोकान्तक्षेत्ररूपां नीरजाः सकलकर्मविनिर्मुकः ॥२४॥
जया कविता थे, सिद्धिं गच्छ नीरओ। एं, तथा लोगमस्वपस्यो, सिको हवसासो ॥ २५ ॥ यदा कर्म क्षपयित्वा सिद्धिं गच्छति नीरजाः, तदा लोकत्रैलोक्योपरिवर्ती, सिको भवति शाश्वतः कर्मबीजानादनुरुधर्मेति भाषा उन्को धर्मफलाः षष्ठो ऽधिकारः ॥ २५॥
मस्तकस्थः
साम्प्रतमिदं धर्मफलं यस्य दुर्लभं तमभिधित्सुराह-
मुहसायगस्स समण-स्स सायाउलस्स निगामसाइस्स । उच्छनापाविस झरा सुगइ तारिगस्य ॥ २६ ॥ सुखाकस्याभिधाखमकुम
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धम्मफल
धम्मरयगण
जितस्य, साताssस्य नाविसुखार्थे व्याक्षिप्तस्य, निकामशायि धम्मरयण-धर्मरत्न - न० | धर्म एव रत्नं धर्मरत्नम् । दर्श० २ नासूत्रार्थयेामहस्य समानस्य उत्
तव । धर्माणां मध्ये यो रत्नमिव वर्तते जिनप्रणीतो देशविरतिसर्वविरतिरूपों धर्मो धर्मरत्नम् । ध० १ अधि० । जिनप्र णीतशचिरतिस्सर्वविरत्यात्मक धर्मरूपे सकलैहिकामुमिक सम्पत्तिजनके ऽचिन्त्यचिन्तामणौ, दश० ४ श्र० ।
दियोपपदार्थ साथै परिज्ञानप्रयस्य जन्मजरामररोगका दुदीत्यनिमितस्य मध्यवस्य स्वर्गा गवर्गऽऽदिसुखसंपत्संपादनाबन्ध्यनिबन्धनं सफर्मरत्नमुपादातुमुचितं तदुपादानोपायच गुरूपदेशमन्तरेण न सम्यग् विज्ञायते, चानुपायप्रवृत्तानामभीष्टार्थसिद्धिरित्यतः कारुण्य पुण्यधर्माधिपादानानोपदेशं दातुकामः सूच कारः शिष्टमार्गानुगामितया पूर्व तावदिष्टदेवतानमस्काराऽऽदि प्रतिपादनार्थममायामाह
न
सोलन योकारोति यः स तथा तस्य । किम् ?, इत्याह--दुर्लभा दुष्प्रापा, सुगतिः सिद्धिपर्यवसाना, तादृशस्य भगवदाज्ञालोपकारिण इति गाथार्थः ॥ २६ ॥
( २७२५ ) अभिधानराजे |
इदानीमिदं धर्मफलं यस्य सुलभं तमाह-गुणपाणयस्य सज्जुबई खंतिसंजपरयस्स | परिस जितस्य तुला सुगर तारिंसगस्स ॥ २७ ॥ पच्छाविपयाचा खिप्यं गच्छेति अमरजनलाई । जेमि पिओ तो सं-नमो यतीय नरं च ॥ २८ ॥ तपोगुण प्रधानस्य प्रष्टाष्टमाऽऽदितपोधनचतः. ऋजुमतेम प्रवृत्त कान्तिसंयमरतस्य कान्तिप्रधान संयम से बिना इत्यर्थः । पापा जयोऽसुलभा गति रुक्तलक्षणा, तादृशस्य जगवदाज्ञाकारिण इति गाथार्थः ॥ २७ ॥ पश्चादपि वृद्धावस्थायामपि ते प्रयाताः प्रकर्षेण याता अवि राधितसंयमा अपि सन्मार्ग प्रपन्नाः शीघ्रं गच्छन्ति श्रमरभचनानि देवविमानानि । ते के ?, इत्याह-येषां प्रियं तपः संयमः, कान्तिः, ब्रह्मचर्ये च ॥ २८ ॥ दश० ४ श्र०
धम्मन धर्म मं० १ ० । धम्ममड़-धर्ममति - स्त्री० । धर्मबुद्धौ,
इजण विप्पोगे, आपमियरस रोगघत्थस्स । वइपरिणामेय तहा, धम्मम होर पापण ॥ १ ॥ " दर्श० १ तत्व | धम्म- धर्ममार्ग - पुं० । परलोकगामिनि मार्गे, पं० ०
४ द्वारा |
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धम्ममाण - ध्मायमान- त्रि । भस्त्रावातेनोद्दीप्यमाने, " लोह गरधम्ममाणधमधर्मितघे सं" नृपा० २ श्र० । अग्निना तामाने, झा० १ ० ०
धम्ममित्त - धर्ममित्र - पुं० । धर्मसुहृदि, पो० ६ विब० । पद्मप्रभनिस्य एवंभामधेये, स० । धम्यमुति-धर्ममूर्ति स्त्री
शिवसिंहशि जय जे० ३० धम्ममुद्ध-धर्ममुख १० अर्माणां मुखभित्र मुखमुपायो धर्ममु खम् । धर्मोपाये, “धम्माणं कासवो मुहं ।" उत्त० पा०२५ २० - न० । धर्मलक्षणवृक्कस्य मूलमित्र मूत्रम् ध धम्ममूल-धर्ममूल-२० मूलभूते जीवदयाऽऽदिके, दर्श० २ तव । ( तानि च 'धम्म' शब्देऽस्मिन्नेव भागे २६७३ पृष्ठे दर्शितानि ) धम्म मेह- धर्ममेव पुं०
|
मेधाविवेकाचममेदति
मेघस्य सर्वच विवेकण्यास माधिरित्युक्तल करणे असंप्रज्ञातापरनामधेये समाधिभेदे, द्वा०
[स
धर्म
२० द्वा० ।
धम्मय - धर्मद-पुं० । ' भ्रम्मद' शब्दार्थे, स० १ सम० । धम्मरधर्मरवत्रिबाध पञ्चवि
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० उद्युक्तविहारिणि, "धम्मरयकुत्रसूरीणं । " उद्युकविहारिणाम जीवा
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नमिऊण सयलगुणरय - कुलहरं विमल केवलं वीरं । धम्बरपणत्थियाणां जलाण वियरेमि जसं ।। १ ।।
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पूर्वानाननमस्कारद्वारे विविनायकोपशान्त ये मममम उतरार्द्धन, चाभिधेयमिति संयोज पुनः सामगये। तथाहि संबन्धस्तादुपायो पेलणा, साबातवेदं शास्त्रमुपायः साधनं वा समु वा शाखार्थपरिज्ञानमिति प्रयोजनं तु द्विवि पुनरम्परम्परभेदादेकैकं देवा त
स्वानुग्रहः परम्परम्-अपवर्गादिप्राप्तिः। तथा चोक्तम्- "सर्वझोक्तोपदेशेन यः सच्चानामनुग्रहम् । करोति दुःखतप्तानां स प्राय॥ १ ॥ इति श्रतुः पुनरनन्तरं - शाखार्थ परिज्ञानं, परम्परं तस्याप्यपवर्गप्राप्तिः । उक्तं च-" सम्यक् शा
परिज्ञाना - रिक्ता भवतो जनाः । लब्ध्वा दर्शनसंशुकिं ते यान्ति परमां गतिम् ॥ १ ॥” इति । साम्प्रतं सुत्रव्याख्यान. स्वा प्रणय कम है, वीरं कर्मविदारणातपसां विराजन बर्याच जगति यो बीर इति स्यादवाद बि दारयति यत्कर्म, तपसा तद् विराजते । तपोवीर्येण युक्तश्च, तस्माद्वीर इति स्मृतः ॥ १ ॥ " तं वीरं श्रीमद्वईमानस्वामिनम् । किंविशिष्टम् - सकलगुणरत्नकुल गृहम् सकलाः समस्ता ये गुणाः क्षमा मार्दवाऽऽजे वाऽऽदयःत पत्र रौषदारिद्यमुद्राविद्या बकत्वात्सकल कल्याणकनापकारत्वाश्च रत्नानि सकलगुणरस्नानि तेषां त्रगृहमुत्पत्तिस्थानं तं सकलगुणरत्नकुम्ल गृहम् । पुनः
किविशिष्टम ? - विमल केवलम-विमलं सकलतदावारकक रेणुसंपर्कवित्वेन निर्मलं केवलं केवलाऽऽस्यं ज्ञानं यस्य स विमल केवलस्तं क्त्वाप्रत्ययस्य चोत्तरक्रियासापेकत्वादुत्तरक्रियामाह-ति कम उपदेशम् उपदेशतिनिवृत्तिनिमित्तवचनरचना पञ्चस्तम. के. योजनेपो ओकेश्यः कथंभूतेभ्यः परार्थयोर्ग तिप्रपतन्तं प्राणिगणं धारयति, सुगतौ धते चेति धर्मः। उक्तं च"दुर्गतिप्रसृतान् जन्तून्, यस्माद्धारयते ततः । धत्ते चैतान् शुभे स्थाने, तस्माकर्म इति स्मृतः ॥ १ ॥” इति। स एव रत्नं प्राख्यायन्ते मृगयते इत्येवं शीला येते विस्तेभ्यः सूनुष्यच प्राकृतणवशात् यददुः प्रभुपादायी १३ गाथाक्षराचा ॥ भावार्थ:-मध्ये ति पूर्वकामियाना हिलोचरकालकिये स्थाषा
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धम्मरयण
दशादादिना पदेनेकानि नित्यवस्तुविस्तारवाद प्रादिमृगयोर्मुख बन्धो व्यधायि यतोऽनैकान्तेन नित्योऽनिस्यो या की क्रियायं कर्तुमी किया तो द्वितीया कर्तुराभ्यां द्वयोरध्या कृतिरिति । मकलगुणरत्नकुत्र गृहमित्यनेन जगवतः श्रीमत्पचिमतीर्थाधिनाथस्य पृजातिशयः प्रकाश्यते । तथा च पूज्य.
पचाईप्रथमिकविधीयमानानामवशसनुत्परिको रकोटी बिटसंघः सुरासुरनरनिकरना वकैरपि गुणः । नक्तं च
"सन्चो गुणेहिं गएको गुणादियजद बोर्गे वीरस् संभंतमविउश्रो, सहस्लनयणो सययमेइ ॥ १ ॥” इति । विमल केवलमित्यमुना तु ज्ञानातिशयसंपन्नतया प्रसिकसि. कार्यपार्थिवनस्तनिशीथिनीयस्य जिननाथस्य वचनातिशयः प्रपञ्च्यते । यतः केवलज्ञाने सत्यवश्यं भाविनी भ मी सार्थकरनामकर्मण इत्यमेव वेद्यमानत्वात् पास्यामि
वेश्वर, अगिला धम्मदेसाईहिं | इत्यादि । वीरमिति सान्वयपदेन च जगवतः समृतका कषितनिः शेषापायनिबन्धनकर्मयातस्य वत्प्रतिनेश्वरस्यापगमा तिशयः प्रस्पष्टं निष्टङ्कयते यतोऽपायभूतं भवभ्रमणकारण स्वात्सर्वमपि कर्म । तथा चाऽप्रामः" सव्वं पार्व कम्मं, भामिज्जर जेण संसारे । " इति । धर्मरत्नार्विज्य इत्यनेन श्रवणाधिकारिणामर्थित्वमेव मुख्यं लिङ्गमित्यजाणि । यदुकं प रोपकार भूरिभिः श्रीहरिनप्रसूरिभिः" तत्थादिगारी अत्थी, समस्य जोन सुपरिधी जो विणीओ समु हो पुच्छरमाणो व" ॥१॥ इति जनानामित्यनेन बहु नेदमुदितं भवति यथा नैकमेवेश्वराऽऽदिकमाश्रित्योपदेशदाने प्रवर्तितव्यं, किंतु सामान्येन सर्वसाधारणतया । तथा चाऽऽह भगवान् सुधर्मस्वामी - "जहा पुन्नस्स कत्थइ, तहा तुच्छस्स क स्थइ । जहा तुच्नस्स कत्थर, तहा पुन्नस्स कत्थई ॥ १ ॥” इति । तिराम्युपदेशमिती हायमाशयः न निजशाभिमानेन न परपरामेायेन कस्यचिदुपायानं किं कथं तु नामाऽमी जन्तवः सद्धर्म मार्गमासाद्यसाद्य पर्यवसितं महानन्दामन्दाऽन्द दो दमवास्यन्तीत्यनुषाः परेषामार यदजाणि
I
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( २७२६ )
अभिधानराजेन्द्रः ।
"
युद्धमार्गोपदेशेन यः सत्वानामनुग्रहम् । करोति नितरां तेन कृतः स्वस्याप्यसौ महान् ॥ १ ॥ "
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तथा
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न जवति धर्मः श्रोतुः, सर्वस्यैकान्तो हितश्रवणात् । मानवति ॥ इत्युक्तः सभावार्थः सकलोऽपि गाथार्थः ॥ १ ॥
अथ यथाप्रतिज्ञातं विभणिषुः प्रस्तावयन्नाहभवसहिय अपारे दुई जंतू । तस्य च अणस्थर स्ययं ॥ २ ॥ भगम्यमन्नारकसिममरण कर्म
"
न इति जवः संसारः, स एव जन्मजरामरणादि जनधारणाज वधि विविधतनयापारेऽपये मा खानामिति शेषः मनुम दूरे देश नृति सामग्री र गग
,
पन्ना श्रीमानस्वामिनापदादा मुनिं प्रति
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13
डुब्न खलु माणुसे भवे, चिरकालेण वि सभ्यपाणिणं । गाढा य वित्रागकणो, समयं गोयम ! मा पमाय ॥ ४ ॥ इति । ध० र० । (अस्या अर्थः ' दुमपत्तय' शब्देऽस्मिन्नेव भागे २५७० पृष्ठे उक्तः )
अम्यैरयुक्तम
धम्मरयण
श्रीगीतमा
" संसारकान्तारमपास्तपारं, बम्ब्रम्यमाणो लभते शरीरी । कृष्ण सुखस्यबीजं. प्रदुष्कर्म |१|
मरे की विशेष पी. गेषु सिंहः प्रथमो
तो मीनृत्सु सुवर्णशैलो, भवेषु मानुष्यभवः प्रधानः ॥२॥”
तथा
" अनर्थ्याएयपि रत्नानि लभ्यन्ते विभवैः सुखम् । दुर्लभ रत्नकोट्याsपि, कणोऽपि मनुजा ऽऽयुषः ॥ १ ॥ " इति । जन्तूनां प्राणिनां तत्रापि मरणमितिनान्तेनाभिष्यन्ते ये दारिद्रयोपवाऽऽदयोऽपायास्ते यिन्वयन्ते येन तदनं किंदि स्वाह सन् साधुः पूर्वापराविरोधत्रनृतिगुण परावाकपरिकल्पितधर्मापेक्क्या शोभनो धर्मः समः सम्य दर्शनादिकः, स एवैहिकार्थमात्रप्रदाषीतर रत्नापक्कया शास्वसानन्तमेोकार्थदानमिति ।
अथासुमेधार्थं दृष्टान्तविशिष्टं स्पष्टयन्नाहजह चिंतामणिरसुल न हो पा गुणवज्जिया, जियाण तह चम्मच पि ॥ २ ॥ यथा येन प्रकारेण निन्तामणिरत्नं सुप्रतीतं सुलभं सुप्राप. (हुति जायते भवानामतुः स्वल्पो विभवः- कारणे कार्योपचाराद्विनवकारणं पुण्यं येषां
ध्वजाः स्वइत्यर्थान् तथापि वत् । तथा गुणा अक्षुद्रताऽऽदयो वक्ष्यमाणस्वरूपास्तेषां वि शेषेण भवनं सत्ता गुणविजवः । अथवा गुणा एव विजवो वि तितेन बर्जिनानां रहितानां जय प्राणिनाम् । उक्तं च- "प्राण द्वित्रिचतुः प्रोक्ताः, भूतानि तरवः स्मृ ताः । जीवाः पञ्चेन्द्रिया ज्ञेयाः शेषाः सत्वा इतीरिताः ॥ १ ॥ " अपिशब्दस्य वक्ष्यमाणस्येह संबन्धादेवं नावना कार्या एकेन्द्रियविकलेन्द्रियाणां तावद्धर्मप्राप्तिर्नास्ति, पञ्चेन्द्रियजीवामामपि तयोग्यता हेतु गुण सामग्री विकलानां तथा कारण धर्मरत्नं सुलभं न भवतीति प्रकृते संबन्ध इति । पूर्वसूचतपश्चयम
"
बहुविधजो हरिय ६ अस्थि हरिथणउरं पुरं पुरन्दरपुरं व वरं ॥ १ ॥ तत्र श्रेष्ठिगरिष्ठः पुन्नागो नागदेवनामाऽऽसीत् । निम्सीलगुणधरा, वसुंधरा गेहिणी तस्स ॥ २ ॥ तनयो विनयोज्ज्वल-मतिविभवभरो बय जयदेवः । दक्खो रयणपरिक्खं, सिक्ख सो वारस समा उ ॥ ३ ॥ पत्रास चिन्तितार्थदानपद्रुम । चिन्तामणिप्रमुत्तुं, सेसमणी गणइ उबलसमे ॥ ४ ॥ सोमः पुरे सकते। दङ्कं द्वेण घरं, घरेण भमिश्र श्रपरितंतो ॥ ५ ॥
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( २७२७ ) अभिधानराजेन्
धम्मरयण
न च तमवाप दुरापं, पितरावूत्रेऽथ यद् मयाऽत्र पुरे । चिंतामणी न पत्तो, तो जामि तयत्थमन्नत्थ । ६ ॥ ताज्यामभाणि वत्स !, स्वच्छमते ! कल्पनैव खल्वेषा | अन्नत्थवि कत्थई न-स्थि एस परमत्थम्रो भवणे ॥ ७ ॥ रासपचे मन्येरपि वरच निम्मलकमलाकलियं, भवणं ते होई जेणमिणं ॥ 5 ॥
कोऽपि बिना रत्नास रचितनिश्चय चतुरः । पारितोपियरे गिमा दृष्णिापुरश्र ।। ९ ।। नगर गणप्रमाकर फडवनपयोधितरेषु |
गणपणमणो, खुरं भतो किलिस्संतो ॥ १० ॥ मानो विमनाः, दयी कि नास्ति सत्यमेवेदम् । अव न तस्सऽत्थित्तं, न अन्नदा होइ सत्युचं ॥ ११ ॥ इति निश्चित्य स चेतसि, निपुणं बम्भ्रमितुमारभत भूयः । ॥ १२ ॥
वृष्नरेणैकेन च सोऽमाणि यथा मणीवर्तीद्दास्ति । खाणी मणीणं तत्थ य, पवरमंणी पावर सपुन्नो ।। १३ ।। तत्र च जगाम मणिगण-ममलमनारतमथो मृगयमाणः । एगो य तत्थ मिलिश्रो, पसुवालो बाल्लिसो अहियं १४ ॥ जयदेवेन निरैयत् वर्तुल उपलब्ध करतले तस्य । गहि परिच्चियो तह, नाश्र चिंतामणि त्ति इमो ॥ १५ ॥ सोऽयाचितेन समुद्दा, पशुपालः प्राह किममुना कार्यम् ? |
rs वणी सगिद्दगश्रो, बालाणं कीलणं दाहं ॥ १६ ॥ सोऽग्दादश इह, ननु बहवः सन्ति किं न गृह्णासि ? । सिडिओ भाइ श्रहं समुस्सुश्रो निययगिगमने ॥ १७ ॥ तद्देहि मह्यमेनं त्वमन्यमपि भ! लप्स्यसे यत्र । अपरोवयारसील तरोण तह विहु न सो देश ॥ १८ ॥ तत एतस्यापि च वर-मयमुपकर्त्ताऽस्तु मा स्म जूद फलः । इय करुणासियम, सिट्ठि जण श्राभीरं ॥ २६ ॥ यदि भ ! मम न दरले चिन्तामणिमेनमात्मनाऽपि ततः । श्राराह जेण तु पि चिंतियं देश खबु एसो ॥ २० ॥ इतरः प्रोचे यदि सत्यमेष चिन्तामणिर्मयाऽचिन्ति । ता वोरकरिरकर- पमुहं मह देव बहु बहुयं ।। २१ ।। अथ सितविकसितमुखः, श्रेष्ठितः स्माऽऽह चिन्त्यते नैवम् । किं तुनवासतिगंतिम स्यणिमुद्दे वित्तमपि ॥ २२ ॥ चिनियम विधायो । कपूर कुसुममाई - हि पूइडं नमिय विद्धिपुष्यं ॥ २३ ॥ तदनु विचिन्त्यत इष्टं, पुरोऽस्य सर्वमपि लभ्यते प्रातः । श्य सोठं गोवालो, वि बागियागाममभिनिओ ॥ २४ ॥ न स्थास्यति हस्ततले, मणिरत्नं नूनमिदमपुण्यस्य । इय त्रितिय सिठिसुश्रो, वि तस्स पुट्टै न छड्डे३ ॥ २५ ॥ गच्छन् पथि पशुपालः प्राह मणे ! बागिका इमा अधुना । विविशिय किजिय घणसा-रमाइ काहामि तुह पूयं ॥ २६ ॥ मस्ति साम्यो भवेयमि तेण भणि पुणो पयं ॥ २७ ॥
देव
दूरे ग्रामस्तावन्मणे ! कथां कथय काञ्चन ममाने । लोह कम नसुनेो ॥ २०॥ चतुति देवस्तु इ पुरुतं वृत्तो वि जंपर जाव नेत्र मणी ॥२६॥ तावदुवाच स रुष्टो यदि हुङ्कृतिमात्रमपि न मे दत्से ।
धम्मरयण
ता चिंतित्थ संपा यम्मि तुह केरिसी श्रासा ? ॥ ३० ॥ तचिन्तामणिरिति ते, नाम मृषा सत्यमेव यदि चेदम् । जं तुह संपत्तीप, वि न मह फिट्टा मणे ! चिंता ।। ३१ ।। किं च कणमपि योऽहं, रन्ध्रातकैविना न हि स्थातुम् । सन्तो सोहं कहमिह उववासतिगेण न मरामि ? ।। ३२ ।। तन्मे मारण देतो- र्वणिजारे ! वातोऽसि तफच्छ । जत्थ न दीससि इय भणि-य लंखियो तेण सो सुमणी ॥३३॥ जयदेव संपूर्ण मनोरथः प्रतिपूर्वम् । चितामा नियम लिओ ३४ ॥ मणिमखितवैभव पश्चिम पुरे नगरे
नाम परिसस् ॥ ३५ ॥ बहुपरिकरपरिकलितो, जननिव है गयमान सुगुणगणः । हरियणपुरम्म पत्तो, पणओ पियराण चलणेसु ॥ ३६ ॥ अभिनन्दितः स ताभ्यमानः समाः। थुणिओ से सजणेणं, भोगाणं जायरां जाओ ॥ ३७ ॥ तस्यास्योपनोरम
श्रमणी खणी व परिभमंतेण कद कह वि ॥ ३८ ॥ जीवेन लभ्यत इयं मनुजगतिः सन्मणीवतीतुल्या । तत्थवि नहो चिंतामणि व जिणदेसिओ धम्मो ॥ ३६ ॥ पद्मपख यथा ख मा न लेभे ऽनुपात सुकृतकः । जह पुष्प चित्तजुत्तो, बणिपुत्तो पुण तयं पत्तो ॥ ४० ॥ जीवनतेन घर्ममिदम्। श्रविकल निम्मल गुणगण-विवजरो पावश् तयं तु ॥ ४१ ॥ मेनं विनिशम्य सम्रग्रहणे वदा । श्रमुदारिद्र्यविनाशदकं तत्वद्गुणव्यमुपार्जयध्वम् ॥४२॥ " इति पशुपालकचेतिगाचार्थः । कविगुणसंपन्नः पुनस्तत्प्राप्तियोग्य इति प्रश्नमाशरूपा
सगुणसमेओ जुग्गो एवस्थ नियर नथियो । तव पद, ता जयब्बं जो नणियं ॥४॥ एभिरेकविंशतिगुणैर्वक्ष्यमाणैः समेतो युक्तः । पाठान्तरेसमृद्ध सम्पूर्ण समको वा देदीप्यमा योग्य उचितः तस्य प्रस्तुतस्य जिनमा मणितः प्रतिपादितः दनिरिति शेषः । ततः किम् ?, इत्याह- (तदुवज्रणम्मिति)
गुणानामुपाने मदत हायमाशयः यथा प्रासादार्थिनः शल्योद्वारपीबन्धादावाविविनानाविश्वाद्विािसादस्य तथा नि रेते गुणाः सम्यगुपार्जनीयाः, तदधीनत्वाद्विशिष्टधर्मसिरिति तो यस्माद्भणितं गदितं पूर्वशिमेरिति गम्यत इति । ध० ० १ अधि० ।
चम्पक्स जोगो अपइसोम्पो । झोप अकूरो, भीरू असदो सुविधो ॥२७०॥ सज्जालु दयालू मञ्जस्यो सोम्मदिहि गुणणरागी । सकड़-अपक्खजुचो, सुदीददंसी बिसेसन्नू ॥ ३७२ ॥ बुढापुगो विणीओ, कयन्नुओ पर हिश्रत्थकारी छ ।
चेष लखो, नवी गुणो इन सट्टो ||३७२ ॥ परतीर्थिकतानां सर्वेषामपि धर्माणा मध्ये प्रधानत्वेन यो रत्नमिव वर्तते स धर्मरत्नम, जिनोदितो देशविरश्यादिरूपः समाचारः । ह्रस्य योग्य उचिता, ईस्वरूप एव श्राव
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(१७२८) धम्मरयण अभिधानराजेन्द्रः ।
धम्मरयण को जवति । तद्यथा-अनुष इत्यादि । तत्र यद्यपि तुझस्तुच्छा, चापरेण कृतं जानाति, न निहते इति कृतकः । कृतघ्नो हि सर्वकुषः क्रूरः, कुमो दरिका, जो लघुरित्यनेकार्थः कुद्रश- प्राप्यमन्दानिन्दा समासादयति १६ । परेषामन्येषां दितानी. दस्तथाऽपीह तुच्छार्थो गृह्यते, तस्यैव प्रस्तुतोपयोगित्वात। प्रयोजनानि कर्तुं शीवं यस्य स परहितार्थकारी, सदाक्किण्योततः कुछस्तुच्छोऽगम्भीर इत्यर्थः । तद्विपरीतोऽक्षुकः। स च अभ्यर्थित पव करोत्बय पुनः स्वत एव परहिताय प्रवर्तते इ. सकामतित्वात्मुखेनैव धर्ममचबुध्यते १। रूपवान संपूर्णाङ्गो- त्यनयो दः। यश्च प्रकृत्यैव परहितकरणे नितरां निरतो नवति, पातया मनोहराऽऽकारः, स च तथारूपसंपन्नः सदाचार- स निरीहवित्ततयाऽन्यानपि सम्म स्थापयति २० तथा-सप्रवृष्या भविक लोकानां धर्मे गौरवमुत्पादयन्प्रान्नाबको भव. अधमिव लब्धलकं शिकणीयानुष्टानं येन स सब्धलतः, पूर्वभवाति । ननु नन्दिषेणहरिकेशबजप्रभृतीनां कुरूपाणामपि धर्मप्र. ज्यस्तमिव सर्वमपि धर्मकृत्यं करोन्येवाधिगच्यतीति भावः । तिपत्तिः श्रूयते, प्रतः कथं रूपवानेव धर्मेऽधिक्रियते । सत्य- ईशो हि वन्दनप्रत्युऐकणाऽऽदिक धर्मकर्म सुखेनैव शिक्षमाह द्विविधं रूपम्-सामान्यम,अतिशायि च। तत्र सामा- यितुं शक्यते । तदेवमेकाविंशतिगुणसम्पन्नश्राद्धः श्रावको नवन्यं संपूर्णाङ्गत्वाऽदि । तञ्च नन्दिषेणाऽऽदीनामप्यासीदेवेति न तीति । प्र० २६ए द्वार । ध०। दर्श०(१-अकुरुत्वे भीमसोविरोधः। प्रायिकं चैतत्,शेषगुणसावे कुरूपस्वस्याप्यपुष्टत्वात्।। मकथा 'जीमसोम' शब्दे) (२-रूपवरचे सुजातकथा 'सुजाय' एवमग्रेऽपि । अतिशायि पुनर्यद्यपि तीर्थकराऽऽहीनामेव संभवति, | शम्दे) (३-प्रकृतिसौम्यत्वे विजयश्रेष्ठिकथा 'विजयसेट्रि'शतथाऽपि येन क्वचिद्देश काले वयसि वा वर्तमानो रूपवानय. ब्दे) (४-सोकप्रियत्वे विनयधरकथा 'विणयंधर' शब्द) मिति जनानां प्रतीतिमुपजनयति तदेवेहाधिकृतं मन्तब्यम । (५-अकरत्वे कीर्तिचन्ऽकथा 'अककर'शब्दे प्रथमभाग १२६ २। प्रकृल्या स्वभावेन, सौम्योऽभीषणाऽऽकृतिर्विश्वसनीयरूप | पप्ले प्रतिपादिता)(६-जीरुत्वे विमलदृष्टान्तः 'विमल' शब्द) इत्यर्थः। एवंविधश्च प्रायेण न पापव्यापारे व्याप्रियते,सुखाऽऽश्र. (७-प्रशठभावे चक्रवचरित्रम् 'असढ' शब्दे प्रथमभागे ८३५ यणीयश्च भवति ३ । सोकस्य सर्वजनस्येह परलोकविरुका पृष्ठे गतम्) (७-सुदाक्तिराये क्षुल्लककुमारकथा 'अलोभया' शब्द विवर्जनेन दानशीलाऽऽदिगुणेश्च प्रियो ववभो लोकप्रियः, सो- प्रथमभागे ७८५ पृष्ठे गता) (६-जालुत्वे विजय कुमारकथा ऽपि सर्वेषां धर्मे बहुमानं जनयति ४ । अक्रूरोऽक्लिाध्य- 'विजयकुमार' शब्द) (१०-दयालुत्वे यशोधरवृत्तम् 'सुरिंद दत्त' षप्तापः, करो हि परच्छिद्रान्वेषणस्य सम्पटः कलुषमनाः | शब्द) (११-माध्यस्थत्वे सोमवसुवृत्तं 'सोमवसु'शब्दे ) (१२. स्वानुष्ठानं कुर्वन्नपि फझनाग्भवतीति । भीरुहिकाऽऽमुमिका- गुणानुरागित्वे पुरन्दरराजचरित्रं 'पुरंदर' शब्दे ) (१३-सपाययसासनशीलः। स हि कारणेऽपि सति न निःशक्कम- कथायां रोहिणीशात 'रोहिणी' शब्दे) (१४-सुपक्षगुणे भड़. धर्मे प्रवर्तते ६। अशठः सदऽनुष्ठाननिष्ठः, शगे हि बञ्च- नन्दिवृत्तं 'जहणंदि' शब्द) (१५ सुदीघदर्शित्वे धमित्रधति. नप्रपञ्चचतुरतया सर्वस्याप्यविश्वसनीयो नवति ७ । सदा- वृत्तं 'धणमित्त' शब्देऽस्मिन्नेव भागे २६५५ पृष्ठ गतं, भद्दा' शब्दे विषयः स्वकार्य परिहारेण परकार्यकरणकरसिकान्तःकरमा, च)१६-विशेषज्ञत्वे सुबुद्धिमन्त्रिवृत्तं 'सुचुद्धि' शब्दे)(१७सच कस्य नाम नानुवर्तनीयो भवति ८॥ ३७॥ (ल. वृद्धानुगत्वे मध्यमबुद्धिचरित्रं ' मज्झिमबुकि ' शब्दे ) जामश्रोत्ति)प्राकृतशल्या सजावान् स स्वल्पकृत्या उसेवन- (१७-विनीतत्वे नुवनतिल कवृत्तं ' तुवणतिय ' शब्दे ) वार्तयाsपि वीडति, स्वयमङ्गीकृतमनुष्ठानं च परित्यक्तुं न श. (१६-कृतज्ञत्वे विमलकुमारकथा ' विमल कुमार ' शब्दे ) क्नोति दयालुईयावान् , दु:खितजन्तुजातत्राणानिलाषुक (२०-परहितकारित्वे नीमकुमारकथा 'भीमकुमार' शब्दे ) श्त्यर्थः। धर्मस्य हि दया मुसमिति प्रतीतमेव १० । मध्यस्यो- (२१.लन्धनदयत्वे नागार्जुनकथा 'णागज्जुण' शब्देऽसिव रागद्वेषत्यक्तधी, स हि सर्वत्रारक्तद्विष्टतया विश्वस्याऽपि व- मागे १६३५ पृष्ठे गता) सभी भवति ११ ॥ सौम्यधिः-कस्याप्यनुवेजकः, स हि
साम्प्रतमेतन्निगमनायादवर्शनमात्रेणाऽपि प्राणिनां प्रीति पचयति १२ । गुणेषु गा- एए इगवीसगुणा, सुयाणुमारेण किंचि वक्खाया। म्भीर्यस्थैर्यप्रमुखेषु रज्यतीत्येवं शीलो गुणरागी, सहि गुणपक्षपातित्वादेव सगुणान् बहु मन्यते, निर्गुणांचोपेकते १३॥
अरिहंति धम्मरयणं, पित्तुं एएहि संपन्ना ।। २ ।। सकचनरुत्रय उत्कथाः सदाचारचारित्वादिचर्या ये सपना
पते पूर्वोक्तस्वरूपाः, एकविंशतिसंख्या गुणाः श्रुतानुसारेण सहयोजनाम्तैर्युक्तोऽन्वितो धमांत्रिवन्धकपरिवार इति
शास्त्रान्तरोपलम्भद्वारेण, किञ्चिन्न सामस्स्येन, व्याख्याताः स्व. भावः । एवंविधश्च न केनचिदुन्मागों गन्तुं शक्यते १४ ।
अपतःफलतइन्च प्ररूपिताः । किमर्थम्?,इत्याह-यतोऽर्हन्ति योअन्ये तु सत्कथा, सपक्कयुक्तश्चेति पृथक गुणवयं मन्यते, मध्य.
ग्यतासारं धर्मरत्नं ग्रहीतुं, न पुनर्वसन्तनृपवाजलीलामिति स्वः सौम्बररिश्चेति द्वाभ्यामप्येकमेवेति । तथा सुदीर्घदी सु.
भावः । के, श्ल्याह-पभिरनन्तराक्तः गुणैः संपन्नाः संगताः पर्यायांऽऽलोचितपरिणामपेशल कार्यकारी, स किल परिणामि
संपूर्णा बेति। क्या बुरा सुन्दरपरिणामस्वैहिकमपि कार्यमारभते १५ । वि.
माह-किमेकान्तेनैतावद्गुणसम्पन्ना धर्माधिकारिण उताऽप. शेषज्ञः सदितरवस्तुविभागवेदी । अविशेषज्ञस्तु दोषानपि
बादोऽस्यस्तीति प्रश्ने सत्याहगुगत्वेन गुणानपि दोषत्वेनाभ्यवस्यति १६॥ ३७१ ।। वृहान्
पायऽछगुणविहीणा, एएसि मजिक्रमावरा नेया। परिणतमतीननुगच्चति, गुणार्जनबुवा सेवत इति वृक्षानुगः। इत्तो परेण हीला, दरिद्दपाया मुणेयवा ॥ ३०॥ वृद्धजनानुगत्या हि प्रवत्तेमानः पुमान न जातुचिदवि विपदः दाधिकारिणत्रिधा चिस्याः - उत्तमा मध्यमा जघन्याश्च । पदं जवति १७ । विनीतो गुरुजनगौरवकृत , विनयवति हि तत उत्तमाः सम्पूर्णगुणा एव,पाश्चतुर्थाशो दलं, गुण शब्दसपदि संपदः प्रादुर्भवन्ति । स्वरूपमयुपकारमैहिकं पारत्रिक स्य प्रत्येकमनिसंबन्धात् पादप्रमाणे रकेप्रमाणेश्च गुणय चिही.
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(२७२०) अनिधानराजेन्डः।
धम्मश्यगा
धम्मरया
मा विकला:, पतेषामुक्तगुणानां मध्याद ते यथाक्रम मध्यमावरा सिंगाइ जाइँ समए, जणिया मुणियतत्तेहिं ।। १४२॥ केयाः,चतुर्थीशविहीना मध्यमाः,अर्द्धविहीना जघन्या इति भावः,
तेसिँ इमो भावत्यो, नियमइ विहवासारो जणि प्रो। तेभ्योऽपि हीनतरेषु का वार्ता?,श्त्याह-(इत्तो परेणं ति)पतेज्यो.
सपराणुग्गहहे, समासो संतिसूरीहि ॥ १४३ ।। पि,परेणादिप्यधिकैडोना रहिताः, दरिडप्राया अकिञ्चनकजनकल्पाः, 'मुणितव्या वेदितव्याः। यथाहि दरिला बदरकन्द
धर्मरत्नोचितानामुक्तस्वरूपाणां, देशचरित्रिणां श्रमणोपाश
कानां, तथा चरित्रिणां साधूनां, सिङ्गानि चिह्नानि, यानि समये राजरणचिन्ताब्याकुलतया न रत्नक्रयमनोरथमपि कुर्वन्ति,
सिद्धान्त,जणितान्यभिहितानि,मुणिततत्वैरवबुद्धसिद्धान्ततस्वै. तयैतेऽपि न धर्माभिलाषमपि विदधतीति ।
रिति प्रथमगाथार्थः ॥१४२शतेषामयमुक्तस्वरूपो,जावार्थस्तात्पर्य, एवं च स्थिते यद्विधेयं तदाह
निजमतिविजयानुसारतः स्वबुफिसंपदनुरूपं भणितः, सिकाधम्मरयणस्थिणा तो, पढमं एयज्जणम्मि जयव्यं ।
न्तमहाम्भोधेः पारस्य लन्धुमशक्यत्वाद्यावदवबुद्धं तावद्भणि. जं मुघनूमिगाए, रेह चित्तं पवित्तं पि ॥ ३१ ॥ तमिति जावः । किमर्थः पुनरियान् प्रयासः कृतः, इत्याद-स्व. धर्मरत्नमुक्तस्वरूप, तदर्थिना तसिप्सुना, तत्तस्मात् कारणात, |
परयोरनुग्रह उपकारः, स एव हेतुः कारणं यस्य जणप्रथममादावेषां गुणानामर्जने विढपने यतिव्यं, तपार्जनं प्रति नस्य तत्स्वपरानुग्रहहेतु, क्रियाविशेषणमेतत्, स्वपरानुग्रहो - यत्नो विधेयः, तदविनाभाविवारूर्मप्राप्तः । अत्रैव हेतुमाह-व
प्यागमादेव भविष्यतीति चेन्न, तत्राऽऽममे कोऽप्यर्थः । स्मात्कारणावरूभूमिकायां प्रभासचित्रकरपरिकर्मितजमावि.
कापि भणितस्तमल्पायुषोऽल्पमेधसश्चैदयुगीना नावगन्तुमीशा वाकलङ्काधारे (रेडहत्ति) राजते, चित्रं चित्रकर्म, पवित्रमपि प्र.
इति समासतोऽष्पग्रन्येन जणितः। कैः ?, इत्याद-शान्तित्रिशस्तमप्यालिखितं सदिति । ध०र० । (प्रभासचित्रकरकथा |
निर्जिनप्रवचनावदातमतिभिः परोपकारैकरसिकमानसश्चक *पभासचित्तगर' शब्दे वक्ष्यते)
कुलविमलनन्नस्तलनिशीथिनीनाथैरिति द्वितीयगाथार्थः।१४३॥
अथ शिष्याणामर्थित्वोत्पादनायोक्तशास्त्रार्थश्रावकसाधुसम्बन्धनेदादू द्विधा धर्मरत्नं प्रतिपाद्येदानी कः कीदृगिदं कर्तुं शक्कोतीत्येतदाद
परिज्ञानस्य फलमुपदर्शयन्नाह
जो परिभावइ एयं, सम्मं सिकंतगन्ज जुत्तीहिं । सुविहं वि धम्मरयणं,तर नरो चित्तुमविगलं सो उ । जस्सेगवीसगुणरय-णसंपया सुत्थिया अस्थि ।। १४०।।
सो मुत्तिमग्गग्गो , कुम्गहगत्तेसु न हु पमई ॥१४॥ द्विविधमपि विप्रकारमपि, न पुनरेकतरमेवेत्यपिशब्दार्थः ।
यः कश्चिद लघुकर्मा,परिभावयति सम्यगालोचयत्येनं पूर्वोतं
धर्मलिनाबार्य, सम्यग् मध्यस्थभावेन, सिद्धान्तगीभिरागधर्मरत्नं पूर्वोक्तशब्दार्थम्, (तरह त्ति ) शक्नोति "शकेश्वय.
मसाराभियुक्तिभिरुपपत्तिनिः, स प्राणी, मुक्तिमार्ग निर्वाणन. तर-तार-पाराः" ||७।४।८६॥ इति वचनात् ।नर ति जाति
गराध्वनि लो गन्तुं प्रवृत्तः, कुग्रदा कुषमाभाविनो मतिमोहनिर्देशानरो नरजातीयो जन्तुर्न पुनः पुमानेवेति, प्रहीतुमुपा. विशेषाःत एव गर्रा अवटा गतिविघातहेतुत्वादनर्थजनकत्वादातुमविकलं सम्पूर्ण,ल एव,तुशब्दस्यावधारणार्थत्वात् । यस्य
च, तेषु नैव पतति,हुशब्दस्यावधारणार्थत्वात् । अत एव सुखेन किमित्याह-यस्य श्रीप्रभमहाराजस्यैवैकविंशतिगुणरत्नसम्पत
सन्मार्गेण गच्यतीति । "अक्खुद्दो रुव पगश्सोमो।"इत्यादिशास्त्रपरुतिप्रतिपादितागुणमाणिक्यविनूतिः, सुस्थिता पुर्वाधाऽऽद्यतित्वान्निरुपवाऽ.
उक्त प्रकरणार्यपरिभावनस्यानन्तरफलम्, अधुना स्ति विद्यते इति । ननु पूर्वमुक्तमेवैकविंशतिगुणसमको योग्योधर्म
परम्परफलमाहरत्नस्योति तत्कि पुनरिदमुच्यते । सत्यम, पूर्व योग्यतामात्रमु
श्य धम्मरयणपगरण-मणुदियहं जे मणम्मि जावंति। कम् , यथा-बालत्वेऽपि वर्तमानो राजपुत्रो राज्याई उच्यते, ते गलियकलिनपंका, निव्याणसुहाई पावंति ॥१४॥ संप्रति करणशक्तिरप्यस्याभिधीयते, यथा-प्रौढीभूतो राजपुत्रः इत्यनन्तरोक्तं,धर्मरत्नमुक्तशब्दार्थ,तत्प्रतिपादकं प्रकरणं शाखाकर्तुं शक्रोत्येव राज्यमिति । ध०र०(श्रीप्रभमहाराजकथा 'सि- विशेषो धर्मरत्नप्रकरणम्,अनुदिवसं प्रतिदिनम्, उपनकणत्वारिप्पभ' शब्दे)धर्मरत्नवक्तव्यताप्रतिबद्धशान्तिसूरिविरचिते प्रतिप्रहरमित्याद्यपि द्रष्टव्यम्।ये केचिदासनमुक्तिगमना मनसि स्वनामख्याते प्रकरणग्रन्थविशेषेच, ध०र०।
हृदये,भावयन्ति विवेकसारं चिन्तयन्ति,ते शुभतराभ्यवसायभातत्र चकविंशतिगुणैर्धर्मरत्नयोग्या नवतीत्यभिधाय विशेषतः जोगक्षितोऽपेतः कसिलपङ्कः पातकमझोत्करो येभ्यस्ते गलितकपूर्वाचार्याणां श्लाघ्यमाह
लिलपङ्काः। (निबाणसुदाईति) निर्वाण सिद्धिस्तत भाधारे ता मुटु इमं नणियं, पुब्बाऽऽयरिएहिँ परहियरएहिं । आधेयोपचारादिह निर्वाणशब्दन निर्वाणगता जीवा उच्यन्ते, इगवीसगुणोवेओ, जोग्गो मइ धम्मरयणस्स ।। १५१॥
सिद्धा इत्यर्थः । तेषां सुखानि प्राप्नुवन्ति । ध०र० । धर्मरत. यत एभिर्गुणैर्युक्तो धर्म कर्तुं शक्नोति, ततः सुष्ठ शोभनमिदं
प्रकरणस्य वृत्तिकारो देवेन्द्रसूरिः। " श्रीधर्मरत्नशास्त्रं, बर्थ भणितमुक्तं पूर्वाऽऽचार्यैः पूर्वकालसंजवसूरिभिः, परदितरतर
स्वल्पशब्दसंदर्भम् । स्वपरोपकार देतो-विवृणोमि यथाश्रुतं न्यजनोपकारकरण लायसः, किं तत् ?, इत्याह-एकविंशतिगुण
किञ्चित्" ॥१॥१० र०। होतो युक्तो, योग्य नचितः, (सति) सदा, धर्मरत्नस्य
"स्वान्ययोरुपकाराय, श्रीमहन्धसूरिणा। पूर्वव्यावर्णितस्वरूपस्येति ।
धर्मरत्नस्य टीकेयं, सुस्वबोधा विनिर्ममे ॥ ८॥
प्रथमां प्रतिमाप्रतिमा, विभ्राणो गुरुजनेषु भक्तिभरम् । अथ प्रकृतशास्त्रार्थमनुवदन्नुपसंहारगाथायुगममाह
विद्वान् विद्याऽऽनन्दः, सानन्दमना निलेखास्याः ॥६॥ धम्मस्यणुच्चियाणं, देसचरित्तीण तह चरित्तीणं । श्री हेमकल शवाचक-परिमतवरधर्मकीर्तिमुख्यबुधैः ।
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(२७३०) धम्मरयण
श्राभिधानराजेन्डः।
धम्मवरचानरंतचकवट्टि (ण) स्वपरसमयककुशलैस्तदैव संशोधिता चेयम् ॥ १० ॥ जितशत्रु पस्तत्र, धारणी सहचारिणी ॥१॥ यादितमल्पमतिना, सिद्धान्त विस्कमिद किमपि शास्त्रे । पासीकमरुचिः सुनु-यथार्थाऽऽस्यः सुधांशुवत् । विद्वद्भिस्तवः, प्रसादमाधाय तच्चोध्यम् ॥ ११ ॥
सुवासनः पुष्पमिव, ऋजुः कमलनाझवत् ॥२॥ बधमल्पशब्द, शास्त्रमिदं रचयता मया कुशलम् ।
वृद्धत्वादन्यदा राजा, जिघृश्चस्तापसव्रतम् । यदवापि धर्मरन-प्राप्तिर्जगतोऽपि तेनाऽस्तु ॥१२॥" ध०र० । दातुकामस्तनूजस्य, राज्य संविनमानसः॥३॥ धम्मरहस्स-धर्मरहस्य-न० । धर्मसर्वस्वे, दर्श० १ तव । सोऽथ मातरमप्राकी-बाज्यं तातः किमुज्झते ।।
तमूचे जननी वत्स!, राज्य संसारवर्डनम ॥४॥ कुशलकर्मगुह्ये, पयं धम्मरहस्सं, विमेयं बुद्धिमतेहिं ।"
पुत्रोऽप्युवाच तहुँच, कार्य तेन ममाऽपि न । पञ्चा०७विव०।
उन्नावपि ततो जातो, तापसौ तापसाऽऽश्रमे ॥ ५॥ धम्मराग-धर्मराग-पुं० धर्मे चारित्रलक्षणे रागो धर्मरागः।
चतुर्दश्यामथाश्रावि, घोषणां सर्वतोमुखीम् । ध. २ अधिः । कुशलानुष्ठानानुरागे, "कंतारे भिन्नहिश्रो, अमावास्यत्यनाकुहिः, प्रभाते भविता ततः ॥ ६ ॥ घयपुग्ने भोतुमिच्छर चुहियो । जह तह सदणुकाणे, अणु- अद्यैव तत्प्रभातार्थ, कार्यः कन्दाऽऽदिसंग्रहः । राभो धम्मराओ त्ति ॥१॥" इत्युक्तलकणे (संथा०) कुशला. अचिन्तयद्धर्मरुचि-रनाकुहिर्वरं सदा ॥७॥ नुष्ठानानुरागे, पञ्चा० ३ विव० । धर्मरागश्चारित्रधर्मस्पृहति । अमावास्यां च दृष्टा स, साधून यातोऽन्तिकावना। द्वा० १५द्वा० । यो• वि.।
अपाक्षीदद्य दः किं ना-कुहिर्याऽथमहद्धनम् ॥८॥ धम्मरागि (ण)-धर्मरागिन-पुं० । श्रुचारित्रसणधर्मानुर- यावज्जावमनाकुट्टि-रस्माकं ना! तेऽभ्यधुः।
ऊहापोडं प्रपन्न ऽथ, जातिस्मरणमाप सः॥९॥ ते, पञ्चा० ७ विव०।
ततः प्रत्येकयुद्धोऽभू-द्वेषं शासनदेच्यदात् । धम्मरुइ-धम्मरुचि-स्त्री० । धर्मपदमात्रश्रवणजनितप्रीतिस
सस्मारैकादशाङ्गानि, सिकः कृत्वा चिरं व्रतम्"॥१०॥ हिता धर्मपदवाच्यविषयिणी रुचिधर्म हमिः। ध०२ अधि०। ध.
एतदेवाऽऽहमश्रकायाम, न चैवं ग्राम्यधाऽऽदिपदवाच्यविषयिण्यपि रु- "सोकण प्रणाली, अणभीश्रो वजिऊण अणगं तु । चिस्तथा स्यादिति वाच्यम,निरुपपदधर्मपदवाच्यत्वेऽस्यैव प्र.
अणव जिपं नवगो, धम्मरुई नाम अणगारो ॥११॥" हणात् । न चैवं चारित्रधर्माऽऽदिपदवाच्यविषधिण्यामध्या.
प्रा.क०। प्रा० म०। प्राचा. विशे०। वाराणसीस्थे स्वनातिः, निरुपपदत्वस्य वास्तवधातिप्रसञ्जकोपपदराहित्यस्य मख्याते नृपे, आ०म० श्रा०चू०।न।प्रा०क.। (तत्कथा "पाविवकणादिति दिक । ध०२ अधि० । धमें श्रुतानी रुचिर्यस्य रिणामिया" शब्द) काम्पिध्यपुरस्ये स्वनामसपाते नृपे, ती०२४ स तथा। स्था०१० नग०। धर्मेण श्रुतधर्मेण रुचिर्यस्थ स धर्म- कल्प । (तत्कथा 'कंपिच' शब्दे तृतीयभागे १७६ पृष्ठे गता) रुचिः। श्रुतधर्माच्यासरुचिके, त्रि०। उत्त• २० प्र०। यो हि
धम्मक-धर्मज्ञब्ध-त्रि०। धर्मेण सुधिकया अब्धं धर्मलम्धम्, धर्मास्तिकायं श्रुतधर्म चारित्रधर्म च जिनोक्तं श्रमते स धर्मरु. चिरिति । स्था०१०म०। धर्मधामणोरभेदाद धर्मश्रकात्मके
उद्देशकक्रीसकृताऽदिदोषरहिते भक्ताऽऽदौ, "ते धम्मलक सम्यक्त्वभेदे च ।
विणिहाय मुंजे" (११) सूत्र०१ श्रु० ११ अ.।(श्य गाथा अथ धर्मरुचेः स्वरूपमाह
अस्या अर्थश्च 'कुसीन' शब्दे तृतीयजागे ६११ पृष्ठे गतः) जो अत्थिकायधम्म, सुयधम्म खनु चरित्तधम्म च ।
धम्मवक्त्या-धर्मव्यवस्था-स्त्री । धर्मस्य प्रमाणप्रसिद्धौ, द्वा० सदह जिणाभिहियं, सो धम्मरुइ ति नायव्यो ॥२७॥
७ द्वा०। साधुसामध्यं धर्मव्यवस्था चानिर्वाह्यत इतीयमत्रा
भिधीयते । “भक्ष्याभक्ष्यविवेकाच, गम्यागम्यविवेकतः । योऽस्तिकायानांधर्मादीनां धर्मों गत्युपष्टम्भादिरस्तिकायध- तपोदयाविशेषाच, सद्धर्मों व्यवतिष्ठते ॥१॥" द्वा०६ द्वा.। मस्तम्.जातावेकवचनम्,श्रुतधर्म मङ्गप्रविष्टाऽऽद्यागमस्वरूपं,स्व.
विदित्वा लोकमुविष्य, लोकसंज्ञां च लन्यते । लुक्यानकारे । चरित्रधर्म वा सामायिकाऽऽदि,चस्य चार्थखात् अधाति,तथेति प्रतिपद्यते,जिनाऽभिहितं तीयकृदुक्तं, स इत्थं व्यवस्थितो धर्मः, परमाऽऽनन्दकन्दनः ॥३॥ धर्मरुचिरितिकातव्यो धर्मेषु पर्यायेषु धर्मे वा श्रुतधाऽऽदौ रु- (विदित्वति)विदित्वा ज्ञात्वा,लोकं स्वेच्छाकल्पिताऽऽचार. चिरस्यति । उत्पाई• २८ अ०। प्रवः । स्था० । दर्शवारा सक्तं जनम् उतक्षिप्य निराकृत्य, सोकसंझा बहुभिलाकैराचीर्णगसोस्थे स्वनामस्यातेऽनगारे, ओघ०। (तत्कथा'णंद' श. मेवास्माकमाचरणीमित्येवरूपां च लभ्यते प्राप्यते। इत्यमुक्तम्देऽस्मिन्नेव भाग १७४८ पृष्ठे गता) रोहितकनगरम्थे स्वना. रीत्या, व्यवस्थितः प्रमाणप्रसिद्धो, धर्मः परमानन्द एवं कन्द. मख्याते साधी, श्रा. ०४०। (तत्कथा ' वेदना' शब्दे, __ स्तस्य भूरुत्पत्तिस्थानम् ॥ ३२ ॥ द्वा० . द्वा०। परिक्षावणियासमि शन्देच) मपुरानगरस्थे स्वनामख्याते
वन-त्रि०। धोपेते, प्राचा८१ श्रु० ३०१30 मुनी, ती०८ कल्प । चम्पानगरीस्थे धर्मघापस्याऽऽचार्यस्य स्वनामख्याते शिष्ये, शा०१ श्रु० १० अ०। (तत्कथा 'मुबई'
धम्पवरचानरंतचक्कट्टि(ए)-धर्मवरचातुरन्तचक्रवर्तिन-पुं०। शब्देऽस्मिन्नेव जागे २५७ पृष्ठे गत) वसन्तपुरस्थस्य जितश| धर्म एवं वरं प्रधानं चतुरन्त हेतुत्वात् चतुरन्तं चक्रमिव सोनूपस्य स्वनामय्याते पुत्रे, श्रा० क०
चातुरन्तचक्रम, तेन वर्तितुं शीलं यस्य सः धर्मवरचातुरन्तच. तथाऽनवघे धर्मरुचिकथा
ऋवती । जी0 ३ प्रनि०४ उ० । त्रयः समुद्राश्चतुर्थी हिमवानि. "धात्रीकोमे सदा सक्तं, बसन्तपुरमनंवत् ।
तिचत्वारोऽन्तास्तषु अनुनया जवाश्चातुरन्ताश्चतुरन्तस्वामिनः,
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धम्मवरचाचरतचकट्टे (ए)
नवरा
श्रेष्ठाः तुरन्त क्रवर्तिनः धर्म्मरचातुरम् चक्रवर्तिनः । क लप० १ अधि० २ ॠण । त्रयः समुद्राश्चतुर्थो हिमवान् एते चत्वा रोऽन्ताः पृथिवाः पर्वतेाविनीता स्वास की बातुरचकवर्ती रहवासी चातुर
चक्रवर्ती येति परयातुरम्यवर्ती राजाति धर्मवि ये परचातुरम्यवर्ती वरातुन ०१ मी०म० धर्म माप कपिला दिधनका चातुरन्त दामादेनदेन चतुभि
। एव
या नरकादिमतीनामन्तकारित्वाचरन्तं तदेव बा तुरन्त यचक्रं भवारातिच्छेदात् तेन वर्तितुं शीलं यस्य स तथा । भ० १ ० १ ३० । धर्म एव त्रिकोटिपरिशुद्धत्वेन सुगताऽऽदिप्रणीतधर्मका लोकतत्वेन चदिका याच परं प्रधानं च गती नरकनिरामर कणानामन्तो यस्मात्तच्चतुरत्नचक्रमिव चक्रं रौsमिध्यास्वाऽऽद्दिमावशत्रु अवनात् तेन वर्तत इत्येवंशी धर्मवर न्तचक्रवर्ती।" चाचरते त्ति" समृद्ध्यादित्वादात्वम् । ६० २ अधि । शेषधर्मप्रणेतृणां मध्ये सातिशयत्वादतिशायिनि धर्मनायके तीर्थ करे, कल्प०१ अधि०२ कण | तीर्थकर वर्ण कमधिकृत्य "घरचावत" यथाहि थिय शेषराज शायी वरचातुरन्त चक्रवर्ती भवति, तथा भगवान् धर्मविषये शेत्रप्रणेतृणां मध्ये सातिशयत्वा तथोच्यते । स०१ सम० । इदमत्र हृदयम्-यथोदितधर्म एव वरं प्रधानं चक्रवर्तिका पेया लोकद्वयोपकारित्वेन कपिलाऽऽदिप्रणीतधर्मचक्रापेकया वा त्रि कोरिया चारो गतिविशेषा नारकतिर्य
प्रय
छेतुत्वातुल्तं चतुर्मो मिस्त तुरन्तम, तुमि मानाअन्तःप्र क्रमाद्भवन्तोऽनिगृह्यते । चक्रमिव चक्रमतिरौद्रमहा मिथ्या च्वाऽऽदिलक्षणभावशत्रुञ्जवनात् । तथा च बूचन्त पत्रानेन नावयो मारवादी दानाद्यश्वाखाद स्यादिसि महामते न्ते भगवन्तः । तथा नव्यत्वनियोगतो वरबोधिलाभारज्य तथा तथौचित्येन असिद्धि प्राप्तेः एवमेव वर्तनादिति । तदेवमेतेन पर्सि शीला चर्मवरचतुरन्यवर्त्तिनः ॥ २४ ॥ ० धम्पवर र यमं मियचामीयरमेह लाग - धर्मवररत्नमणिमतचा मी कर मेखलाक-पुं० | दुर्गतौ प्रपतन्तमात्मानं धारयतीति धर्मः, परममिता चामीकरमेखला यस्य सः घमंदर रत्नमण्डितचामीकर मेखलाकः । "शेषाद्वा ॥ ७ । ३ । १७५ ॥ इति कप्रत्ययः। उत्तरगुण रूप रत्न मंडितगुणरूपचश्मकचामीकरमेखलोपेते संघ मेरी, तथा च सङ्घस्य मेरुरूपकेण स्तवमधिकृत्य " धम्मवररयणमं मियचामीयरमेह लागस्स । " नं० । इह धर्मो द्विधा मूलगुणरूपः, उत्तरगुणरूपश्च । तत्रोतगुणरूपमा गुण
धर्माssत्मकः चामीकर मेखन्ना विशिष्टोत्तर गुणरूपवर रत्नविभूपवित्रा शोभते । नं० । धम्मसु प० । कोशाम्यनिवरस्थे धर्मघोषव सोमयागुरी" को विजियो मो धम्मजले ।" आय० ४ ० आ० क० । ( तत्कथा 'अराणाय
,
या शब्दे प्रथम जागे ४०४ पृष्ठे गता )
(२७३१) अभिधानराजेन्द्रः ।
و
धम्मदीय
धम्मवाय धर्मवाद-पुं० धर्मप्रधानो वाद धर्मवाद" तः स्वशास्त्रतत्वेन, मध्यस्थेनाघभीरुणा । कथाबन्धस्तस्वधिया, धर्मवादः प्रकीर्तितः ॥ १ ॥ इत्युबा
66
द्वा० । अष्ट० । ( धर्मवादस्वरूपं 'वाद' शब्दे ) धर्माणां ब स्तुपर्यायाणां धर्मस्य वा चारित्रस्य वादो धर्मवादः । दृष्टिवा दे, स्था० १० ठा० । ( अस्य स्वरूपम् दिशिवाय' शब्देऽस्मिन्नेव भागे २५१२ पृष्ठे रुष्टव्यम् ) पम्पवावार धर्मव्यापार पुं० कान्तिमुपेक्षा - - | कान्तिप्रत्युपेक्षाऽऽदौ,
पो० १०
35
विष० । धम्मविउ - धर्मवित्- त्रि । दुर्गतिप्रसृतजन्तुधारणखभावं स्वगवर्गमार्ग वेतीति धर्मवित् । आचा० १४० ३ अ० १३० । धर्मे चेतनद्रव्यस्वभावं श्रुतचारित्ररूपं वा वेतीति धर्मवित् । श्राचा० १ ० ३ श्र० १० । धर्मे यथावत्तत्फलानि च स्वर्गावातिल कणानि सम्यग् वेतीति धर्मवित् । सूत्र० १० १६ अ० । यथावस्थितं परमार्थतो धर्मे सर्वोपाधिविशुद्धं जानातीति धर्मवित् । सूत्र० २ ० १ ० । धर्मपरिच्छेदकरणनिपुणे, "न ते धम्मविक जणा । सम्य रिच्छेदे कर्त्तव्ये विद्वांसो निषणाः । तथादि साम्बादिको दशविधो धर्मस्तमज्ञात्वैवान्यथा च धर्मे प्रतिपादयन्तीति । सूत्र० १ ० १ ० १ उ० । धम्मवि-धर्म-पुं० आचायें पं० ० १ द्वार धम्मविणिच्छय- धर्मविनिश्वय-पुं० । “ धनदो धनार्थिनां धमेः कामदः सर्वकामिनाम् धर्म एवाऽपवर्गस्य पा रम्पर्येण साधकः ॥ १ ॥ इत्यादिरूपे धर्मस्वरूपपरिज्ञानाऽऽत्मके विनिश्चयभेदे, स्था० ३ ठा० ३ उ० । धम्मवित्त-धर्मवित्त- -न० । धर्मघने,
धर्मश्चेनावसीदेत, कपामीहि साथ
नापि जीवतः ।
चः ॥ १ ॥ " ध० १ अधि० । धम्मवित्तिय धर्मत्तिक विचाराविरोधेन ता बिरोधेन वा वृत्तिर्जीविका यस्य । धर्माविरुरूजीविके, " धम्मेण चेव वित्तिं कप्पेमाणा । " श्र० । धम्मविरुद्ध-धर्मविरुद्ध त्रि० । धर्मद्वेषिणि, “धर्मविरुद्धं च संत्याज्यम् ।" पं० सू० २ सूत्र० । पम्मीमंस- पविमर्शक-पुं० धर्मविचारके, २०२०
-
ज्ञा
66
-
46
द्वार ।
धम्मवीय धर्मबीज-म० धर्मकारखे, "तस्मिन् प्रायः प्ररोहन्ति, धर्मबीजानि गेहिनि । विधिनोप्तानि बीजानि, विशुद्धायां यथा भुवि ॥ १६ ॥ दितीयभाग
"
॥
पृष्ठे ऽस्य व्याख्या)
AL
धर्मपरं प्राप्य मानुष्यं कर्मभूमिषु ।
न सत्कर्म कृषावत्य, प्रयतन्ते ऽल्पमेधसः ॥ २ ॥”
अस्पति धर्मबीजस्य । घ० १ अधि० ।
'विधिनता यथा बीजा-दङ्कराऽऽद्युदयः क्रमात् । तथा धर्म-जा विदुर्बुधाः ॥ १ ॥
सपनं धर्मयीजस्थनम् । चिन्ता-सिद्धिस्तु निर्वृतिः ॥
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धम्मवीय
चिन्तासच्छ्रुत्यनुष्ठानं, देवमानुषसंपदः । क्रमेणाकुर सरकारक- नालपुष्पसमा मताः ॥ ३ ॥ फलं प्रधानमेवानुमि पलामाऽऽदिपरित्यागात् कृषी धान्याऽभविद् बुधाः ४ ॥ अत एव च मन्यन्तेयः । मोहमार्गक्रियामेकां पर्यन्तफलदायिनीम् ॥ २३० ॥ सम्मीरिय-धर्मवीर्य पुं० । सुपाभ्वंजिन समकालिके स्वनामख्याते चक्रवसिंनि, ति० ।
(२७३२) अभिधानराजेन्द्र
-
धर्मश्री धर्मसको पचा २ विष धम्मसंगह- धर्मसंग्रह-पुं० | संगृह्यतेऽनेनेति संग्रहः, धर्मस्य दोहा-धर्मस्य संप्रदो यत्र स धर्मसंग्रहः । मानविजयगणिविरचिते स्वनामख्याते ग्रन्थत्नेदे, तथाच ग्रन्थकृत्प्रथमं श्लोकद्वयेन मङ्गलं समाचरन् श्रोतृप्रवृत्तये स्वाभिधेयं प्रतिजानीते
"प्रणम्य प्रणताशेष सुरासुरनरेश्वर । सत्वकं तवदेष्टारं महावीर जिनोत्तमम् ॥ १ ॥ श्रुताब्धेः सम्प्रदायाच्च ज्ञात्वा स्वानुभवादपि । सिद्धान्तसारं ग्रध्नामि, धर्म संग्रहमुत्तमम् ॥ २ ॥” ०१ अधि ।
नाह
साम्प्रतं सकलशाखार्थपरिसमासपद " इत्येष पतियों, द्विविधोऽपि निरूपितः । तत्कात्स्न्येन हि धर्मस्य, सिकिमाप निरूपणम् ॥ ८ ॥ " इति पूर्वोक्तप्रकारेण, अत्र शास्त्रे, एप प्रत्यकः द्विविधः-सानिरपेकवान् न पुनरेक पवेत्यपिशब्दार्थः । यतिष लक्षणो निरूपितो निरूपणविषयीकृतः ततो द्विविधनिरुपणाद्विविधस्य प्रानिकपणात्कारयेन सर्वप्रकारेण धर्मस्य निरूपणं शास्त्राऽऽदौ प्रतिज्ञातं सिद्धिमाप सम्पूर्णतां प्राप । ध०॥ अधि० । (विशेषस्त्वत्र 'अणगारधम्म' शब्दे प्रथम नागे २७६ पृष्ठे गतः )
"प्रत्यकरं गणनया, ग्रन्थेऽत्र | स्युरनुष्टुभाम् । चतुर्दशसहस्राणि षट्शती चाष्टकोत्तरा ॥ १ ॥ घ० । इत्यं शान्तिविजयसूरिवर्तनं प्रतिपाद्य"वनेष
प्रत्यं च मानविजयाभिचाथको मु
सूणं यदत्र मतिमन्यतया भवेतमेधाविनिधि कृप प्रविधाय शोध्यम् ॥ ५ ॥ सतर्क कर्कशधियाऽखिल दर्शनेषु, सूर्यभ्यतामधिगतास्तपः। काइयां विजित्य परयूथपाः विस्तारितवनमतप्रभाषाः ॥ १० ॥ तर्कप्रमाणनय मुख्यविवेचनेन, प्रो चितादिमुनिश्रुतविश्वाः। शोविजयवाचक राजिया
अन्धेयुपकृति पनि ११ ॥ बाल] [] मन्दगतिरपि सामाचारीविचार अत्राभूषं गतिमा -स्तेषां हस्तावलम्बेन ॥ १२ ॥ वर्षे दिग्गज मुनिरस - चन्द्र १६७० प्रमिते व माघत्रे मासे । दिवसे यक्षः फोन
१३
अहम्मदाबादपुरे रसाग्रे, देशे स्फुरद्गूर्जर देशमण्डने । श्री वंशजन्मा मनिश्राऽभिधानो, वणिग्वरोऽच्छुक कर्त्ता ॥ १४ ॥ नित्यं गेहे दानशाला विशाला, राजाऽऽदियात्रा | सप्तकेयां वित्तवापश्च यस्य, ख्यातुं प्रायो स्मदाद्यैरशक्यः ॥ १५ ॥
5.
साधुः श्री शान्तिदासः प्रवरगुणनिधिस्तत्सुतोऽनुदुदारो, पायानामा जगसमधिकानेक सत्कृत्यकर्मा रङ्कानामन्वषध वितरणाद्येनष्कासनाम विश्वतं त्या बहुविध महिला ताका १ पुत्रन्यस्तसमस्त गेढ करणीयस्य स्फुटं वाईके, सिकन्दर गृहस्थादिशत् । सकर्मद्वय संविधानरचना शुश्रूषणोत्करिएग्नस्तस्य प्रार्थनयाऽस्य गुम्फनविधौ जातः प्रयतो मम । १७९ ज्ञानाराधनमतिना ज्ञानादिगुणान्तेन वृतिरियम् । प्रयमाऽऽदर्श विखिता गणितान्यादिविजवेन ॥ १५ ॥ धात्री संपादास्ते प्रोचैः सौवर्षाश्टङ्गोल्लिखित सुरपयो मन्दराश्वि बावत्। विश्वे विद्योतयन्तौ तमनु शशिरवी भ्राम्यतश्धेह यावत्, प्रथम विजनवनंदादेवाय ये प्रायार्थविभावनातिनिपुणाः प्राणः, सन्ता भन्तु मवि प्रसन्नहृदयास्ते किं तरिह येषां सुभाषितासिकेऽपि भृशं ग्रीष्मत्त मरुभूमिकास्थित परं लेशो न संलक्ष्यते ॥ २० ॥ लियाने कशाखाणि विहिता प्रयतस्थि
प्रेत्यपि परमानन्दकारणम् २११०४० धम्मसंहिया-धर्मसंहिता स्त्री० धर्मवृद्धा संहिता दवा रचितासम् धाकः मन्याइयप्रभृतिप्रणीते प्रतिपा दनार्थे शास्त्रे, वाच० । अनु० ।
धम्मसष्ठा - धर्मश्रद्धा- स्त्री० । धर्मः श्रुतधर्माऽऽदिस्तत्र तत्करणाजिलाषरूपा श्रका धर्मभद्धा । धर्मकरणाभिलाषे, उत्त०२६ ०
धम्मसठ्ठा
3
धर्मदेव सकलकमिति नामाधम्काए णं भंते! जीवे किं जगह है। धम्मसद्वार णं सायासोक्त्रे रज्जमा विरच, अगारपम् प चय भणगारे खं जीवे सारी माणसानं दुक्खाणं हे जेवण संजोगाई पोछे करे, अव्यापा सूई नियते ॥ ३ ॥
धर्मोपासावे
ज्ञान
नि सातसौख्यानि । प्राश्वन्मध्यपदलोपी समासः तेषु, वैषधिकसुखेष्विति यावत् । रज्यमानः पूर्व रागं कुर्वन् विरज्यते विर किं गच्छति । श्रगारधर्म च गृहाऽऽचारं, गाईस्थ्यमिति यावत् । चशब्दश्वेह वाक्यालङ्कारे । त्यजते परिहरति । तदत्यागस्य वैषकिसुखमुनिबन्धनत्याधा त्वादन गारो यत्तिः सन् शारीरमानसानां दुःखानामू, किंरूपाणा मित्याह-संयोगादीनामसदन करणं कुदिना विदाम आदिशब्दस्यापि सं
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(२७३३) अनिधानराजेन्डः।
धम्मसहा
धम्मसारहि
न्धात ताडनाऽऽदयश्च गृह्यन्ते ततदनभेदनाअदिना शारीरदुः- नरयमगमणरोह, गुणसंदोहं पचाइनिक्खोहं । खानां संयोगः प्रस्तावादनिशुसंबन्धः,आदिशम्दादिएवियोगाss
निहषियअचम्हजोई, पम्पं सरणं पवनोऽहं ॥१७॥ दिग्रहः,ततः संयोगाऽऽदीना मानसदुःखाना विशेष पुनरसंभपलकोनोच्नेदोऽभावोग्युच्छेदः,तं करोतीति तत्रिवन्धनकर्मो
नासुरसूबनगुंदर-स्यखासंकारगारवपहप्पं । चंदननोत जावः । अत एव व्वावाधमुपरतसकलपीम
निहिमिव दोगचहरं,धम्म जिनदेसिवं वंदे ॥४ाद०५० मोक्तमिति यावत् । चः पुनरर्थे भिसक्रमः, ततः सुखं धम्मसवण-धर्मश्रवण-म । गतौ प्रपत तमात्मानं धारयतीति पुननिर्वतयति जनयति । पूर्व संवेगफलाभिधानप्रसङ्गेन
धर्मः श्रुतचारित्ररूपः,तस्य भवनमाकनमतो धर्मभवनम। धर्मश्रकायाः फलनिरूपणमिद तु स्वातन्त्र्येणेत्यपौनरुक्त्य
अर्थतो धर्माऽऽकर्षने, पो०१६ विष धर्मशास्त्राऽऽकर्णने मिति भावनी यम्। उत्त पाई० २६ अ०।
चापशा०१० विव० । तस्माच धर्मचवणाद मनःोदापमोदाss. धर्मश्रद्धामात्र महत्कलमुपदर्शवति
दिगुणः स्यात् । यदाह- "लान्तमपचिति खेदं, तप्तं निर्धाति बुनिसग्गुस्सग्गकारी ब, सम्बतो छिन्नबंधणा।
झाते मूहम । स्थिरतामेति व्याकुल-मुपयुक्तसुभाषितं चेतः॥१॥" एगो वा परिसाए वा, अप्पाणं सोऽभिरक्ख ॥ प्रत्यहं धर्मश्रवणं चोत्तरोसरगुरुप्रतिपत्तिसाधनस्वात्प्रधानयः तीवधर्मश्रद्धानाचतो निसर्मत एव स्वभावत एव उत्सर्गकारी, मिति ॥ २२ ॥ ध १ अधि० । सर्चतबिछावन्धनः,सर्वत्र ममस्वरहित इत्यर्थः। स एकोबा एका- धर्मश्रवणे यत्नः, सततं कार्यो बहुश्रुतममीपे । की चा,पर्षदि वा व्यवस्थित प्रात्मानमनिरकति । व्य० १३० ।
हितकातिनिर्नृसिंहैर्वचनं ननु हारिममिदम् ॥१७॥ बम्मसवालु-धर्मश्रकाबु-त्रि० । अलिप्सी, सूब०१७.१०।
दुर्गतौ प्रपतन्तमात्मानं धारयतीति धर्मः श्रुतचारित्ररूपः, तस्य धम्मसम्मा-धर्मसंज्ञा-स्त्री० । श्रमायाम, ०७ श० ६ उ.।
श्रवणमाकर्णनमर्थतः, तस्मिन् धर्मश्रमणे यत्नः प्रयत्न पादरः, मोहनीयकयोपसमाजाबमाने कमाऽऽयासेवनरूपे संकाभेदे,
सततमनवरतं, कार्यः कत्तव्यो, बहुभुतसमीपे बहुभुतसन्निधाश्राचा• १ श्रु० १.१०।
ने, हितकाङ्गिभिहिताभिलाषिनिनृसिदः पुरुषसिदः, पुरुषोधम्मसम्मास-धर्ममंन्याम-पुं० । मृहस्थधर्मत्यागे, "धर्मसंन्यास
तमैरिति यावत् । वचनं प्रार्थनारूपं, नन्विति चितः। एवं घान् नबत् । ३।" अष्टष्टा बाकश्रेणियोगिनः क्षायो- वितर्कयत यूयं,हरिजमस्येदं हारिजरुमिदमेवंविधं यदुत बहुश्रु. पशमिकतान्त्यादिधर्मनिवृतिरूपे सामर्थ्यबोगदे,डा०१६द्वा०। तसमीपे धर्मधवणे बस्नो विधेयः। अथवा-बचनमागमरूपं, ननु (एतदूवक्तव्यता 'जोग' शब्देऽस्मिन्नेत्र भाये १६२६ पृष्ठे गता)। निश्चितं हारि मनोदारि, भद्रमिदं कल्याणमिदं पतो वर्तते, धम्मसत्थ-धर्मशास्त्र-म•। धर्मप्रतिपादक शास्त्रं धर्मशास्त्रम् ।। प्रतो बननमतधर्मथवणे बहुश्रुतसमीपे एब पस्नः श्रेयान्, मन्वादिप्रयुक्ते स्मृतिशाखे,वारा जीवदयादिविचारप्रतिपा
भवभूतेभ्यो धर्मथवखेऽपि विपरीतार्थोपपने प्रत्यवायसंदके शास्त्रे च । दर्श०३ तवा"धम्मसस्थस्सदेसमो।" दर्श.४ भवात् । अथवा-हरिजद्रसूरी स्तुति कुर्वाणोऽपर एवं क. तत्व । "बिसेसनो धम्मसत्यकुससमई।" धर्माभिधायिग्रन्धनि- श्चिदिदमाह-वचनं ननु हारिभरूमिदम् ।' हरिजमसूरिदं पुणबुद्धिः। पञ्चा०१३ बिव ।
धर्मगतं वचनं प्रकरणाऽऽश्रयं, तस्मामभव बहुश्रुतसमीपे धम्मसमुयायार-धर्मसमुदाचार-पुं० । धर्मरूपश्चारित्रात्मकः एव वस्नो विधेबोम्बधुतन्यो इरिभद्राऽऽचावचनार्थीनुपखसमुदाचारासदाचारः, सप्रमोदो बाचारोषस्थ स धर्मसमु.
म्भादेवं बचनमाहात्म्यद्वारेण संस्तौति ॥१७॥ पो०१६ विच०। दाचारः । चारित्रधर्मात्मकसदाबागपते, भरूया चारित्रध- धम्मसागर-धर्मसागर-पुं० । कल्पसूत्रोपरि किरबालिकारके मोऽत्मकाऽऽचारोपेते व औ.।
प्राचार्य,अनेन च कुमतिकुदानाऽऽदयोऽनेके प्रन्या रचिताः। ते धम्मसरण-धर्मशरण-न । धर्माऽस्मके शरणे,२०५०। तीवभाषानिवका इत्याचार्याणामरुचिपात्रतां गताः । जै००।
पमिवनसाहुसरणो, सरणं कार्ड पुणो बि जिणधम्म । धम्मसार-धर्ममार-पुं० । धोत्कर्षे, " जयणा , धम्मसारो, पहरिसरोपंचप-चकंचु अंचियतण जण ॥ ४२ ॥ जं भणिया बीयरामोह।" पञ्चा० ७ विव० । धर्ममामपवरसुकरहिं पत्तं, पत्तेहि वि नवरि केहि वि न पत्तं ।
ध्यें, "धम्मस्स सारमुबलभ करे पमा ।" बाप.५०।
धर्मस्थ सारः परमार्थों धर्मसारः । धर्मस्य परमार्थे, सूत्र. तं केवसिपमत्तं, धम्म सरणं पवनोऽहं ॥४॥
१७० अाधर्मस्य सारः चारित्रं धर्मसारः । चारित्रे,सूत्र. पत्तेण अपत्तण य, पत्ताणि य जेण नरसुरसुहाई।
१७.००। मुक्खमुहं पुण पत्ते-ण नवरि धम्मो स मे सरणं ॥४३॥
धम्पसारहि-धर्मसारथि-पुं० । धर्मरथस्य प्रवर्तकत्वेन सा. निहानियकलुसकम्मो,कहबुमुहजम्मो(?)रनलीयकमहम्मो।
रथिरिव धर्मसारथिः । यथा-रथस्य सारथी र राषिकमपमुहपरिणामरम्मो, सरणं मे होन जिधम्मो ॥४॥ श्वाँश्च रकति, एवं नगवान चारित्रधर्मात्रामा संघमात्मप्रव. कामत्तए विनमयं, जम्माजरमरणवाहिसयसपर्य । चनाऽऽस्यानां रकमोपदेशाद् धर्मसारथिः । भ० १०१ अमयं व बहुमयं जिण-मयं च सरणं पवनोऽहं ॥४५॥
१०। जी० । साराका धर्मस्व स्वपराकया सम्बक प्रव.
सनपासमदमनयोगतः सारथित्वम् । तद्यथा-सम्बक प्रवर्तनपसमियकामपमोहं, दिहादिट्टेसु न कलियविरोहं ।
योगेन परिपाकापेकपात्, प्रवकझानलि रएनन्धकमात्, सिवसहफन्नयममोठं, धम्म सरणं पवनोऽहं ॥ ४६॥ | प्रकृत्याऽऽभिमुस्योपपत्तः । तथा-गाम्भीर्ययोगात्साधुसहका
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(२७३४) धम्मसारहि अन्निधानराजेन्छः ।
धम्मसेण रिप्राप्रिनुवन्धप्रधानत्वादतीचारभीरुत्वोपपतः । एतेन पाल.
ततः किं कृतवानित्याहनायोगः प्रत्युक्तः, सम्यकप्रवर्तनस्य निर्वहरणफयत्वात्, नाग्य- कुद्धयरम्मि पुरवरे, अह सो अन्तट्टिो सिओ धम्मे । था सम्यक्त्वमिति समयविदः । एवं दमनयोगेन दान्तो कासी य गछपिटें, पञ्चक्खाणं विगयसोगो ॥ ७० ॥ हो धर्मः कर्मवशितया कृतो व्यन्निनारी अनिवर्तकभाबेन अथ कोद्वयरपुरे स धर्मसिंहानिधानः क्षत्रियमुनिः,अभ्युत्थिनियुक्तः स्वकार्ये स्वासोपचयकारितया नीतः स्वात्मीनावं तोऽज्युद्यतः मरणाय, स्थितश्च धर्मे पर्यन्ताऽऽराधनाकृत्यरूपे, तत्त्रकर्षस्याऽऽत्मरूपत्वेन । भावधर्माप्तौ हि भवत्येवैतदेवं, (कासी यत्ति) अकार्षीत्, (गद्धपिति) गृष्पृष्ठानिधानमनातदाद्यस्थानस्याप्येवं प्रवृत्तरबन्यबीजत्वात् सुसंवृत्तकाश्चन- थपतितगोकलेवराऽऽदिमध्ये निपतनरूपं (पचक्खाणं विगयसो. रत्नकरएमकप्राप्तितुल्या हि प्रथमधर्मस्थान प्राप्तिरित्यन्यैरप्य.
गो त्ति) प्रत्याख्यानमनशनाङ्गीकाररूपं, विगतशोको विगतदैज्युपगमात्, तदेवं धर्मस्य सारथयो धर्मसापचयः ॥२३॥
न्य इति गाथार्थः ।। ७० ॥ ल। ध। धर्ममार्गप्रवर्तयितरि तीर्थकरे, "धेिश्मं धम्मसा
अह सो वि चत्तदेहो, तिरियसहस्सहिं खायमाणो य । रही।" (१५) उत्त० १६अ। कल्प० । यथा सारथिरुन्मार्गे गच्छन्तं रथं मार्गमानयति, एवं भगवन्तोऽपि मार्गभ्रष्ट जन
सो वि तह खजमाणो, पडिवन्नो उत्तम अहूं ।। ७१ ॥ मार्गे पानयन्ति । अत्र च मेघकुमारदृष्टान्तः । कल्प.१ अधिo
अथ सत्यक्तदेहो व्युत्सृष्टशरीरस्तियक्सह नः श्ववृकशृगा
सगृाऽदिन्तिः खाद्यमानश्च, सोऽपि तथा खाद्यमानः प्रतिपन्न १ कण । (मेघकुमारकथा 'मेघकुमार' शब्द)
उत्तमार्थ सम्यगाराधनामित्यर्थः ॥ ७१॥ संथा। धर्मजिनस्य धम्मसासण-धर्मशासन-न० । धर्मशाने,दश० १ चू । धर्मशास्त्रे प्रथमभिक्कादायके च । स० । च । दश।
धम्मसुक्खायजावणा-धमेस्वाख्यातनावना-स्त्री। नाव"साहित्यस्य विशारदो यदि परं जानाति सलक्षणं,
नाभेदे, सा यथातर्के कर्कशमानसोऽतित्रिभुता यद्यस्ति सा ज्योतिषि।
“स्वाऽऽख्यातः खलु धर्मोऽयं, भगवद्भिर्जिनोत्समैः । किशानेककलाऽऽलयोऽपि विकलः प्राणी परं गीयते,
यं समालम्बमानो हि, न मज्जेद्भवसागरे ॥१॥" यो जानाति न स्वर्गभोकसुखदं धर्मानुगं शासनम्।१।"दश०६०
स्वाख्यातनामेवाऽऽहधम्मसाहण-धर्मसाधन-न० । धर्मस्य कर्मानुपादाननिर्जरणन. “संयमः स्नूतं शौचं, ब्रह्माकिञ्चनता तपः । कणस्य साधनं हेतुरहिंसाऽऽदिधर्मसाधनम् । धर्महेतावहिंसा कान्तिमर्दिवमृजुता, कान्तिश्च दशधा ननु ॥ २॥" दिके, हा०१२ अष्ट।
अत्रायं भावः-संयमाऽऽदिदशविधधर्मप्रतिपादनप्रकारेण भगधम्मसिकि-धर्मसिकि-स्त्री. धर्मनिष्पी, “लिङ्गानि धर्म- चतामईतां स्वास्यातधर्मत्वानुप्रेक्कणमेवेति। धर्माणां गुणभावना सिके।" षो०४ विव।
तदाख्यातृणां जगवतामनुप्रेकानिमित्तं स्तुतिरिति । तथा च ध
मकथकोऽईन्निति भावनेत्येव प्रत्यासन्नम्। तथाधम्मसिरी-धर्मश्री-पुं० । अस्याश्चतुर्विशतिकायाः प्रागनन्तका
"पोपरविरुकानि, हिंसाऽऽदेः कारकाणि च । बेनातीतायां चतुर्विशतिकायां भवे चरमतीर्थकरे, ग०। अस्याः वचांसि चित्ररूपाणि, व्याकुर्वद्भिर्निजेच्या ॥३॥ ऋषभाऽऽदिचतुर्विशतिकायाः प्रागनन्तकालेन याऽतीता चतु- कुतीथिकै प्रणीतस्य, सद्गतिप्रतिपन्थिनः। विशतिका तस्यां मत्सरशः सप्तहस्त तनुर्धर्मश्रीनामा चरमती. धर्मस्य सकलस्यापि, कथं स्वाख्यातता भवेत् ? ॥४॥ थेकरो बभूव । ग०१ अधि०। ( तत्कथा 'सावज्जायरिय' शब्दे) यच्च तत्समये क्वापि, दयासत्याऽऽदिपोषणम् । धम्मसीन-धर्मशील-त्रि । धर्मः शीलं सततमनुष्ठेयं यस्य स
दृश्यते तद्वचोमात्र, बुधैयि न तस्वतः ॥५॥ धर्मशीलः।धार्मिक, वाच । धर्मस्वभावे च । स्त्र०२ श्रु०२ श्रा
यत्योदाममदान्धसिन्धुरघट साम्राज्यमासाद्यते,
यनिःशेषजनप्रमोदजनक संपद्यते वैभवम् । धम्मसीलममुयायार-धर्मशीलसमुदाचार-त्रि० । धर्मशीलो ध.
यत्पूर्णेन्दुसमातिर्गुणगणः संप्राप्यते यत्परं, मस्वभावो धर्माऽऽत्मकः समुदाचारो यत्किञ्चनानुष्ठानं यस्य
सौजाग्यं च विज़म्भते तदखिन्नं धर्मस्य लीलायितम् ॥ ६॥ सः। धर्मस्वभावाऽऽत्मकानुष्ठाने, सूत्र. २ श्रु० २ ०। यन्न प्लावयति वितिं जलनिधिः कद्वाझमाझाऽऽकुलो,
यत्पृथ्वीमखिल धिनोति सलिझाऽऽसारेण धाराधरः। धम्मसीह-धर्मसिंह-पुं० । अभिनन्दनजिनस्य पूर्वभवनामधेये,
यच्चन्डोष्णरुची जगत्युदयतः सर्वान्धकारच्छिदे, स. । पारविपुत्रसे स्वनामस्याते कृत्रियमुनी, संधा।
तनिःशषमपि ध्रवं विजयते धर्मस्य विस्फूजितम् ॥ ७॥ पाडलिपुत्तम्मि पुरे, चंदयपुत्तस्समे य ासी य । अर्हता कथितो धर्मः, सत्योऽयमिति जावयन् । नामेण धम्मसीहो, चंदमिरी सो पहिऊणं ॥ ६॥ ।
सर्वसंपत्करे धर्म, धीमान् दृढतरोनवेत् ।।" ध०३ अधिक। पाटलिपुत्रे नगरे (चन्दयपुत्तरसमे यति) चन्छगुप्तपुत्रस्य समः| धम्मसुइ-धपश्रुतिसबन्धुः सुहत, समः सुहृदभिधानेषु दर्शनात् । अधवा-चन्द्र- "किन्नरगेयश्रवणा-दधिको धर्मश्रुतौ रागः।" पो० ११ विचः। गुप्तसमः मान्यत्वादासीदभूद नाम्ना धर्मसिंह इति कथंजूतः ?,
प्रा. क.। (चदसिरी सो पाहिकणं) चन्गुप्तश्री चन्द्रगुप्तलक्ष्मीका, (प |
धम्मसेण-धर्मसेन-पुं० । जगवत ऋषभदेवस्य शतपुरेषु स्वशहिकणं ति) प्रस्तावात् तामेव लक्ष्मी परित्यज्य, चारित्रं गृ-1 नामख्यानेऽन्यतमे पुत्रे, कल्प०१ अधि०७ कण । नन्दनस्य दीवेत्यर्थः।
सप्तमबलदेवस्य पूर्व भवनामधेये, स० । ति।
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धम्म से गणिमइत्तर
धम्म से गणिमहत्तर- धर्मसेनगणिमहत्तर - पुं० । वसुदेवदिएकग्रन्थस्य द्वितीयदि ० ० धम्मपि धर्मतित्र धर्माय दिवमुपकारकं धर्महितम् । धमोंपकारके, उत्त० पाई० २ अ० । धम्माइगर-पर्याऽऽदिकर पुं० द्विधारित्र । धर्मो श्रुतधर्मश्चारित्रघश्च । श्रुतधर्मेणेाधिकारः, तस्य करणशीलो धर्मादिकरः । श्रात्र० ५ प्र० । श्रुतधर्मस्य सूत्रतः प्रथमकरणशीले ती ०२ अधिसके न० ब० ५ ०
आ० चू० । ल० ।
(२७३५ ) अभिधान राजेन्द्रः ।
"अतिविजोग परं धम्मम्मि अणुहाणं, जहुतर पहाणरुवं तु ॥ १ ॥ विजोग विस
भाषेण व परिहीणं धमोहि ? बबहारश्र व जुज्जर, तहा तहा अपुणबंध गाईसुं ॥” इति । - भाषायो भणन्ति विविध चित्रकार, सतनविषयभोगत योगशस्य प्रत्येकमभिसंबन्धात् दिपा सतताभ्यासादी लाणिक स तताभ्यासविषयाभ्यास भावाभ्यासयोगादित्यर्थः । नवरं के. । चलं, धर्मेऽनुष्ठानं यथोत्तरं प्रधानरूपं, तुरेवकारार्थः । यतदेव ततः प्रधानमित्यर्थः । तत्र तताभ्यासी नित्यमेव मातापितृविषयमा नायके पौनःपुन्येन पूजनादिवृति॥ यासो भावानां सम्यग्दर्शनादोन भावावेगेन भूयो यः परि शी
नम् ॥ १ ॥ एतद्विनोपपत्तिस निश्चयनययोगेन निश्चयनयाभिप्रायेण यतो मातापित्रादिविनयस्वजाचे सतताज्यासे सम्यग्दर्शनाऽऽद्यनाऽऽराधनारूपे धर्मानु
नंदूरापास्तमेव विषय इत्यनन्तरमधिगम्य विषये अ दलियाऽपि मानवचैराग्यादिना परिहीणं धर्मानुष्ठानं, कथं नु ?, न कमञ्चिदित्यर्थः । ओकारः प्रा कृतत्वाद परमार्थोपयोगरूपस्याद्धर्मानुनय विनयम जावाज्यास एव धर्मानुष्ठानं नान्यद् द्वयमिति निगर्वः ॥ २ ॥ व्यवहारतस्तु व्यवढारनयादेश तु युज्यते द्वयमपि तथा तथा तेन तेन प्रकारेणा पुनर्वन्धकाऽऽदिषु अपुनर्बन्धकप्रनृतिथुः पापं न साचात्करोती कल णः । श्रदिशब्दादपुनर्बन्धकस्यैव विशिष्टोत्तरावस्थाविशे
"
धम्मावनुयोग पुं० [पय]
-
1
प्रस मिति धर्मविषयेऽनुयोगी धर्मानुयोगः उ तराश्ययनादिक धर्मानु योग उत्तराध्ययनाऽऽदिक इति । श्राचा० १ ० १ ० १ उ० । धम्मागृहाण धर्मानुष्ठान-०१
पनामापतिसम्यग्दादमध गृह्यन्त इति । ध० १ अधि० ।
धम्मागुण-धर्मानुज्ञ- त्रि० । धर्मे श्रुतचारित्र लकणेऽनुकाऽनुमोदनं यस्य स धर्मानुः । दशा० ६ अ० । धर्मे कर्तव्येऽनुझाऽनुमोदनं यस्य स धर्मानुशः । ज्ञा० १ ० १ ० । ध मनुमोदितरि, सूत्र० २ श्रु० २ श्र० ।
धम्माहिगारि (यू )
धम्मा-धर्मानुग - त्रि० । धर्म श्रुतचारित्ररूपमनुगच्छती ति धर्मानुगः । धर्मानुयायिनि दशा० ६ श्र० । ० । सूत्र
wangan-angan-go | mangalà, noe go पम्पापुरागरण-धर्मानुरागरक्त-धर्मानुरागेो धर्ममानः, तेन रक्त व यः स तथा । धर्म बहुमानानुरागिथि,
ज० १ ० ७ उ० ।
धम्मासुरागि- ( ) धर्मानुरागिण - ५०धर्मानुरके, पञ्च विष० । धर्मानिज्ञाणि दर्श
१ तथ्य |
म्यापमाण धर्मापर्यस्यानन० उपमत्रचानानुपशमप्रधाने क्रियास्थानस्य तृतीये भेदे, सूत्र० २ ० २ ० । ( धर्मांधर्मयुकं तृतीय स्थानमाश्रित्य पुरविजयनिंग धम्पायरल - धर्माऽऽचरण - न० । धर्मनुष्ठाने, आचा० १० ५
अ० २४० ।
aro ३ उ० । तर्गत कला
धम्मपरिय-धर्माचा पुं० तरिषधमवारसाची ध०२ अधि• । धर्मः श्रुतधर्मस्तत्प्रधानः प्रणायकत्वेनाऽऽचाय धर्माचार्थः । मतोपदेष्टरि, स्था० ७ ठा० "" धम्मायरिय धम्मो देलयं समयं भगवं महावीरं वंदामो । न० २० १ उ० । धर्मदाताऽचाय धर्माचार्यः । स्था० ३ ० १ ० । धर्मदाता प०२० धर्मधा०४० ३० । बोधिवानहेतुभूते गुरौ च पञ्चा०१ त्रिः । “म्मो जेवो, सो धम्मगुरू गिद्दी व समणो वा । धम्मायार-धर्माचार - पुं० । स्त्रीणां चतुषःष्टिद भेदे, कल्पo 9 अधि० १ कण | पम्पाराम धर्माराम पुंडित्यभयाया रमते रतिमान् भवतीति धर्मारामः । उत्त० २ श्र० । धर्मविषयकरतिमति साधौ, उत्त० १६ श्र० । धर्म एव सततमानन्द हैतुतथा प्रतिपाल्यतया चाऽऽरामो धर्मारामः । उत्त०२ श्र० । धर्म श्रीराम इव पापसंतापोपतानां जन्तूनां निर्वृतिहेतुतया श्र त्रिलषितफल प्रदानतश्च धर्माऽऽरामः । धर्मात्मके श्रारामे, "धस्मारामे बरे फ्लू, विश्मं धम्मसारी धम्मारामे दंते बंभवेरसमाहिप ||१|| " उत्त० १६ श्र० धम्मारामस्य परामरतत्र धर्मानेर
सकि मात् धर्मारामरतः। धर्मारामाउस के उ०१६ ४० घा समन्तात् रमन्त इति धर्मारामाः साधवस्तेषु रतो धर्माऽऽरामरतः । साधुभिः सह युक्ते च । उत्त० १६ ० धम्माराहग-धर्माऽऽराधक - पुं० । धर्मानुकूलवर्त्तिनि, स्था० २ ठा० ४ ४० | सूत्र ० धम्माराहण-धर्माराधन न० । धर्माऽऽसेवने, स्था० २ ० ४ उ० । " जे के महापुरिसा, धम्माराणसदा रहं लोए।” वारित्राराधनसमर्थः । पं० च० ३ द्वार । धम्बावाय धर्मवाद - पुं० । धर्माणां वस्तुपर्यायाणां धर्मस्य वा चरस्य वा धर्मवादा० २० ४०
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गिरिर्माधिकारिण पुं० । धर्मग्रहणयोग्ये धार्मिके, घ० १ अभिः । पञ्चा० । पं० ब० ।
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(२७३६) यम्मि (ण) अभिधानसजेन्द्रः।
धम्मुत्तरखंति पम्मि (ए)-धर्मिन-त्रि० । धर्मोऽस्ति यस्याऽसौ धौ । धम्प्रियववसाय-धार्मिकच्यवसाय-पुंछ । व्यवसायदे, प्रति।
औ०। धर्म प्रस्त्यर्थे इनिः । पुण्यवति,वस्तुगुणस्वरूपधर्मयुक्त, धम्मिवाधम्मियकरण-धामिकाधार्मिककरण-न० । धार्मिकस्य वाच । श्राचा।
संयतस्यदं धार्मिकमेपमितरत्रवरमधार्मिकोऽसंयतस्तस्य कर. पम्मिट्ट-धर्मिष्ठ-त्रि० । अतिशयन धर्मी । इष्ठन इनेमुक । प्रत्य
जम् । अथवा धर्मे भवं धर्मो बा प्रयोजनमस्वेति धार्मिकम् । तधर्मवति, वाच । रा.। धर्मबहुले, सूत्र० २ भ्र. २ ७०।। चिपर्यस्तमितरत्करणं धार्मेकाधार्मिककरणम । करणनेदे, धोऽस्ति यस्य स धर्मी, स एवान्येभ्योऽतिशयवान् धमि- स्था०३ग.४. ष्ठः । मौ०।
धम्पियाधम्मियोवकम-धार्मिकाधार्मिकोपक्रम-पुं० । धार्मिकधष्ट-त्रिका धर्मः श्रुतरूप एवेष्टो बचभः पूजितो था यस्य चासो देशतः संयमरूपत्वावधार्मिकश्च तथैवासंयमरूपत्वाद् स धर्मः । प्रियधर्म, औ०।
धार्मिकाधार्मिकः । उपकम उपासपूर्वक श्रारम्भो धार्मिकाधमी-त्रि.। धर्मिणामिष्टो धर्माधः । धर्मिणां ववभे, श्री.।।
धार्मिकोपक्रमः । देशविरताऽऽरम्भरूपे उपक्रमभेदे, स्था• ३
म० ३ 30। धम्मिहि-धर्मईि-स्त्री० । ऋमिभेदे, " सा मसर धम्मिट्टी, जा
धम्मियाराहणा-धार्मिकाऽऽराधना-स्त्री० । आराधनमाराधना माधम्मकलेस।" ध०२ अधिक।
शानाऽऽदिवस्तुनोऽनुकूलवर्तित्व, निरतिस्वारका नाऽऽद्यासकनेति पम्मिपरिणाम-धर्मिपरिणाम-पुं० । धर्मिणः पूर्वधर्मनिवृत्तावु. | बायन । धर्मेण श्रुतचारित्ररूपेण चरन्तीति धार्मिकाः सा. सरधोत्पत्तिधर्मिपरिणामः । परिणामजेदे, यथा-मृतकणस्य घनस्तेषाभियं धार्मिकी । सा चासावाराधना चेति निरतिमार. अम्मिणः पिरमरूपधर्मपरित्यागेन घटरूपान्तरस्वीकारः ।। शानाऽऽदिपालना धार्मिकाऽऽराधना । अाराधनादे,स्वा०२० द्वा० २४ द्वा।
४.।"धभिपवाराहामा कुविहा पणता । तं जहा-सुथापम्मिय-धार्मिक-त्रि० । धर्म चरति सततमनुशीलायति उक। म्मारायला चेव, सरितधाराहना वेव।" स्था.२० धर्मशीने, वाच० "धम्मियमाहणभिक्खुए सिया।" धार्मिका
४०। विधवजेदेनाऽऽराधनाभेद, स्था०म०४ १.। धर्माचारशीला।सूत्र०१७०१०१ उ०। धर्मेण श्रुतचा.
धम्मियोवक्कम-धार्मिकोपक्रम-पुं० । धो भुतचारित्रात्मके रित्ररूपण चरति धार्मिकः । साधी, स्वा. २०४ उ०।का।
भवः, सबा प्रयोजनमस्थति धार्मिकः, उपक्रमणमुपक्रम उपा. -सूत्र । रा०। औ० । भ. । धर्मे श्रुतचारित्रात्मक नया स्था.
सपूर्वक प्रारम्भो पार्मिकोपक्रमः। श्रुतचारित्राऽऽर्थका रम्ना३ .३०। धर्मनिरते, द्वा०३द्वा० । “म हिंन्यारसर्थभू- रम के अपकम, (स्था.) धार्मिक संवतस्य यधारिमा. तारि बराणि बराणि च । प्रात्मवत्सर्वभूतानि, यः पश्यति
चर्य व्यकेयकानाबानामुपक्रमः स धार्मिक पयोपक्रमः। स ॥२॥" अनु०। "एवं परिहायमाणो, लोने चोच । स्या०३ठा०३० कालपक्खम्मि । जे धम्मिया मणुस्सा.सुजीधियं जीयियं सिंधम्मिल-धम्मित-पुं० । संयतेषु केशेषु, बाघ । " - ॥१॥" तिाधर्मः प्रयोजनमस्येति धार्मिकः। स्वा०३ बा.११. मिठो केसहस्थो मउली"(५७) को. ५७ गाथा। धर्मा),दशा० १.भ.। धर्मे नियुक्तो धार्मिकः। श्री.धर्माय स्वनामस्वाते साधी, भाव० ६ ० । तं. । ( तकथा नियुकं धार्मिकम् । धर्मप्रतिबके, धार्मिको धर्मप्रतिबद्धस्थान, धम्मिलहिए। समासता, · पालामा ' शम्देऽपि ) नि०१४०१ बर्ग १मा धार्मिकस्य संयतस्य धार्मिकम् । कुक्लामसनिवेशस्थे सुधर्मस्वामिनः पितरि, स्वनामस्बाते धार्मिकसम्बन्धिनि बास्था० ३०१०.।
विने च । करूण २ अधिक क्षण । मा• म० । श्रा. धर्मित-त्रि. । अतिशयन सन्नके, " धम्मियसबकवाय- यू. । विपरिणाममापने व नि।'अधिनसुसिणिसुगउप्पीलियफच्छवच्छवेयपद्धगलवरनूसणबिराइयं ।"धर्मिता.
धदीहधम्मिल्लसिरवा ।' धम्मिल्ला विपरिणाममा पन्नाः उदयः शम्दा पकायो एष सनस्ताप्रकर्षख्यापनार्थाः ।भेदो
संयमविज्ञानानावात शिरोजा इति ०२ बका। यश्चैषामस्ति स ब भडितोबसेयः। मौन।
धम्मीसर-धर्मेश्वर-
पुंभारतवर्षे ऽतीतोत्सर्पिण्यां नये जि. धम्पियकरण-पार्मिककरण-ज० । धार्मिकस्य संयतम्येदं धार्मिनेश्वरापरपयांये विशतितमे जिने, प्रक०७ द्वार। कम्, कृतिः करम्मष्ठानम। धार्मिक करस्पनेदे,स्था. ३००।
धम्मुजय-धोद्यत-त्रि। धर्मस्पृहावति, जीवा० १२ अधिः। धम्मिपजाण-पार्मिकयान-न० । धर्मार्थगमनसाधने याने,
धम्मुत्तर-धर्मोत्तर-त्रि०। धर्मर्गुणैरुत्तरो धर्मोत्तरः। मा० ० "धम्मियं जापपवरं उबच्चेह।"धर्मार्थ बाम गमनं येन तकर्म.
५ ० । धर्मः प्रशमाऽऽदिरूपस्तमुत्तरस्तत्प्रधानो धोयानं,तन्मध्ये प्रवरं श्रेष्ठ शीघ्रगमनत्वाऽऽदिगुणोपेतमिति । दशा०
सरः । षो.१०विव०। धर्मप्रधाने सम्यग्दर्शनादिके, ध१० अ० । का० । अन्त।
मप्राभाम्ये, न०।" धम्मुत्तरं वरुउ ।" धर्मोत्तरं चारित्रधर्मो
त्तरं चारित्रधर्मप्राधान्यं यथा स्यात् । ध०२ अधि। ल० । धम्मियजायणा-धार्मिकयाचना--स्त्री० । धर्मकथापूर्वके याचने,
श्राव। न्यायबिन्टीकाकारके बौद्धाचार्य, अयं सौगतः भाचा"धम्मियाए जायणाए मापना।" धर्मकथनपूर्वक | बीरसंवत् ८८४ वर्षे प्रासीत् । जै०३०। गच्गनिर्गतो याचेत । प्राचा०२ श्रु० १ ० ३ अ०३०।। धम्मुत्तरखंति-धर्मोत्तरक्षान्ति-स्त्री०। धर्मः प्रशमाऽऽदिरूपस्त. धम्मियप्पामय-धार्मिकनारक-नाजिनजन्माच्युदयभरतनि
दुत्तरा तत्प्रधाना कान्तिधर्मोत्तरवान्तिः । शान्ति मेदे, पो. कमणाऽऽदिधर्मसम्बद्ध नाटके, पश्चा० ६ विव०।
१० विब.।
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पम्मेकनिड
पो०१२।
धम्मेधिकनिष्ठुर्मित बम्मोनमधर्मोपदेश-पुं० धर्मः तचारिचलना, तस्योप देशी देशना धर्मदेशना बान् धर्मोपदेशअम ०२ आचाराङ्ग-प्रोखाराज्य बनय मोदेशका अदि मसूदोपमेनाSsत्रार्येण नाव्यमित्यत्र वृत्तौ धर्ममाश्रित्य चतुर्भद्वयां प्रत्येक युकास्तूजयाजावाच्चतुर्थभङ्गस्था इत्युक्तप्रकारेण सर्वेऽपि प्रत्येकबुद्धा धर्मोपदेशं न ददत्येतत्कथं संजा घटीति । तःि मरामलसूत्रे - " पसाहू, मिमो जे भास्सिडं सिवं पता । पणयालीसं इसिभा-सियाइँ अक्कयप्यपचराई " ॥ १ ॥ इति गाथाय प्रत्येकानामध्ययममुतमेति किमनयमिति प्रश्ने ?, उत्तरम्-आचाराङ्गवृत्यनुसारेण प्रत्येक बुद्धाः सभाप्रव न धर्मोपदेशं न ददतीत्यत्रलीयते । ऋषिमएमओ तु तेषामध्ययनप्रणयनरूपधर्मोपदेश इति न किमप्यनुपपन्नम् इति । ३८३ प्र० । सेन० ३ बल्ला० ।
मोवएस - धर्मोपदेशक- त्रि० । धर्मदेशक, ०१ शा० । धम्मो भोग- धर्मोपयोग- पुं० । धर्मस्येतिकर्त्तव्यताबोधे, पं० सू० ४ सूत्र । धम्मोपगरणधर्वोपकरणान० थमोपकरणे चाचा किरण न परित्य
परिग्गदाओ अप्पाणं
कसेज्जा । (०)
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परिगृह्यत इति परिग्रहो धर्मोपकरणातिरिकमुपकरणं, त दात्मानमवष्य केदयेत् अथवा संयोपकरमपि मू या परिग्रहो भवति; "मूर्च्छा परिग्रहः " (तस्वा०७ श्र०१७ सूत्र ) इति वचनात्। तत आत्मानं परिब्रादयस्तुपकर तुर बन्मू न कुर्यात् । ननु च यः कश्चिकर्मेोपकरणाऽऽद्यपि परि नियति । तथाहि आत्मबोपकारि णि रागः, उपघातकारिणि च द्वेषः, ततः परिग्रहे सति रागद्वेबौनेदिष्ठो, ताभ्यां कर्मबन्धः, तत्कथं न परिग्रहों धर्मोपकर णम्, ?। उक्तं च-." ममाहमिति चैष या वदनिमानदाहज्वरः, कृतान्तमुखमेव तावदिति न प्रायः । यशः सुखपिपा सितैरयम सावनर्थोत्तरैः परैरपसदैः कुतोऽपि कथमध्यपा कृपते ॥ १ ॥ " नैष दोषः दिपकले ममेदमिति साधूनां परिग्रहग्रहयोगोऽस्ति । तथा ह्यागमः-" श्र अपोदेम्म पायति ममारलं "यदिह परिगृ हीतं कर्मबन्धाय पकल्प्यते स परिग्रहो, यत्तु पुनः कर्मनिर्जरा प्रभवति सत्परिषद एव न भवतीति ।
आह च
अमहा गं पासए परिहरिज्जा,
एस मग्गे आरिए पवे ॥ २ ॥
इत्यादि) जमिति वाक्यालङ्कारे अन्य प्रकारेण पश्यकः सन् परिग्रहं परिहरेत्। यथादि प्रदिप रमार्थ गृहस्थाः सुखसाधनाय परिग्रहं पश्यन्ति न तथा सा। तथाहि प्रयमस्याऽऽशयः बाचास [कमिदमुपकरणं ग ममेति रागद्वेपास्ययोगोऽत्र निषेध्यन धर्मोप करणं, तेन विना संसारार्णवपारागमनादिति । उक्तं च- "सा ध्यं यथाकथञ्चित् स्वल्पं कार्ये महश्च न तथेति । प्लवनमृते न हि शक्यं पारं गन्तुं समुद्रस्य ॥ १ ॥ " अत्र चाऽऽर्द्दताऽऽभा
६०५
"
(२७३७)
अभिधानराजेन्द्रः ।
.
सेपटिको सह महान विवादीत्यतीर्थंकरामप्रायेणापि सिसाधयिषुराद (एस मो इत्यादि) धर्मोप करणं न परिग्रहायैत्यनन्तरोक्को मार्गः श्राराद्याताः सर्वहेयथर्वेश्य इत्यादि कथितो न तु यथा घोटि कुट्टिकालय का ऽश्ववालधियालाऽविषय चिविरचितो मार्ग इति । न वा यथा मौद्गतिस्वातिपुत्राज्यां शोदोदनं ध्वजीकृत्य प्रकाशितः । इत्यनया दिशा अन्येऽपि पराय इति । पादवितुमार्यैः प्रपेदि तः । ( ६१ ) भाचा० १ ० २ ० १ ४० । धम्मोवग्गहाण - धर्मोपग्रहदान न० । शानाभयप्रदातॄणा--माद्वाराऽऽयैरुपदः । दचैसे शुरू स्तयमपदं स्मृतम ॥ १ ॥ इत्युकलकणे दानभेदे, ग० २ अधि० । धम्मोप- धर्मोपाय- पुं० । प्रवचने, तदन्तरेण धर्मस्यासम्भ नात् । चतुर्दशसु पूर्वेषु, आ० म० १ ० १ खराम । सामायिकाssदिके व श्रा० म० १ ० १ ख । ( धर्मोपायव्याख्या 'ति त्थर' शब्देऽषि नागे २२६१ पृष्ठे गता ) धम्मोवायदेगर्मोपायदेशक-पुं० ती प्रपतन्तमात्मानं धारयतीति धर्मः, तस्योपायो द्वादशाङ्गः प्रवचनम् । अथवा-पू. देश देशको धर्मोपदेशकः । गणधरे चतुर्दशवि००१०१ काम चतुि तिसंख्याकेषु जिनेषु, आ० म० । “धम्मोवाच पवयण-मवा पुण्याई देखया तस्स । सम्यजिणारा गजरा
जे जस्स ॥१॥ " अ०म० १२० १ खपक ( अस्या गाथाया व्याख्या' तित्थयर' शब्देऽस्मिन्नेव भागे २२६१ पृष्ठे गता ) धप-ध्वज- 'भय' शब्दार्थ, कल्प० १ अधि० ३ कण | को० । धयण - देशी- गृहे, दे० ना०५ वर्ग ५७ गाथा । घर पार्तराष्ट्र पुं० इंचे "घयरा कार्यबा " को०
-
धरण
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४० गाथा ।
घर-ट- पतने, स्वादि० श्रा० अ० अनिट्
॥ ८ । ४ । ५३४ ॥ इति प्राकृतसूत्रेण धातोरन्त्यस्य ऋवस्थ देश | 'घर' प्रा० ४ पाद । घरते । अधृत । वाच । स्थिती करती दि०० अनि चरति, ते, अधात् श्रधृत । वाच० तूले, देव्ना• ॥ वर्ग ५७ गाथा । घर भि० पिरतीति षा र विद॥५१॥ ५०॥ इत्यचप्रत्ययः । नं०] धारके, श्र० । 'धरह ।' प्रा० ४ पाद । प्रपने राजे सुभे कापसाच पद्मप्रभस्य षष्ठस्य जिनस्य पितरि कौशाम्बी वास्तव्ये स्वनामख्याते नृपे श्राव० १ ० स० । स्था० । अस्यामवसर्पिण्यामैरतवर्षनवे विंशतितमे जिने, स० । पर्वते, को० ५० गाथा । परदेशी कापसे दे०० वर्ग २० गाथा
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पर घर-खो, धान्ये, दिवाको सेती च पाय दक्षिणकुमार निकायेन्द्रे, स्था० ४ ० १ ० ति० । द्वी० प्रा० भ० । शलिसाचतीविजयस्थत्रीतशोकाराजधानीस्थस्य महाबलस्य राजपुत्रस्य स्वनामख्याते सवयस्ये मिले, झा० १ ४० श्र० । द्वारवतीवाराधेषु समुद्रविजयादिषु दशसु दशायन्यतमे दशा, अन्त० १ ० १ वर्ग १ श्र० स० अनिक्केपे, श्रोघ० । बोकशरूप्यमा
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(१७१5) भनिधानराजेन्द्रः।
धरण
धरिमप्पमाण
पकाऽऽत्मके धरिमप्रमाणभेदे,षोमशरूप्यमाषका एकं धरणमि- त्वदीघत्वलणत्वपश्चादजागत्वाऽऽदिसाधात् स धरणति । ज्यो १ पाहु० । अधमर्णाऽऽदिज्यो लज्यव्यग्रहणा न. तलवणिभूतः । धरण्याः केशबन्धविशेष श्च प्रतीयमाने जनपूर्वके उपवेशने च । म० धरणं सभ्यव्यग्रहणार्य सनपू. सर्पाऽऽदौ, उपा०२०। भ०। बकमुपवेशनम । ध• २ अधि० । नागकुमारेन्के, स्था। धरणिधर-धरणिधर-पु.। धरणिं धरति । धृ-अच् । पर्वते,
धरणस्त णं णागकुमारिंदस्त णागकुमाररमो धरण पने | विष्णौ, करपे च । वाच । विमल (१३) जिनस्य स्वनामउपायपचए दसजायणसयाई उठं उच्चत्तेणं, दसगाउ ख्यातायां प्रथमाऽयिकायाम, स्त्री० । स०। प्रव.। सयाई उन्वेढणं मूले, दसजोयणसयाई विक्खंजेणं धरण-धरणिसिंग-धरणि मङ्ग-पुं० । धरएयाः शुकमिव धरणिशृङ्गः । स्स . जाव णागकुमाररमो कालवालस्स महारयो | मेरौ, चं• प्र०५ पाहु । सू०प्र०। कामप्यमे उपायपव्वए दसयणसयाइं नहं उच्चत्तणं धरणी-धरणी-स्त्री० ।' धरणि' शब्दार्थे, स०। एवं चेव. जाव संकवालस्स न वंदस्स वि, एवं लोग- धरणीखील-धरणीकील-पुं० । ' धराणखील ' शब्दायें, पालस्स वि, से जहा धरणस्स । सा. १० ग०। . | सू.प्र०५पाहु०। धरणग-धरणक-न० । रोधने, धरणकं रोधनमपकारिणामध- धरणीतल-धरणीतल-न० । 'धरणितम' शब्दार्थे, संथा। माऽऽदीनां च । प्रब ३८ कार । ध्रियते येन तकरणम, धर
न तकरणम, धर | धरणीधर-धरणीधर-पुं।'धरणिधर' शब्दार्थ, स०। णमेष धरणकम । बेन धृत्वा तोल्यते तस्मिन् तोलनसाधने वस्तुनि, ज्यो- २ पाहु०।
धरा-धरा-स्त्री० । पे-अच् । पृथिव्याम, गर्भाशये जरायो,
मेदावहायां नाड्यां च । वाच । को० २६ गाथा । भरणप्पन-धरणप्रज-पुं०। धरणस्य नागकुमारेन्जस्य स्वनामक्याते उत्पातपर्वते, स्था०१.ग।
धराहर-धराधर-पुं० । धरा धारयति धृ-अच् । पर्वते, वराधरणा-धरणा-स्त्री० । मगधदेशस्थायां स्वनामस्थाताराज
हरूपे विष्णौ च । वाच० । वराटविषयस्थे स्वनामख्याते पुरे,
न० । यत्र बसन्तसेनो गृहपतिः । दर्श० २ तव । (तत्कया धान्याम, यत्राला देवी । शा.२ श्रु.३ वर्ग १ अ०।
"राम" शब्दे वक्ष्यते) धरणिंद-धरणन्ध-पुं० । नागराजे, " नागेसु वा धरसिदमाहु
माहु धरिजंत-ध्रियमाण-त्रि.। धारणविषयोक्रियमाणे, "उत्तेणं
, सेठे।" सूत्र०१ १०६अ। विश्वपुरस्थे स्वनामख्याते राज- परिजमाणेण ।" प्रश्न.४ाश्र.द्वार । श्री.। नि, ग.२ अधिः । (तत्कथा ' फासिंदिय' शब्दे वक्ष्यते) श्रीपार्श्वनाथप्रसादात्सर्पजीवो नमस्कारं श्रुत्वा मौलो धरणे-छो धारज्जमाण
धरिज्जमाण-ध्रियमाण-त्रि.। 'धरित' शब्दार्थ, प्रभ० ४ जातः,किंवा सामानिक,तथोपसर्गावसरे समागास मौलः,किं
श्राश्रद्वार। बाऽन्य इति प्रक्षे, उत्तरम्-सर्वत्राक्षरानुसारेण मौलो घरको धरिणी-धरिणी-खी० । पृथिव्याम्, को०२५ गाथा। ज्ञातो नास्तीति । १४० प्र० । सन० ३ उल्ला०।
धरिम-धरिम-म० । तृणकव्ये, का. १७०१० । विपा.। धरणि-धरणि-स्त्री० । धृ-अनिक-वा की। भूमौ, स० ३१ स. उन्मानप्रमाणभेदे, ज्यो.पाहु । स्था। धरिमं मजिष्टामासंथा। सु०प्र०। चं०प्र० । "मही मेणी धरा धरणी।" दीनि । प्रा००६ अ०। ज्ञा० । उत्तरी धरिमं यत्तुनाधृतं सद को। वासुपूज्य (१२) जिनस्य प्रथमाथिकायाम, प्रथ। | व्यवाहियत ति । शा०१ श्रु०००। द्वार स.। "धरणी य वासुपुजे।" ति.किन्दविशेष कन्दा रिसपा -धरिमप्रमाण-न । प्रमाणजे, ज्या। सौ, वनकन्दे च । वाच०।
धरिमप्रमाणमाहधरणिखील-धरणिकील-पुं० । धरण्याः पृथिव्याः कीलक श्व
चत्तारियमधुरत्तण-फलाणि सो मे (से) असरिसवो एको। धरणिकालकः । मेरो, सु० प्र०५ पाहु । चं० प्र०।
सोलस य सरिसवा पुरण, हवंति मासयफनं एगं ॥ धरणित-धरणितल-न० । महीपीठे, संथा। सूत्र०। का।
गुंजा फलाणि दोन्नि उ, रुपियमासो हवइ एको। धरणितलगमणतुरितसंजणितगमणप्पयार-धरणितलगमनत्व.
सोलम य रुपिपासो, एक्को धरणो हवेज संखित्तो॥ रितसंजनितगमनप्रचार-त्रि०। धरणितजगमनाय भूतलप्राप्तये
अलाइज्जा धरणा, य मुबलो सो य पुरण करिसो। त्वरितःशी संजनित उत्पादितो गमनप्रचारो गतिक्रियाप्रवृ
करिसा चत्तारि पलं, पाणि पुण अहतरेम उ पत्थो ।। सियन स तथा । तलप्राप्तये शीघ्रोत्पादितगतिक्रियाप्रवृत्ती, झा० १५०१०॥
जारो य तुला वीस, एस विही होइ धरिमस्स ॥ धरणितलगमातुरितसंजणितमणप्पयार-धरणितनगमनत्वरि
चत्वारि मधुरतृगाफलानि मधुरतृणतन्मुलाः स मेय
विषये सकलजगत्प्रसिक एकः श्वेतसर्पपो भवति । पो. नसंजनितमनःप्रचार-त्रि० । नूतप्राप्तये शीघ्रोत्पादितमन-प्र
मश च श्वेतसपा एक भाषफलं धान्यमाषफलं, द्वे चासौ, झा• २६० ११.।
न्यमाषफले पकं भवति गुजाफलं, द्वे च गुजाफले धरणितलवोणितूय-धरणितलवेणिजूत-त्रि. । धरणितलस्य एको रुप्यमाथा, कर्षमाप इत्यर्थः । बोमश च रुप्यमापका वेणिभूतो वनिताशिरसः केशबन्धविशेष श्व यः कृष्णः एक धरणम् । अतृतीयानि धरणानि एक सुवर्णः, स पत्र
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धरिमप्पमागा
चैकः सुवर्णः कर्ष इत्युच्यते । चत्वारः कर्षाः पलम, अयशपालन प्रस्थापनशतिका तुला विचविला भारः यच पूर्वाऽऽवाप्रदा मप्रमाणविषयो विधिः । तदेवमुक्तो धरिमप्रमाणविधिः । ज्यो० २ पाहु
पारस पसंती अक० दिखायां सक० प्रयादि०प०सेट् । "वृषाऽऽदीनामरिः ॥ ८ । ४ । २३५ ॥ इति प्राकृतसूत्रेण वर्णस्यारिः । प्रा० ४ पाद । 'धरिसर ।' धर्षति । प्रागल्भ्ये, स्वादि० पर० अक० सेट् । धृष्णोति । अधार्षीत् । संबन्धने, खुरा० श्रात्म० अक० सेट् । धर्षयते । श्रदीघृषत। श्रधर्षत | कोबुराम पन्यादि० क० सेट् धर्षयति ते । वर्षति । श्रदीधृषत् । श्रदधर्षत् । अधात् । वाच० वर्ष पुं० [पय् प्रागभ्ये, अमरें, शक्तिबन्धने, संतो हिंसायां च वाच० । घरिण पर्षण-२०
I
नावे
I
परिभवे, रमणे, घर्ष
ब्दार्थे च । नि० चू० १ ० । ० । भवन- ० ति चुनोति पुनाति वा पु-धू-या अन् पत्यौ, का० १ ० १ श्र० । व्य• । पं० ब० । वाच० । विधवाशब्दव्याचिख्यासुर्धवशब्दस्य भाष्यकारो
(२०१७) अभिधानराजेन्द्र
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व्याख्यानमाह
विधवा खलु विधवा, धवं तु जत्तारमाहु धारयति चीयते वा दधाति वा विधवा विगतोय
ठ
नेरुत्ता । पयो चि ।। इति युत्पत्तेः। धर्व
माहुरुक्का निरुक्तिशास्त्रविदः । कया व्युत्पश्येत्याहधारयति तां स्त्रियं धीयते वा तेन पुंसा सा स्त्री दधाति सर्वा मनापुष्यति तेन कारणेन निशाद्भवत्युते। [[]] [४०] स्वनामरुपाते बहुवीजके
अ० । रा० । ल० प्र० । जं० प्रज्ञा० ति० । धूर्ते नरे च । नावे अए । कम्पने, वाच० । धरातल की.
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Ci
रण श्वेतमरिचे नृपश्रेछे, चीनकर्पूरे,
वाच० | को० ६२ गाथा | रा० । श्रघ० । ० । ० । धवलकमलपत्तपयराश्रूभं । " कल्प० १ अधि० २ कण । तं । तद्वति सुन्दरे च त्रि० । शुक्लवर्णायां गवि, स्त्री० [टाप् । गौरा० ङीष् । वाच० अयोध्यानगरस्थे स्वनामख्याते आपके । पुं० [दर्श० ३ तस्व] ना० ५ वर्ग ५७ गाथा ।
दे० धवलकपुर धवलार्कपुर - न० । वीरधवलनृपस्य पुरनेदे, ती० ४१ कल्प | "लकपुरे यसतो नपायकुलबन्दियोः।" पञ्चा• १९ विव० ।
धवलगिरिधरगिरि-पुं०
कैलासापरनामधेयेऽहा पद पर्व
ते, तो ० ४७ कल्प | ( तद्वक्तव्यता ' अठावय ' शब्दे प्रथमजागे २५३ पृष्ठे गता )
भलपुष्पदंत-धवलपुष्यवत्सामयत
कुन्द कलिका व दन्ता यस्य स धवलपुष्पदन्तः । कुन्दकलिकासदृशदन्ते, जी०३ प्रति० ४ उ० ।
भाईपिंग
धवलराय - घबलराज - पुं० ! वर्द्धमाननगरस्थे विमलकुमारजनके स्वनामस्या मृ० ८० तथा विमलकुमार नृपे । (तत्कथा शब्दे बचते
धवलसण- देशी। हंस, दे० ना० ५ वर्ग ५१ गाथा । धवलय- धवलित- त्रि० । धवलवर्णीकृते, स्था० ५ ० २४० ॥ धन्व-देशी-वेशे, दे० ना० ५ वर्ग ५७ गाथा ।
कुट्टि
घसाचै - घसदिति श्रव्य० 1 घसघसेत्यस्यानुकरणे, मतसंसि सम्बंधिसन्ति पडिगया ।" ससीत्यनुकरणे, का• १ ० ४ श्र० ।
घसल देशी-बिस्वीय, ०२५० गाथा घाई-घाली - स्त्री० । धीयते पीयतेऽसौ धा-ट्रम्, पित्याद् ङीष् । "बायाम्" ।। २१ । इति सूत्रे
सुग्वा । 'धती ।' हस्वात्प्रागेव रलोपे 'धाई।' पत्रे 'वारी' प्रा० २ पाद । मातरि, वाच० । धयन्ति पिबन्ति बालकास्तामिति यते धार्यते या मालका दुग्धपानामा धात्री बालपात्रिका प्रव० ६७ द्वार पञ्चा० । स्तनदायिन्यां जननी पायां बालपालिकायाम् सूत्र० १ ० ४ ० १ ० । साप का करमनमनकी इमामेत्या पञ्चा० १३ विव० । श्राचा० । अनु० । ग० । अन्त० : घ० रा० । उत० । ज्ञा०
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66
नाह
खीरे व मज्जयेविष मंट की लावणंकपाई प एकेका यि विदा करणे कारावणे चैव ॥ शीविषा एका धात्री, या स्तम्यं पाययति । द्वितीया म जनविषया या मण्डनविषया चतुर्थी नधात्री पञ्चमी अकधात्री । एकैकाऽपि च द्विधा । तद्यथा-स्वयं कर खे, कारणे च । तथाहि या स्वयं स्तभ्यं पाययति बालकं सा स्वयं करणे क्षीरधात्री । या त्वन्यया पाययति सा कारणे । एवं मज्जनधाग्योऽपि भावनीयाः ।
संप्रति धात्रीशब्दस्य व्युत्पत्तिमाद
धारे धीर वा, धयति वा तमिति तेण धाई छ । जसपुरा, खीराई पंचचा ताज ॥
धारयति बालकमिति धात्री । यद्वा-धीयते नाटकप्रदानेन पोष्यते इति धात्री । अथवा धयन्ति पिवन्ति बालकास्तामिति धात्री यात्रीति निपातेन तानिष्यति । ताश्च धान्यः पुरा पूर्वस्मिन् काले, यथाविनवं विभवानुसा रेल, कीराssदिविषया बालकयोग्या आसन्, संप्रति तथारूपविभवाभावे तान दृश्यन्ते । पिं० श्रामलक्यां च । स्वार्थे कन् । वाच० ।
घाईपिक पात्र पिएम न० "
निमिते।” (२७४ गा०) धयन्ति पिबन्ति बालकास्तामिति, धीयते धार्थते बालकानां दुग्धपानाद्यर्थमिति वा धात्री मानपालिका । सा च पञ्चधा क्षीरधात्री मज्जनकधात्री, मएमनधात्री, क्रीमनधात्री, उत्सङ्गधात्री च । इह धात्रीस्वस्य करणं कारणं घातकात्रीशब्देनोक्तं द्रष्टव्यम्, तथाविवकणात् । ततो धान्याः पिण्डो धात्रीपि एडो धात्रीत्वस्य करणने कारणेन च य उत्पाद्यते पिण्डः स धात्रीपिएमः । प्रव० ६७ द्वार । बालस्य तीरभज्जन मण्डकीम
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(२७४०) थाईपिम अनिधानराजेन्द्रः।
घाईपिम माधाच्यः पञ्च । तासां कर्म धात्रीत्वं, तेन लब्धः पिपमो धा- उच्यते, यो दुःखप्रतीकारसमर्थः । ततः साधुराह-अहं दुःखश्रीपिएमः । जीत० । उत्पादनादाषभेदपि० । दर्श. । पश्चा।
सहायः तस्मानिवेद्यतां मे दुःखम् । ततः सा माह-प्रद्य मे मम प्राचा० । ग.। स्था० । बालस्य कीरमजनमएमनक्रीमनालक
धात्रीत्वममुकस्मिन्नीश्वरगृहे इतं स्फेटितं ततोऽहं विषामा । ततः काराऽऽरोपणकर्मकारिपयः पशधायः,पतासां कम्म निक्कार्थे
साधुराह-मा वं विवाद कार्षीः, अहमवश्यं त्वां तत्राचिरेण कुर्वतो मुनेधात्रीपिण्डः, ०३ अधि०। प्रशनार्थ दातु- धात्री स्थापयिष्यामीति प्रतिझा विधाय तस्याः पार्श्वे अभिनरपत्योपकारे वर्तत शति धात्रीपिण्डः । प्राचा०२४० १० वस्थापिताया थाध्या वाप्रभृतिकमजानानः पृच्छति यथा १ .९ .।
कि तस्या वयः, तारुण्यं परिणतं न वा गरामावपि स्तनातत्र यथा स्तभ्यदापनधात्रीस्वं साधुः करोति तथा दर्शयति
परपोयौ कि कूर्पराऽऽकारवन्तौ दीघों, यद्वाऽतिशयेन स्थूलो, खीराहारो रोवइ, मज्क कयासाय देहिएं पेज्जे ।
शरीरेऽपि तम्याः किं स्थूवत्वं, किंवा कृशत्वं, तत पवं पृष्ट्वा त. पच्छा वि मज्क दाही, प्रलं व नुज्जोब पहामि ॥ श्रेश्वरगृहे गतः सन् तासमकं तं चालकं रष्ट्वा भणति। पूर्वपरिचिते गृहे साधुभिक्षार्थ प्रविः सम् रुदन्तं पावकंटा
कि ताणतीत्यत पाहसज्जननीमेवमाह-एष बालोऽद्यापि कोराहारः, ततः कीर- अहुणुद्वियं च अणव-क्खियं च एयं कुलं तु मन्नामि । मन्तरणावसीदन् भारदति,तरूणानां कृताशाय विहितभि
पुरोहि जदिर, धरई बालेण सुचामो । कालाभमनोरथाय,ऊटित्येव भिक्कां देहि,पश्चात् (ण)पनं बालक
महमिदं मन्ये-इदं युष्मदीयं कुत्रमधुनास्थितं संप्रत्येवेश्वरी(पेज्जे) पायय स्तन्यमा यद्वा-प्रथमत पनं स्तम्य पायय, पश्चा
भूतं, बदि पुनः परम्परागतनामीकमिदमभविष्यत्, तर्हि कथं म्मा जिका दोहि । यदि वा-मलं मे संप्रति भिकया, पायय
न परम्परया धात्रीलक्षणकुशलमध्यभविष्यदिति भावः । स्तन्यं वामकमहं पुनर्भूयोऽपि शिक्षार्थमेश्यामि ।
तथा अनवतितमपरिभावितं महत्तरपुरुषैः, तत एव या था तथा
सा वा धात्री ध्रियते, पतञ्च बालेनासंगतधात्रीस्तन्यपान. मइमं भारोगी दी-हाउ य होइ अवमाणिो वालो।।
बिच्छायेन सूचयामोल कयामः । तत एवंभूतधात्रीयुक्तगपी दुवलयं तु मुयमुई, पिज्जेहि अहं व से देमि।
कुलं धरते कमेण वर्तते, तम्मन्ये पुण्यैः प्राक्तनजन्मकृतेः, यदि भविमानितोऽनपमानितो पालो मतिमाम् अरोगी दीर्घायुइच वा-याच्छया एवमेव, तत एवमुक्त सति ससंभ्रम बाबकास प्रवति, विमानितः पुनविपरीतः । तथा-दुर्लभं चलु खोके जननी जनको वा साधु प्रत्याह-भगवन् ! के धापा दोषाः । सुतमुखं पुत्रमुखदर्शनं, तस्मात्साएयप्यन्यानि कर्माणि मुक्त्वा
ततः साधुर्धात्रीदोषान् कथयतित्वममं बालकं स्तन्यं पायय । यदि स्वं नो पाययसि तहाई वा
येरा दुबलखीरा, चिमिढो पिधियमुहो अइयणीए। बदाम्यस्म कीरं बाकाय, अन्यस्या वा स्तन्यं पाययामि । अत्र "महं व से देमि" इत्यनेन स्वयंकरणधात्रीत्वं साधी दर्शितं,
तणुई उ मंदखीरा, कुष्परथणियाएँ सूइमुहो॥ शेषपदैः कारणेन ।
या किस धात्री स्थविरा सा अवनक्षीरा अबलस्तन्या भवति । अत्र दोषमाह
ततोबालोन बतं गृढाति । या स्वतिस्पनी तस्याः स्तन्यं पिबन् महिगरणमह पता, सम्मुदयगिसाणए य नहो। लनन प्रेरितमुखश्चम्मितमुखावयवाष्ठनासिकश्चिपिटश्चिापिट. चहुकारी अवमो, नियगो बनवणं संके।
नासिको भवति। या तु शरीरेण कृशा मन्दतीरा अल्पकीरा,
ततः परिपूर्ण तस्याः स्तन्यं बालो न प्राप्नोति, तदनावाच सी. यदि बासकजननी का धर्माभिमुखो भवति, तर्हि प्राक्तनः साधुवचनैरावर्जिता सती अधिकरणमाशकर्मादिकरोति ।
दति । तथा वा रिस्तनी, तस्याः स्तन्यं पियन् बालः सूची
मुखो भवति । स हिं मुखं दीर्घतया प्रसार्य तस्याः स्तन्यं पिब. अथ प्रान्ता धर्माननिमुखी,तहिं प्रदूषं याति शेषः। तथा यदि खकोदवात्कथमपि स बालो ग्लानो जवति,तहि उदाहःप्र.
ति,ततस्तथापाभ्यासतस्तस्य मुखं सूच्याकारं भवति । वचनमामिम्मम, पथा साधुना तदानीमालपितः कीरं वा पायि.
उक्तं चतोऽन्यत्र वा नीत्वा फस्या अपि स्तन्यं पायितस्तन सानो जातः।
निस्लामा स्थाविरोधात्री, सच्यास्यः कूर्णरस्तनीम् । तथाऽतीव चाटुकारीति लोकेऽवडिलाघा, तथा निजको बा
चिपिटः स्थलवकोजां, धयँस्तन्वी कृशोजयेत् ॥१॥ भा, भन्यद्वा मैथुनाऽऽदिकं, णमिति वाक्यालङ्कारे, तथारूप.
जाड्यं भवति स्थविरा-यास्तनुक्यास्स्वबलंकरम् । साधुवचनभवणतः शङ्कते संभावयति ।
तस्मान्मध्यबलस्थायाः, स्तन्यं पुष्टिकरं स्मृतम् ॥२॥ अथवा प्रकारान्तरेण धात्रीकरणे दोषस्तदर्शयत्ति
अतिम्तनी तु चिपिट, खरपीना तु दन्तुरम् । भयमवरो उविकप्पो, भिक्खायरिसद्धि अईि पुच्छा।
मध्यस्तनी महानिद्रा, धात्री साऽस्य सुखकरी ॥३॥"
इत्यादि। एषा चाइनिनवस्थापिता धात्री उक्तदोषा , तस्मान दुक्खसहायविनासा, हियं में धाइत्तणं अज्जो।
युक्ता, किं तु चिरन्तन्य बेति भावः । जयगंडयधुतणु-तणेहि तं पुच्चि अयाणंते।।
तथातत्थ गओं तस्समक्खं, जणाइतं पासिर बालं ॥ जा जेा होइ बन्ने- नकमा गरहए य तं तेण । भयमपरो विकल्पो धात्रीकरखे, तमेवाह-भिवाचर्याप्रविष्टेन गरहइ समाए तिव्वं, पसत्यमियरं च दुव्यन्नं ।। साधुना कानिच्चाद्धिका अधृतिधृतिरहिता रहा,ततः पृष्टा सा. या अभिनवस्थापिता धात्री, येन वर्णन कृष्णाऽऽदिना उत्कृपा किमच त्वं सशोका दृश्यसे, तत एवमुक्ता सती सा प्राह-यो भवति, तां तेन वर्णेन गईते निन्दति । यथा-"कृपणा दंशयते इ.सहायो भवति तस्मै दुःखं निवेद्यते, दुःखसहायश्च स वर्ण गोरी तु बलवर्जिता । तस्मात् श्यामा भवेद्धात्री, बलब.
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(२७४१) धाईपिंड अभिधानराजेन्डः।
धाईपिंड णः प्रशंसिता ॥१॥" इत्यादि । तथा यामजिनवस्थापितां गर्हते, | एषा च धात्री बालमतिजलोत्प्लावनेन मज्जायति, ततो अ. तस्याः समाना समानवर्मा चेत् चिरन्तनी स्थाप्यमाना भवति, सभीरताऽऽदयो दोषा बालस्य नविष्यन्ति, तस्मात्रैषा मज्जनसर्दितां तीवामतिशयेन प्रशस्यां प्रशस्तवर्णा श्लाघते इतरां धात्री युक्ता । तत एवमुक्के सति तामनिनवस्थापितां मज्ज त्वनिनवस्थापितां दुर्वर्णाम् । एवं चोचो सति गृहस्वामी नधात्री पृहस्वामी स्फेटयति, चिरन्तनीमेव कुरुते । तथा साध्वभिप्रेतां धात्रीं धारयति, इतरांपरित्यजति ।
च सति त एवं प्राक्तना " सम्बष्ट्रिया पभोसं" इत्यादिरूपा तथा सति यो दोपस्तमाह
दोपा दातव्याः। एवमुत्तरत्रापि प्रतिगाथा भावनाया। उध्वट्टिया पोसं, कोचग उम्भाममो य से जंतु ।
अथ च मज्जनधात्री कथंभूतं बालं कृत्वा मण्फनधास्याः
समर्पयति, सत माहहोजा मज्क वि विग्यो, विसाइ इयर। वि एमेव ।
अन्नंगिय संचाहिय, उन्नहिय मज्जियं च तो पालं । या अभिनवस्थापिता धात्री नर्तिता धात्रीत्वात् च्याम्रिता,
नवणेई मज्जधाई, मंगणधाई सुश्देहं ।। सा साधोरुपरि प्रद्वेषं कुर्यात् । तथा सति गजकं दद्यात, यथायमुनामको जारोऽनया धाच्या सह तिष्ठतीति । तथा (से)
स्नानधात्री प्रथमतः स्नहेमाम्यनितं, ततो हस्ताभ्यां संबा.
चितं,तदनन्तरं पिष्टकादिना सर्मित, सतो मन्जितं.शुचित. सस्य साधोयत्पद्वेषवशात्कर्तव्यं बधादि, यत्तदोर्नित्यानिसंबन्धात् तदपि कुर्यात् । याऽपिचिरन्तनी संप्रति स्थापिता
तं वा देवालस्य कृत्वा मण्डनधाच्या समर्पयति । उका कदाचिदेवं चिन्तयति-ययैव तस्या धात्रीत्वात् च्यावनं कृत.
मज्जनयात्री। म, एवमेव कदाचित् रुऐन ममापि विघ्नो धात्रीच्याचनरूपो
संप्रति मएमनधात्रीत्वस्य कारणं, करणं च, तथा मभिउन्तरायः करिष्यते, तत एवं विचिन्त्य मारणाय विषाऽऽदि
नवस्थापिताया धाच्या दोषप्रकटनं च यथा साधुः कुरुते
तथा दर्शयतिगरप्रभृति प्रयुञ्जीत । उक्ता क्षीरधात्री।
उसुयाइएहि मंमे-हि तारणं अहवणं वित्तसेमि । साम्प्रतं शेषधात्रीराश्रित्य दोषानतिदेशेनाऽऽहएमेव सेसियासु वि, सुयमासु करण कारणं सगिहे।
हत्यब्बगा व पाए, कया गलिया व पाए वा ॥
इषुका षुकारमानरणम,अन्ये तिनकमित्याहुः। श्रादिशब्दात इटीसु य धाईसु य, तहेब नवट्टियाण गमो॥
कुरिकाऽऽकाराऽऽद्याभरणपरिग्रहदभिकार्य प्रविष्टःसन् श्राअत्र षष्टयर्थे सप्तमी । ततोऽयमर्थः-एवमेता पपा कीरधा- द्धिकाचित्ताऽऽवजनार्य बालकमनाभरणमवलोक्य तज्जमनीमेवज्यस्तथा शेषिकास्वपि शेषाणामपि मजमाऽऽदिधात्रीणां, सुत. माह-इषुकाराऽऽद्यभरणविशेषैस्तावदेनं चालकं मण्डय बितमातृकल्पानां यत् स्वयं करणं मजनाऽऽ,यवान्यया कारणं, सतू षमा एतन्मएडनधात्रीत्वस्य कारणम् । मधवा- यदि पुनः त्वं न स्वगृहे गतः सन् साधुर्यथा करोति तथा वाच्यं, तथा च स. प्रपारयसि, तर्हि अहं विभूषयामि। पतत्स्वयं मपानधात्री. ति “अहिगरणनपंता" इत्यादिगाधोक्ता दोषा वक्तव्याः स्वस्थ करणाम । पूर्वधात्री स्थापनीयेत्यभिनवस्थापिताया मपथा तथैव क्षीरगतेनेव प्रकारेण ऋङिपु किमासु ईश्व- एडनधाच्या दोषानाह--( हत्थम्वग ति) हस्तयोग्यानि प्राभरगृहेषु,भभिनवस्थापितानां मजनाऽऽविधात्रीमा (धाईसुप सि)। रणानि पादे कृतानि । अथवा--(गसिव्व त्ति) गलसत्कानि भावप्रधानोऽयं निर्देशः, पञ्चम्यर्थे च सप्तमी । ततोऽयमर्थः- प्राभरणानि पादे कृतानि, तस्मान्नेयं मएमनधात्री मामने उनि. भात्रीत्वेभ्य उर्तितानां च्याविताना, यो गमः- सच्चहिया का, ततस्तस्या मण्डनधात्रीस्वारच्यावनमित्यादि पूर्ववद्भापोस" इत्यादिरूपः, स सकलोऽपि तथैव वक्तव्यः । बनीयम् । उक्ता मण्डनधात्री।
अतिसंक्षिप्तमिदमुक्तमतो विशेषत पतद्विभाषयिषुः प्रथमतो संप्रत्यभिनवस्थापितायाः क्रीडनधाच्या दोषप्रकटनं, कीमन. मजनधात्रीत्वस्य करणं कारणं च, तथा अभिनवधाच्या दो. धात्रीस्वेच करणं कारणं च यथा विदधाति साधुस्तथाऽऽहपप्रकटनं च यथा साधुः कुरुते तथा भावपति
दढयरसर चुनमुद्दो, मउयगिरा मनय सम्पणालावो । लोन महीऍ धूमी-ऍ गुंमिनो एहाहि अहवाएं मजे। नसावणगाईहिँ व, करेइ कारे वा किई ॥ जलभीरु अबन्न नयणो, अइनप्पिलणे अ रत्तच्चगे।। एषा अभिनवस्थापिता क्रीमनधात्री दृढतरस्वरा, ततस्तस्याः एष बालो मह्या लोलति लोमते, ततो धूल्या गुएिमतो वर्तते,
स्वरमाकणेयन् बाझो तुनमुखः की वभुखोप्रति । अथवातस्मात् स्नापय । एतद् मञ्जनधात्रीत्वस्य करणम् । अथवा
मृदुगारवा ततोऽनया रम्यमाणो बालो ममीवति । यदि वा यदि पुनस्त्वं न स्नपयसि,तर्हि अहं मजामि स्नापयामि । एतत्
मृडगी स्वयं बीमां कारयति । उक्का कीकनमी मम्ममोहापोस्वयं मानधात्रीत्वस्य करणम् । कापि ईश्वरगृहे काऽपि मज
ऽध्यक्वाक, तस्मनिषा शोजना,किंतु घिरम्तमेवेत्यादि प्रागिय । नभात्री धात्रीत्वात् स्फेटिता, साधुश्च तस्या गृहं निवार्थ प्र
तथानिका प्रविएः श्रारिकात्तिापर्जनाबालमुडापनाऽऽदिविधः, तां च धात्रीत्वात्परिभ्रंशेन विषयां रवा पूर्वप्रकारण च
मिस्व कामांकरोति,मन्यः कारबतिवारिका कीडनधात्री। पृष्ठा करवा च प्रतिकामीश्वरगृहे च गत्वा अभिनवमज्जनधाच्या
संप्रवधाच्या अभिनवस्थाषिताबा स्कोनाच सामान्यतो दोषप्रकटनायाऽऽद-(जसनीक इत्यादि) अतिशयम उत्प्लावनेन
दोपप्रकरनं बधा साधुः करोति तथा संचतिप्रभूतजलप्लावनेन गुप्यमानो बालो गुरुरपि जातो नद्यादौ जन
"थुझाएँ बियमपाश्रो, भण्गकरीसुक्खमीर सुक्खंच। भीरुभवति । तथा निरन्तरंजलेनोपवाव्यमानोऽयमनयनोऽप्रवन
निम्मंसकरखकरे-हिं नीरू दोघेप्पंतो ॥ अयनो रक्ताक्षश्च । यदि पुनः सर्वधाऽपि न मज्ज्यते, तर्दिन | रह स्थूलया मांसझया धाच्या कटयां त्रियमाणो पालो चिकटप्रारीरं बलमादत्तेनापि कान्तिभाग, दृष्टया चाऽबलोजायते। पादः परस्परपद्वन्तरालपादो जवति । भनकट्या,शुष्ककट्या वा
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घाईडि
मोदुःखं तिष्ठते निशाकराया प्रिय माणो बालो भीरुर्भवति । एषा चाऽभिनवस्थापिता धात्री अ नमो नमान्नेयादिप्राम अङ्कघात्रीत्वस्य कारणं, स्वयं करणं स्वयमेव भावनीयम् । तमाधुनिक प्रति मनमेवमाह-गुहा बालनन रोदिति यदि पुन
स्वं न प्रपारयसि तर्हि अहं गृह्णामि । संप्रति क्रीम नधात्रीत्वस्य करणे दोषं दृष्टान्तेन भावयति-कोहरे वत्थब्वो, दत्तो आदिमनं गओ सीसो । नहर धाइरिं अंगुलिये य सा दिव्वं ॥ कोकरे नगरेमा के पर्तमानाः परिकी संगमस्थविरा नाम सुरयः, तैश्चान्यदा दुर्भिक्षे जाते सति सिंहानिया स्वशिष्यं आचार्यपदे स्थापयित्वा गच्छे च सफलं तस्य समर्प्य अन्यत्र सुभिक्के देशे विहारक्रमेण प्रेषितः, स्वयं चकाकी तत्रैत्र तस्थौ, ततः क्षेत्र नवनिगैर्विज्य तत्रैव यतनया मासकल्पान् वर्षात्रं च कृतवान् । यतना च चतुर्विधा । तद्यथा-व्यतः, क्षेत्रतः, कालतो, भारतश्च । तत्र रूव्यतः- प्री उफन्नकाऽऽदिषु, क्षेत्रतो- वसतिपाद केषु, कालतः - एकत्र च पाटके मासं स्थित्वा द्वितीयमासे अन्यत्र बलतिगवेषणा । भावतः सर्वत्र निर्ममत्वम् । ततश्च किञ्चिदूने मा संप्रतिनिनामानं
(२७४२) निधानराजेन्द्रः ।
·
शिष्यं तवान् वागतोऽस्मिक्षेत्रभिपूर्वमुक्ता सूर यस्तस्मिन्नेव स्थिता दृष्टाः । ततः स स्वचेतसि चिन्तयामास । अहो भावतोऽयमी मासकल्पं न व्यदधुः तस्मान्न शिथिलैः सत्र वस्तव्यमितिपदिकातीसेतो बन्दिता सूरयः पृशः कुशलया सिंहा चार्य संदिष्टम् । ततो भिकावेलायामाचार्यैः सह भिक्षार्थं प्रविवेश, अन्तप्रान्तेषु गृहेषु ग्रादितो भिकां जानतो विच्छायमुखः । ततः सूरिभिस्तस्य भावमुपगम्य प्रविष्टम्। तत्र निःसदेव बालको रोदिति सुरयस्तं - ष्ट्रा चप्पुटिकापुरस्तरमालापयामासुर्यथा वत्स ! मात्वं रो तितमसा पूतना तरी प्रा णेशत् स्थितो रोदितुं बालको, जातः प्रहृष्टो गृहनायकः, ततो पिता भूर्यासो मोदक ग्राहितो दस मिनि अजायत प्रहृष्टः, ततो मुस्कलितो वसवौ, ते 'सूरयः स्वशरीरनिः
दामाजग्मुः तिक्रमणवेलायां च दत्तो भणितो-वत्स ! धात्रीपिएडं चिकिरसपिण्डं चाssलोचय । स त्वाद् युष्माभिरेव सहाऽहं विहृतः, ततः कथं मेधादिभिः सूयोयोना कफीमा पिण्डः पुटिकाकरणतः पूत
प्रद्विष्टः विलयति स्वयं जात ऽपि मासकल्पं न विदधाति एतादृशं च पिएडं दिने दिने गृह्णाति मां पुनरेकदिनगृहीतमप्यालोचयति । तत एवं विचिसः
कुतिया देवता तस्य शिक्षा बसताबन्धकारं सवात वर्ष विकुर्वितम्। ततः स भयनीतः सूरी नाद - जगवन्! कुत्रादं व्रजामि ?। ततस्तैः क्षीरोद जल वदतिनिमलहृदयैरभाणि वत्स ! एहि बसतौ प्रविशेति । दत्त आह-भगपश्याम्यन्धकारण द्वारमतिकोणा
धाउपाग
सूरिभिः निजाङ्गुलिरुद्धृत्य ऊर्ध्वकृता, सा च दीपशिखेव ज्वलि तुं प्रवृत्ता । ततः स दुरात्मा दत्तोऽचिन्तयत् श्रहो एतस्य प रिपदे परिप्यस्ति देवताः
शिष्याचमपानविर्वगुणानन्यथा चि न्तयसि । ततो मोदकलाभाऽऽदिको वृत्तान्तः सर्वोऽपि यथाव स्थितो देवतयाऽमाणि । मासे जाते तस्य भावतः प्रत्यावृत्तिः । कामिताः सूरयः, श्रालोचितं सम्यक् । सूत्रं सुगमम, नवरं थानाध्यक
सादिव्वं देवताप्रातिहार्यम् एतदेव
"
"
पानसे संगमथेरा, गच्छ विसज्जंति जंघवलहीणा । नवनागखेत्तत्रसही, दत्तस्स य आगमो ताहे ॥ उवसपपादितार्थ संताओ किसोय । पूपण बाले मा रुय, परिलाभण त्रियमणा सम्मं ॥ सुगा पूराना तथा के रोदिति विकाटना झालोचनम्। उपा रम् । पिं० प्र० ।
जे भिक्खू पाईदिनं मुंज, भुतं वा साइज एए ॥
गाड़ा
"
जे भिक्खु घातिपिंमं, गेएहेज्ज सयं तु अहब सातिज्जे । सो आणा अणवश्वं मिष्ठसविणं पावे ।। ११५ ।। सातखणा करें अनुमोदति सेकंड निल्यू १२०० वादे कारणे गेएदंतो अदोसो । गाहाअसिओमोरिएरायडे नए व गेलले ।
अद्धाणरोधर वा, जयणागणं तु गीयत्थे || १३५ ।। सिवाऽऽदिकारणेहिं गीयत्थो परागपरिहाणिजयणाए गेहूंतो सुको। नि० चू० १३ उ० । घाञ्चधातु
73
चान्युक फास्वातादिषु "रसायांसमेदोऽस्थि मजा शुक्राणि धातवः ।" इत्युक्तेषु रसाऽऽदिषु, वाच० । सूत्र० । धारकरवधोपकरयाच पृथिव्यादिके "पुढची आतेक तहा य, चाऊ य एगो । चत्तारि धाउणो रुवं ।" सूत्र० १ ० १ ० १ ८० । गैरिके, लोहाऽऽदिके, प्रश्न०२ श्राश्र०द्वार। उत्त० । "ৠयतंवत जयसीसग रूप्पवसे य वहरे य | हरियाले हिंगुलप मणोलिया सीसगंजणपवाले ॥ १ ॥ श्रम्भपकलकवालुया । उत्त० ३६ अ० | व्याकरणोक्ते गणपठिते क्रियावाचके भूप्रभृतौ नामभेदे च । धातवो ज्वादयः क्रियाप्रतिपादकाः । प्रश्न० २ संव० द्वार ( तद्वक्तव्यता 'धाजय | शब्दे २७४३ निगमे देवता हरितालदिङ्गुला ssदयः पदार्थः सन्ति तेषां प्रयोजने सति व्ययादुत्पकुप्रश्ने, उसरम् हरितालाऽऽदीनामुत्पि सात इति । १४७ प्र० । सेन• २ उद्घा० । पाकम्पातुकर्मन्न० पुरुषाला दे, कल्प० १ अधि० g कृण । घाउक्खोज - धातुक्षोज-पुं० । धातुवैषम्ये, श्र० । धानुपाग- धातुपाक-पुं० । द्वासप्ततिकलाऽन्तर्गत कलाभेदे, स०
1
७२ सम० ।
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(१७४३) अभिधानराजेन्द्रः।
धाउप्पावेयण
घायसंमदीव
धानप्पावेयण-धातुपावेदन-न। धातुदर्शने.नि.चु०१३उ० । घायइवण-धातकीवन-न० । धातकोसमूहे. “धवश्वकसि (धातुप्रावेदने मयूराङ्कनृपदृष्टान्तः ' अगाउत्थिय ' शम्दे प्रथम- चा।" आचा०२.२० १० अ०।जी। भागे ४६७ पृष्ठे गतः)
धायइसंमदीव-धातकीखएमबीप-पु.। धातकीनां वृक्षविशेपाउय-धातुज-न० । वस्त्रनेदे, पं० भा०।
पाणां स्त्ररमो वनसमूह इत्यर्थो धातकीखण्डस्तयुक्तको यो द्वापा तत्स्वरूपं पञ्चकल्यभाध्ये यथा
सधातकीखएक एवोच्यते। यथा दरामयोगाइएक इति धातकी. बुब्जति वंसकरिल्लो, कम्मि वि देसे तरुणतो घाए। खण्डवासी द्वीपश्चेति धातकीखएमद्वीपः लवणसम परिकिवकृतो पूरयंती, तं घम्यं तिप्पिए तम्मि ॥
प्य स्थिते कालोदसमुद्रपरिक्षिद्वीपभेदे, स्था० २ ठा०३ उ०
सम्प्रति धातकीखएमद्वीपवक्तव्यतामाहसंकोहे तृणयतो, तेमि तु एहारूहि पञ्चए मुत्तं ।
सवणे णं समुद्दे धायसंमे नाम दीवे बट्टे बन्नयागारसंगतेण तुयं जं वत्यं, नन्नातं धातुयं णाम | पं. जा।
संगिए सव्वो समंता संपरिक्खिवित्ताण चिट्ठति ॥ धातुयं नाम जहा कम्मि देसे वंसकरिल्लो उदेतो चेव घडपण
(लवणसमुह इत्यादि) लवणसमुझे धातकीखएमो नाम पिहिज्जा, ताहे सो सुकमालश्रो तत्थंय आतंमलीगो वक्ष,
होपो वृत्तोबलयाकारसंस्थानसंस्थितः सर्वतः सर्वासु दिद पच्चा पिच्चइ, तो किच्च, तं सुत्तं विज्ज, तं धाउयं ! पं०
समंततः सामस्त्येन संपरिक्षिप्य तिष्ठति ।। धू । भावप्रमाणनिष्पन्ननाम भेदे, अनु० ।
धायतिसंहे भंते ! किं ममचक्कवालसंचिते, विममचकवासे किं तं धाउए ? । न सत्तायां, (परस्मैनापा) एध वृच्छौ, स्पर्ध संघर्षे । सेत्तं धानए ।
लसठिए ?। गोयमा! समचकवानसंगिने,नो विसमचकराभूयं परस्मैपदी धातुः सत्तावकणस्यार्थस्य वाचकत्वेन धातु
संगिते ॥ जं नामेति । एवमन्यत्रापि । अनु।
(धायसंमे गं दावे किं समचक्कबालसंठिए" इति सूत्र पाउरत्त-धातुरक्त-नि० । गैरिकोपरजिते, "धावरत्तात्रो य
सवणसमुद्रय भावनीयम्। गिएह।" भ० २ ० १ उ. धातुरक्ता गैरिकोपरञ्जिता, शा.
धायतिसमे णं भंते ! दीवे केवतिए चक्कचालविखनेटिका इति गम्यम् । औ०।
णं केवश्यं परिक्खेवेणं पाते। गोयमा!चत्तारि जोयणचाउचाइ(ए)-धातुवादिन-पुं० । वादिने, स्था० ६ वा। सयसहस्साई चक्कवानविक्खंनेणं एगयाहीसं जोयणसतधामण-धाटन-न । प्रेरने,"धार्मेति य हाति य।" 'धामेति' सहस्साई दसजोयणसहस्साईणव य एगसढे जोयणसते किप्रेरयन्ति । सूत्र० १ २४ अ०२ 30। " वझपुरिसेहिं धामि- चि विसरणे परिक्खेवणं पएणते, से ए एगाए पउमवरवेयता।" बयपुरुर्धाटयमानाः प्रेर्यमाणाः। प्रश्न. ३ श्राश्र० दियाए एगणं वणसंमेणं सम्नतो समंता संपरिक्खित्ता हार | श्रा०म० । नाशने, श्री।
दोएह वि नएणो भामिअ-पुं० । देशी-पारामे, दे० ना.५ वर्ग ५१ माथा ।
दीवसमिया परिक्खेवणं ।
"धायश्संडे णं" इत्यादि प्रश्नसुत्रं सुगमम् । भगवानाहधामी-देशी-निरस्ते, दे० ना० ५ वर्ग ५५ गाथा।
गौतम ! चत्वारि योजनशतसहस्राणि चक्रवालविष्कम्जेघाण-ध्राण-न । सुभिके, विभवे च । बत्त०३०।
न एकचत्वारिंशयोजनशतसहस्राणि दशसहस्राणि नव यापारि-ना देशी-फबजेदे,दे० ना०५ वर्ग ६० गाथा। च एकषष्ठानि योजनशतानि किञ्चिद्विशेषानानि परिक्षेपे. पाय-धाय-पुं०। पण पन्नभ्यन्तरविशेषनिकायले स्था०२०
ण । उक्तं च-" पयालीसं लक्खा , दससयसहसाई जो. यणाणं तु । नव य सया गसट्टा किंचूणा परिरओ तस्स ॥१॥"
( से णमित्यादि)स धातकीखएडद्वीप एकया पद्मवरदिध्रात-न० । सुभिके, दश० ७ ० । “धाए पुण संखमीपुर
कया, अष्टयोजनोच्छ्यजगत्युपरिजाविन्येति सामयाद् गम्यते। ओ।" धातं सुभिकमिति चैकोऽर्थः । बृ० ५ ०।
एकेन वनख रमेन पावरवेदिकाबहिनूतेन सर्वतः समन्तात्सं. पाय-धातकी-खी । धातुं करोति णिच, टिनोपः, एवुस् ।। परिक्षिप्तः खोरपि वर्णकः प्राग्वत् । "धातकी कटु का शीता।" गौरा०-डी। एकास्थिके वृक्षवि. धायतिसंमस्स एं भंते ! दीवस्स कति दारा पसत्ता। शेफे, स.। प्रज्ञा । अनु० । स्था०।
गोयमा ! चत्तारि दारा पत्ता। सं जहा-विजए, वेजयंते, भायखंड-धातकीखएम-पुं० । धातकीनां वृक्षविशेषाणां ख-|
जयंते, अपराजिए। एमो वनसमूहो धातकीखएमः। धातकीनने, तद्युक्तो यो द्वीपः |
(धायइसंडस्स णमित्यादि) धातकीखण्डस्य भदन्त !द्वीपस धातकोत्रएक पबोच्यो, यथा दएमयोगाहण्डः । स्था०२
स्य कति द्वाराणि प्रज्ञप्तानि । भगवानाह-गौतम!चत्वारिद्वारावा० ३३० । धातकीनां स्त्रण्मानि धनानि यस्मिन् स धातकी.
खि प्रतानि । तद्यथा-विजयं, वैजयन्तं,जयन्तमपराजितं च । खरामो द्वापः। ध० २ अधि०। आव०। धातकीवृकखण्डोपाति
कहिणं ते! चायतिसंमस्स दीवस्स विजए णामं दारे तो द्वीपो धातकीखएडा। बवणसमुहं परिक्तिय स्थिते कालो. दसमुअपरिक्तिप्ते दीपभेदे, अनु. ।( पतद्वक्तव्यता 'धाय।
पापसे । गोयमा धायइसंडपुरच्छिमपेरंतं कालोयसमुद्दपुरसंमदीव' शब्देऽनुपदमेव वक्ष्यते)
चिमच्चस्स पञ्चच्छिपेणं सीयाए महाणदीए उपि एत्य गं धायहरूक्ख-धातकीवृक्ष-पुं०। एकास्थिक वृक्षविशेषे,स्था०० ना धायतिसंडस्स दीवस्स विजए णामंदारे पछचे। तं चेव पमा
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(२७४४) घायइसंमदीव अभिधानराजेन्द्रः।
धायइसंमदीव णं रायहाणी य अमम्मि धायसंडे दीवे सा बत्तब्बया कालोयस्स विधायइसमे दीवे जीवा नदाइत्ता उदाइत्ता भाणियबा । एवं चत्तारि विदारा भाणियवा। कामोयणे समुद्दे पम्बायंति। गोयमा! प्रत्येगश्या पव्या(कहिणं भंते! इत्यादि) दस्त !धातकीखएकस्य द्वीपस्य
यंति,प्रत्येगझ्या नो पम्नायति । एवं कालोयणे वि प्रत्येगविजयं नाम द्वारं प्रप्तम । भगवानाह-गौतम! धातकीखण्डस्य दीपस्य पूर्वपर्यन्ते कालोदसमुद्रपूर्वार्द्धस्य पश्चिमदिशि शीता
तिया पब्वायंनि, प्रत्येगतिया नो पञ्चायति । बा महानचा परिपत्र एतस्मिन्नन्तरेधातकीखण्डस्यद्वीपस्य " धायासंमस्सा भते! दीवस पएसा" इत्यादीनि च. विजयं नाम द्वारं प्राप्तम्। तच जम्बद्रीपविजयद्वारबदविशेषेण त्वारि सूत्राणि प्राग्वद्भाचनीयानि। बेदितव्यम्, नवरमत्र राजधानी अन्यस्मिन् धातकोत्रपडे सेकेण्डेणं ते! एवं वुचति-धायइसमे दीवे,धायइसमे दीपे वक्तव्या । • “कहि ते " इत्यादि प्रश्नसूत्रं सुगमम । दीवे,धायइसमेणं दीवे तत्थ तस्थ देसे तस्स तस्सदेसस्स प्रगवानाह-धातकीखण्डद्वीपदक्षिणपर्यन्ते कालोदसमुखदकि
ताहि तहिं पदेसे बहने धायहरुकवा धायइवणा धायइसमा जास्योत्तरतोऽत्र धातकीखएमस्य द्वीपक्ष्य वैजयन्तं नाम द्वार प्रतम । तदपि अम्बूदीपवैजयन्तद्वारवदविशेषेण बक्तव्यम् ,
शिवं कुमुमिया० जाव उसोभेमापा बरसोभेमाणा चिनबरमवापि राजधानी अन्यस्मिन् धातकीखएक द्वीपे। "कदि
उंति । धापमहाधायहरुक्खे सुदंसणे पियदसणे पियदेवा खं भंते !"इत्यादि प्रश्नसूत्रं गतार्थम । भगवानाह-गौतम!धा- महिहिया.जाव पसिनोवमद्वितीया परिवसति । से तेणहणं तकीखएमबीपपभिमपर्यन्ते कालोदसमुद्रपश्चिमास्य पूर्वतः
गोयमा! एवं बुच्चइ, अदुत्तरं च ण गोयमा० जाब णिचं । शीतोदाया महानद्या उपरि अव धातकीखरामस्य द्वीपस्य जय. म्तं नाम द्वारप्राप्तम्। तदपिजम्बूद्वीपजयन्तद्वारवद्वक्तव्यम्। नवरं
(से केजडेणं भते) इत्यादि ! अथ केनार्थेन भदन्त ! एबमु. राजधानी अभ्यस्मिन् धातकीखपदीपे। "कहिणं ते!"इत्या
च्यते-धातकीरखमो द्वीपो धातकीखएमो द्वीपति जगवानाह. दि प्रश्नसूत्रं प्रतीतम् । भगवानाह-गौतम धातकीखण्डद्वी.
धातकीखएमे द्वीपे तत्र तत्र देशे तस्य तस्य देशस्य तत्र तत्र पोत्सराईपर्यन्ते कालोदसमुद्र उत्तराईस्य दकिणतोऽत्र धात.
प्रदेशे पदयो धातकीवृक्षाः बहूनि धातकीवनानि बहवो धात. कीखण्डस्य द्वीपस्यापराजितं नाम द्वारं प्रशप्तम् । तदपि जम्बू.
कीखपमाः । वनखाउयोः प्रतिविशेषः प्रागेवोक्तः। "निच्चं कु. श्रीपगतापराजितहारवक्तव्यम् । नवरं राजधानी अन्यस्मिन्
मुमिया।" इत्यादि प्राम्वत् । (धायइमहाधायहरुक्से इस्वादि) भातकीखएमे द्वीपे।
पूर्वार्दै उत्तरकुरुषु नीलवगिरिसमीपे धातकीनामा वृकोवति.
ष्ठते। पश्चिमा उत्तरकुरुषु नीलवझिरिसमीपे घातकीवृक्का, तो घायइसंमस्स णं जंते ! दीवस्स दारस्स य दारस य
च प्रमाणाऽऽदिना जम्बूवृत्तवद वेदितव्यौ । तयोरत्र धातकीखामे एस णं केवतिय प्रवाहाए अंतरे पामते ? | गोयमा ! दस हीपे यथाक्रमं सुदर्शनप्रियदर्शनौ द्वौ देवौ महद्धिको यावत्पजोयणसतसहस्साई सत्तावीसं च जोयण सहस्साई सत्त य ल्योपमस्थितिकी परिवसतः। ततो धातकीखण्डोपसक्कितोही. पणतीसे जोयणसते तिमि य कोसे दारस्स य दारस्स प
पो धातकीखपडद्वीपः । तथा चाऽऽह-(से तेणणमित्यादि)
गतार्थम्। भवाहाए अंतरे पम्मत्ते।
संप्रति चन्द्राऽऽदिवसच्यतामाह(धायसंमस्सगं ते! इत्यादिधातकीखएफस्य भदन्त द्वी. धाश्यसंमे गं ते ! दीवे कइ चंदा पहासिसु वा, पस्य द्वारस्य चद्वारस्य च परस्परमतत् अन्तरं कियत् किंप्रमाणमबाधया अन्तरितत्वाबाधाम प्राप्तमा नगवानाह-गौतम!
पहासंति वा पहासिरसंति वा । कति सूरिया तवसु वातवंदशयोजनशतसहस्राणि सप्तर्षिशतिसहस्राणि सप्तशतानि पञ्च. तिबा,तवइस्संति वा । कइ महग्गहां चारं चारिमुवा, चरित निशान योजनशतानि वा कोशा द्वारस्यच द्वारस्य च परस्प. वा,चरिस्संति वा। कई णक्खत्ता जोगं जोपमु वा,जोएंति रमन्तरमबाधया प्राप्तम् । तथाहि-एकैकस्य द्वारस्य द्वारशा. वा, जोइस्संति वा ? | कइ तारागण कोमिकोमीओ सोभ साकस्य जम्बद्वीपद्वारस्येव पृथुत्वं सार्दानि चत्वारियोजनानि ।
सोभिंसुवा, सोमेति वा, सोभिस्संति वा । गोथमा! वारस ततश्चतुणी धाराणामेकत्र पृयुत्बपरिमाणमीलने जाताम्यहादश योजनानि, ताम्यनन्तरोक्तात्परिरबपरिमाणात ४११०१६१ शो.
चंदा पभासेंसु वा, पहामंति वा, पहासिस्संति वा एवं । ध्यन्ते । शोधितेषु च तेषु जातं शेषमिदम-एकचत्वारिशक्षा
"चनीसं ससिरविणो, एक्खत्तसता य तिमि छत्तीसा। दशसहस्राणि नवशतानि त्रिचत्वारिंशदधिकानि ४११.१४३॥ पगं च सयसहस्सं, कृप्पमं धायईसमे ॥१॥ एतेषां चतुभिर्भागेरते लब्धं यथोक्तंडाराणां परस्परमातरम्। अटेच सयसहस्सा, तिनि सहस्साई सत्तय सयाई । पक्तं च-"पणतीसा सत्त सबा, सत्तावीसा सहस्सरसतक्खा । धायासंमे दारं-तरं तु अपरं चकोसतियं ॥१॥"
धायसंमेदीबे, तारागण कोडकोडीणं ॥॥" धायसंमस्स णं भंते ! दीवस्स पदेसा कालोयणं ममुई
सोनं सोभिंसु वा, सोभंति वा, सोजिस्संति वा । पहा । ता पुट्ठ।। तेण नंते ! किंधायइसमे दीये कालोयणे
"धायइसमेणं भंते ! दावे कर चंदा।" इत्यादि प्रइनसूत्रं सुगमम् ।
भगवानाह-गौतम ! धातकीखण्डे द्वादश चन्द्राः प्रभासितष. समुदे । गोयमा! धायसंमे नो खलु ते काझोयणसमु०) एवं
म्तः,प्रभासन्ते,प्रभासिष्यन्ते । द्वादश सूर्यास्तापितवन्तः, तापय. "वं चत्तारि दारा भाणियचा।" इत्यनेन गतार्थत्वात् न्ति.तापयिष्यन्ति । त्रीणि नवत्रशतानि पर्षिशानि योगं चन्मूलपाने मूझे नोक्ता, टीकायामुपन्यस्तः ।
मसा सूर्येण च सा युक्तवन्तो,युञ्जन्ति,योक्ष्यन्ति । तत्र श्रीखि
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(२७४५) घायसंडदीव ग्राभिधानराजेन्डः।
धायश्संडदीव पतिशानि नक्षत्राणां शतानि, एकैकस्य शशिनः परिवारेऽष्टा- | द्धमपीति । तत्र धातकीनां वृक्षविशेषाणां खएको बनसमूह :विशते तत्राणां जावात, एक षट्पञ्चाशदधिकं महाग्रहसहस्रं त्यर्थो धातकीखएमा, ताक्तो यो द्वीपः स धातकीखएक पवोचारं चरितवन्तः,चरन्ति,चरिष्यन्ति । एकैकस्य शशिनः परिवारे- च्यते । यथा द एमयोगाद् दएम इति । धातकीखण्डवासी द्वीपअधाशीतेमहाग्रहाणां जावात । अष्टौ शतसहस्राणि श्रीणि सह- श्वेति धातकीखण्द्वीपः, तस्य (पुरसिमवि) पौरस्त्यं, पूर्वमिस्राणि सप्तशतानि तारागणकोटिकोटीनां शोभितवन्तः, शोत्यर्थः। यदविजागस्तद्धातकीखएडीपपौरस्त्या, पूर्वापराभन्ते शोभिष्यन्ते । एतदपि एकशशितारापरिमाणं हादशभि- र्द्धता च लवणसमुज्वेदिकातो दक्षिणत उत्तरतश्च धातकीगुणयित्वा भावनायम् । उक्तं च
खएमवेदिकां यावत् गताज्यामिषुकारपर्वताच्यां धातकीस. "बारस चंदा सूरा, नक्खत्तसया य तिन्नि छत्तीसा। एमस्य विभक्तत्वादिति । पगं च गहसहस्सं, उप्पन्नं धायईसमे ॥१॥
सतं.चभच सयसहस्सा, तिन्नि सहस्सा य सत्त य सया । घायसंडे दीके, तारागणकोमिकोभीश्रो ॥ २ ॥" जी.
"पंचसयजोयगुच्चा, सहस्समेगं च डोति चित्थिना। ३ प्रति०४०
कालोयणलवणजले, पुट्ठा ते दाहिणुत्तरो॥१॥
दो नसुयारनगवरा, धाय इसंमस्स मज्झयारग्यिा। धायइसंकदीवपुरच्छिमकेणं धायइरुक्खे अट्ठ जोयणाई
तेण दुहा निहिस्स, पुवकं पच्चिमद्धं च ॥१॥" इति । उम्दमुच्चत्तेणं पएणत्ते, बहुमज्कदेसभाए अट्ट जोयणाई | तत्र णमिति वाक्यालङ्कारे, मन्दरस्य मेरोरित्येवं धातकीखएड. विखंभेणं साइरेगाइं अट्ठ जोयणाई सम्बग्गेणं पएणते ।। पूर्वार्षपश्विमाप्रकरणे प्रत्येकमेकोनसप्ततिसूत्रप्रमाणे जम्बूतीधायइसंहदीवपञ्चच्छिमद्धे ण पायहरुक्खे अट्ठ जोयणाई
पप्रकरण बदध्यतव्ये, व्याख्येये च। अत एवाऽऽह-(एवं जहा जं.
बुद्दीवे तहेत्यादि) नवरं वर्षधराऽऽदिस्वरूपमायामाऽदिसमता नई नच्चत्तेणं परमत्ते, बहमज्दे सनाए अट्ट जोयणाई।
चैवं जावनीयाविक्खंजेणं सारेगाई अझ जोयणाई सम्बग्गेणं पप्यते ।
" पुश्बद्धस्स य मज्जे, मेरुस्स पुणो वि दाहिणुत्तरो। एवं धायहरुक्खाओ अाढवित्ता सव्वेव जंबुद्दीववत्तया धासा तिमि तिम्नि य, विदेहवासच मज्झम्मि ॥१॥ जाणियवान्जाव मंदरचूनिय त्ति । एवं पच्चच्छिमकेविन अरविवरसंठिया, चरो अक्खा ताई खेत्ताई। महाधायइरुक्खाओ पाढवित्ता. जाव मंदरचालय ति ।।
अंतो संस्वित्ताई, रुंदयराई कमेण पुण पुट्टो॥२॥
जरहे मुहावक्वंभो, छावठिसयाई चोइसऽहियाई। स्थाग
अउणतीसं च सय, बारसऽहियदुसयजागेणं ॥ ३॥ सम्प्रति धातकीखामवक्तव्यतानन्तरं "धायसंमे" इत्यादिना
अद्वारस य सहस्सा, पंचेव सया हवंति सीयामा । बेदिकासूत्रान्तेन ग्रन्थमाऽऽह
पणवन्नं अंससयं, बाहिरो तरह विक्खनो ॥ ४॥ धायइसमे णं दीवे पुरच्छिमशेणं मंदरस्स पब्बयस्स नत्त- चचगुणियभरहवासो, (व्यास इत्यर्थः) रदाहिणणं दो पासा परमत्ता बहुसमतुझा जाव भरहे चेन,
हेमबए त चलगुणं तइयं । (हरिवर्षमित्यर्थः) एरवए चेव । एवं जहा जंबुद्दीवे तहा एत्य भाणि पबंजाव
हरिवासं चनगुणियं, महाबिदेस्स विक्शंजो॥५॥ दोसुवासेसु मण्या उबिहं पिकालं पञ्चणज्जवमाणा वि.
जह विक्खंभो दाहिण-विसाएँ तह उत्तरे विवासतिए ।
जद पुनरसु तो, तह अवरके वि पासा ॥६॥ हरति । तं जहा-जरहे चेव, एरवए चेव, णवरं कूमसामली।
सत्ताणउ सहस्सा, सत्ताणउया अट्टप समाई। चेव,धाईरुक्खे चेव,देवागरुने चेव,वेणु देवे पियमुदंसणे चेव । तिनेव य लक्खा,कुरुण भागा य बाखई।७(विष्कम्नति) धायईसंमदीपञ्चच्छिमद्धे मंदरस्स पयस्स उत्तरदाहिणेणं
अमवन्नसयं तेवी-ससहस्सा दो य लक्मजीवामो। दो वासा पसात्ता बहुसमतुल्लाजाव भरहे चेव, एरवए चेव,
दोएह गिरीणायामो, संबित्तो तं भगुकुरु ।। जाव छबि पि कालं पचणुब्जवमाणा विहरति । तं जहा
वासहरगिरी बक्खा-रपब्वया पुज्वपश्चिम सु।
जंबुद्दीवगमुगुणा, वित्थरो उस्सप तुल्ला .. भरहे चेव, एरवए चेव, वरं कूमसामली चेव, महापाय- कंचणगजमगसुरकुरु-नगा य वेयवादीहाब। ईरुक्खे चेव, देवागरुले चेव, वेणुदेवे पियदंस चेव ॥ विक्खंचवेहसमु-स्सपण जर जंबुदीपिच१॥ कराग्यम्। नवरं-चक्रवालस्य विष्कम्नः पृथुत्वं चक्रवालविष्का
लक्खातिभिदोहा, विज्जुप्पाहगंधम्मायणाबोलि। म्भस्तेनेति । समुज्वेदिकासुत्रं जम्बवेदिकासूत्रबद्वाच्यमित्यर्थः।
उपमं च सहस्सा, दोनि सया सत्सवीसा य ॥११॥ केत्रप्रस्तावालवणसमुज्वक्तव्यताऽनन्तरं धातकीखरामवक्तव्य
भउणहा दोषि सया, उससत्तरिसहस्सबमलाय। तां " धायइसमे" इत्यादिना वेदिकास्त्रान्तेन ग्रन्थेनाऽऽह ।
सोमसमालबंता, बीदा संदा दस सयाई ॥१२॥ कराठ्यश्चायम,नवरंधातकीस्वामप्रकरणमपि-जम्बूद्वीपसवणस
सम्बानो वि नमो, विक्वंम्भोम्बागुणमामानो। मुकमध्यं वलयाकृति धातकीखण्डमालिख्य हिमवदादिवर्षध.
सीयामामोयाणं, पणाणि गुखाणि विनो रान् जम्बूद्वीपानुसारेण चोभयतः पूर्वापरविभागेन जरतहैमव- वासहरकुरुसु दहा, नईख कुंमा तेसुजे दीवा। ताऽऽदिवर्षाणि च व्यवस्थाप्य पूर्वापरदिशोर्वलयविष्कम्भमध्ये
सव्वहुस्सयतुल्ला, विक्संभावाममो गुना। ४. प्रे च कल्पयित्वावबेोकव्यम् । अनेनैव क्रमेण पुष्करवरखीपा।
जम्बूद्वीपकापेशयति । कियबर अम्बूद्वीपकरी६८७
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(२७४६ ) अभिधान राजेन्द्रः ।
धायइ संडदीव
एडपूर्वा जिलापेन वाच्यमित्याह । (जाव दोसु मयेत्यादि ) पतस्माद्धि सुत्रात्परतो जम्बूद्वीपप्रकरणे चन्द्राऽऽदिज्योतिषां सूत्राण्यधीतानि तानि च धातकीपुष्करार्द्धपूर्वादि करणेषु न सम्भवन्ति, द्विस्थानकत्वादस्याध्ययनस्य धातकीखessदौ च चन्द्रादीनां बहुत्वादिति । श्राह च "दो चंदा रह दीवे, चचारि य सायरे लवणतोये । धायइखं मे दीवे, वारस चंदा य सूराय ॥१॥” इति । चन्द्राणां द्वित्वेन नक्कत्राऽऽदीनामपि द्वित्वं न स्यात् ततो द्विस्थानेनावतार इति । जम्बूद्वीपप्रकरणाद स्य विशेषं दर्शयन्नाइ - (नवरमित्यादि) नवरं केवलमयं विशेष इत्यर्थः कुरुसुत्रानन्तरं तत्र " कूडसामनी देव. जंबू चेव सु. दंसणे ति ।" उक्तम । इह तु जम्बूस्थाने "घायई रुक्खे चेच त्ति" वक्तव्यं, प्रमाणं च तयोर्जम्बूद्वीपशाल्मल्यादिवत् तयोरेव देवसूत्रेण " अणाढिए वे जंबुद्दीचादिवई " इत्यत्र वक्तव्यत्वे "सुदंसणे चैव त्ति" श्ह वक्तव्यमिति । " धायइसमे दीवे " इत्यादि पश्चिमाप्रकरणं पूर्वार्द्धवदनुव्यम्। श्रतएवाऽऽड(जाब पि कालमित्यादि) विशेषमाह - (नवरं कुरु सामबीत्यादि) धातकी एक पूर्वोत्तरकुरुषु चातकीवृक्क उक्तः, ढ तु महाधातकीवृोध्येतव्यो देवसृते द्वितीयः सुदर्शनसूत्राश्रीतः, इह तु प्रियदर्शनोऽध्येतव्य इति ।
पूर्वार्द्ध पश्चिमार्द्ध मीलनेन धातकी खरमद्वीपं सम्पूर्णमाश्रित्य द्विस्यानकं " धायइखं मे णं " इत्यादिनाऽऽह
धामंडपदच्छिम मंदरस्स एव्त्रयस्स धायमंडे लंदीवेदो जरहाई, दो एयाई, दो हिमताई, दो हेराई, दो हरिवासा दो रम्गवासाई, दो पुत्रविदेहाई, दो
विदेहाई, दो देवकुराओ, दो देवकुरुप दुमा, दो देकुरुमहावास देवा, दो उत्तरकुराओ, दो उत्तरकुरुमहमाओ, दो उत्तरकुरुमहदुमात्रामा देवा, दो चुम्न हिमवंना, दो महाहिमवंता, दो निसहा, दो नीलवंता, दो रुप्पी, दो सिहरी, दो सदावई, दो सदावईवासी साई देवा, दो वि माई, दो वासी पचासी देवा, दो गंधाववासी अरुणा देवा, दो मालवतपरियारगा, दो मालवंत परियारगबासी पमा देवा, दो मालवंता, दो चित्तकूमा, दो पउमकूडा, दो नचिनकूमा, दो एगसेला, दो तिमा, दो समयमा, दो जला, दो माजणा, दो सोमणसा, दो विज्जुभा, दो कावई, दो पम्हावई, दो आसीवसा, दो सुहाका, दो चंदपक्या, दो सूरयन्त्रया, दो लागपन्या, दोवा, दोपायसा, दो उसुगारपन्नया, दो चुल्लहिमवंतमा, दो वेसण कूडा, दो महाहिमवंतकडा, दो वेरु. लिया, दो सिहकृमा, दो रूयगमा, दो नीलवंत कूडा, दो वसा, दो रूपिकूडा, दो मणिकंचरमकुमा, दो सिहरिकूमा, दो तिगिच्छिकूमा, दो पमदहा, दो पमदहवासिपीओ देवी सिरीमो, दो महापजमदहा, दो महाप मद्ददवासिणी हिरीयो देवीओ, एवं ० जाव दो पुंरुरीयदहा, दो पुंडरीयद्दवासिणी अच्छीओ देवीओ, दो गं
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धाय संदी
गप्पवाया जाव दो रत्तवईपवायद्दहा, दो रोहियाओ० जाब दो रुप्पकूला । स्थान | (श्रन्तर्णदीवतव्यता 'अंतरणई' शब्दे प्रथमभागे ८ पृष्ठे गता) दो कच्छा, दो सुकच्छा, दो महाकच्छा, दो कच्छगाई, दो आत्ता, दो मंगलाबत्ता, दो पुक्खन्ना, दो पुक्ला, दो बच्छा, दो सुवच्छा, दो महात्रच्छा, दो बच्छाव, दो रम्मा, दो रम्मगा, दो रमणिज्जा, दो मंगलाबाई, दो पम्हा, दो सुपम्हा, दो महापम्हा, दो पम्हगाई, दो संखा, दो नलिणा, दो कुमुदा, दो नि पावई, दो बच्या, दो सुत्रप्पा, दो महावप्पा, दो वप्पगाई, दो दो सुगु, दो गंधिला, दो गंधिलावई, दो खेमाओ, दो खेमपुरा, दो रिट्ठाओ, दो रिट्ठपुराओ, दो खग्गीओ, दो मंजूसा, दो ओसहीओ, दो पुंरुरीगिणीच्यो, दो सुमीमा, दो कुंडला ओ दो अपराइयाओ, दो पभंकराओ, दो दो पहावईओ, दो सुभाम्रो, दो रयणसंच - याओ, दो आसपुराओ, दो सीहपुराओ, दो महापुराम्रो, दो बिजयपुरा, दो राजियाओ, दो अवराओ, दो असोयाओ, दो विगयसोगाओ,दो विजयाओ, दो वैजयंतीओ, दो जयंती, दो अपराजियाओ, दो चकराओ, दो खरगपुरा, दो अवज्झाओ, दो अयोज्जाओ, दो भद्दसावला, दो दणक्या, दो सोमणसवणा, दो पंगवगा, दो पंडुकंवल सिनाओ, दो अतिपंकंबल सिक्षाओ, दो रत्तकंवल सिलाओ, दो अइरत्त कंबल मिझाओ, दो मंदरा, दो मंदर चूलियाओ, धायसंमस्स णं दीवस्न बेइया दो गाउयाई उठ्ठे उच्च नेणं पम्चा ।
"घायइड" इत्यादिनाऽऽह - नरते पूर्वार्द्ध पश्चिमायोईक्षि दिग्भागे तयोर्भावादित्येवं सर्वत्र भरताऽऽदीनां स्वरूपं प्रागुक्तम । (दो देवकुरुमहाडुम त्ति ) द्वौ कूटशास्मल) कावित्य
द्वौ तद्वासिदेव वेदेवावित्यर्थः । (दो उत्तरकुरुमहामत्ति) धातकी महाधातकीवृक्काविति । तव सुदर्शनप्रियदर्शनाविति । हिमवदादयः पट् वर्षघरपर्वताः, शब्दापातिविकटापातिमाल्यवत् पर्यायास्ववृत्तवैताख्याश्च तनियासिस्वातिप्रभासारुणपद्मनाभ देवानां द्वयेन द्वयेन सहिताः क्रमेण द्वौ द्वा
| (दो मालवंत सि) मालवन्तावुत्तरकुरुतः पूर्वदिग्ध तिनो गजदन्तको स्तः, ततो नशालवनत फेदिका विजयेभ्यः परौ शीतोत्तरकूलवर्तिनौ दक्षिणोत्तराय चित्रकूटों क कारपर्वत, ततो विजयेनान्तरन्द्याविजयेन चासारतावन्यो तथैवान्य पुनस्तथैवान्यादिति पुनः पूर्ववनख एक वेदिकाविजयायाम सीतादतिवर्तीनि तथैव त्रिकटादीनां च वारि द्वयानि ततः सौमनसी देवकुरुपूर्वदिग्वर्तन गजदन्तकी, ततो गजदन्तकावेव देवकुरुपत्यग्भागवर्तिनौ विद्युत् भौ, ततो नशालवनतद्वेदिका विजयेजयः परतस्तथैवाझव त्यादीनां चत्वारि द्वयानि शीतोदाद कि एकलवर्तीनि पुनरन्यानि पश्चिमवनख गम वेदिकानयविजयाम्यां पूर्वतः क्रमेण -
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धायसंडदीव
(२७४७) अभिधानराजेन्दः ।
धारणा
वैव चपर्वताऽऽदीनां चत्वारि दयानि, ततो गन्धमादनावुत्त- | धार-धार-न० । वाच० । धाराभिनिवृत्तम, अम् । “धाराभि: रकरुपश्चिमभागवर्तिनी गजवन्तकाविति । पते धातकीखण्ड- पतितं तोयं, गृहीतं स्फीतवाससा। शिलायां वसुधारायां, शीस्य पूर्वार्क पश्चिमा च भवन्तीति द्वौ द्वायुक्ताविति श्षुकारौ | तायां पतितं च यत् ॥१॥" इत्युपक्रम्य,"जाजने मृण्मये वाऽपि, दक्विणोत्तरयोर्दिशोः धातकोखरामविभागकारिणाविति । (दो स्थापितं धारमुच्यते।" इत्युक्त शिलादिभाजनने वर्षोद्भवे युलदिमवंतकृमा इत्यादि) हिमवदादयः षट् वर्षधरपर्वताः,
जले, धारके, त्रि०.३०। उत्तावाच. । सधी, न०॥ तेषु ये द्वे वे कूटे जम्बूद्धीपप्रकरणे अनिहिते ते पर्वतानां द्वि.
| दे० ना०५ वर्ग ५९ गाथा । गुणस्वादेकैकशः स्यातामिति वर्षधराणां हिगुणत्वात् पद्माऽऽदि. हदा भपि द्विगुणाः, तदेव्योऽन्येवमिति चतुर्दशानां गङ्गाऽऽदिम.
|धारण-धारण-10 | पालने, स्था० ३ ० ३ उ०। अप्रतिस्थहानदीनां पूर्वपश्चिमापेक्षया द्विगुणत्वात् तत्प्रपातहदा
लने, " अरती तत्थ कि विहारए।" विदारयेत प्रतिस्थालेत्। अपि दो द्वौ स्युरित्याह-(दो गंगप्पधायदत्यादि)"दो रो- प्राचा०१०६ ०३१०।"धरंति राइणिया रह।"धारय. हियाओ" इत्यादी नद्यधिकारे गङ्गाऽऽदिमहानदीनां सदपि द्वि.
न्ति विभ्रति । सूत्र.१७०२ १.३ १०ावनाऽऽदीनां परिग्रहयो, वं नोक्तं, जम्बूद्वीपप्रकरणोक्तस्य "महादिमचंताओ वासहए.
उपभोगेच । स्था० ३ ठा० ३ उ. पचयाश्रो महापउमद्ददायो दो महानईओ पपईति। त्यादि धारणा-धारसा-सी० । धृ-युच् | " यमाऽऽदिगुणसंयुके, सूत्रकमस्याऽऽश्रयणात् । तत्रहिरोदिताऽऽदय पवाष्टीयन्त इति मनसः स्थितिरात्मनि । धारणा प्रोच्यते सद्वियोगशाखवि. चित्रकूट पनकूटवकस्कारपर्वतयोरन्तरे नीलवर्षधरपर्वतनित- शारदैः ॥१॥" इत्युक्तायामात्मनि चित्तस्य स्थिती, वाच। म्बव्यवस्थितत्वात्। ग्राहवतीकुण्माइकिणतोरणविनिर्गता अष्टा. विषयान्तरपरिहारेण स्थिरीकरणास्मा हि चित्तस्य धारणा । विंशतिनदीसहस्रपरिवारा शीताधिगामिनी सुकच्छमहाक- | यदाद-'वेशबन्धश्चित्तस्य धारणेति ।' द्वा० २४ द्वार । मादा
विजयघोविभागकारिणी ग्राहवती नदी। एवं यथायोगं द्वयो. याम्, न्याय्यपथस्थिती, अवधारणे, श्रा० म.१५०१खपम । ईयोर्वक्षस्कारपर्वतयोबिजययोरन्तरे क्रमेण प्रदक्षिणया द्वाद- वाच. पूर्वश्रुतराऽऽदिविषयावधारणं धारणेति । दर्श०५ श्यप्यन्तरमद्यो योज्याः, तद्वित्वं च पूर्ववदिति । पकवतीत्यत्र तव । गृहीतस्याबिस्मरणे, विशे० प्रावधामा० म.. वेगवतीति ग्रन्थान्तरे रश्यते, कारोदेत्यत्र कीरोदेत्यन्यत्र, सिंह
नि० चू.पा.चू०। अवगतार्थविशेषधारणं धारणा । भ05 स्रोता इत्यत्र,शीतनोता इत्यपरत्र, फेनमालिनी गम्भीरमालिनी श०२ उ० । स्था०। निश्चितस्यैव वस्तुनो व्युत्पश्यादिरूपेण चेति, इह व्यत्ययश्च दृश्यत इति माल्यवद्गजदन्तकभ- धारणं धारणा । विशे। निश्चितस्यैवाविच्युतिस्मृतिवासनाशालवनाभ्यामारभ्य कच्चऽऽदानि काशिद्विजयक्षेत्रयुगलानि
रूपं धारणं धारणा । प्रव०२१द्वार । कानाऽऽवरणीयकर्मक्षयोप्रदक्षिणतोऽवगन्तब्यानीति । तथा कन्गदिषु क्रमेण केमाऽऽ. पशमसमुत्थायामविद्योत्पादभेदवयां प्रज्ञातवस्त्वानुपूर्वीगोदिपुरीणां युगमानि द्वात्रिंशदवगन्तव्यानीति।भद्रशालाऽऽदीनि
चरायां वित्तपरिणती, न. । तदारमके मतिज्ञामभेदे च। मेरोश्चत्वारि बनानि; "भूमीए भद्दसावं, मेदन जुय लम्मि दोनि स्थाना० । दश सम्म० । नं.1 श्रा० ०।"धरणं पुण रम्माई। गंदणसोमणसाई, पंडगपरिमंडियं सिहरं ॥१॥” इति धारणं विति।" धृतिर्धारसमर्थानामिति वर्तते । परिच्छिन्नस्य वचनात् । मेवाद्वित्वे वचनानां द्वित्यमिति शिलाश्वतम्रो मेरो
वस्तुनोविज्युतिवासनास्मृतिरूपं धरणं पुनर्धारणां पुते । पएमकवनमध्ये चूमिकायाः क्रमेण पूर्वाऽऽदिषु । अत्र गाये
प्रा. म०१ अ.१ खपम । ०। "मगवणम्मि चबरो,सिनाओं चनसु विदिसासु चूनाए। तथा च मतिज्ञानस्य तृतीयभेदमवायं प्रतिपादयन्तिचउजोयसियाओ, सम्वन्जुणकंचणमयाओ॥१॥
स एव दृढतमावस्थाऽऽपनो धारणा ॥१०॥ पंच सयायामाओ, मज्के दीहत्तणरुंदारो।
स इति अवायः, दृढतमावस्थापनः विवक्तिविषचंदरूसंठियारो, कुमदोयरहारगोराओ॥२॥" इति।।
यावसाय एव सादरस्व प्रमातुरत्यस्तोपचितः कश्चित्कासं मन्दरे मेरौ चूलिकाशिखरविशेषः । स्वरूपमस्या:-" मे-! तिष्ठन् धारणेत्यभिधीयते । बढतमावस्थाऽऽपनो ह्यवायः रुस्स उवरि चूला, जिणभवणविभूसिया बी सुच्चा। वा- स्त्रोपढौकिताऽऽस्मशक्तिविशेषरूपसंस्कारद्वारेण कालान्तरे रस अह य चउरो, मूझे मझुवरि रुंदा य॥१॥" ति वे स्मरणं करें पर्याप्नोतीति ।१०॥ रत्ना० २ परि० ।नं०। दिकासूत्रं जम्बूद्वीपवत् । स्था० २ वा ३००।
तस्याऽर्थस्य निर्णयरूपोऽध्यवसायोऽवाया शाह एवायं, शाय
एवायमित्यादिरूपोऽवधारणात्मकप्रत्ययोऽवाय इत्यर्थः । पायसंमदीवग-धातकीखएमवीपग-त्रि० । धातकीस्नगमद्वी.
तस्यैवार्थस्व निर्धातस्य धारणं धारणा । सा च विधा-अविपगते, "धाय इसमदीयगाणं चंदाणं ।" जी० ३ प्रति०४ उ०।
म्युतिः,वासना,स्मृतिश्च । तत्र तदुपयोगादविच्यवनमविच्युतिः, पायसंमदीवपच्चच्छिमद्ध-धातकीखएमवीपपश्चिमार्ड-.
सा चाम्तमहत्तंप्रमामा । ततस्तया श्रादितो यः संस्कारःसावा
सना। सा च संख्येयमसंस्पेयं वा यावत्कानं भवति । ततःकाधातकीखरामद्वीपस्व पश्चिमेऽभागे, स्था०७ वा.
नान्तरे कुतश्चित्तारशार्थदर्शनाऽऽदिकात् कारणात् संस्कारस्य पायसंडदीवपच्चच्छिमग-धातकीलामहीपपश्चिमाईग-| प्रबोधे यद् शानमुदयते-तदेवेदं यम्मया प्रागुपलम्वमित्यादिरूप बु.। धातकीखगमद्वीपपश्चिमा गते मनुष्यभेदे, स्था०६ ।। सा स्मृतिः। उक्तं च-"तदनंतर तदत्था-विश्ववणं जो य वासणा
जोगो । कासंतरे य ज पुण,अगुसरणं धारणा सा उ ॥२६॥" धायसंडदीव परतिपकग-धानकीखए मदीपपौरस्त्याग- | (विशे०)एताश्चाविच्युतिवासनास्मृतयो धारणलकणसामान्यापुं० । धातकीखएदद्वीपपौरस्त्यागते मनुष्यदे,स्था०६०।। स्वधयोगाद्धारणाशयाच्या नं० । श्रा० म० । विशे।
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(2085) अभिधान राजेन्द्रः |
धारया
अप चतुर्थो मतिज्ञानेोचारणा यं चाचिन्युतवासना स्मृतिभेदात्त्रिा भवति सामपि तामाद
तयतरं तयत्था ऽविच्चत्रणं जो य वासणाजोगो ।
कालंतरे व जे पुण असणं धारणा सा ॥२५९॥ तस्मादपायादनन्तरं तदनन्तरं यत्-इपयोगमाश्रित्याभ्रंशः । यश्च वासनया जीवेन सह योगः संबन्धः। यश्च तस्यार्थस्य कालान्तरे पुनरिन्द्रियैरुपलब्धस्य, अनु पलब्धस्य वा एवमेव मनसाऽनुस्मरणं स्मृतिर्भवति, सेयं पुनरित्र विधाऽप्यर्थस्यावधारणरूपा धारणा विज्ञेयेति गाथाऽकरघडना । भावार्थ स्त्वयम्-श्रवायेन निश्चितेऽर्थे तदनन्तरं यावदद्या पि तदर्थोपयोगः सातत्येन वर्त्तते, न तु तस्मान्निवर्त्तते, तावत्तदर्थोपयोगाविष्युतिर्नाम सा धारणाय प्रथमो भवति। ततस्तस्यार्थोपयोगस्य यदावरणं कर्म तस्य क्षयोपशमेन जीवो
ते प्रेम कालान्तरे इन्द्रियादिसामग्री वशात् पुनरपि तदर्थोपयोगः स्मृतिरूपेण समुमीवति। सा चेयं त दावरणक्कयोपशमरूपा वासना नाम द्वितीयस्तद्भेदो भवति । कालान्तरे व वासनावशात्तदर्थस्येन्द्रियैरुपलब्धस्य, अथवा तैरनुपलब्धस्याऽपि मनसि या स्मृतिराविर्भवति सा तृतीयस्त इति । एवं त्रिभेदा धारणा विज्ञेया । तुशब्दोऽवग्रहाऽऽदिभ्यो विशेषद्योतनः द्विषा अधि प्रागेव निराकृताः । इति गाथाऽर्थः ॥ २६१ ॥ विशे० । साऽपि मनःसहितेन्द्रियपञ्चकजन्य २१६ द्वार
से किं तं धारणा ? चार बड़ा पता तं जहासोइंदियधारणा, चक्खिदियधारणा, घाणिं दियधारणा, जि. विमदिगधारणा, फासिंदियधारणा, नोइंदियधारणा ॥ नं०| प्रकारान्तरेण धारणायाः पर नेदानादछव्विा धारणा पाता । तं जहा बहुं धारेश, बहुवि धारेश, पोरा पारे, दुरुकरं धारेड, अनिस्सा धारेछ, असंदिदं धारेड से चारणा । स्था० ६ ० । धारयति १ बहुविधं धारयति २ पुराणं धारयति ३ दु. बहु रं धारयति ॥ अनिश्रितं धारयति ५ असंदिग्धं धारयति ६ इति च पारित राज प्रभूतकालसंचितं तदपि यथाश्रुतं धारयति यदा पृच्छधने, मदा धारणासमर्थत्वात् सर्वे यदति ( दुरुति) दुर्द्धरं चार चि) "' इत्यादि निगमनवाक्यं व्यक्तम् । दशा० ५ म० । धारणाया एकार्थिकान्याद
तीसे णं इमे एमडिया वाणाघोमा, पाणावंत्रणा, पंच मामला भवंति से नहा-धरणा, धारणा, उपा पडा कोठे । सेसं धारणा ।
अत्रापि सामान्य एकाधिकानि विशेषवितायां पुनर्मि योनि तथापायानन्तरमवगत स्वार्थस्याविव्युत्या अन्त कार्म याच धरणं धरणा, ततस्तमेषामुपगतं ज अन्यतोऽन्तर्मुहूर्त्तादुत्कर्षतोऽसंख्येयात्कालात्परतो यत्स्मरणं
सा धारणा 1 तथा स्थापनं स्थापना, अपायावधारितस्यार्थस्य हृदिस्थापनं वासनेत्यर्थः अन्ये तु धारणास्थापयत्यासेन
धारणावत्रहार
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स्वरूपमाचकते । तथा च प्रतिष्ठानं प्रतिष्ठा, अपायावधारितस्यैवा र्थस्य हृदि प्रभेदेन प्रतिष्ठापनमित्यर्थः । कोष्ठ श्वकोष्ठः, श्रवि नष्टसूत्रार्थधारणमित्यर्थः । (सेत्तं धारणा ) सेयं धारणा | नं० । न विधेयमित्येवंरूपे ( स्था० ५ ० १ उ० ) निषेधविषय के आदेशे, "आणं वा धारणं वा सम्मं परंजित्ता भवइ । स्था० ७ ० धारणा विधेयेषु निवर्तनलकणेति । स्था०५. २० बहुशो निवेदितातिचीनामचारणाऽऽत्मके व्यवहारभेदे पञ्चा० १६ विव० | प्रब० । स्था० । (तद्वक्तव्यता 'धारणाववहार ' शब्देऽनुपदमेव वक्ष्यते ) बनदरचारभूते वृद्धावयविशेषेअगारस्स कवाय माणस्स किं धारणा किया ।" ० ८ ० ६ उ० । घृणिच. ल्युट् । नाड्या, श्रेणौ च । स्त्री० । वाच० । धारणावन्न-धारणल न० प्रतिवादिनः शब्दार णबले, व्य० १ ० । धारणाववहार-धारणान्परहार पुं० गीत
उद्या पत्रापराधे यथा या विशुद्धिः कृता सामा यदन्यस्तथैव तथैव तामेव प्रा धारणा वैयावृत्यक ssदेव गच्छोपग्रह कारिणोऽशेषानुचितस्योचितप्रायश्चित्तप दानां प्रदर्शितानां धरणं धारणेति । स्था०५० २० । सा एव व्यवहारो धारणाव्यवहारः । पञ्च व्यवहाराणां मध्ये चतुर्थे व्यवहारदे, भ० श०८ उ० । पञ्चा० । जीत० । व्य०। धारणाव्यवहारो नाम गीतार्थेन संविग्नेमा ऽऽचार्येण न्यक्क्षेत्रकालजावपुरुषान् प्रतिसेवनाश्वावलोक्य यस्मिन्नपराधे यत्प्राय
रामदायि तत्सर्वमन्यद्रयाऽऽदिशापराधे तदेव प्रायश्चित्तं ददाति । एष धारणाव्यवहारः । अथवा वैयावृष्यकरस्य गच्छोपग्राहिणः स्पर्ककस्वामिनो बा देशदर्शन सहायस्य वा संविग्नस्योचितप्रायश्चित्तदानं धार णभेष धारणा व्यवहारः । व्य० १ उ० ।
"
अथ धारणा व्यवहारमाह-
गीत्येवं दिनं सुद्ध अपरादिकण तह चैव । दिवस धारणा तह, उद्वियपयधरणरूवा वा ||८६५||
गीतार्थेन विना या कापि शिष्यस्य कवि दपराधे व्यकेत्र काल भावपुरुषान् प्रतिसेवनाश्यावलोक्य या शुद्धिः प्रदत्ता, सा शुद्धिः तथैवावधार्य सोऽपि शिष्यों यदाऽन्यशिवापराधे चादिषु तथैव प्रायदिति तदाऽसौ धारणा नाम चतुर्थो व्यवहारः । उद्धृतपदधरणरूपा धारणा भवति येाकरादिना पकारी साधुराप्यशेषग्भवति तस्त स्वानुग्रहं कृत्वा यदा गुरुतान्येव कानिचित्प्रायश्चिपदा नि कथयति, तदा तस्य तेषां पदानां धरणं धारणाऽभिधी यत इति ॥ ८६५ ॥ प्रव० १२६ द्वार |
धारणवत्रहारो पुल, वत्तन्वो तं जहकमं वुच्छं ||६४२॥ अवधारणाहारो यः तद्यथाक्रमममुं यदये
!
-
इति णु
उधारणा विधारण, संधारण संपधारणा चेव । नाऊन धीरपुरिमा, धारणाहार से पिंति ।। ६४३ ।। धारणायाखत्वार्यै कार्थिकानि । तद्यथा उद्धारणा, विधार
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(२७४५) अनिधानराजेन्डः।
धारणाववहार
धारणाववहार
णा, सन्धारणा, संप्रधारणा च । तया नेदश्रुतार्शवधारणल- विमृश्य पूर्वापरपर्या लोचनेन देशकालाऽऽद्यपेक्षया सम्यक कणया यः सम्यक ज्ञात्वा व्यवहारः प्रयुज्यते, तं धारणाव्यव- छेदश्रुतार्थ परित्राव्य । हारं धीरपुरुश वते ।
किमित्याहसंप्रति तेषामेव चतुर्णामेकाथिनां शब्दव्युत्पत्तिमाह- पुरिसस्स ल अश्यारं, वियारश्त्ता ण जस्स जं जोग्गं । पाबोण उवेच्च व, उद्धियपयधारणा उ उघारा । तं देति उ पच्छित्तं, केएं देती उ तं सुबह ।। ६५१ ॥ विविहिँ पगारेहिं, धारे अत्यं विधारा सा ॥ ६४४॥
पुरुषस्यातिचारं द्रव्यतः केत्रतः कालतो भावतश्च विचार्य सम एकीभावम्मी, उद्धरणे ताणि एकनावेण ।
पस्य यद प्रायश्चित्तं तत् केन दीयते । प्राचार्यः प्राह-येन
दीयते तत् शृणु। धारे तत्थ पयाणि उ, तम्हा संधारणा होइ ॥ ६४५॥
तदेवाहअम्हा उ संपहारे, ववहारं पउंजती ।
जो धारितो मुतत्थो, अणुओगविहीरे धीरपुरिसहिं । तम्हा न कारणे तेण, नायव्या संपहारणा ॥ ६४६ ॥ आलीणपलीणेहि, जयणाजुत्तेहि दंतेहिं ॥६५।। उत् प्राबल्येन उपत्य वा धृतानामर्थपदानां धारणा नकारा यो नाम धीरपुरुषैरालीनालीनयंतनायुक्तैर्दान्तश्चानुयोगविउकारणा। विविधैः प्रकारैर्विशिष्टं वाऽर्थमुद्धृतमर्थपदं यया. धौ व्याख्यानवेलायां श्रुतस्य भेदश्रुतस्याओं धारितोऽविस्मूतीधारणया स्मृत्या धारयति सा विधारा विधारणा । तथा- कृतस्तेन दीयते। समशब्द एकीभावे, धृता तु धारणा तान्यर्थपदानि श्रात्मना साम्प्रतमालीनाऽऽदिपदानां व्याख्यानमाहसहकनाबेन यस्माद्धारयति तस्मात् धारणा संधारणा भव. अवीणा जाणाऽऽदिसु,पदे पदे बीणा उ होंति पद्वीणा । ति । तथा यस्मात्संप्रधार्य सम्यक्प्रकर्षणाऽवधार्य व्यवहार
कोहाऽऽदी वा पलयं, जेसिँ गया ते पलीपाओ ।।६५३॥ प्रयुक्त,तस्मात्कारणात्तेन शिष्येणेयं प्रधारणा भवति ज्ञातव्या।
जयणाजुतो पयत्तव, दंतो जो उबरतो न पावेहिं । धारणववहारो सो, पनंजियव्यो उ केरिसे पुरिसे ।
अहवा दंतो इंदिय-दमेण नोइंदिएणं च ॥६५४॥ जन्नति गुणसंपन्ने, जारिसए तं सुणेहि त्ति ॥ ६४७ ॥
कानाऽदिषु ा समन्तात् नीना बालीनाः। पदे पदे बीना जवन्ति एष धारणाध्यवहारः कीदृशे पुरुषे प्रयोक्तव्यः ? । सूरिराह- प्रलीना अथवा-येषांक्रोधाऽऽदयःप्रलयं गताःते प्रसीना,प्रकर्षण भएयते-यादूशे गुणसम्पन्ने प्रयोक्तव्यस्तद्वक्ष्यमाणं शृणु ? । लीना सयं विनाशं गताः क्रोधाऽऽदयो येषामिति व्युत्पत्तेः। यततमेशऽऽह
नायुक्तो नाम सूत्रानुसारतःप्रयनवान्, दान्तो यः पापेभ्य उपरपवयण जसम्मि पुरिसे, अणुग्गहविसारए तवस्सिम्मि। | तः। अथवा-दान्तोनाम इन्द्रियदमेन,नोन्छियेण नोन्द्रियदमेन सुस्मुयबहुस्सुयम्मि य, विवकपरिपागसुचम्मि ॥६४८॥
चान्यतः। तदेवं बेदश्रुतार्थधारणावशतो धारणाव्यवहार उक्तः।
साम्प्रतमन्यथा धारणाव्यवहारमाहप्रबचन द्वादशा, श्रमणसहो वा तस्य यः कीर्तिमिच्छेत् स
अहवा जेणऽश्या, दिहा सोही परस्स कीरंती। प्रवचनयशस्तस्मिन् तपस्विनि, तथा श्रुतं शोभनमाकर्णितं, बहु श्रुतं च येन स सुश्रुतबहुश्रुतः। किमुक्तं जबति-यस्य वह्नपि श्रुतं
तारिसयं चेव पुणो, उप्पमं कारणं तस्स ॥ ५५॥ न विस्मृत्तिपथमुपयाति स सुश्रुतबहुश्रुतः । अथवा बहुश्रुतो
सो तम्मि चेव दव्वे, खेत्ते काले य कारणे पुरिसे । अपि सन् यस्तस्योपदेशेन वर्तते स मार्गानुसारिभुतत्वात तारिसयं अकरेंतो, न हु सो पाराहो होइ ॥६५६।। सुश्रुतबहुश्रुतः, तस्मिन्, तथा विशिष्टे विनयौचित्यान्विते वा- सो तम्मि चेव दम्बे, खेत्ते काले य कारणे पुरिसे । कूपरिपाके विशुद्धिर्यस्मिन्पुरुषे तस्मिन् प्रयोक्तव्यः।
तारिसयं चिय नूयो, कुव्वं पाराहगो हो ॥६५७।। एतदेवाऽऽह
अथवेति प्रकारान्तरे, येनान्यदा परस्य शोधिः क्रियमाणा एएमु धीरपुरिसा, पुरिसज्जाएसु किंचि खलिएसु ।
हटा, स तमर्थ स्मरति-यथा एवंभूतेषु व्याऽऽदिवेवंभूते रहिए विधारइत्ता, जहारिहं देंति पच्चिनं ।। ६४ए॥ कारणे जाते एवंभूतं प्रायश्चित्तं दत्तमिति । पुनरन्यदाऽस्य पुरुषएतेवनन्तरोदितगुणसम्पन्नेषु पुरुषजातेषु किश्चिदत्र मना
स्य उपलकणमेतत्-अन्यस्य वा तारशमेव पुनः कारणं समुत्पन्न क प्रमादबशाद मूलगुणविषये उत्सरगुणविषये वाक्स्खसि
ततो यदि तस्मिन्नेव,तादृश एवेत्यर्थः। कन्ये के काले चशब्दा. तेषु रहितेऽपि असत्यध्यादिमे व्यवहारत्रये धीरपुरुषा अर्थ
द्भावे च तारश एव कारणे तस्मिन्नेव तादृशे वा पुरुषे तादृशमपदानि कल्पप्रकल्पव्यवहारगतानि कानिचित् धारयित्वा य.
कुर्वन्, रागेण वा अन्य प्रायश्चित्तं ददानो वर्तते, तदास (नहु) थाह ददति प्रायश्चित्तम्।
नैव अाराधको भवति । अथ यः तस्मिन्नेव कम्ये केत्रे काले भावे संप्रति "रहिए वि धारयित्ता" (६४) इत्यस्य
च कारणे पुरुषे च तादृशं करोति, स तदा पाराधको नवति । __ व्याख्यानमाह
धारणाव्यबहारस्यैव पुनरन्यथाप्रकारमाहरहिए णाम असंते, प्राश्वम्मि ववहारतियगम्मि ।
'वेयावच्चकरो वा, सीसो वा देसहिंगो वा वि।। ताहे विधारइत्ता, वीमसेऊण जं भणियं ॥ ६५० ॥
दुम्मेहत्ता न तरह, ओहारेनं बहुं जो उ ।। ६५ ।। रहिते नाम असति भविद्यमानके व्यवहारत्रिके सति ततो
तस्स उ नद्धरिकणं, अत्यपयाई तु देंति आयरिया । विधाय .........'यदू भणित नबति । किमुक्तं भवति?, जेहि न करेति कजं, ओहारेत्ता उ सो देसं ।। ६५ए।
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धारणाववहार
यथा प्राचार्याणां वैयावृत्यकरो यो वा संमतः शिष्यो वस्तु देशहिएमको देशदर्शनं कुर्वतः सहाय आसीत्, स समस्तं दावा नावधारिवितुं शक्नोति ततस्तस्य त्यानुप्रदाय कानिचिदन्यादति के सदस्य देशमवधार्य न कार्ये करोति । एष धारणा व्यवहारः । उपसंहारमाह
(२७५० ) अभिधान राजेन्द्रः ।
सू० प्र०
1
धारणमरहारेसो, अडकतो समानणं । (६६०) एष धारणा व्यवहारो यथाक्रमं समासेन वर्णितः व्य०१० उ० । धारणिज-धारणीय- त्रि० । धारयितुं योग्ये ४० १५ श० । भाचा० । धारयितुं शक्ये, यापनीये च । झा० १ श्रु० ८ श्र० । धारणी-पा (२)रिणी स्त्री सगुण धारणा (२) रिणी। १ पाहु० एकाइशजिनस्य प्रयमारिकायाम्, ४०" सिसविस्स चा (र) रिणी पदमा " ति । । द्वारवतीवास्तव्यरूप वसुदेवस्य स्वनामरुपातायां भार्यायाम, वसुदेवे राया धारणी देवी ।" श्रन्त० १ ० १ वर्ग १ अ० । द्वारवतीयास्तस्यस्यान्धकः स्त्रनामरूपतायां भाषायाम् "अंधगविशिहस्स रखो धारणी नाम देवी ।" अन्त० १ ० १ वर्ग १ अ० । दस्तिशीर्षनगरस्थस्यादीनशत्रोः राज्ञः स्वनामख्यासायां भाययम, "हत्यिपरे अरोचारणीपामोक्खाणं देवीसहस्लाएं ।" विपा० २ ० १ ० । अपरविदेदस्यता राजधान्यां स्थितस्य धनजयस्य भार्यायाम शा० चू० १ ० | मथुरानगरीवास्तव्यस्य जितशत्रोः राज्ञो भार्यायाम् आ० म० १ ० २ खण्ड | कौशाम्बीत्रास्तव्यस्याः ऽ जितसेनस्य राज्ञो भार्यायाम, आब० ४ अ० । ० ० राजगृहनगरस्थस्य श्रेणिकस्य राज्ञो भार्यायाम्, झा० १ श्रु० १ श्र० ! अणुः । चम्पानगरीस्थस्य मित्रप्रभस्य राज्ञो भार्यायाम्, आव० ४ म० । चम्पानगरीस्थस्य दधिवाहनस्य राज्ञः स्त्रनामख्यातायां भार्यायाम् आ० म० १ ० २ खण्ड | पोतनपुर नगरस्थस्य सोमचन्द्रस्य राज्ञो भार्यायाम, श्रा० म०१ श्र० २ खण्ड | प्रा॰ चू० । राजगृहनगरस्थस्य विश्वनन्दिनृप स्य भ्रातुर्विशास्त्रभूतेर्भार्यायाम्, श्रा० म० १ ० १ खराम | म धनन्दिग्रामस्थ गौतमस्य कणवृतिकस्य भार्यायाम्, "भग मे नन्दिग्रामे, गौतमः कणवृत्तिकः । तत्पत्ती धारणी तस्याः । " प्रा० क० | आव० | कस्मिश्चिन्नगरे स्थितस्य वज्रसेनस्य रा शः स्वनामख्यातायां मङ्गलावत्यपरनामधेयायां भार्यायाम, श्रा० चू० १ श्र० । मिथिलास्थस्य जितशत्रोः स्वनामख्यातायां भार्यायां च । सू० प्र० १ पाहु० चं० प्र० । धारय-धारक-त्रि० । धारणसमर्थे, कल्प० १ अधि० १ क्षण | धारको चार कम श्रीप्रवर्तकेय नि००३ वर्ग धारा-धारा- स्त्री० धृ णिच् । खड्गाऽऽदेर्निशिताग्रे, भ० १३ श० ६ ० | वाच० । 'खुरो श्व एगंतधाराए।" झा० १० १ श्र० | जं० । उत्त० घण्टा, सन्ततौ, द्रव्यस्य स मलत्या पतने, उत्कर्षे, यशसि अतिवृष्टी, समूह, मेघस्याऽऽसा
" अ
वर्षणे, वाच० । न० । कल्प० । सदृशे, पुरीभेदे, श्वानां तु गतिर्धारा विभिन्ना सा च पञ्चधा ।" इत्युक्तेऽश्वानां गतिपञ्चके, "श्तीव धारामवधीर्य ।" इति नैषधम् । सैम्याग्निमस्कन्धे च वाच दस्तिनापुरस्थस्य शिवस्य राको
64
धावण
भार्यायां च । भा० म० १ ० २ खगफ । रणमुखे, दे० ना० ५ वर्ग ५६ गाथा ।
धारावारि-धारावारि १० धाराचाजले. भ० १३० १४० । धारावारिय धारावारिक० च वारिज
1
न् । धाराप्रधान जल्लोपेते, " धारावारियलेणाइ वा ।" भ० १३
श० ६ उ० ।
धारावास देशी- मेघे, मे व दे० ना० ५ व ६३ गाथा । धाराहय धाराइतके, "चाराक पुप्फगं पिव समुहससि भरोमकूवे ।" कल्प० १ अधि० १
कण । भ० ।
पारि (ए) पारिन पुं० धारयतीत्येवंशील प्रज्ञा० २ प - णिनिः धारण कर शिवाच धारिणी धारिणी स्त्री० धारणी शब्दार्थे सू० प्र धारिणी-स्त्री० । ' ' १ पाहु० ।
9
६
धारिए पारवितुम् अन्य पासवितुमित्यर्थे, स्था० • परिषदतुमित्यर्थे वरि घा परिहरितए वा ।" धारयितुं परिग्रहे परिहर्तुमासेवितुमिति । अथवा "धारणया उबभोगो, परिहरणा होइ परिभोगो । "स्था० u ar० ३ उ० | धारिय पारित वि० सवार धारि णियसमीदिय- निजत्रणावि उवायणसमिद्धो । " धारितं स म्यग् धारणाविषयीकृतं न विनष्टमिति भावः । ६५० ३३० । धारी धात्री खाई शब्दायें प्रा० २पाद घारोदग - धारोदक- न० | गिरिनिकरजले, वृ० २ उ० | घाव घाव जवे, सफा
66
क० सेट् । धावते । अधाविष्ट । वाच० ।" खादधावोर्लुक || 5 |४ | २२८ ॥ इति प्राकृतसूत्रेणान्त्यस्य लुकू । प्रा० ४ पाद स्वरादनतो वा " ॥ ८४ ॥ २४० ॥ इति प्राकृतसूत्रेणाकारान्तवर्जितात्स्वरान्ताद्धातोरेन्ते श्रकाराऽगमो वा प्रा० ४ पाद । धार | धाश्र । धाहि । धानो । बाहुलकाधिकाराद् वर्तमाना भविष्यविध्याऽऽद्येकवचन एव भवति, तेनेह न । धावन्ति । कचिन जवति । "धाव पुरश्र ।" प्रा४ पाद | "कुलाई जे धावर साठगाई।" धावति गच्छति । सूत्र० १ ० ७ ० । धावण धावन - न० धाव- ल्युट् । शीघ्रगमने, सूत्र० १७ श्र० । वाच० । धावनमिति वेगेन गमनम् | जीन० | महा० । ज्ञा० । धावनं निष्कारणमतित्वरितमविश्रामं गमनम् । जीत० । शोधने, वाच० | अङ्गोद्वर्तनस्नाने, नि० चू० ११ न० । वस्त्राssदीनां प्रकालने, प्रब० १ द्वार । सूत्र० । नि०चू० । व्य० । ग० प्रश्न० । पात्रादीनां कल्पप्रदाने च । जीत० । वृ० । ०६४० गुणा र्णनप्रस्तावे ' श्रइसेस' शब्दे प्रथमभागे २८ पृष्ठे प्रतिपादि ताः ) " जे धोयती लूसयतीव वत्थं श्रहा हु से णागणियस्स दूरे।" सूत्र० १ श्रु०७ श्र० । वस्त्राण्यधिकृत्य- "णो धोवेजा
तराई पत्याई रेखा"नोवाको नान प्रक्षालयेद्, गच्छ्वासिनो ह्याप्तवर्षाऽऽदो ग्लानावस्थायां वा प्रासुकादेकेन यतनया धावनमनुज्ञातं न तु जिनकल्पिकस्येति ।
"
66
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धावण
तथाहिनीतरकाना धारयेत्पूर्वीतानि पथाइक्तानीति । श्राचा० १ ० ६ श्र० ४ उ० । धावनं च संयवादशेषकले भनेको
( २७५१) अभिधानराजेन्द्रः ।
1
पिं
तानेव दोषान् दर्शयति
उधे धुवणें वसं, वंजविणासो अाणवणं च । संपाइमवाउन हो, पावरण अवघा य ॥ २६ ॥
वर्षाकालस्य प्रत्यासन्नं कालमपहाय शेषे ऋतुबद्धे काले, चीवरस्य धावने चरणं वकुशं भवति, उपकरणवकुशत्वात् । तथा ब्रह्मनि मैथुनप्रत्याङ्गः प्रकृतिवास परिया न हि विपि रमणीयत्वेन प्रतिभासमानो र मणीनां रमणयोग्योऽयमिति प्रार्थनीयो भवति, किं पुनः शरी रावयवरामणीयकोपशोभितः ततः समस्तकामिनीनां प्रार्थयमानानां दर्शितानि पदर्शितकात तारमणीयपनकनिपयोधरवार भीमप्रदेशपरिभवन तो यश्यं ब्रह्मचर्याशते। तथा अस्थानस्थापनम् । श्यमत्र भावना-यदि नाम कथञ्चित्त बेतिया संयविषयनिःप्रकम्पनृत्य एम्भोग पश्यति तथापि केमोथा स्थाप्यते यथा नूनमर्थ कामी, कथमन्यथाऽऽत्मानमित्यं भूषयति, न खल्वकामी मरामनप्रियो नवति । तथा संपातिमानां महिकाऽऽदीनां प्रकाशनजबा दिषु निपततां पायो वचो विनाशो भवति तथा य प्रचालनजलपरियमेन पृथियन तयातः पृथि व्यथितकीटिकादिलच्वोपमर्दो भवति । तस्मान्न ऋतुव काले वां प्रक्षालनीयम् ।
दावपि चाव संभवति तदा नीमपि न चीवराणि प्रकालनीयानि, सन्न, तदानीं चीवराप्र कालनेऽनेोपसंभवात्।
अभारणपण सीलपाराजिागेस
वायवो वासामु अयोषणे दोसा ||२७||
कालादपि यदि पानी मनिभारो गुरुत्वं वस्त्राणां भवति । तथा वासांसि मलविद्धानि बड़ा जलकणानुपमरणमात्रेणापि स्पृष्टानि भवन्ति सदा मितः श्रिय उदतरं यत्रेषु संबन्धमापद्यते किं पुनर्वसु सर्वतः सलिलमयीषु । ततो वर्षासु निमन संपर्क तो वासांसि गुरुतरभाराणि नवन्ति । तथा ( वुडति ) वाससां चर्चाकाशादयगण्यच भवति शाय
सीत्यर्थः किमुकं मयति-यदि नाम वर्षक प्रज्ञायते ततो वर्षासु तेषां मलकिया जा वनेन शाटो भवति । न च वर्षास्वभिनववस्त्रग्रहणं, नचाधिकः परिग्रहः, ततो ये वस्त्राभावे दोषाः समये प्रसिकास्ते सर्वेऽपि यथायोगमुपडीकत इति तथा वस्त्रेषु शीतलजस्तो मलस्याऽभवतः पनको वनस्पतिविशेषः तथाच सति प्रायादनप्रक्रिः। तथा निरन्तरं सर्वतः प्रसरेण निपतति वर्षे शीतले च मारुते वाति म अस्यतः शीतीभूतानां वास प्रारदार यातायामपरिणती मा शरीरमान्यमुभथा च सति प्रवचनस्यापचाजना । यथा-अहो ! बठरशिरोमणयोऽमी तपस्विन परमार्थतस्तदिन ये नाम स्मशानवानां
धावण
वासस परिलो मान्यमुपजायते इत्येतन्ि पृथग्जनापरिधं स्वर्गापवर्गमार्गमवगच्छन्तीति दुःश्रद्धेयम् । तथा वलितानि बाखाय भिक्षाऽथ विनि तस्य साथमैपवृष्ट मालिक संपर्क कार्याविराधना भवति । एते वर्षास्विति वर्षाकालप्रत्यासन्नोऽपि कालो
इत्युच्यते, तत्सामीप्यात् भवति च तरसामीप्यास •दव्यपदेशः । यथा- गङ्गायां घोष इत्यत्र । ततो वर्षासु वर्षात्यासन्ने काले वस्त्राऽऽदीनामप्रक्षालने दोषास्तस्मादवश्यं वर्षाकालादर्या वासांसि प्रालीयानि । ये च संपातिमच्योपघाताऽऽद्यो दोषाश्वीवर कालने प्रागुका पत्रकनीत्यायतनया प्रयतमानस्य संभवतीति वेदियम् । यो दि सूत्राज्ञामनुसृत्य यतनया सम्यक् प्रवर्त्तते स यद्यपि कथञ्चिस्युपकारी तथापि नासी पापभाग्भवति नाऽपि तीव्र प्रातिभागी बहुमानतो यतनया प्रवर्तमानत्वात् च दयति च सूत्रम् - " अप्पत्ते चित्रय वासे, सव्वं नवहिं घुवंति जयणाए ।" इति । ततो न कश्चिद्दोषः। नापि तदा वस्त्रप्रकालने वकुशं चरणं, सूत्राशया प्रवर्त्तमानत्वात् । नाध्यस्थाने स्थापनदोष, लोकानामपि वर्षा वाससामप्रकालने दोषपरिज्ञानभावात् । नचैतेऽनन्तरोका अतिभारादयो दोषा काले वाससामप्रकालने संभवन्ति, तस्मान्न तदा प्रक्कावनं युक्तमिति स्थितम् ।
सम्प्रति वर्षाकालादयानुपति प्राज्ञनीयो नयति तावसमनिधित्सुराह
अप्पत्ते च्चिय वासे, सव्वं नवहिं धुवंति जयणाए । असई दस्प नहभम्रो पापनिजोगो ||२८||
प्राप्ते एव अनामाते एव, वर्षे वर्षाकाले, वर्षाकालाव काले इत्यर्थः। जन्नाऽऽदिसामभ्यां सत्यामुत्कर्षतः सर्वमुपधिक रणं यतनया यतयः प्रकालयन्ति । अवस्य जलस्य च असति अभावे जघन्यतोऽपि पात्रनिर्योगोऽवइयं मालनीय र निस्पूर्वी युजिरुपकारे वर्त्तते । तथा चोक्तम्-" पातोसलेन निजोगो दवारो।" शते ततो नियते पक्रियतेऽनेन निगड पकरणम् । "कर्त्तरि०" || ३ | ३|१६॥ इत्यनेन घञ्प्रत्ययः। पात्रस्य निर्योगः पात्रनिर्योगः पात्रोपकरणं पात्रक बन्धाऽऽदिः । उक्तं च"पत्तं पबंधो, पायटुवणं च पायकेसरिया | पडलाइँ रत्ताणं, तह गोड पायनिजोगो ॥ १ ॥ " इति । आह-किं सर्वेषामेव वस्त्राणि वर्षाका
कान्ते किं वाऽस्ति केषाञ्चिद्विशेषः ? । अस्तीति ग्रूमः । केषामिति चेत् ?, श्रत श्राह
परियगिझाणाण व मला व पुणो विधोवंति । माहु गुरूण असो, लोगम्मि अजीरणं इयरे ||२७|| ये कृतपूर्विणो भगाय की राय बनानुगताचारादिशाख पधानानि अधीतिनः स्वसमयशास्त्रेषु ज्ञानिनः सकलस्वपरल मयशास्त्रार्थेषु कृतिनः, कारयितारश्च पञ्चविधेष्वाचारेषु प्रधकिरिया समदेशनाभियुक्ता सूरयस्ते प्रा. वायोः, आचार्यग्रहणमुप कृणम् तेनोपध्यायादीनां प्रभूणां परिग्रहः । तेषां तथा ग्लाना मन्दास्तेषां च पुनर्मलिनानि वाणि धाव्यन्ते प्रकारयन्ते । मलिनानीत्यत्र नपुंसकत्वे प्राप् सूत्रे पुंस्त्वनिर्देशः प्राकृतलक्षणत्रशात् । तथाऽऽह पाणिनिः
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(२७५२) धावण अभिधानराजेन्डः।
धावगा खप्राकृतलकणे "लिङ्गव्यभिचार्यपाति।"प्रस्तुतेऽर्थे कारणमाह
एतास्तिस्रोऽपि व्याख्यातार्थाः, नवरं (संकामिऊण इत्यादि) मा भवतु, हुनिश्चितं, गुरूणां मलिनवस्त्रपरिधाने लोकेऽवर्णोड.
तत्र विश्रामाभावे सति यतनया षट्पदिका अन्यत्र संक्रमय्य लाघा-यथा निराकृतयोऽमी मजदुरनिगन्धोपदिग्धदेदाः, ततः
विधिना धावयन्ति प्रक्वालयन्ति । तदेवमविश्रमणीय पधिरुकिमेतेषामुपकरावं गतैरस्मानिरिति ?। तथा इतरस्मिन् ग्वाने क्तः,तगणनाच शेषो विधमणीयोपधिगम्यते। मा भवत्वजीर्णमिति नूयो भूयो मलिनानि तेषां प्रक्षाल्यन्ते । ततस्तस्य विश्रमण विधिं बिजणिषुरिदमाह
सम्प्रति ये नपधिविशेषा न विश्रम्यन्ति तन्नाम ग्राहं गृहीत्वा जो पुण वीसामिज्जा, तं एवं वीयरायआणाए । तेषां धावने विधिमाह
पचे धावणकाने, उवहिं वीसामए साहू ॥ ३५ ॥ पायस्स पमोयारो, दुनिसिज तिपट्ट पोति स्यहरणं। यः पुनरुपधिः प्राप्त धावनकाले प्रक्षासनकाले,अनेन अकालप्र. एए उ न वीसामे, जयणा संकामणा धुवणं ।। ३० ॥ क्षालनेन भगवदाज्ञानङ्गलकणं दोषमुपदर्शयति; विधम्यते नि:
शेषषट्पदिकाविशोधनार्थमपरिनुक्तो ध्रियते, तमुधिं वीत. प्रत्यवतीर्यते पात्रमस्मिन्निति प्रत्यवतार उपकरणम,पात्रस्य प्र
रागाऽऽक्षया सर्वोपदेशेन, सर्वज्ञोक्तामत्यवधायमिति भावः। स्यबता पात्रवर्जःपात्रनियोगः षट्टिधः,तथा रजोहरणेऽस्य स.
एवं वक्ष्यमाणेन प्रकारेण साधुर्बिश्रम येत्। के द्वे निषो। तद्यथा-बाह्याऽऽभ्यन्तरा च । इह संप्रति दशिका
विश्रमणाप्रकारमेघाऽऽहऽऽदिभिः सह या दएिमका क्रियते,सा सूत्रनीत्या केवलैव प्रवति,
अभितरपरिजोगं, नवार पाउणइ नाइरेय । न सदशिका,तस्या निषद्या त्रयम्, तत्र या दधिमकाया उपरिपकहस्तप्रमाणायामा तिर्यग्बेष्टकत्रयपृथुत्वा कम्बलीखएकरूपा
तिनिय तिन्नि य एगं, निसिं तु का परिच्छिन्जा ॥३३॥ साधा निषद्या, तस्याश्चाने दशिकाःसंबध्यन्ते,तां च सदशि
इह साधूनां द्वौ कल्पी कीमौ । एकः कम्बलमयः । तत्र यदा कामग्रे रजोहरणशब्देनाऽऽचार्यों ग्रहीष्यति ततो नासाविहग्रा
ते प्रावियन्ते, तदा एका तौमोऽज्यन्तरं प्रावियते, शरीग्लग्नाः ह्या। द्वितीया त्वेनामेव निषद्यां तिर्यक बहुभिर्वेष्टकरावेष्टयन्ती
प्राब्रियते इत्यर्थः । द्वितीयः कौमस्तस्योपरि कम्बलमयः तकिश्चिदधिकहस्तप्रमाणाऽऽयामा हस्तप्रमाणमात्रपृथुत्वा वनम
स्याऽप्युपरि । ततः प्रकालनकाले विश्रमणाविधिप्रारम्भे रात्री यी निषद्या सा अत्यन्तरा निषद्योच्यते । तृतीया तु तस्या ए
स्वपने अभ्यन्तरपरिभोग सदैव शरीरेण सह संलझं परिनुज्यवाऽऽज्यन्तरनिषधायास्तिर्यग्वेटकान् कुर्वती चतुरङ्गलाधिकै- मानं क्षौम कल्पमुपरि शेषकल्पद्वयाद् बहिस्त्रीणि दिनानि यावत् कहस्तमाना चतुरना कम्बलमयी भवति । सा च उपवेशनो- प्रावृणोति : येन तत्स्थाः षट्पदिकाः कुधा पौड्यमाना थाहा. पकारित्वादधुना पादप्रोनकमिति रूढा, सा बाह्या निपये- रार्थम्, अथवा शीतादिना पीड्यमानास्तं बहिः प्रावियमाण त्यभिधीयते। मिलितं च निषधात्रयं दण्डिकासहित रजोहरण- कल्पमपहापाऽऽन्तरे कल्पद्वये शरीरे वा लगन्ति । एष प्रथमो मुच्यते। ततो रजोहरणस्य सत्के द्वे निषधे, इति न विरुद्ध्यते ।
विश्रामणाविधिः । एवं त्रीणि दिनानि प्रावृत्य ततखीरायेव च तथा त्रयः पट्टाः, तद्यथा-संस्तारपट्टः, उत्तरपट्टः, चोपदृश्च । दिनानि यावत् रात्रौ स्वापकाझे नातिदूरे स्थापयति । किमुक्त एते च सुप्रतीताः। तथा (पोत्ति त्ति) मुखपोतिका-मुख पिधा- जवति?-स्वापकासे संस्तारकतट पर स्थापयति, येन प्रथमनाय पोतं वस्त्रं मुखपोतम,मुखपोतमेव हस्वं चतुरङ्गनात्मिका. विश्रमणविधिना या न निःसृताः षट्पदिकास्ता अपि क्षुधा पी. वितस्तिमात्रप्रमाणत्वात् मुखपोतिका, मुखवस्तिकेत्यर्थः । “अ. ज्यमाना आहारार्थ ततो विनिर्मात्य संस्तारकाऽऽदी लगन्ति । तिवर्तन्ते स्वार्थिप्रत्ययकाःप्रकृतिलिङ्गवचनानि।"इति वचनाच एप द्वितीयो विश्रामणाविधिः । तत एकां निशां रात्रिम, तुः प्रथमतो नपुंसकत्वेऽपि प्रत्यये समानीते स्त्रीत्वम् । तथा-(र- समुञ्चये । स्वापस्थानस्योपरि सम्बमानमधोमुखं शरीरसन्नप्राय यहरण त्ति) दधिमका वेष्टकत्रयप्रमाणपृथुत्वा एकहस्ताऽऽयामा पर्यन्ते प्रसारित कृत्वा स्थापयेत् । संस्थाप्य च पश्चात्परीकेत, हस्तत्रिजागाऽऽयमदशापरिकलिता प्रथमा या निषद्या प्रागुक्ता दृष्ट्या प्रावरणेन च षट्पदिकां निजालयेत् । तद्यथा-प्रथमं तावद सा रजोहरणम् । तथा च भाष्यद्वक्ष्यति-"एगनिसेजं च रय. दृपया, निजालयेत, दृष्टया निभालिता अपि यदि न हटास्ततः हरणं।" बाह्याऽज्यन्तरनिषद्यारहित मेकानिषद्यं सदशं रजोह- सूक्ष्मषट्पदिकारक्षणार्थ भूयः शरीरे प्रावृणोत; येन ता प्रा. रणमिति। पतानुपधिविशेषान्न विश्रमयेत् नापरिभोग्यान् स्था. हारार्थ शरीरे लगन्ति । एवं परीकणे कृते यदि तान स्युस्तदा पयेत् । कस्मादिति चेत् ? । उच्यते-प्रतिवासरमवश्यमेतेषां । प्रकालयेत् । अथ स्युस्तहि पुनः पुनर्निजाल्य यदा न सन्तीति विनियोगनावात् । ततो यतनया वस्त्रान्तरितेन हस्तेन ग्रहणरू. निश्चितं भवति तदा प्रक्वालयेत् । एवं सप्तभिर्दिनैः करूपशो. पया संक्रमणा षट्पकानामप्रकालनीयेषु वस्त्रेषु संक्रमणं धना । एतदनुसारेण शेषस्याप्युपधेः शोधना नावनीया। इह ततो धावनं प्रवाल ति।।
विश्रमणा प्रक्का लनीयस्यापरिभोगरूपा उक्ता,ततो यस्तस्य यहिः पतामेव गाथ भाष्यकृद् गाथात्रयेण व्याख्यानयति- प्रावरणाऽऽदिरूपः परिभोगः स परमार्थतोऽपरिभोग इति न पायस पडोयारो, पत्तगवज्जो य पायनिज्जोगो।
तदापि विश्रमणा विरुद्ध्यते ।
एतामेच माथां भाष्यकृयाण्यानयतिदोन्नि निसिजाओ पुण, अब्जितर वाहिरा चेव ॥३॥
धोवत्यं तिन्नि दिणे, उपरि पानण तह य आसन्नं । संथारुतरचोलग, पट्टा तिनि य हवंति नायव्वा ।
धारेइ तिन्नि दियहे, एगदिणं उवरि लंबतं ॥ मुहपोत्तिय त्ति पोती, एगनिसिजं च स्यहरणं ॥३३॥
श्यं व्याख्याता । एए उन वीसामे, पदिणमुबोगो य जयणाए।
अत्रैव विश्रमणाविधौ मतान्तरमादसंकामिकाा धाव-ति छप्पया तत्थ विहिणाए ।३४।। कई एक्कक-निसि, संवास तिहा परीच्छति ।
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(२७५३) अनिधानराजेन्दः।
धावण
धावण
पाउणिऍ जइ न लग्गं-ति उप्पया ताहे धोति ॥३७॥ तस्य सतो गच्छवासस्यैवासनवतः सकल मूल ढानिप्रसक्त। केचिदेके सरय एवमाहु:-एकैकां निशां रात्रि त्रिधा त्रिभिः
ततो धावनप्रवृत्तेन साधुना प्रथमतो गुरूणामाचार्याणां वा
सांसि प्रकालनीयानि, ततः प्रत्यास्यानिनां कपकमवृत्तीनां प्रकारः पूर्वोक्तः संवास्य तथा-एका मिशांशोधनीयं कल्प बहिः प्रावृणोति. द्वितीयां निशां संस्तारक तटे स्थापयति,
तदनन्तरं लानानां ततोऽप्यनन्तरं शेक्षकाऽऽदीनाम । तत्र शेका तृतीयां तु निशां स्वपन् स्वापस्थानस्योपरि लम्बमानम
अभिनवप्रवजिताः । सादिशब्दाद् बालाऽऽदिप्रहः। सूत्रेच-"सेधोमुखं प्रसारितं शरीरलहापायपर्यन्तं स्थापयति । एवं
हमाईण"इत्यत्र सकारोवाग्विकः। ततस्तदनन्तरमात्मनः। इह
सर्वपामपि गुर्षादीनां यथायोगं त्रिविमान्यपि प्रकासनीयवसात्रिधा संवास्य परीक्वन्ते सध्या निभासयन्ति । निजालिता. चेन्न दृष्टाः,ततः सूक्ष्मपट्पदिकाविशोधनार्थ प्रावृपवन्ति, प्रावृ.
गि संभवन्ति । तपथा-पथाहतानि, अश्पपरिकर्माणि, बहुपरितौ च यदि न लगन्ति-न लग्नाः प्रतिमालम्ते षट्पदिकास्ततः
कर्माणि च। तत्र यानि परिकर्मरहिताम्वेव तवापानिजधानि, प्रकालयन्ति,लगन्ति चेत्तर्हि भूयो नूयस्तावद् दृष्टया,शरीरप्राब- तानि यथाकृतानि । यानि पैकं धारं खण्डित्या सीवितानि,ताभ्यरणेन च परीकते,यावन्न सन्तीति निश्चितं भवति ततः प्रक्षाल- पपरिकर्माणि । वानि च बहुधा खपिडत्या सीचितानि,तानि बहुयन्तीति । एषोऽपि विधिरदूषणात्समीचीन इबाऽऽचार्यस्य प्र. परिकर्माणि । ततस्तत्रापि धापनक्रममाह-(पुष्चमहागमे पति) तिजामत ति मन्यामहे ।
पूर्व प्रथम सर्वेषामपि यथाहतानिवासांखि धारयेत् । पचाकवस्त्रप्रकालनं च जलेन भवत्यतो जलग्रहणे विशेषमाह
मेण इतरे । किमर्थमिति चेत् । उच्यते-विशुकाध्यवसायस्फी
तिनिमित्तम। तथाहि-यान्यक्पपरिकर्माणितानि बहुकर्मापेक्षया तिव्योदगस्स गहणं,केई नाणेसु अमुझसमिसेहो ।
स्तोक संयमव्याघातकारीणि अवन्तीति । तदपेक्षया शुद्धानि । गिहिभायणे गहणं, लि, वासे मीसग गरो ॥ ३८॥ तेच्योऽपि यथाकृतान्यतिकानि, मनागपि पलिमन्थदोष. वर्षासु गृहच्छादनप्रान्तगलितं जलं तीनोदकं,तस्यह यदि व. कारित्वाभावात् । ततो यथा पूर्व पूर्व शुद्धानि प्रकाल्यन्ते, कालादर्वाक सर्वोऽप्युपधिः कयश्चित्सामाग्यजावतो न प्रका
| तथा संयमबदुमानवृतिभावतो विक्षाध्यषसायस्फीतिरिति लितस्तहिं प्राप्ते वर्षे सति साधुभिस्तीबोदकस्य गृहपटलान्तो- पूर्व यथाकृतानीत्यादिक्रमः । सीमेस्य जलस्य वस्त्रप्रकालनार्थ ग्रहणमादानं कर्तव्यम् । ताकि __ संप्रति प्रकालनक्रियाविधिमुपदर्शयतिरजोगुरितधूमधूम्रीकृतदिनकरतापसंपर्क सोमती वसंस्पर्शतः अच्छोमपिट्टणासु य न धुवे धोए पयावणं न करे । परिणतवादचित्तम, अतस्तद्ग्रहणे न काचिद्विराधना । तीवो.
परिजोग अपरिजोगे,छायाऽऽतवे च पेह कल्लाणं ॥४०॥ दकस्य ग्रहणे केन्दिादुर्भाजनेषु स्वपानेषु तीवोदकस्य ग्रहणं कतव्यमिति । प्राचार्य आह-(असुइपमिसेहो) असुइत्ति'भाव.
इह वस्त्राणि धावत बाच्चगेटपिट्टनात्यां न धावेत् । तत्राss. प्रधानोऽयं निर्देशा ततोऽयमर्थ:-अशुचित्वादपवित्रत्वात्परोक्तवि
च्छोटनरज कैरिव शिलायामास्फालनमापिट्टनं-धनहीनरएमाधिना तीवोदकस्य प्रतिषेधातीवोदकं दिन मलिनत्वात शुचि,
रमणीभिरिव पुन पुनः पानीयप्रकेपपुरस्सरमुवयारिपट्टनेन कुततः कथं येषु पात्रेषु नोजनं विधीयते, तेषु तस्य ग्रहणमुपपन्न
ट्टनम । सूत्रे च सप्तमी तृतीयाथें । यथा-" तिसु प्रसंकिया भवति। मा नूत मोके प्रवचनगहीं,यथाऽमी अशुचय इति । ततो
पुहवी" इत्यादौ । चशब्दोऽनुक्तसमुपयार्थः । स च पाणिपागृहिभाजनेषु गृहिसत्केषु कुण्डिकाऽऽदिषु,तस्य तीवोदकस्य प्र.
देन प्रमृज्य प्रमृज्य यतनया प्रक्षालयेदिति समुचिनोति । ततो हणम । तच तीवोदकग्रहणं स्थिते निवृत्ते वर्षे दृष्टावन्तमुराद
धौते प्रकालिते धावनजनस्पर्शजनितशीतापनोदायाऽऽत्मनो मिति गम्यते । अन्तर्मुहुर्तेन सर्वाऽऽत्मना परिणमनसंभवात् ।
बस्त्रस्य वा शीषणाय अनेःप्रतापनं न कुर्यात् ।मा नृवाचनका. भस्थिते किमित्याह-(मीसगं ति) मिश्रक निपतति वर्षे त
रजक्षाभूतहस्ताऽदितो वस्त्रतो वा कथश्चिद्विन्दपनिपातना. सीवोदकं मिथं भवति । तथाहि-पूर्वनिपतितमचित्तीचूतं, त
निकायविराधना। यद्येवं तहि कथं वखस्य शोषणं कर्तव्यमिति। स्कालं तु निपतत्सचित्तमिति मिश्रम् । ततः स्थिते वर्षे तत्प्रति
शोषणविधिमाह-परिभोग्यानि, अपरिभोम्यानि च यथाक्रम प्राह्य, तस्मिश्च प्रतिगृहीते तन्मध्ये (गरोत्ति) कारः प्रकेपणी.
गयाऽऽतपयोः शोषयेत्। सूत्रेचविकिस्रोप आर्यत्वात्। परियो, येन तूयः सचित्तं न भवति । जलं हि केवलं प्रासुकी.
जोग्येषु दि वनेषु तथा पूर्वशोधितेष्वपि कथश्चिन् पट्पदिका जूतमपि भूयः प्रहरत्रयादृर्द्ध सचित्तीभवति । ततः तन्म
संजवति । सा च प्रकालनकाले तथोपर्दिताऽपि कथञ्चिज्जी. ध्ये कारः प्रतिप्यते । अपि च-कारप्रक्केपे समलमपि जलं प्र.
विता सती दिनकराऽऽतपसंपर्के म्रियते, ततस्ताक्षणार्य तानि सन्नतामाभजति, प्रसन्नेन च जलेन प्रकाल्यमानानि प्राचा
गयायां शोषयेत् । इतराणि स्वान, दोषाभावात् । तानि गयोऽदिवासांसि सुतेजांसि जायन्ते। तत एतदर्थमपि क्षारप्र.
यायामातपे च शोषार्थ विशारितानि निरन्तरं (पेह ति) केपो न्याय्यः ।
प्रेकेत, येन परास्कन्दिनो नापदरम्ति । इह पूर्वोक्तविधिना य. संप्रति धावनगतमेव क्रमविशेषमाह
तनापुरम्मरमपि धाव्यमानेषु बखेषु कथञ्चिद्रायुविराधनारूपः, गुरुपच्चक्खाणिगिना-णसेहमाईण धोवणं पुव्वं ।
षट्पदिकोपमदाऽऽदिरूपो वाऽसंयमोऽपि संभाव्यते । ततस्त
च्छुड्यर्थ तस्य साधोगुरुणा कल्याणसंशं प्रायश्चित्तं देयम् । तो अपणों पुचमहा-कडे य इयरे दुवे पच्छा ॥३६॥ पि० । ओघ । नि० चू०।। गुरुप्रत्यास्थानिम्मानशक्षाऽऽदीनां पूर्व प्रथम धावनं कुर्यात्ततः पश्चादात्मनः । श्यमत्र भावना-इह साधुभिः परमहितमात्म
सञ्चित्तण न धुवणे, मुहणंतगमादिए बि चउलहुया । नः समीकमारवश्यं गुर्वादिषु विनयः प्रयोक्तव्यः, विनयब.
अञ्चित्त धोवणम्मि वि,अकारणे नवधिणिप्फम्मं ।।१२।। लादेव सम्यग्दर्शनशान चारित्रवाद्धसभवात् । अन्यथा अविनी- सचित्तेण जुदगेण जइ वि मुहणं तग धुवति,तदा विचनमहुय ।
६८॥
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(२७९४) घावण अभिधानराजेन्द्रः।
धिश्बलिय प्रद अचित्तेण चरगेण अकारणे धुवति, तो उवहिणिष्फः योगे, अष्टादशाऽकरपादके उदोमेद, प्रधादशसंख्यायां
भवति । जहशोधकरणे पणगं, मज्झिमे मासत हुं, उक्कोसे | च। पाच० । पउनहुं सचिरोणाभिक्खणं धोवणे अ िसपदमीसे वसहि |धिश्कंद-धृतिकन्द-पुं० । धृतिश्चित्तस्वास्थ्य, स एव कन्दः स्क. सपद, प्रचित्तेण विणिकारणे अनिक्खं धोवणे उपाहिणिप्फ न्धाधोभागरूपो यस्य स तथा। चित्तस्वास्थ्यरूपस्कन्धाधोत्रामहाणा उबरिमं णायव्वं । नि० चू. १२० । शुभाध्यवसा- गयुते संवरपादपे, प्रश्न ५ सम्ब० द्वार । यामिथ्यात्वपलानां सम्यक्त्वभावसंजननरूपे कर्मणोऽवस्था-HिEAR-ति- तिमितnिema नम: नेदे च । प्राचा० १ भु. ६०१०। धाविय-धावित-त्रि० । धावितुं प्रवृत्ते, कल्प०१ अधि० ३ |
तिकूटम् । जम्बूमन्दरदक्षिणस्यां दिशि स्थितस्य निषभवर्षधरप
तस्य तिगिच्छदाधिष्ठाच्या धृतिदेव्याधिष्ठिते स्वनामख्याते क्षण ।
कूटे, जं० ४ वक्षः । स्था। षि (क)-धिक-व्याधा-धक्क वा मिकिः । अनिष्टशब्दैन ।
|धिजुत्त-धृतियुक्त-त्रि.। धृतिश्चित्तस्वास्थ्यं तद्युक्तो धृतियुक्तः। यजनने, निर्जर्सने, निन्दायाम, म्या. ७ ग० । वाच० ।
| चित्तस्वास्थ्योपेते, पञ्चा०१८ विव० । ज्य० । अं० । "धिगत्थु ते जसोकामी।" घिकशब्दः कुत्साया. म्। दश०२०। निन्दनीये च । वाच०।
धिइजुय-धृतियुत-त्रि धृतिश्चित्तावष्टम्भस्तद्युतो धृप्तियुतः। मा. विश्-धृति-स्त्री० । धरणं धृतिः । प्रा० म० १ ० १ खंड।
नसावष्टम्भयुते, स हि नातिगदनवप्यर्थेषु भ्रममुपयाति । ग०
१ अधि•। प्रव धृ-क्तिन् । “कृपाऽऽदौ" ॥11॥१२८॥ इति प्राकृतसूत्रेणेकारः । प्रा०१पाद । धारणे, आ. म०१ अ.१खम । पत. घिधणिय-धृतिधनिक-पुं धृतर्मनःस्वास्थ्यस्य धनिकःस्वामी नप्रतिबन्धकसंयोगे, द्वा०४ ६० । धारणारूपे मतिज्ञानभेदे, | धृतिधनिकः । मनःस्वास्थ्यस्वामिनि, स. ६ मङ्ग। विशे। सन्तोषे, कल्प.१ अधि० ५ कण । धृतियेन केनाचे धिडधणियणिप्पकंप-धृतिधनिकनिष्पकम्प-त्रि० । धृतिरज्जु. वसननोजनाऽऽदिना निर्वादमात्रनिमित्तेन सन्तोषः। यो०बि०।
| बन्धनेन धनिकमत्य निष्प्रकम्पोऽविचलो यः स मध्यमपद
चत्तस्य | लोपाद धृतिधनिकनिष्प्रकम्पः । धृतिरज्जुबन्धनेनास्पर्थमविच. कायम । उत्त० ३१ अ०।धृतिः संयमे धपये चित्तसमाधानम्।। सूत्र०१६०८ ०। रागद्वेषानाकुलतया मनाप्रणिधाने, आ. व०५०।धृतिर्वजकुड्यवदच्छेद्यं प्रणिधानम् । पृ०६उ०।
|धिइधणियबछकच्छ-धृतिधनिकबक्षकक्ष-त्रि.। धृतिरेव ध. बा० । स्था। घ.।पा। संथा० । ग०॥ धृतिरुद्वेगादिदोष.
निकमत्यर्थ वहा कका येन स तथा । भ० एश. ३३० । परिहारेण चित्तस्वास्थ्यम् । पश्चा० ४ विव० ! स० । ६० । प्र.
धृती सन्तोपे, धैर्य वा "धणिय त्ति" अन्यर्थ बहकक्षः धृतिः व. ०प्र० । धृतिश्चित्तदाढमिति। प्रश्न०१ सम्य द्वार । सू०
धनिकबरूकका। कल्प.१ अधि०५क्षण । धृत्या चिसस्थाप्र० । बिपा। धरणं धृतिः सम्यग्दर्शनचारित्रावस्थाने, सत्र. स्थ्येन "धणिय ति" प्रत्यर्थ बद्धा कक्षा येन स तथा । काo १४०११ म०। उत्त० "भई धिश्वेलापरिगयस्स।" धृतिम- ११०१ असंथा० । धृतिश्वित्तसमाधान, तपा "धणिय लोत्तरगुणविषयः प्रतिदिवसमुत्सहमान आत्मपरिणामविशेषः। ति" अत्यथै, बद्धा निष्पीडिता कका बन्धविशेषो यत्र तत्त. नं। तत्परिपालनीयत्वादहिसायाम् । प्रश्न. १सम्ब० चार । था। धृतिबलयुक्त, स०११ अङ्ग "विश्धणियबरुकच्छा।" न रागाऽऽद्याकुलतया धृतिर्मनाप्रणिधानं, विशिश प्रीतिः। इस धृत्या चित्त स्वास्थ्येन धनिकमत्यर्थ बद्धा कृता प्राराध. मप्यत्र मोहनीयकर्मयोपशमाऽऽदिसंभूता,रहितादेन्धीत्सुक्या- नारूपा कक्षा प्रतिज्ञा परिकरो वा यैस्ते धृतिधनिकबद्धकभ्यां धीरगम्जीराशयरूपा अबध्यकल्याणनिषन्धना वस्त्वा- काः । संथा। प्रत्युपशया । ल."धिती तु मोहस्स नवसमे हो।" मोहक
तु माहस्स उवसमे हो।" मोहक- धिइबल्ल-धृतिबन-न । धृतेश्चित्तसमाबलमवष्टम्भो धृतियोपशमा प्रतिवति । नि.चू०११०। "होइ धितीय हि
बलम चित्तसमाधेरवष्टम्भे, ध०३ अधि०। धृतिश्वित्तसमा. गारो, विसेसओ वित्तकालेसु।" आचा०१ श्रु०५ अ०१ उ० । धिर्ष जमवष्टम्भो धृतिबलम, तत्कारणत्वान्महाव्रतमपि धृतिकव्ये तावदरसविरसम्रान्तरकाऽऽदिके धृतिनावयितव्या, केत्रे
बलम् । चित्तसमाधिलकण सामये, पा० । पश्चा. ध । विकुतीधिकभाविते प्रकृत्यभड़के वा नोवेगः कार्यः, कासेऽपि
तत्कारणत्वान्महावताऽऽदो च। पा. । साविके, कातरे च। दुष्कालादो यथाखानसन्तोषणा जाग्यम्, भावेऽप्याक्रोशो
त्रि। वृ०१ उ०। पहसमाऽऽदो नोद्दीपितव्यम् । विशेषस्तु क्षेत्रकालयोरवमयोरपि
| धिडवलय-धृतिबलक-न० । स्वार्थे कः । चित्तसमाधिवकणे धृतिनाब्या, व्यभावयोरपि प्रायशस्तनिमित्तत्वात । प्राचा०
सामध्ये, तत्कारणत्वान्महावताऽऽदौ च । पा०। १ श्रु० ५ ० २ ० । धैर्याधिष्ठाइयां देवतायाम, झा० १
धृतिवाद-त्रि० । चित्तसमाधिलक्षणसामर्थ्यदायके महा. श्रु०१०। जम्बूमन्दरदकिवस्यां दिशि स्थितस्य 'निषधव- । धरपर्वतस्य तिगिच्चदाधिष्ठायां धृतिकूटस्थायां देवता
वताऽऽदौ, पा। याम, स्था० ३ ०४ उ०। ज० । धृतिस्तिगिच्छदसताधिइबलिय-धृतिबलिक-त्रि० । धृतिर्वज्रकुड्यवदच्छेद्यं प्रणिधा. स्थामा निरयावलिकोपाङ्गस्य पुष्पचूनाऽऽख्यचतुर्थवर्ग| नं, तया बलिको बनवान् । बृ०६ उ० । अतिशयन धृतिमति,
स्थ तृतीयाध्ययनप्रतिबरूवक्तव्यतायां स्वनामख्यातायां दे दर्श० १ तव । चित्त समाधान कणसामध्ययुक्त च । पश्चा० व्याम् , नि० १७०४ वर्ग १ ० । विष्कुम्भावधिकेऽष्टमे | विवः । ध०।
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(२७५५) धिइमइ भन्निधानराजेन्द्रः।
धीमह धिक्ष्मइ-धृतिमति-स्त्री० । धृतौ मतिधृतिमतिः। प्राच०४०।। प्रा० १ पाद । “स्यादृ-भव्य-वैत्य-चौर्य-समेषु याव"
धृतिप्रधाना मतिधृतिमतिः। श्राव.४.स.। योगसंप्र- २।१०७॥ इतिप्राकृतसूत्रेण चौर्यसमेषु शब्देषु संयुक्तस्व या. हनेदे, पा० चू०४०। प्रश्न।
त्पूर्व इद् भवति । 'धीरिय।' प्रा०२पाद।"स्थिरचित्तोन्नतियों धृतिमतिद्वारमाह
तुतकर्यमिति गीयते।" इत्युक्ते मनसः स्यग्य, पाच०।" नगरी य पंसुमहुरा, पंमवयंसे मई असुमई।
चिससमाधानम् ।' सूत्र०१ श्रु० ."पत्तियाधिवारीवसभाहरणे, अप्पाइश सुदनु एम पव्यज्जा ॥१॥
जाई।" प्रीतो दाने वा स्थैर्यवन्ति । कल्प. ३ अधिo कण । वारिवृषभः प्रवहणम् ।
घो। सवे, प्रश्न २ सब० द्वार । "मनसो निर्विकारत्वं, धर्य " नगरी च पारादुमपुरा, तत्राऽऽसन् पञ्च पाण्डवाः ।
सत्स्वपि देतुषु ।" इत्युक्ते मनसो विकारानावे, अव्याकुलत्वे, स्थापितः प्रवजद्भिस्त-निजराज्ये निजः सुतः॥२॥
विनाऽऽद्युपस्थिताबपि प्रारब्धापरित्यागहे तो चित्तवृत्तिभेदे नेमिनं तु दधावुस्ते (?), इस्तिकल्पपुरेऽन्तरा।
च । वाच। भिक्षागताः प्रतुं काल-गतं श्रुत्वा विषादिनः ॥ ३॥
धेय-त्रि० । धारणीये, पालनीये, झा० १ ० १ ०। आत्तं नक्तं परित्यज्य, गत्वा शत्रुजयाचले। विधायानशनं प्राप्य, केवलं निवृति ययुः॥३॥
ध्येय-त्रि० । हृदि धारणीये, ज्ञा० १ श्रु०१०। तद्वंशे पाण्डुसेनोऽभू-नृपस्तस्य सुताद्वयम् ।
धिज्जाश्य-धिगजातिक-त्रि०ा धिगजातिमति,पाव०२मानि. मतिश्च सुमतिश्चैव, ते हे अपि च रैवते ॥४॥
चू० । 'तस्थ भद्दा नाम धिजाणी।' प्रा० म.१०२खए। नन्तुं चैत्यानि पोतेन, प्रस्थिते सागराध्वना ।
धिजाईय-धिरजातीय-त्रि०ाधिग्जात्युत्पन्ने, बाब० ३ ०। उत्पाते तत्र संजाते, रुत्राऽऽदीन् जनताऽस्मरत॥५॥ ताभ्यां पुनभृशं स्वात्मा, संयमे विनियोजितः।
नि• चू० । प्रा० म०। निन्नप्रवहणे प्राप्य, ज्ञानं मुक्तिरलच्यत ॥६॥
धिजीविय-धिग्जीवित-नका कुत्सित जीविते, सूत्र.५७०२०। सुस्थितो लवणाधीशो-कार्षीत्पूजां तदङ्गयोः ।
चिट्ठ-धृष्ट-त्रि० । धृष्-क्तः । “ मसूण-मृगाङ्क-मृत्यु-शृङ्ग-धृष्टे दिव्योद्योतेन तत्तीर्थ, प्रभासानिधयाऽभवत् ॥७॥"प्राक०। वा” ॥८।१।१३०॥ इति प्राकृतसूत्रेण ऋत श्वा। प्रा०पाद। धिमइवव सायदुब्बल-धृतिमतिव्यवमायन-त्रि०ातिम- निर्लजे, प्रगल्भे, नायकभेदे च । बाच०। तिव्यवसाया पुर्बला यस्य स तथा । धृतिमतिव्यवसायेषु दुर्य. धिप्प-दीप-धा। दीप्ती, दिवा-श्रात्म०-सेद । "दीपौ धो बोधृतिमतिव्यवसायबलः। दुलधृतिमतिव्यवसाये, धृतिम- चा" ।१।२२३॥ दीप्यती दस्य धो धा । धिप्पा । दितिव्यवसायेषु पुर्बले च । स०४२ सम ।
| प्प।' प्रा०१ पाद । दीप्यते । अदीपि । अदीपिष्ट । दीपू-णि. धिमंत-धृतिमत-त्रि० । धैर्यचति, उत्त०२६ म०। चित्तखा- च । भदीदीपत्-त । अदीदिपत्-त । बाच०। स्थ्ययुक्त, अरतिरत्यनुलोमप्रतिलोमोपसर्गस हे, स्था. गा| धिम्म-धिङ्मल-न० । निन्द्यमले, तं० । असह्यपरीघहाभिदुतोऽपि चारित्रधृतिमानिति। सूत्र०१ श्रु०६ | धिसण-धिषण-पु.। वृहस्पती, को. ९७ गाथा। अ० धृतिः समाधानं संयमे यस्य स धृतिमान् । प्राचा०२ भु० -धी-स्त्री.-किप,सम्प्रसारणं च । बुद्धी, धाबुकारत्य४चू. १६ अ० सुत्र । संयमस्वस्थे, ध० ३ अधि० । दश . " धितिमंता जिदिया।" धृतिः संयमे रतिः, सा विद्यते ये
नर्थान्तरम् । पं० चू। आचा० । गा० । "धी मई बुकी।" पां ते धृतिमन्तः। संयमधृत्या हि पश्चमहावतभारोवदनं सु
को. ३१ गाथा । पातु । गा० । मत्र० । अनु० । आचा. । साध्यं भवतीति । सूत्र. १७०६०।दश। (पतच 'धम्म'
तत्वावगमे च । धीवुचिस्तत्वावगमः । धिय-ई-श्रीः धाः ।
बुझिसम्पत्तौ च । गा । धीश्चितं,तत्रय ईकामः स धीः। चिशब्देऽस्मिन्नेव नागे २७०५ पृष्ठे समुक्तम् )
तस्य कामे,गा० । अभेदोपचारात् परिमते च । पुं० । गा० । धिइवीरियपरिहीण-धृतिवीर्यपरिहीण-त्रि०। मानसिकावट-धीन-धीय-त्रि०ा धीवुकिर्विज्ञानं,तस्या युरपृथग्भूतः धीयुः। बु. म्भबलरहिते, वृ० २ ० ।।
छियुते, गा। धिक्कय-धिकृत-त्रि । धिक् निन्दनीयः कृतः। कृ-क्तः। धिक्कार
धीधण-धीधन-त्रि.बुद्धिधने, “नियमेन धीधनैः निः।" प्राप्ते. व्य. १ उ० । भावे तु धिक्कारे, न० । • ६ उ०।।
षो. १६ विव०। धिकरण-धिकरण-न। धिक्शब्दविषयीकरणे, ज्ञा०१ श्रु. पी-
पंधी बंधिस्तस्वतस्तम्मिमीते शब्दयति प्ररूपयति १६ अ०।
धीमः । बुद्धितश्वप्रतिपादके भगवति कपिले, गा० । धियं ज्ञाधिक्कार-धिक्कार-पुं० । धिक्-कु-घञ् । तिरस्कारे, वाच । नमेव मिमीते शब्दयति प्रापयति धीमः। बहिरर्थाऽऽकाराणाम. धिगधिकेपार्थ एव,तस्य करणमुञ्चारणं विकारः। स्था०७०) विद्यादर्शितवादविद्यमानत्वेन ज्ञानाद्वैतप्रतिपादके बुद्धे, गा०। धिक-रु-घञ् । तिरस्कारे, वाच। तदात्मके दरामनीतिजेदे, | सानत्यानिरामत्वे, कल्प०१ अधि०३ कण । स्था० ७ वाजं । आ० म०। कल्प० । तिः।
धीमह-धीमह-त्रि० । अन्नेदोपचाराद् धियः परिमताः महन्ती. धिज-धैय्य-न । धारस्य नावे व्यञ् ।"ईदू धैर्ये" ॥८।१। ति महः पूजका अाराधकाः, मदः क्वि । धियां महः धीमहः । १५५ ॥ इतिप्राकृतसूत्रेण धैर्यशब्दे ऐतई। प्रा०१ पाद। विद्वज्जनपर्यपासकेषु, गा। धियः परिमता महः पूजका यस्य "धैर वा" IGI २।६॥ धेय्य यस्य रो वा । 'धार । धिज्जा' | स तथा । विद्वज्जनपर्युपासिते, गा० ।
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धीमंत
(२७५६) भाभिधानराजेन्द्रः ।
धुत्तक्खाण धीमंत-धीमत्-पुं० । धीः प्रज्ञाऽस्त्यस्य मतुए। बृहस्पती, बु | धुंधुमार-धुन्धुमार-पुं० सुसुमारपुरस्थे स्वनामख्याते नृपे, "मुंद्धिमति, परिमतादौ च । त्रि०ावाचा द्वा०१६ द्वार । यो. | सुमारधुंधमारे, अंगारवई य पज्जोए।" प्राचू०४०। प्रा. बि०। कल्पनाशानचतुष्टययोगाद महाप्रकेचा हा०२७ अधु। क० । इसापयाम्, दे० ना०५ वर्ग ६० गाथा। (तत्कथा धीर धीर-त्रि० । धियं बुकिं राति ददातीति धोरः । रा-कः । 'संवेग' शब्दे बक्यते) उत्त०७ म०। मातु० । घिया औत्पत्यादिकया बस्या राजत धुण-धुम-धासाधूग कम्पने, स्वादि०-उम०-सक-धेट । "धूगेइति धीरः । ग.१ अधि० । व्य० । भाचा० । सूत्र। उत्त। धुवः" ॥५६॥ इति प्राकृतलूत्रेण धुव इत्यादेशो वा । 'धुवा' नंगआवाभातु घियमीरयति धीईर अपा, घी कन्या । वा-] प्रा०४ पाद । “चि-जि-शु-हु-स्तु-लू-पू-धूगां णो महस्वश्च" ॥८ चातीर्थकरे, गणधरेच। आचा०१ शु०५ ०१.३० मावा ।४।२४१॥ एषामन्ते षकाराऽऽगमो, दस्वश्च । 'धुण।' आतुग बुझा विराजिते,ध०५ अधिकााचा धोरो विशुरु प्रा.४ पाद । धावति-ते। अधावीत् । अधविष्ट । अधोष्ट। किमानिति। प्रातु। 'धीरः सदधुष्यलकृतः।' स्त्र० श्रु०१३ वाच० । धू कम्पने, स्वा० । उभ०-सक०-वेट । धनोति । प्र० । बुद्धिमति, प्रश्न. ५ संब० द्वार । दश० । व्या पश्चा। धुनीते । धुनाति । धुनीते । अधावीत् । अविष्ट । अधोष्ट । सूत्र० । उत्त । विवकिनि, सून. १४० अ० । विदुषि, मा. " धूनोति चम्पकवनानि धुनात्यशोकम् ।" इति । " वा तु। धीरा विदितवेदितव्याः। सूत्र.१० १३ अातुन युर्विधूनयति।" इति च कबिरहस्यम्। वाचा जाबकर्मणोः साहसिके, सूत्र०१ श्रु.१.४ ३० । इदचित्ते, दर्श० ५ | " नवा कर्मभावे वः क्यस्य च सुक॥८।४। २४२ ॥ इति तत्व । पं०चू० । परीषदोपसर्गाऽऽदिभिरकोभ्ये, अष्ट० ३० प्राकृतसूत्रेण क्यस्य लुक्, द्विरुक्तो व्यकाराऽऽगमः। " धुवः । अष्टः । प्रश्न० । सूत्र । उत्त० । पि० । स्था० । प्राचा० । वृ०।। धुणिज्ज।" प्रा०४ पाद । औ० । धीराः कर्मविदारणसहिष्णवः । सूत्र०१ श्रु० ३ ० णण-धनन-न। अपनयने, सूत्र०ा कृशीकरणे, आचा०१ श्रु० ४ उ०। स्थिरे, प्रा. म०१०१ खपम । उत्त० । नं० ।
उत्तः । न । ४० उ० परित्यागे, प्राचा० १ शु०६ अ० १००। स्था। महासावे, पञ्चा०४ विब० । सूत्र | स० । धैर्यान्विते, विनी
भिन्नग्रन्थैरनिवृत्तिकरणेन सन्यक्रवावस्थानरूपे कर्मणोऽव. ते, बलिराजे, बुद्धिप्रेरके बुझिसाक्विणि परमेश्वरे च । पुं० ।। स्याटे. प्राचाot००१०। कुमकुमे, न0 1 नायिकाभेदे, काकोल्याम, महाज्योतिष्मत्याम्, खिरायां चित्तवृत्तौ च । स्त्री० । वाच०।
धुणित्तए-धनयितुम्-व्यः। अपनेतुमित्यर्थे, सूत्र० १ ध्रु० २ धैर्य-न। धिज्ज'शब्दार्थे । प्रा०१ पाद।
उ० । " उबहिं धुणित्तए।" धूननायापनयनाय । सूत्र.१ श्रु० २ धीरकरण-धीरकरण-न। धीरत्वोत्पादने, धीरकरणकार
प्र०२ उ०। णानि । स०६ अङ्ग।
धुणिया-धूत्वा-अव्य० । कपयित्वेत्यर्थे, दश ६ मा ३ धीरकित्तिपुरिस-धीरकीर्तिपुरुष-पुं०।धीराणां सतां या की- 30। सूत्रः। तिस्तत्प्रधानः पुरुषो धीरकीर्तिपुरुषः । सत्कीर्तिप्रधाने पुरुष, धुणेज्ज-धूननीय-न० । पापकर्मणि, श्रा०चू.१०। प्रश्न०४ पाश्र द्वार।
धुम-धून्य-पापे, दश० १ अ.१०। धीरत-धीरत्व-न० । परीषहोपसर्गाकोभ्यतायाम्, सूत्रः १ भु. ० अ० । "धीरस्स पस्स धीरतं, सब्वधम्माणुवत्तिणो।"
धुएणबहुम-धून्यवहुत-न । ध्यते इति धून्यं प्रास्वखं कर्म त.
स्प्रचुरे, दशा० ६ अ०॥ उत्त०७ अ०।
धुममन्न-धृन्यमल-न । पापमले, दश १ ० १ २० । धीरपुरिस-धीरपुरुष-पुं० । धीवुद्धिस्तया राजत इति धीरः, स वाऽसौ पुरुषश्च धीरपुरुषः । प्रज्ञा०१पद एकान्ततो वीर्यान्त.
धुतोवाय-धुतोपाय-पुं० अष्टप्रकारकर्मधूननापाये संयमाऽऽदि. रायकर्मापगमात् तीर्थकरे, धिया राजितत्वाद् गणधरे च ।
के, आचा० १७०६ अ० १००। आब०४ अ० । व्य० । दश । महासत्वे,महाबुछो, “धीरपुरिस | धुत्त-धुत-jाधुर्व-धुर-वा-क्तः। "स्याऽधूर्ताऽदौ"॥5॥२॥ पात्तं । " महासवमहाबुकितीर्थकरगणधरप्ररूपितम् । श्राव. ३०॥ इति प्राकृतस्त्रेणा दाविति निषेधात्र्तस्य टोन । ६मा बुद्धिमति नरे, अकोभ्यनरे च । पञ्चा०४०। प्रा०२ पाद । धुस्तूरवृके, चोरकवृक्के, नायकभेदे, " धृत्तॊऽपरां धीरवणा-धीरापना-स्त्री.पुःखेन परिताध्यमानस्य धीरो भव | चुम्बति।" सोहकीटे, विमलवणे च । वश्चके, छूनकारके च । धीरो भव, अहं तबैतद् दुःखं विश्रामणाऽऽदिनाऽपनेभ्वामि, |
त्रि०।“धुत्तेव कलिणा जिए।" उत्त. ५० विस्तीर्णे, दे० अपि च पुण्यन्नागिन् ! सहस्वैत पुःखं सम्यग, अत एव तत्ल
ना०५ वर्ग ५७ गाथा। हनानन्तरमचिरात्सर्वपुःखप्रहीयो भविष्यसीत्यादिके आ-| धुत्तक्खाण-धूर्ताऽऽख्यान-नधूर्तकथानके, ग०। तद्यथाश्वासने,“ धीरवणं चेच धम्मकहणा य।" व्य०१ उ०। "भवंतीजवर अज्जेणी णाम णगरी। तीसे उत्तरपासे जिधीरिय-धैर्य-न। धिज' शब्दार्थे, प्रा० १ पाद ।
घुज्जाणं नाम उज्जाणं । तत्थ बहवे धुत्ता समागया। तेसि धुअगाअ-न० । देशी-नमरार्थे, दे० ना.५ वर्ग ५७ गाथा। अहिवणो इमे-सगो १, एमालाढो २, मूलदेवो ३, खंडपा
णा य इस्थिया ४। पक्केकस्स पंच पंच धुसलता। धूतीण य धुक्कुधु-न० । देशी-उब्वसिते, दे० ना.५ वर्ग ६० गाथा।
पंच सता खंमपाणाए । अहमया पाउसकाले सत्ताबद्दले धुक्कुधगिअ-नादेशी-उल्लसिते, देखना०५ वर्ग ६० गाथा।
शुक्खत्ताणं श्मेरिसी कहासंवुत्ता-को अम्हं देज भत्तं ति? मू.
पाना
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धुत्तक्खाण
(१७५७) प्रन्निधानराजेन्द्रः ।
धुत्तक्खाण लदेवो लणति-ज जेण अणुभूयं, सुयं वा, सो तं कहयतु, जो
दहमागयो। एयं पुण मे अणुभ्यं,जो ण पत्तियति सो देउ भसं । तं ण पत्तिय तेण सवधुत्ताणं जत्तं दायव्वं । जो पुण भारह
सेसगा नणंति-अस्थि एसो य भावो, भारहरामायणे सुई सुरामायणसुसमुत्थार्दि उवणयउववत्तीहिं पत्तीहिति, सो मा
णिज्जति-"तेषां कटतटभ्रष्टगजानां मदबिन्दुभिः। प्रावर्तत नदी किंचि दनयतु । एवं मूलदेवेण जणिए सम्बहिं विभषियं सा
घोरा, हस्त्यश्वरथवाहिनी ॥१॥"ज भणिसि कहं पमहंतो हु साहु त्ति । ततो मूलदेवेण भणिय--को पुवं कहयति ?।
तिरुक्खो भवति । पत्थ भाइ-पामविपुत्ते किस मासपादवे पन्नासाढेण भणियं-अहंभे कहयामि । ततो सो कहिउमार
भरी णिम्मविया,तो किड तिरुक्खो एमदंतो न होजाहि ॥२॥ दो-अहयं गावी भो गहाय अडर्वि गो । पेच्छामि चोरे
ततो मूलदेवो कदि मारद्धो । सो भणति-तरुणसणे. प्रागच्छमाणे, तो मे पावरणि कंवलिं पत्थरिऊण तत्थ गाबी.
स्थियसुहाभिमासी धाराधरण द्धपाए सामिगि पहिलो - ओ बुनिऊणाऽहं पोट्टतयं बंधिऊण गाममागो, पेच्छामि य
तकममलुहत्थो, पेच्छामि य वणगजं मम बहाए पजमाण, गाममझपारे गोदहे रममाणे । ताऽहं गदियगावो पश्थि उमा.
ततोऽहं भीतो अत्ताणो असरणो किंचि णिमुक्कणहावं रद्धो(?), खमेतेण य ते चोरा कलयलं करमाणा तत्व णिव.
अपासमाणे जलग्णणाजपणं कमम् अतिगम्मि।सोविय इता। सोय गामो सदुपदच उपदो,एकं वाबुक एगाए अजियाए
गयवरो मम वहाए तेणेवतेण अतिगो। ततो मे सो गयवरो गलियं, सावि अजिया चरमाणी अजगरेण गसिया। सोवि अ.
उम्मासं अंतो कुंमियाए वामोहिमोतिओहंन्द्रमासंते कुंमियगीजगरोएगापकाए गहिनो,सा उहिउं बमपायवे णिवीणा। तीसे
बार णिग्गयो। सोविय गयवरो तेणेवंतेख णिम्गमो।णघरं बाय पगो पामो पलं बति । तस्स य वडपायवस्स भरे खंधावारो
लग्गेण गावाए लगो। अहमवि परओ पेन्छामि अणोरयार ठिो । तमिम घटे ढेकार गयवरो आगवितो।सा उहि पयत्ता,
गंग, सा मे गोपयामिव तिष्या गोम्हि सामिगिह,तत्थ मे तराहा प्रागस्सिो पाओ, गयवरे कट्टितुमारद्धे डोचेहि कलयलो
बुहा समे अगणेमाणेण गंगाओ पडती मत्थप ग्रमासा धाको तत्थ सहवेदिणो गहियचाया पत्ता। तेहिं सा जमगसम
रिया धारा । तओ पण मिळण महासेणं पया संपत्तो गसरेहिं पूरिया। ला मया । रमा तीए पट्ट कामावियं,अयगरोदि.
उजेणि, तुजं च इहं मिलिश्रो इति । तं जद सच्चं एयं तो हो। सो विफामाविओ,अजिया दिट्टा । सा वि फामाविया,वालुं.
मे हेहि पत्तियावेह । अहमनहा अनियं, तो धुत्ताणं देह उ कंदिटुं रमणिज । एत्यंतरे ते गोदहा उपरता पतंगसेणाश्च भूबि
भत्तं । तेहिं भणियं सछ । मूलदेवो भण-कहं सच्चं । ते बानो,सो गामो वालुंकायोणिगंतुमारको। अपि गहियगावो
नणंति-सुणेह, पुब्बं बंजणस्स मुहाओ विप्पा णिग्गया, बाजिग्गओ, सब्बो सो जणो सहाणा णिग्गयो । अहं पि अवन
हाम्रो खतिया,करुसु वइस्सा, पादेसु सुद्दा । जइत्तिो जणकिय गावो इदमागतो। तं जगह कहं सब सेसगा भणति
वो तस्सुदरे माओ, तो तुम हत्थी य कुंमियाए किं ण माहिसब्य सचे। पलासाढो भणति-कहं गाचीओ कंवत्रीए माया
ह। अम्मं च किल बंजणोविएत य नडाहं कुणं तो धावता गता, श्रो। गामो वा वासुंके?। सेसगा जणंति-जारसुतीए सुश्चति
दिव्यं वाससहस्सं तहा वि झिंगस्संऽतो ण पत्तो,तं जर पमहंत जहा पुवं आसीएगावं जग सम्ब,तम्मि य जले अंगमासीत
लिंग समाए सरीरेमाय तो तुहं हत्थी य कुंमियाए ण माहिद्द । जं म्मि अ अंडगे सलवणकारपणं जग सम्वं जहमायं तो कहं तुर
भणसि-बालग्गे हत्थी कहं लग्गोतं सुणसु-विराह जग्गस्त कंबलीए गाबो, वालुंके वा गाममाणमाहिति । जं भणसि जहा
कत्ता, एगणवे तप्पति तवं जलसयणगतो, तस्स य णानीयो टेकुदरे अयगरो,तस्स य अजिया,तीय वालुंक, पत्य वि भस्म
बंभो पउमगजाणेभो णिग्गयो, णवरं पंकयं णानीय लग्गो, उत्तरं ससुरासुर सनारकं ससेलवणकाणणं जगं सव्वं जवि
एवं जइ तुम इत्थी य विरिणग्गता, हत्थी वालम्मे लो, को पहुस्स नदरे माय, सो वि य देवनदरे मानो, सा थिय सय.
दोसो?,ज भणसि-गंगा कहमुत्तिमा । रामेण किल सीताए प णिज्जे माया जइ एवं सब्वं तो तुद वयषं कहं असचं भवि- बित्तिहेउं सुग्गीवो, तेणावि दणूमंतो, सो बाहादि समुई तरिउं स्सति?॥१॥
लंकारि पत्तो। सीयाप पुच्छिो -कई समहो तिघ्यो भन. ततो सगो कहि तुमारद्धो-प्रम्हे कुमबिपुत्ता । कयाई च क.
ति-"तव प्रसादात् वचसः प्रसादा-द्भर्तुश्च ते देवि! गुरुप्रसारिसणाणि अहं सरयकाले हेतु अतिगो। तरिम भवेत्ते
दात् । साधुप्रसादाच पितुः प्रसादा-त्तीणों मया गोष्पदवत्स. तिलो चुत्तो । सो य एरिसो जातो,जो परं कुछ देहि रेत्तरी, तं
मुद्रः॥१॥" जर तेग तिएणो समुद्दो वाहाह,तेण तुमं कई गंग समंता परिखनमामि,पेच्छामि य गायवरं रसांतणमिम्रो मित्रो
ण तरिस्सास? । जं भणसि-कदं छम्मासे धारा धरिता । पत्थ पक्षाओ(?),पेच्छामि य अइप्पमाणं तिरुक्खं । तस्मि विबगो.पत्तो
वि सुणसु-दिव्वं वाससहस्सं तवं कुणमाणं भगीरहं दतुं तत्याय गयवारो सोमं अपाते कुलालचकं व तं तिरुक्खं परिम्भ
गयमाणीहं लोगड़ियत्या सुरगणेहिं गंगा अभत्थिता अवतरादि मति । चालेश्य तं तिलरक्वं, तेण य चालिओ जलहरो विव
मणुयलोग। तीप भणियं-को मे धरेहि ति णिवमिति:,पसुवरणा
भणियं-अहंते एगजडाए धारयामि। तेण सा दिब्धं वाससहस्सं तिमोऽनिबुट्टि मुंचति । तेण य भमंतेण चक्कतिमा विव ते तिला
धरिया । जह तेण सा धरिया। तुम कहंग्म्मासंण धरिस्स पीलिया। तो तेल्लोदा णाम णदीदा,सो य गो तस्थेव, ति- सि?॥३॥ सचलणीप खुत्तो मओ य, मया वि से चम्म गहियं । इतिश्रो ____ अह पत्ता खंमपाणा, कहितुमारका । सा य भणति.. को, तेवस्स भरिओ.अहं पिखुधिओ खनभारं भक्त्रयामि । " उल्लंघितंति अम्हे हि भणह ज अंजासं करिय सीसे। दस य तेनुघमा तिसिओ पिबामि, तं च तेवपडिपुग्नं दश्यं घेर्नु
उबसप्पह ज अमम, तो भत्तं देमि सम्वेसि ॥१॥ गाम पट्टिो,गामबहिया रुक्खसालए णिक्खिबिउ तंदश्य गि
तत्तो भणंति धुत्ता, अम्हे सब्वं जगं तलेमाणा। हमतिगो,पुत्तोय मे दश्यस्स पेसिओ,सोतं जाहे ण पाव,ता. हेरुक्खं पामे उंगहिय हत्थे अहं पि गिहाम्रो उट्रिओ परिम्भमंती।
कह एवं खलु वयणं, तुज्क सगासे जणीहामो ?" ॥२॥
पारम्भमता । ततो ईसि हसिकण खमपाणा कदयति-अहं रायरयगस्स धूया, ६५.
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(२७५७) अनिधानराजेन्द्रः।
धुत्तक्खा
धुयमोह
अह अमया सह पिणा वत्थाणे महासगम भरेकण पुरिससहः चा० १ श्रु०६ अ० ११० । स०। (तद्वक्तव्यता 'धुराउझयण' स्सेण समं णदि सलिलपुष्मं पत्ता। धोयाई वत्थाई, तो प्रायवे शब्देऽनुपदमेव वदयते) कम्पिते, स्फेटिते, नं०। बृ०। विप्ते,प्रा. दिप्माणि उब्वायाणि, अागतो महावाप्रो । तेण ताणि सव्वाणि तु० । दश० । अपनीते, सूत्र०११०४०२०। त्यक्ते, "धु. वत्थाणि अवहरियाणि । ततोऽहं रायभया गोहारूवं काऊण रय- तकेसमंसु लोमनहहिं।" प्रश्न १ संब० द्वार । भत्सिते, त. णीप जगरुजाणं गया। तत्थाहं रतासोगपासंयलया जाता। किते, वाच० । अपगते च । त्रि० । बृ० ६ उ० । अप्रथा य सुमि-जहा रयगा उम्मिल तु, अभयघोसं पमहसई
संप्रति निकेपः, स च चतुर्की,तत्रापि नामस्थापने सुगमत्वादमोकण पुणमानसरीरा जाया, तस्स सगडस्स णाडगवरत्ता य
नाहत्य व्यन्जावधूतप्रतिपादनाय गाथाशकलमाहअंबुपदि नक्खियाओ।तओ मे पिनणाणामगवरत्ताओ अमिस्स. मारण मदिसधिप्पा लका। तत्थ भणह किमेन्थ सञ्चं ते भणंति
दबधुतं वत्थादी, भावधुयं कम्ममट्टविहं (२५१) वंजकेसवा अंतं गा गया लिंगस्न वाससहस्सेण जति तं सच्चं
(दब्बधुतमित्यादि) व्यधूतं द्विधा-अागमतो, नोभागमा नुह बयणं कहमसञ्चं नविस्स ति?। रामायणे वि सुणिज्जा
तश्व । आगमतो ज्ञाता, तत्र चोपयुक्तः। नोागमतस्तु श. जहणुमंतस्स पुच्छ महंतमासो, तं च किल अणेगेहिं वत्थसह
रीरभव्यशरीरव्यतिरिक्तं व्यधूतम् । द्रव्यं च तद्वखाऽऽदि.धूतं सेदि वेढिकण तेल्लघमसहस्सेदि सिंचिकण पलीविय, तेरण
च रजोऽपनयनार्थ व्यधूतम् । श्रादिग्रहणाद् वृक्काऽऽदिफलार्थ, किल लंका पूरी दी एवं जश् महिसरम वि महंत ण णा
भावधूतं काष्टविधं तद्धिमोक्षार्थ धूयत इति गाथाशक सार्थः । मगवरत्ताो जायाओ कोदोसो? अचमं सई सुचई-जहा पुनरप्येतदेवार्य विशेषतः प्रतिपादयितुमाहगंधारो राया,रणे कुवत्तणं पत्तो, अवरो वि राया किमस्सो (?)
अहियासेत्तुवसग्गे, दिव्ये माणुस्सए तिरिक्खे य । गाम महाबलपरक्कमो,तेण यसको देवराया समरे णिज्जिओ। ततो तेण देवराइणा साववसतोऽरमो अयगरोजाओ। अन्नया य
जो विहुणइ कम्माई, भावऽयं तं वियाणाहि ॥ २५ ॥ पंमुसुमा रज्जभट्ठाऽरको निगवा,अनया य राहराय निग्गो
अधिकमासह्यात्यर्थ सोढा, कानतिसह्य ?, नपसर्गान, किन्नूताभीमो,बेण य प्रयगरेण गसिओ, धम्मसुतो य अयगरं पत्तो,
न् ?, दिव्यान्मानुषाँम्तिरश्चांच, यः कर्माणि संसारतस्बीजानि, ततो सो प्रयगरो माया सीए चायाए तं धम्मसुयं सत्त पुगतो
विधूनयत्यपनयति, तद्भावधूतमित्येव जानीहि । क्रियाकारकपहा तेण य कहिया प्रो सत्त पच्तो । ततो भीमं णिम्गिल,
योरभेदाद्वा कर्मधूननं भावधूतं जानादीति भावार्थः ॥ आचा० तस्स य सावस्स अंतो जाओ। जातोपुणरवि राया, जइ पयं सच्च । १० २०१७॥ तो तुमंपि सब्नूतं गोहाभूय सभा गंतूम पुणवा जाया। तो यकिनेस-धु (धू) तक्लेश-त्रि० । विप्तसप्तलयलेशे,आतु। खमपाणा भण-एवं गते विमऊ पणामं करेछ । जाकहंचिन | धूता अपनीताः कोशाः कर्माणि येनासाविति । वीणाएकजिप्पह,तो काणा वि कवाडिया तुम्नं मुलं ण जवति। तेजणंति- | मणि, वृ० १००। को अम्हे सत्तो णिज्जिणिउं? तो साहसिकण भणति-तेसि-बातहरियाणं वत्थाणं गवेसणाय निग्गयाण पुच्छिऊण, अपंच
धुयचारि (ण)-धु (धू) तचारिन्-धुनातीति धुतं,संयमो मोको मम दासचेडा हा, तयं असे सामि, ताई गामणगराणि अ.
चा, तं चरतीति । संयमाऽऽदिचरणशीले, आचा० १ श्रु० २
अ० ३ ममाण) ई पत्ता । तं ते दासचेमा तुम्हे, ताणि वत्थाणि
०। इमाणि,जाणि, तुम्भं परिहि त्राणि । तं जा सच, तो देह बच्चा। धुयज्झयाण-धु(धू) ताध्ययन-न० । प्राचाराङ्गप्रथम श्रुतस्कअह अलिअं तो देहि भत्तं । * ग०५ अधि०। नि० चू। न्धस्यषष्ठेऽध्ययने, श्राचा० । धुत्तसंवलय-धूर्तशम्बनक-न० । पुरुषद्वासप्ततिकलाऽन्तर्गते
तस्योद्देशाधिकारं नियुक्तिकारो विमणिषुराहकत्राभेदे, कल्प० १ अधि०७ क्वण ।
पढमे नियगविहाणणा, कम्माणं वितिएँ तइयाम्मि । धुत्ति-धूर्ति-स्त्री० । जरायाम्,प्रा० म० १ १०२ खगम । प्रा। उबगरणसरीराणं, चउत्थए गारवतियस्म ।। २५० ॥ धुत्तिमा-धर्तिमा-पुं० । स्त्री० । धूर्तत्वे, "वेमाजल्याद्याः स्त्रिया
उवसग्गा सम्माणा, य विहुणया पंचमम्मि नद्देसे (२५५)
प्रथमोद्देशके निजकाः स्वजनास्तेषां विधूननेत्ययमर्थाधिकारः, म्" ॥ १ ३५ ॥ इति वा स्त्रीत्वम् । प्रा० १ पाद ।
द्वितीये कर्मणां तृतीये नपकरणशरीराणां, चतुर्थे गौरवत्रिकधुम्म-धूम्र-पुं० । धूमं तद्वर्ण राति। रा-का-पृषो । कपोतव.
स्थ, विधूननेति सर्वत्र सम्बन्धनीयम्। उपसर्गाः समाननानि च णे, स्था० १ ना० । सिहके, वाच।
यथा साधुभिर्विधूनानि तथा पञ्चमोद्देशके प्रतिपाद्यत इत्यर्थः। धुप-धु (धू)त-न० । त्यजने, स्था० ६ ०। संयमे, सूत्र० १ ० आचा० १ ० ६ अ. ९ २० । ७ अ० । धूयतेऽप्रकारं कर्म येन तद् धूनम् । संयमानष्टाने, ध्र- ध्यपान-धु (धू)तपाप-त्रि० । अपनीतपापे, “नमोत्थु धुयपा. ननाईत्वाद धूतम् । सूत्र० १ ध्रु० २०२० धूयते इति धू. वाणं।" आतु०। तम् । प्राम्बके कर्मणि, सूत्र०२ श्रु० २ अ० । ०। अएप्रकारके
धुयबहुस-धु (धू ) तबहुल-त्रि० । धूयते इति धूतं, प्राग् बर्फ कर्मणि,आचा०१ श्रु०६ अ०१ उ०। मोके सूत्र०१ श्रु०७ अ०।
कर्म, तत्प्रचुरे, सूत्र०२ श्रु० २१०। धृतं सानां त्यजनम, तत्प्रतिपादकमध्ययनं धृतम् । स्था. ग०। भाचाराप्रथमश्रुतस्कन्धस्य पष्टेऽध्ययने च । न०। आ.
धुयमोह-धु (५) तमोह-त्रि०ाधूतो मोहरागद्वेषरूपो येन सः।
सूत्र.१७०४ १०२ उ० । धूतो मोहोऽझानं येन सः । विकि* एतच्च निशीथपुस्तकादू लिखितमित्यग्रे लिखितमस्ति। | तमोहे, दश० १ अ० ।
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धुयरय
धुरय-धु (धू) तर जम्-त्रिण धूतमपनीतं रजः कर्म येन सधूतरजाः । सूत्र० १ श्रु०४ ० २ श्र० धूतं कम्पितं स्फोटितं रजो बध्यमानं कर्म येन स धूतरजाः । नं० : अपगतपापकर्मणि, वृ० ६ ० ।
(२७५०) अभिधानराजेन्ड
ध्रुवरागमग-पु (पू) तरागमार्ग पुं०
धूतोऽपनीतो रागमार्गो
रागपन्था यस्मिन् | अपनीतरागपथे, सूत्र ०१ ४०४ श्र० २३० । धूपवाच (धू तवादका कर्म घुमा त्यागो वातस्य वादो धूतवादः । कर्मपरित्यागकथने, आचा०| आयाण जो, सुस्सूस भो, घुयवायं पवेदस्सामि । इह खलु त्तत्ताए तेहिं तेहिं कुझेहिं अनिसेएणं अनिसंजूता, अनिजावा, अनिथिव्वट्टा, अभिसंवड़ा, अभिसंबुद्धा, अनिणिक्खता, अणुपुन्वणं महामुनी ॥ १७९ ॥ भोरिति मन्ये पसरावेदयामि भवतस्त आजानीहि अवधारय, शुश्रूषस्व श्रवणेच्छां विधेदि, भोरिति पुनरप्यामन्त्रणमगरीयापनाय वा भवता प्रमादो विधेयो भूतवाद कथयाम्यमनकारकर्मधून ज्ञातिपरित्यागो वा तस्य वादो धूतवादः तं प्रवेदयिष्यामि, श्रवहितेन च भवता भाव्यमिति । नागार्जुनीयास्तु पठन्ति - (धूतापकर्मोपार्य मधूननोपायें या प्रवेदयन्तीका को पाया शहास्मिन् संसारे, खयुर्वाक्यालङ्कारे । श्रात्मनो भाव श्रात्मराजीवकर्मभिभूतासं जातान पुनः पृथिव्यादितानां कायाकारपरिणामनया ईश्वरप्रजापतिनियोगेन वेति । तेषु तेषूच्चावचेषु कुलेषु यथास्वकमदयाssपादितेष्वनिषेकेण शुक्रशोणितनिषेकाऽऽदिक्रमेणेति । तथा क्रम सप्ताह
आयते पेश पेशीतोऽपि धनं वेत्" इत्र यावत्कललं तावदभिसंता पेशी यादजातयः साङ्गोपाङ्गनाशिरोरोमाऽऽदिक्रमाभिनिवेस मानिनिर्वृताः, ततः सृताः सन्तोनिसंवृद्धा धर्मश्रवणयोम्यावस्थायां वर्तमा नाधर्मनिमित्तमासाद्योपान्पुण्यपापयाम बुद्धाः, ततः सदसद्विवेकं जानाना श्रभिनिष्क्रान्ताः, ततोऽघताचाराऽऽदिशास्त्रास्तदर्थभावनोपबृंहितचरणपरिणामा श्रानुपूर्वेण शिक्षक-गीतार्थ-पक परिहार का हारि निकाय सामाि
अनि संबुद्धं च प्रव्रजिषुमुपलभ्य यन्निजाः कुर्युस्तद्दर्शयितुमाह
तं परिकर्मतं परिदेव माणा मा णे चयादि इति ते वयंति बंदोवणीया अोपपणा अकंदकारी जागा रुदंति
तारिसे मुली, ओहं तरए जएगा जेल विप्पजढा, सरणं तत्थ णो समेति, कहं णु णाय से तत्थ रमति १, एयं पाणं सया समवासिज्जासित्ति बेमि ॥ १८० ॥
तमवगत तत्वं गृहवासपराङ्मुखं महापुरुष सोवितं पन्थानं पराक्रममाणमुपलभ्य मातापितृपुत्रकलत्राऽऽदयः परिदेवमाना माउस्मान परित्यज इत्येतसे कृपामापादयो बदन्ति कि चाप तस्यान्देोपनीता इन्दोपनीता तवाभिप्रायाऽनुव
و
घुयवाय
सिंनः बिभ्युपपशा, सदेवतानस्मान्मास्थाइत्ये वमाक्रन्दकारिणो जनकाः मातापित्रादयो जना वा रुदन्ति । पदेयुरित्याह-नाश मुनिर्नयति, व चौथं संसारं तरति, येन पापण्डविप्रलब्धेन जनका मातापित्रादयोऽपोढाः त्यक्ता इति । स चावगतसंसारस्वभावो यत्करोतीति तदाइन सावनुरक्तमपि बन्धुवर्गे तत्र तस्मिन्नवसरे शरणं समेति, न तदज्युपगमं करोतीत्यर्थः । किमित्य लौ शरणं नैतीत्याकथं नु नामाऽसौ तत्र तस्मिन् गृहवासे सर्वनिकाराऽऽरूप दे नरकप्रतिनिधौ शुभद्वारपरिघे रमते ?, कथं गृहवासे - पाटा सन् रतिं कुर्यादिति उपसंहरनाह--पतलू पूर्वोक्तं ज्ञानं सदा आत्मनि सम्यगनुवासयेोः व्यवस्था'इति' अधिकारपरी घृताध्ययनस्य प्रथमोद्देशका परिसमाप्तः । उक्तः प्रथमोद्देशकः ।
साम्प्रतं द्वितीय श्ररज्यते । अस्य चायमभिसंबन्धः - शहानतरोदेश के मिजकविधूनना प्रतिपादिता सफलत स्वादिकर्मविपातः कर्मार्थमिदम्
मेग संवेगावातस्पास्वोदेशकस्याऽदिसूत्रम आरं यमायाए पहना पुण्यसंजोगं दिया उपस पसिना पंज पेरंसि पसु वा अणुपसु वा जाणिन्तु धम्मं अहा तहा अड़ेगे तमचाईति कुसीना ।। १८१ ॥
(इत्यादि) लोकं मातापितृपुत्रादिकं तमातुरं स्नेहा वियोगासन वा यदि वा जन्तु के कामरागाऽऽतुरम् श्रादाय ज्ञानेन परिगृहीत्वा परिच्छिद्य, त
स्वस्या पूर्वसंयोगं मातापित्रादिसंबन्धं तथा दि स्वोपशमम् | उनित्वाऽपि ब्रह्मचर्ये, किंभूतः सन्निति दर्शयतिबल्यं तद्भूतः कषायकालिकाssदिमवापगमाद् वीतराग स्यानुरागइत्यर्थः दि
33
धुः, श्रनुवसुः श्रावकः। तदुक्तम्- " वीतरागो बसुईयो, जिनो वा संयतोऽथवा । सरागो ह्यनुवस्सुः प्रोक्तः, स्थविरः श्रावकोऽपि वा ॥ १ ॥ तथा ज्ञात्वा धर्म श्रुतचारित्राऽऽरूयं यथा तथावस्थितं च प्रतिपद्यायचे मोहोदयात्तथाविधभवितव्यतानियोगेन से धर्म प्रति किया है. कु त्सितं शीलं येषां ते कुशीला इति । यत एव धर्मपालनाशक्ता अत एव कुशीलाः ॥ १०१ ॥
पर्वभूता सन्तः किं
द वयं परिगई कंवलं पानं विजा, अन्वेष अगाडिया सेमाणा परीसहे दुरहियासए कामे ममायमाणसइयाणि वा मुद्रण वा अपरिमाणाए ने दो, एवं मे अंतरा एहिं कामेहिं अ के लिएहिं अवितिष्ठा चेए । १८२ ॥
(यस्थं इत्यादि) केशिकोटमा मानुषं ज म समासापूर्वी संसारापोरव
णीमङ्गीकृत्य मोक्कतरुबीजं सर्वविरतिलकणं चरणं पुनर्दुर्भि वारतया मन्मथस्य, पारिप्लवत्तया मनसो, बोलुपतयेन्द्रि पद्मामस्यानेकमवाभ्यासाऽपादितविषयमधुरतया प्रयप्रमो हनीयोदयादशुन बेदनीयादयाssसन्न प्राडुजीवादयशः कीयुत्कटतया श्रविगणय्यमतिमविचार्य कार्याकार्यमुररीकृत्य महाव्यसनसागरं साम्प्रतेकितया अधः कृतकुल क्रमाss
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(२७६० )
अभिधान राजेन्द्रः ।
घुयत्राय
चारास्तस्यजेयुः । तस्थाय धर्मोपकरपरागत तादयति-दमित्यनेन कमिको गृहीता तथा प तमहः पात्रं, कम्बल मौर्णिकं कल्पं, पात्रनियोगं वा । पादप्रोष्नकं रजोहरणम् । पतानि निरपेक्षतया व्युत्सृज्य, कश्चिदेश विरतिमभ्युपगच्छति, कञ्चिद्दर्शनमेवाऽऽसम्बते, कश्चित्ततोऽपि यतिनादपरीबढ़ान् दुरधिसहनीयाननुक्रमेण परिपाट्या यौगपद्येन वो
समान परीष नमोऽपश्यतया पुरस्कृनतो मोकमार्गे परियन्ति गावापा दयाद्यत्स्यात्तदाह-- ( कामे इत्यादि) कामान् विरूपानपि (ममायमाणस्स चि ) स्वीकुर्वतो भोगाच्यवसायिनोऽन्तरायोदयादिदानीं तत्परित्यागानन्तरमेव भागासिमनन्तरमेवामुन वाकराकारामा तो शरीरभेदो भवत्यपरिमाणा एवंभूतात्मा साई विवक्तिशरीरमेदो भवति । येनानन्तेनापि कालेन पुनः पञ्चेन्द्रियत्वं नावाप्नोति । एतदेवोपसंजिहीर्षुराह एवं पूर्वकप्रकारे जोगमित्राची, भान्तरायिकैः का पार्न केवलं तंत्र मंत्रा अकेवलिकाः सद्वन्द्वाः सप्रतिपक्षा इति पूर्ण वाससहि सवायें तृतीया या समुचये । एत इति नोगाभिलापिया कामतृप्तः पय शरीरदस्तीति सत्यर्थः ॥ १५२ ॥ अपत्यास मोहस्य कथञ्चित् कुचिका प्यपरिणाम प्रतिक्षणं कर्मतथा प्रर्द्धमानाच्यवसा यिनो नवन्तीति दर्शयितुमाह
अहे धम्मादाय आदाणष्यमिति पचिदिए परे प्र पीयमाणे ददे ।। १०३ ॥
सम्म गिद्धिं परिधाय एस पणते महामुनी ॥ १०४ ॥ अइयच्च सव्त्रतो संगं ण महं अस्थि ति इवि एगो श्रहमसि जयमाणे एत्थ विरते, अणगारे, सब्बसो मुंगे रीयंते, जे प्रचेझे परिवसिए संचिद्वति प्रोमोयरियाए । १८५ ।। से श्राकुडे वा, हए वा, लुंचिते वा, पलियं पकँथे, 5वा कंथे, तहिं सहफासेहिं इति संखाए एगतरे - एतरे अभिपाय तितिक्खमाणे परिव्वए । जे य हिरी जे प अहिरीमाणे चिचा सविसोचियं फासे समयसऐ ।। १८६ ।।
( अहंगे इत्यादि) अथानन्तरमे के विरू
नापवर्गतया धर्मे श्रुतचारित्राऽऽख्यमादाय गृहीत्वा वस्त्रपतदूग्रहाधकरणसमन्विता धर्मकरप्रणताः परीषदस हिष्णवः सर्वशेोपदिष्टं धर्म चरेयुरिति । अत्र च पूर्वाणि प्रमादसूत्रा
प्रमादाभिप्रायेण पठितव्यानीति । उक्तं च- "यत्र प्रमादेन तिरोअप्रमादः स्याद्वाऽपि यत्नेन पुनः प्रमादः । विपर्ययेाऽपि पठन्ति सायकरवशा द्विधिज्ञा" किंभूताः चरेयु रिया- अपनी इत्यादि) कामेषु मातापित्रादि वा लोकेन प्रतीयमाना अप्रतीयमाना अनभिसक्ता धर्मचरणे दृढास्तपःमनमाना धर्म है। ि सद्धिपतयः परिज्ञाय प्र
धुयवाय
पिजे
गुणमाद (एसइत्यादि) ( एस इति ) कामपिपासापरित्यागी, प्रकर्षेण नतः प्रह्नः संयमे, कर्मधूननायां वा महामुनिर्भवति नापर इति १०४ ॥ किञ्च (अइयश्च इत्यादि) अतिगत्याऽतिक्रम्य सर्वतः सर्वैः प्रकारैः रुङ्गसंबन्धं पुत्रकलत्राऽऽदिजनितं कामानुषङ्गं वा, किं भावोदित्या इ - ( ण महं श्रत्थि इत्यादि) न मम किमप्यस्तीति यत्संसारे पतासम्बना स्वादिति मेोममिन् संसारो न चास्य कम्पनिद्भिावनाभावित यत् कुर्यातदाह (जयमाणे इत्यादि ) श्रवाऽस्मिन्मौनी प्रबचने विरतः सन् सावद्यानुष्ठानाद्दशविधचक्रवाल सामाचार्यो यतमानः कोऽसावनगारः प्रव्रजितः, एकत्व भावनां नावयन्नवमोद सहित इत्युत्तर संबन्ध इयमेवार सूत्रे इत्यादि) सर्वो यतो भावमुपमाः संमानुष्ठाने जून इत्यादि) योऽनेोपयेोजनाप युषितः संयमे उद्युक्तविहारी श्रन्तप्रान्तभोजी तदपि न प्रकाममियाद (संचि संतिष्ठते चयमम्यूनोदरतायां वर्त्तमानः सन् ॥ १८५ ॥ कदाचित्प्रत्यनीकतया ग्रामकटकै स्तुद्येतेत्येतद्दर्शयितुमाह-- ( से इत्यादि) स मुनिमिया इनवा केशपादनतः पूर्वकृतकर्मपादेयगच्छन्सम्यक् तितिक्कुमाराः परित्र जोदित्येतच्त्र भावयेत् । तद्यथा-" पात्राणं भीका कमाणं दुष्परि
ताणं वेइयत्ता मोक्खो णत्थि श्रवेयश्ता तवसा वा कोसता।" इत्यादि । कथं पुनर्वाभिराकुश्यत इत्याह- ( पत्रि इत्यादि) (पक्षिय ति) कर्म जुगुप्सितमनुष्ठानं, तेन पूर्वाssवरि रोम कुदिना गुप्ते यथा भोकोकि प्रव्रजत त्वमपि मया सार्द्धमेवं जल्पलीति ? अथवा -जकारचकारादिनिपरैः प्रकारे नियमाप्र कारस्तदादिद्भूतेः श और पारदारिक इत्येवमादिरूप
साध
मकररच्छेदनादिभिः स्वतफलमित् संख्याय झाला तितिक्कमाणः परिव्रजेदिति । यदि बैतत् संख्याय (अत्रस्यः पाठः परीस होपसर्गसहनविषयः 'परीसह' शब्द - परीपाकृतिकृया मिश
( एयरे इत्यादि ) एकतराननुकूलानन्यतरान् प्रतिकूलान् परीपामुदाय, सम्यक तितिक्षमाणः परिव्रजेदि ति । यदि वा अन्यथा परीषाणां द्वैविध्यमित्याह (जे इत्या दि) ये च पपहा सत्कारपुरस्काराऽऽद्रयः साधो हरिणो म नादकारियो मे तु प्रतिकृया द्वारिणो मनसोऽनिष्ठाः । यदि वा ही रूपा याचनाऽचे वाऽऽदय अही मन सञ्चालज्जाकारिणः शीतोष्णाऽऽदय इत्येतान् द्विरूपानपि परीषहान् सम्यक् तितिकमाणः परिव्रजेदिति । किञ्च (विश्वा इत्यादि ) त्यक्त्वा सव परीषद विधतत्रिका परीषादित प खानुभवान् स्पृशेदनुभवेत् सम्यगतिसहेत । स किंभूतः सम्य गितं गतं दर्शनं यस्य स समितदर्शनः, सम्पग्दष्टिरित्यर्थः ॥ १५६ ॥
.
तत्सहिष्णवश्व किंनूताः स्युरित्याह
एते भोगिणा बुत्ता, जे लोगंसि प्रणागमणधमिलो। १८७ |
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(२७६१) अभिधानराजेन्डः।
धुयवाय
धुयवाय
(पए भो इत्यादि) जोरित्यामन्त्रणे, एते परीषहसहिष्णवो ो मुक्तवन्मुक्तो विरतो व्याख्यातस्तं च तथाभूतं किमरतिर. निष्किञ्चना निर्ग्रन्था भावनग्नाः, उक्ता अजिहिताः। यस्मिन् मनु- भिभवेदुत न वेति अचिन्त्यसामर्थ्यात्कर्मणोऽभिभवेदित्येज्यलोके, अनागमनं धौं येषां ते अनागमनधर्माणः,यथाऽऽरो. तदेवाऽऽहपितप्रतिकाभारवाहित्वान्न पुनर्गृहं प्रत्यागमनेप्सब इति ॥१८॥
विरयं जिक् रीयंतं चिररावोसियं अरती तत्थ किं किञ्चप्राणाए मामगं धम्मं ............(?) एस उत्तरवादे इह
विधारए?, संधेमाणे समुट्ठिए, जहा से दीवे असंमाणवाणं वियाहिते ।। १८७ ॥
दीणे ॥ १६॥ (आणाप इत्यादि) आज्ञाप्यतेऽनयत्याझा, तया मामकं धर्म
(विरयं इत्यादि) विरतमसंयमाझिक्षणशीलं निचुरीयमा. सम्यगनुपालवेत्तीर्थक्कर एबमाहेति । यदि वा-धर्मानुष्ठाने 5- ण निश्चरन्तमप्रशस्तेज्योऽसंयमस्थानेज्यः प्रशस्तेष्वपि गुप्येवमाह-धर्म एवैको मामकोऽन्यत्त सर्व पारक्यमित्यतस्तम
णोत्कर्षापर्युपरि वर्तमानं चिररात्रं प्रभूतकालं संयमे उषि. हमाझ्या तीर्थकरोपदेशेन सम्यक करोमीति । किमित्याइया
तश्विररात्रोषितस्तमेवंगुणयुक्तमरतिः संयमोहिनता, तत्र त. धर्मोऽनुपाल्यत इत्यत आह-(पस इत्यादि) एषोऽनन्तरोक्त स्मिन् संयमे वर्तमानं किं धारयेत किं प्रतिस्खलेत किंशब्दः उत्तरवाद उत्कृष्टवाद इह मानवानां व्याख्यात इति ॥ १०८ ॥
प्रश्ने, किं तथाभूतमपि मोकप्रस्थितं प्रणाय्यविषयमरतिर्विधा
रयेत् । प्रोमित्युच्यते। तथाहि-दुर्बलान्यविनयवन्ति चेम्ब्यिाएत्थोवरए तं जोममासे आयाणिजं परिमाय परिया
एयचिन्त्या मोहशक्तिर्विचित्रा कर्मपरिणतिः किं न कुर्यादिति ।
सक्तं च-"कम्माणि गुण घणचि-कणा गरुभाइ बहरसाराई एणं विगिंच ॥ १०६ ।।
णाणढियं पि पुरिसं, पंथाओ उप्पहंतीणे 1१।" यदि बाकि क्षेपे (पत्थोवरप इत्यादि) अत्राऽस्मिन् कर्मधूननोपाये संयमे किं तथाल्तं विधारयेदरतिनैव विधारयेदित्यर्थः। तथा सौ उप सामीप्येन रत उपरतः, तदष्टप्रकारं कर्म शोषयन् कपयन् । कणे कणे विशुरुतरचरणपरिणामतया विष्कम्भितमोहनीयोधर्म चरेदिति । किञ्चापरं कुर्यादित्याह-(आयाणिज्जं इत्या- दयत्वाल्लघुकर्मा भवतीति कुतस्तमरतिर्विधारयेदित्याहदि) प्रादीयत इत्यादानीय कर्म, तत्परिझाय मलोत्तरप्रकृति- (संधेमाणे इत्यादि) कणे कणेऽव्यवच्छेदेनोत्तरोतरं संय
दतो हावा, पर्यायेण श्रामण्येन विवेचयति, कृपयतीत्यर्थः।। मस्थानकरामकं संदधानः स सम्यगुत्थितः समुत्थित उत्त. अत्र वा शेषकर्मधूननासमर्थ तपस्तद् बाह्यमधिकृत्य व्या- रोत्तरगुणस्थानकं वा संदधानो यथास्यातचारित्राभिमुखः ख्यातम् ॥ १८ ॥
समुत्थितोऽसावतस्तमरति कथं विधारयोदति । स चेवंतूतो न इहमेगेसिं एगचरिया होति । तात्थियरा इयरोहिं कुलेहिं
केवलमात्मनस्त्राता, परेषामप्यरतिबिधारकत्वात् प्राणायेत्येत. सुकेसणाए सव्वेसणाए सो मेहावी परिब्बए । सुम्नि
दर्शयितुमाह-(जहा से इत्यादि ) द्विर्गता प्रापोऽस्मिन्निति
द्वीपः, स व्यभावनेदाद् द्विधा, तत्र व्याद्वीप श्राश्वासद्वीपः, अदुवा दुन्जि । अदुवा तत्थ भेरवा पाणापाणे किलेसंति।।
भावास्यतेऽस्मिन्नित्याइवासः,स चासौ द्वीपश्चाऽऽश्वासद्वीपः। ते फासे पुट्ठो धीरो अहियासिज्जासि ति बेमि ।। १६० ।। यदिवा-भाश्वसनमाश्वासः,आश्वासाय द्वीप भाश्वासद्वीपस्तत्र (इहमेगेसिं इत्यादि) इहास्मिन् प्रवचने, एकेषां शिथिलकर्म
नदीसमुद्रबहुमध्यप्रदेशे भिन्नबोधिस्थाऽऽयस्तमवाप्याऽऽश्वसणामेकचर्या नवत्येकाकिविहारप्रतिमाऽन्युपगमो भवति ।।
त्यसावपि द्वेधा-संदीनोऽसंदीनश्चेति यो हि पक्षमासावुदकेन तत्र च नानारूपा अभिग्रहविशेषास्तपश्चरणविशेषाश्च भव-1
प्लाव्यते स संदीनो,विपरीतस्वसन्दीनःसिंहलद्वीपाऽऽदिः। य. म्तीत्यतस्तावत्प्रानतिकामधिकृत्याऽऽह-(तत्यियरा इत्यादि)।
था दिसांयात्रिकास्तं द्वीपमसन्दीनमुदन्वदादेरुत्तितीर्षवः समतस्मिन्नेकाकिविहारे, इतरे सामान्यसाधुभ्यो विशिएतरा इतरे.
वाप्याऽऽश्वसन्त्येवं तं भावसंधानायोत्थितं साधुमबाप्यापरे वन्तप्रान्तेषु कुलेषु शुषणया दशैषणादोषरहितेनाऽऽहाराऽऽ.
प्राणिनः समाश्वसन्ति । यदि वा-दीप इति प्रकाश द्वीपः,प्रकादिना, सर्वेषणयेति सर्वा पाऽऽहाराऽऽद्युद्गमोत्पादनासपणरूपा।
शाय दीपः प्रकाशदीपः, स चादित्यचन्द्रमपयादिरसन्दीनो. तया सुपरिविशुझेन विधिना संयमे परिवजन्ति । बहत्येऽप्येक
उपरस्तु विद्युल्काऽऽदिः संदीनः । याद वा प्रचुरेन्धनतया देशतामाह-(सो मेहावी इत्यादि) स मेधावी मर्यादाव्यय.
विवक्तिकालावस्थाय्यसन्दीनो,विपरीतस्तु संदीन इति । यथा स्थितः संयम परिव्रजेदिति । किव-(सुभि इत्यादि ) स
ह्यसौ स्फुटावेदनतो हेयोपादेयदानोपादानवता निमितभावमु. आहारस्तेवितरेषु कुलेषु सुरभिर्वा स्याद् । अथवा-दुर्गन्धः। न
पयाति, तथा क्वचित्समुकाऽऽद्यन्तत्तिनामाश्वासकारीच भतत्र रागद्वेषौ विध्यात् । किच-(अनुवा इत्यादि) अथवा त.
वत्येवं मानसन्धानायोत्थितः परीषदोपसर्गाकोन्यतयासत्रैकाकिविदारित्वे पितृवनप्रतिमाप्रतिपन्नस्य सतो भैरवा भया.
न्दीनः साधुर्विशिष्टोपदेशदानतोऽपरेषामुपकारायत्यपरे भाव. नका यातुधानाऽऽदिकृताः शब्दाः प्रापुर्मवेयुः। यदि धा-भैरवा द्वीपं भावदीपं वाऽन्यथा व्याचकते । तद्यथा-जायद्वीपः सम्यबीभत्साः प्राणाः प्राणिनो दीप्तजिहाऽऽदयोऽपरान् प्राणिनः क्ले- करवं, तच प्रतिपातिवादीपशमिकं, क्कायोपशमिकं च सन्दीनो शयन्स्युपतापयन्ति; त्वं तु पुनस्तैः स्पृष्टस्तान् स्पर्शान् फुःख. भावीपः, क्वायिकं स्वसंदीन इति । तं द्विविधमध्यपरतिसविशेषान् धीरोऽकोभ्यः सन्नतिसहस्व । इतिरधिकारपरिस- सारस्वारमाणिन पाश्चासन्ति, भावदीपस्तु सन्दीनः भूतमाप्ती, नवीमीति पूर्ववताध्ययनद्वितीयोद्देशकः परिसमाप्तः झानम्, प्रसन्दीनस्तु केवलमिति, तच्चावाप्य प्राणिनोऽवश्य. ॥१६०॥ नक्को द्वितीयोद्देशकः । श्राचा०१ श्रु०६१०२ उ०।। माश्वासन्त्यति । अथवा-धर्म संदधानः समुत्थितः सतदव ससाराणि विश्लेषयित्वा यः संसारसागरं तीर्णवत्ती. भरतेर्दप्रधृष्यो भवतीत्युक्ते कश्चिषादयेत्-किनूता उसा धमा
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(२७६२) अभिधानराजेन्द्रः ।
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यसन्धानाय समुत्थित तित्रोच्यते-यथाऽसौ द्वीपोऽस. भ्रातेति।श्तरो देवतयाऽऽगत्य वन्दितः। शिक्षकस्तु न वन्दितः। दीनः सलिलप्सुतो वरुगूबदनानामितरेषां च बहूनां जन्तूनां ततोऽसावपरिकम्मितमतित्वात् कुपितः। अधिधिरिति कृत्वा शरण्यतयाऽऽश्वासहेतुर्भवति ॥ १६६ ॥
देवताऽपि तस्योपरि कुपिता सतीतलप्रहारेणाक्किगोनकी बहिएवं से धम्मे प्रारियपदेसिए ॥ १७॥
निश्चिक्षेप । ततस्तदुज्यायान् हृदयेनैव देवातामाह-किमित्यय
मन्यस्त्वया कदर्थितः,तदस्याकिणी पुनर्नवी कुरु । सा त्ववापषमसावपि धर्म प्रार्यप्रदेशितस्तीर्थङ्करप्रणीतः कषतापच्चे
दीजीवप्रदेशर्मुक्ताविमौ गोल कौ, न शक्यौ पुनर्नवीकर्तुम् । दनैपिटतोऽसन्दीनः, यदि बा कुतर्काप्रधृष्यतया संदीनोऽक्षो.
इत्युत्वा ऋषियन नमबनीयमित्यवधार्य तत्कणश्च पाकव्याज्याप्राणिनां त्राणायाऽऽइवासभूमिवति,तस्थ वाऽऽर्यदेशितस्य
पादितक्षाक्तिगोलको गृहीत्वा तदक्षिणी चकारेति । एवं सदुपदेधर्मस्य किं सम्यगनुष्ठायिनः केचन सन्ति । ओमित्युच्यते ।१६७।
शप्रवर्तन सापायमित्यवधार्थ शिष्येण सदाऽऽचार्योपदेशवत्तिना यदि सन्ति, किंभूतास्त इत्यत आह
भाव्यम, प्राचार्येणाऽपि सदा स्वपरोपकारवृत्तिना सम्यक् स्वते अणवखमाणा पाणे अणतिवातमाणा दतिया मे
शिष्या यथोक्तविधिना प्रतिपालनीया इति स्थितमिति ॥१७॥ हाविणो पंमिया ॥ १ए ॥ एवं तसिं जगवो अणु- तदेवोपसंहरन्नाह-( एवं इत्यादि ) यथा द्विजपोतो मातुषिचाणे जहा से दियपोए । एवं ते सिस्सा दिया य राम्रो तुज्यामनुपाल्यते, यवमाचार्येणापि शिष्या अहर्निशमनुपूर्वेण
क्रमेण चाचिताः पारिताः, शिकां ग्राहिताः, समस्तकार्यसय अणुएवोणं वाय त्ति बेमि ॥ १७ ॥
हिष्णयः संसारोत्तरणसमर्थाश्च भवन्तीति । इतिरधिकारप(ते इत्यादि) ते साधवो भावसंधानोद्यताः संयमारते: प्र
रिसमाप्तौ, ब्रवीमीति पूर्ववत् । श्राचा । गोदका मोक्षनेदिष्ठानोगाननवकाशन्तो धर्म सम्यगुत्थानवन्तः साम्प्रतं चतुर्थ श्रारभ्यते । अस्य कायमभिसंबन्धः-इहानन्तम्युरित्येतदुत्तरत्रापि योज्यम् । तथा प्राणिनोऽनतिवातयन्त उप- रोद्देशके शरीरोपकरणधूननाऽनिहिता, सा च परिपूर्णा,न गौर. लकणार्थत्वाच्छवमहावतग्रहणमायोज्यम्। तथा कुशवानुष्ठानप्र. पत्रिकसमन्वितस्यत्यतस्तं धूननार्थमिदमुपक्रम्यत इत्यनेन वृत्तस्वाहयिताः सर्वलोकानाम् । तथा मेधाविनो मर्यादाव्यवस्थित संबन्धेनाऽऽयातस्यास्योद्देशकस्यास्खलिताऽऽदिगुणोपेतं सूत्र. ताः, पण्डिताः पापोपादानपरिहारतया सम्यक पदार्थज्ञा ध- मुच्चारणीयम् । तच्चेदम्मंचरणाय समुत्थिता भवन्तीति ॥ १० ॥ ये पुनस्तथानून- एवं ते सिस्सा दिया य राम्रो य अणवेणं वाइया कानाभावात्सम्यग् विवेकविकलतया नाद्यापि पूर्वोक्तसमुत्था. नवन्तः स्युस्ते तथानता आचार्याऽऽदिभिः सम्यगनुपास्य याव
तेहिं महावीरेहि पएणाणमंतेहिं, तेसंतिए पप्माण मुबलब्न विकिनोऽनुवन्नित्येतदर्शयितुमाह-(एवं इत्यादि) एवमु
हेचा नवसमं फारुसियं समादियंति ॥ १०० ॥ बसित्ता तविधिना तेषामपरिकर्मितमतीनां जगवतो वीरवमानस्था- बंभचेरंसि आणं तं णो त्ति मम्ममाणा ॥ १०१॥ मिनो धर्म सम्यगनुत्थाने सति तत्परिपालनतस्तथा सदुपदे. (एवं ते सिस्सा इत्यादि ) एवमिति द्विजपोतसंवहनकशदानेन परिमितमतित्वं विधेयमिति । अत्रैव दृष्टान्तमाद-(ज- मेणैव, ते शिप्याः स्वहस्तप्रवाजिता उपसंपदागताः प्रातीच्चका. हा से इत्यादि) द्विजः पक्षी,तस्य पोतः शिशुद्धिजपोतः,स यथा श्व, दिवाच रात्री चानुपूर्वेण क्रमेण वाचिताः पाठितास्नत्रका. तेन द्विजेन गर्भप्रसवात्प्रभृत्यण्डकोच्चूनाच्यूनतरभेदाऽऽदिका. लिकमह्नः प्रथमचतुर्थपौरुष्योरवाप्यते,उत्कालिकं तु कालवेला. स्ववस्थासु यावन्निष्पन्नपक्कस्तावपाल्यते, एवमाचार्येणापि शि- वर्ज सकलमप्यहोरात्रमिति । तथाऽध्यापनाऽऽचाराऽऽदिकमेण व्यकः प्रव्रज्यादानादारभ्य सामाचार्युपदेशदानेनाध्यापनेन क्रियते । श्राचारश्च त्रिवर्षपर्यायोऽध्याप्यत इत्यादि क्रमेणाभ्या. तावदनुपाल्यते यावशीतार्थो ऽनृत् । यः पुनराचार्योपदेशमति- पिताः शिष्याश्चारित्रं ग्राहिताः,तद्यथा-युगमात्रदृष्टिना गन्तव्यम सध्य स्वैरित्वाद्यथाकथश्चिक्रियामनुप्रवत स उज्जयिनी- कूर्मवत्संकुचितानेन नाव्यमित्यादि । एवं शिक्षा ग्राहिता बाचिता राजपुत्रवद्विनश्येदिति । तद्यथा-उज्जयिन्यां जितशत्रो राको अध्यापिताः। कैरिति दर्शयति-तैर्महावीरैस्तीर्थकरगणधराद्वौ पुत्रौ, तत्र ज्येष्ठो धर्मघोषाऽऽचार्यसमीपे संसारासारताम- चार्याऽऽदिनिः। किम्भूतैः?,प्रज्ञावञ्जिानिभिरेवोपदेशाऽऽदि दत्तं वगम्य प्रथवाज, क्रमेण चाधीताऽऽचाराऽऽदिशास्त्रोऽवगततद- लगतीत्यतो विशेषणम्, ते तु शिष्या द्विप्रकारा अपि प्रेक्कापूर्व यश्च जिनकल्पं प्रतिपत्सुर्द्वितीयां सवभावनां भावयति ।सा च कारिणस्तेषामाचार्याऽऽदीनामन्तिके समीपे, प्रकर्षेण शायतेऽने. पश्चधा-तत्र प्रथमोपाश्रये,द्वितीया तदबहिः तृतीया चतुपके-चतु
नेति प्रज्ञानं श्रुतज्ञानं, तस्यैवापरस्मादवाप्तिसद्भावादित्यतस्तदुधों शून्यगृहे, पञ्चमी इमशाने । तत्र पञ्ची भावना जावयतः पलज्य लब्धबहुश्रुतीभूताः प्रयलमोहोदयापनी तसदुपदेशोत्क. स कनिष्ठो भ्राता तदनुरागादाचार्यान्तिकमागत्योबाच-मम ज्या- टमदत्वात्। त्यक्तोपशमम् । स च द्वेधा-व्यभावभेदात् । तत्र - यान भ्राता काऽऽस्ते?। साधुन्जिरभाणि कितेन ?: स ाह-प्रत्र- व्योपशमः कतकफाज्यापादितः कलुषजनादोभावोपशमस्तु जाम्यहम। प्राचार्येणोक्तो-गृहाण ताबत पुनद्रक्ष्यसिस तु तथै- झानाऽऽदित्रयात् । तत्र यो येन ज्ञानेनोपशाम्यति सज्ञानोपशमध चके। पुनरप्यपृच्छत् । भाचार्या ऊचुः-किं तेन दृऐन?, नासौ स्तद्यथा-प्रापण्याद्यन्यतरया धर्मकथया कश्चिदुपशाम्यतीत्या. कस्य चिमुनापमपि ददाति जिनकल्प प्रतिपत्तुकाम इति ।
दि। दर्शनोपशभस्तु-यो हि शुद्धेन सम्यग्दर्शनेनापरमुपशमयति, असावाद-तथापि पश्यामि तावदिति निर्बन्धे दर्शितस्तूष्णीं यथा थेगिनाथहधानी देवः प्रतिबोधित इति,दर्शनप्रजावकैनावस्थित पव वन्दिता, तदनुरागाच्च निषिद्धोऽप्याचायण वा संमत्यादिन्निः कश्चिदुपशाम्यति । चारित्रापशमस्तु-क्रोधानिवार्यमाणोऽप्युपाध्यायेन ध्रियमाणोऽपि साधुभिरसाम्प्रतमे- ऽऽद्युपशमो विनयनमूनेति । तत्र केचन क्षुद्रका ज्ञानोदन्वतोऽद्या. तद्भवतो पुष्कर पुरध्ययसेयमित्येवं कथ्यमानेऽप्यहमपि ते
यवसयामत्यव कथ्यमानेऽप्यहमपि ते- प्युपर्येव प्लवमानास्तमेवंभूतमुपशमं त्यक्त्वा ज्ञान प्रयोत्तमिजतनेव पित्रा जात इत्यवष्टम्न मोहात्तथैव तस्थौ, यथा ज्येष्ठ- गर्वाऽऽध्माताः पारुष्पं परुषतां समाददति गृहन्ति । तद्यथा
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(२७६३) धुयवाय अन्निधानराजेन्द्रः।
घुयवाय परस्परगुणनिकायां, मीमांसायां वा । एकोऽपरमाह-त्वं न जा- | स्तारं होलयन्ति परुषं वदन्ति । यदि बा-शास्ता तीर्थकताऽऽ. नीचे,न चेषां शब्दानामयमर्थो यो भवताभाणि । अपि च कश्चि- दिस्तमपि परुष वदन्ति । तथाहि-क्वचित स्वलितंचोदिता ज. देव मादृशः शब्दार्थनिर्णयायानं न सर्व इत्युक्ते च पृष्टा गुरवः गपुः-किमन्यदधिक तीवदयत्यस्मझलकर्तनादपीति। त्यास्वयमपि परीक्षितं निश्चितं पुनरिदं न वा बादिनि च मखमुण्ये दिभिरपाचीनरालापरस्त्रीकविद्यामदावलेपाच्चासकृतामपि दू. च मागेवान्तरं गच्छेत् । द्वितीयस्वाह-नन्यस्मदाचार्या एबमा- | पणानि वदेयुः ॥ १०॥ शापयत्युिक्त पुनराह-सोऽपि वाक्कुगगे बुकिविकलःकि जा- न केवलं शास्तारं परुषं बदन्त्यपरानपि साधूनपरदेयुरित्ये. नीते,त्वमपि च शुकवत्पारितो निरूहापोह इत्यादीन्यन्यान्यपि,
| तदाहहीत कतिचिदकरो महोपशमकारणं ज्ञानं विपरीततामा
सीलमंता उवसंता (संखाए) रीयमाणा असीला भणुपादयन् स्वाद्धत्यमाविभावयन भाषते । उक्तं च" अन्ये स्वेच्छारचिता-नर्थविशेषान् श्रमेण विज्ञाय । वयमापस्स वितिया मंदस्स बासया ।। १०३ ॥ कृत्स्नं वाङमयमित इति, खादन्त्यङ्गानि दर्पण ॥१॥
( सीलमंता इत्यादि ) शीझमष्टादशशीलासहनसंख्या कीडनकमीश्वराणां, कुक्कुटलावकसमानवानभ्यः ।
म् । यदि वा-महावतसमाधानं, पञ्चेन्धियजयः, कषाशाखापयपि हास्यकथां, लघुतां वा क्षुल्लको नयति ॥२॥" | यनिग्रहनिगुप्तिगुप्तता चेत्येताक्रीलं विद्यते येषां ते शीखइत्यादि । पावान्तर वा-"हेचा उवसम अहेगे फारुसियं समा- वन्तः । तथोपशान्ताः कषायोपशान्ताः कषायोपशमात् । अत्र रुति।"त्यक्तोपशमम्,अथानन्तरं बहुश्रुतीनता एके,नस,परु. शीनवग्रहणेनैव गतार्थत्वादुपशान्ता इत्येतद्विशेषणं क. षतामालम्बते,ततश्चानपिना शन्दिता वा तृष्णी भावं भजन्ते.. पायनिग्रहप्राधान्यख्यापनार्थम् । सम्यक स्याप्यते प्रकाश्यतेऽ. ङ्कारशिर:कम्पनाऽऽदिना वा प्रतिवचनं ददति । किश्च (वसित्ता नयेति संख्या प्रक्षा, तया रीयमाणाः संयमानुष्ठाने पराक्रइत्यादि ) एके पुनव्रह्मचर्य संयमः,तत्रोषित्वा,प्राचारो वा ब्रह्म- ममाणाः सन्तः कस्यचिद्विश्रान्तनागधेयतयाऽशीला पत इत्ये. चर्य, तदर्थोऽपि ब्रह्मचर्यमेव, तत्रोषित्वा प्राचारार्धानुष्ठायिनो- वमनुवदतोऽनु पश्चादतः पृष्ठतोऽपृष्ठतोऽपवदतोऽन्येन वा मिऽपि तद्भसितास्तामाझा तीर्थकरोपदेशरूपां नो मन्यमा- ध्यादृष्ट्यादिना कुशीबा इत्येवमुक्तेऽनुवदतः पावस्थाऽऽदेद्वितीनाः, नोशब्दो देशप्रतिषेधे, देशतस्तीर्थकरोपदेशं न बहु म- यैषा मन्दस्यान्यस्य बालता मूर्खता, एकं तावत् स्वतश्चारिन्यमानाः सातगौरवबाहुल्याच्चरीरवाकुशिकतामालम्बन्ते । बापगमः,पुनरपरानुयुक्तविहारिणोऽपवदत इत्येषा कितीया या. यदि वा-अपवादमालम्ब्य प्रवर्तमाना उत्सर्गचोदनाचोदिताः लता । यदि वा-शीलवन्त पते उपशान्ता वेत्येवमन्येनानिदिसन्तो नैषा तीर्थंकराऽऽस्येवं मन्यन्ते। दर्शयन्ति चाऽपवादपदा. ते, केषां प्रचुरोपकरणानां शीलवत्तोपशान्तता वा इत्येषमनुनि-" कुजा भिक्खू गिलाणस्त, अगिलाए समादियं ।" इत्या- वदतो हीनाऽऽचारस्य द्वितीया बालता भवतीति ॥ १०३ ॥ दि । ततश्च यो येन ग्लायति तस्य तदपनयनार्थमाधाकर्माऽऽद्य. अपरे च वीर्यान्तरायोदयात् स्वतोऽवसीदन्तो पामरसाधु. पि कार्य स्यादतरिक तेषां नाख्याताः कुशीलानां प्रत्यपाया, प्रशंसाऽन्विता यथाऽवस्थितमाचारगोचरमावेदयेयुयधा-पाशातनाबहुलानां दीर्घः संसार इति ॥ १.१॥
रित्येतद्दर्शयितुमाहतदुच्यते
णियमाणा वेगे आयारगोयरमाइक्खंति ॥१०॥णाअग्या(क्खा)यं तु सोचा णिसम्म समणुम्मा जीविस्सामो,
णभट्ठा सणखूसिणो णममाणा एगे जीवितं विप्परिणाएगेणिक्खम्म ते असंजवं ता वि मज्माणा कामेहिं गिधा मंति ॥ १०५॥ पुट्ठा बेगे लियटुंति जीवियस्सेव कारणा अज्कोववणा समाहिमाघायमजुसंता सत्यारमेव फरुसं णिक्खतं पि तेसिं पुलिखतं भवति ॥ १०६ ॥ वदति ॥ १०॥
(णियमाणा इत्यादि ) एके कर्मोदयात्संयमान्निवत्त(अग्घा ति) तुरवधारणे । आख्यातमेवैतत् कुशीलविपाका-| माना लिलावा, वाशब्दादनिवत्तमाना वा यथावस्थितमादिकं श्रुत्वा निशम्याक्युट्य चाऽऽशास्तारमेव परुषं बदन्तीति | चारगोचरमाचक्कते-वयं तु कर्तुमसहिष्णव आचारस्त्वेवसम्बन्धः। किमर्थं तदि गवन्तीति चेसदाह-" समरगुणा" | नूतमित्येषां द्वितीया बालता न भवत्येव, न पुनर्वदन्त्येवम्भू. इत्यादि । समनोज्ञाः लोकसम्मताः, जीविष्याम इति कृराप्र. त एवाऽऽचारो योऽस्माभिरनुष्ठीयते, साम्प्रतं :पमाऽनुभावेन इनव्याकरणाथै शब्दशास्त्राण्यधीयते । यदि वा-अनेनोपायेन बलाऽऽद्यपगमान्मध्यनूतव वतिनी श्रेयसी,नोत्सगांवसर इति । सोकसम्मता जीयिष्याम इति कृत्वके निष्क्रम्याऽथ या समनो.
उक्त हिशा उद्युतविहारिणः सन्तो जीविष्यामः संयमजीवितेनत्य नि. __ "नात्यायतं न शिथिलं, यथा युजीत सारथिः। क्रम्य पुनर्मोहोदयादसम्जवन्तस्ते गौरवत्रिकान्यतरदोषा ज्ञा- यथा भऊं वहन्त्यश्वाः, योगः सर्वत्र पूजितः ॥२॥" नाऽऽदिके मोकमार्गे न सम्यग्जवन्तो नोपदेशे वर्तमाना वि.
श्रपिचविधं दह्यमानकामैका गौरवत्रिकेऽध्युपपन्ना विषयेषु समा- "जो जत्थ हो भग्गो, नवसासं सो परं अविदंतो। धिमिडियप्रणिधानमाख्यातं तीर्थकृतादिभिर्यमाबेदितं तमजु
गंतुं तस्य वयंतो, इमं पहाणं ति घोसे" ॥१॥श्त्यादि । पन्तः सेवमाना दुर्विदग्धा आचार्याऽऽदिना शास्त्राभिप्रायेण चो. ॥१०॥ किम्तृताः पुनरेतदेव समर्थथेयुरित्याह (णाणभट्ठा) द्यमाना अपि तच्चस्तारमेव परुप बदन्ति-नास्मिन् विषये सदसद्विवेको शानं, तस्माद भ्रष्टाः। तथा-(दसणखूसिणो ति) भवान् किञ्चन जानाति, यथाऽहं सूत्रार्थ शब्दं गणितं नि- सम्यग्दर्शनविध्वंसिनोऽसदनुष्ठानेन स्वतो बिना अपरानपि मित्तं वा जाने तथा कोन्यो जानीते,इत्येवमाचार्यादिकं शा-। शङ्कोत्पादनेन सन्मार्गादच्यावयन्ति । अपरे पुनर्बाह्यक्रियोपेता
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धुवाय
अध्यात्मानं नाशयन्तीत्याह-- (ममाणा इत्यादि) नमन्तोऽप्या. तानाचे नादिनायविनयानावारकमदान सर्वे संयमजीवितं विपरिणामपत्यपनयन्ति स चरितादात्मानं ध्वंसयन्तीत्यर्थः ।। १०५ ।। किं चापरमित्याह(पुा वेगे इत्यादि ) एके अपरिमित प्रति स्पृष्टः परीषदेत किमर्थम जीवितस्यैवासंयमाऽऽख्यस्य, कारणान्निमित्तात् सुखेन वयं जीविष्याम इति सावधानुष्ठानतया संयमान्निवर्त्तन्ते । तथाभूतानां च यत्स्यासदाह - ( क्विंतं पि इत्यादि) तेषां गृ· पाशाशिकान्तमपि ज्ञानदर्शन या त्रिमूलोत्तर गुणान्यतरो पघातानिष्क्रान्तं निष्क्रान्तं भवति ॥ १०६ ॥
(२७९४) अभिधानराजेन्द्रः ।
तकर्माणां च यत्स्यातदाद
बालवयधिज्जा हु ते खरा, पुथो पुणो जातिं पगति, अड़े संभयंता विदायमाणा अमस्सि वि
दासी फरुसं वदंति पलियं पगंधे, 5वा पगंथे अतहेहिं तं मेदाची जाणिजा धम्मं ।। १०७ ।।
(बाल इत्यादि) दुर्दैती यस्यादसम्यगनुष्ठानादुर्निष्कान्सा स्तस्माद् बालानां प्राकृतपुरुषाणामपि वचनीया गह्य बालबच गया। ( से जरा इति) किच- (पुणो पुरा इत्यादि) पौन पुण्येनारदीयन्त्रन्यायेन जातिस्टपतिस्तां कल्पयन्ति कि म्भूतास्त इत्याह-- ( अहे इत्यादि ) अधः संगमस्थानेषु स म्भवन्तो वर्तमाना विद्यया वाऽधो वर्तमानाः सन्तो विषांसोचयमित्येवं मन्यमाना लघुउत्कर्षयेयुः पश्चि जानानोऽपि मानवासासागौरव बहुखोऽहमेवाथ बहुश्रुतो यदाचार्यो जानाति त न्मयाऽहपेनैव कालेनाधीतमित्येवमात्मानं व्युत्कर्षयेदिति । नात्मा वापरामध्यदेरबाद- उदासीने इत्या दि) उदासीना रागद्वेषरहिता मध्यस्था बहुत्वेत्युप शान्ताः, तानू स्खलितान् चौदनोद्यतान् परुषं वदन्ति । तद्यथास्वयमेव तावत्कृत्य मकृत्यं वा जानीहि ततोऽन्येषामुपदेश्यसीति। यथा च परुषं वन्ति तथा सूव दशयितुमाह-पक्षि इत्यादि ) (पलियं ति) अनुष्ठानं तेन पूर्वाऽऽचरितमानुष्ठानेन तृऽऽहाऽऽदिना प्रकथयेदेवम्भूतस्त्वमिति । श्रन्यथा वा कुएटभण्टाऽऽदिभिर्गुणैर्मुखविकाराऽऽदिभिर्वा प्रकथयेदिति । कितैरतथ्यैरविद्यमानैरित्युपसंहृन्नाह - (तं इत्यादि) तद्वाच्यमवायरिमेादाय पस्थितो जानीवारसम्यक परिच्छिन्द्यादिति ॥ १०७ ॥ सोऽभ्यवादप्रवृत्तो बालो गुर्वादिना यथाऽनुशास्यते, तथा दर्शयितुमाह
"
हम्मट्टी तुमं सि णाम वाले, आरंजडी, अणुवयमाणे इमाणे घायमाणे, दणओ यात्रि समणुजाणमाणे, घोरे घम्मे उदीरिए उde, णं णाणाए एस विसो वितदेविपादिति बेमि ॥ १०० ।।
( अहम्मट्टी इत्यादि ) अर्थोऽस्यास्तीत्यर्थी, अधर्मेणार्थी, यतो नाम मेनुशास्यते कुतोमांच यतो बा लाशा, कुतो बासो यत आरम्भार्थी सावधाऽऽरम्भप्रवृत्तः,
धुयत्राय
कुत आरम्नार्थी, यतः प्राण्युपमर्दवादाननुवद शेतदू बूषे । तद्य था दिनपरेरेवं पातयन् प्रसिमाना गौरवत्रिकाका पचनपाचनाऽऽदिकिपी रात्मानको दोषो नपा अतो धर्म्माssधारं शरीरं बनतः पालनीयमिति । उक्तं च- "शे. शरीरं धर्मसंयुक्तं, रक्षणीयं प्रयत्नतः । शरीराच्छूते धर्मो, यथा बीजात्सदः ॥ १ ॥ " इति । किञ्चैवं ब्रवीषि त्वं, तद्यथाघोरो भयानको धर्मः सर्वाऽऽव निरोधाद् रनुचर उत्प्राबल्येमेरितः कथितः प्रतिपादितस्तीर्थकर गणधर दिन व्यवसायी भवान्तरमनुष्ठानत उपेक्षते उपेक्कां विधते, णमिति वाक्यालङ्कारेगामापा तीर्थकरणचरानुपदेशेन स्वेच्छया प्रवृत्त इति क एवम्भूत इति दर्शयति-यथ इत्यनन्तरोको उच कर्नार्थी बाल श्रारम्नार्थी प्राणिनां हन्ता घातयिता नतोऽनुमन्ता धर्मोपेक्षक इति विषयः कामभोगेषु विि
तद हिंसकः, 'ई' हिंसायामित्यस्मात्कर्तरि पचाऽऽद्यत् । संय मे या प्रतिकृति इत्येवमेव्याण्यात इस्थतोऽहं त्रवीमि त्वं मेधावी धर्म जानीया इति ॥ १०८ ॥
पतश्च वक्ष्यमाणमहं ब्रवीमोत्यत आहकिमणेन जो जण करिस्मापि चि मद्यमाणा एवं एगे विदित्ता, मातरं पितरं हिच्चा णाइयो य परिग्गदं वीरायमाणे समुद्वाय अविहिंसा सुब्वया दंता पास दीखे उप परिमाणे ॥। १०७ ।। बसट्टा कायरा य जा लूसगा जयंति ।। ११० ॥ अहमेगोस सिझोए पावर भवति से समणविक्ते समतेि ।। १११ ॥
(किम इत्यादि) केचन विदितवेद्या धीरायमलाः स गुत्थानेनात्थाय पुनः प्रायुषमईका भवन्तीति कयमुख्याय किमहमनेन, नोरियामन्त्रणे जनेन मातापितृपुत्रफला 55दिना स्वार्थपरेण परमार्थतोऽनर्थरूपेण करिष्यामीति, न ममायं कस्यचिदपि कार्यस्य रोगापनयनाऽऽदेरल मित्यनेन किमहं क रिष्ये। यदि हितः किमनया सिकताकवलसन्निजया प्रव्रज्यया करिष्यति भवान् श्रदृष्टवशाऽध्यातं तावद्भोजनाऽऽदिकं भुङ्क्ष्वेत्यभिहितो निरागतामापन्नो ब्रवीतिकिमहमवेन भोजनादिमा करिष्येतुकं मयानेकशः संखा पता, तथापि निस्किमा जन्मि व्यतीत्येवं मन्यमाना एके विदितसंसारस्वभावा विदित्वाऽप्येवं ततो मातरं जननीं पितरं जनयितारं हित्वा त्यक्त्वा, ज्ञातयः पूर्वापरसंबन्धिनः स्वजना वा परिगृह्यत इति परिप्र हो धनधान्यहिरण्यद्विपदचतुष्पदाऽऽदिस्तं किम्भूताः ?, धीर मिवात्मानमाचरन्तो धीरायमाणाः सम्यक संयमनुष्ठानो स्थाय समस्याय विविधेन विधाने श्रविहिंसाः, तथा शोभनं व्रतं येषां ते सुव्रताः, दान्ता द्वियदमनाद्दान्ता इत्येवं समुत्थाय । नागार्जुनीयास्तु पति" समणा भविस्लामो अणगारा अकिंचणा अपुता अपसू
,
"
सगा सुब्वया देता परदत्तभोइणो पावं कम्मं ण करेसामो समुहार । सुगमत्वान्न वित्रियत इति । एवं समुत्थाय पूर्व पश्रपश्य नित्रालय दीनान् शृगालत्वविहारिणो व्रतं जिघृकून पूर्वमुत्पतितान संयमारोह वात्पश्चात्
इति । १०६ किमिति नाभवन्तीति दर्शयितवश य
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(२७६५) घुयवाय अन्निधानराजेन्द्रः।
धुयवाय विषयकषायाणां तत प्रार्ता वशाऽऽर्ताः, तथान्तानां च कर्मा- स परिमतो मेधावी निष्ठिताथों धीरः सदा सर्वप्रणीतोनुषः । तदुक्तम्-"सोइंदियबसनंते ! कति कम्मपगमीयो पदेशानुबिधायी गौरवत्रिकाप्रतिबद्धो निर्ममो निष्किञ्चनो बध?। गोत्रमा! पाउवज्जाबो सच कम्मपगडीयो० माब अ- निराशि एकाकिबिहारितया प्रामानुग्रामं रीयमाणः कुरुतिएपरिया । कोहवसहेरा भंते ! जीवे कि एवं ते बेवा" एवं यमरामरकृतापसर्गपरीषडाऽऽपादितान दुःस्वस्पर्शानिर्जरार्थी मानाऽऽदिवपीति । तथा कातराः परीषदोषसोंपनिपाते सति सम्यगधिसदेत । व पुनर्व्यवखितस्य के परीक्होपसगी अनि. विषयलोलुपा बा कातरा के ते!,जनाः,कि कुर्नम्ति ,ते प्रतिज- पतेबुरिति दर्शवति-माहाराऽऽद्यर्थ प्रविष्स्य गृहेषुबा, उचनीग्नाः सन्तो सुषका भवन्ति-को अष्टादशशीमासहस्राणि चमध्यमावस्वासंसूचकंबहुवचनम्। तथा गृहान्तरेषु.प्रमन्ति बु. धारयिष्यतीत्येवमत्रिसंधाय न्यसिकं, नावलि वा प- दूवादीन् गुणानिति प्रामाः, तेषु बा, सहस्तराओषुपा । नेतेषु करित्यज्य प्राणिनां विराधका भवन्ति ।। ११. ॥ तेषां रोऽस्तीति नकराणि, तेपुबा, तदन्तरासेषुबा । जनानां लोकाच पश्चात्कृतनिङ्गानां यत्स्वात्तदाह-(अहमगेसिं इस्मा- नां पदान्यवस्थानानि येषु ते अनपदा बबन्यादयः माधुबिहदि) अथाऽनन्तर्य, एकेषां जनप्रतिज्ञानां सुप्रवजितानां रणयोग्या अपमिंशतिः,तेषु बा, तदन्तराखेषु पा, प्रामनगरातत्समनन्तरमेवान्तर्मुहूतन वा पञ्चत्वाऽऽपत्तिः स्यात्, एकषां स्तरे वा, ग्रामजनपदान्तरेचा, नगरखनपदाम्तो,अचाने वा. तु श्लोकः श्लाघारूप: पापको भवेत् स्वपक्षात्परपक्काद्वा महः तदन्तरे वा, विहारभूमिमागतस्य वा गच्छतोबा तदेवं तस्य स्वयशकीर्तिर्भवति । तद्यथा-स एव पितृवनकाष्ठसमानो भो. भिक्षामाऽऽदीनधिशयानस्य कायोत्सर्गाऽऽदि वा कुर्वत एके गाभिन्नापो ब्रजति तिष्ठति वा,नास्य विश्वसनीय, यतो नास्था- कालुष्योपहताऽस्मानो ये बना लूपका भवन्ति, 'सूप'हिंसायाकर्तव्यमस्तीति । उक्तं च-" परलोकविरुद्धानि, कुर्वाणं दूरत- मित्यस्माद् ल्युमन्ते रूपम् । सन्ति विद्यन्ते,ता नारकाभाबादुप. स्त्यजेत् । आत्मानं यो न सन्धत्ते, सोऽन्यस्मै स्यात्कथं हितः सर्गकरणं प्रत्यवस्तु (१) तिर्यगमरयोरपि कादाचित्कत्वान्मे तू. ॥१॥" इत्यादि । यदि वा सूत्रेणेवाश्लाघतां दर्शयितुमाह-(से प्णीमेवानुकूनप्रतिकूनवजावाजनप्रहणम् (यदि वा-जायन्त समण इत्यादि)सोऽयं श्रमणो नूत्वा विविधतान्तो भग्नः श्रम- इति जनाः तिर्यग्नरामरा एव जनशब्दाजिहिताः,ते च जना पविभ्रान्तःश्रमणविभ्रान्तः। वीप्सयाऽत्यन्तजुगुप्सामाह ॥१११॥
अनुकूलप्रतिकूमान्यतरभयोपसगाऽऽपादनेनोपसर्गयेयुरिति। तत्र किच
दिव्याश्चतुर्विधाः । तद्यथा-हास्यात् प्रद्वेषाद्विमर्शात् पृथग्षिमापासहेगे सममागएहिं असममागए पपमाणेहिं म- त्रातो वा । तत्र केबीकिः कश्चित् व्यन्तरो विविधानुपसर्गान् णममाणे विरतेहिं अविरते दविएहिं अदविए अजिसमेच्चा
हास्यादेव कुर्यात्-यथा निवार्थ प्रविः सुद्धकैर्भिक्षालाना पंमिए मेहावी णियितु धीरे आगमेणं सया परक्कमेज्जासि
पललविकटतर्पणाऽऽदिनोपयाचितकं व्यन्तरस्य प्रपेदे, नि
कावाप्तौ च तज्जायमानस्य कुतश्चिउपसभ्य विकटाऽऽदिकं तेत्ति वेमि ॥ ११ ॥
हुँढोके, तेनापि केल्यैव ते क्षुद्धकाः क्वीवा श्वव्यध्यायिषत प्र. पश्यत यूयं कर्मलामर्थ्य के विश्रान्तभागधेयाः समन्वाग- द्वेषेला-यथा भगवतो माघमासरजन्यां तापसीरूपधारिण्या तैरुयुक्तविहारिनिःसह वसन्तोश्यसमन्वागताः शीतलबिहा- व्यन्तोदकजटाभारवल्कसविप्रम भिः सेचनमकारि विमर्शार्थरिणः, तथा नममानैः संयमानुष्ठानेन विनयवझिरनममाना नि- मवं दृढधर्मा न वेत्यनुकूलप्रतिकूलोपसगैः परीक्षयत् । तथा सं. घृणतया सावधानुष्ठायिनो, विरतैरविरता द्रव्यभूतैरद्रव्य नूताः विग्नः साधुर्भावितया कयाचिद् व्यन्तर्या स्त्रीवेषधारिण्या स्तन्य. पापकलङ्कितत्वादेवभूतैरपि साधुभिः सह वसन्तोऽप्येवम्भू. देवकुलिकावासितः साधुरनुकूलोपसर्गरुपमर्दितो दृढधर्मेति च तानभिसमेत्य झावा. किं कर्तव्यमिति दर्शयति-पण्डितस्त्वं कृत्वा बन्दित इति । तथा पृथग्विधा मात्रा येषूपसर्गेषु ते पृथसातशेयो मेधावी मर्यादाव्यवस्थितो निष्ठितार्थो विषयसुखनि- विमात्रा हास्याऽऽदित्रयान्यतराऽऽरब्धा अन्यतरावसायिनोभपिपासो धीरः कर्मविदारणसहिष्णुर्तृत्वाऽऽगमेन सर्वज्ञपणी- बन्ति । तद्यथा-जगवति संगमकेनेव विमर्शाऽऽराधःप्रद्वेषेण प. तोपदेशानुसारण, सदा सर्वकाल परिकामयेत, शतिरधिकार- यवसिता इति मानुषा अपि हास्यप्रद्वेषविमर्शकुशीलप्रतिषेधपरिसमाप्ती, वीमीति पूर्ववत्, धूताध्ययनस्य चतुर्थोद्देशक: नानेदाश्चतुर्धा । तत्र हास्याद्देवसेना गणिका कुखकमुपसर्गयन्ती समाप्तः । उक्तश्चतुर्थोद्देशकः।
दएमेन ताभिता राजानमुपस्थिता. कुलकेन तथाभूतेन श्रीगृहो. साम्प्रतं पञ्चम प्रारभ्यते-अस्य चायमभिसम्बन्धः-महानन्तरो- दाहरणेन राजा प्रतिबोधित इति । प्रदेषाद्वजसुकुमारस्येव हेशके कर्मविधूननार्थ गौरवत्रयविधूननाऽभिहिता, सा च कर्म- इच शुरभूतेनेति विमर्शाच्चगुप्तो राजा चाणक्यचोदितो विधूननोपसर्गचिधूननाव्यतिरेकेण न संपूर्णभावमनुजयति, ना- धर्मपरीक्षार्थमन्तःपुरिकाभिर्धर्ममावेड्यन्तं साधुमुपसर्गयति, पि सत्कारपुरस्कारात्मिकां समानधननामन्तरेण गौरववि- साधुना च प्रत्यायता श्रीगृहोदाहरणं राझे मिवोदितमिति । धूनना सम्पूर्णतामियादित्यत उपसर्गसमानविधननार्थमिद- तत्र कुत्सितं शीलं कुशीलं, तस्य प्रतिसेवन कुशीलप्रतिसे. मुपक्रम्यत इत्यनेन सम्बन्धेनाऽऽयातस्यास्योद्देशकस्यास्वाल- वनं, तदर्थ कश्चिपसगै कुर्याद्यानुगृहपर्युषितः साधसाऽऽदिगुणोपेतं सूत्रमुच्चारणीयम् । तश्वेदम्
चतसनिः सीमन्तिनीभिः प्रोषितभर्तृकाभिः सकलां रजनी. से गिहेसु वा गितरेसु वा गामेसु वा गामंतरेसु वा ए
मेकैकया प्रतिमया उपसर्गितो, न चाऽसौ तासु लुतुभे, म. गरेमु वा णगरंतरेसु वा जणवएसु वा जणवयंतरेसु वा
न्दरवनिष्प्रकम्पोऽनूदिति तैर्यथैता अपि भवप्रद्वेषाऽऽहारासंतेगतिया जणा बूसगा संति, अमुवा फासा फुसंति, ते
पत्यसंरकणवाश्चतुव । तत्र भयात् सर्पाऽऽदिभ्यः प्रद्वेषाद्यथा
गगनतश्चएमकौशिकात आहारात् सिंहध्याघ्रादिभ्यः अपत्य. फासे पुट्टो धीरो अहियासए ओए समियदंसणे ॥११॥ संरकणारकाक्यादिम्य इति । तदेवमुक्तविधिनापसर्गाऽऽपादक"से मिहेनु वा इत्यादि, जाव धीरो अहियासए।" (सेति) वाजना पका भवन्ति । अथवा तेषु ग्रामाऽऽदिषु स्थानेषु तिष्ट.
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(२०६६) प्राभिधानराजेन्त्रः।
धुयवाय
धुयवाय
तो गच्छतो वा स्पर्शान् दुःस्वविशेषान् अात्मसंवेदनीयाः स्पृश- खैरुपतापितास्तस्मात् लक्षात्सयमात निःसना 5 ऽत्मकानो परिन्त्यभिमवन्ति।चर्विधाः। तद्यथा-घट्टनताऽक्तिकणुकाऽदि- वित्रसेन संयमानवानाद्विभियात् । यतः प्रजतनराम्खानुष ना.पतनतामिमूर्नाऽऽदिना,स्तम्जनता घाताऽऽदिना,श्लेषणाता। ङ्गिणो दि मदिन प्रति १२१ ॥ साबुतः पातादगुल्यादेर्वा स्यात् (? यदि बा-वातपित्तश्लेष्मा- कस्य पुनः संयमान परिवित्रसनं सम्नाव्यत इत्याददिकोनात् स्पर्शाः स्पृशन्ति । अथवा-निकिशमतया तृणस्प. जस्सिमे पारंना सम्बनो सब्वत्ताप सुपरिमाया भनि, शैवंशमशकशीतोष्णाऽऽदितापिता: स्पर्शाउखविशेषाः कदा.
जेसिमे खूसिणो णो परिवित्तसंनि, से वंता कोहं च माणं चित् स्पृशन्त्यभिभवन्ति नैश्च स्पृष्टपरीषदस्तान् स्पशीन दुःस्ववि. शबान धीरोऽक्षोच्योऽधिसहेत,नरकाऽऽदिदुःखभावनयाबस्य.
च मायं च सोई च, एस तुढे वियाहिए त्ति बेमि॥१२॥ कम्मोदयाऽऽपादितं पुनरपि मयतत्सोढव्यमित्याकाय्य सम्य. कायस्स वि वाघाए स संगामसीसे वियाहिए, से हु पारंकतितिक्षेदिति । कीरक्षोधिसहेत?, इत्यत आद-यदि वा स गमे मुणी अविहम्पमाणे फसगावतही कामोवणीए के. पचम्नूतो न केवलमात्मनस्त्राता, तदुपदेशदानतः परेषाम
खेज कालंजाब सरीरजेदो ति बेमि ॥ १३ ॥ पीति दर्शयितुमाद-(ओए इत्यादि )ोज एको रागा.
(जस्सिमे इत्यादि) यस्य महामुनेरवगतसंसारमोक्रकार अदिविरहात सभ्यगितं गते दर्शनमस्येति समितदर्शनः, स.
णस्यमे सङ्गा आरम्भा अनन्तरोक्तत्वादतिजानतःसर्वजनाच. म्यग्दृष्टिरित्यर्थः । यदि वा शमितमुपशम नीतं दर्शमं दृष्टि
रितत्वात्प्रत्यकाऽऽसवाचिनभमिहता सर्वतः सर्वाऽऽत्मकत. क्रीनमस्येति समितदर्शनः उपशान्ताध्यवसाय इत्यर्थः। अथवा
या सुपरिज्ञाता भवन्ति । किम्लता भारम्नाः?, यश्चिमे प्र. समताभितं गतं दर्शनं दृष्टिरस्येति समितदर्शनः समदृष्टिरित्य
न्यमथिताः विषयाः कामनराऽऽक्रान्ता जना टूषिणो लूषथः । एवम्भूतः स्पर्शानधिसहेत यदि वा धर्ममाचकीतेत्युत्तर.
णशीला हिंसका अज्ञातमोहोदयान्न परिवित्रसन्ति न बिक्रियया सह सम्बन्धः ॥ ११३॥ प्राचा०।
ज्यति, यो बिनूतांचाऽऽरम्नान् परिशया परिझाय प्रत्या(किममिसन्ध्य धम्ममाचकीतेति 'धम्म' शब्दऽस्मिन्नेव
स्थानपरिक्षया परिहरति तस्यैते सुपरिझाता भवन्ति । भागे ५६१२ पृष्ठे दर्शितम्)
यश्वाऽऽरम्भाणां परिझाता स किमपरं कुर्यादित्याह-(से बंता किंगुणश्चाइसौ द्वीप श्व शरण्यो जवनीत्याद
इत्यादि )स महामुनिः पूर्वव्यावणितस्वरूपो वान्तवा त्यएवं से उहिए ठियप्पा अणिहे अचले चले अहिले- क्या क्रोधं चमानं च मायां च लोभं चेति स्वगतभेदसंसूच. स्से परिष्वए ।। ११५ ।। संखाय पेसझं धम्म दिहिमं
नार्थो व्यस्तनिर्देशः, सर्वानुयायित्वात् क्रोधस्य प्रथमोपादान.
म्,तत्सम्बन्धत्वान्मानस्य झोभार्थ नायोपादीयत इत्यतस्तत्कारपरिणिचुमे ।। १० ।। तम्हा संगं ति पासहा गंथेहिं गं
एत्वाम्मायाया लोजस्याऽऽदावुपन्यासः,ततः स च दोषाऽऽश्रयथिया जरा विसम्मा कामकता, तम्हा सूहाओ जो परि
स्वात सर्वगुरुत्वाच सर्वोपरि लोभस्य क्षपणाक्रमं वाश्रि. विचसेज्जा ॥ ११ ॥
स्यायमुपन्यास इति । चकारोहीतरतरापरया समुश्चयार्थः। स (वं इत्यादि)पवमिति वक्ष्यमाणप्रकारेण,स शरण्यो महामुनि.
पवं क्रोधादीन्वान्त्वा मोहनीय त्रोटयति, स चैप अपगतमोहभीवोत्थानेन संयमानुष्ठानरूपेण, उत्प्राबल्यन स्थित उत्थितः,तथा
नीयः संसारसन्ततः,'तुट्टो' अपसतो व्याख्यातस्तीर्थंकृतादि. खितो ज्ञानाऽऽदिके मोक्षाधम्यात्मा यस्य स स्थितारमा, तथा
भिः, इतिधिकारपरिसमाप्तौ । ब्रवीम्येतत्पूर्वोक्तम् । यदि वे. स्निह्यतीति त्रिदो,न स्निहोऽस्निहारागद्वेषरहितत्वाद प्रतिबका, तद्वषयमाणमित्याह-(कायम्स इत्यादि ) काय प्रौदारिक:तथा चननबतीत्यचनःपरीषहोपसर्गवातेरितोऽवति । तथा च
ऽऽदित्रयं, घातिचतुष्टयं वा,तस्य व्याघातो विनाशः । अथवा मोऽनियतषिदारित्वात्तथा संयमावहिनिर्गता श्याऽध्यवसायो
चीयत इति कायस्तस्य विशेषणाङ्मयोदयाऽऽयुकयाबयस्य स बहि तेश्य , योन तथा सोऽबदिलेश्यः, स एवम्भूतः
धिलक्षणया, घ तो व्याघातः शरीरविनाश एव सनामशीपरि समन्तात्सयमानुष्ठाने व्रजेत्परिव्रजेत्,न कचित्प्रतिबध्यमान
रूपतया व्याख्यातः । यथा हि-सग्रामशिरसि परानीकनिइति यावत् ॥ ११६ ॥ स च किमिति सयमानुष्ठाने परिव्रजे.
शाताऽऽकृष्टकृपाणनियनप्रभासंचलितोद्यत्स्यीत्यदूत विद्युदित्याद (खाय इत्यादि ) सत्यायाऽवधार्य पेशव शोजन
अयनचमत्कृतिकारिणि कृतकरणोऽपि सुभटश्चित्तविकारं चि. धर्ममविपरीतार्थ दर्शनं दृष्टिः, सदनुष्ठानं वा यस्यास्त्यसौ दृष्टि
धत्ते, एवं मरणकासेऽपि समुपस्थिते परिकर्मितमतेरप्यन्यथामान्, स कषायोपशमात् कयाद्वा परि समन्ताभिर्वृतः शीती. भाषः कदाचित्स्यादतो यो मरणकाले न मुह्यति, स पारगामी भूतः ॥ १२०॥ यस्त्वसङ्ख्यातवान् पेश धर्म मिथ्या दृष्टिर- मुनिः संसारस्य कर्मणो वा उक्तिप्तभारस्य वा पर्यन्तयायी. सौ न निर्वातीति दर्शयितुमाह-तिम्हा त्यादि) इतिहेतो. ति। किश्व-(अविदम्ममाणे इत्यादि) विविध परीषदोपसयस्माद्विपरीतदर्शनो मिथ्यादृष्टिः सङ्गवान्न निर्वाति तस्मात्सी गई म्यमानो विदन्यमानो, न विहन्यमानोऽविहन्यमानः, न नि. मातापितुपुत्रकलत्राऽदिजनितं,धनधान्य हिरण्याऽऽदिजनितं वा विएणः सर्वहानसंगः (१) पृष्टमन्यद्वा बालमरणं प्रतिपद्यतसङ्ग, विपाकं वा पश्यत यूयं विनावधारयत। सूत्रेणेव स. ति । यदि वा-हल्यमानोऽपि सबाह्यान्यन्तरतया तपःपरीषअमाह-( गंथेहिं इत्यादि)त एव सतिनो नरा: सबाह्याभ्यन्तः । होपस, फनकबदतिष्ठते न कातरीभवति । तथा कालेनोपरप्रेन्यप्रेषिता अवबका विषमा अन्धसङ्गे निमग्नाः कामैरिच्छा. नीतः कालोपनीतो मुत्युकालेनाऽऽन्मवशतां नीतः सन् द्वादशव. मदनरुपैराक्रान्ता अवधान निर्वान्ति यद्येवं ततः किं कर्तव्य- सङ्लेखनयाऽऽरमानं संलिख्य गिरिगह्वराऽऽदिस्थरिडलपाद. मित्याह-( तम्हा इत्यादि) यस्मात्कामदयाइसक्तचेतसः स्वजः। पोएगमनेङ्गितमरणशक्तपरिवान्यतरावस्थोपगतः कालं मरणनधनधान्यादिमूञ्छिता कामजैः हारीरमानसाऽदिभिर्द।- काजमायुक्षयं याचचरीरस्य जीवन सार्क मेदोभवति, ता.
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(२७६७) प्रनिघानराजेन्डः।
धुयवाय
धुवसंतकम्म
चदाकात्, अयमेव च मृत्युकालो यदुत शरीरजेदो, न पुन. दप्यपर्यवसितत्वाद् ध्रवं कर्म, तत्फल नूतः संसारो वा, नस्य जीवस्याऽऽत्यन्तिको विनाशोऽस्तीति । इतिराधिकारपरिसमा- निग्रह हेतुत्वान्निग्रहो ध्रुवनिग्रहः । श्रावश्यके. अनु०। सौ । प्रवीमीत्यादिकं पूर्ववदिति पञ्चमोद्देशकः । तत्समाप्तौ च धुनपगमि-ध्रुवप्रकृति-स्त्री० । ध्रुवकर्मप्रकृती, भाचा ध्रुवकर्मसमान धुताऽऽरूयं षष्ठाय यनमिति। प्राचा०१०६ ०५ उ०॥
प्रकृतयश्चेमा:-पञ्चधा ज्ञानाऽऽवरणीय,नवधा दर्शनावरणीयं, घर-घर-पुं० । अधाशीतिमहाप्रवन्यतमे स्वनामख्याते प्रहे.
मिथ्यात्वं, कषायबोडशक. भयं, जुगुप्सा, तैजसकार्मणशरीर. "दो धुग।" स्था०२० ३ उ० । कल्प।
वर्णगन्धरसस्पर्शाः, गुरुलघूपघातनिर्माणानां पञ्चधाऽन्तरायः। धरा-धुग-स्त्री० । धुर्व किपरोरा"।।१।१६॥ पता: सप्तचत्वारिंशदू ध्रुवप्रकृतयः । भाचा०१०१०१ ति प्राकृतसूत्रेण स्त्रियामन्यरेफम्य रा इत्यादेशः मा.पा.
१०। (अस्या भेदाः 'णाणावरणिज' शब्देऽस्मिन्नेव भागे १एए द। चिन्तायाम, स्थानभागे, यानमुम्बे, भारे दा . धुरा
पृष्ठे प्रतिपादिताः) (दर्शनावरणीयभेदाः सणावरण' ऽप्यत्र वाचक
शब्देऽस्मिन्नेव भागे २४३७ पृष्ठे गताः) (मिथ्यात्वमेदवर्णनं धुरी-धुरी-स्त्री.। अने. अनु।
'मित्त 'शब्दे) (कषायषोडशकस्वरूप कसाय' शब्दे तु. धुव-ध्रुव-पुं० । शकी, विष्णौ. हरे, सानपादनृपपुत्रे, वसु
तीयभागे ३६४ पृष्ठे गतम) (जयस्वरूपं 'भय' शब्दे वि.
स्तरतो वर्णयिष्यामि)(जगुप्सालकणं दुगुंग' शब्देऽस्मिनेदे, ज्यौतिषोक्ते योगभेदे, नासाग्रे, स्थाणी, ललाटस्ये
नेव भागे २०५३ पृष्ठे गतम्) (तैजसकामणशरीरवर्णनम श्रावतभेदे, जूगोझस्योत्तरदक्षिणकेन्जयोपरि स्थिते स्थिरे
'गुरुल हुय' शब्द प्रथमभागे १४७ पृष्ठे गतम) (वर्णस्वरूप तारादे च। वाच. । भगवत ऋषनदेवस्य भरताऽऽदि.
'बम' शब्दे वर्णयिष्यामि)(गन्धविस्तर 'गंध' शब्दे शतपुत्रेवन्यतमे स्वनामख्याते पुत्रे, कल्प०१ अधि० ७
तृतीयजागे ७६४ पृष्ठे गतः) (रसविभागः 'रस' शब्दे स्पष्टी. क्षण । शाश्वतस्वाद मेोके, तदुपाये संयमे च । सूत्र०१
भविष्यति)(स्पर्शविवेचनं 'फास' शब्द बयते) (गुरुलधुखभु.२.१० । “धुवमगमेव पवयंति।" ध्रुवो मोकः
रूपं 'गुरुल हुय' शब्द प्रथमभागे १५७ पृष्ठे गतम)(उपधासंयमो वा तन्मार्गमेव वदन्ति । सूत्र. १७०४ ०१3० ।
तभेदाः बघाय' हा द्वितीयभागे ८० पृष्ठे विस्तारतो भाचा । मोककारणानते कानाऽऽदिके, प्राचा० १६०५ गताः)(निर्माणनामस्वरूपम् 'णिम्माणणाम (ए)'शब्देऽ. अ. ३ न. । कर्मणि, तत्फल नूते संसारे, अनु० । स्थै- स्मिन्नेव भागे २०८४ पृष्ठे कष्टव्यम)(सर्वेऽप्यन्तरायप्रकृतिभे. यै, वो० १६ विवला अत्यन्ते, विशे० । "धुवमोगिएह।" दा 'अंतरा (4) श्य' शब्द प्रथमनागे ६० पृष्ठे प्रदर्शिताः) ध्रनमत्यन्तं, सर्वदेत्यर्थः । स्था०६ ग. अवश्यमिथै, भा० । तकें, अाकाशे, उत्सरात्रयरोहिणीनकत्रेषु च । न० । वाच ।
धुवबंध-ध्रुवबन्ध-पुं० । यः पुनरप्रेऽपि नव्यः कदाचिद् व्यवच्छेभर्यतो ध्रुवत्वाच्याश्वतत्वाद् ध्रुवम । आवश्यके, विशे•।
दं प्राप्स्थति, सोऽभव्यसंबन्धी बन्धो ध्रुवबन्धः । कर्मबन्धत्रिकालभावित्वाद् ध्रुवः । नित्ये, “धुचे णितिय सासए अकबर
भेदे, क००२ प्रक०। अन्वप अवटिए निच्चे।" (स्था.) शकादिवत्प- धनवधिप-ध्रबवन्धिनी-स्त्री०। ध्रुवो बन्धो विद्यते यस्यां र्यायशब्दा ध्रुवाऽऽदयोनानादेशजविनयप्रतिपरयर्थमुपयस्ताः। सा ध्रुवबन्धिनी । कर्मप्रकृतिभेदे, पं० सं० ३ द्वार। मिजा स्था०५०३१०। विशे० प्राचा०। ग. प्रा० मा ध्र-]
हेतुसद्भावे यासां प्रकृतीनां ध्रवोऽवश्यंभावी बन्धो भवति, वोऽप्रच्युतानुत्पन्नस्थिरस्वजावः । सूत्र०२७०४०। अप्र- ता ध्रुवबन्धिम्यः कर्मप्रकृत:। कर्म०५ कर्म०। (ताच सप्तनिहाय्ये, नि. चू०५ उ० । “धुवा जे अविणासधम्मिणो।" चत्वारिंशत्संख्याकाः 'कम्म' शब्दे तृतीयभागे २६१ पृष्ठे) प्रा. चू० १ ०। त्रिकालावस्थायित्वाद् धुवं, मेदिव.
धुवमग्ग-ध्रुवमार्ग-पुं० । ध्रुवो मोकः संयमोवा, तस्य मार्गः । दचले, जी. ३ प्रति० ४ अधि। ज० । ध्रुवोऽवश्यंभावि.
मोक्षमार्गे, संयममार्गे च । “धुवमम्गमेव पषयंति ।" सूत्र. १ स्वात । स्था०५ ठा०३० । अवश्य जाविनि, सूत्र. २७० २०। विशे०। आवनिश्चिते, विशे०। प्राचा० । नत्त। ध्रुवं नियत नेत्यिकमिति प्रयोऽध्येकाधीः । व्य० उ० । धुवराहु-भ्रवराहु-पु.। सदेव चन्द्रविमानस्याधस्तात् संच. द्वा० । बृ.। अव्यभिचारिणि च । सूत्र० १ श्रु.२ अ०१ रति राहुभेदे, सु० प्र० २० पाहु०।०प्र० (तक्तव्यता १०। प्राचा० । सनते, अपरिणामिनि नित्ये, स्थिरे च ।। ' राहु' शब्देऽवधार्या) वि. मूळयाम्, शापायी चाखी०। शरारिपक्विणि, पुं० ।। HERO-नववर्गणा-स्त्री. ध्रुवा नित्या लोकभ्यापितया स. स्त्री० । संज्ञायां कन् । गीतिन्नेकेन० । वाच.।
कालावस्थायिनी वर्गणा ध्रुववर्गणा । वर्गणाभेदे, प्रा.म. धुवकम्मिय-ध्रुवर्मिक-पु. । बोहकाराऽऽदौ, व्य. १० ।
10 | १०१खएड। ( तदवक्तव्यता वगणा' शब्द) कल्प० । मोघः।
धुववम-ध्रवणे-पुं० । ध्रुवगेऽव्यभिचारी, स चाऽसौ वर्ण धुपचारि (D)-ध्रुवचारिन्-पुं० । ध्रुवो मोकस्तत्कारणं च
संयमो मोको वा ध्रुववर्णः । अव्यभिचारिणि संयमे, मोके च। कानाऽऽदि धवंतदाचरितुं शीलं यस्य । मोक्षचरणशीले, मोक्क- | वो वर्णो पशः कीर्तिर्वा धुववणेः । शाश्वते यशसि, शा. कारणशानाऽऽद्याचरणशीले च । प्राचा.१ श्रु. २ अ०२ उ० । श्वत्यां कीया च । “धुवरांस पेदिया।" श्राचा० १७० धुवजोगि (ण)-ध्रुवयोगिन्-पुं० । नित्ययोगवति, दश०१० अ० |
त ५०°o एम०१०। धुवणिग्गह-भुवनिग्रह-पुं।। प्रवाहतोऽनादिकालीनत्वाद् ध्रुवं धुवसंतकम्म-भ्रवसत्कर्म-न०। यत्सर्वसंसारणामनचाप्तोत्तरगुकर्म ,तनिगृह्यतेनेनेवि ध्रुवनिग्रह विशेअनादित्वात् कचि- णानां सातत्येन भवति तद् ध्रुवसत्कर्म । कर्ममेदे, पं०सं०
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बसंतकम्म
मेद्वार (सकर्मकृतयः 'कम्म' शब्दे तृतीयभागे २६१ पृष्ठे अन्याः)
संतकमिया-पसरकर्मिकाखी० धुवं सत्कम्मं यस्याः er वरकर्मिका । कर्मप्रकृतिजेवे, क० प्र० २ प्रक० । युक्सचागा-ध्रुवसताका श्री भुवा अन्यछेदकालाद
जाविनी सत्ता यस्याः सा ध्रुवसत्ताका । कर्मप्रक तिभेदे, पं० सं० ३ द्वार या सर्वसंसारिणाम प्राप्त सम्यक्त्वा ssरगुणानां सातत्येन प्रवन्ति ता ध्रुवसत्ताकाः । कर्म० ५ कर्म० । (ताच त्रिंशदुसरशतसंख्याः 'कम्म' शब्दे तृतीभागे २६१ पृष्ठे अष्टव्याः ) ध्रुवसत्ताकत्वं तासां सम्यक्वलाप्रादर्वा सर्वजीवेषु सदैव सद्भावान् । कर्म० ५ कर्म० । भुषण-ध्रुवसेन पुं० [वरिनिर्वाणाश्रवशताशीतियर्षेवतेषु आते स्वनामपाते सूपे पक्ष पुत्रमरणा33 शोकापद्वारा ये कल्पसूत्रस्य वाचनाऽऽरन्धेति । कल्प० १ अधि० ६ क्षण | भुवोदया- धुवोदया स्त्री० । ध्रुव आ उदयकालव्यवच्छेदादर्घा | उयो विपाकानुजवनकृणो यस्याः सा प्रयो या "नो उदो जायं पथमीण ता योदश्या" यासामव्यवच्छिन्नाऽनुसन्ततः स्वोदयव्यवच्छेदे कालं यावत् । पं० [सं० ३ द्वार | कर्म० । उदयास्ता ध्रुवोदयाः, ( 'कम्म' शब्दे विमेतत्
(२०६८) अभिधानराजेन् /
धूमा दुहितृ-स्त्री० । अङ्गजायाम्, “ धूम्रा बुद्दिश्रा । " को०
५५२ गाथा |
पूरायमा-धूतराजमार्ग- धूनीको राजमार्गो राजप या यस्मिन् | अपनीतराजपथे, सूत्र० १ ० ४ श्र० २ ० 1
धुवाय' शब्दायें बा० १ ०
भावाय धूतपाय
६ अ० १३० ।
"
भ्रूण देशी गजे ० ना०५ वर्ग ६० गाया।
1
33
धूम - धूप - पुं० धू-मक् । श्राकाष्ठजाते मेघकज्जलयोः कारणे वह्निध्वजे पदार्थ, वाच० । " तो धूमेण मारे । धूमेन ०३०म० स्थापिशमनाय धूनायोगर्भः । पं० व०४ द्वार । श्र० । धूमो मनःशिलाऽऽदिसम्बन्धी-भूतत्रासनाऽऽदिकः । उत्त० १५० द्वेषे, "गालधून परिसुद्धं उवदि चार ल भिक्खु जो दंगालो चिरागो धूमो ति दोसो तेहि, परिषं दि" पर जतीत्यथेः। मि०१६४० ि दह्यमानस्य निन्दाऽऽत्म के कलुषभावे च । धूमो धा । तद्यथातो भाषाका उदगां सम्बन्धी जातो निन्दाऽऽत्मकः । पिं० । चरन्धनस्य द्वेषेण धूमवत श्ध करणं मतुप्प्रत्ययज्ञोपाद् धूमः ग०१० बारिवेन्धनस्य घूमत इव करणमिति विप्रढे कारिते मनुष्लोपे व धूमः । चारित्रेन्धलक्ष्य धूमायमानता रूपे प्रासैषणादोषभेदे, पञ्चा० १३ विव० । धूमं देशी गा
धूपकेन - धूमकेतु - पुं० । धूम इव केतुः । उत्पातरूपेऽशुभसूचके, बाच० । अष्टाशीतिमहाग्रहाणामन्यतमे महाग्रद्दे, चं० प्र० २० प्रस्था००
पापा
धूमवल
प्रो, पक जाये जो धूमके राव" धूमके तोरयतिनां प्रस्कन्देत । उत्सं० २२ अ० । धूमकेतुं धूमविहं धूमध्वजं नोल्काऽऽदिरूपम् । दश० २ ० । दो घूमकेऊ । स्था० २०३ ३० ।
धूपचारण धूपचार -पुं० [चारण मेरे धूनवर्तितरीनामृगाम्यमनस्कन्दिनो घूमचारणाः । ग० २ अधि० । प्रव० ।
धूमजोणि-धूमयोनि-पुं० । धूमो योनिरस्य । मेघे, मुस्तके च । ६ त० । वहाँ, आकाष्ठे च । वाच० । अन्नाएँ धूमजोणी । " को० २७ गाथा ।
"
धूपझप धूपध्वज-पुं० । यही धूमचिडे पो. ०२० एकार्थिकानि- " धूमज्भम्रो हुमवहो, विहावलू पावन सिद्दी पण जलयो दो पासो वादोय ॥६॥ को० ६ गाथा ।
धूम-घूमन-न० । अनागतव्याधिनिवृत्तमे धूमपाने, दश० ३ अ० । नापि काशाssवपनपनार्थ तं धूमं योगवति निष्पादित मापिबेत् । सूत्र० २ ० १ ० । धूमदोस - धूमदोष-पुं० । अन्तप्रान्ताऽऽदाबाहारे द्वेषाश्चारित्रस्यापि धूननाडूमदोषः । श्राचा० २ ० १ ० ३ ० । निन्दन् पुनः पुनम ददन घूमकरणाद धूमदोषः प्रापणादोषने ध० ३ अधि । द्वेषेण भुजानस्य धूमदोषः । जति०॥ उत०" दोखे सधून मुणे "पि द्वेषेणाऽध्यातस्य यद् भोजनं तत्सधूमं निन्दाऽऽत्मक कलुषभावरूपधूमसंमिश्रत्वात् । पिं० ।
धूपदार देशी या दे००२५१था। धूम
- देशी-तटाके, महिषे च । दे० ना० ५ वर्ग ६३ गाथा । बहो, को ० ६ गाथा |
धूमरूयमहिसी स्त्री० देशी । कृतिकासु, दे०ना०५ वर्ग ६२ गाथा । धूमपनीयाम - धूममदीप्ताम पुं० । आमनेदे, नि० च० " धूमपलियामं णाम जड़ा खड्डे खजित्ता तत्थ करीसो छुम्मति, ती खम्माप परिपेरतेर्हि अमोखमा खणिता तासु तेंदुआदीक्षिणि मिना जा सकरीगखगा, तम् अही तुम्नसिसि दुगड्डाणं मिलिया, नाई मोहि पविसित्ता ताणि फन्नाणि पावति, तेणं ते पचंति, तत्थ जे अपकाते धूमपलियामा भांति ॥ " नि० ० १५ उ० | धूपना-धूपमा स्त्री० धूमस्या यस्यां साधूमप्रभा धूमाssव्योपलकितायां स्वनामख्यातायामरिष्टा परनामधे यायां पञ्चम्यां पृथिव्याम, प्रब० १७ द्वार । स्था० । अनु० | भ० । प्रज्ञा• । समः । (धूमप्रभायां कियदकाशे नैरधिकानां बास इति वाण' शब्दे ऽस्मिन्नेव भागे १७०१ पृष्ठे ऽष्टव्यः ) धूपमाह सी-धूपमहिषी खी० धूमस्य महिषी कुटिका याम्, बाच० ।" धूममहिसी य" को० ५५ गाथा । धूपरी-देशी-महारा दे०६१ गाथा वा धूमवामुरे
-
"
१०१७ अ०
,
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(२७६९) धूमसिहा अन्निधानराजेन्छः।
धुवस धूपसिहा-धूमशिखा-स्त्री०। धूमाग्रभागे, “चत्तारि धूमास- धूलिशब्दाद् डडप्रत्ययः । मिति परे इकारलोपे"धूलर"इ. हाम्रो पात्सायो।तं जहा-वामा णाममेगा वामावत्ता,वामा णा. ति। " योगजषाम" ॥८॥४|४३०॥ इति सूत्रेणापदंश ममेगा दाहिणावत्ता, दाहिणा णाममेगा वामावत्ता, दाहिणाणा- अ-मम-डुल्लानां योगे मम्प्रत्ययान्ताद् अप्रत्ययः। प्रा०४ पाद । ममेगा दादिणावत्ता" । स्था०४०२०० । नीहारार्थे, दे० श्रान्तान्ताद् डाः" ॥ ।४। ४३२ ॥ इति प्राकृतसूत्रेणाप से ना०५वगे ६१ गाथा।
खियां वर्तमानादप्रत्ययान्तप्रत्ययान्तात माप्रत्ययः। 'धूनमन। धूमा-धूमा-स्त्री० । धूमिकायाम, स्था० १० वग।
श्रा' इत्यवस्थायाम् अस्येदे"॥८।४।४३३॥ इति प्राक.
तसूत्रेणापनशे स्त्रियां वर्तमानस्य नाम्नो योऽकारस्तस्याधृमिश्रा-देशी-नीहाराथें, देना०५ वर्ग ६१ गाथा।
कारे प्रत्यये परे कारः। प्रा०४ पाद । धूल्याम, चाचा धृमिय-धूमिन-त्रि० । धूमयुते, "अप्पत्तियधूमधूमितं चरणं ।” धूलि-धूलि-स्त्री० । धू-लि-कः,वा डीप् । रजसि, परागे च । पिं० ।
जी०३ प्रति०४अधिक। धृमिया-धूमिका-रुपी०। मिहिकानेदे, धूमिका मिहिकानेदः, व-धूलिजंघ-धूलिजध-त्रि.। धूल्या धूसरे जवे यस्य स धूः
तो धूमिका धूमाऽऽकारा, धूप्रेत्यर्थः। स्था०१००। धूमि- विजयः । शाकपार्थिवाऽऽदिदर्शनान्मभ्यमपदलोपी समासः। कामिहिकयोबकृतो भेदः । धूमिका धूम्रवर्णा, धूसरेत्यर्थः।। पादलग्नधूलिके, व्य. १० उ०। नि.चु०। मिहिका स्वापाएमुरेति । भ. ३ २०७न। दे. ना० । "धू धृक्षिणाय-धुनिज्ञात-न । चिक्खिस्नकाते, तीर्थकराऽऽचार्यमिया य मिहिया य।" को ३८ गाथा । धूमिका रुका प्रविरला | गणधरशिष्याणां समीपे स्वाध्यायमधिकृत्य " इति उदिए धूधूमाभा प्रतिपत्तव्या । अनु । जी। स्था। तदात्मके प्रान्त
लिणायमासु।" यथा धूलिरेकत्र स्थापिता, तत उद्धृत्यान्यत्र रिक्षेऽस्वाध्यायजेदे, स्था० १० गा।
यत्राऽऽस्तीर्यते तत्रावश्य किञ्चित्परिशटति,ततोऽप्यन्यत्र प्रस्तीधूप-धूत-न० । 'धुय' शब्दार्थे, स्था० ।
र्यमाणा नूयो भूयः परिशटति, यथा वा प्रासादे लिप्यमाने धूयकिस-धूतक्लेश-त्रि० । “धुषकि लेस' शब्दार्थ, पातु।
मनुष्यपरम्परया चिक्खिलः प्रत्यय॑माणो बहु परिशटितः स्तो
कमात्रावशेष एव सर्वान्तिममनुष्यस्य हस्तं प्राप्नोति । १० धृयचारि(D)-धूतचारिन्-पुं० । 'धुयचारि (m)' शब्दार्थे, | १०५ प्रक०। प्राचा० १ श्रु०२१०३ उ०।
धूलिधूसर-धूलिधूसर-त्रि०। समधूलि के, "धूलिधूसरस - धूपज्य ण-धूताध्ययन-न । 'धुयज्झयण' शब्दार्थे, प्राचा०१
| हौ।" प्रा० क0 । प्राचा०। श्रु.८०४ उ.।
धूलिबदल-धुलिबल-त्रि० । प्रचुरपांगुके, ०७ श. धूयपाव-धूतपाप-त्रि० । 'धुयपाव' शब्दार्थे, अातु ।
धूलिवरिस-धुलिवर्ष-पुं०। पांशुवृष्टी, " धूनीवरिसं परिसधूयबहुल-धृतबदुल-त्रिका 'धुक्बहुल' शब्दार्थे, सूत्र. २ ३" प्रा०म०१ ० २ खरम। श्रु० २ उ०।
धूली-धूली-स्त्री० । 'ति' शब्दार्थे, जी. ३ प्रति०४०। धूयमोह-धूतमोह-त्रि० । 'धुयमोह' शब्दार्थे, सूत्र० १श्रु० ४
धृलीवट्ट-देशी-अश्व, दे० ना०५ वर्ग ६१ गाथा। अ०२ उ० । दश०।
धव-धूप-पुं० । “पो वः" ।१।३३१ ॥ स्वरात्परस्याऽ. धूयरय-धूतरजस्-त्रि• । 'धुयरय' शब्दार्थे, सूत्र० १६०४ भ०२ उ०।
संयुक्तस्यानादेः पस्य प्रायो दन्तोष्ठस्थानीयो वकारः। 'यो।'
प्रा.१ पाद धूपयति रोगान् दोषान् पा । धूप अच् । गु. धूयरागमग्ग-धूतरागमार्ग-पुं०। 'धुयरागमग्ग' शब्दार्थे,सूत्र० १
ग्गुलप्रभृतिगन्धव्योत्थे धूमे, तत्साधनव्ये च । बाच० । श्रु०४ ०२ उ०।
"कप्पूरमलयचंदणकालागुरुपवरकुंदुरुकतुरुक्कधूवमभंतसुरधूयवाय-धूतवाद-पु.। 'धुयवाय' शब्दार्थे, भाचा०१७०६ |
भिमघमघंतगंधुद्धयाभिरामे।" धूपश्च दशाङ्गाऽऽदिगन्धव्यसं. अ. १ उ. ।
योगजः। ज. ५वक्त । एतेषां सम्बन्धी यो धूपस्तस्य द. धूया-दुहित-स्त्री०। दोग्धि च केवनं जननी स्तन्यामिति
द्यमानस्य सुरभियों मघमघायमानोऽतिशयचान् गन्ध उद्धत पुहिता । ततश्च “हितरि धो हिलोपश्च ।" इति वचना- उदनुतः तेनाभिराममभिरमणीयं यत्तत्तथा । शा०१७.१५ दादेर्धत्वे हिसोपे च " ऊदुत्सु पुष्पोत्सवोत्सुकदुहितृषु ।" इति । नि० चू० प्रा० म०। प्रशा०। प्रश्न । जं०। अनु। बचनात् त ऊत्वे च "ध्या।” (५७) उत्त० १ ०। "दुहित.
धूवघमी-धूपघटी-सी । "पो वः" ॥१९२३१॥ इति पस्य व. नगिन्योध्या-बहिण्यौ" ॥८॥२॥ १२५ ॥ इति प्राकृतसूत्रेण दुहितृशब्दस्य वा धूयाऽऽदेशः। धूया। पुहिश्रा।' प्रा०२पाद ।
कारःप्रा.१पाद । धूपभृतघटिकायाम्,"तात्रोण धूवघडीओ कासुतायाम्, वाच० । जं० । उत्त। " ताणं धूयाणं।" आचा.
लागुरुपवरकुंदुरुकतुरुक्कधूवमघमघतगंधुदुभाजिरामागे सुगं.
धवरगंधिप्राश्रो गंधवट्टिभूत्राओ उरालेणं मणुप्मेणं घाणमण१०२ म०५ ० । नि. चू०। श्रा० म०।
णिबुडकरणं गंधेणं ते पएसे सब ओ समंता आपरेमाणीमो धरिअ-न० । देशी दीर्धे, दे ना० ५ वर्ग ६२ गाथा।
सिरीए अईव उचसोमाणा चिति।" जं०१ वक्व०। जी0। धूलडिअप्रा-धूलिका-नी।"धूनि-कम"अ-मड-मुखाः स्या- धवण-धूपन-पुं० । धूप-प्युः । यक्षधूपे, घाच० । धूपप्रदाने, थिककलुक च"।।४।४२६॥ इति सूत्रेणापभ्रंशे स्वार्थे | " अरायरेण धृवणजाएण धूवेज धा।" प्राचा० १
६२
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(२७७.) घूवण अन्निधानराजेन्दः ।
ध्रुव क्षु. २०१३ अ० । धूपनमित्यात्मवत्राऽऽदे,तश्चानाचरितम् ।। धोज्ज-धर्य-त्रि० । धौरेये, “धोजेहिं हुति उवणीया।"धुरज्ञा० १ श्रु०१७ १० । नो शरीरस्य स्वीयवस्राणां वा धूपनं | धौरेयैः । व्य०१ उ०। कुर्यात् । सूत्र. २६० १०॥
धोय-धौत-त्रि. धाव-क्त-ऊत् । प्रतिनिर्मशीकृते, जी० ३ धूवणजाय-धूपनजात-न० । धूपनप्रकारे, प्राचा० २ श्रु) २ |
प्रति०४०। श्रा०म० ।ज्ञा० । जलाऽऽदिना प्रक्षालिते. भ. ६ चू० १३ अ०।
श० ३ उ०। प्रनूतजल कासनक्रियया धोतं मलिनं सत प्रकाधूवण विहि-धूपनविधि-पुं० । धूपदानप्रकारे, "धूबणविहिपरि
नितम् । वृ०१ १०२ प्रक० । औ०। "कहं देदो धो सको।" माणं करेणापत्य अगुरुतुरुवधूवमाएहिं।" उपा०१०।। धोतुं कालयितुं शक्यम् । तं०। प्रतिनिशितीकृते,रा०। प्रका। (विशेषस्तु 'आणंद' शब्दे द्वितीयभागे १०ए पृष्ठे द्रष्टव्यः) । धौत 'चोक्वं' कृतमिति । बृ० ३ उ० । शोधिते, ज्ञा०१ ० धूबधूम-धूपधूम-पुं०। अगुर्वादिगन्धकव्योत्थे धूमे, दर्श०१ तव ।। १०रा०। जी। शुभ्र च । रजते, न० । वाच०। धूवपूया-धूपपूजा-स्त्री० । धूपप्रदानरूपे पूजानेदे, दर्श०१ तस्व । धोयरत्त-धातरक्त-त्रि०। पूर्व धौते पश्चाद्रक्त वस्त्राऽऽदौ, “णो
ना-त्रि-त्रिः। -त-वा अायाभावः। अश्वालिंगमनेन | धोयरत्ताई वत्थाईधारपज्जा।" पूर्व धौतानि पश्चाद्वक्तानि। श्रान्ते, सन्तापिते च । वाच० । अगुर्वाविसुगन्धितव्यैः सुग
आचा०१० अ०४०। न्धीकृते च । “दुग्गंधत्ति काउं अगुरुमाईहिं सुगंधीकयं । "ग• धोवण-धावन-न० । 'धावण' शब्दार्थ, प्रव० १ द्वार। १ अधि० । दुर्गन्धाऽऽद्यपनयनाथ धूपादिना धूपित इति । |ध्रुव-ग-व्यक्तायां वाचि,"ब्रु (बू) गो ध्रु(यु)वो वा" ॥८४.३५१॥ प्राचा०२ श्रु०१ चू०२ ० १ उ०॥
अपभ्रंशे ब्रु (बू) गोधाताळू (बु)व श्रादेशो वा भवति। "ध्रुवह सु. धूमर-धूसर-पुं० । गर्दने, उष्टे, कपोते, तैलाऽऽकारे ईषत्पारा
हासिउ किंपि" पके-"इत्तउंब्रोप्पिणु समणिचिउ,पुणु दूसासणु बणे, कृष्णश्वतवणे, शुक्लपीतवणे च । तद्वर्णवति, त्रि० । वाच । ब्रोपि। तोहचं जाण उपहो हरि,जमहुअम्ग(ब्रोप्पि ॥१॥"दुर्यो. "धूलिधूसरसर्याङ्गो।" प्रा० क० । प्रामा०।
धनोक्तिरियम-शकुनि म मातुल श्यद् क्त्वा स्थित पुनर्दुःशाधूसरिअ-धूसरित-त्रि० । " गुंमिश्र उलि अं च धूसरिभं।" सनो चूम्बा स्थितः। अहं ततस्तहि जाने यदि एष हरिममा को० १९२ गाथा।
ब्रुत्वा तिष्ठति शेष इत्यर्थः। पके-अन्वा । प्र० । "एप्प्यधिएवेन्ये. घे-ध्यै-धा० । चिन्तने, ज्वा०-पर०-सक०-अनिट् । ध्याय.
विणवः" 11८।४।४४०॥ क्वास्थाने एप्यिणु । "स्वराणां स्व
रा:प्रायोऽपभ्रंश"Gi|३२६॥ इति एकारेण सहकारस्य उ. ति । अध्यासीत् । वाच । भ०१ श० १३०।
कारः। ब्रोपिणु। बपिणु। क्त्वा प्र०।"पप्पेप्पिणु."॥18॥४४०॥ धै-धा। तृप्ती, भ्वा०-पर०-क-अनिट् । भ्रायति । अध्रा
इति स्वास्थाने। एप्पि। शेषं पूर्ववत् । ब्रोप्पि । प्रा.दु०४ पाद । सीत् । वाचा
यथाऽत्र भरते मेरुदिशि ध्रुवो वर्तते, तथा महाविदेहे वरच. घेज-धेय-त्रि० । धारणीये, पालनीये, ज्ञा०१ श्रु०१०।
ते वर्ततेन वा तथा-जम्बूद्वीपे कति ध्रुवारसाती?, इति प्रश्ने, ध्येय-त्रि.हिदि धारणीये, झा० १ श्रु. १ अ० । विपा।
उत्तरम-भरतवदन्यत्रापि ध्रुवाः संनाध्यन्ते, परमेतत्प्रतिपाद• । धयात सुतान् ध-नु-३च । नवप्रसूताया ग | कान्यक्कराणि तु न दृष्टानि स्मरन्तीति । २२२ प्र० । सेन. बि, वाच.1वृ०१०२प्रक०।प्रा.आचा
३ नवा.। धेवय-धैवत-पुं० । अतिसंधयते अनुसंधयति शेषस्वरानिति नि- धुकु-ध्रुवम्-न । " एवं-परं-सम-ध्रुवं-मा-मनाक् एम्ब-पररुक्तिवशाद् धैवतः। "मनुसंधयते यस्मा-देताम् पूर्वोत्थितार स्व. समाणु--म-मणाउं" ॥८181४१८॥ इति प्राकृतसूत्रेण रान्। तस्मादस्य स्वरस्यापि, धैवतत्वं विधीयते ॥१॥" इत्युक्ता- धुवमो ध्रुवुः । नित्यमित्यर्थे, प्रा०४ पाद । " चंचल जीविउ
के रैवतापरनामधेय, स्था.ग.। अनु० गत्वा नाभेरधोभा- ध्रवु मरणु,पि रूसिज्ज काइँ। होसदिहा रूसणा दिव्य गं, शक्ति प्राप्योवंगः पुनः । धावनिन च यो बाति, करदेश बरिससया॥१॥" जीवितं चञ्चत्रं, मरणं ध्रुवं, हे प्रिये !क. स धैवतः॥१॥" इत्युक्तलक्षणे करायोक्ते स्वरभेवे, वाच । प्यते कथं रोषणस्य दिवसा अपि दिव्यानि वर्षशतानि भवि“धेवयस्सरसंपणा, चंति कलहपिया।" साठा०। । यन्तीत्यर्थः । प्रा०४ पाद ।
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इति श्रीमत्सौधर्मबृहत्तपागच्छीय-कलिकालसर्वकल्प-श्रीमद्भट्टारक-जैन श्वेताम्बरा. ऽऽचार्य-श्री १००७ श्रीविजयराजेन्द्रसूरीश्वरविरचिते 'अजिधानराजेन्डे'
धकाराऽऽदिशब्दसङ्कलनं समाप्तम् ।
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________________
न
61
33
Toate ateato soot
नकार
Oye Oye
तस्वपः
न-न- पुं० नासिकाद न्तस्थानीयः । " नो नरे च सनाथेऽपिनोऽनाथेऽपि प्रदृश्यते । (७६) एका० । “नशब्दस्त्रिषु लिङ्गेषु पठ्यते भिन्नसूक्ष्मयोः ॥ ५३॥ " एका पुंसि वही देखे (४२)" "कारस्तु स्त्रियां मानी (२३)। नशखिषु लिङ्गेषु पठ्यते भिमो ॥३॥ "
(२७७१) अभिधानराजेन्द्रः ।
एका० २० ।
3
न - अव्य० । निषेधे, “वाऽऽदौ " ||८|१|२२६॥ श्रसंयुक्तस्याऽऽदी वर्तमानस्य नस्य णो वा भवति । एत्वपक्षेण । प्रा० १ पाद । नात्पुनर्यादा वा " ॥ ८१ ॥ ६५ ॥ नञः परे पुनः शब्दे आदेरस्य श्री आर इत्यादेशौ वा भवतः । 'न उणा, न उपाइ ।' पक्षे' न उण, न उणो प्रा० १ पाद । ना - नग - पुं० " क-ग-च-ज-त-द-प-य व प्रायो लुक् ॥ छ । १ । १७७ ॥ इति लुक् । पर्वते, प्रा० १ पाद । नाण - नयन- न० " क-ग-च-ज-त-द-प-य व प्रायो लुक् | | ११७७ ॥ इति यलुक् । प्रा०१ पाद । चकुषि, प्रा० १ पाद । नअर-नगर-न० । 'कन्ग-०८११७७॥ इत्यादिना गहुक् । "पतिः" ११० ॥ इति अकारो यतिका क्वचिन्न नरं । पुरे, प्रा० १ पाद ।
66 श.
44
नई नदी - स्त्री० । सरिति सूत्र० १४० १ ० ५ ० । ऽऽदौ” ॥ छ । १ । २२७ ॥ श्रसंयुक्तस्याऽऽदौ वर्तमानस्य नश्य यो वा भवति । 'नई ।' पके गई । प्रा० १ पाद । भ० । प्रश्न० । " सरिया तरंगिणी निएल या नई बावचा सिंधू । " को० २८ गाथा । ( अत्र विशेषवक्तव्यता 'ई' शब्दस्मिन्नेव जागे १७३० पृष्ठे गता )
नह-नाट्य- न० । नृत्ते, शा० १ ० १ ० । बृ० । जं० । रा० । नहं वासं तरुवं । " को० १६६ गाथा । ( अस्य द्वात्रिंशदाः ' खडू ' शब्देऽस्मिन्नेव नागे १७९८ पृष्ठे दर्शिताः) नह-नट-पुं० | नाटकानां नाडयितरि, झा० १ श्रु० १ म० । “नडो कुलीलओ ।" को० २७२ गाथा । ( अस्य भेदौ ' जड 'शनामे १००४ पृष्ठे दर्शित)
नउ - नउ - अय० । “इवार्थे नं न नाइ - नाव - जति अणनः " ॥ १४:४४४॥ इति श्वार्थे नन इत्यादेशः "रविमा समाजले कण्ठि विषणु नछिए । किं खरा मुणाविहे. न दिन" समार दिस्थापितं
.
नमिअ-नटित-न० । विरुम्बिते झा० १ श्रु० ९ अ• । " जूरिअं उत्तम्मिश्रं नमिश्रं । " को० १०६ गाथा । मनवर-नकबरया चरतीति नकर
क्षसे, चौरे, विमाले च । " क-ग-च-ज-त-द-प-य-वां प्रायो लुक् " ।। ८ । १ । १७७ ॥ इति फलुक् । "नत्तंचरो" प्रा०१पाद | नचून-नंष्ट्रा - अव्य०। नग् क्का । “डून- त्थूनौ ट्वः” ॥ ८|४ | ३१३ ॥ इतिय स्थाने नादेशः महत्व
न बिनं न भक्षितं, ' नउ ' उत्प्रेक्ष्यते, जीवस्य निर्गच्छतोऽला दत्ता ॥ प्र० ४ पाद
नं नं - अव्य० | "श्वार्थे नं- नउ - नाइ नावइ जणि जणवः " || ८|४|| ४४४ ॥ इति इवार्थे नं इत्यादेशः "मुख - कबरी-बन्ध तह, सोह घरहिनं मल- जुज्भु ससि राहु करहि । तहें सोहहिं कुरल भभमनं तिमिरमिलिय तस्या मुखकबरीवन्धौ वदनवेणीबन्धी शोभां धरतः 'नं' उत्प्रेक्षते-शशिराहू मल्लयुद्धं कुरुतः। तस्याः कुरलाः केशाः शोभन्ते । किंभूताः ।
33
39
मम्म
मरकुवतुलिता मधुरसमाना '' उत्प्रेते तिमिर डिम्भा अन्धकार बालका मिलित्वा श्रीमन्तीत्यर्थः । प्रा०४ पाद । "नं ब्रह्मणि तथाऽनन्ते, सानन्दे नं च नन्दने ॥ ७६ ॥ " एका० । "नमाख्यज्ञानयोर्भवेत्। " (५३) एका
"
नंदण - नन्दन - न० | देववने, “ नंदणं अमरुञ्जाणं । " को० १७ गाथा । (अस्य बहवोऽथः दण शब्देऽस्मिन्नेव भागे पृष्ठे )
"
नंदणा-नन्दना[स्त्री० । तनयायाम्, " अंगया नंदणा सुआ, तगया ।" को० १०२ गाथा ।
66
"
नंदी - नन्दी - स्त्री० । हर्षे, ज्ञानपञ्चके, हाते, आ० म० १ श्र० १ खराम | नंदी मंगलहेडं । " बृ० १ उ० । गवि, " नंदी तंबा बहुला, गिठी गोला व रोहिणी सुरही । " को० ४५ गाथा । (नन्द्याः परिपूर्णतया व्याख्या • दि शब्देऽस्मिन्नेव जागे १७५१ पृष्ठे प्रतिपादिता ) नकर - नगर - न० | नगा वृक्काः पर्वता वा सन्त्यस्मिन्निति नगरम पुरभेदे "लिकापैशाचिक तृतीयपोती" ॥ ८ | ४ | ३२ ॥ इति गस्य कः । 'नगरं । नकरं ।' प्रा० ४ पाद । नकविरा नासिका शिरा स्त्री० प्राणशिरायाम, 'लुंखु नक्कसिरा । " को० ११४ गाथा ।
नक्ख-नख-पुं । कररुहे, “सेवाऽऽदौ वा ॥ ८ |२| एए ॥ इति खद्वित्वम् । प्रा० २ पाद जी० । मौ० । दे० ना० । 'नक्खा नहा कररुदा " को० १०६ गाथा ।
61
नक्खत्त - नक्षत्र - न० ज्योतिष्कदे, द० प० । स्था० । जं० ॥ " रिक्खं बरु नक्खत्तं । " को० ६६ गाथा । सु० प्र० । चं० प्र० । ( विस्तरतो व्याख्या ' णक्खत ' शब्देऽस्मिन्नेव भागे १७६० पृष्ठे गता )
नगोह - न्यग्रोध- पुं० 1 बटे, प्रज्ञा० १ पद । नि० चू० । “नभ्गोहं वरुणं । " को० २५७ गाथा ।
प्रा० ४ पाद ।
नम्म - नर्मन् - न० 1 दास्ये,
" केली नम्मं च परिहासो ।" को० स्नमदामशिरोऽनभः " || ८ | १ | ६२ ॥ इति प्राकृते वा पुंस्त्वम् ।“नम्मो " परिहासे, केलौ च । प्रा०४ पाद ।
१६६ गाथा ।
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नम्मया
मम्पया नर्मदा खीयता प्रसिद्धन्द्याम् " मै अनकन्ना य नम्मया रेवा । " को० १३० गाथा । श्राप० । नम्रता - स्त्री० । श्रौचित्ये, नमनशीलतायाम्, द्वा० १२ द्वा० । नयण - नयन-न० । प्रापणे, आ० म० १ ० १ खण्ड। निवेशने. पं० [सं० ५ द्वार । नेत्रे, “ अनि नयणं च लोनणं नित्तं । ” को० १११ गाथा ।
-
(२७७२)
अभिधानराजेन्रूः ।
नपणा श्री०-नयन-म० "वाग्दवचैवचन
॥ १।
३३ ॥ इति नयनशब्दस्य प्राकृते स्त्रीत्वमपि । 'नयणा - नयणाई।' प्रा० १ पाद ।
1
नर-नर-पुं० । पुरुषे, प्रा० १ पाद आचा० आ० म० । " म को० ६० १६०३
हुआ नरा मणुस्सा, मच्चा तह प्राणवा पुरिसा । गाथा । ( नराणां भेदाः ' गर' शब्देऽस्मिन्नेव भागे पृष्ठे उक्ताः )
नरणाह- नरनाथ- पुं० राजनि "मरनाहो परियोनियो रा या । " को० १०० गाथा ।
नल-नर- " रसोशी " ॥ ८ । ४ । २७८ ॥ इति मागध्यां रस्य
नयजल - नयनजल - न० 1 नेत्रजले, "घप्फं बाहो य नयणज- नारी - नारी स्त्री० नरस्त्रियाम् वृ० ४ उ० ।" पुरिसाणां नो अनो परिलो अरी अस्थि त्ति नारी उ" तं० । ( व्याख्या
स्तं । " को० ११२ गाथा ।
4
शास्मि भने २०१३ पृष्ठे गया )
एकार्थिकानि
सः। नले, प्रा० ४ पाद ।
नलय - नन्चक - न० | कमलवन्तो, " नलयं सामजयं उसीरं च । " को० १४६ गाथा ।
नसिय नलिन १० कमले, "बुरुस
सरो
वं तामरसं महष्य पंक नलि ॥१०॥* को० १० गाथा । (अस्य बहवोऽर्थाः ' एलिय' शब्देऽस्मिन्नेव भागे १९२८ दर्शिताः)
नक्षिणी नलिनी बी० कमलिन्यास "मिलिणी नखिची कमलिणी य । " को० १४८५ गाथा । पद्मिन्याम, झा० १० १ अ० ।
नवरंग - नवरङ्ग - त्रि० । “ रग्गयं च नवरंगं । " को० २६१
गाथा ।
नवरि-- अव्य० । शीघ्रे, "सयराहं नवरि य-ति झति सहसक्किसरि विधि मि क्खणं सहसा ॥ १७ ॥ " को० १७ गाथा ।
नवसिम - नमस्थित त्रि० । नमस्कारकर्तरि, " ओवाश्मं न
बसिश्रं । " को० १५६ गाथा ।
16
नह-नख- पुं० । पाणिपादजे, प्रच० ४० द्वार | कररुहा । " को० १०६ गाथा । ननम् - न० । झाकाशे, एकार्थिकानि " खं अन्भं अंतरिक् घोमं नह-मंबरं गयणं । " को० २७ गाथा । नाम-नाक-पुं० [स्वर्गे
तिविरूपं तद्द सुरालम्रो नाओ ।"
को० ६५ गाथा । ज्ञात - त्रि० । श्रवबुद्धे, प्रा० ४ पाद । नाइ नाइ - अव्य० ।
इवार्थे नं-नल- नाइ नाव इ-जणि जणवः ॥ ८।४।४४४॥ इति इवार्थे 'नाइ' आदेशः । "बलयावलिनिव रणभप-ण घण उरूम्भुम जाइ । बढद्दविरद्दमद्दादद्दर, पाह
"
नासा
गवसेइ नाइ ॥ १ ॥” नायिका वक्षयावलिनियतनज येन ऊर्ध्वजा याति । "नाइ" उत्प्रदेयते वजवि रद्दमहाहदस्य स्तांघ गवेपयतीत्यर्थः । प्रा० ४ पाद ।
नक्खा नहा
नाम-नामन् - न० । अन्यबोधाय कृते पदार्थानां संज्ञायाम्, “स ना गुत्तं च नाम अभिहाणं । " को०१६१ गाथा (नाम्नो नेदा णाम' शब्देऽस्मिन्नेव जागे १०७ पृष्ठे दर्शिताः )
"
-
ic
रामा रमणी सीमं तिणी बहू वामलोचणा विलया | महिला जुवई श्रबला, नियंत्रिणी अंगणा नारी ॥ १२ ॥ " येकार्थका नि
" सच्छंदा उद्दामा, निराला मुकला बिसंखझया | निरवगहा य सहरा, निरंकुसा हुंति अध्वसा ॥ १३ ॥ " को० १२-१३ - गाथा ।
95
| नारुह-नारुह-पुंसारेको० १३२ गाथा । दे० ना० । नालिअ मूढ भि० " शीघ्रादीनां बहाऽऽयः ॥ ४।४२२ ।। [इस्यन्तर्गणसुत्रेय मुदस्य नामिमादेशः मूर्खे, वाले, जमे प्रा० "जो मन दम्मु सनम राज कौतु गुण सोनाक्षि ॥ १ ॥ " पुनर्मनश्येय (फसि अ) व्याकुलभूतः सन् चिन्तयति-द्रम्मं न ददातिन रूपकम्. स मुझे रयिशन भ्रमणशीयः सन् करातिं कुतं भ गृहे एव गुणयति चानयतीत्यर्थः । प्रा० ४ पाद । नालिमा नायिका श्री० समय नियामके
यः
"ना सिया घडिया । " को० २७२ गाथा । ज्यो० । अनु० । ( नालिका किंप्रमाणेत्यादि सर्वां वक्तव्यता णानिया' शब्देSस्मिकशेष भागे २०१४ पृष्ठे गता )
नासिका श्राम्राऽऽदिमय घटिकायाम, धनु
-
नावइ - नात्रइ – अव्य० । श्वार्थे, " इवार्थे नं नल-नाइ - नाव - जणि जणवः ||८||४४४ ॥ इति इवार्थे नावइ आदेशः । "पेक्खेविजियो, दीदरनयण सोना गुरु
मरिच,जनणि पवीसह झोपु ॥१॥" 'नाव' उत्प्रेक्ष्यते, गुरुम त्सरभूतं सवणं ज्वलने प्रविशति, किं कृत्वा ?, जिनवरस्य दी र्धनयनं सलवणं सनावएयं मुखं प्रेदयेत्यर्थः । प्रा० ४ पाद । नास-नाश-पुं० । अभावे, द्रव्या० ६ अध्या० । (अस्य नेदप्रति• पादनं 'पास' शब्देऽस्मिन्नेव भागे २०१५ पृष्ठे गतम् ) " पलयो निणं नासो । " को० १६७ गाथा । नाशि-नश-धा० । णिच्-विधाते, "स्वराणां स्वराः" ॥ छ | ४ । २३८ ॥ इति स्वाकारस्थाने दीर्घाऽऽकारः । प्रा० ४ पाद । मासा - नश्यति था। विदारय-विध्यमा ॥ ८ | ४ | ३१ ॥ इति नशेएर्यन्तस्य नासाऽऽदेशः । ल-पलायाः 'नासइ । ' नाशयति । प्रा० ४ पाद ।
13
नासा-नासा स्त्री० । घ्राणग्रहणेन्द्रिये, “नास्ता घाणं घोला ।"
को० १११ गाथा ।
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(२०७३) अभिधानराजेन्द्रः ।
निब
निग्गहहाण
निव-नितम्ब-पुं० । कटिपश्चाद् मागे, कटके च । वाच । निगृह्यते तन्निग्रहस्थानम् । सूत्र.११०१२ ० । धादिवश. " रमणतियं निअंबो।" को• ११५ गाथा।
नार्थ के प्रतिक्षाहान्यादा, स्था०१म०। विप्रतिपत्तिः, अप्रति
पस्तिश्च निग्रहस्थानम् । तत्र विप्रतिपत्तिः साधनाभासे साधनिअंबिणी-नितम्बिनी-सी । खियाम्, को० १२ गाथा ।
नबुकिदूषणाभासे च दृषणबुरुिरिति । अप्रतिपत्तिः साधन(अस्यकाधिकानि 'नारी' शब्दे गतानि )
स्यादूपणं, दूषणस्य चानुकरणम् । तच्च-निग्रहस्थान द्वाविंशतिनिभंसण-निवसन-न। परिधाने, औ० । जीचा । उत्त०।।
विधम । तद्यथा-प्रतिज्ञाहानिः१, प्रतिज्ञाऽन्तरम् २ प्रतिझाविकटीवो. "जाण सिचयं कडिल्लं, निसणं साहुली य परि- रोधः ३, प्रतिज्ञासंन्यासः४. हेत्वन्तरम् ५. अर्थान्तरम ६,निर. इणयं ।" को०६६ गाथा ।
थंकम, अविज्ञातार्यकम ८, अपार्थकम् ६, अप्राप्तकासम् १०, निमकल-निकल-त्रि० । गोलाऽऽकारे, “पेढाल-
निकल- न्यूनम् ११, अधिकम् १२, पुनरुक्तम् १३, अननुजाषणम १४, बटुलाई परिमंमलत्थस्मि ।" को००४ गाथा । दे. ना०।
प्रज्ञानम् १५, अप्रतिभा १६, विकेपः १७, मतानुका १८, पर्य।
नुयोज्योपेक्कणम् १६,निरनुयोज्यानयोगः २०, अपसिद्धान्त:२१, निअगुणसझाहा-निजगुणश्लाघा-स्त्री.। स्वगुणप्रशंसाया.
हेत्वाभासाभ२२॥ तत्र १-हेतावनैकान्तिकीकृते प्रतिरन्तिधर्म म्, " विगस्थणं निगुणसलादा।" को० २४७ गाथा ।
स्वष्टारतेऽज्युपगच्चतः प्रतिज्ञाहानिनाम निग्रहस्थानम । यथानिअत्त-निवृत्त-त्रि० । “निवृत्तवृन्दारके वा" ॥१॥१३२ ।। अनित्यः शब्द पेन्ष्यिकत्वाद् घटवदिति प्रतिज्ञासाधनाय वा
इति ऋत नद्वा । 'निवुत्तं । नित्तं ।' विरते, प्रा०१ पाद ।। दी बदन् परेण सामान्यमन्द्रियकत्वमपि नित्यं दृष्मिति डेनिय-नियत-त्रि०। नियमिते, "निश्चं निभयं सासयं।" को० तावनैकान्तिकीकृते यद्येवं ब्रूयात्-सामान्यवद् घटोऽपि नित्यो
भवत्विति । स एवं बुनाणः शब्दानित्यत्वप्रतिज्ञां जह्यात् । १६० गाथा । सूत्र० । वृ.। ('निच्च' शब्देऽस्य बहून्येकाथि
२-प्रतिशातार्थप्रतिषेधे परेण कृते तत्रैव धर्मिणि धर्मान्तरं साकानि (१५३) गाथार्द्धनं प्रतिपादितानि)
धनीयमभिदधतः प्रतिकान्तरं नाम निग्रहस्थानं भवति । अ. निजक-वि० । स्वकीये, “ अप्पुल्लयं निभयं । " को० २३१
निरपः शब्द ऐन्छियकवादित्युक्त तथैव सामान्येन व्यभिचारे गाथा । श्राव।
चोदिते यदि ब्रूयाद्युक्तं सामान्यमन्छियकं नित्यम, तद्धि स. निअर-निकर-पुं० । समुदाये, को०१८-१५-गाथा । (अस्यै- गतम, असर्वगतस्तु शब्द इति । तदिदं शब्द अनित्यकार्थिकानि निरंब' शब्दे वक्ष्यते)
स्वलक्षणपूर्वप्रतिझातः प्रतिज्ञाऽन्तरमसर्वगतः शब्द इति निनिलिम-निगडित-त्रि० । बके, "बकं संदाणि निभनि
प्रहस्थानम् । अनया दिशा शेषाएयपि विंशतिज्ञेयानि २ ।
स्या० । ( ३- प्रतिज्ञाविरोधविवेचनम्-' पइयाविरोह ' अंच।" को. १६७ गाथा ।
शब्दे ) । (४- प्रतिज्ञासंन्यासविवरणम्- ' पक्षमासमास नि प्राण-निदान-न० । भादिकारणे, को० १७६ गाथा। (अत्र | शब्दे पञ्चमभागे दर्शयिष्यते ) । (५- हेत्वन्तरव्याख्याविशेषः ‘णियाण' शब्देऽस्मिन्नेव भागे २०६४ पृष्ठे गतः) देउअंतर ' शब्द रुष्टव्या) । ६-"प्रकृतादादप्रनिउंचिअ-निकुञ्चित-त्रि० । संकुचिते, “संकोडिनं निउं. तिसम्बकार्थमर्थान्तरम् ७" । गौ० सू० । यथोक्कसतणे चिदं।" को० १८६ गाथा ।
पक्कप्रतिपकपरिग्रहे हेतुतः साध्यसिद्धौ प्रकृतायां ब्रूयात्निनण-निपुण-त्रि० । कुशले, " चतरा निनणा कुसला, बेत्रा
नित्यः शब्दोऽस्पर्शत्वादिति हेतुः । हेतुर्नाम हिनोतेर्धातोस्तुनि
प्रत्यये कृदन्तपदं, पदं च नामाऽऽख्यातोपसर्गनिपाताः । अभिधे. विसा बुहा य पत्तहा।" को०६० गाथा । (अस्य शब्दस्य
यस्य क्रिया तरयोगाद्विशिष्यमाणरूप:शब्दो नाम,क्रियाकारबहवोः णितण' शब्देऽस्मिन्नेव भागे २०१७ पृष्ठे दर्शिताः)
कसमुदायः कारकसंख्याविशिष्टक्रियाकालयोगाभिधाय्याख्यानिगुण-त्रि० । नियतगुणे, विशेः ।
तं, धात्वर्थमानं च कालाभिधानविशिष्टं,योगेश्वधादभिद्यमाननिरंब-निकरम्ब-पुं० । समूहे, एकाधैिकानि-" उप्पको उ
रूपा निपाताः, उपसज्यमानाः क्रियावद द्योतका उपसा इ.
त्येवमादि, तदर्थान्तरं वेदितव्यमिति । भा० । ( अस्य पीलो, उकेरो पहयरो गणो पयरो। ओहो निवहो संघो, #.
' अत्यंतर' शब्देऽपि, प्रथमन्नागे ५०७ पृष्ठे किश्चिद्रलघाश्रो संहरो निअरो।। १८ ।। संदोदो निउरंबो, भरो निहाप्रो।" को० १८-१६--गाथा । औ० । रा० । जी० ।
व्यमस्ति) (७-निरर्थकविवेचनम्-' निरत्यय ' शब्देऽग्रे
२७७५ पृष्ठे वक्ष्यते) (0-"परिषत्प्रतिवादिभ्यां त्रिरभिहिनिक्किन-निष्कृप-त्रि. । निर्दये, “निबंधसा निसंसा, निच्चु.
तमप्यविज्ञातमविज्ञातार्थम् ए" गौ. सू० । यद्वाक्यं परिषदा, हा निक्किवा अकरुणा य ।" को०७३ गाथा । पं० ब०। (अ. प्रतिवादिना च त्रिरनिहितमपि न विज्ञायते श्लिष्टशब्दमनस्य बक्कण णिकिव' शब्देऽस्मिन्नेव भागे २०२२ पृष्ठे 5. तीतप्रयोगमतिद्वतोश्चारितमित्येवमादिना कारणेन तदविज्ञातमएव्यम्)
विज्ञातार्थमसामर्थ्यसंघरणाय प्रयुक्तमिति निग्रहस्थानम् । ना निक्खय-निक्षत-त्रि० । 'णिक्खय ' शब्दार्थ, को० २४० (सूत्रस्याऽस्य वृत्तिप्रेन्थतोऽवसेया)।(8-"पौषांपर्यायोगादप्रगाथा । दे० ना.।
तिसंबद्धार्थमपार्यकम १०।" गौ. सु० । यत्रानेकस्य पदस्य,पानिक्खित्त-निक्तिप्त-त्रि० । "णिक्खित्त 'शब्दाथें, "निमित्रं
क्यस्य वापौर्वापर्यणान्वययोगो नास्तीत्यसम्बकार्यकत्व गृहाते.
तत्समदायोऽर्थस्यापायादपार्थकम् । यथा-दश दाडिमानि,पडपु. निहिनं च निक्खित्तं।" को० १६३ गाथा।
पा,कुएममजाजिनं पलनपिण्डः,अथ रोरुकमेतत् कुमार्याःपाय्यं, निग्गहाण-निग्रहस्थान-न०। वादकाले वादी प्रतिवादी येन | तस्याः पिता अप्रतिशीन इति । भा०। (ग्रन्थादेव वृत्तिविलोक्या)
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निग्गद्दडाय
१०-यापनका
११ गी०सू० प्रति शाऽऽदीनामवयवानां यथालकणमर्थवशात् क्रमः, तत्रावयवविपर्यासेन वचनमप्राप्तकाल सम्बन्धार्थकालं निग्रहस्थानमिति । भा० अप्राप्तकालं लक्कयति अवयवस्य कथैकदेशस्य विपर्यासो वैपरित्यम् । तथा च समयबन्धविपयीभूतयमविपरीत मेणानिधानं पर्यम् सायं क्रमः दाना सामान्यतो हेत्वानास उद्धरणीय इत्येकः पादः । प्रतिवादिनश्च तत्रापालनो द्वितीयः पादः । प्रतिवादिनः स्वपक्षसाधनं तत्र देखाभासोरचेति तृतीयः पादः जयपराजयवस्था चतुर्थः पादः । एवं प्रति देवादीनां क्रमः । तत्र सभाको भव्यामोऽदिनाव्यस्यस्ताभिधानमप्राप्तका समिति वृतिः ११ (न्यूनध्याख्या नून' शब्देऽनुपदमेव २७७३ पृष्ठे करिष्यते (१२- अधिकव्याख्या 'अहिय' शब्दे प्रथमभागे ८६७ पृष्ठे गता )
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(२७७४ ) अभिधानराजेन्थः ।
(१३- पुनविषयः पुणशब्दे)१४
स्य परिषदा त्रिरनिहितस्याप्यनुश्चारणमननुभाषणम् १७" । गौ० सू० | विज्ञातस्य वाक्यार्थस्य परिषदा प्रतिवादिना त्रिरभिहितस्य यदप्रत्युच्चारणं तदननुभाषणं नाम निग्रहस्थान मिति, अप्रत्युच्चारयन् किमाश्रयं परपकप्रतिषेधं ब्रूयात् । भा० । अननुमायं पति-पदार्थस्वयादिना विभिरभिहितस्य तथाच प्रथमवचनेऽननुभाषणे पादिना वास्त्रयं वाक्यमिति तथा विभिधाने यत्रानुजाषणविरोधी व्यापारः, तत्राननुभाषणं निग्रहस्थानमित्यर्थः । अत्रस्याऽवशिष्ट वृत्तिस्तु ग्रन्थतोऽवसेया) १५-" अविकान ८०० विज्ञाता परिषद प्रतिया दिन रभितस्य निस्थानमिति । अयं स्खल्वविज्ञाय कस्य प्रतिषेधं ब्रूयादिति । (पुनरस्य वक्तव्यं 'श्र मासु' शब्दे प्रथमभागे ४८७ प्यस्ति । १६ उचरस्याप्रति पत्तिरप्रतिभा १६” | गौ०सू० । परपक्षप्रतिषेधः उत्तरं तद् यदा न प्रतिपद्यते तदा निगृहीतो भवति । ना०] अप्रतिभां लक्षयति-उ तराई परोक्तं बुध्वाऽपि यत्रोत्तरसमये उत्तरं न प्रतिपद्यते तत्राप्रतिभा निग्रहस्थानम् । न चात्राननुभाषणस्याऽऽवश्यकत्वात् तदेव पति वा परोकापनुवादेहि तत् यत्र मनोरंजन पात्रेया चेयमिति वृत्तिः । १९। (१७ विक्रेपो 'वि सेव' शब्दे (१८ मतानुष्ठा- 'मामा' शब्दे (११- पर्यनु योज्योपेक्कणं- 'पज्जणुजुज्जुपेकखण' शब्दे) । (२०- निरनुयोज्यानु योगः ' निरयुज्ज्जा ए भोग ' शब्देऽग्रे वक्ष्यते ) २१ -" सिद्धा
"
तमभ्युपेत्यानियमात् कथाप्रसङ्गोऽपसिद्ध२४ । सू० । कस्यचिदर्थस्य तथानार्थ प्रतिज्ञाय प्रतिज्ञातार्थवि पादनियमात् कथयो वेदितव्यः यथा न सदात्मानं जहाति, न सतौ विनाशो, नासदात्मानं लभ ते नात्पद्यत इति सिद्धान्तमभ्युपेत्य व व्यवस्थापयति एकप्रकृतीदं व्यक्तं विकाराणामन्वयदर्शनादू मृदन्त्रितानां शरा चाऽऽदीनां दृष्टमेकप्रकृतिकत्वम् । तथा चार्य व्यक्तभेदः सुखदुःख मदर्शनसुखादिगरेक प्रकृती शरीरमिति एवमुकवाननुयुज्यते अथ प्रकृतिविकार
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'
निद्देस
तीति
तिरोभावाभिवमन्तरेण न कस्यचित्र
वृत्तिः परमभवति मृदि स्थितायां भविष्यति सरावादरमितिअदिति च प्रवृत्युपरमः तदेतन्मृधर्माणामपि न स्यात् । एवं प्रत्यवस्थितो यदि सतामहानमवता मला मम ज्युपैति तदस्या पसिकान्तो निप्रहस्थानं भवति । अथ नाभ्युपैति पक्कोऽस्य न
प्रतिज्ञा वृद्धिप्रग्या देवावति) (२२ देवासा देवाजास ' शब्देव्याः ) गौ० सू० वा०जा०वि० वृ० । निविष्ठ निर्गीर्ण-त्रिनिर्मानीहर" को०
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१६७ गाथा ।
निम्पनि निक्षिप्त-त्रि निकले, "विनिय व आद्धं । " को० १८६ गाथा ।
निच-निश्पविदायें अरिय रा मं, अणुवेलं संतयं सया निच्चं । " को० ८७ गाथा । निच्चुड-निच्चु - त्रि० । 'निक्किव' शब्दार्थे, को० ७३ गाथा । निच्छूह- उद्वृत्त- -त्रि० । " के नाप्पुष्टाऽऽदयः 39 ॥ ८ । ४ । २५८ ॥ इति निन्दादेशः छूट उत किप्ते, प्रा० ४ पाद । निज्जर-निर्जर-१० प
५० ५ ० ७ ४० ।
" श्रोज्जरं निज्करं ।" को०२१६ गाथा । क्षि-धातोस्तु 'णिज्कर' पत्र । स च एकाऽऽदिसंकलने गतः । "केर्णिज्झरो वा" | ४ । २० ॥ इति णकाराऽऽकान्त एव । प्रा० ४ पाद । निजाय-राणे
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वृशो अच्छावयज्ज- वज्ज- सव्ववदेकखौ अक्खावखावख पुलोप- पुलपनिभाव श्रास-पासाः ॥ ८ । ४ । १०९ ॥ " इति दृशेः 'निज्जा' श्रादेशः । 'निज्जाश्रइ ।' पश्यति । प्रा० ४ पाद | निट्टुइय क्षरित त्रि० । करिते, " निट्टुश्श्रं खरिभं छिप च नीसंदिअं च पज्झरिश्रं " को० ८० गाथा । निवर- निष्ठुर - त्रि० । णिट्टर ' शब्दार्थे, ककसा निकुरा खरा खप्पुरा फरुला । " को० ७४ गाथा । निमाल निवाल ० "कपाले नाम निवासं । को०११२ गाथा । केचिदव्युत्पन्नमपि वदन्ति । लनाटशब्दस्य तु "ललाटे " ॥ ८ । १ । २५७ ॥ इति सूत्रेण ललाटस्य णकाराssदिरेवाऽऽदेशः । " णिमालं | प्रा० १ पाद |
4
कढणायक
निम्म नीम न० । “ नीडं निम्मं कुलायं च । ” को०१२६ गा
था। पक्षिणां निलये, वाच० । निपा निम्नगा नाम की०२८ गाथा | प्रज्ञा० । ( 'नई' शब्देऽनुपदमेव विशेषो गतः :) नित नेत्रन० नयने स्था० १० ०" अच्छी नय लोखणं निसं । " को० १११ गाथा ।
नित्थाम- निःस्यामन्- ि -त्रि० । बन्नहीने, " ओबुग्गो नित्थामो । " को० १७० गाधा ।
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०
यमिति । यस्यास्तस्य धर्मानिलि-निर्देशित त्रिमर्दिते म तौ धर्मान्तरं प्रवर्त्तते सा प्रकृतिः यच्च धर्मान्तरं प्रवर्त्तते स विकार इति । सोऽयं प्रतिज्ञातार्थविपर्यासादनियमात् कथां प्र. सज्जयति प्रतिज्ञातं खल्वनेन नासदाविर्भवति सत् तिरोभव
लिभं । " लो० २०१ गाथा । निस-निर्देश-पुं० आज्ञायाम्, "आपसो सासणं च निसो ।” को० १७३ गाथा | ( अत्र बहु वक्तव्यं 'जिस ' शब्देऽस्मिन्नेव
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(२७७) निदेस अभिधानराजेन्डः।
निविट्ठ भागे २०७२ पृष्ठे गतम्) (निर्देशनिक्केपः, तत्स्वरूपं च 'उद्देस' शब्दे द्वितीय भागे ७६६ पृष्ठे गतम)
बोधाऽऽविष्करणानुनाषणप्रवृत्ते वादिनि तद्भावनामत्यादि. निद्धंधस-निर्धन्धस-त्रि.। निर्दये, को०७३ गाधा । (अस्यै-|
कमूह्यामति वृत्तिः।२३ । गौ० सू० बा. भा० वि००।
निरत्य (ग) य-निरर्थक-पु.। सप्तमे निग्रहस्थानभेदे, कार्थिकानि " निक्किव" शब्देऽनुपदमेव गतानि)
स्था । "वर्णक्रमनिर्देशवनिरर्थकम् ।"८ गौ००। यथा-नित्यः निद्धामिअ-निर्धाटित-त्रि. निर्गते, “निद्धामि नीणि।" शब्द: कचटतपा: जवगडदशत्वात ऊभवढधष्वदिति एवं को. १७६ गाथा।
प्रकारं निरर्थकम् । अभिधानाभिधेयभावानुपपत्तौ अर्यगतरजा. निबंधण-निबन्धन-न० । कारणे,"निबंधणं कारणं निमाणंच।" | बाद वर्ण एव क्रमेण निर्दिश्यन्त इति । भा० निरर्थकं लक्कयको० १७६ गाथा । विशे० । वाच ।
ति-वर्णानां क्रमेण निर्देशो जवगरेत्यादिप्रयोगः,तत्तुल्यो निर्देशो निब्जर-निर्जर-त्रि०। अतिशयपूरिते, " निन्जर-महसयभ.
निरर्थक निग्रहस्थानम्, अवाचकपदप्रयोग इति फलितार्थः । रियं ।" को० २१४ गाथा । वाच०। प्रा. म०।
वाचकत्वं शक्त्या,निरूढलकणया,शास्त्रपरिजाषया वा बोध्यम्।
समयबन्धव्यतिरेकेणेति विशेषणीय, तेन यत्रापभ्रंशेन विचार: निम्भिम-निर्जिन-त्रि० । विदारिते, "कप्परिश्र दारियं च |
कर्तव्य इति समयसम्बन्धस्तत्रापभ्रंशे न दोषः, ऊटिति संवरणे निम्तिएणं।" को० १९६ गाथा ।
तुन दोष इत्युक्तप्रायम् । अस्य सम्भव:प्रमादादित्यवधेयमिति निमिअ-स्थापित-त्रि० । णिक्खित्त' शब्दार्थ, "केनाप्फुराणाऽऽ.
वृत्तिः । । । गौ० स० बा०भा०वि०० ० । उत्त। विशे। दयः" ॥८४॥२५८॥ इति स्थापितस्य "निमिअ' श्रादेशः । प्रा०४|
निरवग्गहा-निरवग्रहा-स्त्री० । स्वच्छन्दविहारिण्यां रमायाम, पाद । (अस्यैकार्थिकानि 'निक्खित्त' शब्दे गतानि)
को० १३ गाथा । ( पायाश्चास्य 'नारी' शब्दे गताः) निम्मल्ल-निर्मात्य-न । देवा व्ये, वाच। " सम्मालो।
निराय-निराय-त्रि०। सरले, "पणं निरायं उजुयं।" को. निम्मल्लं ।" को० १४१ गाथा ।पि।
१७५ गाथा। निम्महि-निर्मथित-त्रि० । निराकृते, "गंधुम्गिरणम्मि निम्म
निरोह-निरोध-पुं० । तापे, “धम्मो ताबो माहो, सम्दा सपदं हिअं।" को. १६६ गाथा ।।
निरोदो या" को.४६ गाथा । ( अस्यान्येऽप्यर्थाः 'णिरोह' निम्माण-निरमा-धा० । विरचने, " निर्मों निम्माण-निम्म.
शब्देऽस्मिन्नेव भागे २११६ पृष्ठे गताः) बो" ॥८॥8॥१६॥ निवस्य मिमेतेरेतावादेशौ वा निम्माण।
ण । निलय-निलय-पुं। गृहे, उत्त० ३२ अाको०। (अस्यैकानिम्मद । विरचयति। प्रा०४ पाद ।
थिकाः निहेलण' शब्दे वक्ष्यन्ते) निम्माय-निर्मात-त्रि० निष्पन्ने, वृ० ६ उ०। “निन्वमिनि
निलीय-निलीन-त्रि०। लीने, “परिलीणं च निमीण।" को. म्मायं।" को.२०. गाथा।
१६६ गाथा। नियच्छिप-निदर्शित-त्रि. | मिनिते, " सञ्चविश्न-दिह-
निव-नृप-पुं०। "कृपाऽऽदौ" ॥८।१।१२८ ॥ इति श्रादेसम-नियछिया निहालिब-स्थाम्म।" को• ७८ गाथा।
त इवम् । 'निवो।' प्रा०१ पाद । राजनि, को. १०० गाथा । नियम-निकट-त्रि० । समीपे, अस्यैकार्थिकनि-" अम्भासं श्रा
नि.चू०। पात्रा०।०। (अस्य पर्यायाः 'नरणाह' शब्दे भएणं, प्रासनं सविहमतिमं निमं।" को० ११ गाथा । अष्टन्याः ) निकमा-निरङकशा-स्त्री स्वतन्त्रस्त्रियाम,को.१३ गाथा|| निव-निar-olसाते. कोownlm
निवड-निवह-jo | सजाते, को० १५ गाया। (अस्य पर्यायाः (अस्यकार्थिकाः 'नारी' शब्दे गताः)
'निउरंब' शब्दे) (गम नशोस्तु णकाराऽऽक्रान्त एवादेशः 'णि. निरगला-निरर्गला-स्त्री० । स्वच्छन्दनायोम्, को० १३ गाथा।| वह 'इति)(निवह-णिवह-शब्दयोस्तुल्पार्थत्वम्). (एतत् पर्यायाः 'नारी' शब्दे गताः)
निन्ध-नीन-न० । पटले, "निब्वं पमलं ।" को० २११ गाथा। निरणुजुजाणुप्रोग-निरनुयोज्यानुयोग-पुं० ।विंशतितमे नि-| ककुदे, दे० ना०५ वर्ग गाथा। ग्रहस्थानभेदे, स्या० । “अनिग्रहस्थाने निग्रहस्थानाभियोगो निव्वमिअ-निष्पतित-त्रि० । कृते, को. १९६ गाथा । (अत्र निरनुयोज्यानुयोगः।"१३। गौ० सू० । निग्रहस्थानलकणस्य | पर्यायविषये निम्माय' शब्दो विमोकनीयः ) मिथ्याध्यवसायादनिग्रहस्थाने निगृहीतोऽसि परं युवन निरनुयोनिचल-निर्बल-त्रिका निर्गत बलं सामर्थ्य यस्येति निबलम् , ज्यानुयोगाम्रिगृहीतो बादतव्य हात । ना० । निरनुयाज्यानु- “निरः पदेवलः ॥१२॥ निरपूर्वस्य पदेबल इत्यादेशः । योगं लक्षयति-प्रवर रे यथार्थनिग्रहस्थानोदनावनाऽति
निव्वदा' पके निप्पज्जइ निस्सारे, प्रा०४ पाद । रिक्तं यनिग्रहस्थानोद्भावनं तदित्यर्थः । एतेनावसरे नि.
निवाण-निर्वाण-न । मोक्षे, पर्यायाः-" बोअगं परमपयं, प्रहस्थानोद्भावने एकनिग्रहस्थाने निग्रहस्थानान्तरोद्भावने
मुत्ती सिद्धी सिवं च निव्वाणं । " को० २० गाथा । (अत्र च नाव्याप्तिः । मोऽयं चतुर्धा--बलं, जातिः, आभा.
विशेषःणिब्वाण'शब्देऽस्मिन्नेव भागे २१२१ पृष्ठादारज्य सोऽनवसरग्रहणं च । आभासो व्यभिचाराऽऽदावसिद्ध्यायु
टक्य एवास्ति) द्भावनम् । अनवसरग्रहणश्चाकाले एवोद्भावनम् । यथा-त्य.
बहुत्।" को०
| निविट-निविष्ट-त्रि.। उपनुक्ते, " निधि स्यसि चेत् प्रतिज्ञाहानिः विशेषयसि चेत् हेत्वन्तरम् । एव. मवसरमतीत्य कथनमपि यथा उच्यमानग्राह्यस्यापशब्दाऽऽदे: १७७ गाथा । अनुपारिहारिके, स्था• ३ ग.४ उ०। उचिते, परिसमाप्ती एवमनुक्तग्राह्याज्ञानाऽऽद्यननुभाषणावसरे मुद्भाव्य | दे०मा०४ वर्ग ३४ गाथा।
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(२७७६) निसंस अभिधानराजेन्द्रः।
नीरंगी निसंस-नृशंस-त्रि० । “शषोः सः" ।।१।२६. ॥ इति
निहय-निहत-त्रि०। मारिते, उत्त० ११ मा। भावरिपुभिः शस्य सः। 'निसंसो।' श्लाघारहिते, प्रा०१ पाद । क्रूरे, को. | ७३ गाथा । (अस्य पर्यायाः 'निक्वि'शब्दे गताः)
रिन्ष्यकायकर्मनिईन्यमाने, आचा. १६०४ ०३ न. । निसा-निशा-स्त्री०। रात्रौ, हरिकायाम्, वृ. ५ उ० । वाचः।
“निदयं निक्खयं । " को.२४० गाथा । निशाशम्दपर्याया:-"ग्यणी विहावरी स-व्वरी निसा जामिणी
निहस--निकष-पुं० ।" निकष-स्फटिक-चिकुरे हः"।८।१। राई।" को० ४७ गाया।
१८६ ॥ इति कस्य हः। प्रा०१पाद । "शयोः सः" ।८१॥ निसाभर-निशाचर-पुकारात्रिचरे, " : सदादी वा"॥८।।
२६०॥ इति षस्य सः। प्रा० १ पाद । कषपट्टरेखायाम, प्र१।७२ ॥ इति स्वपते-'निसिभरो।' प्रा०१पाद । वाच ।
ज्ञा०१७ पद २ उ०1"निहसो कसो।" को.१६३ गाथा । "श्रवणों यक्षुतिः"।।१।१८०॥ इति यती 'निसाय.
निहाय-निघात-समूहे, को० १६ गाथा । दे० ना० । ( अस्यरो।' प्रस्य प्रायिकत्वपक्के-'निसारो।' प्रा. १ पाद ।
पर्यायाः 'निसरंब' शब्दे गताः) निसामिभ-निशामित-त्रि० । श्राविते, को०१८४ गाथा । निहालिअ--निभालित-पि० । रटे, " सञ्चविअ-दि-पुलर निमामिअय-निशामितक-त्रि०। प्राकर्णिते, "निसुनं मायनि- अ-निअच्चिाई निदालिम-ऽस्थम्मि।" को० ७८ गाथा। अंनिसामिश्रयं ।" को०१०४ गाथा । दे० ना० ।
निहि-निहित-त्रि० । स्थापिते, "निमिभं निहिनं च मिक्वि. निसायंत-निशातान्त-न० । तीक्ष्णधारविशिष्टे, " अच्गयंतं तं।" को०१९३ गाथा । नि-धा-क्तः । "सेवाऽदौ या" ॥८॥ निसायंतं । " को०२७० गाथा।
२६॥ इति तद्वत्वं चा । निहितं । पक्के-तो लोपः। प्रा०२ निसाय-निशान-त्रितीक्ष्णीकृते, "तिक्खालि निसा।" | पाद । निक्किप्ते, पञ्चा० १० विव० । को० २०० गाथा ।
| निहिनाथ-निधिनाथ-पुं० । कुबेरे, " वेसमणो निहिनादो, जनिसायर-निशाकर-पुं०। चन्द्रे, "इंदूनिसायरो सस-हरोवि. क्खाहिवाई कुबेरो य।" को• २४ गाथा। हगहवाई रयणिना हो । मयखंछणो हिमयरो, रोहिणिरमणो निहा-निभत-त्रि.।" उहत्वादो" ।।१। १३१॥ ऋतु। ससी चंदो ॥५॥" को ५ गाथा। रात्रिचरे, वाच० "क.
इत्यादिषु शब्देषु आदेत उत्वम् । प्रा० १ पाद । तदर्थमनुगच०-"॥।१।१७७॥ श्त्यादिना कसोपे “अवर्णो यश्रु
शुक्ते, सूत्र.१० अ०। निव्योपारे, बृ३ । निश्चले, तिः"॥८।१।१८० ॥ इति यश्रुतिः। निसायरो।' प्रा०१पाद ।
उत्त० १६ अ.। असंन्चान्ते, कायस्थित्या उचितधर्म, दश०६ निसीढ-निशीथ-पुं० । “निशीथपृथिव्योर्वा" ॥८।१।२१॥
१०।" मसिणं सणिश्र मई, मंदं अलसं जरूं मरानं च। खे. इति यस्य दो वा । 'निसीढो निसीहो।' अर्द्धरात्रे, रात्रिमा सं निहुअं सहरं, वीसत्धं मंथरंथिमिश्र ॥१५॥" को०१५ गाथा । ब। प्रा०पाद।
निहेलण-निलय-पुं०। " गोणाऽऽदयः" ।।२। १७४॥ निसुभ-निश्रुत-त्रि० । प्राकर्णिते, " निसुखं प्रायमिनं निसा
इति निलय स्थाने 'निहेलण' आदेशः । गृहे, प्रा०२ पाद । मिअभं।" को० १८४ गाथा । दे० ना।
" भवणं घर-मावासो, निलयो वसही निदेलणमगारं।" निमुदि-नत-त्रि.। भारनने, “निसुदिभं मतभरोणायं।" |
को०४६ गाथा। को. १९४ गाथा।
नीअ-नीत-त्रि० । गते, "हिमं नी।" को० २६७ गाथा । निसुक-निशद्ध-त्रि०। शुद्ध, " भोसकं पामिमं निसुई।"
नीच-त्रि०ा अत्यन्तावनतकन्धरे, उत्स.१०। उच्चविपरीको.१९४ गाथा।
ते, स्था०३.४ उ01 अपूज्ये, भ० ३.१ उ०। निम्ने, निसह-निषध-पुं०।" निषेधैर्दकः " ॥८।४।१३४ ॥ इति
नि००१ उ.। नीचैः स्थाने, मालादी, उस०१०। निषेधेहकादेशो वा । 'हक्कनिसे।' प्रतिषेधे,प्रा०४ पाद । "अहमा श्यरा य पायया नीा।" को०१०३ गाथा । निस्म-निःस्व-त्रि० । निधने, “रोरो अकिंचणो 5-विहो.
नित्य-त्रि०। सदाऽवस्थायिनि, स्था० १. 101 रिहो य दुगो निस्सो।" को. ३५ गाथा ।
नीच-नीचैम-श्रव्यानीचे, "नच्चैींचसि अः" ।।१। निस्सोणि-निःश्रेणि-स्त्री० । अधिरोहण्याम्, “भधिरोहणिमा १५४ ॥ इति ऐतो अश्र इत्यादेशः। 'नीचरं ।' अत्यल्पे, तुझे य निस्सेणी।" को०१२० गाथा ।
च । प्रा०१पाद । निह-निभ-न० । छले, " व अवपसो निहं च मिसं।" को०
नीड-नीड-न। कुलाये, “निई नीम कुलाय च।" को. १४२ गाथा । सहशे, श्रा०म०१ अ०। मायिनि, सूत्र.१ श्रु०६
१२६ गाथा । प्रा०। भ०। क्रोधाऽऽदिभिः पीडिते, सूत्र०१७०२०१०। प्रा. घातस्थाने, सूत्र.श्रु. ५०००।
नीणिअ-नीणित-त्रि० । मते, "निकामिश्र नीणिवे।" अव्युस्निह-त्रि०। रागवति, आचा० १७०४०३ उ०। राग- त्पन्न एवायं शब्दः। व्युत्पत्तिपक्षे तु-"जोगिन" इत्येव णकारा
क्रान्तो भविष्यतीति विशेषः। को०१७६ गाथा । स्वस्थाने देषयुक्त, भाचा० १७०५ 40 ३ उ० । ममत्वसहिते, सूत्र० १ भु०२० २ उ०।
प्रापिते, ज्ञा०१ श्रु०१६ अ० । उत्त० । सूत्र०। निदण-निधन-न०। प्राणत्यागे, " पत्नयो निहणं नासो।"को0नीरंगी-नीरडी-स्त्री०। शिरोऽवगुएउने, " नीरंगी भंगुट्ठी।" १६७ गाथा।
| को०१६६ गाथा । दे. ना०।
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(२७७७) नीमी अभिधानराजेन्द्रः।
नोमालिया नीमी-नीवी-स्त्री०। " स्वप्ननीव्योः ॥८।१। २५६ ॥ वानामन्यतमेनाप्यवयवेन हीनं न्यूनं निग्रहस्थानं,साधनाभावे इति वस्य मोवा। नीमी,नीची।'मूलधने, वस्त्रे च । प्रा०१पाद। साध्यासिद्धिरिति । भागन्युनं लक्षयति-अवयवेन स्वशास्त्रसि. नीर-नीर-न । जले," अंबु सलिलं वर्ष वारि, नीरं उदयं द्धेन तेन सौगतस्य व्यवयवाभिधानेऽपि न न्यूनत्वम् । नम्ब. दयं पयं तोयं । " को० २८ गाथा । दर्श०।।
वयवहीनत्वम्-अवयवत्वावच्छिन्नाभावः, तथा चाकथनमेव नीलकंठ नीलकण्ठ-पुंज मोरे, "मोरो सिही बरहिणो, सिहं- स्थादत आह-अन्यतमेनापीति । तथा च-यत्किञ्चिदवयषशू.
म्यावयवाभिधानं फलितम् । नचायमपसिद्धान्तः, सिद्धान्तडी नीलकंठो य।" को०४२ गाथा। शकस्य देवेन्द्रस्य महिपानीकाधिपती, स्था०४ ठा०२ उ०।
विरुद्धानभ्युपगमात्, अपि तु सभाक्षोभाऽऽदिनाऽनभिधाना. नीलुप्पल-नीलोत्पल-नानीलकमले, "नीलुष्पलं बियाणह,
दिति वृत्तिः ॥ १२॥ गौ० सू० वा० भा०वि० वृ०। कुवलयं इंदीवरं च कंदु ।" को० ३६ गाथा। कुवताये, जं.
नमिश्र-छादित-त्रि० । प्रच्छादिते, "पच्छाइम-नूमिमा वह
आई।" को १७६ गाथा । " छदेणे[म नूमसन्नुम ढक्को. १ वक्षः । उपा।
म्बालपब्वालाः" ॥।४।२१॥ इति छदेय॑न्तस्यैते षडा. नीव-नीप-पुं०1"पोषः"1८1१।२३१ ॥ स्परात्परस्यासं
देशा वा भवन्ति । 'नूमा।' पक्ष-'छाया।' प्रा०४ पाद । युक्तस्यानादेः पस्य प्रायो वो भवति । 'कासवो पायं । उव. मा।' प्रा०१ पाद । "कलंवो, नीवो।" को० २५५ गाथा ।
नेउर-नपुर-नका स्त्रीणां पादाऽभरणे, "हंसयं नेउरंच मंजीनीवी-नीवी-स्त्री० । वनग्रन्थो, “उमट्टी उच्चो नीधी।"
| रं।" को० ११२ गाथा । को० १७५ गाथा । मूलधने, वाच०।
नेलच्छ-पएडक-पुंग परदे,वृषभेऽपि,"नेजच्छो पंडो ।"को. नीसदिन-नि:ध्यन्दित-त्रि० । निष्पतिते, "नि खिरिमं २३५ गाथा । " गोणाऽऽदयः" ॥ ८।२।१७४॥इति पराड. छिप्पि, च नीसंदिअंच पज्झरिग्रं। "को०८० गाथा।
कशब्दस्य नेलच्छाऽऽदेशः।"नो णः" ॥८।११२२८॥ इत्य. नीसामन-निःसामान्य-पुं० । गाम्भीर्य्ययुक्त, "नीसामना ग.
स्य वैकल्पिकत्वात् णत्वाभावपक्षे रूपम् । प्रा०१पार। रुश्रा।" को० १०३ गाथा।
नेवत्थ-नेपथ्य-न । वेषे, "वेसो नेवत्थं।" को०२३३ गाथा। नीहरिम-निःसृत-त्रिका निर्माणे, "नीहरिअं निग्गि"१६७ स्त्रीपुरुषाणां वेषे, स्था० ४ ठा०२ उ०। परिधानाऽदिरचने,
शा०१ श्रु०१०। केशचीवरसमारचने, दर्श०४ तव । गाथा। देना।
नि.। नीहार-नीहार-पुं। मूनपुरीषोत्सर्गे, स० ३४ सम। "धू
। निर्मलवेणे, शा०१६० १६ अ० । स्था।
नेह-स्नेह-पुं० । " कगच-ज-त-द-प-य वां प्रायो लुक" मिकायाम्, " सिरहा नीहारो धूमिमा य महिश्रा य धूममहिसी य ।" को० ३८ गाथा।
।।१।१७७ ॥ इति सलुक । प्रा०१ पाद । मोहोदयजे प्री. न-न-स्त्री०। स्तुती,"प्रस्तुतेवा परिश्लिष्टे,शुद्धे निणेतरि स्मृतः।
तिविशेष, पुत्राऽऽदिष्वत्यन्तानुरागे, भातु । जीत० । नः स्त्रियां नु स्तुतौ।" एका०५४ श्लोक । नुः स्तुतौ दीर्घ स्व. | नो-नो-पुंस्तुती, एका। स्त्री। बारिणि, पृच्छायां, वितर्क, एका०७८ श्लोक।
नौ-स्तुती, स्त्रीलाएका०। 'नौश्चरणोऽस्त्रियाम् ।' एका। नुन-नुन्न-त्रिमिष्टयुतार्थे,"नुन्नशब्दस्त्रिलिजः स्यान्मष्टयु.
नोमालिया-नत्रमालिका-स्त्री०"प्रोत् पूतर-बदर-नवमालि. तार्थस्य वाचकः।" एका० ५५ श्लोक।
का-नवफलिका-पूगफले" ॥८।१।१७०॥ इति प्रोत्वम् । न-न-पुं०।द, "नूदऽपि तमेदितः।" एका० ७७ श्लोक।
प्रा०१पाद। 'नेचार' इति ख्याते सुगन्धपुष्पप्रधाने वृक्षभेदे, "नूशब्द: पातके पुंसि, वायो क्लीवे।" एकां०७६ श्लोक।
जं. १ वक्षना । जी (प्रायः ण काराऽऽदयः सवेंशब्दाः नून-न्यून-न०। एकादशे निग्रहस्थानभेदे, स्या०। "हीनमय.
"वादी"॥८॥११ २२६ ॥ इत्यस्य वैकल्पिकत्वाद् नका. तमेनाप्यवयवेन न्यूनम्"१२। गौ०सू० । प्रतिज्ञाऽऽदीनामवय | राऽदिषु बोध्याः)
इति श्रीमत्सौधर्मबृहत्तपागच्छीय-कलिकालसर्वज्ञकप-जहारक-जैन श्वेताम्बराऽऽचार्यश्री श्री १००८ श्रीमद्विजयराजेन्द्रसूरीश्वरविरचिते 'अनिधानराजेन्द्रे'
नकाराऽऽ दिशब्दसङ्कलनं समाप्तम् ।
तत्समाप्तौ च समाप्तोऽयं चतुर्थो भागः ॥४॥
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कोऽन्यः सूरिपदाङ्कितो विजयराजेन्त्रात्परः पुण्यवान् ॥ संघस्योपकृतिप्रयोगकरणे नित्यं कृती तादृशः, राजेन्मानिधकोशसंप्रणयनात् संदीप्तजैनश्रुतः। दृप्तभ्रान्तविपददन्तिदमने पञ्चाननग्रामणी
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॥श्रीः॥
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