Book Title: Agam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra
Author(s): Shravak Bhimsinh Manek
Publisher: Shravak Bhimsinh Manek
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ CALATAGANGA EMAMAMMALAYA M AITHIMIRMIRM ॥द्वितीयांगम्॥ 866666666666666666666666666666666666666660 बर्दवान हीरा ब्धि वीचिबिंड प्राशित गणधरोद्गार रूपम् टीका, दीपिका तथा बालावबोध सहितम् स्वमत्यनुसार शुद्ध करीने श्री मकशुदाबाद निवासी बाबुसाहेब राय धनपतिसिंहजी प्रतापसिंहजी वाहादुरनी आज्ञाथी श्री मुंबापुरीमध्ये शा जीमसिंह माणकाख्य श्रावकें प्रीतिपूर्वक "निर्णयसागर" मुद्रायंत्रना अधिपति आवजी दादाजीनी पासेंधी छपावीने प्रसिद्ध कीधुं. AAAAAAYANAYASAAYARICAVESVEAVENNAINAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAA AAAAAAAAAAAAAA 06666666666666 संवत् १९३६-शके १८०२. मिति पौप शुद्ध पूर्णिमा भोमवासर. MVVVVVVVVVVVVVVVVशशशशशश Jainis t emational Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .4.0494.44OA. 18585388 D ECEN शुद्ध सुररयितश्रीनि समवशरणा. 32002 எ इत्र Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना. या प्रसार संसार समुड्ने विषे संतत पर्यटन करनारा प्राणीउने जन्म मरणादिक प्रत्यु दुःखोमांथी मुक्त करे एवो तो मात्र एक धर्मज बे घने एमज सर्व दर्शनीना शास्त्रमां पण कहेलुं बे, एवो जे धर्म तेनुं मूल तो सर्वाश युक्त दयाज बे. कहेलुं बे के " हिंसा परमो धर्मः " दयावडे धर्मनी प्राप्ति थाय बे; खने परिपूर्ण धर्म प्राप्त थया पी जीव मोक्षगामी थाय बे; माटें दया सर्वोत्कृष्ट पदार्थ बे. सर्व दर्शनीच दयानो उपयोग करेने खरा, परंतु सर्वाशें करता नथी. एटलाज माटें तेउने धर्म पदार्थनो जेवो जोइयें तेवो जान थतो नथी. दयानो सर्वाशें उपयोग तो मात्र जैन दर्शनमा स्वीकारयो बे तेथीज जैनदर्शन धर्मधुरिसर कहेवाय बे, माटें दयानो सर्वाशें उपयोग करवानी अगत्य बे, जेम कांई नोजनार्थ पक्वान्न करवुं होय तो तेमां घृत, पिष्ट, शर्करादिक अगत्य वस्तुनुं एकत्रपणुं यथाविधि याय त्यारेंज ते पक्कान्न स्वादिष्ट कवाय; पण जो उपर कहेली वस्तुमाथी एक पण वस्तुनुं उठा पशुं होय तो ते पकान्न स्वाद रहित बने. माठें दया पदार्थ सर्वशें पलाय तोज तेथी धर्मोपलब्धि थाय, ते विना तो कढ़ी पण थायज नहीं. सर्व दर्शनीउने दया मान्य बे खरी तथा पितेनी समजमां फेर होवाथी ते श्रेष्ठता पूर्वक दयानो उपयोग सर्वाशें करी शकता नयी. ए वात प्रगलना व्याख्यान उपरथी सिद्ध थशे. जेमके कोइएक दर्शनी तो एम जाने के पशुनो प्राणघात करवो, एटले ते जन्मथी बूटे, एम कही दया मानी लिये बे; कोइएक कहेबे के प्राणी, ज्यां सुधी शरीरें सुखी होय त्यां सुधी तेमनी न पर दया करवी, पण ज्यारें तेन व्याधिग्रस्त स्थितिमां पीडाता होय त्यारें तो ते प्रा udai वध करी तेमने यती पीडामांथी मुक्त करवा एज दयाबे: केटलाएक कहे बे के सूक्ष्म अथवा स्थूल प्राणी, जे मनुष्यने दुःख दीये बे, तेचने मारी नाखवा एज दया बे; केलाएक तो यज्ञयागादिक करवामां प्राणीउनो नाश करी तेमांज धर्म धुरं धरता मानी बेठा बे ने केटला एक प्रति सूक्ष्मादि प्राणी जेतुं स्वरूप दृष्टिगोच र नयी तेन चिंता देश मात्र न राखतां मात्र स्थूल प्राणीउ उपरज दया करवामां दया माने बे. एम घनेक प्रकारें दयानो उपयोग अन्य दर्शनीय करे बे तथापि ते स्वदया, परदया, इव्यदया, जावदया, निश्वयदया, व्यवहारदया, स्वरूपदया, अनुबं दया, इत्यादि दाना अनेक प्रकार, जैनग्रंथोमां सविस्तर वर्णन करेला बे ते प्रमा ऐं वर्त्ती दयानुं स्वरूप नयशैलीपूर्वक समजता नथी, एज तेउनी मतिमां विभ्रम बे For Private Personal Use Only Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ‍‍ नेवी मित मतिवाला दर्शनीउनुं मत क्यारें पण शुद्ध कहेवाय नहीं परंतु जे दर्शनमा पोताना श्रात्मानुं यात्मत्वपणुं जाणीने पूर्णपणे दयाने अंगीकार करी हो य एवं तो एक श्री जैनदर्शन बे घने ते सर्व लोक प्रविदित बे. तेथी ए धर्म जग मां सर्वोत्कृष्ट कहेवाय बे. ए धर्मना एक रीतें, याचारधर्म, दयाधर्म, क्रियाधर्म ने वस्तुधर्म, एवा चार नेद बे घने दान, शील, तप, तथा नाव, ए चार तेनां कारण बे. वे धन बलें करी दान देवाय, मन बलवडे शील पलाय, शरीर बलवडे तप थाय घने सम्यक् ज्ञानबलवडे नावधर्मनी वृद्धि थाय. ए नावधर्म, दान, शील ने तप, aarai धिक बे, केमके नावधर्मनुं कारण ज्ञान बल बे; जेणेकरी वस्तुनुं स्वरूप जालीयें, तेने ज्ञान कहीयें. ते ज्ञानथकी यात्मधर्मनी वृद्धि तथा संरक्षण जे. लुं थाय तेलुं पेलां त्रण जे दान, शील ने तप, ते थकी यतुं नथी. एनुं कारण ए बे के नय, निक्षेप, प्रमाण, चार अनुयोगनो विचार, सप्तनंगी, षट्इव्यादिकनो विचार, यादि लइ ज्ञान बलवडे जीवने परिपूर्ण प्राप्त थायले. वली श्री दशवैकालिक सूत्र मां पण प्रथम ज्ञानने पछी क्रिया कहीबे. ते उपरांत ज्ञान विनानी जे क्रिया क रवी ते पण क्लेशरूप कहीले. अर्थात् क्रिया तो ज्ञाननी दासी जेवीजले. ज्ञानी पुरुष नी छल्प क्रिया पण अत्यंत श्रेष्ठ बे. वली श्री उत्तराध्ययनमां पण कयुं बे के ज्ञान गुण संयुक्त जे होय तेनेज मुनि कहेवो. एथी पण ज्ञाननुं महात्म्य अत्युत्कृष्ट जणा य. श्री महानिशीथमां ज्ञानने प्रतिपाति वर्णव्यं बे. श्री मरुदेवी माताने हस्ती उपर बेतां तां केवल ज्ञान उत्पन्न ययुं. वली श्री भरतेश्वरने खारीसा भुवनमा रह्यां तां कर्मो विमुक्तता थइ ते पण ज्ञानतुंज प्राबल्य हतुं; अने श्री उपदेश मालामां कबे के ज्ञान रूपी नेत्रें करी उजमाल एवा मुनिने वंदन करवुं योग्य बे. देवाचार्य मनवादि प्रमुखों बौध दर्शनीउने जीतीने जगत्‌मां यशोवाद लीधो ते पण ज्ञाननो ज प्रसाद जाणवो. ज्ञाननी जे तीक्ष्णता तेज प्रबंध चारित्र जाणवुं. जे निका चित कर्मनो कोडो वर्षपर्यंत दान, शील तथा तप कस्याथी विनाश थतो नथी ते ज्ञानथी एक श्वासोवासमा थायले. एटलाज माटें क्रिया गुरुने पीपलाना पत्र जेवा गया बे. ने ज्ञानी गुरुने समुड् समान गल्या बे. ज्ञान विना सम्यक्त्वपएं रही शके नहीं, ज्ञा न विना हिंसानो मार्ग समजाय नहीं, सिद्धांतोक्त समस्त क्रियानुं मूल जे श्रद्धा बे तेनुं पण कारण ज्ञान के केमके ज्ञान विना श्रद्धानी प्राप्ति यती नथी, एवं जे ज्ञान ना पांच प्रकार. मति, श्रुत, अवधि, मनःपर्यव ने केवल ए पांचने विषे पण श्रुतज्ञान सर्वथी अधिकोपयोगी बे श्रुतज्ञान पदार्थमात्रनुं प्रकाशक बे. स्वमत तथा प मनुं परिपूर्ण प्रकाश करनारुं पण श्रुतज्ञानज बे. अज्ञानरूप तिमिर टालवाने सूर्यस For Private Personal Use Only Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ead तथा इस्सम कालरूप रात्रीने विषे तो दीपक समानबे बीजां चार प्रकारनां जे ज्ञान बे तेनुं पण कारण नूत श्रुतज्ञानज े. परमेश्वरें कयुं बेके श्रुतज्ञान संव्यवहा रक बे. उद्देश, समुद्देश, खाज्ञा इत्यादि व्यवहारनो लान श्रुतज्ञानथी याय बे. वली स्व. स्वरूपने परस्वरूप समजाववाने श्रुत ज्ञानज समर्थ बे. बीजां केवल ज्ञानादिक चारे ज्ञान की जाणेला पदार्थं स्वरूप पण श्रुत ज्ञानवडेज कहेवाय ते. माटें मत्यादि कचार ज्ञान स्थापना योग्यले पण तेो करीने परजीवने उपदेश खापी उपकार कर शकाय नहीं; यने श्रुतज्ञानथी उपदेश थाय माटें उपकारी बे. श्रुतज्ञानना श्रवण करवाथी शुद्धात्मक परमपदनी प्राप्ति थाय बे. माटें श्रुतज्ञान ते महोटुं निमित्त कारण d. श्रुतज्ञानने सांजलवे करी जीवने शुद्धस्वरूप विशुद्ध श्रद्धान ( प्रतीत ) उपजे ने तेथ शुद्धात्मानुं खाचरण, खासेवन तथा अनुभव उपजे तेज परमपद प्राप्ति जा एवी. श्रुतज्ञान सनिलवाना प्रजावथकी जीव, धर्मने विशेषें जाणे विवेकवंत थाय, saat त्याग करे, ज्ञाननी प्राप्ति याय यने अंतें मोह पामे, माटें श्रुतज्ञाननो या दर अवश्य करवो. श्रुतज्ञाननो संयोग थवो जीवने अत्यंत दुर्लन बे. श्रुतज्ञानने सं योगें करीने पूर्वै श्रीगौतम स्वामी, सुधर्मस्वामी, जंबुस्वामी प्रमुख घणा जीवो संसार स मुने तरी गया; अने वर्तमान कालें महाविदेह क्षेत्रने विषे विहरमान सीमंधरादिक वीश तीर्थकरनी वाणी सांजलीने घणा जीवो तरेबे, तथा यागमिक कालें पद्मनाना दिक तीर्थंकरनी वाणी सांजलीने श्रीधर्मरुचि अणगार प्रमुख धनेक जीवो तरशे. ते मज या रतादिक क्षेत्रने विषे हमला पण जे श्रुत ज्ञानने सांनलशे, नशे, श्रं तरंग रुचिएं करीने जे श्रद्धा ( प्रतीत ) करशे, ते सुजन बोधी थशे, कर्मथी विमुक्त थाने तेथी परंपराएं मुक्ति पामशे. एवं श्रुतज्ञाननुं मूल द्वादशांगी बे. ते श्रुतज्ञान नी वांचना, बना, परावर्त्तना, अनुप्रेक्षा यने धर्मकथा थाय बे. ए धर्मकथा श्रीनव वाइ सूत्रमां चार प्रकारनी कही बे :- यापिणी, विद्वेषिणी, निवेदिनी ने संवेदिनी . हवे जे थकी एक तत्वमार्गमां प्रवृत्ति थाय तेने यापिणी कहीएं ; जे थकी मिथ्यात्वनी निवृत्ति थाय तेने विछेपिणी कहीएं ; जे थकी मोहनी अभिलाषा उत्पन्न थाय, तेने नि दिन कहीयें ने जे थकी वैराग जावनी उत्पत्ति थाय तेने संवेदिनी कहीयें. एवीए श्रुतज्ञानरूप कथा श्री अरिहंत देवाधिदेव तीर्थकर परमेश्वर समवसरण मां बेशीने त्रिपदी उच्चारण पूर्वक द्वादश पर्षदाना मध्यने विषे करे. खने तडूप दा नयी श्रीगणधरो द्वादशांगीनी रचना करेबे, ते सूत्र कहेवायले. ते प्रत्येक तीर्थंकरना शासनने विषे थाय बे; तथा ते तीर्थकरोना शासनमां थयेला प्रत्येक बुध, चौद पूर्वधर, तथा दश पूर्वधर प्रमुख महत्पुरुषो जे निबंधोनी रचना करे बे तेने पण सूत्र संज्ञा For Private Personal Use Only Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ होवाथी वादशांगना बारमा दृष्टिवादमां तेनो समावेश थायजे. वर्तमान श्रीमहावी र परमेश्वरना शासनमा हाल प्रवर्तमान पीस्तालीश सूत्रो ले ते सर्व श्रुतझाननाज नेद जे एम जाणवू. बीजा पण अक्षर अनदादिक चौद थने पर्याय पर्यायसमासादिक वीश नेद पण . हाल पंचम कालमा मात्र श्रुत झानज प्रगट पणे वे अने मति झान तो श्रुतझान रूपज ; केमके श्रुत ज्ञान, समवायिकारण, मतिज्ञान के घने कार्यथी कारण निन्न नथी, किंतु ? अनिन्नज जे. बीजां अवधि, मनःपर्यव अने केव ल, ए त्रण शान था समयमा देत्र कालादिक नेदने लीधे था क्षेत्रमा श्रीवीर तीर्थकर ना शासनमा प्रवर्त्तमान नथी; मात्र मतिश्रुतरूप श्रुतझाननोज प्रसार रह्यो . ए श्रुत ज्ञानना उद्देश, समुद्देश, अनुज्ञा अने अनुयोग, ए चार प्रकार थाय दे. सामान्य कथन करवू, तेनुं नाम उद्देश; विशेषकथन करवू, ते समुद्देश : आज्ञा अ थवा अनुमोदन ते अनुज्ञा ; अने प्रश्न, टला, प्रार्थना प्रमुख कर तेने अनुयोग क हीयें. अटला कारण मार्ट व्याख्यान करवामां श्रत झानज नपयोगीले, पण बीजां झान नथी; माटे चालता समयमां श्रुतज्ञाननी वृद्धि तथा संरक्षण करवू, ते धर्मनी वृद्धि तथा संरक्षण कस्या प्रमाणे बे. या ठेकाणे ज्ञान कारण ले अने धर्म कार्य जे. हवे जेम राजा तथा प्रधान ए बेन प्रजानी वृद्धि तथा संरक्षणने माटें तत्पर होय , तेम बादशांगीरूप श्रुतझाननां मूलसूत्र, राजा समान वे थने तेना अर्थ रूप टीका, नाष्य, चूर्णी प्रमुख, प्रधान तुल्य बे. तेथी सूत्र अने टीका प्रमुख धर्मनी वृक्षित था संरक्षणने माटे ने अने ते श्रुतज्ञानरूप ले तेथी श्रुत ज्ञाननी वृक्षियने संरक्षण करवाना उपाय तथा तत्संबधी उद्योगमां यस्मन्मतविजयानिलाषी, सुझजनोयें ब परिकर थइ तन, मन बने धनवडे आग्रह राखीने आदरवा, एना जे बीजं को पण धर्मति करवानु अत्युत्तम साधन नथी. श्रुतझाननी सतत वृद्धि ने संरक्षण करवानुं साधन वर्तमान कालमा मुहायंत्र सर्वोत्तम . ते धाराएं ग्रंथो उपावीने तेना नंमारा कराववा, ए सर्वोत्तमोत्तम उपायले. तेउमा प्रथम श्रुतज्ञानना थाधारन त एवा जे पिस्तालिश आगम , तेने शुरू करी पावीने प्रसिभ करवा. एवा स र्वोत्कृष्ट नपायनो श्री मकशुदाबादेति नगर निवासी “ रायधनपतिसिंहजी प्रतापसिंह जी बहाउर" तेउएं पोतानां परलोक प्राप्त मातुश्री “ महताब बाई" तेमना निरंत र. नामस्मरण निमित्तें तथा पूर्ण पुण्योपार्जन निमित्तें तथा अस्मदीय दर्शनग त सुजन पुरुषोने श्रुतज्ञान वृद्धि थवाने निमित्ते, प्रारंन कस्यो ने. उपर कह्या जे पी स्तालीश बागम तेमांथी हाल था “श्री सूयगडांगसूत्र" बापवाने मने थाज्ञा कस्याथी; में यथामति शुरू करीने बाप्युंडे. या ग्रंथ, अत्युत्तम अने अभुत रचना Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ युक्त जे. एनुं सहज व्याख्यान प्रगट करूं बुं, ते वाचवाथी एनु अतिशय श्रेष्टपणं ते मज आवश्यकता ध्यानमां यावशे. सूयगडांग एटले संस्कृत नाषामां सूत्रकतांग एवं नाम जे. सूत्र एटले जेमा सूत्र नी सूचना होय तथा स्वपरमतनी सूचना कराय ते सूत्र कहीये. ते सूत्र के प्रकारनुं होय . पहेलुं व्यसूत्र अने बीजं नावसूत्र जे कार्पासादिकथी उत्पन्न थयुं होय, ते इव्यसूत्र कहीयें, घने श्रुत झानरूप सूत्र ते नावसूत्र , एम जाणवू. वली जे प रार्थनुं सूचक होय ते श्रुतझान सूत्र जाणवू. ते श्रुतज्ञान सूत्रना चार नेद ने संझा सूत्र, संग्रहसूत्र, वृत्तबंधसूत्र, तथा जातिबंधसूत्र हवे जे स्वसंकेत पूर्वक बांधे खं होय ते संज्ञासूत्र केवाय; जेमा घणा अर्थोनो संग्रह तथा धर्माधर्मव्यनुं ग्रह ण होय ते संग्रह सूत्र केवाय; जे अनेक प्रकारना वृत्त बंदनी जातिथी बांधेलुं होय ते वृत्तबंधसूत्र केवाय अने जे जातिथी बांधेनुं होय ते जातिबंध सूत्र कहेवाय. ए जाति सूत्रना चार नेद ने. तेनां नाम कहीयें बैयें जेमके, कथ्य, गद्य, पद्य, अने गेय. हवे जे उत्तराध्ययन तथा ज्ञाताधर्मकथादिकनी पेरें प्रायें पूर्व ऋषिनां चरित्र प्रमुख कथा उनो विस्तार जेमां होय ते कथ्य; जे ब्रम्हचर्य अध्ययनादिकनी पेरें जेमां मुक्त नाषानुं विवेचन होय ते गद्य. जेमां बंदरचनावडे मनोहर वर्णन होय, ते पद्य अने कापिली अध्ययननी पहें स्वप्रीतिथी गायन करी जेनी रचना थइ होय ते गेय. अथवा तीर्थकरोना मुख थकी जव्य जीवोना मोक्षार्थं उत्पन्न थयेलो जे अर्थ ते सूत्र ; अने तेनी जे गणधरें रचना करी तेने कृत कहीये. एम सूत्र अने कत एबे मलोने सूत्रकृत एवं पद थयु. अथवा सूत्रने अनुसारें जेमां तत्वनो प्रबोध होय, ते पण सूत्ररूत कहेवाय ; थने तेना की पण गणधरो ले. हवे गणधर कोने कहेवा ? जे सामान्याचार्य होय ते गणधर कहेवाय: ते गौतमादिक जाणवा. ते गौतमादिक एकाद श गणधरोमांहेला पांचमा गणधर श्रीसुधर्मा स्वामी तेमणे पोताना श्रीजंबुप्रनति शिष्योने उपदेश करवाने अर्थ या ग्रंथनी रचना कीधी बे; अने एकारण माटें या यं थर्नु नाम सूत्ररूत ने एम जाणवू. वली बीजुं नाम दितीय सूत्रकतांग एवं पण डे, तेनुं कारणके पूर्वोक्त पिस्तालीश सूत्रांतर्गत एकादशांगमानुं एक्षितीय अंगडे ते पूर्वो क्त गणधर विरचित एकादशांग मध्ये प्रथमांगनुं नाम थाचारांग : तेमां जीवनी न कायतुं स्वरूप जाणवू, एनो सविस्तर उपदेश करेलो ने घने एमां ज्ञान, प्राधान्य जे. ज्ञाननी प्राप्ति थया पडी ज्ञान पूर्वक क्रिया करवी ते संबंधी पारंनमां (बुधिक) एवी गाथा लखीने प्रथम याचारांग साथे था वितीय सूत्ररूतांगनो संबंध मेलव्यो जे. एना बे श्रुत स्कंध ले. ते मध्ये प्रथम श्रुतस्कंधना शोल बने वितीय श्रुतस्कंधना सा Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६ त, मली त्रेवीश अध्ययनो बे. अने तेमां तेत्रीश उद्देशाने बे. एनी पद संख्या त्रीश हजारनी बे. मूल सूत्रनी श्लोक संख्या ( २१००) बे. एमां मुख्यत्वें इव्यानुयोग नी प्रधानता ने स्वमतानुसारी महान् साधु जनोने उदासीनरूप क्रिया प्रवृ त्ति याश्रयी उपदेश करतां थकां अन्य पाखंमी दर्शनीना मतोनुं खंमन यथायोग्य कीधुं बे. ए शीवाय बीजा पण जे जे विषयोबे ते सर्व अनुक्रमणिकामां सविस्तर दर्शा वेला बे, ते जोवाथी स्पष्ट समजाशे. ए ग्रंथनी टीका करनार पंमितोमा श्रेष्ठ एवा श्री शीलंगाचार्य नामें पंमित हता, विक्रम संवत् बसोना सुमारमां थइ गया एवी दंतकथा बे. ए विषे कोई ग्रंथ साक्षी खापे एवं खाज सुधी महारा जाणवामां याव्यं नयी ए महान् टीकाकारनी जन्मनू मि वलनीपुर नगरी जे हाल वलानें नामें प्रख्यात बे त्यां दती, एवं मने सांन लवामां खाणुं बे. सांप्रत कालना पंमितो एमनी टीका वांचीने तेनी वाक्यरचना तथा उत्तम सरलता सायें गांनिर्घ्य अने शब्द चातुर्यथी मोह पामी स्तुति करवामां महोटो खानंद माने बे. ए टीकानी श्लोक संख्या बार हजार याक्शो ने पचाश बे. ए महा पंमितें अन्यसूत्रो याचारांगादि उपर पण टीका करेली बे. ए स्तुतिपात्र टीकाकारनी टीका करवानी शैली एवी सरल घने सुगम बे के ते वांचतां वांचतां पंमि तोने पदशः परमानंदप्राडुर्भाव थातो रहेज नहिं तथा एनी मनोहर रचना यने अर्थ चमत्कृतिनी एवी सुंदर बटाथी वांचनार ते वाणी रसनेज अनुनवे. सूक्ष्म विषयनुं वि वेचन एव लौकिक ढबथी करूं बे के वक्ता तेमज श्रोता उजयना मनने संपू संतोष उपजे ने क्यारें पण संशयतो देश मात्र रहेज नहीं. प्रत्येक विषयनुं निरूपण साद्यंत नियम बंध कीधेनुं बे के जेथी खापोयाप तेनी सर्व मतलब ध्यान मां यावे; जेम एक वार लखेली वातनो संबंध बीजे ठेकाणे लगाडवो होय, तो त्यां पूर्ववत् ए संकेतथी वांचनारने तुरत घागली वातनुं ज्ञान थाय. वली या टीका वांच ar की जाये टीकाकारें ग्रंथकर्तानो सर्वहृत अभिप्राय सान्निध्यताथी निःशेष श्रवण को होय एम टीका वांचनारने उत्प्रेक्षा थाय बे. एम सूत्रनो अक्षरशः अर्थ न जाय एवी तें निर्युक्तिक टीका करी बे एवा अनेक प्रकार जेणे करीने टीकानी श्रेष्टता घने स्तुति पंमितो करे, ते या महाविद्वान पंकितनी टीकामां नजरें खावे बे. टुंकामां एटलुं ज़ के बे के जेटजी खुबी ए टीकामां रही बे ते सर्व विस्तारनी बार बे. मात्र वां चवाथीज तेनो खानंद प्राप्त थाय एम बे. एनी दीपिका श्री हेमविमलसूरिएं विक्रम संवत् १५०३ ना वर्षमां करेली . तेन श्लोक संख्या मूल सुधां सात हजार बे कारण के "सप्त सहस्त्राणि किंचिन्न्यूना For Private Personal Use Only Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ง नि ” एवं एमणे पोतेंज लख्युं बे. दीपिका पण घणी सरल सुरस, धने पदना य थायोग्य अर्थयुक्त अतिशय मनोहर बे. एनी शैली एवी बांधीले के जेने थोडुं घणुं सं स्तनुं ज्ञान होय तेने पण सुगमताथी समज पडे ने एवी सरलरचनाने माटें ते वा जनो, ए पंमितनो अत्यंत थानार माने बे. या ग्रंथनो बालावबोध श्री पार्श्वचंद सूरियें करेलो बे. या वात, बीजा श्रुतस्कंध ना अंतमां प्रगट करेली बे. ए बालावबोध टीका उपरथी कीधेलो बे. केमके दीपिका करनार करतां बालावबोध करनारनी उत्पत्ति पूर्वे बे, तो पण ज्यारें ते मारा वांचवामां घाव्यो त्यारें ते एटलो तो अस्तव्यस्त देखायो के तेने सुधारवानी मारी हिम्मत चाली नहीं. तथापि ए कार्य अवश्य थवुंज जोइयें एवं जाणी में मारी अल्पमत्यनुसार श्रम लइने सुधारो बे. हवे सूत्ररूप कल्पवृनो जे जन याश्रय ग्रहण करें बे, ते निज नावानुसार फल पामे बे. पण तेने खर्चे ए वृक्ष उपर खारोहण करवा माटें पूर्वाचार्योएं निश्रे लियो करेली बे; जेम के टीका, जाप्य, निर्युक्ति, दीपिका, चूर्णी तथा बालावबोध प्रमुख. एमांथी वली टीकाकर्त्तायें टीकामांहेज निर्युक्तिनी गाथा लखीने तेनी पण टीका करेली के तेथी निर्युक्तिनो समावेश टीकामां करेलो बे तथा दीपिका ने बा लावबोध रूप एवी चार नीली जूदा जूदा चार प्राचार्योनी करेली या सूयगडां गसूत्ररूप कल्पवृक्षने लगाडी बे तेने उपयोगमां लइ उपर कथं एवं जे घा सूयग डांग सूत्ररूपकल्पवृक्ष, तेनां फल ग्रहण करवा माटें जविक जनोएं अत्यानंद पूर्वक तत्पर यतुं, ए मारी सविनय प्रार्थना बे ए सूत्रमां सर्व जगत्ने प्रमोद उपजावनारी श्री वीतरागनी वाणी बे. ते केवी बे तोके जव रूप वेलनी कृपाणी, संसार रूप समुथी तारवा वाली, महामोहरूप अंधकार नो नाश करवाने दिनकरना किरणो जेवी प्रकाश वाली, क्रोधरूप दावानलनो उपशम करनारी, मुक्तिना मार्गने दर्शावनारी, कलिमलनो प्रलय करनारी, मिथ्यात्वने बेदन कर नारी, त्रिभुवननुं पालन करनारी, मन्मथनो रोध करनारी, अमृतरसनुं यास्वादन करावनारी अने हृदयने अत्याल्हाद करनारी एव अनेक विशेषणोपयुक्त एवी जे श्री जिनवाणी ते सर्व सनोनें मान्य थाउ. कदापि निवड कर्मनी शृंखलायें प्रतिबद्ध थयेला एवा नव्य पुर्नव्यने बोध कर वा माटें ए वाणी समर्थ नथी यती तो पण ए वाणीनुं असामर्थ्य समजवुं नहीं. her सूर्यना किरणो जेम घुड पक्षीना नेत्रने प्रकाश करी शकतां नथी तो पण ते जगत्मां निंदानां याधिष्ठान थतां नयी. वली जलनी वृष्टि करनारो मेघ जो प For Private Personal Use Only Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ G ए उपर देवने विषे तृणादिक उत्पन्न करवा माटें असमर्थ बे ते बतां ते लोकने विषे निंदानें पात्र यतो नथी. तेमज जे पुरुषने ए वाणी गमती नथी ते तेनुं पोतानुंज दौर्भाग्य समजतुं माटें कुशल बुद्धिवाला सनोने या जिनवाणी रूप प्राधान्य ग्रंथ महोत्स्वरूप यानंद यापनारो था अने तेमना चित्त रूप सरोवरने विषे प्रेम रूप जल नराठे, तथा तेने योगें तेजने मोह रूप महा सुंदर कमलनी प्राप्ति या. घस्तु. शा० जी० मा० . विज्ञापना. परमेश्वरनी वाणी रूप अमृतरस जेमां रेलाइ रह्यो होय तेवा ग्रंथोने मुंड़ित क री प्रसिद्ध करवाए महा परमार्थ बे. एथी सुजनो खानंद पामेबे विवेकी जनो प तन पाठन करीने जिनधर्म जावमां दृढता वधारे बे, सामान्य जीवो व्याख्यानादिक श्र वण करीने धर्मलाजने पामे बे. सजन पुरुषो वांचीने पोताना चित्तनें निर्मल रा खी धर्मने विषे यादर करे. एवी उत्कृष्ट जिनवाणी जेमां मुख्य बे एवा श्रुतज्ञाननी वृद्धि, संरक्षण तथा विनय करवा जेवुं कोइ पण उग्र, पुण्यप्रकृति बांधनारुं बीजं शु न कर्म नथी. तेनुं साधन वर्तमान समयमा उपर कह्या प्रमाणे मुझयंत्र घणुं सुल न ने मनोहर बे. एनी सहायताथी सर्व सूत्रो तथा सर्व ग्रंथो बपावी प्रसिद्ध करवा, एश्रुतज्ञानी वृद्धि, संरक्षण तथा विनय, हाल सर्वोत्कृष्ट गणाय एम बे खरं प ए कार्य, इव्यवान् गृहस्थथी बनी शके. जेम इव्यवान् तेमज वली श्रीजिन धर्म प्रसार उपर प्रीतिमान् पण संपूर्ण होवो जोइयें, एवो असाधारण पुरुष चतुर्विध संघ मां को विरनोज मी खावे. जेम हाल बाबु साहेब "राय धनपतिसिंहजी प्रतापसिं हजी” बे. एवो श्रावक आधुनिक वर्तमान कालमा बीजो कोइ पण नथी. एमो उक्त रीतिप्रमाणे प्रीतिसहित सर्व यागमो उपावी प्रसिद्ध करवानो उद्योग चालु करचोळे. ए स्वधर्मायी बाबु साहेबें मने हाल श्री सूयगडांग सूत्र बापवानी खाज्ञा करी ते में यथा बुधयनुसार सुधारीने मूल सूत्र, दीपिका, टीका तथा बालावबोध सहित बाप्युं छे. एमां दृष्टिदोषथी वा बुद्धिदोषथी अज्ञानरूप अंधकारना पराधीन पणाथी कोई अपद, वा शब्दनी योजना थइ होय तो सजन पुरुषोएं तेने माटे मने कमा करवी. यद्यपि या मारो विवेक योग्य नथी केम के सतनोनो तो एवो स्वनावज होय बे के कोइ पण सत्कर्ममां दोष तेनी दृष्टिगोचर थतो नथी, ते बतां पूर्वे श्रेष्ठ ग्रंथकारोएं एवी For Private Personal Use Only Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पति राखी ले तेने धनुगत थईने में पण ए विवक कीधो ले. सऊनो पासें कमा मा गी, तेना करतां विशेषपणे उर्जनो पासें क्षमा मागुं लु, केम के तेउनो स्वनावज एवो होय के कोश्ना हाथथी गुन कृत्य थाय ने ते जोइ तेमने मनःसंताप उपजे बने बीजानी हानी थाय तेमां तेलान समजे दे. बीजाना दोष कहाडवामां महा पंमि त होय जे. बीजाना कल्याणरूप घृतनी उपर माखी थइ बेसे वे इत्यादिक अगणित दीर्घदोषोयें करी युक्त इष्टजनो होय , एवा उष्टजनो उचूक समान वे तेथीते था जिनवाणी रूप सूर्यना प्रकाश थकी अंध थश्ने विपर्यासने पामशे, धने ष बुद्धिथी ईर्ष्या करशे तेथी तेमना हृदयमा ताप उत्पन्न थशे तेने माटें दुं तेमनी पासें क्षमा मागुं बु, कारणके, ते ताप उत्पन्न थवानुं कारण ते मने गणशे. अस्तु. शा० नीच मा. ज्ञान प्रसाररूप पुण्यकर्म उपार्जन करवामां प्रथम पंक्तिमां गणवा लायक म हान्पुरुष जेणे लोकोपकारने अर्थ पिस्तालीश बागम मूल तथा तेउमाथी जेनी टीका प्रमुख जे अंग मले ते सहित मुश्ति करी प्रसिद करवानो उद्योग या समय मां प्रसार कीधो ले; तेवा सऊन गृहस्थोनी नुत्पत्ति विषे सहज लख्या विना मारी कलम अन्यकार्य करवामां चाली शकती नथी. तेथी यत्किचित् ल बुं. बंगाला इलाकामां बालोचर, मकशुदाबाद,अने मुरसिदाबाद एवात्रण नामें उत्लखातुं सं दर शहेर जे. ज्यां कृष्णगढथीयावी निवास करनारा उसवंशरूप नंदन वनमां कल्पवृक्ष स मान उगडगोत्रीय, धर्म, न्याय, विवक थने विनयादिक श्रेष्टगुणे युक्त,तेमज सर्व सत्यवा दिनमा अग्रेसर,महाबुदिनिधि, दीन जीवने तन, मन,धनवडे सदाय करनार, रूडा स्वना ववाला, पुस्य प्रनावरूप चंइना प्रकाशवडे दिशाउने प्रकाश करनारा एवा “राय बुद्धसिं हजी" नामें श्रावक श्रीजिनधर्म उपर महोटा श्रज्ञावान हता. तेमनी कुशलादे नामें पत्नी नी कुदियकी संवत् १७३७ ना माघवदि एकमने गुरुवारने दिवसें राय प्रतापसिंहनामें कुलदीपक सुपुत्र उत्पन्न थया. ते सर्व धनाढयोमा शिरोमणि अने महाधर्मनिष्ठ तेमज दमावान् तथा धर्माऽधर्मना निर्णय करनारामां अग्रेसर थया. तेमनी च तुर्थ पत्नीनुं नाम महताबबाई हतुं. तेमणे उसवंशमां मुकुटमणि, न्यायमार्ग लक्ष्मी नु उपार्जन करनार तथा धर्म, अर्थ, काम, ए त्रिवर्गना साधनारा बने प्राणिमात्र ने विषे दयाईपणाएं युक्त, एवा महातेजस्वी बे पुत्रोने जन्म प्राप्यो. तेमा वडा पुत्रनुं नाम " रायलक्ष्मीपति सिंह बाहार” तथा जेमणे यावा ग्रंथो उपावी प्रसिह करवा नो उद्योग आरंन्यो , ते कनिष्ट पुत्रनु नाम “रायधनपति सिंह बाहाउर" . ए बेदु सद् गृहस्थो, सजुणनिधान अने मनुष्य मात्रना कल्याणमा उत्सुक , माटें था जिनधर्म Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रेरक उत्तम ग्रंथ बपावी एमणे पोताना जन्मनु सार्थक कयुं जे. एवा परमार्थ कार्यो, ए नाग्यशालीउने हाथे प्रतिदिवस था. एवी मारी वारं वार विज्ञापना बे. ॥काव्य बंद ॥ COOL २ जिनवच पियूष पान, करन जो अति अनिलाषी; एहि रातिदिन ध्यान, चित्तमें रहत विनाषी; कथा सुनत युतप्रीति, रीति अचुत धरी हीमें; झान वृद्धिके हेत, अधिक उत्सुकं सबहीमें. जिहिँ मातुश्री प्रान, त्यागि गय सुरनव मांही; सुमरन तिनके नाम, कीय निश्चय इक बांहीं ; सबहीं पागम बापि, प्रसि करिय या जगमें: बहुत प्रानि अवलोकि, बांचि सुनि वह ता मगमें. चलत सोइ उद्योग, करन मुक्ति सब आगम; तिनमें इक मुहि दीन्द, इतहि जब नयो समागम ; सूत्र कृतांग पवित्र, उतिय जो अंग कहावै; सब विधि अति उत्कृष्ट, सुनत बांचत मन नावै. सो किय बापि प्रसिद, होइ मनमें नन्नासा; नयो एहलपकार, मोरि मति परम प्रकाशा ; बाबु साब परताप, जानि यह अर्पण करहुँ; सदा रहढं जगमांहि, मनुष अस नावन धरढुं. धर्म वृद्धि के देत, बुद्धि अति उदार कीनी; लीनी कीर्ति अखंम, स्वाय तन मन धन दीनी; सफल कीन नर देह, धन्य धनपतिसिंह जगमें, अमर थापका नाम, रहो जिनधर्म ग्रंथमें. ३ ॥ इति प्रस्तावनादि समाप्त॥ Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ श्रीस शुरुभ्योनमः ॥ ॥ अथ ॥ ॥ श्रीसूयगडांगसूत्र द्वितीयांगानुक्रमणिका प्रारंभः ॥ ॥ तत्र ॥ ॥ प्रथम श्रुतस्कंधस्य षोडशाध्ययनानुक्रमणिका ॥ पहेलुं समयाख्य नामा अध्ययन बे, मां 'स्वसमय ने परसमयनी प्ररूपणा करी बे. ए अध्ययनना चार नद्देशा बे. तेमध्यें पहेला उद्देशामां ब. अर्थाधिकार बे, बीजा उद्देशामां चार अधिकार बे, त्रीजा उद्देशामां बे अर्थाधि कार बे घने चोथा उद्देशामां एकज अर्थाधिकार बे. ते मध्यें नुक्रमें प्रथमाध्ययनना चार उद्देशामांहेला प्रत्ये अर्थाधिकारी अनुक्रमणिका दर्शावियें ढैयें. ॥ तत्र प्रथमोद्देशानुक्रमणिका ॥ १ पहेला उद्देशाना पहेला अर्थाधिकारनी प्रथम गाथामां याचारांग सायें या सूयगडांगनो संबंध, एवी रीतें मेलव्यो बे के याचारांगमां बक्कायनुं स्वरूप जाणवुं, एटले ज्ञान कयुं, ते ज्ञानप्राप्ति थया पढी ज्ञानपूर्वक क्रिया करवी. ते संबंधें प्रारंभमां (बुविक) ए गाथाथी संबंध बे. ते सं बंध मेलवीने पती पांचमी गाया पर्यंत स्वसमयनुं स्थापन कस्युं बे. ते वार पढी यामी गाथा पर्यंत परसमयी जे पंचमहाभूतवादी तेनुं मत कहे . ते या प्रमाणे के पृथ्वी, अप्, तेज, वायु ने खाकाश, ए पांचनुं सर्वत्र व्यापकपणुंबे माटें ए पांच महानूतज सर्वत्र बे परंतु या रमा बेज नहीं. ए रीतें एमनुं मत कहीने प। तेनुं खंमन करूं बे. २ पहेला उद्देशाना बीजा अर्थाधिकारमां चेतनाचेतन सर्वने विषे एक घा त्मा व बेमायें सर्व पदार्थ एक यात्मरूपज बे परंतु शरीर शरीरने विषे जूदो जूदो प्रत्मा नथी. एवो खात्मा द्वैतवादीनुं मत नवमी गाथा पर्यंत दर्शावीने पढी दशमी गाथामां तेनुं खंमन कस्युं बे. ... For Private Personal Use Only १ २६ Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुक्रमणिका. ३ पहेला उद्देशाना त्रीजा अर्थाधिकारमा पंच महानत शरीरने आकारें प रिणमीने चैतन्य स्वरूप एवा यात्माने उपजावे . शरीरना विनाशे या त्मानो पण विनाश थाय अने धात्माने अनावें पुण्य पापादिकनो प ए अनाव जाणवो. एम अगीधारमी गाथाथी मांझीने बारमी गाथा प र्यंत तजीव तहरीरवादी मत दर्शाव्यु के. पनी ते गाथानीज टीकामां तेनुं खंमन कयूं . ... ... ... ... ... ... ... ... ... २७ ४ पदेला उद्देशाना चोथा अर्थाधिकारमा पुण्यपापरूप क्रियानुं करवा प णुं तथा कराववा पणुं यात्माने नथी, ए रीतें तेरमी गाथामां अक्रिया वादीनुं मत दर्शावीने पनी चौदमी गाथामां तेना मतनुं खंमन कहुं . ३१ ५ पहेला उद्देशाना पांचमा अर्थाधिकारमा जेम पांच महानत ले.तेम बहो या त्मा,पदार्थ सर्व शाश्वत सर्व व्यापीयविनाशिरूप .एम शोलमी गाथा प र्यंत आत्मषष्ठवादीनुं मत दर्शावीने पनी तेनु खंमन नियुक्तिकारें कमु. ३५ ६ पहेला उद्देशाना बहा अर्थाधिकारमा पंचस्कंधज जगत्मा जे परंतु या त्मा नथी. एवा पंचस्कंधवादी अफलवादी बौधमतिर्नु मत, सत्तरमी गाथा पर्यंत दर्शाव्युं तथा ते पनी चार धातुथकीज या शरीर, न पजे ने अने आत्मा नथी एवा अन्य बौध मतिउनु मत. अढारमी गा थामां दर्शावीने पबी ए बन्ने बौध मतिनुं खंमन नियुक्तिकारें कयुं . तेवार पनी गणीशमी गाथामां ते पूर्वोक्त अन्य दर्शनी पोतपोताना दर्श नमां फलप्राप्ति , एम कहे . ते दर्शावीने पनी सत्तावीशमी गाथा पर्यंत ते सर्व दर्शनीउना दर्शन- खंमन करी तेने निष्फल करी देखाड्या . ३७ ॥हितीयोदेशानुक्रमणिका ॥ १ बीजा उद्देशाना पहेला अर्थाधिकारमा त्रीजी गाथा पर्यंत नियतिवादी मत ____ दर्शावीने पनी पांचमी गाथा पर्यंत तेना मतनुं खंमन कहुं . ... ... ४६ ३ बीजा उद्देशाना बीजा तथा त्रीजा, ए बेदु अर्याधिकारमा त्रेवीशमी गाथा पर्यंत अज्ञानवादीना दोष दर्शावी, ज्ञानवादीना मतनुं प्रतिपादन का ले. ५२ ४ बीजा उद्देशाना चोथा यर्थाधिकारमा अनावीशमी गाथा पर्यंत क्रियावादीनुं मत दर्शावीने पनी बत्रीशमी गाथा पर्यंत तेमना मतनुं खंमन करेल . ६२ Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३ अनुक्रमणिका. ॥ तृतीयोदेशानुक्रमणिका ॥ १ त्रीजा उद्देशाना पहेला अर्थाधिकारमा चोथी गाथा पर्यंत बाधाकर्मिकग त विचार तथा प्राधाकर्मी थाहार करनारने दोषोपदर्शन कदेखें .... ७१. त्रीजा उद्देशाना बीजा अर्थाधिकारमा ठमी गाथा पर्यंत कोइ कहे ले के था चराचर लोक ईश्वरकृतले, कोइ कहेले के देवरुतले, कोई कहे ले के विष्णुयें निपजाव्यो बे बने को कहे के अंमथकी नीपनो जे. एवी रीतना बोलनारा अज्ञानी-नां मत दर्शावी पनी दशमी गाथा पर्यंत तेमना मतनुं खंमन करेलु ले तथा त्रैराशिक मतानुसारीजे क तवादी तेना मतें आत्मा मनुष्यनवेंज पापरहित थाय तथा मोक्षगामी थाय. पनी ते आत्माने मोदमापण राग देष उपजे,तेथी ते यात्मा फरी संसारमा थावे. इत्यादिक बारमीगाथा पर्यंत कही पड़ी तेरमी गाथामां तेनुं खंम्न कांजे, ते पनी पन्नर गाथा पर्यंत अन्य प्रकारे कृतवादीनुम त देखाडीने पनी शोलमी गाथामां तेमना मतनी निष्फलता दर्शावी. ४ ॥ चतुर्थोद्देशानुक्रमणिका ॥ ४ चोथा नद्देशामा एकज अर्थाधिकार ले. तेमध्ये पहेली गाथा पर्यंत परती र्थिकना दोष कहेला ने. पनी तेवा परतीर्थिक बते साधुएं गुंक र ते बीजी गाथा पर्यंत कहीने ते पनी त्रीजी गाथामां ते परतीर्थिक केम परित्राण समर्थन होय? तेनुं कारण देखाडधुंडे. पनीचोथी गाथाथी सा धु थारंन परिग्रह टालीने प्रवर्त, एम देखाउy .ते पनी पांचमी गाथाथी मांमोने सातमी गाथा पर्यंत था लोकमा जे पुरुष होय ते परलोकें पुरुष ज थाय तथा जे स्त्री होय, ते स्त्रीज थाय तथा था लोक शाश्वत ले य प्रच्युत अनुत्पन्न स्थिर स्वनाववालो सात दीप अने सात समुप बे, इत्यादिक लोकवाद एटले पौराणिक मत दर्शावेल ते पनी आठ मी गाथामां तेनुं खंमन करेल वे ते पनीदशमी गाथा पर्यंत ग्रंथकारें स्वमतने दृष्टांतें करी ते मतोनुं खंमन सिह करीने हिंसा न करवी एवो उपदेश करेलो . पड़ी तेरमी गाथा पर्यंत साधुने केवी रीतें वर्तवं ते दशाव्युं . ... ... ... ... ... ... ... ... ... ... ८६ Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुक्रमणिका. ॥ अथ दितीयाध्ययनस्यानुक्रमणिका ॥ बीजं वैतालीयनामा अध्ययन के. एमां त्रण उद्देशक जे.प्रत्येक उद्देशकमां एकेक अर्थाधिकार ले तेनी अनुक्रमणिका करीयें बैये. १ प्रथम उद्देशकमां बावीशमी गाथा पर्यंत हिताहित प्राप्ति परिहार लक्षण बोध कहेलोले तथा संसारनी अनित्यता देखाडी. ... ... ... १०० २ बीजा नद्देशकमां बीजी गाथा पर्यंत साधुयें अष्ट प्रकारना मदनो त्याग करवो तथा ते पनी त्रीजी गाथाथी बत्रीश गाथा पर्यंत शब्दादिकथर्थो ने विषे अनित्यतानुं प्रतिपादन करवं, तथा विविधोपसर्ग सहन कर वा इत्यादि नानाप्रकारना उपदेश साधुने करेला . ... ११७ ३ त्रीजा उद्देशकमां बावीशमी गाथा पर्यंत विरत पुरुषोने कदाचित् परिसह उ त्पन्न थाय तो ते सहन करवा थकी विविध प्रकारना झाने करीने त दि पामेला पुरुषने कर्मोनो नाश थाय ले. अने यतिपुरुषं सुख अने प्रमादनो नाश करवो इत्यादि कहेलुं . ... ... ... ... ... १४४ ॥ अथ तृतीयाध्ययनस्यानुक्रमणिका ॥ त्रीजं उपसर्ग परिझानामें अध्ययन जे. एमां चार उद्देशक २ ते मध्ये त्रीजा उद्देशामां बे अर्थाधिकार ने अने बाकी नात्रणे उद्देशामां प्रत्येकें एकेक अर्थाधिकार . तेनी अनुक्रमणिका करीयें बैयें. १ पहेला उद्देशकमां प्रकर्षे करी बुद्ध थयेला पुरुषने पौष मासादिक शीत ऋतुने विषे टाहाड खमवी पडे तथा ज्येष्ट मासादिक ग्रीष्मरुतुने विषे बात फरश्यो थको अत्यंत तृषादिकें करी परानव पामे तथा याच ना एटले माग पडे ते महाउलन थाय तथा लोकोना मुखथकी या कोशकारी वचन सांजलवां पडे तथा निदायें नमतां श्वानादिक करडे तथा ग्रामिक लोकोना वचन रूप परीसह सहन करवा पडे तथा मांश मशकादिकना नपसर्ग अने केशलोचादिकना उपसर्ग सहन करवा पडे तथा मिथ्यात्वी अनार्य पुरुषोथी जे शरीर तथा वचन संबंधी कदर्थना उत्पन्न थाय ते सहन करवी पडे तेने सहन करे. इत्यादिक, उपसर्गोनु निरूपण सत्तरमी गाथा पर्यंत करेलुं . ... ... ... १६१ Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नुक्रमणिका. १५ २ बोजा उद्देशकमां माता, पिता ने पुत्रादिकना रुदन विलाप प्रमुख त या ज्ञाति स्वजनादिकना नाना प्रकारना कुबोध वचन प्रमुख अनुकूल उपसर्गेनुं सहन, साधुयें करनुं, तेनुं निरूपण बावीशे गाथामां करेलुं बे. १७४ ३ त्रीजा उद्देशामां बे अर्थाधिकार बे. त्यां सातमी गाया पर्यंत प्रथम य धिकारमां साधुने प्रतिकूल घने अनुकूल उपसर्गे अध्यात्म विषाद थाय बे, ते दर्शायुं बे. तेवार पढी एकवीशमी गाथा पर्यंत बीजा अधि कारमां साधुने परवादीयें वचनें करी करेला उपसर्गोने सहन करवानुं त या ते उपसर्गो सहन करे, एम उपदेश निरूपण करेलुं बे. 8 चोथा उद्देशामां परदर्शनी अथवा स्वतीर्थिक पासबादिको प्रावीने यु क्ति पूर्वक अनेक कुशास्त्रोनां वचन कही समजावीने साधुने चारित्र य की ष्ट करवानो उद्यम करे तथापि तेमना करेला उपसर्ग थकी सा धु चलायमान न थाय, एवो बोध बावीशे गाथामां करेलो बे. ॥ श्रथ चतुर्थाध्ययनस्यानुक्रमणिका ॥ चोयुं स्त्री परिज्ञानामें प्रध्ययनले एमां वे उद्देशक बे, एकेक उद्देशक Highat धिकार बे. तेनी अनुक्रमणिका करीयें बैयें. १ पहेला उद्देशकमां स्त्रीनी साथै संस्तव, परिचय, खालाप, संलाप, अंग प्र त्यंग निरीक्षणादिकें कामोत्कायें करी अल्पसत्व पुरुषने चारित्रस्ख न थाय बे, तेथी स्त्रीयें करेला नाना प्रकारना धनुकूल उपसर्ग तेनो परित्याग करवो तथा तेना करेला उपसर्ग सहन करवा. एवो उपदेश, एकत्रीश गाथामां साधुने करेलो बे. ॥ अथ पंचमाध्ययनस्यानुक्रमणिका ॥ पांचमुं निरयविनत्ति नामें अध्ययन बे. एमां बे उदेशा बे, प्रत्येक देशमा एकेक अर्थाधिकार बे तेनी अनुक्रमणिका लखीयें बैयें. १ पहेला उद्देशामां स्त्री वश पुरुषने अवश्य नरकपात थाय ते माटें नरक १८६ २ बीजा नदेशकमा स्त्रीना उपसर्गोयें करी शीलयकी स्खलन थयेला साधु नेा जन्मने विषे स्वपक्ष ने परपक्षादि कृत विडंबना यने तत्प्रत्य कि जे कर्मबंध थाय. तेणे करी संसार समुड्मां पर्यटन करवुं पडे ते नुं स्वरूप बावीशे गाथामां दर्शाव्यं बे. २४३ For Private Personal Use Only २०१ २१७ Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६ अनुक्रमणिका. संबंधी विविध प्रकारना खोनुं सविस्तर पणे वर्णन सत्तावीश गाथामां करेलुं . ... ... ... ... ... ... ... ... ... २५ए २ बीजा उद्देशामां पण एज नरक संबंधी शाश्वत सुःखोनुं विशेषवर्णन त्रेवीशमी गाथा पर्यंत करीने पनी चोवीशमी तथा पच्चीशमी गाथामां ते खोथकी नय पामीने जेमां अहिंसानुं प्राधान्य दे एवा श्रीजिनधर्मने आदरवानो उपदेश करेलो . ... ... ... ... ... ... ... २४ ॥ अथ षष्ठाध्ययनस्यानुक्रमणिका ॥ ६ हुं वीरस्तुति नामा अध्ययन एमां एकज उद्देशो ने थने एकज थ ाधिकार आगला अध्ययनमां नरक विनक्ति एटले नरकना विनाग कह्या, ते श्रीमहावीर स्वामीये कहेला ,माटें था अध्ययनमां श्रीम हावीर स्वामीनी गुणोकिर्त्तन पूर्वक स्तुति, उगणत्रीश गाथामां करी. ३०१ - ॥ अथ सप्तमाध्ययनस्यानुक्रमणिका ॥ ७ सातमुं कुशील परिनाषा नामें अध्ययन . एमां एकज उद्देशक थने ए कज अर्थाधिकार ले. या अध्ययनमा अगीधारमी गाथा पर्यंत अन्य जे कुशीलीया दर्शनी ते धर्हटघटि न्यायें चातुर्गतिक संसारमा परि भ्रमण करे ने इत्यादिक कहीने पनी बारमी गाथामां परदर्शनी कुशी लथकी मोक्षप्राप्ति कहे . ते दर्शावीने बढारमी गाथा सुधी तेने ते थकी विपरीत फल प्राप्त थाय ले. एवो उत्तर प्राप्यो . पनी वीशमी गाथा सुधी सामान्य नपालन करेल . ते पनी एकवीशमी गाथामा स्व यूथिक कुशीतीयानां लक्षण दर्शाव्यां ने घने बावीशमीथी चोवीशमी गाथा सुधी स्वयूथिक सुशीलीयानां लक्षण कही देखाइयां ले. तेवार प बी वली पच्चीशमी तथा बबीशमी गाथामा कुशीलीयानां थाचरणो क हीने फरी सत्तावीशमीथी त्रीशमी गाथा पर्यंत सुशीलीयानां श्राचरण कह्यां जे. आ अध्ययनमां अंमजादिक अनेक प्रकारे जीवोना नेद दे खाडीने तेनी हिंसानो निषेध करवायाश्री उपदेश करेलो ले तथा हिं सायें करी धर्म माननारा एवा अन्य दर्शनीने विवध प्रकारना दृष्टां तो यापी अहिंसक धर्ममा प्रवर्त्तवानो उपदेश करेलो ले तथा मुशीलना गुण कशाले. ... ... ... ... ... ... ... ... ... ३२५ Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुक्रमणिका. ॥ अथाष्टमाध्ययनस्यानुक्रमणिका ॥ G घाउमुं वीर्यनामा अध्ययन जे. एमां एकज उद्देशक बने एकज अर्था धिकार जे. एमां नवमी गाथा पर्यंत पंमितवीर्य तथा बालवीर्य, एरीतें बे प्रकारना वीर्यनुं स्वरूप जाणीने पली पंमितवीर्यमा यत्न करवो, ए वो उपदेश बबीशमी गाथासुधी करेलो . ... ... ... ... ... ३५१ ॥ अथ नवमाध्ययनस्यानुक्रमणिका ॥ ए नवमुं धर्मनामा अध्ययन जे. एमां एकज उद्देशक अने एकज अर्थाधि कार आअध्ययनमा यथावस्थित सर्व धर्मनुं प्रतिपादन करेलु जे. एट ले बक्कायना जीवोनुं अहिंसक पणुं आदर तथा प्राणातिपातादि क पांच महाव्रतोनुं ग्रहण करवू तथा पुर्व्यसनादिकनो त्याग करवो. इत्यादिक उपदेश बत्रीश गाथामां दर्शावेलो . ... ... ... ... ३७३ ॥ अथ दशमाध्ययनस्यानुक्रमणिका ॥ १० दशमुं समाधिनामा अध्ययन . एमां एकज नद्देशक अने एकज अर्था धिकार . ए अध्ययनमा समाधि विना धर्म प्राप्ति थाय नहीं, माटें चोवीश गाथामां समाधिनुं प्रतिपादन करेलुंजे. ... ... ... ... ३७ ॥अथ एकादशाध्ययनस्यानुक्रमणिका ॥ ११ अगोधारभु मोदमार्गनामा अध्ययन . एमां पण एक उद्देशक बने एकज अर्थाधिकार जे.एमां सम्यकदर्शन, सम्यक्झान बने सम्यक् चारि त्रात्मिक ज्ञान युक्त मोदनुं स्वरूप आडत्रीशगाथामां कडं . एटले प्रशस्त ज्ञानादिक जे नावमार्ग छे, तेनुं आचरण करवं कडं . ४१ए ॥ अथ दादशाध्ययनस्यानुक्रमणिका ॥ १२ बारमुं समवसरण नामा अध्ययन के. एमां पण एकज उद्देशक अने एक ज अर्थाधिकार जे. ए अध्ययनमा क्रियावादी, थक्रियावादी, थ ज्ञानवादी अने वैनयिकवादी एवा चार मतमा रहेला जे त्रण शेने त्रेशन पाखंमी ते पोत पोताना अर्थनी प्रसिदि करवाने उद्युक्त थया ने तेने उपन्यस्त साधन दोषोनावने करी निराकरण कस्या . तिहां Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुक्रमणिका. प्रथम गाथामां ए चारे मतनी गणना करी पनी बीजी गाथामां अज्ञान वादीनुं मत दर्शावाने तेनुं खंमन कझुंडे. त्रीजी गाथामां विनयवादीनुं मत देखाडी पड़ी चोथी गाथाना पूर्वाधमां तेनु अझानपणुं देखाड्यु ने. चोथी गाथाना उत्तराईमा अक्रियावादीनुं मत देखाडी पनी पांच मी गाथामा अक्रियावादीनु अझानपणुं दावीने बही गाथामां तेने दूषण थापी खंमन का ने. सातमी गाथाथी सर्व शून्यवादीनुं मत कडं वे. अगीधारमी गाथाथी क्रियावादीनुं मत दर्शावी पड़ी तेनुं य झानपणुं बतावीने तथा जैनदर्शनमा संसार परिचमणनो अनाव दे खाडीने बावीशमी गाथा पर्यंत अध्ययनपरि समाप्त कयुं डे. ... ... ४४५ ॥ अथ त्रयोदशाध्ययनस्यानुक्रमणिका ॥ १३ तेरमुं याथातथ्य नामा अध्ययन जे. एमां पण एक उद्देशक अने एकज अ र्थाधिकार .या अध्ययननीत्रेवीशे गाथामां कापिल, काणाद,अपाद, सौधोदन अने जैमनीय प्रमुख मतानुसारी जे कुमार्गपणे तत्व साधन करे ने ते दर्शाव्युंडे तथा याथातथ्य सम्यक्झानतुं स्वरूप, तथा सत्पुरु पनो श्रुत चारित्ररूप धर्म,अने पूर्वोक्त परतीर्थक साधु तथा गृहस्थना पुराचार तथा स्वतीर्थिक पासबादिकना उराचार तथा निर्वाण मार्ग यने संसार भ्रमणरूपमार्ग तेमज निन्दवादिक बोटीकादिक एवा जे मिथ्यात्वना प्रेखा कदाग्रही जिनमार्गना उबापक कुमार्गना उपदेशक जनो ले. ते सर्व याथातथ्य पणे कह्या . ... ... ... ... ... ४७४ ॥ अथ चतुर्दशाध्ययनस्यानुक्रमणिका ॥ १४ चौदमुं ग्रंथपरित्यागनामा अध्ययन जे. एमां पण एक उद्देशक अने ए कज अर्थाधिकार ले. ा अध्ययनमा सत्तावीश गाथा बे. तेमा मुख्यत्वें करी गुरुकुल वास करवो कह्यो तथा बाह्यान्यंतर परियहना त्याग थकी चारित्र थाय जे माटें एमां ग्रंथपरित्याग करवानो उपदेश करेलो. ५०० ॥ अथ पंचदशाध्ययनस्यानुक्रमणिका ॥ १५ पंदरमुं बादाननामा अध्ययन जे. एमां एक उद्देशक बने एकज अर्था Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुक्रमणिका. धिकार बे. ए अध्ययनमां मोह इवनार पुरुषने ग्रहण करवा योग्य जे सम्यक ज्ञान, चारित्र, मोक्षमार्ग प्रसाधक तेनुं विशेष कररी पच्चीश गा थाम वर्णन करेलुं बे. रूडी शिक्षारूप चारित्रानुष्ठानने खादान एटले ग्रहण करवुं तेनुं इव्यथी तथा नावथी शुवस्वरूप कयुं बे. ॥ अथ षोडशाध्ययनस्यानुक्रमणिका ॥ १६ शोलमुं गाथा नामा अध्ययन में एमां एक उदेशक अने एकज य धिकार. यागल कहेला पंदरे अध्ययनोमां जे विधिरूप तथा प्र तिनिषेधरूप जावो कह्या, ते प्रमाणे जे खाचरण करें, ते साधु कहेवा य, एवो या अध्ययनमां उपदेश करेलो बे एमां ब्राह्मण, श्रमण, निकु ने निर्यथ, ए चार शब्दोना अर्थ तथा तेमां शा शा गुणो होय ? ते दे खाड्या बे या अध्ययन पद्यबंध नथी पण गद्यबंध बे. ॥ अथ ॥ ॥ द्वितीय श्रुतस्कंधस्य सप्ताध्ययनानुक्रमणिका ॥ ... ॥ तत्र ॥ ॥ प्रथमाध्ययनस्यानुक्रमणिका ॥ प्रथम पौंमरिकनामा अध्ययन जे. एमां एक नदेशक ने कज अधिकार एमां पौंमरिक बे प्रकारनां बे, एक इव्यपरिक ने बीजुं नावपमरिक, त्यां जे क मलादिक ते व्यपरिक धने सम्यकूदर्शन, चारित्र, वि नयवान् अध्यात्ममूर्त्ति एवा जे श्रमण साधु ते नाव पौरिक जाणवा. ते साधुउनो या पौंमरिकमां अधिकार जावो. या अध्ययनने सीतशतपत्रनी उपमा थापी बे, तेथी या अध्ययननुं नाम पौंमरिक कस्युं बे. या अध्ययनमां पुष्करिणीने विषे स्थित एवां पौंमरिक कमलने प्राप्त करना राना दृष्टांतें करी परतीर्थिक सर्व मोक्षोपायना अनाव की कर्म बांधे खने तेने पौंमरिक रूप यथावस्थित For Private Personal Use Only হবে ५३३ ५५३ Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुक्रमणिका. . ज्ञानप्राप्ति थती नथी तेथी ते पौंमरिक कहेवाय नहिं. ते नुं सविस्तर वर्णन तथा जे सत्साधु जे ते सम्यक्दर्शनादिक एवा मोदमार्गमा प्रवर्तता कर्मना मोचक जाणवा, ते प्रतिपादन कयुं बे. या अध्ययनमां जूदा जूदा शाठ बालावा जे, तेनी अनुक्रमणिका लखीयें बैयें. १ पहेला पांच आलावा पर्यंत पुष्करिणीन वर्णन तथा तेमा रहेला कमल नुं वर्णन तथा बहा बालावामां पूर्व दिशा थकी वेलो जे प्रथम पु रुष ते कमल नरवाने गयो ते त्यांज कादवमां खूची रह्यो, इत्यादि. ५६५ ७ सातमाथी नवमा बालावा पर्यंत दक्षिण दिशाथकी थावेला बीजा पु रुष तथा पश्चिमदिशाथकी आवेला त्रीजा पुरुषं तथा उत्तर दिशाथकी यावेला चोथा पुरुष कमल नरवानो प्रयत्न कयो परंतु ते पण सर्व त्यांज कादवमां खूची रह्या.. ... ... ... ... ... ... ५७४ १० दशमा बालावामां अन्य को एक दिशाथी थावेलो पांचमो चारित्र धर्म वान् पुरुष जे पुष्करिणीमा पेठो नहीं पण पुष्करिणीने कांठे रहीने पौंमरि क कमलने उपर आववानुं कर्तुं तेथी ते कमल नपर थाव्युं तथा ते पनी बारमा बालावा पर्यंत श्रीमहावीर नगवाने पोताना शिष्योने थामंत्र ण करीने सामान्य प्रकारें उपरना पौंमरिक कमलना दृष्टांत साथें संसारमाथी उहरवान उदाहरण कडं ले. ... ... ... ... ... ५७७ १३ तेरमा अने चौदमा पालावामां चारे दिशाथकी तथा पांचमी अन्यको ३ दिशाथकी यावेला पुरुषोनो दृष्टांत पोमरिक कमल साथें विशेष प्रकारें राजा नझरणादिक नाव कह्या बे. ... ... ... ... ५०५ १५ पंदरमाथी शोलमा बालावा पर्यंत आदि पुरुषजात तजीवतहरीरवा दीयें राजाने उद्देशीने पोताना धर्मनी देशनाापी . पडी ते आदि पु रुष जातनो पद ग्रहण करनार नास्तिक एम उगणीशमा घालावा पर्यंत देखाड्युं . ... ... ... ... ... ... ... ... ... एए. १० वीशमाथी मामीने चोवीशमा आलावा पर्यंत बीजो पुरुषजात पांच महानौतिक सांख्यमति पुरुष के तेणे राजाने नद्देशीने पोताना धर्मनी देशना आपी ले. ते पडी तेनुं खमन पण करेलुं . ... ... ... ... ६०३ २५ पच्चीशमाथी सत्त्यावीशमा घालावा सुधी त्रीजो पुरुषजात ईश्वरवादी Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुक्रमणिका. २१ तेणे राजाने बदेशीने पोताना धर्मनी देशना यापी बे एम तेना दर्श ननुं स्वरूप देशवीने पहावीशमा घालावा पर्यंत तेनुं खंमन कयुं छे. ६११ २७ उगणत्रीशमाथी मांमीने चोत्रीशमां घालावा सुधी चोथो पुरुषजात नियतवादी पुरुष, जे नवितव्यतानेंज माने बे पण कार्यसिद्धिने विषे बर्जु को कारण मानतो नथी. ते पुरुषं राजाने उद्देशीने पोताना धर्म नी देशना यापी बे, पढी तेना मतनुं खंमन कर बे. तेवार पढी ए पूर्वोक्त चारे पुरुषो, काम जोगने विषे खूता एम देखाड्यं . ६२० ३५ पत्रीशमा घालावामां पाचमो स्वतीर्थिक पुरुष जे पौमरिक कमल उ वाने समर्थ, जे चारित्रने विषे सावधान बे, तेनुं वर्णन करेलुं वे. ६२७ ३६ त्रीश यने साडत्रीशमा खालावामां ते पुरुष, चारित्र जेवानी वखतें ज एवं जाबे के कामजोगादिक जे बे ते कोइ पण जीवने रोगादिक दुःखो थकी मूकावनार नथी. ६३३ ३८ छाडत्रीशमा घालावामां ते पुरुष, • एवं चिंतवे के नवविध परिग्रह तथा शब्दादिक विषय जे बे ते सर्व बाहीर संयोगी बे. ३० अंगण चालीश थी एकतालीशमा श्रालावामां ते पुरुष ज्ञाति संयोगादिकने वि मूर्छाना त्याग संबंधी अनेक प्रकारें वैराग्यना कारणोनी चिंतवना करे. ६३५ ४२ बेंताजीशमा घालावामां ते पुरुष, धनधान्यादिक बाह्य परिग्रह तथा रागदेषादिक अंतरंग परिग्रहने बांमीने निदाचर्याने विषे सावधान या. पी ते दया जाणवाने अर्थे जीवना नेद जाणे, ते कह्या े. ६३‍ ४३ तैंतालीशथी मामीने मुडतालीशमा घालावा पर्यंत जीवोना उपमर्दक जे बे ते सारंनी सपरिग्रही बे एम जाणीने ते पुरुष पोतें निरारंनी निःपरिग्रही प्रत्याख्यानी थको विचरे. ६४१ ४८ घडतालीशथी मांमीने शातमा घालावा सुधी बजीवनिकायने कोइ प जातिनुं दुःख उपजावनुं ते कर्मबंधनुं कारण वे एम परमेश्वरें क ह्युं माटें सर्व जीवने न हण्वा तेनी साधें मृषावादादिक पण अंगीका र न करवा. एम जाणी ते साधु क्रोधादिकथी रहित थको शब्दा दिकने विषे मूति एम सर्व कर्म बंधना कारणोथकी निवृत्त्यो raat xdasष्ट त्योनो परित्याग करें, एम देखाडी ने, अध्ययन परिस मात सुंबे. For Private Personal Use Only ... ... ६३० ६४७ Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २ ש ס ס ט ט ir ur ur rur ur rurir ט अनुक्रमणिका. ॥ अथ क्षितीयाध्ययनस्यानुक्रमणिका ॥ बीजूं किया स्थानक नामा अध्ययन जे. एमां एक उद्देशक बने एकज अर्थाधिकार के. एमां बार क्रियास्थानकें करी कर्म बंधाय ने अने तेरमा कियास्थानकें करी कमें मूका य . एवा तेर क्रिया स्थानकनुं स्वरूप कह्यु एमां प चाशी घालावा . तेनी अनुक्रमणिका लखीयें .यें. १ पहेला चार घालावामां संपें तेर क्रियास्थानकनां नाम कह्यां ने. ... ५ पांचमा घालावा मध्ये पहेला क्रियास्थानकनुं स्वरूप ने. ... ... ६७४ ६ बहाथी पाउमा बालावामां बीजा क्रियास्थानकनुं स्वरूप ने. ... ... ए नवमा बालावामां त्रीजा क्रियास्थानकनुं स्वरूप . ... ...... ... ६०० १० दशमा थने अगीधारमा बालावामां चोथा क्रियास्थानकनुं स्वरूप . ६१ १२ बारमा अने तेरमा अलावामां पांचमा क्रियास्थानकनुं स्वरूप जे. ... ६१ १४ चौदमा घालावामां बहा क्रियास्थानकनुं स्वरूप ने. ... ... . . ६६ १५ पन्नरमा बालावामां सातमा क्रियास्थानकनुं स्वरूप ने. ... ..... .... ६७ १६ शोलमा घालावामां बाउमा क्रियास्थानकनुं स्वरूप . ... .... ... ६GG १७ सत्तरमा बालावामां नवमा क्रियास्थानकनुं स्वरूप . ... ... ... १७ अढारमा आलावामां दशमा क्रियास्थानकनुं स्वरूप ने. ... ... ... ६ए। १ए उंगणीशमा अने वीशमा बालावामां अगीधारमा क्रियास्थानकचं स्वरूप .६ए५ २१ एकवीशमा बने बावीशमा आलावामां बारमा क्रियास्थानकचं स्वरूप . ६एए २३ त्रेवीशमा अने चोवीशमा बालावामां तेरमा क्रियास्थानकनु स्वरूप बे. ७०४ २५ पञ्चीशथी सत्तावीशमा बालावा पर्यंत त्रणशे वेशठ पाखंमी तथा स्व पादिक इव्यालिंगी साधु ते रूडा अनुष्ठानने हणनारी एवी एनेक प्रका रनी विचित्र विद्याउने सेवे, तेथी चातुर्गतिक रूप संसारने विषे परित्र मण करे, एम अधर्मपदयाश्री व्रतधारीने पापनो उदय कह्यो ले. ७०० २८ अहवीशमा बालावाथी ते बेंतालीशमा बालावा पर्यंत, गृहस्थ उद्देशी ने अधर्म पदमां आजीविका निमित्त चन्द प्रकारे अनेक जीवोनो विनाश करे, ते पापना कारण देखाइयां बे. ... ... ... ... ७१४ ५३ तेंतालीशथी मांझीने त्रेपनमा घालावा पर्यंत क्वचित् को निमित्त करी वि शेषे बाधर्मपदयाश्रयी गृहस्थने हिंसादिक पापना कारण देखाड्यां . ७२५ ט ט ט ט Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१८ द्वितीये सूत्रकृतांगे प्रथम श्रुतस्कंधे चतुर्थाध्ययनं . उन्नपण इचिन मंदा ॥ नद्यायंपि तान जाएं सु जदा लिस्संति निकुलो एगे ॥ २ ॥ ७ 0 अर्थ - (जेके0) जे उत्तमसाधु (मायरंच पियरंच के ० ) माता पिता ने नाइ प्रमुखनो (पु संजोगंके ० ) पूर्वजो संयोग एटले आागलो संबंध तथा श्वगुरादिकनो पश्चात् संबंध एटले पा उलथी तो संबंध तेने विष्पज हायके ढांमीने एगे के० एकलो रागदेषरहित खने ज्ञानद र्शन तथा चारित्रे करीने सहिते के सहित एवो बतो, चरिस्सामिके हुं संयम पालीश एवी प्रतिज्ञा करे; वली मेहुणो के मैथुन यकी यारत के निवत्योंले विवित्सु के० स्त्री पशु पंग रहित एवा उपाश्रयनो गवेषणहार एवा साधुने पण कोइएक स्त्री विप्र तारे ते कळे ॥ १ ॥ मेां के० को एक कार्यने मीशे तंपरिक्कम्म के० ते साधु समीपे वीने न्नपण के० बाने शब्दे, हलवे हलवे, अनेक गूढार्थ पदे करी ए ले मर्मना वचने करी, बिमंदाके० कोइक स्त्री मंद एटले विवेकरहित एवी उति रुपने वशकरवाना उद्यापि के० उपायने तान के० ते स्त्री जासु के० जाणे जहा के० जे उपाये करीने एगेके कोइक निरकुलो के० चारित्रित मोहनीय कर्मना उदय की स्त्रीने वश थई जाय ने निस्संति के० संयम थकी पडी जाय. ॥ २ ॥ ७ अथ चतुर्थमध्ययनं . ॥ दीपिका - नक्तं तृतीयमध्ययनं । अथ चतुर्थमारज्यते । तच्चस्त्रीपरीषहोजेय इत्यर्थवा चकं तस्येदमादिमंसूत्रं । जेमायर मिति । योमातरं पितरं चशब्दात्पुत्रादिकं च विप्रहाय त्य पूर्वसंयोगंएको निःसंगः सहितोज्ञानादिनिः स्वहितोवा चरिष्यामि संयमं करिष्यामी ति कृतप्रतिज्ञः । खारतमुपरर्त मैथुनं कामानिलाषोयस्य सारतमैथुनोविविक्तेषु रुयाद्य नाकुलेषु स्थानेषु चरतीति शेषः । अथवा विविक्तं स्थानं एषितुं मार्गितुं शीलमस्य विविक्ते प॥ १ ॥ तं साधुं सूक्ष्ोन परकार्यव्यपदेशेन उन्नपदेन कपटेन पराक्रम्य समीपमागत्य मंदाग त्यमंदाः कामोदेककारित्वान्निर्विवेकाः स्त्रियः शीलाश्यंति । कोर्थः । चातृपुत्रव्यपदेशेन साधुसमीपमागत्य स्त्रियः संयमाश्यंति साधुमिति । प्रचन्नपदं गुप्तानिधानं । यथा । का प्रसुप्तस्य जनार्दनस्य मेघांधकारासु च शर्वरीषु ॥ मिथ्या न नापामि विशालनेत्रे ते प्र त्ययाये प्रथमादरेषु इत्यादि । स्त्रियस्तथोपायंजानंति यथाश्लिष्यंते साधवोप्येके ॥ २ ॥ ॥ टीका - नक्तं तृतीयमध्ययनं सांप्रतं चतुर्थमारच्यते । यस्य चायमनिसंबंधः। इहानंतराध्य उपसर्गाः प्रतिपादितास्तेषां च प्रायोनुकूलाः सहास्ततोपि स्त्रीकृतायतस्तयार्थमिद For Private Personal Use Only Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुक्रमणिका. ५४ चोपनमाथी मामीने सत्तावनमा बालावा पर्यंत पहेलु स्थानक जे सा धुना निंदक एवा मिथ्यादृष्टि पुरुषोना पापनो विशेष अधिकार कह्यो ले तथा तेवा पुरुष अनेक कामनोगने जोगवता थका विचरे के तेवा पुरुषोने बोधबीज पाम उर्जन एवी रीतें अधर्मपदना विनं गनो विचार कह्यो . ... ... ... ... ... ... ... ... ७२० ५७ घावन बने गणशाठमा बालावामां बीजुं स्थानक ते एके,जे पापस्था न,थकी निवृत्ति पाम्या तेधार्मिक जाणवा. एम धर्मपत्नो विचार कह्यो . ७३७ ६० शाउमा घालावामां त्रीजं स्थानक जे मिश्रपद. तेनो विचार कह्यो . ७४० ६१ एकरातमा घालावाथी मामीने अडशमा बालावा सुधी फरी पूर्वोक्त प्र थम स्थानक जे अधर्मपद तेने प्रकारांतरें कहीने तेनुं सेवन करनारने न रकरूप अधोगतिनी प्राप्ति देखाडीने ते नरकना फुःखोनुं वर्णन करेलु . ७४१ ६ए गणोत्तेरमा पालावाथी मामीने चमोत्तेरमा बालावा पर्यंत विशेषं बी गँ स्थानक जे धर्मपद तेनो विचार ते धर्मपदी साधु पुरुषना सौशीव्या दिक अनेक गुणोनुं वर्णन करीने तथा तेमने प्राप्त थती नानाप्रकारनी देवादिकनी गतिना सुखोनुं सविस्तर वर्णन करेलुं . ... ... ... ... ७५७ ७५ पञ्चोत्तेरमा बालावाथीमामीने सत्त्योतेरमा थालावा पर्यंत त्रीजुं स्थानक मिश्रपदीय विरताविरत एवा सम्यक्दृष्टि पुरुषोना गुणनुं वर्णन कह्यु . ७६ए ७० अमोत्तेरमा बालावामां धर्म, अधर्म अने मिश्र, ए त्रणे स्थानकनो उपसं हार करता बता तेनुं संपें वर्णन करेलुं . ... ... ... ... ७६ ७ए उगणाएंशी अने एंशीमा बालावामां अन्यदर्शनी त्रणशे वेश पां खंमी सर्वने अधर्म पदमां गण्या . ... ... ... ... ... ७७ ७१ एक्याशीमा थालावाने विषे जैनमार्गना जाण पुरुषे ते पाखंझीनने थ ग्नि उपडाववाना नद्देशे हिंसा करवानो निषेध करी हिंसा करनारने नरक पाति तेराव्या थने तेमने अहिंसा पमाडवाने प्रतिबोध कस्यो ने. ... ७०३ ७२ व्याशीमा बालावाने विषे तेवा हिंसक पाखंझी दर्शनीनने जे सुखो नी प्राप्ति थाय , ते सुखो कही देखाडयां . .... .... .... ७०७ ७३ व्याशीमा बालावाने विषे धर्मना प्ररूपक श्रमण, ब्राह्मण सर्व कुःखनो अंत करे ले. एम देखाडयुं . ... ... ... ... ... ... ... नए G४ चोराशीमा बालावामध्ये बार क्रियास्थानकने विषे वर्तता जीव, अधर्मप दने मलताज . एम देखाड्युं . ... ... ... ... ... ... एक Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४ अनुक्रमणिका. ७५ पञ्चाशीमा बालावामां तेरमा क्रियास्थानकने विषे वर्तता जीवने महा पुरुष कह्या . ... ... ... ... ... ... ... ... ... एक ॥ अथ तृतीयाध्ययनस्यानुक्रमणिका ॥ त्रीजं याहारपरिज्ञानामा अध्ययन . तेनो एक उद्देशक तथा अर्थाधिकार पण एकज , तेना जूदा जूदा था डत्रीश बालावा वे तेनी अनुक्रमणिका लखियें बैयें. १ पहेला पालावाथी मामीने वीशमा बालावा पर्यंत वनस्पतिकायना जी वोनी उत्पत्ति जूदा जूदा नेदो सहित सविस्तरपणे कही . ... ... एश २१ एकवीशमा घालावामां मनुष्यनी उत्पत्ति जूदा जूदा नेद सहित कहेली . ७१६ २३ बावीशमा अालावामां जलचारी पंचेंडिय तिर्यंच जीवोनी उत्पत्ति कही. ७५० २३ त्रेवीशमा घालावामां चतुष्पद स्थलचर पंचेंशिय तिर्यंचजीवो कहेला बे. २४ चोवीशमा बालावामां नरःपरिसर्प पंचेंश्यि तियेच जीवो कह्या बे. ... २३ २५ पञ्चीशमा घालावामां जुजपरिसर्प स्थलचर पंचेंश्यि तिर्यच जीव कह्या . २४ २६ बबीशमा बालावामां खेचर पंचेंश्यि तिर्यच जीवो कह्या . ... ... २५ २७ सत्त्यावीशमा बालावामां विकलेंश्यि जीव कह्या . ... ... ... ... २६ २७ असावीशमा घालावामां पंचेंश्यिना मलमूत्रमा उपजता जीवो कह्या . २७ श्ए गणत्रीशमा बालावामां सचित्तशरीरनी निश्रायें जे जीवोउपजे ते करा . ३० त्रीशमाथी मांमी तेत्रीशमा घालावा सुधी अपकाय जीवो कह्या . श्ए ३४ चोत्रीशमा थालावामां बने पांत्रीशमामां अग्निकाय, वायुकाय जीवो कह्या .३३ ३६ बत्रीशमा बालावामां थशेष जीवाधार पृथवीकाय जीवो कह्या . ... ७३६ ३७ साडत्रीशमा घालावामां समस्त जीवो बाश्री वात कही . ... ... ८३६ ३७ धाडत्रीशमा बालावामां गुरुये शिष्यप्रत्ये ऐषणीकथाहारनो उपदेश कस्यो .३० ॥ अथ चतुर्थाध्ययनस्यानुक्रमणिका ॥ चोथु प्रत्याख्यान क्रियानामा अध्ययन एमां एकजउ देशक बने अर्थाधिकार पण एकज . एना जूदा जूदा आगीधार बालावाडे तेनी अनुक्रमणिका लखीयें बैयें. १ पहेला बालावामा जे जीवें पञ्चस्काणे करी पापकर्म हस्यां नथी एवा Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुक्रमणिका. श्य ८३८ G४४ विचारवान् जीव जो मन, वचन, कायायें करी पाप रहित होय ने स्वप्नांतरमां पण पापकर्मने देखे नहीं तो पण तेने तेवां पापक नो बंध थाय बे. एम याचार्ये कयुं बे. २ बीजा खालावामां पूर्वोक्त वातने शिष्यें याशंका करी जूती कही बे. ८४१ ३ त्रीजा घालावामां याचार्ये तेनो उत्तर प्रापीने एकेंड्रियादिक जी वोने पण पञ्चकाणी क्रियानो बंध लागे बे. एम कहां बे ४ चोथाथी बहा घालावामां याचार्ये, वधकनो दृष्टांत कही देखाड्यो बे. ८४६ ७ सातमा घालावामां शिष्यें पूर्वोक्त प्राचार्यना वचन उपर खाशंका करी बे के, जे जीवें कोइ प्रकारना जीवोने कोइवारें कानें पण सांजल्या नयी, नजरें पण दीवा नथी ने उलख्या पण नथी तेवा जीवने ते वो श्री हिंसानो कर्मबंध केम लागे ? ८५२ घाउमाथी दशमा घालावामां याचार्यै, संज्ञी बने प्रसंज्ञीने पण घ प्रत्याख्यानपणाथी पाप लागे बे. एम दृष्टांत पूर्वक कहीने पूर्वी शिष्यनी आशंकानो उत्तर व्यापी पोतानो पर स्थापन कस्यो बे. ११ प्रगीयारमा खालावामां शिष्य याशंका करी तेने गुरुयें उत्तर थाप्यो के यविरति जीवने नरकादिक गति प्राप्त थाय बे तेमज विरति जीवने मो ८५३ प्राप्त था कारणके जे विरति जीव बे, ते कोइ पण जीव मात्रनुं एक रोमोत्खनन करवाथी पण पाप लागे बे. एवी रीतें जाणनारो बे. एम कहने स्वपद सिद्ध करस्यो बे. ॥ अथ पंचमाध्ययनस्यानुक्रमणिका ॥ ५ पांचमुं याचारश्रुत ने अनाचारश्रुत एवं नामें अध्ययन बे. तेमां एक नदेशक घने एकज अर्थाधिकार बे. तेमां बधी मलीने तेत्रीश गा थाने ते मध्ये याचारमां व्यवस्थित पुरुष याचार अंगीकार करीने अनाचारनो त्याग करवो ते माटें या अध्ययनमां अनाचारनो प्रतिषेध बे, मनाचारनो त्याग करवा थकी रूडा प्रकारनुं प्रत्याख्यान थाय बे माटें या लोक शाश्वत बे अथवा नथी तथा न्हाना महोटा जीवनी हिंसामां कां विशेष नथी तथा याहार याश्री याचार अना चार कांइ पण नथी. इत्यादिक परदर्शनीना खागम यात्री बोलवु ते अनाचार बे, माटें तेनो निषेध करीने पडी बारमी गाथाथी त्रेवीशमी For Private Personal Use Only ८६३ Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुक्रमणिका. गाथा पर्यंत सर्व शून्यवादीनुं मत खमन करवाने अर्थे लोकालोकनुंथ स्तित्व, तथा जीवाजीवर्नु अस्तित्व, तथा सदसक्रियानुष्ठानने विषे धर्म, अधर्म कारण ले तेनुं अस्तित्व, तथा बंध, मोह, पुस्य, पाप, थाश्रव, संवर, वेदना, निऊरा क्रियाऽक्रिया,क्रोध, मान, माया, लोन, राग, ष, संसार, सिदि, असिदि, साधु, असाधु, कल्याण, पाप, इत्यादिकनो स जाव देखाडीने एकांत मार्गने दूषव्यो ने. इत्यादिक आचारनुं प्रतिपादन करीने अध्ययन परिसमाप्त कयुं ले. ___... ... G६६ ॥अथ षष्टाध्ययनस्यानुक्रमणिका ॥ बहुं थाईकीयनामा अध्ययन के. एमां एक उद्देशक य ने एकज अर्थाधिकार ले. ते मध्ये पञ्चावन गाथा. तेनी अनुक्रमणिका लखीयें बैये. १ पहेली गाथाथी मामीने पञ्चीशमी गाथा पर्यंत बाईककुमारनी कथा त था थाईककुमार श्रीमहावीर परमेश्वर पासें जतां मार्गमां गोशालकम ट्यो , तेणे बाईककुमारने पोताना दर्शनमां मेलवी लेवाने वास्ते अनेक प्रकारना करेला बालाप, संलाप तथा घणा प्रकारना उत्तर, प्र त्युत्तरोने आईककुमारे अनेक हेतु दृष्टांतें करी ते गोशालकना मतनुं खंमन कयुं दे अने जैनमतनुं स्थापन करेलु ने. ... ... ... ... ए६ २६ बबीशमी गाथाथी मांझीने बेंतालीशमी गाथा पर्यंत पाईक कुमारने मा र्गमां बौधदर्शनी मलेला जे. तेनी साथे अनेक प्रकारनो प्रश्नोत्तर रूप संवाद थयो बे. त्यां पण अनेक हेतुदृष्टांतें तेजना दर्शननुं खंमन करीने बाईककुमार जैनमतनुं स्थापन करेलुं . ... ... ... ए २६ ४३ तेंतालीशमी गाथाथी पीस्तालीशमी गाथा पर्यंत बाईककुमार मार्गमा ब्राह्मणोनी साथें वाद करी तेमना मतनुं खंम्न का . ... ... ए४० ४६ तालीशमी गाथाथी एकावनमी गाथा पर्यंत थाईक कुमार मार्गमा एकदंमी सांख्यमतीनी साथें वाद करी तेमना मतनुं खंमन कयं . ए४१ ५२ बावनमी गाथाथी चोपनमी गाथा पर्यंत बाईक कुमार मार्गमां हस्ति तापसोनी साथें वाद करी तेमना मतनुं खंमन कयुं . ... ... ... ए ५५ पञ्चावनमी गाथामां जैनमत तत्वज्ञ चारित्री परतीर्थिकना मतनुं खंमन क री अपारसंसार समुश्ने तरे. एम कही अध्ययन परिसमाप्त का . ए५० - Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुक्रमणिका. ॥ अथ सप्तमाध्ययनस्यानुक्रमणिका ॥ सातमुं नालंदीय नामा अध्ययन जे. तेमा एकज उद्देशक थने एकज अर्थाधिकार डे,एमां जूदा जूदा चालीश था लावा ने पूर्वाध्ययनमा साधुना आचार कह्या तेम या अध्ययनमा श्रावकना याचार कह्या ले तेनी अनुक्रम णिका लखीयें बैयें. १ पहेलाथी त्रीजा बालावा सुधी राजगृह नगर बाहेर नालंदीनामा पाडा ने विषे लेपनामा श्रमणोपासक तेना गुणोनुं वर्णन कयूं दे. ए५४ ४ चोथा घालावाथी सातमा आलावा सुधी ते लेपनामा गाथापतिनी सेसदविया नामें उदकशालाथकी ईशान कोणनी दिशायें हस्तियाम नामें वनखंमने विषे नगवंत श्री गौतमस्वामी विचरे , तेमने उदक निर्य थे श्रावीने श्रावकना व्रत पाश्रीप्रश्न पूबतां नूत शब्दनीयाशंका करी जे. ए८१ ७ आठमा बालावामां श्रीगौतम स्वामी पूर्वना प्रश्ननो उत्तर प्रापतां नूत याशकानुं निराकरण कर जे. ... ... ... ... ... ... एदए ए नवमा बालावामां फरी उदकपेढाल पुत्र श्रीगौतमस्वामी प्रत्ये त्रसश ___ब्द संबंधी आशंका करी. तेनुं श्रीगौतम प्रनुयें समाधान कयुं . ... ए७५ १० दशमा बालावामां श्रीगौतमस्वामीय गृहपति तथा राजानी कथा कही ते ___ दृष्टांतें श्रावकने देशथकीव्रत ग्रहण करवां पण रूडांडे, एम निर्धामु जे. ए ११ अगीधारमा घालावामा उदकपेढाल पुत्रं त्रसजीवोमांहे स्थावर जीवो उपजे ने माटें तेनी हिंसाथी त्रसनुं पञ्चरकाण जंग न थाय, एम नाग रिकना दृष्टांतें कडं में बने ते वातनुं गौतम स्वामी खंमन करेलु के. एन १२ बारमा बालावामां उदकपेढाल पुत्रं पञ्चरकाण निर्विषय थवा धाश्री दृष्टांत पूर्वक आशंका करी. ... ... ... ... ... ... ... ए७१ १३ तेरमा बालावामां पूर्वोक्त आशंका न्यायोक्त नथी एवं, दृष्टांत पूर्वक सि ६ करीने श्रीगौतम स्वामी आशंकानुं खंमन कयुं . ... ... ... ए७३ १४ चौदमा आलावाथी मामीने शोलमा आलावा पर्यंत स्थावरपर्यायें प होंचेला त्रस जीवने मारवाथकी त्रसतुं पञ्चरकाण नंग न थाय, ए वा तने त्रण दृष्टांत यापी श्रीगौतम प्रनुयें खंमन कयुं . ... ... ए७६ १७ सत्तरमा तथा अढारमा बालावामां पौषध व्रत करनार देवलोकादिकमां Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुक्रमणिका. त्रसज थाय ने माटें था संसार त्रस शून्य केम होय ? एम कहेलुं . एए३ १ए उगणीशमाथी पच्चीशमा बालावा पर्यंत जूदा जूदा प्रकारना जीवो जे त्रस पणे होय ते मरण पामीने फरीपण त्रसज थाय माटें आ संसार त्रसा न्य केम होय ? एम श्रीगौतमें दर्शावेलु . ... ... ... ... एए २६ बबीशमा बालावाथी चोत्रीशमा आलावा पर्यंत दिगवतना आश्रयथी आठ नंगें करी प्रत्याख्याननो विचार, सविस्तर देखाड्यो . ... ... १००५ ३५ पांत्रीशमा घालावामां श्रीगौतम स्वामी नदकपेढालपुत्र प्रत्ये कोश्वारें पण संसार,जीव रहित थनारज नथी एम समजाव्युं बे. ... ... ... १०११ ३६ त्रीशमा आलावामांजे पुरुष, पापकर्म न करे तथा साधुनी निंदा न करे ते पुरुष रूडो जाणवो. एम श्रीगौतमें समजाव्युं . ते पनी उदकपेढा लपुत्र श्रीगौतम स्वामीने अनादर करतां बतां चालवानो विचार कस्यो बे.१०१५ ३७ साडत्रीशमा बालावामां उदक पेढाल पुत्रने जातां जाणीश्रीगौतम गुरुयें क यु के उपदेशना यापनार एवा जे गुरु ते जो पोते नमस्कारादिक न वां तो पण सांजलनारें तो तेमने वंदनादिक अवश्य करवू जोयें. एम दर्शाव्युं जे. १०१४ ३० श्राडत्रीशमा बालावामां उदक पेढालपुत्रं कर्तुं के जे पदोनुं मने ज्ञान न हतुं, ते सर्व पदो बाज मने प्राप्त थयां.अने जेम तमो कहो बो तेमज .१०१५ ३५ उगणचालीशमा बालावामां श्रीगौतम स्वामीयें उदक पेढालपुत्र प्रत्ये श्रीवीतरागप्रणीत धर्म, सत्य करी जाणजो. एम कयुं ते वचन मान्य कर। उदकपेढालपुत्र श्री वीरनगवान् पासें जवानी का करी जे. ... ... १०१६ ४० चालीशमा आलावामां श्रीगौतमस्वामी उदक पेढाल पुत्रनें साथें ले श्रीमहावीर नगवान् पासें याव्या, तिहां नदक पेढालपुत्रं श्रीमहावीरनें न मस्कार करी पंचमहाव्रतधर्म अंगीकार कस्यो, पनी श्रीवीर प्रनुनीबाझा मागी विचरवा लाग्या, ते पनी अध्ययन परिसमाप्त कयुं . ... ... १०१७ तेवार पड़ी दीपिकाकारविरचित प्रशस्ति . ... ... ... ... ... १०१७ STATLAB AAAAAAAAAAAAAAAAAA ॥ इत्यनुक्रमणिका समाप्ता॥ Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रायधनपतसिंघ बादाउरका जैनागम संग्रह जाग उसरा. ॥ नमो वीतरागाय॥ अथ ॥हितीयंसूत्रकृतांगं॥ गुर्जरनापासहितं श्रीहर्षकुलकतदीपिकायुक्तं शीलंगाचार्यकतटीकायुतंच प्रारन्यते. तत्रमूलं॥बुशिऊत्तितिनहिता, बंधणं परिजाणिया॥किमाह बंधणं वीरो किंवा जाणंति नहई ॥१॥ चित्तमंतमचित्तंवा परिगिस किसामवि ॥ अन्नंवा अणुजाणाइ एवं उकाणमुच्चर ॥२॥ - प्रथम गुर्जर नापामा अर्थकर्ता- मंगलाचरण. अर्थ-प्रणम्य सद्गुरून् नत्या बालानां बोधहेतवे ॥ किंचित् सूत्रकतांगस्य लि ख्यते वार्तिकं मया ॥ १ ॥ प्रथम श्रीयाचारांग कहीने पनी सुयगडांग कयुं तेनो संबंध मेलवेले. जे कारण श्री याचारांग मांहे, (जीवो बक्काय परू, वणा य तेसिव हेणबंधो त्ति)॥ इत्यादि कयुं ले. ते सर्व परमार्थने (बुझिऊके०) जाणवू जोइए. एम आचारासा थे था सुयगडांगनो संबंध जाणवो. ए अधिकारे बीजं अंग सुयगडांग प्रारंनीए बैए.थ हींयां केटलाएक वादी ज्ञानेकरीनेज मुक्ति थाय एम कहेले, अने केटलाएक क्रियाए कर। मुक्ति कहेले. थने जैन तो एम कहेले के झान बने क्रिया ए बन्ने थकी मुक्ति, ए अर्थ ए श्लोकमांहे देखाडे ते एमके. (बुझित्ति) के बकायनुं स्वरूप जाणे एटले ज्ञान कह्यु,अने ज्ञानपूर्वक क्रिया करवी ते सफलले. तेकारण माटे वागत (तिनहिता) एवो सूत्रपात कह्यो, ते (तिनहिताके)त्रो डे ते गुं जाणीने ! युं त्रोडे ! ते कहेले. (बंधणं) के बांधीए जे जीवने प्रदेशे करी ते बं धन ज्ञानावरणादि अष्ट प्रकार कर्मरूप इत्यर्थः ते कर्मना हेतु मिथ्यात्व, अविरत, कषा य बने योग अथवा परिग्रह आरंन ए बंधनना कारणने (परिजाणिया) के जाणे. प ण एकला जाणपणाथकी वांबितार्थसिदिउलन; ते माटे क्रिया देखाडेले. ते बंधन झपरिझाए करी जाणीने पळी प्रत्याख्यानपरिझा जे संयमानुष्ठान तेणे करी बंधनने त्रो डे. एटले आत्माथकी कर्म दूर करे, एवं वचन श्रीसुधर्मास्वामिनाषित सांजलीने जं Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वितीयेसूत्रकृतांगेप्रथमश्रुतस्कंधेप्रथमाध्ययनं. बूस्वामिप्रमुख शिष्य पूजे के, (किमाहबंधएंवीरो) के श्रीमहावीर देवे बंधन के कह्यु बे!अथवा (किंवा जाणंतिउट्टई) के युं जाणीने ते बंधन तोडे? इति प्रथम श्लोकार्थः॥१ हवे बंधननुं कारण कहे; ए जगतमाहे ज्ञानावरणीयादिक जे कर्म ते बंधन जाण वु, ते कर्म बांधवानां कारण आरंन अने परिग्रहले. तेमां पहेलु परिग्रह देखाडे, (चि त्तमंतमचित्तंवा) के सचित्तते विपद चतुष्पदादिक अने अचित्तते सुवर्णरूप्यादिक एबे प्रकारे परिग्रहले, ते (परिगिस किसामवि) के थोडा तृण तुषादिक पोतानीपासे परिय हीने (अन्नवा) के अनेरा बीजा पासे परिग्रहावे तथा (अणु जाणा)के परिग्रह करतां ने अनुमोदे. एवो जीव, (एवं) के एरीते (उरका मुच्च३) के कुःखथकीन मूकाए॥॥ श्रीः ॥ अथ श्री वितीयांगदीपिका प्रारन्यते ॥ ॥प्रणम्य श्रीजिनं वीरं, गौतमादिगुरूंस्तथा ॥ स्वाम्योपळतये कुर्वे दितीयांगस्य दीपिका ॥१॥ इह हि प्रवचने चत्वारोऽनुयोगाः॥ तथाहि चरणकरणानुयोगः १ इव्यानुयोगः २ धर्मकयानुयोगः ३ गणितानुयोगश्च । तत्र प्रथमं श्रीमदाचारांगं चरणकर णानुयोगप्राधान्येन व्याख्यातं ॥ अथेदं श्रीसूत्रकताख्यं दितीयांगं व्यानुयोगप्राधा न्येन व्याख्यायते ॥ सूत्रहतांगमिति कः शब्दार्थः ॥ उच्यते ॥ सूत्रं स्वपरसमयसूचनं कृतं येन तत्सूत्रं तदेवांगमिति ॥ तत्रश्रुतस्कंध यं ॥ प्रथमश्रुतस्कंधे षोडशाध्ययनानि ॥ हितीये सप्त ॥ तत्र प्रथमश्रुतस्कंधस्य प्रथमाध्ययने चत्वारउद्देशकाः॥ तत्रापि पूर्व प्र थमोद्देशकः ॥ तस्यायमादिःश्लोकः ॥ (बुसिजत्ति०) ॥१॥ व्याख्या ॥ बुध्येत जानीया त् ॥ किंतत् ॥ बंधनं बध्यते जीवोऽनेन बंधनं ज्ञानावरणाद्यष्टप्रकारं कर्म ॥ तदेतवो मिथ्यावादयोवा परिग्रहारंनादयो वा बंधनं जानीयादित्युक्तं ॥ नच झानमात्रेण सिद्धि रित्याह ॥ (तिनटिजा) (परिजाणिया) परिझायत्रोटयेत् अपनयेत् आत्मनःप्टथक्कुर्यादि त्यर्थः ॥ अथजंबुस्वामी शिष्यः श्रीसुधर्मस्वामिनमाह ॥ (किमाहेति)॥ श्रीवीरः किंबंधनं थाह उक्तवान् किंवा जानन् बंधनं त्रोटयति ॥ उत्तरमाह ॥ १ ॥ (चित्तेति)॥चि त्तवत् सचित्तं विपदचतुष्पदादि यचित्तं कनकरजतादि तद्वयमपि परिगृह्य परिग्रहं कत्वा करामपि स्तोकमपि स्वयमन्यान्वा ग्राहयित्वा ॥ ग्राहतोवाऽन्याननुझाय एवंउखान्नमुच्यते॥ परिग्रहएव परमानर्थमूलमित्युक्तं ॥ परिग्रहतश्वावश्यंनावारंनस्तस्मिंश्च प्राणातिपात इति दर्शयति. ॥ ५॥ ॥नमःसिक्षाय ॥ अथ श्री शीतंगाचार्यकृत टीका ॥ थार्या वृत्तं ॥ स्वपरसमयार्थसूचकमनंतगमपर्ययार्थगुणकलितम् ॥ सूत्ररुतमंगमतुलं, विवृणोमि जिना नमस्कृत्य ॥१॥ ॥ वसंततिलकात्तम् ॥ ॥ व्याख्यातमंगमिद यद्यपि सूरिमुल्यै. Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रायधनपतसिंघ बादडरका जैनागम संग्रह नाग दुसरा. क्या तथापि विवरीतुमहं यतिष्य ॥ किं पक्षिराजगतमप्यवगम्य सम्यक् तेनैव वांड ति पथा शलनो न गंतुम् ॥ २ ॥ ॥ श्वजावृत्तम् ॥ ॥ ये मय्यवज्ञां व्यधुरि-बोधा, जा तिते किंचन तानपास्य ॥ मत्तोपि यो मंदमतिस्तथास्ति, तस्योपकाराय ममैष यत्तः ॥ ३ ॥ इहापारसंसारांतर्गतेनाऽसुमताऽवाप्याऽतिदुर्लनं मनुजत्वं सुकुलोत्पत्तिसमयें प्रियसामय्याद्युपेतेनाऽदर्शन मशेषकर्मो वित्तये यतितव्यम् ॥ कर्मे वेदश्च सम्यग्विवेकसव्य पेोऽसावप्याप्तोपदेशमंतरेण न नवति ॥ श्राप्तश्चात्यंतिकाद्दोषचयात्सचार्दने वातस्तत्प्रणी तागमपरिज्ञाने यत्नो विधेयः ॥ श्रागमश्च द्वादशांगादिरूपः सोप्यार्यरक्षितमिरैदं युगीन पु रुषानुग्रहबुच्या चरणकरण व्यधर्मकथागणितानुयोगनेदाच्चतुर्धा व्यवस्थापितः । तत्राचा रांगं चरणकरण प्रधान्येन व्याख्यातमधुनाऽवसरायातं इव्यप्राधान्येन सूत्रकृताख्यं द्वितीय मंगं व्याख्यातुमारच्यत इति । ननु चार्थस्य शासनाष्ठास्त्रमिदं । शास्त्रस्य चाशेषप्रत्यू होपशां त्यर्थमादिमंगलं तथा स्थिरपरिचयार्थ मध्य मंगलं शिष्यप्रशिष्य विवेदार्थ चांत्य मंगलमुपादेयं तच्चेद नोपलच्यते । सत्यमेतत् । मंगलं हीष्टदेवतानमस्कारादिरूपं । यस्य च प्रणेतासर्व ज्ञस्तस्य चापरनमस्कार्यानावान्मंगलकरणे प्रयोजनानावाश्च न मंगला निधानं । गणधरा णामपि तीर्थक्तानुवादित्वान्मंगलाकरणं । श्रस्मदाद्यपेयातु सर्वमेव शास्त्रं मंगलं । य थवा निर्युतिकारएवात्र नाव मंगलम निधातुकामप्राह ॥ ( तिष्ठयरे जिनवरे, सुत्तकरे गणह रेमिक | सूयगडस्स नगवडे, पिकुत्ति कित्तइस्लामि) || १ || गाथापूर्वार्दे नेहनाव मंगलम निहितं पश्चार्थेन तु प्रेक्षापूर्व का रिप्रवृत्यर्थप्रयोजनादित्रयमिति । तदुक्तं - " उक्तार्थ ज्ञातसंबंधं, श्रोतुं श्रोता प्रवर्त्तते ॥ शास्त्रादौ तेन वक्तव्यः संबंधः सप्रयोजनः” । तत्र सू कृतस्येत्य निधेयपदं । निर्युक्तिं कीर्त्तयिष्ये इति प्रयोजनपदं । प्रयोजनं तु मोक्षावाप्तिः । सं बंधस्तु प्रयोजनपदानुमेय इति पृथक् नोक्तः ॥ तदुक्तं - " शास्त्रं प्रयोजनं चेति संबंधस्याश्र यावुनौ ॥ तक्त्यंतर्गतस्तस्माद्भिन्नो नोक्तः प्रयोजनादिति समुदायार्थः ॥ श्रधुनाऽवय वार्थ. कथ्यते ॥ तत्र तीर्थ इव्यनावनेदाद्विधा । तथापि इव्यतीर्थं नयादेः समः समुत रणमार्गः ॥ नावतीर्थ तु सम्यग् दरी नज्ञानचारित्राणि ॥ संसारार्णवाडुत्तारकत्वात् तदाधारोवा संघः प्रथमगणधरोवा तत्करणशीलास्तीर्थकरास्तान्नत्वेति क्रिया । तत्रान्येषामपितीर्थक रत्वसंनवेत ६धववेदार्थमाह ( जिनवरानिति ) ॥ राग द्वेषमोह जितो जिनाः । एवंभूताश्च सामान्य केवलिनोऽपिनवंति त ६घवष्ठेदार्थमाह - (वराः) प्रधानाश्चतुस्त्रिंशदतिशयसमन्वित त्वेन तान्नत्वेति ॥ एतेषां च नमस्कारकरण मागमार्थोपदेष्टृत्वेनोपकारित्वात् । विशिष्ट विशेषणोपादानं च शास्त्रस्य गौरवाधानार्थ शास्तुः प्राधान्येनेद शास्त्रस्यापि प्राधान्यं न वतीति भावः । श्रर्थस्य सूचनात्सूत्रं तत्करणशीलाः सूत्रकारास्ते च स्वर्यबु-छादयो पिनवतीत्यतश्राह ( गणधरास्तांश्च नत्वेति ) ॥ सामान्याचार्याणां गणधरत्वेपि तीर्थक For Private Personal Use Only Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वितीयेसूत्रकृतांगेप्रथमश्रुतस्कंधेप्रथमाध्ययनं. रनमस्कारानंतरोपादानाजौतमादय एवेह विवक्षिताः ॥ प्रथमश्चकारः सिक्षाद्युप लक्षणार्थो वितीयः समुच्चितः । क्त्वाप्रत्ययस्य क्रियांतरसव्यपेक्तामाह-स्वपर समयसूचनं कृतमनेनेति सूत्रकृतस्तस्य महार्थवत्वानगवांस्तस्यानेन च सर्वज्ञप्रणी तत्वमावेदितं नवति ॥ (नियुक्ति कीर्तयिष्ये) इति ॥ योजनयुक्तिः । अर्थघटना निश्चये नाधिक्येन वा युक्तिनियुक्तिः । सम्यगर्थप्रकटनमिति यावत् । निर्युक्तानां वा सूत्रेष्वेव प रस्परसंबंधानामर्थानामाविर्नवनं। युक्तशब्दलोपानियुक्तिरिति । तां कीर्तयिष्येयनिधास्य इति । इह सूत्रकृतस्य नियुक्ति कीर्तयिष्ये इत्यनेनोपक्रम मारमुपदिप्तं तबेहोदेशेनिदेशे इत्यादिनेषदनिहितमिति । तदनंतरं निदेपः ॥ सचत्रिविधः । तद्यथा-उघनिष्पन्नो नामनिष्पन्नः सूत्रालापकनिष्पन्नश्चेति । तत्रौघनिष्पन्ने निदेऽगं नामनिष्पन्ने तु निदे पे सूत्रकृतमिति॥१॥तत्र तत्त्वचेदपर्यायाख्येत्यतः पर्यायप्रदर्शनार्थ नियुक्तिकदाद (सूय गडं अंगाणं, बितियं तस्स य इमाणि नामाणि ॥ सूयगडं सूत्तकडं,सूयगमं चेव गोणाई॥) ॥२॥ सूत्रकृतमित्येतदंगानां वितीयं तस्य चामून्येकार्थिकानि । तद्यथा-सूत्रमुत्पन्नमर्थ रूपतया तीर्थरुनयः। ततः कृतं ग्रंथरचनया गणधरैरिति । तथा (सूत्रकृतमिति)। सूत्रा नुसारेणतत्वावबोधः क्रियतेऽस्मिन्निति । तथा सूचारुतमिति । स्वपरसमयार्थसूचनं सूचा साऽस्मिन्कतेतिाएतानि चास्य गुणनिष्पन्नानि नामानीति॥॥सांप्रतं सूत्रकृतपदयोर्निदेपा र्थमाह (दवं तु पोंडयादी, नावे सुत्तमिह सूयतं नाणं । सम्मासंगहवित्ते, जातिणिबध्य कन्हादी)॥३॥ (दवमित्यादि)। नामस्थापनेऽनादृत्य सूत्रं दर्शयति (पोंडया इति)। पों मगं च वनीफलाउत्पन्नं कार्पा सिकं । धादिग्रहणादंडजवालजादेर्यहणं । जावसूत्रवि हास्मिन्नधिकारे सूचकं ज्ञानं श्रुतज्ञानमित्यर्थः ॥ तस्यैव स्वपरार्थसूचकत्वादिति । तच्च श्रुतझानसूत्रं चतुर्दा नवति । तद्यथा-संझासूत्रं संग्रहसूत्रं वृत्तबई जातिनिबई । तत्र संज्ञासूत्रं यत् स्वसंकेतपूर्वकं निबदं ॥ तद्यथा-जबे एसागरियं नसेवे सवामगंधं परिणा यणिरामगंधो परिवए इत्यादि । तथा लोकेपि पुजलाः संस्कारदेवजाइत्यादि । संग्रहसूत्रं तु यत्प्रनूतार्थसंग्राहकं ॥ तद्यथा इव्यमित्याकारिते समस्तधर्माऽधर्मादिश्व्यग्रहति । यदिवोत्पादव्ययधौव्ययुक्तं सदिति ॥ वृत्तनिबई सूत्रं पुनर्यदनेकप्रकारया वृत्तजात्या निब ६॥ तद्यथा(बुसिजत्तितिनहित्यादि)॥जाति निबदं तु चतुर्भा॥ तद्यथा कथनीयंकय्य मुत्तराध्ययनझाताधर्मकथादि पूर्वर्षिचरितकथानकप्रायत्वात्तस्य । तथा गद्य-ब्रह्मचर्या ध्ययनादि तथा पद्यं-बंदोनिबई तथा गेयं यत्स्वरसंचारेण गीतिप्रायं निबदं । तद्यथाकापिलीयमध्ययनं अधुवेबसासयंमि संसारंमि उरकपनराए इत्यादि ॥३॥ इदानीं कतप दनिकेपार्थ नियुक्तिकजाथामाह (करणं चकारय, कडं च तिएहंपि बक्कनिरकेवी; दवे खित्ते काले, नावेएन कार जीवो)॥४॥ (करणंचेत्यादि)। हस्तमित्यनेन कर्मोपात्तं Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रायधनपतसिंघ बादरका जैनागम सग्रह नाग उसरा. ५ न चाकर्तृकं कर्म नवतीत्यर्थात्कर्तुरादेपो धात्वर्थस्य च करणस्यामीषां त्रयाणामपि प्रत्येकं नामादिः । षोढानिदेपस्तत्रगाथापश्चाईनाल्पवक्तव्यत्वात्तावत्करणमतिकम्यकार कस्य निदेपमाह-तत्र नामस्थापने प्रसिहत्वादनादृत्य इव्यादिकं दर्शयति (दवे ति ॥ इव्य विषये कारकश्चित्यः । सच इव्यस्य इव्येण इव्यनूतो वा कारको इव्यकार कः । तथा क्षेत्रे जरतादौ यः कारको यस्मिन् वा देने कारको व्याख्यायते सदैत्रकार कः । एवं कालेपि योज्यं ॥ नावेन तु नाव वारेण चिंत्यमानोत्र कारकोयस्मात्सूत्रस्य गण धरः कारकः॥ एतच्चसूत्रकदेवोत्तरत्र वदयति (विश्अणुनावेत्यादौ)॥४॥सांप्रतं करणव्याचि ख्यासया नामस्थापने मुक्त्वा इव्यादिकारण निकेपार्थ नियुक्तिकदाह ॥ (दवंपगवीसस, पगसामून उत्तरे चेव ॥ उत्तरकरणं वंजण, अबो ननवरकरोसबो)॥५॥(दवइत्यादि) इव्ये इव्य विषये करणं चिंत्यते । तद्यथा व्यस्य इव्येण व्यनिमित्तंवा करणमनुष्ठानं इव्यकरणं । तत्पुनर्विधा । प्रयोगकरणं विस्त्रसाकरणं च । तत्र प्रयोगकरणं पुरुषादि व्यापार निष्पाद्यं । तदपि विविधं । मूलकरणमुत्तरकरणं च । तत्रोत्तरकरणं गाथापश्चा ईन दर्शयति-उत्तरत्र करणमुत्तरकरणं कर्णवेधादि । यदिवा तन्मूलकरणं घटादिकं ये नोपस्करेण दंडचकादिना अनिव्यज्यते स्वरूपतः प्रकाश्यते तउत्तरकरणं । कर्तुरुपकार कः सर्वोप्युपस्करार्थ इत्यर्थः॥५॥पुनरपि प्रपंचतो मूलोत्तरकरणे प्रतिपादयितुमाह॥(मूल करणं सरीरा, णि पंचतिसुकामखंदमादीयं । दविंदियाणि परिणा, मियाणि विसजही दीहिं) ॥६॥ (मूलकरणमित्यादि)। मूलकरणमौदारिकादीनि शरीराणि पंच । तत्र चौदा रिकवैक्रियाहारकेषु त्रिषूत्तरकरणं कर्णस्कंधादिकं विद्यते । तथाहि सीसमुरोयर पिठी, दो बाढू करुयाय अगत्ति; त्रयाणामप्येतन्निष्पत्तिर्मूलकरणं । कर्णस्कंधाद्यंगोपांगनिष्पत्ति स्तूत्तरकरणं॥कार्मणतैजसयोस्तु स्वरूपनिष्पत्तिरेव मूलकरणमंगोपांगानावान्नोत्तरकरणं॥ यदिवौदारिकस्य कर्णवेधादिकमुत्तरकरणं । वै क्रियस्यतूत्तरकरणमुत्तरवैक्रियं दंतकेशादिनि ष्पादनरूपं वा थाहारकस्यतु गमनाद्युत्तरकरणं ॥ यदिवौदारिकस्य मूलोत्तरकरणे गाथा पश्चान प्रकारांतरेण दर्शयति-इव्यझ्यिाणि कलंबुकापुष्पाद्यातीनि मूलकरणं तेषामे व परिणामिनां विषौषधादिनिः पाटवाद्यापादनमुत्तरकरणमिति ॥६॥ सांप्रतमजीवाश्रितं करणमनिधातुकाम आह (संघायणेयपरिसा, डणाय मीसे तहेव पडिसेहो ॥ पडिसं खसगडधूणा, उति रिहादिकरणंच)॥७॥(संघायणेयइत्यादि)॥ संघातकरणं यातानविता नीजूततंतुसंघातेन पटस्य ॥ परिसाटकरणं करपत्रादिनाशंखस्य निष्पादनं ॥ संघातपरिसा टकरणंशकटादेस्तउनयनिषेधकरणं स्थणादेरूतिरश्चीनाद्यापादनमिति प्रयोगकरणमनि धाय विस्त्रसाकरणानिधित्सयाह (खंधेसुदुपएसा,दिएसु अनेसुविकुमाईसु । णिप्पामगाणि दवा,णि जाणवीससाकरणं)॥॥ (खंधेसु इत्यादि)। विस्त्रसाकरणं साद्यनादिनेदाविधा। Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वितीयेसूत्रकृतागेप्रथम श्रुतस्कंधेप्रथमाध्ययनं. तत्रानादिकं धर्माऽधर्माऽकाशानामन्योन्यानुवेधेनावस्थानं । अन्योन्यसमाधानाश्रयणाच सत्यप्यनादित्वे करणत्वाविरोधः । रूपिव्याणां च ६यपुकादिप्रक्रमेण नेदसंघातान्यां स्कंधत्वापत्तिः । सादिकं करणं पुजलश्व्याणां च दशधा परिणामः । तद्यथा बंधन गति संस्थान नेद वर्ण गंध रस स्पर्श अगुरुलघु शब्दरूप इति । तत्र बंधः स्निग्धरुदत्वात् ग तिपरिणामो देशांतरप्राप्तिलक्षणः। संस्थानपरिणामः परिमंमलादिकः पंचधा । नेदपरिणा मःखंम्प्रतरचूर्णकाऽनुतटिकोत्करिकानेदेन पंचधैव । खंडादिस्वरूपप्रतिपादकं चेदं गाथा दयं । तद्यथा (खंडेहि खंडनेयं, पयरनेयं जहस्स पडलस्स ॥ चुम्मं चुलियनेयं, अपुतमियं वंसवक्कलियं)॥१॥ (इंमि समारोहे, नेए नक्केरियाय नक्केरं॥ वीसस पगमीसग, संघाय विगविविहगमो)॥ २ ॥वर्णपरिणामः पंचानां श्वेतादीनां वर्णानां परिणति व्यादिसंयोग परिणतिश्च । एतत्स्वरूपं च गाथान्योऽवसेयं । ताश्चेमाः (जश कालगमेगगुणं, सुक्लियपि य हविज बदुय गुणं । परिणामिङ कालं सुक्केण गुणाहियगुणेणं ॥१॥ जइ सुक्किलमे गगुणं कालगदवं तु बहुगुणं जश्य । परिणामिक मुकं, कालेण गुणाहियगुणेणं ॥२॥ज सुक्कं एक्कगुणं, कालगदत्वंपि एक्कगुणमेव । कावोयं परिणाम, तुनगुणत्तेण संनव ॥३ एवं पंचविवरमा, संजोएणं तु वमपरिणामो, एकत्तीसं नंगा, सवेवि य ते मुणेयत्वा ॥४॥ एमेवय परिणामो, गंधाण रसाण तहय फासाणं, संगणाणय नणि संजोगेणं बदुवि गप्पो)॥५॥ एकत्रिंशजंगा एवं पूर्यते । दशदिकसंयोगा दशत्रिकसंयोगाः पंचचतुष्कसंयो गा एकः पंचकसंयोगः प्रत्येक वर्णाश्च पंचेति । अगुरुलघुपरिणामस्त परमाणोरारज्य यावदनंतानंतप्रदेशिकाः स्कंधाः सूक्ष्माः । शब्दपरिणामस्ततविततघनसुषिरनेदाच्चतुको । तथा ताल्वोष्टपुटव्यापाराद्यनिनिवर्त्यश्च । अन्येपि पुजलपरिणामाबायादयो नवंति ते चामी (बाया य आयवो वा, उजोउ तहय अंधकारो य । एसो उ पुग्गलाणं, परिणा मो फंदणा चेव ॥ १ ॥ सीयाणा य पगासा, बायाणाइच्चिया बदुवि गप्पा । उहो पु गप्पगासो, गायचो थायवो नाम ॥ २ ॥ नविसी नविनलो, समोपगासोय होइन जो । कालं मश्लं तंपिय, वियाण अंधयारंति ॥ ३ ॥ दवस्त चलण पप्फं, दणात सापुण गईन निदिहा । वीसस पग मीसा, अत्तपरेणं तु उनवी)॥ ४ ॥ तथाऽध नुर्विद्युदादिषु कार्येषु यानि पुजलव्याणि परिणतानि तस्त्रिसाकरणमिति॥णागतंडव्यक रणं इदानी क्षेत्रकरणानिधित्सयाऽह ॥ (णविणा यागासेणं,कीरज किंचि खेत्तमागासं। वंजण परियावा,उन्नुकरणमादियं बढुहा) ॥॥ (णविणेत्यादि) ॥ विनिवासगत्योरस्मा दधिकरणे ट्रना क्षेत्रमिति । तनावगाहदानलहणमाकाशं । तेनचावगाहदानलक्षणयो ग्येन विना न किंचिदपि कर्तुं शक्यत इत्यतः क्षेत्रकरणं । क्षेत्रकरणं नित्यत्वेपि चोपचा रतः क्षेत्रस्यैव करणं क्षेत्रकरणं । यथा गृहादावपनीते कृतमाकाशं उत्पादिते विनष्टमि Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रायधनपतसिंघ बादाडुरका जैनागम संग्रह नाग दुसरा. ति । यदिवा व्यंजनपर्यायापन्नं शब्द द्वाराऽयातमिकरणादिकमिती कु क्षेत्रकरणं ॥ लांग लादिना संस्कारः क्षेत्रकरणं । तच्च बहुधा शालिदे त्रादि नेदादिति ॥ सांप्रतं कालकरणा निधित्सयाह || (कालो जो जावइन, जं कीरइ जंमि जंमि कालंमि । उहे सामने पु , करण एक्कारस हवंति) ॥१०॥ ( कालोजोइत्यादि) । कालस्यापि मुख्यं करणं न संन वतीत्यौपचारिकं दर्शयति ॥ कालोयोयावानिति । यः कश्चिद्धटिकादिको नलिकादिना व्य विद्य व्यवस्थाप्यते तद्यथा । षष्टयुदकपलमाना घटिका । द्विर्घटिकोमुहूर्तस्त्रिंशन्मुहू र्तमहोरात्रमित्यादि तत्कालकरणमिति । यद्वा यत् यस्मिन् काले क्रियते यत्रवा काले क र व्याख्यायते तत्कालकर णमेतदोघतः ॥ १० ॥ नामतस्त्वेकादशकरणानि तानि चामूनि (बवंच बालवं चैव, कोलवं तेत्तिलं तहा । गरादि वणियं चेव, विधी हवइ सत्तमा ॥ ११ ॥ सवणि चप्पय नागं, किंतुग्धं च करणं नवे एयं । एते चत्तारि धुवा, खन्ने करणा चला सन्त ॥ १२॥ चान्हसि रत्तीए, सनी पडिवक्कए सदा करणं । तत्तो हक्कमं खलु, चनपर्यं लागकिंसुग्घं) ॥१३॥ एतनाथात्रयं सुखोन्नेयमिति ॥ ११ ॥ १२ ॥ १३ ॥ इदानीं नावकरणप्र तिपादनायाह ( नावे पग वीसस, पगसा मूल उत्तरे चैव । उत्तर कम सुय जोवण, मोदी) ॥ १ ॥ ( नावे पगेत्यादि) । नावकरणमपि द्विधा । प्रयोग विस्त्र सादात् । तत्र जीवाश्रितं प्रायोगिकं मूलकरणं पंचानां शरीराणां पर्याप्तिस्तानि हि पर्या सिनामक दादोदके नावे वर्तमानो जीवः स्ववीर्यजनितेन प्रयोगेण निष्पादयति । उत्तरकरणं तु गाथापश्चानाह - उत्तरकरणं क्रमश्रुतयौवनवर्णादिचतूरूपं । तत्र क्रमकर णं शरीरनिष्पत्त्युत्तरकालं बालयुवस्थ विरादिक्रमेणोत्तरोत्तरोऽवस्था विशेषः । श्रुतकरणं तु व्याकरणादिपरिज्ञानरूपोऽवस्थाविशेषोऽपरकलानां परिज्ञानरूपश्वेति । यौवनकरणका 1 तो वयोवस्थाविशेषो रसायनाद्यापादितोवेति ॥ तथा वर्णगंधरसस्पर्श करणं विशिष्टेषु जोजनादिषु सत्सु विशिष्टवर्णाद्यापादनमित्येतञ्च पुजन विपाकित्वा ६र्णादीनामजीवाश्रि तमपिष्टव्यमिति १४ इदानीं विस्साकरणानिधित्सयाऽह॥ (वस्तु दियायवमा, दिएसुजेके वीससा मेला || ते ढुंति थिरा अथिरा, बाया तव ६ मादीसु) ॥ १५ ॥ (वा इत्यादि) वर्णा दिका इति रूपरसगंधस्पर्शास्ते यदा परेषामपरेषां वा स्वरूपादिनां मिनंति ते वर्णादिमेल कावित्राकरणं ॥ तेच मेलकाः स्थिरा असंख्येय कालावस्थायिनोऽस्थिराश्च कृष्णावस्था यिनः संध्यारागाचें धनुरादयोजवंति ॥ तथा बायात्वेनातपत्वेनच पुजलानां विस्त्रसा परिणामत एव परिणामो नावकरणं ॥ स्तनप्रच्यवनानंतरं दुग्धादेश्व प्रतिक्षणं कठिणा म्लादिनावेन गमन मिति १५सांप्रतं श्रुतज्ञानमधिकृत्य मूलकरणाऽनिधित्सयाऽहं ॥ (मूल करणं पु सुते, तिविहे जोगे सुनासुने झाले ॥ समसय सुए पगयं श्रज्ञवसाय य सुहेां ॥ १६ ॥ (मूलेत्यादि ) श्रुते पुनः श्रुतग्रंथे मूलकरणमिदं त्रिविधे योगे मनोवाक्का For Private Personal Use Only Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीयेसूत्रकृतांगेप्रथम श्रुतस्कंधेप्रथमाध्ययनं. लक्षणे व्यापारे गुनाशुने च ध्याने वर्तमानैर्यथरचना क्रियते । तत्र लोकोत्तरैः शुना सुनध्यानावस्यितैर्ग्रथरचना विधीयते ॥ लोकेत्वगुनध्यानाश्रितैर्यथग्रंथनं क्रियतइति ॥ लौकिक ग्रंथस्य कर्मबंध हेतुत्वात् कर्तुरनध्यायित्वमवसेयं ॥ इहतु सूत्रकृतस्य तावत्स्व समयेन शुनाध्यवसायेनच प्रकृतं ॥ यस्मानणधरैः गुनध्यानावस्थितै रिदमंगं कृतमिति १६ तेषांच ग्रंथरचनांप्रति गुनध्यायिनां कर्मारेण योऽवस्था विशेषस्तद्दर्शयितुकामो निर्यु rिeate || ( विश्णुनावे बंधरा, निकायण निहत्त दी दहस्सेसु ॥ संकम उदीरणाए उदये वेदे वसलेयं ) ॥ १ ॥ (विइत्यादि) । तत्र कर्म स्थिति प्रति जघन्योत्कृष्टकर्म स्थिति निर्गधरैः सूत्रमिदं कृतमिति ॥ तथाऽनुनावो विपाकस्तदपेक्षया मंदानुनावैस्तथा बं धमंगीकृत्य ज्ञानावरणीयादिप्रकृतीमंदानुजावा बननिस्तथाऽनिकाचयद्भिरेवं निधत्ता वस्थामकुर्वद्भिस्तथा दीर्घस्थितिकाः प्रकृती - हसीयसीर्जनयनिस्तथोत्तरप्रकृतीबध्यमाना ७ संक्रामयस्तियोदयवतां कर्मणामुंदीरणां विदधानैरप्रमत्तगुणस्यैस्तु शाताऽशाताऽ यूंष्यनुदीरङ्गिस्तथा मनुष्यगति पंचेंद्रिय जात्योदारिक शरीर तदंगोपांगादिकर्मणा मुये वर्तमानैस्तथा वेदमंगीकृत्य पुंवेदेसति तथोवसमेति सूचनात्सूत्रमिति क्षायोपश मकानावे वर्तमानैर्गधारिनिरिदं सूत्रकृतांगं ग्रंथितमिति १७ सांप्रतं स्वमनीषिकापरिहार द्वारे करणप्रकारमनिधातुकामय्याह ॥ ( सोकण जिएवरमतं, गणहारी काउं तरक वसमं ॥ यवसाय कथं सूत्तमिषं तेासूयगडं ) ॥१८॥ ( सोकोत्यादि ) श्रुत्वा निशम्य जिनवराणां तीर्थकराणां मतमनिप्रायं मातृकादिपदं गणधरैगौतमादिनिः कृत्वा तत्रग्रंथरचने क्षयोपशमं तत्प्रतिबंधकर्मक्षयोपशमादत्तावधानैरितिभावः ॥ नाध्यवसा येन वसता कृतमिदं सूत्रं तेन सूत्रकृतमिति ॥ १८ ॥ इदानीं कस्मिन् योगे वर्तमानैस्तीर्थक कुत्रवा गणधरैर्दव्धमित्येतदाह ॥ (व जोगेणपनासिय, मणेगजोगंधरा साहूणं ॥ तो वय जोगेणकथं, जीवस्स सनावियगुणे ) ॥ १ ॥ ( वइजोगेोत्यादि) । तत्र तीर्थ कृद्भिः कायिकज्ञानवर्ति निर्वाग्योगेनार्थः प्रकर्षेण नापितः प्रभाषितो गणधराणां ॥ तेच नप्राकृत पुरुषकल्पाः किंत्वनेक योगधराः ॥ तत्र योगः कीराश्रवादिलब्धिकलाप संबंधस्तं धारयतीत्यनेक योगधरास्तेषां प्रभाषितमिति सूत्रकृतांगाऽपेक्ष्या नपुंसकता | साधवश्वा त्र गणधरा एव गृह्यते तदेशेनैव जगवतामर्थप्रनाषणादिति ॥ ततोर्थ निशम्य गणधरै रपि वाग्योगेनैव कृतं तच्च जीवस्य स्वाभाविकेन गुणेनेति ॥ स्वस्मिन्नावे नवः स्वानावि 'कः प्राकृतइत्यर्थः ॥ प्राकृतनाषयेत्युक्तं नवति ॥ नपुनः संस्कृतया, लट्लट्ाप् प्रकृतिप्रत्य यादिविकार विकल्पना निष्पन्नयेति ॥ १९ ॥ पुनरन्यथा सूत्रकृतनिरुक्तमाह ॥ ( धरकरगुण मतिसंघा; या एकम्मपरिसाडनाएय ॥ मडुनयजोगेण कथं, सुत्तमिषं तेल सूत्तगमं) ॥ २० ॥ (अस्करेत्यादि) । यक्षराणि यकारादीनि तेषां गुणोऽनंतगमपर्यायत्वमुच्चारणं For Private Personal Use Only Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राय धनपतसिंघ बादाउरका जैनागम संग्रह नाग उसरा. ए वाऽन्यथाऽर्थस्य प्रतिपादयितुमशक्यत्वात् ॥ मतेर्मतिझानस्य संघटना मतिसंघटना अदर गुणेन मतिसंघटना॥ नावश्रुतस्य व्यश्रुतेन प्रकाशनमित्यर्थः ॥ अदरगुणस्य वा मत्या बुध्या संघटना रचनेति यावत्॥ तया ऽरगुणमतिसंघटनया ॥ तथा कर्मणां ज्ञानावरणा दीनां परिशाटना जीवप्रदेशेन्यः पृथक्करणरूपा तयाच हेतुनूतया सूत्रहतांगं कृतमिति संबन्धः। तथाहि । यथा यथा गणधराः सूत्रकरणायोद्यम कुर्वन्ति तथा तथा कर्मपरिशा टना नवति । यथा यथाच कर्मपरिशाटना तथा तथा ग्रंथरचनायोद्यमः संपद्यत इति । ए तदेव गाथापश्चार्धेन दर्शयति । तनययोगेनेति ॥ अरगुणमतिसंघटनायोगेन कर्मपरि शाटनायोगेन च॥यदि वा वाग्योगेन मनोयोगेन च कृतमिदं सूत्रं तेन सूत्रकृतमिति । इहा ऽनंतरं सूत्ररूतस्य निरुक्तमुक्तमधुना सूत्रपदस्य निरुक्तानिधित्सयाह । “सुत्तेण सुत्तियं चिय, अबा उह सूश्याय जुत्ताय ॥ तोबदुविहप्पनत्ता एया पसिझा अणादीया" ॥१॥ सुत्तेणेत्यादि । अर्थस्य सूचनात्सूत्रं तेन सूत्रेण केचिदर्थाः सादात्सूत्रिता मुख्यतयो पात्तास्तथाऽपरे सूचिता अर्थापत्त्यादिप्ताः॥ सादादनुपादानेपि दध्यानयनचोदनया तदा धारानयनचोदनावदिति । एवंच रुत्वा चतुर्दशपूर्व विदः परस्परं षट्स्थानपतिता नवंति । तथा चोक्तं । अस्करलंनेण समा, कणहिया टुंति मतिविसेसेहिं । तेविय मईविसेसा, सुयणाणप्रिंतरेजाण ॥१॥ तत्र ये साक्षाउपात्तास्तान प्रति सर्वेपि तुल्याः॥ये पुनःसूचिता स्तदपेक्ष्या कश्चिदनंतनागाधिकमर्थ वेत्त्यपरोऽसंख्ययनागाधिकमन्यः संख्येयनागाधि कं तथान्यः संख्ययाऽसंख्येयाऽनंतगुणमिति तेच सर्वेपि युक्ता युक्त्युपपन्नाः सूत्रो पाताएव वेदितव्याः। तथा चानिहितं “ तेवियमईविसेसे” इत्यादि । ननु किं सूत्रो पातेच्योऽन्येपि केचनार्थाः संति येन तदपेक्ष्या चतुर्दशपूर्व विदां षट्स्थानपतितत्वमुद घुष्यते । बाढं विद्यते । यतोऽनिहितं । परमवणिजानावा, अशंतनागोउ अनिल प्याणं । परमवणिजाणं पुण, अशंतनागो सुयनिबछो ॥ १॥ यतश्चैवं ततस्ते अर्था आगमे बहुविधं प्रयुक्ताः सूत्रैरुपात्ताः केचन साक्षात्केचिदर्थापत्त्या समुपलभ्यन्ते । य दि वा क्वचिद्देशग्रहणं क्वचित्सर्वार्थोपादानमित्यादि । यैश्च पदैस्ते अर्थाः प्रतिपाद्यन्ते तानि पदानि प्रकर्षण सिक्षानि प्रसिक्षानि न साधनीयानि । तथाऽनादीनि च तानि नेदानीमुत्पाद्यानि तथा चेयं वादशांगी शब्दार्थरचना धारेण विदेहेषु नित्या नरतैराव तेष्वपि शब्दरचनाबारेणैव प्रति तीर्थकर क्रियते ऽन्यथा तु नित्यैव । एतेन चोच्चरित प्रध्वंसिनो वर्णा इत्येतन्निराकृतं वेदितव्यमिति॥२१॥सांप्रतं सूत्ररूतस्य श्रुतस्कंधाध्ययनादि निरूपणार्थमाह । “दोचेवसुयरकंधा, अभयणाइंच टुंति तेवीसं॥ तेत्तिसुदेसणकाला, या यारागुणमंगं" ॥२॥ (दोचेवेत्यादि)।ावत्र श्रुतस्कन्धौ त्रयोविंशतिरध्ययनानि त्रय स्त्रिंशउद्देशनकालास्ते चैवं नवंति । प्रथमाध्ययने चत्वारो हितीये त्रयस्तृतीये चत्वारः॥ Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १० द्वितीयेसूत्रकृतांगेप्रथम श्रुतस्कंधेप्रथमाध्ययनं. एवं चतुर्थ पंचमयो तथैकादशस्वे कसरकेष्वेकादशैवेति । प्रथमश्रुतस्कन्धे तथा द्विती तस्कन्धे सप्ताध्ययनानि तेषां सप्तैवोदेशनकाला एवमेते सर्वे पित्रयस्त्रिंशदिति । एतच्चाचा गाद्दिगुणमंगं पट्त्रिंशत्पदसहस्रपरिमाणमित्यर्थः ॥ २२॥ सांप्रतं सूत्रकृतांग निदेपानंतरं प्रथम श्रुतस्कंधस्य नाम निष्पन्न निदेपानिधित्सयाऽह । “निरकेवोगाहाए, चविहो होय सोलससु ॥ निरके वोयसुयं मिय, खंधेयचन विहो होइ ॥ २३ ॥ (निरके वो इत्यादि) इदाद्यश्रुतस्कं धस्य गाथापोडशक इति नाम । गाथाख्यं षोडशमध्ययनं यस्मिन् श्रुतस्कंधे सतथेति । तत्र गाथाया नामस्थापना व्यनावश्चतुर्विधो निक्षेपः ॥ नामस्थापनेप्रसिद्धे ॥ इव्यगाथा द्विधा ॥ श्रागमतो नो यागमतश्च ॥ तत्र यागमतो ज्ञाता तत्र चानुपयुक्तोऽनुपयोगो इव्यमिति कृत्वा । नोखागमतस्तु त्रिधा । इशरीरव्यगाथा नव्यशरीरव्यगाथा तान्यां विनिर्मुक्ता च ॥ ' सन्ततरू विसामण से हयाताण बघणह जलया ॥ गाहाएपछ दे जे बो त्ति इक्ककलो ' इत्यादिलक्षणलक्षिता पत्र पुस्तकादिन्यस्तेति ॥ नावगाथापि द्विविधा | यागमत खागमनेदात् ॥ तत्रा ऽऽगमतो गाथापदार्थज्ञस्तत्र चोपयुक्तः । नोखागमतस्त्विद मेव गाथाख्यमध्ययनं ॥ यागमैकदेशत्वादस्य षोडशकस्यापि नामस्थापनाद् व्यक्षेत्र कानावनेदात् षोढा निक्षेपः ॥ तत्र नामस्थापने कुमे । इव्यषोडशकं ज्ञशरीरनव्य शरीर विनिर्मुक्तं । सचित्तादीनि षोडश इव्याणि । क्षेत्रषोडशकं षोडशाकाशप्रदेशाः ॥ का लषोडशकं षोडश समया एतत्कालावस्थापि वा इव्यमिति ॥ जावषोडशक मिदमेवाध्य यनषोडशकं कायोपशमिकनाववृत्तित्वादिति ॥ श्रुतस्कंधयोः प्रत्येकं चतुर्विधो निक्षेपः ॥ सचान्यत्र निदेषेण प्रतिपादित इति नेह प्रतन्यते ॥ २३ ॥ सांप्रतमध्ययनानां प्रत्येकमर्थाधि कार दिदर्श विषयाऽह || "ससमय परसमयपरू, वणाय पाऊण उझणा चैव ॥ संबुदस्तु वसग्गा थी दोस विवणाचेव ॥ २४ ॥ उवसग्गजीरुणोथी वस्साणरएस दोऊ नववा ॥ एवमहप्पावीरो जयमास तदा जएगाह ॥ २५ ॥ परिचत्तनिशीलकुशी,लसुशील स विग्गशीलवंचैव ॥ पाऊण वीरियडुगं पंमिय वीरियपटु पचय ॥ २६ ॥ धम्मोसमा हिमग्गो समोसढा चनसुतववादीसु ॥ सीसगुण दोसकहणा गंथंमि सदा गुरु निवासो ॥ २७ ॥ यदायि संकलिया खादाणीयंमि यादयचरितं ॥ अप्परगंथे पंमिय वयहा गहाइ हिगारो " ॥ २८ ॥ ( ससमय इत्यादि गाथाः पंच) । तत्र प्रथमाध्ययने स्वसमयपरस मयप्ररूपणा | द्वितीये स्वसमयगुणान् परसमय दोषांश्च ज्ञात्वा स्वसमय एव बोधो वि धेय इति ॥ तृतीयाध्ययने तु संबुद्धः सन्यथोपसर्गसहिष्णुर्भवति तदनिधीयते ॥ चतु थे स्त्रीदोषविवर्जना ॥ पंचमेत्वयमर्थाधिकारः ॥ तद्यथा ॥ उपसर्गासहिमोः स्त्रीवराव तिनोऽवश्यं नरकेषु पात इति ॥ षष्ठे पुनरेव मित्यनुकूल प्रतिकूलोपसर्गसदनेन स्त्री वर्जनेन च नगवान् महावीरो जेतव्यस्य कर्मणः संसारस्य वा पराजवेन जयमाह ॥ For Private Personal Use Only Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राय धनपतसिंघ बाहाउरका जैनागम संग्रह नाग उसरा. ११ ततस्तथैव यत्नं विधत्त यूयमिति शिष्याणामुपदेशो दीयते ॥ सप्तमे विदमनिहितं ॥ त द्यथा॥ निःशीला गृहस्थाः कुशीलास्त्वन्यतीर्थिकाः पार्श्वस्थादयो वा ते परित्यक्ता येन सा धुना स परित्यक्तनिःशीलकुशील इति ॥ तथा सुशीला उद्युक्तविहारिणः संविग्नाः संवे गमनास्तत्सेवाशीलः शीलवान् नवतीति । अष्टमे त्वेतत्प्रतिपाद्यते । तद्यथा।ज्ञात्वा वीर्य दयं पंमितवीर्ये प्रयत्नो विधीयत इति ॥ नवमे चार्थाधिकारस्त्वयं ॥ तद्यथा ॥ यथाऽवस्थि तोधर्मः कथ्यते ॥ दशमेतु समाधिः प्रतिपाद्यते ॥ एकादशेतु सम्यग्दर्शनशानचारित्रात्म को मोदमार्गः कथ्यते ॥ हादशे वयमर्थाधिकारः॥ तद्यथा । समवसृता अवतीर्णा व्य वस्थिताश्चतुर्दा मतेषु क्रियाऽक्रियाऽज्ञानवैनयिकारख्येष्वनिप्रायेषु त्रिषष्ट्युत्तरशतत्रय संख्याः पार्षडिनः स्वीयं स्वीयमर्थ प्रसाधयंतः समुचितास्तउपन्यस्तसाधनदोषोना वनतो निराक्रियते ॥ त्रयोदशे विदमनिहितं ॥ तद्यथा ॥ सर्ववादिषु कपिलकणा दादपादशौछोदनिजैमिनिप्रनतिमतानुसारिषु कुमार्गप्रणेतृत्वं साध्यते ॥ चतुर्दशेतु ग्रंथारख्येऽध्ययनेऽयमर्थाधिकारः॥ तद्यथा । शिष्याणां गुणदोषकथना तथा शिष्यगुणसंप पेतेन च विनेयेन नित्यं गुणानुरूपगुरुकुलवासो विधेय इति ॥ पंचदशे वादानीयाख्ये ऽध्ययनेऽर्थाधिकारोऽयं ॥ तद्यथा ॥ श्रादीयंते गृह्यते उपादीयंते इत्यादानीयानि पदान्य र्था वा ते च प्रागुपन्यस्तपदैरर्थश्च प्रायशोऽत्र संकलिताः।तथा आयतं चरित्रं सम्यक्चरित्रं मोक्षमार्गप्रसाधकं तच्चात्र व्यावयेत इति ॥ षोमशेतु गाथाख्यऽल्पग्रंथेऽध्ययनार्थोयं व्यावयेते। तद्यथा ॥ पंचदशनिरध्ययनोर्थो निहितः सोत्र पंमितवचनेन संक्षिप्तानिधा नेन प्रतिपाद्यत इति ॥ गाहा सोलसगाणं पिंडबोवन्नि समासेण ॥ इत्तो शक्तिकं पुण अभयणं कित्तयिस्सामि' ॥१॥ तत्राद्यमध्ययनं समयाव्यं तस्य चोपक्रमादीनि चत्वार्य नुयोग क्षाराणि नवंति ॥ तत्रोपक्रमणमुपक्रम्यते वाऽनेन शास्त्रं न्यासदेशं निदेपावसरमा नीयत इत्युपक्रमः। सच लौकिको नामस्थापनाद् इव्यक्षेत्रकालनावनेदेन षड़प आवश्यका दिष्वेवप्रपंचितः॥शास्त्रीयोप्यानुपूर्वीनामप्रमाणवक्तव्यतार्थाधिकारसमवताररूपः षोडैव । तत्रानुपूर्व्यादीन्यनुयोगदारानुसारेण ज्ञेयानि तावद्यावत्समवतारसूत्रैस्तदध्ययनमानु पूर्व्यादिषु यत्र यत्र समवतरति तत्र तत्र समवतारयितव्यं ॥ तत्र दशविधायामानुपूर्व्याग एनानुपूा समवतरति सामि त्रिधा। पूर्वानुपूर्वी पश्चानुपूर्वी अनानुपूर्वी चेति॥तत्रेदमध्य यनं पूर्वानुपूर्व्या प्रथमं पश्चानुपूर्व्या षोडशम्। अनानुपर्यों तु चिंत्यमानमस्यामेवैकादिका यामेकोतरिकायां षोडश गहतायां श्रेण्यामन्योन्याच्यासविरूपोनसंख्यानेदं नवति ॥धना नुपूयातु षोडशनेदसंख्यापरिझानोपायोयं । तद्यथा । 'एकाद्या गडपर्यताः परस्परसमाह ताः॥राशयस्त६ि विज्ञेयं विकल्पगणिते फलं॥॥प्रस्तारानयनोपायस्त्वयं॥पुवाणुपुदिहेज Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२ हितीयेसूत्रकृतांगेप्रथमश्रुतस्कंधेप्रथमाध्ययनं. १२३४५ इत्यादि।तत्र । गणितेंत्यविनक्ते तु लब्धं शेषैर्विनाजयेत् ॥ पादावंते च तत् २१३४५ स्थाप्यं विकल्पगणिते कमात्॥१॥ अयं श्लोकः शिष्यहितार्थ विवियते । त १३२४५ त्र सुखावगमार्थ षट् पदानि समाश्रित्य तावत् श्लोकार्थो योज्यते । तत्रैवं ३१२४५ षट् पदानि स्थाप्यानि । १२३४५६ । एतेषां परस्परताडनेन सप्तशतानि २३१४५ विंशत्युत्तराणि गणितमुच्यते। तस्मिन् गणितेंऽत्योत्र षट्कस्तेन नागे हृते विं ३२१४५ शत्युत्तरं शतं लन्यते तच्च परमां पंक्तीनामंत्यपंक्तौ षटकानां न्यस्यते । तदधः १२४३५ पंचकानां विंशत्युत्तरमेवशतम्।एवमधोधश्चतुष्कत्रिकक्कैिकानां प्रत्येकं विंश त्युत्तरशतं न्यस्यमेवमंत्यपंक्ती सप्त शतानिविंशत्युत्तराणि नवंत्येषा च गणितप्रक्रियाया था दिरुच्यते । तथा यत्तविंशत्युत्तरं शतं लब्धं तस्य च पुनः शेषेण पंचकेन नागेनापहृते ल ब्धा चतुर्विशतिस्तावंतस्तावन्तश्च पंचकचतुष्कत्रिकदिकैकाः प्रत्येकं पंचमपंक्तौ न्यस्या याव विंशत्युत्तरं शतमिति॥ तदधोग्रतो न्यस्तमंकं मुक्त्वा येन्ये तेषां यो यो महत्संख्यः स सोध स्ताच्चतुर्विशतिसंख्य एव तावत् न्यस्यो यावत्सप्तशतानि विंशत्युत्तराणि पंचमपङ्क्तावपि पूर्णानि नवंति ॥ एषा च गणितप्रक्रियेत्यभिधीयते ॥ एवमनया प्रक्रियया चतुर्विशतेः शे षचतुष्ककेन जागे हते षट् लन्यंते तावंतश्चतुःपंक्तौ चतुष्ककाः स्थाप्यास्तदधः षत्रिकाः पुनर्विका नूय एककाः पुनः पूर्वन्यायेन पंक्तिः पूरणीया ॥ पुनः षट्कस्य शेषत्रिकेण नागे हृते नौ लन्येते तावन्मात्री त्रिको तृतीयपंक्तौ शेषं पूर्ववत् । शेषपंक्ति ये शेषमंक ६ यं क्रमोक्रमान्यां व्यवस्थाप्यमिति ॥ तथा नानि षड्डिधनाम्न्यवतरति । यतस्तत्र षड् नावाः प्ररूप्यंते । श्रुतस्यच दायोपशमिकनाववर्तित्वात् । प्रमाणमधुना प्रमीयतेनेने ति प्रमाणं।तत् इव्यक्षेत्रकालनावनेदाचतुर्दा । तत्रास्याध्ययनस्य दायोपशमिकनावव्य वस्थितत्वानावप्रमाणेऽवतारः। नावप्रमाणं च गुण, नय, संख्या, नेदात्रिधा । तत्रापि गु एप्रमाणे समवतारः । तदपि जीवाजीवनेदाद् विधा । समयाध्ययनस्य च दायोपशमिक नावरूपत्वात्तस्य च जीवानन्यत्वाजीवगुणप्रमाणे समवतारः । जीवगुणप्रमाणमपि ज्ञान, दर्शन, चारित्र, नेदा त्रिविधं । तत्रास्य बोधरूपत्वात् ज्ञानगुणप्रमाणे समवतारः॥ तदापि प्रत्यक्षानुमानोपमानागमनेदाच्चतुर्दा । तत्रास्यागमप्रमाणे समवतारः ॥ सोपि लौ किक, लोकोत्तर, नेदाद विधा । तदस्य लोकोत्तरे समवतारस्तस्य च सूत्रार्थतनयरूपत्वा त्रैविध्यं । त्रिष्वपि समवतारः । यदि वाऽत्मानंतरपरंपरनेदादागमस्त्रिविधस्तत्र तीर्थ कृतामर्थापेक्ष्याऽत्मागमो गणधराणामनंतरागमस्तलिष्याणां परंपरागमः । सूत्रापेक्ष्या तु गणधराणामात्मागमस्त बिष्याणामनंतरागमस्तदन्येषां परंपरागमः । गुगप्रमाणानंत रं नयप्रमाणावसरस्तस्य चेदानी पृथक्त्वानुयोगे नास्ति समवतारो नवे पुरुषापे क्या ॥ तथा चोक्तं ॥ मूढनश्यं सुयं का,लियंतुणणया समोरयंति इहं ॥ अपु Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राय धनपतसिंघ बादाडुरका जैनागम संग्रह नाग दुसरा. १३ हसमुयारो हुत्ते समोयारो ॥ १ ॥ तथा ॥ खसकन सोयारं नएनय वि सारउ नूया' ॥ संख्याप्रमाणं त्वष्टधा ॥ नाम, स्थापना, इव्य, क्षेत्र, काल, परिमा , पर्यव, नाव, जेदात् । तत्रापि परिमाण संख्यायां समवतारः ॥ सापि कालिकदृष्टि वादनावात् द्विधा ॥ तत्रास्य कालिकपरिमाण संख्यायां समवतारस्तत्राप्यंगानंगयोरं प्रविष्टे समवतारः । पर्यवसंख्यायां त्वनंताः पर्यवाः ॥ तथा संख्येयान्यक्षराणि संख्ये याः संघाताः संख्येयानि पदानि संख्येयाः श्लोकाः संख्येया गाथा: संख्येया वेदाः संख्येयान्यनुयोग द्वाराणि । सांप्रतं वक्तव्यतायाः समवतारश्चिंत्यते ॥ साच स्व, पर, समय, तनयनेदात्रिधा । तत्रेदमध्ययनं त्रिविधायामपि समवतरति । अर्थाधिकारो देधा ।। अध्ययनार्थाधिकार उद्देशार्थाधिकारश्च । तत्राध्ययनार्थाधिकारोऽनिहितः । उद्देशार्थाधि कारं तु गाथांतरितं निर्युक्तिक वदयति । सांप्रतं निपावसरः सच त्रिधा । उघनिष्पन्नो ना मनिष्पन्नः सूत्रालापक निष्पन्नश्च । तत्रौघ निष्पन्नेऽध्ययनं तस्यच निक्षेप यावश्यकादौ प्रबं नाहित एव । नाम निष्पन्नेतु समय इति ॥ २ ॥ नाम तन्निदेपार्थं नियुक्तिकार श्राह ॥ " ना मंतवाद विए खेते काले कुतिसंगारे ॥ कुलग एग संकरगंडी । बोधव्वा नावसमएय" ॥२॥ ( नामं ववणाइत्यादि) । नाम, स्थापना, इव्य, क्षेत्र, काल, कुतीर्थ, संगार, कुल, गण, संकर, गंडी, नाव, नेदात् द्वादशधा समय निदेषः । तत्र नामस्थापने कुम्मे । इव्यसमयो इव्यस्य सम्यगयनं परिणतिविशेषः स्वनाव इत्यर्थः । तद्यथा । जीवइव्यस्योपयोगः पुनव्यस्य मूर्तत्वं धर्माधर्माकाशानां गतिस्थित्यवगाहदानलक्षणोऽथवा योयस्य इ व्यस्यावसरो इव्यस्योपयोगकाल इति ॥ तद्यथा ॥ ' वर्षासु लवणममृतं शरदि जलं गो पयश्च हेमंते ॥ शिशिरे चामलकरसो घृतं वसंते गुडश्चांते' ॥ १ ॥ क्षेत्रसमयः क्षेत्रमाका शं तस्य समयः स्वनावः। यथा ॥ ' एगे विसेपुमे दोहिं विपुणे सर्वपि माएका ॥ नरकस विपु, कोडसहस्सं पि माएका ' ॥ १ ॥ यदि वा देवकुरुप्रभृतीनां क्षेत्राणामीदृशोऽनु वो यत तत्र प्राणिनः सुरूपा नित्यसुखिनो निर्वैराश्व नवतीति क्षेत्रस्य वा परिकर्मणाव सरः क्षेत्रसमय इति ॥ कालसमयस्तु सुषमादेरनुनाव विशेषः । उत्पलपत्रशतनेदा नि व्यंग्यो वा कालविशेषः कालसमय इति ॥ अत्र च इव्यक्षेत्रकालप्राधान्यविवक्षया इव्य त्रकालसमयता इष्टव्येति । कुतीर्थसमयः पाखंडिकानामात्मीयानात्मीय खागमविशेष स्तकं वानुष्ठानमिति ॥ संगारः संकेतस्तद्रूपः समयः संगारसमयः ॥ यथा सिद्धार्थसार थिदेवेन पूर्वकतसंगारानुसारेण गृहीतहरिशवो बलदेवः प्रतिबोधित इति ॥ कुलसमयः कुलाचारो यथा शकानां पितृशुद्धिः यानीरकाणां मंथनिका बुद्धिः । गणसमयो यथा ॥ मल्लानामयमाचारो यथा यो ह्यनाथो मल्लो म्रियते स तैः संस्क्रियते पतितश्वोधियत इति । संकरसमयस्तु संकरो निन्नजातीयानां मीलकस्तत्र च समये एकवाक्यता ॥ यथा वाममा For Private Personal Use Only Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४ वितीयेसूत्रकृतांगेप्रथमश्रुतस्कंधेप्रथमाध्ययनं. र्गादावनाचारप्रवृत्तावपि गुप्तिकरणमिति । गंडीसमयो यथा शाक्यानां नोजनावसरे गं डीताडनमिति । नावसमयस्तु नो बागमत इदमेवाध्ययनमनेनैवात्राधिकारः शेषाणां तु शिष्यमतिविकासार्थमुपन्यास इति ॥श्वासांप्रतं प्रागुपन्यस्तोदेशार्थाधिकारानिधित्सया ऽह ॥ “महपंचनय एक्क, प्पएय तीवतस्सरीरेय ॥ तहय अगार गवाती अत्तनो अफलवादी ॥३०॥ बीए नियवाईन, अपमाणियतहय नाणवाई ॥ कम्मं च यन्नगड, चन विहं निरकुसमर्थमि ॥३१॥ तइए याहाकम्म, कडवाई जहयतेयवाई ॥ किनुवमा य चनने, परप्पवाई अविरएसु" ॥३२॥ महपंचनूय इत्यादिगाथात्रयं । यस्याध्ययन स्य चत्वार उद्देशकास्तत्राद्यस्यषडाधिकारा आद्यगाथयाऽनिहिताः ॥ तद्यथा। पंचनूता नि एथिव्यप्तेजोवाय्वाकाशारख्यानि महांति च तानि सर्वलोकव्यापित्वात् नूतानि च म हानूतानि इत्ययमेकोऽर्थाधिकारः। तथा चेतनाचेतनं सर्व मेकात्म विवर्त इत्यात्माऽदै तवादः प्रतिपाद्यत इत्यर्थाधिकारो वितीयः । स चासौ जीवश्च तीवः कायाकारो नूत परिणामस्तदेव शरीरं जीवशरीरयोरैक्यमिति यावदिति तृतीयोर्थाधिकारः। तथाऽकारको जीवः सर्वस्याः पुण्यपाप क्रियाया इत्येवंवादीति चतुर्थोधिकारः॥ तथात्मा षष्ठ इति पं चानां नूतानामात्मा षष्ठः प्रतिपाद्यत इत्ययं पंचमोर्थाधिकारः । तथा फलवादीति । न विद्यते कस्याश्चित् क्रियायाः फलमित्येव वादी च प्रतिपाद्यत इति षष्ठीर्थाधिकार ति । क्षितीयोदेशकेचत्वारोाधिकाराः॥तद्यथा । नियतिवादस्तथाऽझानिकमतं ज्ञानवादी च प्रतिपाद्यते । कर्म च चयमुपचयं चतुर्विधमपि न गन्नति निलुसमये शाक्यागमे चतुर्थीर्थाधिकारः । चातुर्विध्यंतु कर्मणो ऽविझोपचितं ॥ अविज्ञानमविझा तयोपचि तमनानोगकतमित्यर्थः । यथा मातुः स्तनाद्याक्रमणेन पुत्रव्यापत्तावप्यनानोगान्नक मोपचीयते । तथा परिझानं परिक्षा केवलेन मनसा पर्यालोचनं तेनापि कस्यचित्प्रा पिनो व्यापादनानावात् कर्मोपचयानाव इति । तथा ईरणमीर्यागमनं तेन जनि तमीर्याप्रत्ययं तदपि कर्मोपचयं न गहति प्राणिव्यापादनानिसंधेरनावादिति । तथा स्वप्नांतिकं स्वप्नप्रत्ययं कर्म नोपचीयते । यथा स्वप्ननोजने तृप्त्यनाव इति तृतीयोदेश केवयमर्थाधिकारः । तथा बाधाकर्मगतविचारस्तनोजिनां च दोषोपदर्शन मिति । तथा कृतवादी च नण्यते । तद्यथेश्वरेण कृतोयं लोकः प्रधानादिकतो वा॥ यथा च ते प्रतिवादि न आत्मीयं कृतवादं गृहीत्वोपस्थितास्तथा जण्यंत इति दितीयोधिकारः । चतुर्थोद्देशकाधि कारस्त्वयं । तद्यथा॥ अविरतेषु गृहस्थेषु यानि कृत्यान्यनुष्ठानानि स्थितानि तैरसंयमप्र धानैः कर्तव्यैः परप्रवादी परतीर्थिक उपमीयत इति । इदानीमनुगमः सच धा। सूत्रा नुगमो नियुक्त्यनुगमश्च । तत्र नियुक्त्यनुगमस्त्रिविधः । तद्यथा । निपनियुक्त्यनुगम उपोमातनिर्युक्त्यनुगमः सूत्रस्पर्शिकनियुक्त्यनुगमश्च । तत्र निदेपमियुक्त्यनुगमोऽनु Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राय धनपतसिंघ बादाउरका जैनागम संग्रह नाग उसरा. १५ गत उघनामनिष्पन्ननिपियोरंतर्गतत्वात् । तथाच वदयमाणस्य सूत्रस्य निदेपावसरत्वा त् । उपोद्वातनिर्युक्त्यानुगमस्तु षडिशतिवारप्रतिपादकाजाथा यादवसेयस्तञ्चेर्दै उद्देश निदेशेय इत्यादि । सूत्रस्पर्शिकनियुक्त्यनुगमस्तु सूत्रे सति संनवति ॥ सूत्रं च सूत्रानुगमे सचावसरप्राप्त एव । तत्राऽस्वलितादिगुणोपेतं सूत्रमुच्चारणीयं । तञ्चेदं ॥बुशित्ति तिनहि त्यादिश्लोकः । अस्य संहितादिक्रमेण व्याख्या । (बुध्यतेत्यादि) । सूत्रमिदं सूत्रकतां गादौ वर्तते । अस्यच ऽऽचारांगेन सहायं संबंधः । तद्यथा याचारांगेनिहितं । ' जीवो ब कायपरू, वणायतेसिं वहेणबंधोत्ति' इत्यादि तत्सर्व बुध्येतेत्यादि । यदि चेह केषांचि वादिनां ज्ञानादेवमुक्त्यवाप्तिरन्येषां क्रियामात्रात् । जैनानां तूनान्यां निश्रेयसाधिगम इत्ये तदनेन श्लोकेन प्रतिपाद्यते । तत्रापि झानपूर्विका क्रिया फलवती नवतीत्यादि बुध्येते त्यनेन ज्ञानमुक्तं॥त्रोटयेदित्येनेनच क्रियोक्ता।तत्रायमर्थो बुध्येतावगछेत्बोधं विदध्यादित्यु पदेशः। किंपुनस्तदुध्येत तदाह । बंधनं बध्यते जीवप्रदेशैरन्योन्यानुवेधरूपतया व्यवस्था प्यत इति बंधनं ज्ञानावरणाद्यष्टप्रकारं कर्म तक्षेतवो वा मिथ्यात्वाऽविरत्यादयः परि ग्रहारंजादयो वा। नच बोधमात्रादनिलषितार्थावाप्तिनवतीत्यतः क्रियां दर्शयति । त च बंधनं परिझाय विशिष्टया क्रियया संयमानुष्ठानरूपया त्रोटयेदपनयेदात्मनः पृथक्कुर्या त्परित्यजेक्षा । एवं चानिहिते जंबूस्वाम्यादिको विनेयो बंधादिस्वरूपं विशिष्टं जिज्ञासुः प प्रज॥ किमाह किमुक्तवान् बंधनं वीरस्तीर्थकत् किंवा जाननवगळस्तदंधनं त्रोटयति ततो वा व्यतीति श्लोकार्थः ॥ १ ॥ बंधनस्वरूपनिर्वचनायाह ॥ (चित्तमंतमचित्तं वे त्यादि)॥ इह बंधनं कर्म ततवो वाऽनिधीयते ॥ तत्र न निदानमंतरेण निदानिनो जन्मेति निदानमेव दर्शयति ॥ तत्रापि सर्वारंनाः कर्मोपादानरूपाः प्रायश यात्मात्मी यग्रहोबानामिति कृत्वाऽदौ परिग्रहमेव दर्शितवान् ॥ चित्तमुपयोगो शानं तदिद्यते य स्य तचित्तवत् विपदचतुष्पदादि । ततोन्यदचित्तवत् कनकरजतादि तउनयरूपमपि परि ग्रहं परिगृह्य कशमपि स्तोकमपि तृणतुषादिकमपीत्यर्थः । यदि वा कसनं कसः परिग्रह ग्रहणबुध्या जीवस्य गमनपरिणाम इति यावत् । तदेवं स्वतः परिग्रहं परिगृह्यान्यान्वा ग्राहयित्वा गृाहतो वान्याननुज्ञाय उखयतीति दुःखमष्टप्रकारं कर्म तत्फलं वा असा तोदयांदिरूपं तस्मान्न मुच्यत इति । परिग्रहाग्रह एव परमार्थतोनर्थमूलं नवति । तथा चोक्तं । ममाहमिति चैष यावदनिमानदाहज्वरः कृतांतमुखमेव तावदिति न प्रशांत्युन्न यः ॥ यशःसुखपिपासितैरयमसावनीतरैः परैरपसदः कुतोपि कथमप्यपारुष्यते' ॥१॥ तथाच ॥ क्षेषस्यायतनं कृतेरपचयः दातेःप्रतीपो विधियादेपस्य सुहृन्मदस्य नवनं ध्या नस्य कष्टो रिपुः ॥ दुःखस्य प्रनवः सुखस्य निधनं पापस्य वासो निजः प्राज्ञस्यापि परिय हो ग्रहश्व क्वेशाय नाशायच' ॥१॥२॥ Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वितीयेसूत्रकृतांगेप्रथमश्रुतस्कंधेप्रथमाध्ययनं. सयं निवायए पाणे, अज्वाऽन्नेहिं घायए ॥ दणंतं वा णुजा पाइ, वेरं व अप्पणो॥३॥ जेरिंस कुले समुप्पन्ने जेहिं वा सं वसे नरे॥ ममाइ लुप्पई बाले, अम्मे अमेदि मुहिए ॥४॥ अर्थ-हवे ज्यां परिग्रह त्यां आरंन होय, अने ज्यां पारंन त्यां प्राणातिपात होय एवं देखाडेले. ते परिग्रहवंत पुरुष असंतोषी बतो ते परिग्रह नपार्जवाने अर्थे, बने उपार्जन करेलो परिग्रह राखवाने अर्थे सयंक० पोते, पाणेके प्राणी-नो,निवायएके० निपात एटले विनाश करे, अवाके अथवा अन्नेहि घायएके। अनेरा पासे प्रा पीनी घात करावे: वाके अथवा हणंतं के जे प्राणीने हणतो होय अर्थात् प्रा पीउनो विनाश करतो होय तेने अणुजाणाश्के अनुमोदवे करी. प्राणीनी घात कर तो थको अथवा करावतो थको अप्पणोके आत्माने वेरवड्दृश्के वैरनी वृद्धी करे. ते थीजे ऊःख परंपरारूप बंधन तेथकी बुटे नहीं ॥३॥ वली पण बंधन घाश्रर्या कहेले. जेस्सिं कुले समुप्पन्ने के राठोडादिक जे कुलमा उत्पन्न थयो, अथवा जेहिंवा संवसे के जेनीसाथे वास वसे, एटले पांसुक्रीडादिक करे. एवा नरेके मनुष्य जे माता, पिता, नाई, बेहेन, नार्या, अने मित्रादिक तेने विषे ममाश्के ममत्वनो करनार एटले मातापितादिकनी साथे स्नेह करतो एवो बालेके अज्ञानी जीवते लुप्पश्के कम संसारचक्रमांहे न मतो थको पीडायने, ते मनुष्य केवो तोके अथलेहिके० अन्य अन्य एटले प्रथ म माता पिता, तदनंतर नाईने विषे, तदनंतर पुत्रपौत्रादिक, एम अन्य अन्यने विषे मुछिएके मूर्जित एटले मूळ पामतो थको स्नेहे करी पीडायजे. ॥४॥ दीपिका ॥अथवा प्रकारांतरेण बंधनमेवाह । सयंतीति ॥ सपरिग्रहवान स्वयमात्मना प्राणानतिपातयेत् जीवान् हिंस्यात् । अथवा अन्यैः परैरपि घातयति प्रतश्चान्याननु जानीते तदेवं कतकारितानुमतिनिःप्राणिघातं कुर्वन्नात्मनो वैरं वर्धयति ततश्च बंधनान्न मुच्यते इति नावः ॥ ३ ॥ पुनर्बधनमेवाश्रित्याह । जेस्सिमित्ति । यस्मिन् कुले जातो यैर्वा मित्रै र्यादिनिर्वा सह संवसेन्नरः तेषु मित्रपितृमातृनार्यादिषु ममायमिति ममत्ववान् लुप्यते ममत्वजनितेन कर्मणा बाध्यते । बालो मूर्खः विवेकरहितत्वादन्येषु च मूर्डि तो ममत्वबहुल इत्यर्थः ॥ ४ ॥ टीका ॥ तथाच परिग्रहेष्वप्राप्तनष्टेषु कांदाशोको प्राप्तेषु च रक्षणमुपनोगे वाऽतृप्तिरि त्येवं परिग्रहे सति दुःखात्मकादंधनान्न मुच्यत इति परिग्रहवतश्चावश्यं नाव्यारंनस्त स्मिंश्च प्राणातिपात इति दर्शयितुमाह । सयंनिवायएपाणे इत्यादि । यदि वा प्रकारांत Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राय धनपतसिंघ बाहाजरका जैनागम संग्रह नाग उसरा. १७ रेण बंधनमेवाह । सयंतीत्यादि । स परिग्रहवानसंतुष्टो नूयस्तदर्जनपरः समार्जितोप इवकारिणि च षमुपगतस्ततः स्वयमात्मना त्रिन्यो मनोवाक्कायेज्य आयुर्बलशरीरेन्यो वा पातयेत् च्यावयेत् प्राणान् प्राणिनः । अकारसोपा अतिपातयेत् प्राणानिति । प्रा पाश्चामी । पंचेंड्रियाणि त्रिविधं बलंच, नवासनिश्वासमथान्यदायुः॥प्राणा दशैते जगव निरुक्ता,स्तेषां वियोजीकरणं तु हिंसा ॥१॥ तथा स परिग्रहाग्रही न केवलं स्वतो व्या पादयति अपरैरपि घातयति नतश्चान्यान् समनुजानीते तदेव कृतकारितानुमतिनिः प्राण्युपमर्दनेन जन्मांतरशतानुबंध्यात्मनो वैरं वर्धयति । ततश्च सुःखपरंपरारूपबंधनान्न मुच्यत इति । प्राणातिपातस्य चोपलदाणार्थत्वात् मृषावादादयोपि बंधहेतवो इष्टव्या इति ॥ ३ ॥ पुनर्बधनमेवाश्रित्याह । (जे स्तिमित्यादि)।यस्मिन् राष्ट्रकूटादौ कुले जातो यैर्वा सह पांसुकीमितैयै र्यादिनिर्वा सह संवसेन्नरस्तेषु मातृपितृनातृनगिनीनार्यावय स्यादिषु ममायमिति ममत्ववान् स्निह्यन् लुप्यते विलुप्यते ममत्वजनितेन कर्मणा नारकतिर्यङ्मनुष्यामरलक्षणे संसारे चम्यमाणो बाध्यते पीड्यते। कोसौ बालोऽज्ञः स दसदिवेकरहितत्वादन्येष्वन्येषु च मूर्बितो गृशोध्युपपन्नो ममत्वबदुल इत्यर्थः । पूर्व तावन्मातापित्रोस्तदनुजार्यायां पुनः पुत्रादौ स्नेहवानिति ॥४॥ वित्तं सोयरिया चेव, सबमेयं नताण॥ संखाए जीविअंचेवं, कम्मुणा तिन ॥५॥ एए गंथे विनकम्म, एगेसमणमाद पा ॥ अयाणंता विनस्सित्ता सत्ता कामेदि माणवा ॥ ६॥ अर्थ-हवे जे प्रथम कयुं हतुंके, कहेवू जाणतो थको बंधन तोडे ते कहेले. वित्तं के धनधान्यादिक सचित्त तथा अचित्त वस्तु अने सोयरियाके नाइ प्रमुख कौटुंबि क स्वजनादिक चेवके वली सबमेयंके० ए सर्व जे कुटुंबादिक स्नेहवंत, ते शारीरी, मानसी वेदना नोगवता यको ए जीवने नताश्के त्राण नणी न थाय. एवं जाणी ने जीवियंचके । जे प्राणीनुं जीवतव्य अल्पडे. एवंके० एवं संखाएके० जाणीने, जी वितव्य प्राणीउने एटले परिग्रह प्राणिघात अने स्वजन स्नेहादिक बंधननां स्थानने परिझाये जाणीने, प्रत्याख्यान परिझाये बांमिने, कम्मुणा तिउदृश्के कर्म थकी बूटे थ र्थात् कर्म थकी वेगलो थाय. ॥ ५ ॥ हवे स्वसमयनो अधिकार कही परसमयनो अधिकार कहेले. एएगंथेके ए अरिहंतना नाषित ग्रंथ जे करुणारसमय जे. ते ने बांकीने स्वेडायें रचित ग्रंथोने विषे विनकम्मके धासक्त थका, एगेसमणके एक शाक्यादिकना श्रमण, बीजा बृहस्पतिमतानुसारी एवा माहणा के ब्राह्मण एथया पंताके० परमार्थना अजाण थका विनस्सित्ता के० विविध प्रकारे उत्प्रबलपणे पोताना Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८ द्वितीयेसूत्रकृतांगे प्रथम श्रुतस्कंधे प्रथमाध्ययनं. ग्रंथ विषे सत्ता एटले बंधाणा, एतावतां प्रापणा मतना कदाग्रही एवा उतां माणवाके० पुं रुष जे बे, ते पोतपोताना मतना धनुरागेकरी, कामेहि के० इलामद्नादिक तेनेविषे सत्ता केयासक्त थका प्रवर्त्तेबे एटले पोतानो मार्ग लोकोमांहे प्रसिद्धपणे सारो कररी देखाडे. || दीपिका - किं जानन् बंधनं त्रोटयतीत्यस्योत्तरमाह । ( वित्तमिति ) । वित्तं इव्यं तच्च सचित्तम चित्तं वा । सोदर्या चातृनगिन्यादयः सर्वमेतद्वित्तादिकं संसारे पीड्यमानस्य जंतो त्राणाय न रक्षणाय नवतीति । एतत् संख्याय ज्ञात्वा तथा जीवितं स्वल्पमिति सं ख्याय परिज्ञया ज्ञात्वा प्रत्याख्यानपरिज्ञया प्रत्याख्याय कर्मणः सकाशात् त्रुटयति पग त्यसौ । तुर्निश्वये त्रुटदेव । यदि वा कर्मणा क्रियया संयमानुष्ठानरूपया बंधनात् यति कर्मणः पृथग्नवतीत्यर्थः ॥ ५ ॥ स्वसमयं प्रतिपाद्य परसमयं प्रतिपादयितुका माह । (एएइति ) । एतान् पूर्वोक्तान ग्रंथान् सूत्रार्थान् व्युत्क्रम्य परित्यज्य एके के चित् श्रमणब्राह्मणाः श्रमणाः शाक्यादयो ब्राह्मणाश्व ( श्रयाता ) परमार्थमजानानाः ( विस्त्तिा) विविधमुत्प्राबल्येन सिता बद्धाः स्वसमयेषु प्रतिबद्धाः संतः कामेषु चलता वर्ततइति ॥ ६ ॥ ॥ टीका- सांप्रतं यक्तं प्राक् किंवा जानन् बंधनं त्रोटयतीत्यस्य निर्वचनमाह । (वित्तमित्या दि) । वित्तं इव्यं तच सचित्तमचित्तं वा । तथा सोदर्या चातृनगिन्यादयः सर्वमपि चैत द्वित्तादिकं संसारांतर्गतस्यासुमतोऽतिकटुकाः शरीरमानस वेदनास्समनुभवतो न त्राणाय रक्षणाय नवंतीत्येतत्संख्यायं ज्ञात्वा । तथा जीवितं च प्राणिनां स्वल्पमपि तत्संख्याय प रिज्ञया । प्रत्याख्यानपरिज्ञया तु सचित्ता चित्तपरिग्रहप्राप्युपधातस्वजनस्नेहादीनि बं धनस्थानानि प्रत्याख्याय कर्मणः सकाशात्रुट्यति पगष्ठत्यसौ । तुरवधारणे । त्रुटधे दे वेति । यदि वा कर्मणा क्रियया संयमानुष्ठानरूपया बंधनान्त्रुट्यति । कर्मणः पृथग्न वतीत्यर्थः ॥ ५ ॥ थध्ययनार्थाधिकारानिहितत्वात्स्वसमयप्रतिपादनानंतरं परसमयप्र तिपादनानि धित्सयाह । (एएगंथे विनकम्मेत्यादि) । एतानंतरोक्तान् ग्रंथान् व्युत्क्रम्य प रित्यज्य स्वरुचि विरचितार्थेषु ग्रंथेषु सक्ताः सिताः बद्धा एके न सर्वे इति संबंधः । ग्रंथा तिक्रमश्चैतेषां तक्कार्थानच्युपगमात् । अनंतरयंथेषु चायमर्थोऽनिहितस्तद्यथा जीवा स्तित्वे सति ज्ञानावरणीयादि कर्मबंधनं तस्य हेतवो मिथ्यात्वाविरतिप्रमादादयः परिग्रहा रंजादयश्च । तचोदनं च सम्यक्दर्शनाद्युपायेन मोक्षसद्भावश्चेत्येवमादिकः । तदेवमेके श्रमणाः शाक्यादयो बार्हस्पत्यमतानुसारिणश्च ब्राह्मणा एतानक्तान् ग्रंथानतिक्रम्य परमार्थमजानाना विविधमनेक प्रकारमुत्प्राबल्येन सिता बडाः स्वसमयेष्वनिनिविष्टाः । तथा च शाक्या एवं प्रतिपादर्यति । यथा सुखदुःखेच्छादे षज्ञानाधारनूतो नास्त्यात्मा For Private Personal Use Only Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राय धनपतसिंघ बाहादुरका जैनागम संग्रह नाग इसरा. १ कश्चित् किंतु विज्ञानमेवैकं विवर्ततइति । छलिकाः सर्व संस्काराइत्यादि । तथा सां ख्या एवं व्यवस्थिताः । सत्वरजस्तमसां साम्यावस्था प्रकृतिः प्रकृतेर्महान् महतोहंकार स्तस्माजणश्च षोडशकस्तस्मात् षोडशकादपि पंचनूतानि चैतन्यं पुरुषस्य स्वरूपमित्या दि । वैशेपिकाः पुनरादुः । इव्य, गुण, कर्म, सामान्य, विशेष, समवायाः षट् पदा इति । तथा नैयायिकाः प्रमाणप्रमेयादीनां पदार्थानामन्वयव्यतिरेकप रिज्ञाना निःश्रेयसाधिगमइति व्यवस्थिताः । तथा मीमांसकाश्चोदनालक्षणोधर्मो नच सर्वज्ञः क विविद्यते मुक्तयनावश्चेत्येवमाश्रिताः । चार्वाकास्त्वेवम निदितवंतो यथा नास्तिकश्वि त्परलोकयायी नूतपंचका व्यतिरिक्तः पदार्थो नापि पुण्यपापे स्तइत्यादि । एवंचांगीकृत्यै ते लोकायतिकाः । मानवाः पुरुषाः सक्ता गृद्धा श्रध्युपपन्नाः कामेष्विवामदनरूपेषु । त थाचोचुः । एतावानेव पुरुषो, यावा निंदियगोचरः ॥ नदेवकपदं पश्य, य दंत्यबहुश्रुताः ॥ १ ॥ पिब खाद च साधु शोभने, यदतीतं वरगात्रि तन्न ते ॥ नहि नीरु गतं निवर्तते, समुदयमात्रमिदं कलेवरं ॥ २ ॥ एवं ते तंत्रांतरी याः स्वसमयार्थवासितांतः करणाः सं तो नगवदर्हक्तं ग्रंथार्थमज्ञातपरमार्थाः समतिक्रम्य स्वकीयेषु ग्रंथेषु सिताः संबद्धाः कामेषु च सक्ताइति ॥ ६ ॥ संति पंच मनुया, इमेगेसि माहिया ॥ पुढवी खान तेकवा, वान च्यागासपंचमा ॥ ७ ॥ एए पंच महनूया, तेनो एगोत्ति च्यादिय।॥ यहतोसें विणासेणं, विणासो दोई दे दिणो ॥ ८ ॥ अर्थ- हवे ग्रंथकार प्रथम चार्वाकनुं मत देखाडेले संतिपंचमहसूया के० ते चार्वा क एम कबे के जगत्मा सर्वलोकव्यापी पंचमहाभूत बे. इसके० या लोकमांहे, एगे सिं ho कोई एक नूतवादी तेना मतने विषे याहिया के कलावे. ते कोण? तोके० पुढवी के० पृथ्वी कविरूप बे, धानके० छप्प ते इव्य लक्षणबे, तेकके तेज उमरूप, वाचके ० ० वायु चलन लक्षण खने पंचमाके० पांचमुं यागासके० खाकाश अवकाश लक्षण बे, ॥७॥ हवे एनुंज विशेष कहेले. एएपंचमहसूया के० ए पूर्वे कह्याते जे पंचमदा नूत तेजो के ते थकीज एगोत्ति के० कोई एक चिडूप ते नूत थकी अव्यतिरिक्त एवो याहिया के श्रात्मा होय बे; परंतु जेम ए पांच नूत थकी पृथक् नूत एवो धन्य कोइ बीज खात्मा, एवी रीते जे बीजा दर्शनी कल्पना करे तेम नथी. केमके ए परलो कनो जनार, सुखः खनो जोगवनार जीव एवो पदार्थ कोई बीजो नथी, एम ते चार्वाक कहे तेमने कोई परवादी एम पूढे के, श्रदो चार्वाको जो! तमारे मते पंचम दात की अन्य कोई आत्मा एवो पदार्थ नभी, तो मरण पाम्यो एम कोण कहवाय? ० For Private Personal Use Only Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २० द्वितीयेसूत्रकृतांगेप्रथम श्रुतस्कंधे प्रथमाध्ययनं. ca eat उत्तर चार्वाक दर्शनीयो कहेले. यहए सिंके० अथ एटले हवे एसिं एटले ए पंच महानूत जे बे तेना विषासेां के० विनाश थकी, देहिणो के० जीवनो पण विलासो होइ के० विनाश होय. परंतु जे एवं कहेबे के खात्मा चवीने अन्यत्र स्थाने नायडे. कर्मना वशथकी सुखी दुःखी थायडे, ते सर्व मुग्धरंजन जाणवुं ॥ ८ ॥ ॥ दीपिका- सांप्रतं नास्तिक मतमाश्रित्याह । ( संतीति ) संति पंचमहाभूतानि इह यस्मिन् लोके एकेषां नूतवादिनामाख्यातानि तत्वार्थकृतानि । तैर्वा नूतवादिनिर्नास्ति कैराख्यातानि स्वयमंगीकृतानि । परेषां च प्रतिपादितानि तानि चामूनि । ( पुढवीत्या दि) । पृथ्वी १ छापो जलं १ तेजो वन्हिः ३ वायुः ४ प्राकाशं पंचमं येषां तानि । ननु सांख्यादिनिरपि नूतानि मन्यतएव । तत्कथं चार्वाकमतापेक्षयैव नूतोपन्यास 5 ति चेडुच्यते । सांख्यादिनिर्हि प्रधानाहंकारादिकं तथा कालदिगात्मादिकं चान्यदपि वस्तुजातमंगीक्रियते । चार्वाकैस्तु नूतव्यतिरिक्तं नात्मादि किंचिन्मन्यतइति तन्मताश्र येणैवार्य सूत्रोपन्यास इति ॥ ७ ॥ चार्वाक मतांगीकारमेवाह । ( एतइति ) । एतानि पंचम हानूतानि तेन्यो नूतेभ्यः कायाकारपरिणतेन्य एकः कश्चिच्चिद्रूपो नूताव्यतिरिक्त श्रात्मा नवति नतु कश्चिदपरः परलोकयायी जीवाख्यः पदार्थोस्तीत्येवमाख्यातवंतस्ते । ननु यदि जूते ज्योन्यः कश्चिदात्मा नास्ति कथं तर्हि मृतइति व्यपदेशइत्याशंकायामाह । (अ हते सिंति ) । अथ तेषां भूतानां विनाशेऽनपगमे देहिनो देवदत्तादेर्विनाशो नवति ततश्व मृतइत्युच्यते न पुनर्जीवापगमइति । यत्रैतन्मत निर्दोग्नयुक्तयो वृत्तितोऽवसेयाः ॥ ८॥ I ॥ टीका- सांप्रतं विशेषेण सूत्रकार एव चार्वाकमतमाश्रित्याऽह । ( संतिपंचमह याइत्यादि) । संति विद्यते महांति च तानि भूतानि च महाभूतानि । सर्वलोकव्यापि त्वान्महत्व विशेषणं । श्रनेन च नूतानाववादिनिराकरणं इष्टव्यं । इहास्मिन् लोके एके षां नूतवादिनामाख्यातानि प्रतिपादितानि तत्तीर्थकता तैर्वा नूतवादिनिबर्हस्पत्यम तानुसारि निराख्यातानि स्वयमंगीकृतान्यन्येषां च प्रतिपादितानि । तानि चामूनि । तद्य था । पृथिवी कठिनरूपा । छापो इवलक्षणाः । तेज नम्मरूपं । वायुश्चल नलक्षणः । प्राकाशं सुषिरलक्षणमिति तच्च पंचमं येषां तानि । तथा । एतानि सांगोपांगानि प्रसि इत्वात् प्रत्यक्षप्रमाणावसेयत्वाच्च न कैश्चिदपह्नोतुं शक्यानि । ननु च सांख्यादि निरपि नूतान्यन्युपगतान्येव । तथाहि । सांख्यास्तावदेवमूचुः । तद्यथा । सत्वरजस्तमोरूपात्प्र धानान्महान् बुद्धिरित्यर्थः । महतोऽहंकारोऽहमितिप्रत्ययस्तस्मादप्यहंकारात्षोडशकोग उत्पद्यते । सचार्य | पंच स्पर्शादीनि बुद्धींडिया वाक्पाणिपादपायूपस्थरूपाणि पंच कर्मे प्रियाणि । एकादशं मनः । पंचतन्मात्राणि । तद्यथा । गंधरसरूपस्पर्शशब्दत For Private Personal Use Only Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राय धनपतसिंघ बाहाउरका जैनागम संग्रह नाग उसरा. १ न्मात्राख्यानि । तत्र गंधतन्मात्रात्ष्टथिवी गंधरसरूपस्पर्शवती । रसतन्मात्रादापो रस रूपस्पर्शवत्यः । रूपतन्मात्रात्तेजो रूपस्पर्शवत् । स्पर्शतन्मात्रा वायुः स्पर्शवान । शब्द तन्मात्रादाकाशं गंधरसरूपस्पर्शवर्जितमुत्पद्यतइति । तथा वैशेषिका अपि नूतान्यनि हितवंतः। तद्यथा । पृथिवीत्वयोगात्रायिवी । साच परमाणुलक्षणा नित्या । क्ष्यणुकादि प्रक्रमनिष्पन्नकार्यरूपतया त्वनित्या । चतुर्दशनिर्गुणैरूप, रस, गंध, स्पर्श, संख्या, परि माण, पृथक्त्व, संयोग, विनाग, परत्वा,परत्व, गुरुत्व, इवत्व, वेगारख्यैरुपेता । तथा प्वयोगादापस्ताश्च रूपरसस्पर्शसंख्यापरिमाणष्टयक्त्वसंयोगविनागपरत्वापरत्वगुरुत्व स्वानाविकश्वत्वस्नेहवेगवत्यस्तासु च रूपं शुक्कमेव रसो मधुरएव स्पर्शः शीतएवेति । तेजस्त्वानिसंबंधात्तेजः । तच्च रूपस्पर्शसंख्यापरिमाणपथक्कसंयोगविनागपरत्वापरत्वनै मित्तिकस्वत्ववेगारख्यैरेकादश निर्गुणैर्गुणवत् । तत्र रूपं शुक्लं नास्वरं च । स्पर्शनमएवेति । वायुत्वयोगादायुः । सचानुमशीतस्पर्शसंख्यापरिमाणप्टथक्त्व संयोगविनागपरत्वापरत्व वेगारव्यैर्नवनिगुणैर्गुणवान् । हृत्कंपशब्दानुभशीतस्पर्शलिंगं । श्राकाशमिति परिजाषिकी संज्ञा एकत्वात्तस्य । तच्च संख्यापरिमाणपृथक्त्वसंयोगविनागशब्दारख्यैः षड् निर्गणैर्गुण वत । शब्दलिंगंचेत्येवमन्यैरपि वादिनितसनावाश्रयणे किमिति लोकायतिकमतापेक्ष या नूतपंचकोपन्यासश्त्युच्यते । सांरव्यादिनिहि प्रधानात्साहंकारिक तथा कालदिगात्मा दिकं चान्यदपि वस्तुजातमन्युपेयते । लोकायतिकैस्तु नूतपंचकव्यतिरिक्तं नात्मादिकं किं चिदन्युपगम्यते इत्यतस्तन्मताश्रयणेनैव सूत्रार्थो व्याख्यायतइति ॥ ७ ॥ यथा चैतत्त था दर्शयितुमाह । (एएपंचमहप्रयाइत्यादि)। एतान्यनंतरोक्तानि पृथिव्यादीनि पंच महा नूतानि यानि तेन्यः कायाकारपरिणतेन्य एकः कश्चिच्चिपो नूताव्यतिरिक्त आत्मा नवति न नूतेन्यो व्यतिरिक्तोऽपरः कश्चित्परः परिकल्पितः परलोकानुयायी सुखःखनो क्ता जीवाख्यः पदार्थोस्तीत्येवमाख्यातवंतस्ते । तथाहि । एवं प्रमाणयंति। न एथिव्यादि व्यतिरिक्त यात्माऽस्ति तग्राहकप्रमाणानावात्॥प्रमाणं चात्र प्रत्यक्मेव नानुमानादिकं । तत्रेश्येिण साझादर्थस्य संबंधानावाक्ष्यनिचारसंनवः। सति च व्यनिचारसंनवे सदृशे च बाधासंनवे तन्नदणमेव दूषितं स्यादिति सर्वत्रानाश्वासः। तथाचोक्तं । हस्तस्पादि वांधेन, विषमे पथि धावता ॥ अनुमानप्रधानेन, विनिपातो न उतनः ॥ १॥ अनुमानं चात्रोपलदणमागमादीनामपि । सादादर्थसंबंधानावा इस्तस्पर्शनेनैव प्रवृत्तिरिति । तस्मात्प्रत्यमेवैकं प्रमाणं । तेन च नूतव्यतिरिक्तस्यात्मनो न ग्रहणं । यत्तु चैतन्यं ते धूपलन्यते तद्भूतेष्वेव कायाकारपरिणतेष्वनिव्यज्यते मद्यांगेषु समुदितेषु मदशक्तिवदि ति । तथा न नूतव्यतिरिक्तं चैतन्यं तत्कार्यत्वाद्धटादिवदिति । तदेवं नूतव्यतिरिक्तस्या त्मनोऽनावानूतानामेव चैतन्यानिव्यक्तिर्जलस्य बुद्बुदा दिव्यक्तिवदिति । केषांचिनोकाय Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीये सूत्रकृतांगेप्रथम श्रुतस्कंधेप्रथमाध्ययनं. तिकानामाकाशस्यापि तत्वेनान्युपगमाद्भूतपंच कोपन्यासो न दोषायेति । ननुच यदि नूतव्यतिरिक्तोऽपरः कश्विदात्माख्यः पदार्थो न विद्यते कथं तर्हि मृतइति व्यपदेश इत्याशं क्याह । षां कायाकारपरिणतौ चैतन्यानिव्यक्तौ सत्यां तदूर्ध्वतेषामन्यतमस्य विनाशे sure वायोस्तेजसश्वो नयोर्वा देहिनो देवदत्ताख्यस्य विनाशोऽपगमो नवति ततश्च मृ तइति व्यपदेशः प्रवर्तते न पुनर्जीवापगमइति नूताव्यतिरिक्तचैतन्य वा दिपूर्वपचति । यत्र प्रतिसमाधानार्थ निर्युक्तिरुदाह । “पंच राहं संजोए, सगुणालंच चेयलाइगुणो । पंचिंदि यता, मुयिं मुइ मो ॥३२॥ (पंच एहं संजोए इत्यादि) । पंचानां ष्टथिव्यादीनां नूतानां संयोगे कायाकारपरिणामे चैतन्यादिकः । व्यादिशब्दात् नाषाचंक्रमणादिकश्च गुणो नवतीति प्रतिज्ञा | न्यादयस्त्वत्र हेतुत्वेनोपात्ताः । दृष्टांतस्त्वच्यूह्यः । सुजनत्वात्तस्यनो पादानं । तत्रेदं चार्वाकः प्रष्टव्यः । यदेतद्भूतानां संयोगे चैतन्यमनिव्यज्यते तत्किं तेषां संयो पि स्वातंत्र्यवाऽहोस्वित्परस्परापेक्षया पारतंत्र्ये इति । किंचाऽतः ॥ न तावत्स्वातंत्र्ये यत श्राह । (यमगुणारांचेति) चैतन्यादन्ये गुणा येषां तान्यन्यगुणानि । तथा ह्याधारकाठिन्य गुथिवी इव्यगुणा खापः पतगुणं तेजः । चलनगुणो वायुः प्रवगाहदानगुणमा काशमिति । यदि वा प्रागनिहिता गंधादयः पृथिव्यादीनामेकैकपरिहान्याऽन्ये गुणाश्चैत न्यादिति । तदेवं ष्टथिव्यादीन्यन्यगुणानि । च शब्दो द्वितीय विकल्प वक्तव्यतासूचनार्थः । चैतन्यगुणे साध्ये ष्टथिव्यादीनामन्यगुणानां सतां चैतन्यगुणस्य ष्टथिव्यादीनामेकैकस्या प्यनावान्न तत्समुदायाचैतन्याख्यो गुणः सिदयतीति । प्रयोगस्तत्र नूतसमुदायः स्वातंत्र्ये सति धर्मित्वेनोपादीयते न तस्य चैतन्याख्यो गुणोस्तीति । साध्यो धर्मः पृथिव्यादीनामन्यगुणत्वात् । योयोन्यगुणानांसमुदायस्तत्रतत्राऽपूर्वगुणोत्पत्तिर्न नवती ति । यथा सिकतासमुदाये स्निग्धगुणस्य तैलस्य नोत्पत्तिरिति घटपटसमुदाये वा न स्तनाद्याविवइति । दृश्यते च कार्ये चैतन्यं तदात्मगुणो भविष्यतीति न नूताना मिति । श्रस्मिन्नेव साध्ये हेत्वंतरमाह । ( पंचिंदियठाणाांति ) । पंच च तानि स्पर्शनर सनप्राणचकुः श्रोत्राख्यानींदियाणि तेषां स्थानान्यवकाशास्तेषां चैतन्यगुणानावान्न नूतसमुदाये चैतन्यं । इदमत्र हृदयं । लोकायतिकानां हि परस्य इटुरनन्युपगमा दिदियास्येव इष्ट्रणि । एतेषां च यानि स्थानान्युपादानकारणानि तेषामचिद्रूपत्वान्न नूत समुदाये चैतन्यमिति । इंड्रियाणां चामूनि स्थानानि । तद्यथा । श्रोत्रेयिस्याकाशं सुषिरात्म कत्वात् । घ्राणेंयिस्य पृथिवी तदात्मकत्वात् । चरिंडियस्य तेजस्तद्रूपत्वात् । एवं र सनेंशियस्यापः । स्पर्शनेंशियस्य वायुरिति । प्रयोगश्चात्र ने दिया ल्युपलब्धिमंति तेषामचे तनगुणारब्धत्वात् । यद्यदचेतनगुणारब्धं तत्तदचेतनं । यथा घटपटादीनि । एवमपिच नू तसमुदाये चैतन्याभावएव साधितो भवति । पुनर्हेत्वंतरमाह । ( ए असमुखियंमुल २२ For Private Personal Use Only Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राय धनपतसिंघ बादाउरका जैनागम संग्रह नाग उसरा. १३ इअमोत्ति )। इहेंझ्यिाणि प्रत्येकं जूतात्मकानि तान्येवापरस्य इष्टुरनावाद्रष्टुणि तेषां च प्रत्येकं स्वविषयग्रहणादन्यविषये चाप्रऽवृत्तेर्नान्यदिंडियज्ञातमन्यदिंडियं जानातीत्यतो मया पंचापि विषया ज्ञाता इत्येवमात्मकः संकलनाप्रत्ययो न प्राप्नोत्यनुनूयते चार्य तस्मादेकेनैव इष्टा नव तिव्यम् । तस्यैव च चैतन्यं न नूतसमुदायस्येति । प्रयोगः पुनरे वं नूतसमुदाये चैतन्यं तदारब्धेझ्यिाणां प्रत्येकविषयग्रादित्वे सति संकलनाप्रत्यया नावात् । यदि पुनरन्यगृहीतमप्यन्यो गृण्हीयादेवदत्तग्रहीतं यज्ञदत्तेनापि गृह्येत न चैत द् दृष्टमिष्टं चेति । ननुच स्वातंत्र्यपदेऽयं दोषः। यदा पुनः परस्परसापेक्षाणां संयोगपारतं ध्यान्युपगमेन नूतानामेव समुदितानां चैतन्याख्यो धर्मः संयोगवशादाविर्नवति । यथा किएवोदकादिषु मद्यांगेषु सुमुदितेषु प्रत्येकमविद्यमानापि मदशक्तिरिति तदा कुतो ऽस्य दोषस्यावकाशइति । यत्रोत्तरं । गाथायां चशब्दाक्षिप्तमनिधीयते । यत्तावउक्तं । य था नतेच्यः परस्परसव्यपेक्संयोगनाग्यश्चैतन्यमुत्पद्यते । तत्र विकल्पयामः । किमसौ संयोगः संयोगियो निन्नोऽनिन्नो वा । निन्नश्चेत्षष्ठन्तप्रसंगो न चान्यत्पंचनतव्यतिरिक्तसं योगारव्यनूतग्राहकं नवतां प्रमाणमस्ति । प्रत्यक्षस्येवैकस्यान्युपगमात्तेन च तस्याग्रहणात् प्रमाणांतरान्युपगमे च तेनैव जीवस्यापि ग्रहणमस्तु । तथा ऽनिन्नो जूतेन्यो नूतानामेव संयोगस्तत्राप्येतचिंतनीयं किनूतानि प्रत्येकं चेतनावंत्यचेतनावंति वा । यदि चेत नावंति तदा एकेंख्यिसिदिस्तदा समुदायस्य पंचप्रकारचैतन्यापत्तिः । थथाचेतनानि त त्रोक्तो दोषो नहि। यद्यत्र प्रत्येकमविद्यमानं तत्समुदाये नवपलन्यते सिकतासु तैलवदि त्यादिना । यदप्यत्र पूर्वोक्तं तथा मद्यांगेष्व विद्यमानाऽपि प्रत्येकं मदशक्तिः समुदाये प्राउनवतीति । तदप्ययुक्तं । यतस्तत्र किएवादिषु याच यावती शक्तिरुपलभ्यते । तथा हि ॥ किएवे बुनुवापनयनसामर्थ्य चमिजननसामर्थ्य चोदकस्य तृडपनयनसामर्थ्य मित्या दिनेति नूतानां प्रत्येकं चैतन्याऽनन्युपगमे दृष्टांतदाष्र्टीतिकयोरसाम्यं । किंच नूते चैत न्यान्युपगमे मरणानावो मृतकायेपि पृथ्व्यादीनां नूतानां सनावात् । नैतदस्ति । तत्र मृतका ये वायोस्तजसो वाऽजावान्मरणसनाव इत्यशिक्षितस्योनापः । तथाहि । मृतकाये शो फोपलव्धेर्न वायोरनावः कायस्य च पक्तिस्वनावस्य दर्शनान्नानेरिति । अथसूझमःकश्चि वायुविशेषोनिर्वा ततोपगतइति मतिरित्येवं च जीव एव नामांतरेणान्युपगतो नवति । यत्किंचिदेतत् । तथा न नूतसमुदायमात्रेण चैतन्याविर्नावः । एथिव्यादिष्वेकत्र व्यव स्थापिते चैतन्यानुपलब्धेः। श्रथकायाकारपरिणतौ सत्यां तदानिव्यक्तिरिष्यते।तदपि न । यतो लेप्यमयप्रतिमायां समस्तनूतसनावेऽपि जडत्वमेवोपलन्यते । तदेवमन्वयव्यतिरेका न्यामालोच्यमानो नार्यचैतन्याख्यो गुणो नूतानां नवितुमर्हति । समुपलभ्यते चायं श रीरेषु। तस्मात् पारिशेषात् जीवस्यैवायमिति स्वदर्शनपदपातं विहायांगीक्रियतामिति । Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वितीयसूत्रकृतांगेप्रथमश्रुतस्कंधेप्रथमाध्ययनं. यञ्चोक्तं प्राक् न पृथिव्यादिव्यतिरिक्त आत्माऽस्ति तग्राहकप्रमाणानावात् । प्रमाणं चा त्र प्रत्यमेवैकमित्यादि तत्र प्रतिविधीयते । यत्तावउक्तं प्रत्यमेवैकं प्रमाणं नानुमानादि कमित्येतदनुपासितगुरोर्वचः । तथाहि । अर्था विसंवादकं प्रमाणमित्युच्युते प्रत्यदस्य च प्रामाण्यमेव व्यवस्थाप्यते । कश्चित्प्रत्यदव्यक्तीर्धर्मित्वेनोपादाय प्रमाणयति । प्रमाण मेता अर्थाऽविसंवादकत्वादनुनतप्रत्यव्यक्तिवत् । नच तानिरेव प्रत्यक्षव्यक्तिनिः स्वसं विदितानिः परंव्यवहारयितुमयमीशस्तासां स्वसन्निविष्टत्वान्मूकत्वाच्च । प्रत्यद स्य नानुमानं प्रमाणमित्यनुमानेनैवानुमान निरासं कुर्वश्चार्वाकः कथं नोन्मत्तः स्या देवं ह्यसौ तदप्रामाण्यं प्रतिपादयेत् । यथा नानुमानं प्रमाणं विसंवादकत्वादनुनूतानु मानव्यक्तिव दित्येतच्चानुमानमथपरप्रसिध्यैतडुच्यते । तदप्ययुक्तं । यतस्तत्परप्रसिक्षम नुमानं नवतःप्रमाणमप्रमाणं वा।प्रमाणं चेत्कथमनुमानमप्रमाणमित्युच्यते । अथाप्र माणं कथमप्रमाणेन सता तेन परःप्रत्याज्यते । परेण तस्य प्रामाण्येनान्यपगतत्वादिति चेत्तदप्यसांप्रतं । यदिनाम परो मौढ्यादप्रमाणमेव प्रमाणमित्यवध्यस्यति । किं नवताs तिनिपुणेनापि तेनैवाऽसौ प्रतिपाद्यते । यो ह्यन्यो गुडमेव विषमपि मन्यते किं तस्य मा रयितुकामेनापि बुद्धिमता गुडएव दीयते । तदेवं प्रत्यवानुमानयोः प्रामाण्याप्रामा एये व्यवस्थापयतो नवतोऽनिबतोपि बलादायातमनुमानस्य प्रामाण्यं । तथा स्वर्गापवर्गदे वतादेःप्रतिषेधं कुर्वन नवान् केन प्रमाणेन करोति न तावत्प्रत्यदेण प्रतिषेधं कर्तुं पार्यते। यतस्तत्प्रत्यहं प्रवर्तमानं वा तनिषेधं विदध्यान्निवर्तमानं वा । न तावत्प्रवर्तमानं तस्या ऽनावविषयत्वविरोधात् । नापि निवर्तमानं । यतस्तच नास्ति तेन च प्रतिपत्तिरित्यसं गतं । तथाहि । व्यापकविनिवृत्ती व्याप्यस्यापि निवृत्तिरिष्यते ॥ न चार्वाकदर्शितप्रत्यदे ए समस्तवस्तुव्याप्तिः संनाव्यते। तत्कथं प्रत्यदविनिवृत्तौ पदार्थव्यावृत्तिरिति । तदेवं स्व र्गादेः प्रतिषेधं कुर्वता चार्वाकेणाऽवश्यं प्रमाणांतरमन्युपगतं । तथाऽन्यानिप्रायवि झानान्युपगमादत्र स्पष्टमेव प्रमाणांतरमन्युपगतं । अन्यथा कथं परावबोधाय शा स्त्रप्रणयनमकारि चार्वाकेणेत्यलमतिप्रसंगेन । तदेवं प्रत्यदादन्यमपि प्रमाणमस्ति तेनात्मा सेत्स्यति नस्तदिति चेउच्यते । अस्त्यात्मा । असाधारणतगणोपल ब्धेश्चकुरिंडियवत् यिं हि न साक्षाउपलन्यते । स्पर्शनादीडियाऽसाधारणरूप विज्ञानोत्पादनशक्त मीयते । तथात्मापि दृथिव्याद्यसाधारणगुणोपलब्धेरस्तीत्य नुमीयते । चैतन्यं स्यासाधारणगुणश्त्येतत्टथिव्यादिजूतसमुदाये चैतन्यस्य निराक तत्वादवसेयं । तथास्त्यात्मा समस्डियोपलब्धार्थसंकलनाप्रत्ययसनावात् । पंचगवाक्षा न्यनन्योपलब्धार्थसंकलना विधाय्येकदेवदत्तवत् । तथाऽत्माऽर्थइष्टा नेडियाणि । तहिंग मे हि तउपलब्धार्थस्मरणात् । गवाहोपरमेऽपि तद्वारोपलब्धार्थस्मर्तृदेवदत्तवत्। तथार्था Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राय धनपतसिंघ बादाउरका जैनागमसंग्रह नाग उसरा. श्य पत्त्याप्यात्मास्तीत्यवसीयते । तथापि सत्यपि प्रथिव्यादिनूतसमुदाये लेप्यकर्मादौ न सु खःखेबारेषप्रयत्नादि क्रियाणां सनाव इत्यतः सामर्थ्यादवसीयते। अस्ति जूतातिरिक्तः कश्चित्सुखःखेबादीनां क्रियाणां समवायिकारणं पदार्थः सचात्मेति । तदेवं प्रत्यदानुमा नादिपूर्विकाऽन्याप्यर्थापत्तिरन्यूह्या । तस्यास्त्विदं लक्षणं । प्रमाणषटूविज्ञातो, यत्रार्थो नान्यथा नवेत्॥अदृष्टं कल्पयेदन्यं, सार्थापत्तिरुदाहृता ॥१॥ तथाऽगमादप्यस्तित्वमवसे यं । सचायमागमः । अनिमेयायानववाइएइत्यादि । यदि वा किमत्राऽपरप्रमाणचिंतया सकलप्रमाणज्येष्ठेन प्रत्यक्षेणैवात्मास्तीत्यवसीयते। तशुणस्य ज्ञानस्य प्रत्यक्त्वात् । ज्ञान गुणस्य च गुणिनोऽनन्यत्वात् । प्रत्यदएवात्मा रूपादिगुणाप्रत्यदत्वेन पटादिप्रत्यक्वत् । तथा ह्यहं सुख्यहंदुःख्येवमाद्यहंप्रत्ययग्राह्यऽस्त्यात्माप्रत्यदःयहंप्रत्ययस्य स्वसं विद्रूपत्वा दिति । ममेदं शरीरं पुराणं कर्मेति च शरीरान्नेदेन निर्दिश्यमानत्वादित्यादीन्यन्यान्यपि प्रमाणानि जीवसिमावन्यूह्यानीति ॥ तथा यउक्तं । न नूतव्यतिरिक्तं चैतन्यं तत्कार्यत्वा त् घटादिवदित्येतदप्यसमीचीनं । हेतोरसिदत्वात् । तथाहि । न नूतानां कार्य चैतन्यं तेषामतYणत्वात् नूतकार्यचैतन्ये संकलनाप्रत्ययासंनवाञ्चेत्यादिनोक्तप्रायमतोस्त्यात्मा नूतव्यतिरिक्तो ज्ञानाधारश्त्युक्तं । ननुच किं ज्ञानाधारजूतेनात्मना ज्ञानानिन्नेनाश्रितेन यावता झानादेव सर्वसंकलनाप्रत्ययादिकं सेत्स्यति किमात्मनांतर्गडुकल्पेनेति । तथाहि । ज्ञानस्यैव चियूपत्वातैरचेतनैः कायाकारपरिणतैः सह संबंधे सति सुखःखेबाषप्रय त्नक्रियाःप्रामुष्षति तथा संकलनाप्रत्ययो जवान्तरगमनंचेति । तदेवं व्यवस्थिते किमात्मना कल्पितेनेत्यत्रोच्यते । नत्यात्मानमेकमाधारजूतमंतरेण संकलनात्र न्याय्या घटते । तथा हि । प्रत्येकमिडियैः स्व विषयग्रहणे सति परविषये चाप्रवृत्तेरेकस्य च परित्तुरनावात् । मया पंचापि विषयाः परिजिन्ना इत्यात्मकस्य संकलनाप्रत्ययस्यानावादिति । श्रालय विज्ञानमेकमस्तीति चेदेवं सत्यात्मनएव नामांतरं नवता कृतं स्यात् । नच ज्ञानाख्यो गुणणे गुणिनमंतरेण नवतीत्यवश्यमात्मना गुणिना नाव्यमिति । सच न सर्वव्यापी तशुणस्य सर्वत्रानुपजन्यमानत्वात् घटवत् । नापि श्यामाकतंउलमात्रोंगुष्ठपर्वमात्रो वा । तावन्मात्रस्योपात्तशरीराव्यापित्वात् त्वक्पर्यंतशरीरव्यापित्वात् त्वचोपजन्यमानगुणत्वा त्। तस्मास्थितमिदमुपात्तशरीरत्वक्पयतव्याप्यात्मेति । तस्य चानादिकर्मसंबदस्य क दाचिदपि सांसारिकस्यात्मनः स्वरूपेऽनवस्थानात् सत्यप्यमूर्तत्वे मूर्तेन कर्मणा संबंधो न विरुध्यते । कर्मसंबंधाच्च सूक्ष्मबाद रैकेश्यिदित्रिचतुःपंचेंशियपर्याप्तापर्याप्तसाद्यवस्था बदु विधाः प्राऊनवंति । तस्य चैकांतेन दणिकत्वे ध्यानाध्ययनश्रमप्रत्यनिझानाद्यनावः । ए कांतनित्यत्वे च नारकतिर्यङ्मनुष्यामरगतिपरिणामानावः स्यात्तस्मात्स्यादनित्यः स्या नित्यात्मेत्यलमतिप्रसंगेन ॥ ७ ॥ Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीये सूत्रकृतांगे प्रथम श्रुतस्कंधे प्रथमाध्ययनं. ० जहा य पुढवी, एगे नापादि दीसइ ॥ एवं जो कसिणे लोए विन्न नापादि दीसइ ॥ ए॥ एवमेगेत्ति जप्यंति, मंदा प्रारंभणि स्सिया || एंगे किच्चा सयं पावं, तिवं डुकं नियच ॥ १० ॥ अर्थ - एम पंचभूतियागता एटले पंच भूतिक वादिनो मत कयुं. हवे यात्माद्वैत वादिनो मत दृष्टांतेक कहिये जैयें. जहाय के० जेम पुढवीयूएगे के० पृथ्वीरूप यून एक तां नाहिदीसइ के नदी, समुड्, पर्वत, नगर ने ग्राम इत्यादि रूप नाना प्रका रे देखा. परंतु विचाजे पृथ्वीनं अंतर कांइ देखातुं नथी एटजे पृथ्वी एकज बे. एवंके! ए उक्त न्याये, जो ए वचन परने बोलाववाने अर्थेले. एटले यहो ? दर्शनी तेम क सि लोएके ० ० ए समस्त लोक चराचर स्वरूप एकज ने एटले यात्मारूप बे, परंतु विन्नू के विद्वान् ते चराचररूप श्रात्मा. नाणाई दीस के० नानाप्रकारे द्विपद चतुष्पद बहुप दादिरूप देखाय बे. परंतु जे एम कहे के, शरीर शरीरने विषे खात्मा जुदो जुदो बे ते मि | एकएव हि नूतात्मा, जूते जूते व्यवस्थितः ॥ एकधा बहुधा चैव दृश्यते ज नवत् ॥ १ ॥ इत्यादि ॥ ए ॥ हवे जैन एने उत्तर छापेढे. एवं के० ए पूर्वोक्त न्याये एगेत्ति के० एक एटले कोइ एक परवादी, पोताना बंदने बलात्कारे एम जयंति hoबोजे बे. ते केवाले, तोके मंदा के० मंद बे. एटले सम्यक् ज्ञान विकल बे; केमके, जो सर्वत्र आत्मा एकज बे, बीजो नथी तो जगत्मांहे एगेके० एकेक जीव करसणी प्रमुख धारं पिस्सिया के० जीव हिंसात्मक प्रारंभने विषे निस्सिया एटले यासक्त थका सयंके० पोते पाव के० पापने किच्चा के० करीने तिबंडुरकं के० तीव्र दुःखने नियत के० पामे. पण अनेरा नथी पामता, तथा जे जीव जगत्मां कांइ समंजस चौरादिक कर्म करे बे, ते वेदननेदनादिक अनेक विटंबना पाबे घने जे नलो समाचरेवे ते साता पामेढें: माटे जो सर्वजीवन श्रात्मा एकज होय तो सर्व जीवने विटंबना अथवा साता केम न ral जोइये ? माटे ए तमारुं वचन मिथ्या बे: केमके सर्व जीव पोतपोतानी करणीए सु ख दुःखने पामे ॥ १० ॥ ए सबगतवादिगता एटले सर्वगत वादीनुं मत कयुं. d. २६ ॥ दीपिका - थ एकात्माऽद्वैतवाद मुद्दिश्याह । ( जधायेति ) यथा च शब्दोऽपिश ब्दार्थे । सच निन्नः । ष्टथिव्याः स्तूपः पृथिव्येव वा स्तूपः पृथिवी संघाताख्योऽवयवी । सच एकोपि यथा नानारूपः सरित्समुपर्वतनगरग्रामाद्याधारतया विचित्रो दृश्यते । निम्नो नतंमृडक विनरक्तपीतादिनेदेन वा दृश्यते । नच तावता ष्टथिवीत्वस्यैकस्य नेदो नवति । एवं जोइति परामंत्रणं । कृत्स्नोपि चेतनाचेतनरूपो लोक एको विद्वानेक एवात्मा विद्वान् ज्ञान पिंडः पृथिव्यादिताकारतया नाना दृश्यते । नच तावता तस्यैकस्यात्मतत्त्वस्य नेदो For Private Personal Use Only Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राय धनपतसिंघ बादाउरका जैनागमसंग्रह नाग उसरा. नवति॥॥ अस्योत्तरमाह । (एवमिति ) एवमात्मावैतवादमाश्रिता एके जल्पंति । मंदा जडाः। मंदत्वं चैतेषां युक्ति विकलजीवाऽदैतपदाश्रयणात् । तथाहि । यद्यकएवात्मा स्या तदा एके कृषीवलादय आरंने जीवहिंसात्मके निःश्रिता बासक्ताः स्वयंपापं कृत्वा तीनं नारकादिःखं (निगवत्ति) आषत्वाबदुवचनार्थ एकवचनं । निश्चयेन गति । तएवारं नसक्तानान्ये इत्येतन्न स्यात्। यद्येक एवात्मा स्यात्तदा एकेनाप्यशुने कर्मणि कते सर्वेषां छः खं स्यान्नचैवं दृश्यते । तस्मादेकएवात्मेति न युक्तं ॥ १०॥ . ॥ टीका ॥ सांप्रतमेकात्माऽवैतवादमुद्देशार्थाधिकारप्रदर्शितं पूर्वपदायितुमाह ।(ज हापुढवीत्यादि) दृष्टांतबलेनैवार्थस्वरूपावगतेः पूर्वदृष्टांतोपन्यासः । यथेत्यपदर्शने । च शब्दोऽपिशब्दार्थे । सचनिन्नक्रमएकेश्त्यस्यानंतरं इष्टव्यः। एथिव्येव स्तूपा पृथिव्या वा स्तूपः पृथिवीसंघातावयवी । सबैकोपि यथा नानारूपः सरित्समुश्पर्वतनगरसन्निवेशा द्याधारतया विचित्रो दृश्यते निम्नोन्नतमृतिनरक्तपीतादिनेदेन वा दृश्यते । नच तस्य पृथिवीतत्त्वस्यैतावतानेदेन नेदो नवत्येवमुक्तरीत्या । नोइत्यादिपरामंत्रणं । क स्नोपि लोकश्चेतनाचेतनरूप एकोविज्ञान वर्तते । इदमत्र हृदयं । एकएव ह्यात्मा वि दान ज्ञानपिंडः टथिव्याद्याकारतया नाना दृश्यते नच तस्यात्मनएतावताऽत्मतत्त्व नेदो नवति । तथा चोक्तं । एकएव हि नूतात्मा, नूते जूते व्यवस्थितः ॥ एकधा बहु धा चैव, दृश्यते जलचंवत् ॥ १ ॥ तथा पुरुषएवेदं सर्वं यनूतं यच्च नव्यं ॥ नतामृतत्व स्येशानो यदन्नेनातिरोहति, यदेजति यन्नेजति यदूरे यदंतरस्य सर्वस्य यत्सर्वस्यास्य बा ह्यत इत्यात्मातवादः॥॥ अस्योत्तरदानायाह। (एवमेगे इत्यादि ) एवमित्यनंतरोक्ता स्मातवादोपदर्शनं । एके केचन पुरुषकारणवादिनो जल्पंति प्रतिपादयंति । किंनतास्ते त्याह । मंदा जडाःसम्यक्परिझानविकलाः॥मंदत्वं चैषां युक्तिविकलात्माऽदेतपदासमाश्रय णात्। तथाहि।यद्येकएवात्मा स्यान्नात्मबहुत्वं ततो ये सत्वाःप्राणिनःकृषीवलादय एके केच नधारने प्राण्यपमर्दकारिणि व्यापारे नि:श्रिताबासक्ताः संबक्षा अध्युपपन्नास्ते च संरंन समारंनैः कृत्वोपादाय स्वयमात्मना पापमशुनप्रतिरूपमसातोदयफलं ती मुःखं तदनुन वस्थानं वा नरकादिकं नियन्तीति । धार्षत्वाबदुवचनार्थ एकवचनमकारि । ततश्चायमों निश्चयेन यचंत्यवश्यतया गचंति प्राप्नुवंति तएवारंनासक्ता नान्यइत्येतन्न स्यादपित्वे केनापि अशुने कर्मणि कते सर्वेषां गुनानुष्टायिनामपि तीव्रःखानिसंबंधः स्यादेकत्वा दात्मनइति । नचैतदेवं दृश्यते । तथाहि ।यएव कश्चिदसमंजसकारी सएव लोके तदनुरू पाविडंबनाः समनुनवन्नुपलन्यते नान्यति । तथा सर्वगतत्वे यात्मनो बंधमोदाद्यनाव स्तथा प्रतिपाद्यप्रतिपादकविवेकानावाबास्त्रप्रणयनानावश्च स्यादिति । एतदर्थसंवादित्वा प्राक्तन्येव नियुक्तिकजायात्र व्याख्यायते । तद्यथा । पंचानां प्रथिव्यादीनां नूतानामेकत्र Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीये सूत्रकृतांगे प्रथमश्रुतस्कंधे प्रथमाध्ययनं. कायाकारपरिणतानां चैतन्यमुपलच्यते । यदि पुनरेकएवात्मा व्यापी स्यात्तदा घटादिष्वेव चैतन्योपलब्धिः स्यान्नचैवं । तस्मान्नैकप्रात्मा नूतानां चान्योन्यगुणत्वं न स्यादेकस्मा दात्मनो निन्नत्वात् । तथा पंचेंड्रियस्थानानां पंचेंड्रियाश्रितानां ज्ञानानां प्रवृत्तौ सत्याम न्येन ज्ञात्वा विदितमन्यो न जानातीत्येतदपि न स्याद्यद्येकएवात्मा स्यादिति ॥ १० ॥ पत्ते कसिया, जे बाला जे प्र पंमिया ॥ संति पिच्चा श् संति, सत्तोववाइया ॥ ११ ॥ नविसेच पावेवा, ० 0 नचि लोए इतो परे ॥ सरीरस्स विषासेणं, विणासो दोइ देहिणो ॥ १२ अर्थ- हवे तीवतवरीरवादिनो मत कहेबे - ते तीवतहरीरवादी एम कहे के, जेम पंचनूत मली कायाने श्राकारे परिणामी चेतना उपजावे. तो ते कारणे प तेयंक सिखाया के शरीर शरीर प्रत्ये खात्मा जुदो जुदो बे. जगत्‌मां जे बाला के ० बाल ज्ञानी तथा जेापंमियाके० जे पंमित एटले विवेकी बें, ते सर्व जुदा जुदा बे. परंतु एक यात्मा सर्वव्यापी न जाणवो. एटले जैनमत ने तेमनो मत एक थयो . हवे गाथानां उत्तरार्द्धवडे तेमनो नेद देखाडेले. ते परवादी एम क के, आत्मा घाबे, परंतु ज्यांसुधी शरीर ने त्यांसुधी संति के बे. पण जेवारे शरीर नहीं, तेवारे श्रात्मापण नहीं. एटले गत्यंतर गामी यात्मा नथी. ए प्रकारे करी नेद देखायो. वली तेहिज कहे. पिच्चानते संतिके ते श्रात्मा परलोकने विषे न जाय. एतावता शरीरथकी निन्न प्रापणां कर्मनो जोगवनार एवो धात्मा नथी. तथापि न बिसतोववाइयाके० सत्व जे प्राणी ते उपपातिक नथी. एटले नवांतरमां जई उपजे नहीं अर्थात् गतागत पण नथी. यहीं शिष्य पूबेबे के पूर्वे जे नूतवादि का ख एतीव तरीरवादी ए बेहुने मांहोमांहे गुं विशेषले ? तेवारे गुरु कहेबे के, नूतवा दीने मतें जे पंचमहाभूत तेहिज कायाने श्राकारे परिणमीने धावनवलनादिक क्रिया करे. ने एमने मतें पंचनूत कायाने याकारे परिणमी चैतन्य स्वरूप प्रात्मा उप जावे. परंतु नूतयकी प्रात्मा जुदो नयी. एटलुं विशेष बे ॥ ११ ॥ हवे तेनी वक्त व्यता कहे, नवपुचपावेवा के० तीवतवरीरवादी एम कहेबे के, पुष्य नथी, पाप पण नथी, घने नबिलो इतोपरे के० यतः उपरांत लोक पण नथी. जेटलुं दृष्टि गोचर यावेळे तेटलोज लोक बे. वली ग्रंथकार एनुं कारण कहेने के; सरीरस्सविलासे 66 ० शरीरने विनाशेकरी विलासी होइ देहिणो के० खात्मानो पण विनाश थाय. ए कार माटे यात्माने नावे पुण्य पाप तथा लोकनी संभावना क्यां थकी थाय ? ॥१२॥ तवतवरीवादिगता " एटले तीवतहरीरवादिनुं ए प्रमाणे मत कयुं. For Private Personal Use Only Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राय धनपतसिंघ बाहाउरका जैनागमसंग्रह नाग उसरा. ए ॥दीपिका-सांप्रत तजीवतहरीरवादिमतं पूर्वपश्यन्नाह । (पत्तेयमिति)। प्रत्येकं प्रति शरीरमात्मानः कृत्स्नाः सर्वेपि ये बाला अज्ञा ये च पंडितास्ते सर्वेपि प्रथग्व्यवस्थिताः नहि एकएवात्मा सर्वव्यापी स्वीकार्यो बालपंडित विनागानावप्रसंगात् । नन्वेवमात्मब दुत्वं जैनैरपि स्वीक्रियतएव तत्किमिति परमतमाश्रित्य सूत्रमिदमुच्यतइत्याशंकायामा है। (संतित्ति)। संतिविद्यते जीवाः शरीरं यावत् । शरीरानावे तु न संति । एतदे वाह । (पिञ्चानतेसंति) प्रेत्य परलोके ते जीवा न संति । तेषां मते शरीराजिन्नः पर लोकयायी न कश्चिदात्माख्यः पदार्थोस्तीति जैनेन्यो नेदः किमित्येवं ते मन्यंत इत्या ह। (नविसत्तोववाश्या ) उपपातिका नवानवांतरगामिनः सत्त्वाः प्राणिनो नविन संति । ननु नतवादिनोस्य च तळीवतबरीरवादिनः को नेद इत्यत्रोच्यते । नूतवादिनो नूतान्येव कायाकारपरिणतानि धावनवल्गनादिक्रियां कुर्वति । अस्य तु कायाकारपरि णतेन्योनतेन्यश्चैतनाख्य आत्मोपपद्यते थनिव्यज्यते वा तेन्यश्चानिन्न इत्यनयो विशेषः ॥ ११ ॥ तन्मतमेवाह । (नबीति) । नास्ति पुरयं पापं च नास्त्यतोऽस्मा लोकात्परोऽन्यो लोकः परलोको यत्र पुण्यपापानुनवइति । अत्र हेतुमाह । शरीरस्य वि नाशेन देहिनो यात्मनोपि विनाशो ऽनावो नवति । तथाच दर्यते तन्मतलेशः। य था स्वनावादेव जगदैचित्र्यं । यउक्तं । कंटकस्य च तीक्ष्णत्वं, मयूरस्य विचित्रता ॥ वर्णाश्च ताम्रचूडानां, स्वनावेन नवंति हीति ॥ १२ ॥ ॥ टीका-सांप्रतं तळीवतचरीरवादिमतं पूर्वपदयितुमाह । (पत्तेयमित्यादि)। तीव तहरीरवादिनामयमन्युपगमः। यथा पंचन्यो जूतेन्यः कायाकारपरिणतेच्यश्चैतन्यमुत्पद्यते अनिव्यज्यते चैकैकं शरीरंप्रति प्रत्येकमात्मनः कृत्स्नाः सर्वेप्यात्मान एवमवस्थिताः ॥ ये बालाप्रज्ञा ये च पंडिताः सदसदिवेकशास्ते सर्व प्रथग्व्यवस्थिताः । न कएवात्मा सर्वव्यापित्वेनान्युपगंतव्यो बालपंडिताद्यविनागप्रसंगात् । ननु प्रत्येकशरीराश्रयत्वेनात्म बहुत्वमहतानामपीष्टमेवेत्याशंक्याह । संति विद्यते यावरीरं विद्यते तदनावे तु न विद्यते। तथाहि । कायाकारपरिणतेषु नूतेषु चैतन्याविर्नावोनवति नूतसमुदायविघट्टने च चैत न्यापगमो न पुनरन्यत्र गढच्चैतन्यमुपलयते । तदेव दर्शयति । (पिञ्चानते संतीति) प्रे त्य परलोके न ते आत्मानः संति विद्यते । परलोकानुयायी वात्मा शरीराजिनः स्वकर्मफ लनोक्ता न कश्चिदात्माख्यः पदार्थोस्तीति नावः। किमित्येवमतथाह । (नडिसत्तोववाश्या)। अस्तिशब्दस्तिडंतप्रतिरूपको निपातो बदुवचने इष्टव्यस्तदयमर्थः। न संति न विद्यते॥ तद नावेतुन विद्यते सत्वाः प्राणिन उपपातेन निवृत्ता उपपातिका नवानवांतरगामिनो न नवंतीति तात्पर्यार्थः । तथाहि । तदागमाः विज्ञानघनएवैतेन्यो जूतेन्यः समुदाय तान्ये Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३० द्वितीये सूत्रकृतांगे प्रथम श्रुतस्कंधे प्रथमाध्ययनं. वानुविनश्यतीति प्रेत्य संज्ञा अस्तीति । ननु प्रागुपन्यस्तनूतवादिनोऽस्य च तकीवत वरीर वादिनः को विशेष इत्यत्रोच्यते । नूतवादिनो नूतान्येव कायाकारपरिणतानि धावन वल्ग नादिकां क्रियां कुर्वेत्यस्य तु कायाकारपरिणतेच्या नूतेत्यश्चैतन्याख्य यात्मोत्पद्यते ऽनिव्य ज्यते वा तेन्यश्वान्निइत्ययं विशेषः ॥ ११ ॥ एवंच धर्मिणोऽनावाद्धर्मस्याप्यनाव इति दर्शयि तुमाह । ( न पुच पावेवा इत्यादि) । पुण्यमन्युदयप्राप्तिलक्षणं तद्विपरीतं पापमेत नय विद्यते । श्रात्मनो धर्मिणोऽनावात् । तदनावाच्च नास्त्यतोऽस्माल्लोकात्परोऽन्यो लोको यत्र पुण्यपापानुनवइति । यत्रार्थसूत्रकारः कारणमाह । शरीरस्य कायस्य वि नाशेन नूत विघटनेन विनाशेन देहिनयात्मनोप्यनावो नवति यतो न पुनः शरीरे विनष्टे तस्मादात्मा परलोकं गत्वा पुष्यं पापं वाऽनुनवतीत्यतोधर्मियात्मनोनावात्तधर्मयोः पुण्यपापयोरप्यनावइति । यस्मिंश्चार्थे बहवो दृष्टांताः संति । तद्यथा । यथा जलबुहु दो जातिरेकेण नापरः कश्चिद्विद्यते तथा नूतव्यतिरेकेण नापरः कश्चिदात्मेति । तथाच यथा कदली स्तंनस्य बहिस्त्वगपनयने क्रियमाणे त्वङ्मात्रमिव सर्व नांतः कश्चित्सारोस्त्ये वं नूतसमुदाये विघटति सति तावन्मात्रं विहाय नांतःसारनूतः कश्चिदात्माख्यः पदा उपलभ्यते । यथावाऽलातं चान्यमाणमतद्रूपमपि चक्रबुद्धिमुत्पादयत्येवं नूतसमुदायो पि विशिष्ट क्रियोपेतो जीवज्रांतिमुत्पादयतीति । यथा च स्वप्ने बहिर्मुखाकारतया विज्ञा नमनुनयते प्रांतरेणैव बाह्यमर्थमेवमात्मानमंतरेण तद्विज्ञानं नूतसमुदाये प्राइर्भवती ति । तथा । यथाऽदर्श स्वच्छत्वात्प्रतिबिंबितो बहिः स्थितोप्यर्थौतर्गतो लक्ष्यते नचासौ त था । यथाच ग्रीष्मे नौमेनोष्मणा परिस्पंदमाना मरीचयो जलाकारं विज्ञानमुत्पादयंत्ये वमन्येपि गंधर्वनगरादयः स्वस्वरूपेणाऽतथाभूता यपि तथा प्रतिनासंते तथात्मापि नू तसमुदायाकारपरिणतौ सत्यां पृथगसन्नेव तथा चांतिं समुत्पादयतीत्यमीषां च दृष्टांता नां प्रतिपादकानि केचित्सूत्राणि व्याचति । श्रस्माभिस्तु सूत्राऽदर्शेषु चिरंतनटीकायां चादृष्टत्वान्नालि गितानीति । ननु च यदि नूतव्यतिरिक्तः कश्विदात्मा न विद्यते तत्कृते च पुण्यापुण्येन तत्कथमेतद्यद्वैचित्र्यं घटते । तद्यथा कश्विदीश्वरोऽपरो दरिन्यः सुनगो परोडर्नगः सुखी दुःखी सुरूपो मंदरूपो व्याधितो नीरोगीत्येवं प्रकारा विचित्रता किन्नि बंधनेत्यत्रोच्यते । स्वनावात् । तथाहि । कुत्रचिविनाशकले प्रतिमारूपं विद्यते तच कुं कुमागरुचंदनादि विलेपनानुजोगमनुभवति धूपाद्यामोदं च । अन्यस्मिंस्तु पाषाणखंडे पाद कालनादि क्रियते नच तयोः पाषाणखंडयोः गुनाशुने स्तः । यदयात्स तादृगवस्था विशेष इत्येवं स्वनावाकग है चित्र्यं । तथाचोक्तं । कंटकस्य व तीक्ष्णत्वं मयूरस्य विचि त्रता ॥ वर्णाश्च ताम्रचूडानां, स्वनावेन नवंति हीति ॥ १ ॥ तद्यावत्तवरीरवादिमतं गर्त ॥ १२॥ For Private Personal Use Only Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राय धनपतसिंघ बादाउरका जैनागमसंग्रह नाग उसरा. ३१ कुवं च कारयं चेव, सत्वं कुवं न विङई ॥ एवं अकारन अप्पा, एवं - तेन पगप्निा ॥१३॥ जे ते नवाइणो एवं, लोएतेसिं कासिया॥ तमान ते तमं जंति, मंदा आरं ननिस्सिया ॥१४॥ आत्मषष्ठवादीगतः॥ अर्थ-हवे अक्रियावादिनो मत कहेजे. ते अकर्मवादी एम कहेले के; बात्मा अमूर्तडे, नित्य, तथा सर्वव्यापी बे. ते कारणे कुवंचके क्रियानो कर्त्ता नथी. तथा कारयंचेवके घनेरा पासे करावनार पण नथी; एटले आत्मा पोते क्रियाने विषे न प्रवर्ते, तथा अनेराने पण प्रवावे नही. पूर्वे चकार आव्यो ते अतीत अनागतना क ने निषेधवाने अर्थ . यद्यपि स्थितिक्रिया अने मुज्ञाप्रतिबिंबोदयन्याये नोजनक्रिया पण करे. तथापि समस्त क्रिया कारकपणुं नथी. एहिज नाव देखाडेले. सवंकुवन विई के० सर्व क्रियानें एटले देशथकी देशांतर गमनरूप क्रियाने आत्मा करतो नथी. एवंथकार थप्पाके ए रीते यात्मा अकारक .एवंतेउपगनियाके० एप्रकारे ते सांख्यवादी धृष्टपणुं करता थका, प्रकृति करे, पुरुष नोगवे, इत्यादिक अयोग्य वचन बोले एटले अक्रिया वादिनु मत कह्यु.॥१३॥ हवे जैन, एना मतनुं निराकरण करे. जेते मवाणो एवंके जे, आत्मा शरीरथकी जुदो नथी. तथा आत्मा अकर्ता ने एम कहे. तेसिंके० तेने लो एकसियाके चतुर्गतिक संसाररूप लोक क्या थकी होय? निःकेवल ते लोकमांहे वाचालपणुं देखाडे. एवा बतां तमाउते तमंतिके ते अज्ञानरूप तम एटले अंधकार तेमांडेथकी निकलीने अनेरा तम एटले अंधकारमाहे जति एटले जायचे, ए टले ज्ञानवर्णादिक कर्म नपार्जन करे. अथवा तमनेविषे विअर्थे नरक पृथ्वी एवो थ र्थ थायजे. माटे त्यांपण जायचे. ते नरक पृथ्वी केम जाय, तेनुं कारण कहेले. ते लोक मंदाके० मंद एटले मूर्ख , वली वारंजनिस्सियाके० प्रारंननिश्रित एटले आरंज जे प्राणघात तेनां व्यापारे निश्रितले, एकांते तेमां आसक्तले, जे कारण माटे तेमना मते था स्मानो बनावले, ते कारणे पुण्य पाप पण नथी. एवं जाणीने ते नास्तिकवादी पारंन क रतां थका शंका पामता नथी. तथा जे एवं कहे के आत्मा क्रिया करेनहीं, तेपण एमनी पेरेज वारंनी जाणवा ॥ १४ ॥ अकिरियावागता एटले सांख्यनुं मत ए प्रमाणे कडुं. ॥दीपिका-अथाऽक्रियावादिमतमाह।(कुर्वन्निति) कुर्वन् कारयंश्चाऽऽत्मा न नवति।श्रा त्मनो व्यापकत्वादमूर्तत्वाच्च कर्तृत्वानुपपत्तिः।ततएव कारयितृत्वमप्यात्मनो न युक्ताएकश्च शब्दोऽतीतानागतकर्तृत्वनिषेधको दितीयः समुच्चयार्थः ॥ कर्तृत्वकारयितृत्वनिषेधादन्यापि क्रिया तस्य नास्तीत्याह । (सवंति)। सी परिस्पंदादिकां देशादेशांतरप्राप्तिरूपां क्रियां Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२ वितीये सूत्रकृतांगे प्रथमश्रुतस्कंधे प्रथमाध्ययन. कुर्वन्नात्मा न विद्यते। सर्वव्यापित्वेनामूर्तत्वेन चाकाशस्येवात्मनो निष्क्रियत्वं सांख्यमते । (एवंतेउत्ति) एवमुक्तप्रकारेण ते सांख्याःप्रगल्लिताः प्रागल्ल्यवंतो धाष्टर्यवंतो विद्यते॥१३॥ सांप्रतं तजीवतहरीराकारकवा दिनोमतं निराकुर्वन्नाह । (जेतेइति)। ये तावडरीरा ऽव्यतिरिक्तात्मवादिन एवं पूर्वोक्तयुक्त्या जूताऽव्यतिरिक्तमात्मानमन्यूपगतवंतस्ते निराकि यंते । तेषां लोकश्चतुर्गतिनवरूपः सुनग, उनंग, सुरुप, कुरुपेश्वर, दारिद्या,दिगत्या जगदैचित्र्यरूपः कुतः स्यात् ।थात्माऽनंगीकारे पुण्यपापानावे कथं विश्ववैचित्र्यमित्यर्थः। तेच नास्तिकास्तमसोऽझानरूपात् तमो यांति । ज्ञानावरणावृताः पुनर्झनावरणरूपं तमः प्रविशति । अथवा सदिवेकप्रध्वंसित्वात्तमोकुवं तस्मात्तमो महाकुःखं यांति । यतस्ते मंदा जडाः परलोकनिरपेदत्वाच्चाऽननिश्रिताः। अयमेवश्लोकोऽकारकवादिम तमाश्रित्य किंचिदिवियते । येवादिनोऽकारकाः सांख्याः संति तेषां लोको जरामरण शोकहर्षादिरूपो नारकतिर्यगादिरूपो निष्क्रिये सत्यात्मनि कुतः कस्मातोः स्या न स्यादित्यर्थः। ततश्चदृष्टेष्टबाधारूपात्तमसोऽज्ञानाचे तमो वेदनास्थानं यांति । यतो मं दाथारंननिश्रिताश्चेति सांरख्यमतं निरस्तं ॥ १४ ॥ ॥टीका-इदानीमकर्मकवादिमतानिधित्सयाऽह । (कुवंचेत्यादि) कुर्वन्निति स्वतंत्रः कर्तानि धीयते ॥ अत्मनश्चामूर्तत्वात्सर्वव्यापित्वाच्च कर्तृत्वाऽनुपपत्तिः॥अतएवहेतोः कारयितृत्वम प्यात्मनोनुपपन्नमिति । पूर्वश्वशब्दोऽतीतानागतकर्तृत्वनिषेधको वितीयः समुच्चयार्थः। त तश्चात्मा न स्वयं क्रियायां प्रवर्तते नाप्यन्यं प्रवर्तयति । यद्यपि च स्थितिक्रियां मुझप्र तिबिंबोदयन्यायेन च सुजिक्रियां करोति तथापि समस्त क्रियाकर्तृत्वं तस्य नास्तीत्येतद शयति । (सवंकुवंणविङइत्ति) सर्व परिस्पंदादिकां देशादेशांतरप्राप्तिलक्षणां क्रियां कु वन्नात्मा न विद्यते । सर्वव्यापित्वेनामूर्तत्वेन चाकाशस्येवात्मनो निष्क्रियत्वमिति । तथा चोक्तं । अकर्ता निर्गुणो नोक्ता, थात्मा सांख्यनिदर्शन इति । एवमनेन प्रकारेणात्माऽका रक इति ते सांख्याः । तुशब्दः पूर्वेन्यो व्यतिरेकमाह । ते पुनः सारख्या एवं प्रगल्लिताः प्रगल्नवंतो धाष्ठर्घवंतः संतो नयोज्यस्तत्र तत्र प्रतिपादयंति । यथा प्रकृतिः करोति पुरु ष उपचुंक्ते यथा बुध्यवसितमर्थ पुरुषश्चितयते इत्याद्यकारकवादिमतमिति ॥१३॥ सां प्रतं तल्लीवतहरीराकारकवादिनो मतं निराचिकीर्षुराह। (जेतेनवाश्णोइत्यादि) तत्र ये तावन्चरीराव्यतिरिक्तात्मवादिन एवमिति पूर्वोक्तया नीत्या नूतव्यतिरिक्तमात्मानमन्यु पंगतवंतस्ते निराक्रियते। तत्र यस्तावक्तं । यथा न शरीराजिन्नोस्त्यात्मेति तदसंगतं । यतस्तत्प्रसाधकं प्रमाणमस्ति । तच्चेदं । विद्यमानकर्तृकमिदं शरीरमादिमत्प्रतिनियताका कारकत्वात् । इद यद्यदादिमत्प्रतिनियताकारं तत्तविद्यमानकर्तृकं दृष्टं । यथा घटः। य Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राय धनपतसिंघ बादाउरका जैनागमसंग्रह नाग उसरा. ३३ चाऽविद्यमानकर्तृकं तदादिमत्प्रतिनियताकारमपि न नवति यथाकाशं । आदिमत्प्रतिनि यताकारस्य च सकर्तृत्वेन व्याप्तेः। व्यापकनिवृत्ती व्याप्यस्य विनिवृत्तिरिति सर्वत्र योजनीय। तथा विद्यमानाधिष्ठातृकानींडियाणि । करणत्वात् । यद्यदिह करणं तत्तविद्यमानाधिष्ठा तृकं दृष्टं । यथा दंडादिकमिति । अधिष्ठातारमंतरेण करणत्वाऽनुपपत्तिः । यथाकाश स्य । हृषीकाणां चाधिष्ठाताऽत्मा सच तेन्योऽन्य इति । तथा विद्यमानाधिष्ठातृकमिदमिंझ्यि विषयकदंबकं । आदानादेयसनावात् । इह यत्र यत्राऽदानादेयसन्नावस्तत्र तत्र विद्यमा न बादाता ग्राहको दृष्टः । यथा संदंशकायःपिंडयोस्तन्निन्नोऽयस्कार इति । यश्चा येश्यैिः करणैर्विषयाणामादाता ग्राहकः स तजिन्नात्मेति । तथा विद्यमाननोक्तृक मिदं शरीरं नोग्यत्वादोदनादिवत् । अत्रच कुलालादीनां मूर्तत्वाऽनित्यत्वसंहतत्वदर्शना दात्मापि तथैव स्यादिति धर्मविशेषविपरीतसाधनत्वेन विरुमा शंका न विधेया। संसारि ण आत्मनः कर्मणा सहान्योन्यानुबंधतः कथंचिन्मूर्तत्वाद्यन्युपगमादिति । तथा यउक्तं । नास्ति सत्त्वाऔपपातिका इति तदप्ययुक्तं । यतस्तदहर्जातबालकस्य यःस्तनानिलाषः सो न्यानिलाषपूर्वको ऽनिलाषत्वात् कुमारानिलाषवत् । तथा बाल विज्ञानमन्य विज्ञान पूर्वकं विज्ञानत्वात् कुंमारविज्ञानवत् । तथाहि। यदहर्जातबालकोपि यावत्सएवायं स्तन इत्येवं नावधारयति तावन्नोपरत रुदितो मुखमर्पयति स्तने इत्यतोऽस्ति बालके विज्ञानलेशः सचाऽन्यविज्ञानपूर्वकः । तथान्यविज्ञानं नवांतर विज्ञानं तस्मादस्ति सत्त्व उपपातिक इति। तथा। यदनिहितं विज्ञानघनएवैतेन्यो नूतेन्यः समुबाय तान्येवानुविनश्यतीति । तत्राप्यय मर्थे विज्ञानघनो विज्ञानपिंड आत्मा नूतन्य नबायेति प्राक्तनकर्मवशात्तथाविधकायाकार परिणते नूतसमुदाये तद्वारेण स्वकर्मफलमनुनूय पुनस्तविनाशे यात्मापि तदनु तेना कारेण विनश्यापरपर्यायांतरेणोत्पद्यते नपुनस्तैरेव सह विनश्यतीति । तथा यमुक्तं । धर्मिणो ऽनावात्तधर्मयोः पुण्यपापयोरनावति तदप्यसमीचीनं । यतो धर्मी तावदनंतरो क्तिकदंबकेन साधितस्तत्तिौ च तधर्मयोः पुण्यपापयोरपि सिभिरवसेया जगदैचित्र्यदर्श नाच्च । यत्तु स्वनावमाश्रित्योपलशकलं दृष्टांतत्वेनोपन्यस्तं तदपि तनोक्तृकर्मवशादेव तथा तथा संवृत्तइति उर्निवारः पुण्यापुण्यसनावइति ।येपि बहवः कदलीस्तंनादयो दृष्टांता था स्मनो ऽनावसाधनायोपन्यस्तास्तेप्यनिहितनीत्याऽत्मनोनूतव्यतिरिक्तस्य परलोकयायि नः सारनूतस्य साधितत्वात्केवलं नवतो वाचालतां प्रख्यापयंति इत्यलमतिप्रसंगेन । शेषं सूत्रं विवियतेऽधुनेति । तदेवं तेषां नूतव्यतिरिक्तात्मनिन्दववादिनां योयं लो कश्चतुर्गतिकसंसारो नवानवांतरगतिलक्षणः प्राक् प्रसाधितः सुनगनगसुरूपमंद रूपेश्वरदारियादिगत्या जगदैचित्र्यलक्षणश्च स एवंनूतो लोकस्तेषां कुतो नवेत् । कयो पपत्त्या घटेत । आत्मनोऽनन्युपगमान किंचिदित्यर्थः। तेच नास्तिकाः परलोकयायिजीवा Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४ वितीये सूत्रकृतांगे प्रथमश्रुतस्कंधे प्रथमाध्ययनं. ऽनन्युपगमेन पुण्यपापयोश्चानावमाश्रित्य यत्किंचनकारिणोऽज्ञानरूपात्तमसः सकाशाद न्यत्तमो यांति । नूयोपि ज्ञानावरणादिरूपं महत्तरं तमः संचिन्वंतीत्युक्तं नवति । यदि वा तमश्वतमो दुःखसमुद्घातेन सदसदिवेकप्रध्वंसित्वाद्यातनास्थानं तस्मादेवंनूतात्त मसः परतरं तमो यांति । सप्तमनरकप्रथिव्यां रौरव, महारौरव, काल, महाकालाप्र तिष्ठानाख्यं नरकावासं यांतीत्यर्थः । किमिति । यतस्ते मंदा जडा मूर्खाः सत्यपि यु क्युपपन्ने प्रात्मन्यसदननिनिवेशात्तदनावमाश्रित्य प्राण्युपमर्दकारिणि विवेकिजननिंदि ते पारंने व्यापारे निश्चयेन नितरां चाश्रिताः संबहाः पुण्यपापयोरनाव इत्याश्रित्य परलो कनिरपेक्ष्याऽरंननिश्रिताइति । तथा तीवतबरीरवादिमतं नियुक्तिकारोपि निराचिकी पुराह । “पंचएहमित्यादिगाथा प्राग्वदत्रापि " ॥ ३३ ॥ सांप्रतमकारकवादिमतमाश्रि त्यायमनंतरश्लोको योपि व्याख्यायते । ये एते अकारकवादिन आत्मनोऽमूर्तत्वनि त्यत्वसर्वव्यापित्वेन्यो हेतुन्यो निष्क्रियत्वमेवान्युपपन्नास्तेषां यएषलोको जरामरणशोका क्रंदनहर्षा दिलदाणो नरकतिर्यङ्मनुष्यामरगतिरूपः सोयमेवंजूतो निष्क्रिये सत्यात्मन्य प्रच्युतानुत्पन्न स्थिरैकस्वनावे कुतः कस्मादेतोः स्यान्न कथंचित्कुतश्चित्स्यादित्यर्थः । तत श्व दृष्टेष्टबाधारूपात्तमसोऽझानरूपाते तमोतरं निकृष्टं यातनास्थानं यांति । किमिति । यतो मंदाजडाः प्राण्यपकारकाऽरंन निश्रिताश्च ते इति । अधुना नियुक्तिकारोऽकारकवादि मतनिराकरणार्थमाह । “ कोवेएई य कयं, कयनासो पंचहा गई न बि॥ देवमणुस्सग याग, जाईसरणा श्याएं च” ॥ ३५ ॥ (कोवेएइत्यादि)। आत्मनोऽकर्तृत्वात्कृतं नास्ति ततश्चाकत को वेदयते । तथा निष्क्रियत्वे वेदनक्रियाऽपि न घटा प्रांचति । अथा ऽकृतमप्यनुनयेत तथा सत्यकृतागमस्तनाशापत्तिः स्यात् । ततश्च एककृतपातकेन सर्व प्राणिगणो दुःखितः स्यात् पुण्येन च सुखी स्यादिति । नचैतदृष्टमिष्टं वा । तथाव्यापि त्वान्नित्यत्वाचात्मनः पंचधा पंचप्रकारा नारक, तिर्यङ्,मनुष्या,मर, मोद, लक्षणागति ने नवेत् । ततश्च नवतां सारख्यानां काषायचीवरधारण,शिरस्तुंडमुंडन दंडधारण, निदानोजित्व,पंचरात्रोपदेशानुसारयमनियमाद्यनुष्टानं । तथा। पंचविंशतितत्त्वज्ञो, यत्र तत्राश्रमे रतः ॥ जटी मुंडी शिखी वापि, मुच्यते नात्र संशयइत्यादि सर्वमपार्थकमा प्नोति । तथा देवमनुष्यादिषु गत्याऽगती न स्यातां सर्वव्यापित्वादात्मनः। तथानित्यत्वा च विस्मरणानावाजातिस्मरणादिका च क्रिया नोपपद्यते । तथा। आदिग्रहणात्प्रक तिः करोति पुरुषनपटुक्तशति नजिक्रिया या समाश्रिता सापि न प्राप्नोति । तस्या अपि क्रियात्वादिति । अथ मुज्ञाप्रतिबिंबोदयन्यायेन नोगइति चेदेतत्तु निरंतराः सुहृदः प्रत्ये प्यति । वाङ्मात्रत्वात् । प्रतिबिंबोदयस्यापि च क्रियाविशेषत्वादेव । तथा नित्ये चावि कारिण्यात्मनि प्रतिबिंबोदयस्यानावाद्यत्किंचिदेतदिति ॥३४॥ ननुच नुजिक्रियामात्रेण प्र Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राय धनपतसिंघ बाहाउरका जैनागमसंग्रह नाग उसरा. ३५ तिबिंबोदयमात्रेण च यद्यप्यात्मा सक्रियस्तथापि न तावन्मात्रेणास्मानिः सक्रिय त्वमिष्यते किं तर्हि समस्तक्रियावत्वे सतीत्येतदाशंक्य नियुक्तिकदाह । “गदु थफलवो वणि बित, कालफलत्तणमिदं अमहेन ॥ गाउछनोवऽथ ताणणगा वित्तणेहेक" ॥ ॥ ३५ ॥ (दुथफलेत्यादि ) नदु नैवाऽफलत्वं द्रुमानावे साध्ये हेतुर्नवति । नहि यदैव फलवांस्तदैव द्रुमोऽन्यदात्वद्रुम इति नावः । एवमात्मनोपि सुप्ताद्यवस्थायां यद्य पि कथंचिनिष्क्रियत्वं तथापि नैतावता त्वसौ निष्क्रियति व्यपदेशमर्हति । तथा स्तोक फलत्वमपि न वृदानावसाधनायालं । स्वल्पफलोपि हि पनसादिवृदस्य व्यपदेशनाग्न वति । एवमात्मापि स्वल्पक्रियोपि क्रियावानेव ॥ कदाचिदेषा मतिनवतो नवेत् स्तोककि यो निष्क्रियएव । यथैककार्षापणधनो न धनित्वमास्कंदत्येवमात्मापि स्वल्पक्रियत्वा दक्रियश्त्येतदप्युपचारः । यतोयं दृष्टांतःप्रतिनियतपुरुषापेक्ष्या चोपगम्यते समस्तपुरुषा पेक्ष्या वा । तत्र यद्याद्यः पदस्तदा सिसाध्यता। यतः सहस्रादिधनवदपेक्ष्या निर्धनए वासौ । अथ समस्तपुरुषा पेक्ष्या तदसाधु । यतोन्यानजरचीवरधारिणोपेक्ष्य कार्षापणध नोपि धनवानेव । तथात्मापि यदि विशिष्टसामोपेतपुरुषक्रियापेक्ष्या निस्कियोऽन्युपगम्य ते। न काचित्दतिः। सामान्यापेक्ष्या तु क्रियावानेवेत्यलमतिप्रसंगेन । एवमनिश्चिताकालफ लत्वाख्यहेतु क्ष्यमपि न वृक्षानावसाधकमित्यादि योज्यं।एवममुग्धत्वस्तोकग्धत्वरूपावपि हेतू न गोत्वानावत्वं साधयतः। उक्तन्यायेनैव दार्टीतिकयोजना कार्येति ॥३५॥१५॥ संति पंच महसूया, इदमेगेसि आदिया॥आयबछो पुणो आतु, आया लोगेय सासए॥१५॥ऽहना विपस्संति, नोयनप्पड़ ए असं ॥ सवे वि सबदा नावा, नियतीनावमागया ॥ १६ ॥ अर्थ-हवे अात्मषष्टवादिनो मत कहेले. ते वादी एम कहेले के, इहमेगेसियाहियाके थासंसारनेविषे एक यात्मषष्टवादिना मते एम कर्दा के, संतिपंचमहणूयाके पांच महा नूत. वली ते वादी एम कहेले के, आयबछोपुणोपादुकेण्जेम पंच महानत तेम यात्मा बहोडे. वली अनेराने मते यात्मा अने पंच महानत अशाश्वताडे. तेम एने मते नथी, ते कहेले के, थायालोगेयसासएके यात्मा थने एथिव्यादिकरूपजे लोक ते एने मते शा श्वता सर्वव्यापिले. माटे अविनाशि रूपले. ॥ १५ ॥ वली तेनुं नित्यपणुं देखाडेले. ते यात्मषष्ठ प्रथिव्यादिक पदार्थ, निःकारण विनाश अथवा सकारण विनाश, ए उहके ० बन्ने विनासे करी, णविणस्संतिके विनास पामे नही. पृथ्वी, थप्प, तेज, वा यु, थने थाकाश. ए कदापि पोतानुं स्वरूप बांझे नही, ते कारणे शाश्वता. तथा को ए जेनो थाकार कस्यो नथी, ते कारणमाटे यात्मा शाश्वत ले. यउक्तं नैनं जिंदंति शस्त्राणि, Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वितीये सूत्रकृतांगे प्रथमश्रुतस्कंधे प्रथमाध्ययनं. नैनं दहति पावकः॥ नचैनं क्लेदयंत्यापो, नशोषयति मारुतः॥१॥ अजेद्योयमजेद्योय, म विकारी सनच्यते, ॥ नित्यः सर्वगतः स्थाणुरचलो यं सनातनः ॥॥ इत्यादिवचनात् ॥ तथा नोयनप्पकएथसंके० जे असत् एटले अविद्यमान होय ते नपजे नही.केमके अवि यमान पदार्थने विषे करनारनो व्यापार स्फुरे नहीं. जो अबती वस्तु उपजे तो थाकाश कुसुमगई नशृंगादिक पदार्थ पण नपजवानो संनवले. ए कारणे सवेविसबहानावा के० सर्वकालें पण पथिव्यादिक सर्वे पदार्थो नियतिनावमागया के नित्यनावे परिणाम पा म्यावे. ॥ १६ ॥ “यात्मषष्टवादीगतः” एटले यात्म षष्टवादीनुं मत ए प्रमाणे कयुं. ॥ दीपिका-यथाऽत्मषष्ठवादिमतमाह । (संतित्ति ) संति पंच महानूतानि । हाऽस्मिन्संसारे एकेषामात्मषष्ठवादिनां सांख्यानां वैशेषिकाणां चैतदारख्यातं जूतान्या ख्यातानि वा । ते पुनर्वा दिन एवमादुः । यचूतानि आत्मषष्टानि यात्मा षष्ठोयेषांतानि यत्मषष्ठानि । केषांचिक्षादिनामनित्यानि नूतानि यात्मा च न तथा एषामित्याह (याया) यात्मा लोकश्च पृथिव्यादिरूपः शाश्वतोनित्यः ॥ १५ ॥ शाश्वतत्वमेवाह । (उहनत्ति) ते नूतपदार्था यात्मषष्ठा उनयतो निर्हेतुकसहेतुकविनाशाच्यां न विनश्य ति । बौदादिमते घटादिवस्तु हेतुं विनापि क्षणे चणेविनश्यति । वैशेषिकाणां तु लकु टादिहेतुयोगेन घटादीनां विनाशः । तेन विविधेनापि विनाशेन लोकात्मनो विनाश ति तात्पर्यार्थः । यदिवा विरूपाचेतनाचेतनवजावान्न विनश्यत्यात्मा पृथिव्याद्या लो काश्च चेतनस्वनावानविनश्यंतीति न चोत्पद्यते ऽसद विद्यमानं । सर्वे पिनावाः सर्वथा नियतिनावं नित्यत्वमागताः प्राप्ताः ॥१६॥ ॥ टीका-सांप्रतमात्मषष्ठवादिमतं पूर्वपदायितुमाह (संतीत्यादि) संति विद्यते पंचमहा नूतानि एथिव्यादीनि हास्मिन्संसारे एकेषां वेदवादिनां सांख्यानां शैवाधिकारिणां च ए तदाख्यातमाख्यातानि च नूतानि तेच वादिन एवमादरेवमाख्यातवंतः। यथा । यात्म षष्ठानि आत्मा षष्ठो येषां तानि यात्मषष्टानि नूतानि विद्युतइति । एतानि चात्मषष्टा नि जूतानि यथा न्येषां वादिनामनित्यानि तथा नामीषामितिदर्शयति । आत्मा लोक श्व दृथिव्यादिरूपः शाश्वतोऽविनाशी । तत्रात्मनः सर्वव्यापित्वादमूर्तत्वाचाकाशस्येव शा श्वतत्वं पथिव्यादीनां च तपाप्रच्युतेर विनश्वरत्वमिति ॥ १५ ॥ शाश्वतत्वमेव नूयः प्र तिपादयितुमाह । (उहणविणस्संतीत्यादि) ते आत्मषष्ठाः पृथिव्यादयः पदार्था उजय तइति नितुकसहेतुकविनाश येन न विनश्यति । यथा बौदानां स्वतएव निर्हेतुको विना शः। तथाच ते ऊचुः। जातिरेव हि नावानां, विनाशे हेतुरिष्यते॥ यो जातश्च न च ध्वस्तो, Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राय धनपतसिंघ बाहारका जैनागमसंग्रह नाग उसरा. ३७ नश्येत्पश्चात्स केन च ॥ १ ॥ यथाच वैशेषिकाणां लकुटादिकारणसांनिध्ये विनाशः स हेतुकस्तेनोनयरूपेणापि विनाशेन लोकात्मनो विनाशति तात्पर्यार्थः। यदि वा (उहन त्ति)। विरूपादात्मनः स्वनावाचेतनाचेतनरूपान्न विनश्यतीति । तथाहि । टथिव्यप्तेजो वाय्वाकाशानि रूपापरित्यागतया नित्यानि । न कदाचिदनीशं जगदिति कृत्वा यात्मापि नित्यएव कृतकत्वादिन्यो हेतुल्यः। तथा चोक्तं । नैनं बिदति शस्त्राणि, नैनं दहति पावकः॥ न चैनं क्लेदयंत्यापो न शोषयति मारुतः ॥ १ ॥ यद्योयमदाह्योयमविकार्योयमुच्यते॥ नित्यः सर्वगतः स्थाणुरचलोयं सनातनः॥२॥ एवं च कृत्वा नासत्पद्यते सर्वस्य सर्वत्र स जावादसति च कारकव्यापारानावात् सत्कार्यवादः। यदि वा असउत्पद्येत खर विषाणा देरप्युत्पत्तिःस्यादिति । तथा चोक्तं । असदकरणाउपादानग्रहणात्सर्वसंनवानावात् शक्तस्य शक्यकरणात्कारणनावाच्च सत्कार्य । एवंच कृत्वा मृत्पिंडे पि घटोस्ति । तदर्थिनां मत्पिं डोपादानात् । यदि वा ऽसत्पद्येत ततो यतःकुतश्चिदेव स्यान्नावश्यमेतदर्थना मत्पिंडो पादानमेव क्रियते इत्यतः सदेव कारणे कार्यमुत्पद्यतइति । एवं च कृत्वा सर्वे पि नावाः पृथिव्यादय यात्मषष्ठा नियतिनावं नित्यत्वमागता नानावरूपतामनूत्वा च नावरूपता प्रतिपद्यते । थाविर्नावतिरोनावमात्रत्वाउत्पत्तिविनाशयोरिति । तथा चानिहितं । नास तो जायते नावो नानावो जायते सतश्त्यादि । यस्योत्तरं नियुक्तिकदाह । “कोवेएश्त्या दिप्राक्तन्येव गाथा,, । सर्वपदार्थनित्यत्वान्युपगमे कर्तृत्वपरिणामो न स्यात्ततश्चात्मनोऽक र्तृत्वे कर्मबंधानावस्तदनावाच को वेदयति न कश्चित्सुखःखादिकमनुनवतीत्यर्थः। एवं च सति कतनाशः स्यात्। तथा असतश्चोत्पादानावे येयं मया आत्मनःपूर्वनावपरित्यागेनापर नावोत्पत्तिलक्षणा पंचधा गतिरुच्यते सा न स्यात्। ततश्च मोदगतेरनावादीदादि क्रियानु ष्ठानमनर्थकमापद्यते । तथाऽप्रच्युताऽनुत्पन्नस्थिरैकस्वनावत्वेन त्वात्मनो देवमनुष्यगत्या गती तथा विस्मृतेरनावात् जातिस्मरणादिकं वा न प्राप्नोति । यच्चोक्तं सदेवोत्पद्यते तदप्यसत् । यतो यदि सर्वथा सदैव कथमुत्पादः। उत्पादश्चेत्तर्हि सर्वदा सदिति । तथा चो तं । कर्मगुणव्यपदेशाः प्रागुत्पत्तेन संति यत्तस्मात्कार्यमसविज्ञेयं क्रियाप्रवृत्तेश्च कर्तृणां । तस्मात्सर्वपदार्थानां कथंचिन्नित्यत्वं सदसत्कार्यवादश्चेत्यवधार्य । तथाचानिहितं । सर्व व्यक्तिषु नियतं, दणे रोऽन्यत्वमथ च न विशेषः । सत्यश्चित्यपचित्योराकृतिजाति व्यवस्थानात् इति । तथा । नान्वयः सहि नेदत्वान्न नेदोऽन्वयवृत्तितः॥ मृ दक्ष्यसं सर्ग, वृत्तिजात्यंतरं घटः॥१॥ १६ ॥ पंच खंधे वयंतेगे, बालान खणजोश्णो॥ अमो अणमो वादु, देन्यं च अदेन्यं ॥ १७॥ पुढवी आग तेऊ य, तदा वाऊय एग ॥चत्तारि धानणो रूवं, एवमादं सुजाणया ॥ १७ ॥ Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३० दितीये सूत्रकृतांगे प्रथमश्रुतस्कंधे प्रथमाध्ययनं. अर्थ-हवे अफलवादिनुं मत कहेले. एगे के० कोइएक वादी एटले बौछ ते पंचखंघेव यंते के पंचस्कंध बोलेने, तेना नाम कहेले. प्रथम विज्ञान ते रसनु, विज्ञान सुखउखवेदे ते वेदना, संझा ते धर्मसमुदायने, पृथिव्यादिकते संस्कार,अने धातुरूपादिकते रूप,ए पांच प दार्थ जगतमां, पण एथकी अन्य आत्मादिक पदार्थ जगतमाहे कोइ नथी. एम ते बा लानके० बाल एटले अज्ञानी कहे. वलीते स्कंध केवा खे, खणजोइणोके० दणयो गी. एटले एक क्षण मात्र रहे, उपरांत रहे नहीं. एवीरीतना बोलनारा ते दणिकवा दी जाणवा. हवे अनेरा दर्शनीथकी एमनो नेद जे , ते गाथाना उत्तराई वडे दे खाडेले. अमोअणमो ऐवादुके० ते जेम आत्मषष्टवादी सांख्यादिक नूत थकी था त्मा अन्य , एम कहेले. तथा जेम चार्वाकमति नूतथकी आत्मा अनेरो नथी. एट ले जे नत तेहिज यात्मा एम कहे, लेम बौद्धमति कहेतां नथी. तथा हेनयंच के हेतु एटले अात्मा कोणे नीपजाव्यो एम पण कहेता नथी. अने अहेन्यं के अहेतु क एटले अनादि अनंत शाश्वत यात्माचे. एम पण बौछ कहेता नथी. ॥ १७ ॥ अ फलवादीगतः। तथा अनेरा बौदर्शनीचतुर्भातुक जगत् कहेले, ते देखाडेले. पुढवीके० पृथिवी ते पाषाण पर्वत अने स्थलादिक ए प्रथमधातु, तथा थानके अप्प ते पाणी ए बीजी धातु, तथा तेज के अग्नि ए त्रीजी धातु, तथा वायु ए चोथी धातु, जे कारणे ए चारे पदार्थ जगत्रने धरे एटले पोषे ते कारणे एने धातु कहिये.ए केहवाले ? तोके एग के ए चारे एकाकार पणे परिणमे, माटे एकाकार. तेथी ए चत्तारिधानणोरूवं के चारेधातुरूप जाणवां. एटले ए शरीर चतुरूिप ले. ते थकी अनेरो आत्मा एवो प दार्थ कोइ नथी, एवं के० एम ते बौन कहेले. ते केवा जाणवा? तोके आहंसु केम्पो ताने लोकमांहे जाण्याके० जाण कहेवरा विये एवं अनिमान धरेले. परंतु ए सर्व दणि कवादिपणा यकी क्रियाना फलने संबंध मले नहीं ते कारणे एने थफलवादि कहियें. ॥दीपिका-अथ बौक्ष्मतमाह । (पंचेति) । एके बौदाः पंचस्कंधान् वदंति । रूपस्कंधः १ वेदनास्कंधः २ विज्ञानस्कंधः ३ संझास्कंधः। संस्कारस्कंधः । । तत्र रूप पस्कंधः पृथिवीत्वादयो रूपादयश्च । वेदनास्कंधः सुखा कुःखा अःखसुखा च वेदना । विज्ञानस्कंधो रूपविज्ञानं रसविज्ञानमित्यादि । संझास्कंधः संझानिमित्तोद्ग्रहणात्मिकः प्रत्ययः । सविकल्पसंज्ञानमित्यर्थः । संस्कारस्कंधः पुण्यापुल्यादिधर्मसमुदायः ५ नचैते न्योन्यः कश्चिदात्माख्यः पदार्थोस्तीति । बाला मूर्खाः । ते स्कंधाः किंनूताः पयोगि नः कणेक्षणेविनश्वराश्त्यर्थः। पूर्ववादिन्यो बौ व्यतिरेकमाह । (अणोत्ति)। यथा सांख्यादयो नूतेन्योऽन्यमात्मानमंगीकृतवंतः । यथा चार्वाका नूतेन्योऽनन्यमनिन्नमा Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राय धनपतसिंघ बाहाङरका जैनागम संग्रह नाग दुसरा. ३७ मानमिष्टवंतस्तथा बौड़ा नैवादुक्तवंतः । तथा हेतुच्योजातो हेतुकः कायाकारपरि निष्पादितः तथाऽहेतुकोनित्य इत्येवं तमात्मानं बौद्धा नांगीकृतवंतइति ॥ १७ ॥ तथान्ये चतुर्धातुकं जगद् बौद्धा वदंतीत्याह । ( पुढवीति) पृथिवीधातुः । प्रापोजलं था तुः । तथातेजो वायुश्चेति धातवः । एते चत्वारोपि धातवो यदा ( एकत्ति ) एकाकार परिणतास्तदाकारतयाजीवाख्यां लनंते । एवमादुजनकाः पंमितंमन्या बौद्धाः । ( एव मासुखाव रेइति) क्वचित्पाठः । तत्र खावरेति । अपरे बौद्धा इत्यर्थः ॥ १८ ॥ ॥ टीका- सांप्रतं बौ-मतं पूर्वपचयन्नियुक्तिकारोपन्यस्तम फलवादा धिकारमा विर्भावयन्ना ह | (पंचखंधे वयं ते गेइत्यादि) । एके केचन वादिनो बौद्धाः पंच स्कंधान् वदंति । रूप, वे दना, विज्ञान, संज्ञा, संस्कारा, ख्याः पंचैव स्कंधाविद्यते नापरः कश्विदात्माख्यः स्कंधो स्तीत्येवं प्रतिपादयंति । तत्र रूपस्कंधः पृथिवीधात्वादयो रूपादयश्च ॥ १ ॥ सुखा दुःखा थ डुःखसुखाचेति वेदनावेदनास्कंधः ॥ २ ॥ रूपविज्ञानं रसविज्ञानमित्यादि विज्ञानं वि ज्ञानस्कंधः ॥ ३॥ संज्ञास्कंध ः संज्ञानिमित्तोऽवग्रहणात्मकः प्रत्ययः ॥ ४ ॥ संस्कारस्कंध ः पु या पुण्यादिधर्मसमुदाय इति ॥ ५ ॥ नचैतेच्यो व्यतिरिक्तः कश्चिदात्माख्यः पदार्थोऽध्य austrated । तदव्यनिचारिजिंगग्रहणाऽनावान्नाप्यनुमानेन । नच प्रत्यक्षा नुमानव्यतिरिक्तमर्थाऽविसंवादिप्रमाणांतरमस्तीत्येवं बालाइव बाला यथाऽवस्थिता परिज्ञानात् बौद्धाः प्रतिपादयंति । तथा ते स्कंधाः कृणयोगिनः । परमनिकृष्टः का लः क्षणः । दणेन योगः संबंधः कृणयोगः स विद्यते येषां ते कुणयोगिनः । क्षणमा त्राऽवस्थायिनइत्यर्थः । तथाच तेऽनिदधति । स्वकारणेज्यः पदार्थ उत्पद्यमानः किं विनश्वरस्वनाववत्पद्यतेऽविनश्वरस्वनावो वा । यद्य विनश्वरस्ततस्त व्यापिन्याः क्रमयोगप द्यायामर्थक्रियाया नावात् पदार्थस्यापि व्याप्यस्यानावः प्रसति । तथाहि । यदेवा क्रियाकारि तदेव परमार्थतः सदिति । सच नित्योर्थः क्रियायां प्रवर्तमानः क्रमेण वा प्रव यौगपद्येन वा । न तावत्क्रमेण । यतो ह्येकस्याऽर्थक्रियायाः काले तस्यापरार्थ क्रियाकर स्वनावो विद्यते वा न वा । यदि विद्यते किमिति क्रमकरणं । सहकार्यपेक्षयेति चेत् । सहकारिणा तस्य कश्चिदतिशयः क्रियते न वा । यदि क्रियते किं पूर्वस्वनावपरित्यागे नापरित्यागेन वा । यदि परित्यागेन ततोऽतादवस्य्यापत्तेरनित्यत्वं । अथ पूर्वस्वनावाप रित्यागेन ततोऽतिशयानावारिक सहकार्यपेक्ष्या । यथाऽकिंचित्करोपि विशिष्टकार्यार्थ मपेक्षते । तदयुक्तं । यतः । खपेदेत परं कश्विद्यदि कुर्वीत किंचन ॥ यदकिंचित्करं व स्तु, किं केनचिदपेक्ष्यते ॥ १ ॥ अथ तस्यैकार्थक्रियाकारणकाले ऽपरार्थ क्रियाकरणस्व नावो न विद्यते । तथाच सति स्पष्टैव नित्यताहानिः । अथासौ नित्यो यौगपद्येनाऽर्थक्रि For Private Personal Use Only Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४० दितीये सूत्रकृतांगे प्रथमश्रुतस्कंधे प्रथमाध्ययनं. यां कुर्यात्तथा सति प्रथमक्षणएवाऽशेषार्थक्रियाणां करणात् वितीयक्षणेऽकर्तत्वमाया तं । तथाच सेवा नित्यता । अथ तस्य तत्स्वनावत्वात्ताएवार्थक्रिया नूयो नूयो दिती या दिदणेष्वपि कुर्यात्तदसांप्रतं । कृतस्य करणानावादिति । किंच दितीयादिदणसा ध्या थप्यर्थाः प्रथमहणएव प्राप्नुवंति । तस्य तत्स्वनावत्वात् । अतस्तत्स्वनावत्वे च तस्यानित्यत्वापत्तिरिति । तदेवं नित्यस्य क्रमयोगपद्यान्यामर्थ किया विरहान्न स्वकारणे न्यो नित्यस्योत्पादति । अथाऽनित्यः स्वनावः समुत्पद्यते । तथाच सति विघ्नानावा दायातमस्मक्तकमशेषपदार्थजातस्य दणिकत्वं । तथाचोक्तं । जातिरेव हि नावानां, विनाशे हेतुरिष्यते ॥ यो जातश्च नच ध्वस्तो नश्येत्पश्चात्स केन च ॥ १ ॥ ननु च स त्यप्यनित्यत्वे यस्य यदा विनाशहेतुसनावस्तस्य तदा विनाशः । तथा च । स्वविनाशका रणापेदाणामनित्यानामपि पदार्थानां न क्षणिकत्वमित्येतच्चानुपासितगुरोर्वचः। तथाहि । तेन मुजरादिकेन विनाश हेतुना घटादेः किं क्रियते । किमत्र प्रष्टव्यमनावः क्रियते । यत्र च प्रष्टव्यो देवानांप्रियः। अनाव इति किं पर्युदासप्रतिषेधोयमुत प्रसज्यप्रतिषेधति । तत्र यदि पयुदासस्ततोयमर्यो जावादन्यो नावो नावांतरं घटात्पटादिः सोऽनावति । त त्र नावांतरे यदि मुजरा दिव्यापारो न तर्हि तेन किंचिद्घटस्य कृतमिति । अथ प्रसज्यप्र तिषेधस्तदा यथार्थो विनाशहेतुरनावं करोति । किमुक्तं नवति नावं न करोतीति । ततश्च क्रियाप्रतिषेधएव कृतः स्यात् । नच घटादेः पदार्थस्य मुजरादिना करणं । तस्य स्वकारणैरेव कतत्वात् । अथ नावानावोऽनावस्तं करोतीति तस्य तुच्चस्य नीरूपत्वात् कुतस्तत्र कारणानां व्यापारोऽथ तत्रापि कारणव्यापारो नवेत् खरशेंगादावपि व्याप्रिये रन् कारणानीति । तदेवं विनाशहेतोरकिंचित्करत्वात् स्वहेतुतएवाऽनित्यताकोडीक तान पदार्थानामुत्पत्तेविघ्नहेतोश्वानावात् दणिकत्वमवस्थितमिति । तुशब्दः पूर्वा दिल्यो ऽस्य व्यतिरेकप्रदर्शकः । तमेव श्लोकपश्चार्धन दर्शयति । (यलोअणमोति)। ते हि बौदा यथाऽत्मषष्ठवादिनः सारख्यादयो नूतव्यतिरिक्तमात्मानमन्युपगतवंतो यथा चार्वाका नूताऽव्यतिरिक्त चैतन्यारख्यमात्मानमिष्टवंतस्तथा नैवादु वोक्तवंतः । तथा हेतुन्योजातो हेतुकः । कायाकारपरिणतनूतनिष्पादितइति यावत् । तथाऽहेतुको ऽनाद्यपर्यवसितत्वान्नित्यश्त्येवमात्मानं ते बौक्षा नाऽन्युपगतवंत इति ॥ १७ ॥ तथाऽपरे बौदाश्चतुर्धातुकमिदं जगदादुरित्येतदर्शयितुमाह । (पुढवीत्यादि) एथि वी धातुरापश्च धातुस्तथा तेजो वायुश्चेति धारकत्वात्पोषकत्वाच्च धातुत्वमेषां । (एगउत्ति)। यदैते चत्वारोप्येकाकारपरिणति बिनति कायाकारतया तदा जीवव्यपदेशमभुवंतः। तथाचोचुः । चतुर्धातुकमिदं शरीरं न तक्ष्यतिरिक्तश्रात्मास्तीति । (एवमासुअवरेत्ति) अपरे बौविशेषा एवमादुरनिहितवंतति । क्वचिजाएगा इतिपातस्तत्राप्ययमों जा Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राय धनपतसिंघ बादाडुरका जैनागमसंग्रह नाग दुसरा: ४१ नका ज्ञानिनो वयं किलेत्यनिमानाग्निदग्धाः संत एवमादुरिति संबंधनीयं | अफलवादि त्वं चैतेषां क्रियाणएव कर्तुः सर्वात्मना नष्टत्वात् क्रियाफलेन संबंधानावादवसेयं । स dea वा पूर्ववादिनोऽफलवादिनो इष्टव्याः कैश्विदात्मनोऽनित्यस्याऽविकारिणोऽन्युपगत त्वात् कैश्वित्त्वात्मनएवानज्युपगमादिति । अत्रोत्तरपदार्थानां प्राक्तन्येव निर्युक्तिगाथा । इत्यादि व्याख्यायते । यदि पंचस्कंधव्यतिरिक्तः कश्चिदात्माख्यः पदार्थो न विद्यते त तस्तदना वात्सुखदुःखादिकं कोऽनुनवतीत्यादिगाथा प्राग्व ध्याख्येयेति । तदेवमात्मनो नावाद्ययं स्वसंविदितः सुखःखानुभवः स कस्य नवत्विति चिंत्यतां । ज्ञानस्कंधस्यायमनु नवइति चेन्न । तस्यापि ऋषिकत्वात् । ज्ञानकणस्य चातिसूक्ष्मत्वात् सुखदुःखानुनवानावः । क्रियाफलवतोश्च कुणयोरत्यंतासंगतेः कृतनाशाकृताच्यागमापत्तिरिति ज्ञानसंतान ए कोस्तीति । तस्यापि संता निव्यतिरिक्तस्याऽनावाद्यत्किंचिदेतत् । पूर्वदणएव उत्तरक्षणे वासनामाधाय विनंक्ष्यतीति चेत् । तथाचोक्तं । यस्मिन्नेव हि संताने, खाहिता कर्मवासना ॥ फलं तत्रैव संधत्ते, कार्पासे रक्तता यथा ॥ १ ॥ त्रापीदं विकल्प्यते । सा वासना किं दन्यो व्यतिरिक्ताऽव्यतिरिक्ता वा । यदि व्यतिरिक्ता वासकत्वानुपपत्तिरथाव्यतिरिक्ता द एणवत् कुणयित्वं तस्याः । तदेवमात्मानावे सुखदुःखानुनवानावः स्यादस्ति च सुखदुः खानुनवोऽतोस्त्यात्मेति । अन्यथा पंचविषयानुभवोत्तरकाल मिंडियज्ञानानां स्वविषया दन्यत्राप्रवृत्तेः संकलनाप्रत्ययो न स्यात् । यालय विज्ञानाद्भविष्यतीति चेदात्मैव तर्हि सं ज्ञांतरेणान्युपगतइति । तथा बौद्धागमोप्यात्मप्रतिपादको स्ति । सचार्य । इतः । एकनवति में कल्पे, शक्त्या में पुरुषो हतः ॥ तेन कर्मविपाकेन पादे विधोस्मि निक्षवः ॥ १ ॥ तथा । कृतानि कर्मास्यतिदारुणानि तनूनवंत्यात्मनिगर्हणेन ॥ प्रकाशनात्संवरणाच तेषामत्यंतमूलोऽरणं वदामीत्येवमादि । तथा यक्तं । कुणिकत्वं साधयता यथा पदार्थः कारणेज्य उत्पद्यमानो नित्यः समुत्पद्यते ऽनित्यो वेत्यादि । तत्र नित्येऽप्र च्युतानुत्पन्न स्थिर कस्वनावे कारकाणां व्यापारानावादतिरिक्ता वाचोयुक्तिरिति नित्यत्वपक्षा नुत्पत्तिरेव । यच्च नित्यपदे नवतानिहितं नित्यस्य न क्रमेणार्थक्रियाकारित्वं नापि यौगप द्येनेति तत्क्षणिकत्वेपि समानं । यतः ऋणिकोप्यर्थक्रियायां प्रवर्तमानः क्रमेण यौ गपद्येन वाऽवश्यं सहकारिकारणसव्यपेक्षएव प्रवर्तते । यतः । सामग्री जनिका न कं किंचिदिति । तेनच सहकारिणा न तस्य कश्चिदतिशयः कर्तुं पार्थते । कृष्णस्य विवेकत्वेना Sनाधेयातिशयत्वात् दणानां च परस्परोपकारकोपकार्यत्वानुपपत्तेः सहकारित्वानावः । सहकार्यनपेक्षायां च प्रतिविशिष्टकार्यानुपपत्तिरिति । तदेवमनित्यएव कारणेन्यः पदा ः समुत्पद्यत इति द्वितीयपदसमाश्रयणमेव । तत्रापि चैतदालोचनीयं । किं ि त्वेनानित्यत्वमाहो स्वित्परिणामाऽनित्यतयेति । तत्र दायित्वे कारणकार्य त्वानावा For Private Personal Use Only Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५ वितीये सूत्रकृतांगे प्रथमश्रुतस्कंधे प्रथमाध्ययनं. त् कारणानां व्यापारएवानुपपन्नः कुतः क्षणिकानित्यस्य कारणेन्य उत्पादति । अथ पू र्वदणाउत्तरक्षणोत्पादे सति कार्यकारणनावो नवतीत्युच्यते तदयुक्तं । यतोसौ पूर्वणो विनष्टो वोत्तरदणं जनयेदविनष्टो वा । न तावदिनष्टस्तस्यासत्वाउनकत्वानुपपत्तेः। ना प्यविनष्ट उत्तरदणकाले पूर्वणव्यापारसमावेशात्तणनंगनंगापतेः। पूर्वक्षणो विनश्यं स्तत्तरक्षणमुत्पादयिष्यति तुलांतयो मोनामवदितिचेत् । एवं तर्हि क्षणयोः स्पष्टैवैकका लताश्रिता । तथाहि । यासौ विनश्यदवस्था साऽवस्था तु निन्ना । नत्पादावस्थातोप्यु त्पित्सोस्ततश्च तयोर्विनाशोत्पादयोर्योगपद्यान्युपगमे तमिणोरपि पूर्वोत्तरहणयोरेक कालावस्थायित्वमिति । तमर्मतानन्युपगमे च विनाशोत्पादयोरवस्तुत्वापत्तिरिति । यथो क्तं जातिरेव हि नावानामित्यादि । तत्रेदमनिधीयते । यदि जातिरेवोत्पत्तिरेव नावानां पदार्थानामनावहेतुस्ततोऽनावकारणस्य सन्निहितत्वेन विरोधेनाघ्रातत्वाउत्पत्त्यनावो ऽथोत्पत्त्युत्तरकालं विनाशो नविष्यतीत्यन्युपगम्यते। तथा सति उत्पत्तिक्रियाकाले तस्याऽनू तत्वात्पश्चाच नवन्नंतरायएव नवति न नूयसा कालेनेति । किमत्र नियामकं विनाशे हेत्वना व इतिचेत् । यतनक्तं नितुकत्वाविनाशस्य स्वनावानुबंधितेत्येतदप्ययुक्तं । यतो घटादी नां मुजरादिव्यापारानंरमेव विनाशो नवन् लक्ष्यते । ननु चोक्तमेवात्र तेन मुजरादिना घटा देः किं क्रियत इत्यादि । सत्यमुक्तं । इदमयुक्तंतूक्तं तथानावति । प्रसज्यपर्युदासविक ल्प येन योर्य विकल्पः पद इयेपि च दोषः प्रदर्शितः सोऽदोष एव । यतः पर्युदासपदे कपालारख्यनावांतरकारणे घटस्य च परिणामानित्यतया तपतापत्तेः कथं मुजरादेर्घ टादीन प्रत्यकिंचित्करत्वं । प्रसज्यप्रतिषेधस्तु नावं न करोतीति प्रतिषेधात्मकोत्र नाश्री यते । किंतर्द प्रागनाव,प्रध्वंसानावे,तरेतरा,त्यंताजावानां चतुर्णी मध्ये प्रध्वंसा, नावएवेहाश्रीयते । तत्र च कारकांतरणां व्यापारोनवत्येव । यतोसौ वस्तुतः पर्या योऽवस्थाविशेषो न नावमात्रं । तस्य चाऽवस्था विशेषस्य नावरूपत्वात्पूर्वोपमर्दैन च प्रवृत्तत्वाद्यएव कपालादेरुत्पादः सएव घटादेर्विनाशइति विनाशस्य सहेतुकत्वमवस्थि तं । थपिच कादाचित्कत्वेन विनाशस्य सहेतुकत्वमवसेयमिति । पदार्थव्यवस्थार्थ चाऽव श्यमनावचातुर्विध्यमाश्रयणीयं । तमुक्तं । कार्यश्व्यमनादिः स्या,त्प्रागनावस्य निन्हवे ॥ प्रध्वंसस्य च नावस्य, प्रच्यवेऽनंततां व्रजेत् ॥ १ ॥ सर्वात्मकं तदेकं स्यादन्यापोहव्यति क्रमे इत्यादि । तदेवं दणिकस्य विचारादमत्वात्परिणामानित्यपछएव ज्यायानिति। एवं च सत्यात्मा परिणामी झानाधारो नवांतरयायी नूतेन्यः कथंचिदन्यएव शरीरेण सहा ऽन्योन्यानुवेधादनन्योपि। तथा सहेतुकोपि नारकतिर्यमनुष्यामरनवोपादानकर्मणा तथा तथा विक्रियमाणत्वात् पर्यायरूपतयेति । तथात्मस्वरूपाप्रच्युतेर्नित्यत्वादहेतुकोपीति । Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राय धनपतसिंघ बादाउरका जैनागमसंग्रह नाग उसरा. ४३ आत्मनश्च शरीरव्यतिरिक्तस्य साधितत्वाच्चतुतिकमात्रं शरीरमेवेदमित्येतऽन्मत्तप्रल पितमपकर्णयितव्यमित्यलं प्रसंगेनेति ॥ १७ ॥ अगारमावसंतावि, अरमा वा वि पवया ॥ इमं दरिसणमावरमा . सबका विमुच्चई॥१॥ तेणावि संधिं पच्चा , न ते धम्मविज णा॥जे ते न वाणो एवं,न ते नेहंतराहिया॥३०॥ ते णावि संधिं ण बचा णं, न ते धम्मवि जणा॥जे ते न वाइणो एवं,न ते संसारपारगा ॥२२॥ ते पावि संधि पच्चा णं,न ते धम्मविन जणा॥ जे ते न वाश्णो एवं, न ते गप्तस्स पारगा॥श्शाते गाविसंधिं च्चा णं, न ते धम्म विजणा॥जे ते न वाणो एवं, न ते जम्मस्स पारगा ॥ २३ ॥ ते णावि संधि गच्चा णं, न ते धम्मविन जणा॥ जे ते न वाणो एवं, नते :कस्स पारगा॥२४॥ ते पावि संधिं गच्चा णं, न ते धम्म विन जणा॥ जे ते न वाणो एवं, न ते मारस्स पारगा॥२५॥ थर्थ-हवे ए पूर्वोक्त दर्शनी पोतपोतानां दर्शननेविषे मुंक्तीनुं कारण जे कहेले ते देखाडे जे. ते उपर कहे के ते सर्व दर्शनी अगारं के घर तेनेविषे थावसंतावि के निवास करनार एटले गृहस्थ, वा के अथवा, अरला के अरण्यवासी तापसादिक अथवा पचयाके० प्रव्रजितशाक्यादिक ते एम नावना करेले के, इमंदरिसणमावला के थमारा दर्शने भावाला एटले थाव्या. एटले जे कोई अमे कहिये तेने माने तो, ते सब एकाविमुच्चई के सर्व उःखथकीमुक्त थाय.एवी रीते पोतपोताना दर्शननेविषे सर्व कोई मुक्ति देखाडे ॥१॥ हवे ग्रंथकार कहेते. तेणाविके ते पंचनूतवादी प्रमुख दर्शनी तेने नैव के० नथी. संधिके बिइ एटले ज्ञानावरणादिक कर्म तेनो विपर्ययनाव ते संधि जाणवी. ते अहीं ज्ञानावरणादिक कर्मना विवरण तेने जाणंके अजाणताथका बापडा फुःखथ की मूकाववाने अर्थे सावधान थयावे. ते कारणे ते जणाके० जन एटले लोक, नतेध म्मविके० कात्यादिक दशप्रकारनो जे यतिधर्म तेना जाण नथी. जेतेउवाइणो एवंके ते वादी जे नास्तिकमति प्रमुख पूर्वे कह्या, ते असमंजस वचनना बोलनारले. माटे नते-हंतराहिया के० ते संसाररूप उघ एटले प्रवाह, अर्थात् संसारसमुना तारना र ते नथी. एम श्रीतीर्थकरे तथा गणधरे कझुंडे. ॥ २० ॥ ते पंचनूतवादी प्रमुख कर्म थाववानां स्थानक जाणता नथी; वली ते जनके लोक दात्यादिक दशविध यतिधर्मने जाणता नथी. एवा ते पूर्वे कह्या जे नास्तिकप्रमुख वादी ते संसारना पा Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४ वितीये सूत्रकृतांगे प्रथमश्रुतस्कंधे प्रथमाध्ययनं. रगामी नहोय. ए गाथानां पहेला त्रण पदनो थर्थ प्रथम कह्यो तेप्रमाणेज ॥१॥ जे एम बोले ते गर्नना पारगामी नहीं, एटले अनंता गर्ननां दुःख सहन करे.॥२२॥ वली जे एम बोले ते जन्मना पारगामी नथी अर्थात् अनंता जन्मनु सुख सहन क रे. ॥ २३ ॥ तथा जे एम बोले ते उखना पारगामि न होय, अनंतो काल चतुर्गति रूप संसारना फुःख सहन करे. ॥ २४ ॥ तथा जे एम बोले ते मरणना पारगामी न समजवा, अर्थात् अनंतिवार मरण पामे. ॥॥ ॥ दीपिका-अथ पूर्वोक्तसर्वमंतीनामफलत्वं स्वदर्शनांगीकारं च दर्शयन्नाह । (थ गारेति) गारं गृहमावसंतस्तिष्ठंतो गृहस्था धारण्या वा तापसादयः प्रव्रजिताश्च शा क्यादयः । श्रपि संजावने । इदं ते संनावयंति । यथा इदमस्मदीयं दर्शनं मतमापन्ना था श्रिताः सर्वःखेन्यो जीवाविमुच्यंतति ते वदंति ॥ १ए ॥ अथ तेषां निष्फलत्वमाह । तेति षड्निः । ते पंच पंचनूतवाद्याद्याः संधिज्ञानावरणादिकर्मविवररूपं नापि नैव ज्ञात्वा अज्ञात्वेश्त्यर्थः । पंवाक्यालंकारे । यथा जीवकर्मणोः संधिनिन्नत्वं नवति त था झावा मोदार्थ प्रवृत्ता इत्यर्थः॥ संधिदिविधः। व्यसंधिः कुडयादेः । नावसंधिः कर्म विवररूपस्तमुत्तरोत्तरपदार्थप रिझानं वा संधिस्त मझात्वा प्रवृत्ताः। ते किंनूताइत्याह । (न तेत्ति)। तेजना लोका न सम्यक्धर्मविदः । येतु ते। एवंविधवादिनस्ते। घो नवौघःसंसार स्तत्तरणशीला न थाख्याता जिनैः ॥२०॥ अग्रेतनाः पंचश्लोका एवमेव व्याख्येयाः।परं संसार १ गर्न २ जन्म ३ फुःख ४ मारपारगान नवंतीति झेयं ॥१॥२॥२३॥२४॥२५॥ टीका-सांप्रतं पंचनूतात्माऽदैततळीवतहरीराकारकात्मषष्ठदणिकपंचस्कंधवादिना मफलवादित्वं वक्तुकामः सूत्रकारस्तेषां स्वदर्शनफलान्युपगमं दर्शयितुमाह । (बगारेत्या दि) अगारं गृहं तदावसंतस्तस्मिंस्तिष्ठतो गृहस्थाश्त्यर्थः । श्रारण्या वा तापसादयः प्रव्रजिताश्च शाक्यादयः । अपि संभावने । इदं ते संविनावयंति । यथेदमस्मदीयं दर्शन मापन्नाथाश्रिताः सर्वदुःखेन्यो विमुच्यते । थार्षत्वादेकवचनं सूत्रे कृतं । तथाहि । पं चनूततजीवतहरीरवादिनामयमाशयोयथेदमस्मदीयं दर्शनं ये समाश्रितास्ते गृहस्थाः संतः सर्वेन्यः शिरस्तुंडमुंडन,दंडाऽजिनजटाकाषायचीवरधारण, केशोवंचन, नाग्ज्यस्तपश्च रण,कायक्केशरूपेन्यो दुःखेन्यो मुच्यते । तथा दुः। तपांसि यातनाश्चित्राः, संयमो नोगवंच नं ॥ अग्निहोत्रादिकं कर्म, बालक्रीडेव लक्ष्यत इति । सांख्यादयस्तु मोदवादिनएवं संजावयंति यथा । येऽस्मदीयं दर्शनमकर्तृत्वात्माऽदैतपंचस्कंधादिप्रतिपादकमापन्नाः प्रव्र जितास्ते सर्वेन्यो जन्मजरामरणगर्नपरंपराऽनेकशारीरमानसातितीव्रतराऽसातोदयरूपे Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राय धनपतसिंघ बादाउरका जैनागमसंग्रह नाग उसरा. ४५ न्यो सुखेन्यो विमुच्यते । सकल ६६विनिर्मोदं मोदमास्कंदंतीत्युक्तं नवति ॥ १ ॥ दानी तेषामेवाऽफलवादित्वाविष्करणायाह । (तेणावीत्यादि ) ते पंचनूतवाद्याद्या ना पि नैव संधि बिई विवरं। सचश्व्यनावजेदावधा। तत्र व्यसंधिः कुड्यादि वसंधिाना वरणादिकर्मविवररूपस्तमझात्वा ते प्रवृत्ताः। णमिति वाक्यालंकारे। यथा धात्मकर्मणोः सं धिविधा नावलक्षणोनवति। तथा अबुधाइव ते वराका उखमोक्षार्थमन्युद्यताश्त्यर्थः। य था तएवंनूतास्तथा प्रतिपादित लेशतः प्रतिपादयिष्यतेच । यदि वा संधानं संधिरुत्तरोत्तर पदार्थपरिझानं तदज्ञात्वा प्रवृत्ताइति । यतश्चैवमतस्ते न सम्यक्धर्मपरिप्लेदे कर्तव्ये विज्ञा सो निपुणा जनाः पंचनतास्तित्वादिवादिनो लोकाति। तथाहिदांत्यादिकोदश विधो धर्मस्तमझात्वैवान्यथा च धर्म प्रतिपादयति । यत्फलानावाच्च तेषामफलवादित्वं तउत्तरग्रं थेनोद्देशकपरिसमाप्त्यवसानेन दर्शयति । ये तेविति । तुशब्दश्वशब्दार्थे यइत्यस्यानंतरंप्र युज्यते। येच ते एवमनंतरोक्तप्रकारवादिनो नास्तिकादयोग्घोनवौघःसंसारस्तत्तरणशीलास्ते न नवंतीति श्लोकार्थः ॥ २० ॥ तथा न ते वादिनः संसार, गर्न, जन्म, कुःख, मारादि पारगा नवंतीति ॥ २१॥२२॥ २३ ॥ २४ ॥ २५॥ नाणाविदाई उखाई, अणुवंति पुणो पुणो ॥ संसारचकवा लंमि, मच्चुवाहिजराकुले ॥३६॥ नचावयाणि गबंता, गप्नमेस्सं ति पंतसो॥ नायपुत्ते महावीरे, एवमाद जिणोत्तमे ॥॥इति बेमि पढममयणं पढमो उदेसो समत्तो ॥ ७॥ ७ ॥ अर्थ-वली ते जे स्थितिने पामे ते कने. नाणाविहारकाई के नानाविध बहु प्रकारे बेदन नेदन ताडनादिक उखोनें अणुहवंतिपुणोपुणो के वली वली अनुनवेले. परंतु ते दुःख क्यां पामे ? तोके संसार चक्कवालंमिके० संसारचक्रवालने विषे पामे. ते संसार केवो उस्तरडे तो के, मजुवाहिजराकुले के मृत्यु, व्याधि थने जरा तेणे करी बाकुलव्याकुल . एवा संसारमाहे परिभ्रमण करतां अनंतो काल ःखी थाय. ॥२६॥ ते दर्शनी वलो असमंजस थका सूत्र विरोधना बोलनारा नच्चावयाणिगता के चे नीचे स्थानके परिभ्रमण करतां आगामिक काले गप्नमेसंतिणंतसोके अनंता गर्ननां पुःख पामसे. एवमाहके एवं वचन, नायपुत्तेमाहावीरेके० ज्ञातपुत्र श्रीमहावीरदेव जि णोत्तमेके० जिनोत्तम तेणे कडुं. तेम थमे पण कहिये बैए ॥२७॥ इतिप्रथमाध्ययनस्य प्रथमोदेशकः समाप्तः ॥ ए प्रथम उद्देशकमां नूतवादिप्रमुख परवादीना मत कह्या. ॥ दीपिका-ते यत्प्राप्नुवंति तदाह । (नाणेति) । नानाविधान्यनेकप्रकाराणि फुःखानि Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६ तिीये सूत्रकृतांगे प्रथमश्रुतस्कंधे प्रथमाध्ययनं. अनुनयंति । पुनःपुनः संसारचक्रवाले व्याधिमृत्युजरानिराकुले व्याप्ते ॥ २६ ॥ तेषां फुःखफलमुपसंहारं चाह । (उच्चेति)। मच्चावचान्यधमोत्तमानि स्थानानि गवंतोत्र मंतोगनिमेष्यंति यास्यंत्यनंतशः । (नापपुत्तेति)। ज्ञातः सिदार्थक्षत्रियस्तस्य पुत्रः श्रीमहावीरो जिन एवमुक्तवान् । इति ब्रवीमीति सुधर्मस्वामी जंबूस्वामिनं प्रत्याहेति ॥ २७ ॥ इति श्रीसूत्ररूते दितीयांगे प्रथमाध्ययनेप्रथमोदेशकव्याख्या संपूर्णा ॥ ॥ ॥ टीका-यत्पुनस्ते प्राप्नुवंति तदर्शयितुमाह (नाणाविहारंइत्यादि ) नानाविधानि बदुप्रकाराणि दुःखान्यासातोदयलक्षणान्यनुनवंति पुनः पुनः । तथाहि नरकेषु करपत्र दारण,कुंनीपाक,तप्तायःशाल्मलीसमालिंगनादीनि तिर्यटु च शीतोमादिदमनांकताडनाs तिसारारोपण कुत्तुडादीनि । मनुष्येषु इष्टवियोगाऽनिष्टसंयोगशोकाक्रंदनादीनि देवेषु चा नियोगेाकिल्बिषिकत्वच्यवनादीन्यनेकप्रकाराणि दुःखानि ये एवंनूता वादिनस्ते पौनः पुन्येन समनुनवंति। एतच्च श्लोकाई सर्वेषूत्तरश्लोकार्धेषु योज्योशेष सुगम यावउद्देशक समाप्तिरिति ॥२६॥ नवरमुच्चावचानीति थधमोत्तमानि नानाप्रकाराणि वासस्थानानि गई तीति गबंतोत्रमंतोग गर्नमेष्यति यास्यंत्यनंतशो निर्विदमिति ब्रवीमीति सुधर्मस्वामी जंबूस्वामिनं प्रत्याह । ब्रवीम्यहं तीर्थकराया न स्वमनीषिकया सचाहं ब्रवीमि येन मया तीर्थकरसकाशाबूत । एतेनच क्षणिकवादिनिरासो इष्टव्यः ॥२॥ इति समयाख्यप्रथमा ध्ययने प्रथमोद्देशकः समाप्तः ॥ ॥ ॥ ॥ ॥ ॥ ॥ अथ प्रथमाध्ययनेक्षितीयउद्देशकः प्रारज्यते आघायं पुण एगेसिं, नववरसा पुढो जिया॥ वेदयंति सुहं सुःखं, अ वा लुप्पंति गणन॥१॥न तं सयं कडं उरकं, क अन्नकडं च ।सुदं वा जवा उखं, सेदियं वा असेहियं ॥३॥ सयं कडं न अमेदिं, वेदयंति पुढो जिया ॥ संगअं तं तदा तोसें, इदमेगेसि आदिअं॥३॥ अर्थ-पुणके वली एगेसिंके एक नियतवा दिने मते, थाघायंके एम कह्युजे. ए टले तेनो जे अनिप्राय ते कहेले. उववस्मापुढोजियाके पथक् पृथक् नारकादिकने नवे जे जीवले, ते पोतपोताना देहस्थित थका सुदंरकं के० सुखःखने वेदयंतिके वेदे. अज्वाके० अथवा ते प्राणी मुख पुःख अनुजवता गणनके० ते स्थानकथी पोतानुं थायुष्य पूर्णकरीने लुप्पंतिके० स्थानांतरे संक्रमे. एम नियतवादी कहेले. ॥१॥ वली पण बेगाथाए नियतवादीनां मतनो थनिप्राय कहेजे. जे ते प्राणी सुख दुःख थनुनवेने, एक स्थानक थकी बीजे स्थानके उपजेडे, नर्तसयंकडंउरकंके ते मुखादिक ते जीवन पोतानुं कीधेनुं नथी. तेम कथनकडंचणं के अनेरा का Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रायधनपतसिंघ बादाउरका जैनागमसंग्रह नाग उसरा. ४७ ल ईश्वर स्वनावादिक- करेलुं क्याथी होय. जो स्वयंकत सुख दुःख , तो सर्व जीव व्यापारादिक सरिखो व्यापार करतां सर्व सरवाज केम नथी थता. माटे पुरुषाकारे कांज नथाय, अने जो काल ईश्वरादिकना करेला सुख उःख होय तो जगतनी विचित्र ता केम थाय? तेमाटे काल ईश्वरादिकनुं करेलुं पण सुख उःख यतुं नथी. एटले जीव ने सुहंवाजश्वाउरकंके० सुख अथवा मुख जे जे ते केवां ले, तोके सेहियं वा असेहियं के सैधिक अथवा असैदिक ले. तेमां स्त्रम् चंदन विनितादिक तेथकी उपनुं जे सुख तेने सैदिक कहिये. घने अंतरंग आनंदरूप जे सुख तेने असैदिक कहिये. एवीरीते बे प्रकारे उःख पण जाणवू, तेमा एक वध, बंधन, ताडनादिक क्रियाना करवायीकरी अने बीजं शूलज्वरादिरूप जाणवू, एटले एक कारणे निष्पन्न अने बीजुं स्वानाविक नि पन्न . ॥ २ ॥ ए सुखःख जो कोइए कस्यां नयी, तो ए जीव सुखी फुःखी केम थायडे, ते कहेले. सयंकडंनअमेहिंवेदयंति पुढोजियाके सयं एटले पोतानुं करेलुं अथ वा अनेरानु करेलु जे सुख दुःख ते जीव वेदतो नथी. किंतु संगअंतंतहातेसिंके० नवित व्यतानु करेलु तेहिज जीवने सुख दुःख नपजेले. तथाच तन्मतं । प्राप्तव्यो नियतिबला श्रयेण योऽर्थः, सोवश्यं नवति नृणां शुनोगुनो वा ॥ नूतानां महति कृतेपिहि प्रयत्ने, ना नाव्यं नवति न नाविनोस्ति नाशः॥१॥ इति वचनात् ॥ ३ ॥ एप्रमाणे नियतवादी ना मतनो अनिप्राय दर्शाव्यो. ॥ दीपिका-नक्तः प्रथमोद्देशकः । अथ दितीयोदेशकः कथ्यते । तस्यायमर्थसंबंधः । याद्योदेशके नूतवादादिमतं प्रदर्य निराकृतं । इहाप्यवशिष्टं तदेवोपदर्य निराक्रियत इत्यनेन संबंधेनागतस्यास्योद्देशकस्य सूत्रं यथा । (आघायमिति)। पुनः एकेषां नियतिवा दिनामेतदाख्यातं । थारख्यातमित्यत्र नावे क्तप्रत्ययः।तद्योगेन वा क्लीबइति कर्तरिषष्ठी। तत श्व नियतिवादिनिरिदमाख्यातमित्यर्थः। किं तदित्याह । (नववमत्ति) उपपन्ना युक्त्या घट मानाः पृथक् अनेके जीवाः। जीवसत्वे पंचनूततहरीरवादिमतं निराकृतं । पृथगित्यनेन यात्माऽवैतवादिनिरासश्च । तेऽनेके जीवाः सुखं दुःखं देवनारकादिनवेषु वेदयंत्यनुनवंति अनेनाऽकर्तृवादो निरस्तः (अज्वेत्ति)। अथवा लुप्यते स्थानात् स्थानांतरं संक्राम्यते।ए तेनोपपातिकत्वमप्युक्तं ॥१॥ नियतिवादमतमेवाह श्लोक येन । (नतमिति) यत्तैः प्राणिनिरनुनूयते सुखं फुःखं स्थानविलोपनं वा न तत्स्वयमात्मना पुरुषकारेण कृतं दुःखं। उखस्यचोपलक्षणात्सुखमपि ग्राह्यं । सुखःखानुनवः पुरुषकारकतो न स्यादित्यर्थः। अनेन कालेश्वरस्वनावकर्मादिना च कुतः कृतं । एमित्यलंकारे। कालादिनिरपि न कत मित्यर्थः । किंतु नियतेरेव निष्पद्यते सर्वमिति । ततः सुखं सैदिकं सिौ मोदे नवं सै Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८ द्वितीये सूत्रकृतागे प्रथम श्रुतस्कंधे प्रथमाध्ययनं. किं । यदिवा दुःखमसैद्धिकं सांसारिकं । अथवा सैडिकमसैद्धिकं च सुखं यथा । स्रक् चंदनांगनाद्युपजोग क्रियासिद्धौ नवं सैद्धिकं । यांतरं सुखमानंदरूपमसैद्धिकं । तथा सैकसैदिकं च दुःखं यथा । कशाताडनांकनादिक्रियासिदौ नवं सैकिं । ज्वरशिरो र्तिशूलादिरूपमंगोड मसैद्धिकं दुःखं । एतङनयमपि सुखं दुःखं च नपुरुषकारकृतं । नचा न्यैः कालादिनिः कृतं वेदयंत्यनुवंति पृथक्जीवाः । कथं तर्हि प्राणिनां सुखं दुःखं च स्यादित्याह । ( संगइयंति ) । सम्यक् स्वपरिणामेन गतिर्यस्याः यदा यत्र यत्सुखदुःखानुन वनं सा संगतिर्नियतिस्तस्यानवं सांगतिकं नियतिकृतमित्यर्थः । इहाऽस्मिन्सुखडुःखा नववादे एकेषां नियतिवादिनामिदमाख्यातं । यक्तं तैः । प्राप्तव्यो नियतिबलाश्रयेण सोऽवश्यं नृणां शुनोऽशुनो वा ॥ नूतानां महति कृतेपि हि प्रयत्ने, नानार्व्य नवति न जाविनोस्ति नाश इति ॥ ३ ॥ " ॥ टीका - नक्तः प्रथमोद्देशकस्तदनु द्वितीयोऽनिधीयते । तस्य चायमनिसंबंधः । इहा नंतरोदेशके स्वसमयपरसमय प्ररूपणाकृता । इहाप्यध्ययनार्थाधिकारत्वात्सैवा निधीय ते । यदि चानंतरोदेशके नूतवादादिमतं प्रदर्श्य तन्निराकरणं कृतं । तदिहापि तदवशिष्ट नियतिवाद्यादिमिय्यादृष्टिमतान्युपदर्य निराक्रियते । अथवा प्रागुद्देश केऽन्यधायि यथा बंधनं बुध्येत तच्च त्रोटयेदिति तदेव च बंधनं नियतिवाद्यनिप्रायेण न विद्यतइति प्रदर्श्यते । तदेवमनेन संबंधेनायातस्यास्योद्देशकस्य चत्वार्यनुयोग द्वाराणि व्यावर्ण्य सूत्रा नुगमेऽस्खलितादिगुणोपेतं सूत्रमुच्चारणीयं । तच्चेदं । (याघाय मित्यादि) यस्य चाऽनंत रपरंपरसूत्रैः संबंधोवक्तव्यस्तत्राऽनंतर सूत्रसंबंधोयं । इहानंतरसूत्रे इदमनिहितं यथा । पंचनूतस्कंधा दिवादिनो मिथ्यात्वोपहतांतरात्मनोऽसयाहा निनिविष्टाः परमार्थाsa बोध विकलाः संतः संसारचक्रवाले व्याधिमृत्युजराकुले वच्चावचानि स्थानानि गवंतो गर्नष्यंत्यन्वेषयति वाऽनंतशइति । तदिहापि नियत्यज्ञा निज्ञानचतुर्विधकर्मोपच यवादिनां तदेव संसारचक्रवालचमणगर्नान्वेषणं प्रतिपाद्यते । परंपरसूत्र संबंधस्तु (बु शेत्यादि) । तेन च सहायं संबंधस्तत्र बुध्येतेत्येतत् प्रतिपादितमिहापि यदाख्यातं नि यतिवादिनिस्तद्बुध्येतेत्येवं मध्यसूत्रैरपि यथासंभवं संबंधो लगनीयइति । तदेवं पूर्वोत्तरसं बंधसंबऽस्यास्य सूत्रस्याऽधुनार्थः प्रतन्यते । पुनः शब्दः पूर्वादिन्यो विशेषं दर्शयति । नियतिवादिनां पुनरेकेषामेतदाख्यातं । यत्र चाविवचितकर्मकायपि कर्मका नवंती तिख्यातेर्धातोर्भावे निष्ठाप्रत्ययस्तद्योंगे कर्तरि षष्ठी । ततश्चायमर्थस्तैर्नियतवादिनिः पुन रिदमाख्यातं तेषामयमाशयइत्यर्थः । तद्यथा । उपपन्नो युक्त्या घटमानकाइत्यनेन च पं चनूततीवत वरीवादिमतमपाकृतं नवति । युक्तिस्तु लेशतः प्राग्दर्शितैव । प्रदर्शयिष्यते For Private Personal Use Only Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राय धनपतसिंघ बाहाउरका जैनागमसंग्रह नाग उसरा. ए च पृथक्टथकनारकादिनवेषु शरीरेषु चेत्यनेनाऽप्यात्माऽवैतवादिनिरासोऽवसेयः। के पुन स्ते पृथगुपपन्नास्तदाह।जीवाः प्राणिनः सुखःखनोगिनः । अनेन च पंचस्कंधातिरिक्तजीवा नावप्रतिपादकबौक्षमताऽपदेपः कृतोऽष्टव्यः। तथा ते जीवाः पृथक्प्टथक प्रत्येकदेहे व्य वस्थिताः सुखं खं च वेदयंत्यनुनवंति । न वयं प्रतिप्राणिप्रतीतं सुखःखानुन निद् महे । अनेन चाऽकर्तृवादिनोनिरस्तानवंति । अकर्तय विकारिण्यात्मनि सुखःखानुनवा नुपपत्ते रिति नावः। तथैतदस्मानिनोऽपलप्यते । अवेत्यथवा । तेप्राणिनः सुखं दुःखं चानुनवंति विलुप्यते विद्यते स्वायुषः प्रच्याव्यंते स्थानात्स्थानांतरं संक्राम्यंत इत्यर्थः । ततश्चौपपातिकत्वमप्यस्मानिस्तेषां न निषिध्यते इतिश्लोकार्थः॥ १ ॥ तदेवं पंचनूता स्तित्वादिवादिनिरासं कृत्वा यत्तैर्नियतिवादि निराश्रीयते तनोक झ्येन दर्शयितुमाह । (नतंसयमित्यादि) यत् तैः प्राणिनिरनुनूयते सुखं दुःखं स्थान विलोपनं वा न तत्स्वय मात्मना पुरुषकारेण कृतं निष्पादितं फुःखमिति । कारणेकार्योपचारात् । दुःखकारणमेवो तं । अस्य चोपलदणत्वात् सुखाद्यपि ग्राह्य। ततश्चेदमुक्तं नवति । योयं सुखदुःखानुजवः सपुरुषकारकृतकारणजन्यो न नवतीति । तथा कुतोऽन्येन कालेश्वरस्वनावकर्मादिना च क तं नवेत् । णमित्यलंकारे । तथाहि । यदि पुरुषकारकृतं सुखाद्यनुनूयेत ततः सेवकवणि कर्षकादीनां समाने पुरुषकारे सति फलप्राप्तिवैसदृश्यं फलप्राप्तिश्च न न वेत् । कस्यचित्तु से वादिव्यापारानावेपि विशिष्टफलावाप्तिर्दृश्यत इत्यतो न पुरुषकारात्किंचिदासाद्यते किंत हिनियतेरेवेत्येतच्च वितीयश्लोकांतेऽनिधास्यते । नापि कालः कर्ता । तस्यैकरूपत्वाऊग ति फलवैचित्र्यानुपपत्तेः। कारणनेदे हि कार्यनेदोनवति नानेदे । तथा ह्ययमेव हि नेदो नेदहेतुर्वा घटते । यत विरुधर्माध्यासः कारणनेदश्च । तथेश्वरकर्तृकेपि सुखःखे नन वतः। यथाऽसावीश्वरो मूर्तोऽमूर्ती वा । यदि मूर्तस्ततः प्राकृतपुरुषस्येव सर्वकर्तृत्वानावः। अथाऽमूर्तस्तथा सत्याकाशस्येव सुतरां निष्क्रियत्वं । थपिच यद्यसो रागादिमात्रस्ततो ऽस्मदाद्यव्यतिरेका विश्वस्याकतॆव । अथासौ विगतरागस्ततस्तकृतं सुनगनगेश्वरद रिज्ञादिजग दैचित्र्यं न घटां प्रांचति ततोनेश्वरः कर्तेति । तथा स्वनावस्यापि सुखः खादिकर्तृत्वानुपपत्तिः । यतोऽसौ स्वनावः पुरुषानिन्नोऽजिन्नोवा । यदि निनोन पुरुषा श्रिते सुखःखे कर्तुमलं तस्मानिन्नत्वादिति । नाप्यनिन्नोऽनेदे पुरुषएव स्यात्तस्य चाक तृत्वमुक्तमेव । नापि कर्मणः सुखःखं प्रति कर्तृत्वं घटते । यतस्तत्कर्म पुरुषानिन्नमनि नं वा नवेत् । अनिन्नं चेत्पुरुषमात्रतापत्तिः कर्मणस्तत्र चोक्तो दोषः। अथ निन्नं तत्किंस चेतनमचेतनं वा । यदि सचेतनं एकस्मिन् काये चैतन्य च्यापत्तिः । अथाचेतनं तथा सति कुतस्तस्य पाषाणखंडस्येवास्वतंत्रस्य सुखःखोत्पादनंप्रति कर्तृत्वमित्येतच्चोत्तरत्र व्यासेन प्रतिपादयिष्ये इत्यलं प्रसंगेन । तदेवं सुखं सैदिकं सिक्षावपवर्गलाणायां Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५० द्वितीये सूत्रकृतांगे प्रथम श्रुतस्कंधे प्रथमाध्ययनं. I नवं यदि वा खं यासातोदयलक्षणमसैद्धिकं सांसारिकं । यदिवोजयमप्येतत्सुखं दुःखं वा चंदनगनाद्युपजोग क्रियासि यौनवं तथा कशाताडनांकनादिसिद्धौ नवं सैद्धिकं । त थाऽसैद्धिकं सुखमांतरमानंद रूपमाकस्मिकमनवधारितबाह्यनिमित्तं । एवं दुःखमपि ज्वर शिरोर्तिशूलादिरूपमं गोमसैदिकं । तदेतनयमपि न स्वयं पुरुषकारेण कृतं नाप्यन्येन केनचित् कालादिना कृतं वेदयंत्यनुवंति प्रयक्जीवाः प्राणिनइति । कथं तर्हि तत्तेषाम नूदिति नियतिवादी स्वानिप्रायमाविष्करोति ( संगइयंति ) सम्यक् स्वपरिणामेन गतिर्यस्य यदा यत्र यत्सुखदुःखानुनवनं सा संगतिर्नियतिस्तस्यां नवं सांगतिकं । यतश्चैवं न पुरु पकारादिकृतं सुखडः खाद्यतस्तत्तेषां प्राणिनां नियतिकृतं सांगतिक मित्युच्यते । इहास्मि न् सुखदुःखानुनववादे एकेषां वादिनामाख्यातं तेषामयमन्युपगमः । तथाचोक्तं । प्राप्त यो नियताश्रये यर्थः, सोऽवश्यं नवति नृणां शुनोऽनो वा ॥ नूतानां महति कृतेपि हि प्रयत्ने नानाव्यं नवति न जाविनोस्ति नाशः ॥ १ ॥ ३ ॥ एवमेयाणि जंपंता, बाला पंमिप्रमाणिणो ॥ निययानिययं संतं, याता बुधिया ॥ ४ ॥ एवमेगे न पासच्चा, ते नुको विष्पग प्रिया ॥ एवं नवच्या संता, पण ते दुःखविमोकया ॥ ५ ॥ अर्थ- हवे ग्रंथकार ने उत्तर प्रापे एवमेयालिजंपंता के० एवं पूर्वोक्त वचन नि यतवादाश्रित बोलतां एवा ते बालाके० बाल अज्ञानी बतां पोताने पंमिश्रमा लियोके ० पंमित करी मानतां शा माटे मानेबे ते कहेबे के; निययानिययंके० ते खज्ञानी नियतिक त सुख दुःख अथवा नियतिकृत पुरुषकारादिकनुं करेनुं एवं सुख दुःख ते संतं के० एकांते नवितव्यतायेज करयुं एम कहेबे; ते कारणे तेने सुखः खादि कारणना यया ता बुद्धिया जाए, बुद्धिरहित कहिए. ने जैनतो नियतिकृतपणे तथा य नियतिकृतपणे ए बने प्रकारे सुख दुःख मानेने एटले स्याद्वादी कहिए. ॥ ४ ॥ हवे ते ने एवी प्ररूपणानुं विपाक देखाडेबे एवमेके० एरीते कोई एक नियतवादने विषे या श्रित परवादीने ते केवावे; तोके पासबाके० पार्श्वस्य एटले न्यायपचय की बाहेर अथ वा पासा एटले पाशके कर्मनुं बंधन तेने विषे स्थित बुद्धो के तेवली पुनः विप्पनिया के विविध प्रगल्नित एटले अत्यंत धिवाथका मुक्तिमार्गने विषे प्रवर्त्ते; वली एवं कबे के मे एवी क्रिया करता थका मुक्तिपामीचं परंतु एवंके० ए प्रकारे ते उ या संतावित एटले पोतानी क्रियाने विषे प्रवर्ततां बतां ते डुःरक विमोरकया के ० पोताने दुःखी मूकावनार न होय एटले मुक्ति पामेनहीं. ॥ ५॥ एटले नियतवादी कला. || दीपिका - प्रस्योत्तरमाह । ( एवमिति ) । एवमेतानि पूर्वोक्तानि वचनानि जल्पंतो ० ס For Private Personal Use Only ס Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राय धनपतसिंघ बानाउरका जैनागम संग्रह नाग उसरा. १ नियतिवादिनोबाला मूर्खाः पंडितमानिनः स्वयमपंमिताअप्यात्मानं पंडितं मन्यमा नाः। किंतताः नियताऽनियतमजानंतः किंचिनियतिकतमवश्यंनावि नियतमात्मपुरु षकारेश्वरादिकतं किंचिदनियतमेवं विविधं वस्तु अजानंतोनियतिकतमेवैकांतेनाश्र यंतोऽतएवाबुदिकाबुदिरहितानवंति । पुरुषकारादयोपि वस्तूत्पादकाः । यतः। न दैवमिति संचिंत्य, त्यजेद्यममात्मनः । अनुद्यमेन कस्तैलं तिजेन्यः प्राप्तुमर्हति ॥ १ ॥ इत्याद्यजानंतोऽतएव निर्बुदिकाः॥ ४ ॥ एतादिनामपायमाह । (एवमिति )। एवमेके नियतिवादिनं पार्श्वस्थाः युक्तिसमूहाबहिस्तिष्टंतीति पार्श्वस्थाः परलोक क्रियापार्श्वस्थावा ।अथवा पाराः कर्मबंधनं तत्र स्थिताः । (तेनुजोत्ति)। ते यो विविधं प्रगल्लिता धा ष्टयोपेता नियतिवादमंगीकृत्यापि एवं पुनरपि स्वकार्यपरलोकक्रियासु प्रवर्तमानाथतएव धाष्टर्योपेतानते दुःख विमोचकायात्मानं फुःखान्न मोचयंति॥ ५॥ नियतिवादिनोगताः॥ ॥टीका-एवं श्लोक येन नियतिवादिमतमुपन्यस्यास्योत्तरदानायाह । ( एवमेयाणि इत्यादि ) एवमित्यनंतरोक्तस्योपप्रदर्शने । एतानि पूर्वोक्तानि नियतिवादाश्रितानि वचना नि जल्पंतोऽनिदधतो बालायाः सदसदिवेव विकलायपि संतः पंडितमानिनयात्मा नं पंमितं मंतुं शीलं येषां ते तथा । किमिति तएवमुच्यतइति तदाह । यतो (निययानि ययंसंतमिति)। सुखादिकं किंचिन्नियतिकतमवश्यं नाव्युदयप्रापितं तथाऽनियतमात्म पुरुषकारेश्वरादिप्रापितं सत् नियतिकतमेवैकांतेनाश्रयंत्यतोऽजानानाः सुखःखादिकारण मबुझिकाबुधिरहितानवंतीति । तथापाहतानां किंचित्सुखःखानि नियतितएव नवं ति । तत्कारणस्य कर्मणः कस्मिंश्चिदवसरेऽवश्यं नाव्युदयसनावान्नियतिकतमित्युच्यते । तथा किंचिदनियतिकृतं च पुरुषकालेश्वरस्वनावकर्मादिकतं तत्र कथंचित्सुखःखादेः पु रुषकारसाध्यत्वमप्याश्रीयते । यतः क्रियातः फलं नवति क्रिया च पुरुषकाराऽयत्ता प्रव तते। तथाचोक्तं । न देवमिति संचिंत्य, त्यजेउद्यममात्मनः । अनुद्यमेन कस्तैलं तिलेन्यः प्राप्तुमर्हति ॥१॥ यत्तु समाने पुरुषव्यापारे फलवैचित्र्यं दूषणत्वेनोपन्यस्तं तददूषणमेव । यतस्तत्रापि पुरुषकारवैचित्र्यमपि फलवैचित्र्ये कारणं नवति । समाने वा पुरुषकारे यः फलानावः कस्यचित्रवति सोऽदृष्टकतः। तदपि चास्मानिः कारणत्वेनाश्रितमेव । तथा कालोपि कर्ता । यतो बकुलचंपकाशोक पुन्नागसहकारादीनां विशिष्टएव काले पुष्पफला युनवोन सर्वदेति । यच्चोक्तं । कालस्यैकरूपत्वाङगचित्र्यं न घटतइति तदस्मान् प्रति न दूषणं । यतोऽस्मानिन कालएवैकः कर्तृत्वेनान्युपगम्यतेऽपितु कर्मापि ततो जग दैचित्र्यमित्यदोषः। तथेश्वरोपि कर्ता । आत्मैव हि तत्र तत्रोत्पत्तिबारेण सकलजगध्या पनादीश्वरः । तस्य सुखःखोत्पत्तिकर्तृत्वं सर्ववादिनामविगानेन सिक्षमेव । यञ्चात्र मूर्तामू Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२ वितीये सूत्रकृतांगे प्रथमश्रुतस्कंधे प्रथमाध्ययनं. तादिदूषणमुपन्यस्तं तदेवंनतेश्वरसमाश्रयणे दुरोलेदितमेवेति । स्वनावस्यापि कथंचि स्कर्तृत्वमेव । तथा ह्यात्मननपयोगलदगत्वमसंख्ययप्रदेशत्वं । पुजलानां च मूर्तत्वं ध मधिर्मास्तिकाययोर्गतिस्थित्युपटनकारित्वममूर्तत्वं चेत्येवमादिस्वनावापादितं । यदपि चा त्मव्यतिरेकाऽव्यतिरेकरूपं दूषणमुपन्यस्तं तददूषणमेव । यतः स्वनावात्मनोऽव्यति रिक्तः । यात्मनोपि च कर्तत्वमन्युपगतमेव तदपि स्वनावापादितमेवेति । तथा कर्मापि कत नवत्येव । तदिजीवप्रदेशः सहान्योन्यानुवेधरूपतया व्यवस्थितं कथंचिच्चात्मनोऽनि नं तशाचात्मा नरकतिर्यङ्मनुष्यामरनवेषु पर्यटन सुखःखादिकमनुनवतीति । तदेवं नियत्यनियत्योः कर्तृत्वे युक्त्युपपन्ने सति नियतेरेव कर्तृत्वमन्युपगडंतोनियुक्तिकानवंतीत्य वसेयम्॥४॥तदेवं युक्त्या नियतिवादं दूषयित्वा तदादिनामपायदर्शनायाहा (एवमेगेनइत्या दि। एवमितिपूर्वान्युपगमसंसूचकं । सर्वस्मिन्नपि वस्तुनि नियतानियते सत्येके नियतमेवा ऽवश्यं नाव्येव कालेश्वरादिनिराकरणेन निर्हेतुकतया नियतिवादमाश्रिताः । तुरवधार णे। तएव नान्ये । किंविशिष्टाः पुनस्ते इति दर्शयति ।युक्तिकदंबकादहिस्तिष्ठंतीति पा वस्थाः परलोक क्रियापार्श्वस्थावा । नियतिपदसमाश्रयणात्परलोक क्रियावैयर्थं । य दि वा पाशश्वपाशः कर्मबंधनं तच्चेह युक्ति विकलनियतिवादप्ररूपणं तत्रस्थिताः पाश स्थाः। अन्येप्येकांतवादिनः कालेश्वरादिकारणिकाः पावस्थाः पाशस्थावा इष्टव्या त्यादि । ते पुनर्नियतिवादमाश्रित्यापि नूयोविविधं विशेषेण वा प्रगल्लिताधाष्टर्योपग ताः परलोकसाधकासु क्रियासु प्रवर्तते । धाष्टाश्रयणं तु तेषां नियतिवादाश्रयणे स त्येव । पुनरपि तत्प्रतिपंथिनीषु क्रियासु प्रवर्तनादिति ते पुनरेवमप्युपस्थिताः परलोक साधकासु क्रियासु प्रवृत्ताअपि संतोनात्मकुःख विमोक्काः । असम्यक्प्रवृत्तवान्नात्मानं फुःखादिमोचयंति । गतानिय तिवादिनः ॥ ५ ॥ जविणो मिगा जहा संता, परिताणेण वडिआ॥असंकियाई संकेति, संकिआइं असंकिणो ॥६॥परियाणिआणि संकेता,पासिताणि असंकि णो॥ अमाणनयसंविग्गा संपलिंति तहिंतहिं ॥७॥ अह तं पवेज बरं, अहे बसस्स वा वए॥ मुच्चेज्ज पयपासान, तं तु मंदे ण देहए ॥७॥ अर्थ-हवे अज्ञानवादीना मत उपर दृष्टांत कहेले. जहाके जेम, मिगाके मृग एटले घरण्यना पशु जविणो संता के वेगवंत बतां ते केवांजे, तोके परिताणेणवकि याके परित्राण एटले शरणेकरी वर्जित अर्थात् तेमनो कोइ राखनार नथी. एवा ते नयविव्हलन्त विवेकरहित थका असं कियाइं के० यशंकित स्थानक जे कूट पा शादिक रहित तेने संकंति के शंकानुं स्थानक जाणे तथा जे संकियाई के शंकित Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राय धनपतसिंघ बादाडुरका जैनागमसंग्रह नाग दुसरा. ५३ 0 स्थानक जे वधनुं कारण ते स्थानक थकी प्रसंकिणो के० शंका पामे नहीं. ॥ ६ ॥ वली एहिज कहेबे के, ते मृगादिक जीव परियाणिप्राणि के० परित्राण जे रक्षानुं स्थानक तेथी संकंता के० शंकाता घने पासिताणि प्रसंकियो के० पाशना स्थानक थकी शंकाता, मानय के अजाणपणे अथवा नयें करी, संविग्गा के० व्याकुल थका संपति तहिं तहिं के० तेहिज तेहिज स्थानके जाय. ज्यां त्यां पाशादिक मांहेज पडे ॥ ७ ॥ वली एज दृष्टांत दिपावे. यह के० अथ एटले हवे तंके० ते मृगादिक जीव ते वागुरादिकनो जे बसंपवेऊ के० बंधपाशादिकनां स्थानक ने यहेबस्तवाव ए के नीचे अथवा उपर प्राक्रमीने जाय. जो एम करे तो ते मुच्चेपय पासा के ० पगना पाशथकी मूकाय एटले बुटो थाय परंतु ते अनर्थ परिहरवानो उपाय तके ० ते, मंदे के० मंद ज्ञानी, देह एके० नदेखे. ॥ ८ ॥ ० ॥ दीपिका - प्रथाज्ञा निमतमाह । (जविणोत्ति ) । यथा जविनोवेगवंतः संतोमृगाः परित्राणेन शरणेन वर्जितारहिताः । अथवा परित्राणं वागुरादिबंधनं तेन तर्जितानयं प्रापिताः संतोऽशंकितानि स्थानानि शंकंते जयचांताः संतोनिर्भयान्यपि स्थानानि सनयतया मन्यते । शंकितानि च वागुरादीन्यशंकमानाः संपर्ययंत इत्युत्तरसूत्रेण सं बंधः ॥ ६ ॥ परित्राणं संजातं येषु तानि परित्रापितानि शरनूतानि स्थानानि मूढ त्वात् शंकमानाः सनयानि मन्यमानाः पाशितानि पाशयुक्तान्यशंकमानास्तेषु शंकाम कुर्वाणा ज्ञानेन नयेन च ( संविग्गत्ति ) सम्यक व्याप्तास्तत्र तत्र वागुरादिके बंधने सं पर्ययं समेकीनावेन परिसमंतादयंते गवंतीति ॥ ७ ॥ इममेव दृष्टांतमाश्रित्याह । (घ हेति ) । श्रथानंतरमसौ मृगस्तत् ( बझमिति) बंधोबंधनकारणं रकुवागुरादिबंधं वा यदि पति वा प्रथवा बंधस्याधोव्रजेत् तदा पदपाशात् वागुरादिबंधनान्मुच्यते । एवं संतमपि तमनर्थपरिहरणोपायं मंदोजडोन देहतीति न पश्यतीति ॥ ८ ॥ ॥ टीका- सांप्रतमज्ञानिमतं दूषयितुं दृष्टांतमाह । (जविणोइत्यादि) यथा जविनोवेग वंतः संतो मृगायारण्याः पशवः परिसमंतात् त्रायते रतीति परित्राणं तेन वर्जिता रहि ताः परित्राण विकला इत्यर्थः । यदिवा परित्राणं वागुरादिबंधनं तेन तर्जितानयं ग्रहि ताः संतोजयोद्धांतलोचनाः समाकुलीनूतांतः करणाः सम्यक्विवेक विकलाशंकनी यानि कूटपाशादिरहितानि स्थानान्यशंकार्हाणि तान्येव शंकंते नर्थोत्पादकत्वेन गृहंति । यानि पुनः शंकाहणि शंका संजाता येषु योग्यत्वात्तानि शंकितानि शंकायोग्या निवारादीनि तान्यकिनस्तेषु शंकामकुर्वाणास्तत्र तत्र पाशादिके संपर्ययंतइत्युत्तरेषा संबंधः ॥६॥ पुनरप्येतदेवाऽतिमोहाविष्करणायाह । ( परियाणीत्यादि ) परित्रायते इति परित्राणं तातं येषु तानि । यथा परित्राणयुक्तान्येव शंकमाना तिमूढत्वादिपर्यस्तबु For Private Personal Use Only Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४ द्वितीये सूत्रकृतांगे प्रथम श्रुतस्कंधे प्रथमाध्ययनं. यस्त्रातर्यपि जयमुत्प्रेक्षमाणानि पाशितानि पाशोपेतान्यनर्थापादकान्यरां किनस्तेषु शंकामकुर्वाणाः संतोऽज्ञानेन नयेन च ( संविग्गंति ) । सम्यव्याप्तावशीभूताः शं कनकनीयं वा तत्राऽपरित्राणोपेतं पाशाद्यनर्थोपेतं वा सम्यक्विवेकेनाऽजानाना स्तत्र तत्राऽनर्थबहुले पाशवागुरादिके बंधने संपर्ययंते समेकीनावेन परिसमंतादयंते यांति वा गतीत्युक्तं नवति । तदेवं दृष्टांतं प्रसाध्य नियतिवादाद्येकांताऽज्ञानवादिनोदाष्टतिक त्वेनाsयोज्याः । यतस्ते येकांत वादिनोऽज्ञानकास्त्राणनू तानेकांतवाद वर्जिताः सर्वदोष विनिर्मुक्तं काजेश्वरादिकारणवादाच्युपगमेनाऽनाशंकनीयमनेकांतवादमाशंकते शंकनी यं च नियत्यज्ञानवादमेकांतं न शंक्ते । ते एवंभूताः परित्राणार्हेप्यनेकांतवादे शंकां कु aferresघटमानकमनर्थबहुल मेकांतवाद मशंकनीयत्वेन गृहंतोऽज्ञानावृतास्ते षु तेषु कर्मबंधस्थानेषु संपर्ययंत इति ॥ ७ ॥ पूर्वदोषैरतुष्यन्नाचार्यो दोषांतर दित्सया पुनरपि प्राक्तन दृष्टांतमधिकृत्याह । ( हतंपवेकइत्यादि) यथानंतरमसौ मृगस्तत् (बझ मिति ) ब बंधनाकारेण व्यवस्थितं । वागुरादिकं वा बंधनं बंधकत्वाद्वैधमित्युच्यते । तदे वंभूतं कूटपाशादिकं बंधनं यद्यसावुपरिप्लवेत् तदधस्तादतिक्रम्योपरिगच्छेत् तस्य व धनस्याधोगवेत्तत एवं क्रियमाणेऽसौ मृगः पदेपाशः पदपाशोवागुरादिबंधनं त स्मान्मुच्यते । यदि वा पदं कूटं पाशः प्रतीतस्ताच्यां मुच्यते । क्वचित्पदपाशादीति पच ते । श्रादिग्रहणादधताडनमारणादिकाः क्रियागृह्येते । एवं संतमपि तमनर्थोत्पादकं परिहरणोपायं मंदोज डोऽज्ञानावृतोन देहतीति न पश्यतीति ॥ ८ ॥ यदिच्यप्पाऽदियप्पमाणे, विसमंतेणुवागते ॥ सब पयपासेणं, तब घायं नियच ॥ ॥ एवं तु समणा एगे, मिचदिघी प्रणारिया ॥ प्र संकियाई संकंति, संकिपा संकिणो ॥ १० ॥ धम्मपावणा जा सा, तं तु संकंति मूढगा ॥ आरंभाई न संकंति, व्यवित्ता कोवि आ ॥ ११ ॥ सवप्पगं विवकस्सं सर्वमं विणिच्या ॥ अप्पत्ति कम्मंसे, एयम मिगे चुए ॥ १२ ॥ 0 अर्थ- हवे ते उपाय प्रण देखतो थको जे व्यवस्थाने पामे ते कहेते. अहियाप्पा के० ते मृग खात्माने हित तथा हिममा के हित जेनुं जाणपणु बे, एवा उता, विसमंते के० विषम कूट पाशादिक प्रदेशे, युवागते के० खावे. एटले ते पाश मां पडे. सब-पपासेणं के० ते त्यां पड्या बता बंधन पामे तथा तबघायं के० ते विनाशने नियत के दुःखी यता पामे. ॥ ए ॥ हवे ए दृष्टांत परवादिसाथे ० For Private Personal Use Only Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राय धनपतसिंघ बादारका जैनागमसंग्रह जाग दुसरा. ԱԱ head. एवंतु के० एरीते जेम ते मृग अजाणतां थकां पाशमांहे पडेबे, तेम सम ureगे के० को एक श्रमण शाक्यादिक दर्शनी ते केवाले, तोके मिवदिही के० मि यादृष्टी तथा पारिया के० अनार्य अज्ञानपणे अनाचारना सेवनारा ते संकिया के० प्रशंकित एवां जे रुडा धर्मनां अनुष्ठानले, तेनेविषे संकंति के० धर्मनी शंका खाणे; ने संकियाई के० जे हिंसादिक शंकित स्थानकडे, तेथकी असंकिणो के० न शंकाय. ॥ १० ॥ वली ते दर्शनीउनी जे विपरीत मति बे ते देखा डेले. धम्मपस्मव गाजासा के० कांत्यादिक दशविध धर्मे सहित प्ररूपणा जेनीबे. तंतुसंकंतिमूढगा के० ते की ते अज्ञानी शंकाय ने कहेके ए अधर्मनी प्ररूपणाबे, तथा जे घारंनाईके० यारंनादिक पापनां कारण बे. तेथकी नसंकंति के० न शंकाय ने तेनेज धर्म कर देखाडे. माटे ते केवा बे, वियत्ता के अव्यक्त, मुग्ध, विवेक, विकल तथा कोवि arco कोविद एटले पंमित बे ॥ ११ ॥ हवे तेने फल देखाडेले. सवप्पगं के० सर्वात्मक ते लोन, विचक्कस्सं के० मान, सब के समस्त, णूमं के० माया, तथा अप त्तियं के० क्रोध ए चार कषाय विदूलिया के० खपावीने जीव प्रकम्मंसेके कर्माश याय, एटले कमीशरहित याय. एयमहं के० एवो अर्थ ते मिगेके० मृगनी पेरे ज्ञान ष वादी दर्शनी चूके. बांबे. सारांश जेथकी जीव मुक्ति पामे ते अर्थ जाणता नथी ॥ १२॥ ס ॥ दीपिका - पाशमपश्यतोयाऽवस्था स्यात्तामाह । ( हिप्पेति । स मृगोऽहिता त्मा तथा प्रहितं प्रज्ञानं बोधोयस्य सोऽहितप्रज्ञानः विषमांतेन कूटपाशादियुक्तेन प्रदेशे नोपागतः । अथवा विषमांते कूटपाशे यात्मानमनुपातयेत् । तत्र चासौ ब5: पादपाशा दीननर्थबहुलान् अवस्थाविशेषान् प्राप्तस्तत्र बंधने घातं विनाशं निगइति प्राप्नोति ॥ ॥ ५ ॥ दृष्टांतयोजनामाह । ( एवमिति ) । एवं पूर्वोक्तमृगदृष्टांतेन । तुरवधार ऐ । एकेश्रमणाः पाखंमाश्रितमिथ्यादृष्टयोऽनार्याय सदनुष्ठानाञ्च शंकितानि धर्मानुष्ठा नानि शंकमानास्तथा शंकितान्येकांतपदाश्रयणान्यशं किनोमृगाश्वाऽनर्थनाजः स्युः ॥ ॥ १० ॥ शंकिताशंकितविपर्यासमाह । ( धम्मेत्ति ) । धर्मप्रज्ञापना कांत्यादिदशविधधर्म प्ररूपणा या सा प्रसिद्धा तां शंकंते सधर्मप्ररूपणेयमिति मन्यते । श्रारंनांश्च पापो पादाननूतान् शंकंते । यतोऽव्यक्तामुग्धाः सदसद्विवेक विकलायकोविदाय पंडिताः स sararaataaye: ॥११॥ तेषां सत्फलानावमाह । ( सवप्पगमिति ) सर्वात्मकोलो नस्तं । व्युत्कर्षोमानस्तं (सवंणूमंति) मायां तथा (अप्पत्तियंति) क्रोधस्तं च विधूय कर्मा शः न विद्यते कर्मशोयस्य सोऽकर्मीशः स्यात् । यकमंशित्वं च ज्ञानाद्भवति नाऽज्ञानादि त्याह । (एयमति ) । एतमर्थ कर्मानावरूपं मृगइव मृगोऽज्ञानी (चुएत्ति) त्यजेत् ॥ १२॥ For Private Personal Use Only Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६ वितीये सूत्रकृतांगे प्रथमश्रुतस्कंधे प्रथमाध्ययनः • ॥ टीका-कूटपाशादिकं चापश्यन् यामवस्थामवाप्नोति तां दर्शयितुमाह। (अहीत्या दि) स मृगोऽहितात्मा । तथाऽहितं प्रज्ञानं बोधोयस्य सोऽहितप्रझानः । सचाहितप्रज्ञा नः सन् विषमांतेन कूटपाशादियुक्तप्रदेशेनोपागतः । यदिवा विषमांते कूटपाशादिके या त्मानमनुपातयेत् । तत्र चासौ पतितो बचश्व तेन कूटादिना पदपाशादीननर्थबहुलान वस्थाविशेषान प्राप्तस्तत्र बंधने घातं विनाशं नियति प्राप्नोतीति ॥ ॥ एवं दृष्टांत प्रदर्य सूत्रकारएव दाष्टीतिकमज्ञानविपाकं दर्शयितुमाह । (एवंतुइत्यादि) एवमिति यथा मृगायझानावृताअनर्थमनेकशः प्राप्नुवंति । तुरवधारणे । एवमेव श्रमणाः केचि त्पाखमविशेषाश्रिताः। एके न सर्वे । किंनूतास्ते इति दर्शयति । मिथ्या विपरीता ह ष्टिर्येषामझानवादिनां नियतिवादिनां वा ते मिथ्यादृष्टयः । तथा अनार्याः आराजा ताः सर्व हेयधर्मेन्यति थार्याः न थार्याअनार्याधज्ञानावृतत्वादसदनुष्ठायिनाति यावत् । अज्ञानावृतत्वं च दर्शयति । थशंकितान्यशंकनीयानि सुधर्मानुष्ठानादीनि शंकमानास्तथा शंकनीयान्यपायबहुलान्येकांतपक्समाश्रयणान्यशंकिनोमगाश्व मूढ चेतसस्तत्तदाऽरनंते यद्यदनाय संपातति ॥ १० ॥ शंकनीयाशंकनीयविपर्या समाह । (धम्मपावणेत्यादि) । धर्मस्य छात्यादिदशलक्षणोपेतस्य या प्रज्ञापना प्ररूपणा। तंत्विति । तामेव शंकते असमप्ररूपणेयमित्येवमध्यवस्यति । ये पुनः पापोपादाननूताः समारंनास्तानाशंकंते । किमिति । यतोऽव्यक्तामुग्धाः सहजस विवेकविकलाः । तथा । अकोविदाथपंडिताः सन्त्रास्त्रावबोधरहिताइति ॥ ११ ॥ तेच अज्ञानातायन्नाप्नुवंति तदर्शनायाह । (सवप्पगमित्यादि) । सर्वत्राप्यात्मा यस्या ऽसौ सर्वात्मको लोनस्तं विधूयेति संबंधः । तथा । विविधनत्कर्षोंगोव्युत्कर्षामानइत्य र्थः । तथा ( णूमंति) माया तां विधूय । तथा (अप्पत्तियंति ) क्रोधं विधूय । कषा यविधूनने च मोहनीयविधूननमावेदितं नवति तदपगमाच शेषकर्मानावः प्रतिपादितो नवतीत्याह । (अकर्माशइति)। न विद्यते कर्माशोऽस्येत्यकौशः। सच कर्माशोवि शिष्टज्ञानानवति नाझानादित्येव दर्शयति । एतमर्थ कर्मानावलक्षणं मृगः अज्ञानी (चुएत्ति )। त्यजेत् । विनक्तिपरिणामेन वा अस्मादेवंनूतादर्थात् व्यवेत् चश्येदिति ॥१२॥ जे एयं नानिजाणंति, मिबदिही अणारिया ॥ मिगा वा पासबधा ते, घायमेसंति पंतसो॥१३॥ मादणा समणा एगे, सधे नाणं सयं वए॥ सबलोगे वि जे पाणा,न ते जाणंति किंचण ॥२४॥ मिलरकू अमिलरकु स्स, जहा चुत्ताणुनासए॥ण देने से विजाणाई, नासिअंतणु नासए ॥१५ Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राय धनपतसिंघ बादाडुरका जैनागमसंग्रह नाग इसरा. एवमन्नाणिया नाणं, वयंतावि सयं सयं ॥ निचयचं न याांति, मिलस्कुछ बोदिया ॥ १६ ॥ अर्थ- वली एनोज दोष देखाडेबे . जेएयंना निजाति के० जे अज्ञानवादी ए कर्म खपाववानो उपाय नथी जाणता, ते केवा बे, मिचदिडीय पारिया के० मिथ्यादृष्टी नार्थ एवा मिगावापासबाते के० मृगलानी परे पाशमां बंधालावे. तेघाय मेस्संति पं तसो के० यागामिक काले अनंताघात एटले मरणने पामशे; एटले मृगतो एकवार मरण पामीनेज बूटेबे परंतु ते अज्ञानी अनंते मरणे पण बूटसे नहीं. ॥ १३ ॥ हवे जे पोते एकवार ग्रह्यं एवं जे पोतानुं कदाग्रह तेने कोइवारे मूकेनहीं ते उपर विशेष क a. महासमागे के० एक ब्राह्मण तथा एक श्रमण परिव्राजक विशेष ए सवे के० सर्वे, सयंके० पोत पोतानुं, नाांके० जाणपणुं रुडुंबे एम वएके० वदे एटले कहेते. वली ते जुदां जुदां ज्ञान परस्पर माहोमांहे विरुद्ध संदेह उपजावेळे; ते माटे अजाणपणुंज जुबे जाणपणानुं कां काम नथी, एरीते अज्ञानवादी कहेबे . तेमाटे सबलोगे विके० सर्व लोकमांहे, जे पाणा के० जे प्राणी बे, नतेजातिकिंचलं के० ते कांइ जाणता नथी, एटले सर्व सम्यक्ज्ञान रहित जाणवा. यद्यपि तेने कांइ गुरुपरंपरागत जालपणुं होय तथापि ते कांई परमार्थ जाणता नथी, माटे ते अज्ञानीज जाणवा. ॥ १४ ॥ हवे ते उपर दृष्टांत कहे. मिल कुछ मिल स्कुस के० जेम म्लेब यार्यभाषानो प्रजा थको षा तेने जहाचुत्ताणुनासए के० जेम नापतानी परे बोले परंतु ते सेवालाई के हेतु एटले परमार्थ कांइ जाणे नहीं, निःकेवल परमार्थै कर शून्य नासित पुनासए के० जाषाने केडे नापे ॥ १५ ॥ हवे ए दृष्टांत अज्ञानवादी साथे मेलवे. एवमन्नाणियाणा के एरीते अज्ञानी सम्यक्ज्ञानरहित एव। श्रमण ब्राह्म पादिक पोतपोताना मतनुं ज्ञान प्रमाण करीने वयंता विसयंसयं के० पोतपोतानो मार्ग head पण ते विनयाांति के निश्चयार्थ नथी जाणता. लिकुवा बोदिया के ० वत् एट लेखनी परे प्रबोधिक एटले ज्ञानरहित बे ॥ १६ ॥ ॥ दीपिका - नूयोप्यज्ञानवादिनां दोषमाह । (जेएतमिति ) । ये एतं कर्मक्षयोपायं न जानंति मिथ्यादृष्टयोनार्यास्ते मृगाश्व पाशबदाघातं विनाशमेष्यति यास्यत्यन्वेष तवा तद्योग्य क्रियाकरणात् । घनंतशोनिरंतरम् ॥ १३ ॥ ज्ञानवादिनामेव दूषणांतर माह । (माहणाइति ) । एके ब्राह्मणास्तथा श्रमणाः परिव्राजकाः सर्वे स्वकमात्मीयं ज्ञानं वदति नच तानि सर्वेषां ज्ञानानि । अन्योन्यविरोधेन प्रवृत्तत्वात् । तस्मादज्ञान मेव इत्याह । (सवेलोये वित्ति ) । सर्वस्मिन् लोके ये प्राणाः प्राणिनस्ते किंचन स ८ ne For Private Personal Use Only Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५७ तिीये सूत्रकृतांगे प्रथमश्रुतस्कंधे प्रथमाध्ययनं. म्यक् न जानंति ॥ १४ ॥ अथ दृष्टांतमाह । ( मिलरकुइति ) । यथा म्लेखोऽनार्यःथ म्लेहस्य थायस्य यमुक्तं नाषितं तदनुनाषते परमार्थशून्यं तनापितमेवानुनाषते । नच हेतुं विजानाति ॥ १५ ॥ दार्शतिके योजयति (एवमिति )। एवमझानिकाः स म्यक्झानरहिताः स्वकं स्वकमात्मीयं ज्ञानं प्रमाणत्वेन वदंतोपि निश्चयार्थ न जानति । श्व यथा म्लेलो निश्चयार्थमजानन् परोक्तमनुवदत्यवं तेप्यबोधिकाबोधरहिताः । ततोऽझानमेव श्रेयइति ॥ १६ ॥ ॥ टीका-नूयोप्यज्ञानवादिनां दोषानिधित्सयाह। (जेएयमित्यादि) । ये अज्ञान पदं समाश्रिताएनं कर्मपणोपायं न जानति । आत्मीयाऽसग्राहाऽग्रहयस्तामि थ्यादृष्टयोऽनार्यास्ते मृगाश्व पाशबाघातं विनाशमेष्यंति यास्यत्यन्वेषयंति वा । त योग्यक्रियानुष्ठानात् । अनंतशोविजेदेनेत्यज्ञानवादिनोगताः॥ १३॥ इदानीमझानवादिनां दूषणोदिनावयिषया स्ववाग्यंत्रितावादिनोन चलिष्यंतीति तन्मताविष्करणायाह । (मा हणाइत्यादि)। एके केचन ब्राह्मणविशेषास्तथा श्रमणाः परिव्राजक विशेषाः सर्वेप्ये ते ज्ञायतेऽनेनेति झानं हेयोपादेयार्थाऽविर्नावकं परस्परविरोधेन व्यवस्थित स्वकमात्मीयं वदंति । नच तानि झानानि परस्पर विरोधेन प्रवृत्तत्वात्सत्यानि । तस्मादज्ञानमेव श्रेयः किं झानपरिकल्पनयेत्येतदर्शयति । सर्वस्मिन्नपि लोके ये प्राणाः प्राणिनोन ते किंचना पि सम्यगुपेतवाचं जानंतीति विदंतीति ॥ १५ ॥ यदपि तेषां गुरुपारंपर्येण झानमायात तदपि हिन्नमूलत्वादवितथं न नवतीति दृष्टांतारेण दर्शयितुमाह। (मिलरकुअमिलरक स्सेत्यादि)। यथा म्लेबआर्यनापाननिझोऽम्लेवस्यायस्य म्लेबनापाननिझस्य यजाषि तं तदनुनाषते अनुवदति केवलं न सम्यक्तदनिप्रायं वेत्ति यथाऽनया विवक्याउने, न जाषितमिति । नच हेतुं निमित्तं निश्चयेनासौम्लेबस्तनाषितस्य जानाति । केवलं पर मार्थशून्यं तत्राषितमेवानुनाषत इति ॥१५॥ एवं दृष्टांतं प्रदर्य दार्टीतिकं योजयितुमा ह। ( एवमित्यादि)। यथा म्लेबः अम्लेवस्य परमार्थमजानानः केवलं तन्नाषिताननु जापते । तथा अझानकाः सम्यक्झानरहिताः श्रमणाब्राह्मणावदंतोपि स्वीयं स्वीयं झानं प्रमाणत्वेन परस्पर विरुवार्थनाषणात् निश्चयार्थ न जानंति । तथाहि । ते स्वकी यं तीर्थकरं सर्वङ्गत्वेन निर्यि तऽपदेशेन क्रियासु प्रवर्तेरन् । नच सर्वझविवदा अर्वा गदर्शना ग्रहीतुं शक्यते । नासर्वज्ञः सर्वझं जानातीति न्यायात् । तथाचोक । सर्वोऽ साविति ह्येतत्तत्कालेपि बुलुत्सुनिः ॥ तज्ज्ञानझेय विज्ञान,र हितैर्गम्यते कथं ॥१॥ए वं परचेतोवृत्तीनां उरन्वयत्वाउपदेष्टुरपि यथावस्थितविवढ्या ग्रहणाऽसंनवान्निश्चया र्थमजानानाम्जेलवदपरोक्तमनुनापंतएव । अबोधिकाबोधरहिताः केवलमित्यतोऽज्ञा Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राय धनपतसिंघ बादाउरका जैनागमसंग्रह नाग उसरा. नमेव श्रेयति । एवं यावद्यावज्झानान्युपगमस्तावत्तावजुरुतरदोषसंनवः । तयाहि । यो वगबन्पादेन कस्यचित् शिरः स्टशति तस्य महानपराधोनवति । यस्त्वनानोगेन स्टशति तस्मै न कश्चिदपराध्यतीत्येवं चाझानमेव प्रधाननावमनुनवति नतु ज्ञानमिति । १६ ॥ अन्नाणियाण वीमंसा, नाणे ण विनियव ॥ अप्पणो य परं नालं, कुतो अन्नाणुसासिनं ॥ १७ ॥वणे मूढे जहा जंतू, मूढे गेयाणुगामि ए॥दोवि एए अकोविया, तिवं सोयं नियब ॥१७॥ अंधो अंधं प दं शिंतो, दूरमाणु गव॥ आवकै नुप्पहंजंतु; अज्ज्वा पंथाणु गा मिए ॥ २५ ॥ एवमेगे णियायही, धम्ममारादगा वयं ॥ अज्ज्वा अ दम्ममावज्जे, ण ते सबङ्गुयं वए ॥२०॥ ॥ ॥ ॥ थर्थ-हवे एने दोष देखाडेले. जे एम कहेके, अज्ञानज नझुंजे; तेने थन्नाणियाण के अज्ञानवादी कहिये. तेनी जे वीमंसा के० जागवानी चा, ते नाणे ण विनिय १ के. ज्ञानने विषे पहोचे नहीं. कारण ते एम विचार करेले के थकानवडे थ पराध करनारानो दोष स्वल्प , धने जाणनारने दोष घणो लागेले. जेम कोइक म नुष्य मार्गे जतां जाणतो थकोज कोइकना मस्तकने पगे करीने फरशे. तोते महा थ पराधनो पात्र थायले. परंतु जो अजाणतां फरशे तोते स्वल्प अपराधी . ए कार ए माटे अज्ञानपणुंज रुडुंजे, एवी जेनामां विचारणा . ते थानवादी जाणवा. ते यज्ञानवादी थप्पणोय कहेतां पोतानो यात्मा समजवानेज असमर्थ ले. तो परंनालं के बीजाने कुतो अन्नाणुसासिन के बीजा अज्ञानी जनोने समजाववाने क्या थी समर्थ थाय? अर्थात् नज थायः ॥ १७ ॥ हवे एज अर्थ दृष्टांते करी दिपावे. वणे के० वन एटले अटवीने विषे, जहा के जेम, कोइक मूढेजंतू के दिशिमूढजीव ते दिशिने जाणवा असमर्थ थको मूढेण्यापुगामिए के थनेरा दिशिमूढने धागेवा न करीने तेनी पाबल चाले ते समये दोविएए के ते बन्ने जण, ते मार्गना अकोवि या के अजाण थका, तिवंसोयंनियबई के तीव्र गहनमांहे पडे अर्थात् महाः ख पामे. ॥ १७ ॥ वली बीजं दृष्टांत कहेले. अंधोअंधंपहंशिंतो के० जेम कोइएक पोते अंध बतां अनेरा अंधने मार्गे लेई जतो थको दूरमाणुगन्छ के० घणे दूर ज ईने थावतप्पहंजंतु के० ते अंध उन्मार्गे पडे: थवा के अथवा पंथाणुगामिए के घनेरे पंथे जाय पण वांडित मार्गे न जाय. एटले पोते उन्मार्गे पडतां पाबला ने पण उन्मार्गे पाडे. ॥१॥ हवे ए दृष्टांत अज्ञानवादी साथे मेलवेडे. एवं के ० ए अ Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वितीये सूत्रकृतांगे प्रथमश्रुतस्कंधे प्रथमाध्ययनं. जाणता अंधनी पेठे नावमूढ एवा एगे के कोई एक परदर्शनी णियायही के मोक्ष ना थर्थी धम्ममाराहगावयं के अमे धर्मना थाराधक बैये एम कही प्रव्रज्याने लईने अनेक कायर्नु मर्दन करता थका, अउवा के अथवा अनेराने बकायना पारंननो उपदेश करता थका, अहम्ममावले के अधर्मज आचरे. परंतु णतेसवकुधवए के ते सर्व प्रकारे कजु एटले सरल एवो मार्ग न पामे. एटले ते मोक्ने अर्थे यत्न करे प रंतु मोदनो मार्ग न पामे. ॥ २० ॥ ॥ दीपिका-इदानीमेतहूषणायाह । (अन्नाणित्ति) अज्ञानिकानामझानमेव श्रेयति वादिनां योविमर्शो विचारस्त थज्ञानेऽज्ञानविषये न नियति न युज्यते । यतोझानं सत्यमसत्यं वेति विमर्शः। अज्ञानेन कृतेऽपराधे स्वल्पोदोषः ज्ञानेन कृते महान् इत्येवं नूतो विचारोपि तेषां न युज्यते । एवंविधविचारस्य ज्ञानरूपत्वादित्यज्ञानवादे विचारोन युज्यते । तथा आत्मनोपि परं प्रधानमझानवादं शासितुमुपदेष्टुं नातं न समर्थाः । स्वयमझत्वात् कुतोऽन्येषां शिष्याणामुपदेष्टुं समर्थाजवेयुः ॥ १७॥ यथा ते थात्मनः परेषां च शिक्षणे ऽसमर्थास्तथा दृष्टांतेनाह (वणेति) वनेऽरण्ये यथा कश्चिन्मूढोमूढं नेतारं प्रापकमनुगबत्याश्रयति तदा तौावप्यको विदौ मार्गाऽनिपुणौ संतौ तीवं स्रोतोगहनं शोकं वा नियतः प्राप्नुतः ॥ १७ ॥ दृष्टांतांतरमाह । (अंधेति) यथा अंधः स्वयं धन्यमंधं पंथानं नयन दूरमध्वानं वांबितमार्गादन्यं दूरं मार्ग गति । तथा उत्प थमुन्मार्गमापद्यते जंतुः प्राणी अंधः । अथवा परं पंथानमनुगजेन्न वांनितं ॥ १५ ॥ दार्टीतिकमर्थमाह । ( एवमिति.)। एवं पूर्वोक्तार्थेन एके नावमूढानियागोमोदः सह ौवा तदर्थनस्ते किल वयं धर्माराधका इतिजानंतोऽधर्म पापमेवापद्यरन् प्राप्नुवंति तथा ते सदनुष्ठानाथाजीविकादयोगोशालकमतानुसारिणोऽज्ञानवादप्रवृत्ताः सर्वथा क जः सर्वजः संयमः साँवा तं न बजेयुः न गडंति न प्रामुवंतीत्यर्थः। अथवा सर्व र्जुकं सत्यमझानांधान व्रजेयुः ॥ २० ॥ ॥ टीका-एवमज्ञानवादिमतमनूबेदानीं तदूषणायाह । (अन्नाणियाणमित्यादि) न झा नमज्ञानं तदिद्यते येषां तेऽज्ञानिनायज्ञानशब्दस्योत्तरपदत्वामा मत्वर्थीयः। यथा गौरखरव दरण्यमिति । यथा तेषामझानिनामझानमेव श्रेयश्त्येवं वादिनां योयं विमर्शः पोलोच नात्मकोमीमांसा वा मातुं परिवेत्तुमिना साऽज्ञानेऽज्ञानविषये (नणियत्ति ) न नि श्वयेन यति नावतरति न युज्यतातियावत् । तथाहि । यैवंनूता मीमांसा विमर्शोवा किमेतज्ज्ञानं सत्यमुताऽसत्यमिति । यथा घझानमेव श्रेयोयथा यथाच ज्ञानातिशय स्तथा तथाच दोषातिरेकति सोयमेवंनूतोविमर्शस्तेषां न बुध्यते । एवंनूतस्य पर्यालो Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राय धनपतसिंघ बादाउरका जैनागमसंग्रह नाग उसरा. १ चनस्य ज्ञानरूपत्वादिति । अपिच तेऽज्ञानवादिनथात्मनोपि पर प्रधानमझानवाद मिति शासितुमुपदेष्टुं नालं न समर्थास्तेषामज्ञानपदसमाश्रयणेनाऽझत्वादिति कुतः पुनस्ते स्वयमझाः संतोऽन्येषां शिष्यत्वेनोपगतानामझानवादमुपदेष्टुमलं समर्थानवेयु रिति । यदप्युक्तं बिन्नमूलत्वात् म्लेबानुनाषणवत्सर्वमुपदेशादिकं तदप्ययुक्तं । यतोऽ नुनाषणमपि न ज्ञानमृते कर्तुं शक्यते । तथा । यदप्युक्तं परचेतोवृत्तीनां कुरन्वयवाद ज्ञानमेव श्रेयति तदप्यसत् । यतोनवतैवाझानमेव श्रेयश्त्येवं परोपदेशदानान्यु द्यतेन परचेतोवृत्तिज्ञानस्यान्युपगमः कृतइति । तथाऽन्यैरप्यधायि । थाकारैरिंगितैर्गत्या चेष्टया नाषितेन च ॥ नेत्रवत्रविकारैश्च, गृह्यतेंतर्गतं मनः ॥ १७॥ तदेवं ते तपस्विनोऽ ज्ञानिनथात्मनः परेषां च शासने कर्तव्ये यथा न समर्थास्तथा दृष्टांतारेण दर्शयितुमा ह । (वणेइत्यादि) वनेऽटव्यां यथा कश्चिन्मूढो जंतुः प्राणोदिप रिलेदं कर्तुमसमर्थः स एवंनतोयदा परं मूढमेव नेतारमनुगमति तदा वावप्यकोविदौ सम्यक्झानाऽनिपुणौ संतो तीव्रमसह्य स्रोतोगहनं शोकं वा नियनतोनिश्चयेन गतः प्राप्नुतोऽज्ञानात त्वात् । एवं तेप्यज्ञानवादिनयात्मीयं मार्ग शोननत्वेन निर्धारयंतः परकीयं वा शोजन त्वेन जानानाः स्वयं मूढाः संतः परानपि मोहर्यतीति ॥ १७ ॥ अस्मिन्नेवार्थे दृष्टांतांत रमाह । (अंधोअंधमित्यादि।) यथा अंधः स्वयमपरमंधं पंथानं नयन दूरमध्वानं वि वदितादध्वनः परतरं गति तथोत्पथमापद्यते जंतुरंधः । अथवा परं पंथानमनुगडे न्न विवदितमेवाध्वानमनुयायादिति ॥१॥ एवं दृष्टांतं प्रसाध्य दाष्टी तिकमर्थ दर्शयितुमा ह । (एवमेगेनियायहित्ति ।) एवमिति पूर्वोक्तोर्थोपप्रदर्शने। एवं नावमूढोनावांधाश्चैके भाजीविकादयः (नियायहिति)। नयोमोदः सर्मोवा तदर्थिनस्ते किल वयं सहारा धकाश्त्येवं संधाय प्रव्रज्यायामुद्यताः संतः पृथिव्यंबुवनस्पत्यादिकायोपमर्दैन पचनपा चनादिक्रियासु प्रवृत्ताः संतस्तत्तत्स्वयमनुतिष्ठन्त्यन्येषां चोपदिशंति येनाऽनिप्रेतायामो दावाप्तेश्यति । अथवा तावन्मोदानावस्तमेवं प्रवर्तमानाथधर्म पापमापद्येरन् । सं जावनायामुत्पन्नेन लिट्प्रत्ययेनैतदर्शयति । एतदपरं तेषामनर्यातरं संनाव्यते । यात विवदितार्थानावतया विपरीतार्थावाप्तेः पापोपादानमिति । अपिच तएवमसदनुष्ठायि नयाजीविकादयोगोशालकमतानुसारिणोऽज्ञानवादप्रवृत्ताः सर्वैः प्रकारैजुः प्रगुणो विवक्षितमोगमनंप्रत्यकुटिलः सर्वर्जुसंयमः सर्मोवा तं सर्वर्जुकं ते न व्रजेयुर्न प्रा नयुरित्युक्तं नवति । यदि वा सर्वर्जुकं सत्यं तत्तेऽज्ञानांधाज्ञानाऽपलापिनोन वदेयुरि ति । एते चाज्ञानिकाः सप्तषष्टिनेदानवंति । तेच नेदायमुनोपायेन प्रदर्शनीयाः। तद्यथा। जीवादयोनव पदार्थाः । सत्, असत्, सदसत्, अवक्तव्यः, सदवक्तव्यः, असदवक्तव्यः, सदसदवक्तव्यश्त्येतैः सप्तनिः प्रकारैर्विज्ञातुं न शक्यंते नच विज्ञातैः प्रयोजनमस्ति । ना Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२ द्वितीये सूत्रकृतांगे प्रथमश्रुतस्कंधे प्रथमाध्ययनं. वना चेयं । सन् जीवति कोवेत्ति किंवा तेन ज्ञातेन । सन् जीवति को वेत्ति किंवा तेन ज्ञातेनेत्यादि । एवमजीवादिष्वपि प्रत्येकं सप्त विकल्पाः । नव सप्तका स्त्रिषष्टिः । श्रमी चान्ये चत्वारस्त्रिषष्टिमध्ये स्थाप्यंते । तद्यथा । सती नावोत्पत्तिरिति को जानाति किंवाऽन या ज्ञातया । एवमसती सदसदवक्तव्यतानावोत्पत्तिरिति को जानाति किंवाऽनयाज्ञातयेति । शेषविकल्पत्रयं तूत्पत्त्युत्तरकालं पदार्थावयवापेमतोत्र न संभवतीति नोक्तं । एतच्चतुष्टय प्रदेपात्सप्तषष्टिर्भवति । तत्र सन् जीवइति को वेत्तीत्यस्यायमर्थोन कस्यचिद्विशिष्टं ज्ञानम स्ति योऽतप्रियान् जीवादीनवजोत्स्यते । नच तैर्ज्ञातैः किं चित्फलमस्ति । तथाहि । य दि नित्यः सर्वगतोऽमूर्तेज्ञानादिगुणोपेत एत कुणव्यतिरिक्तोवा ततः कतमस्य पुरुषा र्थस्य सिद्धिरिति तस्मादज्ञानमेव श्रेयइति ॥ ३० ॥ 1 एवमेगे वियक्कादि, नोच्यन्नं पवासिया ॥ अप्पलोय वियक्काहिं, य मंजू हिं डुम्मई ॥ २१ ॥ एवं तक्काइ साहिता, धम्माधम्मे कोविया ॥ डुकं ते नाइतुति, सनी पंजरं जहा ॥ २२ ॥ सयं सयं पसंसंता, गरदंता परं वयं ॥ जे न तच विनस्संति, संसारं ते विनुस्सिया ॥२३॥ ग्रं दावरं पुरस्कायं, किरियावाइदरिसणं ॥ कम्मचिंतापण ठाणं, संसरा स् पवणं ॥ २४ ॥ ० 0 अर्थ- वली ग्रंथकार कहेले. एवं के० एरीते एगे के० कोइएक ज्ञानी परवादी विय काहिं के० वितर्के करो, पोतानी कल्पित कल्पनाए सत्यने सत्य करी मानता थका नोवासिया के खनेरा साचा होय तोपण तेने पर्युपाशे नहीं. एटले सेवे न हृीं. किंतु अप्पलोयवियक्काहिं के० पोतानाज वितर्के करी एवं कहे जे ए प्रथमंजू हिं के० मारो मार्गज ऋजु एटले सरल अकुटिल बे, इत्यादिक कहेबे . तेमाटे ते डुम्म ई के डर्मति विपरीतबुद्धिवाला बे. केमके ते सन्मार्गथी उपरांग वर्तेबे घने विष रीत मार्गने सन्मुख बे. तेथी ते विपरीतबुद्धिवाला जाणवा ॥ २१ ॥ हवे ज्ञानवादी ज्ञानवादीनो नर्थ प्रगट देखाडेबे एवं के० ए पूर्वोक्त न्यायें तक्काइसा हिंता के ० तर्के कर एटले पोतानी कल्पनायें मोक्षमार्गने कहेतां थका खष्ट प्रकारे जे कर्मनो बंध तेने जोडी न शके, ते केवाले, धम्माधम्मे के० धर्म जे दांत्यादिक दशविध ने धर्म जे हिंसादिक पांच याश्रव तेने विषे अकोविया के० कोविद एटले जाण अर्थात् ते धर्मधर्मने जाणता नथी. डुरकंतेनाइतुति के० ते पोतानां दुःखने शी ते त्रोडे ते उपर दृष्ठांत कहेते. ते जहा के० जेम सवणी के० शकुनी एटले पक्षी For Private Personal Use Only Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राय धनपतसिंघ बादाउरका जैनागमसंग्रह नाग उसरा. १३ ते पंजरं के पंजरमांहे पड्यु थकुं पांजराने त्रोडीने पोताने मूकावी शके नहीं. तेम ए अज्ञानवादी पण पोताने संसारपंजरथकी मूकावी शके नहीं एम जाणवू. ॥ २॥ हवे सामान्याकारे एकांत मतिने दूषण करेले संयंसयंपसंसंता के सर्व दर्शनी पोतपोता नुं दर्शन प्रशंसतां अने परंवयं के पारकां वचनने गरहंता के निंदतां जेन के जे तब के त्यां एरीते विनस्संति के पोता- विक्षांस एटले पंमित पणुं देखाडेले. ते के ते एवां वचनना बोलनार संसार के चतुर्गतिक संसारमाहे विनस्सिया के विशेषे बां ध्या बता थनंतो काल तब के त्यांज रहे. ॥ २३ ॥ एटले अन्नाणवाईगया के अ ज्ञानवादी कह्या. हवे क्रियावादीनो मत कहे. थह के अथ एटले हवे अवरं के अपर एटले अज्ञानवादीना मतथकी अनंतर पुरस्कार्य के पूर्व कह्यु. एवं किरि यावाइदरिसणं के क्रियावादीनुं दर्शन, ते क्रियावादी केवाले, कम्मचिंतापणहाणं के कर्मचिंताप्रनष्ट एटले कर्म जे ज्ञानावरणीयादिक तेने विषे चिंता एटले बालोच यूँ ते थकी प्रनष्ट थयेला एटले ते कर्मबंधनो परमार्थ जाणे नहीं तेथी तेनुं दर्शन निःकेवल संसारस्तप्पवणं के० संसार, वधारनार जाणवू. ॥ २४ ॥ ॥ दीपिका-दूषणांतरमाह । ( एव मिति )। एवं पूर्वोक्तनीत्या एकेऽझानवादिनोवि तर्का निर्मीमांसानिः स्वमतिकल्पनानिः परमन्यं जैनादिकं न पर्युपासते न सेवते स्वम तमेव श्रेयइति ज्ञात्वा तदेव सेवंते नान्यं ज्ञानादिवादिनं । तथा (अप्पणोत्ति)। आत्मी यैर्वितर्कैः सुविचारैरयमस्मदीयोमार्गोऽजुर्निर्दोषत्वाध्यक्तः स्पष्टरुजुर्वा प्रगुणोऽकुटि लः। हियस्मात्ते उर्मतयस्ततएव एवमादुः ॥ २१ ॥ पुनस्तेषामेव दोषमाह । ( एवमि ति ) । एवं पूर्वोक्तन्यायेन तर्कया स्वकल्पनया साधयंतोवदंतोधर्माधर्मयोरकोविदाः खं ते नातित्रोटयंति नातिशयेनापनयंति । यथा शकुनिः पंजरं । पदी पंजरस्थो य था पंजरं त्रोटयितुं बंधनादात्मानं मोचयितुं न समर्थएवमसावपि संसारपंजरादात्मा नं मोचयितुं नातं ॥ २२ ॥ अथैकांतवादिमतं दूषयन्नाह । ( सय मिति )। स्वकं स्व कं यात्मीयमात्मीयं मतं प्रशंसंतः परकीयां वाचं गर्हतोनिंदतः । यथा सांख्यानित्यवादि नोबोई दणिकवादिनं निंदंति तेपि सांख्यान् । एवमन्येपि झेयाः । एवमेकांतवादिनो ये । तुरवधारणे । तत्र तेष्विव स्वमतेषु विक्षस्यंते विहांसश्वाचरंति ते संसारं व्युदिताः विविधमनेकप्रकारमुत्प्राबल्येन श्रिताः संसारे संबछानषिताः स्युः ॥ २३ ॥ अथ क्रिया वादिमतमाह । (अथेति)। अथापरं पूर्वमारख्यातं पूर्वसूचितं क्रियावादिदर्शनं । किं नूताः क्रियावादिनइत्याह । (कम्मचिंतत्ति)। कर्मणि ज्ञानावरणादिके चिंता कर्मचिंता ततः प्रनष्टायपगताः । यतस्ते चतुर्विधं कर्मबंध नेति ततः कर्मचिंताप्रणष्टास्तेषामि दं मतं संसारस्यप्रवर्धनं स्यात् ॥ २४ ॥ Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४ द्वितीये सूत्रकृतांगे प्रथम श्रुतस्कंधे प्रथमाध्ययनं. ॥ टीका - पुनरपि तदूषणानिधित्सयाऽऽह । ( एवमित्यादि ) । एवमनंतरोक्तया नी एके केचनाsज्ञानिका वितर्का निर्मीमांसानिः स्वोत्प्रेक्षिता निरसत्कल्पनानिः परमन्यमा हैतादिकं ज्ञानवादिनं न पर्युपासते न सेवते स्वावलेपग्रहस्तावयमेव तत्त्वज्ञानानि ज्ञानपरः कश्चिदित्येवं नान्यं पर्युपासंतइति । तथात्मीयैर्विकल्पैरेवमन्युपगतवतोयथा ऽयमेवास्मदीयोऽज्ञानमेव श्रेयइत्येवमात्मकोमार्गः। अंजूरिति । निर्दोषत्वा यक्तः स्पष्टः परै स्तिरस्कर्तुमशक्यजुर्वा प्रगुणोऽकुटिलः । यथाव स्थितार्था निधायित्वात् । किमिति ए वमदिति । हिर्यस्मादर्थे । यस्मात्ते डुर्मतयो विपर्यस्तबु८यइत्यर्थः ॥ २१ ॥ सांप्रतम ज्ञानवादिनां ज्ञानवादिनां स्पष्टमेवाऽनर्थानिधित्सयाह । ( एवं तक्का इत्यादि) एवं पूर्वो कन्यायेन तर्कया स्वकीय विकल्पनया साथयंतः प्रतिपादयं तोधर्मे कांत्यादिके धर्मे च जीवोपपादिते पापेऽको विदाय निपुणाःखमसातोदयलक्षणं तदेतुं वा मिथ्यात्वाद्युप चितकर्मबंधनं नातित्रोटयंति व्यतिशयेनैत व्यवस्थितं । तथा ते न त्रोटयंत्यपनयतीति । अत्र दृष्टांतमाह । यथा पंजरस्थः शकुनिः पंजरं त्रोटयितुं पंजरबंधनादात्मानं मोचयितुं नालमेव मसावपि संसारपंजरादात्मानं मोचयितुं नालमिति ॥ २२॥ अधुना सामान्येनैकांतवा दिमत दूषणार्थमाह । ( सर्वसयमित्यादि ) स्वकं स्वकमात्मीयं च दर्शनमन्युपगतं प्रशंसंतोवर्ण यतः समर्थयतोवा । तथा गर्हमाणानिंदतः परकीयां वाचं । तथाहि । सांख्याः सर्व स्याविर्भाव तिरोभाववादिनः सर्व वस्तु ऋषिकं निरन्वय निरीश्वरं वेत्या दिवा दिनोबोदान दू पयंति तेपि नित्यस्य क्रमयौगपद्याच्यामर्थक्रियाविरहात् सांख्यान् । एवमन्येपि इष्टव्या इति । तदेवं यएकांतवादिनः । तुरवधारणे निन्नक्रमश्च । तत्रैव तेष्वेवाऽत्मीयात्मीयेषु दर्शने षु प्रशंसां कुर्वाणाः परवाचं च विगर्हमाणावि इस्ते विद्वांसश्वाऽऽचरंति तेषु वा वि शेषेणोति स्वशास्त्रविषये विशिष्टं युक्तिव्रातं वदति । तेचैवं वादिनः संसारं चतुर्गतिने देन संसृतिरूपं विविधमनेक प्रकारमुत्प्राबल्येन श्रिताः संबद्धाः । तत्र वा संसारे उषिताः संसारांतर्वर्तिनः सर्वदा नवंतीत्यर्थः ॥ २३ ॥ सांप्रतं यक्तं नियुक्तिकारेणोद्देशकार्याधि कारे कर्मचर्यं न गति चतुर्विधं निकुसमयइति तदधिकृत्याह । (याहावरमित्यादि ) | त्यानंतये । ज्ञानवादिमतानंतर मिदमन्यत् पुरा पूर्वमाख्यातं कथितं । किंपुन स्तदित्याह । क्रियावादिदर्शनं । क्रियैव चैत्यकर्मादिका प्रधानं मोहांगमित्येवं वदितुं शीलं ये षां ते क्रियावादिनस्तेषां दर्शनमागमं क्रियावादिदर्शनं । किंनूतास्ते क्रियावादिनइत्याह । कर्म ज्ञानावरणादिके चिंतापर्यालोचनं कर्मचिंता तस्याः प्रणष्टापगताः कर्मचिंता प्रणष्टाः । यतस्ते यविज्ञानाद्युपचितं चतुर्विधं कर्मबंधं नेवंत्यतः कर्मचिंता प्रणष्टास्ते षां चेदं दर्शनं दुःखस्कंधस्यासातोदयपरंपराया विवर्धनं जवति । क्वचित्संसारवर्धन मिति पाठः । तेह्येवं प्रतिपद्यमानाः संसारस्य वृद्धिमेव कुर्वेति नोछेदमिति ॥ २४ ॥ For Private Personal Use Only Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राय धनपतसिंघ बाहाउरका जैनागमसंग्रह नाग उसरा. ६५ जाणं कारण पानट्टी,अबुदो जं च हिंसति ॥ पुणे संवेदश् परं,अविय तं खु सावऊं ॥ ३॥ संति मे तन आयाणा, जेहिं कीर पावगं ॥ अ निकम्माय पेसाय, मणसा अणुजाणिया ॥२६॥ एते न तन आया णा, जेहिं कीरइ पावगं ॥ एवं नावविसोहीए, निवाणमनिगढ॥ ॥ २७॥ पुत्तं पिया समारन, आहारेऊ असंजए ॥ मुंजमाणो य मेहावी, कम्मणा नो विलप्पश्॥२७॥ अर्थ-जे कारणे ते कर्मचिंता थकी प्रनष्ट , ते उपर देखाडेले. जाणंकाएपणानट्टी के जे पुरुष जाणतो थको प्राणीनने हणे एटले जे पुरुष क्रोधे चड्यो थको मनने व्यापारे प्राणीनो घात करे परंतु कायाये करी अनाकुट्टी एटले कायाये करी प्राणीना अवयवना दनदनना व्यापारे प्रवर्ते नहीं तेने कर्मबंध नलागे. तथा जंचके जे पुरु ष अबुहोके अजाणतो थको एकली कायाना व्यापारेज, हिंसतिके प्राणीनी हिं सा करे तेने पण कर्म लागे नहीं तथा एवा एकला मनना व्यापारे अथवा एकला का याना व्यापारे जो कर्म लागे तो पुठोके० ईषत्मात्र फरश्यो थको स्पर्शरूपंज कमें नोगवे, परंके० परंतु एनो अधिक विपाक नथी. केमके खुके निश्चे सावळंके ते साव द्य एटले पाप ते केवुने, तो के अवियत्तंके अव्यक्तमात्र ने एटले अस्पष्ट , सिकता मुष्टिवत् वे एटले जेम वेलुनी मुष्टी नीतने सन्मुख नांखी बता स्पर्श मात्र करी पाली पड़े; पण ते जीतने का लागी रहे नहीं. तेम ए कर्मनो बंध जाणवो, एम क्रियावादी कहेले. ॥ २५ ॥ हवे कर्मनो बंध पूरण केम थाय एटले कर्मनो उपचय केम थाय ते कहेडे. मेतन के एत्रण बायाणा के आदान एटले कर्मबंधननां कारण संति के जे.जेहिं किरपावगंके जेणे करी पाप करीये ते देखाडेले.अनिकम्मायके अनिमुख चित्तमांहे जाणीने जे स्वयमेव एटले पोते जीवने हणे तथा तेने हणवानुं मन करे के दूं एनो विनाश करूं ए पहेलु कर्म बंधननुं कारण जाणवू. तथा ते जीवनो विनाश करवाने अर्थ पेसाय के अन्यने आदेश थापी तेनोविनाश करावे ए बीजं कर्मबंधन कारण जाणवू. अने मसाथणुजाणियाके बीजो कोई जीवनो विनाश करतो होय तेने म ने करी अनुमोदे, ए त्रीजुं कर्मबंधनुं कारण जाणवू. ॥ २६ ॥ हवे ए त्रण कारणे करी उपाय कर्म अधिक बंधाय ते कहे. एतेउतनयायाणाके निश्चे पूर्वोक्त एत्रण कर्म बंधनां कारणले; ए त्रण एकता मले तो निवड कर्म बंधाय एरीते जेहिंके में उष्टअध्य वसायेकरी कीरश्पावगंके० पाप उपचयरूप करे. एवंके० एरीते ए त्रण प्रकारे प्राणी घातने विषे प्रवर्ते नहीं अने नावविसोहीएके० नावनी विशुद्धि होय. एतावता रागद्वेष Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६ द्वितीये सूत्रकृतांगे प्रथमश्रुतस्कंधे प्रथमाध्ययनं . विना यद्यपि कांई मने करी तथा कायाये करी प्राणिघात थाय. तोपण तेने नावनी विशुद्धियें कर्मबंध न लागे ते कर्मबंधने नावे निवाणमनिगइ के० निर्वाणपदे पहो चे. एटले मुक्ति पामे एम परवादी कहेले. ॥ २७ ॥ ए उपर दृष्टांत कहेबे पुत्तं पियासमा - रनके० 0 बाप दीकरानो विनाश करी तेनुं मांस आहारने अर्थे कोइक व्यापत्कालने विषे, याहारे संजके संयत जे गृहस्थ ते रागद्वेषरहित थको पुत्रना मांसने खाहारे तथा मेधावी के० पंमितपण एटले संयती दीक्षित ते पण ते मांसनो जमालो के० याहार करतो थको जो शुद्ध अध्यवसाय बे. तो कम्मणानोविलिप्पई के कर्मे नेपातो नयी तेम बीजो प्राणी पण रागद्वेषरहित कर्तो थको कर्मे करी बंधातो नयी ॥ २८ ॥ ० ० ॥ दीपिका - कर्म चिंतानष्टत्वमेवाह ॥ जानन् यः प्राणिनो हिनस्ति कायेनशरीरेणच नाकु ही हिंसकः । कोर्थः । कोपादेर्निमित्तात्मनोव्यापारेण जीवान् हंति न कायेन तस्याऽनवद्य कर्मोपचयन स्यादित्यर्थः । तथा प्रबुधोऽजानन् कायेन हिनस्ति तस्यापि मनोव्यापारा नावान्न कर्मबंधः । (पुठोत्ति ) । तेन कर्मणा यसौ केवलमनोव्यापारकतेन केवलका यकियोवेन वा स्ष्टष्टएव संवेदयति स्पर्शमात्रेणैव तत्कर्मानुभवति न तस्याधिको विपाकः स्पर्शानंतरमेव परिशटतीत्यर्थः । एवं तत्सावद्यं कर्माऽव्यक्तमेव न स्पष्टं ॥ २५ ॥ कथं तर्हि कर्मोपचयः स्यादित्याह । ( संतित्ति ) । संत्यमूनि त्रीस्यादानानि कर्मोपादा नानि । यैः पापकर्म क्रियते तान्याह । निक्रम्यं सन्मुखं गत्वा स्वयं हंति ९ परं प्रे ष्य यत्कारयति कुर्वतं वाऽनुजानातीति ३ एतत्कर्मोपादानत्रयं । अयं जावः । केवलं म नसा शरीरेण वा न कर्मबंधः किंतु यंत्र स्वयंकृतकारितानुमतयः क्लिष्टाध्यवसायश्च तत्रैव कर्मबंधः ॥ २६ ॥ एतदेव दर्शयति । तुरवधारणे । एतान्येव त्रीणि व्यस्तानि समस्तानि कर्मोपादानानि यैः पापं कर्म क्रियते । एवं सति यत्र कृतकारितानुमतयः प्राणिहिंसायां न त्रिविध्याराग द्वेषरहितबुध्या प्रवर्तमानस्य सत्यपि प्राणातिपाते केवलेन म नसा मनोव्यापाररहितेन कायेन उजयेन वा विशु-बुदेर्न कर्मबंधस्तदनावान्निर्वाणम निगच्छति प्राप्नोति ॥ २७ ॥ जावशुध्या प्रवर्तमानस्य हिंसायामपि कर्मबंधो न स्यादि यत्रार्थे दृष्टांतमाह । ( पुत्तंति ) । पिता पुत्रं समारज्य व्यापाद्य याहारार्थ कस्यां चित्त था विधायामापदि रागदे पर हितोऽसंयतो गृहस्थस्तन्मांसं नुंजानोपि । चशब्दोप्यर्थे । मेधा वी संयतोपि नु॑जानः कर्मणा नोपलिप्यते । यथा पितुः पुत्रं व्यापादयतोपि शुद्धमन सः कर्मबंधोन स्यात्तथा तस्यारक्तद्विष्टस्य प्राणिवधे न कर्मबंधः ॥ २८ ॥ ॥ ॥ टीका- यथा च ते कर्मचिंतातोनष्टास्तथा दर्शयितुमाह । (जा का ये सपा नट्टीत्यादि) । यो हि जानन्नवगच्छन् प्राणिनो हिनस्ति कायेन चाऽनाकुट्टी । कुट्टछेदने । याकुट्टनमा कुट्टः सवि For Private Personal Use Only Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राय धनपतसिंघ बादाडुरका जैनागमसंग्रह नाग डुसरा. ६७ 1 द्यते यस्यासावाकुट्टी नाकुना कुट्ट । इदमुक्तं नवति।यो हि कायादेर्निमित्तात् केवलं मनोव्या पारेण प्राणिनोव्यापादयति नच कायेन प्राण्यवयवानां बेदननेदनादिके व्यापारे वर्त ते न तस्याऽवद्यं । यस्य कर्मोपचयोन नवतीत्यर्थः । तथाऽबुधोऽजानानः कायव्या पारमात्रेण यंच हिनस्ति प्राणिनं तत्रापि मनोव्यापारानावान्न कर्मोपचयइति । अनेन च श्लोकार्थेन यक्तं निर्युक्तिरुता । यथा चतुर्विधं कर्म नोपचीयते निकुसमयइति । तत्र परिज्ञोपचितमविज्ञोप चिताख्यं नेद ६यं साचाडपात्तं । शेषं त्वीयपथस्वप्नां तिकनेद व्यंच शब्देनोपात्तं । तत्रेरणमीर्या गमनं तत्संब-धः पंथाईर्यापथस्तत्तत्प्रत्ययं कर्मेर्यापथं । एतडुक्तं वति । पथि बतोयथाकथंचिदन निसंधेर्यत्प्राणिव्यापादनं नवति कर्मणश्चयोन नव ति तथा स्वप्नांतिकमिति । स्वप्नएव लोकोक्त्या स्वमांतः सविद्यते यस्य तत्स्वमांतिकं तदपि न कर्मबंधाय । यथा स्वमे मुजिक्रियायां तृप्यनावस्तथा कर्मणोपीति । कथं तर्हि तेषां कर्मोपचयोनवतीत्युच्यते । ययसौ हन्यमानः प्राणी नवति हंतुश्च यदि प्राणीत्येवं ज्ञा नमुत्पद्यते तथैनं हन्मीत्येवं च यदि बुद्धिः प्राहुःष्यादेतेषु च सत्सु यदि कायचेष्टा प्रवर्त ते तस्यामपि यद्यसौ प्राणी व्यापाद्यते ततोहिंसा ततश्च कर्मोपचयोनवतीत्येषामन्यत राजावेपि न हिंसा नच कर्मचयः । श्रत्र च पंचानां पदानां द्वात्रिंशगाजवंति । तत्र प्रथम जंगे हिंसकोऽपरेष्वेकत्रिंशत्स्वहिंसकः । तथाचोक्तं । प्राणी प्राणिज्ञानं, घातकचित्तं च तजता चेष्टा ॥ प्राणैश्च विप्रयोगः पंचनिरापद्यते हिंसा ॥ १ ॥ किमेकांतेनैव परिज्ञोपचि तादिना कर्मोपचयो न भवत्येव काचिद्व्यक्तिमात्रेति दर्शयितुं श्लोकपश्चार्धमाह । पुट्ठोत्ति । तेन केवलमनोव्यापाररूपपरिज्ञोपचितेन केवलकाय क्रियोछेदेन वाऽविज्ञोपचितेनेर्या पथेन स्वमतिकेन च चतुर्विधेनापि कर्मणा स्ष्टष्ट ईषत्सुप्तः संस्तत्कर्माऽसौ स्पर्शमात्रेणैव परमनुभवति न तस्याधिको विषाकोस्ति । कुड्यापतित सिकतामुष्टिवत्स्पर्शानंतरमेव परि शटतीत्यर्थः । अतएव तस्य चयानावोऽनिधीयते न पुनरत्यंतानावइति । एवं कृत्वा तदव्यक्तमपरिस्फुटं । खुरवधारणे । अव्यक्तमेव स्पष्टविपाकानुनवानावात् । तदेवमव्यक्तं सहावद्येन गण वर्तते तत्परिज्ञोपचितादिकर्मेति ॥ २५ ॥ ननु च यद्यनंतरोक्तं चतुर्विधं कर्म नोपचयं याति कथं तर्हि कर्मोपचयोनवतीत्येतदाशंक्याह । ( संतिमेइ त्यादि) । संति विद्यते यमूनि त्रीणि यादीयते स्वीक्रियते मीनिः कर्मेत्यादानानि । एतदेव दर्शयति । यैरादानैः क्रियते विधीयते निष्पाद्यते पापकं कल्मषं तानि चामू नि । तद्यथा । अतिक्रम्येत्यानिमुख्येन वध्यं प्राणिनं कांत्वा तद्घातानिमुखं चित्तं वि धाय यत्र स्वतएव प्राणिनं व्यापादयति तदेकं कर्मादानं । तथाऽपरं च प्राणिघाताय प्रेष्यं समादिश्य यत्प्राणिव्यापादनं तद्दितीयं कर्मादानमिति । तथाऽपरं व्यापादयंत म नसाऽनुजानीतइत्येतत्तृतीयं कर्मादानं । परिज्ञोपचितादस्यायं जेदः । तत्र केवलं मनसा For Private Personal Use Only Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हितीये सूत्रकृतांगे प्रथमश्रुतस्कंधे प्रथमाध्ययनं. चिंतनमिह वपरेण व्यापाद्यमाने प्राणिन्यनुमोदन मिति ॥ २६ ॥ तदेवं यत्र स्वयं कृतका रितानुमतयः प्राणिघाते क्रियमाणे विद्यते क्विष्टाध्यवसायस्य प्राणातिपातश्च तत्रैव कर्मो पचयोनान्यत्रेति दर्शयितुमाह ।(एएनइत्यादि) तुरवधारणे । एतान्येव पूर्वोक्तानि त्रीणि व्य स्तानि समस्तानि वा बादानानि यैऽष्टाध्यवसायव्यपेदैः पापकं कर्मोपचीयतइति । एवंच स्थिते यत्र कतकारितानुमतयः प्राणिव्यपरोपणं प्रति न विद्यते । तथा नावसुध्या अरक्त विष्टबुध्या प्रवर्तमानस्य सत्यपि प्राणातिपातें केवलेन मनसा कायेन वा मनोनिसंधि रहितेनोनयेन वा विगुबुनकर्मोपचयस्तदनावाञ्च निर्वाणं सर्वोपरतिनावमनि गलत्यानिमुख्येन प्राप्नोतीति ॥ २७ ॥ नावशुध्या प्रवर्तमानस्य कर्मबंधोन नवतीत्य त्रार्थ दृष्टांतमाह । (पुत्तपियाइत्यादि) पुत्रमपत्यं पिता जनकः समारच्य व्यापाद्याहा राथ कस्यांचित्तथाविधायामापदि तदरणार्थमरक्तदिष्टोऽसंयतोगृहस्थस्तत्पिशित जानोपि चशब्दस्यापिशब्दार्थत्वादिति । तथा मेधाव्यपि संयतोपीत्यर्थः । तदेवं गृहस्थो निकुर्वा गुदाशयः पिशिताश्यपि कर्मणा पापेन नोपलिप्यते नाश्लिष्यतइति । यथाचा त्रपितुः पुत्रं व्यापादयतस्तत्रारक्तदष्टमनसः कर्मबंधोन नवति तथान्यस्याप्यरक्तदिष्टांतः करणस्य प्राणिवधे सत्यपि न कर्मबंधोनवतीति ॥ २७॥ मणसा जे पनस्संति,चित्तं तेसिंण विज॥ अवज्जमतहं तेसिं, गते संवुमचारिणो॥णाच्चेयाहिं य दिहीदि, सातागारवपिस्सिया॥स रणति मन्नमाणा, सेवंतीपावगं जणा॥३०॥ जहा अस्साविणिं णावं, जा अंधो पुरूदिया ॥ इबई पारमागंतुं, अंतराय विसीयई॥३१॥ एवं तु समणा एगे, मिदिहीअणारिया ॥ संसारपारकंखी ते, संसारं अणुपरियझुतित्तिबेमि ॥ ३२॥ इति प्रथमाध्ययने क्षितीयोद्देशकः :॥ थर्थ-हवे एने उत्तर कहेले. मणसाजे पस्संतिके जे कोई पुरुष कोईक कारण उत्पन्न थया थकी मने करी देष करे, चित्तंतेसिंणविक के तेनुं चित्त शुरू केवी री ते थशे ? अर्थात् नहीं थशे; कारणके ते दर्शनीये एम कयुं के, अणवऊमतदंतेसिं के एकला मनना व्यापार थकी कर्म न लागे. ते एवं तेनुं बोलतुं मिथ्यावे. जेमाटे ते एकले मनने अशुक्षपणे णतेसंवुमचारिणो के० ते संतचारी नहीं एटले संबुमचारी थ को संवरमा प्रवर्तनार नथी. केमके कर्मबंधनी वेलायें मुख्य कारणतो मनजले. माटे जो तेने व्यापारेज कर्मबंध न थाय, तो पडी बीजा कया कारणे कर्मबंध थाय? ते मा टे पुत्रपिता ए दृष्टांत योग्य नथी. ॥ श्ए ॥ हवे ए क्रियावादीने अनर्थपरंपरा देखाडे Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राय धनपतसिंघ बादाडुरका जैनागमसंग्रह नाग दुसरा. 0 ० ६ d. चेाहिं के० इत्यादिक ए पूर्वोक्त एवी दिठीहिं के० ज्ञानदृष्टीना अंगीकारे करीने वादी सातागारस्सिया के० सातागारवे निश्रित एटले यासक अर्थात् सुखशी या एवा थका, ते क्रियाना करनार जेवो सदोष निर्दोष आहार पामे तेना जोगवना र एवा तां ते पोतानुंज दर्शन सरणंतिमन्नमाला के० संसारथकी उद्धरवा समर्थडे. एवं माणा एटले मानता थका, सेवंतीपावगं के० ते विपरीत अनुष्ठाने करी हिंसादिक पा पज सेवेबे, तेमाटे यद्यपि ते व्रतधारी बे, तथापि ते घनेरा पामर एवा जणाके० लो क तेना सरखा जावा. ॥ ३० ॥ एहिज अर्थ दृष्टांते कहेते. जहा के० जेम यस्ता के बिसहित एवी गावं के० नाव तेने विषे जाइयंधो के० जातिबंध एट ले जन्मांध पुरुष पुरुझिया के० चडीने इबईपारमागंतुं के० पार पामवा बांबे परंतु पार पामे नहीं, किंतु अंतराय के अंतराले एटले वचमांहेज ते विसीयई के० बुडी जाय इत्यर्थः ॥ ३१ ॥ हवे ए दृष्टांत दर्शनी साथे मेलवेले जेम सबिनावे चडयो थको अंध पुरुष पार पोहोचे नहीं एवंतुसमणाएंगे के० तेनीपेरे को एक शाक्यादिक श्रमण ते मिीिलारिया के मिथ्यादृष्टी एटले जिनप्रणीत धर्मथकी विपरीत दृष्टि तथा नारिया एटले अनाचारी संसारपारकंखीते के० ते पोताना दर्शनने अनु रागे संसारनो पार पामवाने वांबे बे, परंतु ते संसारंणुपरियहंति के० संसारमां हेज परावर्तन घचन घोलन इत्यादिक अनंत कालसुधी पामे. ॥ ३२ ॥ एम श्रीमहावीर देवे कयुं इति के० एम हुं पण तुजने कहुंकुं. एरीते श्रीसुधर्मास्वामिये पोताना शिष्य श्रीजंबुस्वामी प्रत्येकयुं. इति प्रथम समयाध्ययनस्य द्वितीयोदेशकः समाप्तः । ए उदेशे करी स्वसमय परसमयनी प्ररूपणा करीबे. 0 ס' || दीपिका - एतदूषयन्नाह । ( मासेति ) । ये कुतोपि हेतोर्मनसा प्रडुष्यंति प्रदेषयं ति तेषां वधपरिणतानां शुद्धं चित्तं न विद्यते । एवंच यत्तैरुक्तं केवलमनः प्रदेषेप्यनवद्यं पापानावइति तत्तेषामतयं मिथ्या । यतस्ते न संवृतचारिणोमनसोऽनु६त्वात् । तथा हि । कर्मबंधे मुख्यो हेतुर्मनएव । यथा ईर्यापथेऽनुपयुक्तोगवन् कर्मबंधकः । उपयु तस्तु सहसा हिंसकोपि न कर्मबंधकइति ततः पुत्रं पितेति दृष्टांतोन समीचीन इति ॥ २ ॥ अथ तेषामनर्थमाह । (इच्चे हियाहिंति ) । इत्येतानिः पूर्वोक्ता निर्दृष्टी नि तैस्ते वादिनः साता गौरव निश्चिताइदमस्मन्मतं शरणमिति मन्यमानानराः पापमेव सेवं कुर्वति ॥ ३० ॥ यत्रार्थे दृष्टांतमाह । ( जहत्ति ) । श्राश्राविणीं स िनावं य था जात्यंधः समारुह्य पारं तटमागंतु मिचति स नरोनावोजलव्याप्तत्वादंतरा मध्यएव विषीदति जले निमति ॥ ३१ ॥ दाष्टतिकमर्थमाह । एवमिति । एवं नौदृष्टांतेन ए For Private Personal Use Only Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७० तिीये सूत्रकृतांगे प्रथमश्रुतस्कंधे प्रथमाध्ययनं. के श्रमणाः शाक्यादयोमिथ्यादृष्टयोऽनार्याः स्वमतानुसारेण संसारपारकांक्षिणोपि संसा रमेवानुपर्यटति संसारएवानंतकालं चमंति इति ब्रवीमीति पूर्ववत् ॥ ३२ ॥ इति श्रीसू त्ररुतांगे प्रथमाध्ययने दितीयोदेशकः समाप्तः ॥ ॥ ॥ ॥ ॥ ॥ टीका-सांप्रतमेतद्दूषणायाह । (मणसाजेइत्यादि)। येहि कुतश्चिन्निमित्तान्मन सोऽतःकरणेन प्रष्यंति प्रषमुपयांति तेषां वधपरिणतानां शुई चित्तं न विद्यते । तदे वं यत्रनिहितं । यथा केवलमनःप्रषेप्यनवद्यं कर्मोपचयानावति । ततस्ते षामतथ्यमसदानिधायित्वं । यतो न ते संतृतचारिणोमनसोऽशुरूत्वात् । तथाहि । क मोपचये कर्तव्ये मनएव प्रधानं कारणं । यतस्तैरपि मनोरहितकेवलकायव्यापारे कर्मोप चयानावोनिहितः । ततश्च यद्यस्मिन् सति नवत्यसति तु न नवति तत्तस्य प्रधानं कारणमिति । ननु तस्यापि कायचेष्टारहितस्याऽकारणत्वमुक्तं सत्यमुक्तं । अयुक्तं तूक्तं । यतोनवतैवैवं नावशुध्यानिर्वाणमनिगडतीति नाता मनसएवैकस्य प्राधान्यमन्यधा यि । तथाऽन्यदप्यनिहितं । चित्तमेव हि संसारे रागादिक्लेशवासितं ॥ तदेव तैर्विनिर्मुक्तं नवांततिकथ्यते । तथान्यैरप्यनिहितं । मतिविनवमनस्त्वे यत्समत्वेपि पुंसां, परिणम सि गुनांशैः कल्मषांशस्त्वमेव ॥ निरयनगरवर्मप्रस्थिताः कष्टमेके उपचितगुनशक्त्या सूर्यसंने दिनोन्ये ॥ १ ॥ तदेवं नवदन्युपगमेनैव क्लिष्टमनोव्यापारः कर्मबंधायेत्युक्तं नव ति । तथैर्यापथेपि यद्यनुपयुक्तोघातितवान् ततोनुपयुक्ततैव क्लिष्टचित्ततेति कर्मबंधो नवत्येवायोपयुक्तोयाति ततो ऽप्रमत्तत्वादबंधकएव । तथाचोक्तं । उच्चालियंमि पाए, इरि यासमियस्स संकमहाए । वावळेकाकुलिंगी, मरेज तं जोगमासज ॥१॥ य तस्स तन्नि मित्तो बंधो सुगुमो विदेसि समये । अणवजो उपयोगे, ण सबनावे सो जम्हा ॥ ५ ॥ स्वप्नांतिकेप्यशुद्धचित्तसनावादीषदधोनवत्येव सच नवतोप्यन्युपगतएवाव्यक्तं तत्सावद्य मित्यनेनेति। तदेवं मनसोपि क्लिष्टस्यैकस्यैव व्यापारबंधसनावात् । यउक्तं नवता प्राणीप्रा विज्ञानमित्यादि तत्सर्व प्लवतइति । यदप्युक्तं । पुत्रं पिता समारज्येत्यादि तदप्यनालोचि तानिधानं । यतोमारयामीत्येवं यावन चित्तपरिणामोनूत्तावन्न कश्चि झ्यापादयति । एवं नूतचित्तपरिणतेश्च कथमसंक्लिष्टता चित्तसंक्लेशे चावश्यंनावी कर्मबंधश्त्युनयोरपि संवा दोत्रेति । यदपि च तैः क्वचिकुच्यते यथापरव्यापादितपिशितनदणे परहस्ताऽकृष्टांगारदा हानाववन्न दोषति । पिशितनक्षणेऽनुमतिरप्रतिहताऽस्याच कर्मबंधइति। तथा चान्यैरप्य निहितं । अनुमंता, विशसिता, संहर्ता, क्रय विक्रयी, ॥ संस्कर्ता, चोपनोक्ता च, घातकश्चा ष्ट घातकाः । यच्च कतकारितानुमतिरूपमादानत्रयं तैरनिहितं तनेंमतलवास्वादनमेव तैरकारीति । तदेवं कर्मचतुष्टयं नोपचयं यातोत्येवं तदनिदधानाः कर्मचिंतातोनष्टा Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राय धनपतसिंघ बाहाउरका जैनागमसंग्रह नाग उसरा. १ इति सुप्रतिष्ठमिदमिति ॥ ॥ अधुनैतेषां क्रियावादिनामनर्थपरंपरां दर्शयितुमाद । (श्चेयाहिं इत्यादि ) इत्येतानिः पूर्वोक्तानिश्चतुर्विधं कर्म नोपचयं यातीति दृष्टिनिरन्यु पगमैस्ते वादिनः सातागौरवनिश्रिताः सुखशीलतायामासक्तायत्किंचनकारिणोयथाल ब्धनोजिनश्च संसारोघरणसमर्थ शरणमिदमस्मदीयं दर्शनमित्येवं मन्यमानाविपरीता नुष्ठानतया सेवंते कुर्वति पापमवद्यमेवं व्रतिनोपि संतोजनाश्व जनाः प्राकृतपुरुषसहशा इत्यर्थः ॥ ३० ॥ अस्यैवार्थस्योपदर्शकं दृष्टांतमाह । (जहाअस्साविणिमित्यादि) पास मंतात्रवति तन्हीला बास्राविणी समित्यर्थः । तां तथाभूतां नावं यथा जात्यंधः समारुह्य पारं तटमागंतुं प्राप्तुमिनत्यसो तस्याश्च स्राविणीत्वेनोदकप्लुतत्वादंतराले जलम ध्यएव विषीदति वारिणि निमति तत्रैव च पंचत्वमुपयातीति ॥३१॥ सांप्रतं तं दाट तिकयोजनार्थमाह । ( एवमित्यादि ) यथाऽधः सविड़ नावं समारूढः पारगमनाय नालं तथा श्रमणाएके शाक्यादयोमिथ्या विपरीता दृष्टिर्येषां मिथ्यादृष्टयः । तथापि शिताशनानुमतेरनार्याः स्वदर्शनानुरागेण संसारपारकांक्षिपोमोदानिलाषुकाअपि सं तस्ते चतुर्विधकर्मचयानन्युपगमेनानिपुणत्वाबासनस्य संसारमेव चतुर्गतिसंसरणरूपम नुपर्यटंति । नूयोनूयस्तत्रैव जन्मजरामरणादौ गत्यादिक्लेशमनुनवंतोऽनंतमपि काल मासते न विवक्षितमोक्षसुखमाप्नुवंतीति । ब्रवीमीति पूर्ववदिति ॥३२॥ इति सूत्रकतांगे समयारख्याध्ययनस्य वितीयोदेशकः समाप्तः ॥ ॥ अथ प्रथमाध्ययने तृतीयोदेशकः प्रारन्यते. ॥ जं किंचित पूश्कडं सड्ढीमागंतुमीहियं ॥ सदस्संतरियं जंजे, उपरकं चेव सेव॥१॥ तमेव अवियाणंता, विसमंसि अकोविया ॥ मना वेसा लिया चेव, नदगस्स नियागमे ॥२॥न्दगस्स पनावेणं, सुकं सिग्धं तमि ति॥ ढंकेहिय कंकेहिय, आमिसबेहिं ते ही॥३॥ एवं तु सम णा एगे, वट्टमाणसुदेसिणो॥मबा वेसालिया चेव, घातमेस्संति पंतसोध अर्थ-पाउलना उद्देशे स्वसमय परसमय प्ररूपणा करी, अने अहीपण तेहिज कहेले. किंचिके जे कांअल्प अथवा घणो थाहार पाणी पूश्कडं के पूतीकर्म एटले आधाक मिना एक कणे सहित एवो आहार पाणी सडिके श्रद्धावंत गृहस्थे नक्तियें करीबागं तुमीहियं के अनेरा आवनारना उद्देशे करी नीपजाव्यो. तेज आहार कदाचित् सह स्संतरियं के सहस्रांतरित एटले एके बीजाने दीधो, बीजे त्रीजाने दीधो, त्रीजे चो थाने दीधो एवी रीते सहस्रांतरित पणे ते सदोष थाहार जे मुंजे के नकण करे ते, Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७२ द्वितीये सूत्रकृतांगे प्रथम श्रुतस्कंधे प्रथमाध्ययनं. १० चैवके निचे डुपरकं के० दिपक एटले गृहस्थ बने प्रवजितनो पक्ष सेवइ के० सेवे एटले ते लिंगे तो प्रवर्जित देखायबे, पण सदोष प्राहारना लेवा थकी ग्रहस्थ सरखो जावो.। यडुक्तं । खाहाकम्मंनु॑जमाणे, सम से कइकम्म पयडीनबंध गोयमा कम्मपय डिनुबंधइ सिटिजबंध बाजे, यणियबंध बाकरेति ॥ इत्यादिवचनात्. ए कारणे परतीर्थी अथवा स्वतीर्थी याधाकर्मादिक खाहार लेता थका द्विपक्षना सेवनार जावा. ॥ १ ॥ हवे एने एवो हार जेतां थकां जे विपाक उपजे ते देखाडेले. तमेव वियाांता के० ते दर्शनी ते प्राधाकर्मि आहारनो दोष अजाणता तथा विसमंसिके० विषम जे प्रष्ट प्रकारना कर्मनो बंध अथवा चतुर्गतिक संसारने विषे कोविया के पंमित बे, टले ते एम नयी जाणता के जीवने कर्मनो बंध अथवा मोह केम थाय ? अथवा के वा उपाय थकी संसारसमुद्र तरे एवो परमार्थ ते जाणता नयी एवा बतां संसारमां हे कर्मपा बंधाला थका दुःखी थायले, यहियां दृष्टांत कहेते. मला के० जेम माठ लां वेसानिया के० समुड्ना उपना, अथवा विशाल जातीना उपना, अथवा विशाल एटले बृहत्काय एटले मोहोटा शरीरवाला एवा महामन ते उदगस्त नियागमे के० पाणीना श्रागमे एटले समुड्नी वेलि प्रसार पामी बते ॥ २ ॥ उदकस्सपनावेलं के० ० ए दकने प्रजावे एटजे पाणीने पूरे, समुइ थकी निकलीने नदीना मुखम यावी पडे त्या पठी ते पाणी सुकं सिग्घंत मिंतिच के० सुके बते ते मछ शरीरने स्थूलपणे कादवमां हे खूता का घातमेति के० मरण पामे. ते केवी रीते, तो के ढंके दियकं के दिय के ० ढंक ने कंक ए जातिना पक्षी विशेष ने प्रामिसबेहिं के० बीजापण मांसना लो निष्ट एवा महीमारोए विलुप्यमान एवां ते डही के दुःख पामेबे एटले ते जी ari मोने विलुरी नाखे, बेदीनाखे, किं बहुना प्राण थकी मुकावे. ए रीते दुःख पा मे. ॥ ३ ॥ ए दृष्टांत दर्शनी साथे मेलवेढे, एवंतु के० ए पूर्वोक्त न्याये माडलांनी पेरे समाएगे के एक शाक्यादिक श्रमण अथवा स्वतीर्थी इव्यलिंगी ते केवावे, तोके मासु सिलोके वर्तमान सुख जे याधाकर्मिकप्राहार नोजन सुख तेना गवेष हार परलोकना सुखथी पराङ्मुख मवावेसालियाचेव के० वैशालिक मनी परे यामिक काले र घटिकाने न्याये घातमेस्सं तिांतसो के० संसारमांहे अनंता उ नमन निमऊन सरखा जन्म मरण पामे पण संसारना पारंगामी न थाय ॥ ४ ॥ ! || दीपिका - द्वितीयोदेश के स्वान्यसमयप्ररूपणा कृता तृतीयेपि सैवोच्यतइति तस्येद मादिसूत्र | ( जंकिंचिदिति किं चिदाहारजातं स्वल्पं धनं वा पूतिकृतमाधाकर्मादिसिक्थेनापि युक्तं । (सहित्ति ) | श्रद्धावता नक्किमताऽन्येनापरानागंतुकानुद्दिश्य ईहितं कृतं तत्सहस्त्रां For Private Personal Use Only Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राय धनपतसिंघ बादाडुरका जैनागमसंग्रह नाग दुसरा. ७३ तरितमपि यो जुंजीत स द्विपकं गृहस्थपकं प्रव्रजितपहुंच सेवते । श्रयमर्थः । याधाक दिलवेनापि संसृष्टं परकृतमप्याहारं योजयेत् सोपि द्विपदसेवी स्यात् किं पुनः स्वयमाहारं निष्पाद्य ये शाक्यादयोखुंजते ते सुतरां द्विपसेविनः स्युरित्यर्थः । अथवा द्विपक्षीयपथं सपरायिकं वा बधनिका चितनेदं वा कर्म तत्सेविनः परतीर्थिकाः स्व यूय्यावा स्युरिति ॥ १ ॥ यथ तनोजिनां विपाकं दृष्टांतेनाह । ( तमेवेति ) । तमा धाकर्माद्युपनोगदोषमविजानतो विषमे कर्मबंधे संसारे वा प्रकोविदाः कथं कर्मबंधः स्यात्कथं च न स्यात् कथं संसारार्णवस्तीर्यतइत्यत्राऽनिपुणाः खिनः स्युः । दृष्टांतमाह । मत्स्या यथा ( वेसा जियत्ति ) विशालः समुस्तत्र नवाविशालाख्यजा तिनवावा विशा लाएव वा वैज्ञानिकाबृहवरीराचदकस्य जजस्याच्यागमे समुड्वेलायां सत्यामुदकस्य प्रजावेन नदीमुखमागताः पुनर्वेलापगमे जले शुष्के वेगे व्यपगते सति ढंकैः ककैश्व प दिविशेवैरन्यैश्वामिषार्थि निर्विलुप्यमानास्ते दुःखिनोमत्स्यघातं विनाशं यांति प्राप्नुवंती ति श्लोक ६यार्थः ॥ ३ ॥ दाष्टतिक योजनामाह । ( एवमिति ) । एवमेके श्रमणाः शाक्यादयः स्वयूथ्यावा वर्तमानमेव सुखमिहलोकसुखमाधाकर्माद्युपभोगजमेषितुं शीलं येषां ते वर्तमान सुखैषिणोवैशालिका मत्स्याश्व घातं विनाशमेष्यत्यनंतशोयास्यति बहुवारं संसारे नमिष्यंति दुःखमनुनवंतः ॥ ४ ॥ ॥ टीका - द्वितीयोदेशकानंतरं तृतीयः समारज्यते ॥ यस्य चायमनिसंबंधः । यध्यय नार्थाधिकारः स्वसमयपरसमय प्ररूपणेति । तत्रोद्देशक ६ येन स्वपरसमयप्ररूपणा कृता । यत्रापि सैव क्रियते । अथ चाऽद्ययोरुदेशकयोः कुदृष्टयः प्रतिपादितास्तदोषाश्च तदिहा पि तेषामाचारदोषः प्रदृश्यतइत्यनेन संबंधेनायातस्यास्योदेशकस्य चत्वार्यनुयोग द्वाराणि व्यावएर्यास्खलितादिगुणोपेतं सूत्रमुच्चारणीयं । तच्चेदं । ( जंकिं चिनपूइकड मित्यादि ) । यस्य चानंतरसूत्रेण सहायं संबंधइहानंतरोदेशकपर्यंतसूत्रे निहितः । ( एवंतुश्रमणा इत्यादि) । तदिहापि संबध्यते । एके श्रमणायत्किंचित्पूतिकर्त नुंजानाः संसारं पर्यट तीति । परंपरसूत्रेत्व निहितं ( बुझितइत्यादि ) यत्किंचित्पूतिकृतं तद्बुध्येतेत्येवमन्यैरपि सूरुत्प्रेक्ष्यः संबंधोयोज्यः । अधुना सूत्रार्थः प्रतीयते । ( यत्किंचिदिति ) । खाहारजात स्तोकमप्यास्तां तावत्प्रभूतं । तदपि प्रतिकृतमाधाकर्मादि सिक्थेनाप्युपसृष्टमास्तांताव दाधाकर्म | तदपि न स्वयंकृतमपि तु श्रद्धावतान्येन चक्तिमताऽपरानागंतुकानुद्दिश्ये हि तं चेष्टितं निष्पादितं तच्च सहस्रांतरितमपि योनुंजीतान्यवहरेदसौ द्विपकं गृहस्थपक्षं प्र जितपक्षं वा सेवते । एतडुक्कं नवति । एवंभूतमपि परकृतमपरागंतुकयत्यर्थे निष्पादि तं यदाधाकर्मादि तस्य सहस्रांतरितस्यापि योवयवस्तेनाप्युपसृष्टमाहारजातं गुंजानस्य द्विपदसेवनमापद्यते । किं पुनः यएते शाक्यादयः स्वयमेव सकलमाहारजातं निष्पाद्य स्वय १० For Private Personal Use Only Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७४ वितीये सूत्रकृतांगे प्रथमश्रुतस्कंधे प्रथमाध्ययनं. मेव चोपनुंजते तेच सुतरां विपक्से विनोनवंतीत्यर्थः । यदि वा विपदमिति र्यापथः सांपरायिकं वा । अथवा पूर्वबहानिकाचिताद्यवस्थाः कर्मप्रकृतीनंयत्यपूर्वश्चादत्ते । तथाचागमः । याहाकम्मं चुंजमाणे समणे कश् कम्मपयडी बंध गोयमा अकम्म पयडी बंधा सिढिलबंधणबहा थणियबंधणबझा करे चिया करे। ग्वचियाक रे हस्तहिश्या दीहहिश्या करे इत्यादि । ततश्चैवं शाक्यादयः परतीर्थिकाः स्वयू थ्यावा अाधाकर्मनुंजानादिपक्मेवाऽसेवंतइति सूत्रार्थः ॥ १ ॥ इदानीमेतेषां सुवै षिणामाधाकर्मनोजिनां कटुक विपाकाविर्भावनाय श्लोक येन दृष्टांतमाह । (तमेव अवियाएंता इत्यादि ) तमेव बाधाकर्मोपनोगदोषमजानानाविषमोऽष्टप्रकारकर्म बंधोनवकोटिनिरपि उर्मोश्चतुर्गतिसंसारोवा तस्मिन्नकोविदाः कथमेषकर्मबंधोन वति कथं वा न नवति केन चोपायेनार्य संसारार्णवस्तीर्यतइत्यत्राऽकुशलास्तस्मिन्नेव संसारोदरे कर्मपाशावपाशिताःखिनोनवंतीति । अत्र दृष्टांतमाह । यथा मत्स्याः प्रधुरो माणोविशालः समुस्तत्र नवावैशालिकाः विशालारख्यविशिष्टजात्युभवावा वैशालिकाः विशालाएव वैशालिकाबृहहरीरास्ते एवंनूतामहामत्स्याउदकस्याच्यागमे समुश्वेलायां सत्यां प्रबलमरु गोभूतोत्तुंगकन्नोलमालाऽपनुन्नाः संतनदकस्य प्रनावेन नदीमुख मागतापुनर्वेलापगमे तस्मिन्नुदके शुष्के वेगेनैवापगते बृहत्वालरीरस्य तस्मिन्नेव धुनीमुखे विलग्नाथवसीदतथामिषगभुनिकैः कंकैश्च पक्षिविशेषैरन्यैश्च मांसवसाथिनिमत्स्य बंधादिनिर्जीवंतएव विलुप्यमानामहांतं कुःखसमुद्घातमनुनवंतोऽशरणाघात विनाशं यांति प्राप्नुवंति । तुरवधारणे । त्राणानावादिनाशमेव यांतीति श्लोक क्ष्यार्थः ॥ ३ ॥ एवं दृष्टांतमुपदर्य दार्टीतिके योजयितुमाह । (एवंतुसमणा इत्यादि) यथैतेऽनंतरोक्त मत्स्यास्तथा श्रमणाः श्राम्यंतीति श्रमणाएके शाक्यपाशुपतादयः स्वयूथ्यावा । किंनूतास्ते इति दर्शयति । वर्तमानसुखैषिणः समुड्वायसवत् तत्कालावाप्तसुखलवासक्तचेतसोना लोचिताधाकर्मोपनोगजनिताऽतिकटुकःखौघानुनवनावैशालिकमत्स्याश्व घातं विशाल मेष्यंत्यनंतशोऽरघट्टीन्यायेन नूयोनयः संसारोदन्वति निमजनोन्मङनं कुर्वाणान ते संसारांनोधेः पारगामिनोनविष्यतीत्यर्थः॥ ४ ॥ इणमन्नं तु अन्नाणं, हमेगेसि आहियो।देवनत्ते अयं लोए, बनउत्तेति आवरे॥५॥ईसरण कडे लोए, पहाणा तदावरे॥ जीवाजीवसमान ते, सहकसमन्निए॥६॥ सयंजुणा कडे लोए, इति वृत्तं मदेसिया मारेण संथुया माया, तेण लोए असासए ॥ मादणा समणा एगे आद अंमकडे जगे॥ असो तत्तमकासीय, अयाणंता मुसं वदे॥७॥ Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राय धनपतसिंघ बाहारका जैनागमसंग्रह नाग डुसरा: प्रय ० - हवे ने ज्ञानीनुं मत देखाडे. इणमन्नंतु न्नाणं के० ए पूर्वे कनोजे सदोष आहार लइने सुख माने तेनाथी वली अन्य अज्ञानीनुंमत देखाडेबे . इहमेगे सिया aिito प्रहीयां कोइ एकने मते पण सर्वने मते नहीं एटले कोइक अज्ञानी एम कहे haarai के० या लोक जे चराचर संसार बे, ते देवें नीपजावेलो बे जेम करसी बीज वावीने करसण नीपजावेळे ते सरखो जावो. तथा वली बीजा एम Tea के बंननतिखावरे के० ए लोक ब्रह्मदेवें नीपजाव्योवे. ब्रह्मा जगत्पितामह इतिवचनात्. ॥ ५ ॥ वली को एक एम कहे, के ईसरेएकडेलोए के० ए लोक ईश्वरें करेलो. पहाणाइ तहावरे के० तथा खवरे एटले बीजा वली एम कहेले के, प्रधान एटले सत्व, रज ने तमगुणनी जे सम अवस्था ते प्रकृति कहिए. तेथे ए लोक करे लो बे. बीजा एम कहेबे के मोरनी पांख कोणे चीतरी ? सेलडी मिष्ठ कोणे कीधी ? स्वना ara लोक नीनो बे. वली कांटा तीखा कोणे कीधा ! लींब कडवो को करयो तथा जस ए दुर्गंधमय, कमल सुगंधमय ए सर्व स्वनावेज नीपनांबे, तेम लोक पण स्वनावे निष्प न. ते लोक केवोबे, तोके जीवाजीवसमासत्तेके० जीव खजीव सहित तथा सुह डुरक सम निएके सुखःखसहित बे ॥ ६ ॥ एक कहेले के, सर्याकडेला एके० ए लोक स्वयंच विष्णु ते नीपजाव्यो. अथवा ते विम पेहेलो एकज हतो ते जगत नीपजाववानी चिंता करी त्यारे बीजी शक्ति नीपनी, त्यार पढी जगतनी सृष्टी निष्पन्न थई. इतिवृत्तंम सिला के० एवं महर्षिए कयुंबे त्यार पठी स्वयंनुंए लोक नीपजावीने एवं चिंतव्यं जे एटली जगत सृष्टीनो समास क्यां थशे ! तेवारे मार एटले यम नीपजाव्यो. पढ़ी मारे संयामायाके० तेोमारे माया नीपजावी ते थकी ए लोक मरेबे. तेलोए श्रसासए ho ते कारण माटे ए लोक अशाश्वतो बे. ॥ ७ ॥ वली ते हिज कहेबे मादणा समया एगेके० एक ब्राह्मण तथा एक भ्रमण जे त्रिदंमी प्रमुख ते एम खाह के० कलेले के, अंक डेज के ए सचराचर जगत ते अंमथकी निपनुं छे; ते एम कहेले के जेवारे जगत मां का वस्तु न हती सर्व पदार्थ शून्य संसार हतो तेवारे ब्रह्मायें पाणी माहे इंरुं सरज्यं पढी ते ईशु वध्युं तेवारे ते नांगीने बे खंम थया; तेमाहे थकी अधोलोक खने ऊर्ध्वलोक पनामा समस्त प्रजा उत्पन्न यई. एवा अनुक्रमे पृथ्वी, पाणी, अग्नि, वायु, खाकाश, समु, नदी, पर्वत, ग्राम, खागर, नगर इत्यादिक सर्व स्थिति उत्पन्न थई; ए कारणे थ सोके ० 50 ए ब्रह्माये ए सर्व तत्तंके० तत्व एटले पदार्थ ते कासीयके कीधा. एरीते ते ब्राह्मणादिक याता मुसंवदेके परमार्थने अजाणता थका मृषा बोजेबे ॥ ८ ॥ ० ॥ दीपिका - प्रथाऽपराज्ञा निमतमाह । ( इमिति ) । इदं वक्ष्यमाणमन्यदज्ञान • For Private Personal Use Only ס Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७६ वितीये सूत्रकृतांगे प्रथमश्रुतस्कंधे प्रथमाध्ययनं. मिहास्मिन् लोके एकेपामाख्यातं । किं पुनस्तैराख्यातमित्याह । देवउत्तेति । देवेन वप्तः क तोदेवोप्तोदेवपुत्रोवायं लोकः । ब्रह्मणा उप्तोब्रह्मणा कृतोवायं लोकश्त्यपरे वदंतीति ॥ ॥५॥ तथा ईश्वरेण कृतोलोकः । अपरे वदंति प्रधानादिकतोलोकः । सत्वरजस्तमोगुणा नां साम्यावस्था प्रकतिः सैव प्रधानशब्दवाच्या । धादिशब्दान्नियतिकृतोलोकश्त्यन्ये । लोकोजीवाजीवसमायुक्तः सुरयकुःखसमन्वितश्च ॥ ६ ॥ तथा स्वयंनूर्विसुरन्योवा सचै काकी रतिं न लनते ततोन्या शक्तिः समुत्पन्ना तदनंतरं जगत्सृष्टिरनूदिति महर्षिणा न तं । ततः स्वयंवा लोकं निष्पाद्यातिसंसारनयात् यमाख्योमारयतीतिमारोव्यधायि । तेन मारेण संस्तुता कता माया तया मायया च लोको नियते । नच तत्त्वतोजीवस्य मृतिरस्त्यतोमायैषा तेन लोकोऽशाश्वतइति गम्यते ॥ ७ ॥ तथा ब्राह्मणाविजातयः श्रमणास्त्रिदंडिप्रमुखाएके अंडेन कृतमंडळतं अंडाळातं जगदादुर्वदंति । ब्रह्मणांडं क ते ततोविश्वं जात । एवं कृते जगति यसौ ब्रह्मा तत्त्वं पदार्थसमूहमकार्षीत् कृतवान् ते च ब्राह्मणाद्याः परमार्थाननिझाएवं मृषा वदति ॥ ७ ॥ ॥टीका-सांप्रतमपराज्ञानिमतोपप्रदर्शनायाह । (णमन्नतुअन्नाणमित्यादि)। इद मिति वदयमाणं ।तुशब्दः पूर्वेन्यो विशेषणार्थः। धज्ञानमिति मोहविजंजणमिहास्मिन् लो के एकेषां न सर्वेषामाख्यातमनिप्रायः।किंपुनस्तदारख्यातमिति तदाह ।देवेनोप्तोदेवोप्तः कर्ष केणेव बीजवपनं कृत्वा निष्पादितोयं लोकश्त्यर्थः। देवैर्वा गुप्तोर दितोदेवगुप्तोदेवपुत्रोवेत्या दिकमझानमिति । तथा ब्रह्मणानप्तोब्रह्मोप्तोयंलोकश्त्यर्थः । परे एवं व्यवस्थिताः । तथा हि। तेषामयमन्युपगमः।ब्रह्मा जगत्पितामहः सचैकएव जगदवासीत्तेनच प्रजापतयः सृष्टा स्तैश्च क्रमेणैतत्सकलं जगदिति । तथेश्वरेण कृतोयं लोकः। एवमेके ईश्वरकारकायनिदधति प्रमाणयंति वा । सर्वमिदं विमत्यधिकरणनावोपपन्नं नतु नुवनकरणादिकं धर्मित्वेनोपादी यते।बुद्धिमत्कारणपूर्वकमिति साध्योधर्मः। संस्थानविशेषवत्त्वादिति हेतुः । यथा घटादिरि ति दृष्टांतोयं । यद्यत्संस्थान विशेषवत्तत्तद्बुद्धिमत्करणपूर्वकं दृष्टं । यथा देवकुलकूपादिसं स्थानविशेषवच्च मकराकरनदीधराधरधराशरीरकरणादिकं विवादगोचरापन्न मितिातस्माद दिमत्कारणपूर्वकं । यश्च समस्तस्यास्य जगतः कर्ता ससामान्य पुरुषोन नवतीत्यसावीश्वर ति। तथा सर्वमिदंतनुनुवनकरणादिकं धर्मित्वेनोपादीयते बुद्धिमत्कारणपूर्वकमिति।साध्यो धर्मःकार्यत्वाद्घटादिवत् तथा स्थित्वा प्रवृत्तेर्वा वास्यादिवदिति। तथाऽपरेप्रतिपन्नायथा। प्रधानादिकतोलोकः । सत्वरजस्तमसां साम्यावस्था प्रकृतिः साच पुरुषार्थ प्रवर्तते । आदिग्र हणाच्च प्ररुतेर्महान् ततोहंकारस्तस्माच गणः षोडशकस्तस्मादपि षोडशकात्पंचन्यः पंच महाभूतानीत्यादिकया प्रक्रियया सृष्टिर्नवतीति । यदि वा आदिग्रहणात्वनावादिकं गृह्य Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राय धनपतसिंघ बादाउरका जैनागमसंग्रह नाग उसरा. ७७ ते । ततश्चायमर्थः । स्वनावेन कृतोलोकः कंटकादितैहण्यवत् । तथान्ये नियतिकतोलोको मयूरांगरुहवदित्यादिनिः कारणैः कृतोयं लोकोजीवाजीवसमायुक्तो जीवैरुपयोगलक्षणे स्तथा जीवर्धमाधर्माकाशपुजलादिकैः समन्वितः समुधराधरादिकइति । पुनरपि लोकं विशेषयितुमाह । सुरखमानंदरूपं दुःखमसातोदयरूपमिति तान्यां समन्वितोयुक्तइति ॥ ॥ ६ ॥ किंच । ( सयंनुणाइत्यादि) । स्वयं नवतीति स्वयंनूर्विमुरन्यो वा सचैकएवादाव जूत्तत्रैकाकी रमते वितीय मिष्टवांस्तचिंतानंतरमेव वितीया शक्तिः समुत्पन्ना तदनंतरमेव जगत्सष्टिरनूदित्येवं महर्षिणोक्तमनिहितं । एवं वादिनोलोकस्य कर्तारमन्युपगतवंतोपि च । तेन स्वयंचुवा लोकं संपाद्यातिनार नयाद्यमाख्योमारयतीति मारोऽन्यधायि । तेन मा रेण संस्तुता कता प्रसाधिता माया तया च मायया लोकाघ्रियते । नच परमार्थतोजी वस्योपयोगलदणस्य व्यापत्तिरस्त्यतोमायैषा । यथायं मृतस्तथा चायं लोकोऽशाश्व तोऽनित्योऽविनाशीति गम्यते ॥ ७ ॥ अपिच । ( माहणाश्त्यादि ) । ब्राह्मणाविजात यः श्रमणास्त्रिदंडिप्रनृतयः । एके केचन पौराणिकान सर्वे एवमादुरुक्तवंतोवदंति च । यथा जगदेतच्चराचरमंडेन कृतमंडकत । अंडाकातमित्यर्थः। तथाहि । ते वदंति यदा न किंचिदपि वस्त्वासीत् पदार्थशून्योयं संसारस्तदा ब्रह्माऽप्स्वंडमसृजत्तस्माच क्रमें ए वृक्षात्पश्चाविधानावमुपगतादूर्वाधोविनागोऽनूत् तन्मध्ये च सर्वाः प्रस्तयोऽनूव न् । एवंष्टथिव्यप्तेजोवाय्वाकाशसमुइसरित्पर्वतमकराकर निवेशादिसंस्थितिरनूदिति । तथाचोक्तं । बासी दिदं तमोनूतमप्रझातमलदणं ॥ अप्रतय॑मविज्ञेयं, प्रसुप्तमिव सर्व तः ॥१॥ एवंनते चास्मिन जगत्यसौ ब्रह्मा तस्य नावस्तत्त्वं पदार्थजातं तदमादिप्रक्रमे णाकार्षीत् कृतवानिति। तेच ब्राह्मणादयः परमार्थमजानानाः संतोमषावदंति अन्यथा च स्थितं तत्त्वमन्यथाप्रतिपादयंतीत्यर्थः ॥ ७॥ ॥ ॥ ॥ ॥ सएहिं परियाएदि, लोयं बूया कडेतिय॥तत्तं ते ण विजाणंति, ण विणा सी कयाइवि ॥ ए ॥ अमणुन्नसमुप्पायं, उरकमेव विजाणिया ॥ समुप्पायमजाणंता, कदं नायंति संवरं ॥ १० ॥ थर्थ ॥ हवे ग्रंथकार एनो उत्तर कहेजे. एरीते पूर्व जे दर्शनी का ते, सएहिं परियाए हिंके० पोतपोताना पर्यायें करी एटले पोतपोतानी कल्पनाये लोयंबूयाकडेतियके० एम कहे जे ए लोक अमुक अमुक प्रकारे कीघोडे. परंतु तत्तंते णविजाणंतिके ते तत्व कांच जाणता नथी. गविणासीकयाइविके० ए लोकतो कदापि काले विनाश पामे नहीं, एनीथादि पणनथीयने अंत पण नथी, तेथी एनो कर्सा कोइ नथी. एवो परमार्थ ते जाण ता नथी; पण थजाणथका नावे तेम बोले.॥ए॥ हवे एवां वचनना बोलनारने फल दे Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ G द्वितीये सूत्रकृतागे प्रथम श्रुतस्कंधे प्रथमाध्ययनं. खाडेले. ते दर्शनी मणुन्नके० विरु अनुष्ठान अनाचार ते थकी जेनी समुप्पार्थ के० उत्पत्ति, ते केवुं तोके, डुरकंके० हिंसादिक विरुवं अनुष्ठान तेमां जे प्रवर्त्तशे ते दुःखी यासे एवविजालियाके० एवं जाणवुं जोइये. समुप्पायमजाणंताके० ते एवा दुःखनी पत्नि कारणाने नजाणे परंतु ते अजाण बापडा कहनार्यतिसंवरं के० संवरपणुं जे दुःख निवारणं कारण बे, तेने केवी रीते जाणी शकशे ? एतावता यति यत्न करतां प ण दुःखनो उष्वेद न पामे, किंतु संसारमांहे अनंतो काल रहेगे. ॥ १० ॥ ॥ || दीपिका - श्रथ तेषामुत्तरमाह । (सएहि मिति ) । स्वकैर्निजैः पर्यायैरनिप्रायैर्लोकं कृतमब्रुवन् कथितवंतस्ते तत्त्वं परमार्थ नानिजानंति । नच विमाशी लोकः कदाचित् निर्मूलतः पर्यायरूपेण विनाश्यपि इव्यार्थतया नित्यत्वात् । लोकस्य ईश्वरादिरुतत्वं नि षेधयुक्तष्ट कातोज्ञेयं ॥ ए ॥ अथ तेषां मृषावादिनां फलमाह । श्रमन्नेति । थ मनोइं प्रसदनुष्ठानं तस्मात्पाद: प्राडुर्भावोयस्य तदमनोज्ञसमुत्पादं दुःखं विजा नीयात् प्राज्ञः । प्रयमर्थः स्वकृतादसदनुष्ठानादेव दुःखमुत्पद्यते नेश्वरादेरिति । ते चैवं दुःखस्य संवरं प्रतिघात हेतुं ज्ञास्यति । कारणोवेदादेव कार्योछेदः स्यात् । कारणं वाऽजा नंतः कथं खोदाय यतिष्यते यत्नवंतोपि दुःखोवेदं नानुवंतीति ॥ १० ॥ 11 11 ॥ टीका - धुनैषां देवोप्ता दिजग वादिनामुत्तरदानायाह । (सएहिमित्यादि) । स्वकीयैः स्वकीयैः पर्यायैरनिप्रायैर्युक्ति विशेषैश्यं लोकः कृत इत्येवमब्रुवन्ननिहितवंतः । देवोसोब्रह्मो ईश्वरकृतः प्रधानादिनिष्पादितः स्वयंभुवा व्यधायि तन्निष्पादितमायया वियते तथांड जश्चार्य लोकइत्यादिस्वकीया निरुपपत्तिनिः प्रतिपादर्यति । यथाऽस्मक्तमेव सत्यं ना यदिति ते चैवंवादिनो वादिनः सर्वेपि तत्त्वं परमार्थ यथावस्थितलोकस्वनावं नानिजानं ति न सम्यक् विवेचयति । यथाऽयं लोकोऽव्यार्थतया न विनाशीति निर्मूलतः कदाचन । नचायमादितयारज्य केनचित् क्रियते पित्वयं लोकोऽनूभवति नविष्यति च । तथाहि । य सावकं यथा देवोसोऽयं लोकइति तदसंगतम् । यतोदेवोप्तत्वे लोकस्य न किंचित्तथावि धं प्रमाणमस्ति । नचाप्रमाणकमुच्यमानं वि६जनमनांसि प्रीणयति । श्रपिच किमसौ देव पन्नोऽनुत्पन्नोवा लोकं सृजेन्न तावदनुत्पन्नस्तस्य खरविषाणस्ये वासश्वात्करणानावः । योत्पन्नः सृजेत्तत्किं स्वतोऽन्यतो वा । यदि स्वतएवोत्पन्नस्तथा सति तल्लोकस्यापि स्वतए वोत्पत्तिः किं नेष्यते । अथान्यतउत्पन्नः सन् लोककरणाय सोप्यन्योन्यतः सोप्यन्योन्यतइ त्येवमनास्थालतामनोमंडल व्यापिन्यनिवारितप्रसरा प्रसर्पतीति । श्रथासौ देवोऽनादित्वा न्नोत्पन्नइत्युच्यते इत्येवंसति लोकोप्यनादिरेवास्तु को दोषः । किंचासावनादिः सनित्योऽनि त्योवा स्यात्तद्यदि नित्यस्तवा तस्य क्रमयौगपद्याच्यामर्थक्रिया विरोधान्न कर्तृत्वं । थथाऽनि For Private Personal Use Only Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राय धनपतसिंघ बादाउरका जैनागमसंग्रह नाग उसरा. ए त्यस्तथासति स्वतएवोत्पत्त्यनंतरं विनाशित्वादात्मनोन त्राणाय कुतोन्यत्करणं प्रति तस्य व्यापारचिंतेति । तया किममूर्तोमूर्तिमान् वा । यद्यमूर्तस्तदाऽकाशवदकतैवाऽथ मूर्तिमान् तथासति प्राकृतपुरुषस्येवोपकरणसव्यपेदस्य स्पष्टमेव सर्वजगदकर्तत्वमिति। देवगुप्तदेवपुत्रपदौ त्वतिफल्गुत्वादपकर्णयितव्याविति । एतदेव दूषणं ब्रह्मोप्तपदेपि इष्ट व्यं तुल्ययोगक्षेमत्वादिति । तथा यमुक्तं । तनुनुवनकरणादिकं विमत्यधिकरणनावापन्नं विशिष्टबुद्धिमत्कारणपूर्वकं कार्यत्वाद्धटादिवदिति तदयुक्तं । तथाविधविशिष्टकारणपूर्वकत्वे न व्याप्त्यसिः । कार्यपूर्वकत्वमात्रेण तु कार्य व्याप्तं । कार्य विशेषोपलब्धौ कारणविशेषप्र तिपत्तिर्गहीतप्रतिबंधस्यैव नवति।नचात्यंतादृष्टे तथा प्रतीतिर्नवति।घटे तत्पूर्वकत्वं प्रतिप नमिति चेत् युक्तं तत्र घटस्य कार्य विशेषत्वप्रतिपत्ते त्वेवं सरित्समुपर्वतादौ बुद्धिमत्का रणपूर्वकत्वेन संबंधोगृहीतइति । पुनरप्युक्तं । नन्वतएव घटादिसंस्थान विशेषदर्शन वत्पर्वतादावपि विशिष्टसंस्थानदर्शनाद्बुद्धिमत्कारणपूर्वकत्वस्य साधनं क्रियते । नैत देवं युक्तं । यतोनहि संस्थानशब्दप्रवृत्तिमात्रेण सर्वस्य बुद्धिमत्कारणपूर्वत्वावगति नवति । यदितु स्यान्मृतिकारत्वा इल्मीकस्यापि घटवत्कुंनकारकतिः स्यात् । तथाचोक्तं । अन्यथाकुंनकारेण मृधिकारस्य कस्यचित् । घटादेः कारणात्सिवये इल्मीकस्यापि तत्कतिरि ति । तदेवं यस्यैव संस्थानविशेषस्य बुद्धिमत्कारणपूर्वकत्वेन संबंधोगृहीतस्तदर्शनमेव तथाविधकारणानुमापकं नवति न संस्थानमात्रमिति । थपिच घटादिसंस्थानानां कुंनकार एव विशिष्टः कपिलक्ष्यते नेश्वरः । यदि पुनरीश्वरः स्यात्कि कुंनकारेणेति । नैतदस्ति । तत्रापीश्वरएव सर्वव्यापितया निमित्तकारणत्वेन व्याप्रियते । नन्वेवं दृष्टहानिरदृष्टक ल्पना स्यात् । तथाचोक्तं । शस्त्रौषधादिसंबधाच्चैत्रस्य व्रणरोहणे ॥ असंबधस्य किं स्थाणो कारणत्वं न कल्प्यते ॥१॥ तदेवं दृष्टकारणपरित्यागेनाऽदृष्टपरिकल्पना न त्या ज्येति । अपिच । देवकुलावटादीनां यः कर्ता ससावयवोऽव्याप्यनित्योदृष्टस्त दृष्टांतः साधितश्चेश्वरएवंनूतएव प्राप्नोति । अन्यथाभूतस्य च दृष्टांतानावाव्यात्यसि नुमा नमिति । अनयैव दिशा स्थित्वाप्रवृत्त्यादिकसाधनमसाधनमायोज्यं तुल्ययोगमित्वादि ति । यदपि चोक्तं प्रधानादिकतोऽयं लोकति तदप्यसंगतं । यतस्तत्प्रधानं किं मूर्तममू त वा। यद्यमूर्त न ततोमकराकरादेर्मूतस्योनवोघटते । नह्याकाशात्किंचित्पद्यमानमाल दयते मूर्ताऽमूर्तयोः कारणविरोधादिति । अथ मूर्त तत्कुतः समुत्पन्नं । न तावत्स्वतोलो कस्यापि तथोत्पत्तिप्रसंगात् नाप्यन्यतोऽनवस्थापत्तेरिति । अन्यथाऽनुत्पन्नमेव प्रधाना द्यनादिनावेनास्ते तल्लोकोपि किं नेष्यते । अपिच । सत्वरजस्तमसा साम्यावस्था प्रधा नमित्युच्यते नचाऽविकतात्प्रधानान्महदादेरुत्पत्तिरिष्यते नवतिः। नच विकत प्रधानव्यपदे शमास्कंदतीत्यतोन प्रधानान्महदादेरुत्पत्तिरिति । अपिचाचेतनायाः प्रकृतेः कथं पुरुषार्थ Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ० वितीये सूत्रकृतांगे प्रथमश्रुतस्कंधे प्रथमाध्ययनं. प्रति प्रवृत्तिर्येनाऽत्मनोनोगोपपत्त्या सृष्टिः स्यादिति । प्रकृतेरयं स्वनावति चेदेवं तर्हि स्वनावएव बलीयान् । यस्तामपि प्रकृति नियमयति ततएव च लोकोप्यस्तु किमदृष्टप्र धानादिकल्पनयेति । अथादिग्रहणात्स्वनावस्यापि कारणत्वं कैश्विदिष्यतइति चेदस्तु । न हि स्वनावोऽन्युपगम्यमानोनः कृतिमातनोति । तथाहि । स्वनावः स्वकीयोत्पत्तिः । सा च पदार्थानामिष्यतएवेति । तथा यमुक्तं नियतिकतोयं लोकति। तत्रापि नियमन निय तिर्यथानवनं नियतिरित्युच्यते । साचाऽलोच्यमाना न स्वनावादतिरिच्यते । यच्चान्यधा यि स्वयंचवोत्पादितोलोकइति तदप्यसुंदरमेव । यतः स्वयंनूरिति किमुक्तं नवति । किं यदाऽसौ नवति तदा स्वतंत्रोन्यनिरपेकएव नवति । अथाऽऽदिनवनात्स्वयंनूरिति व्यप दिश्यते । तद्यदि स्वतंत्रनवनान्युपगमस्त लोकस्यापि नवनं किं नान्युपेयते किं स्वयं नुवा । अथानादिस्ततस्तस्यानादित्वे नित्यत्वं नित्यस्य चैकरूपत्वात्कर्तत्वाऽनुपपत्तिस्त था वीतरागत्वात्तस्य संसारवैचित्र्यानुपपत्तिः । अथ सरागोसौ ततोऽस्मदाद्यव्यतिरेका त्सुतरां विश्वस्याकर्ता मूर्ताऽमूर्तादिकल्पाश्च प्राग्वदायोज्याइति । यदपि चात्रा निहितं । तेन मारः समुत्पादितः सच लोकं व्यापादयति तदप्यकर्तृत्वस्यानिहितत्वात्प्रलापमात्र मिति । तथा यमुक्तं अंडादिक्रमाजायते लोकइति तदप्यसमीचीनं । यतोयास्वप्सु त दंडं निसृष्टं तायथांडमंतरेणानूवन् तथा लोकोपि नूतश्त्यन्युपगमे न काचिदाधा दृश्यते। तथासौ ब्रह्मा यावदंडं सृजति तावनोकमेव कस्मान्नोत्पादयति किमनया क ष्टया युक्त्यसंगतया चांडपरिकल्पनया । एवमस्त्विति चेत् केचिदनिहितवंतोयथा ब्रह्मणोमुखाबाह्मणाः समजायंत बादुन्यां त्रियाकन्यां वैश्याः पनयां शुभाश्त्येतद प्ययुक्तिसंगतमेव । यतोन मुखादेः कस्यचिउत्पत्तिर्नवंत्युपलक्ष्यते । अथापि स्यात्त था सति वर्णानामनेदः स्यादेकस्माउत्पत्तेः । तथा ब्राह्मणानां करतैत्तिरीयककलापा दिकश्च नेदोन स्यादेकस्मान्मुखाउत्पत्तेः । एवंचोपनयनादिसनावोन नवेगावे वा स्वसादि ग्रहणापत्तिः स्यादेवमाद्यनेकदोषकुष्टत्वादेवं लोकोत्पत्ति न्युपगंतव्या । ततश्च स्थितमेत त् । तएवं वादिनोलोकस्याऽनाद्यपर्यवसितस्योवधिश्चतुर्दशरकुप्रमाणस्य वैशाखस्था नस्थकटिन्यस्तकरयुग्मपुरुषारुतेरधोमुखमनकाकारसप्तप्रथिव्यात्मकाधोलोकस्य स्थाला काराऽसंख्येय दीपसमुज्ञाधारमथ्यलोकस्य मनकसमुंजकाकारो+लोकस्य धर्माधर्माकाश पुजलजीवात्मकस्य इव्यार्थतयाऽनित्यस्य पर्यायापेक्ष्या दणदायिणानत्पादव्ययध्रौव्या पादितव्यसतत्त्वस्याऽनादिजीवकर्मसंबंधापादिताऽनेकप्रपंचस्याष्टविधकर्म विप्रमुक्ताऽत्म लोकांतोपलक्षितस्य तत्त्वमजानानाः संतोमृषा वदंतीति ॥ ए॥ इदानीमेतेषामेव देवो तादिवादिनामझानत्वं प्रसाध्य तत्फलदिदर्शयिषयाऽह । (अमान्नश्त्यादि)। मनोनु कूलं मनोइं शोजनमनुष्ठानं न मनोझमनोझमसदनुष्टानं तस्माउत्पादः प्राउन वोयस्य Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राय धनपतसिंघ बानाउरका जैनागमसंग्रह नाग उसरा. १ मुःखस्य तदमनोज्ञसमुत्पादं । एवकारोऽवधारणे । सचैवं संबंधनीयः।अमनोज्ञसमुत्पा दमेव उःखमित्येवं विजानीयादवगत्प्राज्ञः। एतउक्तं नवति । स्वस्ताऽसदनुष्ठानादेव छः खस्योनवोनवति नान्यस्मादित्येवं व्यवस्थितेपि सत्यनंतरोक्तवादिनोऽसदनुष्ठानोनवस्य उखस्य समुत्पादमजानानाःसंतोऽन्यतईश्वरादेऊःखस्योत्पादमिछति । तेचैवमिहंतः कथं केन प्रकारेण खस्य संवरं उःखप्रतिघातहेतुं ज्ञास्यति । निदानोलेदेन हि निदानिनउ दोनवति । तेच निदानमेव न जानति तत्त्वाऽजानानाः कथं कुःखोबेदाय यतिष्यंते य नवंतोपि च नैव उःखोजेदनमवाप्स्यत्यपि तु संसारएव जन्मजरामरणेष्टवियोगाद्यनेक मुःखवाताघ्राताभूयोनूयोऽरहघट्टीन्यायेनानंतमपि कालं संस्थास्यति ॥ १०॥ ॥ सुद्धे अपावए आया, इहमेगेसिमादियं ॥ पुणो किड्डापदोसेणं, सो तब अवरसई ॥११॥ इद संवुझे मुणी जाए, पता हो अपावए॥विय डंबु जदा नुको, नीरयं सरयं तदा ॥२२॥ एताणुचीति मेधावी, बंनचे रेण ते वसे ॥ पढो पावानया सवे, अकायारो सयं सयं ॥१३॥ सए सए वहाणे, सिधिमेव न अन्नदा ॥ अहो इदेव वसवत्ती, सबकाम समप्पिए॥१४॥ अर्थ-हवे प्रकारांतरे दर्शनीनुं मत देखाडे. ए प्रस्तावे हमेगेसिमाहियंके एक वे ली कोइक, त्रैराशिक गोशालामतानुसारी ते एम कहेछेके, ए आयाके यात्माते मनुष्य ने नवेज सुधेके शुम थाय. अपावए के पापरहित थाय. एटले सर्व कर्म क्यक। मोके जाय. पुणोके । वली सोके तेहज यात्मा तबके त्यां मोक्ने विषे बतो किड्डाप दोसेणंके० क्रीडाप्रदोषे करी एटले रागदेषने वशे करी अवरसश्के अपराध करे एटले कर्म रजे करी अशुभ थाय. एटले गुं कह्यु? के ते मुक्ति बतां जीवने पोतानां सासननी पूजा जाणी, अने अन्य सासननो परानव जाणी, पोताने राग उपजावे. तथा पोताना सा सननो व्याघात देखी देष उपजे. ए कारण माटे आत्मा निर्मल बतो उज्वल वस्त्रनी परे शनैःशनैः मलीन थाय. ए प्रकारे ते आत्मा वली संसारमाहे अवतरे एवं जे त्रैरा शिक कहेले, ते जीवनी त्रणराशी स्थापेले. प्रथम आत्मा सकर्मक, पनी वली अकर्मक थईने मुक्तिमा जाय,एबीजी राशी.अने त्यां मुक्तिने विषे वलीकर्म उपार्जी संसारमांहेयावे एत्रीजी राशी. ॥११॥ इहसंवुमेमुणीजाएकेण्अहीं मुक्ति थकी यावी मनुष्यना नवमां न पजीने मुनि एटले यमनियम सादरी,संयुमे एटले संवर आदरी, पलाहोश्यपावएके पड़ी पापरहित निर्मल थाय.एना उपर दृष्टांत कहे,जहाकेण्जेम वियर्डबुके विकटांबु एटले पा Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ न हितीये सूत्रकृतांगे प्रथमश्रुतस्कंधे प्रथमाध्ययनं. एणी तेहनीपरे जाणवू. जेम नीरयंके निर्मल पाणी दोयते रजादिकने संयोगे सरयंके रजसहित एटले मलिन थाय, फरी ते पाणी निर्मलपण थाय: तहाके तेम ए आत्मा पण जाणी लेवो. ॥१२॥ हवे ए मतने दूषवे. एतके ए पूर्वोक्त वादीनां वचन असमं जस अणुचिंतिके चिंतवी बालोचीने, मेधावी के पंमित जे होय ते मनमा एवी रीते अवधारे ते कहे. बंनचेरे णतेवसेके० ए त्रैराशिक तथा अनेरा दर्शनी ब्रह्मचारीनेविषे न वसे एटले सूधो संयम नपाले. जे कारण माटे ते सम्यक्झानरहित थका अकर्मक ने सकर्मक कहे ते माटे ते अज्ञानी . तथा पुढोपावान्यासवेके ० ए सर्व जुदाजुदा प्रा वाऊक एटले परदर्शनी अरकायारो सयंसयंके० पोतपोतानुं दर्शन रुडुं करी वखाणेले. ॥१३॥ वली तेहिज दर्शनीनुं मत कहे. सएसएनवहाणे के ते पोतपोतानां दर्शनने विषे प्रवर्त्तता पोतपोतानुं अनुष्ठान जे दीदा, गुरु चरण, शुश्रूषादिक तेहिज सिक्षिमेव के सिदिनुं कारण पण नअन्नहाके । अनेरा दर्शन थकी, अनेरा अनुष्ठान थकी मुक्ति न पामिये. अहोश्हेववसवत्ती के० ते एम कहेले के-अमारा दर्शन थकी एहिज जन्ममां यावत् अात्मवती थको एटले समस्त इंडीनो जीपनार एवो थको सबकामसमप्पिएके सर्वकामएटले जे जे काम जोगनी प्रार्थना तथा वांबनाकरे ते ते पामे. ॥ १४ ॥ ॥ ॥ दीपिका-कृतवादिमतमेवाह । ( सुक्षेति )। अयमात्मा शुशोमनुष्यनवएव शु दाचारोनूत्वा मोदे अपापकः स्यात् । इदमेकेषां गोशालमतानुसारिणामारख्यातं । पुनर यमात्मा अकर्मकोनूत्वा कीडया प्रदेषेण वा स तत्र मोक्षस्थएवाऽपराध्यति रजसा रिल ष्यते । तस्यहि स्वशासनपूजामन्यदर्शनपरानवमुपलन्य क्रीडाप्रमोदः स्यात् । स्वशासनपरा नवदर्शनाच देषस्ततोऽसौ क्रीडादेषान्यां कर्मणा बाध्यते ततोऽसौ नूयः संसारेऽवत रति ॥११॥ किंच । (इहेति) । इह संसारे प्राप्तः सन् प्रव्रज्यामंगीकृत्य संवृतात्मा जातः सन् पश्चादपापः स्यात् । यथाविकटांबु नामोदकं नीरजस्कं निर्मलं सत् वातोबूतरेणुयु क्तं सरजस्कं मलिनं नूयः स्यात् तथायमात्मा त्रैराशिकाणां मते राशित्रयावस्थः स्यात्। यथापूर्व संसारावस्थायां सकर्मकः ततो मोदे ऽकर्मकः पुनः शासनपरानवदर्शनात् के पोदयात् सकर्मा स्यादिति ॥१॥ एतन्मतं दूषयति । ( एयाणुत्ति )। एतान्पूर्वोक्तान् वा दिनोऽनुचिंत्य मेधावी प्रज्ञावान् एतदवधारयेत् यथा न ते वादिनो ब्रह्मचर्ये संयमानुष्ठा ने वसेयुः । यद्यपि ते संयमे स्थितास्तथापि न सम्यगनुष्ठातारइत्यवधारयेत् । पथक्टथक् सर्वेप्येते प्रावाऊकाः परमतिनः स्वकं स्वकमात्मीयं दर्शनमाख्यातारः शोजनत्वेन कथयिता रः स्वदर्शनं शुनं वदंति ते । नच तत्रास्था विधेयेति ॥१३॥ कृतवा दिमतमेव प्रकारांतरे गाह । (सएति ) । ते कृतवादिनः स्वके स्वके उपस्थाने संयमाद्यनुष्ठाने लिहिं मोद Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राय धनपतसिंघ बाहाउरका जैनागमसंग्रह नाग उसरा. ३ मनिहितवंतोनान्यथा । तथासिक्षिप्राप्तेरधः प्रागपि वशवर्ती वशेड़ियः स्यात् अस्मन्म ताश्रितः सांसारिकैः स्वनावै निनूयते । सर्वे कामावनिलाषाः समर्पिताः संपन्नायस्य ससर्वकामसर्पितः इहलोके ईदृशः स्यात् परलोके च मोदं यायादित्यर्थः ॥ १३ ॥ ॥ ॥ टीका-सांप्रत प्रकारांतरेण कृतवादिमतमेवोपन्यस्यन्नाह । (सुवेत्यादि ) । इहा स्मिन् कृतवादिप्रस्तावे त्रैराशिकागोशालकमतानुसारिणोयेषामेकविंशतिसूत्राणि पूर्व गतत्रैराशिकसूत्रपरिपाट्या व्यवस्थितानि ते एवं वदंति । यथायमात्मा शुशोमनुष्यन वएव शुक्षाचारोनूत्वा अपगताशेषमलकलंकोमोदेऽपापकोनवति । अपगताशेषक र्मा नवतीत्यर्थः । इदमेकेषां गोशालकमतानुसारिणामाख्यातं । पुनरसावात्माऽशुहत्वाऽक र्मकत्वराशि क्ष्यावस्थोनूत्वा क्रीडया प्रदेषेण वा सतत्र मोदस्थएवाऽपराध्यति रज साश्लिष्यते । इदमुक्तं नवति । तस्य हि स्वशासनपूजामुपलच्यान्यशासनपरानवं चोपल न्य क्रीडोत्पद्यते प्रमोदः संजायते स्वशासनन्यक्कारदर्शनाञ्च देषस्ततोऽसौ क्रीडाक्षेषाच्या मनुगतांतरात्मा शनैर्निर्मलपटवउपनुज्यमानोरजसा मलिनीक्रियते मलीमसश्च कर्मगौ रवायः संसारेऽवतरति । अस्यां चावस्थायां सकर्मकत्वात्ततीयराश्यवस्थोनवति ॥ ॥ ११ ॥ किंच । ( इत्यादि )। इहास्मिन् मनुष्यनवे प्राप्तः सन् प्रव्रज्यामन्युपेत्य संद तात्मा यमनियमरतोजातः सन् पश्चादपापो नवति। अपगताऽशेषकर्मकलंकोनवतीति नावः । ततः स्वशासनं प्रज्ञाप्य मुक्त्यवस्थोनवति । पुनरपि स्वशासनपूजादर्शनानिका रोपलब्धेश्च राग षोदयात्कलुषितांतरात्मा विकटांबुवउदकवन्नीरजस्कं स हातोडूतरेणुनि वहसंप्टक्तं सरजस्कं मलिनं नूयोयथा नवति तथाऽयमप्यात्माऽनंतकालेन संसारोगा तुझाचारावस्थोनूत्वा ततोमोदावाप्तौ सत्यामकर्मावस्थोनवति । पुनः शासनपूजानि कारदर्शनानागदेषोदयात्सकर्मा नवतीत्येवं त्रैराशिकानां राशित्रयावस्थोनवत्यात्मे त्याख्यातं ॥ उक्तंच । दग्धंधनः पुनरुपैति नवं प्रमथ्य, निर्वाणमप्यनवधारितनीस निष्ठः ॥ मुक्तः स्वयं कृतनवश्च परार्थगरस्त्वबासनप्रतिहतेविह मोहराज्यमिति ॥ १२ ॥ अधुनैतदूषयितुमाह । ( एयाणुचीइत्यादि)। एतान्पूर्वोक्तान वादिनोऽनुचिंत्य मेधावी प्र झावान् मर्यादाव्यवस्थितोवा एतदवधारयेत् । यथा नैते राशित्रयवादिनोदेवोप्तादिलोक वादिनश्च ब्रह्मचर्य तउपलदिते वा संयमानुष्ठाने वसेयुरवतिष्ठेरनिति । तथाहि । तेषामय मन्युपगमोयथा स्वदर्शनपूजानिकारदर्शनात्कर्मबंधोनवत्येवंचावश्यं तदर्शनस्य पूजा यास्तिरस्कारेण चोनयेन वा नाव्यं तत्संनवाच्च कर्मोपचयस्तउपचयाच्च गुध्यनावः शु ध्यनावाञ्च मोदानावः । नच मुक्तानामशेषकर्मकलंकानां कृतकृत्यानामपगताशेषयथाव स्थितवस्तुतत्त्वानां समस्तुतिनिंदानामपगतात्मात्मीयपरिग्रहाणां रागदेषानुषंगस्तानावाच्च Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ G४ दितीये सूत्रकृतांगे प्रथमश्रुतस्कंधे प्रथमाध्ययनं. कुतः पुनः कर्मबंधस्तस्माच्च संसारावतरणमित्यर्थः ॥ अतस्ते यद्यपि कथंचिद्व्यब्रह्म चर्ये व्यवस्थितास्तथापि सम्यक् ज्ञानानावान्न सम्यगनुष्ठाननाजति स्थितं । अपिच स प्येते प्रावाउकाः स्वकं स्वकमात्मीयं दर्शनं स्वदर्शनानुरागादाख्यातारः शोजनत्वेन प्र ख्यापयितारइति । नच तत्र विदितवेद्येनास्था विधेयेति ॥१३॥ पुनरन्यथाकतवादिमत मुपदर्शयितुमाह । (सएसएइत्यादि) ते कृतवादिनः शैवैकदंडिप्रनतयः स्वकीये स्वकीये उपतिष्ठत्यस्मिन्नित्युपस्थानं स्वीयमनुष्ठानं दीक्षा गुरुचरणशुश्रूषादिका तस्मिन्नेव सिदिमशेषसांसारिकप्रपंचर हितस्वनावमनिहितवंतोनान्यथा नान्येन प्रकारेण सिदि रवाप्यत इति । तथाहि शैवादीदातएव मोदइत्येवं व्यवस्थिताः। एकदंडिकाः पंच विंशतितत्त्वपरिझानान्मुक्तिरित्य निहितवंतस्तथान्येपि वैदांतिकाध्यानाध्ययनसमाधिमार्गा नुष्ठानासिदिमुक्तवंतश्त्येवमन्येपि यथास्वदर्शनान्मोक्षमार्ग प्रतिपादयंतीति । अशेष कोपरमलदाणायाः सिक्षिप्राप्तेरधस्तात्प्रागपि यावदद्यापि सिक्षिप्राप्तिन नवतीति ताव दिदै व जन्मन्यस्मदीयदशेनोक्तानुष्ठानानुनावादष्टगुणैश्वर्यसन्नावो नवतीति दर्शयति । यात्म वशं वर्तितुं शीलमस्येति वशवर्ती वशेश्यिश्त्यक्तं नवति त_सौ सांसारिकैः स्वनावरनिन यते । सर्वे कामानिलाषार्पिताः संपन्नायस्य ससर्वकामसमर्पितोयान्यान् कामान् कामयते ते तेऽस्य सर्वे सिध्यंतीति यावत् । तथाहि । सिबेरारादष्टगुणैश्वर्य सिधिनवति । तद्यथा । अणिमा लघिमा गरिमा प्राकाम्यमीशित्वं वशित्वं प्रतिघातित्वं यत्र कामा वसायित्वमिति ॥ १४ ॥ सिद्धाय ते अरोगा य, इदमेगेसिमादियं ॥ सिधिमेव पुरो का सासए गढि नरा ॥ १५॥असंवुमा अणादीयं, नमिहिंति पुणो पुणो ॥ कप्पकालमुवजति, गणा आसुरकिब्बिसियात्ति बेमि ॥१६॥ इति प्रथमाध्ययने तृतीयोदेशकः॥ अर्थ-हवे परनवे जे गति थाय ते कहेले. सिहायते के० ते जीव अमारा दर्शने प्र वर्तता शरीर त्याग करी, विशिष्ट समाधिने योगे सिम थाय. ते सिम केवा? तो के, अरोगाय के रोगरहित एटले शरीरनां दुःख थकी रहित ले. एरीते इह के एहि ज लोकने विषे मेगेसि के० एकेक को शिवने मतें एम बाहियं के नारव्युं एटले क झुं. ते दर्शनी पोतपोताने अनुष्ठाने सिधिमेवके० सिदिनेज, पुरोकाउंके पागल करी सासए के आपणा अनिप्रायने विषे गढिया के गृध बता अनेक हेतु यु क्ति कहे. ते कोनी परें ? तो के, नराके० पामर नरनी पेरे. जेम ते अजाण म नुष्य पोताना मतनु कदाग्रह न त्यागे, तेम तें दर्शनीपण जे कांइ पोताना मतनुं Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राय धनपतसिंघ बाहाउरका जैनागमसंग्रह नाग उसरा. ५ अनुष्ठान ते सर्व मुक्तिनुं कारण ने, एम कहे.॥ १५॥ हवे एवं कहेनारने फल देखाडेले. असंवुमा के० ते पाखंमि दर्शनी संवररहित,असंयमसहित, एवी रीते मुग्धलोकने विष तारणहार थणादीयं के अनादि संसारमांहे नमिहिंति के परिभ्रमण करतां पुणो पुणो के० वली वली नरकादिनी पीडा पामशे. कदाचित् ते बाल तपने प्रनावे स्वर्गादि क गति पामे : तोपण केवी पामे तो के, कप्पकाल के घणाकालसुधी ठाणा के स्थान क जे आसुर के असुर कुमारादिकनां स्थानक तेने विषे अथवा किब्बिसिया के कि बिषीयादिक अधर्म स्थानक त्यां नवऊंति के नत्पन्न थया बतां दुःखज पामे. तिबेमि के पूर्ववत्.॥ १६ ॥ इति प्रथमाध्ययनस्य तृतीयोदेशकः समाप्तः। दीपिका-एतदेवाह । (सिति)। तेऽस्मन्मताश्रिताः सिक्षाश्च अरोगाः स्यः । अरोगग्र हणाबारीरमानसानेकःखरहिताश्चेति झेयं । इहास्मिन् लोके एकेषां शैवादीनामिदमा ख्यातं । ते हि सिदि मुक्तिमेव पुरस्कृत्यांऽगीकृत्य स्वाशये स्वमतानुरागे ग्रथिताः संबज्ञान राः प्रारूतपुरुषाः पंमिर्तमन्याश्वेत्यर्थः ॥ १५॥ एतदूषणायाह । (यसंवुडे ति) ते पा खंडिनस्तत्त्वतोऽसंवृताधनादिकं संसारं पुनःपुनमिष्यति । यदि कथंचित्तेषां स्वर्गावाप्ति स्तथापि कल्पकालं बहुकालमुत्पद्यते संनवंत्यसुराः । असुरस्थानोत्पन्नाथपि न प्रधा नाः किंतर्हि किल्बिषिकायधमाएवेति ॥ १६ ॥ ब्रवीमीति पूर्ववत् ॥ इति सूत्रकृतांग दीपिकायां प्रथमाध्ययने तृतीयोदेशकः । ॥ टीका-तदेवमिदैवास्मक्तानुष्ठायिनोऽष्टगुणैश्वर्यलक्षणा सिदिर्नवत्यमुत्रचाऽशे षोपरमलहणा नवतीति दर्शयितुमाह । (सिदायतेइत्यादि) ये ह्यस्मउक्तम नुष्ठानं सम्यगनुतिष्ठति तेऽस्मिन् जन्मन्यष्टगुणैश्वर्यरूपां सिदिमासाद्य पुनर्विशिष्टसमाधि योगेन शरीरत्यागं कृत्वा सिक्षाश्चाशेष रहिताथरोगानवंति । अरोगग्रहणं चोपल एं। अनेकशरीरमानसन स्टरांति शरीरमनसोरनावादित्यवमिहास्मिन्लोके सिदिवि चारे वा एकेषां शैवादीनामिदमाख्यातं नाषितं । तेच शैवादयः सिदिमेव पुरस्कृत्य मु क्तिमेवांगीकृत्य स्वकीये श्राशये स्वदर्शनान्युपगमे ग्रथिताः' संबदायध्युपपन्नास्तदनुकू लायुक्तीः प्रतिपादयंति । नराश्व नराः प्राकृतपुरुषाः शास्त्रावबोधविकलाः स्वानिप्रेता र्थसाधनाय युक्तीः प्रतिपादयंत्येवं तेपि पंडितंमन्याः परमार्थमजानानाः स्वाग्रहप्रसाधि कां युक्तिमुद्घोषयंतीति । तथाचोक्तं । आग्रही बत निनीपति युक्तिं, तत्र यत्र मतिरस्य निविष्टा ॥ पदपातरहितस्य तु युक्तिर्यत्र तत्र मतिरेति निवेशं ॥१॥ १५ ॥ सांप्रत मेतेषामनर्थप्रदर्शनपुरःसरं दूषणानिधित्सयाह (असंवुडाश्त्यादि) तेहि पाखंडिकामो दानिसंधिनः समुबिताअपिथसंवृताइंडियनोइंडियैरसंयताइहाप्यस्माकं लानइंडिया Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द वितीये सूत्रकृतांगे प्रथमश्रुतस्कंधे प्रथमाध्ययनं. नुरोधेन सर्वविषयोपनोगादमुत्र मुक्त्यवाप्तेः । तदेवं मुग्धजनं प्रतारयंतोऽनादि संसारकांतारं चमिष्यंति पर्यटिष्यति । स्वश्चरितोपात्तकर्मपाशाः पाशावशापिताः पौनः पुन्येन नारकादियातनास्थानेषूत्पद्यते। तथाहि । नेडियर नियमितैरशेष प्रच्युतिल क्षणासिदिरवाप्यते । याप्यणिमाद्यष्टगुणलक्षणैहिकी सिदिनिधीयते सापि मुग्धजनप्र तारणाय दंनकल्पैवेति । यापि च तेषां बालतपोनुष्ठानादिना स्वर्गावाप्तिः साप्येवंप्राया नवतीति दर्शयति । कल्पकालं प्रनूतकालमुत्पद्यते संनवंति । असुरायसुरस्थानोत्प नानागकुमारादयस्तत्रापि न प्रधानाः किं तर्हि किल्बिषिकायधमाः प्रेष्यनूताथल्पर्ध योऽल्पनोगाः स्वल्पायुःसामर्थ्याद्युपेताश्च नवंतीति । इति नदेशकपरिसमात्यर्थे । ब्रवीमी ति पूर्ववत् ॥ १६ ॥ इति समयाख्याध्ययनस्य तृतीयोदेशकः समाप्तः ॥ अथ-प्रथमाध्ययने चतुर्थ उद्देशकः प्रारज्यते ॥ एते जिया नो न सरणं, बाला पंनियमाणिणो (पागंतरे॥यबबालेवसीय ति)॥दिवा णं पुत्व संजोगं, सिया किच्चोवएसगा॥॥तं च निस्कू परिन्ना य, वियं तेसंण मुबाए॥ अणुकस्से अप्पलीणे, मण मुणि जावए॥२॥ अर्थ-हवे चोथो उद्देशो प्रारनिय बैये. त्रीजे उद्देशे परतीर्थिनी वक्तव्यता कही हवे यहीं पण तेहिज कहे. एते के० ते दर्शनी जे पूर्वे कह्यां ते पंचनतिक तक्रीव तहरीरवादी तथा गोशालकमतानुसारी त्रैराशिक ए सर्वने कोणे जियाके जील्या? ते क हेजे-राग, द्वेष, परिग्रह, उपसर्ग तथा शब्दादिक विषय प्रबल मोहरूप वेरीए जीत्या. ते कारणे नो के० शिष्यने थामंत्रणे अहो शिष्य ए वचन तुं सही करीने सदहे. न सरणं के ए परतीर्थीक को जीवने शरण न थाय, एटले संसारमाहे पडतां प्राणीने न रीनशके. केमके जे कारणे ते बालाके बाल थशानी बता पंमिय माणिणोके था स्माने पंमित करी मानता अज्ञाने लागा सिदाय. पोते उन्मार्गे पडतां बीजाने उन्मार्गे पाडे, केमके तेनी थाचरणादिरूप विरु देखायचे ते गाथाना उतरार्धवडे देखाडेले. हिंवाणंपुत्वसंयोगं के पूर्व संयोगं एटले पूर्वे धनधान्य घने स्वजनादिक संयोग बगं मीने "श्रमे निःसंग प्रव्रजित बैये” एम कहे; परंतु ते वली सियाके० ते बंधाणा एटले परिग्रह पारंजने विष थासक्त एवा बता गृहस्थजले केमके ते किच्चोवएसगाके ते ग्र हस्थनां कृत्य जे पचन तथा पाचनादिक बक्काय हिंसानो व्यापार तेनो जे उपदेश तेने विषे प्रवतं. ते कारणे प्रवर्जित बतां गहस्थोनां करतव्य थकी वेगला नथी. अर्थात् "जेवा गृही तेवा दर्शनी" ए कारणे कोनो नकार न करी शके. ॥ १ ॥ एवा दर्श नी देखीने चारित्रियायें जे करवू ते देखाडेले. तंच निरकू के ते पाखंमी लोक वि Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राय धनपतसिंघ बाहादुरका जैनागमसंग्रह नाग इसरा. G9 0 परीत उपदेश देवाने प्रवर्त्ततां तेने परिन्नाय के सम्यक् प्रकारे जालीने जेम ए दर्शनी बाप डा मिथ्यात्वव्यापारे विवेकशून्य पोते पोतानेज प्रहितकारी दीशेबे, तो धन्य जीव taara क्याथी ? एवं आलोचीने निक्कु जे चारित्र वियंतेसुंके० परमार्थनो जाणते दर्शविषेणमुखए के० मूर्छाय नहीं अर्थात् तेनीप्रत्ये संबंध पण न करे. त्यारे करे, ते अर्थ गाथाना उत्तरार्धवडे देखाडे बे. प्रणुकस्से के० ते उत्कर्ष र हिता मदनो टालनार, छप्पली के० प्रलीन एटजे असंबंध गृहस्थ तथा पास वादिकने विषे संसर्ग करतो ते नली मझेण के० मध्यमनावे रागद्वेष रहित तो मुणिके मुनी एटले जे साधु ते जावए के० पोताने प्रवत्तवे, एटले शुं कयुं ! तो के, कदाचित परतीर्थीक अथवा पासबादिक संघाते संबंध मले तो मद न करवो ने ते नी प्रशंसा तथा निंदा करतो राग द्वेष रहित वर्त्ते. ए प्रकारेकरी संयम जे पाले तेज साधु जावो. ॥ २ ॥ ॥ दीपिका-तृतीयोदेशकेऽन्यतीर्थिकाणां कुत्सितत्वमुक्तमिदापि तदेवोच्यतइत्यर्थसं ब-इस्यास्योद्देशकस्येदमादिसूत्रं ॥ ( एतइति ) एतेऽन्यमतिनो जिताय निनूतारागद्वेषा दिनिः । नोइति शिष्यामंत्रणं । एवं त्वं जानीहि । यथाएते न शरणं कस्यचित्राणाय न समर्थाः । (जबत्ति) यत्राऽज्ञाने बालोऽझोलनः सन् व्यवसीदति तत्र ते व्यवस्थिताः । बालापं मिश्रमा लिलोइति क्वचित्पाठस्तत्र बाला निर्विवेका पंमितायपि पंमितमानिनः कस्यापि न त्राणाय स्युरित्यर्थः । तत्कृत्यमाह । हित्वा त्यक्त्वा पूर्वसंयोगं धनस्वजनादिकं । मिति वाक्यालंकारे। सिताब-धाः परिग्रहारंनेषु । पुनः किंभूताः । कृत्यं कार्य पचन पाचनादि तस्योपदेशं गवंतीति कृत्योपदेशगाः । अथवा सियाइत्यार्षत्वात् स्युर्नवेयुः । कृत्यं सावद्यानुष्ठानं तत्प्रधानाः कृत्यागृहस्थास्तेषामुपदेशः संरंनसमारंनरूपः स विद्यते येषां ते कृत्योपदेशिकाः । प्रव्रजितापि कर्तव्यैर्गृहस्थेच्योन नियंतइत्यर्थः ॥ १ ॥ एवं नूतेषु तीर्थषु सत्सु साधुना यत्कर्तव्यं तदाह । ( तंचेति) तं पाखंमिलोकं परिज्ञाय स म्यक् ज्ञात्वा निक्कुः संयतो विद्वान् तेषु न मूर्तयेत् तैः सह संबंधं न कुर्यात् । किं तर्हि कु र्यादित्याह । अनुत्कर्षवान् उत्कर्षोमदस्तमकुर्वन् । तथाऽप्रलीनोऽसंबस्तीर्थिकेषु गृहस्थे पार्श्वस्यादिषु वा संश्लेषमकुर्वन् मध्येन राग द्वेषयोरंतराजेन संचरन मुनिर्जगत्रयवेदी या पदात्मानं वर्तयेत् तेषु निंदां स्वस्य प्रशंसांच परिहरन् साधुर्मध्यस्थवृत्या चरेदित्यर्थः । ॥ टीका-नक्तस्तृतीयोदेशकः । अधुना चतुर्थः समारज्यते । यस्यचायमनिसंबंधः । अनंतरोदेशकेऽध्ययनार्थत्वात्स्व परसमय वक्तव्यतोक्केहापि सैवाऽनिधीयते । अथचाऽ नंतरोदेशके तीर्थिकानां कुत्सिताचारत्वमुक्तमिहापि तदेवानिधीयते । तदनेन संबंधे For Private Personal Use Only Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीये सूत्रकृतांगे प्रथम श्रुतस्कंधे प्रथमाध्ययनं . नाऽयातस्याऽस्योद्देशकस्योपक्रमादीनि चत्वार्यनुयोग द्वाराल्य निधाय सूत्रानुगमे सूत्रमुच्चार णीयं । तच्चेदं ( एते जियानो इत्यादि) यस्य चानंतरसूत्रेण सहायं संबंधस्तद्यथा । अनंत सूत्रेऽनिहितं । तीर्थिका सुरस्थानेषु किल्बिषाजायतइति । किमिति । यतएते जिताः परीषहोपसँगैः । परंपरसूत्र संबंधस्त्वयं । यादाविदमनिहितं बुध्येत त्रोटयेच्च । ततश्चैतद पि बुद्धये । यथैते पंचनूता दिवा दिनोगोशालक मतानुसारिणश्च जिताः परीषहोपसँगैः का मक्रोधजोनमानमोहमदाख्येनाऽरिषडुर्गेण चेत्येवमन्यैरपि सूत्रैः संबंध उत्प्रेक्ष्यः । तदेवं कृतसंबंधस्याऽस्य सूत्रस्येदानीं व्याख्या प्रतन्यते । ( एतइति ) पंचनूतैकात्मतीवतबरी रादिवादिनः कृतवादिनश्च गोशालक मतानुसारिएश्च त्रैराशिकाश्च जिताय निनूतारागदेषा दिनिः शब्दादिविषयैश्व तथा प्रबलमहामोहोबाऽज्ञानेन च । जो इति विनेयामंत्रणं । एवं त्वं गृहाण । यथैते तीर्थिका सम्यगुपदेशप्रवृत्तत्वान्न कस्यचिचरणं नवितुमर्हति । न कथंचित्रातुं समर्थाइत्यर्थः । किमित्येवं यतस्ते बालाइव बांलाः । यथा शिशवः सद सद्विवेकवैकल्याद्यत्किंचनकारिणोनाषिणश्च । तथैतेऽपि स्वयमज्ञाः संतः परानपि मोह यति । एवंभूताय पिच संतः पंडितमानिनइति । क्वचित्पाठोज बालोवसीयइति । यत्रा ज्ञाने बालोऽज्ञोलनः सन्नवसीदति तत्र ते व्यवस्थिताः यतस्ते न कस्यचित्राणायेति । यच्च तैर्विरूपमाचरितं तडुत्तरार्देन दर्शयति । हित्वा त्यक्त्वा । मिति वाक्यालंकारे । पूर्व संयोगोधनधान्यस्वजनादिनिः संयोगस्तं त्यक्त्वा किल वयं निःसंगाः प्रव्रजिताइत्युबा पु नः सिता बद्धाः परिग्रहेष्वारंनेष्वासक्तास्ते गृहस्थास्तेषां कृत्यं करणीयं पचनपाचनकंड पेषादिकानू तोपमर्दकारी व्यापारस्तस्योपदेशस्तं गवंतीति कृत्योपदेशगाः कृत्योपदे शकावा । यदिवा सियाइति श्रार्षत्वाद्बहुवचनेन व्याख्यायते । स्युर्नवेयुः । कृत्यं कर्तव्यं सावधाऽनुष्ठानं तत्प्रधानाः कृत्यागृहस्थास्तेषामुपदेशः संरंनसमारंभारंनरूपः सविद्यते येषां ते कृत्योपदेशिकाः प्रव्रजिताअपि संतः कर्तव्यैर्गृहस्थेच्यो न नियंते । गृह स्थाश्व तेऽपि सर्वावस्थाः पंचसूनाव्यापारोपेता इत्यर्थः ॥ १ ॥ एवंभूतेषु च तीर्थिकेषु सत्सु निकुणा यत्कर्तव्यं तद्दर्शयितुमाह । तंच निस्कू इत्यादि । तं पाखंडिकलोकमसडुप देशदानाऽनिरतं परिज्ञाय सम्यगवगम्य यथैते मिथ्यात्वोपहतांतरात्मानः सद्विवेकशून्या नात्मने हितायानं नान्यस्माइत्येवं पर्यालोच्य नावनिकुः संयतोविद्वान् विदितवेद्य स्तेषु न मूर्खयेत् न गायै विदध्यान्न तैः सह संपर्कमपि कुर्यादित्यर्थः । किंपुनः कर्तव्य मिति पश्वान दर्शयति । अनुत्कर्षवा नित्यष्टमदस्थानानामन्यतमेनाऽप्युत्सेकमकुर्वन् । तथा प्रलीनोऽसंब- स्तीर्थिकेषु गृहस्थेषु पार्श्वस्थादिषु वा संश्लेषमकुर्वन् मध्येन रागद्वेष योरतराजेन संचरन् मुनिर्जगत्रयवेदी यापयेदात्मानं वर्तयेत् । इदमुक्तं नवति । तीर्थका GG For Private Personal Use Only Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राय धनपतसिंघ बाहाउरका जैनागमसंग्रह नाग उसरा. नए दिनिःसह सत्यपि कथंचित्संबंधे त्यक्ताहंकारेण तथा नावतस्तेष्वप्रलीयमानेनारक्तदि प्टेन तेषु निंदामात्मनश्च प्रशंसा परिहरता मुनिनाऽत्मा यापयितव्यइति ॥ २ ॥ सपरिग्गहा य सारंना इद मेगेसिमादियं ॥ अपरिग्गहा अ . णारंना, निरकू ताणं परिवए ॥३॥ कडेसु घासमेसेज्जा, विक दत्तेसणं चरे ॥ अगियो विप्पमुक्को अनुमाणं परिवाए ॥४॥ अर्थ-हवे जे कारणे परतीर्थीकने विरुवाचारी कह्या ते कारण देखाडे-सपरिग्ग हा के० ते धनधान्यादिक विपद चतुष्पदादिक सहित, तेने अनावे शरीर उपकरणा दिकने विषे मूळ राखे तेहिज परिग्रह कहिए. अने सारंन के जीवघातने विषे प्र वर्तमान, तेहने बनावे उद्देशादिकना जोगवनार बे. माटे आरंनी कहिये. एवाबता मोद मार्ग साधे ते देखाडे जे. इह मेगेसिमाहियंके ते इह परलोकने चिंतवे. एक द शनीने मतें एम कर्दा, के, ए तपस्यादिक तथा मुंममुंमनादिक क्रिया करे ते व्यर्थ डे, किंतु जे गुरु नक्तीने प्रसादे एक परम अदर लाने तेथी जीवने मोद थाय. बीजो जे कांद काय क्वेश करे ते सर्व अप्रमाण जे. एम जे कहे ते साधु पदवी न पामे. ते तारवाने समर्थ नहीं होवाने लीधे जे तारवाने समर्थ एवो साधु होय, ते पागल थ ६ गाथायें देखाडेले. अपरिग्गहाके जे किंचित् मात्र परियहरहित होय एक धर्मोपक रण टाली अने तेना उपर पण ममताने अनावे परिग्रह नपर स्वल्प मात्रे नराचे. त था अणारंजाके सर्वथा प्रकारे बकायना वारंनरहित एवा निरकूताणं के निल्नु पो ताने अने बीजाने त्राण शरण होय. एटले संसारसमुश्मांहेथी पोते पण प्रवहणनीपरे तरे अने बीजा पण संसार समुश्मा बुडता जीवने प्रवहणनी पेठे तारनार होय एरीते सा धु परिवएके उद्देशादिक आहार वर्जतो संयम पाले. ॥३॥ हवे चारित्रि आरंन अने परिग्रह टाली केम प्रवर्ने ते कहेले. कडेसुके० ते गृहस्थे पोताने अर्थे जे नात पाणी कीधां. तेनेविषे सोल जातना नजम दोषरहित घासके थाहार एसेजाके गवेषे,विक के ते पंमित निःकेवल निर्जरा निमित्ते जे थाहार दातारे दत्तके दीधो. तेना धात्रादिक सोले उत्पादन दोष तेनी एसणंचरेके एषणाने विषे विचरे. अने संकीतादि दश एषणा ना दोष जाणवा. अर्थात् बेतालीश दोष विसु थाहार ले एम कर्दा. तथा अगिझोके ते अमूर्बित थको थाहारे एटले पांच मांमलिना दोष टाले. विष्पमुक्कोके आहारने विषे रागोषरहित, एवो बतो अठमाणं परिवऊए के बीजानु अपमान वर्जे; एटले अनेरा नो करेलो परानव अहियासे. ॥ ४ ॥ ॥ दीपिका-कथं तीथिकास्त्राणाय न स्युरित्याह । (सपरिग्रहाइति)। सपरिग्रहाधना Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ए हितीये सूत्रकृतांगे प्रथमश्रुतस्कंधे प्रथमाध्ययनं. दियुक्ताः धनाद्यनावेपि शरीरोपकरणादौ मूळवंतः सपरिग्रहाएव तथा सारंनाः सावद्य व्यापाराश्तीह विचारे एकेषामाख्यातं । यथा किमनया शिरस्तुंडमुंडनक्रियया । गुरो रनुग्रहाद्यदा परमादरावाप्तिनवति तदा मोदः स्यादेवं नाषमाणास्ते न त्राणाय स्युः। ये त्रातुं समर्थास्तानाह । अपरिग्रहाधर्मोपकरणं विना शरीरोपनोगाय स्वल्पोपि न विद्य ते परिग्रहोयेषां तेऽपरिग्रहानारंनाच तान् निकुः साधुः शरणं परिव्रजेत् गबेत् । तेषां शरणं यायादित्यर्थः॥३॥ परिग्रहारंनवर्जनं यथा स्यात्तथाह । (कडेसुइति)। कृतेषु गृहस्थैः स्वार्थ निष्पादितेषु उदनादिपिंडेषु ग्रासमाहारं एषयेत् याचेत इति षोडशोजमदोषत्यागः सूचितः । तथा विधान संयमनिपुणोदत्तं परेराशंसादोषरहितैर्निश्रेयसबुध्या वितीर्ण तत्र एषणां ग्रहणैषणां चरेत् । दत्तमित्यनेन षोडशोत्पादनादोषाः एषणां चरेदित्यनेन दश एष पादोषाश्च सूचिताः । एतदोषत्यागेन पिंडं गृहीयादित्यर्थः। अगृक्षोऽमूर्बितोविप्रमुक्तो रागदेषरहितश्च । थाहारे स्यादिति पंचग्रासैषणादोषत्यागउक्तः । सएवंनूतोनिकुः परेषा मपमानं परिवर्जयेत् तपोमदं ज्ञानमदं च न कुर्यादित्यर्थः। यात्मनः सकाशात्परान ही नान् न पश्येदिति तात्पर्य ॥ ४ ॥ ॥ टीका-किमिति ते तीर्थकास्त्राणाय न नवंतीति दर्शयितुमाह। (सपरिग्रहाश्त्या दि)। सपरिग्रहेण धनधान्यपिदचतुष्पदादिना वर्तते तदनावेऽपि शरीरोपकरणादौ मूळवंतः सपरिग्रहाः। तथा सहारंनणे जीवोपमर्दादिकारिणा व्यापारेण वर्ततइति तदना वेऽप्यौदेशिकादिनोजित्वात्सारंनाः। तीथिकादयः सपरिग्रहारंनकत्वेनैव च मोक्षमार्ग प्रसा धयंतीति दर्शयति । इह परलोकचिंतायामेकेषांकेषांचिदाख्यातं नाषितं । यथा किमनया शिरस्तुंडमुंडनादिकया क्रियया परं गुरोरनुग्रहात्परमदरावाप्तिस्तदीदावाप्तिर्वा यदि नव ति ततोमोझोनवतीत्येवं नाषमाणास्ते न त्राणाय नवंतीति । येतु त्रातुं समस्तान्प श्वाईन दर्शयति । अपरिग्रहाः न विद्यते धर्मोपकरणाहते शरीरोपनोगाय स्वल्पोऽपि परि ग्रहोयेषांते अपरिग्रहाः । तथा न विद्यते सावद्यारंनो येषां तेऽनारंजास्तेचैवं नूताः क मलघवः स्वयंयानपात्रकल्पाः संसारमहोदधे तूत्तारणसमर्थास्तान निकुक्षिणशील उद्देशिकाद्यपरिनोजी त्राणं शरणं परि समंताद्वजेजलेदिति ॥३॥ कथं पुनःपुनस्तेनापरिय हेणाऽनारंनेण च वर्तनीयमित्येतदर्शयितुमाह (कडेसुश्त्यादि ) गृहस्थैः परिमहारंन कारेणाऽत्मार्थ ये निष्पादितादनादयस्ते कृतानच्यते । तेषु कतेषु परकतेषु परनि ष्ठितेष्वित्यर्थः॥अनेन च षोडशोजमपरिहारःसूचितः। तदेवमुजमदोषरहितं ग्रस्यतइति ग्रा सथाहारस्तमेवंनूतमन्वेषयेन्मृगयेत् याचेदित्यर्थः। तथा विन्संयमकरणैकनिपुणः प रैराशंसादोषरहितैर्यनिःश्रेयसबुक्ष्या दत्तमित्यनेन षोडशोत्पादनदोषाः परिगृहीताइष्टव्याः। Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राय धनपतसिंघ बादाउरका जैनागमसंग्रह नाग उसरा. १ तदेवंनूते दौत्यधात्रीनिमित्तादिदोषरहिते आदारे सनिकुः एषणां ग्रहणेषणां चरेदनुतिष्टे दित्यनेनाऽपि दशैषणादोषाः परिगृहीताइति मंतव्यं । तथा । अगृशोऽनध्युपपन्नोऽमूर्जि तस्तस्मिन्नाहारे रागदेष विप्रमुक्तः। अनेनाऽपि च ग्रासैषणादोषाः पंच निरस्तावसेयाः । सएवंनूतोनिङः परेषामपमानं परावमदर्शित्वं परिवर्जयेत् परित्यजेत् । न तपोमदं झा नमदं च कुर्यादिति नावः ॥ ४ ॥ लोगवायं णिसामिजा, इह मेगेसिमादियं ॥ विवरीयपन्नसं नूयं, अन्ननत्तं तयाणुयं ॥५॥अणंते निइए लोए, सासए ण विणस्सती॥ अंतवं लिइए लोए, इति धीरोति पास ॥६॥ अर्थ-हवे वली परवादी मिश्रित वचन कहे-लोगवायं के पाखंमी लोक तेनो वाद पोतपोताने मतें कल्पित जे स्वरूप ते णिसामिजाके० सांजले, सांजलीने हैयामां धरे जिन मतिथी का खोटुं जाणी परिहरे ते लोकवाद देखाडेले. इह के ते ए जगतने विषे, मे गेसिके एकेक वादीने मते, आहियंके कयुं . ते केवु तोके, विवरीयंके विपरीत पन्न के० प्रज्ञातत्व थकी उपरांठी बुद्धि, संनूयंके० तेहथकी उपनो तथा अन्नउत्तयागं के ते अनेरा अविवेकीनुं जे नाष्यं तेने अनुसारे वली तेवुज प्रवर्तवं एवो लोकवाद सांजली हैये धारेने. ॥५॥ हवे ते विपरीत बुद्धि रचित लोकवाद देखाडेले. ते लोक अणंते के० थनंत तथा निइएलोए के नित्यले. एटले गुं कह्यु ? के जे या नवमां पुरुष अथ वा स्त्री , ते श्रागमिक नवे पण तेवोज पुरुष तथा स्त्रीने रूपेले. एटले स्त्री ते स्त्री ने पुरुष ते पुरुष , ते माटे लोक नित्य. सासए के वली ए लोक सास्वतो. ए विएस्सति के वणसे नही. अंतके ते अंतसहित डे, एटले सप्तदीप तथा सप्त समुसहित एटलो लोकले. एथीन्यून अधिक नथी; ए कारणे लोकनो अंत बे. घने पिएलोए के ० लोक नित्यजे. स्त्री ते स्त्री अने पुरुष ते पुरुष रूपज जे. ते माटे इति के एरीते, धीरोके० अमारा जे व्यासादिक धीरपुरुष अनेक गुणवंत ते पासश्के देखे. ॥ दीपिका-स्वमतं प्रख्याप्य पुनः परमतं दर्शयति । (लोगवायमिति)। लोकानां पाखंमिनां वादमंगीकारं (णिसामिज्जा) निशामयेत् जानीयात् । तदर्शयति । इह संसा रे केषांचित् इदमाख्यातं । तथा विपरीता मिथ्या या प्रज्ञा तया संनूतमुत्पन्नं तत्त्व विपर्यस्तबुद्धिग्रथितमित्यर्थः। तथाऽन्यैर विवेकिनिर्यमुक्तं तदनुगं तत्सदृशं अविवेकिजन वाक्यसदृशमिति ॥ ५॥ लोकवादमेवाह । (अणंतेति) । न विद्यते ऽतोयस्येत्यनं तोनित्यः शाश्वतोन विनश्यति । योयागिह नवे सपरनवेपि तादृशएव पुरुषः पुरुषएव Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एर हितीये सूत्रकृतांगे प्रथमश्रुतस्कंधे प्रथमाध्ययनं. अंगना अंगनैवेति । अथवा अनंतोनिरवधिकः तथा नित्योऽप्रच्युतानुत्पन्नस्थिरैकरूपः तथा शाश्वतः कार्यव्यं नवदपि प्रांते परमाणुत्वं न त्यजति तथा न विनश्यति दिगा त्माकाशाद्यनपेक्या । तथा अंतवान् लोकः सप्तदीपा वसुंधरेति परिमाणोक्तेस्ताहपरि माणोनित्यति धीरः . साहसिकोव्यासादिरतीव पश्यति ॥ ६ ॥ ॥ टीका-एवं नियुक्तिकारेणोद्देशकार्थाधिकाराऽनिहितं किनुवमाय चनबत्तीत्येतत्प्रद इयैदानी परवादिमतमेवोदेशार्थाधिकारानिहितं दर्शयितुमाह । (लोगवायमित्यादि)। लोकानां पाखंमिनां पौराणिकानां वा वादोलोकवादः । यथा स्वानिप्रायेणाऽन्यथावा ऽन्युपगमस्तं निशामयेत् शृणुयात् जानीयादित्यर्थः। तदेव दर्शयति । इहाऽस्मिन्संसारे एकेषां केषांचिदिदमाख्यातमन्युपगमः। तदेव विशिनष्टि । विपरीता परमार्थादन्यथानता या प्रज्ञा तया संनूतं समुत्पन्नं तत्त्वविपर्यस्तबुझियथितमितियावत् । पुनरपि विशेषय ति । अन्यैर विवेकिनिर्ययुक्तं तदनुगं यथावस्थितार्थ विपरीतानुसारिनिर्यऽक्तं विपरीतार्था निधायितया तदनुगबतीत्यर्थः ॥५॥ तमेव विपर्यस्तबुदिरहितं लोकवादं दर्शयितुमाह । ( अनिश्एलोएइत्यादि) नाऽस्यांतोऽस्तीत्यनंतः । न निरन्वयनार्शन नश्यती युक्तं नवतीति । तथाहि । यो यादृगिह नवे स ताहगेव परनवेऽप्युपपद्यते पुरुषः पुरुष एवांगनांऽगनैवेत्यादि । यदिवाऽनंतोऽपरिमितोनिरवधिकइति यावत् । तथा नित्यति। थप्रच्युतानुत्पन्नस्थिरैकस्वनावोलोकइति । तथा शश्वनवतीति शाश्वतो क्ष्यणुकादिकार्य इव्यापेक्ष्या शश्वनवन्नपि न कारणव्यं परमाणुत्वं परित्यजतीति । तथा न विनश्यतीति दिगात्माकाशाद्यपेक्ष्या। तथाऽतोऽस्याऽस्तीत्यंतवान लोकः । सप्तदीपा वसुंधरेति परिमा णोक्तेः सच तादृक् परिमाणोनित्यश्त्येवं धीरः कश्चित्साहसिकोऽन्यथाभूतार्थप्रतिपा दनात् व्यासादिरतीव पश्यतीत्यतिपश्यति । तदेवंनूतमनेकनेदनिन्नं लोकवादं निशामये दिति प्रकृतेन संबंधः । तथा थपुत्रस्य न संति लोकाब्राह्मणादेवाः श्वानोयदागोनि हतस्य गोत्रस्य वा न संति लोकाश्त्येवमादिकं नियुक्तिकं लोकवादं न निशामयेदिति ॥६॥ अपरिमाणं वियाणाई, इह मेगेसिमादियं ॥ सवत्र सपरिमा एं, इति धीरोति पासई ॥॥ जे के तसा पाणा,चिति अज्या वरा ॥ परियाए अचि से अंजू, जेण ते तसथावरा ॥ ७ ॥ अर्थ-वली तेहिज कहेजेः-अपरिमाणं वियाणा के जेनुं क्षेत्र थकी तथा काल थकी प्रमाण नथी, तेटलुंज मात्र जाणे पण सर्वज्ञ नथी. इह के ए लोकनेविषे मेगे सिमाहियं के० कोइएक दर्शनीने मते एम कडं, जे थमारा तीर्थनो स्वामी थपरिमा Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रायधनपतसिंघ बादाउरका जैनागमसंग्रह नाग उसरा. ए३ ण जाणे. जगतमां सर्वज्ञ कोइ नथी, किंतु सवल के सर्वत्र सपरिमाणं के प्रमाण सहित . सर्वज्ञ अपन्हववादी ते एम कहेले. इति के० एम धीरोति पास के० धीर पुरुष देखेडे, ते एम कहे जे के, देवता संबंधी सहस्र वर्ष ब्रह्मा सुए ते प्रस्तावे, ते 'कां इन देखे, वली एटलोज काल ब्रह्मा जागृत थाय त्यारे देखे. ए कारणे सपरिमाण वस्तु जाणे तथा देखे एप्रमाणे कोई एक कहे.॥७॥ हवे ग्रंथकार तेने उत्तर कहेले. जगतमां हे जे के के जे को तसाके त्रस ते बेइंडियादिक पाणाके प्राणी जीव, चिति के ते तिटंति एटले रहे. थज्वाकेण्अथवा बीजा थावराके० स्थावर एथिव्यादिक एवा बंने स्वनाव जगत्मां दिशेने. धने अन्य दर्शनी एम कहे के “ जे जेवो ते तेवोज होय" परंतु अन्वय परावर्त न थाय.जो ए वचन साचुं होय तो दान,अध्ययन, जप, नियम, तप तथा धनुष्ठानादिक क्रिया सर्व निरर्थक थाय. ए कारणे तेनुं बोलq प्रमाण जाणवं न ही. अने जैन कहे के,जगतमा त्रस अने स्थावर ने तेने पोतपोतानां कर्मने परिणामे अंजू के रुजु परियाएके० पर्याय अजिसे के ले. एटले गुंकयुं ? तो के पोतपोताना कर्मना उपाा पर्यायने पामे ते पर्यायेकरी जेणतेके जे कारणे ते तसके त्रस जीव ते थावराके स्थावर थाय. एटले त्रस फीटी स्थावर थाय बने स्थावर फीटी त्रस थाय परंतु “जे जेहवो ते तेहवो” ए निश्चये थकी नथी. ॥ ७॥ ॥दीपिका-किंच (थपरिमाणमिति) न विद्यते परिमाण मियत्ता देवतःकालतोवायस्य तदपरिमाणं विजानाति कश्चित्तीर्थकः । अपरिमितझोऽसावतींडियइष्टा न पुनः सर्व ज्ञः । यक्षाऽपरिमितकोऽनिप्रेतार्थातींडियदर्शी न पुनः सर्वदर्शी । यउक्तं । सर्व पश्यतु वा मा वा, इष्टमर्थ तु पश्यतु ॥ कीटसंख्यापरिज्ञानं, तस्य न कोपयुज्यतइति । इह एकेषां सर्व झापन्हववादिनामिदमाख्यातं । तथा सर्वत्र क्षेत्र काले वा सपरिमाणं परिमाणयुक्तं धीबू दिस्तया राजत इतिधीरः इत्येवमसावतीव पश्यति । दिव्यं वर्षसहस्रं ब्रह्मा स्वपिति ताव त्काल न पश्यति किंचित् पुनस्तावंतं काल जागर्ति तत्र च पश्यति एवं बहुधा प्रवृत्तो लोकवादः ॥ ७ ॥ अस्योत्तरमाह । (जेकेशति)। ये केचित्रसाः प्राणिनस्तिष्ठति अथवा स्थावराः तेषां स्वकर्मपरिणत्याऽयं पर्यायोस्ति । (अंजूति) प्रगुणोऽव्य निचारी तेन पर्या येण ते त्रसाः स्थावराः स्युः । त्रसत्वमनुनय कर्मपरिणत्या स्थावराः स्थावरत्वमनुन य त्रसाश्च नवंतीति । ततोयोयागिहनवे सपरनवेपि तादगिति नियमो न युक्तः॥॥ ॥ टीका-किंच । (अपरिमाणमित्यादि)। न विद्यते परिमाणमियत्ता त्रितः का लतोवा यस्य तदपरिमाणं । तदेवनूतं विजानाति कश्चित्तीथिकस्तीर्थरुत् । एतउक्तं नवति । अपरिमितज्ञोऽसावतीं श्यिश्ष्टा न पुनः सर्वज्ञ इति । यदि वाऽपरिमितज्ञश्त्य Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ए तिीये सूत्रकृतांगे प्रथमश्रुतस्कंधे प्रथमाध्ययनं. निप्रेतार्थाऽतीडियदर्शीति । तथाचोक्तं । सर्व पश्यतु वा मा वा, इष्टमर्थ तु पश्यतु ॥ कीटसंख्यापरिज्ञानं, तस्य न कोपयुज्यतइति । इहाऽस्मिनोके एकेषां सर्वज्ञापन्हववा दिनामिदमाख्यातमयमन्युपगमः। तथा सर्वदेवमाश्रित्यकालं वा परिजेद्यं कर्मतापन्न माश्रित्य सहपरिमाणेन सपरिमाणं सपरिनेदं धीर्बुधिस्तयारंजतइतिधीरश्त्येवमसौ अतीव पश्यतीत्यतिपश्यति । तथाहि । ते ब्रुवते दिव्यं वर्षसहस्रमसौ ब्रह्मा स्वपिति तस्यामवस्थायां न पश्यत्यसौ तावन्मानं च कालं जागर्ति तत्र च पश्यत्यसाविति तदेवंनूतोबहुधा लोकवादः प्रवृत्तः॥ ७ ॥ अस्य चोत्तरदानायाह । (जेकेइत्यादि) ये केचन त्रस्यंतीति त्रसादीडियादयः प्राणाः प्राणिनः सत्वास्तिष्ठति त्रसत्वमनुन वंति । अथवा स्थावराः स्थावरनामकर्मोदयात् पृथिव्यादयस्ते । यद्ययं लोकवादः सत्योनवेत् । यथासौ यागस्मिन् जन्मनि मनुष्यादिः सोऽन्यस्मिन्नपि जन्मनि ता हगेव नवतीति । ततः स्थावराणां त्रसाणां च तादृशत्वे सति दानाध्ययनजपनियमत पोनुष्ठानादिकाः क्रियाः सर्वाप्यर्थिकायापोरन् । लोकेनाऽपि चाऽन्यथात्वमुक्तं । तद्य था। सवै एषशृगालोजायते यः सपुरीषोदह्यते तस्मात् स्थावरजंगमानां स्वकतकर्मवशा त् परस्परसंक्रमणाद्यनिवारितमिति । तथा अनंतोनित्यश्च लोकशति यदनिहित तत्रेदमनिधीयते । यदि स्वजात्यनुलेदेनास्य नित्यताऽनिधीयते ततः परिणामानित्य त्वमस्मदनीष्टमेवाऽन्युपगतं न काचित्दतिः । अथाऽप्रच्युतानुत्पन्न स्थिरैकस्वनावत्वेन नित्यत्व मन्युपगम्यते तन्न घटते तस्याऽध्यक्षबाधितत्वात् । नहि क्षणनाविपर्यायानाऽलिं गितं किंचि वस्तु प्रत्यदेणाऽवसीयते । निःपर्यायस्यच खपुष्पस्येवाऽसपतैव स्यादिति । तथा शश्वभवनं कायव्यस्याऽकाशात्मादेश्चाऽविनाशित्वं यजुच्यते इव्य विशे पापेक्ष्या तदप्यसदेव । यतः सर्वमेव वस्तूत्पादव्ययध्रौव्ययुक्तत्वेन निर्विनागमेव प्रवर्त ते अन्यथा वियदरविंदस्येव वस्तुत्वमेव हीयेतेति । यथा यमुक्तमंतवांनोकः सप्तदीपावलि नत्वादित्येतन्निरंतराः सुहृदः प्रत्येष्यंति न प्रेदापूर्वकारिणस्तग्राहकप्रमाणानावादिति । तथा यदप्युक्त अपुत्रस्य न संति लोकाइत्यादीत्येतदपि बालनाषितं । तथाहि। किंपुत्रस तामात्रेणैव विशिष्टलोकावाप्तिरुत तत्कृतविशिष्टानुष्ठानात् । तद्यदि सत्तामात्रेण ततश्म हत्कार्मुकग वराहादिनिप्प्तालोकानवेयुस्तेषां पुत्रबहुलत्वसंनवात् । अथानुष्ठानमाश्री यते । तत्र पुत्र येसत्येकेन शोननमनुष्ठितमपरेणाऽशोननमिति तत्र का वार्ता स्व कृतानुष्ठानं च निष्फलमापद्यतेत्येवं यत्किंचिदेतदिति । तथा श्वानोयदाश्त्यादियुक्ति विरोधित्वादनाकर्णनीयमिति । यदपि चोक्तम् । अपरिमाणं विजानातीति तदपि न घटा मियति । यतः सत्यऽप्यपरिमितझवे यद्यसौ सर्वज्ञोन नवेत् ततोहेयोपादेयोपदेश दानविकलत्वान्नैवाऽसौ प्रेक्षापूर्वकारिनिराश्यिते तथासति तस्य कीटसंख्यापरिज्ञान Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राय धनपतसिंघ बादाजरका जैनागमसंग्रह नाग उसरा. एय मप्युपयोग्येव । यतोयथैव तषियेऽस्याऽपरिझानमेवमन्यत्राऽप्याशंकया हेयोपादेये प्रेतापूर्वकारिणः प्रवृत्तिर्न स्यात् तस्मात्सर्वज्ञत्वमेष्टव्यं । तथा यमुक्तं । स्वापबोधविना गेन परिमितं जानातीत्येतदपि सर्वजनसमानत्वे यत्किचिदिति । यदपिच कैश्चिकुच्यते । यथा ब्रह्मणः स्वप्नावबोधयोर्लोकस्य प्रलयोदयौ नवतइति तदप्ययुक्तिसंगतमेव । प्रति पादितं चैतत् प्रागेवेति न प्रतन्यते । नचाऽत्यंतं सर्वजगतनत्पादविनाशौ विद्यते। न कदाचिदनीदृशं जगदिति वचनात् । तदेवमनंतादिकं लोकवादं परिहत्य यथावस्थितवस्तु स्वनावावि वनं पश्चान दर्शयति । ये केचन प्रसाः स्थावरावा तिष्ठंत्यस्मिन् संसारे तेषां स्वकर्मपरिणत्याऽस्त्यऽसौ पर्यायः। अंजूइति प्रगुणोव्यनिचारी तेन पर्यायेण स्वक मपरिणतिजनितेन ते त्रसाः संतः स्थावराः संपद्यते । स्थावरा थपिच त्रसत्वमनुवते । तथा सास्त्रसत्वमेव स्थावराः स्थावरत्वमेवाऽप्नुवंति । न पुनर्योयागिह सताहगे वाऽमुत्राऽपि नवत्ययं नियमइति ॥ ७ ॥ नरालं जगतो जोगं, विवजासं पलिंतिय॥ सत्वे अकंतउरकाय अन सबे अहिंसिता॥ए॥ एवं खु नाणिणो सारं; जन्न हिंसा __किंचणं ॥ अहिंसासमयं चेव, एतावत्तं वियाणिया ॥१०॥ अर्थ-हवे एनपर दृष्टांत कहे-ए जीव नरालंके० ते औदारिक एटलें अति स्थूल एहवा जगतो जोगंके जगनो योग जीवनो, व्यापार चेष्टा विशेष, विवढासं के ते विपरीत जुदो जुदो पतिंतिय के पामे. अत्रे गर्ननुं दृष्टांत कहेले. जेम ग माहे रह्यो थको जीव अर्बुद, कलल, पेसी इत्यादिक जुदी जुदी अवस्था पामे. तथा जन्म पाम्या पली बाल, कुमार, तरुण थने वृक्ष एवी जुदी जुदी अवस्था पामे. ए का रणे तेनुं वचन साचं नयी जणातुं. तो जैन कहे के, सवेकेण सर्व जीव एकेंशिया दिकथी मामीने पंचेंशियपर्यंत जे जे, तेने अकंतःखाय के शारीरी तथा मानसी मुःख ते वनन नथी. अ के० ए कारणे सवे के सघला जीव अहिंसया के हणाय नहीं, तेम करवं. ॥ ए ॥ एवं शब्द अवधारणे दे नाणिणो के ज्ञानी एटले जे जाण पुरुष तेनो एहज सारं के सार एटले न्याय. जन्नहिंसई किंचणं के जे को त्रस बने स्थावर जीवने किंचित् मात्र हणे नहीं, उपलक्षणथी मृषा बोले नहीं, अ दत्त, मैथुन तथा परिग्रह ए आश्रव न सेवे, रात्री नोजन न करे, एज ज्ञानीनो सार जे पाश्रव न सेवे, अहिंसा के जीवनी दया तथा समयंचेव के० समता सर्वत्र स म परिणाम राखे. एतावत्के० एटलुंज वियाणियाके जाणवू जोइये. बीजं घणुं पं लाल नार सरखं जाणवा थकी झुं फल ? जेम मुजने मरण ते दुःख तेम बीजा जी वने पण मरण तेकुःख एम जाणे एटले मूल गुण कह्या. ॥ १० ॥ Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एक वितीये सूत्रकृतांगे प्रथमश्रुतस्कंधे प्रथमाध्ययनं. ॥ दीपिका-अत्र दृष्टांतमाह । (उरालमिति )। उदारं स्थूलं जगतोयोगं । औदारिकाः प्राणिनोगर्नकललार्बुदरूपादवस्थाविशेषाधिपरीतं बालकुमारयौवनादिकमुदारं योगं परि समंतादयंते गति।श्रयमर्थः। औदारिकशरीरिणोमनुष्यादेर्बालकुमाराद्यवस्थाविशेषाःप्र त्यदेण दृश्यंते न पुनर्यादृप्राक्ताहगेव सर्वदेति । एवं सर्वेषां स्थावरजंगमानामन्यथान वनं झेयं । तथा धाकांताः पीडिताःखेन सर्वे जंतवस्ततस्तेऽहिंसितानवंति तथा कार्य । अथवाऽकांतमप्रियंपुःखं येषां तेऽकांतःखाश्चशब्दात् प्रियसुखाश्च अतः सर्वान्नहिंस्यादि ति दृष्टांतोदर्शितनपदेशश्च दत्तः। ॥॥ किमर्थं सत्वान्न हिंस्यादित्याह । (एयमिति) खुनिश्चये । एतदेव शानिनः सारं यत्किचन प्राणिजातं न हिनस्ति । अहिंसा समता चैव एतावदिजानीयात् । कोर्थः । यथा मम मरणं दुःखं वाऽप्रियं एवं सर्वस्य प्राणिलोकस्या पीति । एवं ज्ञात्वा न हिंस्यात्प्राणिनः । नपलक्षणान्मृषा न ब्रूयान्नादत्तं गृाहीयान्नाब्रह्मा सेवेत न परिग्रहं कुर्यादिति ॥ १०॥ ॥ टीका-अस्मिन्नेवाऽर्थे दृष्टांतानिधित्सयाऽऽह। ( उरालमित्यादि)। नरालमि ति स्थलमुदारं जगतऔदारिकजंतुग्रामस्य योगं व्यापार चेष्टामवस्थाविशेषमित्यर्थः । श्री दारिकशरीरिणोहि जंतवः प्राक्तनादवस्थाविशेषार्निकललावंदरूपाविपर्यासनूतं बा लकौमारयौवनादिकमुदारं योगं परिसमंतादयंते गहंति पर्ययंते । एतमुक्तं नवति । औदारिकशरीरिणोहि मनुष्यादेबीलकौमारादिकः कालादिकतोऽवस्थाविशेषोऽन्यथा चाऽन्यथाऽनवन् प्रत्यक्षेणैव सन्यते न पुनर्यादृक् प्राक् ताहगेव सर्वदेति । एवं स र्वेषां स्थावरजंगमानामन्यथाऽन्यथा च नवनं इष्टव्य मिति । अपिच सर्वे जंतवथाक्रांता अनिनूताःखेन शारीरमानसेनाऽसातोदयेन सुःखाक्रांताः संतोऽन्यथाऽवस्थानाजो लन्यते । अतः सर्वेपि ते यथाऽहिंसिता नवंति तथा विधेयं । यदि वा सर्वेऽपि जंतवो कांतमननिमतं फुःखं येषां तेऽकांतकुःखाः। चशब्दात प्रियसुखाश्च ते तान सर्वान् न हिंस्या दित्यनेन वाऽन्यथावदृष्टांतोदर्शितोनवत्युपदेशश्च दत्तइति ॥ ॥ किमर्थ सत्वान् न हिं स्यादित्याह । (एवंखुश्त्यादि)। खुरवधारणे । एतदेव झानिनोविशिष्टविवेकवतः सारं न्याय्यं यत्किंचनप्राणिजातं स्थावरं जंगमं वा न हिनस्ति न परितापयति । उपलक्षणं चैतत् । तेन न मृषा ब्रूयान्नादत्तं गृहीयान्नाऽब्रह्मा सेवेत न परिग्रहं परिगृणहीयान्न नक्तं मुंजीतेत्येवं शानिनः सारं यत्र कर्माश्रवेषु वर्ततइति । अपिच अहिंसया समता अहिं 'सांसमता तां चैताव हिमानीयात् । यथा मम मरणं कुःखं वाऽप्रियमेवमन्यस्याऽपि प्रा पिलोकस्यति । एवंकारोऽवधारणे । इत्येवं साधुना ज्ञानवता प्राणिनां परितापनाऽपाव णादि वा न विधेयमेवेति ॥ १० ॥ Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राय धनपतसिंघ बादाउरका जैनागमसंग्रह नाग उसरा. एण वुसिए य विगयगेही,आयाणं सरकए ॥ चरिआसणसेज्जा सु, नत्तपाणे अ अंतसो॥११॥एतेहिं तिहिं गणोदि, संजए सततं मुणी ॥ नकसं जलणं णमं, मसलं च विगिंचए ॥१२॥ ' अर्थ-एटले मूलगुण कह्या हवे उत्तरगुण कहेले. दशविध सामाचारीने विषे विविध ना ना प्रकारे वुसिएके वश्या, तथा विगतगृधि के जेमा थाहारादिकनी लोव्यता नथी; ए वा साधु ते थायाणं के० आदान, ज्ञान, दर्शन भने चारित्र ए रत्नत्रयने सररकए के० सम्यकप्रकारे राखे. एटले जे प्रकारे ए रत्नत्रयनी वृद्धि थाय तेम करे तेज कहे. चरिया के चालवू, एटले चारित्रवंत पुरुषने को प्रयोजन कार्य उपना थकां चालवू पडे तो धूसर प्रमाण दृष्टि जोतो थको चाले; तथा प्रतिलेषित, प्रमार्जित एवा आसण के यासन उपर बेशे, तथा सुप्रतिषित, सुप्रमार्जित एवा सेजासुके० नपाश्रय अथवा संथाराने विषे रहे अथवा शयन करे. तथा नत्तपारोथ के नात पाणीने विषे अंत सो के० सम्यक् प्रकारे उपयोग करे एटले निर्दोष आहारनी गवेषणा करे. ॥ ११ ॥ वली पण उत्तरगुण आश्रयीज कहेले. एतेहिं के ए पूर्वे कह्याजे तिहिंताणेहिं के० त्रण स्थानक एटले एक चर्या, बीजं आसन सजा, अने त्रीजु नातपाणी ए त्रणे स्थानक रुडी परे जाणवां. एटले चालवामां र्यासमिति ए एक स्थानक, अने बासन सजा एटले आदान नाम मात्र निदेपणासमिति कही ए बीजुं स्थानक, तथा नत्तपा ण एटले एषणासमिति कही; अने नातपाणीनी याचना करतां नाषा निरवद्य बोले, एटले नापासमिति पण यावी तथा थाहार लीधाथी उच्चार प्रश्रवणनो सनाव थाय, तेने रुडीपेरे परतवतां पारिष्टापनिका समिति पण कही ए त्रीजुं स्थानक जाणवू. एत्रणे स्थानकने विष संजएके० संयत बतो सततके सततं एटले निरंतर मुगी के चारित्र वान ते नक्कस्संके० नत्कर्ष एटले मान,जलणंके क्रोध, णूमं के माया अने मसलं के मध्यस्थ एटले लोन ए चारे कषायने विगिंचए के० यात्मा थकी जूदा करे. ॥१॥ ॥ दीपिका-विविधमनेकधोषितः स्थितोदशविधसामाची व्युषितः । विगता था हारादी गृधिर्यस्य सविगतगृतिः साधुः । यादीयते प्राप्यते मोहोयेन तदादानीयं ज्ञा नादित्रयं तत्सम्यग्रक्ष्येत् । तथा चर्यासनशय्यासु । चर्यागमनं, बासनं निषीदनस्था नं, शय्या वसतिः, संस्तारकोवा तेषु तथा नक्तपाने चांतशः सम्यगुपयोगवता नाव्यं । अयमर्थः । इयांनाषेषणादाननिदेपप्रतिष्ठापनासमितिष्पयुक्तेनांतशोनक्तपानं यावन्नि दोषमन्वेषणीयं ॥ ११ ॥ पुनरुत्तरगुणानाह । एतानि त्रीणि स्थानानि । यथा र्या समितिरित्येकं स्थानं १ आसनं शय्येत्यादाननांडमात्रनिदेपणासमितिरिति वितीयं । Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (एG वितीये सूत्रकृतांगे प्रथमश्रुतस्कंधे प्रथमाध्ययनः नक्तपानमित्येतेन एषणासमितिः । नक्तपानार्थ च प्रविष्टस्य नाषणासंनवानाषणासमि तिरादिप्ता । सति चाहारे प्रश्रवणादीनां सन्नावात्प्रतिष्ठापनसमितिरप्यायाता इति तृ तीयं स्थानं ३ एतेषु त्रिषु स्थानेषु सम्यग्यतः संयतयामोदाय परिव्रजेदित्युत्तरश्लोके न संबंधः । तथा सततं मुनिरुत्कर्षोमानः, ज्वलनः क्रोधः, णूमंति गहनं मायेत्यर्थः । संसारमध्ये सर्वदा नवतीति मध्यस्थोलोनः । चः समुच्चये। एतान् मानादीन कपा यान । ( विगिंचएति)। विवेचयेदात्मनः पृथक्कर्यात् । ननु कोधएवादी सर्वत्र स्थाप्य ते ऽत्रतु कथं मानइति चेकुच्यते । माने सत्यवश्यं नावी क्रोधः क्रोधे च सति मानः स्या नवेत्यर्थस्य दर्शनाय क्रमोन्नंघनमिति. ॥१२॥ ॥ टीका-एवं मूलगुणाननिधायेदानीमुत्तरगुणाननिधातुकामबाह । वुसिएयश्त्या दि। विविधमनेकप्रकारमुषितः स्थितोदशविधचक्रवालसामाची व्युषितस्तथा विगता ऽपगता आहारादौ गृहिर्यस्यासौ विगतगृतिः साधुरेवंनूतश्चादीयते स्वीक्रियते प्राप्यते वा मोदोयेन तदादानीयं ज्ञानदर्शनचारित्रत्रयं तत्सम्यग्रदयेदनुपालयेत् यथा यथा तस्य शुदिनवति तथाकुर्यादित्यर्थः॥ कथंपुनश्चारित्रादि पालितं नवतीति दर्शयति । चर्यासन शय्यासु । चरणं चर्यागमनं साधुनाहि सति प्रयोजने युगमात्रदृष्टिनागंतव्यं तथा सुप्र त्युपेक्षिते सुप्रमार्जिते चासने उपवेष्टव्यं तथा शय्यायां वसतौ संस्तारके वा सुप्रत्युपेक्षित प्रमार्जितस्थानादि विधेयं तथा नक्ते पाने चांतशः सम्यगुपयोगवता नाव्यं । इदमुक्तं नवति । नापेषणादाननिदेपप्रतिष्ठापनासमितिपयुक्तनांऽतशोनक्तपानं यावरुन मादिदोषरहितमन्वेषणीयमिति ॥ ११ ॥ पुनरपि चारित्रशुध्यर्थ गुणानधिकत्या ह। एतेहिं इत्यादि । एतान्यनंतरोक्तानि त्रीणि स्थानानि । तद्यथा । र्यासमितिरित्ये कं स्थानं, यासनं शय्येत्यनेनादाननांडमात्रनिकेपणासमितिरित्येतच्च वितीयं स्थानं, नक्तपानमित्यनेनैषणासमितिरुपाता नक्तपानार्थ च प्रविष्टस्य नाषणासंनवानापासमि तिरादिप्ता सति चाहारे नच्चारप्रश्रवणादीनां सनावात्प्रतिष्ठापनासमितिरप्यायातेऽत्ये तच तृतीयं स्थानमित्यतएतेषु त्रिषु स्थानेषु सम्यग्यतः संयतआमोदाय परिव्रजेदि त्युत्तरश्लोकांते क्रियेति । तथा सततमनवरतं मुनिः सम्यक् यथावस्थितजगत्रयवेत्ता । उत्कृष्यते आत्मादध्मातोविधीयतेऽनेनेत्युत्कर्षोमानस्तथात्मानं चारित्रं वा ज्वाल यति दहतीति ज्वलनः क्रोधस्तथा णूममिति गहनं मायेत्यर्थः। तस्याअलब्धमध्यत्वा देवमनिधीयते । तथा आसंसारमसुमतां मध्येऽतर्नवतीति मध्यस्थोलोनः । चशब्दः स मुच्चये । एतान् मानादींश्चतुरोपि कषायांस्तविपाकानिझोमुनिः सदा ( विगिंचएति ) वि वेचयेदात्मनः पृथक्कुर्यादित्यर्थः । ननु चान्यत्रागमेक्रोधादावुपन्यस्यते तथा दप Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राय धनपतसिंघ बाहाउरका जैनागमसंग्रह नाग उसरा. एए कश्रेण्यामारूढोनगवान् कोधादीनेव संज्वलनान रूपयति किमर्थमागमप्रसिपमुख्नं ध्यादौ मानस्योपन्यासइति ॥ अत्रोच्यते । माने सत्यवश्यंनावी क्रोधः क्रोधेतु मानः स्या दानवेत्यस्यार्थस्य प्रदर्शनायान्यथाक्रमकरण मिति. ॥ १२ ॥ समिएन सयासादु, पंचसंवरसंवुमे॥सिएदि अ सिए निरकू, अमोकायपरिवए कासित्तिबेमि ॥१३॥ अर्थ-हवे अध्ययन नपसंहरतो कहेले. समिएके पांच समिते समितो,नके तु थ वधारणने अर्थ ले. तथा सयासादुके० सर्वकालनेविषे साधु केवोने ? ते कहेले. पंचसंवर संवुमेके पांच महाव्रतनो पालनार तथा पांच प्रकारना संवरे करी संवयो बतो तथा सिएहिके जे गृहस्थ पासबादिकने विषे बंधाणा तेवा गृहस्थने विषे असिए के थ गबंधाणो थको एटले तेने विषे मूळ नकरे. जेम कर्दम थकी कमल तुंचुरहे तेम निरकूके० साधु ते आरंन परिग्रह थकी दूर रहे पण तेनी साथे बंधाय नहीं, एवो बतो अमोरकायपरिवएके ज्यांसुधी मोद न थाय त्यांसुधी संयम पाले. ईतिबेमिनो अर्थ पूर्ववत्. ॥ १३ ॥ इति प्रथमाध्ययनस्य चतुर्थोदेशकः समाप्तः । प्रथमाध्ययनं स० ॥ दीपिका- एवं समितिनिः समितः साधुः पंचमहाव्रतोपेतत्वात्पंचप्रकारसंवृतः । चशब्दाजुप्तिगुप्तस्तथा गृहपाशादिषु सिताबा गृहस्थास्तेष्वसितोन बछोन मूर्जितो निकु वनितुरासमंतात् मोदाय परिसमंताद्वजेः संयमानुष्ठानरतोनवेस्त्वमितिशिष्यस्यो पदेशः । इति समाप्तौ । ब्रवीमीति पूर्ववत् ॥ १३ ॥ इति तपागच्छाधिपश्रीहेमविमलसू रिस्व शिष्यहर्षकुलप्रणीतायां श्रीसूत्रहतांगदीपिकायां प्रथमं समयाध्ययनं समाप्त ॥ ॥ टीका- तदेवं मूलगुणानुत्तरगुणांश्चोपदाऽधुना सर्वापसंहारार्थमाह । (समिए उसया इत्यादि ) तुरवधारणे । पंचनिः समितिनिः समितएव साधुस्तथा प्राणातिपा तादिपंचमहाव्रतोपेतत्वात्पंचप्रकारसंवरसंव्रतस्तथा मनोवाकायगुप्तिगुप्तस्तथा गृहपाशा दिषु सिताअवबहाः सक्तागृहस्थास्तेष्वसितोऽनवबस्तेषुमूबामकुर्वाणः पंकाधारपं कजवत्तत्कर्मणाऽदिह्यमानोनितानदणशीलोनावनिकुरामोदायाऽशेषकर्मापगमलक्षण मोक्षार्थ परि समंतात् बजेः संयमानुष्ठानरतोनवेस्त्वमिति विनेयस्योपदेशः। इति अध्य यनसमाप्तौ । ब्रवीमीति गणधरएवमाह यथा तीर्थकतोक्तं तथैवाहं ब्रवीमि न स्वमनी पिकयेति गतोऽनुगमः । सांप्रतं नयास्तेषामयमुपसंहारः । सबसिपि नयाणं बदुविधव नवयं निसामित्ता । तं सबगयविसु जं चरणगुणनिसादुत्ति ॥ १ ॥ १३ ॥ इति सू त्रकतांगे प्रथमाध्ययनं समाप्तं ॥ ॥ Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०० वितीये सूत्रकृतांगे प्रथमश्रुतस्कंधे वितीयाध्ययनं. ॥अथ दितीयाध्ययनस्य प्रथमोद्देशकः प्रारंनः॥ संबुशह किन बुझह, संबोदी खलु पेच उल्लदा ॥ णोदवणमंति रा इन, नो सुलनं पुणरवि जीवियं ॥१॥ महरा बुड़ाय पासह, गरबा वि चियंति माणवा ॥सेणे जद वट्टयं दरे, एवमानस्कयंमि तुई ॥२॥ अर्थ-पहेलुं समय नामे अध्ययन कझुं. हवे बीजं वैताली नामक अध्ययन कहे. तेनो ए संबंध पेहेला अध्ययनने विषे परसमयना दोष कह्या तथा स्वस मयना गुण कह्या. ते सर्व जाणीने जेम कर्म विदारीयें तेम यत्न करवो, ए नाव कहेले. ते श्री शादीश्वर देवे जरते तिरस्कार कस्या. संवेग उपन्या थकी पनदेवना अगणुं पुत्र रुपनदेवनी पासे याव्या. ते स्वपुत्र प्रत्यें उपदेश कहे. अथवा श्रीमहा वीर देव परखदा प्रत्ये कहेले. संबुशह के अहो नव्यो ? तमे समजो. ज्ञान, दर्शन तथा चारित्ररूप धर्मनेविषे नद्यम करो: केमके या अवसर मलवो फरी फरी उर्मन , तो एवो अवसर पामीने किंनबुसह के केम नथी समजता जे या नवने विषे धर्म नहीं करशे तेने पेचके परनवनेविषे खलुके० निश्चे थकी, संबोहीके बोधबीज ते उनहाके उर्जन बे. एगोस्वणमंतिराश्न के जेम यतिकमेली रात्री फरीथी थावे नहीं तेम यौव नादिक सर्व पदार्थ गया तेपण फरी श्रावे नहीं. गोसुलनंपुणरवि जीवियं के फरी फरी जीवित शब्दे संयमे करी प्रधान जे जीवितव्य ते सुलन नथी. ॥१॥ हवे सर्व संसा रीजीवने आयुष्य अनित्य करी देखाडेले. महरा के बालक एटले कोइक जीव बाल्याव स्थामांयकांज विनाश पामेले. तथा कोइएक बुडायके बुढा (१६) थईने विनाश पामेले. तथा पासह के० जून के, गरबा विचयंति माणवा के० को एक मनुष्य जे , ते ग नमा रह्या थकां पण विनाशने पामेले. एम ए मृत्यु जे जे, ते जीवने सर्व अवस्थाये धावी पोहोचेले. तेना नपर दृष्टांत कहेले. जह के जेम सेणे के शेन एटले सींचा यो जे जे, ते वट्टयं के वाटो एटसे तीतर पदी तेने बलीने पुढ़ते हरे के हरण करी लीये. एवं वानरकयंमि तुट्टई के एम ए मनुष्यनुं बायुष्य पण कणे णे बेटे ने. एवं जीवाण जीवियं के० ए पूर्वे कडं एवं जीवनुं जीवितव्य जाण ॥ ॥ ॥ दीपिका-व्याख्यातं प्रथमं समयाध्ययनं । अथ दितीयं वैतालीयाध्ययनं व्या ज्यायते तत्र प्रथमाध्ययने परसमयदोषाः स्वसमयगुणाश्चोक्तास्तांश्च ज्ञात्वा यथा कर्म विदार्यते तथा बोधोविधेयइत्यनेन संबंधेनागतस्यास्योदेशकत्रयं । तत्र प्रथमोदेशकस्ये दमादिसूत्रं । (संबुशहत्ति) । तत्र जगवानादितीर्थकरोनरतः तिरस्कारागतसंवेगान् Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राय धनपतसिंघ बाहादुरका जैनागमसंग्रह नाग दुसरा. १०१ स्वपुत्रानुद्दिश्येदमाह । यदि वा सुरासुरनरोरग तिरश्वः समुद्दिश्याह । यथा बुध्यध्वं यूयं धर्मे बोधं कुरुत । किं न बुध्यध्वं एवंविधसामग्र्यां सत्यां कस्माद में बोधोन क्रियतइ त्यर्थः । यतः कृतधर्माणां प्रेत्य परलोके संबोधिधर्मप्राप्तिरूपा पुनर्लना । दुर्नि श्वये । नैवातिक्रांतात्रय उपनमंति पुनदैकिंते । नहि प्रतिक्रांतोयौवनादिकालः पुनरावर्ततइतिभावः । पुनरपि जीवितं संयमजीवितं नो नैव सुलनं । यदि वा जीवितमा त्रुटितं सत्संधातुं न शक्यतइति ॥ ॥ श्रायुषोऽनियतत्वमाह । ( महरेति ) । मह राबानाएव केचिजीवितं त्यजति तथा वृद्ध गर्न स्थायपि मानवाः । उपदेशयोग्य त्वान्मानव ग्रहणं । एतत्पश्यत यूयं यत्सवस्वप्यवस्थासु प्राणी जीवितं त्यजतीति । त याहि त्रिपल्योपमायुष्कस्यापि पर्यात्यनंतरमंतर्मुहूर्तेनैव कस्यचिन्मृत्युरुपतिष्ठतीति । यत्र दृष्टांतमाह । यथा श्येनोवर्तकं तित्तिरिजीवं हरते हंति एवमायुःकये प्राणान् मृ त्रपहरेत् । श्रायुः ये वा त्रुट्यति जीवितं ॥ २ ॥ 66 ॥ टीका-उक्तं समयाख्यं प्रथममध्ययनं सांप्रतं वैतालीयाख्यं द्वितीयमारच्यते । श्र स्य चाऽयमनिसंबंधः । इहाऽनंतराऽध्ययने स्वसमयगुणाः परसमयदोषाश्च प्रतिपादिता स्तांश्च ज्ञात्वा यथाकर्मविदार्यते तथा बोधोविधेयइत्यनेन संबंधेनाऽयातस्याऽस्याध्ययन स्योपक्रमादीनि चत्वार्यऽनुयोग द्वाराणि जपनीयानि । तत्राऽप्युपक्रमांतर्गतोऽर्थाऽधि कारोधा । अध्ययनार्थाऽधिकार नद्देशार्थाधिकारश्च । तत्राऽध्ययनार्थाधिकारः प्रागेव निर्युक्तिकारेणाऽनाणि । पाक बुझलाचेवेत्यनेन गाथा द्वितीयपादेनेत्युद्देशार्थाधिकारं तु स्वतएव नियुक्तिकारजत्तरत्र वक्ष्यति । नामनिष्पन्नं तु निदेपमधिकृत्य निर्युक्तिरुदाह 'वेयालियम वेया, लगो य वेयाजणं वेयालियं । तिन्निवि चक्कगाई, वेयाले एब पु जीवी " ॥ ३८ ॥ ( वेया लिय मित्यादि ) । तत्र प्राकृतशैल्या वेयालियमिति । हृविदार इत्यस्य धातोर्विपूर्वस्य बांदसत्वात् जावे एवुल्यांतस्य विदारकमिति क्रियावाच कमिदमध्ययनानिधानमिति । सर्वत्र च क्रियायामेतत्रयं सन्निहितं । तद्यथा कर्ता करणं कर्म चेत्यतस्तद्दर्शयति । विदारकोविदारणं विदारणीयं च तेषां त्रयाणामपि ना मस्थापना इव्य नावनेदाच्चतुर्द्धा निक्षेपेण । त्रीणि चतुष्ककानि इष्टव्यानि । अत्र चना मस्थापने मे इव्यविदारकोयोहि इव्यं काष्ठादि विदारयति । नाव विदारकस्तु कर्म यो विदार्यत्वात् नो खागमतोजीवविशेषः साधुरिति ॥ ३८ ॥ करणमधिरुत्याऽह " दवं च परसुमादी दंसणाणतव संयमानावे | दवं च दारुगाही नावे कम्मं वियाल लियं " ॥ ३७ ॥ ( दवंचेत्यादि ) नामस्थापने मे इव्यविदारणं परश्वादि नाव विदा रणं दर्शनज्ञानतपः संयमास्तेषामेव कर्मविदारणे सामर्थ्यमित्युक्तं नवति । विदारणीय For Private Personal Use Only Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०२ वितीये सूत्रकृतांगे प्रथमश्रुतस्कंधे वितीयाध्ययनं. तु नामस्थापने अनादृत्य इव्यं दादि । नावे पुनरष्टप्रकारं कर्मेति ॥ ३५॥ सांप्रतं वे तालियमित्येतस्य निरुक्तं दर्शयितुमाह " वेयालियं इह देसियंति वेयालियंत हो ॥ वेयालियं तदा वित्तमति तेणे वयणिब” ॥४०॥ (वेयालियमित्यादि ) । दाऽध्ययनेऽनेकधाकर्मणां विदारणमनिहितमिति कृत्वैतदध्ययनं निरुक्तिवशादिदारक ततोनवति । यदि वा वैतालियमित्यध्ययननामात्राऽपि प्रवृत्ती निमित्तं । वैतालियचंदोवि शेषरूपं वृत्तमस्ति तेनैव च वृत्तेन निब-हमित्यध्ययनमपि वैतालीयं । तस्य चेदं लक्षणं । वैतालीयलिंगनैधनाः, षडयुक्यादोष्टौ समे चलः । नसमोऽत्र परेण युज्यते, नेतः षट्च नि रंतरायुजोः ॥ ४०॥ सांप्रतमध्ययनस्योऽपोद्घातं दर्शयितुमाह "कामं तु सासयमिणं कहियं नहावयंति उसनेणा ॥ यहोणतिसयाणं सोकण वि ते पवश्या " ॥ ४ ॥ (काममित्यादि ) कामशब्दोऽयमन्युपगमे । तत्र यद्यपि सर्वोप्यागमः शाश्वतः तदंतर्गत मध्ययनमपि तथाऽपि जगवतादितीर्थाधिपेनोत्त्पन्न दिव्यज्ञानेनाऽष्टापदोपरिव्यवस्थितेन जरताधिपनरतेन चक्रवर्तिनोऽपहतैरष्टनवतिनिः पुत्रैः सृष्टेन यथा जरतोऽस्मानाऽज्ञां का रयत्यतः किमस्मानिर्विधेयमित्यतस्तेषामंगारदाहकदृष्टांतं प्रदर्य न कथंचिऊतोोंगे बा निवर्ततश्त्यर्थः । गर्नमिदमध्ययनं कथितं प्रतिपादितं तेऽप्येतत्वा संसारासारता मवगम्य विषयाणां च कटुविपाकतां निःसारतां च ज्ञात्वा मत्तकरिकर्णवच्चपलमायुर्गि रिनदीवेगसमं यौवनमित्यतोनगवदाईव श्रेयस्करीति तदंतिके सर्वे प्रव्रज्यां गृहीतवं तइत्यत्र नदेसेनिदेसेयइत्यादिसर्वोऽप्युपोद्घातोनणनीयः ॥ ४१ ॥ सांप्रतं नद्देशार्था धिकारं प्रागुनिखितं दर्शयितुमाह “ पढमे संबोहो अनिव्वयाय वीयंमि माणवळणया, अहिगारो पुण नगि, तहा तहा बदुविहो तब ॥ ४२ ॥ उद्देसंमिय तश्ये, अन्नाण वियस्स अथवन नगि । वयवो य सया सुयप्पमा जइ जरोण" ॥४३॥ (प ढमइत्यादिगाथा क्षयं ) तत्र प्रथमोदेशिके हिताऽहितप्राप्तिपरिहारलक्षणोबोधो विधेयोऽ नित्यता वेत्ययमर्थाधिकारः। दितीयोदेशके मानोवर्जनीयश्त्ययमधिकारः। पुनश्च त थाऽनेकप्रकारोबदविधः शब्दादाऽवर्थेऽनित्यतादिप्रतिपादकोऽर्थाऽधिकारोनणितति । तृतीयोदेशके बदुविधज्ञानोपचितस्य कर्मणोऽपचयरूपोर्थाधिकारोनणितइति यतिज नेनच सुखप्रमादोवर्जनीयः सदेति ॥४३ ॥ सांप्रतं सूत्रानुगमे अस्खलितादिगुणोपेतं सूत्रमुच्चारणीयं । तच्चेदं । ( संबुशहेत्यादि ) तत्र नगवानादितीर्थकरोनरतस्तिरस्का रागतसंवेगान स्वपुत्रानुद्दिश्येदमाह । यदि वा सुरासुरनरोरगतिरश्वः समुद्दिश्य प्रोवाच य था संबुत्थ्यध्वं यूर्य ज्ञानदर्शनचारित्रलक्षणे धर्म बोधं कुरुत । यतः पुनरेवंनूतोऽवसरो कुरापः । तथाहि । मानुषं जन्म तत्राऽपि कर्मनूमिः पुनरार्यदेशः सुकुलोत्पत्तिः सर्वैश्यि Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राय धनपतसिंघ बादाउरका जैनागमसंग्रह नाग उसरा. १०३ पाटवं । श्रवणश्रमादिप्राप्तौ सत्यां स्वसंवित्यवष्टंनाह । किं न बुध्यध्वमित्यवश्यमेवंविध सामथ्यावाप्ता सत्यां सकर्णन तुबान नोगान् परित्यज्य समर्मबोधो विधेयइतिनावः। त थाहि । निर्वाणादिसुखप्रदे नरनवे जैनेंधान्विते, लब्धे स्वल्पमचारु कामजसुखं नो सेवितुं युज्यते । वैडूर्यादिमहोपलौघनिचिते प्राप्तेऽपि रत्नाकरे, लातुं स्वल्पमदीप्तिकाचशक लं किं चोऽचितं सांप्रतं ॥१॥ अकतधर्मचरणानां तु प्राणिनां संबोधिः सम्यकदर्शनझान चारित्राऽवाप्तिलक्षणा प्रेत्य परलोकगतानां खलुशब्दस्याऽवधारणार्थत्वात् सुकुलनैव । त थाहि । विषयप्रमादवशात् सत् धर्माचरणान्रष्टस्याऽनंतमपि कालं संसारे पर्यटनम निहितमिति । किंच । दुरित्यवधारणे । नैवाऽतिक्रांतारात्रय उपनमंति पुन कंते । नाति क्रांतोयौवनादिकालः पुनरावर्त्तततिनावः । तथाहि । नवकोटिनिरसुलनं, मानुष्यं प्राप्य कः प्रमादोमे । नच गतमायुनूयः प्रत्येत्यपि देवराजस्य ॥ १ ॥ नोनेव संसारे सु सनं सुप्रापं संयमप्रधानं जीवितं यदि वा जीवितमायुयुटितं सत् तदेव संधातुं न शक्य तति वृत्तार्थः। संबोधश्च प्रसुप्तस्य सतोनवति स्वापश्च निशेदये निासंबोधयोश्च नामा दिश्चतुर्थ निकेपः । तत्र नामस्थापने अनाहत्य व्यनावनिक्षेपं प्रतिपादयितुं नियुक्ति कदाह । “दवं निदा वे देसणनाणतवसंजमा नावे । अहिगारो पुणनणि नाणे तव दंसणचरिते " ॥ ४४ ॥ (दत्वं निदावे इति ) इह च गाथायां व्यनिशनावसंबोधश्च द शितः। तत्राऽयंतग्रहणेन नावनिहाश्व्यबोधयोस्तदंतर्वर्तिनोग्रहणं इष्टव्यं । तत्र ५ व्यनि निज्ञ वेदोवेदनमनुनवः । दर्शनावरणीय विशेषोदयति यावत् ।नावनिातु विषयज्ञानदर्शनचारित्रशून्यता । तत्र व्यबोधोऽव्यनिड्या सुप्तस्य बोधनं । नावे नाव विषये पुनर्बोधोदर्शनशानचारित्रतपःसंयमाश्ष्टव्याः । इह च नावप्रबोधनाऽधिकारः सच गाथापश्चान सुगमेन प्रदर्शितइति । अत्र च निबोधयोईव्यनावनेदाच्चत्वारो नंगायोजनीयाइति ॥ ४४ ॥१॥ नगवानेव सर्वसंसारिणां सोपक्रमत्वादनियतमायु रुपदर्शयन्नाह । (डहराबुड्डायेत्यादि ) डहराबालाएव केचन जीवितं त्यजति । तथा वृक्षाश्च गर्नस्थाअप्येतत्पश्यत यूयं के ते मानवामनुष्यास्तेषामेवोपदेशदानार्हत्वात् मानवग्रहणं । बदपायवादायुषः सर्वास्वऽप्यवस्थासु प्राणी प्राणांस्त्यजतीत्युक्तं नवति । तथाहि । त्रिपव्योपमायुष्कस्यापि पर्याप्यनंतरमंतर्मुहूर्तेनैव कस्यचिन्मृत्युरुपतिष्ठती ति ।अपिच गर्नस्थं जायमानमित्यादि । अत्रैव दृष्टांतमाह । यथा श्येनः पक्तिविशे षोवर्तकं तित्तिरजातीयं हरेत् व्यापादयेदेवं प्राणिनः प्राणान् मृत्युरुपहरेत् । उप क्रमकारणमायुष्कमुपक्रमेत् । तदनावे वा थायुष्यदये त्रुटयति व्यवविद्यते जी वानां जीवितमिति शेषः ॥२॥ Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०४ वितीये सूत्रकृतांगे प्रथमश्रुतस्कंधे वितीयाध्ययनं. मायादि पियाहिं लुप्प, नो सुलहा सुगई य पेच्च ॥ एयाई नयाई पेदिया, आरंना विरमेज सुब्बए॥३॥ जमिणं जगती पुढो जगा, कम्महिं लुप्पंति पाणिणो॥ सयमेव कडेहिं गाद, पो तस्स मुच्चेज पुध्यं ॥४॥ अर्थ-कोइएक जीव बापडो मायाहिं पियाहिं के मातापितादिक स्वजने चुप्प के० संसारमांहे नमाडयो थको एटले तेने मोहे बांध्यो थको, धर्मने विषे उद्यम करे नहीं ते जीवने पेच के० परजवने विषे सुगईय के सद्गति जे मुक्ति ते नोसुलहा के सुलन नथी. केमके मोहरूप क्लेश तथा विषयसुख थकी मुर्गति थाय एवं जा णी एयाईनया के ए मोहादिक नयने पेहिया के० देखीने जे आरंजाविरमेज के आरंन थकी विरमे, निवृत्ते ते सुब्बएके छ सुव्रत थाय. एटले शोननिकव्रत वंत थाय. ॥३॥ हवे जे कोई वारंनादिक थकी निवृत्ते नहीं तेने दोष कहेडे, जमिणं के जे कारणे अवति जीवने आगल जे कशे ते उत्पन्न थाय. ते गुं उत्पन्न थाय ? तो के जगती के जगतमांहे पुढोजगा के पृथक् पृथक् जुदां जुदा जीवनां स्थानक जे नरकादिक बे, ते स्थानकोमांहे कम्मे हिं लुप्पंति पाणिणो के० प्राणी पोतानां नपार्जेलां कर्मोनां जे दुःख तेणेकरी पीडाय. ते प्राणी सयमेवकडेहिं के स्वमेव एटले पोते कीधा जे कर्म तेणे करी गाह के अवगाहे एटले नरकादिक स्थानक उखना हेतु नपचय करे. गोतस्समुच्चेज के ते अशुनविपाक थकी न मूकाय ; अपुज्यं के अणफरश्यो एटले ते बांधेलां कर्म नोगव्या विना बूटे नहीं. ॥ ४ ॥ ॥ दीपिका-मायेति । योमातापितृमोहेन धर्मोद्यमं न कुरुते सतैरेव मातापित्रादि निर्बुप्यते संसारेन्राम्यते । तस्य प्रेत्य जन्मांतरे सुगतिश्च नो सुलना । एतानि उर्गतिग मनादीनि नयानि (पेहिया) प्रेक्ष्यारंनादिरमेत् सुव्रतः शोजनव्रतः। सुस्थितोवा पाठांतरे ॥ ३ ॥(जमिणमिति ) यद्यस्मादनिवृत्तानामिदं स्यात् । जगति पृथिव्यां (पुढो जगत्ति) पृथग्जूताव्यवस्थिताः सावद्याचारोपचितैः कर्मनिः प्राणिनोलुप्यते नरकादिषु चाम्यते । स्वयमेव कृतैः कर्मनिर्नरकादिस्थानान्यनिगाहते । नच तस्याऽगुनाचरितस्य कर्मणो विपा केनाऽस्टष्टोमुच्यते जंतुः ॥ ४ ॥ ॥ टीका-तथा (मायाहीत्यादि) कश्चिन्मातापितॄन्यां मोहेन स्वजनस्नेहेन च न धर्म प्रत्युद्यमं विधत्ते सचतैरेव मातापित्रादिनिर्तृप्यते संसारे ब्राम्यते । तथाहि । वि हितमलोहमहोमह,न्मातापितृपुत्रदारबंधुसंझं । स्नेहमयमसुमतामतः किंबंधनं शृंखलं Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राय धनपतसिंघ बहाडुरका जैनागमसंग्रह नाग दुसरा. १०५ खजे धात्रा ॥ १ ॥ तस्य च स्नेहाकुलितमानसस्य सदसद्विवेक विकल्पस्य स्वजनपोष पार्थ यत्किंचनकारिणइहैव सन्निर्निदितस्य सुगतिरपि प्रेत्य जन्मांतरे नोसुलनाऽपि तु मातापितृव्यामोहितमनसस्तदर्थं क्विश्यतो विषयसुखेप्सातश्च दुर्गतिरेव नवतीत्युक्तं जवति । तदेवमेतानि नयानि जयकारणानि दुर्गतिगमनादीनि ( पेहियत्ति ) प्रेक्षा रंना त्सावद्याऽनुष्ठानरूपादिरमेत् । सुव्रतः शोभनत्रतः सन् सुस्थितोवेति पाठान्तरं ॥ ३ ॥ निवृत्तस्य दोषमाह । ( जमिलमित्यादि) यद्यस्मादनिवृतानामिदं नवति । किं तत् ज तिथिव्यां (पुढोत्त) पृथक्नूताव्यवस्थिताः सावद्यानुष्ठानोपचितैः कर्मनिर्विलुप्यं ते नरकादिषु यातनास्थानेषु जायते । स्वयमेव च कृतैः कर्मनिर्देश्वराद्यापादितेर्गाह ते नरकादिस्थानानि यानि तानि वा कर्माणि दुःखहेतूनि गाहते उपचिनोति । अनेन च हेतु सद्भावः कर्मणामुपदर्शितोनवति । नच तस्याऽगुनाऽचरितस्य कर्मणो विपाकेना Saggist मुच्यते जंतुः । कर्मणामुदयमननुनूय तपोविशेषमंतरेण दीक्षाप्रवेशादिना न तदपगमं विधत्तइतिभावः ॥ ४ ॥ देवा गंधवर कसा, असरा भूमिचरा सिरिसिवा ॥ राया नरसेठिमाह णा, ठाणा ते विचयंति डुकिया ॥५॥ कामेदिय संथवेदिय गिवा, कम्म सदा कालेा जंतवो॥ताले जह बंधणच्चुए, एवं व्यानरकयंमि तु ती ॥६॥ ० 0 अर्थ- हवे सर्व स्थाननुं यनित्यपणुं देखाडेले. देवा के देवता ते ज्योतिषि सौध मादिक तथा गंवर कसा के० गांधर्व राक्षस एटजे व्यंतरदेवो कह्या, तथा असुरा के० दश प्रकारना नुवनपति तथा चूमिचरा के० भूमिचरादिक ते मनुष्यादिक जाणवा. सिरिसिवा के सरीसृप एटले सर्पादिक तिर्यच जाणवा; तथा राया के० राजा चक्रवदिक ने नर के० सामान्य मनुष्य, सेठिके० श्रेष्ठि ते नगरमांहे मोहोटा, मा हा के० ० ब्राह्मण, गणा तेविचयंति इरिकया के० एटला सर्व पोतपोतानां स्थानकने पोते डुखिया था थका बांबे एटले सर्व प्राणीमात्रने अंतकाले दुःख नपजेबे इत्यर्थः ॥ ५ ॥ वली तेहिज नाव कहेतेः कामेहिंयके० कामते विषयादिक जोग यने संघवेदिय के० संस्तवते मातापितादिक तथा स्वसुर वर्गादिक तेनो परिचय, तेणेकर गिडाके या सक्त तो कम्मसहाकालेा के० काले कर्मविपाके एटले जोगववाने प्रस्तावे जंतवो के० जीव कर्मनो सहन करनार थाय, एटले विषयासक्त मनुष्यने यागमिक काले दुःखज थाय, परंतु ते जीवने काम, जोग तथा स्वजन एसर्व दुःख थकी राख नार नथी. जह के० जेम ताले के० तालवृनुं फल ते बंधणचुए के० बीट यकी १४ For Private Personal Use Only ס Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०६ वितीये सूत्रकृतांगे प्रथमश्रुतस्कंधे वितीयाध्ययनं. बूटे तेवारे अवश्य पडे, एवं के एम आनरकयंमि तुट्टती के जीव, जे जे ते थायुष्य ना दय थकी जेवारे विनाश पामे तेवारे तेने कोइ जीवाडी शके नहीं. ॥ ६ ॥ ॥ दीपिका-देवेति । देवाज्योतिष्कसौधर्माद्याः गंधर्वराक्सयोरुपलक्षणार्थत्वादष्टप्रका राज्यंतराः। असुरा दशधा नवनपतयः।येचान्ये नूमिचराः. सरीसृपास्तिर्यचः। राजानश्च क्रिहरिप्रमुखाः । नराः सामान्यमनुष्याः । श्रेष्ठिनः पुरमहत्तरा ब्राह्मणाश्च । एते सर्वेपि स्वस्थानानि मुखिताः संतस्त्यजते । सर्वेषां मरणं दुःखदायीति ॥५॥ (कामे हिंति ) का मैरिबामदनरूपैः संस्तवैः पूर्वापरततैगवाआसक्ताः कर्मविपाकस हिमवः कालेन जंतवः स्युः । नोगेहोर्विषयासेवने क्वेशएवेत्यर्थः । कामनोगैर्न त्राणमस्तीत्याह (तालेत्ति) ताल फलं यथा बंधनात् वृंतात् च्युतमत्राणं पतति एवं जंतुरपि स्वायुःक्ये त्रुटयति च्यवते ॥६॥ ॥ टीका-अधुना सर्वस्थानाऽनित्यतां दर्शयितुमाह ( देवाइत्यादि ) देवाज्योतिष्क सोधर्माद्याः, गंधर्वरादसयोरुपलदणत्वादष्टप्रकाराव्यंतरागृह्यते । तथा असुरादशप कारानवनपतयः, ये चाऽन्ये नमिचराः सरीसृपाद्यास्तिर्यंचः, तथा राजानश्चक्रवर्तिनोबलदे ववासुदेवप्रजुतयः । तथा नराः सामान्यमनुष्याः । श्रेष्ठिनः पुरमहत्तराब्राह्मणाश्चैते सर्वे ऽपि स्वकीयानि स्थानानि दुःखिताः संतस्त्यजति । यतः सर्वेषामपि प्राणिनां प्राणपरि त्यागे महदुःख समुत्पद्यतइति ॥ ५ ॥ किंच (कामेहिंत्यादि ) कामैरिबामदनरूपैस्तथा संस्तवैः पूर्वापरजूतेक्षा अध्युपपन्नाः संतः (कम्मसहित्ति) कर्मविपाकसहिमवः का लेन कर्मविपाककालेन जंतवः प्राणिनोनवंति । इदमुक्तं नवति । नोगेप्सोर्विषयाऽसेवनेन तउपशम मिलतइहामुत्र केशएव केवलं न पुनरुपशमावाप्तिः । तथाहि । उपनोगोपाय परो, वांति यः शमयितुं विषयतृमां । धावत्याऽक्रमितुमसौ पुरो पराएहे निजबायाँ। नच तस्य मुमूर्षोः कामैः संस्तवैश्च त्राणमस्तीति दर्शयति । यथातालफलं बंधनात् तात् च्युतमत्राणमवश्यं पतति एवमसावपि स्वायुषःदये त्रुट्यति जीवितात् च्यवतइति ॥६॥ जे यावि बहुस्सुए सिया, धम्मिय माहणनिरकुएसिया ॥अनिणूमकडे हिं मुहिए, तिवं से कम्महिं किच्चती॥७॥ अद पास विवेगमुहिए, अवि तिने इह नासई धुवं ॥णादिसि आरं कन परं वेदासे कम्महिं किन्चती॥॥ अर्थ-जेयाविबहुस्सुए के जे को बहुश्रुत एटले शास्त्रना पारंगामी सियाकेण्होय, तथा धम्मियके धार्मिक एटले धर्मना करनार होय तथा माहणनिरकुएके ब्राह्मण अने निहुक एटले निदा घटनशील एवा लिया के होय; तेपण अजिणूमके० माया Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 0 ० राय धनपतसिंघ बादाडुरका जैनागमसंग्रह नाग इसरा. २०७ येकरी कडेहिं के० कीधां एवां जे कर्म तेने विषे मुलिए के मूर्तित बतां विंसे के‍ ती एटले खाकरा एवा कम्मेहिं के० कर्म तेोकरी किञ्चती के० पीडाय; एटले सारो थवा नरसो कोई पण जीव करेलां कर्मने जोगव्याविना छूटे नहीं ॥ ७ ॥ हवे ज्ञान, दर्शन ने चारित्रविना अन्य कोई मोक्षमार्ग नथी एवं देखाडेले. यहपास के० एवं देखीने शिष्य प्रत्ये गुरु एम कहेले के, कोइएक दर्शनी विवेक के परिग्रहनो परित्या कहते के नयो प्रर्थात् प्रव्रज्याने विषे सावधान थयो; परंतु यवितिने के सम्यक् परिज्ञानने नावे तिन्न एटले संसारसमुइ थकी तस्यो नहीं, एवो बतो वली इहास के० एम नापे के धुवं के० जे मोनो मार्ग अथवा मोनो उपाय ते य माराज याचार की एम कहे. माटे हे शिष्य ? तेना मार्गे प्रपन्न बतो तुं पाहिसिके० क्या थकी जालीश ? खारं के० इहलोक ने वली कर्जके० क्यां थकी परं के० परलो कने जाणी अथवा खारं एटले गृहस्थावास खाने परं एटले प्रव्रज्या अथवा श्रारं एट संसार पर एटले मोह तेने केम जाणीश एटले इहलोक परलोक बन्ने थकीट एवो थको वेहासे के अंतराले एटले संसारमांहेज कम्मेहिं किच्च के० पोताना करेला जे कर्म तेणेकरी पीडातो जश्श. ॥ ८ ॥ ॥ दीपिका - (जेयावित्ति) येचापि बहुश्रुताः स्युर्येधार्मिकास्तथा ब्राह्मणास्तथा निक्कुकाः मुख्येन (मंति) कर्म माया वा तत्कृतैरसदनुष्ठानैर्मूर्जितास्तीव्रमत्यर्थ । सेति त्वादुवचनं ज्ञेयं । ते कर्मनिः कृत्यं ते पीड्यते ॥ ७ ॥ ज्ञानादिसाध्यएव मोहोन तीर्थोक्त्याह । (हेति) यथाऽनंतरं त्वं पश्य विवेकं त्यागं परिग्रहस्य ज्ञानं वा संसा रस्याश्रित्य उचितः स्वक्रियोयुक्तः सम्यक्ज्ञानानावाद वित्तीर्णः संसाराब्धिमतीर्णः केव लं ध्रुवं मोक्षं तदुपायं वा नापतएव नतु विधत्ते ज्ञानानावादित्यर्थः । तन्मार्गप्रपन्न स्त्वमपि कथमारं हनवं परं वा परनवं ज्ञास्यसि । एवं नूतश्वो नयचष्टो ( वेदासित्ति ) अंतराने कर्मनिः कृत्यते पीड्यते ॥ ८ ॥ ॥ टीका - पिच (जेयावीत्यादि ) येचाऽपि बहुश्रुताः शास्त्रार्थपारगाः । तथा धार्मि काधर्माचरणशीलाः । तथा ब्राह्मणाः । तथा निकुका निहाटनशीलाः स्युर्नवेयुः । तेऽप्यानि मुख्येन ( णूमंति) कर्म माया वा तत्कृतैर सदनुष्ठाने मूर्बितागृ जास्तीव्रमत्य ये । अत्र च बांदसत्वाद्वहुवचनं इष्टव्यं । एवंभूताः कर्मभिरसदेद्यादिनिः कृत्यंते बियं पडतइतियावत् ॥ ७ ॥ सांप्रतं ज्ञानदर्शनचारित्रमंतरेण नाऽपरोमोक्षमार्गोऽस्तीति त्रिकालविषयत्वात् सूत्रस्याऽगामितीर्थिकधर्मप्रतिषेधार्थमाह ( यहेत्यादि ) अथेत्य धिकारांतरे बव्हादेशे एकादेशइति । यथेत्यनंतरं एतच्च पश्य । कस्तीर्थिको विवेकं For Private Personal Use Only Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०८ द्वितीये सूत्रकृतांगे प्रथम श्रुतस्कंधे द्वितीयाध्ययनं. परित्यागं परिग्रहस्य परिज्ञानं वा संसारस्या SSश्रित्योऽतिः प्रव्रज्योवानेन । सच स म्यक् परिज्ञानानावाद वितीर्णः संसारसमुदं तितीर्षुः केवलमिह संसारे प्रस्तावे वा शाश्वतत्वात् ध्रुवमोहस्तं तदुपायं वा संयमं नापतएव न पुनर्विधत्ते तत्परिज्ञाना नावादितिनावः । तन्मार्गे प्रपन्नस्त्वमपि कथं ज्ञास्यसि । खारमिहनवं कुतोवा परं पर लोकं । यदि वा धारमिति गृहस्यत्वं परमिति प्रव्रज्यापर्यायं । अथवा प्रारमिति संसा रं परमिति मोक्षं एवंभूतश्चाऽन्योऽप्युनयचष्टः । ( वेहा सित्ति ) अंतराले ननयानावतः स्वतैः कर्मनिः त्यतै पीडयतइति ॥ ८ ॥ जइ विय पिग किसे चरे, जइविय चुंजिय मासमंतसो ॥ जे इह मायावि मिई, प्रागंतागायतसो ॥ ९ ॥ पुरिसो रम पावकम्मुणा, पलियंतं मायाणजीवियं ॥ सन्ना इद काममु चिया, मोदं जंति नरा प्रसंवुमा नरा ॥ १० ॥ - दवे शिष्य कहे के, हे भगवन् ? केटलाएक दर्शनी निपरिगृही तथा तपस्या करनार देखा, तो तेने मोह केम नहोय ? हवे गुरु कहेले के, जविय के० यद्य पि ते परतीर्थिक तापसादिक अथवा खाज्ञा थकी चष्टस्वयूथिक गिगणे के० नग्न सर्व बाह्य परिग्रह रहित, किसे के० कृश डर्बन कीधुंबे शरीर जेमने एवा बतां चरे के० पोतपोतानी प्रव्रज्या व्यादरीने विचरेबे. वली जइविय के० यद्यपि जुंजिय मासमं तसोके० मासमास खमण करी मासने यंते जमे तथापि जेइह के० जे या संसारने विषे मायावि के० मायासहित मिइ के० संयोगकरे. उपलक्षणथी कषायादिके कर युक्त होय ते प्रागंतागप्रयातसो के० प्रागमिक काले घनंता गर्नादिक दुःख पामे, ए तो संसार परिभ्रमण करे. ॥ ए ॥ दवे जे कारणे मिथ्यादृष्टिने उपदेशे घणो काय, पण मुक्ति नथी तेकारले निरते मार्गे रहेतुं ए नाव कहेने पुरिसो के० x हो पुरुषो ? तमे पावकम्मुला के० पापकर्म थकी उपरम के० निवर्त्तो. केमके पलियंत मयाणजीवियं के मनुष्यनुं जीवितव्य ते पव्योपमांतले, एटले संयमरहित जीवनुं जो घज श्रायुष्य होय तो त्रण पत्योपम होय धने संयमसहित तो एक पल्योपमनी अंदर जाणवुं एटले याठ वर्षे नणी एक पूर्वकोडी एटलुंज मनुष्यनुं खायुष्यड़े तेतो गयुंज जाणजे एवं जाणीने जेटलो काल जीविए तेटलो काल सम्यक् अनुष्ठाने कर सफल करिए वली जे नरा के० मनुष्य सन्नाइह के० लोग स्नेह पंकने विषे खुता अथवा काममुलिया के० कामजोगने विषे मूर्तित बता एबाजे मनुष्य असंतुमा नराके० ते A For Private Personal Use Only Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राय धनपतसिंघ बादाडुरका जैनागमसंग्रह नाग दुसरा. १० पुरुष संवतां मोहंजंति के मोहने विषे पोहोचे एटले हिताहित न जाणे ॥ १० ॥ ॥ दीपिका-जश्वीति । यद्यपि कश्चित्तापसादिर्ननः कृशश्च चरेत् । यद्यपि षष्ठाष्टमादिकु र्वन् यावदंतशोमास स्थित्वा चुके तथापि योमायावी उपलक्षणात्कषाययुक्तोमीयते सगर्भाय गर्भार्थमनंतशोऽनंतवारं यागंता यास्यति । अनंतकालं संसारे चमिष्यतीति नावः || || पुरीसोति । हे पुरुष त्वं पापकर्मणः सकाशात् उपरम निवर्तस्व । यतोम जानां जीवितं सुबहपि त्रिपल्योपमतिं संयमजीवितं वा पत्योपमस्यांतर्मध्ये पूर्वकोटि मितमित्यर्थः । अथवा परिसमंतादंतो यस्य तत् पर्यंतं सांत मित्यर्थः । ये पुनः कामेषु इहा मदनादिषु मूर्जिताः सन्नामन्नाइह संसारे ते मोहं यांति ते मोहनाय कर्म बत संवृताः संवररहितानराः ॥ १० ॥ ॥ टीका - ननु च तीर्थिकान्यपि केचन निष्परिग्रहास्तथा तपसा निष्टप्तदेहाश्व त कथं तेषां नो मोदावाप्तिरित्येतदाशंक्याह । ( जइ विइत्यादि ) यद्यपि तीर्थिकः क श्चित्तापसादिस्त्यक्त बाह्यगृहवासादिपरिग्रहत्वात् निष्किंचनतया नग्नस्त्वक्त्राणानावाच्च शश्चरेत् स्वकीयप्रव्रज्यानुष्ठानं कुर्यात् । यद्यपिच षष्ठाष्टमदशम द्वादशादितपोविशे षं विधत्ते यावदंतशो मासं स्थित्वा गुंक्ते तथापि प्रांतरकषायाऽपरित्यागान्न मुच्य ते इति दर्शयति । यस्तीर्थिकइह मायादिना मीयते उपलक्षणार्थत्वात् कषायैर्युक्तइत्येवं परते | सौ गर्नाय गर्भार्थमासमंतात् गंता यास्यत्यनंतशो निरवधिकं कालमि ति । एतडुक्तं नवति । अकिंचनोऽपि तपोनिष्टप्तदेहोऽपि कषायाऽपरित्यागान्नरकादिस्था नात् तिर्यगादिस्थानं गर्भाजनमनंतमपि कालमनिशर्मवत् संसारे पर्यटतीति ॥ ॥ य तो मियादृष्टयुपदिष्टतपसाऽपि न दुर्गतिमार्गनिरोधोऽतोमक्तएव मार्गे स्थेयमेत मुपदेशं दातुमाह । ( पुरिसोइत्यादि ) हे पुरुष येन पापेन कर्मणा सदनुष्ठानरूपेण त्वमुपलक्षितस्तत्राऽसकृत् प्रवृत्तत्वात् तस्माडुपरम निवर्त्तस्व । यतः पुरुषाणां जीवि तं सुबह पि त्रिपल्योपमांत संयमजीवितं वा पल्योपमस्यांतर्मध्ये वर्त्तते तदप्यूनां पूर्वकोटि मिति यावत् । अथवा परिसमंतात्तो ऽस्येतिपर्यंतं सांतमित्यर्थः । तचैवं तमेवाऽवगंतव्यं । तदेवं मनुष्याणां स्तोकं जीवितमवगम्य यावत्तन्नपर्येति ताव Sर्मानुष्ठानेन सफलं कर्त्तव्यं । ये पुनर्जोगस्नेहपंके यवसन्नामन्नाइह मनुष्यनवे संसारे वा कामेष्विवामनरूपेषु मूर्जिताय ध्युपपन्नास्ते नरा मोहं यांति हिताहितप्राप्तिप रिहारे मुह्यंति मोहनीयं वा कर्मोपचिन्वंतीति संभाव्यते । एतदसंवृतानां हिंसादि स्थानेच्या निवृत्तानामसंयतेंड्रियाणां चेति ॥ १० ॥ For Private Personal Use Only Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११० हितीये सूत्रकृतांगे प्रथमश्रुतस्कंधेवितीयाध्ययनं. जययं विहरादि जोगवं,अणुपाणा पंथा उरुत्तरा॥ अणुसासणंमेव प कमे, वीरेहिं समं पवेश्यं ॥११॥विरया वीरा समुध्यिा को हकायरि याइ पीसणापाणेण दणंति सबसो; पावानविरिया अनिनिबुमा ॥१॥ अर्य-हवे जो एमले तो गुं करवं ते कहेले. जययं के आयुष्य तुन जाणी अने विषयने क्वेशनुं कारण जाणी, गृहपाशबंध बेदीने चारित्रने विषे यत्न करतो विहराहि के० विचरे ते केहेवो तो विचरे ? तोके, जोगवं के० समिति अने गुप्तिसहित थको विचरे; केमके अणुपाणापंथाके सूक्ष्मजीव जे पंथ एटले मार्गने विषेले, ते पंथ र्यास मितिविना कुरुत्तराके स्तर एटले जतां दोहिलो, एरीते बीजी समिति पण फला ववी तो एम सदा सावधान पणे हिंमे.अणुसासणं के जेम श्रीवीतरागदेवे सूत्रम ध्ये शीखामण कही. एवके० तेम सूत्रने अनुसारे पक्कमे के चाले, एम वीरेहिं के श्रीवीर तीर्थकरे समंके० साचु पवेदियं के कडं. ॥ ११॥ ते श्रीवीर केवाजे, ते क हे. जे हिंसादिक पापथको विरियाके० विरत एटले निवर्त्या ते वीरा के वीरकर्मना बेदनारा तथा समुध्यिाके० सम्यक थाचारने विषे सावधान थया एवा बता कोह के क्रोध अने कायरियाश्के कातरी एटले माया तथा यादि शब्द थकी मान अने लोन पण जाणी लेवां तेना पीसणा के पीसनार एटले मर्दन करनार ते वीर सबसो के सर्वथापि पाणेराहणंति के प्राण हणे नहीं. पावा के पाप जे सावद्य अनुष्ठान ते थकी विरिया के विरत तथा अनिनिहुमा के क्रोधादिकना उपशमे करी शीतल थयावे एवा श्रीवीर जाणवा. ॥ १५ ॥ ॥ दीपिका-जययमिति । यतमानोयत्नंकुर्वन् विहर उद्युक्तविहारी नव योगवान संय मयोगवान् । अगवः सूक्ष्माः प्राणाः प्राणिनोयेषु ते अणुप्राणाः पंथानोऽनुपयोगैठरु तरार्गमाः । र्यादिसमितिषु उपयोगवतानाव्यमित्यर्थः। अनुशासनमेव सूत्रानुसारेणै व संयमे प्रक्रमेत् चरेत् । एवं वीरैरहनिः सम्यक् प्रवेदित कथितं ॥११॥ विरयाइति । हिंसादेर्विरताः समुचिताः सम्यगारंनत्यागेनोबिताःक्रोधकातरिकादिपोषणाः । क्रोधग्रह णान्मानोपि ग्राह्यः । कातरिका माया। मायाग्रहणाच लोनोगृहीतः। तेषां पीपणाविना शकाः एवं विधावीराः स्युः । तथा प्राणान् सर्वशोमनोवाकायैन नंति । पापात् सावद्यव्या पारात् विरताधनिनिर्वताः क्रोधाद्युपशमेन शांताः स्युः॥१२॥ ___॥ टीका-एवं च स्थिते यविधेयं तदर्शयितुमाह । (जययमित्यादि) स्वल्पं जीवित मवगम्य विषयांश्च क्लेशप्रायाऽनवबुख्य बित्वा गृहपाशबंधनं यतमानोयत्नं कुर्वन प्राणि Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राय धनपतसिंघ बानापुरका जैनागमसंग्रह नाग इसरा. १११ नामनुपरोधेन विहरयुक्तविहारी नव । एतदेव दर्शयति । योगवानिति ॥ संयमयोगवान गुप्तः समितिगुप्तश्त्यर्थः । किमित्येवं । यतोऽणवः सूक्ष्माः प्राणाः प्राणिनोयेषु ते । तथा चैवंनताः पंथानोऽनुपयुक्तैर्जीवानुपमर्दैन उस्तरार्गमाइत्यनेन र्यासतिरुपक्षिप्ता । अस्याश्चोऽपलक्षणार्थत्वात् अन्यास्वऽपि समितिषु सततोऽपयुक्तेन नवितव्यं । अपिच अनुशासनमेव यथागममेव सूत्राऽनुसारेण संयमं प्रक्रमेत् । एतच्च सवैरेव वीरैरह निः सम्यक् प्रवेदितं प्रकर्षेणाऽख्यातमिति ॥ ११ ॥ अथ कएते वीराइत्याह । (विर येत्यादि ) हिंसाऽनतादिपापेन्योये विरताः । विशेषेण कर्म प्रेरयंतीति वीराः । सम्यगारं जपरित्यागेनोबिताः समुबिताः ते एवंजूताश्च क्रोधकातरिकादिपीपणाः। तत्र क्रोधग्रहणा न्मानोगृहीतः । कातरीका माया तदग्रहणानानोगृहीतः । आदिग्रहणात् शेषमोहनीय परिग्रहः तत्पीपणास्तदपनेतारः तथा प्राणिनोजीवान सूक्ष्मतरनेदनिन्नान सर्वशोमनो वाकायकर्मनिननंति नव्यापदयंति । पापाच सर्वतः सावद्यानुष्ठानरूपारिताः निवृत्तास्त तश्चाऽनिनिवृत्ताःक्रोधाद्युपशमेनशांतीनूताः। यदि वाऽनिनिवृत्ताःमुक्ताश्व इष्टव्याइति॥१२ णविता अहमेव लप्पए, लप्पंति लोअसिं पाणिणो ॥ एवं स हिएहिं पासए, अणिसे पुछे अहियासए ॥ १३ ॥धुणिया कलियं चलेववं, किसए देहमणासणा इह ॥ अविहिंसा मेव पवए, अणुधम्मो मुणिणापवेदितो ॥१४॥ अर्थ-वली उपदेशांतर कहेले. ए नावनाये परिसह अने उपसर्ग सहन करवा ते कहे. ण के नथी अपि के निचे ता के तेप्रत्ये ए शीत, नाम, दुधातृषादिक परि सह तेणेकरी अहमेवलुप्पएके नथी पीडाता गुं? किंतु लुप्पंतिलोष सिंपाणिणोके लोकने विषे घणा तीर्यच तथा मनुष्यादि प्राणीजे, ते शीततापादिक कष्ट करीपी डायजे, परंतु तेने सम्यक् विवेकने अनावे निर्जरा कांड पण थती नथी: तेमाटे एवं के ए प्रकारे साहिएहिं के ज्ञान, दर्शन अने चारित्रे करी सहित बता जे शीततापादिक पूर्व कह्या तेने पासए के बालोचे तथा अणिहे के स्नेहरहित अथवा क्रोधा दिकरहित बतो सेपुछेके ते परिसहे पीडयो थको तेनी वेदना सम्यक प्रकारे अहियासे. ॥१३॥ वली तेहिज कहेले. धुलिया के न्दूरकरी कुलियं चलेववं के लेपसहित जीतने एटले युं कह्यु के, जेम गोबरथकी लीपेली जीत ते अनुक्रमें तेनो लेप गये थके उर्बल घाय. ए दृष्टांते करीमणासणाइहिंकेण्यनशनादिक तपे करीने किसएदेहके देहने कश करे तथा वलीयविहिंसा मेवपवएके एक अहिंसाज आदरे. अणुधम्मो मुणिणापवेदितो के०ए अहिंसादिलक्षण जे धर्मले,ते जीवने अनुकूल एटले हितकारी सर्वझे कह्यो ॥१४॥ Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११२ वितीयेसूत्रकृतांगे प्रथमश्रुतस्कंधे वितीयाध्ययनं. ॥ दीपिका-णवितेति । परीषदःपृष्टोपि तान अधिसहेत कमेत । पीडितएवं चिंतयेत नतावदहमेव परीपहोपसगै प्पे पीडये किंतु अन्येपि प्राणिनस्तियङनुष्याः पीडयंते लोके एवं सहितोझानादिनिः स्वहितधात्महितोवा पश्येत् निर्मलबुध्या विचारयेत् पूर्वोक्तं । अनीहः क्रोधादिनिरपीमितः संयमेपरीषहसहनेवा निगृहीतवीर्योवा सन् परिषदः स्टष्टोपि तान् अधिसहेत दमेत ॥ १३ ॥ धुणियाइति । धूत्वा विधूय कुडिझं कुह्य नितिमिवेत्यर्थः। लेपवत् सलेपं । यथा कुडयं गोमयादिलेपेन सोपं क्रमेण लेपोप गमतः कृशं स्यात् एवमशनादिनिर्देहं कर्शयेत् । देहशत्वाच्च कर्मकशत्वं स्यादितिना वः । तथा विविधाहिंसाविहिंसा न विहिंसा अविहिंसा तां प्रव्रजेत प्रकर्षेण व्रजेत। थ हिंसा प्रधानः स्यादित्यर्थः। अनुगतोमोदे प्रति अनुकूलोधर्मोऽनुधर्मोऽयं मुनिना सर्व झेन प्रवेदितः कथितः ॥ १४ ॥ ॥ टीका-पुनरप्युपदेशांतरमाह । (ण विताइत्यादि परीषदोपसर्गाएतनावनापरेण सोढव्याः नाहमेवैकस्तावदिह शीतोमादिःख विशेष प्ये पीडये । अपित्वऽन्येऽपि प्राणि नस्तथाविधा स्तियङ्मनुष्याबस्मिनोके लुप्यते अतिःसहै रवैः परिताप्यते तेषां च सम्यग्विवेकानावान्ननिर्जराख्यफलमस्ति । यतः । दांतं न मया गृहोचितसुखं त्यक्तं न संतोषतः सोढा फुःसहतापशीतपवनक्वेशान तप्तं तपः ॥ ध्यातं चित्तमहर्निशं नियमि तं इंदैन तत्वं परं तत्तत्कर्मकतं सुखार्थिनिरहो तैस्तैः फलैर्वचिताः॥१॥ तदेवं क्वेशादिस हनं सदिवे किनां संयमान्युपगमे सति गुणाय नवति । तथाहि । कार्य इत्प्रनवं कदन्न मशनं शीतोमयोः पात्रता पारुष्यं च शिरोरुहेषु शयनं मह्यास्तले केवले । एतान्येव गृ हे वहंत्यवनति तान्युन्नतिं संयमे दोषाश्चापि गुणानवंति हि नृणां योग्ये पदे योजि ताः । । एवं सहितो ज्ञानादिनिः स्व हितोवा आत्महितः सन् पश्येत् कुशाग्रीयया बुध्या पर्यालोचयेदनंतरोदितं । तथा निहन्यतइति निहः न निहोऽनिहः क्रोधादिनि रपीमितः सन समहासत्वः परीषदः स्टष्टोऽपि तानाधिसहेत मनःपीमां न विदध्यादिति । यदिवाऽनिहाति तपः संयमपरीषहने वा निगहितबलवीर्यः । शेषपूर्ववदिति ॥ १३ ॥ अपिच (धुणियाइत्यादि)। धूत्वा विधूय (कुलियंति) कमणकृतं कुडधं । लेपवत्सलेपं । अयमत्रार्थः। यथाकुडधं गोमयादिलेपेन सलेपं जाघट्यमानं पापगमात् कशं नवति एवं अनशनादिनिर्देहं कर्शयेत् अपचितमांसशोणितं विदध्यात् । तदपचयाच कर्मणोऽ पचयोनवतीति नावः । तथा विविधा हिंसा विहिंसा न विहिंसा अविहिंसा तामेव प्रकर्षे ण व्रजेत् अहिंसाप्रधानोनवेदित्यर्थः । अनुगतोमोदं प्रत्यनुकूलो धर्मोऽनुधर्मः असावहिं सालदणः परीषदोपसर्गसहनलकणश्च धर्मोमुनिना सर्वझेन प्रवेदितःकथितइति ॥१॥ Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राय धनपतसिंघ बाहारका जैनागमसंग्रह जाग दुसरा. ११३ सनी जद पंसुगंडिया, विदुषिय धंसयई सियं रयं ॥ एवं विश्वहारावं, कम्मं खवइ तवस्सिमाहणे ॥ १५ ॥ द्वियमणगारमसणं, समणं ठाण विच्यं तव सिणं ॥ महर बुड्ढाय पचए, यवि सुस्से एय तं लनेणो ॥ १६ अर्थ- दवे करेले के जह के० जेम सनी के० पहिली ते पंसुगुडिया के रजे करी खरी यि के अंग धुणावीने धंसयईसियंरयं के० ते बधी रज खंखेरीने दूर करे. एवं के० एरीते दविज के मोछे जवाने योग्य नव्यजीव ते वहाणवं के० उप धान वंत तो उपधान एटले तपविशेष तेनो करनार एवो तवस्तिमाहले के० तपस्वी माह महलो एवोजेनो उपदेश बेतेने प्राकृत शैली माटे माहण कहिए; एटले तपस्वी ब्रह्मचर्य पालनार ते कम्मखवइ के० कर्म खपावीने पोता थकी वेगलाकरे. ॥१५॥ नुकूल उपसर्ग कहे. अणगारं के० साधु ते संयमने विषे उद्वियं के प्रव तथा एसके० एषणानो पालनार तथा समके० श्रमण खने तवस्सिणं के० तपस्वी विके स्थान स्थित उत्तरोत्तर संयमने स्थानके प्रवत्य ते तवस्सिांके० तपस्वी एवा साधु कदाचित् महरा के० बालक पुत्र पौत्रादिक तथा बुडाके० पिता माता दिक तेणे एके० प्रार्थ्यो एटले प्रार्थना करी कहेके, सुं तमे प्रमारुं प्रतिपालन कर वानुं टालोबो. मारुं पालण पोषण करनार तमारा विना बीजो कोई नयी. इत्यादिक व न कतां ते वि० अपि सुस्से के० श्रम पामे; परंतु तंजणा के० ते जन जे स्व जनादिकते परमार्थना जाए एवा साधुने यलनेत्के पोताने वश करी शके नहीं ॥ १६ ॥ ॥ दीपिका- सीति । शकुनिः पक्षिणी यथा पांसुना रेणुना गुंविता व्याप्ता सती खं विधूय कंपयित्वा सितं बद्धं रजोध्वंसयत्यपनयति एवं इव्योमव्योमुक्तिगमनयोग्य उपधानवान् तपोयुक्तः कृपयति तपस्वी । मावधीरिति प्रवृत्तिर्यस्य सप्राकृतशेव्यामाहणः ॥१५॥ ( उहियेति ) डहराबालाः पुत्रादयोवृद्धाः पित्रादयः श्रमणं प्रार्थयेयुः । वयं त्वया पाव्यास्त्वं चास्माकं पाञ्यइति । किनूतं श्रमणं खनगारं गृहरहितं एषणां प्रति उतिमुद्य मवतं स्थानस्थितं संयमस्थानस्थं तपस्विनं एवं नतस्ते जनापि शुष्येयुः श्रमं ग वेयुः न च तं साधुं जनेरन् नैवात्मवशं कुर्युरित्यर्थः ॥ १६ ॥ ॥ टीका - किंच (सीत्यादि ) शकुनिका पक्षिणी यथा पांसुना रजसा ऽवगुंठितासती विधूय कंपयित्वा तज्जः सितमवबसत् ध्वंसयत्यपनयति । एवं इव्योमव्यो मुक्तिगमन योग्यो मोकं प्रत्युपसामीप्येन दधातीति उपधानमनशनादिकं तपः तदस्याऽस्ती त्युपधानवान् सचैवंभूतः कर्मज्ञानावरणादिकं कृपयत्यपनयति । तपस्वी साधुः ( माह 212 For Private Personal Use Only Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११४ द्वितीये सूत्रकृतांगे प्रथम श्रुतस्कंधे द्वितीयाध्ययनं. यत्ति ) मावधीरिति प्रवृत्तिर्यस्य सप्राकृतशैल्या माहणेत्युच्यतइति ॥ १५ ॥ अनुकूल सर्गमाह । ( उहियेत्यादि ) यगारं गृहं तदस्य नास्तीत्यनागारस्तमेवं नूतं संयमोहाने नैणां प्रत्युतिं प्रवृत्तं । श्राम्यतीतिश्रमणस्तं । तथास्थानस्थितमुतरोत्तर विशिष्टसंयम स्थानाच्या सिनं तपस्विनं विशिष्टतपोनिष्टतदेहं तमेवंनूतमपि कदाचित् महरा पुत्रनना दयोवृद्धाः पितृमातुजादयः चन्निष्क्रामयितुं प्रार्थयेयुर्याचेरंस्तएवमूचुर्भवता वयंप्रतिपाल्या न त्वामंतरेणाऽस्माकं एकः प्रतिपाल्यएवं जयंतस्ते जनापि शुष्येयुः श्रमं गच्छेयुर्न चतं साधुं विदितपरमार्थं तनेरन् नैवाऽऽत्मसात्कुर्युर्नैवाऽऽत्मवशगं विदध्युरिति ॥ १६ ॥ जर कालुलियाणि कासिया, जइ रोयंति य पुत्तकारणे ॥ दवि यं निरकुसमुद्दियं पोलनंति | संवित्त ॥ १७ ॥ जइ विय कामेहिं लाविया, जां जादिण बंधिन घरं ॥ जइ जीवितना वकंखए, तो लग्नंति एवं संवित्त ॥ १८ ॥ 0 D अर्थ - इ० यद्यपि ते माता पिता पुत्र कलत्रादिक जेबे ते साधुने सन्मुख खावीने कालुलियालिकासिया के अनेक करुणा प्रताप वचन बोले. तथा जइके० यदि रोयं तियपुत्तकारणे के० पुत्रने निमित्ते रुदन करे तोपण ते दवियंके० मुक्ति गमन योग्य निरकुके० साधु रागद्वेपरहित एवो समुहियंके० सम्यक् प्रकारे संयमने विषे उठयो बे, सावधान थयोबे, एवा साधुने गोलप्रतिके दोनावी न शके. संत वित्तएके ० प्रव्रज्या मूवी गृहस्थावासने विषे स्थापि नाशके ॥ १७ ॥ जइ वियकामे हिंजावियाके० यद्यपि ते पोताना सऊन ते संयम पालता साधुने कामनोगे करी लोनावे ए अनुकूल उपस र्ग ने जांजाहिबंधिघरं के० अथवा जो तेने बांधीने घेर लेई जाय ए प्रतिकूल उपसर्ग बे. तो एवा अनुकूल घने प्रतिकूल उपसर्गे पीड्यो थको पण साधु जई के० यदि जीवितनावकख के० प्रसंयमे जीवितव्य न वांबे एटले मरण कबुल करे. पण यसंयमे जीवितव्य न वांबे तो तेने पोलनंति संतवित्तए के० तेना स्वजन ते पोताने वशकरी नशके अर्थात् गृहवासने विषे स्थापी नशके ॥ १८ ॥ ॥ दीपिका - जईति । यद्यपि ते मातापित्रादयः कारुणिकानि विलापवचनानि कुर्युः । तथा यदि रुदंति पुत्रकारणात् सुतनिमित्तं । एवं रुदंतोय दिनांति निरकुं । किंनूतं इव्यं मुक्ति योग्यत्वात् इव्यनूतं संयमे समुतिमुद्यतं तथापि तं साधुन लप्स्यते न शक्नुवंति संयमा चालयितुं तथा न गृहस्थत्वे संस्थापयितुं ॥ १७ ॥ ( जईति ) यद्यपि ते पित्रादयस्तं साधु कामैरिवामदनैवति उपनिमंत्रयेयुः । तथा यदि वाक्यालंकारे बध्वा गृहं नयंति For Private Personal Use Only Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राय धनपतसिंघ बाहाउरका जैनागमसंग्रह नाग उसरा. ११५ एवमनुकूलप्रतिकूलोपसर्गपीडितोपि साधुर्यदि जीवित नानिकांक्षयेत यदि जीवितं न वांछेत् असंयमजीवितं वा नाकादेत् । तदा ते निजास्तं साधुं न लनंते न प्राप्नुवंति स्वव शेकर्तु (नसंतवित्तएत्ति) नापि गृहस्थत्वे संस्थापयितुमलं ॥ १७ ॥ ॥ टीका-किंच (जईत्यादि) यद्यपि ते मातापितृपुत्रकलत्रादयस्तदंतिके समेत्य करुणा प्रधानानि विलापप्रायाणि वचांस्यऽनुष्ठानानि वा कुर्युः। तथाहि । णाहपियकंतसामिय, अश्वनहउनहोसि नवर्णमि ॥ तुहविरहम्मियनिक्किवसुमसत्वंपिपडिहाइ ॥१॥ सेणीगा मोगोठी,गणोवतंज बहोसिसणिहिंतो ॥ दिप्पइसिरिएसुपुरिसकिंपुणनिययंघरदारं ॥ २॥ तथा यदि (रोयंतियत्ति) रुदंति पुत्रकारणं सुतनिमित्तं कुलवर्धनमेकं सुतमुत्पाद्य पुनरेवं क र्तुमर्हसीति । एवं रुदंतोयदि नणंति तं निहुँ रागवेषरहितत्वान्मुक्तियोग्यत्वाचा व्यनूतं सम्यक्संयमोत्थानेनोस्थितं तथाऽपि साधुं न लप्स्यते न शक्नुवंति प्रव्रज्यातोत्रंशयितुं नावाच्यावयितुं नाऽपि संस्थापयितुं गृहस्थनावेन व्यालिंगाच्यावयितुमिति ॥ १७ ॥ अपिच (जइविश्त्यादि ) यद्यपि ते निजास्तं साधु संयमोत्थानेनोत्थितं कामैरिनामदन रूपैया॑वयंति उपनिमंत्रयेयुरुपलोनयेयुरित्यर्थः । अनेनाऽनुकूलोऽपसर्गग्रहणं । तथा । यदि नयेयुर्बध्वा गहं। णमिति वाक्यालंकारे। एवमनुकूलप्रतिकूलोपस गैरनितोऽपि साधु यदि जीवितं नानिकांदेत् यदि जीवितानिलाषीन नवेत् असंयमजीवितं वा नाऽनिनंदेत् ततस्ते निजास्तं साधु ( णो लप्नंतित्ति ) न लनंते न प्राप्नुवंति आत्मसात्कर्नु (णसंठ वित्तएति । नाऽपि गृहस्थनावेन संस्थापयितुमनमिति ॥ १७ ॥ सेतिय णं ममाश्णो,माया पियाय सुयाय नारिया ॥ पोसादि ण पास तुमं, लोगपरं पि जदासि पोसणो॥५॥ अन्ने अ नहिं मुनिया, मोदं जंति परा असंवुमा ॥ विसमं विसमेदिं गादिया, ते पावहिं पुणो पगप्निया॥२०॥ अर्थ-ते माता पितादिक ते चारित्रियाने यहीं णं इति वाक्यालंकारे, सेहंतिके शो खवे ते स्वजन केवा जे? तोके, ममाणोके. अत्यंत स्नेहेकरी ते मायाके माता, पिया यके पिता, सुयायके० सुत एटले बोकरा अने नारियाके नार्या एवा सऊन गुंशी खवे तेकहेले. के अहो पुत्र? अमे ताहरे वियोगे अत्यंत मुखियाबैए, एवा अमने पास-के० देखीने तुमंके ० तुंथमारु पोसादणके पोषण कर;कारणके तुं अत्यंत सूक्ष्मदृष्टोवालोबो ते माटे तारा हृदयमां सारीपेठे विचारीने अमाउंपोषण कर,अन्यथातो लोगंके इहलोक तथा परंके० परलोक थकी पण जहाहिके ० नष्ट थईश. तेमाटे फुःखी एवा मावित्रनुं पोसो Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११६ द्वितीये सूत्रकृतांगे प्रथम श्रुतस्कंधे द्वितीयाध्ययनं. के० पोषण कर ते महापुष्यनुं काम ||१|| हवे कोइएक कायर पुरुष ते मातापि तादिकना वचनथी लोनाय तेने विपाक कहेबे खनेके खनेरा कोइएक अल्प सत्ववं एवा चारित्रियान्ने हिंके० अन्य जे मातापितादिक तेने विषे मुठिया के० मोहे मूका मोहंजंति रायसंवुमा के० संवरी एटले संवरविना मोह पामे, एटले रूडाअनुष्ठाननुं करवुं मूकी यापे ाने मोहनेविषे पोहोचे तथा ते संयतिनशेने विस o गृहस्थे विसमे हिंगाहिया के संयम तेने विषे पोहोचाड्या बता पुष्णो के० वली ते पावे हिं० पापेकरी पगनियाके० धृष्ट बतां पापकर्म करतां लगा पाये नहीं. ॥२०॥ ७ ० || दीपिका - ( सेहंतीति) ते मात्रा पित्रादयः सुतानार्या च । समिति व्याक्यालंकारे । तं साधुं (ममाइलोत्ति) ममायं साधुरिति स्नेहालवः शिक्यंति । किमित्याह । पश्य नोऽस्मा न् दुःखितान् त्वं तु दर्शकः सूक्ष्मदर्शी खतोऽस्मान् पोषय अन्यथा त्वया प्रव्रज्याग्रहणा दिह लोकस्त्यक्तः । अस्मत्परिपालनत्यागात्परलोकमपि त्वं जहासि त्यजसि ॥ १९ ॥ ( अन्नेति ) अन्ये केचनाऽल्पसत्वायन्यैर्मातापित्रादिनिर्मूर्जिताय संवृतानरामोहं यां तदनुष्ठाने मुह्यंति । तथा विषमैरसंयतैर्विषममसंयमं ग्राहिताय संयमे प्रवर्तितास्ते पापैः कर्मनिः पुनः प्रगल्निताघृष्टतां गताः ॥ २० ॥ ס टीका - च ( सेहतियण मित्यादि ) ते कदाचिन्मातापित्रादयस्तमनिनवप्रव्रजितं ( सेह तित्ति ) शिक्षर्यति । यमिति वाक्यालंकारे । ( ममाऽइणोति ) । ममाऽयमित्येवं स्नेहा लवः । कथं शियतीत्यतयाह । पश्य नोऽस्मानत्यंतडुःखितांस्त्वदर्थ पोषकानावाद्वा त्वं 'च यथावस्थितार्थ पश्यक. सूक्ष्मदर्शी सश्रुतिकइत्यर्थः । अतोनोऽस्मान् पोषय प्रतिजागर णं कुरु अन्यथा प्रव्रज्याऽन्युपगमेनेह लोकस्त्यक्तोनवताऽस्मत्प्रतिपालन परित्यागेन च प लोकमपि त्वं त्यजसीति दुःखितनिजप्रतिपालनेन च पुण्यावाप्तिरेवेति । तथाहि । या ग तिः क्लेशदग्धानां गृहेषु गृहमेधिनां । विचतां पुत्रदारांस्तु तां गतिं व्रज पुत्रकेति ॥ १९ ॥ एवं तैरुपसर्गिताः केचन कातराः कदाचित् यद्यत्कुर्युरित्याह । ( नेइत्यादि) अन्ये केच नाऽल्पसत्वाः अन्यैर्मातापित्रादिनिर्मूर्जिताश्रध्युपपन्नाः सम्यग्दर्शनादिव्यतिरेकेा सकल मपि शरीरादिकमन्यदित्यन्यग्रहणं । ते एवंन्ताः संवृतानराः संमोहं यांति सदनुष्ठा ने मुह्यंति तथा संसारगमनैक हेतुनूतत्वात् विषमोऽसंयमस्तं विषमैरसंयतैरुन्मार्ग प्रवृत्ति त्वेनाsपायानीरुनिः रागदेषैर्वा यनादिनवाच्यस्ततया डुबेद्यत्वेन विषमैग्रहिताय संयमं प्रति वर्तिताः । ते चैवंनूता. पापैः कर्मनिः पुनरपि प्रवृत्ताः प्रगल्निताः धृष्टतांग ताः पापकं कर्म कुर्वतोऽपि नलकंतइति ॥ २० ॥ I For Private Personal Use Only Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राय धनपतसिंघ बादाडुरका जैनागमसंग्रह नाग डुसरा. तम्दा दवि इक पंमिए, पावान विरतेऽनिषिधुमे ॥ पाए वीरे म दाविहिं, सिद्धिपदं च्प्रान्यं धुवं ॥ २२ ॥ वेयालियमग्गमागव वयसा काय संवु ॥ विच्द्या वित्तं च पायन आरंजं च सुसंव मे चरेका सित्तिबेमि ॥२२॥ इति वैतालीयाध्ययनस्य प्रथमोद्देशकः अर्थ- जो तेने ए विपाक लागेतो शुं करवुं ? ते कहे. तम्हा के० ते कारणे दवि के० मुक्तिगमन योग्य नव्यजीव रागदेषरहित पंमिए के पंमित विवेकयुक्त बतो सं सारवास सेवतां महाशबे एवं जाणी. इरक के० तेना विपाकने चिंतवे एवो तो के० ते पावा के० पापकर्म की विरते के० निवर्ते यनिपितुमे के० क्रोधादिकने परिहारे करी शीतल थाय तथा पातके० महाविनयवंत ने वीरेकेण्कर्म विदारवाने सामथ्ये वान महाविहिं के० जे महांत एटले जैनमार्गे प्रवर्ते ते मार्ग केवो बे? तो के, सिद्धिप हं के० सिद्धिपंथ जे मोनो मार्ग तथा ग्रावयं के० न्यायमार्ग तथा धुवं के० शा श्वतो एवो मार्ग जालीने खादरवो ॥ २१ ॥ वली तेहज उपदेश उपसंहार करतो क हे. वेयालय के कर्मनो विदारनार एवो जे मग्गं के० मार्ग तेनेविषे या के० यागत एटले आव्यो तथा वली मणवयसाकाएण संबुमो के० मन, वचन खने का यायेक संवरनो पालनार विश्वाके बांमाने; गुं बामीने? तोके, वित्तं चाय के ० धन, ज्ञाती, स्वजन तथा आनं के० प्रारंन एटलां वाना बांडीने सुके० सुष्ठु एटले नल। परे इंडीने संबुके के० संवरतो बतो चरे के संयमने पाले तिबेमि के० एरीते पंच म गणधर श्रीसुधर्मास्वामी जंबुप्रत्ये कदेने के, जेम श्रीमहावीरदेव पासेथी सांनन्युं ते तुजने कहुंनुं ॥ २२ ॥ इति श्रीवैतानियाऽध्ययनस्य प्रथमोद्देशः समाप्तः ० ० ם || दीपिका - तम्हादिति । तस्मात् व्यनूतोमुक्तियोग्यः पंडितः सन् ईस्व विचारय । पापाद्विरतोऽनि निर्वृतः क्रोधादित्यागात् शांतीभूतः तथा वीराः कर्मविदारणसमर्थामहा वीथि महामार्ग प्रणताः प्राप्तानान्ये । महावीथिंकिंभूतां सिद्धिप्रदं ज्ञानादिमार्ग प्रति नेतारं प्रापकं ध्रुवमव्य निचारं इतिज्ञात्वा संयमप्रागल्भ्यैर्ननाव्यमिति ॥ २१ ॥ वैतानि एति । कर्मणां वैदारिकं विदारणसमर्थ मार्गमागतोमनोवाक्काय संवृतस्त्यक्ता वित्तं धनं ज्ञातीन् स्वजनान् सावद्यारंनं च सुसंवृत इंडियैः संयमे चरेदिति । ब्रवीमीति पूर्ववत् ॥ २२ ॥ इति वैतालीयाख्यद्वितीयाध्ययनस्य प्रथमोदशकः समाप्तः 11 ܕܐܐ ॥ टीका - यतएवं ततः किं कर्तव्यमित्याह । ( तम्हाइत्यादि ) यतोमातापित्रादिमू बिताः पापेषु कर्मसु प्रगल्नानवंति तस्माद्व्यन्तोन व्योमुक्तिगमनयोग्योरागद्वेष For Private Personal Use Only Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११७ तिीये सूत्रकृतांगे प्रथमश्रुतस्कंधे वितीयाध्ययनं. रहितोवा सन्नीदस्व तहिपाकं पर्यालोचय । पंडितः सक्ष्वेिकयुक्तः पापात् कर्मणोसद नुष्ठानरूपात विरतोनिवृत्तः कोधादिपरित्यागावांतीनूतश्त्यर्थः । तथा प्रणताः प्रव्हीनू तावीराः कर्मविदारणसमर्थामहावीथिं महामार्ग । तमेव विशिनष्टि । सिक्षिपथं झा नादिमोक्षमार्ग तथा मोदेप्रति नेतारं प्रापकं ध्रुवमव्यनिचारिणमित्येतदवगम्य सएव मार्गोऽनुष्ठेयोवा सदनुष्ठानप्रगल्नै व्यमिति ॥ २१ ॥ पुनरप्युपदेशदानपूर्वकमुपसंहर नाह । (वेयालियमग्गइत्यादि) कर्मणां विदारणमार्गमागतोनूत्वा तं तथानतं मनो वाक्कायसंवृतः पुनस्त्यक्ता परित्यक्ता वित्तं व्यं तथा झातींश्च स्वजनांश्च तथा साव वारंनं च सुष्टु संतृतदियः संयमानुष्ठानं चरेदिति । ब्रवीमीति पूर्ववत् ॥ २२ ॥ इति वैतालीयक्तिीयाध्ययनस्य प्रथमोद्देशकः समाप्तः ॥ अथ वेतालीयऽध्ययनस्य दितीयोदेशकप्रारंनः ॥ प्रथमनदेशामांबाह्य इव्य, स्वज न तथा आरंननो परित्याग कह्यो, हवे बीजे नद्देशे माननो परित्याग कहेले. तय संच जहा सेरयं, इति संखाय मुणीण मऊई।गोयन्नतरेण मादणे, अह सयकरी अनेसि इंखणी ॥१॥जे परनवई परंज एं, संसारे परिवत्तई महाअऽइंखणिया न पाविया,इति संखा य मुणं ण मजाई॥॥ अर्थ-तयसंच के० ते जहा के जेम सर्प पोतानी त्वचा जे कांचनी ते परिहरवा योग्य जाणीने बांझे, सेरयं के तेम ए साधुजे जे, ते रजनी पेरे अष्ट प्रकारनां कर्मने बांमे एतावता कषाय नकरे. केमके कषायने अनावे कर्म पोतानी मेले बंमाशे. इति संखायमुणी के० एवीरीते जाणीने चारित्रि णमई के मद एटले अहंकार करे नहीं; ते मदनुं कारण देखाडे. गोके० काश्यपादिक गोत्रेकरी अथवा यन्नतरेण के थनेरा कुतरूपादिक मद तेने पामीने उत्कर्ष मान नकरे एवो माहणे के साधु ते जेम पोता थकी मद नकरे तेम अने सिं के० अनेरानी पण अहसेयकरी के थश्रेयकारणी एवीजे शंखणी के० निंदा तेपण नकरे. ॥१॥ हवे परनिंदाना दोष कहे ने. जे के जे कोइ अविवेकी पुरुष परंजणं के अनेरा लोकने परनवई के परानव करे एटले अवहेलना करे ते पुरुष संसारेपरिवत्तईमहं के० संसारमांहे अत्यंत परिभ्रमण करे. थड के० अथ जे कारणे इंखणिया के० परनिंदाते पावया के एवी पापणी के जे स्वस्थानक थकी अधोस्थानके जीवने पाहे इतिसंखाय के० एवं जाए। ने एटले परनिंदाने दोषरूप जाणीने मुणी के मुनिश्वर जे , ते जाति कुल श्रुत त Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राय धनपतसिंघ बहाउरका जैनागमसंग्रह नाग उसरा. ११ए पादिकने विषे णमई के मद न करे, एटले ढुं उत्तम . ए अमुक महारा थकी घणो हीन डे एवो पोतानो उत्कर्ष नकरे. ॥ २ ॥ ॥ दीपिका-अथ वितीयारन्यते पूर्वोदेशके श्रीकृषनस्वामिना स्वपुत्राणामुपदेशः कथि तः इहापि सएवोच्यतइति तत्रेदं प्रथमसूत्रं (तयेत्ति)यथा सर्पः त्वचं स्वां जहाति एवम सौ साधुः रजःकर्म त्यजति एवं कषायानावे कर्मानावति संख्याय झात्वा मुनिन मा यति मदं न याति । गोत्रेण काश्यपादिना । अन्यतरग्रहणात् शेषमदग्रहणं । माहणेत्ति। साधुः । जेवित्तिपाते यो विमान जातिकुलादिनिन माद्यतीति तथा । अश्रेयस्करी इंखि शी निंदा साप्यन्येषां न कार्येति ॥१॥ (जोपरिनवत्ति) यः परिनवति अवझति परं जनं ससंसारे परिवर्तते चमति महदत्यर्थ । चिरं वा पाठः । अऽत्ति । अथशब्दोऽतश्त्यर्थे। अतः इंखिणिया परनिंदा । तुर्निश्चये । पापिकैव उष्टैव । इहलोके निंदायां सुघरोदृष्टांतः । यथा एकोवानरःक श्चि दे वर्षासु ऊंफावातैः पीड्यमानः सुगृहीकया पहिल्या नणितः। यथा। वानरगापुरिसोसी.निरउयंवह सिबादुदंडाई। जोपायवस्ससिहरे,नकरोसिकुडिंपडालिंवा ॥१॥ सचैवं पक्षिण्या नाषितोपि तूमीमास्ते तावत्पक्षिणी वानरं वारं वारं तहक्ति रुष्टेन वानरेण तं वृहमारुह्य तगृहं नग्नं सा दूरं नष्टा । वानरोवक्ति । यथा। नवसिमममहतरि यानवसिममंसोहियावनिहावा । सुघरेअनसुविघरा,जावासिलोगतत्तासु॥१॥ सुखमिदा नीं तिष्ठेति सुग्रहा ःखिनी जाता परलोकपुरोहितस्यापि श्वादियोनिषूत्पत्तिरिति इति सं ख्याय ज्ञात्वा मुनिर्न माद्यति मदं न कुर्यात् यतोमदादेव परनिंदा स्यादिति ॥ २ ॥ ॥ टीका-प्रथमानंतरं वितीयः समारन्यते । अस्य चाऽयमनिसंबंधः । इहानंतरोदेश के नगवता स्वपुत्राणां धर्मदेशनानिहिता । तदिहापि सैवाऽध्ययनार्थाधिकारत्वात् अनि धीयते । सूत्रस्य सूत्रेण सह संबंधोऽयं । अनंतरोक्तसूत्रे बाह्यश्व्यस्वजनारंनपरित्या गोऽनिहितस्तदिहाऽप्यांतरमानपरित्यागनदेशार्थाधिकारः सूचितोऽनिधीयते । तद नेन संबंधेनाऽयातस्याऽस्योदेशकस्यादिसूत्रं । ( तयसंचयश्त्यादि ) । यथाारगः खां व चं अवश्यं परित्यागार्हत्वात् जहाति परित्यजति । एवमसावपि साधुः रजश्व रजोऽष्ट प्रकारं कर्म तद् कषायित्वेन परित्यजतीति । एवं कषायानावो हि कर्मानावस्य कारणमि ति संख्याय झात्वा मुनिः कालत्रयवेदी न माद्यति मदं न याति । मदकारणं दर्शय ति । गोत्रेण काश्यपादिना । अन्यतरग्रहणात् शेषाणि मदस्थानानि गृह्यतइति (मा हात्ति) साधुः। पाठांतरं वा (जेवित्ति) विहान् विवेकी सजातिकुललानादिनिने मा यतीति । न केवलं स्वतोमदोन विधेयोजुगुप्साऽप्यन्येषां न विधेयेति दर्शयति । अ याऽनंतरं । असौ अश्रेयस्करी पापकारिणी (इंखिणित्ति ) निंदा अन्येषाऽमतोन कार्ये Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२० तीये सूत्रकृतांगे प्रथमश्रुतस्कंधे हितीयाध्ययनं. ति । मुणीनमऊश्त्यादिकस्य सूत्रावयवस्य सूत्रस्पर्शगाथा येन नियुक्तिकदाह । तवसंजमणासु, विजईमाणोवकिन महोसीहिं ॥ अत्रसमुक्क रिसबंकिंपुणहीला नअन्ने सिं ॥ २ ॥ जश्तावनिहारमः, पडिसिझोअरमाणमहणेहिं । अविसेसमयहाणा, परि हरयवापयत्तेण ॥ ३ ॥ (तवसंजमइत्यादि)। तपःसंयमानेष्वऽप्यात्मसमुत्कर्षणार्थ मुत्सेकार्थ यः प्रवृत्तोमानोयद्यसावपि तावविवर्जितस्त्यक्तोमहर्षि निर्महामुनिनिः किं पुनर्निदाऽन्येषां न त्याज्येति । यदि तावनिर्जरामदोपि मोदैकगमन हेतुः प्रतिषिको ऽष्टमानमथनैरह निरवशेषाणि तु मदस्थानानि जात्यादीनि प्रयत्नेन सुतरां परिहर्त्तव्या नीति गाथाक्ष्यार्थः ॥ ४५ ॥ ४६॥ १ ॥ साप्रतं परनिंदादोषमधिकृत्याह । ( जो रनवइत्यादि ) । यः कश्चिदविवेकी परिनवत्यवश्यति । परं जनं अन्यं लोकमात्म व्यतिरिक्तं । सतत्कृतेन कर्मणा संसारे चतुर्गतिलक्षणे नवोदधावरघट्टघटीन्यायेन परि वर्तते चमति महदत्यर्थ महांतं वा कालं ।कचिचिरमितिपातः (अत्ति) अथशब्दोनिपा तः । निपातानामनेकार्थत्वात् अतश्त्यस्याऽर्थे वर्तते । यतः परपरिनवादात्यतिकः संसारः अतः (इंखिणिया)परनिंदा। तुशब्दस्यैवकारार्थत्वात् पापिकैव दोषवत्येव । अथवा स्वस्था नादधमस्थाने पातिका । तत्रेह जन्मनि । सुघरोदृष्टांतः । परलोकेऽपि पुरोहितस्याऽपि श्वादिषुत्पत्तिरिति इत्येवं संख्याय परनिंदां दोषवती ज्ञात्वा मुनिर्जात्यादिनिर्यथाऽहं विशि टकुलोनवः श्रुतवान् तपस्वी नवांस्तु मत्तोहीनइति न माद्यति ॥ ५ ॥ जे यावि अणायगे सिया,जेविय पेसग पेसए सिया॥जे मोणप यं वहिए, पो लले समयं सयायरे ॥३॥ समअन्नयरम्मि सं जमे, संसद्धे समणे परिवए॥ जे आवकहा समाहिए, दविए कालमकासि पंमिए॥४॥ अर्थ-हवे मदने अनावे जेकांश कर्तव्य ते देखाडे. जेयाविकेजेको अणायगेके अनायक एटले नायक रहित किंतु स्वमेव नायक चक्रवादिक सियाके होय तथा जेवि यके जेको अनेरो पेसगके कर्म करनो पेसएके कर्मकर होय परंतु जे के जे मोणपयं के मौन पद एबुंजे चारित्र तेने विषे नवहिएके उपस्थित एटले सावधान थयो तेपण गोलके लगाने अण करतो थको एतावता अनिमान बांझीने सर्व क्रिया परस्पर वं दन प्रतिवंदनादिक करे. जो चक्रवर्ति चारित्र आदरे तो पण पूर्व दिक्षित पोताना कर्मकरना कर्म करने वांदे परंतु गर्व नकरें; सजा पामे नहीं. एरीते सयाके० सदाय समयं के समनावने आयरेके आदरे. संयमने विषे सावधान थाय ॥३॥ हवे क्या रह्यो थको लका तथा मद नकरे? ते देखाडे. समके सामायकादिक अन्नयरम्मिसंजमे Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राय धनपतसिंघ बाहारका जैनागमसंग्रह नाग दुसरा. १२१ 0 के० ने संयमने विषे एटले सामायक बेदोपस्थापनीयादिक संयमने विषे प्रवर्त्ततो थको संके० सम्यक्प्रकारे सुंदेके० शुद्ध समणेके० श्रमण जे तपस्वीते लका तथा मदने परित्यागे समचित्त थको परिवए के० प्रव्रज्या पाले. ते केटलो काल सुधी पाले ? ते क a. जेप्रावके ज्यांलगे तेनी कहाके० कथा रहे त्यांलगे पाले एटले जावजीव लगे म रण सीम समाहिएके० समाधिवंत अथवा श्रात्मज्ञानसहित अथवा रुडा अध्यवसा ये करी युक्त दविएके ते मुक्ति गमन योग्य अथवा रागद्वेषरहित एवो थको जे काल मकासिके काल करे ते पंमिएके पंमित कहेवाय ॥ ४ ॥ 0 ० 0 . ס' ॥ दीपिका- जेयावित्ति । यश्वापि नायकोनायकरहितः स्वयं प्रभुश्चक्रवर्त्यादिः स्यात् यश्चापि प्रेष्यस्यापि प्रेष्यः कर्मकरस्यापि कर्मकरः स्यात् एवंभूतः सन् मुनेरिदं मौनं पदं स्था नं मौनपदं संयममुपस्थितया श्रितोनोलगते । कोर्थः । चक्रवर्त्यपि प्रेष्यं साधुं वंदमानोन लते प्रेष्यपि प्रभुः साधुमितरं वा उत्कर्षरहितोनमन्न लगते । एवमनेन प्रकारेण सम तां चरेत् साधुः ॥ ३ ॥ (समेति) समोमध्यस्थः संयमस्थानानां षट्स्थानपतितत्वादन्यत रस्मिन् संयमस्थाने सामायिक वेदोपस्थापनीयादौ वा संयमे संशुद्धे निर्मले संगुको वा मदरहितः श्रमणः परिव्रजेत् उद्यमवान् भवेत् । कियंतं कालं यावत्कथा यावन्नाम धत्ते तावत् । किंनूतः साधुः समाहितः सुनध्यानः पंडितोयावत्कालमकार्षीत् मृत्युकालं याव दित्यर्थः । नामवार्ता मृतस्यापि भवेत् ततवक्तं यावत्कालमकार्षीदिति ॥ ४ ॥ ॥ टीका - मदानावे च यद्विधेयं तद्दर्शयितुमाह (जेयावीत्यादि) पश्चाऽपि कश्चिदास्तां तावत् । अन्योन विद्यते नायकोऽस्येत्यनायकः स्वयं प्रभुश्चक्रवत्र्त्यादिः स्यात् नवेत् यश्चा ऽपि प्रेष्यस्यापि प्रेष्यः तस्यैव राज्ञः कर्मकरस्यापि कर्मकरोयएवंनू तो मौनींं पद्यते गम्यते मोहोयेन तत्पदं संयमस्तं उपसामीप्येन स्थितः उपस्थितः समाश्रितः सोऽप्य लमानचत्कर्षमकुर्वन् वा सर्वाः क्रियाः परस्परतोवंदनप्रतिवंदनादिका विधत्ते । द मुक्तं नवति । चक्रवर्तिनाऽपिमौन पदमुपस्थितेन पूर्वमात्मप्रेष्यमपि वंदमानेन लका न विधेया इतरेण चोत्कर्षइत्येवं समतां समजावं सदा निकुश्चरेत् संयमाद्युक्तोनवेदिति ॥ ३ ॥ वपुनर्व्यवस्थितेन तकामदौ न विधेयाविति दर्शयितुमाह (समेइत्यादि) (समेत्ति) समजावोपेतः सामायिकादौ संयमे संयमस्थाने वा षट्स्थानपतितत्वात् संयमस्थाना नामन्यतरस्मिन् संयमस्थाने बेदोपस्थानीयादौ वा । तदेव विशिनष्टि । सम्यक् शुड़े स म्यक् शुद्धोवा श्रमणस्तपस्वी लतामदपरित्यागेन समानमनावा परिव्रजेत् संयमोद्युक्तोन वेत् स्यात् । कियंतं कालं यावत् कथा देवदत्तोयज्ञदत्तइति कथां यावत् । सम्यगाहितात्मा ज्ञानादौ येन ससमाहितः समाधिना वा शोननाध्यवसायेन युक्तो व्यनूतोरागद्वेषादिरहि १६ For Private Personal Use Only Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२२ तीये सूत्रकृतांगे प्रथमश्रुतस्कंधे वितीयाध्ययनं. तोमुक्तिगमनयोग्यतया वा नव्यः । सएवंनूतः कालमकार्षीत् पंडितः सविवेकास विवेक कलितः । एतमुक्तं नवति । देवदत्तइति कथा मृतस्याऽपि नवत्यतोयावन्मृत्युकालं ता वनजामदपरित्यागोपेतेन संयमानुष्ठाने प्रवर्तितव्यमिति स्यात् ॥४॥ दूरं अणुपस्सिया मुणी, तीतं धम्ममणागयं तदा॥पुढे परुसेदिं मादणे, अविहम समयंमि रीय॥ पागंतरे समयादिया सये ति॥५॥पम समत्ते सया जए,समताधम्ममदाहरे मणी॥स दमे न सया अलूसए, णो कुसे पो माणि माहणे ॥ ६ ॥ अर्थ-हवे शानुं अवलंबन करीने संयम पाले ते कहेजे. दूरंके जे कारणे दूर वर्ते माटे ते दूर शब्दे मोद कहिये; तेने अणुपस्सियाकेण्डालोचीने एटले सम्यधर्म विना मोदन थाय एवं विमाशीने ते मुणीके चारित्रि अतीतंधम्मं के अतीत धर्म एट ले पाबले काले जीवन अनेक प्रकारे उंच नीच गतिने विषे जे भ्रमण कयुं तेरूप धर्म तहा के० तथा अणागयं के अनागत एटले आगमिक काले जीवनी गतिरूपधर्मनुं स्वरूप जाणीने लका तथा मद करे नहीं. तथा परसे हिंके० कठण वचन अथवा दम कशादिक तेणे पुछे के फरश्यो थको माहणे के ब्रह्मचर्यनो पालनार चारित्रि ते थपि के० किंबहुना हम के सर्वथापि मास्यो थको पण रकंदकमुनिना शिष्यनी पेरे समयंमि के सिद्धांतना मार्गेज रीयति के चाले एटले तेना नपर कषाय नकरे अ थवा पातांतरे (समयाहियासएति) के समताये करी सहित थको विचरे ॥५॥ वली उपदेशांतर कहेले. परमसमत्ते के ते प्रज्ञाये करी पूर्ण तत्वनो जाण सया के सर्व काल कषायादिकने जए के जीपे. अथवा प्रश्न पूब्धा थकां प्रत्युत्तर देवाने स मर्थहोय. समता के समनावे धम्मं के अहिंसादि लक्षण जे धर्म ते उदाहरे के लोकप्रत्ये कहे एवो मुणी के चारित्रि सुहमेन के सूक्ष्म संयमने विषे सयाथ सूसए के सर्व काल अविराधक तथा ते चारित्रियाने कोइए हण्यो थको पण गोकु से के क्रोध नकरे अने कोइए पूज्यो थको णोमाणि के मान नकरे एवो माह णे के साधु जाणवो ॥ ६ ॥ ॥ दीपिका-(दूरमिति) दूरं मोदमनुदृश्य पर्यालोच्य मुनिरतीतमनागतं च धर्म जी वानां स्वनावं विचार्य लज़ामानौ न कायौं। तथा स्टष्टः परुषैः कठिनदंडादिनिर्वचनैर्वा माहनोमुनिः (अविहमत्ति ) अपि हन्यमानः स्कंदकशिष्यवत्समये संयमे रीयते गह ति । पाठांतरे वा ( समयाहियासये )। समतयासहते इत्यर्थः ॥५॥ (परमसमत्तेत्ति)। Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राय धनपतसिंघ बाहाजरका जैनागमसंग्रह नाग उसरा. १२३ प्रज्ञासमाप्तः पटुप्रज्ञः। अथवा प्रश्नसमर्थः प्रश्ने कते तउत्तरदानसमर्थः सदाजयेत्कषाया दिकं तथा समतया धर्ममुदाहरेत् कथयेन्मुनिः। सूमं स्तोकमपि यत्संयमरुत्यं तस्याऽ नूषकोऽविराधकोनो क्रुध्येत् हन्यमानं पूज्यमानोमानी नोपि माहनोयतिः ॥ ६ ॥ । ॥ टीका-किमालंव्यैतविधेयमित्युच्यते । (दूरमित्यादि ) दूरवर्तित्वात् दरोमोदस्त मनु पश्चात् तदृष्ट्वा । यदि वा दूरमिति दीर्घकालमनुदृश्य पर्यालोच्य मुनिः कालत्रयवेत्ता दूरमेव दर्शयति अतीतं धर्म स्वनावं जीवानामुच्चावचगतिस्थानलक्षणं तथा अनागतं च धर्म स्वनावं पर्यालोच्य लक्जामदौ न विधेयौ। तथा स्टष्टः परुषैर्दडकशादिनिर्वाग्निर्वा (मा हणेत्ति) मुनिः (अविहमत्ति) अपि मार्यमाणः स्कंदकशिष्यगणवत्समये संयमे रीयते त उक्तमार्गेण गलतीत्यर्थः । पानांतरं वा (समयाहियासयत्ति)समतयासहतइति ॥ ५॥ पुन रप्युपदेशांतरमाह (परमसमत्तइत्यादि) प्रझायां समाप्तःप्रझासमाप्तः पटुप्रज्ञः। पाठांतरं वा (परमसमत्थे) प्रश्नविषये प्रत्युत्तरदानसमर्थः सदा सर्वकालं जयेयं कषायादिकमिति शेषः । तथा समया समता तया धर्ममहिंसादिलक्षणमुदाहरेत् कथयेत् मुनिर्यतिः सू मे संयमे यत्कर्तव्यं तस्यानूषकोऽविराधकस्तथा न हन्यमानोवा पूज्यमानोवा क्रुध्ये नाऽपि मानी गर्वितः स्यात् माहणो यतिरिति ॥ ६ ॥ बढुजणणमणमि संवुमो, सबहिं गरे अणिस्सिए ॥ हरएव सया अणाविले, धम्म पापुरकासिकासवं॥॥बहवे पाणा पुढो सिया पत्तेयं समयनवेदिया ॥ जे मोणपदं ग्वस्तेि, विरतिं तब अकासि पंमिए॥6॥ - अर्थ-बदुजण के० घणालोकने मणंमि के० नमाडे एटले जेने सर्व लोक पोत पोतानो करीने प्रसंशे तेमाटे जेबदुजणनमन तेने धर्म कहिए ते धर्मने विषे संवुमोके० संवृत एटले समाधिवंत एवो बतो गरेके नर एटले मनुष्य ते सत्वहिं के सर्व अ र्थ एटले बाह्य अने अन्यंतर धन धान्य पुत्र कलत्रादिके करी,अणिस्सिएकेण्अनिश्रित ए टले अप्रतिबंध बतो धर्म प्रकाशे. हरएवके०३हनी पेरे जेम इहजे, ते सयाके सर्व काल स्वच निर्मल पाणीयेंज नयो थको रहे. अणाविले के० अनेक जलचर जीव ना मोलवा थकी पण दोहोलुं नथाय. तेम चारित्रिन रागोषरहित बतो धम्मंपाउ रकासि के० धर्म प्रगट करे. तेधर्म कासवं के० श्रीतीर्थकरसंबंधी एटले श्रीवर्धमान स्वा मिनिर्देश जाणवो. ॥ ७ ॥ हवे जेवो धर्म प्रकाशे तेवो कहेले अथवा उपदेशांतरे कहेले. • बहवेपाणा के० घणाप्राणी एटले अनंताजीव ते पुढोसियाके० पृथक्टथक् जुंदा जुदा Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२४ तीयेसूत्रकृतांगे प्रथमश्रुतस्कंधे वितीयाध्ययनं. सूक्ष्म बादर पर्याप्त अपर्याप्त नरक तिर्यंच मनुष्यादिक नेदे कररी संसारमांहे याश्रित जे, तेने पत्तेयं के प्रत्येके प्रत्येके समय के० समता एटले सरखापणे समीहिया के देखवा. केमके सर्व जीव सुखना अनिलाषी, पण फुःखना देषीने; तेमाटे पोताना सरखा जाणी धर्म प्रकाशे तथा जेमोणपदंनवहिते के जे मौनपद एटले संयमने वि षे उपस्थित एटले सावधान एवो साधु , तके ते जीवघातने विषे त्रिविध त्रिविध प्रकारे जेणे विरतिं अकासि के विरति कीधी जे; पंमिएके ते पंमित जाणवो. ॥७॥ दीपिका-( बहुजनेति ) बहुजनैर्नम्यते स्तूयते इति बहुजननमनोधर्मः । कथं राज गृहपुरे श्रेणिकराझः सदसि कदाचिदेवं विचारः क्रियते । किंधार्मिकाजनाबहवः किं वा ऽधार्मिकाः । तदा लोकैरुक्तं अधार्मिकाबहवः । अनयमंत्रिणा तु कथितं धार्मिका बहवः । सनालोके त६चोऽमन्यमाने अनयेन परीक्षार्थ श्वेतलमप्रासाद इयं कारितं । नगरे च उद्घोषणा कारिता । यः कश्चिक्षार्मिकः सबलिं गृहीत्वा धवलप्रासादे समेतु अधार्मिकस्तुकले तदा सर्वोपि लोकोधवलप्रासादमेव प्राप्तः कमप्रासादे तु श्रावक यं। तद्द ष्ट्वाराझा दृष्टं कथमेतावंतोलोकाधार्मिकाएव । तदा स्वस्वधर्मप्रशंसापूर्वकं वयं धार्मिका इति सर्वजनैरुक्तं । कस्मप्रासादे श्रावकक्ष्यं दृष्ट्वा राज्ञा दृष्टं कथं युवामधार्मिकौ । तदा तान्यामुक्तमस्मानिर्मद्यनिवृत्तिनियमनंगः सहनिर्मितः । नमव्रतस्य किं जीवितं । यतः। वरमग्गिंमिपावेसो, वरं विसुदेण कम्मुणा मरणं ॥ मागहियन्वयनंगो, माजीयं खलिथ सीलस्स ॥१॥ इति । तथा परमार्थतः साधवएव धार्मिकाः । अस्मानिस्तु । अवाप्य मा नुषं जन्म, लब्ध्वा जैनं च शासनं ॥ कृता निवृत्तिर्मद्यस्य, सम्यक् सापि न पालिता॥१॥ अनेन व्रतनंगेन मन्यमानाअधार्मिकं ॥ अधमाधममात्मानं,कृमं प्रासादमाश्रिताः ॥२॥ तदेवं सर्वेपि प्रायः स्खं धार्मिकं मन्यंतइति। बहुजननमनोधर्मस्तस्मिन् संवृतः समाहितो नरः सर्वार्थैर्बाह्यान्यंतरैर्धनधान्यकलत्रममतादिनिरनिश्रितोऽप्रतिबदः सन् धर्म प्रकाशि तवान् इत्युत्तरेण संबंधः। यथा न्हदोजलाशय विशेषोऽनाविलोनिर्मलः स्यात् तथाऽक खुषचित्तोधर्म काश्यपं जिनप्रणीतं प्रारकार्षीत् प्रकटं कृतवान् । बांदसवादा वर्तमा नातीतप्रत्ययनिर्देशः। एवं विधोधर्म प्रकाशयेदिति । एवंगुणश्च साधुः स्यात्ततः साधोरेव धर्मदेशनायामधिकारोन गृहिणइति ॥ ७ ॥ ( बहवइति ) बहवः प्राणिनः पृथिव्यादयः पृथक् संसारं श्रितास्तेषां समतां सुखप्रियत्वं तुल्यमवेक्ष्य दृष्ट्वा योमौनपदं संयममुप स्थितयाश्रितः साधुस्तत्र प्राणिसमूहोपघाते विरतिमकार्षीत् कुर्यादा पंडितः॥ ७ ॥ ॥ टीका-अपिच ( बहुजनमणमित्यादि) बहून् जनान आत्मानंप्रति नामयति प्रव्हीकरोति तैर्वा नम्यते स्तूयते बहुजननमनोधर्मः सएव बदुनिर्जनैरात्मीयात्मीयाश Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राय धनपतसिंघ बादाउरका जैनागमसंग्रह नाग उसरा. १२५ येन यथाऽप्युपगमप्रशंसया स्तूयतेप्रशस्यते। कथमत्र कथानकं । राजगृहे नगरे श्रेणिको महाराजः कदाचिदसौ चतुर्विधबुध्युपेतेन पुत्रेण अनयकुमारेण सार्धमास्थानस्थित स्तानिस्तानिः कथानिरासांचके। तत्र कदाचिदेवंनूता कथाऽनूत् । तद्यथा इहलोके धार्मि काबहवताऽधार्मिकाइति । तत्र समस्तपर्षदानिहितं । यथाऽत्राऽधार्मिकाबहवोलो काधर्म तु शतानामपि मध्ये कश्चिदेवैको विधत्ते तदाकाऽनयकुमारेणोक्तं । यथा प्रा यशोलोकाः सर्वएव धार्मिकाः । यदि न निश्चयोनवतां परीक्षा क्रियते पर्षदाऽप्यनिहितमे वमस्तु ततोऽनयकुमारेण धवलेतरप्रासाद इयं कारितं घोषितं च डिंडिमेन नगरे यथा यः कश्चिदिह धार्मिकः ससर्वोऽपि धवलप्रासादं गृहीतबलिः प्रविशतु इतर स्त्वितरमिति । ततोऽसौ लोकः सर्वोऽपि धवलप्रासादमेव प्रविष्टोनिर्गबंश्च कथं त्वं धार्मिकश्त्येवं पृष्टः कश्चिदाचष्टे । यथाऽहं कर्षकोऽनेकशकुनिगणोमवान्यकणैरात्मानं प्रीण्यति खलकसमा गतधान्यकणनिदादानेन च मम धर्मति।अपरस्त्वाह।यथाऽहं ब्राह्मणः षट्कमाऽनिरत स्तथा बदुशौचस्नानादिनिर्वेदविहितानुष्ठानेन पितृदेवांस्तर्पयामि।अन्यः कथयति यथा व णिकलोपजीवी निदादानादिप्रवृत्तोऽपरस्त्विदमाह । यथाऽहं कुलपुत्रकोन्यायागतं नि गतिकं कुटुंबकं पालयाम्येव तावत् श्वपाकोपीदमाह यथाऽहं कुलकमागतं धर्ममनुपाल यामीति मनिश्रयाश्च बहवः पिशितनुजः प्राणान् धारयंतीत्येवं सर्वोऽप्यात्मीयमात्मी यं व्यापारमुद्दिश्य धर्मे नियोजयति । तत्राऽपरमसितप्रासादं श्रावक श्यं प्रविष्टं तच्च कि मधर्माचरणं नवनयामकारीत्येवं पृष्टं सत् सन्मद्यनिवृत्तिनंगव्यलीकमकथयत् तथा सा धवएवाऽत्र परमार्थतोधार्मिकायथा गृहीतप्रतिझानिर्वाहणसमर्थाः । अस्मानिस्तु अवा प्य मानुषं जन्म लब्ध्वा जैनं च शासनं ॥ कृत्वा निर्ति मद्यस्य सम्यक् साऽपि न पालिता ॥ १ ॥ अनेन व्रतनंगेन मन्यमानाअधार्मिकं ॥ अधमाधममात्मानं कृमना सादमाश्रिताः ॥ २ ॥ तथाहि । सड़ां गुणौघजननी जननीमिवार्या,मत्यंतगुत्दद यामनुवर्तमानाः ॥ तेजस्विनः सुखमसूनपि संत्यजति सत्यस्थितिव्यसनिनोन पुनः प्र तिज्ञां ॥३॥ वरं प्रवेष्टुं ज्वलितं दुताशनं नचाऽपि ननं चिरसंचितव्रतं ॥ वरं हि मृत्युः सुविगुरुचेतसोनचाऽपि शीलस्रवलितस्य जीवितमिति ॥॥ तदेवं सर्वोऽप्यात्मानं धार्मिकं मन्यतातिकत्वा बजननमनोधर्मति स्थितं । तस्मिंश्च संवृतः समाहितः सन् नरः पुमान् सर्वार्थैर्बाह्यान्यंतरैर्धनधान्यकलत्रममत्वादिनिरनिश्रितोऽप्रतिबदः सन् धर्म प्रकाशितवानित्युत्तरेण सह संबंधः । निदर्शनमाहान्हदश्व स्वबांनसा नतः सदानाविलो ऽनेकमत्स्यादिजलचरसंक्रमेणाऽप्यनाकुलोऽकलुषोवा दात्यादिलक्षणं धर्म प्रारकार्षी तू प्रकटं कृतवान् । यदि वा एवं विशिष्टएव काश्यपतीर्थकरसंबंधिनं धर्म प्रकाशयेत् । Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२६ वितीये सूत्रकृतांगे प्रथमश्रुतस्कंधे वितीयाध्ययनं. बांदसत्वात् वर्तमानेनूतनिर्देशइति ॥ ७ ॥ सबहुजननमने धर्मे व्यवस्थितोयादृक् धर्म प्रकाशयति तदर्शयितुमाह । (बहवेइत्यादि) यदिवोपदेशांतरमेवाऽधिकृत्याह। (बह वेइत्यादि ) बहवोऽनंताः प्राणादश विधप्राणनोक्तृत्वात्तदनेदोपचारात् प्राणिनः । एथगि ति पृथिव्यादिनेदेन सूक्ष्मबादरपर्याप्तकापर्याप्तनरकगत्यादिनेदेन वा संसारमाश्रितास्तेषां च पृथगाश्रितानामपि प्रत्येकं समतां दुःख देषित्वं सुखप्रियत्वं च समीदय दृष्ट्वा । यदि वा समतां माध्यस्थ्यमु पेदय योमौनीऽपदमुपस्थितः संयममाश्रितः ससाधुस्तत्राऽनेक नेदनिन्नप्राणिगणे सुःख देषिसुखानिलाषिणि सति तपघाते कर्तव्ये विरतिमकार्षीत् कुर्यादेति पापाचीनः पापानुष्ठानात् दवीयान् पंमितइति ॥ ७ ॥ धम्मस्स य पारए मुणी,आरंनस्स य अंतएहिए॥सोयंति य णं ममा इणो, पो लप्नंति णियं परिग्गरं ॥ ए॥ इह लोगउहावदं विक, पर लोगेय ऽहं उहावदं॥विसण धम्ममेव तं इति विजं कोगारमावसे॥१०॥ अर्थ-वली तेहिज कहेले. धम्मस्सयपारएमुणी के० धर्म शब्द श्रुत चारित्ररूप ते नो पारंगामी एटले संवेगी अने गीतार्थ एवो मुनीश्वर तथा आरंनस्सय के प्रारं न जे सावद्यानुष्ठान तेनाथी अंतएहिए के अत्यंत दूर रह्यो अर्थात् सावद्यानुष्ठानने पण करतो थको प्रवते ते मुनि कहेवाय. अने सोयंतियणं के ए पूर्वे कयुं एवो जे धर्म तेना अण करनार जे होय ते मरण आवे थके शोच पामे. परंतु ते केवा जाण वा? तोके, ममाइणो के ममत्वना करनार गोलप्नंतिनियं परिग्गरं के ते पोतानु जे नष्ट थयेखु सुवर्णादिक परिग्रह अथवा स्वजन नाशीगयेलो अथवा मरण पाम्यो एवो स्वजन तेने न पामे. पण ते शोच करता थकाज मरीने उर्गतिये जाय. ॥ ए॥ धन धान्य अने स्वजनादिक जे परिग्रह बे ते इहलोगउहावहंविक के आ लोकने विषे दुःखy कारण जाणी. यतः। अर्थानामर्जने सुःखमार्जितानां च रक्षणे ॥ आये : खं व्यये छःखं धिगर्थान् कुःखनाजनान् ॥१॥ अने परलोगेयऽहं उहावहंके परलोके पण दुःख तथा अनेरां सुःखनो करनार जाणीने तथा विसणधम्ममेवतं के तेथी परिग्रह जे जे, विसण धर्मि एटले अशाश्वत अनित्यने. इतिविऊं के एवं जाण तो थको कोगारमावसे के० कोण. सकर्ण मनुष्य गहवासने विषे वसे. यतः। दाराः परिनवकाराबंधुजना बंधनं विषं विषयाः ॥ कोयं जनस्य मोहोये रिपवस्तेषु सुहृदाशा ॥ ॥ इतिवचनात् ॥ १०॥ ॥ दीपिका-(धम्मस्सेति ) धर्मस्य श्रुतचारित्ररूपस्य पारगोमुनिः आरंनस्य च अं Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राय धनपतसिंघ बहाउरका जैनागमसंग्रह नाग उसरा. १२ ते पर्यते स्थितः स्यात् । ये पुनरेवं नस्युः ते । पंवाक्यालंकारे ( ममाइणोति)। ममेदं अहमस्य स्वामीत्यध्यवसायिनः शोचंति । शोचमानाथपि निजपरिग्रहं धनस्वजनादि कं नष्टं मृत वा लनंते ॥ ए ॥ (इहेति ) इह लोकःखावहं धनस्वजनादिकं (विनत्ति) विद्याः जानीहि । यतः । अर्थानामजने मुःख,मर्जितानां च रदणे॥ आये कुःखं व्य ये कुःखं धिगर्थान् फुःखनाजनान् ॥ १ ॥ तथा रेवापयः किसलयानिव सनकीनां विं ध्योपकंठविपिनं स्वकुलं च हित्वा ॥ किं ताम्यसि विप गतोसि वशं करिण्याः स्नेहोहि का रणमनर्थपरंपरायाः ॥ २ ॥ परलोके च धनादिकं फुःखं तदप्यपरं सुःखं करोति । तऊ पादानकर्मोपादानात् ॥ तथा तनादिविध्वंसनधर्मकमेव विनश्वरमेव इति विज्ञान एवं जानन कोऽगारवासमावसेत् गहवासे तिष्ठति । यतः। दाराः परिनवकारा,बंधुजनो बंधनं विषं विषयाः ॥ कोयं जनस्य मोहोये रिपवस्तेषु सुहृदाशा इति॥ १ ॥ १० ॥ ॥ टीका-अपिच । (धम्मस्तइत्यादि)। धर्मस्य श्रुतचारित्रनेदनिन्नस्य पारंगबतीति पा रगः सिद्धांतपारगामी सम्यक चारित्रनुष्ठायी वेति । चारित्रमधिकृत्याह। आरंजस्य साव द्यानुष्ठानरूपस्यांते पर्यते तदनावरूपे स्थितोमुनिवतिाये पुनवं नवंति ते अकतधर्माः मरणे फुःखेवा समुबिते अात्मानं शोचंति । एमिति वाक्यालंकारे । यदि चेष्टमरणादा ऽवर्थनाशे वा (ममाइणोत्ति) ममेदमहमस्य स्वामीत्येवमध्यवसायिनः शोचंति । शोचमा नाथप्येते निजमात्मीयं परिसमंतात् गृह्यते यात्मसाक्रियतइति । परिग्रहोहिरण्यादिरिष्ट स्वजनादि । नष्टं मृतं वा नलनंते न प्राप्नुवंतीति । यदिवा धर्मस्य पारगं मुनिमारंनस्यां ऽते व्यवस्थितमेनमागत्य स्वजनामातापित्रादयः शोचंति ममत्वयुक्ताः स्नेहालवः । नच ते लनंते निजमप्यात्मीयपरिग्रहबुच्या गृहीतमिति । अत्रांतरे नागार्जुनीया स्तु पठति ॥ सोकणतयंग्वयिं केऽगिहीविग्घेणनहिया धम्मंमिश्रणुत्तरे मुणी,तंपि जिणिकश्मेणपंडिए॥१॥ एतदेवाह । (इहलोगेइत्यादि)। इहाऽस्मिन्नेव लोके हिरम्यस्वज नादिकं फुःखमावहति । (वित्ति) विद्याः जानीहि । तथाहि । अर्थानामर्जने उःख, मर्जितानां च रक्षणे। आये कुःखं व्यये फुःखं, धिगर्थ फुःखनाजनं । तथाहि । रेवापयः किसलयानि च सनकीनां विंध्योपकंठविपिनं स्वकुलं च हित्वा ॥ किं ताम्यसि विप गतो सि वशं करिस्याः स्नेहोनिबंधनमनर्थपरंपरायाः॥१॥परलोके च हिरम्यस्वजनादिममत्वाऽ पादितकर्मजं दुःखं नवति तदप्यपरं दुःखमावहति तपादानकर्मोपादानादिति नावः॥ तथैतउपार्जितमपि विध्वंसनधर्म विशरारुस्वनावं गत्वरमित्यर्थः। इत्येवं विज्ञान जानन कः सकोऽगारवासं गृहवासमावसेत गृहवासं वा ऽनुबनीयादिति । नक्तंच । दाराः परि जवकाराबंधुजनो बंधनं विषं विषयाः॥ कोऽयं जनस्य मोहोये रिपवस्तेषु सुहृदाशा॥१०॥ Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३७ हितीये सूत्रकृतांगे प्रथमश्रुतस्कंधे वितीयाध्ययनं. महयं पलिगोव जाणिया जाविय वंदणपूयणाइदं॥सुढुमे सल्ले पुरुचरे, विठ मंता पयहिज संथवं ॥२१॥ एगेचरे गणमासणे सयणे एगे समादिए सिया ॥ निस्कू नवघाणवीरिए वगुत्ते असत्तसंवुमो ॥१२॥ अर्थ-वली उपदेश कहेले. महयं के महा महोटा जीवने कतरतां मुर्लन एवो गुं? तो के पलिगोव के कर्दम ते अंतरंग कर्दम जाणवो जाविय वंदणपूयणाई के तेवहीं साधुने राजादिकनी करेली वंदना तथा पूजना एटले वस्त्रादिकनी प्रतिलान ना तेणे करी नपजी जे पूजा तेने कर्मोपशमनुं कारण जाणिया के० जाणीने न स्कर्ष न करवो, जे जीवने गर्व उत्पन्न थाय तेहिज कर्दम सरखो जाणवो केमके सुदु मेसनेकुरुक्षरेके ए गर्वरूप जे सत्य ते सूक्ष्म माटे सुरुधर एटले एने नहरता घणो उर्जन तेमाटे विनमंता के विज्ञास विवेकी पुरुषते पयहिऊ के बांके संथवं के० संस्तव परिचयादिकनो त्याग करे ॥११॥ वली तेहिज कहे एगेचरे के चारित्रिएका की इव्य थकी एकलविहारी अने नाव थकी रागदेषरहित एवो बतो विचरे तथा एक लो बतो ताण के कानस्सग करे तथा भासणेके आसनने विषे पण रागदेषरहित थको बेशे एरीते सयणेके शयनजे पाटप्रमुख त्यां पण एकाकीरहे ते केवो थको रहे? तोके समाहिएके समाहित एटले जे जे क्रियामा प्रवर्ते त्यांत्यां सियाके रागदेष टाल तो थको प्रवर्तमान होय एवो निरकू के बाहारनो लेनार तथा उपहाण के तपने विषे वीरिएके बल वीर्यनो फोरवनार तथा वइगुत्तेके वचनगुप्ति एटले विमाशीने बोलनार तथा असत्त के मन तेनेविषे संवुमे के संत एटले मनने स्थिरतानो कर नार एवो साधु होय. ॥ १२ ॥ ॥ दीपिका-(महयमिति ) महांत परिगोपं नावपंकोऽनिष्वंगस्तं विपाकतोझावा यो पि च प्रव्रजितस्य सतोवंदना पूजना इहाऽस्मिनोके तां झात्वा गर्वोन कार्यइति । यतो गर्वोऽयं सूक्ष्मशल्यं वर्तते ।सूक्ष्मत्वाचउरुरमुर्तुमशक्यतोविज्ञान तत्तावत्संस्तवं परि चयं संगं प्रजह्यात् त्यजेत् ॥११॥ (एगेइति) एकोरागोषरहितएकान विहारीवा चरेत् स्थानं कायोत्सर्गादिकमेकएव कुर्यात् ।बासने शयने वा स्थितएकएव राग देषरहितएव समाहितो धर्मादिध्यानयुक्तः स्यात् । तथानिहुरुपधानं तपस्तत्र वीर्यमुपधानवीर्योऽनिगृहितबलवी र्यः वाग्गुप्तः अध्यात्म मनस्तेन संवृतः स्यात् ॥ १५ ॥ Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राय धनपतसिंघ बाहापुरका जैनागमसंग्रह नाग इसरा. १२ ॥ टीका - पुनरप्युपदेशमधिकृत्याह ( महयमित्यादि ) महांतं संसारिणं दुस्त्यजत्वा न्महता वा संरंनेल परिगोपणं परिगोपोड्व्यतः पाकादिनवतोऽनिष्वंग स्तं ज्ञात्वा स्व रूपतस्तदिपाकतोवा परिविद्य याऽपि च प्रव्रजितस्य सतोराजादिनिः कायादिनिवेदना वस्त्रपात्रादिनिश्व पूजना तांच इहाऽस्मिन् लोके मौनी वा शासने व्यवस्थितेन कर्मोप रामजं फलमित्येवं परिज्ञायोत्सेकोन विधेयः । किमिति यतोगर्वात्मकमेतत्सूक्ष्मश व्यं वर्त्तते सूक्ष्मत्वाच्च डुरुवरं दुःखेनोऽर्तुं शक्यते यतोविधान् सदसद्विवेकज्ञस्तत्तावत् संस्तवं परिचयमनिष्वंगं परिजह्यात् परित्यजेदिति ॥ नागार्जुनीयास्तु पठंति । पतिमंथमहं वियाणिया जावियवंदपूया इहं ॥ सुदुमं सन दुरु-धरं तंपि जिसे एएल पंडिए ॥ १ ॥ स्यचाऽयमर्थः । साधोः स्वाध्यायाऽध्ययनपरस्यैकांत निस्टहस्य योऽपि चाऽयं परैर्वेदनापूज नादिकः सत्कारः क्रियते . सावपि सदनुष्टानस्य सजतेर्वा महान् पतिमंथे विघ्नयास्तां तावच्छन्दादिष्व निष्वंग स्तमित्येवं परिज्ञाय तथा सूक्ष्मशल्यं गुरुदरं वाऽतस्तमपि जये दपचयेत् पंडितएतेन वक्ष्यमाणेनेति ॥ ११ ॥ ( एगेचरेइत्यादि) एकोऽसहायोइव्यतएक नविहारी जावतोराग हे परहितश्चरेत् तथा स्थानं कायोत्सर्गादिकमेकएव कुर्यात् तथा या सनेऽपि व्यवस्थितोऽपि रागद्वेषरहितएव तिष्ठेत् । एवं शयनेऽप्येकाक्येव समाहितोध मदिध्यानयुक्तः स्यात् नवेत् । एतडुक्तं नवति । सर्वास्वऽप्यवस्थानासनशयनरूपासु राग द्वेषविरहात् समाहितएव स्यादिति । तथा निक्कणशीनो निक्कुः उपधानं तपस्तत्र वीर्यं यस्य उपधान वीर्यः तपस्यनिगूहितबलवीर्य इत्यर्थः । तथा वाकूगुप्तः सुपर्यालोचितानिधायी ध्यात्मं मनस्तेन संवृतोनिकुर्न वेदिति ॥ १२ ॥ गोपिदे ण यावपंगुणे दारं सुन्नघरस्स संजए ॥ पुद्वेष उदाहरेवायं, एएस मु पो संयरे तणं ॥ १३ ॥ जच चमिए प्रणावले, समविसमाई मुणी दियास ॥ चरगाय श्वावि नेरवा, अडुवा तच सरीसिवा सिया || २ || अर्थ-वली साधुने उपदेश कहेले. कोइ एक शयनादिक कारणे सुन्नघररसके० शून्य घरे रह्यो थको एवोजे संजएके० साधु, ते ते घरना दारंके० द्वारतेने गोपियावपंगु के ढांके पानहीं, तेम उघाडे पण नहीं वजी त्यां रह्यो उतो अथवा अन्यत्र स्था के रह्यो उदाहरेवार्यके० कोइएके धर्म पूढयो थको सावद्यवचन बोलेनहीं. तथा एसमुळे पोयरेतां के० त्यां रहेलाजे तृणकचरादिक ते प्रमार्जे नहीं, वली तेने संथ एटले पाथरे पण नहीं. ए याचार जिनकल्पादिक प्रनिग्रहधारी प्रमुख साधुनो कोबे ॥ १३ ॥ वली जब मिए के० चारित्रि ज्यां सूर्य अस्त याय त्यांज रहेने घाउ के० परिसह उपसर्गे करी याकुल व्याकुल न याय; दोन पामे न हिं, दोन थको रहे. तथा समविसमामुली हियासएके० यथावस्थित संसारना स्वरू १७ For Private Personal Use Only Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३० द्वितीये सूत्रकृतांगे प्रथम श्रुतस्कंधे द्वितीयाध्ययनं. पनो जाए एवो मुनीश्वर ते सम एटले अनुकूल शय्यादिक तथा विषम एटले प्रतिकूल शय्यादिक तेने हियाशे तथा तेमज ते स्थानकने विषे चरकके० मांस मसादिक sara के० अथवा नेरवा के० बिहामणा एवा घूक सिंहादिक जीव खडुवा के० x थवा तबके त्यां सुनाघरने विषे सरीसिवा के० सरीसृप एटले सर्प, सिया के० होय तो ते जीवोना करेला उपसर्गने सहन करे. ॥ १४ ॥ ס ॥ दीपिका - ( गोपीति ) । केनचितयनादिनिमित्तेन शून्यं गृहमाश्रितोनिकुस्तस्य गृहस्य द्वारं कपाटादिना न पिदधीत न स्थगयेत् । (एयावपंगुणेत्ति) । नोद्घाटयेत् । के नचिर्मादिकं मार्गादिकं पृष्टः सन् सावद्यां वाचं नोदाहरेन्नब्रूयात् । यानिग्रहिको जिनकल्पि कादिविद्यामपि न ब्रूयात् । न समुबिंद्यात्तृणानि कचवरंबा प्रमार्जनेन नावनयेत् नापि शयनार्थी कश्विदानियाहिकस्तृणादिकं संस्तरेत् तृणैरपि संस्तारकं न कुर्यात् किंपुनः कंबला दिना अन्योवा सुषिरतृणं न संस्तरेत् ॥ १३ ॥ ( जज्ञेत्ति ) । यत्रास्तमेति सविता तत्र वाडना विलोडनाकुलस्तिष्ठति । समविषमाणि शयनासनादीन्यधिस हेत समतया सहेत । त त्र स्थितस्य मुनेश्वरकादंशमशकादयोनैश्वानर्य करारहः शिवादयोऽथवा सरीसृपाः सर्पा स्युस्तदा तत्कृतोपसर्गानपि सहेत ॥ १४ ॥ ॥ टीका - किंच ( गोपि हेत्यादि ) । केनचितयनादिनिमित्तेन शून्यगृहमाश्रितोनिकुः तस्य गृहस्य द्वारं कपाटा दिना नस्थगयेन्नाऽपि तच्चालयेत् । यावत् (नयाव पंगुणे ति ) नोद्घा येत् तत्रस्थोऽन्यत्र्वा केनचिद्धर्मादिकं मार्ग वा ष्टष्टः सन् सावद्यां वाचं नोदाहरेत् न ब्रूयात् । यानि यहिको जिनकल्पिकादिर्निरवद्यामपि न ब्रूयात् तथा न समुच्छिंद्यात् । तृ यानि कचवरंच प्रमार्जनेन नाऽपनयेत नाऽपि शयनार्थी कचिदा नियाहिकस्तृणादिकं सं स्तरेत् तृणैरपि संस्तारकं न कुर्यात् किं पुनः कंबलादिनाऽन्योवा पितृणं न संस्तरे दिति ॥ १३ ॥ तथा ( जब मियेत्यादि ) । निर्यत्रैवाऽस्तमुपैति सविता तत्रैव का योत्सर्गादिना तिष्ठतीति । यत्राऽस्तमितस्तथाऽनाकुलः समुवन्नकादिनिः परीषहो पसगैरकुन्यन् समविषमाणि शयनासनादीन्यनुकूल प्रतिकूलानि मुनिर्यथावस्थित संसा रखनाववेत्ता सम्यगारक्तदिष्टतयाऽधिस हेतेति ॥ १४ ॥ तिरिया मण्याय दिवगा, नवसग्गा तिविदा दियासिया ॥ लो मादियं पि दरिसे सुन्नागारगर्नु महामणी ॥ १५॥ पो अनिकं खेऊ जीवियं, नोविय पूणपचए सिया ॥ प्रतनुविंति नेवा सुन्नागारगयस्स निरकुणो ॥ १६ ॥ " For Private Personal Use Only Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राय धनपतसिंघ बादाउरका जैनामसंग्रह नाग उसरा. १३१ - अर्थ-तथा तिरिया के तिर्यच संबंधी, मर्पुयाय के मनुष्यसंबंधी अने दिवगा के देवतासंबंधी ए तिविहा के त्रण प्रकारना उवसग्गा के नपसर्गने साधु हियासि याके सहन करे. पण तेना करेला उपसर्गथी विकार पामे नहीं;लोमादियपि के किं बहुना तेने ते जयथकी रोमोजम पण एहरिसेके० नथाय, सुन्नागारग के एरीते जे सुनाघरने विषे रहे ते महामुणी के महामुनि जिनकल्पियादिक जाणवा. ॥ १५॥ तथा नोधनिकखेजजीवियंके० ते चारित्रि पूर्वोक्त नपसगै पीड्यो बतो जीवितव्यने वांजे नहीं किंतु मरण धागमिने परिसहने सहन करे, तथा नोपियपूयणपडएसियाके० परिसह सहन करवा थकी पूजाना अनिलाषी नथाय. एरीते ते सुन्नागारगयस्सनिरकु णोके० गुनागारगत चारित्रियाने नेरवा के महारौइ नपसर्ग ते अनब केसहन क रतां सुलन नुवंति के होय. ॥ १६॥ ॥दीपिका-तिरियाइति ।तिरश्चाः सिंहादिकताः मानुषाअनुकूलप्रतिकूलादिव्याव्यंतरादिक तानपसर्गास्त्रिविधास्तान् अधिसहेत निर्विकारतया हमेत । लोमादिकमपि नहरेत् नयेन रोमोजमं नकुर्यात् । धादिशब्दादृष्टिमुख विकारादिग्रहः । शून्यागारगतोमहामुनिः उपत क्षणात्प्रेतवनादिस्थितः ॥१५॥ नोअनिकंखेति । नपसर्गः पीडयमानोपि साधु निकां केजीवितं । जीवितनिरपेकेणोपसर्गाः सोढव्याश्त्यर्थः । नापिच पूजाप्रार्थकःस्यात् । उप सर्गसहनात्पूजामपि नसमीहते इत्यर्थः। एवं सह्यमानाः परिषहानैरवानयंकरापिअन्य स्तनावं यंति गति । शून्यागारगतस्यनिदोरे वमुपसर्गाः सदन्यस्ताः सुसहानवंतति॥१६ ॥ टीका-सांप्रत त्रिविधोपसर्गाधिसहनमधिकृत्याद । (तिरियाइत्यादि ) तैरश्वाः सिंहव्याघ्रादिकतास्तथा मानुषाअनुकूलप्रतिकूलाः सत्कारपुरस्कारदमकशाताडनादिज निताः। तथा (दिवगाइति) व्यंतरादिना हास्यप्रदेषादिजनिताः। एवं त्रिविधानऽप्युपसर्गानs धिसहेत नोपसगैर्विकारं गच्छेत् । तदेव दर्शयति । लोमादिकमपि न हर्षत् नयेन रोमो जममपि न कुर्यात् । यदिवा एवमुपसर्गास्त्रिविधायपि (अहियासियत्ति ) अधिसोढा नवंति । यदि रोमोजमादिकमपि न कुर्यात् । आदिग्रहणात् दृष्टिमुख विकारादिपरिग्रहः। शून्यागारगतः शून्यगृहव्यवस्थितस्य चोपलक्षणार्थत्वात् पितृवनादिस्थितोवा महामु निर्जिनकल्पिकादि रिति ॥ १५ ॥ किंच । ( णोअनिकखेइत्यादि ) । सतै रवैरुपसर्गरु दीर्णेस्तोतुद्यमानोऽपिजीवितं नाऽनिकांदेत जीवितनिरपेदेणोपसर्गः सोढव्यतिनावः । नचोपसर्गसहन वारेण पूजाप्रार्थकः प्रकर्षाऽनिलाषी स्यात् नवेत् । एवंच जीवि तपूजानिरपेदेणाऽसकत् सम्यक् सह्यमानानैरवानयानकाः शिवाःपिशाचादयोऽज्यस्तनावं Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३२ द्वितीये सूत्रकृतांगे प्रथम श्रुतस्कंधे द्वितीयाध्ययनं. स्वात्मनां उपसामीप्येन यंति गर्छति । तत्सहनाच्च निकोः शून्यागारगतस्य नीराजित वारस्येव शीतोष्णादिजनिता उपसर्गाः सुसहाएव नवंतीति नावः ॥ १६ ॥ वणीयतरस्स ताइणो, जयमाणस्सवि विक्कमासणं ॥ सामाइयमाहु तस्स जं, जो प्रमाण नए दंस ॥ १७ ॥ नसिणोदग तत्तनोइलो धम्मवियरस मुणिस्स हीमतो || संसग्गिप्रसादुराइदि, समादी न तदागयस्सवि ॥ १८ ॥ ० अर्थ- वली बीजो उपदेश कहे. नवणीयतरस्स के उपनीततर एटले जेणे पोताना श्रात्माने ज्ञान, दर्शन खने चारित्रने विषे पहोचाडयोबे तथा ताइयोके० त्राइ एटले जेनो श्रात्मा धन्यने उपकारी होय तेने त्राइ कहिए. तथा विविक्कके० विविक्त आ सके ० प्राशन एटले स्त्री तथा पशु पंमके करेरी विवर्जित एवा नयमाणस्सके० उपाश्रयनो से वनार सामाइयमाहुतस्सजंके ० तेने सामायक चारित्र जाणवो. जोके० जेचारित्रि प्पा के० पोतानाथात्माने परिसह उपसर्ग उपना थका नएसएके० नयने देखाडे नहीं, एटले उपसर्ग उत्पन्न थयाथी बीहे नहीं. ॥१७॥ वली उसियोदगतत्तके० उम न दक तथा तप्तोदकनो जोइलोके० जोगवनार एटले उम थकां शीतल नकरे, किंतु मो दक बांज पानकरे; तथाधम्मवियरस के श्रुत यने चारित्र धर्मने विषे स्थित मु सके० मुनिराज एटले तत्वनो जाए हीमतोके लावंत एटले यसंयमे प्रव थको लता पामे. एवा सादुके ० साधुने पण राइहिंके राजादिकने संसग्गिखके० संस समाहिन के समाधिज थाय, तह गयस्सविके० तथा गतस्य यथोक्त अनुष्ठा ना करनार एवा साधु पण राजादिकना संसर्गे करी स्वाध्याय ध्यानथकी चूके. ॥ १८ ॥ 0 ॥ दीपिका - नवणीयेति । उपनीतोऽतिशयेन ज्ञानादौ प्रापितयात्मायेन सनपनीतत रस्तस्य । तायिनः परात्मोपकारिणस्त्रायिणोवा सम्यक्पालकस्य विविक्तं स्त्रीपशुपंडकवि वर्जितमासनं वसत्यादि नजमानस्य सेवमानस्य सामायिका दिचारित्रमाहुः । सर्व ज्ञा यते यस्मात्ततः साधुना निश्चलात्मना जाव्यं । तथा ययात्मानं नयेन दर्शयेत् परीषदो पसर्गजीरुर्न स्यात् तस्य सामायिकमादुरिति ॥ १७ ॥ ( उसिलोत्ति ) मुनेरुमोदकत नोजिनः त्रिदंडो-तोमोदकनोजिनः अथवा नष्मं सत् न शीतीकुर्यादिति तप्तग्रहणं त या धर्मे स्थितस्य - हीमतः यसंयमे लगावतोराजादिनिः सह संसर्गः संबंधोऽसाधुरन र्थकरः । तथागतस्य यथोक्तानुष्ठायिनोपि राजादिसंसर्गवशादसमाधिरेव नकदाचित्स्वा ध्यायादिकं स्यादित्यर्थः ॥ १८ ॥ For Private Personal Use Only Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राय धनपतसिंघ बादाउरका जैनागमसंग्रह नाग उसरा. १३३ - ॥ टीका-पुनरप्युपदेशांतरमाह ( उवणायेत्यादि ) उपसामीप्येन नीतः प्रापितोझा नादाऽवात्मा येन सतथा अतिशयेनोपनीतनपनीततरस्तस्य तथा तायिनः परात्मोपका रिणत्रायिणोवा सम्यक्पालकस्य तथा नजमानस्य सेवमानस्य विविक्तं स्त्रीपशुपंडकवि वर्जितमास्यते स्थीयते यस्मिन्निति तदासनं वसत्यादि तस्यैवं तस्य मुनेः सामायिक समनावरूपं सामायिकादिचारित्रमादुः सर्वज्ञाः। यद्यस्मात् ततश्चारित्रिणा प्राग्व्यवस्थित खनावेन नाव्यं यश्चात्मानं नयेन परिषहोपसर्गजनितेन दर्शयेत् तनीरुन नवेत् त स्य सामायिकमादुरिति संबंधनीयं ॥ १७ ॥ किंच (नसिणोदगेत्यादि ) मुनेरुमोदक तप्तनोजिनः त्रिदंडोक्तोमोदकनोजिनः । यदिवा नम्मं सन्नशीतीकुर्यादिति तप्तग्रहणं । तथा श्रुतचारित्राख्ये धर्मे स्थितस्य (हीमतोत्ति ) हीरसंयम प्रति लगा ततोऽसं यमजुगुप्सावतश्त्यर्थः । तस्यैवंजूतस्य मुनेराजादिनिः साई यः संसर्गः संबंधोऽसाऽव साधुरनोदयहेतुत्वात्तथागतस्यापि यथोक्तानुष्ठायिनोऽपि राजादिसंसगेवशादसमाधिरेवा ऽपध्यानमेव स्यात् न कदाचित् स्वाध्यायादिकं नवेदिति ॥ १७ ॥ अदिगरणकडस्स निस्कुणो, वयमाणस्स पसलदारुणं ॥ अहे परि दायती बदु, अदिगरणं नकरेज पंमिए ॥१५॥ सीनदग पडिगंबि णो, अपडिप्मस्स लवावसप्पिणो ॥ सामाश्य सादु तस्स जं, जो गि हिमत्तसणं न मुंजती ॥२०॥ अर्थ-हवे उपदेश आश्री कहे. अहिगरण के अधिकरण ते कलह तेनो कडस्स के० करनार एवो निरकुणो के चारित्रि वली पसनदारुणं के प्रगटदारुण एटले जोवने नयतुं कारण वयमाणस्स के एवी नापानो बोलनार एवा चारित्रियानो घणो एवो जे अठेके अर्थ जे मोह तेनुं कारण जे संयम ते परिहायता के हीणो थाय. एटले बहुके० घणाकाले उपार्जित जे पुष्करतप संयम तेनो पण कलह करतां परोपघातीया वचन बोलतां दय थाय. एवं जाणीने गुंकरे ? ते कहेले. पंमिएके जे पं मितविवेकी होयते यहिगरणके अधिकरण जे क्रोध ते स्वल्पपण नकरेजके नकरे,एटले पंमित अल्पक्रोध पण करे नहीं. ॥ १५ ॥ जे चारित्रि सीउदगं के शीतोदक एटले सचेतपाणी तेने पडिगंलियो के टालनार तथा अपडिएसस्स के अप्रतिज्ञ एटले नियाषु सर्वथापि नकरे. तथा लवावसप्पिणो के लव एटले कर्म तेथकी शंकातो रहे. एटले कर्मबंधनुं कारण एवं जे अनुष्ठान होय ते नकरे. सामाश्यसादुतस्सजंके ते साधुने सामायक एटले समता लणवंत कहिए. वली जोके जे साधु गिहिमत्तसणं Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३४ वितीये सूत्रकृतांगे प्रथमश्रुतस्कंधे वितीयाध्ययनं. के० गृहस्थसंबंधी जे नाजन कांस्यपात्रादिक तेने विषे नजती के० नोजन न करे तेने सामायकवंत जाणवो. ॥ २० ॥ - ॥ दीपिका-(अहिगरणेति ) । अधिकरणं कलहस्तत्करस्य निदोर्दारुणं वाचं प्रसह्य प्रगटमेववदतोऽर्थोमोदः संयमोवा बदु परिहीयते नशं विनश्यतीत्यर्थः । बहुकालार्जित मपि महत्पुण्यं कलहं कुर्वतस्तत्कालं दीयते । यतः। जं अङियं समीरवन्नएहिं तव नियम बंजमइएहिं ॥ मादुतयंकलहंता, बड्डेअहसागपत्तेहिं ॥ १ ॥ तस्मादधिकरणं नकुर्यात्पं मितः ॥ १ए ॥ (सीदगेति )। शीतोदकमप्रासुकजलं तत्प्रति जुगुप्सकस्य परिहारिणो न विद्यते प्रतिज्ञा निदानं यस्य सथप्रतिज्ञस्तस्याऽनिदानस्य लवं कर्म तस्मादवसर्पिणोनि वर्तमानस्य साधोः सामायिकादिसंयममादुः सर्वज्ञाः । यश्च साधुहमात्र गृहस्थनाज नेन लुंक्ते तस्य सामायिकमिति ॥ २० ॥ ॥ टीका-परिहार्यदोषप्रदर्शनेनाऽधुनोपदेशानिधित्सयाह । ( अहिगरणेत्यादि )। अधिकरणं कलहस्तत्करोति तहीलश्चेत्यधिकरणकरस्तस्यैवंनूतस्य निदोस्तथाऽधिकरण करी दारुणां वा नयानकां वा प्रसह्यप्रगटमेव वाचं ब्रुवतः सतोडैमोक्षस्तत्कारण नूतोवा संयमः सबदु परिहीयते ध्वंसमुपयाति । इदमुक्तं नवति । बहुना कालेन यद र्जितं विप्ररुष्टेन तपसा महत्पुण्यं तत्कलहं कुर्वतः परोपघातिनी च वाचं ब्रुवतस्तत्व णमेव ध्वंसमुपयाति । तथाहि । अडियंसमीरवन्नएहिं तवनियमबंनमश्एहिं । मादु तकलहंताबडेअह सागपत्तेहिं ॥ १ ॥ इत्येवं मत्वा मनागप्यधिकरणं न कुर्यात् ५ मितः सदसदिकोति ॥ १५ ॥ तथा (सीदगेत्यादि)। शीतोदकमप्रासुकोदकं तत्प्र ति जुगुप्सकस्याऽप्रासुकोदकपरिहारिणः साधोर्न विद्यते प्रतिज्ञा निदानरूपा यस्य सोप तिझोऽनिदानश्त्यर्थः । लवं कर्म तस्मात् (अवसर्पिणोति )। अवसर्पिणः यदनुष्ठा नं कर्म बंधोपादाननतं तत्परिहारिणइत्यर्थः । तस्यैवंजतस्य साधोर्यस्मात यत्सामा यिकं समनावलदाणमादुः सर्वज्ञाः । यश्च साधुः गृहमात्रे गृहस्थनाजने कांस्यपात्रादौ न चुक्ते तस्यच सामायिकमादुरिति संबंधनीयमिति ॥ २० ॥ णय संखयमादु जीवियं, तहविय बालजणो पगत ॥ बाले पापोदि मिळती, इति संखाय मुणी ण महती॥२॥बंदेण पाले श्मा पया, ब हुमाया मोदेण पान्डा ॥ वियडेण पलिंति मादणे, सीनएह वयसा दियासए॥१॥ Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राय धनपतसिंघ बहाउरका जैनागमसंग्रह नाग उसरा. १३५ ~~ अर्थ-वली प्रकारांतरे कहे. यादुजीवियंके जीवितव्य घायुष्य काल पर्यायें क रीत्रूटोडतां णयसंखयके वधारी नशकाय, एरीते पंमितो कहेले. तहवियके ० तोपण बालजणोके० बाल अज्ञानी जन पगप्नश्के पाप करतो धष्टपणुं करे एवो बालेके० बाल ते पापेहिमितीके पापकर्मेकरी नराय, संसारमा कुःख पामे. इतिसंखायके०ए Q जाणीने मुणी के साधुजेले, ते मऊतीके मद नकरे एटले पापे करी धीठो न थाय. ॥ २१॥ वलीनपदेश कहे. बंदे के० पोतपोताने अनिप्रायेंकरी इमापया के० ए प्रजा एटले लोकजेतेपालेकेण्तेवी तेवी नरकादिक गतिने विषे पर्यटन करे,ते केवीरीते? तोके, एक दशनी पोताना अनिप्रायें करी गृहनेविषे ग्रस्त बतां अजादिकना वधने पण धर्मनुं कारण कहेले, अन्य वली धनधान्यादिक परिग्रह पृथ्वीकायनो आरंन एने पण धर्म कहेजे, इत्यादिक प्रकारे ए प्रजालोक जे जे ते मुग्धजनरंजननिमित्ते बहुमाया के कप ट प्रधान अनेक प्रकारनी कपटक्रिया करे, परंतु श्रीवीतरागनो मार्ग सम्यक् प्रकारे नजा णे. तेनुं कारण कहेले, केमके ए लोक जेने, ते मोहेणके थझाने करी पामडाके था वस्था. विवेकरहित , माटे खोटा साचानी व्यक्तिने जाणता नथी,एवं जाणीने माहणे के साधु ते वियडेण के विकटेण एटले प्रगट मायारहित निर्माय कर्मे करी पतिंति के मोद तथा संयमने विषे प्रवर्त, एटले शुन ध्याने करीयुक्त होय, सीगाह के शीत उम्म एटले अनुकूल अने प्रतिकूल नपसर्ग ते वयसा के वचने,कायाये अने मने ए त्रि करण गुदेकरी अहियासए एटले परीसह यावे थके दीनपणुं आरोनहीं. ॥२२॥ ॥ दीपिका-नयेति । जीवितं त्रुटितं सत् (नसंखयत्ति) नसंस्कर्तुं शक्यमित्यादुस्तविदः तथापि बालोऽझो जनः प्रगल्लते पापं कुर्यात् । बालः पापैः कर्मनिर्मीयते म्रियते वा ति संख्याय ज्ञात्वा मुनिन माद्यति अहं सदनुष्टानइति मदं नकुर्यात् ॥१॥ (बंदेणेति) श्माः प्रजाः अयंलोकः बंदेन स्वानिप्रायेण प्रलीयते शोजननावः स्यात् । यथा बागादि वधेपि केचिधर्म वदंति कुटुंबमुद्दिश्य धनादिपरिग्रहं कुर्वति केचिन्मायया मुग्धजनं प्र तारयति तथा बहुमाया प्रजा मोहेन प्रावृता बाडादिताच एवंझात्वा (माहणेत्ति) साधुः विकटेन प्रकटेन निर्मायेन कर्मणा संयमे प्रलीयते शुननावः स्यात् । तथा शीतं उमंच वाचा कायेन मनसा वाऽधिसहते ॥ २२॥ ॥ टीका-किंच ( नयसंखयमित्यादि ) नच नैव जीवितमायुष्कं कालपर्यायेण त्रुटि तं सत् पुनः ( संखयमिति ) संस्कः तंतुवत्संधातुं शक्यते इत्येवमादुस्तदिदस्तथाऽप्ये वमपि व्यवस्थिते बालोऽझो जनः प्रगल्लते पापं कुर्वन् धृष्टोनवति असदनुष्ठानरतोऽपि Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३६ वितीये सूत्रकृतागे प्रथम श्रुतस्कंधे वितीयाध्ययनं. न लतइति । सचैवंनूतोवालस्तरसदनुष्ठानापादितैः पापैः कर्मनिर्भीयते तद्युक्तश्त्येवं प रिविद्यते नियते वा मेयेन धान्यादिना प्रस्थकवदित्येवं संख्याय ज्ञात्वा मुनिर्यथावस्थि तपदार्थानां वेत्ता न माद्यतीति तेष्वसदनुष्ठानेष्वहं शोननः कर्तेत्येवं प्रगल्नमानोमदं न करोति ॥ २१ ॥ उपदेशांतरमाह (बंदेणेत्यादि ) बंदोऽनिप्रायस्तेन तेन स्वकीया निप्रायेण कुगतिगमनैकहेतुना इमाः प्रजाअयं लोकस्तासु गतिषु प्रलीयते । तथाहि बागादिवधमपि स्वानिप्रायग्रहयस्ताधर्मसाधनमित्येवं प्रगल्नमानाविदधति।अन्येतु संघा दिकमुद्दिश्य दासीदासधनधान्यादिपरिग्रहं कुर्वति तथाऽन्ये मायाप्रधानैः कुक्कुटैरसक त्प्रेक्षमाणश्रोत्रस्पर्शनादिनिर्मुग्धजनं प्रतारयति । तथाहि । कुक्कटसाध्योलोकोन कुकुट तः प्रवर्तते किंचित् । तस्मालोकस्याऽर्थे पितरमपि सकुक्कुटं कुर्यात् तथेयं प्रजा बहु माया कपटप्रधाना किमिति यतोमोहोऽज्ञानं तेन प्रावृताऽऽबादिता सदसदिवेकविकले त्यर्थः । तदेवमवगम्य ( माहणेत्ति ) साधुर्विकटेन प्रकटेनाऽमायेन कर्मणा मोदे संयमे वा प्रकर्षेण लीयते प्रतीयते शोनननावयुक्तोनवतीति नावः । तथा शीतंच नमंच शीतो मः शीतोमोवा अनुकूलप्रतिकूलपरीपदास्तान वाचा कायेन मनसा च करणत्रयेणाऽपि सम्यगधिसहेतइति ॥ २२ ॥ कुजए अपराजिएजहो, अकोहि कुसलहिं दीवयं ॥ कडमेव गदाय णो कलिं, नो तियंनो चेवदावरं ॥२३॥एवंलोगंमि ताणा, बुइए जे धम्मे अणुत्तरे ॥तं गिण्ह दियंति उत्तम, कडमिव सेसवहाय पंमिए॥२॥ अर्थ-वली उपदेशांतर कहेले. कुजए के कुत्सित एटले माटो एवो जेनो जय तेने कु जय कहिए. ए जुगार कहेवाय जे; केमके एमां घणो जय थाय तोपण निंदा करवा यो ग्य माटे कुंजयडे,ते केवो? तोके अपराजिएकेण्तब्ध लपणे खेलतो अपर एटलें य न्य कोपथी जीत्यो जाय नहीं. एवो जुगारी जहा के जेम अरकेहिंके अद एटले पाशा तेणेकरी कुसलेहिं के० कुशल निपुण एवीरीते दीवयं के खेलतो तो ते कड मेवसहाय के चोतरो दाव ग्रहण करीने खेलतां जीते तो ते चोतरो दावज ग्रहण करे, पण पोकलीके एकनोदाव ग्रहण करे नहीं. तेमज णोतियंकेत्रणनो दावग्रहण नकरे अने नोचेवदावरं के बेनो दाव पण ग्रहण नकरे. ॥ २३ ॥ हवे एदृष्टांत साधु साथे मेलवे जे, जेम जुगारने विषे जय पामवानो अनिलाषी एक चोकानो दावज ग्र हण करी बीजा दावनो त्याग करे. एवंतोगमि के एरीते ए मनुष्यलोकमांहे तार णा के बकायनो रहपाल चारित्रिय बुश्एजेधम्मे के अहिंसाले प्रधान जेमां, एवो धर्म जे श्रीवीतरागे कह्यो, अणुंतरे के एवो अन्य धर्म जगतमाहे कोई नथी. Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राय धनपतसिंघ बादाउरका जैनागमसंग्रह नाग उसरा. १३७ तके ते धर्मने अहो शिष्य? तुं निःसंदेह थक्ने हियंतिके एकांत हितकारी जाणीने गि एहके० आदर. ए उत्तमके० सर्वोत्तम मार्ग ले. ते तूं ग्रहण कर. कोनी पेरे तोके, कड मेव के० ते जुगारिये ग्रहण करेला चोकाना दावनी पेरे. सेसवहाय के शेष एकादि कनो दाव बांकी दोधो. तेम पंमिए के पंमित जे जे, ते शेष अनेराजे गृहस्थ, कुलिं गी,इव्यलिंगी एवा धर्म बांझीने एक सर्वज्ञोपदिष्ट धर्मने ग्रहण करे. ॥ २४ ॥ ॥ दीपिका-( कुजएत्ति ) । कुजयोयूतकारोयथा अदैः पाशैर्दीव्यन् कीमन कुशलो नापराजितःस्यात् । अन्येन न जीयतइत्यर्थः । कडमेवत्ति । सद्यूतकारः कमचतुष्कमेव गृहीत्वाकैकं नो गाहाति । नत्रैतं त्रिकं नापरंदिकंवा गृहाति किंतुचतुष्कमेव जाति ॥ २३ ॥ दाष्टी तिकमाह। (एवमिति)। एवं लोकेस्मिन् तायिना सर्वझेनोक्तोऽनु तरनत्कृष्टोयोयं धर्मस्तं हितमुत्तमं त्वं गृहाण) दृष्टांत निगमनमाह। यथा द्यूतकारः शेषं एककादि अपहाय त्यक्ता कृतं कृतयुगं चतुष्कमेव लाति तथा पंमितः साधुरपि गृहस्थः कुप्रावचनिकपार्श्वस्थादिनावं त्यक्त्वा सर्वोत्तमं धर्म गृण्हीयादित्यर्थः ॥ २४ ॥ ॥ टोका-अपिच ( कुजएत्यादि )। कुत्सितोजयोऽस्येति कुजयोद्यूतकारः महतो ऽपि द्यूतजयस्य सनिनदितत्वादनर्थहेतुत्वाच कुत्सितत्वमिति । तमेव विशिनष्टि । अप राजितोदीव्यन कुशलत्वादऽन्येन न जीयते । अदैर्वा पाशकैर्दीव्यन् कीडंस्तत्पातः कुशलोनिपुणः यथा असो द्यूतकारोऽदैः पाशकैः कपर्दकैर्वा रममाणः (कडमेवत्ति) चतुष्कमेव गृहीत्वा तत्नब्धजयत्वात् तेनैव दीव्यति । ततोसौ तन्नब्धजयःसन्न कलिमे ककं नाऽपि त्रैतं त्रिकं च नापि वापरं किं गृहातीति ॥ २३ ॥ दार्टीतिकमाह । ( एवमित्यादि ) यथा द्यूतकारः प्राप्तजयत्वात् सर्वोत्तमं दीव्यंश्चतुष्कमेव गृाहात्येवम स्मिलोके मनुष्यलोके तायिना त्रायिणा वा सर्वझेनोक्तोऽयं धर्मः दात्यादिलक्षणः श्रु तचारित्राख्योवा नाऽस्योत्तरोऽधिकोऽस्तीत्यनुत्तरस्तमेकांतहितमपि कृत्वा सर्वोत्तमंच गृ हाण विस्रोतसिकारहितः स्वीकुरु । पुनरपि निगमनार्थतमेव दृष्टांतं दर्शयति । यथा क श्चित् द्यूतकारः कृतं कृतयुगं चतुष्कमित्यर्थः । शेषमेककाद्यपहाय त्यक्ता दीव्यन् गृणहा ति एवं पंडितोऽपि साधुरपि शेषं गृहस्थकुप्रावचनिकपावस्था दिनावमपहाय संपूर्ण म हांतं सर्वोत्तमं धर्म गृण्हीयादिति नावः ॥ २४ ॥ उत्तरमणुयाण आदिया, गामधम्मा मे अणुस्सुयं ॥जंसी विरता समुन्यिा कासवस्स अणुधम्मचारिणो ॥ २५॥ जे एयं चरंति आदियं, नाएणं महया मदेसिया ॥ ते नक्ष्यि ते समुडिया, अन्नोन्नं सारंति धम्म ॥२६॥ Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३८ द्वितीये सूत्रकृतांगे प्रथम श्रुतस्कंधे द्वितीयाध्ययनं. 0 अर्थ- वली अन्य उपदेश कहे े. मणुयाण के ० मनुष्यने उत्तरके० जीपतां प्रति इ याहिया के० का. एवा शुं ? तोके, गामधम्मा के० ग्रामधर्म ते शब्दादिक विषय थवा मैथुन सेवन इत्यादिकने ग्राम धर्म कहिए. इति के० एरीते मेके में अस्सुयं के० श्रीवीरनगवंत पाशेथी सांनब्युं बे, एटले श्रीसुधर्मस्वामी श्रीजंबुस्वामि प्रत्ये कहे a : ग्रामधर्म जे शब्दादिक विषय बे ते मनुष्यने घणा दुर्जय श्रीवीतरागे कह्या बे, एवं में नगवंत पाथी सांजक्युं बे. तेरीते ढुं तुजने कटुंकुं तो हवे ए ग्रामधर्म याश्री. जंसी के० जे विरता के० विरतिने विषे समुठिया के० सावधान थया ते पुरुष कासव इस के० काश्यप गोत्री एटले श्रीकृषनदेव स्वामि अथवा श्रीमहावीरस्वामि एमना ध म्म के० धर्मना प्रचारिणोके अनुचारी जाणवा. ॥ २५ ॥ वली कहे बे. जेके0 जे पुरुष एवं के० ए पूर्वोक्त ग्रामधर्मने विषे विरतिलक्षण एवो जे धर्म तेने चरंति के० या ते धर्म कोणे याहियंके० कह्यो ? तोके, महया के महोटा महेसिया के० म हारुपी एवा नाएण के० ज्ञातपुत्रे कोडे. तेके० ते एवा धर्मना करनार संयम पा लवाने उहिय के उठया, सावधान यया, तथा समुहिया के सम्यक् प्रकारें कुमार्ग देशाने परित्यागे करी घणा सावधान बता प्रवर्त्ते. ते अन्नोन्नंसारंति धम्म के० परस्पर महोम धर्मकी मगता प्राणीने वली धर्मनेविषे सारंति एटले स्थापे इत्यर्थः ॥ २६ ॥ U ० ० || दीपिका - ( उत्तरेति ) । मनुजानां नराणां ग्रामधर्माः शब्दादिविषया उत्तराडुर्जय त्वात्प्रधानाजिनैराख्याताः । मयैतदनुपश्चात माकर्षितं । यतः श्रीकृषनस्वामिना स्वपुत्रा नुद्दिश्य प्रोक्तं तत्पाश्चात्यगाधरैः शिष्येभ्यः कथितं ततोमया श्रुतमिति । यस्मिन्निति पंचम्य र्थे सप्तमी । ये यो विषये ज्योविरताः समुबितानद्यताः काश्यपस्य श्रीकृषनस्य श्री वीरस्य वा संबंधी योधर्मस्तदनुचारिणोजिनोक्तधर्मकारिणः स्युः ॥ २५ ॥ ( जेएयमिति ) । ये एवंवि धाः पूर्वोक्तास्ते धर्मविषयत्यागरूपं चरंति कुर्वेति इति महता महर्षिणा ज्ञातेन श्रीवीरेणा ख्यातं । तवोचिताः सम्यङ्मार्गेन्यः समुचिताश्च कुमतिन्यस्तएवाऽन्योन्यं परस्परं ध तोधर्ममाश्रित्य धर्मतोचश्यंतं वा सारयंति धर्मे प्रवर्तयंतीत्यर्थः ॥ २६ ॥ ॥ टीका - पुनरप्युपदेशांतरमाह । ( उत्तरेत्यादि ) । उत्तराः प्रधानाः दुर्जयत्वात् । केषामुपदेशात्वान्मनुष्याणामन्यथा सर्वेषामेवेति । के ते ग्रामधर्माः शब्दादिविषयामै थुनरूपावेति । एवं ग्रामधर्माचत्तरत्वेन सर्वराख्याताः । मयैतदनुपश्चानुतं । एतञ्च सर्वमेव प्रागुक्तं । यच्च वक्ष्यमाणं तन्नानेयेनाऽऽदितीर्थकता पुत्रानुद्दिश्याऽनिहितं सत् पाश्चात्यगणधराः सुधर्मस्वामिप्रनृतयः स्वशिष्येन्यः प्रतिपादयंत्यतोमयैतदनुश्रुतमित्यन I For Private Personal Use Only Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राय धनपतसिंघ बहाउरका जैनागमसंग्रह नाग उसरा. १३ए वयं । यस्मिन्निति कर्मणि व्यब्लोपे पंचमी सप्तमीवेति । यान् ग्रामधर्मानाश्रित्य ये वि रताः । पंचम्यर्थे वा सप्तमी । येन्योवा विरताः सम्यक्संयमरूपेणोहिताः समुहितास्ते काश्यस्यर्षनस्वामिनोवर्धमानस्वामिनोवा संबंधी योधर्मस्तदनुचारिणस्तीर्थकरप्रणीतध मानुष्ठायिनोनवंतीस्यर्थः ॥२५॥ किंच (जेएइत्यादि)। ये मनुष्याएनं प्रागुक्तं धर्म ग्राम धर्मविरतिलक्षणं कुर्वति चरति । पारख्यातं झातेन ज्ञातपुत्रेण (महयेति ) महाविषयस्य झानस्याऽनन्यनूतत्वात् महान तेन तथाऽनुकूलप्रतिकूलोपसर्गसहिष्णुत्वान्महर्षिणा श्री मर्धमानस्वामिना पारख्यातं धर्म ये चरति तेएव संयमोबाने कुतीर्थिकपरिहारेणोनि तास्तथा निन्दवादिपरिहारेण । तएव सम्यक्त्वमार्गदेशनाऽपरित्यागेनोबिताः समुचिता इति नाऽन्ये कुप्रावाचनिकाजमालिप्रनृतयश्चेतिनावः । तएव च यथोक्तधर्मानुष्ठायिनो ऽन्योऽन्यं परस्परं धर्मतोधर्ममाश्रित्य धर्मतोवानश्यंत सारयंति चोदयंति पुनरपि सद प्रवर्तयंतीति ॥ २६ ॥ मापेद पुरा पणामए, अनिकंखे ग्वहिं धुणित्तए ॥ जे दूमणते हिंगोणया, ते जाणंति समादिमाहियं ॥२७॥णोकाहिए हो ऊ संजए, पासणिए गय संपसारए ॥ नच्चा धम्म अणुत्तरं कय किरिए ण यावि मामए ॥ २०॥ अर्थ-हवे जेरीते धर्मस्थापे ते रीत कहेले. पणामएके प्रणाम एटले सर्व जीवने न माडे. एवा प्रणाम ते शब्दादिक विषयरूप पुरा के पूर्वला नोगव्या नोग तेने मापेह के न चिंतवे. केमके तेनुं चिंतव, पण महा अनर्थनुं कारण. तो ए शब्दादिक विषय ने सेववानुं गुंकहे ? तथा अनिकंखे के धागमिक काले नपजनार जे विषय तेने प ण न वांडे, तेनी अनिलाषा न करे, तथा तेने दूर करवा वांडे. तोयात्माने जे उवहिंके० उपधि एटले माया अथवा अष्टप्रकारे कर्म तेने धुणित्तए के० पोताथकी दूर करे. त था जे दूमणतेहिं के० उष्ट मनना करनार एवाजे शब्दादिक विषय तेने विषे गोण्याके० नम्या नथी. अथवा उष्ट धर्मना करनार एवा जे कुतीर्थिक तेनां कहेला जे अनुष्ठान ते ना करनार थया नथी एटले तेने वशीगत थया नथी. ते जाणंति समाहिमाहियं के ते पुरुष राग, ष, परित्यागरूप जे समाधि तप धर्मध्यान तेने याहियं एटले आत्माने विषे व्यवस्थित जाणे. ए थकी जे अन्य जे तेने विषे समाधि जाणे नहीं, एवं जाणीने विषयने मे ॥ २७॥ वली उपदेशांतर कहेले. संजए के चारित्रि जे जे, ते णोकाहिए होऊ के गोचरीने विषे कथानो करनार न होय एटले विकथा न करे. अथवा विरुद रूप पैशुन्य वार्ता एटले स्त्रीयादिकनीकथा तेपण न करे. तथा पासगिएण्यके प्रश्न नकरे Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४० तिीयेसूत्रकृतांगे प्रथमश्रुतस्कंधे वितीयाध्ययनं. अथवा अनेरायें पूब्याथकी निमिनादिक कहे नहीं तथा संपसारए के अर्थकामादिक कथानो विस्तार नकरे, केमके धम्मंके ए श्रीवीतराग देवनो जे धर्म तेने अत्तरं के सर्वो तम नचा के० जाणीने विकथादि न करे एटले सम्यक् धर्म जाणवायूँ एहिज फलने,जे विकथादिकनो त्याग करवो भने सम्यक् प्रकारे क्रिया करवी ते नाव देखाडेले. कयके० कीधी रुडीपरे अन्यासीने संयमानुष्ठानरूप किरिए के क्रिया जेणे एवो बतो उत्तम साधु ते णयाविमामए के देहादिकने विषे पण ममत्व न करे ॥ २७ ॥ ॥ दीपिका-(मापेहेति )। प्रणामयंति प्रापयंति मुर्गतिं प्रणामकाः शब्दादिविषया स्तान् माप्रेदस्व मास्मर । तथा उपधिं मायां धूनयितुमपनयनायानिकांदेत् चिंतयेत् मायात्यागाय यतेतेत्यर्थः । ये नरामनोनिर्विषयैननता न तत्पराः स्युस्ते जानंति समा धिं धर्मध्यानं साहितं आसमंतात् हितं ॥२॥ (नोकाहिएति) संयतः साधुः काथिकः कथाकथकोगोचरादौ न नवेत् । प्राश्निकः प्रश्ननिमित्तकथकश्च ननवेत् । नच संप्रसारको मेघवृष्ट्यर्थकांडादिसूचककथाविस्तारको नवेत् । किंरुत्वाऽनुत्तमुत्कृष्टं धर्म ज्ञात्वा कृता अन्यस्ता क्रिया संयमानुष्टानरूपा येन सरुतक्रियोमामकोन स्यात् ममेदं वस्तु अ हमस्य स्वामीति मामकः परिगृही नस्या दित्यर्थः ॥ २७॥ ॥ टीका-किंच (मापेहेत्यादि ) उर्गतिं संसारं वा प्रणामयंति प्रव्हीकुर्वति प्राणि नां प्रणामकाः शब्दादयोविषयास्तान् पुरा पूर्व नुक्तान् मा प्रेक्ष्स्व मास्मर। तेषां स्मरणम पि यस्मान्महतेऽनर्थाय । अनागतांश्च नोदीदेत नाऽऽकांदेदिति । तथाऽनिकांदेत थ निलषेदनारतं चिंतयेदनुरूपमनुष्ठानं कुर्यात् । किमर्थमिति दर्शयति । उपधीयते ढौक्यते ऽर्गतिं प्रत्यात्मा येनाऽसावुपधिर्माया अष्टप्रकारं वा कर्म तननायाऽपनयनायाs निकांदेदिति संबंधः । उष्टधर्म प्रत्युपनताः कुमार्गानुष्ठायिनस्तीथिकाः यदिवा (दूमपत्ति) उष्टमनःकारिणउपतापकारिणोवा शब्दादयोविषयास्तेषु ये महासत्वाः न नतान प्रव्हीनूतास्तदाचारानुष्ठायिनोन नवंति तेच सन्मार्गानुष्ठायिनोजानंति विदंति स माधि रागषपरित्यागरूपं धर्मध्यानंच बाहितमात्मनि व्यवस्थितं आसमंतादित वा तएव जानंति नाऽन्यतिनावः ॥ २७ ॥ तथा (पोकाहिएइत्यादि) संयतः प्रव्राजितः कथया चरति काथिकोगोचरादौ न नवेत् । यदिवा विरुवा पैशून्यापादनी रूयादिकां वा न कुर्यात् । तथा प्रश्नेन राजादिकिंवत्तरूपेण दर्पणादिप्रश्ननिमित्तरूपेण वा चरतीति प्राश्निकोन नवेत् नाऽपिच संप्रसारकोदेवदृष्टयर्थकांडा दिसूचककथाविस्तारकोनवेदि ति । किंकृत्वेति दर्शयति । ज्ञात्वाऽवबुक्ष्य नास्योत्तरोविद्यतश्त्यनुत्तरस्तंश्रुतचारित्रा रण्यं धर्म सम्यगवगम्य तस्य हि धर्मस्यैतदेव फलं यत विकथानिमित्तपरिहारेण स Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राय धनपतसिंघ बानाउरका जैनागमसंग्रह नाग उसरा. १४१ म्यकक्रियावान् स्यादिति । तदर्शयति । कता स्वन्यस्ता क्रिया संयमानुष्ठानरूपा येन सरु तक्रियस्तथानश्च। नचाऽपि मामकोममेद महमस्य स्वामीत्येवं परिग्रहायही नवेदिति॥२॥ बन्नं च पसंस पोकरे, नय नकोस पगास मादणे ॥ तेसिं सुविवे गमाहिए,पण याजहिं सुजोसिअंधुयं ॥ २५॥ अणि सहिए सुसंवुझे, धम्मही वहाण वीरिए ॥ विहरेज समाहि इंदिए, आत्तहिअं खु उहण लप्न ॥ ३० ॥ अर्थ-तथा चारित्रि होयते बन्नं के० माया अने पसंस के लोन ते पोकरे के. नकरे, तथा उक्कोस के० उत्कर्ष एटले मान तथा पगास के० प्रकाश एटले क्रोध तेपण माहणे के साधु ते नय के नकरे, तेसिं के० ते क्रोधादिकनो सुविवेग के प रित्याग आहिए के महांत पुरुषे कह्यो तेहिज धर्मनेविषे प्रणया के सावधान थया एवा जेहिं के जे महासत्ववंत पुरुष तेणे धुयं के संयमानुष्ठान सुजोसियं के सेव्युं ते साधु जाणवा ॥ २५॥ अणिहे के० स्नेहरहित तथा सहिए के० झान, दर्शन अने चारित्रे करी संयुक्त अने सुसंवुमे के० सुसंवत एटले संवरेसहित प्रवर्ततो तथा धम्मही के धर्मनो अर्थि तथा उवहाण के० उपधान एटले तपविशेष तेनेविषे वीरिए के बलवीर्यनो फोरवनार संयम पालतो समाहिइंदिए के समाहित इंडिएटले इंडि उ वश करी जेणे, एवो तो विहरेजा के० विचरे केमके संसारमाहे जमता खुके निश्चे आत्तहिर्यके० आत्महित जे जे, ते उहेगलप्त के० कुःखेकरी जन्यमान थायडे ॥३०॥ ॥ दीपिका-(बन्नंति) मायां न कुर्यात् । प्रशस्यते सर्वैरिंजियैरिति प्रशस्योलोनस्तंच उत्क र्षमान प्रकारांक्रोधंच माहनः साधुन कुर्यादिति सर्वत्र संबंधः । तेषां कषायाणां यैर्महा त्मनिर्विवेकः परित्यागवाहितोजनितस्तएव धर्मप्रति प्रणताः प्रहीनताः । अथवा तेषां स त्पुरुषाणां सुविवेकमाहितः प्रथितः । यैः सत्पुरुषैर्जुष्टं से वितं । धूयते क्षिप्यते कर्म येन त त्धूतं संयमानुष्ठानं (अथवा यैः सुजोसिअंति)सुष्ठ पितं धूतं कर्मेति ॥ए ॥ (अणिहः अस्निहोममत्वरहितः परीषदोपस गर्न निहन्यतइत्यनिहोवा । अपहेतिपातु अनघो निरवद्यः सहितोहितयुक्तः स्वहितोवा सुसंतोधर्मार्थी । उपधानं तपस्तस्य वीर्यवान् स माहितेंडियः संयतेंडियोविरहेत् । कुतएवं यतआत्महित दुःखेन जीवैर्लन्यते । यतो दशदृष्टांतैर्मानुष्यादिकं उलनमिति ॥ ३० ॥ ॥टीका-किंच (उन्नमित्यादि) (उन्नति) माया तस्याः स्वाभिप्रायप्रसादनरूपत्वात् तां न कुर्यात् । चशब्दनत्तरापेक्ष्या समुच्चयार्थः । तथा प्रशस्यते सर्वैरप्यविगानेनायित Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४२ तीये सूत्रकृतांगे प्रथमश्रुतस्कंधे वितीयाध्ययनं. इति प्रशस्योलोनस्तं च नकुर्यात् । तथा जात्यादिनिर्मदस्थानलघुप्रकृतिं पुरुषमुत्क र्षयतीत्युत्कर्षकोमानस्तमपि न कुर्यादिति संबंधः । तथाऽतर्व्यवस्थितोऽपि मुखदृष्टि नंगविकारैः प्रकाशी नवतीति प्रकाशः क्रोधस्तं च (माहणेत्ति) साधुन कुर्यात् । तेषां क पायाणां यैर्महात्मनिर्विवेकः परित्यागवाहितो जनितस्तएव धर्म प्रति प्रणताइति । य दिवा तेषामेव सत्पुरुषाणां सुष्टु विवेकः परिज्ञानरूपया हितः प्रथितः प्रसिदिं गतस्त एवच धर्म प्रति प्रणताः। यैर्महासत्वैः सुष्टु जुष्टं से वितं ।धूयतेऽष्टप्रकारं कर्म येन तबूतं सं यमानुष्टानं । यदिवा यैः सदनुष्ठायिनिः (सुजोसिअंति) सुष्टु दिप्तं धूननार्हत्वात् धूतं कर्मेति ॥ २५ ॥ अपिच (अणिहेइत्यादि ) स्निह्यतइति स्निहः । नस्निहः अस्निहः सर्व त्र ममत्वरहितश्त्यर्थः । यदिवा परीषदोपसगैर्निहन्यतेतिनिहः ननिहो ऽनिहलप सगैरपराजितश्त्यर्थः । पाठांतरंवा । (अपहेति) नाऽस्याऽघमस्तीत्यनघोनिरवद्यानु ष्टायीत्यर्थः । सह हितेन वर्ततति सहितः सहितोयुक्तोवा ज्ञानादिनिः स्वहितया त्महितोवा सदनुष्ठानप्रवृत्तेः । तामेव दर्शयति । सुष्टु संवृतइंडियनोइंडियैर्विस्त्रोत सिकारहितइत्यर्थः । तथा धर्मः श्रुतचारित्राख्यस्तेनाऽर्थः प्रयोजनं सएवाऽर्थस्तस्यैव सनि रय॑माणत्वात् धर्मार्थः सयस्याऽस्तीति सधर्मार्थी । तथोपधानं तपस्तत्र वीर्यवान् सए वनूतो विहरेत् संयमानुष्ठानं कुर्यात् । समाहितेंशियः संयतेश्यिः । कुतएवं । यतया त्महितं दुःखेनाऽसुमता संसारे पर्यटता यस्तधर्मानुष्टानेन लन्यते अवाप्यतइति । त थाहि । नपुनरिदमतिउलन,मगाधसंसारजलधिविन्रष्टं । मानुष्यं खद्योतकतडिल्लतावि लसितप्रतिमं ॥ १ ॥ तथाहि । युगस मिला दिदृष्टांतनीत्या मनुष्यनवएव तावत् उर्लन स्तत्राऽप्यार्यक्षेत्रादिकं पुरापमित्यतयात्महितं कुःखेनाऽवाप्यतइति मंतव्यं । थपिच । न तेषु जंगमत्वं, तस्मिन् पंचेंशियत्वमुत्कृष्टं ॥ तस्मादपि मानुष्यं मानुष्येप्यायदेशश्च ।। देशे कुलं प्रधानं, कुले प्रधाने च जातिरुत्कृष्टा ॥ जातौ रूपसमृद्धी रूपे च बलं विशिष्ट तमं ॥॥ नवति बले चायुष्कं प्रकृष्टमायुष्कतोऽपि विज्ञानं । विज्ञाने सम्यक्त्वं सम्यक्त्वे शीलसंप्राप्तिरिति ॥ ३ ॥ एतत्पूर्वश्चाऽयं, समासतोमोदसाधनोपायः । तत्रच बहु संप्रा तं, नवनिरल्पं च संप्राप्यं ॥ ४ ॥ तत्कुरुतोद्यममधुना मक्तमार्गे समाधिमाधाय ॥ त्यक्त्वा संगमनार्य, कार्य सन्तिः सदा श्रेयति ॥ ५ ॥३०॥ पदि णूण पुरा अणुस्सुतं, अज्या तं तह णो समुध्यिं ॥ पा गंतरं अज्वा अवितहणो अणुध्मुिणिणा सामाश् आदितं, नाएणं जगसवदंसिणा॥३॥एवं मत्ता महंतरं,धम्ममिणं सदिया बढू जणा॥ गुरुणो बंदाणुवत्तगा,विरया तिन्न मदोघमाहितंतिबेमि॥३२ Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राय धनपतसिंघ बादाउरका जैनागमसंग्रह नाग उसरा. १४३ -- अर्थ-हवे ए जीव क्याए जे नथी पाम्यो ते देखाडेले. जे श्रीवीतरागे संयमानुष्ठान कडं. ते पुराके पूर्वे ए जीवे गुणवणुस्सुतंणहिके निवेथकीसांनयं पण नथी अवाके अथवा तंके० ते धर्म कदापि तह के तथा गोसमुहियं के रुडीरीते पाठ्युं पण नथी मुणि णा के महर्षियें शातपुत्रे सामाश्या के सामायिकादिक घणां उड़न डे, एरीते या हितं के कह्यां ते नाएणं के ज्ञातपुत्र जे श्रीमहावीर जगसव्वदंसिणा के जगत मां सर्वदर्शी तेणे कयुं ॥ ३१ ॥ एवो जाणी जे करवू ते कहेले. एवंमत्तामहंतरं के एम पूर्वोक्त प्रकारे यात्महित उर्जन जाणीने तथा धम्ममिणं के धर्मनो ए महांत अांतरो एटले धर्मनुं विशेष जाणीने सहिया के झान, दर्शन अने चारित्र सहित ब दु के० घणा एवा हलवा कार्म जणा के लोक ते गुरुणो बंदाणुवत्तगा के गुरुने बंदे प्रवर्तता एटले गुरूपदिष्ट यथोक्त संयमने पालता विरया के पापथकी विरत ते महोघ के महोटो जेनो प्रवाह , एवा संसारसमुइ थकी तिन के० तस्या. एरीते आहितं के श्रीतीर्थकर गणधरे कडं तिबेमि एटले पूर्ववत् ॥ ३२ ॥ इति श्रीवेतालि याध्ययनस्य वितीयोदेशकः समाप्तः ॥ ॥ दीपिका-(पहिणूणेति)। यन्मुनिना नातेन श्रीवीरेण जगतः सर्वनावदर्शिना सर्व झेन सामायिकादि वाहितमाख्यातं तन्नूनं निश्चितं पुरापूर्व जीर्वैर्नहि अनुश्रुतं श्रवण पथमागतं । अथवा श्रुतमपि नसमुबितं यथावन्नानुष्ठितं ॥ ३१ ॥ (एवमिति ) एवमात्म हितं फुलनं मत्वा (महंतरंति) मानुष्यादिकमवरं ज्ञात्वा एनं जैन धर्मच स्व हिताबहवोजना लघुकर्माणोगुरोलंदानुवर्तकास्तक्तमार्गानुष्ठायिनोविरताः पापेन्यइत्याख्यातं तीर्थक नि। इतिशब्दः समुच्चयार्थः । ब्रवीमीतिपूर्ववत् ॥ ३२ ॥ इतिश्रीसूत्रहतांगदीपिकायां दितीयाध्ययनस्य दितीयोदेशकः समाप्तः ॥ ॥ टीका-एतच्च प्राणिनिन कदाचिदवाप्तपूर्वमित्येतदर्शयितुमाह ॥ (णहिणूणेत्यादि)। यदेतन्मुनिना जगतः सर्वनावदर्शिना झातपुत्रीयेण सामायिकाद्याहितमाख्यातं तन्नूनं निश्चितं । नहि नैव पुरापूर्व जंतुनिरनुश्रुतं श्रवणपथमायातं । अथवाश्रुतमपि तत्सामा यिकादि यथावस्थितं तथा नाऽनुष्ठितं । पाठांतरंवा । (अवितहत्ति) । अवितथं यथावन्नाऽनुष्ठितमतः कारणादसुमतामात्महितं सुउर्जनमिति ॥ ३१ ॥ पुनरप्युपदे शांतरमधिकृत्याह । (एवंमत्ताइत्यादि)। एवमुक्तरीत्याऽऽत्महितं सुखनं मत्वा झा त्वा धर्माणां च महदंतरं धर्मविशेष कर्मणोवा विवरं ज्ञात्वा । यदिवा ( महं तरंति) मनुष्यार्यक्षेत्रादिकमवसरं सदनुष्ठानस्य ज्ञात्वा एनं जैन धर्म श्रुतचारित्रात्मकं स ह हितेन वर्ततति सहिताज्ञानादियुक्ताबहवोजनालघुकर्माणः समाश्रिताः संतोयु Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीये सूत्रकृतांगे प्रथम श्रुतस्कंधे द्वितीयाध्ययनं. रोराचार्यादेस्तीर्थकरस्य वा बंदानुवर्त्तकास्तटुक्तमार्गानुष्ठायिनोविरताः पापेन्यः कर्मयः संतस्ती महौघमपारं संसारसागरमेवमाख्यातं मया जवतामपरैश्व तीर्थक निरन्येषां । इ तिशब्दः परिसमात्यर्थे । ब्रवीमीति पूर्ववत्॥ ३ ॥वैतालीयस्य द्वितीयोदेशकः समाप्तः॥२॥ ॥ अथ वैतालीयाध्ययनस्य तृतीयोदेशकस्य प्रारंभः ॥ १४४ संवुमकम्मस्स निरकुणो, जं डुकं पुढं बोहिए ॥ तं संजमन्त्र चिकाई, मरणं देव वयंति पंमिया ॥१॥ जे विन्नवणा जोसिया, संतिनहिं समं विहादिया ॥ तम्हा नति पासदा, प्रदरकुकामाइरोगवं ॥ २ ॥ ० ० ० अर्थ- हवे त्रीजो उद्देशो प्रारंनियेवैयेः बीजा उद्देशामां चारित्र पाल कह्युं ते चारि त्र पालतां कदाचित् परिसह यावेतो सहन करवा एवो नाव कहेबे, संवुम के० संव स्याले कम्मरस के० मिथ्यात्वादिक कर्म जेणे एवा निस्कुलो के० साधुने जंडुरकं के० जे दुःख भोगवतां दोहिलां अथवा तेनां कारण जे अष्ट प्रकारना कर्म बोहिए के० ज्ञानपणे पुढं के० बांध्यांबे, निकाचित करवाले तके ते संजम के सत्तर प्रकार ना संयमे करी चिई के दो को खुटेबे ; जेम तलावनुं पाणी सूर्यना किरणे करी सर्वदा छणे कुणे खूटेबे, तेम चारित्रियानां कर्म ते तप ने संयमे करी खूटेबे, मरणं देवमिया के० तथा संवृति यात्मा ते पंमित मरण एटले जन्म, जरा, मरण शोकादिक बांकी वयंति के मोदे पोहोचे. अथवा एरीते वयंति पंमिया के० जे पंति विवेकी सर्वज्ञ बेते कहेले. ॥१॥ हवे जे विरति रुडा अनुष्ठानना करनारले, ते ते हिज नवे मोदे जाय. ते याश्री कहेले. जे के० जे महासत्ववंत पुरुष विन्नवाके० जे कामार्थ पुरुषे विनंती कराय ते कारणमाटे विनवणा शब्दे स्त्री कहिए, तेने जो सियाके ० नसेवे तथा रुडे याचारे करी संतिन्नेहिं के० संतीर्ण शब्दे संसार थकी मूकाला स विविया के सरखा ह्या तम्हा के० तेकारणे उर्हति के ० चचुं एवं जे मोह तेने पास हा के० जोयुं वली जेणे दरकूकामाइरोगवं के० कामनोग जे बे तेने रोगनीपरे दीवा ॥ २ ॥ ० ॥ दीपिका - उक्त द्वितीयोदेशकः सांप्रतं तृतीयः समारम्यते तस्यायमधिकारः । पूर्वं वि रताइत्युक्तं तेषां च कदाचित् परीषदायपि उदीर्येरन् ते सम्यक् सोढव्याइत्यनेन संबंधेना यातस्यास्योद्देशकस्येदमादिसूत्रं ॥ ( संवुडेति ) संवृतं निरुद्धं कर्म येन तस्य संवृतकर्मणः साधोःखं यत् स्पृष्टं बधं तदबोधिना यज्ञानेनोपचितं सन्नसंयमतोऽपचीयते दीयते । ते संवृतात्मानोमरणं उपलक्षणाद्धातिशोकादिकं च हित्वा त्यक्त्वा मोक्षं व्रजंति पंडिताः ॥ १ ॥ ( जेवति ) । कामार्थिनिर्विज्ञाप्यंते प्रार्थ्यतइति विज्ञापना स्त्रियस्तानि For Private Personal Use Only Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राय धनपतसिंघ बादाडुरका जैनागमसंग्रह जाग दुसरा. १. ४८ जुष्टासेवितास्ते संती रैर्मुक्तः समं व्याख्याताः । धतीर्णापि ते संसारं तीर्लाइव स्यु रित्यर्थः ॥ तस्मादूर्ध्वमोक्षं यूयंपश्यत ये च कामान् रोगवत् रोगतुल्यान् श्रातुर्दृष्ट वंतस्तेपि तीर्णसमाइत्यपि पश्यत । यतः पुष्फफलाणं च रसं सुराइमंसस्स महिलि या च ॥ जातो जे विरया, ते डुक्करकारएवंदे ॥ २ ॥ ॥ टीका - नक्तोद्वितीयोदेशक: सांप्रतं तृतीयः समारज्यते ॥ यस्य चाऽयमनिसंबं धः । इहानंतरोदेशकांते विरताइत्युक्तं तेषांच कदाचित्परीषदाः समुदीर्येरन्नतस्तत्स हनं विधेयमित्युदेशार्थाधिकारोऽपि निर्युक्किकारेणाऽनिहितः । यथाऽज्ञानोपचितस्य क लोऽपचयोजवतीति सच परीप हसहनादेवेत्यतः परीषदाः सोढव्याइत्यनेन सं बंधेनाऽऽयातस्याऽस्योदेशकस्याऽदिसूत्रं । ( संतुमकम्मस्सेत्यादि) । संवृतानि रुक्ष नि कर्मानुष्ठानानि सम्यगुपयोगरूपाणि वा मिथ्यादर्शनाविरतिप्रमादकषाययोगरूपा णि वा यस्य निहोः साधोः सतथा तस्य यत् दुःखमसदेद्यं तदपादाननतं वाऽष्टप्र कारं कर्म । (टमिति) ब६स्टष्टनिका चितमित्यर्थः । तच्चाऽत्राबोधिना यज्ञानेनोपचितंः सत् संयमतोमोनोक्तात् सप्तदशरूपादनुपानादपचीयते प्रतिक्षणं कयमुपयाति । एतडुक्तं नवति । यथा तटाकोदरसंस्थितमुदकं निरुद्वापर प्रवेश द्वारं सदादित्यकरसंप तू प्रत्यहमपचयते । एवं संवृताश्रव द्वारस्य निकोरिंडिययोगकषायं प्रति संजीनत या संवृतात्मनः सतः संयमानुष्ठानेन चाऽनेकनवाज्ञानोपचितं कर्म कीयते । ये च सं वृतात्मानः सदनुष्ठायिनश्च ते हित्वा त्यक्त्वा मरणं मरणस्वनावमुपलक्षणत्वात् जाति जरामरणशोकादिकं त्यक्ता मोक्षं व्रजंति पंडिताः सदसद्विवेकिनः । यदि वा पंडिताः सर्व झाएवं वदति यत् प्रागुक्तमिति ॥ १ ॥ येऽपिच तेनैवं नवेन च मोकमाप्नुवंति तान धिकृत्याह । (ये विन्नवणेत्यादि) ये महासत्वाः कामार्थिनिर्विज्ञाप्यंते यास्तदर्थिन्यो वा कामिनं विज्ञापयंति ताविज्ञापनाः स्त्रियस्ता निरजुष्टाय सेविताः दयं वा व्यवसाय लक्षणमतीतास्ते संतीर्णैर्मुक्तैः समं व्याख्याताः । प्रतीयपि संतोयतस्ते निष्किंचन तया शब्दादिषु विषयेष्वप्रतिबद्धाः संसारोदन्वतस्तटोपांतवर्तिनोजवंति । ( तस्मादूर्ध्वमि ति ) मोक्षं योषित्परित्यागादूर्ध्वं यद्भवति तत्पश्यत यूयं । येच कामान् रोगव व्याधि कल्पान् दृष्टवंतस्ते संतीर्णसमाव्याख्याताः । तथाचोक्तं । पुष्पफलापंचरसं, सुराइमंसस्समद नियाणंच ॥ जाणंताजे विश्या, तेडुक्करकारएवंदे ॥ १ ॥ तृतीयपादस्य पाठांतरं वा । उट्टंतिरियं हेतहा. ऊर्ध्वमिति सौधर्मादिषु तिरियमिति तिर्यक्लोके ख धइति नवनपत्यादी कामास्तान रोगवदातुर्ये ते तीर्णकल्पाव्याख्याताइति ॥ २ ॥ १० Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४६ तिीयेसूत्रकृतांगे प्रथमश्रुतस्कंधे वितीयाध्ययनं. अग्गं वणिएहिं आदियं धारंति राणिया श्द ॥एवं परमा महत्वया, अ स्कायान सराइनोयणा॥३॥ जे इक सायाणगा नरा, अनोववन्ना कामे हिं मुनिया ॥ किवणेणसमं पगप्निया, न विजाणंति समाहिमादितं ॥४॥ अर्थ-वली उपदेश याश्री कहेजे.जेम वणिएहिं के वणिके अग्गंके अग्र एटले प्रधान एवां रत्नवस्त्रानरणादिक देशांतर थकी, बाहियंके याण्या तेने इह के आमनुष्यलोकमांहे राणिया के राजा अथवा मोहोटा व्यवहारवंतपुरुषजे होय तेज धारंति के धारण करेने एटले पहेरेले एवं के एप्रकारे परमा के प्रधान रत्नतुल्य एवाजे महत्वया के पांच महाव्रत ते सराश्नोयणा के बहारात्रीनोजन विरमण सहित व्रत ने अरका यान के आचार्य प्राण्या तेने साधुज धारणकरे अने सारीरीते पाले ॥३॥जे के जे इह के० थाजगतने विषे सायाणुगा के सुखशिलीया त्रण गारवेंकरी अनोववन्ना के अध्युपपन्न एटले सहित तथा कामेहिंमुखिया के कामनोगने विषे मूर्बित ते किवणे एसमं के ० कृपण एटले दीन, कायर सरखा पगप्निया के धीठा एटले अल्पदोषे अमारो निर्मल संयम शी रीते मलिन थशे? एवीरीते धृष्टपणुकरनार जे होय ते समाहिमाहितं के श्रीवीतरागनो कह्यो एवो जे समाधिनो मार्ग तेने नविजापंति के० नजाणे ॥४॥ ॥ दीपिका-(अग्गमिति) अयं प्रधानं रत्नानरणादिकं वणिग्निर्देशांतरादाहितं ढकितं राजानस्तत्तुल्याइह मनुष्यलोके धारयति बिचति । एवं रत्नतुल्यानि परमाणि प्रधानानि म हाव्रतानि पंचसरात्रिनोजनानि त्रिरात्रिनोजनविरमणषष्ठानि आख्यातान्याचारि ति तानि महासत्वाः साधवोधारयंति नान्ये इति तात्पर्यार्थः ॥ ३ ॥ (जेश्हेति )। ये इह मनुष्यलोके सातानुगाः सुखशीलानराशदिरससातागौरवेष्वध्युपपन्नागृहा स्तथा का मेषु इनामदनेषु माताः सतृमाः संतःकृपणेन दीनेन इंघियपराजितेन समास्त कामा सेवने प्रगल्नितावृष्टतां गताः किमनेनाऽसम्यक् प्रत्युपेवणादिस्तोकदोषेणास्मचारित्रविरा धना नाविनीत्येवं प्रमादवंतोदृष्टाः शनैः समस्तमपि संमलिनयंति । एवंजूतास्ते समा धिधर्मध्यानादिकमाख्यातं कथितमपि नजानंति ॥ ४ ॥ ॥ टीका-पुनरप्युपदेशांतरमधिकृत्याह । (अग्गंवेत्यादि ) अयं वयं प्रधानं रत्नवस्त्रा जरणादिकं । तद्यथा वणिग्निर्देशांतरादाहितं ढौकितं राजानस्तत्कल्पाईश्वरादयः इहा ऽस्मिन्मनुष्यलोके धारयंति बिनति एवमेतान्यपि महाव्रतानि रत्नकल्पानि आचराख्या तानि योजितानि सरात्रिनोजनविरमणषष्टानि साधवो बिचति । तुशब्दः पूर्वरत्नेन्यो महाव्रतरत्नानां विशेषापादकइति । इदमुक्तं नवति । यथा प्रधानरत्नानां राजानएव Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राय धनपतसिंघ बादाउरका जैनागमसंग्रह नाग उसरा. १४७ नाजनं एवं महाव्रतरत्नानामपि महासत्वाएव साधवोनाजनं नान्ये इति ॥३॥ किंच (जेश्हेत्यादि) ये नरालघुप्रकृतयश्हाऽस्मिन् मनुष्यलोके सातं सुखमनुगवंतीति सा तानुगाः सुखशीलाऐहिकामुमिकाऽपायनीरवः समृदिरससातागौरवेष्वध्युपपन्नाग दाः। तथा कामेषु इबामदनरूपेषु मूर्बिताःकामोत्कटतृप्माः। कृपणोदीनोवराककइंडियः पराजितस्तेन समास्त इत्कामासेवने प्रगहिनतावृष्टतां गताः । यदिवा किमनेन स्तोकेन दोषेणाऽसम्यक्प्रत्युपेक्षणादिरूपेणाऽस्मत्संयमस्य विराधनं नविष्यत्येवं प्रमादवंतः कर्तव्येष्ववसीदंतः समस्तमपि संयमं पटवन्मणिकुहिमवना मलिनीकुर्वति । एवंनूताश्व ते समाधिधर्मध्यानादिकमाख्यातं कथितमपि न जानंतीति ॥ ४ ॥ वाहेण जहा व विचए,अबले हो गवं पचोइए। से अंतसो अप्पथामए नाश्वद अबले विसीयति॥५॥एवं कामेसणं विक अङसुए पयदे ऊ संयवं ॥ कामी कामेण कामए, लश्वावि अलकण्हई ॥६॥ अर्थ-वली उपदेशांतर कहेजे. जहाव के जेम वाहेणके व्याध एटले आहेडी ते मृगादिक पशुने विचएके० त्राशदेतो बतो ते गवंके मृगादिक अबले होश्के ० बलरहित थाय. क्याए जश्शनहीं. अथवा वाहेणके गाडानो वाहक एटले सांधडी तेणे जेम विषम मागेने विषे गवंके० बलदने पचोश्तेके पराणे प्रेरणा करीखेड्यो तो बलरहि त थायः पनी से के० ते बलदने अंतसो के० मरणांत सुधी जो कष्ट थापे तो पण अप्पथामए के अल्प सामर्थ्यपणाने लीधे नाश्वतश्के चाली नशके. अबलेविसीय ति के निर्बनपणाथी तेहिज कादवमां विषम मार्गे खूतो रहे ॥५॥ हवे ए दृष्टांत पुरु ष साथे मेलवे एवं के ए पूर्वोक्त न्याये काम के शब्दादिक विषय तेनी एसएं के गवेषणा एटले प्रार्थना तेनेविषे विक के निपुण बासक्त तो ते पुरुष सिदाय परंतु कामनोगने बांकी नरके: कामनोगरूप कर्दमने विष खुतो एवो बतो अङसुएके आज अथवा काले संथवं के० ए कामनोगनो संबंध पयहेजकेल बांदोश. एम चिंतवे; पण निर्बल बलदनी परें बांझी नशके एमजाणी संवेग आणीने कामी के कामि पुरु षे कामेण के कामनोग वांबवा नही वली कामएल देवावि के० ते कामनोगने साधा थका पण अलकाह के अणलाधा एटले अणपाम्या सरखा करे. कोइएक निमि ते बुज्यो बतो जंबुस्वामि तथा वेरस्वामिनी पेरे निस्टहीथाय. ॥ ६ ॥ ॥ दीपिका-(वाहेणेति )। व्याधेन लुब्धकेन यथा(गवंति)। मृगादिपशुः विकृतोवि विधप्रकारेणदतः पीमितः प्रचोदितः श्रमं प्रापितः सन्नबलोगंतुमसमर्थः । अथवा या Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४७ वितीये सूत्रकृतांगे प्रथमश्रुतस्कंधे वितीयाध्ययनं. हयतीतिवादः शाकटिकस्तेनाऽवहन गौः प्रतोदादिना दतः प्रेरितोपि अबलोविषमपणे गंतमसमर्थः स्यात सचांतशोमरणांतमपि यावत अल्पस्थामाऽल्पसामोनोनारं वोदें शक्नोति एवंनतश्चतत्रैव पंकादौ विषीदति ॥ ५ ॥ दाटीतिकमाह । ( एवमिति )। एवं पूर्वोक्तदृष्टांतेन कामानां शब्दादीनां या गवेषणा प्रार्थना तस्यां विज्ञान निपुणः कामप्रार्थ नासक्तोऽद्य श्वोवा संस्तवं कामसंबंधं प्रजह्यात् । नवा बलोवर्दश्व विषममार्गकामान् त्य तुमनं । किंच नवैहिकामुष्मिकापायनीरुः कामीनूत्वा प्राप्तानपि कामान् कामयेताऽनि लषेत वैरस्वामी जंबूस्वामिनामादिवत् तथाढुनककुमारवत् कुतश्चिन्निमित्तात् । सुतु गाश्यं सुवाश्यं मुनेञ्चिअंसामसुंदरि ॥ अणुपालिथदीहराश्यं उसुमिते मापमायह । इत्यादि प्रतिबुझोलब्धानपि कामान् लब्धसमान मन्यमानोनिस्टहास्यात् ॥ ६ ॥ ॥ टीका-पुनरप्युपदेशांतरमधिकल्याह (वाहेणेत्यादि) व्याधेन लुब्धकेन (जहावत्ति) यथा (गवत्ति) मृगादि. पशुर्विविधमनेकप्रकारेण कूटपाशादिना कृतः परवशीकृतः श्रमं वा ग्राहितः प्रणोदितोऽप्यबलोजवति जातश्रमत्वात् गंतुमसमर्थः । यदिवा वाहय तीति वाहः शाकटिकस्तेन यथावदवहन् गौर्वि विधं प्रतोदादिना दतः प्रचोदितोऽप्य बलोविषमपदादौ गंतुमसमर्थोनवति । सचांऽतशोमरणांतमपि यावदल्पसामर्थ्या नाऽतीव वोढुं शक्नोति । एवंनूतश्चाऽबलोनारं वोढुमसमर्थस्तत्रैव पंकादौ विषीदतीति ॥ ५ ॥ दाष्र्टीतिकमाह (एवमित्यादि) एवमनंतरोक्तया नीत्या कामानां शब्दादीनां वि पयाणां या गवेषणा प्रार्थना तस्यां कर्तव्यायां विज्ञान निपुणः कामप्रार्थनासक्तः शब्दा दिपंके मनः सचैवंनतोऽद्य श्वोवा संस्तवं परिचयं कामसंबंध प्रजह्यात् । किलेत्येवम ध्यवसाय्येव सर्वदाऽवतिष्ठते।नच तान् कामान् अबलोबलीवर्दवत् विषमं मार्ग त्यक्तुमलं । किंच नचैहिकामुष्मिकापायदर्शितया कामीनूत्वोपपन्नानऽपि कामान् शब्दादिविषयान् वैर स्वामिजंबूनामादिवा कामयेतानिलषेदिति । तथा कुनककुमारवत् कुतश्चिन्निमि नात् ! सुष्टुगाश्य मित्यादिना प्रतिबदोलब्धानप्यप्राप्तानपि कामान् लब्धसमान् मन्य मानोमहासत्वतया तन्निस्टहोनवेदिति ॥ ६ ॥ मापन असाधुता नवे, अच्चेदी अणुसास अप्पगं ॥ अहियंच असादु सोयती, संथणती परिदेवती बहु॥७॥जीवियमेव पासदा, तरुणे एव वाससयस तुट्टती॥त्तरवासेय बुप्नद, गिधनरा कामेसु मुबिया ॥७॥ अर्थ-हवे शावास्ते कामनोगनो त्याग करवो ते कहेले. मापन के रखे, प बी मरणकाले नवांतरने विषे ए कामनोगनी सेवाये करी असाधुतानवे के० असाधु Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राय धनपतसिंघ बादाउरका जैनागमसंग्रह नाग उसरा. १४ए पणाथकी उर्गति गमनरूप थाय. एवं जाणी पोतानो प्रात्मा विषयना संग थकी अ वेही के दूर करे तथा अणुसासथप्पगं के० पोताना यात्माने शीखवे के, रे जीव अ साधु कर्मने प्रमाणे तुं मुर्गतियें गयो थको सुःखी थईश तथा अहियंचके अत्यंत थ सादु के असाधु कर्मने प्रमाणे सोयती के शोचकरीश संथणती के० हे जीव तुज ने परमाधार्मियें पीडयो थको गाढा बाकरा शब्द करीश, तथा परिदेवश्बदु के० घणा विलाप करीश. हे माय ? हुँ मरुबु, या वखत मने राखनार कोई नथी इत्यादिक अनेक आक्रंद करीश एवं कहीने यात्माने शीखामण यापे. ॥७॥ वली इहके आ सं सारमाहे धनधान्यादिक पदार्थ तो दूररह्या, पण जीवियमेव के एकलुं जीवितव्य पणुज पासह के देखो तेएवं तो असाश्वतुं ने के, दणेकणे विनाशशील. कोश्क तो तरुणएव के तरुण पणेज विनाशपामे वाससतस्सतुती के चालता समयमा घणुतो शो व र्षनुं आयुष्य, तेपण आहेडे बेटेजे जेमाटे ते आयुष्य सागरोपमनी अपेक्षायेतो मेषो न्मेष प्रायें इत्तरवासेय के ० इत्वर एटले अल्प वर्ष सरखं थाय. एवं जाणीने रे जीव बुऊह के बुजो के, एवीरीतनो श्रायुष्यनो नरोशो बता पण गिधनराकामेसुमुखियाके । एकेक पुरुप गृबता कामनोगने विषे मूर्चित रहेने ? तेनरकादिक पीडाने पामे ॥७॥ ॥ दीपिका-(मापजेति पश्चान्मरणकाले नवांतरेवा मानुषंगादसाधुता कुगतिरूपा मानवेत् माप्राप्नुयादित्यतोविषयेन्ययात्मानमत्येहि त्याजय । तथा आत्मानमनुशास्तिं कुरु । यथा जीव असाधुरगुनकर्मकारी अधिकं उर्गतौ गतः शोचति । सच परमाधार्मिकैः कदर्थ्यमानस्तियतु तुदादिवेदनाग्रस्तः स्तनत्यानंदति परिदेवते विलपति बदपि इत्या त्मानुशासनंकुरु ॥ ७ ॥ (इहेति ) इह संसारे प्रास्तांतावदन्यत् । जीवितमायुरेवाऽनि त्यं पश्यत प्रतिदणमावीचीमरणसन्नावात् । तथा सर्वायुःक्ष्यातरुणएव त्रुटयति च्यव ते । अथवा सांप्रतं सुबहप्यायुर्वर्षशतं तच्च सागरोपमापेक्ष्या कतिपयमेषोन्मेषप्रायत्वा त् इत्वरवासकल्पं स्तोकवासतुव्यमिति बुध्यध्वं । एवंनतेप्यायुषि गृवानराः कामे मूर्जिताया सक्तानरकादिपीडां लनंतइति शेषः ॥ ७ ॥ ॥ टीका-किमिति कामपरित्यागोविधेयइत्याशंक्याह । (मापबेत्यादि ) मापश्चान्मरण काले नवांतरेवा कामानुषंगादसाधुता कुगतिगमनादिकरूपा नवेत् प्राप्नुयादिति । अतो विषयासंगादात्मानमत्येहि त्याजय । तथात्मानं चाऽनुशाध्यात्मनोऽनुशास्तिं कुरु । यथा हेजीव योह्यसाधुरसाधुकर्मकारी हिंसानृतस्तेयादी प्रवृत्तः सन् उर्गतोपतितोऽधिक मत्यर्थमेवं शोचति सच परमाधार्मिकैः कदर्यमानस्तिर्यटु वा हुधादिवेदनाग्रस्तो Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५० वितीये सूत्रकृतांगे प्रथमश्रुतस्कंधे द्वितीयाध्ययनं. ऽत्यर्थ स्तनति सशब्दं निःश्वसिति । तथा परिदेवते विलपऽत्याकंदति । बव्दिति। हामातम्रियतशति त्राता नैवाऽस्ति सांप्रतं कश्चित् किंशरणं मेस्यादित्याह । पुष्कतचरि तस्य पापस्येत्येवमादीनि फुःखान्यऽसाधुकारिणः प्राप्नुवंतीत्यतोविषयानुषंगोन विधेय त्येवमात्मनोऽनुशासनं कुर्विति संबंधनीयं ॥७॥ किंच (इहजीवियमेवेत्यादि) । इहाऽस्मि न् संसारे पास्तां तावदन्यजीवितमेव सकलसुखास्पदमनित्यताऽघ्रातं यावीचिमरणेन। प्रतिदणं विशरारुस्वनावं तथा सर्वायुःदयएव वा तरुणएव युवैव वर्षशतायुरप्युपक्रम तोध्यवसाननिमित्तादिरूपादायुषत्रुट्यति प्रज्यवते । यदिवा सांप्रतं सुबव्हप्यायुर्वर्षशतं तच तदंते त्रुटयति । तच्च सागरोपमापेक्ष्या कतिपय निमेषप्रायत्वात् इत्वरं वासकल्पं वर्तते स्तोकनिवासकल्पमित्येवं बुध्यध्वं यूयं । तथैवंजूतेऽप्यायुषि नराः पुरुषालघु प्रकृतयः कामेषु शब्दादिषु विपयेषु गृक्षाअध्युपपन्नामूर्बितास्तत्रैवाऽसक्तचेतसोनरकादि यातनां स्थानमाप्नुवंतीति शेषः ॥ ७॥ जे इह आरंननिस्सया, आत्तदंमा एगंतलूसगा॥गंता ते पावलोगयं, चिररायं आसुरियं दिसं॥ए॥णय संखय मादु जीवितं, तदविय बाल जणो पगप्नई ॥ पञ्चुप्पन्नेण कारियं, कोदहुं परलोकमागते ॥१॥ अर्थ-जेह के जे या मनुष्य लोकमांहे महामोहाकुलित पुरुष आरंन के आ रंन हिंसादिक सावद्यानुष्ठानने विषे निस्सिया के निश्रित एटले आसक्तले, ते पुरुष आत्तदंमा के आत्माने दंमनार तथा एगंतनूसगा के एकंत जीवना प्राणने सूसना र अथवा सद् अनुष्ठाननेनुसनार, गंताते पावलोगयं के० एवा पुरुष पापलोक एटले जे गतिमां पापकर्मना करनार जाय, ते गतिमां जशे किंबहुना चिररायं असुरियं दिसं के चिरकाल सुधी नरकादिकना मुःख पामसे. यद्यपि ते अहान कष्टने प्रनावे कदाचित् देवगति पामे तोपण असुरिगति एटले किल्बिषीयादिकनी गति पामे ॥॥ वली कहे एण यसंखयमाहुजीवितं के सर्वझे एम कडं के, त्रुटयुं आयुष्य संधाय नही तहविय के तोपण बालजयो के बाल अज्ञानी लोक ते निर्विवेकी पणे पगप्नई के० पृष्टपणुं क रेले, ते कहेले, कोइ एक पंमिते धर्मने विषे प्रेसोबतो ते नरविवेकी पुरुष एम कलेके पचुप्पन्नेणकारियं के अमारा प्रत्युत्पन्न जे वर्तमान सुख तेनी साथेज अमारो कार्य में, कोणजाणे परलोक किंवा नयी कोदउँ परलोगमागते के परलोकने कोण देखी याव्योडे, जे देखीने परलोकथी आव्यो होय ते अमोने कहेतो मान्य करीये इत्यादि क पृष्टपणानी वातो करे. ॥ १० ॥ ॥ दीपिका-जेश्हेति। ये केचन इह लोके पारंननिःश्रिताधारंनसंबवावात्मानं दंडयं Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राय धनपतसिंघ बानाउरका जैनागमसंग्रह नाग उसरा. १५१ तीत्यात्मदंडकाः । तथा एकांतेन खूषकाजंतूनां हिंसकास्ते पापलोकं नरकादिगति गंता रोयास्यति चिररात्रं प्रनूतकालं तन्निवासिनोनवंति । तथा बालतपश्चरणादिना यद्य पि देवत्वप्राप्तिस्तथाप्यासुरीदिशं यांति किदिबषिकादेवाऽधमाः स्युरित्यर्थः ॥ ७ ॥ (न येति । नचनैव संस्कृतमायुस्युटितमायुर्न संस्कर्तुं संधातुं शक्यमेवमादुः सर्वज्ञाः । तथापिच एवं सत्यपि बालजनोमूखलोकः सावद्यं कृत्यं कुर्वन् प्रगल्लतेऽसदनुष्ठानेनापि नलक ते । एवं पापकर्माणि कुर्वन् परेण प्रेरितोवक्ति । प्रत्युत्पन्नेन वर्तमानकालेनास्माकं कार्य व तीतानागतयोर्विनष्टाऽनुत्पन्नत्वादसत्वं तस्मादिह लोकएव विद्यते नपरलोके । यतः । ए तावानेव लोकोयं यावानिंडियगोचरः । नवकपदं पश्य यक्षदंत्यबहुश्रुताइति ॥ १७ ॥ ॥ टीका-अपिच (जेश्हेत्यादि) ये केचन महामोहाकुलितचेतसाहाऽस्मिन्मनुष्य लोके आरंने हिंसादिके सावद्यानुष्ठानरूपे निश्चयेन श्रिताः संबहाअध्युपपन्नास्ते आत्मानं दंडयंतीत्यात्मदंडकास्तथैकांतेनैव जंतूनां खूषकाहिंसकाः सदनुष्ठानस्य वा ध्वं सकास्ते एवंनतागंतारोयास्यंति पापं लोकं पापकर्मकारिणां योलोकोनरकादिश्चिर रात्रमिति प्रनतं कालं तन्निवासिनोनवंति । तथा बालतपश्चरणादिना यद्यपि तथावि धदेवत्वापत्तिस्तथाऽप्यासुराणामियमासुरी तां दिशं यांति । अपरे प्रेष्याः किदिबषिका देवाऽधमानवंतीत्यर्थः ॥ ए ॥ किंच (एण्यसंखयेत्यादि) नचनैव त्रुटितं जीवितमायुः संस्कत्ते संधातुं शक्यते एवमादुः सर्वज्ञाः । तथाहि दमकलियं करित्तावचंति दुराइयदि वसाय थानसंचेनंता गयाय पुणोनाणनियत्तंति । तथाऽप्येवमपि व्यवस्थिते जीवानामायु वि बालजनोऽन्योलोकोनिर्विवेकतया असदनुष्ठाने प्रवृत्तिं कुर्वन् प्रगल्नते धृष्टतां या त्यसदनुष्ठाने नाऽपि लङतश्त्यर्थः । सचाऽन्योजनः पापानि कर्माणि कुर्वन् परेण चो दितोधृष्टतया अलीकपांडित्यानिमानेनेदमुत्तरमाह । प्रत्युत्पन्नेन वर्तमानकालनाविना परमार्थतोऽतीतानागतयोर्विनष्टानुत्पन्नत्वेनाऽविद्यमानत्वात् कार्य प्रयोजनं प्रेक्षापूर्व कारिनिस्तदेव प्रयोजनसाधकत्वादाडीयते । एवंच सतीह लोकएव विद्यते नपरलोक ति दर्शयति । कः परलोकं दर्शयति कं परलोकं कोदृष्टेहायातस्तथाचोचुः । पिब खादच साधु शोनने यदतीतं वरगात्रि तन्न ते। नहि नीरुगतं निवर्तते समुदयमात्रमिदं कलेवरं। तथा एतावानेव पुरुषोयावानिडियगोचरः॥ नकपदं पश्य यदंत्यबहुश्रुताइति ॥१०॥ अदरकुव दरकुवादियं,सहदसु अदरकुदंसणा॥हंदि दु सुनिरुद्ध दसणे,मोहणिजेण कडेण कम्मुणा॥२२॥ उरकी मोदे पुणोपुणो, निविदेसि लोगपूयणं ॥ एवं सहिते दियासए, आयतुल पा णेहिं संजए ॥ १२॥ Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५२ वितीये सूत्रकृतांगे प्रथमश्रुतस्कंधे वितीयाध्ययनं. अर्थ-हवे एवं धृष्टपणुं करे तेने उपदेश कहेले, अहो अदरकुव के अंध सरखा पुरुषो दरकुव के त्रणवननो देखनार एवो सर्वझजे श्रीवीतरागदेव तेनो श्राहियंके कहेलो जे श्रीसिद्धांत तेने सदहसु के० सईहे, तुं केवो ? तोके, अदरकुदंसणा के अंध ज्ञानदृष्टीरहित एवाजे , तेमना दर्शनने विषे प्रवर्तनहारने माटे तने बोलाविये बैये के अहो ? अदरकुदंसणा तुं श्रीवीतराग परमात्मानोनाप्युंजे सिक्षांत तेनानपर श्र भाकरीने हंदि के तेने गृहणकर अने आलोकना सुखटालीने परलोक उपर कोण नरोशो राखे, परलोकतो नथी इत्यादिकजे तुं बोले, ते ताहारं बोल अयोग्यजे; केमके वर्तमा नकाल टालीने अतीत अनागत नही मानीश तो पितामहादिक पुत्रपौत्रादिक एपण न थी, एम पण कहेवूपडशे परंतु एवीरीतना ताहारा बोलवा थकी एम जाणीये बैये जे सु के सुष्ट पणे तुं निरुदंसणे के निरु दर्शने, एटले सर्वदा शानदृष्टीरहितबो, मोह णिकणकडेण कम्मुणाके मोहनीयकर्मकरीअथवा ज्ञानावरणादिक कर्मेकरी ताहरो दर्श न रुंधाणुळे तेमाटे तुं जैनमार्ग सईहतो नथी, माटे ए तारो मत मूकीने सूत्रना सत्यमा गेनी सर्दहणा कर ॥११॥ वली उपदेश कहेले एवा वचननो बोलनार उरकीके कुःखीबतो मोहेपुणोपुणो के वली वली मोह पामे एटले वली तेनेज समाचरे जे थकी संसार मांहे अनंतो काल परिभ्रमण करे. एवं जाणी मोह मूकीने जे संयमने विपे प्रवते ते उत्तम पुरुष जाणवो, निविदेऊसिलोगपूयणं के ते आत्मश्लाघा स्तुति लोकपूजा तथा वस्त्रादिक लानना उत्कर्षने न वां, एटले ए सर्वनो त्यागकरे. एवं के० ते एम करतो सहितेहिं के झानादिक सहित को संजए के संयती पाणेहिं के० सर्व प्राणीमात्र ने आयतुलंके० पोताना आत्मा तुल्यकरी पासएके देखे, ए रीते दया पाले ॥१॥ दीपिका-एवं नास्तिकेनोक्तेसत्युत्तरमाह । (अदरकवेति ) पश्यतीतिपश्यः नपश्यो ऽपश्यधिस्त दंधवत् हेअंधतुल्य पर्यन सर्वेझेन थारख्यातं सर्वज्ञागमं श्रस्व प्रमाणीकुरु। तथाऽपश्यकस्यासर्वस्याऽन्युपगतं दर्शनं येन सोपश्यकदर्शनस्तस्यामंत्रणं हेऽपश्यकदर्श न प्रत्यक्षस्यैकस्य प्रमाणस्यांगीकारे व्यवहारलोपः स्यात् तस्मादागमं प्रमाणमिति । क स्मादेवमुपदिश्यतइत्याह । (हंदीत्यादि) हंदिएवंगहाण । दुशब्दोवाक्यालंकारे । मो हनीयेन स्वरूतेन कर्मणा सुष्टु निरुक्ष्मात दर्शनं सम्यगवबोधोयस्य ससुनिरु दर्शनः। ए वंविधः प्राणी सर्वोक्तं मार्ग नश्रदधते तस्मादेवं बहूपदिश्यतेइति ॥ ११ ॥ (उरवीति ) कुखीप्राणी पुनः पुनर्मोहंयाति दुःखेन विवेकविकलोनवति । निविवेकीच पुनःखी स्यात् तस्मान्मोहं परित्यज्य लोकमात्मश्लाघां पूजनं च निर्विद्येत जुगुप्सेत । परिहरेदित्यर्थः । एवमुक्तनीत्या सहहितेन वर्ततइति सहितोज्ञानादियुक्तोवा संयतः साधुः परैःप्राणिनिरा Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राय धनपतसिंघ बादाउरका जैनागमसंग्रह नाग उसरा. १५३ रमतुलामात्मतुल्यत्वं पश्यन् यथाऽत्मनोःखमप्रियं सुखंच प्रियं एवं सर्वपि प्राणिनई शाएवेति ज्ञात्वा सर्वान् प्राणिनः पालयेदित्यर्थः ॥ १२ ॥ टीका-(अदरकुवेत्यादि ) । पश्यतीति पश्योनपश्योऽपश्योंऽधस्तेन तुल्यं कार्याकार्या विवेचित्वादपश्यवत्तस्याऽऽमंत्रणं हेऽपश्यवदंधसदृश प्रत्यदस्यैवैकस्याऽन्युपगमेन कार्या कार्याननिक पश्येन सर्वझेन व्याहृतमुक्तं सर्वज्ञागमं श्रवस्व प्रमाणीकुरु प्रत्यदस्यैवै कस्याऽज्युपगमेन समस्तव्यवहार विलोपेन हंत हतोसि पितृनिबंधनस्याऽपि व्यवहारस्या ऽसिरिति । तथाऽपश्यकस्याऽपि सर्वज्ञस्याऽन्युपगमं दर्शनं येनासाऽवपश्यकदर्शनस्तस्याऽ मंत्रणं वा हेऽपश्यकदर्शन स्वतोऽर्वाकूदी नवांस्तथाविधदर्शनप्रमाणश्च सन् कार्याका र्यविवेचितयांऽधवदनविष्यत् यदिसर्वज्ञान्युपगमं नाऽकरिष्यत् यदिवाऽददोवा ऽनिपुणो वा यादृशस्तादृशोवाऽचकुदर्शनमस्याऽसावचटुदर्शनः केवलदर्शनः सर्वेझस्तस्माद्यदवाप्य ते हितं तत् श्रमस्व । इदमुक्तं नवति । अनिपुणेन निपुणेन वा सर्वदर्शनोक्तं हितं श्रधातव्यं । यदि वा हे अदृष्ट हेअर्वाक्दर्शन दृष्टाऽतीताऽनागतव्यवहितसूक्ष्मपदार्थद शिना यध्यात्दतमनिहितमागमं तंश्रवस्व । देवदृष्टदर्शन अदददर्शन इतिवा असर्वज्ञो क्तशासनानुयायिन् तमात्मीयमाग्रहं परित्यज्य सर्वज्ञोक्तेमार्गे श्रमानं कुर्विति तात्पर्या थः । किमिति सर्वज्ञोक्त मार्गे श्रधानमसुमानकरोति । येनैवमुपदिश्यते तन्निमित्तमा ह । हंदीत्येवं गृहाण । दुशब्दोवाक्यालंकारे । सुष्टु अतिशयेन निरुक्ष्मावृतं दर्शनं सम्य क् अवबोधरूपं यस्य सः। केनेत्याह । मोहयतीति मोहनीयं मिथ्यादर्शनादिझानावरणी यादिकं वा तेन कृतेन कर्मणा निरुदर्शनः प्राणी सर्वोक्त मार्ग नश्रद्दधते ऽतस्तन्मा Hश्रमानं प्रति चोद्यते इति ॥ ११ ॥ पुनरप्युपदेशांतरमाह । (कुःखीत्यादि) दुःखम सातवेदनीयमुदयेन यत्प्राप्तं तत्कारणं वा दुःखयतीति फुःखं तदस्याऽस्तीति ःखी सन प्राणी पौनःपुन्येन मोहं याति सदसदिवेकविकलोनवति । इदमुक्तंनवति । असातो दयात् दुःखमनुजवन्ना”मूढस्तत्करोति येन पुनः पुनः सुखी संसारसागरमनंतमस्येति त देवंनूतं मोहं परित्यज्य सम्यगुबानेनोऽबाय निर्विद्येत जुगुप्सेत परिहरेदात्म श्लाघां स्तुतिरूपां तथा पूजनं वस्त्रादिलानरूपं परिहरेत् । एवमनंतरोक्तरीत्या परिवर्त मानः सहहितेन वर्ततइति सहितोझानादियुक्तोवा संयतः प्रवाजितोऽपरप्राणिनिः सु खार्थिनिरात्मतुलामात्मतुल्यतां दुःखाप्रियत्वसुखप्रियत्वरूपामधिकं पश्येत् आत्मतुल्या न सर्वानपि प्राणिनः पालयेदिति ॥ १५ ॥ २० Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५४ वितीये सूत्रकृतांगे प्रथमश्रुतस्कंधे तिीयाध्ययनं. गारं पिअ आवसे नरे, अणुपुर्व पाणेहिं संजए॥समता सबब सुबते, देवाणं गले सलोगयं ॥ १३॥ सोच्चा नगवाणुसासणं सच्चे तबकरेजुवकमं ॥सवन विणीयमबरे, निकु विसुधमाहरे॥१४ __ अर्थ-वली उपदेशांतर कहेले. गारंपियावसेनरे के गृहवासने विषे वसतो ए वो मनुष्य तेपण अणुपुत्वं के अनुक्रमे धर्म सानली, श्रावकना व्रतादिकने अंगीकार करी, पाणेहिं के जीवोने विषे संजए के सम्यक्प्रकारे यत्न करतो, समतासबसुन्ध ते के सर्वत्र समता परिणामे वर्ततो एवीरीते गृहस्थ धर्मने पालतो थको पण देवा पंग सलोगयंके देवलोकमां जाय. तो पनी यतिधर्म पालनारनो केवोजगुं ॥ १३ ॥ . वली कहेले सोच्चानगवाणुसासणं के पते श्रीवीतरागनी आझापूर्वक धर्म सांजलीने सचेत बकरे कुवकमंके ० तेनां बागमने विषे जेम कडं. तेम सत्य संयमने विषे उपक्रम ए टलेन्द्यम करे, सबबविणीयमबरेके सर्वत्र महररहित एवो थको निरकु के साधुते उंड के माधुकरी वृत्तियें विसुक्ष्माहरे के० गुरु एटले बेतालीश दोष रहित एवो आहार लीये. ॥१४॥ ॥ दीपिका-किंच । (गारंपीति ) अगारं गृहमप्यावसन गृहस्थोपि नरयानुपूर्व्या चारित्रप्रतिपत्त्यादिरूपया प्राणिषु जीवेषु संयतोहिंसानिवृत्तः । यतः सर्वत्र समता श्रूय ते। यतो गहस्येच समतैव जिनमतेऽनिधीयते तां कुर्वन् गृहस्थोपि देवानां लोकं गत् किंपुनर्यतिरिति ॥१३॥ ( सोचेति ) जगवदनुशासनं जिनागमं श्रुत्वा तक्ते सत्ये संयम उपक्रम उद्यम कुर्यात् । किंनूतः सर्वत्र उपनीतमत्सरोऽरक्तदिष्टः ( चंति ) दयं शु ६ दोषरहितमाहरेज़ाहीयात् ॥ १४ ॥ ॥ ॥ ॥ ॥ ॥ ॥टीका-किंच (गारंपियइत्यादि)। अगारमपि गृहमप्यावसन गृहवासमपि कुर्वन् नरो मनुष्यः(आनुपूर्वमिति)थानुपा श्रवणधर्मप्रतिपत्त्यादिलदाणया प्राणिषु यथाशक्त्या स म्यक् यतः संयतस्तउपमर्दानिवृत्तः। किमिति । यतः समता समनावः । आत्मपरतुल्यता सर्वत्र यतो गृहस्थे च यदिचैकेंडियादौ श्रूयतेऽनिधीयते आईते प्रवचने तां च कुर्वन् सगृहस्थोऽपि सुव्रतःसन् देवानां पुरंदरादीनां लोकं स्थानं गत् किं पुनर्योमहासत्वत या पंचमहाव्रतधारी यतिरिति ॥ १३ ॥ अपिच । ( सोचाइत्यादि ) । ज्ञानेश्वर्या दिगु समन्वितस्य जगवतः सर्वज्ञस्य शासनमाझामागमं श्रुत्वाऽधिगम्य तत्र तस्मिन्ना गमे तक्तेवा संयमे सनयोहिते सत्ये लघुकर्मा तउपक्रमं तत्प्राप्युपायं कुर्यात् । किं जूतः सर्वत्राऽपनीतोमत्सरोयेन सतथाऽसौरक्तदिष्टः त्रिवस्तूपधिशरीरनिपिपासः । त था (संबंति) जैदयं शुई विचत्वारिंशदोषरहितमाहारं गृहीयादन्यवहरेदेति ॥ १४ ॥ Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राय धनपतसिंघ बानाउरका जैनागमसंग्रह नाग उसरा. १५५ सवं नच्चा अदिहिए,धम्मही नवदाणवीरिए॥ गुत्ते जुत्ते सदाजये आय परे परमायतस्तेि ॥ १५॥ वित्तं पसवोय नाईन, तं बाले सरणं तिम न्न ॥ एते मम तेसूव। अहें, नोताणं सरणं नविजई॥१६॥ अर्थ-वली उपदेश कहेले ते साधु सबके सर्व हेय उपादेयवस्तुने नचाके जाणीने सर्व झोक्त संवररूप मार्गने अहिहिएके अधितिष्ठेत् एटले धाश्रये वली धम्महीके० धर्मार्थी थको नवहाण के० उपधान एटले तपनेविषे वीरिएके वीर्य फोरवे एटले तेमा बलवंत थाय पण तेमां वीर्य गोपवे नहीं वली गुत्तेजुत्ते के मन वचन धने काय गुप्तिए गुप्त अने गुनयोगे युक्त थवानो सदा के सर्वकाल बायपरे के० पोताने विष धने परने विषे जयेके० यत्न करे परमायतहिते के० ते साधुपरमायतजे मोद तेनो अर्थी जाणवो ॥ १५॥ वित्तं के धनकनकादिक तथा पसवो के पशु चतुष्पदादिक धने नाई के झातिते स्वजन मातापितादिक तके तेनु बाले सरणंतिमन्नई के जे बाल अज्ञानी होय ते सरणकरीमाने केवीरीते तोके एतेममतेसुवीअहं के ए जेवित्तादिक ते माहारा हूं एनी रक्षा करनार पण नोताणं सरणंनविड़ाई के० एम न जाणे जे ए धनादिक जे जे, ते रोगादिक उपने थके अथवा उर्गतिमां पडतां थका मने त्राणशरण न विद्यते एटले नथी. थवाना ॥ १६ ॥ ॥दीपिका-(सच्चमिति) सत्यमार्गमिमं ज्ञात्वाऽधितिष्ठेदाश्रयेत् । धर्मार्थीनपधानं तपस्त त्र वीर्यवान् मनोवाकायगुप्तोझानादि नियुक्तः सदा यतेत अात्मनि परस्मिंश्च । किंनूतः परमनकृष्टयायतोदी?मोदस्तेनार्थिकस्तदनिलाषी ॥ १५॥ (वित्तमिति ) वित्तं ध नं पशवस्तुरगादयः झातयः स्वजनामात्रादयः तदेतद्बालोमूवः शरणमिति मन्यते । कथमित्याह । एते वित्तादयोमम मदीयाअहं तेषु वित्तादिषु रक्षाकरगेन प्रवर्ते एवं बालोमन्यते नत्वेवं वेति यत्तिादिकं त्राणं नस्यादुर्गतीपततोनापिरोगादौ शरणं विद्य ते। रिक्षासहावतरला, रोगजरानंगरं यसरीरं ॥ दोएहंपिगमएसीला, पाकिच्चिरहोजा संबंधाइति ॥ १६ ॥ ॥ टीका-किंच ( सचणञ्चेत्यादि ) सर्वमेतदेयमुपादेयं च ज्ञात्वा सर्वज्ञोक्तं सर्वसंव ररूपमधितिष्ठेत् आश्रयेत् । धर्मेणार्थोधर्मएव वाऽर्थः परमार्थताऽन्यस्याऽनर्थरूपत्वात् धर्मार्थः सविद्यते यस्याऽसौ धमार्थी धर्मप्रयोजनवान् । उपधानं तपस्तत्रवीर्य यस्य स तथा अनिगहितबलवीर्यइत्यर्थः । तथा मनोवाकायगुप्तः सुप्रणिहितयोगश्त्यर्थः। तथा युक्तोज्ञानादिनिः सदा सर्वकालं यतेताऽऽत्मनि परस्मिंश्च । किंविशिष्टः सन् अतबाह ।प Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५६ वितीयेसूत्रकृतांगे प्रथमश्रुतस्कंधे वितीयाध्ययनं. रमनत्कष्टबायतोदीर्घः सर्वकालनवनात मोक्षस्तेनाऽर्थिकस्तदनिलाषी पूर्वोक्तविशेषणदि शिष्टोनवेदिति ॥ १५॥ पुनरप्युपदेशांतरमाह ( वित्तमित्यादि) वित्तं धनधान्य हिरण्या दि । पशवः करितुरगगोमहिष्यादयोझातयः स्वजनामातापितृपुत्रकलत्रादयः तदेतदित्ता दिकं बालोऽः शरणं मन्यते । तदेव दशर्यति । ममैते वित्तपशुजातयः परिजोगे उपयो दयंते । तेषु चाऽर्जनपालनसंरक्षणादिना शेषोपड्व निराकरणेन परिहारेणाऽहंनवामीत्ये वं बालोमन्यते । न पुनर्जानीते यदर्थ धनमिखंति तहरीरमशाश्वतमिति । अपिच । रि की सहावतरला, रोगजरानंगुरं हयशरीरं ॥ तथा मातापितृसहस्त्राणि पुत्रदारशतानि च। प्रतिजन्मनि वर्तते कस्य माता पितापि वा ॥१॥ एतदेवाह । नोनैव वित्तादिकं संसारे क थमपि त्राणं नवति।नरकादौ पततोनापि रागादिनोऽपद्रुतस्य क्वचिहरणं विद्यतइति ॥१६॥ अप्नागमितंमि वा उहे, अहवा नक्कमिते नवंतिए॥ एगस्स गती य आगती, विउमंता सरणं ण मन्नई॥ १७॥ सवे सयकम्मक प्पिया, अवियत्तेण हेण पाणिणो ॥ हिंमंति नयानला सढा, जाई जरा मरणेहिं निडुता ॥ १७ ॥ अर्थ-वली उपदेश कही देखाडेले. अनागमितमिवाउहे के पूर्वोपार्जित असाता वेदनीय कर्मना उदय थकी फुःख प्राप्त थयां उतां ते पुःख एकलोज जीव अनुनवे. पण झाति, स्वजन अथवा इव्य ते उखः थकी मूकावी शकता नथी अहवाके० अथवा नक्क मितेनवंतिए के० मरण आवे बते पण एकलोज फुःख जोगवे तथा नवांतरने विषेपण एकलोज फुःख जोगवे तथा एगस्सगतीय आगती के गति आगति पण एकलानेज होय, परंतु ते वरखते धनादिक जे जे ते कोइ सरण न थाय विमंता के विवेकी पंमित ज न एवी रीते जाणता थका सरणं मन्नई के कोनुं सरण करी माने नही॥ १७॥ सवे के संसारमांहे सर्व जीव सय के पोताना करेला कम्म के कर्मे करी कप्पिया के एकेडियादिकनी अवस्थाये कल्प्या बतां अवियत्तेणके अव्यक्त संज्ञाये उहेण के० अस्पष्ट शिरशूलादिक दुःखे करी कुःखीया बतां एवा पाणिणो के प्राणी ते हिंमंति के चतुर्गतिकरूप संसार मांहे अरहट्ट घटीने न्याये परिचमण करेले, ते ज योनीने विषे नयाउला के नयाकुल बिहीता थका तथा सढा के शठ एटले अज्ञानी बता जाई जरामरणे हिं के० वली वली जाइ एटले जाति अने जरा तथा मरणे करी निहुता के पीड्या थका रहे. ॥ १७ ॥ ॥ दीपिका-(अप्नागमितमिवेति) अन्यागते प्राप्ते फुःखेऽथवा उपक्रमकारणैरुपक्रांते की Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राय धनपतसिंघ बादाडुरका जैनागमसंग्रह नाग दुसरा. १८७ णे युधि जवांते वा सति एकाक्येव दुःखमनुभवतीतिशेषः ॥ यतः सयास्स विमग, रोगादि किलिस इगो ॥ सयलोवियसेरोगं, नविरंचइनेव नासेर इति ॥ तथाचाह । ( एकस्सत्ति) एकस्यैव प्राणिनानवांतरे गतिरागतिश्च स्यात् ततोविधान् तावदीपदपिं श रणं न मन्यते । यतः एकस्य जन्ममरणे गतयश्च शुनाशुनानवावर्ते ॥ तस्मादाका लिक हि तमेकेनैवात्मनः कार्यमिति ॥ १७ ॥ (सवेत्ति) सर्वे प्राणिनः स्वकेन स्वकृतेन कर्मणा कल्पिताए केंड्रिया दिनेदेन व्यवस्थिताः । तथा एकेंदियादिनवेषु व्यव्यक्तेन दुःखेन ननयलक्षणा ६ केनापि दुःखेन समन्विताः प्राणिनोनयाकुलाः शतकर्मकारित्वात् शठा हिंडंति पर्यट ति तासुतासु योनिषु । किंनूताः प्राणिनः जातिजरामरणैरनिडुताः पीडिताः ॥ १८ ॥ ॥ टीका - एतदेवाह । ( नागमितंमीत्यादि ) । पूर्वोपात्ताऽसात वेदनीयोदये नाते दुःखे सत्येकाक्येव दुःखमनुभवति न ज्ञातिवर्गेण वित्तेन वा किंचिक्रियते । तथाच । सयणस्स विमगउरोगा निहतो कि जिस्सइइहेगो || सयणोवियसेरोगं नविरंच इनेवनासेइ ॥ १ ॥ थवोपक्रमकारणैरुपत्रांते स्वायुषि स्थितियेण वा नवांतरे नवां तिके वा मरणे समुपस्थिते सति एकस्यैवाऽसुमतोगतिरागतिश्च नवति । विधान् विवे की यथावस्थितसंसारस्वनावस्य वेत्ता ईषदपि तावत् शरणं न मन्यते कुतः सर्वात्मना त्रा मिति । तथाहि । एकस्य जन्ममरणे गतयश्च गुनगुनानवावर्ते । तस्मादाकालिक हि तमेकेनैवात्मनः कार्य ॥ १ ॥ एक्को करेइ कम्मं फलमवि तस्सिं क्कसमपुहवइ । एक्को जाय मरइ य परलोयं एक्काइ ॥ १ ॥ १७ ॥ अन्यच्च । ( सर्व्वसयइत्यादि ) । सर्वेपि संसा रोदर विवरवर्तिनः प्राणिनः संसारे पर्यटंतः स्वकृतेन ज्ञानावरणीयादिना कर्मणा कल्पि ताः सूक्ष्मबादरपर्याप्त कैकें दिया दिनेदेन व्यवस्थिताः। तथा तेनैव कर्मणै केंड्रियाद्यवस्थायाम व्यक्तेनाऽपरिस्फुटेन शिरःशूलाद्यन चितस्वनावेनोऽपलक्षणत्वात् प्रव्यक्तेन च दुःखेनाऽसाता वेदनीयस्वनावेन समन्विताः प्राणिनः पर्यटंत्यरघट्टघटीन्यायेन तावत्स्वेव योनिषु नयाकुलाः कर्मकारित्वात् शाच मंति जाति जरामरणैर निडुतागर्भाधानादि निर्दुःखैः पीडिताइति १८ इमेव खां वियाणिया, पोसलनं बोदिंच यादितं ॥ एवं स दिए दिपासए, दिजिणे इणमेव सगा ॥ १ ॥ अनविंस पुरा विभिस्कुवो, एसावि नवंति सुबता ॥ एयाई गुणाई प्रा दुते, कासवरसप्रधम्मचारिणो ॥ २० ॥ अर्थ - इमेव के० एहिज यार्य क्षेत्र सुकुमाल जन्म जिनधर्म प्रतिपत्तिरूप एवो खवियालिया के० ण एटले अवसर जाणी यथोचित धर्म करवो लोसुलनंबोहिंच For Private Personal Use Only Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५ द्वितीये सूत्रकृतांगे प्रथम श्रुतस्कंधे द्वितीयाध्ययनं. के० बोधबीज पामवुं सुलन नथी, ए रीते याहितं के० कयुंबे. एवं जाली धर्म करवा थकी फरी फरी बोधि लेनबे एवं के० एरीते ज्ञान दर्शनेकरी सहिएके० सहित साधु जाणे तथा उदय याव्या परिसहने हियासए के यहियाशे. ए वचन याहि जिसे के० श्री आदिनाथ भगवाने प्रकाश्यो तथा इलमेवसेसगा के० एरीतेज शेष बी जा तीर्थकर पण प्रकाशेबे ॥ १९ ॥ नविंसुपुरा विनिस्कुवो के हवे सर्वज्ञ पोता ना शिष्यने बोलावी कहेबे के, अहो नि ? एटले यति पूर्वे जे तीर्थकर यया, त या साविनवंति के० प्रागमिक काले जे थशे ते केवा थशे तो के सुवता के० सुव्रत एटजे प्रधान व्रतधारी तेथे एयाइंगुलाई बाहुतेके० ए सर्व गुण जे पाउल कह्या ते थवा खागल कदेशे ते कह्याले परंतु ते तीर्थकरने मते नेद नथी कासवस्स के ० काश्य प ते श्रीआदीश्वर तथा वर्धमान स्वामी तेना अणुधम्मचारिणो के० धर्मना अनुचारि जेएम के ज्ञान, दर्शन खने चारित्र एहिज मोक्षमार्ग बे. ॥ ५० ॥ || दीपिका - ( इ मिति) इमं प्रत्यक्षं क्षणमवसरं विज्ञाय ज्ञात्वा तथा बोधिं नोसुलनामि त्याख्यातां ज्ञात्वा तडुचितं विधेयं । ईदृशोमानुष्यार्य देशधर्मसामय्याश्रवसरः पुनः सुलनोन स्यादिति नावः । तदेवमुत्कर्षतो पार्थ पुलपरावर्त कालेन पुनः सुदुर्जना बोधिरित्येवं ज्ञानादि सहितोऽधिपश्येत् बोधेर्तनत्वं पर्यालोचयेत् । पाठांतरंवा (हियासएत्ति) परीषहानु दीन् सम्यक् पश्येत् । एवं जिनः श्रीरूपनोष्टापदे स्वसुतानुद्दिश्याह कथितवान् । तथा शेषापि जिनाएवमेवोक्तवंतइति ॥ १९ ॥ ( नविमिति ) हे निक्षवः साधवः सर्व ज्ञाः स्वशिष्यानामंत्रयति । पुरा ये अनूवन् व्यतिक्रांताजिनाः (एसत्ति) यागमिष्याश्च ये नविष्यति जिनास्ते सर्वेपि सुव्रताः सुव्रतत्वेनैव सर्वे जिनत्वं प्राप्ता इत्यर्थः । ते सर्वे जिनाए तान् गुणानादुरुक्तवंतः । नकश्चित्सर्वज्ञानां मतनेदइति नावः । येच काश्यपस्य ऋषनस्वा मिनः श्रीवीरस्वा सर्वेप्यनुचीर्णधर्मचारिणः । एतेन सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रात्मक एव मोक्षमार्गइत्यावेदितम् ॥ २० ॥ ס ॥ टीका - किंच (इमेइत्यादि) । इदमः प्रत्यासन्नवाचित्वात् इमं इव्य क्षेत्रकालना वलक्षणं दणमवसरं ज्ञात्वा तडुचितं विधेयं । तथाहि । इव्यं जंगमत्व पंचेंयित्व सुकु लोत्पत्तिमनुष्यल । त्रमध्यार्य देशार्धषडूिंशतिजनपदलक्षणं । कालोऽप्यवसर्पिणी चतुर्धाकरादिधर्मप्रतिपत्नियोग्यलक्षणः । नावश्व धर्मश्रवणतन्त्र - दानचारित्राचरणकर्मयो पशमाहितविरतिप्रतिपत्त्युत्साहलचणः । तदेवंविधं कृणमवसरं परिज्ञाय तथा बोधिं च सम्यग्दर्शनावाप्तिलक्षणां नोसुलनामित्येवमाख्यातामवगम्य तदवाप्तौ तदनुरूपमेव कुर्या For Private Personal Use Only Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राय धनपतसिंघ बानाउरका जैनागमसंग्रह नाग उसरा. १५ए दितिशेषः । अरुतधर्माणां च पुनर्दुलना बोधिः । तथाहि । लनियंच बोहिं अकरेंतो अ पागयंचपबंतो । अन्नं दाइंबोहिं लप्निसिकयरेंण मोलणं ॥१॥ तदेवमुत्कृष्टतोपाईपुन लपरावतेंप्रमाणकालेन पुनः सुउलेना बोधिरित्येवं सहितोझानादिनिरधिपश्येत् । बोधिसु उर्जनत्वं पर्यालोचयेत् । पाठांतरंवा । (अहियासएत्ति) परीषहानुदीर्णान् सम्यगधिस हेत। एतच्चाह जिनोरागदेषजेता नानेयोऽष्टपदस्थान सुतानुदिश्य । तथाऽन्येपि इदमेव शेष काजिनाथनिहितवंतइति ॥१॥। एतदाह। (अनविंसुश्त्यादि) हेनिनवः साधवः सर्व झाः स्वशिष्यानेवमामंत्रयति । येऽनूवन अतिक्रांताजिनाः सर्वज्ञाः (बाएसावित्ति) आगमिष्याश्च नविष्यति । तान विशिनष्टि । सुव्रताः शोननव्रताः । अनेनेदमुक्तं नवति । तेषामपि जिनत्वं सुव्रतत्वादेवाऽऽयातमिति तेसर्वेऽप्येतानऽनंतरोदितान गुणानादुरनिहि तवंतः । नाऽत्र सर्वज्ञानां कश्चिन्मतनेदश्त्युक्तं नवति । तेच काश्यपस्य षनस्वामिनो वर्षमानस्वामिनो वा सर्वेऽप्यनुचीर्णधर्मचारिणइति । अनेन च सम्यग्दर्शनशानचारित्रा त्मकएकएव मोदमार्गश्त्यावेदितं नवतीति ॥ २० ॥ तिविदेणवि पाण माहणे, आयदिते अणियाण संवुमे॥एवं सिद्धा अणं तसो, संपजे अणागयावरे॥२१॥ एवं से नदादु अणुत्तर नाणी अ गुत्तरदसी अणुत्तरनाणदंसणधरे ॥ अरदा नायपुत्ते नगवं वेसालिए वि याहिएत्तिबेमि॥२२॥ इति श्रीवेयालियं वितीयमध्ययनं सम्मत्तं ॥ अर्थ-हवे ते गुण कहे. तिविहेणवि के मन, वचन अने कायायें करण कराव ए अने अनुमोदने करी पाणमाहणे के जीवना प्राण हणे नहीं. ए प्रथम महाव्र त एम उपलक्षण थकी शेष महाव्रत पण जाणवा. तेणेकरी आयहिते के आत्माने हेतु तथा अणियाणके नियाणा रहित संवुमेके इंश्योने संवरवेकरी संवृतिथका एवं के एवा आचारे प्रवर्तता सिहायतसोके आगल अनंताजीव सिदि पाम्या वत्ती सं पश्जेके सांप्रत एटले वर्तमान काले सिह थायले. अने अणागयावरेके अवर आगमि ककाले, अनेक सिह थशे. ॥१॥ एवंके ० एरीते सेके श्रीयादीश्वर नगवाने उदाहुके पोताना पुत्र आश्री उद्देशीने मोदमार्गनो उदेशो कह्यो ते नगवंत केवा जे? तोके अणुत्त रनाणीके निरुपमझान अने अणुत्तरदंसीके निरुपम दर्शन एटले सम्यक ज्ञान दर्शनना धरनार बे. तथा अणुत्तरनाणदंसणधरके कथंचित् ज्ञान दर्शनना थाधार जे एरीते अर हानायपुत्तेके अरिहंत ज्ञातपुत्र श्रीवर्धमान स्वामी नगवं के जगवंत तेणे वेसालिएवि के विशालानगरीने विषे ए मार्ग अमोने चाहिएके कह्यो तिबेमिकेण् एरीते पंचम गण धर श्रीसुधर्मस्वामी जंबुप्रनृति पोताना शिष्योने कहेले के अहो शिष्यो? जेम श्रीवर्ड Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६० द्वितीये सूत्रकृतांगे प्रथम श्रुतस्कंधे द्वितीयाध्ययनं. मान स्वामी पाथी मे सांभव्यं वे, तेरीते तमोने कहुं ॥ २२ ॥ इति श्रीसूत्रकृतं प्रथम स्कंधे श्री द्वितीयवेतालीयाध्ययनं समाप्तं ॥ || दीपिका - (तिविति) त्रिविधेन मनोवाक्कायैः कृतकारितानुमतिनिर्वा प्राणिनो माहन्यात् । इदमाद्यत्रतं । उपलक्षणादन्यान्यपि व्रतानि यानि । तथा यात्महितोऽनि दानो निदानरहितः संवृतएवंभूतः सिध्यतीत्याह । एवंभूतायनंतशः सिद्धाः संप्रति व र्तमानकालेपि सिद्धिमनयोगे सिध्यंति । अपरे अनागते काले सेत्स्यंति । नान्योमुक्तिमा इत्यर्थः ॥ २१ ॥ ( एवमिति ) एवमुदेशकत्रयोक्तनीत्या श्रीरूपनस्वामी स्वसुतानु दिश्य उदाहृतवान् कथितवान् । धनुत्तरमुत्कृष्टं ज्ञानं तदस्यास्तीत्यनुत्तरज्ञानी । एवमनु तरदर्शी । अनंतज्ञानदर्शनइत्यर्थः । बौद्ध मत निरासाय ज्ञानाधारंजीवं दर्शयति । अनुत्त ज्ञानदर्शनइति । कथंचिन्निज्ञानदर्शनाधारइत्यर्थः । ग्रन् सुरेंशदिपूज्योज्ञा तपुत्रोवर्धमानस्वामी कूपनस्वामीवा नगवान विशालानगर्यामाख्यातवान् श्रीवीरः । ऋष स्वामी विशाल कुलोद्रवत्वात् वैशालिकः ॥ यक्तं विशालाजननीयस्य, विशा लकुलमेववा ॥ विशालं वचनं वास्यात्तेन वैशालिको जिनः " इतिब्रवीमीति पूर्ववत् ॥ ॥ २२ ॥ इति द्वितीयाध्ययनं समाप्तं ॥ ॥ टीका - तदनिहितांश्व गुणानुद्देशतग्राह । ( ति विहेत्यादि ) । त्रिविधेन मनसा वाचा कायेन यदिवा कृतकारितानुमतिनिर्वा प्राणिनोदश विधप्राणनाजोमा हन्यादिति । प्र यममिद महाव्रतं । प्रस्य चोपलक्षणार्यत्वात् एवं शेषाएयपि इष्टव्यानि । तथाऽऽत्मनेहित यात्महितः । तथानाऽस्य स्वर्गावाहयादिलचण निदानमस्तीत्य निदानः । तथेंड्रियनोइंडियैर्म नोवाक्कायैर्वा संवृतत्रिगुप्तिगुप्तइत्यर्थः । एवंभूतश्चावश्यं सिद्धिमवाप्नोतीत्येतद्दर्शयति । एवमनंतरोक्तमार्गानुष्ठानेनानंताः सिद्धाशेषकर्मकयनाजः संवृत्ताविशिष्टस्थाननाऽजो वा । तथा संप्रति वर्तमाने काले सिद्धिगमनयोग्ये सित्ध्यंत्यऽपरेवाऽनागते काले एत मार्गानुष्ठानिएव सेत्स्यति । नाऽपरः सिद्धिमागेऽस्तीति नावार्थः ॥ २१ ॥ एतच्च सुधर्म स्वामी जंबू स्वामिप्रनृ तिन्यः स्वशिष्येन्यः प्रतिपादयतीत्याह । ( एवंसेत्यादि ) । एवमुद्देश कत्रया निहितनीत्या सषनस्वामी स्वपुत्रानुद्दिश्योदाहृतवान् प्रतिपादितवान् । नाऽस्योत्त रं प्रधानमस्तीत्यनुत्तरं । तच्च तज्ज्ञानंच अनुत्तरज्ञानं तदस्याऽस्तीत्यनुत्तरज्ञानी तथाऽनुत्त रदर्शी । सामान्यविशेषपरिछेदकावबोधस्व नावइति बोइमतनिरास द्वारेण ज्ञानाधारं जीवं दर्शयितुमाह । (अनुत्तरज्ञानदर्शनधरइति ) । कथंचित्रिन्नज्ञानदर्शनाधारइत्यर्थः । य हैन सुरेंशदिपूजा हात पुत्रोव ईमानस्वामी कृषनस्वामी वा नगवानैश्वर्यादिगुणयु वाल्यांनगी वर्द्धमानोऽस्माकमाख्यातवान् कषनस्वामी वा । विशाल कुलो " For Private Personal Use Only Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राय धनपतसिंघ बाहाउरका जैनागमसंग्रह नाग उसरा. १६१ त्वादेशालिकः । तथाचोक्तं । विशाला जननी यस्य विशाल कुलमेव वा। विशालं वचनं चा ऽस्य तेन वैशालिकोजिनः । एवमसो जिनयाख्यातइति । इतिशब्दः परिसमात्योव्रवीमी तिउक्तार्थोऽनया पूर्ववदिति ॥२॥ समाप्तंच दितीयं वैतालीयमध्ययनं ॥ ग्रंथाय॥१६॥ हवे बीजो अध्ययन कह्या अनंतर त्रीजो अध्ययन प्रारंनिये बैंए. एनो ए संबंध के, पाबलें अध्ययने स्वसमय परसमयनी प्ररूपणा कही माटे परसमयना दोष बने स्वसमय ना गुण जाणीने स्वसमयने विषे प्रवर्तवो; तेने विषे प्रवर्त्ततां थकां जे अनुकूल अने प्रति कूल उपसर्ग नपजे ते सहन करवा ए अधिकारे आव्यो जे अध्ययन तेप्रारंनियें बैयें. सूरं मम अप्पाणं, जावजेयं नपस्सती ॥जुर्शतं दढधम्माणं, सिसपालोव महारहं॥॥ पयाता सरा रणसीसे, संगामंमि वहिते ॥ माया पुत्तं नयाणा, जेएण परि विजए॥२॥ अर्थ-कोइएक बाल मनुष्य संग्रामने विषे अप्पाणंके० पोताने सूरंमलश्के शूरवीर क री माने जे आजगतमाहे माहारा समान सुनट कोइ नथी. परंतु जावजेयं के ज्यां सुधी तेसंग्रामने विषे पोताने जीपनार को नपस्सतीके ० न देखे त्यांसुधी जाणवू. को नीपरे ? सिसुपालोवके जेम शिशुपालराजा पोतानीअात्माने शूरवीर मानतो हतो परंतु संग्रामने विषे दढधम्माणं के दृढधर्मी तथा महारहं के महारथी एवा नारायणने जुझंतं के झुंजतो देखी, दोन पामी, मद बांझीने निर्मद थयो. ॥ १ ॥सांप्रत सामा न्यपदे दृष्टांत कहेले. कोइएक पोतानेविषे सूरा के शूरवीरपणुं मानता रण के सं ग्रामने सीसे के० मस्तके अग्रेसर पणे पयाताके० याव्याः एवा संगामंमिनवहितके ते संग्रामनेविष उपस्थित एटले प्राप्त थये थके त्यां परदलने सुनटे सर्वजनने व्याकुल चित्त कस्या ले. ते संग्राम एवो वर्ने के, ज्यां मायापुत्तनयाणा के माता पुत्रने न जाणे; एटले माताने केडे रह्यो बालक पडतो जाणे नहीं एवा संग्रामने विषे जेए ए के जे आगले जीपणहार पुरुषो तेणे परिविजए के शस्त्रादिके करी बेद्यो थको, हत प्रहत कीधी बतो, कायरपणे नंग पामे. ॥ २ ॥ ॥ दीपिका-नुक्तं दितीयमध्ययनं । तत्र स्वसमये बोधोविधेयइत्युक्तं । तत्र प्रतिबुद्ध स्य कदाचिउपसर्गाः स्युस्तेच नदीः सम्यक्सोढव्याइत्यर्थः । अथ तृतीयाध्ययनमार ज्यते । तत्र चत्वारनद्देशकास्तेषु प्रथमोद्देशकस्येदमादिसूत्रं । (सूरंमपत्ति ) कश्चिद्धा लः संग्रामे आत्मानं शूरं सुनटं मन्यते शूरोहमिति गर्जति । यावतारं पुरःस्थितमुद्यता सिं नपश्यति।दृष्टांतमाह । युध्यमानं दृढः समर्थोधर्म स्वनावोयस्यस तथातं । महान रथो ऽस्येति महारथोऽत्रनारायणस्तं दृष्ट्वा यथा शिशुपालोमाइीसुतः समर्थोपि दोनंगतस्तं दृष्टां २१ Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६२ वितीयेसूत्रकृतांगे प्रथमश्रुतस्कंधे तृतीयाध्ययनं. तोयथा वसुदेवस्वसा माड़ी दमघोषाय दत्ता । तयोः पुत्रः शिशुपालः सयौवनमदगर्वितोबलवान् चतुर्नुजश्च तं तादृशं दृष्ट्वा माता नैमित्तिकं पप्रत । तेनोक्तं अयं तव पुत्रोउर्जयः समरे । यं दृष्ट्वास्य स्वानाविकं नुजायुगलं नावि तस्मादस्य मृतिः । एवमस्य कियान का लोतिक्रांतः सकदाचिलमेन दृष्टस्तदा तस्य नुजायुगलमेव जातं । तदा तविदित्वा माड़ी नाम्न्या तन्मात्रा कमपितृष्वस्त्रा कल्माय निवेदितं । त्वं मत्पुत्रोपरि कृपां कुर्याः कमेनोक्तं। अहं त्वत्सुतस्यापराधशतं सहिष्ये तदादेशात्। शिशुपालस्तु कस्मं तृणमिव मन्यते । य सन्यवांसि वक्ति । बदनपराधान करोति ।अपराधशते पूर्णे मात्रादिनिर्यिमाणोपि नति ष्ठति तदा कमश्चक्रेण तउत्तमांगं चिन्नेदेति ॥ १ ॥ सांप्रत जनप्रतीतं दृष्टांतमाह । ( पया याति)। प्रकर्षेण पातः पादपातोयेषांते प्रपातारण शिरसि प्रयाताः प्रकर्षण प्राप्तावा शूराः सुनटंमन्यास्ततःसंग्रामे उपस्थिते प्राप्ते सति सर्वस्याकुलीनूतत्वान्माता पुत्रं न जाना ति । एवं विधे रणे जेता कुंतादिनिः परिविदतः परि समंतादिविधं दतोहतबिन्नोवा य था कश्चिदल्पसत्वोनंगं याति दैन्यं लनतश्त्यर्थः ॥ २ ॥ ॥ टीका-नक्तं वितीयमध्ययनमधुना तृतीयमारन्यते । अस्यचाऽयमनिसंबंधः। इहाऽनं तराध्ययने स्वसमयपरसमयप्ररूपणाऽनिहिता। तथा परसमयदोषान स्वसमयगुणांश्च प रिझाय स्वसमये बोधो विधेयइत्येतचाऽनिहितं । तस्यच प्रतिबुद्धस्य सम्यगुबानेनो जितस्य सतः कदाचिदनुकूलप्रतिकूलोपसर्गाः प्रानवेयुस्तेचोदीर्णाः सम्यक् सोढव्याश्त्येत दनेनाऽध्ययनेन प्रतिपाद्यते । ततोऽनेन संबंधेनाऽयातस्याऽस्याऽध्ययनस्य चत्वार्यनुयोग दाराणि नवंति । तत्रोपक्रमांतर्गतीर्थाधिकारोब्धा । अध्ययनार्थाधिकारनदेशार्थाधिका रश्च । तत्राऽध्ययनार्थाधिकारः संबुद्धस्सुवसग्गाश्त्यादिना प्रथमाध्ययने प्रतिपादितः । उद्देशाऽधिकारं तूत्तरत्र स्वयमेव नियुक्तिकारः प्रतिपादयिष्यतीति । नाम निष्पन्नंतु नि देपमधिकृत्य नियुक्तिकदाह । ( नवसग्गमित्यादि ) उवसग्गंमियबकं दवे चेयणमचेयणं छविहं । आगंतुगोयपीना, करोयजोसोनवसग्गो ॥ १ ॥ नामस्थापनात् इव्यक्षेत्रकाल जावनेदात् उपसर्गाः षोढा । तत्र नामस्थापने कुम्मत्वादनादृत्य इव्योपसर्ग दर्शयति । इव्य ऽव्य विषये उपसगो बंधा । यतस्तहव्यमुपसर्गकर्तृ चेतनाचेतननेदात् विविधं । त त्र तिर्यङ्मनुष्यादयः स्वावयवानिघातेन यउपसर्गयंति ससचित्तव्योपसर्गः सएवकाष्ठादि नेतरः तत्त्वनेदपर्यायैारख्यातः । तत्रोपसर्गनपतापः शरीरपीडनोत्पादनमित्यादि पर्यायाः।नेदाश्च तिर्यङ्मनुष्योपसर्गादयः नामादयश्च । तत्र व्याख्यांतु नियुक्तिकदेव गाथा पश्चान दर्शयति । अपरस्मादिव्यादेरागबतीत्यागंतुकोयोऽसावुपसर्गोनवति । सच दे दस्य संयमम्य वा पीमाकारीति ॥१॥ क्षेत्रोपसर्गानाह । खेत्तमित्यादिना । खेनं बदुग्धपयं Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राय धनपतसिंघ बाहाउरका जैनागमसंग्रह नाग उसरा. १६३ कालोएगंनदूसमादोउ। नावेकम्मद,सो उविहोउघुवक्कमि ॥२॥ यस्मिन् देत्रे बहून्यो घतः सामान्येन पदानि क्रूरचोराद्युपसर्गस्थानानि नवंति तत्देत्रं बव्होघपदं । पागंतरंवा बव्होघनयं बहून्योघतोनयस्थानानि यत्र तत्तथा । तच लाढादि विषयादिकं देत्र मिति । कानस्त्वेकांतःषमादिः । आदिग्रहणात् योयस्मिन् देत्रे पुरखोत्पादकोग्रीष्मा दिः सगृह्यतइति । कर्मणां ज्ञानावरणादीनामन्युदयोनावोपसर्गइति । सच उपसर्गः सर्वोऽपि सामान्येन औधिकोपक्रमिकनेदात् धा । तत्रौघिकोऽगुनकर्मप्रकृतिजनित नावोपसर्गोनवति । औपक्रमिकस्तु दंडकशशस्त्रादिनाऽसातवेदनीयोदयापादकइति । ॥ ५ ॥ तत्रौघिकोपक्रमिकयोरुपसर्गयोरोपकमिकमधिकृत्याद । ( नवक्कमिनइत्यादि )। नवक्कमि संयम विग्धकरेतवक्कमेपगयं । दवे चनविहो देवमणुयतिरियायसंवेत्तो ॥ ॥ ३ ॥ नपक्रमणमुपक्रमः । कर्मणामनुदयप्राप्तानामुदयप्रापणमित्यर्थः। एतच्च यद्र व्योपयोगात् येन वा इव्येणाऽसातवेदनीयाद्यशुनं कर्मोदीर्यते । यदयाच्चाल्पसत्वस्य संयमविघातोनवति । अतोपक्रमिकनपसर्गः संयमविघातकारीति । इहच यतीनां मोदं प्रति प्रवृत्तानां संयमोमोवांगं वर्तते तस्य योविघ्नहेतुः सएवाऽत्राऽधिक्रियतइति दर्श यति । तत्राधिकापक्रमिकयोरोपकमिके प्रकृतं प्रस्तावस्तेनात्राधिकारतियावत् । सच इव्ये इव्य विषयथित्यमानश्चतुर्विधोनवति । तद्यथा । दैविकोमानुषस्तैरश्चधात्मसंवेदन श्वेति ॥३॥ सांप्रतमेतेषामेव नेदमाह। एकेकोयेत्यादि। एक्के कोयचनविहो, यहविहोवावि सोलसविहोवा घडणजयणायतेसिं, एलोवोदय अहियारो॥४॥ एकैको दिव्यादिश्चतुर्विधश्च तुर्नेदः। तत्र दिव्यस्तावत् हास्यात् प्रदेषात् विमर्शात् पृथग्विमात्रातश्चेति । मानुषायपि हास्यतः प्रदेपादिमर्शात् कुशीनप्रतिसेवनातश्च । तैरश्वायपि चतुर्विधाः । तद्यथा । न यात्प्रदेषादादारादपत्यसंरक्षणाच्च । आत्मासंवेदनाअपि चतुर्विधाः । तद्यथा । घट्ट नातोलेशनातोऽगुव्याद्यवयवसंश्लेषरूपायास्तंननातः प्रपाताच्चेति । यदिवा वातपित्त श्लेष्मसंनिपातजनितश्चतुर्थे ति । सएव दिव्यादिश्चतुर्विधोऽनुकूलप्रतिकूलनेदात् अष्टधा नवति । सएव दिव्यादिः प्रत्येकं यश्चतुर्धा प्रारदर्शितः सचतुर्णा चतुष्कानां मेलापकात् षोडशनेदोनवति । तेषां चोपसर्गाणां यथा घटनासंबंधप्राप्तिः प्राप्तानांचाऽधिसहनं प्र तियातना नवति । तथाऽतक ईमध्ययनेन वदयते इत्ययमत्रार्थाधिकारइतिनावः ॥४॥ उद्देशार्थाधिकारमधिकृत्याऽह ।(पढमंमीत्यादि ) पढमंमियपडिलोमा ढुंतीअणुलोमगाय वितियंमितिइएअत्तविसीदणंयपरवादिरयणंच ॥५॥ प्रथमे नद्देशके प्रतिलोमाः प्रतिकूला नपसर्गाः प्रतिपायंतति तथा वितीये झातिकताः स्वजनापादिताअनुलोमाअनुकू लाइति । तथा तृतीये अध्यात्मविषीदनं परवा दिवचनं चेत्ययमर्थाधिकारइति । हेनस रिसे हिंअहेनएहिं समयपडिएहिंणिनणेहिं । शीलवलितपरमवनाकयाचनमि उद्देशे Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६४ तृतीये सूत्रकृतांगे प्रथमश्रुतस्कंधे तृतीयाध्ययनं. ॥ ६ ॥ ( हे नइत्यादि) चतुर्थीदेशके अयमर्थाधिकारः । तद्यथा । हेतुसदृशैर्हेत्वा जासैरन्यतैर्थिकैयुद्रहिताः प्रतारितास्तेपां शीलस्खलितानां व्यामोहितानां प्रज्ञाप ना यथाव स्थितार्थप्ररूपणा स्वसमयप्रतीतैर्निपुणनणितैतुनिः कृतेति ॥ सांप्रतं सूत्रानुगमेऽस्खलितादिगुणोपेतं सूत्रमुच्चारणीयं । तच्चेदं । (सूरंममइत्यादि) । कश्चिन्नघुप्रकृतिः संग्रामे समुपस्थिते शूरमात्मानं मन्यते । निस्तोयांबुदश्वात्मश्ला घाप्रवणोवाग्निावस्फूर्जन् गर्जति । तद्यथा । नमत्कल्पः परानीके कश्चित् सुनटो ऽस्तीत्येवं तावर्जति यावत् पुरोऽवस्थितं प्रोद्यतासिं जेतारं न पश्यति। तथा चोक्तं । तावजजः प्रसुतदानगंडः करोत्यकालांबुदगजितानि । यावन्न सिंहस्य गुहास्थलीषु सांगू लविस्फोटरवं शृणोति ॥ १॥ न दृष्टांतमंतरेण प्रायोलोकस्याऽर्थावगमोनवतीत्यतस्तद वगतये दृष्टांतमाह । यथा माहीसुतः शिशुपालोवासुदेवदर्शनात्प्राक् आत्मश्लाघाप्र धानं गर्जितवान् पश्चाञ्च युध्यमानं शस्त्राणि व्यापारयंतं दृढः समर्योधर्मः स्वनावः सं ग्रामानंगरूपो यस्य सतथा तं महान् रथोऽस्येति महारथः सच प्रक्रमादत्रनाराय पस्तं युध्यमानं दृष्ट्वा प्राग्गर्जनाप्रधानोपि दोनं गतः। एवमुत्तरत्र दाष्टौतिकेऽपि योजनी यमिति । नावार्थस्तु कथानकादऽवसेयः । तञ्चदं । वसुदेवसुसाएसुनदमघोसणराहिवेणमु बीए । जाऊचनतनुजवलकलिकलहपत्तहो ॥१॥ दहणतजणणी, चनप्नुयपुत्तमप्नय माग्छ॥जयहरिसविम्हयमुही पुनश्रोमत्तियंसहसाशणेमित्तिकएणमुणिकणसाहियंती इहरुहिययाए॥जहएसतुघ्नपुत्तोमहाबलोउङाउसमरे॥३॥ एयस्सयजंदणहोइसानावियं नुयाजुयलं ॥ होहीतत्तोवियनयंसुतस्सतेण निसंदेहो ॥॥ नाविनयवेविरंगी पुत्तंदंसेजा वकाहस्स ।तावच्चियतस्सठियंपयश्वरनुयाजुगलं ॥५॥ तोकाहस्सपिनबापुनंपाडेपाय पीढंमि ॥ अवराहखामणबंसोविसयंसेखमिस्सामि ॥५॥ सिसुवालोविदुजुवणमएण नारा यणंअसप्नेहिं ॥ वयणे हिंनणइसोविदुखमश्खमाएसमबोवि ॥ ७॥ अवराहसएपुस्मेवारि तोणचिजाहे। काहेणत निन्नंचक्के शूनत्तमंगंसे ॥७॥ सांप्रतं सर्वजनप्रतीतं वार्तमा निकं दृष्टांतमाह । ( पयायाइत्यादि ) यथा वाग्निर्विस्फूर्जतः प्रकर्षेण विकटपादपातं रणशिरसि संग्राममूर्धन्यग्रानीके यातागताः। केते शूराः शूरंमन्याः सुनटाः । ततः संग्रामे समुपस्थिते पतत्परानीकसुनटमुक्तहेतिसंघाते सति तत्रच सर्वस्याऽऽकुलीनूतत्वात् मा तापुत्रं न जानाति कटीतोत्रश्यंतं स्तनंधयमपि न सम्यक् प्रति जागर्तीत्येवं मातापुत्रीये संग्रामे परानीकसुनटेन जेत्रा च शक्त्यादिनिः परिसमंतात् विविधमनेकप्रकारं इतोहत बिन्नोवा यथा कश्चिदल्पसखोनंगमुपयाति दीनोनवतीति यावदिति ॥ २ ॥ Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राय धनपतसिंघ बादाडुरका जैनागमसंग्रह नाग इसरा. एवं देवि पुढे, जिस्का यरिया कोविए ॥ सूरं मतिप्पाणं, जानूहं नसे ॥ ३ ॥ जया हेमंतमासंमि, सीतं फुसइ सवगं, पाठांतरं सवायां ॥ तब मंदा विसीयंति, रऊदीपावि खत्तिया ॥ ४॥ अर्थ- हवे ए दृष्टांत साधु साथे मेलवे बे. एवं के० एम पूर्वोक्त सुनटनी पेरे शीशु पालवत् सेहे विके० नवदीक्षित शिष्य पण पुट्ठेके० परिसहने प्रण फरइयो थको एम कहे, दीपावामांगुं दुल्लेनले ? एटले दीक्षानो मार्ग सुलनज बे एवो ते निरकायरि या को विकेनिकाचर्याने विषे कोविद, एटले अजाण, अनेरा श्राचारने विषे नि पुण थको नवदीक्षित. ते सूरंमा तिप्पाणं के० वचन मात्रे कररी पोताने विषे शूर पान माननार ते जावके ० ज्यांलगे लूहंके० संयमने नसेवर के० सेवे नहीं त्यांलगे एवं कहे के, ए संयममांशुं दुष्करपणुं बे ? परंतु जेवारे संयम यादरे तेवारे प रिसनो दावे के सिदाय. ॥ ३ ॥ हवे संयमनुं दुष्करपणुं देखाडेबे. जया ho त्यां एकदाकाने हेमंतमासंमि के० हेमंत ऋतुना पौष ने माघ मासमां स वर्ग के सर्वागे पाठांतरे सवाय के० वायरासहित सीतंफुसति के० शीत फरसे तब ho तेवारे मंदाविके मंदबुद्धि जारी कार्मजीव कायर थको, चारित्रने विषे सीयंतिके ० सिवाय एटजे दीन पणुं पामे. कोनी पेरे? तोके, रऊहीणावि खत्तिया के० जेम राज्य हीन छत्री सिदाय तेनी परे ते साधु पण जाली जेवो. ॥ ४ ॥ "6 59 0 १६५ || दीपिका - दाष्टौतिकमाह । ( एवमिति ) । एवं पूर्वोक्तप्रकारेण यथा शूरंमन्योजेता रं वासुदेवमन्यंवा युध्यमानं दृष्ट्वा जंगं याति । एवं शिष्यकोऽनिनव प्रव्रजितः परीष हैरस्ट टः प्रव्रज्यायां किंडुष्करमिति गर्जन निकाचर्यायां निकाटने कोविदोनिपुणः । उपलक्ष लादन्यस्मिन्नपि साध्वाचारेऽनिपुणः सम्प्रात्मानं तावत् शिशुपालवत् शूरं मन्यते । याव तारमिव रूं संयमं नसेवते ननजते । संयमप्राप्तौहि बहवोगुरुकर्माणोऽल्पसत्वानंगमु पयतीति ॥३॥ संयमस्य रूत्वमाह । ( जयेत्ति) यदा हेमंतमासे शीतकाले शीतं स्पृशति स वगतत्र शीते मंदाविषीदति दीनाः स्युः । राज्यहीना राज्यच्युताय यात्रियाराजानः॥४॥ ॥ टीका - दाष्टतिकमाह । ( एवंसे देवीत्यादि ) । एवमिति प्रक्रांतपरामर्शार्थः । य थाऽसौ शूरंमन्यनष्ट सिंहनादपूर्वक संग्राम शिरस्युपस्थितः पश्चातारं वासुदेवम न्यं वा युध्यमानं दृष्ट्वा दैन्यमुपयाति । एवं शिष्यकोऽनिनवप्रव्रजितः परीपतैरस्पृष्टोबुप्तः किं प्रव्रज्यायां पुष्करमित्येवं गर्जन् निदाचर्यायां निकाटने कोविदोऽनिपुणः । उपल कार्थत्वादन्यत्राऽपि साध्वाचारेऽजिनवप्रव्रजितत्वादप्रवीणः स एवंभूतश्रात्मानं For Private Personal Use Only Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६६ द्वितीये सूत्रकृतांगे प्रथमश्रुतस्कंधे तृतीयाध्ययनं. तावविशुपालवत् शूरं मन्यते यावतारमिव रूक्षं संयमं कर्म संश्लेषकारणर नावात् नसेवते ननजतइति । तत्प्राप्ती तु बहवो गुरुकर्माणोऽल्पसत्वानंगमुपयांति ॥ ३ ॥ संयमस्य रूक्षत्वप्रतिपादनायाह । (जया हेमंतेइत्यादि) । यदा कदाचित् हेमंत मासे पौषादी शीतं सहिमकणवातं स्पृशति जगति तत्र तस्मिन्नसह्ये शीतस्पर्शे ल गतिसति एके मंदाजडागुरुकर्माणो विषीदति दैन्यनावमुपयांति राज्यही नाराज्यच्यु ताः यथा दत्रियाराजानश्वेति ॥ ४ ॥ पछे गिम्दादि तांबेणं, मिणे सुष्पिवासिए ॥ तच मंदा विसियं ति, मा प्रमोदए जढ़ा ॥ ८ ॥ सदादत्तेसला डुरका, जायला डुप्पोनिया || कम्मत्ता नगा चेव, इच्चादं सुपुढो जणा ॥ ६ ॥ ० अर्थ- दवे नष्णपरिसह कहेले. गिम्हाहि के० ग्रीष्मकाले ज्येष्ठादिक मासनो उप न्यो तावेणं के० उष्ण प्रताप, तेथे करी पुट्ठे के० फरश्यो एटले व्याप्यो बतो, विमले के० विमन एटले ग्रामण मणो थयो थको सप्पिवासिए के अत्यंत तृषाये कर परानव पाम्यो तेवारे तब मंदाविसीयंतिके त्यां पण मंद बापडो कायर सिदाय, जंग पामे. जहा के० जेम मात्र प्पोदए के० मानुं अल्पोदकमां एटले पाणीना वियोगथी सिदाय तेम सत्वरहित चारित्रियो संयम थकी भ्रष्ट थाय. जेम मालां जीवितव्य थ की ष्टथाय तेनी पेरें जाली जेवुं ॥ ५ ॥ हवे याचना परिसह कहेले. सदादत्तेस erstar के सर्वकाल शिनिमात्र पण साधुने दीधो ने एपणिय जेवो ए महाडु. ख . खबे जायला के० याचना एटने मागवुं ते दुप्पगोलिया के अपार दुर्जनले. तेमां जे काय र होय ते सिदाय हवे पाउने अर्थे याक्रोश परिसह कहे. पुढोजणा के० पामर लो क होय ते साधुने च्चाहंस के० एम कहेके, कम्मत्ता के० ए बापडा पूर्व प्राचरित कर्मे करी या थका पूर्वकृत कर्मनां फल अनुनवेले अथवा ए बापडा मलम लिन श रीरःखादिक वेदनाये ग्रसित दरिड़ी करसादिक कार्य करवा असमर्थ माटे उद्वेग पा म्यायका यति थाले ए पुत्र कलत्रादिके करी मूकायला, नगाचेव के० दौर्भागी थ का परिवार बांकी प्रवर्ज्या खादरी रहेवे ॥ ६ ॥ ० ם y ॥ दीपिका - ( पुट्ठेति ) । ग्रीष्मेऽनितापस्तेन स्पृष्टोव्याप्त. सन् विमना विमनस्कः सु टु श्रतिशयेन पिपासां तृषां प्राप्तः स्यात् । तत्रोपपहे मंदाविषीदति । यथा मत्स्या पोद विषति ॥ ५ ॥ ( सदेति ) सदासर्वकालं दंतशोधनाद्यपि दत्तमेषणीयदो परहितं नोक्तव्यमिति दत्तेषणाडुःखं । तथा इयं याच्ञा दुःखेन प्राणोद्यते परीषदोर्जे For Private Personal Use Only Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राय धनपतसिंघ बानापुरका जैनागमसंग्रह नाग उसरा. १६७ शतिनावः । मिसाइ मुहलावरम, वायाघोलेश्कंठमऊंमि । कहकहकरेशहिययं, देहि त्ति परं नवंतस्स ॥ ॥ गतिनंशोमुखे दैन्यं गात्रस्वेदोविवर्णता ।मरणे यानि चिन्हानि तानि चिन्हानि याचके ॥ १ ॥ एवं याञापरिषदं परित्यज्य महापुरुषसेवितः पंथाः श्र यणीयः । आक्रोशपरिषहमाह। कम्मत्तत्ति । पृथक्जनाएवमाहुः सामान्य लोकाश्नमुक्तवं तः । यथा एते यतयः कर्मनिः कृष्यादिनिरार्तास्तत्कर्तुमसमर्थाः संतोयतित्वं प्रतिपन्ना पुर्नगाः पुत्रदारादिनात्यक्तानिर्गतिकाः संतः प्रव्रज्यामाश्रिताइति ॥ ६ ॥ ॥ टीका-नुमपरीषहमधिकत्याह । ( पुडेइत्यादि ) । ग्रीष्मे ज्येषाषाढारव्ये अनि तापस्तेन स्टष्टलुप्तोव्याप्तः सन् विमनाविमनस्कः सुष्टुवा अतिशयेन पातुमिना पिपा सा तां प्राप्तोनितरां तृडनिनूतोबादुव्येन दैन्यमुपयातीति दर्शयति । तत्र तस्मिन्नु मपरीषदोदये मंदाजमाघशक्ता विषीदंति परानंगमुपयांति । दृष्टांतमाह । यथा म त्स्यायल्पोदके विषीदंति । गमनानावान्मरणमुपयांत्येवं सत्वानावात्संयमात् च श्यंतइति । इदमुक्तं नवति । यथा मत्स्यायल्पत्वाउदकस्य ग्रीष्मानितापेन तप्ताथ वसीदंत्येवमल्पसत्वाश्चारित्रप्रतिपत्तावपि जलमलक्लेद क्तिनगात्राबहिरुमानितप्ताः शीत लान् जलाश्रयान जलाधारगृहचंदनादीनुष्मप्रतिकारहेतूननुस्मरंतयाकुलितचेतसः सं यमानुष्ठानं प्रति विषीदंति ॥ ५ ॥ सांप्रतं यानापरीषहमधिकृत्याह (सदादत्ते त्यादि ) यतीनां सदा सर्वदा दंतशोधनाद्यपि परेण दत्तमेषणीयमुत्पादाद्यषणादोषरहि तमुपनोक्तव्यमित्यतः धादिवेदनार्तानां यावजीवं परदत्तपणामुःखं नवति । अपि चेयं याञापरीषहोल्पसत्वैईःखेन प्रणोद्यते त्यज्यते। तथाचोक्तं । मिनाश्मुहलावम, वा याघोलेश्कंठमभूमि । कहकहकहे हिययं देहित्तिपरंनणंतस्स ॥ १ ॥ गतिनंशोमुखे दैन्यं गात्रस्वेदोविवर्णता । मरणे यानि चिन्हानि तानि चिन्हानि याचके इत्यादि । एवं उस्त्यजं यानापरीषहं परित्यज्य गतानिमानामहासत्वाझानाद्यनिवृध्ये महापुरुषसे वितं पंथान मनुव्रजंतीति श्लोकपश्चाईनाऽक्रोशपरीषहं दर्शयति । पृथक्जनाः प्राकृतपुरुषायनाये कल्पाश्त्येवमादुरित्येवमुक्तवंतः । तद्यथा । ये एते यतयः जलाविलदेहालुंचितशिर सः दुधादिवेदनाग्रस्तास्ते एतैः पूर्वाचरितैः कर्मनिरार्ताः पूर्वस्वरुतकर्मणः फलमनुनवं ति । यदिवा कर्मनिः कृप्यादि निरास्तित्कर्तुमसमर्थानहिनाः संतोयतयः संवृत्ताइतित थैते कुर्नगाः सर्वेणैव पुत्रदारादिना परित्यक्ता निर्गतिकाः संतःप्रव्रज्यामन्यपगताइति ॥६॥ एते सद्दे अचायंता, गामेसु गरेसु वा ॥ तत्र मंदा विसीयंति, संगामंमिव नीरुया॥७॥ अप्पेगे कुधियं निरकुं, सुपी संति लूसए॥ तब मंदा विसीयंति, ते पुघाव पाणिणो ॥ ७॥ Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६७ वितीये सूत्रकृतांगे प्रथमश्रुतस्कंधे स्तृतीयाध्ययनं. अर्थ-एतेसद्दे के० एवा पूर्वोक्त थाक्रोश संबंधि जे शब्द तेने सहन करवाने अचा यंता के० असमर्थ गामेसु के ग्रामने विषे, वाके अथवा गरेसु के० नगरने विषे तबके त्यां एवा याक्रोश नपने थके मंदाविसीयंतिके तेमंद अज्ञानी चारित्रिसीदा य, कोनी परे सिदायले ते कहे. संगामंमिवनीरुयाके जेम बोकण मनुष्य संग्रामने विषे शस्त्र देखी सिदाइने जागी जाय, तेनी पेरे ते मंद चारित्रियो चारित्रयी नंगपामेले. ॥७॥ हवे वध परिसह कहे. अप्प के० अपि संनावनाये एगे के एक को एक लू सक श्वानादिक ते खुधियं निरकं के निदाये नमतो नख्यो एवोजे साधु तेने देखी सुणी के० ते श्वानादिक मंसंतिके मंख मारे. लूसए केवलुरे तब के त्यां श्वानादिके खा धो बतो मंदाविसीयंति के० अज्ञानी सिदाय एटले दीन थाय. कोनी परे, तोके जेम तेन के अनिने पुछाव के स्पर्श करी पाणिणो के प्राणी एटले जीव पोतानुं शरीर संकोचें तेम मंद चारित्रि पण पोतानुं गात्र संकोचेः ॥ ॥ ॥ दीपिका-(एतेऽति ) एतान् पूर्वोक्तानाकोशशब्दान् सोढुमशक्नुवंतोग्रामनगरादौ स्थि ताः । तत्राकोशे मंदा विषीदंति दैन्यनजते संयमानश्यंति यथा नीरवः कातराः संग्रामे षु नज्यंते ॥७॥ वधपरीषहमाह (अप्पेगति) अपिःसंनावने । एकः कश्चित् श्वादिलृषकः क्रूरोनदकः (खुधियमिति) लुधितं निदामटतं निहुँ दशति नक्ष्यति। तत्र ग्वादिनदणे मंदाविषीदंति । यथा तेजसामिनास्टष्टादह्यमानाः प्राणिनोवेदनार्ताः सीदंति ॥ ७ ॥ ॥ टीका-(एएसइइत्यादि ) एतान् पूर्वोक्तानाक्रोशरूपान तथा चौरचारिकादि रूपान शब्दान् सोढुमशनुवंतोग्रामनगरादौ तदंतराले वा व्यवस्थिताः । तत्र तस्मिन् आक्रोशे सति मंदाग्रज्ञानलघुप्रकतयोविषीदंति विमनस्कानवंति संयमाचश्यति । तथा नीरवः संग्रामे रणशिरसि चक्रकुंताऽसिशक्तिनाराचाकुले रटत्पटहशंखफटनरीनाद गंनीरे समाकुलाः संतः पौरुषं परित्यज्याऽयशःपटहमंगीकृत्य नज्यंते । एवमाकोशादि शब्दाकर्णनादऽल्पसत्वाः संयमे विषीदंति ॥ ७ ॥ वधपरीषहमधिकृत्याह। ( अप्पेगे त्यादि)। अपिः संनावने । एकः कश्चित्वादिः सुषयतीतिलुषकः प्रकृत्यैवक्रूरोनक्कः। खुधियंति । हुधितं बुनुदितं निदामटतं निहुँ दशति नदयति दशनैरंगावयवं विखं पति । तत्र तस्मिन् श्वादिनदणे सति मंदाअशाअल्पसत्वतया विषीदंति दैन्यं नजं ते । यथा तेजसाऽग्निना स्टष्टादह्यमानाः प्राणिनोजंतवोवेदनार्ताः संतोविषीदंति गात्रं संकोचयंत्यार्तध्यानोपहतानवंति । एवं साधुरपि क्रूरसत्वैरनिपुतः संयमा द्श्य तइति उःसहत्वाद्रामकंटकानां ॥ ७ ॥ Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राय धनपतसिंघ बादाउरका जैनागमसंग्रह नाग उसरा. १६ए अप्पेगे पडिनासंति, पडिपंथियमागता ॥ पडियारगता एते, जे एते एव जीविणो॥॥ अप्पेगे व जुजंति, नगिणा पिंमो लगाहमा ॥ मुंमाकंमूविणगा, उल्ला असमाहिता ॥१०॥ अर्थ-वली ग्रामीण लोकनुं वचन परिसह कहे. अप्पेगे के० अपि संनावनायें. कोई एक धर्मना अजाण पडिपंथियमागता के साधुना देषी, साधुनी साथे शत्रुनावे पोहोंता थका पडिनासंति के एवं कठोर वचन साधुप्रतें नासे एटले बोले. मु बोले? तो के, पडियारगताएते के ए बापडा पाडला नवना करेला कर्मनां फल नोगवे. जे एते के जे ए यति ते एवजीविणो के एम आजीविकायें जीवेडे. एटले परघरनी निदा मागेले, तथा अंतप्रांत आहारना लेनारा ले. एणे पूर्वले नवे कांश दीनथी, कांश साधु नथी, तेथी मस्तक मुंम थइ बीनत्सरूपे सर्व नोग थकी वंच्या एवा ए बाप डा उरखी थका, जीवे बे. ॥ ए ॥ तथा वली एहिज परिसह कहेजे. अप्पेगेवगँजति के अपि संनावनायें, एक को अनार्य एवां वचनबोले के, नगिणा के ए नागा स र्वकाल पिंमोलगाहमा के० परपिंमना उसीयाला अधम उगंबाना स्थानक मुंमा के मुंमितकेश, कंके० खाजीये करी एमना शरीर विणगाके विणाले. अंगजेना एवा पामर तथा उन्ना के मेल प्रस्वेद थकी खरड्या असमाहिया के सर्वकाल अस माधिया एटले अशोननिक देखनाराने असमाधिना नपजावनारले.॥ १० ॥ ॥ दीपिका-आक्रोशमेव पुनराह । (अप्पेगति ) अप्येके प्रातिपंथिकतां साधविदे षितां प्राप्ताः प्रतिनाते । यथा प्रतीकारपूर्वकर्मानुनवस्तमेकेगताः प्राप्ताः स्वरुतकर्मनो गिनोयएते एवं जीविनः परगृहाण्यटतः अंतप्रांतनोजिनोखंचित शिरसः सर्वनोगं चिं ताखं जीवंतीति ॥ ए ॥ किंच ( अप्पेगेति ) अप्येके अनार्यावाचं युंजंति नापते । यथा एते जिनकल्पिकादयोनग्नाः पिंमोलगाः परपिंम्प्रार्थकाअधमामुंडालुंचितकेशाः कंडूः खर्जस्तया विनष्टांगा अप्रतिकर्मतया कचित् रोगसंनवे सनत्कुमारवदिनष्टांगानजतो जल्लोमतः प्रस्वेदोयेषांते उजनाः असमाहिताअशोजनाः ॥ १० ॥ ॥ टीका-पुनरपि तानधिकल्याह । (अप्पेगेइत्यादि)। अपिः संनावने । एके केचना ऽपुष्टधर्माणः अपुण्यकर्माणः प्रतिनाति ढवते । प्रतिपंथाः प्रतिकूलत्वं तेन चरंति प्रा तिपंथिकाः साधु विदेषिणस्तनावमागताः कथंचित्प्रतिपथेवा दृष्टाधनाएतद्ब्रुवते । संभाव्यते एतदेवं विधानां तद्यथाप्रतीकारः पूर्वाचरितस्य कर्मणोऽनुनवस्तमेके गताः प्राप्ताः स्वकतकर्मफलनोगिनोयएते यतयएवं जीवंति परगृहाण्यटंतोऽतप्रांतनोजिनो Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७० द्वितीये सूत्रकृतांगे प्रथम श्रुतस्कंधे तृतीयाध्ययनं. दत्तादाना लुंचित शिरसः सर्वनागवंचिताडुःखितं जीवंतीति ॥ ए ॥ किंच ( अप्पेगे त्यादि) प्येके केचन कुसृतिप्रसृतायनार्यावाचं युंजंति नाते । तद्यथैते जिनक पिकादयोनास्तथा ( पिंमोलगत्ति ) परापंमप्रार्थकात्र्यधमाः मला विलत्वात् जुगुप्सितामुं मालुंचित शिरसस्तथा क्वचित्कंकृत कतै रेखा निर्वा विनष्टांगा विकृतशरीराप्रप्रतिकर्मश रतया वा कचिनोगसंजवे सनत्कुमारवद्विनष्टांगस्तथोजतोजल्लः शुष्कप्रस्वेदोयेषांते नऊ नास्तथा समाहिताय शोजना बीनत्साऽष्टावा प्राणिनामसमाधिमुत्पादयतीति ॥ १० ॥ एवं विप्पडवन्ने, अप्पान जालया ॥ तमन ते तमं जंति, मंदा मोह पाडा ॥ ११ ॥ पुठोय दंस मसएहिं, तण फास मवाइया ॥ न मे दिवे परे लोए, जइ परं मरणंसिया ॥ १२ ॥ ० अर्थ- हवे जे साधुने एवां दुर्वचन बोले, तेने विपाक देखाडे बे एवं के० एपूर्वजी ते विप्पडने के कोई एक पुण्य रहित जीव, विप्रतिपन्न एटले साधु मार्गना दे षी अप्पान्यजाणया के पोते अजाण बतां तु शब्दयकीयन्य विवेकी पुरुषनां वच न मानतां एवा जीव तमतमंजंति के० अंधकार गति थकी फरी खाकरी अं धकार गतियें जाय. ते मंदा के० प्रज्ञानी केवाले. तोके, मोहेा के० मिय्यात्व दर्शने करी पाउडा के० ढाक्या प्रावस्था कुमार्गने सेवेबे ॥ ११ ॥ हवे दंसमसकादिक परिसह कहे बे. सिंधु ताम्रलिप्त कोंकणादिक देशने विषे प्रायें दंस मशकादिक अधिक होय. ते देशाने विषे कोइवार साधु गयो थको, दंसमसएहिं के० दंस मशकादिक पुछोय के० फरशे तेथी दंसमशकादिके पीडायो तथा व्यकंचन जावळे, माटे तण के० तृष्णादिकने विषे संथा करे, तेथे ते तृणादिकना फास के स्पर्श मवाश्या के० सहन कर वाने शक्तिवंत बतो, कोइ एक कायर एम चिंतन करे के एवं पुष्कर अनुष्ठान परलो करिये. अने नमेदि हेपरेलोए के० ते परलोकतो मे दीतुं नथी. ज‍ के० जेमाडे परंमरणं के० एवा क्लेशथी मरण तो प्रत्यक्ष देखायबे जे अवश्य मरण पामी माटे एवा क्लेशथी सयुं ॥ १२ ॥ ס ॥ दीपिका - एवं जाते ये तेषां विपाकमाह । (एवमिति) एवं पूर्वोक्तनीत्या एके के चित् प्रति पन्नाः साधुमार्ग देषिश्रात्मना स्वयमज्ञाः । तुशब्दादन्येषां वचनमकुर्वाणास्तेऽज्ञानात्तमो यांति। यधस्तमां गतिं गवं ति । मंदामोहेन मिथ्यात्वेन प्रावृताच्या च्वादिताः साधु देषिणः कुमा गंगाः स्युः । यथा । एकं हि चकुरमलं सहजो विवेक, स्त ६ङ्गिरेव सह संवसतििर्द्वतीयं ॥ एत यं वि न यस्य सतत्वतोंधस्तस्यापमार्गचलने खलु कोपराधः॥ ११ ॥ दंशमशकपरी पहानाह । For Private Personal Use Only • Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राय धनपतसिंघ बादाउरका जैनागमसंग्रह नाग उसरा. ११ ( पुत्ति ) क्वचित्सिंधुताम्रलिप्तकोंकणादिषु बहवोदंशमशकाः स्युस्तत्रपर्यटन साधुस्तैः स्टष्टोनदितस्तथा निष्किंचनत्वात्तणेषु शयानस्तेषां स्पर्श सोढुमशक्नुवन् वार्तः सन् एवं कदाचिचिंतयेत् । यथा परलोकार्थमिदं पुष्करमनुष्ठानं क्रियते नचासौ मया परलोकः प्र त्यहण दृष्टोनाप्यनुमानादिना । यदि परमनेन क्वेशेन मरणं स्यान्नान्यत्फलं किंचिदिति १२ ॥ टीका-सांप्रतमेतनाषकाणां विपाकदर्शनायाह । (एवमित्यादि) । एवमनंतरोतरी त्या एके अपुण्यकर्माणोविप्रतिपन्नाः साधुसन्मागेषिणात्मना स्वयमझाः । तुशब्दा दन्येषां च विवेकिनां वचनमकुर्वाणाः संतस्ते तमसोऽज्ञानरूपाउत्कृष्टं तमोयांति ग ति यदिवा अधस्तादप्यधस्तनीं गतिं गति । यतोमंदाज्ञानावरणीयेनाऽवष्टब्धास्त था मोहेन मिथ्यादर्शनरूपेण प्रावृतायावादिताः संतःपिंगप्रायाः साधुविशेषतया कुमा गंगानवंति । तथाचोक्तं । एकं हि चटुरमलं सहजोविवेक,स्त निरेव सह संवसतिक्तिी यं । एतद्दयं नुवि न यस्य सतत्वतोऽधस्तस्याऽपमार्गचलने खलु कोपराध ः॥१॥ ११ ॥ दंशमशकपरीषहमधिकत्याह । (पुछोयेत्यादि) क्वचित्सिंधुताम्रलिप्तकोंकणादिके देशे अ धिकादंशमशकानवंति। तत्रच कदाचित्साधुः पर्यटंस्तैस्टष्टश्च नदितस्तथानिष्किचन त्वात् तृणेषु शयानस्तत्स्पर्श सोढमशक्नुवन् यातः सन एवं कदाचिचिंतयेत् । तद्यथा। परलोकार्थमेतदुष्करमनुष्ठानं क्रियमाणं घटेत नचाऽसौ मया परलोकः प्रत्यदेणोपलब्धो ऽप्रत्यक्त्वात् नाऽप्यनुमानादिनोपलन्यतइति । अतोयदि परं ममानेन क्लेशानितापेन मरणं स्यान्नाऽन्यत्फलं किंचनेति ॥१२॥ संतत्ता केसलोएणं, बंनचेर पराश्या । तब मंदा विसीयंति, मबा विताव केयणे ॥१३॥ आयदंमसमायारे, मिबासंग्यि नावणा ॥ दरिसप्पनसमावन्ना, केश लूसंति नारिया॥१४॥ अर्थ-तथा वली संतत्ता केसलोएणं के केशना लोचे संताप्या तथा बनचेर पराश्या के ब्रह्मचर्य थकी नागा एटले लोचनी पीडा नपनी थकी तथा कामविकार ना दीपवा थकी तब के त्यां मंदा के० मंद अज्ञानी बापडा विसीयंति के सदाय. संयम थकी भ्रष्ट थाय. ते कोनी परे? तोके, जेम केयणे के केतन एटले मत्स बंध न तेने विषे विहाव के प्रवेश करवा थकी महा के मार्बु जीवितव्य थकी चूकेले. तेनी पेरे ते बापडा संयम थकी चूके. ॥ १३ ॥ आयदंमसमायारे के० यात्मा जे थकी दंमाय एवो जेनो आचार एटले अनुष्ठान. तथा मिन्नासंठियनावणा के मिथ्यादर्शन संस्थित एटले मिथ्यादर्शने नावित जेनुं चित्त , तथा हरिसप्पनसमाव Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७२ द्वितीये सूत्रकृतांगे प्रथमश्रुतस्कंधे तृतीयाध्ययनं. ना के० रागदेषे व्याकुल एवा केइ के० कोइएक यनारिया के० अनार्य पुरुषो ते चा त्रिवंत साधुने क्रीडायें करी जूसंति के० लूंशे कदर्थना करे ॥ १४ ॥ || दीपिका - ( संताइति ) । केशानां लोचने संतप्ताः पीडितास्तथा ब्रह्मचर्येण परा जितानग्नाः संतस्तत्र केशलोचे ब्रह्मचर्ये मंदाविषीदति संयमादश्यंते । यथा म तस्याः केतने मत्स्यबंधने प्रविष्ठाविषीदति जीविताश्यंति ॥ १३ ॥ ( यायदंडे ति ) । यात्मा दंडवते दुर्गतो पात्यते येन स यात्मदंड: समाचारोनुष्ठानं येषां ते आत्मदंम समाचाराः । मिथ्यासंस्थिताविपरीततया स्वीकृता जावना चित्तवृत्तियैस्ते मिथ्यासंस्थितना वनामिथ्यात्वोपहतदृष्टयइत्यर्थः । हर्षद्वेषमापन्नाराग देषाकुला एवं विधायनार्याः के चित् साधुं जूषयंति कदर्थयंति दंडादिनिर्वाग्निर्वा ॥ १४ ॥ ॥ टीका - पिच ( संतत्ताइत्यादि ) । समंतात् तप्ताः संतप्ताः केशानां लोचनत्पाट नं तेन । तथाहि । सरुधिरकेशोत्पाटने हि महती पीडोपपद्यते तया चाऽल्पसत्वाः विस्रोतसिकां नजंते । तथा ब्रह्मचर्यं वस्तिनिरोधस्तेनच पराजिताः पराननाः संतस्तत्र तस्मिन् केशोत्पाटनेऽतिदुर्जय कामोड़े के वा सति मंदाजमा लघुप्रकृतयो विषीदति संय मानुष्ठानं प्रति शीतलीनवंति सर्वथा संयमादश्यंति । तथा मत्स्याः केतने मत्स्य बंधने प्रविष्टा निर्गतिकाः संतोजीविताद्वश्यंति । एवं तेपि वराकाः सर्व कष्टकामपराजि ताः संयमजीवितात् घ्रश्यंति ॥ १३ ॥ किंच ( श्रायदंडेत्यापि ) । श्रात्मा दंडयते खं यते हितात् नश्यते येन स यात्ममः समाचारोऽनुष्ठानं येषामनार्यायां ते । तथा मिय्या विपरीता संस्थिता स्वानुग्रहारूढा नावनांतःकरणवृत्तिर्येषां ते मिय्यासंस्थित नावनामिथ्यात्वोपहतदृष्टयइत्यर्थः । हर्षश्व प्रदेषश्च हर्षप्रदेषं तदापन्नाराग द्वेषसमा कुलाइति यावत् । तएवंभूताश्रनार्याः साधुं सदाचारं क्रीमया प्रदेषणं वा क्रूरकर्मका रित्वात् पर्यति कदर्थयंति दमादिनिर्वाऽग्निवैते ॥ १४ ॥ पेगे पलियंतेसिं, चारो चोरोति सवयं ॥ बंधंति निरकुयं बाला कसायवयणेदिय ॥१५॥ तच्च दमेण संवीते, महिला अफलेण वा ॥ नाती सरती बाले, इचीवा कुधगामिणी ॥ १६ ॥ एते नोक सिणा फासा, फरुसा डुस्स दियासया॥ दबी वा सरसंवित्ता कीवा वसगया गतिबेमि ॥ १७ ॥ इति तृतीय ऽध्ययनस्य प्रथमोद्देशोस० अर्थ- बली यपि संभावनायें एगेपलियं के० को एक अनार्य, देशपर्यंत विचरता For Private Personal Use Only Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राय धनपतसिंघ बानाउरका जैनागमसंग्रह नाग उसरा. १७३ 0 साधु तेसिंके० ते साधुने एम कहेके, चारोचोरोतिसुवर्यके ए हेरुले चोरने, निक्षण शीत एम कहीते सुव्रतजे अणगार तेने बंधंतिनिस्कयंके राशी प्रमुखे करी, साधुने बांधे एवा बालाके बाल अज्ञानी तथा कसायवयणे हियके कषायना वचने करी निनर्सना करे. ॥१५॥ तबके त्यां अनार्य पुरुषे साधुने दंमेणके दंमे करी तथा मुहिणाके मु टियें करी अवाके अथवा फलेवाके फले करी संवीतेके हण्यो बतो कांइक परि गत साधु नातिणंसरती बाले के एवा दुःखोने ते बाल थझानी अण सहेतो थ को ज्ञाती गोत्रीने संजारे के, माहारो संबंधि गोत्री जो कोइ अंहियां होत तो ए मने एवी कदर्थना नकरत; एवी चिंतवना करे इशिवाकुगामिणी के० जेम स्त्री रीशाणी थकी, पोताना घरमांथी निकली; रस्तामां तेने चोर लोकोए ग्रहण करी बती पोताना संबंधिनु स्मरण करे, पश्चात्ताप करे, तेनीपेरे जाणी लेवी. ॥ १६ ॥ हवे उपसंहार करतो कहेले. एते के ए जे पूर्वे दंसमकादिकना परिसह कह्या ते नोके । श्रीसुध मेस्वामी जंबूप्रमुख शिष्योने बोलावी कहे के, नोशिष्यो कसिणाफासा केण्जे परिसह कह्या ते संपूर्णप्रत्ये फरशे फरुसा उस हियालया के जे कठोर अहियासता उर्जन एवा परिसहने अणसहेता एवा जे किवाके० क्लीव असमर्थ अवसाके० परवशे एटले कर्मना वशे पड्या थका गयागिहं के वली गृहवाशे गया. कोनीपरे ? तोके, हनिवासरसंवित्ता के जेम हस्ती संग्रामने माथें, मस्तके शरजाले वींध्यो थको त्यांथी नाशी पालो फरे तेम कायर साधु चारित्र थकी पाडो फरे तिबेमिनो अर्थ पूर्ववत् जाणवो. ॥ १७ ॥ इति तृतीयाऽध्ययनस्य प्रथमोदेशकः समाप्तः ॥ ॥ दीपिका-(अप्पेगत्ति ) एके पूर्वोक्तविशेषणाअनार्याः पर्यंतदेशे वर्तमानं साधं से व्रतं ( चारोचोरित्ति ) चरोयं चोरोयमिति कृत्वा बध्नति निझुकं निदणशीलं बालाथ ज्ञास्तथा कषायवचनैः क्रोधवचनैर्निर्नसयंति ॥ १५ ॥ (तति ) तत्रोऽनार्यदेशे ऽनार्दडेन मुष्टिना फलेन मातुलिंगादिना खड़ा दिनावा संवीतः कश्चिदपरिणतः साधुर्जा तीनां स्मरति। यद्यत्र मम कश्चित्संबंधी स्यात्तदा नाहमीदृशीं कदर्थनां प्राप्नुयामीति । यथा स्त्रीकुमा सती स्वगृहाजमनशीला निराश्रया मांसपेशीव सर्वस्टहणीया तस्करादिनिरनिद्र तासती जातपश्चात्तापा ज्ञातीनां स्मरत्येवं साधुरपि ॥ १६ ॥ (एतेति)। नोति शि प्यामंत्रणं । एते दंशमशकादयः परीषहाः स्टश्यंते अनुनयंते स्पर्शाः परुषाः करिना खेनाधिसह्यते ऽरधिसह्याहस्तिनश्व शरैर्बाणैः संवाताव्याप्तानज्यंतइति शेषः । एवं क्लीबाघसमर्थाअवशाःपरवशाःकर्मायत्ताः पश्चात्स्वगृहं गता ब्रवीमीति पूर्ववत् ॥ १७॥ इतिउपसर्गपरिज्ञाख्ये तृतीयाध्ययने प्रथमोद्देशकः समाप्तः ॥ Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७४ वितीयेसूत्रकृतांगे प्रथमश्रुतस्कंधे तृतीयाध्ययनं. ॥ टीका-एतदेव दर्शयितुमाह । ( अप्पे गेइत्यादि ) । अपिःसंनावने । एके अनार्या यात्मदमसमाचारामिथ्यात्वोपहतबुझ्योरागषपरिगताः। साधु (पलियंतेसिंति ) नार्यदेशपर्यंते वर्तमानं (चारोत्ति ) चारोयं चौरोयं स्तेन इत्येवं मत्वा सुव्रतं कदर्थयति । तथाहि । बध्नति रज्वादिना संयमयंति निढुकं नीक्षणशीलं बालायझाः सदसदिवे कविकलास्तथा कषायवचनैश्च क्रोधप्रधानकटुकवचनैर्निर्क्सयंतीति ॥ १५ ॥ अपिच ( तनदंडेणेत्यादि )। तत्र तस्मिन्ननार्यदेशपर्यते वर्तमानः साधुरनार्दै डेन यष्टिना मुष्टि ना वा संवीतः प्रहतोऽथवा फलेन वा मातुलिंगादिना खड़ादिना वा ससाधुरेवं तैः कद र्थ्यमानः कश्चिदपरिणतोबालोऽझोझातीनां स्वजनानां स्मरति । तद्यथा। यद्यत्र मम कश्चित् संबंधी स्यात् नाऽहमेवंनतां कदर्थनामवाप्नुयामिति । दृष्टांतमाह । यथा स्त्रीका सती स्वगृहात् गमनशीला निराश्रया मांसपेशीव सर्वस्टहणीया तस्करादिनिरनिद्रुता सती जातपश्चात्तापा ज्ञातीनां स्मरत्येवमसावपीति ॥ १६॥ नपसंहारार्थमाह । ( एते नोइत्यादि )। नोति शिष्यामंत्रणं । यएतयादितः प्रनति देशमशकादयः पीडोत्पादक त्वेन परीपहाएवोपसर्गायनिहिताः कृत्स्नाः संपूर्णाबाहुल्येन स्टश्यते स्पर्श शियेणाऽनु नूयंतइति स्पर्शाः । कथंभूताः परुषाः परुषैरनायैः कृतत्वात् पीडाकारिणः।तेचाऽल्पस वैईःखेनाऽधिसाते तांश्चाऽसहमानालघुप्रकृतयः केचन श्लाघामंगीकृत्य हस्तिनश्व रणशिरसि शरजालसंवीताः शरशताकुलानंगमुपयांत्येवं क्लीवाअसमर्थायवशाः परवशाः कर्मायत्तागुरुकर्माणः पुनरपि गृहमेव गताः । पाठांतरं वा (तिवसङ्केत्ति ) ती त्रैरुपसगैरनिताः शाः शानुष्ठानाः संयमं परित्यज्य गृहं गताइति । ब्रवीमीति पूर्वव त् । उपसर्गपरिझायाः प्रथमोदेशकशति ॥ १७ ॥ ॥ अथ दितीयोदेशकस्य प्रारंनः पहेला उद्देशामा प्रतिकूल उपसर्गना कारण कह्या. हवे बीजा उद्देशामां अनुकूल उपसर्गना कारण कहेले . अदिमे सुहमा संगा, निरकुणं जे उरुत्तरा ॥ जब एगे विसीयं ति, पचयंतिज वित्तए ॥१॥ अप्पेगे नायन दिस्स, रोयंति परिवारिया ॥ पोसणे ताय पुछोसि,कस्स तायजहासि णे ॥२॥ अर्थ-अहकेण्थ हवे इमे के ए सुहमाके सूक्ष्म,एटले चित्तने विकार उपजावनार एवा अंतरंग प्रतिकूल उपसर्गना कारण पण बादर एटले प्रगट देखाय नही तेवा शरीरने विकार करनार उपसर्ग न जाणवा एवा संगाके मातापितादिकनो संबंध, ते संबंधी जेके जे नि Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राय धनपतसिंघ बादाडुरका जैनागमसंग्रह नाग दुसरा. १७५ ० 0 स्कु के चारित्रियाने दुरुत्तराके दुधनीय उपसर्गवे तेज उपसर्ग कहेले. जब के०जे उपस fara के एगे कोई एक कायर चारित्रि, सीयंतिके० सदाय एचियंतिज वित्तएके० ते पोताना यात्माये संयमनो निर्वाह करी शके नहीं ॥१॥ अपि संभावनाए, एगेके० को एक नाय दिस्स के ज्ञातिला साधुने देखीने साधुने परिवारिया के० वीटीने रोपंति के० रुदन करे एटले विलाप करे ने एम कहेके खम्हे तारुं बालपण थकी पालण पोषण करयुं, ते म्हे तारा ताय के० तात एटले पिता बैयें माटे एवं जाएयुजे मा री वृद्धावस्थामां ; तुपण मारुं पोषण करीश पुछोसि के० तेमाटे हेपुत्र तुं यमासं पोसके पोषण कर, तथा ते साधुना पुत्रादिक होय ते एम कहेके कस्सतायजहा सिरो के हो तात होपिता तमे श्रमने शाकारणे मोठो ? ॥ २ ॥ 0 || दीपिका-अथ द्वितीयारभ्यते । पूर्वं प्रतिकूला उपसर्गानक्ताः इहाऽनुकूलान च्यंते । यथा (हिमेति ) अथ इमे वक्ष्यमाणाः सूक्ष्यायांतर विकारिणः संगामातापि त्रादयोनिकूणां ये दुरुत्तराडुर्लध्याः । यत्र येषु उपसर्गेषु एकेाल्पसत्वाविषीदति संयमे मं दाः स्युः । नशक्नुवंति यापयितुं संयमे यात्मानं प्रवर्तयितुमिति ॥ १ ॥ (अप्पेगइति) य पिः संभावने । एके ज्ञातयः स्वजनाः प्रव्रजंतं प्रव्रजितं वा दृष्ट्वा परिवार्य विष्टज्य याश्रित्य रुति वदति चैवं त्वमस्मानिः पोषितो बाल्यादारच्यावृ 5 मस्माकं बालकोनविष्यसीति क त्वा ततोऽस्मान् त्वं तातपुत्र पोषय पालय कस्य कृते केन कारणेनास्मान् व्यजसि ॥२॥ ॥ टीका - नक्तः प्रथमोदेशकः । सांप्रतं द्वितीयः समारज्यते । यस्य चायमनिसंबं धः । इहोपसर्गपरिज्ञाध्ययने उपसर्गाः प्रतिपादितास्तेचानुकूलाः प्रतिकूलाश्व । तत्र प्रथमोदेशके प्रतिकूलाः प्रतिपादिताइहत्वनुकूलाः प्रतिपाद्यंतइत्यनेन संबंधेनाया astra स्यादिसूत्रं । (हिमेइत्यादि) । श्रथेत्यानंतर्ये । प्रतिकूलोपसर्गानंतरम नुकूलाः प्रतिपाद्यंत इत्यानंतर्यार्थः । इमे त्वनंतर मेवा निधीयमानाः प्रत्यासन्नवा चित्वादि दमधियं । तेच सूक्ष्माः प्रायश्वेतो विकारकारित्वेनांतरान प्रतिकूलोपसर्गाश्व बाहु येन शरीरविकारकारित्वेन प्रकटतया बादराइति । संगामातापित्रादिसंबंधाः । यएते नि क्रूणां साधूनामपिडुरुत्तराडु घ्याडुरतिक्रमणीया इति । प्रायोजीवितविघ्नकरैरपि प्र तिकूलोपसर्गैरुदीर्णैर्माध्यस्थ्यमवलंबयितुं महापुरुषैः शक्यमेतेत्वनुकूलोपसर्गास्तानप्यु पायेन धर्माच्या वयं त्यतोऽमरुत्तराइति । यत्र येवूपसर्गेषु सत्स्वेके अल्पसत्वाः सदनुष्ठानं प्रति विषीदति शीतलविहारित्वं नजंते सर्वथा वा संयमं त्यजति नैवा त्मानं संयमानुष्ठानेन यापयितुं वर्तयितुं तस्मिन् वा व्यवस्थापयितुं शक्नुवंति समर्थानवं तीति ॥ १ ॥ तानेव सूक्ष्मसंगान दर्शयितुमाह । (अप्पेगेइत्यादि) यपिः संजावने । एके For Private Personal Use Only Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७६ द्वितीये सूत्रकृतांगे प्रथम श्रुतस्कंधे तृतीयाध्ययनं. तथाविधाज्ञातयः स्वजनामातापित्रादयः प्रव्रजंतं प्रव्रजितं वा दृष्ट्वोपलभ्य परिवार्य वेष्ट यित्वा रुदंति रुदंतोवा वदंति च दीनं । यथा बाल्यात् प्रनृति त्वमस्माभिः पोषितोवृद्धा नां पालको विष्यतीति कृत्वा ततोधुनानोऽस्मान पित्वं तात पुत्र पोषय पालय कस्य क ते केन कारणेन कस्यवा बलेन तातास्मान् त्यजसि नास्माकं नवंतमंतरेण कश्चित्राता विद्यतइति ॥ २ ॥ रात के पिया ते येन तात, ससा ते खुडिया इमा ॥ नायरोते सगा ता त, सोयरा किं जहासि ऐ ॥ ३ ॥ मायरं पियरं पोस, एवं लोगो विस्सति ॥ एवं खु लोइयं ताय, जे पालंति य मायरं ॥ ४ ॥ अर्थ - पिया हो तात ताहरो जे पिताने ते थेट एटजे मोकरो अर्थात वृद्ध तथा ससा के० बेहेन ते खुडिया के० न्हानी, इमाके० ए प्रत्यक्ष देखाय, तथा नायरोतेसगातात के० हेतात ताहरा सगाना ते एक माताना जया एवा सोयरा के सहोदर एक उदरना उपज्या, स्नेहना पात्र, तेने किंजदासि के० केमांमी ते कारण माटे तु श्रमने कां बांबे ॥ ३ ॥ तथा मायरं के० माता नेपियरं के० पिता तेने पोस के० पोषण कर एवं लोगोन विस्सति के० एरीते पर लोकनी सिद्धि थशे. एवंखुलोइयं ताय के० तथा देतात यालोकने विषे पण निश्चय की वो चार के जे पालति य मायरं के० जे संसारमांहे पोताना मातापितानुं पाल पोषकरे, तेज श्रेष्ठ मनुष्य कहेवायवे यतोगुरुवोयत्र पूज्यंतिइति वचनात् ॥ ४ ॥ 0 " ॥ दीपिका - पियेति । हेतात पुत्र ते तव पिता स्थविरः स्वसानगिनी तव कुल्लिका लघ्वी इमे प्रातरस्तव निजास्तात सोदराः स्वकाः सहोदराः किमस्मान त्यजसि ॥ ३॥ मायर मिति । मातरं पितरं पुषाल पोषय एवंकृते तवेह लोकः परलोकश्च नविष्यति । इदमेव लौकिकं लोकसंमतं यत् वृद्धयोर्मातृपित्रोः परिपालनं । यतः । गुरवोयत्र पूज्यंते यत्र धान्यं सुसं स्कृतं ॥ दंतकल होयत्र तत्र शक वसाम्यहमिति ॥ ४ ॥ ॥ टीका - किंच ( पियेत्यादि ) हेतातपुत्र पिता ते तव स्थविरोवृदः शताती तः स्वताच जगिनी तव कुल्लिका लध्वी प्राप्तयौवना इमा पुरोवर्त्तिनी प्रत्यदेति तथा प्रातरस्ते तव स्वकानिजास्तात सोदराएकोदराः किमित्यस्मान् परित्यजसीति ॥ ३ ॥ त था ( मायर मित्यादि) मातरं जननीं तथा पितरं जनयितारं पुषाण बिनृहि । एवं च कृते तवेद लोकः परलोकश्च नविष्यति । तातेदमेवलौकिकं लोकाचीर्णमयमेव लौकिकः पं For Private Personal Use Only Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राय धनपतसिंघ बादाउरका जैनागमसंग्रह नाग उसरा. १७७ था यज्त वृक्ष्योर्मातापित्रोः प्रतिपालनमिति । तथाचोक्तं । गुरवोयत्र पूज्यंते यत्र धान्यं सुसंस्कृतं ॥ अदंतकलहोयत्र तत्र शक्रवसाम्यहमिति ॥ ४ ॥ उत्तरा मदरुल्लावा, पुत्ता ते तात खड्डया॥ नारिया ते वा तात, मा सा अन्नं जणं गमे॥७॥ एहिताय घरं जामो, माय कम्म सहावयं ॥ बितियं पिताय पासामो, जास ताव सयं गिदं॥६॥ अर्थ-एरीते उत्तर के प्रधान तथा उत्तरोत्तर मदुरुन्नावा के मधुर जेनो आलाप बे एटले नरम वचनना बोलनारा एवा पुत्तातेतातखुडया के अहोतात तमा रा पुत्र न्हानाले, तथा नारियातेणवातात के तमारी नार्या ते नवीन परणेलीले ने लघुवयवाली, माटे माके रखे साके ० ते अन्नंजएंगमे के अन्यजन पासे जशे तो आपणा कुलने ते कलंक लगाडशे. ॥ ५ ॥ माटे एहितायघरंजामो के अहो तात तमे आवी घरमा रहो अने त्यां रह्या थका मायकम्मं के कांइपण कार्य करशोमां नवा कार्य नपने थके अम्हे तमोने सहावयं के सहाइ यश्गुं, तेमाटे एकवार गृहका यथी तमे नागालो परंतु बितियंपि के बीजी वखत तायके देतात अथवा हे पुत्र पा सामो के तमे जुन के अमे शरवाइ बता जोश्ये जे तमारो गुं बिगाड थायले, जासुता वसयंगिहंके तेमाटे चालो पोताने घेर जश्ये, एटबुंधमारुं वचन मान्यकरो. ॥ ६ ॥ ॥ दीपिका-( उत्तराईति ) नत्तराः प्रधानाउत्तरोत्तरजातावा । मधुरोनापामधुरवच नास्ते तात पुत्रालघवः । तथा नार्या तव नवा नवयौवना नवोढा वा सा त्वया त्यक्ता स ती नान्यं गजेन्मार्गगामिनी मास्यात् ॥ ५ ॥ (एहति) एहि अागन्न तात गृहं यामः । मात्वं किमपि कर्म कृथाः। अपितु कर्मण्युपस्थिते ते वयं सहायकानविष्यामः । एकवारं तावनहकमेनिनग्रस्त्वं पुनरपि दितीयवारं पश्यामोश्यामोयदस्मानिः सहायर्नवतो नविष्यतीत्यतोयामस्तावत्स्वकं निजं गृहं ॥ ६ ॥ ॥ टीका-अपिच । ( उत्तरेत्यादि ) नुत्तराः प्रधानानत्तरोत्तरजातावा मधुरोमनोइन नापालापोयेषांते तथा विधाः पुत्रास्ते तव तातपुत्र हुनकालघवः । तथा नापत्नी ते नवा प्रत्यग्रयौवना अतिनवोढा वा मासौ त्वया परित्यक्ता सत्यन्यं जनंग पुन्मार्गयायिनी स्यादयं च महाजनापवादति ॥ ५ ॥ अपिच । (एहीत्यादि) जानीमोवयं यथा त्वं कर्मनीरुस्तथाप्येहि आगल गृहं यामोगबामः। मात्वं किमपि सांप्रतं कर्मकथाः अ पितु तव कर्मण्युपस्थिते वयं सहायकानविष्यामः साहाय्यं करिष्यामः । एकवारं ताव ग्रहकर्मनिनग्नस्त्वं तात पुनरपि वितीयवारं पश्यामोश्यामोयदस्मानिः सहायैर्नव तोनविष्यतीत्यतोयामोगबामस्तावत् स्वकं गृहं कुर्वे तदस्म ६चनमिति ॥ ६ ॥ Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७ द्वितीये सूत्रकृतांगे प्रथम श्रुतस्कंधे तृतीयाध्ययनं. गंतुं ताय पुणो गचे, एय तेणासमणोसिया ॥ कामगं परि कम्मं, कोनते वारेन मरिहति ॥ ७ ॥ जं किंचि प्रागं तात, तंपि सवं समीकतं ॥ दिरसं ववहाराइ, तंपि दादासु ते वयं ॥ ८ ॥ ० अर्थ - गंतुंताय के० तेमाटे ग्रहो तात एकवार घेर जइने लोग के० वली फरी यावीने यति थाजो एयतेलासमोसिया के० एटलुं कीधा थकी श्रमणपणु न थाय; जो तमे कामगं के० गृह व्यापारनी इबारहित परिकम्मं के० पोतानुं मन मान्यु अनुष्ठान करशो, तो तमने कोलतेवारेनमरिहति के० कोण वारवाने समर्थ वे थवा कामगं के वृद्धावस्थायें विषयानिलाप निवर्त्ते थके परिकम्मं के० संयमनुष्ठ नने विषे पराक्रम करजो, केमके तेवखत धर्म करवाने योग्य बे : तेवारे कोतेवारेन मरिहति तमोने कोइ पण वारवाने समर्थ यशे नही ॥ ७ ॥ जंकिं चित्रागंतात के० वली होतात जेकां तमारा उपर का एटले जेणुहतुं तं पिसके तेपण यमे सर्व देवुं स मीकि के समुंकी, एटले मागनाराउनुं सर्व लेणुं चुकावी दीधुं ने, तथा हिरन्नंववहा राइ के ० 0 जे व्यवहारने कार्ये अथवा अन्य कोई नोगोपभोगने अर्थे सुवर्ण रूपादिक खपमा लागशे तंपि के० तेपण सर्व मे तेवयं के० तेमोने दाहासुके० प्रापीगुं ॥ ८ ॥ ० 0 || दीपिका - ( गंतुमिति ) तात गत्वा गृहं स्वजनवर्ग दृष्ट्वा पुनर्गतासि नच तेनैतावता गृहगमनमात्रेण वश्रमणोन विष्यसि । कामकं गृहव्यापारेवारहितं पराक्रमंत स्वानि प्रेतानुष्ठानं कुर्वाणं कोवारयितुमर्हति । एकवारं गृहमागत्य पुनर्यथोचितं कुर्याइति नावः । अथवा कामकं वृद्धावस्थायां मदनेवारहितं पराक्रमतं संयमे प्रवर्तमानं त्वां कोवारयि तुमर्हति ॥ ॥ ( किंचिदिति) यत्किचित्तव ऋणमासीत्तदस्मा निर्विभज्य समीकृतं समना रे व्यवस्थापितं । यच्च हिरण्यं इव्यं व्यवहारादावुपयुज्यते तदपि वयं तव दास्यामः ॥ ॥ ॥ टीका - किंच | ( गंतुमित्यादि ) । तात पुत्र गत्वा गृहं स्वजनवर्ग दृष्ट्वा पुनरागंता सि नच तेनैतावता गृहगमनमात्रेण त्वश्रमणोनविष्यसि । ( कामगंति ) नियंत गृहव्यापारेवारहितं पराक्रमंतं स्वानिप्रेतानुष्ठानं कुर्वाणं कस्त्वां नवंतं वारयितुं निषेध यितुमर्हति योग्योजवति । यदिवा ( कामगंति ) वाई कावस्थायां मदनेा कामरहि तं पराक्रमं तं संयमानुष्ठानं प्रति कस्त्वामवसरप्राप्ते कर्मणि प्रवृत्तं धारयितुमर्हतीति ॥ ॥ ७ ॥ अन्यच्च (जं किचिइत्यादि) । तात पुत्र यत्किमपि नवदीयमृगजातमासीत्तत्सर्वमस्मा निः सम्यग्विनज्य समीकृतं समनागेन व्यवस्थापितं । यदिचोत्कटं सत् समीकृतं सुदेयत्वेन व्यवस्थापितं यच्च हिरण्यं इव्यजातं व्यवहारादावुपयुज्यते । व्यादिशब्दात् येनवा प्रकारेण तवोपयोगं यास्यति तदपि वयं दास्यामोनिर्धनोहमिति माकृथानयमिति ॥ ८ ॥ For Private Personal Use Only Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राय धनपतसिंघ बादाउरका जैनागमसंग्रह नाग उसरा. १७ए इच्चेव णं सुसेदंति, कालुणीयसमुध्यिा ॥ विबो नायसंगहिं, ततो गारं पदाव॥॥जहा रुकं वणे जायं, मालया पडि बंधई ॥ एव पडिबंधति, पात असमाविणा ॥१०॥ अर्थ-श्चेवके० एरीते वचनेकरी, शंइति वाक्यालंकारे. ते सर्व पुत्रादिक सुके० रुडीरी ते सेहंति के शीख वे कालुणीय के करुणाकारे एवावचने समुझ्यिा के पोते ते पु त्रादिक दीनपणाने नावे पोहोंच्या उतां, एम पूर्वोक्त रीते कहे, तेथी ते नायसंगेहिं के ते झाति गोत्रीजे पुत्रादिक तेना संगे करी, विबो के बांध्योडतो ततोके तेवा रे ते अल्प सत्ववंत कायर साधु, तेमना वचने मोहित थयो बतो आगारंपहाव के यागार जणी ध्यावे, एटने घरवास मांझीने संयमने बांमे ॥ ॥ पली जहा के जेम वणेजायं के वनने विषे नत्पन्न थयुं एवंजे रुरकं के वृद ते मालुया के० वेलडी तेणेकरी पडिबंधई के बंधाय, एटले वेलडीये करी वीटाय, एव के० एम, पति वाक्यालंकारे. यात के जाति स्वजनादिक जे जे ते साधुने असमाहिणा के अस माधियेकरी पडिबंधंति के0 बांधीलीये संयमथकी भ्रष्ट करे इत्यर्थः ॥ १० ॥ ॥ दीपिका-(इच्चे वेति ) पंवाक्यालंकारे । इत्येवं पूर्वोक्तनीत्या स्वजनाः करुणामुत्पा दयंतीति कारुणिकाः समुपस्थिताः प्राप्तास्तं साधु (सुसेहंत्ति) सुष्टु शिक्ष्यंति व्युग्राह यंति । सचाऽपरिणतधर्माऽल्पसत्वोगुरुकर्मा जातिसंगैर्विबोमोहितस्ततोऽगारंगृहं (प धावइत्ति ) प्रव्रज्यां त्यक्ता गृहे यातीत्यर्थः ॥ ॥ (जहेति ) यथा वने जातं वृदं मालु यावल्ली प्रबध्नाति वेष्टयति । एवं ज्ञातयस्तं साधुमसमाधिना प्रतिबध्नति । तत्कुर्वति येनास्याऽसमाधिरुत्पद्यते । यमुक्तं । अमित्तो मित्तवेसेण कंठे घेत्तण रोय। मामित्तासो गईजाई. दोविगन्नासुग्गइं इति ॥ १०॥ ॥टोका-नपसंहारार्थमाह (इनेवणमित्यादि)। णमितिवाक्यालंकारे।इत्येव पूर्वोक्तयानी त्या मातापित्रादयः कारुणिकैचोनिः करुणामुत्पादयंतः स्वयंवा दैन्यमुपस्थितास्तं प्रव्रजि तं प्रव्रजंतं वा ॥ (सुसेदंतित्ति) सुष्टु शिदयंति व्युदाहयंति । सचापरिणतधर्माऽल्पसत्वो गुरुकर्मा झातिसंगैर्विबोमाता पितृपुत्रकलत्रादिमोहितस्ततोगारं गृहं प्रति धावति प्रत्र ज्यां परित्यज्य गृहपाशमनुबध्नातीति ॥॥ किंचान्यत् । ( जहारुरकमित्यादि)। यथा वृदं वने अटव्यां जातमुत्पन्नं मालुयावन्नी प्रतिबध्नाति वेष्टयत्येव । एमितिवाक्या लंकारे । झातयः स्वजनास्तं यतिं असमाधिना प्रतिबध्नति ते तत्कुवैति येनास्यासमा धिरुत्पद्यतइति । तथा चोक्तं । अमित्तो मित्तवेसेण, कंठे घेत्तण रोय। मामित्तासोगई जाई, दोविगहासु उग्गइं॥ १० ॥ Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७० तिीये सूत्रकृतांगे प्रथम श्रुतस्कंधे तृतीयाध्ययनं. विबो नातिसंगदि, दहीवावि नवग्गहे॥ पितो परिसप्पंति, सुयगोव अदूरए॥११॥ एतेसं गा मणूसाणं, पातालाव अ तारिमा॥कीवा जब य किस्संति, नायसंगहि मबिया॥१७॥ अर्थ-पबीते नातिसंगेहिं के झाति गोत्रीनी संगते करी विबो के विविध प्रका रे बंधाणो थको परवश थयो, एटले तेमना अनुकूल वचने करी मनने विषे कृति नप जी तेणे करी बंधागो हनीवाविनवग्गहे के जेम नवा ग्रहण करेला हस्तिने, जो स्टूखंमादिकनो आहार कराविये तो नवा पंधने करी बंधाय अथवा मधुर वचने क रीनपचारिये तेवारे ते बंधननो अंगीकार करे तेम अंही पण ए दृष्टांते ते झाति गोत्रि जे पुत्रादिकडे ते सुयगोव के नवप्रसूत गायनीपेरे जेम तेगाय पोताना बालक थकी थ दूरए के ० दूर नजाय, तेम ते पितोपरिसप्पंति के पुत्रादिक तेसाधुने व्यामोहमां पाडवाने अर्थ पनवाडे लाग्याज फरता रहे ॥ ११॥ हवे संगनो दोष कहेडे, एतेसंगा के० ए पूर्वोक्त मातापितापुत्रादिकनो जे संगम ने ते मणूसाणं के मनुष्यने पातालाव के पाताल समुनी पेरे अतारिमा के तरतां उस्तर जाणवो जबय के जे संगमने विषे मनुष्य कीवा के क्लीब असमर्थ बता किस्संति के क्वेश पामेजे, ते केवाढता क्लेशपामेले, तोके नायसंगे हिंमुखिया के शाति स्वजानने संगे ग६ मूलित बतां संसार मांहे क्लेश पामेजे. ॥ १२ ॥ ॥ दीपिका-(विबदति ) । झातिसंगबिशेविशेपेण बदः । तेच झातयस्तस्मिन्नव सरे तस्य सर्वमनुकूलमनुतिष्ठति । यथा हस्ती नवग्रहे धृत्युत्पादनार्थ इकुखंडादिनिरु पचर्यते तथाऽसावप्युपचर्यते । यथाऽनिनवप्रसूता गोर्निजवत्सस्यादूरगा समीपवर्ति नीसती पृष्ठतः परिसर्पति एवं स्वजनाथ पि तन्मार्गानुगाः स्युः ॥ ११ ॥ ( एतेति ) एते पूर्वोक्ताः संगाः पित्रादिसंबंधामनुष्याणां पातालाः समुझाव धाता रिमाऽस्तराः संति कीबाबसमर्थाः। यत्र येषु संगेषु क्विश्यंति क्वेशमनुनवंति झातिसंगैर्जिताः ॥ १२ ॥ ॥ टीका-थपिच । (विबहइत्यादि) विविधं बह: परवशीलतः विबोझातिसंगैर्मा तापित्रा दिसंबंधैस्तेच तस्य तस्मिन्नवसरे सर्वमनुकूलमनुतिष्ठंतोवृतिमुत्पादयंति । हस्तीया कि नवगृहे थनिनवग्रहणे धृत्युत्पादनार्थ मिलुशकलादि निरूपचर्यते । एवमसावपि सर्वा नुकूलैरुपायैरुपचर्यते । दृष्टांतांतरमाह । यथाऽनिनवप्रसूता गोनिजस्तनधयस्यादूरगा स मीपवर्तिनी सती पृष्ठतः परिसपत्येवं तेपि निजाउत्प्रव्रजितं पुनर्जातमिव मन्यमानाः पृष्ठ तोनुसर्पति तन्मार्गानुयायिनोनवंतीत्यर्थः॥११॥ संगदोषदर्शनायाह । (एतेसंगाइत्यादि) Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राय धनपतसिंघ बानाउरका जैनागमसंग्रह नाग उसरा. ११ एते पूर्वोक्ताः सज्यंतइति संगाः मातृपित्रादिसंबंधाः कर्मोपादानहेतवः मनुष्याणां। पाताला श्व समुश्वाप्रतिष्ठितनमितलवात् ते (अतारिमत्ति) मुस्तराएवमेतेपि संगायल्पस त्वैर्छःखेनातिलंध्यते । तत्रच येषु संगेषु क्लीबाअसमर्थाः क्लिश्यंति क्लेशमनुनवंति सं सारांतर्वर्तिनोनवंतीत्यर्थः । किंनूताः झातिसंगैः पुत्रादिसंबंधैमूर्जितागृहाअध्युपपन्नाः संतोन पर्यालोचयंत्यात्मानं संसारांतर्वर्तिनमेव क्लिश्यंति ॥ १२॥ तं च निस्कू परिन्नाय, सवे संगा महासवा॥ जीवियं नाव कंखि जा, सोच्चा धम्ममणुत्तरं ॥१३॥ अहिमे संति आवट्टा, कास वेणं पवेश्या ॥ बुधा जड वसप्पंति, सीयंति अबुदा जहिं ॥१४॥ थर्थ-तंचके ० तेमाटे निरकूके 0 जे साधु होय ते ज्ञाती स्वजनादिकना समागमने परि नाय के परिझायें करी संसारनुं कारण जाणीने प्रत्याख्यान परिझायें परिहरे के मके, ए सन्वेसंगा के समस्त समागमो जे जे ते महासवा के० महाश्रव महोटा कर्मो ना स्थानको जाणवा. ते कारण माटे जीवियंनावकंखिजा के अनुकूल नपसर्गधावे थके पण, असंयमे जीवितव्य वांछे नही, एटले गृहस्थावासनी वांडा साधु करे नही; गुं करीने तो के अणुत्तरं के अनुत्तर एटले प्रधान एवो धम्मं के० श्रीजिनधर्म तेने सोचा के० सांजलीने असंयम वां नही ॥ १३ ॥ अहके अथ एटले हवे अथवा पागंतरे यहो इति विस्मयें इमेके० ए प्रत्यद समस्त जन प्रसिह संति के० ले एवा श्रावट्टा के थावर्त एटले जेम नदीने विषे पाणीना श्रावर्त होय, तेम यहीं नत्कृष्ट मोहनीयना उदय थकी उत्पन्न थयां जे विषयानिलापरूप यावर्त, ते जीवने संसार मांहे बुडवाना स्थानक जाणवा. ए कासवेणं के काश्यपगोत्री श्रीवर्धमान स्वामी ते णे पवेश्या के प्रवेदिता एटले कह्या जे जब के जे थकी बुक्षा के पंमित तत्वना जाण ते थवसपंति के ० दूर थाय डे; थने अबुहा के थबुद्ध एटले घज्ञानी लोक ते जहिं के जे थावर्तने विष सीयंति के सदाय भ्रममा पडीने बुडेले.॥ १४ ॥ ॥ दीपिका-(तंचेति ) तंच निकुईपरिझया प्रख्यानपरिझया परिहरेत् । यतः सर्वे संगामहाश्रवाः कर्मबंधहेतवस्ततोऽसंयमजीवितं नावकांदेत नानिलषेत् श्रुत्वा धर्म मनुत्तरं प्रधानं ॥ १३ ॥ (थहिमेइति )। अथ इमे यावर्तामोहपाशाः संति काश्यपेन श्रीवीरेण प्रवेदिताः कथिताः । यत्र येषु संगेषु सत्सु बुधास्तत्वज्ञायपसर्पति तदूरगा मिनः स्युः । थबुधायज्ञास्तु तत्र सीदति थासक्ताः स्युः ॥ १४ ॥ - टीका-अपिच । (तंचेत्यादि)।तंच झातिसंगं संसारैकहेतुं निदुईपरिझया प्रत्याख्यान Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२ वितीये सूत्रकृतांगे प्रथमश्रुतस्कंधे तृतीयाध्ययनं. परिझया परिहरेत् । किमिति यतः सर्वेपि केचन संगास्ते महाश्रवामहांति कर्मणया श्रव धाराणि वर्तते । ततोनुकूलैरुपसर्गरुपस्थितैरसंयमजीवितं गृहावासपाशं नानि कांदेत नानिलषेत् । प्रतिकूलैश्चोपसर्गः सनिर्जीवितानिलाषी ननवेदसमंजसकारित्वेन न वजीवितं नानिकांदेत् । किंठत्वा श्रुत्वा निशम्यावगम्य । कं धर्म श्रुतचारित्रारव्यं । नास्यो त्तरोस्तीत्यनुत्तरं प्रधानं मौनीइमित्यर्थः ॥१३॥ अन्यच्च । (अहिमेत्यादि)। अत्यधिका रांतरदर्शनार्थः । पाठांतरं वा अहोति तच विस्मये । इमे इतिप्रत्यक्षासन्नाः सर्वजनविदि तत्वात् संति विद्यते वदयमाणायावर्तयंति प्राणिनं नामयंतीत्यावर्तास्तत्र इव्यावर्ता नद्यादे वावर्तास्तूत्कटमोहोदयापादित विषयानिलाषसंपादकसंपत्प्रार्थनाविशेषाएतेचाव तः काश्यपेन श्रीमन्महावीरवईमानस्वामिनाऽनुत्पन्न दिव्यज्ञानेनावेदिताः कथिताः प्रतिपादिताः । यत्र येषु सत्सु बुहाथवगततत्त्वाथावर्तविपाकवेदिनस्तेच्योवसर्पते । प्रम ततया तदूरगामिनोनवंत्ययबुझास्तु निर्विवेकतया येह्यवसीदंत्यासक्तिं कुर्वतीति ॥ १४॥ रायाणो रायमचाय, मादणा अज्ज्व खत्तिया॥निमंतियंति नो गेहिं, निस्कूणं साद जीविणं ॥ १५॥ दबरस रहजाणेहिं, वि दारगमणेदिया ॥मुंजनोगे इमे सग्घे, महरिसी पूजयामु तं ॥२६॥ थर्थ-हवे ते थावर्त कहे. रायाणोराय के राजाना राजा जे चक्रवर्ति प्रमुख तथा राजाना मचाय के अमात्य मंत्रीश्वरप्रमुख तथा माहणा के ब्राह्मण ते पुरोहित प्रमुख अथवा खत्तिया के छत्रीते इक्ष्वाकुकुलप्रमुख वंशने विषे उत्पन्न थयला एवा पुरुषो ते निस्कूणंजीविणं के साधुने याचारे प्रवर्तता एवा सादु के साधुनने नोगे हिं के नोगे करी निमंतियंति के ब्रह्मदत्ते जेम चित्र साधुने निमंत्रण कस्युं तेनी पेरे निमं त्रण करे ॥१५॥ हवे जेरीते नोगे करी निमंत्रे ते देखाडेले. हबस्सके हस्ती घोडा रह के रथ यानके पालखी प्रमुख, एटले करी निमंत्रण करे नोलवे विहारगमणेहिय के० उद्यानादिकने विषे क्रीडादिक हेतुये गमन करवाने अर्थ, तथा अन्य इंडियोने अनुकूल एवा विषयसुखने अर्थे निमंत्रण करे धने कहेके इमे के० श्रा प्रत्यक्ष सम्पे के श्लाघनीय नोगे के० नोग ते तमे चुंजके नोगवो; महरिसी के अहो महर्षि एटले प्रकारे करीने पूजयामुतं के० अमें तमोने पूजीये बैये ॥ १६ ॥ __॥ दीपिका-(रायाणोति )। राजानोराजामात्यामंत्रिणोब्राह्मणाः अथवा इत्रियाः शेषनृत्याः । एते सर्वेपि निढुकं साधुजीविनं साध्वाचारेण जीवनशीलं साधुं नोगैनिमंत्रयं ति नोगांश्वांगीकारयति । यथा ब्रह्मदत्तचक्रिणा चित्रसाधुर्नोगौनमंत्रितइति ॥१५॥ तथा Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राय धनपतसिंघ बादाडुरका जैनागमसंग्रह नाग डुसरा. १८३ (Tarana) | हस्त्यश्वरथयानैस्तथा विहारगमनैः क्रीडादिगमनैः साधुं निमंत्रयंतीति । य था । त्वं व नोगान् इमान् श्लाध्यान् हे महर्षे वयं त्वां पूजयामः सत्कारयामः ॥ १६ ॥ ॥ टीका - तानेवावर्तान् दर्शयितुमाह । ( रायागोइत्यादि) । राजानश्चक्रवर्त्यादयो राजामात्याश्च मंत्री पुरोहितप्रनृतयस्तथा ब्राह्मणाश्रथवा त्रियाइदवाकुवंशप्रनृतयः । एते सर्वेपि जोगेः शब्दादिविषयैनिमंत्रयंति जोगोपनोगं प्रत्यन्युपगमं कारयंति के निक्कु i ( साधुजीवमिति । साध्वाचारेण जीवितुं शीलमस्येति साधुजीविनमिति । यथा ब्र ह्मदत्तचक्रवर्तिना नानाविधैर्भोगैश्वित्रसाधुरुप निमंत्रितइत्येवमन्येपि केनचित्संबंधेन व्य वस्थितायौवनरूपादिगुणोपेतं साधुं विषयोदेशेनोपनिमंत्रयेयुरिति ॥ १५ ॥ एतदेव द तुमाह । (उस्सरहेत्यादि ) । हस्त्यश्वरथयानैस्तथाविहारगमनैः विहरणं क्रीडनं विहारस्तेन गमनान्युद्यानादौ क्रीडया गमनानीत्यर्थः । चशब्दादन्यैवें ड्यिानुकूजैर्विषयैरुप निमंत्रयेरंस्तद्यथा चुंवि जोगान् शब्दादिविषयानिमानस्मानिकितान् प्रत्यासन्नान् श्लाघ्यान प्रशस्तान् ननिंद्यान महर्षेसाधो वयं विषयोपकरणढौकनेन त्वां नवंत पूज यामः सत्कारयामइति ॥ १६ ॥ वचगंधमलंकार, वीनसयणायि ॥ मुंजाई माई जोगाई, ० सो पूजयामुतं ॥ १७ ॥ जो तुमे नियमो चिन्नो, निस्कुनाव मि सुवया ॥गारमा वसंतस्स, सवो संविज्जए तदा ॥ १८ ॥ अर्थ-वली व के० वस्त्र जीना विना चीन अंकादिक घने गंध के० गंध ते कपूरादिक तथा अलंकारं के० प्रानूपण ते केयूरादिक तथा बीन के स्त्री ते नवयौ वन ने साय के० शयन ते पर्यकतूलिकादिक गुंजाईमाईजोगाई के० इत्या दिक ए प्रत्यक्ष जोग जोगवो; यावसो के० अहो यायुष्मन् साधु पूजयामुतं के० एट ले प्रकारे करी यमे तमने पूजीये बैये ॥ १७ ॥ जोतुमे नियमोचिन्नों के घहो साधु जो तमे पूर्व महाव्रतादिकरूप नियम याचखोबे, निरकुनामि के० ते निकुने नावे संयमने प्रवसरे श्राचखोबे, सुवया के० हे सुव्रति प्रगारमावसंतस्स के० ते यागार गृहस्थावासे वसता पण सद्यो संविएतहा के० सघलो तेमजबे सुकृत अथवा दुष्क त जे करवां तेनो नाश नथी ॥ १८ ॥ ॥ दीपिका - (वळेति), वस्त्राणि गंधाः सुगंधचूर्णानि वस्त्रगंधं अलंकारं केयूराद्याभरणं त या स्त्रियः शयनानि पकादीनि इमान्नोगांस्त्वं चंदव । त्र्यायुष्मन् त्वां एनिः पूजयामः ॥ १७ ॥ ( जोतुमेति) यस्त्वयापूर्वी निनावे नियमोमहाव्रतरूपवर्णोऽनुष्ठितः खगारं गृहं यावसतस्तव सर्वोपि विद्यते नहि सुकृतस्याऽनुचीर्णस्य नाशोस्तीत्यर्थः ॥ १८ ॥ For Private Personal Use Only Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७४ तिीये सूत्रकृतांगे प्रथमश्रुतस्कंधे तृतीयाध्ययनं. ॥ टीका-किंचान्यत् । वस्त्रगंधेल्यादि । वस्त्रं चीनांशुकादि गंधाः काष्ठपुटपाटकादयः वस्त्रा णि च गंधाश्च वस्त्रगंधमिति समादार ६६ः। तथा अलंकारं कटककेयूरादिकं तथा स्त्रि यः प्रत्यग्रोवनाः शयनानि च पर्यकतूलीप्रवरपटोपधानयुक्तानि इमान् नोगानिश्यि मनोनुकूतानस्मानिढौंकितान मुंव तपनोगेन सफलीकुरु हेयायुष्मन् नवंतं पूजयाम सत्कारयामइति ॥ १७ ॥ अपिच (जोतुमेइत्यादि) यस्त्वया पूर्व निकुनावे प्रव्रज्याव सरे नियमोमहाव्रतादिरूपश्चीर्णोनुष्ठितः इंडियनोइंश्योपशमगतेन हेसुव्रत ससांप्रत मप्यगारं गृहमावसतोगृहस्थनावं सम्यगनुपालयतोनवतस्तयैव विद्यतइति । नहि सु कृतस्यानुचीगस्य नाशोस्तीति नावः ॥ १७ ॥ चिरं दूइङमाणस्स, दोसोदाणिं कुतो तव ॥ इच्चेव णं निमंते ति, नीवारेणव सूयरं ॥ २५ ॥ चोश्या निरकचरिया, अचयंता जवित्तए ॥ तव मंदा विसीयंति, नकाणंसिव जुब्बला ॥२०॥ अर्थ-चिरंदूरङमाणस्स के० घणो काल संयमानुष्ठाने करी विचरता तमने दोसो दाणिंकुतोतव के हमणा दोषनी प्राप्ति क्याथी थशे एटला दिवस सुधी घणा व्रत पाल्यां श्चेवणं के ० इत्यादिक नोग योग्य पदार्थोये करी निमंतेति के० ते साधुने नि मंत्रण करे ते उपर दृष्टांत कहे नीवारेणवसूयरं के जेम नीवार एटले व्रीहिना कण तेणे करी सूयरने कूटबंधमां पाडे तेम चारित्रियाने संयम थकी भ्रष्ट करी संसाररूप पास बंधनमां नाखे ॥१॥ चोयाके० संयमने विषे वारंवार प्रेस्या बतां पण निस्कूके चारित्रि या चरियाए के साधुनी समाचारीने विषे अचयंता के असमर्थ जवित्तए के० संयम रूप नारनो निर्वाह करवाने अशक्त बता तब के० ते मुक्ति पंथने विषे मंदा के को इएक मंद अज्ञानी कायर चारित्रि होयते विसीयंति के सीदाय एटले सीतल विहा री थाय. ते नपर दृष्टांत कहेले. नजाणंसीव के जेम मार्गने विपे नंचे स्थानके आ वे थके जुब्बला के उर्बल बल दिया गामलाने नारे पीडया यका सीदाय गाबडनावी नीचे पडे, तेम साधु मंद चारित्रि महाव्रतनो नार नारखी संसारमांहे पडे ॥ २० ॥ ॥ दीपिका-(चिरमिति ) चिरं बहुकाल ( दृशकमाणस्सेति ) संयम क्रियया विहरत स्तवेदानी कुतोदोषोनेवास्तीत्यर्थः । इत्येवं पूर्वोक्तप्रकारेण ज्ञातयः साधुं निमंत्रयंति । यथा नीवारेण व्रीहि विशेषेण सूकरं वराहं कूटे पातयंति एवं साधुमपि ॥ १५ ॥ ( चो श्याति) निलुसमाचर्यया साधुसमाचर्यया प्रेरिताः संयमानुष्ठानेनात्मानं यापयितुं Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राय धनपतसिंघ बाहारका जैनागमसंग्रह नाग उसरा. १७५ वर्तयितुमशक्लवंतस्तत्र संयमे मंदाविषीदंति शीतलविहारिणः स्युः । यथा नद्याने प्रस्थलनमौ नदिप्तमहानाराबलीव अतिबलाः सीदति ग्रीवां पातयित्वा तिष्टं त्येवं साधवोपि ॥ २० ॥ ॥ टोका-किंच (चिरमित्यादि )। चिरं प्रनूतकालं संयमानुष्ठानेन (उऊमाणस्सत्ति) विहरतः सतइदानीं सांप्रतं दोषः कुतस्तव नैवास्तोति जावः । इत्येवं हस्त्यश्वरथादि निर्वस्त्रगंधालंकारादिनिश्च नानाविधैरुपनोगोपकरणैः करणनेतैः । णमितिवाक्यालंकारे। ते निहुँ साधुजीविनं निमंत्रयंति जोगबुद्धि कारयति । दृष्टांतं प्रदर्शयति । यथा नीवारे । व्रीहि विशेषकपदानेन सूकरं वराहं कूटके प्रवेशयंत्येवं तमपि साधुमपि ॥ १५ ॥ अनंतरोपन्यस्तवार्तोपसंहारार्थमाह । ( चोदिताइत्यादि)। निर्णां साधूनामुद्युक्तवि हारिणां चर्या दश विधचक्रवालसामाचारी श्वामित्यादिका तया नोदिता प्ररिता । यदि वानिक्कुचर्य या करणनूतया सीदंतश्वोदितास्तत्करणं प्रत्याचार्या दिकैः पौनःपुन्येन प्रेरितास्त चोदनामशक्नुवंतः संयमानुष्ठानेनात्मानं यापयितुं वर्तयितुमसमर्थाः संतस्तत्र तस्मिन् संयमे मोकगमनहेतो नवकोटिशतावाप्तेमंदाजडाविषीदंति शीतलविहारिणोनवं ति तमेवाचिंत्यचिंतामणिकल्पं महापुरुषानुचीर्ण संयमं परित्यजति । दृष्टांतमाह । ऊ वयानमुद्यानं ।मार्गस्योन्नतोनागनढकमित्यर्थः। तस्मिन् उद्यानशिरसि नदिप्तमहानरा नहालोतिर्बलायथावसीदति ग्रीवां पातयित्वा तिष्ठति नोदिप्तनरनिर्वाहकानवंतीत्येवं तेपिनावमंदानदिप्तपंचमहाव्रतनारं वोढुमसमर्थाः पूर्वोक्तनवावःपरानमाविषीदंति २० अचयंतावलूदेण, वहाणेण तजिया॥ तब मंदा विसीयंति, न जाणंसि जरग्गवा ॥२२॥ एवं निमंतिए लखु, मुछिया गिध बीसु॥ असोववन्ना कामहि, चोजंता गयागि तिबेमि॥३॥ इति नवसग्गपरिन्नाए बितिन्देसो सम्मत्तो ॥२॥ अर्थ-एरीते अचयंतावलहेण के संयमने निर्वाह करवा अशक्त, तथा उवहा गेण के० बाह्यान्यंतर तपे करीने तकिया के० पीडया बता तब के० ते संयमने विषे, मंदा के० कोइएक मंद अज्ञानी विसीयंतिके सीदाय: कोनीपेरे तोके नजाणंसि के० जेम नद्यान एटले नर्वस्थाननमिने मस्तके आवे तेवारे जग्गवा के गरढो मौकरो वृषन सीदाय, अने नारनी पीडायें पीडयो थको तो तरुण बलद पण सीदाय तो जर जव एटले मोकरो बलद सीदाय तेमां केवुजसुंः॥२१॥ एवं निमंतिएल के ए पूर्वी क्तरीते कामनोगादिके करी निमंत्रण लेइने ते कामनोगने विषे मुखियाके मूर्जित बता Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७६ तिीये सूत्रकृतांगे प्रथमश्रुतस्कंधे तृतीयाध्ययनं. तथा गिजीस के स्त्रीने विषे गम एटले अत्यंत थासक्त बता तथा अशोववन्ना कामेहिं के कामनोगने विषे अध्युपपन्न एटले तेनेविषे रागी होय तेने विवेकी पुरुषे चोजंता के चोयणा करी बति ते चोयणा सहन करी शके नही, एवा मंद चारित्रिया, ते संयम बमीने गयागिहं के नागा थका, फरी घरवास अंगीकार करे. तिबेमिनो अर्थ पूर्ववत् ॥ २२ ॥ इतिश्री नवसग्गपरिन्नाए बितिनदेशः समाप्तः ॥ दीपिका-(अचेति ) रुकेण संयमेनात्मानं यापयितुमशकवंतउपधानेन तर्जि ताः पीडिताः संतस्तत्र संयमे मंदाविषीदंति स्थलनूमौ यथा जरजवाजीर्णबलीवर्दाः । त रुणस्यापि तत्रसीदनं संनवति किंपुनर्जीर्णस्येति जीर्ण ग्रहणं । तथा समर्थानां विवे किनामपि संयमे सीदनं संजाव्यते किंपुनर्मदानामिति ॥ २१ ॥ ( एवमिति ) एवं पूर्वो तं निमंत्रणं नोगंप्रति प्रार्थनं लब्ध्वा प्राप्य तेषु मूर्बिताथासक्ताः स्त्रीषु गृहादत्तोपयोगा रमणीरागमोहितास्तथा कामेषु इनामदनेषु अध्युपपन्नाः कामानुगतचित्ताः संयमं प्रति प्रेरणां सोढुमसमर्थाः प्रव्रज्यां त्यक्त्वा गृहंगता गृहस्थीनूताइति । ब्रवीमीतिपूर्ववत् ॥२॥ इति नपसर्गपरिझारव्ये तृतीयाध्ययने दितीयोदेशकः समाप्तः ॥ टीका-किंच । ( अचयंताइत्यादि ) रूदेण संयमेनात्मानं यापयितुमशनुवंतः स्तथोपधानेनानशनादिना सबाह्यान्यंतरेण तपसा तर्जिताबाधिताः संतस्तत्र संयमे मं दाविषीदंत्युद्यान शिरस्युलुकमस्तके जीर्णोधुर्बलोगोरिव यूनोपि हि तत्रावसीदनं संना व्यते किंपुनर्जरजवस्येति जीर्णग्रहणं । एवमावर्तमंतरेणापि कृतिसंहननोपेतस्य वि वेकिनोप्यवसीदनं संभाव्यते किंपुनरावर्तरुपब्रितानां मंदानामिति ॥ २१ ॥ सर्वोप संहारमाह । (एवमित्यादि )। एवं पूर्वोक्तया नीत्या विषयोपनोगोपकरणं दानपूर्वकं नि मंत्रणं विषयोपनोगंप्रति प्रार्थनं लब्ध्वा प्राप्य तेषु विषयोपकरणेषु हस्त्यश्वरथादिषु मार्जिताअत्यंतासक्तास्तथा स्त्रीषु गादत्तावधानारमणीरागमोहितास्तथा कामेषु इला मदनरूपेष्वंऽध्युपपन्नाः कामगतचित्ताः संयमेऽवसीदंतोऽपरेणोद्युक्त विहारिणोनोद्यमानाः संयम प्रति प्रोत्सह्यमानानोदनं सोढुमशक्नुवंतः संतोगुरुकर्माणः प्रव्रज्यां परित्यज्याल्प सत्वा गृहं गतागृहस्थीनूताः ॥ इतिपरिसमाप्तौ । ब्रवीमीति पूर्ववत् ॥ २५ ॥ हवे त्रीजा अध्ययननो त्रीजो उद्देशो प्रारंनिये बैयें. जहा संगामकालंमि, पितो नीरु वेह ॥ वलयं गदणं णू मं, कोजाण पराजयं ॥१॥ मत्ताणं मुदत्तस्स, मुदत्तो हो तारिसो ॥ पराजिया वसप्पामो, इति नीरु नवेदई ॥२॥ Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राय धनपतसिंघ बादाउरका जैनागमसंग्रह नाग उसरा. १७७ अर्थ-जहासंगामकालमि के जेम संग्रामनो काल यावे बते, नीरू के कोइएक बीकणो पुरुष पितोके पाडो वेहईके जूए, एटले बीकण मनुष्य संग्रामने काले प्रथ मथीज प्रतिकार कारण ऽर्ग प्रबन्न स्थानक नासवाने अर्थ जूए; ते स्थानक देवाडे; वलयं के वलयाकारे नदक रहित एवी गोते उर्गम होय अथवा जेमा पेसतां,तथा नीकल तां गहणंके० गहन होय, एटले वृक्ष करी व्याप्त होय अने णूमं के प्रान्न एवा जे गि रि गुफादिक तेनुं अवलोकन नासवाने अर्थ करे तेनुं कारण मनमां आवीरीते चिंतवे जे, कोजाणश्पराजयं के कोण जाणे एवा संग्रामने विषे कोनो जय पराजय थशे, कार्यसिदि दैवायत्तने, थोडा होय ते घणाने पण जीतीशकेले ॥१॥ मुदुत्ताणं मुदुत्त स्त के मुहूर्त जोवामां कोइएक मुहूर्त मुदुनोहोइतारिसो के अपर अन्य मुहूर्त काल विशेष लक्षण तेवु होय त्यां एवो प्रस्ताव अावेके पराजियाके ज्यां जीवने जय पणुं थाय अथवा पराजय पणुं पण थाय तेवारे नासीजश्ने ए स्थानको मने बुपीरेवाने काम श्रावशे इतिके एवा स्वरूपे अवसप्पामोके पराजयने अवसरे कदाचित् संग्राम थकी नासीने पाबा यावq पडे तेवारे शी गति थाय, तेमाटे नीरू के बीकण सुनट ते नासवानुं स्थानक नवेहती के प्रथमयीज मनमा चिंतवी राखे. ॥॥ ॥ दीपिका-अथ तृतीयोदेशकः प्रारन्यते । पूर्वोद्देशकयोरनुकूलप्रतिकूलोपसर्गावक्ता स्तैश्चाध्यात्मविषादः स्यादिति । अत्रोच्यते । (जति) यथा संग्रामकाले कश्चिनीरुः परानी कयुझावसरे पृष्ठतः प्रेदते नाशस्थानं वाऽऽलोकते । वलयं यत्रोदकं वलयाकारेण स्थितं न दकरहिता वा गर्ता गहनं धवा दिवदावृतं स्थानं णूमं प्रबन्नगिरिगुहादिकमित्या दिस्थानं नाशतोरालोकते । यतः कोजानाति पराजयं कस्य जयः पराजयोवा जावीति कोवेत्ति दैवायत्ताः कार्य सिक्ष्यः ॥ १॥ किंच। (मुहुर्तेति ) मुहूर्तानामेकस्य वा मुहूर्तस्याऽपरो मुहर्तः कालविशेषस्तादृशोनवति । यत्र जयः पराजयोवास्यात् । एवं सति पराजितावय मवसामइति नीरुरुपेदते शरणमपीति ॥ २॥ ॥ टीका-नपसर्गपरिझायां उक्तोदितीयोद्देशकः सांप्रतं तृतीयः समारच्यते । अस्यचा यमनिसंबंधः । इहानंतरोदेशकाच्यामुपसर्गायनुकूलप्रतिकूलनेदेनानिहितास्तैश्चाध्यात्मवि षीदनं नवतीति तदनेन प्रतिपाद्यतइत्यनेन संबंधेनायातस्यास्योद्देशकस्यादिसूत्रं (जहे त्यादि) दृष्टांतेन हि मंदमतीनांसुखेनैवार्थावगतिर्नवतीत्यतयादावेव दृष्टांतमाह । यथा कश्चिन्नीरकतकरणः संग्रामकाले परानीकयुवावसरे समुपस्थितः पृष्ठतः प्रेदते दावे वापत्प्रतीकारहेतुनूतं उर्गादिकं स्थानमवलोकयति। तदेव दर्शयति । वलयमिति । यत्रोदकं वलयाकारेण व्यवस्थितमुदकरहितावा गर्ता खनिर्गमप्रवेशा तथा गहनं धवा दिदैः Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८० द्वितीये सूत्रकृतांगे प्रथम श्रुतकंधे तृतीयाध्ययनं. कटि संस्थानीयं (णूमंति) प्रबन्नं गिरिगुहादिकं किमित्यसावेवमवलोकयति । यतएवं मन्य ते । तत्रैवंभूते तुमुले संग्रामे सुनटसंकुले कोजानाति कस्यात्र पराजयोनविष्यतीति यतो दैवायत्ताः कार्यसिद्धयस्तोकैरपि बहवोजीयंतइति ॥ १ ॥ किंच ( मुहुत्ताणमित्यादि ) मु दूर्त्तानामेकस्य वा मुहूर्तस्यापरोमुहूर्त: काल विशेषलक्षणोव सरस्तादृग्नवति यत्रजयः प राजयोवा संभाव्यते तत्रैवं व्यवस्थिते पराजितावयमपसर्पामोनश्यामइत्येतदपि संभाव्य स्मद्विधानामिति नीरुः ष्टष्टतयापत्प्रतीकारायै शरणमुपेक्षते ॥ २ ॥ एवं तु समाएगे, अबलं नच्चारण अगं ॥ प्रागयं जयं दि स्स, प्रविकप्पंति मंसुयं ॥ ३ ॥ कोजाइ विश्वातं, तीन उदगा नवा ॥ चोइऊंता पवरकामो, सो प्रतिपकमियं ॥ ४ ॥ 0 - हवे पूर्वोक्तदृष्टांत, कायर साधु साथे मेलविएलैए एवंतु के० एरीते समलाए गे के० को एक श्रम प्रवर्जित अल्प सत्वना धणी ते घप्पगं के० पोताने विषे बलं के० प्रबलप एटले संयमरूप नार वहेवाने जाव जीवसुधी पोताने विषे स म पनचा के० जातीने लागयंनयं के० अनागत एटले यागमिक कालनो न दिसके देखीने, एटले यागत वृद्धावस्थायें तथा ग्लानावस्थायें तथा डुर्निने वि मने गुं त्राण शरण थशे अविकप्पं तिमं सुयंके० एवी कल्पना करीने ठेरावकरे के मने व्या कर्ण, ज्योतिष, वैद्यकादिक त्राण शरण यशे माटे तेवा शास्त्रो नणे ॥ ३ ॥ कोजालइके० कोण जाणे विवा के मुजने केवा कारण थकी संयमनो व्रंस थशे. बी के स्त्रीचकी से उदगाव किंवा उदक एटले सचित्तपाणीना परिनोग यकीयशे, केमके कर्मनी वि चित्र frame कप्पियंके० प्रकल्पित पूर्वोपार्जित इव्य नथी जे ते समय म ने काम यावे; तो तेवखते चोइताके० कोइयें अमने पूठ्या थकां पवरकामो के० व्यादि कहि रीते चितवन करी ज्योतिषादिकने विषे यत्न करे ॥ ४ ॥ ם ॥ दीपिका - श्लोक येन दृष्टांतं प्रदर्शये दाष्टतिकमाह । ( एवमिति ) एवं पूर्वोक्तह ष्टांतेन श्रमणा के अल्पसत्वायात्मानमबलं संयमनारवहनाक्रमं ज्ञात्वाऽनागतमेव जयं दृष्ट्वा इदंव्याकरणं गणितं ज्योतिष्कं वैद्यकं मंत्रादिकं वा श्रुतमधीतं मम त्राणाय स्यादि ति विकल्पते मन्यते ॥ ३ ॥ ( कोजालइति ) कोजानाति व्यापातं संयमाशं । के न पराजितस्य मम संयमाभ्रंशः स्यादिति । किंस्त्रीतः किंवा नदकात् स्नानाद्यर्थमुदकसेवना निजाषात् इत्येवं ते वराकामन्यते ननो ऽस्माकं किंचित्प्रकल्पितं पूर्वोपार्जितं इव्यम स्ति यत्तस्यां दुःखावस्थायां कार्य ममेति । यतश्वोद्यमानाः परेण ष्टव्यमानावयं हस्तिशि For Private Personal Use Only Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राय धनपतसिंघ बादाउरका जैनागमसंग्रह नाग उसरा. नए दाधनुर्वेदादिकं कुटिल विटलादिकं वा प्रवक्ष्यामः कथयिष्यामइत्येवं हीनसत्वाः संप्रधार्य व्याकरणादिनशितादौ प्रवर्तते तथापि तेषां मंदनाग्यानामनिमतार्थानसिध्यति । यतः उपशमफलादिद्याबीजात्फलं धन मिलतां नवति विफलोयद्यायासस्तदत्र किमनुतं । न नियतफलाः कर्तु वाः फलांतरमीशते जनयति खलु बीहेर्बीजं न जातु यवांकुरं ॥४॥ ॥ टीका-इति श्लोक येन दृष्टांत प्रदर्य दातिकमाह । ( एवमित्यादि) एवमिति यथा संग्रामं प्रवेष्टुमितुः पृष्ठतोवलोकयति किमत्र मम पराननस्य वलयादिकं शरणं त्रा णाय स्यादिति । एवमेव श्रमणाः प्रव्रजिताएके केचनाऽदृढमतयो ऽल्पसत्वाधात्मानं अबलं यावङीवं संयमनारवहनाऽदमं ज्ञात्वा धनागतमेव जयं दृष्ट्वोत्प्रेदय । तद्यथा। निष्किंचनोहं किंमम तवावस्थायां ग्लानावस्थायां सुर्निदे वा त्राणाय स्यादित्येवमा जीविकानयमुत्प्रेक्ष्य विकल्पयंति परिकल्पयंति मन्यते इदं व्याकरणं गणित जोतिष्क वैद्यकं होराशास्त्रं मंत्रादिकं वा श्रुतमधीतं ममाऽवमादो त्राणाय स्यादिति ॥ ३ ॥ एत चैते विकल्पयंतीत्याह । (कोजाणइत्यादि ) अल्पसत्वाः प्राणिनोविचित्राच कर्मणां ग तिर्बदनि प्रमादस्थानानि विद्यते अतः कोजानाति कः परिबिनत्ति व्यापातं संयमजी वितात् चश्यंतं केन पराजितस्य मम संयमाभ्रंशः स्यादिति। किं स्त्रीतः स्त्रीपरिषदातो दकात् स्नानाद्यर्थमुदकासेवनानिलाषादित्येवं तेवराकाः प्रकल्पयंति । ननोऽस्माकं किंच न प्रकल्पितं पूर्वोपार्जितव्यजातमस्ति । यत्तस्यामवस्थायामुपयोगे समेत्य यास्यत्य तथोद्यमानाः परेण टब्यमानाहस्ति शिक्षा धनुर्वेदादिकं कुटिलविटलादिकं वा प्रवदयामः कथयिष्यामः प्रयोदयामइत्येवं ते हीनसत्वाः संप्रधार्य व्याकरणादौ श्रुते प्रयतंतति, नच तथापि मंदनाग्यानामनिप्रेतार्थावाप्तिनवतीति । तथाचोक्तं । नपशमफलादिद्या। बीजात्फलं धनमिता नवति विफलोयद्यायासस्तदत्र किमनुतं ॥ ननियतफलाः क तु वाः फलांतरमीशते जनयति खलु बोहेर्बीजं न जातु यवांकुरं ॥ ४ ॥ श्वेव पडिलेति, वलया पडिलेदिणो ॥ वितिगिन समाव ना, पंथाणंच अकोविया ॥५॥ जेन संगामकालंमि, नाया सूरपुरं गमा ॥णो ते पिघ्मुवेथिति, किंपरं मरणंसिया ॥६॥ अर्थ-हवे उपसंहार करतो कहे. श्चेव के० ए जेम पूर्वै कह्या एवा पडिलेहं ति के कायर सुनट, जेम बीक पामता थका वलयापडिलेहिणोके वलयादिक स्था नकना जोनारा थाय, तेम प्रमादि चारित्रिया मंद नाग्यने लीधे, थल्प सत्वना धणी आजीविकाना न थकी अनेक कुशास्त्र शीखे; ते केवा दे तोके, वितिगिसमावन्नाके० Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १० वितीयेसूत्रकृतांगे प्रथमश्रुतस्कंधे तृतीयाध्ययनं. चित्तना अस्थिरपणाने पोहोता थका, मनमा विचार करे के, गुंजाणीयें, अमे जाव जीव सुधी संयम पाली शकगुं: किंवा नही पाली शक: कोनीपेरे तोके पंथाणंचके जेम मार्गने विषे अकोवियाके अनिपुण एवापुरुषो मार्ग देखी संदेहमां पडे, के गुंजाणीय एमार्ग अमुक स्थानके जशे किंवा नही जायः ॥५॥ हवे माहापुरुषनी स्थिति कहेजे. जे के जे महासत्ववंत मोहोटा पुरुष नाता के ज्ञात लोकोमाहे प्रसिह अने सूरपुर गमा के शूरवीर पुरुषोमा अग्रेसर, एटले आगेवान एरीते प्रसिद्ध थयेला ते संगा मकालंमि के संग्रामकालने अवसरे, णोतेपिमुवेहिंति के पावू न जुवे, एटले ना सी जवानुं स्थानक जूए नही; किंपरंमरणंसियाके ते एम जाणे जे थापणने मरण तो साश्वतने एटले क्यारेपण मरवू तो यावश्य नासी जश्युं तो, अमारो यश जतो रेशे; ते कारण माटे या संग्रामनेविपे अमे मरण पामीझुं पण थमारो यश अखंमित राखीगुं ॥६॥ ॥ दीपिका-(इच्चेवेति ) इत्येवं पूर्व प्रकारेण यथा नीरवः संग्रामे प्राप्तावलयादि स्थानसमुपेक्षिणः स्युस्तथा प्रव्रजितायपियाजीविकानयाध्याकरणगणितादिकं जी वनोपायत्वेन प्रत्युपेदंते परिकल्पयंति । किंतताः । विचिकित्सा चित्तविलुतिः किमे नं संयमं वयं समर्थानत नेत्येवंरूपा । यमुक्तं । लुस्कमणुएहमत्तिययं, कालाश्कं तसोयणं विरसं ॥ नूमीसयणं लोन, असिणाणं बंनचेरंच ॥ १॥ तां समापन्नाः प्राप्ताः। यथा पं थानं प्रत्यकोविदाअनिपुणाः किमयं पंथा इष्ट देशं यास्यति नवेति कृतचित्तसंदेहाः स्युः । तथा ते संयमनारवहने संदेहं प्राप्ताः । यथानिमित्तादिकं जीविकार्थ परिकल्पयंति ॥ ५ ॥ (जेनसंगेति ) ये पुनर्मदासत्वाः। तुर्विशेषणे। संग्रामकाले ज्ञाताः प्रसिक्षाः शूरा णां पुरंगमाः पुरोगामिनः सुनटायवर्तिनस्ते पृष्ठं नप्रेदंते नाशस्थानं नविलोकयति किं स्वेवं मन्यते यदत्रास्माकं किमपरं मरणमेव स्यात् नवतु मरणं यशोमायातु। यउक्तं । वि शरारुनिरविनश्वरमतिचपलैः स्थास्नुवांडतां विशदं ॥ प्राणैर्यदिशूराणां, नवति यशः किं न पर्याप्तमिति ॥ ६ ॥ ॥ टीका-उपसंहारार्थमाह । (श्चेवमित्यादि) । इत्येवमिति पूर्वप्रकांतपरामर्शार्थः । यथा नीरवः संग्रामे प्रविविक्ष्वोवलयादिकं प्रत्युपेक्षिाणोनवंतीत्येवं तेपि प्रव्रजिता मंदनाग्यतया अल्पसत्वाधाजीविकानयाध्याकरणादिकं जीवनोपायत्वेन प्रत्यपेदंते परिकल्पयंति । किंजताः विचिकित्सा चित्तविलुतिः किमेनं संयमनारमुदिप्तमंत नेतुं वयं समर्थाः उतनेतीत्येवं नूताः। तथाचोक्तं । लुरकमणुएहमणिययं, कालाश्कं तनोयणं वि रसं । नूमीसयणंलो असिणाणं बंनचेरंच ॥१॥तां समापन्नाः समागताः। यथा पंथानं प्र त्यकोविदाधनिपुणाः किमयं पंथा विवदितं नूनागं यास्यत्युत नेतीत्येवं कृतचित्तविप्लुत Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राय धनपतसिंघ बादाउरका जैनागमसंग्रह नाग उसरा. १ ग्रेनवंति तथा तेपि संयमनारवहनप्रति विचिकित्सां समापन्नानिमित्तगणितादिकं जीविकार्थ प्रत्युपेदंतइति ॥ ५ ॥ सांप्रतं महापुरुषचेष्टिते दृष्टांतमाह । (जेनसंगामेत्या दि)। ये पुनर्महासत्वाः । तु शब्दोविशेषणार्थः। संग्रामकाले परानीकयुवावसरे ज्ञाता रोलोक विदिताः। कथं शूरपुरंगमाः शूराणामग्रगामिनोयुझावसरे सैन्यायस्कंधवर्तिनति एवंनूताः संग्रामं प्रविशंतोन टष्टमुत्प्रेदंते नार्गादिकमापत्राणाय पर्यातोचयंति । तेचा नंगरुतबुझ्योपित्वेवं मन्यते । किमऽपरमत्रास्माकं नविष्यति यदि परं मरणं स्यातच शाश्व ते यशःप्रवाहमिलतामस्माकं स्तोकं वर्ततइति । तथाचोक्तं । विशरारुनिरऽ विनश्वर, मति चपलैः स्थास्नु वांबतां विशदं ॥ प्राणैर्य दिशूराणा, नवति यशः किं न पर्याप्तं ॥१॥६॥ एवं समुछिए निस्कू, वोसिका गारबंधणं ॥ आरंनं तिरियंकटु आत्तताए परिवए॥७॥ तमगे परिनासंति, निरकयं साहजी विणं ॥ जे एवं परिनासंति,अंतए ते समाहिए ॥७॥ अर्थ-एवं के० एरीते निरकू के साधु संयमने विषेष समुहिए के० सावधान थयो बतो, तथा अगारबंधणं के गृहस्थावासमुं बंधन तेने वोसिजा के बांकीने, तथा प्रारंनं के पारंन जे सावद्यानुष्टान तेने तिरियं कटुके० तिर्बो करीने एटले, आरंनने दूर क रीने यात्तत्ताए परिवएके एक मोक्ने विषे सावधान थाय, संयमानुष्ठानने विषे प्रवः॥७॥ अध्यात्माविषीदनार्थाधिकारोगतःके ० ए यात्मा थकीजे विवाद ते कह्यो. हवे बीजो थ धिकार परवादिना वचन श्राश्री कहे. एगे के एक कोइ परने उपकार रहि त एवा दर्शनने ग्रहण करनारा गोसालीक मतना अनुसारी तथा दिगंबरा दिक एवा अन्य तीथिकना साधु तं के ते पूर्वोक्त साहुजीवणं के साधु एटले रूडी श्रा जीवणं एटले बाजीविकाये प्रवर्तनार अर्थात् परने उपकार करनार, रूडा आचारे प्रव र्तमान एवा निरकूयं के साधुने परिनासंति के एवीरीते कहे. इतिकोर्थः तेनी निंदा करे, तो जे के० जे धर्मना अजाण एवं के० एम पूर्व कर्वा, तेम परिनासंति के साधु ना याचारनी निंदा करे ते के० तेवा अन्यतीर्थिक साधु समाहिए के० समाधि एट ले सम्यक् अनुष्ठान थकी अथवा मोदयकी अंतए के वेगला जाणवा. ॥ ७ ॥ ॥ दीपिका-दार्टीतिकमाह । (एवमिति ) एवं निर्रपि महासत्वः सम्यक्संयमे नहि तः कषायादिवैरिवर्ग जेतुं प्रवृत्तः। यतः । कोहंमाणं च मायं च,लोहं पंचिंदिवाणिय। ऊयं चेवमप्पाणं,सबमप्पे जिएजिया किंकृत्वा समुबितः अगारबंधनं गृहपाशं व्युत्सृज्य त्यका बारंनं तिर्यकृत्वा निराकृत्य यात्मत्वाय शेषकर्मरहितत्वाय परिव्रजेत् संयमे प्रव Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२ द्वितीये सूत्रकृतांगे प्रथम श्रुतस्कंधे तृतीयाध्ययनं. तत इति ॥ ७ ॥ श्रध्यात्मविषीदनाधिकारोगतः अथ परवादिवचनाधिकारमाह । ( व इति) के परवादिनः साधु निक्कुं साधु शोभनं जीवितुं शीलमस्य सतथा तं एवं परि नाते । ये ते पुष्टधर्मागोगोशालक मतानुगताः आजीविका दिगंबरावा ये ते एवं वक्ष्यमा परिनाते साधुनिंदति ते अंतके पर्यंते समाधेमा दाह्याइति शेषः ॥ ८ ॥ ॥ टीका - तदेवं सुनदृष्टांत प्रदश्य दातिकमाह । ( एवमित्यादि ) यथा सुनटाज्ञा तरोनामतः कुलतः शौर्यतः शिक्षातश्च तथा सन्निबधपरिकराः करगृहीतहेतयः प्रतिन समितिने दिनोन पृष्ठतोवलोकयंति । एवं निक्कुरपि साधुरपि महासत्वः परलोकप्रति स्पर्द्धन मिडियकषायादिकमरिवर्ग जेतुं सम्यक् संयमोबाने नोबितः समुचितः । तथा चोक्तं । कोहं माणं च मायंच लोहं पंचेंदियाणिय । कयं चेवमप्पाणं सवमप्पे जिए जि यं ॥ किं कृत्वा समुचित इति दर्शयति । व्युत्सृज्य त्यक्ता अगारबंधनं गृहपाशं तथा यारं सावधानुष्ठानरूपं तिर्यक्कृत्वाऽपहस्तयित्वात्मनोजावयात्मत्वमशेषकर्म कलंकरहित त्वं तस्मै श्रात्मत्वाय । यदिवा श्रात्मा मोहः संयमोवा तनावस्तस्मै तदर्थं परिसमंताद्वजेत् संयमानुष्ठान क्रियायां दत्तावधानोभवेदित्यर्थः ॥ ७ ॥ निर्युक्त यदनिहितमध्यात्मविषी दनं ततमिदानीं परवादिवचनं द्वितीयमर्थाधिकारमधिकृत्याह । ( तमेगेइत्यादि ) तमिति । साधुके ये परस्परोपकाररहितं दर्शनमापन्नाश्रयः शलाकाकल्पास्ते च गोशालक मतानुसारित्र्य जीविका दिगंबरावा तएवं वक्ष्यमाणं परिसमंतानापते । तं निकुकं सा ध्वाचारं साधु शोभनं परोपकारपूर्वकं जीवितुं शीलमस्य ससाधुजीविनमिति । ये ते ऽपुष्ट धर्मा एवं वक्ष्यमाणं परिभाषते साध्वाचारनिंदां विदधति तएवं नूतायंत के पर्यंते दूरे समाधे महाख्यात्सम्यक् ध्यानात्सदनुष्ठानात् वा वर्ततइति ॥ ८ ॥ संबध सम कप्पानु, अन्न मन्नेसु मुनिया || पिंम्वायं गिलास स्स, जं सारेह दलाढ्य ॥ ए ॥ एवं तुप्ने सरागवा, अन्न मन्न वसा ॥ न सप्पद सप्नावा, संसारस्स अपारगा ॥ १० ॥ अर्थ- हवे ते गोसालकादिक मतानुसारी जे कहे ते देखाडेबे. संबन्धसमकप्पान के० निश्चयथकी ग्रहस्थ समान तमारो कल्प एटले याचारले; अर्थात् तमे मोहे करी arrat नमन्ने के० जेम ग्रहस्थ ग्रन्योन्य परस्पर माहोमांहे मातापितादिकनी सार संभाल करे तेम तमे पण माहोमांहे याचार्यादिक उपर मुखिया के मुर्छित येला बो ते केवीरीते मुहितो ते देखाडे ने पिंमवायं गिलाणस्स के० पिंम एटले निक्षा ते गिलाण एटले रोगीने अर्थे जंके० जेमाटे सारेह के० गवेषो बो दलाहय के० निक्षा याणी यापोटो. च शब्द थकी गुर्वादिकनो वैयावच्च करोबो तेमाटे तमे गृहस्थ For Private Personal Use Only Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राय धनपतसिंघ बादाडुरका जैनागमसंग्रह नाग दुसरा. १३ सरखा हो ॥ ए ॥ एवं के० ए कारणमाटे तुप्तके तुमे सरागबा के गृहस्थनी पेरे सराग पणे वो खन्नमन्न के० माहोमांहे मणुवसा के० वशगामी साधु कोइना या धीन न थाय ते कारणमाटे तमे सप्पह के० सर्पय एटने रुडोमार्ग तेना सतावा ० सभावने नह के० नष्ट कीधो एटले सन्मार्गने नृष्ट कीधो तेथी तमे संसाररसय पारगा के० संसारना पारंगामी नहीं एवा दोष अन्य तीर्थिन बोले ॥ १० ॥ ॥ दीपिका - यत्परिजापते तदाह । ( संबदेति ) संब-धागृहस्थास्तैस्तुल्यः समः कल्पो व्यवहारोयेषां ते तथा गृहस्थानुष्ठानतुल्याः । यथा गृहस्थाः परस्परमुपकारे प्रवर्तते । मा पुत्रे पुत्र मातरि एवं यूयमप्यन्योन्यमुपकारे मूर्तिताः । कथमित्याह पिंडपात नैदयं ग्ला नस्य रोगिणः साधोर्यस्मात् ( सारेहत्ति ) अन्वेषयते तथा (दलादत्ति) ग्लानायददध्वं । चन्दादाचार्यादिवैयावृत्त्यै प्रवर्तध्वं ततोगृहस्थ तुय्या इत्यर्थः || || (एवमिति) एवं यूयं स रागः स्वनावस्तत्र स्थिताग्रन्योन्यं वशमुपागताः परस्परायत्ताः । यतयस्तु निःसंगाः कस्य चिदायत्तानस्युः । ततो गृहस्यानामयं न्यायइति । तथा नष्टसत्पथसद्भावाः गतसन्मार्गप रमार्था एवंभूतायूयं संसारस्य । अपारगाः न पारगामिनः ॥ १० ॥ ॥ टीका - यत्ते प्रजापते तदर्शयितुमाह । ( संबधेत्यादि ) समेकीनावेन परस्परोपक र्योपकारितयाच बाः पुत्रकलत्रादिस्नेहपाशैः संब-गृहस्थास्तैः समस्तुल्यः कल्पोव्यव हारोनुष्ठानं येषांते संब-समकल्पा गृहस्थानुष्ठानतुल्यानुष्ठानाइत्यर्थः । तथाहि । य या गृहस्थानामयं न्यायोयडुतपरस्मै परस्परोपकारे माता पुत्रे पुत्रोपि मात्रादावित्येवंभू बितायभ्युपपन्ना एवं नवं तोप्यन्योन्यं परस्परतः शिष्याचार्याद्युपकार क्रियाकल्पनयो मूर्जिताः । तथाहि । गृहस्थानामयं न्यायो यहुतपरस्मै दानादिनोपकारइति नतु यती । कथमन्योन्यं मूर्जिताइति दर्शयति । पिंडपातं नैदयं ग्लानस्याऽपरस्य रोगिणः साधो यद्यस्मात् (सारेहत्ति) अन्वेषयते । तथा (दलाहयत्ति) ग्लानयोयग्यमाहारमन्विष्य तडुप कारायै ददध्वं । चशब्दादाचार्यादेः वैयावृत्त्यकरणाद्युपकारेण वर्तध्वं ततो गृहस्थसमक पाइति ॥ ए ॥ सांप्रतमुपसंहारव्याजेन दोषदर्शनायाह । ( एवमित्यादि ) एवं परस्परो पकारादिना यूयं गृहस्थाश्व सरागस्थाः सहरागेण वर्ततइति सरागः स्वनावस्तस्मिन् ति तीति ते तथा अन्योन्यं परस्परतोवशमुपागताः परस्परायत्ताः । यत्तयोहि निःसंगतया नकस्यचिदायत्ता नवंति । यतोगृहस्थानामयंन्याय इति । तथा नष्टोऽपगतः सत्पथः सभा वः सन्मार्गः परमार्थोयेन्यस्ते तथा । एवंभूताश्च यूयं संसारस्य च दुर्गतिज्रमणलक्षण स्याsपारगा तीरगामिनइति ॥ १० ॥ For Private Personal Use Only Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ए दितीये सूत्रकृतांगे प्रथमश्रुतस्कंधे तृतीयाध्ययनं. अह ते परिनासेजा, निरकू मोकविसारए ॥ एवं तुप्ने पनासं ता, उपरकं चेव सेवद ॥११॥ तुम्ने मुंजह पाएसु, गिलाणो अ निहडंमिया ॥ तंच बीनदगं नोच्चा,तमुदिस्सादिजंकडं ॥१२॥ अर्थ-हवे ते अन्य तीर्थउने साधु उत्तर थापे अह के० अथ एवं कह्या नंतर तेके० ते असाधु प्रत्ये परिनासेजा के साधु एवीरीते बोले परंतु ते बोलनार निरकू के साधु केवाले तो के मोरकविसारए के मोदमार्गना विशारद एटले जाण ते य साधु प्रत्ये कहे के एवंके एम पूर्वोक्त न्यायें तुनेके अहो तुमे पनासंताकेएम बो लता थका उपरकंचेव के निचे थकी बे पदने सेवह के सेवो बो एटले रागषरूप बन्ने पक्ने सेवोडो कारण के एकतो पोते अनाचारी बो सदोष पदीडो माटे अने बी जा निर्दोषी साधुना निंदकडो माटे बेहु पदना सेवनारबो अथवा बीज उदक नदेशि कादिक जोगवतां गृहस्थ समानबो अने लिंग ग्रहण कयुं माटे यति समान देखवा मात्रबो एम बन्ने पदने सेवोडो ॥ ११ ॥ हवे आजीविकादिक परतीथिकोनो आचार कही देखाडेले. तुप्ने के० तमे एम कहोडो के अमे निःकंचन बैये अने तमे जे मुंजह के नोगवोडो तेपण पाएसु के० कांशादिक धातुना जे गृहस्थना पात्र तेने विषेजोजन करोडो तेमाटे तमे सपरिग्रहीलो तथा आहारादिकनी मूळ करोडो माटे निःपरिग्रहि शीरीते थशो वली गिलाणो के गिलानने अर्थ निदा अटनने विषे असमर्थ बतां अनिहडं मियाके गृहस्थने हाथे आणी देवाडोडो तंचके तेहिज दोष देखाडेले बीनद गंके जे गृहस्थे बीज अने उदकनुं मर्दन करीने तमुहिस्सादिजंकडं के ० ते ग्लानने अर्थ उद्देशीने जे थाहार नीपजाव्यो तेने नोच्चाके० नोगववा थकी तमने दोष लागे॥१२ / ॥ दीपिका-अथात्रपूर्वपके दोषमाह । (यहतेइति)। अथ तान् परवादिनएवमुपस्थि तान् निहुः परिनाषेत ब्रूयात् । किंनूतोनिकुः मोदविशारदः। एवं यूयं प्रनाषमाणामुष्पदं उष्टं पदं सेवध्वं । यदिवा विपदं रागदेषात्मकं पदयं सेवध्वं । तथाहि । सदोषेपि स्व मते रागः । निदोषेप्यस्मन्मते देषः। अथवा बीजोदकोदिष्टादिनोजित्वाग्रहस्थायूर्य यतिलिंगांगीकाराच प्रवजिताइतिपक्ष्क्ष्यं ॥११॥ परमतीनामसदाचारं दर्शयति । (तु प्लेति) हेपरमतिनोयूयं पात्रेषु कांस्यपाव्यादिगृहस्थनाजनेषु चुंग्ध्वं नोजनं कुरुध्वं। ततः कथं निष्परिग्रहाः।तथा ग्लानस्य निदाटनं कर्तुमसमर्थस्य यदपरैर्गृहस्थैरन्याहृतं कार्यते जवनिः यतेरानयनाधिकारानावात् । तदृष्टं नवतां यच्च गृहस्थैर्बीजोदकाद्युपमर्दैन निष्पा दितमाहारं नुक्त्वा ग्लानमुद्दिश्योद्देशकादियत्कृतं यत्रिष्पादितं तदवश्यं युष्मत्परिनोगाय Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राय धनपतसिंघ बादाडुरका जैनागमसंग्रह नाग इसरा. शरण्य समेतवतिष्ठते । तदेवं गृहस्थगृहे तनाजनेषु गुंजानाग्लानस्य च गृहस्यैः कारयं तो यूयं प्रवश्यं बीजोदकादिनोजिन नदेशकादिकतनोजिनश्चेति ॥ १२ ॥ ॥ टीका - यं तावत्पूर्वपदस्य च दूषणायाह । ( हतेपरिना सेकेत्यादि) । यथा नंतर तानेवं प्रतिकूलत्वेनोपस्थितान् निक्कुः परिभाषेत ब्रूयात् । किंनूतो मोक्ष विशारदो मोक्षमार्गस्य सम्यक्ज्ञानदर्शनचारित्ररूपस्य प्ररूपकः । एवमनंतरोक्तं यूयं प्रभाषमाणाः संतः इष्टः पोष्पदोऽसत्प्रतिज्ञाच्युपगमस्तमेव सेवध्वं यूयं यदिवा रागदेषात्मकं पक्ष ६यं सेवध्वं यूयं । तथाहि । सदोषस्याप्यात्मीयपक्षस्य समर्थनाागो निष्कलं कस्याप्यस्मद न्युपगमस्य दूषणाद्वेषोऽथैवं पक्ष इयं सेवध्वं यूयं । तद्यथा । वदयमानीत्या बीजोदको द्दिष्टकतनो जित्वा गृहस्थाः यतिर्लिंगाच्युपगमात्किल प्रत्रजिताश्वेत्येवं पक्ष ६ यासेवनं जवता मिति । यदिवा स्वतोऽसदनुष्ठानमपरंच सदनुष्ठायिनां निंदन मितिभावः ॥ ११ ॥ याजीविका दीनां परतीर्थिकानां दिगंबराणां वा सदाचार निरूपणायाह । (तुने नुंज हेत्यादि ) किल वय मपरिग्रहतया निष्किंचनाएवमन्युपगमं कृत्वा यूयं मुंग्ध्वं पात्रेषु कांस्यपात्र्यादिषु गृहस्थ नाजनेषु तत्परिजोगाच्च तत्परिग्रहोऽवश्यं नावी । तथाऽहारादिषु मू कुरुध्वमित्यतः कथं निष्परिग्रहाच्युपगमोजवतामकलंकइति । अन्यच्च ग्लानस्य निहाटनं कर्तुमसमर्थ स्य यदपरैर्गृहस्थैरन्याहृतं कार्यते । नवनिर्यतोरानयनाधिकारानावा गृहस्थानयने च योदो पसनावः सनवतामवश्यंभावीति । तमेव दर्शयति । यच्च गृहस्थैर्बीजोदकाद्युपमर्देना पादितमाहारं मुक्का तं ग्लानमुद्दिश्योद्देशकादि यत्कृतं यन्निष्पादितं तदवश्यं परिजोगा यावतिष्ठते । तदेवं गृहस्थगृहे तभाजनादिषु गुंजानास्तथा ग्लानस्य च गृहस्थैरेव वै यावृत्त्यंकारयंतो यूयमवश्यं बीजोदकादिनो जिन उद्देशिका दिकतनोजिनश्चेति ॥ १२ ॥ लित्ता तिवा नितावेणं, नसच्या असमादिया ॥ नातिकंमइयं से यं यस्सावरती ॥ १३ ॥ तत्ते अणुसिद्धाते पडिने जाया || एएस लिए मग्गे, समिरका वर्ती किती ॥ १४ ॥ अर्थ-तिवानितावेण के० तुमे व काय जीवनी विराधना तथा साधुनी निंदारूप तीव्र तापे एटले संतापे करी जित्ता के लिप्तो तथा उशया के० विवेक रहित बोवली समाहिया एटले सुनध्यान रहितो माटे जेम नातिकंकूश्यं सेयं के० कंफू एटले खुजली तेनेत्यंत खरावी श्रेयकारी नयी किंतु रुयस्स के गुंबडाने खरयुं थकुं वरती के० अपराधियें घणा दोषनी वृद्धि करे तेम तमने साधु साथे देव पं करवुं श्रेय नयी ॥ १३ ॥ अपनेि के० जे खराने खोटुं ठेरावनुं धने खोटाने For Private Personal Use Only Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६ वितीये सूत्रकृतांगे प्रथमश्रुतस्कंधे तृतीयाध्ययनं. खलं तेरावq एवी जेनी प्रतिज्ञा नथी ते अप्रतिझ रागदेष रहित तथा जाणया के - जाणते एवे संयत तत्वे सहित तेने हेयोपादेय परमार्थ जाण्याविना तत्तेण अणुसि छाते के परमार्थ करीने ते असाधु एम तेना मार्गने दोष देखाडवानुं तमने कोणे शिवव्यु गएसणीयएमग्गेके माटे अहो तुमारो उपमार्ग ते निश्चय मलतो नथी जे कारणे गिलानने अशनादिक आपे ते गृहस्थ समान जाणवा एवो तमे कहोबो परंतु ए थसमिरकावती के० अणमालोच्याना बोलनारनु कती के जे कर्तव्य अनुष्ठान ते पण अणयालोच्योज देखायले. ॥ १४ ॥ दीपिका-(लित्तेति) तीव्रतापेन साधुनिंदारूपेण लिप्ताव्याप्ताः(ननयेति)निर्विवेकानद्देश कादिनोजित्वात् असमाहिताः गुनाध्यवसायरहिताः । दृष्टांतमाह । यथाऽरुषोवणस्याति कंमूयितं नश्रेयः किंतु अपराध्यति दोषंकरोति एवं यूयमपि निर्विवेकाःवयं किल निष्किंच नाइति रुत्वा कांस्य पात्रादिकं परिहत्यैतदनावादवश्यमशुझाहारपरिनोगकारिणः निष्किं चनत्वात्पात्रादिपरिहारोन श्रेयो व्रणस्यातिकंमूयितमिव ॥१३॥ (तत्तेणेति) ते गोशालम तानुसारिणयाजीविकादयोदिगंबरावा तत्वेनाऽनुशासिताः शिदांया हिताः केन अप्रतिइन इदंमया समर्थनीयमिति प्रतिझा सा नास्ति यस्याऽसावप्रतिज्ञोरागोषरहितः साधुस्तेन जा नताझानवता । कथमनुशिष्टाश्त्याह । (णएसेति) । योनवनिरंगीकृतः सनियतोन युक्ति मोमार्गः । याच साधुनिंदा वाक् सा समीदयोक्ता आचार्यकथिता। तथाकतिः क्रिया प्यविचाररम्यैव ॥ १४ ॥ ॥ टीका-किंचान्यत् (लित्ताइत्यादि) यूयं षट्जीवनिकायविराधनयोद्दिष्टनोजित्वेना निगृहीतमिथ्यादृष्टितया च साधुपरिनाषणेन च तीव्रोनितापः कर्मबंधरूपस्तेनोपलिप्ताः संवेष्टितास्तथा (नसयत्ति) सदिवेकशून्यानिदापात्रादित्यागात्परगृहनोजितयोदेशकादि नोजित्वात् । तथा असमाहिताः गुनाध्यवसायरहिताः सत्साधुप्रपित्वात् । सांप्रतं ह ष्टांतारेण पुनरपि तदोषानिधित्सयाह । यथाऽरुषोत्रणस्यातिकंयितं नविलेखनं नश्रे योनशोजनं नवति । अपित्वपराध्यति तत्कंमयनं व्रणस्य दोषमावहति । एवं नवंतोपि सदिवेकरहिताः वयं किल निष्किंचनाश्त्येवं निष्परिग्रहतया षटजीवनिकायरहणनूतं निदापात्रादिकमपि संयमोपकरणं परिहतवंतः। तदनावाचावश्यं नावी अगुवाहारपरि जोगश्त्येवं इव्यदेवकालनावानपेरणेन नातिकंडूयितं श्रेयोनवतीति नावः॥१३॥ अपि च । (तत्तेणेत्यादि) तत्वेन परमार्थेन मौनीज्ञानिप्रायेण यथावस्थितार्थप्ररूपणया ते गो शालकमतानुसारिणबाजीविकादयः कोटिकाअनुशासितास्तदन्युपगमदोषदर्शनारेण शिक्षांया हिताः । केनाप्रतिझेन । नास्य मयेदमसदपि समर्थनीयमित्येवं प्रतिझा विद्यते Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राय धनपतसिंघ बाहारका जैनागमसंग्रह नाग दुसरा. १७ इत्यप्रतिज्ञोरागद्वेषरहितः साधुस्तेन जानता हेयोपादेयपदार्थपरिछेद केनेत्यर्थः । कथमनु शासिताइत्याह । योयं नवनिरभ्युपगतोमार्गो यथा यतीनां निष्किंचनतयोपकरणाना वात् परस्परत कार्योपकारकानावइत्येष नियतो निश्चितोन युक्तिसंगतोऽतो येयं वागू यथा ये पिंपातं ग्लानस्थानीय ददति ते गृहस्थकल्पा इत्येषा असमीया निहिता अपर्या लोच्योक्ता तथा कृतं करणमपि नवदीयमसमीहितमेव यथा वा पर्यालोचितकरणता न वति वदनुष्ठानस्य तथा नातिकंमूयितं श्रेयइत्यनेन प्राग्वेशतः प्रतिपादितं पुनरपि सह टांतं तदेव प्रतिपादयंति ॥ १४ ॥ एरिसा जावई एसा, अग्गवेणुवक रिसिता ॥ गिदिलो अनिड सेयं, मुंजीन एन निस्करणो ॥ १५॥ धम्मपन्नवणा जासा, सारंना विसोदिया || एन एयाहिं दिवीहिं, पुवमासिं पग्गप्पिष्॥ १२६ ॥ अर्थ - एरिसाजावईएसा के० जो एटले आमंत्रणे करीने तमारी एवी वाणीजे ग्लानने हारनावी नत्रापवो ते घग्गवेणुव करिसिता के० वंशना अम्मी सरखी त्यंत सुक्ष्म एटले कोइ पण युक्तिने खमे नही एवी तमारी वाणी केही ते कहेबे गिहि हिसेयं के० तमे कयुं जे गृहस्थनां खोलो खाहार श्रेय जी के० ते atraat परंतु निरकणो केण्यतिनो पालो प्रहार यतिने जेवो अयोग्य एत मारुं वचन रूडुं नथी मे एम कहियेंबैये के गृहस्थनो खाएयो खाहार सदोष ने य तिनो आयो प्रहार निर्दोषले ॥ १५ ॥ वली साधु तेने कहेबे के धम्मपन्नवणाजासा के० जे तमारी धर्म प्रज्ञाप्ता एटले धर्मदेशना जे यतिने दाननो देवो नथी सारंजाण विसोदिया के केमके दान जे बेते ते सारंन जे गृहस्थ तेनी विशुद्धिन करनार जाणवो कारण के यतितो पोताना अनुष्ठाने शुद्धि पामेढे यतिने दान देवानो अधिकार नथी एया हिंदीहिं के० एम तमारी दृष्टीमां जे यावेळे परंतु ए प्रकारे पुवमा सिं के० जे पूर्वे तीर्थकर यया तेथे उपग्ग पित्र्यं के० नथी प्रकल्प्यो एटले जेरीते तमे धर्म कहोगे तेरीतनो धर्म सर्व कह्यो नथी ॥ १६ ॥ ० || दीपिका - ( एरिसेति) इदृशी एपा वाक् साधुना ग्लानस्यानीय न देयमिति एषा वाक् वेणुवत् वंशवत् निकरिषिता दुर्बला यथा वंशायं दुर्बलं स्यात्तथा दुर्बलेत्यर्थः । तामेव वाचं दर्शयति । गृहिणादन्याहृतं तद्यथा नोक्तुं श्रेयोनतु निक्कूणां । गृहस्थाच्याहृतं जीवो पमर्दहेतुतं साधूनामकल्पमिति ॥ १५ ॥ ( धम्मपन्नवणेति ) या धर्मस्य प्रज्ञापना देशना यतीनां दानादिना उपकर्तव्यमित्येवंभूता सारंनाणां गृहस्थानां विशोधिका विशुद्धिकारि एणी । यतयः स्वस्वानुष्ठानेनैव शुध्यति नतु तेषां दानाधिकारः । एतद्दूषयति । नतुएतानि For Private Personal Use Only Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७ दितीये सूत्रकृतांगे प्रथमश्रुतस्कंधे तृतीयाध्ययनं. दृष्टीनियुष्मन्मतानुगतानिः पूर्वमादौ सर्वज्ञैः प्रकल्पितं प्ररूपितमासीत् न हि सर्वका एवंधि धमसारं ब्रुवते । यगृहस्थानवैयावृत्त्यं कार्य नतूपयुक्तेन संयतेनेति । ग्लानोपका रोनवनिरप्यनुमतोगृहस्थप्रेरणादनुमोदनाच ॥ १६ ॥ ॥ टीका-यथा प्रतिज्ञातमाह । (एरिसेत्यादि) येयमीहदा वाक् यतिना ग्लानस्यानी य नदेय मित्येषा अग्रे वेणुव ६शवत्कर्षिता तन्वी युक्त्यमत्वात् उबलेत्यर्थः । तामेव वा चं दर्शयति । गृहिणां गृहस्थानां यदन्याहृतं तद्यतेोक्तुं श्रेयः श्रेयस्करं नतु नितूणां संबंधीति । अग्रे तनुत्वं चास्या वाचएवं इष्टव्यं । यथा गृहस्थाच्याहृतं जीवोपमर्दैन नव ति यतीनांतूजमादि दोषरहितमिति ॥ १५ ॥ किंच । (धम्मपावणेत्यादि ) धर्मस्य प्र झापना देशना यथा यतीनां दानादिनोपकर्तव्यमित्येवंनूता या सा सारंजाणां गृहस्था नां विशोधिकायतयस्त्वनुष्ठानेनैव विशुध्यंति । नतु तेषां दानाधिकारोस्तीत्येतत् दूष यितुं प्रक्रमते । नतु नैवैतानिर्यथागृहस्थेनैव पिंमदानादिना यतेलानाद्यवस्थायामु पकर्तव्यं । नतु यतिनिरेव परस्परमित्येवंजूतानियुष्मदीयानिर्दृष्टिनिधर्मप्रज्ञापनादि निः पूर्वमादौ सर्वज्ञैः प्रकल्पितं प्ररूपितं प्रख्यापितमासीदिति । यतो नहि सर्वज्ञाएवं नूतं परिफदगुप्रायमर्थ प्ररूपयंति यथा असंयतैरेषणाद्यनुपयुक्तैग्लानादे वैयावृत्त्यं विधे यं नतूपयुक्तेन संयतेनेति । अपिच नवनिरपि ग्लानोपकारोऽन्युपगतएव । गृहस्थप्रेरणा दनुमोदनाच ततोनवंतस्तत्कारिणस्तत्प्रवेषिणश्चेत्यापन्न मिति ॥ १६ ॥ सबादि अणुजुत्तीदिं, अचयंताजवित्तए ॥ ततो वायं णिराकि चा, ते नुज्जीवि पगनिए॥१७॥ रागदोसानिनूयप्पा, मिबत्ने ण अनिकुता ॥ आनस्स सरणं जंति, टंकणाइव पवयं ॥१७॥ अर्थ-सबाहिं के० ते गोसालादिक मतानुसारी अन्य समस्त अणुजुत्तीहिं के थ नुयुक्ति एटले हेतु दृष्टांते करी अचयंताजवित्तए के पोताने पदे पोतानो पद स्थापन करवाने असमर्थ बता ततो के० ते माटे वायंगिराकिच्चाके वाद मूकीने तेनुजो के० ते फरी फरी विपगप्लिए के विशेष पृष्टपणु करे एटले एम कहेके अमारे जेम परं परागत तेज श्रेष्ठले अन्यथी अमारे कांश काम नथी इत्यादिक कहीने धृष्ट पषु अंगी कार करे पण युक्ति पूर्वक जैनमतानुसारीने उत्तर प्रापी शके नही ॥१७॥ ते रागदो स के० राग अने षे अनियप्पाके परानव्या थका सारी युक्तिये करी प्रत्युत्तर या पवाने असमर्थ एवा मिहत्तण के० मिय्यादृष्टियें करीने अनिता के व्याप्तता या वस्तसरणंजंति के ० ते अनार्य अनेक पाकोस एटले असभ्य वचने दंग मुष्ट्यादिक हण Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राय धनपतसिंघ बादाउरका जैनागमसंग्रह नाग उसरा. १ए वानो जे व्यापार तेनुं शरण ग्रहण करे टंकणाश्व पव्वयं के जेम टंकण एटले म्लेहादिक लोको जे ते शस्त्रादिके करी युद्ध करवाने असमर्थ बता पर्वतनो सरण ग्रहण करे तेम पूर्वोक्त कुतीथिकोपण युक्तिपूर्वक उत्तर देवाने असमर्थ बता को धनो सरण अंगीकार करे. ॥ १७ ॥ ॥ दीपिका-(सोहिंति ) तेगोशालमतीयादिगंबरावा सर्वानिरनुगतयुक्तिनिः स्वप दं यापयितुमशक्नुवंतस्थापयितुस्ततोवादं निराकृत्य ते तीथिका नूयोपि प्रगल्जितां ग ताः वादपरित्यागेपि स्वधर्मस्थापनं नामुंचन्निति ॥ १७ ॥ (रागेति ) रागदेषानिनूता स्मानो मिथ्यात्वेनाऽनिताव्याप्तावादं कर्तुमसमर्थाआक्रोशेन शरणं यांति असन्यवचना नि दंमादिहननव्यापारंवा स्वीकुर्वतीत्यर्थः । यथा टंकणाम्लेचविशेषाः परैरनिताः पर्व तं शरणंयांति ॥ १७॥ ॥ टीका-अपिच ( सवाहीत्यादि ) ते गोशालकमतानुसारिणोदिगंबरावा सर्वानि रानुगतानियुक्तिनिः सर्वैरेव हेतु दृष्टांतैः प्रमाणनूतैरशक्नुवंतः स्वपदे यात्मानं यापयि तुं संस्थापयितुं ततस्तस्माद्युक्तिनिः प्रतिपादयितुं सामर्थ्यानावादादं निराकृत्य सम्यग्हे तुदृष्टांतोवादोजल्पस्तं परित्यज्य ते तीथिकानूयः पुनरपि वादपरित्यागे सत्यपि प्र गल्लिता सृष्टतां गताश्दमूचुः । तद्यथा । पुराणं मानवोधर्मः संगोवेद चिकित्सितं । अशासिज्ञानिचत्वारि न हंतव्यानि हेतुनिः ॥ १ ॥ अन्यच्च किमन्यया बहिरंगया युक्त्या ऽनुमानादिकया ऽत्र धर्मपरिक्षणे विधेये कर्तव्यमस्तियातः प्रत्यदएव बहुजन्मसं मतत्वेन राजाद्याश्रयणाचायमेवास्मदनिप्रेतोधर्मः श्रेयान्नापरइत्येवं विवदंते ते षामिदमुत्तरं । नह्यत्र ज्ञानादिसारर हितेन बदुनापि प्रयोजनमस्तीति । युक्तं च । एरंमकह रासी जहायगोसीस चंदनपलस्स । मोल्लेन होऊ सरिसो किंतियमेत्तो गणितो ॥१॥ तहविगणणातिरेगो जहारासी सोनचंदनसरिबो ॥ तहनिविणाणमहो जणो विमो ने विसंवयति ॥॥ एकोसचस्कुगोणविमूढापमाणं जेगणयाति ॥ संसारगमागविल णिनणस्सयबंधमोरकस्स ॥ ३ ॥ इत्यादि ॥ १७ ॥ अपिच (रायदोस्साइत्यादि ) रागश्च प्रीतिलक्षणोदेषश्च तविपरीतलक्षणस्तान्यामनिनूतयात्मायेषां परतीथिकानां ते । तथा मिथ्यात्वेन विपर्यस्तावबोधेनातत्वाऽध्यवसायरूपेणानिद्रुताव्याप्ताः सद्रुयुक्तिनि दिं कर्तुमसमर्थाः क्रोधानुगाआक्रोशानसन्यवचनरूपांस्तथा दंममुष्ट्यादिनिश्च ह ननव्यापार यांत्याऽयंते । अस्मिन्नेवार्थे प्रतिपाद्य दृष्टांतमाह । यथा टंकणाम्लेन्डवि शेषार्जयायदा परेण बलिना स्वानीकादिनानियंते तदा ते नानाविधैरप्यायुधैर्यो मसमर्थाः संतः पर्वतं शरणमाश्रयंत्येवं तेपि कुतीथिकावादपराजिताः क्रोधाद्युपहत Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०० द्वितीये सूत्रकृतांगे प्रथमश्रुतस्कंधे तृतीयाध्ययनं. शादिकं शरणमाश्रयंते । नच ते इदमाकलय्य प्रत्याक्रोष्टव्याः । तद्यथा । य कोसह मारण धम्मजंसा सवाल सुननाएं। लानंमन्नइधीरो जदुत्तराणं खनावं मि ॥ १८ ॥ बहुगुणप्पगप्पाई, कुकाच्यत्तसमा दिए || जेणतेोविरुजेका, तेण तंतं समायरे ॥ १८५ ॥ इमं च धम्म मादाय, कासवेण पवेश्यं ॥ कुका निस्कू गिलाणस्स, गिलाए समाहिए ॥ २० ॥ संखाय पेसलं धम्मं, दिधि मं परिनि ॥ नवसग्गे नियामित्ता, ग्रामोकाए परिवएका सित्तिबेमि ॥ २१ ॥ इति ततीय प्रयास्स तईन नद्देसो सम्मत्तो. 0 अर्थ- परंतु जे साधुळे ते तेमनी साथे याक्रोशादिक करे नही किंतु ज्यां बहुगुण के० घणाने एटले प्रतिज्ञा हेतु दृष्टांत उपनय नैगम नय इत्यादिक प्पगप्पाई के० प्रकल्पये एवा मध्यस्थपणाना कारणने कुद्धा के करे वली जे थकीत्त के० या त्मा समाहिए के समाधिवंत रहे एवा अनुष्ठान करे जेलत्तेो विरुझेका के० जे नुष्ठानकस्याथी अथवा जे वचन बोल्या थकी अन्य पुरुष विरोध नपामे तेवुं कार्य करे तेरा के० तेमाटे तंतं के० ते ते विधि समायरे के० समाचरे ॥ १॥ एरीते परमत नि राकरण करी उपसंहारे स्वमत स्थापन करतां कहेले इमंके० ए पूर्वोक्त वचनरूप धम्म मादाय के० धर्म ग्रहण करीने ते धर्म कासवेण पवेश्यंके० काश्यप एटले श्रीमाहावीर देवे प्रवेद्यो च शब्द थकी अन्य मतिनु निराकरण करीने प्रवेद्यो एटले कह्यो ते केवीरीते तो के निस्कूके० साधु जे बे ते गिलालस्स के० गिलाननी कुकाके० वैयावच्च करे यि लाए समाहिए के परंतु गिलान पणे करे जेम पोताने तथा गिलानने समाधि उत्पन्न याय तेवीरीते वैयावच्च करे ॥ २०॥ संखाय पेसलंधम्मं के० ते पेसल एटले मनो हर एवा सर्वज्ञ प्रणीत श्रुत चारित्ररूप धर्मने सम्यक् प्रकारे जाणीने दिहिमं के० दृष्टी मंताचा तत्वनो जाए। परिनिधुमेके० परिनिवृत्त एटले क्रोधना उपशम थकी शीतजनूत थलो एवो साधु तेने नवसग्गेके० उपसर्ग उदय याव्या बता नियामित्ताके ० तेने सह करीने मोरका के० मोक्ष प्रातिसुधी परिवएकासि के० सुद्धो संयम पालतो थ को प्रवर्त्ते. तिबेमिनो अर्थ पूर्ववत् जावो. ॥ २१ ॥ इति श्री द्वितीयसूत्रकृतांगे प्रथमश्रु तस्कंधे तृतीयाध्ययने उपसर्ग परिज्ञानाम स्तृतीयोदेशकः समाप्तः ॥ || दीपिका - ( बहुगुणेति ) । बहवोगुणाः स्वपद सित्ध्यादयः प्रकल्पते प्राडुर्नवंति ये षु तानि बहुगुणप्रकल्पानि प्रतिज्ञाहेतुदृष्टांतोपनयनिगमनादीनि मध्ये स्ववचनानि वाऽनु ष्ठानानि साधुर्वादका कुर्यात् । कीदृशः साधुः श्रात्मसमाधिकश्चित्तस्वास्थ्यवान् । तत्त For Private Personal Use Only Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राय धनपतसिंघ बानाउरका जैनागमसंग्रह नाग उसरा. ०१ स्कुर्यात्साधुर्येन कृतेनान्यस्तीथिकोनविरुध्येत नविरोधं गजेत् । तेन तत्तदविरुदं समाचरेत् ॥१॥ (इममिति) इमं वयमाणं धर्ममादाय काश्यपेन श्रीवीरेण प्रवेदितं प्ररूपितं कुर्यानि कुः साधुग्लानस्य वैयावृत्त्यादिकं अग्लानतया यथाशक्ति समाहितः समाधिप्राप्तः । य था ग्लानस्य समाधिरुत्पद्यते स्वस्य वा योगानविषीदंति तथा वैयावृत्त्यादिकं विधेयमि ति ॥ २० ॥ ( संखाएति )। पेशल श्रेष्ठं सर्वशोदितं धर्म संख्याय झात्वा दृष्टिमान दर्श नोपेतः परिनिर्वतोरागदेषत्यागाहीतलनपसर्गाननुकूलप्रतिकूलान् नियम्य नियंत्र्य या मोदाय सर्वकर्मदयाय परिव्रजेत्संयमोद्यतोनवेत् ससाधुरिप्ति । ब्रवीमीति पूर्ववत् ॥२१॥ इति तृतीयाध्ययने तृतीयोदेशकः समाप्तः ॥ ॥ टीका-किंचान्यत् । (बहुगुणेत्यादि)। बहवोगुणाः स्वपदसिदिपरपददोषोना वनादयोमाध्यस्थ्यादयोवा प्रकल्पते प्राऽनवंत्यात्मनि येष्वनुष्ठानेषु तानि बहुगुणप्रक पानि प्रतिज्ञाहेतुदृष्टांतोपनयनिगमनादीनि माध्यस्थ्यवचनप्रकाराणि वा अनुष्ठानानि साधुर्वादकाले अन्यदा वा कुर्यात् विदध्यात् सएव विशिष्यते । अात्मनः समाधिश्चित्त स्वास्थ्यं यस्य सनवत्यात्मसमाधिकः। एतमुक्तं नवति । येन येनोपन्यस्तेन हेतुदृष्टांतादि ना यात्मसमाधिः स्वपदसिविलक्षणोमाध्यस्थवचनादिना वा परानुपघातलाणः स मुत्पद्यते तत् तत् कुर्यादिति । तथा येनानुष्ठितेन वा नाषितेन वा अन्यतीथिकोधर्म श्रवणादौ वान्यः प्रवृत्तोन विरुध्येत नविरोधं गबेत् तेन पराविरोधकारणेन तत्तदविरु घमनुष्ठानं वाचनं वा समाचरेत् कुर्यादिति ॥ १ ॥ तदेवं परमतं निराकल्योपसंहारा रेण स्वमतस्थापनायाह । (इमंचेत्यादि)। इममिति वदयमाणं पूर्वोक्तमूलोत्तरगुणरूपं चारित्राख्यं वा उर्गतिधारणा-धर्ममादायोपादाय आचार्योपदेशेन गृहीत्वा । किंजूतमिति । तमेव विशिनष्टि । काश्यपेन श्रीमन्महावीरवईमानस्वामिनोत्पन्नदिव्यज्ञानेन सदेवम नुजायां पर्षदि प्रकर्षेण यथावस्थितार्थ निरूपणारेण वेदितं प्रवेदितं । चशब्दात्परमतं च निराकृत्य निरुणशीलोनिकुग्लीनस्यापटोरपरस्य निदो यावृत्त्यादिकं कुर्यात् । कथं कुर्यादेतदेव विशिनष्टि। स्वतोप्यग्लानतया यथाशक्ति समाहितः समाधिप्राप्तइति । इदमुक्तं नवति । यथा यथात्मनः समाधिरुत्पद्यते तथा पिंमपातादिकं विधेयमिति ॥ २० ॥ कि रुत्वैतविधेयमितिदर्शयितुमाह । ( संखायेत्यादि)। संख्याय झात्वा कं धर्म सर्वझप्रणी तं श्रुतचारित्राख्यनेदनिन्नपेशलमिति । सुश्लिष्टं प्राणिनाम हिंसादिप्रवृत्त्या प्रीतिकारणं। किंजूतमिति । दर्शनं दृष्टिः समुतपदार्थगतं सम्यग्दर्शनमित्यर्थः । सा विद्यते यस्याऽसौ ह ष्टिमान् यथा व्यवस्थितपदार्थपरिजेदवानित्यर्थः । तथा परिनिर्वृतोराग क्षेषविरहाबांतीजूत स्तदेवं धर्म पेशलं परिसंख्याय दृष्टिमानू परिनिर्वृतउपसर्गाननुकूलप्रतिकूलानियम्य सं Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०२ वितीये सूत्रकृतांगे प्रथमश्रुतस्कंधे तृतीयाध्ययनं. यम्य सोढा नोपस गैरुपसर्गितोऽसमंजसं विदध्यादित्येवमामोदायाशेषकर्मक्ष्यप्राप्तिं या वत्परिसमंतात् व्रजेत्संयमानुष्ठानोयुक्तोनवेत् परिव्रजेदिति । परिसमाप्त्यर्थे । ब्रवीमीति पूर्ववत् ॥ २१ ॥ उपसर्गपरिझायास्तृतीयोदेशकः समाप्तः ॥ ३ ॥ अथ तृतीयाध्ययने चतुर्थीदेशकस्य प्रारंनः आहं सुमहापुरिसा, पुद्धिं तत्ततवोधणा ॥ उदयेण सिधिमाव न्ना, तब मंदोवसीयति॥॥ अनंजिया नमी विदेही, रामगत्ते य मुंजिआ॥ बाढुए उदगं नोच्चा, तहा तारागणेरिसी ॥२॥ अर्थ-बाहं सुमहा पुरिसाके हवे ते परमार्थना अजाण एम कहेलेके महा पुरुष प्रधान पुरुष तारागणषि प्रमुख तेणे एवीरीते याहं एटले कडं गुंकझुंचे तोके पुविंत तत्तके पूर्व कालने विषे तपश्याना करनार तवोधणाके तपरूप धनना धणी एवा अनेक ऋषीश्वर ते नदयेणके उदक एटले शीतल पाणीनो परिनोग करता थका सिधिमाव ना के० सिधिने पाम्या तेरीतनुं अन्य तीर्थनुं वचन सांजलीने तमंदोवसीयति के मंद अज्ञानी बापडा तब एटले तेहिज शीतलोदकने विषे राचे; पण प्राशुक नदकनो जोग नकरे, एरीते संयमानुष्ठानने विषे सीदाय. ॥१॥ हवे कोक कुतीर्थ होयते सा धुने विप्रतारवाने अर्थे भावीरीते कहेके अनुंजिया के प्रशनादिकने अण नोगवतो एवो नमीविदेही के नमीराजा विदेह देशमां नत्पन्न थयेलो हतो, ते मुक्ति पोहोतो; तथा अन्य तीर्थज कहेले के रामगुत्तेय मुंजिया के रामगुप्त राजऋषीश्वर थाहा र जोगवतो थको मुक्ति पोहोतो, तथा बादुए के बादुक ऋषीश्वर तहा के तेमज तारागणेरिसी के तारागणनामा ऋषीश्वर ए बंने नदगंनोच्चा के शीतल पाणीना परिजोग थकी सिधिने पाम्या ॥ ५ ॥ ॥ दीपिका-सांप्रतं चतुर्थयारन्यते । सच साधुना शीलरक्षणाय यत्नोविधीयतश्त्य थवान् तस्य चेदमादिमं सूत्रं । (आहंसुइति) केचिदविज्ञाततत्वाश्रादुरुक्तवंतः । यथा म हापुरुषावल्कलचीरितारागणर्षिप्रमुखाः पूर्व पूर्वकाले तप्तमनुष्ठितं तपएव धनं येषांते तप्ततपोधनाः पंचाग्न्या दिसाधकास्तएवंनूतानदकेन स्वचित्तोदकपरिनोगेण उपलद पात्कंदमूलादिनोजिनः सिधिमापन्नाः सिदिं गताः। तत्रैवंजूतार्थाकर्णने मंदोमू:s वसीदति संयमे सीदति शीतोदकादिपरिनोगे प्रवर्तते । तत्रैवं वेति तेषां तापसानां कुतश्चिकातिस्मरणादिप्रत्ययादावितस्वसम्यग्दर्शनानां संयमप्रतिपत्त्याऽगतज्ञानावरणा Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राय धनपतसिंघ बादाडुरका जैनागमसंग्रह नाग इसरा. २०३ दिकर्मणां जरतादीनामिव मुक्तिः संजाता न तु शीतोदकपरिनोगादिति ॥ १ ॥ ( श्र जिति) के चित्कुतीर्थिका अथवा स्ववर्याएवं शीतलविहारिण एवमादुः । नमी राजा विदेहपुरवासिनोलोका वैदेहास्तेयस्य संति स वैदेही प्रशनादिकमनुक्त्वा सिद्धिं गतः । रामगुप्तश्च राजर्षिराहारादिकंनुक्त्वैव गुंजानएव सिद्धिं गतः । तथा बाहुकः शीतोद कादिपरिनोगं कृत्वा तथा तारागणनामा मुनिः शीतोदकादिपरिजोगात्सिदः ॥ २ ॥ ॥टीका-नक्तस्तृतीयोदेशकः सांप्रतं चतुर्थः समारज्यते । यस्यचाय मनिसंबंधः। इहानंतरो देश के अनुकूल प्रतिकूलोपसर्गाः प्रतिपादितास्तैश्च कदाचित्साधुः शीलात् प्रच्याव्येत तस्य च शीलस्य नितस्य प्रज्ञापनानेन प्रतिपाद्यते इति । अनेन संबंधेनायातस्यास्योदेशकस्यादिमं सू (सुइत्यादि) । के चन प्रविदितपरमार्थाचा दुरुक्तवंतः। किंतदित्याह । यथा महापुरु षाः प्रधानपुरुषा वल्कलची रितारागणर्षिप्रनृतयः । पूर्वं पूर्वस्मिन् काले तप्तमनुष्ठितं तपएव ध नं येषां ते तप्ततपोधनाः पंचाग्न्यादितपोविशेषेण निष्टप्तदेहास्तएवंभूताः शीतोदकपरिनो गेन उपलक्षणार्थत्वात् कंदमूलफलायुपनोगेन च सिद्धिमापन्नाः सिद्धिं गतास्तत्रैवंभूता समाने तदर्थ सद्भावावेशात् मंदोझोस्नानादित्याजितः प्राशुकोदकपरिनोगननः संय मानुष्ठाने प्रविषीदति । यदि वा तत्रैव शीतोदकपरिनोगे विषीदति जगति निमजतीति यावत् । न त्वसौ वराकएवमवधारयति यथा तेषां तापसादिव्रतानुष्ठायिनां कुतश्वि जातिस्मरणादिप्रत्ययादाविर्भूतसम्यग्दर्शनानां मौनींनाव संयमप्रतिपत्त्या श्रपगतज्ञा नावादिकर्मणां रतादीनामिव मोक्षावाप्तिर्न तु शीतोदकपरिनोगादिति ॥ १ ॥ किंचा न्यत् । (अनुंजियालमित्यादि) केच न कुतीर्थिकाः साधुप्रतारणार्थमेवमूचुः । यदिवा स्ववयः शीतल विहारिणएत ६क्ष्यमाणमुक्तवंतस्तद्यथा निमीराजा विदेहोनाम जनप दस्तत्र वा वैदेहस्तन्निवासिनोलोकास्तेऽस्य संतीति वैदेही । सएवंभूतो निमीराजा यश नादिकमनुक्त्वा सिद्धिमुपगतस्तथा रामगुप्तश्च राजर्षिराहारादिकं नुक्त्वैव नुंजानएव सि दि प्राप्तइति । तथा बाहुकः शीतोदकादिपरिनोगं कृत्वा तथा नारायणोनाममहर्षिः परिणतोदकादिपरिनोगात्सि इति ॥ २ ॥ प्रासिले देवले चेव, दीवायण मदारिसी, पारासरे दगं जो चा, बीयाणि दरियाणिया ॥ ३ ॥ एते पुत्रं महापुरिसा, प्रादिता इह संमता ॥ जच्चा बीनंदगं सिद्धा, इति मेयमणस्यं ॥ ४ ॥ अर्थ- वली प्रासिले के० यासिल तथा देवने के० देवल चेव के० एमज दीवाय मारिसी के पायन महाऋषीश्वर खने पारासरे के० पाराशर ए सर्व कृषी व 0 For Private Personal Use Only Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०४ द्वितीये सूत्रकृतांगे प्रथमश्रुतस्कंधे तृतीयाध्ययनं. ० दोच्चा के० शीतलपाणीने जोगवी तथा बीयाणि के० बीजकाय हरियाणिय के हरिकायना परिनोग की सिद्ध यया ॥ ३ ॥ एते के० ए नेमीराज कृषी प्रमुख पुढं महापुरा के पूर्वकालने विषे माहा पुरुष (खाहिता के ० ) कह्या बे ते इहके० त्रालोकने विषे संमता के प्रसिद्ध ते कुतीर्थिक अथवा साताशीन स्वयूथिक एम कहे के ए सर्व बीद के बीज सचेतपाणीने नोच्चा के० जोगवीने सिद्धा के० सि६ थया इतिके ० एम मेयं के० ए मे महाभारतादिक तथा पुराणोमांची अस्सुयं के० सांनायुंबे. माटे मे पण एवीज रीते मुक्ति साधनुं ॥ ४ ॥ || दीपिका - (सिजेति ) । सिलोनाम महर्षिस्तथा देवलोद्वैपायनः पराशरा रख्पइत्यादयः शीतोदकबीज हरितादिनोजिनः सिद्धाः ॥ ३ ॥ ( एतइति ) एते पूर्वोक्ताम हापुरुषान म्यादयः पूर्वकाने त्रेता द्वापारादौ व्याख्याताः प्रसिद्धाः इहाप्यार्दतमते ऋषि नापितादौ केचन संमता इत्येवं कुतीर्थिकाः प्रोचुः । एते सर्वेपि बीजोदकादिजोगा सि इति मया नारादौ पुराणे श्रुतं ॥ ४ ॥ | टीका - खपिच । ( सिनेइत्यादि) । सिलोनाम महर्षिर्देवलो द्वैपायनश्च तथा पराश राख्यइत्येवमादयः शीतोदकबीज हरितादिपरिनोगादेव सिद्ध इति श्रूयते ॥ ३ ॥ एतदेव दर्श यितुमाह । ( एतेइत्यादि) एते पूर्वोक्तानम्यादयोमहर्षयः पूर्वमिति पूर्वस्मिन्काले त्रेता परादौ महापुरुषाइति प्रधानपुरुषायासमंतात् ख्याताः प्रख्याताराजर्षित्वेनप्रसि द्विमुपगताइहाप्या हितप्रवचने रूपिनापितादौ केचन संमतान्यनिप्रेताइत्येवं कुतीर्थ काः स्वयूथ्यावा प्रोचुः । तद्यथा । एते सर्वेपि बीजोदकादिकं नुक्त्वा सिइत्ये तन्मया भारतादौ पुराणे श्रुतं ॥ ४ ॥ मंदा विसीच्यंति, वादचिन्नाव गहना ॥ पितो परिसपंति पिवसप्पीच संनमे ॥ ५ ॥ इह मेगेन नासंति, सातं सातेण वि ऊती ॥ जे तचारित्र्यं मग्गं, परमं च समाहिए ॥ ६ ॥ अर्थ - ho त्यां कुशास्त्र जे भारतपुराणादिक तेने सांनलवे करी तथा परिसह उपने के मंदाविसीति के० कोइक मंद ज्ञानी चारित्र थकी सीदाय कोनीपेरे तोके वा चिनाव गहना के० जेम नार थकी जागा एवा जे गर्दन ते मार्गमांज नार नाखीदेइ ने नासीजाय अथवा विद्वतोपरिसप्पंति के० ष्टष्ट सर्प एटले नग्न गति पुरुष संनमे के० संचमी पणे यग्न्यादिक उपव उपने थके पिहसप्पिय के० नाशीजनार मनुष्य For Private Personal Use Only Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राय धनपतसिंघ बादाउरका जैनागमसंग्रह नाग उसरा. २५ नी पनवाडे दोडतो जाय परंतु अग्रगामि नथाय घग्नीमांहेज विनाश पामे तेम जे शीतल विहारी ले तेपण मुक्तिना अग्रगामी नथाय अनंतोकाल संसारमांहेज नमे ॥५॥ इहके ए मोदमार्ग विचारवाने प्रस्तावे एगेन के कोक शाक्यादिक अथवा स्वतीर्थ लोच प्रमुख कटे पीड्या थका एम कहेके सातंके० ते जे मुक्तिना सुख ले ते सातेणके सुखे करीज विती के थाय परंतु दुःख थकी सुख न थाय. यथा शालिबीजाबाल्यांकुरो, जायतेनयवांकुर इतिवचनात् माटे लोचादिक कष्ट थकी मुक्ति शीरीते थशे एवीरीते बोलीने जेके जे कोक शाक्यादिक तल के त्यां मोदविचारणाने प्रस्ताव पारिय के श्रीतीर्थकर देव तेनो प्ररुप्यो एवो जे मग्गं के मोदमार्ग तेने मूकी आपेले, ते परमंचसमाहियं के० परम समाधिनो कारण जे झान दर्शन अने चारित्ररूपले तेने त्यागीने घणो संसारमाहे परिभ्रमण करेले. तेहिज देखाडे ॥ ६ ॥ ॥ दीपिका-(तबेति ) तत्र कुमतश्रवणोपसर्गे मंदाविषीदंति संयमे सीदंति । य था वाहेन नारेण बिन्नास्युटितारासनाः सीदंति । कोर्थः । यथा रासनानारपीमिता मार्गएव निपतंति एवं ते संयमनारं त्यक्त्वा शीतल विहारिणः स्युः । यथा पीठसर्पिणो जग्नगमनतया अग्न्या दिनये नद्न्रांतनयनाः पश्चान्न परिसर्पति नायगामिनोनवंति अपितु तत्रैवाग्न्या दिसंन्रमे विनश्यति । एवं तेपि शीतलविहारिणोन मोगामिनः स्युः थपितु तत्रैव संसारे अनंतकालं तिष्ठति ॥ ५ ॥ (इहेति ) इह मोदविचारे एके शा क्यादयः स्वतीर्थ्यावा लोचादिपीमिताः। तुशब्दोविशेषणे । नाते । तथाहि । सातं सुखं सातेन सुखेन विद्यते स्यात् । यतनक्तं । सर्वाणि सत्वानि सुखे रतानि, सर्वाणि दुः खाच समुझिजति ॥ जीवेषु तस्मात्सुखमेव दद्यात् सुखप्रदानाननते सुखानि ॥१॥ इत्यात्मसुखान्मुक्तिसुखं स्यात् नतु लोचादिःखात् । यउक्तं । मणुणं नोअणं नुच्चा, मणु णं सयणासणं ॥ मणुषंसि अगारंसि, मषुणं कायए मुणी ॥१॥ तथा । मृही शय्या प्रातरुबाय सेव्या, नुक्तं मध्ये पानकं वाऽपराएहे ॥ दाखंमं शर्करां चार्धरात्रे मोदश्चां ते शाक्यपुत्रेण दृष्टइति । अतोमनोझाहारादेश्चित्तस्वास्थ्यं ततः समाधिः सएव मुक्तिरि ति । ततः सुखेन सुखावाप्तिन तु लोचादिक्तेशेनेति एवंये नाते तथा आर्य जैनेश्मा गै परमंच समाधिज्ञानदर्शनचारित्रात्मकं येत्यजति ते सदा नवे व्राम्यंतीति ॥६॥ ॥टीका-एतउपसंहार धारेण परिहरन्नाहा (तत्रेत्यादि) तत्र तस्मिन् कुश्रुत्युपसदिये मंदायझानानाविधोपसाध्यं सिधिगमनमवधार्य विषीदंति संयमानुष्ठानेन पुनरेत ६दंत्य झाः। तद्यथा। येषां सिदिगमनमनत् तेषां कुतश्चिन्निमित्तात् जातजातिस्मरणादिप्रत्ययाना मवाप्तसम्यक्झानचारित्राणामेव वल्कलचीरिप्रनृतीनामिव सिदिगमनमनूत् । न पुनः क Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०६ द्वितीये सूत्रकृतांगे प्रथम श्रुतस्कंधे तृतीयाध्ययनं. दाचिदपि सर्वविरतिपरिणामनावलिंगमंतरेण शीतोदकबीजाद्युपनोगेन जीवोपमर्द प्राये कर्मोऽवाप्यते । विषीदने दृष्टांतमाह । वहनं वाहोनारो ६हनं तेन विन्नाः कर्षि तास्त्रुटितारासनाइव विषीदति । यथा रासनागमनपथएव प्रोशितनारानिपतंति ए वं ते प्रोज्य संयमनारं शीतलविहारिणोनवंति । दृष्टांतांतरमाह । यथा ष्टष्टसर्पिणोनग्न गतयोऽग्न्यादिसं मे सत्युद्धांतनयनाः समाकुलाः प्रनष्टजनस्य पृष्ठतः पश्चात्परिसर्प ति नाग्रगामिनोजवंत्यपि तु तत्रैवाग्न्यादिसंज्रमे विनश्यत्येवं तेपि शीतलविहारिणो मोक्षं प्रतिप्रवृत्ताश्रपि तु न मोक्षगतयोनवत्यपि तु तस्मिन्नेव संसारे अनंतमपि कालं यावदासतइति ॥ ५ ॥ मतांतरं निराकर्तुं पूर्वपयितुमाह । ( इहमेगेइत्यादि ) । इहेति मोक्षगमन प्रस्तावे के शाक्यादयः स्वयूय्यावा लोचादिनोपतप्ताः । तुशब्दः पूर्वस्मात् शी तोदकापरिजोगा शेषमाह । नायंते ब्रुवते । मन्यंते च इति क्वचित्पाठः। किंत दित्याह । सात सुखं सातेन सुखेनैव विद्यते नवतीति । तथाच वक्तारोनवंति । सर्वाणि सत्वानि सुखे रतानि सर्वाणि ःखाच्च समुद्दिजंति । तस्मात्सुखार्थी सुखमेव दद्यात् सुखप्रदाता जन सुखानि ॥ १ ॥ युक्तिरप्येवमेव स्थिता । यतः कारणानुरूपं कार्यमुत्पद्यते । तद्यथा । शा निबीजाच्चाल्यंकुरोजायते न यवांकुरइत्येव प्रीत्यात्मसुखान्मुक्तिसुखमुपजायते न तुलो चादिरूपात् दुःखादिति । तथाह्यागमे ऽप्येवमेव व्यवस्थितं ॥ मणुमं नोयणं नोच्चा म सयपास। मांति गारंसि मणुं कायए मुली ॥१॥ तथा मृदी शय्याप्रातरुवाय पेया, मुक्तं मध्ये पानकं चापरा एहे । इादाखंड शर्करा चार्धरात्रे मोक्षश्चांते शाक्य पुत्रेण दृष्टः ॥ १ ॥ इत्यतो मनोज्ञाहारविहारादे श्वित्तस्वास्थ्यं ततः समाधिरुत्पद्यते समाधेश्च मुक्त्यवाप्तिर तः स्थितमेतत्सुरवेनैव सुखाचाप्तिर्न पुनः कदाचनापि लोचादिना कायक्लेशेन सुखावाप्तिरि ति स्थितं । इत्येवं व्यामूढमतयोये केचन शाक्यादयस्तत्र तस्मिन्मोक्षमार्ग प्रस्तावे स मुपस्थिते धाराकातः सर्वदेयधर्मेन्यइत्यार्योमार्गो जैनें इशासनप्रतिपादितो मोक्षमार्ग स्तं ये परिहरति । तथा च । परमं च समाधिज्ञानदर्शनचारित्रात्मकं ये व्यजति तेऽज्ञाः संसा तवर्तिनः सदा नवंति । तथाहि । यत्तैरनिहितं कारणानुरूपं कार्यमिति तन्नायमेकां तोयतः शृंगावरोजायते गोमया दृश्विको गोलोमा विलोमा दियो दूर्वेति । यदपि मनोज्ञा हारादिकमुपन्यस्तं सुखकारणत्वेन तदपि विषूचिकादिसंनवा निचारीति । पिचेदं वै पयिकं सुखं दुःखप्रकार हेतुत्वात् सुखानासतया सुखमेव न नवति । तमुक्तं । दुःखात्म केषु विषयेषु सुखानिमानः सौख्यात्मकेषु नियमादिषु दुःखबुद्धिः । उत्कीर्णवर्णवद पंक्तिरि वान्यरूपा सारूप्यमेति विपरीतगतिप्रयोगात् ॥ १ ॥ इति । कुतस्तत्परमानंदरूपमस्यात्यंतिकै कांतिकस्य मोक्षसुखस्य कारणं नवति । यदपि लोचनूशयन निहाटनपरपरिनवक्कुप्तिपासा दंशमशकादिकं दुःखकारणत्वेन नवतोपन्यस्तं तदप्यल्पसत्वानामपरमार्थदृशां महापु For Private Personal Use Only Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राय धनपतसिंघ बादाउरका जैनागमसंग्रह नाग उसरा. २०७ रुषाणां तु स्वार्थान्युपगमप्रवृत्तानां परमार्थचिंतकानां महासत्वतया सर्वमेवैतत्सुखायैवे ति । तथाचोक्तं । तसंथारनिविमो बिमुनिवरो नट्टरागमयमोहो॥ जंपावई मुत्तिसुहं कत्तो तंचक्कवट्टीवि॥१॥ तथा ।दुष्कृतसंख्यया चमहतां हांतं पदं वैरिणःकायस्याशुचिता विरा गपदवी संवेगहेतुर्जरा ॥ सर्वत्यागमहोत्सवाय मरणं जातिः सुहृत्प्रीतये संपभिः परिपूरितं जगदिदं स्थानं विपत्तेः कुतइति ॥१॥ अपिचैकांतेन सुखेनैव सुखेऽन्युपगम्यमाने विचित्रसं सारानावः स्यात्तथा स्वर्गस्थानां नित्यसुखिनां पुनरपि सुखानुनतैस्तत्रैवोत्पत्तिः स्यात्तथा नारकाणां च पुनईःखानुनवात्तत्रैवोत्पत्तेन नानागत्या विचित्रता संसारस्य स्यान्नचैतत् दृष्टमिष्टं चेति ॥ ६ ॥ मा एवं अवमन्नंता, अप्पेणं लुंपदा बढुं॥ एतस्स अमोरकाए, अयहारिव जूरह ॥ ७ ॥ पाणावाते वहता, मुसावादे असं जता ॥ अदिन्नादाणे वटुता, मेढुणोय परिग्गहे ॥ ॥ अर्थ-मा के० अहो दर्शनी, तमे एयं के सुख थकी सुख थाय एवां वचने करी अवमन्त्रता के श्रीजिनेंना मार्गने अवहिलता थका अप्पणं के अल्प विषयने अ र्थ बहुँ के० घणा एवांजे मोदना सुख तेने लुपहा के गमावोडो; एतस्स के एवा असत्य पदने अमोरकाए के न मूकवे करीने अयहारिव के लोहवाहकनी पेरे जूर ह के पूरशो; जेम कोश्क बे जण हता तेणे लोहनो नार नपाड्यो हतो, पनी मार्ग जता सुवर्ण दातुं तेवारे एकजणे लोहनां नारने नाखी देश्ने अमुलक सुवर्ण व स्तु ग्रहण करी अत्यंत धनवंत थयो, अने बीजायें लोहनो नार नारखी दीधो नही, ते पली फरवा लागो, तेम तमे पण फरशो. ए कथा सविस्तर श्रीरायप्रश्नि सूत्रमांने त्यां थकी जो लेवी॥ ७ ॥ पाणाश्वातेवढेता के० प्राणातिपातने विषे वर्तता मुसावादे के मृषावादने विषे वर्त्तता अदिन्नादाणेकेण् अदत्तादान तथा मेहुणेके० मैथुन च के० वलीपरिग्गहेके० परिग्रह एटलाने विषे वटुंताके वर्त्तता थका तमे असंजताकेण्यसंय तिबो अल्प विषयसुखमां पड्या थका घणुं एवं जे मोद सुख तेनो विनाशकरोडो. ॥७॥ ॥ दीपिका-(माएति ) एनं जैनमार्ग अवमन्यमानाः परिहरंतो ऽल्पेन सुखेन मा बडं मोदसुखं खुपथ विध्वंसथ । तथा एतस्यासत्पकस्यामोदेपरित्यागे अयोहारीव (करहत्ति) यात्मानं कदर्थयते। यथाऽयसोलोहस्याहर्ता ऽपांतराले रूप्यादिलानेपि दूरमानीतमिति लोहं नोसितवान् पश्चादलाने जूरितवान् पश्चात्तापं कृतवान् एवं यू Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०७ वितीये सूत्रकृतांगे प्रथम श्रुतस्कंधे तृतीयाध्ययनं. यमपि ॥ ७ ॥ (पाणावेति ) यूयं प्राणातिपाते मृषावादे संयताः संतोवर्तमानाःतथा ऽदत्तादाने मैथुने परिग्रहे वर्तमानायल्पेन सुखेन बहु हारयथ ॥ ७ ॥ ॥ टीका-अतोव्यपदिश्यते । (माएयमित्यादि ) एनमार्य मार्ग जैनेंप्रवचनं सम्य क ज्ञानदर्शनचारित्रमोक्षमार्गप्रतिपादकं सुखं सुखेनैव विद्यते इत्यादिमोहेन मोहि ताअवमन्यमानाः परिहरंतोऽल्पेन वैषयिकेण सुखेन माबदु परमार्थसुखं मोदारव्यं लुपथ विध्वंस थ तथाहि । मनोझाऽहारा दिना कामो कस्तउकाच चित्तास्वास्थ्यं न पुनः समाधिरिति । अपि चैतस्यासत्पदान्युपगमस्यामोके परित्यागे सति । (आयो हारिवजूरहत्ति) यात्मानं यूयं कदर्थथ । यथैव केवलं यथावाऽयसो लोहस्याहर्ता थ पांतराले रूप्यादिलाने सत्यपि दूरमानितमिति कृत्वा नोसितवान् । पश्चात् स्वावस्था नावाप्तावल्पलाने सति जूरितवान पश्चात्तापं कृतवान् एवं नवंतोपि जूरयिष्यतीति ॥॥ पुनरपि सातेन सातमित्येवं वादिनां शाक्यानां दोषोदिनावयिषयाह । (पाणावायेत्या दि) प्राणातिपाते मृषावादादत्तादानमैथुनपरिग्रहेषु वर्तमानायसंयतायूयं वर्तमान सुरवैषिणोल्पेन वैषयिकसुखानासेन परमार्थिकमेकांतात्यंतिकं बहु मोदसुखं विलुपथेति । किमिति । यतः पचनपाचनादिषु क्रियासु वर्तमानाः सावद्यानुष्ठानारंजतया प्राणातिपा तमाचरथ । तथा येषां जीवानां शरीरोपनोगोनवनिः क्रियते तानि शरीराणि तत्स्वामि निरदत्तानीत्यदत्तादानाचरणं । तथा गोमहिष्यजोष्टादिपरिग्रहात्तन्मैथुनानुमोदनादब्रम्हे ति । तथा प्रव्रजितादयमित्येवमुबाय गृहस्थाचरणानुष्ठानान्मृषावादस्तथा धनधान्यदि पदचतुष्पदादिपरिग्रहात्परिग्रहति ॥७॥ एवमेगे न पासबा, पन्नवंति अणारिया ॥श्चीवसंगया बाला, जिणसासणपरम्मुहा॥॥ जहा गं पिलागं वा, परिपीलेज मुदत्तगं ॥ एवं विनवणिबीसु, दोसो तब कनसिा ॥ १० ॥ थर्थ-वली परमतनो नाषा दोष कही देखाडेले. एव के एरीते एगेन के कोइएक परतीर्थिक अथवा स्वतीर्थिक पासबाके पासबादिक ते केवाले तोके यणारियाके० अना र्य कर्मना करनार यणाचारि वली शनीवसंगया के स्त्रीने वसे पड्या एटले स्त्रीनो परिसह जीतवाने असमर्थ तथा बाला के अज्ञानी वली जिणसासण परम्मुहा के जिनमार्ग थकी उपरांठा ते पन्नवंति के एम कहे के ॥ ॥ जहा के जेम गंमंके गूबहूं पिलागंवा के पाकुं थकुं तेने परि के त्यांज पीलेज के पीलीने तेमाथी प रु अथवा रुधीर काढी नाखवा थकी मुहुत्तगंके ० मुहूर्त्तमात्रमा सुख थाय परंतु पीडा कांड Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रायधनपतसिंघ बहाउरका जैनागमसंग्रह नाग उसरा. ०ए पण न थाय एवं के० एरीते अंही पण विनवणिजीसु के० प्रार्थना करती एवी स्त्रीनी साथे संबंध करवाथी दोसोतबकसिया के त्यांपण क्या थकीदोष श्रावशे अपितुं कांज दोषनथी. ॥ १० ॥ ॥ दीपिका-एवं पूर्वोक्त प्रकारेण एके बौक्षविशेषाः शैवविशेषावा पार्श्वस्थाः स्वयूथ्या वाऽवसन्नकुशीलादयोऽनार्याः स्त्रीवसंगताः प्रझापयंति वदंति। यतस्तेषां वचनं । प्रियादर्शन मेवास्तु, किमन्यैदर्शनांतरैः ॥ प्राप्यते येन निर्वाणं, सरागेणापि चेतसा इति । ते किंनूताः जिनशासनपराङ्मुखाः ॥ ५ ॥ (जहेत्ति) ते एवमाहुः । यथा गंडं पिटकं पीडोपशमार्थ - परिपीडय रुधिरादिकं निर्माल्य मुहूर्तमानं सुखिनः स्युनच दोपेणानुषज्यंते । एवं विज्ञा पनासु प्रार्थनीयासु स्त्रीषु दोषः कुतःस्यात् । तत्रकोर्थः । गंडपरिपीडनतुव्ये स्त्रीसंबंधे क दोषः स्यात् । तत्र दोषोयदि काचित्पीमा नवेन्न चेह साकाप्यस्तीति ॥ १० ॥ ॥ टीका-सांप्रतं मतांतरदूषणाय पूर्वपदायितुमाह । (एवमेगेइत्यादि ) तुशब्दः पूर्व स्माविशेषणार्थः । एवमिति वदयमाणया नीत्या यदि वा प्राक्तनएव श्लोकोत्रापि संबधनी यः । एवमिति । प्राणातिपातादिषु वर्तमानाएकइत्यादिबोचविशेषानीलपटादयोनाथ वादिकमंमलप्रविष्टावा शैवविशेषाः सदनुष्ठानात् पार्थे तिष्ठतीति पार्श्वस्थाः स्वयूथ्यावा पावस्थावसन्नकुशीलादयः स्त्रीपरीषहपराजितास्तएवं प्रज्ञापयंति प्ररूपयंति । अना याः अनार्यकर्मकारित्वात्। तथाहि । ते वदंति । प्रियादर्शनमेवास्तु किमन्यैर्दर्शनांतरैः । प्रा प्यते येन निर्वाणं सरागेणापि चेतसा। किमित्येवं तेनिदधतीत्याह।स्त्रीवशंगताः यतोयुवती नामाज्ञायां वर्तते बालाअज्ञारागद्वेषोपहतचेतसइति । रागदेष जितोजिनास्तेषां शासन माझा कषायमोहोपशमहेतुजूता तत्पराङ्मुखाः संसारनिष्वंगिणोजैनमार्गविषिणएत वक्ष्यमाणमूचुरिति ॥ ७॥ यदूचुस्तदाह (जहागंडमित्यादि) यथेत्युदाहरणोपन्यासार्थः । यथा येन प्रकारेण कश्चित् गंमो पुरुषोगंडं समुचितं पिटकं वा तजातीयकमेव तदा कतोप शमनार्थ परिपीड्य पूयरुधिरादिकं निर्माल्य मुहूर्तमानं सुखितोनवति न च दोषणानुष ज्यते । एवमत्रापि स्त्रीविज्ञापनायां युवतिप्रार्थनायां रमणीसंबंधे गंमपरिपीमनकल्पे दोष स्तत्र कुतः स्यात् । न ह्येतावता क्वेदापगममात्रेण दोषोनवेदिति । स्यात्तत्र दोषोयदि काचि त्पीडा नवेत् ॥ १० ॥ जहा मंधादए नाम,थिमिश्र मुंजती दगं॥ एवं विन्नवणिबीसु, दोसो तब कनसिया ॥११॥ जदा विहंगमा पिंगा,थिमिश्र नुं जती दगं॥ एवं विनवणिजीसु, दोसो तब कसिआ॥१॥ ए २७. Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १० तीये सूत्रकृतांगे प्रथमश्रुतस्कंधे तृतीयाध्ययनं. वमेगे न पासबा, मिबदिछी अणारिआ ॥ अनोववन्ना कामे दि, पूयणा श्व तरुणए ॥१३॥ अर्थ-वली दृष्टांत कहे जहाकेण्जेम मंदादननामके० मेषो एवे नामे जनावर ते थि मितं के जेरीते पाणी मोलाय नही एरीते चुंजतीदगं के नदकनुं पान करें, परंतु पाणीने पण बाधा नथाय अने पोताने पण बाधा नकरे एवंके० एरीते विन्नवणिजीसु के० प्रार्थना करती स्त्री साथे संबंध करवा थकी दोसोतनकसिया के त्यांपण दोष क्या थकी थाय अपितु नज थाय. ॥११॥ जहा के जेम विहंगमापिंगा के कपिंजल एवेनामे पंखणी आकाशे उडती थकीज थिमिअंजुंजतीदगं के निर्मलपाणीनुं पानकरे एवं के० एरीते विनवणिबीसु के अंहीपण ग तर करण पूर्वक पुत्रादिकने अर्थे राग देष रहित प्रार्थती एवी स्त्रीनी साथे संग करता थकां दोष क्याथकी थाय ॥१॥ हवे सूत्र कर्ता ते वादीउना दोष प्रगट करतो कहेले. एवमेगेउपासबाके ते पूर्वोक्त गुंबडादिक ना दृष्टांते करी मैथुनने निर्दोष मानता एवा को एक परतीर्थिक तथा स्वयूथिक पासबादि क जेणे स्त्री परिसह जित्यो नथी, ते सिथल विहारी केवा बे, तो के मिन्नदिही अणा रिया के मिथ्यादृष्टी अनार्य कर्मना करनार अनाचारी अशोववन्नाकामे हिंके० कामनो गने विषे गृम बता प्रवर्ने कोनीपेरे तोके पूयणाश्वके पुतना एटले माकणनीपेरे जेम माकण न्हाना बालकने देखी गृह थाय अथवा पुतना एटले गामरीनीपेरे जेम गामरी पोताना तरुणए के तरुण बालकने विषे गृ६ थाय; एटले समस्त जीवोमांहे संता नने विषे गामरीनो स्नेह थाकरो दीपेडे ते माटे ए दृष्टांत कयुं तेम पूर्वोक्त अनाचा री पासबादिक पण कामनोगनेविषे गृह थाय. ॥ १३ ॥ ॥ दीपिका-(जति ) यथा मंधादनोमेषः स्तिमितं अनालोड्यायतनदकं चुंक्त पिब त्यात्मानं प्रीणयति नचान्योपघातं कुर्यात् एवं स्त्रीसंबंधे न काचिदन्यस्य पीमा आ त्मनश्च प्रीणनमिति कुतस्तत्र दोषः ॥११॥ यथा पिंगाः कपिंजलाविहंगमाः परिणया काशएव वर्तमानाः स्तिमितं निनृतमुदकं पिबंति एवमत्रापि पुत्राद्यर्थ स्त्रीसंबंधं कुर्वतोऽ रक्तदिष्टस्य पक्षिणश्व कुतोदोषः। यमुक्तं ॥ धर्मार्थ पुत्रकामस्य स्वदारेष्वधिकारिणः॥ ऋतुकाल विधानेन दोषस्तत्र न विद्यतइति ॥१२॥ अथैवं वदतां परेषां दोषमाह। एवं प रोक्तैः पूर्वदृष्टांतमैथुनं निर्दोषमितिमन्यमानाएके शाक्यादयः स्वयूथ्यावा पार्श्वस्थादय स्तथा मिथ्यादृष्टयोऽनार्याधर्मविरुवनाषिणोऽध्युपपन्नागृक्षाः कामेषु वा । यथा पूतना शाकिनी तरुणके बाले बासक्ता यदि वा पूतना गमुरिका स्वापत्ये आसक्ता । कथाचात्र केनापि सर्वपशूनामपत्यानि निरुदके कूपेऽपत्यस्नेहपरीक्षार्थ दिप्तानि । तत्र चान्यामात Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रायधनपतसिंघ बादाउरका जैनागमसंग्रह नाग उसरा. ११ रः स्वापत्यशब्दाकर्णनेऽस्मिन्नपि कूपतटस्थाएव रुदंति नरनी त्वथपत्यातिस्नेहांधा अपायमनपेक्ष्य तत्रैवात्मानं दिप्तवतीत्यतोन्यपशुन्योगमुरिका स्वापत्ये जुरामासक्ता एवं तेपि कामासक्ताः ॥१३॥ ॥ टीका-दृष्टांतेन दर्शयति । (जहेत्यादि ) यथेत्ययमुदाहरणोपन्यासार्थः । मंधाद नइति मेषः । नामशब्दः संभावनायां । यथा मेषस्तिमितमनालोडयन्नुदकं पिबत्यात्मानंती ण्यति नचतथान्येषां किंचनोपघातं विधत्ते।एवमत्रापि स्त्रीसंबंधे न काचिदन्यस्य पीडा था त्मनश्च प्रीपनमतः कुतस्तत्र दोषःस्यादिति ॥११॥ अस्मिन्नेवानुपघातार्थ दृष्टांतबदुत्वख्या पनार्थ दृष्टांतांतरमाह। (जहाविहंगमाश्त्यादि) यथा येन प्रकारेण विहायसा गहतीति वि हंगमा पहिणी (पिंगेति)कपिंजलासाकाशएव वर्तमाना स्तिमितं निजतमुदकमा पिबत्येवम त्रापि दर्नप्रदानपूर्विकया क्रियया यरक्तादिष्टस्य पुत्राद्यर्थ स्त्रीसंबंधं कुर्वतोपि कपिंजला याश्व न तस्य दोषइति । सांप्रतमेतेषां गंडपीडनतुल्यं स्त्रीपरिनोगं मन्यमानानां तथैम कोदकपानसदृशं परपीडाऽनुत्पादकत्वेन परात्मनोश्च सुखोत्पादकत्वेन किल मैथुनं जाय तश्त्यध्यवसायिनां तथा कपिंजलोदकपानं यथा तमागोदकासंस्पर्शेन किल नवत्येव मरक्तष्टितया दर्नाद्युत्तारणात् स्त्रीगावस्पर्शेन पुत्रार्थ न कामार्थ । ऋतुकालानिगामित या शास्त्रोक्तविधानेन मैथुनेपि न दोषानुषंगः॥ तथाचोचुस्ते। धर्मार्थ पुत्रकामस्य स्वदारे वधिकारिणः । ऋतुकाले विधानेन दोषस्तत्र न विद्यते इति । एवमुदासीनत्वेन व्यव स्थितानां दृष्टांतेनैव नियुक्तिकारो गाथात्रयेणोत्तरदानायाह । (जहणामेश्त्यादि) जहणा ममंगलग्गे णसिरं कस्सश्मणुस्सो ॥ अऊपरादुत्तो किं नामततो ये पेना॥ ५३॥ जहणा विसगंडसं, कोतीघेत्तूणनामतुहिको ॥ अमेणअदीसंतो, किं नाम ततो नवमरे जा ॥ ५॥ जह नाम सिरिघरान, कोरयरोणामघेत्तूणं । अबेऊपरादुत्तो किंणामत तो न घेपेजा॥५॥यथा नामकश्चिन्मंगलाणकस्यचिहि रश्वित्वापराङ्मुख स्तिष्ठेत् । कि मेतावतोदासीननावावलंबनेन न गृह्येत नापराधीनवेत्।तथा यथा कश्चिविषगंडूषं गृही त्वा पीत्वानामतूलींना नजेदन्येन वासंदृश्यमानोसौ किं नाम ततोसावन्यादर्शनात् नत्री येतातथा यथा कश्चितीगहानांमागारात्नानि महा_णि गृहीत्वा पराङ्मुख स्तिष्ठेत् किमे तावतासौ न गृह्यतेति । अत्र च यथा कश्चित् शतया अझतया वा शिरजेदे विषगंड्रपरत्नाप हारारव्ये सत्यपि दोषत्रये माध्यस्थ्यमवलंबेत। न च तस्य तदवलंबनेपि निर्दोषतेति । एवम त्राप्यवश्यंना विरागकार्यमैथुने सर्वदोषास्यदे संसारवर्ष के कुतोनिर्दोषतेति । तथा चोक्तं । प्राणिनां बाधकं चैतबास्त्रैर्गीतं महर्षि निः ॥ नलिकातप्तकणकप्रवेशझा ततस्तथा ॥१॥ मूलं चैतदधर्मस्य नवनावप्रवर्धन।तस्मादिषान्नवत्याज्यमिदं पापमनिछतेतिनियुक्तिगाथा Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१२ द्वितीये सूत्रकृतांगे प्रथम श्रुतस्कंधे तृतीयाध्ययनं. तात्पर्यार्थः ॥ १२ ॥ सांप्रतं सूत्रकारउपहारव्याजेन गंमपीमनादिदृष्टांत वादिनां दो पोािवविषयाह । ( एव मेइत्यादि) । एवमिति गंडपीमनादिदृष्टांतबलेन निर्दोषं मैथुन मिति मन्यमाना के स्त्रीपरीषदपराजिताः सदनुष्ठानात्पार्श्वे तिष्ठतीति पाइर्वस्थानाथ वादिकमंडलचारिणः । तुशब्दात् स्वयूप्यावा तथा विपरीता तत्वाग्राहिणी दृष्टिर्दर्शनं येषां ते तथा खाराद्दूरे यातागताः सर्वदेयधर्मेन्य इत्यार्याः नार्या अनार्याः । धर्मविरु धानुष्ठाना तएवं विधाप्रभ्युपपन्नागृध्नवश्वा मदनरूपेषु कामेषु कामैर्वा करणनूतैः सावद्यानुष्ठाने ष्विति । यत्र लौकिकं दृष्टांतमात् । यथावा पूतना डाकिनी तरुण के स्तनंधयेऽध्युपन्ना । एवं तेप्यना र्याः कामेष्विति। यदि वा (पूयत्ति) गरिका यात्मीयेऽपत्येऽभ्युपपन्ना एवं तेपीति । कथा न कंचrत्र । यथा किल सर्वपशूनामपत्यानि निरुदके कूपेऽपत्य स्नेहपरीक्षार्थी दिप्तानि तत्र चापरामातरः स्वकीयस्तनंधयशब्दाकर्णनेपि कूपतटस्थारूदत्यस्तिष्ठति । नरचीत्वपत्याति नांधा पायमनपेक्ष्य तत्रैवात्मानं चिप्तवतीत्यतोऽपरपशुन्यः स्वापत्येऽभ्युपपन्नेति ॥ प्रागयमपस्संता, पञ्चप्पन्नगवेसगा ॥ ते पचा परितप्पंति, खीणे आनंमि जोवणे॥ १४ ॥ जेहिं काले परिक्कतं, नपचाप रितप्पए ॥ ते धीरा बंधम्मुक्का, नाव कंखंति जीविच्यं ॥ १५ ॥ अर्थ - हवे ते काम गुना दोष कहेबे ते काम जोग थकी जे निवृत्या नथी तेने घागय के० प्रागामिक काले नरकादिक दुःख उत्पन्न याय एवं अपस्संता के० ० देखता था ने पप्पन्नगवेसगाके प्रत्युत्पन्न जे वर्तमान विषय सुख तेने गवेषता एनेज रुडुकरी मानता थका रहेने तेपाके तेपटी खीयाउं मिजोवो के० जेवारे या युष्य ही थाय, घने यौवन जतुं रहे तेवारे परितप्यंति के पश्चात्ताप करे; अनेक हे मे एवा अनाचार शावास्ते कस्या ? ॥ १४ ॥ जेहिं के० जे महापुरुषे काले के ० काल प्रस्तावे धर्मविषे परिक्कतं के० पराक्रम करूं. नपच्चापरितप्पए के० ते महापुरुष पी वृद्धावस्थायें तथा मरणावसरे पश्चात्तापकरे नहीं; ते धीराबंधणुम्मुक्का के० ते धैर्य वंत पुरुष बंधण थकी मूकाणा नावकखंतिजीवित्र्यं के० यसंयमे जीवितव्यनी याकां करता नथी अथवा जीवितव्य मरणने विषे निस्ष्टहि थका वर्तेबे ॥ १५॥ || दीपिका - तेषां दोषमाह ( लागयमित्यादि ) । अनागतं नरकादिदुःखमपश्यतः प्रत्युत्पन्नं वर्तमानमेव विषयसुखानासमन्वेषयंतः पश्यंतः पश्चात्को स्वायुषि यौवने वा गते परितप्यति पश्चात्तापं कुर्वेति । यडुक्तं । हतं मुष्टिनिराकाशं तुषाणां कंडनं कृतं । यन्मया प्राप्य मानुष्यं सदर्थे नादरः कृतः ॥ १ ॥ तथा । विहवावलेवन मिएहिं । जाइ ט For Private Personal Use Only Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राय धनपतसिंघ बादाउरका जैनागमसंग्रह नाग उसरा. १३ कीरतिजोवणमएण ॥ वयपरिणामेसरिया । ताहि अपखुडुक्कं ति इति ॥१॥ (जेहिं इत्यादि) यैरात्महितैः कालेऽवसरे पराक्रांतं संयमोद्यमः कृतस्ते पश्चान्न परितप्यते । ए कवचनंसूत्रे बांदसत्वात् । ते वीरास्तपश्चरणोद्यताबंधनात्कर्मणोन मुक्ताअसंयमजीवितं नावकांदतिने बति । जिविते मरणे वा निस्टहाः स्युरित्यर्थः ॥ १५॥ ॥टीका-एवं तेपि कामानिष्वंगिणांदोषमाविष्कुर्वन्नाह।(यणागयमित्यादि)अनागतमेष्य कामानिवृत्तानां नरकादियातनास्थानेषु महत् फुःखमपश्यंतोऽपर्यालोचयंतस्तथा प्रत्युत्पन्नं वर्तमानमेव वैषयिकं सुखानासमन्वेषयंतोमृगयमाणानानाविधैरुपायैर्नोगान्प्रार्थयंतस्ते प श्चात् हीरो स्वायुषि जातसंवेगायौवने वा अपगते परितप्यंते शोचयंते पश्चात्तापं विदधति । उक्तं चाहतं मुष्टिनिराकाशं तुषाणां मनंकता यन्मया प्राप्य मानुष्यं सदर्थेनादरःकृतः॥१॥ तथा विदवावलेवनमिएहिं। जाइंकीरंतिजोवणमएए॥वयपरिणामे सरियाईताहियपखु डुक्कंति ॥१॥१॥ येतूत्तमसत्वतया अनागतमेव तपश्चरणादावुद्यमं विदधति न ते पश्चा बोचंतीति तदर्शयितुमाह । ( जेहिंकाले इत्यादि ) यैरात्महितकर्तनिः काले धर्मार्जना वसरे पराक्रांतमिश्यिकषायपराजयाद्युद्यमोविहितोन ते पश्चान्मरणकाले वृक्षावस्थायां वा परितप्यंते न शोकाकुलानवंति । एकवचननिर्देशस्तु सौत्रवादसत्वादिति । धर्मार्जनकाल स्तु विवेकिनां प्रायशः सर्वएव तस्मात्सएव प्रधान पुरुषार्थः प्रधानएव च प्रायशः क्रियमा पोघटां प्रांचति । ततश्चायं बाल्यात्प्रनत्यकृतविषयासंगतयाकृततपःश्चरणास्ते धीराः कर्मविदारणसहिमवोबंधनेन स्नेहात्मकेन कर्मणा चोत्प्राबव्येन मुक्तानावकादंति असंयमजीवितं यदि वा जीविते मरणे वानिस्टहाः संयमोद्यममतयोनवंतीति ॥ १५॥ जहा नई वेयरणी, उत्तरा इह संमता ॥ एवं लोगंसि नारी, उत्तरा अमईमया ॥१६॥ जेहिं नारीणसंजोगा, पयणा पिछ तोकता॥ सबमेयंनिराकिच्चा, तेहिया सुसमाहिए ॥१७॥ अर्थ-जहानईवेयरणी के जेम नदी वेतरणी जेते उत्तराश्हसंमता के सर्वन दीयोमा तरवी उर्लन एवात लोक प्रसिद्ध एवंलोगंसिनारी के० एरीते लोकमांहे स्त्रीजे तेपण उत्तरायमईमया के अमतिवंत निरविवेकी पुरुषने अपार उस्तर उनघनीय जाणवी ॥ १६ ॥ एवं जाणीने जे हितकारी वात ते कहे जेहिं के जे पुरुषे नारीणसंजोगा के स्त्री संबंधी संयोगना जे विपाक तेने कडवा जाणीने स्त्री ना संयोग बांझीदीधा वली पूयणापितोकता के तेस्त्रीना संयोगने अर्थे जे पोताना शरीरनी पूजा विनूषाते पण जेणे उपरांती कीधी एटले मूकीदीधी, सबमेयंनिराकिच्चा Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४ तिीये सूत्रकृतांगे प्रथमश्रुतस्कंधे तृतीयाध्ययनं. के ते पुरुषे एसर्व स्त्रीसंगादिक तथा ठुधा तृषादिक अनुकूल प्रतिकूल उपसर्गना गण एटले समूह तेने निराकरीने जे महापुरुष संसे वित मार्गे प्रवर्ने तेहियासुसमा हिए के तेपुरुष संवररूप समाधिने विषे स्थित जाणवा. ॥ १७ ॥ ॥ दीपिका-यथा वैतरणी नदी सर्वनदीनां मध्ये उस्तरा उर्लघ्या इह लोके सम्मता । एवं लोके नार्योऽमतिमता निर्विवेकेन नरेण उस्तराः। यमुक्तं ! सन्मार्गे तावदास्ते प्रनवति पुरुषस्तावदेवेंझ्यिाणां जहां तावविधते विनयमपि समालंबते तावदेव । चापादेपमु ताः श्रवणपथजुषोनीलपक्ष्माणएते यावनीलावतीनां न हदि धृतिमुषो दृष्टिबाणाः पतंति इति ॥ १६ ॥ यैरुत्तमैर्नारीणां संयोगास्तत्संयोगार्थमेव वस्त्रालंकारादिनिरात्मनःपूजनाः कामविनूषाः पृष्ठतः कृतास्त्यक्तास्ते महापुरुषाः सर्वमेतत्स्त्रीप्रसंगादिकं निराकृत्य सुस माधिना चित्तस्वास्थ्येन स्थिताः ॥ १७ ॥ ॥ टीका-अन्यच्च (जहाश्त्यादि) यथेत्युदाहरणोपन्यासार्थः। यथा वैतरणी नदीनां म ध्येऽत्यंतवेगवाहित्वात् विषमतटत्वाच्च उस्तरा उलघ्या एवमस्मिन्नपि लोके नार्योऽमति मता निर्विवेकेन हीनसत्वेन दुःखेनोत्तीर्यते । तथाहि। ताहावनावैः कृतविद्यानपि स्वीकु वैति। तथाचोक्तं । सन्मार्गे तावदास्ते प्रनवति पुरुषस्तावदेवेंशियाणां, लजां तावविधत्ते वि नयमपि समालंबते तावदेव ॥ चापादेपमुक्ताः श्रवणपथजुषोनीलपक्ष्माणएते यावन्नी लावतीनां न यदि धृतिमुषो दृष्टिबाणाः पतंति । तदेवं वैतरणीनदीवत् उस्तरानार्योनवंतीति ॥ १६ ॥ अपिच । (जेहीत्यादि । यैरुत्तमसत्वैः स्त्रीसंगविपाकवेदिनिः पर्यंतकटवोनारी संयोगाः परित्यक्तास्तथा तत्संगार्थमेव वस्त्रालंकारमाल्यादि निरात्मनः पूजनाकामविनूषा पृष्ठतः कृता परित्यक्तेत्यर्थः । सर्वमेतत्स्त्रीप्रसंगादिकं कुत्पिपासादिप्रतिकूलोपसर्गकदंबकं च निराकृत्य ये महापुरुषसे वितपंथानं प्रति प्रवृत्तास्ते सुसमाधिना स्वस्थ चित्तवृत्तिरूपेण व्यवस्थितानोपसगैरनुकूलप्रतिकूलरूपैः प्रदोज्यंते । अन्येतु विषयानिष्वंगिणः रूयादिप रीषहपराजिताअंगारोपरिपतितमीनवागामिना दह्यमानाथसमाधिना तिष्ठंतीति ॥१॥ एते नग्धं तरिस्संति, समुदं ववदारिणो ॥ जब पाणा विसन्ना सि, किचंती सयकम्मणा ॥१७॥तंच निरकू परिमाय, सबते समिते चरे ॥ मुसावायं च वजिजा, दिन्नादाणं च वोसिरे॥१॥ अर्थ-एतेके ० ए पूर्वोक्त परिसहना जीपणदार ते उग्धंके उघसंसारने तरिस्संतिके तर से समुदंववहारिणोके समुश्वत; एटले जेम व्यवहारिया समुश्ने नाव वडे तरेले तेनीपरे जाणीले जबके जे संसार समुड्ने विषे पाणाविके० प्राणी एटले जीव ते सन्नासिके Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राय धनपतसिंघ बाहाउरका जैनागमसंग्रह नाग उसरा. १५ खुता थका सयकम्मणाके पोताना करेला पापकर्मे करी असातावेदनीयरूपे किचंती के पीडायडे ॥ १७ ॥ हवे उपदेश कहेले तंचनिरकू के ते पूर्वोक्त चारित्रिप रिमायके० हेय उपादेय स्वरूप जाणीने सुबते के जला व्रतनो पालक समितेचरे के पांच समिते समितो एवो थको विचरे अने मुसावायंच वङिजा के मृषावादने वर्जे तथा दिन्नादाणंचवोसिरे के अदत्तादान एटले चोरी थकी वोसिरे एटले चोरीनुं त्यागकरें, एम अनुक्रमे मैथुन तथा परिग्रहने पण बांके. ॥ १ ॥ ॥ दीपिका-एतेस्त्रीपरीषहजेतार संसारं तरिष्यति । यथा व्यवहारिणः सांया त्रिकाः समुई तरंति । यत्र नवौघे प्राणिनोविषयसंगोषमाः संतः कृत्यंते पीडयंते स्व कर्मणा ॥ १७ ॥ तदेतत्प्रागुक्तं निदः परिझायज्ञात्वा सुव्रतः शोननव्रतयुक्तः समितः पंचसमितिनिश्चरेत् संयमानुष्ठानं कुर्यात् तथामृषावादं वजेयेंददत्तादानंच व्युत्सृजो त् त्यजेत् । आदिशब्दान्मैथुनपरिग्रहादिच त्यजेत ॥ १५ ॥ ॥ टीका-स्यादिपरीषहपराजयस्य फलं दर्शयितुमाह ।(एतेइत्यादि) यएते अनंतरोक्ता अनुकूलप्रतिकूलोपसर्गजेतारएते सर्वे उघंसंसारं उस्तरमपितरिष्यति। व्यौघदृष्टांतमाह । समुइंलवणसागरमिव व्यवहारिणःसांयात्रिकायानपात्रेण तरंत्येवं नवोधमपि संसारसंयम यानपात्रेण यतयस्तरिष्यति।तथा तीस्तरंतिचेति।नवौघमेव विशिनष्टिानवौघे संसारसाग रेप्राणाःप्राणिनःस्त्रीविषयसंगाविषमाःसंतःकत्यंते पीयंते स्वरूतेनानुष्ठितेन पापेन कर्मणा अस वेदनीयोदयरूपेणेति ॥१॥ सांप्रतमुपसंहारव्याजेनोपदेशांतरविधित्सयाह । ( तंच निरकुश्त्यादि)। तदेतद्यथा प्रागुक्तं । यथा वैतरणीनदीवत् उस्तरानार्योयैः परित्यक्ता स्ते समाधिस्थाः संसारं तरंति स्त्रीसंगिनश्च संसारांतर्गताः स्वरूतकर्मणा कृत्यंतइति । तदेतत्सर्व निदणशीलोनितुः परिज्ञाय हेयोपादेयतया बुध्वा शोननानि व्रतान्यस्य सुव्रतः पंचनिः समितिनिः समितइत्यनेनोत्तरगुणावेदनं कृतमित्येवंनूतश्चरेत् संयमानुष्ठानं विद ध्यात् तथा मृषावादमसद्भूतार्थनाषणं विशेषेण वर्जयेत्तथा अदत्तादानं च व्युत्सृजेदंतशो धनमात्रमप्यदत्तं न गाहीयात् । श्रादिग्रहणान्मैथुनादेः परिग्रहति । तच्चमैथुनादिकं यावजीवमात्महितं मन्यमानः परिहरेत् ॥ १५ ॥ नड्महे तिरियं वा,जे केई तस यावरा ॥सवन विरतिं कुज्जा, सं ति निवाणमादियं ॥२०॥इमं च धम्ममादाय,कासवेण प्पवेदित। कुक्का निस्कू गिलाणस्स, अगिलाए समाहिए ॥२२॥संखाय Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१६ तिीये सूत्रकृतांगे प्रथमश्रुतस्कंधे तृतीयाध्ययनं. पेसलं धम्मं दिमिं परिनिव्वुझे॥ नवसग्गे हियासित्ता, आमो काए परिवएका सितिबेमि ॥ २२ ॥ इति श्रीवसग्गपरिन्ना ए तश्यं अप्नयणं सम्मत्तं ॥ अर्थ-हवे बीजा सर्ववत दयानी वाड रूप तेकारणे अहिंसाने विशेष दीपावे. उडू के उचो अहे के अधो एटले नीचो तिरियं के तीनों वा के अथवा एटले सर्व लोकमांहे देवथी प्राणातिपात कह्यु हवे इव्यप्राणातिपात कहे. जेकेईतसथावरा के ए सर्व लोकमांहे जेकांइ त्रस अने स्थावर जीव सबबविरतिंकुड़ा के तेनेविषे सर्व प्रकारे एटले करण करावण अने अनुमतियेंकरी सर्वत्रकालें विरतिपणुं करे एटले सर्व जीवोनी दयानुं पालवं तेने संतिनिवाण माहियं के० ते शांति एटले कर्म दाहनी नप शम करनार कहिये तथा एनेज निरवाण एटले मोदपदमांपणाहितंएटले कह्युजे॥२०॥ हवे अध्ययननो अर्थ नपसंहरतो कहे. इमंच धम्ममादाय के एम श्रुत चारित्र रूप धर्मने ग्रहण करीने ते धर्म कासवेगप्पवेदितं के श्रीमहावीर स्वामिये प्रकाइयो ते मार्ग यादरीने निरकू के० साधु ते गिलाणस्स के गिलानने विषे वैयावच्चने कुला के करे ते केवो थको वैयावञ्च करे तो के अगिलाए समाहिए के अगिलाणपणे यात्माने समाधिमान थको जे साधु वैयावच्च करेले तेने धन्य एवी समाधि धारण करतो थको वैयावृत करे ॥ २१ ॥ संखायके० सम्यक् प्रकारे जाणीने एटले जातिस्म रणादिके अथवा अन्यपासे थी सोनलीने पेसलं के रूडो एवो धम्म के केवलीनुं ना ष्योजे धर्म तेने दिहिम के० सम्यकदृष्टी जीव परिनितुमे के कषायने नपशमावी शीत लीनूत थको ग्वसग्गेहिया सित्ता के अनुकूल प्रतिकूल उपसर्गने अहिवासीने धामो रकाए के ज्यांसुधी मोदे जाय त्यांसुधी परिवएजासिके सुधो संयम पाले तिबेमिनो अर्थ पूर्ववत् जाणवो ॥२२॥ ए उपसर्ग परिझानामे त्रीजाध्ययन, अर्थ समाप्त थयुं ॥ ॥ दीपिका-ऊर्ध्वमधः ये केचित् त्रसाः स्थावराः प्राणिनस्तेषु सर्वत्र कालेऽवस्थासु च विरतिं कुर्यात् यस्मातांतिनिर्वाणं कर्म दाहोपशमः शांतिस्तद्रूपं निर्वाणं मोपदं या ख्यातं कथितं यतोविरतेर्मोदोनवतीति ॥ २० ॥ इमं चारित्ररूपं धर्ममादाय गृहीत्वा काश्यपेन श्रीवीरेण प्रवेदितमाख्यातं ग्लानस्य साधोवैयावृत्तं कुर्यात् नितुः। कथं ।अग्लान तया यथाशक्ति समाहितः समाधि प्राप्तः यथाग्लानस्य समाधिरुत्पद्यतेः स्वस्यच योगान विषीदंति यथा वैयावृत्त्यादिकं विधेयमिति ॥२१॥ पेशलं मोदप्रदं धर्म संख्याय ज्ञात्वा दृष्टिमान् सम्यग्दर्शनी परिनिर्वृतः शांतः उपसर्गाननुकूलप्रतिकूलान् नियम्य नियंत्र्य Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राय धनपतसिंघ बाहापुरका जैनागम संग्रह नाग दुसरा. २१७ यामोदय मोक्षार्थं परिव्रजेत् संयमेचरेदिति ब्रवीमीति पूर्ववत् ॥ २२ ॥ इतितृतीया ध्ययने चतुर्थ देशकः समाप्तः ॥ ४ ॥ ॥ टीका - परिव्रतानाम हिंसायावृत्तिकल्पत्वात् तत्प्राधान्यख्यापनार्थमाह ( उडूमहे इत्यादि) ऊर्ध्वमधस्तिर्यक् चेत्यनेन क्षेत्र प्राणातिपातोगृहीतः । तत्रच ये केचन संतीत त्रसाद्वित्रिचतुः पंचेंदियाः पर्याप्तापर्याप्तकने निन्नास्तथा तिष्ठतीति स्थावराः पृथिव्यप्तेजो वायुवनस्पतयः सूक्ष्मबादरपर्याप्तकापर्याप्तकनेद निन्ना इत्यनेन च व्यप्राणातिपातो गृही तः। सर्वत्र काले सर्वास्ववस्था स्वित्यनेनापि कालनाव नेद निन्नः प्राणातिपात उपात्तोइष्टव्यः । तदेवं चतुर्दशस्वपि जीवस्थानेषु कृतकारितानुमति निर्मनोवाक्कायैः प्राणातिपात विरतिं कुर्यादित्यनेन पादोनेनापि श्लोक ६येन प्राणातिपात विरत्यादयोमूलगुणाः ख्यापिताः । सांप्रतमेतेषां सर्वेषामेव मूलोत्तरगुणानां फलोद्देशेनाह । शांतिरिति कर्मदाहोपशमस्त देवच निर्वाणं मोक्षपदं यदाख्यातं प्रतिपादितं सर्व द्वापगमरूपं तदस्यावश्यं चरक रणानुष्ठायिनः साधोर्नवतीति ॥ २० ॥ समस्ताध्ययनार्थोपसंहारार्थमाह । (इमंचधम्म मित्यादि ) इममिति पूर्वोक्तं मूलोत्तरगुणरूपं श्रुतचारित्राख्यं वा दुर्गतिधारणात् धर्ममा दायाचार्योपदेशेन गृहीत्वा (किंनूतमिति ) । तदेव विशिनष्टि । काश्यपेन श्रीमन्महावीरव मास्वामिना समुत्पन्नदिव्यज्ञानेन नव्यसत्वाऽन्यु- हरणानिलाषिणा प्रवेदितमाख्या तं समधिगम्य निक्कुः साधुः परीषहोपसर्गेरतार्जितोग्लानस्यापरस्य साधेार्वैयावृत्त्यं कुर्या त् । कथमिति । स्वतोऽग्लानतया यथाशक्ति समाहितइति समाधिं प्राप्तः । इदमुक्तं नवति । कृतकृत्यो हमिति मन्यमानोवैयावृत्त्यादिकं कुर्यादिति ॥ २१ ॥ अन्यच्च ( संखायइति ) संख्यायेति सम्यक् ज्ञात्वा स्वसंमत्या अन्यतोवा श्रुत्वा (पेशनंति) मोक्षगमनं प्रत्यनुकूलं किंत ६ श्रुतचारित्राख्यं दृष्टिमान् सम्यक्दर्शनी परिनिर्वृतइति । कषायोपशमाहीती नूतः परिनिर्वृतकल्पोवा उपसर्गाननुकूल प्रतिकूलान् सम्यग् नियम्या तिसह्यामोक्षाय मोयावत् परिसमंतात् व्रजेत् संयमानुष्ठानेन गच्छेदिति । इतिशब्दः समायर्थे । ब्रवीमीति पूर्ववत् । न चर्चापि तथैवेति ॥ २२ ॥ उपसर्गपरिज्ञायाः समाप्तश्चतुर्योदेशकस्तत्परिसमाप्तौ च तृ तीयाध्ययनमिति । ग्रंथाग्रं ॥ ७७५ ॥ प्रथम स्कंध विषे चोयुं अध्ययन प्रारंनियें बैयें. त्रीजा प्रध्ययनने विषे जे उपसर्ग का ते मांहे अनुकूल उपसर्ग सहन करवा दुर्जनले एम कयुं हतुं, तेमा स्त्रीना करेला अनुकूल उपसर्ग सहन करवाने पर्थे चोथुं अध्ययन कहियें ढैयें. जे मायरंच पियरंच, विप्पजदाय पुवसंजोगं ॥ एगे सहिते च रिस्सामि, च्यारत मेदुषो विवित्तेसु ॥ १ ॥ सुदुमेणं तं परिक्कम्म २८ For Private Personal Use Only Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राय धनपतसिंघ बादाडुरका जैनागम संग्रह जाग दुसरा. ११० -मध्ययनमुपदिश्यतइत्यनेन संबंधेनायातस्याध्ययनस्योपक्रमादीनि चत्वार्यनुयोग द्वाराणि नवंति । तत्रोपक्रमांतर्गतोर्थाधिकारो द्वेधा । अध्ययनार्थाधिकार न देशार्थाधिकारश्च । तत्रा ध्ययनार्थाधिकारः प्राग्वत् निर्युक्तिकता ( थी दोषविवाला) चेवेत्यनेन स्वयमेव प्रतिपादितः । उद्देशार्थाधिकारं तूत्तरनिर्युक्तिरुदेव नणिष्यति। सांप्रतं निदेपः सचौघनामसूत्रालापकनेदा faar | atarra निदेपेऽध्ययनं नामनिष्पन्ने स्त्रीपरिज्ञेति नाम । तत्र नामस्थापने कु वादनादृत्य स्त्रीशब्दस्य इव्यादिनिदेपार्थमाह । ( दवा निनावेत्यादि ) | दवा जिला चिंधे, देवेनावेरिकेवो । हिलावे तहसिद्धी, जावे वेयंमिवनत्तो ॥ ५६ ॥ तत्र व्यस्त्री देधा । श्रागमतोनोखागमतश्च । श्रागमतः स्त्रीपदार्थज्ञस्तत्र चानुपयुक्तो नुपयोगोऽव्यमिति कृत्वा नोयागमतोज्ञशरीरनव्यशरीरव्यतिरिक्ता त्रिधा । एक विका aarsgust निमुखनामगोत्रावेति । चिन्ह्यते ज्ञायतेऽनेनेतिचिह्नं स्तननेपथ्यादिकं चिह्नमा त्रेण स्त्री चिह्नस्त्री अपगतस्त्री वेदवद्मस्थः केवलीवा अन्योवा स्त्रीवेषधारी यः कश्चि दिति । वेदस्त्री पुरुषानिलाषरूपः स्त्रीवेदोदयः । अभिलाषनावौ तु निर्युक्तिक देव गाथाप श्रार्द्धेनाह । श्रनिजाप्यते इत्य निलाषः स्त्रीलिंगा निधानः शब्दः । तद्यथा । शाला माला सिद्धि रिति । नावस्त्री तुद्देधा । यागमतोनोयागमतश्च । यागमतः स्त्रीपदार्थज्ञस्तत्र चोपयुक्त उपयोगोनावइति कृत्वा नोखागमतस्तु नावविषये निदेपे वेदेस्त्री वेदरूपे वस्तुन्युपयुक्ता तडुपयोगानन्यत्वानावस्त्री नवति । यथाऽग्नावुपयुक्तोमाणवकोग्निरेव नवत्येवमत्रा पि । यदिवा त्रिवेदनिवर्तकान्युदयप्राप्तानि यानि कर्माणि तेषूपयुक्तेति तान्यनुनवंती स्त्रीति । एतावानेव स्त्रियोनिदेपइति । परिज्ञा निदेपस्तु शस्त्रपरिज्ञावद् इष्टव्यः । सां प्रतं स्त्रीविपनूतं पुरुषनिदेपार्थमाह । (नामंग्वणाइत्यादि) । णामंतवाद विए खेत्ते काय पण एकं । नोगे गुणेय नावे, दसएएपुरिस सिस्केवा ॥ ५७ ॥ नामेति संज्ञा तन्मात्रे पुरुषोनामपुरुषः । यथाघटः पटइति यस्य वा पुरुषइति नामेति । स्थापनापुरुषः काष्ठा दिनिवर्तितो जिन प्रतिमादिकः । इव्यपुरुषोशरीरनव्यशरीरव्यतिरिक्तोनो यागमतएक विको वायुको निमुखनामगोत्रश्चेति । व्य प्रधानोवा मम्मणव लिगादिरिति । योयस्मिन् सुराष्ट्रादौ क्षेत्रे नवः सदेत्र पुरुषोयथा सौराष्ट्रकइति । यस्यच यत् क्षेत्रमाश्रित्य पुंस्त्वं नवतीति । योयावंतं कालं पुरुषवेदवेद्यानि कर्माणि वेदयते सकालपुरुषइति । यथा पुरिसे पुरिसेत्ति काल के चिरं होई | गो. जहनेणं एगंसमयं छक्को से पंजोजम्मिकाले पुरि सोन वइ । जहाको एगंमिपरकेपुरिसोएगं मिनपुंसगोत्ति । प्रजन्यतेऽपत्यं येन तत्प्रजननं शिश्नं लिंगं तत्प्रधानः पुरुषः परपुरुषकार्यरहितत्वात् प्रजनन पुरुषः । कर्मानुष्ठानं तत्प्रधानः पुरुषः कर्म पुरुषः कर्मकरादिकस्तथा जोगप्रधानः पुरुषोनोगपुरुषश्चक्रवर्त्यादिस्तथा गुणाव्यायाम विक्रमधैर्य सत्वादिकास्तत्प्रधानः पुरुषो गुण पुरुषः । नाव पुरुषस्तु पुंवेदोदये वर्तमानस्तदेद्या For Private Personal Use Only Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२० द्वितीये सूत्रकृतांगे प्रथम श्रुतस्कंधे चतुर्थाध्ययनं. नि कर्माण्यनुवन्नित्येते दशपुरुष निदे पानवंति । सांप्रतं प्रागुनि गित मुद्देशार्थाधिकारमधि कृत्याह (पढमेइत्यादि) पढमे संघव संलवमाइ हिखन पाउहोतिसीजस्स | बितिएइहैवख लियरसप्रवाकम्मबंधोयं ॥ ५८ ॥ प्रथमे उद्देश के अध्ययनार्थाधिकारः । रः । तद्यथा । स्त्रीभिः सार्धं संस्तवेन परिचयेन यथा संतापेन निन्नकथाद्यालापेनादिग्रहणादं गप्रत्यंग निरीक्षणा दिना कामोत्कचकारिणोन वेदल्पसत्वस्य शीलस्य चारित्रस्य स्खलनातुशब्दात्तत्परित्यागोवेति । द्वितीये त्वयमर्थाधिकारस्तद्यथा । शीलस्खलितस्य साधोरिहैवास्मिन्नेव जन्मनि स्वपक्षप रपकता तिरस्कारादिका विमंबना तत्प्रत्ययश्च कर्मबंधस्ततश्च संसारसागरपर्यटनमिति । किं स्त्रीनिः कश्चित् शीलात् प्रच्याव्यात्मवशः कृतोयेनैवमुच्यते कृतइति दर्शयितुमा ह | (सूरामोइत्यादि) सूरामोमन्नंता, कतिववियाहिंनव हिप्प हाणाहिं ॥ गहिया जय पोवकूलवालादिणोबहवे ॥ ५ए ॥ बहवः पुरुषायनय प्रद्योतकूलवालादयः शूरा वयमित्येवं मन्यमानाः । मो इतिनिपातोवाक्यालंकारार्थः । कृत्रिमानिः सनावरहितानिः स्त्रीनिस्तयोपधर्माया तत्प्रधानानिः कृतकपटशता निर्गृहीत्वा श्रात्मवशतां नीताः केचन राज्यादपरे शीजात् प्रच्याव्येहैव विमंबनां प्रापिताः ॥ अजयकुमारादिकथानकानिच मूला दावश्यकादवगंतव्यानि । कथानकत्रयोपन्यासस्तु यथाक्रमं मर्त्यबुद्धिविक्रमात्यंत बुद्धि विक्रमतपस्वित्वख्यापनार्थइति । यतएवं ततोयत्कर्तव्यं तदाह । तम्हाणनवीसंजोगं तो लिच्चमेव ॥ पढमुद्देसेज लिया, जेदोसातेगांतेां ॥ ६०॥ ( तम्हाइत्यादि) । यस्मा त् स्त्रियः सुगतिमार्गार्ग लामाया प्रधानावंचना निपुणास्तस्मादेतदवगम्य नैव विनोवि श्वासस्तासां विवेकिना नित्यं सदा गंतव्योयातव्यः कर्तव्यइत्यर्थः । ये दोषाः प्रथमो शके यस्योपलक्षणार्थत्वात् द्वितीयेच तान् गणयता पर्यालोचयता तासां मूर्तिमत्कप राशिनूतानामात्महित मिठता नविश्वसनीयमिति । यपिच । सुसमवावसमता, की रंतीप्पसत्तियापुरिसा । दीसंतीसूरवादी पारीवसगाणतेसूरा ||६ १ ॥ ( सुसमवेत्यादि) परा नीक विजयाद सुष्ठु समर्थाश्रपि संतः पुरुषाः स्त्रीनिरात्मवशीकृतात्र्य समर्थाचूपमात्र नीरवः क्रियतेल्पसात्विकाः स्त्रीणामपि पादपतनादिचाटुकरोन निःसाराः क्रियते त यादृश्यं प्रत्यदेोपलभ्यते । शूरमात्मानं वदितुं शीलं येषां ते शूरवादिनोपि नारीवश गाः संतोदीनतां गताः । एवंनूताश्च नते शूराइति । तस्मात् स्थितमेतद विश्वास्याः स्त्रिय ति । उक्तंच | कोवीससेकता सिं, कतिवयनरियाणडुच्चियहणे । खपरत विरत्ते, धिर वीहियया ॥ १ ॥ यमं नवंतिपुर संपा से विकमाली । यन्नंच तासिंहिय ए, जंचमं तं करिंतिपुणो ॥ २ ॥ कोएयागादिइ, वेत्तलयागुम्मगु विल हियया ॥ नावंन सातपन्नंतीणं ॥ ३ ॥ महिनायरत्तमेत्ता, चतुखंमंचसक्कराचेव । सापु विरत्तमित्तालिंबंकूरे विसेसेत्ति ॥४॥ महिला दिनकरेजवमा रिक्तवसंत विजवमपुस्सं । तु For Private Personal Use Only Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राय धनपतसिंघ बाहाउरका जैनागम संग्रह नाग उसरा. ११ जीवाविजाअहवरणरं वंचयावेजा ॥ ॥ णविररकतेसुकयं, णविणेहंणवियदाणस म्माणं ॥ एकुलंणपुच्चयंत्रायतंच शीलमहिलिया ॥ ६ ॥ मावीसंनहताणं महि लाहिययाणकवड नरियाणं ॥ सिमेहनियाएं अलियवयणपणरयाणं ॥ ७॥ मारे जियंतंपिदुमयंपि अणुमरश्काश्नत्तारं ॥ विसहरगश्वञ्चरियं वंकविवंकंमहेलाणं ॥ ७ ॥ गंगाएवालुयंसागरेजलंहिमवयपरिमाणं । जाणंति बुद्धिमंतामहिलाहिययंणजाति ॥ ए॥ रोवावंतिरुवंतिय अलियंजपंतिपत्तियावंति ॥ कवडेणयखंतिविसंमरंतिणयजतिस नावं ॥१०॥ चिंतिंतिकऊमसंथसंतवश्नासईयमं॥थाढवइकुणश्यमं माइणग्गूणिय मिसारो ॥ ११ ॥ असयारंनाणतहासवेसिंलोगगरहणिजाणं ॥ परखोगवैरियाणंकारणयं चैवश्ली ॥ १२ ॥ अहवाकोजुवईणं जाणश्चरियंसहावकुमिलाणं ॥ दोसाणथागरोचि य जणेसरीरेवसइकासा ॥ १३ ॥ मूलचरियाणं हवनणरयस्सवत्तिणी ॥ विवुला मो रकस्समहाविग्धंवळेयवासयानारी ॥ १४॥ धस्मातेवरपुरिसाजेच्चियमोनूगणिययजुव ई ॥ पवश्याकयनियमासिवमयलमत्तरंपत्ता ॥ १५ ॥ अधुना यादृदः शूरोनवति ताइदं दर्शयितुमाह । धम्ममिजोदढमइसोसूरोसत्तियवीरोय ॥ दुधम्मणिरुत्साहोपुरि सोसूरोसुबलिउवि ॥ ६२ ॥ (धम्ममित्यादि) । धर्मे श्रुतचारित्राख्ये दृढा निश्चला मति यस्य सतथा एवंनूतः सइंडियनोइंडिया रिजयातूरस्तथा सात्विकोमहासत्वोपेतोऽसा वेव वीरः स्वकर्मदारुणसमर्थोऽसावेवेति । किमिति यतोनैव धर्मनिरुत्साहः सदनुष्ठाननि रुद्यमः सत्पुरुषाचीर्णमार्गपरिचष्टः पुरुषः सुष्टु बलवानपि शूरोनवतीति । एतानेव दोषान् पुरुषसंबंधेन स्त्रीणामपि दर्शयितुमाह । एतेचेवयदोसा पुरीससमाएविज्ञनियाणंपि ॥ त म्हाणअप्पमा-विरागमग्गंमितासिंतु ॥६॥(एतेचेवेत्यादि)। ये प्राकूशीलप्रध्वंसादयः स्त्री परिचयादिन्यः पुरुषाणामनिहिताएतएव न्यूनाधिकाः पुरुषेण सह यः समायः संबंधस्त स्मिन् स्त्रीणामपि यस्मादोषानवंति तस्मात्तासामपि विरागमार्गे प्रवृत्तानां पुरुषपरिचया दिपरिहारलक्षणोऽप्रमादएव श्रेयानिति । एवं यमुक्तं स्त्रीपरिझेति तत्पुरुषोत्तमधर्मप्रति पादनार्थमन्यथा पुरुषपरिझेत्यपि वक्तव्येति । सांप्रतं सूत्रानुगमे स्खलितादिगुणोपेतं सूत्रमुच्चारणीयं । तच्चेदं । (जेमायरंचेत्यादि)। अस्य चाऽयमनंतरसूत्रेण सह संबं धः। तद्यथा । अनंतरसूत्रेनिहितमामोदाय परिव्रजेदित्येतच्चाऽशेषानिष्वंगवर्जितस्य नवतीत्यतोऽनेन तदनिष्वंगवर्जनमनिधीयते । यः कश्चित्तमसत्वोमातरं पितरं जननी जनयितारमेतद्ग्रहणादन्यदपि नातृपुत्रादिकं पूर्वसंयोगं तथा श्वश्रूश्वशुरादिकं पश्चात्सं योगं च विप्रहाय त्यक्त्वा । चकारीसमुच्चयाएँ । एकोमातापित्राद्यनिष्वंगवर्जितः क षायरहितोवा तथा सहितोझानदर्शनचारित्रैः स्वस्मै वा हितः स्वहितः परमार्थानुष्ठा नविधायी चरिष्यामि संयमं करिष्यामीत्येवं कृतप्रतिज्ञः । ता मेव प्रतिज्ञां सर्वप्रधान Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२२ वितीये सूत्रकृतांगे प्रथमश्रुतस्कंधे चतुर्थाध्ययनं. नूतां लेशतोदर्शयति । भारतमुपरतं मैथुनं कामानिलाषोयस्यासावारतमैथुनस्तदेवंचू तोविविक्तेषु स्त्रीपशुपंमकवर्जितेषु स्थानेषु चरिष्यामीत्येवं सम्यगुबानेनोबाय विहरती ति । क्वचित्पाठो (विवित्तेसित्ति) विविक्तं स्त्रीपंडकादिरहितं स्थानं संयमानुपरोध्ये पितुं शीलमस्य तथेति ॥१॥ तस्यैवं कृतप्रतिज्ञस्य साधोर्यन्नवत्यविवेकिस्त्रीजनात्त दर्शयितुमाह । (सुदुमेणेत्यादि) । तं महापुरुषं साधु सूक्ष्मेणाऽपरकार्यव्यपदेशनूते न बन्नपदेनेति उद्मना कपटजालेन पराक्रम्य तत्समीपमागत्य यदिवा पराकम्येति शील स्खलनयोग्यतापत्त्या अभिनय काः स्त्रियः कूलवालकादीनामिव मागधगणिकाद्यानाना विधकपटशतकरणददा विविधबिडोकवत्योनावमंदाः कामो कविधायितया सदसदि वेकविकलाः समीपमागत्य शीलात् ध्वंसयंति । एतमुक्तं नवति चातृपुत्रव्यपदेशेन साधुस मीपमागत्य संयमाद् शयंति । तथाचोक्तं । पियपुत्तेनाइ किडगाणनूचकिमगायसय किडगाय॥एतेजोवण किमगा पनपश्म हिलियाणं । यदिवा उन्नपदेनेति गुप्तानि मानेन । तद्यथा । काले प्रसुप्तस्य जनार्दनस्य मेघांधकारासु च शर्वरीषु॥मिथ्या न जाषा मि विशालनेत्रे ते प्रत्ययाये प्रथमारेषु इत्यादि ॥ ताः स्त्रीयो मायाप्रधानाः प्रतारणो पायमपि जानंत्युत्पन्नप्रतिनतया विदंति । पाठांतरं वा ज्ञातवत्यः यथाश्लिष्यंते विवेकि नोपि साधवएके तथाविधकर्मोदयात् तासु संगं उपयांति ॥ २॥ पासे निसं णिसीयंति, अनिकणं पोसव परिहिंति ॥ कायं अदे वि दंसंति, बाढूनछकरकमणुबजे ॥३॥ सयणासणेहिं जोगेहिं, बिन एगता णिमंतंति॥एयाणिचेव सेजाणे, पासाणि विरूवरूवाणि॥४॥ अर्थ-हवे जे उपाये करी ते स्त्री साधुने विप्रतारे ते उपाय कहेले. ते स्त्री पासेके० साधुनी पासे निसं के टुकडी एटले नजीक श्रावी णिसीयंति के बेशीने अनिरकणं के वारंवार पोस के जेरीते कामविकार पोषाय तेरीते वबंपरिहिंति के वस्त्र पहेरे कार्यबहे के नीचलुं शरीर जे जंघादिक ते विदंसंति के देखाडे बाहून के० बं ने बाहु उंची उपाडीने करकं के कांख देखाडती ती अणुबजे के साधुने सन्मुख जाय अथवा साधुने सन्मुख नजर राखे ॥३॥ वली बि एगता के० को एक स्त्री एकदा प्रस्तावे जोगेहिं के साधुने लेवा योग्य एवा सयपासणेहिं के सय नाशन एटले पाट पाटलादिके करी नियंजन वेलाये स्नेहना वचने करी णिमंतंतिके० निमंत्रणा करे तेवारे विरूवरूवाणि एयाणि के० विरूपरूप एवा ए पूर्वोक्त नानाप्र कारना जे पाट पाटलादिक तेने पासाणिके० ए मुझने बंधनना करनाराजे एरीते सेकेल ते साधु जाणे के० जाणीने त्यां बेसे नही. चेव शब्द पद पूरणार्थ.॥ ४ ॥ Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राय धनपतसिंघ बादाउरका जैनागम संग्रह नाग उसरा. २२३ ॥ दीपिका-नृशं सस्नेहं निषीदंति तिष्ठतिस्त्रियः पुमात्यतिपोषं मनोहरवस्त्रं परिद धति अनीदणं निरंतरं तथाधःकायं कादिकं दर्शयति बाढून उकृत्य कर्वीकृत्य कदा मादानुव्रजेत् अनुकूलं गब्बेत् ॥ ३॥ शयनासनोग्योंगयोग्यैः स्त्रियएकदा नि व्यंजनकालादौ निमंत्रयंति प्रार्थयति साधुं । ससाधुस्तानि शयनासनानि पाशरूपाणि जानीयात् बंधनरूपाणि अवगत विरूपरूपाणि तानि नानाविधानि ॥ ४ ॥ ॥ टीका-तानेव सूक्ष्मप्रतारणोपायान् दर्शयितुमाह । (पासेनिसमित्यादि) पार्श्व समीपे नशमत्यर्थमुरःपीडमतिस्नेहमाविष्कुर्वत्योनिषीदंति विभंजमापादयितुमुपविशं तीति । तथा कामं पुस्मातीति पोषं कामोत्काचकारि शोजनमित्यर्थः। तच्चतम स्त्रं तदनीदणमनवरतं तेन शिथिलादिव्यपदेशेन परिदधति स्वानिलाषमावेदयंत्यः सा धुप्रतारणार्थ परिधानं शिथिलीकृत्य पुनर्निबनतीति । तथाऽधःकायमूर्वादिकमनंगोद्दीप नाय दर्शयंति प्रकटयंति तथा बाहुमुकृत्य कदामादाऽनुकूलं साध्वनिमुखं व्रजेत् ग लेत । संनावनायां लिङ्। संभाव्यते एतदनंगप्रत्यंगसंदर्शकत्वं स्त्रीणामिति ॥३॥ अपिच । ( सयणासणेइत्यादि ) शय्यतेऽस्मिन्निति शयनं पर्यकादि तथाऽऽस्यतेऽस्मिन्नित्यासनमा संदकादीत्येवमादिना योग्येनोपनोगार्हेण कालोचितेन स्त्रियोयोषितएकदेति विविक्त देशकालादौ निमंत्रयंत्यन्युपगमं ग्राहयंति । इदमुक्तं नवति । शयनासनाद्युपनोगंप्रति साधुं प्रार्थयति । एतानेव शयनासननिमंत्रणरूपान् ससाधुर्विदितवेद्यः परमार्थदर्शी जा नीयादवबुध्येत स्त्रीसंबंधिकारिणः पाशयंति बध्नंतीति पाशास्तान्विरूपरूपान् नानाप्रका रानिति । इदमुक्तं नवति । स्त्रियोह्यासन्नगामिन्योनवंति। तथाचोक्तं । अंवं वा नित्वं वायशा सगुणेन बारुहाइवल्ली। एवं बीतोविजं यासन्नं तमिवति ।। तदेवंनूताः स्त्रियोज्ञात्वान तानिः सार्धं साधुः संगं कुर्याद्यतस्तउपचारादिकःसंगोउष्परिहार्योनवति । तमुक्ताजनसि घेत्तुंजे, पुचितं आमिसेण गिएहाहियामिसपासनिबधोका दिइकडंबकजंवा॥ २ ॥ ४ ॥ नोतास चरकु संधेजा, नोविय साहसं समनिजाणे ॥ णोसहियंपि वि हरेजा, एवमप्पासु रस्किन हो ॥५॥ आमंतिय उस्सविय निकु आ यसा निमंतंति ॥ एताणि चेव सेजाणे, सदाणि विरूवरूवाणि ॥६॥ अर्थ-नो तासुचस्कुसंधेजा के तेस्त्रीनी दृष्टी साथें साधु पोतानी दृष्टी मेलवे न ही, तथा नोवियसाहसं के मैथुनादिक अकार्यनुं करवू करे नही, अने समनिजाणे के ते स्त्रीनु कहेलु जे विषयनी प्रार्थनारूप वचन तेने अनुमोदे नही. पोसहियं पिवि हरेजा के वली ते स्त्रीनीसाथे ग्रामादिकने विषे विचरे नही, एव के० एरीते रहेता Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२४ द्वितीये सूत्रकृतांगे प्रथम श्रुतस्कंधे चतुर्याध्ययनं. ० थका अप्पा के० पोताना यात्मानु ररिकर्ड के रण सु के० रुमीरीते होइ के० था य ॥ ५ ॥ स्त्री स्वनावे कार्य करवाने सावधान होयले, तेमाटे निरकु के ० साधुने या मंति के मंत्री ने कहे के हुं अमुक वखते द्यावीश, एम संकेत कहीने वस्स विr ho विश्वास उपजावे खायसा के पोते पोताना यात्माने मैथुन सेववाने एकदा प्रस्तावे निमंर्तति के० साधुने निमंत्रण करे, अथवा साधुने निवारवा जणी ते स्त्री एम कहेके व्यायसा के० माहारा नर्तारना प्रादेशयी हुं तमारा पाशे यावी बुं, एवी ते पोताने वश करवाना वचन कहे एता लिचके० ए पूर्वोक्त वचनने करी अंहींच पदपू रणार्थ एव के० एम से के० ते साधु जाणे के ० इ परिज्ञायेकरी स्त्रीनुं स्वरूप जेवुंबे तेवुं जाणे सुंजाणे तोके सदाणि विरूवरूवाणि के० विषय संबधिया नानाप्रकारना हावनावादिकरूप जे स्त्रीना शब्द तेने साधु बंध पासना कारण जाणे. ॥ ६ ॥ ॥ दीपिका - नो तासु स्त्रीषु चक्कुः संदध्यात् संधयेत् । स्वदृष्टिः स्त्रीदृष्टौ न निवेशयेदित्यर्थः ॥ यतिः कार्ये ईषदव या निरीक्षेत । यक्तं । कार्येपीषन्मतिमान्निरीक्षते योषिदंगम स्थिरया ॥ स्निग्धयादृशावज्ञयाह्य कुपितोपि कुपितइवेति ॥ तथा नोपि च साहसमकार्य करणं तत्प्रार्थ नया समनुजानीयात्प्रतिपद्येत स्त्रीभिः सार्धं ग्रामादौ न विहरेन्न गच्छेत्। यपिशब्दात्तानिः सहै कासने न तिष्ठेत् ॥ यक् । मात्रा स्वस्रा डुहित्रा वा न विविक्तासनो भवेत्॥ बलवानिंदियग्रामः पंमितोप्यत्र मुह्यतीति । एवमात्मा सुरक्षितोभवति ॥ ५ ॥ ताः स्त्रियः साधुमामंत्रय सं hi ग्राहयित्वा (उस्सवियत्ति) संस्थाप्य उच्चावचैर्विश्वासजनकै राजापैर्विने पातयित्वा निकुं खात्मनो निमंत्रयंति श्रात्मनोगेन साधुमन्युपगमं कारयति सच निक्कुरेता विरूपरूपा न् नानाविधान् शब्दादिविषयान् परिज्ञया जानीयात् प्रत्याख्यानपरिज्ञया परिहरेत् ॥ ६ ॥ Y ॥ टीका - किंच | ( पोतासु इत्यादि) नोनैव तासु शयनासनोपमंत्रणपाशावपा शिकासु स्त्रीषु चकुर्नेत्रं संदध्यात्संघयेद्वा न तद्दृष्टौ स्वदृष्टिं निवेशयेत् । सतिच प्रयोज ईषदवया निरीक्षेत । तथाचोक्तं । कार्येपीषन्मतिमान्निरीक्षते योषिदंगम स्थिरया । स्निग्धया दृशाऽवइया कुपितोपि कुपितश्व ॥ १ ॥ तथा नापिच साहसमकार्यकर णं तत्प्रार्थनया समनुजानीयात्प्रतिपद्येत । तथा सति साहसमेतत्संग्रामावतरणवद्य नरकपातादिविपाकवे दिनोपि साधोर्यो पिदासंजनमिति । तथा नैव स्त्रीभिः सार्धं ग्रामादौ विहरेत् गच्छेत् । अपिशब्दान्न तानिः सार्धं विविक्तासनोनवेद्य तोमहापापस्थानमेतद्यतीनां यत् स्त्रीनिः सह सांगत्यमिति ॥ तथाचोक्तं । मात्रा स्वस्रा दुहित्रा वा नविविक्तासनो नवेत् ॥ बलवानिंदियग्रामः पंमितोप्यत्रमुह्यति ॥ १ ॥ एवमनेन स्त्रीसंगवर्जनेनात्मा स For Private Personal Use Only Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राय धनपतसिंघ बाहाउरका जैनागमसंग्रह नाग उसरा. १२५ मस्तापायस्थानेन्योरहितोनवति । यतः सर्वापायानां स्त्रीसंबंधः कारणमतः स्वहितार्थी तत्संगं दूरतः परिहरेदिति ॥ ५ ॥ कथं चैताः पाशाश्व पाशिकाश्त्याह (आमंतिये त्यादि) स्त्रियोहि स्वनावेनवाकर्तव्यप्रवणाः साधुमामंत्र्य यथाहममुकस्यां वेलायां नव दंतिकमागमिष्यामीत्येवं संकेतं ग्राहित्वा तथा ( उस्तवियत्ति ) संस्थाप्योच्चावचैर्वि अंनजनकैरालापैर्विश्रं पातयित्वा पुनरकार्यकरणायात्मना निमंत्रयंत्यात्मनोपनोगेन साधुमन्युपगमं कारयति । यदिवा साधोर्नयापहरणार्थ ताएव योषितः प्रोचुस्तद्यथा न रिमामंत्र्याप्टब्याहमिहायाता तथा संस्थाप्य नोजनपदधावनशयनादिकया क्रिययो पर्य ततस्तवांतिकमागतेत्यतोनवता सर्वा मन्नतजनितामाशंकां परित्यज्य निर्नयेन नाव्यमित्येवमादिकैर्वचोनिर्विधनमुत्पाद्य निकुमात्मना निमंत्रयंते । युष्मदीय मिदं शरीरकं यादृदस्य छोदीयसोगरायसोवा कार्यस्य दमं तत्रैव निमजतामित्येवमुपप्र लोनयंति । सच निगुरवगतपरमार्थएतानेव विरूपरूपान्नानाप्रकारान शब्दादीन् विष यान् तत्स्वरूपनिरूपणतोझपरिझया जानीयाद्यथैते स्त्रीसंसर्गापादिताः शब्दादयो विष यातिगमनैकहेतवः सन्मार्गार्गलारूपाश्त्येवमवबुध्येत । यथा प्रत्याख्यानपरिझया च तदिपाकागमेन परिहरेदिति ॥ ६ ॥ मणबंधणेहिं णेगेहि,कलुण विणीयमवगसित्ताणं॥अडु मंजुलाई नासं ति, आणवयंति निन्नकदाहिं।॥ सीदं जहा च कुणिमेणं, निप्रयमेगच रंति पासेणं ॥ एवं नियान बंधंति संवुमं एगतियमणगारं॥७॥ अर्थ-(मणबंधणे हिंक)मनने बंधन करे एवा अणेगेहिंके अनेक प्रपंचकरती कजण के जे थकी पुरुषने दया नपजे तेवा करुणाना वचने विणीय के विनय पूर्वक नवगसित्ताणं के साधुनी पाशे श्रावीने अZ के अथवा निरंतर मंजुलाई के मधुर स्नेह सहित मनोहर वचन नासंति के बोले तथा निन्नकहाहिं के नि नकथा एटले रहस्यवार्ता जे मैथुन संबंधि बाना वचन तेणे करी बाणवयंति के से वकनी पेरे साधुने ते स्त्री पोतानी आज्ञा करावे, अथवा निन्नकहाहिं के० मैथुन संबं धिया वचनेकरी ते स्त्री आणवयंति के साधुनुं चित्त मैथुन सेववा नणी प्रवत तेम मैथुन सेववानी आझा आपी पोसानी आझायें साधुने प्रवावे ॥७॥ हवे दृष्टांते करी देखाडे. जहाचके जेम सीहंकुणिमेणंके सिंहने मांसे करी लोनवीने निलयं के निर्न य करी ने एगचरंति के० एकलो थको विचरे तेम करी पनी तेने पासेणं के अनेक बंधने बांधीने कदार्थयें एवं के ० एम बियान के स्त्रीपण संवुझ के जेणे मन वचन Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६ तिीये सूत्रकृतांगे प्रथमश्रुतस्कंधे चतुर्थाध्ययनं. अने कायाने संवख्याने एवा एगतियं अणगारंके० कोइएक सुव्रती अणगारने स्नेहरूप बंधनेकरी बंधंतिके बांधे धर्म थकी पाडे तो बीजा सामान्य साधुनुं केवुज गुं. ॥॥ ॥ दीपिका-मनो बध्यते यैस्तानि मनोबंधनानि मंजुलालापस्निग्धावलोकनांगत कटनादीनि तैरनेकैः करुणालापविनयपूर्वकं (नवगसित्ताणंति ) उपसंश्लिष्य समी पमागत्याथवा तदनंतरं मंजुलानि पेशलानि नाते । तथा निन्नकथाजीरहस्यालापै मैथुनसंबर्वचोनिः साधोश्चित्तमकार्यकरणंप्रति झापयंति प्रवर्तयंति ॥ ७॥ यथा सिंहं (कुणिमेणं) मांसेनोपलोच्य निर्नयमकचरं पाशेन यंत्रेण बनंति एवं स्त्रियोप्येकं कंचनाऽनगारं साधु संवृतमपि बध्नति स्ववर्श कुवैति ॥ ७ ॥ ॥ टीका-अन्यच्च । (मणबंधणेहिश्त्यादि) मनोबध्यते यैस्तानि मनोबंधनानि मं जुलालापस्निग्धावलोकनांगप्रत्यंगप्रकटनादीनि । तथाचोक्तं । णाहपियकं तसामिय दतियजिया तुमं महपिउत्ति। जीएजीयामियहं पहवसितंमेशरीरस्स ॥१॥ इत्या दिनिरनेकैः प्रपंचैः करुणालापविनयपूर्वकं (नवगसित्ताणंति) नपसंश्लिष्य समीपमा गत्याऽथ तदनंतरं मंजुलानि पेशलानि विधनजनकानि कामोत्काचकानि वा नाते । तउक्तं । मितमदुर रिनिय जंपुन्नएहिईसीकमरक हसिएहिं। सविगारेहिवरागंहिययं पिहियं मयबीए ॥१॥तथा निन्नकथानीरहस्यालापैमैथुनसंबर्वचोनिः साधोश्चित्तमादाय तमका र्यकरणं प्रत्याज्ञापयंति प्रवर्तयंति स्ववशं वा ज्ञात्वा कर्मकरवदाज्ञां कारयंतीति ॥ ७ ॥ अपिच । (सीजहेत्यादि) यथेति दृष्टांतोपदर्शनार्थे । यथा बंधनविधिज्ञाः सिंहं पिशि तादिनामिषेणोपप्रलोच्य निर्नयं गतनीकं निर्नयत्वादेवैकचरं पाशेन गलयंत्रादिना बनं ति बवाच बदुप्रकारं कदर्थयंत्येवं स्त्रियोनानाविधैरुपायैः पेशलनाषणादिनिः (एगतियं ति ) कंचन तथा विधमनगारं साधु संतृतमपि मनोवाकायगुप्तमपि बनति स्ववशं कुर्व तीति । संवतग्रहणं च स्त्रीणां सामोपदर्शनार्थ । तथाहि । संवृतोपि तानिर्बध्यते किं पुनरपरोऽसंतृतइति ॥ ॥ अह तब पुणो णमयंती रदकारोव णेमि अणुपुबी ॥ बछे मिएव पासे णं फंदंते वि णमुच्चए ताहे ॥॥ अह से णुत्तप्पई पहा नोच्चा पायसंच विसम्मिसं ॥ एवं विवेगमादाय, संवासो नविकप्पए दविए ॥ १० ॥ अर्थ-अथ के हवे साधुने पोताने वश करीने पनी तब के त्यांते स्त्री पोताना कार्यनेविषे ते साधुने पुणोके वली एमयंती के नमाडे एटले सेवकनी पेरे कार्य क Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रायधनपतसिंघ बदाउरका जैनागमसंग्रह नाग उसरा. २७ रावे रहकारोव के जेम रथकार सूत्रधार अणुपुबोके अनुक्रमे ऐमिके० पाडानो बाहे रलो प्रदेश नमाडे तेम साधुने ते स्त्री पोताना कार्य करवाने विषे नमाडे प्रवर्तीवे, तेवारे ते साधु, बझे मिएवपासेणंके मृगनी पेरे स्त्रीरूप पासे करीबंधाणो थको जेम मृग पासे करी बंधाणो होय ते फंदंतेविके० फंदाणोथको अरहो परहो हालें चाले पण ताहेके ते पास थकी णमुच्चएके मूकाय नही तेम साधु पण स्त्रीरूपीथा पास थकी मूकाय नही॥णा अथ के हवे स्त्रीरूपीआ पासमां पड्या पली, सेके० ते साधु गुत्तप्प के पश्चात्ताप करे पड़ा के पनी संयम बांझीने गृहवास आदरे, तेवारे जूरे जेम विसम्मिसं के० विषमि श्रित एवो पायसं के० दूध तेने नोच्चा के जमीने पनी पश्चात्ताप करे के ए अन्नमे सा वास्ते बासेव्यो एम चिंतवे चके तेनी पेरे ते साधु पण पश्चाताप करे एवंके एवो वि वेग मादायके० विवेक ग्रहण करीने दविए के मुक्ति गमन योग्य एवा साधुने संयमनी षणी एवीजे स्त्री तेनी साथे संवासो नविकप्पएके संवास संसर्ग करवो नकल्पे. ॥१०॥ ॥ दीपिका-अथ पुनस्तत्र स्वात्मनि अवस्तुनि नमयंति आसक्तं कुर्वति । यथा रथ कारोवर्धकिर्नेमिचक्रधाराकाष्ठं आनुपूर्व्या नमयति एवं स्त्रियोपि साधुं नमयंति स्ववशं कुर्वति । सच साधुर्मंगवत् पाशेन बोमोदार्थ स्पंदमानोपि चलमानोपि पाशान्नमुच्य ते ॥ ए ॥ अथ ससाधुः पाशवमृगश्वाऽनुतप्यते पश्चात्तापं करोति । यतः । मया परि जनस्यार्थ कृतं कर्म सुदारुणं ॥एकाकी तेन दोहं गतास्ते फलनागिनइति । यथा कश्चित पमिश्रं पायसं नुक्काऽनुतप्यते एवं पूर्वोक्तप्रकारेण विपाकं स्वानुष्ठानस्यादाय प्राप्य तानिः सह संवासोनकल्पते इव्यमुक्तियोग्ये साधौ ॥ १० ॥ ॥ टोका-किंच । (अहतबेत्यादि ) अथेति स्ववशीकरणादनंतरं पुनस्तत्र स्वानिप्रे ते वस्तुनि नमयंति प्रव्हं कुर्वति । यथा रथकारोवार्धकिर्नेमिकाष्टं चक्रवाह्यचमिरूपमा नुपा नमयत्येवं ताअपि साधु स्वकार्यानुकूल्ये प्रवर्तयंति । सच साधुर्मगवत् पाशेन बझोमोदार्थ स्पंदमानोपि ततः पाशानमुच्यतइति ॥ ए ॥ किंच । (अहसेइत्यादि) अ थासौ साधुः स्त्रीपाशावबमोमृगवत् कूटके पतितः सन् कुटुंबकते अहर्निशं क्लिश्यमानःप श्वादनुतप्यते । तथाहि । गृहांतर्गतानामेतदवश्यं संनाव्यते । तद्यथा । कोधायकोस मवित्तु कोहोवणाहिं काहोविजनवित्त कोनग्घाम तपहिय उपरिणीय नकोवकुमार नपडि यतो जीवरखडप्पडेहि परबंध पवेदनार । तथा यत् । मया परिजनस्यार्थ, कृतं कर्म सु दारुणं ॥ एकाकी तेन दोहं गतास्ते फलनागिनः ॥ १ ॥ इत्येवं बहुप्रकारं महामोहा त्मके कुटुंबकूटके पतिताअनुतप्यते । अमुमेवार्थ दृष्टांतेन स्पष्टयति । यथा कश्चिविष Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२७ वितीयेसूत्रकृतांगे प्रथमश्रुतस्कंधे चतुर्थाध्ययनं. मिश्र नोजनं नुक्ता पश्चात्तत्र कतावेगाकुलितोऽनुतप्यते । तद्यथा । किमेतन्मया पापेन सांप्रतेक्षिणा सुखरसिकतया विपाककटुकमेवंनूतं नोजनमास्वादितमिति । एवमसावपि पुत्रपौत्रहितजामातृस्वसूत्रातृव्यनागिनेयादीनां जोजनपरिधानपरिणयनासकारजातमृ तकर्मत क्ष्याधिचिकित्साचिंताकुलोपगतस्वशरीरकर्तव्यः प्रनष्टैहिकामुष्मिकानुष्ठानोऽहर्नि शं तक्ष्यापारव्याकुलितमतिः परितप्यते । तदेवमनंतरोक्तया नीत्या विपाकं स्वानुष्ठा नस्यादाय प्राप्य । विवेकमिति वा क्वचित्पातस्तविपाकं विवेकं चादाय गृहीत्वा स्त्रीनि चारित्रपरिपंथिनीनिः साध संवासोवसतिरेकत्र नकल्पते न नुद्यते कस्मिन्व्यनूते मु क्तिगमनयोग्ये रागदेषरहिते वा साधौ । यतस्तानिः साध संवासोवश्यं विवेकिनामपि सदनुष्टानविघातकारीति ॥ १० ॥ तम्दान वजए बी, विसलितंच कंटगं नचा ॥ नए कुलाणि वसवत्ती आघाते ण सेवि णिग्गंथे॥११॥ जे एवं ॐ अणुगिधा अन्नयरा दुति कुसीलाणं ॥ सुतवस्सिएवि से निस्कु, नोविहरे सह णमितीसु॥२॥ अर्थ-जे कारण माटे स्त्रीना समागम थकी कडवा विपाक प्राप्त थाय तम्हा के तेकारणे श्बीके ० स्त्रीने वऊएके वर्जे. तु शब्द थकी स्त्रीनी साथे बालाप संलाप पण करे नहिं, जेम विसनितंच के विषेकरी लिप्त एटले विषेकरी खरड्यो एवो कंटगंके० कांटो नचाके ० जाणीने तेने दूर थकी टालिये, तेम साधु होयते स्त्रीने विषे करी खड्या कांटा नी पेरे दुर थकी टाले तथा नए के एकलो थको कुलाणि के० ते गृहस्थने कुलेज, वसवत्ती के० तेनो वशवी थको जे साधु बाघाते के० धर्मकथा कहे सेवि के ते व्यलिंगी साधु पण पणिग्गंथे के निर्यथ नही निषिक्षाचरण सेवनादित्यर्थः॥ ११ ॥ जे एयं के जे चारित्रिया ए स्त्री संबंधिया के निंदनिक तेने विषे अणुगिक्षा के ग६ एटले मूर्या थका होय ते अन्नयरादुति कुसीलाणं के अन्य पासना नसन्ना कुशीलिया प्रमुख जे स्त्रीनी पाशे कथाना करनार होय तेमांहेला कुशीलिया जाणवा ते कारणे सुतवस्सिएवि के रूडो तपस्वी जे होय सेनिक के ते साधु नोविहरेसहण मिडीसु के स्त्रीसहित विचरे नही, तथा स्त्रीनो समागम बालाप संलापादिक पण करे नही. अही णं वाक्यालंकारे. स्त्रीने अंगारा सरखी जाणी दूर बांझी यापे. ॥ १२ ॥ ॥दीपिका-तस्मात् स्त्रियो वर्जयेत्। तुशब्दादालापादिन कुर्यात् । विषे लिप्तं कंटकमिव ज्ञात्वा । विषदिग्धकंटकः शरीरेमग्नः सन्ननर्थ करोति स्त्रियस्तु स्मरणादपि । यतः। विषस्य विषयाणां च दूरमत्यंतमंतरं॥ उपचुक्तं विषं हंति विषयाः स्मरणादपीति । तथा (उए) Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राय धनपतसिंघ बादाडुरका जैनागम संग्रह नाग दुसरा. २२ एकोऽसहायः कुलानि गृहस्थगृहाणि गत्वा स्त्रीणां वशवर्ती योधर्ममाख्याति नासौ नियं योनिषदाचरणात् ॥ ११ ॥ ये यतयएतत् पूर्वोक्तं तं गर्ह्य स्त्रीसंबंधादिकं एकाकि स्त्रीधर्मकथनादिकं वा अनुगृहाः प्रत्यासक्तास्ते कुशीलादीनां पार्श्वस्थादीनामन्यत माः स्युः । ततस्तु तपस्व्यापि तपः कृशदेहोपि स्त्रीनिः सह नविहरेन्नगच्छेन्नापि तिष्ठेत् । तृतीयार्थे सप्तमी । णं वाक्यालंकारे ॥ १२ ॥ ॥ टीका - स्त्री संबंध दोषानुपदर्योपसंहरन्नाह । ( तम्हाइत्यादि) । यस्माद्विपाककटुः स्त्रीनिः सह संपर्कस्तस्मात्कारणात् स्त्रियोवर्जयेत् । तुशब्दात्तदालापमपि न कुर्यात् । किं तदित्याह । विषोपलिप्तं कंटकमिव ज्ञात्वाऽवगम्य स्त्रियं वर्जयेदिति । यपिच । विषदिग्ध कंटकः शरीरावयवे नमः सन्ननर्थमापादयेत् स्त्रियस्तु स्मरणादपि । तटुक्तं । विषस्य विषयाणां च दूरमत्यंतमंतरं । उपयुक्तं विषं हंति, विषयाः स्मरणादपि ॥ १ ॥ तथा वरि विसख मं विसय सुटुक्क सुविसिरामरंति ॥ विसयामि सपुणघादिया परणरए हिंपडं ति ॥ १ ॥ तथौजएकोऽसहायः सन् कुलानि गृहस्थानां गृहाणि गत्वा स्त्रीणां वशवर्ती तन्निर्दिष्टवेला गमनेन तदानुकूल्यं नजमानोधर्ममाख्याति योसावपि ननियैयोनसम्यक् प्रव्रजितोनि विधाचरण सेवनादवश्यं तत्रापायसंनवादिति । यदा पुनः काचित्कुतश्चिन्निमित्तादागंतुम समर्था वृद्धा वा जवेत्तदा परिसहाय साध्वनावे एकाक्यप्यपि गत्वाऽपरस्त्रीवृंद मध्यगतायाः पुरुषसमन्वितायात्रा स्त्रीनिंदा विषय जुगुप्साप्रधानं वैराग्यजननं विधिना धर्म कथयेदपीति ॥ ११ ॥ अन्वयव्यतिरेकाच्या मुक्तोर्थः सुगमोनवतीत्यनिप्रायवानाह । (जेएयंउंट मि त्यादि ) ये मंदमतयः पश्चात्कृतसदनुष्ठानाः सांप्रतेचिणएतदनंतरोक्तं नंबं तिजुगुप्सनीयं तत्र स्त्रीसंबंधादिकं एका किस्त्रीधर्मकथनादिकं वा इष्टव्यं । तदनु तत्प्रति ये गृ अभ्युपपन्नमूर्जितास्ते हि कुशीनानां पार्श्वस्यावसन्नकुशील संसक्तय था बंदरूपाणामन्यतरा जवंति यदिवा का थिक पश्यक संप्रसारक मार्मकरूपाणां वा कुशीलानामन्यतराजवंति तन्म ध्यवर्तिनस्तेपि कुशीजानवंतीत्यर्थः । यतएवमतः सुतपस्व्यपि विकृष्टतपोनिष्टप्त देहो पि निक्कुः साधुरात्महित मिठन स्त्रीनिः समाधिपरिपंथिनीनिः सह न विहरेन्नक्क चिजन्नापि संतिष्ठेत् । तृतीयार्थे सप्तमी । समितिवाक्यानं कारे । ज्वलितांगारपुंज वद्दूरतः स्त्रियोवर्जयेदितिभावः ॥ १२ प्रविधयरादि सुहार्दि, घातीढ़ि व दासीढ़ि । महतीदि वा कुमारी हिं, संथवं सेन कुका पगारे ॥ १३ ॥ प्रड पाइांच सुदीपंवा अप्पियंद छुएगता होंति ॥ गिवसत्ता कामेदि; रकणपोसणे मणुस्सोसि ॥ १४ ॥ अर्थ- हवे कदाचित् पुत्री प्रमुखनो संसर्ग यइ जाय, तो ते पण साधुयें टालवो ते श्राश्रयी For Private Personal Use Only Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३० द्वितीये सूत्रकृतांगे प्रथम श्रुतस्कंधे चतुर्थाध्ययनं. कदेने व के० यपि संभावनाये धूयराहिमुहां के० धूम्राटले बेटी सा साधु विचरें नहीं, तथा सुहा एटले वदु साये घने धातीहिं के धाव, ते माता स मानबे ते साधे पण, अडुव ६० अथवा दासीहिं के० दासी साये, तथा महती हि के० म्होटी स्त्री साथे, वा के० अथवा कुमारीहिं के० कुमारिका जे न्हानी स्त्री, तेनी साधे पण संथवं के० संस्तव परिचय से के० ते साधुनकुंडा के नकरे तेने गा रे के० पगार जावो ॥ १३ ॥ हवे ए पूर्वोक्त स्त्रीउना समागम थकी जे दोष उप जे ते कहे. अथ के हवे कदापि एगता के० एकदा प्रस्तावे एकांते स्त्रीनी साथे साधु नो संसर्ग तेने लाई के० ज्ञाति गोत्रि वा के० अथवा सुहीणं के० सुहत् एटले मि ७ संबंधि वर्ग होंति के० त्यां होय ते दहु के देखे तेवारे तेउने अप्पियं के० प्री ति एटले द्वेष उपजे बने ते जाणेके गिद्धासत्ता कामेहिं के० जूवो ए पुरुष एवा गृ 5 कमजोगने विषेयासक्त देखायने एम चिंतवी सक्रोध वचन बोले के मणुस्सोसिके । अरेतुं नो पुरुष के शुं जे तुं घंहीं घणो घणो बेशेबे, रस्का पोसणे के० राखवे पो वे खादर करेबे, तेनो शुं कारणबे, एवा कठोर वचन ते बोले. ॥ १४ ॥ ० ם || दीपिका - डुहितृनिरपि पुत्रीनिरपि सार्धं न विरहेत् स्नुषाः सुतनार्यास्ता निर्धात्र्यास्त न्यदायिन्यस्ता निरथवा दासीनिर्महती निः प्रौढानिः कुमारी निर्जध्वीनिर्वा साथै संस्त वं परिचयं न कुर्यादनगारः ॥ १३ ॥ अथ एकदा स्त्रीभिः सह संगतं साधुं दृष्ट्वा योषि ज्ञातीनां सुहृदां वाऽप्रियं चित्ताशंका नवति । एवंच ते मानुवेरन् । यथा सत्वाः प्राणि नः कामैर्गृशः । एवंविधोप्ययं श्रमणः स्त्रीसक्तचेताः स्त्रीनिः सार्धं तिष्ठति । तक्ते । मं शिरोवदनमेतदनिष्टगंध, निदाशनेन नरणं वहतोदरस्य । गात्रं मलेन मलिनं गतसर्व शोनं, चित्रं तथापि मनसो मदनेस्ति वांबेति ॥ प्रतिस्त्रीसंगं दृष्ट्वा तव ज्ञातयः क्रुद्धाः साधुं ब्रुवंति रक्षणं वा पोषणं वा समाहार दे रणपोषणं तत्र त्वमादरं कुरु । यतस्त्व मस्यामनुष्यसि । यदिवा वयं रणे पोषणे प्रवन्नास्त्वमेव मनुष्योसि त्वयैव सार्धमिय मेकाकिन्यार्नशं त्यक्तगेहव्यापारा तिष्ठतीति ॥ १४ ॥ ॥ टीका - कतमानिः पुनः स्त्रीनिः सार्धं न विहर्तव्यमित्येतदाशंक्याह । (यविधूय राही त्यादि ) व्यपिशब्दः प्रत्येकमभिसंबध्यते । ( धूयरादित्ति ) डुहितृनिरपि सार्धं न विहरे तथा स्नुषाः सुतनार्यास्तानिरपि सार्धं न विविक्तासनादौ स्थातव्यं । तथा धात्र्यः पंच प्रकाराः स्तन्यदायिन्योजननीकल्पास्तानिश्च साकं न स्थेयं । अथवा सतां तावदपरयोषि तोयाप्येतादास्योघटयोषितः सर्वापसदास्ता निरपि सह संपर्क परिहरेत् । तथा महती निः कुमारी निर्वाशब्दाल्लघ्वीनिश्च सार्धं संस्तवं परिचयं प्रत्यासत्तिरूपं सोऽनगारोन कु For Private Personal Use Only Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रायधनपतसिंघ बादाऽरका जैनागमसंग्रह नाग उसरा. २३१ यांदिति । यद्यपि तस्यानगारस्य तस्यां इहितरि स्नुषादौ वा नचित्तान्यथात्वमुत्पद्यते तथा पि च तत्र विविक्तासनादावपरस्य शंकोत्पद्यते अतस्तकानिरासार्थ स्त्रीसंपर्कः परिहर्त व्यति ॥१३॥ अपरस्य शंका यथोत्पद्यते तथा दर्शयितुमाह । (अकुणाईणमित्यादिः) विविक्तयोषिता सार्धमनगारमथैकदा दृष्ट्वा योषिजातीनां सुहृदां वा अप्रियं चित्तःखा सिका नवत्येवं च ते समाशंकेरन् यथा सत्वाः प्राणिनश्बामदनकामैर्गाअध्युपप नास्तथा वंनतोप्पयं श्रमणः स्त्रीवदनावलोकनासक्तचेताः परित्यक्त निजव्यापारोऽनया सार्ध निहीक स्तिष्ठति । तमुक्तं । मुंमं शिरोवदनमेतदनिष्टगंधि, निदाटनेन नरणं वह तोदरस्य ॥ गात्रं मलेन मलिनं गतसर्वशोनं चित्रं तथापि मनसो मदनेस्ति वांजा ॥१॥ तथातिक्रोधाध्मातमानसाचैव मूचुर्यथा रक्षणं पोषणं चेति विगृह्य समाहार स्तस्मिन् रक्षणपोषणे सदादरं कुरु । यतस्त्वमस्याः मनुष्योसि मनुष्योवतसे । यदि वा परं वयमस्यारणपोषणव्याप्टतास्त्वमेव मनुष्योवर्तसे । यतस्त्वयैव सार्धमियमेका किन्यहर्निशं परित्यक्तनिजव्यापारा तिष्ठतीति ॥ १४ ॥ समणंपि दादासीणं, तबवि तावएगे कुप्पंति ॥ अनोयणेहिं पहिं श्वीदोसं संकिणो होति ॥१५॥ कुवंति संथवं तादि, पप्ना समाहि जो गेहिं ॥ तम्हा समणा णसमेति, आयहियाए समिसेजान ॥१६॥ अर्थ-समणंपि दउदासीणं के तपस्वी, उदासीन मध्यस्थ, राग देष रहित एवोसा धु पण स्त्री साथे आलाप करतो थको देखीने ताव के तेवारे तबवि के त्यां प ण एगे के० कोइएक कुप्पंति के क्रोध करे अवा के० अथवा नोयणेहिं के अने क प्रकारना नोजन ते गजेहिं के साधुने अर्थ थाप्या देखीने एम जाणे जे ए यति था हारनो गृ६ सदैव अहीं आवेडे, बोदोसं संकिणोहोंति के० तेवारे तेने स्त्रीना दोष नी शंका मनमांहे नपजे, अने एम जाणे के ए स्त्रीपण नली नथी ॥ १५ ॥ तेमाटे जे पप्ना समाहि जोगेहिं के प्रकर्षे करी धर्मरूप समाधि जे मन वचन कायाना गु जयोगरूप व्यापार,तेथकी भ्रष्ट थया होय. कुवंति संथवंताहिके तेवा इव्यलिंगी स्त्रीनी साथे संस्तव परिचय करे तम्हा के० तेमाटे एवं जाणीने समणा के० साधु एसमेंति के स्त्रीनी साथे नजाय, आयहियाए के आत्माना हितने अर्थ समिसेजा के स्त्रीजे स्थानके रहेती होय ते स्थानके साधु निषिता अशनादिक परिचय करे नही.॥१६॥ ॥ दीपिका-श्रमणमुदासीनमपि रागदेषरहितमपि दृष्ट्वा तत्रापि मध्यस्थे रहस्यस्त्री जल्पनरूतदोषादेके कुप्यंति श्रमणं मध्यस्थमपि स्त्रिया सहकांते जल्पं दृष्ट्वा एके कुप्यं Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३२ हितोय सूत्रकृतागे प्रथमश्रुतस्कंधे चतुर्थाध्ययनं. ति किं पुनः कृतविकारं । तथा स्त्रीदोषाशंकिनश्च ते नवंति। ते चामी दोषाः। नोजनेबदुविधै यस्तः साध्वर्थमुपकल्पितैरियमेनमुपचरति अथवा नोजनार्थमुपविष्टेष्वपि श्वशुरादिषु साध्वागमने सा वधूः समाकुला सत्यन्यस्मिन् दातव्येऽन्यद्ददाति । यथा। कयाचि ६ध्वा ग्राममध्यप्रारब्धनटप्रेक्षणगतचित्तया पतिश्वगुरयोर्नोजनार्थमुपविष्टयोस्तंडुलाइति क वा राइकाः संस्कृत्य दत्ताः । ततश्चासौ श्वशुरेणोपलदिता पत्या क्रुध्न तामिता ऽन्यग तचित्तेत्याशंकया गहानिर्घाटितेति ॥१५॥ तानिः स्त्रीनिः सह संस्तवं परिचयं कुर्वति । किंजूताः । प्रचष्टाः सचलिताः समाधियोगेन्योधर्मध्यानव्यापारेन्यः प्रच्युताः तस्मात् श्र मणा ( णसमें तित्ति ) नगति । सत्यः शोजनाअनुकूलत्वानिषद्याश्व निषद्याः स्त्रीक ता माया अथवा स्त्रीवसतीः आत्महिताय स्वहितं मन्यमानाः॥ १६ ॥ ॥ टीका-(किंचान्यत् । समरूपीत्यादि) श्राम्यतीतिश्रमणः साधुः । अपिशब्दोनिन्नक मः। तमुदासीनमपि रागदेषविरहान्मध्यस्थमपि दृष्ट्वा।श्रमणग्रहणं तपःखिन्नदेहोपलहणा र्थ । तत्रैवंनतेपि विषयवेषिण्यपि साधौ तावदेके केचन रहस्यस्त्रीजल्पनकृतदोषत्वात्कु प्यंति । यदिवा (पाठांतरं) “समणं दणुदासीणं” श्रमणं प्रव्रजंतं उदासीनं परित्यक्त निजव्यापार स्त्रिया सह जल्पंतं दृष्ट्रोपलन्य तत्राप्येके केचन तावत् कुप्यं ति किंपुनः कृतवि कारमितिनावः । अथवा स्त्रीदोषाशंकिनश्चते नवंति। ते चामी स्त्रीदोषाः। नोजनैर्नानाविधै राहारैर्व्यस्तैः साध्वर्थमुपकल्पितैरेतदर्थमेव संस्कृतैरियमेनमुपचरति तेनायमहर्निशमि हागबतीति।यदिवा नोजनैःश्वरादीनां न्यस्तैरर्धदत्तैः सनिःसावधूः साध्यागमनेन समा कुलीनता सत्यन्यस्मिन् दातव्येऽन्यद्दद्यात्ततस्ते स्त्रीदोषाशंकिनोनवेयुर्यथेयं शीलाउने नैव सहास्तइति । निदर्शनमत्र यथा कयाचिध्वा ग्राममध्यप्रारब्धनटप्रेणैकगतचि तया पतिश्वगुरयो!जनार्थमुपविष्टयोस्तंडुलाइति कृत्वा राइकाः संस्कृत्य दत्तास्ततोसो श्वगुरेणोपलदिता निजपतिना कुन तामिता अन्यपुरुषगतचित्तेत्याशंक्य स्वगृहान्नि र्घाटितेति ॥ १५ ॥ किंचान्यत् । (कुर्वतीत्यादि) तानिः स्त्रीनिः सन्मार्गार्गलानिः सह संस्तवं तहगमनालापदानसंप्रेक्षणादिरूपं परिचयं तथाविधमोहोदयात्कुर्वति विदध ति। किंनताः।प्रकर्षण भ्रष्टाः स्वलिताः समाधियोगेन्यः।समाधिर्धर्मध्यानं तदर्थ तत्प्रधा नावा योगामनोवाक्कायव्यापारास्तेन्यः प्रच्युताः शीतलविहारिणइति । यस्मात् स्त्रीसं स्तवात्समाधियोगपरित्रंशोनवति तस्मात्कारणानमणाः सत्ताधवोन (समेंति) न गई ति । सबोननाः सुखोत्पादकतयाऽनुकूलत्वान्निषद्याश्व निपद्यास्त्रीनिः कृता माया यदि वा स्त्रीवसतीरिति यात्महिताय स्वहितं मन्यमानाः। एतच स्त्रीसंबधपरिहरणं तासामप्य हिकामुष्मिकापायपरिहाराक्तिमिति । क्वचित्पश्चाईमेवं पम्यते ॥ तत्प्रासमणान जहा Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राय धनपतसिंघ बादाडुरका जैनागमसंग्रह जाग दुसरा. २३३ हि हिता सन्निजान ॥ श्रयमस्यार्थः । यस्मात्स्त्री संबंधोनर्थाय नवति तस्मात् श्रम साधो । तुशब्दो विशेषणार्थः । विशेषेण सनिषद्या स्त्रीवसतीस्तत्कृतोपचाररूपा वा मा श्रात्महिता तो हाहि परित्यजेति ॥ १६ ॥ बहवे गिहाई वहु, मिस्सीनावं पत्रुया (पाठांतरे पणता ) यएगे ॥ धुव ममेव पवयंति वायावीरियं कुसीलाएं ॥ १७ ॥ स रवति परिसाए, यह रहस्संमि डुक्कर्ड करेंति ॥ जातियां तदाविया, माइल्ले महासदेति ॥ १८ ॥ ० - बहवे के घणा मनुष्य गिहारंप्रवहट्टु के० घर बांमी संयम यादरीने वली मोहनीय कर्मना उदय थकी अज्ञानपणे, मिस्सीनावं के‍ मिश्रनावे पहुयाचके० पहोता एवा एगे के० कोइएक मनुष्य ते गृहस्थ पर नही अने यतिपण नहीं एटले व्यलिंगी याय. एवा बतां पण धुवमग्गमेव के० मोह मार्गज एटले अमारो मो नो मार्ग सत्यबे एम पवयंति के मध्यम मार्गने श्रेष्ठ कही बोले एकारणे अहो कु सीनाएं के० ते कुसीजीयाना वायाके वचननुं बोलवा मात्र, जे वीरियंके बल वीर्यले ते जुवो के बे ॥ १७ ॥ एरीते परिसाए के० परखदा मध्ये ते कुशीलिया पोतानी या त्माने सुद्धं के० शुद्ध निर्दोष स्वति के० बोजे यह के० यथ हवे परखदा मांहेथी पी, रहसंमि के० एकांत बांनो डुक्कर्म करेंति के दुष्कृत एटजे अनाचार करे. एरी ते मूर्ख पोतानो अनाचार गोपवे, तोपा जातियांतहाविया के० तेना अंग चेष्टाना जाए होय तेजाणे, तथा सर्वज्ञ तो जाणेजने के ए साधु माइले के० इष्ट मायावी, तथा महासदेयंति के महाधूर्त मृषावादी े. एरीते तो बीजा जाणे किंवा नजाणे परंतु सर्वज्ञतो जाऐजबे ॥ १८ ॥ ० ס || दीपिका - बहवः केचन गृहास्यपहत्य परित्यज्य मिश्रीनावं गृहस्यतुल्यत्वं प्रणताः प्राप्ता एवंभूतास्ते ध्रुवमार्ग मोक्षमार्गमेव प्रवदंति यथायमेवास्मदीयोमार्गः श्रेयान यनेनैव प्रव्रज्यानिर्वाहः स्यादिति । तदेतत्कुशीनानां वाचा कृतवीर्ये नानुष्ठानकृतं । वाङ्मात्रेणैव ते प्रत्रजितानतु सदनुष्ठानतइत्यर्थः ॥ १७ ॥ सकुशीलोवाङ्मात्रेण परि पदि शुद्धमात्मानं रौति जापते । यथ रहस्येकांते दुष्कृतं पापं करोति तच्च तस्य पाप मन्यः कोपि न वेत्ति तथापि तथारूपमनुष्ठानं विदंतीतितथा विदोनिपुणा इंगिताकार ज्ञाः सर्वज्ञावा जानंत्येव यतोयं मायावी महाशवश्चेति ॥ १८ ॥ ॥ टीका - किं केचनान्युपगम्यापि प्रव्रज्यायां स्त्रीसंबंधं कुर्युर्येनैवमुच्यते उमित्याह । (ब 30 For Private Personal Use Only Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३४ द्वितीये सूत्रकृतांगे प्रथम श्रुतस्कंधे चतुर्थाध्ययनं. हवेत्यादि) बहवः केचन गृहास्यपहृत्य परित्यज्य पुनस्तथाविधमोहोदयान्मिश्री नावइ ति । इव्यलिंगमात्रसभावानावतस्तु गृहस्थसमकल्पा इत्येवंभूता मिश्री नावं प्रस्तुताः सम नुप्राप्तान गृहस्था एकांततोनापि प्रत्रजितास्त देवंभूतायपि संतोधुवोमोदः संयमोवा तन्मा मेव प्रवदति । तथाहि । ते वक्तारोनवंति यथाऽयमेवास्मदारब्धोमध्यमः पंथाः श्रेया न्तथाह्यनेन प्रवृत्तानां प्रव्रज्या निर्वहणं नवतीति तदेतत्कुशीलानां वाचा कृतं वीर्य नानुष्ठा नतं । तथाहि । ते इव्यलिंगधारिणोवाङ्मात्रेणैव वयं प्रव्रजिताइति ब्रुवते नतु तेषां सात गौरव विषयसुखप्रतिबन्धानां शीतलविहारिणां सदनुष्ठानकृतं वीर्यमस्तीति ॥ १७ ॥ पिच (रवतीत्यादि) सकुशीलोवाङ्मात्रेणाविष्कृतवीर्यः पर्षदि व्यवस्थितो धर्मदेश नावसरे सत्यात्मानं शुद्धमपगतदोषमात्मानमात्मीयानुष्ठानं वा रौति नाषते । यथाऽनं तरं रहस्येकांते दुष्कृतं पापं तत्कारणं वा सदनुष्ठानं करोति विदधाति तच्च तस्यासदनु ष्ठानं गोपायतोपि जानंति विदंति । के । तथारूपमनुष्ठानं विदंतीति तथा विद इंगिताकार कुशला निपुणास्त दिइत्यर्थः । यदिवा सर्वज्ञाः । एतदुक्तंनवति । यद्यप्यपरः कश्विदकर्त व्यं तेषां न वेत्ति तथापि सर्वज्ञाविदंति तत्परिज्ञानेनैव किंन पर्याप्तं यदिवा मायावी महा शतश्वायमित्येवं तथाविदस्तिद्विदोजानंति । तथाहि । प्रबन्नकार्यकारी न मां कश्विज्ञाना त्येवं रागांधोमन्यते यथच तं तद्विदो वदंति । तथाचोक्तं । नयनोपंनो कि, एयपि इ घयं चतेा ॥ किहसक्कावंचे वय ताणू दूय कल्लाएणो ॥ १ ॥ १८ ॥ सयं क्कडं च न वदति; याइ होवि पकचति वाले ॥ वेयाणवी मा का सी, चोइज्जतो गिलाइ से जुको ॥ १७ ॥ उसियावि इचिपोसे सुपुरिसा वेियखेदन्ना || पलासमन्नितावेगे, नारीणं वसं नवकसंति ॥ २० ॥ अर्थ- सपंडुक्कडंच के० जे इव्यलिंगी होय, ते पोतानो करेलो अनाचार तेने चशब्द थकी प्राचार्यादिके पुग्यो थको, नवदति के० नकहे; एटले पोतानो नाचार प्रकाशे नही, तथा खाइहोवि के० यादिष्ट एटले चोयणा को बतो, एटले हे वह खाज पी एम न करवुं एरीते प्रेस्यो यको, पण बाले के० ते बाल प्रज्ञानी पक ति के पोताना यात्माने श्लाघनीय मानतो थको एम कहेके, याज पढी तमे क होठो तेम करीश, तथा वेय के० पुरुषवेदनो उदय तेथी योजे अणुवी के० मैथुन सेंववानो निलाब ते माकासी के० मकरीश, एरीते चोकतोके० प्रेखो थको गिलाइ के० गिलानपणु पामे. एम सेके० ते इव्यलिंगी साधु को के० वली वली सांन युं युं करे ॥ १९ ॥ उसियावि के अनेक प्रकारना कामनोगने विषे उषित For Private Personal Use Only Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रायधनपतसिंघ बदाउरका जैनागमसंग्रह नाग उसरा. २३५ एटले नुक्तनोगी थइने पुरिसाकेते मनुष्य इजिपोसेसुके० स्त्रीने पोषवाने विषे प्रवर्ते तथा इजिवेयखेदन्ना के स्त्रीवेद खराबडे, एटले स्त्री संसार भ्रमण- कारण, एम जाणता बता पण पलासमन्नितावेगे के प्रशासमन्वित एटले बुद्धिमंत एवा कोइएक पुरुष मो हने उदये करी नारीवसं के तेहिज स्त्रीने वशवर्तियें रहे अने उवकसंति के ते स्त्री जे कां कहे ते किंकरनी पेरे करे इत्यर्थः ॥ २० ॥ ॥ दीपिका-स्वयंकृतं पापं परेण दृष्टोपि नवदति यदहमेतत्पापकारीति परेणादिष्ट श्वोदितोपि बालोऽज्ञः प्रकलते आत्मानंश्लाघमानोऽकार्यमपलपति । तथा वेदः पुंवेदोदय स्तस्यानुवीचिरानुकूल्यं मैथुनानिलाषं माकार्षीरिति यः पुनश्चोद्यमानोग्लायति ग्लानिं याति अनाकणितं करोति ममेविसोवा सखेदं नाषते । यथा । संनाव्यमानपापश्चेदपापेना पि किं मया । नृजमुहिजते लोको,निर्विषादपि सर्पतइति ॥१५॥ स्त्रीपोषकाये अनुष्ठान विशेषास्तेषु नर्षिताव्यवस्थिताः पुरुषा नुक्तनोगिनइत्यर्थः। तथा स्त्रीवेदे खेदझाः स्त्रीवेदो मायाबदुलपति निपुणाअपि प्रज्ञाबुद्धिरौत्पत्त्यादिका तया समन्वितायुक्ताअपि एके ना रीणां वशमायत्ततां मपकर्षति व्रजति स्त्रीवशवर्तिनोनवंतीत्यर्थः। नतु एवं जानंति । यतः। एताहसंतिच रुदंतिच कार्य हेतोर्विश्वासयंति च नरं नच विश्वसंति ॥ तस्मान्नरेण कुल शीलसमन्वितेन नार्यः स्मशानघटिकाइव वर्जनीयाः ॥१॥ स्त्रीस्वनावस्तथा । यथा। ए कोयुवा गृहानिर्गत्य पाटलिपुत्रं प्रस्थितस्तदंतरेऽन्यतरग्रामवर्तिन्या कयाचिन्नार्याऽनि हितस्त्वमेवं गुनरुतिः क यासि तेनापि च यथास्थितमुक्तं । तयोक्तं पठित्वा चलमानोत्रा गः। तेनांगीकत्याये गतं ।अधीत्य च तत्रायातः। तया च स्नाननोजनादिनिः सत्यापितो हावनावश्च हृतचित्तस्ता हस्ते गएहाति ततस्तया महता शब्देन फूलत्य जनागमनावसरे त न्मस्तके वारिघटः प्रदिप्तः। ततोलोकस्य तयोक्तं श्रयं गले लग्नेन जलेन व्याकुलोमृतश्व । ततोमयोदकेन सिक्तइति । गते लोके सा दृष्टवती त्वया कामशास्त्रं पठता स्त्रीस्वनावानां किं ज्ञातमिति एवं स्त्रीचरितं पुर्विज्ञेयं । यतः । हृद्यन्याच्यन्यत्, कर्मण्यन्यत् पुरो थप टेऽन्यत् ॥ अन्यत्तव मम चान्यत् स्त्रीणां सर्व किमप्यन्यदिति ॥ २० ॥ ॥ टीका-किंचान्यत् (सयंकडंचेत्यादि)। स्वयमात्मना प्रबन्नं यदुष्कृतं कृतं तदप रेणाचार्या दिना दृष्टोन वदति न कथयति यथाहमस्याऽकार्यस्य कारीति । सच प्रबन्नपा पोमायावी स्वयमवदन् यदापरेणादिष्टश्चोदितोपि सन् बालोझोरागोषकलितोवा प्रकबते यात्मानं श्लाघमानोऽकार्यमपलपति वदतिच यथाहमेवंनतमकार्य कथं करिष्ये इत्येवं धायात्प्रकबते। तथा वेदः पुंवेदोदयस्तस्यानुवीच्याऽनुकूल्यं मैथुनानिलाषं Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३६ वितीयेसूत्रकृतांगे प्रथमश्रुतस्कंधे चतुर्थाध्ययनं. तन्माकार्षी रित्येवं नूयः पुनश्चोद्यमानोसौ ग्लायति ग्लानिमपयात्यकर्णश्रुतं विधत्ते मर्मवि छोवा सखेदमिव नाषते । तथा चोक्तं । संनाव्यमानपापोह,मपापेनापि कि मया ॥ निर्वि पस्यापि सर्पस्य नशमुहिजते जनइति ॥ १ए ॥ थपिच । (उसियावीत्यादि ) स्त्रियं पो षयंतीति स्त्रीपोषकाअनुष्ठान विशेषास्तेषूषितायपि व्यवस्थितायपि पुरुषामनुष्यानुक्त नोगिनोपीत्यर्थः तथा स्त्रीवेदशाः स्त्रीवेदोमायाप्रधान इत्येवं निपुणाअपि तथा प्रझया औत्पत्तिक्या दिबुध्या समन्वितायुक्ताअप्येके महामोहांधचेतसोनारीणां सम्यक्स्त्री णां संसारावतरणवीथीनां वशं तदायत्ततामुपसामीप्येन कषंति व्रजति । यद्यत्ताः स्वप्नाय मानायपि कार्यमकार्य वा ब्रुवते तत्तत्कुर्वते नपुनरेतजानंति यथैताएवंन्तानवंतीति । तद्यथा । एताहसंति च रुदंति च कार्यहेतो,विश्वासयंति च नरं नच विश्वसंति ॥ तस्मा नरेण कुलशीलसमन्वितेन, नार्यः श्मशानघटिकाइव वर्जनीयाः ॥ १ ॥ तथा । समुह वीचीव चलस्वनावाः, संध्यातरेखेव मुहूर्तरागाः ॥ स्त्रियः कृतार्थाः पुरुषं निरर्थकं, नि पीडितालतकवत्त्यजति ॥ ॥ अत्रच स्त्रीस्वनावपरिझाने कथानकमिदं । तद्यथैकोयुवा स्वगृहानिर्गत्य वैशिकं कामशास्त्रमध्येतुं पाटलिपुत्रप्रस्थितः। तदंतरालेऽन्यतरग्रामवर्तिन्य कया योषिताऽनिहितस्तद्यथा सुकुमारपाणिपादशोजनाकतिस्त्वं क प्रस्थितोसि तेनापि य थास्थितमेव तस्याः कथितं । तयाचोक्तं । वैशिकं पठित्वा मम मध्ये नागंतव्यं तेनापि तथै वान्युपगत। यधीत्य चासौ मध्येनायातस्तया च स्नाननोजनादिना सम्यगुपचरितोविविध हावनावश्चापहतहृदयः संस्तां हस्तेन गएहाति ततस्तया महता शब्देन फूकत्यजनागमना वसरे मस्तके वारिवर्धनिका प्रदिप्ता। ततोलोकस्य समाकुले एवमाचष्टे । यथायं गले लग्नेनो दकेन मनाक् मृतः । ततोमयोदकेन सिक्तइति । गतेच लोके किं त्वया वैशिकशास्त्रोप देशेन स्त्रीस्वनावानां किं परिझातमित्येवं स्त्रीचरित्रं पुर्विज्ञेयमिति नात्रास्था कर्तव्येति । तथा चोक्तं । हृद्यन्याच्यन्यत्कर्मण्यन्यत्पुरोथटष्ठेन्यत् ॥ अन्यत्तव मम चान्यत् स्त्रीणां सर्व किमप्यन्यत् ॥२०॥ अवि हवपाददाए, अज्ज्वा वधमंसनकंते ॥ अवि तेयसानिताव पानि नबिय खारसिंचणाई च ॥॥ अकरमणास दं,कंग्जेदणं तितिरकंती ॥ व पावसंतत्ता, नयबिंति पुणोन कादिति ॥२२॥ अर्थ-हवे इहलोके पण स्त्रीने संबंधे जे विपाक थाय ते देखाडे अपि एवी संना वना जे जे कुशीलिया पुरुष होय ते हबपादबेदाएके ० हस्तपादादिकनुं वेद पामे, थवा केन्यथवा वझमंसके० चर्म अने मांस, नकं ते के० उपडवू पामे अपि एवी संनावना Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राय धनपतसिंघ बादाउरका जैनागम संग्रह नाग उसरा. २३७ जे तेयसाके अग्नीनो ताप पामे एटले राजपुरुष रीशाणा थका अनितावणानिके० पर स्त्री गमन करनार पुरुषना अग्नी सहित तेना शरीरना नडधुश्रा करे नबिय के० वांशला साथे तेना शरीर त्राबीने तेवार पड़ी खार सिंचणाइंच के झारनुं सीचq करे, एटले लुणदेप पामे ॥२१॥ 45 के अथवा करमणासन्नेदं के कान थने नाशि कानुं बेदन पामे. कंचनेदणं तितिरकंती के० कंतनु लेदन पोताना कर्मना उदये सहन करे एरीते इत्र के अंही मनुष्य लोकने विपे पण पावसंतत्ता के पापे करी संतप्त एवी विटंबना पामे, तथापि नयबितिके० एमनकहे जे पुणोके० हवे वली हुँ ए वो अनाचार नकाहिंतिके० नही करूं एम विचारी विरति पणु अंगीकार करे नही॥२२॥ ॥ दीपिका-स्त्रीसंबंधे रागिणां हस्तपादलेदाद्यपि अथ वर्धमांसोत्कर्तनमपि तेजसा निनाऽनितापनानि स्त्रीसंबंधिनिर्नर्त पुरुषैनंटित्रकाएयपि क्रियते । पादारिकास्तथा शस्वैश्वि त्वा दारोदकसेचनानि प्राप्यते ॥ २१ ॥ कर्णनासिकादमपि कंतदनं च तितिदंते सहंते । इति एवं प्रकारेणात्रैव मनुष्यजन्मनि पापसंतप्तामहावेदनामनुनवंति नच ब्रुव ते एवं पुनने करिष्यामइति ॥ २५ ॥ ॥ टीका-सांप्रतमिह लोकएव स्त्रीसंबंधविपाकं दर्शयितुमाह । (यविहवेत्यादि ) स्त्री संपर्कोहि संसर्गिणां हस्तपादब्बेदनाय नवति । अपिः संनावने । संभाव्यतएतन्मोहातुरा णां संबंधास्तपादबेदादिकं अथवा वर्धमांसोत्कर्तनमपि तेजसाग्निनाऽनितापनानि स्त्री संबंधिनिरुत्तेजितैराजपुरुषैटित्रकाण्यपि क्रियते पादारिकास्तथा वास्यादिना तदायित्वा दारोदकसेचनानि च प्रापयंतीति ॥१॥ अपिच । (अकरोत्यादि) अथ कर्णनासिका चेदं तथा कंठवेदनं च तितिदंते स्वकृतदोषात्सहंते इत्येवं बहुविधां विडंबनामस्मिन्नेव मानुषे च जन्मनि पापेन पापकर्मणा संतप्तानरकातिरिक्तां वेदनामनुनवंतीति । नच पुनरे तदेवंनतमनुष्ठानं नकरिष्यामइति ब्रुवतइत्यवधारयंतीति यावत् । तदेवमैहिकामुष्मिका मुःखविझबनायप्यंगीकुर्वति न पुनस्तदकरणतया निवृत्तिं प्रतिपद्यतइति नावः ॥ २२ ॥ सुतमेत मेवमेगेसिं,इचीवेदेतिद् सयकायं॥ एवं पिता वदित्ताणं अज्ज्वा कम्मणा अव करेंति ॥ २३॥ अन्नं मणेण चिंतेति, वा या अन्नंच कम्मणा अन्नं ॥ तम्हा सदहिंजिरकू, बहमायान इति पच्चा ॥२४॥ अर्थ-श्रीसुधर्मस्वामी कहेले के एवंके० ए जे पूर्वे स्त्रीना संबंधनुं फल कयुं. ते, नगवंत Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३७ वितीये सूत्रकृतांगे प्रथमश्रुतस्कंधे चतुर्याध्ययनं. पाशेयी सुतमेके0 मेंसांनव्युंने. एतमेवके एवीरीते एगेसिंके० कोइएकने कडवाविपाक होय निवेदेतिदुके० स्त्रीवेद थकी दुइति निश्चःखज पामे. सुयरकायंके ० ए नखं कह्यु एवंपि के एरीते लोकपरंपराये पण सांनव्यं जे, स्त्रीना संबंध थकी कडवा विपाक पामियें; एम सांजलीने ताके ० ते अकार्यनो करनार वदित्ताशंके० एम कहे जे हवे हुँ ए अकार्य नही करूं.अवाके अथापि एटले तोपण कम्मणाके० माता कर्मने करवे करी अवकरेंतिके ० तेहिज अकार्यनुं आचरण करे ॥२३॥ हवे स्त्रीनपर विरक्त थवाने अ थै स्त्रीना दोष कहे. अन्नमणेणचिंतेति के स्त्री जेजे ते मने करी अन्य चिंतवे अने वायाअन्नंच के वचने करी अन्य बोले कम्मणायन्नं के वली कायाये करी अन्य करे तम्हा के० तेमाटे सहहिंनिस्कू के स्त्रीना वचन मायासहित होय तेने परमा र्थनो जाण साधु सर्द हे नही. बहुमाया शनि के० अत्यंत मायासहित एवी स्त्रीने पच्चा के जाणीने साधु जे होय ते स्त्रीनो विश्वास करे नही. ॥ २४ ॥ ॥ दीपिका-श्रुतमेतजुरोः सकाशात् यत्पूर्वमुक्तं एवमेकेषां त्वाख्यातं नवति । यत स्त्रियो निंद्याइति । तथास्त्रियं वेदयति झापयतिस्त्रीवेदोवै शिकादिकं स्त्रीस्वनावप्रकाशकं शास्त्र मिति । तमुक्तं । उाि हृदयं यथैव वदनं यदर्पणांतर्गतं, नावः पर्वतर्गमार्गविषमः स्त्रीणां न विज्ञायते ॥ चित्तं पुष्करपत्रतोयचपलं नैकत्र संतिष्ठते नार्योनाम विषांकुरै रिव लतादोषैः समं वर्धिताः ॥१॥ तथा ननअंगुलिसोपुरिसो सयलंमिजीवलोगंमि। कामं तएणनारिंजेण नपत्ता दुःखाई इत्यादि । किंच । थकार्यमहं न करिष्यामीत्येवं वाचा उक्त्वापि (अवत्ति ) अथापि तथा कर्मणा क्रिययाऽपकुर्वति विरूपमाचरंति स्त्रि यः॥ २३ ॥ स्त्रियोमनसाऽन्यत् चिंतयंति वाचान्यनाते कर्मणा क्रिययाऽन्यत् कुर्वति । तस्मात्तासां निहुः साधु श्रदधीत तत्कृतमायया आत्मानं नप्रतारयेत् । यतोबहुमायाः स्त्रियइति ज्ञात्वा । अत्र दत्तावेशिकदृष्टांतः। यथा दत्तकोनामकश्चिद्युवा एकया गणिकया बहु प्रकारैः प्रतार्यमाणोपि तां नेष्टवान् ततस्तयोक्तं किंमया दोन ग्यकलंकितया जीवंत्या प्र योजनं । अहं त्वया त्यक्ताऽग्निं विशामि ततोदत्तकोवदत् मायया इदमप्यस्ति वैशिके त दासी पूर्व सुरंगामुखे काष्ठनारं संमील्य तं प्रज्वाल्य तत्रानुप्रविश्य सुरंगया गृहमागता। दत्तकोपि इदमप्यस्ति वैशिके इत्येवं विलपन्नपि वातिकैश्चितायां प्रदिप्तस्तथापि नासौ तासु पक्षानं कृतवान् एवमन्येनापि स्त्रीषु न श्रमातव्यं ॥ २४ ॥ ॥ टीका-किंचान्यत् । (सुतमेतमित्यादि ) श्रुतमुपलब्धं गुर्वादेः सकाशानोकतोवा एतदिति यत्पूर्वमारख्यातं। तद्यथा । उर्विज्ञेयं स्त्रीणां चित्तं दारुणः स्त्रीसंबंधविपाकस्तथा चलस्वनावाः स्त्रियोकुष्परिचारायदीर्घप्रेदियः प्रकृत्या लघ्व्या नवंत्यात्मगर्विताश्चेत्येव Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रायधनपतसिंघ बादाउरका जैनागमसंग्रह नाग उसरा. २३ए. मेकेषां स्वारख्यातं नवति लोकश्रुतिपरंपरया चिरंतनाख्यासु वा परिझातं नयति । तथास्त्रि यं यथावस्थितस्वनावतस्तत्संबंधविपाकतश्च वेदयति झापयतीति स्त्रीवेदोवैशिकादिक स्त्रीस्वनावावि वकं शास्त्रमिति । तमुक्तं । उाि हृदयं यथैव वदनं यदर्पणांतर्गतं, ना वः पर्वतमार्गऽर्गविषमः स्त्रीणां न विज्ञायते ॥ चित्तं पुष्करपत्रतोयतरलं नैकत्र संतिष्ठ ते, नार्योनाम विषांकुरैरिव लतादोषैः समं वर्धिताः ॥ १ ॥ थपिच । सुहविजयासुसुरु विपियासुसुफुलपसरासु ॥ अडईसु महिलियासु य,वीसंनोनेवकायवो ॥ १ ॥ नसेन अंगुलीसोपुरिसोसयल मि जीवलोयम्मि । कामेतएणनारी, जेणनपत्ताइ सुःखाई॥ २॥ अहएयाणंपगई, सवस्सकरेंतिवेमणास्स। तस्सणकरेंतिणवरं, जस्सअलंचेवकामेहिं ॥३॥ किंच कार्यमहं न करिष्यामीत्येवमुक्त्वापि वाचा (अवत्ति) तथापि कर्मणापि क्रिय याऽपकुर्वतीति विरूपमाचरंति । यदि वाऽग्रतः प्रतिपाद्यपि शास्तुरेवापकुर्वतीति ॥२३॥ सूत्रकारएव तत्स्वजावाविष्करणायाह । (यमणेणेत्यादि) पातालोदरगंजीरेण मनसा न्यचितयंति तथाश्रुतमात्रपेशलया विपाकदारुणया वाचा अन्यनापते । तथाकर्मणानुष्ठा नेनान्यन्निष्पादयंति यतएवं बहुमायाः स्त्रियति । एवं ज्ञात्वा तस्मात्तासां नितः साधन श्रदधीत तत्कृतया माययात्मानं न प्रतारयेत् दत्तावैशिकवत् । अत्र चैतत्कथानकं । दत्ता वैशिकएकया गणिकया तैस्तैः प्रकारैः प्रतार्यमाणोपि तां नेष्टवान् ततस्तयोक्तं किं मया दौ नाग्यकलंकांकितया जीवंत्या प्रयोजनमहंत्वत्परित्यक्ताऽग्निं विशामि ततोसाववोचत माय या इदमप्यस्ति वैशिके तदाऽसौ पूर्व सुरंगामुखे काष्ठसमुदयं कृत्वा तं प्रज्वाव्य तत्रानुप्रविश्य सुरंगया गहमागता। दत्तकोपि इदमपि चास्ति वैशिके इत्येवमसौ विलपन्नपि वातिकैश्चिता यां प्रदिप्तस्तथापि नासौ तासु श्रधानं कृतवानेवमन्येनापि नश्रधातव्य मिति ॥ २५ ॥ जुवती समणं बूया, विचित्तलंकारवबगाणि परिहित्ता ॥ विरता चरिस्स दंरुकं,धम्ममाइक णे नयंतारो॥३॥ अङसाविया पवाएणं,अहमंसि सादम्मिणीय समणाणं॥जतुकुंने जदा न्वकोई,संवासे विउवि सीएजाए॥ अर्थ-विचित्तलंकार वजगाणि परिहित्ताके विचित्र प्रकारना यानपण बने वस्त्र पे हेरी विजूषावंत शरीर करी, जुवती के कोइक नव यौवना स्त्री अनिराम मायाकरीस मणं के साधुप्रत्ये बूया के बोले के हे साधु ढुं विरता के घरना पाश थकी विर क्त थचं, माहारो नार माहारी साथे नलो नथी, अथवा ए नार मने रुचतोनथी अथवा ए नारे,मने मूकी दीधीने, तेकारणे चरिस्सहं रुरकं के दुं संयम आचरीश, तेमाटे नयंतारो के अहो जय थकी राखनार धम्ममाइरकणे के तमे अमने धर्म कहो,॥२५॥ अऊ पवाएपके अथवा अन्य प्रवादे सावियाके ढुं तमारी श्राविका एवं Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४० हितीये सूत्रकृतांगे प्रथमश्रुतस्कंधे चतुर्थाध्ययनं. बल पार्सम तेणे करी ते स्त्री साधुने समीप आवे अहमंसिसाहम्मिणीय समयाणं के ढुंश्रमण माहात्मानी सामिणी, एवा प्रपंच करी साधुने धर्मथकी भ्रष्ट करे तेना उपर दृष्टांत कहेले. जहा के जेम जतुकुंने के लाखनो घडो ते नवजोइ के अग्नी समीपे गलीने पाणी रूप थाय, तेम विमुविके० पंमित होय तेपण संवासेके स्त्रीने संवासे संसर्गे करी सीएजाके सीदाय सीतल विहारी थाय तो अन्य जननें केवुज गुं? ॥२६॥ ॥ दीपिका-युवतिर्मायया श्रमणं ब्रूयाविचित्रवस्त्राणि परिधायालंकृतशरीरेत्यर्थः । थहं गृहपाशाक्षिरता मह्यं पति रोचते परित्यक्ताहं च तेन ततश्चरिष्यामि रूदं संयम। मे म महेनयत्रातर्धर्ममाख्याहि ॥ २५॥ धनेन प्रवावेन बलेन अथवा स्त्री साधुसमीपमागचे त् अहं श्राविका अहंश्रमणानां सर्मिणी एवं मायया समीपमागत्य कूलवालकमिव साधु धर्माचशयति । यउक्तं । तज्ज्ञानं तच विज्ञानं तत्तपः सच संयमः ॥ सर्वमेकपदे व्रष्टं सर्वथा किमपि स्त्रियः ॥ १ ॥ यथा जतुकुंनोज्योतिःसमीपे उपज्योतिर्वी विलीयते ए वं योषितां संवासे विज्ञानपि विषीदेत शीतलविहारी नवेत् ॥ २६ ॥ ॥ टीका-किंचान्यत् । ( जुवईत्यादि ) युवतिरनिनवयौवना स्त्री विचित्रवस्त्रालंकारवि नूषितशरीरा मायया श्रमणं ब्रूयात् । तद्यथा। विरताहं गृहपाशानममानुकूलोना मां चासो नरोचते परित्यक्ता चाहं तेनेत्यतश्चरिष्यामि धर्ममाचदाणेति । अस्माकं हेनयत्रात र्यथाहमेवं मुःखानां नाजनं ननवामि तथाधर्ममावेदयेति ॥ २५॥ किंचान्यत् । (श्र साविएइत्यादि) अथवाऽनेन प्रवादेन व्याजेन साध्वंतिकं योषिकुपसर्पत । यथाहं श्राविके ति कृत्वा युष्माकं श्रमणानां साधर्मिणीत्येवं प्रपंचेन नेदीयसी नूत्वा कूलवालुकमिव साधु धर्मावंशयति । एतयुक्तं नवति योषित्सान्निध्यं ब्रह्मचारिणां महतेऽनर्थाय । तथा चोक्तं । तज्ज्ञानं तच विज्ञानं, तत्तपः सच संयमः॥ सर्वमेकपदे व्रष्टं सर्वथाकिमपि स्त्रियः॥१॥ अस्मिन्नेवार्थे दृष्टांतमाह । यथा जातुषः कुंनोज्योतिषोग्नेः समीपे व्यवस्थितनपज्यो तिर्वर्ती विलीयते इवत्येवं योषितां संवासे सान्निध्ये विधानप्यास्तांतावदितरोयोपि विदि तवेद्योसावपि धर्मानुष्ठानं प्रति विषीदेत शीतलविहारी नवेदिति ॥ २६ ॥ जतुकुंने जो ग्वगढे, आस जितत्ते णासमवयाइ ॥ एविबियादि अ एणगारा, संवासेण पासमुवयंति ॥२०॥ कुवंति पावगं कम्म, पुजवेगे वमादिंसु ॥ नोदं करेमि पावंति, अंके साइणी ममेसत्ति ॥ २७ ॥ अर्थ-जतुकुंनेकेण्जेम लाखनो घडो जोइकेण्यग्नि उवगूढेकेण्यालिंग्यो बतो थासुके० Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राय धनपतसिंघ बाहारका जैनागम संग्रह नाग इसरा. 0 २४१ शीघ्रतिसेके० तेना तापेकरी पासमुवया तिके० विनाश पामे, एटले लाख बधी गली जाय. ए केडिया हिंस्त्रीने संवासेल के० संवासे करीने प्रागाराके ० साधु पण ते लाख नीपेरे पास मुवतिके० संयम थकी विनाश पामे ॥ २७ ॥ कुवंतिपावगंकम्मं के० कोइएक साधु अनाचारी मोहना उदय थकी भ्रष्ट थको मैथुनसेवादिरूप पापकर्म करे, तेने पुछा वे वमाहिं के कोई एक याचार्यादिके पुढयो थको एम कहे, जे नोहंकरे मिपावं ति के हुं एवं पाप कर्म नकरुं के साइली ममेसत्ति के० ए स्त्रीतो मारे दीकरी स मानवे, एजेवारे न्हानी हती तेवारे माहरे खोले सयन करती, ते धन्यासे हमला पण माहारा खोलामां बरोबे, सयन करेबे, परंतु हुं प्राणांते पण व्रतनंग करूँ नही. ॥ २८॥ || दीपिका- यथा जतुः कुंनोज्योतिपाऽग्निनोपगूढोव्याप्तथा अनितप्तोना शमुपयाति एवं स्त्रीभिः सार्धं संवसनेनाऽनगारानाशमुपयति संयमानइयंति ॥ २७ ॥ स्त्रीवासक्ताः पापं कर्म कुर्वेति चष्टाः संयमादेके याचार्यादिना चोद्यमानाएवमादुर्वदय माणमुक्तवंतः । नाहमेवंभूत कुलप्रसूतः पापमकार्य करिष्यामि ममैषा दुहितृतुल्या पूर्वमंके शायिनी यासीत् तदेषा पूर्वान्यासान्मयि एवमारचयति । नपुनरहं प्राणांतेपि व्रतनंगं विधास्य इति ॥ २८ ॥ ם ॥ टीका - एवं तावत्स्त्रीसान्निध्ये दोषान् प्रदर्श्य तत्संस्पर्शजं दोषं दर्शयितुमाह । (ज कुंनेत्यादि ) यथा जातुषः कुंनोज्योतिषाग्निनोपगूढः समालिंगितोनितप्तोमिना निमु ख्येन संतापितः क्षिप्रं नाशमुपैति वीनूय विनश्यत्येवं स्त्रीनिः सार्धं संवसनेन परिजो नागानामुपयांत सर्वथा जातुषकुंनवत् व्रतकाठिन्यं परित्यज्य संयमशरीरावश्यं ति ॥ २७ ॥ प्रपिच । (कुन्तीत्यादि) तासु संसारानिष्वंगिएणीष्व निसक्ता अवधीरितै हिकामुष्मि कापायाः पापं कर्म मैथुनासेवनादिकं कुर्वेति विदधति । परिभ्रष्टाः सदनुष्ठानादे के के चनोत्कट मोहाचार्यादिना चोद्यमानाएवमादु वेक्ष्यमाणमुक्तवंतः। तद्यथा । नाहमेवंभूत कुलप्रसूतः एतदकार्यं पापोपादाननूतं करिष्यामि ममैषा डुहितृकल्पा पूर्वमंकेश यिनी ध्यासीत् तदेषा पूर्वा यासेनैव मय्येवमाचरति नपुनरहं विदितसंसारस्वनावः प्राणात्ययेपि व्रतनंगं विधास्यइति. बालस्स मंदयं बीयं, जंच करूं वजाई भुज्जो ॥ डुगुणं करे इसे पावं, पूयणकामो विसन्नेसी ॥२॥ संलोक पिकमणगारं, आययं निमंतणेणाहं ॥ वढंच ताय पायंवा, अन्नं पाणगं परिग्गदे ॥ ३० ॥ पीवारमेवं बुझेका, पोइचे प्रगारमार्ग तुं ॥ बधे विसयपासहि, मोहमावइपुणो मंदित्तिबेमि ॥ ३२ ॥ इति च परिन्ना पढमो उद्देसो सम्मत्तो ॥ 32 For Private Personal Use Only Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४२ तीये सूत्रकृतांगे प्रथम श्रुतस्कंधे चतुर्थाध्ययनं. थर्थ-बालस्स के अज्ञानीनी एबीजी मंदयं के० मूर्खता जाणवी; केमके एकतो अकार्य करवा थकी चोथा व्रतनो नंग थायडे ने बीयं के बीजो जंचकडं के जे अनाचार कीधो तेने अवजाणई के उलववे करी मृषावाद बोले तेथकी बीजाव्रतनो नंग थाय, तेमाटे नुको के० वली वत्ती सेके० ते पुरुष उगुणंकरेईपावं के बमj पाप करे, ते सावास्ते करे, तेनुं कारण कहे. पूयणकामो पूजा सत्कारनो अनि लाषी असंयमनुं विसन्नेसि के० गवेषणहार थको मनमा एम जाणे जे माहारो लोकोमा अवर्णवाद थशे तेमाटे अनाचारने बीना राखे ॥ २७ ॥ संलोकणिऊमण गारं के० संलोकनीय एटले सुंदराकार एवा साधुने देखीने, धायगयं के यात्मगत जाणी कोइएक स्त्री निमंतणेण के निमंत्रणा पूर्वक आहंसु के एम कहे के ताय के अहो बकायना रहपाल वढंच के वस्त्र वली पायं के पात्र वा के० अथवा अन्नपाणगं के अन्न पाणी जे कांइ आपने खप होय ते पडिग्गहे के० अमारे घेर आवीने लेजो ॥ ३० ॥ जे उत्तम साधु होय ते ए पूर्वोक्त आमंत्रणने णीवारमेवं बुये के ब्रीहीना कण समान जाणीने पोश्लेषगारमागंतुं के एवा घेरने विषेजवू आव वांडे नही. जो कदापि कोइएक साधु तेवा घरे जाय तो ते बहेविस यपा सेहिं के विषयरूप पाशे करी बंधाणो बतो पुणो के० वली वली मोहमाव जाई के० मोहने आवर्ने पडे एटले मोहने वश थको चित्तनुं याकुल व्याकुलपणुं पा मे: मंद के ते मूर्ख स्नेहरूप पास रोडवाने असमर्थ होय माटे दुःखी थाय. तिबे मिनो अर्थ पूर्ववत जाणवो. ॥ ३१ ॥ इति चतुर्थाध्ययने प्रथमोद्देशकः समाप्तः दीपिका-बालस्याऽज्ञस्य वितीयं मंदत्वं । प्रथममइत्वमेकं तावदकार्यकरणेन तुर्यव्र तविलोपोक्तिीयं तदपलपनेन मृषावादः । तदेवाह । यत्कृतमकार्यमपजानीते अपलप ति सएवंनतोदिगुणं पापं करोति । किमर्थमपलपतीत्याह । पूजनकामुकः सत्कारा जिला षी मामे लोकेऽवर्णवादः स्यादित्यकार्य प्रहादयति । विषमोऽसंयमस्तमेषितुं शीलमस्य सविषमेष॥ ॥ २५ ॥ संलोकनीयं रूपवंतमनगारमात्मगतमात्मइं काश्चन स्वैरिण्यो निमंत्रणपूर्वमादुरुक्तवत्यः । तथाहि । देशयिन साधो वस्त्रं पात्रं चान्नापानादिकं वा य तव विलोक्यते तत्त्वस्मजहमागत्य प्रतिगृहाण लाहि ॥३०॥ वस्त्रादिदानं नीवारतुल्यं बु ध्येत जानीयात् । यथानीवारेण च वीहिणा मृगादिवशमानीयते एवंसाधुरप्यामंत्रणेन वशमानीयते अतस्तं नेदगारं गृहं गंतुं बक्षश्च विषयदामनिर्विषयपाशैर्मोहं चित्ताकु लत्वमापद्यते मंदोमूढइति । ब्रवीमीति पूर्ववत् ॥३१॥ इति चतुर्याध्ययने प्रथमोदेशकः ॥ ॥ टीका-किंच (बालस्येत्यादि) । बालस्याज्ञस्य रागोषाकुलितस्यापरमार्थदृशए Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राय धनपतसिंघ बाहाउरका जैनागम संग्रह नाग उसरा. २४३ तद्वितीयं मांद्यं । अझत्वमेकं तावदकार्यकरणेन चतुर्थव्रतनंगोवितीयं तदपलपनेन मृषावा दः। तदेव दर्शयति । यत्कृतमसदाचरणं नूयः पुनरपरेण चोद्यमानोऽपजानीतेऽपलपति नै तन्मयाकतमिति सएवंनूतोऽसदनुष्ठानेन तदपलपनेन च दिगुणं पापं करोति । किमर्थ मपलपतीत्याह । पूजनं सत्कारपुरस्कारस्तत्कामस्तदनिलाषी मामेलोके अवर्णवादः स्यादित्यकार्य प्रहादयति । विषमोऽसंयमस्तमेषितुं शीलमस्येति विषमेषी ॥ ए ॥ किं चान्यत् ( संलोकणिकमित्यादि ) संलोकनीयं संदर्शनीयमाकतिमंतं कंचनानगारं साधु मात्मनि गतमात्मगतमात्मज्ञमित्यर्थः। तदेवंनूतं काश्चन स्वैरिएयोनिमंत्रणेन निमंत्रणपु रःसरमाहुरुक्तवत्यः। तद्यथा। देश यिन् साधो वस्त्रं पात्रमन्या पानादिकं येन केनचिन्नवतः प्रयोजनं तदहं नवते सर्व ददामीति मशहमागत्य प्रतिगृहाण त्वमिति ॥ ३० ॥ उपसं हारार्थमाह ( णीवारमित्यादि ) एतद्योषितां वस्त्रादिकमामंत्रणं नीवारकल्पं बुध्येत जा नीयात् । यथाहि नीवारेण केनचिनक्ष्य विशेषेण सूकरादिवशमानीयते एवमसावपि तेना मंत्रणेन वशमानीयते अतस्तं ने दगारं गृहं गंतुं।यदि वा गृहमेवावर्तीगृहावग्रहं च मस्तं नेबेत् नानिलषेत् । किमिति । यतोबसोवशीकतोविषयाएव शब्दादयः पाशारकुबंध नानि तैः परवशीकृतः स्नेहपाशानपत्रोटयितुमसमर्थः सन्मोहं चित्तव्याकुलत्वमाग बति किंकर्तव्यमूढोनवति पौनःपुन्येन मंदोऽझोजडइति । इति परिसमाप्तौ । ब्रवीमीति पू र्ववत् ॥ ३१ ॥ इतिस्त्रीपरिज्ञायां प्रथमोदशकः समाप्तः॥ हवे चोथा अध्ययननो बीजो उद्देशो प्रारंनिये बैयें पहेला उद्देशामांस्त्रीना परिचय थकी चारित्रनो विनाश थायले एम कर्दा. हवे बीजा उद्देशामा जे साधु शील थकी पडे तेने जे विटंबना थाय ते कहेडे. नएसया गरजा, नोगकामी पुणोविरजानोगे समणाण सुणेद, जह मुंजति निरकुणो एगे॥॥ अद तं तु नेदंमावन्न, मुबितं निस्कूका ममतिवह ॥ पलिनिंदियाणं तो पना, पाचटुमुद्धि पदाणति॥२॥ थर्थ-(उएसयाके०)चारित्रि एकाकी राग देषरहित होय ते साधु स्त्रीने विषे सदा काल(गरजाके)नराचे, (जोगकामीपुणोके०) कदापि कर्मोदय थकीनोगानिलाषी था य: तो वली विरजाके विरचे केमके गृहस्थने पण जे जोगळे,ते विटंबनाप्रायजे, तेथी ते पण विरचे तो, साधुने जोगनी विटंबनानुं केवुजा तेकारण माटे (नोगेसमणाण सुणेहके०)साधुना नोग केवा विटंबना प्रायडे ते सांनलो(जहके०)जेम (मुजतिनिस्कुणो एगेके)धर्मना जाण एवा कोश्क साधु जोगवे ते पागल कहेले. ॥१॥(थहके)हवे(तं के)ते साधु(तुके०)विशेषेकरी स्त्रीना परिचय थकी(नेदंके०)शीलना विनाशने(बावन्नंके०) Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४४ वितीये सूत्रकृतांगे प्रथमश्रुतस्कंधे चतुर्थाध्ययनं. पाम्यो बतो(मुनितंके०)स्त्रीने विषे मूर्जित एवो(निस्कू के०)यति तथा (काममतिवटके) कामनोग नपरे मति अनिलाषy प्रवर्ताव जेमने एवा साधुने ते स्त्री एम कहेके(प लिनिंदियाशंके०) में माहारा कुलशीलनी मर्यादा अतिकमीने माहारो यात्मा तुजने दीधोडे इत्यादिक वचन कहीने ते यतिने पोताने वश करे (पन्नाके०) तेवारपनी को इएक प्रकारे ते स्त्रीने रीशाणी जाणीने ते बापडो ते स्त्रीने पगे पोतानुं मस्तक लगाडे तेवारे ते पुरुषने एवो वश थयो देखीने ते स्त्री (पाकुटुंदिके०) पोतानो पग उँचो उ पाडीने माबा पगे करी ते इव्यलिंगी यतिना मस्तकने विषे (पहणंतिके०) प्रहार करे तोपण जे काम नोगनेविषे गृ६ होय ते मूर्ख स्त्रीयकी विरचे नहि. ॥ २ ॥ ॥ दीपिका-यथ क्षितीयधारन्यते । तस्येदमादिसूत्रं ॥ (उएति ) उजएकोरागोषर हितः सदास्त्रीषु न रागं कुर्यात् यद्यपि कर्मोदयानोगानिलाषी नवेत्तथापि पुनस्तान्योविर ऊोत । कोर्थः। कर्मोदयात् प्रवृत्तमपि चित्तं झानांकुशेन निवर्तयेत्। तथाश्रमणानां नोगाइती यविमंबनैवेति शृणुत यूयं। यमुक्तं मुंडं शिरइत्यादि पूर्ववत् । तथातेरप्युक्तं ॥ कृशः काणः खंजः श्रवणरहितः पुन्छ विकलः कुधादामोजीर्णः पितरककपालार्दितगतः॥ व्रणैः पूयक्ति नैः कमिकुलशतैराविलतनुः शुनीमन्वेति श्वा हतमपि च हत्येव मदनइत्यादि । यथा अधर्माणोनिदवोप्येके लोगान मुंजते तथाग्रे वक्ष्यतीति ॥१॥ अथ तं साधु नेदं शील नेदं चारित्रस्खलनमापन्नं प्राप्तं स्त्रीमूर्जितं । तुर्विशेषणे । पुनः किंनूतं । कामेषु बामद नेषु मतिर्बुद्धिवर्तते यस्य स काममतिवर्तस्तमेवंविधं निहुँ परिनिद्य मया कुलशीलमर्या दामतिक्रम्य तवात्मा अर्पितस्वंतु अकिंचित्करइत्यादिवचनान्युच्चार्य याः पादंचरणमु वृत्य नर्वीकृत्य साधोमूर्ध्नि प्रति प्रहारं ददति एवं विडंबयंति ॥ २ ॥ ॥ टीका-नक्तःप्रथमोहशकः सांप्रतं वितीयः समारन्यते । यस्य चायमनिसंबंधः। शहा नंतरोदेशके स्त्रीसंस्तवाचारित्रस्खलनमुक्तं स्वलितशीलस्य या अवस्था इहैव प्राउनवति तत्कृतकर्मबंधश्च तदिह प्रतिपाद्यते इत्यनेन संबधेनायातस्योदेशकस्यादिसूत्रं (उएस याइत्यादि) अस्य चानंतरपरंपरसूत्रसंबंधोवक्तव्यः सचायं संबंधोविषयपाशैर्मोहमा गति यतोऽतजएकोरागषवियुतः स्त्रीषु रागं न कुर्यात् । परंपरसूत्रसंबधस्तु संलो कनीयमनगारं दृष्ट्वा च यदि काचिद्योषित् साधुमशनादिना नीवारकल्पेन प्रतारयेत्तत्रौजः सन्न रतेति । तत्रौजोडव्यतः परमाणु वतस्तु रागवेषवियुतः । स्त्रीषु रागादिहैव वक्ष्य माणनीत्या नानाविधाविझबनानवंति तत्कृतश्च कर्मबंधस्तकिपाकाचामुत्र नरकादौ तीव्रावेदनानवंति । यतोऽतएतन्मत्वा नावोजः सन् सदा सर्वकालं वाऽनर्थखनिषु स्त्रीषु न रजेत । तथा यद्यपि मोहोदयात् नोगानिलाषी नवेत्तथाप्यैहिकामुष्मिकापायान् Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राय धनपतसिंघ बाहारका जैनागम संग्रह नाग इसरा. २४५ परिगणय्य पुनस्तान्यो विरकेत । एतडुक्तं नवति । कर्मोदयात्प्रवृत्तमपि चित्तं देयोपादेयपर्या लोचनया ज्ञानांकुशेन निवर्तयेदिति । तथा श्राम्यंति तपसा खिद्यतीति श्रमणास्तेषामपि जोग इत्येतत यूयं । एतडुक्तं नवति । गृहस्थानामपि जोगा विडंबनाप्रायायतीनांतु जोगा इत्येतदेव विडंबनाप्रायं किंपुनस्तत्कृतावस्थाः । तथाचोक्तं । मुंरुं शिरइत्यादि पूर्ववत् । यथा यथा च नोगानेकेऽपृष्ठधर्माणोनि वोयतयो विडंबनाप्रायान् गुंजते तथोद्देश कसूत्रेणैव वक्ष्यमाणेनोत्तरत्र महता प्रबंधन दर्शयिष्यामि । श्रन्यैरप्युक्तं । कृशः का यः खंजः श्रवणरहितः पुचविकलः, कुधादामोजीर्णः पिठरककपालार्दितगलः ॥ व्रणैः पूय क्विन्नैः कृमिकुलशतैराविजतनुः गुनीमन्वेति श्वा हतमपि च दंत्येव मदनः इत्यादि ॥ १ ॥ जोगिनां विडंबनां दर्शयितुमाह । (यहेत्यादि) प्रथेत्यानंतर्यार्थः । तुशब्दो विशेष पार्थः स्त्रीसंस्तवादनंतरं निकुं साधु नेदं शीलनेदं चारित्रस्खननमापन्नं प्राप्तं संतं स्त्री मूर्जितं गृ-मध्युपपन्नं । तमेव विशिनष्टि । कामेष्विन्वामदनरूपेषु मतेर्बुदेर्मनसोवा व नं प्रवृत्तिर्यस्यासौ काममतिवर्तः कामानिलाषुक इत्यर्थः । तमेवंभूतं परिनिद्य मदच्यु पगतः श्वेतकुलप्रतिपन्नोम ६शकइत्येवं परिज्ञाय यदिवा परिनिद्य परिसार्यात्मसात्कृतं चोच्चार्येति । तद्यथा । मया तव लुंचितशिरसोजल्ल मलाविजतया दुर्गंधस्य जुगुप्सनीय कावो बस्तिस्थानस्य कुलशीलमर्यादालाधर्मादीन्परित्यज्यात्मादत्तस्त्वं पुनरकिंचि स्करइत्यादि नणित्वा प्रकुपितायास्तस्यासौ विषय मूर्तितस्तत्प्रत्यापनार्थ पादयोर्निप तितः । तथाचोक्त । व्यान्निकेसरबृहविरसश्च सिंहा, नागाश्च दानमदरा जिकरौः कपोलैः ॥ मेधाविनश्च पुरुषाः समरेच शूराः स्त्रीसन्निधौ परमका पुरुषानवंति ॥ १ ॥ ततो विषयेष्वे कांते न मूर्तितइति परिज्ञानात्पश्चात्पादं निजवामचरणमुद्धृत्योत्दिप्य मूर्ध्नि शिरसि प्रघ्नंति ताडयंत्येवं विमंबनां प्रापयंतीति ॥ २ ॥ जड़ के सिया मए निस्कु, गोविहरे सदा मिठीए के साएणविद जं चिस्सं नन्नच मए चरिक्कासि ॥ ३ ॥ प्रहणं सदोई नवलको, तो पेसंति तहानूपहिं ॥ लानचेदं पदेहिं, वग्गुफलाई च्यादरादित्ति ॥ ४ ॥ अर्थ- वली कोइक स्त्री एवी माया करे के (जइके ० ) जो तमे ( के सिया के ० ) केसवंती एवी करे (मएके ० ) माहारा सहित विहार करताथका शंका पामताहो तो ( निस्कू के ० ) हो साधु तमे (पो विहरे सह मिबीए के ० ) केशवाली स्त्रीनी साथे विहार करशो नहीं (के साविके ० ) केशने पण हुं (लुंचिस्सुंके ० ) लोच करीने दूर करीश. व्यपि शब्द थकी अन्य this तमे कशी ते सर्व दुं करीश पण ( नन्नडम एचरेकासि के० ) माहारा विना तमे अन्य स्थानके विचरशो नहीं एटली वीनती करुंकुं ते मान्य करो. डुं पण तमा For Private Personal Use Only Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४६ . वितीये सूत्रकृतांगे प्रथम श्रुतस्कंधे चतुर्थाध्ययनं. रा थादेशे प्रवर्तिश इत्यादिक वचने करी विश्वास उपजावीने ते स्त्री जे करे ते कहेले ॥३॥ (अह के ) अथ एटले हवे पं वाक्यालंकारे एवा वचने करी (साके० ) ते साधु (होईनवलको के० ) स्त्रीने वश थाय एम ते स्त्री पोताने वश थयो जापीने (तो के० ) तेवारपडी तेने (पेसंतितहानएहिं के०) तथा नूत एटले तेवाज अनेक कर्मकरना कार्य करवा मोकले एटले दासनी पेरे कार्य करवानी याज्ञा थापे ते कार्य कया ते देखाडे (अलाउन्लेदं के०) तुंबडुं बेदवाने अर्थे शस्त्रो (पेहाहि के०) जोइए ते लावो के जे शस्त्रे करी तुंबिपात्रादिक समारियें तथा (वग्गुफलाइंथाहराहित्ति के०) रुडा नालियरादिकना फल लश् यावो ॥४॥ ॥ दीपिका-केशाविद्यते यस्याः सा के शिका। पंवाक्यालंकारे। हेनिको यदि मया.स्त्रिया केशिकया सह त्वं नोविहरेः । यदि मया सह नोगान् चुंजानोव्रीडां वहसि तदा केशा नप्यहंचिष्याम्यपनेष्यामि । वास्तांतावनूषणादिकमित्यपेरर्थः । अस्योपलदणादन्यदपि पुष्करं विदेशगमनादि सर्वमहं करिष्यामि त्वं पुनर्मया रहितोनान्यत्र चरेः ॥३॥ वाक्यालंकारे । अथ ससाधुराकारेंगितैस्तया उपालब्धः स्ववशइति ज्ञातस्तदा तं तथा जूतैर्दासव्यापारैः प्रेषयति नियोजयति । तथाहि । अलाबु तुंब नियते येन तदलाबुलेदं पि प्पलकादिशस्त्रं प्रेदस्व निरूपय येन शस्त्रण पात्रादेर्मुखं क्रियते । तथा वल्गूनि शोननानि नालिकेरादीनि त्वं बाहर थानय । अथवा देशनादिरूपया यानि लन्यते तानि वाफ लानि वस्त्वाहारादीनि तान्यानय ॥४॥ ॥ टीका-अन्यञ्च (जइत्यादि) केशाविद्यतेयस्याः सा के शिका । णमितिवाक्यालं कारे। हेनिदो यादमया स्त्रिया नायया केशवत्या सह नोविहरेस्त्वं सकेशया स्त्रिया नो गान् चुंजानोत्रीडां यदि वहसि ततः केशानप्यस्त्वत्संगमाकांक्षिणी सुंचिष्याम्यपने ष्यामि । वास्तां तावदलंकारादिकमित्यपिशब्दार्थः। अस्य चोपलदाणार्थत्वादन्यदपि दुष्क रं विदेशगमनादिकं तत्सर्वमहं करिष्ये त्वं पुनर्न मया रहितोनान्यत्र चरेः। इदमुक्तं नवति मया रहितेन जवता दणमपि नस्थातव्यमेतावदेवाहं नवंतं प्रार्थयामि अहमपियनवा नादिशति तत्सर्व विधास्यति ॥ ३ ॥ इत्येवमतिपेशलैर्विधनजननैरापातनकै रालापैर्विश्रेनयित्वा यत्कुर्वति तदर्शयितुमाह । (अहणमित्यादि) अत्यानंतयां थः । णमिति वाक्यालंकारे । विश्रनालापानंतरं यदासौ साधुर्मदनुरक्तश्त्येवमुपलब्धोनव त्याकारैरिंगितैश्चेष्टया वा मशगश्त्येवं परिझातोनवति तानिः कपटनाटकना यिकानिः स्त्रीनिस्ततस्तदनिप्रायपरिज्ञानाउत्तरकालं तथानूतैः कर्मकरव्यापारैरपशब्दैः Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राय धनपतसिंघ बादाडुरका जैनागम संग्रह नाग इसरा. २४७ प्रेपर्यंत नियोजयंति । यदिवा तथाभूतैरिति जिंगस्थयोग्यैर्व्यापारैः प्रेषयंति तानेवदर्श पितुमाह । ( लावत्ति ) अलाबु तुंबं विद्यते येन तदलाबुच्छेदं पिप्पलकादि शस्त्रं ( पेहा हित्ति ) प्रेस्व निरूपय लजस्वेति येन पिप्पलकादिना लब्धेन पात्रादेर्मुर्खादि क्रियतइ ति । तथा वग्लूनि शोजनानि फलानि नारीकेरादीनि अलाबुका निवा त्वमाहरानयेति । यदिवा वाक्फलानिच धर्मकथारूपायाव्याकरणादिव्याख्यानरूपायावा वाचोयानि फ लानि वस्त्रादिलानरूपाणि तान्याहरेति ॥ ४ ॥ दारूणि साग पागाए, पज्जोन वा नविस्सती रान ॥ पाताणिय मे रया वेहि, एहि तामे पि मद्दे ॥५॥ वच्चापिय मे पडिले होदें, अन्नं पाच यादरादित्ति | गंधंच रहरणं च कासवर्ग मे समाजापादि ॥ ६ ॥ अर्थ - (दारुणिसाग पागाएके०) दारुण एटले काष्ठ शाकपत्र एटजे वहुलादिक रांध वाने खर्चे लावो (वा० ) अथवा (पजोन के ० ) प्रद्योत एटले घजवालुं (राजके ० ) रात्री नेविषे (न विस्तीके ० ) थाय ते वास्ते तैलादिक लावो. तथा (पाता लिय मेरया हिके ० ) माहारा पात्राने रंगी खापो के जेणे करी हुं सुखे निक्षा मांगी श्राहारादिक लावुं यथ वा माहारा पग रंगवाने अर्थे रंग लइ खावो तथा (एहितामे पिछमदेके ० ) यहीं घावो माहारा अंगःखे माटे माहारी पीठे मर्द्दन करो एम कहे ॥ ५ ॥ (वाणियमेप डिले हिं०) माहारा वस्त्र प्रतिलेखो एटले जून जुना थयावे, माटे बीजा नवा प्राणी थापो, तथा मलीन ययाले तेने धोवरावो तथा (अन्नंपाच बाहरा हि त्तिके ० ) अन्न पा णी खाणी यापो तथा (गंधंच के०) सुगंध कर्पूरादिक लइ खावो, अथवा ग्रंथ ते हिर स्यादिक लावो तथा (हरपंच के०) रजोहरण सारो खाली आपो तथा (कासवगंमेस मजाला हि०) लोच करावी शकुं तेम नथी तेमाटे मस्तक न‍ कराववा एटले वृ केश उताखाने नावीने तडी लावो एटला उपकरण वेषधारीना कह्या ॥ ६ ॥ || दीपिका - दारूणि काष्टानि शाकंच पाकायानय । रात्रौ रजन्यां प्रद्योतोनवि ष्यतीति रात्रावति वनादौ गत्वाऽ नय । तथा पात्राणि भाजनानि मे रंजय लेपय येनाहं सुखं निहां मार्गये । अथवा पादौ रंजय लक्तकादिना । एहि श्रागच्छ साधो तावन्मेम म पृष्ठ मर्दय विश्रमणां कुरु बाधते ममांगमिति ॥ ५ ॥ वस्त्राणि मे जीर्णानि वर्तते तस्तानि प्रत्युपेक्षस्व अन्यानि निरूपय अन्नपानादिकं चाहारमानय गंधं वासादिकं ग्रं वा हिरण्यादिकं शोननं रजोहरणंच । यहं लोचं कारयितुमसमर्था ततः काश्यपं ना पितं अनुजानीहि येनाहं शिरोमुंडयामि ॥ ६ ॥ For Private Personal Use Only Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४७ वितीये सूत्रकृतांगे प्रथम श्रुतस्कंधे चतुर्थाध्ययनं. टीका-अपिच ( दारूणीत्यादि ) यथा दारूणि काष्ठानि शाकं पक्कवस्तुलादिकं त्रप शाकं तत्पाकार्थ। क्वचिदन्नपाकायेति पाठस्तत्रान्नमोदकादिकमिति । रात्रौ रजन्यां प्रद्योतो वा नविष्यतीति कृत्वा अतोअटवीतस्तमाहरेति । तथा पात्राणि पतऋहादीनि रंजय लेपय येन सुखेनैव निदाटनमहं करोमि । यदिवा पादावलक्तकादिना रंजयेति । तथा प रित्यज्यापरं कर्म तावदेह्याग मे मम पृष्ठमुत्प्राबल्येन मर्दय बाधते ममांगमुपवि ष्टायाअतः संहारय पुनरपरं कार्यशेष करिष्यसीति ॥ ५ ॥ किंच ( वनाणियमेश्त्यादि) वस्त्राणिच अंबराणि मे मम जीर्णानि वर्ततेऽतः प्रत्युपेदस्वान्यानि निरूपय । य दिवा मलिनानि रजकस्य समर्पय मधिंवा मूषिकादिनयात्प्रत्युपेदस्वेति । तथा अन्नपा नादिकमाहरानयेति तथा गं, कोष्ठपुटादिकथिं वा हिरण्यं तथा शोननं रजोहरएं तथा लोचं कारयितुमहमशक्तेत्यतः काश्ययं नापितं महिरोमुंमनाय श्रमणानुजानीहि येनाहं वृहत्केशानपनयामीति ॥ ६ ॥ अऽ अंजणिं अलंकारं,कुक्कययंमे पयबादि ॥ लोचंच लोइकु सुमंच, वेणुपलासियंच गुलियंच ॥७॥कुई तगरंच अगलं, सं पिठं सम्म नसिरेणं। तेल्लं मुदनिंजाए, वेणुफलाइं सन्निधानाए॥॥ अर्थ-(अके०)अथवा हवे प्रकारांतरें गृहस्थना उपकरण कहीदेखाडे (अंजणिंके०) काजलनु नाजन लावो तथा (अलंकारंके०) घरेणानुं नाजन लावो तथा (कुक्कययंके) खुंखणो आणी आपो तथा(पयवाहिके)घुघुरा विणा (मेके०) मुजने लावीपापोजेम ढं सर्व बानरण पेहेरीने तमने विनोद नपजावू तथा (लोइंचलोचकुसुमंचके) लोड़ अने लोड्ना फल तथा (वेणुपलासियंचके०) वंशनी लाकडी आणी आपो जेने वाम हाथे ग्रहणकरी माबाहाथे वीणा वजाडिये तथा (गुलियंचके०) औषधगुटिका एटले औषधनी गोली लावी आपो जेणेकरी ढुं सदा यौवनानिराम थकी रढुं॥७॥ कुठंअगरं तगरंचके) कुष्ट ते पुटादिक तथा अगर अने तगर रूडावास सुगंध इव्य (संपिस म्मसिरेणंके) एसर्ववस्तु उसिरजे वालो ते सहित पीसेली एवी सुंगध लावो(तेनं मुहनिंजाएके०) तथा औषधादिके संस्कायु एवं तैल मुखना अन्यंगने अर्थे लश्या वो जे थकी माहारो मुख सतेज देखाय तथा (वेणुफलाइं सन्निधानाएके०) वासना कंमीया पेटी प्रमुख वस्त्रालंकारादिक राखवाने अर्थे लश् यावो. ॥ ७ ॥ ॥दीपिका-अथ अंजनिकां कङलाधारनूता नलिकां अलंकार केयूरादिकं च मे प्रयन्च देहि (कुक्कययं) खुखंणकं प्रयचयेनाहं वीणाविनोदेन त्वां रंजयामि लोधं लोधंकुसुमं सुगंधं तथा ( वेणुपलासियत्ति ) वंशात्मिका त्वक्काष्टिका सा दंतैर्वीणाव झाद्यते तथौषधगुटिका Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रायधनपतसिंघ बादाउरका जैनागम संग्रह नाग उसरा. इथए तादृशीं देहि येनाहम विनष्टयौवना नवामीति ॥ ७ ॥ कुष्ठमुत्पलं तगरमगरंच सुगंधि व्यमुशीरेण वीरणमूलेन संपिष्टं सुगंधि स्याद्यतस्तत्तथा कुरु । तैलं मुखमाश्रित्य (नि सिंजएत्ति) अन्यंगाय ढोकय मुखान्यंगार्थ तैलं तथा विधमानयेत्यर्थः । वेणुफलानि वंश कार्याणि करंमकादीनि सन्निधानं वस्त्रादेर्व्यवस्थापनं तदर्थमानय ॥ ७ ॥ ॥ टीका-किचान्यत । (अअंजणीमित्यादि) अथशब्दो ऽधिकारांतरप्रदर्शनार्थः । प्रर्व लिंगस्थोपकरणान्यधिकत्यानिहितमधुना गृहस्थोपकरणान्यधिकत्यानिधीयते । तद्यथा (अंजणीमिति ) अंजणिकां कालाधारनूतां नलिकां मम प्रयलस्वेत्युत्तरत्र क्रिया। तथा कटककेयूरादिकमलंकारं वा तथा ( कुक्कुटयंति ) खुंखुणकं मे मम प्रयन येनाहं सर्वालं कारविनूषिता वीणाविनोदेन नवंतं विनोदयामि । तथा लोधं च लोध्रकुसुमं च । तथा (वेणुफलासियंति) वंशात्मिका लक्ष्णत्वक् काठिका सा दंतैर्वामहस्तेन प्रगृह्य दक्षिणहस्ते नवीणावाद्यते । तथोषधगुटिकां तथानूसामानय येनाहम विनष्टयौवना नवामीति ॥७॥ तथा (कुहमित्यादि) कुष्ठमुत्पल कुष्ठं तथाऽगरुं तगरंच एते अपि गंधिकाव्ये । एतत्कुष्ठा दिकमुशीरेण वीरणीमून संपिष्टं सुगंधि जवति यतस्तत्तथा कुरु, तथा तैलं लोधकुंकुमा दिना संस्कृतं मुखमाश्रित्य (निलिंजएत्ति) अन्यंगाय ढोकयस्व । एतमुक्तं नवति ।मुखान्यं गार्थ तथाविधं संस्कृतं तैलमुपाहरेति येन कात्युपेतं मे मुखं जायते (वेणुफलाइंति) वेषु कार्याणि करंडकपेटिकादीनि सन्निधिः सन्निधानं वस्त्रादेर्व्यवस्थानं तदर्थमानयेति ॥ ७ ॥ नंदीचुमगाई पादरादि,उत्तोवाणदंच जाणादिं ॥ सबंच सूबवेजाए आणीलंच वबयं रयावेदि ॥५॥ सुफणिंच साग पागाए, आ मलगाइंदगाहरणंच ॥ तिलगकरणिमंजसलागं, प्रिंसु मेवि दणयं विजाणेहिं ॥२०॥ अर्थ-(नंदीचलगाहिं पाहराहिंके) व्यसंयोगे नीपजाव्यं एवं नंदीची ते उष्ठ रंगवा ने अर्थे कोक प्रकारे लावो (उत्त के०) आताप तथा वृष्टी राखवा नणी बत्र लावो तथा (उवाणहंचजाणाहिंके) नपानह जे मोजडी प्रमुख ते पग राखवाने अर्थ सम्यक प्रकारे लावो (सबंचसुवबेजाएके०) दात्रादिक शस्त्र नीताशाक पत्रादिक दवाने अर्थ लावो (आणीलंचवजयंरयावेहिके०) नीला वस्त्र रंगावी आपो लालवस्त्र रंगावी आपो एरीते वचन कहे ॥ ५ ॥ (सुफपिंचसागपागाए के)रुडी हांमली पत्रशाक अन्नादिक पकाववाने अर्थ लावो तथा (आमलगाईके) पित्तोपशमाववाने अर्थे अथवा स्नान करवाने अर्थे मला लावो ( दगाहरणंच के०) पाए। राखवाने अर्थे घडो घडूलो Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५० वितीये सूत्रकृतांगे प्रथम श्रुतस्कंधे चतुर्थाध्ययनं. इत्यादिक लावो (तिलगकरणं के०) जेणेकरी गोरोचननुं तिलक करिये तेवी शलि लावो तथा (अंजण के०) जेणेकरी आंख अांजीयें एवी (सलागं के) शिलाका लावो (घिसुमेविडूयणं विजाणे हिं के० ) उन्हालो जे ग्रीष्मकाल विशेष ते दिवशे वायु ढोलवाने अर्थे वीजणो लावो ॥ १० ॥ दीपिका-नंदीचूर्ण उष्ठम्रणचूर्ण प्राहार प्रकर्षणानय आतपस्य वृष्टेरिणाय बत्रमुपा नही च ममानुजानीहि।तथा शस्त्रं दात्रादिकं सूपलेदायपत्रशाकन्दनार्थ देहि तथा नीलं व स्त्रं रंजय । उपलक्षणाक्तादिकं च कारय॥ए।सुष्टु फम्यते क्वाथ्यते तक्रादिकं यत्र सा सुफ णि स्थाख्या दिनाजनं तत् शाकपाकार्थमानय। आमलकानि पित्तोपशमाय नहाणार्थ स्ना नार्थवा उदकाहरणं च जलाहरणपात्रं । उपलक्षणाघृतादिपात्रमानय । सर्व गृहोपस्क रमानय । तथाहि । तिलकं क्रियते यया सा तिलककरणी अंजनशलाका यया तिलकः क्रियते तामानय तथा ग्रीष्मे नमतापे मम विधूनकं व्यजनकं विजानीहि ॥ १० ॥ ॥टीका-किंच। (नंदीचुमगाईइत्यादि) नंदीचुलगाइति व्यसंयोगनिष्पादितोष्ठम्रहण चूर्णोनिधीयते। तमेवंजूतं चूर्ण प्रकर्षेण येन केनचित्प्रकर्षेणाहरानयेति तथाऽऽतपस्य वृष्टे वसंरक्षणाय बत्रं तथोपानहौ च ममानुजानीहि ।नमे शरीरमेनिर्विनावर्तते ततोददस्वेति। तथा शस्त्र दात्रादिकं सूपन्दनाय पत्रशाकलेदनार्थ ढोकयस्व । तथा वस्त्रमंबरं परिधानार्थ गुलिकादिना रंजय यथा नीलमीपन्नील सामस्त्येन वा नीतं नवत्युपलदणार्थत्वातं यथा नवतीति ॥ ए॥ तथा । (सुफणिंचेत्यादि ) सुष्ठु सुखेन वा फण्यते क्वाथ्यते तकादि कं यत्र तत्सुफणि स्थालीपिठरादिकं नाजनमनिधीयते तबाकपाकार्थमानय । तथा था मलकानि धात्रीफलानि स्नानार्थ पित्तोपशमनायान्यवहारार्थ वा तथौदकमाश्यिते ये न तउदकाहरणं कुटवर्धनिकादि । अस्य चोपलदणार्थत्वाद्धृततैलाद्याहरणं स वैवा गृहो स्करं ढौकस्वेति । तिलकः क्रियते यया सा तिलककर्णी दंतमयी सुवर्णात्मिका का श लाका यया गोरोचनादियुक्तया तिलकः क्रियतइति । यदिवा गोरोचनया तिलकः क्रियते साच तिलककर्णीत्युच्यते । तिलकाः क्रियते पिण्यंते वा यत्र सा तिलककर्णीत्युच्यते । तथांजनं सौवीरकादि । शलाका अणोरंजनार्थ शलाका अंजनशलाका तामाहरेति। तथा ग्रीष्मे नमानितापे सति मे मम विधूनकं व्यजनकं विजानीहि ॥१०॥ संमासगंच फणिहंच, सीहलि पासगंच आणादि ॥दसगंच पयजा दि, दंतपरकालणं पवेसाहि ॥११॥ पूयफलं तंबोलयं, सूई सुत्तगंच जाणादि॥ कोसंयमोचमेदाए, सुप्पुस्कलगंच खारगालणंच ॥१२॥ Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राय धनपतसिंघ बादाडुरका जैनागम संग्रह नाग इसरा. २५१ अर्थ - ( संमासकं के० ) चीपी जेणेकरी नाशिकाना नीमाजा सूचीए काढीए तेने संमाक कहिए वली (फणिहंच के०) कांसकी जेणेकरी माथाना वाल समारिए ते तथा (सीह लिपास गंचप्राणाहि के० ) वेणी बांधवाने खर्थे उननी कांकशी ए वस्तु खाली पो (दचके०) यादर्शकं खासमंतात् दृश्यते श्रात्मा यस्मिन् स यादर्शः जेणे करी मुख वर्णादिक रूप शरीर देखाय तेने खारीशो कहिए ते (पयवाहिके०) खाणी पो (दंतपरकाल पवेसाहिके ० ) दंतप्रचालन करवाने अर्थे दांत माहारा समीपे ला वो ॥ ११ ॥ (पूयफलंके०) पुंगफलते सोपारी (तंबोज के ०) नागरवेलीना पानना बीड़ा प्रमुख तथा ( सूईसुत्तगंचजाला हिके० ) सूत्र शीववाने अर्थ सूई ए वस्तु लाइ श्रावो (कोसं ० ) घटादिक नाजन (मोचमे हाए के ० ) मोचप्रस्रवणंतेन मेहसेचन एटले लघुनीति करवा निमित्त रात्रीने समये मने बाहेर निकलता बीक लागेने तेमाटे ते नाजन खाणी पो (सुप्पुके०) तंडुलादिक धान सोधवाने अर्थे सुपडुं लावो (रकनगंच के ० ) धान खांम वाने अर्थे खलो लइ श्रावो वली (खारगाल पंचके ० ) जेमां नाखीने साजी प्रमुख खार गालीयें ते पात्र जावो अथवा लवणादिक खार लावो ॥ १२ ॥ || दीपिका - संडा सिकं नासिकाकेशोत्पाटनं फणिहं केशसमारचनाय कंकतकं सीह लिया सकं वीणा संयमनार्थमूर्णामयं कंकणं चानय श्रादर्शकं दर्पण प्रयन दंतप्रदालनं दंतकाष्ठं मदंति के प्रवेशय ॥ ११ ॥ पूगफलं तांबूलं सूचीसूत्रं च जानीहि देहि । कोशं घटादिनाज नं मोचमेहायानय । मोचः प्रस्रवणं तेनमेहः सेचनं तदर्थ नाजनमानय । तथा शूर्प तंडुला दिशोधनं नदूखलं कारस्य सर्जिकादेर्गलनकं चानयेति ॥ १२ ॥ 1 ॥ टीका - एवं ( संमासगंचेत्यादि ) संडासिकं नासिका केशोत्पाटनं फणिहं केशसं मानार्थ कंकतकं तथा (सीदनिपासगंति) वीणासंयमनार्थमूलमये कंकणं चानय ढौं कयेति । एवमा समंतादृश्यते श्रात्मा यस्मिन् सप्रादर्शः सएवञ्चादर्शकस्तं प्रयच ददस्वे ति । तथा दताः प्रात्यंते अपगतमलाः क्रियते येन ततप्रदालनं दंतकाष्ठं तन्मदंतिके प्रवेश ॥ ११ ॥ (पूयफलं चेत्यादि ) पूगफलं प्रतीतं तांबूलं नागवल्लीदलं तथा सू चीं च सूत्रं च सूच्यर्थं वा सूत्रं जानीहि ददस्वेति तथा कोशमिति वारका दिनाजनं तन्मो चहा समादर । तत्र मोचः प्रस्रवणं कायिकेत्यर्थः । तेन मेहः सेचनं तदर्थं नाजनं ढौ । एतडुक्तं नवति । बहिर्गमनं कर्तुमहमसमर्था रात्रौ यादतो मम यथारात्रौ ब हिर्गमनं न भवति तथा कुरु । एतच्चान्यस्याप्यधमतमकर्तव्यस्योपलक्षणं इष्टव्यं । त या शूर्प तंडुलादिशोधनं तथोदूखलं तथा किंचन छारस्य सर्जिकादेगलनकमित्येवमा दिकमुपकरणं सर्वमप्यानयेति ॥ १२ ॥ For Private Personal Use Only Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५२ द्वितीये सूत्रकृतांगे प्रथम श्रुतस्कंधे चतुर्थाध्ययनं. चंदालगंच करगंच, वच्चघरंच यानुसो खणाई || सरपायं च जायाए, गोरहगंच सामणे राए ॥ १३ ॥ घडिगंच समिम्मियंच, चेलगोलं कु मारनूया ॥ वासं समनियावां, आवसच जाण नतंच ॥ १४ ॥ अर्थ - (चंदाज़गंच के० ) देवपूजाने खर्थे चंगेरी प्रमुख नाजन तथा ( करगंच के ० ) and मदिरानुं नाजन ते खाणी यापो तथा ( वच्चघरंच ग्राउसोखला हिके०) यहो या युष्मन् संचारुखण एटले पुरिष विष्टा घरमां नपडे माटे घरने नलीया संचारो तथा कू इखावो वली (सरपायंच जायाए के०) शरपात एटले धनुष्य बाण पुत्र रमाडवाने य as यावो ( गोरहर्गचसामोराए के०) गोरहगं एटले त्रण वर्षनो बलदीव श्रमणना पुत्र रमत करवासारुं लइ प्रावो ॥ १३ ॥ (घडिगंच समिमियंचके ० ) घडिगं एटले कुल्हाडी सामिम एटजे वाजिंत्र विशेष तेसहित तथा (चेलगोलंके ० ) गोलदड़ी (कुमारनूया ho) कुमरक्रीडार्थे लइ यावो जे दडीयें करी माहारा बालक रमत करे ( वाससम नियावन्नं के०) तथा श्रमण वर्षाकाल धाव्यो ते कारणे (श्रावसहंच के ० ) वर्षाकालमां निवास करवा योग्य घर करावी यापो के जे थकी निजीयें नहीं तथा (जालननंचके ० ) वर्षाकाल योग्य एटले वर्षाकालमां बेठा खाइये माटे तांडलादिक लइ श्रावोः ॥ १४ ॥ 1 || दीपिका - चंदालकं देवतार्चनाद्यर्थं ताम्रमयं भाजनं एतच्च मथुरायां चंदालगमित्यु च्यते । करकोजलाधारोमद्यनाजनं वा खानय । तथा वर्चोगृहं पुरीषोत्सर्गस्थानं वायु ष्मन् खन संस्कुरु । शरपातं बाल देपस्थानं धनुस्तकाताय मत्पुत्राय राय ढौकय । गोर हगं त्रिवर्ष बलीवर्दे वाऽनय श्रमणस्यापत्यं श्रामणिस्तस्मै श्रामणये गंत्र्यादिकते नविष्यतीति ॥ १३ ॥ घटिकां मृन्मय कुल्लडिकां समिंडिकां पटहादिवादित्रेण सह गोलं कंडकं कुमारनूताय कुलकरूपाय मत्पुत्राय क्रीडार्थ देहि । हे श्रमण वर्षे प्रावृट्कालोयम न्यापन्नः समापन्नः । प्राप्तस्ततश्चावसथं गृहं वर्षाकालयोग्यं नक्तं च तंडुलादिकं च जानी हि निष्पादय । येन सुखेन वर्षाकालोतिवाह्यते । यटुक्कं । मासैरष्टनिरह्ना च पूर्वेण व यसाऽयुषा ॥ तत्कर्तव्यं मनुष्येण यस्यांते सुखमेधते ॥ १४ ॥ ॥टीका - किंचान्यत् । (चंदालगंचेत्यादि) चंदालक मिति देवतार्च निकाद्यर्थ ताम्रमयं जाजनं । एतच्च मथुरायां चंदालकत्वेन प्रतीतमिति । तथा करकोजलाधारोमदिरानाजनं वा तदान येति क्रिया । तथा वर्चो गृहं पुरीषोत्सर्गस्थानं तदा ऽयुष्मन् मदर्थं खन संस्कुरु । तथा शराइ पवः पात्यंते द्विप्यंते येन तबरपातं धनुस्तकाताय मरपुत्राय कृते ढौकय । तथा ( गोर For Private Personal Use Only Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राय धनपतसिंघ बाहारका जैनागम संग्रह नाग दुसरा. २५३ हगंति ) त्र्यहायणं बलीवर्द च ढौकयेति (सामोराएत्ति) श्रमणस्यापत्यं श्रामणिस्तस्मै श्राम लिपुत्राय त्वत्पुत्राय मंत्र्यादिकृते भविष्यतीति ॥ १३ ॥ तथा (घटिगंचेत्यादि ) घटिकां मृ न्मय कुडिकां डिंडिमेन पटहकादिवादित्रविशेषेण सह तथा ( चेलगोलंति ) वस्त्रात्म कं कंडकं कुमारनूताय कुल्ल कनूताय राजकुमाररूपाय वा मत्पुत्राय क्रीडनार्थमुपानयेति । तथा वर्षमिति प्रावृट्कालोयमच्या पन्नोनिमुखं समापन्नोऽतयावसथं गृहं प्रावृट्काल निवासयोग्यं तथा नक्तंच तंडुलादिकं तत्कालयोग्यं जानीहि निरूपय निष्पादय । येन सु खेनैवाऽनागत परिकल्पितावसथादिना प्रावृट्कालोतिवाह्यतेइति । तडुक्तं । मासैरष्टनि रह्ना च, पूर्वेण वयसाऽऽयुषा ॥ तत्कर्तव्यं मनुष्येण, यस्यांते सुखमेधते ॥ १४ ॥ आसंदियंच नवसुत्तं, पाठलाई संकमधाए ॥ डु पुत्तदोहलाए, प्राणप्पा दवंति दासावा ॥ १८ ॥ जाए फले समुप्पन्ने, गेएहसुवाणं दवा जहादि ॥ अहं पुत्तपोसियो एगे, नारवदा दवंति महावा ॥१६ ॥ अर्थ - (आसंदियंचके०) बेशवानिमित्ते मांची प्राणी यापो पण ते केवी लावो के जे ( नवसुत्के०) नवासूत्रे वली होय अथवा चर्म थकी वली होय तेवी लइ खावो (पान लाई संकमा के०) वरसादमां चालतां पगे कादव नलागे तेना अर्थे काष्टनी पावडी माहारा सारुं प्राणी यापो (खडके ० ) अथवा (पुत्तदो हल हा एके ० ) गर्न स्यें पुत्रना मोहोला संपादवाने खर्थे वस्तुनावो एम (प्राणप्पा हवं तिदासावा के ० ) याज्ञा पेजवंतिदासाइव एटले स्त्री जेबे ते पुरुषने पोतानी याज्ञामां प्रवत्तवेि स्नेह पाशे बंधाणा एवा विषयार्थी पुरुष स्त्रीना दास थाय ॥ १५॥ ( जाएफजे समुप्पन्ने के ० ) हवे जात एटले गृहवासने विषे पुत्ररूप फूल उत्पन्न यया बता जे विटंबना थाय ते कहेबे, (गे एह सुवाणं यहवाज हा हिके ० ) कोक स्त्री हा कार्ये व्याकुल थई थकी पुरुष प्रत्ये कहे के ए बालक तमे संजालो थवा एनो त्याग करो (हंके ० ) हुं एनी वेठ करी शकती नथी में नवमाश युधी उदरे धो ने तमे मात्र पण पुत्रने खोलामां देता नथी; एम कोधना वचन बोले तेवारे (एके०) को एक पुरुष आक्रोशतांये (पुत्तपोसिलोके०) स्त्रीनो वशवार्त्ते थको पुत्रनो पो कथा ( नारवहा वंति नट्टावाके०) जेम उंटनो नारवाहक जेटलो नार नंट उपर नाखे तेटलो नार खारडतो थकोपाडे तेम ते पुरुष पण स्त्रीनीपाशेनं तुल्य' जाएगवा ॥ १६ ॥ दीपिका-यासंदिकां मंचिकां । किंनूतां । नवं सूत्रं वल्कलादि यस्यां सा नवसूत्रा तां (पा लाई ) मैं कान काष्ठपाडुकावा संक्रमणार्थ पर्यटनार्थ अथवा पुत्रे मर्नस्थिते दोह दोस्तदर्थ स्त्रीणां पुरुषाप्राज्ञापनीयाः स्युः । यथा दासायाज्ञाप्यंते जनैस्तथा स्त्री For Private Personal Use Only Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५४ . तिीये सूत्रकृतांगे प्रथम श्रुतस्कंधे चतुर्थाध्ययनं. निः पुरुषाः कर्मकराश्वादिश्यते ॥१५॥ जातः पुत्रः सएव फलं गृहस्थानां तस्मिन् पुत्रे समुत्पन्ने तउद्देशेन याविझबनास्तायाह । अमुं दारकं गृहाण त्वं रमे अहंतु व्यापा रवती अथवा एनं जहाहि परित्यज नाहमस्य वार्तामपि पहामि । कुपिता पुनः साबू ते मयायं नवमासानुदरेणोढस्त्वंतु उत्संगेपि नधत्सि एवमुक्तोनरस्तमुक्तं सर्व कुरुते । यतः । ददाति प्रार्थितः प्राणान्, मातरं हंति तत्कते ॥ किं न दद्याकिं न कुर्यात्स्त्रीनिर न्यर्थितोनरः ॥१॥ ददाति शौचपानीयं पादौ प्रक्षालयत्यपि ॥ श्लेष्माणमपि गृहाति स्त्रीणां वशगतोनरः ॥ २ ॥ अथ पुत्रपोषिणस्ते नराएके नारवहाः स्युः । यथातु न ष्टानारं वहंति तत्तुल्याः ॥ १६ ॥ ॥ टीका-एवंच (पाननाति) मौजे काष्ठपाके वा संक्रमणार्थ पर्यटनार्थ निरूपय यतोनाहं निरावरणपादा नूमौपदमपि दातुं समर्थेति । अथवा पुत्रे गर्नस्थे दौहृदः पुत्र दौहृदः अंतर्वत्नीफलादावनिलाषविशेषस्तस्मै तत्संपादनार्थ स्त्रीणां पुरुषाः स्ववशीकता दासाश्व क्रयकीताश्वाझाप्याबाज्ञापनीयानवंति । यथा दासायलहितोग्यत्वादाझा प्यंते एवं तेपि वराकाः स्नेहपाशावपाशिताविषयार्थिनः स्त्रीनिः संसारावतरणवीथीनि रादिश्यंतइति ॥ १५ ॥ अन्यच्च । ( जाएफलेइत्यादि ) जातः पुत्रः सएव फलं गृहस्था नां । तथाहि । पुरुषाणां कामनोगः फलं । तेषामपि फलं प्रधानकार्य पुत्रजन्मेति । तऽ क्तं । इदं तत्स्नेहसर्वस्वं, सममाढ्यदरियोः ॥ अचंदनमनौशीरं, हृदयस्यानुलेपनं ॥१॥ यत्नजपनिकेत्युक्तं, बालेनाव्यक्तनाषिणा ॥ हित्वा सौख्यं च योगं च तन्मे मनसि वर्तते ॥ २ ॥ यथा लोके पुत्रसुखं नाम दितीयं सुखमात्मनश्त्यादि । तदेवं पुत्रः पुरुषाणां परमायुदयकारणं तस्मिन् समुत्पन्ने जाते तद्देशेन या विडंबनाः पुरुषाणां नवंति।थ मुं दारकं गृहाण त्वमहंतु कर्मासक्ता न मे ग्रहणावसरोस्ति । अथचैनं जहाहि परित्यज ना हमस्य वार्तामपि नाम्येवं कुपितासती ब्रूते मयायं नवमासानुदरेपोढस्त्वं पुनरुत्संगे नाप्युदहन स्तोकमपिकालमुहिजसति । दासदृष्टांतस्त्वादेशदानेनैव साम्यं जजते नादेश निष्पादनेनैव । तथाहि । दासोनयादन्नादेशं विधत्ते सतु स्त्रीवशगोऽनुग्रहं मन्यमानोमु दितश्च तथादेशं विधत्ते । यदेव रोचते मां, तदेव कुरुते प्रिया । इतिवेत्ति न जानाति त प्रियं यत्करोत्यसौ ॥ १ ॥ ददाति प्रार्थितः प्राणान् मातरं हंति तत्कृते ॥ किं नदद्या किं न कुर्यात्स्त्रीनिरन्यर्थितो नरः ॥ २ ॥ ददाति शौचपानीयं, पादौ प्रहालयत्यपि ॥ श्लेष्माणमपि गृहाति स्त्रीणां वशगतो नरः ॥३॥ तदेवं पुत्रनिमित्तमन्या यत्किचिन्नि मित्तमुद्दिश्य दासमिवादिशंति। अथ तेपि पुत्रान् पोषितुं शीतं येषांते पुत्रपोषिणउपलद Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रायधनपतसिंघ बदाउरका जैनागम संग्रह नाग उसरा. २५५ ‘णार्थत्वाधास्य सर्वादेशकारिणएके केचन मोहोदये वर्तमानाः स्त्रीणां निदेशवर्तिनोऽपह स्तितैहाकामुष्मिकापायानष्ट्राइव परवशानारवाहानवंतीति ॥ १६ ॥ रानवि नव्या संता, दारगंच संवंतिधाईवा ॥ सुहिरामणा विते संता वबधोवा हवंति हंसावा ॥१७॥ एवं बदुहिं कए पुवं, नोगबाए जेनि यावन्ना ॥ दासे मिश्व पेसेवा ॥ पसुनतेव से ण वा केश॥१७॥ अर्थ-(राजवि नहियासंता के०) रात्रने विषे पण निामांथी नठीने बालक रडतो होय तेने राखे बालकने रमाडे कोनीपेरे तो के ( दारगंचसंवंतिधाश्वाके ० ) रुदंत दारकं धात्रीवत् संथापयंति एटले धात्रीनी पेरे राखे जेम धात्री बालकने रुडीरीते पाले तेम ते पुरुष पण बालकने पाले (सुहिरामणावितेसंताके) कदापि ते पुरुष सुहिराम एटले घणो लजावंत होय तोपण स्त्रीने वचने निर्जङ थाय (वजधोवा हवंति हंसावा के.) हंस एटले धोबीनी पेरे स्त्रीना तथा बालकना वस्त्र धोवे तथा बीजापण जेकांश कार्य कहे ते सर्व दासनी पेरे करे ॥१७॥ (एवंके०) ए पूर्वोक्त प्रकारे स्त्रीनुं किंकरपणुं (पुवंके०) पूर्वे अतीत कालने विषे (बहु हिंके)घणा पुरुषोए (कएके) कयं बने वर्तमा न काले पण स्त्रीनुं दासत्वपणुं घणा पुरुषो करे तथा आगमिक काले पण करशे (नोगबाएजेनियावन्ना के०) जोगने अर्थ जे अनिमुख एटले संमुख थया तेना ए ह वाल थाय एवा रागांध पुरुषजे स्त्रीने वश वर्ने थयाते (दासेके०)दास समान तथा (मि श्व के०) पाशमां पडेला मृग समान तथा (पेसेवाके)वेचातो लीधेलो चाकर ते समान तथा ( पसुनतेवसेणवाकेश के०) तिर्यंच समान पण न कहेवाय किंबहुना ते कोस रीखान कहेवाय एवो कोइ पदार्थ नथी के जेनी उपमा एवा अधमने थापीने तेनी तुल्यना करी बतावीए. ते पुरुष सक्रिया थकीरहित माटे साधुपण नही बने तांबुलादिक परिजोग थकी रहित माटे गृहस्थ पण न कहेवाय माटे ननय चष्ट जाणवा.॥ १७ ॥ ॥ दीपिका-रात्रावप्येके नराठवाय धात्रीवत्तं रुदंतं दारकं बालं संस्थापयति ।सुष्ट्रन्ही लजा तस्यां मनो येषांते सुन्हीमनसोलजावंतोपि संतोलजां त्यक्ता स्त्रीवशगाहीनक माण्यपि कुर्वति । तान्येवाह । वस्त्रधावकावस्त्रप्रहालकाः स्युः । यथा हंसारजकाश्व । यस्योपलदाणादन्यदपि जलवहनादि कुर्वति ॥ १७॥ एवं पूर्वोक्तं बदुनिनरैःपूर्वकतं कृतपूर्व नोगतये नराअन्यापनाव्यवस्थिताः सावद्यकार्येषु सक्ताः। तथा योरागांधः सदासश्व मृगश्च मूल्हीनकर्मण्यपि प्रेष्यते योज्यते पगुनूतःस न कश्चित् । न दीदितः सक्रिया रहितत्वात् । नापिगृहस्थः तांबूला दिनोगरहितत्वात् अतोऽसौ नकश्चित् ॥१॥ Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५६ वितीये सूत्रकृतांगे प्रथम श्रुतस्कंधे चतुर्थाध्ययनं. ॥ टीका-किंचान्यत् (राउविश्त्यादि) रात्रावप्युबिताः संतोरुदंतं दारकं धात्रीवत् सं स्थापयंत्यनेकप्रकारैरुनापैः । तद्यथा । सामिनसणीगरस्स यणकतरस्सय हबकप्प गिरि पट्टणसीहपुरस्स चनायस्स जिन्नस्सय कुबिपुरस्सयकस्मकुऊयायामुहसोरियपुरस्स य इत्येवमादिनिरसंबईः क्रीडनकलापैः स्त्रीचित्तानुवर्तिनः पुरुषास्तत् कुवै ति येनोपहा स्यतां सर्वस्य ब्रजति । सुष्टुन्हीका तस्यां मनतः करणं येषांते सुन्हीमनसोलहालवो पिते संतोविहाय लड़ां स्त्रीवचनात्सर्वजघन्यान्यपि कर्माणि कुर्वते । तान्येव सूत्रावयवेन दर्शयति । वस्त्रधावकावस्त्रप्रहालकाहंसाश्व रजकाश्व नवंति । अस्य चोपलक्षणार्थत्वाद न्यदप्युदकवहनादिकं कुर्वति ॥ १७ ॥ किमेतत्केचन कुर्वतीति येनैवमनिधीयते बाढं कु र्वतीत्याह । (एवं बदुश्त्यादि) एवमिति पूर्वोक्तं स्त्रीणामादेशकारणं पुत्रपोषणवस्त्रधा वनादिकं तबदुनिः संसारानिष्वंगिनिः पूर्व कृतं कृतपूर्व । तथापरे कुर्व ति करिष्यति च ये नोगकते कामनोगार्थमैहिकामुष्मिकापायमपर्या लोच्यानिमुख्येन नोगानुकूल्येनापन्नाव्य वस्थिताः सावद्यानुष्ठानेषु प्रतिपन्नाइति यावत् । तथा योरागांधः स्त्रीवशीकतः सदासवदशं कितानिस्तानिःप्रत्यपरेपि कर्मणिनियोज्यते । तथा वागुरापतितः परवशोमृगश्व धार्यते ना त्मवशोनोजनादि क्रियापि कर्तु लनते । तथा प्रेष्यश्व कर्मकरश्व कीतश्व वर्चः शोधनादा वपि नियोज्यते। तथा कर्तव्याकर्तव्यविवेकरहिततया हिताहितप्राप्तिपरिहारशून्यत्वात् पशु नूतश्व । यथाहि पशुराहारनयमैथुनपरिग्रहानिझएवं केवलमसावपि सदनुष्ठानरहितत्वा त्पगुकल्पः। यदिवा स स्त्रीवशगोदासमृगप्रेष्यपशुन्योप्यधमत्वान्न कश्चित् । एतमुक्तं नवति सर्वाधमत्वात्तस्य तत्तुल्यं नास्त्येव येनासावुपमीयते । अथवा न सकश्चिदित्युनयन्रष्टत्वा त् । तथाहि न तावत्प्रव्रजितोसौ सदनुष्ठानरहितत्वान्नापिगृहस्थस्तांबूलादिपरिनोगरहि तत्वानोचिकामात्रधारित्वाच्च।यदिवा ऐहिकामुष्मिकानुष्ठायिनां मध्ये न कश्चिदिति ॥१॥ एवं खु तासु विन्नप्पं, संथवं संवासंच वडा॥ तजातिमा इमे कामावजकराय एवमस्काए॥२॥ एवं नयं पसेयाय, इ से अप्पगं निरं नित्ता॥णोति गोपसू, निकुणो सयं पाणिणा णिलजेजा ॥२०॥ अर्थ-हवे उपदेश कहेले (एवंखुत्तासुविन्नप्पंके) एम जे पूर्वोक्त स्त्रीनो विनव्यो मायानुं कारण जाणीने (संथवंके०) तथा तेनुं संस्तव (संवासंचके०) तेनुं संवास एटले नेनुं व शकुं तेने उत्तमपुरुष (वडोज़ाके) वर्जे त्याग करे (तजातिप्राइमेकामा के) त जाति एटले ते स्त्रीना संग थकी छे नत्पत्ति जेनी एवा ए प्रत्यद कामनोग ते (वड़ करायएवमरकाए के ) अवद्यकराएवमाख्यातं एटले पापकर्म कारी उर्गतिना दातार Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राय धनपतसिंघ बादाउरका जैनागम संग्रह नाग उसरा. २५७ ले एम श्रीतीर्थकर गणधरे कह्यं ॥ १५ ॥ ( एवंनयं के ) एम स्त्रीना संवास थकी घणा नयना कारण उत्पन्न थायजे माटे (सेयायसेके०) ते श्रेयकारी कल्याणकारी न थी (श के०) ए हेतु जाणीने ( अप्पगं के० ) पोताना आत्माने (निलंनित्ताके) स्त्रीना संग थकी निरंधीने एटले निवारीने संमार्गने विषे स्थापन करीने (निस्कूके०) चारित्रि जे होय ते (गोलियोपन के) स्त्रीधने पशु एटले तिर्यचनो सहवास करे नही (गोसयंपाणिपाणिलिजेजाके०) तथा पोताना हाथथीस्पर्श मात्रपणनकरे॥२०॥ ॥ दीपिका-खुर्वाक्यालंकारे । एतत्पूर्वोक्तं तासु स्त्रीषु विषये यविज्ञप्तमुक्तं तत्तथा स्त्री निःसाध संस्तवं परिचयं वासंच एकत्र निवासंच त्यजेत् । यतः। तान्यः स्त्रीच्योजातिरु त्पत्तिर्येषांते तजातिकाश्मे कामाः। पुनः किंन्ताः ।यवद्यं पापं तस्य कारकास्तएवमाख्या तास्तीर्थकनिः॥१॥ एवं पूर्वोक्तप्रकारेण नयहेतुत्वान्नयं स्त्रीसंबंधरूपं नश्रेयसे इति हे तोः सनिकुरात्मानं निरुध्य न स्त्रियं नापि पगुंलीयेत संश्रयेत स्त्रीपशुन्यां संवासं त्यजे त्। तथा स्वहस्तेनवा अंगस्य (नणिनिकोजति) जातेन संबंधं न कुर्यात् । यतो हस्तकर्म गापि चारित्रं शबलीनवति ॥ २० ॥ ॥ टीका-सांप्रतमुपसंहार वारेण स्त्रीसंगपरिहारमाह । ( एवंखुइत्यादि) एतत्पूर्वेक्तं । खुशब्दोवाक्यालंकारे। तासु यत् स्थित तासां वा स्त्रीणां संबंधि यविज्ञप्तमुक्तं । तद्यथा।यदि सकेशया मया सह न रमसे ततोहं केशानप्यपनयामीत्येवमादिकं तथा स्त्रीनिः सार्ध सं स्तवं परिचयं तत्संवासं च स्त्रीनिः सहैकत्र निवासं चात्महितमनुवर्तमानः सर्वापायनीरु स्त्यजेजह्यात् । यतस्तान्योजातिरुत्पत्तिर्येषां ते कामास्तजातिकारमणीसंपर्कोबास्तथा ऽवयं पापं वज्त्रं वा गुरुत्वादधः पातकत्वेन पापमेव तत्करणशीलाऽवद्यकरावजकरावेत्येव माख्यातास्तीर्थकरगणधरादिनिः प्रतिपादिताइति ॥ १५॥ सर्वोपसंहारार्थमाह । (एवं नयमित्यादि ) एवमनंतरनीत्या नयहेतुत्वात् स्त्रीनिर्विज्ञप्तं तथा संस्तवस्तत्संवासश्च न यमित्यतः स्त्रीनिः साध संपर्कोन श्रेयसे सदनुष्ठानहेतुत्वात्तस्येत्येवं परिज्ञाय सनिरव गतकामनोगविपाकआत्मानं स्त्रोसंपर्कानिरंध्य सन्मार्गेप्यवस्थाप्य यत्कुर्यात्तदर्शयति । नस्त्रियं नरकवीथीप्रायां नापि पगुं लीयेताश्रयेत स्त्रीपशुन्यां सह संवासं परित्यजेत् स्त्रीप गुपंमकवर्जिताशय्येतिवचनात्तथास्वकीयेन पाणिना हस्तेनावाच्यस्य (नपिलिजेजति) नसंबाधनं कुर्यात् । यतस्तदपि हस्तसंबाधनं चारित्रं शबलीकरोति । यदिवा स्त्रीपश्वादिकं स्वेन पाणिना नस्टशेदिति ॥ २० ॥ सुविचलेसे मेहावी, परकिरिअंच वजए नाणी॥मणसा वयसा काएण सबफाससदे अणगारे॥२१॥श्चेव मादु से वीरे, धुअरए धुअमोदे से Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५७.हितीये सूत्रकृतांगे प्रथम श्रुतस्कंधे चतुर्थाध्ययनं. निस्कू॥तम्दा असनविसुधे सुविमुक्के,आमोकाए परिवएका सि(पागं - - तरं विहरे आमुस्काए)त्तिबेमि॥श्शाइति श्रीश्ची परिन्ना चतुर्थाध्ययनं समत्तं अर्थ-(सुविसुबलेसेके०) शुक्ष निर्मल लेश्यावंत चित्तनो व्यापारले जेनो एवो (मेहावी के०)पंमित ते (परकिरियंचके०) परनी करेली स्त्रियादिकसंबंधीनी क्रिया अथवा नोगने व थै परने हाथे पोताने विषे स्पर्शादिक जे क्रिया कराववी तेने (वएनाणीके०)ज्ञानवंत पुरुष मने वचने अने कायाये करवू करावq ने अनुमोदq एम त्रिविधे वर्जे अर्थात् काम नो गने टाले तथा(सवफाससहे अणगारेके०)अन्य सर्व शीतादिक परिसह जे कह्याने तेने ते अणगार स्पश्र्ये थको सहे एटले सहन करे ॥२१॥ (श्चेवमादु सेवीरेके०) एम ए पूर्वोक्त समस्त उपदेश श्री माहावीर देवे श्रादु एटले कह्यो ते श्रीमाहावीर परमेश्वर केवाले तो के (धुयरए धुअमोहेके०) पाप रज रहित तथा मोहरहित बे (तम्हाके)तेमाटे(सेजिरक के) ते साधु सम्यक्दर्शन चारित्रे करी युक्त थको मुक्तिने साधे (असब विसुक्षेसुके०) अध्यवसाय निर्मल थको (विमुक्के आमोरकाए परिवएजासिके०) विमुक्त आमोदाय प रिव्रजेत् संयमानुष्ठाने इति एवो नितु स्त्रीसंगादिक क्लेश थकी विमुक्त थयो थको ज्यांसु धी मोदे जाय त्यांसुधी सूधो संयम पालें. तिबेमिनु अर्थ पूर्ववत् जाणवो॥ २२॥ ए स्त्री परिज्ञा नामे चोथा अध्ययननो अर्थ समाप्त थयो. ॥ ___॥ दीपिका-सुविशुदा लेश्या मनोवृत्तिर्यस्य सुविगुइलेश्योमेधावी मर्यादावान् पर स्य रूयादेः संबंधिनी क्रियां ज्ञानी विवेकवान् वर्जयेत् मनसा वाचा कायेन सर्वस्पर्श सहोऽनगारः शीतोभदंशमशकादिसहनरुत्यः स्यात् ॥ २१ ॥ इत्येवं पूर्वोक्तं तत्सर्व न गवान् वीरोधुतं दिप्तं रजः स्त्रीसंबंधळतं कर्म येन स धुतरजाः धुतमोहबाह उक्तवा न तस्मात्सनिकुरध्यात्मविशुदोनिर्मलचित्तः सुविमुक्तः स्त्रीसंबधेन रहितधामोदाय सर्वकर्मक्ष्यं यावत् विहरेत्संयमोद्यतोनवेदिति । ब्रवीमीति पूर्ववत् ॥२२॥ इति सूत्रकता गदीपिकायां चतुर्याध्ययनं समाप्तं ॥ ॥ टीका-अपि च । सुविसुदेइत्यादि )सुष्टु विशेषेण शुभास्त्रीसंपर्कपरिसंहाररूपतया निष्कलंका लेश्यांऽतःकरणवृत्तिर्यस्य स तथा सएवंनूतोमेधावी मर्यादावर्ती परस्मै रूयादि पदार्था क्रिया पर क्रिया तां च ज्ञान। विदितवेद्योवर्जयेत्परिहरेत्। एतमुक्तं नवति। विषयो पनोगोपाधिना नान्यस्य किमपि कुर्यान्नाप्यात्मनः स्त्रिया पादधावनादिकमपि कारयेत्। एतच्च परक्रियावजनं मनसा वच सा कायेन वर्जयेत्तथा ह्यौदा|रककामनोगार्थ मनसान गहति ना न्यं गमयति गहंतमपरं नानुजानीते एवं वाचा कायेनच सर्वेप्यौदारिके नव नेदाएवं दिव्येपि Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राय धनपतसिंघ बादाडुरका जैनागम संग्रह नाग दुसरा. श्ल नव नेदास्ततश्वाष्टादशभेद निन्नमपि ब्रह्म बिनुयात् । यथाच स्त्रीस्पर्शपरीषदः सोढव्य एवं स नपि शीतोत्मदंशमशकतृणादिस्पर्शानपि सहेत । एवंच सर्वस्पर्शसहोऽनगारः साधुर्नवती ति ॥ २१ ॥ एवमाहेति दर्शयति । (इचेवमादुरित्यादि) इत्येवं यत्पूर्वमुक्तं तत्सर्वं सवीरोजग वानुत्पन्नदिव्यज्ञानः परहितैकरतयाह उक्तवान् । यतएवमतोधूतमपनीतं रजः स्त्रीसंपर्का दिकृतं कर्म येन सधूतरजाः । तथा धूतोमोहोराग द्वेषरूपोयेन सतथा । पाठांतरं वा धूतोऽप नीतोरागमार्गो रागपंथा यस्मिन् स्त्रीसंस्तवादिपरिहारात्तत्तथा तत्सर्वं भगवान् वीरएवाद । य तएवं तस्मात्स निकुरध्यात्म विशुद्धः सुविद्यु ांतःकरणः सुष्ठु राग द्वेषात्मकेन स्त्री संपर्केण मु क्तः सन्नामोक्षायाशेषकर्मक्षयं यावत्परिसमंतात्संयमेऽनुष्ठाने व्रजे बेत्संयमोद्योगवान् नवे दिति । इति परिसमाप्त्यर्थे । ब्रवीमीति पूर्ववत् ॥ २२॥ इति चतुर्थ स्त्री परिज्ञाध्ययनं परिसमाप्तं हवे नरवित्ति नामा पांचमुं अध्ययन श्रीजंबूस्वामी पूबेबे घने श्रीसुधर्म स्वामी जंबू प्रत्येक के पूर्वे चोथा अध्ययनमा अनाचारी कह्या तेवा अनाचारी जे होय ते नरकगति प्राप्त याय माटे नरयविनत्ति नामा पांचमुं अध्ययन कहे. पुचिस्सदं केवलियं महोसिं, कई जितावा परगा पुरवा ॥ अ जान में मुणि बूहि जाणं, कहिं नु बाला नरयं नर्बिति ॥ १ ॥ एवं मए पुढे महाणुभावे, इमोब्बवी कासवे प्रपन्ने ॥ पवे दस्सं दमडुग्गं, आदीपियं एक्कडियं पुरवा ॥ २ ॥ अर्थ- (पुच्चिस्संंके व नियंमदेसिंके ० ) सुधर्मस्वामी कहे जे तमे मने पूढोटो के नरक hard तथा जीव के कर्मे कररी नरके जाय तथा त्यां केव वेदनाले तेम में पग (पुरवा के ० ) पूर्व केवली महर्षि श्री माहावीर देवने पुढधुं हतुं के हे भगवन् ( घनितावा के० ) तापसहित (रगाके० ) नरकना जय जे तीव्र दुःख रूपले ते ( कहंके ० ) केवाले (श्र जामेके) अजाणता एवा मुजने ( मुलिके०) हे मुनि तमे (जाब्रूहिके ० ) केवल ज्ञाने करी जाता था कहो के (क हिंनु बालानरयं नबिंति के 0) केवीरीते बाल एटले ज्ञानी जी व नरकमां जइ उपजे ॥१॥ ( एवं मए पुट्ठे के ० ) एम में विनय सहित पुग्धुं बतां (महाणुभावे ho) महोटो नुनाव एटले माहात्म्य जेनो (यासुपने के०) प्राप्रज्ञ एटले सर्वत्र सदा उपयोग थकी केवल ज्ञानवंत एवा (कासवे के ० ) काश्यप श्रीमहावीर देव तेणे (इ मोaav) एम युं ते प्रमाणे हुं तमने कहीश (पवेद इस्संहम डुग्गंके ० ) प्रवेदि तं दुःखमेवार्थ एटने डुःखनु कारणले माटे दुर्गमस्थानक नरकावासा कह्याने (यादीि sasiya )दी निकंडुरु तिनो पुरस्तात् एटले अत्यंत दीन पुरुषे जेनोयाश्रयकरलो ם' For Private Personal Use Only Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६० क्तिीये सूत्रकृतांगे प्रथम श्रुतस्कंधे पंचमाध्ययनं. बे एवा पुरुत एटले पापफलसहित ते नरकावासाने पुरस्तात् एटले पागल कहेशे ते तमे एकाग्रचित्ते सनिलो ॥ २ ॥ ॥ दीपिका-अथ पंचमाध्ययनमारन्यते । तत्र उपसर्गनीरोः स्त्रीवशगस्य नरकपातः स्यात्तत्र च यादृश्योवेदनाः स्युस्तायत्रोच्यते इति । प्रथमोदेशकस्यादिसूत्रमिदं । (पुखि स्सेति ) जंबूस्वामिना सुधर्मस्वामी पृष्टः किंजूतानरकाश्त्यादिप्टष्टः सुधर्मस्वाम्याह । य देतनवताऽहंटष्टस्तदेतत्केवलिनः श्रीवीरमहर्षेः पुरस्तात्पूर्व दृष्टवानहं कथमनितापान्वि तानरकाः । हेमुने एतदजानतो मे त्वं जानन् ब्रूहि । कथं केनप्रकारेण नुवितर्के बालाय ज्ञानरकमुपयांति ॥१॥ एवं मया दृष्टोमहानुनावश्दं प्रश्नोत्तरमब्रवीत्। काश्यपोवीरयागु प्रझोनगवान् इदमाहायथाहं प्रवेदयिष्यामि कथयिष्यामि त्वं शृणु।फुःखनरकःखं अर्थतः परमार्थतो उगविषमं ।पुनः किंनत। बासमंतादीनमादीनं तहिंद्यते यस्य सयादीनिकोऽत्यं तहीनत्वाश्रयस्तं पुष्कृतं पापं विद्यते यत्र स पुष्कतिकस्तं पुरस्तादग्रतः कथयिष्ये ॥२॥ ॥टीका-उक्तं चतुर्थाध्ययनं सांप्रत पंचममारन्यते। अस्य चायमनिसंबंधः।हाद्याध्ययने स्वसमयपरसमयप्ररूंपणानिहिता।तदनंतरं स्वसमये बोधोविधेयश्त्येतद्वितीयेऽध्ययने ऽनि हितं । संबुझेन चानुकूलप्रतिकूलाउपसर्गाः सम्यक्सोढव्याश्त्येतत्तृतीयेऽध्ययने प्रतिपादि तं। तथा संबुद्धेनैव स्त्रीपरीषदश्च सम्यगेव सोढव्यश्त्येतच्चतुर्थेऽध्ययने प्रतिपादितं । सांप्रत मुपसर्गनीरोः स्त्रीवशगस्यावश्यं नरकपातोनवति । तत्र च यादृदावेदनाः प्रापुर्नवं ति ताथनेनाध्ययनेन प्रतिपाद्यते । तदनेन संबंधेनायातस्यास्याध्ययनस्य चत्वार्यनुयोग वाराणि उपक्रमादीनि वक्तव्यानि । तत्रोपक्रमांतर्गतोऽर्थाधिकारोवेधा । अध्ययनार्थाधि कारउद्देशार्थाधिकारश्च । तत्राध्ययनार्थाधिकारोनियुक्तिकारेण प्रागेवानिहितः। तद्यथा। उ पसर्गनीरुणो (थीवसस्सनरएसु होजाउववाउ)इत्यनेन उद्देशार्थाधिकारस्तु नियुक्तिकताना निहितोऽध्ययनार्थाधिकारांतर्गतइति।सांप्रतं निदेपः सचत्रिविधः। उघनिष्पन्नोनामनिष्प नःसूत्रालापकनिष्पन्नश्चेति।तत्रौघनिष्पन्ने निदेपेऽध्ययनं नामनिष्पने तु नरकविनक्तिरिति विपदं नाम । तत्र नरकपदनिक्षेपार्थ नियुक्तिकदाह। णिरए बक दवं, गिरया इहमेव जे नवे अगुना ॥ खेत्तं गिरगासो कालोणिरएसुचेवही॥६॥नावेनणिरयजीवा कम्मुदः चेव गिरयपाउँगा । सोकगणिरयःखं, तवचरणेहोश्जयवं ॥ ६५ ॥ णिरयेबक्कमित्या दिगाथा क्षयं । तत्र नरकशब्दस्य नामस्थापना व्यक्षेत्रकालनावनेदात् पोढा निदेपः । तत्र नामस्थापने हुस्ने । व्यनरकयागमतोनोयागमतश्च । बागमतोझाता तत्र चा नुपयुक्तः । नोवागमतस्तु ज्ञशरीरनव्यशरीरव्यतिरिक्तश्हैव मनुष्यनवे तिर्यग्नवे ये केचना ऽगुनकारित्वादशुनाः सत्वाः कालकसौकरिकादयति । यदिवा यानि कानि चिदानानि Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राय धनपतसिंघ बाहाऽरका जैनागम संग्रह नाग उसरा. २६१ स्थानानि चारकादीनि याश्च नरकप्रतिरूपावेदनास्ताः सर्वाश्व्यनरकाश्त्यनिधीयते। यदिवा कर्मव्यनोकर्मव्यनेदाद् इव्यनरकोवेधा । तत्र नरकवेद्यानि यानि बानि कर्मा णि तानि चैकनविकस्य बदायुष्कस्यानिमुखनामगोत्रस्य चाश्रित्य इव्यनरकोनवति । नोकर्मव्यनरकस्त्विदैव येऽगुनारूपरसगंधवर्णशब्दस्पर्शाइति । वनरकस्तु नरकावकाश कालमहाकालौरवमहारौरवप्रतिष्ठानाऽनिधाना दिनरकाणां चतुरशीतिलदसंख्यानां वि शिष्टोनूनागः । कालनरकस्तु यत्र यावतीस्थितिरिति । नावनरकस्तु ये जीवानरकायुष्क मनुनवंति तथा नरकप्रायोग्यः कर्मोदयइति । एतउक्तं नवति । नरकांतर्वर्तिनोजीवास्तथा नरकायुष्कोदयापादिताऽसातावेदनीयादिकर्मोदयाचैतद्धितयमपि नावनरकश्त्यनिधीय ते । तदेवं श्रुत्वाऽवगम्य तीव्रमसह्यं नरककुखं ककचपाटनकुंजीपाकादिकं परमाधार्मि कापादितं परस्परोदीरणारुतं स्वानाविकं च तपश्चरणे संयमानुष्ठाने नरकपातपरिपंथिनि स्वर्गापवर्गागमनैकहेतोर्वाऽत्महितमिलता प्रयतितव्यं परित्यक्तान्यकर्तव्येन यत्नोविधेय इति । सांप्रतं विनक्तिपदनिदेपार्थमाह । णामंठवणादविए, खेत्ते काले तहेव नावेय । ए सोउ विनत्तीए णिरकेवोजविहोहो ॥१॥ (नामंतवणेत्यादि ) विनक्तेनामस्थापना व्य क्षेत्रकालनावनेदात् षोढा निदेपस्तत्र नाम विनक्तिर्यस्य कस्य चित्सचित्तादे व्यस्य विन क्तिरिति नाम क्रियते । तद्यथा । स्वादयोष्टौ विनक्तयस्तिबादयश्च । स्थापनाविनक्तिस्तु य त्र ताएवं प्रातिपदिकाक्षातोर्वा परेण स्थाप्यंते पुस्तकपत्रकादिन्यस्तावा । इव्यविनक्तिर्जी वाजीवनेदाद विधा । तथापि जीव विनक्तिः सांसारिकेतरनेदाद्विधा । तत्राप्यसांसारिकजी वविनक्तिव्यकालनेदात् देधा। तत्रव्यतस्तीतीर्थसिक्षा दिनेदारपंचदशधा । कालतस्तु तत्प्रथमसमयसिमा दिनेदादनेकधा । सांसारिकजीव विनक्तिरंडियजातिनवनेदात्रिधा।तत्रे यिविनक्तिरेकेंख्यि विकलेंख्यिपंचेंडियनेदारपंचधा । जातिविनक्तिः पृथिव्यप्तेजोवायुव नस्पतित्रसनेदात् षोढा । नवविनक्ति रकतिर्यङ्मनुष्यामरनेदाचतुर्धा । अजीवव्य विनक्तिस्तु रूप्यरूपिशव्यनेदादविधा । तत्र रूपिव्य विनक्तिश्चतुर्धा । तद्यथा । स्कंधाः स्कंधदेशाः स्कंधप्रदेशाः परमाणुपुजलाश्च । अरूपिशव्यविन क्तिर्दशधा । तद्यथा । धर्मा स्तिकायोधर्मास्तिकायस्य देशोधर्मास्तिकायस्य प्रदेशः । एवमधर्माकाशयोरपि प्रत्येक त्रिनेदता इष्टव्या । अक्षासमयश्च दशमइति । देत्रविनक्तिश्चतुर्धा । तद्यथा । स्थानं दिशं इव्यं स्वामित्वं चाश्रित्य । तत्र स्थानाश्रयणाधिस्तिर्य ग्विनागव्यवस्थितोलो कोवैशाखस्थानस्थपुरुषश्व कटिस्थकरयुग्मइति इष्टव्यः । तत्राप्यधोलोकविनतीरत्नप्र नाद्याः सप्त नरकष्टथिव्यस्तत्रापि सीमंतकादिनरकेंकावलिकप्रविष्टपुष्पावकीर्णकर तत्र्यस्त्रचतुरस्त्रादिनरकस्वरूपनिरूपणं । तिर्यग्लोक विनक्तिस्तु जंबूदीप,लवणसमु, धातकीखंड,कालोदसमुत्यादिदिगुणदिगुणवक्ष्या दीपसागरस्वयंनूरमणपर्यतस्वरूपनि Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६२ तिीये सूत्रकृतांगे प्रथम श्रुतस्कंधे पंचमाध्ययनं. रूपणं । ऊर्ध्वलोकविनक्तिः सौधर्माद्यानपर्युपरिव्यवस्थिता बादशदेवलोकाः नवग्रैवेय कानि पंचमहाविमानानि । तत्रापि विमानेकावलिप्रविष्टपुष्पावकीर्णकवृत्तव्यस्त्रचतु रस्त्रादिविमानस्वरूपनिरूपणमिति । दिगाश्रयणेन तु पूर्वस्यां दिशि व्यवस्थितं देत्रमे वमपरास्वपीति । व्याश्रयणाबालिकेत्रादिकं गृह्यते । स्वाम्याश्रयणाच्च देवदत्तस्य क्षेत्रं यज्ञदत्तस्य वेति । यदिवा देत्रविनक्तिरार्याऽनार्यदेवदादविधा । तत्राप्यार्यक्षेत्रमर्धष डिशं तिजनपदोपन दितं राजगृहमगधादिकं गृह्यते । रायगिहमगहचंपा, अंगातहता मतित्तिवंगाय ॥ कंचणपुरंकलिंगा, वाराणसीचेव कासीय ॥ १ ॥ साकेयकोसलागय, पुरंचकुरुसौरियंकुसुहाय ॥ कंपिल्लं पंचाला, अहिबत्ताजंगलाचेव ॥ २॥ वारवश्यसुरक्षा मिहिलविदेहायवनकोसंबी ॥ नंदिपुरंसं दिशा, नदलिपुरमेवमलयाय ॥ ३ ॥ वराडव बवरणा, थबातहमित्तियावश्दशणा ॥ सुत्तीमईयचेदी, वीयनयं सिंधुसौवीरा ॥४॥मदुरा यसूरसेगा, पावानंगीयमासपुरिबा ॥ सावित्रीयकुलाणा, कोमीव रिसंचलाढाय ॥ ५ ॥ सेयविया वियणायरि, केययययंचयारियनणियं ॥ जनुप्प त्तिजिणाणं, चक्कीरामकि एहाणं ॥ ॥ ६ ॥ अनार्यक्षेत्रं धर्मसंझार हितमनेकधा। तमुक्तं । सगजवणसबरबब्बर, का यमुरुंमो उगोणपक्कणया । अरकागरणरोमस पारसखसखा सियाचेव ॥ १ ॥ उविलय लवोसवाक्कस, निनंदपुलिंदकोंचनमररूया ॥ कौंचायचीणचंचुय, मालंद मिलाकुलरकाय॥ ॥ २ ॥ केकय किरायहयमुह, खरमुहतह तुरगमेढगमुहाय ॥ ॥ हयकरमागयकल्ला, अ मेयषणारियाबहवे ॥ ३ ॥ पावायचंमदंमा, अणारियाणिग्घिणाणिरणुकंपा ॥ धम्मोत्ति अरकरा. जेसुगणकतिसुविणोवि ॥ ॥ कालविनक्तिस्तु अतीताऽनागतवर्तमानकालने दात्रिधा । यदि चैकांतसुषमादिककमेणाऽवसर्पिण्युत्सर्पिण्युपलदितं बादशारं कालचक्रंथ थवा । समयावलियमुहुत्ता,दिवसमहोरत्तपरकमासाय ॥ संवबरयुगपलिया, सागरनस्स प्पिपरियट्रेत्येवमादिकाकालविनक्तिरिति । नाव विनक्तिस्तु जीवाजीवजेदाद्विधा। तत्र जीव नावविनक्तिरौदयिकोपशमिक,दायिक, दायोपशमिक, पारणामिक, सान्निपातिक, नेदा त् षट्प्रकारा । तत्रौदयिकोगतिकषायलिंगमिथ्यादर्शनाऽझानाऽसंयतासि लेश्याश्चतुश्चतु स्त्रयेकैकैकैकषड्नेदक्रमेणैकविंशतिनेदनिन्नः । तथौपशमिकः सम्यक्त्वचारित्रनेदाद् विवि धः । दायिकः सम्यक्त्वचारित्रज्ञानदर्शनदानलाननोगोपनोगवीर्यनेदान्नवधा । दायोप शमिकस्तु ज्ञानाशानदर्शनदानादिलब्धयश्चतुस्त्रित्रिपंचनेदाः । तथा सम्यक्त्वचारित्रसंय मासंयमनेदकमेणाष्टादशधेति । पारिणामिकोजीवनव्यानव्यत्वादिरूपः सान्निपातिक स्तु दिकादिनेदात् षविंशतिनेदः । संनवीतु पदिशतिविधोयमेव गतिनेदारपंचधेति । अ जीवनावविनक्तिस्तु मूर्तानां वर्णगंधरसस्पर्शसंस्थानपरिणामः । अमूर्तानां गतिस्थित्यव गाहवर्तनादिकति । सांप्रतं समस्तपदापेक्ष्या नरकविनक्तिरिति । नरकाणां विनागोविन Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राय धनपतसिंघ बानाउरका जैनागम संग्रह नाग उसरा. २६३ "क्तिस्तामात् ॥ पुढवीफासंघमा,पुवक्कमणिरयणवालवहणंच ॥ तिसुवेदेतिताणाअषु नागंचेव सेसासु ॥ ६७ ॥ (पुढवीफासमित्यादि)। एथिव्याः शीतोमरूपायास्तीत्रवेदनो त्पादकः स्पर्शः संपर्कः प्रथिवीसंस्पर्शस्तमनुनवंति । तमेव विशिनष्टि।अन्येन देवादिना न पक्रमितुमुपशमयितुं योनशक्यते सोन्यानुपक्रमस्तमपरा चिकित्स्यमित्यर्थः । तमेवंनूतमप राऽसाध्यं पृथिवीस्पर्श नारकाः समनुनवति । उपलणार्थत्वाचास्य रूपगंधस्पर्शशब्दान प्येकांतेनागुनान्निरुपमाननुनवंति । तथा नरकपालैः पंचदशप्रकारैः परमाधार्मिकैः क तमुजराऽसिकुंतककचकुंनीपाकादिकं वधमनुनवंत्याद्यासु तिसृषु रत्न,शर्करा,वालुकाख्या सु पृथिवीषु स्वकृतकर्मफलनुजोनारकाअत्राणायशरणाः प्रनूतकालं यावदनुनवंति । शेषासु चतसृषु पथिवीषु पंकधूमतमोमहातमःप्रनारख्यासु परमाधार्मिकनरकपालानावे पि स्वतएव तत्कृतवेदनायाः सकाशाद्यस्तीव्रतरोऽनुनावोविपाकोवेदनासमुद्घातस्तमनु नवंति । पस्परोदीरितपुःखाश्च नवंतीति । सांप्रतं परमाधार्मिकानामाद्यासु तिसृषु दृथिवी पु वेदनोत्पादकान स्वनामग्राहं दर्शयितुमाह । अंबेअंबरिसीचेव, सामेयसबलेविय ॥ रो देवरुद्दकालेय, महाकालेत्तिबावरे ॥॥ असिपत्तेध'कुनेवालुवेयरणीविय ॥ खर स्सरेमहाघासे, एवंपसरसाहिया ॥ ६ए ॥ गाथा यंप्रकटार्थ । एवं ते चांबाश्त्यादयः पर माधार्मिकायादृदां वेदनां परस्परोदीरणःखं चोत्पादयंति । तां दर्शयितुमाह । धाति यहातिय, हणंतिविंधतितहणिसुंनंति । मुंचंतिअंबरतले; अंवारवलुतबगरश्या ॥७॥ (धातीत्यादि) । तत्रांबानिधानाः परमाधार्मिकाः स्वनवनान्नरकावासं गत्वा क्रीडया ना रकान् अत्राणान् सारमेयानिव शूलादिप्रहारैस्तुदंतो (धातेत्ति) प्रेरयति । स्थानात् स्थानांतरं प्रापयंतीत्यर्थः । तथा (पहा. तित्ति ) स्वेचयेतश्चेतश्चाऽनाथं चमयंति तथांड बरतले प्रतिप्य पुनर्निपतंतं मुजरादिना नंति तथा शूलादिना विध्यंति तथा (निसुंनंतित्ति) ककाटिकायां गृहीत्वा नूमो पातयंति अधोमुखं अथोत्कृिप्यांऽबरतले मुंचंतीत्येवमादिक या विडंबनया तत्र नरकप्टथिवीषु नारकान् कदर्थयति । किंचान्यत् । उहयहयेयतहियं, पिस्सन्नेकप्पणीहिकप्पंति ॥ विकुलगवउलगबिन्ने अंबरसीतबणेरइए ॥ ७१ ॥ (उहए त्यादि)। उप सामीप्येन मुजरादिना हतानपहताः पुनरप्युपहताएव खड़ादिना हता उपहतहतास्तान्नारकान तस्यां नरकप्रथिव्यां निःसंझकान् नष्टसंज्ञान मूर्बितान्सतः क पणीनिः कल्पयंति विदंतीतश्चेतश्च पाटयंति । तथा दिलचटुतकबिन्नानिति म ध्यपाटितान् खंडशश्निन्नांश्च नारकांस्तत्र नरकष्टथिव्यामंबर्षिनामानोसुराः कुर्वतीति । तथा । साडणपाडणतोमण, बंधणरकुनयप्पहारे हिं ॥ सोमाणेरतियाणं, पवत्तयंतीय पुन्नाणं ॥ ७२ ॥ ( साधनेत्यादि )। तथा अपुण्यानां तीव्राऽसातोदये वर्तमानानां नार काणां श्यामाख्याः परमाधार्मिकाएतच्चैतच्च प्रवर्तयंति । तद्यथा। सातनमंगोपांगानां Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६४ तिीय सूत्रकृतांगे प्रथमश्रुतस्कंधे पंचमांध्ययनं. बेदन तथा पातनं निष्कुटादधोवचनमा प्रदेपस्तथाप्रतोदनं व्यथनं तथा सूच्यादिना नासिकादौ वेधस्तथा रज्ज्वादिना क्रूरकर्मकारिणं बध्नति । तथा ताग्विलताप्रहारैस्ता डयंत्येवं मुखोत्पादनं दारुणं शातनपातनवेधनबंधनादिकं बदुविधं प्रवर्तयंति व्यापा रयंतीति । अपिच । अंतगयफिफिसाणिय, हिययं कालेजफुप्फु सेचक्के । सवलाणेरति याणं, कठेतितहिंधपुन्नाणं ॥ ७३ ॥ (अंतगयेत्यादि)। तथा सवलाख्यानरकपाला स्तथाविधकर्मोदयसमुत्पन्नक्रीमापरिणामाथपुण्यनाजां नारकाणां यत्कुर्वति तदर्शय ति । तद्यथा । अंत्रगतानि यानि फिफिसानि अंत्रांतर्वर्तीनि मांसविशेषरूपाणि हृदयं ति पाटयंति तथा तजतं (कालेऊंति)। हृदयांतवेति मांसखमं । तथा ( फुप्फुसे त्ति) उदरांतवर्तीन्यंत्रविशेषरूपाणि तथा वल्कलान् वर्धानाऽकर्षयंति । नानाविधैरुपायेरशर णानां नारकाणां तीवां वेदनामुत्पादयंतीति । अपिच । असिसत्तिकोंततोमर, सूलतिसू सुसूवियगासु ॥ पोएतिरुद्दकम्माउ, गरगपालातहिंरोदा ॥ ४ ॥ (असिसत्तीत्या दि)। तथा अन्वर्थानिधानारौाख्यानरकपालारौकर्माणोनानाविधेष्वसिशक्त्या दिषु प्रहरणेषु नारकानगुनकर्मोदयवर्तिनः प्रोतयंतीति । तथा। नंतिअंगमंगाणि, करूबादसिराणिकरचरणा । कप्पें तिकप्पणी हिं, नवरुद्दापावकम्मरया॥७॥ (नंतीत्या दि) तथोपाख्याः परमाधार्मिकाणामंगप्रत्यंगानि शिरोबादरुकादीनि तथा करचरणांश्च नंति मोटयंति पापकर्माणः कल्पनीनिः कल्पयंति पाटयंति। तत्रास्त्येव फुःखोत्पादनं य ते न कुर्वतीति ।यपिच। मीरासुसुंठएसुय, कंडूसुयपयणएसुयपयंति । कुंनीसुयलोहियसुय, एयंतिकालानणेरतिए॥ ७६ ॥ (मीरासुश्त्यादि ) तथा कालाख्यानरकपालाः सुरामीरासु दीर्घचुटनीषु तथा गुंठकेषु तथा कंउकेषु प्रचंडकेषु तीव्रतापेषु नारकान् पचंति तथा कुंजीष्टिकाकृतिषु तथा वन्नीष्वायसकवनिषु नारकान् व्यवस्थाप्य जीवन्मत्स्यानिव प चंति । अपिच । कप्पंतिकागिणीमं, सगाणिनीदंतिसीदपुवाणि ॥ खावंतियाणरइए, मह कालापाचकंमरए ॥ ७७ ॥ ( कप्पंतीत्यादि ) महाकालाख्यानरकपालाः पापकर्मनिर तानारकान्नानाविधैरुपायैः कदर्थयति । तद्यथा । काकिणीमांसकानि श्लदणमांसवं डानि कल्पयंति नारकान् कुर्वति तथा (सीहपुढाणित्ति )। दृष्टीवर्धास्तांविदंति । त था ये प्राक् मांसाशिनोनारकाासन् तान् स्वमांसानि खादयंतीति । थपिच । हपाएक रू, बादुसिरापायअंगमंगाणि ॥ बिंदंतिपगाणंतू असिणेरइए निरयपाला ॥ ७० ॥ (ह बेत्यादि) असिनामानोनरकपालाअशुनकर्मोदयवर्तिनोनारकानेवं कदर्थयति । तद्य था । हस्तपादोरुबादुशिरःपार्थादीन्यंगप्रत्यंगानि बिंदंति प्रकाममत्यर्थ खमयंति । तुश ब्दोऽपरःखोत्पादनविशेषणार्थइति । तथा।कलोहणसकरचरण दसणण फुग्गकरुबाद एं ॥ यणजेयणसाडण, असिपत्तधणूहिपाडंति ॥ ७॥ ॥ (कमोहइत्यादि)। असि Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रायधनपतसिंघ बादाउरका जैनागम संग्रह नाग उसरा. १६५ प्रधानाः पत्रधनुर्नामानोनरकपालायसिपत्रवन बीनत्सं कृत्वा तत्र बायार्थिनः समा गतान् नारकान् वराकान् अस्यादिनिः पाटयंति तथा कोष्ठनासिकाकरचरणदर्शन स्तनस्फिगूरुबाढूनां बेदननेदनशातनादीनि विकुर्वितवाताहतचलिततरुपातितासिप प्रादिना कुर्वतीति । तमुक्तं । बिन्नपादनुजस्कंधा, खिन्नकर्णीष्ठनासिकाः ॥ निन्नतालु शिरोमेढानिन्नादिहदयोदराः ॥ १ ॥ किंचान्यत् कुंनीसुचपत्रणेसुय, लोहियसुयकुंडलो हि कुंनी ॥ कुंनीयणरयपाला हणंतिपाडंतिणरएसु ॥ ७० ॥ (कुंनीसुश्त्यादि) कुं निनामानोनरकपालानारकान्नरकेषु व्यवस्थितान् निघ्नति तथा पाचयंति। केति द र्शयति । कुंनीष्टिकालतिषु तथा पचनेषु कडिनकाळ तिषु तथा लौहीवायसना जनविशेषेषु पाचयंति । तथा । तडवडस्सनऊंति, नऊणेकलंबुवालगापहे । वालूगाणे रश्या लोखंतीअंबरततमि ॥ ७९ ॥ (तडवडेत्यादि) वालुकाख्याः परमाधार्मिकाना रकानत्राणांस्तप्तवालुकानृतनाजने चणकानिव (तमतडित्ति) स्फुटतः (नक्रांति) नऊंति प चंति । केत्याह । कदंबपुष्पारुतिवालुकाकदंबवालुका तस्याः पृष्ठमुपरितलं तस्मिन् पात यित्वाऽबरतलेच लोलयंतीति । किंचान्यत् । पूयरुहिरकेसहिवाहिणीकलकलेंतजलसो या ॥ वेयरणिणिरयपालाणेरइएकपवाहंति ॥ २॥ (पूयरुहिरेत्यादि)। वैतरणीना मानोनरकपालावैतरणी नदी विकुवैति । साच पूयरुधिरकेशास्थिवाहिनीमहानयानका कलकलायमानजलाश्रिता तस्यांच दारोमजलायामतीव बीनत्सदर्शनायां नारकान् प्रवा हयंतीति ॥ तथा । कप्पें तिकरकरएहिं, तबिंतिपरोप्परंसुएहिंति ॥ सिंवलितमारुहंती, खरखरातबणेरइए ॥ ७३ ॥ (कप्येतीत्यादि) । खरखराख्यास्तु परमाधार्मिकानर कानेवं कदर्थयति । तद्यथा । ककचपातमध्यं मध्येन स्तंनमिव तान् पातानुसारेण कल्प यंति पाटयंति । तथा परशुनिश्च तानेव नारकान् परस्परमन्योन्यं तदयंति सर्वशोदेहाव यवापनयनेन तनून कारयति । तथा शाल्मली वजमयनीषणकंटकाकुला खरखरैरारटं तोनारकानारोहयंति पुनरारूढानाकर्षयंतीति ॥ अपिच । नीएयपलायंते समंततोतबते णिरुंनंति ॥ एसुणोजहापसुवहे, महघोसातबणेरइए॥ ७ ॥ (नीएइत्यादि) । महाघो पानिधानानवनपत्यसुराधम विशेषाः परमाधार्मिकाव्याधाइव परपीडोत्पादनेनैवाऽतु लं हर्षमुहंतोक्रीमया नानाविरुपायै रकान् कदर्थयंति तांश्च नीतान प्रपला यमानान मंगानिव समंततः सामस्त्येन तत्रैव पीडोत्पादनस्थाने निरुंनंति प्रतिबध्नं ति पशुन् बस्तादिकान् । यथा पशुवधे समुपस्थिते नश्यतस्त धकाः प्रतिबज्रत्ये वं तत्र नरकावासे नारका निति । गतोनाम निष्पन्नोऽधुना सूत्रानुगमेऽस्वलितादिगु णोपेतं सूत्रमुच्चारणीयं । तच्चेदं । (पुहिस्सहमित्यादि ) जंबूस्वामिना सुधर्मस्वामी पृष्टः। त द्यथा । जगवन किंनूतानारकाः कैर्वा कर्मनिरसुमतां तेषूत्पादः कीदृश्योवा तत्रत्यावेद Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६६ वितीय सूत्रकृतांगे प्रथम श्रुतस्कंधे पंचमाध्ययनं. नाइत्येवं पृष्टः सुधर्मस्वाम्याह । यदेतजगवताऽहं दृष्टस्तदेतत्केवलिनमतीतानागतवर्त मानसूक्ष्मव्यवहितपदार्थवेदिनं महर्षिमुग्रतपश्चरणकारिणमनुकूलप्रतिकूलोपसर्गसहिम्म श्रीमन्महावीरवर्धमानस्वामिनं पुरस्तात्पूर्व दृष्टवानस्मि । यथा कथं किंजूतावनितापा न्वितानरकानरकावासानवंतीत्येतदजानतोमे मम हेमुने जानन् पूर्वमेव केवलं ज्ञा नेनाऽवगबन ब्रूहि कथय । कथंतु केन प्रकारेण किमनुष्ठायिनः। नुरिति वित।। बालाथ झाहिताहितप्राप्तिविवेकर हितास्तेषु नरकेषूपसामीप्येन तद्योग्यकर्मोपादानतया यांति गति ॥ १॥ किंनूताश्च तत्र गतानां वेदनाः प्रापुष्यंतीत्येतच्चाह । (पृष्टवानिति ) (त था एवंमइत्यादि) एवमनंतरोक्तं मया विनेयेनोपगम्य दृष्टोमहाश्चतुस्त्रिंशद तिशयरूपो ऽनुनावोमाहात्म्यं यस्य स तथा प्रश्नोत्तरकालं चेदं वक्ष्यमाणं।मोति वाक्यालंकारे। केव । लालोकेन परिज्ञाय मत्प्रश्न निर्वचनमब्रवीउक्तवान् । कोसौ । काश्यपोवीरोवर्धमानस्वामी आशुप्रज्ञः सर्वत्र सदोपयोगात् सचैवं मया दृष्टोनगवानिदमाह । यथा। यदेतजवता एष्टस्त दहं प्रवेदयिष्यामि कथयिष्याम्यग्रतोदत्तावधानः शुण्विति । तदेवाह । सुख मिति नर कं मुःखहेतुत्वात् असदनुष्ठान। यदिवा नरकावासएव उःखयतीतिःखं । अथवा असाता वेदनीयोदयात् तीव्रपीडात्मकं मुखमित्येतच्चार्थतः परमार्थतोविचार्यमाणं उगे गह नं विषमं पुर्विज्ञेयं असर्वझेन तत्प्रतिपादकप्रमाणानावादित्य निप्रायः। यदिवा (अहम पुग्गंति )फुःखमेवार्थोयस्मिन स खनिमित्तोवा कुष्प्रयोजनोवा खार्थोनरकः।सच उगों विषमोउरुत्तरत्वात् तं प्रतिपाद यिष्ये । पुनरपि तमेव विशिनष्टि । आसमंतादीनमादीनं तविद्यते यस्मिन्सबादीनिकोऽत्यंतदीनसत्त्वाश्रयस्तदुःष्कृतमसदनुष्ठानं पापं वा तत्फ संवा असातावेदनीयोदयरूपं तविद्यते यस्मिन्स कुष्कृतिकस्तं पुरस्तादग्रतः प्रतिपा दयिष्ये । पाठांतरं वा (उक्क डिति) पुष्कृतं विद्यते येषां ते पुष्कृतिनोनारकास्तेषां संबंधि) चरितं पुरस्तात्पूर्वस्मिन् जन्मनि नरकगतिगमनयोग्यं यत्कृतं प्रतिपादयिष्यतइति॥ ५ ॥ जे के बाला इह जीवियत्री, पावाई कम्माई करंति रुदा ॥ते घोर रूवे तमिसंधयारे, तिबानितावे नरए पडंति ॥३॥ तिवं तसे पा णिणो थावरेया, जे हिंसति आयसुदं पडुच्चा ॥ जे लूसए हो अदत्तहारी, ण सिरकती सेयवियस्स किंचि ॥४॥ अर्थ-(जेकेश्वालाके०) जे कोश्क महारंजीया बाल एटले अज्ञानी (इहजीवियही के०) आसंसारने विषे असंयमे जीवितव्यना अर्थी एवा जीव (पावाइंकम्माश्करतिरुद्दा के०) रौड़ एटले प्राणीने नयना उपजावनार एवा अनेक पापकर्मकरे (तेघोररूवेतमिसं धयारे के०) तेवा पुरुष तीव्रपापोदयने लीधे घोररूप एटले अत्यंत बीहामणे रूपे त Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राय धनपतसिंघ बादाउरका जैनागम संग्रह नाग उसरा. २६ 'मिसंधयारे एटले महाधंधकार सहित ज्यां बांखे करी काज देखाय नही मात्र अवधिज्ञाने करी थोड़े थोड़ें घुकनी पेरे देखे थने (तिबानितावेनरएपडंतिके०) ज्यां खेरना अंगाराथी अनंतगणो ताप एवा नरकनेविषे पडे ॥३॥ (तिवंतसेके०) जे पुरुष तीव्रपणे करी बेंडीयादिक त्रस (पाणिणोके०) जीव थने (थावरेयाके) एथवीकायादिक स्थावर जीव तेने (जे हिंसतियायसुहंपडुचके०) येहिनस्तिथात्मसुखंप्रतीत्य एटले जे पुरुष सदाकाल स्वात्मसुखनो अर्थ जाणी करीने हणे तथा (जेसूसएहोश्के)जे प्राणीउनु उपमईन कर नार होय तथा (अदत्तहारीके०) परव्यापहारक एटले थदत्तदाननो लेनार होय तथा (णसिरकतीसेयवियस्सकिंचिके०) नशिक्ष्यतेसेवनीयस्य किंचित् एटले सेववा योग्य एवा जे व्रत पञ्चखाणादिक डे ते नकरे अर्थात् थविरति बतोज रहे परंतु काकमांसादि कनी पण विरति करी शके नही. ॥ ४ ॥ दीपिका-ये केचिदालाथज्ञाजीवितार्थिनः संयमजीवितार्थन पापानि कर्माणि रौ जाः कुर्वति ते नरके पचंति । यउक्तमागमे । केहमनंतेजीवानेरश्यताएकाम्मंपकरती ति । किंनूते नरके । घोररूपे यतिनयानके तथा (तमिसंधयारेत्ति) बहुलसमोंधकारे य त्रात्मापि नोपलन्यते केवलमव धिनापि मंदमंदमुलकाश्वान्दि पश्यति । तथा चागमः । काहलेसेणंनंतेणेरइकएहस्संनेरश्चंपाणिहाऐनहिणा सबातासमन्नासमनिलोएमा णीकेवश्यंखेनं जाणपास इत्तिरियमेवखेत्तं जाणपास इत्यादि । पुनः किंनूते न रके । तीब्रोकुःसहः खादिरांगारमहाराशितापादनंतगुणानितापः संतापोयस्मिन् स तीव्रानितापस्तस्मिन् ॥३॥ तीव्र निर्दयोयस्त्रसान् दीडियादीन स्थावरांश्च पृथ्वीकायादी न हिनस्ति हंति यात्मसुखं प्रतीत्य स्वशरीरसुखरुते यः प्राणिनां सूषकनपमर्दकारी अदत्तहारी यदत्तग्राही सन शिक्ष्ते नान्यसति (सेय विधस्तत्ति) सेवनीयस्य संयमस्य किंचित् मांसादेरपि निवर्ततइत्यर्थः ॥ ४ ॥ ॥ टीका-यथाप्रतिज्ञातमाह । (जेकेइत्यादि) ये केचन महारंपरिग्रहपंचेंझ्यिवध पिशितनणादिके सावद्यानुष्ठाने प्रवृत्ताबालाघज्ञारागषोत्कटास्तिर्यग्मनुष्याइहास्मि न्संसारेऽसंयमजीवितार्थिनः पापोपादाननूतानि कर्मास्यनुष्ठानानि रौशः प्राणिनां जयोत्पादकत्वेन नयानक हिंसानृतादीनि कर्माणि कुर्वति तएवंनूतास्तीव्रपापोदय वर्तिनोघोररूपेऽत्यंतनयानके (तमिसंधयारेत्ति ) बदुलतमोंधकारे यत्रात्मापि नोप लन्यते चकुषा केवलमवधिनापि मंदमंदमुलूकाश्वाह्नि पश्यति । तथाचागमः । कण्ह लेसेणंनंतेणेरइएकाहश्लेस्संणेरश्चंपारणयाएनहिणासव समंतासमनिलोएमाणेकेव Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६ द्वितीये सूत्रकृतांगे प्रथम श्रुतस्कंधे पंचमाध्ययनं. इयंखेतंजालाई केवइयंखेतंपास गोयमाणोबहुययरं खेनंजालइलो बहुययत्तरंपास इत्तरियमेवखेत्तं जाण इत्तरियमेवपासइइत्यादि । तथा तीव्रोडुःसहः खदिरांगार महारा शितापादनंतगुणोऽनितापः संतापोयस्मिन् सतीव्रानितापस्तस्मिन् एवंनूते नरके बहुवेद dsपरित्यक्तविषया निष्वंगाः स्वकृतकर्मगुरवः पतंति तत्र च नानारूपा वेदनाः समनुनवं ति । तथाचोक्तं । अखंडिय विसय सुहो, पडइयविज्ञाय सिवि सिहा विहे | संसारोदहिव लयं, सुमिडुः खागरे निरए ॥ १ ॥ पायक्कतोरबजमुह, कुहरुव नियंरु दिरगंडू से करख चुक हा विरिक्कं विवदेह दे ॥ २ ॥ जंतंतर निकंतु, बसंतसंसदन रियदिशि विवरे ॥ म तुम्फिड्डियस मुलं तसीस हिसंथाए ॥ ३ ॥ सुक्कक्कंद कडाडु, क्कदंतक्कयकयंत कम्मंते ॥ मू लविनित्तु खित्तु, ६ देह णित्तं तपझारे ॥ ४ ॥ बधयारडुग्गं बंधणायारडु-दर किलेसे ॥ निन्नकरचरणसंकर, रुहित्व साडुग्गमप्पवते ॥ ५ ॥ गि६मुहद्दिनरिक, तबंधलो मुकंविरकबंधे ॥ दडगहियतत्तसंडा, सयग्गविसुमुस्कुमियजीहो ॥ ६ ॥ निरकंकु सग्गकड़िय, कंटयरुरकग्गजकरसरीरे ॥ निमिसंतरंपि डल्लह, सुरकेवरके डुःखमि ॥ ७ ॥ इनीस मिलिए, पडं तिजे विविहसत्तवहिनिरया ॥ सवनहायनरा, जयंमिकयपावसं घाया ॥ ॥ इत्यादि ॥ ३ ॥ किंचान्यत् । ( तिवंत सेत्यादि ) । तथा तीव्रमति निरनुकं पं रौइपरिणामतया हिंसायां प्रवृत्तः । त्रस्यंती तित्रसा दीं दियाद यस्तांस्तथा स्थावरांश्च पृथिवीकायादीन यः कश्चिन्महामोहोदयवर्ती हिनस्ति व्यापादयति । यात्मसुखंप्रतीत्य स्वशरीरसुखरुते नानाविधैरुपायैर्यः प्राणिनां नूषक उपमर्दकारी नवति तथा प्रदत्त मपहर्तुं शीलमस्याऽसावदत्तहारी परव्यापहारकस्तथा न शिक्षते नान्यसति । नादत्ते ( से वित्ति ) सेवनीयस्यात्म हितैषिणा सदनुष्ठाने यस्य संयमस्य किंचिदिति । एतडु तं नवति । पापोदयादिरतिपरिणामं काकमांसादेरपि मनागपि नविधत्ते इति ॥ ४ ॥ पानि पाणे बहुतिवाती, निघते घातमुवेति बाले ॥ पिदो पिसं गछति अंतकाले, प्रदोसिरं कट्ट नवेइ डुग्गं ॥ ५॥ हा हिं दहनिंदणं ददेति, सद्दे सुपिता परदम्मिया ॥ ते नारगान नयन्निसन्ना, कंखति कन्नामदिसं वयामो ॥ ६ ॥ अर्थ - ( पाग प्रि०) प्रागल्निक एटले धृष्टपणे पापनेविषे निशंकतो ( पाणेबदुति वाती के ० ) बहुन प्राणानतिपाती घणाप्रालीजनो व्यतिपाती विनाशक एटले जीवघात क, धृष्टपणे बोलनार शास्त्रमांहे जे हिंसाते हिंसा नहीं एवा वचननो बोलनार (निते ho) निवृत्त एटले क्रोध थकी उपशम्यो नथी, एवो बतो (बालेके ०) बाल एटले ज्ञा For Private Personal Use Only Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राय धनपतसिंघ बादाउरका जैनागम संग्रह नाग उसरा. शहए नी (घात के० ) नरक्ने (उपैतिके०) पामे (अंतकालेके०) अंतकाले एटले मरणका ले (अहोसिरंकटु के. ) नीचं मस्तक करी (णिहोणिसं के०) अधोगतियें अंधकारने विषे (गलतिके०) जाय (उग्गंके०) उर्ग विषम स्थानके दनदनादिक फुःखने (नवे के)पामे॥५॥ हवे ते नारकी पर्याप्त नावे पोहोता थका परमाधार्मिकना शब्द सानले ते कहेले (हणके०) मुजरादिके करी हणो (बिंदहके०) खङ्गादिकेकरी लेदो (निंदणंके०) शूलादिके करी नेदो (दहेतिके) अनीये करी बालो इत्यादिक करणने कुःखकारी एवा (परहम्मियाणं के०) परमाधार्मिकना (सद्देके०) शब्दने (सुर्णिताके० ) सांजलीने (ते नारगा के०) ते नारकी (जयनिन्नसन्नाके०) नयेकरीने नाश पाम्याडे संझा एटले मनव्यापार जेना तथा गात्र पण नागा एवा बतां (कंरकंतिके० ) एवी वांबना करेके (कन्नामदिसंवयामो के०) कांदिशंव्रजामः एटले अमे कयी दिशाये नाशी जश्ये के ज्यां गया थका अमने नय टली जाय. ॥ ६ ॥ ॥ दीपिका-प्रागल्यं धाष्टय विद्यते यस्य स प्रागल्नी बहूनां प्राणिनामतिपाती हिंस कः सर्प हिंसादिवत् अनिवृत्तः कदाचिदप्यनुपशांतः सन् घातं नरकमुपैति बालःस थं तकालेन्यक नीचैः (निसंति) अंधकारंगति स्वपापेनाधःशिरःकत्वा उर्ग विषमं पीडास्था नमुपैति ॥ ५ ॥ हतंमुजरादिना, निन्नखड़ादिना निनं शूलादिना दग्धं वन्दिना । पंवा क्यालंकारे । तदेवंनूतान् परमाधार्मिकाणां शब्दान् शएवंति श्रुत्वा वा ते नारकानयेन निन्ना नष्टा संज्ञा येषां ते तथा कांदिशं ब्रजेम इति कांदंति ॥ ६॥ ॥ टीका-तथा (पागनिपाणेइत्यादि)। प्रागल्भ्यं ध्याष्टय तदिद्यते यस्य सप्रागल्नी बहूनां प्राणिनां प्राणानतीव पातयितुं शीलमस्य सनवत्यतिपाती। एतउक्तं नवति । थ तिपात्यपि प्राणिनः प्राणानतिधाष्टो वदति । यथा वेदानिहिता हिंसाऽहिंसैव नवति।त था राझामयं धर्मोयत आखेटकेन विनोद क्रिया । यदिवा। नमांसनणे दोषो,न मद्ये न च मेथुने । प्रवृत्तिरेषा नूतानां, निवृत्तिस्तुमहाफलाइत्यादि । तदेवं क्रूरसिंहरूलसर्पवत् प्रकृत्यै प्राणातिपातानुष्ठायी अनिवृतः कदाचिदप्यनुपशांतः क्रोधामिना दह्यमानोयदिवा लुब्धकमत्स्या दिवधकजीविकाप्रसक्तः सर्वदा परिणामपरिणतोऽनुपांतोहन्यते प्राणिनः स्वकृतकर्मविपाकेन यस्मिन् सघातोनरकस्तमुपसामीप्येनैति । याति कोबालोऽज्ञो राग पोदयवर्ती सोंतकाले मरणकाले (निहोति ) न्यगधस्तात् (णिसंति) यधोंधकारं गलती त्यर्थः । यथा तेन पुश्चरितेनाधः शिरःकृत्वा ऊर्ग वषमं यातनास्थानमुपैति अवाशिरा न रके पततीत्यर्थः ॥ ५॥ सांप्रतं पुनरपि नरकांतर्वर्तिनोनारका यदनुजवंति तदर्शयितुमा Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २० वितीये सूत्रकृतांगे प्रथम श्रुतस्कंधे पंचमाध्ययनं. ह। (हणविंदहेत्यादि)। तिर्यङ्मनुष्यनवात्सत्वानरकेषूत्पन्नाअंतर्मुहूर्तेन निनांडज' सन्निनानि शरीराव्युत्पादयंति । पर्याप्तिनावमागताश्चातिनयानकान् शब्दान् परमाधार्मि कजनितान् शएवंति । तद्यथा। हतं मुजरादिना निंदित खजादिना निन्नं मूलादिना दग्धं मु मुरादिना ।णमितिवाक्यालंकारे। तदेवंनूतान् कर्णासुखान शब्दान् नैरवान श्रुत्वा तेतु ना रकानयोद्धांतलोचनानयेन नीत्या निन्ना नष्टा संज्ञाऽतःकरणतिर्येषांते तथा नष्टसंज्ञाश्च कांदिशं व्रजामः कुत्र गतानामस्माकमेवंनूतस्यास्य महाघोरारवदारुणस्य सुरवस्य त्राणं स्यादित्येतत्कांदतीति ॥ ६ ॥ इंगालरासिं जलियं सजोति, ततोवमं नूमिमणुकमंता॥तेमऊ माणा कलुणं थांति, अरहस्सरा तब चिरहितीया ॥७॥ज ते सुया वेयरणीनिउग्गा, जिसि जहा खुरश्व तिरकसोया॥ तरं ति ते वेयरणीनिजग्गां, नसुचोझ्यासत्ति सुहम्ममाणा॥॥ अर्थ-एम चिंतवी नयनांत बता नाशता थकां जे पामे ते कहेले. (इंगालरासिंज लियंसजोति के०) खदिरांगार एटले खयरना अंगाराना पुंज ज्वाला कराल ज्योति स हित एवीजे नूमि (ततोवमं के०) तेनी नपमा जेने (नमिमक्कमंता के०) एवी नमि ने अतिक्रमता (तेमसमाणा के०) तेनारकी अत्यंत दाऊता बलता थका (कलुएंथ पंति के०) कलुनमहाशब्दास्तनंति करुण एटले घणा दीनस्वरे याकंद करे परंतु ते नारकी केवाले तोके (अहरहस्सरा के०) जेनो स्वर प्रगट जाण्यामां थावे नही एटले जेवा गुंगाना शब्द तेवा शब्दे बोले वली केवाडे तोके (तचिरहीतीया के०) त्यां घ पोकाल रेवानी स्थिति जेनी एटले नत्रूष्ट तेत्रीश सागरोपमनी स्थिति बने जघन्य दश हजार वर्षनी स्थिति जाणवी. ॥ ७ ॥ गुरु शिष्य प्रत्ये कहे के (जश्तेसुयाके) जेते सनिलीने गुं शांजलीने.(वेयरणीनिग्गाके) वेतरणी नामनी नदी घणी उर्ग एट ले विषम केवी विषम तोके (णिसिजहाखुरश्वं तिरकसोया के०) कुर एटले बुरी नी पेरे तीण स्रोत एटले पाणीनुं पूर जेने विषे एवी (वेयरणीनिडग्गां के०) ते वेतरणी नदी माहा विषम तेमां (तेके) ते नारकी नरकनी नूमिना तापे तप्या बता पाणीना अर्थि तरस्या थका (तरंति के०) तरे पण केवा बता तरे तोके त्यां जवाने अण बता (नुसुचोश्याके०) बाणना चोया एटले प्रेया तथा (सतिसुहम्ममा णा के०) शक्ति नाले करी हणाता थका ते नदीने उखे पीडया बता बलात्कारे ते वेतर पीनदी अगाध माटे तरवाने असमर्थ बता पण तरे तेवारे घणाज कुःखी थाय पडी तर वाने नौकानी वांना करे तेवारे फरीअत्यंत दुःखी थाय ते आगली गाथायें कहेले.॥७॥ Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रायधनपतसिंघ बदाउरका जैनागम संग्रह नाग उसरा. २१ -- ॥ दीपिका-अंगारराशिं ज्वलितं सह ज्योतिषा वह्निना वर्तत इति सज्योतिन् मिस्तेनो पमा यस्यां सा तपमा तामंगारतुल्यां नूमिमाक्रमंतस्ते नारकादह्यमानाः करुणं दीनं स्तनंत्याकंदंति । तत्र बादराग्नेरनावात्तपमा नूमिमित्युक्तं । एतदपि दिग्दर्शनार्थमुक्तं।थन्य था नारके चिरस्थितिकालस्थितयः । तथाहि । उत्कृष्टतस्त्रयस्त्रिंशत्सागरोपमाणि जघन्य तस्तु दशवर्षसहस्राणि तिष्ठति ॥ ७ ॥ सुधर्मस्वामी जंबूस्वामिनमाद । यदि ते त्वया श्रु ता वैतरणी नाम दारोभरुधिराकारजलवाहिनी नदी अनिर्गा विषमा।यथा निशितस्ती दणः कुरः स्यादेवं तीदणानि स्रोतांसि प्रवाहायस्याः सा तीदणस्रोताः। तथा ते नारका तापतप्ताजलं पातुमिडवो वैतरणीमतिमुर्गा तरंति । किंनूताः । इषुणा शरेण प्रतोदेने व प्रेरिताः शक्तिनिः शस्त्र विशेषैर्हन्यमानाः। तृतीयार्थे सप्तमी॥७॥ ॥ टीका-तेच नयोक्षांतादिनु नष्टायदनुनवंति तदर्शयितुमाह । (इंगालेत्यादि) थं गारराशिं खदिरांगारपुंजं ज्वलितं ज्वालाकुलं तथा सह ज्योतिषोद्योतेन वर्ततइति सज्यो तिमिस्तेनोपमायस्याः सा तउपमा तामंगारसन्निनां नूमिमाक्रमंतस्ते नारकादंदह्यमा नाः करुणं दीनं स्तनंत्याकंदंति । तत्र बादराग्नेरनावात्तउपमा नूमिमित्युक्तं । एतदपि दिग्दर्शनार्थमुक्तमन्यथा नारकतापस्येहत्याग्निना नोपमा घटते । तेच नारकामहानगरदा हाधिकेन तापेन दह्यमानांबरहस्वरायप्रकटस्वरामहाशब्दाः संतस्तत्र तस्मिन्नरकावा से चिरं प्रनूत कालं स्थितिरवस्थानं येषां ते । तथा ह्युत्कृष्टतस्त्रयस्त्रिंशत्सागरोपमा णि जघन्यतोदशवर्षसहस्राणि तिष्ठंतीति ॥ ७॥ (जश्तेसुयाइत्यादि)। सुधर्मस्वामी जंबूस्वामिनं प्रतीदमाह। यथा जगवतेदमाख्यातं यदिते त्वया श्रुता श्रवणपथमुपाग ता वैतरणी नाम दारोमरुधिराकारजलवाहिनी नदीयानिमुख्येन उर्गानिर्गावोत्पा दिका । तथा निशितोयथा कुरस्तीदणानि शरीरावयवानां कर्तकानि स्रोतांसि यस्याः सा। तथा तेच नारकास्तप्तांगारसन्निना नूमिं विहायोदकं पिपासवोऽनितप्ताः संतस्तापाप नोदायाऽनिविषिक्ष्वोवा तां वैतरणीमनिडाँ तरंति।कथंनूताः।इषुणा शरेण प्रतोदेनेव चो दिताः प्रेरिताः शक्तिनिश्च हन्यमानास्तामेव नीमां वैतरणी तरंति ।तृतीयार्थे सप्तमी॥॥ कीलेहिं विनंति असाढुकम्मा, नावं नविते सऽ विष्पर्णा ॥ अन्नेतु सूलादि तिसूलियाहिं, दीहाहिं विभ्रूण अहे करंति ॥॥ केसिंच बंधित्तु गले सिलान, उदगं सि बोलंति महालयंसि ॥क लंबुयावालुय मुम्मुरेय, लोलंति पच्चंति अतब अन्ने ॥१०॥ अर्थ-(असाहुकम्माके) पडीते असाधुकर्मा पापकारक एवा नारकी ते नावमाहेलाजे Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७२ वितीय सूत्रकृतांगे प्रथम श्रुतस्कंधे पंचमाध्ययनं. लोखमना ( कोलेहिके ) खीला तेणेकरी ( विनंतिके ० ) वींधाय ( नावंचवितेके०)नावायें चढया (साविष्पर्णाके०) स्मृतिविप्रहीणा स्मृतिहीन एटले विवेकरहित थाय तथा (अन्नेतुके० ) अन्य वली परमाधार्मिक लोक ते नारकीनने नाशी जता देखीने (सूलाहितिसूलिया हिंदीहाहिके०) त्रिशूलसहित एवी दीर्घ एटले लांबी शूलीयें (विकू अहेकरंतिके०) वींधी करीने नीचा धरतिने विषे नाखे ॥ए। (केसिंच बंधित्तुगलेसिला के) केटलाक नारकीने परमाधार्मिक लोक तेमना गलामा अत्यंत वजनदार शिला बांधीने (महालयसि के०) माहा अगाध नंमा एवा (नदगंसिबोलंति के) पाणीमा बोले फरी तेमाहेथी काढीने पढ़ी (कलंबुयावालुयमुम्मुरेयके०) कलंबू फूल शरखी वे सूने विष तथा मुम्मुरेय एटले अनीने विषे (लोलंति के०) बाघा पाना घाले अत्यंत तप्तरेती मांहे चणानी पेरे शेके (तनपने के ) त्यां वली अन्य परमाधार्मिको (पञ्चं तिथके) ते नारकीने मांसनी पेशीनी पेरे पचावे तुहंपियाइ मांसा इत्यादि.॥१०॥ ॥ दीपिका-तान् नारकान वैतरणीजलतप्तान लोहकीलाकुला नावमागचंतः पूर्वारूढ़ा असाधुकर्माणः परमाधार्मिकाः कीलेषु कंतेषु विध्यंति तेच विध्यमानावैतरणीजलेन न टसंज्ञाः स्मृतिविहीणागतकर्तव्यविवेकाः स्युः। अन्ये पुनर्नरकपालानारकैः क्रीडंतस्ता न त्रिशूलिकानिः शूलानिर्दीर्घा निर्विध्वा अधोनूमौ जालयंति ॥ए केषां चिनारकाणांगले ते परमाधार्मिकाः शिला बध्वा महति जले बोलंति मऊयंति ततः समारूष्य पुनर्वैतर पीनद्याः कलंबुकावालुकायां मुर्मुराग्नौ लोलयंति अन्येच नारकान् तत्र नारकावासे चष्टकक्षिप्तमांसवत् पचंति ॥ १०॥ ॥ टीका-किंच (कीलेहीत्यादि ) तांश्च नारकानत्यंतदारोमेन दुर्गधेन वैतरणीजले नानितप्तानायसकीलाकुला नावमुपगतः पूर्वारूढायसाधुकर्माणः परमाधार्मिकाः कीलेषु कंठेषु विध्यंतीति । तेच विध्यमानाः कलकलायमानेन सर्वस्त्रोतोनुयायिना वैतर पीजलेन नष्टसंज्ञाअपि सुतरां स्मृत्या विप्रहीणाअपगतकर्तव्यविवेकानवंति । अन्ये पु ननरकपालानारकैः क्रीडंतस्तान्नष्टांस्त्रियूलिकानिर्दीर्घिकाजिरायतानिर्विध्वा अधोनूमौ कुर्वतीति ॥ ५॥ अपिच (केसिंचइत्यादि ) केषां चिन्नारकाणां परमाधार्मिकाम हती शिलां गले बना महत्युदके (बोल तित्ति) निमजयंति । पुनस्ततः समारुष्य वै तरणीनद्याकलंबुकावालुकायां मुर्मुराग्नौ च लोलयंति अतितप्तवालुकायां चणका निव समंततोपोलयंति । तथान्ये तत्र नरकावासे स्वकर्मपाशावपाशितान्नारकान सुंदके प्रोतकमांसपेशीवत् पचंति जर्जयंतीति ॥ १० ॥ Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राय धनपतसिंघ बाहारका जैनागम संग्रह नाग दुसरा. प्रसूरियं नाम महाभितावं, अंधतमं डुप्पतरं मतं ॥ नहुं तिरियं दिसासु, समादिन जब गीक्रियाई ॥ ११ ॥ जं सी गुहाए जलति, विजानु म लुत्तपसो ॥ सया य कनू पुण घम्माणं, गाढोवणीयं प्रतिडुरकधम्मं ॥ १२ ॥ 0 अर्थ-) प्रसूरियं नामके०) नयी ज्यां सूर्य तेने सूर्य स्थानक कहिए एटले कुंनीने, याकारे माहाअंधकाररूप नरकावास, तथा ज्यां (महानितावं के ० ) माहा अत्यंत तापले ( अंधतमं के ० ) अत्यंत अंधकारबे, एवा ( डुप्पतरं महंतके० ) महोटा विशाल स्तर स्थानकने पापना उदयथी ते नारकी पामेबे. (जब के० ) जे नरकावासमां सर्वकाल ( हे तिरियं दिसासु के० ) चंचुं नीचुं ने तिर्छु एटले सर्व दिशाउने विषे ( अगली जिया के ० ) प्रज्वलित अग्नीने ( समाहित के० ) स्थाप्यो बे अर्थात् ज्यां सदा काल मी बल्यां करेले एवा कष्ट मांहे नारकीने पाडे ॥ ११ ॥ ( जंसीगुहाए जल ति०) जे नरकावासने विषे नंटने व्याकारें गुफाले ते गुफा मांहे प्रवेश करतोज य नीना व्यावर्तमां पडे एवो ( विजान के० ) अजाण बापडो पोताना कर्मने नथी जाणतो तथा (लुपमो के ० ) लुप्तप्रज्ञो एटले जेनी प्रज्ञा लोपाइ गइबे, एवो बतो ते नार की त्यां(मझइके०) दाऊ बजे (सायकलुपं के ० ) सर्वकाल करुणप्राय दयाम एवं (पुण घम्मा के ० ) पूर्ण तापनुं स्थानक त्यां (गाढोवीयंके०) व्याकरा पापकर्मे करी ढोयुं ( तिडुरकधम्मंके० ) ज्यां अत्यंत दुःखरूप नुंज धर्म एटले स्वनावलेएवं स्थानक नारकी पामे. २७३ ॥ दीपिका - (सूर्येति) नविद्यते सूर्योयस्मिन् सोऽसूर्योनरकोंधकारमयस्तं महानि तापं अंधतमसं प्रतरं महांतं नरकं पापोदयाद् व्रजंति । तत्र च नरके उर्ध्वमध स्तिर्यक्रू च सर्वदि समाहितोव्यवस्थापितोऽग्निः प्रज्वलतीति ॥ ११ ॥ ( जंसीति ) यस्मिन् न के प्राणगुहायामिव ज्वलनेऽमौऽतिवृत्तः प्राप्तवेदनानुगतः स्वकृतं पापमजानन् लुप्तप्रज्ञो गतप्रज्ञाविवेको दह्यते । तथा सदा करुणं पुनर्दानं धर्मस्थानमापत्स्थानं गाढमत्यर्थमु पनीर्त दुष्कृतेन प्रतिडुःखरूपोधर्मस्वनावोयस्मिन् तत्तथा एवंविधं स्थानं ते व्रजंति नय त्र दुःखविश्रामः । यतः । विनिमीलणमेतं नबिसुहंडरकमेव बधं ॥ निरएनेरइया पं, होनिसंपद्यमाणां ॥ १२ ॥ ॥ टीका - तथा ( सूरियमित्यादि ) । न विद्यते सूर्योयस्मिन् सोऽसूर्योनरकोबह aiकारः कुंजी पाककृतिः सर्वएव वा नरकावासोऽसूर्योव्यपदिश्यते । तमेवंभूतं महा ३५ For Private Personal Use Only Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७४ हितीये सूत्रकृतांगे प्रथम श्रुतस्कंधे पंचमाध्ययनं. नितापमंधतमसं दुष्प्रतरं पुरुत्तरं महांतं विशालं नरकं महापापोदयाति । तत्र च नरके कर्वमधस्तिर्यक् सर्वतः समाहितः सम्यगाहितोव्यवस्थापितोग्निर्जाज्वलतीति । पच्यते च । (समूसिजनगणीकियांइ) यत्र नरके सम्यगूवैश्रितः समुद्रितोऽग्निःप्रज्वलति तं तथाजूतं नरकं वराकाव्रजति. ॥ ११ ॥ किंचान्यत् (जंसिगुहाएइत्यादि) यस्मिन्नरके ऽतिगतोऽसुमान् गुहायामित्युष्टिकाकतौ नरके प्रवेशितोज्वलनेऽग्नावतिवृत्तीवेदनानि नूतत्वात्स्वरुतं कुश्चरितमजानन लुप्तप्रझोऽपगतावधिविवेकोदंदह्यते । तथा सदा सर्वकालं पुनः करुणप्रायं कृत्स्नं वा धर्मस्थानमुलस्थानं तापस्थानमित्यर्थः । (गाढंति ) अत्यर्थमु पनीतं ढौ कितं पुष्कतकर्मकारिणां यत् स्थानं तत्ते व्रजति । पुनरपि तदेव विशिनष्टि । अ तिःखरूपोधर्मः स्वजावोयस्मिन्निति । इदमुक्तं नवति । अदिनिमेषमात्रमपि का नत स्य फुःखस्य विश्रामइति । तमुक्तं । अलि णिमीलणमेत्तं पनि सुहं उरकमेव पडिबई ॥ णिरए ऐरश्याणं, अहोणिसं पञ्चमाणाणं ॥ १ ॥ १५ ॥ चत्तारि अगणिन समारनित्ता,जेहिं कूरकम्मा नितविति बाल॥ ते तब चिति नितप्पमाणा, मबावजीवंतुवजोतिपत्ता ॥१३॥ सं तवणं नाम महादितावं, ते नारया जब असादुकम्मा॥ दबेदि पाएदिय बंधिळणं, फलगंवतबंति कुहाडदबा ॥२४॥ अर्थ-( चत्तारिअगणि समारनित्ता के) चारदिशे चार अग्नी समारंनीने एटले प्रज्वलित करीने (जेहिं के०) जे नरकावासने विषे (कूरकम्मा के०) क्रूरकर्मना कर नार एवा परमाधार्मिको ते (अनितविंतिबालके०) अज्ञानी एवा बापडा नारकीने तपावे (तेतबचितिनितप्पमाणाके) तेनारकी त्यां पूर्वोक्त रीते ताप सहन करता कदर्थता अत्यंत दुःख भोगवता बतां घणा काल सुधी रहे कोनीरे तोके (मनावजीवंतुवजोति पत्ता के०) जेम जीवता मत्स्य अग्नी पासे मूक्या बता अत्यंत तापनु फुःख पामे पण परवश पणाने लीधे त्यांथी नासी शके नही, तेमते नारकी पण जाणी लेवा. ॥ १३ ॥ (संतबर्णनाम के०) त्यां ते नरकमांहे नारकीने त्राबवा छेदवानुं जे स्थानक ते केवुले तोके (महानितापं के०) सर्वने महा सुःखकारण (जब के०) ज्यां (असादुकम्मा के०) असाधुकर्मि एवा परमाधार्मिको (कुहाडहबा के०) हाथमां कुहाडो लश्ने (तेनारया के०) ते नारकीनने पकडीने (हबेहि पाएहियबंधि कणंके० ) तेना हाथ तथा पग बांधी(फलगंवतबंति के०)काष्टनी पेरे त्रा लेदे. ॥१४॥ ॥दीपिका-(चत्तारित्ति) चतसृष्वपि दिनु चतुरोग्नीन् समारन्य प्रज्वाव्य यत्र नरके क्रूरक Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राय धनपतसिंघ बाहाउरका जैनागम संग्रह नाग उसरा. ज्य मीणोनरकपालास्तंबालं मूर्ख अनितापयति नटित्रवत् पचंति तेनारकास्तत्रानितप्य मानाः कदर्यमानास्तिष्ठति । यथा मत्स्याजीवंतोज्योतिःप्राप्ता अग्निगताः पीडयंते तथा पीडयमानाः॥ १३ ॥ (संतबणमिति ) नामेति संनावनायां । संतक्षणं बेदनं महानि तापं महाकुःखोत्पादकं । ततस्ते यत्र नरकावासे असाधुकर्माणः क्रूरकर्माणोनरकपालाः कुठारहस्तान् हस्तैः पादैश्च बध्वा फलक मिव काष्ठवंममिव तदणुवंति बिंदंति.॥ १४ ॥ ॥ टीका-अपिच । ( चत्ता रिश्त्यादि) चतसृष्वपि दिल चतुरोग्नीन समारन्य प्रज्वा ल्य यस्मिन्नरकावासे क्रूरकर्माणोनरकपालापानिमुख्येनात्यर्थ तापयंति नटित्रवत्प चंति बालमज्ञ नारकंपूर्वकतहुश्चरितं । तेतु नारकजीवाएवमनितप्यमानाः कदर्थ्यमानाः स्वकर्मनिगडितास्तत्रैव प्रनूतं कालं महाकुःखाकुले नरके तिष्ठति । दृष्टांतमाह । यथाजी वंतोमत्स्यामीनानपज्योतिरग्नेः समीपे प्राप्ताः परवशत्वादन्यत्र गंतुमसमर्थास्त त्रैव तिष्ठंत्येवं नारकाअपि । मत्स्यानां तापासहिमुत्वादग्नावत्यंतं फुःखमुत्पद्यतइत्यतस्तद्रह मिति ॥ १३ ॥ किंचान्यत् (संतबमित्यादि) समेकीनावेन तकणं संतक्षणं । नामश ब्दः संजावनायां । यदेतत्संतक्षणं तत्सर्वेषां प्राणिनां महानितापं महाकुःखोत्पादकमित्ये वं संभाव्यते । यदेवं ततः किंचित्याह । ते नारकानरकपालायत्र नरकावासे वनवनादा गताअसाधुकर्माणः क्रूरकर्माणोनिरनुकंपाः कुठारहस्ताः परशुपाणयस्तान्नारकानत्राणान् हस्तैः पादैश्च बध्वासंयम्य फलकमिव काष्ठशकलमिवतदणुवंति तनूकुर्व तिबिंदंतीत्यर्थः१४ रुहिरे पणो वच्च समुस्सिअंगे, निन्नत्तमंगे परिवत्तयंता॥ पयंति णं णेरशए फुरते, सजीवमलेव अयोकवल्ले ॥१५॥नोचेव ते तब मसीनवंति, पमिङतीतिबनिवेयणाए॥तमाणुनागंअणुवेदयं ता, उकंति उस्की इद उक्कडेणं ॥१६॥ अर्थ-(रुहिरेके० ) ते परमाधार्मिको ते नारकीजीवोनुज रक्त, काढीने कडाहमा नाखी (पुणोके) फरी तेज लोहीमा ते नारकी ने पचावे ते नारकी केवाने तोके (व चके०) सुगंध वस्तु तेणेकरी (समुस्सिके० ) खरड्या (अंगेके) अंग जेमना एवा ते नारकीने केवीरोते पचावे तोके (निनुत्तमंगेके०) प्रथम तेमनुं उत्तमांग नेदीने पढ़ी (प रिवत्तयंता के०) परिवर्तयंता एटले समु होय तेने नपरांत होय करे अने उपरोतुं तेने समु करे अर्थात् नुत्तटावी पलटावीने पचावे. (पयंतिगरइएफुरते के०) त्यां पचता थका ते नारकी तापे करी विज्वल बता आघा पाना नथलता हालता थका धूजे, ट लवले, कोनीपेरे तोके (सजीवमन्वअयोकवल्ने के०) जेम जीवता मत्स तप्त लोखं Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६ वितीये सूत्रकृतांगे प्रथम श्रुतस्कंधे चतुर्थाध्ययनं. मनी कडाहमा नारख्या थका अत्यंत टलवले, तेनी पेरे ते नारकी पण वेदना सहन करता थका टलवले.॥ १५॥ (नोचेवतेतजमसीनवंति के० ) पण ते नारकी त्यां पचा व्या थका बलीने जस्म नथाय, ( णमितीतिवनिवेयणाए के० ) मरण पामे नही शरीर बांके नही. अत्यंत नय वेदनाये पण पोताना कतकर्म (तमानागं के० ) ते कर्मनो अनुनाग जे विपाक तेने (अणुवेदयंता के०) अनुवेदता एटले जोगवता थका (अरकंतिउरकोइहउक्कडेणं के०) सीतोमवेदना दहन हनन बेदन जेद ताडन तनादिक तथा ताण त्रिशूलारोपण कुंजीपाक सालम्ली वृदा दिके करी नप जावेला जे फुःख, ते उखेकरी उखीथका पोताना करेला उकतने योगे त्यां जीवता थ काज रहे पण आयुष्य पूरण कस्या विना मरण पामेज नही. ॥ १६ ॥ ॥ दीपिका-(रुहिरेत्ति ) ते नरकपालास्तान्नरकान स्वरुधिरे तप्तकवल्यां प्रदिप्ते पुनः पचंति । वर्चःप्रधानानि समुब्रितानि अंत्राण्यंगानि वा येषांते तथा तान् । निन्नं चूर्णितमु त्तमांगं शिरोयेषांते तथा तान् । के पचंतीत्याह। परिवर्तयंतउत्तानानधोमुखांश्च कुर्वतः। वाक्यालंकारे । तान् स्फुरतश्तश्चेतश्च विव्हलान् सजीवमत्स्या निव लोहकवल्यां पचंति ॥१५॥ (गोचेवेति) ते च नारकाएवं वन्दिनापच्यमानायपि नमषीनवंति नजस्म सातूनवंति नरकानुनावात् । तथा तीव्रवेदनया नापरममिप्रदिप्तमत्स्यादिकमप्यस्ति य न्मीयते उपमीयते । अथवा तीवानिवेदनयापि अननुनूतस्वकर्मत्वान्ननियंते तं दनने दनादिकमनुनागं कर्मविपाकमनुवेदयंतोऽनुनवंतस्तिष्ठंति । तथा कृतेन सुष्कतेन :खि नोकुखयंति पीडयंति. ॥१६॥ ॥ टीका-अपिच (रुहिरेपुणोइत्यादि) ते परमाधार्मिकास्तान्नारकान्स्वकीये रुधिरे तप्तकवल्या प्रक्षिप्त पुनः पचंति । वर्चःप्रधानानि समुहितान्यंत्राण्यंगानि वा येषांते तथा तान जिन्नंचूर्णितमुत्तमांगं शिरोयेषां ते तथा तानिति । कथं पचंतीत्याह । परिवर्त यंतमत्तानानवाङ्मुखान् वा कुर्वतः । मिति वाक्यालंकारे । तान् । स्फुरतश्तश्चेतश्च वि व्हलमात्मानं निक्षिपंतः सजीवमत्स्यानिवायसकवल्यामिति ॥ १५ ॥ तथा ( पोचेवे त्यादि) तेच नारकाएवं बहुशः पच्यमानाअपि नोनैव तत्र नरके पाकेवा नरकानुनावे वा सति मषीनवंति नैव नस्मसाजवंति। तथा तत्तीवानिवेदनया नापरमग्निप्रदिप्तमत्स्या दिकमप्यस्ति यन्मीयते उपमीयते अनन्यसदृशीं तीवां वेदनां वाचामगोचरामनुनवंती त्यर्थः । यदिवा तीवानिवेदनयाप्यननुनूतस्वरुतकर्मत्वान्ननियंतइति प्रनतमपि कालं याव तत्तादृशं शीतोमवेदनाजनितं तथादहनबेदनबेदनतत्रिशूलारोपणकुंजीपाकशाल्मल्या रोहणादिकं परमाधार्मिकजनितं परस्परोदीरणनिष्पादितं चानुनागं कर्मणां विपाकमनुवेदयं Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राय धनपतसिंघ बानाउरका जैनागम संग्रह नाग उसरा. १७७ तः समनुवेदयंतः समनुनवंतस्तिष्ठति । तथा स्वकतेन हिंसादिनाऽष्टादशपापस्थानरूपेण सततोदीर्णःखेन पुःखिनोःखयंति पीडयंते नादिनिमेषमपिकालं ःखेन मुह्यंतइति ॥१६ तेहिंचते लोलणसंपगाढे, गाढं सुतत्तं अगणिं वयंति ॥ न तन सायं लदतीनिग्गे, अरशियानितावा तहवी तविति ॥१७॥ से सुच्चई नगरवदेव सद्दे,उदोवणीयाणि पयाणि तब॥ नदिमक म्मापनदिमकम्मा, पुणोपुणो ते सरदं उदेति ॥ १७ ॥ अर्थ-( तेहिंच के०) ते नरकावासने विषे (तेके०) ते नारकीने (लोलणसंपगाढे के)यालोलवे एटले आधा पाना करवे करी अत्यंत व्याप्त शीतात बताएवा नारकी सुखने अर्थे (गाढंसुतत्तंअगणिवयंतिके)अत्यंततप्त अग्नीने विषे जाय,परंतु(नतबसायंलहतीनि उग्गे के०) त्यां विषम अग्नीस्थानने विषे पण शातान पामे (अरशितानितावा तह वीतविंतिके०) निरंतर ज्यां आकरो तापने एवा नरकने विषे परमाधार्मिक तेने तपावे, तेल तप्तकरी तेने कष्ट आपे,एम अनेक प्रकारे परमाधार्मिक देवो नारकीजीवोने वेदना करेले. ॥ १७ ॥ (सेसुच्चईनगरवहेवसदेके) तेनरकमांहे नारकीना बाकंद शब्द नगरना वधजेवा संनलाय जेम कोइएक नगरनो नाश करे तेवारे माहा कोलाहल शब्द था य एवो आक्रंद शब्द हामात, हातात, दुं अनाथ ताहारे सरणागत, मुजनेराख, इत्यादि शब्द सांजलीये (उहोवणीयाणिपयाणितबके) उखोपनीता निपदानितत्रनरकेशब्दः एट ले त्यां नरकने विषे करुणा प्रलाप सहित एवा पूर्वोक्त पदोना दयामणा शब्द बोले (नदि मकम्मापनदिमकम्मा के०) जेने कटुक विपाकरूप कर्म वर्तमानकाले उदय थयाने एवा नारकीने मोहनीय कर्मना उदयवाला एवा परमाधार्मिक देवो (पुणोपुणोतेके) ते पुनःपुनःपूर्वोक्तरीते (सरदंषुहेतिके०) उत्साह सहित नारकीनने एटला ःख करे.॥१७॥ ॥ दीपिका-( तेहिंचेति) तत्र नरके नारकाणां लोलनेनेतःपरतोघोलनेन संप्रगाढे व्याप्ते शीतार्तानारकागाढमत्यर्थ सुतप्तमग्निंव्रजति । तत्राप्यनिस्थानेऽनिर्गे सात सुखं न लनंते । अरहितोनिरंतरोऽनितापोयेषांतेऽरहितानितापास्तथापि तान्नरकपा लास्तापयंति तप्ततैलादिना दहंतीति ॥१७॥ (सेशति) से अथ तेषां नारकाणां जयान कः शब्दोनगरवधश्व श्रूयते । यथा नगरसंबधी महानाकंदः स्यात्तादृशोःखेनोपनीतानामु चारितानां पदानां हामातः हातातश्त्यादीनां तत्र शब्दः श्रूयते । नदीर्णमुदयप्राप्त क म येषांते तथा तेषामुदीर्णकर्माणोनरकपालामिथ्यात्वहास्यरत्यादीनामुदये वर्तमानाः पुनःपुनस्ते सरहंसोत्साहं नारकान् फुःखयंति ॥ १७ ॥ Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०८ द्वितीये सूत्रकृतांगे प्रथम श्रुतस्कंधे पंचमाध्ययनं. ॥ टीका - किंचान्यत् । ( तेहिचेत्यादि ) तस्मिंश्च महायातनास्थाननरके । तमेव वि शिनष्टि । नारकाणां लोलने सम्यक् प्रगाढोव्याप्तोनृतः सतथा तस्मिन्नर के शीतार्ता: संतो गाढमत्यर्थ तमग्न व्रजंति । तत्राप्यग्निस्थानेऽ निडुर्गे दह्यमानाः सातं सुखं मनाग पि नलचंते । खरहितोनिरंतरोऽनितापोदाहोयेषांते खरहितानितापास्तथापि तान्नार कास्तेनरकपालास्तापर्यतीत्यर्थः । तप्ततैजाग्निना दहंतीति ॥ १७ ॥ यपिच (सेसुई त्यादि ) शब्दोऽथशब्दार्थे । यथानंतरं तेषां नारकाणां नरकपालैरौरैः कदर्थ्यमानाना नयानको हाहारवप्रचुरप्राक्रंदनशब्दोनगरवधश्व श्रूयते समाकर्ण्यते दुःखेन पीमयो नीताच्चरितानि करुणाप्रधानानि यानि पदानि हामातस्तात कष्टमनाथोहं शरणागत स्तव त्रायस्व मामित्येवमादीनां पदानां तत्र नरके शब्दः श्रूयते । नदीमुदयप्राप्तं कटुवि पाकं कर्म येषां तथोदीर्णकर्माणोनरकपाला मिथ्यात्व हास्य रत्यादीनामुदये वर्तमानाः पुनः पुनर्बहुशस्ते ( सरहं तित्ति) सरनसं सोत्साहं नारकान् खयंत्यतस्तदसह्यं नानाविधैरुपा यैः खमसात वेदनीयमुत्पादयंतीति ॥ १८ ॥ पाणेदिणं पावविन जयंति, तं से पवस्कामि जदा तहे ॥ दं मोहें तचा सरयंति बाला, सवेहिं हि पुरा करहिं ॥१॥ ते हम्म माणा परगे पडंति, पुन्ने पुरुवस्स महानितावे ॥ ते तच चिति रुवनकी, तुहंति कम्मोवगया किमीहिं ॥ २० ॥ अर्थ- वाक्यालंकारे (पाणेहिपावविजयंति के ० ) ते पापिष्ट परमाधार्मिको नार की प्राणीना इंडी विमुक्त करे उपांग वेगलाकरे ( तंसेपवरका मिजहात हेां के० ) ते ना रकीने एटला दुःख सावास्ते करे तेना कारण तमने यथा तथ्य कहुंटुं ( ता के ० ) त्यां (मेहिं के० ) दुःख विशेष एटले पाउला नवना करेला कर्म तेने ( सरयंति ho ) संजारीने तेनरकपाल पुरुषो तेने कहेके परे बापडा तें पूर्वजवने विषे मांसन क्षण, मद्यपान, जीवघात, मृषावाद, चोरी, परस्त्रीगमन, करखाने, ते सांप्रत ताहारे उद याव्या, तेने योगे तुं दुःख जोगवेढे, माटे ग्राम सावास्ते खारडेडे. एरीते ( बाला के 0 ) ते परमाधार्मिक पुरुषो (सवेहिं के०) सर्वथा प्रकारे ( दंगेहि के० ) ते नारकीने दुःखरूप दमेकरी (पुराकए हिंके ० ) पूर्वकृत कर्मना उदय थकी पीडा करे. ॥ १ ॥ (तेहम्म माला र पति के ० ) ते नारकी हणाया थका पांचशे योजन उंचा नबलीने नरकने एकदे से पडे ते नरक केवाले तोके ( पुन्नेरुवस्स महानितावे के० ) इष्टरूप माहातापे करी पूर्णबे, नाना प्रकारना दुःख तथा मल सहितळे, (तेत चितिरूवनरकी के० ) For Private Personal Use Only Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राय धनपतसिंघ बाहारका जैनागम संग्रह नाग दुसरा. २७ नारकीची वस्तुना खाहारी बता घलोकाल सुधी रहे (तुति कम्मोवगया किमी हिं के० ) कर्मने वस पड्या एवा नारकीने परमाधार्मिक विकूर्विने पीडे ॥ २० ॥ || दीपिका - (पाणे हि मिति) गं वाक्यालंकारे । ते पापानरकपालाः प्राणैः शरीरेंडिया दि निर्वियोजयंति येनैवं दुःखं ते लनंते तदुःखकारणं ने नवतां याथातथ्येन सत्यतया प्रव दयामि तेषां दंमैर्नरकविशेषैस्तत्र बालानरकपालाः पूर्वकृतं स्मारयति । पूर्वनवे त्वं मां सानि खादसि पिबसिमद्यं गवसि परदारान् । सांप्रतं विपाकप्राप्तेन कर्मणा किमेवमा दसीत्येवं पुराकृतैः सर्वैर्द मेईःख विशेषैस्तादृशमेव दुःखमुत्पादयंति ॥ १७ ॥ ( तेइति ) नारका हन्यमानानष्टाः संतोऽन्यस्मिन् घोरतरे नरके पतंति । किंनूते पूर्णे नृते । रूपं वि मांसादिमलं तस्यनृते महानितापेऽतिसंतापोपेते तत्र नरके रूपस्याशुच्यादेर्न दि स्तिष्ठति । तथा कृमि निर्नरकपालकृतैः परस्परकृतैश्व तुद्यंते व्यय्यंते । तथा चागमः । बीसत्तमासु पुढवीसुनेरइया पहूमहंताई जोहि कुंथुरुवारं विनवित्ता मममस्स कार्य समच रंगेमाणा २ प्रकायमाणा २ चिति ॥ २० ॥ 1 ॥ टीका - तथा ( पाहिल मित्यादि ) समिति वाक्यालंकारे । प्राणैः शरीरेंड्रिया दिन स्ते पापाः पापकर्मणोनरकपालावियोजयंति शरीरावयवानां पाटनादिनिः प्रकारैर्विक र्तनाद वयवान् विश्लेषयंति | किमर्थमेवं कुर्वतीत्याह । तद्दुःखकारणं नेयुष्माकं प्रवक्ष्यामि याथातथ्येनावितथं प्रतिपादयामीति । दंडयंति पीडामुत्पादयंतीति दंमाडुःखविशेषा स्तैर्नारिकाणामापादितैर्बाला निर्विवेकानरकपालाः पूर्वकृतं स्मारयति । तद्यथा । तदा रुष्टस्त्वं खादसि समुत्कृत्य प्राणिनां मांसं तथा पिबसि तं तसं मद्यं च गच्छसि परदा रान सांप्रतं तद्विपाकापादितेन कर्मणा ऽनितप्यमानः किमेवं रारटीपीत्येवं सर्वैः पुरा कृतैर्द डैर्दुःखावशेषैः स्मरयंतस्तादृक् नूतमेव दुःख विशेषमुत्पादयंतोनरकपालाः पीमयं तीति ॥ १७ ॥ किंच ( तेहम्ममाणाइत्यादि ) ते वराकानारका हन्यमानास्तोद्यमा नानरकपाले ज्योनष्टेऽन्यस्मिन् घोरतरे नरकैकदेशे पतंति गति । किंनूते नरके पूर्णे ad |ष्टं रूपं यस्य रूपं विष्ठासृग्मांसादिकं मनं तस्य नृते तथा महानितापिते संता पोपेते ते नारकाः स्वकर्माविबास्तत्रैवंनूते नरके रूपन दियोऽमुच्या दिनकाः प्रनू तं कालं यावतिष्ठति । तथा कृमिनिर्नरकपालापादितैः परस्परकृतैश्व स्वकर्मोपगताः स्वकर्म ढो कितास्तु व्ययं इति । तथाचागमः । बहीसत्तमासुणं पुढवीसु नेरइयाहूपमहं ताई लोहिकुंथुरुवाई विनवित्तयन्नमन्नस्सकार्यसमचवरंगे मालामाला अणुकायमाए अणुकायमाणा चिति ॥ २० ॥ For Private Personal Use Only Page #310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीये सूत्रकृतांगे प्रथम श्रुतस्कधे पंचमांध्ययननं. " सया कसिणं पुणधम्माणं, गाढोवणीयं प्रतिडुरकधम्मं॥ दूसु परिकष्प विहतु देहं वेदे सीसं से जितावयंति ॥ २२ ॥ विंदति वा लस्स खरेण नक्क, उद्वेवि विदति वेवि कन्ने ॥ जिनं विणिक्कस्स विदनिमित्तं, तिकाहिं सूलाइ जितावयंति ॥ २२ ॥ अर्थ - (सयाक सिणं पुणधम्मवाणं के०) सर्वदाकाले ते नरक परिपूर्ण धर्म एटले छा तापनुं स्थानक त्यां (गाढोवणीयं के० ) कर्मने नदयें ढोया एवा नारकी (प्रतिरक मं के ० ) अत्यंत दुःखनो धर्म एटले खनावळे ज्यां (अंदूसुपरकप्प विहत्तुदेहं के० ) ते स्थान नारकीनो शरीर निवडबंधमांदे प्रदेपीने ( वेहेणसी संसे के० ) मस्तके बिक तेने ( नितावयंति के ० ) तपावे सर्व शरीर चर्मनी पेरे विस्तारीने खीनायें करी उ खेडे. ॥ २१ ॥ ते परमाधार्मिक (बालस्स के० ) ते अज्ञानी नारकीउना (खुरेल के० ) कुर एटले बुरी करीने (नक्कं के०) नासिकाने ( जिंदंतिके०) बेदे तथा ( उठे विदिति वे विकने के०) उष्ठ बेदे तथा बने कान पण बेदे तथा मद्यमांसादि मृषाबो जवं इत्यादि पाप तेमने संजारी यापीने (जिनं विणिक्कस्तविहनिमित्तं के० ) ते नारकी नी एक वि प्रमाण जीन बाहेर काढीने (तिरका हिंसूलाइ नितावयंति के ० ) तीक्ष्ण सू लियें करी संतापे, वेदे एरीते ते नारकीने पीडे वेदना आपे ॥ २२ ॥ १८० ॥ दीपिका - ( सयेति ) सदा कृत्स्नं संपूर्ण घर्मस्यातपस्य स्थानमुलस्थानं नवति गाढैर्दृढैः कर्मनिरुपनीतं ढौकितं प्रतिडुःखमेव धर्मः स्वनावोयस्यतत् एवंविधे स्थाने स्थि तोजंतुः अंडुषु निगडेषु देहं विहत्य प्रक्षिप्य तथा शिरश्व (से) तस्य वेधने नारकस्य रंध्रोत्पादने नातापर्यंति कीलकैश्व सर्वायंगानि विश्वा चर्मवत् कीलयंति ॥ २१ ॥ (विदतीति ) दं नरकपालाः बालस्याज्ञस्य कुरप्रेण नासिकां विदतीति । तथा उष्ठौ कर्णौच दावपि ि तेति तथा जिव्हां वितस्तिमात्रां बहिर्निष्काश्य तीक्ष्णशूला निरनितापयंति अपनयति ॥ ॥ टीका - किंचान्यत् (सयाक सिणमित्यादि) सदा सर्वकालं कृत्स्नं संपूर्ण । पुनस्तत्र नरके धर्मप्रधानं प्रधानं स्थितिस्थानं नारकाणां नवति । तत्र हि प्रलयातिरिक्ताग्निवा तादीनामयं तोमरूपत्वात्तच्च दृढैर्निधत्तनिका चितावस्थैः कर्मनिर्नारिकाणामुपनीतं ढौकि तं पुनरपि विशिनष्टि । प्रतीव दुःखमसातावेदनीयं धर्मः स्वनावोयस्य तत्तथा तस्मिंश्चैवंविधे स्थाने स्थितोऽमान अंडुषु निगडेषु देहं विहत्य प्रदिप्य च यथा शिरश्च (से) तस्य नारक स्य वेधेन रंध्रोत्पादनेनानितापर्यंतीति ॥ २१ ॥ यपिच (बिंदंतिबालस्सेत्यादि) ते परमा धार्मिकाः पूर्वऽश्वरितानि स्मरयित्वा बालस्याज्ञस्य निर्विवेकस्य प्रायशः सर्वदा वेदनास For Private Personal Use Only Page #311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राय धनपतसिंघ बादाउरका जैनागम संग्रह नाग उसरा. २१ मुरातोपगतस्य कुरप्रेण नासिका लिंदंति तथौष्ठावपि चावपि कौँ विदति तथा मद्य मांसरसाऽनिलिप्सोमृषानाषिणोजिव्हां वितस्तिमात्रामादिप्य तीदणानिः शूलानिरनि तापयंत्यपनयंति ॥ २२॥ ते तिप्पमाणा तलसंपुमंब, राइंदियं तव थरांति बाला॥गलंति ते सोणिपूयमंसं, पजोश्या खारपयिंगा ॥२३॥जश्ते सुता लो दितपूअपाई, बालागणी तेअगुणा परेणं॥ कुंनी महंताहियपोर सीया, समूसिता लोदियपूयपुरमा ॥२४॥ अर्थ-(ते के० ) तेनारकी कान होठ प्रमुख अंगोपांगना बेदन थकी (तिप्पमाणा के०) लोहिजरता थका (तलसंपुर्मव के०) सुका ताडदना पान जेम पवने उडता शब्द करे, तेनीपेरे ( राइंदियंतबथतिबालाके०) ते बाल अज्ञानी निरविवेकी एवा ना रकी बापडा रात्र दिवश त्यां आक्रंद शब्द करे ( गलंतितेसोणियपूयमंसं के० ) त्यांते नारकीना अंगोपांग द्या पडी तेना शरीरमांथी लोही परु तथा मांसादिक जरे (प जोइया के० ) तेवारे तेने शेककरी अनीय प्रज्वालीने (खारपक्षियंगा के० ) लवणा दिक खारे अंगोपांग खरड्या बता रुधिर परु अने मांस एटलावाना रात्र दिवस ते मना शरीरमांथी गलता थका रहे॥३॥वली श्रीसुधर्मस्वामी श्रीजंबूस्वामी प्रत्ये कहे के, (जश्ते के ( यदि तें श्रीमहावीर नाषित (लोहितपूछपाई के०) रुधिर अने प रुनी पात्री एटले रुधिर अने पाकीरुधिर ते परु ए बंने ज्यां पचेडे एवो स्थानक कुं जी नाजन विशेष ते (सुता के ) ते सांजली ते केवी तोके (बालागण के) नवी अग्नीना ( तेथ के० ) तेज करता पण (गुणापरेणं के०) गुणे करी अधिकले एटले थ त्यंत बसतीने (कुंजीमहंताहियपोरसीया के०) एवी पुरुष प्रमाण थकी अधिक मो टी कुंनी नाजन विशेष ते केवी तोके ( समूसिता के०) नंटने आकारे उंची अने (लोहियपूयपुस्मा के० ) रुधिर अने पर एणे करी परिपूर्ण नरेतीले.॥ २४ ॥ ॥ दीपिका- (तेइति ) ते नारकाः शोणितं तिप्यमानाः स्रवतोयत्र रात्रिंदिनं गमयंति तत्र प्रदेशे तालसंपुटाश्व पवनप्रेरितगुष्कपत्रसंचयाश्व सदा विस्वरं स्तनंति कंदति । वन्दिना प्रद्योतिताज्वालिताः हारेणप्रदिग्धांगाः शोणितं पूयं मांसं वाऽहर्नि शं गलति. ॥ २३ ॥ (जईति ) सुधर्मस्वामी जंबूस्वामिनं वक्ति । यदि ते त्वया श्रुता लो हितं रुधिरं पूयं पक्करुधिरं ते ३ अपि पक्तुं शीलमस्याः सा लोहितपूयपाचिनी कुनी । पुनः किंनूता । बालः प्रत्यग्रोग्निस्तस्यतेजोनितापः सएव गुणोयस्याः सा बालानितेजोनिताप Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२ हिताये सूत्रकृतांगे प्रथम श्रुतस्कंधे पंचमाध्ययनं. गुणा परेणापरेण प्रकर्षेण । तथा पुनः किंजूता महती बृहत्तरा (अहियपोरिसीयेति ) पुरुषप्रमाणाऽधिकसमुहिता उष्ट्रिकाकृतिः ऊर्ध्व व्यवस्थिता लोहितपूर्णा ॥२४॥ ॥ टीका-तथा । (तेतिप्पमाणेत्यादि) ते बिन्ननासिकोष्ठजिव्हाः संतः शोणितं तिप्य मानाः रतोयत्र यस्मिन् प्रदेशे रात्रिंदिनं गमयति । तत्र बालाअज्ञास्तालसंपुटाश्व पवने रितशुष्कतालपत्रसंचयाश्व सदा स्तनंति दीर्घ विस्वरमाकदंतस्तिष्ठति तथा प्रद्योति तावन्हिना ज्वलितास्तथा हारेण प्रदिग्धांगाः शोणितं पूयं मांसं चाहर्निशं गलंतीति. ॥ २३ ॥ किंच । (जश्तेसुताइत्यादि) पुनरपि सुधर्मस्वामी जंबूस्वामिनमुद्दिश्य नगव चनमाविष्करोति । यदिते त्वया श्रुता आकर्णिता।लोहितं रुधिरं पूयं रुधिरमेव पक्कं ते दे अपि पक्तुं शीलं यस्यां सा लोहितपूयपाचिनी कुंनी। तामेव विशिनष्टि। बालोऽनिनव प्रत्ययोनिस्तेन तेजोनितापः सएव गुणोयस्याः सा बालानितेजोगुणा परेण प्रकर्षेण तप्ते त्यर्थः । पुनरपि तस्याएव विशेषणं महती वृहत्तरा (अहियपोरुसोयंति) पुरुषप्रमाणाधि का समुद्रितोष्टिकाकतिरूवं व्यवस्थिता लोहितेन पूयेन च पूर्णा सैवंनूता कुंनी समंत तोऽग्निना प्रज्वलिताऽतीव बीनत्सदर्शनेति. ॥ २४ ॥ परिकप्प तासु पययंति वाले, अस्सरे ते कलुणं रसंते ॥ तण्हा श्या ते तन तंबतत्तं, पङिङमाणातरं रसंति ॥ २५॥ अप्पेण अप्पं इद वंचश्त्ता, नवाहमे पवसते सहस्से ॥ चिहति तना बढ़करकम्मा, जदा कडं कम्म तदासि नारे॥२६॥ समकिणित्ता कलुसं अणजा, इहिं कंतेहि य विपर्णा ॥ ते उनिगंधे कसिणेयफासे,कम्मोवगाकुणि मे आवसंतित्तिबेमि ॥२०॥ इति निरयविनत्तिएपढमोन्टेसोसमत्तो॥ अर्थ-हवे त्यां कुंनीमांहे नारकीने गुं करे ते कहेजे. (परिकप्पतासुके०) ते परमाधार्मिक कुंजीमांहे घालीने (अदृस्सरेतकल्लुरसंते के०) यार्त शब्द करता तथा करुण प्रला प करता एवा ते बापडा (बालेके०) अज्ञान नारकीने (पययंतिके ०) प्रकर्षे करी पचावे (ताहाश्यातेतनतंबतत्तंके०) तृषाये पीडया थका पाणी मागे तेवारे तेने त्रांबु उकालीने तेनो रस (पकिङमाणके० ) पावरावे तेवारे ते (अतरंरसंतिके ०) घणामां घणे दीनस्व रे करुणाकारी विलाप करे ॥ २५ ॥ (अप्पेपअपंहवंचश्त्ता के०) जेणे इह एटले आं मनुष्य नवमां अल्पसुखने अर्थे परोपघाति पणुं श्रादरीने पोताना आत्मायें करी पोताना आत्मानेज वंच्यो (नवाहमे पुत्वसतेसहस्से के० ) तथा पूर्व जन्मे अधम एवा लुब्धकादिकना शतसहस्र नव नोगवी घणा कर्मोपार्जीने (चितितबाबहुकूरकम्माके०) Page #313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राधनपतसिंघ बढ़ापुरका जैनागम संग्रह नाग दुसरा. २८३ अत्यंत क्रूर पापकर्मना धणी दुःखवेदना जोगववाने घलोकाल सुधी त्यां नरकने विषे रहे (जहा कर्डकम्मत हा सिनारे के ० ) यथाकता निकर्माणि जेवां अध्यवसायेकरी जेवाना वे कर्म कीधां होय तेवाज नरकमां पण सिनार शब्दे दुःख उपजे जेम मांस न क्षण करनारने तेनाज शरीरमांथी मांसकापी यग्नीवरी करी खवरावे, मद्यपानीने तप्त कथीरनो रस पीवरावे, मत्सघातकीने बेदे, नेदे, असत्य जाषण करनारनी जिव्हा बेदे, परधनापहारीना अंगोपांग बेदे, लंपटना वृपण बेदे, साल्मली वृक्षनुं या लिंगन करावे इत्यादिक जेणे जेवा कर्म उपाय होय तेने ते सरखाज दुःख परमाधार्मिको उपजावे. ॥ २६ ॥ (समति णित्ताकलुसंगका के० ) ते पापी अनार्य माता पिता ने स्त्रियादि कने घणा कलुष एटले पापकर्म उपार्जन करीने पती ( इहेहिकंते हिय विप्पहूणा के० ) इष्टजे मातापिता तथा कांता एटले स्त्रियादिक ते थकी विष्पहूणा एटले रहित अर्थात् एकाकी बता (निगंधेकसियफासे के ० ) ते दुर्निगंध दुःखे करी नस्यो तथा न स्पर्शवान एवा नरकने विषे (कम्मोवगाकुणि मेावसंतिके०) कर्मोपगता शुनक ने ली कुणि एटजे मांस पेसी रुधिर परु ांतरमा फेफसुं इत्यादिक कस्मले कर समाकुल एवा नरक स्थानमां घणोकाल अवश्य पणे रहीने पूर्वोक्त दुःख सहन करे. तिबेमिनो अर्थ पूर्ववत् जावो ॥ २७ ॥ इति नरक विनक्तियनाम प्रथमोदेशक नुं र्थसमाप्तः ॥ दीपिका - (परिकप्पेति) कुंभीषु तान् श्रार्तस्वरान् करुणं दीनं रसंतः प्रक्षिप्य प्रप चंति ते तृषार्ताः सलिलं प्रार्थयंतस्तप्तं त्रपु पाय्यंते । पाय्यमानाश्चर्तितरं रसंति रारटंति ॥ २५ ॥ ( आप्पेणेति ) इह नरनवे श्रात्मनैवात्मानं वंचयित्वा नवानामधमानवाधमा अधमनवामत्स्यवधलुब्ध कादीनां नवास्तान् पूर्वजन्मनि शतसहस्रशः समनुनूय क्रूरक मस्ते नरके बहुप्रतकालं तिष्ठति यथा येन प्रकारेण यादृशाध्यवसायेन पूर्वनवे क तानि कर्माणि तथा से तस्य नारकस्य नारावेदनाः स्युः ॥ २६ ॥ (समति लित्तेति ) नार्याः पापकर्मकारिणः कलुषं पापं समय खर्जयित्वा ते नारकाडुरनिगंधिनरके वसं ति । किंनूताः । इष्टैः कांतैः शब्दादिविषयैर्विहीनाः । नरके किंनूते । कस्ने संपूर्णेऽस्पर्शेऽत्यं तास्पर्शे कर्मोपगता कर्मबन्धाः कुलिमे रुधिराद्याकुले यासमंतात्कृष्टतस्त्रयस्त्रि शत्सागराणि वसंतीति । ब्रवीमीति पूर्ववत् ॥ २७ ॥ इतिपंचमाध्ययनस्य प्रथमोदेशकः ॥ टीका - तासु च यक्रियते तद्दर्शयितुमाह । ( परिकप्पेत्यादि ) तासु प्रत्यग्निना दी तासु लोहितपूयशरीराववयव किल्बिषपूर्णासु दुर्गधासु च बालान्नारकांस्त्राणरहितानात स्वरान् करुणं दीनं रसंतः प्रक्षिप्य प्रपचति तेच नारकास्तथा कदर्थ्यमानाविरसमाकं दंतस्तृषार्ताः सलिलं प्रार्थयतोमयं ते प्रतीव प्रियमासीदित्येवं स्मरयित्वा तप्तं यत्रपु For Private Personal Use Only Page #314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४ दितीये सूत्रकृतांगे प्रथम श्रुतस्कंधे पंचमाध्ययनं. पाग्यमानाथार्ततरं रसंति रारटंतीति. ॥ २५ ॥ नद्देशकार्थोपसंहारार्थमाह । (यप्पेणेत्यादि) हास्मिन्मनुष्यनवे यात्मना परवंचनप्रवृत्तेन स्वतएव परमार्थतयात्मा नं वंचयित्वाऽल्पेन स्तोकेन परोपघातसुखेनात्मानं वंचयित्वा बहुशोनवानां मध्ये अधमानां मध्ये अधमानवाधमामत्स्यबंधलुब्धकादीनां नवास्तान्पूर्वजन्मसु शतसह स्त्रशः समनुनय तेषु नवेषु विषयोन्मुखतया सुकतपराङ्मुखत्वेन वा ऽवाप्य महाघोरा तिदारुणं नरकवासं तत्र तस्मिन्मनुष्याः क्रूरकर्माणः परस्परतोःखमुदीरयंतः प्रनूतं का लं यावत्तिष्ठति । अत्रकारणमाह । यथा पूर्वजन्मसु यादृग्नूतेनाध्यवसायेन जघन्यजघ न्यतरादिना कृतानि कर्माणि तथा तेनैव प्रकारेण (से) तस्य नारकर्जतो रावेदनाः प्रा उनवंति स्वतः परतननयतोवेति । तथाहि । मांसादाः स्वमांसान्येवाग्निना प्रताप्य न दंते तथा मांसरसपायिनोनिजपूयरुधिराणि तप्तत्रपूणीव पायंते तथा मत्स्यघातकलु ब्धकादयस्तथैव विद्यते नियंते यावन्मार्यतेति । तथाऽनृतनाषिणां तत्स्मारयित्वा जिव्हाश्चेजियते । तथा पूर्वजन्मनि परकीय व्यापहारिणामंगोपांगान्यपब्दियंते तथा पा रदारिकाणां वृषणजेदः शाल्मल्युपगूहनादिच तैः कार्यते । एवं महापरिग्रहारंनवताको धमानमायालोनिनां च जन्मांतरस्वरूतक्रोधादिष्कृतस्मारणेन तादृग्विधमेव फुःखमु त्पाद्यतइति कृत्वा सुष्यूच्यते तथाविधं कर्म तादृग्विधनूतएव तेषां तत्कर्मविपाकादितो नारइति ॥ २६ ॥ किंचान्यत् (समणिऊणिन्नुश्त्यादि ) अनार्याअनार्यकर्मकारित्वा हिंसानतस्तेयादिनिराश्रवारैः कलुषं पापं समागुनकर्मोपचयं कृत्वा ते क्रूरकर्मा णोऽरनिगंधे नरके श्रावसंतीति सटंकः । किंनूताः । इष्टैः शब्दादिनिर्विषयैः कमनीयैः कांतैर्वि विधं प्रकर्षेण हीनाविप्रमुक्तानरके वसंति । यदिवा यदर्थ कलुषं समाजयंति तैर्मातापुत्रकलत्रादिनिः कांतैश्च विषयैर्विप्रमुक्ताएकाकिनस्ते उरनिगंधेन कुथितकलेव रातिशायिनि नरके कृत्स्ने संपूर्णऽत्यंताशुनस्पर्श एकांतोजनीये शुनकापगताः (कु णिमेत्ति ) मांसपेशीरुधिरप्रयांत्रफिफिसकल्मषाकुले सर्वामेध्याधमे बीनत्त्सदर्शने हाहार वादेन कष्टं मातावदित्यादि शब्दावधीरितदिगंतराले परमाधमे नरकावासे आसमंता त्कृष्टतस्त्रयस्त्रिंशत्सागरोपमाणि यावद्यस्यांवा नरकप्टथिव्यां यावदायुस्ताव संति तिष्ठति। इति परिसमाप्त्यर्थे । ब्रवीमीतिपूर्ववत्. ॥ २७ ॥ इति नरक विनक्तेः प्रथमोद्देशकः समाप्तः दवे पांमाध्ययननांबीजो उद्देशो प्रारंनियें बैये एने विषे पण एज नरकना नाव कहेले. अहावरं सासयउकधम्म, तं ने पवस्कामि जहातदेणं ॥ बाला जहा उक्कडकम्मकारी, वेदंति कम्माई पुरेकदाई ॥१॥ दबेदि Page #315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रायधनपतसिंघ बादाउरका जैनागम संग्रह नाग उसरा. न्य पाएदि य बंधिळणं, नदरं विकत्तंति खुरासिएहिं॥ गिएरंतु बालस्स विदत्तु देखें, वई थिरं पिघ्तो नधरंति ॥२॥ अर्थ-(अहके) अथ एटले हवे (अवरंके०) अपर एटले बीजा (सासयरकधम्म के० ) शाश्वतछुःखनो धर्म एटले स्वनावडे जेने विषे एवा नरकना फुःख ज्यां सुधी जी वे त्यांसुधी ते नारकी जेमनोगवे (तंनेके०) तेम तमने (जहातहेणं के० ) यथा तथ्य (पवरकामि के० ) कहीयें; एटले जेरीते श्रीवीरपरमेश्वरना मुखथी सांजव्यु तेरीते त मोने कहीj (उक्कडकम्मकारी के०) उकत कर्मना करनार एवा (बाला के०) अ झानी निर्विवेकीजीव ते (जहा के० ) जेरीते ( पुरेकडाईकम्माइं के० ) पोताना पूर्वक तकर्मने (वेदंति के० ) वेदे जोगवे वे तेरीते कहींगुं ॥१॥ त्यां परमाधार्मिक देव (ह बेहिपाएहियबंधिकणं के० ) ते नारकीना हाथ पग बांधीने (खुरासिएहिं के० ) बुरे क री तथा खजे करी (उदरविकत्तंति के० ) पेटने कापे ते केवीरीते कापे तोके (गिण्हं तुबालस्सविहत्तदेहंके०) बाल नारकीने ग्रहणकरी एटले पकडीने तेना शरीरने लाकडा दिके हणीने खंमो खंम करे (वइंथिरंपितोनचरंति के० ) पागला नागनुं सबल च मै ते पुत्र प्रदेशे काढे अने पुतनुं चर्म ते आगल काढे तथा मावा पाशानुं चर्म जमणे पासे काढे अने जमणी बाजुनुं चर्म माबी बांजुए काढे एरीते चामडी उखेडी नाखे ॥२॥ ॥ दीपिका-अथ दितीयस्यादिसूत्रमिदं । (यहावर मिति) अथापरमन्य दयामि । श श्वभवतीति शाश्वतं यावदायुस्तच तदुःखंच तदेव धर्मः स्वनावोयस्मिन् सतथा एवंनूतं नरकं तथ्येन सत्यतया (ने)नवतां कथयामि । बालानिर्विवेकामुष्कृतकर्मकारिणः पुराक तानि पापानि कर्माणि वेदयंति तथा वदिष्यामि ॥ १ ॥ (हबेहिंति ) परमाधार्मिका स्तान्नारकान् हस्तपादेबु बड़ा उदरं कुरप्रासिनिरायुधविशेषर्विकर्तयंति विदारयंति तथा बालस्य लकुटादिनिर्वि विधं हतं देहं गृहीत्वा वर्धे चर्मशकलं स्थिरं बलवत् पृष्ठतः पृष्ठ देशे नत्धरंति वेष्टयंति, ॥ २॥ ॥ टीका-नुक्तः प्रथमोदेशकः सांप्रतं वितीयः समारन्यते । अस्य चायमनिसंबंधः। हानंतरोद्देशके यैः कर्मनिर्जतवोनरकेषूत्पद्यते यादृगवस्थाश्च नवंत्येवं तत्प्रतिपादित मिहापि विशिष्टतरं तदेव प्रतिपाद्यते इत्यनेन संबंधेनायातस्यास्योदेशकस्य सूत्रानुगमेऽ स्वलितादिगुणोपेतं सूत्रमुच्चारणीयं । तच्चेदं (अहावर मित्यादि) अथेत्यानंतर्ये । अपरमि त्युक्तादन्यदयामीत्युत्तरेण संबंधः। शश्वभवतीति शाश्वतं यावदायुस्तच्च तफुःखं च शाश्व तं दुःखं तत्धर्मः स्वनावोयस्मिन् यस्य वा नरकस्य सतथा तमेवंचूतं नित्यःवस्वनाव Page #316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०६ द्वितीये सूत्रकृतांगे प्रथम श्रुतस्कंधे पंचमाध्ययनं. मछिनिमेषमपि कालम विद्यमानं सुखजेशं याथातथ्येन यथाव्यवस्थितं तथैव कथया मि । नात्रोपचारार्थवादोवा विद्यतइत्यर्थः । बालाः परमार्थमजानानाविषयसुख लिप्सवः सांप्रतेणिः कर्मविपाकमनवेदयमाणायथा येन प्रकारेण दुष्टं कृतं दुष्कृतं तदेव क मनुष्ठानं नवा डुष्कृतेन कर्मज्ञानावरणादिकं तदुष्कृतकर्म तत्कर्तुं शीलं येषांते दुष्कृत कर्मकारिणस्तएवंभूताः पुराकृतानि जन्मांतरार्जितानि कर्माणि यथावेदयंति तथा कथ यिष्यामीति ॥ १ ॥ यथाप्रतिज्ञातमाह । ( हवेही त्यादि ) परमाधार्मिकास्तथाविधक मोदयात् कीमायमानास्तान्नारकान् हस्तेषु पादेषु बध्वोदरं कुरप्रासिनिर्नानाविधैरायुध विशेषैर्विकर्तयंति विदारयति । तथा परस्य बालस्येवाकिंचित्करत्वाद्दालस्य लकुटादिनि विविधं दतं पीडितं देहं गृहीत्वा वर्ध चर्मशकलं स्थिरं बलवत्ष्टष्टतः पृष्टिदेशे नरंति विकर्तयत्येवग्रतः पार्श्वतश्चेति ॥ २ ॥ बाढ़ पकष्पंति समूलतो से, यूलं वियासं मुद्दे प्राडदंति ॥ रदंसिज त्तं सरयंति बालं, आरुस्स विनंति तुदेा पिठे ॥ ३ ॥ प्रयंव तत्तं ज लियं सजोइ, तऊवमं भूमि मणुकर्मता ॥ ते मझमाणा कखुणं थां ति, नसुचोइया तत्तजुगेसु जुत्ता ॥ ४ ॥ अर्थ - ते परमाधार्मिको (बाहूपकप्पं तिसमूल तोसे के ० ) त्रण नरकपृथ्वीने विषे नारकोना धस्तन ने चारनरकष्टृथ्वीमां मूलथी खारंनीने बन्ने बाहु कापे, तथा (थूलं के०) मोहोटो जो हनो गोलो तपावी (मुके०) ते नारकीनुं मुख (वियासंके ० ) विकाशीने एटले मुख नघाडीने मां (खाडसंतिके नाखे तथा (रहंसिजुत्तंसरयंतिबालके ० ) लोखंमना रथमां जो तरी पूर्वना करेला कर्म संजजावीने ते नारकीने खेडे हलावे तथा ( ग्रारुस्त विशंति तुप के ) यत्यंत रोश करीने ते नारकीना पुग्नानागने यारे करी बींधे ॥ ३ ॥ (प्रयंवतत्तंजलियंसजोइके ० ) जेम लोखंमनो गोलो तप्त अग्नीयें सहित जाज्वल्यमा न होय अथवा नाम कथीर होय ( तकवमंनू मिमणुक मंता के० ) तेनीले उपमां जे ने एटले तेना सरखी तप्त एवीजे भूमि, तेने यतिक्रमता एटले बजती पृथवीपर चालता (तेमझमाणाके ० ) ते नारकी बलता थका ( कनुथतिके० ) करुण एटले दयामा शब्द करे अर्थात् हेमात देतात इत्यादिक विलाप करे ( उसुचोइया के ० ) तथा यारेकरी चोया एटले प्रेखा थका ( तत्तजुगेसुजुत्ताके० ) तप्त एवा घूंसरे जोतथा थका जेम गलिया बलद चालतां प्रारडे तेम ते नारकी खारड्यां करेः ॥ ४ ॥ ॥ दीपिका - ( बाहूति) (से) तस्य नारकस्य तिसृषु नरकष्टथिवीषु परमाधार्मिकात्रप ס For Private Personal Use Only Page #317 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राय धनपतसिंघ बादाउरका जैनागम संग्रह नाग उसरा. २७ रनारकाश्चाधस्तनचतसृषु दृथिवीषु मूलतारन्य बाढून प्रकर्तयति बिदति । तथा मुखे विकाशं कृत्वा स्थूलं बहनोहगोलादिकं प्रदिपंतश्रादहंति । तथा रहसि एकांते युक्तं स्व रुतकर्मानुरूपवेदनां कुर्वतोबालमडू स्मारयति जन्मांतरकर्म । पारुष्य च रोषं कृत्वा पृष्ठे प्रतोदेन विध्यति ॥ ३ ॥ (अयमिति ) तथा अयोगोलवज्ज्वलितां ज्योतितां त उपमां वा नूमिमनुक्रमंतोगजंतस्ते दह्यमानाः करुणं दीनं स्तनंति आक्रंदंति तप्तेषु युगे षु युक्तागलिषाश्व इषुणा प्रतोदादिना विध्यमानाः स्तनंति ॥ ४ ॥ ॥ टीका-अपिच । (बादपकप्तीत्यादि) (से)तस्य नारकस्य तिसषु नारकप्रथिवीषु परमाधार्मिकाअपरनारकाश्चाधस्तनचतसृषु चापरनारकाएव मूलतयारन्य बाढून् प्रक तयंति बिंदंति तथा मुखे विकाशं कृत्वा स्थूलं बृहत्तप्तायोगोलादिकं प्रदिपंतासमंताह हंति । तथा रहस्येकांतिनं युक्तमुपपन्नं युक्तियुक्तं स्वरूतवेदनानुरूपंतत्कतजन्मांतरानुष्ठानं ते बालमज्ञं नारकं स्मारयंति। तद्यथा । तप्तत्रपुपानावसरे मद्यपस्त्वमासीस्तथा स्वमांसन पावसरे पिशिताशी त्वमसीत्येवं दुःखानुरूपमनुष्ठानं स्मारयंतः कदर्थयंति तथा नि कारणमेवारूष्य कोपं कृत्वा प्रतोदादिना पृष्ठदेशे तं नारकं परवशं विध्यंतीति ॥ ३ ॥ तथा (अयंवेत्यादि ) तप्तायोगोलकसन्निनां ज्वलितज्योतितां तदेवंरूपां तपमा वा नूमिमनुकामंतस्तां ज्वलितां नूमिं गबंतस्ते दह्यमानाः करुणं दीनं विस्वरं स्तनति रा रटंति तथा तप्तेषु युगेषु युक्तागलिबलीवश्वेषुणा प्रतोदादिना विध्यमानाः स्तनंतीति। बालाबलानमिमणुकमंता, पविजलं लोहपहं च तत्तं ॥ जंसी नग्गे सि पवङमाणा, पेसेव दंगेदिं पुराकरंति ॥५॥ ते संपगा ढं सि पवङमाणा. सिलादि हम्मति निपातिणीहिं॥ संतावणी नाम चिरहितीया. संतप्पती जब असादुकम्मा॥६॥ अर्थ-(बालके०) अज्ञानी निर्विवेकी (अबलाके०) बल रहित एवा नारकी तेने उम्म लोहना) जेवी (नूमि के०) पृथवीयें बलात्कार (अणुक्कमंताके०) अतिक्रमावे एटले च लावे तेवारे ते बापडा विरस शब्द करे ते नूमि केवीने तोके (पविऊलं लोहपहंचतत्तं के०) प्रज्वलित एटले ज्यां नम लोह समान रुधिर अने परुनोकर्दम एवीने (जसीनि उग्गे सिपवङमाणाके०) तथा जे विषम स्थानके कुंजीपाक शाल्मली वृद प्रमुख विषम स्थानक (पेसेवके०) त्यां चालता कर्मकरनी पेरे अथवा गलियाबलदनीपेरे(दंहिंके०) दमादिके ताडना करीने (पुराकरंतिके०)आगलकरी चलावे पण ते नारकी पोतानी श्वायें आगल जवाने अथवा पोताने गमेते स्थानके रहीजवा पणु पामे नही.॥ ५ ॥ (तेके०) ते Page #318 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शन्त दितीये सूत्रकृतांगे प्रथम श्रुतस्कंधे पंचमाध्ययनं. नारकीने ( संपगाढंसि के० ) अत्यंत वेदनाक्रांत एवं नरक अथवा तेवो मार्ग तेने विषे। (पवङमाणा के० ) चलावता थका ( सिलाहि हम्मतिनिपातिणीहिं के० ) साहमु सि लायेंकरी हणीने नीचो पाडी नाखे,परंतु ते आगल ज शके नही (संतावणी नामचिर हितीयाके०) तथा संतापनी नामे कुंनी त्यां शाश्वति तेमांहे गयो बतो ( संतप्पतीज उ असाहुकम्मा के ० ) ज्यां माता कर्मनो करनार बापडो घणु संताप सहन करे ॥६॥ __॥ दीपिका-(बालेति ) बालाअज्ञाः प्रज्वलितलोहपथमिव ते आकंदंति। तथा यस्मिन्ननिर्गे विषमे कुंनीशाल्मल्यादिप्रपद्यमानानसम्यगुपगढ़ति ततस्ते कुपितानरकपा लाः प्रेष्यानिव कर्मकरानिव दंडैहत्वा पुरतोग्रतः कुर्वति ॥ ५॥ (तेइति) ते नारकाः संप्र गाढमसह्यं नरकं प्रपद्यमानाअनिमुखपातिनीनिः शिलानिरसुरैर्हन्यते । संतापनी कुंनी साच चिरस्थितिका तजतःप्राणी वेदनाग्रस्तथास्ते यत्र संतप्यतेऽत्यर्थमसाधुकर्मा ॥ ६ ॥ ॥ टीका-अन्यच्च (बालाबलाइत्यादि ) वालानिर्विवेकिनः प्रज्वलितलोहपथमिव तप्तां नुवं (पविजतंति) रुधिरपूयादिना पिडिलां बलादनिबंतोऽनुक्रम्यमाणा विरसमासरं ति। तथा यस्मिन्ननिङगै कुंनीशाल्मल्यादौ प्रपद्यमानानरकपालचोदितानसम्यग्गळंति। त तस्ते कुंपिताः परमाधार्मिकाः प्रेष्यानिव कर्मकरानिव बलीवर्दवा दंमैर्हत्वा प्रतोदेन न प्रतुद्य पुरतोयतः कुर्वति नते स्वेचया गंतुं स्थातुं वा लनंतइति ॥५॥ किंच (तेसंपगा ढमित्यादि) ते नारकाः संप्रगाढमिति बहुवेदनात्वेन सह्यं नरकं मार्ग वा प्रपद्यमाना गंतुं स्थातुं वा तत्राऽशक्नुवंतोऽनिमुखपातिनीनिः शिलानिरसुरैर्दन्यते।तथासंतापयतीति संतापनी कुंनी साच चिरस्थितिका । ततोऽसुमान प्रनतं कालं यावदतिवेदनाग्रस्तथास्ते यत्रच संतप्यते पीड्यतेऽत्यर्थमसाधुकर्मा जन्मांतरकतायुनानुष्ठानइति ॥ ६ ॥ कंदूसु परिकप्प पयंति बाला,ततोवि दड्डा पुण ठप्पयंति॥ते नका एहिं पखङमाणा, अवरेहिं खऊंति सणप्फएहिं ॥७॥ समू सियं नाम विधमहाणं, जं सोयतत्ता कलुणं थणंति॥ अदेसिरं कहु विगत्तिकणं, अयंव सबहिं समोसवेति ॥७॥ अर्थ-वली नरकना पुःख कहे. (बाला के०) ते बाल नारकीने परमाधार्मिक लो को (कंदुसु के०) कंदू नामा नाजन विशेष तेने विषे (परिकप्प के०) प्रहपीने (प यतिके०) पचवे (ततोविदड्रापुणनप्पयंतिके) तेवारे ते नारकी दाऊता थका बलता चणानी पेरे उंचा उबले (तेनड़काए हिंपरखऊमाणाके०) त्यांआकाशमां वली तेने शेण काकादिक पदी तोडता थका खाता थका (अवरेहिं के० ) त्यां थकी बीजा स्था Page #319 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राय धनपतसिंघ बाहादुरका जैनागम संग्रह नाग दुसरा. २८‍ नकी दिशा तरफ नासे ( साफएहिं के० ) त्यां वजी अन्य सिंह व्याघ्रादिक तेने ( खऊंति के ० ) खाए ॥ ७ ॥ नाम शब्द संभावनायें ( समूसियं के० ) उंच चि ताने याकारे एवं ( विधूमाणं के० ) अग्नीनुं स्थानकडे ( जं के० ) ते स्थानक पामिने ( सोयतत्ता के ० ) शोके तप्त थका ( करुथति के० ) दीनस्वरे करीने याद करे तथा परमाधामी ते नारकीनुं ( हे सिरंक के० ) मस्तक नीचुं करीने (वित्तिक व ० ) शरीर विकूर्वि बेदीने लोहनी पेरे ( सबेहिं के० ) शस्त्र जे मुरादिक तेणेकरी ( समोसवेंति के० ) खं खं एटले टुकड़ा टुकडा करे ॥ ८ ॥ || दीपिका - ( कंदूसुइति) तं बालं कंदूसु कुंनीषु प्रक्षिप्यासुराः पचति । ततः पाक स्थानात्ते दह्यमानाच एकाइव नृज्यमानाउत्पतंति उर्ध्वमुच्चनंति । तेच ( उड्ढकाए हिं ति) डोलैः काकैर्वै क्रियैः प्रखाद्यमानानक्ष्यमाणानश्यंतोनष्टाः संतोऽपरैः ( सप्फ एहिंति ) सनखपदैः सिंहव्याघ्रादिनिर्नदयंते ॥ ७ ॥ ( समूसियमिति ) सम्यगु बितं चितिकाकृति विधूमस्याग्नेः स्थानं विध्वंसस्थानं यत् प्राप्य शोकतप्ताः करुणं दीनं स्तनं त्यादति । नामेति संभावनायां । संभाव्यंते तत्रैतावेदनाइति । तथा अधः शिरोमस्तकं कृत्वा देहं वित्त्वा ( समोसवेंतित्ति ) खंडशः खंमयंत्यसुराः ॥ ८ ॥ ॥ टीका - ( तथा कंदूसुपरकप्पइत्यादि) तं बालं वराकं नारकं कंदूषु प्रक्षिप्य नरक पालाः पचति । ततः पाकस्थानात् ते दह्यमानाश्चणकाश्व नृज्यमानार्कध्वं पतंत्युत्पतति तेच ऊर्ध्वमुत्पतिताः (ढकाएत्ति) शेणैः काकेर्वे क्रियैः प्रखाद्यमानानद्यमाणाश्रन्य तोनष्टाः संतोऽपरैः ( सफए हिंति ) सिंहव्याघ्रादिनिः खाद्यंते नक्ष्यं इति ॥ ७ ॥ किंच (समूसियनामेत्यादि) सम्यगुञ्जितं चितिकाकति । नामशब्दः संभावनायां । संभाव्य व्यते एवंविधानि नरकेषु यातनास्थानानि । विधूमस्याग्नेः स्थानं विधूमस्थानं । यत्प्राप्य शोक वितप्ताः करुणं दीनं स्तनंत्या कंदतीति । तथा यधः शिरः कृत्वा देहंच विकर्त्यायोव वेदनादिनिः ( समोसवेंतित्ति ) खंमशः खमयंतीति ॥ ८ ॥ 1 समूसिया तच विसूलियंगा, परकीदि खऊंति मदेहि ॥ सं जीवणी नाम चिद्वितीया, जंसीपया हम्मइ पावचेया ॥ ए ॥ तिरकाहिं सूलादि जितावयंति, वसोगयं सोयरयं व लधुं ॥ ते सू विकणं यांति, एगंतडुकं इन गिलाणा ॥ १० ॥ अर्थ - ( तब के० ) त्यां नरकने विषे ( समूसिया के० ) उंचा यांनादिकने विषे ( विसू यिंगा के० ) नीचे मस्तके बांधीने जेम खाटकी बालीनुं चर्म उखेडे तेम परमा ३७ For Private Personal Use Only Page #320 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २० वितीये सूत्रकृतांगे प्रथम श्रुतस्कंधे पंचमाध्ययनं. धार्मिको ते नारकीनन चर्म नखेडी नाखे पड़ी ते नारकीना चर्म रहित एवा अंगने (प. रकीहिंखऊंति अमुहेहिं के० ) वज समान चांच जेमनी एवा काक समली गृह पदी तेने खाय, एरीते नरकपाले बेदन नेदन मूर्बित कस्यां थका पण ते नारकी मरण पामे नही तेनुं कारण कहे (संजीवणी नामचिरहितीया के०) संजीवनी नामे एवी सावति कुंनी (जंसीपया के०) जेहने विषे पोहोता थकां प्राणी (हम्मपावचे या के० ) पापस हित एवा परमाधार्मिकलोक तेने हणे बेदे नेदे परंतु तेणे करी ते मरे नही किंतु पारानी पेरे तेनुं शरीर फरी मली जाय ॥॥ (तिरका हिंसलाहि के०) तेपर माधार्मिक पुरुषो तीक्षण वववत् सूलिये करीने नारकीना शरीरने (अनितावयंति के० ) अनितापयंति एटले पीडे जेम (लहुं के० ) लुब्धक एवा जे कुतरादिक तेने ( वसोगयं के०) वसोपगतं एटले वशे पडया एवां (सोयरयंव के ) स्वापद मृगादिक पशु ते जेम मरणांत कदर्थना पामे तेम (ते के० ) ते नारकीजीवो पण (सूल विक्षा के०) सलियें विंध्या थका (कलुणंथणंति के० ) दीनस्वरे अरडाट करे एकतो अन्यंतर शोकादिक बने बीजो बाहिर हननादिके करी (गिलाणाके) गिलान बता एम (उह उके०) बन्ने प्रकारे ( एगंतउरकं के० ) एकांत दुःख नोगवे परंतु मरण पामे नह॥१॥ ॥दीपिका-(समूसिवाइति) तत्र नरके स्तंनादौ नवंबाहवोऽधःशिरसः श्वपाकैरजवलं बिताः ( विसूणिअंगत्ति ) उत्कृत्तांगाधपनीतत्वचोलोमुखैः पक्षिनिर्वजचंचुनिः काक गृध्रादिनियंते । एवंते परमाधार्मिककृतैः परस्परकृतैः स्वानाविकैर्वा वैश्विननिन्ना अपि न म्रियते । अतोझायते संजीवनी नरकनूमिर्यस्यां खंमशच्चिन्नोपि न म्रियते स्वायु षि सतीति। सर्वे प्रजाःप्राणिनोयस्मिन्नरके पापचेतसोहन्यते मुजरादिनिः । नरकानुनावा चमुमूर्षवोपि ननियंते॥॥(तिरकाहिंति) तीदणानिःशूलानिस्तापयति । कमिवा वशमुपग/ तं सूकरादिकं लब्ध्वा यथा कदर्थयंति। ते नारकाःशूलविक्षाअपि ननियंते पारदवन्मितंति ततः करुणं स्तनंति दीनमाकंदंति उनयतोंतर्बहिश्च ग्लानाएकांतःखमनुनवंति ॥१॥ ॥ टीका-अपिच (समूसियाइत्यादि) तत्र नरके स्तंनादौ ध्वं बाहवोऽधःशिरसोवा श्वपाकैबस्तवनं बिताः संतः (विसूणियंगत्ति) नत्कृत्तांगायपगतत्वचः पक्षिनिरयोमुवै वैजचंचुनिः काकगृध्रादिनिर्नयंते । तदेवं ते नारकानरकपालापादितैः परस्परकतैः स्वाना विकैर्वा बिन्नानिन्नाः कथितामूर्बिताः संतोवेदनासमुन्द्वाते गताअपि संतोन नियंते अतोव्यपदिश्यते संजीवनीवत् संजीवनी जीवितदात्री नरकनूमिः। तत्र गतः खंम शश्चिन्नोपि नम्रियते स्वायुषि सतीति । साच चिरस्थितिकोत्कृष्टतस्त्रयस्त्रिंशत् याव त्सागरोपमाणि । यस्यां च प्राप्ताः प्रजायंतइति प्रजाः प्राणिनः पापचेतसोहन्यते मुजरा Page #321 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राय धनपतसिंघ बादाउरका जैनागम संग्रह नाग उसराः शर रादिनिर्नरकानुनावाच्च मुमूर्षवोप्यत्यंतपिष्टायपि न म्रियते ऽपितु पारदवन्मिलंतीति॥॥ थपिच (तिरकाहीयादि) पूर्वपुष्कृतकारिणं तीदणानिरयोमयीनिः शूलानिरनकपा लानारकमनितापयंति । किमिव । वशमुपगतं श्वापदमिव । कालप्टष्ठसूकरादिकं स्वा तंत्र्येण लब्ध्वा कदर्थयंति ते नारकाः शूलादिनिर्विवापि ननियंते केवलं करुणं दीनं स्तनंति । नच तेषां कश्चित्राणायालं । तथैकांतेनोनयतोंतर्बहिश्च ग्लानाअपगतप्रमोदाः सदा दुःखमनुनवंतीति ॥ १० ॥ सया जलं नाम निहं महंतं, जंसी जलंतो अगणी अको ॥ चिति बझा बढुकरकम्मा, अरहस्सरा के चिरन्तिीया॥ ॥११॥ चिया महतीन समारनित्ता,प्रिंति ते तं कलुणं रसंत॥ आवदृत्ती तब असाहुकम्मा, सप्पी जहा पडियं जोइमसे ॥२॥ अर्थ-(सयाजलंनाम के० ) सर्व काल निरंतर जलतुं बलतं एवे नामे (निहंके) ज्यां प्राणीने हणी ते (महंतं के०) मोहोटुं स्थानक ( जंसीजलंतोषगणी अकठो के०.) जे स्थानके काष्ट रहित अग्नि प्रज्वलेने त्यां (बाबदुकूरकम्मा के०) घणा कूरकर्मे बांध्या थका घणा कालसुधी (चितिकें०) रहे केवा थका तिष्टे तोकें (अरह स्तराकेश के०) मोहोटा बीहामणा आक्रंद स्वर करता थका तथा (चिरहितीयाके) घणाकाल नी स्थिती जेमनी एवा थका रहे ॥ ११ ॥ (चियामहंतीन के०) ते पर माधार्मिक त्यां नरकने विषे मोहोटी अग्नीनी चिता (समारनित्ता के०) समारंनीने तेमां अनेक काष्ट प्रदेपीने ( विनंतितेतंकनुपरसंतके०) तेमांहे नारकीनेनारखे ते त्यां दा जता थका करुण स्वरे आक्रंद करता ( तबके० ) त्यां ते चितामांहे गयाथका (असादुक म्माके)असाधुकर्मना करनार एवा नारकी(श्रावतीके) आवर्ने,विलय थइ जाय कोनी पेरे तोके ( जहाके ) जेम ( सपि के० ) घृत ते (जोइमके०) ज्योतिजे अग्नी तेमां हे (पडियंके) पड्यो थको विलय थइ जाय तेनीपेरे विलयथाय परंतु घृततो अग्नीमाहे सर्वथा बली जाय पण नारकी जीव ते अग्नीमां मरण पामेनही ॥ १२ ॥ ॥ दीपिका-(सयेति) सदा ज्वलद्दीप्यमानं स्थानं । किंनूतं । निहन्यते प्राणिनोयस्मि न् निहमाघातस्थानं महदिस्तीर्णमस्ति । यस्मिन् स्थानेऽकाष्ठो निवसन्नास्ते । तत्र बहुत रकर्माणः केचिचिरस्थितिकाअरहस्सराबृहदाक्रंदशब्दास्तिष्ठति ॥ ११ ॥ (चिये ति ) महतीश्चिताः समारज्य नरकपालास्ते तं नारकं करुणं दीनं रसमाकदंतं तत्र Page #322 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शएश वितीये सूत्रकृतांगे प्रथमश्रुतस्कंधे पंचमाध्ययनं. दिपंति । स असाधुकर्मा तस्यां चितायामावर्तते विलीयते । यथा सर्पिघृतं ज्योतिर्मध्ये - अग्निमध्ये पतितं विलीयते तथापि ननियते नवस्वनावत्वात् ॥ १२ ॥ ॥ टीका-तथा (सयाजलमित्यादि) सदा सर्वकालं ज्वलद्देदीप्यमानमुमरूपत्वात् स्थानमस्ति । निहन्यते प्राणिनः कर्मवशगायस्मिन् तन्निहमाघातस्थानं तच्च महा विस्ती एं यत्राकाष्ठोऽग्निज्वलन्नास्ते तत्रैवं नूते स्थाने नवांतरे बदुक्रूरकर्माणस्तविपाकापादि तेन पापेन बास्तिष्ठंतीति । किनूताः । अरहस्वराबहदाक्रंदशब्दाश्विरस्थितिकाः प्रनत कालस्थितयश्त्यर्थः ॥ ११ ॥ तथा ( चियामहंतीन इत्यादि ) महतीश्चिताः समारन्य नरकपालास्तं नारकं विरसं करुणं दीनमारसंतं तत्र दिपंति । सचासाधुकर्मा तस्यां चितायां गतः सन्नावर्तते विलीयते। यथा सर्पितं ज्योतिर्मध्ये पतितं वीनवत्येवमसाव पि विलीयते नच तथापि नवानुनावात्प्राणैर्विमुच्यते ॥ १२ ॥ सदा कसिणं पुण धम्मगणं, गाढोवणीयं अश्छुकधम्मंढने हिं पाएदिय बंधिकणं, सत्तव मेहिं समारनंति॥१३॥ ति बालस्स वदेण पुछी, सीसंपि निदंति अनवणेहिाते निन्नदे दा फलगंव तबा, तत्ताहिं आरादिं णियोजयंति ॥ १४ ॥ अर्थ-हवे वली उःखनो बीजो प्रकार कहे. (सदाकसिणंपुणघम्मताएं के०) त्यां सर्वकाल संपूर्ण धर्म एटले नाम थातापर्नु स्थानक जे स्थानके (गाढोपनीतंके०) ते ना रकीने निवडकर्मे आणी ढोक्या थका (अश्रकधम्म के० ) ज्यां अत्यंत दुःखरूप धर्म नो स्वनाव एवा स्थानके (हबेहिपाएदियबंधितणंके ) नरकपाल ते नारकीना हाथ अने पग बांधीने ( सत्तुवके० ) शत्रुनी पेरे (डंभेहिके०) दमेकरी (समारनंतिके० ) सं मारंने ताडना करे ॥ १३ ॥ (नंतिबालस्सवहेणपुहि के० ) ते परमाधार्मिको दंमा दिके करी बाल अझ एवा नारकीनी पीसने नांजे तथा (अघणेहिंके०) लोढाना घणे करीने (सीसंपिनिंदंतिके ) मस्तकने पण नेदी नाखे, चूर्ण करीनाखे वली अपि शब्द थकी बीजा पण अंगोपांग एजरीते मुजरे करी नेदी नाखे ( तेनिन्नदेहाके) ते नार की चूर्ण थयाथी निन्नदेह बता ( फलंगवतबाके०) पाटीयानी पेरे बन्ने पासे करवते करी द्या थका (तत्ताहियाराहिंके) तप्त थारे करी खोसता थका तप्त कथीरादिकना मार्गने विषे (नियोजयंति के० ) ते नारकीने प्रवावे इतिनाव एटाने तप्त कथीरना रस, पान कराववाने विषे नियोजे एटले प्रवर्तीवे ॥ १४ ॥ ॥ दीपिका-(सदेति) सदा कृत्स्नं संपूर्ण धर्मस्थानं गाईलैः कर्मनिरुपनीतं प्रापित Page #323 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राय धनपतसिंघ बाहाउरका जैनागम संग्रह नाग उसरा. ए३ अतिःउखमेव धर्मः स्वनावोयस्मिन् तत्तथा । एवं विधे स्थाने नारकं हस्तैः पादैर्बध्वा त त्र प्रदिपंति दिवाच शत्रुमिव दंझैः समारनंते तामयंति ॥ १३ ॥ (नंतित्ति ) बा लस्य नारकस्य व्यथेन लकुटादिप्रहारेण पृष्ठं नंति अयोधनैर्लोहधनैः शीर्ष निंदंति चूर्णयंति । अपिशब्दादन्यान्यप्यंगानि चूर्णयंति । ते निन्नदेहानारकाः फलकमिवोना न्यां पार्थाच्या ककचादिनावतष्टाधिारतास्तप्तानिरारानिः पीडयमानास्तप्तत्रपुपानादि के कर्मणि नियोज्यंते व्यापार्यते ॥ १४ ॥ ॥टीका-अथायमपरोनरकयातनाप्रकारस्तमाह । (सयाकलिणमित्यादि) सदा स वकालं कृत्स्नं संपूर्ण पुनरपरं धर्मस्थानमुप्मस्थानं दृढ़निधत्तनिकाचिकावस्थैः कर्मनिरु पनीतं ढौकितमतीव दुःखरूपोधर्मः स्वनावोयस्मिंस्तदतिःवधर्म तदेवंनूते यातनास्था ने तमत्राणं नारकं हस्तेषु पादेषु च बड़ा तत्र प्रदिपंति । तथा तदवस्थमेव शत्रुमिव दंडैः समारनंते ताडयंति ॥ १३ ॥ किंच । (नंजंतिबालस्सेत्यादि ) बालस्य वराकस्य नारकस्य व्यथयतीति व्यथोलकुटादिप्रहारस्तेन पृष्ठं नंजयंति मोटयंति तथा शिरोप्य योमयेन घनेन निंदंति चूर्णयंत्यपिशब्दादन्यान्यप्यंगोपांगानि द्रुघणघातैश्चर्णयंति । ते नार कानिन्नदेहाश्चूर्णितांगोपांगाः फलकमिवोनान्यां पार्थान्यां क्रकचादिना अवतष्टास्तनूरुताः संतस्तप्तानिरारानिः प्रतुद्यमानास्तप्तत्रपुपानादिके कर्मणि विनियोज्यंते व्यापार्यतइति ॥१४ अनिमुंजिया रुद्द असाढुकम्मा,सुचोइया दचिवहं वहंति ॥ए गं पुरुहित्तु ज्वे ततोवा, आरुस्स विनंति ककाण सो ॥ १५ ॥ बाला बलानूमिमणुकमंता, पविकलं कंटइलं महंतं ॥ विब .इतप्पेदिं विवामचित्ते, समीरिया कोहबलिं करिंति ॥१६॥ अर्थ-(अनिझुंजिया रुद्द असादुकम्माके०) रौइ एवा असाधु कर्मि एटले अन्य नार कीने हणवादिक कार्ये पापना करनार अथवा पूर्व नवना करेला एवा रोइ अ साधु कर्म तेने प्रेरता थका एटले पूर्वकत दुष्कतने स्मरण करावीने ( सुचोझ्या ह जिवहंवदंति के ) सरानिघात एटले बाणादिके करी जेम हस्तिने चलावियें वाहियें तेम ते परधार्मिको माहावतनी पेरे ते नारकीचने वाहे अथवा उंटनी पेरे वाहे एटले चलावे ( एगंडुरुहितुवेततोवा के ) तेना नपर एक बे अथवा त्रणरूपे थारूढ थ ने दुःख आपे (थारुस्सविसंतिककापसोके०) क्रोधेकरीने ककाण एटले तेना मर्म स्थानकने बारादिकेकरी विंधे॥१५॥ (बालाके०) अज्ञ एवा नारकीने (बलाके) बला कारे करी (पविकलं के०) रक्त अने परु तद्रूप रो कर्दमें करी विषम तथा Page #324 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ए४ हितीये सूत्रकृतांगे प्रथमश्रुतस्कंधे पंचमांध्ययनं. ( कंटलं के० ) कांटावाली एवी (महंत के) महोटी (नूमि के०) नूमिकानी वे खुने विषे (अणुक्कमंता के० ) अतिक्रमावे ते जेम जेम थाकरा चलावे तेम तेम : ख पामे तथा (विवस्मचित्ते के० ) मूति एवा नारकीनने (विबधतपहिंके० ) अने क नरकपालो त्रा करी बांधीने (समीरियाके०) तेना पूर्वकत पापकर्म प्रकाशीने (कोह बलिंकरंति के०) कोट एटले नगरनी बलिबाकुल जेम दशोदिशे सैकडाखम थर वि खरी जाय तेम परधार्मिको ते नारकीना खंमो खंम करी विखेरी नाखे. ॥ १६ ॥ ॥ दीपिका-(अनिचुंजियाइति ) रौकर्मणि अपरान्नारकान हननव्यापारेऽनियुज्य व्यापार्य असाधुकर्मणपुचोदितान शरानिघातप्रेरितान् हस्तिवहं वाहयंति नरकपालाः। यथा हस्ती वाह्यते समारुह्य एवं तान् वाहयंति । तस्य नारकस्योपर्येकं हो त्रीन वा स मारोप्य ततस्तं वाहयंति । अतिनारारोपणेनावहंतमारुष्य रोषंरुत्वा प्रतोदादिना विध्यं ति । सेतस्य नारकस्य (ककाणनत्ति) मर्मणि विध्यंति विदंति॥१५॥(बालाइति) बालाः प रवशामहती रुधिरादिप्रविबिला कंटकाकुला नमिमनुकामंतोमंदगतयोबलात्प्रेर्यते । तथा न्यान् तर्पकाकारान् विषण चित्तान मूर्बितान् विविधमनेकधाबज्ञानरकपालाः पापेन समी रिताः प्रेरितास्तान कुट्टयित्वा बलिं कुर्वति खंडशः विष्वा इतश्चेतश्चदिपंति ॥ १६ ॥ ॥ टीक-(अनिमुंजियाइत्यादि) रोइकर्मण्यपरनारकहननादिकेऽनियुज्य व्यापार्य यदि वा जन्मांतरकृतं रौई सत्वोपघातकार्यमनियुज्य स्मारयित्वा असाधून्यशोननानि जन्मांतर कृतानि कर्माण्यनुष्ठानानि येषांते तथा तानिषुचोदितान शरानिघातप्रेरितान् हस्तिव हं वाहयंति नरकपालाः। यथा हस्ती वाह्यते समारुह्येवं तमपि वाहयंति । यदिवा हस्ती महातं नारं वहत्येवंतमपि नारकं वाहयंत्युपलहणार्थत्वादस्योष्टवहं वादयंतीत्याद्यप्यायो ज्यं कथं। वाहयंतीति दर्शयति । तस्य नारकस्योपर्येकं. दौत्रीन वा समारुह्य समारोप्य ततस्तं वाहयंति । अतिनारारोपणेनावहंतमारुष्य क्रोधं कृत्वा प्रतोदादिना विध्यंति तुदं ति । सेतस्य नारकस्य ( काकपत्ति ) मर्माणि विध्यतीत्यर्थः ॥ १५ ॥ अपिच (बाला बलाइत्यादि ) बालाश्व बालाः परतंत्राः पिहिला रुधिरादिना तथा कंटकाकुला नूमिम नुकामंतोमंदगतयोबलात्प्रेर्यते । तथान्यान् विषमचित्तान् मूर्बितांस्तर्पकाकारान्वि विधमनेकधा बहानरकपालाः समीरिताः पापेन कर्मणा चोदितास्तान्नारकान् कुट्ट यित्वा खंमशः कृत्वा (बलिंकरिति ) नगरबलिवदितश्चेतश्च दिपंतीत्यर्थः । यदिवा को ठबलिं कुर्वतीति ॥ १६ ॥ वेतालिए नाम मदानितावे, एगायते पवयमंतलिके॥हम्मति तबा बढुकूरकम्मा, परं सहस्साण मुढुत्तगाणं॥२॥संबादिया Page #325 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राय धनपतसिंघ बादाउरका जैनागम संग्रह नाग उसरा. श्य उक्कडिणो थएंति, अदोय रान परितप्पमाणा॥ एगंतकूमे नरए महंते, कूमेण तवा विसमे दतान ॥१॥ अर्थ-अहीं नाम शब्द संनावनाने अर्थ जाणवो (वेयालिए के) विकूर्यो एवो (महानितापे के०) माहा उःखनु कारण (एगायते के०) घणो लांबो एवो (पवयके०) पर्वत नरकमांहे (अंतरिदे के०) आकाश पर्यंत नंचोविकुर्वे निष्पादे (तबाके.) त्यां ते पर्वत उपरथी (बतूकुरकम्मा के०) अत्यंत पापकर्मना करनार एवा घणा नारकी पडतां थ कां अंधकाररूपे दृष्टीयें कांश पण देखे नही परंतु हस्त स्पर्श मात्रे थाय अने चडता थकां तो परमाधार्मिक तेने (हम्मंति के०) हणे पीडा आपे त्यां (परंसहस्साणमुदुत्तगाणंके०) हजार थकी घणा मूहुर्त अधिक एटले नपलदाणथी घणा काल सुधी एवं दुःख पामे ॥ १७ ॥ (उक्कडिणो के०) ते नारकी माहा पाप कर्मना करनार ते ( संबा हिया के० ) संबाधिता एटलें अत्यंत पीडया थका (थति के) आक्रंद करें (अ होयराजपरितप्पमाणा के० ) अहोरात्र परितप्तमान थका करुण आक्रंद करे ( एगंतकू में नरएमहंते के०) एकांत एटले निश्चयरूप कूट एटले दुःखोत्पतिनुं स्थान ज्यांले एवं महंत एटले विस्तीर्ण नरकने विषे (कूमेण तबा विसमेहता के०) त्यां विषम कूट पासादिक गलयंत्रादिके करी हणाता थका आकंद करे ॥ १७ ॥ ॥ दीपिका-(वेयालिएति ) नामेति संनावने । संभाव्यते यन्नरकेषु । यथांतरिदे महा नितापे महापुःखे एकशिलाघटितोदीर्घः (वेयालिएति) वैक्रयः परमाधार्मिकनिष्पादि तः पर्वतस्तत्र हस्तस्पर्शिकया समारुहंतोनारकाबटुक्रूरकर्माणोहन्यते पीडयंते सहस्त्र संख्यानां मुहूर्तानां परं प्रकृष्टं कालं प्रनूतं कालं हन्यतेइत्यर्थः ॥१७॥ (संवाहियाति) दुष्कृत विद्यते येषांते पुष्कृतिनः संबाधिताः पीमिताथहनि रात्रौ च परितप्यमानाएका तेन कूटानि दुःखोत्पत्तिस्थानानि यस्मिन तथा तस्मिन् एवं विधे महति नरके कूटेन गलयंत्रपाशादिना तत्र विषमे हताः सुनिश्चितं स्तनंति ॥ १७ ॥ ॥ टीका-(किंच । वेयालिए इत्यादि) नामशब्दः संनावनायां । संभाव्यते एतन्नरकेषु यथांतरिदे महानितापे महाकुःखैककार्येएक शिलाघटितोदीर्घः (वेयालिएति ) वैकि यः परमाधार्मिक निष्पादितः पर्वतस्तत्र तमोरूपत्वान्नारकाणामतोहस्तस्पर्शिकतया स मारुहंतोनारकाढन्यंते पीडयंते बहूनि क्रूराणि जन्मांतरोपात्तानि कर्माणि येषां ते त था सहस्रसंरव्यानां मुहूर्तानां परं प्रकृष्टं कालं सहस्रशब्दस्योपलणार्थत्वा त्प्रनूतं का लं. हन्यंतइति यावत् ॥ १७ ॥ तथा । (संबाहियाइत्यादि) समेकीनावेन बाधिताः Page #326 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शए वितीये सूत्रकृतांगे प्रथम श्रुतस्कंधे पंचमाध्ययनं. पीमिताइष्कृतं पापं विद्यते येषांते पुष्कतिनोमहापापाः । अहोयहनि तथा रात्रीच परितप्यमानायतिकुःखेन पीड्यमानाः संतः करुणं दीनं स्तनंत्याक्रदंति । तथैकांतेन कू टानि फुःखोत्पत्तिस्थानानि यस्मिन् तथा तस्मिन्नेवं नूते नरके महति विस्तीर्णे पतिताः प्राणिनस्तेनच कूटेन गलयंत्रपाशादिना पाषाणसमूहलदोन वा तत्र तस्मिन्विषमे ह ताः । तुशब्दस्यावधारणार्थत्वात् स्तनंत्येव केवलमिति ॥ १७ ॥ नंति णं पुवमरीसरोसं, समुग्गरे ते मुसले गहेतुं ॥ते निन्नदे दारुदिरं वमंता, नमुगा धरणितले पडंति ॥ १५॥ अणासि या नाम महासियाला, पागनिणो तब सया सकोवा ॥खऊंति तबा बढुकूरकम्मा, अदूरए संकलियादि बहा॥ २० ॥ अर्थ-(पुत्वमरीसरोसंतेके) पूर्व जन्मना वैरी, सरखा तेपरमाधार्मिक रोस स हित कोपायमान थका (समुग्गरेमुसलेगहेतुं के) मुजर सहित मुसल ग्रहण करीने ते नारकीना मस्तकादिकने (नंजंतिणं के० ) नांगी नाखे तेवारे (तेनिन्नदेहारु हिरंवमंता के०) तेनारकी बापडा निन्नदेही थका लोहिवमता बता प्राबल्ये करी (उमुख गा के०) अधो मुख करी (धरणितलेपडंति ) धरणीतलने विषे पडे. ॥१॥ त्यां (अणा सियाके०)चरख्या अहीं नाम शब्द संभावनायेडे (महाके०) अने महोटा शरीरना प्रमाण वाला (पागनिणो के० ) प्रगल्लित एटले उष्ट (सयासकोवाके०) सदाकाल क्रोध स हित एवा (सियाला के) सीयालिया जीवने (तबके०) ते नरकने विषे परमाधार्मिको विकूर्वे ते (तबाके ) त्यां नारकीमा (अदूरएसंकलियाहिबझा के ० ) टुकडा शांकले करी बांध्या थका एवाजे (बहुकूरकम्मा के) माहा पापी अत्यंत कूर कर्मना करना र नारकी तेने (खऊंति के ) खंम खंम करी जहण करे. ॥ २० ॥ ॥ दीपिका-(नंतीति ) पं वाक्यालंकारे । पूर्वमरयोजन्मांतरवैरिणश्व परमाधार्मि कानारकावा अन्येषामंगानि सरोषं समुजराणि मुसलानि गृहीत्वा नंजंति ते नारकानि नदेहारुधिरं वमंतोऽधोमुखाधरणितले पतंति ॥ १५ ॥ महांतः शृगालानरकपालविकु विताधनाशिनोबुदिताः। नामेति संनावने। संजाव्यते एतत्तत्र। प्रगहिनतादृष्टारो पायत्र सदा सकोपाः संनवंति । तत्र तैः सुगालादिनिर्बदरकर्माणः शंखलादिनिलों हनिगडै बबाअदूरगाः परस्यरसमीपएव वर्तिनः खाद्यते नदयंते ॥ २० ॥ ॥ टीका-थपिच (नंतिणमित्यादि) मिति वाक्यालंकारे । पूर्वमरयश्वारयोज Page #327 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राय धनपतसिंघ बादाउरका जैनागम संग्रह नाग उसरा. ए न्मांतरवैरिणश्व परमाधार्मिकायदिवा जन्मांतरापकारिणोनारकायपरेषामंगानि सरो पं सकोपं ससुजराणि मुसलानि गृहीत्वा नंति गाढप्रहारैरामर्दयंति तेच नारकास्त्राण रहिताः शस्त्रप्रहारैर्निन्नदेहारुधिरमुहंतोऽधोमुखाधरणितले पतंतीति ॥ १५ ॥ किंच (अणासियाइत्यादि) महादेहप्रमाणामहांतः शृगालानरकपालविकुर्विताधन शिताबुनुदिताः । नामशब्दः संनावनायां । संनाव्यतएतन्नरकेषु । अतिप्रगल्निताथति धृष्टारौपानिर्नयास्तत्र तेषु नरकेषु संनवंति । सदावकोपानित्यकुपितास्तैरेवंनूतैः सृ गालादिनिस्तत्र व्यवस्थिताजन्मांतरकतबदुरर्माणः शृंखलादिनिर्बायोमयनिगड निगडिताघदूरगाः परस्परसमीपवर्तिनोनदयंते खंडशः खाद्यंतइति ॥ २० ॥ सयाजला नाम नदी निजग्गा, पविऊलं लोदविलीपतत्ता ॥ जंसी निग्गंसि पवङमाणा, एगायताणुकमणं करंति ॥२१॥ एयाई फासाइं फसंति बालं, निरंतरं तब चिरहितीयं ॥ण ह म्ममाणस्स न होताण, एगोसयं पच्चण हो पुरकं ॥१७॥ अर्थ-(सयाजला नाम नदीनिडुग्गा के०) ते नरकने विषे सदाकाल पाणीए नरपर एवी महाविषम नदीरूप स्थानले. अंहीं नाम शब्द संनावनायें तेमां (पविजालंलोह विलीयतत्ता के०) अंग्रीमां गल्यो एवो लोहनो गोलो तेना सरखें नम पाणी जे पाणी पीता थका घणुं खासै तथा नम लागे माटे विषम (जंसीनिग्गंसि पवङमा णा के ) जे एवी विषम नदी तेने विपे ते नारकी प्रेस्या थका जाता थका हालता थका (एगाय ताणुकमणं करंति के) एकाकी अशरण प्लवन करता परवश पड्या थका मुख जोगवे. ॥ २१ ॥ (एयाई के०) ए पूर्वोक्त बन्ने उद्देशामां जे नारकीना कुःख कह्या तेने (बालंके०) बाल अज्ञानी एवा नारकीना जीवो ते (फुसंतिके०) फरसे जे सहन करेले (निरंतरं तब चिरहितीयं के० ) जेनी निरंतर घणा काल सुधी रेहेवानी स्थिति एवा नारकी त्यां (णहम्ममाणस्स उहोश्ताणंके) हणाता थका तेने कोइपण त्राण सरण एटले राखवाने समर्थ नथी (सयंके० ) पोते (एगो के०) एकलो थकोज (पञ्चहोश्रकं के० ) नाना प्रकारना पोताना उपाा उःख जोगवे. ॥ २२ ॥ ॥ दीपिका-सदा जनं यस्यां सा सदाजला नाम नदी अनिरुर्गा विषमा पविजाला रु धिरादिपिलिला अग्नितप्तं सदिलीनं इवीनूतं यनोहं तत्तथा इवीनततप्तलोहजलेत्य र्थः । यस्यां नद्यां प्रपद्यमानानारकाएका कनोऽत्राणाअनुक्रमणं गमनं कुर्वति ॥ २१॥ एते पूर्वोक्ताः स्पर्शामुःखविशेषाः परमाधार्मिकहताः स्वानाविकाच बालं नारकं स्टशति Page #328 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शएत वितीये सूत्रकृतांगे प्रथम श्रुतस्कंधे पंचमाध्ययनं. उखयंति निरंतर मविश्रामं तत्र चिरस्थितिकं ते हन्यमानस्य नारकस्य नकिंचित्रालंस्यात् । यथा शीतेंण लक्ष्मणस्य नरकछुःखमनुजवतस्त्राणोद्यतेनापि नत्राणं कसमिति एकः स्वयं प्रत्यनुनवति दुःखं । यतो मया परिजनस्यार्थे, कृतं कर्म सुदारुणं ॥ एकाकी तेन दोहं गतास्ते फलनोगिनइति ॥ २२ ॥ ॥ टीका-अपिच (सदाजलेत्यादि) सदा सर्वकालं जलमुदकं यस्यां सा तथा सदा जलानिधाना वा नदी सरिदतिउर्गा अतिविषमा प्रकर्षण विविधमत्युष्णं झारपूयरुधिरावि सजलं यस्यां सा (पविङलेत्ति) रुधिराविलत्वात् पिहिला विस्तीर्णगंनीरजला वा । अथवा प्रदीप्तजला वा । एतदेव दर्शयति । अग्निना तप्तं सदिलीनं इवतां गतं यनोहमयस्त दत्त प्ताऽतितापविलीनलोहसदृशजलेत्यर्थः । यस्यां च सदाजलायां अनिर्णायां नद्यां प्रपद्यमा नाः (एगायत्ति) एकाकिनोऽत्राणाअनुक्रमणं तस्यां गमनं प्लवनं कुर्वतीति ॥ २१ ॥ सां प्रतमुद्देशकार्थमुपसंहरन् पुनरपि नारकाणां मुख विशेषं दर्शयितुमाह (एयाइंफासा त्यादि) एते अनंतरोदेशक याश्चेत्यतिकटवोबालमशरणं स्टशयंति खयंति निरंत रमविश्रामं (यविनिमीलयमित्यादिपूर्ववत् ) तत्र तेषु नरकेषु चिरंप्रनूतं कालं स्थितिर्यस्य बालस्यासौ चिरस्थितिकस्तं । तथाहि। रत्नप्रजायामुत्कृष्टा स्थितिः सागरोपमं तथा वितीया यां शर्करप्रनायां त्रीणि तथा वालुकायां सप्त पंकायां दश धूमप्रनायां सप्तदश तमःप्रना यां दाविंशतिर्महातमःप्रनायां सप्तमष्टथिव्यां त्रयस्त्रिंशत्सागरोपमानि नत् नत्कृष्टा स्थि तिरिति । तत्र गतस्य कर्मवशाऽपादितोलष्टस्थितिकस्य परैर्हन्यमानस्य स्वरूतकर्मफलनुजो न किंचित्राणं नवति । तथाहि । किस शीतेंण लक्ष्मणस्य नरकःखमनुनवतस्तत्राणोद्य तेनापि न त्राणं कृतमिति श्रुतिः । तदेवमेकोसहायोयदर्थ यत्पापं समर्जितं तैरहित स्तत्कर्मविपाकजं दुःखमनुनवति नकश्चिदुःखसंविनागं गृएहातीत्यर्थः । तथाचोक्तं । म या परिजनस्यार्थे कृतं कर्म सुदारुणं । एकाकी तेन दोहं गतास्ते फलनोगिनइत्यादि ॥२५ जं जारिसं पुवमकासिकम्म,तमेव आगबति संपराए॥ एगंतजरकं नव माणित्ता, वेदंति पुरकी तमणंतजुरकं ॥ २३॥ एताणि सोचा परगा णि धीरे, नहिंसए किंचण सबलोए ॥ एगंतदिछी अपरिग्गदेन, बुनि ज लोयस्सवसं नग॥श्या एवं तिरिरके मणुया सुरेसुं, चतुरत्तणं तंत यणुविवागं ॥ ससबमेयं इति वेदश्त्ता, खेजकालं धुयमायरेजत्तिबेमि ॥ ३५॥ इति श्रीनरयविनत्तीनाम पंचमाध्ययनंसंमत्तं ॥ Page #329 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रायधनपतसिंघ बहादुरका जैनागम संग्रह जाग दुसरा. श अर्थ - (जंजारिसंपुवमका सिकम्मं के ० ) जे जीवे जेवानावे पाडला जन्मांतरे कर्म की बे ( तमेव के० ) ते कर्म तेवीज विधियें (संपराए के० ) संसारमां नमता थका चारगति विषेव (प्रागतिके० ) उदय खावे ( एगंत डुरकंनवमझ लित्ता के ० ) परंतु नरकमांहे तो एकांत निःकेवल दुःखरूप नव उपार्जीने ( वेदं तिडुरकीत मांडुरकं के०) ते नार की जीव दुःखी थका अनंत दुःख वेदे || २३ || हवे उपदेश स्वरूप कहे. ( एतालि के० ) ए पूर्वोक्त (परगालिसोच्चा के० ) नरकना तीव्र दुःख सांजलीने (धीरेके०) जे धैर्यवंत पुरुष ते करें ते देखा डेबे (न हिंसएकिंचण सवलोए के० ) जेथकी नरक ना दुःख न जोगवे एवा सर्व चतुर्दश रज्ज्वात्मक लोकने विषे जेकां त्रस ने स्थाव र जीवले कोने दो नहीं तथा ( एतदिहीके०) एकांत दृष्टी एटले निश्चल सम्यक्त्व धारक तथा (अपरिग्गदेन के० ) परिग्रह रहित एवो बतो तु शब्दथी मृषावादादि कनु वर्जन पण जाणी जेवुं तथा ( लोयस्स के० ) लोक ते इहां प्रस्तावथकी गुन कर्मकारी लेवो तथा कषाय लोक जेवो तेना स्वरूपने (बुझिक के ० ) जाणीने एवा लोकने ( वसं ० ) वशमां (नगछे के० ) नपोहोचे ॥ २४ ॥ ( एवं तिरिरकेमयासु रेसुं के० ) ए जेमन कर्मिने नरकगति कही तेम तिर्यच मनुष्य तथा देवतानी गति एम बधिमी (चतुरत्ततं के० ) चतुर्गतिक संसारने विषे अनंत ( तयविवागं ho) तदनुरूप विपाक एटले अनंत एवो कर्मनो जे विपाक ( ससव मेर्यइतिवेदइत्ता ho) बुद्धिमान् सर्वमेतदिति विदित्वा एटले पंमित पुरुष ए पूर्वोक सर्वने इति एम जा जेते श्रीनगवंते कोबे तेरी ( कंखे के ० ) कांदा करे एटले वांबे सुंवांबे तोके ( कालं के० ) काल एटले ज्यांसुधी मरण प्राप्त थाय त्यांसुधी ( धुयंके० ) धौव एटले संयमने ( खायरे के ० ) खाचरे एतावता चारित्रविना जीव चतुर्गतिक संसारमां च मल करे ते कारण माटे जाव जीव सुधी त्रिविधे दयाधर्म रूप निरतिचार चारित्र पा लवाने वाले ने सर्वथा पापनो त्याग करे. तिबेमिनो अर्थ पूर्ववत् जाणवो. ॥ २५ ॥ इति श्री नरकविनक्तिनामे पांचमा अध्ययननो अर्थ संपूर्ण थयो । || दीपिका - यत्कर्म यादृशं पूर्वजन्मांतरे प्रकार्षीत् कृतं तत्तादृशमेव संपराये संसारे अनुगच्छति । एकांतेन दुःखमेव नवोयस्मिन् सएकांतडुःखन वस्तमर्जयित्वा दुःखिनस्तमनंत डुः खंवेदयंति ॥ २३ ॥ एतान्नरकान् श्रुत्वा धीरोन हिंस्यात्कंचन प्राणिनं सर्वलोके एकांतदृष्टि निश्चलसम्पत्को परिग्रहः । तुशब्दान्मृषावादादिवर्जनमपि ज्ञेयं । तथा लोकं शुनकर्म कारिणं तद्विपाकंच मुंजानं बुध्यते जानीयात् नतु तस्य वशं गवेत् ॥ २४ ॥ एवमन कर्मकारिणामसुमता तिर्यङ्मनुष्यामरेष्वपि चतुरंत चतुर्गतिकमनंतमपर्यवसानं तद For Private Personal Use Only Page #330 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०० दितीये सूत्रकृतांगे प्रथम श्रुतस्कंधे पष्ठमध्ययनं. नुरूपं विपाकं सबुद्धिमान सर्वमेतदिति पूर्वोक्तं विदित्वा ध्रुवं संयममाचरन् कालं कांके त् । कोर्थः । चतुर्गतिकसंसारे सुखमेव केवलं मत्वा संयमानुष्ठानरतोयावजीवं मृत्युका लं प्रतीक्षेत । इतिब्रवीमीति पूर्ववत् ॥ २५ ॥ इति पंचमाध्ययने दितीयोदेशकः ॥ ॥ तितपोगले श्रीहेम विमलसूरिशिष्यहर्षकुलपंमितप्रणीतायां श्रीसूत्रकृतांगदीपिकायां नर कविनत्याख्यं पंचमाध्ययनं समाप्तं. ॥ ॥ ॥ टीका-किंचान्यत् (जंजारिस मिस्यादि ) यत्कर्म यादृशं यदनुनावं यादृस्थितिकं वा कर्म पूर्व जन्मांतरे अकार्षीत् कृतवांस्तत्ताडगेव जघन्यमध्यमोत्कृष्टस्थित्यनुनावनेदं संपराये तथा तैनैव प्रकारेणानुगवति । एतमुक्तं नवति । तीव्रमंदमध्यमैर्बधाध्यवसाय स्थानैर्यादृशैर्यवई तत्ताहगेव तीव्रमंदमध्यमेव विपाकमुदयं गलतीति । एकांतेनावश्यं सु खलेशरहितं दुःखमेव यस्मिन्नरकादिके नवे सतथा तमेकांतःवं नवमर्जयित्वा नरकन वोपादाननूतानि कर्माण्युपादायकांतःखिनस्तत्पूर्वनिर्दिष्टं दुःखमसातवेदनीयप्रतिकारं वे दयंत्यनुनवंतीति ॥२३॥ पुनरप्युपसंहारव्याजेनोपदेशमाह । (एयाणिसोचाइत्यादि) एता पूर्वोक्तान्नरकान् स्वास्थ्या व्यपदेशतिकत्वा नरकःख विशेषान् श्रुत्वा निशम्य धीर्बुधिस्त या राजतइति धीरोबुद्धिमान् प्राझाएतत्कुर्यादिति दर्शयति।सर्वस्मिन्नपि त्रसस्थावरनेदनि ने लोके प्राणिगणे नकमपि प्राणिनं हिंस्यान्नव्यापादयेत् । तथैकांतेन निश्चयजीवादितत्वेषु दृष्टिः सम्यक् दर्शनं यस्य सएकांतदृष्टिर्निष्प्रकंपसम्यक्त्वश्त्यर्थः। तथा न विद्यते परिसमंता सुखार्थ गृह्यतइति परिग्रहोयस्य सावप्यपरिग्रहः।तुशब्दादाातोपादानामा मृषावादादत्ता दानमैथुनवर्जनमपि इष्टव्यं । तथालोकमगुनकर्मकारिणं तदिपाकं फलं मुंजन वा यदिवा कषायं लोकं तत्स्वरूपतोबुध्येत जानीयान्नतु तस्य वशं गडेदिति ॥२४॥ एतदनंतरोक्तं कुःख विशेष मन्यत्राप्यतिदिशन्नाह।(एवमित्यादि) एवमशुनकर्मकारिणामसुमतां तिर्यङ्मनुष्या मरेष्वपि चतुरंतं चतुर्गतिकमनंतमपर्यवसानं तदनुरूपं विपाकं स बुद्धिमान सर्वमेतदिति पूर्वोक्तया नीत्या विदित्वा ज्ञात्वा ध्रुवं संयममाचरन कालं मृत्युकालमाकांदेत् । एतमुक्तं नवति । चतुर्गतिकसंसारांतर्गतानामसुमतां कुःखमेव केवलं यतोध्रुवोमोदः संयमोवा तदनुष्टानरतोयावजीवं मृत्युकालं प्रतीक्षतेति । इति परिसमाप्तौ ।ववीमीति पूर्ववत् ॥२५॥ इतिपंचमं नरकविनत्यध्ययनं परिसमाप्तं. ॥ अथ दितीये सूत्रकतांगे षष्ठमध्ययनं प्रारन्यते ।पांचमां अध्ययनने विषे नरकना फुःख कह्या ते श्रीमहावीरदेवे उपदेश्या वे ते माटे आ हा अध्ययनने विषे श्री महावीर परमात्मानी गुणो किर्तनीपूर्वक स्तुति करेठे. Page #331 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रायधनपतसिंघ बादाउरका जैनागम संग्रह नाग उसरा. ३०१ पुचिस्स एं समणा मादणाय, अगारिणोया परतिबिआय ॥ से के गंतहियं धम्ममादु, अणेलिसं सादु समिकयाए॥१॥ कहंच पाणं कह दंसणं से, सीलं कहं नायसुतस्स आसी॥जा पासि णं निरकु जहातदेणं, अदासुतं बूदि जहाणिसं तं ॥२॥ अर्थ-(पुहिस्सुणं के०) पूर्वोक्त नरकना सुख सांगलीने संसारना नयथी बीकपाम्या उनग्या एवा पुरुषो श्रीसुधर्म स्वामिने पूछेले ते कोण पूडे तोके (समणा के०) साधु तथा (माहगायके) ब्राह्मण तथा (अगारिणोया के०) यागारीते गृहस्थ दत्रिया दिक तथा (परतिबिधायके०) अन्य तीर्थकते शाक्यादिक तापस प्रमुख जाणवा ए सर्व गुं पुडे ते कहेले. (सेकेणेगंत के० ) ते कयो एकांत (हियके ) हितनो कर नार एवो (अणेलिसं के० ) अनीहशमतुलं एटले निरुपम शाश्वत ( सादुस मिरकयाए के०) साधु समीदाये यथास्थित तत्व झाने करी ज्ञातपुत्र श्रीमहावीरदेवे निरतो (ध म्मं के० ) धर्म (आदु के० ) कहोने के जेणे करी जीव सुख पामे. ॥ १ ॥ (कहंचणा पं के० ) के ज्ञान वली (कहंदंसणंसे के०) दर्शन चारित्ररूप के तथा (सीलंकहं के० ) यम नियमरूप शीन केबुंडे ए बधुं (नायसुतस्सवासीके०) शातपुत्र एटले क्षत्रि य शिरोमणी सिदार्थ राजाना पुत्र श्रीमहावीरने विष के हतुं ते (निस्कू के०) अ हो नगवन् (जाणासिणं के०) ए सर्व जेरीते तमे जाणोडो (जहातहेणं के० ) यथा तथ्य एटले सत्य निरुपण रूप (अहासुतं के०) जेम तमे सनिल्युं बे (जहाणिसंतं के०) यथानिशांत एटले सनिलीने जेम हृदयने विषे धारण करां तेम थमने (ब्रूहिके०) कहो. ॥ दीपिका-अथ षष्ठमारन्यते । पूर्वाध्ययने नरकविनक्तिरुक्ता श्रीवीरेण । ततोत्र श्रीवीर स्यैव गुणानच्यंते तस्येदमादिसूत्रं (पुहिस्सुणमिति) जंबूस्वामी सुधर्माणमाह । यथा के नैवंनूतोधर्मनक्तश्त्येतबहवोमां दृष्टवंतः श्रमणाः साधवादयस्तथा ब्राह्मणाब्रह्मचर्या धनुष्ठानरताअगारिणः क्षत्रियादयोयेच शाक्यादयः परतीथिकास्ते सर्वे पि दृष्टवंतः।किंतदि त्याह । योसो इमं धर्म एकांतहितमाह नक्तवान् अनीदृशमनन्यसदृशमतुल्य मित्यर्थः। साध्वी चासो समीक्षा तत्वपरिबित्तिश्च साधुसमीदा सासमता तया उक्तवान् ॥१॥ तस्य श्रीवीरस्य ज्ञानं किनूतं च दर्शनं शीलंच यमनियमरूपं कीदृगासीत् । हेसुधर्मस्वामिन यन्मयाप्टष्टं तद्याथातथ्येन त्वंजानासि । णं वाक्यालंकारे । यथाश्रुतं श्रुत्वा च यथानिशं तमवधारितं तथा त्वं ब्रूहि इति पृष्टः सुधर्मा वीरगुणानाह ॥ २ ॥ Page #332 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०२ द्वितीये सूत्रकृतांगे प्रथम श्रुतस्कंधे षष्टमध्ययनं . I ॥ टीका - नक्तं पंचममध्ययनं । अधुना षष्ठमारच्यते । श्रस्य चाऽयमनिसंबंधः । यत्रानंतर / ध्ययने नरक विनक्तिः प्रतिपादिता । सा च श्रीमन्महावीरवर्धमानस्वामिनाऽनिहितेत्यत स्तस्यैवाऽनेन गुणकीर्तन द्वारेण चरितं प्रतिपाद्यते । शास्तुर्गुरुत्वेन शास्त्रस्य गरीयस्त्वमि तिरुत्वेत्यनेन संबंधेनाऽऽयातस्याऽस्याऽध्ययनस्योपक्रमादीनि चत्वार्यनुयोग द्वाराणि । तत्राऽप्युपक्रमांतर्गतोऽर्याधिकारो महावीर गुणगणोत्कीर्तनरूपः । निदेषस्तु द्विधा । उघनिष्प नोनाम निष्पन्नश्च । तत्रौघनिष्पने निक्षेपे ऽध्ययनं । नाम निष्पन्नेतु महावीरस्तवः । तत्र म स्य वीरइत्येतस्य स्तवस्यच प्रत्येकं निदेपोविधेयः । तत्रापि यथोद्देशस्तथा निर्देश इतिरुत्वा पूर्व महदोनिरूप्यते । तत्राऽस्त्यऽयं महबब्दोबहुत्वे । यथा महाजनइति स्तित्त्वे । यथा महाघोषोऽस्तीत्यर्थं यथा महानय मित्यऽस्ति प्राधान्ये यथा महापु रुपइति । तत्रेह प्राधान्ये वर्तमानोगृहीतइत्येतन्निर्युक्तिकारोदर्शयितुमाह । पाहने महसदो दवे खेत्ते य कालजावेथ ॥ वीरस्सन सिरके चक्कचं होणायवो ॥ १ ॥ पाहेन्नमहसद्दोइत्यादि तत्र महावीरस्तवइत्यत्र योमहवन्दः सप्राधान्ये वर्तमानोगृहीतः । तच्च नामस्थापना इव्य क्षेत्रकालनावनेदात् षोढा । प्राधान्ये नामस्थापने मे इव्यप्राधान्यं । इशरीरजव्य शरीरव्यतिरिक्तं सचिता चित्तमिश्रनेदात् त्रिधा । सचित्तमपि द्विपदचतुष्पदे नरहस्त्यश्वा दिकमपदेषु प्रधानं कल्पवृक्षादिकं । यदि वेदैव ये प्रत्यक्षारूपरसगंधस्पर्शरुत्कृष्टाः पौंम कादयः पदार्थाः । प्रचिनेषु वैडूर्यादयोनानाप्रनावमा यो मिश्रेषु तीर्थकरोविनूषित इति । त्रतः प्रधानासिद्धिर्धर्म श्रयणान्महाविदेहं चोपनोगांगीकर णेन तु देवकुर्वादि कं क्षेत्रं कालतः प्रधानं त्वेकांतसुषमादि । योवा कालविशेषोधर्मचरणप्रतियोग्यइति । नावप्रधानंतु क्षायिकोनावस्तीर्थकरशरीरा पेट्यौदयिकोवा । तत्रेह हयेनाऽप्यधिकारइ ति । वीरस्य इव्य क्षेत्रकालनेदाच्चतुर्धा निदेषः । तत्र शरीरनव्यशरीरव्यतिरिक्तो व्य वीरो व्यार्थ संग्रामादाद्भुतकर्मकारितया शूरोयदिवा यत्किंचित् वीर्यवद् इव्यं तत् इ व्यवीरेंऽतर्जवति । तद्यथा । तीर्थकदनंतबलवीर्यो लोकमलोकं कंडुकवत् प्रदेतुमतं । तथा मंदरं दंड कृत्वा रत्नप्रनां पृथिवीं उत्रवद्विनृयात् । तथा चक्रवर्तिनोपि बलं दोसोनावतीसा । तथा विषादिनां मोहनादिसामर्थ्यमिति । क्षेत्रवीरस्त योयस्मिन् देत्रेऽद्भुतकर्मकारी वीरोवा यत्र वर्ण्यते । एवं कालेऽप्यायोज्यं । जाववीरोयस्य क्रोधमानमायालोनैः परीष हादिनिश्वात्मनोजेता । तथाचोक्तं । कोहं माणं च मायं च, लोनं पंचेंदिया लिय ॥ डुक्यंचेव अप्पाणं सहमप्पे जिए जियं ॥ १ ॥ योसहस्सं सहस्ताणं संगामेडुक ये जिणे एक जिऊप्पाणं एसेसपरमोजन ॥ २ ॥ तथा । एक्कोपरिनमलजए, वियडंजिल के सरीलीलाए | कंद पडु दाढो मयणोविडारिन्जेण ॥३॥ तदेवं वर्धमानस्वाम्येव परी पहोपसँगैरनुकूल प्रतिकूलैरपराजितोऽद्भुतकर्मकारित्वेन गुणनिष्पन्नात् नावतोमहावीर 1 Page #333 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राय धनपतसिंघ बाहारका जैनागम संग्रह जाग दुसरा. ३०३ -इति नष्यते । यदिवा इव्यवीशेव्यतिरिक्तएकन विकादिः । क्षेत्रवीरोयत्र तिष्ठत्यऽसौ व्या वर्ण्यते वा कालोऽप्येवमेव । जाववीरोनोयागमतोवीरनामगोत्राणि कर्माण्यनुजवन् स च वीरवर्धमानस्वाम्येवेति ॥ स्तव निदेपार्थमाह ॥ इरिकेवोचचहा, चंगतुनूस हिं वसुती ॥ नावे संता गुला, एकित्त लाजेज हिंन लिया ॥ २ ॥ ( युइलिरके वो इत्यादि ) स्तुतेः स्तवस्य नामादिश्चतुर्धा निक्षेपः । तत्र नामस्थापने पूर्ववत् । इव्यस्तवस्तु इश रीरजव्यशरीरव्यतिरिक्तोयः कटककेयूरस्त्रक्चंदनादिनिः सचित्ता चित्तव्यैः क्रियतइति । नावतस्तु वस्तुतः सद्भूतानां विद्यमानानां गुणानां ये यत्र नवंति तत्कीर्तनमिति ॥ सांप्रतं यायसूत्र संस्पर्श द्वारेण सकलाध्ययन संबंधप्रतिपादिकां गायां निर्युक्तिरुदाह । पुविस्सु जंबुपामो, ऊ सुहम्मा तक हेसीय । एवमहाप्पवीरो, जयमाहाहु तहा जएका हिं ॥ ३ ॥ जंबूस्वामी यार्यसुधर्मस्वामिनं श्रीमन्महावीरवर्धमानस्वामिगुणान् ष्टष्टवान् तोऽसावपि नवान् सुधर्मस्वाम्येवंगुणविशिष्टोमहावीरइति कथितवान् । एवं चाऽसौ न गवान् संसारस्य जयमनिनवं चाह । ततोयूयमपि यथा जगवान् संसारं जितवान् तथै यत्नं विधत्त । सांप्रतं निपानंतरं सूत्रानुगमेऽस्खलितादिगुणोपेतं सूत्रमुञ्चारयितव्यं । तच्चेदं । (पुचिस्सु मित्यादि) । यस्य चाऽनंतरसूत्रेण सहायं संबंधः । तद्यथा । तीर्थकरो पदिष्टेन मार्गेण ध्रुवमाचरन् मृत्युमुपेचेतेत्युक्तं । तत्र किंनूतोऽसौ तीर्थकृत् येनोप दिष्टो मार्गइत्येत् ष्टष्टवंतः श्रमणाय तयइत्यादि । परंपरसूत्र संबंधस्तु बुद्ध्येत ॥ यक्तं । प्रागित्येतच्च यत्तरत्र प्रश्नवचनं वक्ष्यते तच्च बुद्ध्यतेत्यनेन संबंधेनाऽयातस्याऽस्य सूत्रस्य संहितादिक्रमेण व्याख्या प्रतन्यते । साचाऽयमनंतरोक्तां बहुविधां नरकविजि श्रुत्वा संसारानिमनसः केनेयं प्रतिपादितेत्येतत् सुधर्मस्वामिनमप्राकुः ष्टष्टवंतः । मितिवाक्यालंकारे । यदिवा जंबूस्वामी सुधर्मस्वामिनमेवमाह । यथा केनैवं नूतोधर्म संसारोत्तरणे समर्थः प्रतिपादितइत्येतदहवोमां पृष्टवंतः । तद्यथा । श्रमला नियं दाह्माब्रह्मचर्याद्यनुष्ठाननिरतास्तथाऽऽगारिणः क्षत्रियादयोयेच शक्यादयः पर तीर्थका सर्वेऽपि पृष्टवंतः । किंतदिति दर्शयति । सकोयोऽसावेनं धर्म दुर्गतिप्रसृतजं तुधारक मेकांत हितमा होक्तवान् खनीदृशमतुलमित्यर्थः । तथा साध्वीचाऽसौ समीक्षा च साधुसमीक्षा यथावस्थिततत्त्वपरिचित्तिस्तया यदिवा साधुसमीया समतयोक्तवानिति ॥ ॥ १ ॥ तथा तस्यैव ज्ञानादिगुणावगतये प्रश्नमाह । ( कहंचणामित्यादि ) कथं केन प्रकारेण नगवान् ज्ञानमवाप्तवान् किंनूर्त वा तस्य नगवतोज्ञानं विशेषावबोधकं । किं नूतं च तस्य दर्शनं सामान्यार्थपरिवेदकं शीलं च यमनियमरूपं कीदृक् ज्ञाताः क्षत्रियास्ते षां पुत्रोभगवान वीरवर्धमानस्वामी तस्याऽऽसीदनूदिति यदेतन्मया पृष्टं तत् निहोसुध स्वामिन् याथातथ्येन त्वं जानीषे सम्यगवगच्छसि । ( एमितिवाक्यालंकारे) तदेतत्सर्व For Private Personal Use Only Page #334 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०४ द्वितीये सूत्रकृतांगे प्रथम श्रुतस्कंधे षष्ठमध्ययनं . यथाश्रुतं त्वया श्रुत्वा च यथानिशंतमित्यवधारितं यथा दृष्टं तथा सर्व ब्रूह्याचक्ष्वेति ॥ खेयन्ने से कुसले (सुपनेपा० ) महेसी, पंतनाणीय प्रांत दंसी ॥ जसस्सिपो चकुपढद्वियस्स, जाणादि धम्मंच धिई पेचदि ॥ ३ ॥ न देयं तिरियं दिसासु, तसाय जे यावर जेह पाणा ॥ सेणिच्चणिच्चेदि समिक पन्ने, दीवेव धम्मं समियं नदादु ॥ ४ ॥ अर्थ - एम श्री सुधर्म स्वामिने पुढया थका सुधर्मस्वामि श्री महावीर देवना गुण क हे. (सेके०) ते श्री महावीरदेव (खेयन्ने के०) खेदज्ञ एटले संसार जीवोने कर्म वि पाक की उत्पन्न युं जे खेद एटले दुःख तेने जाणे जाणीने उपदेश व्यापी तेना दुःख टालवाने सामर्थवान तथा ( कुंसले के० ) कर्म विदारवाने निपुण घने (महेसी के० ) महोटा रूषीश्वर साधु तथा (खांतनाणीय के० ) अनंत अविनाशी जेनुं ज्ञान प्रगट (सी०) धनंत अविनाशी जेमनुं दर्शन प्रगटयुं बे ( जसस्सियो के ० ) यशस्वी एटले जेनो यश त्रण जवनमां व्याप्योबे ( चरकु पह हियस्स के० ) लोकने च कुनूत समानबे केमके लोकना जावना जे भेद ते सर्व परिदेले माटे लोकने चकुने स्थान वर्ते (जाहि धम्मंच के० ) एवा श्री महावीर प्रणीत जे श्रुत चारित्ररूप धर्म ने धर्म जाणो. (धिइंच के० ) तथा तेज संयमने विषे धृति एटले धैर्यपणु तेप श्री महावीरनोज (पेहि के० ) प्रेयो एटले देखो एटजे श्रुत चारित्ररूप संयमने विषे जेहने रति धैर्यबे ॥ ३ ॥ ( न देयं तिरियंदिसासु ) के० उंचोनीचो खनेति एटजे चौदराज लोक मांहे पूर्वादिक प्रढार इव्य दिशा ने बढ़ार नावदिशा मध्ये ( तसायजेथावरजेहपाला के० ) जे बेंदियादिक त्रस प्राणी ने एकेंदी पृथवि यादिक जे स्थावर प्राणीले ( सेपिचपिच्चे हित मिरकपने के० ) तेने जगवंत नित्या नित्य भेदे इव्य पर्याय भेदे सम्यक् प्रकारे जाणे एवा श्रीमहावीर वीतराग देव ते ो संसार समु मांहे पडता बुडता प्राणीने ( दीवेव के० ) द्वीप समान एवो ( समि यं के० ) समनावि ( धम्मं के० ) धर्म ( दादु के० ) कह्यो बे. ॥ ४ ॥ ॥ दीपिका - सनगवान् वीरः खेदं प्राणिनां कर्म विपाकजं दुःखं जानातीति खेदज्ञः कुश लोनिपुणोमहर्षिस्तपश्चरणानुष्ठायी अनंतज्ञानी अनंतदर्शीच । विशेषग्राहकं ज्ञानं सा मान्य ग्राहकं दर्शनं तेदेद्यपि यस्यानंते तस्य यशस्विनोनगवतोलोकस्य चकुः पये लो चनमार्गे स्थितस्य नवस्यके व जिनइत्यर्थः । तस्य धर्म संसारतारणसमर्थ धृतिंच संय मनिश्चलतां जानीषे । ततः (पेहित्ति ) कथय । श्रथवा तथैवेति यथा धर्मस्तथा धृतिरपी For Private Personal Use Only Page #335 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राय धनपतसिंघ बानापुरका जैनागम संग्रह नाग उसरा. ३०५ कलमधस्तिर्यकच सर्वदिक्त चतुर्दशरज्ज्वात्मके ये त्रसाः स्थावराश्च ये प्राणि नस्तान् नित्यानित्यान्यां समीक्ष्य दात्वा प्राझोनगवान दीपश्व प्रकाशकत्वात् धर्ममु दाह उक्तवान समतया । यदागमः । जहापुमस्सकबई तहातुबस्सकब इति ॥४॥ ॥ टीका-स एवं दृष्टः सुधर्मस्वामी श्रीमन्महावीरवर्धमानस्वामिगुणान् कथयितुमा ह। (खेयन्नएसेइत्यादि ) स नगवान चतुस्त्रिंशद तिशयसमेतः खेदं संसारांतर्वर्तिनां प्राणिनां कर्मविपाकजं दुःखं जानातीति खेदझोःखापनोदनसमर्थोपदेशदानात् । यदि वा देत्रझोयथावस्थितात्मस्वरूपपरिझानादात्मज्ञइति । अथवा देत्रमाकारां तजाना तीति देवझोलोकालोकस्वरूपपरिझातेत्यर्थः। तथा नावकुशानष्टविधकर्मरूपान् लुना ति बिनत्ति कुशलः प्राणिनां कर्मो बित्तये निपुणइत्यर्थः । आशु शीघ्र प्रज्ञा यस्याऽसावा शुप्रज्ञः । सर्वत्र सदोपयोगानबद्मस्थश्व विचिंत्य नानातीति नावः। महर्षि रिति क्वचित्पा तः । महांश्चासावृषिश्च महर्षिरत्यंतोग्रतपश्चरणानुष्ठायित्वादतुलपरीषदोपसर्गसह नाच्चेति । तथा अनंतमविनाश्यनंतपदार्थपरिवेदकं वा झानं विशेषग्राहकं यस्यासा वनंतझानी। एवं सामान्यार्थपरिवेदकत्वेनाऽनंतदर्शी । तदेवं नूतस्य नगवतोयशोनृसु रासुरातिशाय्यतुलं विद्यते यस्य सयशस्वी तस्य लोकस्य चतुःपथे लोचनमार्गे नवस्थकेव व्यवस्थायां स्थितस्य लोकानां सूदाव्यवहितपदार्थावि वनेन चकुतस्य वा जानीयव गह । धर्म संसारोधरणस्वनावं तत्प्रणीतं वा श्रुतचारित्राख्यं तथा तस्यैव जगवतस्तथोप सर्गितस्याऽपि निष्प्रकंपां चारित्राचलनस्वनावां कृति संयमे रतिं तत्प्रणीतां वा प्रेदस्व स म्यकुशाग्रीयया बुध्या पर्यालोचयेति । यदिवा तैरेव श्रमणादिनिः सुधर्मस्वाम्यनिहितो यथा त्वं तस्य नगवतोयशस्विनश्चतुष्पथे व्यवस्थितस्य धर्म धृति च जानीथे। ततोऽस्मा कं (पेहित्ति ) कथयेति ॥ ३ ॥ सांप्रतं सुधर्मस्वामी तगुणान् कथयितुमाह । (उडेथ हेयमित्यादि) मधस्तियतु सर्वत्रैव चतुर्दशरज्ज्वात्मके लोके ये केचन त्रस्यंतीति त्रसास्तेजोवायुरूपा विकलेंख्यिपंचेंडियनेदात् त्रिधा । तथा येच स्थावराः पृथि व्यंबुवनस्पतिनेदात् त्रिविधाः । एते श्वासादयः प्राणाविद्यते येषां ते प्राणिनइत्यनेन च शाक्या दिमतनिरासेन टथिव्यायेकेड़ियाणामपि जीवत्वमावेदितं नवति । सनगवांस्ता न प्राणिनः प्रकर्षण केवलज्ञानित्वात् जानातीति प्रज्ञः सएव प्राझोनित्यानित्यान्यांड व्यार्थपर्यायार्थाश्रयणात् समीक्ष्य केवलज्ञानेनाऽर्थान् परिझाय प्रज्ञापनायोग्यानाहेत्यु त्तरेण संबंधः । तद्यथा । सप्राणिनां पदार्थावि वनेन दीपवत् दीपः। यदिवा संसार्णव पतितानां सउपदेशप्रदानताश्वासहेतुत्वात् दीपश्व दीपः । सएवंनूतः संसारोत्तारण समर्थ श्रुतचारित्राख्यं सम्यक् इतं गतं सदनुष्ठानतया रागदेषरहितत्वेन समतया वा। Page #336 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०६ द्वितीये सूत्रकृतांगे प्रथम श्रुतस्कंधे षष्ठमध्ययनं . तथाचोक्तं । जहा पुस्तकइत हातु बस्सक इत्यादि समं वा धर्ममुत्प्राबल् उक्तवान् । प्राणिनामनुग्रहार्थ न पूजासत्कारार्थमिति ॥ ४ ॥ से सवदंसी निनूयनाणी, पिरामगंधे धिइमं वितप्पा ॥ त्तरे सब जगसि विऊं, गंथा प्रतीते नए अणाऊ ॥ ५ ॥ स नूइप से प्रणिए प्रचारी, उदंतरे धीरे प्रांतचकु ॥ प्रत्तरे तप्पति सूरिएवा, वइरोयणिं देवतमं पगासे ॥ ६ ॥ ७ अर्थ - (सेके० ) ते जगवंत ( सङ्घदंसीके ० ) सर्वदर्शि एटले लोकालोकने देखनार ai ( निनूतनाली के ० ) बावीश परिसहने जीतवा थकी केवल ज्ञानी थया (ि राम ) निरामगंध एटले मूलोत्तर गुण विशुद्ध संयम पालक तथा ( धि मंके ० ) धैर्यवंत ( वितप्पा ) स्थितात्मा एटले समस्त कर्मना दय थकी खात्म स्वरूप मांज स्थित था तथा ( अणुत्तरेसवजगं सिविऊं के० ) अनुत्तर एटले प्रधान सर्व ज गतमा निरुपम ज्ञाता माटे विद्वान् एटले नली बुधिवंत तथा (गंथाप्रतीते के ० ) ग्रंथ तीत एटले निग्रंथ बाह्याच्यंतर परिग्रह र हितबे. (अनएके ० ) सप्त जय रहितबे तेना नाम कहे पेतुं इहलोकनय बीजुं परलोकजय त्रीजुं यादान नय चोयुं अकस्मात् जय पांचमुं वेदना जय बहुं अपकीर्त्तिनय सातमुं मरण जय तथा (खपाऊ के० ) चा रनकारना या कर्मे कर रहितबे ॥ ५ ॥ ( सके० ) ते नगवंत (नूइप से के० ) नूति प्राज्ञ एटले अनंत ज्ञानी तथा ( अ लिए चारी के० ) प्रतिबद्ध विहारी जाणवा (हंत रेके०) घ एटले संसाररूप समुड्ने तरनार ( धीरेके ० ) धीर एटले निश्चल (अ तचरकु ho) अनंत ज्ञानरूप चक्कुना धरनार ( अणुत्तरेतप्पतिसूरिएवा के० ) जैम, सूर्य सर्व की अधिक तपे तेम जगवंत ज्ञाने करी सर्व थकी उत्तम प्रधानले (वय शिंदेवतमं गासे के ० ) तथा वैरोचनें एटले मी जेम अंधकारने दूर करी अधिक प्रकाशकरेले तेम श्रीमहावीर यथावस्थित पदार्थना प्रकाशक जाणवा ॥ ६ ॥ ७ ॥ दीपिका - ससर्वदर्शी अनिनूय द्वाविंशतिपरीषहान पराजित्य ज्ञानं च केवलारख्यं विद्यते यस्य सज्ञानी निर्गतच्या मोविशोधिकोटिरूपोगंधोयस्मात्स निरामगंधः । मूलोत्तर गुणविशिष्टचारित्र इत्यर्थः । धृतिमान् स्थैर्यसंपन्नः स्थितात्मा निर्मलात्मा अनुत्तरन त्कृष्टः सर्वस्मिन् जगति विद्वान् सर्वपदार्थवेत्ता ग्रंथाद्वाह्याज्यंतरपरिग्रहादती तो निर्ग्रथ‍ त्यर्थः । अनयः सप्तनयरहितः । नविद्यते चतुर्विधमप्यायुर्यस्यासावनायुः ॥ ५ ॥ नूतिश दोत्र वृ । नूतिप्रज्ञो ऽप्रज्ञो ऽनंतज्ञानइत्यर्थः । अनियतचारी उधं संसारं तरतीति For Private Personal Use Only Page #337 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०७ राय धनपतसिंघ बादाडुरका जैनागम संग्रह नाग दुसरा. तरः । धिया राजतेधीरः । अनंततया ऽनंतत्वाच्चकुर्ज्ञानं यस्य स तथा । यथा सूर्योऽनुत्तरं सर्वाधिकं तपति यथा वा वैरोचनोऽग्निः सएव प्रज्वलितत्वादिः सयथा तमोपनीय प्रका शयति एवमसावपि भगवान् ॥ ६ ॥ ॥ टीका - किंचाऽन्यत् । ( सेसवदसीत्यादि ) सनगवान् सर्वं जगत् चराचरं सामान्ये न दृष्टुं शीलमस्य ससर्वदर्शी । तथाऽनिनूय पराजित्य मत्यादीनि चत्वार्यऽपि ज्ञाना निर्तते ज्ञानं केवलाख्यं तेन ज्ञानेन ज्ञानी । धनैन चाऽपरतीर्थाधिपाधिकत्वमावेदितं नवति । ज्ञानक्रियायां मोहइति कृत्वा तस्य जगवतो ज्ञानं प्रदर्श्य क्रियां दर्शयितुमाह । निर्गतोऽपगतग्रामोऽविशोधिकोट्याख्यस्तथा गंधोविशोधिकोटिरूपोयस्मात् सनवति निरा मगधः । मूलोत्तरगुणनेदनिन्नां चारित्रक्रियां कृतवानित्यर्थः । तथाऽसह्यपरीषहोपसर्गानि डुतोऽपि निष्प्रकंपतया चारित्रधृतिमान् तथा स्थितोव्यवस्थितोऽशेषकर्म विगमादात्मस्व रूपेयात्मा यस्य स नवति स्थितात्मा । एतच्च ज्ञानक्रिययोः फल द्वारेण विशेषणं । त या नास्योत्तरं प्रधानं सर्वस्मिन्नऽपि जगति विद्यते सतथा विद्वानिति सकलपदार्थानां क रतलाम कन्यायेन वेत्ता । तथा बाह्यग्रंथात् सचित्तादिनेदादांतराच्च कर्मरूपादतीतोऽति क्रांतोग्रंथातीतोनिर्यथइत्यर्थः । तथा न विद्यते सप्तप्रकारमपि जयं यस्याऽसावनयः समस्तनयरहितइत्यर्थः । तथा न विद्यते चतुर्विधमप्यायुर्यस्य सनवत्यनायुर्दग्धकर्मबी जत्वेन पुनरुत्पत्तेरभावादिति ॥ ५ ॥ पिच ( सनूइप मे इत्यादि ) । नूतिशब्दोवृ-दौ मंगले रक्षायां च वर्तते । तत्र नूतिप्रज्ञः प्रवृ ६प्रज्ञः । अनंतज्ञानवानित्यर्थः । तथा नूति प्रज्ञोजगानूतिप्रज्ञः । एवं सर्वमंगलनूतिप्रज्ञइति । तथा अनियतमप्रतिबद्ध प रिग्रहोयोगाच्चरितुं शीलमस्याऽसावनियतचारी । तथौघं संसारसमुद्रं तरितुं शीलमस्य स तथा धर्बुद्धिस्तया राजतइति धीरः परीष होपसर्गादोच्योवा धीरः । तथा अनंत ज्ञेया नंततया नित्यतया वा चकुरिव चक्रुः केवलं ज्ञानं यस्याऽनंतस्यवा लोकस्य प्रदार्थप्रका शकतया वा चकुर्नूतोयः सनवत्यनंतचकुः । तथा यथा सूर्योऽनुत्तरं सर्वाधिकं तपति न तस्मादधिकस्तान कश्चिदस्ति । एवमसावपि भगवान् ज्ञानेन सर्वोत्तमइति । तथा वैरोचनोऽग्निः सएव प्रज्वलितत्वात् इंडोयथाऽसौतमोऽपनीय प्रकाशयति एवमसावपि वानज्ञानतमोऽपनीय यथावस्थितपदार्थप्रकाशनं करोति ॥ ६ ॥ प्रत्तरं धम्ममि जिलाएं, ऐया मुणी कासव प्रसुपन्ने ॥ इं देव देवाण महाणुभावे सदस्यता दिवि णं विसिद्वे ॥ ७ ॥ से प न्नया प्रकय सागरेवा, महोदहीवावि प्रांतपारे || प्राइ लेया कसाई मुक्के (पाठांतरे निकु) सक्केव देवादिवई जुईमं ॥ ॥ For Private Personal Use Only Page #338 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०७ वितीये सूत्रकृतांगे प्रथमश्रुतस्कंधे षष्ठमध्ययनं. अर्थ-(अणुत्तरंधम्ममिणंजिणाणं के ) जे श्रीषनादिक प्रनाववंत तीर्थकरो तत् संबंधी जे निरुपम धर्म तेनो नायक एटले तेने (ऐया के०) जाणे एवा (मुणी के०) चारित्रवान (कासव के ) काश्यपगोत्री श्रीमहावीर (आसुपन्ने के० ) उता वली प्रानो जाण (इंदेवदेवाणमहानावे के०) जेम इं६ हजारो देवतानो नायक . महाप्रनाववंत देवो मांहे प्रधान तेम श्री महावीर केवलज्ञानी (सहस्सणेतादिविणं विसिके के० ) सहस्र पुरुषोमां देवताना नायक जेइंश्तेनी पेरे विशिष्ट माहानुनाव जाणवा ॥ ७ ॥ ( सेके० ) तेजगवंत ( पन्नयाअरकय सागरेवा के० ) प्रज्ञायें एटलेबुद्धि में करीने अदय वा शब्द विशेषणने अर्थडे कोनी पेरे तोके जेम समुजे (महो दहीवावि के०) महोदधी एवो स्वयंरमण समुह (अपंतपारे के०) निर्मल जेनु ज स इत्यादिक गुणे करी अनंतपारडे तेम श्रीवीरपण (अणाश्लेया के० ) अकलुष अकषाइ थका (निस्कू के ) निदाये आजीविका करे यद्यपि निःशेष कर्मक्ष्य करी त्रैलोक्यने पूज्य तथापि निदाये श्राजीवेले परंतु अदीपमाहानसी प्रमुख लब्धीने प्रयुंजता नथी एवा अनेक गुणयुक्त श्रीमहावीरदेव तथा (सक्केवदेवाहिवईजुईमं के० ) शकें देवताना स्वामी तेनी पेरे दीप्तिमान् ॥ ७ ॥ ॥ दीपिका-अनुत्तरं धर्मजिनानामृषनादिनां सबंध्ययं मुनिः श्रीवीरोनेता प्रणेता काश्य पोगोत्रेणापाशुप्रज्ञः केवली। नेताइति ताजीलिकस्तृन् । तद्योगे नलोकाव्ययेतिषष्ठीनि षेधाधर्ममिति कर्मणिदितीया । यथा इंशोदेवसहस्राणां मध्ये महानुनावः। पं वाक्यालं कारे। दिवि स्वर्गे विशिष्टोरूपबलादिनिः । एवं स नगवान सर्वेन्यो विशिष्टोनेता ॥७॥ सनग वान प्रझयादयोऽदीपज्ञानइत्यर्थः । यथा महोदधिः सागरः स्वयंजुरमणश्वानंतपा रोविस्तीर्णगंजीरजलोऽझोयश्चाना विलोऽकलुषजलस्तथा नगवानपि अकलुषोपि मुक्तः क , र्मबंधात् यथा शकोदेवधिपतिद्युतिमान् दीप्तिमान् ॥ ७ ॥ ॥ टीका-किंच (अणुत्तर मित्यादि) । नाऽस्योत्तरोऽस्तीत्यनुत्तरस्तमिममनुत्तरं धर्म जिनानामृषनादितीर्थकता संबंधिनमयं मुनिः श्रीमान् वर्धमानारख्यः काश्यपोगोत्रेणाशु प्रज्ञः केवलझानी नत्पन्नदिव्यज्ञानोनेता प्रणेतेति । ताजीलिकस्तृन् तद्योगे नलोकाव्य यनिष्ठेत्यादिना षष्टीप्रतिषेधाधर्ममित्यत्र कर्मणिदितीयैव । यथा चेोदिवि स्वर्गे देवसह स्राणां महानुनावोमहाप्रनाववान् । एमितिवाक्यालंकारे। तथा नेता प्रणायकोवि शिष्टोरूपबलवर्णादिनिः प्रधानएवं नगवानपि सर्वेन्योऽपि विशिष्टः प्रणायकोमहानु नावश्चेति ॥ ७ ॥ अपिच (सेपन्नयेत्यादि) असौ नगवान् प्रज्ञायतेऽनयेति प्रज्ञा त या अक्ष्योन तस्य ज्ञातव्यर्थ बुदिः प्रतिदीयते प्रतिहन्यते वा । तस्य हि बुद्धिः वलके Page #339 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राय धनपतसिंघ बादाउरका जैनागम संग्रह नाग उसरा. ३०० झानारख्या साच साद्यपर्यवसाना कालतोऽव्यदेवनावैरप्यनंता । सर्वसाम्येन दृष्टांतानावादे कदेशेन त्वाह । यथा सागरइति।यस्य वा विशिष्टत्वात् विशेषणमाह।महोदधिरिव स्वयंनू रमणश्वाऽनंतपारः । यथाऽसौ विस्तीर्णोगंनीरजलोऽदोन्यश्च । एवं तस्याऽपि नगवती विस्तीर्णा प्रज्ञा स्वयंनूरमणानंतगुणोगंजीरो ऽदोन्यश्च । यथा चासौ सागरोऽना विलोऽ कलुषजल एवं नगवानपि तथाविधकर्मलेशानावादकलुषझानइति । तथा कषायाविद्यं ते यस्याऽसौकषायी नकषायी अकषायी। तथा ज्ञानावरणीयादिकर्मबंधनादियुक्तोमुक्तः। निवरिति कचित्पातः । तस्याऽयमर्थः । सत्यपि निःशेषांतरायदये सर्वलोकपूज्यत्वेच तथापि निदामात्रजीवित्वात् निहुरेवाऽसौ नाऽदीपमहानसादिलब्धिमुपजीवतीति । तथा शाश्व देवाऽधिपतिद्युतिमान् दिप्तिमानिति ॥ ७ ॥ से वीरिएणं पडिपुन्नवीरिए,सुदंसणेवा णगसबसे॥सुरालएवा सिमुदागरे से, विरायए गगुणोववेए॥५॥ सयं सहस्साणन जोयणाणं,तिकंमगे पंगवेजयते॥से जोयणेणवणवतिसहस्से दस्सितो देसहस्समेगं ॥ २० ॥ अर्थ-(सेवीरिएपडि पुन्नवीरिए के० ) ते नगवंत श्रीमहावीर वीर्यातराय कर्मना क्ष्य थकी बलेकरी प्रतिपूर्ण वीर्यवान एटले संघयणादिके बलवान ने (सुदंसणेवा गगसबसेठे के०) सुदर्शन शब्दे मेरुपर्वत ते जेम सर्व पर्वतमा श्रेष्टले तेम नगवंत पण ऐश्वर्यगुणे करी सर्वमा श्रेष्ठले वली (सुरालएवासि के० ) देवलोकना निवासी देवताने ( सेके० ) तेमेरुपर्वत (मुदाकर के०) हर्षनो करनार (थरोगगुणोववेए के० ) प्रशस्त एवा अनेक वर्णादिक गुणे करी (विरायएके०) विराजमान एटले शोनेने तेम श्रीनगवानप ए जाणवा ॥॥ तमेरु पर्वत (सयंसहस्सागनजोयगाणंके०) सतसहस्त्र योजन प्रमाण सर्वांगे उंच पणे जाणवो तेमज (सेके०) ते पर्वतना (तिकमे के ) त्रण काम एक नूमिमय बीजो सुवर्णमय त्रीजो वैमूर्यमय अने (पंमंगवेजयंते के०) पंगवन ते वेजयंति एटले ध्वजा समान शोनेने (सेजोयरोणवणवतिसहस्से के०) ते मेरु पर्वत णवणवति एटले नवाणु हजार योजन (दस्सितो के० ) चंचो जाणवो अने (हेसहस्समेगं के०) नीचे नूमि मध्ये एक हजार योजननो कंदबे एम सर्व मली एक लाख योजन प्रमाण ॥ १० ॥ * ॥ दीपिका-सनगवान वीर्येण बलेन प्रतिपूर्णवीर्यः सुदर्शनोमेरुजबूदीपमध्यगतोय था नगानां पर्वतानां सर्वेषां श्रेष्ठस्तथा जगवान गुणैः श्रेष्ठः । यथाच सुरालयः स्वर्गः सु Page #340 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११० दितीये सूत्रकृतांगे प्रथम श्रुतस्कंधे षष्ठमध्ययनं. राणां मुदाकरोहर्षजनकोऽनेकैर्गुणैर्वर्णरसगंधादिनिरुपेतोविराजते एवं नगवानपि ॥ ॥ ॥ समेोजनसहस्त्राणां शतमुच्चैस्त्वेन त्रीणि कंडकानि यस्य सत्रिकंडकः । त थाहि । नौमं जांबूनदं वैदूर्यचेति । सकिंनूतः। पंडकं वनं वैजयंतीकल्पं पताकानूतं शिर सि स्थितं यस्य सपंडकवैजयंतः सनवनवतिर्योजनसहस्राणि जो द्वितः अधोपि सहस्त्रमेकमवगाढः ॥ १० ॥ ॥ टीका-किंच (सेवीरिएणमित्यादि)। स नगवान वीर्येणोरसेन बलेन प्रतिसंह ननादिनिश्च वीर्यातरायस्य निःशेषतः दयात् प्रतिपूर्णवीर्यस्तथा सुदर्शनोमेरुर्जबुदी पनानिनूतः । तथा नगानां पर्वतानां सर्वेषां श्रेष्ठः प्रधानस्तथानगवानपि वीर्येणाऽन्यैश्च गुणैः सर्वश्रेष्ठति । तथा यथा सुरालयः स्वर्गस्तनिवासिनां मुदाकरोहर्षजनकः प्रशस्त वर्णरसगंधस्पर्शप्रनावादिनिर्गुणैरुपेतोविराजते शोनते । एवं जगवानप्यनेकैगुणैरु पेतोविराजतइति । यदिवा यथा त्रिदशालयोमुदाकरो ऽनेकैर्गुणैरुपेतोविराजतइति । एवमसावपि मेरुरिति ॥ए ॥ पुनरपि दृष्टांतनूतमेरुवर्णनायाह । (सयंसहस्साण मित्यादि ) समेोजनसहस्राणां शतमुच्चैस्त्वेन । तथा त्रीणि कंडान्यस्येति त्रिकंडः। तद्यथा नौमं जांबूनदं वैदूर्यमिति । पुनरप्यसावेव विशेष्यते । पंकवैजयंतति । पंमकवनं शिरसि व्यवस्थित वैजयंतीकल्पं पताकानूतं यस्य सतथाऽसावूर्ध्वमुड़ितोनवनवतिर्यो जनसहस्त्रास्यधोऽपि सहस्त्रमेकमवगाढइति. ॥१०॥ पुछे गनेचि नूमिवहिए, जं सूरिया अणुपरिवड्यंति ॥ से देमवन्ने बटुनंदणेय, जंसी रतिं वेदयंती महिंदा॥११॥ से पत्र ए सहमहप्पगासे, विरायती कंचणमध्वन्ने ॥ अणुत्तरे गिरिसु य पवउग्गे, गिरीवरे से जलिएव नोमे ॥१२॥ अर्थ-ते मेरु पर्वत (गने के० ) श्राकाशे (पुछे के ) फरशीने (चिह के०) र ह्यो तथा (नूमिके०) नूमिकाने (वहिएके) अवगाही रह्यो तिळ उचो अने नीचो एमलोक व्याप्त (जंसूरियायपरियट्टयंतिके) जे मेरु पर्वतने चोमर अगीयारशेने ए कवीश योजनने अंतरे सूर्य प्रमुख ज्योतषी देवो परिभ्रमण करता थका प्रदक्षिणा करी रह्या तथा ( से हेमवन्ने के०) ते मेरुपर्वत सुवर्णमय वे तथा (बहुके० ) घणा परं तु अंहीं नंदनादिक चार जाणवा एवा (नंदणेयके०) रसीयामणा वन, जेने विषे, एटले पहेली जूमिकाने विषे नशाल वनडे ते उपर पांचशे योजन उंचु बीजुं नंदन वन ते उपर साढी बाशठ हजार योजन चंचु चडता वली त्रीशुं सोमनस वन ते Page #341 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राय धनपतसिंघ बाहारका जैनागम संग्रह नाग दुसरा. ३११ - पढी उत्रीश हजार योजन उंचु चड़ता शीखर उपर चोथु पंमग वन खंबे (जंसीर ति वेदयंती महिंदा के ० ) जे पर्वतने विषे महेंद पण क्रीडा करवाने अर्थे स्वर्ग थकी यावी रती सुख जोगवे ॥ ११ ॥ ( सेपवए के० ) ते पर्वत वली केवोबे तोके मंदर मेरु सुदर्शन सुरगिरि इत्यादिक ( सह के० ) शब्दे कर ( महप्पगासे के० ) मोहोटो प्रका शवान एटले प्रसिद्ध एवो बतो ( विरायतीके ० ) शोने तथा ( कंचणमवन्ने के० ) सुवर्णन पेरे देदीप्यमान सुकुमाल वरौबे ( अणुत्तरे गिरिसुयप डुग्गे के० ) सर्व पर्वत मां अनुत्तर एटले प्रधान एवंी पर्व एटले मेखलायें करी दुर्ग एटले विषम अर्थात् सामान्य जीवने चढता विषमबे तथा ( गिरिवरेसेज लि एवनोमे के० ) प्रधान मणी पकिरी देदीप्यमान भूमि सरखो पृथवी प्रदेशनी पेरे जावो. ॥ १२ ॥ ॥ दीपिका - ननसि स्ष्टष्टोल मोनू मिंवा अवगाह्य स्थितः । यं मेरुं सूर्यायादित्याश्रनु परिवर्तयंति पार्श्वतोत्रमंति सहेमवः । बहूनि चत्वारि नंदनानि यस्य सतथा । तथाहि मौ नशालवनं १ ततः पंचयोजनशतान्यनिक्रम्य नंदनंवनं २ ततो द्विषष्ठियोजन सहस्राणि पंचशताधिकान्यतिक्रम्य सौमनसवनं ३ ततः षट्त्रिंशत्सहस्रायारुह्य शिख रे पंडकवनं ॥ इति मेरोश्चत्वारि वनानि । तथा यस्मिन् मेरौ महेंारतिं वेदयंत्यनुवंति ॥ ११ ॥ सपर्वतोमेरुमंदरः सुदर्शनः सुगिरिरित्यादिनिः शब्दै महान् प्रकाशः प्रसिद्धिर्य स्य सशब्द महाप्रकाशो विराजते । कांचनस्य मृष्टः शुद्धवर्णोयस्य सतथा अनुत्तर उत्क ष्टः । गिरिषु मध्ये पर्व निर्मेखला निर्डग विषमो गिरवरमणि निरोषधीनिश्व ज्वलितोदीप्य मानव भूमिदेशं ॥ १२ ॥ ॥ टीका - तथा ( पुट्ठेनेइत्यादि ) । ननसि स्ष्टष्टोजमोननोव्याप्य तिष्ठति । तथा नू मिं चावगाह्य स्थितइति ऊर्ध्वाधस्तिर्य कूलोकसंस्पर्शी । यथा यं मेरुं सूर्यादयोज्योति काय परिवर्त्तयंति यस्य पार्श्वतोत्रमंतीत्यर्थः । तथाऽ सौ हेमवर्णो निष्टप्तजांबून दानस्तथा बहूनि चत्वारि नंदनवनानि यस्य सबदुनंदनवनः । तथाहि । चूमौ न‍ शालवनं ततः पंचयोजनशतान्यारुह्य मेखलायां नंदनं तथाद्विषष्टियोजन सहस्रा एयधिकान्यतिक्रम्य सौमनसं ततः षट्त्रिंशत्सहस्त्रास्यारुह्य शिखरे पंमकवन मि ति । तदेवमसौ चतुनैदनवनाद्युपेतो विचित्रक्रीमास्थानसमन्वितः । यस्मिन् माहेंश प्यागत्य त्रिदशालयामणीयतरगुणेन रतिं रमणक्रीमां वेदयंत्यनुनवंतीति ॥ ११ ॥ पिच ( सेवइत्यादि) समेवख्योऽयं पर्वतोमंदरोमेरुः सुरगिरिरित्येवमादिनिः श दैर्महान् प्रकाशः प्रसिद्धिर्यस्य सशब्दमहाप्रकाशो विराजते शोभते । कांचनस्येव मृ ष्टः श्लक्ष्णः को वा वर्णोंयस्य सतथा । एवं नविद्यते उत्तरः प्रधानोयस्याऽ साव For Private Personal Use Only Page #342 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१२ वितीये सूत्रकृतांगे प्रथम श्रुतस्कंधे षष्ठमध्ययनं. नुत्तरस्तया गिरिषु मध्ये पर्वनिर्मेखलादिनिर्दष्टापर्वतैर्वा जुर्गोविषमः सामान्यजंतूनां.. मुरारोहोगिरिवरः पर्वतप्रधानः । तथाऽसौ मणिनिरौषधीनिश्च देदीप्यमानतया नौमश्व नूदेशश्व ज्वलितइति ॥ १२ ॥ मही ममि रिते णगिंदे, पन्नाय ते सुरिय सूचलेसे ॥ एवं सि रीए नस नरिवन्ने, मणोरमे जावई अच्चिमाली॥१३॥ सुदंस गरसेव जसो गिरिस्स, पचुच्चई महतो पवयस्स ॥ एतोवमे समणे नायपुत्ते, जातीजसो दंसणनाणसोले ॥ १४ ॥ अर्थ-(महीइममितिते के०) मही एटले पृथवीने वचमां आवेलो जे जंबूदीप तेना मध्यनागे एटले वचमां वर्ते (णगिंदे के नगेइ एटले सर्व पवताना इंश सर खो ए मेरु पर्वत जाणवो (ते के० ) ते पर्वत लोकमां (सूरिय के०) सूर्यनी पेरे (सु इलेसे के०) विसुहनिर्मल कांतिवान एम (पन्नाय के ) प्रकर्षे करी जाणीये (एवं के) ए प्रकारे करी (सिरीएनस के० ) लक्ष्मीये सहित ते मेरू रत्न (नरिवन्ने के०) अनेक वर्षे करी सहित तथा (मणोरमे जावई अच्चिमाली के० ) मनने रमाडनार तथा जेनी ज्योति अर्चिमाली एटले सूर्य तेनी पेरे दशे दिशिने विषे प्रकाश पामे ॥१३॥ हवे ए मेरु पर्वतनी उपमा श्रीमहावीर नगवंतनी साथे जोडे. (सुदंसहस्सेवज सोगिरिस्त के० ) सुदर्शन नामा जे गिरि एटले पर्वत तेनोजे यश (पचुच्चई के )क हियेबैए तेवो (महतोपवयस्सके) महोटो मेरुपर्वत जाणवो (एतोवमेके०) एमेरुनी न पमाये ( समनायपुत्ते के०) श्रमण तपश्वी झातपुत्र श्रीमहावीर देव जाणवा (केवी रीते तोके (जातीजसो दसणनाणसीलेके०) जातियें करी, यशे करी, दर्शने करी, झाने करी अने शीले करी समस्त जेटला धर्म मार्गना प्रकाशको तेमां श्रीमहावीर देव प्रधानले. ॥ दीपिका-महारत्नप्रनाप्टथिव्यामध्यदेशे जंबू दीपस्तन्मध्ये स्थितोनगेंः प्रकर्षे ण ज्ञायते सूर्यवत् शुक्लेश्यः सूर्यसमतेजाः। एवं पूर्वोक्तप्रकारेण श्रिया समेरुनरिवर्णो ऽनेकवर्णरत्नोपेतत्वात् मनोरमः अर्चिमाली सूर्यश्व द्योतयति दिशः ॥ १३ ॥ एतद्यशः कीर्तनं सुदर्शनस्य गिरेमरोः प्रोच्यते महतः पर्वतस्य एतउपमएतत्तुल्यः श्रमणोजात पुत्रः श्रीवीरः सजात्या यशसा दर्शनझानान्यां शीलेन वा श्रेष्ठः । अर्श आदित्वान्मत्व र्थीयाचप्रत्ययेन योज्यं-॥१४॥ ॥ टीका-किंच (महीइइत्यादि)।मत्यां रत्नप्रनाष्टथिव्यां मध्यदेशे जंबूदिपस्तस्याऽपि बहुमध्यदेशे सोमनस, विद्युत्प्रन, गंधमादन माल्यवंत, दंष्ट्रापर्वतचतुष्टयोपशोनितः समनू Page #343 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रायधनपतसिंघ बादाउरका जैनागम संग्रह नाग उसरा. ३१३ जागे दशसहस्रविस्तीर्णः शिरसि सहस्रमेकमधस्तादपि दशसहस्राणि नवतियोजनानि योजनैकादशनागैर्दशनिरधिकानि । विस्तीर्णश्चत्वारिंशद्योजनोहितचूडोपशोनितोनगेंः पर्वतप्रधानोमेरुः प्रकर्षण लोके ज्ञायते सूर्यवन्नु लेश्ययादित्यसमानतेजाः । एवमनं तरोक्तप्रकारया श्रिया। तुशब्दाविशिष्टतरया समेरुरिवर्णोऽनेकवर्णोऽनेकवर्णरत्नोपशोनि तत्वात् । मनोऽत.करणं रमयतीति मनोरमोचिमालीवादित्यश्व स्वतेजसा द्योतयति द शदिशः प्रकाशयतीति ॥१३॥ सांप्रतं मेरुदृष्टांतोपदेपेण दातिकं दर्शयति । ( सुदंसणे त्यादि ) एतदनंतरोक्तं यशः कीर्तनं सुदर्शनस्य मेरुगिरेमहापर्वतस्य प्रोच्यते ।सांप्रतमेत देव नगवति दार्टीतिके योज्यते। एषाऽनंतरोक्तोपमा यस्यसएतरुपमः । कोऽसौ । श्री म्यतीति श्रमणस्तपोनिष्टप्तदेहोशाताः दत्रियास्तेषां पुत्रः श्रीमन्महावीरवईमानस्वामा त्यर्थः । सच जात्या सर्वजातिन्योयशसाऽशेषयशस्विन्योदर्शनशानान्यां सकलदर्शनशा निन्यः शीलेन समस्तशीलवनयः श्रेष्ठः प्रधानः । अवघटनातु जात्यादीनां कृतवाना मतिसायने अर्शादित्वादचूप्रत्यय विधानेन विधेयेति ॥ १४ ॥ गिरिवरेवा निसहो ययाणं, रुयएव से वलयायताणं ॥ तन्व मे से जगनूश्पन्ने, मुणीण मष्ने तमुदाढु पन्ने ॥ १५॥ अणुत्तरं धम्ममुईरइत्ता, अणुतरं जाणवरं मियाइं ॥ सुसुकसुकं अप गंम्सुकं, संखिंडएगंतवदातसुकं ॥ १६ ॥ अर्थ-गिरिवरेवानिसहोययाणं के ० ) जेम लांब पणे समस्त पर्वतमा निषध प र्वत श्रेष्ठ तथा (रुयएवसे वलयायताणं के०) जेम वर्गलाकार समस्त पर्वतमाहे रुचक नामा पर्वत श्रेष्ठले (तन्वमेसेजगनूपन्ने के०) तेनी उपमायें श्रीमहावीर देवजग तमां नूतिप्रज्ञ एटले प्रझायें करी श्रेष्ठ जाणवा (मुगीणमनेके०) समस्त मुनिमांहे (तः मुदादुपन्ने के० ) तत्स्वरूप जाणवाने अत्यंतझानवंत जाणवा प्रकर्षणजानातीति प्रज्ञ ए नावजाणवो ॥ १५ ॥ ते श्रीमहावीर (अनुत्तरंधर्म के०) प्रधान एवोजे सर्वोत्तम धर्म तेने (उदिरयित्वा के० ) प्ररुपीने प्रकाशीने (अणुत्तरंकावरं कें० ) प्रधानमा प्रधान एवोजे शुक्लथ्यान तेने ( कियाई के० ) ध्यावे ते जगवंतने योग निरुंध काले सूक्ष्म का ययोग संधनावसरे शुक्त ध्याननो त्रीजो नेद जे सूक्ष्म क्रिया अप्रतिपति एवे नामे ते थाय तथा योगनिरोध थया पली शुक्वथ्याननो चोथो नेद उपरतक्रिया अने अनिवृत्ति नामे ध्यावे ते ध्यान वर्णवेडे (सुसुक्कसुकंपगंमसुकं के०) सुष्टु प्रधान शुक्लवस्तुनी परे शुक्ल नज्वल अपगंम एटले दोष रहित अर्थात मिथ्यात्व रूप काट कलंक तेणे करी Page #344 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१४ हितीये सूत्रकृतांगे प्रथम श्रुतस्कंधे षष्ठमध्ययनं. रहित एवं निर्दोष शुक्ल ध्यान सुवर्णनी पेरे उज्वल अथवा गंम शब्दे उदकनुं फेण तेसर नज्वल तथा (संखिंड के०) शंख अने चंड्मा तेनीपेरे (एगंतवदातसुक्कं के०) एकांत अवदात एटले अत्यंत शुक्ल एवं शुक्ल ध्यान, तेने ध्यावे ॥ १६ ॥ ॥ दीपिका-यथा निषधोगिरिवराणां गिरीणामायतानां मध्ये दीर्घत्वेन श्रेष्ठस्तथा वलयायतानां मध्ये रुचकः पर्वतः श्रेष्ठः। सहि रुचकक्ष्यांतवर्ती मानसोत्तरगिरिरिव वृत्ता यतोऽसंख्येययोजनानि परिपेण स नगवान् तउपमोजगति संसारे नतिप्रज्ञः प्रनूत झानोमुनीनां मध्ये प्रज्ञः । एवं तत्स्वरूपविदनदादुरुक्तवंतः॥१॥अणुत्तरं उत्कृष्टधर्ममुदी र्य कथयित्वा ऽनुत्तरं प्रधानं ध्यानं ध्यायति सुष्टु शुक्तवत् गुक्तं ध्यानं अपगतं गंडं दोषो यस्मात्तदपगंडं निर्दोष मुक्त। अथवा अपगंडमुदकफेनं तत्तुल्यं शंखेंऽवत् एकांतावदात शुक्लध्यानोत्तरनेद दयं ध्यायति । तथाहि । योगनिरोधकाले सूक्ष्मं काययोगं निरंधन गु क्लध्यानस्य तृतीयं नेदं सूक्ष्म क्रियमप्रतिपाताख्यं तथा निरुत्धयोगं चतुर्थ शुक्लध्याननेदं व्युपरतक्रियमनिवृत्याख्यं ध्यानं ध्यायतीति ॥ १६ ॥ ॥ टीका-पुनरपि दृष्टांत बारेणैव जगवतोव्यावर्णनमाह । (गिरिवरेत्यादि ) यथा नि षधोगिरिवरोगिरीणामायतानां मध्ये जंबुदीपेऽन्येषु वा दीपेषु दैर्येण श्रेष्ठः प्रधानः तथा वलयाऽऽयतानांमध्ये रुचकः पर्वतोऽन्येन्योवलयाय तत्वेन । यथा प्रधानः सहि रुचक दीपांतर्वर्ती मानुषोत्तरपर्वतश्व वृत्तायतोऽसंख्येययोजनानि परिक्षेपेणेति । तथा सन गवानपि तडपमः। यथा वाऽऽयतवृत्ततान्यां श्रेष्ठश्च । एवं नगवानपि जगति संसारे नूति प्रज्ञः प्रनूतज्ञातप्रझयाश्रेष्टइत्यर्थः । तथा परमुनीनां मध्ये प्रकर्षण जानातीति प्रज्ञः। एवं तत्स्वरूपविदनदादुरुदाहतवंतउक्तवंतश्त्यर्थः ॥ १५ ॥ किंचाऽन्यत् ( अत्तर मि त्यादि) नाऽस्योत्तरः प्रधानोऽन्योधर्मो विद्यते इत्यनुत्तरः । तमेवंनूतं धर्म उत् प्राबल्येन' रियित्वा कथयित्वा प्रकाश्याऽनुत्तरं प्रधानं ध्यानवरं ध्यानश्रेष्ठं ध्यायति ॥ तथाहि । उ त्पन्नज्ञानोनगवान् योगनिरोधकाले सूक्ष्मं काययोगं निरंधन शुक्लध्यानस्य तृतीयं नेदं सूक्ष्म क्रियमप्रतिपाताख्यं । तथा निरुक्ष्योगं चतुर्थशुक्लथ्याननेदं व्युपरतक्रियमनिवृत्ता ख्यं ध्यायति । एतदेव दर्शयति । सुष्टु शुक्लवबुक्लं ध्यानं । तथा अपगतं गंडमपव्यं यस्य तदपगतगंमं निर्दोषार्जुनसुवर्णवत् शुक्लं। यदिवा गंडमुदकफेनं तत्तुल्यतिति नावः। तथा शंखेंऽवदेकांतावदांतं शुनं शुक्लं शुक्तध्यानोत्तरं नेद क्ष्यं ध्यायतीति ॥ १६ ॥ अणुत्तरग्गं परमं मदेसी,असेसकम्म स विसोदश्त्ता॥सिद्धिं ग तेसाश्मणंतपत्ते, नाणेण सोलेण य दंसणेण॥२७॥रुरकेसु पाते Page #345 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रायधनपतसिंघ बढाउरका जैनागम संग्रह नाग जसरा. ३१५ जह सामलीवा, जस्सि रतिं वेययंती सुवन्ना ॥वणेसु वाणंदण मादु सेठं, नाणेण सीलेण य नूतिपन्ने ॥१७॥ अर्थ-ते जगवंत शैलेसी अवस्थायें गुक्तध्यानना चोथा जेदने अनंतर (साश्के० ) सादि अने (अणंतके०) अनंत एवी (सिदिंगते के०) सिधिगतिने विषे पोहोंता ते सि विकेवीले तोके, (अणुतरग्गं के०) सर्वमां नत्तम तथा लोकने अग्रे वर्तमान ते कारण माटे (परमंमहेसी के ) परम प्रधान मोहोटा रुषीश्वर श्रीमहावीर देवने जे (नाणे एसीलेणयदंसरोणके०) झाने करी दर्शनेकरी चारित्रशीलेकरी (असेसकम्मंसविसोहा ताके० ) समस्तज्ञानावर्णादिक बावेकर्मने शोधी कर्म खपावीने मुक्तिनेविषे (पत्तेके०)पो होता. ॥१७॥ वली उपमायें करी जगवंतने स्तवे ; (जहके०) जेम (रुरकेसुके०) वृदो माहे (पातेके०) प्रसिद देवकुरु उत्तरकुरुने विषे व्यवस्थित एवं (सामलीवाके) साल्म ली द मोहोटुंडे (जस्सिके०) जेनेविषे (सुवन्नाके ) सुवर्ण कुमारकादिक नुवनप ति देवो प्रावीने ( रतिवेययंती के० ) रतिवेदेने एटले कीडा रूप सुख नोगवेने तथा जे म (वणेसुवाके०) वनने विषे (पंदण के०) नंदन वन (सेके०) श्रेष्ठ (प्रादुके०) कह्यु ने नत्तम शोनाये करी सहित कयुं तेम (नाणेणसीलेणयनूतिपन्ने के०) शान थने शील एटले चारित्र तेणे करी, श्री महावीर महाप्राज्ञ एटले मोहोटा जाणवा. ॥१॥ ॥ दीपिका-अनुत्तरां प्रधानां अय्यां च सर्वोत्तमां परमां सिदिंगतिं साधनंतां प्राप्तोम हर्षिः सपशेषं कर्म विशोध्यापनीय केन ज्ञानेन दर्शनेन शीलेनच कर्म पयित्वा ॥ ॥ १७ ॥ वृदेषु मध्ये यथा ज्ञातः प्रसिसोदेवकुरुस्थितः कूटशाल्मलीतः। यस्मिन्वृदे सुपर्णानवनपतिविशेषारतिं क्रीडां वेदयंतीति । वनेषु मध्ये यथा नंदनं वनं श्रेष्ठमा दुस्तथा नगवान ज्ञानेन शीलेनच श्रेष्ठोनूतिप्रज्ञः प्रमशानः ॥१७॥ ॥ टीका-अपिच (थपुत्तरग्गमित्यादि) तथाऽसौ नगवान् शैलेऽश्यवस्थापादित कध्यानचतुर्थनेदानंतरं साद्यपर्यवसानां सिदि गति पंचमी प्राप्तः । सिगितिमेव वि शिनष्टि । अनुत्तरा चासौ सर्वोत्तमत्वादग्याच लोकायव्यवस्थितत्वादनुत्तराग्या तां परमां प्रधानां महर्षिरसावत्यंतोग्रतपोविशेषनिष्टप्तदेहत्वादअशेषं कर्म ज्ञानावरणा दिकं विशोध्यापनीय च विशिष्टेन ज्ञानेन दर्शनेन शीलेनच दायिकेन सिहं गतिं प्राप्त इति मीलनीय ॥ १७ ॥ पुनरपि दृष्टांत वारेण जगवतः स्तुतिमाह । (रुरकेसुणाए त्यादि ) वृदेषु मध्ये यथा ज्ञातः प्रसिसोदेवकुरुव्यवस्थितः शाल्मलीवदः सच नव नपतिकीमास्थानं । यत्र व्यवस्थिताअन्यतश्चागत्य सुपर्णाजवनपतिविशेषारति रमण Page #346 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१६ द्वितीये सूत्रकृतांगे प्रथम श्रुतस्कंधे पष्ठमध्ययनं . क्रीडां वेदर्यत्यनुवंति । वनेषु च मध्ये यथा नंदनं देवानां कीमास्थानं प्रधानं । एवं नगवानपि ज्ञानेन केवलाख्येन समस्तपदार्थाविर्भावकेन शीलेन च चारित्रेण यथा ख्यातेन श्रेष्ठः प्रधानोनू तिप्रज्ञः प्रवृज्ञानोनगवानिति ॥ १८ ॥ यणियंव सद्दा प्रत्तरे न, चंदोव ताराण महापुजावे ॥ गंधे सुवा चंदामाद से, एवं मुणी प्रपडिन्नमाद || १|| जदा सयं दही से, नागेस वा धरणिंदमासे ॥ खोदए वा रसवेजयंते, तवोवदाणे मुणिवेजयंते ॥ २० ॥ अर्थ-जेम ( सहाण के० ) शब्दमां ( यणियंत्र के० ) स्तनिर्त एटले मेघनी गर्ज नानो शब्द (प्रणुत्तरे के०) प्रधान एटले रुडो कोबे तथा ( चंदोवतारारामहापुजावे के० ) जेम ग्रह नक्षत्र घने ताराने विषे चंड्मा महानुभाव कोबे तथा (गंधेसुवाचं दामादुरोंके ० ) जे समस्त गंधमां गोशीर्ष बावना चंदन श्रेष्ठ कचुंबे ( एवं के० ) एम ( मुली के० ) समस्त साधुमां ( प डिनमाडुके ० ) प्रतिज्ञ एटले यालोक परलोकनी प्रशंसा करवानी जेने प्रतिज्ञा नथी अर्थात् इहलोक परलोकनी याशंसा रहित एवा श्रीमहावीरने मोहोटा श्रेष्ठ कह्या ॥ १७ ॥ ( जहासयंनूनदहीसे के० ) जेम स मस्त समुइमां स्वयंनूरमण समुइ श्रेष्ठ कोबे ( नागेसुवाधर दिमादुसे के० ) जेम नागकुमार देवोमां धरणेंइनामा श्रेष्ट कोबे (खोडद एवारस वे जयंते के ० ) जेम इ रसोदक समस्त रसमां प्रधान वेजयंत एटले वखाएयोबे ( तवोवहा मुणिवेजयं ते के० ) तेम तप उपधाने करी तपो विशेषे करी समस्त मुनिमां श्रीमहावीर ने प्रधानवखाल्याने ॥ २० ॥ ॥ दीपिका- यथा शब्दानां मध्ये स्तनितं मेघगर्जितमनुत्तरं प्रधानं । तुर्विशेषणे । यथा ताराणां मध्ये चंड्रोमहानुनावः श्रेष्ठः । गंधेषु मध्ये यथा चंदनं श्रेष्ठं तज्ज्ञा यदुः । त था मुनीनां मध्ये जगवंतं श्रेष्ठमादुः । किंनूतं । नास्य प्रतिज्ञा इहलोक परलोकाशंसिनी वि द्यते इत्यप्रतिज्ञस्तं ॥ १५ ॥ स्वयंनुवस्ते यत्रागत्य रमंतइति स्वयंजूरमणः सयथा नद धीनां समुाणां मध्ये श्रेष्ठः । नागेषु नवनपतिविशेषेषु धरणेंं श्रेष्ठमातुः । ( खोजदए ति) इकुरसश्व उदकं यस्य सइतरसोदकः समुझेयथा रसमाश्रित्य वैजयंतः प्रधानः । एवं तपधानेन तपोविशेषेण मुनिर्भगवान् वैजयंतः प्रधानः ॥ २० ॥ ॥ टीका - पिच ( यणियमित्यादि ) यथा शब्दानां मध्ये स्तनितं मेघगर्जितं तदनुत्त रं प्रधानं । तुशब्दो विशेषणार्थः समुञ्चयार्थो वा । तारकाणां च नक्षत्राणां मध्ये यथा For Private Personal Use Only Page #347 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राय धनपतसिंघ बादाउरका जैनागम संग्रह नाग उसरा. ३१७ चंशेमहानुनावः सकलरजनिवृत्तिकारिण्या कांत्यामनोरमः श्रेष्ठः। गंधेष्विति गुणगुणि नोरनेदान्मतुबलोपाता । गंधवत्सु मध्ये यथा चंदनं गोशीर्षकाख्यं मलयजं वा तज्ज्ञाः श्रेष्ठमादुः । एवं मुनीनां महर्षीणां मध्ये नमवंतं नाऽस्य प्रतिज्ञा इहलोकपरलो कानां शंसिनी विद्यते इत्यप्रतिझस्तमेवंनूतं श्रेष्ठमादुरिति ॥ १५ ॥ अपिच । ( जहा सयंनूइत्यादि ) स्वयं नवंतीति स्वयंनुवोदेवास्ते तत्राऽऽगत्य रमंतीति स्वयंनूरमणस्तदे वमुदधीनां समुझणां मध्ये यथा स्वयंनूरमणः समुः समस्तदीपसागरपर्यतवर्ती श्रे ष्ठः प्रधानोनागेषु च नवनपतिविशेषेषु मध्ये धरणें नागें यथा श्रेष्ठमादुः । तथा (खो नदएइति) इटुरसश्वोदकं यस्य सरसोदकः सयथा रसमाश्रित्य वैजयंतः प्रधानः स्व गुणैरपरसमुशणां पताकेवोपरि व्यवस्थितः । एवं तपउपधानेन विशिष्टतपोविशेषेण मनुते जगतस्त्रिकालावस्थामिति मुनिनगवान् वैजयंतः प्रधानः समस्तलोकस्य महा तपसा वैजयंतीवोपरि व्यवस्थितइति ॥ २०॥ हनीसु एरावणमाद् णाए, सीहो मिगाणं सलिलाण गंगा, प कीसुवा गेरुले वेणुदेवे, निवाणवादीपिद पायपुत्ते ॥२२॥ जोहेसु पाए जह वीससेणे, पुप्फेसुवा जद अरविंदमानुखित्तीण सेजद दत्तवके, इसीण सेठे तद वचमाणे ॥२२॥ अर्थ-हिनीसएरावणमादणाएके०) जेम हस्तिने विषे इंनुवाहन ऐरावणहस्ति प्र धान कह्योडे. (सीहोमिगाणंके०) जेम मृग प्रमुख स्वापद जनावरोमां सिंह प्रधानकह्यो (सलिलाणगंगाके०) जरतदेवनी अपेक्षायें जेमपाणीमां गंगानदिनुपाणी निर्मल कडुंबे(प स्कीगुवागेरुलेवेणुदेवेके०) जेम समस्त पदोमां गरुड मोहोटो कह्यो अपरनामे वेषुदेव एजेम प्रधान कह्याचे (निवाणवादीणिहके ) तेम निर्वाणजे मोद मार्ग तेना स्थापन कर नारा वादीलोक मां (णायपुत्ते के०) श्रीमहावीर मोहोटा कह्याले. ॥२१॥ (जहके०) जेम (जोहेसु के० ) यो शुनटो मां (गाएके०) झातविदित (वीससेणेके०) विश्वसेन एटले चक्रवर्ति प्रधान कह्यो ( पुप्फेसुवाजहथरविंदमाहु के०) जेम फूलमां अरविंद कमल मो होटुं कडेने (खत्तीणसे जहदंतवक्के के०) जेम क्षत्रीमा दंतवाक्य एटले चक्रवर्ति प्रधा न कह्यो (तह के० ) तेम (इसीके) समस्त ऋषी मां (वघमाणे के० ) श्रीव ईमान स्वामि (सेके के ) श्रेष्ठ कह्याले. ॥ ५५ ॥ ॥ दीपिका-हस्तिषु यथा ऐरावत इंगजं ज्ञातं प्रसिदं दृष्टांतनूतमाहुस्तज्ज्ञाः । यथा Page #348 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१७ वितीये सूत्रकृतागे प्रथम श्रुतस्कंधे पंचमाध्ययनं. मृगाणां श्वापदानां मध्ये सिंहः प्रधानः। जरतक्षेत्रापेक्ष्या यथोदकानां मध्ये गंगोदक प्रधानं यथा च पक्षिणां मध्ये गरुडोऽपरनामा वेषुदेवः प्रधानस्तथानिर्वाणपथदेश कानां ज्ञातपुत्रः श्रीवीरः प्रधानोयथास्थितमोक्षार्थवादित्वात् ॥ २१ ॥ योधानां मध्ये यथा विश्वा संपूर्णा सेना यस्य सविश्वसेनश्चक्री ज्ञातः पुष्पेषु यथाऽरविंदं प्रधानमाहुः त्रियाणां मध्ये यथा दांतानपशांतावाक्येनवा शत्रवोयस्मात्सदांतवाक्यश्चक्रवर्ती प्र धानस्तथा ऋषीणां मध्ये श्रीवर्धमानः श्रेष्ठः ॥ २२.॥ ॥ टीका-(हनीसुश्त्यादि) हस्तिषु करिवरेषु मध्ये यथा ऐरावतं शक्रवाहनं ज्ञात प्रसि दृष्टांतनूतं वा प्रधानमादुस्तज्झाः । मृगाणां च श्वापदानांमध्ये यथा सिंहः केसरी प्रधानस्तथा जरतक्षेत्रापेक्ष्या सलिलानां मध्ये यथा गंगास लिलं प्रधाननावमनुनव ति । पदिषु मध्ये यथा गरुत्मान् वेषुदेवाऽपरनामा प्राधान्येन व्यवस्थितः। एवं निर्वा णं सिद्धिदेवाख्यं कर्मच्युतिलक्षणंवा स्वरूप तस्तउपायप्राप्तिहेतुतोवा वदितुं शीलं येषां ते तथा तेषां मध्ये ज्ञाताः दत्रियास्तेषां पुत्रोऽपत्यं ज्ञातपुत्रः श्रीमन्महावीरवर्धमान स्वामी सप्रधानति यथावस्थितनिर्वाणार्थवादित्वादित्यर्थः ॥ २१ ॥ थपिच (जोहे. सुश्त्यादि) योधेषु मध्ये ज्ञातोविदितोदृष्टांतनूतोवा विश्वा हस्त्यश्वरथपदातिचतुरं गबलसमेता सेना यस्य स विश्वसेनश्चक्रवर्ती यथाऽ सौप्रधानः पुष्पेषु च मध्ये यथाऽ रविंदं प्रधानमादुः। तथा तात् त्रायंतति कृत्रियास्तेषां मध्ये दांताउपशांतायस्य वाक्येनैव शत्रवः सदांतवाक्यश्चक्रवती यथासौ श्रेष्ठः । तदेवं बदन् दृष्टांतान प्रशस्तान प्रदाऽधुना नगवंतं दार्टीतिकं स्वनामयाहमाह । तथा ऋषीणां मध्ये श्रीमान वर्धमानस्वामी श्रेष्ठति ॥ १२ ॥ दाणाण से अनयप्पयाणं, सच्चेसुवा अपवळं वयंति॥तवेस वा उत्तमबंनचेरं, लोगत्तमे समणे नायपत्ते ॥२३॥ विण से हालवसत्तमावा, सना सुहम्माव सनाण से॥निवाणसेघा जद सवधम्मा, ण णायपुत्ता परमबी नाणी॥२४॥ अर्थ-( दाणाणसेवनयप्पयाणं) जेम समस्त दानने विषे अनयदान श्रेष्ठ का (सच्चेसुवागणवकंवयंति के ) जेम सत्य वचनमा निरवद्य एटले जे वचनना नचारे करी. परने पीडा उत्पन्न नथाय ते वचन श्रेष्ठ वखाण्युडे (तवेसुवाउत्तमबंनचेरं के०) जेम सर्व तपमा नवविध ब्रह्मगुप्ति सहित ब्रह्मचर्य श्रेष्ठकह्यो (लोगुत्तमेसमऐनायपुत्ते के०) तेम लोकमां उत्तम श्रमण तपस्वी श्रीमहावीर देव श्रेष्ठ वरखाण्याने. ॥ २३ ॥ Page #349 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राय धनपतसिंघ बाहारका जैनागम संग्रह नाग इसरा. ३१ (विईल से हालवसत्तमावा के० ) जेम स्थितिमां प्रधान लव सप्तम देवता एटले पंचा उत्तर विमानवासी देवो कह्याने कारणके तेमनुं मनुष्यमां सात लव प्रमाण या कर्म जो शेष रह्युं होत तो मुक्ति पामत तेमाटेएने जव सप्तम देवो कहियें (सनासु हम्मावस नासेहा के० ) अन्य सनाउंमां जेम सौधर्मा सना श्रेष्ठ कहीले ( निवाण से हाजहस धम्मा के० ) जे समस्त धर्मोने विषे निर्वाण जे मोह ते प्रधान कह्योले केमके न्य दर्शन पण पोत पोताना धर्मने विषे मोद प्रधान बोलेले माटे. ( लायपुत्ता परमनाली के०) तेम ज्ञात पुत्र श्रीमहावीर थकी अन्य कोइ ज्ञानी नथी एटले सर्व उत्तम ज्ञानवंत श्रीमहावीर देव जाणवाः ॥ २४ ॥ 1 ॥ दीपिका- यथा दानानां मध्येऽनयप्रदानं श्रेष्ठं । यतं । दीयते म्रियमाणस्य कोटिं जीवि तमेव वा ॥ धनकोटिं न गृहीयात्सर्वोजीवितुमिच्ठति ॥ १ ॥ त्रदृष्टांतः । वसंत पुरे अरिदमनोराजा चतुर्वधूयुक्तोऽन्यदा गवादे क्रीडति तेन सपत्नीकेन चौरोवधस्थानं नीय मानोदृष्टः पत्निनिः पृष्टं किमनेनापराधं । एकेन राजनरेण तत्स्वरूपमुक्तं । अनेन चौर्य कृतं । ततएकया पत्न्या नृपपार्श्वे पूर्वदत्तोवरोमार्गित एकदिनं चौरोमोच्यइति । राज्ञापि प्रतिपन्नं ततस्तया स्नाननोजन सत्कारादिपूर्वक मलंकारैरलंकृतोदीनारसहस्त्रव्ययेन श दादिविषयान् प्रापितो दिन मेकं पालितचौरः । द्वितीयदिने द्वितीयया दीनारलकव्ययेन लालितस्तृतीय दिने तृतीयया दीनारकोटिव्ययेन सत्कारितश्चतुर्य्यातु राज्ञोनुमत्या मर urइतिनान्यत्किंचिडुपकतं सान्यपत्नी निर्ह सिता नानया किंचिद्दत्तमिति । ततस्तासां बहूपकारविषये विवादे जाते राज्ञा चौरएव कार्य पृष्टोयथा तव क्या बहूपकृतमिति तेनोक्तं मया मरणमहानयनीतेन स्नानादिसुखं किं चिन्न ज्ञातं । यथे पुनरनयदानाक नात्परमं सुखमनुनवामीति सर्वदानानामनपदानं श्रेष्ठमिति स्थितं । सत्येषु वाक्येषु यदनवद्यं पीडानुत्पादकं वाक्यं तत् श्रेष्ठं । सत्यं तदेव यत्परपीडानुत्पादकं । यतः । लो केपि श्रूयते वादोयथाऽसत्येन कौशिकः ॥ पतितोवधयुक्तेन नरके तीव्रवेदने ॥ १ ॥ तथा तदेव काका पिति पंरुगंपंगत्ति वा ॥ वाहियं वा हिरो गिति ताणं चोरित्ति नोव से इति ॥ तपःसु यथा ब्रह्मचर्यमुत्तमं तथा लोकोत्तमः श्रमणोज्ञातपुत्रः श्रीवीरः ॥ २३॥ स्थितिमतां मध्ये यथा लवसप्तमाः पंचानुत्तर विमानस्थादेवाः सर्वोत्कृष्ट स्थितयः प्रधानाः । तेषां यदि सप्तलवायायुष्कमन विष्यत्ततः सिद्धिगमनमनविष्य दिति । यथा सनानां मध्ये सौधर्मा सना श्रेष्ठा । यथा सर्वधर्मानिर्वाणश्रेष्ठामो प्रधानाः । कुंदर्शिनोपि स्वधर्म निर्वाण फलदमाहुः । एवं ज्ञातपुत्रात् श्रीवीरात् परोज्ञानी नास्तीति सर्वेच्योधिकज्ञान इत्यर्थः॥ २४ For Private Personal Use Only Page #350 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२० दितीये सूत्रकृतांगे प्रथम श्रुतस्कंधे षष्टमध्ययनं. ॥टीका-तथा (दाणाणमित्यादि)। तथा स्वपरानग्रहार्थमर्थिने दीयतति दान नमनेकधा । तेषां मध्ये जीवानां जीवितार्थिनां त्राणकारित्वादनयदानं श्रेष्ठं । तमुक्तं । दीयते म्रियमाणस्य, कोटिं जीवितमेव वा।धनकोटि नगृहीयात्, सर्वोजीवितुमिबति गोपालांगनादीनां दृष्टांत हारेणार्थोबुझौसुखेनारोहतीति । अतोऽजयप्रदानप्राधान्यख्या पनार्थ कथानकमिदं । वसंतपुरे नगरे अरिदमनोनाम राजा सच कदाचिञ्चतुर्वधूसमेतो वातायनस्थः क्रीडायमानस्तिष्ठति । तेन कदाचिच्चौरोरक्तकरवीरकतमुंफमालोरक्तपरिध । नोरक्तचंदनोपलिप्तश्च प्रहतवध्यमिंडिमोराजमार्गेण नीयमानः सपत्नीकेन दृष्टोदृष्ट्वा च तानिः दृष्टं किमनेनाकारीति । तासामेकेन राजपुरुषेणाऽऽवेदितं यथा परव्यापहारेण रा जविरुममिति । ततएकया राजा विज्ञप्तोयथा योनवता मम प्राग्वरः प्रतिपन्नः सोऽधुना दीयतां यथाऽहमस्योपकरोमि। किंचित् राझापि प्रतिपन्नं ततस्तया स्नानादिपुरःसरमलंका रेणाऽलंकतोदीनारसहस्रव्ययेन पंचविधान् शब्दादीन् विषयानेकमहःप्रापितः पुनर्मिती ययाऽपितथैव क्षितीयमहोदीनारशतसहस्रव्ययेन लालितः। ततस्तृतीयया तृतीयमहोदी नारकोटिव्ययेनसत्कारितः। चतुर्थ्यातु राजानुमत्या मरणाइदितो ऽनयप्रदानेन । ततोऽ सावऽन्यानिर्ह सितानाऽस्य त्वया किंचिदत्तमिति। तदेव तासां परस्परबहूपकारविषये विवादे राझाऽसावेव चौरः समास्य पृष्टोयथाकेन तव बदूपरुतमिति तेनाऽप्यनाणि । यथा न मया मरणमहानयनीतेन किंचित् स्नानादिकं सुखं विज्ञायीति । अनयप्रदानाकर्णनेन पु नर्जन्मानमिवात्मानमवैमीति । अतः सर्वदानानामनयप्रदानं श्रेष्ठमिति स्थितं । तथा स त्येषु च वाक्येषु च यदनवद्यमपापं परपीडानुत्पादकं तत्श्रेष्ठं वदंति। नपुनः परपीडोत्पाद कं सत्यं सन्यो हितं सत्यमितिकत्वातथाचोक्तं। लोकेऽपि श्रूयते वादो, यथा सत्येन कौशि कः॥पतितोवधयुक्तेन, नरके तीव्रवेदने । अन्यच्च । तहेवकाकाणत्ति पंझगमगतिवा । वाहियंवाहिरोगित्ति, तेणंचोरोत्तिनोवदे ॥ तपस्सु मध्ये यथैवोत्तमं नव विधब्रह्मगुप्युपेतं ब्रह्मचर्य प्रधानं नवति । तथा सर्वलोकोत्तमरूपसंपदा सर्वातिशायिन्या हायकज्ञानदर्श नान्यां शीलेन ज्ञातपुत्रोनगवान् श्रमणः प्रधानइति ॥ २३ ॥ किंच (विईणमित्यादि) स्थितिमतां मध्ये यथा लवसत्तमाः पंचानुत्तर विमानवासिनोदेवाः सर्वोत्कृष्टस्थितिवर्ति नः प्रधानायदि किल तेषां सप्तलवायायुष्कमनविष्यत्ततः सिधिगमनमनविष्यदिति । अतोलवसत्तमास्तेऽनिधीयंते । सनानां च पर्षदांच मध्ये यथासौधर्माधिपर्षलेष्ठा बहु निः क्रीडास्थानैरुपेतत्वात्तथा। यथा सर्वेऽपि धर्मानिर्वाणफलमेव स्वदर्शनं ब्रुवते । यतः एवं शातपुत्रात् वीरवर्धमानस्वामिनः सर्वज्ञात् सकाशात् परं प्रधानं अन्यविज्ञानं नास्ति सर्वथैव नगवानपरझानियोऽधिकझानोनवतीति नावः॥ २४ ॥ Page #351 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राय धनपतसिंघ बादाउरका जैनागम संग्रह नाग उसरा. ३१ पुढोवमे धुण विगयगेदि, नसमिहिं कुवति आसुपन्ने॥ तरिवं समुहंच महानवोघं, अनयंकरे वीर अणंतचरकू ॥ २५॥ कोई च माणंच तदेव मायं, लोनं चनचं अशबदोसा॥ एआणि वंता अरदामहेसो ण कुबई पाव ण कारवे ॥२६॥ अर्थ-(पुढोवमेके० ) जेम पृथवी सकल पदार्थने अाधार नत तेम श्रीमहावीर सर्व सत्वने अनय प्रदाने करी रुडा उपदेशना दान थकी आधारभूतले. (धुणश्के०) अष्टप्रकारना कर्म खपाव्याडे ( विगयगेहि के०) विगतगृधि एटले अनिलाष रहित थयावे वली (नस मिहिंकुव्वति के ) संनिध नकरे एटले कां पण संचय करे नही त था (आसुपनेके० ) उतावली प्रझाना धणी एटले केवली एवा जगवंत जाणवा (त रिसमुदंचमहानवोघं के० ) तथा समुनी पेरे तरवाने उस्तर एवो मोहोटो संसार स मुइ तेने तरीने मुक्तिये पोहोताने, वली श्रीमहावीर केवाले तोके, (अनयंकरेके०) अन य करनार एटले सर्व जीवना नयना टालनार तथा ( वीरके) शूरवीरने (बतच स्कू के ० ) अनंत चकुना धणी एटले सर्व स्वरूप देखे जाणे. ॥ २५ ॥ (कोहंचमा पंचतहेवमायं के०) क्रोध वली मान तथा माया तेमज वली (लोनंके०) लोनते परवंचना रूप जाणवो (चनबंके० ) एचार (अशबदोसा के० ) अध्यात्म दोष तेने संसार वधारवाना कारण जाणीने (एमाणिवंता के ) एचारे कषायने बांमीने श्रीम हावीर (अरहामहेसी के०) अरहंत थया महारिषी थया ते कारण माटे (एकुछ ईपावणकारवेश के०) श्रीमहावीर स्वामि पोते पाप करे नही तथा बीजा पासे पाप करावे नही अने पापकर्मना करनारनी अनुमोदना पण करे नही. ॥ २६ ॥ ॥ दीपिका-यथा पृथ्वी सर्व सहा तथा नगवानपि तापमः । विगतगृधिगतानिता षोधुनात्यपनयति कर्मेति ।अाशुप्रज्ञः सदायोगझानः सन्निधिं न करोति । व्यसन्निधिर्धन धान्यादि वसन्निधिर्मायाक्रोधादिस्तं विविधमपि सन्निधिं न करोति सतरित्वा समु इमिव महानवौघं संसारप्रवाहं निर्वतोऽजयंकरः प्राणिनां वीरोऽनंतचतुरनंतझानः॥ ॥ २५॥ क्रोधं मानं मायां लोनं चतुर्थमध्यात्मदोषानात्मदोषरूपान् कषायान् एता न वांत्वा त्यक्त्वा ऽहनमहर्षिः स्वयं पापं न करोति न कारयत्यन्यैः ॥ २६ ॥ ॥ टीका-किंचाऽन्यत् (पुढोवमेइत्यादि) सहि नगवान् यथा दृथिवी सकलाधारा व तते तथा सर्वसत्वानामनयप्रदानतः समुपदेशदाना सत्वाधारइति । यदिवा यथा ! थ्वी सर्वसहा एवं नगवान् परीषहोपसर्गान् सम्यक् सहतइति । तथा धुनात्यपनयत्यष्ट Page #352 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२२ हितीये सूत्रकृतांगे प्रथम श्रुतस्कंधे षष्ठमध्ययनं. प्रकारं कर्मेतिशेषः । तथा विगता प्रतीना सबाह्यान्यंतरेषु वस्तुषु गृदिर्गादर्घमनिलाषीय स्य सविगतगृदिः। तथा सन्निधानं सन्निधिः सच इव्यसन्निधिः।धनधान्यदिपदचतुष्पदरू पोनावसन्निधिस्तु मायाक्रोधादयोवा सामान्येन कषायास्तमुनयरूपमपि सन्निधिं न करोति नगवांस्तथाऽऽशुप्रज्ञः सर्वत्र सदोपयोगान्नबद्मस्थवन्मनसा पर्यालोच्य पदार्थप रिवित्तिं विधत्ते । सएवंनूतस्तरित्वा समुमिव पारं महानवौघं चतुर्गतिकं संसारसागरं बदुव्यसनाकुलं सर्वोत्तमं निर्वाणमासादितवान् । पुनरपि तमेव विशिनष्टि । अनर्य प्राणिनां प्राणरक्षारूपं स्वतः परतश्च समुपदेशदानात् करोतीत्यनयंकरः । तथाऽष्टप्रका रं कर्म विशेषेणेरयति प्रेरयतीति वीरः। तथाऽनंतमपर्यवसानं नित्यं ज्ञेयानंतत्वादानंत चकुरिव चतुः केवलानं यस्य सतथेति ॥२५॥ किंचाऽन्यत् (कोहंचेत्यादि) निदानोबे देन हि निदानिननन्जेदोनवतीति न्यायात संसारस्थितेश्च क्रोधादयः कारणमतएतानध्या स्मदोषांश्चतुरोऽपि क्रोधादीन् कषायान्वांत्वा परित्यज्य असौ नगवानर्दस्तीर्थकत् जातः तथामहर्षिश्चैवं परमार्थतोमहर्षित्वं नवति यद्यध्यात्मदोषान नवंति नान्यथेति । तथा न स्वतः पापं सावद्यमनुष्ठानं करोति नाप्यन्यैः कारयतीति ॥ २६ ॥ किरियाकिरियं वेणश्याणुवायं,अस्माणियाणं पडियच्च गणं॥से सबवायं इति वेयश्त्ता, वहिए संजमदीदरायं ॥३॥से वारि या विसराश्नत्तं, ग्वदाणवं उरकखयध्याए ॥ लोगं विदित्ता आरं पारंच, सवं पनू वारिय सबवारं ॥ २७ ॥ सोचाय धम्म अरहंत नासियं,समाहितं अहपदोपसुद्धं ॥ तं सददाणाय ज णा अणाऊ, इंदावदेवादिव आगमिस्संतित्तिबेमि ॥ ॥ इति श्री वीरब्रुतीनाम षष्ठमध्ययनं सम्मत्तं॥ अर्थ-(किरियाकिरियंके) क्रियावादीना एकशेने एंशी नेद,अक्रियावादीना चोराशी नेद (वेणश्यके) विनयवादीना बत्रीश नेद, धने (यस्माणियके०) अज्ञान वादीना सड सन नेद ए सर्व मला त्रशेने त्रेशन थयांते पांखमी दर्शनीना (अणुवायंके०) अनुवाद एटले नेद जाणवा ए चारे दर्शनीना (स्थानके० ) दर्शन स्वरूप तेने (पडियच के०) पुर्गति जवाना कारण जाणीने (सेके) ते श्रीमहावीर देव (सबवायंके ) सर्ववादने (इतिवेयश्त्ताके) जाणीने उन्मार्गनो त्याग करीने ( संजमेसदीहरायं के ० ) चारित्ररूप धर्मने विषे दीर्घरात्रं एटले जावजीव सुधी (नवहिए के०) उपस्थित एटले सावधान थया ॥२७॥ (सेके०) ते जगवंते (इलिसराइन के ) स्त्री सहित रात्री नोजन तथा उपलक्षणथी प्रणातिपातादिकने पण (वारिया के०) निवास्या वली (रकरखया Page #353 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राय धनपतसिंघ बादाउरका जैनागम संग्रह नाग उसरा. ३२३ याए के) कर्मरूप दुःख क्ष्य करवाने अर्थे ( उवहाण के) उपधानवंत थया एट ले तपश्या करी देह शोषवीने कर्म खपाव्या (लोगंविदित्ता पारंपारंच के०) इह लोक थने परलोक ए बनेने जाणीने (सवंपनूवारियसववारं के०) सर्व पापना स्था नकने प्रनत पणे पोते वारंवार निवास्याने ॥ २७ ॥ हवे श्रीसुधर्म स्वामि पोताना शिष्य प्रत्ये कहेले (धम्म थरहंत नासियंके) अरिहंतनो नाषेलोजे धर्म ते केवो तो के (समाहितं अपदोपसुई के०) सम्यक् प्रकारे अर्थे करी पदे करी गुरु एटले उज्वल युक्ति सहित तेने ( सोचाय के० ) सनिलीने (तं के०) ते धर्मने (सदहाणाय के० ) सईहप्ता एटले सत्य करी मानता थका (जणा के० ) अनेक जन (अणाक के०) कर्म रहित थयीने अनायुष्य थया एटले सिम थया (इंदावदेवा हिव थागमिस्संतिके०) अथवा आगमिक काले इंसादिक पदवी पाम्या तिबेमिनो अर्थ पूर्ववत् जाणवो ॥॥ इतिश्री वीरस्तुतिनामे बहा अध्ययननो अर्थ समाप्त थयो. ॥दीपिका-क्रियावादिनाम कियावादिनां वैनयिकानामझानिकानां स्थानं पदं सम्यक्प्रका रंप्रतीत्य परिविद्य ज्ञात्वा सनगवान् सर्ववादं निवेदयित्वा सर्वकुदर्श निनां स्वरूपं ज्ञात्वा दीर्घ कालं यावजीवं संयमे उपस्थितः ॥२७॥ सनगवान् स्त्रीनोगं मैथुनं सरात्रिनोजनसहित वारयित्वा नपलदणादन्यदपि प्राणातिपातादिकं ग्राह्यं । उपधानवान् तपोविशेषयुक्तो मुःखदयार्थ आरं पारंच लोकं इह लोकं परलोकं च विदित्वा ज्ञात्वा प्रनुर्नगवान् सर्व वारं बहुशोनिवारितवान् । कोर्थः । अहिंसादिकं स्वयं विधाय परांश्च स्थापितवान् न हि स्वयमधर्मे स्थितः परान् धर्म स्थापयितुमलं । यउक्तं स्तुतिकता । ब्रुवाणोपि न्या य्यं स्ववचन विरुदं व्यवहरन् परं नातं कश्चिदमयितुंमदांतः स्वयमिति ॥ नवानिश्चित्यैवं मनसि जगदाधाय सकलं स्वमात्मानं तावदमयितुमदांतं व्यवसितइति ॥ २ ॥ श्रु त्वा धर्ममह जाषितं सम्यगारख्यातमर्थपदैयुक्तिनिरूपशुई निर्मलं तं धर्म श्रद्दधानाज नास्तथा कुर्वति यथा नायुःकर्माणः सिक्षाः सायुषश्च इंद्यादेवाधिपात्रागमिष्यंती ति इति ब्रवीमीति ॥ ॥ इति वीरस्तवारख्यं षष्ठमध्ययनं समाप्तं ॥ ॥ टोका-किंचाऽन्यत् (किरिएइत्यादि) तथा सनगवान् क्रियावादिनमक्रिया दिनां वैनयिका नामझानिकानांच स्थानं पदमन्युपगतमित्यर्थः। यदिवा स्थीयतेऽस्मिन्निति स्थानं उर्गति गमनादिकं प्रतीत्य परिविद्य सम्यगवबुध्यत्यर्थः। एतेषां च स्वरूपमुत्तरत्र प्रत्यक्षेण व्याख्या स्यामः । शतस्त्विदं । क्रियैव परलोकसाधनाया लमित्येवं वादितुं शीलं येषांते क्रियावा दिनस्तेषां हि दीदातएव क्रियारूपायामोदश्त्येवमन्युपगमः। थक्रियावादिनस्तु ज्ञानवादि नस्तेषां हि यथावस्थितवस्तुपरिझानादेव मोक्षः। तथाचोक्तं । पंचविशतितत्वज्ञो,य Page #354 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२४ वितीये सूत्रकृतांगे प्रथमश्रुतस्कंधे सप्तमअध्ययनं. त्रतत्राश्रमे रतः॥ शिखी मुंमोजटी वापि सिक्ष्यते नात्र संशयः॥१॥ तथा विनयादेव मो. दश्त्येवं गोशालकमतानुसारिणोविनयेन चरंतीति वैनायिकाव्यवस्थिताः । तथाऽझा नमेवैहिकामुष्मिकायाऽसमित्येवमझानिकाव्यवस्थिताश्त्येवं रूपं तेषामन्युपगमं परि बिय स्वतः सम्यगवगम्य सम्यगवबोधेन तथा सएव वीरवर्धमानस्वामी सर्वमन्यमपि बौदादिकं यं कंचन वादमपरान् सत्वान् यथावस्थितत्वोपदेशेन वेदयित्वा परिझाप्यो पस्थितः सम्यगुनानेन संयमे व्यवस्थितोनतु यथा अन्ये । तऽक्तं । यथा परेषां कथका विदग्धाः, शास्त्राणि कृत्वा लघुतामुपेताः ॥ शिष्यैरनुज्ञामलिनोपचारै,वक्तृत्वदोषा स्त्वयि ते न संति १ ॥ दीर्घरात्रमिति यावङीवं संयमोत्थानेनोबितइति ॥ २७ ॥ अपि च (सेवारिएइत्यादि ) सनगवान वारयित्वा प्रतिषिध्य ।किंतदित्याह । स्त्रियमिति स्त्री परिजोगमैथुनमित्यर्थः । सहरात्रिनक्ते वर्ततइति सरात्रिनक्तं । नपलक्षाणार्थवादस्याऽन्यद पि प्राणातिपातनिषेधादिकं इष्टव्यं । तथा नपधानं तपस्तविद्यते यस्याऽसौ उपधानवान् तपोनिष्टप्तदेहः। किमर्थमिति दर्शयति । सुःखयतीति दुःखमष्टप्रकारं कर्म तस्य क्योऽपग मस्तदर्थ । किंच लोकं विदित्वा आरमिहलोकाख्यं पारं परलोकारख्यं । यदिवा यारं मनुष्य लोकं पारमिति नरकादिकं स्वरूपतस्तत्प्राप्तिहेतुं ततश्च विदित्वा सर्वमेतत् प्रजुनगवान् सर्ववारं बदुशोनिवारितवान् । एतयुक्तं नवति। प्राणातिपातनिषेधादिकं स्वतोऽनुष्ठाय पराश्व स्थापितवान् । नहि स्वतोऽस्थितः परांश्च स्थापयितुमलमित्यर्थः। तमुक्तं ।ब्रुवाणोऽपि न्याय्यं, स्ववचनविरुदं व्यवहरन्, परान्नालं कश्चिद्दमयितुमदांतः स्वयमिति ॥ नवान्नि श्चित्यैवं मनसि जगदाधाय सकलं स्वमात्मानं तावदमयितुमदांतं व्यवसितइति ॥ तथा तिबयरोचननाणी, सुरमहि सिसियव धूयामि॥अणिगूहियवलविर सवबामेसु उज मद इत्यादि ॥ २७ ॥ सांप्रतं सुधर्मस्वामी तीर्थकरगुणानारख्याय स्व शिष्यानाह (सोचा येत्यादि) श्रुत्वा च उर्गतिधारणा धर्म श्रुतचारित्राख्यमह निर्नाषितं सम्यगारख्यातमर्थ पदानि युक्तयोहेतवोवा तैरुपसूक्ष्मवदातं सद्युक्तिकं सहेतुकंवा । यदि वाऽर निधेयैः पदै श्व वाचकैः शब्दैः उप सामीप्येन शुई निर्दोषं । तमेवंनूतमह निर्नाषितं धर्म श्रद्दधाना स्तथाऽनुतिष्ठंतोजनालोकाअनायुषोऽपगतायुः कर्माणः संतः सिक्षाः सायुपश्चाद्या देवाधिपायागमिष्यंतीति । इतिशब्दः परिसमाप्तौ । ब्रवीमीतिपूर्वत् ॥ ॥ इति वीर स्तवारव्यं षष्ठमध्ययनं परिसमाप्तमिति ॥ ग्रंथसंख्या ३०० दवे सातमुं अध्ययन प्रारंनियें बैयें बहा अध्ययनने विषे श्रीमहावीरनुं स्तवन क रतां श्रीमहावीरने सुशील कह्या, हवे आ सातमां अध्ययननेविषे ते थकी विपरीत कुशीलिया होय जे बरहट्ट घटीकाने न्यायें संसारमाहे भ्रमण करे तेनुं स्वरूप कहे. Page #355 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राय धनपतसिंघ बादाउरका जैनागम संग्रह नाग उसरा. ३२५ पुढवीय आक अगणीय वाऊ,तण रुक बीयाय तसाय पाणा॥ जे अंमया जेय जरा-पाणा; संसेयया जे रसयानिहाणा ॥१॥ एयाई कायाइं पवेदिताई, एतेसु जाणे पडिलेह सायं॥ एतेण काएणय आयदंगे, एते सु याविप्परियासुविंति ॥२॥ अर्थ--( पुढवीयबामगणीयवाक के० ) पृथ्वीकाय अप्पकाय अने वायुकाय अं ही चकार थकी ए चारे निकाय सूक्ष्म अने बादरना नेदे करी बे प्रकारे जाणवा तथा (तणरुरकबीयाय के० ) तृण वृद्ध बीज शालीप्रमुख वनस्पतिकाय जाणवी अने (तसायपाणा के० ) त्रसते बेंझियादिक जीव जाणवा तेना अनेक प्रकारले ते कहेले. (जेचंमया के० ) जेमा थकी उपना एवा पंखी तथा सर्प प्रमुख तथा (जेयजरानपा पाके ० ) जे जरावते गाय प्रमुख जीव जाणवा अने ( संसेययाके० ) संस्वेदज एटले प्रस्वेद थकी उत्पन्न थयला एवा जुं माकण प्रमुख जीव जाणवा वली (जेरसयानिहाणा के ) रसजाः ते जे सोवीरा दिकने विष उपजे तेनाज वर्ण सरखा जे जीव होय ते जाणवा. एरीते जीवना नेद कह्या ॥ १ ॥ (एयाइंकाया पवेदिताई के०) ए पूर्वोक्त पृथिव्यादिक ब जीवनी निकाय श्रीतीर्थकर देवे कही (एतेसुजाणेपडिलेहसायं के० ) ए ब जीवनिकायजे ते सातासुखने जाणे वांडे एटले सर्वजीव सुखानिलाषीने (ए तेणकाएणयायदं के ० ( ए ड कायने जे दंमे घात करे दीर्घकाल पीडा आपे तेने जे फल थाय ते कहेले ( एतेसुया विप्प रियासुविंति के० ) ते जीव एज न कायने विषे वि पर्यासमुपयंति एटले विनाश पामे अर्थात् वारंवार एने विषेज परिभ्रमण करे ॥ २ ॥ ॥ दीपिका-सांप्रतं सप्तमं । पूर्वस्मिन् वीरस्तवेन सुशीलतोक्ता । अत्र तविपरीताः कुशीलाः परिभाष्यंते । यथा । (पुढवीति) पृथिवीकायिकाधकायिकाथमिकाया वायवश्च । चशदात्सूझबादरनेदाः । तृणानि कुशादीनि दायश्वबाद्याः । बीजानि शा ल्यादीनि एते त्रयोपि वनस्पतयः। त्रसाः प्राणिनोदीडियादयः । अंमजाः पदिसदियो जरायुजागोमहिष्याजाद्याः संस्वेदजायूकामत्कुणकम्यादयः रसजानिधानादधिसौवीरा दिषु रूतपातुल्याः ॥ १ ॥ ते पूर्वोक्ताः कायाजीवनिकायाः प्रवेदिताः कथिताजिनः । बांदसत्वात्क्वीबलिंगता । एतेषु प्राणिषु सातं सुखं जानीहि । सर्वे जीवाः सुखैषिणति प्रत्युपेचस्व पर्यालोचय।यथा एनिः कायैः पीडयमानैरात्मा दंडयते । एतत्पीमयाऽऽत्मदं मः स्यात्। तथा एतान् ये पीमयंति ते एतेष्वेव पृथिव्यादिकायेषु विविधं परिसमंतात या शु विप्रमुपयांति ब्रजति ॥ २ ॥ Page #356 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२६ दितीये सूत्रकृतांगे प्रथम श्रुतस्कंधे सप्तमअध्येयनं. ॥ टीका-नक्तं षष्ठमध्ययनं सांप्रतं सप्तममारन्यते । अस्य चाऽयमनिसंबंधः । इहाडनंतराध्ययने महावीरगुणोत्कीर्तनतः सुशीलपरिनाषा कता। तदनंतरं तविपर्यस्ताः कुशी लाः परिजाष्यंते । तदनेन संबंधेनाऽऽयातस्याऽध्ययनस्य चत्वार्यनुयोग द्वाराणि व्यावर्ण नीयानि । तत्राप्युपक्रमांतर्गतीर्थाधिकारोऽयं ॥ तद्यथा। कुशीताः परतीर्थिकाः पार्श्व स्थादयोवा स्वयूथ्याशीलाश्च गृहस्थाः परि समंतात् नाष्यंते प्रतिपाद्यते तदनुष्ठानत स्तविपाकऽगतिगमनाश्च निरूप्यंतइति । तथा तविपर्ययेण कचित्सुशीलाश्चेति । निके पस्त्रिधा । उपनामसूत्रासापकनेदात् । तत्रौघनिष्पन्ननिदेपेऽध्ययनं नामनिष्पन्ने कुशील परिनाषेति । एतदधिसत्य नियुक्तिकदाह । शीलेचनकं दवे,पानरणानरणनीयणादीसु॥ नावेन नहशीनं, अनिरकमासेवणा चेव ॥ 6 ॥ ( शीलेच नक्कमित्यादि ) शीले शील विषये निदेपे क्रियमाणे चतुष्कमिति नामादिश्चतुर्धा निदेपः । तत्राऽपि नामस्थाप ने हुम्मे तदनादृत्य इव्य मिति इव्यशीलं प्रावरणानरणनोजनादिषु इष्टव्यं । यस्याऽय मर्थः । योहि फलनिरपेचस्तत्स्वनावादेव क्रियासु प्रवर्तते सतहीलस्तत्रेह प्रावरणशील ति।प्रावरणप्रयोजनानावेऽपि तानीट्यानित्यप्रावरणस्वनावप्रावरणे वा दत्तावधानः। एव मानरणनोजनादिष्वपि इष्टव्यमिति । योवा यस्य इव्यस्य चेतनाचेतानादेः स्वनावस्त दव्यशीलमित्युच्यते। नावशीनं तु विधा घशीलमानीदण्यसेवनाशीलमिति । तत्रौऽघ शीतं व्याचिरल्यासुराह । उहेसी विरति, विरयाविरईयअविरतीयसीनं ॥ धम्मेणापत वादी, अपसबथहम्मकोवादी ॥७॥ (उहेत्यादि)। तत्रौघः सामान्यं । सामान्येन साव द्ययोगविरतोऽविरतोवा शीलवान नण्यते तविपर्यस्तोऽशीलवानिति । धानीदणसेवायां वनवरतसेवनायां तु शीतमिति ॥ तद्यथा।धर्मे धर्मविषये प्रशस्तं शीलं यउताऽनवरता पूर्वज्ञानार्जनं विशिष्टतपःकरणं वा । श्रादिग्रहणादनवरतानिग्रहणादिकं परिगृह्यते ।थ प्रशस्तनावशीलं त्वधर्मप्रवृत्तिर्बाह्या । यांतरा तु क्रोधादिषु प्रवृत्तिः। यादिग्रहणात् शेष कषायाश्चौर्याच्याख्यानकलहादयः परिगृह्यंतइति ॥ सांप्रतं कुशीतपरिभाषाख्यस्याऽध्ययन स्याऽन्वर्थता दर्शयितुमाह । परिना सियाकुशीलाय,एउजावंति अविरताके ।। सुत्तिपसंसा सुखो, कुंतिगुंबायपरिसुदो ॥॥ (परिनासियाइत्यादि)। परि समंतात् नाषिताः प्रति पादिताः कुशीताः कुत्सितशीनाः परतीर्थिकाः पार्श्वस्थादयश्च । चशब्दात् यावंतः केचना ऽविरतायस्मिन्नित्यतइदमध्ययनं कुशीलपरिनाषेत्युच्यते । किमिति कुशीलाक्षागृह्यते इत्याह । सुरित्ययं निपातः प्रशंसायां शुमविषये वर्तते । तद्यथा सौराज्यमित्यादि। तथा कुरित्ययमपि निपातोजुगुप्सायामगुरुविषये वर्तते । कुतीर्थ कुग्रामइत्यादि । यदि कुत्सित शिलाः कुशीलाः कथंतर्हि परतीर्थिकाः पार्थस्थादयश्च तथाविधानवंतीत्याह । अफा सुयपडिसेविय, सामंजुजोयशीलवादीय । फासुं वयंतिसीतं,अफासुयामोअचुंजंता॥१॥ Page #357 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राय धनपतसिंघ बाहाउरका जैनागम संग्रह नाग उसरा. ३२७ (अफासुयश्त्यादि) अस्त्यऽयं शीलशब्दस्तत्स्वानाव्य। तथाहि । यः फल निरपेक्षः क्रियावा जरणादिषु प्रवर्तते सचेह व्यशीलत्वेन प्रदर्शितः। अस्त्युपशमप्रधाने चारित्रे। तथाहि। तत्प्रधानः शीलवानयं तपस्वीति । तविपर्ययेण उःशीलति । सचेह नावशीलग्रहणेनो पात्तइति । इहच यतीनां ध्यानाध्ययनादिकं मुक्त्वा धर्माधारशरीरतत्पालनादारव्यापारं च मुक्त्वा नाऽपरः कश्चि व्यापारोऽस्तीत्यतस्तदाश्रयणेनैव सुशीलत्वं च चिंत्यते । तत्र कु तीर्थकः पार्श्वस्था दिर्वा । अप्रागुकं सचित्तं प्रतिसे वितुं शीलमस्य सनवत्यप्राशुकप्रतिसे वी। नामशब्दः संनावनायां । नूयः पुनर्धाष्टोलीलवंतमात्मानं वदितुं शीलं यस्य स शीलवादी। किमित्येवं यतः प्रागुकमचेतनं शीतं वदति । इदमुक्तं नवति । यः प्रा शुकमुजमादिदोषरहितमाहारं चुंक्ते तं शीलवंतं वदंति तज्ज्ञाः । तथाहि । यतयोप्रागुक मुजमादिदोषउष्टमेवाऽऽहारमचुंजानाः शीलवंतोनण्यंते नेतरइति स्थितं । नोशब्दस्य निपातत्वेनाऽवधारणार्थत्वादिति । अप्राशुकनोजित्वेन कुशीलत्वं प्रतिपादयितुं दृष्टांत माह । जहणामगोयमाचं, डीदेवगावारिजद्दगांचेव ॥ जेअग्निहोत्नवादी, जलसोयंजेय बंति ॥ ए२ ॥ (जहणामेइत्यादि) यथेति दृष्टांतोपदेपार्थ । नामशब्दोवाक्यालंकारे । गौतमाइति गोव्रतिकागृहीतशिदं लघुकायं वृषनमुपादाय धान्याद्यर्थ प्रतिग्रहमति । तथा (चंमीदेवगाइति)। चक्रधरप्रायाः । एवं वारिनकायन्नदाः शैवलाशिनोनित्यं स्नानपानादिधावनानिरतावा । तथा ये चाऽन्येऽग्निहोत्रवादिनोऽग्निहोत्रादेव खर्गगमन मिति ये चान्ये जलशौचमिति नागवतादयस्ते सर्वेऽप्यप्राशुकाहारनोजित्वात् कुशी लाइति । चशब्दात् ये च स्वयूथ्याः पार्श्वस्थादयनजमाद्यगुचमाहारं मुंजते तेऽपि कुशी साइति । गतोनामनिष्पन्नोनिदेपः ॥ सांप्रतं सूत्रालापकनिष्पन्ने निदेपे अस्खलितादि गुणोपेतं सूत्रमुच्चारणीयं । तच्चेदं । ( पुढवीएइत्यादि) दृथिवी एथिवीकायिकाः सत्वाः। चकारः स्वगतनेदसंसूचनार्थः । सचाऽयंदः। दृथिवीकायिकाः सूक्ष्माबादराश्च । ते च प्रत्येकं पर्याप्तकाऽपर्याप्तनेदेन विधा।एवमप्कायिकायपि। तथाऽनिकायिकावायुकायिका श्व इष्टव्याः। वनस्पतिकायिकान् नेदेन दर्शयति तृणानि कुशादीनि वृदाश्चाश्वबादयोबी जानि शाल्यादीनि।एवं वनीगुल्मादयोऽपि वनस्पतिनेदाइष्टव्याः त्रस्यंतीति त्रसाहीडिया दयः प्राणाःप्राणिनोये चांमाजाताअंडजाः शकुनिसरीसृपादयः।ये च जरायुजाजंबालवेष्टि ताः समुत्पद्यते तेच गोमहिष्यजाविकमनुष्यादयः।तथा संस्वेदाङाताःसंस्वेदजायूकामत्कु एकम्यादयः ये च रसजानिधानादधिसौवीरकादिषु रूतपक्ष्यसन्निनाति ॥१॥ नानानेदनि नंजीवसंघातं प्रदाऽधुना तपघाते दोषं दर्शयितुमाह । (एयाइमित्यादि)। एते एथिव्या दयः कायाजीवनिकायानगवभिः प्रवेदिताः कथिताः । बांदसत्वानपुंसकलिंगिता ॥ एते षु च पूर्व प्रतिपादितेषु एथिवीकायादिषु प्राणिषु सातं सुखं जानीहि । एतउक्तं जव Page #358 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२७ वितीये सूत्रकृतांगे प्रथमश्रुतस्कंधे सप्तमअध्ययनं. ति । सर्वेपि सत्वाः सातैषिणोःख विषश्चेति ज्ञात्वा प्रत्युपेदस्व कुशाग्रीयया बुझ्या पर्यालोचयेदिति । यथैनिः कायैः समारज्यमाणैः पीड्यमानैरात्मा दंडयते तत्समारंनादा त्मदमोनवतीत्यर्थः। अथवैऽनिरेव कायैर्य आयतदंमादीर्घदंमाः । एतउक्तं नवति । ए तान् कायान ये दीर्घकालं दमयंति पीमयंतीति तेषां यनवति तदर्शयति । ते एतेष्वेव एथि व्यादिकायेषु विविधमनेकप्रकारंपरि समंतादागु किप्रमुपसामीप्येन यांति व्रजति । तेष्वे व प्रथिव्यादिकायेषु विविधमनेकप्रकारं नूयोनूयः समुत्पद्यतइत्यर्थः । यदिवा विपर्यासो व्यत्ययः सुखार्थिनिः कायसमारंजः क्रियते तत्समारंजेणच .खमेवाऽप्यते नसुख मि ति । यदिवा कुतीर्थिकामोदार्थमेतैः कार्यों क्रियां कुर्वति तथा संसारएव नवतीति ॥२॥ जाईपहं अणुपरिवहमाणे, तस यावरोहिं विणिघायमेति ॥ से जाति जाति बढुकूरकम्मे, जं कुवती मिति तेण बाले ॥३॥ अरिंसच लोए अवा परबा, सयग्गसोवा तद अन्नहावा ॥ संसारमावन्न परंपरं ते, बंधंति वेदंतिय उन्नियाणि ॥४॥ अर्थ-(जाइपहंधणुपरिवट्टमाणेके) एकेडियादिकथी मामीने पंचेंहिय पर्यंत जीव नी जाती तेने विषे एक स्थानकथीबीजे स्थानके परिचमण करता थका (तसथावरे हिं विणिघायमेतिके) त्रस तथा स्थावर जीवने विषे विनिघातमेत्य एटले उत्पत्ति अनेवि नाश पामे (सेजातिजाति बहुकूरकम्मे के०) ते कूर कर्मना करनार जाति जातिने विषे उत्पत्ति पामीने (जंकुवती मिङतितेणबालेके) ते बाल अज्ञानी जे वली त्यां उष्ट एवा पापकर्म करे तो वली तेहीज उष्ट कर्मे करी एटले चोर अथवा परदारा गमन इत्यादिक दोषे वली विनाश पामे ॥ ३ ॥ (अस्सिंचलोए अवापरबा के०) जे कर्म करे ते कर्म आजन्मने विषे अथवा परजन्मने विषे विपाक अापे (सयग्गसोवा के०) अथवा एकज कर्म सो सहर लाख कोम संख्याता असंख्याता इत्यादिक घणा नवाही पण विपाक थापे जेवा विधियें कर्म कस्यो होय तेवा विधिये नोगवे (वा के०) अथवा (तह के० ) तथा (अन्नहा के ) अन्यविधिये पण नोगवे सिरजेदादिक हस्तपाद बेदनादिक फुःख पामे (संसार मावन्न परंपरंते के ) एवीरीते ते कुशीलिया अरहट्ट घटीकाने न्याये संसारने विषे फरीफरी नव परंपराये परिभ्रमण करता थका दुःख जोगवे तथा (बंधंति वेदंतिय उन्नियापिके) एकेक वेदनादिक कुःखे पीड्या थका ते पुःखना योगेकरी वली नवा नवा कर्म बांधे तेने फरीनोगवे पण नोगव्या विना लूटेज नही.॥४॥ ॥ दीपिका-जातिवधं जन्ममरणे अनुपरिवर्तमाने एकेडियादिषु पर्यटन सस्था Page #359 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रायधनपतसिंघ बहाउरका जैनागम संग्रह नाग उसरा. ३२ए वरेषु समुत्पन्नोबदुशोविनिघातं विनाशमेति सजातिमुत्पत्तिं प्राप्य बहुरकर्मा यत्क म करोति तेन कर्मणा म्रियते हिंस्यते ॥ ३ ॥ अस्मिन् लोकेऽन्यस्मिन् जन्मनि वा क र्माणि विपाकं ददति शतायशोवा बहुषु जन्मसु यद्यथा आचरंति तथैवोदीर्यते अन्य थावा । एवं ते कुशीलाः संसारमापन्नाः परं परं प्रकष्टं प्ररुष्टं पुःखमनुनवंति । थार्तध्यानो पहताश्चापरं बध्नति वेदयंतिच उर्नीतानि कर्माणि उष्टं नीतानि जर्नीतानि सुष्कतानि । नहि स्वकतकर्मणोनाशोस्ति । यमुक्तं । माहोहिरे विसन्नो जीवतुमं विमणउम्मणो दी णो ॥ बहुविंतिए ण फिश तं दुःरकं जं पुरा रईयमिति ॥ ४ ॥ ॥ टीका-यथा चाऽसावायतदंडोमोक्षार्थी तान् कायान् समारन्य तदिपर्यासात् संसारमाप्नोति तथा दर्शयति । ( जाईपहमित्यादि) जातीनामेकेंझ्यिादीनां पंथाजाति पथः । यदिवा जातिरुत्पत्तिर्वधोमरणं जातिश्च वधश्च जातिवधं तदनुपरिवर्तमानएके झ्यिादिषु पर्यटन जन्मजरामरणानि वा बहुशोऽनुनवंस्त्रसेषु तेजोवायुहीडियादिषु स्था वरेषु च पृथिव्यंबुवनस्पतिषु समुत्पन्नः सन् कायदंमविपाकजेन कर्मणा बहुशोविनि घातं विनाशमेत्यवाप्नोति समायतदंडोऽसुमान् जाति जातिमुत्पत्तिमुत्पत्तिमवाप्य ब हूनि क्रूराणि दारुणान्यनुष्ठानानि यस्य सनवति बहुकूरकर्मा सएवंनूतोनिर्विवेकः सद सदिवेकशून्यत्वात् बालश्व बालोयस्यामेकेडियादिकायां जातौ यत्प्राण्युपमर्दकारि कर्म कु रुते सतेनैव कर्मणा मीयते नियते पूर्यते । यदिवा मीहिंसायां मीयते हिंस्यते । य थवा बहुक्रूरकर्मेति चौरोऽयं पारदा रिकइति वा इत्येवं तेनैव कर्मणा मीयते परिडिय तइति ॥३॥क पुनरसौ तैः कर्मनिर्मीयते इति दर्शयति (अस्सिंचेत्यादि) यान्यागुका रीणि कर्माणि तान्यस्मिन्नेव जानाति जन्मनि विपाकं ददति अथवा परस्मिन् जन्मनि नरकादौ तस्य कर्मविपाकं ददत्येकस्मिन्नेव जन्मनि विपाकं तीवं ददति (शतायशोवेति) बहुषु जन्मसु येनैव प्रकारेण तदगुनमाचरति तथैवोदीर्यते । तथा (अन्यथावेति ) दमुक्तं नवति । किंचित्कर्म तनवतएव विपाकं ददाति किंचिच्च जन्मांतरे । यथा मृगा पुत्रस्य दुःख विपाकाव्ये विपाकश्रुतांगश्रुतस्कंधे कथितमिति दीर्घकालस्थितिकं स्वपरज न्मांतरितं वेद्यते येन प्रकारेण सत्तथैवाऽनेकशोवा । यदिवाऽन्येन प्रकारेण सकत्सह स्रशोवा शिरवेदादिकं हस्तपादनेदादिकं चाऽनुनयतइति। तदेवं ते कुशीलाायतदंडाश्च तुर्गतिकसंसारमापन्नाथरघटीयंत्रन्यायेन संसारं पर्यटंतः परं परं प्रकृष्टं प्रकृष्टं कुःखम नुनवंति। जन्मांतरकृतं कर्मानुनवंतश्चैकमार्तध्यानोपहताअपरं बनंति वेदयंति च पुष्टं नीतानि पुर्नीतानि पुष्कतानि । नहि स्वरूतस्य कर्मणोविनाशोऽस्तीतिनावः । तमुक्तं । माहोहिरेविसन्नो, जीवतुमं विमणकुम्मणो दीयो । णदुवितिए गफिदृश्, तं दुःखं जं पुरा Page #360 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३० दितीये सूत्रकृतांगे प्रथम श्रुतस्कंधे सप्तमअध्ययनं. रश्यं ॥ १ ॥ जइ पविससिपायालं, यड बदरिं गुहं समुदंवा ॥ पुवकयान नचुक्कस्तिअप्पाणं घायसेजवि ॥ २ ॥ जे मायरं वा पियरं च दिचा, समणवए अगणिं समारनिळा॥ अदादु से लोए कुसीलधम्मे,नूताईजे हिंसति आयसाते॥५॥ नकाल पाण निवातएका, निवावन अगणि निवायवेजा ॥ तम्दा नमेदावि समिक धम्म,ण पंमिए अगणि समारनिका ॥६॥ अर्थ-(जेमायरंवा पियरंचदिन्चा के० ) जे कोई माता पितादिकने हित्वा एटले बांमीने अने स्वजन वर्गनो त्याग करीने (समणवएके०) श्रमणने व्रते ज्या अर्थात् अमे, साधुबैयें एवं जाणता बता (अगणिं समारनिङा के० ) नद्देशादिक परिनोगे करीब नीनो समारंन करे अथवा करावे तथा अनुमोदे (अहादुसेलोए कुसीलधम्मेके०) तेवा पाखंमी लोकते कुशील धर्मि जाणवा एम श्रीतीर्थकर गणधरादिक कहे (नूताई जेहिंसति आयसाते के०) जे पोताना आत्मसुखने अर्थे प्राणीनी हिंसाकरेने ते कुशी लिया जाणवा. ॥ ५॥ (उजालपाण निवातएका के ) जे अग्नि नज्वाले प्रदीप्त करे ते त्रस अने स्थावर जीवोनो अतिपात एटले विनाशकरे अने (निवाव अगणि नि वायवेडाके०) तेम वली ते अग्नीने पाणी करी बुजावतां थका पण अनेक त्रस बने स्थावर जीव हणायले एमज अमीने अजुबालतां तथा उलवतां थकां पण प्राणीनो घात थायले ( तम्हान के० ) तेमाटे ( मेधाविके०) पंमित सदसदविवेकनो जाण (स मिरकधम्मके) हिंसानो त्याग करी तथा दयामां धर्म एम विमाशीने (एपंमिए अग पिसमारनिजाके० ) पंमित थनिकायनो समारंन करे नही ॥ ६ ॥ ॥ दीपिका-ये ज्ञाततत्वामातरं पितरं स्वजनवर्ग हित्वा श्रमणवते स्थितावयमि त्यंगीकृत्याऽग्निकार्य समारनंते अग्न्यागारं कुर्युः पचनपाचनादौ । अथ तीर्थकतएव मादुः सोयं पाखंडिलोकः कुशीलः कुत्सितशीलोधर्मोयस्य सतथा योनूतानि प्राणि नोहिनस्ति यात्मसाते आत्मसुखार्थ ॥ ५॥ अग्निमुज्वालयन सोनिकायमपरांश्च पृथ्व्यादिजीवान् स्थावरत्रसांश्च निपातयेत् तथा अग्निकार्य निर्वापयेत् तदाश्रितान न्यांश्च प्राणिनोनिपातयेत् । अग्निज्वालकनिर्वापकयोर्योज्वालयति समहाकर्मबंधकः । तथा चागमः। दोनतेपुरिसा अलेमप्लण सहि अगणिकायं समारनंति । तबणं एगे पुरिसे अगणिकायं नहाले। एगेपुरिसे अगणिकायं निवावे तेसिं नंते पुरिसाणं कयरे पु रसे महाकम्मतराए अप्पकम्मतराए वा गोयमा जेणं पुरिसे अगणिकायं उजालेइसेणं म Page #361 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राय धनपतसिंघ बादाउरका जैनागम संग्रह नाग उसरा. ३३१ हाकम्मतराए जेसे पुरिसे अगणिकायं निवावेसेणं पुरिसे अप्पकम्मतराए से केणतेणं नंते एवं वुञ्चत्ति तहेव गोयमा तबणं जेसे पुरिसे अगणिकायं उजाले सेणं पुरिसे बहुतरागं पुढविकायं समारनति । एवं थानकायं समारनति एवं वानकायं वणस्सतिकार्य अप्प तरागं अगणिकायं समारनति तबणं जेसे पुरिसे अगणिकायं निवावे सेणं पुरिसे अप्प तरागं पुढविकायं समारनति जाव अप्पतरागं तसकायं समारनति बदतरागं अगणि कायं समारनति सेणं अणं गोयमा एवं वुचत्ति जे पुरिसे अगणिकार्य उहाले सेणं पुरिसे महाकम्मतराए जेणं पुरिसे अगणिकायं निवावेश सेणं पुरिसे अप्पकम्मतराएइति । तस्मान्मेधावी पंमितोधर्म समीक्ष्याऽनिकायं नसमारनते ॥ ६ ॥ ॥ टीका-एवं तावदोघतः कुशीताः प्रतिपादिताः । तदधुना पाषंडकानधिकत्याह । (जेमायरंवेत्यादि) ये केचनाऽविदितपरमार्थाधर्मार्थमुवितामातरं पितरंच त्यक्त्वा मातापि त्रोईस्त्यज त्वात् तपादानमन्यथा नातृपुत्रादिकमपि त्यक्त्वेति इष्टव्यं । श्रमणव्रते किल वयं समुपस्थिताइत्येवमन्युपगम्याऽग्निकार्य समारनंते पचनपाचनादिप्रकारेण । कृतकारि तानुमत्योदेशिकादिपरिनोगाच्चाऽग्निकायसमारंनं कुर्य रित्यर्थः । अथेति वाक्योपन्यासार्थः। आहुरिति तीर्थकजणधरादयएवमुक्तवंतोयथा सोऽयं पापंडिकोलोकोगृहस्थलोकोवा ऽनिकायसमारंनात् कुशीलः कुत्सितशीलोधर्मोयस्य सकुशीलधर्मा । अयं किंनूतइति दर्श यति ॥ अनूवन् नवंति नविष्यंतीति नूतानि प्राणिनस्तान्यात्मसुखार्थ हिनस्ति व्यापाद यति । तथाहि। पंचामितपसा निष्टप्तदेहास्तथाऽग्निहोत्रादिकया च क्रियया पाषंडिकाः स्व वाप्तिमिहंतीति । तथा लौकिकाः पचनपाचनादिप्रकारेणाऽग्निकार्य समारनमाणाः सुखमनिलपंतीति ॥ ५ ॥ अग्निकायसमारंने च यथा प्राणातिपातोनवति तथा द शयितुमाह (उजालनइत्यादि) तपनतापनादिप्रकाशहेतुं काष्ठादिसमारंण योऽग्निका यं समारलते सोऽग्निकायमपरांश्च पृथिव्याद्याश्रितान् स्थावरांस्त्रसांश्च प्राणिनोनिपात येत् । त्रिन्योवा मनोवाकायेन्यवायुर्बलेंशियेन्योवा पातयेन्निपातयेत् । तथाऽग्निका यमुदकादिना निर्वापयेत् विध्या पयंस्तदाश्रितानऽन्यांश्च प्राणिनोनिपातयेत्रिपातयेा । तत्रोज्वालकनिर्वापकयोर्योऽग्निकायमुज्ज्वलयति सबहूनामन्यकायानां समारंजकः । त था चाऽऽगमः । दोनंते पुरिसा अन्नमन्नेण सिद्धिं अगणिकायं समारनंति तबणं एगे पुरिसे अगणिकायं उहाले से एगेणं पुरिसे अगणिकायं निववर तेसिं नंते पुरिसा णं कयरे पुरिसे महाकम्मतराए अप्पकम्मतराए ॥ गोयमा तबणं जेसे, पुरिसे अगणि कायं नाले सेणं पुरिसे बहुतरागं पुढविकायं समारनति ॥ एवं थानकायं वानकायं वणस्सकायं अप्पतरागं अगणिकार्य समारनइ तबणं जेसे पुरिसे अगणिकायं नि Page #362 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३२ aal सूत्रकृतांगे प्रथम श्रुतस्कंधे सप्तम अध्ययनं. ards से पुरसे पतरागं पुढिविकार्यं समारनइ जाव अप्पतरागं तसकार्य समा रज बहुतरागं गणिकार्य समारनइ । से एतेषं गोयमा एवं च ॥ पि चोक्तं । नूयाणं ए समाघान । हववाहेण संस इत्यादि । यस्मादेवं तस्मान्मेधावी सदसदिवेकः सश्रुतिकः समीक्ष्य धर्म पापाडीनः पंडितोनाग्निकार्यं समारभते । सए व च परमार्थतः पंमितोयोऽग्निकायसमारंभकृतात् पपान्निवर्ततइति ॥ ६ ॥ पुढवीवि जीवा कवि जीवा, पाणाइ संपाइम संपयंति ॥ संसेय या समस्सियाय, एते दहे गणि समारनंते ॥ ७ ॥ दरिया णि नूताणि विलंबगाणि, च्यादार देहाय पढो सियाई ॥ जे चिंद ती आयसु पडुच्च, पगनिपाणे बहुतिवाती ॥ ८ ॥ अर्थ- हवे अमीनो समारंभ करवा थकी बीजा जीवो केवीरीते हणाय ते कहेते. (पुढवी विजीवाच्या विजीवा के० ) पृथ्वी तेपण जीव ने खाऊ एटले पाणी तेप ण जीव (पाणा संपाम के० ) तथा संपातिमप्राणी ते पतंगीया प्रमुख ( संपयं ति के० ) त्यां सम्यक् प्रकारे पडे तथा ( संसेययाकहसमस्सियाय के० ) संस्वेदजा ते काष्ठ तथा बाणादिकने विषे उत्पन्न यएला जीव काष्ठनिश्रितघुणादिककीडीप्रमुख जा aar ( एतेदाग पिसमारनंते के० ) एटला स्थावर जंगमजीवने जे अमीनो समारं न करे ते दहे एटले बाली नाखे ॥ ७ ॥ तथा (हरियाणि के० ) हरी काय ते अंकुरादि क समस्त वनस्पति जावी ए सर्व (नूताणि के० ) जीव ते ( विलंबगाणि के० ) वि लंबक जाणवा विलंबक शब्दे जीवनो खाकार धारण करे जेम कलल अर्बुद मांस पे शी एटली अवस्था गर्नमां थाय धने गर्न प्रसव्या पढी बाल कुमार तरुण वृ६ एट ली अवस्था मनुष्य धारण करे तेम शाल्यादिक वनस्पति पण अंकूर मूल स्कंध पत्र शाखादिक विशेष जे बे ते पण वर्धमान थका बाल तरुण वृद्धावस्थादिक नाव पामे तथा ए हरितादिक जेबे तेना मूल पत्र शाखादिकने विषे ( पुढोसियाई के० ) पृथ क् पृथक् जुदा जुदा जीव जाणवा एटला वनस्पतिने ( श्राहारदेहाय के० ) श्राहार तथा शरीर (जेबिंदतीयाय सुपडुच्च के०) जे श्रात्माना सुखने अर्थे एटले एने वेदवा थकी माहारा श्रात्माने सुख यशे एवी यात्मसुखनी प्रतीते जे वेदे ( पगा बहु तिवाली के ० ) ते पुरुष धीवार पणे घणाजीवोना घातनो करनार जावो ||८|| || दीपिका - पृथ्वी जीवाश्रापो पिजीवास्तदाश्रिताश्च प्राणाः संपातिमाः शलनादयस्तेच For Private Personal Use Only Page #363 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रायधनपतसिंघ बादाउरका जैनागम संग्रह नाग सरा. ३३३ संपतंति । संस्वेदजाः करीषादिविंधनेषु घुणपिपीलिकादयः काष्ठसमाश्रिताश्च ये एतान प्राणिनः सदहेत् योग्नि समारनते ॥॥ हरितानि नूतानि जीवरूपाणि तथा जीवाकारं विलंबते धारयंतीति विलंबकानि । यथा मनुष्या कलला ऽर्बुदमांसपेशीगर्नप्रसवबालकुमा रयुवमध्यमस्थविराद्यवस्थां धरंति तथा हरितान्यपि । किंनूतानि पृथक् मूलस्कंधशाखा पत्रपुष्पादिस्थानेषु प्रत्येकं श्रितानि नतु मूलादौ । एकएव जीवः एतानि नूतानि थाहा राथै देहोपचयार्थमात्मसुखं प्रतीत्याश्रित्य यश्विनत्ति सप्रागल्भ्यात् धाष्टोत् बहूनां प्रा णिनामतिपाती हिंसकः स्यात् तथाच नधोनात्मसुखं चेति ॥ ७ ॥ ॥ टीका-कथमनिकायसमारंनेणाऽपरप्राणिवधोनवतीत्याशंक्याह । (पुढवीत्यादि)। नकेवलं पथिव्याश्रितादीडियादयोजीवायापि च पृथ्वी मृलदाणा असावपि जीवाः । तथा आपश्च इवलदणाजीवास्तदाश्रिताश्च प्राणाः संपातिमाः शलनादयस्तत्र संपत ति । तथा संस्वेदजाः करीषादिविंधनेषु घुणपिपीलिकाः कृम्यादयः काष्ठाद्याश्रिताश्च ये केचन एतान् स्थावरजंगमान् सदहेद्योऽग्निकायं समारनते ऽतोऽग्निकायसमारं जोमहादोषायेति ॥ ७ ॥ एवं तावदग्निकायसमारंजकास्तापसास्तथा पाकादनिवृताः शा क्यादयश्चोऽपदिष्टाः । सांप्रतं ते चाऽन्ये वनस्पतिसमारंनाद निवृत्ताः परामृश्यंते इत्याह (हरियाणीत्यादि) हरितानि दूवीकुरादीन्येतान्यप्याहारादेवृदिदर्शनात् नूतानि जीवाः । तथा विलंबकानीति जीवाकारं यांति विलंबंति धारयति । तथाहि। कललाबुदमांसपे शीगर्नप्रसवबालकुमारयुवमध्यमस्थ विरावस्थांतोमनुष्योनवति । एवं हरितान्यपि शाल्या दीनि जातान्यनिनवानि संजातरसानि यौवनवंति परिपक्कानि जीििन परिगुष्काणि मृतानि । तथा वृदाअप्यंकुरावस्थायां जाताइत्युपदिश्यते मूलस्कंधशाखाप्रशावादिनि विशेषैः परिवर्धमानायुवानः पोताश्त्युपदिश्यंतश्त्यादि शेषास्वप्यवस्थास्वायोज्यं । त देवं हरितादीन्यऽपि जीवाकारं विलंबयंति। ततएतानि मूलस्कंधशाखापत्रपुष्पादिस्थानेषु पृथक् प्रत्येकं व्यवस्थितानि नतु मूलादिषु सर्वेष्वऽपि समुदितेषु । एकएव जीवएतानि च जतानि संख्येयाऽसंख्येयानंतनेद निन्नानि वनस्पतिकायाश्रितान्याहारार्थ वा देहदतसंरो हणार्थ चात्मसुखं प्रतीत्याश्रित्य यश्विनत्ति सप्रागल्न्यात् धाटावष्टंनाद्वदनां प्राणिनाम तिपाती नवति तदतिपाताञ्च निरनुक्रोशतया नधर्मोनाऽप्यात्ममुखमित्युक्तं नवति ॥ ७ ॥ जातिंच वुडिंच विणासयंते, बीया अस्संजय आयदं ॥ अहादु से लोए अणधम्मे, वीया जे हिंसति आयसाते॥णा गनाइ मिति Page #364 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३४ वितीये सूत्रकृतांगे प्रथम श्रुतस्कंधे सप्तमअध्ययनं. बुया बुयाणा, पारा परे पंचसिहा कुमारा ॥जुवाणगा मशिम थेरगाय, (पागंतरे पोरुसाय) चयंति ते आनखए पलीणा ॥१०॥ अर्थ-(जातिंच के० ) नुत्पत्ति एटले मूलादिक कोमल तथा (बुडिंच के०) वृक्ष एटले शाखा प्रशाखादि जे वनस्पति तेनो (विणासयंते के० ) विनाश करतो होय त था (बीया के० ) बीजादिक एटले तेना फलनो विनाश करतो होय तेने (अस्संजय यायदंमेके०) असंयत एटले गृहस्थ अथवा प्रव्रजित अन्यलिंगीअथवा स्वलिंगी यात्मा नो दंमनार कहिए तेजीव प्राणीने उपघाते पोताना यात्मानो नपघात करेले (अहादुसे लोएयणऊधम्मेके० ) जे आत्म सुरखने अर्थे हरीकायने लेदे तेने लोकमां हे अनार्य ध मि श्रीतीर्थकर गणधर कहेडे (बीयाइंजेहिंसतियायसाते के० ) जे प्राणी धर्मोपदेशे यात्मसुखने अर्थ बीजादिक वनस्पतिकायने बेदे, बेदावे तथा अनुमोदे तथा एवो घ र्मोपदेश करे ते पारवंमी अनार्य जाणवो. ॥ ए ॥ (गनाइमिति के०) वनस्पतिका यना विनाशक प्राणी घणा जन्मसुधि गर्नादिक अवस्थाने विषे वर्त्तताज मरण पा मे एटले कलल अर्बुदादिक अवस्थायें वर्तता थकाज मरण पामे तथा जन्म्या पड़ी (बुयाबुयाणाके) बोलता अणबोलता थका तथा (णरापरेके० ) अन्य मनुष्य (सि हाकुमाराके०)न्हानी चोटलीना धणी कुमारावस्थायें स्थित थका मरे तथा (जुवाएगा के० ) युवानवय तरुणवय तथा (मसिम के०) मध्यमवय (थेरगायके०) थविर व य ए सर्व अवस्थाने विषे (थानखए पसीणा के०) आयुष्यना क्ष्य विषे प्रलीन थका एटले स्वकर्म नोगवता दीन मुखी नुख तृमादिक सहन करता थका (चयंतितेके०) ते पापी जीवो शरीर त्याग करे एटले जेतुं पाप समाचरे तेवू नोगवे ॥ १० ॥ ॥ दीपिका-जाति पत्रांकुरादिजेदां वृद्धि च विनाशयन बीजानिच फलानि विनाश यन् असंयतोगृहस्थः प्रव्रजितोवा आत्मदंमः पर हिंसया धात्मानमेव हंतीत्यात्मदंडः। अथेति वाक्यालंकारे । आद्रुक्तवंतोजिनाः । तदेवाह । सलोके निर्दयोऽनार्यधर्मा क्रूर कर्मकारी स्यात । योबीजानि वनस्पतिकायमात्मसुखार्थ हिनस्ति ॥५॥ वनस्पति कायोपमर्द काग दिकावस्थासु नियंते तथाऽब्रुवंतोऽनुवंतश्च व्यक्तवाचोऽव्यक्तवाचश्च तथा परे नराः पंचशिखाः कुमाराः संतोनियंते युवानोमध्यमपौरुषामध्यमवयसोट वाश्च । एवं सर्वावस्थासु आयुःक्योप्रलीनाः संतोदेहं त्यजति ॥ १० ॥ ॥टीका-किंच । (जातिंचेत्यादि )। जातिमुत्पत्ति तथाऽकुरपत्रमूलस्कंधशाखाप्रशारखा नेदेन वृद्धि च विनाशयन् बीजानिच तत्फलानि विनाशयन् हरितानि हिनत्तीति ।यसंय Page #365 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राय धनपतसिंघ बादाउरका जैनागम संग्रह नाग उसरा. ३३५ तोगृहस्थः प्रवजितोवा तत्कर्मकारी गृहस्थएव सच हरितवेदं विधायात्मानं दंमय तात्यात्मदंडः सहि परमार्थतः परोपघातेनाऽऽत्मानमेवोऽपहंति । अथ शब्दोवाक्यालं कारे । आतुरेवमुक्तवंतति दर्शयति । योहरितादिल्लेदकोनिरनुकोशः सोऽस्मिन लोकेऽ नार्यधर्मा क्रूरकर्मकारी नवतीत्यर्थः । सच एवंनूतोयोधर्मोपदेशेनात्मसुखार्थ वा बीजान्यऽस्यचोपलदणार्थत्वात् वनस्पतिकार्य हिनस्ति सपाषंडिकलोकोऽन्योवाऽनार्य धर्मा नवतीति संबंधः ॥ ए ॥ सांप्रतं हरितछेदकर्मविपाकमाह (गनाइमितिश्त्या दि) । इह वनस्पतिकायोपमई काबहुषु जन्मसु गर्नादिकास्ववस्थासु कललार्बुदा सपेशीरूपामु म्रियते । तथा ब्रुवंतोऽब्रुवंतश्च व्यक्तवाचो ऽव्यक्तवाचश्च । तथा परेनराः पं चशिखाः कुमाराः संतोनियंते । तथा युवानोमध्यमवयसः स्थविराश्च । कचित्पाठो (मझिमपोरुसायत्ति )। तत्र मध्यमामध्यमवयसः (पौरुसायत्ति) । पुरुषाणां चरमाव स्था प्राप्ताअत्यंतःक्षाएवेति यावत् । तदेवं सर्वास्वप्यवस्थासु बीजादीनामुपमईकाः स्वायुषः दये प्रलीनाः संतोदेहं त्यजंतीति । एवमपरस्थावरजंगमोपमईकारिणामप्य नियतायुष्कत्वमायोजनीयं ॥१०॥ संबुशहा जंतवो माणुसत्तं, दहुँनयं बालिसेणं अलंनो॥ एगं तपुरके जरिएव लोए, सकम्मणा विपरियासुवेइ ॥११॥ गमूढा पवयंति मोरकं, आदारसंपळणवळणेणं ॥ एगेयसी नद गसेवणेणं, दुएण एगे पवयंति मोरकं ॥१२॥ अर्थ- ( जंतवो के० ) अहो जीवो तमे ( संबुशहा के० ) बुलो जे (माणु सत्तं के० ) मनुष्यपणुं पामबुंलन एम जाणो उनहेखलुमाणुस्सेनवे इत्यादिक वचने बुजो एटले प्रतिबोध पामो (दहुंनयंबालिसेणंअलंनो के०) तथा नरक तिर्यंचादिक गतिने विषे अनेक दुःखले तेनो नय देखीने बालिस एटले अज्ञान पणाने सीधे सद् विवेक पामवो उर्जन एवीरीते जाणो (एगंतपुरकेजरिएवलोए के० ) तथा ए लोक एकांत उरखी ज्वरित एटले जेम ज्वराक्रांत जीव दुःखी होय तेम ए सर्व लोक (सक्क म्मणाविप्प रियासुवेइ के० ) पोत पोताना कर्मरूप तापे करी व्याकुल बता संसा रमां विपर्यास एटले फरी फरी नाश पामे ॥ ११ ॥ (इहेगमूढापवयंति के० ) अं ही धर्म स्थापना अधिकारे कोइएक मूर्ख कुशील दर्शनी एम कह के (याहारसंप ऊणवऊणेणं के० ) आहारेणसंपचक एटले लवण तेने वर्जवा थकी (मोरकं के० ) मोदले एटले सर्व रसनु सार लवण यतः लवणाविरुणारसा इतिवचनात् तथा पानं तरे (आहारउपंचकवणेणं के० ) आहारपंचकलवणपंचकंचेदं थाहार आश्री पां Page #366 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३६ वितीये सूत्रकृतांगे प्रथम श्रुतस्कंधे सप्तमअध्ययनं. च नेद वर्जवा थकी मोच थाय ते आहार पंचकना नाम कहेले एक लशण बीजोप लाडु त्रीजो करनी एटले उग्ध चोथो गौमांस पांचमुं मद्य (एगेयसीउदगसेवणेणंके०) तथा एकेक वादी शीतलोदकना नपनोग थकी मोद कहे एटले जेम पाणी बाह्यमत उतारेने तेम अंतरंग मल पणते पाणीज उतारे एम कहे (दुएणएगेपवयंतिमोरकं के० ) कोइएक वली दुताशन एटले अग्नीना होम थकी मोदडे एम प्ररूपेने जेम सुव दिकना मलने अग्नी बोले तेम आत्मना मलनो पण अग्नीज नाश करे. ॥१२॥ ॥ दीपिका-हेजंतवो यूयं संबुध्यध्वं मनुष्यत्वं पुल तथा नरतिर्यगादिगतिषु जयं दृष्ट्वा बालिशेन मूर्वेण विवेकस्यालंनोविवेक न न लन्यते इतिज्ञात्वा एकांतउवाज्ज्व रितश्वायं लोकः । यउक्तं । जन्मःखं जराछःखं, रोगा ये मरणाणि थ ॥ अहोऊः रके दु संसारो जब कीसंति जंतुणो इति । तथा तहाइ अस्सपाणं कूगेबायस्स नुत्तपत्ति त्ति । खसयंसंपनत्तंजरिअमिवजगंकाल । एवंनतोलोकोमुष्कर्मकारी विपर्यासमुपै ति सुखार्थी पापं कुर्वन् फुःखमेव प्राप्नोति ॥ ११ ॥ उक्तः कुशीलविपाकः । अय तदर्शना न्युच्यते । इह नवे एके मूढामोद प्रवदंति । केन आहारस्य संपसस्तं जनयतीत्याहारसं पानं लवणं तस्य वर्जनेन लवणवर्जनेन मोदं प्रवदंति । लवणं हि सर्वरसमूलं त जनाञ्च रसपंचकं तस्य वर्जनेन । लवणपंचकं चेदं। सैधवं १ सौवर्चसं २ विडं ३ रीमंध सामुश्चेति । तथा पाठांतरं याहारपंचकवळणेणं। अाहारतः आहारमाश्रित्य पंचक वर्जनं । तथाहि । लशुनं १ पलांडुः २ करनीक्षीरं ३ गोमांसं ४ मयंचेति । एवमाहा रपंचकवर्जनेन मोदं प्रवदंति । तथा एकेन शीतोदकसेवनेन सचित्तजलपरिनोगादेके मोदं वदंति । यथा जलेन बाह्यमलस्य विनाशस्तयांतरस्यापी त्यर्थः। एके दुतेन वन्हिहो मेन मोदं प्रवदंति । कोर्थः । ते मोक्षायाग्निहोत्रे जुन्नति वदंतिच यथाग्निः स्वर्णादी नां मनं दहति तथात्मनोपीति ॥ १२ ॥ ॥ टीका-किंचाऽन्यत् (संबुसहेत्यादि) हेतवः प्राणिनः संबुध्यध्वं यूयं नहि कुशी लपापंडिकलोकस्तृणाय नवति । धर्मच सुननत्वेन संबुध्यध्वं । तथाचोक्तं । माणुस्स खेत्तजाई, कुलरूवारोग्गमानयंवुझी ॥ सवपोग्गहसासंममोयसोगंमि मुल्ल हाई॥ तदेव महतधर्माणां मनुष्यत्वमतिउर्लनमित्यवगम्य तथा जातिजरामरणरोगशोकादीनि नरक तीर्थकुच तीव्रःखतया जयं दृष्ट्वा तथा बालिशेनाऽझेन सदिवेकस्याऽलंनइत्येतच्चा ऽवगम्य तथा निश्चयनयमवगम्य एकांतःखोयं ज्वरितश्च लोकः संसारमाणिगणः। तथा चोक्तं । जम्मःखं जरावं, रोगायमरणाणिय। अहोऽरकोदुसंसारो, जब कीसंतिपा Page #367 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राय धनपतसिंघ बादाडुरका जैनागम संग्रह नाग इसरा. ३३७ थियो । १ तथा । तहा इहस्सपाएं, कूरोवायस्सनु तेत्ती ॥ दुःरकसह संपनुत्तं जरि यमिवजगंकलयते ॥ १ ॥ इत्यत्र चैवं नूतलोके यानार्यकर्मकारी स्वकर्मणोविपर्यासमु पैति सुखार्थी प्राप्युपम कुर्वन् दुःखं प्राप्नोति । यथा मोक्षार्थी संसारं पर्यटतीति ॥ ॥ ११ ॥ नक्तः कुशीलविपाकोऽधुना तदर्शनान्यनिधीयते । (इहेगेत्यादि ) इहेति मनु ष्यलोके मोक्षगमनाधिकारे वा एके केचन मूढाखज्ञानाऽऽवादितमतयः परैश्च मोहिताः प्रकर्षेण वदंति प्रतिपादयति । किंततु मोदं मोदावाप्तिं । केनेति दर्शयति । याद्रियतइ त्याहारउदनादिस्तस्य संप पुष्टिस्तां जनयतीत्या हरसंपतनं लवणं । तेन ह्याहारस्य र पुष्टिः क्रियते तस्य वर्जनं तेनाऽऽहारसंपऊनवर्जनेन लवणवर्जनेन मोक्षं वदंति । पाठां तरंवा । श्राहारसपंचयवक शेण आहार सलवण पंचकमाहारसपंचकं । लवणपंचकं चेदं । तद्यथा । सैंधवं सौवर्चलं बिडं रौमं सामु चेति । लवणेन हि सर्वरसानामनिव्य क्तिर्नव ति । तथाचोक्तं । लवणविणायरसा, चकुविणाय इंदियग्गामा | धम्मोदयापर हिउँ, सोरकं संतोसर हियंतो ॥ १ ॥ तथा लवणं रसानां तैलं स्नेहानां घृतं मेध्यानामिति । तदे नूतलव परिवर्जनेन रसपरित्यागएव कुतोभवति तत्त्यागाच्च मोक्षावाप्तिरित्येवं केच न मूढाः प्रतिपादयंति । पाठांतरंवा याहारउपंचकवकणेल । आहारतइति व्यब्लोपे कर्म णि पंचमी । श्राहारमाश्रित्य पंचकं वर्जयंति । तथा लसणं पलांडुः करनीकीरं गोमांसं मद्यं चेत्येतत्पंचकवर्जनेन मोक्षं प्रवदति । तथैके वास्निकादयोभागवत विशेषाः शीतो दकसेवनेन सचित्तापकायपरिनोगेन मोक्षं प्रवदंति । उपपत्तिं च ते अनिदधति । यथोद कं बाह्यममपनयति एवमांतरमपि । वस्त्रादेश्व यथोदकाबुद्विरुपजायते एवं बाह्य शुद्धिसामर्थ्यदर्शनादांतरापि शुद्विरुदकादेवेति मन्यते । तथैके तापसब्राह्मणादयो दुतेन मोक्षं प्रतिपादयति । ये किल स्वर्गादिफलमनाशंस्य समिधाघृतादि निर्दव्य विशेषैर्हुताशनं तर्पयति ते मोक्षायाग्रिहोत्रं जुह्वति । शेषास्त्वन्युदयायेति । युक्तिं चात्र ते खादुः । यथा ह्यग्निः सुवर्णादीनां मतं दहत्येवं दहनसामर्थ्यदर्शनादात्मनोऽप्यांतरं पापमिति ॥ १२॥ पासिषाणादिसु चि मोस्को, खारस्स लोणस्स पास एणं ॥ ते मऊमंसं लसणंच नोच्चा, अन्नवासं परिकप्पयंति ॥ १३ ॥ नदगेण जे सिद्धिमुदाहरति, सायंच पायं उदगं फुसंता ॥ नदग स्स फासेण सियाय सिद्धि, सिजंसु पापा बहवे दगंसि ॥ १४ ॥ - हवे पूर्वोक्त दर्शनीउने उत्तर कहे. ( पाउँ सिपाला दिसुके० ) प्रातः स्नाना दिके करी यादि शब्द थकी हस्त पादने धोवे करी ( एबिमोरको के० ) मोह नथी के For Private Personal Use Only Page #368 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३८ द्वितीये सूत्रकृतांगे प्रथम श्रुतस्कंधे सप्तमच्प्रध्ययनं. मके पाणी नाखवा की तदाश्रित जीवोनो घात थायले तेमाटे एम कस्याथकी मोह प्राप्त नथाय तथा (खारस्सनो एस्सपास लंके ० ) खार एटले लवणने या जमवे क री पण मोह नथी जो धुंए नखावा थकी मोक्ष प्राप्ति यती होय तो जे देशमां सर्व था लुंग मलतुंज नथी तो त्यां निवाश करनारा लोकोने दुर्गति पण नथाय परंतु ए वचन संबंध जाणवो (तेममं संलस पंचनोच्चा के०) खने ते मूर्ख मद्य मांस तथा लशण नो प रिजोग करी ने (अन्नवासंपरिकप्पयंतिके०) मोक्षार्थि थका अन्यत्र स्थानके वाशकरें एटले तेने पण सुशील विना मोह नयी एतावता तेने संसारमां निवास कल्पे ॥ १३ ॥ ( उदमे जे सिद्धिमुदाहरति के० ) जे मूर्ख पाणीये करी मोक्ष प्ररूपेठे ( सायंचपायंनदगंफुसं ता के० ) एटले संध्या प्रजात बने चकारना ग्रहण थकी मध्यानने विषे पाणीनो स्पर्श करवा थकी मुक्ति कहेबे तेपण मुधा जाणवो केमके ( उद्गस्सफासेल सियाय सि दि के० ) उदकना स्पर्श यकी जो सिद्धि थाय तो ( सिद्धं सुपाणाब हवेदगंसि के० ) पाणीमहे सर्व काल माडला प्रमुख जीवो रहे अथवा जाल पण पाणीमां रहेबे तेने पण मुक्ति होवी जोइयें तेम तो यतुं नथी कारणके पाणी जेम अनिष्ट मलने हरण करे तेमज इष्ट मल जे सुगंध इव्य बे तेने पण हरण करेबे ॥ १४ ॥ ॥ दीपिका - प्रातः स्नानादिषु नास्ति मोक्षः । तथा द्वारस्य पंचप्रकारलवणस्यानशने नापरिनोगेण मोहोनास्ति ते मूढामयं मांसं लशुनादिकंवा मुक्त्वाऽन्यत्र मोक्षात् सं सारेवा समवस्थानं परिकल्पयंति नतु मोहगामिनः स्युः शीलं विना ॥ १३ ॥ ये नद केन सिद्धिमुदाहरति सायमपराएहे प्रातः प्रनाते उपलक्षणान्मध्यान्हे एवं त्रिकालमु दकं स्पृशंतोजन स्नानादिकं कुर्वतः प्राणिनः सिद्धिं यांतीति केचिद्वदंति तन्न युक्तं । यतोजलस्य स्पर्शमात्रेण यदि सिद्धिः स्यात्तदा जलाश्रितामत्स्यबंधादयोबहवः सिध्येयुः । स्नानंच यतीनां दोषायैव । यक्तं । स्नानं मददर्पकरं कामांगं प्रथमं स्मृतं । तस्मात्कामं परित्यज्य न ते स्नांति दमे रताः ॥ १ ॥ तथा । नोदक क्लिन्नगात्रोहि स्नातइत्यनिधीयते ॥ सस्नातोयोब्रह्मस्नातः सबाह्याभ्यंतरः शुचिरिति ॥ १४ ॥ ॥ टीका - तेषामसंब-६ प्रला पिनामुत्तरदानायाह । ( पाउंसिलाला दिइत्यादि) । प्रातः स्नानादिषु नास्ति मोति प्रत्यूष जलावगाहनेन निःशीलानां मोहोननवति । खादिय हंणात् हस्तपादा दिप्रदालनं गृह्यते । तथा ह्युदकपरिजोगेन तदाश्रितजीवानामुपमईः समु पजायते । नच जीवोपमर्दान्मोक्षावाप्तिरिति । नचैकांतेनोदकं बाह्यमनस्याप्यपनयने समर्थ मथाऽपिस्यात्तथाप्यांतरमलं नशोधयति । जावद्युत्ध्या तब्बुदेरथनावरहितस्यापि तबुद्धिः For Private Personal Use Only Page #369 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राय धनपतसिंघ बादाडुरका जैनागम संग्रह नाग दुसरा. ३३७ स्यात् ततोमत्स्यबंधादीनामपि जला निषेकेण मुक्त्यवाप्तिः स्यात् । तथा द्वारस्य पंच प्रकार स्याsपिलवस्यानशनेनाऽपरिनोगेन मोहोनास्ति । तथाहि । लवणपरिनोगरहितानां मोहोननवतीत्ययुक्तिकमेतत् । नचाऽयमेकांत तोलवणमेव रसपुष्टिजनकमिति दीर शर्करा दि निर्व्य निचारात् । अपिचाऽसौ प्रष्टव्यः । किं व्यतोलवणवर्जनेन मोहावा तिरुत नावतः । यदि इव्यतस्ततोजवणरहितदेशे सर्वेषां मोक्षः स्यान्नचैवं दृष्टमिष्टंवा । यथ नावतस्ततो नावएव प्रधानं किं लवणवर्जनेनेति । तथा ते मूढामद्यमांसलशुनादिकं वा मुक्त्वा अन्यत्र मोहादन्यत्र संसारे वा समवस्थानं तथाविधानुष्ठानमसद्भावात् सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्र रूपमोक्षमार्गस्याऽनुष्ठानाश्च परिकल्पयंति समेतान्निष्पादयतीति ॥ १३ ॥ सांप्रतं विशेषे परिजिहीर्षुराह । ( नदगेणेत्यादि ) तथा ये केचन मूढाउदकेन शीतवारिणा सिद्धिं परलोकमुदाहरति प्रतिपादयंति । सायमपराएहे वकिले वा प्रातश्च प्रत्युष सिच या तग्रहणात् मध्यान्हे च । तदेवं संध्यात्रयेऽप्युदकं स्ष्टशंतः स्नानादिकां क्रियां जले न कुर्वतः प्राणिनोविशिष्टां गतिमाप्नुवंतीति केचनोदाहरति । एतच्चासम्यक् । यतोय युदकस्पर्श मात्रेण सिद्धिः स्यात् तत उदकसमाश्रितामत्स्यबंधादयः क्रूरकर्माणोनिरनुक्रोशा बहवः प्रणिनः सिइयेयुरिति । यदपि तैरेवोच्यते । बाह्यमलापनयनसामर्थ्य मुदकस्य दृष्ट मिति तदपि विचार्यमाणं नघटते । यतोयथोदकमनिष्टमलमपनयत्येवम निमतमप्यंग रागं कुंकुमादिकमपि नयति । ततश्च पुण्यस्याऽपनयनादिष्ट विघातक द्विरुद्धः स्यात् । किंच यतीनां ब्रह्मचारिणामुदकस्नानं दोषायैव । तथाचोक्तं । स्नानं मददर्पकरं, कामगं प्रथमं स्मृतं । तस्मात्कामं परित्यज्य, नते स्नांति दमे रताः ॥ प्रपिच । नोदक क्लिन्नगात्रो हि, स्नातइत्यनिधीयते ॥ सस्नातोयोव्रतस्नातः सबाह्याभ्यंतरः शुचिः ॥ १४ ॥ माय कुम्माय सिरीसिवाय, मग्गूय नद्वादगर कसाय ॥ 1 मे कुसला वयंति, उदगेण जे सिद्धिमुदाहरति ॥ १५ ॥ नदयं जइ कम्ममलं दरेका, एवं सुदं इवामित्तमेवं ॥ धंव ऐयार मणुस्सरिता; पाणाणि चैवं विदिति मंदा ॥ १६ ॥ अर्थ - (मञ्चायकुम्माय सिरीसिवाय के० ) जो उदकना स्पर्श थकी मोह थायतो माला कूर्मक एटले का तथा सर्प ( मग्गूयके०) जलकाग ( उठाके ० ) जलचरवि विशेष ( दगररकसाय ) जलमाणस एटले मनुष्याकृति जेवा राक्षस ए सर्व मोगामी शे (मेयं कुसलावयंतिके० ) ते कारण माटे जे कुशल एटले तीर्थकर देव तेो ए स्थान युक्त कयुंबे तो शुं कयुंबे तोके ( उद्गेणजे सिद्धिमुदाहरंति के ० ) उदक थ की मोह कहे ते पुरुष अज्ञानी पापिष्ट पाखंमी अल्पमति वाला जाणवा ॥ १५ ॥ Page #370 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४७ वितीये सूत्रकृतांगे प्रथम श्रुतस्कंधे सप्तमअध्ययनं. (उदयंज कम्ममलंहरेडाके) उदक जो अशुन कर्मरूप मलने हरण करे तो (एवं . सुहं के० ) एमज गुन एटले पुण्य तेने पण हरण करे अने जो पुण्यने हरण नकरे तो कर्म मल पण अपहरी शकेनही माटे (शक्षामित्तमेवं के० ) जे नदक थकी सिदि कहे ते ए वचन नामात्रज बोलेडे (अंधवणेयारमणुस्सरित्ताके) जेम जात्यंध पुरुष मा गै देखाडनार होय तो तेनी पनवाडे चालवा थकी वांबित मार्ग पामियें नही (पा पाणिचेवंविणिहंतिमंदाके०) तेम मूर्ख प्राणी पण धर्मनी बुधियें प्राणीननो विनाशक एवा शौच मार्गनो सेवन करता थका मोहपामे नही एम नगवंत कहे. ॥ १६ ॥ ॥ दीपिका-नदकेन यदि मुक्तिः स्यात्तदा मत्स्याः कूर्माश्च सरीसृपाजलसमजवोज लवायसानष्टाजलचर विशेषादकरादसाजलमानुषास्ते प्रथमं सिध्येयुः। नचैवं दृष्टमिष्टं वा । ततोऽस्थानमयुक्तमेतदिति कुशलानिपुणावदंति ये उदकेन सिदिमुदाहरंति ॥१५॥ नदकं यदि कर्ममलं हरेत् एवं शुनं पुण्यमपि हरेत् । अथ पुण्यं नहरेदेवं कर्ममलमपि न हरेदतश्बामात्रमेतजलं कर्मापहारीति ॥ यथा जात्यंधाश्चान्यं जात्यंधमेव नेतारमनुस त्य गतः कुपथाश्रिताः स्युः । एवं स्मार्तमार्गानुसारिणोजलशौचपरामंदामूर्खाः प्रा णिनएव विनिमंति व्यापादयंति ततश्च नानिप्रेतस्थानगामिनः स्युः ॥ १६ ॥ ॥ टीका-किंच (महायइत्यादि)। यदि जलसंपर्कात्सिदिः स्यात् ततोये सततमुदका वगाहिनोमत्स्याश्चकूर्माश्च सरीसृपाश्च तथा मजवस्तथोष्टाजलचर विशेषास्तथोदकरादसा जलमानुषाकृतयोजलचरविशेषाएते प्रथमं सियुनचैतदृष्टमिष्टं । ततश्च ये उदके न सिधिमुदाहरंत्येतदस्थानमयुक्तमसांप्रतं कुशलनिपुणामोदमार्गानिझावदंति ॥ १५ ॥ किंचाऽन्यत् । (उदयमित्यादि ) यादकं कर्ममलमपहरेदेवं शुनमपि पुण्यमपहरेत् थ थ पुण्यं नापहरेदेवं कर्ममलमपि नापहरेत् । अतश्बामात्रमेवैतद्यउच्यते जलकर्मापरि दारीति । एवमपि व्यवस्थिते ये स्नानादिकाः क्रियाः स्मातमार्गमनुसरंतः कुर्वति ते य था जात्यंधायपरं जात्यंधमेव नेतारमनुसृत्य गतः कुपथश्रुतयोनवंति नाऽभिप्रेतं स्थानमवाप्नुवंति। एवं स्मातमार्गानुसारिणोजलशोचपरायणामंदाअझाः कतेव्याकर्त व्यविवेकविकलाः प्राणिनएव तन्मयात् तदाश्रितांश्च पूतरकादीन् विनिघ्नंति व्यापादयं ति अवश्यं जल क्रियया प्राणव्यपरोपणस्य संनवादिति ॥ १६ ॥ पावाई कम्माइं पकुवतोहिं, सिन्दगं तू जश्तं दरिजा॥सिशंसु एगे दगसत्तघाती. मुसं वयंते जलसिदिमानु॥१०॥ दुतेण जे Page #371 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राय धनपतसिंघ बादाउरका जैमागम संग्रह नाग उसरा. ३४१ सिचिमुदादरंति, सायंच पायं अगणिं फुसंता ॥ एवं सिया सिद्धि हवेज तम्हा, अगणिं फुसंताण कुकंमिणपि ॥ १७ ॥ अर्थ-(पावाई कम्माई पकुवतोहिंके०) जे जीव प्रकर्षे करी जीव घातादिक अनेक पाप कृत्यो करी कर्म नपार्जीने पनी (सिउदगंतजश्तंहरिजाके) सीतोदक एटले त्रिसं ध्याये पाणीनो स्पर्श करी उपार्जित कर्मनो नाश करीने सिदिपामे तो (सिङसुएगेदगसत्त घाती के०) पाणीने योगे करी कोइ एक जीवघातक एवा माजीगर प्रमुख पण सीजे (मुसं वयंतेजलसिदिमादु के ) तेमाटे जे उदक थकी सिदि कहे ते मृषावाद बोले ले ॥ १७ ॥ (दुतेणजे सिधिमुदाहरंति के ) दुताशन जे अग्नि ते थकीजे मोद कहेले (सायंचपायं अगणिंफुसंता के० ) एटले संध्या प्रनात अने मध्यान्हे एम त्रिसंध्यायें अग्नीने फरसवे करी घृतादिकनु अग्नीनेविषे होम करवे करी सिदिले एम अग्नी होत्री नामना दर्शनी कहे तेने पूजी जे (एवं सिया सिदिहवेहतम्हाके) एम करवा थकी जो सिदि थति होय तो (अगणिं फुसंताण कुकंमिपि के० ) अग्नीना फरशनारा कुकर्मि एवा लोहकार अंगार दाहक कुंनकार नाडनूंजा सोनी प्रमुख ने पण मोद प्राप्ति थवी जोश्ये केमके ए लोहकार प्रमुखतो सदा अग्नि तर्पण करता थकाज रहे माटे ते उर्गतिमां नहीज जाय. यद्यपि ते दर्शनी मंत्रनुं कारण देखाडे तो तेने एम कहे केजे अत्यंत तमारा याज्ञाकारी होय ते एवं तमासं बोलतुं प्रमाण करशे परंतु अन्य जनो एवात माने नहीजेमतेम नस्म करणे सरखा तो मंत्रेकरी झुं विशेष ॥१॥ ॥ दीपिका-पापानि कुर्वतःप्राणिनोयत्कर्म बध्यते तत्कर्म यदि जलमपहरेत्।यद्येवं स्या तदा जलसत्वघातिनोजलप्राणिहिंसकाः सर्वे सिध्येयुर्नचैवमस्ति तस्माद्ये जलेन सिधिमा दुस्ते मृषावदंति ॥१॥ अग्निहोत्रं जुहुयात्स्वर्गकामइत्यादिवाक्यात् ये मूढादुतेनाऽग्नौ हव्यदेपेण सि िसजतिमुदाहरंति वदंति । किंनूताः सायमपरागहे प्रातः प्रनातेऽ ग्निं स्टशंतस्तर्पयंतः सिदिमिति । एवं यदि सिदिः स्यात्ततस्तस्मादग्निं स्टशतां कुक मिणामंगारकदाहककुंनकारायस्कारादीनां सिदिः कथं न स्यात् ॥ १७ ॥ || टीका-थापिच (पावाइंइत्यादि । पापानि पापोपादाननूतानि कर्माणि प्राण्युपमर्द कारीणि कुर्वतोसुमतोयत्कर्मापचीयते तत्कर्म यादकमपहरेत् । यद्येवं स्यात् तर्हि य स्मादर्थे यस्मात्प्राण्युपमर्दकर्मोपादोयते जलावगाहनाचाऽपगति तस्माउदकसत्वघाति नः पापनूयिष्ठामप्येवं सिक्ष्येयुः । नचैतदृष्टमिष्टं वा । जलावगाहनात्सिदिमादुस्ते Page #372 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४२ तिीये सूत्रकृतांगे प्रथमश्रुतस्कंधे सप्तमअध्ययनं. मृषा वदंति ॥ १७ ॥ किंचाऽन्यत् (दुतेणेत्यादि ) अग्निहोत्रं जुहुयात् स्वर्गकामश्त्य स्मा वाक्यात् ये केचन मूढाहुतेनाऽग्नौ हव्यप्रदेपेण सिदिं सुगतिगमनादिकां स्वर्गा वाप्तिलक्षणामुदाहरंति प्रतिपादयंति । कथंभूताः सायमपराण्हे विकालेवा प्रातः प्रत्यु षसि अग्निं स्टशंतोयथेष्टैर्दव्यैरग्निं तर्पयंतस्ततएव यथेष्टगतिमनिलषंति । श्रादुश्चै वं ते यथा अग्निकार्यात्स्यादेव सिद्धिरिति । तत्रच ययेवमग्निस्पर्शन सिदिनवेत् । ततस्त स्मादग्निं स्टशतां कुकर्मिणामंगारदाहककुंनकारायस्कारदीनां सिदिः स्यात् । यदपि च मं त्रपूतादिकं तैरुदान्हियते तदपिच निरंतराः सुहृदः प्रत्येष्यति । यतः कुकर्मिणा मप्यग्निकार्ये नस्मापादनमग्निहोत्रिकादीनामपि जस्मसात्करणमिति नातिरिच्यते कुक मिन्योऽग्निहोत्रादिकं कर्मेति । यदप्युच्यते अग्निमुखावैदेवाः । एतदपियुक्तिविकलत्वात् वाङ्मात्रमेव विष्ठादिनदणेन चाऽग्नेस्तेषां बहुतरदोषोत्पत्तेरिति ॥ १७ ॥ अपरिक दिई गद् एव सिद्धी,एहिंति ते घायमबुसमाणानूए हिं जाणं पडिलेह सातं, विऊंगदायं तसथावरेहिं ॥५॥थणं ति लुप्पंति तसंति कम्मी, पुढो जगा परिसंखाय निकू॥ तम्हा विक विरतोयगुत्ते, दउँ तसेया पडिसंहरेजा॥२०॥ अर्थ-माटे (अपरिरकदिणदुएव सिद्धीके)जे स्नान अने होमादिके करी सिदि बोले ने ते अविमाश्यो बोले केमके एवा कारणो थकी सर्वथापि सिदि नथाय (एहिंतिते घायमबुसमाणा के ) ते अबुझ एटले तत्वना अजाण धर्मनी बुध्येि पाप करतां थका घात पामशे (नूएहिंजाणंपडिलेहसातं के० ) एवं जागी करीने नूत एटले प्राणी मात्रने साता एटले सुख प्रतिलेखीने तेने हणे नही एम (विळंके) विज्ञान विवेकने (गहा यके०) गृहीने (तसथावरे हिंके)त्रस अने स्थावर जीवोने सुख प्रिय फुःख अप्रिय एवं ज्ञानेकरी जाणे यउक्तं पढमनाएंतदया इतिवचनात्॥१॥परंतु जे कुशीलिया नेतेप्राणीन नो उपमर्दन करवा थकीसातामाने तेने फलकहे ते एथिव्यादिकना प्रारंने सुखानिला षी बता नरकादिक गतिने विषे जाय पनी त्यां (थणंतिके)याकंद करे तथा (लुप्पंतिके०) खड़ादिक शस्त्रे बेदन थयाथी कदर्थमान थका ( तसंतिके० ) नाशीजाय एम (कम्मी के ) ते पाप सहित प्राणी कुःखी थाय (तम्हाके०) ते कारणे (निरक के०) चारि त्रि (पुढोजगापरिसंखाय के ) जुदा जुदा जीवोने जाणीने (विकके) विज्ञान होयते (धायगुत्तेके०) आत्म गुप्तिवंत बतो (विरतोके०) संयमाचरे (दहुंतसेयापडिसंहरेजा के.) त्रस अने स्थावर जीवनी हिंसाकारण। एवी क्रियादेखीने ते थकी निवर्ने ॥२०॥ ॥ दीपिका-अग्निहोत्रेण जलेन वा यैः सिविरुक्ता तैरपरीय दृष्टं युक्ति विकलमुक्तं । Page #373 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राय धनपतसिंघ बाहारका जैनागम संग्रह जाग दुसरा. ३४३ यतो नैवमेव सिद्धिः । ते परमार्थमबुध्यमानाथजानंतः प्राणिघातेन संसारे नमिष्यंति।। ततो विधान् विवेकी सातं सुखं प्रत्युपेक्ष्य नूतैः प्राणिनिस्त्रसस्थावरैर्जानीयाद्यथाव स्थितत्वं गृहीत्वा | कोर्थः । सर्वे जीवाः सुखैषिणोःख द्विषश्च । नच सुखैषिणां दुःखोत्पा Cheda स्वस्य सुखं स्यादिति ॥ १५ ॥ ते खारं नियोनरकादिगतास्तनंत्याक्रंदंति लु यं विद्यते खड्डादिनिः । एवं पीड्यमानास्त्रसंति पलायंते । कर्माणि विद्यते येषां ते कर्मि ः सपापाः पृथक् जगाइति जंतवः । एवं परिसंख्याय ज्ञात्वा निकुस्तस्माद्विद्वान् पंडितो विरतः पापादात्मगुप्तोदांतात्मा त्रसान स्थावरांश्च दृष्ट्वा परिज्ञाय तडपघातक्रियां प्र तिसंहरेन्निवर्तयेत् ॥ २० ॥ ॥ टीका - नक्तानि पृथक् कुशीलदर्शनानि खयमपरस्तेषां सामान्योपालन इत्याह । ( परिस्क दिमित्यादि । यैर्मुमुक्कु निरुदकसंपर्केणाऽग्निहोत्रेण वा प्राण्युपमर्दकारिणा सिद्धि रिति । तेच परमार्थमबुद्ध्यमानाः प्राप्युपघातेन पापमेव धर्मबुद्ध्या कुर्वतोघात्यंते वा व्या पाद्यते नानाविधैः प्रकारैर्यस्मिन् प्राणिनः संघातः संसारस्तमेष्यंति । यप्कायतेजःकाय समारंभेण हि सस्थावराणामवश्यं जावी विनाशस्तन्नाशेच संसारएव न सिद्धिरित्यनि प्रायः । यतएवं ततो विधान् सदसद्विवेकी यथावस्थिततत्वं गृहीत्वा त्रसस्थावरैर्नू तेज तुनिः कथं सांप्रतं सुखमवाप्यतइति एतत्प्रत्युपेक्ष्य जानीहि व्यवबुद्ध्यस्व । एतडुक्तं नव ति । सर्वेऽप्यसुमंतः सुखैषिणो दुःख दिषोनच तेषां सुखैषिणां दुःखोत्पादकत्वेन सुखा वाप्तिर्भवतीति । यदवा । ( विऊंगहायत्ति ) विद्याज्ञानं गृहीत्वा विवेकमादाय त्रस स्थावरैर्भूतैर्जतु निः करणभूतैः सातं सुखं प्रत्युपेक्ष्य पर्यालोच्य जानीह्यवगच्छेति । यत उक्तं । (पढमं नाणं तवोदया एवं चि‍ संजए । यन्नाणी किंकाही किंवालाही बेयपावगमि त्यादि ) ॥ १ ॥ ये पुनः प्राप्युपमर्देन सातमनिलषंतीत्यशीलाः कुशीलाश्व ते संसारे एवंविधायवस्थाथनुनवंतीत्याह ( चतिलुप्पंतीत्यादि ) तेजस्कायसमारं निणोनूतस मारंभेण सुखमनिलषं तोनार का दिगतिगतास्ती ब्रह्नः खैः पीड्यमानाश्रसह्यवेदनाघ्रातमा नसाथ शरणाः स्तनंति केवलं करुणमाक्रंदतीति यावत् । ( तथालुष्पंतीति ) । बि घंटे खड्डादि निरेवं च कदर्थ्यमानास्त्रस्यंति प्रपलायंते । कर्मास्येषां संतीति कर्मिणः स पापाइत्यर्थः । तथा ष्टथक्जगाइति जंतवइति । एवं परिज्ञाय ज्ञात्वा निणशीलो निकुः साधुरित्यर्थः । यस्मात्प्राप्युपमर्दकारिणः संसारांतर्गताविलुप्यंते तस्मादि धान पंडितोवि रतः पापानुष्ठानादात्मा गुप्तोयस्य सोऽयमात्मगुप्तोमनोवाक्काय गुप्तार्थः । दृष्ट्वाच त्रसान्च शब्दात्स्थावरांश्च दृष्ट्वा परिज्ञाय तडुपघातकारिणी क्रियां प्रतिसंहरेन्निवर्तयेदिति ॥ २० ॥ For Private Personal Use Only Page #374 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४४ fad सूत्रकृतांगे प्रथम श्रुतस्कंधे सप्तमच्प्रध्ययनं. जे धम्मलं विणिदाय मुंजे, वियडे साहहुय जे सिलाई॥ जे धो वती खूसयतीव वचं, दादु सेणा गणियस्स दूरे ॥ २२ ॥ कम्मं परिन्नाय दगंसि धीरे, वियडेण जीविजय यादिमोकं || संत्रीय कंदा अजमाणे, विरतेसि णाणाइसु इचियासु ॥ २२ ॥ अर्थ - ( जे के० ) जे शीतल विहारी ( धम्म के० ) शुद्ध निर्दोष एवा आहारने ल - के० लहीने (विलिहायचंजे के० ) संनिधि करी जमे तथा ( वियडे साहहुयजे सिलाई के० ) विकट एटले फास पाणीयें करी अंगोपांग संकोची प्रासुक प्रदेशें बेशी देश की अथवा सर्व थकी स्नान करे तथा ( जेधोवतीलूसयतीववढं के० ) जे वस्त्र धोवे तथा लुसे एटले लांबुंहोय तेने फाडीने न्हानो करे तथा न्हानुं होय तेने सांधी ने मोहोटुं करे इत्यादिक वातो शोनाने यर्थे जे करे (हादुसे पाग लियरस दूरेके ० ) ते संयम की दूर व एम श्रीतीर्थंकर गणधर कहेते. ॥ २१ ॥ ( कम्मं परित्रायदगं सिधीरे के० ) जे धीर बुधिमंत पुरुष होय ते उदकने विषे कर्मबंध जाएणीने ( विडे जी विजयादिमोरकं के० ) जावजीव सुधी फासु पाणी पीए (सबीयकंदा इयनुंज मा० ) ते साधु बीज कंदादिक जोगवतो (विरतेसियालाइसुइडियासुके ० ) स्नान यंग उटंगला दिकने विषे तथा स्त्रीने विषे विरति होय पणकुशील दोष खाचरे नही ॥१२ O || दीपिका - अथ स्वयूय्य कुशीलानाह । ( जेइति ) । ये शीतल विहारिणोधर्मेण सु धिकया लब्धमुदेशकक्रीतादिदोषरहितमाहारं विनिधाय व्यवस्थाप्य सन्निधिकृतेवा लुंज ते तथा विकटेन प्राकोदकेनापि संकोच्यांगानि प्रासुकोदकेनापि देशसर्वस्नानं कुर्वति तथा ये वस्त्रं धावंति प्रकालयंति दूषयंति शोनार्थ दीर्घ सविदार्य म्हस्वं वा संधाय दीर्घ करोति (सेागणिस्स ) नियंथनावस्य दूरे वर्तते इति तीर्थकृतया ॥ २१ ॥ उ क्ताः कुशीलाच्प्रथ सुशीला उच्यते । धीरोबुद्धिमान् उदकारंने सति कर्म बध्यतइति प्रतिज्ञा विकटेन प्राकोदकेन सौवीरादिना जीव्यात् प्राणधारणं कुर्यात् । यादिः संसारस्तस्मा न्मोक्षप्रादिमोदः संसारविमुक्तियावदित्यर्थः । अथवा धर्महेतूनामादिनूतं शरीरं तद्विमु किंयावद्यावजीवमित्यर्थः । ससाधुर्बीजकंदादीननुंजानः स्नानादिषु विरतः । यादिश दादन्यंगो वर्तनादिन्यो पिविरतयन्यासुच विचिकित्सादिक्रियासु निवर्तते तथा स्त्रीषु वि तोऽन्यत्रवेोपि विरतः कुशीलदोषैर्न युज्यते ॥ २२ ॥ ॥ टीका- सांप्रतं स्वयूथ्याः कुशीलाच्य निधीयंतइत्याह । (जेधम्मल - ६मित्यादि) ये केच For Private Personal Use Only Page #375 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रायधनपतसिंघ बदाउरका जैनागम संग्रह नाग उसरा. ३४५ न शीतलविहारिणोधर्मेण सुधिकया लब्धं धर्मलब्धं । उद्देशकक्रीतलतादिदोषरहितमित्य र्थः।तदेवंनतमप्याहारजातं निधाय व्यवस्थाप्य सन्निधिं कृत्वा चुंजते । तथा ये विकटेन प्राशुकोदकेनाऽपि संकोच्यांगानि प्राशुकएव प्रदेशे देशसर्वस्नानं कुर्वति । तथा योवस्त्रं धावति प्रदालयति तथा लूपयति शोनार्थ दीर्घमुत्पाटयित्वा न्हस्वं करोति -हस्वंवा संधा य दीर्घ करोति । एवं जूषयति । तदेवं स्वार्थ परार्थ वा योवस्त्रं चूषयति।अथाऽसौं (णागणि यस्तत्ति ) निर्ग्रथनावस्य संयमानुष्ठानस्य दूरे वर्तते न तस्य संयमोनवत्येवं तीर्थकरगण धरादयवादुरिति ॥ २१ ॥ नक्ताः कुशीलास्तत्प्रतिपदनूताः शीलववंतः प्रतिपाद्यंतश्त्ये तदाह । ( कम्मंपरिणायइत्यादि ) । धिया राजते इति धीरोबुद्धिमान (उदगंसित्ति ) नद कसमारंने सति कर्मबंधोनवति । एवं परिझाय किंकुर्यादित्याह । विकटेन प्राशुकोदकेन सौवीरादिना जीव्यात् प्राणसंधारणं कुर्यात् । चशब्दात् अन्येनाऽप्याहारेण प्रागुकेनैव प्राणवृत्तिं कुर्यात् । श्रादिः संसारस्तस्मान्मोदयादिमोहः संसारविमुक्तियावदिति । ध मकारणानां तावदा दिनूतं शरीरं तदिमुक्तिं यावजीव मित्यर्थः । किंचाऽसौ साधुर्बीजकं दादीन मुंजानः।आदिग्रहणात् मूलपत्रफलानि गृह्यते । एतान्यऽप्यपरिणतानि परिहरन् विरतोनवति । कुतइति दर्शयति ।स्नानान्यंगो दर्तनादिषु क्रियासु निष्प्रतिकर्मशीतयाऽन्या सु चिकित्सादिक्रियासुन वर्तते । तथा स्त्रीषु च विरतः वस्तिनिरोधग्रहणात् अन्येऽप्याश्रया गृह्यते । यश्चैवंनतः सर्वेन्योऽप्याश्रव हारेन्यो विरतोनाऽसौ कुशीलदोषैयुज्यते तदयोगाच्च न संसारे बंचमीति । ततश्चन ःखितः स्तनति नापि नानाविधैरुपायैर्विलुप्यतइति ॥२२॥ जे मायरंच पियरंच हिच्चा, गारंतहा पुत्तपसंधणंचाकुलाइजे धावसानगाई, अहाद से सामणियस्स दूरे ॥२३॥ कलाई जे धावसानगाई, आघातिधम्म नदराए गिधे ॥ अहाद से आयरियाण सयंसे, जो लावएका असणस्स देऊ ॥ ४॥ अर्थ-(जेमायरंच पियरंचहिचा के०) जे कुशीलिया माता तथा पिता प्रमुख कुटुंब त्यागीने (गारं के० ) बालार एटले घर ( तहा के० ) तथा (पुत्तपसुंधणंच के०) पुत्र अने पशु जे गवादिक तथा धनने त्यागी पंचमहाव्रत अंगीकार करी पनी रसगृहिये यासक्त बता जिव्हालोलपी सरस आहारने गवेषता थका (कुलाइजेधावसानगाईके ) मोहोटा कुलने विषे रूडा रसनो आहार पामवाने अर्थ जे भ्रमण करे (अहादुसेसामणि यस्सरे के०) ते चारित्र थकी दूर जाणवा एम श्रीतीर्थकर गणधर कहेजे. ॥ २३ ॥ (कुलाई जे धावई सानगाई के ० ) जे स्वाऊक कुलने विषे रसलंपट थका गोचरी कर वाने जाय (अाघातिधम्मं उदरापुगिछेके०) एवा उदर गृ६ पेटार्थि थका जेने जेवो धर्म ४४ Page #376 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४६ वितीये सूत्रकृतांगे प्रथम श्रुतस्कंधे सप्तमअध्ययनं. रूचे तेने तेवो उपदेश आपे (अहानुसे थायरियाणसयंसेके०) ते पुरुषोआर्य धर्मने सो मे नागे नपलदायकी सहस्त्र लाख कोडमे नागे पण पोहोचे नही एम श्री तीर्थकरा दिक कहे (जोलावएजा असणस्सहेकके) तथा जे साधु आहार वस्त्रादिकोने अर्थे बीजाने मुखे पोताना गुण केवरावें लाल पाल करें तेपण कुशीलिया जागवा. ॥॥ ॥ दीपिका-यः कुशीलोमातरं पितरं वा उपलक्षणाद्धातृउहित्रादिकमपि हित्वा अगा रं गृहं पुत्रमपत्यं पशुं हस्त्यश्वगोमहिष्यादिकं. धनं च त्यक्त्वा पुनींनतया स्वाङका नि स्वाउनोजनवंति कुलानि गृहाणि धावति गति असौ श्रामण्यस्य श्रमणत्वस्य दूरे एवमादुस्तीर्थकृतः ॥ २३ ॥ यः कुलानि स्वानोजनवंति धावति गबति गत्वा निदा थै प्रविश्य यद्यस्मै रोचते कथादिकं तत्तस्याख्याति । किंनूतः । नदरेऽनुगृहनदरनरणव्य ग्रः सार्याणां उत्तमगुणानां शतांशे अधिवर्तते शतोपलदणात्सहस्रांशादेरप्यधिव तते । योऽशनःस्यात्तस्य हेतुं लापयति स्वप्रशंसां करोति ॥ २४ ॥ ॥ टीका-पुनरपि कुशलानेवमधिकृत्याह । जेमायरंचेत्यादि । ये केचनाऽपरिणतस म्यधर्माणस्त्यक्त्वा मातरंच पितरंच मातापित्रोऽस्त्यजत्वाउपादान।अतोनातृउहित्रादि कमपि त्यक्त्वेति एतदपि इष्टव्यं । तथा अगारं गृहं पुत्रमपत्यं पशुं हस्त्यश्वरथगोमहि ष्यादिकं बंधनं च त्यक्त्वा सम्यक् प्रव्रज्योबानेनोबाय पंचमहाव्रतनारस्य स्कंधं दत्वा पुन नसत्वतया रससातादिगौरवगृहोयः कुलानि गृहाणि स्वाउकानि स्वाउनोजनवंति धावति गति । अथाऽसौश्रामण्यस्य श्रमणनावस्य दूरे वर्तते एवमादुस्तीर्थकरगणधरा दयति ॥३॥ एतदेव विशेषेण दर्शयितुमाह (कुलाइजेधावतीत्यादि) कुलानि स्वाउनो जनवंति धावतिगति)तथा गत्वा धर्ममारख्याति निदाथवा प्रविष्टोयद्यस्मै रोचते कथासंबं धस्तं तस्याऽऽख्याति । किंनूतइति दर्शयति । नदरेऽनुगमनदरानुगःमः। उदरभरणव्यग्रस्तुंद परिमृजश्त्यर्थः। इदमुक्तं नवति। योह्युदरगृयाहारादिनिमित्तं दानश्र-क्षकाख्यानि कुलानि गत्वाऽऽख्यायिकाः कथयति सकुशीलति।अथाऽसावाचार्यगुणानां वा शतांशे वर्ततइति। योह्यन्नस्य हेतुं जोजननिमित्तमपरवस्त्रादिनिमित्तं वा यात्मगुणानपरेणालापयेनाणयेत्। असावप्यार्यगुणानां सहस्रांशे वर्तते। किमंगं पुनर्यः स्वतएवाऽऽत्मप्रशंसां विदधातीतिश्४ जिस्कम्म दोणे परनोयणंमि, मुहमंगलीए नदराणुगिद्दे ॥ नी वारगिव महावरादे, अदूरए एह घातमेव ॥ २५॥ अन्न स्स पाणस्सिदलोइयरस, अणुप्पियं नासति सेवमाणे॥पास बयं चेव कुसीलयंच, निस्सारए हो जहा पुलाए ॥२६॥ Page #377 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रायधनपतसिंघ बादाउरका जैनागम संग्रह नाग उसरा. ३४७ अर्थ-णिरकम्मदीणेपरजोयशूमि के ) जे पोतानुं धनादिक बांझीने पनी परजो जनने विपे दीन एटले दयामणो थाय ( नदराणुगिसेके) एम नदरगृथको रहेते (मुहमंगलिक के० ) गृहस्थने बंदीजननी पेरे मुखेंमंगलिक वचन कहे गृहस्थनी प्रसं साकरे यतः सोएसोजस्सगुणा, विरयंतनवारियादस दिसासु, इहराकहासुचसि पञ्चरकं अबदिहोसि ॥ १ ॥ इत्यादिक वचन पेटनें अर्थे बोले (नीवारगिदेवमहावराहे के०) जे म महोटो सूबर नीवार एटले चावलना कणने विपे गृघडतो (अदूरएएहश्यातमेव के०) अदूर एटले तरत घात पामे तेम कुशीलिया पण आहार गृबता संसार मांहे अनंता मरण पामे ॥ २५ ॥ ते कुशीलिया (अन्नस्स के० ) अन्नने अर्थ (पाणस्स के) पाणीने अर्थे तथा (हलोश्यस्स के० ) अन्य वस्त्रादिकने अर्थे (अणुप्पियंना सतिसेवमाणे के०) जेने जेवं गमतुं होय तेना पागल तेवुज बोले सेवकनी पेरे जेम सेवक पोताना राजाने गमतुं बोले तेम ए कुशीलिया पण बोले ते (पासबयंचेवकुसी लयंच के ) सदाचार थकी नष्ट एवा पासबानो नाव तथा कुशीलियानो नाव पामे ते केवो थाय तोके ( निस्सारएहोजहापुनाए के ० ) निःसार थाय जेम पुलाक एटले धानना बोतरा तूस निःसार होयडे तेम तेपण तेना सरखोज निःसार जाणवो ॥२६॥ ॥ दीपिका-योनिष्क्रम्य प्रव्रज्य पराहारविषये दीनः सन् बंदिवन्मुखमांगलिकः स्या त् मुखेन परप्रशंसावाक्यानि वक्ति औदर्य प्रतिगमः । किमिव ।नीवारोमृगादिनदय विशे पस्तत्र गृहयासक्तोयथा महावराहः सूकरः संकटे प्रविष्टः सन्नदूरएव शीघ्रमेव घातं विनाशमेष्यति एवमसावपि कुशीतः ॥ २५ ॥ सकुशीलोऽन्नस्य पानस्य ऐहिकार्थस्य व स्वादेः कृतेतु प्रियं नाषते ऽनुकूलंवक्ति सेवकवत्सेवमानएवंनूतश्च पार्श्वस्थतां कुशील तां च गति निःसारोनवति यथा पुत्लाकस्तुषः ॥ २६ ॥ ॥ टीका-किंच (णिरकमेत्यादि)। योह्यात्मीयं धनधान्यहिरण्यादिकं त्यक्त्वा निष्क्रां तोनिष्क्रम्य च परनोजने पराहार विषये दीनोदैन्यमुपगतोजिव्हेंश्यिवशादातॊबंदिवन्मु खमांगलिकोनवति । मुखेन मंगलानि प्रशंसावाक्यानि ईदृशस्तादृशस्त्वमित्येवं दैन्य नावमुपगतोवक्ति । नक्तंच । सोएसोजस्सगुणा, वियरंतनवारियादस दिसासु । इहराक हासु सुचसि, पञ्चरकंपनदिछोसि । इत्येवमौदर्य प्रतिगृघोड ध्युपपन्नः। किमिव । नीवा रः सूकरादिमृगनद विशेषस्तस्मिन् गृषयासक्तमनागृहीत्वा च स्वयूथं महावराहोम हाकायः सूकरः । एवकारोऽवधारणे । अवश्यं तस्य विनाशएव नाऽपरा गतिरस्तीति । ए वमसावपि कुशीलाहारमात्रगृ६ः संसारोदरः पौनःपुन्येन विनाशमेवैति ॥ २५ ॥ Page #378 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४७ तीये सूत्रकृतांगे प्रथम श्रुतस्कंधे सप्तमअध्ययनं. (किंचमस्सेत्यादि) सकुशीलोऽन्नस्य पानस्य वा कृतेऽन्यस्य वैहिकार्थस्य वस्त्रादेः कृते . अनुप्रियं नाषते । यद्यस्य प्रियं तत्तस्य वदतोऽनुपश्चान्नापते अनुनाषते । प्रतिशब्दकव त् सेवकवा राजाद्युक्तमनुवदतीत्यर्थः । तमेव दातारमनुसेवमानवाहारमात्रगृ६ः सर्व मेतत्करोतीत्यर्थः। सचैवंनूतः सदाचारचष्टः पावस्थनावमेव व्रजति कुशीलतां च गति । तथा निर्गतएकांततः सारश्चारित्राख्योयस्य सनिःसारः । यदिवा निर्गतस्य सारोनिः सारः सविद्यते यस्याऽसौ निःसारवान् पुलाकश्व निष्कणोनवति यथा एवमसौ संय मानुष्ठानं निःसारीकरोति । एवंनतश्चाऽसीलिंगमात्रावशेषोबदनां स्वयूथ्यानां तिरस्कार पदवीमवाप्नोति परलोके च निकष्टानि यातनास्थानान्यऽवाप्नोति ॥ २६ ॥ अमातपिंमेण दियासएजा, णो पूयणं तवसा आवहेजा ॥ सद्दे हिं रूवेदिं असङमाणं, सव्वेदि कामेदि विणीय गेहिं ॥३॥स वाईसंगाइं अच्च धीर, सवाईपुरकाईतितिरकमाणे॥अखिले अगिद्धे अणिएयचारी, अनयं करे निस्कु अणाविलप्पा ॥३०॥ अर्थ-हवे सुशीलियानुं आचरण कहे. (अप्लातपिंमेणहियासएकाके० ) जे अ ज्ञात कुलने विष पिंक एटले थाहार पाणी लीयें अंत प्रांत आहारे करी संयम पाले पण दीनपणु अंगीकार करे नही (गोपूयतवसायावहेजा के ) तथा तपश्यायें करी पूजा सत्कारने वाले नही एटले राजा दिकनी पूजाने निमित्ते तपश्या करे नही परंतु यात्मार्थ करे यमुक्तं इहलोगज्याएतवमाघहेजा इत्यादिक नाव जाणीने तथा (सद्दे हिं के० ) शब्दने विषे (रूवेहिं के० ) रूपने विषे (असऊमाणं के० ) असह्यमान ए टले तत्पर नहोय अने ( सवेहिकामेहिविणीयगेहिं के०) सर्व कामने विपे गृ६ पषु टालीने रागद्वेष नकरे तेने साधु जाणवो ॥ २७ ॥ (सवाईसंगायश्च के०) सम स्त संग तेमां स्नेह ते अन्यंतर संग अने धन धान्यादिक बाह्य संग एबेप्रकारना संग थकी अतीत एटले रहित (धीरे के०) विवेकवान् (सवाइंडरकातितिरकमाणे के ) तथा सर्व शारीरिक अने मानसिक .ख तेने सहन करनार एटले परीस होपसर्ग ज नित दुःखनो सहन करनार (अखिले के ) ज्ञान, दर्शन अने चारित्रे करी संपूर्ण (अगि के०) कामनोगनी अनिलाप रहित तथा (अणिएयचारी के० अनियतचारी एट अप्रतिबद्ध विहारी (अनयंकरे के०) सर्व जीवने अनयनो करनार एवो (निरकु के०) साधु ते (अणाविलप्पा के०) विषय कषाये करी अनाकुल एटले कषायने नपश माववे करी निर्मल थयो जेनो आत्मा एवो साधु महानुनाव जाणवो ॥ २७ ॥ Page #379 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राय धनपतसिंघ बादाडुरका जैनागम संग्रह नाग दुसरा. ३ ४० || दीपिका - ज्ञातपिंड अंतः प्रांतः ज्ञातेन्यः पूर्वापराऽपरिचितेन्यः कुलेन्यनंब वृत्या लब्धस्तेनात्मानमधिस हे इर्तयेत् नच तपसा पूजनं सत्कारमावहेत् नसत्कारार्थी त पः कुर्यादित्यर्थः । यडुक्तं । परलोकादिकं धाम, तपः श्रुतमिति ६यं ॥ तदेवार्थित्वनिर्लुप्त सारं तृणवायते इति । शब्देर्मनोरूपैश्वासकन् यासक्किमकुर्वन् सर्वैरपि कामैरिवाम दद्धिं विनीय त्यक्त्वा संयममनुपालयेत् ॥ २७ ॥ सर्वान् संगानतीत्य व्यक्त्वा धीरोवि ant सर्वाणि दुःखानि परीषहोपसर्गजनितानि तितिक्षमाणोऽधिसहन् प्रखिनोज्ञाना दिसंपूर्णेऽगृः कामेष्वनियतचारी प्रतिबन्ध विहारी जीवानामनयंकरोनिकुः सा धुरनाविलात्मा निष्कपायात्मा सुशीलः स्यात् ॥ २८ ॥ ॥टीका - नक्ताः कुशीनास्तत्प्रतिपक्षनूतान् सुशीलान् प्रतिपादयितुमाह । (श्रमात पिंडेत्या दि) प्रज्ञातवासौ पिंडश्वाऽज्ञात पिंमः अंतः प्रांत इत्यर्थः । श्रज्ञातेच्योवा पूर्वापरासंस्तुतेच्यो वा पिंज्ञावृत्त्या लब्धस्तेनात्मानमधिसहेत् वर्तयेत् पालयेत् । एतडुक्तं नवति तप्रांतेन लब्धेनाऽलब्धेन वा न दैन्यं कुर्यात् । नाऽप्युत्कृष्टेन लब्धेन मदं विदध्यात् । ना ऽपि तपसा पूजनसत्कारमावहेत् न पूजन सत्कारनिमित्तं तपः कुर्यादित्यर्थः । यदिवा पूजासत्कारनिमित्तत्वेन तथाविधार्थत्वेन वा महतापि केनचित्तपोमुक्तिहेतुकं न निःसारं कुर्यात् । तडकं । परलोकाधिकं धाम तपःश्रुतमिति ६यं ॥ तदेवाऽर्थित्व निर्जुप्तसारं तृप लवायते । तथा च रसेषु गृद्धिं न कुर्यात् । एवं शब्दादिष्वपीति दर्शयति । शब्दैर्वेणुवीणा दिनिरादितः संस्तेष्वसन्नासक्तिमकुर्वन कर्कशेषुच देषमगवन् तथा रूपैरपि मनोशे तरे रागद्वेषमकुर्वन् । एवं सर्वैरपि का मैरिवामदनरूपैः सर्वेभ्यो वा कामेच्यो गृद्धिं विनीयाऽपनीय संयममनुपालयेदिति । सर्वथा मनोशेतरेषु विषयेषु रागद्वेषं न कुर्यात् । तथाचोक्तं । सद्दे सुयनदय पावएसुसोय विसय मुवगएसु । तुठे चरु ठेलच, समसया होयध्वं ॥ १ ॥ रूवेसुयनद्दय पाव एसुचस्कु विसय मुवगएसु । तुहेणचरु ठेलच, समणेयसयाण होयवं ॥ २॥ गंधे सुजय पावसु, घाणविसायमुवगएसु । तुट्ठेा० ॥ ३ ॥ नरके सुयनद्यपावएंसु; रस ए विसय मुवगएसु, तुठेणचरूठेणच, समणेयसयाण होयवं ॥ ४ ॥ फासेसुयनदयपावए सु, फास विसय मुवगए । तुठेणचरुहेलच, समणेण सयान होयवं ॥ ५ ॥ २७ ॥ यथाचें दिय निरोधोविधेय एवमपरसंगनिरोधोऽपि कार्यइति दर्शयति (सवाई इत्यादि) सर्वान् बा ह्यांच व्यपरिग्रहलक्षणानतीत्य त्यक्त्वा धीरोविवेकी सर्वाणि दुःखानि शारीरमानसानि त्यक्त्वा परीषदोपसर्गजनितानि तितिक्षमाणोऽधिसहन्नऽखिलोज्ञानदर्शनचारित्रैः संपू तथा कामेष्वस्तया नियतचारी प्रतिबन्ध विहारी तथा जीवानामजयंकरो पि निक्षणशीनो निक्कुः साधुरेवमना विज्ञो विषयकपायैरनाकुलयात्मा यस्याऽसावनाविज्ञा त्मा संयममनुवर्त्ततइति ॥ २८ ॥ For Private Personal Use Only Page #380 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५० द्वितीये सूत्रकृतांगे प्रथम श्रुतस्कंधे सप्तमयध्ययनं. चारस्स जाता मुणि मुंजएका, कंखेऊ पावस्स विवेग निरखू ॥ डुकेण पुढे धुमाइएका, संगामसीसेव परं दमेका ॥ २९ ॥ प्रविदम्ममाणे फलगावतही, समागमं कंखति तस्स ॥ विधूय कम्मं ण पर्ववुवेइ, प्रस्करक एवा सगडं तिबेमि ॥ ३० ॥ इतिश्री कुसील परिनासिय सत्तमाशयणं सम्मतं ॥ अर्थ - (नारसजाता मुणि गुंजएका के०) नार एटले संयम तेनी यात्रा निरवाह करवाने चारित्र शुद्ध निर्दोष आहार ग्रहण करे ( कंखेकपावस्स विवेगनिस्कू के ० ) त या साधु पूर्व याचरित पापकर्मनो विवेक एटले पृथक् जाव वांबे (डुरकेपा पुट्ठेषुय माइ एका के० ) तथा परीसहादिक नपने थके दुःखने फरश्यो तो धौव शब्दे संयम अथ वा धौव शब्द मोक्ष तेने ग्रहण करे कोनीपेरे तोके ( संगामसी सेवके०) जेम कोइक शू रवीर सुटने संग्रामने मस्तके शत्रुयें परानव्यो थको (परं दमेका के ० ) परंते फरी शत्रुने द मन करे ते चारित्रिकर्मरूप शत्रुथी उपना जे उपसर्ग घने परीसह तेथी पराजव्य पाम्यो थको पण कर्मने दमे ने श्रात्मस्वरूपने साधे ॥ २९ ॥ (विहम्ममा के० ) परी सहोपसर्गे हातो थको पते साधु सम्यक् पहियाशे कोनीपेरे तोके ( फलगावत ठीके ० ) फलग एटले पाटीयानीपेरे तिष्टे एटजे रहे जेम पाटी बन्ने पाशे बेदातु यकुं पल राग द्वेष नकरे तेम साधुपण उपसर्ग परिसह उपने थके राग द्वेष रहित थको रहे ( समागमकं तितकस्स के० ) अंतक एटले मृत्यु श्राववानो समागम वांबे अर्थात् पंमित मरण वांबे पण तपश्यायें करी शरीर शोषवाने लीधे दुर्बलता पामवा थकी मनमां शंका तथा नय या नही (पिधूय कम्मं एापवं बुवे के ० ) ज्ञानावर्णा दिक प्रष्ट प्रकारना कर्म खपावीने वली प्रपंच एटले संसारने न पामे एटले मुक्ति पामे (Exरकरक एवासगडं तिबेमिके०) जेम यह एटले धुरी तेना दय थकी गाडलुं सम विषम मार्गे नचाले तेम साधु मोह पहोता पढी संसार मांहे पाढा यावे नही. तिबेमिनो अर्थ पूर्ववत् जावो. ॥३०॥ इति कुशीन परिभाषा नामे सातमा अध्ययननो अर्थ समाप्तथयो. ॥ दीपिका - नारस्य संयमनारस्य यात्रा निर्वाहस्तदर्थ मुनिर्जुजीत खाहारं गृहीयात्. तथा निक्कुः पापस्य कर्मणोविवेकं विनाशं कांदेत् दुःखेन परीपहादिना स्पृष्टः सर्व धूतं संयमं खाददीत गृहीयात् यथा संग्रामशीर्षे कश्चित् सुनटः परं शत्रुं दमयत्येन् साधुः कर्मशत्रून् दमयेत् ॥ २९ ॥ परीषदैर्हन्यमानः पीड्यमानोपि सम्यक् सहते । यथा फलकं वा पाय तष्टं घटितं सत्तनु नवत्येवं साधुरपि तपसा दुर्बलतनुः स्यात् For Private Personal Use Only Page #381 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राय धनपतसिंघ बादाउरका जैनागम संग्रह नाग उसरा. ३५१ अरक्तदिष्टश्च मृत्योः समागमं प्राप्तिमाकांदेत अष्टप्रकारं कर्म नि यापनीय प्रपंचं सं सारं नोपैति नयाति । यथा अदस्य क्ये विनाशे सति शकटं समविषमपथरूपं प्रपंचं याति उपष्टंजकारणानावात् एवं साधुः कर्मक्ये संसारं नयातीति । ब्रवीमीति पूर्ववत् ॥ ३० ॥ समाप्तं कुशालपरिनापाख्यं सप्तमाध्ययनं ॥ ॥ टीका-किंचाऽन्यत् (नारस्सजाताइत्यादि) । संयमनारस्य यात्रार्थ पंचमहाव्रत नारनिर्वाहणार्थ मुनिः कालत्रयवेत्ता मुंजीत थाहारग्रहणं कुर्वीत । तथा पापस्य कर्मणः पूर्वचरितस्य विवेकं पृथग्नावं विनाशमाकांदे निकुः साधुरिति । तथा फुःखय तीति कुःखं परीषदोपसर्गजनितापीडा तेन स्टष्टोव्याप्तः सन् धूतं संयम मोदंवा आद दीत गाहीयात् । यथा सुनटः कश्चित् संग्रामशिरसि शत्रुनिरनिद्रुतः परं शत्रु दमयति। एवं परं कर्मश परीपहोपसर्गानिद्रुतोदमयेदिति ॥ २७ ॥ अपिच (अविहम्ममाणे त्यादि) परीषदोपसगैहन्यमानोऽपि सम्यक् सहते । किमिव । फलावदकष्टः । यथा फ लकमुनान्यमपि पार्थान्यां तष्टं घहितं सत्तनु नवति अरक्तंदिष्टं वा संनवत्येवमसा वपि साधुः सबाह्यान्यंतरेण तपसा निष्टप्तदेहस्तनुर्बलशरीरोऽरक्तविष्टश्चांतकस्य मृ त्योः समागमं प्राप्तिमाकांकृत्यनिलषति । एवं चाऽष्टप्रकारं कर्म निर्धूयाऽपनीय नपुनः प्रपंचं जातिजरामरणरोगशोकादिकं प्रपंच्यते । बहुधा नटवद्यस्मिन् सप्रपंचः संसारस्तं नोपैति नयाति । दृष्टांतमाह । यथा ऽदस्य दये विनाशे सति शकटं गंत्र्यादिकं समविष मपथरूपं प्रपंचमुपष्टंनकारणनावान्नोपयाति । एवमसावपि साधुरष्टप्रकारस्य कर्मणः ये संसारप्रपंचं नोपयातीति । गतोऽनुगमोऽनयापूर्ववदिति शब्दःपरिसमाप्त्यर्थ बीवीमी ति पूर्ववत् ॥ ३० ॥ समाप्तंच कुशीलपरिनाषाख्यं सप्तमाध्ययनं ॥ हवे आवमुं वीर्याध्ययन कहेले सातमाअध्ययनमा कुशीलियानो याचार कह्यो ते आचार संयमने विषे वीर्यातराय कर्मना उदय थकी थाय तेमाटे या अध्ययनमा सु शीलियानो वीर्य देखाडेने तेथी ए अध्ययनD नाम वीर्याध्ययनले. उन्नावेयं सुयकायं,वीरियंति पवुच्चई॥किंतु वीरस्स वीरतं, कदं चेयं पवुच्चई ॥१॥ कम्ममेगे पवेदेति,अकम्मं वावि सुवया॥ एते हिंदोदि गणेहिं, जेहिंदीसंति मच्चिया ॥२॥ अर्थ-(उहावेयंसुयरकायं के०) तेनलो वीर्य पराक्रम बे प्रकारे श्रीजिनेश्वरे कयुंडे (वीरियंतिपवुचई के०) तेवीर्य प्रकर्षे करी कहिएबयें (किंतुवोरस्सवीर के०) तु एवा वि तर्के करी वीर नामा सुनटर्नु के वीर पणुं अने केवीरीते ए वीर केवाय तथा (क Page #382 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५२ तिीये सूत्रकृतांगे प्रथम श्रुतस्कंधे अष्टमाध्ययनं. हंचेयंपवुच्चई के ) केवीरीते ए प्रकर्षे करी वीर्य कहे. ॥ १ ॥ (कम्ममेगेपवेदेतिके ) एकतो अष्ट प्रकारे कर्म क्रिया अनुष्ठानरूप वीर्य कहेले (यकम्मवावि के० ) अथवा अकर्म एटले जीवनुं सहेज स्वरूप तेने पण एक वीर्य कहेले एम बे प्रकारे वीर्य कहे (सुवयाके०) अहोसुव्रतो ( एतेहिंदोहिनाणेहिं के ) एज बे स्थानके करी बल वीर्यना नेद जाणो एटले एक सकर्मक अने बीजो अकर्मकना नेदे करी बे प्रकारनो वीर्य जा वो (जेहिंदीसंतिमच्चिया के० ) जेने विषे व्यवस्थित सर्व मनुष्यो देखायले. ॥ २ ॥ ॥ दीपिका-अथाष्टमं । पूर्व कुशीलसुशीलावुक्तौ तौच वीर्यतः स्यातामिति वीर्यमत्रो च्यते । (उहेति ) विधा दिप्रकारकमेतीर्य सुष्याख्यातं तीर्थकदादिनिः । इदं वीर्य दिनेदं प्रोच्यतइति । वीर्य जीवस्य शक्ति विशेषः। तत्र किंनु वीरस्य सुनटस्य वीरत्वं केन वा हेतुनाऽसौवीरश्त्युच्यते। तुशब्दोवितर्के ॥ १ ॥ किंतवीर्य किंवा वीरत्व मित्याह । (क म्मेति ) कर्म किया अनुष्ठानमित्येव वीर्य मिति प्रवेदयंति ॥ अथवाऽष्टप्रकारं कर्म कारणे कार्योपचारात् तदेव वीर्य मित्युच्यते। तथाहि । नावनिष्पन्नं कर्म नदयिकनावोपि कर्मोद यनिष्पन्नइति बालवीर्य १ वितीयजेदस्त्वयं।कर्मरहितोऽकर्मा वीर्यातरायदयजनितं जीव स्य सहज वाय। चशब्दाचारित्रमोहनीयोपशमदयोपशमजनितं हेसुव्रताएवंनतं पंडितवीय जानीत हान्यां धान्यां स्थानान्यां बालपंडितवीर्यान्यां व्यवस्थितं वीर्य मित्युच्यते।येन्यो ययोर्वा व्यवस्थितामांमनुष्याअपदिश्यते । तथाहि । अनेककार्येषूद्यमवंतं नरं वृक्षा वीर्यवानयमित्युच्यते तथा वीर्यातरायदयादनंतबलयुक्तोयं मर्त्य इत्यपदिश्यते ॥ २ ॥ __टीका-नुक्तं सप्तममध्ययनं सांप्रतमष्टममारन्यते ॥ अस्य चाऽयमनिसंबंधः । इहा नंतराध्ययने कुशीलास्तत्प्रतिपदन्ताः श्रीसुशीलाः प्रतिपादिताः।तेषांच कुशीलत्वं च संय, मवीर्यातरायोदयात्तत्दयोपशमाच नवतीत्यतोवीर्यप्रतिपादनायेदमुपदिश्यते तदने न संबंधेनाऽऽयातस्याऽस्याऽध्ययनस्य चत्वार्यनुयोग द्वाराणि उपक्रमादीनि वक्तव्यानि । तत्राऽप्युपक्रमांतर्गतोऽर्थाधिकारोऽयं ॥ (बालबालपंडितपंडितवीर्यजेदात्रिविधमपि वीर्य परिझाय पंडितवीर्ये यतितव्यमिति । नामनिष्पन्ने तु निदेपे वीर्याध्ययनवीर्य निदेपाय नियुक्तिकदाह । (विरिएबकंदवे, सचित्ताचित्तमीसगंचेव ॥ उपयचनप्पययपयं, एयंति विहंतिसञ्चित्तं ॥ १ ॥) (विरिएबक्कमित्यादि) वीर्ये नामस्थापनाव्यक्षेत्रकालनावनेदा त् षोढा निदेपः । तत्राऽपि नामस्थापने हुए व्यवीर्य विधा ।बागमतो नोयागमतश्च । आगमतोज्ञाता तत्र वाऽनुपयुक्तः । नोबागमतस्तु इशरीरजव्यशरीरव्यतिरिक्तसचित्ताचित्त मिश्रनेदात्रिधा वीर्य सचित्तमपि विपदचतुष्पापदनेदात् त्रिविधमेव । तत्र विपदानां अर्ह Page #383 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राय धनपतसिंघ बादाउरका जैनागम संग्रह नाग उसरा. ३५३ चक्रवर्तिबलदेववासुदेवादीनां यहार्य स्त्रीरत्नस्य वा यस्यवा यदीर्य तदिह इव्यवीर्यत्वेन ग्राह्यं । तथा चतुष्पदानामश्वहस्तिरत्नादीनां सिंहव्याघ्रशरनादीनां वा परस्य योढव्ये धावने वा वीर्य तदिति । तथाऽपदानां गोशीर्षचंदनप्रनृतीनां शीतोमकालयोरुमशीतवीर्य परिणामइति । अचित्तवीर्यप्रतिपादनायाह ॥ अचित्तं पुणविरयं, आहारावरणपहरणा दीसु ॥ जहनसहीणनणियं, विरियं रसवीरियविवागो ॥ २ ॥ (अचित्तंपुणेत्यादि) अ चित्तव्यवीर्य त्वाऽऽहारावरणप्रहरणेषु यदीर्य तउच्यते। तत्राऽऽहारवीर्य सद्यः प्राणकरा हृद्याघृतपूर्णाः कफापहाइत्यादि । उषधीनां च शल्योधरणसंरोहण विषापहारमेधाक रणादिकं रसवीर्य विपाकवीर्य च । तउक्तं । चिकित्साशास्त्रादौ तदिह ग्राह्यमिति । तथा योनिप्रान्तकान्नानाविध व्यवीर्य इष्टव्यमिति । तथा।आवरणेकववादी, चक्कादीयंचपहर ऐहोंति ॥ वित्तं मि मि खेत्ते,काले जंजमि कालंमि । तथा(बावरणेइत्यादि) श्रावरणे कव चादीनां प्रहरणे चक्रादीनां यन्नवति वीर्य तमुच्यतइति । अधुना क्षेत्रकालवीर्य गाथापश्चा र्धन दर्शयति । क्षेत्रवीर्यतु देवकुर्वादिकं देवमाश्रित्य सर्वाण्यपिव्याणितदंतर्गतान्युत्कृष्ट वीर्यवंति नवंति। या उर्गादिकं क्षेत्रमाश्रित्य कस्यचिकीर्योलासोनवति । यस्मिन्वा देने वीर्य व्याख्यायते तत्त्रवीर्य मिति । एवं कालवीर्यमप्येकांतसुखमादावाऽऽयोज्य मिति । तथाचोक्तं । वर्षासु लवणममृतं, शरदिजलं गोपयश्चहेमंते ॥ शिशिरे चामलक रसो, घृतंवसंते गुडश्चांऽते ॥१॥ तद्यथा। ग्रीष्मे तुल्यगुडां सुसेंधवयुतां मेघावनदंबरे, तुल्यां शर्करया शरद्यमलया गुंग्या तुषारागमे । पिप्पल्या शिशिरे वसंतसमये दौरेण संयोजि तां, पुंसां प्राप्य हरीतकीमिव गदानश्यंतु ते शत्रवः ॥ १ ॥ नाववीर्यप्रतिपादनायाह । (नावोजीवस्स सवीरियस्स विलयंमि लहिणेगविहा ॥ उरस्सिंदिय अनुप्पिएसु ब दुसोबदुवीहियं (जावोजीवस्सेत्यादि ) सवीर्यस्य वीर्यशक्त्युपेतस्य जीवस्य वीर्य विषये अनेकविधा लब्धिस्तामेव पश्चाईन दर्शयति । तद्यथा । उरसि नवमौरस्यं शा रीरबलमित्यर्थः । तथेंडियबसमाध्यात्मिकं बलं बहुशोबदुविधं इष्टव्यमिति । ए तदेव दर्शयितुमाह । ( मणवकालायाणा पाणुसंनवतहायसंनवे । सोत्तादीणं सदा, दिएविसएसुगहणंच ॥ ४ ॥ ( मणवइत्यादि) अांतरेण व्यापारेण गृहीत्वा पुजलात्मनोयोग्यान् मनस्त्वेन परिणमयति नाषायोग्यान् नाषात्वेन परिणमयति काय योग्यान काययोग्यत्वेन अन्नपानयोग्यान् तनावेनेति । तथा मनोवाकायादीनां त नावपरिणतानां यही सामर्थ्य तद्विविधं । संनवे संभाव्येच ।संनवे तावत्तार्थकताम नुत्तरोपपातिकानांच सुराणामतीव पटूनि मनोव्याणि नवंति । तथाहि । तीर्थकताम नुत्तरोपपातिकसुरमनःपर्यायज्ञानिप्रश्नव्याकरणस्य इव्यमनसैव करणात् । अनुत्तरो पपातिकसुराणांच सर्वव्यापारस्यैव मनसा निष्पादनादिति । संजाव्ये तु योहि यम YU Page #384 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५४ दितीये सूत्रकृतांगे प्रथम श्रुतस्कंधे अष्ठमाध्ययनं. थै पटुमतिना प्रोच्यमानं नशक्नोति सांप्रत परिणमयितुं संभाव्यते त्वेषपरिकर्यमाणः शक्नोत्यमुमर्थ परिणमयितुमिति । वाग्वीर्यमपि विविधं । संनवे संभाव्येच । तत्र संनवे तीर्थकतां योजननिर्झरिणी वाक् सर्वस्वनावानुगताच । तथाऽन्येषामपि दीरमध्वास्त्रवा दिलब्धिमतां वाचः सौनाग्यमिति । तथा। हंसकोकिलादीनां संनवति स्वरमाधुर्य । सं नाव्यतु संनाव्यते श्यामायाः स्त्रियागानमाधुर्य । तथाचोक्तं । श्यामा गायति मधुरं, का ली गायति खरंच रुदंचेत्यादि । तथा संनावयामएनं श्रावकदारकमकृतमुखसंस्कारम प्यरेषु यथावदनिलप्तव्येष्विति । तथा संजावयामः शुकसारिकादीनां वाचोमानुषना षापरिणामः। कायवीर्यमप्यौरस्यं । यद्यस्य बलं तदपि विविधं संनवे संजाव्येच ।यथा चक्र वर्तिबलदेववासुदेवादीनां यहादुबलादिकायबलं । तद्यथा कोटिशिलात्रिष्टष्ठेन वामकरत लेनोक्ता । यदिवा (सोलसरायसहस्साइत्यादिः) यावदपरिमितबलाजिनवरेंइति । संजाव्यतु संनाव्यते तीर्थकरोलोक,मलोके कंकवत् प्रदेप्तुं तथा मेलं दंभव नहीत्वा वसु धां बत्रकवर्तुमिति । तथा संभाव्यते अन्यतरसुराधिपोजबूदीपं वामहस्तेन उत्रव तुमयत्नेनैव मंदिरमिति । तथा संनाव्यते अयं दारकः परिवर्धमानः शिलामेनामुर्तुं ह स्तिनं दमयितुमश्वं वाहयितुमित्यादि । इंडियबलमपि श्रोत्रंडियादिस्व विषयग्रहणसमर्थ पंचधैकै विविध संनवे संनाव्येच । संनवे यथा श्रोत्रस्य हादशयोजनानि विषयः। एवं शे षाणामपि योयस्य विषयइति । संनाव्ये तु यस्य कस्यचिदनुपहतेश्यिस्य श्रांतस्य क्रुदस्य पिपासितस्य परिग्लानस्य वा अर्थग्रहणसमर्थमपि इंडियं सद्यथोक्तदोषोऽपशमे तु सति संभाव्यते विषयग्रहणायेति । सांप्रतमध्यात्मिकं वीर्य दर्शयितुमाह । उऊमधितीधीरत्तं, सोडीरखमायगंजीरं। उवयोगं योगतव, संजमादियहोश्यकुप्पो (उऊमधीत्यादि)। था त्मन्यधीत्यध्यात्म तत्र नवमाध्यात्मिकमांतरशक्तिजनितं सात्विकमित्यर्थः । तचाऽनेक धा । तत्रोद्यमोझानतपोऽनुष्ठानादिपूत्साहः । एतदपि यथा योगं संनवे संभाव्ये च योजनीयमिति । धृतिः संयमे धैर्य चित्तसमाधानमिति । धीरत्वं परीषदोपसर्गाशोन्य ता शौंडीर्य त्यागसंपन्नता षट्रखंडमपि नरतं त्यजतश्चक्रवर्तिनोन मनः कंपते । य दिवाऽऽपद्य विषमता । यदिवा विषमेऽपिकर्तव्ये समुपस्थिते परानियोगमकुर्वन् मयै वैतत्कर्तव्यमित्येवं हर्षायमाणोऽविषमोविधत्तइति । मावीर्यतु परैराश्यमाणोऽपि मनागपि मनसा नदोनमुपयाति नावयति । तच्चेदं । थाक्रुष्टेन मतिमता तत्वार्थगवे षणे मतिः कार्या । यदि सत्यं कः कोपः स्यादनृतं किंतु कोपेन ॥३॥ तथा (अकोसहण मारण धम्मानंसाण बालसुलनाणं ॥ लानं मन्ना धीरो, जदुत्तराणं अनामि ॥१॥) गां जीर्यवीर्य नाम परीपहोपसगैरधृष्यत्वं । यदिवा यन्मनश्चमत्कारकारिण्यपि स्वानुष्ठाने अनौमत्यं । उक्तंच । (वुल्नुबलेजंह, इकणयं रित्तयं कणकणे । नरियाई खुसंती, सुपु - Page #385 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राय धनपतसिंघ बाहापुरका जैनागम संग्रह नाग उसरा. ३५५ रिसविन्नाण नंडाई॥ १ ॥) उपयोगवीर्य साकारानाकारनेदात् विविधं । तत्र साकारोप योगोऽष्टधा ऽनाकारश्चतुर्धा । तेन चोपयुक्तः स्व विषयस्य इव्यक्षेत्रकालनावरूपस्य परिजे दं विधत्तइति । तथा योगवीर्य त्रिविधं । मनोवाकायनेदात् । तत्र मनोवीर्यमकुशलमनो निरोधः कुशलमनसश्च प्रवर्तनं मनसोवा एकत्वीनावः करणं । मनोवीर्येण हि नियंथसंय ताः प्रहपरिणामाअवस्थितपरिणामाश्च नवंतीति । वाग्वीर्येण तु नाषमाणोऽपुनरु तं निरवयं च नाषते । कायवीर्यतु यस्तु समाहितपाणिपादः कूर्मवदवतिष्ठतइति । तपो वीर्य बादशप्रकारं तपोयबलादग्लायन् विधत्तइति । एवं सप्तदश विधेयं संयमे एकत्वाद्यऽध्य वसितस्य यदलात्प्रवृत्तिस्तत्संयमवीर्य । कथमहमतिचारं संयमेन प्राप्नुयामित्यध्यव सायिनः प्रवृत्तिरित्येवमाद्यऽध्यात्मवीर्य मित्यादिच नाववीर्य मिति । वीर्यप्रवादपूर्वेचाऽनंतं वीय प्रतिपादितं । किमिति यतोऽनंतार्थ पूर्व नवति । तत्रच वीयमेव प्रतिपाद्यते । अनंता थता चातागंतव्या। तद्यथा। (सवणईणं जाहोऊवानुया गणणमागयासत्ती । तत्तोबदुय तरागो अबो एगस्स पुवस्स॥१॥ सत्वसमुद्दाजलं जश्पमियं दविज संकलियं। एत्तोबद्ध यतरागो, अबोएगस्स पुश्वस्त ॥॥) तदेवं पूर्वार्थस्याऽनंत्यादीयस्य च तदर्थत्वादनंतता वी यस्येति । सर्वमप्येतदीय विधेति प्रतिपादयितुमाह । (सबंपिय तं तिविहं, पंमियबालवि रियंच । अहवावि होंति विहं, अगारअणगारियंचेव ॥ १ ॥) (सत्वंपियमित्यादि ) सर्व मप्येतनाववीर्य पंडितबालमिश्रनेदात् त्रिविधं । तत्रनागाराणां पंडितवीर्य बालपंडित वीर्य त्वगाराणां गृहस्थानामिति । तत्र यतीनां पंडितवीर्य सादिसपर्यवसितं । सर्वविर ति प्रतिपत्तिकाले सादितासिदावस्थायां तदनावात्सांतं । बालपंमितवीर्य तु देशवि रतिसनावकाले सादि । सर्वविरतिसनावे तनशेवा सपर्यवसानं । बालवीर्य त्वविरतिल मनव्यानामनाद्यपर्यवसितं नव्यानां त्वना दिसपर्यवसितं । सादि सपर्यवसितं तु विरति घ्रशांत् सादिता। पुनर्जघन्यतांतर्मुहूर्ताउत्कृष्टतोऽपाईपुजलपरावर्तात् विरतिसनवात् सांत तेति । साद्यपर्यवसितस्य तृतीयनंगकस्य त्वसंजवएव । यदिवा पंडितवीर्य ससर्व विरतिलद एं। विरतिरपि चारित्रमोहनीयक्ष्यक्ष्योपशमलक्षणात्रिविधैवाऽतोवीर्यमपि त्रिधैव नवति गतोनामनिष्पन्नोनिदेपः । तदनुसूत्रानुगमे स्खलितादिगुणोपेतं सूत्रमुच्चारयितव्यं । त चेदं । ( उहावेदंसुयरकायमित्यादि) ३ विधे प्रकारावास्येति विविधं विप्रकारं। प्रत्य क्षासन्नवाचित्वात् इदमोयदनंतरं प्रकर्षणोच्यते वीर्य तहिनेदं सुष्ठाख्यातं स्वारख्यात तीर्थ करादिनिः।चोवाक्यालंकारे । तत्रेऽरगतिप्रेरणयोः। विशेषेण ईरयति प्रेरयति अनिहितं ये न तीर्य जीवस्य शक्ति विशेषइत्यर्थः। तत्र किंतु वीरस्य सुनटस्य वीरत्वं केनवा कारणे नाऽसौवीरश्त्यनिधीयते । तुशब्दोवितर्कवाची । एतदितर्कयति । किंतवीर्य वीरस्य वा किं तवीरत्वमिति ॥ १ ॥ तत्र नेदबारेण वीर्यस्वरूपमाचरल्यासुराह ॥ (कम्ममेगेइत्यादि) Page #386 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५६ तिीये सूत्रकृतांगे प्रथमश्रुतस्कंधे अष्टमाध्ययनं. कर्म क्रियानुष्ठानमित्येतदेके वीर्य मिति प्रवेदयंति । यदिवा कर्माष्टप्रकारं कारणे कार्यो पचारात् तदेव वीर्य मिति तथा बौदायिकनावनिष्पन्नं कर्मेत्यपदिश्यने । औदयिकोपिच नावः कर्मोदय निष्पन्नएव बालवीर्य । दितीयनेदस्त्वयं । न विद्यते कर्माऽस्येत्यकर्मा । वीर्यातरायत्यजनित जीवस्य सहज वीर्य मित्यर्थः । चशब्दात् चारित्रमोहनीयोपशमज नितंच । हेसुव्रताएवंनूतपंडितवीर्य जानीत यूयं । धान्यामेव मान्यां स्थानान्यां सकर्म काकर्मकापादितं बालपंडितवीर्याच्यां व्यवस्थितं वीर्य मित्युच्यते । यकान्यां ययोर्वा व्य वस्थितामर्येषु नवामाः (दिस्संतति) दृश्यतेऽपदिश्यंतेवा । तथाहि । नानाविधासु क्रियासु प्रवर्तमानमुत्साहबलसंपन्नं मर्त्य दृष्ट्वा वीर्यवानयं मर्त्य इत्येवमपदिश्यते । तथा न दावारककर्मणः क्यादनंतबलयुक्तोऽयं मर्त्यश्त्येवमपदिश्यते दृश्यतेचेति ॥ २ ॥ पमायं कम्ममादंसु अप्पमायं तदावरं॥ तनावादेसवावि, बा लं पंमियमेववा ॥३॥ सबमेगेतु सिकंता, अतिवायाय पा णिणं ॥ एगे मंते अहिऊंति, पाणनूयविडियो ॥ ४ ॥ अर्थ-(पमायकम्ममाहंसु के० ) श्रीतीर्थकर देव प्रमादने कर्म कहेले तेप्रमाद क हे मऊंविसयकसाया निहाविहगाय पंचमेनणियाइत्यादि (अप्पमायंतहावरके ७) तथा अप्रमादने अकर्म कहेडे (तलावादेसवा विबालंपंमियमेववा के) जे प्रमादि थको कर्म करे ते बालवीर्य कहिए थने जे अप्रमादि थको कर्म करे ते पंमितवीर्य कहिए ते बाल अने पंमितवीर्य आवीरीते अनव्यने अनादि अपर्यवसित अने नव्यने घना दि सपर्यवसित अथवा सादि सपर्यवसित जाणवो ॥ ३ ॥ ( सबमेगेतुसिरकंता के) कोइएक शस्त्र एटले खजादि हथीयार धनुष्य विद्यादिक शीखे अथवा शास्त्र एटले ज्योति पादिक शास्त्र तथा निमित्त वैद्यक औषध प्रमुख शोखे शावास्तेशीखेतोके (पाणिणंके०) जीवोने (अतिवायायके ) अतिपात एटले विनाश करवाने अर्थे शीखे (एगेमंतेयहिऊंति के० ) तथा कोइएक हिंसक मंत्रादिक नणीने जे अथर्वणयाग अश्वमेध मनुष्य मेध य जामेध प्रमुख करे ए (पाणके० ) बेंझ्यिादिक त्रस जीव तथा (जूतके०) प्रथिव्यादिक स्थावरजीव तेने (विहेडिणोके०)विविध प्रकारे हणवा निमित्ते पूर्वोक्त मंत्रादि नणे ॥४॥ . ॥ दीपिका-प्रमादमेव कर्म थादुस्तीर्थकतः । कर्महेतुत्वात्प्रमादः कर्मैव । अप्रमादं चा परं कर्म श्रादुः । कोर्थः । प्रमादात्कर्म बध्यते सकर्मणश्च किया बालवीर्य । तथा अप्रमत्त स्य कर्मानावस्तस्यच पंमितवीर्य । तनावदेशतः बालवीर्यस्य पंमितवीर्यस्य नावस्तेनादे शोव्यपदेशस्तत्र बालवीर्यमनव्यानामनाद्यनंतं। नव्यानामनादिसांतं सादिसांतं वा । पंकि Page #387 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राय धनपतसिंघ बादाउरका जैनागम संग्रह नाग उसरा. ३५७ तवीर्यतु सादिसांतमेव ॥३॥ बालवीर्यमाह । शस्त्र प्रहरणं शास्त्रंवा धनुर्वेदायुर्वेदादिकमेके शिदंते प्राणिनामतिपाताय विनाशाय गाति । एके बालवीर्यवंतोमंत्राननिचारकानधी यते । किंजूतान् प्राणिनोदीडियाद्याः। नूतानि एथिव्यादीनि तेषां हेठकान् बाधकान॥४॥ ॥ टोका-इह बालवीय कारणे कार्योपचारात्कमैव वीर्यत्वेनानिहितं । सांप्रतं कारणे कार्योपचारादेव प्रमादं कर्मत्वेनापदिशन्नाह । (पमायमित्यादि)। प्रमाद्यति सदनुष्ठानर हितानवंति प्राणिनोयेन सप्रमादोमद्यादिः । तथाचोक्तं । (मद्यविसयकसाया, णि दाविगहाय पंचमे नणिया। एसपमायपमा, णिदिछो वीयरागेहिं ॥१॥) तमेवंनूतं प्रमादं कर्मादुरुक्तवंतस्तीर्थकरादयोऽप्रमादंच तथा ऽपरकर्मकमादुरिति । एतमुक्तं नव ति । प्रमादापहतस्य कर्म बध्यते सकर्मणश्च यक्रियानुष्टानं तबालवीर्य । तथाऽप्रमत्तस्य कानावोनवति । एवं विधस्य च पंडितवीर्य नवति । एतच बालवीर्य पंमितवीर्य मिति वा प्रमादवतः सकर्मणोबालवीर्यमप्रमत्तस्याऽकर्मणः पंमितवीर्य मित्येवमायोज्यं । (त नावादेसवापीति) तस्य बालवीर्यस्य कर्मणश्च पंमितवीर्यस्य वा नावः सत्ता सतनाव स्तेनाऽऽदेशोव्यपदेशस्ततस्तद्यथा बालवीर्यमनव्यानामनादि अपर्यवसित नव्यानामनादि सपर्यवसितं वा सादिसपर्यवसितं चेति । पंमितवीर्य तु सादिसपर्यवसितमेवेति ॥ ३ ॥ तत्र प्रमादापहृतस्य सकर्मणोयबालवीर्य तदर्शयितुमाह । ( सबमेगेइत्यादि ) । शस्त्रं ख जादिप्रहरणं शास्त्रंवा धनुर्वेदायुर्वेदादिकं प्राण्युपमईकारि तत् सुष्टु सातगौरवगृक्षाएके केचन शिदंते उद्यमेन गृएहति । तच्च शिक्षितं सत् प्राणिनां जंतूनां विनाशाय नवति। तथाहि । तत्रापदिश्यते एवंविधमालीढप्रत्यालीढादिनिर्जीवव्यापादयितव्ये स्थान वि धेयं । तऽकं । मुष्टिना बादयेनदयं, मुष्टौ दृष्टिं निवेशयेत् । हतं लक्ष्यं विजानीयायदि मूर्धा न कंपते । १ । (तथा ) एवं लावकरसः दयिणे देयोऽनयारिष्टाख्योमद्यविशेषश्चे ति । तथैवं चौरादेः शूलारोपणादिकोदंडोविधेयः । तथा चाणिक्यानिप्रायेण परोवंच यितव्योऽर्थोपादानार्थ तथा कामशास्त्रादिकं चोद्यमेनाऽगुनाध्यवसायिनोधीयते । तदेवं शस्त्रस्य धनुर्वेदादेः शास्त्रस्य वा यदन्यसनं तत्सर्व बालवीर्य । किंचैके केचन पापोदयान मं त्राननिचारकानाऽऽथर्वणानश्वमेधपुरुषमेधादिकं विधीयते । किंनूतानिति दर्शयति । प्रा पाडियादयोन्तानि एथिव्यादीनि तेषां विविधमनेकप्रकारं हेवकान् बाधान संस्था नीयान् मंत्रान् पतीति । तथाचोक्तं । षट्शतानि नियुज्यंते, पशूनां मध्यमेऽहनि । थ श्वमेधस्य वचनान्यूनानि पशुनिस्त्रिनिरित्यादि ॥४॥ Page #388 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५७ वितीये सूत्रकृतांगे प्रथम श्रुतस्कंधे अष्ठमाध्ययनं. माइणो कटु मायाय,कामनोगे समारने॥ दंता नेत्ता पगप्नित्ता आयसायाणुगामिणो ॥५॥ मणसा वयसाचेव, कायसा चेव . . अंतसो ॥ आर पर वावि, उहाविय असंजया ॥६॥ अर्थ-(माइणोकगुमायायके०) कोइएक मायावि पुरुष माया केलवीने (कामनोगेसमार नेके०) शब्दादिक विषय रूप कामनोगनो समारंन करे एटले पोताना चित्तने विषे धाशक्त बता काम सेवना करे एवा ते (आयसायाणुगामिणोके०) पोतानाथात्म सुखना अर्थि वि षय गृ६ बता (हंताबेत्ता पगप्नित्ता के०) जीवना हणनार तथा अंगोपांगना बेदनार तथा पेटना कापनार थाय ॥ ५ ॥ (मणसावयसाचेव के० ) मने करी वचने करी चेव पदपूर्णार्थ बने ( कायसा के० ) कायायें करी (अंतसोके०) बाशक्त बता तंऽ ल मनी पेरे कर्म बांधता तथा(आरके) भारत बालोकने विषे (परउवाविके) अ थवा परलोकने विषे पण (उहाविय के) ए बन्ने लोकने विषे कृत्य कारीत पणे करी ते जीव घातना करनार पुरुष निश्चे थकी (असंजया के० ) असंयति जाणवा. ॥ ६॥ ॥ दीपिका-मायाविनोमायां परवंचनानि कृत्वा कामनोगान समारनंते सेवंते । तदे वमात्मना सातानुगामिनः स्वसुखलिप्सवः प्राणिनां हंतारः स्युः । तथा उत्तारः कर्णना सादेः प्रकर्तयितारः पृष्ठोदरादेः ॥ ५॥ मनसा वाचा कायेन अंतशः कायेनाशक्तोपि तं उलमत्स्यवन्मनसैव कर्म बधाति तथा आरतः परतश्चेति इह लोकपरलोकयोकिंधापिक तकारितान्यां च संयताजीवोपघातकारिणः ॥ ६ ॥ ॥ टीका-(अधुना सबमित्येतत्सूत्रपदं सूत्रस्पर्शिकया नियुक्तिकारः स्पष्टयितुमा , ह। समसिमादीयं, विजामंतेयदेवकयं । पत्रीवकरुणयग्गेय, वायुतहमीसगंचेव।)(स बमित्यादि ) शस्त्र प्रहरणं तच्चाऽसिः खड़ादिस्तदादिकं तथा विद्याधिष्ठितं मंत्राधिष्ठितं तदे व कर्मकृतं दिव्य क्रिया निष्पादितं। तच्च पंचविधं । तद्यथा । पार्थिवं वारुणमाग्नेयं वा यव्यं तथैव च्यादिमिश्रं चेति । किंचाऽन्यत् । माइणोइत्यादिसूत्रं । माया परवंचनादिका बुद्धिः सा विद्यते येषांते मायाविनस्तएवंनूतामायाः परवंचनानि कत्वा एकग्रहणे त जातीयग्रहणादेव क्रोधिनोमानिनोलोनिनः संतः कामान् श्वारूपान् तथा नोगांश्च शदादिविषयरूपान् समारनंते सेवंते । पाठांतरंवा (आरंजायेतिवदृ३) त्रिनिर्मनोवा कायैरारंनार्थ वर्तते । बहून् जीवान् व्यापादयन बनन अपध्वंसयन् याज्ञापयन नो गार्थी वित्तोपार्जनार्थ प्रवर्ततश्त्यर्थः। तदेवमात्मसातानुगामिन. स्वसुखलिप्सवोःख विषोविषयेषु गृक्षाः कपायकलुषितांतरात्मानः संतएवंनूतानवंति । तद्यथा । हंता Page #389 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राय धनपतसिंघ बाहाउरका जैनागम संग्रह भाग उसरा. ३५ए रः प्राणिव्यापादयितारस्तथालेत्तारः कर्णनासिकादेस्तथा प्रकर्तयितारः पृष्ठोदरादेरिति ॥ ५ ॥ तदेतत्कथमित्याह (मसाइत्यादि) अधुना सबमित्येतत्सूत्रपदं तदेतत्प्रास्यु पमर्दनं मनसा वाचा कायेन कृतकारितानुमतिनिश्चांतशः कायेनाऽशक्तोऽपि तंउत्तम त्स्यवन्मनसैव पापानुष्ठानानुमत्या कर्म बनातीति । तथाऽऽरतः परतश्चेति लौकिकी वायु क्तिरिति । एवं पर्यालोच्यमानाऐहिकामुष्मिकयोर्दिधापि स्वयंकरणेन परकरणोनवा संयता जीवोपघातकारिणश्त्यर्थः ॥ ६ ॥ वेराई कुबई वेरी, तम वेरेहिं रज्जत॥पावोवगाय आरंना, पुरक फासाय अंतसो॥॥ संपराश्य णियबंति,अत्तक्कडकारिणो॥ रागदोसस्सिया बाला, पावं कुवंति ते बद ॥७॥ अर्थ-(वेराइंकुव्वश्वेरीके) जीव घातनो करनार पुरुष ते विरोधरूप वैर ने अनेक जीवो नी साथे करे (तन्वेरे हिरकतीके०) तथा ते वैरे करी परलोके पण राचे एटले वैर सा थे संबंध करे (पावोवगायधारंजाके०) पापना समीप गामी एवा सावद्यानुष्ठानरूप पारं जना करनार ते (पुरकफासायअंतसो के० ) अंत काले विपाकावसरे असातावेदनीय ना उदय थकी फुःखनो स्पर्श पामे. ॥ ७ ॥ ( संपरायणियचंति के०) साते कर्म बां धवाना बे प्रकार कह्याले एक श्योपथिकिक्रिया धने बीजी सांपराइकि क्रिया ए बे थकी जीव कर्मनो बंध बांधेळे (अत्तक्कडकारिणो के०) आत्म उष्कतकारी एटले स्वयं पापकारी (रागदोसस्सियाबाला के०) रागदेषाश्रित एटले राग देष व्याकुल बाल एटले अज्ञा नी सदसद् विवेक रहित एवा बता (पावंकुवंतितेबदुके०) ते पुरुषो पोताना यात्माना घात करनार एटले आत्माने सुखना देनारा एवा घणा पाप करे. ॥ ७ ॥ ॥ दीपिका-वैरी सजीवोवैराणि करोति ततोऽपैरवै रैरनुरुध्यते वैरपरंपरानुषंगी स्या दित्यर्थः । यारंनाः पापोपगाः पापयुक्ताअंतशोविपाककालःखदायिनः स्युः ॥ ७ ॥ यात्ममुष्कृतकारिणः स्वपापविधायिनः सांपरायिकं कर्म नियति बनति। ते किंजूताः।रा गषाश्रिताबालाः पापं कुर्वति बढ़नंतं । कर्मविधा। र्यापथं सांपरायिकंच तत्र संपराया बादरकषायास्तेन्यागतं सांपरायिकं जीवघातहेतुत्वेन कषायो कर्म बनंतीत्यर्थः॥ ७॥ ॥ टीका-सांप्रतं जीवोपघातविपाकदर्शनार्थमाह । (वेराइंइत्यादि)। वैरमस्यास्ती ति वैरी सजीवोपमईकारी जन्मशतानुबंधीनि वैराणि करोति । ततोऽपि च वैरादपरैवैरै रनुरुध्यते । वैरपरंपरानुषंगी नवतीत्यर्थः । किमिति । यतः पापं उपसामीप्येन गती ति पापोपगाः ।कएते आरंनाः सावधानरूपाः। अंतशोविपाककाले दुःखं स्टशंतीति दुःख Page #390 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६० दितीये सूत्रकृतांगे प्रथम श्रुतस्कंधे अष्ठमाध्ययनं. स्पर्शासातोदयविपाकिनोनवंतीति ॥ ७ ॥ किंचाऽन्यत्संपराश्य णियवतीत्यादि ) विविधं कर्म र्यापथं सांपरायिकंच । तत्र संपरायाबादरकषायास्तेन्यागतं सांपरायिक तजीवोपमई कत्वेन वैरानुषंगितयाऽऽत्मकुष्कृतकारिणः स्वपापविधायिनः संतोनिय ति बनति । तानेव विशिनष्टि । राग षाश्रिताः कषायकलुषितांतरात्मानः सदसदिवेक विकलत्वात् बालाश्व बालास्ते चैवंनूताः पापमस देयं बव्हनंतं कुर्वति विदधति ॥७॥ एयं सकम्मवीरियं, बालाणं तु पवेदित॥इत्तो अकम्मविरियं,पं । मियाणं सुणेहमे ॥णा दविए बंधणुम्मुक्के, सब बिन्नबंधणे॥प पोल्लपावकं कम्म,सल्लं कंततिअंतसो पागंतरे सल्लंकंतति अप्पणो१० . अर्थ-( एयंसकम्मवीरियं के०) एपूर्वोक्त अनुक्रमे सकर्म वीर्य कह्यो ते कर्म बांधवा नुं कारणले माटे ए (बालाणंतुपवेदितं के०) ए बालनुं वीर्य कयुं (इत्तो के ) ए बालवीर्य कह्यानंतर (अकम्म विरियं के०) अकर्म वीर्य ते (पंमियाणंसुरोहमे के० ) पंमितनु वीर्य जाणवो ते ढुं कटुंडं माटे हे शिष्यो तमे सनिलो ॥णा (दविएके०) मुक्ति गमन योग्य एवो जीव इव्य (बंधणुके०) राग देष रूप जे कषाय तेथकी(मुक्केके०) मुक्त ए टले रहित (सबनचिन्नबंधणे के०) सर्वथा प्रकारे कर्म बंधननो बेद्य करनार एवोलतो (पणोनपावकंकम्मं के) पाप कर्मने दय करी (सनकंततिअंतसो के०) जेने पामीने जीव समस्त सत्य कापे अथवा पाठांतरे (सहलंकंततिअप्पणोके०)पोताना शल्य कापे॥१०॥ ॥ दीपिका-तत् पूर्वोक्तं बालानां सकर्मवीर्य प्रवेदितं । यथा जमदग्निना स्वनार्यायामकार्य प्रवृत्तः कृतवीर्योव्यादितस्तत्पुत्रेण कार्तवीर्येण जमदग्निर्हतः पुनर्जमदग्निपुत्रेण परगु रामेण सप्तवारान् दत्रियाहताः पुनः कृतवीर्यसुतेन सुनूमेन त्रिःसप्तवारान् ब्राह्मणाह ताइति बालानां कर्मवीर्य मिति । इतवमकर्मवीर्य पंडितानां तन्मे मम कथयतः शू णुत यूयं ॥ ए ॥ इव्योनव्योमुक्तियोग्योऽकषायीत्यर्थः। बंधनोन्मुक्तः कर्मर हितः सर्वत खिन्नबंधनः सूक्ष्मबादरकषायमुक्तः प्रणुद्य प्रेर्य पापं कर्म तत्कारणनूतान आश्रवान वा त्यक्त्वा शल्यतुल्यमशेषं कर्म कंतत्यपनयति ॥ १० ॥ ॥ टीका-एवं बालवीर्य प्रदोपसंजिघृकुराह । (एयंसकम्मेत्यादि) । एतत् यत् प्राक् दर्शितं । तद्यथा । प्राणिनामतिपातार्थ शस्त्रं शास्त्रं वा केचन शिदंते । तथा परे विद्यामं त्रान् प्राणिबाधकानधीयते । तथाऽन्येमायाविनोनानाप्रकारां मायां कृत्वा कामनोगार्थ मारंनान् कुर्वते । केचन पुनरपि परे वैरिणस्तत्कुर्वति येन वैरैरनुबध्यते । तथाहि । जमदग्निना स्वनार्याकार्यव्यतिकरे कृतवीर्यो विनाशि तत्पुत्रेणतु कार्तवीर्येण जमदग्निः Page #391 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रायधनपतसिंघ बहाउरका जैनागम संग्रह नाग उसरा. ३६१ जमदग्निसुतेन परशुरामेण सप्तवारान् निःत्रा दृथिवी कृता । पुनः कार्तवीर्यसुतेन तु सु न्मेन त्रिःसप्तकत्वोब्राह्मणाव्यापादिताः। तथाचोक्तं । अपकारसमेन कर्मणा, न नरस्तु ष्टिमुपैति शक्तिमान् । अधिकां कुरुते हि यातना, विषतां जातमशेषमुहरेत् ॥१॥ तदेवं क पायवशगाः प्राणिनस्तत्कुर्वति । येन पुत्रपौत्रादिष्वपि वैरानुबंधोनवति । तदेतत्सकर्मणां बालानां वीर्य । तुशब्दात्प्रमादवतां च प्रकर्षण वेदितं प्रवेदितं प्रतिपादितमिति यावत् । अ तकमकर्मणां पंडितानां यदाये तन्मे मम कथयतः शृणुत यूयमिति॥णा यथाप्रतिज्ञात मेवाह (दविएश्त्यादि) इव्योनव्योमुक्तिगमनयोग्यः। इव्यं च नव्यइति वचनात् । राग देषविरहाना इव्यनूतोऽकषायीत्यर्थः । यदिवा वीतरागइति । वीतरागोऽल्पकषायइत्य र्थः । तथाचोक्तं । किंसकावोयुंजे, सरागधम्ममि कोश्यकसायी । संतेविजोकषाए, निगि एहसोवि तत्तुल्लो ॥१॥ सच किंनूतोनवतीति दर्शयति । बंधनात्कषायात्मकान्मुक्तोबंधनो न्मुक्तः । बंधनं तु कषायाणां कर्मस्थितिहेतुत्वात् । तथाचोक्तं । (बंधहिश्कसायवसा इति) यदिवा बंधनोन्मुक्तश्व बंधनोन्मुक्तः। तथा परः सर्वतः सर्वप्रकारेण सूझबादररूपं बिन्नमपनीतं बंधनं कषायात्मकं येन सबिन्नबंधनः। तथा प्राय प्रेर्य पापं कर्म कारणनू तान्वाऽऽश्रवानपनीय शल्यवबल्यं शेषकं कर्म तत् कंतत्यपनयत्यंतशोनिरवशेषतो विघटयति । पागंतरंवा । (सल्लंकंतश्यप्पणोत्ति ) शव्यनूतं यदष्टप्रकारं कर्म तदात्मनः संबधि कंतति बिनत्तीत्यर्थः ॥ १० ॥ नेयाज्यं सुयरकाय,नुवादाय समीहए।नुज्जोनुज्जो उहावासं, अ सुहत्तं तहातदा ॥११॥गणी विविदगणाणि, चश्स्संति ण संस ॥ अणियंते अयं वासे, पायएदि सुदीदिय ॥१२॥ अर्थ-हवे जे वस्तु पामीने शल्यने बेदे ते देखाडे.(नेयाउयंसुयरकायके )न्याय एटले झान दर्शन चारित्ररूप जे मोद मार्ग श्री तीर्थकर देवनो नाष्यो (नवादायके०) तेने उपा दान एटले ग्रहण करीने (समीहएके०) धर्म ध्यानने विषे उद्यम करे अने (जुजोनुको उहावासंके०) जे बालवीर्यवंतते वली वत्ती अनंतनव ग्रहणने विषे जेम जेम नरकादि क दुःखना यावासोने विषे पर्यटन करे (तहातहा के०) तेम तेम (अमहत्तंके० ) अशुनत्वं एटले कुर्थ्यानपणु प्रवईमान थाय एवो संसारनुं स्वरूप जाणीने पंमित पुरु प धर्मध्यानने विषे प्रवर्ते ॥ ११ ॥ हवे संसारनु अनित्य पणु देखाडेले. (वाणीविविह गणाणि के०) जे जीवना विविध प्रकारना प्रधान स्थानक तद्यथा देवलोकमां इंश तथा सामानिक त्रयस्त्रिंशकादिकना स्थान मनुष्यने विषे चक्रवर्ती वासुदेव बलदेव Page #392 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६२ तिीये सूत्रकृतांगे प्रथम श्रुतस्कंधे अष्टमाध्ययन. तथा मांमलिकादिकना स्थान तिर्यंचने विषे पण क्याएक इष्टनोग नूम्यादिक स्थानडे - ते सर्व स्थानने (चश्स्संति के०) बांदशे (संस के०) एमां संदेहकरवो नहीं तथा (णायएहि के० ) झाति गोत्री (सुहीहिया के०) सुहृद एटले बांधवादिक (अणियंतेवयंवासे के० ) ए सर्वनुं अनित्य अशाश्वत एवो वासले ॥१२॥ ॥ दीपिका-नैय्यायिकं मोदनयनशीलं श्रुताख्यातं धर्ममुपादाय गृहीत्वा समीहते सम्यक् मोदाय ईहते चेष्टते नूयोनूयः पुनः पुनः पुरवावासं बालवीर्यवान् स्यात् यथाय था बालवीर्यवान् स्यात् तथातथाऽगुनत्वं उर्ध्यानं प्रवर्धते ततश्च नरकादिकुःखं ॥११॥ स्थानानि विद्यते येषांते स्थानिनोदेवलोकादिशुनस्थानवर्तिनः स्थानानि त्यदयं ति नात्र संशयोऽशाश्वतत्वादिश्वचकित्वादीनां । यतः । सुचिरतरमुषित्वा बांधवैर्वि प्रयोगः सुचिरमपि हि रत्वा नास्ति नोगेषु तृप्तिः॥ सुचिरमपि हि पुष्टं याति नाशं शरीरं, सुचिरमपि विचिंत्योधर्मएकः सहायः॥ १ ॥ इतिझातकैः स्वजनैः सुहृनिश्च सहवासोय मनियतः कियत्कालस्थायी ननित्यः ॥ १२ ॥ ॥ टीका-यपादाय शल्यमपनयति तदर्शयितुमाद । ( नेयाउयमित्यादि ) नयनशी सोनेता । नयतेस्ताहीलिकस्तृन् । सचाऽत्र सम्यक्दर्शनझानचारित्रात्मकोमोक्षमार्गः श्रु तचारित्ररूपोवा धर्मोमोदनयनशीलवान गृत्यते । मार्ग धर्म वा मोदं प्रति नेतारं सुष्टु तीर्थकरादिनिराख्यातं स्वारख्यातं तमुपादाय गृहीत्वा सम्यक् मोक्षाय चेष्टते ध्यानाध्यय नादावुद्यमं विधत्ते ।धर्मध्यानारोहणालंबनायाह । नूयोनूयः पौनःपुन्येन यद्वालवीर्य त दतीतानागतानंतनवग्रहणेषु सुःखमावासयतीति उःखावासं वर्तते । यथा यथाच बाल : वीर्यवान् नरकादिषु दुःखवासेषु पर्यटति तथातथा वास्याऽशुनाध्यवसायित्वाद श्रुतमेव प्रवर्धते इत्येवं संसारस्वरूपमनुपेक्ष्यमाणस्य धर्मध्यानं प्रवर्ततइति ॥ ११ ॥ सां प्रतमनित्यनावनामधिकृत्याह । (गणीविविहेत्यादि)। स्थानानि विद्यते येषांते स्थानिनः । तद्यथा देवलोके इंइस्तत्समानानि त्रयस्त्रिंशत्पार्षद्यादीनि मनुष्येष्वपि च कवर्तिबलदेववासुदेवमहामंमलिकादीनि । तिर्यदव पि यानि कानिचिदिष्टानि नोगनू म्यादौ स्थानानि तानि सर्वाण्यपि विविधानि नानाप्रकाराण्युत्तमाधममध्यमानि तेषु स्था निनस्त्यदयंति नात्र संशयो विधेयइति । तथाचोक्तं । अशाश्वतानि स्थानानि सर्वाणि दि वि चेह च देवासुरमनुष्याणामृयश्च सुखानिच तथाऽयं झातिनिः सबंधुनिः सार्धं सहान्यै श्व मित्रैः सुहनियः संवासः सोऽनित्योऽशाश्वतइति । तथाचोक्तं । सुचितरमुषित्वा बांध वैर्विप्रयोगः मुचिरमपिहि रत्वा नास्ति नोगेषु तृप्तिः । सुचिरमपि हि पुष्टं याति नाशं शरीरं॥ Page #393 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राय धनपतसिंघ बादाउरका जैनागम संग्रह नाग उसराः ३६३ सुचिरमपि विचिंत्यो धर्मएकः सहायति ॥१॥ चकारौ धनधान्यक्षिपदचतुष्पदशरीराद्यनि त्यत्वनावनार्थी । अशरणाद्यशेषनावनार्थचा ऽनुक्तसमुच्चयार्थमुपात्ताविति ॥१२॥ एवमादाय मेहावी, अप्पणो गिचिमुधरे ॥ आरियं ग्वसंपळे, सवधम्ममकोवियं ॥१३॥ सहसंमइए णच्चा, धम्मसारं सुणे तु वा ॥ समुवहिए। अणगारे पञ्चरकाय पावए ॥१४॥ अर्थ-(एवमादायमेहावीके ० ) एरीते पंमित पुरुपे अवधारीने (यप्पणोगिदिमुझरे के० ) पोतानो ममत्व स्वनाव नझरे एटले स्वजनादिकने विषे ममत्व नकरे (या रियंउवसंपळेके० ) थार्यजे वीतराग प्रणीत मोदमार्गरूप धर्म तेने अादरे तेधर्म केवो दे तोके (सबधम्ममगोवियंके०) सर्व धर्ममांहे प्रधान अगोपित एटले अदूषित प्रगट ॥१३॥ हवे शुक्षधर्म परिझान जेरीते थाय तेरीते कहे. (सहसंमएणचाके० )जाति स्मरणादिके करी तथा पोतानी मतिये करी जाणीने (वाके०) अथवा अन्य गुर्वादिक पाशेथी (धम्मसारंसुणेतुके०) धर्मनो सार जे चारित्र तेने सांजलीने अंगीकार करे (स मुवहिएन्यणगारे के० ) पंमित वीर्य संपन्न एवो साधु संयमने विषे उद्यमवंत थको (पञ्चरकायपावए के० ) पापकर्म जे सावद्यानुष्ठान तेने पञ्चरके एटले निराकरे ॥१॥ ॥ दीपिका-सर्वमनित्यमेवमादाय एवं ज्ञात्वा मेधावी यात्मनोग िममत्वमुरेत् त्यजेत् आर्य मोक्षमार्गमुपसंपाद्येताधितिष्ठेदाश्रयेत् । किंनतं सर्वैः कुतीर्थधर्मेरकोपितोड दूषितश्च ॥१३॥ धर्मसारं धर्मरहस्यं ज्ञात्वा (सहसंमइएइत्यादि)झातेनतीर्थकरा दियोवा श्रुत्वा चारित्रं प्रतिपद्यते । उपस्थितउत्तरोत्तरगुणसंपत्तयेऽज्युद्यतोऽनगारः प्रत्यारण्यात निराकृतं पापं येन सप्रत्याख्यातपापकः स्यात् ॥ १४ ॥ ॥ टीका-थपिच । (एवमादायेत्यादि) अनित्यानि सर्वाम्यपि स्थानानीत्येवमा दायावधार्य मेधावी मर्यादाव्यवस्थितः सदसदिवेकी वा आत्मनः संबंधिनी गरि गार्थ ममत्वमुहरेदपनयेन्ममेदमहमस्य स्वामीत्येवं ममत्वं क्वचिदपि न कुर्यात् । तथा । अाराजातः सर्वहेयधर्मेन्यश्त्यार्योमोदमार्गस्तमुपसंपद्येताऽधितिष्ठेत् समाश्रये दिति । किंनूतं मार्गमित्याह । सर्वैः कुतीर्थकधर्मेरकोपितोऽदूषितः स्वमहिम्नैव दूष यितुमशक्यत्वात् प्रतिष्ठां गतः। यदिवा सर्वैर्धमः स्वनावैरनुष्ठानरूपैरगोपितं कुत्सित कर्तव्यानावात् प्रकटमित्यर्थः ॥ १३ ॥ सुधर्मपरिझानंच यथा नवति तदर्शयितुमा ह । (सहसंमइएश्त्यादि ) धर्मस्यसारः परमार्थोधर्मसारस्तं ज्ञात्वाऽवबु-क्ष्य । कथमिति दर्श Page #394 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६४ वितीये सूत्रकृतांगे प्रथम श्रुतस्कंधे अष्टमाध्ययनं. यति । सहसम्मत्या स्वमत्यावा विशिष्टानिनिबोधिकझानेन श्रुतज्ञानेनावधिज्ञानेन वा स्वप रावबोधकत्वात् ज्ञानस्य तेन सह धर्मस्य सारं ज्ञात्वेत्यर्थः । अन्येन्योवा तीर्थकरगण धराचार्यादिन्यश्लापुत्रवत् श्रुत्वा चिलातपुत्रवधा धर्मसारमुपगबति । धर्मस्य वा सारं चारित्रं तत्प्रतिपद्यते तत्प्रतिपत्तीच पूर्वोपात्तकर्मक्ष्यार्थ पंडितवीर्यसंपन्नोरागादिबंधन विमुक्तोबालवीर्यरहितउत्तरोत्तरगुणसंपत्तये समुपस्थितोऽनगारः प्रवर्धमानपरिणामः प्र त्याख्यातं निराकृतं पापकं सावद्यानुष्ठानरूपं येनाऽसौ प्रत्याख्यातपापकोनवतीति ॥१४॥ जं किंचुवकम जाणे, आनुरकेमस्स अप्पणो ॥ तस्सेव अंतरा खिप्प, सिकं सिकेऊ पंमिए ॥२५॥ जहा कुम्मे सअंगाई, स ए देदे समाहरे॥ एवं पावाई मेधावी, असप्पेण समाहरे ॥१६॥ अर्थ-(जंकिंच के० ) जे कोई प्रकारे करी (अप्पणो के० ) पोतानो ( बाउरकेम स्सके०) खेमे कुशले करी यायुष्यनो ( नवकमंजारोके०) उपक्रम एटले विनाश जाणे अर्थात् पोतानुं मरण जाणे (तस्सेवअंतराखिप्पंके०) तेना अंतराले एटले विचाले दिन एटले उतावलो (सिरकंसिरकेऊपंमिएके०) ते पंमित संलेषणारूप शिक्षा शीखे अने ते शि हाने मरणावधि सुधि अंगीकार करे ॥१५॥ (जहाके०) जेम (कुम्मेसअंगाईके०) कांचबो पोताना अंग तथा हाथ मस्तकादिक उपांगने (सएदेहेसमाहरे के०) पोताना देहने विषे गोपवे ( एवं के० ) एरीते ( मेधावी के०) पंमितजे ते पण (पावाई के०) पापजे सावद्यानुष्ठान रूप तेने (अलप्पण के०) अध्यात्म एटले सम्यक् दर्शन झा नादिक नावनायें करी (समाहरे के ) उपसंहरे एटले भरण काल सुधी संलेष एगायें करी पापकर्मने निकीरे ॥ १६ ॥ ॥ दीपिका-आयुःदेमस्य स्वायुषनपक्रम क्यं जानीयात् ज्ञात्वा च तस्योपक्रमस्य कालस्य वा अंतराले प्रिमेव अनाकुलः पंमितः संलेखनारूपां शिदां जक्तपरिवेंगितमर णादिकां वा शिदेत् ॥१५॥ यथा कूर्मः स्वान्यंगानि स्वके देहे समाहरेजोपायेत् एवं मेधावी पंडितः पापानि पापानुष्ठानान्यध्यात्मना सम्यक् झानादिनावनया समाहरेउपसंहरेत्॥१६ ॥ टीका-किंचान्यत् (जंकिंचुवक्कममित्यादि ) उपक्रम्यते संवय॑ते यमुपनीयते थायुर्येन सनपक्रमस्त यं कंचन जानीयात् । कस्यायुःदेमस्य स्वायुषइति । इदमुक्तं नव ति । स्वायुष्कस्य येन केनचित्प्रकारेणोपक्रमोनावी यस्मिन्वा काले तत्परिझाय तस्योपक मस्य कालस्यवा अंतराने प्रिमेवाऽनाकुलोजी वितानाशंसी पंमितोविवेकी संलेखना Page #395 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राय धनपतसिंघ बादाउरका जैनागम संग्रह नाग उसरा. ३६५ नुरूपां शिदा नक्तपरिवेंगितमरणादिकां वा शिदेत् । तत्र ग्रहण शिक्ष्या यथावन्मरण विधि विज्ञायाऽऽसेवनाशिदया सेवेतेति ॥१५॥ किंचान्यत् । (जहाकुम्मेइत्यादि)। यथेत्यु दाहरणप्रदर्शनार्थः । यथा कूर्मः कन्बपः स्वान्यंगानि शिरोधरादीनि स्वके देहे समाहरेजोप येदव्यापाराणि कुर्यादेवमनयैव प्रक्रियया मेधावी मर्यादावान् सदसदिवेककीवा पापानि पापरूपाण्यनुष्ठानान्यध्यात्मना सम्यक् धर्मज्ञानादिनावनया समाहरेउपसंहरेन्मरणकाले चोपस्थिते सम्यक्संलेखनया संलिखितकायः पंमितमरणेनाऽऽत्मानं समाहरेदिति ॥१६॥ सादरे दबपाएय, मणं पंचेंदियाणिय ॥ पावकं च परीणाम, नासा दोसंच तारिसं॥१७॥ अणुमाणंच मायंच,तं पडिन्नाय पंमिए॥ (पागं तरं अश्माणं च माइंच तं परिमाय पंडिए) वितीय पागंतरं (सुयंमे इदमेगसिं, एयं वीरस्स वीरियं (तृतीय पागंतरं । आयतहं समादा य एयं वीरस्स वीरियं)॥ सातागारवणिदुए, वसंते णिदेचरे॥२०॥ अर्थ-(साहरे दबपाएयके०) काचबानी पेरे हाथ पग अंगोपांगादिकने गोपवीराखे (मणंपंचेदियाणियके) तथा मनना अकुशल व्यापार तथा श्रोत्रादिक सर्व इंद्विना विषय थकी निवर्ने तथा (पावकंचपरीणामंके०) मननो पाप मय परिणाम एटले मागे यनिप्राय (नासादोसंचतारिसंके) ज्यारे कांप्रयोजन पडे त्यारे तेवोजजे पापरूप नाषानो दोष तेने पण संवरे॥१७॥ तथा कोइ पूजा सत्कार करें तेवारे मान टाल ते याश्री कहेले. (अणुमाणंच मायंचके०) अल्पमान अल्पमाया अने चकारथकी अनुक्रमे क्रोध तथा लोन पण लेवो (तंपडिन्नाय पंमिए के० तेने जाणीने पंमित विवेकी जन होयते अंहीं पा गंतरे अश्माणमिति अत्यंतमान अत्यंतमाया तेमज अत्यंत क्रोध अने लोन एनो सर्वथा प्रकारे त्याग करे एम पण कयुं बीजुं पाठांतर (सुर्यमे हमेगेसिं के०) एरीते में गु रुनी पाशेथी सम्यक् प्रकारे सांजल्युं के (एयंवीरस्स वीरियं के०) ए क्रोधादिकना जय थी वीर पुरुषतुं वीर्य पराकम जाणवू पण जे संग्राममां शत्रुने द गते परमार्थे वीर गुनट नकहेवाय ती पाठांतर (यायतछंके०) मोदनो अर्थि यात्मतिष्ट एवो साधु (स मादायके ) ते चारित्रने रुडीरीते ग्रहण करीने पडीक्रोधादिकने जीतवानो नद्यम करे (एयंवोरस्सीरियंके० ) ए प्रकारे वीर पुरुषर्नु वीर्य जाणवो तथा (सातागारवणिहुए के ) सातागारवने विषे निन्त एटले अनुयुक्त अर्थात् साता गारवे करी रहित तथा (नवसंतेणिहेचरे के०) नपशांत एटले कषायना जीतवा थकी कमावान् तथा माया रहित बतो संयमानुष्टान आचरे ए गुरू मार्गनो नाव जाणवो ॥ १७ ॥ Page #396 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६६ हितीये सूत्रकृतांगे प्रथम श्रुतस्कंधे अष्ठमाध्ययनं. ॥ दीपिका-अनशने शेषकाले वा हस्तौ पादौच संहरे झ्यापारान्निवर्तयेत्। तथा मन श्चित्तं पंचेंड्रियाणि च विषयेन्योनिवर्तयेत् पापकमशुनं परिणामं नाषादोषं च सावयां नाषां संहरेत्॥१७॥ आयतार्थ मोदं सुष्ठ आदाय गृहीत्वा कामक्रोधादिकं जयेत् एत कीरस्य वीरत्वं तथा सातगौरवं सुखशीलता तत्र निनृतोऽनुद्यमनपशांतः दमावान् नविद्यते निहा माया यस्यासावनिहोमायाप्रपंचर हितश्चरेत्संयमे ॥ १७ ॥ ॥ टीका-संहरणप्रकारमाह (साहरेत्यादि ) पादपोपगमने इंगितमरणे नक्तपरिझा यां शेषकाले वा कूर्मव-इस्तौ पादौ च संहरेश्यापारान्निवर्तयेत् । तथा मनोऽतःकरणं तचाऽकुशलव्यापारेच्योनिवर्तयेत् । तथा शब्दादि विषयेन्योऽनुकूलप्रतिकूलेयोऽरक्तदि टतया श्रोत्रंडियादीनि पंचाऽपीडियाणि । चशब्दः समुच्चये । तथा पापकं परिणाममैहि कामुष्मिकारांसारूपं संहरेदित्येवं नाषादोषंच तादृशपापरूपं संहरेत् मनोवाकाय गुप्तः सन् फुर्लनं संयममवाप्य पंतिमरणं वाऽशेषकर्मदयार्थ सम्यगनुपालयेदिति । तंच संयमे पराक्रममाणं कश्चित् पूजासत्कारादिना निमंत्रयेत् । तत्राऽऽत्मोत्कर्षोन का यति दर्शयितुमाह ॥ १७ ॥ (अणुमाएं चेत्यादि) चक्रवर्त्यादिना सत्कारादिना पूज्य मानेनाऽपुरपि स्तोकोऽपि मानोऽहंकारोन विधेयः किमुत महान् । यदि वोत्तममरणो पस्थितेनोग्रतपोनिष्टप्तदेहेन वा अहोऽहमित्येवंरूपस्तोकोऽपि गर्वोन विधेयः । तथा पंमुरार्ययेव स्तोकाऽपि माया न विधेया किमुत महतीत्येवं क्रोधलोनावापि न विधेयावि ति । एवं विविधयापि परिझया कषायांस्तदिपाकांश्च परिझाय तेन्योनिवृत्ति कुर्यादिति । पाठांतरंवा। अश्माणंचमाइंच तंपरिमायपंमिए। अतीव मानोतिमानःसुनूमादीनामिव तं फुःखावहमित्येवं ज्ञात्वा परिहरेत्। इदमुक्तं नवति। यद्यपि सरागस्य कदाचिन्मानोदयः स्या तथाप्युदयप्राप्तस्य विफलीकरणं कुर्यादित्येवं मायायामप्यायोज्यं । पाठांतरंवा । ( सुयं मे इहमेगेसिं, एयं वीरस्स वीरियं ।) येन बलेन संग्रामशिरसि महति सुनटे परानीकं वि जयते तत्परमार्थतोवीर्य ननवत्यपितु येन कामक्रोधादीन् विजयते तदारस्य म हापुरुषस्य वीर्य मिदैवाऽस्मिन्नेव संसारे मनुष्यजन्मनि चैकेषां तीर्थकरादीनां संबंधि वाक्यं मया श्रुतं वा । पागंतरंवा। (आयत समादाय, एवं वीरस्स वीरियं) या यतोमोदोऽपर्य सितावस्थानत्वात् । सचाऽसावर्थश्च तदर्थोवा तत्प्रयोजनोवा सम्यक् दर्शनशानचारित्रमार्गः सथायतार्थस्तं दृष्ट्वाऽऽदाय गृहीत्वा योधृतिबलेनकामक्रोधादि विजयाय च पराक्रमते । एतचीरस्य वीर्य मिति यमुक्तमासीत् किंतु वीरस्य वीरत्वमिति तद्यथानवति तत्तथाख्यातं । किंचाऽन्यत् सातगौरवं नाम सुखशीलता तत्र निन्त स्तदर्थमनुयुक्तइत्यर्थः । तथा क्रोधाग्निजयाउपशांतः शीतीनूतः शब्दादिविषयेन्यो Page #397 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रायधनपतसिंघ बादाडुरका जैनागम संग्रह नाग डुसरा. ३६७ ऽप्यनुकूल प्रतिकूलेच्योऽरक्तविष्टतयोपशांतो जितेंयित्वात्तेच्यो निवृत्तइति । तथा निहन्यं ते प्राणिनः संसारे यया सा निहा माया नविद्यते सा यस्याऽसावनिहोमायाप्रपंच रहितइत्यर्थः । तथा मानरहितोजोन वर्जितइत्यपि इष्टव्यं । सचैवंभूतः संयमानुष्ठानं चरेत् कुर्यादिति । तदेवं मरणकालेऽन्यदा वा पंडितोवीर्यवान् महाव्रतेषूद्यतः स्यात् । तत्राऽपि प्राणातिपात विरतिरेव गरीयसीति कृत्वा तत्प्रतिपादनार्थमाह । (हे तिरियंवा जेपाणा तस्थावरा ॥ सबब विरतिं कुका, संति निवासमा हियं ॥ १ ॥ ) यंच लोकोन सूत्रादषु दृष्टष्टीकायांतु दृष्टइति कृत्वा लिखित उत्तानार्थश्चेति ॥ १८ ॥ पाणेय लाइवाजा, दिन्नं पियपाद ए ॥ सादियं एा मुसं बूया एस धम्मे बुसीमं ॥ १९ ॥ प्रतिक्कम्मति वायाए, मासा विन पच ॥ सवन संवुमे दंते, प्रायासु समादरे ॥ २० ॥ अर्थ - ( पाय लाइवाएका के० ) प्राणीउना प्राणने हणे नही ( दिन्नं पियला द के ० ) तथा दंत शोधनमात्र पण प्रदत्त लीए नही ( सादियंणमुसंवूया के० ) मा या सहित मृषावाद न बोले केम के परवंचना निमित्त जे मृषा बोलाय ते ते मायावि ना बोला नथी किंतु माया सहितज बोलायडे ते माटे मृषानी यादि ते मायाज जावी तेवी मायाने परिहरे त्यागे (एसधम्मेबुसीम के ० ) संयमवंतनो तथा जी तेंयि साधुनो एहि धर्म सत्य जाणवो ॥ १९ ॥ ( प्रतिक्क मंतिवायाए के० ) महा तनुं अतिक्रम एटले उलंघन करवानी वचने करी ( मासाविनपबए के० ) तथा मने करी पण प्रार्थना करे नही ए बन्नेना निषेधवा थकी चीजो कायानो अतिक्रम दूर कीज निषेध्यो एम पोतानी मेलेज जाणी जेवो (सङ्घसंबुदते के ० ) सर्व थकी करण कराव तथा अनुमतियें करी बाह्याभ्यंतर जेदेकरी संवृत गुप्तेंदिय एवो बतो ( खायाणं सुसमाहरे के ० ) खादान एटले सम्यक् दर्शनादिकनुं ग्रहण करे तथा सुष्टुत्रा हार ग्रहण करे एम ग्रहण करेली चारित्रने सम्यक् प्रकारे युद्ध क्रियासहित पाले ॥ २० ॥ || दीपिका - प्राणिनां प्राणान् नातिपातयेत् परेणाऽदत्तं किंचिन्नाददीत नगृहीयात् सहयादिना मायया वर्तते इति सादिकं समायं मृषावादं न ब्रूयात् । परवंचनार्थ मृषावा दोऽधिक्रियते च न मायामंतरेण स्यात्ततोमृषावादस्य माया आदिनूता । कोर्थः । योहि परवचनार्थ समायोमृषावादः सत्यज्यते । यस्तु संयमगुत्यर्थं नमया मृगादृष्टा इत्यादि कः स न दोषाय (एसधम्मोबुसीमनत्ति ) वस्तुमतः वस्तूनि ज्ञानादीनि विद्यते यस्य स वस्तुमान साधुस्तस्य अथवा वश्यस्य वशीकृतेंड्रियस्येत्यर्थः ॥ १९ ॥ व्यतिक्रमं महाव्र For Private Personal Use Only Page #398 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६७ वितीये सूत्रकृतांगे प्रथम श्रुतस्कंधे अष्टमाध्ययनं. तातिचारइत्येवंनूतं वा मनसापि न प्रार्थयेत् । कायेनापि सर्वतः सबाह्यान्यंतरतः संत तोगुप्तोदांतइंडियदमेन आदानं सम्यक्दर्शनादिकं सुष्टु थाहारं गृहीयात् ॥ २० ॥ ॥ टीका-किंच (पाणेश्त्यादि ) प्राणप्रियाणां प्राणिनां प्राणान्नातिपातयेत् । तथा परेणाऽदत्तं दंतशोधनमात्रमपि नाददीत नगृहीयात् । तथा । सहादिना मायया वर्त तइति सादिकं समायं मृषावादं न ब्रूयात् । तथाहि । परवंचनार्थ मृषावादोऽधिक्रियते सच न मायामंतरेण नवतीत्यतोमृषावादस्य माया आदिनूता वर्तते । इदमुक्तं नवति । योहि परवंचनार्थ समायोमृषावादः सपरिक्रियते । यस्तु संयमगुप्त्यर्थ नमया मृगाउप लब्धाइत्यादिकः सन दोषायेति । एषयः प्राक् निर्दिष्टो धर्मः श्रुतचारित्राख्यस्वनावोवा (बुसीमनत्ति ) बांदसवा निर्देशार्थस्त्वयं । वस्तूनि ज्ञानादीनि त तोझानादिमतश्त्यर्थः । यदिवा । (बुसीमनत्ति) वश्यस्य यात्मवशगस्य वश्य यिस्येत्यर्थः ॥ १७ ॥ अपिच (अश्मंतीत्यादि) प्राणिनामतिक्रमं पीडात्मकं महाव्रतातिकमंवा मनोऽवष्टब्धतया पर तिरस्कारंवा इत्येवंजतमतिक्रमं वाचा मनसाऽपिन प्रार्थयेत । एतद्यनिषेधेच कायातिक मोदूरतएव निषि-दोनवति । तदेवं मनोवाकायः कृतकारितानुमतिनिश्च नवकेन देना तिक्रमं न कुर्यात् । तथा इंडियदमनेन तपसा वा दांतः सन् मोदस्यादानमुपादानं सम्य ग्दर्शनादिकं सुष्टद्युक्तः सम्यग्विस्रोतसिकारहितबाहरेत् याददीत गएहीयादित्यर्थः॥२०॥ कडंच कजमाणंच, आगमिस्संच पावगं ॥सवं तं णाणुजाणंति, आयगुत्ता जिदिया ॥२२॥ जे अबुधा महानागा, वीरा अस मत्त दंसिणो॥असुई तेसि परकतं,सफलं होइ सबसो॥२२॥ अश-(कडंचकङमाणंच के० ) साधुने उद्देशीने जे कोई अनार्य पुरुष कयुं एवं जे पाप तथा वर्तमान काले जे पाप करेठे (श्रागमिस्संचपावगंके ) तथा यागामिक काले जे पाप कर्म सावद्यानुष्ठान आरंनादिक साधुने अर्थ जे करशे (सवंतंणापुजाणं ति के ) ते सर्वने मन वचन अने कायायें करी अनु मोदे नही ते कोण अनुमोदे नही तोके (आयगुत्ताजिदिया के०) जे महानुनाव आत्मगुप्त जितेंश्यि होय ते एवा पाप कृत्यने अनुमोदे नही. ॥ २१ ॥ (जेयबुदामहानागा के) जे अबुक तत्व मार्गना अजाण परंतु व्याकर्णादिक नणेला तेथी लोक मांहे पूज्य मोटा केवाय एवा (वीरा के० ) वीर पुरुष पण (असमत्तदंसिणो के० ) सम्यक्त्व परिझान थकी विकल होय (असुदंतेसिपरकंतं के०) एवा पुरुषy जे कांड दान तप नियमादिकने विषेप राक्रम एटले उद्यम ते अशुभ जाणवो (सफलंहोसबसो के०) ते सर्व कर्मबंधना Page #399 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रायधनपतसिंघ बहारका जैनागम संग्रह नाग डुसरा. ३६ कारणने विषे सफल याय पण मूर्ख वैद्यनी चिकित्सानी पेरे कर्म निर्जराना कारण ने विषे सफल न थाय ॥ २२ ॥ 1 || दीपिका - साधूदेशेन यदन्यैः कृतं पापकं कर्म तथा वर्तमाने काले क्रियमाणं तथा गामिकाले यत्करिष्यते तत्सर्वं नानुजानंति नानुमोदते खात्मगुप्ता जितेंदियाः सा धवः ॥ २१ ॥ श्रबुद्धाप्रज्ञातपरमार्थाव्याकरण शुष्कतर्कादिज्ञानेन जातमदाश्रपि तत्वा नवबोधादज्ञातपरमार्थाएव । यदुक्तं । शास्त्रावगाह परिघट्टनतत्परोपि नैवाबुधः समनि ति वस्तुतत्वं ॥ नानाप्रकाररसनावगतापि दर्वी स्वादं रसस्य सुचिरादपि नैव वेत्ति ॥ १ ॥ बुधापि महानागाः । नागशब्दः पूजावाची । कोर्थः । प्रपंडितायपि त्यागादिगुणै कपूज्य वीराः सुनटवादं वहतोप्य सम्यक्दर्शना मिध्यादृष्टयइत्यर्थः । तेषां बालानां पराक्रांत मनुष्ठानमशुद्धिहेतु प्रत्युत कर्मबंधाय तत्पराक्रांतं सहफलेन कर्मबंधेन वर्ततइति सफलं सर्वतः स्यात् ॥ २२ ॥ ॥ टीका - तथा किंचाऽन्यत् । ( कडवेत्यादि ) । साधूद्देशेन यदपरैरनार्यकल्पैः कृतम नुष्ठितं पापकं कर्म तथा वर्त्तमानेच काले क्रियमाणं तथाऽऽगामिनिच काले यत्करिष्य ते तत्सर्वं मनोवाक्कायकर्मनिर्नानुजानंति नाऽनुमोदंति तडपनोगपरिहरेणेति नावः । यद्यप्यात्मार्थ पापकं कर्म परैः कृतं क्रियते करिष्यते च । तद्यथा । शत्रोः शिरश्छिन्नं बि द्यते बेत्स्यतेवा तथा चौरोहतोहन्यते हनिष्यते वा इत्याद्विकं परानुष्ठानं नाऽनुजा नंति नच बहुमन्यते । तथाहि । यदि परः कश्चिद देनाहारेणोप निमंत्रयेत्तम पि नानुमन्यतइति । एवंभूतानवंतीति दर्शयति । श्रात्माऽकुशलमनोवाक्कायनिरोधेन गु तोयेषां ते तथा जितानि वशीकृतानि इंडियाणि श्रोत्रादीनि यैस्ते तथा एवंभूताः पापकर्म नाऽनुजानतीति स्थितं ॥ २१ ॥ अन्यच ( जेयाबु दाइत्यादि ) ये केचनाs बुद्धधर्म प्रत्यविज्ञातपरमार्थाव्याकरणशुष्कतर्कादिपरिज्ञानेन जाताऽवजेपाः पंमित मानिनोऽपि परमार्थवस्तुतत्वाऽनवबोधादबुदाइत्युक्तं । नच व्याकरणपरिज्ञानमात्रेण सम्यक्त्वव्यतिरेकेण तत्वावबोधोनवतीति । तथा चोक्तं । शास्त्रावगाहपरिघट्टनतत्परोऽ पि नैवाऽबुधः समनिगवति वस्तुतत्वं ॥ नानाप्रकाररसभावगताऽपि दर्वी, स्वादं रसस्य सुचिरादपि नैव वेति ॥ १ ॥ यदिवाऽबुझाइव बालवीर्यवंतस्तथा महांतश्चते नागाश्च महा नागाः । नागशब्दः पूजावचनः । ततश्च महापूज्याइत्यर्थः । लोकविश्रुताइति । तथा वी राः परानीकने दिनः सुनटाइति । इदमुक्तं नवति पंमितायपि त्यागादिनिर्गुल कपू ज्याः । पिच । तथा सुनटवादं वर्हतोऽपि सम्यक्तत्वपरिज्ञान विकलाः केचन नवतीति दर्शयति । न सम्यगसम्यक् तङ्गावोऽसम्यक्त्वं तद्दृष्टुं शीलं येषां ते तथा मिथ्यादृष्टयइत्य ४७ For Private Personal Use Only Page #400 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७० द्वितीये सूत्रकृतांगे प्रथम श्रुतस्कंधे अष्टमाध्ययनं. र्थः । तेषां च बालानां यत्किमपि तपोदानाध्ययनयमनियमादिषु पराक्रांतमुद्यमरुतस्तद विकार प्रत्युत कर्मबंधाय नावोपहतत्वात् सनिदानत्वादेति कुवैद्यचिकित्सा वपरीतानुबंधीति । तच्च तेषां पराक्रांत सहफलेन कर्मबंधेन वर्ततइति सफलं सर्वश इति सर्वाऽपि तक्रिया तपोनुष्ठानादिका कर्मबंधायैवेति ॥ २२ ॥ जे बुधा महानागा, वीरा सम्मत्तदंसिणो ॥ सुद्धं तेसिं परवतं, फलं दोइ सब सो ॥ २३ ॥ तेसिंपि तवो प्रसुधो, निकंता जे महाकुला || जन्ने बन्ने विद्याांति, नसिलोगं पवेकए ॥ १४ ॥ अर्थ - (जेयबुदामहानागा के० ) जे बुद्ध तत्व मार्गना जाए एवा तीर्थकरादिक मोटा पूज्य पुरुष ( वीरासम्मत्तदसिणो के० ) घनघाती कर्म विदारवाने सूरवीर सम्य क्त्व दृष्टि होय ( सुते सिंपरकं तं के० ) तेमनो जेटलो नियमादिक क्रिया अनुष्ठा नने विषे उद्यमने ते सर्व शुद्ध निर्मन जाणवो ( फलंहोइसवसो के० ) ते सर्व न म कर्मबंधनाकारण विषे फल याय किंतु सुवैद्यचिकित्सानीपेरे ते कर्म निर्जरा नुंज कारण थाय ॥ १३ ॥ ते सिंपितवोसु होके ० ) तेनुं तपजे घनशनादिक ते पण शुद्ध जाणवुं ते कोनुं शुद्ध जाणवुं तोके (निरकंताजे महाकुला के ० ) जे मोटा इवाकादिक कुल थकी नीकलीने चारित्रिया थया उता पण (जन्नेवन्ने वियाति के० ) जे मुनीश्वर पू जा सरकारने तप करे तेनो तप पण निःफल माटे अशुद्ध जावो ने जे त करतांने गृहस्यादिक जाऐगे नही (नसिलोगंपवेक ए के ० ) जे तपमा पोतानी श्लाघा प्रसंसा नबोले ते तप श्रात्मनेहिते जावो ॥ २४ ॥ || दीपिका - ये बुद्धाज्ञाततत्वामहानागामहापूजानाजोवीराः सम्यक्दर्शनास्तज्ज्ञा स्तेषां यत्पराक्रांतमनुष्ठितं तत् शुद्धमफलं कर्मबंधरहितं नवति सर्वतः ॥ २३ ॥ महत्कु लं येषां महाकुला निष्कांताः प्रव्रजितास्तेषामपि पूजासत्काराद्यर्थे यत्तपस्तदृच् स्यात् यत्तपः क्रियमाणं नान्ये विजानंति तत्कार्य नैवात्मश्लाघां प्रवेदयेत् प्रकाशयेत् ॥ २४ ॥ ॥ टीका- सांप्रतं पंतिवीर्येणाधिकृत्याह । (जेयबुदाइत्यादि) ये केचन स्वयंबुद्धास्ती कराद्यास्तव यावा बुबोधितागणधरादयोमहानागामहापूजानाजोवीराः कर्मविदार सहिमवोज्ञानादिनिर्वा गुणैर्विराजंतइतिवीराः । तथा सम्यक्त्वदर्शिनः परमार्थतत्व वेदिनस्तेषां जगवतां यत्पराक्रांतं तपोऽध्ययनयमनियमादावनुष्ठितं तनुमवदातं निरु परोधं सात गौरवशल्यकषायादिदोषाकलंकितं कर्मप्रतिबंधमफलं नवति तन्निरनुबंध नि For Private Personal Use Only Page #401 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रायधनपतसिंघ बादाडुरका जैनागम संग्रह नाग दुसरा. ३७१ जरार्थमेव नवतीत्यर्थः । तथाहि । सम्यकदृष्टीनां सर्वमपि संयमतपः प्रधानमनुष्ठानं नवति संयमस्य चानाश्रयरूपत्वात् तपसश्च निर्जराफलत्वादिति । तथाच पठ्यते । ( संयमे एहयकलेत वेवोदा एफले इति ) ॥ २३ ॥ किंचाऽन्यत् ( तेसिंपीत्यादि) मह कुनमिवाकादिकं येषां महाकुनालोकविश्रुताः शौर्यादि निर्गुणै विस्तीर्णयशसस्तेषा मपि पूजासत्काराद्यर्थमुत्कीर्तनेन वा यत्तपस्तदशुद्धं भवति । यञ्च क्रियमाणमपि तपो नैवान्ये दानादयोजानंति तत्तथाभूतमात्मार्थिना विधेयं । यतोनैवात्मश्लाघां प्रवेदयेत् प्रकाशयेत् । तद्यथा । हेउत्तमकुलीन इच्योवा सांप्रतं पुनस्तपोनिष्टतदेहइति । एवं स्वयमाविष्करणेन न स्वकीयमनुष्ठानं फल्गुतामापादयेदिति ॥ २४ ॥ अप्पपिंासि पाणासि, अप्पं नासेक सुखए ॥ खंते निनिधुमे दंते, वीतगि सदा जए ॥ ३५ ॥ जाणजोगं समादद्दु, कार्य विनसे सबसो ॥ तितिरकं परमं गच्चा प्रामोकाए परिवएका सित्ति बेमि ॥ २६ ॥ इतिश्रीवीरिइनामममशयां सम्मत्तं ॥ अर्थ - (अप्पामा सिपाला सिके० ) अल्पाहारनो जमनार तथा अल्प पाणीनो वापरनार (पंचासेकसुवए के० ) तथा सुव्रति साधु अल्प भाषणनुं करनार परने हि तरूप वचननु बोलनार ( खंते निनिमेदंते के ० ) क्षमावंत क्रोधादिकना उपशम थकी कषायने नावे सीतल परिणामि तथा इंडिजनो दमनार (वीत गिदीके ० ) लोव्यता र हित ( सदाज एके ० ) एरीते साधु जे बे ते सर्व काल संयमने विषे यत्न करे ॥ २५ ॥ ( जाणजोगं समाह हुके० ) शुनध्यान एटले धर्मध्यान दिकना योग तेने सम्यक् खादरीने (कार्य विन सेकसहसो के ० ) कायाना कुशल योगनी प्रवर्त्तिनो त्याग करे सर्वथा प्रकारे हस्त पादादिके करी पण परने पीडा नकरे ( तितिरकंपरमंयज्चा के० ) तितिक्षा एटले परीसह ने उपसर्गनुं जे सहन करवुं तेने परम प्रधान कर्म निर्झरानुं कारण जाणीने (श्रा मोस्काए परिएका सिके०) ज्यांसुंधी मोह नपामे त्यांसुधी दीक्षा पाले तिबेमिनो अर्थ पूर्व वत् जावो ॥ २६ ॥ इतिश्रीवीर्यनामा घाउमा अध्ययननो अर्थ समाप्त थयो . 0 || दीपिका - पं पिंडमश्नातीति यत्पपिंडाशी एवं पानेपि योज्यं । यदागमः । - ६ कुप्पमाणे कवले याहारेमाणे अप्पाहारे ड्वालसकवलेहि वट्टमो यरिया सोलसहिं १ नागयते २ चचवीसेहिं पठणोमो रिरि खाती से हिंपमाणवत्तो बत्तीसहिं पुणेहारेति । अतएवैकैकवलहान्या कनोदरता कार्या । एवं पाने उपकरणे च कनोदरतां कुर्यात् । यक्तं । योवीहारोघावनणि नवजोहो घोवनिहो । प्रधोवोव हि स For Private Personal Use Only Page #402 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७२ हितीये सूत्रकृतांगे प्रथम श्रुतस्कंधे नवमाध्ययनं. वगरणो तस्सदुदेवा विपणमंतीति । अल्पं नाषते यः सुव्रतः क्रोधाद्युपशमात् दांतोऽ निनिवृतोलोनालोनजयादनातुरोदांतोजितेंडियस्तथा वीतगृद्धिनिरीहः सदा यतेत सं यमे ॥ कषाया यस्य नोबिन्ना यस्य नात्मवशं मनः॥ इंडियाणि नगुप्तानि प्रव्रज्या तस्य जी विकेति ॥२५॥ ध्यानं धर्मध्यानादि तत्र योगोमनोवाकायव्यापारस्तं समाहृत्य सम्यगा हत्य कायं देहं सर्वतोव्युत्सृजेत् त्यजेत् तथा तितिक्षा दांतिपरीषदादिसहनरूपां प रमां प्रधानां ज्ञात्वा धामोहाय सर्वकर्मदयाय परिव्रजेत् संयमकियां कुर्यादिति । ब्रवीमी ति पूर्वक्त् ॥२६॥ इतिश्रीसूत्रहतांगदीपिकायां वीर्याख्यमष्टमाध्ययनं समाप्तं ॥ ॥ ॥टीका-अपिच अप्पपिमाइत्यादि । अल्पं स्तोकं मिमशितुं शीलमस्याऽसावल्प पिंमाशी यत्किचनाशीति नावः । तथाचाऽऽगमः । हेजंतवधासीयजबतबवसुहोवग यनिहा॥ जेणवतेणसंतुह, वीरमणिन सितेथप्पा ॥ १ ॥ तथा (अकुमिअंमगमत्त प्पमाणेकवलेथाहरे माणे अप्पाहारे मुवालसकवलेहिं ॥ ॥ अवडोमोयरिया । सोलसेहिंडनागपत्ते ॥ चनवीसंमोदरियांसंपमाणपत्ते वत्तीसंकवलासंपुमहारे ॥३॥ अतएकैककवलाहान्यादिनोदरता विधेया । एवं पाने उपकरणेवोचोनोदरतां विदध्या दिति । तथाचोक्तं । थोवाहारोथोवनपिअजोहो थोवनिदोध ॥ थोवोवहिनपकर ऐतस्सदुदेवाविपणमंति ॥ तथा सुव्रतःसाधुरल्पं परिमितं हितं च नाषेत सर्वदा विकथा रहितोनवेदित्यर्थः। नावातौदर्यमधिकृत्याह । जावतः क्रोधाद्युपशमात् दांतः दांतिप्र धानस्तथाऽनिनिर्वृतोलोनादिजयान्निरातुरस्तथा इंडियनोइंडियदमनाहांतोजितेंख्यिः । तथाचोक्तं । कषायायस्य नोबिन्ना, यस्य नात्मवशंमनः । इंडियाणि न गुप्तानि, प्रव्रज्या तस्य जीवनं ॥१॥ एवं विगता गृधिर्विषयेषु यस्य सविगतगृदिराशंसादोषरहितः सदा सर्वकालं संयमानुष्ठाने यतेत यत्नं कुर्यादिति ॥ २५ ॥ अपिच (जाणजोगमित्यादि । ध्यानं चित्तरोधलदणं धर्मध्यानादिकं तत्र योगोविशिष्टमनोवाकायव्यापारस्तं ध्यानयोगं समाहृत्य सम्यगुपादाय कायं देहमकुशलयोगप्रवृत्तं व्युत्सृजेत् परित्यजेत् । सर्वतः सर्वेणाऽपि प्रकारेण हस्तपादादिकमपिपरपीडाकारिन व्यापारयेत्। तथा तितिदा दांति परीषदोपसर्गसहनरूपां परमां प्रधानां झावा आमोदायाऽशेषकर्मक्ष्यं यावत्परिव्रजेदि ति संयमानुष्ठानं कुर्यास्त्वमिति । इति परिसमाप्त्यर्थे । ब्रवीमीति पूर्ववत् ॥ २६ ॥ स माप्तं चाऽष्टमं वीर्याख्यमध्ययनमिति ॥ - हवे नवमुं अध्ययन प्रारंनियेयें. अाठमां अध्ययनमा बालन अने पंमितनुं वीर्य का तेमां पण पंमितना वीर्यनुं जे धर्म ते धर्मने विषे साधु उद्यम करे तेमाटे था नवमां अध्ययनमां ते धर्मनुं स्वरूप कहेले. Page #403 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मा राय धनपतसिंघ बादाउरका जैनागम संग्रह नाग उसरा. ३७३ कयरे धम्मे अकाए, माहणेण मतीमता ॥ अंजधम्मं जहात चं, जिणाणं तं सुणेदमे ॥ (पागंतरे । जणगातं सुणेहमे ॥ ॥१॥ माहणा खत्तिया वेस्सा,चंमाला अ वोकसा॥ एसिया वेसिया सुद्दा, जेय आरंनपिस्सिया॥२॥ अर्थ-श्रीसुधर्मस्वामि प्रत्ये श्रीजंबूस्वामि बे हाथ जोडीने पुजे, के (माहणेणम तीमता के०) माहग मतिमंत एटले केवली जगवंत एवा श्रीमहावीर देव तेणे (क यरेधम्मेयरकाए के०) सम्यक् प्रकारे करीने केवा प्रकारनो धर्म कह्यो एम श्रीजंबुस्खा मियें पुब्या थका, श्री सुधर्म स्वामि बोल्या, (अंजुधम्मं के०) श्रीवीतराग प्रणीत धर्म ते रुजु एटले सरल गुरु (जहातचं के०) साचो यथावस्थित (जिणाणंतंसुणेहमे के० ) एवो धर्म श्रीतीर्थकरनें कहेलो तेढुं कहूंडं ते तमे सांजलो पाठांतरं (जणगातं सुणेहमेके०) एवो धर्म ते अहो जन, एटले लोको हुँ कदुबु, ते प्रत्ये तमे सांजलो ॥ १ ॥ (माहणारखत्तियावेस्सा के०) ब्राह्मण क्षत्रिय तथा वैश्य अने (चंमाला के०) चांमाल निषाद (अके० ) अथवा ( वोक्कसा के० ) वोकसते अवांतरजाति तेमां जे ब्राह्मण थने शुश्यकी उत्पन्न थयो ते, निषाद एटले चांमाल अने ब्राह्मण तथा वै श्यनी स्त्रीथी थयो ते अंबष्ठ, चंमालणी अने ब्राह्मण थकी थयो ते वोक्स अंही माता पितानो पद जूदो जाणवो (एसिया के०) मृगलुब्धकः हस्तितापसादिक (वे सिया के० ) वणिकादिक व्यापारमा अजीविका करनार (सुद्दा के०) शूझ करसणी प्रमुख (जेयथारंनणि स्तिथा के०) इत्यादिक जे जे ते बारंजना करनार , तेमज बीजा पण पाखंमी प्रमुख थारंनना करनार अनेकले. ॥ ॥ ॥ दीपिका-अथ नवमाध्ययनं । पूर्वाध्ययने बालपंडितवीर्यमुक्तं पंडितवीर्यच तदेव य धर्म प्रति उद्यम कुरुते अतोत्र धर्मः प्रोच्यते। तस्येदमादिसूत्रं । (कतरेत्ति) जंबुनामा सु धर्माणमुदिश्याह । कतरोधर्मयाख्यातोमाहनेन श्रीवीरेण मतिमता ज्ञानवता । सुध आ आह । जुमवकं यथातथ्यं सत्यं जिनानां तं धर्म मम कथयतः शृणुत यूयं ॥१॥ ब्राह्मणाः त्रियावैश्याश्चांडालाथथ वोक्साअवांतरजातीयाः। तद्यथा। ब्राह्मणेन शूद्यां जातोनिषादः । ब्राह्मणेनैव वैश्यायां जातोऽबष्ठः । तथा निषादेनांबष्ठयां जातो वोकसः। एषिकामृगलब्धकाहस्तितापसाश्च ये मांसदेतोर्मगान हस्तिनश्च एषंति वैश्यावणि जोमायाप्रधानाः कलाजीविनः शूभाः कृषीवलादयः येचान्ये नानाविधारं ननिश्रिताः॥ ॥ टीका-अष्टमानंतरं नवमः समारज्यते ॥ अस्य चायमनिसंबंधः । इदानंतराध्यय Page #404 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७४ द्वितीये सूत्रकृतांगे प्रथम श्रुतस्कंधे नवमाध्ययनं. बापं तिन रूपं वीर्यं प्रतिपादितं । यत्राऽपि तदेव पंडितवीर्य धर्म प्रति यहुद्य मं विधत्ते तोधर्मः प्रतिपाद्यतइत्यनेन संबंधेन धर्माध्ययनमायातं । श्रस्य चत्वार्यनुयो गद्वाराणि उपक्रमादीनि प्राग्वत् व्यावर्णनीयानि । तत्राऽप्युपक्रमांतर्गतोऽ श्रधिकारोऽ यं । तद्यथा । धर्मोऽत्र प्रतिपाद्यतइति तमधिकृत्य निर्युक्तिरूदाद । ( धम्र्मो पुतुद्दि हो नाव मे एक हिगारो । एसेच होइ धम्मं, एसेक्समा हिमग्गोत्ति १ । (धम्मोपुवुद्दि इत्यादि) । दुर्गतिगमनधरणलक्षणोधर्मः प्राक् दशवैकालिक श्रुतरकंधषष्ठाऽध्ययने ध र्मार्थकामाख्ये उद्दिष्टः प्रतिपादितः । इहतु नावेन धर्मेणाधिकारः । एषएवच नावधर्मः पर मार्थतोधर्मोवति । मुमेवार्थमुत्तरयोरप्यध्ययनयोरतिदिशन्नाह । एषएवच नावसमा धर्मावमार्गश्च नवतीत्यवगंतव्यंमिति । यदि वैषएवच नावधर्मएषएवच नावसमाधि रेषएवच तथा नावमार्गोनवति नतेषां परमार्थतः कश्चिद्भेदः । तथाहि । धर्मः श्रुतचारि त्राख्यः कांत्यादिलक्षणोवा दशप्रकारोनवेत् नावसमाधिरप्येवंप्रकारएव । तथाहि । सम्यगा धानमारोपणं गुणानां कांत्यादीनामिति समाधिः । तदेव मुक्तिमार्गोऽपि ज्ञानदर्शनचारित्रा ख्योनावधर्मतया व्याख्यातयितव्य इति ॥ सांप्रतमतिदिष्टस्यापि स्थानाशून्यान्यार्थ धर्मस्य ना मादिनिचेपं दर्शयितुमाह । (लामंठव साधम्मो, दवधम्मोय नावधम्मोय । स चित्ता चित्तमीस ग, बिदाद विधम्मे |२| ) ( नामंग्व णेत्यादि) नामस्थापनाइ व्यनावनेदाच्चतुर्धा धर्मस्य निक्षेपः । तत्राऽपि नामस्थापनेऽनादृत्य इशरीरनव्यशरीरव्यतिरिक्तोधर्मः सचित्ता चित्तमिश्र I दात् त्रिधा । तत्राऽपि सचित्तस्य जीववरीरस्योपयोगलक्षणोधर्मः स्वनावः । एवमचित्ता नामपि धर्मास्तिकायानां योयस्य स्वनावः सतस्य धर्मइति । तथाहि । ( गइलरका ध म्मो, हालकोहम्मोय | नायणं सङ्घदवाणं, नहयवगाहलरकणं । १ । पुजला स्तिकायोऽपि ग्रहणलक्षणइति । मिश्रव्याणां च क्षीरोदकादीनां योयस्य स्वनावः सत Saino | गृहस्थानांच यः कुलनगर ग्रामादिधर्मो गृहस्थेच्योगृहस्थानां वा योदानधर्मः सव्यधर्मोऽवगंतव्यइति । तथाचोक्तं । धन्नं पानं च वस्त्रंच, खालयः श नासनं । शुश्रूषा वंदनं तुष्टिः पुण्यं नवविधं स्मृतं । १ । नावधर्मस्वरूपनिरूपणायाह । ( लोइयलोउत्तरिन, डुविहोपुहोंतिनावधम्मोन । विहोवि विहतिविहो, पंचविहो होति पायो । ३ । (लोइयइत्यादि) । नावधर्मोनोयागमतो द्विविधः । तद्यथा । लौकि कोलोकोत्तरश्च । तत्र लौकिको द्विविधः । गृहस्थानां पाखंडिकानां च लोकोत्तरस्त्रिविधः । ज्ञानदर्शनचारित्रनेदात् । तत्राऽप्यानि निबोधकं ज्ञानं पंचधा । दर्शनमप्योपशमिक, सा स्वादन, कायोपशमिक, वेदक, कायिक भेदात् पंचविधं । चारित्रमपि सामायिका दिनेदात् पं चविधं । गाथाराणि त्वेवं नेयानि । तद्यथा । नावधर्मोलौकिक लोकोत्तरनेदा द्विविधोऽपि चायं यथासंख्येन द्विविधस्त्रिविधः । तत्रैव लौकिकोगृहस्थपाखंडिकनेदात् ६ | For Private Personal Use Only Page #405 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राय धनपतसिंघ बादाउरका जैनागम संग्रह नाग उसरा. ३७५ विधः । लोकोत्तरोऽपि ज्ञानदर्शनचारित्रनेदात् त्रिविधः । ज्ञानादीनि प्रत्येकं त्रीग्यपि पं चधैवेति । तत्र ज्ञानदर्शनचारित्रवतां साधूनां योधर्मस्तं दर्शयितुमाह । (पासबोसम्म कुसीलें, संघवोणकिरचट्टतीका । सूयगडेअनुयणे, धम्ममि निकाइतएयं ॥४॥) पास बोसम्मेत्यादि)। साधुगुणानां पार्श्व तिष्ठंतीति पार्श्वस्थाः। तथा संयमानुष्टानेऽवतीदंती त्यवसन्नाः। तथा कुत्सितं शीतं येषांते कुशोलाएतैः पार्श्वस्थादिनिः सह संस्तवः परिचयः सहसंवासरूपोन किल यतीनां वर्तते कर्तुमतः सूत्रकतेंगेधर्माख्येऽध्ययने एतस्मिन्निका चितं नियमितमिति ॥ गतोनामनिष्पन्नोनिदेपोऽधुना सूत्रानुगमेऽस्खलितादिगुणोपेतं सूत्रमुच्चार यितव्यं । तच्चेदं । (कयरेइत्यादि ) ॥ जंबूस्वामी सुधर्मस्वामिनमुद्दिश्येदमाह । तद्यथा । कतरः किंजूतोऽर्गतिगमनलक्षणोधर्मधारख्यातः प्रतिपादितो (माहणेणं ति) मा जंतून व्यापादयेत्येवं विनेयेषु वाक्प्रवृत्तिर्यस्याऽसौ माहनोनगवान वोरवर्धमा नस्वामी तेन। तमेव विशिनष्टि । मनुतेऽवगति जगत्रयं कालत्रयोपेतं यया सा केवलझा नारख्या मतिः सा अस्याऽस्तीति मतिमान् तेनोत्पन्नकेवलज्ञानेन जगवतेति एष्टे सुधर्मस्वा म्याद रागदेष जितोजिनास्तेषां संबंधिनं धर्म (अंजुमिति ) ऋजु मायाप्रपंचरहितत्वा दवकं । तथा (जहातञ्चमिति) यथावस्थितं मम कथयतः शृणुत यूयं । नतु य थाऽन्यैस्तीर्थकैर्दनप्रधानोधर्मोनिहितस्तथा नगवताऽपीति (पानांतरंवा) जणगा तं सुणेहमे) जायंतति जनालोकास्तएव जनकास्तेपामामंत्रणं हेजनकाः धर्म श पुत यूयमिति ॥ १ ॥ अन्वयव्यतिरेकान्यामुक्तोऽर्थः सूक्तोनवतीत्यतोयथोदिष्टप्रतिपद नतोऽधर्मस्तदाश्रितांस्तावदर्शयितुमाह । (माहणेत्यादि)। ब्राह्मणाः क्षत्रियावैश्या स्तथा चांमाताः अथ वोक्कसायवांतरजातीयाः। तद्यथा । ब्राह्मणेन शूद्यांजातोनिपादोबा ह्मणेनैव वैश्यायां जातोऽबष्टस्तथा निषादेनांबष्ठयां जातोवोक्सः । तथा एपितुं शीतमित्ये षिकामृगलुब्धकाहस्तितापसाश्च मांसहेतोमंगान हस्तिनश्च एष्यंति तथा कंदमूलफ लादिकं च । तथा ये चाऽन्ये पाखंडकानानाविधैरुपायैर्नयमेष्यंत्यन्या निवा विषयमा धनानि ते सर्वेऽप्येषिकाश्त्युच्यते । तथा वैशिकावणिजोमायाप्रधानाकलोपजीविनः। तथा सूशः कृषीवलादयः । आनीरजातीयाः कियंतोवा वक्ष्यंतइति दर्शयति। ये चाऽन्येव पसदानानारूपसावद्यारंन निश्रितायंत्रपीडननि बनकर्मागारदाहादिनिः क्रियाविशेष र्जीवोपमईकारिणस्तेषां सर्वेषामेव जीवापकारिणां वैरमेव प्रवर्धतइत्युत्तर श्लोके क्रियेति॥२ परिग्गदनिविणं, वेरं तेसि पवडूई ॥ ( पागंतरे पावं तेसिं पवडूई) आरंनसंनिया कामा, नते उरकविमोयगा ॥३॥ आघाय किच्चमादे, नाइन विसएसिणो॥ अन्ने हरंति तं वित्तं, कम्मी कम्मेहिं किन्चती ॥४॥ Page #406 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७६ वितीये सूत्रकृतांगे प्रथम श्रुतस्कंधे नवमाध्ययनं. अर्थ-(परिग्गहे के०) परिग्रह पिद, चतुष्पद, धन, धान्य हिरण्य, सुवर्णादिकने विषे ममत्व तेमां (निविहाके०) गध बता (वेरंतेसिंपवईके) एवा पुरुष यारंजना करनार तेने नि:केवल वैरनी वृद्धि थायडे. अथवा पाठांतरे (पावंतेसिंपवड़ई के०) तेवा आरंजना करनार पुरुषोने जमदग्नि कृतवीर्यनी पेरे पापनी वृद्धि थाय ज्यां जेरी ते प्राणीनी हिंसा करे त्यां तेरीते संसार मांहे सुःखना विनागी थाय. (वारंजसंनि याकामा के०) तथा कामनोगजे ले, ते आरंन संवृत आरंने करी पुष्टले अनेक पाप ना कारणे करी नवाजे, (नतेःख विमोयगा के ) ते कारण माटे ते फुःख थकी बू टे नहीं ॥ ३ ॥ जेथकी प्राणीना प्राणने हणिये तेने (आघाय के) मरण कहिए. ते मरणने अर्थे जे (किच्चमाहेनके०) कृत्य करवू एटले मरणतुं जे कार्य करवू अर्थात् श्रमिसंस्कार जलांजली, प्रदान, पितृ पिंक, प्रमुख एटलावाना करीने पडी (नाइन विसएसिणो के० ) शाति, गोत्री, स्वजन, पुत्र, कलत्रादिक एसर्व विषयानिलाषी बता होय तेमनुं उपार्जन करेलु जे वित्त एटले धन (तं वित्तंके० ) तेधन (अन्नेहरंतिके) अन्य जे पूर्वोक्त अग्नि संस्कार प्रमुखना करनारा पुरुषो ते लिये, एटले अंगीकार करे. अने ते धननो नपार्जनार (कम्मीकम्मे हिंकिञ्चती के ) अनेक कुकर्म करी उर्गती पोहोतो बतो ते कर्मे करी संसारमा किचती एटले पीडाय दाय. ॥ ४॥ ॥दीपिका-परिग्रह निविष्टानां ममतासक्तानां तेषां पूर्वोक्तानां वैरं वर्धते । जमदनिक तवीर्यादीनामिव रिपवस्ते वारंजसंनृताधारनपुष्टाः कामेषु प्रवृत्तास्ते एवंविधाकुःख विमोचकान स्युः ॥ ३ ॥ आघातोमरणं तस्य कृत्यमनिसंस्कारजलांजलिदान पितृपिंमा दिकं तदाधातुमाधाय कृत्वा पश्चाज्झातयः स्वजनाअन्येऽपि विषयैषिणः संतस्तस्य त वित्तं धनं हरति गृएहति । यमुक्तं । ततस्तेनार्जितैव्यैदारैश्च परिरहितैः ॥ कोडंत्य न्ये नराराजन हृष्टतुष्टाअलंकताइति । सतु इव्योपार्जकः कर्मवान् कतैः कर्मनिः संसा रे कत्यते पीड्यते ॥ ४ ॥ ॥टीका-किंच (परिग्गहेइत्यादि) परिसमंतात् गृह्यतइति परिग्रहोक्षिपदचतुष्पदधनधान्य हिरण्यसुवर्णादिषु ममीकारस्तत्र निविष्टानामध्युपपन्नानां गार्थ गतानां पापमसात वेदनीयादिकं तेषां प्रायुक्तानामारंननिश्रितानां परिग्रहे निविष्टानां प्रकर्षेण वईते र दिमुपयाति जन्मांतरेष्वपि उर्मोचं नवति । क्वचित्पातः (वेरंतेसिंपवति )। तत्र येन यस्य यथा प्राणिननपमर्दः क्रियते सतथैव संसारांतर्वर्ती शतशोरखनाक् नवति । जमदग्निरुतवीर्यादीनामिव पुत्रपौत्रानुगं वैरं प्रवईतइति नावः। किमित्येवं । यतस्ते Page #407 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राय धनपतसिंघ बानापुरका जैनागम संग्रह नाग उसरा. ३७७ कामेषु प्रवृत्ताः कामाश्चारनैः सम्यग नृताधारनपुष्टाआरंनाश्च जीवोपमर्द कारिणोऽतोन ते कामसंनृताधारंन निश्रिताः परगृहे निविष्टाः दुःखयतीति दुःखमष्टप्रकारं कर्म तदिमो चकानवंति तस्याऽपनेतारोनवंतीत्यर्थः ॥३॥ किंचाऽन्यत् (अाघायमित्यादि) आहन्यंते अपनयंति विनाश्यंते प्राणिनां दश प्रकारायपि प्राणायस्मिन् सयाघा तोमरणं तस्मै तत्र वा कृतमग्निसंस्कारजलांजलिप्रदानपितृपिंमादिकमाघातं कृत्यं तदा धातुमादाय कृत्वा पश्चात् ज्ञातयः स्वजनाः पुत्रकलत्रत्रातृव्यादयः। किंनूताः । विषयान न्वेष्टुं शीलं येषां तेऽन्येऽपि विषयैषिणः संतस्तस्य दुःखार्जितं वित्तं इव्यजातमपहरंति स्वीकुर्वति । तथाचोक्तं । ततस्तेनार्जितै व्य.दारेश्च परिरदितैः॥ कीडत्यन्ये नराराजन, हृष्टास्तुष्टाह्यलंकताः ॥ १ ॥ सतु इव्यार्जनपरायणः सावद्यानुष्ठानवान् कर्मवान् पापी स्वीकृतेः कमेनिः संसारे कृत्यते विद्यते पीड्यतइति यावत् ॥ ४ ॥ माया पिया एहसा नाया,नका पुत्ताय नरसा॥नालं ते तव ताणा य, लप्पंतस्स सकम्मणा ॥५॥ एयम सपेहाए, परमाण गामियं ॥ निम्ममो निरहंकारो, चरे निरकू जिणादियं ॥ ६ ॥ अर्थ-(मायापियाण्डसानाया के ) माता पिता स्नुषा एटले बोकरानी स्त्री तथा नाइ (नापुत्तायनरसा के० ) नार्या, पुत्र अंगजातिक एटला सर्व (लुपंत स्ससकम्मुणा के०) ए जीवने कर्म विपाक जोगवता थकां (नालंतेतवताणाय के० ) तेवखते त्राणनणी नथाय एटले दुःख टालवाने असमर्थ थाय ॥ ५ ॥ धर्मर हित जी वने राखवा कोई समर्थ नथी ( एयमांसपेहाए के) ए अर्थ बालोची एटले सम्य क् प्रकारे विमासीने (परमाणुगामियं के०) परमार्थजे मोद तेनो अनुगामि एटले मोक्नो साधक (निम्ममोनिरहंकारो के ) निर्ममत्व तथा निरहंकारी एवोडतो (चरे निस्कूजिणाहियं के० ) ते साधु जिननापित जे संयम मार्ग तेने आचरे ॥ ६ ॥ ॥ दीपिका-माता पिता स्नुषापुत्रवधूः नाता नार्या पुत्राश्च औरसाःस्वांगजाएते स । तव त्राणाय रक्षणाय नालं नसमर्थाः। तव किंनूतस्य । स्वकर्मणा लुप्यमानस्य पीडय मानस्य ।दृष्टांतोत्र कालसौकरिकसुतः सुलसोऽनयकुमारस्य मित्रं तेन महात्मना स्वजना न्यर्थितेनापि न प्राणिहिंसा कता ॥ ५ ॥ एतं पूर्वोक्तमर्थ प्रेक्ष्य विचार्य परमार्थोमोद स्तमनुगवतीति परमार्थानुगामुकस्तं सम्यक्दर्शनादिकं विचार्य निर्ममोनिरहंकारोनि हुर्जिनाहितं जिनोक्तं मार्ग चरेत् ॥ ६ ॥ ॥ टीका-स्वजनाश्च तहव्योपजीविनस्तत्राणाय ननवंतीति दर्शयितुमाह । (माया ४८ Page #408 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७८ द्वितीये सूत्रकृतागे प्रथम श्रुतस्कंधे नवमाध्ययनं. पियाइत्यादि) माताजननी पिताजनकः स्नुषापुत्रवधूः चातासहोदरः । तथा नार्या कलत्रं पुत्राश्चौरसाः स्वनिष्पादिताएते सर्वेऽपि मात्रादयोये चान्ये श्वशुरादयस्ते तव संसारचक्रवाले स्वकर्मनिर्विलुप्यमानस्य त्राणाय नाऽलं समर्थाजवंतीति । इहाऽपि ताव नैते त्राणाय किमुतामुत्रेति । दृष्टांतश्चाऽत्र कालसौकरिकसुतः सुलसनामा अजयकुमा रस्य सखा । तेन महासत्वेन स्वजनाऽन्यथितेनाऽपि नप्राणिष्वपकृतमपि त्वात्मन्येवेति ॥ ५ ॥ किंचान्यत् ( एयमहमित्यादि ) धर्मरहितानां स्वकृतकर्मविलुप्यमानानामैहि कामुष्मिकयर्न कश्चित्राणायेति एनं पूर्वोक्तमर्थ सप्रेक्षापूर्वकारी प्रत्युपेक्ष्य विचार्याऽवगम्य च परमः प्रधाननूतोमोहः संयमोवा तमनुगवतीति तवीलच परमार्थानुगामुकः सम्य कदर्शनादिस्तंच प्रत्युपेक्ष्य । क्त्वाप्रत्ययांतस्य पूर्वकालवाचितया क्रियांतरसव्यपेचत्वात् । त दाह । निर्गतं ममत्वं बाह्याभ्यंतरेषु वस्तुषु यस्मादसौ निर्ममः । तथा निर्गतोऽहंकारोऽ निमानः पूर्वैश्वर्य जात्यादिमदजनितस्तथा तपःस्वाध्यायलोनादिजनितोवा यस्मा दसौ निरहंकारोरागद्दे पर हितइत्यर्थः । सएवंभूतो निकुर्जिनैराहितः प्रतिपादितोऽनु ष्ठितोवा योमार्गो जिनानां वा संबंधी योऽनिहितोमार्गस्तं चरेदनुतिष्ठेदिति ॥ ६ ॥ चित्रा वित्तं पुत्तेय. लाइन य परिग्गदं ॥ चिच्चाए अंतगं सोयं (चिच्चाणांत गंसोयं) इति पाठांतरं । निरवेरको परिवए ॥ ७ ॥ पुढवी गणि वाऊ, तारुक सबीयगा ॥ मया पोय जरा ऊरस संसेय प्रिया ॥ ८ ॥ अर्थ - ( वित्तं पुत्ते के ० ) वित्तते धन ने पुत्रादिक तेने ( चिच्चा के० ) त्यक्त्वा एटले बांकीने वली (लाइन के ० ) ज्ञाति, स्वजन, स्त्री, स्वसुर वेवाही प्रमुख तथा (परि हं के० ) परिग्रह तेना उपर ममत्व नाव ते सर्वने (चिञ्चाके०) त्यक्त्वा एटले बां वाक्याकरे तथा ( तंसोयं के०) तथा नूतशोक तेने त्यागीने अथवा पाठांत रनुं अर्थ कहे. मिथ्यात्व अविरति प्रमाद कपायरूप बंधना कारण, अने (एलांतगं के ० ) जेनो कोइरीते अंत एटले पार न यावे एवो सोयं के० शोक तेनो त्याग करीने ( निरवेरको के० ) निरपेक्ष एटले विषयादिकने या वांबतो थको ( परिवए के० ) सं यम पाले तेने साधु जावो ॥ ७ ॥ ( पुढविद्यानग शिवाऊ के० ) पृथवीकाय, अ पंकाय, तेककाय ने वायुकाय तथा ( तणरुरकसबीयगा के० ) तृण वृक्ष बीज शा नि प्रमुख ए पांचमी वनस्पतिकायनी जाति ए सर्व स्थावर जीवो जाणवाः प्रने ( या के० ) इंसा थकी उपजे जे वागुलि प्रमुख ( पोतजके० ) हस्तिया दिक तथा (ज For Private Personal Use Only Page #409 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रायधनपतसिंघ बहाउरका जैनागम संग्रह नाग उसरा. ३७ए रायुज के० ) मनुष्यादिक ( रसज के ) कीटादिक (संस्वेदजके) जु प्रमुख ( उनि ऊ के० ) तीडादिक ए सर्व त्रसकाय जीवोजाणवा. ॥ ७ ॥ ॥ दीपिका-वित्तं धनं पुत्रांश्च झातीन स्वजनान त्यक्त्वा परिग्रहं चांतरंममत्वं । । कारोवाक्यालंकारे अंतं गलतीत्यंतगोकुष्परित्यजश्त्यर्थः । तं तथानूतं शोकरूपं त्य क्त्वा निरपेदः पुत्राद्यपदारहितः परिव्रजेत् संयमे चरेत् । यमुक्तं । बलियाथवश्रकंता, निरावश्कागयाबविग्घेणं ॥ तम्हापवयणसारे, निरावइरकेणहोअवंति ॥ ७ ॥ हथि वी आपः अग्नयः वायवः तृणानिकुशादीनि वृदाअशोकाम्रादयः सबीजानि शालिगो धूमादीनि तद्युक्ताएते त्रयोपि वनस्पतयः एते पंचाप्येश्यिाः । अंमजाः पदिगृहकोकि लाद्याः पोतजाहस्त्यादयः जरायुजागोमनुष्यादयः रसाहधिसौवीरादेांतारसजाः सं स्वेदजायूकामत्कुणादयः ननिजाःखंजरीटदराद्याः एते त्रसाः ॥ ७ ॥ ॥ टीका-अपिच (चिच्चाइत्यादि) संसारस्वनावपरिझानपरिकर्मितमतिर्विदितवेद्यः सम्यक् त्यक्त्वा परित्यज्य किंतत्ति इव्यजातं तथा पुत्रांश्च त्यक्त्वा पुत्रेवधिकस्नेहोन वतीति पुत्रग्रहणं । तथा ज्ञातीन स्वजनांश्च त्यक्त्वा तथा परिग्रहं चांतरं ममरूपत्वं । पकारोवाक्यालंकारे । अंतं गबतीत्यंतगोडष्परित्यजश्त्यर्थः। अंतको विनाशकारीत्यर्थः । यात्मनि वा गलतीत्यात्मगांतरइत्यर्थः । तं तथानूतं शोकं त्यक्त्वा परित्यज्य श्रोतोवामिथ्यात्वाविरतिप्रमादकपायात्मकं कर्माश्रव हारनूतं परित्यज्य पाठांतरंवा। (चिच्चाणपंतगंसोयं ) अंतं गबतीत्यंतगं नअंतगमनंतगं । श्रोतःशोकं परित्य ज्य निरपेक्षः पुत्रदारधनधान्यहिरण्यादिकमनपेक्ष्यमाणः सन् मोदाय परिसमंता त् संयमानुष्ठाने ब्रजेत् परिव्रजेदिति । तथा चोक्तं । (बलियाअवयरकंता, निरावय स्कागयाअविग्घेणं ॥ तम्हापवयणसारे, निरावयरकणहोयवं॥ १ ॥ नोगेअवयरकंता, प डंति संसारसागरे घोरे । नोगेहिनिरवपरका, तरंति संसारकंतारमिति ॥२॥ सएवं प्रव्रजि तः सुव्रतावस्थितात्माऽहिंसादिषु व्रतेषु प्रयतेत ॥ ७ ॥ तत्राऽहिंसाप्रसित्ध्यर्थमा ह । ( पुढवीयानइत्यादिश्लोक यं) तत्र पृथिवीकायिकाः सूक्ष्मबादरपर्याप्तकापर्याप्तक नेदनिन्नाः । तथाऽप्कायिका निकायिकावायुकायिकाश्चैवंनूताएव । वनस्पतिका यि कान् लेशतः सनेदानाह । तृणानि कुशवञ्चकादीनि वृद्धाश्रूताशोकादिकाः । सह बीजैर्व ततइति सबीजानि तु शालिगोधूमयवादीनि एते एकेडियाः पंचापिकायाः। षष्ठत्रसकायनि रूपणायाह । अंडजाः शकुनिगृहकोकिलकसरीसृपादयः । तथा पोताएव पोतजाहस्तिश रनादयः । तथा जरायुजाये जंबालवेष्टिताः समुत्पद्यते गोमनुष्यादयः । तथा रसात् दधि Page #410 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीये सूत्रकृतांगे प्रथम श्रुतस्कंधे नवमाध्ययनं. सौवीरका दर्जा तारसजास्तथा संस्वेदाजाताः संस्वेदजायूकामत्कुणादयः । उनिकाः खंजरीटकदरादयइति । याज्ञातनेदा हि दुःखेन रदयंतइत्यतोनेदेनोपन्यासइति ॥ ८ ॥ एतेहिं बहिं काहिं तं विऊं परिजाणिया ॥ मासा कायवक्के , पारंजी परिग्गही ॥ ॥ मुसावायं वदिद्वंच, नग्गच जाय ॥ सचा दाणाई लोगंसि, तं विऊं परिजालिया ॥ १० ॥ ३८० अर्थ - ( एते हिंड हिंकाए [हिं०) पूर्वोक्त व कायजीवो ते त्रस स्थावर तथा सूक्ष्म बादर पर्याप्ता पर्याप्ता ना ने करी ( तंविकंप रिजालिया के०) ते बकायने पंमितज्ञ परिज्ञायें करी जलीपरे जाणीने अने प्रत्याख्यान परिज्ञाये ( मासाकायवक्केणं के० ) मन, वचन काया एत्रण करणे करी (पारंनीए परिग्गही के ० ) साधु प्रारंभ परिग्रह नकरे केमके एरंनपरिग्रहथ की पूर्वोक्त बकाय जीवोनी विराधना थायले माटेसाधु प्रारंभी परिग्रही नथाय. ए प्राणातिपात विरमण नामा प्रथम व्रतनो अधिकार कह्यो || || हवे बीजो व्रत याद करे (मुसावायं के०) सत्य बोल (वहिचके०) तथा मैथुन ते जोग का मादिक (नगच के० ) परिग्रह तथा ( जाइय के० ) प्रदत्तदान ए मृषावादादि क तजे ते (लोगंसि के० ) लोक मांहे ( सबके ० ) शस्त्ररूपते, तथा शस्त्रनी पेरे ( प्रदान के ० ) कर्म ग्रहण करवानुं कारणबे, (तविकंप रिजा लियाके० ) तेने विधान् ए एले पंमित परिज्ञायें जाणीने प्रत्याख्यान परिज्ञाये परिहरे ॥ १० ॥ || दीपिका - एनिः षङ्गिः कायैनरिंनी नापि परिग्रही स्यात् विधान पंडितो परिज्ञ या परिज्ञाय प्रत्याख्यानपरिज्ञया मनोवाक्कायैरारंनं परिग्रहंच परिहरेदिति श्लोक ६या र्थः ॥ ए ॥ मृषावादं विद्वान् प्रत्याख्यानपरिज्ञया परिहरेत् प्रवहिदं मैथुनं अवग्रहं परिय हातिमतादानं एतानि मृषावादादीनि प्राप्युपघातकारित्वात् शस्त्राणि तथा खादा न कर्मोपादानकारणान्यस्मिन लोके तदेतत्सर्वं विधान् परिज्ञाय परिहरेत् ॥ १० ॥ ॥ टीका - एनिः पूर्वोक्तैः पद्भिरपि कायैस्त्र सस्थावररूपैः सूक्ष्मबादरपर्याप्तिकाप तद निन्नैरं नाऽपि परिग्रही स्यादिति संबंधः । तदेतद्विद्वान् सश्रुतिको परि इया परिज्ञाय प्रत्याख्यानपरिज्ञया मनोवाक्कायकर्मनिर्जीवोपमर्दकारिणा मारंनं परि ग्रहं च परिहरेदिति ॥ एए ॥ शेषव्रतान्यधिकृत्याह । ( मुसावायमित्यादि ) मृषा खस तोवादोमृषावादस्तं विद्वान् प्रत्याख्यानपरिज्ञया परिहरेत् तथाऽवहि मितिमैथुनं व ग्रहं परिग्रहमयाचितमदत्तादानं । यदिवाऽ वहिमिति मैथुनग्रहोऽवग्रहमयाचित For Private Personal Use Only Page #411 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राय धनपतसिंघ बादाडुरका जैनागम संग्रह नाग दुसरा. ३८१ मित्यनेनाऽदत्तादानं गृहीतं । एतानिच मृषावादादीनि प्राप्युपतापकारित्वात् शस्त्रा ila शस्त्राविर्तते । तथा दीयते गृत्यतेऽष्टप्रकारं कर्मैनिरिति । कर्मोपादानकारणान्य स्मिन् लोके तदेतत्सर्व विद्वान् परिज्ञया प्रत्याख्यानपरिज्ञया परिहरेदिति ॥ १० ॥ पलिनंचपंच जयांच, थं मिल्नुस्सयालिया ॥ धूणादालाई लो गंसि तं विऊं पारिजाणिया ॥ १२ ॥ धोयां रयणं चैव, बचीकम्मं विरेयणं ॥ वमणं जणपलीमंथं, तं विऊं परिजालिया ॥ १२ ॥ अर्थ - (पलिनंचलंच के ० ) माया तथा (नयपंचके ० ) लोन (थं मिल के ० ) जे निर्विवे कपणा थकी मिलनी पेरे होय ते क्रोध (सयणालिया के ० ) जे अपध्याने करी सय्या दिकनी पेरे उंच होय तेने मान कहिए (धुलाके०) एचारेनो त्यागकरे केम के (दालाइ लोगंसि के०) एचार कषायने लोकमां कर्म ग्रहण करवाना कारण कह्यां बे तेमाटे (तं विऊंपरिजालिया के ० ) एने पंमित परिज्ञाये जाणीने प्रत्याख्यान परिज्ञायें परिहरे. ॥ ११ ॥ ( धोरणं के० ) हाथ पग वस्त्रादिकने धोवुं तथा रंगवुं (चेव के०) वली ( वम्मिं के० ) नख रोमादिकनुं समारखं (विरेयणं के० ) पखाल जेवो (वमनंके० ) वमन कर ( के० ) याखनुं यांजवुं ( पतिमंथं के० ) अन्यको शरीर संस्का रादिक जेणेकरी संयमनो उपघात थाय तेवा सर्वकारणाने जाणीने पंमित परिहरे ॥ १२ ॥ || दीपिका - परिकुंच्यते खात्मा वक्रतां प्राप्यते येन तत् परिकुंचनं माया । जज्यते सर्व श्रात्मा व्हीक्रियते येन सनजनोलोनः । यडुदयेनात्मा सदद्विवेक विकलत्वात् स्थं मि लवत्स्यात् सस्थंडिलः क्रोधः । यस्मिन् सति खात्मा उद्रितः स्यान्नतः सन्तायो मानः । बांदसत्वात्क्कीबत्वं । एतानि धूनय त्यज । किंनूतानि खादानानि बंधकारणानि तदेति द्वान् परिज्ञाय परिहरेत् ॥ ११ ॥ धावनं हस्तपादवस्त्रादेः । रंजनं तस्यैव । बस्तिकर्मानु वासनरूपं । विरेचनमधोविरेकः । वमनमूर्ध्व विरेकः । अंजनं नयनयोः । एवमन्यदपि य त्संयमपलिमंयकारि संयमोपघातकारि तत्परिज्ञाय परिहरेत् ॥ १२ ॥ ॥ टीका - किंचाऽन्यत् (पनिनंचणमित्यादि) पंचमहाव्रतधारणमपि कषायियोनि फलं स्यादतस्तत्साफव्यापादनार्थं कषाय निरोधोविधेयइति दर्शयति ॥ परिसमंतात् कुंच्यंते वक्रतामापद्यते क्रियायेन मायाऽनुष्ठानेन तत्पनिकुंचनं मायेति नष्यते । तथा न ज्यते सर्वत्रामा प्रव्हीक्रियते येन सजजनोलोनस्तं तथा यदयेन ह्यात्मा सदसद्विवेक विकलत्वात् स्थं मिलवद्भवति सस्थंडिलः क्रोधः । यस्मिंश्च सत्यूर्ध्वं श्रयति जात्यादिना दर्पा For Private Personal Use Only Page #412 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२ तीये सूत्रकृतांगे प्रथम श्रुतस्कंधे नवमाध्ययनं. ध्मातः पुरुषनत्तानीनवति सनबायोमानाबादसत्वान्नपुंसकलिंगता ।जात्यादीनामेतत्स्था नानां बहत्वात् तत्कार्यस्याऽपि मानस्य बदत्वमतोबदवचनं । चकाराः स्वगतनेदसंसू चनार्थाः समुच्चयार्थावा। धूनयेति प्रत्येकं क्रिया योजनीया । तद्यथा । पलिकुंचनमायां धूनय धूनीहि वा । तथा नजनं लोनं तथा स्थंडिलं क्रोधं तथा उन्नायं मानं । विचित्रत्वात् सूत्रस्य कमोल्लंघननिर्देशोन दोषायेति । यदिवा रागस्य उस्त्यज त्वात् लोनस्य च मायापूर्वकत्वादित्यादावेव मायालोनयोरुपन्यासति । कषायपरित्यागे विधेये पुनरपरं कारणमाह। एतानि पलिकुंचनादीनि अस्मिन् लोके यादानानि वर्तते । तदेतदवान ज्ञपरिझया परिझानप्रत्याख्यानपरिया प्रत्याचदीत ॥ ११॥ पुनरप्युत्त रगुणानधिकत्याह । (धावणमित्यादि) धावनं प्रदालनं हस्तपादयोर्वस्त्रादेरंजनमपि तथा विरेचनं निरूहात्मकमधोविरेकोवा । वमनमूर्ध्व विरेकस्तथाऽजनं नयनयोरिति । एवमादिकमन्यदपि शरीरसंस्कारादिकं यत् संयमपलिमंथकारि संयमोपघातरूपं तदेत विज्ञान स्वरूपतस्तविपाकतश्च परिझाय प्रत्याचवीत ॥ १२ ॥ गंधमनसिणाणंच, दंतपरकालणं तदा ॥परिग्गदिनिकम्मंच, तं विऊ परिजाणिया ॥१३॥ नदेसियं कीयगढ़, पामिचं चेव आदडं ॥ पूयं अणेसणिजंच, तं विजं परिजाणिया ॥२४॥ अर्थ-(गंधमानसिणाणंच के० ) सुगंधिक इव्यते गंध, माल्यते फूल अने शरीर स्नान ते शरीरप्रदालन देश थकी तथा सर्व थकी कर तथा (दंतपरकालणंके०) दांतप दालन ते दातणप्रमुखनुं करवं ( तहाके० ) तथा (परिग्गहि के०) सचेत अचेतादि कनो परिग्रह (इडिकम्मंच के० ) स्त्रीकर्म ते तिर्यच मनुष्य देवी प्रमुख ने हस्तकर्म कुचेष्टादिकनुं करवु (तं विकंपरिजाणिया के०) ए सर्वने पंमित अशुन जाणीने वर्जे ॥ ॥ १३ ॥ ( उद्देशिकं के ) साधुने निमित्ते करेलो आहार (क्रीतंकी के०) साधुने अर्थ मूल आपीने लीधेलो थाहार (पामिचंचेव के०) साधुने अर्थ नधारे लीधेलो आहार वली (आहडं के० ) साधुने अर्थ ग्रहस्थे सामो आएयो एवो थाहार (पुर्य अनेषणिकंच के० ) प्राधाकर्मिना कण सहित आहार (विकंपरिजाणिया के०) किं बहुना एबधो अनेराणिय सदोष आहार जाणीने पंमित पुरुष एने परिहरे ॥ १४ ॥ ॥ दीपिका-गंधाः कोष्ठपुटाद्यामाव्यंपुष्पादि स्नानं शरीरदालनं दंतप्रदालनं प रिग्रहः सचित्तादेः स्त्रीकर्म स्त्रियोनरतिरश्च्यस्तासां वशीकरणादिकर्म हस्तकर्म सावद्या नुष्ठानंवा तत्सर्व विज्ञान परिहरेत् ॥ १३ ॥ नद्देशिकं साधुदेशेन यत्कृतं । कीतं क्रयस्ते Page #413 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राय धनपतसिंघ बानाउरका जैनागम संग्रह नाग उसरा. ३७३ न कीतं । पामिचं साध्वर्थमन्यतन हिन्नकं गह्यते । चकारः समुच्चये । बाहृतं यज्ञहस्थैः साध्वर्थमानीयते पूयं बाधाकर्मावयवसंप्टक्तं अनेषणीयं यत्केनापि दोषेण अशुई तत्सर्वं विधान परिझाय परिहरेत् ॥ १४ ॥ ॥ टीका-अपिच । (गंधमन्नइत्यादि) गंधाः कोष्टपुटादयः। माल्यंजात्यादिकं । स्नानंच शरीरप्रदालनं देशतः सर्वतश्च । तथा दंतप्रदालनं कदंबकाष्टादिना । परिग्रहः सञ्चित्ता देः स्वीकरणं । तथा स्त्रियो दिव्यमानुषतैरभ्यः। तथा कर्महस्तकर्म सावद्यानुष्टानंवा । तदेत सर्व कर्मोपादानतया संसारकारणत्वेन परिझाय विज्ञान परित्यजेदिति ॥१३॥ किंचान्य त् । (नद्देसियमित्यादि) साध्वाद्युपदेशेन यदानाय व्यवस्थाप्यते तद्देशिकं । तथा की तं क्रयस्तेन कीतं गृहीतं कीतकीतं । (पामिति) साध्वर्थ अन्यतनद्यतकं यगृह्यते तत्तकुच्यते । चकारः समुच्चयार्थः । एवकारोऽवधारणार्थः । साध्वर्थ यगृहस्थेन नीयते तदाहतं । तथा पूयमिति आधाकर्मावयवसंप्टक्तं शुक्ष्मप्याहारजातं जवति । किंबहुनो तेन यतः केनचिदोषेणाऽनेषणीयमगुइंतत्सर्व विधान परिझाय संसारकारणतया नि स्टहः सन् प्रत्याचहीतेति ॥ १५ ॥ आसूणि मस्किरागंच, गिधुवघायकम्मगं॥ बोलणंच ककंच, तं विजं परिजाणिया ॥२५॥ संपसारी कयकिरिए, पसिणाय तणाणिय ॥ सागारियंच पिंमंच, तंविजं परिजाणिया ॥१६॥ अर्थ-(आसूणि के० ) घृतपानादिक औषध जेणे करी प्राणी बलवंत मत्त थाय. अथवा आशून एटले सुन्य जेणेकरी आत्मा शून्यथको रहे तथा (अरकीरागंच के) यांखनुं अंजनादिक तथा (गृक्षिके०) रसलोव्यता तथा (नपघातकर्मकं के० ) जे करवा थकी परजीवने नपघात थाय ते कर्म, तथा (नहोलनंच के० ) हाथ पग व स्वादिकनु पखाल तथा (ककंच के०) लोध्रादिक इव्ये करी शरीरनुं नगटणु करवू ए सर्वने कर्म बंधनुं कारण जाणीने पंमित परिहरे ॥ १५ ॥ (संपसारीकयकिरए के०) असंयतिनी साथे पर्यालोचन एटले थालोचन करवू तथा असंयमाचरण कर कराव, तथा असंयतिना अनुष्ठाननी प्रसंसा करवी तथा (पसिणायतणाणियके०)प्रश्नजे लोक व्यवहार ज्योतिषादिक तेनो निर्णय करवो तथा (सागारियंचपिंचके०) सागारिक जे स स्यात्तर तेना घरनो पिंम लेवो ए सर्वने पापना कारण जाणी पंमित परिहरे. ॥ १६ ॥ ॥ दीपिका-येन घृतपानादिना आशुनी स्यात् बलवान् नवति तदाशुनी । अदिरा Page #414 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८४ द्वितीये सूत्रकृतांगे प्रथमश्रुतस्कंधे नवमाध्ययनं. गोलोचनांजनं गृद्धिर्गायै रसेषु उपघातकर्म परापघातक्रिया नहोलणं प्रयतनया शी तोदकादिना हस्तपादादिद्दालनं कल्कं लोधादिव्येण शरीरोऽर्तनं तत्सर्वं विधान परि हरेत् ॥ १५ ॥ संयतैः सार्धं संप्रसारणं पर्यालोचनं तत्संप्रसारणं परिहरेत् । कृता शो गृहकरणादिक्रिया येन सकृतक्रियइत्येवमसंयतानुष्ठानप्रशंसां प्रश्नस्यायतनं प्रकटी करणं प्रश्ननिर्णयकारणं । सागारिकः शय्यातरस्तस्य पिंडं जुगुप्सितं हीनं वर्णपिंडं वा तदेतत्सर्वं विद्वान् परिहरेत् ॥ १६ ॥ ॥ टीका - किंच | ( सूणिमित्यादि) येन घृतपानादिना प्राहारविशेषेण रसायन कि ययावा अशूनः सन् यासमंतात् शूनीनवति बलवानुपजायते तदाशूनीत्युच्यते । यदिवा (प्रसूति) श्लाघा यतः श्लावया क्रियमाणया आसमंतात् तूनः । तूनोज घुप्रकृतिः कश्चि मातत्वात् स्तब्धोजवति । तथा यणां रागोरंजनं सौवीरादिकमंजनमिति यावत् । एवं रसेषु शब्दादिषु विषयेषु वा गृद्धिंगा तात्पर्यमासेवा तथोपघातकर्मेत्युच्यते । तदेव शतोदर्शयति । (बोलनंति) प्रयतनया शीतोदकादिना हस्तपादादिप्रचालनं तथा कल्कं लोधा दिव्य समुदायेन शरीरोऽर्तनकं तदेतत्सर्व बंधनायेत्येवं विद्वान पंडितोइ परिज्ञया प्रत्याख्यानपरिश्या परिहरेदिति ॥ १५॥ पिच । ( संपसारायइत्यादीति । संयतैः सार्धं संप्रसारणं पर्यालोचनं परिहरेदिति वाक्यशेषः । एवं संयमानुष्ठानं प्रत्युपदे शदानं तथा ( कय किरिए ) नाम कृता शोजना गृहकरणादिक्रिया येन सकृतक्रियइत्येवम संयतानुष्ठान प्रशंसनं तथा प्रश्नस्यादर्शः प्रश्नादेरायतनमाविष्करणं कथनं यथावस्थितप्रश्न निर्णयनानि । यदिवा प्रश्नायतनानि लौकिकानां परस्परव्यवहारे मिथ्याशास्त्रगत संशयेवा प्र सति यथावस्थितार्थकथन द्वारेणायतनानि निर्णयनानीति । तथा सागारिकः शय्या तरस्तस्य पिंडमाहारं । यदिवा सागारिकपिंड मिति सूतकगृहापंडं जुगुप्सितं वर्णापसपिंडं च । चशब्दः समुच्चये । तदेतत्सर्वं विद्वान् ज्ञपरिज्ञया प्रत्याख्यानपरिज्ञया परिहरेदिति ॥ १६ धावयं नसिकिका, वेहाईयं च गोवए ॥ चकम्मं विवायंच तं विऊं परिजाणिया ॥ १७ ॥ पाणदा नृयबत्तंच, पालीयं वाल वीयां ॥ परकिरियं न्नमन्नंच, तं विद्धं परिजा लिया ॥ १८ ॥ अर्थ:- ( हावयं न सिरिका के ० ) अर्थपदं एटले अर्थ पदते धन धान्य उपार्जवानो उपाय, न शीखे अथवा बीजे अष्टापदं एटले द्यूतक्रीडा नशीखे, (वेधा दिकंच के ० ) धर्मना वचन (गोवदेके ० ) नबोले, अथवा हिंसाकारी वचन बोले नही, तथा (ह कम्मं के० ) कुशील प्रसिद्ध ( विवायंच के० ) कलह अथवा बीजो को पण विवाद For Private Personal Use Only Page #415 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राय धनपतसिंघ बादाउरका जैनागम संग्रह नाग उसरा. ३७५ पंमित परिझायें जाणीने प्रत्याख्यान परिझायें परिहरे ॥ १७॥ (पाणहा उयहत्तंच के० ) पावडी तथा खासडा तथा ताप टालवाने अर्थ बत्र तथा (णालीयं के०) न लीमांहे पाश घाली नाखे द्युत रमत विशेष (वालवीयणंच के०) चामर मोर पीठ प्रमुखना वीजणा तथा (परकिरियं के० ) अन्य गृहस्थ पाशेयी क्रिया करावे तथा (यन्त्रमन्नंच के० ) अन्योन्य एटले माहो मांहे क्रियानुं कर एटले बीजो थापणी करे आपणे बीजानी करिए तेक्रिया जाणवी. ए सर्व कर्म बंधना हेतु एम तेने प रिझाये जाणीने प्रत्याख्यान परिज्ञायें करी पंमित परिहरे ॥ १७ ॥ ॥ दीपिका-अर्थोधनधान्यादिः पदं शास्त्रं प्राण्युपघातकं नशिदेत् । अथवा श्रष्टा पदं द्यूतक्रीडां नशिदेत नापि पूर्वशिक्षितमनुशीलयेत् वेधोधर्मानुवेधस्तस्मादतीतं वे धातीतमधर्मप्रधानं वचोनवदेत् हस्तकर्म प्रतीतं अथवा हस्तक्रिया परस्परं हस्तव्यापारे प्रधानः कलहः। विवादं शुष्कवादं तदेतधकारणं परिहरेत् ॥ १७ ॥ नपानही काष्ठपा उके श्रातपवारणाय बत्रं च नालिका द्यूतक्रीडा वालैर्मयूरपिय॑जनकं परेषां क्रिया अन्योन्यकार्यमन्यकार्य सकरोति तस्य चान्यः । तदेतत्सर्व विधान कर्मबंधहेतुत्वेन झप रिझया परिज्ञाय प्रत्याख्यानपरिझया परिहरेत् ॥ १७ ॥ ॥ टीका किंचान्यत् । (अहापयमित्यादि) अर्थते इत्यर्योधनधान्य हिरण्यादिकः पद्य ते गम्यते येनार्थस्तत्पदं शास्त्र अर्थार्थ पदमर्थपदं चाणक्यादिकमर्थशास्त्रं तन्न शिदे नान्यसेन्नाप्यपरप्राण्युपमर्दकारि शास्त्रं शियेत् । यदिवा अष्टापदं द्यूतक्रीडाविशेषस्तं नशिदेत नापि पूर्वशि दितमनुशीलयेदिति । तथा वेधोधर्मानुवेधस्तस्मादतीतमधर्मप्र धानं वचोनोवदेत् । यदिवा वेधति वर्धवेधोयूतविशेषस्ततं वचनमपि नोवदेदास्तां तावत्कीडनमिति हस्तकर्म प्रतीतं । यदिवा हस्तकम हस्तक्रिया परस्परं हस्तव्यापार प्रधानः कलहस्तं तथा विरुध्वादं शुष्कवादमित्यर्थः । चःसमुच्चये । तदेतत्सर्व संसा रचमणकारणं झपरिझया परिझाय प्रत्याख्यानपरिझया प्रत्याचदीत ॥१७॥ किंच (प पहावेवेश्त्यादि) नपानही काष्ठपाके च तथाऽतपादिनिवारणाय बत्रं तथा नालिका द्यूतक्रीडाविशेषस्तथा वालैमयूरपिा व्यजनक तथा परेषां संबंधिनक्रियामन्योन्यपरस्य रतोऽन्यनिष्पाद्यामन्यः करोत्यपरनिष्पाद्यां चापरइति । चःसमुच्चये। तदेतत्संर्व विधान पं मितः कर्मोपादानकारणत्वेन झपरिझया परिज्ञाय प्रत्याख्यानपरिझया परिहरेदिति॥१७ नचारं पासवणं,हरिएसु ण करे मुणी॥वियडेण वा विसाहड्डु, णावमजे कयाइवि ॥२॥ परमते अन्नपाणं, ण मुंजेज कया शवि॥ परवळ अचेलोवि, तं विकं परिजाणिया॥२०॥ Page #416 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६ तिीये सूत्रकृतांगे प्रथम श्रुतस्कंधे नवमाध्ययनं. अर्थ-(उच्चारं के० ) वडीनीत (पासवणं के०) लघुनीत तेनो (हरिएसुणकरेमु - निः के०) मुनि हरित काय वनस्पति उपर स्थंमिल नकर (वियडेणवाविसाइट्ठ के०) फासु पाणियें करी वनस्पतिकाय हरितकाय बीजने कदापि (णावमलेकयाइविके०) पर हां नकरे एटले निश्वेथकी दूरन करे ॥ १५ ॥ (परमत्तेअन्नपाणं के० ) पर एटले अन्य गृहस्थ तेने घेर कांसादिकना नाजनने विषे अन्न पाणी आहारादिकने (ण,जेज कयाइवि के० ) कदापि मुंजे नही एटले जमे नही ( परवडंबचेलोवि के० ) पोते थ चेलक एटले वस्त्र रहित बतां पण परजे गृहस्थादिक तेनुंजे वस्त्र तेने ननोगवे एटले ए सर्वने संयम विराधवाना कारण जाणीने जे पंमित होय ते परिहरे ॥ २० ॥ ॥ दीपिका-नुच्चारं प्रस्रवणं च हरितेषु नकुर्यान्मुनिः। तथा विकटेन प्रासुकजलेनापि संहत्यापनोय बीजानि हरितानि वा नाचमेत ननिर्लेपनं कुर्याकिमुताविकटेन ॥१॥ परस्य गृहस्थस्यामनं नाजनं तत्रान्नपानं नटुंजीत । कदाचिदपि पूर्वकर्मपश्चात्कर्मादिदोषा त अचैलोपि सन परवस्त्रं गृहस्थवस्त्रं नबिनर्ति । यदिवा ऽचैलोजिनकल्पी तस्य सर्वम पि वस्त्रं परवस्त्रमेव तन्न बिनुयात् तत्सर्व विधान परिझाय परिहरेत् ॥ २० ॥ ॥ टीका-तथा (उच्चारमिति ) उचारप्रस्रवणादिकां क्रियां हरितेषूपरिबीजेषु वा स्थं डिले वा मुनिः साधु कुर्यात्तथा विकटेन विगतजीवेनाप्युदकेन संहृत्यापनीय बीजानि ह रितानि वा नाचमेत ननिर्जेपनं कुर्यात् किमुताविकटेनेतिनावः॥ १७ ॥ किंच (परमत्ते इत्यादि) परस्य गृहस्थस्यामत्रं नाजनं परामत्रं तत्र पुरःकर्म पश्चात्कर्म तनयात् हृतनष्टा दिदोषसंनवाच्चान्नं पानंच मुनिर्न कदाचिदपि मुंजीत । यदिवा पतनहधारिणबिपाणेः पाणिपात्रं परपात्रं । यदिवा पाणिपात्रस्यालिपाणेर्जिनकल्पिकादेः पतनहः परपात्रं त त्र संयमविराधनाजयाननंजीत तथा परस्य गृहस्थस्य वस्त्रं परवस्त्रं वत्साधुरचैलोपि सन् पश्चात्कमोदिदोषनयात् हृतनष्टादिदोषसंनवाच्च नबिनुयात् । यदिवा जिनकल्पिका दिकोऽचैलोनूत्वा सर्वमपि वस्त्रं परवस्त्रमिति कृत्वा नबिजयादेतत्सर्व परपात्रनोजनादि कं संयमविराधकत्वेन झपरिज्ञया परिझाय प्रत्याख्यानपरिझया परिहरेदिति ॥ २० ॥ आसंदीपलियंकेय, णिसिजं च गिदंतरे॥ संपुचणं सरणंवा, तं विऊं परिजाणिया ॥२२॥ जसं कित्ति सलोयंच, जाय वंदण पू यणा ॥ सवलोयंसि जे कामा, तं विऊं परिजाणिया ॥२२॥ अर्थ-(यासंदीपलियंकेयके०) गृहस्थनु आसन जे मांची प्रमुख तथा पर्यकासन ते Page #417 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रायधनपतसिंघ बदाउरका जैनागम संग्रह भाग उसरा. ३७ ना उपर बेसवु तथा (निसिऊंचगिदंतरेके०) गृहस्थना घरने अंतरे अथवा गृहस्थना घरमां बेस, (संप्रजनं के०) गृहस्थने कुशलादिकनु पुर्बु (वाके०) तथा (सरणं के० ) पूर्वक्रीडादिकनुं संजारवु ए सर्वने जाणीने पंमित परिहरे ॥२१॥जे सर्व व्यापि तेने ( जसंके० ) यश कहिए अने जे एकदेश व्यापि तेने (कित्तिके ) किर्ति कहिए तेज (सिलोयंचके०) श्लाघानी (जायके०) जाति जाणवी तथा (वंदणपूयणाके) रा जादिकनी वंदना पूजा सत्कार वस्त्रादिके करी कराववानी जे वांडा करवी, तथा (सब लोयं सिजेकामा के०) सर्व लोकमां जे विषय का कामरूप तेनी वांबना करवी, एस वने पंमित कर्म बंधना कारण जाणीने परिहरे ॥ २२ ॥ ॥ दीपिका-आसंदीबासनविशेषः पर्यकःशयनविशेषः । तथा क्योहयोर्मध्ये निष ग्रामवस्थानं परिहरेत् गृहस्थकुले कुशला दिसंप्रजनं पूर्वक्रीडितस्मरणं तदेतत्सर्व विक्षा न परिहरेत् ॥ २१ ॥ संग्रामादिनवं यशः। दानादिनवा कीर्तिः। तपोझानादिनवा श्ला घा तथा नृपादिनिर्वदना पुष्पादिनिः पूजनं तथा सर्वलोकनामदनरूपाये कामास्तदे तत्सर्व विज्ञान परिझाय परिहरेत् ॥ २२ ॥ ॥ टीका-(आसंदीत्यादि) यासंदीत्यासनविशेषः । यस्य चोपलदाणार्थत्वात्सर्वोप्या सनविधिहीतः । तथा पर्यकः शयनविशेषस्तथा गृहस्यांतर्मध्ये गृहयोर्वा मध्ये निषद्यां वाऽऽसनंवा संयमविराधनानयात्परिहरेत् । तथाचोक्तं । गनीरजसिराएते, पाणाडप्पडि खेहगा ॥ अगुत्ती बंनचेरस्स, इसी बाविसंकणाश्त्यादि । तथा तत्र गृहस्थगृहे कुशला दिप्रबनं यात्मीयशरीरावयवप्रजनंवा तथा पूर्वक्रीमितस्मरणं चेत्येतत्सर्व विज्ञान विदि तवेद्यः सन्ननायेति झपरिज्ञया परिझाय प्रत्याख्यानपरिझया परिहरेत् ॥ २१ ॥अपि च । (जसंकित्तिमित्यादि ) बदुसमरसंघनिर्वहणशौर्य लक्षणं यशः । दानसाध्या कीर्तिः जातितपोबहुश्रुत्यादिजनिताश्लाघा तथा याच सुरासुराधिपतिचक्रवर्तिबलदेववासुदेवा दिनिर्वदना तथा तैरेव सत्कारपूर्विका वस्त्रादिना पूजना तथा सर्वस्मिन्नपि लोके इलाम दनरूपाये केचन कामास्तदेतत्सर्व यशःकीर्तिमपकारितया परिझाय परिहरेदिति ॥ २ ॥ जेणेद णिव निस्कू, अन्नपाणं तदाविहं ॥ अणुप्पयाणमन्नेसिं, तं विऊं परिजाणिया॥२३॥ एवं उदादु निग्गंथे, महावीरे महा मुणी॥ अणंतनाणदंसी से, धम्मं देसि तवं सुतं ॥२४॥ Page #418 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८८ द्वितीये सूत्रकृतांगे प्रथम श्रुतस्कंधे नवमाध्ययनं. ( अर्थ - ( जेणेह के ० ) जे ( अन्नपाएं के० ) अन्नपाणीयें करीने खालोकने वि निस्कू के ० ) साधुपोतानो निरवाह करे याजीविका करे तेवा अन्न पान ने ( तहविहं के० ) तथाविध देखीने व्य, क्षेत्र, काल घने जावनी अपेक्षायें शुद्ध नि दrष ग्रहण करे. (पुप्पयाणमन्ने सिं के०) वली एज अन्न पाणीनुं बीजा संयतिने देवं ते सर्वने ज्ञ परिज्ञायें प्रनर्थनुं हेतु जालीने पंमित परिहरे || २३ | ( एवं के० ) ते ( महामुली के० ) महामुनि (निग्गंथे के० ) बाह्यान्यंतर परिग्रह रहित एवा ( महावीरे के ० ) श्री वर्धमान स्वामी तेणे ( उदादु के० ) कह्यावे. (सेके ० ) ते श्री वमान केवाले, तोके (यांतनाणसी के० ) घनंत ज्ञान दर्शनना धरनारते. तेणे धम्मंदे सितवंतं के०) ए श्रुत चारित्र रूप धर्म उपदेश्यो के सिद्धांत रहस्य प्रकाश्यो. ॥ दीपिका - येनान्नपानेन इहा स्मिन् लोके निक्कुर्निर्वहेत् संयमयात्रां कुर्यात् तत्तथा विधमन्नं पानं वा गुद्धं गृहीयात्तेषामन्नादीनामनुप्रदानं गृहस्थानां परतीर्थिकानां स्वयूथ्यानां वा संयमोपघातकं नकुर्यात्तत्सर्वं विद्वान् परिज्ञाय परिहरेत् ॥ २३ ॥ एवं पूर्वोक्तं निर्ययः श्रीवीरोमुनिः उदाहृतवान् कथितवान् । बाह्याभ्यंतरग्रंथरहितत्वान्नि येथः । घनंतं ज्ञानं दर्शनं च यस्यासावनंतज्ञानदर्शी सनगवान् धर्मचारित्ररूपं श्रुतं च सतिं देशितवान् प्रकाशितवान् ॥ २४ ॥ ॥ टीका - किंचान्यत् । ( जेणेह मित्यादि ) येनान्नेन पानेन वा तथाविधेनेति सुप रिमेन कारणापेक्षयात्वशुदेन वा इहास्मिन् लोके इदं संयमपात्रादिकं बुर्जिहारोगात का दिकं वा निकुर्निर्वन्निर्वाहये हा यदन्नं पानंवा तथाविधं व्यक्षेत्र कालनावापेक्षया-६ कल्पं गृहीयात्तथे तेषामन्नादीनामनुप्रदानमन्यस्मै साधवे संयममात्रान्निर्वहणसमर्थ मनुतिष्ठेत् । यदिवा येनकेन चिदनुष्ठितेन संयमं निर्वहेन्निर्वाहयेद सारतामापादयेत्तथाविध मशनं पानं वाऽन्या तथाविधमनुष्ठानं नकुर्यात् । तथैषामशनादीनामनुप्रदानं गृहस्थानां परतीर्थिकानां स्वयूथ्यानां वा संयमोपघातकं नानुशीजयेदिति तदेतत्सर्वं परिज्ञया ज्ञात्वा सम्यकपरिहरेदिति ॥ २३ ॥ यडुपदेशेनैतत्कुर्याद्दर्शयितुमाह ( एवं दाइत्या दि) एवमनंतरोक्तया नीत्या उदेशकादेरारज्य ( उदाहुत्ति) उदाहृतवानुक्तवान्निर्गतो बाह्यान्यतरोग्रंथोयस्मात्स निर्ग्रथोमहावीरइति श्रीम६र्धमानस्वामी महांश्चासौ मुनिश्व महामुनिःअनंतं ज्ञानं दर्शनं च यस्यासावनंतज्ञानदर्शी सनगवान् धर्मं चारित्रलक्षणं सं सारोत्तरणसमर्थ वा तथा श्रुतं च जीवादिपदार्थसूचकं देशितवान् प्रकाशितवान् ॥ २४ ॥ For Private Personal Use Only Page #419 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राय धनपतसिंघ बाहारका जैनागम संग्रह नाग इसरा. ३८ जासमाणो नचासेजा, ऐव वफेजमम्मयं ॥ मातिद्वाणं विवज्जे ज्जा, चिंतिय वियागरे ॥ २५ ॥ तमिति इया नासा, जं दत्ता तपती ॥ जं उन्नं तं न वत्तवं, एसा आणाणियंविया ॥ २६ ॥ अर्थ - (नासमालोननासेका के० ) गुरुवादिक मोहोटा पुरुष बोलता होय तेनी व मांडकीने नबोले, तथा (मम्मयंके०) मर्मनुं वचन जेना बोलवा थकी कोई जीव उह . वाय एवा वचन बोले नही. ( मातिठाणं विवका के० ) मातृस्थान एटले मायायें कर प्रधान वचन बोलवानुं पण वर्जे तो सुं बोले तोके ( अणुचिंतिय वियागरे के० ) कार्य विशेषे विमाशीने बोले जे नापा बोलवा थकी कांइ पण पण नलागे तेवी जा प्रकाशे ॥ २५ ॥ ( तविमातश्यानासा के० ) एक सत्या बीजी असत्या त्रीजी स त्यामृषा चोथी सत्यामृषा ए चार जाषा माहेली त्रीजी भाषा जे कांइक सत्य अने nish सत्य ने तेपण नबोले ( जंवदित्तातप्पती के० ) जे भाषाना बोलवा थकी ral art पश्चाताप करवो पडे, एटले परनवे एना उदयथी दुःखी थाय तेवारे पश्चा ताप करे (जंबनंतनवत्तवं के० ) जे सावद्य एवं हिंसाकारी वचन ते नबोले, एटले या अमुक चोरले एने मारो, या धातुनो प्रयोग करो, अथवा था खेत्र खेडो एवी नापा नबोजे. ( एसाप्राणाणियंतिया के ० ) एवी श्राज्ञा निग्रंथ श्रीमाहावीर देवनीबे ॥ २६ ॥ ॥ दीपिका - योहि नाषासमितः सनाषमाणोषि धर्मकथां कथयन्नपि यनाषकएव । उक्तंच । वयण विहत्ती कुसलो, वजंगयं बहुविहं वियाणंतो । दिवसंपि नासमाणो, साहू वइगुत्तपत्तो ॥ १ ॥ अथवा यत्र रत्नाधिकोनाषमाणः स्यात्तत्रांतरे नजाषेत । मर्मगं व चनं नांदेत् । यचनमुक्तं सत्परपीडामाधत्ते तन्न नाषेतेत्यर्थः । मातृस्थानं मायाप्रधानं वचोविवर्जयेत् अनुविचिंत्य विचार्य व्यागृणीयात् वदेत् ॥ २५ ॥ सत्या १ असत्या‍ सत्यामृषा ३ सत्यामृषा । एताश्वतस्त्रोनाषाः । तत्रेयं तृतीया जाषा साच किंचित्सत्या किंचिन्मृषा । यथा दशदारकापुरे जातामृतावा तदत्र न्यूनाधिकसंनवेसति संख्या व्यनिचारात्सत्यामृषात्वं । यां जाषामुदित्वा इहलोके वा नितप्यते क्लेशनानवति । को र्थः । मिश्रापि जाषा दोषाय किंपुनरसत्येति । तथा य ६चः (बंन्नत्ति) ऋणु हिंसयां हिंसाप्र ari नंवा नोकैरावाद्यते तत्सत्यमपि नवाच्यं एषाज्ञा निर्यथोभगवान् तस्य ॥२६ ॥ टीका - किंचान्यत् (नासमाणे इत्यादि ) यो हि नाषासमितः सनाषमाणोपि धर्मक यासंबंध नाषकएव स्यात् । वक्तंच । वयणविहत्ती कुशलो, वजंगयं बहुविहं वियाांतो । For Private Personal Use Only Page #420 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०० द्वितीये सूत्रकृतांगे प्रथम श्रुतस्कंधे नवमाध्ययनं. दिवसंपि नासमालो, साहूवरुगुत्तयंपत्तो ॥ १ ॥ यदिवा यत्रान्यः कश्विनादिकोनाषमाणस्त त्रांतरएव सश्रुतिकोहमित्येवमनिमानवान्ननाषेत । तथा मर्म गष्ठतीति मर्मगं वचोन (वंफे ऊति ) नानिलषेत् । य ६चनमुच्यमानं तथ्यमतथ्यंवा सद्यस्य कस्य चिन्मनः पीडामाधत्ते तद्विवेकीन जावेतेति जावः । यदिवा मामकं ममीकारः पक्षपातस्तं नापमालो (नवंफेक ति) नानिषेत्तथा मातृस्थानं मायाप्रधानं वचोविवर्जयेत् । इदमुक्तं नवति । परवंचन बुध्या गूढाचारप्रधानोनाषनालोऽनापमा लोवाऽन्यदावा मातृस्थानं नकुर्यादिति । यदातु वक्तु कामोजवति तदा नैतदचः परमात्मनोरुनयोर्वा बायकमित्येवं प्राग्वि चिंत्य वचनमु दाहरेत् । तडुक्तं । पुवं बुद्धी एपे हित्तापञ्चावक मुदाहरे इत्यादि ॥ २५ ॥ पिच । (तमित्यादि) सत्या असत्या सत्यामृषा सत्यामृषेत्येवंरूपासु चतसृषु भाषासु मध्ये तत्रेयं सत्यामृषेत्ये तदनिधानात्तृतीया भाषा । साच किंचिन्मृषा किंचित्सत्या इत्येवंरूपा । तद्यथा दशदारका स्मिन्नगरे जातामृताः । तदत्र न्यूनाधिकसंनवेसति संख्यायाव्य निचारात्सत्यामृषात्वमिति । यां चैवंरूपां जाषामुदित्वा अनुपश्चानापणान्मांतरेवा तजनितेन दोषेण तप्यते पीडयते क्लेशनानवति। यदिवा अनुतप्यते किंममैवंनूतेन नापितेनेत्येवं पश्चात्तापं विधत्ते । ततश्वेद मुकं नवति मिश्रापि नाषा दोषाय किंपुनरसत्या द्वितीया समस्तार्थविसंवादिनी । तथा प्रथमापि जाषा सत्या या प्राप्युपतापेन दोषानुषंगिणी सा न वाच्या । चतुर्थाप्यसत्या मृषा नावा बुधैरनाचीर्णा सा न वक्तव्येति । सत्यायायपि दोषानुषंगित्वमधिकृत्याह । यदचः ( बन्नंति) ऋणु हिंसायां हिंसाप्रधानं । तद्यथा वध्यतांचौरायं सूयंतांकेदाराः दयंतां गोकइत्यादि । यदिवा उन्नति प्रवन्नं यलोकैरपि प्रवाद्यते तत्सत्यमपि न वक्तव्य मिति । एषाऽऽज्ञा प्रयमुपदेशो निर्यथोभगवांस्तस्येति ॥ २६ ॥ ढोलावायं सदीवायं, गोयावायं च नोवदे ॥ तुमं तुमंति अमणु नं, सबसो तं वत्तए ॥ २७ ॥ कुसीले सया निस्कू, व सं सग्गियं नए ॥ सुहरुवा तचुवस्सग्गा, पडिबुझे तेविक ॥२८॥ ० अर्थ - ( होजावायं के० ) होलावादते देश विशेषे डरवचन विशेषले तेमाटे होव्या एम नबोले : तथा ( सहीवाद के ० ) हे सखी एम पण न बोले ; ( गोयावायंचनोवदे cho) गोनो प्रकाशकरी बोलाववो जे तुं अमुक नीच गोत्रीठो एवं वचन पण नबोले; (तुमतुमं ति मनके० ) तुंतुं एवो अमनोइ तिरस्कारनुं श्रसुहामणुं वचन ते ( सब सोबत के० ) सर्वथा प्रकारे नबोले; केमके साधुने एवा वचन बोलवा युक्त न थी. ॥ २७ ॥ (कुसीलेसया निस्कू के ० ) सर्व काल साधु धकुशील होय ब्रह्मचारी For Private Personal Use Only Page #421 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रायधनपतसिंघ बादाउरका जैनागम संग्रह नाग उसरा. ३ए। थको रहे (णेवसंसग्गियंनए के) तथा जिनशासनथी विरु एवा अनाचारी पास बादिकनो त्रविधे संसर्ग नकरे ते पासबादिकनो संसर्ग केवो तोके जेना थकी (सु हरूवा तबुवस्सग्गा के० ) सुखरूप जे संयम तेना घातना करनार एवा एना थकी उपसर्ग उत्पन्न थाय केमके ते प्रायें सातागारव पणे वर्तनारा दोय ने तेमाटे तेनी साथे सुविहित पुरुष संसर्ग करे तो तेपण सातागारव पणाने पामे. तेथी सुखरूप सं यमनो घातक थायले माटे (पडिबुङतेविक के.) पंमित जे होय ते प्रतिबोध पा मीने एवा स्वेवाचारोनो संसर्ग तेने छःखy कारण जाणीने त्याग करे. ॥ २७ ॥ ॥ दीपिका-होलाइति वादोहोलावादः सखेति वादः सखिवादः गोत्रप्रकटनेन वादो गोत्रवादः काश्यपगोत्रावासिष्ठगोत्रावेत्यादि एवंरूपं वादं साधुर्नवदेत् (तुमंति) वं त्वमिति तिरस्कारवाक्यं अमनोइं परस्य मनःप्रतिकूलं सर्वशः सर्वथा साधूनां वक्तुं न वर्तते ॥ २७ ॥ नकुशीनोऽकुशीनः सदानिकुनकुशीतैः संसर्ग नजेत सेवेत । सुखरूपा सातागौरवस्वनावास्तत्र कुशीतसंगे उपसर्गाः संयमोपघातकारिणः प्राऊष्यंति तदिक्षा न विवेकी प्रतिबुध्येत जानीयात् कुशीतसंगं त्यजेदित्यर्थः ॥ २७ ॥ ॥ टीका-किंच (होलावायमित्यादि) होलेत्येवं वादोहोलावादस्तथासखेत्येवं वादः स विवादस्तथा गोत्रोद्घाटनेन वादोगोत्रवादोयथा काश्यपसगोत्रोवासिष्ठसगोसत्रोवेति इत्ये वरूपं वादं साधु वदेत्तथा (तुमंतुमं) तिरस्कारप्रधानमेकवचनातंबदुवचनोच्चारणयो ग्येऽमनोझं मनःप्रतिकूलरूपमन्यदप्येवंनूतमपमानापादकं सर्वशः सर्वथा तत्साधूनां वक्तुं न वर्ततइति । यदाश्रित्योक्तं नियुक्तिकारेण । तद्यथा। पासबोसम्मकुशीलसंथवोणकिलव दृएकानं तदिदमित्यादि ॥२७॥ (अकुशीलेत्यादि) कुत्सितं शीलमस्येति कुशीलः सच पार्श्वस्थादीनामन्यतमः नकुशीलोअकुशीलः सदा सर्वकालं निहाणशीलोनिक्नुः कुशीलो ननवेन्नचापि कुशीलः साथै संसंर्ग सांगत्यं नजेत सेवेत। तत्संसर्गदोषोदिनावयिषयाह। सुखरूपाः सातागौरवस्वनावास्तत्रतस्मिन् कुशीलसंसर्गे संयमोपघातकारिणनपसर्गाः प्राइष्यति । तथाहि । कुशीलवक्तारोनवंति। कः किल प्रासुकोदकेन हस्तपाददंतादिके प्रदा व्यमानेदोषः स्यात्तथा नाशरीरोधर्मोनवति इत्यतोयेन केनचित्प्रकारेणाधाकर्मसान्निध्या दिना तथा उपानबत्रादिनाच शरीरं धर्माधारं वर्तयेत् । उक्तंच । अप्पेण बहुमेसेजा एवं पंडियलरकणंइति । शरीरं धर्मसंयुक्तं रक्षणीयं प्रयत्नतः ॥ शरीरात्स्त्रवते पापं पर्वतात्स लिलं यथा ॥ १॥ तथा सांप्रतमल्पानि संहननानि अल्पधृतयश्च संयमे जंतवश्त्येवमादि कुशीलोक्तं श्रुत्वा अल्पसत्तास्तत्रानुषकत्येवं विज्ञान विवेकी प्रतिबुध्येत जानीयात् बु ध्वा चापायरूपकुशोलसंसर्ग परिहरेदिति ॥ २ ॥ Page #422 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३ए तीये सूत्रकृतांगे प्रथम श्रुतस्कंधे नवमाध्ययनं. नन्नब अंतराएणं, परगेदेण णिसीयए ॥ गामकुमारियं किडं, नातिवेलं दसे मुणी॥२॥अणुस्सुन नरालेसु, जयमाणो परि वए ॥ चरियाए अप्पमत्तो, पुो तब हियासए ॥ ३०॥ अर्थ- ( नन्नब अंतराएणं के ) जरा रोगादिक कारणविना (परगेहेणणिसीयए के) गृहस्थना घरने विषे नबेशे एटले गृहस्थने घेर नबेश ए साधुनो उत्सर्ग मा गे कह्यो. अने अपवादे तो जरारोगादिक कारण विना नबेशे तथा कोइएक लब्धी मंत धर्मोपदेशादिक वचन देवाने कारणे पण बेशे तथा (गामकुमारियं किड्डे के०)ग्रा मने विषे बालक कीडा हास्य कंदर्प हस्तस्पर्श थालिंगनादिक गेडा दडि इत्यादिक क्रीडा ने (नातिवेलंहसेमुगीके०) साधु नकरे वली पडिलेहणादिक क्रियानी मर्यादा ने नगवं तनी आज्ञा थकी विरुध जाणीने अतिक्रमे नही हसे नही ॥२॥ (अणुस्सु नरालेसु के०) नदार ननट प्रधान एवा गृहस्थना कामनोगादिक देखी तथा सांजलीने तेनी वांडा करे नही तथा (जयमाणोपरिवए के०) संयमने विषे यत्न करतो गुम चारित्र पाले (चरियाएअप्पमत्तो के०) विहार करवाने विषे प्रमाद नकरे, अप्रमत्त पणे विचरे (पुतबहियासए के० ) त्यां विहार करवानेविषे उपसर्ग परिसह उपने थके तेने फ रश्यो थको अदीनपणे सम्यक्रीते अहियासे ॥ ३० ॥ ॥ दीपिका-साधुर्निवानिमित्तं ग्रामादौ प्रविष्टः सन परोगृहस्थस्तस्य गृहे ननिषीदेत नोपविशेत् । यदिवा देशनालब्धिमान् कश्चित्ससहायोगुर्वनुज्ञातः कथंचित्तथाविधस्य धर्म देशनानिमित्तमुपविशेदपि । तथा ग्रामे कुमारकास्तेषामियं ग्रामकुमारिका कीडा हा स्यकंदर्पहस्तसंस्पर्शालिंगनादिका अथवा क्रीडा वट्टकंकादिका तां मुनि!कुर्यात् अति वेलं वेलामर्यादा तामतिकम्य नहसेन्मुनिः । यदागमः । जीवेणंनंतेहसमाणे उस्स्य माणेवाकाइकम्मवगडी बंध गोयमा ससविहबंधएवा अविहबंधएवाइत्यादि ॥ २५ ॥ नदारेषु शब्दादि विषयेषु अनुत्सुकोऽनासक्तोयतमानः संयमे परिव्रजेन्मूलोत्तरगुणेषू धमं कुर्यात् । चर्यायां निकादिकायामप्रमत्तः स्यात् स्टष्टः परीषदादिनिस्तत्राऽदीनो ऽध्यासहेत् सम्यक् सह्यात् ॥ ३० ॥ ॥ टीका-किंचान्यत् (ननत्यादि ) तत्र साधुनिदादिनिमित्तं ग्रामादौ प्रविष्टः सन परोगृहस्थस्तस्य गृहं परगृहं तत्र ननिषीदेन्नोपविशेत्तत्सर्गतोस्यापवादं दर्शयति।नान्यत्रां तरायेणेति। अंतरायः शक्त्यनावः सच जरसा रोगातकान्यां स्यात्तस्मिं चांतराये सत्युपवि Page #423 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राय धनपतसिंघ बाहाउरका जैनागम संग्रह नाग उसरा. ३५३ शेद्यदिवोपशमलब्धिमान कश्चित्सुसहायोगर्वनुज्ञातः कस्यचित्तथाविधस्य धर्मदेशनानिमि तमुपविशेदपि । तथा ग्रामे कुमारकाग्रामकुमारकास्तेषामियं ग्रामकुमारिका ऽसौकीडा हा स्यकंदर्पहस्तसंस्पर्शनालिंगनादिका। यदिवा वट्टकंकादिका तां मुनिनकुर्यात्तथा वेला मी दातामतिकांतमतिवेलं नहसेन्मर्यादामतिकम्य मुनिः साधुर्ज्ञानावरणीयाद्यष्टविधकर्मबंध नयान्नहसेत् । तथा चागमः। जीवेणं नंते हसमाणे नस्सूयमाणे वाकाश्कम्मपगडी बंध ३ गोयमा सत्तविह बंधएवा अविदबंधएवाश्त्यादि ॥ ए॥ किंच (अणुस्सुनाई त्यादि) नरालाउदाराः शोजनामनोझाये चक्रवादीनां शब्दादिषु विषयेषु कामनोगा वस्त्रानरणगीतगंधर्वयानवाहनादयस्तथा बाझैश्वर्यादयश्चैतेषूदारेषु दृष्टेषु श्रुतेषु वा नो त्सुकः स्यात् ।पाठांतरंवा। ननिश्रितोऽनिश्रितो ऽप्रतिबदः स्याद्यतमानश्च संयमानुष्ठाने प रिसमंतान्मूलोत्तरगुणेषु उद्यम कुर्वन व्रजेत्संयमं गब्बेत् तथा चर्चायां निदादिकायामप्रम त्तःस्यात् नाहारादिषु रसगाऱ्या विदध्यादिति । तथा स्पष्टश्चानिद्रुतश्च परीषदोपसर्गस्त त्रादीनमनस्कः कर्मनिर्जरां मन्यमानोविषहेत सम्यक् सह्यादिति ॥ ३० ॥ दम्ममाणो ण कुप्पेडा, वुच्चमाणो नसंजले ॥ सुमणे अदिया सिज्जा, णय कोलादलं करे॥३॥ ल कामे ण पबेजा, विवेगे एव माहिए ॥ आयरियाई सिरकेजा, बुद्धाणं अंतिए सया॥३२॥ अर्थ-(हम्ममाणोणकुप्पेझाके० ) कोइए लाकडी अने मुष्ट्यादिके करी हस्यो बतो क्रोध नकरे (वुच्चमाणोनसंजलेंके० ) तथा पुर्वचने करी याकोश नपजाव्यो थको पण कोध नकरे, अने प्रति वचन पण नबोले; (सुमणेबहियासिजाके०) किंतु सुमन थको पूर्वोक्त परीसहने सहन करे, परंतु (गयकोलाहलंकरे के०) तेवा परीसहनी पीडायें पीडयो थको कोलाहल नकरे ॥३१॥ (लकामेणपबेजाके) प्राप्त थएला कामनोगने प्रार्थे नही एटले जोगवे नही, (विवेगेएवमाहिए के०) ए साधुनो विवेक श्रीतीर्थक रे कह्योले, (आयरियाऽसिरकेला के ) तथा जे आचरवायोग्य एवा ज्ञान, दर्शन थ ने चारित्रादिक तेने शीखे, परंतु कोनी पाशेथी शीखे तोके (बुदाणंअंतिएसया के०) गुरु जे श्राचार्य तेनी पाशेथी सदा शीखे एटले गुरु कुल वास कह्यो. ॥ ३ ॥ ॥ दीपिका-हन्यमानोयष्ट्यादिनिन कुप्येत कोपं न कुर्यात् उर्वचनैरुच्यमानथाक्रुश्य मानोन संज्वलेत नप्रलापं वदेत् सुमनाः कोलाहलमकुर्वन्नधिसहेत ॥ ३१॥ लब्धानपि कामान् नोगांश्च वैरस्वामिवनप्रार्थयेन्नग्रहीयात् एवंकुर्वतोहि विवेकथावि वितः स्या Page #424 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३ए वितीये सूत्रकृतांगे प्रथम श्रुतस्कंधे नवमाध्ययनं. त् । आर्याणि गुनानि कर्तव्यानि बुझानामाचार्याणामंतिके समीपे शिदेतान्यसेदनेन नित्यगुरुकुले वासः सेवनीयति झापितं ॥ ३२ ॥ ॥ टीका-परीषदोपसर्गाधिसहनमेवाधिकल्याह । (हम्ममाणोइत्यादि ) हन्यमानो यष्टिमुष्टिलकुटादिनिरपि न कुप्येन्नकोपवशगोनवेत्तथा उर्वचनान्युच्यमानथाक्रुश्यमानो निर्नय॑मानोन संज्वलेन्न प्रतीपं वदेन्नमनागपि मनोऽन्यथात्वं विदध्यात् किंतु सुमनाः सर्व कोलाहलमकुर्वन्नधिसहेतेति ॥३१॥ किंचान्यत् । (लकामेइत्यादि) लब्धान प्राप्तानप्रा तानपि कामानिनामदनरूपान्गंधालंकारवस्त्रादिरूपान्वा वैरस्वामिवन्नप्रार्थयेन्नानुमन्येत नगृहीयादित्यर्थः। यदिवा यत्र कामावसायितया गमनादिलब्धिरूपान् कामांस्तपोविशेष लब्धानपि नोपजीव्यान्नाप्यनागतान ब्रह्मदत्तवत्प्रार्थयेदेवं च कुर्वतोनाव विवेकवारख्यातया विर्नावितोनवति । तथा आर्याण्यार्याणां कर्तव्यानि अनार्यकर्तव्यपरिहारेण । यदिवा आचर्याणि मुमुकुणां यान्याचरणीयानि ज्ञानदर्शनचारित्राणि तानि बुझानामाचार्या णामंतिके समीपे सदा सर्वकालं शिदेतान्यसेदित्यनेन हि शीलवता नित्यं गुरुकुलवास थासेवनीयश्त्यावेदितं नवतीति ॥ ३२ ॥ सुस्सूसमाणो वासेजा, सुप्पन्नं सुतवस्सियं ॥ वीराजे अत्तप नेसी, घितिमंता जिदिया॥३३॥ गिदीवमपासंता, पुरिसा दाणिया नरा॥ते वीरा बंधणुम्मुक्का, नावखंति जीवियं ॥३॥ अर्थ-(सुस्सूसमाणोनवासेजाके ) सांजलवा वांबतो एवो जे साधु ते पोताना गु रुनी रुडी वैयावञ्चादिक विश्रामणादिके करी सेवा करे, ते गुरु केवाहोय तोके ( सुप्पन्न सुतवस्तियंके०) स्वपर सिद्धांत जाणवाने जलीने प्रज्ञा जेनी एटले रुडा गीतार्थ तथा रु डा तपना करनार एवा गुरुनी सेवा करे; ते केवा पुरुष गुरुनी सेवा करे तोके (वीरा के०) कर्मने जीतवा समर्थ तथा (जेयत्तपन्नेसी के० ) जे सत्य बुदिना गवेषण हार तथा (घितिमंताजिदिया कं०) धैर्यवंत एटले जेमनुं संयममां एकाग्र चित्तने, अने जीतेंश्यि एवा जे पुरुष होय ते गुरुनी सेवा करे ॥ ३३ ॥ (पुरिसादाणियानरा के०) जे पुरुषादानीय एटले सत्यमार्गनी गवेषणा करनार एवा मनुष्य ते एम जाने जे ( गिहेके० ) गृहस्थने नावे रेवा थकी (दीवंके० ) ज्ञानरूप दीपक अथवा संसारनो उधार तेने (अपासंता के०) नथी देखता माटे चारित्र आदरे, (तेवीराबंधणुम्मुक्का के०) ते वीर पुरुष राग देषादिक बंधनथी रहित थका ( नावखंतिजीवियं के) असं यमे जीवितव्य वांजे नही एटले जीववाने अर्थ असंयम करे नही ॥ ३४ ॥ Page #425 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राय धनपतसिंघ बादाउरका जैनागम संग्रह नाग उसरा. ३ए। ॥ दीपिका-शुश्रूषमाणोगुर्वादेर्वैय्यावृत्यं कुर्वाणोगुरुमुपासीत सेवेत । गुरुं किंनूतं । सुप्रइं गीतार्थ सुतपस्विनं संयमवंतं । यमुक्तं । नाणस्स होइ नागी, थिरयरदसणे चरि नेय ॥ धन्ना यावकहाए गुरुकुलवासं न मुंचंति ॥१॥ ये वीराधात्मप्रशान्वेषिणयात्म हितान्वेषकाधृतिः संयमे रतिस्तदंतोजितेंझ्यिास्ते गुरुकुलवासिनः स्युः । यजुक्तं । जस्त धिई तस्स तवो जस्त तवो तस्स सुग्गई सुलहा ॥ जे अधिश्मंतपुरिसा तवोवि खलु उन्न हो तेसिमिति ॥३३॥ गृहे गृहस्थत्वे दीपं नावदीपं श्रुतझानमपश्यतोऽप्राप्नुवंतोनराः सम्य प्रव्रज्यापुरुषादानीयाः पुरुषाणामादानीयाधाश्रयणीयामहतोपि महीयांसःस्युरित्यर्थः। यएवंनूतास्ते वीराबंधनोन्मुक्ताजीवितमसंयमजीवितं नावकांदंति नानिलषंति ॥ ३४ ॥ ॥ टीका-यमुक्तं बुदानामंतिके शिकेत्तत्स्वरूपनिरूपणायाह । (सुस्सुसमाणाइत्या दि) गुरोरादेशं प्रति श्रोतुमित्रा शुश्रूषा गुर्वादेर्वैय्यावृत्त्यमित्यर्थः । तां कुर्वाणोगुरुमु पासीत सेवेत । तस्यैव प्रधानगुण ६य बारेण विशेषणमाह । सुष्टु शोनना वा प्रज्ञास्येति सुप्रज्ञः स्वसमयपरसमयवेदी गीतार्थश्त्यर्थः । तथा सुष्टु शोननं वा सबाह्यान्यंतरं तपो स्यास्तीति सुतपस्वी तमेवंनूतं झानिनं सम्यक्चारित्रवंतं गुरुं परलोकार्थी सेवेत । तथा चो तं।नाणस्स होइ नागी,थिरयर दंसणे चरितेय॥धन्नाथावकहाए गुरुकुलवासं नमुंचंति। यएवं कुर्वति तान् दर्शयति।यदिवा के ज्ञानिनस्तपस्विनइत्याह । वीराः कर्म विदारणसहि मवोधीरावा परीषदोपसर्गादोन्याः । धिया बुध्या राजतीति वा धीराये केचनासन्नसिदि गमनायाप्तोरागादि विप्रमुक्तस्तस्य प्रज्ञा केवलझानाख्या तामन्वेष्टुं शीलं येषां ते याप्तप्र झान्वेषिणः सर्वज्ञोक्तान्वेषिणतियावत् । यदिवा आत्मप्रशान्वेषिणात्मनः प्रज्ञा झा नमात्मप्रझा तदन्वेषिणयात्मझत्वान्वेषिणयात्महितान्वेषिणश्त्यर्थः। तथा धृतिः सं यमे रतिः सा विद्यते येषां ते धृतिमंतः। संयमधृत्या हि पंचमहाव्रतनारोहनं सुसाध्य नवतीति । तपःसाध्या च सुगतिर्हस्तप्राप्तेति । तमुक्तं । जस्स धिई तस्स तवो, जस्स तवो तस्स सुग्गई सुलहा ॥ जे अधिश्मंतपुरिसा तवोवि खलु कुनहो तेसिं॥१॥ तथा जितानि व शीकतानि स्वविषयरागषविजयेनेंशियाणि स्पर्शनादीनि यैस्ते जितेंख्यिाः शुश्रूषमाणा यथोक्तविशेषणविशिष्टानवंतीति ॥३३॥ तदनिधित्सुराह । गिहेदीवमित्यादि) गृहे गृहवा से गृहपाशेवा गृहस्थजावातियावत् । दीवंति । दीपीदीप्तौ दीपयति प्रकाशयतीति दीपः। सच नावदीपः श्रुतझानलानः। यदिवा दीपःसमुश प्राणिनामावासनतः सच नावही पः संसारसमुझे सर्वझोक्तचारित्रलानस्तदेवंनतं दीपं दीपं वा गृहस्थनावेऽपश्यंतोऽप्रामुवंतः संतः सम्यक् प्रव्रज्योडानेनोबितानत्तरोत्तरगुणलानेनैवंनूता नवंतीति दर्शयति । नराः पुरु षाः पुरुषोत्तमत्वाधर्मस्य नरोपादानमन्यथा स्त्रीणामप्येतणनाक्त्वं नवत्यथवा देवा दिव्यु दासार्थमिति । मुमुकूणां पुरुषाणामादानीयायाश्रयणीयाः पुरुषादानीयामहतोपि महीयां Page #426 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६ द्वितीये सूत्रकृतांगे प्रथम श्रुतस्कंधे नवमाध्ययनं. सोनवंति । यदिवा खादानीयो हितैषिणां मोक्षस्तन्मार्गोवा सम्यक्दर्शनादिकः पुरुषाणां मनुष्याणामादानीयः सविद्यते येषामिति विगृह्य मत्वर्थीयोऽयादिन्यो जिति । तथा यएवं नूतास्ते विशेषेोरयंत्यष्टप्रकारं कर्मेति वीरास्तथा बंधनेन सबाह्याभ्यंतरेण पुत्रकलत्रादि स्नेहरूपेोत्प्राबल्येन मुक्ताबंधनोन्मुक्ताः संतोजीवितमसंयमजीवितं प्राणधारणंवा ना विकांति नाभिलषंतीति ॥ ३४ ॥ गिधे सहफासेसु, यरंनेसु पिस्सिए । सवं तं समयाती तं, जमेतं लवियं बढ़ ॥ ३५ ॥ प्रमाणंच मायंच, तं परिलाय पं ॥ गारवाणि सव्वाणि, लिवाणं संघए मुणित्तिबेमि ॥ ॥ ३६ ॥ इति श्रीधम्मनामं नवमशयणं सम्मत्तं. अर्थ - (सिफासेसु के० ) शब्द गंध रूप रस स्पर्शादिकने विषे प्रगृ६ एटले मूर्च्छित तथा (खानेसु के० ) व कायना प्रारंभने विपे ( निश्रित के० ) प्रवर्त्ते नहीं, (सर्वसमयातीतं के० ) एसर्व निषेधवाना कारण कह्या, ते सर्वने सिद्धांत थकी विपरीत जालीने खाचरवा नही. (जमेतंल वियंबदु के० ) तथा जे विधि द्वारे कसुंबे ते सर्व सिद्धांतने अनुसारे जाणीने श्राचरतुं ॥ ३५ ॥ ( प्रतिमाचमायंच के० ) अत्यंत मान यत्यंत माया च शब्द थकी क्रोध लोन पण लेवा ( तंपरिन्नायमिए के ० ) ए चार कषायने पंमित परिज्ञाये जाणीने प्रत्याख्यान परिज्ञाये करी परिहरे ( गारवा लियस वाणि के० ) तथा रसगारव ऋद्धिगारव ने सातागारव ए सर्वेने सर्वथा परिहरे (लि ari in ho ० ) साधु चारित्रिन मोहने संघए एटले वांबे. तिबेमिनो अर्थ पूर्वव तू जावो ॥ ३६ ॥ इतिश्री धर्म नामा नवमा अध्ययननो घर्थ समाप्त थयो. || दीपिका - शब्दस्पर्शेषु । प्राद्यंतग्रहणान्मध्यग्रहणं । रूपगंधरसेष्वप्यगृझोऽनासक्त खारंनेष्वनिश्रितोऽप्रवृत्तः । सर्वमेतदध्ययनादेरारज्य निषेधत्वेन यापितमुक्तं मया बहु तत्समयामैनागमादतीत मितिकृत्वा निषिद्धं ॥ ३५ ॥ प्रतिमानं तत्सहचरं क्रोधं माया तत्कार्यनूतं लोनं च तत्सर्वं पंमितः परिहरेत् सर्वाणि गारवाणि ऋद्धिरससातरूपाणि त्यक्त्वेति शेषः । साधुर्निर्वाणं मोक्षं सर्वकर्मयं वा संदध्यात् । इतिब्रवीमीति पूर्ववत् ॥ ॥ ३६ ॥ इतिश्रीसूत्रकृतांगदीपिकायां नवमं धर्माध्ययनं समाप्तं ॥ ॥ टीका- किंचान्यत् । (गिदेत्यादि ) अमृोऽनभ्युपपन्नोमूर्तितः । क्व । शब्दस्पर्शेषु मनोज्ञेष्वाद्यंतग्रहणान्मध्यग्रहणमतोमनोज्ञेषु रूपेषु गंधेषु रसेषु वा श्रगृ-६ इति इष्टव्यं । For Private Personal Use Only Page #427 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रायधनपतसिंघ बहादुरका जैनागम संग्रह नाग इसरा. ३७ तयेतरेषु वाऽविष्टइत्यपि वाच्यः । तथा श्रारंनेषु सावद्यानुष्ठानरूपेष्वनिश्रितोऽसंब-धोऽप्रवृ तइत्यर्थः । उपसंहर्तुकामयाह । सर्वमेतदध्ययनादेरारज्य प्रतिषेध्यत्वेन यत्र पितमुक्तं म या बहु तत्समयादा तादागमादतीतमतिक्रांतमिति कृत्वा प्रतिषिद्धं । यदपिच विधिद्वारेणो तं तदेतत्सर्वं कुत्सित समयातीतं लोकोत्तरं प्रधानं वर्तते । यदपिच तैः कुतीर्थिकैर्बहुल पितं तदेतत्सर्वं समयातीतमिति कृत्वा नानुष्ठेयमिति ॥ ३५ ॥ प्रतिपेध्य प्रधाननिषेध द्वारे मानिसंधानेनाह ( यतिमाचेत्यादि) प्रतिमानोमहामानस्तं । च शब्दात्सहचरितं क्रोधंच तथा मायां चशब्दात्तत्कार्यनूतं लोनंच तदेतत्सर्वं पंडितोविवेकी परिज्ञया परिज्ञा प्रत्याख्यानपरिज्ञया परिहरें तथा सर्वाणि गारवाणि कविरससातरूपाणि सम्यक् ज्ञा संसारकारणत्वेन परिहरेत्परिहृत्यच मुनिः साधुर्निवाणमशेषकर्मक्षयरूपं विशिष्टाका शदेशं वा संधयेद निसंदध्यात् प्रार्थयेदितियावत् । इतिः परिसमात्यर्थे । ब्रवीमीति पूर्व वत् ॥ ३६ ॥ समाप्तं धर्माख्यं नवममध्ययनमिति ॥ 1 दशमं समाधि नामे अध्ययन कहेबे नवमां अध्ययनने विषे धर्म कह्यो, ते ध समाधि विना याय नहीं माटे दशमां अध्ययनमां समाधिनुं स्वरूप कहे. या मममणुवीय धम्मं, अंजू समादिं तमिणं सुरोह ॥ अप्प डिन्ने निस्कू समादिपत्ते, अणियाणनूते सुपरिवएका ॥ १ ॥ उड़ अयं तिरियं दिसासु, तसा य जे यावर जेय पाणा॥ हतेहिं पाएं हिं य संजमित्ता, अदिन्नमन्ने सुयणो गहेका ॥ २ ॥ अर्थ - (याधममं मणुवीयधम्मं के० ) मतिमंत एटले केवली भगवान् तेणे केवल ज्ञाने करी विचारीने धर्म कह्यो, ते धर्म केवोबे तोके (कुके०) रुजु एटले सरलता पशु ( समाहिंत मिहके० ) तेनेज समाधि कहिए. ते समाधि श्री केवली भगवंते मने उपदेशी तेमज श्री सुधर्म स्वामि जंबुप्रत्ये कने के हुं तमने कहुंलुं ते तमे सांन at जे एवो साधु होय ते समाधिने प्राप्त थयो एरीते जाणो ते साधु केवी होय ते कहे. ( अप्प डिने के ० ) जेने तप संयम पालता थका इह लोक तथा परलोकना सुखनी वांबा करवी एवी प्रतिज्ञा नथी तेने प्रतिज्ञ कहिए: एवो, तथा ( निदाननूते के ० ) निदा न रहित एटले याश्रव रहित एवो उतो ( सुपरिवएका के० ) रुडीरीते संयम पाले ते ( निस्कू के ० ) साधु ( समाहिपत्ते के० ) समाधि प्राप्त जावो ॥ १॥ ( नय हेयं तिरियं दिसासुके०) नंचा नीचा यने तिर्खा एम दिशो दिशे एटले सर्व लोकमांहे दिशि विदिशि विषे ( तसायजेथावरजेयपाला के० ) जे बेइंडियादिक ऋश जीवो तथा पृथविकाया For Private Personal Use Only Page #428 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३एत वितीये सूत्रकृतांगे प्रथम श्रुतस्कंधे दशमाध्ययनं. दिक स्थावर जीवोठे ते समस्त जीवोने ( हबेहिपाएहिंय के० ) हाथें करी, पगे करीअथवा समस्त कायायें करी (संजमिता के०) संयत बतो एनी हिंसा नकरे उपलद ण थकी एने कोइ पण कदर्यना नकरे तथा (अदिन्नमनेसुयोगहेजा के ) अन्यनु यदत्तदान ग्रहण करें नही ए अर्थथी परिग्रह मैथुन मृषावादादिकने पण नसेवे ॥२॥ ॥ दीपिका-अथदशमाध्ययनमारन्यते । पूर्व धर्मवक्तः सच समाधौ सति स्यादित्यत्र समाधिरुज्यते । (आघमममित्यादि । यामाख्यातवान् इमं वक्ष्यमाणं धर्म मति मान् अर्हन् अनुविचिंत्य झानेन ज्ञात्वा । धर्म किनूतं । जुमवक्र समाधिच सम्यगधी यते मोदंप्रति योग्यः क्रियते आत्मायेन ससमाधिस्तमिमं समाधिरूपं धर्म शपुत यूयं । नविद्यते प्रतिज्ञा आकांदा तपसि क्रियायांवा यस्यासावप्रतिझोनिस्टहोनिटुः समा धिं धर्म प्राप्तः नविद्यते निदानमारंनरूपं जूतेषु जंतुषु यस्यासावनिदानः सावद्यानुष्ठानर हितः परिव्रजेत् संयमे चरेत् ॥ १॥ ऊर्ध्वमधस्तिर्यकच त्रिषु लोकेषु प्राच्यादिदि च ये त्रसाः स्थावरा श्च ये प्राणिनः । एतान् प्राणिनोहस्तपादान्यां संयम्य बध्वा साधुः उप लक्षणादन्यथा वा कदर्थ यित्वा दुःखोत्पादं न कुर्यात् । तथा अन्येन्योदत्त नगण्हीयात् तृतीयव्रतोपलदाणादन्यान्यपि व्रतानि पालयेत्समाधिमाश्रयेदित्यर्थः ॥ ५ ॥ ॥ टीका-नवमानंतरं दशममारन्यते । अस्य चायमनिसंबंधः। शहानंतराध्ययने धर्मो ऽनिहितः सचाविकलः समाधौसति नवत्यतोधुना समाधिः प्रतिपाद्यते इत्यनेन संबंधे नायातस्याऽध्ययनस्य चत्वार्युपक्रमादीन्यनुयोगदाराणि वाच्यानि । तत्रोपक्रमांतर्गतो धिकारोयं । तद्यथा। धर्मे समाधिःकर्तव्यःसम्यगाधीयते व्यवस्थाप्यते तन्मार्गवा प्रति येना त्मा धर्मध्यानादिना ससमाधिर्धर्मध्यानादिकः सच सम्यक्झात्वा स्पर्शनीयः। नाम निष्पन्नं तु निक्षेपमधिकृत्य नियुक्तिकदाह । आयाणपदेणाचं गोणं णामं पुणो समाहित्ति॥णि रिकविकण समाहिं, नावसमाही पगयंतु ॥ ५ ॥ (आयाणपदेणाघमित्यादि) यादीय ते गृह्यते प्रथममादौ यत्तदादानमादानंच तत्पदंच सुबंतं तिडंसंवा तदादानपदं तेनाघंति नामास्याध्ययनस्य यस्मादध्ययनादाविदं सूत्रं । ( यापंमईमंमणुवीइ धम्ममित्यादि ) य योत्तराध्ययनेषु चतुर्थमध्ययनं प्रमादाप्रमादानिधायकमप्यादानपदेनासंदय मित्युच्यते गुण निष्पन्नं पुनरस्याध्ययनस्य नामसमाधिरिति । यस्मात्सएवात्र प्रतिपाद्यते तं च स माधिं नामादिना निक्षिप्य नावसमाधिनेह प्रकृतमधिकारइति । समाधिनिदेपार्थमा ह। णामंठवणादविए, खेत्ते काले तहेव नावेय॥ एसोन समाहीए, णिरकेउबविहोहो ॥ ॥ ६ ॥ (णामंग्वणाइत्यादि ) नामस्थापना व्यक्षेत्रकालनावनेदात् । एपतु समाधिनि देपः षड्डिधोनवति । तुशब्दोगुणनिष्पन्नस्यैव नाम्नोनिदेपोनवतीत्यस्यार्थस्याविर्भाव Page #429 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राय धनपतसिंघ बानाउरका जैनागम संग्रह नाग उसरा. ३॥ 'नार्थति । नामस्थापने सुगमत्वादनादृत्य इव्यादिकमधिकृत्याह । पंचसु विसएसु सुने, सु दत्वंमि नावसमाहित्ति ॥ खेत्तंतु जम्मि खेत्ते, काले कालो जहिं जोक ॥ ७ ॥ (पंचस्त्रि त्यादि) पंचस्वपि शब्दादिषु मनोज्ञेषु विषयेषु श्रोत्रादीडियाणां यथा स्वप्राप्तौ सत्यां य स्तुष्टिविशेषः सव्यसमाधिस्तदन्यथा त्वसमाधिरिति। यदिवा इव्ययोऽव्याणां वा सन्मिश्रा णामविरोधिनां सतां न रसोपघातोनवत्यपितु रसपुष्टिः सव्यसमाधिः । तद्यथा दीरशर्क रयोर्दधिगुडचातुर्जातकानां चेति । येनवा इव्येणोपयुक्तेन समाधिपानकादिना समाधिन वति तद्व्यं । व्यसमाधिस्तुलादावारोपितं वा यत् इव्यं समतामुपैतीत्यादिकोव्य समाधिरिति । देवसमाधिस्तु यस्य यस्मिन्वा देत्रे व्यवस्थितस्य समाधिरुत्पद्यते सत्र प्राधान्यात देवसमाधिर्यस्मिन्वा देत्रे समाधिावार्यतइति । कालसमाधिरपि यस्य यं का लमवाप्य समाधिरुत्पद्यते। तद्यथा। शरदिगवां नक्तमुलूकानामहनि बलिनुजां यस्य वा या वंतं कालं समाधिर्नवति यस्मिन्वा समाधिर्व्याख्यायते सकालप्राधान्यात् कालसमाधिरि ति ।नावसमाविधिकत्याह । नावसमाहिंचवुविह, देसणणाणे तवे चरित्नेय ॥ चनसुवि समाहियप्पा संमंचरण साहू ॥७॥ (नावसमाहीत्यादि) नावसमाधिस्तु दर्शनशान तपश्चारित्रनेदाच्चतुर्दा । तत्र चतुर्विधमपि नावसमाधि समासतोगाथापश्चार्धनाह । मुमुनु णा चर्यतइति चरणं । तत्र सम्यक्चरणे चारित्रे व्यवस्थितः समुद्युक्तः साधुर्मुनिश्चतुर्व पि नावसमाधिनेदेषु दर्शनशानतपश्चारित्ररूपेषु सम्यगाहितोव्यवस्थापितयात्मा येन ससमाहितात्मा नवति । इदमुक्तं जवति । यःसम्यचरणे व्यवस्थितः सचतुर्विधना वसमाधिसमाहितात्मा नवति योवानावसमाधिसमाचितात्मा नवति ससम्यक्च रणे व्यवस्थितोइष्टव्यति । तथाहि । दर्शनसमाधी व्यवस्थितोजिनवचननावितां तःकरणोनिर्वातशरणप्रदीपवनकुमतिवायुनिाम्यते । झानसमाधिना तु यथा यथा पूर्वश्रुतमधीते तथातथातीव नावसमाधावुद्युक्तोनवति । तथा चोक्तं । जहजह सु यमवगाह अश्सयरसपसरसंजुयमन । तहतह पदहाइ मुगी व गवसंवेगस दाए । चारित्रसमाधावपि विषयसुखनिस्टहतया निष्किंचनोपि परं समाधिमाप्नोति । तथाचोक्तं । तणसंथारणिसन्नो ममितरोनरागनयमोहो ॥ जं पावs मुत्तिसुहं क तोतं चक्कवट्टीवि ॥ नैवास्ति राजराजस्येत्यादि तपःसमाधिनापि निकृष्टतपसोपि नग्ला निर्नवति । तथा हुत्तमादिपरीषहेन्योनोदिजते । तथा अन्यस्तान्यंतरतपोध्यानाश्रितम नाः सनिर्वाणस्थश्व नसुखकुःखान्यां बाध्यतइत्येवं चतुर्विधनावसमाधिस्थः सम्यक्चर णव्यवस्थितोनवति साधुरिति । गतोनामनिष्पन्नोनिदेपः । सांप्रतं सूत्रानुगमेऽस्खलिता दिगुणोपेतं सूत्रमुच्चारणीयं । तच्चेदं (आमईममित्यादि) अस्य चायमनंतरसूत्रेण सह संबंधः। तद्यथा। अशेषगारवपरिहारेण मुनिर्निवाणमनुसंधयेदित्येतनगवानुत्पन्नदिव्यना Page #430 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 100 वितीये सूत्रकृतांगे प्रथम श्रुतस्कंधे दशमाध्ययनं. ज्ञानः समारख्यातवानेतच वयमाणमाख्यातवानिति (आघंति ) याख्यातवान् कोसौ । मतिमान् मननं मतिः समस्तपदार्थपरिझानं तदिद्यते यस्यासौ मतिमान के वलज्ञानीत्यर्थः । तत्रासाधारणविशेषणोपादानात्तीर्थकद् गृह्यते । असावपि प्रत्यासत्ते वीरोवर्धमानस्वामी गृह्यते । किमारव्यातवान् धर्म श्रुतचारित्राव्यं । कथं । अनुविचिं त्य केवलझानेन ज्ञात्वा प्रज्ञापनयोग्यान पदार्थानाश्रित्य धर्म नापते । यदिवा ग्राहक मनुविचिंत्य कस्यार्थस्यायं ग्रहणसमर्थस्तथाकोयं पुरुषः कंच नतः किंदर्शनमापन्नइत्येवं पर्यालोच्य धर्मगुश्रूषवोवा मन्यते । यथा प्रत्येकमस्मदनिप्रायमनुविचिंत्य जगवान धर्म नाषते युगपत्सर्वेषां स्वनापापरिणत्या संशयापगमादिति। किंनूतं धर्म नापते । जुमवर्क यथावस्थितस्वरूपं वस्तुस्वरूपनिरूपणतोन । यथा शाक्याः सर्व क्षणिकमन्युपगम्य कृतना शाकतान्यागमदोषनयात्संतानान्युपगमं कृतवंतस्तथावनस्पतिमचेतनत्वेनान्युपगम्य स्व यं न विदंति तबेदनादावुपदेशं तु ददति तथा कार्षापणादिकं हिरण्यं स्वतोनस्टशंत्य परेणतु तत्परिग्रहतः क्रय विक्रयं कारयति । तथा सांख्याः सर्वमप्रच्युतानुत्पन्न स्थिरैकव नावं नित्यमन्युपगम्य कर्मबंधमोदानावप्रसंगदोषनयादावि वतिरोनावावाश्रितवंत त्यादिकौटिल्यनावपरिहारेणावकं तथ्यं धर्ममारख्यातवान् । तथा सम्यगधीयते मोदं तन्मा गंवा प्रत्यात्मा योग्यः क्रियते व्यवस्थाप्यते येन धर्मेण सधर्मः समाधिस्तं समारख्यात वान् । यदिवा धर्ममाख्यातवांस्तत्समाधि च धर्मध्यानादिकमिति सुधर्मस्वाम्याह तमिमं धर्म समाधि वा नगवउपदिष्टं शृणुत यूयं । तद्यथा। न विद्यते ऐहिकामुष्मिकरूपा प्रति झा आकांदा तपोनुष्ठानं कुर्वतोयस्यासावप्रतिझोनिदणशीलोनितुः । तुर्विशेषणे । नाव निदुरसावेव परमार्थतः साधुधर्म धर्मसमाधिंच प्राप्तोसातिति । तथा न विद्यते निदानमारं नरूपं तेषु जंतुषु यस्यासावनिदानः सएवंनूतः सावद्यानुष्ठानरहितः परिसमंतात्संयमा नुष्ठाने ब्रजेजले दिति । यदिवा अनिदाननूतोऽनाश्रवनूतः कर्मोपादानरहितः सुष्टु परिव्रजेत्। सुपरिव्रजेत् य दिवा अनिदाननूतान्यनिदानकल्पानि ज्ञानादीनि तेषु परिव्रजेत् । अथवा निदानं हेतुः कारणं कुःखस्यातोनिदाननूतः कस्यचिदुःखमनुपादयन् संयमे पराक्रमेतेति ॥१॥प्राणिपातादीनितु कर्मणोनिदानानि वर्तते । प्राणातिपातोपि इव्यदेवकालनावनेदा चतुर्धा।तत्र प्राणातिपातमधिकृत्याह॥(नबहेइत्यादि)सर्वोपि प्राणातिपातः क्रियमाणः प्रज्ञापकापेक्ष्योर्ध्वमधस्तिर्यक् क्रियते। यदिवा कधिस्तिर्यकरूपेषु त्रिषुलोकेषु तथा प्राच्या दिषु दिदु विदिख चेति । इव्यप्राणातिपातस्त्वयं । त्रस्यंतीति त्रसादीडियादयोयेच स्थावराः पृथिव्यादयः। चकारः स्वगतनेदसंसूचनार्थःकालप्राणातिपातसंसूचनार्थो वा।दि वा रात्री वा प्राणाः। प्राणिनां नावप्राणातिपातंत्वाह । एतान् प्रागुक्तान् प्राणिनोहस्त पादान्यां बध्वा उपलक्षणार्थवादस्यान्यथावा कदर्थयित्वा यत्तेषां कुःखोत्पादनं तन्न कुर्या Page #431 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राय धनपतसिंघ बादाडुरका जैनागम संग्रह नाग डुसरा. ४०१ त् । यदि चैते प्राणिनो हस्तौ पादौ संयम्य संयतकायः सन्न हिंस्यात् । चशब्दाडवास निश्वास कास का सितकृतवात निसर्गादिषु सर्वत्र मनोवाक्कायकर्मसु संयतोजगवान जावसमाधिमनु पालयेत्तथा परेरदत्तं नगृहीयादिति तृतीयत्रतोपन्यासः । श्रदत्तादाननिषेधाज्ञ्चार्थतः परिय होनपि योजवति नापरिगृहीतमासेव्यतइति मैथुननिषेधोप्युक्तः । समस्तव्रतपालनोपदे शाच्च मृषावादोप्यर्थतो निरस्तइति ॥ २ ॥ सुयकायधम्मे वितिगिवतिले, लाढे चरे आयतुले पयास ॥ यं न कुका इह जीविय ही, चयं नकुका सुतवस्सि निस्कू ॥३॥ सबिंदियाजिनितुं पयासु, चरे मुणी सवतो विप्पमुक्के ॥ पासा हि पाणे य पुढोवि सत्ते, डुकेण परितप्यमा ॥ ४ ॥ - ( रा ० ) समाधिवंत जे साधु बे ते एम जाणेके श्रीवीतरागें जे धर्म नायोबे, ते रुडो कोबे ए श्रुताख्यात धर्म एवो होय एम साधु जाणे एटले गी तार्थपक तथा ( वितिविति के० ) जे श्रीवीतरागे करूं तेने संदेह रहित पणे तहत्ति करी मानतो थको रहे; एटले ज्ञान दर्शन रूप समाधि कही तथा (लाढेच tho) निर्दोष आहारनो जेनार एवो बतो विचरे एटले संयम पाले तथा ( पयासु के० ) प्रजा एटले सर्वजीवने ( श्रायतुले के० ) पोताना श्रात्मतुल्य करी लेखवे, तथा (खायंन कुइहजी वियही के० ) जीववाने खर्थे याय एटले याश्रव नकरें अर्थात् यसंयमाश्र व नकरे तथा ( सुतवस्सिनिस्कू के ० ) सुतपस्वी एवो साधु ( चयंनकुका के० ) धन धान्यादिक परिग्रहनो संचय नकरे. ॥ ३ ॥ ( सविंदियानि निनु मे पयासु के ० ) समस्त इंडिय नो संवर करीने निरानिलाबी थाय, ते कोने विषे तोके प्रजा एटले स्त्रीने विषे निरानि या र्थात् स्त्रीने देखी पांचे इंडियोनो संवर करें. (चरेमुणी सवतो विप्प मुक्के के ० ) तथा सर्व की विप्रमुक्त एटले स्वजनादिक इव्य संग ने क्रोधादिक नाव संग ए सर्व संग थकी रहित थयो बतो एवो साधु संयम याचरे. (पाणेयपुढो विसत्ते के० ) तथा प्रत्येक जुदा जुदा पृथविकायादिकजे सत्व एटले जीवढे तेमने ( डुरके पट्टे के ० ) दुःखे करीया ( परितप्यमाणे के० ) परितप्यमान एटले संसाररूप कडाहमा कर्मरूप इंधकर पचता एवा ( पासा हिके ० ) देखीने समाधिवान साधु सर्व जीवनी दया पाले. || दीपिका- सुष्ठु ख्यातोधर्मोयेन सस्वाख्यातधर्मा जुगुप्साचित्तविलुतिस्तां तीर्णोऽति क्रांतः। येन केन चिदाहारोपकरणादिनाऽऽत्मानं यापयतीति जाढः सएवंनूतश्वरेत्संयमे । पु नः किंभूतः । प्रजासु प्राणिषु श्रात्मतुल्यश्रात्मवत्सर्वप्राणिनः पश्यतीत्यर्थः । तथा जीवि For Private Personal Use Only Page #432 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०२ वितीय सूत्रकृतांगे प्रथम श्रुतस्कंधे दशमाध्ययनं. तमसंयमजीवितं तम्यार्थी आयमा श्रवरूपं न कुर्यात् । तथा सुतपस्वी जिक्तः चयं थाहारौषध्यादेः संचयं न कुर्यात् ॥ ३ ॥ सर्वडिय निर्वृतः संवृतेंडियइत्यर्थः । कासु प्र जासु स्त्रीषु । स्त्रीषु संतृतेंड्यिः स्यादिति सर्वतो विप्रमुक्तोनिःसंगः सन चरेत्संयमाध्वनि टथक् पृथक् पृथिव्यादिकायेषु सत्वान् प्राणिनोऽपिशब्दानस्पतिकायेऽनंतानपि पश्य । किंनूतान् फुःखार्तान् स्वकर्मणा संसारकटाहे परिपच्यमानान् ॥ ४ ॥ ॥ टीका-शानदर्शनसमाधिमधिकत्याह । (सुयरकायधम्मेल्यादि ) सुष्टारख्यातः श्रुत चारित्राख्योधर्मोयेन साधुनाऽसौ स्वारख्यातधर्माऽनेन ज्ञानसमाधिरुक्तोनवतिानहि विशिष्ट परिझानमंतरेण स्वारख्यातधर्मत्वमुपपद्यतइति नावः। तथा विचिकित्साचित्तविप्लुतिर्विकु गुप्सा वा तां वितीर्णातिकांतः। तदेव च निःशंकं यहिनैःप्रवेदितमित्येवं निःशंकतया न क चिञ्चित्तविलुतिं विधत्तइत्यनेन दर्शनसमाधिः प्रतिपादितोनवति । येन केनचित्प्रासुकाहारो पकरणादिगतेन विधिनात्मानं यापयति पालयतीति लाढः सएवंनूतः संयमानुष्ठानं चरे दनुतिष्ठेत्तथा प्रजायंतइतिप्रजाः पृथिव्यादयोजंतवस्तास्वात्मतुल्ययात्मवत्सर्वप्राणिनः पश्यतीत्यर्थः। एवंनूतएव साधुर्नवतीति । तथाचोक्तं । जहममणपियं दुःखं, जाणिय ए मेव सबजीवाणं ॥णहणणहणावेई, सममण तेण सोसमणो ॥ ॥ यथाच समाज श्यमानस्यान्याख्यायमानस्य दुःखमुत्पद्यते एवमन्येषामपीत्येवं मत्वा प्रजास्वात्मसमो नवति । तथा इहासंयमजीवितार्थी प्रनूतकालं सुखेन जीविष्यामीत्येतदध्यवसायी यायं कर्माश्रवलक्षणं न कुर्यात्तथा चयमुपचयमाहारोपकरणादेर्धनधान्यविपदचतुष्पदादेर्वा परिग्रहलादणं संचयमत्यर्थ सुष्टु तपस्वी सुविक्रष्टतपोनिष्टप्तदेहोनिकुनकुर्यादिति ॥३॥ किं चान्यत । (सवदियइत्यादि) सर्वाणि च तानिइंडियाणिच स्पर्शनादीनि तैरनिनिर्वतः सं तेंघियोजितेंघियश्त्यर्थः।क।प्रजासु स्त्रीषु । तासु हि पंचप्रकाराबपि शब्दादयो विषया विद्यते। तथाचोक्तं , कलानि वाक्यानि विलासिनीनां, गतानि रम्याण्यवलोकितानि ॥ र तानि चित्राणिच सुंदरीणां, रसोपि गंधोपि च चुंबनादेः ॥ १ ॥ तदेवं स्त्रीषु पंचेंश्यि विष यसंनवात्तविषये संतृतसर्वेश्येिण नाव्यमेतदेव दर्शयति । चरेत्संयमानुष्ठानमनुतिष्ठेत् मुनिः साधुः सर्वतः सबाह्यान्यंतरात्संगाविशेषेण प्रमुक्तोनिःसंगोनिष्किंचनश्चेत्यर्थः। स एवंनूतः सर्वबंधनविमुक्तः सन पश्यावलोकय पृथक् टथिव्यादिषु कायेषु सूक्ष्मबादरपर्या प्तकापर्याप्तकनेदनिन्नान्सत्वान्प्राणिनोऽपिशब्दानस्पतिकाये साधारणशरीरिणोऽनंतान प्येकत्वमागतान् पश्य । किंनूतान् । फुःखेनासातवेदनीयोदयरूपेण पुःखयतीतिवा फुःख मष्टप्रकारं कर्म तेनानि पीडितान्परिसमंतात्संसारकटाहोदरे स्वकतबंधनेन परिपच्यमा Page #433 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राय धनपतसिंघ बाहादुरका जैनागम संग्रह नाग दुसरा. ४०३ नान् काथ्यमानान् यदिवा दुःप्रणिहितेंदियानार्तध्यानोपगतान्मनोवाक्कायैः परितप्यमा नान् पश्येति संबंधोलगनीयइति ॥ ४ ॥ एतेस वालेय पाठांतरे ( एवं बालेय) पकुवमाणे, आवडती पाठांतरे (ती) कम्मसु पावसु । प्रतिवायतो कीरति पावकम्मं, निनङ माणे न करे कम्मं ॥ ५ ॥ यादी वित्तीय पाठांतरे ( यादी नोइ वि) करेति पावं, मंतान एगंतसमाहिमा || बुधे समादीयरते विवेगे, पाणातिवाताविरते यिप्पा पाठांतरंवा (वियत्री ) ॥ ६ ॥ अर्थ - ( एतेसु के ० ) ए पूर्वोक्त पृथिव्यादिक जीवोने ( बालेय के० ) अज्ञानी जीव अनेक संघटन परिताप उपश्वादिके कर ( पकुवमाणे के० ) पाप कर्म करतो कोवली तेजीव तेहिज ष्टथिव्यादिक जीवोने विषे यावीने ( आवट्टती के० ) घणा डुःख पामे. (कम्मसुपाव एसुके० ) जे पापकर्म पोते जेवा प्रकारे कर्तुं होय ते पाप कर्म तेवा प्रकारे तेजीव जोगवे. हवे ते पाप कहे. (प्रतिवायतोकीरतिपावकम्मंके०) प्रति वाय एटले जीवनी घात तेथकी ज्ञानावर्णादिक पाप कर्मने समाचरे (निनऊमाणेन करे मंके०) तथा बीजा सेवकादिकने पण जीवघातनी प्रेरणा करतो थको पाप कर्म बांधे, एट हिंसा करतो करावतो तथा अनुमोदतो थको पाप कर्मनुं बंध करे: एमज मृषावादादिकने पण सेवतो सेवरावतो अनुमोदन करतो थको पाप कर्मनुं बंध करे. ॥५॥ ( यादी वित्तीव करेतिपावं के० ) दीन एटले दयामणी एवी, याहार लेवानी जेनी वृत्तिले तेने खादीन वृत्ति कहिए; एवो बतो पण पापकर्म बांधे, केमके प्रादारनी लो व्यता थकीत रौड़ ध्याने वर्ते ते थकी कर्म बांधे, ( मंतान एगंतसमा हिमादुके ० ) एवं जालीने श्रीतीर्थंकर गणधरे संसार तरवारनुं कारण एकांते श्राहारादिकने अर्थे पण रत्यादिक नकरे एवी समाधि कहीले. ( बुझेसमा हीयते विवेगे के० ) ते कारणे बुद्ध एटले तत्वनो जाए एवो साधु समाधिने विषे रत होय ते साधु विवेकी एवो बतो करे ते कहेने (पाणातिवाताविर तेहियप्पा के ० ) प्राणातिपात जे जीवनी हिंसा ते थकी विरमीने संयमने विषे जेनो श्रात्मा सत्यमार्गने विषे व्यवस्थित एवो थाय ॥ ६ ॥ || दीपिका - एतेषु प्राणिषु बालोइः संघट्टपरितापोपश्वादि प्रकुर्वाणस्तेषु पापेषु कर्मसु सत्सु श्रावर्त्यते दुःखनाग्नवति प्रतिपाततो हिंसातः पापकर्म क्रिया नबध्यते परा न् नृत्यादीन् नियोजयन् कर्म करोति प्राणातिपातादिकं कुर्वन् कारयंश्च कर्म बनाती ॥ ५ ॥ समंतादीना करुणा वृत्तिस्तया जोजी श्राहारग्राही शोजनादारमप्राप्नुवन्नार्त For Private Personal Use Only Page #434 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०४ तिीये सूत्रकृतांगे प्रथम श्रुतस्कंधे दशमाध्ययनं. रौइध्यानाकर्म करोति बधाति । यथा राजगृहनगरोत्सवनिर्गतजनसमूहे कश्चिमको - निक्षार्थी वांबिताहारमप्राप्तोवैनारगिरिशिलापातनोद्यतः सएव दैवात् शिलाधःपतितः शिलाचूर्णितः सप्तमष्टथ्वीं जगामेति। एवमादीननोजी कर्म बभाति एवं मत्वा झात्वा एकांते न समाधिर्सानादिनावसमाधिस्तमाहुः संसारतारणमं जिनाः।बुछोझाततत्वः समाधौ ज्ञा नादिके विवेकेवा रतोव्यवस्थितः प्राणातिपाताविरतः स्थितात्मा मर्यादावान् स्यात् ॥६॥ ॥टीका-अपिच (एतेसुश्त्यादि) एतेषु प्राङ्गिर्दिष्टेषु प्रत्येकं साधारणप्रकारेषूपतापक्रियया बालवद्वालोझश्वशब्दादितरोपि संघटनपरितापनोपवणादिकेनानुष्ठानेन पापानि कर्मा णि प्रकर्षेण कुर्वाणस्तेषुच पापेषु कर्मसु सत्सु एतेषु वा पृथिव्यादिजंतुषु गतः संस्तेनैव संघटनादिना प्रकारेणाऽनंतशावर्त्यते पीडयते उखनाग्नवतीति । पाठांतरंवा एवं तु बाले) एवमित्युपप्रदर्शने । यथा चौरः पारदारिकोवासदनुष्ठानेन हस्तपादजेदान बंधवधा दींश्चावाप्नोत्येवं सामान्यदृष्टेनानुमानेनान्योपि पापकर्मकारी इहामुत्रच फुःखनाग्नवति (यानदृतित्ति) कचित्पावः। तत्रागुनान् कर्मविपाकान् दृष्ट्वा श्रुत्वा ज्ञात्वा वा तेन्योऽसदनु ष्ठानेन्यानदृतित्ति निवर्तते। कानि पुनः पापस्थानानि येन्यः पुनः प्रवर्तते निवर्तते वा इत्याशंक्य तानि दर्शयति । अतिपाततः प्राणातिपाततः प्राणव्यपरोपणाखेतोस्तच्चागुनं झानावरणादिकं कर्म क्रियते समादीयते तथा परांश्च नृत्यादीन प्राणातिपातादौ नियो जयन् व्यापारयन् पापं कर्म करोति । तुशब्दान्मृषावादादिकंच कुर्वन कारयंश्च पापकं कर्म समुचिनोतीति ॥ ५ ॥ किंचान्यत् (आदीण वित्तीत्यादि ) आसमंतादीना करुणास्पदा वृतिरनुष्टानं यस्य कृपणवनीपकादेः सनवत्यादीनवृत्तिरेवंनूतोपि पापं कर्मकरोति। पानं तरंवा यादीननोज्यपि पापं करोतीति । नक्तंच । पिंडोलकेव कुःसीले गरगाउणमुच्च। सकदाचिन्होजनमाहारमलनमानोऽल्पवादातरौध्यानोपगतोप्यधः सप्तम्यामप्युत्पद्येत । तद्यथा ।असाविव राजगृहनगरोत्सवनिर्गतजनसमूहोवैनारगिरिशिलापातनोद्यतः सदै वात्स्वयं पतितपिंमोपजीवति तदेवमादीननोज्यपि पिंमोलकादिवऊनः पापं कर्म करो तीत्येवं मत्वा अवधार्य एकांतेनात्यंतेन च योजावरूपोझानादिसमाधिस्तमादुः संसा रोत्तरणाय तीर्थकरगणधरादयः । व्यसमाधयोहि स्पर्शादिसुखोत्पादकाबनैकांतिकाथ नात्यंतिकाश्च नवंत्यंतेचावश्यमसमाधिमुत्पादयंति । तथाचोक्तं । यद्यपि निषेव्यमाणा, मनसः परितुष्टिकारकाविषयाः ॥ किंपाकफलादनवनवंति पश्चादतिउताइत्यादि । त देवं बुझोऽवगततत्वः सचतुर्विधे झानादिके समाधावैकांतिकात्यंतिकसुखोत्पादके रतो व्यवस्थितोविवेकेवा बाहारोपकरणकषायपरित्यागरूपे इव्यनावात्मके रतः सन्ने नूतश्च स्यादित्याह । प्राणानां दशप्रकाराणामप्यतिपातोविनाशस्तस्मादिरतः स्थितः Page #435 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रायधनपतसिंघ बादाडुरका जैनागम संग्रह नाग दुसरा. सम्यक् मार्गेषु श्रात्मा यस्य सः । पाठांतरंवा ( विपचित्ति ) स्थिता गु- स्वनावात्मना चिश्या यस्य समवति स्थितार्चिः सुविशु-स्थिरलेश्य इत्यर्थः ॥ ६ ॥ सवं जगं तं समयाणुपेही, पियमप्पियं कस्सइ पो करेजा ॥ ना यदीपोय पुणो विसन्नो, संपूयणं चैव सिलोय कामी ॥७॥ यादा कडं चैव निकाममीले नियामचारीय विसममेसी ॥ इचीस सत्तेय पुढोय वाले, परिग्गदं चैव पकुवमा ॥ ८ ॥ अर्थ - ( सर्वजगंके ० ) सर्वजगत् एटले जीव अर्थात् निकायना जीव (तंके०) ते स dr ( समयाणुपेही ० ) समता जावे कररी पोताना श्रात्मा समान देखे ( पियमप्पियं के० ) प्रीतिमावते राग प्रीतिनाव ते द्वेष ए बन्ने (कस्स के ० ) कोइ नपरे ( लोकरे जा के ० ) नकरे, एटले कोइ उपर सारुं मातुं चिंतवे नहीं, (नहाय दीगोय के०) तथा कोइक चारित्र यादरी पढी तेने पालवा असमर्थ एटजे दीन थाय ( पुणो विसन्नो के ० ) वली विपयानिलाषी थको गृहस्थपणु खादरे कंमरीकनी पेरे संसारमांहें खुचे, वली को एक (संप्रयचैव के० ) वस्त्र पात्रादिके करी पूजा वांबे तथा (सिलोयकामी के० ) लोकमां पोतानी श्लाघा कराववा माटे व्याक ज्योतिषादिक कुशास्त्र पण नणे, वो पुरुष समाधि की भ्रष्ट जाणवो. ॥ ७ ॥ ( यहाकडंचेव निकाममीले के० ) या धाकर्मि उदेशी हारने अत्यंत वाढतो थको तेवो थाहार सेवाने यर्थे ( नियामचा रीय के० ) अत्यंत भ्रमण करे एवो बतो ( विसन्नमे सिं के० ) संसार रूप कादवमांहे खूतोज रहे. (सुसतेय पुढोयबाले के० ) स्त्रीने विषे श्रासक्त जुदा जुदा ते रमणी ना हाव नाव विलासने विषे गृद्ध बतो इव्य विना स्त्रीनी प्राप्ति नथाय एम विचारी ते बाल एटले ज्ञानी पुरुष ( परिग्गहंचेव पकुवमाणे के० ) परिग्रहजे धन धान्यादिक तेनो संचय करतो थको वली घणा पाप कर्मने उपार्जे अर्थात् पापनो संचय करे. ॥८॥ ४०५ || दीपिका - सर्व जगत् प्राणिगणं समतयानुप्रेकृतइति समतानुप्रेकी प्रियमप्रियं वा कस्यचिन्न कुर्यात् निःसंगो विहरेदित्यर्थः । कचित्तु सम्यगुत्थानेनोत्थाय परीषहानिर्दी नः पुनर्विषमः स्यात् संयममाहत्यापि पश्चात्पार्श्वस्थादिनावं प्रतिपद्यते कश्चिदित्यर्थः । तथा संपूजनं वस्त्रपात्रादिना प्रार्थयेत् श्लोककामी श्लाघानिलाषी व्याकरणगणित नि मित्तादिशास्त्राधीते कश्चित् ॥ ७ ॥ खाधाकर्म याहारोपाध्यादिकं ( निकाममीले ति ) प्रत्यर्थानिलापी तथा खाधाकर्मादिनिमंत्रणेषु निकामचारी प्रत्यंतं प्रवृत्तोविष नावं संयमे शीतलत्वं एषते श्रयति । तथा स्त्रीषु सक्तः पृथक् तद्भाषित हसितवि For Private Personal Use Only Page #436 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०६ द्वितीये सूत्रकृतांगे प्रथम श्रुतस्कंधे दशमाध्ययनं . लासादिषु यासक्तो बालोझोऽव्य मंतरेण स्त्रीप्राप्तिर्नस्यादिति तदुपायनूतं परिग्रहं प्रकुर्वाणः पापमेव बन्नाति ॥ ८ ॥ 1 ॥ टीका - किंच ( सर्वजगमित्यादि) सर्व चराचरं जगत् प्राणिसमूहं समतया प्रेदितुं शी लमस्य समतानुप्रेची समतापश्यकोवा नकश्चित्प्रियोनापि द्वेष्यइत्यर्थः । तथा चोक्तं । नि यसको विस्सो, पिसवेसु चेवजीवेसु । तथा ( जहममणपियं दुःखमित्यादि) समतोपेत श्व न कस्यचित्प्रियमप्रियं वा कुर्यान्निःसंगतया विहरेदेवं हि संपूर्णनावसमाधियुक्तोनवति । कश्चित्तु जावसमाधिना सम्यगुवानेनोद्वाय परीषहोप स गैस्तर्जितोदीन नावमुपगम्य पुन विषमवति विषयार्थीवा कश्चिप्रार्हस्थ्यमप्यवलंबते रससाता गौरवगृहोवा पूजास त्कारानिलापी स्यात्तदनावे दीनः सन् पार्श्वस्थादिनावेन वा विषमोजवति । कश्चित्तथा संपूजनं वस्त्रपात्रादिना प्रार्थयन् श्लाघानिलाषीच व्याकरणगलितज्योतिषनिमित्तशा स्वाधी कश्चिदिति ॥ ७ ॥ किंचान्यत् ( खाहकडं चेत्यादि ) साधूनाधायोद्दिश्य कृर्त निष्पादितमाधाकर्मेत्यर्थः । तदेवंभूतमाहारोपकरणादिकं निकाममत्यर्थे यः प्रार्थयते स निकाममाः । तथा निकाममत्यर्थं याधाकर्मादीनि तन्निमित्तनिमंत्रणादीनि वा सर चरति तवीलश्च सतथा एवंभूतं पार्श्वस्थावसन्नकुशलानां संयमोद्योगे विषमानां विपस्स नावमेषते सदनुष्ठान विषस्मतया संसारपंकावसन्नोभवतीति यावत् । अपिच स्त्रीषु रम uttaraaisध्युपपन्नः पृथक् पृथक् तद्भाषितहसित विठोकशरीरावयवेष्विति । बालवद्दालो शः सदसद्विवेक विकलस्तदवसक्ततया च नान्यथा इव्यमंतरेण तत्संप्राप्तिर्भवतीत्यतो येन केन चि पायेन पायभूतं परिग्रहमेव प्रकर्षेण कुर्वाणः पापं कर्म समुच्चिनोतीति ॥ ८ वेणुगिछे (पाठांतरे आरंभसत्तो) णिचयं करेति, इन चुतेसु डुमडु ग्गं ॥ तम्हा न मेधावि समिकधम्मं, चरे मुली सवन विप्पभुक्के ॥ ॥ य यं कुका पाठांतरे (बंद एए कुज्जा) इद जीवियठी, समालोय परि एका ॥ णिसम्म नासीय विणीय गिद्ध, हिंसन्नियं वा ण कदं करेा ॥१०॥ अर्थ - ( वेरा के ० ) जे कोइ परोपताप रूप कर्मेकर वैरनुं अनुबंध करे तेने वेरानु गृह कहिये. अथवा (प्रारंभसत्तो चियंकरेति के०) प्रारंभने विषे प्रासक्त बतो कर्मनो संचय करे एवो पुरुष ( चुते सुके ० ) अहीं थकी चवीने ते ( हम हडुग्गंके ० ) परमार्थ aal दुर्ग एटले विषम डुष्कर एवं नरकादिक स्थानकने पामे, (तम्हान के० ) ते कारण माटे ( मेधावि० ) पंमित होय ते ( समिरकधम्मं के० ) सम्यक् प्रकारे खालोचीने चारित्ररूप धर्मजे श्रीवीतरागे नाप्पोछे, तेने विषे (चरेके० ) विचरे एवो ( मुली For Private Personal Use Only Page #437 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रायधनपतसिंघ बहारका जैनागम संग्रह जाग दुसरा. Hog ० ho ) साधु (सन विपमुक्के के० ) सर्व संग थकी विप्र मुक्त बतो विचरे ॥ ए ॥ (5 हज विही) साधु या संसार मांहे याजीविकाने अर्थे ( खायंके० ) लान एटले इ व्यादिक उपार्जन करवानो उपाय ते ( कुजा के० ) नकरे तथा ( समालोयप रिवएका के० ) गृह पुत्र कलत्रादिकनो समागम करतो थको संयमने विषे प्रवर्त्ते, शुद्ध चारित्रपाले (पिसम्मनासीय विणीय गिडिंके ० ) तथा कोई कार्यवपना थका विमा सीने बोजे पण जुंरु बोले नहीं एटले शब्दादिक पांच प्रकारना विषयने विषे गृद्धपणु टालीने घालोचीने बोले अर्थात् (हिंसन्नियंवाणक हंकरेजा के०) प्राणीनी हिंसाकारक एवी कथा नकरे, एटले जे वचन थकी जीव हणाय नही तेवा वचन बोले ॥ १० ॥ || दीपिका - वैरानुगृः परोपतापसक्तोनिचयं कर्मबंधं करोति । इतोनवाच्युतः सः खमुपैति । किंनूतं दुःखं । श्रर्थदुर्गे परमार्थविषमं तस्मान्मेधावी विवेकी धर्मं समीक्ष्य विचार्य मुनिः सर्वतो विप्रमुक्तोनिःस्पृहः सन् चरेत्संयमे || || प्रायमिति । यायं व्यादि संचयं न कुर्यात् । इहनवे असंयमजीवितार्थी तथा असमानः संगम कुर्वन् परित्रजे त्यासक्तिविषयेषु विनीय त्यक्त्वा निशम्य पर्यालोच्य भाषकोभवेत् हिंसयान्वि तां युक्तां कथां नकुर्यान्न ब्रूयात् ॥ १० ॥ ॥ टीका - तथा (वेरा गिदेइत्यादि) येन केन कर्मणा परोपतापरूपेण वैरमनुबध्यते जन्मांतरशतानुयायि नवति तत्रगृहोवैरानुगृद्धः । पाठांतरंवा (प्रारंभसत्तोत्ति ) खारंने सावधानुष्ठानरूपे सतोलमोनिरनुकंपोनिचयं इव्योपचयं तन्निमित्तापादितकर्मनिचयं स्थानाच्युतोजन्मांतरं गतः सन् वा करोत्युपादत्ते सएवंभूतउपात्तवैरः कृतकर्मोपचय इत्यतोऽस्मात्स्थानाच्युतोजन्मांत रंगतः सन्ः दुःखयतीति दुःखं नरकादिकयातनास्थानम तः परमार्थतो विषमं दुरुत्तरमुपैति । यतएवं तत्तस्मान्मेधावी विवेकी मर्यादावान वा संपूर्ण समाधिगुणं जानानोधर्मं श्रुतचारित्राख्यं समीक्ष्यालोच्यांगीकृत्य मुनिः साधुः सर्वतः सबाह्यन्यंतरात्संगादिप्रमुक्तोऽपगतः संयमानुष्ठानं मुक्तिगमनैकहेतुनूतं चरेदनु तिष्ठेत् रुयारंजादिसंगादिप्रमुक्तोनिः श्रितनावेन विहरेदिति यावत् ॥ ए ॥ किंचान्यत् (प्राण कुकाइत्यादि) यागबतीत्यायोइ व्यादेर्जानस्तन्निमित्तापादितोऽष्टप्रकार कर्मलानो तमिहास्मिन संसारे प्रसंयमजीवितार्थी जोगप्रधानजीवितार्थीत्यर्थः । यदिवा खाजी विकानयात् इव्यसंचयं न कुर्यात् । पाठांतरंवा ( बंदंणकुलाइत्यादि) बंदः प्रार्थनानि लापइंडियाणां स्वविषयाभिलाषोवादं नकुर्यात्तथा श्रसमानः संगमकुर्वन् गृहपुत्र कलत्रादिषु परित्रजेयुक्त विहारी नवेत्तथा गृद्धिं गार्ध्यं विषयेषु शब्दादिषु विनीयाप नीय निशम्यावगम्य पूर्वोत्तरेण पर्यालोच्य नाषकोभवेत् । तदेव दर्शयति । हिंसया प्रा For Private Personal Use Only Page #438 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीये सूत्रकृतांगे प्रथम श्रुतस्कंधे दशमाध्ययनं. एयुपमर्दरूपान्वितां युक्तां कथां न कुर्यात् । नतत्प्रब्रूयात् यत्परात्मनोरुनयोव बधिकं वचइति नावः । तद्यथा । नीतपिबत खादतमोदत हतबिंदत प्रहरतपचते त्यादिकथां पापोपादाननूतां नकुर्यादिति ॥ १० ॥ प्रादाकडे वा पिकामएका, पिकामयं तेयण संश्रवेा ॥ धुणे नरा वेदमाणे, विचाण सोयं प्रणवेक माणो ॥ ११ ॥ ए गंतमेयं निपचएका, एवं पमोरको न मुसंति पासं ॥ एस प्पमो रको मुसे वरेवि, कोदणे सच्चरते तवस्सी ॥ १२ ॥ ४०८ अर्थ - (प्राहाकडं वाएालिकामएका के० ) प्राधाकर्मि प्रमुख श्राहारादिकनो सर्व या प्रकारें साधु निलाब करे नही ( पिकामयं ते यणसंथवेका के० ) तथाजे याधा कर्महारनीवांना करे एवा पासबादिक तेने संस्तवे नहीं एटले तेनी साथै परि चय करे नही. तथा (नरालं के० ) शरीर तेने ( धुणे के० ) कृश करे ( वेदमा tho) निर्जराने खालोचीने एम विचारेजे शरीरने कृश करियें तो निर्झरा याय, एम चिंतवी शरीर कृश करतां कदाचित् शोक दुःखनपजे तो ( विचाणसोयं रावेरकमा ऐ के० ) शरीरनु ममत्व प्रण करतो ते शोक बांमी चारित्र पाले, संयम गुणे साव धान थाय ॥ ११ ॥ ( एगंतमेयं निपएका के० ) साधु एकत्व पणानीज प्रार्थना करे एट एकत्व पशु वांबे कारण के जीव एकलो ग्राव्यो तथा परनवे दुर्गतिने विषे जाय तेवारे पण एकलोज जाय पण कोइ एने सहायी थाय नही, एकलोज कर्म बांधे एकलोज जोगवे, ते माटे एकत्व जावना नावे ( एवंपमोरको नमुसंतिपासं के० ) एम ए कव जावनायें प्रकर्षे करी मोह एटले संगरहित पलो, थाय. एम देखीने मृषा एटले लीक जाषा बोले नही (एसप्पमोरको के ० ) एम एकत्व नावनानो यनिप्राय ते प्रकर्षे करी मोले (मुसेवरे विके०) मृषा रहित एवो प्रधान सत्यपणु एनेज नाव समाधि कहिए जे साधु (कोह के क्रोधि कमावंत ( सच्चरतेके ० ) सत्यने विषे रत (तवस्सी के ० तथा तपस्वी एवो चारित्रानुष्ठानवान् एवो जे साधु ते साधु नावसमाधिवंत जावो.॥ १२ ॥ ० || दीपिका - प्राधायकृतमाधाकर्मादि न कामयेन्ना निषेत् तथाविधाहारम निलब माणात् पार्श्व स्थादीन्न संस्तुयात् तैः समं परिचर्य न कुर्यात् नदारं उदारिकशरीरं विरुष्टतप सा निर्जरामनुप्रेक्षमाणोधुनीयात् कृशं कुर्यात् । तथानुकाम्यपि शोकं त्यक्त्वाऽनपेक्षमा एः शरीर निरापेो धुनीयात् ॥ ११ ॥ एकत्वमसहायत्वं प्रार्थयेत् एकत्वनावनां जाव येदित्यर्थः । एवमेकत्वनावनया प्रकर्षेण मोक्षः स्यादिदं न मृषा इति पश्य सत्यमेवैतदि For Private Personal Use Only - Page #439 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राय धनपतसिंघ बादाउरका जैनागम संग्रह नाग उसरा. ४॥ ति विचारय एषएव एकत्वानिप्रायः अमृषारूपः सत्योवरः प्रधानश्च । यदि वा अको धनः सत्यरतस्तपस्वी सएव नावसमाधिवान् वरः प्रधानः स्यात् ॥ १२ ॥ ॥ टीका-थपिच । (आहाकडंचेत्यादि ) साधूनाधाय कृतमाधाकृतमौदेशिकमाधाक मत्यर्थः । तदेवंनूतमाहारजातं निश्चयेनैव नकामयेन्नानिलषेत्तथा विहारादिकंच निकामं निश्चयेनानिलषेत् पार्श्वस्थादीस्तत्संपर्कदानप्रतिग्रहसंनापणादिनिन संस्थापयेनोप ब्रहयेत्तैर्वा साध संस्तवं न कुर्यादिति । किंच ( नराति) औदारिकं शरीरं विशिष्टतपसा कर्मनिर्जरामनुप्रेक्षमाणोधुनीयात् कशं कुर्यात् । यदिवोरालंति बहुजन्मांतरसंचितं कर्म तउदारं मोदमनुप्रेदमागोधुनीयादपनयेत्तस्मिंश्च तपसा धूयमाने कशीनवति । शरीरके कदाचित् शोकः स्यात्तं त्यक्त्वा याचितोपकरणवदनप्रेक्षमाणः शरीरकं धुनीयादिति संबंधः ॥११॥ किंचापेक्षतेत्याह । (एगंतमेवेत्यादि) एकत्वमसहायत्वमनिप्रार्थयेदेकत्वाध्यवसा यी स्यात् । तथाहि । जन्मजरामरणरोगशोकाकुले संसारे स्वरूतकर्मणा विलुप्यमानानाम सुमतां न कश्चित्राणसमर्थः सहायः स्यात् । तथाचोक्तं । एकोमेसासअप्पा, एमाणदंस संजु ॥ सेसामेबाहिरानावा, सवे संयोगलरकणाश्त्यादिकामेकनावनां जावयेदेवम नयैकत्वनावनया प्रकर्षेण मोदः प्रमोदो विप्रमुक्तसंगता न मृषा अलीकमेतनवतीत्येवंप श्य। एषचैकत्वनावनानिप्रायःप्रमोदोवर्तते अमृषारूपः सत्यश्चायमेव। तथा वरोपिप्रधानो प्ययमेव नावसमाधिर्वा । यदिवा तपस्वी तपोनिष्टप्तदेहोऽकोधनः। नपलदाणार्थत्वादस्या मानोनिर्मायोनिर्लोनः सत्यरतश्च एषएव प्रमोदोऽमृपा सत्योवरःप्रधानश्च वर्ततइति॥१५ इचीसु या आरय मेहुणान, परिग्गरं चेव अकुबमाणे॥नचावए सु विसएसु ताई, निस्संसयं निरकु समाहिपत्ते॥ १३ ॥ अरई रइंच अनिनूय निरकू, तणाइफासं तद सीयफासं ॥ नपहंच दं संच दियासएका, सुप्रिंव उप्निव तितिस्कएका ॥१४॥ अर्थ-(बीसुया के० ) स्त्रीने विषे ( मेहुणाउ के० ) मैथुन सेववा थकी (आरय के०) निवर्त (परिग्गरं चेवयकुवमाणे के०) तथा धन धान्यादिक परिग्रहनो संचयषण करतो थको तथा ( नचावएसु विसएसुताईके०) नाना प्रकारना मनोज्ञ एवा वचनना जे प्रकार तेने विषे अथवा नाना प्रकारना विषय तेने विषे राग ३षे रहित होय, तथा त्रा एटले बकायनो रदपाल थको (निस्संसयं निरकु समाहिपत्ते के० ) एवो नाव समाधिने विषे प्राप्त थयलोजे साधु, ते विषयने निसंश्रय एटले नपामे एटले विषयने वांछे नही ॥ १३ ॥ हवे नाव थकी समाधि शीरीते साधु पामे ते देखाडेले. (अरई . रइंच अनिनूय निरकू के ० ) ते नाव साधु परमार्थनो जाण शरीरादिकने विषे निस्ट Page #440 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१० तीये सूत्रकृतांगे प्रथम श्रुतस्कंधे दशमाध्ययनं. हि थको तथा संयमने विषे अरति अने असंयमने विषे रति तेने टालीने (तणा फा संतहसीयफासं के) तृणादिकनो कठोर स्पर्श सहन करे. धादिशब्दथकी उंचो नी चो प्रदेश तेनो स्पर्शपण जाणवो ते स्पर्शनेपण सहन करे तथा शीत प्रमुखनुं स्पर्श तथा (नएहंचदंसंच हियासएजा के०) नुस्मनो स्पर्श. दंशमसकादिकनो स्पर्श तेनेपण साधु सम्यक् प्रकारे सहन करे तथा (सुप्निंव उणिवतितिरकएजाके०) समाधिवंत साधु सुनिरगंध उरनिगंधना परिसहने पण सम्यक् प्रकारे अहियासे एटले सहन करे॥१४॥ ॥दीपिका-स्त्रीषु यन्मैथुनं न स्यात् भारतथासमंताद रतोऽसक्तः परिग्रहमकुर्वन् सच्चा वचेषु ननाविर्धषु विषयेषु अरक्तदिष्टस्त्रायी परेषां त्राणनूतोनिःसंशयं निहुरेवनूतः साधुः समाधिप्राप्तः स्यात् ॥१३॥ अरति रतिंवा अनिनूय निकुस्तृणादिस्पर्शान शीतोमस्पर्शान् दंशमशकादीन परीषहांश्चाधिसहेत सुरनिमसुरनिं वा गंध तितिदेत्सहेत ॥ १४ ॥ टीका-किंचा न्यत् (इजीसुश्त्यादि) दिव्यमानुष तिर्यगपासु त्रिविधास्वपि स्त्रीषु विषय नूतासु यन्मैथुनमब्रह्म तस्मादासमंतान्नरतोऽरतोनिवृत्तश्त्यर्थः। तु शब्दात्प्राणातिपातादि निवृत्तश्च । तथा परिसमंतागृत्यते इति परिग्रहोधनधान्यदिपदचतुष्पदादिसंग्रहः। तथा या स्माऽत्मीयग्रहस्तं चैवाकुर्वाणः सन्नुच्चावचेषु नानारूपेषु विषयेषु । यदिवोच्चाउत्कृष्टाथ वचाजघन्यास्तेष्वरक्तदिष्टस्त्राय्यपरेषांच त्राणनूतोविशिष्टोपदेशदानतोनिःसंशयं नि श्चयेन परमार्थतोनिकुः साधुरेवंजूतोमूलोत्तरगुणसमन्वितोनावसमाधि प्राप्तोनवति नापरः कश्चिदिति । उच्चावचेषु वा विषयेषु वा नावसमाधेः प्राप्तोनिन संश्रयं याति नानारूपान् विषयान् नसंश्रयतीत्यर्थः ॥ १३ ॥ विषयाननाश्रयन् कथं नावसमाधिमा प्नुयादित्याह । (अरईरश्वेत्यादि) सनावनिकुः परमार्थदर्शी शरीरादौ निस्टहोमोग मनैकप्रवणश्च या संयमेऽरतिरसंयमेच रतिर्वा तामनिनूय एतदधिसहेत । तद्यथा। निष्किं चनतया तृणादिकान् स्पर्शनादिग्रहणानिम्नोन्नतनूतप्रदेशस्पीश्च सम्यगधिसहेत तथा शीतोमदंशमशकढुत्पिपासादिकान् परीषहानकोच्यतया निर्जरार्थमध्यासहेदधि सहेत तथा गंधं सुरनिमितरं च सम्यक् तितिक्ष्येत्सह्यात् । चशब्दादाक्रोशवधादिका श्व परिषदान्मुमुकुस्तितिदयेदिति ॥१४॥ गुत्तो वईएय समाहिपत्तो, लेसं समाहहु परिवएजा ॥ गिहें न गए पवि गयएडा, समिस्सनावं पयदे पयासु ॥ २५॥ जे के इ लोगंमि अकिरियआया,अन्नण पुत्र धुयमादिसति ॥आ रंजसत्ता गढिताय लोय, धम्मं ण जाणंति विमुकदेवें ॥१६॥ Page #441 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राय धनपतसिंघ बादाउरका जैनागम संग्रह नाग उसरा. ४११ अर्थ-( गुत्तोवईएयसमाहिपत्तो के) वचने करी गुप्त मौनव्रती एटले विचारीने धर्म संबंधनुं नाषण करनार एवो साधु नाव समाधिने विषे पोहोतो कहेवाय; तथा (लेसंसमाहटु परिवएका के) कृम, नील अने कापोत ए त्रण अगुनलेश्याने परि हरिने तेज, शुक्ल अने पद्म एत्रण शुन लेश्याने ग्रहण करीने संयमानुष्ठान पाले, (गिहंनाएणविनायएका के० ) तथा पोते घरने बाहे नही बीजाने हाथे बवरावे नही उपलक्षण थकी बवरावताने अनुमोदे नही;तथा बीजा पण गृहस्थ पणाना कर्तव्यने परिहरे तथा ( पयासु के० ) प्रजालोकने विषे (समिस्सनावं के०) विषयमिश्रित नाव नो (पयहे के० ) त्याग करे जे पचन पाचनादिक क्रिया करता गृहस्थ समान थाय ते नकरे अथवा प्रजा एटले स्त्री तेनी साथें मिश्रनावनो त्याग करे एटले स्त्री थकी दूर रहे. ॥ १५ ॥ (जेके लोगंमिन अकिरिययाया के०) जे कोइ सांख्य दर्शनी लोक मांहे एम कहे के पात्मा अक्रिय यात्माने क्रिया नथी, पण प्रकृति सर्व क्रिया करे एम बंध मोक्ने अण मानता थका बोलेडे (अनेणपुजा धुयमादिसंति के० ) तेने अन्य दर्शनी कोई पूछे के तमारा मते जो आत्मा कर्ता नथी तो बंध मोद केम घटे तेवारे तेने फरी एमज कहेके अमारा दर्शनमांज ध्रुव एटले मोदडे परंतु अन्य को दर्शने मोद नथी एवा ते (आरंजसत्ता गढितायलोय के ) पचन पाचन स्नाना दिकना पारंनने विषे धासक्त बता अत्यंत गृह एवा थका रहे परंतु ते कहेवाडे तोके था लोकने विषे (धम्मंणयाणंतिविमुरकहे के० ) मोदनो हेतु एवो जे श्रुत चारि त्र रूप धर्म तेने नथी जाणता एवा. ॥ १६ ॥ ॥ दीपिका-वाचा गुप्तोमौनव्रती समाधिप्राप्तः स्यात् । शुक्षा लेश्यां समाहत्यादाय परिव्रजेत् संयमेगृहं स्वतोन्येनवा न बादयेत् अपरमपि गृहसंस्कारं किंचिन्न कुर्यात् । तथा प्रजाः स्त्रियस्तासु मिश्रनावमेकत्वं प्रजह्यात्त्यजेत् ॥ १५ ॥ ये केचिलोकेऽक्रिया त्मानोऽक्रियावादिनः सांख्याः। तुर्विशेषेणे । तेऽन्येनाऽक्रियत्वे सति बंधमोदी नघटेते इत्यनिप्रायवता पृष्टाः संतोधूतं मोदं क्रियासाध्यमादिशति । तेतु पचनाद्यारंनसक्ता स्तु लोके धर्म श्रुतचारित्राख्यं विमोदहेतुं न जानंति ॥ १६ ॥ ॥ टीका-किंचान्यत् (गुत्तोवईए इत्यादि) वाचि वाचा वा गुप्तोवाग्गुप्तोमौनव्रती सुपर्या लोचितधर्मसंबंधनाषीवेत्येवं नावसमाधि प्राप्तोनवति । तथा शुभ लेश्यां तैजस्यादिकां समाहृत्योपादाय अगुहांच कृष्मादिकामपहत्य परिसमंतात्संयमानुष्ठानेन ब्रजेजलेदिति। किंचान्यत् गृहमावसथं स्वतोन्यैर्वा नविहादयेउपलक्षणार्थत्वादस्यापरमपि गृहादेरुरग वत्पररूतबिलनिवासित्वात्संस्कारं न कुर्यात् । अन्यदपि गृहस्थकर्तव्यं परिजिहीर्षुराह । Page #442 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१२ दितीये सूत्रकृतांगे प्रथम श्रुतस्कंधे दशमाध्ययनं. प्रजायंतति प्रजास्तास तविषये येन कृतेन सन्मिश्रनावोनवति तत्प्रजह्यात्।तउक्तं नव ति। प्रव्रजितोपि सन् पचनपाचनादिकां क्रियांकुर्वन कारयंश्च गृहस्थैः सन्मिश्रनावं जजते यदिवा प्रजाः स्त्रियस्तासु तानिर्वा यः सन्मिश्रीनावस्तम विकलसंयमार्थी प्रजह्यात्परि त्यजेदिति ॥ १५ ॥ अपिच । (जेकेइत्यादि ) ये केचन अस्मिन् लोके अक्रिययात्मा येषामन्युपगमे तेऽक्रियात्मानः सांख्यास्तेषां हि सर्वव्यापित्वादात्मा निष्क्रियः पम्यते । तथाचोक्तं । अकर्ता निर्गुणोनोक्ता, आत्मा कपिलदर्शनइति । तुशब्दो विशेषणे । सचे तमिशिनष्टि । अमूर्तत्वव्यापित्वान्यामात्मनोऽक्रियत्वमेव बुध्यते । तेचा क्रियात्मवादिनो न्येनाक्रियत्वे सति बंधमोदी नघटेते इत्यनिप्रायवता मोदसनावं दृष्टाः संतोऽक्रियावा ददर्शनेपि धूतं मोदं तदनावमादिशंति प्रतिपादयंति तेतु पचनपाचनादिके स्नानार्थ जलावगाहनरूपे वाऽरंने सायद्ये सक्ताअध्युपपन्नालोके मोदैकहेतुनूतं धर्म श्रुतचा रित्राव्यं न जानंति कुमार्गग्राहिणोन सम्यगवगळतीति ॥ १६ ॥ पुढोय बंदा इद माणवान, किरियाकिरीणं च पुढोय वायं ॥जायस्स बा लस्स पकुव देवें, पागंतरे (जायाई बालस्स पगनणाए) पवद्दती वेरम संजतस्स ॥१७॥ आनुस्कयं चेव अबुझमाणे, ममाति से साहसकारि मंदे ॥ अहोयरा परितप्पमाणे, अट्टेसु मूढे अजरामरेव ॥१७॥ अर्थ-(इहमाणवान के०) आलोकने विषे जे मनुष्यने ते प्रत्येकमनुष्य (पुढोयबंदा के०) पृथक् पृथक् जुदा जुदा बंद एटले आनिप्राय वाला ते अभिप्राय कोण कोणते देखाडे (किरियाकिरीणंचपुढोयवायं के०) क्रियावादी एम कहे के सर्वकाल क्रियाज सफल. अने अक्रियावादी एम कहेले के क्रिया कस्याविनाज सर्व इनित पदार्थनी प्राप्ति थायजे. एमज वली बीजा विनय प्रमुख वादी पण जाणी लेवा ए सर्व पुढोय एटले पथ क पृथक वायं एटले वदे परंतु ते धर्मना अजाण बापडा (जायस्सबालस्सपकुवदे हं के० ) जात एटले नत्पन्न थयेला बालकनी देहं एटले शरीर तेने खंम खंम करी ने पोताने सुख उपजावे , तथा पागतरे जायाश्बालस्सपगप्रणाए एवो पण पाठ डे एवीरीते करतां ते (असंजतस्स के०) असंयति एटले संयम रहित थका (पवट्ट तीवर के० ) वेरने वधारे एटले जे जीवनी नपघात करे तेते जीवनी साये वैरनी दि थायले ॥ १७ ॥ ते बापडा (यानरकयं के० ) श्रायुष्यना दयने (अबुसमा णे के० ) अजाणता एटले आयुष्य खूटेने तेने नथी जाणता. अहीं चेव पदपूर्थि बे एवा बता (ममाति के० ) अत्यंत ममत्व करेले एटले आ माहारुं हुं एनो एवा Page #443 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रायधनपतसिंघ बदाउरका जैनागम संग्रह नाग उसरा. ४१३ ममलने नथी मूकता (सेसाहसकारिमंदे के०) ते महोटा साहासीक एटले पाप थकी बीता नथी एवा मंद एटले अज्ञानी (अहोयराउपरितप्पमाणे के०) अहोरात्र परित तमान एटले व्यने अर्थे मम्मण श्रेष्टिनी पेरे पश्चाताप करे कायक्लेशकरे तथा (य हेसुमूढेअजरामरेव के० ) धानवंत थया थका एवा ते मूर्ख संसारने विषे परित्रमण करे परंतु अजरामर वणिकनी पेरे को काजे मनमा एम नजाणे जे अमने जरा अने मरण अवश्य आवशे एमविचारेनही. एवाते मूर्ख बझानी जाणवा ॥ १७ ॥ ॥ दीपिका-पृथकलंदानानानिप्रायाइह मनुष्यलोके मानवाः । तुर्निश्चये । क्रियाक्रिय योः पृथक्त्वेन क्रियावादम क्रियावादं च समाश्रिताः।जातस्य नत्पन्नस्य बालस्याज्ञस्य सु खैषिणोदेहं (पकुवत्ति) खंडशःकत्वाऽऽत्मसुखमुत्पादयंति । एवंकुर्वतोऽसंयतस्य वैरं प्राणि धु प्रवर्धते ॥ १७ ॥ श्रायुःक्ष्यं जीवितांतमबुध्यमानोऽजानन् साहसमविमृश्य प्रवृत्ति स्तत्करणशीलः साहसकारी मंदोममायमिति ममत्ववान नवति । यथा कश्चिक्षणिक महता क्लेशेन बहुमूल्यरत्नानि प्राप्य नजयिन्याबहिरावासितः सच राजचौरदायाद नया त्रौ रत्नान्येवमेवं नगरे नयामीत्येवं विचाराकुलोनिशाक्ष्यं नातवान् दिवैव रत्नानि प्र वेशयन् राजपुरुषै तोरत्नानि गृहीतानिचेति । एवमन्योपि किंकर्तव्यताकुलः स्वायुः यमजानन् ममतया साहसकारी स्यादिति । अन्हि रात्रौ च परितप्यमानोमंमणवणि ग्वदार्तध्यानी अर्थेषु मूढोऽजरामरवरिक्तश्यते । यतः । अजरामरवद्वालः क्लिश्यते धन काम्यया ॥ निरंतरं मन्यमानः शाश्वतं जीवितं धनमिति ॥ १७ ॥ ॥ टीका-किंचान्यत् । (पुढोयलंदाइत्यादि ) पृथक् नाना बंदोऽनिप्रायोयेषां ते पृथ कबंदाइहास्मिन्मनुष्यलोके मानवामनुष्याः। तुरवधारणे। तमेव नानानिप्रायमाह । कि याऽक्रिययोः पृथकत्वेन क्रियावादमक्रियावादंच समाश्रिताः।तद्यथा । क्रियेव फलदा पुं सां, नझानं फलदं मतं ॥ यतः स्त्रीनदयनोगझो, न ज्ञानात्सुखितोनवेत् ॥१॥ इत्येवं क्रियैव फलदायित्वेनान्युपगताः क्रियावादमाश्रिताएवमेतविपर्ययेणाऽक्रियावादमाथि ताः। एतयोश्चोत्तरस्वरूपं न्यदेण वदयते। तेच नानानिप्रायामानवाः क्रिया क्रियादिकं ट थग्वादमाश्रितामोदहेतुं धर्ममजानानाथारंनेषु सताइंडियवशगारससातागारवानि लाषिणएतत्कुर्वति । तद्यथा । जातस्योत्पन्नस्य बालस्याझम्य सदसदिवेकविकलस्य सु खैषिणोदेहं शरीरं पकुवति खंडशः कृत्वात्मनः सुखमुत्पादयंति । तदेवं परोपघातकियां कुर्वतोऽसंयतस्य कुतोप्यनिवृत्तस्य जन्मांतरशतानुबंधिवैरं परस्परोपमर्दकारि प्रकर्षेण व र्धते। पाठांतरंवा (जायाश्वालस्सपगनणाए) बालस्याङ्गस्य हिंसादिषु कर्मसु प्रवृत्तस्य निरनुकंपस्य या जाता प्रगल्नता धार्थ तया वैरमेव प्रवर्धतइति संबंधः ॥ १७ ॥ अ Page #444 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१४ दितीये सूत्रकृतांगे प्रथम श्रुतस्कंधे दशमाध्ययनं. पिच । (बाउरकयमित्यादि) घायुषोजीवनलकणस्य श्ययायुष्कदयस्तमारंनप्रवृत्त बिन्नदमत्स्यवदकदये सत्यवबुध्यमानोतीव ममइति ममत्ववानिदं मे अहमस्य स्वामीत्येवं समंदोज्ञः साहसं कर्तुं शीलमस्येति साहसकारीति । तद्यथा । कश्चिदणि ङ् महाक्वेशेन महा_णि रत्नानि समासाद्योजयिन्याबहिरावासितः। सच राजचौरदायाद नयात्री रत्नान्येवमेवंच प्रवेश यिष्यामित्येवं पर्यालोचनाकुलोरजनीदयं न ज्ञातवान् अन्ह्येव रत्नानि प्रवेशयन् राजपुरुषैरत्नेन्यश्च्यावितइति एवमन्योपि किंकर्तव्यताकुलः स्वायुषः यमबुध्यमानः परिग्रहेष्वारंनेषु च प्रवर्तमानः साहसकारी स्यादिति । तथा कामनोगतृषितोऽन्हि रात्रौ च परिसमंतात् इव्यार्थी परितप्यमानोममणवणिग्वदार्तध्या यी कायेनापि क्लिश्यते । तथाचोक्तं । अजरामरवहालः, क्लिश्यते धनकाम्यया ॥ शाश्व तं जीवितं चैव, मन्यमानोधनानिच ॥ १ ॥ तदेवमार्तध्यानोपहतः । कश्यावञ्चश्सबो, किंनंडंकनकित्तियानूमीत्यादि । तथा नरकणवणइणिहणत्ति नसुयादियावियससंको इत्यादि चित्तसंक्वेशात्सुष्ट्र मूढोजरामरवणिग्वदजरामरवदात्मानंमन्यमानोऽपगत शुनाध्यवसायोहार्निशमारंने प्रवर्ततइति ॥ १७ ॥ जहादि वित्तं पसवोय सवं,जे बंधवा जेय पियाय मित्तालाल प्पती से विय ए मोहं, अन्ने जणा तंसि हरंति वित्तं ॥१॥सी हं जदा स्कुमिगा चरंता,दूरे चरंती परिसंकमाणा॥ एवं त मे दावि समिरक धम्म, उरेण पावं परिवाएजा ॥२०॥ अर्थ-(जहाहि के० ) यथा दृष्टांते ( वित्तं के ) सुवर्णादिक इव्य तथा (पसवोय के ) गाय नेश प्रमुख पशु (सई के०) ए सर्व तारो त्याग करशे माटे एमने विषे ममत्व करीश नही. वली (जेबंधवा जेय पियायमित्ता के०) यथा दृष्टांते नाइ माता पिता स्वसुरादय प्रिय मित्र ते पण परमार्थ थकी तने काम नही थावे तोपण तुं बा पडो तेमने अर्थ विलाप करे. (लालप्पतीसेविय एइमोहं के० ) लालप्यते सोपिमो हंनपेति एटले वित्त पुत्रादिकने अर्थ लाल पाल करे एम ते बापडो कुंमरीकनी पेरे मोहपाशे पडयो थको (अन्नेजणासि हरंतिवित्तं के) पड़ी तेनुं उपार्जन करेलुं वित्त तेने बीजा जन अपहरे ए प्रकारे जीवतां तथा मरण पाम्या पली पण तेने क्लेश ज थाय ॥ १५ ॥ (जहाके) जेम रुकुमिगाचरंता के० (दुइ मृग एटले न्हानाएवा मृग प्रमुख अटवीनेविषे विचरनार जीवोते (सीईके ) सिंहनामा जनावर थकी (दू रेचरंतीपरिसंकमाणा के०) बीहीता थका सिंहने दूर टालीने वेगला थका चरे; (एवं Page #445 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राय धनपतसिंघ बाहाउरका जैनागम संग्रह नाग उसरा. ४२५ तुमेहाविसमिरकधम्मंके०)ए दृष्टांते पंमित जे तेपण सम्यक् प्रकारे श्रीवीतराग नाषित श्रुत चारित्ररूप धर्मने आलोचीने (रेणपावं परिवऊएजाके०) हिंसादिक सावद्यानुष्ठा नरूपजे क्रिया तेने पापरूप जाणीने तेनाथी दूर रहे एरीते साधु सुंधूसंयम पाले.॥२० ॥दीपिका-वित्तं इव्यं पशवोगोमहिष्याद्यास्तान् सर्वान् जहाहि त्यज । बांधवा मातापि त्रादयः सेतस्य येच मित्राणि सुहृदस्तेपि तस्य न किंचित्तत्वतः कुर्वति सोपिच वित्ता द्यर्थ लालप्यते नृशं विलपति मोहमुपैतिच धनवानपि मम्मणवणिग्वत् धान्यवान पि तितकश्रेष्ठिवत् एवमयमपि असमाधिमाप्नोति । यच्च तेनार्जितं धनं तदन्यजनास्तस्य जीवतएव मृतस्यच हरंति गृएहंति । तस्यतु क्वेशएव केवलं ॥ १५ ॥ यथा कुडास्तुना मृगाश्चरंतोऽटव्यामटतः सिंहं दूरे त्यक्त्वा चरंति । यतः परिशंकमानाः सर्वतोनयाकुला एवं मेधावी धर्म समीक्ष्य विचार्य पापं दूरेण परिवर्जयेत् ॥ २० ॥ ॥ टीका-किंचान्यत् (जहाहिवित्तमित्यादि ) वित्तं इव्यजातं तथा पशवोगोमहि ध्यादयस्तान सर्वान् जहाहि परित्यज । तेषु ममत्वं माकृथाः।ये बांधवामातृपित्रादयः श्व गुरादयश्च पूर्वापरसंस्तुतायेच प्रिया मित्राणि सहपांसुक्रीडितादयस्ते एते मातापित्राद योन किंचित्तस्य परमार्थतः कुर्वति सोपिच वित्तपशुबांधव मित्रार्थी अत्यर्थ पुनः पुनर्वा लपति लालप्यते । तद्यथा हेमातः हेपितश्त्येवं तदर्थ शोकाकुलः प्रलपति तदार्जनप रश्च मोहमुपैति । रूपवानपि कंडरीकवत् धनवानपि मम्मणवणिग्वत् धान्यवानपि तिलक श्रेष्ठिवदित्येवमसावप्यसमाधिमान् मुह्यते । यच्च तेन महता क्लेशेनापरप्राण्युपमर्दनो पार्जित्तं वित्तं तदन्ये जनाः सेतस्यापहरंति जीवतएव च तस्य वा तस्य च क्वेशतः केवलं पापबंधश्चेत्येवं मत्वा पापानि कर्माणि परित्यजेत्तपश्चरेदिति ॥ १५ ॥ तपश्चरणोपायम धिकत्याह । (सीहंजहेत्यादि) यथा हुश्मृगाः तुझाटव्यपशवोहरिणजात्याद्याश्चरंतो ऽटव्यामटतः सर्वतोबिन्यतः परिशंकमानाः सिंहं व्याघ्रं वा आत्मोपड्वकारिणं दूरेण परिहत्य चरप्ति विहरंत्येवं मेधावी मर्यादावान् । तुर्विशेषणे । सुतरां धर्म समीक्ष्य पर्या जोच्य पापं कर्मसदनुष्ठानं दूरेण मनोकायकर्मनिः परिहत्य परिसमंताजेत्संयमानुष्टा यी तपश्चारी च नवेदिति दूरेण वा पापं पापहेतुत्वात्सावद्यानुष्ठानं सिंदमिव मृगः स्वहितमिलन परिवर्जयेत्त्यजेदिति ॥ २० ॥ संबनमाणे न गरे मतीमं, पावान अप्पाण निवट्टएका ॥ हिंसप्पसया उहाई मत्ता, वेराणुबंधीणि महप्तयाणि ॥ पागंतरे सनिवाण नूएन Page #446 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१६ द्वितीये सूत्रकृतांगे प्रथम श्रुतस्कंधे दशमाध्ययनं. वरिवएका ॥ २१ ॥ मुसं न बूया मुत्तिगामी, णिवाणमेयं कसिणं समाहिं ॥ सयं न कुज्जान न कारवेजा, करंतमन्नोपि य पाजाले ॥ २२ ॥ अर्थ- (संबुझमाणे उणरेमतीमं के० ) मतिमंत प्रज्ञावंत एवो मनुष्य सम्यक् प्रका रे धर्मने जाणतो थको ( पावानाप्पाणनिवट्टएका के० ) पोताना ग्रात्माने पाप थ की निवर्त्ता; ( हिंस० ) जीवनो घात ते थकी ( प्रसूत के० ) उत्पन्न थयां एवांजे ( डहाके) शारीरीक ने मानशीक दुःख तेने ( मत्ताके० ) जणीने गुंजाणीने तोके (बंधी महके ० ) वैरानुबंधा वैरना कारण जाणीने महानयना उपजाव नार एवा श्रवोनो निरोध करे; एटले सर्व याश्रवनुं मूल ते हिंसा जाणवी; माटे हिं साथ की निवर्ते ते साधु नावसमाधिवंत जावो. अथवा पाठांतरे सनिवारानू एवं परिवए I ) ॥ २१ ॥ ( मुत्तिगामी के० ) मोह गामी मुनि ( मुसंनबूया के० ) मृषा बो से नही. (शिद्वाणमेयंक सिांसमाहिं के० ) ए मृषावादनो जे परिहार एज मोक्षरूप स माधिनु पण संपूर्ण कारण जाणवुं माटे ते मृषावादने ( सयंनकुकान के ० ) साधु पोते करे नही, तथा ( नकारा के ० ) बीजा पाशे करावे नही, तथा (करंतमन्नोपियापुजा ऐ ) अन्य कोई करतो होय तेने अनुमोदे नहीं एवोसाधु नावसमाधिवंत जाणवो ॥ २२ ॥ || दीपिका - मतिमान्नरः साधुः सम्यकधर्म बुध्यमानः पापात्सावद्याचरणादात्मानं निवर्तयेत् हिंसातः प्रसूतानि जातानि दुःखानि वैरानुबंधीनि कर्मबंध हेतूनि महानयंक राणि इति मत्वा स्वं पापान्निवर्तयेत् ॥ २१ ॥ श्राप्तोमोस्तामी मुनिर्मृषावादं न ब्रूयात् एतदेव मृषावर्जनं कृत्स्नं संपूर्ण समाधिं नावसमाधिमादुः । यथा मृषावादस्तथा अन्य तातिचारमपि न कुर्यात्स्वयं नाप्यपरेण कारयेत् अन्यं कुर्वेतमपि नानुजानीयात्. ॥१२॥ ॥ टीका - पिच । (संबुझमाणेत्यादि) मननं मतिः सा शोजना यस्यासौ मतिमा न् । प्रशंसायां मतुप् । तदेवं शोजनमतियुक्तोमुमुक्कुर्नरः सम्यक् श्रुतचारित्राख्यं धर्म वा जावसमाधिं वा बुध्यमानस्तु विहितानुष्ठाने प्रवृत्तिं कुर्वाणस्तु तदेव पूर्वं तान्निषिधाचर पान्निवर्ते तातस्तत्प्रदर्शयति । पापात् हिंसानृतादिरूपात्कर्म श्रात्मानं निवर्तयेत् । निदानो न हि निदाननवे दोनवतीत्यतोऽशेषकर्मक्ष्य मिन्नादावेवनव द्वाराणि निरुंध्यादि त्यनिप्रायः । किंचान्यत् । हिंसा प्राणिव्यपरोपणं तया ततोवा प्रभूतानि जातानि या यानि कर्माणि तान्यत्यंतं नरकादिषु यातनास्थानेषु दुःखानि दुःखोत्पादकानि वर्तते । तथा वैरमनुबतिलानिच वैरानुबंधीनि जन्मशतसहस्रडुर्मोचान्यतएव महद्भयं येयः सकाशात्तानि महानयानीत्येवं च मत्वा मतिमानात्मानं पापान्निवर्तयेदिति । पा For Private Personal Use Only Page #447 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राय धनपतसिंघ बाहाउरका जैनागम संग्रह नाग उसरा. ४१७ नांतरंवा । (निवाणनएयपरिवएका ) अस्यायमर्थः। यथाहि निर्वतौ निर्व्यापारत्वात्कस्य चिउपघाते न वर्तते एवं साधुरपि सावद्यानुष्ठानरहितः परिसमंताद् बजेदिति ॥२१॥ तथा (मुसंगबूयाइत्यादि) आप्तोमोदस्तजामी तजमनशीलयात्महितगामीवा प्राप्तोवा प्रवीणदोषः सर्वज्ञस्तउपदिष्टमार्गगामी मुनिः साधुर्मूषावादमनृतमपथार्थ न ब्रूयात्सत्य मपि प्राण्युपघातकमिति । एतदेव मृषावादवर्मनं कृत्स्नं संपूर्ण नावसमाधि निर्वाणं चा दुः। सांसारिकाहि समाधयः स्नाननोजनादिजनिताः शब्दादिविषयसंपादितावा अनैकांति काऽनात्यंतिकत्वेन दुःखप्रतीकाररूपत्वेन वाऽसंपूर्णावतते । तदेवं मृषावादमन्येषां वा व्रतानामतिचारं स्वयमात्मना न कुर्यात्राप्यपरेण कारयेत्तथा कुर्वतमप्यपरं मनो वाक्कायकर्मनिर्नानुमन्यतइति ॥ १२ ॥ सुद्धे सिया जाए न दूसएजा, अमुबिएणय अनुववन्ने॥धिति मं विमुक्के ण य पूयणही, न सिलोयगामीय परिवएका ॥२३॥ निस्कम्मरोहा निरावकंखी, कायं विनसेक नियाणबिन्ने ॥णो जीवियं णो मरणावकंखी, चरेङ निस्कू वलया विमुक्के तिबेमि ॥२४॥ इति समादिनाम दसमसयणं सम्मत्तं ॥ अर्थ-(सुवेसिया जाएनदूसएकाके) नजम,नत्पादन अने एषणा एत्रणे दोष रहित एवो मुझो निर्दोष थाहार प्राप्त थयो अथवा न थयो बता पण कदापि साधु राग षे करी पोताने उपवे नही तथा (अमुलिए के० ) अमूर्बित अगृह एटले लोव्यता रहित (णयअ बवन्ने के ० ) फरी फरी ते रूडा थाहारनी वांढा नकरे तथा (धि तिमंविमुक्के एयपूयणही के०) धृतिमंत तथा बाह्यान्यंतर ग्रंथी रहित तथा पूजानो अर्थी न थाय (नसिलोय कामीय परिवएका के० ) तथा श्लाघाने अर्थे क्रिया न करे परंतु कर्म निर्जराने अर्थे मोक्ने अर्थ संयमने विषे प्रवर्ने एवो समाधिवंत साधु जाणवो ॥ २३ ॥ ( निस्कमगेहान के ) गृहस्थावास थकी निकलीने चारित्र पादरी ने (निरावकंखी के० ) जीवितव्यने विषे निरापेदी बतो (कार्यविनसेक के०) शरीर नपर ममत्व मूकीने पोतानी काया वोसिरावे तथा (नियाण बिन्ने के०) परनवे देव अथ वा राजादिक थवानुं नियाणु नकरे (पोजीवियंणोमरणावखी के ) जीवितव्य थ ने मरणने वाले नही एटले पूजा सत्कारनी प्राप्तियें करी जीवितव्य नवां अने उपसर्ग परिसह उपने थके मरण पण नवांडे एवो (निरकू के०) साधु ते ( वलयाविमुक्के के०) कर्मबंध थकी मूकाणो अथवा वलय एटले संसार थकी मूकाणो थको (चरेङके० ) Page #448 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१७ वितीये सूत्रकृतांगे प्रथम श्रुतस्कंधे दशमाध्ययनं. संयमानुष्ठानने पाले तिबेमिनो अर्थ पूर्ववत् जाणवो ॥ २४॥ इतिश्री समाधि ना . मक दशमां अध्ययननो अर्थ समाप्त थयो. ॥ दीपिका-नुजमादिदोषयुके आहारादौ स्यात्कदाचिद्याते प्राप्ते सति रागदेषान्यां साधुन दूषयेत् । यतः । बायाली सेसणसं, कमि गहणंमि जीवनदुबलि । इपिहंज नलविकसि, मुंजतोरागदोसे हिं इति । अमूर्बितोनासक्तः गुनाहारे नचाध्युपपन्नस्तमेवा हारं पुनःपुनर्नानिलषमाणः संयमयात्रार्थमेवाहारयेत् । तथा तिमान् ग्रंथाविमुक्तो नच पूजनार्थी श्लोकः कीर्तिस्तजामी तदनिलाषुकोन स्यात् एवंनूतः परिव्रजेत् ॥ ॥ २३ ॥ गृहानिःसृत्य निरावकांक्षी निस्टहः कायं शरीरं व्युत्सृज्य विचिकित्साम कुर्वन् बिन्ननिदानोनवेत् । तथा जीवितं नापि । मरणमनिकांदेत निकुवलयात्संसारादि मुक्तः संयमे संचरेदिति । ब्रवीमीति पूर्ववत् ॥ २४ ॥ इति श्रीसूत्ररूतांगदीपिकायां समाध्याख्यं दशमाध्ययनं समाप्तं ॥ ॥ टीका-नुत्तरगुणानधिकृत्याह (सुसियाइत्यादि ) उजमोत्पादनैषणानिः युद्धे निर्दोषे स्यात्कदाचिद्याते प्राप्ते पिंडेसति साधूरागदेषान्यां न दूषयेत् । नक्तंच । बायाली सेसणसं, कडंमिगहणमि जीवनदुबलि ॥ सिंहजहन बलिङसि, मुंजतोरागदोसे हिं ॥१॥ तत्रापि रागस्य प्राधान्यख्यापनायाह । नमूर्बितोऽमूर्षितः सकदपि शोजनाहारलाने सतिगृधिमकुर्वन्नाहारयति तथा नाध्युपपनस्तमेवाहारं पौनःपुन्येनाननिलषमाणः केवलं संयमयात्रापालनार्थमाहारमाहारयेत् । प्रायोविदितवेद्यस्यापि विशिष्टाहारसन्निधावनि लाषातिरेकोजायतश्त्यतोऽमूर्बितोऽनध्युपपन्नति च प्रतिषेध यमुक्तं । उक्तंच । नुत्त लोगो पुरा जोवि, गीयडोविय नाविन ॥ संते साहारमाईसु, सोविखिप्पंतु खुऊ॥१॥ तथा संयमे धृतिर्यस्यासौ धृतिमान् सबाह्यान्यंतरेण ग्रंथेन विमुक्तस्तथा पूजनं वस्त्र पात्रादिना तेनार्थः पूजनार्थः सविद्यते यस्यासौ पूजनार्थी तदेवंनूतोन नवेत् । तथा श्लोकः श्लाघा कीर्तिस्तनामी नतदनिलाषुकः परिव्रजेदिति । कीर्त्यर्थी न कांचन क्रियां कुर्यादित्यर्थः॥२३॥अध्ययनार्थमुपसंजिघृकुराह । (पिरकम्मेत्यादि) गेहानिःसृत्य निष्कम्य च प्रव्रजितोपि जूत्वा जीवितेपि निराकांही कायं शरीरं व्युत्तज्य निष्प्रतिकर्मतया चि कित्सादिकमकुर्वन् बिन्ननिदानोनवेत् । तथा न जीवितं नापि मरणमनिकांदेत् नितुः सा धुर्वलयात्संसारवलयात्कर्मबंधनाचा विप्रमुक्तः संयमानुष्ठानं चरेत् । इति परिसमाप्यर्थे । ब्रवीमीति पूर्ववत् ॥ २४ ॥ इति समाध्यायं दशमाध्ययनं समाप्तं ॥ Page #449 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धनपत संघ बादाडुरका जैनागम संग्रह नाग दुसरा. ४१ हवे मो मार्ग नामे यगीधारमुं अध्ययन कहे. पूर्वला दशमां अध्ययनमां समा धि कही, ते समाधि तो ज्ञान, दर्शन खने चारित्ररूप जागवी ते कारणे एनुं सेवन करिए तो मोक्ष प्राप्ति थाय, माटे या अध्ययनमां मोक्ष मार्ग कहे. कयरे मग्गे अकाए, माहणेण मईमता ॥ जं मग्गं नकु पावि त्ता, नहं तरति उत्तरं ॥ १ ॥ तं मग्गं पुत्तरं सुधं, सबक विमो स्कणं ॥ जाणासि णं जदा निस्कू, तं पो बूहि महामुखी ॥ २ ॥ अर्थ - श्रीजंबुस्वामी श्रीसुधर्मस्वामि प्रत्ये पूबेबे के, ( कयरेमग्गे के० ) मोक्षमार्ग साधन करवानो एवो कयो धर्ममार्ग ( माहोल ममता के ० ) मतिमंत एटले केवलज्ञान वंत श्रीमहावीर परमेश्वर तेणे ( अरकाएके ० ) कह्योबे . ( जंमग्गंचकुपा वित्ता के ० ) जेज्ञा न दर्शन चारित्ररूप सरल मार्ग पामिने प्राणी ( उतरंतितरं के० ) तरतां थकां इस्त र एवा संसार समुने तरीने पार पामे ॥ १ ॥ सर्वनाहितने अर्थे जे मार्ग श्रीसर्व उपदेश्यो, (तमग्गणुत्तरंसु : के० ) तेमार्ग बुद्धो निर्दोष अनुत्तर एटले निरुपम ( सडक विमोरकां के ० ) समस्त दुःखयकी मुकावनार एवो मार्ग ( जाणा सिपंजा हार के ) हो जगवंत जेवो तमे जाणोबो ( तंपोबूहिमाहामुली के० ) ते वो हे महामुनीश्वर श्रमने कहो. ॥ २ ॥ || दीपिका - प्रथैकादशमारच्यते । पूर्वाध्ययने समाधिरुक्तः सच मार्गे सति स्यादिति मार्गोऽत्र प्रतिपाद्यते । यथा । ( कयरेइत्यादि) जंबूस्वामी सुधर्मस्वामिनमाह । कतरः कोमार्गयाख्यातोमाहनेन मतिमता श्रीवीरेण । यं मार्ग मुक्तिप्राप्तिरूपं जुमवक्रं प्रा प्योधं संसारं तरति प्राणी ॥ १॥ तं मार्गमनुत्तरं श्रेष्ठं शुद्धं निर्दोषं सर्वडुःख विमोक्षणं हे मुने त्वं जानीषे । मिति वाक्यालंकारे । तं मार्ग नोऽस्माकं हेमहामुने ब्रूहि ॥ २ ॥ I ॥ टीका - नक्तं दशमाध्ययनं तदनंतरमेकादशमारच्यते । यस्य चायमनिसंबंधः । इ हानंतराध्ययने समाधिः प्रतिपादितः सच ज्ञानदर्शन तपश्चारित्ररूपोवर्तते । नावमार्गों 'येवमात्मक एवेत्य तो मार्गोऽनेनाध्ययनेन प्रतिपाद्यतेइत्यनेन संबंधेनायातस्याध्ययनस्य चत्वार्युपक्रमादीन्यनुयोग द्वाराणि वाच्यानि । तत्राप्युपक्रमांतर्गतोर्थाधिकारोयं । तद्यथा । प्रशस्तोज्ञानादिकोनावमार्गस्तदाचरणं चात्रानिधेयमिति । नामनिष्पन्नेतु निदेपे मा इत्यस्याध्ययनस्य नाम । तन्निदेपार्थं निर्युक्तिरुदाह । " णामं ववणा दविए, खेत्ते काले त हेव नावे ॥ एसो खलु मग्गस्तय, सिरेकवो बहिहो होइ " ॥ ए ॥ ( सामंतवणेत्यादि) ना मस्थापनाइव्य क्षेत्रकाल नावनेदान्मार्गस्य पोढा निक्षेपः । तत्र नामस्थापने सुगमत्वाद For Private Personal Use Only Page #450 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३० दितीये सूत्रकृतांगे प्रथम श्रुतस्कंधे एकादशमध्ययनं. नादृत्य इशरीरनव्यशरीरव्यतिरिक्त इव्यमार्गमधिकृत्याह । “फलगलयं दोनणचि,त्तर कुदवणबिलप्पास मग्गेय । खलिगअयपरिकप हे उत्तजलाकासदईमि" ॥ १० ॥ (फ लकेत्यादि ) फलकैर्मार्गः फलकमार्गः। यत्र कर्दमादिनयात् फलकैर्गम्यते । लतामार्गस्तु यत्र लतावलंबेन गम्यते । अंदोलनमार्गोपि यत्रांदोलनेन उर्गमतिलंध्यते । वेत्रमार्गोयत्र त्रलतोपष्टनेन जलादौगम्यते इति । तद्यथा। चारुदत्तोवेत्रलतोपष्टंनेन वेत्रवती नदीमु नीर्य परकूनं गतः । रकुमार्गस्तु यत्र रज्वाकिंचिदतिर्गमतिलंध्यते। दवनंति यानं तन्मा गीदवनमार्गः । बिलमार्गोयत्र तु गुहाद्याकारेण बिलेन गम्यते । पाशप्रधानोमार्गः पा शमार्गः पाशकूटकवागुरान्वितोमार्गश्त्यर्थः। कीलकमार्गोयत्र वालुकोत्कटे मरुकादि विषये कीलकानिज्ञानेन गम्यते । अजमार्गोयत्र बस्त्येनाजेन गम्यते । तद्यथा । सुव नूम्यां चारुदत्तोगतइति । पदिमार्गोयत्र नारुडादिपविनिर्देशांतरमवाप्यते । बत्रमार्गो यत्र उत्रमंतरेण गंतुं न शक्यते । जलमार्गोयत्र नावादिना गम्यते । श्राकाशमार्गो विद्या धरादीनामयं सर्वोपि फलकादिकोश्व्ये इयविषये ऽवगंतव्यइति । क्षेत्रादिमार्गप्रतिपाद नायाह । “खेतमि मि खेत्ते, काले कालो जहिं हवा जो । नामि होंति छवि हो, पसतह अप्पसबोय ३ ॥ ११ ॥ ( खेत्तंमीत्यादि) देवमार्गे पर्यालोच्यमाने य स्मिन् क्षेत्रे ग्रामनगरादौ प्रवेशेवा शालिकेत्रादिके वादेत्रे योयाति मार्गोयस्मिन्वा देने व्याख्यायते सदेत्रमार्गः । एवं कालेप्यायोज्यं । नावे त्वालोच्यमाने विविधोपि नवति नावमार्गः । तद्यथा । प्रशस्तोऽप्रशस्तश्चेति । प्रशस्ताप्रशम्तनेदप्रतिपादनायाह । “ सुवि हंमि वितिगनेदो, वो तस्स विचिणिनि उविहो । सुगतिफलग्गतिफलो, पगर्य सु गतीफले मि ॥१२॥ (उविहंमीत्यादि) विविधेपि प्रशस्ताप्रशस्तरूपे नावमाणु प्र त्येकं त्रिविधोनवति । तत्राप्रशस्तोमिथ्यात्वा विरतिरझानं चेति । प्रशस्तस्तु सम्यग्दर्शन झानचारित्ररूपइति । तस्य प्रशस्ताप्रशस्तरूपस्य नावानावमार्गस्य विनिश्चयोनिर्णयः फलं कार्य । निष्ठावेधा । तद्यथा । प्रशस्तः सुगतिफलोऽप्रशस्तश्च उर्गतिफलति । इह तु पुनः प्रशस्ताऽधिकारः सुगतिफलेन प्रशस्तमार्गेणेति । तत्राप्रशस्त उर्गतिफलं मार्ग प्रतिपिपा दयिषुस्तकर्तृनिर्दिदिकुराह । “उग्गइफलवादीणं, तिन्नि तिसहसतावादीणं ॥ खेमे य खे मरूवे, चनक्कगं मग्गमादीसु ५ ॥ १३ ॥ (उग्गईत्यादि ) उर्गतिः फलं यस्य सर्गतिफ लस्तदनशीलाऽर्गतिफलवादिनस्तेषां प्रवाऊकानां त्रीणि त्रिपष्टयधिकानि शतानि न वंति । उर्गतिफलमार्गोपदेष्ट्रत्वंच तेषां मिथ्यात्वोपहतदृष्टितया विपरीतजीवादितत्वान्युप गमात् । तत्संख्या चैवमवगंतव्या। तद्यथा ।असियसयंकि रियाणं, अकिरियवाईण हो चु लसीई ॥ अस्माणियसत्तही, वेणश्याणं च बत्तीसं ॥१॥ तेषांच स्वरूपं समवसरणाध्ययने वक्ष्यतइति । सांप्रतं मार्गनंगारेण निरूपयितुमाह। तद्यथा। एकः देमोमार्गस्तस्करसिंह Page #451 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रायनपतसिंघ बादाडुरका जैनागम संग्रह नागड सरा. ४२१ व्याघ्राद्युपवरहितत्वात्तथा देमरूपश्च समत्वात्तथा बायापुष्पफलव दृहोपेतजलाश्रया कुलत्वाच्च । तथा परः देमोनिश्चौरः किंत्व देमरूप उपलश कला कुल गिरिनदी कंटक गर्तशता कुलत्वेन विषमत्वात्तथाऽपरोक्षेमस्तस्करा दिनयोपेत त्वात्दे मरू पश्चोपलशकलाद्यनावतया समत्वात्तथाऽन्योन के मोनापि देमरूपः सिंहव्याघ्रतस्करादिदोषऽष्टत्वात्तथा गर्तपाषाणनि नोन्नतादिदोषष्टत्वाच्चेति । एवं नावमार्गोप्यायोज्यः । तद्यथा । ज्ञानादिसमन्वितोव्य लिंगोपेतश्च साधुः केमः देमरूपश्च । तथाऽदेमोऽक्रेमरूपस्तु सएव नावसाधुः कारणिको इव्यलिंगरहितः । तृतीयनंगकगतानिन्हवाः परतीथिका गृहस्थाश्वरम जंगकवर्तिनोइष्ट व्याः । एवमनंतरोक्तप्रक्रियया चतुष्कं जंगकचतुष्टयं मार्गादिष्वायोज्यं । श्रादिग्रहणादन्य त्रापि समाध्यादावायोज्यमिति । सम्यक मिथ्यात्वमार्गयोः स्वरूपनिरूपणायाह । सम्मप्पणि गोला तह दंसणे चरितेय ॥ वरगपरित्रायादी. विमोमबत्तमग्गोति ६ ॥ १४॥ (स मप्पणिइत्यादि) सम्यग्ज्ञानं दर्शनं चारित्रं चेत्ययं त्रिविधोपि नावमार्गः सम्यग्दृष्टिनिर्ग धरादिनिः सम्यग्वा यथावस्थितवस्तुतया च निरूपणया प्रणीतस्तैरेव सम्यगाचीर्णश्रासे वितोमार्गो मिथ्यात्वमार्गे ऽप्रशस्त मार्गोनवतीति । तुशब्दो स्य दुर्गतिफल निबंधनत्वेन विशे पार्थइति । स्वयूथ्यानामपि पार्श्वस्थादीनां षड्जीव निकायोपमर्दकारिणां कुमार्गाश्रित स्वं दर्शयितुमाह । इडिरससाय गुरुया, बक्तीवनिकाय घायनिरयाए || जेनदिसंति मिग्गं, कुमग्मग्गस्तिता तेच " ॥ १५ ॥ ( इडिरसेत्यादि) ये केचन पुष्टधर्माण: शीतल विहारिणोद्विरससातगौरवेण गुरुकागुरुकर्माणाधाकर्माद्युपनोगेन षड्जीवनि कायव्यापादनरताचापरे तेज्योमार्ग मोक्षमार्गमात्मानुचीर्णमुपदिशति । तथाहि । शर रमिदमाद्यं धर्मसाधनमिति मत्वा कालसंहननादिहानेश्चाधाकर्माद्युपनोगोपि न दोषाये त्येवं प्रतिपादयंति तच्चैवं प्रतिपादयंतः कुत्सितमार्गास्तीर्थकरास्तन्मार्गाश्रितानवंति | तु शब्दादेतेपि स्वयूच्या एतडुपदिशंतः कुमार्गाश्रितानवंतीति किं पुनस्तीर्थिकाइति । प्रशस्तशास्त्र प्रणयनेन सन्मार्गाविष्करणायाह । 'तवसंजमप्प हाणा. गुणधार जे वयंति सप्तावं ॥ सवजगजीव हियं तमादुसम्म प्पणीयमि " ॥ १६ ॥ ( तव संयमेत्यादि) तपः सबाह्यान्यंतरं द्वादशप्रकारं तथा संयमः सप्तदशनेदः पंचाश्रव विरमणादिलक्षणस्तान्यां प्रधानास्तपःसंय मप्रधानास्तथाऽष्टादशशीलांगसहस्राणि गुणास्तचारिणोगुणधारिलोये सत्साधवस्त एवं नूतायं सद्भावं परमार्थ जीवाजीवादिलक्षणं वदंति प्रतिपादयंति । किंनूतं सर्वस्मिन् जग ति ये जीवास्तेच्या हितं पथ्यं ततस्तेषां सडुपदेशदानतोवा । तं सन्मार्ग सम्यङ्मार्ग ज्ञाः सम्यगविपरीतत्वेन प्रणीतमा दुरुक्तवंतइति । सांप्रतं सन्मार्गस्यैकार्थिकान दर्शयितुमा ह | " पंथो मग्गोच, वहिधी ति सुगती हिय सुवहं ॥ पचं सेयं पिच्चु, शिवाणं शिवकरंचेव " ॥ १७ ॥ ( पंथोमग्गोणे इत्यादि) देशाधिवचित देशांतरप्राप्तिलक्षणः पंथाः सचेह जाव For Private Personal Use Only Page #452 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२ दितीये सूत्रकृतांगे प्रथम श्रुतस्कंधे एकादशमध्ययनं. मार्गाधिकारे सम्यक्त्वाख्या तिरूपो ऽवगंतव्यः।तथामार्गति पूर्वस्मादिशुध्या विशिष्टतरो मार्गः सचेह सम्यक्ज्ञानावाप्तिरूपोऽवगंतव्यः। तथा न्यायति निश्चयेनायनं विशिष्टस्थान प्राप्तिलक्षणं यस्मिन् सति सन्यायः। सचेह सम्यक्चारित्रावाप्तिरूपोऽवगंतव्यः सत्पुरुषा णामयं न्यायएव । यउतावाप्तयोः सम्यग्दर्शनशानयोस्तत्फलनूतेन सम्यक्चारित्रेण योगो नवतीत्यतोन्यायशब्देनात्र चारित्रयोगोऽनिधीयतइति । तथा विधिरिति। विधानं विधिः स म्यक्झानदर्शनयोयोगपद्येनावाप्तिस्तथा तिरिति धरणं धृतिः सम्यकदर्शने सति चारित्रा वस्थानं मानुषादाविव विशिष्टज्ञानानावाविदयैवमुच्यते । तथा सुगतिरिति शोनना ग तिरस्मात्झानचारित्राच्चेति सुगतिः।झानक्रियान्यां मोदति न्यायात्सुगतिशब्देन झानक्रिये अनिधीयते । दर्शनस्यतु ज्ञानविशेषत्वादत्रैवांत वो ऽवगंतव्यः। तथाहि। हितमिति परमा र्थतोमुक्त्यवाप्तिस्तत्कारणं वा हितं तच्च सम्यग्दर्शनचारित्रारख्यमवगंतव्यमिति ।अत्र च संपू र्णानां सम्यग्दर्शनादीनां मोक्षमार्गत्वेसति यक्ष्यस्तसमस्तानां मोक्षमार्गत्येनोपन्यासः स प्रधानोपसर्जन विवदयान दोषायेति। तथा सुख मिति सुखहेतुत्वात्सुखमुपशमश्रेण्यामुपशा मकं प्रत्यपूर्वकरणानिवृत्तिबादरसूक्ष्मसंपरायरूपा गुणत्रयावस्था। तथा पथ्यमिति पथि मो मार्गे हितं पथ्यं तच दपक श्रेण्या पूर्वोक्तं गुणत्रयं तथा श्रेयइत्युपशमश्रेणिमस्तकावरस्था नपशांतसर्वमोहावस्थेत्यर्थः। तथा निर्वतिहेतुत्वान्निर्वतिः दीपमोहावस्थेत्यर्थः। मोहनी यविनाशेऽवश्यं निर्वतिसजावादितिनावः। तथा श्रेयति निर्वाणमिति घनघातिकर्मचतुष्टय रूपेण कर्मक्ष्येण केवलज्ञानावाप्तिस्तथा शिवं मोक्षपदं तत्करणशीलं शैलेश्यवस्थागमनमि त्येवमेतानि मोदमार्गत्वेन किंचिन्नेदानेदेन व्याख्यातान्यनिधानानि । यदिचैते पर्यायशब्दा एकार्पिकामोदमार्गस्येति।गतोनामनिप्पन्नोनिदेपस्तदनंतरंसूत्रानुगमेऽस्खलितादिगुणोपे तं सूत्रमुच्चारयितव्यं । तच्चेदं (कयरेमग्गेइत्यादि) विचित्रत्वात्रिकाल विषयत्वाञ्च सूत्रस्यागा मुकं एप्सकमाश्रित्य सूत्रमिदं प्रवृत्तमतोजंबूस्वामी सुधर्मस्वामिनमिदमाह।तद्यथा। कतरः किंनूतोमोकोऽपवर्गावाप्तिसमर्थोऽस्यां त्रिलोक्यामाख्यातः प्रतिपादितोनगवता त्रैलोक्यो धरणसमर्थनैकांतहितैषिणा माहनेनेत्येवमुपदेशःप्रवृत्तिर्यस्यासौ माहनस्तीर्थकत्तेन। तमे व विशिनष्टिामतिर्लोकालोकांतर्गतसूक्ष्मव्यवहितविप्रकष्टातीतानागतवर्तमानपदार्था विर्ना विकाकेवलज्ञानारख्या यस्यास्त्यसौ मतिमांस्तेन प्रशस्तनावमार्ग मोदगमनंप्रति रुजु प्रगु णं यथावस्थितपदार्थस्वरूपनिरूपणारेणावकं सामान्य विशेष नित्यानित्यादिस्या वाद समाश्रयणात्तदेवं नूतं मार्ग ज्ञानदर्शनतपश्चारित्रात्मकं प्राप्य लब्ध्वा संसारोदर विवरव र्ती प्राणी समयसामग्रीकघमिति नवौघं संसारसमुई तरत्यत्यंतस्तरं तउत्तरगुण सामग्याएव दुष्प्रापकत्वात् । तमुक्तं । माणुस्स खेत्तजाई, कुलरूपा रोगमानयं बुझा ॥ समयोग्गहसासं, यमोयलोयंमि नहाइंइत्यादि ॥१॥ सएव एडकः पुनरप्याह । (तं Page #453 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राय धनपतसिंघ बादारका जैनागम संग्रह नाग दुसरा. ४२३ मइत्यादि) योसो मार्गः सत्वहिताय सर्वज्ञेनोपदिष्टोऽशेषैकांत कौटिल्यवकरहितस्तं मार्ग | नास्योत्तरः प्रधानोस्तीत्यनुत्तरस्तं शुद्धोऽ वदाप्तो निर्दोषः पूर्वापरव्यादतिदोषापगमा त्सावद्यानुष्ठानोपदेशानावा हा तमिति । तथा सर्वास्यशेषाणि बहुनिर्नवैरुपचितानि दुःख कारणत्वादुःखानि कर्माणि तेच्यो विमोक्षणं विमोचकं तमेवं नूतं मार्गमनुत्तरं निर्दोषं सर्वः कारणं हे निको यथा त्वं जानीषे । एमितिवाक्यालंकारे । तथा तं मार्ग सर्वज्ञ प्रणीतं नो ऽस्माकं महामुने ब्रूहि कथयेति ॥ २ ॥ जइ पो के पुचिका, देवा व मासा ॥ तेसिं तु कयरं मग्गं आइकेऊ कहाहिणो ॥३ ॥ जइ पो केइ पुचिका, देवा व मासा ॥ तेसि मं पडिसाहिका मग्गसारं सुणेह मे ॥ ४ ॥ अर्थ - यद्यपि मुजनेतो तमारी प्रतिते मार्ग सुगमबे, परंतु अन्य कोइने मार्ग हुं के वीरी करूं एवा निप्रायें पूर्बुबुं . ( जइलोके पुचिका के० ) यद्यपि अमने कोई पूढे कोण पूढे तोके ((देवायवमासा के ० ) देवो अथवा मनुष्यजे चक्रवत्र्त्यादिक ते पूबे ( ते सिंतुकयरं मग्गं के ० ) तेवारे तेने कयो मार्ग ( खा हिरके कहा हिणो के० ) कहीं ए ते तसे कहो. ॥ ३ ॥ एम श्रीजंबुस्वामियें पूढचा थका श्रीसुधर्मस्वामि कहे. ( जइयो देवा माणुसा के० ) यद्यपि तमने कोइ देव अथवा मनुष्य संसार तिनो जंग करनार एवा मार्गनी वात पुढे, तेवारे ( ते सिमंप डिसाहिका के० ) तेने त मारे जे मार्ग कहेव (मग्गसारंसु हमे के०) तेमार्गनो सार हुं तमने कहुंकुं ते तमे साचलो. ॥ दीपिका - यदि नोऽस्माकं केचन टवेयुः । देवाश्रथवा मनुष्यास्तेषामहं । तुरेवार्थे । कतरं कं मार्ग ( याइरकेकति ) याचामि याचदेवा तत्कथय नोऽस्माकमिति ॥ ३ ॥ यदि केचित्सुबोधयोवो युष्माकं मार्ग प्रवेयुः । के । ते देवामनुष्यावा तेषां पृष्ठतामिमं धर्म प्रति कथयेत्साधुस्तंमार्ग सारं मम कथयतः कृणुत यूयं ॥ ४ ॥ ॥ टीका - यद्यप्यस्माकमसाधारण गुणोपलब्धेर्युष्मत्प्रत्ययेनैव प्रवृत्तिः स्यात्तथाप्यन्ये षां किंनूतोमार्गोमयाख्येयइत्यनिप्रायवानाह । ( जइत्यादि ) यदा कदाचिन्नोस्मानु केचन सुजनबोधयः संसारोधिनाः सम्यग् मार्ग ष्टष्ठेयुः । के ते देवाश्चतुर्निकायास्तथा मन् ष्याः प्रतीताः बाहुल्येन तयोरेव प्रश्नसद्भावात्तदुपादानं । तेषां ष्टष्ठतां कतरं मार्गमहमा '' ख्यास्ये कथयिष्ये तदेतदस्माकं त्वं जानानः कथयेति ॥ ३ ॥ एवंष्टष्टः सुधर्मस्वाम्याह । ( जवोइत्यादि) यदि कदाचिदोयुष्मान् केचन देवामनुष्यावा संसारं चांतिपरामग्नाः सम्यगमार्ग पृच्छेयुस्तेषां ष्टष्ठतामिममिति वक्ष्यमाणलक्षणं षङ्जीव निकाय प्रतिपादनगर्न For Private Personal Use Only Page #454 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२४ द्वितीये सूत्रकृतांगे प्रथम श्रुतस्कंधे एकादशमध्ययनं. ताव मार्ग (डिसाहित्ति ) प्रतिकथयेत् । मार्गसारं मार्गपरमार्थ ये नवंतो न्येषां प्रतिपादयिष्यति तन्मे मम कथयतः शृणुत यूयमिति । पाठांतरंवा ( तेसिंतु मं मri खाइरके सुह मेत्ति ) उत्तानार्थं ॥ ४ ॥ प्रणुपुवेण महाघोरं, कासवेण पवेश्यं ॥ जमादाय इन पुवं, स मुदं ववहारिणो ॥५॥ अतरिं सुतरंतेगे, तरिस्संति च्यागया ॥ तँ सोच्चा पडिवरकामि, जंतवो तं सुह मे ॥ ६ ॥ अर्थ - ( पुढे के० ) यानुपूर्व एटले अनुक्रमे ( पंचिंदित्तणं माणुसत्तलं ) इत्यादिक नुक्रमे करीने ( महाघोरं के० ) पालतां अत्यंत दुष्कर बे एवो जे मार्गनो सार ते (कासवे पवेश्यं के०) काश्यपजे श्रीमहावीर देव तेणे नाप्यो एटले कह्यो; (ज मादाय के० ) जे मार्गना ग्रहण करवा थकी (पुर्वके०) पूर्वे प्रतीतकालें घणा सत्पु रुष स्तर एवो संसार समुड् तखाबे ते उपर दृष्टांत कहेबे . ( समुद्देववहारिणो के ० ) जेम व्यवहारीया वस्तुनां लोनी थका स्तर समुड् तरे तेनी पेरे तखाबे ॥ ५॥ (तरि सुतरंगे के० ) जे मार्ग ग्रहण करीने अतीतकालें अनंताजीव संसार समुड् तस्या (तरिति णाया के०) खने हमला पण संख्याता जीव संसार समुड् तरेबे, तथा यामिक काले पण अनंता जीव तरशे, एम त्रणे काले संसार समुड्ने जेवडे तरेने एवो जे मोनो मार्ग ( तंश्रुत्वा प्रतिवक्ष्यामि के० ) तेने सांजलीने अंगीकार करे ते मार्ग सम्यक् प्रकारे तमने कहीगुं ( जंतवोतं सुणेहमेके० ) माटे ग्रहो जीवो ते सर्व हुँ कहुं माटे एकाग्रचित्ते तमे सांजलो ॥ ६ ॥ इतः || दीपिका- यथाह मनु पूर्वेण परिपाट्या मार्ग वच्मि तथा श्रृणुत यूयं । किंनूतं मार्ग का पुरुषैष्पाल्यत्वान्महाघोरं काश्यपेन श्रीवीरेण प्रवेदितं प्ररूपितं यं मार्गमादाय गृहीत्वा सन्मार्गोपादानात्पूर्वमादावेवाऽनुष्ठितत्वात्संसारं तरंति । यथा व्यवहारिणः सां यात्रिकाः पोतेन समुई तरंति ॥ ५ ॥ यं मार्गमाश्रिताः पूर्वं बहवोऽतीर्षुस्तीर्णाः संसारं सांप्रतमप्येके तरति महाविदेहादौ तथा ऽनागतकाले तरिष्यंति । एवंभूतं तं मार्गे श्रु त्वा तीर्थमयः अहं प्रतिवक्ष्यामि । हेजंतवोहेप्राणिनः तं मार्ग मम कथयतः शृणुत यूयमिति सुधर्मस्वामिवचनं ॥ ६ ॥ ॥ टीका - पुनरपि मार्गानिष्टवं कुर्वन्सुधर्मस्वाम्याह । ( अणुपुत्रेणेत्यादि ) यथाहमनु पूर्व्येणानुपरिपाट्या कथयामि तथा शृणुत । यदिवा यथा चानुपूर्व्या सामग्रया वा मार्गे वाप्यते तत । तद्यथा । पढ मित्रगाण उदाइत्यादितावद्यावत् । बारस विदेकसाए, ख For Private Personal Use Only Page #455 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राय धनपतसिंघ बानाउरका जैनागम संग्रह नाग उसरा. श्य विएनवसामिएयजोगेहिं ॥ लप्तश्चरित्तलानो, इत्यादि तथा चत्तारिपरमंगाणीत्यादि । किंनूतं मार्ग तमेव विशिनष्टि । कापुरुषैः संग्रामप्रवेशवत् उरध्यवसायत्वान्महानयान काश्यपोमहावीरवर्धमानस्वामी तेन प्रवेदितं प्रणीतं मार्ग । कथयिष्यामीत्यनेन स्वमनी षिकापरिहारमाह । ये शुभमार्गमुपादाय गृहीत्वा ऽतति सन्मार्गोपादानात् पूर्वमादावे वानुष्ठितत्वादुस्तरं संसारं महापुरुषास्तरंति । अस्मिन्नेवार्थे दृष्टांतमाह । व्यवहारः प ग्यायविक्रयतहणोविद्यते येषांते व्यवहारिणः सांयात्रिकाः । यथा ते विशिष्टलानार्थिनः किंचिन्नगरं यियासवोयानपात्रेण उस्तरमपि समुई तरंत्येवं साधवोप्यात्यंतिकैकांतिका बोधसुवैषिणः सम्यग्दर्शनादिना मार्गेण मोदं जिगमिषवोऽस्तरं नवौयं तरंतीति ॥ ५ ॥ मार्गविशेषणायाह । (अतरिंसुश्त्यादि ) यं मार्ग पूर्व महापुरुषाचीर्णमव्यनिचारिण माश्रित्य पूर्वस्मिन्तनादिके काले बहवोऽनंताः सत्वावशेषकर्मकचीवरविप्रमुक्तानवौ पं संसारमतीपुस्तीर्णवंतः सांप्रतमप्येके समयसामग्रीका असंख्येयाः सत्वास्तरंति । महा विदेहादौ सर्वदा सिदिसनावा दर्तमानत्वं न विरुध्यते । तथाऽनागतेच काले पर्यवसाना त्मकेऽनंतात्मकेऽनंताएव जीवास्तरिष्यति । तदेवं कालत्रयेपि संसारसमुशेत्तारकं मोद गमनैककारणं प्रशस्तं नावमार्गमुत्पन्नदिव्यज्ञानस्तीर्थक निरुपदिष्टं तं चाहं सम्यक् श्रुत्वा ऽवधार्य च युष्माकं शुश्रूषूणां प्रतिवदयामि प्रतिवादयिष्यामि । सुधर्मस्वामी जंबूस्वामिनं निश्रीकृत्यान्येषामपि जंतूनां कथयतीत्येतदर्शयितुमाह । हे जंतवोऽनिमुखीय तं चारित्र मार्ग मम कथयतः शृणुत यूयं । परमार्थकथनेऽत्यंतमादरोपादानार्थमेवमुपन्यासइति ॥६॥ पुढवीजीवा पुढो सत्ता, आजीवा तहागणी ॥ वानजीवा पुढो सत्ता. तणरुरका सबीयगा ॥॥ अहावरा तसा पाणा, एवं बक्का य आदिया ॥ एतावए जीवकाए, पावरे कोइविङई ॥७॥ अर्थ- (पुढवीजीवापुढोसत्ता के० ) प्रथिवीकाय जीव तेपण जुदा जुदा जाणवा (बाउजीवा के०) तेमज अपकायना जीव; उस धूयरी प्रमुख पृथक् पृथक् जाणवा (तहागणी के०) तथा अग्नीकायना पण इंगाल ज्वाल मूंमर प्रमुख जीवो जुदा जुदा जाणवा तथा (वानजीवापुढोसत्ता के०) वायुकायना जीव पण जुदा जुदा जाणवा यने (तणरुरकासबीयगा के० ) तृण वृदनी जाती तथा बीज ते शाली प्रमुख ए सर्व वनस्पति कायना जीव जाणवा. ॥ ७ ॥ (अहावरातसापाणा के०) अथानंतर अवरा एटले ए पूर्व जे स्थावर जीवो कह्या तेथकी अपर बीजा बेडियादिक प्राण ते सजीवो जाणवा (एवंबकायाहिया के०) ए प्रमाणे बकायना जीवो श्री तीर्थकर Page #456 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२६ द्वितीये सूत्रकृतांगे प्रथम श्रुतस्कंधे एकादशमध्ययनं. तथा गणधर कह्यावे. ( एतावएजीवकाए के ० ) एटलीज ए जीवनी निकायले ( लावरे कोइविई के० ) परंतु एथकी उपरांत बीजी कोइ जीवनी निकाय नथी. ॥ ८ ॥ ॥ दीपिका - पृथिवीजीवाः पृथक् प्रत्येकं सत्वाजंतवो शेयाः । प्रापश्च जीवा एवमग्नि कायाजीवावायुजीवाश्च पृथक्सत्वाः प्रत्येकजीवास्तृणानि कुशादीनि वृक्षाश्वतायाः बीजानि शल्यादीनि एतेच वनस्पतिनेदाः ॥ ७ ॥ अथापरे त्रसाः प्राणिनोदित्रिचतुः पं चें दिया एवं पट्कायायाख्यातास्तीर्यकृद्भिः । एतावान् जीवराशिर्नापरो विद्यते कश्चित् ॥ ८॥ ॥ टीका - चारित्रमार्गस्य प्राणातिपात विरमण मूतत्वात्तस्य च तत्परिज्ञानपूर्वकत्वाद्तो जीवस्वरूपनिरूपणार्थमाह । ( पुढवीजी वाइत्यादि) ष्टथिव्येव पृथिव्याश्रितावाजीवास्तेच प्रत्येकशरीरत्वात्ष्टथक् प्रत्येकं सत्वाजंतवोऽवगंतव्याः । तथा व्यापश्च जीवाएवमग्निकाया श्च तथापरे वायुजीवास्तदेवं चतुर्महानूतसमाश्रिताः सत्वाः प्रत्येकशरीरिणोऽवगंतव्याः । एतएव पृथिव्यप्तेजोवायुसमाश्रिताः सत्वाः प्रत्येकशरीरिणोवक्ष्यमाणवनस्पतेस्तु सा धारणा साधारणशरीरत्वेनाष्टयक्त्वमप्यस्तीत्यस्यार्थस्य दर्शनाय पुनः पृथक् सत्वग्रहण मि ति । वनस्पतिकायस्तु यः सूक्ष्मः ससर्वोपि निगोदरूपः । साधारणबादरस्तु साधारणा Sसाधारणश्वेति । तत्र प्रत्येकशरीरिणोऽसाधारणस्य कतिचिनेदान्निर्दि दिकुराह । तत्र तृ पानि दुर्जवीरणादीनि वृक्षाभूताशोकादयः सहबीजैः शालिगोधूमादि निर्वर्ततइति सबी जकाते सर्वेपि वनस्पतिकायाः सत्वायवगंतव्याः । अनेनच वौद्धादिमत निरासः कृ तोवगंतव्यइति । एतेषां च ष्टथिव्यादीनां जीवानां जीवत्वेन प्रसिद्धिस्वरूपनिरूपणमाचा रे प्रथमाध्ययने शास्त्रपरिज्ञाख्ये न्यक्षेण प्रतिपादितमिति नेह प्रतन्यते ॥ ७ ॥ षष्ठी वनिकायप्रतिपादनायाह । ( ग्रहावरेत्यादि ) तत्र ष्टथिव्यप्तेजोवायुवनस्पतय एकेंड्रियाः सूक्ष्मबादरपर्याप्ता पर्याप्तकनेदेन प्रत्येकं चतुर्विधाः । यथानंतरमपरेऽन्ये त्रसंतीति सा द्वित्रिचतुः पंचेंड्रियाः कमि पिपीलिकाचमरमनुष्यादयः । तत्र द्वित्रिचतुरिंडियाः प्रत्येकं पर्या तकापर्यातकने दात्पद्विधाः । पंचेंड्रियास्तु संजय संझिपर्याप्तकापर्याप्तकनेदाच्चतुर्विधाः । तदे देवमनंतरोक्तया नीत्या चतुर्दशनूतग्रामात्मकतया व्याख्यातास्तीर्थ करगणधरादिनिः । एतावानेव तदात्मकएव संपतोजीव निकायोजीवरा शिर्भवत्यंडजो निसंस्वेदजादेरत्रैवां तवान्नारोजीवरा शिर्विद्यते कश्चिदिति ॥ ८ ॥ सवादि प्रणतीढ़ीं, मतिमं पडिले दिया ॥ सबे कंत काय, तो वे हिंसा ॥ एवं खु पाणिणो सारं, जं न हिंसति कंच ॥ हिंसा समयं चेव, एतावतं विजाणिया ॥ १० ॥ For Private Personal Use Only Page #457 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रायधनपतसिंघ बाहाउरका जैनागम संग्रह नाग उसरा. ४७ थर्थ-ए पूर्वोक्त ब जीवनी निकाय कही हवे जे कां करवू ते देखाडे. ( सवाहिंथ पुजुत्तीही के०) समस्त अनुयुक्ति एटले जीवितव्य साधवाना कारण तेणेकरी जीवने सम्यक् प्रकारे उलखीने (मतिमं के०) बुद्धिवंत पुरुष जीवा दिक तत्वने (पडिलेहिया के०) प्रतिलेखी एटले बालोचीने, (सवे अकंत उरकाय के०) सर्वजीवो फुःख थकी थाक्रांत थायजे, एटले एकांत दु:ख कोश्ने वहनन नथी सर्व सुखना अर्थाने, (अतो के) ते कारण माटे (सक्वेयहिंसया के०) पृथव्यादिक सर्व जीवोने हणे नही, बए कायनी दया पाले ॥ ए ॥ (एयं खुणाणियोसारं के०) एहिज निश्चय थकी ज्ञानी ने जाणवानो सारजे, (जंनहिंसतिकंचण के०) जे कोइ जीवनो विनाश नकरे परमा र्थ थकी तेनेज ज्ञानी कहीये, के जे कोइ परजीवने पीडा उपजाववा थकी निवर्त उ तंच किंताए पडियाए इति वचनात् (अहिंसा समयंचेव के०) अहिंसा जे दया तेज निश्चये थकी बागमनुं तत्व जाणवु ( एतावंतं विजाणिया) किंबहुना एटलुंज जाणीने दयाने विषे यत्न करवो परंतु घणुं जाणे गुं फलो. ॥ १० ॥ ॥दीपिका-सर्वा निरनुकूलयुक्तिनिर्मतिमान एथिव्यादिजीवान् प्रत्युपेदय पर्यालोच्य जी वत्वेन प्रसाध्य तथा सर्वे जीवाअकांतकुःखायननिमतःखाः सुखैषिणश्चेति मत्वाऽतो मतिमान्सर्वान्प्राणिनोन हिंस्यात् ॥ ॥ खुर्वाक्यालंकारे निश्चयेवा । एतदेव ज्ञानिनः सारं यत्कंचन प्राणिनं न हिनस्ति अहिंसाप्रधानं संयममेतावंतमेव विज्ञानं यन्न हिंस्या कंचन किंबहुना झातेन एतावता झातेन विवादितकार्य सिदिः॥ १० ॥ ॥टोका-तदेवं षड्जीवनिकायं प्रदर्य यत्तत्र विधेयं तदर्शयितुमाह । (सबाहीत्यादि) सर्वायाः काश्चनानुरूपाः पृथिव्या दिजीवनिकायसाधनत्वेनानुकूलायुक्तयः साधनानि । य दिवा सिविरुवानकांतिकपरिहारेण पदधर्मत्वसपक्सत्व विपदव्यावृत्तिरूपतया यु क्तिसंगतायुक्तयस्तानिर्मतिमान् सदिवेकी दृथिव्यादिजीवनिकायान्प्रत्युपेक्ष्य पर्यालोच्य जीवत्वेन प्रसाध्य तथा सर्वे पि प्राणिनोऽकांतकुःखाउःखदिषः सुख लिप्सवश्च मत्वाऽतोम तिमान् सर्वानपि प्रणिनोन हिंस्यादिति । युक्तयश्च तत्प्रसाधिकाः संदेपेणेमाइति । सा त्मिका दृथिवी तदात्मनां विडमलवणोपलादीनां समानजातीयांकुरसजावादर्शोविकारां कुरवत् । तथा सचेतनमंनोनमिरवननादाविष्कतस्वनावसंजवाहरवत् । तथा सात्मकं तेजस्तद्योग्याहारवृध्या वृध्युपलब्धेर्बालकवत् । तथा सात्मकोवायुरपराप्रेरितनियततिरश्ची नगतिमत्वान्ननोवत् । तथा सचेतनावनस्पतयोजन्मजरामरणरोगादीनां समुदितानां सनावात्स्त्रीवत्तथा क्तसंरोहणाहारोपादानदौहृदसनावस्पर्शसंकोच सायान्हस्वापप्रबो Page #458 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४श्न वितीये सूत्रकृतांगे प्रथमश्रुतस्कंधे एकादशमध्ययनं. धाश्रयोपसर्पणादिन्योहेतुन्योवनस्पतेश्चैतन्यसिदिः । दीडियादीनां तु पुनः कम्यादीनां स्पष्टमेव चैतन्यं तवेदनाश्चोपक्रमिकाः स्वानाविकाश्च समुपलन्यमानामनोवाक्कायैः कृत कारितानुमतिनिश्च नवकेन नेदेन तत्पीडाकारिणनपमर्दानिवर्तितव्यमिति ॥ ए ॥ एतदे व समर्थयन्नाद । (एयंखुइत्यादि) खुशब्दोवाक्यालंकारेऽवधारणेवा । एतदेवानंतरोक्तं प्राणातिपातनिवर्तनं झानिनोजीवस्वरूपत वधकर्मबंधवेदिनः सारं परमार्थप्रधानं ! पुन रप्यादरख्यापनार्थमेतदेवाह । यत्कंचनप्राणिनमनिष्टःखं सुखैषिणं न हिनस्ति प्रनूतवे दिनोपि ज्ञानिनएतदेव सारतरं झानं यत्प्राणातिपातनिवर्तनमिति । ज्ञानमपि तदेव पर मार्थतोयत्पीडातोनिवर्तनं । यथोक्तं । किंताए पढियाए, पयकोडीए पयालन्याए ॥ज वित्तियं ण णायं, परस्स पीडान कायवा ॥१॥ तदेवमहिंसाप्रधानः समयभागमः संकेतो वापदेशरूपस्तदेवंनूतमहिंसासमयमेतावंतमेव विज्ञाय किमन्येन बदुना परिझानेनैताव तैव परिझानेन मुमुदोर्विवदितकार्यपरिसमाप्तेरतोन हिंस्यात्कंचनेति ॥ १० ॥ नई अदेय तिरियं,जे केइ तसथावरा॥ सबब विरतिं विजा, सं ति निवाणमाहियं ॥ १२॥ पनू दोसे निराकिच्चा,ण विरुशेज के गई॥मणसा वयसा चेव, कायसा चेव अंतसो॥१२॥ अर्थ-(नढुंबहेयतिरियं के) नंचो नीचो अने तीों एतावता सर्व लोकने विषे (जेकेश्तसथावरा के०) जे कांइ त्रस अने स्थावर जीवडे, (सबनविरतिविजा के०) ते सर्वजीवनी निवृत्तिकरे एटले प्राणातिपात थकी निवर्ते, ( संतिनिधाणमाहियं के) एहिज विरति, शांति अने निर्वाण श्रीतीथकरें कह्युले. ॥ ११ ॥ (पनदोसे निरा किच्चा के) प्रनु एटले समर्थ इंशीयनो जीपनार मिथ्यात्व अविरति प्रमादादिक दोषने नि राकरी एटले अवगणीने (णविरुङकेणई के०) को पण जीवनीसाथे विरोध ना व नकरे, (मणसावयसाचेव के) मने करी वचने करी वली (कायसाचेवचंतसोके) कायायें करी निश्चय थकी कोई पण जीवनी साथे जावजीवनधी विरोध नकरे. ॥१॥ ॥ दीपिका-नवंमधस्तिर्यक ये केचन त्रसाः स्थावराश्च प्राणिनस्तत्र सर्वत्र प्राणिनि विरतिं प्राणातिपातनिवृत्तिं विजानीयात्कुर्यात् । एषैव विरतेः शांतिहेतुत्वानांतिवर्तते । त था निर्वाणहेतुत्वा निर्वाणमप्याख्याता एषैव विरतिः ॥११॥ प्रनुः समर्थोदोषान् मिथ्या त्वविरतिप्रमादकषायादीन निराकृत्याऽपनीय केनापि प्राणिना साध न विरुध्येत केनैव सह विरोधं न कुर्यात् मनसा वचसा कायेन चांतशः परमार्थतः केनापि नविरुध्येत॥१२॥ Page #459 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राय धनपतसिंघ बाहाउरका जैनागम संग्रह नाग उसरा. ४२ए ॥ टीका-सांप्रतं देवप्राणातिपातमधिरुत्याह । ( उडमहेत्यादि) उर्वमधस्तिर्यकच ये केचन प्रसास्तेजोवायुदीडियादयस्तथा स्थावराः पृथिव्यादयः किंबदुनोक्तेन सर्वत्र प्रा लिनि त्रसस्थावरसूझबादरनेदनिन्ने विरतिं प्राणातिपातनिवृत्तिं विजानीयात्कुर्यात् । पर मार्थतएवमेवासौ ज्ञाता नवति । यदि सम्यक् क्रियतइति एषैवच प्राणातिपातनिवृत्तिः प रेषामात्मनश्च शांतिहेतुत्वानांतिवर्तते । यतोविरतिमतोनान्ये केचन बिन्यति नाप्यसौ नवांतरेपि कुतश्चिद्विनेति । अपिच निर्वाणप्रधानैककारणत्वानिर्वाणमपि प्राणातिपात निवृत्तिरेव । यदिवा शांतिरुपशमःशांतता निवृत्तिनिर्वाणं विरतिमांश्चातरोऽध्यानानावाप शांतिरूपोनितिनूतश्च नवति ॥ ११ ॥ किंचान्यत् । (पनूदोसेइत्यादि) इंडियाणां प्र नवतीति अनुर्वा वश्येडियइत्यर्थः । यदिवा संयमाचारकाणि कर्माण्य निनूय मोक्षमार्गे पा लयितव्ये प्रनुः समर्थः सएवंनतः प्रमुषयंतीति दोषामिथ्यात्वाविरतिप्रमादकषाययो गास्तानिराकृत्याऽपनीय केनापि प्राणिना साध नविरुध्येत न केनचित्सह विरोधं कुर्यात्रि विधेनापि योगेनेति मनसा वाचा कायेन चैवांतशोयावजीवं परोपकार क्रियया न वि रोधं कुर्यादिति ॥ १२ ॥ संवुमे से मदापन्ने, धीरे दत्तेसणं चरे॥ एसणासमिए णिचं, व जयंते अणेसणं॥१३॥नूयाइंच समारंन त मुहिस्साय जं कडं। तारिसं तु ण गिरहेजा, अन्नपाणं सुसंजए॥२४॥ थर्थ-(संवुमेसेमहापन्नेके०) बाश्रवनो रोधकरी संवरने पाम्यो ते महाप्राज्ञ एटले विपुल बुद्धिवंत तथा (धोरेदत्तेसणंचरेके०) परीसह जीतवाने धीर सुनट समान एवोल तो दोधेली एषणाने वरे:अर्थात् दातारेदीधो एषणीक निर्दोष एवोजे थाहारतेने लिए (एस णासमिएणिचंके०) एषणा एटले थाहारनी गवेषणा तेने विषे समिति सहित नित्यसदाका ल (वजयंतेषणेसणं के०) अनेषणीयने वर्जतो थको संयम पाले ॥१३॥ (नूयाइंचसमारं न के०) नूत एटले प्राणीनो समारंन करीने (तमुदिस्सायजंकडंके ) यतिने अर्थे नहे शीने कीधो एवो जे आधाकर्मिक थाहार (तारिसंके०) ताहस एटले तेवो (अन्नपाणं के ) अन्न, पान, वस्त्र, पात्र बने शय्यादिक (एगिलहेजा के० ) तेने जे ग्रहण करे नही, ते (सुसंजए के० ) सुसंयत जाणवो. ॥ १४ ॥ दीपिका-इंडियैः संवृतः समहाप्रोविपुलमति(रोऽछोयोनिवर्दत्तेषणां चरेत् था हारोपधिशय्यादिकं स्वामिना दत्तं सदेषणीयं गृहीतेत्यर्थः।एषणायां गवेषणग्रहणग्रासरू पायां त्रिविधायामपि समितः सम्यकूतयाऽनेषणां वर्जयन् नित्यं संयममनुपालयेत्॥१३॥ Page #460 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३० दितीये सूत्रकृतांगे प्रथम श्रुतस्कंधे एकादशमध्ययनं. नूतानि प्राणिनः समारन्य संताप्य तं साधुमुद्दिश्य साध्वथै यत्कृतं तादृशमाधाकर्म दोष उष्टमाहारादिकं न गृएहीयात् नक्तं पानंच सुसंयतोगृहीतव्रतस्तादृशं न जीत ॥१४॥ ॥ टीका-उत्तरगुणानधिकल्याह । (संवुडे इत्यादि) आश्रवक्षाराणां रोधेनेंयिनि रोधेन च संवृतः सनिकुर्महती प्रझा यस्यासौ महाप्रझोविपुलबुद्धिरित्यर्थः । तदनेन जी वाजीवादिपदार्थानिज्ञता वेदिता नवति । धीरोऽदोज्यः दुत्पिपासादिपरीषदेने दोच्यते। तदेव दर्शयति । याहारोपधिशय्यादिके स्वस्वामिना तत्संदिष्टेन वा दत्ते सत्येषणां चरत्ये पणीयं गृहातीत्यर्थः । एपणायाएषणायांवा गवेषणग्रहणेषणयासरूपायां त्रिविधायाम पि सम्यगितः समितः ससाधुनित्यमेपणासमितः सन्ननेपणां परिवर्जयन परित्यजन्सं यममनुपालयेत् । उपलक्षणार्थत्वादस्य शेषानिरपीर्यासमित्यादिनिः समितोइष्टव्यति ॥ १३ ॥ अनेषणीयपरिहारमधिरुत्याह (नूयाइंइत्यादि ) अनूवन नवंति नविष्यंति च प्राणिनस्तानि नूतानि प्राणिनः समारन्य संरंनसमारंनारंनैरुपतापयित्वा तं साधुमुहि श्य साध्वर्थ यत्कृतं तदकल्पितमाहारोपकरणादिकं तादृशमाधाकर्मदोष उष्टं सुसंयतः सु तपस्वी तदन्नं पानकं वा न झुंजीत । तु शब्दस्यैवकारार्थत्वान्नैवान्यवहरेदेवं तेन मार्गोड नुपालितोनवति ॥ १४ ॥ पूईकम्मं न सेविजा, एस धम्मे बुसीमन ॥ जं किंचि अनिकंखे ला, सबसो तं ननोत्तए॥ १५ ॥ दणंतं पाणुजाणेजा, आयगु ते जिदिए॥ गणाई संति सहीणं, गामेसु नगरेसु वा ॥१६॥ अर्थ-(पूर्वकम्मनसे विजाके ० ) शुक्षाहार पण जो थाधाकर्मिकना एक कण सहि त होय तो ते अशुभ थाय, तेमाटे तेने पूतिकर्म कहिए; एवो थाहारादिकने नसेवे ए टले ननोगवे (एसधम्मे के० ) एवो धर्माचार ते (बुसीम के) साचा संयमवंतनो जाणवो तथा (जंकिंचि के०) जेकांश निर्दोष थाहार होय परंतु तेने (यनिकखेका के०) सदोष करी जाणे तेपण सशंकित थयो माटे (सबसोनिनोत्तए के) ते सर्वथा प्रकारे नोगवतुं नकल्पे ॥१५॥ (गणासंतिसहीशंके०) श्रमावंतना स्थान श्रज्ञावंत धर्मवंतना आश्रय ( गामेसुनगरेसुवाके०)एवा ग्रामने विषे अथवा नगरने विषे साधु रह्या डे त्यांनो आश्रीत कोइएक कूप खनन सत्रुकारकादिकनो करावनार एवो पुरुष साधुने पू बे. जे एमां धर्म किंवा नथी एम पुब्यां थकां (थाययुत्तेजिदिए के०) यात्मगुप्त तथा जितेंघिय एवो साधु, (हणंतणाणुजाणेजा के०) थारंजेकरी प्राणी हणाता होय तेवा कार्यने अनुमोदे नही, जे एतुं रुडुं काम करेने एम कहे नही ॥ १६ ॥ Page #461 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राय धनपतसिंघ बादाउरका जैनागम संग्रह नाग उसरा. ४३१ ॥ दीपिका-याधाकर्माद्यविधिकोट्यवयवेनापि संप्टक्तं पूतिकर्म तन्न सेवेत । एषधर्मः (बुसीमनत्ति ) सम्यक्संयमवतोयत्किंचिदनिकांदेतानुष्ठानं तत्र सर्वशः सर्वप्रकारम प्याहारादिकं पूतिकर्म नोक्तुं न कल्पते ॥ १५ ॥ धर्मश्रावतां ग्रामेषु स्थानान्याश्रया विद्यते तत्र तत्स्थानाश्रितः कश्चिधर्मबुध्या कूपतडागरखननप्रपासत्रादिकां कियां कुर्यात्ते न च किमत्र धर्मोस्ति नास्तीत्येवं पृष्टः साधुस्तं प्राणिनोनंतं नानुजानीयात् । किंनूतः साधुः यात्मगुप्तोमनोवाकायगुप्तोजितेंघियः॥ १६ ॥ ॥ टीका- किंच (पूतीत्यादि ) श्राधाकर्माद्यविशुधकोट्यवयवेनापि संप्टक्तं पूतिकर्म तदेवंनूतमाहारादिकं न सेवेत नोपचुंजीत । एषोऽनंतो धर्मकल्पस्वनावः (बुसीमनत्ति) सम्यक् संयमवतोऽऽयमेवानुष्ठानकहपोयउतागुआमाहारादिकं परिहरतीति । किंच । यद्यप्य शुषत्वेनानिशंकेत किंचिदप्याहारा दिकं तत्सर्वशः सर्वप्रकारमप्याहारोपकरणपूतिकर्म नोक्तुं न कल्पतइति ॥ १५ ॥ किंचान्यत् (हणंतमित्यादि) धर्मश्रावतां ग्रामेषु नग रेषु वा खेटखवटादिषु वा स्थानान्याश्रयाः संति विद्यते तत्र तत्स्थानाश्रितः कश्चिदर्मों पदेशेन किल धर्मश्रदालुतया प्राण्युपमर्दकारिणां धर्मबुध्या कूपतडागरखननप्रपासत्रा दिकां क्रियां कुर्यात्तेन च तथानतक्रियायाः कर्ता किमत्र धर्मोस्ति नास्तीत्येवं दृष्टोवा तउपरोधानयादा तं प्राणिनोघ्नंतं नानुजानीयात् । किंततः सन्नात्मना मनोवाकायरूपे ण गुप्तआत्मगुप्तस्तथा जितेंहियोवश्येश्यिः सावद्यानुष्ठानं नानुमन्यते ॥ १६ ॥ तहागिरं समारन, अनि पुन्नति गोव ए॥ अहवा पनि पुन्नति, एवमेयं महप्नयं ॥१७॥ दाणध्याय जे पाणा, हम्मति तस थावरा ॥तेसिं सारखणमाए, तम्दा अबित्ति पोवए ॥१७॥ अर्थ-हवे ए स्वरूप विशेषे दीपावेडे अहो मुनीश्वर था अमारे अनुष्टाने पुण्य किं वा नथी एम पुरयां थकां (तहा के०) ते साधु (गिरंसमारघ्न के०) एवी वाणी कहे के या समारंन करवामां (अधिपुन्नंतिपोवए के०) पुण्यने एम पण मुख यकी कहे नहीं; (अहवा के० ) अथवा (निपुग्नंति के० ) एमां पुण्य नथी एम पण मुख थकी कहे नही. (एवमेयं महप्रयं के०) एम ए बने प्रकारने दोषना हेतु तथा महानयना कारण जाणीने एवी नाषा नबोले ॥ १७ ॥ हवे जे कारणे एवी नाषा नबोले ते कारण कहेडे. ( दाणघ्यायजेपाणा के०) दानने अर्थे अनेक लोकने अन्नपाणी यापवा सारूं जे प्राणी एटले जीव (तसथावरा के०) त्रस अने स्थावर (हम्मति के० ) हणायडे (तेसिंसाररकणहएके०) तेजीवोने राखवाने अर्थे (तम्हा Page #462 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३३ वितीये सूत्रकृतांगे प्रथम श्रुतस्कंधे एकादशमध्ययनं. अबित्तिनोवए के०) तेकारणे या तमारा अनुष्ठाने पुण्यने एम पण साधु नकहे. ॥१॥ ॥ दीपिका केनचिज्ञजादिना कूपखननसत्रदानादिप्रवृत्तेन पृष्टः साधुः किमस्मदनुष्ठा नेऽस्ति पुण्यमाहोस्विन्नास्तीत्येवं नूतां गिरं समारन्य निशम्यास्तिपुण्यं नास्तिवेत्येवमुनय थापि महानयमिति मत्वा नानुमन्येत ॥ १७ ॥ अन्नपानादिदानार्थ पाकादिक्रियायां ये प्राणिनोहन्यंते त्रसाःस्थावराश्च तेषां संरक्षणार्थ साधुरत्र पुस्यमस्तीति नोवदेत्॥१७॥ ॥ टीका-सावद्यानुष्ठानानुमतिं परिहतुकामयाह । (तहागिरमित्यादि) केनचिज्ञ जादिना कूपरखननसत्रदानादिप्रवृत्तेन टष्टः साधुः किमस्मदनुष्ठाने अस्ति पुण्यमाहोस्ति नास्तीत्येवं नूतां गिरं समारन्य निशम्याश्रित्य चास्ति पुण्यं नास्तिवेत्येवमुनयथापि महानयमिति मत्वा दोषहेतुत्वेन नानुमन्येत ॥१७॥ किमर्थ नानुमन्येतइत्याह (दाण घ्याइत्यादि ) अन्नपानदानार्थमाहारमुदकंच पचनपाचनादिकया क्रियया कूपखननादिक या चोपकम्पयेत् । तत्र यस्माइन्यंते व्यापाद्यते त्रसाः स्थावराश्च जंतवस्तस्मातेषां रदानि मित्तं साधुरात्मगुप्तोजितेंख्यिोऽत्र नवदीयानुष्ठाने पुण्य मित्येवं नो वदेदिति ॥ १७ ॥ जेसिं तं नवकप्पंति, अन्नपाणं तहाविहं॥ तेसिं लानं तरायंति, तम्दा एबित्ति णो वए॥१५॥ जे य दानं पसंसंति, वदमिबंति पाणिणं ॥ जेयणं पडिसेहंति वितिनेयं करंति ते ॥ २० ॥ अर्थ-अने (जेसिंतं उवकपंति के ) जे लोकने निमित्ने उपकल्पे एटले वांचे गुं वांडे तोके (अन्नपाणंतहाविहंके० ) अन्न पाणी तथाविध दोषे उष्ट अनेक प्रकारे करीनी पजावे तथापि तेनो निषेध करे तो (तेसिंलानंतरायंतिके०) तेने लानांतराय रूप आ हार देवानुं विघ्न थाय (तम्हा के०) ते कारणे या तमारे अनुष्ठाने पुण्य (एबित्तिके०) नथी (नोवए के०) एम पण नकहे. ॥१॥ (जेयदानंपसंसंति के०) तेमाटे जे कोइ पर मार्यनो जाण यति दाननी प्रशंसाकरे ते (वहमिवंतिपाणिणं के ) ते प्राणीना व धनी ना करे, (जेयणंपडिसेहंतिके०) थने जे यति दान थापवानो निषेध करे (वि त्तियंकरंतिते के० ) तो ते यति अनेक जीवोनी आजीविकानो बेद करे. ॥ २० ॥ ॥ दीपिका-येषां जंतूनां कृते तदन्नपानादिकं धर्मबुध्या उपकन्पयंति निष्पादयंति तनिषेधे तेषामाहारार्थिनां लानांतरायो विघ्नोनवेत् । तस्मात्कूपरखननसत्रादिकर्मणिना स्ति पुण्यमित्यपि नो वदेत् ॥ १५ ॥ प्रपासत्रादिदानं ये प्रशंसंति ते प्राणिनां वधमिळ Page #463 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राय धनपतसिंघ बादाडुरका जैनागम संग्रह नाग इसरा. ४३३ तियेच निषेधंति प्रतिषेधयंति तेप्यगीतार्थाः प्राणिनां वृत्तिद्वेदं प्राजीविकाविघ्नं कुर्वेति २० ॥ टीका - यद्येवं नास्ति पुण्यमिति ब्रूयात्तदेतदपि न ब्रूयादित्याह । ( जे सिमित्यादि ) येषां जंतूनां तदन्नपानादिकं किल धर्मबुध्योपकल्पयंति तथाविधं प्राप्युपमर्ददोषडुष्टं नि पादयति तन्निषेधेच यस्मात्तेषामाहारपानार्थिनां तल्लानांतरायो विघ्नोनवेत्तदभावेन तु पीडयेरंस्तस्मात्कूपखननसत्रादिके कर्मणि नास्ति पुण्यमित्येतदपि नोवदेदिति ॥ १९ ॥ नमेवार्थे पुनरपि समासतः स्पष्टतरं बिनणिपुराह । ( जेयदाणमित्यादि) ये केचन प्रपासत्रादिकं दानं बहूनां जंतूनामुपकारीति कृत्वा प्रशंसंति श्लाघंते ते परमार्थाननि ज्ञाः प्रभूततरप्राणिनां तत्प्रशंसा द्वारेण वधं प्राणातिपातमिवंति । तद्दानस्य प्राणातिपातम तरेणानुपपत्तेः । येपिच किल सूक्ष्म धियोवयमित्येवं मन्यमानायागमसभावान निज्ञाः प्रति धंति निषेधयंति तेप्यगीतार्थाः प्राणिनां वृत्तिद्वेदं वर्तनोपायविघ्नं कुर्वेतीति ॥ २० ॥ ते नासंति, चिवा नचिवा पुणो ॥ यं रयस्स दे चाणं, निवाणं पाठांति ते ॥ २१ ॥ निवाणं परमं बुधा, एक ताणव चंदमा ॥ तम्हा सदा जए दंते, निवाणं संघए मुण ॥ २२॥ अर्थ - (विना के० ) यस्ति अथवा नास्ति एम न कहे एटले पुण्यले किं वा पुण्य नथी एवी (हउवि के० ) बन्ने प्रकारनी वाणीने (पुणोके० ) वली (तेके०) साधु ( नासंति के ० ) नापेनही; केमके ए थकी ( रयस्स के ० ) कर्मरूप रज तेनो (या यं के० ) लान तेने ( हित्वा के० ) जाणीने तेवी वाणीने उच्चार करवानो त्याग करे, (निवापातिते ) ते साधु निर्वाण प्रत्ये पामे; एटले अनवद्य नाषक एवो साधु संसा ररहित थाय ॥ २१ ॥ ( निवाणं परमंबुद्धा के० ) निर्वाण एटले मोह तेने परम प्रधान जाणे, (रकता एव चंद माके०) नक्षत्रचं मानी पेरे, जेम नक्षत्रमां चंंमा प्रधानबे. तेम तत्वना जाण पुरुष सर्व गति मां मुक्तिने प्रधान कहे. (तम्हाके०) तेमाटे (सदाजएं dho) संयमवंत पुरुष ते निरंतर प्रयत्नवान इंडियनुं दमन करनार थको (निवासंघए मुके० ) एवो साधु मोहने साधे अर्थात् सर्व क्रिया मोहने यर्थे करे. ॥ २२ ॥ ॥ दीपिका - द्विधापि ते पुनः साधवोन नाते यस्ति पुण्यं नास्तिवा इति किंतु टैः निमेवाश्रयणीयं । निर्बंधेत्वस्माकं निर्दोषाहारः कल्पते । एवंविधविषये साधूना मधिकारएव नास्तीति वक्तव्यं । यक्तं । सत्यं वप्रेषु शीतं शशिकरधवलं वारि पीत्वा प्र कामं, व्युचिन्नाशेपतृमाः प्रमुदितमनसः प्राणितार्थानवंति ॥ शोषं नीते जलौघे दिन For Private Personal Use Only Page #464 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३४ द्वितीये सूत्रकृतांगे प्रथम श्रुतस्कंधे एकादशमध्ययनं करकिरणैर्यत्यनंता विनाशं तेनोदासीननावं व्रजति मुनिगणः कूपवप्रादिकार्ये ॥ १ ॥ एवं रजसः कर्मणखायं लानं हित्वा त्यक्त्वाऽनवद्यनाषिणो निर्वाणं मोक्षं प्राप्नुवंति ॥ ॥ २१ ॥ येषां निर्वाणं मोक्षएव परमं प्रधानं ते बुझाज्ञातत्वाः । यथा नक्षत्राणां मध्ये चं माप्रधान एवं मोहमेवाश्रित्य प्राप्य ये प्रवृत्तास्ते एव बुधानां मध्ये प्रधानाः । त स्मात्सदा सर्वकालं यतः प्रयत्नवान् इंडियदमने दांतोमुनिर्निर्वाणं संधयेन्निर्वाणार्थ सर्वाः क्रियाः कुर्यादित्यर्थः ॥ २२ ॥ ॥ टीका - तदेवं राज्ञा प्रन्येन वेश्वेरे कूपतडागयागसत्रदानाद्युद्यतेन पुण्यसद्भावं टैर्मुनये धेयं तद्दर्शयितुमाह । (दुहवीत्यादि) यद्यस्ति पुष्यमित्येवमूचुस्ततोनंता नसत्वानां सूक्ष्मबादराणां सर्वदा प्राणत्यागएव स्यात्प्रीणनमात्रंतु पुनः स्वल्पानां स्वल्पका लीयमतोस्तीति न वक्तव्यं । नास्ति पुण्य मित्येवं प्रतिषेधेपि तदर्थिनामंतरायः स्यादित्यतो द्विधाप्यस्ति नास्ति वा पुष्यमित्येवं ते मुमुदवः साधवः पुनर्न जाते किंतु पृष्टैः समि नं समाश्रयणीयं । निर्बंधेत्वस्माकं द्विचत्वारिंशदोषवर्जितश्राहारः कल्पते । एवंविधविष ये मुमुक्णामधिकारएव नास्तीति । उक्तंच । सत्यं वप्रेषु शीतं शशिकरधवलं वारिपी त्वा प्रकामं, व्युविन्नाशेपतृमाः प्रमुदितमनसः प्राणिसार्थानवंति ॥ शोषं नीते जल दिनकर किरयीत्यनताविनाशं, तेनोदासीननावं व्रजति मुनिगणः कूपवप्रादिकार्ये ॥ १ तदेवमुनयथापि जाषिते रजसः कर्मप्रायोलानोनवतीत्यतस्तं चायं रजसोमौनेना नवयान वा हित्वा त्यक्त्वा तेऽनवद्यनाषिणो निर्वाणं मोक्षं प्राप्नुवंतीति ॥ २१ ॥ पिच । निवाणमित्यादि) निर्वृतिर्निर्वाणं तत्परमं प्रधानं येषां परलोकार्थिनां बुद्धानां ते तथा तानेव बुद्धान्निर्वाणवादित्वेन प्रधाना नित्येवं दृष्टांतेन दर्शयति । यथा नक्षत्राणा मश्विन्यादीनां सौम्यत्वप्रमाणप्रकाशकत्वैरधिकचंड्माएवं परलोकार्थिनां बुद्धानां मध्ये स्वर्गचक्रवर्तिसंपन्नदानपरित्यागेनाशेषकर्मकयरूपं निर्वाणमेवानिसंधाय प्रवृत्तास्त एव प्रधानानापरइति । यदिवा यथा नक्षत्राणां चंइमाः प्रधाननावमनुजवत्येवं लोक स्य निर्वाणं परमं प्रधान मित्येवं बुवगततत्वाः प्रतिपादयंतीति । यस्माच्च निर्वाणं प्रधानं तस्मात्कारणात्सदा सर्वकालं यतः प्रयतः प्रयत्नवान् इंडियनोइंडियदमनेन दांतो मुनिः साधुर्निर्वाणमनिसंधयेन्निर्वाणार्थं सर्वाः क्रियाः कुर्यादित्यर्थः ॥ २२ ॥ तं बुझमाणाण पाषाणं किच्चंताण सकम्मणा ॥ प्रघाति सादु दीवं, पति सा पच्चई ॥ २३ ॥ प्रयगुत्ते सया दंते, बिन्नसाए णासवे ॥ जे धम्मं सुधमस्काति, पडिपुन्नमणालिसं ॥ २४ ॥ For Private Personal Use Only Page #465 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राय धनपतसिंघ बादाउरका जैनागम संग्रह नाग उसरा. ४३५ थर्थ-(बुसमाणाण पाणाणं के० ) संसार समुश्मा विचरता प्राणी ( किच्चंताण सकम्मणा के० ) पोतपोताना कमैकरी बेदन नेदननी कदर्थना पामता एवा असरण जीवोने पण (अाघातिसादुतं दीवं के० ) श्रीतीर्थंकर गणधरनो कहेलो आश्वासनूत वीप समान एवो सम्यक् दर्शनादिक धर्म जाणवो, ( पति सापवुच्चई के०) एने संसार समुहमा परिचमणनो टालनार कहिए ॥३॥ एवा धर्मनो प्ररुपनार कोण ते कहेले. (था यगुत्तेसयादंतेके०) यात्माजेनो गुप्तडे ते आत्मगुप्त कहिए तथा सदादांत एटले सर्वकाल पांचंडियनो संवर करनार (बिन्नसोए के०) जेणे संसारना स्रोत द्यावे (अणासवेके०) बनाव एटले प्राणातिपातादिक पाश्रव रहित (जेधम्मं सुखमरकाति के० ) एवो जे दोय ते सुझो धर्म कहे ते धर्म केवोने, तो के (पडिपुन्न के० ) प्रतिपूर्ण सर्व विर तिरूप तथा (अपालिसं के०) निरुपम. एटले एवो धर्म अन्य दर्शनीउना कोपण शास्त्रमा कह्यो नथी माटे ए धर्म उपमारहित . ॥ २४ ॥ ॥ दीपिका-संसारसागरे मिथ्यात्वकषायादिनिर्वाह्यमानानां संमुखं नीयमानानां तथा स्वकर्मनिः कृत्यमानानां पीडचमानानां प्राणिनां परोपकारनिरतस्तीर्थकारणतस्तीर्थकरो गणधरा दिवा साधु शोजनं दीपमाश्वासनूतमाख्याति । यथा समुपतितस्य जंतोःक श्चित्सुखार्थ दीपं वक्ति तथा संसारभ्रमण विश्रामहेतुं सम्यग्दर्शनादिकं जिनादिर्वक्ति एषा संसारमणविरतिरूपा प्रतिष्ठाप्रोच्यते तज्ज्ञैः ॥ २३ ॥ यात्मा गुप्तोयस्य सधात्मगुप्तः सदांतोवशीकतेंझ्यिः । तथा बिन्नानि त्रोटितानि संसारस्त्रोतांसि येन सबिन्नस्त्रोतानिरा श्रवः कर्मबंधरहितएवंनतोयः सगुई निर्दोष धर्ममाख्याति कथयति । किंनूतं धर्म प्र तिपूर्ण सर्वविरतिरूपमनीदृशमनन्यसदृशं ॥ २४ ॥ ॥ टीका-किंचान्यत् । (बुसमाणाण इत्यादि ) संसारसागरस्रोतोनिर्मिथ्यात्वकषा यप्रमादादिकैरुह्यमानानां तदनिमुखं नीयमानानां तथा स्वकर्मोदयेन निकृत्यमानानाम शरणानामसुमतां परहितैकरतः कारणवत्सलस्तीर्थकदन्योवा गणधराचार्या दिकस्तेषामा श्वासनतं साधु शोननं दीपमाख्याति।यथा समुशंतः पतितस्य जंतोजलकनोलाकुलित स्य मुमूर्षोरतिश्रांतस्य विश्रामहेतुं दीपं कश्चित्साधुर्वत्सलतया समाख्यात्येवं तथानूतं दीपं सम्यग्दर्शनादिकं संसारचमा विश्रामहेतुं तीर्थपरतीथिकैरनारख्यातपूर्वमाख्यात्येवं च कृत्वा प्रतिष्ठानं प्रतिष्ठा संसारभ्रमणविरतिलदषा दर्शनाद्यवाप्तिसाध्या मोक्षप्राप्तिः प्रकर्षेण तत्व.रुच्यते प्रोच्यतइति ॥ २३॥ किंनूतोऽसावाश्वासदीपोनवति कीहग्वि धेन वाऽसावाख्यायतश्त्येदाह । (थायगुत्ते इत्यादि) मनोवाक्कायैरात्मा गुप्तोयस्य स Page #466 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३६ हितीये सूत्रकृतांगे प्रथम श्रुतस्कंधे एकादशमध्ययनं. आत्मगुप्तस्तथा सदा सर्वकालमिडियनोइंडियदमनेन दांतोवश्य डियोधर्मध्यानध्यायी वे त्यर्थः । तथा बिनानि नोटितानि संसारस्रोतांसि येन सतथा। एतदेव स्पष्टतरमाह निर्गताश्रवः प्राणातिपातादिकः कर्मप्रदेशवाररूपोयस्मात्सनिराश्रवोयएवंनतः संशु ६ समस्तदोषाऽपेतं धर्ममाख्याति । किंनूतं धर्म प्रतिपूर्ण निरवयवतया सर्व विरत्याख्यं मोदगमनैकहेतुमनीदृशमनन्यसदृशमवितीयमिति यावत् ॥ २४ ॥ तमेव अवि जाणंता, अबुधा बुद्धमाणिणो ॥ बुद्धा मोत्तियम नंता, अंतएते समाहिए॥२५॥तेय बीनदगं चेव, तमूहिस्सा य जंकडं ॥ नोच्चा जाणं कियायंति, अखेयन्ना असमादिया ॥२६॥ . अर्थ-(तमेवध विजाणंता के०) ते शुद्ध प्रतिपूर्ण धर्मना आचारनुं जे जाणपणु तेने विषे (अबुधाबुआमाणिणो के० ) अबुझ एटले अविवेकी बतां, पोतामां पंमित पषु मानता थका जे अमेज धर्मना जाणये, (बुखामोत्तियमन्नंता के०) तत्वना जाण एवा बुद्धिमान अमेज डैयें, एवीरीते मानता एवा जनो (अंतएतेसमाहिए के) ते नाव समाधि थकी अत्यंत दूर वर्तनार जाणवा ॥ २५ ॥ एवा कोण पुरुष ते कहे. (तेयबीदगंचेव के०) ते शाक्यादिक धन्य दर्शनी अथवा एवा जे स्वतीर्थिक पासबा दिक तेबीज एटले शाली गोधूमादिक तथा उदक ते सचित्तपाणी तथा (तमुदिस्सायजंकडं के०) तेने अर्थे नदेशीने जे पाहारादिक कीधो ते सर्वने अविवेकी पणे जीव्हानालं पटी बता (नोचा के) नोगवी ने (काफियायंति के ) आर्त ध्यान ध्यावे, एट ले संघनो नोजनादिक थशे तेवारे आपणने पण मलशे, एवो आर्त ध्यान ध्यावे ते तात्विके (अखेयन्ना असमाहिया के० ) धर्माधर्मने विपे अखेदज्ञ एटले अनिपुण तथा एवा ध्यानना ध्यावनार सदा असंतोषी होय माटे असमाधिवंत जाणवा ॥२६॥ ॥ दीपिका-तमेवं धर्ममजानानायबुझानिर्विवेकाबुक्ष्मानिनः पंडितंमन्याबुदाः स्मोवयमिति मन्यमानाः समाधेः सम्यग्दर्शनादंते पर्यतेऽतिदूरे वर्तते इति तेऽन्ये तीर्थकाझेयाः ॥ २५॥ बीजानि शालिगोधूमादीनि नदकमप्रासुकजलं च शाक्यादय स्तानुद्दिश्य तभक्तैर्यदाहारादिकं कृतं तत्सर्व नुक्त्वा सातर्धिरसगौरवासक्ताः संघनक्ता दिक्रियया तदवाप्तिकते आर्त ध्यानं पायंति । नहि ऐहिकसुखार्थिनां परिग्रहवतां धर्म ध्यानं स्यात् । यतः । ग्रामदेमग्रहादीनां, गृहदेवजनस्य च । यस्मिन् परिमहोदृष्टो, ध्यानं तत्र कुतः शुनमिति । मोहस्यायतनं धृतेरपचयः शांतेः प्रतीपोविधि,यदेपस्य सुहन्मदस्य नवनं पापस्य वासोनिजः ॥ फुःखस्य प्रनवः सुखस्य निधनं ध्यानस्य क Page #467 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रायधनपतसिंघ बादाउरका जैनागम संग्रह नाग उसरा. ४३७ टोरिपुः प्राज्ञस्यापि परिग्रहोयहश्व क्वेशाय नाशाय च ॥१॥ तथा ते कुतीथिकाध धिर्मविवेके ऽखेदझायनिपुणाअसमाहिताश्च समाधेर्मोक्षमार्गादूरस्थाश्त्यर्थः ॥ २६ ॥ ॥टीका-एवंनतधर्मव्यतिरेकिणां दोषानिधित्सयाऽह । (तमेवेत्यादि) तमेवंचूतं शुदंप रिपूर्णमनीदृशं धर्ममजानानाथप्रबुझायविवेकिनः पंडितमानिनोवयमेव प्रतिबुझाधर्मत त्वमित्येवं मन्यमानानावसमाधेः सम्यग्दर्शनाख्यादंते पर्यते विदूरे वर्ततति तेच सर्वेपिप रतीथिकाइष्टव्याइति ॥२५॥ किमिति ते तीर्थकानावमार्गरूपात्समाधेर्दूरे वर्ततइत्याशंक्या ह। (तेयबीदगमित्यादि) तेच शाक्यादयोजीवाजीवाननिझतया बीजानि शालिगोधूमादी नि तथा शीतोदकमप्रागुकोदकं तांश्चोदिश्य तभक्तैर्यदाहारादिकं कृतं निष्पादितं तत्सर्वमवि वे कितया शाक्यादयोनुक्त्वाऽन्यवहत्य पुनः सातदिरसगौरवासक्तमनसः संघनक्तादिक्रिय या तदवाप्तिकते आर्त ध्यानं ध्यायति । नाँहिकसुरवैषिणांदासीदासधनधान्यादिपरिग्रहव तांधर्मध्यानं नवतीति । तथाचोक्तं। ग्रामदैत्रगृहादीनां गृहदेवजनस्य च ॥ यस्मिन्परिय होदृष्टो, ध्यानं तत्र कुतः शुनमिति । तथा । मोहस्यायतनं धृतेरपचयः शांतेः प्रतोपो विधि,ादेपस्य सुहृन्मदस्य नवनं पापस्य वासोनिजः ॥ फुःखस्य प्रनवः सुखस्य निध नं ध्यानस्य कष्टोरिपुः, प्राज्ञस्यापि परिग्रहोगहश्व क्लेशाय नाशाय च ॥ १ ॥ तदेवं पच नपाचनादि क्रियाप्रवृत्तानां तदेव चानुप्रेक्षमाणानां कुतः शुनध्यानस्य संनवति । अपि च । ते तीथिकाधर्माधर्मविवेके कर्तव्ये अखेदझायनिपुणाः । तथाहि । शाक्यामनोझाहा रवसतिशय्यासनादिकं रागकारणमपि शुनध्याननिमित्तत्वेनाध्यवस्थंति । तथाचोक्तं । म मनोयणं नुञ्चत्यादि । तथा मांसं कल्किकमित्यपदिश्य संझांतरसमाश्रयणानिर्दोषं म न्यते बुधसंघादिनिमितं चारनं निर्दोषमिति । तमुक्तं । मंसनिवत्तिं का,सेव दंतिकगंतिध पिनेया॥श्यवकणारंनं, परववएसा कुण बालो॥ १ ॥ नचैतावनिर्दोषता।नहि लू तादिकं शीतलिकाद्यनिधानांतरमात्रेणान्यथात्वं नजते विषं वा मधुरकानिधानेनेति । ए वमन्येषामपि कापिलादीनामाविर्नावतिरोनावानिधानान्यां विनाशोत्पादावनिदधताम नैपुण्यमाविष्करणीयं । तदेवं ते वराकाः शाक्यादयोमनोद्दिष्टनोजिनः सपरिग्रहतयात ध्यायिनोऽसमाहितामोदमार्गाख्यानावसमाधेरसंवृततया दूरेण वर्ततश्त्यर्थः ॥२६॥ जहा ढंकाय कंकाय कुललामगुकासिदा ॥ मनेसणं कियायंति, साणं ते कलुसाधमं ॥ २७॥ एवंतु समणाएगे, मिहिछा अ णारिया ॥ विसएसणं कियायंति, कंकावा कलुसादमा॥२॥ Page #468 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३८ द्वितीये सूत्रकृतांगे प्रथम श्रुतस्कंधे एकादशमध्ययनं अर्थ- (जहाढंकायकंकाय के० ) जेम ढंक पक्षी विशेष, तथा कंक पक्षी विशेष ( कुलनामगुका सिहा के० ) कुलला पक्षी विशेष मूंगु पक्षी विशेष काक पक्षी विशेष सर्व पक्षी मांसनायार्थ मांसनी इहा एटले वांढाना करनार बे, ते (मबेस कि याति के०) मालानी प्राप्तिनी एषणाने ध्यावतां थकां रहे. ( प्रातेकलुसा धर्म के ० ) एवा मांसाहारी जीवो ते सर्वकाल कलुष एटले मलीन एवं माउलानी गवे पणानुं अधम ध्यान ध्यावेळे ॥ २७ ॥ ( एवं समाएगे के० ) ए प्रकारे कोइएक अन्यतीर्थिक अथवा पासबादिक कुशीलिया श्रमण ( मिठदिहि के० ) मिथ्यादृष्टी ( पारिया के ० ) अनार्य ते ( विसएसपंजियार्यति के० ) विषयनी एषणा एटले, श ब्द रूप रस गंधन प्राप्तिने ध्यावेळे (कंकावाकलुसाहमा के० ) ते पूर्वोक्त कंकादिक प कीनी पेरे कलुषित चित्त वाला अधम पुरुषो जाएवा. ॥ २८ ॥ || दीपिका-यथा ढंकादयः पक्षिविशेषाजलाश्रयनिवासाद्यामिपजीविनोमत्स्यप्रा ध्यायंति तत्व्यायिनश्च ते कलुषाधमाः स्युः । एवं शाक्यादयोविषयप्राप्तिं ध्यायतः क जुषाधमाश्च स्युः ॥ २७ ॥ टीका- यथा चैते रससाता गौरवतयार्तध्यायिनोजवंति तथा दृष्टांत द्वारेण दर्शयितु माह । (जहाढंकायइत्यादि) यथेत्युदाहर णन्यासार्थः । यथा येन प्रकारेण ढंकादयः पक्षि विशेषाजलाश्रयायामिपजीविनोमत्स्यप्राप्तिं ध्यायंत्येवंभूतं च ध्यानमार्तरौइ ध्यानरूपत याऽत्यंत कलुषमधमं च नवतीति ॥ २७ ॥ दाष्टतिकं दर्शयितुमाह । ( एवमित्यादि) एवमि ति यथा ढंकादयो मत्स्यान्वेषणपरं ध्यानं ध्यायंति तत्थ्यायिनश्च कलुषाधमानवत्येवमेव मिथ्यादृष्टयः श्रमणा के शाक्यादयोऽनार्यकर्मकारित्वात्संरंनपरिग्रहतया अनार्याः संतो विषयाणां शब्दादीनां प्राप्तिं ध्यायंति तत्ध्यायिनश्व कंकाइव कलुषाधमानवंतीति ॥ २८ ॥ सु मग्गं विराहित्ता, इहमेगेन डुम्मती ॥ तुम्मग्गगता डुकं, घायसंति तं तदा ॥ २० ॥ जहा प्रसाविणि नावं, जाइयंधो रूदिया ॥ इव पारमागंतुं, अंतराय विसीयंती ॥ ३० ॥ अर्थ - (सुमग्गं विराहित्ता के ० ) शुद्ध मार्गजे सम्यक्दर्शनादिक तेने कुमार्गनी प्ररूपणाये विराधता एवा ( इहके०) यासंसारमा हे ( मेगेनडुम्मतीके ० ) कोइएक डुराचारी पोताना दर्शनना अनुरागे प्रवर्त्तता ( उम्मग्गगताडुरकं के० ) उन्मार्ग गत एटले खरिहंत नापी त तत्व की विपरीत मार्गे प्राप्त थया बता दुःखजे ग्रष्ट प्रकारना कर्म असातोदयरू पतें करी ( घायमे संतितंतहा के० ) तथा प्रकारे ते घात एटले नरकादिकगतिमांहे For Private Personal Use Only Page #469 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रायधनपतसिंघ बादाउरका जैनागम संग्रह नागसरा. ४३ए अनेक प्रकारेकरी जन्ममरणलेदन नेदनादिक छुःखनी वेदना पामे ॥ २५ ॥(जहाके०) जेम (जाश्चंधोके) जात्यंध पुरुष (आसाविणिके०) शतलिइ सहित एवी (नावंके०) नावने विषे (पुरूहिया के० ) बेसीने (चति पारमागंतुके) समुप तरी पार पाम वानी ना करे पण तेवी नावा थकी समुझ्नो शीरीते पार पामे? (अंतराय विसीयंती के० ) ते पुरुष अंतराले विषीदंति एटले वचमांज बुडे, परंतु पार पामे नही. ॥ ३० ॥ ॥ दीपिका- शुई निर्दोषं मोक्षमार्गप्ररूपणया विराध्य दूषयित्वा इह संसारे एके शाक्यादयोऽर्मतयनन्मार्गगतापुःखं घातं च मृतिं ते शाक्यादयस्तथा तेन प्रकारेण एवं ति अन्वेषयंति कुखमरणे शतशः प्रार्थयंतीत्यर्थः ॥ २५ ॥ यथा जात्यंधयात्राविणीं शतहि नावमारुह्य पारमागंतुमिन्नति । न चासौ विनावारूढः पारगतः स्यात् किंत दि अंतराले जलमध्यएव विषीदति निमजति ॥ ३० ॥ ॥ टीका-किंच (शुक्षमित्यादि) सुक्ष्मवदातं निर्दोषं मार्ग सम्यग्दर्शनादिकं मोहमार्ग कुमार्गप्ररूपणया विराध्य दूषयित्वा हास्मिन्संसारे मोक्षमार्गप्ररूपणप्रस्तावे वा एके शाक्यादयः स्वदर्शनानुसारेण महामोहाकुलितांतरात्मानोउष्टा पापोपादानतया मति र्येषां ते उष्टमतयः संतनन्मार्गेण संसारावतरणरूपेण गताः प्रतृत्तानन्मार्गगताकुःख यतीति दुःखमष्टप्रकारं कर्मासातोदयरूपं वा तदुःखं घातं चांतशस्तथा सन्मार्गविराधन तया उन्मार्गगमनं चैत्यन्वेषयंति। फुःखमरणे शतशः प्रार्थयंतीत्यर्थः ॥ २ ॥ शाक्यादीनां चापायं दिदर्शयिषुस्तावदृष्टांतमाह । (जहाथासाविणिमित्यादि ) यथा जात्यंधशास्त्राविणीं शतनिशं नावमारुह्य पारमागंतुमिबति । नचासौ सहितया पार गामी नवति किंतीतरालएव जलमध्यएव विषीदति निमऊतीत्यर्थः ॥ ३० ॥ एवंत समणा एगे, मिबदि अणारिया ॥ सोयं कसिणमाव ना, आगंतारो महप्रयं ॥३१॥ मंच धम्ममादाय, कासवेण पवेदितं ॥ तरे सोयं महाघोरं, अत्तत्ताए परिवए॥ ३२॥ अर्थ-हवे ए दृष्टांत अन्यतीर्थिक साथे जोडे (एवंतुसमणाएगे के० ) एरीते को एक अन्य दर्शनी श्रमण (मिडदिछी अणारिया के०) मिथ्यादृष्टी अनाचारी विपरीत मार्गना उपदेशक विपरीत बुद्धिना धणी ते (सोयंकसिमावन्ना के०) श्रोत एट ले कर्मनो श्राश्रव तेने विषे संपूर्ण पोहोच्या थका (पागंतारोमहालयं के०) श्रावते काले महानय एटले अत्यंत बीहामणा एवा नरकादिकना फुःख पामे. ॥३१॥ (इमंचध म्ममादाय के०) एम सर्वलोक प्रसिद बकाय जीवोनो वाहल कारी एवो श्रुत चारित्र Page #470 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४० दितीये सूत्रकृतांगे प्रथम श्रुतस्कंधे एकादशमध्ययनं. रूप धर्म तेने ग्रहण करीने ( कासवेणपवेदितं के० ) ते धर्म काश्यपगोत्री श्रीमहावीर देवे कह्यो ते धर्मने आदरवा थकी फल जे थाय ते कहे (तरेसोयंमहाघोरं के०) ते माहाघोर एवो संसार समुश्नो श्रोत एटले प्रवाहरूप स्थानक तेने तरे अर्थात् संसा र समुश्ने नतंघीने पारपामे, (अत्तत्ताएपरिवए के) ते कारण माटे यात्मानो त्रा एटले रदपाल एवो साधु ते एहिज सम्यग् धर्मने समाचारे ॥ ३२ ॥ ॥दीपिका-एवमेके शाक्यादयः श्रमणामिथ्यादृष्टयोऽनार्यानावस्रोतःकर्माश्रवरूपं क स्नं समापन्नाः संतोमहानयं पौनःपुन्येन मुखमागंतारबागमनशीलाः स्युः संसार सागरोत्तरणं न स्यादिति ॥३१॥इमं प्रत्यदं धर्म । चः पुनरर्थ। काश्यपेन श्रीवीरेण प्रवेदितं प्रणीतं आदाय गृहीत्वा नावस्रोतः संसारपर्यटनं महाघोरं तरेनंघयेत् । तदेवं जिनप्रणी तधर्माटनेनासता आत्मनस्त्राणाय नरकादिन्योराणाय परिव्रजेत्संयमानुष्ठायी स्यात् । कचित्पश्चाईस्यायं पातः। (कुजानिस्कूगिलास्त, अगिलाएसमाहिए)। निकुः साधु ग्लोनस्य वैयावृत्यमग्लानोऽपरिश्रांतः कुर्यात्समाधिनों ग्लानस्य समाधिमुत्पादयन् ॥३॥ ॥ टीका-दार्टीतिकमाह । ( एवंत्वित्यादि ) एवमेव श्रमणाएके शाक्यादयोमिथ्या दृष्टयोऽनार्यानावस्रोतःकर्माश्रवरूपं कृत्स्नं संपूर्णमापन्नाः संतस्ते महानयं पौनःपु न्येन संसारपर्यटनतया नारकादिस्वनावं दुःखमागंतारयागमनशीलानवंति । न ते पां संसारोदधेरास्त्रा विणी नावं व्यवस्थितानामिवोत्तरणं नवतीति नावः ॥३१॥ यतः शाक्यादयः श्रमणाः मिथ्यादृष्टयोऽनार्याः कृत्स्नं स्रोतः समापन्नाः महानय मागंतारोनवंति ततश्दमपदिश्यते । (मंचेत्यादि ) इदमिति प्रत्यदासन्नवाचित्वा दिदमोनंतरं वदयमाणलणं सर्वलोकप्रकटं च उर्गति निषेधेन शोननगतिधारणा धर्म श्रुतचारित्राव्यं । चशब्दः पुनःशब्दार्थे । सच पूर्वस्माध्यतिरेकं दर्शयति । यस्माडौमोद निप्रणीतधर्मस्यादातारोमहानयं गंतारोनवंति इमं पुनर्धर्ममादाय गृहीत्वा काश्यपेन श्रीवर्धमानस्वामिना प्रवेदितं प्रणीतं तरेल्लंघयेनावस्रोतः संसारपर्यटनस्वनावं । तदेव विशिनष्टि । महाघोरं कुरुत्तारत्वान्महानयानकं । तथाहि । तदंतर्वतिनोजंतवोग गर्न जन्मतोजन्म मरणान्मरणं दुःखादुःखमित्येवमरघट्टघटीन्यायेनानुनवंतोऽनंतमपि काल मासते । तदेवं काश्यपप्रणीतधर्मादानेन सता आत्मनस्त्राणं नरकादिरक्षा तस्मै यात्म त्राणाय परिःसमंतात्परिव्रजेत्संयमानुष्ठायी नवेदित्यर्थः । कचित्पश्चार्धस्यान्यथा पाठः । कुजानिरकू गिलास्त. अगिलाएसमाहिए ॥ नितुः साधुः ग्लानस्यवैयावृत्यमग्लानोड परिश्रांतः कुर्यात्सम्यक्समाधिना ग्लानस्य वा समाधिमुत्पादयन्निति ॥ ३२ ॥ Page #471 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राय धनपतसिंघ बाहादुरका जैनागम संग्रह भाग दुसरा. विरए गामधम्मेहिं जे केइ जगई जगा ॥ तेसिं अनुवमायाए, थामं कुवं परिव ॥ ३३ ॥ प्रमाणं च मायं च तं परिन्नाय पंमिए । सबमेयं गिरा किच्चा, वाणं संघए मुली ॥ ३४ ॥ अर्थ - विरति साधु संयमानुष्ठानने शीरीतें पाले ते उपर कहे. (विरएगामधम्मे हिंकें ० ) ग्रामधर्मजे शब्दादिक विषय ते थकी विरति थको ने (जेकेइजगईजगा के० ) जेकां 5 जगत्रमाहे सपने स्थावर जीवढे ( ते सिंधत्तुवमायाए के० ) तेने पोताना यात्म तुल्यनी उपमायें देखीने तेने राखवाने यर्थे ( थामंकु के ० ) बलवीर्य फोरवतो थको ( परिar के o ) संयम पात्रे ॥ ३३ ॥ श्रमाणंचमायंच के० ) जे कारणे मान जे बे ते चारित्रने प्रतिक्रमे बे तेमाटे तेने प्रतिमान कहिए. एना सायें क्रोध पण जेवो एम ज प्रतिमाया ने चशब्द थकी लोन पण लेवो ( तं के० ) ते चार कषायने ( पंमिए के ० ) पंमित विवेकी जन होय ते एने संयमना शत्रु (परिन्नाय के ० ) इपरिज्ञायें करी जाणीने (सवमेयं शिरा कच्चा के० ) एसर्व कषायने संसारनुं कारण जाणीने तेने प्रत्या ख्यान परिज्ञायें करी निराकरीने ( शिवासंध एमपीके ० ) साधु मोहने सधे वांबाकरे. ४४१ || दीपिका - ग्राम्यधर्माः शब्दादिविषयास्तेच्यो विरताः संत्येके केचन जगति जगाः प्रा णिनोजीवितार्थिनस्तेषामात्मोपमया तणाय स्थामं सामर्थ्य कुर्वन परिव्रजेत्संयमे ॥ ३३ ॥ प्रतिमानं च मायां चरान्दाकोधलोनी गृह्येते । एवं कषायत्रतं परिज्ञाय पंमितः सर्वमेतं नवहेतुं निराकृत्य निर्वाणमनुसंधयेत् मोक्षार्थं प्रशस्त नावानुगतः स्यात् । सतिच कषाये न संयमः सफलतां याति । यतः । सामन्नमणुचरंतस्स कसाया जस्स नक्कडा होंति । ममामि पुष्पंच, निष्फलं तस्स सामइति ॥ ३४ ॥ ॥ टीका - कथं संयमानुष्ठाने परिव्रजेदित्याह । ( विरइत्यादि ) ग्रामधर्माः शब्दादयो विषयास्तेच्यो विरतामनोज्ञेतरेष्वरक्तविष्टाः संत्येके केचन जगति पृथिव्यां संसारोदरे ( जगाइति) जंतवोजीवितार्थिनस्तेषां दुःख द्दिषामात्मोपमया दुःखमनुत्पादयन्तणे सामर्थ्यं कुर्यात्कुर्वश्च संयमानुष्ठाने परिव्रजेदिति ॥ ३३ ॥ संयमविघ्नकारिणामपनयनार्थ माह । (इमाचेत्यादि ) प्रतीव मानोऽतिमानश्चारित्रमतिक्रम्य योवर्तते चकारादेत यः क्रोधोपि परिगृह्यते । एवमतिमायां चशब्दादतिलोनं च तमेवंभूतं कषायव्रतं संय परिपंथिनं पंमितो विवेकी परिज्ञाय सर्वमेनं संसारकारणनूतं कषायसमूहं निराकृत्य निर्वाणमनुसंधयेत्सति च काषायकदंबके नसम्यकू संयमः सफलतां प्रतिपाद्यते । तडुक्तं । For Private Personal Use Only Page #472 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४२ वितीये सूत्रकृतांगे प्रथमश्रुतस्कंधे एकादशमध्ययनं. सामस्ममणुचरंतस्स कसाया जस्स उक्कडा होति ॥ ममामि नल्लुपुप्फंच निष्फलं तस्स सा मम ॥१॥ तन्निष्फलत्वेचन मोक्षसंनवः। तथाचोक्तं । संसारादपलायनप्रतिनुवोरागादयो मे स्थितास्तृप्माबंधनबध्यमानमखिलं किंवेत्सि नेदं जगत्॥मृत्यो मुंच जराकरेण परुषं के शेषु मामाग्रहीरहीत्यादरमंतरेण नवतःकिंनागमिष्याम्यहं॥१॥इत्यादि । तदेवमेवंनूतक षायपरित्यागादबिन्नप्रशस्तनावानुसंधनया निर्वाणानुसंधानमेव श्रेयति ॥३४॥ संधए सादुधम्मच, पागंतरं (सहए सादुधम्मंच) पावधम्म णिराकरे ॥ नवदाणवीरिए निस्कू, कोदं माणंच पडए॥३५॥ जे य बुद्धा अतिकंता, जे य बुद्धा अणागया ॥ संति तेसिं पर हाणं, नूयाणं जगती जहा ॥३६॥ अर्थ-(संधएसादुधम्मंच के०) साधुनो धर्मजे दमादिक दश प्रकारनोले तेने स म्यक जाणीने वृद्धि करे एटले सम्यक् उपदेशीने वृद्धि पमाडे पाठांतरे (सदए सादुध म्मंच के ) दश प्रकारनायतिधर्म उपर अक्षा राखे. (पावधम्मणिराकरे के) पाप धर्म जे जीवोनो मर्दन करतो थको धर्मनेनावे प्रवर्ने तेने पापधर्म कहिए, तेने निराक रे एटले तेनुं उबापन करीने ( उवहाणवीरिएनिस्कू के०) उपधान जे तप तेने विषे बलवीर्य फोरवतो एवो साधु ( कोहंमाणंचपबए के० ) क्रोध अने मानने प्रार्थे नही. चशब्द थकी साधु वर्तमान काले एवीरीते संयम पाले. ॥ ३५ ॥ ए धर्म श्रीमहावीर देवे कह्यो किंवा अन्य जिनोए पण कह्यो ते कहे. (जेयबुझायतिकता के०) जे तीर्थकर अतीत काले थया, तथा (जेयबुझायणागया के० ) जे तीर्थकर अनागत कालें थशे चशब्द थकी जे तीर्थकर वर्तमान काले बिराजमान दे, ते सर्व एज धर्म ना कहेनार जाणवा (संतितेसिंपश्हाणं के०) तेनो प्रतिष्ठान एटले अवलंबननो स्था नक ते शांति एटले समस्त जीवनी दया जाणवी, कोनीपेरे तोके (जहाके) जेम (नूयाएंजगती के०) समस्त जीवोने वाधारजूत पृथवीरूप स्थानक, तेम सर्व तीर्थकर देवोने जीवदया रूप शांतिनुं स्थानक ते आधारनूत जाणवो. ॥३६ ॥ ॥ दीपिका-साधुधर्म संयमं संधयेत् वृधि प्रापयेत् तथा पापधर्म हिंसात्मकं निरा कुर्यात् । उपधानं तपस्तत्र वीर्योनिक्कुः क्रोधं मानं च न प्रार्थयेन्नवर्धयेत् ॥ ३५ ॥ ये बुझास्तीर्थकृतोऽतिक्रांताधतीताये चाऽनागताः। चशब्दावर्तमानाजिनेंशस्तेषां सर्वेषां शांतिनावमार्गः प्रतिष्ठानमाधारः। अथवा शांतिर्मोक्षः प्रतिष्ठानमाधारः । मोक्षश्च नाव मार्ग विना नस्यादित्यतः सर्वेपि जिनाएनं नावमार्ग प्रतिष्ठानमुक्तवंतोऽनुष्ठितवंतश्चेति ग Page #473 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राय धनपतसिंघ बादाडुरका जैनागम संग्रह जाग दुसरा. ४४३ भयंते । नूतानां प्राणिनां यथा त्रिलोकी प्रतिष्ठानमेवं सर्वेपि बुद्धाः शांतिप्रतिष्ठानाः ॥ ३६ ॥ ॥ टीका-किंच । (संधएइत्यादि) साधूनां धर्मः दांत्यादिकोदशविधः सम्यग्दर्शनचारि त्राख्योवा तमनुसंधयेद्वृद्धिमापादयेत् । तद्यथा । प्रतिक्षणमपूर्वज्ञानग्रहणेन ज्ञानं तथा शं कादिदोषपरिहारेण सम्यग्जीवादिपदार्थाधिगमेन च सम्यग्दर्शनमस्खलित मूलोत्तरगुणसंपू पालनेन प्रत्यहमपूर्वज्ञानग्रहणेन चारित्रंवृद्धिमापादयेदिति । पाठांतरंवा (सद्द हेसा धम्मंच) पूर्वोक्त विशेषणविशिष्टसाधुधर्म मोहमार्गत्वेन श्रधीत निःशंकतया गृही याच्चशब्दात्सम्यगनुपालयेच्च । तथा पापं पापोपादानकारणं धर्म प्राप्युपमर्देन प्रवृत्तं निरा कुर्यात्तथोपधानं तपस्तत्र यथाशक्त्या वीर्ये यस्य सनवत्युपधानवीर्यस्तदेवंभूतो निकुः क्रोधं मानं च न प्रार्थयेन्नवर्धयेदेति ॥ ३५ ॥ अथैवंभूतं नावमार्ग किं वर्धमानस्वाम्येवो पदिष्टवानुतान्येपीत्येतदाशंक्याह । (जेयबुदाइत्यादि) ये बुद्धास्तीर्थकृतोऽतीते नादि के कालेऽनंताः समतिक्रांतास्ते सर्वेप्येवंभूतं नावमार्गमुपन्यस्तवंतस्तथा ये चानागता नविष्यदनंतकालना विनोनंताएव तेप्येवमेवोपन्यसिष्यंति । चशब्दा वर्तमानकालनावि नश्च संख्येयाइति । न केवलमुपन्यस्तवंतोऽनुष्ठितवंतश्च गम्यते । तद्दर्शयति । शमनं शांतिर्भावमार्गस्तेषामतीतानागतवर्तमानकालनाविनां बुद्धानां प्रतिष्ठानमाधारोबु-धत्व स्यान्यथानुपपत्तेः । यदिवा शांतिर्मोहः सतेषां प्रतिष्ठानमाधारस्ततस्तद्वाप्तिश्च नावमार्ग मंतरेण न नवतीत्यतस्ते सर्वेप्येनं जावमार्गमुक्तवतोऽनुष्ठितवंतश्च गम्यंते । शांतिप्रति ठानत्वे दृष्टांतमाह । नूतानां स्थावरजंगमानां यथा जगती त्रिलोकी प्रतिष्ठानमेवं ते सर्वेपि बुद्धः शांतिप्रतिष्ठानाइति ॥ ३६ ॥ प्रहणं वयमावन्नं, फासा उच्चावया फुसे ॥ ण ते सुविदि मे का वाएव महागिरी ॥ ३७ ॥ संबु से महापन्ने, धीरे दत्तेस णं चरे ॥ निघुमे कालमा कंखी, एवं केवलिलो मयं तिबेमि ॥ ३८ ॥ इति मोहमार्गनामकं एकादसममशयां सम्मत्तं ॥ अर्थ - (हवयमावन्नं के ० ) अथ हवे व्रतप्रतिपन्न संयम ग्राहित साधुने (फासाचच्चाव याफुसे के० ) सम विषमादिक उंचा नीचा अनुकूल प्रतिकूल एवा परिसह फरशे (ए सुविदिस्मेका के० ) तोपण तेथे करीने ते धर्मथकी नचुके एटले धर्म थकी चष्ट नथाय, कोनी पेरे तोके ( वाएवमहागिरी के ० ) जेम वायरे कर मेरुपर्वत मोलाय मान नथाय, तेम परिसह उपने थके साधुजन व्रत थकी मोलायमान नथाय. ॥ ३७ ॥ ( संमे से महापने के ० ) ते साधु संवरवान महाप्रज्ञावंत, ( धीरेदत्तेसणंचरे के० ) धै For Private Personal Use Only Page #474 -------------------------------------------------------------------------- ________________ მმმ द्वितीये सूत्रकृतांगे प्रथम श्रुतस्कंधे एकादशमध्ययनं . वान कर्मविदारवाने सूरवीर, दीधो एषणीक आहार ग्रहण करवाने विषे विचरे ( नि कालमाखी के० ) तथा निवृत्त उपशांत कषाय वालो एवो बतो मरण कालसु धी संयमने वांबे ( एवंकेव लिपोमयं के ० ) एम केवल ज्ञानीनो मतबे ने तेज केवल arodai प्रकाश्यो मार्ग श्रीमहावीर देव कहेबे, पण महारी बुद्धिये हुं केतो नथी. ति बेन पूर्ववत् जावो ॥ ३८ ॥ इतिश्रीसूत्रकृतांगना प्रथमश्रुतस्कंधने विषे मो. मार्गनामे एकादशमां अध्ययनो अर्थ समाप्त थयो. ॥ || दीपिका-थ तं साधुं प्रतिपन्नव्रतं नच्चावचाः शुनाशुनाः स्पर्शाः परीषदोप सर्गाः स्टशेयुः पीडयेयुः । सच साधुस्तैः पीडितोन विहन्यात् न संयमाच्चजेत् । यथा वातेन वायुना महागिरिर्मेरुर्न चलेत् । परीषहोपसर्गजयश्वाच्यासवशाद्विधेयः । यथा क विजोपस्तदहर्जातं तर्णकमुत्पाट्य गवांतिकं नयति यानयति च ततोसौ क्रमेण प्रत्यहं वर्धमानमपि वत्समुत्पाटयन्नन्यासवशाद्द्विवर्षत्रिवर्षमपि तमुत्पाटयति । एवं साधुरप्यन्या सात्पषहोपसर्गजयं विधत्ते ॥ ३७ ॥ संसंवृतः साधुर्महाप्रज्ञः सम्यग्दर्शनज्ञानवान् धीरः परीषदादिनिरोच्यः परेण दत्ते श्राहारादिके एषणां चरेत् त्रिविधयैषणया युक्तः संयमे चरेत् तथा निर्वृतः शीतीनूतकालं मृत्युकालं यावदनिकांदेत् । एतन्मया यत्पूर्वोक्तं त केवलिनः सर्वज्ञस्य मतमिति । ब्रवीमीति सुधर्मस्वामी जंबूस्वामिनमाहेति ॥ ३८ ॥ इत्ये कादर्श मार्गाध्ययनं समाप्तं ॥ ॥ टीका - प्रतिपन्ननावमार्गेण च यद्विधेयं तद्दर्शयितुमाह । (हम मित्यादि) प्रथ मार्गप्र तिपत्त्यनतरं साधुं प्रतिपन्नव्रतं संतं स्पर्शाः परीषहोपसर्गरूपाचच्चावचागुरुलघवोनानारू पावा स्ष्टशेयुः । सच साधुस्तैरनिडुतः संसारस्वनावमपेक्षमाणः कर्मनिर्जरांच न तैरनुकूल प्रतिकूलैर्विहन्यात् नैवं संयमानुष्ठानान्मनागपि विचलेत्किमिव महावातेनेव महागिरिर्मेरु रिति । परीष होपसर्गजयश्वाच्यासक्रमेण विधेयोऽन्यासवतोहि दुष्करमपि सुकरं नवति । य दृष्टांतः। तद्यथा कश्वित्रोपस्तदहर्जातं तर्णकमुत्क्षिप्य गवांतिके नयत्यानयति वा ततोसा वनेनैव क्रमेण प्रत्यहं प्रवर्धमानमपि वत्समुत्पिन्नाच्यासवशाद्विहायनं त्रिहायणमप्यु पित्येवं साधुरप्यन्यासात् शनैः शनैः परिषहोपसर्गजयं विधत्तइति ॥ ३७ ॥ सांप्रतमध्यय नार्थमुपसंजिहीर्षुरुक्तशेषमधिकृत्याह । ( संवुडेइत्यादि) सएवं साधुः संवृताश्रवधारत या संवरसंवृतोमहती प्रज्ञा यस्यासौ महाप्रज्ञः सम्यग्दर्शनज्ञानवांस्तथा धीर्बुद्धिस्तया राज तइति धीरः परीब होपसर्गादोच्योवा सएवंभूतः सन् परेण दत्ते सत्याहारादिके एषणां चरेत्रिविधयाप्येषणया युक्तः सन् संयममनुपालयेत्तथा निवृतः कषायोपशमाहीतीनूतका नं मृत्युकालं यावदनिकांक्षेत् । एतन्मया प्राक् प्रतिपादितं तत्केवलिनः सर्वज्ञस्य तीर्थक For Private Personal Use Only Page #475 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राय धनपतसिंघ बादाडुरका जैनागम संग्रह नाग दुसरा. ४४५ तोमतं । एतच्च जंबूस्वामिनमुद्दिश्य सुधर्मस्वाम्याह । तदेतद्यत्त्वया मार्गस्वरूपं प्रश्नितं त न्मया न स्वमनीषिका कथितं तर्हि केवलिनोमतमेतदित्येवं नवता ग्राह्यं । इतिः परिसमा यर्थे । ब्रवीमीति पूर्ववत् ॥ ३८ ॥ इति मार्गाख्यमेकादशमध्ययनं समाप्तं ॥ ॥ हवे समवसरण नामे बारमुं अध्ययन प्रारंनिए बैए बगीयारमां अध्ययनने विषे मो मार्ग को ते मोने तो जे कुमार्ग मूकीने सुमार्गने पडिवजे ते अंगीकार करे माटे मार्ग प्रतिपत्ति चारित्रिये कुमार्गने परिहरको ए अधिकारे बारमो अध्ययन प्रारंनिये बैए. चत्तारि समोसरणाणिमाणि, पावाड्या जाई पढोवयंति ॥ कि रियं किरियं विणियंति तश्यं, अन्नाण माहंसु चचमेव ॥ १ ॥ मायाता कुसलावि संता, असं वाणो वितिगिचतिन्ना ॥ कोविया या आकोवियेदि, अणावीत्तु मुसं वयंति ॥ २ ॥ अर्थ - ( चत्ता रिसमोसरणाणिमाणि के० ) ए आागल वखाराशे ते चार प्रकारना समोसरण एटले परतीर्थिकनो समुदाय जालवो ते ( पावाडयाजापुढोवदंति के ० ) प्रावाक एटले कुवादि ते जुएं जुडुं बोलेले ते केवीरीते तोके एकवादि ( किरियं के० ) क्रियानेज सफल कहे. तथा बीजो वादि ( प्र किरियं के० ) प्रक्रियानेज सफल कहे (वियिंतितयं के० ) त्रीजोवादि विनयज प्रधानले एम बोलेले ( धन्नारामा gaana ho ) न्यवली चोथो अज्ञानवादि ते प्रज्ञाननेज प्रधान पणे मानेले ॥ १ ॥ हवें पूर्वोक्त चारे वादिमाना सर्व प्रकारे संबंध प्रजापि ज्ञातिक एवा जे ज्ञानवादि तेनेज पहेला कहेते. (मालियाता कुसला विसंता के ० ) ते ज्ञानवा दि ज्ञानी बता एम कहेबेजे यमेज पंक्ति बैयें एम मानेले परंतु ते ( संया के ० ) संबंधनापी जाणवा ते ( पोविति गिनतिन्ना के० ) चित्तनीजे चांति तेथकी तस्या नथी माटे मृषावादि जावा ते अज्ञानवादि ( कोविया खादुकोवियेहिं के० ) सम्यक् धर्म प्ररूपवाने निपुण एटले साक्षात् सत्यधर्मनुं ज्ञान जाणवाने असमर्थ माटे ए कोविद बे तो एना समीपे सांनले एवा जे एमना शिष्य तेपण कोविद एटले मूर्ख जाणवा जेमाटे ते एवं संबंध वचन बोलेने के ज्ञान एज श्रेयले तो एवं ते मनुं बोलवु जेबे तेने मूर्खज मान्य करेबे || सरिसासरिसेहिंरचंति इतिवचनात् एम ते ( श्रावीत्तुमुसंवयंति के० ) अनालोची थका सर्वकाल मृपाज बोलेले. ॥ २ ॥ || दीपिका- सांप्रतं द्वादशमारज्यते । पूर्व मार्गनक्तः सच कुमार्गपरित्यागात्सम्यग्न वतीति इह कुमार्गत्यागउच्यते । यथा ( चत्तारित्ति) चत्वारि समवसरणानि परतीर्थि For Private Personal Use Only Page #476 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीये सूत्रकृतांगे प्रथम श्रुतस्कंधे द्वादशमध्ययनं . कान्युपगमसमूहरूपाणि इमानि यानि प्रावाडकाः परतीर्थिकाः पृथक् पृथक् वदंति । क्रियामस्तीत्यादिकां वदतीति क्रियावादिनः १ व्यक्रियां नास्तीत्यादिकां वदंतीत्यक्रिया वादिनः २ तृतीयावैनयिकाः ३ चतुर्थास्त्वज्ञानिकाः ४ इमानि चत्वारि समवसरणान्यु च्यं ॥ १ ॥ तेषामज्ञानिकाएव सर्वापलापिनस्तानेवादावाह । ( मालीति ) य ज्ञानिकास्तावदादौ प्रदश्यते । यज्ञानिकाः किल वयं कुशलाइति वादिनोपि संस्तुताय संबुद्धः प्रतएव विचिकित्सा चित्तशुद्धिश्वित्तचांतिस्तां न तीर्णानातिक्रांताः । तथाहि । केचित्सर्वज्ञं मन्यते केचित्तं निषेधति एके सर्वगतमात्मानं वदत्यन्ये देहमात्रमपरे अंगु ठपर्वमात्रं । केचित् श्यामाकतंडुलमात्रमन्ये मूर्तममूर्त्त हृदयमध्यवर्तिनं ललाट स्थित मि त्यादि । एषामेकवाक्यता कथं स्यात् । नचातिशयज्ञानी कश्चिदस्ति यद्वाक्यं प्रमाणीक यते । तथा ज्ञानवतां प्रमादोबदुदोषः । ततोवरमज्ञानमेवेति वदंतश्चित्तत्रांतिं नातिक्रां तायकोविदाः सम्यकपरिज्ञान विकलाय को विदेभ्यः स्व शिष्येन्याहुः । तथा तेऽननुवि चिंत्य विचिंत्य भाषणान्मृषाऽसत्यं वदंति ॥ २ ॥ ४४६ , ॥ टीका--उक्तमेकादशमध्ययनं । सांप्रतं द्वादशमारज्यते । यस्य चायमनिसंबंधः । इ हानंतराध्ययने मार्गोनिहितः सच कुमार्गव्युदासेन सम्यग्मार्गतां प्रतिपाद्यतेऽतः कुमार्गव्यु दासं चिकीर्षुणा तत्स्वरूपमव गंतव्यमित्यतस्तत्स्वरूपनिरूपणार्थमिदमध्ययनमायातमस्य चोपक्रमादीनि चत्वार्यनुयोग द्वाराणि । तत्रोपक्रमांतर्गतोर्थाधिकारोऽयं । तद्यथा । कुंमा निधायिनां क्रियाक्रियाज्ञानिवैनयिकानां चत्वारि समवसरणानीह प्रतिपाद्यंते । नाम निष्पन्ने तु निछेपे समवसरणमित्येतन्नामनिदेपार्थं निर्युक्तिकदाह । समवसरणंमिचनकं सचित्ताचित्तमीसगं दवे ॥ खेत्तंमि जंमि खेत्ते, काले जं जंमि कालंमि ' ॥ १८ ॥ ( समवस रणमित्यादि) समवसरण मिति सृगतावित्येतस्य धातोः समवोपसर्गपूर्वस्य ल्युडंतस्य रू पं । सम्यगेको नावेनावसरणमेकत्रगमनं मेलापकः समवसरणं तस्मिन्नपि केवलं स माधौ षडियोनामादिको निदेपस्तत्रापि नामस्थापने मे इव्यविषयं पुनः समवसरणं नोयागमतो शरीर नव्यशरीरव्यतिरिक्तं सचित्ता चित्तमिश्रनेदात्रिविधं । सचित्तमपि दिप दचतुष्पदापदनेदात्रिविधमेव । तत्र द्विपदानां साधुप्रनृतीनां तीर्थरुजन्म निष्क्रमणप्रदे शादौ मेलापकः । चतुष्पदादीनां गवादीनां निपानप्रदेशादी | अपदानां तु वृक्षादीनां स्वतोनास्ति समवसरणं विवक्षया तु काननादौ नवत्यपि । यचित्तानां तु व्यणुकाद्य aratri तथा मिश्रणां सेनादीनां समवसरणसप्रावोऽवगंतव्यइति । क्षेत्रसमवसरणं तु परमार्थतोनास्ति विवया तु यत्र द्विपदादयः समवसति व्याख्यायते च समवसरणं यत्र तत्त्रप्राधान्यादिदमुच्यते । एवं कालसमवसरणमपि इष्टव्यमिति । इदानीं नाव For Private Personal Use Only Page #477 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रायधनपतसिंघ बादाउरका जैनागम संग्रह नाग उसरा. ४४ समवसरणमधिकृत्याह । “ नावसमोसरणं पुण, गायत्वं विमि नामि ॥ अहवा वि किरिय अकिरिया, अन्नाणी नेव चेणश्या ॥ १४ ॥ (नावसमवसरणमित्यादि) नावा नामौदयिकादीनां समवसरणमेकत्र मेलकोनावसमवसरणं । तत्रौदायिकोनावएकविंशति नेदः । तद्यथा । गतिश्चतुर्धा । कषायाश्चतुर्विधाः। एवं लिंगं त्रिविधं । मिथ्यात्वाज्ञानाऽसं यतत्वाऽसि त्वानि प्रत्येकमेकैक विधानिालेश्याः कृमादिनेदेन षड्रिधानवंति । योपशमि कोविविधः । सम्यक्त्वचारित्रोपशमनेदात् । दायोपशमिकोप्यष्टादशनेदनिन्नः। तद्यथा। ज्ञानं मतिश्रुतावधिमनःपर्यायनेदाच्चतुर्धा । अज्ञानं मत्यझानश्रुताज्ञानविनंगनेदात्रिवि धं । दर्शन चकुरवधिदर्शननेदात्रिविधमेव । लब्धिानलाननोगोपनोगवीर्यजेदात्पं चधा । सम्यक्त्वचारित्रसंयमासंयमाःप्रत्येकमेकप्रकाराइति । दायिकोनवप्रकारः तद्यथा। केवलज्ञानं केवलदर्शनं दानादिलब्धयःपंच सम्यक्त्वं चारित्रं चेति।जीवत्वनव्यत्वानव्यत्व नेदात्पारिणामिकस्त्रिविधः।सान्निपातिकस्तु वित्रिचतुःपंचकसंयोगेर्नवति । तत्र किसंयो गः संसिक्षस्य दायिकपारिणामिकनाव क्ष्यसनादवगंतव्यः। त्रिकसंयोगस्तु मिथ्यावृष्टि सम्यग्दृष्ट्यविरतानामौदयिकदायोपशमिकपारिणामिकनावसनावादवगंतव्यः। तथा न वस्थकेवलिनोप्यौदयिकदायिकपारिणमिकसन्नावाहिशेयति । चतुष्कसंयोगोपि दायि कसम्यग्दृष्टीनामौदायिकदायिकदायोपश मिकपारिणामिकनावसनावात्तथोपशमिकसम्य ग्दृष्टीनामौदयिकोपशमिकदायोपशमिकपारिणामिकसनावाञ्चेति । पंचकसंयोगस्तु दायि कसम्यग्दृष्टीनामुपशमश्रेण्यां समस्तोपशांतचारित्रमोहानां नावपंचकसन्नावाहिशेयइति । तदेवं नावानां दिकत्रिकचतुष्कपंचकसंयोगात्संनविनः सान्निपातिकनेदाः षड्जवं त्येतएव त्रिकसंयोगचतुष्कसंयोगगतिनेदारपंचदशधा प्रदेशांतरेऽनिहिताइति । पड्डिधे नावे नावसमवसरणं नियुक्तिकदेव दर्शयति । क्रियां जीवादिपदार्थोस्तीत्यादिकां वदितुं शीलं येषां ते क्रियावादिनः । एतविपर्यस्ताय क्रियावादिनस्तथा शानिनोझान निन्हववादिनस्तथा वैनयिकाविनयेन चरति तत्प्रयोजनावा वैनयिकाः । एषां चतु मपि सप्तनेदानामादेपं कृत्वा यत्र विदेपः क्रियते तनावसमवसरणमित्येतच स्वयमेव नियुक्तिकरोंऽत्यगाथया कथयिष्यति । सांप्रतमेतेषामेवानिधानान्वर्थतादर्श नहारेण स्वरूपमाविष्कुर्वन्नाह । “अबित्ति किरियवादी, वयंति पबियकि रियवा दीया ॥ अमाणी यमाणं, विणत्ता वेणश्यवादी” ॥ २० ॥ (अजित्तीत्यादि) जीवादिसनावपदार्थोस्त्येवेत्येवं सावधारण क्रियान्युपगमोयेषां ते अस्तीति क्रियावादि नस्ते चैवंवादित्वान्मिध्यादृष्टयः । तथाहि । यदि जीवोस्त्येवेत्येवमन्युपगम्यते ततः सावधारणत्वान्न कथंचिन्नास्तीत्यतः स्वरूपसत्तावत्पररूपापत्तिरिति स्यादेवंचनाने जगत् स्यानचैतदृष्टमिष्टं वा । तथा नास्त्येव जीवादिकः पदार्थश्त्येवं वादिनोऽक्रियावादिनस्ते Page #478 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीये सूत्रकृतांगे प्रथम श्रुतस्कंधे द्वादशमध्ययनं . प्यसद्भूतार्थप्रतिपादना न्मिय्यादृष्टयएव । तथा कांतेन जीवास्तित्वप्रतिषेधे कर्तुरनावा नास्तीत्येतस्यापि प्रतिषेधस्यानावस्तदनावाच्च सर्वास्तित्वमनिवारितमिति ॥ तथा न ज्ञा नमज्ञानं तद्यते येषां ते ज्ञानिनस्ते ह्यज्ञानमेव श्रेयइत्येवं वदंत्येतेपि मिथ्यादृष्टयएव । तथा ज्ञानमेव श्रेयइत्येतदपि न ज्ञानमृतेन पितुं पार्यते तदनिधानाच्चावश्यं ज्ञानम युपगतं तैरिति । तथा वैनयिका विनयादेव केवलात्स्वर्गमोदावाप्तिमनिल पंतो मिथ्याह टयोयतोन ज्ञानक्रियान्यामंतरेण मोहावाप्तिरिति । एषां च क्रियावाद्यादीनां स्वरूपं त निराकरणं चाचारटीकायां विस्तरेण प्रतिपादितमिति नेह प्रतन्यते । सांप्रतमेतेषां नेद संख्या निरूपणार्थमाह । “सियसयं किरियाएं, यकिरियाणं च होइ चुलसीति ॥ खना पियसतही, वेश्याएं च बत्तीसा.” ॥ २१ ॥ ( सियेत्यादि ) क्रियावादिनामशीत्यधि कं शतं जवति तच्चानया प्रक्रियया । तद्यथा । जीवादयोनव पदार्थाः परिपाट्या स्थाप्यं ते । तदधः स्वतः परतइति नेद ६यं ततोप्यधोनित्यानित्यजेद ६यं ततोप्यधस्तात्परिपाट्या कालस्वनावनियतीश्वरात्मपदानि पंच व्यवस्थाप्यंते । ततश्चैवं चार पिकाप्रक्रमः । तद्य था । यस्ति जीवः स्वतोनित्यः कालतः । तथाऽस्ति जीवः स्वतोऽनित्यः कालतएव । ए वं परतोषि जंग इयं । सर्वेपि च चत्वारः कालेन लब्धाः । स्वनावनियतीश्वरात्मपदान्य पि प्रत्येकं चत्वारएव लनंते । ततश्च पंचापि चतुष्ककाविंशतिर्नवंति । साथि जीवपदा न लब्धा । एवमजीवादयोप्यष्टौ प्रत्येकं विंशतिं जनंते । ततश्च नवविंशतयोमीलि ताः क्रियावादिनामशीत्युत्तरशतं भवतीति । इदानीमक्रियावादिनां नसंत्येव जीवादयः पदार्थाइत्येवमन्युपगमवतामनेनोपायेन चतुरशीतिरवगंतव्या । तद्यथा । जीवादीन् प दार्थान् सप्तानिलिख्य तदधः स्वपरजेंद ६यं व्यवस्थाप्यं । ततोप्यधः कालयवानियति स्वेश्वरात्मपदानि षड्व्यवस्थाप्यानि । जंगकानयनोपायस्त्वयं । नास्ति जीवः स्वतः कालतः । तथा नास्ति जीवः परतः कालतः । एवं यदृच्वानियतिस्वनावेश्वरात्मनिः प्र त्येकं धौधौ जंगको लच्येते । सर्वेपि द्वादश । तेऽपि च जीवादिपदार्थसप्तकेन गुणिता चतुरशीतिरिति । तथाचोक्तं । कालयदृष्ठानिय तिस्वनावेश्वरात्मतश्चतुरशीतिः । नास्तिक वादिगणमते न संति नावाः स्वपरसंस्थाः । सांप्रतमज्ञानिकानामज्ञानादेव विवक्षितका 1 ४४८ सिद्धिमतां ज्ञानं तु सदपि निष्फलं बहुदोषत्वाचेत्येवमन्युपगमवतां सप्तषष्टिरनेनो पायेनावगंतव्या । जीवाजीवादीन् नव पदार्थान् परिपाट्या व्यवस्थाप्य तदधोऽमी सप्त जंगका ः संस्थाप्याः । सत् असत् सदसत् यवक्तव्यं सदवक्तव्यं यदवक्तव्यं सद सदवक्तव्यमिति । अनिलापस्त्वयं । सन् जीवः कोवेत्ति किंवा तेन ज्ञातेन १ सन् जीवः कोवेत्ति किंवा तेन ज्ञातेन, १ सदसन जीवः कोवेत्ति किंवा तेन ज्ञातेन ३ व व्यजीवः कोवेत्ति किंवा तेन ज्ञातेन व सदवक्तव्योजीवः कोवेत्ति किंवा तेन ज्ञातेत ५ For Private Personal Use Only Page #479 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राय धनपतसिंघ बाहादुरका जैनागम संग्रह नाग दुसरा. ୫୫୮ सदवक्तव्योजीवः कोवेत्ति किंवातेन ज्ञातेन ६ सदसदवक्तव्योजीवः कोवेत्ति किंवातेन ज्ञातेन ७ एवमजीवादिष्वपि सप्त जंगकाः । सर्वेपि मिलितास्त्रिपष्टिस्तथाऽपरे ऽमी च त्वारोचंगकाः । तद्यथा । सती जावोत्पत्तिः कोवेत्ति किंवा तया ज्ञातया १ असती जावोत्पत्तिः कोवेत्ति किंवा तया ज्ञातया २ सदसती जावोत्पत्तिः कोवेत्ति किंवा तया ज्ञा तया ३ यवक्तव्या नावोत्पत्तिः कोवेत्ति किंवा तया ज्ञातया ४ सर्वेपि सप्तषष्टिरित्युत्तरं जंगकत्रयमुत्पन्ननावावयवोपेदमिह नावोत्पत्तौ न संभवतीति नोपन्यस्तं । उक्तंच ज्ञानिकवादिमतं नव जीवादीन् सदादिसप्तविधान ॥ जावोत्पत्तिः सदसदेधा वाच्या च कोवेति ॥ १ ॥ इदानीं वैनयिकानां विनयादेव केवलात्परलोकमपीवतां द्वात्रिंशदनेन प्रक्रमेण योज्याः । तद्यथा । सुरनृपतियतिज्ञा निस्थविराधममातृपितृषु मनसा वाचा कायेन दानेन चतुर्विधो विनयोविधेयः । सर्वेष्यष्टौ चतुष्ककामिलिता द्वात्रिंशदिति । उक्तं च वैनयिकमतं विनयश्चेतोवाक्कायदानतः कार्यः । सुरनृपतिय तिज्ञा निस्थविराधम मातृपितृषु सदा ॥ १ ॥ सर्वे प्येते क्रियाज्ञा निवैनयिकवादिनेदा एकीकृतास्त्रीणि त्रिष धिकानि प्रावाsकमतशतानि नवंति । तदेवंवादिनां मतभेदसंख्यां प्रदर्याऽधुना ते पामध्ययनोपयोगित्वं दर्शयितुमाह । " तेसिं मताणुमएवं पन्नवणावन्निया इह्यणे ॥ सप्तावपिष्ठयां, समोसरणमादु तेषं तु " ॥ २२ ॥ ( ते सिंमताणुम ए इत्यादि ) तेषां पूर्वोक्तवादिनां मतमनिप्रायस्तेन यदनुमर्त पछीकृतं तेन पछीकतेन पछीकताश्रयणेन प्र ज्ञापना प्ररूपणा वर्णिता प्रतिपादिता इहास्मिन्नध्ययने गणधरैः । किमर्थमिति दर्श यति । तेषां यः सद्भावः परमार्थस्तस्य निश्चयो निर्णयस्तदर्थं तेनैव कारणेनेदमध्ययनं सम वसरणाख्यमा दुर्गंधराः । तथाहि । वादिनां सम्यगवसरणं मेलापक स्तन्मत निश्चयार्थ मस्मिन्नध्ययने क्रियतइत्यतः समवसरणाख्यमिदमध्ययनं क्रियते । इदानीं तेषां सम्यग् मिथ्यात्ववादित्वं विभागेन यथा भवति तथा दर्शयितुमाह । " सम्मदिट्ठी किरिया, वा दीमा सगा वाई ॥ जहि कण मिळवाय, सेवहवायं इमं सवं ॥ २३ ॥ ( सम्मदि हीत्यादि) सम्यगविपरीता दृष्टिर्दर्शनं पदार्थपरिवित्तिर्यस्यासौं सम्यग्दृष्टिः । कोसावित्या ह | क्रियामस्तीत्येवंभूतां वदितुं शीलमस्येति क्रियावादी । त्रच क्रियावादीत्येतदि त्तिकिरियवादीत्यनेन प्राक् प्रसाधितं सदनूद्यसम्यग्दृष्टित्वं विधीयते तस्याऽसि दत्वादिति । तथाहि । यस्ति लोकालोकविभागः । वस्त्यात्मा यस्ति पुण्यपापविभागः । यस्ति त त्फलं स्वर्ग नरकावाप्तिलक्षणं । व्यस्ति कालः कारणत्वेनाशेषस्य जगतः प्रभववृद्धिस्थि तिविनाशेषु साध्येषु तथा शीतोष्मवर्षावनस्पतिपुष्पफलादिषु चेति । तथाचोक्तं । का लः पचति नूतानीत्यादि । तथास्तिस्वभावोपि करणत्वेनाशेषस्य जगतः स्वोनावः स्वनाव इति कृत्वा तेनहि जीवाजीवनव्य त्वमूर्तत्वानां स्वरूपानुविधानात् । तथा धर्माधर्माका 14.9 For Private Personal Use Only Page #480 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५० द्वितीये सूत्रकृतांगे प्रथम श्रुतस्कंधे द्वादशमध्ययनं. शकालादीनां च गतिस्थित्यवगाह परत्वापरत्वादिस्वरूपापादनादिति । तथा चोक्तं । कः internet | तथा नियतिरपि कारणत्वेनाश्रीयते । तथातथा पदार्थानां नियते रेव नियतत्वात् । तथाचोक्तं । प्राप्तव्यो नियतिबलाश्रयेणेत्यादि । तथा पुरा कृतं यच्च नानमिष्टानिष्टफलकारणं । तथा चोक्तं । यथायथा पूर्वकृतस्य कर्मणः फलं निधान स्थमिहोपतिष्ठते ॥ तथातथा पूर्वकृतानुसारिणी प्रदीपहस्तेव मतिः प्रवर्तते ॥ १ ॥ तथा । स्वकर्मणा युक्तएव सर्वोद्युत्पद्यते जनः ॥ सयथाऽकृष्यते तेन न यथा स्वयमि तीत्यादि । तथा पुरुषकारोपि कारणं यस्मान्नपुरुषकारमंतरेण किंचित्सिध्यति । तथा चोक्तं । न दैवमिति संचिंत्य त्यजेद्यममात्मनः ॥ अनुद्यमेन कस्तैलं तिजेच्यः प्राप्तुमर्हति ॥ १ ॥ तथा । उद्यमाच्चारुचित्रांग नरोनाणि पश्यति ॥ उयमा मिकीटोपि निनति महतोडुमान् ॥ २ ॥ तदेवं सर्वानपि कालादीन् कारणत्वेनान्युपगन् तथात्म पुण्यपापपरलोकादिकं चेवन् क्रियावादी सम्यग्दृष्टि त्वेनान्युपगंतव्यः । शेषकास्तु वादाय क्रियावादाज्ञानवाद वैनयिकवादा मिथ्यावादाइ त्येवं इष्टव्याः । तथाहि । क्रियावाद्यत्यंतनास्तिकोऽध्यक्ष सिदं जीवाजीवादिपदा जात पन्हुवन मिष्यादृष्टिरेव नवति । प्रज्ञानवादी तु सति मत्यादिके हेयोपादे प्रदर्शके ज्ञानपंचके ऽज्ञानमेव श्रेयइत्येवं वदन् कथं नोन्मत्तः स्यात्तथा विनयवाद्य पि विनयादेव केवलात् क्रियासाध्यां सिद्धिमिच्छन्नपकर्णयितव्यः । तदेवं विपरीतार्था aareared मिथ्यादृष्टयो ऽवगंतव्याः । ननुच क्रियावाद्यप्यशीत्युत्तरशतनेदोनवति तत्रतत्र प्रदेशे कालादीनन्युपगवन्नैव मिथ्यावादित्वेनोपन्यस्तस्तत्कथमिह सम्यग्दृष्टित्वे नोच्यतइति । उच्यते । सतत्रास्त्येव जीवइत्येवं सावधारणतयाऽन्युपगमं कुर्वन का लएवैकः सर्वस्यास्य जगतः कारणं तथा स्वनावएव नियतिरेव पूर्वकृतमेव पुरुषकारएवे त्येवमपर निरपेक्षतये कांतेन कालादीनां कारणत्वेनाश्रयणान्मिथ्यात्वं । तथाहि । स्त्येव जीवइत्येवमस्तिना सह जीवस्य सामानाधिकरस्यात् । यद्यदस्ति तत्तजीवइति प्रा ततो निरवधारणपसमाश्रयणादिह सम्यक्त्वमनिहितं । तथा कालादीनामपि स मुदितानां परस्परसव्यपेक्षाणां कारणत्वेनेहाश्रयणात्सम्यक्त्वमिति । ननुच कथं कालादीनां प्रत्येकं निरपेक्षाणां मिथ्यात्वस्वनावत्वे सति समुदितानां सम्यक्त्वसद्भावः । नहि यत्प्रत्येकं नास्ति तत्समुदायेपि नवितुमर्हति सिकता तैलवत् । नैतदस्ति प्रत्येकं प्रत्येकं पद्मरागादिमणिष्व विद्यमानापि रत्नावली समुदाये जवंती दृष्टा । नच हप्टे Sनुपपन्नं नामेति यत्किंचिदेतत् । तथाचोक्तं । कालो सहावलियई, पुढकथं पुरिसकारणे गंता ॥ मिळतं ते चेव उ, समास होंति संमत्तं ॥ १ ॥ सवे विय कालाइ इय समुदा ये साहगा लिया || जुत्तियएमेवय, सम्मं सहस्स ककस्स ॥ २ ॥ नहि काला For Private Personal Use Only Page #481 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राय धनपतसिंघ बाहारका जैनागम संग्रह भाग दुसरा. ४५१ दी हिंतो, केवलएहिं तु जायए किंचि ॥ इह मुग्गरंधणादिवि, ता सचे समुदिता हेक ॥ ३ ॥ जह रोगलरकणगुणा, वेरुलियादी मणी विसंजुत्ता ॥ रयणावजीवएसं, ण लहं ति मावि ॥ ४ ॥ तह यियवादसुविणि, डियावि प्रणालपरक निरवेरका ॥ म्मदं सणस, सधेवि एणयापाविति ॥ ५ ॥ जह पुण तेचेव मणी, जहा गुणविसे नागपडिबा || रयणावलित्तिनगर, चयंतिपाडिक्कसमा ॥ ६ ॥ तह सवे एयवा या, जहापुरूव विनित्तवत्तवा ॥ सम्म सणस, वनंति एा विसेससा ॥ ७ ॥ तम्हा मिठी, सवे विलया सपरकपडिबा || मोमनिस्सिया पुरा, हवंति सम्म तसावा ॥ ८ ॥ यतएवं तस्मात्त्यक्त्वा मिथ्यात्ववादं कालादिप्रत्येकैकांतकारणरूपं से वध्वमंगीकुरुध्वं सम्यग्वादं परस्परसव्यपेक्षकालादिकारणरूपमिममिति मयोक्तं प्रत्याव सन्नं सत्यमवितथमिति । गतोनाम निष्पन्नो निदेषः । सांप्रतं सूत्रानुगमेऽस्खलितादिगुणो पेतं सूत्रमुन्चारयितव्यं तचेदं । ( चत्तारीत्यादि ) यस्य च प्राक्तनाध्ययनेन सहायं संबं धः । तद्यथा । साधुना प्रतिपन्ननावमार्गेण कुमार्गाश्रिताः परवादिनः सम्यक्परिज्ञाय प रिहर्तव्यास्तत्स्वरूपाविष्करणं चानेनाध्ययनेनोपदिश्यते इत्यनंतर सूत्रस्यानेन सूत्रेण सह संबंधोयं । तद्यथा । संवृतो महाप्रज्ञोवीरोदत्तेषणां चरन्ननिनिर्वृतः सन् मृत्युकालमनिकां देदेतत्व लिनोनाषितं । तथा परतीर्थिकपरिहारं च कुर्यात् एतच्च केवलिनो मतं । तस्तत्परिहारार्थं तत्स्वरूपनिरूपणमनेन क्रियते । चत्तारीति संख्यापदमपर संख्या निवृत्त्य समवसरणानि परतीर्थिकान्युपगमसमूहरूपाणि यानि प्रावाकाः पृथग्वदंति तानि चामूनि अन्वर्थाभिधायिनिः संज्ञापदैर्निर्दिश्यते । तद्यथा । क्रियामस्तीत्यादिकां वदितुं शीनं येषां ते क्रियावादिनस्तथाऽक्रियां नास्तीत्यादिकां वदितुं शीलं येषां तेऽक्रिया वादिनस्तथा तृतीयावैन विकाश्चतुर्थास्त्वज्ञानिकाइति ॥ १ ॥ तदेवं क्रियाऽक्रियावैनयि काज्ञानवादिनः सामान्येन प्रदश्यधुना तहूपणार्थं तन्मतोपन्यासं पश्चानुपूर्व्याप्यस्ती त्यतः पश्चानुपूर्व्याकर्तुमाह । यदि चैतेषामज्ञानिकाएव सर्वापला पितयाऽत्यंतम संब-य ततावादावाद । (मालियाइत्यादि) प्रज्ञानं विद्यते येषामज्ञानेन वा चरतीत्य ज्ञानिकाः । यज्ञानिकावा तावत्प्रदश्यते । ते चाज्ञानिकाः किल वयं कुशलाइत्येवं वादि नोपि संतो संस्तुताज्ञानमेव श्रेयइत्येवं वादितया असंबद्धाः । संस्तुतत्वादेव विचिकि त्सा चित्तवितिश्चित्तत्रांतिः संशीतिस्तां न तीर्णानातिक्रांताः । तथाहि । ते ऊचुर्य एते झानिनस्ते परस्परविरुवादितया प्रसंबायसंस्तुतत्वादेव विचिकित्सान यथार्थवा दिनोजवंति । तथा ह्येके सर्वगतमात्मानं वदंति तथान्ये सर्वगतं यपरे अंगुष्ठपर्वमा त्रं केचन श्यामाकतंडुल मात्रमन्ये मूर्तममूर्त हृदयमध्यवर्तिनं ललाटव्यवस्थितमित्या द्यात्मपदार्थएव सर्वपदार्थ पुरःसरे तेषां नैकवाक्यता । नचातिशयज्ञानी कश्चिदस्तीति य For Private Personal Use Only Page #482 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५२ वितीये सूत्रकृतांगे प्रथम श्रुतस्कंधे शादशमध्ययनं. वाक्यं प्रमाणीक्रियेत । न चासौ विद्यमानोप्युपलक्ष्यते ऽग्दिर्शिना । नासर्वज्ञः सर्व जानातीति वचनात् । तथाचोक्तं । सर्वज्ञोसाविति ह्येतत्तत्कालेऽपि बुनुत्सुनिः॥ तज्ज्ञान ज्ञेय विज्ञानशून्यैर्विज्ञायते कथं॥१॥नच तस्य सम्यक् तपायपरिझानानावात्संनवःसंनवा नावश्चेतरेतराश्रयत्वात्।तथाहि । न विशिष्टपरिझानमृते तदवाप्युपायपरिझानमुपायमंतरे ण नचोपेयस्य विशिष्टपरिझानस्यावाप्तिरिति । नच झानं शेयस्य स्वरूपं परित्तुमलं । त थाहि। यत्किमप्युपलन्यते तस्यार्वाग्मध्यपरनागै व्यं । तत्राग्निावस्यवोपलब्धेर्नेतर योस्तेनैव व्यवहितत्वात् । अग्निागस्यापि नागत्रयकल्पनात्तत्सर्वारातीय नागपरिकल्प नया परमाणुपर्यवसानता परमाणोश्च स्वानाविकविप्रकृष्टत्वादग्दिर्श निनां नोपलब्धि रिति । तदेवं सर्वज्ञस्यानावादसर्वज्ञस्य च यथावस्थितवस्तुस्वरूपापरिदात्सर्ववादि नां च परस्पर विरोधेन पदार्थस्वरूपान्युपगमात् यथोत्तरपरिझानिनां प्रमादवतां बदुतर दोषसंनवादज्ञानमेव श्रेयः। तथाहि । यद्यज्ञानवान् कथंचित्पादेन शिरसि हन्यात् तथापि चित्तशुधेन तथाविधदोषानुषंगी स्यादित्येवमझा निनएवंवादिनः संतोऽसं बचानचैवं विधां चित्त विप्लतिं वितीर्णाति । तत्रैवं वादिनस्ते अज्ञानिकाअकोविदा अनिपुणाः सम्यक् परिझानविकलाश्त्यवगंतव्याः । तथाहि । यत्तरनिहितं झानवादि नः परस्परविरुवार्थवादितया न यथार्थवादिनति तनवत्वसर्वप्रणीतागमान्युपगम वादिनामयथार्थवादित्वं । नचान्युपगमवादाएव बाधायै प्रकल्प्यंते । सर्वज्ञप्रणीतागमान्य पगमवादिनां तु न कचित्परस्परतोविरोधः सर्वज्ञत्वान्यथानुपपत्तेरिति । तथाहि । प्रदी णाऽशेषावरणतया रागषमोहानामनृतकारणानामजावान्न ताक्यमयथार्थमित्येवं तत्प्रणीतागमवतां न विरोधवादित्व मिति । ननुच स्यादेतद्यदि सर्वज्ञः कश्चित्स्यान्नचासौ संनवतीत्युक्तं प्राक।सत्यमुक्तमयुक्तं तूक्तं । तथाहि । यत्तावउक्तं नचासौ विद्यमानोप्युपल दयते ऽर्वाग्दर्शिनिस्तदयुक्तं।यतोयद्यपि परचेतोवृत्तीनां पुरन्वयत्वात्सरागावीतरागाश्व चेष्टं ते वीतरागाः सरागाश्वेत्यतः प्रत्यक्षणानुपलब्धिस्तथापि संनवानुमानस्य सनावातब्दाध कप्रमाणानावाच तदस्तित्वमनिवार्य । संजवानुमानं विदं व्याकरणादिना शास्त्राच्यासेन संक्रियमाणायाः प्रझायाझानातिशयोझेयावगमं प्रत्युपलब्धस्तदत्र कश्चित्तथानूतान्या सवशात्सर्वशोपि स्यादिति । नच तदनावसाधकं प्रमाणमस्ति । तथाहि । न तावदा ग्दर्शिनिः प्रत्यकेण सर्वज्ञानावः साधयितुं शक्यस्तस्य हि तज्ज्ञानझेय विज्ञानशून्यत्वादशू न्यत्वान्युपगमेच सर्वज्ञत्वापत्तिरिति । नाप्यनुमानेन तदव्यनिचा रिलिंगानावादिति । ना प्यनुमानेन सर्वज्ञानावः साध्यते । तस्य सादृश्यबलेन प्रवृत्तेः । नच सर्वज्ञानावे साध्ये ताग्विधं सादृश्यमस्ति येनासौ सिध्यतीति । नाप्यर्थ निष्पत्त्या तस्याः प्रत्यक्षादिप्रमा पपूर्वकत्वेन प्रवृत्तेः । प्रत्यक्षादीनां च तत्साधकत्वेनाप्रवर्तमानात्तस्याप्यप्रवृत्तिः । ना Page #483 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रायधनपतसिंघ बादाउरका जैनागम संग्रह नाग उसरा. ४५३ प्यागमेन तस्य सर्वसाधकत्वेनापि दर्शनानप्रमाणपंचकानावरूपेणानावेन सर्वज्ञानावः सिध्यति । तथाहि । सर्वत्र सर्वदा न संनवति तदाहकप्रमाणमित्येतदर्वाग्दर्शिनोव तुं न युज्यते तेन हि देशकालविरुष्टानां पुरुषाणां यविज्ञानं तस्य ग्रहीतुमशक्यत्वा तग्रहणे वा तस्यैव सर्वइत्वापत्तेः । नचार्वाग्दर्शिनां झानं निवर्तमानं सर्वज्ञानावं नाव यति तस्याऽव्यापकत्वात् । नचाव्यापकव्यावृत्त्या पदार्थव्यावृत्तिर्युक्तेति । नच वस्त्वंतर विज्ञानरूपोनावः सर्वज्ञानावसाधनायालं । वस्त्वंतरसर्वझयोरेकझानसंसर्गप्रतिबंधानावा त् । तदेवं सर्वज्ञबाधकप्रमाणानावात्संनवानुमानस्य च प्रतिपादितत्वादस्ति सर्वशस्त प्रणीतागमान्युपगमाञ्च मतनेददोषोदूरापास्तइति । तथाहि। तत्प्रणीतागमायुपगम वादिनामेकवाक्यतया शरीरमात्रव्यापी संसार्यात्मास्ति तत्रैव तजुणोपलव्धेरिति । इतरे तराश्रयदोषश्चात्र नावतरत्येव । यतो ऽन्यस्यमानायाः प्रझायाझानातिशयः स्वात्मन्यपि दृष्टोनच दृष्टेऽनुपपन्नं नामेति । यदप्यनिहितं । तद्यथा । नच झानं यस्य स्वरूपं परिजे त्तमलं सर्वत्रार्वाग्नावेनेत्यवधानात्सारातीयनागस्य च परमाणुरूपतयाऽतीयित्वादित्ये तदपि वाङ्मात्रमेव । यतः सर्वज्ञज्ञानस्य देशकालस्वनावव्यवहितानामपि ग्रहणान्ना स्ति व्यवधानसंनवः । अर्वाग्दर्शिज्ञानस्याप्यवयव दारेणाऽवयविनि प्रवृत्तेर्नास्ति व्यवधा नं । न ह्यवयवी स्वावयवैर्व्यवधीयतइति युक्तिसंगतं । अपि चाझानमेव श्रेयश्त्यत्राऽ झानमिति किमयं पर्युदासबाहोस्वित्प्रसज्यप्रतिषेधस्तत्र यदि ज्ञानादन्यदज्ञानमिति ततः पर्युदासवृत्या झानांतरमेव समाश्रितं स्यान्नाझानवादति । अथ ज्ञानं न नवतीत्यज्ञानं तुबोनीरूपोझानानावः सच सर्वसामर्थ्यरहितइति कथश्रेयानिति । अपिच झानं श्रेय इति प्रसज्यप्रतिषेधेन झानं श्रेयोनवतीति क्रियाप्रतिषेधएव कृतः स्यादेतच्चाध्यदबाधि तं । यतः सम्यगझानादर्थ परिनिय प्रवर्तमानोर्थ कियार्थी न विसंवाद्यतइति । किंचाऽ ज्ञानप्रमादव निः पादेन शिरःस्पर्शनेपि स्वल्पदोषवतां परिझायैवाझानं श्रेयइत्यन्युपगम्य ते । एवंच सति प्रत्यकएव स्यादन्युपगमविरोधोनानुमानं प्रमाणमिति । तथा तदेवं सर्वथा तेऽझानवादिनोऽकोविदाधर्मोपदेशं प्रत्य निपुणाः स्वतोऽकोविदेन्यएव स्व शिष्येन्य आदुः कथितवंतः । बांदसत्वाच्चैकवचनं सूत्रेकृतमिति । शाक्याथपि प्रायशोऽझानिका अविझोपचितं कर्मबंधं न यांतीत्येवं यतस्तेऽन्युपगमयति । तथा येच बालमत्तसुप्तादयो ऽस्पष्ट विज्ञानायबंधकाश्त्येवमन्युपगमं कुर्वति ते सर्वेप्यको विदाइष्टव्याइति । तथाऽ झानपदसमाश्रयणाचाननुविचिंत्य नाषणान्मृषा ते सदा वदंति । अनुविचिंत्य नाषणं यतोझाने सति नवति तत्पूर्वकत्वाच सत्यवादस्यातोहानानन्युपगमादनुविचिंत्य जाप पानावस्तदनावाच्च तेषां मृषावादित्वमिति ॥ २ ॥ Page #484 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५४ द्वितीये सूत्रकृतांगे प्रथम श्रुतस्कंधे द्वादशमध्ययनं . सच्चं सच्चं इति चिंतयंता, असादु साहुत्ति नदाहरंता ॥ जे मे जणा वेणड़या गे, पुधावि नाव विणईसु णाम ॥३॥ णो वसंखा इति ते दादू, हे सन नास अम्द एवं ॥ लवाव संकीय प्रणागएहि, णो किरिय मासु अकिरियवादी ॥ ४ ॥ - हवे विनयवादिने जुदा जुदा करी कहेले. ( सचंसचं इति चिंतयंता के० ) जे सा चुं तेजु एवं चिंतत्रता थका (साडुसाहुतिउदाहरंता के० ) तथा जे साधु होय तेने साधु एम कहता थका ( जेमेजला वेश्यायोगे के० ) ए पूर्वोक्त रीते जे कोइ जन एटले लोक बोजे ते लोकने विनयवादि जाणवा एटले एक विनयज मोनुं कारणले, auryat विशेष कां नथी एवीरीते बोलता जाए लोक सरखा एवाते विनयवा दि अनेक प्रकारना एटले बत्रीश प्रकारनावे ( पुहाविना वंविण सुलाम के ० ) ते विनय वादिने कोइ पुढया थकां एम कहेके ए विनयज सरवार्थसिद्धिनुं कारकले पण बी जुं कां जगत्मां श्रेय नथी एम कहे यहीं नाम शब्द संभावनायें बे ॥ ३ ॥ ( यणो वसंखाइति ते दादू के ० ) उपसंख्या एटले सम्यक् परिज्ञान ते जेने विषे नथी अर्थात् मूढमतता वा विनयवादि एम कले के ( स ननास म्हएवं के० ) अर्थ जे स्वर्ग मोहादिक तेनी प्राप्ति माराज दर्शन यकीने पण अन्य कोई दर्शनने विषे न थी, एम कहे. हवे व्यक्रियावादिनुं मत कहेबे (लवावसंकिय लागएहि के० ) जब एटले कर्म तेना अपशंकी एटले सांकणहार एवा लोकायित शाक्यादिक बौद्ध तेना दर्शनने विषे ग्राम कबे के अतीत खनागत कालवे ने वर्तमान काल नथी कारणके णिकपणाने लीधे सर्व पदार्थ लिकले एवां वचन थकी लागएहि एट जेकां कर्त्तव्य करिए ते अनागतज कहेवाय खाने कर्म करिए ते तो वर्तमान का जे होय तेज कर्मलागे तेमाटे एना मते क्रिया पण नथी एवं सिद्ध ययुं ते कारणे कि यानुं उपजावेलुं जे गुनागुन कर्मनुं बंध ते पण केवोरीते सिद्ध थाय एवीरीते ते क्रियावादि नास्तिक मतना धारक कर्मथकी नथी शंकाता एवा थका ( यो किरियमाहं सुके० ) क्रियाने कर्म बंध मानता नथी तेमाटे एने ( किरियवादी के ० ) प्रक्रियावादि कहिए ॥ दीपिका-अथ वैनयिकान्निराकुर्वन्नाह । ( सच्चमित्यादि ) सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रा पिं मोहमार्गइति सत्यमपि सत्यं मन्यमानाविनयादेव मोहइत्यसत्यमपि सत्यत या चिंततस्तथा साधुमपि विनयप्रतिपत्त्या साधुमुदाहरतः कथयतः । केते इत्या ह | ये इमे प्रत्यक्षावैनयिकानेके द्वात्रिंशद्वेदास्तेच जनेन ष्टष्टाः संतोव्यनैषुर्विनयं 1 For Private Personal Use Only Page #485 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रायधनपतसिंघ बाहादुरका जैनागम संग्रह नागडुसरा. ४थ्य ग्राहितवतो विनयादेव स्वर्गमोक्षावाप्तिरित्युक्तवंतः ॥ ३ ॥ न उपसंख्याऽनुपसंख्याऽप रिज्ञानं तयाऽज्ञानेन व्यामूढमतयस्ते वैनयिकाइति । अथ क्रियावादिमतमाह । (जवा वसंकीति ) लवकर्म तस्मादपशंकितुमपसर्तुं शीलं येषां ते लवापशं किनोलोकायतिकाना स्तिकाः शाक्यादयश्च तेषामात्मैव नास्ति कुतः क्रिया । बौदाएवमादुः । अनागतैः क गैश्च शब्दादतीतैश्च वर्तमान क्षणस्यासंग तेर्न क्रिया नापि तजनितः कर्मबंधः । तदेवम यावादिनोनास्तिकान क्रियामादुः । तथाऽक्रिययात्मा येषां सर्वव्यापितया तेप्यक्रिया वादिनः सांख्याः । तदेवं नास्तिकबौ- सांख्या ज्ञानेन एतत्पूर्वोक्तं कथितवंतः । अय. मर्थोऽस्माकमवासते । पूर्वार्धमत्रापि व्याख्यातं ॥ ४ ॥ ॥ टीका- सांप्रतं वैनयिकवादं निराचिकीर्षुः प्रक्रमते । ( सच्चमसत्रमित्यादि) स नयोहितं सत्यं परमार्थोयथावस्थितपदार्थनिरूपणं वा मोहोवा तडपायनूतोवा संय मः सत्यं तदसत्यमित्येवं विचिंतयंतोमन्यमानाएवमसत्यमपि सत्यमिति मन्यमानाः । तथाहि । सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राख्योमोक्षमार्गः सत्यस्तमसत्यत्वेन चिंतयंतो विनयादे व मोइत्येतदसत्यमपि सत्यत्वेन मन्यमानास्तथा प्रसाधुमप्य विशिष्टकर्मकारिणं वंद नादिकया विनयप्रतिपत्त्या साधु मित्येवमुदाहरतः प्रतिपादयंतोऽसम्यग्यथावस्थितधर्म स् परीक्षायुक्तिविक विनयादेव धर्मइत्येवमन्युपगमात् । कएते इत्येतदाह । ये इमे बु या प्रत्यका सन्नीकृताजनाइव प्राकृतपुरुषाइव जनाविनयेन चरंति वैनयिका विनयादेव केवलात्स्वर्गमोक्षावाप्तिरित्येवं वादिनोऽनेके बहवो द्वात्रिंशभेद निन्नत्वात्तेषां तेच विनय चारिणः केनचिर्मार्थिना ष्टष्टाः संतोऽपि शब्दादष्टष्टावा जावं परमार्थ यथार्थोपलब्धं स्वा निप्रायं वा विनयादेव स्वर्गमोक्षावाप्तिरित्येवं व्यनैषुर्विनयितवंतः सर्वदा सर्वस्य सर्वसिद्ध ये विनयं ग्रातिवंतः । नामशब्दः संभावनायां । संभाव्यतएवं विनयात्स्वकार्य सिद्धिरि ति । ततं । तस्मात्कल्याणानां सर्वेषां नाजनं विनयइति ॥ ३ ॥ किंचान्यत् (प्रणोवसंखा इत्यादि) संख्यानं संख्या परिष्वेदः । जप सामीप्येन संख्या उपसंख्या सम्यग्यथावस्थिता परिज्ञानं नोपसंख्याऽनुपसंख्या तयाऽनुपसंख्यया ऽपरिज्ञानेन व्यामूढमतयस्ते वैनयि काः स्वाग्रहयस्ता इत्येतद्यथा विनयादेव केवलात्स्वर्गमोक्षावाप्तिरित्युदाहृतवंतएतच्च ते म हामोहाच्चादिता दादुरुदाहृतवंतः । यथैवं सर्वस्य विनयप्रतिपत्त्या स्वोर्थः स्वर्गमोक्षा दि कोsस्माकमवासते खाविर्भवति प्राप्यते इति यावत् । अनुपसंख्योदाहृतिश्च तेषामेव मवतव्या । तद्यथा । ज्ञानक्रियायां मोदसङ्गावे सति तदपास्य विनयादेवैकस्मात्तदवा ह्ययुपगमादिति । यदप्युक्तं । सर्वकल्याणनाजनं तदपि सम्यग्दर्शनादिसंनवे सति विन atraorated वति नैकस्येति तदितोविनयोपेतः सर्वस्य प्रव्हतयाऽन्यत्कारण For Private Personal Use Only Page #486 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५६ विताये सूत्रकृतागे प्रथम श्रुतस्कंधे हादशमध्ययनं. मेवापादयति ततश्च विवक्षितावनासनात्तेषामेवं वादिनामझानावृतत्वमेवावशिष्यते नानिप्रेतार्थावाप्तिरित्युक्तावैनयिकाः । सांप्रतमक्रियावादिदर्शनं निरा चिकीर्षुः पश्चार्धमा द । लवं कर्म तस्मादपशंकितुमपसतु शीलं येषां ते लवापशंकिनोलोकायतिकाः शा क्यादयश्च तेषामात्मैव नास्ति कुतस्तक्रिया तऊनितोवा कर्मबंधति । उपचारमात्रेण त्वस्तिबंधः । तद्यथा। बक्षामुक्ताश्च कथ्यंते, मुष्टियंथिकपोतकाः ॥ नचान्ये इव्यतः संति, मुष्टिग्रंथिकपोतकाः ॥ १ ॥ तथा बौहानामयमन्युपगमोयथा दणिकाः सर्वसंस्काराश्त्य स्थितानां च कुतः क्रियेत्यक्रियावादित्वं योपि स्कंधपंचकान्युपगमस्तेषां सोपि संवृतमा त्रेण न परमार्थेन यतस्तेषामयमन्युपगमस्तद्यथा विचार्यमाणाः पदार्थान कथंचिदप्या त्मानं विज्ञानेन समर्पयितुमलं तथा ह्यवयवी तत्वातत्त्वान्यां विचार्यमाणोनघटा प्रांच ति । नाप्यवयवाः परमाणुपर्यवसानतयाऽतिसूक्ष्मत्वाानगोचरतां प्रतिपद्यते । विज्ञा नमपि झेयानावेनामूर्तस्य निराकारतया न स्वरूपं बिनर्ति । तथा चोक्तं । यथा यथार्था श्चिंत्यंते, विविध्यंते तथातथा ॥ यद्येतत्स्वयमर्थेन्यो,रोचते तत्र के वयमिति । प्रबन्नलो कायतिकाहि बौदास्तत्रानागतैः दणैः। चशब्दादतीतैश्च वर्तमानक्षणस्यासंगतेन किया नापिच तजनितः कर्मबंधइति । तदेवमक्रियावादिनोनास्तिकवादिनः सर्वापलापितयालवा वशंकिनः संतोनक्रियामादुस्तथा अक्रिययात्मा येषां सर्वव्यापितया तेप्यक्रियावादिनः सांख्यास्तदेवं लोकायतिकाबौ सांख्याअनुपसंख्यया अपरिझानेनेत्येतत्पूर्वोक्तमुदाहृतवं तस्तथैव तत्त्वाझानेनैवोदाहृतवंतस्तद्यथास्माकमेवमन्युपगमोर्थोऽवनासते युज्यमानको नवतीति ॥ तदेवंश्लोकपूर्वा ६ काकादिंगोलकन्यायेनाक्रियावादिमतेप्यायोज्यमिति ॥४॥ सम्मिस्सनावं व गिरागहीए,से मुम्मुई होइ अणाणुवाई॥ इम उपरकं इममेगपरकं, आहंसु बलायतणं च कम्मं ॥५॥ते एव मरकंति अबुझमाणा, विरूवरूवाणि अकिरियवाई ॥ जे मा यस्त्ता बहवे मणूसा, नमति संसारमणोवदग्गं ॥६॥ अर्थ-( सेके० ) ते लोकायिक परवादी (वगिरागहीए के ) पोतानी वाणी करी ग्रह्या अर्थने विषे पण वली पोतानेज वचने निषेध करतां थकां (सम्मिस्सनावंके) मिश्रनावनेज अंगीकार करेले एटले पोते बोलता थकाज जेनी अस्ति कहे तेनीज वली नास्ति कहे तेमज जेनी नास्ति कहे तेनीज अस्ति कहे एरीते मिश्रनाव जाणवो के मके जे नास्तिक जीवादिक पदार्थनो अनाव कहेले तेपण पोते पोताना शास्त्रे करी पोताना शिष्यने पोतानो मार्ग शोखावे के सर्व पदार्थ शून्यपणेले तेवारे पोते तथा Page #487 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राय धनपतसिंघ बाहाउरका जैनागम संग्रह नाग उसरा. ४५७ शास्त्र अने शिष्य ए क्यांले एम नविचारे तेमाटे ए असंबंध वचनना बोलनार माटे ए ने मिश्रनाव सहित जाणवा तथा सांख्यदर्शनी एम कहे के पात्मा सर्वव्यापि डे तथा सक्रिय ए पण असमंजस बोले के कारणके ए दर्शनवाला एम कहेले के प्रकृतिने वियोगें मोदडे जो एमडे तो यात्माने बंधमोदनो सन्नाव थाप्यो एम सिह थयुं का रणके प्रतिनो बंध हतो तेनो वियोग थवाथी मोद थयो एथी स्पष्ट मालम पडेले के बंध मोदनो सनाव थयो अने बंध मोदना सन्नावने लीधे आत्मा सक्रिय एवं एम नाज बोलवा उपरथी जणाय तो पोतानाज वचनथी जेनुं स्थापन कयं तेने पोता नाज वचनथी उबापेठे एरीते मिश्रनाव सर्व दर्शनोनो जाणवो ए वर्णिका मात्र ल ख्युंडे (सेमुम्मुईहोत्रणाणुवाई के०) ते अक्रियावादी आदेदेश्ने जे परवादी ते जैन मतानुसारीने अनेक हेतु दृष्टांते करी व्याकुल तो तेनो उत्तर आपवाने असमर्थ थाय मुम्मुई एटले मूक सरखो थाय अर्थात् कांइपण बोली शके नही ते दर्शनी केवो जावो तोके अनानुवादी एटले जिननाषित वचन सांजलीने पनी बोलवा असमर्थ एवो तो मौन नावनेज अंगीकार करे इत्यर्थः हवे यद्यपि ते दर्शनी जैनमतानुसारीने सन्मुख बोली नशके तथापि कदाग्रहे पड्या थका पोताना पदनुं स्थापन करे तेनीरीत कहेले. (इमंजुपरकंश्ममेगपरकंके०) एम अमारो एक पद ते एम पद जाणवो एट ले ए पदना युं वखाण करिए ए अमारा पदने त्रीजो कोई नवापी नशके एवो ए पद उत्तम अहीं पूर्वापर विरोध वचन ते नाव पालना मिश्रनाव कहेवाथी कह्यु ए परक शब्दनो अर्थ अथवा जे पोतानुं खोटुं होय तेने साचु करे तेने उत्सूत्रनाषण कर वाने लीधे उपद एटले मानवमां तथा परनवमां विमंबना थाय ए पण उपरक शब्दनो अर्थ दे तथा ते परवादि जेवारे पोची नशके तेवारे (आसुबलायतणंचकम्मं के० ) लायतन एटले बले करी बोले ते बलत्रण प्रकारना एक वाकबल, बीजो सामान्यबल यने त्रीजो उपचारबल एवां बले कर बोलीने पोतानो एक पद स्थापन करे तथा कर्म एटले एक पदादि स्थापन करवाने अर्थे बोले ॥५॥ (तेएवमरकंति के० ) ते बौदादि क परवादी सत्यमार्गने अजाणता मिथ्यात्व पमले श्रावस्या थकां असंबंध वचन बोले एवाते (अबुझमाणा के० ) तत्वने अजाणता (विरूवरूवाणिअकिरियवाई के) विरू परूप नाना प्रकारना कुशास्वनी प्ररूपणा करे एवाते अक्रियावादि नास्तिकादिक मिथ्या त्वी ने (जेमायत्ताबहवेमणूसा के० ) जेमनो मत ग्रहण करीने घणा मनुष्य मिथ्यात्वे मोह्या थका (नमंतिसंसारमणोवदग्गं के ० ) अनंत संसार परिचमण करेले ॥ ६ ॥ ॥ दीपिका-गिरा स्ववाचा स्वांगीकारेण गृहीते तस्मिन्नर्थे तस्यार्थस्य गिरा प्रतिषेधं Page #488 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५ द्वितीये सूत्रकृतांगे प्रथम श्रुतस्कंधे द्वादशमध्ययनं. कुर्वाणाः सन्मिश्री नाव मस्तित्वनास्तित्वाच्युपगमं ते नास्तिकादयः कुर्वति । वाशब्दात्प्रति धे वाच्येऽस्तित्वमेव कथयति । तथाहि । नास्तिकास्तावत्स्व शिष्येच्योजीवाद्यनावप्रति पादकं शास्त्रं वदंतानांतरीयकतयाऽत्मानं कर्तारं करणं च शास्त्रं कर्मतापन्नांश्च शिष्यान वश्य मंगीकुर्युः । सर्वशून्यत्वे त्वस्य त्रितयस्यानावान्मिश्री नावोव्यत्ययो वा स्यादेव । त था वादिः कचित्स्याहादिना सम्यग्धेतुदृष्टांतैव्र्व्याकुलीकृतः सन् ( मुम्मुईहोइत्ति ) ग दापित्वेनाव्यक्तनाषी स्यात् । अथवा मूकादपि मूकोमूकमूकः स्यात् । प्राकृतशैल्या बांदत्वाचैवं प्रयोगः । स्याहादिनोक्तं साधनमनुवदितुं शोजमस्येत्यनुवादी तन्निषेधाद ननुवादी व्याकुलितमनानुवादमपि कर्तुं न शक्नोतीति । स्वमतमाश्रित्याह । ( मंड परकमित्यादि ) इदमस्मदंगीकृतं मतमेकः पदोस्येत्येकपं निष्प्रतिपक्ष मित्यर्थः । इदं च परमतं । पौ यस्य तद्दिपदं सप्रतिपक्ष मित्यर्थः । तथा स्याद्वादिसाधनोक्तौ बलायतनं बलं नवकंबलोदेवदत्तइत्यादिकमादुरुक्तवंतः । चशब्दादस्य च दूषणाना सादिकं कर्मच एकप६िपकादिकं । अथवा पढ़ श्रायतनानि उपादानकारणानि या श्रव द्वाराणि श्रोत्रादीनीं प्रियाणि यस्य कर्मणस्तत् पडायतनं कर्मेत्येवमादुः ॥ ५ ॥ तेऽकि यावादिनश्वाक-दाद्याएवमाख्याति परमार्थमबुद्ध मानाजानं तो विरूपरूपाणि नाना प्रकाराणि शास्त्राणि रूपयंति । तद्यथाहि दानेन महानोगोदेहिनां सुरगतिश्च शीलेन ना वनयाच मुक्तिस्तपसा सर्वाणि सिध्यंति । तथा पृथिव्यापस्तेजोवायुरिति चत्वारि नूतान्येव संति न कश्चिदात्मा । तथा बौद्धाः सर्व पिकं निरात्मकमित्यादीनि शास्त्राणि वदंति ते च मूढाज्ञामनुष्यायदर्शनमादाय गृहीत्वाऽनवद्यमनंतं संसारं मंति ॥ ६ ॥ ॥ टीका- सांप्रतम क्रियावादिनामज्ञान विनितं दर्शयितुमाह । ( सम्मिस्तमित्यादि ) : स्वकीयया गिरा वाचा स्वाच्युपगमेनैव गृहीते तस्मिन्नर्थे नांतरीयकतया वा समागते स ति तस्याऽयातस्यार्थस्य गिरा प्रतिषेधं कुर्वाणाः सन्मिश्रीनावमस्तित्वं नास्तित्वापगमं ते लोकायतिकादयः कुर्वेति । चशन्दात्प्रतिषेधे प्रतिपाद्येऽस्तित्वमेव प्रतिपादयति । तथा हि । लोकायतिकास्तावत्स्व शिष्ये ज्योजीवाद्यनावप्रतिपादकं शास्त्रं प्रतिपादयंतोनांतरी यकतयात्मानं कर्तारं करणं च शास्त्रं कर्मतापन्नांश्च शिष्यानवश्यमभ्युपगच्छेयुः । सर्वशू यत्वे त्वस्य त्रितयस्यानावान्मिश्रीनावोव्यत्ययोवा । बौद्धपि मिश्रीनावमेवमुपगताः । तद्यथा । गंता च नास्ति कश्चिन्तयः षड् बौदशासने प्रोक्ताः ॥ गम्यतइति च गतिः स्या श्रुतिः कथं शोजना बीड़ी || १ || तथा कर्म च नास्ति फलं चास्तीत्यसति चात्मनि का रके कथं पड़तयोज्ञानसंतानस्यापि संतानव्यतिरेकेण संवृतिसत्वात् क्षणस्य चास्थितत्वेन क्रियानावान्न नानागतिसंनवः । सर्वाण्यपि कर्मास्य बंधनानि प्ररूपयंति स्वागमे । तथा पंच For Private Personal Use Only Page #489 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रायधनपतसिंघ बादापुरका जैनागम संग्रह नाग उसरा. ४॥ जातकशतानि च बुक्षस्योपदिशति । तथा । मातापितरौ हत्वा बुशरीरे च रुधिरमुत्पा द्य ॥ अहधं च कृत्वा स्तूपं नित्त्वा च पंचैते ॥ १ ॥ निरंतरमावीचिनरकं यांत्येवमादिक स्यागमस्य सर्वशून्यत्वे प्रणयनमयुक्तिसंगतं स्यात् । तथा । जातिजरामरणरोगशोकोत्तम मध्यमाधमत्वानि च नस्युः । एषएव च नानाविधकर्मविपाकोजीवा स्तित्वं कर्तृत्वं कर्म वत्त्वं चावेदयति । तथा। गंधर्वनगरतुल्या, माया स्वप्नोपपातधनसदृशा ॥ मृगतृमानीहारां बुचंडिकालातचक्रसमाइति नाषणाच स्पष्टमेव मिश्रीनावोपगमनं बौदानामिति । यदि वा नानाविधकर्म विपाकान्युपगमानेषां व्यत्ययएवेति । तथाचोक्तं । यदि शून्यस्तव पदो, मत्पक्षनिवारकः कथं नवति ॥ अथ मन्यसे न शून्यस्तथापि मत्पदएवासावित्यादि । त देवं बौक्षाः पूक्तिया नीत्या मिश्रीनावमुपगतानास्तित्वं प्रतिपादयंतोऽस्तित्वमेव प्रति पादयंति । तथा सांख्याअपि सर्वव्यापितया अक्रियमात्मानमन्युपगम्य प्रकृतिवियोगा न्मोदसन्नावं प्रतिपादयंतस्तेप्यात्मनोबंधं मोदं च स्ववाचा प्रतिपादयंति । ततश्च बंध मोदसनावे सति स्वकीयया गिरा सक्रियत्वे गृहीते सत्यात्मनः सम्मिश्रीनावं व्रजति य तोन क्रियामंतरेण बंधमोदी घटेते । वाशब्दाद क्रियत्वे प्रतिपाद्ये व्यत्ययएव सक्रियत्वं तेषां स्ववाचा प्रतिपाद्यते । तदेवं लोकायतिकाः सर्वे नावान्युपगमेन क्रियानावं प्रतिपा दयंति । बौदाश्च दणिकत्वात्सर्वशून्यत्वाचा क्रियामेवान्युपगमयंतः स्वकीयागमप्रणयनेन चोदिताः संतः सन्मिश्रीनावं स्ववाचैव प्रतिपाद्यते । तथा सांरव्याश्चाक्रियमात्मानमन्युप गळतोबंधमोदसनावं च स्वान्युपगमेनैव सन्मिश्रीनावं व्रजति । व्यत्ययं चैतत्प्रतिपादि तं । यदिवा बौदादिः कश्चित्स्यावादिनासम्यग्धेतुदृष्टांताकुली क्रियमाणः सन सम्यगु तरं दातुमसमर्थोयत्किंचन नापितया (मुम्मुहोइत्ति) गजदनाषित्वेनाऽव्यक्तनाषी नवति । यदिवा प्राकृतशैव्या बांदसत्वाचायमोइष्टव्यः । तद्यथा। मूकादपि मूकोमूकमूकोन वति । एतदेव दर्शयति । म्यादादिनोक्तं साधनमनुवदितुं शीलमस्येत्यनुवादी तत्प्रतिषे धादननुवादी सोतुनिाकुलितमनामौनमेव प्रतिपाद्यतइति नावः । अनुनाष्य च प्रति पदसाधनं तथाऽदूषयित्वा च स्वपदं प्रतिपादयंति । तद्यथा । इदमस्मदन्युपगतं दर्शन मेकः पदोस्येति एकपदमप्रतिपक्तयैकांतिकमविरुवार्थानिधायितया निष्प्रतिबाधं पूर्वा पराविरुदमित्यर्थः । इदं चैवंनूतमपि सदित्याह । होपदावस्येति विपदं सप्रतिपदमनै कांतिक पूर्वापरविरुक्षार्थानिधायितयाऽविरोधिवचनमित्यर्थः । यथाच विरोधिवचनत्वं तेषां तथा प्राग्दर्शितमेव। यदि त्वेतदस्मदीयं दर्शनं दौपदावस्येति विपदं कर्मबंधनिर्ज रणं प्रतिपदयसमाश्रयणात् । तत्समाश्रयणं चेहामुत्र वेदना चौरपारदारिकादीना मिव । तेहि करचरणनासिकादिकामिदैव पुष्पकल्पां स्वकर्मणोविडंबनामनुलवंत्यमुत्र च नरकादौ तत्फलनूतां वेदनां समनुनवंतीति । एवमन्यदपि कर्मोनयवेद्यमन्युपगम्य Page #490 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६० दितीये सूत्रकृतांगे प्रथम श्रुतस्कंधे हादशमध्ययनं. ते । तच्चेदं । प्राणी प्राणिज्ञानमित्यादिपूर्ववत् । तथेदमेकः पदोस्येत्येकपदं इहैव जन्म नि तस्य वेद्यत्वात् । तच्चेदम विज्ञोपचितं परझोपचितमीर्यापथं स्वप्नादिकं चेति । तदेवं स्याहादिनानियुक्ताः स्वदर्शनमेवमनंतरोक्तया नीत्या प्रतिपादयंति । तथा स्याक्षादिसा धनोक्तौ बलायतनं बलं नवकंबलोदेवदत्तइत्यादिकमाहुरुक्तवंतः । च शब्दादन्यच्च दृष गानासादिकं । तथा कर्मच एकपक्षिपदादिकं प्रतिपादितवंतइति । यदिवा षडाय तनानि उपादानकारणानि याश्रवक्षाराणि श्रोत्रंझ्यिादीनि यस्य कर्मणस्तत्पडायतनं कर्मेत्येवमादुरिति ॥५॥ सांप्रतमेव तहूषणाया । (तएवमरकंतीत्यादि) ते चार्वाकबौ दादयोऽक्रियावादिनएवमाचदते । सन्नावमबुध्यमानामिय्यामलपटलनृतात्मानः परमा स्मानं च व्युद्याहयंतो विरूपरूपाणि नानाप्रकाराणि शास्त्राणि प्ररूपयंति । तद्यथा । दानेन महानोगोदेहिनां सुरगतिश्च शीलेन ॥ नावनया च विमुक्तिस्तपसा सर्वाणि सि ध्यंति ॥ १ ॥ तथा पृथिव्यापस्तेजोवायुरित्येतान्येव चत्वारि नूतानि विद्यते नापरः क श्चित्सुखदुःखनागात्मा विद्यते । यदि चैतान्यप्यविचारितरमणीयानि न परमार्थतः सं तीति स्वप्ने जालमरुमरीचिका निचयचिंज्ञादिप्रतिनासरूपत्वात्सर्वस्येति । तथा सर्व क्षणिकं निरात्मकं मुक्तिस्तु शून्यता दृष्टेस्तदर्थाः शेषनावनाइत्यादीनि नानाविधानि शा स्वाणि व्युग्राहयंत्यक्रियात्मानोऽक्रियावादिनइति । तेच परमार्थमबुध्यमानायदर्शनमा दाय गृहीत्वा बहवोमनुष्याः संसारमनवदयमपर्यवसानमरहट्टघटीन्यायेन ब्रमंति पर्य टंति । तथाहि । लोकायतिकानां सर्वशून्यत्वे प्रतिपाद्ये न प्रमाणमस्ति । तथाचोक्तं । तत्त्वान्युपहतानीति, युक्त्यनावेन सिध्यति ॥ नास्ति चेत्सैव नस्तत्त्वं, तत्सिको सर्वमस्तु सत् ॥ १ ॥ नच तत्प्रत्यमेवैकं प्रमाणं । अतीतानागतनावतया पितृनिबंधनस्यापि व्यवहारस्यासिबेस्ततः सर्वसंव्यवहारोबेदः स्यादिति । बौछानामप्यत्यंतणिकत्वेन व स्तुत्वानावः प्रसऊति । तथाहि । यदेवार्थक्रियाकारि तदेव परमार्थतः सत् । नच ह णः कमेणार्थ क्रियां करोति । दणिकत्वहाने पि योगपद्येन तत्कार्याणामेकस्मिन्नेव द णे सर्वकार्यापत्ते चैतदृष्टमिष्टं वा । नच ज्ञानाधारमात्मानं गुणिनमंतरेण गुणनूतस्य सं कलनाप्रत्ययस्य सनावश्त्येतच्च प्रायुक्तप्रायं । यच्चोक्तं दानेनमहानोगो,इत्यादि तदा तैरपि कथंचिदिष्यतएवेति नचान्युपगमाएव बाधायैप्रकल्प्यंतइति ॥ ६ ॥ णाश्च्चो नए ण अमेति, ण चंदिमा वडुति दीयती वा ॥ स लिला ण संदंति ण वयंति वाया, वंको णियतो कसिणे दु लोए ॥॥ जहादि अंधेसह जोतिणावि, रूवाइणो पस्सति दीणणे ते॥संतपिते एवमकिरियवाई, किरियं ण पस्संति निरुचपन्ना ॥ ७॥ Page #491 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राय धनपतसिंघ बादाउरका जैनागम संग्रह नाग उसरा. ४६१ अर्थ-हवे सर्व शून्यवादिनो जेद कहे ते शून्यवादी एम कहेले के समस्त लोक प्रसिह जगत्प्रदीप समान एवो (पाश्चो के०) सूर्य नथी वली ते सूर्य (एनएश्के०) नगतो नथी तथा (णयबमेति के० ) अस्तपण थातो नथी ए जे देदीप्यमान सूर्य मंगल देखाय ते मात्र चित्तनो चम जाणवो मृगतृमा समान ए सर्व चमडे तथा (णचंदिमावडुति हीयती के ० ) चश्मानी कला वृद्धि पामती नथी तेम हीन पण थती नथी एटले शुक्ल पदा दिने विषे जे वृद्धि प्रमुख चश्मानी देखाय ते सर्व चम डे (वा के० ) अथवा तथा ( सलिला के० ) नदीना पाणी ते (संदंति के०) नथी श्रवता एटले नदीहदादिक पण नथी तथा (पवयंतिवाया के० ) वायरो पण वातो नथी (वंफोणियतो कसिणे दुलोए के०) तो दुइति निश्चे ए लोक संपूर्ण वंध्यसमा न अर्थ शून्य डे अर्थात् ए जगतमां कांइज नथी जे कांइ देखायडे ते सर्व स्वप्नंजाल । समान जाणवू ॥ ७ ॥ (जहाहि अंधेसह जोतिणावि के०) जेम जाति अंध एटले नेत्रहीन पुरुष दीपे करी सहित बतां पण (दोणणेत्ते के०) हीननेत्रपणाने लीधे (रूवा के०) रूपादिक जे घटपटादिक विद्यमान पदार्थोडे तेने (णोपस्सति के०) देखी शके नही (संतंपिते एवम किरियवाई के०) तेम ते अक्रियावादिनमा बतिकि या विद्यमान बता पण ते (किरियं के ) क्रियाने (निरुक्षपन्ना के०) जेमनी प्रज्ञा एटले बुझिनिरोध थश्ने अर्थात् बुद्धिहीन एवाते अक्रियावादी लोको पोतामा क्रिया विद्यमान बता पण तेने (पपस्संतिक०) मिथ्यात्वादिक दोषेकर। नथी देखता. ॥ ७॥ ॥ दीपिका-श्रादित्योनोजबति नास्तमेति । कोर्थः । श्रादित्यएव तावन्न विद्यते कु तस्तस्योजमनमस्तगमनं च । यच्चेदं ज्वलनेजोमंडलं दृश्यते तनांतमतीनां विचंप्र तिनासमृगतृभातुल्यमिति । तथा न चश्मावर्धते दीयते वा सलिलानि पर्वतनि:रेन्यो न स्वदंते न वंति वातान वांति । किंबहुना कृत्स्नः संपूर्णोप्ययं लोकोवंध्योर्थशू न्योनियतोनिश्चितोनावरूपश्त्यर्थः । सर्वमिदं यउपलन्यते तन्मायास्वप्नेजालप्रायमि ति ॥ ७ ॥ यथााधोजात्यंधः पश्चामा हीननेत्रोगतचकुर्घटपटादिरूपाणि ज्योतिषा प्रदीपादिनाऽपि सहवर्तमानोन पश्यति । एवंतेप्यक्रियावादिनः सदपि घटपटादिकं वस्तु न कियां चास्तित्वादिकां परिस्पंदादिकां वा न पश्यंति । यतोनिरुवाबासादिता प्रज्ञा झानं येषांते निरुवप्रज्ञाः अतएव ते न जानंतीति ॥ ७ ॥ ___॥ टीका-पुनरपि शून्यमताविर्भावनायाह । (णाश्चो नएइत्यादि ) सर्वशून्यवादि नोह्य क्रियावादिनः सर्वाध्यक्षामादित्योजमनादिकामेव क्रियां तावनिरुंधतीति दर्शयति । आदित्योहि सर्वजनप्रतीतोजगत्प्रदीपकल्पोदिवसादिकाल विनागकालकारी सएव तावन्न Page #492 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६ वितीये सूत्रकृतांगे प्रथम श्रुतस्कंधे बादशमध्ययनं. विद्यते कुतस्तस्योजमनमस्तगमनं वा । यच्च जाज्वल्यमानं तेजोमंडलं दृश्यते तनां तमतीनां विज्ञदिप्रतिनासं मृगतृमिकाकल्पं वर्तते । तथा न चंमावर्धते शुक्लपदे नाप्युत्तरपदे प्रतिदिनमपहीयते नसंधानस लिलानि नदकानि स्वंदंते पर्वतनिर्फरेन्यो न वंति तथा वाताः सततगतयोन वांति । किंबहुनोक्तेन कृत्स्नोप्ययं लोकोवंध्यो ऽर्थशून्योनियतोनिश्चितोनावरूपाति यावत् । सर्वमिदं यमुपलन्यते तन्मायास्वप्ने जालमिति ॥ ७ ॥ एतत्परिहतुकामबाह (जहाहि अंधेइत्यादि) यथा ाधोजात्यंधः पश्चादा हीननेत्रोऽपगतचक्षुः रूपानि घटपटादीनि ज्योतिषापि प्रदीपादिनापि सहवर्त मानोन पश्यति नोपलनते एवं तेप्यक्रियावादिनः सदपि घटपटादिकं वस्तु तक्रियां चाऽस्तित्वादिकां परिस्पंदादिकां वा क्रियां न पश्यति । किमिति यतोनिरुदा आबादि ता झानावरणादिना कर्मणा प्रज्ञा झानं येषां ते तथा । तथाहि । आगोपालांगनादिप्र तीतः समस्तांधकारक्यकारी कमलाकरोद्घाटनपटीयानादित्योजमः प्रत्यहं नवन्नुपलदय ते । तक्रियाच देशादेशांतरावाप्स्याऽन्यत्र देवदत्तादौ प्रतीताऽनुमीयते । चश्माश्च प्रत्यह दीयमाणः समस्तक्ष्यं यावत्पुनः कलानिध्या प्रवर्धमानः संपूर्णावस्थायां यावदध्य केणैवोपलक्ष्यते । तथा सरितश्च प्रादृषि जलकनोलाविलाः स्यदंत्योदृश्यंते वायवश्व वातावदनंगकंपादिनिरनुमीयते । यच्चोक्तं नवता सर्व मिदं मायास्वप्नंजालकल्पमि ति तदसत् । यतः सर्वानावे कस्यचिद् मायारूपस्य सत्यस्यानावान्मायायाएवाऽनावः स्यात् । यश्च मायां प्रतिपादयेत् यस्य च प्रतिपाद्यते सर्वशून्यत्वे तयोरेवानावात्कुतस्त व्यवस्थितिरिति । तथा स्वप्नोपि जायदवस्थायां सत्यां व्यवस्थाप्यते तस्याअनावे त स्याप्यनावः म्यात्ततः स्वप्नमन्युपगन्नता नवता तत्रांतरीयकतया जायदवस्थावश्यमन्युप गता नवति तदन्युपगमेच सर्वशून्यत्वहानिः । नच स्वप्नोप्यनावरूपएव स्वप्नेप्यनुजूतादेः सनावात् । तथा चोक्तं । अणुदय दिहचिंतिय, सुयपयशविपारदेव पाणूया ॥ सुमिणस्स निमित्ताई पुम पावंच पानावो ॥ १ ॥ इंजालव्यवस्थाप्यपरसत्यत्वे सति नवति तद नावेतु केन कस्य चेंजालं व्यवस्थाप्येत । विचंप्रतिनासोपि रात्री सत्यामेकस्मिंश्च चंदमस्युपलेनकसनावे च घटते न सर्वशून्यत्वे। नचानावः कस्य चिदप्यत्यंततुन्वरूपोस्ति। शशविषाणकूर्मरोमगगनारविंदादीनामत्यंतानावप्रसिधानां समासप्रतिपाद्यस्यैवार्थस्याना वोन प्रत्येकपदवाच्यार्थस्येति । तथाहि । शशोप्यस्ति विषाणमप्यस्ति किंवत्र शशम स्तकसमवायिविषाणं नास्तीत्येतत्प्रतिपाद्यते । तदेवं संबंधमात्रमत्र निषिध्यते नात्यं तिकोवस्त्वनावति । एवमन्यत्रापि इष्टव्यमिति । तदेवं विद्यमानायामप्यस्तीत्यादिका यां कियायां निरुप्रास्तीथिकायक्रियावादमाश्रिताइति । अनिरुक्षप्रज्ञास्तु यथाव स्थितार्थवे दिनोनवंति । तथाहि । अवधिमनःपर्यायकेवलज्ञानिनस्त्रैलोक्योदर विवरव Page #493 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राय धनपतसिंघ बानापुरका जैनागम संग्रह नाग उसरा. १६३ तिनः पदार्थान् करतलामलकन्यायेन पश्यंति । समस्तश्रुतझानिनोपि आगमबलेना तीतानागतानर्थात् विदंति । येऽप्यन्येऽष्टांगनिमित्तपारगास्तेपि निमित्तबलेन जीवादि पदार्थपरिनेदं विदधति ॥ ७ ॥ संवबरं सुविणं लकणं च, निमित्तदेहं च नपाइयं च ॥ अहंग मेयं बहवे अहित्ता, लोगंसि जाणंति अणागताई ॥५॥केई निमित्ता तहिया नवंति, कसिं च तं विपडिएति पाणं॥तेविड नावं अणदिङमाणा, आसु विजापरिमोरकमेव ॥ पागंतरे॥ (जाणासु लोगंसि वयंति मंदा ॥१०॥ अर्थ-( संवबरं के०) ज्योतिषग्रंथ (सुविणं के ० ) स्वप्न गुनागुनना शास्त्र (लरकणंके ) श्रीवत्सादिक सदाग सामुहिक शास्त्र ते च शब्द थकी अत्यंतर नेदरूप पण जाणवा तथा ( निमित्त के ) निमित्त प्रसिभ शकुनादिक शास्त्र जाणवा ( देहंके०) देहना लक्षण मत्त तिलकादिक जागवा (नपाश्यंच के ) नुत्पात ते नमिकंपादिकनी सूचनाकरनार शास्त्र एम (अगमेयंबहवेअहित्ता के०) अष्टांगनिमित्तनुं घणा लोक पतन करीने अर्थात् अष्टांगनिमित्त जणीने (लोगंसिजाणं तिथणागताई के०) बालो कने विषे अतीत अनागतादिक वस्तुने जाणे. तेटलुं पण ए शून्यवादी जाणता न थो जेम कोई संनिपाती यथातथ्य वस्तुने उलखे नही तेना दृष्टांते ए शून्यवादी पण जाणीलेवा ॥ ॥ तेमां वली ( के निमित्तातहियानवंति के ) कोइएक निमित्तियायें पोताना मुख थकी निमिन प्रकाश्यो थको तेनो निमित्त जेम कहे तेमज थायडे एट ले साचो थायले वली ( के सिंचतं विप्प डिएतिणाणं के० ) कोईकनो निमित्तादि ज्ञान विपर्यासपणाने पामेले एटले विघटेडे तथा (तेविकानावंबणदिङमाणा के० ) ते ए वी विद्याना नावनो अन्यास कसा विना एटले एवी विद्याने अण नण्या थका कहे के (याहंसुविजापरिमोरकमेव के० ) अथवा पाठांतरे ( जाणासुलोगंसिवयंतिमंदाके०) कोइएक मंद एटले मूर्ख एवा अक्रियावादी प्रमुख एमज कहे के अमेज आलोक मांहे अशेष एटले समस्त नावने जाणीयें .यें ॥ १० ॥ ॥ दीपिका-सांवत्सरं ज्योतिषं । स्वप्नप्रतिपादकोग्रंथः स्वप्नः । लक्षणं श्रीवत्सादिकं । निमित्तं शकुनादिकं । देहे नवं दैहं मपतिलकादि । नत्पाते नवमौत्पातिकमुल्कापातदिग्दा हादिकमित्यादि । अष्टांगनिमित्तं । यथा नौमं १ नत्पातं २ स्वप्नं ३ आंतरिदं ४ मांगं । खरं ६ लक्षणं ७ व्यंजनमित्येवं नवमपूर्वतृतीयाचारवस्तुनिर्गतं सुखःखादिसूचकं नि Page #494 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६४ तीये सूत्रकृतांगे प्रथम श्रुतस्कंधै बादशमध्ययनं. मित्तमधीत्य लोकेऽतीतानागतानि वस्तूनि जानंति । नच शून्यादिष्वेतद्घटते तस्मादप्रमा एकमेव तैरुच्यते ॥ ए॥ परानिप्रायमाह । ( के निमित्तेत्यादि ) बांदसवानिंगव्यत्ययः । कानिचिन्निमित्तानि तथ्यानि सत्यानि नवंति । केषांचित्तु निमित्तानां निमित्तवेदिनां वा तन्निमित्तानं विपर्यासं व्यत्ययमेति । थाहतानामपि निमित्तव्यनिचारोदृश्यते किं पुन स्तीथिकानां । तदेवं निमित्ते व्यभिचारमुपलन्यतेऽक्रियावादिनोविद्यासनावं विद्यामन धीयानाः (आहंसुविजापलिमोरकमेव ) विद्यायाः श्रुतस्य व्यनिचारेण तस्य परिमोदं परित्यागमादुः । अथवा क्रियायाअनावाविद्यया ज्ञानेनैव मोदं कर्मक्ष्यरूपमादुरिति । कचिच्चरमपादस्यैवं पानः। (जाणासुनोगंसिवयंतिमंदत्ति) विद्यामनधीत्यैव स्वयमेव लोके जावान् वयं जानीमति मंदाजडावदंति । मंदत्वं कथमिति चेडच्यते । सम्यग्विलो कितस्य निमित्तस्य नास्ति व्यनिचारः। यत्रापि दृश्यते व्यनिचारः सोप्यझातताहग न्यनिमित्तसनावात् । यया किल बुदः स्व शिष्यानाकार्यनक्तवान् । बादशवार्षिकमत्र 5 निदं नावि । यूयं देशांतरं गलत । तेच गवंतस्तेनेव निषिक्षाः। मागत यूयं शहाद्यैव पुण्यवान् महासत्त्वः संजातस्तत्प्रनावात्सुनिदं नविष्यतीति । तदेवमन्यनिमित्तसन्नावा त्रकय चिन्निमित्तव्य निचारइति ॥ १० ॥ ॥ टीका-तदाह । ( संवत्सरमित्यादि ) सांवत्सरमिति ज्योतिषं । स्वप्नप्रतिपादको ग्रंथः स्वप्नस्तमधीत्य । लक्षणं श्रीवत्सादिकं । च शब्दादातरबाह्यनेदनिन्नं निमित्तं वाक्प्रश स्तशकुनादिकं । देहे नवं देहं मषकतिलकादि । नत्पाते नवमौत्पातिकमुल्कापातदिग्दाहनि तनूमिकंपादिकं । तथाष्टांगंच निमित्तमधीत्य । तद्यथा। जोममुत्पातमांतरिदमांगं स्व रं लक्षणं व्यंजनमित्येवं रूपं नवमपूर्वतृतीयाचारवस्तुविनिर्गतं सुखःखजीवितमरण सानाऽत्नानादिसंसूचकं निमित्तमधीत्य लोकेऽस्मिन्नतीतानि वस्तूनि अनागतानिच जा नंति परिचिदंति । नच शून्यादिवादेष्वेतद् घटते तस्मादप्रमाणकमेव तैरनिधीयतइति । एवंव्याख्याते सति थाह परः । नतु व्यनिचार्यपि श्रुतमुपलन्यते । तथाहि । चतुर्दशपूर्व विदामपि षट्स्थानपतितत्वमागमनघुष्यते किंपुनरष्टांगनिमित्तशास्त्रविदां । अत्र चांगव र्जितानां निमित्तशास्त्राणामानुष्टुनेन बन्दसा त्रयोदशशतानि सूत्रं तावत्येव सहस्राणि वृत्तिस्ता वत्प्रमाणलक्षणा परिनाषेति । अंगस्य त्रयोदशसहस्राणि सूत्रं तत्परिमाणल कणा वृत्तिरपरिमितं वार्तिकमिति ॥ ॥ तदेवमष्टांगनिमित्तवेदिनामपि परस्परतः षट् स्थानपतितत्वेन व्यनिचारित्वमतदमाह । (केनिमित्ताइत्यादि) बांदसत्वात्प्राकृतशै व्या वा लिंगव्यत्ययः । कानिचिनिमित्तानि तथ्यानि सत्यानि नवंति । केषांचितु नि मित्तानां निमित्तवेदिनां वा बुझिवैकल्यात्तथाविधक्ष्योपशमानावेन तन्निमित्तानं वि Page #495 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राय धनपतसिंघ बादाउरका जैनागम संग्रह नाग उसरा. ४६५ पर्यासं व्यत्ययमेति । आईतानामपि निमित्तव्यनिचारः समुपलन्यते किंपुनस्तीथिका नां । तदेवं निमित्तशास्त्रस्य व्यनिचारमुपलभ्यते ऽक्रियावादिनोविद्यासनावमनधीयानाः संतोनिमित्तं तथा चान्यथा च नवतीति मत्वा ते (याहंसुविजापलिमोरकमेव ) विद्या याः श्रुतस्य व्यनिचारेण तस्य परिमोदं परित्यागमादुरुक्तवंतः । यदिवा क्रियायाथ नावाविद्यया ज्ञानेनैव मोदं सर्वकर्मच्युतिलदणमादुरिति ! क्वचिञ्चरमपादस्यैवं पातः (जाणासुलोगंसिवयंतिमंदत्ति ) विद्यामनधीत्यैव स्वयमेव लोकमस्मिन् वा लोके जावा न स्वयं जानीमएवं मंदाजडावदंति । नच निमित्तस्य तथ्यता । तथाहि । कस्यचित्क चित्कृतेऽपि गलतः कार्य सिदिदर्शनाबकुनसत्रावेपि कार्यविघातदर्शनादतोनिमित्तबले नादेशविधायिनां मृषावादएव केवलमिति । नैतदस्ति । नहि सम्यगधीतस्य श्रुतस्यार्थ विसंवादोऽस्ति । यदपि षट्स्थानपतितत्वमुद्घोष्यते तदपि पुरुषाश्रितक्ष्योपशमवशेन । नच प्रमाणानासव्यनिचारे सम्यक्प्रमाणव्यनिचाराशंकां कर्तुं युज्यते । तथाहि । मरु मरीचिका निचये जलग्राहि प्रत्यदं व्यनिचरतीति कृत्वा किंसत्यजलग्राहिणोपि प्रत्यक्ष स्य व्यनिचारोयुक्तिसंगतोनवति । नहि मशकवतिरनिसिावुपदिश्यमाना व्यनिचारि पीति सत्यधूमस्यापि व्यभिचारोनहि सुविवेचितकार्यकारणं व्यनिचरतीति । ततश्च प्र मातुरयमपराधोन प्रमाणस्यैव सुविवेचितं निमित्तं श्रुतमपि न व्यनिचरतीति । यथ कुतेपि कार्यसिदिदर्शनेन व्यनिचारः शंक्यते सोऽनुपपन्नः । तथाहि । कार्याकूतात् हुतेपि गलतः कार्यसिदिः सापांतरालेंतरशोनन निमित्तबलात्संजातेत्येवमवगंतव्यं । शोजननिमित्तप्रस्थितस्यापीतरनिमित्तबलात्कार्यव्याघातइति । तथाच श्रुतिः। किल बु ६ः स्वशिष्यानाहूयोक्तवान् यथा दादशवार्षिकमत्र उर्निदं नविष्यतीत्यतोदेशांतराणि गहत यूयं ते तचनाजहंतस्तेनैव प्रतिषिशायथा मागहत यूयमिहाचैव पुण्यवान् म दासत्वः संजातस्तत्प्रनावात्सुनिदं नविष्यति । तदेवमंतरा परनिमित्तसनावात्तव्यनि चारशंकेति स्थितं ॥ १० ॥ ते एवमरकंति समिच्च लोगं, तदा तदा समणा मादणा य ॥ सयं कडं पन्नकडं च उरकं, आईसुविजा चरणं पमोरकं ॥११॥ ते चरकुलोगंसिह पायगा न, मग्गाणुसासंति दितं पयाणं ॥त हा तदा सासयमादुलोए, जंसी पया माणव संपगाढा ॥१२॥ अर्थ-हवे क्रियावादीनो मत दूषवेले. (तेएवमरकंतिसमिञ्चलोगं के०) जे एकली मात्र क्रिया करवा थकीज मोदनी वांढना करेले तेक्रियावादि एवीरीते थाख्याति एट Page #496 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६६ तीये सूत्रकृतांगे प्रथम श्रुतस्कंधे शादशमध्ययनं. ले कहे ते पोताने अनिप्रायें लोकने जाणीने अमे यथावस्थित तत्वना जाणवैए ए वीरीते बोलीने क्रियानुं स्थापन करे (तहातहासमणामाहणाय के० ) तथा तथा ए टले ते ते प्रकारे अर्थात् जेवा जेवा प्रकारनी क्रिया प्रवर्ने तेम तेम एटले तेवा तेवा प्रकारनुं स्वर्ग नरकादिक फल पण जाणवू एरीते ते शाक्या दिकना श्रमण ब्राह्मण क्रियाथकोज सिदि कहेले. ( सयंकडंणनकडंचपुरकं के० ) तथाजे का था जगत् मांहे कुःख सुख ते सर्व पोतानु करेलु तथा परनुं करेलु पण नथाय परंतु सर्व नवितव्यतानुं करेलुं थायडे हवे एमना मतनुं निराकरण करे (आहंसुविजाचरणंपमोरकं के०) तीर्थकर गणधरादिक विद्या एटले झान अने चरण एटले चारित्र एणेकरी मोदडे एट ले संसारीजीवोने ज्ञान अने क्रियानेसंयोगे करी प्रकर्षे जैनमार्गे मोदले एम कहे. ॥ ॥ ११ ॥ (तेचरकुलोगंसिहणायगान के ) ते तीर्थकर गणधरादिक केवाले तोके लो कमांह चटुने स्थानके तथा या लोकने विष नायक एटले स्वामि बता ( मग्गाषुसा संतिहितंपयाणं के) आलोकने विषे पोताना प्रजालोकने या नवें तथा परनवें हित कारी एवो सम्यक् धर्म मार्ग प्रकाशेने. (तहातहासासयमादुलोएके०) तथा तथा एटले जेवा जेवा प्रकारे ए लोक पंचास्तिकायरूप ते व्यास्तिक नयना अनिप्रायें शाश्वतो थाय तेवा तेवा प्रकारे कहे अथवा जेम जेम रागदेषनी वृद्धि तेम तेम संसारनी वृद्धि थाय एम कहे (जंसी के ) जे संसारने विषे (पयासंपगाढा के ) प्रजा एटले जीव ते राग ६ष व्याप्त बता नाना प्रकारे रह्याडे (माणवके०) तो हे मानव तुं एम जाण ॥१॥ ॥ दीपिका- अथ क्रियावादिमतमाह । ये क्रियातएव मोदमिखंति तएवमाख्यां ति । स्वानिप्रायेण लोकं स्थावरजंगमात्मकं समेत्य ज्ञात्वा किल वयं यथावस्थितवस्तु झातारइत्यंगीकृत्य सर्वमस्त्येवेति सनिश्चयं कथयति । तथा तेन प्रकारेण यथायथा किया तथातथा स्वर्गनरकादिफल मिति । ते श्रमणास्तीथिकाब्राह्मणावा कियातएव सि विमिति । तथा यत्किंचित्संसारे सुःखं तथा सुखं च तत्सर्व स्वयमात्मनाऽन्येन कालेश्व रादिना । नचैतक्रियावादे घटते । तत्र हि अक्रियत्वादात्मनोऽस्तयोरेव सुखःखयोः संनवः स्यादिति । (तस्मादाहंसु विजाचरणं पमोरकंति ) विद्याझानं । चरणंक्रिया । ते अपि विद्येते कारणत्वेन यस्येति समासंकत्वा अर्शयादित्वान्मत्वर्थीयोचप्रत्ययः। थ सौ विद्याचरणोमोदः। ज्ञानक्रियासाध्यइत्यर्थः । एवं विधं मोदमादुस्तीर्थकदादयः॥११॥ ते तीर्थकरादयश्हास्मिन् लोके चटुलॊचनतुल्यइत्यर्थः । ते लोके नायकाः प्रधानाः। तुर्विशेषणे । मार्ग झानादिकं प्रजानां हितं प्राणिनामनर्थवारकं सजतिप्रापकं चानुना ते कथयंति तथा तथा शाश्वतं लोकं संसारमार्जिनाः । यथायथा मिथ्यात्वमिः। Page #497 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रायधनपतसिंघ बादाउरका जैनागम संग्रह नाग उसरा. ४६७ तथाहि । तत्र तीर्थकराहारकवाः सर्वएव कर्मबंधाः संनाव्यते । कर्मबंधाच संसार दिः। अथवा यथायथा रागषधिस्तथा तथा संसारोपि शाश्वतश्त्याहुः । यस्मिन्सं सारे प्रजाजंतवः हेमानव संप्रगाढाः स्थिताः ॥१२॥ ॥ टीका-सांप्रतं क्रियावादिमतं उदूषयिषुस्तन्मतमाविष्कुर्वन्नाह । (तएवमरकंती त्यादि) ये क्रियातएव ज्ञाननिरपेदायादीदा दिलदाणायामोदमिति तेएवमाख्याति तद्यथा । अस्ति माता पिता अस्ति सुचीपणस्य कर्मणः फलमिति । किंकृत्वा तएवं क थयंति क्रियातएव सर्व सिध्यतीति स्वानिप्रायेण लोकं स्थावरजंगमात्मकं समेत्य ज्ञात्वा किल वयं यथावस्थितवस्तुनोज्ञातारइत्येवमन्युपगम्य सर्वमस्त्येवेत्येवं सावधारणं प्र तिपादयंति न कथंचिन्नास्तीति कथमाख्याति । तथा तेन प्रकारेण यथायथा क्रिया तथा तथा स्वर्गनरकादिकं फलमिति ते च श्रमणास्तीथिकाब्राह्मणावा क्रियातएव सिदि मिति । किंच यत् किमपि संसारे फुःखं तथा सुखं च तत्सर्व स्वयमेवात्मना कृतं नान्येन कालेश्वरादिना नचैतदक्रियावादे घटते । तत्र ह्यक्रियावादात्मनोऽकतयोरेव सुखःखयोः संनवः स्यादेवंच कतनाशाकतागमौ स्यातां। यत्रोच्यते । सत्यमस्त्यात्मसुखःखादिकं । नन्वस्त्येव । तथाहि । यद्यस्त्येवं सावधारणमुच्येत ततश्च न कथंचिन्नास्तीत्यापन्नमेवंच स ति सर्व सर्वात्मकमापद्येत । तथाच सर्वलोकस्य व्यवहारोबेदकः स्यात् । नच ज्ञानर हितायाः क्रियायाः सिदिस्तउपायपरिझानानावात् । नचोपायमंतरेणोपेयमवाप्यता ति प्रतीतं । सर्वा हि क्रिया ज्ञानवत्येव फलवत्युपलक्ष्यते । नक्तंच । ज्ञानस्य शानि नां चैव निंदाप्रषमत्सरैः ॥ उपेक्षितैश्च विनैश्च शानघ्नं कर्म बध्यते ॥ १॥ पढमं नाणं त दया, एवं चिति सवसंजए ॥ अन्नाणी किं काही, किंवा माहीयपावयं ॥१॥ इत्यतोझानस्यापि प्राधान्यं नापि झानादेवसिदिः क्रियारहितस्य पंगोरिव कार्यसिखेरनु पपत्तिरित्यालोच्याह । (हंसुविजाचरणं पमोरकंति ) न ज्ञाननिरपेदायाः क्रियायाः सिरिंधस्येव नापि क्रियाविकलस्य ज्ञानस्य पंगोरित्येवमवगम्याहरुक्तवंतस्तीर्थकरगण धरादयः । किमातुः । मोदं । कथं । विद्यां च ज्ञानं चरणंच क्रिया ते हे अपि विद्यते का रणत्वेन यस्येति विगह्यार्शादित्वान्मत्वर्थीयोच । असौ विद्याचरणोमोक्षः । ज्ञान क्रियासाध्यश्त्यर्थः। तमेवं साध्यं मोदं प्रतिपादयंति । यदिवान्यथा वा पात निका केनै तानि समवसरणानि प्रतिपादितानि । यञ्चोक्तं यच्च वयते इत्येतदाशंक्याह । (तेए वमरकंतोत्यादि) अनिरुमा क्वचिदप्यस्खलिता प्रज्ञायते ऽनयेति प्रज्ञा ज्ञानं येषां तीर्थ कृतां तेऽनिरुप्रज्ञास्तएवमनंतरोक्तया प्रक्रियया सम्यगाख्याति प्रतिपादयंति । लोकं चतुदेशरज्ज्वात्मकं स्थावरजंगमाख्य वा समेत्य केवलज्ञानेन करतलामलकन्यायेन शाखा Page #498 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६८ द्वितीये सूत्रकृतांगे प्रथम श्रुतस्कंधे द्वादशमध्ययनं तथागतास्तीर्थकरत्वं केवलज्ञानं च गताः श्रमणाः साधवोब्राह्मणाः संयताऽसंयताः । लौकिकी वाचोयुक्तिः । किंनूतास्तएवमाख्यांतीति संबंधः । तथातथेति वा क्वचित्पा ठः । यथायथा समाधिमार्गो व्यवस्थितस्तथातथा कथयति । एतच्च कथयति । यथा यत्किचित्संसारांतर्गतानामसुमतां दुःखमसातोदयस्वनावं तत्प्रतिपनूतं च सातोदया पादितं सुखं तत्स्वयमात्मनाकृतं नान्येन कालेश्वरादिना कृतमिति । तथा चोक्तं । सो पुक्कयाणं, कम्माणं पावए फलविवागं ॥ वराहे सुगुणेसुय पिमित्तमि तं परो होइ ॥ १ ॥ एतच्चास्तीर्थकरगणधरादयः । तद्यथा । विद्या ज्ञानं चरणं चा रित्रं क्रिया तत्प्रधानोमोहस्तमुक्तवंतोन ज्ञान क्रियाच्यां परस्पर निरपेक्षाच्या मिति । तथा चोक्तं । क्रियां च संज्ञानवियोगनिष्फलां क्रियाविहीनां च विबोधसंपदं ॥ निरइताक्ले रासमूहशांतये, त्वया शिवाया लिखितेव पद्धतिः ॥ १ ॥ ११ ॥ किंच ( तेचरकु लोगं सि हेत्यादि ) ते तीर्थकरणगणधरादयोऽतिशयज्ञा निनोऽस्मिन् लोके चतुरिव चतुर्वर्त ते । यथाहि चतुर्योग्यदेशावस्थितान् पदार्थान् परिवित्ति । एवं तेऽपि लोकस्य यथा वस्थित पदार्थाविष्करणं कारपंति । यथाऽस्मिन लोके ते नायकाः प्रधानाः | तुशब्दो विशेषणे । सपदेशदान तोवा नायकाइत्येतदाह । मार्ग ज्ञानादिकं मोक्षमार्ग अनुशासं ति कथयति प्रजायंतइतिप्रजाः प्राणिनस्तेषां । किंनूतं । हितं समतिप्रापकमनर्थ निवार कं । किंच चतुर्दशरज्ज्वात्मके लोके पंचास्तिकायात्मके वा येन प्रकारेण इव्या स्तिकनया निप्रायेण यदस्तु शाश्वतं तत्तथा दुरुक्तवंतः । यदिवा लोकोयं प्राणिगणः संसारां तर्वर्ती यथायथा शाश्वतोनवति तथातथैवाहुः । तद्यथा । यथायथा मिथ्यादर्शनानिवृ दिस्तथातथा शाश्वतोलोकः । तथाहि । तत्र तीर्थकराहारकवयः सर्वएव कर्मबंधाः सं नाव्यंतइति । तथाच महारंनादिनिश्चतुर्भिः स्थानैर्जीवानरकायुष्कं यावन्निवर्तयंति ताव त्संसारानुवेदइति । अथवा यथायथा रागद्वेषादिवृद्धिस्तथातथा संसारोपि शाश्वतइ त्याहुः । यथायथा च कर्मोपचयमात्रा तथातथैव संसारानिवृद्धिरिति । इष्टमनोवाक्का यानिवृौ वा संसारानिवृद्धिरवगंतव्या । तदेवं संसारस्यानिवृद्धिर्भवति । यथाऽस्मिंश्च संसारे प्रजायतइति प्रजाजंतवः हे मानव । मनुष्याणामेव प्रायशनपदेशार्हत्वान्मानव ग्रहणं । सम्यग्नारक तिर्यङ्नरामरनेदेन प्रगाढाः प्रकर्षेण व्यवस्थिताइति ॥ १२ ॥ जे रकसा वा जमलोइया वा, जे वासुरा गंधवा य काया ॥ आगासगामी य पुढोसिया जे, पुणेोपुणो विष्परिया सुवंति ॥ ॥ १३ ॥ जमादु दं सलिलं प्रपारगं, जाणादि पं जवगदां डु मोकं ॥ जंसी विसन्ना विसयंगणाहिं, उन वि लोयं प्रणुसंचरंति ॥१४ For Private Personal Use Only Page #499 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रायधनपतसिंघ बादाउरका जैनागम संग्रह नागसरा. ४६ए अर्थ-हवे ते नाना प्रकार कहे. (जेररकसावाजमलोइयावा के० ) जे राक्षस व्यंतरादिक यमलोकिका जे परमाधार्मिकादिक देवो (जेवासुरा के ) जे वैमानि क ज्योतिषादिक देवो (गंधवाय के० ) गांधर्व एटले विद्याधरादिक तथा (कायके ) पृथिविकायादिक (बागासगामीय के०) आकाशगामि एवा पदी तथा वायुप्रमुख तथा (पुढोसियाजे के० ) एथिविने विषे याश्रित एवा जे अनेक बेंझ्यिादिक जीव ते सर्व (पुणोपुणोविप्परियासुवंति के ) पोत पोताना कर्मे करी वलीवली चतुर्गति क रूप संसारमा परिन्रमण करने ॥ १३ ॥ (जमादुहंसलिलंयपारगं के०) श्रीती थकर गणधरा दिक ते ए जे उघ एटले संसार तेने अपार स्वयंनूरमण समुश् सरखो कहेले (जाणाहि के० ) एम तुं जाण अंहीं णं वाक्यालंकारे (नवगहणं के० ) ते समान संसार गहन (मुमोरकं के० ) उर्मोन एटले अत्यंत सुस्तरडे (जं सीविसन्ना विसयंगणाहिं के० ) अस्तिवादीने पणजो एम एटले सम्यक् प्रवर्तकने पण या अ पार संसारसमुह अत्यंत स्तर में तो नास्तिकवादीने तो अत्यंत उस्तर होय एमां के बुज गुंजे या संसारने विषे सावध धर्मना प्रवर्तक कुमार्गे पतित पांचंडिय संबंधी विषयना सेवनार तथा अंगना जे स्त्री तेने वश पड्याबता रहे ते (हन विलोयंबणु संचरंति के० ) त्रस स्थावररूप में प्रकारनुं जे लोक तेमांहे राग देषेकरीपरिचमणकरे. ॥ दीपिका-ये रादसाः । रासग्रहणात्सर्वे व्यंतराझेयाः। यमलौकिकात्मानों ऽबर्ष्या दयोनयनपतयः । येच सुरावैमानिकाः। चशब्दाज्ज्योतिष्काः। ये गंधर्वा विद्याधराः । कायाः पृथिवीकायादयः षट् । पुनः प्रकारांतरेण जीवान् आकाशगामिनः संप्राप्तलब्धय श्चतुर्विद्यादेवाविद्याधराः पक्षिणोवायवश्च । ये च पृथिव्याश्रिताः पृथिव्यप्तेजोवायुवन स्पतिवित्रिचतुःपंचेंशियास्ते सर्वेपि कर्मनिः संसारे विपर्यासं परिचमणमुपयांति गति ॥ १३ ॥ यं संसारं समुहमादुर्जिनाः । किंनूतं । स्वयंजुरमणसलिलौघवदपारं जानीहि त्वं । णमितिवाक्यालंकारे । नवगहनं संसारारण्यं कुःखेन मुच्यतइति उौदं उस्तरम स्तिवादिनामपि किंपुनर्नास्तिकानां । यस्मिन् संसारे सावद्याचारे विषमायासक्ताविष यप्रधानाअंगनाविषयांगनास्तानिर्वशीकतादिधापि स्थावरजंगमं लोकमनुचरंति गति संसारे भ्रमंतीत्यर्थः ॥ १४ ॥ . ॥ टीका-लेशतोजंतुनेदप्रदर्शनारेण तत्पर्यटनमाह । (जेररकसाइत्यादि) ये के चन व्यंतरनेदारादसात्मानः । तद्यहणाच सर्वेपि व्यंतरा गृह्यते । तथा यमलौकिका त्मनोंऽबादयस्तउपलदाणात्सर्वनवनपतयस्तथा येच सुराः सौधर्मा दिवैमानिकाः । च शब्दाज्योतिष्काः सूर्यादयस्तथा ये गांधर्वा विद्याधराव्यंतर विशेषावा । तद्ग्रहणं च Page #500 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४० दितीये सूत्रकृतांगे प्रथम श्रुतस्कंधे बादशमध्ययनं. प्राधान्यख्यापनार्थ । तथा कायाः पृथिवीकायादयः षडपि गृह्यतइति । पुनरन्येन प्र कारेण सत्वान्संजिघृकुराह। ये केचनाकाशगामिनः संप्राप्ताकाशगमनलब्धयश्चतुर्विधदे वनिकायविद्याधरप दिवायवः । तथा येच पृथिव्याश्रिताः पृथिव्यप्तेजोवायुवनस्पतिदि त्रिचतुःपंचेंझ्यिास्ते सर्वेपि स्वरुतकर्मनिः पुनःपुनर्वि विधमनेकप्रकारं पर्यासं परिपमरहट्ट घटीन्यायेन परिचमणमुपसामीप्येन यांति गळंतीति ॥ १३ ॥ किंचान्यत् । (जमादुरि त्यादि)। यं संसारसागरमाहुरुक्तवंतस्तीर्थकरगणधरादयः । तदिदः कथमादुः स्वयंचुर मणसलिलौघवदपारं । यथा स्वयंनुरमणसलिलोघोन केनचिऊलचरेण स्थलचरेण वा संघयितुं शक्यते एवमयमपि संसारसागरः सम्यग्दर्श निनमंतरेण लंघयितुं न शक्यत ति दर्शयति । जानीहि अवगह। णमिति वाक्यालंकारे। नवगहनमिदं चतुरशीतियोनिल प्रमाणं यथासंनवं संख्येयाऽसंख्येयानंतस्थितिकं फुःखेन मुच्यतातिर्मोद उरुत्तरम स्तिवादिनामपि किंपुनर्नास्तिकानां । पुनरपि नवगहनोपलदितं संसारमेव विशिन ष्टि । यत्र यस्मिन् संसारे सावद्यकर्मानुष्ठायिनः कुमार्गपतिताअसत्समवसरणग्राहिणो विषमाधवसताविषयप्रधानाअंगनाविषयांगनास्तानियेदि वा विषयाश्चांगनाश्च विषयां गनास्तानिवेशीकृताः सर्वत्र सदनुष्ठाने ऽवसीदति तएवंविषयांगनादिके पंचके विषमा विधाप्याकाशाश्रितं पृथिव्याश्रितंच लोकं यदि वा स्थावरजंगमलोकमनुसरंति गति । यदिवा विधापि लिंगमात्रप्रव्रज्य याऽविरत्याचरागदेषान्यां वा लोकं चतुर्दशरज्ज्वात्मकं स्वकतकर्मप्रेरिताअनुसंचरंति बंचम्यंतइति ॥ १४ ॥ न कम्मणा कम्म खति बाला, अकम्मणा कम्म खति धीरो॥ मे धाविणो लोनमया वतीता, पागंतरे (लोननयावतीता) संतोसियो नोपकरेंति पावं ॥१५॥ते तीयनप्पन्नमणागयाई,लोगस्स जाणंति तदा गयाइंणेतारो अन्नेसि अणन्नणेया, बुद्धा दुते अंतकडा नवंति॥१६॥ अर्थ-( नकम्मणाकम्मरखवेंतिबाला के0) अज्ञानी एवो मिथ्यामतिवाटु जीव कर्मजे सावद्यारंन तेणे करी पूर्वकतकर्मने खपावे नही परंतु साहमां नवा कर्मनुं बंध करे (अकम्मणाकम्मरखवेंतिधारा के० ) याश्रवने सर्व प्रकारें रोधन करवा थकी सैलेसी क रणावस्थायें धीर एटले महासत्ववंत एवो पुरुष कर्मने खपावे. ( मेधाविणोलोनम यावतीता के०) जे मेधावि एटले पंमित महानुनाव होय ते लोनमय एटले परिय द तेथकी अतीत एटले रहित होय ( संतोसिमोनोपकरेंतिपावं के ) एम संतोषी तो पाप नकरे ॥ १५ ॥ जे पुरुष एवा होय ते केवा थाय ते कहेले. ( तेतीयनप्पन्नम पागया के० ते ) श्रीवीतराग अतीत, अनागत अने वर्तमान ए त्रणे काल याश्री Page #501 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राय धनपतसिंघ बादाउरका जैनागम संग्रह नाग उसरा. ४१ (लोगस्सजाणंतितहागयाई के० ) तथागत एटले यथावस्थित जेमजे तेवीरीते लोक मांहे सर्व जीवोना नावी सुखःखादिकना जाण एवा थाय परंतु विनंग झानीनी पेरे आधुपा नजाणे (णेतारोअन्नेसियणन्नणेया के०) एवा जीवो अन्य जीवोने संसारनो पार पमाडे परंतु तेने अन्य को तत्वनो देखाडनार नथाय किंतुते दुइतिनिथे पोतेज (बुझाके०) तत्वना जाण थका (अंतकडानवंतिके०) कर्मनो अंतकरनार होय ॥१६॥ ॥ दीपिका-कर्मणा सावद्यारंण कर्म पापं न पयंति बालामूढाः। अकर्मणा आश्रवनिरोधेन तु कर्म रुपयंति धीरामहासत्त्वाः। मेधाविनः प्रज्ञावंतोलोजमयं परि ग्रहमेवातीतालोनातीतावीतरागाः संतोषिणः संतुष्टास्ते एवं विधाअवीतरागायपि पा पं कर्म न कुर्वति । लोननयादतीताइति क्वचित्पावः। सोनश्च जयं च लोनामा नयं तस्मादतीतायतएव संतोषिणइति । लोनाईनावं दर्शयताऽपरकषायेन्योनयस्याधिक त्वमुक्तं ॥ १५ ॥ ते वीतरागायतीतानि पूर्वजन्मरुतानि प्रत्युत्पन्नानि वर्तमानानि अ नागतान्यागामिनवनावीनि सुखःखानि लोकस्य प्राणिगणस्य तथागतानि यथास्थिता नि जानति ते जिनाः श्रुतकेवलिनोवा ऽन्येषां प्राणिनां मोदंप्रति नेतारः प्रापकास्तेच स्वयंबुक्षत्वादन्येन न नीयंते तत्त्वावबोधं कार्यतइत्यनन्यनेयास्तेबुझाज्ञाततत्त्वास्तीर्यकर गणधरादयोदुनिश्चितमंतकराः संसारपारगानवंति ॥ १६ ॥ ॥ टीका-किंचान्यत् । (एकम्मणेत्यादि) ते एवमसत्समयसरणाश्रितामिथ्यात्वादि निर्दोषैरजिजूताः सावद्येतर विशेषाननिझाः संतः कर्मक्षपणार्थमप्युद्यतानिर्विवेकतया सावद्यमेव कर्म कुर्वते । नच कर्मणा सावद्यारंजेण कर्म पापं पयंत्यपनयंत्यझत्वाद्वाला श्व बालास्तइति । यथाच कर्म दिप्यते तथा दर्शयति । अकर्मणावाश्रवनिरोधेन तु अंतशः शैलेश्यवस्थायां कर्म दपयंति धीरामहासत्त्वाः सद्याश्व चिकित्सयाऽऽमयानि ति । मेधा प्रज्ञा विद्यते येषांते मेधाविनोहिताहितप्राप्तिपरिहारा निझालोनमयं परिग्रहमे वातीताः परिग्रहातिकमानोनातीतावीतरागाइत्यर्थः। संतोषिणोयेन केनचित्संतुष्टाथ वीतरागाअपीति । यदिवा यतएवाऽतीतलोनायतएव संतोषिणइति । तएवंनूतानगवं तः पापमसदनुष्ठानापादितं कर्म न कुर्वति नाददति । कचित्पावः । लोननयादतीताः। लोनश्च जयं च समाहार६६ः । लोनाक्षा जयं तस्मादतीताः संतोषिणइति । न पुनरु क्ता शंका विधेयेत्यतोलोनातीतत्वेन प्रतिषेधांशोदर्शितः। संतोषिणाश्त्यनेन च विध्यंश इति । यदिवा लोनातीतग्रहणेन समस्तलोनानावः । संतोषिणइत्यनेनतु सत्यप्यवीतरा गत्वेनोत्कटलोनाइति । लोनानावं दर्शयन्नपरकषायेन्योलोनस्य प्राधान्यमाह । येच लो जातीतास्तेऽवश्यं पापं न कुवैतति स्थितं ॥ १५ ॥ येच लोनातीतास्ते किंजूतानवं Page #502 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७२ तिीये सूत्रकृतांगे प्रथम श्रुतस्कंधे धादशमध्ययनं. तीत्यतबाह । (तेतीयइत्यादि ) ते वीतरागाअल्पकषायावा लोकस्य पंचास्तिकायात्मक स्य प्राणिलोकस्य वाऽतीतान्यन्यजन्माचरितानि नत्पन्नानि वर्तमानावस्थायान्यनागता निच नवांतरजावीनि सुखःखादीनि तथागतानि यथावस्थितानि तथैवाऽवितथं जानं ति न विनंगझानिनश्व विपरीतं पश्यति । तथाहि । श्रागमः। अणगारेणं नंतेमाई मि बादिही रायगिहेण यरेसंमोहए वाणारसीए नयरीए रूवाइं जाणा पास जावसे दं सणे विवजा से नवतीत्यादि । ते चातीतानागतवर्तमानझानिनःप्रत्यक्झानिनश्चतुर्दशपू र्वविदोवा ऽप्रत्यक्झानिनोऽन्येषां संसारोत्तितीर्पूणां नव्यानां मोदंप्रति नेतारः सउपदे शं प्रत्युपदेष्टारोनवंति । नच ते स्वयंबुझत्त्वादन्येन नीयंते तत्वावबोधं कार्यतइत्यनन्य नेयाहिताहितप्राप्तिपरिहारंप्रति नान्यस्तेषां नेता विद्यतइति नावः । ते च बुझाः स्वयं । बुधास्तीर्थकरगणधरादयः । दुशब्दश्च शब्दार्थ विशेषणेच । तथाच प्रदर्शितएव । तेच न वांतकराः संसारोपादाननूतस्य वा कर्मणोंतकरानवंतीति ॥ १६ ॥ ते व कुवंति ण कारवंति, नूताहिसंकाइ उगुंबमाणा॥सयाजता विष्ण वति धीरा, विस्मत्ति धीरा पागंतरे (विस्मतिवीरा) य दवंति एगो ॥१७॥ महरे य पाणे वुड़े य पाणे, ते आत्तने पास सवलोए॥ नवे दती लोगमिणं महंतं, बुशेऽपमत्तेसु परिवएजा ॥ १७ ॥ अर्थ-हवे तेमनी क्रिया केवी होय ते कहेडे. (ते के ० ) ते वीतराग सम्यक् ज्ञानी ते सावद्यानुष्ठानरूप एवी जे (नूताहि संका उगुबमाणा के०) नूत एटले प्राणी तेनी हिंसानी शंकायें सुगंबित एटले प्राणीनी हिंसाने निंदता थका (ऐवकुवंति के०) पोते हिंसा करे नही तथा (णकारवंति के० ) अन्य पाशे हिंसा करावे नही. उपल : कण थकी जे हिंसा करतो होय तेने अनुमोदे नही तेमज मृषा पोते बोले नही बीजा पाशे बोलावे नही तथा बोलताने अनुमोदन आपे नही एरीते सर्व पंचमहा व्रतोने सदाकाल पाले एम (सयाजता के०) सर्व काल यत्नवंत एटले पाप थकी नि वर्त ( विप्पणवंतिधीरा के०) संयमने विषे नम्र होय विनयवंत होय एवा धैर्यवंत गुनट तुल्य बतो संयमरूप नूमिने विषे कर्मरूप शुनटोने जीतवा समर्थ एवो (विस्मत्तिधी रायहवंतिएगोके०) कोइएक शुरू सम्यक् मार्ग जाणी धैर्यवंत शूरवीर थाय ते परीसहा दिकने जीते ॥ १७ ॥ हवे ा जाणीने सावद्यानुष्ठान नकरे ते कहेले. (महरेयपाणे वुद्वेयपाणे के०) महरा एटले बालक ते अंही एथिविकायादिक तथा बेंडीयादिक लघु जातीना जीवो सेवा तेपण जीव अने वुद्वेय एटले महोटा हस्ति प्रमुख ते पण जी व एवं जाणीने (तेयात्तपास सबलोए के० ) ते सहुजीवने सर्व चौद रज्वात्मक Page #503 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राय धनपतसिंघ बादाउरका जैनागम संग्रह नाग उसरा. ४७३ लोकने विषे पोतानाशात्म समान देखे ( नव्हती लोगमिणं महंतं के०) ए महांत लोक एटले संसार तेने सारीरीते अालोचीने सर्वस्थानक अशाश्वता जाणीने या सं सारमा कोइ सुख नथी एवो जाणीने (बुध के० ) जे पंमित तत्वना जाण होय ते (अप्पमत्तेसुपरिवएडा के०) अप्रमत्तपणे संयमने विषे प्रवत्त शुद्धो संयम पाले १७ ॥ दीपिका-ते तीर्थकरादयः पापं कर्म नैव कुर्वति स्वयं । नवाऽन्येन कारयति कुर्व तमन्यं नानुजानंति जूतानिशंकया प्राणिघातनयेन पापं कर्म जुगुप्समानाः। एवं वि धास्त सदा सर्वकालं यताः संयताविप्रणमंति विविधं संयमानुष्ठानं प्रति प्रव्हीनवंति तत्पराः स्युधीराः । तथा एके केचन गुरुकाणो (विपत्ति) विज्ञप्तिानं तन्मात्रेणैव वोरानानुष्ठानेन स्युः । नच ज्ञानमात्रेण सिदिः । यतः । अधीत्य शास्त्राणि नवंति मू र्खा, यस्तु क्रियावान् पुरुषः सविधान ॥ संचिंत्यतामोषधमातुरं हि न ज्ञानमात्रेण क रोत्यरोगम् ॥ १ ॥ १७ ॥-ये डहरालघवः कुंथ्वाद्याः सूझावा ते सर्वे पि प्राणाः प्राणि नाये च वृहाबादरास्तान सर्वानात्मवत्पश्यति सर्वलोके। तथा लोकमिम षड़जीवरा कुलत्वान्महांतमुत्प्रेदते । अनायनंतत्वाचा महांतं । यतोनव्यायपि केचन सर्वेगा पि कालेन नमेत्स्यंतीति । यद्यपि इव्यतः षड्व्यात्मकत्वात् देवतश्चतुर्दशरकुमानला त्परिमितोलोकस्तथापि कालतोऽनाद्यनंतत्वान्नावतः पर्यायाणामंतवान्महान लोक स्तमुत्प्रेक्षते । बुझोझाततत्त्वोऽप्रमत्तेषु यतिषु तथानूतएव परिव्रजेत्संयमे ॥ १७ ॥ ॥ टीका-यावदद्यापि नवांतं न कुर्वति तावत्प्रतिषेध्यमंशं दर्शयितुमाह। ( तेणेव कुवंतीत्यादि) ते प्रत्यदानिनः परोदशानिनोवा विदितवेद्याः सावद्यमनुष्टानं जूतोप मर्दानिशंकया पापं कर्म जुगुप्संतः संतोन स्वतः कुर्वति नाप्यन्येन कारयंति कुर्वतमप्य परं नानुमन्यन्ते । तथा स्वतोन मृषावादं जल्पंति नान्येन जल्पयंति नाप्यपरं जल्पंत मनुजानंत्येवमन्यान्यपि महाव्रतान्यायोज्यानीति । तदेवं सदा सर्वकानं यताः संयताः पापानुष्ठानानिवृत्ताविविधं संयमानुष्ठानं प्रति प्रणमंति प्रव्हीनवंति । के ते वीरामहापु रुषाइति । तथैकेचन हेयोपादेयं विझायाऽपिशब्दात्सम्यक् परिझाय वा तदेव निःशंकं य लिनैः प्रवेदितमित्येवं कृतनिश्चयाः कर्मणि विदारयितव्ये वीरानवंति। यदिवा परीष होपसर्गानीकविजया हीरा इति । पांवातरंवा (विहाति वीराय नवंति एगे) एके केचन गुरुकर्माणोल्पसत्त्वाः विज्ञप्तिानं तन्मात्रेणैव वीरानत्वनुष्टाने नच झानादेवाऽनिलषिता वाप्तिरुपजायते । तथाहि । अधीत्यशास्त्राणि नवंति मूयिस्तुक्रियावान पुरुषः स विधान ॥ संचिंत्यतामौषधमातुरं हि न ज्ञानमात्रेण करोत्यरोगं ॥ १ ॥ १७ ॥ कानि Page #504 -------------------------------------------------------------------------- ________________ მემ द्वितीये सूत्रकृतांगे प्रथम श्रुतस्कंधे द्वादशमध्ययनं. पुनस्तानि नूतानि यां कयाऽरंनं जुगुप्संति संतइत्येतदाशंक्याह । ( डहरेयइत्यादि ) ये केचन डहरेति लघवः कुंथ्वादयः सूक्ष्मावा ते सर्वेपि प्राणाः प्राणिनोये च वृद्धा बादरशरीरिस्तान्सर्वानप्यात्मतुल्यान् यात्मवत्पश्यति सर्वस्मिन्नपि लोके यावत्प्रमा णं मम तावदेव कुंथोरपि यथावा मम दुःखमननिमतमेवं सर्वलोकस्यापि सर्वेषामपि प्राणिनां दुःखमुत्पद्यते दुःखाद्विजंति । यथाचागमः । पुढविकाएणं नंते कंते समारो केरिस वेणं वेइत्याद्याः सूत्रालापकाइति मत्वा तेपि नाक्रमितव्यान संघट्टनीया इत्येवं यः पश्यति तथा लोकमिमं महांतमुत्प्रेक्षते षड्जीवसूक्ष्मबादर ने दैराकुल त्वान्महांतं । यदिवाऽनादिनिधनत्वान्महान् लोकः । तथाहि । कालतोनव्यापि केचन सर्वेणापि कालेन न सेत्स्यतीति । यद्यपि इव्यतः षड्व्यात्मकत्वात् क्षेत्रतश्चतुर्दशर कुप्रमाणतया सावधिकोलोकस्तथापि कालतोनावतश्चानाद्यनिधनत्वात्पर्यायाणां चा नंतत्वान्महान लोकस्तमुत्प्रेक्षतइति । एवंच लोकमुत्प्रेक्षमाणो ऽवगंतव्यः । सर्वा णि प्राणिस्थानान्यशाश्वतानि तथा नात्रापसदे संसारे सुखजेशोप्यस्तीत्येवं मन्यमानो ऽप्रमत्तेषु संयमानुष्ठायिषु मध्ये तथाभूतएव परिसमंताद्रजेद्यदिवा बुद्धः सन् प्रमत्तेषु गृहस्थेषु प्रमत्तः सन् संयमानुष्ठाने परिव्रजेदिति ॥ १८ ॥ जेने पर वा विवा, अलमप्पणी होंति अलं परेसिं ॥ तं जोड़नूतं च सया वसेका, जे पाठ कुका अणुवीति धम्मं ॥ १॥ प्रत्ताण जो जाति जो य लोगं, गई च जो जाइ लागई च॥ जो सासयं जाण प्रसासयं च, जातिं मरणं च जणोववायं॥२०॥ ; अर्थ - (जेयाय परवाविद्या के० ) जे कोइ पोताना यात्माने तथा परना या त्माने सम्यक् प्रकारे जाणे एटले जेवीरीते पोताना यात्माने जाणे तेवीरीते परना घामाने पण जाणे ( लमप्प लोहों तिथलंपरे सिं के० ) ते पुरुष पोताने उद्धरवाने समर्थ होय ने बीजाने पण उद्धरवाने समर्थ थाय ( तंजोइनूतंचसयावसेका के० ) ते ज्योतिनूत प्रकाशवान चंद्रादित्य प्रदीपसमान गुरुने जाणीने सर्व काले सेवे ( जेपा कुकाणुवीतिधम्मं के० ) जे विचारीने श्रीवीतराग जाषित धर्मना स्वरूपने सम्यक् प्रकारें | प्रगट करे ॥ १ ॥ ( खत्ता जोजा तिजोयलोग के ० ) जे पोताना यात्माने सम्यक् प्रकारे जाणे जे लोकालोकनुं स्वरूप जाणे (गइंचजोजाइलाग इंच के ० ) जे जीवनी गतियागत जाणे अथवा चारे गतिनुं स्वरूप जाणे तथा अनागतनुं स्वरूप जाणे एटले hi गयो को जीव फरी नावे एवी जे मोक्षगति तेना स्वरूपने जाणे ( जोसासयंजालय ' For Private Personal Use Only Page #505 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राय धनपतसिंघ बाहाउरका जैनागम संग्रह नाग उसरा. ४५ सासयंचके०) तथा जे शाश्वता पदार्थ अने अशाश्वता पदार्थने पण जाणे (जातिमरणंचज गोववायं के०) तथा जे जीवना जन्म यने मरणने पण जाणे तथा जन एटले लो क तेनुं उपपात एटले उत्पत्ति देव नारकादिकने विषे थायडे ते पण जाणे ॥ २०॥ ॥ दीपिका-ययात्मनः स्वयं सर्वज्ञोगणधरादिर्वा परतस्तीर्थकरादेर्जीवादीन पदार्था न ज्ञात्वा परेन्यनपदिशति सथात्मनस्त्रातुमलं समर्थः परेषांच तं सर्वज्ञ गणधरादिकं वा ज्योतितं पदार्थप्रकाशकत्वाचंादित्यतुल्यं सदाऽऽबसेत सेवेत नित्यं गुरुसेवी नवे त् । यतः । नाणस्स होइ नागी, थिरयरदसणाचरित्तेय ॥ धन्ना धावकडाए गुरुकुलवा सं नमुंचंति ॥ १ ॥ ते के इत्याह । ये धर्म श्रुतचारित्राख्यं साधुधर्म श्राधर्मवाऽनुवि चिंत्य विचार्य तमेव धर्म प्रामुष्कुर्युर्यथोक्तानुष्ठानतः प्रकटयेयुस्ते गुरुसेविनः स्युः॥१॥ यात्मानं यो जानाति यश्च लोकं चराचरं चशब्दादलोकं च जानाति । यश्च जीवानां ग तिमागतिं जानाति अनागतिं कुत्र गतानां नागमनं स्यादिति। यश्च शाश्वतं नित्यं सर्व व स्तु व्यास्तिकनयादशाश्वतं वा ऽनित्यं पर्यायनयाश्रयणात् चशब्दान्नित्यानित्यं च सर्व योजानाति । यदागमः । परश्यादवघ्या एसासयानावताएघसासया । एवं तिर्यगाद योपि । अथवा शाश्वतं मोदमशाश्वतं नवं तथा जातिमुत्पत्तिं मरणं च नारकादीनां तथा जनानां सत्त्वानामुपपातं जानाति । उपपातोदेवनारकयोरुत्पत्तिरन्येषां झेया॥२०॥ ॥ टीका-किंच। (जेयायइत्यादि) यः स्वयं सर्वयात्मनस्त्रैलोक्योदरविवरवर्ति पदार्थदर्शी यथावस्थितं लोकं ज्ञात्वा तथा यश्च गणधरादिकः परतस्तीर्थकरादेर्जीवा दीन पदार्थान् विदित्वा परेन्यउपदिशति सएवंनूतोहेयोपादेयवेद्यात्मनस्त्रातुमलमा त्मानं संसारावटात्पालयितुं समर्थोनवति । तथा परेषां सउपदेशदानतस्त्राता जायते तं सर्वज्ञ स्वतएव सर्ववेदिनं तीर्थकरादिकं परतोवेदिनं च गराधरादिकं ज्योतितं पदा र्थप्रकाशकतया चंदित्यप्रदीपकल्पमात्महितमिन् संसारःखोदिनः कृतार्थमात्मा नं नावयन् सततमनवरतमावसेत सेवेत गुर्व तिकएव यावजीवं वसेत् । तथाचोक्तं । नाणस्स होइ नागी, थिरपर दंसणे चरित्नेय ॥ धना धावकहाए, गुरुकुलवासं । मुंचंति । कएवं कुर्युरिति दर्शयति । ये कर्मपरिणतिमनुविचिंत्य माणुस्सखेत्तजाइत्या दि उलनां च समर्मावाप्तिं समर्मवा श्रुतचारित्राख्यं दांत्यादिकं दशविधसाधुधर्म वा ऽनुविचिंत्य पर्यालोच्य ज्ञात्वा वा तमेव धर्म यथानुष्ठानतः प्राउकुर्युः प्रकटयेयुस्ते गुरु कुलवासं यावङीवमासेवंतति । यदिवा ये ज्योतिनूतमाचार्य सततमासेवंति तथा बागमज्ञाधर्ममनुविचिंत्य लोकं पंचास्तिकायात्मकं चतुर्दशरज्ज्वात्मकं वा प्रामुष्कुयुरिति Page #506 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७६ दितीये सूत्रकृतांगे प्रथम श्रुतस्कंधे बादशमध्ययनं. क्रिया ॥ १५ ॥ किंचान्यत् । (अत्ताणमित्यादि ) योद्यात्मानं परलोकयायिनं शरीरा क्ष्यतिरिक्तं सुखःखाधारं जानाति यश्चात्महितेषु प्रवर्तते समात्मझोनवति । ये न चात्मा यथावस्थितस्वरूपोऽहंप्रत्ययग्राह्योनिझातोनवति तेनैवायं सर्वोपि लोकः प्रवृत्तिनिवृत्तिरूपोविदितोनवति सएव चात्मझोस्तीत्यादि क्रियावादं नाषितुमर्हतीति वितीयवृत्तांतस्य क्रिया । यश्च लोकं चराचरं वैशाखस्थानस्थकटिस्थकरयुग्मपुरुषा कारं चशब्दादलोकं चानंताकाशास्तिकायमानं जानाति । यश्च जीवानामागतिमागमनं कुतः समागतानारकास्तिर्यचोमनुष्यादेवाः कैर्वा कर्मनिारकादित्वेनोत्पद्यंतइत्येवं यो जानाति । तथाऽनागतं चाऽनागमनं च कुत्र गतानां नागमनं नवति चकारात्तजमनोपायंच सम्यग्दर्शनशानचारित्रात्मकं योजानाति । तत्रानागतिः सिदिरशेषकर्मच्युतिरूपा लोकाया काशदेशस्थानरूपा वा प्राहा साच सादिरपर्यवसाना । यश्च शाश्वतं नित्यं सर्ववस्तुजातं इव्यास्तिकनयाश्रयादशावतं वा नित्यं प्रतिक्षणविनाशरूपं पर्यायनयाश्रयणात् चकारा नित्यानित्यं चोनयाकारं सर्वमपि वस्तुजातं योजानाति । तथाहि । आगमः । रश्या दवच्याएसासयानावघ्याएषसासया । एवमन्येपि तिर्यगादयोऽष्टव्याः। अथवा निर्वाणं शाश्वतं संसारोऽशाश्वतस्तन्तानां संसारिणां स्वकतकर्मवशगानामितश्चेतश्च गमनादिति । तथा जातिमुत्पत्तिं नारकतिर्यङ्मनुष्यामरजन्मलदाणां च मरणं वाऽऽयुष्कयलणं । त था जायंतइति जनाः सत्त्वास्तेषामुपपातं जानाति सच नारकदेवयोर्नवतीति । अत्रच ज न्मचिंतायामसुमतामुत्पत्तिस्थानं योनिनणनीया साच सचित्ताचित मिश्राच तथा शीता नमा मिश्राच तथा संहता विकृता मिश्राचेत्येवं सप्तविंशतिविधेति । मरणं पुनस्तियङ्म नुष्ययो च्यवनं ज्योतिष्कवैमानिकानासुधर्तनं नवनपतिव्यंतरनारकाणामिति ॥ २० ॥ अहो वि सत्ताण विनणं च, जो आसवं जाणति संवरं च ॥ सुरकं च जो जाणति निजरं च, सोनासिन मरिहाइकिरियवाद ॥३१॥सद्देसु रूवेसु असऊमाणो, गंधेसु रसेसु अस्समा णे ॥णो जीवितं णो मरणादिकंरकी, आयाणगुत्ते वलया विमु के तिबेमि ॥२२॥ इतिश्री समवसरणमध्ययनं बादशमं संमत्तं॥ अर्थ-(अहो विसत्ताण विट्टणंच के ) अधोगतिये नरकादिकने विषे अगुन कर्म ने विपाके जीवने शरीर पीडादिक संताप नपजे ते सर्व जाणे (जोयासवंजाण तिसंव रंच के ) जे आश्व इंडिय कषाय योग धने अव्रत इत्यादिक सर्व जाणे तथा संवर ते समिति गुप्ति अने परिसह इत्यादिक सर्व जाणे (उरकंचजोजाणतिनिङरंच के०) Page #507 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राय धनपतसिंघ बाहाउरका जैनागम संग्रह नाग उसरा. १७७ तथा पापोदयथकी दुःख उत्पन्न थाय ते जाणे अने उपलदणथकी पुण्यना बेता लीश नेद पण जाणे वली निर्जराना बारनेदने पण जाणे ( सोनासिनमरिहरकिरय वादं के० ) तथा बंधना चार नेदने पण जाणे ते परमार्थथकी क्रियावाद बोलवा योग्य थाय ॥ २१ ॥ एवा जे सम्यक् वादी तेने फल देखाडेले. (सद्देसुरुवेसुअसञ्जमा णो के० ) शब्द जे वीणा वंश प्रमुख श्रोत्रंडियने सुखना आपनार तेने विषे तथा रू प ते अनेक काष्टकर्म चित्रकर्म तथा लिप्यकर्मादिकने विषे असऊमान एटले तेना नुपर रागदेषने टालतो थको तथा (गंधेसुरसेसुथस्समाणे के०) गंधने विषे, रसने विषे असमान एटले ६षने यण करतो थको (गोजीवितंयोमरणाहिरको के० ) जीवितव्य घने मरणनी वांबा नकरे समता नावे वर्ते (आयाणगुत्ते के०) श्रादान एटले संयम तेने विषे गुप्त एटले तेनो रहपाल बतो (वलया विमुक्के के०) वलय एटले माया तेना थकी विमुक्त बतो संयम पाले तिबेमिनो अर्थ पूर्ववत् जाणवो ॥२॥ इतिश्री वितियसूत्रहतांगनेविषे समवसरण नामे बारमा अध्ययननो अर्थ समाप्त थयो. ॥ दीपिका-सत्त्वानां स्वकर्मनुजामधोनारकादौ विकुट्टनी पीडां योजानाति । यश्चाश्र वं संचरं च जानाति तथा दुःखं चशब्दात्सुखंच तथा तपसा निर्जरां च जानाति । कोर्थः । बंधहेतून् कर्म यहेतूंश्च तुल्यतया जानाति । यतः । यथाप्रकारायावंतः, संसा रावेशहेतवः ॥ तावंतस्तविपर्यासा, निर्वाणावेशहेतवः ॥१॥ सएव तत्त्वतोनाषितुं वकुम हति क्रियावादं जीवाद्यस्तित्वरूपमिति । अत्रान्यमतखंडनं वृत्तितोइयं ॥ २१ ॥ शब्द षु रूपेषु मनोज्ञेषु असऊन संगमकुर्वन् गंधेषु रसेप्वमनोज्ञेषु अदेष्यन् देषमकुर्वन् । श दादिषु इंडियविषयेष्विष्टानिष्टेषु रागोषरहितश्त्यर्थः। एवंविधोजीवितमसंयमजीवितं ना निकांदेत् परीषदोपसगैः पीडितोमरणमपि नानिकांदेत् । श्रादानं संयमस्तेन गुप्तः स हि वलयं नाववलयं माया तथा विमुक्तइति । ब्रवीमीति पूर्ववत् ॥ २२ ॥ समाप्तं सम वसरणाख्यं बादशमध्ययनं ॥ ॥ टीका-किंच (अहो विश्त्यादि ) सत्वानां स्वरूतकर्मफलनुजामधस्तान्नारकादौ ष्कतकर्मकारिणां विविधां विरूपां वा कुट्टनां जातिजरामरणरोगशोककृतां शरीरपीडां च शब्दात्तदनावोपायं योजानाति । इदमुक्तंनवति । सर्वार्थ सिदादारतोधःसप्तमी नरकनु वं यावदसुमंतः सकर्माणो विवर्तते तत्रापि ये गुरुतरकर्माणस्तेऽप्रतिष्ठाननरकयायिनोन वंतीत्येवं योजानीते तथा आश्रवत्यष्टप्रकारकं कर्म येन स थाश्रवः सच प्राणातिपात रूपोरागदेषरूपोवा मिथ्यादर्शनादिकोवेति तं तथा संवरणमाश्रवनिरोधरूपं यावदशेषयो Page #508 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७७ हितीये सूत्रकृतांगे प्रथम श्रुतस्कंधे घादशमध्ययनं. गनिरोधस्वनावं चकारात्पुण्यपापे च योजानीते तथा पुःखमसातोदयरूपं तत्कारणं च योजानाति सुखं च तविपर्ययनूतं योजानाति तपसा निर्जरांच । इदमुक्तं नवति । यः कर्मबंधहेतून तदिपर्यासहेतूंश्च तुल्यतया जानाति । तथाहि । यथाप्रकारायावंतः, सं सारावेशहेतवः ॥ तावंतस्तविपर्यासा, निर्वाणावेशहेतवः॥१॥सएव परमार्थतोना षितुं वक्तुमर्हति । किंतदित्याह । क्रियावादमस्ति जीवोऽस्ति पुण्यमस्ति च पूर्वाचरितस्य कर्मणः फलमित्येवं वाद मिति। तथाहिराजीवाजीवाश्रवसंवरबंधपुण्यपापनिर्जरामोदरूपान वापि पदार्थाः श्लोक येनोपात्तास्तत्र ययात्मानं जानातीत्यनेन जीवपदार्थोलोकमि त्यनेनाजीवपदार्थस्तथा गत्या गतिः शाश्वतेत्यादिनानयोरेव स्वनावोपदर्शनं कृतं । त थाश्रवसंवरौ स्वरूपेणैवोपात्तौ । फुःखमित्यनेन तु बंधपुण्यपापानि गृहीतानि तदविना नावित्वादुःखस्य । निर्जरायास्तु स्वानिधानेनैवोपादानं तत्फलनूतस्य मोहस्योपादानं ६ ष्टव्य मिति । तदेवमेतावंतएव पदार्थास्तदन्युपगमे नवास्तीत्यादिकः क्रियावादोऽन्युपग तोनवतीति । यश्चैतान् पदार्थान् जानात्यन्युपगलसपरमार्थतः क्रियावादं जाना ति । ननुचाऽपरदर्शनोक्तपदार्थपरिज्ञानेन सम्यक्त्वादिकं कस्मानान्युपगम्यते तक्तपदा नामेवाघटमानत्वात् । तथाहि । नैयायिकदर्शनेन तावत्प्रमाणप्रमेयसंशयप्रयोजन ष्टांतसिद्धांतावयवतर्कनिर्णयवादजल्पवितंडाहेत्वानासबलजातिनिग्रहस्थानानीत्येते षो डश पदायिनिहिताः । तत्र हेयोपादेयप्रवृत्तिरूपतया येन पदार्थपरिबित्तिः क्रियते त प्रमीयतेऽनेनेति प्रमाणं । तच प्रत्यक्षानुमानोपमानशब्दनेदाचतुर्दा । तस्यिपदार्थ संनिकर्पोत्पन्नं ज्ञानमव्यपदेशमव्य निचारिव्यवसायात्मकं प्रत्यदं । तदपियार्थयोर्यः सं बंधस्तस्माद्यऽत्पन्नं नानिव्यक्तं ज्ञानं न सुखादिकमव्यपदेश्य मिति । व्यपदेशत्वेनाशब्द प्राप्तेरव्य निचारि तविचंझानव क्ष्यनिचरतीति व्यवसायात्मकमिति । निश्चयात्मकं प्र त्यदं तत्रास्य प्रत्यक्ता न बुध्यते । तथाहि । यत्रात्मार्थग्रहणंप्रति सादा क्याप्रियते तदेव प्रत्यद । तच्चावधिमनःपर्यायकेवलात्मकं । एतच्चापरोपाधिधारेण प्रहत्तेरनुमानवत्प रोदमिति । उपचारप्रत्यदं तु स्यान्नचोपचारस्तत्त्वचिंतायां व्याप्रियतइति। अनुमानमपि पूर्ववलेषवत्सामान्यतोदृष्टमिति त्रिधा । तत्र कारणात्कार्यानुमानं पूर्ववत्कार्याकारणानु मानं शेषवत्सामान्यतोदृष्टांतनूतमेकं विकसितं दृष्ट्वा पुष्पिताश्रूताजगतीति । यदिवा दे वदत्तादौ गतिपूर्वका स्थानात् स्थानांतरावाप्तिं दृष्ट्वाऽऽदित्ये गत्यनुमानमिति । तत्राप्यन्य थानुपपतिरेव गमिका न कारणादिकं तयाविना कारणस्य कार्यप्रति व्यनिचारात् । य ऋतु सा विद्यते तत्र कार्यकारणादिव्यतिरेकेणापि गम्यगमकनावोदृष्टः । तद्यथा । नवि ष्यति शकटोदयः कृत्तिकादर्शनादिति । तउक्तं । अन्यथानुपपन्नत्वं यत्र तत्र त्रयेण किं।। नान्यथाऽनुपपन्नत्वं यत्र तत्र त्रयेण किं ॥ १ ॥ थपिच प्रत्यदस्याप्रामाण्ये तत्पूर्वकस्या Page #509 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रायधनपत सिंघ बादाडुरका जैनागम संग्रह नाग दुसरा. მეს प्यनुमानस्याप्रामाण्यमिति । प्रसिद्धसाधर्म्यात्साध्यसाधनमुपमानं । यथा गौर्गवयस्तथा ऽच संज्ञासंज्ञिसंबंधप्रतिपत्तिरुपमानार्थोऽत्रापि सिद्धायामन्यथानुपपत्तावनुमानलक्षण त्वेन तत्रैवात्प्रमाणत्वमनुपपन्नमेव । यथ नास्त्यनुपपत्तिस्ततोव्य निचाराद प्रमाणतोपमानस्य । शाब्दमपि न सर्व प्रमाणं किंतर्ह्याप्तिप्रणीतस्यैवागमस्य प्रामाण्यान्न चाहे यतिरेकेणा परस्याप्तता युक्तियुक्तेत्येतच्चान्यत्र निर्दोडितमिति । किंच सर्वमप्येत स्प्रमाणमात्मनोज्ञानं । ज्ञानं चात्मनोगुणः पृथक्पदार्थतयान्युपगंतुं न युक्तोरूपरसादी नामपि पृथकपदार्थतापत्तेः । अथ प्रमेयग्रहणेनेंड्रियार्थतया तेप्याश्रिताः सत्यमाश्रिता नतु युक्तियुक्ताः । तथाहि । इव्यव्यतिरेकेण तेषामनावात्तद्ग्रहणेच तेषामपि ग्रहणं सिद्धमेवेति न युक्तं पृथगुपादानं । प्रमेयं त्वात्मशरीरेंड्रियार्थबुद्धिमनःप्र प्रवृत्तिदोषप्रेत्यना वफलडुःखापवर्गाः । तत्रात्मा सर्वस्य इष्टोपनोक्ता चेवादेषप्रयत्न सुखदुःखज्ञानानुमेयः । सच जीवपदार्थतया गृहीतएवाऽस्मानिरिति । शरीरं तु तस्य जोगायतनं जोगायतनानी प्रियाणि नोक्तव्या इंड्रियार्थाः । एतदपि शरीरादिकं जीवाजीवग्रहणेनोक्तमस्मानिरिति । उपयोगोबुद्धिरित्येतच्चज्ञान विशेषः । सच जीवगुणतया जीवोपादानतयोपात्तएव । सर्व विषयमंतःकरणं युगपज्ज्ञानानुत्पत्तिर्लिगं मनस्तदपि इव्यमनःपौजलिकमजीवग्रहणेन गृहीतं नावमनस्त्वात्मगुणत्वाजीव ग्रहणेने ति । यात्मनः सुखदुःख संवेदनानां निवर्तनका रणं प्रवृत्तिः सापि पृथकपदार्थतया नान्युपगंतुं युक्ता । तथाहि । प्रवृत्तिरित्यात्मेडा सा चात्मगुणएवात्माऽनिप्रायतया ज्ञानविशेषत्वादात्मानं दूषयतीति दोषः । तद्यथा । अ स्यात्मनो नवेदं शरीरमपूर्वमनादित्वादस्य नाप्यनुत्तरत्वात्संततेरिति । योयमात्मनोध्यवसा यः सदोषोरागद्वेष मोहादिकोवा दोषः । प्रयमपि दोषोजी वा निप्रायतया तदंतर्भावीति न पृथग्वाच्यः । प्रेत्यनावः परलोकसङ्गावोयमपि ससाधनोजीवाजीवग्रहणेनोपात्तः । फलमपि सुखः खोपजोगात्मकं तदपि जीवगुणे एवांतर्भवतीति न पृथगुपदेष्टव्यमिति । दुःखमित्येतदपि विविधबाधनायोगरूपमिति फलादतिरिच्यते । जन्ममरणप्रबंधोच्छेदरूप तया सर्वडुःखप्रहाणलक्षणोमोहः सचास्मानिरुपात्तएवेति । किमित्यनवधारणात्मकः प्रत्ययः संशयोऽसावपि निर्णयज्ञानवदात्मगुणएवेति । येन प्रत्युक्तः प्रवर्तते तत्प्रयोजनं तदपीठाविशेषणत्वादात्मगुणएव । प्रविप्रतिपत्तिविषयापन्नोऽर्थोदृष्टांतोऽसावपि जीवा जीवयोरन्यतरः। नचैतावतास्य पृथकपदार्थता युक्ताऽतिप्रसंगादवयवग्रहणेन च तस्योत्त I ग्रहणादिति । सिद्धांतश्चतुर्विधः । तद्यथा । सर्व तंत्राविरुद्धस्तंत्रेऽधिकृतार्थः सर्वतंत्र सिद्धांतः । यथा स्पर्शनादीनीं प्रियाणि स्पर्शादय इंडियार्थाः प्रमाणैः प्रमेयस्य ग्रहणमि ति समानं । तंत्र सिद्धः परतंत्रासिद्धः प्रतितंत्र सिद्धांतोयथा सांख्यानां नाऽसतयात्मला नोनच सतः सर्वथा विनाशइति । तथा चोक्तं । नासतोजायते जावोनानावोजायते सत For Private Personal Use Only Page #510 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Ho दितीये सूत्रकृतांगे प्रथम श्रुतस्कंधे बादशमध्ययनं. इति यसिक्षावन्यस्यार्थस्यानुषंगेण सिदिः सोधिकरणसिकांतः । यथेंझ्यिव्यतिरि तोज्ञानात्माऽस्ति दर्शनस्पर्शनान्यामेकार्थग्रहणादिति । तत्रानुषंगिणोर्याऽभियनाना त्वं नियतविषयाणांड्रियाणि स्वविषयग्रहणलिंगानि च ज्ञातुर्मानसाधनानि स्पर्शादि गुणव्यतिरिक्तं व्यं गुणाधिकरणमनियत विषयाश्चेतनाइति । पूर्वार्थ सिदावतेऽर्थाः सिध्यति नैतैर्विना पूर्वार्थः संनवतीति । अपरीक्षितार्थान्युपगमात्तविशेषपरीक्षण मन्युपगमसिहांतः । तद्यथा । किंशब्दति विचारे कश्चिदाह । अस्तु व्यं शब्दः सतु किंनित्योऽथानित्यश्त्येवं विचारः । सचायं चतुर्विधोपि सिद्धांतोन झानविशेषादति रिच्यते । ज्ञान विशेषस्यात्मगुणत्वाजुणम्य च गुणिग्रहणेन ग्रहणादष्टथगुपादानमिति । अ थावयवाः प्रतिज्ञाहेतूदाहरणोपनयनिगमनानि । तत्र साध्य निर्देशः प्रतिझाय नित्यः श दोऽनित्योवेति । हिनोति गमयति प्रतिज्ञातमर्थ मिति हेतुः । तथोत्पत्तिधर्मकत्वात्साध्य साधर्म्यात्तधर्मनावे दृष्टांतः । उदाहरणं यथा घटइति। वैधोदाहरणं यदि नित्यं न जव ति तत्पत्तिमदपि न नवति यथाकाशमिति । तथा न तथेति वा पदधर्मोपसंहारनपन यः । तद्यथा । अनित्यः शब्दः कृतकत्वाद्घटवत्तथाचायं । अनित्यत्वानावे कृतकत्व मपि ननवत्याकाशवत् तयाऽयमिति । प्रतिझाहेत्वोः पुनर्वचनं निगमनं तस्मादनित्य इति । तत्रामी पंचाप्यवयवायदि शब्दमानं ततः शब्दस्य पौजिलकत्वात्पुजलानां चा जीवग्रहणेन ग्रहणान्नष्टथमुपादानं न्याय्यमथतकं ज्ञानं ततोजीवग्रहणेनैवोपादा नमिति । ज्ञानविशेषपदार्थतान्युपगमे च पदार्थबहुत्वं स्यादनेकप्रकारत्वाझा नविशेषाणामिति । संशयादूर्ध्व नवितव्यताप्रत्ययः सदर्थपर्यालोचनात्मकस्तर्कः । यथा नवितव्यमत्र स्थाणुना पुरुषेणवेत्ययमपि ज्ञान विशेषएव । नच छानविशेषाणां ज्ञातुर निनानां पथपदार्थपरिकल्पनं समनुजानते विवांसः । संशयतर्काच्यामुत्तरकालनावी निश्चयात्मकः प्रत्ययः । निर्णयोयमपि प्राग्वन्न झानादतिरिच्यते । किंचास्य निश्चयात्मक तया प्रत्यदादिप्रमाणांत वान्न एथनिर्देशोन्याय्यइति । तिस्त्रः कथावादोजल्पोवि तंडा चेति । तत्र प्रमाणतर्कसाधनोपालंनः सिद्धांताविरुदः पंचावयवोपपन्नः प्रतिपद परिग्रहोवादः। सच तत्त्वज्ञानार्थ शिष्याचार्ययोर्नवति । सएव विजिगीषुणा साध बल जातिनिग्रहस्थानसाधनोपालंनोजल्पः । सएव प्रतिपदस्थापनाहीनोवितंडेति । तत्रा सां तिमृणामपि कथानां नेदएव नोपपद्यते यतस्तत्त्वचिंतायां तत्त्वनिर्णयार्थ वादोविधे योन बलजल्पादिना तत्त्वागमः कर्तु पार्यते । बलादिकं हि परवंचनार्थमुपन्यस्यते । नच तेन तत्त्वावगतिरिति । सत्यपि नेदे नैषां पदार्थता यतोयदेव परमार्थतोवस्तुवृत्त्या वस्त्व स्ति तदेव परमार्थतयाऽन्युपगंतुं युक्तं । वादास्तु पुरुषेन्नावशेन नवंतोऽनियतावर्तते ते न तेषां परमार्थतेति । किंच पुरुषेबानुविधायिनोवादाः कुक्कुटलावकादिष्वपि पदप्रति Page #511 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रायधनपतसिंघ बादाउरका जैनागम संग्रह नाग उसरा. तर पपरिग्रहेण नवंत्यतस्तेषामपि तत्त्वप्राप्तिः स्यान्नचैतदिष्यतइति । असिझानैकांतिक विरुवाहेत्वानासाः । हेतुवदानासंतति हेत्वानासास्तत्र सम्यग्धेतूनामपि न तत्त्वव्यव स्थितिः किंपुनस्तदानासानां। तथाहि । इह यन्नियतं वस्त्वस्ति तदेव तत्त्वं नवितुमर्हति हे तुवस्तु । क्वचिवस्तुनि साध्ये हेतवः कचिदहेतवश्त्यनियतास्तइति । अथ बलं अर्थविधा तोऽर्थविकल्पोपपत्तेरिति । तत्रार्थ विशेषे विवदितेऽनिहिते वक्तरनिप्रायादीतरकल्पना वाक्बलं । यथा नवकंबलोऽयं देवदत्तः। अत्र च नवः कंबलोऽस्येति वक्तुरनिप्रायः। विग्रहे च विशेषोन समासे । तत्रायं बलवादी नवः कंबलोऽस्येत्येतभवतानिहितमिति कल्प यति नचायं तथेत्येवं प्रतिषेधयति । तत्र बलमित्यसदानिधानं। तद्यदि बलं न तर्हि तत्त्वं तत्त्वं चेन्न तर्हि बलं परमार्थरूपत्वात्तस्येति। तदेवं बलं तत्त्वमित्यतिरिक्ता वाचोयु क्तिः। दूषणानासास्तु जातयस्तत्र सम्यक्षणस्यापि न तत्त्वव्यवस्थितिरनियतत्वात् । अनियतत्त्वं च यदेवैकस्मिन् सम्यक् दूषणं तदेवान्यत्र दूषणानासं पुरुषशक्त्यपेदत्वास दू षणानासव्यवस्थितेरनियतत्वमिति । कुतः पुनदूषणानासरूपाणां जातीनामवास्तव त्त्वात्तासामिति। वादकाले वादी प्रतिवादी वा येन निगृह्यते तन्निग्रहस्थानं तच वादिनो साधनांगवचनं प्रतिवादिनस्तदोषोनावनं विहाय यदन्यदनिधीयते नैयायिकैस्तत्प्रलापमा त्रमिति । तच प्रतिज्ञाहानिः प्रतिज्ञांतरं प्रतिझा विरोधश्त्यादिकमेतच विचार्यमाणं न निग्रहस्थानं नवितुमर्हति नवदपिच पुरुषस्यैवापराधं कर्तुमलं न त्वेतत्तत्त्वं नवितुमर्हति। वक्तगुणदोषौ हि परार्थ अनुमानेऽधिक्रियेते नतु तत्त्वमिति । तदेवं न नैयायिकोक्तं तत्त्वं तत्त्वेनाश्रयितुं युज्यते तस्योक्तनीत्या सदोषत्वादिति।नापि वैशेषिकोक्तं तत्त्वमिति तथा हि। व्यगुणकर्मसामान्य विशेषसमवायानावास्तत्त्वमिति । तत्र दृथिव्यप्तेजोवायुराकाशं कालोदिगात्मा मनइति नव इव्याणि । तदत्र दृथिव्यप्तेजोवायूनां पृथग्व्यत्वमनुपप नं । तथाहि । तएव परमाणवः प्रयोगविस्त्रसान्यां टथिव्यादित्वेन परिणमंतोपि न स्व कीयं व्यत्वं त्यजति । नचावस्थानेदेन इव्यनेदोयुक्तोऽतिप्रसंगादिति । आकाशकाल योश्चास्मानिरपि इव्यत्वमन्युपगतमेव । दिशस्त्वाकाशावयवनूतायाअनुपपन्नत्वं पृथ ग्व्यत्वमतिप्रसंगदोषादेव । यात्मनश्च स्वशरीरमात्रव्यापिनउपयोगलक्षणस्यान्युपग तव्यत्वमिति । मनसश्च पुजल विशेषतया पुजलव्यऽत वइति परमाणुवनावान्म नसश्च जीवगुणत्वादात्मन्यंत वइति । यदपि तैर निधीयते यथा दृथिवीत्वयोगात्टथिवीति तदपि स्वप्रक्रियामात्रमेव । यतोनहि दृथिव्याः पृथग्नतं पृथिवीत्वमपि येन तद्योगात्ट थिवी नवेदपि तु सर्वमपि यदस्ति तत्सामान्यविशेषात्मकं नरसिंहाकारमुनयस्वनावमिति । तथा चोक्तं । नान्वयः सहनेदत्वा,न्न नेदोन्वयवृत्तितः ॥ मृदयसंसर्ग, वृत्तिजात्यंतरं घटः ॥ १ ॥ तथा नरस्य सिंहरूपत्वान्न सिंहोनररूपतः ॥ शब्दविज्ञानकार्याणां नेदा Page #512 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२ हितीये सूत्रकृतांगे प्रथम श्रुतस्कंधे घादशमध्ययनं. जात्यंतरं हि सश्त्यादि । अथ रूपरसगंधस्पर्शारू पियवृत्तर्विशेषगुणास्तथा संख्या परिमाणानि पृथक्त्वं संयोगविनागौ परत्वापरत्वे इत्येते सामान्यगुणाः सर्वश्व्यवृत्तित्वा त् । तथा बुद्धिः सुखःखेवाषप्रयत्नधर्माधर्मसंस्काराथात्मगुणाः । गुरुत्वं एथिव्यु दकयो व्यस्वनावत्वेन परोपाधिकत्वं पृथिव्युदकामिषु स्नेहोंऽनस्येव वेगारव्यः संस्कारो मूर्तव्येष्वेव आकाशगुणः शब्दशति । तत्र संख्यादयः सामान्यगुणारूपादिवदव्यस्व नावत्वेन परोपाधिकत्वात्रुणाएव न नवंति । अथापि स्युस्तथापि न गुणानांष्टयक्त्व व्यवस्था । तत्पृथक्त्वनावे इव्यस्वरूपहानेर्गुणपर्यायवत् इव्यमिति कृत्वा नांतरीयक तया इव्यग्रहणेनैव ग्रहणं न्याय्य मिति न पृथग्नावः। किंच तस्य नावस्तत्वमित्युच्यते। नावप्रत्ययश्च यस्य गुणस्य हि नावाद इव्ये शब्दनिवेशस्तदनिधाने त्वतला वित्यनेन नव ति । तत्र घटोरक्तनदकस्याहारकोजलवान सर्वैरेव घटनच्यते । अत्र च घटस्य नावोघट त्वं रक्तस्य नावोरक्तत्वं याहारकस्यनावयाहारकत्वं जलवतोनावोजलवत्वमित्यत्र घटसा मान्यरक्तगुण क्रियाव्यसंबंधरूपाणां गुणानां सन्नावात् इव्ये पृथुबुध्नाकारउदकाद्याहरण दमे कुटकारख्ये शब्दस्य घटादेरनिनिवेशस्तत्र त्वतलाविहच रक्तारख्यकोगुणोयत्सनावात्कत रश्वतद् इव्यं यत्र शब्दनिवेशोयेन नावप्रत्ययः स्यादिति । किमिदानी रक्तस्य नवोरक्तत्व मिति न नवितव्यं नवितव्यमुपचारेण । तथाहि । रक्तश्त्येतद्व्यत्वेनोपचर्य तस्य सामा न्यं नावति रक्तत्वमिति । नचोपचारस्तत्वचिंतायामुपयुज्यते शब्दसिमावेव तस्य कृता र्थत्वादिति । शब्दश्चाकाशस्य गुणएव न नवति तस्य पोजलिकत्वादाकाशस्य चामूर्तत्वा दिति । शेषं तु प्रक्रियामात्रं न साधनदूषणयोरंगं । क्रियापि इव्यसमवायिनी गुणवत्ष्टथ गाश्रयितुं न युक्तेति । अथ सामान्यं तद्विधा परमपरंच । तत्र परं महासत्वाख्यं इव्यादि पदार्थव्यापि । तथाचोक्तं । सदिति यतोऽव्यगुणकर्मसु सा सत्ता अपरं च व्यत्वगुण त्वकर्मत्वात्मकं । तत्र न तावन्महासत्तायाः पृथक्पदार्थता युज्यते यतस्तस्यां यः सदि ति प्रत्ययः सकिमपरसत्तानिबंधनात स्वतएव तत् । यद्यपरसत्तानिबंधनस्तत्राप्ययमेव विकल्पोऽतोऽनवस्था । अथ स्वतएव ततस्तद् इव्यादिष्वपि स्वतएव सत्प्रत्ययोनविष्य तीति किमपरसत्तयाऽजागतस्तनकल्पया विकल्पितया। किंचव्यादीनां किं सतां सत्तया सत्प्रत्ययउताऽसतां तत् । यदि सतां स्वतएव सत्प्रत्ययोनविष्यति किंतया । असत्यप देतु शश विषाणादिष्वपि सत्तायोगात्सत्प्रत्ययः स्यादिति । तथाचोक्तं । स्वतोः संतु सत्तावत्सत्तया किं सदात्मनां ॥ असदात्मसु नैषा स्यात्सर्वथाऽतिप्रसंगतइत्यादि । एतदे व दूषणमपरसामान्येऽप्यायोज्यं तुल्ययोगमत्वात् । किंचास्मानिरपि सामान्य विशेष रूपत्वावस्तुनः कथंचित्तदिष्यतएवेति तस्यच कथंचित्तव्यतिरेकात्तद्व्यग्रहणेनैव ग्रह णमिति । अथ विशेषास्ते चात्यंतव्यावृत्तिबुधिहेतुत्वेन परैराश्रीयंते । तत्रेदं चिंत्यते । Page #513 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धनपतसिंघ बादारका जैनागम संग्रह नाग दुसरा. ४८३ या तेषु विशेषबुद्धिः सा नापर विशेषहेतुका ऽऽश्रयितव्याऽनवस्थानयात् । स्वतः समाश्र यच तद्व्यादिष्वपि विशेषबुद्धिः स्यात्किं व्यादिव्यतिरिक्तैर्विशेषैरिति । इव्यादि व्यतिरिक्तास्तु विशेषायस्मानिरप्या श्रीयंते सर्वस्यसामान्यविशेषात्मकत्वादिति । एतत्तु प्रक्रियामात्रं । तद्यथा । नित्यव्यवृत्तयोंऽत्या विशेषा नित्यव्याणिच चतुर्विधाः परमा वो मुक्तात्मानो मुक्तमनांसि चेति निर्युक्तिकत्वादपकर्णयितव्यमिति । समवायस्त्वयुक्त सिद्धानामाधाराधेयनूतानां यह प्रत्ययहेतुः ससमवायइत्युच्यते । श्रसावपि नित्यश्चैक श्राश्रयते । तस्यच नित्यत्वात्समवायिनोपि नित्याच्यापद्येरन् । तदनित्यत्वे च तस्याप्यनि त्यत्वापत्तिस्तदाधाररूपत्वात्तस्य तदेकत्वाच्च सर्वेषां समवायिनामेकत्वापत्तिस्तस्य चानेक त्वमिति । किंचायं समवायः संबंधस्तस्य च द्विष्टत्वादयुत सिद्धत्वमेव दंडदं डिनोरिव वीर लानांच कटोत्पत्तौ तद्रूपतया विनाशः कटरूपतयोत्पत्तिरन्वयरूपतया व्यवस्थानमिति suriरिवेत्येवं वैशेषिकमतेपि न सम्यपदार्थावस्थितिरिति । सांप्रतं सांख्यदर्शने त निरूपणं प्रक्रम्यते । तत्र प्रकृत्यात्मसंयोगात्सृष्टिरुपजायते । प्रकृतिश्व सत्वरजस्तमसां साम्यावस्था ततोमहान् महतोऽहंकारोऽहंकारादेकादशेंड्रियाणि पंचतन्मात्राणि तन्मा त्रेयः पंचनूतानीति चैतन्यं पुरुषस्य स्वरूपं सचाकर्ता निर्गुणोऽनोक्तेति । तत्र परस्पर वि रुनां सत्त्वादीनां गुणानां प्रकृत्यात्मनां नियामकं गुणिनमंतरेणैकत्रावस्थानं न युज्य ते सितादिगुणानामिव । नच महदादिविकारे जन्ये प्रकृतिवैषम्योत्पादने कश्विदेतुस्त व्यतिरिक्तवस्त्वंतरानज्युपगमादात्मनश्चाकर्तृत्वेनाकिंचित्करत्वात्स्वना व वैषम्यान्युपगमेतु निर्हेतुकत्वापत्तेर्नित्यं सत्त्वमसत्त्वं वा स्यादिति । उक्तंच । नित्यं सत्त्वमसत्त्वं वा, हेतोरन्यानपेक्षणात् ॥ यपेातोहि नावानां, कादाचित्कत्वसंभवः ॥ १ ॥ अ पिच । महदहंकारौ संवेदनादनिन्नौ पश्यामः । तथाहि । बुद्धिरध्यवसायोऽहंकार वाहं सुख्यहं दुःखीत्येवमात्मनः प्रत्ययस्तयोश्चिद्रूपतयाऽऽत्मगुणत्वं न जडरूपायाः प्रकृते र्विकारावेाविति । पिच येयं तन्मात्रेच्योभूतोत्पत्तिरिष्यते । तद्यथा । गंधतन्मात्रा पृथिवी रसतन्मात्रादापः रूपतन्मात्रात्तेजः स्पर्शतन्मात्रा द्वायुः शब्दतन्मात्रादाकाशमिति सापि न युक्तिमा । यतो यदि बाह्यनूताश्रयेतदनिधीयते तदयुक्तं । तेषां सर्वदाना aranदाचिदशं जगदिति कृत्वा । अथ प्रतिशरीराश्रयणादेतडुच्यते । तत्र किल त्वगस्थिक विनलक्षणा पृथ्वी श्लेष्मामृड्वलक्षणायाः पक्तिलक्षणं तेजः प्राणापानल क्षणोवायुः सुषिरलक्षणमाकाशमिति तदपि न युज्यते । यतोऽत्रापि केषांचिवरीराणां शुक्रावोत्पत्तिर्न तत्र तन्मात्राणां गंधोपि समुपलक्ष्यते । दृष्टस्यापि कारणत्वकल्पने ऽतिप्रसंगः स्यात् । खंडजो निजांकुरादीनामप्यन्यतएवोत्पत्तिर्नवंती समुपलक्ष्यते । तदे वं व्यवस्थिते प्रधानमहदहंकारादिकोत्पत्तिर्या सांख्यैः स्वप्रक्रिययाऽन्युपगम्यते तत्तैर्निर्यु For Private Personal Use Only Page #514 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४ वितीये सूत्रकृतांगे प्रथम श्रुतस्कंधे त्रयोदशमध्ययनं. क्तिकमेव स्वदर्शनानुरागेणान्युपगम्यतइति । यात्मनश्चाकर्तृत्वान्युपगमे कृतनाशोऽकृताग मश्च स्यात् । बंधमोदानावश्च निर्गुणत्वे च ज्ञानशून्यतापत्तिरित्यतोबालप्रलापमानं । प्र कृतेश्चाचेतनायाबात्मार्थ प्रवृत्तियुक्तिविकलेति । अथ बौक्षमतं निरूप्यते । तत्रहि पदा धादशायतनानि । तद्यथा। चतुरादीनि पंच रूपादयश्च विषयाः पंच शब्दायतनं धर्मा यतनंच धर्माः सुरवादयो बादशायतनपरिबेदकत्वे प्रत्यदानुमाने देएव प्रधाने प्रमाणे । तत्र चक्षुरादीडियाण्यजीवग्रहणेनैवोपात्तानि । नावेंड्रियाणितु जीवग्रहणेनेति । रूपाद यश्च विषयाअजीवापादनोपात्तान पृथगुपादातव्याः। शब्दायतनं तु पोजलिकत्वाबन्द स्याजीवग्रहणेन ग्रहणं । नच प्रतिव्यक्ति पृथक्पदार्थता युक्तिसंगतेति । धर्मात्मकं सुखं छः खंच यद्यसातोदयरूपं ततोजीवगुणवाजीवेंतर्नावः । अथ तत्कारणं कर्म ततः पौग लिकत्वादजीवति । प्रत्यदं च तैनिर्विकल्पकमिष्यते तच्चानिश्चयात्मकतया प्रवृत्तिनित त्योरनंगमित्यप्रमाणमेव । तदप्रामाण्ये तत्पूर्वकत्वादनुमानमपीति। शेषस्त्वापिपरिहारो न्यत्र सुविचारितइति नेह प्रतन्यतइत्यनया दिशा मीमांसकलोकायतमतानिहितत्वनिराक रणं सुबुध्या विधेयं । तयोरत्यंतलोकविरुक्षपदार्थानां श्रयणान्न सादाउपन्यासः कृतइति। तस्मात्पारिशेष्यसिक्षाअर्हक्तानव सप्त पदार्थाः सत्यास्तत्परिज्ञानं च क्रियावादे हेतु परपदार्थपरिज्ञानमिति ॥ २१ ॥ सांप्रतमध्ययनार्थमुपसंजिहीर्षः सम्यग्वादपरिज्ञान फलमादर्शयन्नाह । (सद्देसुइत्यादि ) शब्देषु वेणुवीणादिषु श्रुतिसुखदेषु रूपेषु च नय नानंदकारिष्वासंगमकुर्वन् गाय॑मकुर्वाणोऽनेन रागोगृहीतस्तथा गंधेषु कुथितकलेवरादि षु रसेषु चांतप्रांताशनादिषु अष्यमाणोमनोज्ञेषु औषमकुर्वन्निदमुक्तं नवति । शब्दादिष्विं घिय विषयेषु मनोझेतरेषु रागदेषान्यामनपदिश्यमानोजीवितमसंयमजीवितं नानिकांदे नापि परीषदोपसगैरनितोमरणमनिकांदेत् । यदिवा जीवितमरणयोरननिलाषी संय ममनुपालयेदिति । तथा मोहार्थिनादीयते गृह्यतइत्यादानं संयमस्तेन तस्मिन्वा सति गुप्तोय दिवा मिथ्यात्वा दनादीयते इत्यादानमष्टप्रकारं कर्म तस्मिन्नादातव्ये मनोवाक्का यैर्गुप्तः समितश्च तथा नाववलयं माया तया विमुक्तोमायामुक्तः । इति परिसमाप्त्यर्थे । व्र वीमीति पूर्ववत् । नयाः पूर्ववदेव ॥ २२ ॥ समाप्तं समवसरणारयादशमध्ययनमिति ॥ हवे यथातथ्य नामे तेरमो अध्ययन प्रारंनियें बैयें. बारमा अध्ययनमा जुदा जुदा दर्श नीना समवसरण कह्या नंतर तेरमा अध्ययनमा यथातथ्य एटले सत्य स्वरूप देखाडे जे. आदत्तदीयं तु पवेयश्स्सं, नाणप्पकारं पुरिसस्स जातं ॥ सन . अधम्मं असन असील, संतिं असंतिं करिस्सामि पालं ॥१॥ Page #515 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रायधनपतसिंघ बादाउरका जैनागम संग्रह नागसरा. ज्य अहोयरान्अ समुहिएदि, तदागएहिं पडिलप्न धम्मं ॥समा दिमाघातमजोसयंता, सबारमेवं फरुसं वयंति ॥२॥ अर्थ-(याहत्तहीयंतुपवेयश्स्सं के०) यथातथ्य सम्यक् ज्ञाननो स्वरूप हवे प्रवे दिसुं एटले कहीयुं तथा (पुरिसस्त के०) जीवने (नाणप्पकारं के) नानाप्रकारना झानादिक जे (जातं के० ) उत्पन्न थाय तेपण हवे कही\ तथा (सअधम्मं के ) सत्पुरुषतुं धर्म जे श्रुत चारित्ररूप जे उर्गति थकी राखनार ते धर्म अने (असम्ध सीतं के० ) असत्पुरुष एटले परतीर्थिक तथा ग्रहस्थ अने पासबादिक तेनो सील एटले उष्टाचार ते कही\ तथा (संति के०) शांति एटले निर्वाणरूप थने (यसंति के०) संसारचमणरूप ए बनेने (करिष्यामि प्राऽ के०) प्रगट करी झुं ॥१॥(अहोयरायस मुहिएहिंके०) रात्रना तेम दिवसना पण सम्यक् प्रकारे उज्या एटले सावधान थया एवा जे निन्हवा दिक जमाली प्रमुख स्वदर्शनी तथा बोटिकादिक अन्यदर्शनी ते (तहागएहिंप डिलप्तधम्म के० ) तथा प्रकारे तीर्थकरादिक पाशेयी संसारथकी निकलवानु नपाय एवो जे पंमित धर्म तेने पामीने जमाली प्रमुखनी पेरे कर्मने नदये ते श्रीतीर्थकर ना पित एवो (समाहिमाघात के०) समाधिवंत एटले सम्यक् दर्शनादिक धर्म तेने (य जोसयंता के०) अण सेवता थका कदायहि पणाने लीधे मिथ्यात्वना प्रेया स्वबंदे यथा तथा एटले जेमतेम बोलता श्रीसर्वाना मार्गने उबापता अने कुमार्गनो उपदेश कर ता एरोते प्रवर्तता (सबार मेवंफरुसंवयंति के०) कदापि पोताने आचारना शिखावनार एवा गुरु जे महानुनाव ते प्रत्ये पण कठोर वचन बोले ॥ ५ ॥ ॥ दीपिका-अथ त्रयोदशं याथातथ्याध्ययनमारन्यते । तस्येदमादिसूत्रं । (अहत्ते ति) यथातथानावोयाथातथ्यं तत्त्वज्ञानादिकं पुरुषस्य जंतोर्जातमुत्पन्नं तदहं प्रवेदयि ष्यामि कथयिष्यामि । तुशब्दो विशेषणे । वितथाचारिणस्तदोषांश्च कथयिष्यामि । नाना प्रकारं वा चित्रं पुरुषस्य स्वनावं प्रशस्तरूपं प्रवेदयिष्यामि । तथा । सतः सत्पुरुषस्य धर्म श्रुतचारित्राख्यं शीलमुद्यतविहारित्वं शांति निवृतिं मोदं (करिस्सा मिपाति) प्राइष्करि ष्ये प्रकटयिष्यामि । तथाऽसतोऽशोननस्य परतीर्थिकस्य गृहस्थस्य पार्श्वस्थादेर्वा चश ब्दसमुचितमधर्म पापं तथाऽशीलं कुत्सितशीलमशांति संसारं प्रामुष्करिष्ये ॥१॥ अहोरा त्रं समुबितानिन्हवाबोटिकाश्च तेन्यः श्रुतधरेन्यस्तथागतेच्योवा तीर्थकभयोधर्म श्रुतचा रित्राख्यं प्रतिजन्य प्राप्यापि मंदनाग्यतया जमालिप्रमुखश्वात्मोत्कर्षात्तीर्थकरैराख्यातं समाधि मोदमार्गमजोषयंतोऽसेवमानाः सर्वज्ञोक्तं मार्ग विध्वंसयंति ते निन्हवाबोटिका श्व परेणाचार्यादिना चोदिताः संतस्तं शास्तारं चोदकं पुरुषं निष्ठुरं वदंति ॥ २ ॥ Page #516 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६ तिीये सूत्रकृतांगे प्रथम श्रुतस्कंधे त्रयोदशमध्ययनं. ॥ टीका-यथानंतरं त्रयोदशमारज्यते । यस्य चायमनिसंबंधः । इहानंतराध्ययने प रवादिमतानि निरूपितानि तन्निराकरणं चाऽकारि तच याथातथ्येन नवति तदिह प्रति पाद्यते इत्यनेन संबंधेनायातस्यास्याध्ययनस्य चत्वार्यनुयोग क्षाराणि नवंति । तत्राप्युपक्रम दारांतर्गतार्थाधिकारोयं । तद्यथा । शिष्यगुणदीपना। अयानंतराध्ययनेषु धर्मसमाधि मार्गसमवसरणारव्येषु यदवितथं याथातथ्येन व्यवस्थितं यच्च विपरीतं वितथं तदपि लेशतोऽत्र प्रतिपादयिष्यतइति । नामनिष्पनेतु निदेपे याथातथ्य मिति नाम तदधिकत्य नियुक्तिकदाह । “ पामतहं ग्वणतहं, दवतहं चेव होइ नावतहं ॥ दवतहं पुण जोज स्त सनावोहिंति दहस्स" ॥ २४ ॥ (णामतहमित्यादि) अस्याध्ययनस्य याथातथ्य मिति नाम । तच यथाशब्दस्य नावप्रत्ययांतस्य नवति । तत्र यथाशब्दोल्लंघनेन तथा शब्दस्य निदेपं कर्तुं नियुक्तिकारस्यायमनिप्रायः । इह यथाशब्दोयमनुवादे वर्तते तथा शब्दश्च विधेयार्थे । तद्यथा । यथेदं तथैवेदं नवता विधेयमित्यनुवाद विधेययोश्च विधेयां शएव प्रधाननावमनुनवतीति । यदिवा याथातथ्य मिति तथ्यमतस्तदेव निरूप्यतइति । तत्र यथाजावस्तथ्यं यथावस्थितवस्तुता । तन्नामादिश्चतुर्धा । तत्र नामस्थापने सुगमे । इव्यतथ्यं गाथापश्चार्धेन प्रतिपादयति । तत्र इव्यतथ्यं पुनर्योयस्य सचित्तादेः स्वनावोइ व्यप्राधान्याद्यद्यस्य स्वरूपं तद्यथोपयोगलदगोजीवः कतिनलदाणा एथिवी इव्यलदाणा यापइत्यादि । मनुष्यादेवा योयस्य मादेवादिस्वनावोऽचित्तव्याणां च गोशीषचंदनकंब लरत्नादीनां इव्याणां स्वनावः । तद्यथा । नएहे करे सीयं,सीए नएहत्तणं पुण नवे ३॥ कंबलरयणादाणं, एस सहावो मुणेयवो ॥ १ ॥ नावतथ्यमधिकृत्याह । “नावत हं पुण नियमा, गायवं बविहंमि नामि ॥ अहवा वि नाणदंसण, चरित्तविणएण थ सप्प " ॥ २५ ॥ (नावतहमित्यादि) जावतथ्यं पुनर्नियमतोऽवश्यंभावतया षड्रिधे औ दयिके नावे ज्ञातव्यं । तत्र कर्मणामुदयेन निवृत्तयौदायिकः कर्मोदयापादितोगत्याद्यनु नावलक्षणस्तथा कर्मोपशमेन निवृत्तीपशमिकः कर्मानुदयलणइत्यर्थः। तथा क्या जातः दायिकोऽप्रतिपातिज्ञानदर्शनचारित्रलदणस्तथा झ्याउपशमाञ्च जातः दायोप शमिकोदेशोदयोपशमलदाणः । परिणामेन निवृत्तः पारिणामिकोजीवाजीवनव्यत्वादिल दणः पंचानामपि नावानां विकादिसंयोगानिष्पन्नः सान्निपातिकइति । यदिवा अध्या त्मन्यांतरं चतुर्धा जावतथ्यं इष्टव्यं । तद्यथा । ज्ञानदर्शनचारित्रविनयतथ्य मिति । तत्र ज्ञानतथ्यं मत्यादिकेन ज्ञानपंचकेन यथास्वमवितथोविषयोपलंनः । दर्शनतथ्यं शंकाद्य तिचाररहितं जीवादितत्त्वज्ञानं । चारित्रतथ्यं तु तपसि दादश विधे संयमे सप्तदशवि धे सम्यगनुष्ठानं । विनयतथ्यं विचत्वारिंशन्नेदनिन्ने विनये ज्ञानदर्शनचारित्रतपनपचारिक रूपे यथायोगमनुष्ठानं ज्ञानादीनां तु वितथाऽसेवनेनाऽतथ्यमिति । अत्र च नावतथ्येना Page #517 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राय धनपतसिंघ बादाउरका जैनागम संग्रह नाग उसरा. ४ धिकारः । यदि वा जावतथ्यं प्रशस्ताप्रशस्तनेदाविधा । तदिह प्रशस्तेनाधिकारं दर्शयितु माह । “जह सुत्तं तह अनो, चरणं चारो तहत्ति गायत्वं ॥ संतंमिय पसंसाए, यस तीपगयं उगुंडाए " ॥ २६ ॥ (जहसुत्तमित्यादि ) यथा येनप्रकारेण यथापत्त्या सूत्रं व्यवस्थितं तथा तेनैव प्रकारेणार्थोव्याख्येयोनुष्ठेयश्च । एतदर्शयति । चरणमाचरण मनुष्टातव्यं । यदिवा सिमांतसूत्रस्य चारित्रमेवाचरणमतोयथासूत्रं तथा चारित्रमेतदेव चानुष्ठेयमेतच याथातथ्यमिति ज्ञातव्यं । पूर्वार्धस्यैव नावार्थ गाथापश्चार्धन दर्शयितु माह । यस्तुजातं प्ररुतं प्रस्तुतं यथार्थमधिकृत्य सूत्रमकारि तस्मिन्नर्थे सति विद्यमा ने यथावक्ष्याख्यायमाने संसारोत्तारणकारणत्वेन प्रशस्यमाने वा याथातथ्यमिति न वति विवक्षिते त्वर्थ सत्य विद्यमाने संसारकारणत्वेन वा जुगुप्सायां सत्यां सम्यगनुष्ठी यमाने वा याथातथ्यं न नवति । इदमुक्तं नवति । यदि यथासूत्रं येन प्रकारेण व्यव स्थितं तथैवार्थोयदि नवति व्याख्यायते ऽनुष्ठीयते च संसारनिस्तरणसमर्थश्च नवति त तोयाथातथ्यमिति नवति । यसति त्वर्थे क्रियमाणे संसारकारणत्वेन जुगुप्सिते वा न वति याथातथ्यमिति गाथातात्पर्यार्थः । एतदेव दृष्टांतगर्न दर्शयितुमाह । “थायरियप रंपर्येण बागयं जोन बेयबुझीए ॥ कोवे बेयवाई जमालिनासंचणासिहत्तित्ति ॥२७॥ (थायरिएइत्यादि) आचार्याः सुधर्मस्वामिजंबुनामप्रनवार्यरदिताद्यास्तेषां प्रणालिका पारंपर्य तेनागतं यक्ष्याख्यानं सूत्रानिप्रायस्तद्यथा व्यवहारतयानिप्रायेण क्रियमाणमपि कृतं नवति । यस्तु कुतर्कदध्मातमानसोमिथ्यात्वोपहतदृष्टिकया बेकबुध्या निपुणबुत्ध्या कुशाग्रशेमुषीकोहमिति मत्वा कोपयति दूषयति अन्यथा तमर्थ सर्वज्ञप्रणीतमपि व्या चष्टे कृतं कतमित्येवं ब्रूयात् । वक्तिच नहि मृत्पिंरक्रियाकालएव घटोनिष्पद्यते कर्मगुण व्यपदेशानामुपलब्धेः । सएव डेकवादी निपुणोदमित्येवं वादी पंडितानिमानी जमालि ना समोजमालिनिन्दववत् सर्वज्ञमतविकोपकोविनंयत्यरहघट्टघटीयंत्रन्यायेन संसारचक्र वाले बंत्रमिष्यतीति । नचासौ जानाति वराकोयथायं लोकोघटार्थाः क्रियामृत्खननाद्याघट एवोपचरति तासांच क्रियाणां क्रियाकाल निष्ठाकालयोरेककालत्वात क्रियमाणमेव कृतं नव ति। दृश्यते चायं व्यवहारोलोके। तद्यथा ।यद्यैव देवदत्ते निर्गते कान्यकुब्ज देवदत्तोगतति व्यपदेशस्तथा दारुणि विद्यमाने प्रस्थकोयं व्यपदेशइत्यादि।सांप्रतमन्यथावादिनोऽपायदर्श नारेणोपदेशं दातुकामबाह । ए करेति रकमोरकं, नऊममाणोवि संजमतवेसु॥ तम्हाअत्तुक्करिसो वक्षबो जतिजणेणं ॥ २७ ॥ (गकरेइत्यादि) योहि उहीतविद्या लवदध्मातः सर्वज्ञवचनैकदेशमप्यन्यथा व्याचष्टे सएवंनूतः सत्संयमतपस्तउद्यम कु वाणोशारीरिकमानसानां कुःखानामसातोदयजनितानां मोदं विनाशं न करोत्यात्मग वधिमातमानसोपि यतएवं तस्मादात्मोत्कर्षोऽहमेव सिमांतार्थवेदी नापरः कश्चिन्मत्तु Page #518 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७ वितीये सूत्रकृतांगे प्रथम श्रुतस्कंधे त्रयोदशमध्ययनं. व्योस्तीत्येवंरूपोनिमानोवर्जनीयस्त्याज्योयतिजनेन । साधुलोकेनापरोपि ज्ञानिना जात्या दिकोमदोन विधेयः किंपुननिमदः । तथा चोक्तं ॥झानं मददर्पहरं, माद्यति यस्तेन तस्य कोवैद्यः ॥ अगदोयस्य विषायति, तस्य चिकित्सा कथं क्रियते ॥ १ ॥ गतोनामनिष्पन्नो निदेपः सांप्रतं सूत्रालापकनिष्पन्नस्य निदेपस्यावसरः सच सूत्रे सति नवति । सूत्रंच सूत्रा नुगमे सचावसरःप्राप्तोऽतः सूत्रानुगमेऽस्खलितादिगुणोपेतं सूत्रमुच्चारणीयं । तचेदं। (याह नहीत्यादि) अस्य चानंतरसूत्रेण सहायं संबंधः। तद्यथा। वलयाविमुक्तेल्यनिहितं । नावव लयं रागषौ तान्यां विनिर्मुक्तस्यैव याथातथ्यं नवतीत्याद्यनेन संबंधेनायातस्यास्य सूत्रस्य व्याख्या प्रतन्यते । यथातथानावोयं याथातथ्यं तत्त्वं परमार्थस्तच परमार्थचिंतायां सम्य क्झानादिकं तदेव दर्शयति । ज्ञानप्रकारं प्रकारशब्दयाद्यर्थे । आदिग्रहणाच सम्यग्दर्शनचा रित्रे गृह्यते । तत्र सम्यग्दर्शनमौपशमिकदायोपश मिकं गृह्यते।चारित्रं तु व्रतसमितिकषाया णां धारणरक्षण निग्रहादिकं गृह्यते । एतत्सम्यग्ज्ञानादिकं पुरुषस्य जंतोर्यातमुत्पन्नं त दहं प्रवेदयिष्यामि कथयिष्यामि। तुशब्दो विशेषणे। वितथाचारिणस्तदोषांश्चावि वयि ष्यामि । नानाप्रकारं वा विचित्रं पुरुषस्य स्वनावमुच्चावचप्रशस्ताप्रशस्तरूपं प्रवेदयिष्या मि । नानाप्रकारं स्वनावफलंच पश्चार्धेन दर्शयति । सतः सत्पुरुषस्य शोननस्य सदनुष्ठा यिनः सम्यग्दर्शनचारित्रज्ञानवतोधर्मं श्रुतचारित्राख्यं पुनर्गतिगमनधरणलणं वा तथा शीलमुद्युक्तविहारित्वं तथा शांति निर्वतिमशेषकर्मदयलक्षणां (करिस्सामिपाउत्ति) प्रामुष्करिष्ये प्रकटयिष्यामि यथावलावयिष्यामि। तथाऽसतोऽशोननस्य परतीर्थिक स्य गृहस्थस्य पार्श्वस्थादेर्वा च शब्दः समुच्चितमधर्म पापं तथा कुशीनं कुत्सितशील मशांतिं चानिर्वाणरूपां संमृति प्राउ वयिष्यामीति । यत्र च सतोधर्म शीलं शांतिंच प्रामुष्करिष्याम्यसतश्चाधर्ममशीलमशांतिंचेत्येवं पदघटना योजनीया अनुपात्तस्यच चशब्दे नादेपोइष्टव्यइति ॥१॥ जंतोगुणदोषरूपं नानाप्रकारं स्वनावं प्रवेदयिष्यामीत्युक्तं तदरों यितुकामयाह । (अहोयमित्यादि ) अहोरात्रमहर्निशं सम्यगुजितानिन्दवाबोटिका श्व सदनुष्ठानवंतस्तेन्यः श्रुतधरेन्यस्तथा तथागतेन्योवा तीर्थक योधर्म श्रुतचारित्राख्यं प्रतिजन्य संसारनिःसरणोपायं धर्ममवाप्यापि कर्मोदयान्मंदनाग्यतया जमालिप्रनृतय वात्मोत्कर्षात्तीर्थकदाद्याख्यातं समाधि सम्यग्दर्शनादिकं मोक्षपतिमजोषयंतोऽसेवंतः सम्यगकुर्वाणानिह्नवाबोटिकाश्च स्वरुचिविरचितव्याख्याप्रकारेण निर्दोषं सर्वप्रणीतं मार्ग विध्वंसयंति कुमार्ग प्ररूपयंति ब्रुवते चासो सर्वझएव न नवति । यः क्रियमाणं कृतमि त्यध्यविरु प्ररूपयति । तथा यः पात्रादिपरिग्रहान्मोदमार्गमावि वयति । एवं स वैज्ञोक्तमश्रधानाः अज्ञानं कुर्वतोप्यपरे धृतिसंहननऊर्बलतया यथारोपितं संयमनारं Page #519 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राय धनपतसिंघ बादाउरका जैनागम संग्रह नाग उसरा. नए बोधुमसमर्थाः क्वचिदिषोदंतोऽपरेणाचार्या दिना वत्सलतया चोदिताः संतस्तं शास्तारम नुशासितारं चोदकं पुरुषं वदंति कर्कशं निष्ठुरं निर्जरं प्रतीपं चोदयंतीति ॥ २ ॥ विसोदियं ते अणुकादयंते, जे आत्तनावेण वियागरेजा॥ अमाणिए दो इबदगुणाणं, पागंतरे (बदणिवेसे) जे पापसंकाइ मुसं वदेजा ॥३॥जे यावि पुता पलिनं चयंति, आयाणमहं खलु वंचयित्ता ॥ असादुणो ते श्द सादुमाणी, मायमि एसंति अतघातं ॥४॥ अर्य-ते स्वायहि पुरुष (विसोहियंते के०) ते विशोधित शुद्धनिर्दोषमार्ग तेने (थ काहयंते के ) आचार्यनी प्ररूपणा यकी उबापिने कहे एटले (जेयात्तनावेणविया गरेजा के०) जे पोताना नावे एटले स्वबंदे बोले (अहाणिएहोइबद्रगुणाणं के) ते अहाबंद पणा थकी घणा गुणा जे झानादिक तेनो बास्थान थाय केमके ए स्वा निनिवेश मिथ्यात्वना नाव थकी करीने (जेणाणसंकाई के) जे ज्ञान शंका एटले श्रीजिनागमनेविषे शंका लावीने (मुसंवदेजा के०) मृषाबोले स्वकल्पित जेवो रुचे तेवो बोले तेणे करीने घणा गुणानो धास्थान एटले कुनाजन थाय ॥ ३ ॥ (जे प्राविपुडापलिञ्चयंति के०) जे कोइ पूजे जे तमे कोनी पासेथी नण्याबो तेवारे पोता ना आचार्यनुं नाम गोपवीने जीजानुं नाम कहे (आयाणमध्खलुवंचयित्ता के ) ते निचे थकी आत्मार्थ जे मोदनो अर्थ तेने वंचे एतावता ते मुक्तिने नपामे (असादु णोतेश्हसादुमाणी के ) परमार्थथकी ते असाधु थको पण या जगतने विषे पोतामां साधुपणु कर माने तथा बीजाजने कहीने पोतामां साधु पणो मनावे (मायलिएसं तिघणंतघातं के ) ते मायावी साधु यासंसारनेविषे अनंत घात पामे एटले अनंत काल पर्यंत संसारमा परिचमण करे ॥ ४ ॥ ॥ दीपिका-विशोधितोमोक्षमार्गस्तं ते कदाग्रहियोगोष्ठामाहिलवदनुपश्चादाचार्यप्र रूपणातः कथयति अनुकथयंति । ये आत्मोत्कर्षादात्मनावेन स्वानिप्रायेणाचार्यपारं पर्यागतमप्यर्थ व्युदस्यान्यथा व्यागृणीयुारख्याति । प्राचार्य परंपरामज्ञात्वा स्वानिमाये ण सूत्रार्थव्याख्यानं महतेऽनर्थाय । इदमेव दर्शयति । सएवंनूतोऽस्थानिकोऽनाधारोबहूनां झानादिगुणानां स्यात् । कचित्पातः । (यहाणिएहोश्बदणिवेसत्ति) अस्यार्थः । थ स्थानमनाजनं सम्यक्झानादीनां । किंनूतोबदुरनर्थकारकत्वेनाऽसदनिनिवेशोयस्य सब दुनिवेशः । ते पुनः किंजूताश्त्याह। ये शानशंकया मृषा वदेयुः। कोर्थः । जिनोक्ताग मे शंकां कुत्ययं तमुक्तएव नस्यादिति । अथवा ज्ञानशंकया पांमित्यानिमानेन मृषा Page #520 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४ए हितीये सूत्रकृतांगे प्रथम श्रुतस्कंधे त्रयोदशमध्ययनं. वदेयुः ॥ ३ ॥ येऽझाततत्त्वाः परेण दृष्टाः कस्मादाचार्यादधीतं नवनिरिति ते स्वमाचार्य झानानिमानेन (पलिञ्चयंतित्ति) निन्दुवते । अथवा सदपि प्रमादस्वलितमाचार्यादि ना दृष्टाः संतोमातृस्थानेनावर्णवादनीतानिन्दुवते । ते एवं कुर्वाणायादानं मोदमर्थ वंचयंति । एवं कुर्वाणास्तेऽसाधवश्हास्मिन् जगति साधुमानिनोमायान्विताएष्यंति या स्यंत्यनंतशोघातं विनाशं संसारं वा । एकं तावत्स्वयमसाधवोदितीयं साधुमानिनः । उक्तंच । पावं काकण सयं,अप्पाणं सुक्ष्मेव ववहर॥ गुणं करे पावं, बीथं बालस्स मंदत्तं ॥१॥ तदेवमात्मोत्कर्षदोषारोधिलानमप्युपहत्यानंतनवनाजःप्रणिनः स्युरिति ।।।। __॥ टीका-किंच । (विसोहियमित्यादि ) विविधमनेकप्रकारं शोधितः कुमार्गप्ररूपणा पनयनबारेण निर्दोषतां नीतोविशोधितः सम्यक्दर्शनशानचारित्राख्योमोदमार्गस्तमेवं नूतं मोदमार्ग ते स्वाग्रहग्रस्तागोष्ठामादिलवदनुपश्चादाचार्यप्ररूपणातः कथयंत्यनुकथ यति । ये चैवंनूतावात्मोत्कर्षात्स्वरुचिविरचितव्याख्याप्रकारव्यामोहिताशात्मनावेन स्वा निप्रायेणाचार्यपारंपर्येणायातमप्यर्थ व्युदस्यान्यथा व्यागृणीयुर्व्याख्यानयेयुस्ते हि गंजी रानिप्रार्य सूत्रार्थ कर्मोदयात्पूर्वापरेण यथावत्परिणामयितुमसमर्थाः पंडितमानिननत्सू त्रं प्रतिपादयंति । यात्मनावव्याकरणं च महतेऽनायेति दर्शयति । सएवंनूतः स्वकी यानिनिवेशादस्थानिकोऽनाधारोबहूनां ज्ञानादिगुणानामनाजनं नवतीति । ते चामी गु पाः। सुस्सूस पडिपुन, सुणे गेएह य ईहएथावि ॥ तत्तो अपोहएवा, धारे करे ३ वा सम्मं ॥१॥ यदि वा गुरुशुश्रूषादिना सम्यक्झानावगमस्ततः सम्यगनुष्ठाने च म तः सकलकर्मक्ष्यलक्षणोमोइत्येवंनतानां गुणानामनायतनमसौ । क्वचित्पावः । (थ हाणिएहोंतिबहूणिवेसत्ति) अस्यायमर्थः । अस्थानमनाजनमसौ नवति सम्यक्झाना दीनां गुणानां । किंनूतोबदुरनर्थसंपादकत्वेनासदनिनिवेशोयस्य सबदुनिवेशः। यदिवा गुणानामस्थापनिकोऽनाधारोबहूनां दोषाणां च निवेशः स्थानमाश्रयति । किंनूताः पु नरेवं नवंतीति दर्शयति । ये केचन उहीतज्ञानलवाऽवलेपिनोझाने श्रुतझाने शंका ज्ञा नशंका तया मृषावादं वदेयुः। एतमुक्तं नवति । सर्वज्ञप्रणीते बागमे शंकां कुर्वत्ययं तत्प गीतएव ननवेदन्यथा वाऽस्यार्थः स्यात् । यदिवा झानशंकया पांडित्यानिमानेन मृषा वादं वदेयुर्यथाहं ब्रवीमीति तथैव युज्यते नान्यथेति ॥ ३ ॥ किंचान्यत् । (जेयाविपुष इत्यादि) ये केचनाविदितपरमार्थाः स्वल्पतया समुत्से किनोऽपरेण दृष्टाः कस्मादाचार्या सकाशादधीतं श्रुतं नवनिरिति । ते तु स्वकीयमाचार्य झानावलेपेन निन्हवानोऽपरं प्र सि प्रतिपादयति । यदिवा मयैवैतत्स्वतनत्प्रेक्तिमित्येवं झानावलेपात् (पलिउंचयं तित्ति ) निन्दुवते । यदिवा सदपि प्रमादस्वलितमाचार्यादिना लोचनादिके अवसरे ट Page #521 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रायधनपतसिंघ बाहाउरका जैनागम संग्रह नाग उसरा. ४ए। टाः संतोमातृस्थानेनाऽवर्णवादनयान्निन्दुवते । तएवं पलिञ्चकानिन्हवं कुर्वाणायादी यतइत्यादानं झानादिकं मोदोवा तमर्थ वंचयंति पेंशयंत्यात्मनः । खलुरवधारणे। वंचयं त्येव । एवमनुष्टायिनश्चासाधवस्ते परमार्थतस्तत्त्वचिंतायामिहास्मिन् जगति साधुविचा रेवा साधुमानिनधात्मोत्कर्षायाऽसदनुष्ठानमानिनोमायान्वितास्ते एष्यंति यास्यंत्यनंत शोबदुशोघात विनाशं संसारं वा अनवदग्रसंसारकांतारमनुपरिवर्तयिष्यंतीति । दोष क्ष्य उष्टत्वात्तेषामेकं तावत्स्वयमसाधवोदितीयं साधुमानिनः । नक्तंच । पावं काकण सयं, अप्पाणं गुड़मेव ववहर ॥ उगुणं करे पावं, वीर्य बालस्स मंदत्तं ॥१॥ तदेवमा त्मोत्कर्षदोषारोधिलानमप्युपहत्यानंतसंसारनाजोजवंत्यसुमतति स्थितं ॥४॥ जे कोहणे दो जगहनासी, विनसियं जे न नदीरएजा ॥ अंधे व से दंम्परं गदाय, अविनसिए घासति पावकम्मी ॥५॥ जे विग्गहीए अनायनासी, न से समे दोश् अऊऊपत्ते ॥व वायकारीय हरीमणेय, एगंतदिहीय अमावे॥॥ अर्थ-(जे कोहणेहोजगनासी के०) जे क्रोधी थाय ते जगतार्थनाषी होय जगतार्थनापी एटले जेमां जेवो दोष होय तेने तेवो कहे अर्थात् काणाने काणो कहे खोडाने खोडो कहे टुंटाने टुंटो कहे पांगलाने पांगलो कहे कोढीने कोढी कहे एवो प्रगट नितुर नाषण करनार होय (विनसियंजेन के०) जे उपशमावेलो एवो जे कलह तेने वली (नदीरएका के०) उदीरें ए पुरुषने जे फल थाय ते कहेडे. (सेके०) ते पुरुष (अंधेवदंमपहंगहाय के०) जेम कोइ अांधलो पुरुष लाकडी ग्रहण करीने मार्गने वि षे जातो थको अनेक कंटक चतुष्पदादिके करी पीडाय तेम (अविनसिए के) अ कोविद एवोजे कलहकारी (पावकम्मी के०) पापकर्माचारी जीव ते पण (घासतिके०) चतुर्गतिक संसारमांहे कुःख पामे ॥ ५ ॥ (जेविग्गहीए के०) जेको वियह एटले कलहकारी होय ते यद्यपि किया तो केटलीक करे तथापि ते किया विग्रह एटले युद्ध प्रिय थाय तथा (अनायनासी के०) अन्यायनो बोलनार होय (नसेसमेहोश्यक पत्ते के०) ते पुरुष कलहरहित एवा सम्यक् दृष्टी तेना सरखो समनावी नहोय ते माटे साधु कलहकारी नहोय परंतु साधु केवो होय ते कहेले. (उववायकारीयहरीम ऐय के०) नपपातकारी एटले आचार्यनी आझापालक तथा लजावंत मनवालो होय एटले अनाचार करतो थको वाचायो दिक थकी लड़ा पामे तथा (एगंतदिहीय के० ) एकांतदृष्टी एटले जीवादिक पदार्थनो ज्ञाता होय एकांत श्रमावंत होय तथा (यमाश्रूवे केए) मायारहित होय एवा पुरुषने साधु कहिए. ॥ ६ ॥ Page #522 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आए दितीये सूत्रकृतांगे प्रथम श्रुतस्कंधे त्रयोदशमध्ययनं. ॥ दीपिका-यः स्वनावेन क्रोधनोरोपी नवति यश्च जगदर्थनाषी योयथावस्थितः पदार्थस्तं तथैव नापते । तद्यथा । ब्राह्मणं डोडमिति वक्ति वणिज किराटमिति शू मानीर मिति श्वपाकं चांमालमिति काणं काणमेव वक्ति । खंजं खंजमेव चौरं चौरमि ति । अंधमंधमित्यादि कठिणं योवक्ति सजगदर्थनापी निष्टुरनापीत्यर्थः । व्यवसितं स माप्तं ६६ कलहं यः पुनरुदीरयेत् प्रज्वालयेत् सोऽधश्व । यथांधोदंडमेवं गोदंडमार्ग गृहीत्वा वजन घृष्यते कंटकश्वापदादिनिः पीड्यते । एवं सोपि (अवियोसियंति ) अप शांतकलहः पापकर्मा घृष्यते पीडयते संसारपीडानिः ॥ ५ ॥ यो विग्रहिकः कलहप्रियो ऽन्यायनापी न समोमध्यस्थोनवति अफजा प्राऊंझा माया कलहोवा मायाप्राप्तः कलहप्राप्तोवा सरागदेषवान् मायावांश्च नवतीत्यर्थः । एतद्दोषदर्शी उपपातकारी आ चार्यादेशकरः व्हीडासंयमस्तत्र मनोयस्य सहीमनाः एकांतेन तत्त्वेषु दृष्टिर्यस्य सएकांतदृष्टिः । एगंतसाडित्तिपाते एकांतश्रक्षावान् जिनागमे । अमायि निर्मायं रूपं यस्यस तथा ब्रह्मर हितश्त्यर्थः ॥ ६ ॥ ॥ टीका-मानविपाकमुपदाधुना क्रोधादिकषायदोषमुन्नावयितुमाह । (जेकोहणे इत्यादि) योह्यविदितकषाय विपाकः प्रकृत्यैव क्रोधनोनवति तथा जगदर्थनाषी यश्च नव ति । जगत्यर्थाजगदर्थाये यथा व्यवस्थिताः पदार्थास्तानानाषितुं शीलमस्य जगदर्थना पी तद्यथा ब्राह्मणं डोडमिति ब्रूयात्तथा वणिज किराटमिति शूक्ष्मानीरमिति श्वपाकं चां डालमित्यादि तथा काणं काणमिति तथा खंजं कुब्जं वडनमित्यादि तथाकुष्टिनं दक्षिण मित्यादि योयस्य दोषस्तं तेन खरं परुषं ब्रूयात् यः सजगदर्थनाषी। यदिवा जयार्थनाषी यथैवात्मनोजयोनवति तथैवा विद्यमानमप्यर्थ नापते तडीलश्च येन केनचित्प्रकारेणाऽ सदर्थनाषणेनाप्यात्मनोजयमितीत्यर्थः । (विउसियंति ) विविधमवसितं पर्यवसितमु पशांतं ६६ कलहं यः पुनरप्युदीरयेत् । एतमुक्तं नवति । कलहकारिनिर्मिथ्यामुष्कृतादि ना परस्परं दामितेपि तवयाद्येन पुनरपि तेषां क्रोधादयोनवंति । सांप्रतमेतदपाकं दर्शयति । यथाांधश्चर्विकलोदंडपथं गोदंडमार्ग प्रमुखोज्ज्वलं गहीत्वाऽऽश्रित्य व्र जन् सम्यगको विदतया घृष्यते कंटकश्वापदादिनिःपीडयते एवमसावपि केवलं लिंगधार्य नुपशांतकोधः कर्कशनाष्यधिकरणोद्दीपकस्तथा (अविनसियत्ति ) अनुपशांत६६ः पाप मनार्य कर्मानुष्ठानं यस्यासौ पापकर्मा धृष्यते चतुर्गतिके संसारे यातनास्थानगतः पौनः पुन्येन पीड्यतइति ॥५॥ किंचान्यत् । (जेविग्गहिएश्यादि ) यः कश्चिदविदितपरमार्थोवि ग्रहोयु सविद्यते यस्यासौ विग्रहिकोयद्यपि प्रत्युपेक्षणादिकाः क्रियाविधत्ते तथापि यु प्रियः क्वचिनवति तथाऽन्याष्यं नाषितुं शीलमस्य सोऽन्यायनाषी यत्किंचन नाष्यऽस्था Page #523 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राय धनपतसिंघ बादाउरका जैनागम संग्रह नाग उसरा. ४५३ ननाषी गुर्वाद्यधिपकरोवा यश्चैवंनूतोनासौ समोरक्तष्टितया मध्यस्थोनवति । त था नाप्यऊंफां प्राप्तोकलहप्राप्तोवा ननवत्यमायाप्राप्तः । यदिवा अऊंफाप्राप्तरकलहप्रा प्रैः सम्यग्दृष्टिनिरसौ समोन नवति यतः, अतोनैवं विधेन नाव्यमपित्वक्रोधनेनाकर्कश नाषिणा चोपशांतयुधानुदीरकेण न्यायनाषिणाऽऊमाप्राप्तेन मध्यस्थेन च नाव्यमिति । एवमनंतरोदिष्टदोषव सन्नुपपातकार्याचार्य निर्देशकारी यथोपदेशं क्रियासु प्रवृत्तः। य दिवोपायकारित्ति) सूत्रोपदेशप्रवर्तकस्तथा होनासंयमोमूलोत्तरगुणनेदनिन्नस्तत्र म नोयस्यासो होमनाः । यदिवाऽनाचारं कुर्वन्नाचार्यादिन्योलगाते सएवमुच्यते । तथैकां तेन तत्त्वेन जीवादिषु पदार्थेषु दृष्टिर्यस्यासावेकांतदृष्टिः। पाठांतरंवा (एगंतसडित्ति ) एकां तेन श्रावान् मौनीडोक्तमार्गे एकांतेन श्रदालुरित्यर्थः। चकारःपूर्वोक्तदोषविपर्यस्तगुण समुच्चयार्थः । तद्यथा । ज्ञानपलिउंचकोक्रोधीत्यादि । तावदऊंगाप्राप्तइति स्वतएवाह । (अमाइरू वेत्ति ) अमायिनोरूपं यस्यासावमायिरूपोऽशेषनारहितश्त्यर्थः। न गुर्वादीन बद्मनोपचरति नाप्यन्येन केनचित्साध बद्मव्यवहारं विधत्तइति ॥ ६ ॥ स पेसले सुटुमे पुरिसजाए, जच्चन्निए चेव सुनजुयारे॥ बढुंपि अणुसासिए जे तहच्चा, समे दु से दो अऊऊपत्ते ॥७॥ जे आवि अप्पं वसुमंतिमत्ता, संखाय वायं अपरिक कुजा ॥त वेण वाहं सदित्ति मत्ता, अमंजणं पस्सति बिंबनूयं ॥७॥ अर्थ-(सपेसले के०.) तेने प्राचार्यादिके घणो शिखव्यो बतो पण यथार्थ तेवाज नावें वर्ने पण गुरु वचन विरोधि नथाय तेने पेशल एटले मनोहर विनयादिक गुणवंत जाणवो. तथा (सुदुमे के०) सूक्ष्म नावनो देखनार तथा (पुरुषजात के०) परमार्थथकी पुरुषार्थनो साधक तथा (जञ्चन्निए के०) तेवीज जातिसहित सत्कुलोत्पन्न जाणवो (चे व के०) निश्चय थकी (सुनकयारे के०) ते रुजु याचारी एटले सरल मार्ग प्रवर्त्त तेवा पुरुषने (बटुंपिथणुसासिएजेतहबा के०) याचार्यादिके घणो शिखाव्यो बतो मु खनुं राग फेरवे नही अर्थात् प्रसन्न मन राखे (समेहुसेहोश्यऊऊपत्ते के ) ते पुरु प श्रीवीतराग समान कलह रहित थाय ॥ ७॥ (जेया विषप्पंवसुमंतिमत्ता के०) जे कोइ लघुप्रकति पोताने आत्माने वसुमंत एटले संयमवंत जाणीने (संखायवायंअप रिरककुजा के०) सम्यक् परमार्थे अपरीद थको यात्मोत्कर्ष अनिमान करे (तवेणवा हंस हिनतिमत्ता के ) तथा ढुंज तपे करी सहितबु माहारा समान बीजो कोइ तपस्वी नथी एवीरीते जाणीने अनिमान धारण करी (थमंजणंपस्सतिबिंबनूयं के ) अन्य जन ने बिंबनूत गुणसुन्य आकार मात्र देखे एटले जलचंइमानी पेरे जाणे ॥ ७॥ Page #524 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भए वितीये सूत्रकृतांगे प्रथम श्रुतस्कंधे त्रयोदशमध्ययनं. ॥दीपिका-क्वचित्प्रमादसंचलने सति आचार्यादिना बव्हप्यनुशास्यमानस्तथैव स न्मार्गानुसारिणी वा लेश्या चित्तवृत्तिर्यस्य सतथार्थः। एवंनूतोयः सपेशलोमृष्टवाक्यः सूक्ष्मदर्शित्वात् । पुरुषजातः सएव तत्त्वपुरुषार्थकारी सएव जात्यन्वितः सत्कुलोत्पन्नः। सुशीलोहि कुलीनः स्यान्नसुकुलोत्पत्तिमात्रेण सएव सुष्टु अतिशयेन जुः संयमस्तस्य क रणशीलः सएव समोमध्यस्थः ऊंका क्रोधोमाया वा तामप्राप्तोनवति ॥ ७ ॥ यश्चापि वसु व्यं संयमस्तदंतमात्मानं मत्वा तथा संख्या ज्ञानं तदंतमात्मानं मत्वा परमार्थमप रोक्ष्य वादमात्मोत्कर्षवादं कुर्यात् । तथा तपसा सहितोहमिति मत्वाऽन्यं जनं बिंब नूतं जलचंश्वदर्थशून्यं पश्यति अवगणयतीत्यर्थः ॥ ७ ॥ ॥ टीका-पुनरपि सजुणोत्कीर्तनायाह ! (सपेशलेइत्यादि ) योहि कसंसारोहिनः क्वचित्प्रमादस्खलिते सत्याचार्यादिना बह्वप्यनुशास्यमानश्चोद्यमानस्तथैव सन्मार्गानुसार स्यर्चा लेश्या चित्तवृत्तिर्यस्य नवतीति तथार्चः। यश्च शिदां ग्राह्यमाणोपि तथा!नवति सपेशलोमिष्टवाक्योविनयादिगुणसमन्वितःसूदमः सूक्ष्मदर्शित्वात्सूक्ष्मनावित्वा वा सूक्ष्मः सएव पुरुषजातः सएव परमार्थतः पुरुषकार्यकारी नापरोयोऽनायुधतपस्विजनपराजिते नापि क्रोधेन जीयते तथाऽसावेव जात्यन्वितः सुकुलोत्पन्नः । सहीलान्वितोहि कुलीन इत्युच्यते न सुकुलोत्पत्तिमात्रेण । तथा सएव सुष्ठतिशयेन जुः संयमस्तत्करणशीलोक जुकरः। यदिवा (नकुचारेत्ति) यथोपदेशं यः प्रवर्तते नतु पुनर्वक्रतयाऽचार्यादिवचनं वि लोमयति प्रतिकूलयति यश्च तथार्चः पेशलः सूक्ष्मनाषी जात्यादिगुणान्वितः क्वचिदवकः समोमध्यस्थोनिंदायां पूजायां च न रुष्यति नापि तुष्यति तथा ऊंजा क्रोधोमाया वा तां प्रा प्तोऊफाप्राप्तः। यदि वाऽऊंफाप्राप्तैर्वीतरागैःसमस्तल्योनवतीति॥७॥ प्रायस्तपस्विनां ज्ञान तपोऽवलेपोनवतीत्यतस्तमधिकृत्याह । (थाविअप्पंइत्यादि ) यश्चापि कश्चिन्नघुप्रकृतिर पतयाऽत्मानं वसु इव्यं तच परमार्थचिंतायां संयमस्त इंतमात्मानं मत्वाऽहमेवात्र संयमवान् मलोत्तरगुणानां सम्यगविधायी नापरः कश्चिन्मत्तुल्योस्तीति । तथा संख्यायंते परिनियंते जीवादयः पदार्थायेन तज्ज्ञानं संख्येत्युच्यते तदंतमात्मानं मत्वा तथा स म्यक् परमार्थमपरीक्ष्यात्मोत्कर्षवादं कुर्यात्तपसा वादशनेदनिन्नेनाहमेवात्र सहितोयुक्तो न मत्तुव्योविकृष्टतपोनिष्टप्तदेहोस्तीत्येवं मत्वाऽऽत्मोत्कर्षानिमानीत्यन्यं जनं साधुलोकं गृहस्थलोकं वा बिंबनतं जलचंवत्तदर्थशून्यं कूटकार्षापणवा लिंगमात्रधारिणं पुरु पाकतिमात्रं वा पश्यत्यवमन्यते । तदेवं यद्यन्मस्थानं जात्यादिकं तत्तदात्मन्येवारो प्यापरमवधूतं पश्यतीति ॥ ७ ॥ Page #525 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राय धनपतसिंघ बाहारका जैनागम संग्रह नाग इसरा. ४९०५ एगंत कमेण न से पले, ण विकती मोणपयंसि गोते ॥ जे माण द्वेण विनकसेका, वसुमन्नतरेण अबुझमाणे ॥ ए ॥ जे माह खत्तियजायएवा, तदुग्गपत्ते तह लेखई वा ॥ जे पवईए परदत्तनोई, गोते जे प्रति माणबद्वे ॥ १० ॥ अर्थ - ते पुरुष ( एगंतकूमेण उसेपलेइ के० ) एकांत कूटपाशे करीने जेम मृग कूटपासे पडो को दुःख विभागी थायबे तेनी पेरे ते मंदबुद्धि पण संसारमाहे परिभ्रमण करे ते पुरुष कदापि (मोणपयंसि के० ) मौनपद एटले संयमपद तेनेविषे ( विती के० ) सर्वथा प्रकारे विद्यमान नथी एम समजवुं तथा ते पुरुष ( गोते ho ) उंचगोत्रने विषे पण न प्रवर्ते किंतु ते अत्यंत हीन गोत्रनेज पामे तथा (जे मालविका के० ) जे मान एटले पूजाने यर्थे व्युत्कर्ष एटले विविध प्रका रे मिान करे तेपण संयमने विषे नयी एम जाणवुं तथा जे ( वसु के० ) संयमने ग्रहण करीने पी ( अन्नतरेण के० ) मंदविपाकना उदय थकी अन्य कोई मद स्थानकने विषेमाचे ते ( अबुझमाणे के० ) निवें थकी परमार्थने अजाणतो प्रज्ञानी ant संसारमा परिभ्रमण करे ॥ ए ॥ (जेमाहणोखत्तियजायएवा के०) तथा जे ब्राह्म जाति अथवा त्रियजाति ते इक्ष्वाकुवंशादिक तेना नेद कहे. ( तदुग्गपत्तेत हजेष्ठ ईवा के० ) तथा जे उग्रपुत्र तथा बेबई एटले राजपुत्र विशेष नवमलिक नवलेखिक एटला कुलमां उत्पन्न थयला संसारने असार जाणीने राज्य प्रमुख त्यागीने ( जेपवई ए के० ) जे प्रवर्जित थया एटजे चारित्रवान थया ते एवा बता पण (परदत्तनोई के ० ) पारको दीधो एवो जे बाहार तेने जोगवे एटले गुद्धाहार ग्रहण करे ( गोत्तेजेथन तिमाब दे के० ) परंतु गोत्रने विषे गर्व नकरें एटले शुद्धाहारनुं ग्रहण करनार एवो चारित्रid पोताना उंच गोत्रने विषे गर्व करे नही गोत्र केवोळे तोके मानब-६ एटले ब्राह्मण तथा छत्रीय वंशना उपना स्वनावे पोताना वंशना निमानी थाय Hari पण चारित्र यादस्या पी कोइपण प्रकारना गोत्रनुं आहार ग्रहण करे परं तु दाहार ग्रहण करे पण पोताना गोत्रनो गर्व करीने तेवाज गोत्रनो गुड खाहार लेवानी इला चारित्रि करे नही ए अभिप्रायले. ॥ १० ॥ || दीपिका-यथा कूटेन पाशेन बद्धोमृगादिः परवशोडुःखी स्यात्तथा नावकूटेन स्ने न एकांततोऽसौ संसारं पर्येति बंचमीति । मौनपदे संयमे सन् प्रवर्तते । किंनूते संयमे गोत्रे गां वाचं त्रायतइति गोत्रं सर्वागमाधारनूतं तस्मिन् । यश्व माननं सत्कारस्तस्या For Private Personal Use Only Page #526 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भए तीये सूत्रकृतांगे प्रथम श्रुतस्कंधे त्रयोदशमध्ययनं. र्थः प्रयोजनं तेन यात्मानं व्युत्कर्षयेत् मदवंतं कुर्यात् तथा च सु संयमस्तमादायान्य तरेण ज्ञानादिना मदस्थानेन माद्यति ससर्वकमतं तत्त्वतोन वेत्तीति नावः ॥ ५ ॥ योजात्या ब्राह्मणः क्षत्रियजातीयोवा नग्रपुत्रः क्षत्रिय विशेषः (लेबत्ति) दत्रियवि शेषएव । एवं विशिष्टकुलोभूतः प्रव्रजितः परदत्तनोजी गुवाहारग्राही गोत्रे उच्चैर्गोत्रे उ त्पन्नोपि नैव स्तंनं गर्व यायात् । किंनूते गोत्रे मानब अनिमानास्पदे ॥ १० ॥ ॥ टीका-किंचान्यत् । ( एगंतकूडेइत्यादि ) कूटवस्कूटं यथा कूटेन मृगादिवः पर वशः सन्नेकांतपुःखलाग्नवति । एवं जावकूटेन स्नेहमयेनैकांततोऽसौ संसारचकवालं प येति तत्र वा प्रकर्षण लीयते प्रतीयतेऽनेकप्रकारं संसारं बंन्रमीति । तुशब्दात्कामादिना वा मोहेन मोहितोबहुवेदने संसारे प्रलीयते । यश्चैवंनूतोऽसौ न विद्यते न कदाचन सं नवति । मुनीनामिदं मौनं तच तत्पदं च मौनपदं संयमस्तत्र मौनांवा पदे सर्वप्र गीतमार्गे नासौ विद्यते । सर्वमतमेव विशिनष्टि । गां वाचं त्रायतेऽर्थाविसंवादनतः पा लयतीति गोत्रं तस्मिन्समस्तागमाधारनूतइत्यर्थः । नचैर्गोत्रे वा वर्तमानस्तदनिमानय हयस्तोमौनीऽपदे न वर्तते । यश्च माननं पूजनं सत्कारस्तेनार्थः प्रयोजनं तेन माननार्थ न विविधमुत्कर्षयेदात्मानं योहि माननार्थेन लानपूजासत्कारादिना मदं कुर्यान्नासौ स वझपदे विद्यतइति पूर्वेण संबंधः । तथा वसुव्यं तच्चेह संयमस्तमादाय तथान्यतरेण ज्ञानादिना मदस्थानेन परमार्थमबुध्यमानोमाद्यति पठन्नपि सर्वशास्त्राणि तदर्थ वा गह नपि नासौ सर्वझमतं परमार्थतोजानातीति ॥ ७ ॥ सर्वेषां मदस्थानानामुत्पत्तेरारन्य जातिमदोबाह्यनिमित्तनिरपेदोयतोनवत्यतस्तमधिकृत्याह । (जेमाहणेइत्यादि ) योहि जात्या ब्राह्मणोनवति दत्रियोवा श्वाकुवंश्यादिकः । तदमेव दर्शयति । नयपुत्रः द त्रियविशेषजातीयः । तथा (लेवत्ति) त्रिय विशेषएव । तदेवमादिविशिष्टकुलोभूतोय थावस्थितसंसारस्वनाववेदितया यः प्रवजितस्त्यक्तराज्यादिगृहपाशबंधनः परैर्दत्तं नोक्तुं शीतमस्य परदत्तनोजी सम्यक्संयमानुष्ठायी गोत्रे उच्चैर्गोत्रे हरिवंशस्थानीये समुत्पन्नोपि नैव स्तंनं गर्वमुपयायादिति । किंजूते गोत्रे अनिमानब अनिमानास्पदे इति । एतक्तं नवति । विशिष्टजातीयतया सर्वलोकानिमान्योपि प्रव्रजितः सन् कृतशिरस्तुंडमुंडनोनिदा थै परगृहाण्यटन कथं हास्यास्पदं गर्व कुर्यात्रैवासौ मानं कुर्यादिति तात्पर्यार्थः ॥१०॥ न तस्स जाई व कुलं व ताणं, एमब विजा चरणं सुचिन्नं ॥णि कम्म से सेवश्गारिकम्म, ण से पारए दो विमोयणाए॥११॥ Page #527 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रायधनपतसिंघ बांदाडुरका जैनागम संग्रह नागडसरा. सिक्किंच निस्क सुलूदजीवी, जे गारवं होइ सलोगगामी ॥ प्राजीवमेयं तु अबुझमाणो, पुणेोपुणो विष्परियासुर्वेति ॥ १२ ॥ अर्थ - ( नतरसजाव कुजवताएं के० ) ते अनिमानी पोताना गोत्रसंबंधी मढ़ना करनाने जाति एटले जे मातानुं पक्ष ने कुल एटले पितानुं पक्ष ए बनेनुं मद त्रा नेर्थे न थाय कारणके संसारमा भ्रमण करतां प्राणीने मातानी जाति ने पितानुं कुल ते कांइ त्राण जणी नथाय हवे जे पदार्थ जीवने त्राण थाय ते कहेबे (एए विज्ञाचरणं सुचिन्नं के० ) विद्या एटले ज्ञान ने चरण एटले चारित्र सुची एट वे ए बनेने सारीरीते याचा थकी मुक्तिनुं कारण थायले. अर्थात् ज्ञान खने क्रिया ए वे विना बीजो कोई जीवने शरण नथी ( पिरकम्म से सेवइगारिकम्मं के० ) माटे जे पुरुष ग्रहस्थपणा थकी स्किम्म एटले निकली चारित्र यादरीने फरी या गारीनो कर्तव्य जे जातिमदादिक तेने सेवे अथवा सावधारंनादिक सेवे ( पसेपारए हो विमोयणाए के० ) ते पुरुष संसारनो पारंगामि न थाय केमके ज्ञान, दर्शन ने चारित्र एज मुक्तिना कारणबे परंतु जातिकुला दिकनो मढ़ ते कांई मुक्तिनो कारण नयी एम जाण ॥ ११ ॥ (पिचिणेनिस्कु सुलूहजीवि के० ) जे निकिंचन निपरि यही सुलुजीवी एटले अंतप्रांत चाहारनो बेनार होय तेने निक्कु एटले साधु जालवो धने (जेगारवं होइसलोगगामी के० ) जे गर्ववंत होय श्लाघा एटले प्रसंसानो का मि एटा करनार होय (श्राजीवमेयं तुअबुझमाणो के० ) ते जीव खाजीविका मात्र नो करनार बता शुद्ध संयमनो बजाए एवो बतो ( पुलोपुलोविष्परियासुर्वेति के० ) ते जीव फरी फरी विपर्यासने पामे एटले वली वली जन्ममरणादिके करीने घणो संसारने विषे परिभ्रमण करे ॥ १२ ॥ || दीपिका - तस्यानिमानवतोजातिमदः कुलमदोवाऽत्र संसारक्रमणे शरणं नस्या त् । मातृनवा जातिः पितृनवं कुलमेतडुपलक्षणादन्यदपि पदस्थानं न त्राणाय । यत्राणं तदाह । सुचीर्णे विद्या ज्ञानं चरणं चारित्रंच तस्मादन्यत्र त्रायाशा न विद्यते । ज्ञान क्रियाच्यामेव मोक्ऋइति वचनात् । एवंसत्यपि कश्चित् निष्क्रम्य प्रव्रज्या गृहीत्वा पि यारियां गृहस्थानां कर्म सावद्यक्रियां सेवते न च कर्ममोचनाय पारगोजवति ॥ ११ ॥ बाह्यार्थेन निष्किंचनो निकुः सुरूजीव। वल्लचणकादिप्रांताहारएवंभूतोपि क विजौरव प्रियोजवति । तथा श्नोककामी प्रात्मश्लाघानिलाषी च स्यात् । नचैवंनूतो निष्किंचनत्वादिकमाजीवमात्मवर्तनोपायं कुर्वाणः परमार्थमबुध्यमानः संसारे विपर्या सं जन्ममरणाद्युपड्वमुपैति ॥ १२ ॥ Hug For Private Personal Use Only Page #528 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भए वितीये सूत्रकृतांगे प्रथम श्रुतस्कंधे त्रयोदशमध्ययनं. ॥ टीका-न चासौ मानः क्रियमाणोगुणायेति दर्शयितुमाह । (नतस्सजाईत्यादि) नहि तस्य लघुप्रकृतेरनिमानोडरस्य जातिमदः कुलमदोवा क्रियमाणः संसारं पर्यटत स्त्राणं नवति । नवनिमानोजात्यादिकऐहिकामुष्मिकगुणयोरुपकारीति । इहच मातृसमु बाजातिः पितृसमुलं कुलं एतच्चोपलदणमन्यदपि मदस्थानं न संसारत्राणायेति । यत्पुनः संसारोत्तारकत्वेन त्रागसमर्थ तदर्शयति । ज्ञानं च चरणं च झानचरणं तस्मादन्यत्र संसारोत्तारणत्राणाशा न विद्यते । एतच्च सम्यक्त्वोपबंहितं सत् सुष्टु चीर्ण सुचीर्ण संसा राउत्तारयति । ज्ञानक्रियान्यां मोदति वचनात् । एवंनूते सत्यपि मोदमार्गे निष्क्रम्या पि प्रव्रज्यां गृहीत्वापि कश्चिदपुष्टधर्मा संसारोन्मुखः सेवतेऽनुतिष्ठत्यन्यस्यति पौनःपुन्ये न विधत्ते अगारिणां गृहस्थानामंगं कारणं जात्यादिकं मदस्थानं पाठांतरं वा (अगारि कम्मति ) अगारिणां कर्मानुष्ठानं सावद्यमारंनं जातिमदा दिकं वा सेवते । नचासावगा रिकर्मणां सेवकोऽशेषकर्ममोचनाय पारगोनवति । निःशेषकर्मयकारी न नवतीति ना वः। देशमोचनात्तु प्रायशः सर्वेषामेवासुमतां प्रतिक्ष्णमुपजायतइति ॥ ११ ॥ पुनरप्य निमानदोषा विनविनायाह । (णिकिंचणेइत्यादि ) बाह्येनार्थन निष्किंचनोपि निक्षण शीलोनिहुः परदत्तनोजी तथा सुष्टुरूमंतप्रांतं वन चणकादि तेन जीवितुं प्राणधारणं कर्तुं शीलमस्य स सुरूदजीवी एवंनूतोपि यः कश्चिजारव क्रियोनवति । तथा श्लोक कामी आत्मश्लाघानिलाषी नवति । सचैवंनूतः परमार्थमबुध्यमानएतदेवाकिंचनत्वं सुरूदजीवित्वं वात्मश्लाघा तत्परतया आजीवमाजीविकामात्मवर्तनोपायं कुर्वाणः पुनःपुनः संसारकांतारे विपर्यासं जन्मजरामरणरोगशोकोपश्वमुपैति गति तउत्तरणा याज्युद्यतोवा तत्रैव निमऊतीत्ययं विपर्यासइति ॥१२॥ जे नासवं निकु सुसादुवादी, पडिहाणवं दो विसारएय॥ अगाढपमे सुविनावियप्पा, अन्नं जणं पन्नसा परिहवेजा॥१३॥ एवं ण से दोश् समादिपत्ते, जे पन्नवं निस्कु विनकसेज्जा ॥ अ दवा वि जे लानमयावलित्ते, अन्नं जणं खिंसति बालपन्ने॥१४॥ अर्थ-(जे नासवं निरकुसुसादुवादी के०) जे साधु नाषाना गुण तथा दोषनो जाण तथा सुसादुवादी एटले प्रिय वचननो बोलनार एटले कीराव मध्वाश्रव लब्धीवा लो वली (पडिहाणवंहोइ के० ) प्रतिनाववंत एटले नत्पातिकादिक चार प्रकारनी बुझिनो पारंगामि होय तथा (विसारएय के०) विशारद एटले पंमित अर्थ ग्रहण करवाने समर्थ (आगाढपरमे के०) आगाढप्रज्ञ एटले प्रस्ताववेता अर्थात् इव्य, क्षेत्र, Page #529 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रायधनपतसिंघ बादाडुरका जैनागम संग्रह नाग दुसरा. ४ काल ने नावनो जाए तथा ( सुविनावियप्पा के० ) नानाप्रकारनी जावनायें करी ने नाव्यो यत्मा जेमनो एवो बतो ( अन्नं जपन्नसा परिहवेका के० ) अन्य जन प्रत्ये पोतानी प्रज्ञाये करी एटले पोताना जाणपणे करी परानवे अर्थात् एम जाणे जे माहारा समान कोइ जाए पुरुष नयी एरोते बीजाने तृणवत गणे. ॥ १३ ॥ एवा साधु दोष कहेने. ( एवं सेहो इसमाहिपत्ते के० ) एरीते अहंकारनो कर नार जे साधु होय ते समाधिने प्राप्त थयो न कहेवाय ( जेपन्नवं निरकु विचक्क सेका के० ) जे साधु प्रज्ञावंत थईने व्युत्कर्ष एटले गर्वने धारण करे ( यहवाविजेलानमयाव लित्ते के ० ) अथवा जे कोइ साधु अल्पांतराय थको लानवान् एटले बीजाने उपकरण था पवाने समर्थ तो जानना मदे करो जिप्त थाय एटले मत्त थाय (अन्नंज खिंसति बालपने के० ) अन्य जनने खिंसे एटले बीजानी निंदा करे खने एम विचारे जे सर्व साधारण सध्या संस्तारक प्रमुख लाववाने ढुंज समर्थबुं बीजा बापडा गुं ? पेट नरवाने पण समर्थ नयी एवो साधु बाल एटले मूर्ख बुद्धिवाला जाणवो. ॥ १४ ॥ ॥ दीपिका - नापावान् नाषागुणदोषज्ञोयोनिकुः सुसाधुवादी हितमितवादी प्रतिना नमुत्पत्तिक्यादिबुद्धिस्त छान विशारदोऽर्थग्रहणसमर्थः । अगाढा तत्त्वनिष्ठा प्रज्ञा बु द्धिर्यस्य सोगाऽढप्रज्ञः सुविना वितोधर्मवासनावासितश्रात्मायस्य सतथा । एनिर्गुणैः साधुवति यश्व मदवानन्यं जनं स्वकीयया प्रज्ञया परिनवेत् ॥ १३ ॥ तद्दोषानाह । ए वं परपरिवकारी समाधिर्धर्मध्यानं तत्र प्राप्तोन जवति । यः प्रज्ञावान् निरुत्कर्षेत् ग व कुर्यात् । अथवा योलानमदावलिप्तः स्यात् जानमदेन व्याप्तः स्यात्सोन्यं जनं निंदति बालप्रज्ञो मूर्खप्रायस्तन्निंदयाच समाधिं न प्राप्नोतीति ॥ १४ ॥ ॥ टीका - यस्मादमी दोषाः समाधिमाख्यातमसेवमानानामाचार्य परिभाषिणां वा त स्मादमीनिः शिष्यगुणैर्नाव्यमित्याह । ( जेनासवमित्यादि ) नाषागुणदोषज्ञतया शो जननापायुक्तो नापावान निक्कुः साधुस्तथा सुष्ठु साधु शोजनं हितं मितं प्रियं वदितुं शी लमस्येत्यसौ सुसाधुवादी दीरमध्वाश्रववादीत्यर्थः । तथा प्रतिज्ञा नामोत्पत्तिक्यादिबुद्धि गुणसमन्वितत्वेनोत्पन्नप्रतिनत्वं तत्प्रतिज्ञानं विद्यते यस्यासौ प्रतिभानवान् परेला क्षिप्तस्तदनंतरमुत्तरदानसमर्थः । यदिवा धर्मकथावसरे कोयं पुरुषः कंच देवताविशेषं प्रणतः कतरा दर्शनमाश्रितइत्येवमासन्नप्रतिनतया यथायोगमाचष्टे तथा विशारदोऽर्थ ग्रहणसमर्यो बहुप्रकारार्थकथनसमर्थोवा चशब्दाच्च श्रोत्रनिप्रायज्ञस्तथा प्रगाढाऽवगाढा परमार्थपर्यवसिता तत्त्वनिष्ठा प्रज्ञा बुद्धिर्यस्यासावगाढ प्रज्ञस्तथा सुष्ठु विविधं नावितोधर्म For Private Personal Use Only Page #530 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५० वितीये सूत्रकृतांगे प्रथम श्रुतस्कंधे त्रयोदशमध्ययनं. वासनया वासितश्रात्मा यस्यासौ सुविनावितात्मा । तदेवमेनिः सत्यनाषादि निर्गुणैः शोननः साधुर्नवति । यश्चेनिरेव निर्जराहेतुनतैरपि मदं कुर्यात्तद्यथाऽहमेव नाषाविधिज्ञ स्तथा साधुवाद्यहमेवच न मत्तुल्यः प्रतिनानवानस्ति नापि मत्समानोलौकिकोलोको त्तरशास्त्रार्थविशारदोऽवगाढप्रझः सुनावितात्मेति चैवमात्मोकर्षवानन्यं जनं स्वकीयया प्र झया परिनवेत् एवं मन्यते । तथाहि । किमनेन वाऽकुंठेन हुईरूढेन कुंडिकाकार्पासक तुव्येन खसूचिना कार्यमस्ति क्वचित्सनायां धर्मकथावसरे वेत्येवमात्मोत्कर्षवान न वति । तथाचोक्तं । अन्यैः स्वेबारचितानथविशेषान् श्रमेण विझाय ॥ कृत्स्नं वाङ्मयमितइति खादत्यंगानि दर्पणेत्यादि ॥ १३ ॥ सांप्रतमेतदोषानिधित्सया ह। ( एवंणसेइत्यादि) एवमनंतरोक्तया प्रक्रियया परपरिनवपुरःसरमात्मोत्कर्ष कु वन्नशेषशास्त्रार्थविशारदोपि तत्त्वार्थगाढप्रझोप्यसौ समाधि मोदमार्ग ज्ञानदर्शनचारित्र रूपं धर्मध्यानारव्यं वा न प्राप्तोनवत्युपर्यवासी परमार्थोदन्वतः प्लवते । कथंनूतोजव तीति दर्शयति । याह्यविदितपरमार्थतयात्मानं सन्मुषीकं मन्यमानः स्वप्रज्ञया निहु रुत्कर्ष कुर्यान्नासी समाधि प्राप्तोनवतीति प्राक्तनेन संबंधः। अन्यदपि मदस्थानदोष मुद्घट्टयति । अथवेति पदांतरे । योह्यल्पांतरायोलब्धिमानात्मकते परस्मै चोपकरणादिक मुत्पादयितुमलं सलघुप्रकृतितया लानमदावलिप्तोनवति तदवलिप्तश्च समाधिमप्राप्तो नवति । सचैवंजूतोऽन्यं जनं कर्मोदयादलब्धिमंतं खिंसइत्ति निंदति परिनवति वक्ति च नमत्तुल्यः सर्वसाधारणः शय्यासंस्तारकाद्युपकरणोत्पादकोविद्यते किमन्यैः स्वोदरनरण व्यग्रतया काकप्रायैः कृत्यमस्तीत्येवं बालप्रझोमूर्खप्रायोऽपरजनापवादं विदध्यादिति तदेवं प्रज्ञामदावलेपादन्यस्मिन जने निंद्यमाने बालसहशैयते यतोतः प्रज्ञामदोन विधे योन केवलमयमेव विधेयोन्यदपि मदस्थानं संसारजिहीर्षुणा नविधेयमिति ॥ १४ ॥ पन्नामयं चेव तवोमयंच, जिन्नामए गोयमयं च निस्कू ॥ आ जीवगं चेव चन्चमादु, से पंमिए उत्तम पोग्गलेसे ॥१५॥ए याइं मया विगिंच धीरा, ण ताणि सेवंति सुधीरधम्मा॥तेस वगोत्तावगया महेसी, नचं अगोत्तं च गतिं न्वेति ॥२६॥ अर्थ-(पन्नामयंचेवतवोमयंच के० ) प्रशानो मद तेम वली तपनो मद एटले ढुं बुद्धिवान बु ढुं तपस्यावान बु एवो जे मद तेने (जिन्नामए के० ) नमाडे एटले एवो मद नकरे तथा ( गोयमयंचनिस्कू के० ) गोत्रनो मद साधु नकरें एटले माहरो उंच गोत्र हुँ उत्तम कुलमा जन्म पाम्यो एवो अहंकार साधु नकरे (थाजीवगंचेवचन Page #531 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राय धनपतसिंघ बादाडुरका जैनागम संग्रह नाग दुसरा: २०१ To) समंतथी जीते याजीविकायर्थः एटले चोथो खाजीविक एटले अर्थ अर्थात् धन तेनो मद साधु नकरे एम बीजो पण कोइ प्रकारनो मद नकरें (सेपंमि एउत्तमपोग्गलेसे के० ) ते पंमित उत्तम पुजने विषे पोते निस्पृह एवा यात्मावालो ते साधु जावो ॥ १५ ॥ ( एयाईमयाइवि गिंचधीरा के० ) ए पूर्वोक्तजे प्रज्ञादिक मद न स्थानक का तेने धैर्यवान साहसीक पुरुष संसारना कारण जालीने पोताना आत्मा की जूदा करे ( एताणि सेवंति सुधीरधम्मा के० ) एटला मढ़ना स्थानकने सुप्र तिष्ठित जेनो धर्म एवा पुरुष नसेवे एटजे यादरे नही ( तेसवगोत्तावगयामहेसी के ० ) ते समस्त गोत्रादिक मदरहित एवो महाऋषीश्वर जे होय एवाने फल कहे. (उच्चा गोतंचगतिं वेंति के० ) नंच घने प्रगोत्र एटले जेने विषे नामगोत्रादिक कर्म नथी तेवी गति पामे एटले ते साधु मोहने विषे जाय ॥ १६ ॥ || दीपिका - प्रज्ञा बुद्धिस्तया मदस्तं तपोमदं च निर्नामयेन्निश्चयेनापनयेत् गोत्रमदं च निकुर्नामयेत् । श्राजोवोर्थनिचयस्तं गवत्याजी वगोऽर्थमदस्तं च चतुर्थ नामयेत् ॥ तु शब्दाद्वेषानपि मदान वर्जयेत् सपुजलयात्मा पंडितउत्तमश्च स्यात् ॥ १५ ॥ एतानि प्र शादीनि मदस्थानानि विगिंच ष्टथक्कुर्या ६र्जयेत् । धीराज्ञाततत्त्वाः । सुधीरः सुप्रतिष्ठि तो येषां ते सुधीरधर्माणएवंभूतास्तानि मदस्यानानि नासेवंते ते सर्वस्माडुचैर्गोत्रा देरपगतामहर्षयनच्चां मोक्षाख्यां गतिं व्रजंति । यगोत्रां गोत्रकर्मोपलक्षणादन्यदपि कर्म तत्र न विद्यतइति ॥ १६ ॥ ॥ टीका - तद्दर्शयितुमाह । ( पामयं चेवेत्यादि ) प्रज्ञया तीक्ष्णबुध्या मदः प्रज्ञाम दस्तंच तपोमदं निश्चयेन नामयेन्निर्नामयेदपनयेदहमेव यथाविधशास्त्रार्थस्य वेत्ता तथा मेव विष्टतपोविधायी नापि तपसोग्लानिमुपगामीत्येवं रूपं मदं न कुर्यात्तथो गोत्रे इक्ष्वाकुवंशहरिवंशादिके संभूतोहमित्येवमात्मकं गोत्रमदंच नामयेदिति । श्रासमं ताजीवत्यनेनेत्याजीवोऽर्थनिचयस्तं गवत्याश्रयत्यसावाजीव गोऽर्थमदस्तं च चतुर्थ नाम चन्दाषानपि मदान्नामयेत्तन्नामनाच्चा सौ पंमितस्तत्त्ववेत्ता नवति । तथाऽसावेव स मस्तमदापनोदकउत्तमपुजलयात्मा नवति । प्रधानवाची वा पुजन शब्दस्ततश्चायमर्थः । उत्तमोत्तम महतोपि महीयान् नवतीत्यर्थः ॥ १५ ॥ सांप्रतं मदस्थानानामकरणीयत्वमुप दर्योपसंजिहीर्षुराह । (एया इत्यादि) एतानि प्रज्ञादीनि मदस्थानानि संसारकारणत्वेन सम्यक् परिज्ञाय (विगंचत्ति) पृथक्कुर्यादात्मनोऽपनये दिति यावत् । धीर्बुद्धिस्तया राजतइति धीरा विदितवेद्यानैतानि जात्यादीनि मदस्थानानि सेवंत्यनुतिष्ठति । के एते । ये सुधीराः For Private Personal Use Only M Page #532 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५०२ द्वितीये सूत्रकृतांगे प्रथम श्रुतस्कंधे त्रयोदशमध्ययनं . सुप्रतिष्ठितोधर्मः श्रुतचारित्राख्योयेषां ते सुधीरधर्मास्ते चैवंभूताः परित्यक्तसर्वमदस्थाना महर्षयस्तपोविशेषशोषितकल्मषाः सर्वस्माडुचैर्गोत्रादेरपगतागोत्रोपगताः संतवच्चां मोक्षा ख्यां सर्वोत्तमां वा गतिं व्रजंति गवंति चशब्दात्पंचमहाविमानेषु कल्पेषु कल्पातीतेषु वा व्रजति । गोत्रोपलक्षणाच्चान्यदपि नामकर्मायुष्कादिकं तत्र नविद्यतइति इष्टव्यं ॥ १६ ॥ निस्कू मुच्चे कय विधम्मे, पाठांतरे ( तदिग्धम्मे ) गामं च गरं च पविस्सा ॥ से एसणं जाण मणेसणं च, अन्नस्स पाणस्स गिये ॥ १७ ॥ रतिं रतिं च अभिनय निस्कू, बदूजणे वा तद एगचारी ॥ एगंत मोणेण वियागरेका, एस्स जंतो गति रागतीय ॥ १८ ॥ अर्थ - ( निस्कू के ० ) ते साधु ( मुयच्चे के० ) शरीर संस्काररहित ( कयदि धम्मे के ० ) तथा दृष्ट एटले दीगेबे यथावस्थित धर्म जेणे अथवा दृढधर्मि एटले धर्मने विषे दृढ एव तो कोक व्यवसरे ( गामंचणगरंचणुप्प विस्सा के० ) निकादिकने र्ये ग्राम नगर शेष मतादिकने विषे प्रवेश करे ( सेएस जाणमणेसांच के० ) ते एषणा एटले हारनी शुद्धि जाणतो तथा धनेषणीय एटले थाहारना अशुद्धता पणाने पण जाणतो थको नक्रमादिक दोषने सम्यक् प्रकारे टालतो थको (अन्नस्स पारसागडे के ० ) अन्नने विषे तथा पाणीने विषे गुर थको लोव्यता र हित एवो बतो साधु विचरे ॥ १७ ॥ ( घर तिर तिचा निनूय निस्कू के० ) कदाचित साधुने तप्रांत नोजने तथा व्यस्ताने करी कर्म योगें संयमने विषे खरति उपजे अ ने संयमने विषे रति उपजे तेवारे संसारनुं स्वभाव स्थिर जालीने नरकादिकना दुःखने स्मरण करतो थको उत्पन्न थयली रति धरतिनुं निराकरण करे एम रति रतने जातीने सुधो संयम पाले ( बहूजऐवात हएगचारी के ० ) तथा घणा जन सहित तो तथा एकचारी एटले एकलो बतो पूग्यो अथवा नपूग्यो थको पण ( एगंतमोणे वियागरेका के० ) एकांत निरवद्य जाषा बोले कारणके अन्यजनोनो दाक्षिणपणो ते जीवने त्राण नली नथाय तेमाटे धर्मकथाने प्रस्तावें साधु एकांत निरवद्य भाषा बोले ने बजे प्रस्तावे मौन रहे ( एगस्सजंतोगतिरागतीय के०) जीवने गति प्रागति ते एकला नेज करवी पडे. त्यारे जीवने एकलो परलोक गमनागमन करता एक धर्म विना बीजो को सहायकारी नयी एवी ते साधु पोताना मनमां जाणे ॥ १८ ॥ || दीपिका - सनिर्मृतेच स्नानादिसंस्कारानावादच शरीरं यस्य समृतार्चः । तथा For Private Personal Use Only Page #533 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५० ३ राय धनपत संघ बांदारका जैनागम संग्रह नाग दुसरा. कृताचरितोदृष्टोऽव्यवस्थितोऽवगतश्च धर्मोयेन सतथा । एवंनूतोग्रामं नगरं वाऽनुप्र विश्य निहार्यपणां गवेषणग्रहणैषणां तथाऽनैषणामुनमदोषादिकां च जानन्नन्नस्य पानस्य वाऽननुगृ-शोऽनासक्तः सम्यग्विहरेत् ॥ १७ ॥ रतिं रतिं वाऽनिनूय त्यक्त्वा नि कुरेकांतमौनेन संयमेन व्यागृणीयात् धर्मसंबंधं ब्रूयात् । किंनूतः साधुः । बहवोजनाः संयमसहायायस्य सबहुजनोगठवासी । अथवा एकचारी एका विहारी जिनकल्पादिर्वा । किं ब्रूयादित्याह । एकस्य जंतोः कर्मानुगतस्य परलोके गतिरागतिश्च स्यादिति ॥ यतः । ए कः प्रकुरुते कर्म, जुनक्त्येकश्च तत्फलं ॥ जायते म्रियते चैक, एकोयाति नवांतर मिति ॥ १ ॥ ॥ टीका - किंच | ( निस्कू मुचेइत्यादि) सएवं मदस्थानरहितो निणशीलोनिक्कुः । तं विशिनष्टि । मृतेच स्नान विलेपनादिसंस्कारानावादच तनुः शरीरं यस्य समृताचः । दिवा मोदनं मुत्तद्भूता शोननाऽच पद्मादिका लेश्या यस्य सनवति मुदचः प्रशस्तदर्श वेश्यः । तथा दृष्टोऽवगतोयथावस्थितोधर्मः श्रुतधर्मचारित्राख्योयेन सतथा चैवंभूतः कचिदवस ग्रामं नगरमन्या मतादिकमनुप्रविश्य निदार्थमसावुत्तमधृतिसंहननोपप न्नः सन्नेषणां गवेषणग्रहणैषणादिकां जानन् सम्यगवन्ननैषणां चोजमदोषादिकां तत्प रिहारं विपाकं च सम्यगवगन्नन्नस्य पानस्य वा नतु गृद्धोऽनभ्युपपन्नः सम्यग्विहरेत् । त थाहि । स्थविरकल्पिकाद्विचत्वारिंशद्दोषरहितां निहां गृहीयुर्जिनक ल्पिकानां तु पंचस्व निग्रहो ६योर्य हस्ताश्वेमाः । संसहमसंसहा, उड्ड तह होंति चप्पलेवाय ॥ नग्गहिया पहिया, उयिधम्माय सत्तमीया ॥ १ ॥ अथवा योयस्यानिग्रहः सतस्यैषणा प रात्वनैषणेत्येवमेषानैषणानिज्ञः क्वचित्प्रविष्टः सन्नाहारादावमूर्जितः सम्यक्ां नि गृहीयादिति ॥ १७ ॥ तदेवं निहोरनुकूल विषयोपलब्धिमतोप्यरक्तद्विष्टतया तथा दृष्टमप्यदृष्टं श्रुतमप्यश्रुतमित्येवं नावयुक्ततया च मृतकल्पदेहस्य सुदृष्टधर्म एषणानेष या निशस्यान्नपानादावमूर्तितस्य सतः क्वचिद्यामनगरादौ प्रविष्टस्याऽसंयमे रतिरर तिश्व संयमे कदाचित्प्राप्यात्सा चापनेतव्येत्येतदाह । ( खरइंरइंचेत्यादि ) महामुनेरप्यस्त्रा नतयामला विलस्यांत प्रांतवल्लच एका दिनोजिनः कदाचित्कर्मोदयाऽरतिः संयमे समुत्पद्ये त तां चोत्पन्नामसौ निकुः संसारस्वनावं परिगणय्य तिर्यङनारका दिडुःखं चोत्प्रेक्ष्यमाण श्वतं संसारिणामासुरित्येवं विचिंत्याजिनवेदनिनूय वाऽसावेकांत मौनेन व्यागृह्णीयादित्यु तरेण संबंधः । तथा रतिं वाऽसंयमे सावद्यानुष्ठाने यनादिनवाच्या साडुत्पन्नामनिनवेदन संयोद्युक्तो वेदिति । पुनः साधुमेव विशिनष्टि । बहवोजनाः साधवोगडवासितया संयमसहायायस्य सबहुजनस्तथैकएव चरति तन्वीलचैकचारी सच प्रतिमाप्रतिपन्न एकन विहारी जिनकल्पादिर्वा स्यात्सच बहुजनएकाकीवा केनचित्पृष्टोऽष्टष्टोवैकांत मौनेन संय For Private Personal Use Only Page #534 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८०४ द्वितीये सूत्रकृतांगे प्रथम श्रुतस्कंधे त्रयोदशमध्ययनं . मेन करणनूतेन व्याणीयात् धर्मकथावसरेऽन्या संयमाबाधया किंचित्धर्मसंबधं ब्रूया त् । किंपरिगणय्यैतत्कुर्यादित्याह । यदिवा किमसौ ब्रूयादिति दर्शयति । एकस्याऽसहा यस्य जंतोः शुनाशुनसहायस्य गतिर्गमनं परलोके नवति तथाऽप्रागतिरागमनं नवांत राsपजायते कर्मसहायस्यैवेति । उक्तंच । एकः प्रकुरुते कर्म जुनक्त्येकश्च तत्फलं ॥ जा यते म्रियते चैक, एकोयाति नवांतरमित्यादि । तदेवं संसारे परमार्थतोन कश्चित्सहायोध मेकं विहायैतद्विगणय्य मुनीनामयं मौनः संयमस्तेन तत्प्रधानं वा ब्रूयादिति ॥ १८ ॥ सयं सच्चा वा वि सोच्चा, नासेक धम्मं दिययं पयाणं ॥ जे गरदिया सलियापनंगा, एण ताणि सेवंति सुधीरधम्मा १० केसिंचि तक्का बुझ जावं, खुद्दपि गचेक प्रसद्ददाणे॥ प्रानस्स कालाश्चरं वघाए, लघाणु माणे य परेस हे ॥ २० ॥ अर्थ - ( सयंसमेच्चा अडवा विसोच्चा के० ) चतुर्गतिक संसारनुं कारण मिथ्यात्वादिक बें तथा मोस्वरूप कारण सम्यक ज्ञानादिकले एवं परोपदेशविना स्वयं पोतेज जा ीने अथवा गुर्वादिकनी पाशेथी श्रवण करीने (नासेधम्मंहिययंपया के ० ) समस्त प्रजा एटजे त्रस तथा स्थावर जीवोने हितकारक एवो श्रुतचारित्ररूप जे धर्म तेने पेट कहे वो साधु जाणवो ए उपादेयपणु को हवे हेयपणु एटले जे पदार्थ inवा योग्य ते कहेबे ( जेगरहिया के ० ) जे मिथ्यात्व व्यविरति प्रमादादिक एवा पदार्थ जे जगतमांहे गरहा एटले निंदनीक बे तथा (सलियाण के० ) नीयाला सहित एवा जे ( प्पउँगा के० ) प्रयोग होय तेने ( तालिसेवंति सुधीरधम्मा के० ) जे धर्म विषे धीर पुरुष होय ते नसवे न खाचरे ॥ १७ ॥ ( केसिंचि तक्काइ अबुस नाव के ० ) कोई एक मिथ्यादर्शनीनो अभिप्राय जाल्याविना साधु तथा श्रावकनो धर्म स्थापन करवानी इलाये कदाचित् साधु तेपर तीर्थिक पागल तिरस्कारना वचन बोले (खुद्द पिंगळे सहाणे के० ) तेवारे ते मिथ्यादर्शनी श्री वीतरागना वचनउपर छ सहा करतो को कुपणुं करे एवो बतो विरूप करे जेम पालक प्रोहितनो स्कंद सूरि पर नाव थयो तेनी पेरे जाणवुं ( यानस्सकाला इचरंवधाए के०) खायुष्यना कानुं प्रमाण घणो होय तेने घटाडे अर्थात् आयुष्यनुं विनाश करे (नाणुमाये परे के० ) ते माटे साधु जन यागलानुं निप्राय लईने पी तेना यागल अर्थ प्रकाशे स्वपरोपकारने घर्थे बोले अन्यथा मौनमेव श्रेय ॥ २० ॥ ॥ दीपिका—स्वयं नवस्वरूपं समेत्य ज्ञात्वाऽथवाऽन्यस्मात् श्रुत्वाऽन्यस्मै धर्म नाषेत । For Private Personal Use Only Page #535 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राय धनपतसिंघ बाहारका जैनागम संग्रह नाग उसरा. ५५ किंजतं धर्म प्रजानां जीवानां हितदं। ये च गर्हितानिंद्याः सह निदानेनाऽऽशंसारूपेण वर्तते ते सनिदानाः प्रयोगाव्यापाराः कर्मबंधहेतवस्तान् सुधीरधर्माणोनिदवोन सेवं ते ॥ १५ ॥ केषांचिन्मिथ्यादृशां नावमनिप्रायमबुध्वाऽझात्वा तीथिकतिरस्कारप्रायं वचोवदेत् कश्चित्साधुः श्रावकोवा सच तचोश्रद्दधानः कुश्त्वमपि गछेत् विरूपं कुर्या त पालकपुरोहितश्व स्कंदकाचार्यस्य सकुपितोवक्तुर्यदायुस्तस्य व्याघातरूपं दयस्वनावं कालातिचारं दो स्थितिकमप्यायुः संवर्तयेत् । कोर्थः । पुरुषविशेषं झात्वा हि देशना कार्या । अन्यथा श्रोता विधिवचः श्रवणकुपितोमरणाद्युपसर्गमपि वक्तः कुर्यादिति तस्मानब्धमनुमानं पराजिप्रायज्ञानं येन सलब्धानुमानः परेषु प्रतिपाद्येषु यथायोगम र्थान् जीवादिकान् वदेत् ॥ २० ॥ ॥ टीका-किंचान्यत । ( सयंसमवेत्यादि) स्वयमात्मना परोपदेशमंतरेण समेत्य झात्वा चतुर्गतिकं संसारं तत्कारणानि च मिथ्यात्वाविरत्यतिप्रमादकषाययोगरूपाणि तथाऽशेषकर्मदयनदणं मादं तत्कारणानि च सम्यगदर्शनशानचारित्राण्यतत्सर्वं स्वत एवावबुध्यान्यस्मा झाचार्यादेः सकाशात त्वाऽन्यस्मै मुमुवे धर्म श्रुतचारित्राख्यं नाषेत । किंनूतं । प्रजायंतइति प्रजाः स्थावरजंगमाजंतवस्तेन्योहितं सउपदेशदानतः सदोपका रिणं धर्म बयादिति । नपादेयं प्रदश्य हेयं प्रदर्शयति । ये गर्हिताजुगुप्सितामिथ्यात्वा विरतिप्रमादकषाययोगाः कर्मबंधहेतवः सह निदानेन वर्ततइति सनिदानाः प्रयुज्यंत तिप्रयोगाव्यापाराधर्मकथाप्रबंधावा ममास्मात्सकाशात्पूजालाजसंस्कारादिकं नविष्यंती त्येवंतनिदानाऽऽशंसारूपांस्तांश्चारित्रविघ्ननूतान महर्षयः सुधीरधर्माणोन सेवंते ना नुतिष्ठति । यदि वा ये गर्हिताः सनिदानावाक्प्रयोगास्तद्यथा कुतीर्थकाः सावद्यानुष्ठान विरतानिःशीनानिव्रताः कुटलवेंटलकारिणश्त्येवंनूतान्परदोषोद्धट्टनया मर्मवेधिनः सुधी रधर्माणोवाकंटकान नसेवंते नब्रुवतइति ॥ १७ ॥ किंचान्यत् । (केसिंतकायेत्या दि) केषांचिन्मिथ्यादृष्टीनां कुतीथिकनावितानां स्वदर्शनाग्राहिणां तर्कया वितर्केण स्वमतिप र्यालोचनेन नावमनिप्रायं उष्टांतःकरणवृत्तित्वमबुध्वा कश्चित्साधुः श्रावकोवा स्वधर्म स्थापनेन्बया तीथिकतिरस्कारप्रायं वचोब्रूयात् सच तीथिकस्त चोऽश्रधानोरोचयन्नप्रति पाद्यमानोऽति कटुकं नावयेत् हुश्त्वमपि गजेविरूपमपि कुर्यात् । पालकपुरोहितवत् स्कंद काचार्यस्येति । कुश्त्वगमनमेव दर्शयति । सनिंदावचनकुपितोपि वक्तुर्यदायुस्तस्यायुषो व्याघातरूपं परिदयस्वनावं कालातिचारं दोघस्थितिकमप्यायुः संवतेत्। एतमुक्तं नवति । धर्मदेशनाहि पुरुषविशेषं ज्ञात्वा विधेया । तद्यथा। कोयं पुरुषोराजादिः कंचन देवतावि शेष नतः कतरक्षा दर्शनमाश्रितोऽनिगृहीतोननिगृहीतोवाऽयमित्येवं सम्यक् परिझाय ६४ Page #536 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५०६ दितीये सूत्रकृतांगे प्रथम श्रुतस्कंधे त्रयोदशमध्ययनं. यथार्ह धर्मदेशना विधेया । यश्चैतबुध्वा किंचिधर्मदेशनाबारेण परविरोधकचोव्यात् सपरस्मादैहिकामुष्मिकयोमरणादिकमपकारं प्राप्नुयादिति । यतएवं ततोलब्धमनुमानं येन परानिप्रायपरिझाने सलब्धानुमानः परेषु प्रतिपाद्येषु यथायोगं यथाईप्रतिपत्त्याड र्थान् सधर्मप्ररूपणादिकान् जीवादीन् स्वपरोपकाराय ब्रूयादिति ॥ २० ॥ कम्मं च बंदं च विगिंच धीरे, विणकन सबद आयनावं ॥ रू वेहिं लुप्पंति नयावहिं, विऊं गदाय तसथावरेहिं ॥२॥ न पयणं चेव सिलोयकामी, पियमप्पियं कस्स णो करेजा। सवे अपछे परिवजयंते, अपानले या अकसा निरकू ॥२२॥ आदतहीयं समुपेहमाणे,सवेहिं पाणेहिं णिहाय दंगे॥णो जी वियं णो मरणादिकंखी, परिवएका वलयाविष्पमुक्केत्तिबेमि ॥ ॥२३॥ इति श्रीआइत्तहियंनाम त्रयोदशमध्ययनं सम्मत्तं ॥ अर्थ-(कम्मंचढ़दंचविगिंचधीरे के०) धैर्यवान बुद्धिमान साधु देशनाने अवसरे श्रोतानो कर्म एटले अनुष्ठान तथा बंद एटले चित्तनो नाव एने जुदा जुदा जाणीने एतावता सम्यक्रीते जाणीने यथायोग्य नाव धर्म कहे तथा (विणजाउसवहयाय नावंके०) तथा श्रोता पुरुषy आयनाव एटले यात्मनाव ते विषयउपर गृआपणुं एटले मिथ्या परिणाम तेने सर्वथा प्रकारे विशेषे करी निर्घाटे एटले दूरकरे अने गुणनेविषे तेने स्थापे (रूवेहिंलुप्पं तिनयावहेहिं के०) वली रूप जे स्त्रिया दिकना अंगोपांगना जोवावाला एवा अल्प बुश्विान तुब प्राणी ते धर्मथकी लोपाए इह लोके वेदनादि क पीडा पामे परलोके नरकादिकना फुःख पामे माटे ए नयना करनारले ए धर्मथकी भ्रष्ट करे एम कोई श्रोता कहे श्रोता स्त्रीनो गृक्ष होय तेवारे अपवाद धरे (वि जंगहायतसथावरेहिं के०) तेवारे पंमित बागलानो नाव ग्रहण करीने त्रस तथा स्थावर जीवोने हितनो करनार एवो धर्मोपदेश करे ॥ २१ ॥ (नपूयणंचेव सिलोय कामी के० ) साधु देशना आपतो थको पूजन तथा वस्त्रादिकना लाजनी वांबा नकरे तथा श्लाघा एटले यात्मानी प्रशंसा तेनी पण वांबा नकरे तथा ( पियमप्पियंकस्स णोकरेजा के०) राग अने देष कोश्नी साथे सर्वथा नकरे अथवा कोश्नी निंदा वि कथा पण नकरे ( सवेधणपरिवङयंते के ) एम सर्वथा प्रकारे अनिष्ट अनर्थकारी एवी पूजा सत्कारादिक वस्तु तेने समस्तपणे वर्जे (अणानलेयाअकसाइनिरकू के०) तथा अनाकुल एटले होनादिक रहित बालशरहित तथा कषायरहित एवो बतो Page #537 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राय धनपतसिंघ बाहारका जैनागम संग्रह नाग दुसरा. ५०७ साधु, धर्मनी प्ररूपणा करे ॥ २२ ॥ ( चाहनही समुपेहमाणे के० ) यथातथ्य सत्य मार्ग जे सूत्रगत ने तेने खालोचतो सम्यक् प्रकारें अनुष्ठानने अन्यासतो थको ( सच्चे हिं पाणेहिं पिहायमेके०) सर्व प्राणी मात्र जे त्रस ने स्थावर जीवोढे तेनो दंम एटले विना शनुं त्याग करीने प्राणांते पण धर्मनुं उलंघन नकरे ( पोजीवियंणोमरणाहिकंखी के ० ) जीवितव्य धने मरणनी वांबारहित समतानावसहित थको ( परिवएकावलयावि मुक्के के० ) सुधो संयम पाले ते साधु वलय एटले मिथ्यात्व मोह गहनथकी विप्र मुक्ताय तिबेमिनो अर्थ पूर्ववत् जावो ॥१३॥ इति श्रीसूत्रकृतांगना प्रथम श्रुतस्कंध नेविषे यथातथ्य नामे तेरमा अध्ययननो अर्थ संपूर्ण थयो. ॥ ॥ दीपिका - धीरोबुद्धिमान् श्रोतुः कर्मानुष्ठानं गुरुलघुकर्मत्वं वा तथा बंदमनिप्रायं ( विगिंच ) विवेचये जानीयात् ज्ञात्वा च धर्मकथां कुर्वन् सर्वथा सर्वप्रकारेण पर्षद श्रात्मनावं मिथ्यात्वादिकं व्यपनयेत् विषयासक्तिं व्यपनयेत् । यतोरूपैर्नयनमनोहा रिनिर्नयावहैः संसारनयकारिनिस्तु व सत्त्वा विलुप्यते धर्मात् बाध्यते एवं विद्वान पंडितो गृहीत्वा परानिप्रायं सस्थावरेच्यो हितं धर्मं वदेत् ॥ २१ ॥ साधुर्देशनां कुर्वन् पूजनं वसुपात्रादिलानरूपं न वांबेत् नापिश्लोकं श्लाघां कामयेत् तथा श्रोतुः प्रियं राजक यादिकमप्रियं तदाश्रितदेव निंदादिरूपं न कथयेत् । एवं सर्वान् दोषान् परिवर्जयेदना कुलः साधुरकषायी जवेत् ॥ २२॥ योयाथातथ्यं सम्यक्चारित्रं प्रेक्षमाणः पर्यालोचय न् सर्वेषु प्राणिषु दंडं हिंसां निधाय त्यक्त्वा जीवितमसंयमजीवितं न कांदेनापि मरणा निकांकी स्यात् । तदेवं वलयेन मायामोहेन विप्रमुक्तः परिव्रजेत्संयमानुष्ठानं चरेत्साधुः । इति समाप्तौ । ब्रवीमीति पूर्ववत् ॥ २३ ॥ याथातथ्याख्यं त्रयोदशमध्ययनं समाप्तं ॥ ॥ टीका - पिच । (कमंच बंदं चेत्यादि ) धीरोऽदोच्यः सहुध्यलंकृतोवा देशनावसरे धर्मकथा श्रोतुः कर्मानुष्ठानं गुरुलघुकर्मनावं वा तथा बंदमनिप्रायं सम्यग्विवेचयेजानीया त् ज्ञात्वा च पर्षदनुरूपामेव धर्मकथिकोधर्मदेशनां कुर्यात्सर्वथा यथा तस्य श्रोतुर्जीवादि पदार्थावगमोजवति । यथाच मनोन दूष्यतेऽपितु प्रसन्नतां व्रजत्येतद निसंधिमानाह । विशे पेण नयेदपनयेत्पर्षदः पापनावमशुद्धमंतःकरणं तुशब्दादिशिष्टगुणारोपणं च कुर्यात् । यायावं ति कचित्पाठः । तस्यायमर्थः । श्रात्मनावोऽनादिनवान्यस्तो मिथ्यात्वा दिकस्तम पनयेद्यदि वात्मना वो विषयगृध्नुताऽतस्तमपनयेदिति । एतद्दर्शयति । रूपैर्नयनमनोहारि निः स्त्रीणामंगप्रत्यंगाई कटा निरीक्षणादिनिरल्प सत्त्वाविलुप्यंते सर्माद्वायंते । किंनू तैरूपैर्नयावहैः । नयमावहंति जयावहानि । इहैव तावद्रूपादिविषयासक्तस्य साधुजनजुगु सा नानाविधाश्च कर्णनासिका विकर्तना विमंबनाः प्राडुर्भवंति जन्मांतरे तिर्यङ्नरकादिके For Private Personal Use Only Page #538 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५७ वितीये सूत्रकृतांगे प्रथम श्रुतस्कंधे चतुर्दशमध्ययनं. यातनास्थाने प्राणिनोविषयासक्तावेदनामनुनवंतीत्येवं विज्ञान पंहितोधर्मदेशनानिको गृहीत्वा परानिप्रायं सम्यगवगम्य पर्षदं त्रसस्थावरेज्योहितं धर्ममावि वयेत् ॥ २१ ॥ पूजासत्कारादिनिरपेकेण च सर्वमेव तपश्चरणादिकं विधेयं विशेषतोऽधर्मदेशनेत्येतदनि प्रायवानाह । (नपूयणंचेत्यादि ) साधुर्देशनां विदधानोन पूजनं वस्त्रपात्रादिलानरूप मनिकांदेनापि श्लोकं श्लाघां कीर्तिमात्मप्रशंसां कामयेदनिलषेत्तथा श्रोतुर्य प्रियं राज कथाविकथादिकं बलितकथादिकं च तथाऽप्रियं च तत्समाश्रितदेवताविशेषनिंदादिकं न कथयेदरक्तष्टितया श्रोतुरनिप्रायमनिसमीक्ष्य यथावस्थितं कथयेत् । उपसंहारमाह। सर्वानर्थान् पूजासत्कारलानानिप्रायेण स्वकतान् परदूषणतया च परकतान् वर्जयन् परिहरन् कथयेदनाकुलः सूत्रार्थादनुत्तरन्नकषायोनिटुर्नवेदिति ॥ १२ ॥ सर्वाध्ययनोप संहारार्थमाह । (थाहत्तहीयमित्यादि) यथातथानावोयाथातथ्यं धर्ममार्गसमवरणा ख्याध्ययनत्रयोक्तार्थ तत्त्वं सूत्रानुगतं सम्यक्त्वं चारित्रं वा तत्प्रेक्ष्यमाणः पर्यालोचय न सूत्रार्थ सदनुष्ठानतोन्यसन सर्वेषु स्थावरजंगमेषु सूक्ष्मबादरनेदनिन्नेषु पृथिवीकाया दिषु दंडयंते प्राणिनोयेन सदंमः प्राणव्यपरोपण विधिस्तनिधाय परित्यज्य प्राणात्ययेपि याथातथ्यं धर्म नोनंघयेदिति । एतदेव दर्शयति । जीवितमसंयमजीवितं दीर्घायुष्कं वा स्थावरजंगमजंतुदंडेन नानिकांही स्यात् परीषहपराजितोवेदनासमुद्घातहतोवा त वेदनामसहमानोजलानलसंपातापादितजंतूपमर्दैन नापि मरणानिकांक्षी स्यात् । तदेवं याथातथ्यमुत्प्रेक्ष्यमाणः सर्वेषु प्राणिपरतदंमोपजीवितमरणानपेदी संयमानुष्ठानं चरे उद्युक्तविहारी नवेन्मेधावी मर्यादाव्यवस्थितोविदितवेद्योवा वलयेन मायारूपेण मोह नीयकर्मणा वा विविध प्रकर्षेण मुक्तो विप्रमुक्तइति । इतिपरिसमाप्त्यर्थे । ब्रवीमीति पूर्व वत् ॥ २३ ॥ समाप्तं च याथातथ्यं त्रयोदशमध्ययनमिति॥ हवे ग्रंथ परित्याग नामा चौदमो अध्ययन कहेले. तेरमा अध्ययनमां यथा सत्य पणो कह्यो ते यथा सत्य पणो तो बाह्यान्यंतररूप विविध परिग्रहना त्याग विना न थाय माटे या चौदमा अध्ययनमां ग्रंथ परित्याग पणो कहे. गंथं विहाय इह सिरकमाणो, नहाय सुबंनचेरं वसेजा ॥ ग्वा यकारी विणयं सुसिके, जे बेय विप्पमायं न कुजा ॥१॥ज हा दियापोतमपत्तजातं, सावासगा पवित्रं मन्नमाणं ॥ तमंचाश्यं तरुणमपत्तजातं, ढंकाइ अवत्तगम हरेजा ॥२॥ अर्थ-(गंयं के०) धनधान्य हिरण्यादिक बाह्य ग्रंथ अने क्रोधादिक अन्यंतर ग्रंथ ए विविध ग्रंथने ( विहाय के० ) त्यागोने (इह के०)या प्रवचनने विषे ( सिरक Page #539 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रायधनपतसिंघ बादाउरका जैनागम संग्रह नाग उसरा. ५०ए माणो के० ) सम्यक् प्रकारे संयममार्ग शुक्रियारूप शीत सीखतो थको (नहायसु के ) संयमने विषे नद्यम करीने सुशोजन एवा (बंजचेरंवसेजा के० ) ब्रह्मचर्यव्रतर्नु नव वाडसहित आश्रय करे (नवायकारीविणयंसुसिरके के० ) तथा जावजीव शुधी उपायकारी एटले गुरुनी आज्ञा पालतो शोनन प्रकारे करीने विनयज शीखे (जेय विष्णमायनकुजा के जे माह्या पुरुषले ते ए कार्यने विषे प्रमाद नकरे ॥ १॥ हवे गुरु उपदेशविना पोताने बंदे गथकी निकलीने जे एकाकी पणे विचरे तेने घणा दोपनी प्राप्ति थाय ते उपर दृष्टांत कहेडे (जहादिया के० ) यथा दृष्टांते जेम पदी ना ( पोतअपत्तजातं के०) बालक ने ज्यां सुधी पांख यावी नथी त्यांसुधी ते पांख विनानो एवो तो (सावासगापविमन्नमाणं के०) पोताना माला थकी उडवानी वां बा करतो थको पांख फडफडावे परंतु (तमंचाइयं तरुणमपत्तजातं के०) याकरो त डीजवाने असमर्थ थाय अने तेने पाखो थकी हीन मांसपेसी समान एवो न्हानो तरु ण देखीने ( ढंकाइयवत्तगमहरेजा के०) मांसाहारी एवा ढंकादिक पदी तेने अप हरीने तेनो विनाश करे ते बालक केवो तो के थव्यक्तगतासिवा असमर्थ एटले त्यां थी नाशी जवाने असमर्थ एवोठे ॥ २ ॥ ॥ दीपिका-अथ चतुर्दशं ग्रंथाध्ययनमारन्यते । तस्येदमादिसूत्रं । (गंथमिति ) इह प्रवचने ग्रंथं धनादिकं त्यक्त्वा शिक्षमायोग्रहणसेवनाशिदा सेवमानः सज्ञानेनोबाय सुष्ट्र शोजनं ब्रह्मचर्यमाश्रित्य वसे तिष्ठेदाचार्यवचनस्यावपातोनिर्देशस्तत्कारी बाचार्यक थितकारी विनयं सुष्टु शिदेत् कुर्यात् तथा यश्कोनिपुणः स विप्रमादं विविध प्रमादं न कुर्यात् ॥१॥ यथादिजपोतः पदिशिशुर्न विद्यते पत्रजातं पदोनवोयस्य सोऽपत्र जातः पदहीनस्तं स्वकीयादावासकात् प्लवितुमुत्पतितुं मन्यमानं तत्र पतंतमुपलभ्य तं (अचाश्यंति ) पदानावाजंतुमसमर्थमपत्रजातमिति कृत्वा ढंकादयोमांसाहाराः सत्वा अव्यक्तगमं गमनानावे नष्टुमसमर्थ हरेयुर्व्यापादयेयुः ॥ २ ॥ ___॥ टोका-नक्तं त्रयोदशमध्ययनं सांप्रतं चतुर्दशमारन्यते । अस्य चायमनिसंबंधः । शहानंतराध्ययने याथातथ्य मिति सम्यक्चारित्रमनिहितं तच बाह्यान्यंतरग्रंथपरित्यागा दवदातं नवति । तत्त्यागश्चानेनाध्ययनेन प्रतिपाद्यतइत्यनेन संबंधेनायातस्यास्याध्ययन स्य चत्वार्यनुयोग वाराण्युपक्रमादीनि नवंति । तत्रोपक्रम दारांतर्गतोऽर्थाधिकारोयं । त यथा। सबाह्यान्यंतरग्रंथपरित्यागोविधेयइति नामनिष्पन्ने तु निदेपे आदानपदाजुणनिष्प नत्वाच्च ग्रंथतइति नाम तं ग्रंथमधिकृत्य नियुक्तिकदाह । “गंयोपुलुहितो, उविदो सि स्सो य होंति गायबो ॥ पचावण सिरकावण, पगवं सिरकावणाए " ॥ २ ॥ (गं Page #540 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५१० दितीये सूत्रकृतागे प्रथम श्रुतस्कंधे चतुर्दशमध्ययनं. थोपुवुदिछोइत्यादि ) ग्रंथोव्यनावनेदनिन्नः कुल्लकनैग्रंथ्यं नाम उत्तराध्ययनेष्वध्ययनं। तत्र पूर्वमेव सप्रपंचोऽनिहितः।इह तु ग्रंथं व्यनावनेदनिन्नं यः परित्यजति शिष्ययाचा रादिकं वा ग्रंथं योधीते सशिष्योविविधोदिप्रकारोज्ञातव्योनवति । तद्यथा । प्रव्रज्यया शिल्या च । यस्य प्रव्रज्या दीयते शिक्षा वा यो ग्राह्यते सक्षिप्रकारोपि शिष्यश्ह पुनः शिक्षा शिष्येण प्रकृतमधिकारोयः शिक्षा गृहाति शिक्षकस्त विदयेह प्रस्तावइत्यर्थः । य थाप्रतिज्ञातमधिकृत्याह । “ सो सिरकगो य उविहो, गहणे यासेवणा य गायबो ॥ ग हमि होंति तिविहो सुत्ते अबे तउनएय, ॥ ३० ॥ (सोसिरकगोयविहोइत्यादि ) यः शिदा गृप्तहाति सविविधोदिप्रकारकोनवति । तद्यथा । ग्रहणे प्रथममेवाचार्यादेः सका शाबिदा हामिलातहकारादिरूपां गृहाति शिदति तथा शिक्षितां वान्यस्यति अहर्नि शमनुतिष्ठति सएवं विधोग्रहणासेवनानेदनिन्नः शिष्योज्ञातव्योनवति । तत्रापि ग्रह णपूर्वकमासेवनमिति कृत्वाऽऽदावेव ग्रहण शिक्षामाह। शिदया ग्रहणे उपादानेऽधिकते त्रिविधोनवतीति शिक्षकः । तद्यथा । सूत्रेऽर्थे तनयेच सूत्रादीन्यादावेव गृएहन सूत्रादि शिक्षकोनवतीति नावः । सांप्रतं ग्रहणोत्तरनाविनीमासेवनामधिकृत्याह । (“आसेव पाए उविहो, मूलगुणे चेव उत्तरगुणेय ॥ मूलगुणे पंचविहो, उत्तरगुणे बारस विहो न" ॥ ३१ ॥ (थासेवनेइत्यादि ) यथावस्थितसूत्रानुष्ठानमासेवना तया कारणनूतया विविधोनवति शिदकः । तद्यथा मूलगुणे मूलगुणविषये यासेवमानः सम्यक् मूलए णानामनुष्ठानं कुर्वन् तथोत्तरगुणे चौत्तरगुणविषयं सम्यगनुष्ठानं कुर्वाणोहिरूपोप्यासेव नाशिदकोनवति । तत्रापि मूलगुणे पंचप्रकारः । प्राणातिपातादिविरतिमासेवमानः पं चमहाव्रतधारणात्पंचविधोनवति मूलगुणेष्वासेवनाशिदकः । त्तथोत्तरगुण विषये सम्य पिंड विशुध्यादिकान गुणानासेवमानउत्तरगुणानासेवनाशिदकोनवति । ते चामी उत्त रगुणाः । पिंडस्स जावि सोही, समिईहो नावणा तवो ऽविहा ॥ पडिमा अनिग्गहा विय, उत्तरगुणमो वियाणाहि ॥ ॥ यदिवा सत्स्वप्येतेषूत्तरगुणेषु प्रधाननिर्जराहेतु तया तपएव दादशगुणमुत्तरगुणत्वेनाधिकृत्याह । उत्तरगुणे उत्तरगुणविषये तपोवाद शनेदनिन्नं यः सम्यक् विधत्ते सयासेवनाशिदकोनवतीति । शिष्योह्याचार्यमंतरेण न नवत्यतयाचार्यनिरूपणमाह । “आयरिउ विय उविहो, पजावंतो य सिस्किवंतो य॥ सिरकावंतो ऽविहो गहणे आसेवणे चेव ॥ ३२ ॥ गाहावितो तिविहो, सुत्ते अजेय त उनए चेव ॥ मूलगुणउत्तरगुणो, सुविहो बासेवणाए नु" ॥ ३३ ॥ (थायरि वि यइत्यादिगाथाक्ष्यं शिष्यापेक्ष्या हि याचार्योविविधोविनेदः । एकोयः प्रव्रज्यां ग्राह यत्यपरस्तु यः शिक्षामिति । शिक्ष्यन्नपि विविधः । एकोयः शिक्षाशास्त्रं ग्राहयति पा व्यत्यपरस्तु तदर्थ दश विधचक्रवालसमाचार्यनुष्ठानतः सेवयति सम्यगनुष्ठानं कारयति । Page #541 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राय धनपतसिंघ बादाउरका जैनागम संग्रह नाग उसरा. ११ तत्र सूत्रार्थ तज्नयनेदाग्राहयन्नप्याचार्य स्त्रिधा नवति । आसेवनाचार्योपि मूलोत्तर नेदाद्विविधोनवति । गतोनामनिष्पन्नोनिदेपस्तदनंतरं सूत्रानुगमेऽस्खलितादिगुणोपेतं सूत्रमुच्चारयितव्यं । तञ्चेदं । (गंथेविहेत्यादि) इह प्रवचने झातसंसारस्वनावः सन् सम्यगनुष्ठानेनोबितोयथ्यते यात्मा येन सग्रंथोधनधान्यहिरण्यदिपदचतुष्पदादिकस्तं विहाय त्यक्त्वा प्रवजितः सन् नबानेनोबाय च ग्रहणरूपामासेवनारूपां च शिदां च कुर्वाणः सम्यगासेवमानाः सुष्टु शोननं नवनिर्ब्रह्मचर्यगुप्तिनिर्गुप्तमाश्रित्य ब्रह्मचर्य वसे त्तिष्ठेत् यदिवा ब्रह्मचर्यमिति संयमस्तदावसेत्तं सम्यक् कुर्यात् । आचार्या तिके याव जीवं वसमानोयावदन्युद्यतविहारं न प्रतिपाद्यते तावदाचार्यवचनस्यावपातोनिर्देशस्त कार्यावपातकारी वचन निर्देशकारी सदाझाविधायी विनीयतेऽपनीयते कर्म येन सवि नयस्तं सुष्टु शिदेविदध्यात् ग्रहणासेवनान्यां विनयं सम्यकपरिपालयेदिति । तथा य श्वेकोनिपुणः संयमानुष्ठाने सदाचार्योपदेशे वा विविध प्रमादं न कुर्यात् । यथाहि थातुरः सम्यग्वैद्योपदेशं कुर्वन् श्लाघां लनते रोगोपशर्मचैवं साधुरपि सावद्यग्रंथपरि हारी पापकर्मनेषजस्थाननतान्याचार्यवचनानि विदधदपरसाधुन्यः साधुकारमशेषकर्म दयं वा प्राप्नोतीति ॥ १॥ यः पुनराचार्योपदेशमंतरेण स्वबंदतया गबनिर्गत्य एका किविहारितां प्रतिपद्यते सच बहुदोषनाग नवतीत्यस्यार्थस्य दृष्टांतमावि वयन्नाह । ( जहादियाइत्यादि ) यथेति दृष्टांतोपप्रदर्शनार्थः । यथा येन प्रकारेण विजपोतः प विशिगुरव्यक्तस्तमेव विशिनष्टि । पतंति गचंति तेनेति पत्रं पदपुटं न विद्यते पत्रजातं प दोनवोयस्यासावपत्रजातस्तत्र स्वकीयादावासकात् स्वनीडात् प्लवितुमुत्पतितुं मन्यमानं तत्रतत्र पतंतमुपलान्य तं विजपोतं (अचाश्यंति ) पदानावाजंतुमसमर्थमपत्रजात मिति कृत्वा मांसपेशीकल्पं ढंकादयः लुइसत्त्वाः पिशिताशिनोऽव्यक्तगमं गमनानावे नष्टुमसमर्थ हरेयुश्चंच्वादिनोदिप्य नयेयुर्व्यापादयेयुरिति ॥ २ ॥ एवं तु सेपि अपुध्धम्म, निस्सारियं वुसिमं मन्नमाणा ॥ दि यस्स गवं च अपत्तजायं, दरिसणं पावधम्मा अणेगे॥३॥ साणमिचे मणए समाहिं; अणोसिए पंतकरिंति एणचा ॥ नासमाणे दवियस्स वित्तं, ण णिकसे बदिया आसुपन्नो ॥ ४ ॥ अर्थ-(एवंतु के० ) एरीते जेम ते अव्यक्त एवोजे पहीनो बालक तेनो बीजा ढं कादिक दुइ पदी विनाश करे तेम ते (सेहंपियपुधम्मं के० ) अगीतार्थ नवदिदी त शिष्य पण (निस्सारियं वुसिममन्नमाणा के०) गबरूप माला थकी नीकल्यो तो Page #542 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५१२ द्वितीये सूत्रकृतांगे प्रथम श्रुतस्कंधे चतुर्दशमध्ययनं. पीतेने अनेक पांखमीरूप जे ढंकपदीने ते पोताने वसगामी जाणता थका तेने विप्रतारीने संयमरूप जीवितव्य थकी चुकावे ( दियरसबावंच पत्त जायं के० ) पां खरहित एवो जे पक्कीनो बालक तेनी पेरे ते गीतार्थ शिष्यने ( हरिसुपावधम्मात्र गे के० ) ते पापधर्मि एवा अनेक पाखंमी तेने संयम यकी हरण करे ॥ ३ ॥ ए माटे चारित्रवान साधु सर्वकाल गुरुपाशे रहेवो ते कहेबे (सामिबेमणुएसमा हिं के० ) जावजीव सुधी गुरुनी पाशे रहेवानी वांबा करे जे सुसाधु बे ते एवीज स मार्गरूप समाधिनी वांबा करे एटले परमार्थथकी मनुष्य तेनेज कहिए के जे गुरुकु वासे वसतो थको पोताना नाषेला अंगीकार करेला सन्मार्गनो निर्वाह करे ( यणो सितकरिं तिच्चा के० ) गुरुकुलवासे प्रणवसतो एटले स्ववंदाचारी बतो संसारनो अंत नकरे उलटो अनंत संसारी थाय संसारनी वृद्धि करे एवं जालीने (उनासमा दवियस वित्तं के० ) सर्वकाल गुरुकुलवासे वशे गुरुनी सेवा करे एम मुक्तिगमन योग्य साधुना याचारने अत्यंत दीपावतो थको जिननाषित धर्मने दीपावे एवं जा ita (किसे दिया घासुपने के० ) यासुप्र एटले जे पंमित होय ते गथकी बाहेर नीकले नही अर्थात् स्वबंदी नथाय ॥ ४ ॥ ॥ दीपिका - दृष्टांत योजनामाह । एवमुक्तप्रकारेण शिक्षकं नवदीक्षितं सूत्रार्थविकल मगीतार्थमपुंष्टधर्माणं पाखंडिकाः प्रतारयंति प्रतार्यच गवान्निःसारयंति निःसारितंच सं तमस्माकं वश्यमित्येवं मन्यमानाखजातपदं द्विजशावं परिपोतमिव ढंकादयः पापक र्माणः कुतीर्थिकाः स्वजनाराजादयोवाऽनेके हृतवंतोहरंति हरिष्यंति चेति कालत्रयो पलक्षणार्थं नूत निर्देशः ॥ ३ ॥ वसानं गुरोरंतिके स्थानं समाधिसन्मार्गानुष्ठानरूपं यावजीवमिच्छेन्मनुजः साधुर्यावतीवं गुरुकुलवासी स्यादित्यर्थः । गुरोरं तिकेऽनुषितो Sव्यवस्थितः कर्मणोऽनंतरोंऽतकारी नस्यादिति ज्ञात्वा गुरुं सेवेत तहितस्य विज्ञानमु पहा सोनवेत् । यतः । नहि नवति निर्विगोषकमनुपासितगुरुकुलस्य विज्ञानं ॥ प्रक टितपश्चानागं, पश्यत नृत्यं मयूरस्य ॥ १ ॥ इव्यस्य मुक्तियोग्यस्य साधोर्वृत्तमनुष्ठानमु नासयन्ननुतिष्ठन् न निष्क सेन्न निर्ग बेजबाहे हिरायुप्रज्ञः पंडितः ॥ ४ ॥ ॥ टीका - एवं दृष्टतं दाष्टीतिक प्रदर्शयितुमाह । ( एवंतुसे हंपीत्यादि) एवमि त्युक्तप्रकारेण । तुशब्दः पूर्वस्माद्विशेषं दर्शयति । पूर्व ह्यसंजातपत्वादव्यक्तता प्रतिपा दिता इव पुष्टधर्मतयेति । प्रयं विशेषोयथा द्विजपोतमसंजातपक्षं स्वनीडान्निर्गतं कु सत्वाविनाशयंति एवं शिष्यकमनिनवप्रव्रजितं सूत्रार्थानिष्पन्नमगीतार्थमपुष्टधर्मा सम्यगपरितधर्म परमार्थ संतमनेकपापधर्माण: पाडिकाः प्रकारयति प्रतार्थच गवस For Private Personal Use Only Page #543 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राय धनपतसिंघ बाहाउरका जैनागम संग्रह नाग उसरा. १३ मुज्ञानिःसारयंति निःसारितंच संतं विषयोन्मुखतामापादितमपगतपरलोकनयमस्माकं वश्यमित्येवं मन्यमानाः । यदिवा (बुसित्ति) चारित्रं तदसदनुष्ठानतोनिःसारं मन्यमा नाअजातपदं विजशावकभिव पदिपोतमिव ढंकादयः पापधर्माणोमिथ्यात्वाविरत्ति प्रमादकषायकलुषितांतरात्मानः कुतीथिकाः स्वजनाराजादयोवाऽनेके बहवोहतवंतोहरं ति हरिष्यंति चेति कालत्रयोपलदाणार्थ नूतनिर्देशइति । तयादि। पाषंडिकाएवमगीता र्थ प्रतारयति । तद्यथा। युष्मदर्शनेनानिप्रज्वालनविषापहारशिखाबेदादिकाः प्रत्यया दृश्यते तथाऽणिमाद्यष्टगुणमैश्वर्यच नास्ति तथा न राजादिनिबदुनिराश्रितं । याप्यहिं सोच्यते नवदागमे सापि जीवाकुलत्वानोकस्य फुःसाध्या नापि नवतां स्नानादिकं शौच मस्तीत्यादिकानिः शक्तिनिरिंजालकल्पानिर्मुग्धजनं प्रतारयंति स्वजनादयश्चैवं विष संनयंति । तद्यथा । न जवंतमंतरेणास्माकं कश्चिदस्ति पोषकः पोष्योवा त्वमेवास्माकं सर्वस्वं त्वया विना शून्यमानाति तथा शब्दादि विषयोपनोगामंत्रणेन स धर्माच्यावयंति। एवं राजादयोपि इष्टव्यास्तदेवम पुष्टधर्माणमेका किनं बदुनिः प्रकारैः प्रतार्यापहरेयुरिति। ॥३॥ तदेवमेकाकिनः साधोर्यताबहवोदोषाःप्राउनवंत्यतः सदा गुरुपादमूले स्थातव्य मित्येतदर्शयितुमाह । (उसाण मिले इत्यादि) अवसानं गुरोरंतिके स्थानं तद्यावजीवं समाधि सन्मार्गानुष्ठानरूपमिजेदनिलषेन्मनुजोमनुष्यः साधुरित्यर्थः। सएव परमार्थ तोमनुष्योयोयथाप्रतिज्ञातं निर्वाहयति । तच्च सदागुरोरंतिके व्यवस्थितेन सदनुष्ठान रूपं समाधिमनुपालयता निर्वाह्यते नान्यथेत्येतदर्शयति । गुरोरंतिकेऽनुषितोव्यवस्थि तः स्वबंद विधायी समाधिः सदनुष्ठानरूपस्य कर्मगोयथाप्रतिज्ञातस्य वा नांतकरोनव तीति ज्ञात्वा सदा गुरुकुलवासोऽनुसतव्यस्त हितस्य विज्ञानमुपहास्यप्रायं नवतीति । उक्तंच । नहि नवति निर्विगोपकमनुपासितगुरुकुलस्य विज्ञानं ॥ प्रकटितपश्चानागं प श्यत नृत्यं मयूरस्य ॥ १ ॥ तथा जांगल विलनवालुकां पार्मिप्रहारेण प्रगुणां दृष्ट्वाऽपरो ऽनुपासितगुरुरझोराझी संजातगलगंडां पार्मिप्रहारेण व्यापादितवानित्यादयोऽनुपासि तगुरोर्बहवोदोषाः संसारवर्धनाद्यानवंतीत्यवगम्यानया मर्यादया गुरोरंतिके स्थातव्यमि ति दर्शयति । अवनासयन्नुन्नासयन् सम्यगनुतिष्ठन् इव्यस्य मुक्तिगमनयोग्यस्य सत्सा धोरागद्वेषरहितस्य सर्वज्ञस्य व्यावृत्तमनुष्ठानं तत्सदनुष्ठानतोऽवनासये धर्मकथिकः कथ नतोवोन्नासयेदिति । तदेवं यतोगुरुकुलवासोबहूनां गुणानामाधारोनवत्यतोन निष्कसे ननिर्गत गबाजुर्वतिका बहिः स्वेलाचारी ननवेदाशुप्रति प्रिप्रझस्तदंतिके निव सन् विषयकषायान्यामात्मानं दियमाणं झात्वा दिप्रमेवाचार्योपदेशात्स्वतएव वा निव तयति सत्समाधौ व्यवस्थापयतीति ॥४॥ Page #544 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीये सूत्रकृतांगे प्रथम श्रुतस्कंधे चतुर्दशमध्ययनं . सासणेय, परक्कमे यावि सुसादजुते ॥समितीसु गुत्तीस यायपन्ने, वियागरिते य पुढो वएजा ॥ ८ ॥ सद्दाणि सोच्चा अडु नेरवाणि, अणासवे तेसु परिवएका ॥ निदं च नि स्कून पमाय कुा, कहंकदं वा वितिगित तिने ॥ ६ ॥ ५१४ जे अर्थ - (जेके0 ) जे वैराग्य यादरी चारित्रवंत थको ( वाय के० ) स्थान या श्री दिने विषे ( सयपासणेय के० ) तथा शयन घने आशनने विषे च कार शब्द गमनने विषे ( परक्कमेयावि के० ) पराक्रम एटले बल फोरवे ते केवो Art फोरवे तोके ( सुसादुजुते के० ) रुडा याचारसहित एवो बतो ( समितीसुगुत्ती सुयापत्ते के० ) पांच समिति ने त्रण गुप्तिने विषे यायपन्न एटले सम्यक् जाण ( वियागरितेय पुढोको के० ) अथवा अन्यने उपदेश देतो ते उपदेशने गुरु प्रासाद की जालीने तेने जुदो जुदो विचार कहे. ॥ ५॥ (सहा लिसोच्चाडुरवाणि के० ) शब्द वंशना वादिक कर्णने सुखना करनार तथा भैरव एटले कर्णने दुःखना करनार एवा शब्द सांजलीने (यणासवे के० ) ते शब्दादिकने विषे राग द्वेष रहित एवो बतो (सुप विएका के०) सुधो संयम पाले ( निदंच निरकूनपमायकुका के० ) तथा निशरूप जे प्रमाद ते पण निक्कु नकरे ए प्रकारे प्रवर्त्ततो ( कहंक वा वितिवितिने के० ) कोई पण प्रकारे वितगित एटजे संदेह तेथकी निःक्रांत थाय एटलेसंदेह रहित थाय. ॥६॥ || दीपिका - प्रव्रज्यां प्रति नद्यतोनित्यं गुरुकुलवासतः स्थानतश्च स्थानमाश्रित्य तथा शयनतय्यासनतः । चकाराजमनमाश्रित्य तथा तपश्चरणादौ पराक्रमतश्च साधोरुद्यतविहा रिणोये समाचारास्तैः समायुक्तः स्थानशयनासनादावुपयुक्तइत्यर्थः । समितिषु गुप्तिषु चागता उत्पन्ना प्रज्ञा यस्य सप्रागतप्रज्ञः संजातकृत्याकृत्यविवेकः स्वतः स्यात् । परस्या पि व्याकुर्वत् कथयत् पृथक् समितिगुप्तीनां पालनं तत्फलंच वदेत् ॥ ५॥ शब्दान् मनो हरान् श्रुत्वाऽथवा नैरवान् कर्णकटून श्रुत्वा तेषु शब्देष्वनाश्रवोमध्यस्थोनूत्वा परिव्रजे संयमानुष्ठायी स्यात् । तथा नि प्रमादरूपां निकुर्न कुर्यात् । तदेवं गुरूपदेशात् कथं कथमपि विचिकित्सां विश्रुतिरूपां वितीर्णोनिष्क्रांतः स्यात् ॥ ६ ॥ ॥ टीका - तदेवं प्रव्रज्यामन्युद्यतो नित्यं गुरुकुलमावसन् सर्वत्र स्थानशयनासनादावु पयुक्तोभवति तडुपयुक्तस्य च गुणमुद्रावयन्नाह । ( जेठालउ यइत्यादि ) योहि निर्वि संसारतया प्रव्रज्यायामन्युद्यतोनित्यं गुरुकुलवासतः स्थानतश्च स्थानमाश्रित्य तथा For Private Personal Use Only Page #545 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रायधनपतसिंघ बादाउरका जैनागम संग्रह नाग उसरा. ५१५ शयनतबासनतः । एकश्चकारः समुच्चये वितीयोऽनुक्तसमुच्चयार्थः । चकाराजमनमाश्रि त्यागमनंच तथा तपश्चरणादौ पराकमतश्च साधोरुयुक्तविहारिणोये समाचारास्तैः समा युक्तः सुसाधुदि यत्र स्थानं कायोत्सर्गादिकं विधत्ते तत्र सम्यक्प्रत्युपेक्षणादिकां कियां करोति कायोत्सर्ग च मेरुरिव निष्प्रकंपशरीरोनिस्टहोविधत्ते तथा शयनं च कुर्वन् प्रत्युपे दस्तं संस्तारकं तभुवं कायं वोचितकाले गुरुनिरनुज्ञातः स्वपेत्तत्रापि जादिव नात्यंतं निःसहरति । एवमासनादिष्वपि तिष्ठता पूर्ववत्संकुचितगात्रेण स्वाध्यायध्यानपरायणे न सुसाधुना नवितव्यमिति । तदेवमादिसुसाधु क्रियायुक्तोगुरुकुलनिवासी सुसाधुर्नव तीति स्थितं । अपिच गुरुकुलवासे निवसन् पंचसु समितिष्वीर्यासमित्यादिषु प्रविचा राऽप्रविचाररूपासु तथा तिसृषु च गुप्तिषु प्रविचाराप्रविचाररूपासु आगतोत्पन्ना प्रज्ञा य स्यासावागतप्रज्ञः संजातकर्तव्याकर्तव्यविवेकः स्वतोनवति परस्यापिच व्याकुर्वन् कथय न पृथक्टथग्गुरोः प्रसादात्परिझातस्वरूपः समितिगुप्तीनां यथावस्थितस्वरूपप्रतिपालनं तत्फलंच वदेत्प्रतिपादयेदिति ॥ ५ ॥ र्यासमित्याद्युपेतेन यविधेयं तदर्शयितुमाह । (सदाणीत्यादि ) शब्दान् वेणुवीणादिकान् मधुरान् श्रुतिपेशलान् श्रुत्वा समाकाऽथ नरवान् जयावहान कर्णकटूनाकर्ण्य शब्दानाश्रवति तान् शोननत्वेनाशोननत्वेनवा गृहातीत्याश्रवोनाश्रवोऽनाश्रवस्तेष्वनुकूलेषु प्रतिकूलेषु श्रवणपथमुपगतेषु शब्देष्वना श्रवोमध्यस्थोराग देषरहितोनूत्वा परिसमंताद् व्रजेत्परिव्रजेत् संयमानुष्ठायी नवेत्तथा निसंच निाप्रमादंच निवः सत्साधुः प्रमादांगत्वान्न कुर्यात् । एतमुक्तंनवति । शब्दा श्रवनिरोधेन विषयविषयप्रमादोनिषियोनिज्ञनिरोधेन निशप्रमादश्चशब्दादन्यमपि प्रमा दं विकथाकषायादिकं न विदध्यात् । तदेवं गुरुकुलवासात् स्थानशयनासनसमितिगुप्ति प्वागतप्रज्ञः प्रतिषिसर्वप्रमादः सजुरोरुपदेशादेव कथंकथमपि विचिकित्सां चित्तविलति रूपां वितीणीऽतिकांतोनवति। यदिवा महीतोयं पंचमहाव्रतनारोऽतिउर्वहः कथंकथमप्यं तं गोदित्येवंनतां विचिकित्सां गुरुप्रसादावितीर्णोनवति।अथवा यां कांचिञ्चित्तविप्लुतिं देश सर्वगतां तां कृत्स्नां गुर्वतिके वसन् वितीर्णोनवत्यन्येषामपि तदपनयनसमर्थः स्यादिति महरेण वुड़ेण णुसासिए न, रातिणिएणावि समवएणं ॥ स म्म तयं थिरतो पानिगवे, पिङतए वा वि अपारएसे॥७॥ विनन्तेिणं समयाणुसि, मदरेण वुड़ेपन चोइएय ॥ अचु ध्यिाए घडदासिए वा, अगारिणं वा समयाणुसिड़े ॥ ॥ । अर्थ-महरेणवुड्डेणषुसासिएनराके० ) ते साधु गुरु सन्मुख वसतो को कारणे प्र Page #546 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५१६ दितीये सूत्रकृतांगे प्रथम श्रुतस्कंधे चतुर्दशमध्ययनं. मादे खलना पाम्यो बतो तेने न्दाने अथवा वडेराये शीखामण दीधी बता ( रायंणिए गाविसमवएणं के ) अथवा रत्नाधिक जे आचार्य अथवा सरखा पर्याय वालाये शीखामण यापीलतां ( सम्मंतयंथिरतोणानिगडे के ) तेमनी शीखामण सम्यक् प्र कारे नमाने (पिजंतएवाविअपारएसे के० ) ते संसार प्रवाहे वाहाडीजतो संसारनो पारंगामी नयाय एटले मुक्तिगामी नथाय ॥ ७ ॥ (विनहिते के० ) अन्यतीर्थिक अ थवा गृहस्थ तेणे साधुने ( समयासिके के०) सिद्धांतने अनुसारे शीखव्यो बतो ए टले जेवीरीते तमे समाचरोडो तेम तमारा आगमने विषे का नथी (महरेणबुडेण नचोएया के०) तथा न्हाने अथवा महोटे शीखामण चोयणा थापी बता (अच ज्यिाएघडदासिएवा के0 ) एटले अत्यंत कार्यनी करनारी तथा पाणीनी नरनारी ए वी दासी तेणे (आगारिणंवासमयापुसिड़े के० ) सिहांतने अनुसारे चोयाणा कस्यो बतो एटले जेम तमे चालोबो तेम गृहस्थ पण नचाले इत्यादिक वचने करी चोयणा कस्यो बतो झुं करे ते कहेले ॥ ७ ॥ ॥ दीपिका-ससाधुर्गुरुसमीपे वसन् डहरेण लघुना वृदेन वाऽनुशाशितः प्रमादाच रणनिषिदः । अथवा वयोधिकेन पर्यायज्येष्ठेन समवयसा वाऽनुशासितः कुप्यति तद नुशासनं सम्यस्थितोऽपुनःकरणतया नानिगबेन्नप्रतिपद्यत । अप्रतिपद्यमानश्च संसार प्रवाहे नीयमानोन संसारपारगः स्यात् ॥ ७ ॥ विरुदोबानेनोलितोव्युलितोऽन्यतीर्थि कोगृहस्थोवा मिथ्यादृष्टिस्तेन प्रमादस्खलितोचोदितः स्वसमयेन। तद्यथा । नैवंविधम नुष्ठानं नवतामागमेव्यवस्थितमिति । तथा उहरेण लघुना वृधन वाऽनाचारे प्रवृत्त श्वोदितस्तथाऽतीवाऽकार्यकरणं प्रति नलिताऽथवा दासीत्वेनात्यंतमुनिता तया । तथा दास्या अपिदासीत्वेन घटदास्या जलवाहिन्यापि चोदितोन क्रोधं कुर्यात् तथाऽगारि एणां गृहस्थानां यः समयोनुशासितोगृहस्थानामप्येतन्नयुज्यते कर्तुं किं पुनः साधूनामि तिचोदितोपि न कुप्येत् ॥ ॥ ॥ टीका-किंचान्यत् । (डहरेणेत्यादि ) सर्वे तिके निवसन क्वचित् प्रमादस्खलि तः सन् वयःपर्यायान्यां कुनकेन लघुना चोदितः प्रमादाचरणं प्रतिषिस्तथा वृक्षेन वा वयोधिकेन श्रुताधिकेनवाऽनुशासितोऽनिहितः । तद्यथा । नवदिधानामीप्रमा दाचरणमासे वितुमयुक्तं । तथा रत्नाधिकेनवा प्रव्रज्यापर्यायाधिकेन श्रुताधिकेनवा स मवयसा वाऽनुशासितः प्रमादस्वलिताचरणंप्रति चोदितः कुप्यति । यथाहमप्यनेन रं कप्रायेणोत्तमकुलप्रसूतः सर्वजनसंमतश्त्येवं चोदितइत्येवमनुशास्यमानोन मिय्यामुष्क तं ददाति न सम्यगुबानेनोत्तिष्ठति नापि तदनुशासनं सम्यस्थितोऽपुनःकरणतया नि Page #547 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रायधनपतसिंघ बादाउरका जैनागम संग्रह नागसरा. १७ गन्छेत् प्रतिपद्यते चोदितश्च प्रतिचोदयेदसम्यक्प्रतिपाद्यमानश्वासौ संसारस्रोतसा नीय माननह्यमानोऽनुशास्यमानः कुपितोसौ न संसारार्णवस्य पारगोनवति । यदिवाऽऽचा र्यादिना सउपदेशदानतः प्रमादरवलितनिवर्तनतोमोदं प्रति नीयमानोप्यसौ संसारस मुइस्य तदकरणतोऽपारगएव नवतीति ॥ ७ ॥ सांप्रतं स्वपदचोदनानंतरतः स्वपरचोद नामधिकृत्याह । (विहिएणमित्यादि ) विरुदोबानेनोबितोव्युजितः परतीर्थकोगह स्थोवा मिथ्यादृष्टिस्तेन प्रमादस्वलितोचोदितः स्वसमयेन तद्यथा नैवंविधमनुष्ठानं नव तामागमे व्यवस्थितं येनानिप्रवृत्तोसि । यदिवा व्युबितः संयमानुष्टस्तेनापरः साधुः स्खलितःसन् स्वसमयेनाईत्प्रणीतागमानुसारेणानुशासितोमूनोत्तरगुणाचरणे स्खलितः संचोदितथागमं प्रदश्र्यानिहितः । तद्यथा। नैतत्त्वरितगमनादिकं नवतामनुज्ञातमि ति । तथान्येन वा मिथ्यादृष्ट्यादिना कुनकेन लघुतरेण वयसा वृक्षेन वा कुत्सिताचा रप्रवृत्तचोदितस्तुन्दात्समानवयसावा तथातीवाकार्यकरणं प्रति नबिता अत्युबिता । यदि वा दासीत्वेन अत्यंतमुनिता दास्यायपि दासीति । तामेव विशिनष्टि । घटदास्या जल वाहिन्यापि चोदितोन क्रोधं कुर्यात् । एतयुक्तंनवति । नबितयापि कुपितयापि चोदि तः स्वहितं मन्यमानः सुसाधुनकुप्येत् किंपुनरन्येनेति । तथा अगारिणां गृहस्थानां यः समयोनुष्ठानं तत्समयेनानुशासितोगृहस्थानामपि एतन्नयुज्यते कर्तुं यदारब्धं नवतेत्ये वमात्मावमेनापि चोदितोममैवतोयश्त्येवंमन्यमानोमनागपि न मनोदूषयेदिति ॥ ७ ॥ पण तेस कशेण य पवदेजा,ण यावि किंची फरुसं वदेहातहा करिस्संति पडिस्सुणेजा, सेयं खु मेयं ण पमाय कुळा ॥॥व पंसि मूढस्स जहा अमूढा,मग्गाणुसासंति हितं पयाणं ॥ तेणे व मर्श इणमेव सेयं, जमे बुदा समणुसासयंति ॥ १० ॥ अर्थ-(गतेसुकुशेणयपवहेजा के) ते शीखामण पापनारना नपर ते साधु को ध नकरे तथा तेने व्यथे नही एटले दंडादिके प्रहार करीने तेने पीडा उत्पन्न करे न ही तथा (णयाविकिंचीफरुसंवदेजा के०) तथा किंचित् मात्र कठोर वचन बोले नही परंतु तेमना वचन सांजलीने आवीरीते कहे के (तहाकरिस्संतिपहिस्सुण्डाके०) जेम तमे कहोबो ढुं तेमज करीश एम तेना वचन मान्य करे (सेयंखुमेयंणपमायकु जा के०) मनमा एम विचारेजे मने एहिज शिदारूप श्रेयकारी दान पेठे एवं जा एगीने प्रमाद नकरे ॥ ॥ (वर्णसिमूढस्सजहाअमूढा के०) जेम वन एटले गहन बटवीने विषे कोइएक मूर्व दिशिमूढ थइ नूले पडयो तेने कोइक अमूढ पुरुष मार्गर्नु देखामनार ( मग्गाणुसासंतिहितंपयाणं के० ) प्रजालोकने हितकारी एवो मार्ग देखाडे Page #548 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५१७ वितीये सूत्रकृतांगे प्रथम श्रुतस्कंधे चतुर्दशमध्ययनं. ए दृष्टांते शिष्य पण एम जाणे जे (तेणेवमझइणमेवसेयं के ) मुजने एहिज शि दानो मार्ग श्रेयकारी कहेजे (जमेबुहासमपुंसासयंति के० ) जे मुजने बुछ पंडित गु रु याचार्यादिक सम्यक् रीते पुत्रनीपरे शिखामण शिदा थापे ते शिखामणने श्रेयका री मानीने आदरे ॥ १० ॥ दीपिका-तेषु स्वलितनोदकेषु न क्रुध्येत्। यतः।याकुष्टेनमतिमतातत्वार्थविचारणे मतिः कार्या । यदि सत्यं कः कोपः स्यादनृतं किंनु कोपेन ॥ ॥ तथा तं नोदकं न प्रव्यथेत न दंमादिप्रहारेण पोमयेत् । नचापि किंचित्परुषं पीडाकारि वदेत् नोदितश्च त था करिष्यामीति प्रतिशृणुयादंगीकुर्यात् इदं नोदनं ममश्रेयोयतएतनयात्कचित्प्रमादं न कुर्यात् ॥ ॥ वने मूढस्य दिग्न्रांतस्य कस्यचिद्यथाऽमूढामार्गझामार्गमनुशासंति कथयति । किंनूतं मार्ग प्रजानां हितं । एवं तेनाप्यसदनुष्ठायिना नोदिते न कुपितव्यं किंतु ममैवं श्रेयइति मंतव्यं । यदेतद्धाः सम्यगनुशासयंति सन्मार्ग प्रापयंति ॥ १० ॥ ॥ टीका-एतदेवाह । (गतेसुकुशेइत्यादि ) तेषु स्वपरपदेषु स्वलितचोदकेष्वा स्महितं मन्यमानोन क्रुध्येदन्यस्मिन् वा उर्वचनेऽनिहिते न कुप्येदेवं चिंतयेत् । था कुष्टेन मतिमता तत्वार्थविचारणे मतिः कार्या ॥ यदि सत्यं कः कोपः स्यादनृतं किंनु कोपेन ॥ १ ॥ तथा नाप्यपरेण स्वतोऽधमेनापि चोदितोऽहन्मार्गानुसारेण लोकाचार गत्या वाऽनिहितः परमार्थ पर्यालोच्य तं चोदकं प्रकर्षण व्यथेदंडादिप्रहारेण पीमयेन्न चापि किंचित्परुषं तत्पीडादिकारि वदेत् ब्रूयात् । ममैवायमसदनुष्ठायिनोदोषोयेनायम पि मामेवं चोदयति चोदितश्चैवंविधं नवता असदाचरणं न विधेयं । एवं विधे च पूर्वर्षि निरनुष्टितमनुष्ठेयमित्येवंविधवाक्यं तथा करिष्यामीत्येवं मध्यस्थवृत्त्या प्रतिशृणुयादनु तिष्ठेच मिथ्यामुष्कतादिना निवर्तेत । यदेतचोदनं नामैतन्ममैव श्रेयोयतएतन्नयाकचि त्पुनः प्रमादं न कुर्यान्नैवासदाचरणमनुतिष्ठेदिति ॥ ७ ॥ अस्यार्थस्य दृष्टांतं दर्शयितुमा ह ! ( वणंसीत्यादि ) वने गहने महाटव्यां दिग्न्रमेण कस्यचिक्ष्याकुलितमतेनष्टसत्प थस्य यथा केचिदपरे कृपालष्टमानसाअमूढाः सदसन्मार्गशाः कुमार्गपरिहारेण प्रजानां हितमशेषापायरहितमीप्सितस्थानप्रापर्क मार्ग पंथानमनुशासंति प्रतिपादयंति। सच तैः सदसदिवे किनिः सन्मार्गावतरणमनुशासितधात्मनः श्रेयोमन्यते । एवं तेनाप्यसदनु ष्ठायिना चोदितेन नकुपितव्यमपितु ममायमनुग्रहश्त्येवं मंतव्यं । यदेतद् बुझाः सम्यग नुशासयंति सन्मार्गेऽवतारयंति पुत्रमिव पितरस्तन्ममैवश्रेय इति मंतव्यं ॥ १० ॥ अह तेण मूढेण अमूढगस्स, कायव पूया सविसेसजुत्ता॥ एन वमं तब नदाद वीर, अणुगम्म अचं नवणेति सम्मं ॥११॥ Page #549 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राय धनपतसिंघ बादाउरका जैनागम संग्रह नाग उसरा. १ए णेता जहा अंधकारंसि रान, मग्गं ण जाणाति अपस्समाण। से सूरिअस्स अप्नुग्गमेणं, मग्गं वियणा पागसियंसि॥१॥ अर्थ-(अहतेणमूढेण अमूढगस्स के हवे ते मूर्ख पुरुषे मार्ग पामे बते मार्गनो देखाडनार जे अमूढ पुरुष तेनो उपकार जाणीने (कायवपूयास विसेसजुत्ता के.) तेनी सविशेष विस्तार युक्त पूजा करवी ( एउवमंतबनदादुवीरे के०) उपमां त्यां कही को णे कही तोके श्रीवारपरमेश्वरे कही (अणुगम्मय उवणे तिसम्मं के० ) ते पुरुष थ र्थ एटले परमार्थ जाणो सम्यक् प्रकारे पोताने तेनो करेलो उपकार जाणी एम वि चारे जे आ पुरुषे मने मिथ्यात्वरूप गहन वनना मुःख थकी रुमो नपदेश आपीने बोमाव्योडे तेमाटे एनी नक्ति करवी ॥ ११॥ (णेताजहाधंधकारंसिरा के ) जेम णेता एटले मार्गनो जाण पुरुष चहु सहित बतां पण अत्यंत अंधकारमय रात्रीने विषे (मग्गंणजाणातियपस्समाणे के०) मार्गने नजाणे केमके अंधकारमा दृष्टी पडे नही माटे अणदेखतो बतो मार्गनजाणे (सेसूरियस्सथप्नुग्गमेणं के ) परंतु तेज पु रुष सूर्योदय थयाथी अंधकार विनाश पामे तेवारें (मग्गंवियाणातिपगासियंसि के) सर्व जगतमा विशेष प्रकाश थयो बता वली सम्यक् प्रकारे तेमार्गने जाणे ॥१२॥ ॥ दीपिका-यथा तेन मूढेन सन्मार्ग प्रापितेन तस्यामूढस्य सन्मार्गोपदेष्टुः पुलिंदा देरपि पूजा विशेषयुक्ता कर्तव्या । एतामुपमामुदाहृतवान् कथितवान् वीरस्तीर्थकत् य नुगम्य ज्ञात्वार्थ परमार्थ सम्यगात्मन्युपनयति परमोपकारं । कोर्थः । अहमनेन मिथ्या त्ववनाऊन्ममरणाद्यनेकोपश्वबहुलात्सउपदेशदानेनोत्तारितस्ततोमयाऽस्य परमोपकारि गोविनयादिनिः पूजा कर्तव्येति । यथा । गेहम्मि अग्गिजाला, उतमि जहाण मनज मामि ॥ जो बाहे। सुयंतं, सो तस्स जणो परमबंधूति ॥११॥ यथा महांधकारा यां रात्रौ नेता नायकोऽटव्यादौ स्वन्यस्तप्रदेशेपि मार्ग न जानाति स्वहस्तादिकमप्यपश्य न् । सएव नेता सूर्यस्यान्युजमेनोदयेन प्रकाशिते दिक्चके मार्ग विशेषेण जानाति॥१५ ॥टीका-पुनरप्यस्यार्थस्य पुष्टयर्थमाह । (अहत्तेणेत्यादि) अथेत्यानंतर्यार्थे वाक्योपन्या सार्थेवा । यथा तेन मूढेन सन्मार्गावतारितेन तदनंतरं तस्यामूढस्य सत्पथोपदेष्टुः पुलिं दादेरपि परमुपकारं मन्यमानेन पूजा विशेषयुक्ता कर्तव्या । एवमेतामुपमामुदाहतवा ननिहितवान् वीरस्तीर्थकरोन्योवा गणधरादिकोऽनुगम्य बुध्वाऽर्थ परमार्थ चोदनाकृतं पर मोपकारं सम्यगात्मन्युपनयति । तद्यथाऽहमनेन मिथ्यात्ववनाऊन्मजरामरणाद्यनेको पश्वबहुलात्सउपदेशदानेनोत्तारितस्ततोमयाऽस्य परमोपकारिणोऽन्युबानविनयादिनिः Page #550 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२० द्वितीये सूत्रकृतांगे प्रथम श्रुतस्कंधे चतुर्दशमध्ययनं . पूजा विधेयेति ॥ यस्मिन्नर्थे बहवोदृष्टांताः संति । तथा । गेहं मि श्रग्गिजाला, उलंमिज दाममामि । जो बोहेर सुयंतं सो तस्स जो परमबंधू ॥ १ ॥ जहवा विसजं जु तं, जनमिह मिहनोत्तुकामस्स ॥ जोवि सदोसं साह, सो तस्स जणो परमबंधू ॥ २ ॥ ॥ ११ ॥ प्रयमपरः सूत्रेणैव दृष्टांतोऽनिधीयते । ( ऐयाज हेत्यादि ) यथाहि सजलज धराज्ञादित बहलांधकारायां रात्रौ नेता नायकोऽटव्यादौ स्वन्यस्तप्रदेशेपि मार्ग पंथानमं धकारावृतत्वात्स्व हस्तादिकमपश्यन्न जानाति न सम्यक् परिचिनत्ति । सएव प्रणेता सूर्यस्या दिव्यस्यान्युजमेनापनीते तमसि प्रकाशिते दिक्चक्रे सम्यगाविर्भूते पापाणदरी निम्नोन्नता दि मार्गे जानाति विदितप्रदेशप्रापकं पंथानमनिव्यक्तचकुः परिविनत्ति दोषगुए वि चारणतः सम्यगवगवतीति ॥ १२ ॥ एवं तु देवि धम्मे, धम्मं न जाणाइ प्रमाणे ॥ से कोविए जिवय पचा, सूरोदए पासति चस्कुले वा ॥१३॥ डुं देयं तिरियं दिसासु, तसा य जे थावरा जे य पाणा ॥ सयाजए तेसु परिवएका, मणप्पनसं च्यविकंपमाणे ॥ १४॥ अर्थ - ( एवंतुसे हे विश्रधम्मं के० ) एरीते नवदीक्षित शिष्य पण प्रथमतो धर्मने फरसवाने लीधे पंडित (धम्मंनजाणातिबुझमाणे के० ) यगीतार्थ बुझ को धर्मने नजाणे सुद्ध सिद्धांतना जे अर्थ ते थकी रहित होय पढी ( सेके० ) ते हिज शिष्य गुरुकुल वासे वसतो थको ( जिवयोपडा के ० ) जिनवचन की सम स्त सूत्रार्थ विचारने समजीने (कोविए के० ) पंडित याय ( सूरोदएपास तिचरकु ऐवा ० ) जेम सूर्योदय की निर्मल नेत्र वालो पुरुष सर्व मार्गने जाणे तेम सुशिष्य प दरूप नेत्रे करी यागमरूप सूर्य प्रकाशित थयाथी निर्मल धर्मरूप मार्गने जा ऐ ॥ १३ ॥ ते शिष्य जाए थयो थको चुं देखे ते कहेबे (उडूं देयं तिरियं दिसासुके ० ) चो नीचो ने ति एतावता सर्व लोकमांहे ( तसायजेथावराजेयपाणा के ० ) त्रस ने स्थावर जे जीवोबे तेने विषे (सयाजएतेसुपरिएका के०) ते सर्वकाल यत्न करतो संयम पाजे रूडी क्रिया करे तेने विषे ( मणप्पा विकंपमाणे के०) मने करी प्रद्वेष न करे विकंप एटजे) शुद्ध संयमने विषे अमोल निश्चल एकायनावसहित एवो रहे ॥ १४ || दीपिका एवं पूर्वोक्तप्रकारेण शिष्य कोप्य पुष्टधर्मा श्रगीतार्थः सूत्रार्थमबुध्यमानोधर्म न जानाति सएव पश्चाजुरुकुलवासा जिनवचनेन कोविदः स्यात् । यथा सूर्योदये गता For Private Personal Use Only Page #551 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रायधनपतसिंघ बादाडुरका जैनागम संग्रह नाग दुसरा. ५२१ वतरणश्च कुपा घटादीन् पश्यति जनस्तथा जिनागमेनापि जीवादयः पदार्थादयंत‍ त्यर्थः ॥ १३ ॥ ऊर्ध्वमधस्तिर्यक्च दिक्कु त्रसाथ ये स्थावराः सूक्ष्मबादरा दिनेदाश्च ये प्रा निस्तेषु सदायत्तः परिव्रजेत् संयमानुष्ठायी जवेत् तथाऽविकंपमानः संयमादविचलन तेषु प्राणिषु मनसापि प्रदेषं न गच्छेत् ॥ १४ ॥ ॥ टीका - एवं दृष्टांतं प्रददातिकमधिकृत्याह । ( एवंतुसे हेत्यादि ) यथा ह्यसा वंधकारावृतायां रजन्यामतिगहनायामटव्यां मार्ग न जानाति सूर्योजमेनापनीतें तमसि पश्चाजानात्येवं तु शिष्यकोऽनिनवप्रव्रजितोपि सूत्रार्थानिष्पन्नोऽपुष्टोऽपुष्कलः सम्यगपरि ज्ञातोधर्मः श्रुतचारित्राख्यो डुर्गतिप्रसृतजंतुधरण स्वनावोयेनासाव पुष्टधर्मा सचाऽगीतार्थसू त्राननित्वादबुध्यमानोधर्म जानातीति नसम्यक् परिचिनत्ति । सएव तु पश्चाजुरुकुलवा सानि वचनेन को विदोऽन्यस्तसर्वज्ञ प्रणीतागमत्वान्निपुणः सूर्योदयेऽपगतावरणश्चक्षेव य थावस्थितान् जीवादीन पदार्थान् पश्यति । इदमुक्तनवति । यथाहि इंडिया संपर्कात्सा छात्कारितया परिस्फुटाघटपटादयः पदार्थाः प्रतीयंते एवं सर्वज्ञप्रणीतागमेनापि सूक्ष्मव्य वहित विप्रकृष्टस्वर्गापवर्गदेवतादयः परिस्फुटानिःशंकं प्रतीयंतइति । पिच कदाचिच्च कुपान्यथाभूतोप्यर्थोऽन्यथा परिविद्यते । तद्यथा । मरुमरीचिका निचयोजनांत्या किंशु कनिचयग्न्याकारेणापीति । नच सर्वज्ञप्रणीतागमस्य कचिदपि व्यनिचारः । तदयनि चारे हि सर्वज्ञत्वहानिप्रसंगात् तत्संनवस्य चासर्वज्ञत्वेन प्रतिषे कुमशक्यत्वादिति ॥ १३ ॥ शिक्षकोहि गुरुकुलवासितया जिनवचनानिज्ञोनवति तत्को विदश्च सम्यक् मूलोत्तरगुणान् जानाति । तत्र मूलगुणानधिकृत्याह । ( उडूं हेयमित्यादि ) ऊर्ध्वमधस्तिर्यक् दिव कु चेत्यनेन क्षेत्र मंगीकृत्य प्राणातिपात विरतिरनिहिता । इव्यतस्तु दर्शयति । सास्तेजोवायु धीं दियादयश्च तथा ये च स्थावराः स्थावरनामकर्मोदयवर्तिनः पृथि व्यब्वनस्पतयस्तथाचैतद्भेदाः सूक्ष्मबादरपर्याप्तकापर्याप्तकरूपादशविधप्राणधारणात्प्रा निस्तेषु सदा सर्वकालमनेन तु कालमधिकृत्य विरतिरनिहिता । यत्तः परिव्रजेत्परि समंता जेत् संयमानुष्ठायी नवेत् । नावप्राणातिपातविरतिं दर्शयति । स्थावरजंगमेषु प्राणिषु तदपकारे उपकारेवा मनागपि मनसा प्रद्वेषं नगवे दास्तां तावद्दुर्वचन दंड प्रहारादि कं तेष्वपका रिष्वपि नामंगलं चिंतयेदविकंप्यमानः संयमादचलन सदाचारमनुपालये दि ति । तदेवं योगकिकरण त्रिकेण इव्य क्षेत्रकालनावरूपां प्राणातिपातविरतिं सम्यगरक्त दिष्टतया ऽनुपालयेदेवं शेषाएयपि महाव्रतान्युत्तरगुणांश्च ग्रहणासेवना शिक्षासमन्वितः सम्यगनुपालयेदिति ॥ १४ ॥ For Private Personal Use Only Page #552 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२२ द्वितीये सूत्रकृतांगे प्रथम श्रुतस्कंधे चतुर्दशमध्ययनं . काले पुछे समियं पयास, आइकमाणो दवियस्स वित्तं ॥ तं सोय कारी पुढो पवेसे, संखा इमं केवलियं समाहिं ॥ १५ ॥ सि सुवि चातिविदेश तायी, एएस या संति निरोहमादु ॥ ते एवमस्कंति तिलो गदंसी, जुमेयंति पमायसंगं ॥ १६ ॥ अर्थ - ( काले के० ) ते साधु काल प्रस्तावे एटले अवशर लइने जे याचार्य ( पयासु के ० ) प्रजा एटले जीवोने विषे ( समियं के० ) सम परिणामे वर्त्तता होय तेवा याचार्यनी पासे सूत्र ने अर्थ ( पुढे के० ) पूढे (याइकमाणोद वियस्स वि तं के० ) अने ते याचार्य पण मुक्तिगमनयोग्य जे पुरुष एवा पुरुषना शुद्ध व्रत याचा रातो थको वंदनीक पूजनीक होय पंचाचारनो पालनार होय ( तंसोयकारी पुढोपवे से के० ) तेवा प्राचार्य गुरुना वचन श्रवण करतो थको जुदा जुदा अर्थ विचार कद ने विषे धारण करी राखे ( संखा इमंके व नियंसमाहिं के० ) सन्मार्ग रूप केवली ना पित सम्यक् ज्ञानादि लक्षण धर्म तडूप 'समाधि ने पोताना ऋदयने विषे स्थापन करें ॥ १५ ॥ (स्सिंसु विच्चातिविहेषतायी के० ) एरीते गुरुकुल वासे वसतो एवो चारि त्रि ते पूर्वोक्त श्रुतरूप धर्म मार्ग सांजलीने मोह मार्ग ग्रहण करीने त्रिविध प्रकारे त्राय याय एटले मन वचन ने कायायें करी बक्कायनो रक्षपाल याय ( एएसुयासं ति निरोहमा के० ) ए समिति गुप्तिने विषे स्थित रहिने शांति तथा निरोध एटले समस्त कर्मन कूय करे एम कहे ( तेएवमरकं तितिलोगसी के० ) ते कोण कहे तोके त्रैलोक दर्शि एटले सर्वज्ञ पुरुषो एम कहेबे ( नुमेयं तपमायसंग के० ) व जी ते साधु कदापि कण मात्र पण प्रमादनो संग करेनही तथा ए प्रमाद करवो ए वो उपदेश पण करे नही ते पंमित साधु जावो. ॥ १६ ॥ ॥ दीपिका - सम्यगितं सदाचारानुष्ठायिनं कंचिदाचार्यादिकं प्रजासु जंतुविषये चतुर्दश नूतग्रामविषयं किंचित् कालेनावसरं ज्ञात्वा ष्टष्ठेत् । सच तेन ष्टष्टाचार्यादिराचक्षाणः सेव्यः स्यात् । किमाचक्षाणइत्याह । इव्यस्य वीतरागस्य वृत्तमनुष्ठानं संयमं वाऽचदा लोमान्यः स्यात् । याचार्यवचनं श्रोत्रे कर्णे कर्तुं शीलमस्य श्रोत्रकारी प्राज्ञा विधायी सन् पृथगुपन्यस्तमादरेण हृदये प्रवेशयेत् । केवलिकं केवलिना कथितं समाधिं सन्मार्ग मिमं वदयमाणं संख्याय सम्यक् ज्ञात्वा यथोपदेशं प्रवर्तकः सम्यकू चेतसि धारयेदिति ॥ १५ ॥ श्रस्मिन् गुरुकुलवासे सुष्ठु स्थित्वा त्रिविधेन मनोवाक्कायैः कृतकारितानुमति निर्वा जंतूनां त्रायी रक्षकः । एतासु समितिगुप्तिषु स्थितस्य शांतिः सर्व ६ ६ विनाशः For Private Personal Use Only Page #553 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राय धनपतसिंघ बादाउरका जैनागम संग्रह नाग उसरा. ५२३ स्यात् । तथा च निरोधं कर्मक्ष्यमादुस्तविदः। एवं त्रिलोकदर्शिनस्तीर्थकरास्ते आख्याति कथयति न पुनय एतं प्रमादसंगं विषयादिकं विधेयत्वेन कथितवंतः ॥ १६ ॥ ॥ टीका-गुरोरंतिके वसतो विनयमाह । (कालेणेत्यादि) सूत्रमर्थ तनयं वा विशिष्टे न प्रष्टव्यकालेनार्यादेरवसरं ज्ञात्वा प्रजायंतइति प्रजाजंतवस्तासु जंतुषु विषये चतुर्दश नूतग्रामसंबधं कंचिदाचार्यादिकं सम्यगितं सदाचारानुष्ठायिनं सम्यक् वा समंता जंतु गतं एलेदिति । सच तेन दृष्टयाचार्या दिराक्षाणः शुश्रूषयितव्योनवति । यदाचदाणस्तह र्शयति । मुक्तिगमनयोग्योनव्योव्यरागषविरहाना इव्यं तस्य इव्यस्य वीतरागस्य तीर्थकरस्य वा वृत्तमनुष्ठानं संयमं ज्ञानं वा तत्प्रणीतमागमं वा सम्यगाचाणः सपर्यया ऽयं माननीयोनवति । कथमित्याह । तदाचार्यादिना कथितं श्रोत्रे कर्णे कर्तुं शीलमस्य श्रोत्रकारी यथोपदेशकारी सदाझा विधायी सन पृथक्टथगुपन्यस्तमादरेण हृदये प्रवेश येञ्चेतसि व्यवस्थापयेत् । व्यवस्थापनीयं दर्शयति । संख्याय सम्यक् ज्ञात्वा इममिति वक्ष्यमाणं केवलिनइदं कैवलिकं केवलिना कथितं सन्मार्ग सम्यक् ज्ञानादिकं मोदमार्ग माचार्या दिना कथितं यथोपदेशं प्रवर्तकः पृथग्विविक्तं हृदये पृथग्व्यवस्थापयेदिति ॥ ॥ १५ ॥ किंचान्यत् । (अस्सिंइत्यादि) अस्मिन् गुरुकुलवासे निवसता यत्रतं श्रुत्वा च सम्यक हृदयव्यवस्थापनबारेणावधारितं तस्मिन् समाधिनते मोक्षमार्गे सष्ठस्थित्वा त्रिविधेनेति मनोवाकायगुप्तिनिः कृतकारितानुमतिनिर्वाऽत्मानं त्रातुं शीलमस्येति त्रा यी जंतूनां सउपदेशदानतस्त्राणकरणशीलोवा तस्य स्वपरत्रायिणएतेषु च समितिगु प्यादिषु समाधिमार्गेषु स्थितस्य शांतिनवत्यशेषकोपरमोनवति । तथा निरोधमशेष कर्मक्षयरूपमादस्तहिदः प्रतिपादितवंतः । कएवमादुरित्यादि । त्रिलोकमूर्वाधस्तिर्यग् लक्षणं इष्टुं शीलं येषांते त्रिलोकदार्शनस्तीर्थकतः सर्वज्ञास्ते एवमनंतरोक्तया नीत्या सर्व जावान् केवलालोकेन दृष्ट्वाचदते प्रतिपादयंतीति । एतदेवं समितिगुप्त्या दिकं संसारो तारणसमर्थ ते त्रिलोकदर्शिनः कथितवंतोन पुनयएवं प्रमादसंगं मद्यविषयादिकं सं बंधविषयत्वेन प्रतिपादितवंतः ॥ १६ ॥ निसम्म से निरकु समीदियई, पडिनाणवं दोई विसारए य॥ आयाणअछी वोदाणमोणं, नवेच्च सुक्षेण न्वेति मोरकं ॥१७॥ संखाइ धम्मं च वियागरंति, बुझा दु ते अंतकरा नवंति ॥ ते पारगा दोएहवि मोयणाए, संसोधितं पण्ह मुदादरंति॥१७॥ अर्थ-(सेनिस्कु के० ) ते गुरुकुलवासी साधु (निसम्मसमीहिय के०) मुक्तिग Page #554 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२४ द्वितीये सूत्रकृतांगे प्रथम श्रुतस्कंधे चतुर्दशमध्ययनं. मन योग्यनो याचार जे मोक्ष मार्ग एटले समिति अर्थ एवो सांजलीने तेने सम्य क प्रकारे हृदयने विषे अवधारीने ( पडिना एवं होईविसारएय के ० ) प्रतिभावंत एट जे बुद्धिवंत थाय तथा विशारद एटले सांजलनारने ते मोक्षमार्गनो अर्थ प्रकाशे ए ० ) मोक्षार्थी तथा ( वोदारा के० ) बार प्रकारनो तप तथा (मोणं के० ) संयम तेने ( नवेच्च के० ) प्राप्त करीने ( सुखेानवेतिमोरकं के० ) शुधो निर्दोष एवा खाहारेकरी अवशाने मोहने पामे ॥ १७ ॥ हवे गुरुकुलवासे वसतांजे करे ( देखाडे ( संखाइधम्मंच वियागरंति के० ) ते साधु गुरु पाशेथी सांजलीने पढी ते ने सम्यक् प्रकारे जाणीने अन्य जनोने धर्म प्रकाशे (बुद्धादुतेअंतकराजवंति के० ) एवा बुद्ध एटले तत्वना जाए ते जन्मांतरे संचितजे कर्म तेना तना करनार थाय ( तेपारगादोएह विमोयलाए के० ) ते यथावस्थित धर्मना प्रकाशक बनेने एटले पोता ने तथा परने कर्म थकी मुकाववे करीने संसारना पारंगामी थाय (संसोधितं पराहमु दादरंति के० ) जे सम्यक् सोधी पूर्वापर विरोध इव्य क्षेत्र काल नाव जाणी ने प्र न कहे एतावता ते गीतार्थ सत्य धर्म प्रकाशता थका पोताना जीवने यने परना जीवने तारनार थाय पुढनारने समाधिना करनार थाय ॥ १८ ॥ ॥ दीपिका - सगुरुकुलवासी निक्कुः साध्वाचारं निशम्य ज्ञात्वा स्वतः समाहितं वार्य मोक्षं ज्ञात्वा प्रतिज्ञानवानुत्पन्नबुद्धिर्विशारदश्व नवति । यादीयते मोक्षार्थि निरित्यादा नं ज्ञानादि सएवार्थः सविद्यते यस्य स यादानार्थी ज्ञानादिप्रयोजनवान् व्यवदानं त पः । मौनं संयमः । तौ तपःसंयमौ उपेत्य प्राप्य शुद्धेन निर्दोषाहारेणात्मानं यापय न मोक्षमुपैति । (नवेइमारक्कचित्पाठः) मारं संसारं न उपैति न चमतीति ॥ १७ ॥ संख्या सस्तिया धर्म ज्ञात्वा परेषां ये व्यागृांति कथयंति ते बुद्धाज्ञाततत्वाः कर्म पामंत राजवंति । ते शुद्धधर्मप्ररूपका ६योरपि परात्मनोः कर्मपाशमोचनेनपार गाः स्युः । ते च सम्यक् शोधितं पूर्वापरविरुद्धं प्रश्नशब्दमुदाहरति । कोर्थः परेल कंचिदर्थं पृष्टस्तं प्रश्नं सम्यक् परीक्ष्य कथयेत् ॥ १८ ॥ ॥ टीका - किंचान्यत् । ( पिसम्मेत्यादि ) सगुरुकुलवासी निक्कुः इव्यस्य वृत्तं निश म्यावगम्य स्वतः समीहितं चार्थ मोदार्थ बुध्वा हेयोपादेयं सम्यक् परिज्ञाय नित्यं गुरुकु लवासतः प्रतिज्ञानवानुत्पन्नप्रतिनोभवति । तथा सम्यक् स्वसिद्धांत परिज्ञानानोतॄणां य यावस्थितार्थानां विशारदोनवति प्रतिपादकोभवति । मोक्षार्थिनाऽऽदीयत इत्यादानं सम्यक् ज्ञानादिकं तेनार्थः सएवार्थः प्रादानार्थः विद्यते यस्यासावादानार्थी एवंभूतो For Private Personal Use Only Page #555 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राय धनपतसिंघ बाहाउरका जैनागम संग्रह नाग उसरा ५५ झानादिप्रयोजनवान् । व्यादानंदादशप्रकारं तपोमौनं संयमबाश्रव निरोधरूपस्तदेवमे तौतपःसंयमावुपेत्य प्राप्य ग्रहणसेवनरूपया विविधयापि शिक्या समन्वितः सर्वत्र प्रमाद रहितः प्रतिनावान् विशारदश्च शुदेन निरुपाधिना नजमादिदोषशुधन चाहारेणात्मानं यापयन्नशेषकर्मदयालदणं मोदमुपैति।ननवेइमारंतिक्कचित्पाः । बहुशोनियंते स्वकर्मपर वशाः प्राणिनोयस्मिन् समारः संसारस्तं जातिजरामरणरोगशोकाकुलं शुद्धेन मार्गे गात्मानं वर्तयन नपैति । यदिवा मरणं प्राणत्यागलदणं मारस्तं बदुशोनोपेति । तथा हि । अप्रतिपतितसम्यक्त्वउत्कृष्टतः सप्ताष्टौवा नवान् म्रियतेनोर्ध्वमिति ॥१॥ तदेवं गुरुकुलनिवासितया धर्मे सुस्थिताबहुश्रुताः प्रतिनानवंतोऽर्थ विशारदाश्च यत्कुर्वति त दर्शयितुमाह । (संखाश्त्यादि ) सम्यक् ख्यायते परिझायते यया सा संख्या सदुदिस्त या स्वतोधर्म परिझायापरेषां यथावस्थितं धर्म श्रुतचारित्राख्यं व्यागृति प्रतिपादयंति । यदिवा स्वपरशक्तिं परिझाय पर्षदं वा प्रतिपाद्य चार्थ सम्यगवबुध्य धर्म प्रतिपादयंति । ते चैवंविधाबुधाः कालत्रयवेदिनोजन्मांतरसंचितानां कर्मणामंतकरानवंति । अन्येषां कर्मापनयनसमर्थोनवतीति दर्शयति । ते यथावस्थितधर्मप्ररूपकात् ६योरपि परा त्मनोः कर्मपाशविमोचनया स्नेहादिनिगड विमोचनया वा करणनूतया संसारसमुइस्य पारगानवंति। ते चैवंनूताः सम्यक्बोधितं पूर्वोत्तराविरुदं प्रश्नशब्दमुदाहरति । तथाहि । पूर्व बुध्वा पर्यालोच्य कोयं पुरुषः कस्य चार्थस्य ग्रहणसमर्थोऽहंवा किंनूतार्थप्रति पादनशक्तश्त्येवं सम्यक् परीय व्याकुर्यादित्यथवा परेण किंचिदर्थ सृष्टस्तं प्रश्नं सम्यक परीक्ष्योदाहरेत्सम्यगुत्तरं दद्यादिति । तथाचोक्तं । यायरियसयाधारि एणं अनेण सरियमुणिएण ॥ तोसंघमसयारे, ववहरिवंजेसुक्ष्होंति ॥ १ ॥ गीतार्थायथावस्थितं धर्म कथयंतः स्वपरतारकानवंतीति. ॥ १७ ॥ पोहायए णो विय लसएका, माणं ण सेवा पगासणं च ॥ण यावि पन्ने परिदास कुडा, ण या सियावाय वियागरेजा ॥२५॥ नूतानिसंकाय गुंउमाणे, ण शिवदे मंतपदेण गोयं ॥ ण किं चिमिचे मणुए पयासु, असादुधम्माणि ण संवएजा ॥२०॥ अर्थ- ते प्रश्न कहेता थकां कदापि अन्यथा पण केवाय ते माटे तेनु निषेध कहे बे. ते धर्मनु प्ररूपक पुरुष पूबता सूत्रना अर्थने (गोबायए के० ) ढाके नही एटले अन्यथा नवखाणे (णोवियलूसएजा के० ) तथा पारका गुण लूसे नदी एटले पोता ने अनिमाने करी अन्यने विटंबना करे नही तथा (माणसेवऊपगासणंच के०) मा Page #556 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२६ तिीये सूत्रकृतांगे प्रथम श्रुतस्कंधे चतुर्दशमध्ययनं. न नसेवे एटले अहंकार नकरे पोतानी मोहोटाइ प्रकाशे नही तथा ढुं बहुश्रुतहुँ एम पण नकहे (याविपन्नेपरिहासकुडा के०) तथा पोताने प्रज्ञावंत जाणीने परनो परि हास्य एटले नपहास्य नकरे एटले कोइने अज्ञानी जाणीने तेने हास्यना वचन बोले नही (यासियावायवियागरेजा के० ) तथा कोश्ने थाशीर्वादना वचन नबोले एटले तमे बहु धनवान् बहु पुत्रवान दीर्घायुष्यवान् बो इत्यादिक वचन नकहे ॥१५॥ तथा (जूतानिसंकाए के० ) नूत एटले प्राणी तेनी हिंसानी शंकायें सावध वचन जाणीने आशीर्वाद न आपे ( उगुंबमाणे के० ) पापने निंदतो थको (गणिबहेमंतपदेणगोयं के० ) तथा मंत्रपद एटले विद्यामंत्रे करीने गोत्र एटले संयम तेने निःसार नकरे (एण किंचिमिलेमणुएपयासु के वली धर्मनो प्ररूपक साधु ते धर्मनो प्रकाश करतो थको सांनलनार पुरुषोनी पाशेथी वस्त्रादिकना लाननी इबा करे नहि निरीह बतो धर्म प्र काशे तथा (असादुधम्माणि के० ) असाधुनो हिंसारूप वस्तुदान तर्पणादिक एवो जे धर्म तेने सेवे नही एटले (गसंवएडा के०) एवो सावध धर्म नबोले. ॥ २० ॥ ॥ दीपिका-सप्रश्नस्योदाहर्ता कुतश्चिन्निमित्तात् श्रोतुः कुपितोपि सूत्रार्थ न बादये त् स्वाचार्य वा नापलपेत् परगुणान् वा न बादयेत् । शास्त्रार्थ नोनूषयेत् न विडंबयेत् मौनं न सेवेत नाप्यात्मगुणानां प्रकाशनं कुर्यात् न च प्रझावान् परिहासं कुर्यात् न चाशीर्वाद बदुपुत्रोबदुधान्योदीर्घायुस्स्वं नयाइत्यादि व्यागृणीयात् ॥ १ए ॥ नूतेषु प्राणिषु नूतानिशंका उपमर्दशंका तयाऽऽशीर्वाद सावा जुगुप्सां न ब्रूयात् तथा गोत्रं मौनं मंत्रपदेन विद्यासाधन विधिना ननिर्वाहयेत् न निःसारं कुर्यात् । प्रजासु जीवेषु मनुजोव्याख्यां कुर्वन्न किमपि लानमिवेत् तथाऽसाधूनां धर्मान्नानतर्पणा दिकान् न संवदेन ब्रूयात्. ॥ २० ॥ ॥ ॥ ॥ ॥ ॥ टीका-सच प्रश्नमुदाहरन् कदाचिदन्यथापि ब्रूयादतस्तत्प्रतिषेधार्थमाह । ( णो बायएइत्यादि) सप्रश्नस्योदाहर्ता सर्वार्थाश्रयत्वाइनकरंडकल्पः कुत्रापि कुत्तिकापणक पोवा चतुर्दशपूर्विणामन्यतरोवा कश्चिदाचार्यादिनिः प्रतिनानवानर्थ विशारदस्तदेवंनू तः कुतश्चिन्निमित्तात श्रोतुः कुपितोपि सूत्रार्थ न बादयेन्नान्यथा व्याख्यां नयेत्स्वाचार्य वा नापलपेधर्मकथां वा कुर्वन्नार्थ बादयेदात्मगुणोत्कर्षानिप्रायेण वा परगुणानबादये तथा परगुणान्नजूषयेन्न विडंबयेबास्त्रार्थ वा नाप सिक्षांतेन व्याख्यानयेत्तथा समस्तशास्त्र वेत्ताहं सर्वलोकविदितः समस्तसंशयापनेता न मत्तव्योहेतुयुक्तिनिरर्थप्रतिपादयितेति एवमात्मकं मानननिमानं गर्व नसेवेत नाप्यात्मनोबदुश्रुतत्वेन तपस्वित्वेन वा प्रकाश नं कुर्याचशब्दादन्यदपि पूजासत्कारादिकं परिहरेत्तथा नचापि प्रज्ञावान सश्रुतिकः परि Page #557 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रायधनपतसिंघ बाढ़ापुरका जैनागम संग्रह नाग दुसरा. ५२७ हा केवलिप्रायं ब्रूयाद्य दिवा कथंचिदवबुध्यमाने श्रोतरि तडुपहासप्रायं परिहासं न विदध्यान्नापि चाशीर्वाद बहुपुत्रोबहुधनोबहुधर्मोदीर्घायुस्त्वं नूयाइत्या दिव्यागृह्णीयात् नापासमितियुक्तेन नाव्यमिति ॥ १९ ॥ किंनिमित्तमाशीर्वादोन विधेयइत्याह । ( नूया निसंका इत्यादि) नूतेषु जंतुषुपमर्दशंका तयाशीर्वादं सावद्यं सपापं जुगुप्समानोन बू यात्तथा गास्त्रायतइति गोत्रं मौनं वाक्संयमस्तं मंत्र पदेन विद्यापमार्जन विधिना न नि वहयेन निःसारं कुर्यात् । यदिवा गोत्रं जंतूनां जीवितं मंत्रपदेन राजादिगुप्तनाषणपदे न राजादीनामुपदेशदान तोन निर्वाहयेन्नापनयेत् । एतडुक्कं नवति । नराजादिना साध जंतुजीवितोपमर्दकं मंत्रं कुर्यात्तथा प्रजायंतइति प्रजाजंतवस्तासु प्रजासु मनुजोमनुष्यो व्याख्यानं कुर्वन् धर्मकयां वा न किमपि लानपूजासत्कारादिकमिवेद निजपेत्तथा कुल्सि तानामसाधूनां धर्मान् वस्तुदानतर्पणादिकान्नसंवदेन्नब्रूयाद्य दिवा नासाधुर्धर्मान् ब्रुवन् संवा दयेदथवा धर्मकथां व्याख्यानंवा कुर्वन् प्रजास्वात्मश्लाघारूपां कीर्ति नेवेदिति ॥ २० ॥ दासं प पो संघति पावधम्मे, नए तदीयं फरुसं विया ॥ पोतुए पोय विकंका, चपाइले या अक्साइ निस्कू ॥ २२ ॥ संकेज या संकितनाव निस्कू, विभवायं व वियागरेका ॥ ना सायं धम्म समुदि, वियागरेका समया सुपन्ने ॥ २२ ॥ - ( हासं पिणो संघति के० ) तथा जे थकी पोताने अने परने हास्य उपजे ते नकहे तथा (पावधम्मे के० ) पापधर्म एटले सावद्य धर्म नबोले (नएतदीयं के० ) तथा राग द्वेष रहित अकिंचन एवो बतो साधु सत्य वचनज बोले खनेजे ( फरुसंवि या के० ) परुष एटले कठण निठुर वचन होय तेने इ परिज्ञायें जाणीने प्रत्याख्यान परिज्ञायें परिहरे तथा ( पोतुए के० ) पूंजा सत्कारादिकने पामतो थको उन्माद न करे तथा ( गोवियइका के० ) पोतानी यश कीर्ति देखीने श्लाघा नकरे तथा ( य लाइलेया के० ) अणाकुल होय एटले धर्म करतो थको व्याकुल नथाय तथा (खक साइनिस्कू के ० ) कषाय रहित एवो साधु जावो ॥ २१ ॥ (संकेयासंकित नाव निस्कू ho) साधु सूत्र अर्थने विषे निःशंकित बतो पण शंका राखे एटले सगर्व नथाय ए जेरीढुं जा तेरीते बीजो कोइ जाणतो नथी एम नकहे एकांत वाद टाले तथा ( विवायं व वियागरेका के० ) स्याद्वादवचन बोले सिद्धांतनो सर्व प्रथक् प्रथक् वेची व्याख्या करे तथा ( नासाडुयं धम्मसमुहितेहिं के० ) संयमने विषे सम्यक् प्रकारे या एवा साधु धर्म कथाने अवसरे वे नाषा बोले एकतो सत्या नाषा ने For Private Personal Use Only 3 Page #558 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५श्न वितीये सूत्रकृतांगे प्रथम श्रुतस्कंधे चतुर्दशमध्ययनं. बीजी असत्यामृषा एटले एकतो सत्य नाषा अने बीजी व्यवहारारिक एरीते बे नाषा बोले (वियागरेजा समयासुपन्ने के० ) तथा राजायें अने रांके पुब्यो थको प्रज्ञावंत महानुनाव एवो साधु बन्नेने समनावे धर्म कहे. ॥ २२ ॥ ॥ दीपिका-हास्यं न संधयेनकुर्यान्नकारयेत् । तथा पापधर्मान् सावद्यरूपान्नकुर्या तथा उजानिष्किंचनः सन् तथ्यमपि परुषं वचः कटिनं वाक्यं झपरिझया विजानीय प्र त्याख्यानपरिझया च परिहरेत् । तथा पूजासत्कारादिकमवाप्य न तुबोनवेनोन्मादं गब्बे त् । तथा नविकबयेन्नात्मानं श्लाघयेत् तथा व्याख्यानावसरेऽना विलोलोनादिनिरपे दः स्यात्तथाऽकपायोनिनुः स्यात् ॥ २१ ॥ साधुर्व्याख्यानं कुर्वन्नरांकितनावोप्यर्थनि र्णयवेत्तापि शंकेत औइत्यं परिहरेत् तथा विनज्यवादं स्या कादं व्यागृणीयात् कथयेत् । सत्या असत्या मृषावेति नापाक्ष्यं वदेत् समुचितैः साधुनिः सह विहरन् सुप्रज्ञः सन्म तिर्नृपतिश्मकयोः समतया रागदेषरहितोधर्म व्यागृणीयात् ॥ २२ ॥ ॥ टीका-किंचान्यत् । (हासंपीत्यादि) यथा परात्मनोहास्यमुत्पद्यते तथा शब्दा दिकं शरीरावयवमन्यान वा पापधर्मान सावद्यान्मनोवाक्कायव्यापारान्नसंधयेन्नविदध्या त् । तद्यथा । इदं बिधि निधि तथा कुप्रावचनिकान् हास्यप्रायं नोत्प्रासयेत्तद्यथा शो ननीयं नवदीयं व्रतं । तद्यथा । मृही शय्या प्रातरुबाय पेया, मध्ये नक्तं पानकं चापरा एहे। दादाखंडं शर्करां चार्धरात्रे, मोश्चांते शाक्यपुत्रेण दृष्टइत्यादिकं परदोषोन्नाव नप्रायं पापबंधकमिति कृत्वा हास्येनापि नवक्तव्यं । तथा उजाराग देषरहितः सबाह्या न्यंतरग्रंथत्यागादा निष्किंचनः संस्तथ्यमिति परमार्थतः सत्यमपि परुषं वचोपरचेतो विकारि झपरिझया विजानीयात्प्रत्याख्यानपरिझया च परिहरेत् । यदिवा रागषवि रहादोजास्तथ्यं परमार्थनूतमरुत्रिममप्रतारकं परुषं कर्म संश्लेषानावान्निर्ममत्वादल्पस त्वैर्डरनुष्ठेयत्वा कर्कशमंतप्रांताहारोपनोगामा परुषं संयमं विजानीयात्तदनुष्ठानतः सम्यगवगत्तथा स्वतः किंचिदर्थ विशेषं परिझाय पूजासत्कारादिकमवाप्य न तुबोन वेन्नोन्मादं गलेत्तथा नविकबयेन्नात्मानं श्लाघयेत् परं वा सम्यगवबुध्यमानोनोविकल येन्नात्यंतं च मदयेत् तथा नाकुलोव्याख्यानावसरे धर्मकथनावसरे वा नाविलोलानादि निरपेदोनवेत् । तथा सर्वदा अकषायः कषायरहितोनवेनिनुः साधुरिति ॥ २१ ॥ सां प्रतं व्याख्यान विधिमधिकृत्याह । (संकेत्यादि) नितुः साधुर्व्याख्यानं कुर्वनर्वाग्द र्शिवादर्थनिर्णय प्रति अशं कितनावोपि शंकेत औरत्यंपरिहरन्नहमेवार्थस्य वेत्ता नापरः कश्चिदित्येवं न गर्व कुर्वीत किंतु विषममर्थ प्ररूपयन् साशंकमेव कथयेद्यदिवा विन ज्यवादः स्याहादस्तं सर्वत्रास्खलितं लोकव्यवहाराविसंवादितया सर्वव्यापिनं स्वानुनव Page #559 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राय धनपतसिंघ बादाउरका जैनागम संग्रह नाग उसरा. पण सि वदेदयवासम्यगर्यान् विनज्य पृथक्त्वा तबादं वदेत्तद्यथा नित्यं वादं व्यार्थत या पर्यायार्थतया त्वनित्यवादं वदेत्तथा स्वव्यदेवकालनावैः सर्वेपि पदार्थाः संति पर इव्यादिनिस्तु न संति । तथाचोक्तं । सदैव सर्व कोनेवेत्स्वरूपादिचतुष्टयात् । असदे व विपर्यासानचेन्न व्यवतिष्ठतइत्यादिकं विनज्यवादं वदेदिति । विनज्यवादमपि नाषा पितयेनैव ब्रूयादित्याह । नाषयोरायचरमयोः सत्यासत्यामृषयोकिं नाषादिकं त जापाक्ष्यं क्वचित्टष्टोऽप्टष्टोवा धर्मकथावसरेऽन्यदावा सदा वा व्यागृणीयात् नाषेत किंनू तः सन् सम्यक् सत्संयमानुष्ठानेनोबिताः समुचिताः सत्साधवनयुक्तविहारिणोन पुन रुदायिनृपमारकवकृत्रिमास्तैः सम्यगुडितैः सह विहरंश्चक्रवर्तिमकयोः समतया रागदेष रहितोवा शोजनप्रझोनाषायोपेतः सम्यग्धर्म व्यागृणीयादिति ॥ २२ ॥ अणुगठमाणे वि तदंवि जाणे, तहातहा सादु अ ककसेणं ॥ ण कुवईनास विहंसजा, निरुधगं वावि न दीहरजा॥२३॥ समालवेजा पडिपुन्ननासी, निसामिया समिया अध्दंसी ॥ आणाइसुद्धं वयणं निजे अनिसंधए पावविवेगनिरकु ॥२४॥ अर्थ-(अणुगढमाणे वि तहंवि जाणेके०) हवे तेने बेनाषायेंकरी धर्म कहेता थका को एक पंमित होय ते समी रीते समजे अने कोइएक मूर्ख होय ते विपरीत पणे समजे एटले तेने अर्थनी पूरे पूरी समजण न पडे तो ( तहातहा सादुअकक्कसेणं के) तेम तेम साधु ते श्रोताने मधुर नाषाये करी सम्यक् समजावे सत्यमार्ग देखाडे परंतु ( णकुवईनासविहंसजा के०) तेनी नापाने अवहिले नही तथा तेने ति रस्कार नकरे तथा तेनी नापाने निंदे नही (निरुगंवा विनदीहरजा के) थोडो सूत्रा र्थ थोडा काल सुधी कहे पण व्याकर्ण तर्के करी घणो काल सुधी आलजाल कही विस्तारे नही. यतः सोयबोवत्तवो, जोनई बरकरेहिं योवेहिं । जानण थोवोबदु घरक रेहिं सोहोईनिस्सारो॥१॥ इतिवचनात ॥ २३ ॥ (समालवेजापडिपुन्ननासीके०) जे अत्यंत विषम अर्थ होय ते सम्यक प्रकारे विस्तारीने बोले जेम श्रोता पुरुष सुखे स मजे तेम प्रतिपूर्ण नाषाये करी बोले अरकलियं अविच्चामेलि इत्यादिक पूरण नाषे (निसामियासमिया अन्दंसी के० ) तथा गुरुने समीपे सांजलीने सम्यक् प्रकारे अर्थ देखीने नलीरीते ते अर्थने विचारीने (आणासु वयणं निलंजे के० ) अाझा विशुद वचन प्रयुजे एम नत्सर्ग अपवाद मार्गने दर्शावनारि एवि शुद्ध वाणी कहेतो थको (य निसंधए पावविवेगनिरकुके०) साधु पापनु विवेक करे एटले पापनु परिहार करे. ॥२४ Page #560 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५३० तिीये सूत्रकृतांगे प्रथम श्रुतस्कंधे चतुर्दशमध्ययनं. ॥ दीपिका-तस्यैवं नाषायेन वदतः कश्चिन्मेधावी तथैव तमर्थमाचार्यादिना क थितमनुगबन सम्यगवबुध्यते । अन्यस्तु मंदमतिर्वितथमन्यथैव विजानीयात् । तंच स म्यगनवबुध्यमानं तथातथा तेन प्रकारेण कर्कशवचनेन वदेत् । यथाऽसौ तमर्थ बुध्य ते न कुत्रचित्क्रुमुखोनादरेण कथयेन्मनःपीडामुत्पादयेत् । तथा प्रश्नकर्तु षां नवि हिंस्यान्नतिरस्कुर्यात् निरु स्तोकमर्थ न दीर्घयेत् अन्योन्यकथनेन दीर्घ कुर्यात् । तथा चोक्तं । सोअबो वत्तवो, जो नहाइ अरकरेहिं थोवेहिं ॥ जो पुण थोवा बदु अ,रकरे हिं सो होइ निःसारोति ॥ २३ ॥ यः स्तोकारैर्नावबुध्यते तं प्रतिपूर्णनाषी पर्यायश ब्दै वार्थकथनश्च समालपेत् समंतानाषेत यथा सभवबुध्यते तथा कुर्यादित्यर्थः । तथाऽचार्यादेः सकाशादर्थ निशम्य श्रुत्वा सम्यगर्थदर्शी सत्पदार्थवेत्ता तीर्थकताझया नि रवा शुदं वचनम नियुंजीत वदेत् । एवं वाऽनियुंजन निकुः पापविपाकं लाजसत्का रादि निरपेक्तया कांदमाणोनिर्दोषं वचनमनिसंधयेत् ॥ २४ ॥ ॥ टीका-(किंचान्यत् । (अणुगलमाणेइत्यादि) तस्यैवं नाषा येन कथयतः क श्चिन्मेधावितया तथैव तमर्थमाचार्यादिना कथितमनुगन्नन् सम्यगवबुध्यते । अपरस्तु मंदमेधावितया वितथमन्यथैवानिजानीयात्तंच सम्यगनवबुध्यमानं तथातथा तेन हेतू दाहरणसयुक्तिप्रकटनप्रकारेण मूर्खस्त्वमसि तथा छुरू ढः खसूचि रित्या दिना ककेशव चनेनानिनलयन यथातथासौ बुध्यते तथा साधुः सुष्टु बोधयेन्न कुत्रचित्क्रुखमुखह स्तौष्ठनेत्रविकारैरनादरेण कथयन् मनःपीडामुत्पादयेत्तथा प्रश्नयतस्तनाषामपशब्दादि दोषउष्टामपि धिग्मूर्खासंस्कृतमते किंवाऽनेन संस्कृतेन पूर्वोत्तरव्याहतेन वोच्चारितेनेत्ये वं नविहिंस्यान्न तिरस्कुर्यादसंबोन्द्वहनस्तं प्रश्नयितारं न विडंबयेदिति । तथा निरुपम र्थ स्तोकं दीर्घवाक्यमेहता शब्ददरेणार्क विटपिकोष्टिकान्यायेन नकथयेन्निरुई वा स्तो ककालीनं व्याख्यानं व्याकरणतर्कादिप्रवेशनबारेण प्रसत्यानुप्रसत्या नदीयेन्नदीर्घ कालिकं कुर्यात् । तथाचोक्तं । सो अबो वत्तवो, जो नाम अरकरेहिं थोवेहिं ॥ जो पुण थोवो बहुथ, स्करहिं सो होइ निःसारो ॥ तथा ॥ किंचित्सूत्रमल्पावरमल्पार्थ वा इत्यादि चतुर्नगिका तत्र यदल्पादरं महाथ तदिह प्रशस्यतइति ॥ २३ ॥ अपिच । (समालवेजाइत्यादि ) यत्पुनरतिविषमत्वाददपारैर्न सम्यगवबुध्यते तत्सम्यक् शोनने न प्रकारेण समंतात्पर्यायशब्दोच्चारणतोनावार्थकथनतश्चालपेनाषेत समालपेन्नापैरेवा ट्रैरुक्त्वा कृतार्थोनवेदपितु यगहनार्थनाषणे सतुयुक्त्यादिनिः श्रोतारमुपेक्ष्य प्रतिपू नाषी स्यादस्खलिताहीनादार्थवादी नवेदिति । तथाचार्यादेः सकाशाद्यथावदर्थ श्रुत्वा ऽवगम्य निशम्य च यथावस्थितमर्थ यथागुरुसकाशादवधारितमर्थ प्रतिपाद्यं इष्टुं Page #561 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राय धनपतसिंघ बाहारका जैनागम संग्रह नाग उसरा. ५३१ शीलमस्य सनवति सम्यगर्थदर्शी सएवंनूतः संस्तीर्थकराझया सर्वप्रणीतागमानुसारे ण गुमवदातं पूर्वापराविरुदं निरवयं वचनमनिपुंजीतोत्सर्गविषयेसति नत्सर्गमवाद विषय वा ऽपवादं तथा स्वपरसमययोर्यथास्वं वचनमनिवदेत् । एवं चानियंजन निक्तः पापविवेकलानं सत्कारादि निरपेक्षतया कांक्षमाणोनिर्दोषं वचनमनिसंधयेदिति ॥ २४ ॥ अदाबुश्याइं सुसिकएका, जऊया पातिवेलं वदेहा॥से दिहिम दि विण लूसएका, से जाणई नासि तं समाहिं ॥२५॥ अलूसए णो पबन्ननासी, णो सुत्तमचं च करेऊ ताई ॥ सवारनती अण्वी वायं सयं च सम्म पडिवाययंति॥२६॥से सुचसुत्ते नवदाणवं च, धम्मं च जे विंदति तबतब ॥आदेऊवके कुसले वियत्ते, स अरिदश् नासितं समादित्तिबेमि॥ २७ ॥ इतिग्रंथनामा चन्दसमसयणं सम्मत्तं ॥ अर्थ- (अहाबुश्याइंसुसिरकएका के७) श्रीतीर्थकरादिके जेम वचन कह्यांचे तेम ज जलीरीते शीखे (जश्ऊयाणातिवेलंवदेजा के० ) तेमज पाले तेमज मुखथी नाषे एटले प्रकाशे तथा वेलं एटले मर्यादा नल्लंघे नही वली सावद्य वचन बोले नहीं ( से दिहिमंदिहिणनूसएजा के० ) एवो ते दिहिम एटले सम्यक् दृष्टीवंत ते पोतानो स म्यक दर्शन लूसाए नही तेवी रीते प्ररूपणा करे (सेजाइनासितंसमाहिं के० ) ते पुरुष श्रीतीर्थकरनाषित समाधि मार्ग बोली जाणे ॥ २५ ॥ ( अचूसएणोपनन्नना सी के० ) आगमार्थ कहेतो थको लुसे नही एटले अपशब्द बोली सूत्रार्थ उपवेनही तथा प्रजननाषी नथाय एटले सूत्रार्थ गोपवे नही सूत्रनो नलो अर्थ प्रकाशे (णोसु त्तमबंच करेऊताई के० ) तथा त्राई एटले बकायनो रहपाल एवो साधु सूत्र अर्थ अन्यथा नकरे ( सबारनत्तीअणुवीश्वायंके० ) गुरूनी नक्तियालोचीने बोले पण गुरूनी अनक्ति थाय तेम नबोले (सुयंचसम्मंपडिवाययंतिके ० ) जेरीते श्रुतने सम्यक प्रकारे करीने गुरूसमीसांनाल्थु होय तेरीतेज अर्थ बोजे अन्यथागोबंदोनवति ॥ २६ ॥ (सेसुमसुत्ते के०) ते साधुनु ए रीते नपदेशादिक अवशरे प्रकाशतो सूत्र शुरू कहेवाय ( नवणावंचके ) तथा उपधानवंत एटले जे सूत्रनो जे तप सिद्धांतोमां कह्यो तेने नपधान कहियें तेनो करनार (धम्मंचजेविंदतितबतबके) जेजे धर्म सम्यक् जाणे तेते धर्म त्यां त्यां अंगीकार करे जेम जेम श्रीवीतरागनी आज्ञा मले तेम तेम धर्मनाषे पण श्रीवीतरागनी आझा विरू नबोले (आदेऊवक्केकुसोवियत्तेके ० ) एवो जेथाय ते आदेय वचन एटले समस्त लोकने ग्राह्य माननीक वचन बोले तथा कुशल Page #562 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५३२ वितिये सूत्रकृतांगे प्रथम श्रुतस्कंधे चतुर्दशमध्ययनं. निपुण तथा व्यक्त स्पष्ट ते अविमास्यो नकरे (सबरिहानासितंसमाहित्तिबेमिके)ते । साधु श्रीवीतराग प्रणीत सूधो समाधि धर्म मार्ग नावाने योग्य थाय तिबेमिनो अर्थ पूर्ववत् जाणवो ॥ २७ ॥ एरीते ग्रंथनामा चौदमां अध्ययननो अर्थ समाप्त थयो. ॥ दीपिका-(यथोक्तानि जिनस्तानि सुष्टु शिदेत शिक्ष्तिश्च देशनायां यतते । देश नोद्यतोपि योयस्य कर्तव्यस्य कालस्तां वेलामतिक्रम्य न वदेत् कर्तव्यमर्यादां नातिलंघये दित्यर्थः । सदृष्टिमान् यथावस्थितपदार्थान् श्रदधानोदृष्टिं सम्यक्दर्शनं नजूषयेन्नदूष येत् । कोर्थः । देशनां व्याख्यानं वा कुर्वन् तथा कथयेद्यथाश्रोतुः सम्यक्त्वं स्थिरीनव ति । यश्चैवंनूतः सजानाति नाषितुं तं सर्वोक्तं समाधि ज्ञानदर्शनचारित्राव्यं २५ , सर्वज्ञोक्तं नजूषयेनदूषयेत्प्रचन्ननाषी नवेत्सिदांतार्थ शुद्ध प्रजनंवा न गोपयेथ प्रह नमर्थमपरिणताय न नाषेत । तथाचोक्तं । अप्रशांतमतौ शास्त्रसन्नावप्रतिपादनं ॥ दो षायानिनवोदीर्ण,शमनीयमिव ज्वरे ॥१॥त्रायी स्वपररक्कोन सूत्रमतिकल्पनया कुर्वीत । पर हितकरः शास्ता तस्मिन् शास्तरि यानक्तिबमानस्तयाऽनुविचिंत्य वादं वदेत् । अनेनोक्तेनागमबाधा कापि न स्यादिति । तथा श्रुतं सम्यगाराधयन् प्रतिपादये त् सुखशीतः स्यादित्यर्थः ॥ २६ ॥ शुद्ध सूत्रं प्रवचनं यस्य सगुसूत्रः उपधानवान् तपश्चरणयुक्तोयोधर्म सम्यक् वेत्ति तत्रतत्रोत्सर्गापवादादौ यादेयवाक्योग्राह्यवचनः स्यात् तथा कुशनोनिपुणोव्यक्तोनासमीदयकारी समाधि झानादिकं नाषितुमर्हति योग्यः स्यादिति । ब्रवीमीति पूर्ववत् ॥ २७ ॥ इति चतुर्दशं ग्रंथाध्ययनं समाप्तं ॥ ६ ॥ ॥ टीका-पुनरपि नाषाविधिमधिकृत्याह । (अहोबुहियाईइत्यादि) यथोक्तानि , तीर्थकरगणधरादिनिस्तान्यहर्निशं सुष्टु शिदेत ग्रहण शिल्या सर्वोक्तागमं सम्यक् गृाही यादासेवनाशिदया वनवरतमुद्युक्तविहारितया सेवेताऽन्येषांच तथैव प्रतिपादयेदिति । प्रसक्तलक्षण निवृत्तये वपदिश्यते सदा ग्रहणासेवनाशियोर्देशनायां यतेत सदा यतमानो पि योयस्य कर्तव्यस्य कालोऽध्ययनकालोवा तां वेलामतिलंध्य नातिवेलं वददध्ययनकर्त व्यमर्यादा नातिलंघयेत्तदनुष्ठानं प्रतिव्रजेचा यथावसरं परस्पराबाधया सर्वाः क्रियाःकु योदित्यर्थः । सएवंगुणजातीयोयथाकालवादी यथाकालचारी च सम्यक दृष्टिमान् यथाव स्थितार्थान पदार्थान् श्रद्दधानोदेशनांव्याख्यानं वा कुर्वन् दृष्टिं सम्यकदर्शनं नलषयेन्दूष येत् । इदमुक्तंनवति । पुरुषविशेष झात्वा तथातथा कथनीयमपसिध्धांतदेशनापरि हारेण यथायथा श्रोतु : सम्यक्त्वं स्थिरीनवति । नपुनः शंकोत्पादनतोदृष्यते यश्चै वंविधः सजानात्यवबुध्यते जाषितुं प्ररूपयितुं समाधि सम्यक्दर्शनचारित्राख्यं सम्यकू Page #563 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रायधनपतसिंघ बादाउरका जैनागम संग्रह नाग उसरा. ५३३ व्यवस्थानाख्यं वा तं सर्वज्ञोक्तं समाधि सम्यगवगवतीति ॥ २५॥ किंचान्यत् ( सएश्त्यादि ) सर्वोक्तमागमं कथयन्नोखूषयेन्नान्यथापसि-मांतव्याख्यानेन दूषयेत्तथा न प्रचन्ननाषी नवेत् सिक्षांतार्थमविरुक्ष्मवदातं सार्वजनीनं तत्प्रजन्न नापणेन न गोपये त्। यदिवा प्रजन्नं वाऽर्थपरिणताय न नाषेत नसिमांतरहस्यमपरिणतशिष्यविध्वंसनेन दोषायैव संपद्यते । तथाचोक्तं । अप्रशांतमतौ शास्त्र , सनावप्रतिपादनं ॥ दोषायानि नवोढ़ीर्ण , शमनीयमिव ज्वरेइत्यादि । नच सूत्रमन्यत् स्वमति विकल्पनतः स्वपरवायी कुर्वीतान्यथा सूत्रं तदर्थवा संसारत्रायी त्राणशीलोजंतूनां न विदधीत । किमित्यन्यथा सूत्रं नकर्तव्यमित्याह । परहितैकरतः शास्ता तस्मिन् शास्तरि या व्यवस्थिता नक्तिबंदु मानस्तया तभक्त्या ऽनुविचिंत्यमानेनोक्तेन न कदाचिदागमबाधा स्यादित्येवं पर्यालो च्य वाचं वदेत्तथातथा तवतमाचायो दिन्यः सकाशात्तत्तथैव सम्यक्त्वाराधनामनुवर्तमानो ऽन्येच्यज्ञणमोदं प्रतिपद्यमानः प्रतिपादयेत् प्ररूपयेन्न सुखशीलतां मन्यमानोयथाकथं चित्तिष्ठेदिति ॥ २६ ॥ अध्ययनोपसंहारार्थमाह । (सेसुमसुत्तेइत्यादि) ससम्यग्दर्श नस्यातूषकोयथाव स्थितागमस्यप्रणेता ऽनुविचिंत्य नाषकः शुक्ष्मवदात्तं यथावस्थित वस्तुप्ररूपणतो ऽ ध्ययनतश्च सूत्रं प्रवचनं यस्यासी गु-सूत्र: । तथोपधानं तपश्चरणं यद्यस्य सूत्रस्यानिहितमागमे तदिद्यते यस्यासावुपधानवान् तथा धर्म श्रुतचारित्राख्यं यः सम्यक् वेत्ति विंदतेवा सम्यक् लनते तत्र तत्रेति यथाझाग्राह्योर्थः सयाझयैव प्रति पत्तव्योहेतुतस्तु सम्यग्घेतुना । यदिवा स्वसमयसि बोर्थः स्वसमये व्यवस्थापनीयः पर सिदश्च परस्मिन्नथवोत्त्सर्गापवादयोर्व्यवस्थितीर्थस्तान्यामेव यथास्वंप्रतिपादयितव्यए तशुणसंपन्नश्चादेयवाक्योग्राह्यवाक्योनवति । तथा कुशलोनिपुण्यागमप्रतिपादने स दनुष्ठाने च व्यक्तः परिस्फुटोनासमीदयकारी । यतजुगसमन्वित : सोर्हति योग्योनव ति तं सर्वोक्तं ज्ञानादिकं वा नावसमाधि जाषितुं प्रतिपादयितुं नापर : कश्चिदिति । इति परिसमात्यर्थे । ब्रवीमीति पूर्ववत् । गतोनुगमोनया : प्राग्वद्याख्येया: ॥ २७ ॥ समाप्तं चतुर्दशं ग्रंथारख्यमध्ययनमिति ॥ हवे पंदरमुंबादान नामे अध्ययन प्रारंनिये जैयें बादान एटले ग्रहण करई एटले रूडी शिदारूप चारित्रानुष्ठानने ग्रहण कर तेनुं व्ये करी तथा नावे करीशुभ स्वरूप कहेले. जमतीतं पडुप्पन्न, आगमिस्सं च णायन ॥ सवमन्नति तं ताई, दंसणावरणं तए॥१॥ अंतए वितिगिबाए, जे जाणंति अ लिसं ॥ अणेलिसस्स अकाया, ण से दो तहिं तदिं ॥२॥ Page #564 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५३४ वितीये सूत्रकृतांगे प्रथम श्रुतस्कंधे पंचदशमध्ययनं. अर्थ-(जमतीतपड़प्पन्नं के०) जे व्यादिक पदार्य अतीतकाले थया तथा जे व र्तमान कालें वर्ने (अगमिस्सं चणाय के० ) तथा अगमिक कालें जे थशे तेना यथावस्थित स्वरूपनो प्ररुपवो तेथी प्ररूपणाना अधिकारी पणा माटे नायक कहिये (सवमन्नंतितंताई के० ) ते सर्व व्यादिक चतुष्क संपूर्ण जाणे ते जाणतो तो सर्व प्राणी-नो रक्षपाल (दसणावरवंतए के०) ते दर्शनावरणीय कर्मनो अंतकरनार जाणवो अर्थात् ते दर्शनावरणादिक घातीकर्म चतुष्कने खपावे ॥१॥ ( वितिमिलाए के०) संदेह एटले मिथ्याज्ञान तेनो (अंतए के० ) अंतकारक (जे जाणं तिअणेलिसं के ) जे घातीकर्मनो खपावनार ते सर्व निरुपम जाणे एटले तेना जेवो ज्ञानवंत बीजो कोई नहीं (अणेलिसस्स अरकाया के ) एम जे निरुपम झानेकरी पदार्थनो प्रकाश करनार (णसेहोऽतहिंतहिं के०) ते तिहां तिहां बौछादि दर्शनीने विषे न प्रवर्ते एटले ते प्राणी जिनमत टालीने अन्य दर्शनीने विषे तत्व न जाणे ॥ २ ॥ ॥ दीपिका-अथ पंचदशमादानीयाध्ययनमारच्यते । तस्येदमादिसूत्रं । ( जमतीत्या दि) यदतीत प्रत्युत्पन्नं वर्तमानं यदनागतमेष्यत्कालनाविश्व्यं तस्य सर्वस्यापि यथाव स्थितस्वरूपनिरूपणतोनायकः प्रणेता त्रायी सर्वप्राणिरतकः सर्व मन्यते जानाति यो दर्शनावरणांतकोमध्यग्रहणादघातिकर्मचतुष्कस्यांतष्टव्यः सएव सर्वइति ॥१॥ वि चिकित्सायाः संशयस्यांतकः यद्यः सबनीदृशं जगजानाति । यादृशं कर्मक्ष्यतः सर्व सामान्यविशेषात्मकं जगजानाति तादृशमन्योबा हादिर्न जानातीत्यनीहशमित्यु तं । अनीदृशस्य च यथारख्याता प्ररूपकोनासो तत्र तत्र बौदादिके दर्शनः स्यात् । किंतु जिनप्रवचनेऽईन्नेव त्रिकालवर्तिवस्तूनामाख्यातेति ॥ २॥ __॥ टीका-अथ चतुर्दशाध्ययनानंतरं पंचदशमारन्यते । थस्य चायमनिसंबंधः । इहा नंतराध्ययने सबाह्यान्यंतरस्य ग्रंथस्य परित्यागोविधेयश्त्यनिहितं । ग्रंथपरित्यागाचा यतचारित्रोनवति साधुस्ततोयागसौ यथासंपूर्णामायतचारित्रतां प्रतिपाद्यते तदने नाध्ययेन संबंधेनायातस्यास्याध्ययनस्य चत्वार्यनुयोग वाराण्युपक्रमादीनि नवंति । तत्रोप क्रमांतर्गतीर्थाधिकारोयं । तद्यथा । आयतचारित्रेण साधुना नाव्यं । नामनिष्पनेतु नि देपे आदानीयमिति नाम।मोदार्थिनाऽशेषकर्मक्ष्यार्थ यज्झानादिकमादीयते तदत्र प्रति पाद्यतइति कृत्वा आदानीयमिति नाम संवृत्तं। पर्याय बारेणच प्रतिपादितं सुग्रहं नवती त्यतयादानशब्दस्य तत्पर्यायस्य च ग्रहणशब्दस्यच निदेपं कर्तुकामोनियुक्तिकदाह । “यादाणे गहणंमि य गिरकेवो होंति दोन्नवि चनक्को । एग नाण, च होऊ पग यं तु बादाणे" ॥३५॥ (यादाणेइत्यादि) अथवा (जमतीयंति) अस्याध्ययनस्य नाम Page #565 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राय धनपतसिंघ बाहाउरका जैनागम संग्रह नाग उसरा. ५३५ तच्चादानपदेनादावादीयते इत्यादानं तच्च ग्रहणमित्युच्यते । तत्रादानग्रहणयोनिदेपार्थ नियुक्तिकदाह । (आदाणेइत्यादि ) आदीयते कार्यार्थिना तदित्यादानं । कर्मणिन्युट प्र त्ययः करणेवा । दीयते गृह्यते स्वीक्रियते विवदितमनेनेतिं कृत्वा आदानं च पर्यायतोय हणमित्युच्यते ॥ तत आदानग्रहणयोनिदेपोजवति होचतुष्कौ । तद्यथा। नामादानं स्थापनादानं इव्यादानं नावादानंच । तत्र नामस्थापने कुले। व्यादानं चित्तं यस्मानौ किकैः परित्यक्तान्यकर्तव्यैर्महता क्लेशेन तदादीयते तेन वाऽपरंक्षिपदचतुष्पदादिकमादी यतइति कृत्वा । नावादानंतु विधा प्रशस्तमप्रशस्तं क्रोधाद्युदयमिय्यात्वाविरत्यादिकं वा । प्रशस्तं तूत्तरोत्तरगुणश्रेण्या विगुहाध्यवसायकंडकोपाख्यानं सम्यक् ज्ञानादिकं वेत्येतदर्थप्र तिपादनपरमेतदेव चाध्ययनं इष्टव्यमित्येवं ग्रहणेपि नामादिकश्चतुर्धा निदेपोइष्टव्यः । नावार्थोप्यादानपदस्येव इष्टव्यस्तत्पर्यायत्वादस्येति । एतच्च ग्रहणं नैगमसंग्रहव्यवहा रर्जुसूत्रार्थनयानिप्रायेणादानपदेन सहालोच्यमानं शक्रंशादिवदेकार्थमनिन्नार्थ नवेत् शब्द समनिरूढेनूतशब्दनयानिप्रायेण च नानार्थ नवेत् । इहतु प्रकृतं प्रस्तावादाने यादान विषये आदानपदमाश्रित्यास्यानिधानमाकार्यादानीयं वा झानादिकमाश्रित्य नाम कृतमि ति आदानीयानिधानस्यान्यथा वा प्रवृत्ति निमित्तमाह । “अं पढमस्संतिमए, बितियस्त तह वेऊयादिमि ॥ एतेणादाणिकं, एसो अनोवि पजान" ॥ ३५ ॥ (जंपढमस्से त्यादि ) यत्पदं प्रथमश्लोकस्य तदर्धस्य चांते पर्यते तदेव पदं शब्दतार्थतनजयतश्च दि तीयश्लोकस्यादौ तदर्धस्य वादो नवत्येतेन प्रकारेणाद्यपदसशत्वेनादानीयं नवत्येष आदानीयानिधानप्रवृत्तेः पर्यायोऽन्योवा विशिष्टानाद्यादानीयोपादानादिति । केचित्तु पु नरस्याध्ययनस्यांता दिपदयोः संकलनात्संकलिकेति नाम कुर्वते । तस्यायपि नामादिक चतुर्धानिदेपो विधेयः । तत्रापि इव्यसंकलिका निगडादौ नावसंकलनातूत्तरोत्तर विशि ष्टावसायसंकलनमिदमेव वा ऽध्ययनमाद्यंतपदयोः संकलनादिति । येषामादानपदेनानि धानं तन्मतेनादौ यत्पदं तदादानपदमतथादेर्निदेपं कर्तुकामयाह । “ गामादी ग्व गादी, दवादी चेव होंति नावादी ॥ तं दवादी पुण दवस्त जो सनावो सएचणे ३६ (णामादी इत्यादि ) यादेर्नामादिकश्चतुर्धा निक्षेपः । नामस्थापने सुगमत्वादनाहत्य इव्यादि दर्शयति । व्यादिः पुनईव्यस्य परमाएवादेर्यः स्वनावः परिणति विशेषः स्वके स्थाने स्वकीये पर्याये प्रथममादौ नवति सव्या दिव्यस्य दध्यादेर्यबाद्यः परिणतिविशे पः दीरस्य विनाशकालसमकालीनएवमन्यस्यापि परमाएवादेईव्यस्य योयः परिणतिवि शेषः प्रथममुत्पद्यते ससर्वोपिशव्या दिर्नवति । ननुच कथं वीर विनाशसमयएव दध्य त्पादः । तथाहि । उत्पाद विनाशौ नावानावरूपी वस्तुधौं वर्तते । न च धर्मोधर्मिण मंतरेण नवितुमर्हत्यतएकस्मिन्नेव णे तमिणोर्द घिदीरयोः सत्तामाप्नोत्येतच्च दृष्टेष्ट Page #566 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५.३६ द्वितीये सूत्रकृतांगे प्रथम श्रुतस्कंधे पंचदशमध्ययनं . 66 "" बाधित मिति नैष दोषः । यस्य हि वादिनः क्षणमात्रं वस्तु तस्यायं दोषोयस्यतु पूर्वोत्त रक्षणानुगतमन्वयि व्यमस्ति यस्यायं दोषएव न भवति । तथाहि । तत्परिणामि इव्य मेकस्मिन्नेव दो एकेन स्वनावेनोत्पद्यते परेण विनश्यत्यनंतधर्मत्वा ६ स्तनइति । य त्किंचिदेतत् । तदेवं इव्यस्य विवदितपरिणामेन परिणमतोययाद्यः समयः सव्यादि रिति स्थितं इव्यस्य प्राधान्येन विवक्षितत्वादिति । सांप्रतं जावादिमधिकृत्याह । ग्रा गमणो यागमन नावादी तं इहा नवदिसंती ॥ णो अगम नावो, पंचविहो होइ raat || ३७ ॥ श्रागम पुण यादी, गणिपिंमगं होइ बारसं गंतु । गबसि लोगो पदपादयस्कराइ चन तब्बादी ॥ ३८ ॥ ( श्रागमइत्यादि) नावोंतःकरणस्य परिणति विशेषस्तं बुधास्तीर्थकरगाधरादयोव्यपदिशंति प्रतिपादयंति । तद्यथा यागमतोनोयागम तश्च । तत्र नोखागमतः प्रधानपुरुषार्थतया चिंत्यमानत्वात्पंचविधः पंचप्रकारोजवति । तद्यथा । प्राणातिपात विरमणादीनामाद्यः प्रतिपत्तिसमयइति । तथा ( श्रागम इत्यादि) यागममाश्रित्य पुनरादिरेवं इष्टव्यः । तद्यथा । यदेतपिनप्राचार्यस्य पिठकं सर्व स्वमाधारोवा तद्दादशांगं नवति । तुशब्दादन्यदप्युपांगादिकं इष्टव्यं । तस्य प्रवचनस्यादि नूतोयो ग्रंथस्तस्याप्यायः श्लोकस्तत्राप्याद्यं पदं तस्यापि प्रथममकरमेवंविधोबहुप्रकारो नावादिष्टव्यइति । तत्र सर्वस्यापि प्रवचनत्व सामायिकमादिस्तस्यापि करोमीति पदं तस्यापि कारो दशानां त्वंगानामाचारंगमादिस्तस्यापि शास्त्रपरिज्ञाध्ययनमस्यापि च जीवोदेशकस्तस्यापि सुयंतिपदं तस्यापि सुकारइति पदमादिरित्यस्य च प्रकृतांगस्य सम याध्ययनमादिस्तस्यापि नदेशक श्लोकपादपदवर्णादिष्टव्यइति । गतोनाम निष्पनो निदे पस्तदनंतर म स्खलितादिगुणोपेतं सूत्रमुच्चारयितव्यं । तच्चेदं । ( जमतीयमित्यादि ) स्य चानंतर सूत्रेण संबंधोवक्तव्यः सचायं । तद्यथा । खादेयवाक्यः कुशलोव्यक्तोर्हति त थोक्तं समाधिं जाषितुं यश्च यदतीतं प्रत्युत्पन्नमागामिच सर्वमवगच्छति सएव जाषितुमर्द ति नान्यइति । परंपरसूत्र संबंधस्तु यएवातीतानागतवर्तमान कालत्रयवेदी सएवाशेषबंधना नां परिज्ञानात्रोट यिता वेत्येतदुध्येतेत्यादिकः संबंधोऽपरसूत्रैरपि स्वबुध्या लगनीयइ ति । तदेवं प्रतिपादित संबंधस्यास्य सूत्रस्य व्याख्या प्रस्तूयते । यत्किमपि व्यजातमती तं यच्च प्रत्युत्पन्नं यच्चानागतमेष्यत्कालनावि तस्यासौ सर्वस्यापि यथावस्थितस्वरूपनि रूपणतो नायकः प्रणेता । यथावस्थितवस्तुस्वरूपप्रणेतृत्वं च परिज्ञाने सति नवत्यत स्तदपदिश्यते सर्वमतीतानागतवर्तमानकालत्रयनावतोऽव्यादिचतुष्कस्वरूप तो व्यपर्या यनिरूपणतश्च मनुतेऽसौ जानाति सम्यक् परिचिनत्ति तत्सर्वमवबुध्यते जानानश्च विशि टोपदेशदानेन संसारोत्तारणतः सर्वप्राणिनां त्राय्यसौ त्राकरणशीलः । यदिवा यव यपयमयतया गतावित्यस्य धातोर्म्युट् प्रत्ययः । तयनं तायः सविद्यते यस्या सौ तायी । For Private Personal Use Only Page #567 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रायधनपतसिंघ बादाडुरका जैनागम संग्रह नाग इसरा. ५३७ सर्वे गत्यर्था ज्ञानार्थाति कृत्वा सामान्यस्य परिच्छेद कोमनुते इत्यनेक विशेषस्य तदनेक सर्व शः सर्वदर्शी चेत्युक्तं जवति । नच कारणमंतरेण कार्य नवतीत्यतइदमपदिश्यते । दर्श नावरणीयस्य कर्मणों को मध्यग्रहणेतु घातिचतुष्टयस्यांत कष्टव्यइति ॥ १ ॥ यश्च घा तिचतुष्टयांतकत्सईदृग्नवतीत्याह । (अंतइत्यादि) विचिकित्सा चित्तविलुतिः संशयज्ञा नं तस्यासौ तदावरणक्ष्यादंतकृत् संशयविपर्ययमिथ्याज्ञानानामविपरीतार्थपरिवेदादते वर्तते । इदमुक्तवति । तव दर्शनावरणक्ष्यप्रतिपादनात् ज्ञानाद निन्नं दर्शनमित्युक्तं नवति । ततश्च येषामेव सर्वज्ञस्य ज्ञानं वस्तुगतयोः सामान्य विशेषयोर चिंत्यशक्त्युपेतत्वा त्परिच्छेदकमित्येषोयेषामन्युपगमः सोऽनेन पृथगावरणप्रतिपादनेन निरस्तोनवतीतिं । यश्व घातिकर्मतदतिक्रांत संशयादिज्ञानः सोऽनीदृशमनन्यसदृशं जानीते नतत्तुल्यो वस्तु गतसामान्यविशेषांश परिवेदक जयरूपेणैव विज्ञानेन विद्यतइतीदमुक्तं नवति । न तज्ज्ञान मितरजन ज्ञानतुल्यमतोयडुक्त मीमांसकैः सर्वज्ञस्य सर्वपदार्थपरिछेदकत्वेऽन्युपगम्यमाने स वेदा स्पर्शरूपरसगंधव शब्द परिवेदादन निमत व्यरसास्वादनमपि प्राप्नोति तदनेन व्युद स्तं इष्टव्यं । यदप्युच्यते सामान्येन सर्वज्ञसद्भावेपि शेष हेतोरनावादर्हत्येव संप्रत्ययो नोपप द्यते । तथा चोक्तं । अन्न यदि सर्वझो, बुद्धनेत्यत्र का प्रमा। थोनावपि सर्वज्ञौ मत दस्तयोः कथमित्यादि । एतत्परिहारार्थमाह । खनीदृशस्यानन्यसदृशस्य यः परिछेदकप्रा ख्याताच नामासौ तत्र तत्र दर्शने बौद्धादिकोजवति तेषां इव्यपर्याययोरनत्युपगमा दिति । तथाहि । शाक्यमुनिः सर्व क्षणिक मिन् पर्यायानेवेति न इव्यं । इव्यमंतरेण च नि बीजत्वात् पर्यायाणामप्यनावः प्राप्नोत्यतः पर्यायानिष्ठताऽवश्य मकामेनापि तदाधारनूतं परिणामिव्य मेष्टव्यं तदनन्युपगमाच्च नासौ सर्वज्ञइति । तथा प्रच्युतानुत्पन्न स्थि रैकस्वनावस्य इव्यस्यैवैकस्यान्युपगमादध्यावसीयमानानामर्थक्रियासमर्थानां पर्याया णामयुपगमान्निपर्यायस्य इव्यस्याप्यनावात्क पिलोपि न सर्वज्ञइति तथा क्षीरोदकवद निन्नयोव्यपर्याययोरभेदेनान्युपगमाडनूकस्यापि न सर्वज्ञत्वाच्च तीर्थातरीयाणां मध्ये न कश्चिदप्यनीदृशस्यानन्यसदृशस्यार्थस्य द्रव्यपर्यायोजयरूपस्याख्याता नवतीत्यर्हनेवाती तानागतवर्तमान त्रिकालवर्तिनोर्थस्य स्वाख्यातेति न तत्रतत्रेति स्थितं ॥ २ ॥ " तहिं तहिं सुयस्कायं से य सवे सुच्यादिए । सया सच्चेण संपन्ने, मित्ति नूएस कप ॥ ३ ॥ एहिं न विरुशेजा, एस धम्मे बुसीम ॥ साढू जगं परित्राय, अस्सि जीवितनावणा ॥ ४ ॥ अर्थ - ( तहिंत हिंसुरकार्यके ० ) जे जे नाव श्रीवीतरागें ज्यां ज्यां जलीपेरे कह्यां मिथ्यात्व अविरत प्रमदादिकते संसारनुं कारणबे घने ज्ञान दर्शन चारित्र ते ६८ For Private Personal Use Only Page #568 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५३७ तीये सूत्रकृतांगे प्रथम श्रुतस्कंधे पंचदशमध्ययनं. मोद मार्गडे त्यां त्यां (सेयसवेसुश्राहिए के ) तेहिज नावने सत्यकरी जाणवा (स यासच्चेणसंपन्नेके० ) जे सदा एटले सर्वकाल एवा सत्य वचने करी संपन्न होय ते गुं करे तेकहे (मित्तिनूएसुकप्पएके०) नूत एटले प्राणी मात्रने विषे मैत्रीनाव कल्पे सर्व जीव आत्मा मात्रने समान करी लेखवे एटले जेवो पोतानो यात्मा तेवो परनो आत्मा जाणे ॥३॥ (नूएहिनविरुङ्गाके) त्रस अने स्थावर जेनूत एटले प्राणीसाथे विरोध न करे एटले प्राणी मात्रनेहणे नही (एसधम्मेबुसीमके०) एवो धर्म बुसीम एटले संयमवंतनो जाणवो (साढूजगंपरिन्नायके ) साधु सर्व लोकमांहे त्रस बने स्थाव रंजीवोने रुडीपेरे जाणीने (अस्सिंजीवितनावणाके०) शुद्ध धर्मनेविषे नावना नावे ॥४॥ ॥ दीपिका-तत्र तत्र यद्यत्तेनार्हता जीवाजीवादिवस्तु स्वाख्यातं तत्र तत्र न विरोधः। सच सर्वज्ञः सत्यः स्वाख्याता । तथाचोक्तं । वीतरागाहि सर्वज्ञा, न मिथ्या ब्रुवते वचः॥ यस्मात्तस्मादचस्तेषां, तथानूतार्थदशिनां ॥१॥ सदा सर्वकालं सत्येन संपन्नः ससर्वशो नूतेषु प्राणिषु मैत्री कल्पयेत् कुर्यात् । यतः मातृवत्परदाराणि, परव्याणि लोष्टवत् ॥ आत्मवत्सर्वभूतानि, यः पश्यति सपश्यतीति ॥३॥ नूतैः प्राणिनिःसह न विरुध्येत । न विरोधं कुर्यात् एष धर्मः (बुसीमत्ति) तीर्थकस्य साधो तथा बुसीमं साधुस्तीर्थक वा जग विश्वं परिझाय बागमतः स्वयंच ज्ञात्वा यस्मिन् नावनाः पंचविंशति दिशवा ताजी वितनावनाजीवसमाधानकारिणी वयेत् ॥ ४ ॥ ॥ टीका-सांप्रतमेतदेव कुतीथिकानामसर्वज्ञत्वमहतश्च सर्वज्ञत्वं यथानवति तथा सोपपत्तिकं दर्शयितुमाह । (तहिंतहिमित्यादि) तत्रतत्रेति वीप्सापदं । यद्यत्तेनार्दता जी वाजीवा दिकं पदार्थजातं तथा मिथ्यात्वाविरतिप्रमादकषाययोगाबंधहेतवति कृत्वा संसारकारणत्वेन तथा सम्यग्दर्शनझानचारित्राणि मोक्षमार्गति मोदांगतयेत्येतत्सर्व पूर्वोत्तराविरोधितया युक्तिनिरुपपन्नतया सुष्ठाख्यातं स्वाख्यातं तीथिकवचनं तु नहिं स्या नूतानीति नणित्वा तफुपमर्दकारंनान्यनुज्ञानात्पूर्वोत्तराविरोधितया तत्रतत्र चिंत्यमानं नियुक्तिकत्वान्नस्वाख्यातं नवति । सचाविरुवार्थस्याख्याता रागवेषमोहानामनृतकारणा नामसंनवात्सदून्योहितत्वाच्च सत्यः स्वारख्यातस्तत्स्वरूपविनिः प्रतिपादितः ॥ रागादयो ह्यनृतकारणं ते च तस्य न संत्यतः कारणानावात्कार्यानावति कृत्वा तचोनूतार्थप्र तिपादकं ॥ तथा चोक्तं । वीतरागादि सर्वज्ञा, मिथ्यान ब्रुवते वचः । यस्मात्तस्माद चस्तेषां, तथानूतार्थदर्शिनां । ननु च सर्वश्त्वमंतरेणापि हेयोपादेयमात्रपरिज्ञानादपि सत्यता नवत्येव । तथा चोक्तं । सर्व पश्यतु वा मावा, तत्वमिष्टं तु पश्यति । कीट Page #569 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राय धनपतसिंघ बाहारका जैनागम संग्रह नाग उसरा ॥३॥ संख्यापरिज्ञानं, तस्य नकोपयुज्यते इत्याशंक्याह । सदा सर्वकालं सत्येनावितथनाष ऐन संपन्नोसौ । अवितथनाषणत्वं च सर्वज्ञे सति नवति नान्यथा। तथाहि । की टसंख्यापरिज्ञानासंनवे सर्वत्रापरिझानमाशंकेत । तथा चोक्तं । सदृशे बाधासंनवे त नदणमेव दूषितं स्यादिति सर्वत्रानाश्वासस्तस्मात्सर्वज्ञत्वं तस्य नगवतोइष्टव्यमन्यथा त चःसत्यता न स्यात् । सत्योवाऽसंयमः संतः प्राणिनस्तेन्योहितत्वादतस्तेन तपः प्रधानसंयमेन नूतार्थ हितकारिणा सदा सर्वकालं संपन्नोयुक्तएतशुणसंपन्नश्चासौ नूतेषु जंतुषु मैत्री तपक्षणपरतया नूतदयां कल्पयेत् कुर्यात् । इदमुक्तं नवति । परमार्थतः सर्वज्ञस्तत्त्वदर्शितया योनूतेषु मैत्री कल्पयेत् । तथा चोक्तं । मातृवत्परदाराणि परश्व्या णि लोष्टवत्॥आत्मवत्सर्वनूतानि यः पश्यति सपश्यति ॥३॥ यथाभूतेषु मैत्री संपूर्णनाव मनुनवति तथा दर्शयितुमाह । (नूएहिंइत्यादि) जूतैः स्थावरजंगमैः सह विरोधं नकुर्यात्त उपघातकारिणमारंनं तविरोधकारणं दूरतःपरिवर्जयेदित्यर्थः। सएषोऽनंतरोक्तोनताविरो धकारीधर्मः स्वनावः पुण्यारव्योवा (बुसीमत्ति) तीर्थकतोयं सत्संयमवतोवेति । तथा सत्सं यमवान् साधुस्तीर्थकज्जगचराचरजूतग्रामाख्यं केवलालोकेन सर्वज्ञप्रतीतागमपरिझाने न वा परिझाय सम्यगवबुध्या स्मिन् जगति मौनींवा धर्मे जावनाः पंचविंशतिरूपाक्षा दशप्रकारावा या अनिमतास्ताजीवितनावनाजीवसमाधानकारिणीः सत्संयमांगतया मोदकारिणीवियेदिति ॥४॥ नावणा जोगसुद्धप्पा, जलेणावाव आदिया ॥ नावाव तीरसंपन्ना, सबजुका तिन ॥ ५ ॥ तिनहईन मेधावी, जाणं लोगंसि पावगं ॥ तुहृति पावकम्माणि, नवं कम्ममकुवए ॥६॥ अर्थ-जे नावनानावे तेने जे होय ते देखाडे. (नावणाजोगसुचप्पा के० ) नाव नाना योगेकरी जेनो विशुक्ष निर्मल यात्माने (जलेणावावयाहिया के०) ते पुरुष संसार रूप समुड्ने विषे नौका समान कह्या ते उपर दृष्टांत कहेडे (नावावतीरसं पन्ना के ० ) जेम नावा समुड्ने तीरे पोहोचाडे तेम ते पुरुषना उपदेश थकी जीव चारित्ररूप प्रवहणे करीने (सबरका तिन के०) संसारना सर्व सुख थकी मुकाए अने मोक्षरूप कांठे पोहोचे ॥ ५ ॥ (मेधावी के०) पंमित (तिउद्दर्शन के०) सर्व फुःख थकी मूकाए ते पंमित केवो होय तोके ( जाणंलोगसिपावगंके० ) सर्वलोकने विषे जे पाप एटले सावद्यानुष्ठान तेनो जाण होय एवाने ( तुझुतिपावकम्माणिके०) पूर्वना सं चित सर्व पाप कर्म त्रूटे ( नवंकम्ममकुचएके० ) वली नवा कर्म नकरे एटले नबांधे एटले तेजीव अकर्मि थाय सर्व कर्मोना क्ष्य युक्त थाय ॥ ६ ॥ Page #570 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४० दितीये सूत्रकृतांगे प्रथम श्रुतस्कंधे पंचदशमध्ययनं. ॥ दीपिका-जावनानियोगः सध्यानरूपोनावनायोगस्तेन शुभयात्मा यस्य तथा एवं विधः सन् त्यक्तसंसारस्वनावोनौरिव जलोपरि तिष्ठति । एवमाख्याता नौरिवानु कूलवातप्रेरिता तीरं प्राप्ता स्यादेवं चारित्रवान् जीवपोतस्तपोवायुवशात्सर्वपुःखात्मकः संसारोत्रुटयत्यपगति ॥ ५ ॥ मेधावी मर्यादावान् त्रुटयति मुच्यते सर्वबंधनेन्यः । किंकुर्वन् पापकं सावद्यकार्य लोके झपरिझया जानन् प्रत्याख्यानपरिझ्या परिहरेत् ॥ तस्य नवं कर्म अकुर्वतः पूर्वसंचितानि पापकर्माणि त्रुटयंति ॥ ६ ॥ ॥ टीका-सनावनानावितस्य यन्नवति तदर्शयितुमाह । (जावणाश्त्यादि ) नावना निर्योगः सम्यक् प्रणिधानलहणोनावनायोगस्तेन शुक्षयात्मा अंतरात्मा यस्य सतथा । सच नावनायोगाक्षात्मा परित्यक्तसंसारस्वनावोनौरिव जलोपर्यवतिष्ठते संसारोदन्व तइति नौरिव यथा जले निमऊनत्वेन प्रत्याख्याता एवमसावपि संसारोदन्वति न नि मऊतीति । यथा चासौ नियामकाधिष्ठाताऽनुकूलवातेरिता समस्तापगमात्तीरमास्कं दत्येवमायतचारित्रवान् जीवपोतः सदागमकर्णधाराधिष्ठितस्तपोमारुतवशात्सर्वसुःखा त्मकात्संसाराचुट्यत्यपगतति मोदाख्यं तीरं सर्वोपरमरूपमवाप्नोतीति ॥ ५ ॥ अपिच । (तिनदृइत्यादि) सहि नावनायोगगुमात्मा नौरिव जले संसारे परिवर्तमा नस्त्रिन्योमनोवाक्कायेन्योऽशुनेच्यस्खुटयति यदिवातीव सर्वबंधनेन्यस्युटयति मुच्यते। अतित्रुटयति संसारादतिवर्तेत मेधावी मर्यादाव्यवस्थितः सदसदिवेकी वाऽस्मिन् लोके चतुर्दशरज्ज्वात्मके नूतस्य ग्रामलोकेवा यत्किमपि पापकं कर्म सावद्यानुष्ठानरूपं तत्कार्यवा अष्टप्रकारं कर्म तत् झपरिज्ञया जानन प्रत्याख्यानपरिझया च तपादानं प रिहरन् ततस्त्रुटयति तस्यैवं लोकं कर्मवा जानतोनवानि कर्माण्यकुर्वतोनिरुक्षाव हार स्य विप्रकृष्टतपश्चरणवतः पूर्वसंचितानि कर्माणि त्रुटयंति निवर्ततेवा नवं च कर्माकुर्वतो ऽशेषकर्मयोनवतीति ॥ ६ ॥ अकुवन एवं पबि, कम्मं नाम वि जाण॥विनाय से महावीरे, जेण जायण मिङ ॥ ७॥ पमिङ महावीरे, जस्स नबि पुरे कडं ॥वा नवं जलमच्चेति, पिया लोगंसि बिन॥७॥ अर्थ-(अकुवणवंणवि के० ) कारण के जे समस्त क्रिया रहित होय एवा अण करताने नवा कर्मनो बंध नथी (कम्मनामविजाण के० ) तेवारे अष्ट प्रकारना जे कर्म तेना विपाकनुं निर्जरवो ते सम्यक् जाणे (विनायसेमहावीरे के० ) ते कर्म रूप शत्रुनो विदारण करवा थकी श्रीमहावीरदेव कर्मना बंधने तथाकर्मनी निर्कराने जाणी Page #571 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धनपत सिंघ बाहापुरका जैनागम संग्रह नाग दुसरा. ५४१ प्रमाणे करे (जे जाइए मिसाइ के० ) जे करे थके फरी संसारमा नउपजे ने उपजवाने नावे फरी मरण पण न पामे. ॥ १ ॥ ( एमिक महावीरें के ० ) ए महा सुनट तुल्य श्रीमहावीर संसार चक्रमां मरण पामे नही ( जस्सन विपुरेकडं के ० ) जेने पूर्वना करेला कर्म रह्या नथी तो ते नवाकर्म बांधवानी वांडा नकरे ए कारण जावो जे कारण माटे या संसारमांहे स्त्रीनो संग प्रधानले परंतु तेने स्त्री परानवी नशके. ह टांक (वाजालमच्चेति के० ) जेम वायु अग्नीनी ज्वालामां प्रवेश करीने तेने प्रतिक्रमि जाय परंतु वायु पोते प्रज्वले नही ( पियाजोगं सिवि के ० ) तेम लोकने विषे स्त्री प्रियले ते स्त्री यमि ज्वाला समानबे परंतु वायु सरखा साधुने जीपी नाशके माटे महावीर सुनटने कर्मनो बंध नथी ॥ ८ ॥ ॥ दीपिका - कामपि क्रियामकुर्वतोयोगप्रत्ययानावान्नवं कर्म नास्ति न नवति । एत कुलोपेतश्च नमनं नाम कर्मनिर्जरणं कर्मच जानाति ज्ञात्वाच कर्मबंधं समहावीरः कर्म दारणमस्तत्करोति येन कृतेन न पुनर्जायते जन्मानावाच्च नम्रियते ॥ ७ ॥ महावी रस्त्यक्ताशेषकर्मा न म्रियते जन्ममरणे न प्राप्नोति यस्य नास्ति पुरस्कृतं कर्म वायुर्यथा निज्वाला मत्येति व्यतिक्रामति न तया जीयते एवं लोके प्रियावल्लना स्त्रियोडुरतिक्रमणी यस्ता प्रतिक्रामति न तानिर्जीयते । यक्तं । स्मितेन नावेन मदेन लगया पराङ्मुखै रर्धकटावणैः ॥ वचोनिरीयकलहेन लीलया, समस्तपाशं खलु बंधनं स्त्रियः ॥ १ ॥ स्त्रीणां कृते चातृयुगस्य नेदः संबंधिनेदे स्त्रियएव मूलं ॥ श्रप्राप्तकामाबहवोन रेंज्ञाना री निरुत्सादितराजवंशा इत्यादि ॥ ८ ॥ ॥ टीका - केषां चित्सत्यामपि कर्मदयानंतरं मोदावाप्तौ तथापि स्वतीर्थ निकारदर्शन तः पुनरपि संसारा निगमनं नवतीदमाशंक्याह । ( कुव इत्यादि ) तस्याऽशेष क्रिया रहितस्य योगप्रत्ययानावात्किमप्यकुर्वतोपि नवं प्रत्ययं कर्म ज्ञानावरणीयादिकं नास्ति नवति कारणानावात्कार्यानावइति कृत्वा कर्मनावे च कुतः संसारानिगमनं कर्म कार्यत्वात्संसारस्य तस्य चोपरताशेष द्वं दस्य स्वपरकल्पनानावाड़ाग घेषरहिततया स्व दर्शन निकारानिनिवेशोपि ननवत्येव । सचैत कुणोपेतः कर्माष्टप्रकारमपि कारणतस्तदि पाकतश्च जानाति नमनं नाम कर्मनिर्जर णं तच्च सम्यक् जानाति । यदिवा कर्म जानाति तन्नामास्य चोपलक्षणार्थत्वात्तद्भेदांश्च प्रकृतिस्थित्यनुनाव प्रदेशरूपान्सम्यगवबुध्यते । सं नावनायां वा नामशब्दः । संभाव्यते चास्य भगवतः कर्मपरिज्ञानं विज्ञायच कर्मबंधनं तत्संचरण निर्जरणोपायं चासौ महावीरः कर्मदारास हिस्मुस्तत्करोति येन कृतेनास्मि For Private Personal Use Only Page #572 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४२ वितीये सूत्रकृतांगे प्रथम श्रुतस्कंधे पंचदशमध्ययनं. न्संसारोदरे नपुनर्जायते नपरिविद्यते तदनावाच नम्रियते । यदिवा जात्या नारकोयं तिर्यग्योनिकायमिति । एवं नमीयते न परिविद्यते ऽनेनच कारणानावात्संसाराविर्नाव नेन । यत्कैश्चिमुच्यते । ज्ञानमप्रतिघं यस्य वैराग्यं च जगत्पतेः ॥ ऐश्वर्य चैव धर्मश्च सह सिदं चतुष्टयमित्येतदपि व्युदस्तं नवति । संसारस्वरूपं विज्ञाय तदनावः क्रियते नपुनः सांसिक्षिकः कश्चिदनादिसिदोस्ति तत्प्रतिपादकायायुक्तेरसंनवादिति ॥ ७ ॥किंपुनः कार मसौन जात्यादिना मीयते इत्याशंक्याह । (मिजातीत्यादि ) असौ महावीरः परि त्यक्ताशेषकर्मा न जात्यादिना मीयते परिबिद्यते न म्रियते वा जातिजरामरणरोगशो कैर्वा संसारचक्रवाले पर्यटन न म्रियते न पूर्यते किमिति । यतस्तस्यैव जात्यादिकं नव ति यस्य पुरस्कृतं जन्मशतोपात्तं कर्म विद्यते यस्य तु नगवतोमहावीरस्य निरुवाश्रवा रस्य नास्ति न विद्यते पुरस्कृतं पुरस्कृतकर्मोपादानानावाञ्च न तस्य जातिजरामरणैर्जरणं संनाव्यते । तदाश्रवारनिरोधाश्रयाणां च प्रधानः स्त्रीप्रसंगस्तमधिकृत्याह । वायुर्यथा सततगतिरस्खलिततयाऽग्निज्वाला दहनात्मकामप्येत्यतिकामति परानवति न तया परानूयते । यएवं लोके मनुष्यलोके हावनावप्रधानत्वात्प्रियादयितास्तत्प्रियत्वाच्च उरतिक मणीयावत्येत्यतिक्रामतिनतानि जर्जीयते तत्स्वरूपावगमात्तजयविपाकदर्शनाचेति । तथाचोक्तं । स्मितेन नावेन मदेन लज्जया, पराङ्मुरवैरर्धकटाक्वी हितैः ॥ वचोनिरी किलहेन लीलया, समस्तनावैः खलु बंधनं स्त्रियः ॥ १ ॥ स्त्रीणां कृते नातृयुगस्य ने द, संबंधिनेदे स्त्रियएव मूलं ॥ अप्राप्तकामाबहवोनरेंडा, नारीनिरुत्सादितराजवंशाः॥ इत्येवं तत्स्वरूपं परिझाय तज्जयं विधत्ते नैतानिर्जीयतइति स्थितं । अथ किंपुनः कारणं स्त्रीप्रसंगाश्रवारेण शेषावक्षारोपलदणं क्रियते नप्राणातिपातादिनेति। अत्रो च्यते । केषांचिदर्श निनामंगनोपनोगथाश्रव क्षारमेव नवति । तथाचोचुः । न मांसनद णे दोषो, न मद्ये न च मैथुने ॥ प्रवृत्तिरेषा नूतानां, निवृत्तिस्तु महाफला इत्यादि त न्मतव्युदासार्थमेवमुपन्यस्तमिति । यदिवा मध्यमतीर्थकतांचतुर्यामएव धर्मश्हतु पंच यामोधर्मश्त्यस्यार्थस्याविर्भावनायानेनोपलदणमकारि । अथवा पराणि व्रतानि साप वादानीदंतु निरपवाद मित्यस्यार्थस्या विर्भावनाय प्रकटनायैवमकारि । अथवा सर्वाण्य पि व्रतानि तुल्यानि एकखंडेन सर्व विराधनमिति कृत्वा येन केनचिनिर्देशोन दोषायेति॥ बिन जे ण सेवंति, आश्मोरका दुते जणा॥ ते जणा बंधणुम्मुक्का, नावकंखंति जीवियं ॥ ए॥ जीवितं पिघ्नकिच्चा, अंतं पावंति कम्मुणं॥ कम्मुणा संमुदीनूता, जे मग्गमणुसासई॥१०॥ अर्थ-(इबिउजेणसेवंति के०) जे पुरुषो स्त्रीने नथी सेवता (वाश्मोरकाहुतेजणा Page #573 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राय धनपतसिंघ बाहाउरका जैनागम संग्रह नाग उसरा. ५४३ के ) ते पुरुषोने आदि एटले प्रथम मोदगामी जाणवा ( तेजणाबंधषुम्मुक्का के० ) तेपुरुषो स्त्रीना बंधन थकी मूकाणा थका (नावकंखं तिजीवियंके०) जीवित श ब्दे बीजो असंयमपणोकांऽ पण वांडे नही कारणके परिग्रहादिकनुं मूल कारण सर्व स्त्रीज ॥ ए ॥ ( जिवितंपिकिच्चाके ) ते पुरुष असंयमने निषेधिने (अंतंपावं तिकम्मुके०) सर्व कर्मनो अंत करे (कम्मुगासंमुहीनताके० ) ते रुडा अनुष्ठाने करी मोदने सन्मुख थका ( जेमग्गमणुसासईके ) जे श्रीवीतराग प्रणीत मार्ग तेमार्गने लोकोना हितने अर्थे प्रकाशे अने पोते पण तेहिज समाचरे ॥ १० ॥ ॥ दीपिका-ये नराः स्त्रियोनासेवंते स्त्रीप्रसंगं त्यजति ते जनाधादिः प्रधानोमोदो येषां ते आदिमोदाः प्रधाननूतमोदपुरुषार्थसाधकाः स्युः। तथा ते जनाः कर्मबंधनो न्मुक्ताजीवितं नावकादंति ॥ ए ॥ जीवितमसंयमजीवितं पृष्ठतः कृत्वा निराकृत्य कर्म णामंतं प्राप्नुवंति मोमप्राप्तायपि कर्मणा विशिष्टानुष्ठानेन मोक्षस्य सन्मुखीनूताये मार्गम नुशासंति अन्येन्योवदंति स्वयंच कुर्वति ॥ १० ॥ ॥ टीका-अधुना स्त्रीप्रसंगाश्रवनिरोधफलमावि वयन्नाह । (इनिइत्यादि ) येम हासत्वाः कटुविपाकोयं स्त्रीप्रसंगश्त्येवमवधारणतया स्त्रियः सुगतिमार्गार्गलाः संसारवी थीनूताः सर्वा विनयराजधान्यः कपटजालशताकुलामहामोहनशक्तयोन सेवंते नतत्प्रसंग मनिलति । तएवंनूताजनाइतरजगातीताः साधवषादौ प्रथमं मोदोऽशेष कोपरमरू पोयेषांते यादिमोक्षाः । दुरवधारणे । आदिमोक्षाएव तेऽवंगतव्याः । इदमुक्तं नवति । सर्वाऽविनयास्पदनूतः स्त्रीप्रसंगोयैः परित्यक्तस्तएवादिमोदाः प्रधाननूतमोदाख्य पुरुषा ोद्यताः। श्रादिशब्दस्य प्रधानवा चित्वान्न केवलमुद्यतास्तेजनाः स्त्रीपाशबंधनोन्मुक्त तयाऽशेषकर्मबंधनोन्मुक्ताः संतोनावकांदंति नानिलषंति असंयमजीवितमपरमपि परि ग्रहादिकं नानिलषंते । यदिवा परित्यक्तविषयेबाः सदनुष्ठानपरायणामोदेकतानाजीवितं दीर्घकालजीवितं नानिकांदंतीति ॥ए॥ किंचान्यतु । (जीवियमित्यादि) जीवितमसंयमजी वितं पृष्ठतः कृत्वाऽनादृत्य प्राणधारणलणं वा जीवितमनाहत्य सदनुष्ठानपरायणाः कर्म पां ज्ञानावरणादीनामंतं पर्यवसानं प्राप्नुवंति । अथवा कर्मणा सदनुष्ठानेन जीवितनिरपे काः संसारोदन्वतोऽतं सर्वोपरमरूपं मोझारख्यमाप्नुवंति । सर्वःख विमोदलक्षणं मोदमप्राप्तायपि कर्मणा विशिष्टानुष्ठानेन मोदस्य संमुखीनूताघातिचतुष्टय क्रियया उत्प नदिव्यज्ञानाः शाश्वतपदस्यानिमुखीनूताः। कएवंनूता इत्याह । ये विपच्यमानतीर्थक नामकर्माणः समासादितदिव्यज्ञानामोदं मोदमार्ग ज्ञानदर्शनचारित्ररूपमनुशासंति स त्वहिताय प्राणिनां प्रतिपादयंति स्वतश्चानुतिष्ठंतीति ॥ १० ॥ Page #574 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५५४ वितीये सूत्रकृतांगे प्रथम श्रुतस्कंधे पंचदशमध्ययनं. अणुसासणं पुढो पाणी, वसुमं पूयणासुते॥ अणासए जते दं ते, दढे आरयमेहुणे ॥११॥णीवारे व ण लीएका, जिन्नसोए अगाविले ॥ अणाइले सया दंते, संधि पत्ते अणेलिसं ॥१॥ अर्थ-(अणुसासणं पुढोपाणी के ) जेनो अनुशासन एटले उपदेश दान ते सर्व प्राणिने विषे पृथक् पृथक् जुदो जुदो परणमे कोनी पेरे तोके पृथ्वीने विषे जेम उदक जुदो जुदो परणमे तेनी पेरे जेनो उपदेश परणमे तथा (पूयणासु के ) पूजानेविर्षे (वसुमं के० ) व्यवंत एनो नावार्थ कहेले जे देवतादिक समवसरणादिक पूजा करे ने त्यां त्यां तेने इव्य थकी नोगले परंतु ते नाव थकी लोग नथी तेकारण माटे संय मवंत (ते के० ) तेहिज जाणवा ए वचन श्रीतीर्थकर देव धाश्री कह्याने वली (अ पासएजतेदंते के०) थाश्रव रहित जयणावंत तथा इंडियनो दमन करनार (दढे थारयमेदुणे क) संयमने विषे दृढ थने मैथुन यकी विरत एटले विषय रहित ॥ ११ ॥ (णीवारेवणालीएका के०) मैथुनने नीवार समान जाणे जेम सूकरादिकने खावानी वस्तु थापी लोनावीने मारी नाखीये अथवा दुःख थापीये तेम मैथुनने एवो जाणीने स्त्रीनो संग नकरे ते केवो पुरुष जाणवो तोके (जिन्नसोए अगाविले के० ) स्रोत एटले जे संसार तेमां अवतरवाना वारजे विषय कषायादिक ते जेणे द्याने वली राग देष थकी रहित तथा (अणाश्लेसयादंते के० ) अनाकुल एटले अदोन सदा दांत गुणवान एवोबतो (संधिपत्ते अणेलिसं के० ) कर्म विवर लक्षणनी सिदि पामे एवी बीजी वस्तु कोइ जगतमां नथी तेमाटे ए सिधिने कोइ उपमा नथी ॥१॥ ॥ दीपिका-अनुशासनं देशनाकरणं पृथक् पृथक् नव्यानव्यप्राणिषु सर्वज्ञः करोति । . नव्येषु देशना न सम्यक परिणमति तथापि न सर्वज्ञस्य दोषः । तमुक्तं । सधर्मबीजव पनानघकौशलस्य सहनोकबांधव तवापि खिलान्यनूवन् ॥ तत्राभुतं खगकुलेष्विहतामसे षु, सूर्याशवोमधुकरीचरणावदाताइति । किंजूतः सर्वझोवसुमान चारित्री । पुनः किंनतः पूजनं देवादिकताशोकादिकमास्वादयति उपचुंक्ते पूजनास्वादकः। ननु देवादिकतस्या धाकर्मणः समवसरणादेरुपनोगात्कथमसौ चारित्रीत्याशंक्याह । (अणासएत्ति)न विद्यते थाशयः पूजानिप्रायोयस्य स अनाशयः इष्यतः समवसरणादिके विद्यमानेपि नावतोसी नास्वादकोगार्थ्यानावात् । यस्मादसौ यतोयत्नवान दांतः संवृतेंडियः दृढः संयमे भारतमपगतं मैथुनं यस्य सतथा गतकामानिलाषः ॥ ११ ॥नीवारः पशूनां व ध्यस्थानप्रापणीयनूतोजदय विशेषस्तत्तुल्यं मैथुनं ततोनीवारे मैथुनं न लीयेत न प्रस Page #575 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राय धनपतसिंघ बादाडुरका जैनागम संग्रह नाग इसरा. युव ज्येत । किंनूतः विन्नानि स्रोतांसि श्राश्रवद्वाराणि येन सन्निस्रोताः । अनाविलोक लुषः । एवंभूतोऽनाविनः सन् सदा दांतः स्यात् । एवंविधश्व कर्मविवररूपं नावसंधिम नीदृशमनन्यसदृशं प्राप्तः स्यात् ॥ १२ ॥ ॥ टीका- अनुशासनप्रकारमधिकृत्याह । (अणुशासण मित्यादि) अनुशास्ते सन्मार्गे Sवतायै सदसद्विवेकतः प्राणिनोयेन तदनुशासनं धर्मदेशनया सन्मार्गावतारणं तत्पृथ क् पृथक् नष्यादिषु प्राणिषु दित्युदकवत्स्वाशयवशादनेकधा नवति । यद्यपि च अनव्ये तदनुशासनं न सम्यक् परिणमति तथापि सर्वोपायस्यापि नसर्वज्ञस्य दोषः । तेषामेव स्वनावपरिणतिरियं यया तदाक्यममृतनूतमेकांतपथ्यं समस्त द्वं घोषघातकारि न य थावत् परिणमति । तथा चोक्तं । सद्धर्मबीजवपनानघकौशलस्य, यलोकबांधवतयाप्य खिलान्यनूवन् । तन्नाद्भुतं खगकुजेष्विह तामसेषु, सूर्याशवोमधुकरीचरणावदाताः ॥ १ ॥ किंनू तो सावनुशासक इत्याह । वसु इव्यं सच मोक्षंप्रति प्रवृत्तस्य संयमस्त विद्यते यस्यासौ वसुमान् पूजनं देवादिकतमशोका दिकमास्वादयत्युंपनु॑क्तइति पूजनास्वादकः । ननु चाधा कर्मणोदेवादिकृतस्य समवसरणादेरुपनोगात्कथमसौ सत्संयमवानित्याशंक्याह । न वि द्यते श्राशयः पूजानिप्रायोयस्यासावनाशयः । व्यतोविद्यमानेपि समवसरणादिके नाव तो स्वादकोसौ ततगार्थ्यानावात् सत्यप्युपनोगे । यतः सत्संयमवानेवासावेकांते सं यमपरायणत्वात्कुतोय इंडियनोइंडियाच्यां दांतः । एतकुखोपि कथमित्याह । दृढः संयमे । खारतमुपरतम पगतं मैथुनं यस्यसयारतमैथुनोऽपगते वामदनकामः । इवामद कामानावाच्च संयमे दृढोसौ नवति व्यायतचारित्रत्वाच्च दांतोसौ नवति । इंडियनोइंडि यद्माच्च प्रयतः प्रयत्नवत्त्वाच्च देवादिपूजनास्वादकस्तदनास्वादनाच्च सत्यपि इव्यतः परि जोगे सत्संयमवाने वासाविति ॥ ११॥ अथ किमित्य सावुपरत मै थुनइत्याशंक्याह । (लीवारे इत्यादि) नीवारं सूकरादीनां पशूनां वध्यस्थानप्रवेशननू तोन दय विशेषस्तत्कल्प मेतन्मैथु नं । यथाहि सौ पशुर्नीवारेण प्रलोच्य वध्यस्थानमतिनीयमानोनानाप्रकारावेदनाः प्राप्यते एवमसावप्यसुमान् नीवारकल्पेनानेन स्त्रीप्रसंगेन वशीकृतोबहुप्रकारायातनाः प्राप्नोत्यतोनी वारप्रायमेतन्मैथुनमवगम्य न तस्मिन् ज्ञाततत्त्वोलीयेत न स्त्रीप्रसंगं कु र्यात् । किंनूतः सन्नित्याह । विन्नान्यपनीतानि स्रोतांसि संसारावतरण द्वाराणि यथावि षय मिंडयवर्तनानि प्राणातिपातादीनि वा यानवद्वाराणि येन सन्निस्त्रोताः । यथाऽ नाविलोकलुषोरागदेषासंष्टक्कतया मलरहितोनाकुलोवा विषयाप्रवृत्तेः स्वच्छचेता एवंनूत श्वानाकुलोवा सदा सर्वकाल मिंडियनोइंडियाच्यां दांतोजवति ईदृग्विधश्व कर्म विवरलक पं नाव संधिमनीदृशमनन्यतुल्यं प्राप्तोभवतीति ॥ १२ ॥ ६९ For Private Personal Use Only Page #576 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४६ वितीये सूत्रकृतांगे प्रथम श्रुतस्कंधे पंचदशमध्ययनं. अणे लिसस्स खेयन्ने, ण विरुझिक केण ॥ मणसा वयसा चेव, कायसा चेव चरकुमं ॥ २३ ॥ से दु चरकू मणुस्साणं, जे कंखाए य अंतए ॥अंतेण खुरो वदती, चकं अंतेण लोहती॥१४॥ थर्थ-(अणेलिसस्सखेयन्नेके ० ) अणेलिस एटले संयम तेने विषे जे खेदज्ञ एट ले निपुण होय ते ( णविरुसिङकेणके०) कोजीवनी साथे विरोध नकरे सर्वजोवो नी साथे मैत्री नाव आणे (मणसावयसाचेवके० ) मन वचन पुनः । (कायसाचेव चरकुमंके० ) कायाए करी त्रिकरण मुझे जे एम करे तेनेज परमार्थ थकी चहुवंत निर्मल दृष्टीवालो जाणवो ॥ १३ ॥ ( सेदुचस्कूमणुस्साणंके० ) दुइति निचे तेहिज पुरुष संयमी मनुष्योनी चक्कु जेवो जाणवो (जेवाएयअंतएके०) जे पुरुष कांदा एटले विषय तृष्णानो अंतकरे ते संसार अने कर्मनो अंतकारी जाणवो तेनाउपर दृष्टांत कहे ( अंतेणखुरोवहतीके० ) हेडे जेम तुरी कोइ पदार्थ बेदवाने अर्थे अत्यंत तीक्ष्ण धारायें वहे धारने अंते बेदन क्रियामां समर्थ होय ( चकंअंतेण लोहतीके०) जेम गा डानोपश्डो पण अंते प्रवः तेम मोहादिकने अंते मुक्तिरूप कार्य सि६ थाय ॥ १४ ॥ ॥ दीपिका-अनीदृशः संयमस्तस्य खेदझोनिपुणः केनचित्साई नविरोधं कुर्वीत म नोवचःकायैः सएव परमार्थतश्चकुष्मान् नवति ॥१३॥ सएव संयमी मनुष्याणां चतु जूतोयः कांदायाजोगेबायाअंतकोतवः । यथा हुरोनापितोपकरणमंतेन वहति च कं रथांगमंतेनैव मार्गे वर्तते तथा साधुरपि विषयाद्यतवर्ती मोदसाधकः॥ १४ ॥ ॥ टीका-किंच । (अणेलिसस्सेत्यादि ) अनीहशोऽनन्यसदृशः संयमोमौनीधर्मों वा तस्य तस्मिन् वा खेदझोनिपुणोऽनीहशखेदज्ञश्च केनचित्सार्धं न विरोधं कुर्वीत सर्वे षु प्राणिषु मैत्री नावयेदित्यर्थः । योगत्रिककरणत्रिकेणेति दर्शयति । मनसांऽतःकरणेन प्रशांतमनास्तथावाचोहितमितनाषी तथा कायेन निरुबोकुष्प्रणिहितसर्वकायचेष्टोदृष्टि पूतपादचारी परमार्थतश्चकुष्मान् नवतीति ॥ १३ ॥ अपिच । ( सेहचस्कूइत्यादि) दुरवधारणे । सएव प्राप्तकर्मविवरोऽनीहशस्य खेदझोनव्यमनुष्याणां सदसत्पदार्थावि विनान्नेत्रनूतोवर्तते । किंनूतोसौ यः कांदायानोगेबायाअंतको विषयतृभायाः पर्यंतव ी। किमंतवर्तीति विवदितमर्थ साधयत्येवेत्यमुमर्थ दृष्टांतेन साधयन्नाह । अंतेन पर्यतेन कुरोनापितोपकरणं तदंतेन वहति तथा चक्रमपि रथांगमंतेनैव मार्गे प्रवर्तते । इदमुक्तंनवति । यथा कुरादीनां पर्यंतएवार्थकार्येवं विषयकषायात्मकोमोहनीयांतएवा पसदसंसारदयकारीति ॥ १४ ॥ Page #577 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राय धनपतसिंघ बाहाउरका जैनागम संग्रह नाग इसरा. ५४७ अंताणि धीरा सेवंति, तेण अंतकरा इद ॥ इद माणुसए गणे, धम्ममारादिकं परा ॥ १५॥ णिज्यिा व देवावा, उत्तराए मं सुयं ॥ सुत्तं च मेयमेगेसिं, अमणुस्सेसु णे तदा ॥१६॥ अर्थ- (अंताणिधीरासेवंतिके ) तेम धीर पुरुष पण अंत सेवे एटले विषयनो अंत करे तथा अंत प्रांत याहार सेवे ( तेणअंतकराइहके ) ते कारणे या संसारने विषे अंतना करनार जाणवा (इहमापुसएगाणेके० ) यामनुष्य लोक रूप स्थानकने पाम्या थका (धम्ममाराहिनाराके०) एवा मनुष्य धर्मजे सम्यक् ज्ञान दर्शन चारित्ररूप तेने पाराधीने मुक्ति गामी थाय ॥१५॥ (णिहियावदेवावाके) एवा संयमना पालनार पुरुषो निष्ठितार्थ एटले सिधिने पामे अथवा प्रचुर कर्मने सनावे देवत्व पणाने विषे सौधर्मादिक विमाने उपजे ( उत्तराएश्मंसुयंके ) ए वचन उत्तरा एटले लोकोत्त र प्रवचने में सांजव्यंले एरीते श्रीसुधर्मा स्वामी श्रीजंबूस्वामि प्रत्ये कहे. (सुत्तंचमेय मेगेसिंके० ) में श्रीतीर्थकरादिक समीपे सांनव्युंजे जे ( अमणुस्सेसुणेतहाके) ए मोदनी प्राप्ति ते मनुष्यनी गति टालीने अन्यत्र नथी ते कारण माटे मनुष्य पणे संय म पालवाने विषे प्रमाद नकरवो ॥ १६ ॥ ॥ दीपिका-अंतान अंतप्रांताहारान् सेवंते वीरास्तेन संसारस्यांतकरास्ते इहार्यदे त्रे स्युः। यतइह मनुष्यलोके स्थाने नराधर्ममाराध्य निष्ठितार्थाः स्युः ॥ १५ ॥ केचि निष्ठितार्थाः कृतकृत्याः स्युः केचिद्देवाः। एतन्नोकोत्तरीये प्रवचने श्रुतं मयेति सुधर्मस्वा मी जंवूस्वामिनमाह । एतच्च मया तीर्थकरांते श्रुतं । गणधरः स्वशिष्याणामेकेषामिद माह। अमनुष्येषु मनुष्यवर्जितेषु नतथा नमोझावाप्तिः स्यादित्यर्थः ॥ १६ ॥ ॥ टीका-यमुमेवार्थमावि वयन्नाह । (अंताणीत्यादि ) अंतान् पर्वतान् विषय कषायतृभायास्तत्परिकर्मणार्थमुद्यानादीनामाहारस्य वांतप्रांतादीनि धीरामहासत्वा विष यसुखनिस्टहाः सेवंते ऽन्यस्यति तेन चांतप्रांतान्यसनेनांतकराः संसारस्य तत्कारणस्य वा कर्मणः क्यकारिणोनवंति । इहेति मनुष्यलोके आर्य क्षेत्रे न केवलं तएव तीर्थकराद योऽन्येऽपीह मानुष्यलोके स्थाने प्राप्ताः सम्यग्दर्शननावानचारित्रात्मकं धर्ममाराध्य न रामनुष्याः कर्मनूमिगनव्युत्क्रांतिजसंख्येयवर्षायुषः संतः सदनुष्ठानसामग्रीमवाप्य नि ष्ठितार्थाउपरतसर्वज्ञानवंति ॥ १५ ॥ इदमेवाह । ( णिज्यिहाश्त्यादि ) निष्ठितार्थाः कृतकृत्यानवंति केचन प्रचुरकर्मतया सत्यामपि सम्यक्त्वादिकायां सामय्यां न तन्नवएव मोदमास्कंदंति । अपितु सौधर्माद्याः पंचोत्तर विमानावसानादेवानवंतीति । एतल्लोको Page #578 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४७ वितिये सूत्रकृतांगे प्रथम श्रुतस्कंधे पंचदशमध्ययनं. तरीये प्रवचने श्रुतमागमे । एवंनूतः सुधर्मस्वामी वा जंवूस्वामिनमुद्दिश्यैवाह । यथा मयैतनोकोत्तरीये जगवत्यर्हत्युपलब्धं तद्यथा अवाप्तसम्यक्त्वादिसामग्रीकः सिध्यति वै मानिकोवा नवतीति । मनुष्यगतावेवैतन्नान्यत्रेति दर्शयितुमाह ॥सुर्यमेश्त्यादि पश्चाई। तच्च मया तीर्थकरांतिके श्रुतमवगतं । गणधरः स्व शिष्याणामेकेषामिदमाह। यथा म नुष्यएवाशेषकर्मक्ष्यात्सिगितिनाग्नवति नामनुष्यति । एतेन यवाक्यैरनिहितं । त यथादेवएवाशेषकर्मप्रहाणं कृत्वा मोदनाग्नवति तदपास्तं नवति । नह्यमनुष्येषु ग तित्रयवर्तिषु सच्चारित्रपरिणामानावाद्यथा मनुष्याणां तथामोदावाप्तिरिति ॥ १६ ॥ अंतं करंति उकाणं, हमेगेसि आदियं ॥ अघायं पुण ए गेसिं, उल्लने यं समुस्सए ॥१७॥ विधेसमाणस्स, पुणो संबोदि उल्लना ॥ उलहान तहचान, जे धम्म वियागरे ॥१७॥ अर्थ-(अंतकरंतिपुरकाणं के० ) मनुष्य सर्व सुःखनो अंत करे पण मनुष्यनी जा ति विना अन्य जातीने मुक्ति नथी (इहमेगेसियाहियंके० ) एम कोइएके कह्यो त था गराधरादिके एम कडोके (याघायंपुणएगेसिंके० ) ए मनुष्य संबंधी देह पाम वो एक एक बहुल कर्मिजीवोने अत्यंत (उननेयंसमुस्सएके० ) उर्लनने वली वली मनुष्य जन्म पामवो उर्लन चुलग पासके इत्यादिक दृष्टांते उर्तन ॥ १७ ॥ (इनवि ६समाणस्सके०) ए मनुष्य देह थकी विध्वंस एटलें भ्रष्ट थयलाने एटले जे मनुष्य जन्म हास्या एवाने ( पुगोसंबोहिननाके० ) अन्यगतीने विषे बोधी एटले सम्यक्त्व ला न पामवो उर्जन (तहचाउके०) तथार्चा एटले लेश्या चित्तना परिणाम अथवा थर्चा एटले मनुष्यनुं शरीर ते ( उनहाउके) ःप्राप्य ( जेधम्मवियागरेके० ) वली धर्म नो अर्थजे वियागरे एटले शुधो प्रकाशे एवो शरीर धारी मनुष्य पणुंपण उर्लन ॥१॥ ॥ दीपिका-इह एकेषां वादिनामारव्यातं यत् देवाएवांतकरामोगामिनः स्युरिति न तथा इहाईते प्रवचने । इदमन्यत् पुनरेकेषां गणधरादीनामाख्यातं यदयं मानुष्यः श रीरसमुबयोञ्जनः । यतः । ननु पुनरिदमतिउर्जन, मगाधसंसारजलधिविन्रष्टं ॥ मा नुष्यं खद्योतक,तडिल्लताविलसितप्रतिममित्यादि ॥ १७ ॥ श्तोमनुष्यनवाविध्वंसमान स्य जीवस्य पुनः संबोधिधर्मप्राप्ति:लना तथानूता सम्यक्त्वप्राप्तियोग्याऽर्चा लेश्या 3 लना। जंतूनां ये धर्मरूपमर्थ व्याकुर्वति ये धर्मप्रतिपत्तियोग्याइत्यर्थः। तेषां तथानू तार्चा उर्लना स्यात् ॥१७॥ Page #579 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रायधनपतसिंघ बादाउरका जैनागम संग्रह नाग उसरा. ५४ए ॥ टीका-इदमेव स्वनामयाहमाह । (अंतकरेंतीत्यादि ) नामनुष्याअशेषःखानामं तं कुवैति तथाविधसामन्यानावाद्यथैकेषां वादिनामाख्यातं । तद्यथा । देवाएवोत्तरोत्त रं स्थानमास्कंदंतोऽशेषक्लेशप्रहाणं कुर्वति न तहाईते प्रवचने इति । इदमन्यत् पुन रेकेषां गणधरादीनां स्व शिष्याणां वा गणधरादिनिराख्यातं । तद्यथा । युगसमिलादिन्या यावाप्तः कथंचित्कर्मविवरात् योयं शरीरसमुनयः सोसतधर्मोपायैरप्यसुमनिमहासमुह प्रचष्टरत्नवत्पुनर्जनोनवति । तथाचोक्तं । नुनु पुनरिदमतिउतन,मगाधसंसारजलधिवित्र टं ॥ मानुष्यं खद्योतक,तडिन्नताविलसितप्रतिममित्यादि ॥१॥ अपिच (इनविसेइत्या दि) इतोऽमुष्मात् मानुष्यनवात्सर्मतोवा विध्वंसनस्यारुतपुण्यस्य पुनरस्मिन् संसारे पर्यटतोबोधिः सम्यक्दर्शनावाप्तिः सुउर्लनोत्कृष्टतः अपार्धपुजलपरावर्तकालेन यतोनवति तथा उर्सना उरापा तथासूता सम्यकदर्शनप्राप्तियोग्यर्चा लेश्यांतःपरिणतिरकतधर्माणा मिति । यदि वाऽर्चा मनुष्यशरीरं तदप्यकतधर्मबीजानामार्यक्षेत्रसुकुलोत्पत्तिसकलेंख्यि सामय्यादिरूपं उसनं नवति । जंतूनां धर्मरूपमर्थ व्याकुर्वति ये धर्मप्रतिपत्तियोग्याश्त्य र्थः। तेषां तथाभूतार्चा सुर्खना नवतीति ॥ १७ ॥ जे धम्मं सुधमकंति. पडिपुन्नमणेलिसं ॥ अणेलिसस्स जं गणं, तस्स जम्मकदा कन॥२॥ क कयाइ मेधावी, गप्प ऊंति तहागया॥तदागया अप्पडिन्ना, चस्कू लोगस्सणुत्तरा ॥३॥ थर्थ-( जेधम्मसुखमरकंतिके ) जे श्रीवीतरागादिक महापुरुषो गुरु निर्मल ध में कहे अने पोते पण तेजरीते समाचरे (पडिपुन्नके० ) प्रतिपूर्ण (अणेलिसंके० ) अनीश एटले सम्यक् चारित्रि (अणेलिसस्सजंगाणंके० ) जेनो ज्ञान दर्शन अने चारित्ररूप मोद स्थानकडे परंतु बीजो स्थानक नथी ( तस्सजम्मकहाकठके० ) ते ने जन्मकथा क्याथी होय एटले कर्मने ये जन्म मरणनो अनाव होय ॥ १॥ (कउँकयाइमेधावीके० ) कदाचित् मेधावी एटले सम्यक् ज्ञानवंत क्याथकी थावीने (उप्पज्जतिके०) उपजे खरा परंतु ते केवा होय तोके ( तहागयाके० ) तेमज कर्म खपावीने गया ( तहागयाथप्प डिन्नाके) जे कर्मखपावीने गया जेने निदान प्र तिज्ञा नही ते अप्रतिज्ञ निराशंस एवा होय तेने संसार माहे नत्पत्ति अने मरण नथी जे कारणे तथागत श्रीतीर्थकरादिक निदान रहित निराशंस (चस्कूलोगस्सणुत्तराके) तथा लोकने अनुत्तर सर्वोत्तम प्रधान ज्ञानथकी चहुनूत जाणवा ॥ २० ॥ ॥ दीपिका-ये सर्वज्ञाः शुद्ध धर्ममाख्याति परिपूर्णमनन्यसदृशं । तदेवमनन्यसदृश Page #580 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५५० वितीये सूत्रकृतांगे प्रथम श्रुतस्कंधे पंचदशमध्ययनं. स्याज्ञानक्रियोपेतस्य यत् स्थानं तत्प्राप्तस्य जन्मकथा कुतः । तस्य जन्ममरणे न नव तइत्यर्थः ॥ १५ ॥ मेधाविनोझानिनस्तथा नवज्रमणेन गतास्तथागताः कुतः कदाचि उत्पद्यते नवेनोत्पद्यंतएवेत्यर्थः । तथागताअर्हणधरादयोऽप्रतिझायनिदानाअनुत्तराः सर्वज्ञत्वात्ते लोकस्य चढुनूताः स्युः ॥ २० ॥ ॥ टीका-किंचान्यत् ( जेधम्ममित्यादि ) ये महापुरुषावीतरागाः करतलामलकवत्स कलजगद्दष्टारस्तएवंनूताः परहितैकरताः गेमवदातं सर्वोपाधिविगु धर्ममारख्याति प्र तिपादयंति स्वतः समाचरंति च प्रतिपूर्णमायतचारित्रसन्नावात्संपूर्ण यथारख्यातचारित्र रूपं वाऽनीदृशमनन्यसदृशं धर्ममारख्यात्युपतिष्ठति । तदेवमनीदृशस्यानन्यसहशस्य झा नचारित्रोपेतस्य यत् स्थानं सर्वोपरमरूपं तदवाप्तस्य कुतोजन्मकथा जातोमृतोवे त्येवंरूपा कथा स्वप्नांतरेपि तस्य कर्मबीजानावात् कुतोविद्यतइति । तथोक्तं । दग्धे बीजे यथाऽत्यंतं, प्राउनवति नांकुरः ॥ कर्मबीजे तथा दग्धे, न रोहति नवांकुरश्त्यादि ॥ १५ ॥ किंचान्यत् । (ककयाइत्यादि) कर्मबीजानावात्कुतः कस्मात्कदाचिदपि मेधा विनोज्ञानात्मकास्तथा पुनरावृत्त्याऽगतास्तथागताः पुनरस्मिन् संसारेऽशुचिग धाने स मुत्पद्यते न कथंचित्कदाचित्कर्मोपादानानावाउत्पयंतश्त्यर्थः । तथा तथागतास्तीर्थक गधरादयोन विद्यते प्रतिज्ञा निदानबंधनरूपा येषां तेऽप्रतिज्ञानिदानानिराशंसाः सत्वहि तकरणोद्यताअनुत्तरझानत्वादनुत्तरालोकस्य जंतुगणस्य सदसदर्थ निरूपणकारणतश्च दुनू ताहिताहितप्राप्तिपरिहारं कुर्वतः सकललोकलोचननूतास्तथागताः सर्वज्ञानवंतीति॥२०॥ अणुत्तरे य गणे से, कासवेण पवेदिते। किच्चा णिबुमा एगे, निई पावंति पंमिया ॥ २१॥ पंमिए वीरियं ल, निग्घायाय पवत्तगं॥धुणे पुवकडं कम्म, एवं वा वि कुवती ॥२२॥ अर्थ-(अणुत्तरेयवाणेसेके० ) अनुत्तर एटले प्रधान संयमरूप स्थानक ते (कास वेणपवेदितेके ) काश्यप श्रीमहावीर देवे कह्यो (जंकिच्चाके) जे संयम स्थानक पा लीने (णिबुमाएगेके० ) एक महापुरुष उपशांत कषायवंत एवा बता (निपावंतिपंमिया के०) पंमित विवेकना जाण संसारनो अंत पामे ॥ १ ॥ (पंमिएवीरियंलडंके०) पंमित एटले सदसदविवेकना जाण ते संयमनो वीर्य बल पामीने निःशेष समस्त कर्मनो (निग्घायायके ) निर्घातन करवाने अर्थे ( पवत्तगंके० ) प्रवर्तक ए पंमित वी र्य घणा नवे पामवो उर्जन तेने पामीने (धुणेपुवकडंकम्मंके०) पूर्वकृत कर्मने धुणे एटले खपावे ( एवंवा विणकुवतीके ० ) को नवा कर्मने नकरे ॥ २५ ॥ Page #581 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राय धनपतासंघ बादाउरका जैनागम संग्रह नाग उसरा. ५५१ ॥ दीपिका-अनुत्तरं स्थानं संयमरूपं काश्यपेन श्रीवीरेण प्रवेदितं कथितं यत्संयम स्थानं कृत्वाऽनुपाल्यैके निस्तामोदं गतानिष्ठां नवपर्यतं प्राप्नुवंति पंडिताः ॥ २१ ॥ पं डितः संयमवीर्य लब्ध्वा पूर्वकतं कर्म धुनीयादपनयेत् । वीर्य किंनूतं निर्घाताय निर्ज रणाय प्रवर्तकं । नवं च कर्म न कुर्यात् ॥ २२ ॥ ॥ टीका-किंचान्यत् (अणुत्तरेयइत्यादि) न विद्यते उत्तरं प्रधानं यस्मादनुत्तरं तच्च त संयमाख्यं काश्यपेन काश्यपगोत्रेण श्रीमन्महावीरवर्धमानस्वामिना प्रवेदितमाख्यातं । तदस्य चानुत्तरत्वमाविनीवयन्नाह । यदनुत्तरं संयमस्थानं एके महासत्वाः सदनुष्ठायि नः कृत्वाऽनुपाल्य निर्वृतानिर्वाणमनुप्राप्ताः। निर्वताश्च संतः संसारचक्रवालस्य निष्ठां प र्यवसानं पंडिताः पापाड्डीनाः प्राप्नुवंति । तदेवं नूतं संयमस्थानं काश्यपेन प्रवेदितं स दनुष्ठायिनः संतः सिदिं प्राप्नुवंतीति तात्पर्यार्थः ॥२१॥ अपिच (पंडिएइत्यादि) पंडितः सदसदिवेकझोवीर्य कर्मोदलनसमर्थ सत्संयमवीर्य तपोवीर्यवा लब्ध्वाऽवाप्य । तदेव वी थै विशिनष्टि । निःशेषकर्मणोनिर्घातायनिर्जरणाय प्रवर्तकं पंडितवीर्य तच्च बदुनवशत लनं कथंचित्कर्मविवरादवाप्य धुनीयादपनयेत् । पूर्वनवेष्वनेकेषु यत्कृतमुपानं कर्माष्टप्र कारं तत्पंडितवीर्येण धुनीयात् नवं चानिनवं चाश्रवनिरोधान्नकरोत्यसाविति ॥ २२ ॥ ण कुवती महावीरे, अणुपुवकडं रयं॥रयसा संमुदीनूता, कम्म देवाण जं मयं ॥२३॥ जं मयं सवसाढूणं, तं मयं सल्लगत्तणं।। साहश्त्ताण तं तिन्ना, देवावा अन्नविंसु ते॥२४ ॥ अनावंसु पुरा धीरा, आगमिस्सावि सुवता ॥ उन्निबोहस्स मग्गस्स, अं तं पानकरातिन्नेतिबेमि ॥३५॥ इतिपनरसमंजमश्यनामयणं सम्मत्त। अर्थ-( णकुचतीमहावीरेके०) श्रीमहावीर उत्तम साधु ते नकरें गुं नकरे तोके (अणुपुत्वकडंरयंके०) आनुपूर्वी मिथ्यात्व अविरति प्रमाद अनुक्रमे की, जे पापरूप रज ते नकरे (रयसासंमुहीनूताके०) पापरूप रजेकरी संमुहीनूत एटले एकता कीधा जे अष्टप्रकारना कर्म (कम्मंहेच्चाजमयंके०) ते कर्मने हित्वा एटले हणीने सत्य सं यम पालीने मोदने संमुख थाय ॥ २३ ॥ (जमयंसवसाहूके) जे संयम रूप स्था नक ते सर्व साधु चारित्रियानो मनो वांडित स्थानक जाणवो (मर्यसलगत्तर्णके) वलीते संयमानुष्ठान केहेवो तोके शल्यकर्तन एटले शल्यनो बेदनार (साहस्ताणतंति नाके०) एवा संयमने सम्यकू प्रकारे धाराधीने घणा प्राणी सर्वथा कर्मने अनावे संसार Page #582 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५५२ वितीये सूत्रकृतांगे प्रथम श्रुतस्कंधे पंचदशमध्ययनं. समुह थकी तस्या ( देवावायन विंसुतेके) अथवा सर्वथा कर्मना दयना अनावे दे वत्व पणे वैमानिकमां जश् उपना एकावतारी प्रमुख थया ॥ २४ ॥ (अनविंसुपुराधी राके०) पूर्वे अतीतकाले घणा चारित्रिया थया अने वर्तमान काले पण तथा (था गमिस्साविसुबताके०) आगमिक काले पण घणा सुव्रत संयमानुष्ठानो थशे ते केवा थशे तोके (उन्निबोहस्समग्गस्सके०) निबोध एटले उर्लन एवोजे ज्ञान दर्शन अने चारित्ररूप मार्ग ते (अंतंपानकरातिन्नेकें०) परम उत्कृष्टो पामीने तेहिज मार्गना प्रका शक बता संसार समुज्ने पूर्वे तस्या वर्तमाने तरे अने आगमिक काले तरशे. तिबेमिनो अर्थ पूर्ववत् जाणवो ॥ २५॥ एरीते पंदरमा यतिनामा अध्ययननो अर्थ समाप्त थयो. ॥ दीपिका-अन्यजीवैर्यदनुपूर्व कर्म आश्रित्य संयमात्संमुखीनूतोयन्मतमष्टनेदं तत् कर्म हित्वा मोदस्यानिमुखीनूतः ॥ २३ ॥ सर्वसाधूनां यन्मतमनिप्रेतं तत्संयमस्थानं श व्यकर्तनं कर्मलेदकं । तत्संयमस्थानं साधयित्वा बहवः संसारं तीर्णामोदं प्राप्ताः । अ थवा देवाबनवन् नवंति नविष्यंतिच ॥ २४ ॥ पुरा पूर्व बहवोधीराथनूवन अनागते काले सुव्रतानविष्यंति च वर्तमानकाले तथानूताः संतिच। ये र्निबोधस्य उष्प्रापस्य मा गस्य दर्शनचारित्राख्यस्यांतं परमकाष्ठामवाप्य तस्यैव प्रामुष्कराः स्वतः सन्मार्गसे विनोड न्येषां च प्रादुर्भावकाः संतः संसारं तीस्तरंति तरिष्यति चेति ॥ २५ ॥ इति श्रादा नीयाख्यं पंचदशमध्ययनं समाप्तं ॥ ॥टीका-किंच (नकुवतीत्यादि) महावीरः कर्मदारणसहिमुः सन्नानुपूर्येण मिथ्या त्वविरतिप्रमादकषाययोगैर्यत्कृतं रजोऽपरजंतुनिस्तदसौ न करोति न विधत्ते । यतस्तत्प्रा तनोपात्तरजसैवोपादीयते सच तत्प्राक्तनं कर्मावष्टन्य सत्संयमात्संमुखीनूतस्तदनिमुखी नूतश्च यन्मतमष्टप्रकारं तत्सर्वं हित्वा त्यक्त्वा मोदस्य सत्संयमस्य वा सम्मुखीनूतोऽ साविति ॥ २३ ॥ अन्यच्च (जम्मयमित्यादि ) सर्वसाधूनां यन्मतमनिप्रेतं तदेतत्संयम स्थानं । तदिशिनष्टि । शल्यं पापानुष्ठानं तज्जनितं वा कर्म तत्कर्तयति हिनत्ति तबल्यक तनं तच्च सदनुष्ठानं तद्युक्तविहारिणः साधयित्वा सम्यगाराध्य बहवः संसारकांतारं ती वः । अपरे तु सर्वकर्मयानावात् देवाअनूवन ते चाप्तसम्यक्त्वाः सञ्चारित्रिणोवैमानि कत्वमवापुः प्राप्नुवंति प्राप्स्यतिचेति ॥ २४ ॥ सर्वोपसंहारार्थमाह । (अनविंसुश्त्या दि) पुरा पूर्वस्मिन्ननादिके काले बहवोमहावीराः कर्मविदारणसहिमवः अनूवन नूतास्तथा वर्तमाने च काले कर्मनूमौ तथाभूतानवंति तथागामिनि चानंते काले तथासूताः सत्सं यमानुष्ठायिनोनविष्यति । किंकतवंतः कुवैति करिष्यतिचेत्याह । यस्य उर्निबोधस्याती Page #583 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रायधनपतसिंघ बाहारका जैनागम संग्रह नाग दुसरा. ५५३ agoप्रापकस्य ज्ञानदर्शनचारित्राख्यस्यांतं परमकाष्ठामवाप्य तस्यैव मार्गस्य प्राः प्राका इयं तत्करणशीलाः प्राडुष्कराः स्वतः सन्मार्गानुष्ठायिनोऽन्येषांच प्राडुनविकाः संतः सं सारार्णवं तीर्णास्तरंति तरिष्यं तिचेति । गतोऽनुगमः । सांप्रतं नयास्तेच प्राग्वत् इष्ट व्याः । इतिरध्ययनपरिसमाप्तौ । ब्रवीमीति पूर्ववत् ॥ २५ ॥ इति खादानीयाख्यं पंच दशाध्ययनं समाप्तं ॥ हवे सोलमुं गाहा नामे अध्ययन प्रारंनिये बैए पंदरमां अध्ययनमां जे विधिरूप तथा प्रति निषेधरूप नाव कह्या ते यथोक्त विधि याचरतो सुसाधु कहेवाय एवा जावे या सोलमो अध्ययन कहेले. 3 अहाह भगवं एवं, से दंते दविए, बोसकाएति बच्चे, माढणे त्ति वा समत्तिवा निस्कूत्तिवा, ग्गिंथेत्तिवा, पडियाद नंते कदं तु दंते दविए वोस कापत्ति बच्चे माढणेत्तिवा समणेत्ति वा निस्कूत्तिवा ग्गिंथेत्तिवा तंनो बूदि महामणी ॥ १ ॥ अर्थ - (हानगवं एवं के० ) यथाह भगवान् हवे श्री जगवंत महावीरदेव सना मां एम कहे. (सेते दविए के० ) ते साधु इंडियाने दमवे करी दांत तेणे करी मुक्तिगमन योग्य तथा ( वोसह के० ) निःप्रतिकर्म एवो (काएत्तिवच्चे के ० ) शरीर जेनो तेने एम कहेवो ( माहऐत्तिवा के० ) स घने स्थावर जीवोने माहलो एवो जेनो उद्देशळे ते माहण कहिये प्रथवा नव विध ब्रह्मचर्यनी गुप्ति की माहरा एटले ब्राह्मण कहिए ( समत्तिवा के० ) तथा श्रमण एटले तपस्वी शुद्ध किया अनुष्ठान ना करनार (निस्कूत्तिवा के० ) यारंननो त्याग करे निर्दोष निकायें प्रवर्ते अथवा ष्ट प्रकारा कर्मने नेदे तेमाटे निक्कु कहिए (ग्गिंथे तिवा के ० ) तथा बाह्य अभ्यंतर परिग्रह रहित माटे निग्रंथ कहिए ( एम श्री जगवाने कहे थके शिष्य पूढे बे के केवीर ते (दंतेदविए के० ) दांत मुक्तिगमन योग्य ( वोसडकाएत्ति के० ) तथा शरीरनी शो ना शुश्रूषा रहित तेने ( वच्चे के ० ) कहिये शुं कहियें तोके ( माहणेत्तिवा के० ) माह कहिये तथा (समत्तिवा के० ) श्रमण कहिए तथा ( निस्कूत्तिवा के० ) निक्कु क हिए (ग्गिंथेतिवा के० ) तथा निग्रंथ कहिए ( तंनोबू हिमहामुली के० ) ते हे महा मुनि ए चार शब्दनो अर्थ थमने कहो. ॥ १ ॥ || दीपिका - अधुना गाथाषोडशाख्यं षोडशाध्ययनमारच्यते । तस्येदमादिसूत्रं । ( हेति ) । अथाह नगवान् सर्वज्ञः । एवमसौ साधुर्दातः संवृतेंयिः । इव्यं मुक्तिगमन ७० For Private Personal Use Only Page #584 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५५४ द्वितीये सूत्रकृतांगे प्रथम श्रुतस्कंधे षोडशमध्ययनं . योग्यव्युत्सृष्टकायो निष्प्रतिकर्मशरीरः समाहनइति श्रमणइति निक्कुरिति निग्रंथइति नगवतो शिष्यः प्रत्याह । हेजगवन् योऽसौ पूर्वोक्तपंचदशाध्ययनार्थानुष्ठायी साधुर्माद नादिशब्दवाच्यइति तत्कथं स्यादिति नोऽस्माकं ब्रूहि महामुने ॥ १ ॥ ॥ टीका-उक्तं पंचदशमध्ययनं सांप्रतं षोडशमारज्यते । यस्य चायमनिसंबंधः । ई दानंतरोक्तेषु पंचदशस्वप्यध्ययनेषु येऽर्थाय निहिता विधिप्रतिषेधद्वारेण तान् तथैवाच रन् साधुर्नवतीत्येतदनेनाध्ययनेनोपदिश्यते । ते चामी अर्थाः । तद्यथा । प्रथमाध्य यने स्वसमय परसमयपरिज्ञानेन सम्यक्त्वगुणावस्थितोनवति । द्वितीयाध्ययने ज्ञाना दिनिः कर्मविदारण हेतु निरष्टप्रकारकं कर्म विदारयन साधुर्भवति । तथा तृतीयाध्ययने य यानुकूल प्रतिकूलोपसर्गान् सहमानः साधुर्भवति । चतुर्थे तु स्त्रीपरीषहस्य दुर्जयत्वात्त कति । पंचमे नरकवेदनाच्यः समुद्दिजमानस्तत्प्रायोग्य कर्मणोविरतः सन्साधुत्व मवाप्नुयात् । षष्ठेतु यथा श्री वीरवर्धमानस्वामिना कर्मयोद्यतेन चतुर्ज्ञानिनापि संयमं प्र ति प्रयत्नः कृतस्तथान्येनापि ब्रह्मस्थेन विधेयमिति । सप्तमें तु कुशीलदोषान् ज्ञात्वा त परिहारोद्यतेन सुशीजावस्थितेन नाव्यं । श्रष्टमेतु बालवीर्यपरिहारेण पंडितवीर्योद्यतेन सदा मोहा जिला षिणा नाव्यं । नवमे तु यथोक्तं हांत्यादिकं धर्ममनुचरन् संसारान्मुच्य तइति । दशमे तु संपूर्णसमाधियुक्तः सुगतिनाग्नवत्येकादशेतु सम्यक्दर्शनज्ञानचारित्रा ख्यं सन्मार्ग प्रतिपन्नोऽशेष क्लेशप्रहाणं विधत्ते । द्वादशेतु तीर्थिकदर्शनानि सम्यग्गुणदोषवि चारतो विजानन्न तेषु श्रद्धानं विधत्ते । त्रयोदशे तु शिष्यगुणदोषविज्ञः समुणेषु वर्तमा नः कल्याणनाग्नवति । चतुर्दशे तु प्रशस्तनावग्रंथितनावितात्मा विस्रोत सिकार हितोन वति । पंचदशेतु यथावदायतचरित्रोभवति निकुस्त डुपदिश्यतइति । तदेवमनंतरोक्तेषु पं चदशस्वध्ययनेषु येऽर्थाः प्रतिपादितास्तेत्र संक्षेपतः प्रतिपाद्यतइत्यनेन संबंधेनायातस्या स्याध्ययनस्य चत्वार्युपक्रमादीन्यनुयोग द्वाराणि नवंति । तत्रोपक्रमांतर्गतोर्थाधिकारो नंतर मेव संबंधप्रतिपादनेनैवानिहितः । नाम निष्पन्नेतु निदेपे गाथाषोडशकमिति नाम । तत्र गाथा निक्षेपार्थ निर्युक्तिकृदाह । “लामं ठवणा गाहा, दवग्गाहा य नावगाहा य ॥ पोडगपत्तगलिहिया, सो होइ दवगाहा ॥ १३० ॥ ( सामंतवणेत्यादि ) तत्र गाथा यानामादिश्चतुर्धा निक्षेपस्तत्रापि नामस्थापने मत्वादनादृत्य इव्यगाथामाह । तत्र इशरीरजव्यशरीरव्यतिरिक्ता इव्यगाथा पत्रकपुस्तकादिन्यस्ता । तद्यथा । जयतिणवण 'लिकुवलय वियसियसरावत्तपत्तल दलबो || वीरोगयंदमयगल सुललियगय विक्कमो नगवं ॥ १ ॥ अथ चेयमेव गाथा षोडशाध्ययनरूपा पत्रकपुस्तकन्यस्ता व्यगाथेति । नावगा यामधिकृत्याह । " होंति पुल जावगाहा, सागारुवगनाव णिप्पन्ना || मदुरा निलाएजु For Private Personal Use Only Page #585 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राय धनपतसिंघ बाहाउरका जैनागम संग्रह नाग उसरा ५५५ ता, तेणं गाहाति बिति"॥ ४० ॥ (दोतिपुंणइत्यादि ) नावगाथा पुनरियं नवति । तद्यथा । योऽसौ साकारोपयोगः दायोपश मिकनावनिष्पन्नोगाथां प्रति व्यवस्थितः सा नावगाथेत्युच्यते । समस्तस्यापि च श्रुतस्य दायोपशमिकनावे व्यवस्थितत्वात् । तत्र चानाकारोपयोगस्यासंनवादेवमनिधीयते इति । पुनरपि तामेव विशिनष्टि । मधुरं श्रुति पेशलमनिधानमुच्चारणं यस्याः सा मधुरानिधानगाथा युक्ता । गाथा बंदसोपनिबदस्य प्रारूतस्य मधुरत्वादित्यनिप्रायोगीयते पठ्यते मधुरारप्रवृत्त्या गायंति वा तामिति गा था। यतएवमतस्तेन कारणेन गाथामिति तां ब्रुवते । णमिति वाक्यालंकारे । एनां वा गाथामिति । अन्यथावा निरुक्तमधिकृत्याह । “ गाहीकयावयबा,अहवणसामुदएण बं देणं ॥ एएण होति गाहा, एसो अन्नोवि पजाउ,, ॥ ४१ ॥ (गाहीकयावश्त्यादि ) गा थीकताः पिंडीकताविदिप्ताः संतएकत्र मीलिताययस्याः सा गाथेत्यथवा सामुण बंदसा वा निबधा सा गाथेत्युच्यते । तच्चेदं बंदोऽनिबदं च यनोकेगाथेति तत्पंडितः प्रो तं । एषोऽनंतरोक्तोगाथाशब्दस्य पर्यायोनिरुक्तस्तात्पर्याइष्टव्यः । तद्यथा । गीयतेऽसौ गायंति वा तामिति गाथीकतावार्थाः सामुरेण वा बंदसे ति गाथेत्युच्यते।अन्योवास्वयमन्यू ह्य निरुक्तविधिना विधेयइति । पिंडितार्थयाहित्वमधिकल्याह।, पारससुअायणे,पिंडित बेसुजो अवितहत्ति ॥ पिंडियवयरोण गेहेतिम्हा ततो गाहा,, ॥४॥ (परपरससुश्त्या दि) पंचदशस्वप्यध्ययनेषु अनंतरोक्तेषु पिंडितार्थानि तेषु सर्वेष्वपि यएवं व्यवस्थितोऽर्थ स्तमवितथं यथावस्थितपिंडितार्थवचनेन यस्माद्मथ्नात्येतदध्ययनं षोमशं ततः किमि तार्थग्रथनाजाथेत्युच्यतइति । तत्त्वनेदपर्यायैारख्येति कृत्वा सूत्रार्थमधिकृत्याह । “सो जसमे अयणे, अणगारगुणाणवणण नणिया ॥ गाहा सोलसणामं, अयणमिणं नवदिसंति ॥४३॥ (सोलसमेइत्यादि) षोमशाध्ययने ऽनगाराः साधवस्तेषां गुणाः हां त्यादयस्तेषामनगारगुणानां पंचदशस्वप्यध्ययनेष्वनिहितानामिहाध्ययने पिंमितार्थवचने न यतोवनानिहिताऽतोगाथाषोमशानिधानमध्ययनमिदं व्यपदिशति प्रतिपादयति। उ तोनामनिष्पन्नोनिद्वेपोनियुक्त्यानुगमस्तदनंतरं स्पर्शिकनियुक्त्याऽनुगमस्यावसरः सच सूत्रे सति नवति सूत्रं च सूत्रानुगमेऽसावप्यवसरप्राप्तएवातोऽस्खलितादिगुणोपेतं सूत्रा नुगमे सूत्रमुच्चारणीयं । तच्चेदं । (यहाहनंगवमित्यादि) अथेत्ययं शब्दोऽवसानमंगला र्थः । आदिमंगलं तु बुध्यतेल्यनेनानिहितं । तेनाद्यंतयोमंगलवात्सर्वोपि श्रुतस्कंधोमग लमित्येतदनेनावेदितं नवति । यानंतर्येवा शब्दः । पंचदशाध्ययनानंतरं तदर्थसंग्राहीदं षोमशमध्ययनं प्रारज्यते । अथानंतरमाह नगवानुत्पन्नदिव्यज्ञानः सदेवमनुजायां पर्षदी दं वदयमाणमाह । तद्यथा । एवमसौ पंचदशाध्ययनोक्तार्थयुक्तः ससाधुतइंडियदमने न इव्यनूतोमुक्तिगमनयोग्यत्वात् इव्यंच नव्येति वचनात् रागषकालिकायव्यरहित Page #586 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५५६ दितीये सूत्रकृतांगे प्रथम श्रुतस्कंधे षोडशमध्ययनं. त्वामा जात्यसुवर्णवत् शुक्षव्यनूतस्तथा व्युत्सृष्टोनिष्प्रतिकर्मशरीरतया कायः शरीर येन सनवति व्युत्सृष्टकायः । तदेवंनूतःसन् पूर्वोक्ताध्ययनार्थेषु वर्तमानः प्राणिनः स्था वरजंगमसूक्ष्मबादरपर्याप्तकापर्याप्तकनेंद निन्नान् (माहणत्ति ) प्रवृत्तिर्यस्यासौ माहनोनव ब्रह्मचर्यगुप्तिगुप्तोब्रह्मचर्यधारणा ब्राह्मणश्त्यनंतरोक्तगुणकदंबकयुक्तः साधुमहितोब्राह्म इति वा वाच्यः। तथा श्राम्यति तपसा खिद्यतइति कृत्वा श्रमणोवाच्योऽथवा समं तुल्यं मित्रादिषु मनोंतःकरणं यस्य ससमनाः सर्वत्रवासी चंदनकल्पश्त्यर्थः । तथाचोक्तं । ण बियसिकोश्वेसो, इत्यादि । तदेवं पूर्वोक्तगुणकलितः श्रमणः सममनावा इत्येवं वाच्यः सा धुरिति । तथा निपशीलोनिहुर्निनत्ति वा ऽष्टप्रकारं कर्मेति नितुः ससाधुर्दातादिगुणोपे तोनिकुरिति । तथा सबाह्यान्यंतरग्रंथानावान्निग्रंथः । तदेवमनंतरोक्तपंचदशाध्ययनोक्ता र्थाऽनुष्ठायी दांतोऽव्यनूतोव्यत्सृष्टकायश्च सनिग्रंथति वाच्यइति । एवं नगवतोक्ते सति प्र त्याह तल्लिष्योनगवन् नदंत नयांत नवांत इति वा योऽसौ दांतोऽव्यनूतोव्युत्सृष्टकायः सन ब्राह्मणः श्रमणोनिकुर्निग्रंथति वाच्यः। तदेतत्कथं यनगवतोक्तं ब्राह्मणादिशब्दवा च्यत्वं साधोरित्येतन्नोऽस्माकं ब्रूहि आवेदय महामुने यथावस्थितत्रिकालवेदिन् ॥ १ ॥ तिविरए सवपावकम्मेलिं, पिजदोसकलद, अप्नकाण, पेसु न्न, परपरिवाय, अरतिरति, मायामोस, मिबादंसणसल्ल, विरए, समिए सहिए, सयाजए,गोकुज्जे, पो माणी, माहणेत्ति,वच्चे॥॥ अर्थ-एम शिष्यें पूजे थके हवे नगवंत ब्राह्मणादिक चार नामनो यथाक्रमे नेद सहित थर्थ कहेले. (इतिविरएसवपावकम्मे हिंके०) जेणे प्रकारे सर्व पाप कर्मारनक्रिया थको निवां ( पिके) प्रेम ते राग अने (दोसके०) ष ते अप्रीति (कलहके०) कुवचननुं बोलवु (अप्तरकाणके० ) अन्याख्यान एटले अबता दोषनुं प्रकाशवु (पेसुन्नके ) पर ना गुणनु अण सहे अने पारका दोषने प्रकाश (परपरिवायके० ) पारका दोष बी जा आगल प्रकाशवा (अरतिके) संयमने विषे अरति (रतिके० ) असंयम विषया दिकने विषे रति (मायामोसके) परवंचना मृषा अलिक नाषानुं बोल (मिहादं सएसनके ) मिथ्यादर्शन शल्य एटले अतत्वने विषे तत्वनी बुद्धि तेनेज शल्य कहिए ए सर्व थकी (विरएके) विरत एटले निवाडे वली (समिएसहिएके०) पांच समिति ए समिता थका ज्ञान दर्शन अने चारित्र सहित प्रवर्ते (सयाजएके०) सदा संयमने विषे प्रयत्न करे एटले सावधान थको रहे एवो बतो (गोकुळेके०) कोश्ना उपर क्रोध नकरे तथा (गोमाणीके०) अनिमान रहित होय उपलक्षणथकी माया तथा लोजरहित एवा गुणे सहितजे होय ते (माहणेत्तिवच्चेके०)माहण एटले ब्राह्मण जाणवा ॥ २॥ Page #587 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रायधनपतसिंघ बादाउरका जैनागम संग्रह नाग उसरा. ५५७ ॥ दीपिका-इति दृष्टे नगवान् मादनादीनां चतुर्णामनिधानानामर्थमाचष्टे। इत्येवं पू वोक्ताध्ययनार्थवृत्तिर्विरतः सर्वपापकर्मन्यस्तथा प्रेम रागः षोऽप्रीतिरूपः कलहोराटिः अन्याख्यानमसदनियोगः पैशुन्यं परगुणमत्सरेण तदोषोद्घट्टनं । परपरिवादः काका परदोषापादनं परतिः संयमे रतिर्विषयेषु । माया परवंचनं मृषावादोऽसदानिधानं मि थ्यादर्शनं तत्वेऽतत्त्वमतत्वेच तत्वमिति मतिः । तदेव शल्यं एतेन्योविरतः । तथा स मितः संगतः पंचसमितिभिः सहितोझानादिनिः सदा यत्तः संयमे कस्यापि न कुप्येत नापि मानी। उपलक्षणात् मायालोनाल्यामपि निवृत्तइत्यादि गुणकल्पितः साधुर्मा हनइति वाच्यः॥ २ ॥ . ॥टीका-इत्येवं टष्टोनगवान् ब्राह्मणादिनां चतुर्णामप्यनिधानानां कथंचि दानिन्नानां यथाक्रमं प्रवृत्तिनिमित्तमाह । इत्येवं पूर्वोक्ताध्ययनार्थवृत्तिः सन् विरतोनिवृत्तः सर्वेन्यः पापकर्मेन्यः सावद्यानुष्ठानरूपेन्यः सतथा तथा प्रेम रागानिष्वंगलवणं देषोऽप्रीतितद पः कलहोत्राधिकरणमन्याख्यानमसदनियोगः पैशुन्यं परगुणासहनतया तहोषोद्घ दृनमितियावत । परस्य परवादः काकापरदोषापादनं धरतिश्चित्तोगलक्षणा संयमे तथा रतिविषयानिष्वंगोमाया परवंचनतया कुटिलमतिम॑षावादोऽसदानिधानं गामश्वं ब्रु वतोनवति मिथ्यादर्शनमतत्त्वे तत्त्वानिनिवेशस्तत्वेवा तत्त्वमिति । यथा । एनिणणिच्चो कुणकयं वे पति शिवाणं ॥ गलिय मोरको वा बमिबत्तस्सवाणाइंइत्यादि । एतदे व शल्यं तस्मिस्ततोवा विरतइति । तथा सम्यगितः समितर्यासमित्यादिनिः पंचनिः समितिनिः समितश्त्यर्थः । तथा सह हितेन परमार्थनूतेन वर्ततइति सहितः। यदि वा सहितोयुक्तोझानादिनिस्तथा सर्वकालं यतः प्रयतः सत्संयमानुष्ठानेन तदनुष्ठानम पिन कषायैनिःसारी कुर्यादित्याह । कस्यचिदप्यपकारिणोपि न कुप्येत थाक्रुष्टः सन्न क्रोधवशगोनूयात् नापि मानी नवेत् पुष्कृततपोयुक्तोपि न गर्व विदध्यात् । तथा चोक्तं । जसो वि निरम, पडिसिनो अमाणमहारोहिं ॥अवसेसमयहाणा परिहरियवा पयत्तेणं । अस्य चोपलहणार्थत्वाागोपि मायालोनात्मकोन विधेयश्त्यादिगुणकलितः साधुाहनति निःशंकं वाच्यति ॥ २ ॥ एबवि समणे अणिस्सिए, अणियाणे, आदाणंच, अतिवायं च, मुसावायंच बदिच,कोहंच,माणंच मायंच,लोदंच, पिऊंच, दोसंच,श्चेव जज आदाणं अप्पणोपदेसेदेऊ तन्तन आदाण तो पुर्व पडिविरते,पाणाश्वायाए दंते दविए वोसकाए समणेति वच्चे ॥३ Page #588 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५५७ वितीये सूत्रकृतांगे प्रथम श्रुतस्कंधे षोडशमध्ययनं. अर्थ-(एबविसमणे के०) जे माहणना लक्षण कह्या ते अंही सर्व जाणवा वली श्रमणना विशेष कहे जे (अणि स्सिए के०) अनाश्रित अप्रतिबंध विहारी तथा (अणियाणे के० ) नियाणा रहित (यादाणंच के० ) कषाय थकी रहित (अतिवायं च के० ) अतिपातंच एटले जीवहिंसा तथा (मुसावायंचके०) मृषावाद (बहिचके) मैथुन परिग्रह ए सर्वने ज्ञ परिझायें जाणीने प्रत्याख्यान परिझायें परिहरे एटले मूलगुण कह्या हवे उत्तर गुण कहेडे (कोहंचमाणंचमायंचलोहंच के०) क्रोध मान, माया तथा लोन अने (पिऊच के०) प्रेम शब्दे राग (दोसंच के०) क्षेष एने पण सम्यक प्रकारे संसारना कारण जाणीने परिहरे (श्चेव के०) एरीते (जज के०) जे जे (आदाणान के०) कर्मनो बंध (अप्पणोपदेसेहेक के०) जे थकी पोताना आत्माने प्रदोष हेतु एटले अ वगुणना कारण देखे (ततम्यादाणतो के) ते ते सावद्यानुष्टान थकी चारित्रि (पुर्वपडिविरते के०) पूर्वेज एटले आगल थकीज आत्म हित वांडतो थको विरति करे (पाणावायाए के०) प्राणातिपात नकरे एवो बतो (दंते के०) दांत एटले इंडि यनो दमनार (दविए के० ) इविक एटले मुक्तिगमन योग्य (वोसहकाए के) निष्प्र तिकर्म शरीरवालो एटले शरीरनी शुश्रूषायें रहित (समऐत्तिवच्चे के०) एवा गुरणे स हित विशिष्ट श्रमण कहेवो. ॥ ३ ॥ ॥दिपीका-अत्रापि पूर्वोक्तगुणसमूहे वर्तमानः श्रमणोपि वाच्यः । एतजुणयुक्तेना पि नाव्यमित्याह । अनिश्रितोऽप्रतिवशरीरादौ अनिदानोनिराकांदः । आदानं कषायः परिग्रहोवा अतिपातोहिंसा मृषावाद बहि मैथुनं । उक्तामूलगुणाः । उत्तरगुणानाह । क्रोधं मानं मायां लोनं च प्रेम षं च इत्यादिकं सम्यक् परिझाय परिहरेदिति । एवं यतो यतः कर्मोपादानादपायं पश्यति प्रक्षेषहेतूंश्च ततस्ततोहिंसादिकादानात्पूर्वमेव प्रतिविरतो नवेत् विरतिं कुर्यादित्यर्थः। एवंनूतोदांतः शुकोव्यनूतोव्युत्सृष्टकायः श्रमणोवाच्यः॥३॥ ॥ टीका-सांप्रतं श्रमणशब्दस्य प्रवृत्तिनिमित्तमुन्नावयन्नाह । अत्राप्यनंतरोक्ते विरत्या दिके गुणसमूहे वर्तमानः श्रमणोपि वाच्यः । एतजुणयुक्तेनापि नाव्यमित्याह । निश्चये नाधिक्येन चाश्रितोनिश्रितः ननिश्रितोऽनिश्रितः क्वचिहरीरादावप्यप्रतिबरस्तथा न वि द्यते निदानमस्येत्यनिदानोनिराकांदोऽशेषकर्मदयार्थी संयमानुष्ठाने प्रवर्तेत तथा दीय ते स्वीक्रियते ऽष्टप्रकारं कर्म येन तदादानं कषायः परिग्रहः सावद्यानुष्ठानं वा तथाऽ तिपातनमतिपातः प्राणातिपातश्त्यर्थः । तं च प्राणातिपातं झपरिझया ज्ञात्वा प्रत्याख्या नपरिझया परिहरेदेवमन्यत्रापि क्रिया योजनीया।तथा मृषावादोऽतीकवादस्तं च तथा वहिति मैथुनपरिग्रही तौच सम्यक् परिझाय परिहरेत् । उक्तामूलगुणाः । उत्तरगुणान Page #589 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राय धनपतसिंघ बादाउरका जैनागम संग्रह नाग उसरा. एए धिकत्याह । क्रोधमप्रीतिलणं मानं स्तनात्मकं मायां च परवंचनात्मका लोनं मूर्जास्त्र नावं तथा प्रेमानिष्वंगलक्षणं तथा इषं स्वपरात्मनो धारूपमित्यादिकं संसारावतरणमा र्ग मोक्षाध्वनोपध्वंसकं सम्यक् परिझाय परिहरेदिति । एवमन्यस्मादपि यतोयतः कर्मोपाद नादिहामुत्र चानर्थहेतोरात्मनोपायं पश्यति प्रषहेतूंश्च ततस्ततःप्राणातिपातादिकादन थदंडदानात् पूर्वमेवानागतमेवात्महितमिन् प्रतिविरतोनवेत् सर्वस्मादनर्थहेतुनूताउ नयलोकविरुदादा सावद्यानुष्ठानान्मुमुकुर्विरतिं कुर्यात् । यश्चैवंजूतोदांतः शु-दोश्व्यनू तोनिष्प्रतिकर्मतया व्युत्सृष्टकायः सश्रमणोवाच्यः ॥ ३ ॥ एबवि निरकू अपन्नए, विणीए, नामए दंते दविए, वोसका ए, संविधुणीय विरूवरूवे, परीसदोवसग्गे, अनप्पजोगसुद्धा दाणे, नवहिए, अिप्पा, संखाए परदत्तनोई निस्कूत्ति वच्चे ॥४॥ अर्थ-हवे निकु शब्दनो विशेष कहेजे (एबवि निरकू के ) अंहीयां निहुने विषे पण जे पूर्व ब्राह्मण श्रमणना गुण कह्या ते सर्व जाणवा अने वली अनेरा विशेष कहें (अणुनए के० ) अनिमान रहित (विणीए के ) विनीत एटले विनयवंत (ना मए के० ) संयमने विष आत्मानो नमाड नार (दंतेदविएवोसहकाए के०) ए त्रण श ब्दना अर्थ पूर्ववत् जाणवा ( संविधुणीय के० ) सम्यक् प्रकारे सहन करे गुं सहन करे ते कहे (विरूवरूवे के० ) विरूपरूप एटले अनुकूल प्रतिकूल एवा नाना प्रकार ना (परीसहोवसग्गे के०) नपसर्ग परीसहने सहन करे तथा (अनप्पजोगसुादाणे के०) अध्यात्मयोगे करी निर्मल चित्तने परिणामे शुद्ध चारित्रवंत थको (वहिए के०) उपस्थित एटले चारित्रने विषे उग्यो सावधान थयो (सिप्पाके) परीसह उपसर्गे करी अंगजीत जेहनो आत्मा (संखाए के०) संसारनी असारता बोधिनु उर्लन पण जाणतो (परदत्तनोई के ) पारका दीधेला थाहारनुं जमनार एटले नि र्दोष आहारी (निस्कूत्तिवच्चे के०) एवाने निकु कहेवो ॥ ४॥ ॥ दीपिका-अत्रापि पूर्वोक्तमाहनशब्दप्रवृत्तिहेतवोत्रापि निकुशब्दप्रवृत्तिहेतवस्तएव झेयाः । अमी चान्ये अनुन्नतोमदरहितोनावनीतोनदीनः दांतोविनयेन नामकोगुर्वादो प्रदोऽव्यनूतव्युत्सृष्टकायः सम्यक् विधूयापनीय विरूपान् नानाविधान् परीषदोपसर्गा न । परीषदादाविंशतिः उपसर्गादेवादिकतास्तधूिननं सम्यक् सहनं अध्यात्मयोगेन गुनचेतसा गुरू बादानं चारित्रं यस्य सतथा सम्यगुबितः संयमोद्यतः स्थितोमोद Page #590 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६० तिीये सूत्रकृतांगे प्रथम श्रुतस्कंधे षोडशमध्ययनं. मार्गे अत्मा यस्य सस्थिातात्मा संख्याय ज्ञात्वा संसारासारतां परदत्तनोजी एवंगुण युतोनिॉर्वाच्यः ॥ ४ ॥ ___॥ टीका-सांप्रतं निशब्दस्य प्रवृत्तिनिमित्तमधिकृत्याह । अत्रापीति । ये ते पूर्वमु क्ताः पापकर्मविरत्यादयोमाहनशब्दप्रवृत्तिहेतवोऽत्रापि निशब्दस्य प्रवृत्तिनिमित्ते तए वावगंतव्याः। अमी चान्ये । तद्यथा । न उन्नतोऽनुन्नतः शरीरेणोनितः नावोन्नतस्त्वनि मानग्रहग्रस्तस्तत्प्रतिषेधात्तपोनिर्जरांमदमपि न विधत्ते । विनीतात्मतया प्रश्रयवान् यतएतदेवाह । विनयालंकतोगुर्वादावादेशदानोद्यतोऽन्यदा वात्मानं नामयतीति नामकः सदा गुर्वादौ प्रदोनवति । विनयेन चाष्टप्रकारं कर्म नामयति वैयावृत्त्योद्य तोऽशेषमप्यपनयतीत्यर्थः । तथा दांतइंघियनोइंडियान्यां तथा शुक्षात्मा शुक्ष्व्य नू तोनिष्प्रतिकर्मतया व्युत्सृष्टकायश्च परित्यक्तदेहश्च । यत्करोति तदर्शयति । सम्यक् विधूया पनीय विरूपरूपान् नानारूपाननुकूलप्रतिकूलानुच्चावचान् वाविंशतिपरीषदान् तथा दिव्यादिकानुपसर्गाश्चेति । तधूिननं तु यत्तेषां सम्यक् सहनं तैरपराजितता परीषहोप सर्गाश्च विधूयाध्यात्मयोगेन सुप्रणिहितांतःकरणतया धर्मध्यानेन शुक्ष्मवदातमादानं चरित्रं यस्य साक्षादानोनवति । तथा सम्यगुबानेन सच्चारित्रोद्यमेनोबितस्तथा स्थि तोमोदाध्वनि व्यवस्थितः परीषहोपसगैरप्यपृष्यथात्मा यस्य सस्थितात्मा. तथा सं ख्याय परिझायाऽसारतां संसारांतस्य उष्प्रापतां कर्मभूमेर्बोधेः सुउर्लनत्वं चावाप्य च सक सां संसारोत्तरसामग्री सत्संयमकरणोद्यतः परैर्गृहस्थैरात्मार्थ निर्वर्तितमाहारजातं तैर्दत्तं नोक्तुं शीलमस्य परदत्तनोजी सएवं गुणकलितोनिकुरिति वाच्यः ॥ ४ ॥ एबवि णिग्गंथे, एगे, एगविक बुद्धे, संचिन्नसोए सुसंजते सु समिते, सुसामाइए, आयवायपत्ते, विऊ उदनवि सोयपलि बिन्ने, पोपूयणसकारलानही, धम्मही धम्मविक णियोगपडि वन्ने, समियंचरे, दंते दविए, वोसकाए निग्गंथेत्ति बच्चे,॥५॥ अर्थ-(एबविणिग्गंथेके०) हवे नियंथनो विशेष कहेले. अंहींयां पण पूर्वला गुण सर्व लेवा वलीजे विशेष गुण ते कहे (एगेके० ) एकलो राग देष रहित तथा (ए गविकबुके०) पोताने एकलोज जाणे एटले संसारमा महारो कोइ संबंधी नथी ए वो बु६ एटले तत्वनो जाण (संबिन्नसोएके०) सम्यक् प्रकारें जेणे याश्रवने यो तथा (सुसंजतेके०) सुसंयत एटले कारबानी पेरें गुप्तेंघिय ( सुसमितेके०) रुडी स मितिए करी समितो (सुसामाइएके०) सुसामायिकवंत एटले जेने शत्रु मित्र समान Page #591 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राय धनपतसिंघ बादाडुरका जैनागमसंग्रह नाग दुसरा. ५६१ ( श्रायवायपत्तेके ० ) यात्म वादे पहोतो एटले यात्माने वादे उपयोग लक्षण जी व असंख्य प्रदेशी जीव संकोच विकाशनो नजनार इव्य पर्यायरूप नित्यानित्य नेद जिन्न पोताना करेला कर्मनुं जोगवनार इत्यादिक श्रात्मवादे पहोतो एटले यात्म तत्वनो जाल ( विकके ० ) तथा विद्वान पंमित शुद्धमार्गनो जाए ( इहनविसोयप लिने) तथा इव्य ने जावना भेदे कररी बन्ने प्रकारना याश्रव रूपिया स्रोत जे परिवेद्याले तथा (पोपूय यसकारलान डीके ० ) पूजा सत्कारना लाननो घर्थी न था किंतु निर्जरानो अर्थी थाय ( धम्महीके० ) धर्मनो अर्थी ( धम्म विकके ० ) धर्म नो जाए शुद्ध मार्गनो गवेषण हार ( लियोगपडिवन्ने के ० ) नियोगप्रतिपन्न एटले मो मार्गे पहोतो एवो तो ( समियंचरे के ० ) समता खाचरे एवो थको (दंतेदविएवोस shrebo ) दांत इविक वोसहकाए तेने ( निग्गंथेत्तिवच्चे के ० ) निग्रंथ कहेवो ॥ ५ ॥ 0 ॥ दीपिका-अत्रापि गुणगणे वर्तमानोनिग्रंथोवाच्यः । यमी चान्ये गुणाः । एकोरा गद्वेषरहितः । एकमेव परलोकगामितयात्मानं वेत्तीत्येक वित् बु- इस्तत्वज्ञः सम्यक् बिन्ना निनावस्त्रोतांसि श्रव द्वाराणि येन ससंन्निस्रोताः सुसंयतः सुसमितः समिति निः सुष्ठु सामायिकं समजावोयस्य स तथा यात्मवादप्राप्तः सम्यगात्मस्वरूपवेदी विद्वान ज्ञातसर्वपदार्थः द्विधा इव्यतोनावतश्च स्रोतांसि परिचिन्नानि येन सतथा इव्यस्त्रोतांसि विषयेंयिप्रवृत्तयः । नावस्रोतांसि तु शब्दादिषु गुनाशुनेषु रागद्वेषोत्पत्तिः । तानि ये न त्यक्तानि तथा नोपूजासत्कारार्थी तथा धर्मार्थी धर्मवित् नियोगोमोहस्तं प्रतिपन्नः समतां चरेत् कुर्यात् दांतोइव्यनूतोव्युत्सृष्टकायः । एवंभूतः पूर्वोक्तमाहनादिगुणयुत श्व नियंथोवाच्यः ॥ ५ ॥ ॥ टीका - तथाऽत्रापि गुणगणे वर्तमानोनिग्रंथइति वाच्यः । श्रमी चान्ये अपदिश्यं ते । तद्यथा । एकोराग पर हितत्या उजाः । यदिवाऽस्मिन् संसारचक्रवाले पर्यटनसुमान् स्वकृत सुखदुःखफलनाक्त्वेनैकस्यैव परलोकगमनतया सदैककएव नवति । तत्रोद्यत विहारी इव्यतो येक कोजावतोपि गङ्घांतर्गतस्तु कार पिकोइ व्य तोना ज्योनावतस्त्वेककए व । तथैकमेवात्मानं परलोकगामिनं वेतीत्येकवित् न मे कश्चिदुःखपरित्राणकारी सहा योस्तीत्येवमेकवित् । यदिवैकांतेन विदितसंसारस्वनावतया मौनींइमेव शासनं तथ्यं ना न्यदित्येवं वेत्तीत्येकांत वित् अथवैकोमोदः संयमोवा तं वेत्तीति । तथा च बुद्धोऽवगत तत्त्वः सम्यक् विन्नान्यपनीतानि नावस्त्रोतांसि संवृतत्वात्कर्माश्रव द्वाराणि येन सतथा सु टु संयतः कूर्मवत्संयतगात्रो निरर्थककाय क्रियारहितः सुसंयतस्तथा सुष्ठु पंचनिः समिति निः सम्यगितः प्राप्तोज्ञानादिकं मोहमार्गमसौ सुसमितस्तथा सुष्ठु समजावतया सामा 195 For Private Personal Use Only Page #592 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६२ तिीये सूत्रकृतांगे प्रथम श्रुतस्कंधे पोडशमध्ययनं. यिकं समशत्रुमित्रनावोयस्य ससुसामायिकः । तथात्मनउपयोगलक्षणस्य जीवस्यासंख्ये यप्रदेशात्मकस्य संकोचविकाशजाजः स्वरूतफलनुजः प्रत्येकसाधारणतया व्यवस्थितस्य इव्यपर्यायतया नित्यानित्याद्यनंतधर्मात्मकस्य वा वादशात्मवादस्तं प्राप्तधात्मवादप्राप्तः सम्यग्यथावस्थितात्मस्व तत्त्ववेदीत्यर्थः। तथा विज्ञानवगतसर्वपदार्थस्वनावोन व्यत्ययेन पदार्थानवगवति । यतोयत् कैश्चिदनिधीयते तद्यथैकएवात्मा सर्वस्वनावतया विश्वव्या पी श्यामाकतंडुलमात्रोंऽगुष्ठपर्वपरिमाणोवेत्यादिकोसपूतान्युपगमः परिहतोनवति । तथा विधात्मसन्नावप्रतिपादकस्य प्रमाणस्यानावादित्यनिप्रायः । तथा विधापीति व्यतोनाव तश्च । तत्र इव्यस्त्रोतांसि यथा स्व विषयेष्विंश्यिप्रवृत्तयः। नावस्रोतांसि तु शब्दादिष्वेवा नुकूलप्रतिकूलेषु रागदेषोनवस्तान्युनयरूपाण्यपि स्रोतांसि संवृश्यितया रागसंषानावा च परिजिन्नानि स्रोतांसि येन परिबिन्नस्रोतास्तथानपूजासत्कारलानार्थी किंतु निर्ज रापेदी सर्वास्तपश्चरणादिकाः क्रियाविदधति । एतदेव दर्शयति । धर्मः श्रुतचारित्राख्यस्ते नार्थः सएवार्योधर्मार्थः स विद्यते यस्यासौ धमार्थीति । किमिति । इदमुक्तं नवति । नपूजा द्यर्थ क्रियासु प्रवर्तते अपितु धर्मार्थीति । किमिति । यतो धर्म यथावत्तत्फलानि च स्वर्गा वाप्तिलक्षणानि सम्यक् वेत्ति धर्म च सम्यक् ज्ञानतः। यत्करोति तदर्शयति । नियोगो मोक्षमार्गः सत्संयमोवा तं सर्वात्मना नावतः (प्रतिपन्न नियोगपडिवन्नोति ) तथाविधश्च यत्कुर्यात् तदाह । (समियंति ) समतां समनावरूपां वा शीतचंदनकल्पां चरेत् सतत मनुतिष्ठेत् । किंनूतः सन्नाह । दांतोऽव्यनूतोव्युत्सृष्टकायचैतशुणसमन्वितः सन् यत्पूर्वो तमाहनश्रमणनिशब्दानां प्रवृत्तिनिमित्तं तत्समन्वितश्च निग्रंथति वाच्यः । तेपि मा हनादयः शब्दानियंथशब्दप्रवृत्तिनिमित्तायविनानाविनोनवंति । सर्वेप्येते निन्नव्यंजनाथ पि कथंचिदेकार्याइति ॥ ५ ॥ से एवमेव जमह जाणदं नयंतारो तिबेमि ॥६॥इतिखोडस मंगादानामयणं सम्मतं ॥ पढमो सुअरकंधो सम्मत्तो ॥१॥ अर्थ-हवे श्रीसुधर्म स्वामी जंबू प्रनृति साधु प्रत्ये कहेजे के ( सेएवमेवजाणहंजम ह के० ) तमे एम जाणोके जे में कह्यो ते निश्चे करी सत्य एम जाणो कारणके ढुं सर्वानी याज्ञायें कडं. ते सर्वज्ञ नगवंत तीर्थकर देव परोपकारी केवाडे तोके (न यंतारो के०) महानय थकी राखनारळे माटे तेमना कहेला वचन हुँ तमने कटुं. तिबे मिनो अर्थ पूर्ववत् जाणवो. एरीते श्रीसुधर्म स्वामियें जंबू स्वामि प्रत्ये कह्यो. ए गाहाना मे सोलमा अध्ययननो अर्थ समाप्त थयो. इति श्रीसुयगडांग सूत्रना प्रथम श्रुतस्कंधनो बालावबोध लेश्यार्थ समाप्तः ॥ Page #593 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राय धनपतसिंघ बाहाउरका जैनागम संग्रह नाग उसरा. ५६३ ॥ दीपिका-एते चत्वारोनिन्नायपि कथंचिदेकार्याइति । सुधर्मस्वामी जंबूस्वामिनमा ह । सेतत् यन्मयोक्तं एवमेव जानीत यूयं यस्मादहं सर्वज्ञाझ्या वच्मि । नच नतोगवं नयात्रातारोवा सवैज्ञाअन्यथा वदंति अतोममुक्तमेवमेवावगवतेति । इति समाप्तौ । ब्रवी मीति पूर्ववत्. ॥ ६ ॥ ॥ इति श्रीतपागजाधिराजश्रीहेमविमलसूरीश्वर शिष्य हर्षकुलपंडितप्रणीतायां सूत्ररूतांगदीपिकायां गाथाषोडशाख्यं षोडशमध्ययनं समाप्तं ॥ ॥ टीका-सांप्रतमुपसंहारार्थमाह। (सेएवमेवजाणदइत्यादि ) सुधर्मस्वामी जंबूस्खा मिप्रनृतीनुदिश्येदमाह । सेशति । तद्यन्मया कथितमेव जानीत यूयं । नान्योमचसि विकल्पोविधेयः । यस्मादहं सर्वज्ञाझ्या ब्रवीमि । नच सर्वज्ञानगवंतः परहितैकरता नयात्रातारोरागक्षेषमोहान्यतरकारणानावादन्यथा ब्रुवते । अतोयन्मयाऽऽदितः प्रनति क थितं तदेवमेवावग दिति । इति परिसमात्यर्थे । ब्रवीमीति पूर्ववत् । उक्तीनुगमः सांप्रतं नयास्ते च नैगमादयः सप्त । नैगमस्य सामान्यविशेषात्मतया संग्रहव्यवहारप्रवेशासंग्र दादयः षट् । समनिरूढेबंनूतयोः शब्दनयप्रवेशान्नैगमसंग्रहव्यवहारर्जुसूत्रशब्दाः पंच । नैगमनस्याप्यंत वाचत्वारोव्यवहारस्यापि । सामान्यरूपविशेषतया सामान्य विशेषा त्मनोः संग्रहर्जुसूत्रयोरंत वात्संग्रह सूत्रशब्दास्त्रयस्तेपि च व्यास्तिकपर्यायास्तिकांत नावाव्यास्तिकपर्यायास्तिकानिधानौ हौ नयौ। यदि वा सर्वेषामेव ज्ञानक्रिययोरंत वा त् झानक्रियानिधानौ हौ तत्रापि ज्ञाननयोझानमेव प्रधानमाह क्रियानयश्च क्रियामिति । नयानांच प्रत्येकं मिथ्याष्टित्वाधान क्रियाश्च परस्परापेक्षतया मोदांगत्वाउनयमात्रप्र धानं । तच्चोजयं सकियोपेते साधौ नवतीति । तथाचोक्तं । गायम्मिगिएिहयवे, अ गिएिहयवंमि चेव अबंमि ॥ जश् यवमेव इति जो नवएसो सो न नाम ॥१॥ सन्वेसिं पिण्याएं, बहुविहवत्तवयं णिसामेत्ता॥ तं सवनय विसुई चरणगुणही सादुत्ति॥६॥ समाप्तं षोड़शाख्यं षोडशमध्ययनं तत्समाप्तौ च समाप्तः प्रथमः श्रुतस्कंधति ॥ IS ॥ इति श्रीवित्तीये सूत्रकतांगे, गुर्जरनापासहितः SH ॐ श्रीहर्षकुलकतदीपिकायुक्तः शोलंगाचार्यकतटी सर... कासंयुतश्च, प्रथमः श्रुतस्कंधः समाप्तः॥ Page #594 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #595 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॐ नमो श्री वीतरागाय अथश्री वितीय सूत्रकतांगे दितीय श्रुतस्कंधस्य बालावबोध दीपिकासहितस्य टीकायुतस्य प्रारंना मूल गद्य--सुयं मे आसंतेणं नगवया एव मकाय श्द खलु पोंमरीए पामायणे तस्सणं अयम परमत्ते॥॥से जदा गामए पुरस्करिणीसिया बदुन्दगा बहुसेया बदुपुरकला लच्छा पुमरिकिणी पासादिया दरिस णिया अनिरूवा पडिरूवातीसेणं पुरकरिणीए तब तब देसे देसेत हिं तहिं बहवे पनमवरपोमरीया बुझ्या अणुपुबुध्यिा ऊसिया रुश्लावन्न मंता गंधमंता रसमंता फासमंता पासादिया दरिसणिया अनिरूवा पडि रूवा॥३॥तीसेणं पुस्करिणीए बढुमसदेसनाए एगेमहंपनमवरपोमरीए बु इए अणुपुवुहिए नस्सिते रुश्ले वनमंते गंधमंते रसमंते फासमंते पासा दीए जावपडिरूवे॥४॥सवावंतिचणं तीसेणं पुरस्करिणीए तब तब देसे देसे तहिं तहिं बहवे पनमवरपोमरीया बुझ्या अणुपबुध्यिा ऊसिया रु ला जावपडिरूवा सवावंतिचणं तीसेणं पुरकरिणीए बदुमदेसनाए ए गं मदं परमवरपॉझरीए बुइए अणुपुबुछिए जावपडिरूवे॥५॥अह पुरिसे पुरिबिमान दिसा आगम्मतं पुरकरिणी तीसे पुरकरिणीए तीरे ठिचा पासं तितं महं एगं परमवरपोमरीयं अणुपुबुध्यिं ऊसियं जावपडिरूवं तएणं से पुरिसे एवं वयासि अहमंसी पुरिसे खेयन्ने कुसले पंमिते वियत्ते मेदा वी अबाले मग्ग मग्गविक मग्गस्सगतिपराकमम अहमेयं परमव रपोमरीयं निरिकस्सामित्ति कटु इतिवच्चा से पुरिसे अनिक्कमेति तं पुरक रिणी जावंजावंचणं अनिक्कमे तावंतावंचणं महंते नदए महंते सेए पहीणे तीरं अपत्ते परमपरपोमरीयं णोदच्चाए णोपाराए अंतरा पोरक रिणीए सेयंसि निसस्मे पढमे पुरिसजाए॥६॥ अर्थ-हवे श्री सुधर्म स्वामि जंबू स्वामि प्रत्ये कहेडे (सुर्यमेधावसंतेणं के० ) Page #596 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६६ वितीये सूत्रकृतांगे वितीय श्रुतस्कंधे प्रथमाध्ययनं. सनियुं में में आयुष्यवंत एवा ( जगवया के० ) नगवंते (एवमरकाय के०) एम कर्दा ले ( इह के० ) ए वचन थकी सुयगडांगने बीजे श्रुतस्कंधे (खलु) ए शब्द वाक्यालंकारने अर्थ (पोझरीएणामायणे के०) पुंमरीक नामे अध्ययन ते पुमरीक कमलनी उपमा थशे (तस्सणं के ) ते कारणे एवो नाम कह्यो तेनुं (थयमठेपणते के० ) एजे बागल कहेशे ते अर्थ जाणवो ॥ १ ॥ (सेज हाणामए के०) ते जेमतेम कहेवो. नाम इति संनावनाने अर्थ ले. जेम को एक (पुरकरिणीसिया के०) पुष्करणी एटले कमल सहित वावडी ते केवी तोके (ब दुनदगाके०) घणो अगाध मां पाणी (बहुसेयाके) घणो जेमां कर्दम (बदुपुरक लाल-दहा के०) घणो पुष्करणी पणो संपूर्ण अर्थात् पुष्करणीनो अर्थ जेणे लाधोडे एटले जेवो नाम तेवा परिणामे एवी (पुंमरिकिणी के०) पुमरिकिणी एटले श्वेत क मल सहित वावडी (पासादिया के) निर्मल जले करीने प्रसन्न चित्त कारणी (दरिसणिया के०) घणा लोकने देखवा योग्य (अनिरूवा के०) जेने विषे सर्व काल हंस चक्रवाक गजमहिषादि रूपडे ते कारणे अनिरूपले (पडिरूवा के ) स्वह नाव थकी सर्व रूप प्रत्ये वंचे ते माटे प्रतिरूपडे ॥॥ (तीसेणंपुरकरिणीए के० ) ते पुष्करणीने विषे ( तबतबदेसेदेसे के० ) त्यां त्यां ते ते प्रदेशे (तहिंतहिंब हवेपनमरोमरीयाबुश्या के० ) त्यां त्यां घणा प्रधान पुंडरीक नामे पद्म एटले कमल जगवंत श्रीमहावीर देवे कह्या (अणुपुवया के) ते कमल थानुपूर्वियें उपया (क सियाके) पाणी थकी उपर वर्तेले (रुश्ताके०) दीपता (वन्नमंताके० ) प्रधान वर्ण वाला कमल (गंधमंता के०) सुगंधवाला (रसमंता के०) रसवाला (फासमं ता के०) सुकोमल स्पर्श सहित डे (पासादिया के०) प्रासादनीक प्रसन्नचित्तकार पीक (दरिसणिया के०) लोकने देखवा योग्य (अनिरूवा के०) अनिरूप (पडि रूवा के०) प्रतिरूप ॥३॥ (तीसेणंपुरकरिणीए के० ) ते पुष्करणीने विषे (बहुमस देसनाए के) घणा मध्य प्रदेशना नागने विचाले (एगेमहंपनमवरपोमरीएबुशए के०) एक महोटुं प्रधान पोंझरीक नामा कमल बोट्युंडे (अणुपुबुहिए के०) ते आनुपूर्वियें चडती चडती पांखडीयें करी त्यो उस्सिते रुश्ले वाममंते गंधमंते रसमंते फासमं ते पासादीए जाव पडिरूवे एम यावत् प्रतिरूप सुधीना अर्थ पूर्ववत् जाणवा ॥ ४ ॥ ( सवावंतिचणं के ) इत्यादिक सर्व समय नाव एवे वाक्यालंकारे जाणवा (तीसे पंपुरकरिणीए के०) ते पुष्करणीने विषे (तबतबदेसेदेसे के०) त्या त्या प्रदेशे एटले एवा समग्रनागोने विषे (तस्तिहिंबहवेपनमवरपोमरीयाबुझ्याके) त्या त्यां पूर्वोक्त गुण सहित एवा घणा पुंमरीक कमल बोल्याने ते सर्व अपुपुत्रुज्यिा कसिया रुइला जावपडि Page #597 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रायधनपतसिंघ बाहाउरका जैनागम संग्रह नाग उसरा. ५६७ रूवा सवावं तिचणं इत्यादिक उपमायें जाणवा (तीसेणंपुस्करिणीएबहुमसदेसनाएके०) ते पुष्करणीना बदु मध्यदेश नागने विषे (एगंमहं के०) एक महोटुं (परमवरपॉमरि एबुइए के) प्रधान पौंमरिक कमल बोल्यो अणुपुत्रुछिए जावपडिरूवे सुधी अर्थ पूर्वै लखाइ गयुं ॥५॥ (अहपुरिसेके) अथ हवे एक पुरुष (पुरिडिमादिसाके) पूर्वदिशा थकी (आगम्मके०) आवीने (तंके० ) ते (पुस्करिणींके ० ) पुष्करणी(तीसे पुरकरिणीएके०) तेपुष्करणीना (तीरेविच्चाके) तीरने विष ननो रहीने (महंएगंपनमवर पोमरीयंके०) ते महोटुं एक पौंमरीक कमल पूर्वोक्त गुण सहित तेने (पासंतिके०)देखे ते क मलकेवो तोके अणुपुबुध्यिं नस्सियं जावपडिरूवं इत्यादिकना अर्थ पूर्वे लखा गया एवी शोना सहित ते पोंमरीक कमलने देखीने (तत्तेणं के ) तेवारे ( से पुरिसे के०) ते पुरुष (एवंवयासि के०) एम बोल्यो झुं बोल्यो ते कहेले (अहमंसीपुरिसे के०) ढुं पुरुष परंतु केवो तोके (खेयन्ने के०) परपीडानो जाण तथा अवसरनो जाण बू (कुसलेपंमिते के०) दाह्यो पंमित (वियत्ते के०) विवेक युक्त (मेहावी के०) परिणत बुद्धिवालो j (अबाले के० ) बाल पणा रहित (मग्गो के०) मार्गस्थ ए टले मार्गने विषे स्थित रह्यो (मग्गविक के०) रुडा मार्गनो जाण (मग्गस्सगति के०) मार्गनी गतिना (पराकमम के०) पराक्रम तेनो जागवं (अहमेयंके) तेन णी हुँ ए (पनमवरपोमरीयंके० ) प्रधान पौंमरीक कमलने ए पुष्करणी थकी (उन्नि रिकस्सामिति के ) नदरीश (कट्ठ के०) एम करीने (इतिवच्चा के) ए पूर्वो क्त वचन बोलतो जेटले (सेपुरिसे के ) ते पुरुष (अनिक्कमेति के० ) पुष्करण। मांहे प्रवेश करेले (पुस्करिणीके०) ते पुष्करिणी मांहे (जावंजावंचणंथनिक्कमेश्के० ) जेम जेम जायजे अतिक्रमे (तावंताचणंके)तेम तेम ते पुरुष पुष्करणी मांहे (महंते उदए के० ) महोटा अगाध पाणीने विषे (महंतेसेए के०) घणा कादवने विषे (प हीणेतीरं के०) एक कांठो मूकी बीजे काठे (अपत्तेके०) अण पहोतों एटले न पहो तो अने (पनमवरपोमरीयंके०) पौंमरीक कमले पण पहोतो नही तेने नहरी पण शक्यो नही (पोहचाए के) कांते रह्यो नही (णोपाराएके०) पार पण पाम्यो नही कमलपण लश् नशक्यो (अंतरापोस्करिणीए के० ) विचाले पुष्करणी मांहेज (सेयंसि के० ) का दवने विषे (निसले के०) खुची रह्यो एटले बेदु तीर थकी भ्रष्ट थयो भने कम लने पण नघरी न शक्यो अने पोते पण कादवमां खुची रह्यो नीकली शक्यो नही (पढमेपुरिसजाए के० ) एटले प्रथम पुरुष जात जाणवो ॥६॥ ॥ दीपिका-श्रीसूत्रकतांगस्य प्रथमः श्रुतस्कंधनक्तः ॥ अथ वितीयः प्रारच्यते । त Page #598 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६८ द्वितीये सूत्रकृतांगे द्वितीयश्रुतस्कंधे प्रथमाध्ययनं. 1 स्य सप्ताध्ययनानि । तेषु प्रथमं पुंडरीकाध्ययनं तस्येदमादिसूत्रं । ( सुमेति ) श्रुतं मया युष्मता जगवता एवमाख्यातं । इह प्रवचने । खलुशब्दोवाक्यालंकारे । पौंड रीकाख्यमध्ययनं पुंडरीकेण श्वेतपद्मेन उपमा यत्र तत्पौंडरीकं । तस्यायमर्थः प्रज्ञप्तः । वाक्यालंकारे ॥ १ ॥ तद्यथा । नामशब्दः संभावनायां । संभाव्यते पुष्करिणीदृष्टांतः पुष्कराणि पद्मानि यस्यां सा पुष्करिणी वापी स्यात् । किंनूता । बहूदका बहूदकप्रचुरा । सीयंते यस्मिन्नसौ सेयः कर्दमः सयस्यां बहुसेया बहुपुष्कला बहुसंपूर्णा लब्धानामानु तोर्योयया सा लव्धार्था पुंडरीकी श्वेतपद्मप्रचुरा प्रासादिका निर्मला दर्शनीया शो नना । प्रनितः सर्वतोरूपाणि हंसचक्रादीनि यस्यां सा तथा प्रतिरूपा प्रतिबिंबवती नि मलत्वात्तस्यां सर्वत्र प्रतिबिंबानि वीदयंते ॥ २ ॥ तस्यां पुष्करियां । तत्रतत्रेति पुंडरी hore | देशदेशे इत्यनेन तु एकैकप्रदेशे प्राचुर्यमाह । तस्मिंस्तस्मिन्नित्यनेन तु नात्येवासौ प्रदेशोयत्र तानि न संतीति । अथवा अत्यादरज्ञापनाय एकार्थान्येवैता नि त्रीणि पदानि । तेषु पुष्करिण्याः सर्वप्रदेशेषु बहूनि पद्मान्येव वराणि पौंडरीका लि श्वेतशतपत्रायुक्तानि श्रानुपूर्व्येण विशिष्टरचनया स्थितानि उब्रितानि पंकजले यति लंघ्य उपरि व्यवस्थितानि रुचिं कांतिं जांतीति रुचिलानि दीप्तिमंति शोचनवर्णगंधरस स्पर्शवति प्रासादीयानि दर्शनीयानि अनिरूपाणि प्रतिरूपाणि ॥ ३ ॥ तस्यां पुष्करि एयां । णं वाक्यालंकारें । मध्यदेशे एकं पद्मवरमेव पुंडरीकमुक्तं शेषव्याख्या पूर्ववत् ॥ ४ ॥ ( सावंतत्ति ) सर्वस्यापि तस्याः पुष्करिण्याः सर्वप्रदेशेषु बहूनि पद्मानि तथा सर्व स्याश्च तस्याबहुमध्यदेशे पूर्वोक्त विशेषणविशिष्टं महदेकं पौंडरीकं विद्यतइति ॥ ५ ॥ य पूर्वस्यादिशः कश्विदेकः पुरुषः समागम्य तां पुष्करिणीं तस्याश्व तीरे तटे स्थित्वा त तत्पद्मं प्रासादीयादिविशेषणं सपुरुषएवं वक्ष्यमाणं वदेत् । ( अहमंसित्ति ) ग्रहमस्मि पुरुष: कुशलः पंडितः क्षेत्रज्ञोव्यक्तोबाल्यादतिक्रांतोमेधावी यबालोमध्यमवयामार्ग स्थः सङ्गिराचीर्णमार्गस्थोमार्गवित् मार्गस्य या गतिर्गमनं तया पराक्रमं विवदितदेश गमनं तानातीति मार्गस्य गतिपराक्रमशः एवंविधोऽहमेतत्पद्मवरपुंडरीकं पुष्करिणी मध्यस्थं उत्क्षेप्स्यामि उत्खनिष्यामीति कृत्वा इहागतइत्युक्त्वा सपुरुषस्तां पुष्करिणीम निक्रामेत् संमुखं गछेत् । यावच्च यावच्च तदवतरणेनुः संमुखं गच्छेत्तावत्तावच्च । पंवा क्यालंकारे । तस्याः पुष्करिष्यामहदगाधमुदकं महांश्व सेयः कर्दमः । ततः समहाकर्दमोद कान्यामाकुलः प्रहीणस्तीरं विनक्तिव्यत्ययात्तीराद् भ्रष्टः । अप्राप्तश्च पद्मवरपुंडरीकं । तस्याः सेयः कर्दमस्त स्मिन्निषस्मोनिमग्नस्तीरपद्मयोरंतरंतराजएव तिष्ठति ( नोहचाएत्ति) नार्वाक् तटवर्ती (नोपाराति) नापि पारगमनाय समर्थः । एवमसावुनयचष्टः प्रथमः पुरु पजातः पुरुषजातीयः ॥ ६ ॥ For Private Personal Use Only Page #599 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राय धनपतसिंघ बाहाउरका जैनागम संग्रह नाग उसरा. एहए टीका-प्रथमश्रुतस्कंधानंतरं वितीयः समारन्यते । अस्य चायमनिसंबंधः। इहानं तरश्रुतस्कंधे योर्थः समासतोऽनिहितोऽसावेवानेन श्रुतस्कंधेन सोपपत्तिकोव्यासेनानि धीयते । तएव विधयः सुसंगृहीतानवंति येषां समासव्यासाच्यामनिधानमिति । यदि वा पूर्वश्रुतस्कंधोक्तएवार्थोऽनेन दृष्टांत वारेण सुखावगमार्थ प्रतिपाद्यतइत्यनेन संबंधे नायातस्यास्य श्रुतस्कंधस्य संबंधीनि सप्त महाध्ययनानि प्रतिपाद्यते । महांति च ता न्यध्ययनानि च पूर्वश्रुतस्कंधाध्ययनेच्योमहत्वादेतेषामिति । तत्र महबन्दाध्ययनशब्दयो निदेपार्थ नियुक्तिकदाह । णामंतवणा दविए खेत्ते काले तहेव नावेय ॥ एसो खलु म ह तंमि निरकेवो बविहो होंति ॥ १ ॥ (णामंतवणेत्यादि) नामस्थापनाव्यक्षेत्रका लनावात्मकोमहति षडिधोनिदेपोजवत्ति । तत्र नामस्थापने सुझाते इव्यमहदागमतो नोधागमतश्च । आगमतोझाता तत्र चानुपयुक्तः। नोवागमतस्तु शरीरनव्यशरीरव्य तिरिक्त सचित्त मिश्रनेदात्रिधा । तत्रापि सचित्तव्यमहतऔदारिकं शरीरं तत्रौदारिकं योज नसहस्त्रपरिमाणं मत्स्यशरीरं वैकियं तु योजनशतसहस्त्रपरिमाणं । तैजसकार्पणे तु लोका काशप्रमाणे । तदेतदौदारिकवैक्रियतैजसकामणरूपं चतुर्विधं व्यं सचित्तमहदचित्तमहत् समस्तलोकव्याप्यचित्तमहास्कंधः । मिश्रं तु तदेव मत्स्यादिशरीरं देवमहत् लोकाकारां कालमहत्सर्वामानावमहदौदयिकादिनावरूपतया पोढा । तत्रौदयिकोनावः सर्वसंसा रिषु विद्यतइति कृत्वा बव्हाश्रयत्वान्महान् नवति । कालतोप्यसौ त्रिविधः । तद्यथा । अनाद्यपर्यवसितोऽनव्यानामनादिसपर्यवसितोनव्यानां सादिसपर्यवसितोनारकादीनामि ति । दायिकस्त केवलज्ञानदर्शनात्मकः साद्यपर्यवसितत्वात्कालतोमहान् दायोपशमि कोप्याश्रयबदुत्वादनाद्यपर्यवसितत्वाच महानिति । औपशमिकोपि दर्शनचारित्रमोहनी यानुदयतया गुननावत्वेन च महान् नवति । पारिणामिकस्तु समस्तजीवाजीवाश्रयम हत्वान्महानिति । सान्निपातिकोप्याश्रयबदुत्वादेव महानिति नक्तं । महदध्ययनस्यापि नामादिकं षोढानिदेपं दर्शयितुं नियुक्तिकदाह । “ णामंग्वणा दविए खेत्ते का तहेव नावेय ॥ एसो खलु अयणे निरकेवो बबिहो होंति” ॥ ॥ (नामंग्वणेत्यादि) अध्ययनस्य नामादिकः पोढा निक्षेपः । सचान्यत्र न्यदेण प्रतिपादितइति नेह प्रतन्य ते । अत्रच श्रुतस्कंधे सप्त महाध्ययनानि तेषामाद्यमध्ययनं मरीकारख्यं तस्य चोपक मादीनि चत्वार्यनुयोग क्षाराणि प्ररूपणीयानि । तथोपक्रमानुपूर्वी,नाम,प्रमाण,वक्त व्यता,र्थाधिकार, समवतार, जेदात्षोढा । तत्र पूर्वानुपूर्वी प्रथममिदं पश्चानुपूर्व्या स तमगलगतायाः श्रेण्याअन्योन्याच्यासोने विरूपोने सति पंचाशतान्यष्टत्रिंशदधिकानि न वंति नानितु षट् । तत्रापि दायोपशमिके नावे सर्वस्यापि च श्रुतस्य दायोपशमिकत्वा प्रमाणचिंतायां जीवगुणप्रमाणे वक्तव्यतायां सामान्येन सर्वेष्वथ्ययनेषु स्वसमयवक्तव्य ७२ Page #600 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Այս द्वितीये सूत्रकृतांगे द्वितीय श्रुतस्कंधे प्रथमाध्ययनं. ता। अर्थाधिकारः पौंडरीकोपमया स्वसमयगुणव्यवस्थापनं । समवतारेतु यत्र यत्र स मवतरति तत्रतत्र जेशतः समवतारितमेवेति । उपक्रमानंतरं निदेषः सच नाम निष्पन्ने निक्षेपे पौंडरीकमित्यस्याध्ययनस्य नाम तन्निक्षेपार्थ निर्युक्तिरुदाह । " णामंग्वला द विए, खेत्ते कालेय गण संगणे ॥ नावेय हमे खलु, पिरकेवो पुंडरीयस्य " ॥ ३ ॥ ( सामंतवणेत्यादि) पौंडरीकस्य नामस्थापनाव्य क्षेत्रका लग् एाना संस्थापननावात्म कोऽष्टधा निदेषः । तत्र नामस्थापने कुत्वादनादृत्य व्यपगरी कम निधित्सुराह । " जो जीवो नविन खलु, नववति कामो पुंडरीयस्य ॥ सोदवपुंडरी, नावंमि विजा dard " ॥ ४ ॥ ( जोजीवोइत्यादि ) यः कश्चित्प्राणधारणलक्षणोजीवोज विष्यतीति व्यस्तदेव दर्शयति । उत्पतितुकामः समुत्पित्सुस्तथाविधकर्मोदयात्पौंडरीकेषु श्वेतपद्मेषु वनस्पतिकाय विशेषेष्वनंतरनवे नावी सव्यपौमरीकः । खलुशब्दोवाक्यालंकारे । जावपौं मरीकं त्वागमतः । पौंडरीकपदार्थज्ञस्तत्र चोपयुक्तइति । एतदेव इव्यपौंडरीकं विशेषत रं दर्शयितुमाह । “ एगन विएयबा, एय घनिमुहिय नामगोएय । एते तिन देसा, दबंमिय पोंमरीयस्स " ॥ ५ ॥ एकेन नवेन गतेनानंतरनव एव पौंडरी के पूत्पत्स्यते स एक विकस्तथा तदासन्नतरः पौंडरीकेषु बदायुष्कस्ततोप्यासन्न तमोनिमुखनामगोत्रोऽ नंतरसमयेषु यः पौंडरीकेषूत्पद्यते । धनंतरोक्तास्ते त्रयोदेश विशेषाइव्यपौंरीकेऽवगंत व्याइति । नूतस्य नाविनोवा नावस्य हि कारणं तु यलोके । तद्द्रव्यं तत्त्वज्ञैः सचेतना चेतनं कथितमिति वचनात् । इहच पुंडरीककंडरीकयोत्रोर्महाराज पुत्रयोः सदसदनुष्ठा नपरायणतया शोजनत्वमवगम्य तडुपमयाऽन्यदपि योजनं तत्पौंडरीकमितरन्तु कंमकमि ति । तत्र च नरकवर्जासु तिसृष्वपि गतिषु ये शोजनाः पदार्थास्ते पौमरीकाः शेषास्तु कांमरीकाइत्येतत्प्रतिपादयन्नाह । " तेरिया मगुस्सा, देवगणा चेव होंति जेय व रा ॥ ते होंति पुंमरीया, सेसा पुरा कंमरीया " ॥ ६ ॥ ( ते रिडिया इत्यादि ) कंठ्या तत्र तिर्यक् प्रधानस्य पमरीकत्वप्रतिपादनार्थमाह । " जलयर थलयर खयरा, जे पवराचेव होंति कंताय । जे वसनावमणुमया, ते होंति पुंमरीया " ॥ ७ ॥ जलचरेषु मत्स्य करिमकरादयः स्थलचरेषु सिंहादयोबलवर्णरूपादिगुणयुक्ता नरः परिसर्पे मलिफणि नोज परिसर्पेषु नकुलादयः खचरेषु हंसमयूरादयः इत्येवमन्येपि स्वनावेन प्रकृत्या लो कानुमतास्ते च पौंरीकाइव प्रधानाजवंति । मनुष्यगतौ प्रधानाविष्करणायाह । अ रिहंत चक्कवत्ती जारएणविजाहरा दसाराय ॥ जे खन्ने इतिमंता, तेन्होंति पोंमरीया ॥ ८ ॥ सर्वातिशायिनीं पूजामईतीत्यर्हतः । ते निरुपमरूपादिगुणोपेतास्तथा चक्रव तिनः पद्रखंडन र तेश्वरास्तथाचार श्रमणाबहुविधैश्वर्यनूतलब्धिकलापोपेतामहातपस्विनस्त या विद्याधरा वैताढ्य पुराधिपतयस्तथा दाशाहीहरिवंशकुलोद्रवाः । यस्य चोपलक्षणार्थ 1 Page #601 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राय धनपतसिंघ बाहाउरका जैनागम संग्रह नाग उसरा. १ वादन्येपीदवाक्कादयः परिगृह्यते । एतदेव दर्शयति । ये चान्ये महर्धिमंतोमहेन्यः को टीश्वरास्ते सर्वेपि पौंडरीकानवंति । तु शब्दस्यानुक्तसमुच्चयार्थत्वात् । येचान्ये विद्याक लापोपेतास्ते पौंडरीकाइति । सांप्रतं देवगतो प्रधानस्य पौडरीकत्वं प्रतिपादयन्नाह । नव एवश्याणमंतर, जोतिसवेमाणियाणि देवाणं ॥ जे तेसिं पवरा खलु, ते होंति पुंडरीया ॥ ए ॥ नवनपतिव्यंतरज्योतिष्कवैमानिकानां चतुर्णा देवनिकायानां मध्ये ये प्रवरा प्रधानाई सामानिकादयस्ते प्रधानाइति कृत्वा पोंडरीकानिधानानवंति । सांप्रतमचित्त इव्याणां यत्प्रधानं तत्पौंमरीकत्वप्रतिपादनायाह । “ कंसाणं दूसाणं, मणिमोत्तियसि लप्पवालमादीणं ॥ जे तेसिं पवरा खलु ते होंति पोमरीया ॥१०॥ कांस्यानां म ध्ये जयघंटादीनि दृष्याणां चीनांशुकादीनि मणीनामिंड्नीलवैदूर्यपद्मरागादीनि रत्नानि मौक्तिकानां यान्यनेकवर्णसंस्थानप्रमाणाधिकानि । तथा शिलानां मध्ये पांमुकंबला दयः शिलास्तीर्थकजन्मानिषेकसिंहासनाधारनूतास्तथा प्रवालानां यानि वर्णादिगुणोपे तान्यादिग्रहणाजात्यचामीकरं तदिकाराश्वानरण विशेषाः परिगृह्यते । तदेवमनंतरोक्ता नि कांस्यादीनि प्रवराणि तानि चित्तौमरीकाण्यनिधीयंतइति । मिश्रव्यौमरीकं तु ती र्थकञ्चकवादयएव प्रधानकटककेयूराद्यलंकारालंकताइति । इव्यपोंडरीकानंतरं देत्र पौंमरीकानिधित्सयाह । “ जाई खेत्ताई खलु, सुहापुनावाई होंति लोगंमि ॥ देवकु रुमादिया, ताई खेत्ताई पवराई” ॥ ११ ॥ (जाइमित्यादि) यानि कानिचिदिह देव कुर्वादीनि गुनानुनावानि देत्राणि तानि प्रवरणानि पौडरीकानिधानानि नवंति । सां प्रत कालपौंडरीकप्रतिपादनायाह । “जीवा नवहितीए, कायक्तिीए य होंतिजे पवरा॥ ते होति पोंमरीया, अवसेसा कंडरीया ॥ १२ ॥ (जीवाश्त्यादि) जीवाः प्राणिनोन वस्थित्या च ये प्रवराः प्रधानास्ते पौंडरीकानवंति शेषास्त्वप्रधानाः कंझरीकाइति । तत्र नवनस्थित्या देवाअनुत्तरोपपातिकाः प्रधानानवंति । तेषां यावन्नवं गुनानुनावत्वात्का यस्थित्या तु मनुष्याः गुनकर्मसमाचाराः सप्ताष्टनवप्रमाणानि मनुष्येषु पूर्वकोट्यायुष्के प्वनुपरिवानंतरनवे त्रिपल्योपमायुष्केषूत्पादमनुनूय ततोदेवेषूत्पद्यतइति कृत्वा ततस्ते काय स्थित्या पौंमरीकानवंत्यवशिष्टास्तु कंडरीकाइति । कालपोंडरीकानंतरं गणनासंस्था नपौंडरीक क्ष्यप्रतिपादनायाह । “ गणणाए र खलु संतगणं चेव होंति चरंसं । ए याई पोमरीगाई होति सेसाइंश्यराइं" ॥ १३ ॥ (गणगाएइत्यादि) गणनया संख्य या पोंमरीकं चिंत्यमानं दशप्रकारस्य गणितस्य मध्ये रकुगणितं प्रधानत्वात्पौंमरीकं । दशप्रकारं तु गणितमिदं । परिकम्मुरकुरासी, ववहारे तह कलासवर य ॥ पुग्गलजावं तावे, घणे य घणवग्ग वग्गेय । एषां संस्थानानां मध्ये समचतुरस्र संस्थानं प्रवर त्वात्पौंमरीकमित्येवमेते ३ अपि पौंमरीके शेषाणि तु परिकादीनि गणितानि न्यग्रो Page #602 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५७२ तीये सूत्रकृतांगे वितीय श्रुतस्कंधे प्रथमाध्ययनं. धपरिमंमलादीनि च संस्थानानि इतराणि कंमरीकान्यप्रवराणि नवंतीति यावत् । सांप्र तं नावपौंमरीकप्रतिपादनानिधित्सयाह । “ उदएय वसमिए खलु, खइए य तहा खट वसमिएय ॥ परिणामसन्निवाए, जे पवरा ते वि ते चे व ॥ १४ ॥ (नदयेत्या दि) औदयिके नावे तथौपशमिके दायिकदायोपश मिके पारिणामिके सान्निपातिकेच नावे चिंत्यमानेषु तेषु वा मध्ये ये प्रवराः प्रधानास्तेप्यौदयिकादयोनावास्तएव पौंडरी काएवावगंतव्यास्तथौदयिके नावे तीर्थकराअनुत्तरोपपातिकसुरास्तथान्येपि सितशतपत्रा दयः पामरीका औपशमिके समस्तोपशांतमोहाः दायिके केवलझानिनः दायोपशमिके विपुलमतिश्चतुर्दशपूर्व वित्परमावधयोन्यस्ताः समस्तावा पारिणामिके नावे नव्याः सान्निपा तिके नावे दिकादिसंयोगाः सिमादिषु स्वबुध्या पौंडरीकत्वेन योजनीयाः शेषास्तु कांडरीका इति । सांप्रतमन्यथानावपौंडरीकप्रतिपादनायाह । “अहवावि नागदंसण, चरित्तविणए तहेव अप्पे ॥जे पवरा होति मुणी, ते पवरा पुंडरीया ॥१५॥ (अहवेत्यादि) अथवापि नावपौंडरीकमिदं । तद्यथा। सम्यक्झाने तथा सम्यग्दर्शने सम्यक्चारित्रज्ञानादिके विनये तथाऽध्यात्मनि च धर्मध्यानादिके प्रवराः श्रेष्ठामुनयोनवंति ते पौमरीकत्वेनावगंतव्यास्त तोऽन्ये कंझरीकाइति । तदेवं संनविनमष्टधा पौंडरीकस्य निदेपं प्रदर्याधुनेह येनाधिकार स्तमावि वयन्नाह । “ एबं पुण बहिगारो, वणस्सतीकायपुंगरीएणं ॥ नावं मि य सम गणं, अभयणे पुंगरीए य"॥१६॥ (एबंपुणेत्यादि) अत्र पुनदृष्टांतप्रस्तावे ऽधिकारोव्या पारः सचित्ततिर्यग्योनिकैकेंख्यिवनस्पतिकायव्यपौंडरीकेन जलरुहेणवा औदयिकनाव वर्तिना वनस्पतिकायपौंडरीकेण सितशतपत्रेण तथा नावे श्रमणेन सम्यग्दर्शनचारित्रवि नयाध्यात्ममूर्तिना सत्साधुनाऽस्मिन्नध्ययने पोंडरीकारण्ये ऽधिकारइति । गता निक्षेपनियु क्तिरधुनासूत्रस्पर्शितकनियुक्तेरवसरः। साच सूत्रे सति नवति । सूत्रंच सूत्रानुगमे सचाव . सरप्राप्तोऽतोऽस्खलितादिगुणोपतं सूत्रमुच्चारयितव्यं । तच्चेदं। (सुयंमेधानसंतेणमित्यादि) अस्य चानंतरं सह सूत्रेण संबंधोवाच्यः । सचायं । (सेएवमेवं जाणह जमदं नयंता रोत्ति ) तमेव देवं जानीत नयस्य त्रातारं । तद्यथा।श्रुतं मयाऽऽयुष्मता नवतैवमाख्या तमा दिसूत्रेण च सह संबंधोयं । तद्यथा । यनगवताख्यातं मया च श्रुतं तद्बुध्येतेल्या दि। किंतनगवतारख्यातमित्याह । इह प्रवचने सूत्रकत् क्षितीयश्रुतस्कंधे वा । खलुशब्दो वाक्यालंकारे। पौडरीकानिधानमध्ययन पौंडरीकेण सितशतपत्रेणात्रोपमा नविष्यतीति कत्वाऽतोस्याध्ययनस्यपौंडरीकमिति नाम कृतं तस्य चायमर्थः। णमिति वाक्यालंकारे।प्र इप्तः प्ररूपितः ॥१॥ (सेजहत्ति) तद्यथार्थः सच वाक्योपन्यासार्थः। नामशब्दः संना बनायां । संनाव्यते पुष्करिणी दृष्टांतः । पुष्कराणि पद्मानि तानि विद्यते यस्यामसौ पु ष्करिणी स्यानवेदेवंनूता । तद्यथा बहुप्रचुरमगाधमुदकं यस्यां सा बस्दका बहूदकप्रचुरा Page #603 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राय धनपतसिंघ बादाउरका जैनागम संग्रह नाग उसरा. ५७३ तथा सीयंतेऽवबध्यंते यस्मिन्नसौ सेयः कर्दमः सयस्यां सा बहुसेया प्रचुरकर्दमा च ब दुश्वेतपद्मसनावात् स्वखोदकसंनवाच बहुश्वेता वा तथा बहुपुष्कला बहुसंपूर्णा प्रचु रोदकनृतेत्यर्थः। तथा लब्धःप्राप्तः पुष्करिणीशब्दान्वर्थतयार्थोयया सा लब्धार्थाऽथवाऽऽ स्थानमास्था प्रतिष्ठा सा लब्धा यया सा लब्धास्था तथा पोंडरीकाणि श्वेतशतपत्राणि विद्यते यस्यां सा पौंडरीकिणी। प्रचुरार्थन मत्वर्थीयोत्पत्तेबदुपद्मेत्यर्थः । तथा प्रसादःप्र सन्नता निर्मलजलता सा विद्यते यस्याः सा प्रसादिका प्रासादावा देवकुलसन्निवेशा स्ते विद्यते यस्यां समंततः प्रासादिका दर्शनीया शोजना सत्संनिवेशतोष्टव्या दर्शन योग्या तथाऽनिमुख्ये च सदावस्थितानि रूपाणि राजहंसचक्रवाकसारसादीनि गजमहि षमृगयूथादीनि वा जलांतर्गतानि वा करिमकरादीनि वा यस्यां साऽनिरूपेति तथा प्र तिरूपाणि प्रतिबिंबानि विद्यते यस्यां सा प्रतिरूपा। एतउक्तं नवति । स्वबत्वात्तस्याः सर्व प्रतिबिंबानि समुपलभ्यते तदतिशयरूपतया वा लोकेन तत्प्रतिबिंबानि क्रियते सा प्र तिरूपेति । यदिवा (पासादीयाद रिसणीयायनिरूवापडिरूपत्ति ) पर्यायाश्त्येते चत्वारो प्यतिशयरमणीयत्वख्यापनार्थमुपात्ताः ॥ २ ॥ तस्याश्च पुष्करिण्याः । णमिति वाक्यालं कारे । तत्र तत्रेत्यनेन वीप्सापदेन पौंमरीकैर्व्यापकत्वमाह। देशेदेशे इत्यनेन त्वेकैकप्रदे शे प्राचुर्यमाह । तस्मिंस्तस्मिन्नित्यनेन तु नास्त्येवासौ पुष्करिण्याः प्रदेशोयत्र तानि न संतीति । यदिवा देशेदेशइत्येतत्प्रत्येकमनिसंबध्यते । तत्रतत्रेति । कोर्योदेशेदेशे तस्मिंस्त स्मिन्निति चार्थोदेशैकदेशइति । यदिवा अत्यादरख्यापनायैकार्थान्येवैतानि त्रीण्यपि पदा नि । तेषु च पुष्करिण्याः सर्वप्रदेशेषु बहूनि प्रचुराणि पद्मान्येव वराणि श्रेष्ठानि पौंडरी काणि पद्मवरपोंडरीकाणि । पद्मग्रहणं बनव्याघ्रव्यवदार्थ । पौंडरीकग्रहणं श्वेतशतपत्र प्रतिपत्त्यर्थ । वरग्रहणमप्रधाननिवृत्त्यर्थ । तदेवंनूतानि बहूनि पद्मवरपोंडरीकाणि (बुश्य त्ति) उक्तानि प्रतिपादितानि विद्युतश्त्यर्थः । यानुपूर्येण विशिष्टरचनया स्थितानि त थोब्रितानि पंकजले अतिलंध्योपरि व्यवस्थितानि तथा रुचिर्दीप्तिस्तां लांत्याददति रुचि लानि सद्दीप्तिमंति तथा शोननवर्णगंधरसस्पर्शवंति तथा प्रसादीयानि अनिरूपाणि प्र तिरूपाणि ॥ ३॥ तस्याश्च पुष्करिण्याः सर्वतः पद्मावृतायाः। णमिति वाक्यालंकारे । ब दुदेशमध्यनागे निरुपचरितमध्यदेशे एकं महत्पद्मवरपौंडरीकमुक्तमानुपूर्येण व्यवस्थित मुदितं रुचिलवर्णगंधरसस्पर्शवत् तथा प्रासादीयं दर्शनीयं अनिरूपतरं प्रतिरूपतरमि ति ॥ ४ ॥ सांप्रतमेदेवानंतरोक्तं सूत्रदयं सवावत्तिचरांतीत्यनेन विशिष्टमपरं सूत्रव्यं इष्टव्यं । अस्यायमर्थः (सवावंतिसि) सर्वस्यापि तस्याः पुष्करिण्याः सर्वप्रदेशेषु यथो क्तविशेषणविशिष्टानि बहूनि पद्मानि तथा सर्वस्याश्च तस्याबहुमध्यदेशनागे यथोक्तवि शेषणविशिष्टं महदेकं पोंडरी विद्यतइति । उनयत्रापि चः समुच्चये। ए मिति वाक्यालंका Page #604 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५७४ द्वितीये सूत्रकृतांगे द्वितीय श्रुतस्कंधे प्रथमाध्ययनं. रे ॥ ५ ॥ थानंतरमेवंभूत पुष्करिण्याः पूर्वस्यादिशः कश्विदेकः पुरुषः समागत्य तां पुष्क रिणीं तस्याश्च तीरे तटे स्थित्वा तदेतत्पद्मप्रासादादिप्रतिरूपांत विशेषण कलापोपेतं स पुरुषः पूर्वदिग्नागव्यवस्थितएवमिति वक्ष्यमापनीत्या वदेत् ब्रूयात् । (हमंसेति) यह मस्मि पुरुषः । किंनूतः कुशलोहिता हितप्रवृत्तिनिपुणस्तथा पापाल्लीन: पंडितोधर्मज्ञो देशकालज्ञः क्षेत्रज्ञोव्य क्तोबालनावान्निष्क्रांतः परिणतबुद्धिर्मेधावी लवनोत्प्लवनयोरुपाय इस्तथा बालोमध्यमवयाः षोडशवर्षोपरिवर्ती मार्गस्थः सद्विराचीर्णमार्गव्यवस्थितस्त या सन्मार्गज्ञस्तथा मार्गस्य या गतिर्गमनं वर्तते तया यत्पराक्रमणं विवक्षित देशगमनं तानातीति पराक्रमशः । यदिवा पराक्रमः सामर्थ्य तज्ज्ञोहमात्मज्ञइत्यर्थः । तदेवंनू विशेष कला पोपेतोऽहमेतत्पूर्वोक्त विशेष एकलापोपेतं पद्मवरपौंडरीकं पुष्करिणी मध्यं देशावस्थितमहमुत्क्षेप्स्यामीति करवेागतइत्येतत्पूर्वोक्तं तत्प्रीत्योक्त्वाऽसौ पुरुषस्तां पु पुष्करिणीमनिमुखं क्रामेत् घनिमुखं गच्छेद्यावद्यावच्चासौ तदवतरणानिप्रायेणानिमुखं कामेत्तावत्तावच्च । एमिति वाक्यालंकारे । तस्याश्च पुष्करिष्यामहदगाधमुदकं तथा महां श्व सेयः कर्दमस्ततोऽसौ महाकर्दमोदकाच्या माकुलीनूतः प्रहीणस्त६ि वेकेन रहितस्त्य क्त्वा तीरं सुव्यत्ययाा तीरात्प्रहीणः प्रचष्टोऽप्राप्तश्च विवचितं पद्मवरपौंडरीकं तस्याः पुष्करिष्यास्तस्यां वा यः सेयः कर्दमस्त स्मिन्निषमोनिममयात्मानमुर्तुमसमर्थस्तस्माच्च तीरादपि प्रष्टस्ततस्तीरपद्मयोरंतराल एवाव तिष्ठते । यतएवमतः ( नोहच्चाए त्ति ) नाव तटवर्त्यसौ नवति (नोपाराएत्ति ) नापि विवचितप्रदेशप्रात्या पारगमनाय समर्थोन वति । एवमसावुनयचष्टोमुक्तमुक्तोलीवदनर्थायैव प्रनवतीत्ययं प्रथमः पुरुषएव पुरुष जातः पुरुषजातीयइति ॥ ६ ॥ हावरे दोघे पुरिसजाए यह पुरिसे दकिणाने दिसा आगम्म तं पुस्क रिंगिं तीसे पुरकरिणीए तीरे हिच्चा पासंति तं मदं एगं पनमवर पोंमरीयं धियं पासादीयं जाव पडिरूवं तंच एच एगं पुरिसजा तं पासंति तं पढ़ीणे तीरं प्रपत्ते पमवरपॉमरीयं पोढच्चाए सोपारा ए अंतरा पोरकरिणीए सेयंसि सिन्ने तएां से पुरिसे तं पुरिसं एवं वयासी दो णं इमे पुरिसे खेयने कसले अभिए अवियत्ते मेदावी वाले गोमग्गचे सोमग्गविक गोमग्गस्सगतिपरक्कमण जन्न एस पुरिसे अहंखेयन्ने च्प्रदंकुसले जाव पनुमवरपोंमरीयं नि किस्सामि णो खलु एयं पठमवरपोंमरीयं एवं नन्निरयवं जदा For Private Personal Use Only Page #605 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रायधनपतसिंघ बादाउरका जैनागम संग्रह नाग उसरा. ५७५ एस पुरिसे मन्ने॥७॥ अहमंसि पुरिसे खयन्ने कुसले पंमिए वियत्ते मेहावी अबाले मग्गले मग्गविऊ मग्गस्सगतिपरक्कमम अहमेयं पनमवरपोंझरीयं निरिकस्सामित्ति कट्ट इति वच्चा से परिसे अनिकमे तं पुस्करिणिं जावजावंचणं अनिक्कमे तावताचणं महंते नदए महंते सेए पहीणे तीरं अपत्ते पनमवरपोंमरीयं पोहच्चाए णोपाराए अं तरा पोरकरिणीए सेयंसि णिसन्ने दोच्चे पुरिसजाते अदावरे तच्चे पुरिस जाते अद पुरिसे पबिमान दिसान आगम्म तं पुरकरिणिं तीसे पुस्करिणी ए तीरे च्चिा पासंति तं एगं मदं परमवरपोमरीयं अणुपुबुध्यिं जाव प डिरूवं ते तब दोन्नि पुरिसजाते पासंति पहीणे तीरं अपत्ते परमवरपों मरीयं पोहच्चाए णोपाराए जाव सेयंसि णिसन्ने तएणंसे पुरिसे एवं वया सी अहो णं श्मे पुरिसा अखेयन्ना अकुसला अपंमिया अवियत्ता अ मेहावी बाला पोमग्गना गोमग्गविक पोमग्गस्सगतिपरकमम जन्नं एते पुरिसा एवं मन्ने अम्दे तं पठमवरपोमरीयं नमिस्किस्सामो नोय खलु एयं पनमवरपोमरीयं एवं नन्निरकेतवं जहाणं एए पुरिसा मन्ने अह मंसि पुरिसे खेयन्ने कुसले पंमिए वियत्ते मेहावी अबाले मग्गने मग्ग विऊ मग्गस्सगतिपरकमम अहमेयं पनमवरपोमरीयं ननिस्किस्सामित्ति कट्ठ इतिवच्चा सेपुरिसे अनिक्कमे तं पुरकरिणि जाव जावंचणं अनिक्कमे तावताचणं महते उदए महंते सेए जावअंतरा पोरकरिणीए सेयंसि णि सन्ने तच्चे पुरिसजाए॥७॥ अदावरे चन्ने पुरिसजाए अह पुरिसे उत्त राग दिसा आगम्म तं पुस्करिणिं तीसे पुस्करिणीए तीरे च्चिा पासंति तं महं एगं परमवरपोमरीयं अणुपबुध्यिं जावपडिरूवं ते तब तिनि पुरिस जाते पासंति पहीणे तीरं अपत्ते जाव सेयंसि णिसन्ने तएणं से पुरिसे ए वं वयासी अहोणं इमे पुरिसा अखेयन्ना जावणोमग्गस्सगतिपरिक्कम एम जन्नं एते पुरिसा एवं मन्ने अम्हे तं पनमवरपोमरीयं ननिस्किस्सामि Page #606 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५७६ द्वितीये सूत्रकृतांगे द्वितीय श्रुतस्कंधे प्रथमाध्ययनं . णो खलु एयं पनमवरपोंमरीयं एवं नन्निरकेयवं जहा णं एते पुरिसा मन्ने व्यहमं सि पुरिसे खेयन्ने जाव मग्गस्सगतिपरक्कम प्रमेयं पठमवरपोंमरीयं नन्नि किस्सामित्ति कहु इतिवच्चा से पुरिसे तं पुरकरिपिं जावजावंचणं निक्कमे तावताचां महंते नदए महंते सेए जाव सिन्ने चनचे पुरिसजाए ॥ ॥ अर्थ - ( ग्रहावरे के ० ) अथ हवे प्रथम पुरुष अनंततर ( दोच्चे पुरिसजाए के० ) बीजो पुरुष जात कहेबे (यह पुरि सेके०) यथ हवे ए बीजो पुरुष ( दरिका दिसा ० गम्म के० ) दक्षिण दिशा यकीयाव्यो ( तंपुरकरि पिंके० ) ते पुष्करणीने विषे (ती से पुरकरिणीतीरे हिचा के० ) ते पुष्करणीने कांठे उनो रहने (तंमहंएगंपनमवर पोंमरी के०) ते महोटो प्रधान पोंमरीक कमलने ( पासंति के ० ) दीगे ते कमल केवोले तो केहि पासादीयं जावपडिरूवं ) इत्यादिक पूर्ववत् शोनायें करी सहित बे (तंच ho ) त्यां ते पुरुषे ( एबके० ) अंहीया ( एगंपुरिसजातंपासंतिके० ) एक पुरुष जा तदी (संपही तीरेके०) ते पुरुष वावडीना काठाथी नष्ट ( पचमवरपोंमरीयंके० ) प्रधान पुंरीक कमलने ( पत्तेके० ) अण पाम्यो थको ( पोहच्चाएके० ) वावडीनो बीजो कांठो पायो ( पोपाराएके ० ) कमल उद्धरवाने पण असमर्थ (अंतरापोरक रिपीए) पुष्करणीने विचालें ( सेयं सिके० ) कादवमांहे ( लिसने के ० ) खुतोबे (तए सेपुर के ० ) वार पडी ते पुरुष (तंपुरिसंके०) ते कादवमां खुचेना पुरुष प्रत्ये (ए वयासी० ) एम कहेवा लागो के (होमे पुरिसेके० ) अहो हे पुरुष खेयने कुसने पंमिए वियत्ते प्रमेहावी बाजे गोमग्गडे गोमग्गविक गोमग्गस्स गति परक्कम ए नव पदनुं अर्थ सुजन (जन्नएस पुरिसेके ० ) जे कारणे ए पुरुष पोता नात्माने (हंखेने के० ) हुं खेदशबुं ( अहं कुसने के ० ) ढुंकुसलढुं ( जावपलम वरपोंमरीयं न नि रिकस्सामिके ० ) इत्यादिक जाणतो यावत् प्रधान पुंमरीक कमल ढुं न दरीश एवा नावे यहीं श्राव्यो परंतु (लोखलुएयंपनमवरपोंमरीयं के०) निधें थकी पुं मरीक कमल श्री शक्यो नथी घने कादवमांज खूतोबे ( एवं न्निरकेयवं जहाणंएस पुरि सेमने के०) जेम तेपुरुष पोताने महोटो माह्यो मानीने कमल उधरवा गयो तेज विधिये ए बीजो पुरुष पण पोताने माने ॥ ७ ॥ (हमंसिपुरिसे के ० ) हुं पुरुष खेयने कुसले पंकिए वियते मेहावी बाले मग्गडे मग्गविक मग्गस्सगतिपरिक्कम इत्यादिक पोतामां मा ह्या पण मानतो ( श्रहमेयंके०) हुं ए (पचमवर पोंमरीयंचन्निरिकस्सा मित्तिके ० ) प्रधान पुं मरीक कमलने उदरीश ( कटुके० ) एमकरी ( इतिवच्चा के० ) एवं कदीने ( सेपुरिसे For Private Personal Use Only Page #607 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रायधनपतसिंघ बादाडुरका जैनागम संग्रह नाग उसरा. 0 0 के ० ) ते पुरुष (निक्कमेतं पुरक रिशिंके० ) ते पुष्करणीमा चाल्यो ( जावजावंच निक्कमे ० ) जेम जेम ते कमल सामो यावीने मांहे प्रवेश कस्यो ( तावतावचणं ० ) तेमतेम (महंतेनदए के० ) मापाणी मांहे ( महंते से एके० ) महोटा कादवां हे तो ( पहीती के ) वाव्यनातीर थकी पण ऋष्ट थयो ( अपत्तेपनमवरपोंमरीयं ho) ने प्रधान पुंमरीक कमलने पण अण पाम्यो ( पोहचाएके ० ) एक कांठा थकी ष्ट (लोपारा के ० ) ने बीजा कांताने पण नपाम्यो तथा कमल पण उद्धरी नशक्यो (अंतरापोरकरिणी एके ० ) पुष्करणीने विचाले ज ( सेयं सिके ० ) कादव मांहे (सिने के० ) खूची रह्यो (दोचे पुरिसजाते के ० ) एटजे बीजो पुरुष जात को. ॥ यथ हवे ए बीजो पुरुष कह्यानंतर त्रीजो पुरुष कहेले ए त्रीजो पुरुष पश्चिम दिशा थकी यावी पुष्करणीने कांठे उनो रहने यागला पुरुषनी पेरे समस्त वचन बोली कमल उरवा पुष्करणीमा प्रवेश करूं पण ते कमलने नही नशक्यो पोते पुष्करणीने अं तराने पाणी ने कादव मांहे खूतो एटले त्रीजो पुरुष जात कह्यो ॥ ८ ॥ हवे चोथो पुरुष उत्तर दिशा यकी यावीने पुष्करणीने तीरे उनो रही यागला त्रण पु रुपनी तेज वचन बोली तेमनी पेरेज कमल नरवाने पुष्करणी मांहे प्रवेश करयो परंतु तेपण कमल ची नशक्यो अने वाव्यने अंतरानें ते त्रण पुरुषोनीपेरे कादव मांज खूची रह्यो एटले चोथो पुरुष जात कह्यो ॥ ए ॥ || दीपिका - थापरो द्वितीयः पुरुषजातः पुरुषइति । अथ कश्चित्पुरुषोद दिए दिग्ना गादागत्य तां पुष्करिणीं तस्याश्च तीरे स्थित्वा पश्यति पद्मं तीरस्थच तं पूर्व स्थितं पुरु षमेकं पश्यति । तीरादष्टं पद्ममप्राप्तं नयन्रष्टं दृष्ट्वा सद्वितीयः पुरुषस्तमेवं वदेत् ग्रहोखेदे ! णं वाक्यालंकारे । योयं कर्दमे निमग्नः पुरुषः सोखेदशोऽकुशलोऽपंडितोऽ arathara बाजोन मार्गस्थोनोमार्गज्ञोनोमार्गस्य गतिपराक्रमज्ञः । यस्मादेषपुरुषः कुरा इत्युक्त्वा पद्ममुत्क्षेप्स्यामीत्येवं प्रतिज्ञां कृतवान् । नचैतत् पद्ममेवमुत्प्तव्यं यथायं पुरु पोमन्यतइति नावः । शेषं सुगमं ॥ ७ ॥ ततः ( श्रहमंसीत्यादि ) ग्रहमेवास्य पुंडर कस्योत्पणे कुशलइतिनावः । शेषं सुगमं ( ग्रहावरेतच्चेत्ति ) सुगमं । ॥ ८ ॥ ( यहा वरेचनवेत्ति) सुगमं ॥ ए ॥ ॥ टीका-अथ प्रथमपुरुषादनंतरमपरो द्वितीयः पुरुषजातः पुरुषइति । अथवेति वा क्योपन्यासार्थे । अथ कश्चित्पुरुषोदक्षिणदिनागादागत्य तां पुष्करिणीं तस्याश्च पुष्करि एयास्तीरे स्थित्वा तत्रस्थश्च पश्यति । महदेकं पद्मवर पौंडरीकमानुपूर्व्येण व्यवस्थितं प्रा सादीयं यावत्प्रतिरूपमत्र चास्मिंश्च प्रतीते तीरे व्यवस्थितस्तंच पूर्वव्यवस्थितमेकं पुरुषं ५७७ ७३ For Private Personal Use Only Page #608 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ԱՋԵ द्वितीये सूत्रकृतांगे द्वितीय श्रुतस्कंधे प्रथमाध्ययनं. पश्यति । किंनूतं । तीरात्परिचष्टमनवाप्तपद्मवरपौंडरीकमुनयचष्टमंतराजएवावसीदंतं च दृष्ट्वा तमेवमवस्थं पुरुषं ततोसौ द्वितीयः पुरुषस्तं प्राक्तनं पुरुषमेवं वदेत् ॥ होइति खेदे | सर्वत्र मिति वाक्यालंकारे । इष्टव्योयोयं कर्दमे निमग्नः पुरुषः सोखेदज्ञोऽकुशलोऽ पंडितोव्यक्तोमेधावी बालोन मार्गस्थोनोमार्गज्ञोनोमार्गस्य गतिपराक्रमज्ञः । अकुशलत्वा दिके कारणमाह । यद्यस्मादेषपुरुषएतत्कृतवान् । यद्यहं खेदज्ञः कुशलइत्यादि नणित्वा पद्मवरपौंडरीकमुत्क्षेप्स्यामीत्येवं प्रतिज्ञातवान् । नचैतत्पद्मवर पौंडरीकमेवमनेन प्रकारेण यथाऽनेनोत्देतुमारब्धं नैवमुत्देतव्यं यथायं पुरुषोमन्यतइति ॥ ७ ॥ ततोहमेवा स्योत्प ऐसे कुशलइति दर्शयितुमाह । (हमसीत्यादि) जावदोच्चे पुरिसाजाएत्ति । सुगमं ॥ ८ ॥ तृतीयं पुरुषमधिकृत्याह । ( ग्रहावरे तच्चेइत्यादि) सुगमं यावच्चतुर्थः पुरुष जातइति ॥ ए ॥ द निकू सूदे तीरही खेयन्ने जाव परक्कम अन्नतराने दिसाने वा अदिसान वा यागम्म तं पुरकरिणि तीसे पुरकरिणीए तीरे हिच्चा पा संति तं एवं महंतं पठमवरपोंमरीयं जावपडिरूवं ते तच चत्तारि पुरि सजाए पासंति पहीणे तीरं प्रपत्ते जाव पनमवर पोंमरीयं पोहचाए पोपाराए अंतरापुरकरिणीए सेयंसि पिसने तएवं से निकू तं एवं वयासी प्रहो णं इमे पुरिसा प्रखेयन्ना जाव णो मग्गस्स गति परक्कमण जन्नं एते पुरिसा एवं मन्ने अम्दे तं पमवर पोहरीयं निस्सिमो णो खलु एयं पनुमवपमरीयं एयं नन्निखेतवं जहा एते पुरिसा मन्ने अहमंसि निस्कू लूदे तीरी खेयन्ने जाव मग्ग स्स गतिपरक्कम अमेयं पनमवरपोमरीयं नसिकिस्सामित्ति क इतिवच्चा से भिकू णो प्रक्किमे तं पुरकरिणि तीसे पुरकरिणीए तीरे हिच्चा सकुका नृप्पयादि खलु जो पनमवर पोंमरीया उप्पया हि असे उपति ते पनमवरपोंमरी ॥ १० ॥ किट्टिए नाए सम पानसो पण से जाणितवे नवति जंतेति समां जगवं महावीरं बढ़वे निग्गंथाय निग्गंथीय वंदति नर्मसंति वंदेत्ता नमंसित्ता एवं वयासि किट्टिए नाए समानुसो पुल से ए जालामो स मानसोत्ति समणे जगवं महावीरे तेय बहवे निग्गंथेय निग्गंथीय प्रा For Private Personal Use Only Page #609 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राय धनपतसिंघ बादाउरका जैनागमसंग्रह नाग उसरा. ए मंतेता एवं वयासी हं नोसमणानसो ते आइरकामि विनावेमि किमि पवेदेमि सअहं सहे सनिमित्तं नुज्जोनुजो नवदंसेमि सेबेमि ॥११॥ अर्थ-(अहके०) हवे चोथा पुरुष नंतर पांचमो पुरुष कहे ते केवो तोके (नि स्कू के० ) निक्षण शील पचन पाचनादिक सावद्यानुष्ठान रहित निर्दोष थाहार नो जी (सूहे के०) राग ष रहित (तीरही के०) संसार समुना तीरनो यर्थी (खेयन्ने के०) खेदज्ञ एटले समस्त जीवोना खेदनो जाण (जावपरक्कम के०) यावत् मा गनी गतिना पराक्रमनुं जाण अंही बीजो आगलनो वर्णन सर्व करवो एवो जाण पुरु षते (अनतरादिसावाअणुदिसावा के० ) अन्य कोइएक दिशा थकी अथवा वि दिशा थकी (भागम्म के० ) यावीने ( तंपुरकरिणिं के०) ते पुष्करणी (तीसेपुरकर एगीएतीरेहिचा के० ) ते पुष्करणीने कांठे रहीने (तंएगंमहंतंपनमवरपोमरीयंके० ) ते एक महोटुं प्रधान पुंमरीक कमलने (पासंति के ) दीठो ( जावपडिरूवं के०) ते क मल ज्यांलगे प्रतिरूप सुधी पूर्वे वर्णन करेलुं तेवो कमल दीठो (तेतचत्तारिपुरिसजा एपासंति के०) तेणे त्यां चार पुरुषजात पूर्वोक्त चारदिशाना यावेला दीठा ते चारे पु रुष (पहीणेतीरं के० ) वाव्यना तीर थकी भ्रष्ट अने (अपत्तेजावपरमवरपोमरीयंणो हच्चाएगोपाराए के०) पुंमरीक कमलने पण यावत् नथी पाम्या (अंतरापुरकरिणीएके०) वाव्यने विचाले (सेयंसि के०) कादव मांहे (सिन्ने के०) खुताले तेने देखीने (तएणंसे निरकू के०) तेवार पड़ी ते निकु साधु (तं के०) ते चार पुरुषोने (एवंवयासि के०) एम बोल्यो (अहोणंश्मेपुरिसा के०) अहो ए पुरुष बापडा (अखेयन्ना के०) अखेदज्ञ (जाव गोमग्गस्तगतिपरक्कमस्म के०) यावत् मार्गनी गतिना पराक्रमना अजाण (जन्नएतेषु रिसाके०) जेम ए पुरुष (एवंमन्नेके) एम जाणे जे (अम्हेतपनमवरपोमरीयनमिरिक स्साम्मो के०) यमे ए कमल उदरी सुं तेवा विधिये नववाने अर्थे गया परंतु (गोख लु के) निश्चे थकीनहीज (एयंपनमवरपोमरीयंके) ए पोमरीक कमलने (एयं नन्निरकत वं के० ) एम उमरी शके नही (जहाणंएतेपुरिसामन्ने के०) जेम ए चार पुरुष जाणे ने ते विधियें कमल नदरी शकाय नही (अहमंसिनिरकुतूहे के०) जेमाटे दुं साधु राग देष रहित (तीरही के०) संसारना तीरनो अर्थी (खेयन्नेके०) खेदज्ञ (जावमग्ग स्सगतिपरक्कममके०) यावत् मार्गनी गतिना पराक्रमनुं जाण (थहमेयंपनमवरपों मरीयंमिरिकस्सामित्ति के० ) हुँ ए पुमरीक कमल निश्चे थकी नहरीश (कटु के०) एम करीने (इतिवच्चा के०) एवं वचन कहीने ( से निरकु के० ) तेसाधु (णोनिक्कमे तं पुरक Page #610 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५० वितीये सूत्रकृतांगे वितीय श्रुतस्कंधे प्रथमाध्ययनं. रिणिं के० ) ते पुष्करणी मांहे पेठो नहीं (तीसेपुरकरिणीएतीरेडिच्चा के० ) ते पु करणीने कांते रहीनेज ( सदंकुजा के ) शब्द करेले (नप्पयाहिखलुनोपनमव पोमरीयानप्पयाहि के ० ) अहो'मरीक कमल ए पुष्करणी मांहेथी नपडीने बाहेर घाव बाहेर धाव एम बे वार कह्यो (अहसेनप्प तितेपनमवरपोमरीएके०) हवे ते पुमरीक कम ल त्यांथी नपडयो ॥१०॥ ( किट्टिए के०) हवे ए दृष्टांत देखाडीने (नाएसमणानसोके०) श्रीमहावीर देव शिष्य बागले अंतर नाव मेलवे के अहो आयुष्यमंत श्रमण महात्मा तमने ए दृष्टांत कह्यो तेना (अछे के०) अर्थने (पुण के०) वली (से के० ) ते (जाणितवे नवति के० ) जाणोबो एम कहे थके तेवारे (नंतेति के० ) हे नगवान् एवो शब्द कहीने ( समनगवंमहावीरं के ) तपस्वी नगवंत श्रीमहावीरदेवने (बह वेनिग्गंथाय के० ) घणानिग्रंथ (निग्गंयोग्यवंदंति के० ) घणी साधवी ते श्रीमहावीर देवने वांदे ( नमसंति के ) नमस्कार करे (वंदेत्ता के० ) वंदना करीने (नमंसित्ता के ) नमस्कार करीने (एवंवयासि के०) एम बोल्या (किहिएनाएसमणानसो के०) के हे नगवंत श्रमणआयुष्यमंत तमे जे दृष्टांत कह्यो तेना (अके०) अर्थने (पुण के ) वली ( से के) ते ( जाणामो के०) अमे नथी जाणता तेवारे श्रीमहावीर देव ( समणासोत्ति के ) हे श्रमणो आयुष्यमंत साधु एवो शब्द कहीने (समणेन गवंमहावीरे के० ) श्रमण जगवंत श्रीमहावीर देव ( तेयबहवे निग्गंथेय के ० ) ते घणा निग्रंथ ( निग्गंधीय के ) घणी साधवीने (आमंतेता के०) थामंत्रण करीने ( एवंव यासी के ० ) एम कहेले (हंनोसमणानसोते के०) अहो साधु तमे पुब्यो ते (श्रा रकामि के०) हुँ तमने कटुंडे ( विनावेमि के० ) प्रगटार्थ कढुंj (किमि के० ) तेना प र्याय कटुंबं (पवेदे मिके०) हेतु दृष्टांते करी तमारे चित्तने सुगम थाय तेम कहूं (सय . के०) अर्थ सहित (सहेनके०) हेतुये सहित (सनिमित्तंके०) कारण सहित (मुजोनुको के०) वली वली (नवदंसेमिके०) देखाडीश (सेबेमिके०) ए टुं कढुंते तमे सांजलो॥११॥ ॥ दीपिका-अथ पंचमं पुरुषमाश्रित्याह । अथ निहुनिर्दोषाहारनोजी रूदोराग षरहितस्तीरार्थी संसाराब्धितीरानिलाषी। खेदज्ञश्त्यादि विशेषणानि पूर्व व्याख्यातानि । यावन्मार्गस्य गतिपराक्रमः सचान्यतरस्यादिशोवा आगत्य तां पुष्करिणी तस्याश्च तीरे स्थित्वा तन्महदेकं पद्मवरपौंडरीकं पश्यति तांश्चतुरः पुरुषान्पश्यति पंकनीरमग्नान् । ह ष्ट्रा च सनिहुरेवं वदेत् अहो इमे चत्वारोपि पुरुषाअस्त्रज्ञाअकुशतान मागेस्य गतिप राक्रमझाः । यस्मात्ते पुरुषाएवं ज्ञातवंतोयथा वयं पुंडरीकमुन्निप्स्यिामनत्वनिष्यामः। नच तत्पुंडरीकमेवमुत्देप्तव्यं यथैते मन्यते । किंतु यहमस्मि निकुरूदोयावन्मार्गस्य ग Page #611 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रायधनपतसिंघ बादाउरका जैनागम संग्रह नाग उसरा. ५१ तिपराक्रमझोऽहमेवैतत्पुंडरीकमुत्वनिष्यामीत्युक्त्वा सनिकुर्नातिकामेत्तां पुष्करिणी न प्रविशेत्तस्यास्तीरे स्थित्वा तटस्थएव शब्दकुर्यात् । तद्यथा । नत्पत हेपुंडरीक उत्प त इति शब्दश्रवणाात्तत्पतितं पुंडरीकं ॥ १० ॥ दार्टीतिकं योजयनू श्रीवीरः शिष्याना ह । कीर्तिते कथिते झाते दृष्टांते हेश्रमणायायुष्मंतोऽर्थः पुनरस्य ज्ञातव्योनवति नव निः । एवमुक्ते जगवता बहवोनिग्रंथानिग्रंथ्यश्च श्रमणं जगवंतं महावीरं वंदंति कायेन नमस्यंति शब्दैः स्तुवंति । वंदित्वा नमस्कृत्वाच एवं वदेयुः । तद्यथा । कीर्तितं झातमु दाहरणं जगवता । अर्थ पुनरस्य न जानीमति दृष्टोनगवान् तान् बहूनिग्रंथादीनेवं व देत् । हंतेति आमंत्रणे । हेश्रमणाश्रायुष्मंतोयनवनिरहं पृष्टस्तदारख्यामि आविर्नावया मि प्रकटयामि कीर्तयामि पर्यायैः प्रवेदयामि हेतुदृष्टांतैः । एकाथिकान्येव वा एतानि कथमाख्यामीत्याह । सार्थः सहेतुरन्वयव्यतिरेकरूपः कारणं कार्यसाधनं तेन युतं नू योनूयउपदर्शयामि ॥ ११ ॥ ॥ टीका-सांप्रतमपरं पंचमं तविलक्षणं पुरुषजातमधिकृत्याह । (अहनिस्कूलूहे इत्यादि ) अथेत्यानंतर्ये । चतुर्थ पुरुषादयमनंतरः पुरुषस्तस्यामूनि विशेषणानि । निद पशीलोनिटः पचनपाचनसावद्यानुष्ठानरहिततया निर्दोषाहारनोजी तथा रूदोरागोष रहितः । तौहि कर्मबंधहेतुतया स्निग्धौ । यथाहि स्नेहानावाइजोन लगति तथा राग देषानावात्कर्मरेतुनलगत्यतस्तइहितोरुदश्त्युच्यते । तथा संसारसागरस्य तीरार्थी त था क्षेत्रज्ञः खेदझोवा । पूर्व व्याख्यातान्येव विशेषणानि । यावन्मार्गस्य गतिपराक्रमः सचान्यतरस्या दिशोनुदिशोवाऽऽगत्य तां पुष्करिणी तस्याश्च तीरे स्थित्वा समंतादवलोक ये बदुमध्यदेशनागे तन्महदेकं पद्मवरपौंमरीकं पश्यति तांश्चतुरः पुरुषान् पश्यति यत्र च व्यवस्थितानिति । किंनूतांस्त्यक्ततीरानप्राप्तपद्मवरपुंमरीकान पंकजलावमग्नान पुनस्तीरमप्यागंतुमसमर्थान् दृष्ट्वाच तांस्तदवस्थान् ततोसौ निहुरेवमिति वक्ष्यमाण नीत्या वदेत् । तद्यथा । अहोति खेदे णमितिवाक्यालंकारे । श्मे पुरुषाश्चत्वारोपि अखे दझायावन्नोमार्गस्य गतिपराक्रमझायस्मात्ते पुरुषाएवं ज्ञातवंतोयथा वयं पद्मवरपौंडरीक मेवमनेन प्रकारेण यथैते मन्यते तथोत्देप्तव्यं । अपि त्वहमस्मिन् निकुरूपोयावति पराक्रमझएतजुणविशिष्टोऽहमेतत्पौंडरीकमुत्देप्स्यामि उत्खनिष्यामि समुहरिष्यामीत्ये वमुक्त्वाऽसौ नातिकामेत् तां पुष्करिणी न प्रविशेत् । तत्रस्थएव यत्कुर्यात्तदर्शयति । तस्यास्तीरे स्थित्वा तथाविधं शब्दं कुर्यात्तद्यथा ऊर्ध्वमुत्पतोत्पत । खलुशब्दोवाक्यालंका रे । हे पद्मवरपौंडरीक तस्याः पुष्करिण्यामध्यदेशात्त्वमुत्पतोत्पत । अथ तन्वन्दश्रवणा नंतरं तत्पतितमिति ॥ १० ॥ तदेवं दृष्टांतं प्रदर्य दाष्ीतिकं दर्शयितुकामः श्रीमन्म Page #612 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८‍ द्वितीये सूत्रकृतांगे द्वितीये श्रुतस्कंधे प्रथमध्ययनं . हावीरवर्धमानस्वामी स्वशिष्यानाह । कीर्तिते कथिते प्रतिपादिते मयास्मिन ज्ञाते नदा हरणे श्रमणायायुष्मंतोऽर्थः पुनरस्य ज्ञातव्योभवति नवद्भिरेतक्तं नवति । नास्योदा हरणस्य परमार्थ यूयं जानीथैवमुक्ते जगवता ते बहवोनिग्रंथा नियंय्यश्च तं श्रमणं जगवंतं महावीरं ते निग्रंथादयोवदंति कायेन नमस्यंति तत्प्रव्हैः शब्दैः स्तुवंति वंदित्वा चैवं वदय माणं वः । तद्यथा । कीर्तितं प्रतिपादितं ज्ञातमुदाहरणं जगवता यर्थ पुनरस्य न सम्यक् जानीमइत्येवं पृष्टोनगवान् श्रमणोमहावीरस्ता न्नियंथादीनेवं वदेत् । हंतेति संप्रे पणे । श्रमायायुष्मंतोयद्रवनिरहं ष्टष्टस्तत्सोपपत्तिकमाख्यामि जवतां तथा विजावया म्याविर्भावयामि प्रकटार्थ करोमि तथा कीर्तयिष्यामि पर्यायकथन द्वारेणेति । तथा प्रवे दयामि प्रकर्षेण दृष्टांतैश्चित्त संततावारोपयामि । यथ चैकार्थिकानि चैतानि कथं प्रति पादयामीति दर्शयति । सहार्थेन दाष्टतिकेन सार्थः वर्ततइति पुष्करिणीदृष्टांतस्तं तथा सह हेतुना अन्वयव्यतिरेकरूपेण वर्ततइति सहेतुस्तं तथाभूतमार्ग प्रतिपादयिष्यामि यथा ते पुरुषायप्राप्तप्रार्थितार्थाः पुष्करिणीकर्दमे दुरुत्तारें निमग्नाएवं वक्ष्यमाणास्तीर्थि काव्यपारगाः संसारसागरस्य तत्रैव निमजतीत्येवंरूपोर्थः सोपपत्तिकः प्रदर्शयिष्यते । तथा सह निमित्तेन उपादान कारणेन सहकारिकारणेन वा वर्ततइति सनिमित्तं सकारणं दृष्टां तार्थ नूयोऽपरैर्हेतुदृष्टांतैरुपदर्शयामि सोहं सांप्रतमेव ब्रवीमि शृणुत यूयमिति ॥ ११ ॥ लोयंच खलु मए प्रपाद्दु समानसो पुरस्करिणीबुइया कम्मंच खलु मए अप्पाहट्टु समणानुसो सेन्दए बुइए कामभोगेयं खलु मए अप्पा समानसो से सेए बुइए जण जाणावयंच खलु मए अपादट्टु स मानसो तेवढ़वे पमवर पोंमरीए बुइए रायाणंच से खलु मए अप्पाद समानसो से एगे महंपनमवर पोंमरीए बुइए अन्न चियाय खलु म एप्पा समानुसो ते चत्तारि पुरिसजाया बुझ्या धम्मंच खलु मए पाद समानसो से निकू बुझए धम्मतिचंच खलु मए अप्पाड स मानसो सेतीरे बुइ धम्मकच खलुमए अप्पाहहु समानसो से स द्दे बुइ निवाांच खलु मए अप्पा समानुसो से नृपाए बुइए एव मेयं खलु मा समानसो से एवमेयं बुइयं ॥ १२ ॥ अर्थ - खलु इति वाक्यालंकारे (लोयंचम एके ० ) एलोक जे मनुष्य खेत्र ते में ( श्रप्पा ० ) पोता की जालीने ( समणावसो के० ) ग्रहोत्रायुष्यमंत श्रमणो ( पुरक रिया० ) पुष्करणी कही ने (कम्मंचखलुमए के ० ) घष्ठ प्रकारना कर्म ते 0 For Private Personal Use Only Page #613 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राय धनपतसिंघ बाहाऽरका जैनागम संग्रह नाग उसरा. ए७३ में (अप्पाहट्ठके० ) पोताथकी जाणीने (समणाउसोके० ) हेसाधुन (सेनदएके० ) ते पाणी (बुइएके०) कह्यो ( कामनोगेयंके) कामनोगने खलुइति वाक्यालंकारे (म एके०) में (अप्पाह(के०) पोता थकी जाणीने (समणानसोके०) हेसाधु ( सेके०) तेने (सेएके) कर्दम (बुइएके०) कह्यो जेकर्दममाहे खुता थका जीव पोते पोताने उदरी नरके अने (जयके ) सामान्यलोक ते (जाणवयंचके०) जनपद एटले आर्य देशना उपना एवा अनेक लोक तेने (खलु मएके० ) में निश्चेकरी (अप्पाहट्टके० ) पोताथकी जाणीने (समणासोके०) हे आयुष्यमंत श्रमणो (तेबहवेके०) तेवा घणा एक (पनमवरपोमरीएबुइए के ० ) पद्मकमलो कह्या तथा (रायाचसेखलुमएयाप्पा हद्रुसमणाउसोके०) राजा जे सामान्य लोकना अधिपति केवाय तेने में पोता थकी जाणीने हे श्रमणो (एगेमहंपनमवरपोमरीएबुइएके०) एक महोटुं पुंमरीक कमल क ह्यो भने जे (अन्ननलियायके०) अन्यतीर्थिक क्रियावादि अक्रियावादि प्रमुख (तेके०) तेने (खलुमएयप्पा हद्दुसमणानसो के० ) में पोता थकी जाणीने हे श्रमणो (चत्ता रिपुरिसजायाबुश्या के०) चार पुरुष जात कह्या ते राजारूपमहोटो कमल तेने उ घरवाने असमर्थ कह्या अने (धम्मंचखलुमएअप्पाहट्ठसमणानसोसेनिरकबुइए के० ) जे श्रतचारित्ररूप धर्म तेने में पोता थकी जाणीने श्रमणो निकु एटले अणगार कह्यो जेमा घुमरीक कमलरूप राजाने उदवानी समर्था कही (धम्मतिबंचखलुम एअप्पाहसमणाउसो सेतीरेबुशए के०) तथाजे धर्मतीर्थते निचे में पोता थकी जा णीने तीर एटले कांठो कह्यो (धम्मकहंचरखनुमएअप्पाहदुसमणानसोसेसदेबुइएके०) तथा जेधर्म कथा ते निश्चें में पोता थकी जाणीने हे श्रमणो तेने में शब्द कह्यो (नि वाणंचखलुमएयप्पाहट्ठसमणानसोसेनप्पाएबुइए के० ) तथा जे मोक्षपद ते निचे में पोता थकी जाणीने हे श्रमणो तेने में कमलनो नझरवो कह्यो (एवमेयंच के०) ए पूर्वोक्त सर्व लोकादिकपदार्थ ते खलु शब्दवाक्यालंकारें (मएके० ) में (बाप्पाहद के ) आप थकी जाणीने (समणानसो के० ) हेश्रमणो आयुष्यमंतो ( सेएवमेयंबु इयंके० ) तेने पुष्करणी कमल प्रमुख एरीते में कह्या एटले सामान्य प्रकारे दृष्टांत क ह्यो हवे विशेष थकी राजा उरणादिकनाव कहे ॥१॥ ॥ दीपिका-लोकं मनुष्यक्षेत्रं । चशब्दः समुच्चये । खलुक्यालंकारे । मया (अप्पा हवत्ति) आत्मनि थाहृत्य व्यवस्थाप्य अथवा आत्मना स्वयमाहत्या ज्ञात्वा न परोपदे शतः सा पुष्करिणी उक्ता । कर्म चाष्टप्रकारं खलु मयात्मनि बाहृत्य आत्मना वा था हृत्य हेश्रमण आयुष्मन् तउदकमुक्तं पुंडरीकोत्पत्तिकारणं । कामश्वारूपा जोगामदन Page #614 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४ वितीये सूत्रकृतांगे वितीय श्रुतस्कंधे प्रथमाध्ययनं. व्यापाराः । सकर्दमः । यथा पंकेमनमात्मानमुदत उःशक्यं । एवं विषयेष्वपीति विषय पंकयोः साम्यं । जनं सामान्यलोकं जानपदा आर्यदेशजातास्तानाश्रित्य तानिबहूनि पुं डरीकाणि उक्तानि राजानं चक्रवादिकमाश्रित्य पद्मवरपुंडरीकमुक्तं । अन्यतीथिकानाश्रि त्य ते चत्वारः पुरुषानक्ताः। तेषां राजपुंडरीकोघरणे सामर्थ्यानावाधर्म चाऽऽत्मन्याश्रित्य सनिकुरुक्तः । तस्यैव राजपुंडरीको दरणेसमर्थत्वात् धर्मतीर्थ च खल्वाश्रित्य मया तत्ती रमुक्तं धर्मदेशनां चाश्रित्य मया सनिदोः संबधी शब्द नक्तः । निर्वाणं मोदंचाश्रित्य पुं डरीकस्योत्पात नक्तः । एवमेतलोकादिकं च खल्वात्मन्याश्रित्य मया श्रमणायुष्मन् से ए तत्पुष्करिण्यादिकं दृष्टांतत्वेनकिंचित्ताधादेवमुक्तं ॥ १२ ॥ ॥ टीका-तदधुना नगवान् पूर्वोक्तस्य दृष्टांतस्य यथास्वं दाष्ीतिके दर्शयितुमाह ॥ (लोगंचेत्यादि ) लोकमिति मनुष्यदेवं । चशब्द उत्तरापेक्ष्या समुच्चयार्थः । खलुरिति वाक्यालंकारे । मयेत्यात्मनिर्देशः । योयं लोकोमनुष्याधारस्तमात्मन्याहृत्य व्यवस्थाप्य अपाहत्य वा आयुष्मन् श्रमण आत्मनावा मयाऽऽहत्य न परोपदेशतः सा पुष्करिणी प माधारजूतोक्ता । तथा कर्म चाष्टप्रकारं यद्वलेन पुरुष पौंडरीकाणि नवंति । तदेवंनूतं क में मयात्मन्याहृत्य आत्मनावा पाहत्ययपाहृत्य वा । एतमुक्तं नवति । हश्रमण वायु प्मन् सर्वावस्थानां निमित्तनूतं कर्माश्रित्य तमुदकं दृष्टांतत्वेनोपन्यस्तं कर्मचात्र दार्टी तिकं नविष्यति । तत्रेबामदनकामाः शब्दादयो विषयास्ते एव नुज्यंत तिनोगाः । यदि वा कामाश्वारूपामदनकामास्तु नोगास्तान मयात्मन्याहृत्य सेयः कर्दमोऽनिहितस्तथा पंके निमनोःखेनात्मानमुघरत्येवं विषयेप्यासक्तोनात्मानमुहर्तुमलमित्येतत्कर्दमविष ययोःसाम्यमिति । यथा जनं सामान्येन लोकं तथा जनपदे नवाजानपदा विशिष्टार्यदे शोत्पन्नागृह्यते । ते चाईषद्धिंशतिजनपदोनवाइति तांश्च समाश्रित्य मया दार्टीतिकत्वे नांगीकृत्य तानि तानि बहूनि पद्मवरपौंडरीकाणि दृष्टांतत्वेनानिहितानि । तथा राजा नमात्मन्याहत्य तदेकं पद्मवरपौंडरीकं दृष्टांतत्वेनानि हितं तथान्यतीथिकान समाश्रित्य ते चत्वारः पुरुषजाताअनिहितास्तेषां राजपौंडरीकोरणे सामर्थ्य वैकल्यात् । तथा धर्मच खल्वात्मन्याहृत्य श्रमणायुष्मन् सनिकुः सदवृत्तिरहितस्तस्यैव चक्रवर्त्यादिराज पद्मवरपौंडरीकोधरणसामर्थ्यासनावाम तीर्थच खल्वाश्रित्य मया तत्तीरमुक्तं । तथा सहर्म देशनां चाश्रित्य मया सनिकुसंबंधी शब्दोऽनिहितस्तथा निर्वाणं मोदपदशेषं कर्मक्ष्यरूपमीषत् प्रागनाराख्यं नूनागोपर्यवस्थितदेवखं चात्मन्याहृत्य सपद्मवरपौं डरीकस्योत्पातोऽनिहितइति । सांप्रतं समस्तोपसंहारार्थमाद । एवं पूर्वोक्तप्रकारेण एत नोकादिकंच खल्वात्मन्याहृत्याश्रित्य मया श्रमणायुष्मन् से एतत्पुष्करि स्यादिकं दृष्टांतत्वे न किंचित्साधादेवमेतक्तमिति ॥ १२ ॥ Page #615 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राय धनपतसिंघ बादाडुरका जैनागम संग्रह नाग दुसरा. ԱՃԱ इह खलु पाईांवा पडीवा नदीांवा दा दिवा संतेगतिया मपुस्सा न वंतिपुवेणं लोगं नववन्ना तं जदा च्यारियावेगे प्रणारियावेगेन च्चागोत्तावेगे पीयागोयावेगे कायमंतावेगे रहस्समंतावेगे सुवन्नावेगे 5 बन्नावेगे सुरूवावेगे रूवावेगे तेसिंचणं मणुयाणं एगे राया नवइ मयादिमवंतमलयमंदरम हिंदसारे अनंत विसुधराय कुलवंसप्पसूते निरंतररायलकाविराइयंगमंगे बहुजणबहुमाणपूइए सबगुणस मि खत्तिए मुदिए मुद्दानिसित्ते मानपिनसुनाए देय पिए सीमंकरे सी मंधरे खेमंकरे खेमंधरे मस्सिदे जणवयपिया जणवयपुरोदिए सेनक रे केकरे नरपवरे पुरिसपवरे पुरिससीदे पुरिसच्यासीविसे पुरिसवर परी पुरिसवरगंधची हे दित्ते वित्ते विभिन्न विलनवासय पास जाणवाद इसे बहुध बहुजातरूवरत आगपगसंपन ते विवडियपनरनत्तपाणे बहुदासीदासगोमहिसगवेल गप्पनूते प डिपु कोसको धागारानागारे बलवं बल्लपचामिए नहयकंटयं म लियकंटयं नदयकंटयं निदयकंटयं प्रकंटयं उदयसत्तू निदयसत्त मलि यसत्तू धियसत्तू निकियसत्तू पराइयसत्तू ववगयनिक मारिनेयवि मुक्कं रायवन्नन जहानववाइए जावपसंतम्बिममरर पसादेमाणे विदरंति तस्स रन्नो परिसा नवइ नग्गा नग्गपुत्ता जोगा जोगपु त्ता इस्कागाइ इकागाइ नायना नायना कोरवा कोरवा नट्ठा नहपुत्ता मादणा माहणपुत्ता लेच्छ लेख पुत्ता पसारो पसारोपुत्ता सेणाव सेणावपुत्ता ॥ १३ ॥ तेसिंचणं एगतीए सड्डूानवइ कामतं समणावा माहणावा संपदारिंसु गमणाए तब अन्नतरे धम्मेणं पन्नत्तारोवयं इ म्मे धम्मेणं पन्नवइस्सामा सेएवंमायागढ़ जयंतारो जेहामए एस धम्मे सुयकाए सुपन्नते नवइ ॥ १४ ॥ अर्थ - ( इहख लुके ० ) ए मनुष्य लोक मांहे खलुइति वाक्यालंकारे (पाई वा के०) पूर्व दिशि (पडीवा के ० ) पश्चिम दिशि (नदीवाके ० ) उत्तरदिशि (दादिवाके ० ) ददिशि ए चार दिशि अथवा विदिशिए (संतेगतियामणुस्सानवंतिके०) कोइ एक मनुष्य होय ते (पु ७४ For Private Personal Use Only Page #616 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८६ द्वितीये सूत्रकृतांगे द्वितीय श्रुतस्कंधे प्रथमाध्ययनं. पुवेणं के० ) अनुक्रमे (लोगं के ० ) लोकपणे ( नववन्नाके०) उपना बे (तंजहा के० ) देखाडे (यावेगे के०) एक प्रार्य मनुष्यते साढा पचीश देशना उपना (श्रणा रियावेगे के० ) एक धनार्य देशना उपना ते संग यवन सबर बब्बरादिक जाणवा ( उच्चा गोतावेगे के० ) एक उंचगोत्रना उपना ( लीयागोयावेगे के० ) एक नीचगोत्रना उपना ( का मंतावेगे के०) एक लांबा दीर्घ काय वाला ( रहस्समंतावेगे के० ) एक -हस्व न्हानी काय वाला (सुवन्नावेगे के०) एक रुडा वर्ण वाला (डुवन्नावेगे के ० ) एक माठा वर्ण वाला ( सुरूवावेगे के० ) एक जना रूपवाला ( रूवावेगे के० ) एक माठा रूपवाला (ते सिंच मणुयाणं के० ) ते मनुष्य मांहे वली ( एगेरायानवर के ० ) एक राजा होय ते राजा केवोहोय तोके ( महया हिमवंत के० ) महोटो हिमवंत (मलय ho) मलयाचल (मंदर के० ) मेरुपर्वत ( महिंद के० ) महेंद्र एनी पेरे जेनु ( सारे के ० ) सामर्थ्य (चंत विसु ६ राय कुलवंस प्पस्ते के ० ) अत्यंत निर्मल दोष रहित राजा तु कुल उत्तम क्षत्रीयनो कुल तेने विषे जन्म पाम्याबे ( निरंतररायलकण के० ) यां तरा रहितजे राजाना लक्षण तेणेकरी ( विराइयंगमंगे के० ) बिराजमान एटले शोना यमानले शरीरमा अंगोपांग जेना ( बहुजण के० ) घणालोक ( बहुमाण के० ) घणो मान पीने (पूए के० ) पूजेबे ( सवगुणस मिदे के० ) समस्त राजाना जे गुणबे तेणेकरी समृद्धिवान एटले संपूर्ण ( खत्तिएके० ) छत्रिय जातवंत ( मुदिए के० ) स काल प्रमोद सहित ( मुद्दानिसित्ते के० ) मातापितादिक परिवार मलीने राजा निषे क कीधोने ( मानपि सुजाए के० ) माता पिता सुजातवंत अथवा माता पितानो सुविनीत सुपुत्र (देयप्पिए के० ) वल्लन तथा करुणाना गुणे करी सहित (सीमंकरे ho) मर्यादान करनार (सीमंधरे के०) मर्यादानो धरनार ( खेमंकरे के० ) कल्याण ) नो करनार उपवनो टालनार (खेमंधरे के०) कल्याणनो धरनार ( मपुस्सिंदे के० ) मनुष्यनुं इंड् ( जणवयपिया के० ) जनपद एटले देशना लोकने पिता समान (जल arपुरोहिए के० ) जनपद एटले देशना लोकने शांतिनु करनार उपवनुं निवारक (से करे के ० ) मार्गनो देखाडनार ( केनकरे के० ) अद्भुत कार्यनो करनार (नरपवरे के ० ) मनुष्य मांहे प्रधान ( पुरिसपवरे के० ) पुरुषमांहे प्रधान ( पुरिससीहे के० ) पुरुष मांहे सिंह समान (पुरिसयासी विसे के० ) पुरुष मांहे याशीविष सर्प समान थ पराध खमे नही ( पुरिसवरपोंम रोए के० ) पुरुष मांहे प्रधान पुंमरीक कमल समान (पुरिसवरगंधही के० ) पुरुष मांहे प्रधान गंध हस्ति समान ( हे के० ) धन धा न्यादिके परिपूर्ण ( दित्ते के० ) दीपता (वित्ते के ० ) पहोला ( विविन्न के० ) विस्तीर्ण एवा (विल के० ) विपुल एटले घणा ( नवण के ० ) घर ( सयणासा के० ) पल्यंका For Private Personal Use Only Page #617 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राय धनपतसिंघ बादाउरका जैनागम संग्रह नाग उसरा. एG दिक प्राशन नासन (जाण के ) पालखीप्रमुख ( वाहणाइ के० ) गाडी घोडादिक तेणेकरीने बाकीर्ण (बदुधण के) घणो धन (बहुजातरूव के० ) घणो सु वर्ण (रतए के०) घणो रजत एटले रुपु (बानगपनगसंपनत्ते के० ) अर्थ जान बम णा बमणादिक तेहवो नपाय व्यापारादिक तेणे करी संयुक्त ( विडियपनरनत्तपाणे के०) घणा नात पाणी लोक जमे विशेषे देवरावे (बहुदासीदास के ० ) घणा दासी तथा दास (गोके०) वृषन (महीस के०) नेंस (गवेलग के०) गाय गेटी गाम रा बकरी ते (प्पनूते के०) प्रनूत एटले घणा वली (पडिपुरम के० ) प्रतिपूर्ण (कोसके) लक्ष्मीना नंमार (कोहागारा के) धानना नंमार (नागारे के०) खड्ग त्रिसूल नालादिकना नंमार (बलवं के०) पोते बलवंत (उब्बल के) उर्व ल (पवामिए के०) वैरी जेना (नहतकंटयं के) विणास्या समस्त गोत्री जेणे (मलियकंटयं के०) दि अपहारीने मान नंग कीधाडे गोत्री जेणे ( उहयकंटयं के०) उद्देश थकी काढ्याने गोत्री जेणे (निहयकंटयं के०) जेणे गोत्रीने हराव्याडे (अकंटयं के०) प्रतिमल वैरो रहित (उहयसत्तूके) विणास्याने शत्रू जेणे (निहियस तूके) जेणे शत्रुने हराव्याले (मलियसत्तूके) दि अपहरीने मान नंग कस्याले वैरी जेणे (नझियसत्तुके०) उद्देश थकी कढाध्याले वैरी जेणे (निङियसत्तुके०) विशेष थकी जीत्याने वश कस्याले वैरी जेणे (पराश्यसत्तू के० ) तेना राज्यने लेवे करी पराजय प माड्याने शत्रु जेणे वली (ववगय के०) वपगत एटले गयाजेना राज्यने विषे झुं ग याने ते कहे (सुप्निरकके०) उकाल उर्निद (मारिके० ) देवादिकना करेला मारी मर कीना जय (जयके०) वैरीना नय थकी (विप्पमुक्कं के०) रहित (रायवन्नउके०) एरीते रा जामु वर्णन (जहाउववाइए के०) जेम उववाइ सूत्रमा वर्णन करो तेना सरिखो (जा वपसंत के० ) ज्यांलगे उपशमाव्याचे (किंबममरंरऊं के०) स्वचक्र परचक्रना नय ज्यां नथी एवो राज्य (पसाहेमाणे के० ) पालतो थको (विहरति के०) विचरे (त स्तरन्नो के०) हवे तेराजानी (परिसानवंति के०) परषदा केवी होए ते कहे. (नग्गानग्गपुत्ता के० ) उपकुलना उपना ते उग्रकुलना पुत्र (नोगानोगपुत्ता के०) जोगकुलना नपना ते नोगकुलना पुत्र (इस्कागारकागाइ के०) श्रीयादीश्वरनो वंश जे इदवाग तेना उपना ते इक्ष्वागवंशना पुत्र (नायानानायानाके०) छातकुलना नपना ते झातकुलना पुत्र (कोरबाकोरवा के०) कौरवकुलना उपना ते कौरवकुलना पुत्र (जहान दृपुत्ताके) सुनटकुलना उपना ते सुनटना पुत्र (माहणामाहणपुत्ताके०) ब्राह्मणकुलना उपना ते ब्राह्मणना पुत्र (बश्लेइपुत्ताके)लबाधिपति वणिक् जाति विशेष तेना पुत्र (पसबारोपसबारोपुत्ता के०) घणो जेने घरे लदमीनो विस्तार होय तेने घेर उपना ते Page #618 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५ वितीये सूत्रकृतांगे वितीय श्रुतस्कंधे प्रथमाध्ययनं. तेना पुत्र (सेणावइसेणावइपुत्ताके०) सेनाधिपतिना पुत्र इत्यादिक सनावर्णन थकी जा एवो.॥१३॥(तेसिंचणं के०) तेमाहे (एगतीएके) को एक पुरुष (सडानवश्के) धर्म करवाने श्रावंत धर्मार्थी होय तेने एवो (कामंतं के०) धर्मार्थी जाणीने (समणावा माहणावाके०) श्रमण ब्राह्मण मली (संके०) सम्यक् प्रकारे पोतानो धर्मप्रतिबोधवानि मित्त (पहारिंसुगमणाए के० ) तेना समीपे बालोचवो चिंतवे ते केवो (तअनतरेपंध म्मेणंपन्नत्तारोवयं के०) त्यां अमे मारा धर्मना प्ररूपणहार थापणो धर्म प्ररूपगुं एवो बालोची राजाने संमुख आवी बोल्या (इम्मेणंधम्मेणंपन्नवश्स्सामो के०) ए पागल कहे नेते धर्म परूपगुं तेज कहेडे (सेएवंमायाणह के) अमे धर्म कहीलं ते एम जाणो (नयंतारो के ) अहो जय थकी राखनार (जेहामए के० ) जेम ए प्रकारे यमारो (एसधम्मेसुयरकाएसुपन्नतेनव के ) ए धर्म स्वाख्यात स्वप्राप्त. ॥१४॥ ॥ दीपिका-एवंसामान्येन दृष्टांतयोजनामुक्त्वा विशेषेण तामाह । (इहेति ) हा स्मिन् लोके । खलुक्यालंकारे । प्राच्यां प्रतीच्यां दक्षिणायामुदीच्यामन्यतरस्यां वा दिशि संति विद्यते एके केचन मनुष्यानवंति । आनुपूर्येणेमं लोकमाश्रित्योत्प नाः । तद्यथा । आर्याार्यदेशोत्पन्नास्तदन्येऽनार्याएके उच्चैर्गोत्रानीचैर्गोत्राएके कायो महाकायः प्रांगुत्वं तदिद्यतें येषां ते कायवंतोन्हस्ववंतोवामनकुब्जादयः सुव ः शोननकांतयोर्वर्णाः कमरूदादिवर्णाएके सुरूपाएके कुष्टरूपास्तेषांमध्ये म हान् कश्चिदेकोराजा नवति । किंनूतः । महा हिमवन्मलयमंदरमहेंशाणामिव सा रं सामर्थ्य धनं वा यस्य सतथा । इत्येवं राजवर्णकोयावउपशांतडिंबडमरं राज्यं प्र साधयन् तिष्ठति । तत्र डिंबं परानीकनयं डमरं स्वराष्ट्रकोनः । तस्य च राज्ञः पर्षत् स ना नवति । तद्यथा । उग्रातत्कुमाराश्च उग्रपुत्राः । एवं नोगपुत्रादयोपि झेयाः । (ले बत्ति) लिप्सुकोवणिगित्यर्थः । प्रशास्तारोबुध्युपजीविनोमंत्र्यादयः सेनापतयश्च एके ॥ १३ ॥ तेषां मध्ये कश्चिदेवैकः श्रमावान् धर्मलिप्सुनवति । कामं निश्चितं तं श्रावं तं श्रमणावा तदंतिकगमनाय प्रधारितवंतस्तत्प्रतिबोधाय तत्समीपे गमनं चिंतितवंतः । तत्रान्यतरेण धर्मेण स्वसमयप्रसिध्न प्रज्ञापयितारोवयमिति विचिंत्य तं राजानं स्वकीये न धर्मेण प्रज्ञापयिष्यामएवं संप्रधार्य राजांतिकं गत्वा एवमूचुः । यथाहं वदामि एवं न वंतोयूयं जानीत यथा येन प्रकारेण मयैषधर्मः स्वारख्यातः सुप्रज्ञप्तोनवतीत्येवं तीर्थकः स्वमतानुरागी राजादेः स्वानिप्रायेणोपदेशं ददाति । तत्राद्यः पुरुषस्तजीवतहरीरवादीरा जानमुद्दिश्यैवं धर्मदेशनां चके ॥ १४ ॥ ॥ टीका-तदेवं सामान्येन दृष्टांतदाष्टीतिकयोर्योजनां कृत्वाऽधुना विशेषणप्रधाननूत Page #619 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रायधनपतसिंघ बादाउरका जैनागम संग्रह नाग उसरा. एनए राजदार्टीतिकं तवरणार्थत्वात्सर्वप्रयासस्येति दर्शयितुमाह । (इहखलुश्त्यादि) इहास्मिन्मनुष्यलोके । खलु वाक्यालंकारे । इहास्मिन् लोके प्राच्या प्रतीच्यां ददि णायामुदीच्यामन्यतरस्यां वा दिशि संति विद्यते एके केचन तथाविधामनुष्या बानुपये ऐमं लोकमाश्रित्योत्पन्नानवंति तानेवानुपूर्येण दर्शयति । तद्यथेत्युपन्यासार्थः । बारा याताः । सर्वहेयधर्मेन्यइत्यार्यास्तत्र क्षेत्रार्याअर्धषड्रिंशतिजनपदोत्पन्नास्त क्ष्यतिरिक्ता स्त्वनार्याएके केचन नवंति । ते चानार्याः क्षेत्रोत्पन्नाश्रमी इष्टव्याः ॥ सगजगण सवरबब्बर,कायमुरड्डोडगोड्डपरिकणिया ॥ श्रावगाहो एरोमय,पारसरवसरवासिया चेव ॥ १ ॥डोंबिलयतनसबोक्कस,निलंधपुलिंदकोंबनमररुया ॥कोचाय चीण चंचुय,मालव दमिलाकुलंपाय ॥ २ ॥ कैकयकिरीयहयमुह,खरमुह तह तुरगमेंढयमुहाय ॥ हयकमा गयकमा, यो य अणारिया बहवो ॥ ३ ॥ पावायचंडदंडा,अणारिया णिघिणा पिर एकंपा ॥धम्मोत्ति अरकराई, जे सुण अंतिसुमिणेविइत्यादि । तथोचैर्गोत्रमिदवाकुवं शादिकं येषां ते तथाविधाएके केचन तथाविधकर्मोदयवर्तिनः । वाशब्दउत्तरापेक्ष्या वि कल्पार्थः। तथा नीचैर्गोत्रं सर्वजनावगीतं येषांते तथा एके केचन नीचैर्गोत्रोदयवर्तिनोन सर्वे । वाशब्दः पूर्ववदेव । ते चोच्चैर्गोत्रानीचैर्गोत्रा वा । कायोमहाकायः प्रांगुत्वं तदि यते येषां ते कायवंतस्तथा हस्ववंतोवामनककुब्जवडनादयएके केचन तथाविधनाम कर्मोदयवर्तिनस्तथाशोननवर्णाः सुवर्णाः प्रतप्तचामीकरचारुदेहास्तथा उर्वर्णाः कृमरू दादिवर्णाएके केचन तथा सुरूपाः सुविनक्तावयवचारुदेहास्तथा उष्टरूपाउरूपाबीनत्सदे हास्तेषां चोचैर्गोत्रादिविशेषण विशिष्टानां महान् कश्चिदेवैकस्तथाविधकर्मोदयााजा नव ति सविशेष्यते महाहिमवन्मलयमंदरमहेंशणामिव सारः सामर्थ्य विनवोवा यस्य सत था इत्येव राजवणकोयावउपशांतर्डिबडमरं राज्यं प्रसाधयं स्तिष्ठतीति । तत्र डिबः परानी कसृगालिकोडमरः स्वराष्ट्रदोनः। पर्यायावतावत्यादरख्यापनार्थमुपात्तौइति । तस्य चैवंवि धगुणसंपऊपेतराइएवं विधा पर्षजवतीति । तद्यथा । उग्रास्तत्कुमाराश्चोयपुत्राः । एवं नो गपुत्रादयोपि इष्टव्याः॥ शेषंसुगमं । यावत्सेनापतिपुत्रइति । एवरंलेबत्ति । लिप्सुकः सवणिगादिस्तथा प्रशास्तारोबुध्युपजीविनोमंत्रिप्रनृतयः॥ १३ ॥ तेषां च मध्ये कश्चि देवैकः श्रमावान् धर्मलिप्सुः काममित्येवतार्थेऽवधृतमेतद्यथायं धर्मश्रदालुरवधार्य च तं धर्मलिप्सुतया श्रमणाब्राह्मणावा संप्रधारितवंतः समालोचितवंतोधर्मप्रतिबोधनिमि तं तदंतिकगमनाय तत्र चान्यतरेण धर्मेण स्वसमयप्रसिन प्रझापयितारोवयमित्येवं नाम संप्रधार्य तं राजानं स्वकीयेन धर्मेण प्रज्ञापयिष्यामएवं संप्रधार्य राज्ञों तिकं गत्वैव मूचुः। तद्यथा। एतद्यथाहं कथयिष्यामि एवमितिच वदयमानीत्या नवंतोयूयं जानीत नयात्रातारोवा यथा येन प्रकारेण मयैषधर्मः स्वारख्यातः सुप्रज्ञप्तोनवतीत्येवं तीर्थकः Page #620 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Uug द्वितीये सूत्रकृतांगे द्वितीय श्रुतस्कंधे प्रथमाध्ययनं. स्वदर्शनानुरंजितोन्यस्यापि राजादेः स्वानिप्रायेणोपदेशं ददाति । तत्राद्यः पुरुषजातस्त जीवतहरीरवादी राजानमुद्दिश्यैवं धर्मदेशनां चक्रे ॥ १४ ॥ तं जहा नपादतला हे केसग्गमचया तिरियंतेयपरियंते जीवे एस यापक वे कसिणे एसजीवे जीवति एसमय गोजीवइ सरीरे धरमाणे ars विमिय लोधरइ एयं तं जीवियं भवति ददणाए परेडिं निक गणिकामिए सरीरे कवोतवन्नाणि द्वीणि नवंति यासंदीप चमा पुरिसा गामं पच्चागचंति एवं असंते प्रसंविक्रमाणे जेसितं असं ते प्रसंविक्रमाणे तेसिंतं सुयरकायं नवति अन्नोजवति जीवो अन्नं सरी रं तदा तेएवं नोविपडिवेदेति प्रयमानसो प्रायादीदेतिवा दस्सेतिवा परिमले तिवा वट्टेतिवा तंसेतिवा चनरंसेतिवा च्यायतेतिवा बलंसिए तिवा सेतिवा किण्हेतिया पीलेतिवा लोढ़ियदालिदे सक्किलेतिवा सुनिगंधेतिवातिगंधेतिवा तित्तेतिवा कडुएतिवा कसाएतिवा वि लेतिया मदरेतिया करकडे तिवा मन तिवा गुरुएतिवा लहुएतिवा सि एतिवा नसितिवा निद्वेतिवा लुकेतिया एवं संते प्रसंविक्रमाणे जे सिंतं सुयकायं नवति न्नोजीवो अन्नंसरीरं तम्हा तेषो एवं नवलप्नंति१५ अर्थ- हवे त्यां यादि पुरुषजात ते तजीव तहरीरवादी जीव बे ते राजाने उद्देशी पोताना धर्मनी देशना थापेढे ( तंजहा के ० ) ते जेम तेम कहेबे ( उडूंपादतला के० ) पगनातली की उपरें अने (हे केसग्गमाया के०) मस्तकना केशाय थकी नीचे त था ( तिरियं तेय परियंते जीवेके ० ) ति त्वचा जे चामडी ते पर्यंत जीव जाणवो एटला सी शरीर थकी निकलतो जीव जुदो देखातो नथी तेथीज जलायबे के तेज शरीर ने तेज जीव एटले एशरीर तेहज जीवबे परंतु ए शरीर थकी आत्मा जुदाने एम न जाणवुं (एसायापवेकसि के० ) ए जे शरीरबे तेहिज यात्मानुं संपूर्ण पर्याय अवस्था विशेष जावो ( एसजीवेजीवति के० ) जेटलो काल ए काया जीवे तेटलो काल ए जीव पण जीवे (एसमय गोजीवर के० ) ए शरीर मरण पामे तेवारे जीव पण म पामे पण पोजीवइ एटले जीवे नहीं ( सरीरेधरमाणेधरइ के० ) ए शरीर ज्यां सुधी पांचनूतने धरे त्यां सुधी खात्माने पण धरे (विलि मिय गोधर के ० ) ए शरीर विठे For Private Personal Use Only Page #621 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राय धनपतसिंघ बादाडुरका जैनागम संग्रह नाग दुसरा. य जीवन पण विनाश याय गोधरइ एटले पढी जीवने घरी न शके (एयंतंजी वियंनवति ho) ए जीवनो जीवितव्य बे तेथी शरीर विशे थके आत्मा पण विशे एवो करीने (द ह पाएपरे हिंनिज के ० ) अन्यलोक बालवाने अर्थे स्मशानादिकने विषे जेइजाय (गणि कामिसरीरे के ० ) ते वारे मीयें करी शरीर प्रज्वाले बते त्यां निःकेवल (कवोतवन्नाणिके ० ) कपोत वर्णे (ही जिवंति के ० ) प्रस्थि एटले हाम देखायबे परंतु तेथकी अन्य या त्मादिक पदार्थ कोइ देखाय नहीं के जे थकी यात्मानुं यस्तिपणु मे जालीयें (घा संदीपंचमापुरीसागामंपञ्चागवंति के० ) तथा पांचमो जेनो मांचो एवा चार पुरुष ते मुवेलाने प्रज्वालीने पोताने गामे यावे माटे जो श्रात्मा शरीर थकी जुदो होय तो श रीर की निकलतो देखाय अने ते जेवारे नयी देखातो तो जापियें बैए जे ते हिज शरीर घने तेहीज जीवळे ( एवं के०) एरीते (असंते के ० ) जीव तोळे (यसंविद्धमाणे ho) विद्यमान जातो थको जाणवामां नथी घावतो ( जेसिंतंसंते के० ) जेनो एप के जीव तोळे ( संविक्रमाणे के० ) विद्यमानले जेनो एवो पहले ( ते सिंतं के० ) तेनो ए पूर्वोक्त वचन ( सुयरकायंनवति के० ) स्वाख्यातवे एम जाए वो घने जेनो (अन्नोजवतिजीवो के० ) जीव अन्यले घने ( अन्नंसरीरं के० ) शरीर पण अन्यले एवं जे कहेने ते गामरी प्रवाहे पड्या थका ( तम्हा के० ) तस्मात् (ते एवं के० ) ते एवो (नोविपडिवेदेति के० ) जे यागन कहेशे ते नथी जाणता. तेज कha (मानसो के० ) अहो श्रायुष्यमंत ए जीव शरीर थकी जुदो गणीए तो एनो शो प्रमाण (यायादीदेतिवा के० ) यात्मा गुं दीर्घ एटले लांबोबे ( हस्ते तिवा के० ) किंवा हस्व एटले अंगुठा अथवा तंडुल प्रमाण न्हानोबे ( परिमंमजेति वा के० ) किंवा चुडी अथवा चंद मंगलने प्राकारेंबे ( वट्टेतिवा के० ) किंवा वाटला लाने याकारें (तंसेतिवा के० ) किंवा त्रिखूणा सीघोडाने ग्राकारेंबे ( चनरंसेति वा के० ) चौखूोबे (खायतेतिवा के० ) यांना सरीखो जांबोळे (बलं सिए तिवा के ० ) खूणा उहांशनोबे ( हंसेतिवा के० ) याम्हांसनो या खूणोबे ( किहे तिवा के ० ) वीजेतवा के० ) नीले वर्षे ( लोहिय हालिदेसु क्किले तिवा के० ) लाल व किंवा हजदर जेवा पीजे वर्णेले किंवा नज्वजे वडे ( सुनिगंधेतिवा के० ) सु रनिगंध कपूर समानबे (निगंधे तिवा के० ) दुर्गंध गुमडादि समानबे अथवा रस D श्री ( तित्तेतिवा के० ) तीखो रस मिरची समानबे ( कडूएतिवा के० ) कडबुंरस नीमडा समान ( साएतिवा के०) कसायलो काचाफल समान रसवालोबे (अंबिलेति वा के० ) खाटा रस समानबे ( महुरेतिवा के० ) मिसरी समान मधुर रसेबे तथा स्पर्शश्री ( करकडे तिवा के० ) कर्कश खरखरो फरशबे ( मनए तिवा के० ) For Private Personal Use Only Page #622 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५ श द्वितीये सूत्रकृतांगे द्वितीय श्रुतस्कंधे प्रथमाध्ययनं. याकतुल समान सुंहालो फरशबे ( गुरुए तिवा के०) लोहवत् नारी फरशळे ( लहुए ति ar ho) तुलवत् हलवो फरशळे (सिएतिवा के० ) शीतल फरशळे ( उसि ऐति वा के० ) म फरशळे ( निदेतिवा के० ) चीको फरशबे ( झुरके तिवा के ० ) लुखो फरश एटला फरश मांथी यात्मानो कयो फरशबे ( एवं संतेय संविक्रमाणेजे सिं के० ) ए कारण माटे जे खात्माने तो विद्यमान कहे ( तंसुयरकायंनवति के ० ) तेनो पक्ष नजो स्वाख्यात जाणवो वली जे ( खन्नोजीवो के० ) अन्य जीव (अन्नंस रीरं के० ) ने शरीर पण अन्यले एम कहेते ( तम्हाके०) तस्मात् (तेलो एवंनवलनं ति के० ) ते एवातना अजाण पणाने लीधे नयी जाणता माटे ते नास्तिकले ॥ १५ ॥ || दीपिका - तद्यथा । ऊर्ध्व पादतलादधश्च केशाग्रमस्तका त्तिर्यक्च त्वक्पर्यंतो जीवः । कोर्थः । यदेव शरीरं सएव जीवः । न शरीरादन्यः कश्चिदात्मास्ति । ययं कायएवात्मनः पर्यतोऽवस्थाविशेषः कृतः संपूर्णः शरीरोपलंने जीबएवोपलब्धइत्य र्थः । एषकायोयावजीवति तावडीवोपि जीवतीत्युच्यते । एषकायोयदा मृतस्तदा जीवोपमृतइति व्यपदिश्यते । यावचरीरमव्यंगं धरति तिष्ठति तावजीवोपि विनष्टे शरी रे जीवोपि न धरति विनष्टइत्यर्थः । तदेवं यावदेतबरीरमच्युतं तावदेव जीवस्य तजीवि तं नवति विनष्टे शरीरे तडूपोजीवोपि विनष्टइति कृत्वाऽऽदहनायासमंतादहनार्थ इम शानादौ नीयतेऽसौ तस्मिंश्च शरीरेऽग्निना ध्मापिते कपोतवर्णान्यस्त्रीनि केवलमुपलभ्यते न कश्चित्तदपरोजीवः । ते च तद्वांधवाजघन्यतोपिच चत्वारः । यासंदी मंचकः सपंचमो येषां संदीपंचमाः पुरुषास्तं कायमग्निना ध्मापयित्वा स्वं ग्रामं प्रत्यागचं ति । यदि पुन रात्मा कायान्निः स्यात्तदा निर्गवन् दृश्येत नच दृश्यते तस्मात्तीवस्तदेव शरीरमिति स्थितं । एवमुक्तनीत्याऽसौ जीवोऽसन्न विद्यमानोयेषामयं पदोयत्काये तिष्ठन् गढंश्व संवे द्यमानोऽननुभूयमानोजीवइति तेषां तत् स्वाख्यातं नवति । येषां पुनरन्योजीवोऽन्यवरीर मेनूतोऽप्रमाणक एवांगीकारस्तस्मात्ते मूढतया प्रवर्तमानाएवं वदयमाणं न विप्रतिवेदयं ति जानंति । यथा हे खायुष्मन् श्रयमात्मा शरीरान्निः स्वीक्रियमाणः किंपरिमाणः स्या दिति वाच्यं । किंदीर्घः किंन्हस्वइत्यादि संस्थानेषु किंपरिमंडलइत्यादि वर्णेषु किंकमइ त्यादि गंधयोः किं सुरनिगंधइत्यादि । रसेषु किं तिक्तइत्यादि स्पर्शेषु किंकर्कश इत्यादि । तदेवं संस्थानवर्णगंधरसस्पर्शानामनावादसन्न विद्यमानोऽसंवेद्यमानोपि येषां तत् स्वा ख्यातं नवति यथान्योजीवोन्यवरीरमिति पक्षस्तस्मात्पृथग विद्यमानत्वात् ते जीववादि नोनैवात्मानमुपलनंते ॥ १५ ॥ ॥ टीका - तद्यथोर्ध्वमुपरि पादतलादधश्च केशाग्रमस्तका त्तिर्यक्कू च त्वक्पर्यंतोजीवः । एत For Private Personal Use Only Page #623 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रायधनपतसिंघ बाहाउरका जैनागम संग्रह नाग उसरा. ५५३ उक्तं नवति । यदेवतबरीरं सएव जीवोनैतस्माबरीरा व्यतिरिक्तोस्त्यात्मेत्यतस्तत्प्रमाणएव नवत्यसावित्येवंच कत्वैषयात्मायोयं कायोऽयमेव च तस्यात्मनः पर्यवः कृत्स्नः संपूर्णः पर्यायोऽवस्थाविशेषः तस्मिश्च कायात्मन्यवाप्ते तदव्यतिरेकाजीवोप्यवाप्तएव जवति । ए पच कायोयावंतं कालं जीवेदविकृतथास्ते तावंतमेव कालं जीवोपि जीवतीत्युच्यते । तदव्य तिरेकात्तथैव कायोयदा मृतोविकारजाग्नवति तदा जीवोपि न जीवति जीवशरीर योरेकात्मकत्वात् । यावदिदं शरीरं पंचनूतात्मकमव्यंगं चरति तावदेव जीवोपीति । त स्मिश्च विनष्टे सत्येकस्यापि जूतस्यान्यथानावे विकारे सति जीवस्यापि तदात्मनोविनाश स्तदेवं यावदेतहरीरं वातपित्तश्लेष्माधारं पूर्वस्वनावादप्रच्युतं तावदेव तजीवस्य जीवितं न वति । तस्मिंश्च विनष्टे तदात्मा जीवोपि विनष्टइतिकृत्वा यादहनायासमंतादहनार्थ श्मशानादौ नीयते यतोऽसौ तस्मिश्च शरीरेऽनिध्मापिते कपोतवर्णान्यस्थीनि केवलमुप लन्यते न तदतिरिक्तोऽपरः कश्चिदिकारः समुपलभ्यते यतयात्मास्तित्वशंकास्यात् । ते च तद्बांधवाजघन्यतोपि चत्वारः । आसंदी मंचकः सपंचमोयेषांते आसंदीपंचमाः पुरु पास्तं कायमग्निनाध्मापयित्वा पुनः स्वग्रामं गबंति । यदि पुनस्तत्रात्मा निजशरीराजिनः स्यात्ततः शरीरान्निर्गबन्दृश्येत नचोपलभ्यते तस्माजीवस्त देव शरीरमिति स्थितं । तदेव मुक्तनीत्याऽसौ जीवोऽसन्न विद्यमानस्तत्र तिष्ठन् गहुंश्चासंवेद्यमानोयेषामयं पदस्तेषां त स्वाख्यातं नवति । येषां पुनरन्योजीवोन्यबरीरमेवंनतोऽप्रमाणकएवान्युपगमस्तस्मात्ते स्वयमूह्याप्रवर्तमानाएवमिति वक्ष्यमाणं तेनैव विप्रतिवेदयंति जानंति । तद्यथा । या युष्मन् शरीराबहिरज्युपगम्यमानः किंप्रमाणकः स्यादितिवाच्यं । तत्र किं दीर्घः शरीरा प्रांशुतरः उत न्हस्वोंगुष्ठश्यामाकर्तडुलादिपरिमाणोवा । तथा संस्थानानां परिमंडलादी नां मध्ये किंसंस्थानस्तथा कस्मादीनां वर्णानां मध्ये कतमवर्णवर्ती तथा किंगंधः षलार सानां मध्ये कतमरसवर्ती तथा ऽष्टानां स्पर्शानां मध्ये कतमोयस्पर्शीवर्तते । तदेवं संस्था नवर्णगंधरसस्पर्शान्यरूपतया कथमप्यसावगृह्यमाणोऽसन्नसो तथापि केनापि प्रकारेण संवेद्यमानोपि येषां तत्स्वाख्यातं नवति यथान्योजीवोन्यवरोरकमित्ययं पदस्तस्मात्पथ गविद्यमानत्वात्ते शरीरात्टथगात्मवादिनोनैव वदयमाणनीत्यात्मानमुपलनंते ॥ १५ ॥ से जहा णाम एकेश पुरिसे कोसीन असिं अनिनिवटित्ताणं नवदंसेजा अयमानसो असी अयं कोसी एवमेव पनि केइपुरिसे अनिनिवटित्ता एणं नवदंसेत्तारो अयमानसो आया इयं सरीरं से जहा णाम एकेश पुरिसे मुंजा इसियं अनिनिवटित्ताणं नवदंसेजा अयमानसो मुंजे यं सियं एव मेव नवि केइपुरिसे नवदंसेत्तारो अयमानसो आया इयं Page #624 -------------------------------------------------------------------------- ________________ uu8 ती सूत्रकृतांगे द्वितीय श्रुतस्कंधे प्रथमाध्ययनं. सरीरं से जढ़ा पाम एकेइ पुरिसे मंसान अनिनिवटित्ताएं नवदं सेका यमानसो मंसे अयं ही एवमेव नचिके परिसे नवदंसे तारो च्यमानसो आया इयं सरीरं से जहा णाम एकेइ पुरिसे कर ला यामलकं अनिनिवटित्ताणं नवदंसेका यमानसो करतले अयं यामलए एवमेव चि के पुरिसे नवदंसेत्तारो मानसो या इयं सरीरं से जहा पाम एकेइ पुरिसे दहिन नवनीयं अनिनिव टिनाएं नवदंसेका प्रयमानसो नवनायं प्रयंत दही एवमेव चि रिसे जाव सरीरं से जढ़ा पाम एकेइ परिसे तिलेदितो तिल्नं नि निघटित्ताणं नवदंसेका यमानसो तेनं यं पिन्नाए एवमेव जाव स रीरं से जहा णाम एकेइरिसे इकतोखातरसं अनिनिवटित्ताणं नवदं सेका यमानसो खोतर से अयं बोए एवमेव जाव सरीरं से जढ़ा पाम एके परिसे रीतोरिंग अनिनिवटित्ताणं वदंसेका प्रयमानसो रणीयं ग्गी एवमेव जाव सरीरं एवं प्रसंते प्रसंविक्रमाणे जेसिं तं सुयकायं भवति तं यन्नोजीवो यन्नं सरीरं तम्हा ते मिठा ॥ १६ ॥ 0 - (सेजहाणामए के० ) ते जेम यथा दृष्टांते ने तेम कही देखाडे बे. नाम इति संभावनायेबे ( केइपुरिसे के० ) कोई एक पुरुष ( कोसी के० ) पडीयार की (सिंके ० ) खड़ काढीने (अनिनिवटित्ता के ० ) देखाडे ने (नवदंसेजा के ० ) कहे (मानसो के०) हे प्रायुष्यमंतो या (यसी के०) तलवार (यंकोसी के०) ए पडियार एम जुदा जुदा देखाडी खापे ( एवमेव बिकेइ पुरिसे निनिवटित्ताजवर्द से तारोययमान सोयायाइयंसरीरं के० ) जेम ए पडिहार ने ए खड़ एम् बन्ने जुदा जु दा कर देखाडे ते एवो कोई पुरुष शरीराने जीवने जुदो जुदो करी देखाडनार जगत मां नथी (सेजहाणामए के० ) ए वचन यथा दृष्टांते कर देखाडेबे नाम इति संनाव नायें (पुरिसे मुंजा सिघं के० ) जेम कोइ एक पुरुष मुंज एटले तृण थकी तेनो गर्न नूत जे शलीतेने ( अनिनिवटित्ताणं के० ) जुदा जुदा काढीने (नवदंसेका के० ) देखाडे जे ए ने ए रानी एम देखाडे के (खयमानसोके०) ग्रहो श्रायुष्यमंत ( मुं इयं सियं के० ) ए तृण घने ए शली (एवामेवन बिकेइ पुरिसे नवदंसेत्तारो यमान सोयायाइयंसरीरं के० ) एम आत्मा यने शरीरने जुदो जुदो करी देखाडनार कोइ पुरुष Page #625 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राय धनपतसिंघ बाहाउरका जैनागम संग्रह नाग उसरा. ५५ नथी (सेजहाणामए के० ) ते वली यथा दृष्टांते करी देखाडे (केइपुरिसेमंसाउथही अनिनिवटित्ताणंग्वदंसेजा के० ) कोक पुरुष मांस थकी दाम जुदा काढीने देखाडेके (अयमानसो के० ) अहो आयुष्यमंतो (मंसेअयंथहीके०) या मांस अने ए हाड (ए वामेवणबिकेश्पुरिसेउवदंसेत्तारोषयमाउसोबायाश्यसरीरं के० ) एम था आत्मा अने ए शरीर एने जुदो जुदो देखाडनार कोइ पुरुष नथी (सेजहाणामएकेश्पुरिसेकरयलान आमलकंअनिनिवटित्ताणंग्वदंसेजा के० ) यथा दृष्टांते कोई एक पुरुष करतल एटले हथेली थकी आमलो जुदो करी देखाडे (अयमाउसोकरतलेधयंत्रामलए के० ) हे आयुष्यमंतो आ हथेली अने था बामलो (एवमेवनबिकेश्पुरिसेउवदंसेत्तारोषयमा उसोयायाश्यंसरीरंके०) एम था आत्मा अने या शरीर एरीते जुदा जुदा करी देखाडनार को पुरुष नथी (सेजहाणामएकेश्पुरिसेदही-नवनीयंअनिनिवटित्तानवदंसेजाअयमा नसोनवनीयं अयं तुदहीएवामेवनबिकेश्पुरिसेजावसरीरं के) यथा दृष्टांते के एक पुरु पदही थकी माखण जुदो काढीने देखाडे के अहो आयुष्यमंतो आ माखण अने आ दही एम था आत्मा अने आ शरीर एरीते जुदा जुदा करी देखाडनार को पुरुष नथी. एमज यथा दृष्टांते को एक पुरुष तिल थकी तेलने जुदो काढने देखाडे के अहो आयुष्यमंतो या तेल अने या खल एम आत्मा अने शरीरने कोई पुरुष जुदो करी दे खाडनार नथी एमज यथा दृष्टांते कोई एक परुष सेलडी थकी सेलडीनो रश जुदो काढीने देखाडे के अहो आयुष्यमंतो आ इकुरस अने या बोतरा एम आत्मा अने शरीरने जुदो करी देखाडनार को पुरुष नथी यथादृष्टांते को एक पुरुष धरणी थकी अग्नी जुदो काढीने देखाडे के हे आयुष्यमंतो था अनि अने ा अरणी एम श रीर अने अत्माने जुदो करी देखाडनार को पुरुष नथी.॥ (एवंअसंतेके०) एम अब तो अने (असंविङमाणे के ) अविद्यमान जे यात्माने तेने पूर्वोक्त पदार्थोने जेम जुदा जुदा करी देखाडे तेम ए धात्मा अने शरीरने जुदो जुदो करी देखाडनार जगत मां कोई पुरुष नथी (जेसिंतसुयखायंनवतितंके०) ते कारण माटे तेहिज जीव अने ते हिज शरीर ए पद सत्य स्वारख्यात जाणवो (तम्हाके०) तस्मात् (अन्नोजीवोके०) अन्य जीव अने (अन्नंसरीरंके) शरीर पण अन्य ए वचन (तेमिनाके) तेमिथ्या ॥१६॥ ॥ दीपिका-यात्मनास्तित्वं दृष्टांतैराह । (सेजहा इत्यादि ) तद्यथा नाम क श्चित्पुरुषः कोशतः प्रत्याकारादसिं खडुमनिनिवृत्य समाकृष्यान्येषामुपदर्शयेत् । त द्यथा । अयमायुष्मन् असिः खडः । अयं च कोशप्रत्याकारः । एवमेव जीवशरीर यो स्त्युपदर्शयिता तथायं जीवश्दंच शरीरमिति नास्त्येवमुपदर्शयिता कश्चिदतोन Page #626 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पए दितीये सूत्रकृतांगे क्षितीय श्रुतस्कंधे प्रथमाध्ययनं. कायानिन्नोजीवति । अत्रार्थ बदन दृष्टांतानाह । तद्यथा । कश्चित्पुरुषोमुंजातृणविशे पात् (इसिअंति) तर्ननूतां शलाका पृथक् कृत्य दर्शयेत् तथा मांसादस्थि करतलादा मलकं दनोनवनीतं तिलेन्यस्तैलं श्दोरसमरणितोऽग्निमनिनिवृत्य पृथक् कृत्य दर्शयेदे वं शरीरादपि जीवं नास्त्येवमुपदर्शयिता कश्चिदतोसन्नात्मा शरीरात्टयगसंवेद्यमानश्चे ति । येषां च स्वमतानुरागादेतत्स्वाख्यातं नवति । यदन्योजीवोन्यच्च शरीरमिति । एव मात्मा च पृथक् नोपलन्यते तस्मात्तन्मिथ्या ॥ १६ ॥ ॥टीका-तद्यथा नाम कश्चित्पुरुषः कोशतः परिवारादसिंखडमनिनिर्वर्त्य समारुष्यान्येषा मुपदर्शयेत्तद्यथाऽयमायुष्मानसिः खगोयं च कोशः परिवारएवमेव जीवशरीरयोरपिनास्त्यु पदर्शयिता। तद्यथाऽयं जीवश्दंच शरीरमिति नचास्त्येवमुपदर्शयिता कश्चिदतः कायान्न निन्नोजीवति । यस्मिश्चार्थे बहवोदृष्टांताः संतीत्यतोदर्शयितुमाह। तद्यथा वा कश्चि त्पुरुषोमुंजात् तृणविशेषात् (इसियंति) तननूतां शलाकां पृथक्त्य दर्शयेत् । तथा मांसाद स्थि तथा करतलादामलकं तथा दधनोनवनीतं तिलेल्यस्तैलमिति । तथेदोरसं त थाऽरणितोऽग्निमनिनिर्वर्त्य दर्शयेदेवमेव शरीराददि जीवमिति । नचास्त्येवमुपदर्शयिता तोऽसन्नात्माशरीरात्टथगसंवेद्यमानश्चेति । प्रयोगश्चात्र सुखःखनाक् परलोकायायीना स्त्यात्मा तिलशश्विद्यमानोपि शरीरकेटथगनुपलब्धेर्घटात्मवत् व्यतिरेकेणच कोशखङ्ग वत्तदेवंयुक्तिनिः प्रतिपादितोप्यात्मानवेत् । येषां पृथगात्मदिनां स्वदर्शनानुरागादेत स्वारख्यातं नवति । तद्यथा । अन्योजीवः परलोकानुयायी अमूर्तोऽन्यच्च तनववृत्तिमू तिमहरीरमेतच पृथङ्नोपलन्यते तस्मात्तन्मिथ्या यैः कैश्विउच्यते यथास्त्यात्मा पर लोकानुयायीति ॥ १६ ॥ सेहता तंदणद खणद बणद मदद पयद आलुंपद विलुपद सहसा कारेद विपरामुसह एतावतावजीवे पबि परलोएवा ते पो एवं विष्प डिवेदेति तंकिरियाश्वा अकिरियाश्वा सुक्कडेश्वा उक्कडेश्वा कल्लाणे श्वा पावएश्वा सादुश्वा असादुश्वा सिधाश्वा असिचाश्वा निरएश्वा अनिरएश्वा एवंतेविरूवरूवेहिं कम्मसमारंनेहिं विरू वरूवाई कामनोगाई समारंति नोयणाए॥१७॥ एवं एगेपागनि या लिकम्म मामगं धम्मं पन्नति तंसदहमाणा तंपत्तियमाणा तंरो यमाणा सादु सुयकाए समणेतिवा माहणेतिवा कामं खलु आसो तुमं पूययामि तं जहा असणेणवा पाणेणवा खाश्मेणवा साश्मणवा Page #627 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रायधनपतसिंघ बाहारका जैनागम संग्रह नाग दुसरा. वणवा पडिग्गढ़वा कंबलेणवा पायपुंचणेरावा तचेगे पूयणाए समासु तचेगेपूयणाए निकाइंसु ॥ १८ ॥ 10 अर्थ- हवे ए पद ग्रहण करनार नास्तिकले ते देखाडेबे एवा अध्यवसायें प्रवर्त्ततो एवो नास्तिकवाद (हंता के०) ते पोते पण प्राणीखोने हो केमके ते प्राणातिपातने विषे दोष ने जाणतो थको बे माटे बीजाने पण जीवघात करवानो उपदेश खापे ते उपदेश क d. (ह) ते खङ्गादिके कर प्राणीउने हो एमां दोष नथी ( खाहके ० ) पृथिव्यादिकने खो (बहके ० ) बेदी (महहके० ) बालो दहन करो ( पयहके ० ) पचावो रसोई करो ( खालुपद के ० ) लूंटो ( विलुंप हके० ) विशेषे लूंटो ( सहसाकारे eco ) वस्त्र पात्रादिक सर्व प्रण विमास्या करो ( विपरामुसहके० ) इत्यादिक विपरी त मतिनुं उपदेश खापे ( एतावतावजीवेण बिके० ) एटले जीव नयी जेटले शरीर ते er lad (परलोएवाके०) परलोक पण नथी तो परलोकने बनावे पोतानी इवा प्रमाणे खा पी लाड करो (तेलोएवं विप्प डिवेदेंति के ० ) ही श्री सुधर्म स्वामि श्रीजंबू स्वामिने कबे के परलोकने नावे पुण्य पाप पण नथी जेनो एवो पहले ते बापडा नास्ति क मतिना धणी एवढे ते खागल वक्ष्यमाण एटले जे खागल हुं कहीश तेने नथी जा ता ( तं किरियावा० ) ते क्रिया एटले रुडा अनुष्ठानने नथी जाणता ( यकिरिया इवा० ) माग अनुष्टानने नयी जाणता ( सुक्कडेश्वाक्क डेइवाके० ) रुडुकस्युं नथी जाणता तथा मातुंकस्सुं नथी जाणता ( कन्नाश्वा पावएवा के० ) पुष्यने नजा ो पाप नजाणे ( सादुवा साहुवा के० ) साधु तथा असाधुने नथी जाणता (सावा सिवा के० ) सिडने नजाणे प्रसिद्ध एटले संसारने नजाणे (निरए इवा निरएवा० ) नारकी घने अनारकी जे तिथैच मनुष्य ने देवता तेने पण नजा ( एवं विरूवरूवेहिं के० ) एरीते ते नास्तिकवादि विरूपरूप श्रात्मानो अनाव पडिवजीने (कम्मसंमारंने हिंके०) नाना प्रकारना कर्मने समारंजे ते नाना प्रकारना कर्म ने करवे करीने ( विरूबरूवा इंकामनोगा इंसमारंभं तिजोय पाए के ० ) नाना प्रकारना काम जोगने संमारं नोजनने र्थेनोगवे ॥ १७ ॥ ( एवंएगे पागनिया के ० ) एरीते एक नास्तिक वादि अत्यंत धृष्ठ थका एम कहे बे के ( स्किम्मके० ) ए आत्मा शरीर थकी जुदो न एटले तेहि शरीर खने तेहिज जीव एवा धृष्ट पणे प्रवर्त्ते तथा पोताना दर्शन ने अनुसारे प्रवर्ज्या ग्रहण करीने ( मामगंधम्मंपन्नवेंतिके० ) महारो धर्म सत्यबे एवी प्ररूपणा करे ( तंसदहमाला के ० ) तेनास्तिकवादिनो नाषेलो जे धर्म तेने सर्दहता ( तं पत्तियमाला के० ) तथा तेने सत्य करीमानता (तरोयमाला के०) तेने विषे रुचि करता For Private Personal Use Only Page #628 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पएG वितीये सूत्रकृतांगे दितीय श्रुतस्कंधे प्रथमाध्ययनं. थका तथा (साहुसुयरकाएके०) ए अमारो धर्म नलो रुडो स्वाख्यातले अने अनेरा दर्शनी बापडा मुगध लोकने परलोकनो नय देखाडी था लोकना सुख थकी वंचेले ते कारणे (समऐतिवाके० ) अहो श्रमणो (माहणेतिवाके०) अहो ब्राह्मणो तेहिज जीव अ ने तेहिज शरीर ए धर्मने घणोज सारो कहीने (कामंखलुके० ) निश्चे थकी ए धर्मने इनो (बाउसोके०) अहो आयुष्यमंतो अमे तमने उमस्या नहीका क्या एक कपटी दर्शनी यें तमने वेंच्यो हतो तेकारणे अमे तमारा उपकारी बैए माटे अमने (तुमंपूययामि के०) तुमे पूजो प्रत्युपकार करो (तंजहाके० ) तेहिज कहेले (असणेणवा पाणेणवा खाइ मेणवा साश्मेणवाके) अशने करी पाने करी खादिमे करी स्वादिमे करी ए चतुर्विध थाहारे करी पूजो ( वणवाके० ) वस्त्रे करी (पडिग्गहेणवाके० ) पात्रादिके करी (कं बलेवाके ) कंबले करी (पायपुंजणेषवाके) पायपुंजणे करी पूजो प्रतिलानो (त बेगेपूयणाएक०) त्यां कोई एक एवी पूजाने विषे (समासुके०) गृह थया अथवा (तळेगेपूयणाएनिकाइंसु के ) त्यां कोइ एक पूजाने विषे प्रवर्त्तमान थका एवा राजा दिक लोकने ते नास्तिको पोताना धर्मने विषे निश्चल करे अने तेने कहेके ए अमा रो उपदेश्यो धर्म टालीने अनेरो धर्म यादरशो नही ॥ १७ ॥ ॥ दीपिका-एतदध्यवसायी सनास्तिकः स्वतः प्राणिनां दंता व्यापादकः स्यात् अन्येषामपिवक्ति । हणहश्त्यादि । घातयत हणत हणनं हिंसा दहत पचत यालुंपत विलुपत सहसा कारयत विपरामृशत एतावान् शरीरमात्रएव तावजी वोजीवानावाच नास्ति परलोकः । ततस्तेन न तजीवतहरीरवादिनोनास्तिकाए तन्न विप्रतिवेदयंते नांगीकुर्वति । तद्यथा । क्रियां सदनुष्ठानात्मिकामक्रियां वाऽसद नुष्ठानरूपां सुकृतं वा दुष्कृतं वा कल्याणंवा पापकंवा साधुकतमसाधुकतंवा इत्यादिका चिंतैव नास्ति । कोर्थः । सुकतानि साधुत्वात्कल्याणफलानि इष्कृतान्यसाधुत्वादिरूप फलानीति । यात्मानं विनाऽसौ चिंता न युज्यतइत्यर्थः । तथा सुरूतेन सिदिईष्कते नासिदिस्तथा पुष्कतेनैव नरकः अनरकस्तियङरामरगतिरूपः स्यादित्यादिका चिंता न युक्ता । जीवस्यैवानावात् (एवंतेत्ति) एवमुक्तप्रकारेण ते नास्तिकाविरूपरूपैः कर्मसमारंजैः सावद्यानुष्ठानैर्विरूपान् कामनोगान समारनंते समाददति तपनोगार्थ ॥ १७ ॥ एवमुक्तप्रकारेणैके नास्तिकाः प्रागल्निकाःप्रागल्भ्येन चरंति धृष्टतां प्राप्ताथात्मा नास्तीति वदंति । तथा निष्क्रम्य स्वतानुगतां प्रव्रज्यां गृहीत्वा मामक धर्म मदीयोऽयं धर्मइत्यंगी कृत्य परेच्यः प्रज्ञापयति । यद्यपि नास्तिकानां नास्ति दीक्षा तथापि बौदादिमते प्रत्र Page #629 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राय धनपतसिंघ बादापुरका जैनागमसंग्रह नाग उसरा. पण ज्य पश्चान्नास्तिकीनूते संनवति प्रव्रज्या । अथवा नीलपटाद्यंगीकृतः कश्चिदस्त्येव प्रव्रज्या विशेषइति । तं नास्तिकधर्म श्रद्दधानारोचयंतः स्वमतो प्रतियंतोऽवितथनावेन गृएहंतः साधुशोननमेतद्यथा स्वाख्यातोनवता धर्मः। हेश्रमण ब्राह्मण शोननं कृतं यदयं तजीव तबरीरधर्मोऽस्माकमुक्तः काममिष्टमेतदस्माकं । खलुक्यालंकारे । हे आयुष्मन् उप कारिणं त्वां पूजयाम्यहमिति तविष्यावदंति । पूजामेवाह । (असणेत्यादि ) सुगमं । यावत् पादपुंबनकमिति । तत्रैके पूजायां (समानसुि) समावृत्ताः प्रव्हीनूताराजाद यः । एके तत्र स्वमतस्थित्या निकाचितवंतस्तं नृपादिकं स्वधर्मे नियमितवंतश्त्यर्थः १७ ॥टीका-एतदध्यवसायीच सलोकायतिकः स्वतः प्राणिनामेकेंशियादीनां हंता व्यापादको नवति प्राणातिपाते दोषानावमन्युपगम्यान्येषामपि प्राण्युपघातकारिणामुपदेशं ददाति । तद्यथा । प्राणिनः खनादिना घातयत पृथिव्यादिकं खनतेत्यादिसुगमं । यावदेतावानेव शरीरमात्रएव जीवस्ततः परलोकिनोऽनावान्नास्ति परलोकोऽतस्तदनावाच यथेष्टमासत । तथाचोक्तं । पिब खादच साधु शोनने यदतीतं वरगात्रि तत्र ते ॥ नहि नीरुगतं निवर्त ते समुदयमात्रमिदंकलेवरं । तदेवं परलोकयायिनोजीवस्यानावानपुण्यपापे स्तोनापि पर लोकश्त्येवं येषां पदस्ते लोकायतिकास्तजीवतहरीरवादिनोनैवैतवदयमाणं प्रतिवेदयंति धन्युपगडंति । तद्यथा। क्रियांवा सदनुष्ठानात्मिकामक्रियांवा असदनुष्ठानरूपां एवं नैव ते विप्रतिवेदयंति । यदिहि आत्मा तक्रियावान्नकर्मणोनोक्ता स्यात्ततोपापनयात्सदनुष्टान चिंता स्यात्तदनावाच्च सक्रियादिचिंतापि दूरोत्सादितैव । तथा सुकृतं सुष्कृतं वा कल्या एमिति पापमिति वा साधुरूतमसाधुकतमित्यादिका चिंतैव नास्ति । तथाहि । सुरुता नां कल्याण विपाकिनां साधुतया ऽवस्थानं पुष्कतानां च पापविपाकिनामसाधुत्वेनावस्था नमेतनयमपि सत्यात्मनि तत्फलनुजि संनवति तदनावाच कुतोनर्थको हिताहितप्रा प्तिपरिहारौ स्यातां । तथा सुकृतेन कल्याणेन साध्वनुष्टानेनाशेषकर्मदयरूपासिदिस्तथा पुष्कतेन पापानुवंधिना असाध्वनुष्ठानेन नरकोनरकेवा तिर्यक्नरामरगतिलक्षणं स्यादित्ये वमात्मिका चिंतैव न नवेत्तदाधारस्यात्मसन्नावस्यानन्युपगमादिति नावः। पुनरपि लोकाय तिकानुष्ठानदर्शनायाह । (एवंतेइत्यादि) एवमनंतरोक्तेन प्रकारेण ते नास्तिकाथात्मानावं प्रतिपाद्य विरूपं नानाप्रकारं रूपं स्वरूपं येषांते तथा कर्मसमारंनाः सावद्यानुष्ठानरूपाः पशुघातमांसलक्षणसुरापाननिलीनादिकास्तैरेवंनूतैर्नानाविधैः कर्मसमारंनैः कृषीवलानु ष्ठानादिनिर्विरूपकान् कामनोगान समारनंतेसमाददति तपनोगार्थमिति ॥ १७ ॥ सांप्रतं तजीवतहरीरवादिमतमुपसंजिवृतुः प्रस्तावमारचयन्नाह । (एवंचेगश्त्यादि) Page #630 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६०० द्वितीये सूत्रकृतांगे द्वितीये श्रुतस्कंधे प्रथमाध्ययनं. 1 मूर्तिमतः शरीरादन्यदमूर्त ज्ञानमात्मन्यनुनूयते तस्य चामूर्तेनैव गुणिना नाव्यमतः श राष्टथग्भूतात्माऽमूर्तेज्ञानवत्तदाधारनूतोस्तीति । नचात्माच्युपगममंतरेण तीव तरवादिनः किंचिदिचार्यमाणं मरणमुपपद्यते । दृश्यंते च तथाभूतएवशरीरे त्रिय माणामृताश्च । कुतः समागतोहं कुत्र चेदं शरीरं परित्यज्य यास्यामि तथेदं मे शरीरं पुराणं कर्मेत्यधमादिकाः शरीरात्पृथग्नावेनात्मनि संप्रत्ययानुभूयते । तदेवमपि स्वा नव सिद्धेप्यात्मनि एके केचन नास्तिकाः पृथक्जीवास्तित्वमश्रद्दधानाः प्रागल्निकाः प्रागल्न्येन चरंति धृष्टतामापन्नाय निदधति । तद्यथा । ययमात्मा शरीरात्पृथग्भूतः स्यात्ततः संस्थानवर्णगंधरसस्पर्शान्यतमगुणोपेतः स्यात् । नच ते वराकाः स्वदर्शनानु रागांधतमसावृतदृष्टयएतद्विदंति । तथा मूर्तस्यायं धर्मोनामूर्तस्य । नहि ज्ञानस्य सं. स्थानादयोगुणाः संभाव्यंते । नच तत्तदभावेपि नास्तीत्येवमात्मापि संस्थानादिगुणरहि तोपि विद्यतइति । एवं युक्तियुक्तमप्यात्मानं धाष्टर्यान्नान्युपगति तथा निष्क्रम्यच स्व दर्शन विहितां प्रव्रज्यां गृहीत्वा नान्योजीवः शरीराद्विद्यतइत्येवं योधर्मोमदीयोयमित्येव मन्युपगम्य स्वतोऽपरेषां च तं तथाभूतं धर्म प्रतिपादयंति । यद्यपि लोकायतिकानां ना स्ति दीक्षा दिकं तथाप्यपरेण शाक्यादिना प्रव्रज्या विधानेन प्रव्रज्य पश्चाल्लोकायतिकमधी यानस्य तथा विधपरिपतेस्तदेवानिरुचितमतोमामकोयं धर्मः स्वयमन्युपगवंत्यन्येषां च प्रज्ञापयति । यदिवा नीलपटाद्यन्युपगंतुः कश्चिदस्त्येव प्रव्रज्या विशेष इत्यदोष इति । सां प्रतं तत्प्रतिज्ञापित शिष्य व्यापारमधिकृत्याह । ( तंसदहमाणेत्यादि ) तं नास्तिकवाद्यु पन्यस्तं धर्म विषयिणामनुकूलं श्रद्दधानाः स्वमतावतिशयेन रोचयंतस्तथा प्रतिपादयंतो वितथनावेन गृहंतस्तथा तत्र रुचिं कुर्वतस्तथा साधुशोजनमेतद्यथास्वाख्यातोयथाव स्थितोनवतोधर्मोन्यथा सति हिंसादिष्ववर्तमानः परलोकनयात्सुखसाधनेषु मांसम द्यादिष्वप्रवृत्तिं कुर्वतोमनुष्यजन्मफलवर्जितानवेयुः । ततः शोननमकारि नवता हेभ मण ब्राह्मण इतिवा यदयं तीवतवरीरधर्मोऽस्माकमावेदितः काममिष्टे तदस्माकं ध र्मकथनं । खलुशब्दोवाक्यालंकारे । श्रायुष्मंस्त्वया वयमन्यु कृताः कार्य टिकैस्तीर्थिकै चिताः स्युरिति । तस्माडुपकारिणं त्वां नवंतं पूजयामाहमपि कंचिदायुष्मतोनगवतः प्रत्युपकारं करोमि । तदेव दर्शयति । तद्यथा । ( असणेत्यादि) सुगमं यावत्पादपुंढन कमिति । तत्रैके पूर्वोक्तया पूजया पूजायां वा ( समाजहिंसुत्ति) समावृताः प्रव्हीनू तास्ते राजानः पूजां प्रति प्रवृत्तास्तदुपदेष्टारोवा पूजामध्युपपन्नाः संतस्तं राजा दिकं स्वद र्शनप्रतिपन्नमेके केचन स्वदर्शन स्थित्या हिताहितप्राप्तिपरिहारेषु निकाचितवंतो नियमि तवंतः । तथाहि । जवतेदं तवरीरमित्यन्युपगंतव्यमन्योजीवोन्यच्च शरीरमित्येतत् परि त्याज्यमनुष्ठानमपि एतदनुरूपमेतद्विधेयमित्येवं निकाचितवंतइति ॥ १८ ॥ Page #631 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६०१ राय धनपतसिंघ बादाडुरका जैनागम संग्रह नाग इसरा: पुवमेव तेसिं पायं जवति समा नविस्सामो अणगारा किंचा पुत्ता पसू परदत्तनोइणो निरकुलोपावं कम्मं लोकरिस्सामि सम ही ते पण पडिविरया नवंति सयमाइयंति अन्नेविया दयावे ति अन्नंपियायतं तं समगुजाति एवमेव ते इचिकामनोगेहि मुि या गिधा गढिया शोववन्ना सुद्धा रागदोसवसट्टा ते पोयमाणं समु वेदेति ते पोपरं समुच्चेदेति गोसाई पालाई नूताई जोवाई सत्ताई स मुछेदेति पढ़ीणा पुवसंजोगं प्रायरियं मग्गं संपत्ता इति ते पोढच्चाए पोपाराए अंतराका मनोगेसु विसन्ना इति पढमे पुरिसजाए तीव तचरीरएति दिए ॥ १९ ॥ अर्थ - (पुवमेव के०) एरीते पहेलोज ( तेसिंकें) तेनास्तिक मतिखोने ( पायंनवति के० ) एवो विपरीत ज्ञान होय के ( समान विस्सा मोके ० ) मे श्रमण संयति यश्शुं ( अणगाराके) घर रहित थइशुं ( किंचला के० ) परिग्रह रहित यइशुं (पुत्ता के ० ) पुत्र मित्र कलत्रादिथी रहित यश्शुं (अपसूके ० ) गोमहिषादिकथी रहित थइयुं (पर avisोके०) अन्यनो दीधेलो याहार जोगवीशुं पोते पचन पाचनादिक क्रियाथी रहित aj (निरकु के ० ) निक्षाचर बता (पोपावकम्मंणोक रिस्सामिके ० ) पाप कर्म सावधानुष्ठा न करी नहीं (समुडी एके० ) ऐवो नाव पडिवजीने सम्यकप्रकारे नवी सावधान थने पी नास्तिक नाव प्राप्त करे लोकायतिक मार्गे याव्या थका (तेयप्पलोयप्प डिविरया जवंतिके० ( ते आप पोते पापकर्म थकी अविरत थाय पोतानीज प्रतिज्ञा थकी चष्ट थाय एवा थका जे करे ते कहेले ( सयमाइयंतिके० ) सावधानुष्ठान हिंसा मृषावा दादिक स्वयं पोते खादरे ( अन्ने विद्यादियावेंतिके० ) अन्यने यादरावे (अन्नं पातं ho) अन्यको बादरतो होय ( तंसमपुजाणंतिके०) तेने अनुमोदे ( एवमेवते के० ) एते ते ( बिकामनोगे हिंडिया के० ) स्त्री संबंधी काम जोगने विषे मूर्च्छित (गा के० ) गृद्ध एटले तेना यभिलाषी ( गढ़िया के० ) अधिक काम जोगने विषे बंधाला ( योवना के० ) कामनोगने विषे एकाग्र चित्ते थया (लुदा के० ) लुब्ध थया ( रागदोसवसट्टा के ० ) राग द्वेषने विषे पहोता ( तेणोप्पा समुदेति के० ) ते पोताना श्रात्माने कर्म पास थकी न बोडावे ( तेणो परंसमुदेंति के० ) ते न्यने प कर्मबंध की नोडावे ( यो माई पालाई नूताई जीवाई सत्ता समुछे देंति के ० ) ते अन्य प्राणी नूत जीव सत्व तेने पण कर्म पास थकी बोडावी नशके एवा नास्तिक For Private Personal Use Only Page #632 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६०१ द्वितीये सूत्रकृतांगे द्वितीय श्रुतस्कंधे प्रथमाध्ययनं. वादि ( पहीला व संजोगं के० ) पूर्व संयोगजे पुत्र कलत्रादिक ते थकी पण नष्ट थया ( यरियंम के० ) यार्य मार्गनेपण (असंपत्ता के ० ) अणपाम्या एटले नपाम्या (इतिके०) एम उजय चष्ट थया थका ( तेणोहच्चाएके०) ते एवा प्रकारे पुष्करणीने तीरे पण ह्या नहीं ने (सोपारा एके०) पार पण पहोता नहीं (अंतराकामनोगेसु विसन्ना के ० ) विचाले कामनोगरूप कादवने विषेज खूता थका रह्या ते पुंग्रीक कमल सरखा राजा नेरी नशके ( इतिपढम पुरुषजाएत जीवत वरीरए तिच्या हिए के ० ) इति तीव तहरी रवादिनामा एम प्रथम पुरुष जात कह्यो ॥ १९ ॥ ॥ दीपिका-ये जागवतादिलिंगमंगीकृत्य पश्चान्नास्तिकाः संवृतास्तेषां पूर्वमादौ प्र व्रज्याग्रहणावसरएतत् परिज्ञातं नवति । यत् श्रमणायतयोनविष्यामोsनगाराः किंच न इव्यं तहिता निष्किचनापुत्राय पशवः परदत्तनो जिनोनिवः किंचित्पापं कर्म सा वयं करिष्यामइति समुबाय पश्चान्नास्तिकतां प्राप्तास्ते श्रात्मना स्वयं सावधादप्रतिवि रता निवृत्तानवंति । स्वयं सावद्यमाददते स्वीकुर्वति श्रन्यानप्यादापयंति ग्राहयंत्यादानं समनुजानंति । एवमेव स्त्रीप्रधानाः कामजोगाः स्त्रीकामनोगास्तेषु मूर्बितागृायभ्युपप नायाधिक्येन जोगेषु लुब्धारागदेषार्ताः संतोनात्मानं संसारात्समुदयंति । नापि परं समुदयंति नाप्यन्यान् प्राणिनोनूतानि जीवान् सत्वान् समुच्छेदयंत्यसद् निप्रायप्रवृत्त त्वात् । ते चैवंविधालोकायतिका: पूर्वसंयोगात्पुत्रादिकात्प्रहीणा चष्टायार्यमार्ग सदनु ष्ठानरूपमसंप्राप्ताइति लोक व्यसदनुष्ठानष्टाअंतरालएव जोगेषु विषमास्तिष्ठति न पुंडरीकोपादिकार्यं साधयंतीत्ययं तीवतच्चरीरवादी प्रथमः पुरुषः समाप्तः ॥ १९ ॥ ॥ टीका - तत्र ये नागवता दिकं लिंगमन्युपगताः पश्चाल्लोकायत ग्रंथश्रवणेन लोकाय ताः संवृतास्तेषामादौ प्रव्रज्याग्रहणकाल एवैतत्परिज्ञातं नवति । तद्यथा । परित्यक्तपुत्रक लत्राः श्रमणा यतयोनविष्यामोऽनगारागृहरहितास्तथा निष्किंचनाः किंचनइव्यं त हिता स्तथाऽपशवोगोमहिष्यादिरहिताः परदत्तनोजिनः स्वतः पचनपाचनादिक्रियारहितत्वात् निशीला निक्वः किय ह्रदयतेऽन्यदपि यत्किंचित्पापं सावधं कर्मानुष्ठानं तत्सर्वं नक रिष्यामीत्येवं सम्यगुवानेनोद्वाय पूर्वं पश्चाल्लोकाय तिकमुपगतायात्मनः स्वतः कर्मन्योऽप्र तिविरतानवंति । विरत्यनावेपि यत्कुर्वेति तद्दर्शयति । पूर्व सावद्यानान्निवृत्तिं विधाय नीलपटादिकं च लिंगमास्थाय च स्वयमात्मना सावद्यमनुष्ठानमाददते स्वीकुर्वेति यन्या न्यप्यादापयंति ग्राहयंत्यन्यमप्यादानं परिग्रहं स्वीकुर्वतं समनुजानंति । एवमेव पूर्वोक्तप्र कारेण स्त्रीप्रधानाः स्त्रियोपलचितावा काम्यंत इति कामानुज्यतइति नोगास्तेषु सातबहु For Private Personal Use Only Page #633 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राय धनपतसिंघ बादाउरका जैनागम संग्रह नाग उसरा. ६०३ लतया ऽजितेंख्यिाः संतस्तेषु कामनोगेषु मूर्बिताएकीनावतामापन्नागृक्षाः कांक्षावंतो ग्रथिताधवबाअध्युपपन्नाधाधिक्येन नोगेषु सुब्धारागषातराग देषवशगाः काम जोगांधावा तएवं कामनोगेषु थाश्रवबहाः संतोनात्मानं संसारात्कर्मपाशाा समुन्ने दयंति मोचयंति नापि परं सउपदेशदानतः कर्मपाशावपाशितं समुलेदयंति कर्मबंधात्रोट यंति नाप्यन्यान् दशविधप्राणवर्तिनः प्राणान् प्राणिनस्तथा वानवन् नवंति नविष्य तिच नूतानि तथा वा थायुष्कधारणाजीवास्तांस्तथा सत्वास्तथाविधवीर्यातरायक्योप शमापादितवीर्यगुणोपेतास्तान्नसमुन्जेदयंति । असदनिप्रायप्रवृत्तत्वात् । ते चैवंविधास्त जीवतहरीरवादिनोलोकायतिकाअजितेंख्यितया कामनोगावसक्ताः पूर्वसंयोगात्पुत्रदा रादिकात्प्रहीणाः प्रन्रष्टाचाराद्याताः सर्वहेयधर्मेन्यश्त्यार्योमार्गः सदनुष्ठानरूपस्तमसं प्राप्ताश्त्येवं पूर्वोक्तया नीत्या ऐहिकामुष्मिकलोकक्ष्यसदनुष्ठानन्रष्टाअंतरालएव नोगे षु विषमास्तिष्ठति । न विवदितं पौंमरीकोत्देपणादिकं कार्य प्रसाधयंतीति । अयं च प्रथमःपुरुषस्ततीवतचरीरवादी परिसमाप्तइति ॥ १५ ॥ अहावरे दोच्चे पुरिसजाए पंचमदपूतिएति आदिङ इह खलु पाश णंवा संतेगतियामणुस्सा नवंति अणुपुत्वेणं लोयं नववन्ना तं जहा आरि यावेगे अणारियावेगे एवं जाव उरूवावेगे तेसिंचणं महंएगे राया नव इमदाएवंचेव गिरविसेसं जाव सेणावश्पुत्ता तेसिंचणं एगेतिए सडा न वंति कामंतं समणाय माहणाय पहारिंसगमणाए तब अन्नयरेणं धम्मे णं पन्नत्तारो वयं श्मेणं धम्मेणं पन्नवश्स्सामो सेएवं मायापदनयंतारो जहाए एसधम्मे सुअकाए सुपन्नत्ते नवंति ॥२०॥ अर्थ-(अहावरेदोच्चेपुरिसजाए के) अथ हवे अपर एटले बीजो पुरुषजात को ण ते दुं कहुं माटे हे श्रमणो तमे सनिलो (पंचमहाभूतिएति के०) जे पुरुष पृथ व्यादिक पांच महाभूत तत्वे करी माने ते पांच महाभूतिक पुरुष सांरख्यमति (आहिक इ के०) कहिए ते प्रथम पुरुषनी परे ज्यांलगे राजसनामां यावी राजा प्रत्ये पोतानो धर्म रुडो करी प्रकाशे तेनी पेरे कहे (इहखनुपाइणंवाके०) निश्चे या संसारमा पूर्वा दिक दिशिने विषे (संतेगतियामणुस्सानवंतिके०) कोइएक मनुष्य पंचमहाभूतिक सांख्य मति (थपपुवेणंलोयंग्ववन्ना के०) ते अनुक्रमे लोकमांहे उपना (तंजहाके०) ते क हेडे (आरियावेगेके० ) एक आर्य मनुष्यते साडा पचीश आर्य देशना उपना (अणा रियावेगे के०) एक अनार्य मनुष्यते अनार्य देशना उपना ( एवंजावरूवावेगे के० ) Page #634 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६०४ तिीये सूत्रकृतांगे वितीय श्रुतस्कंधे प्रथमाध्ययनं. एम यावत् कोइएक मनुष्य कुरूपवंत ने इत्यादिक अर्थ आगल लखाइ गया (ते सिंचणं के० ) ते मनुष्य मांहे (महंएगेरायानवर के०) एक महोटो राजा होय तेके वो तोके (महाएवंचेव के० ) महोटो हिमवंत पर्वतादिक समान होय (णिरविसेसं के० ) एमज पूर्ववत निरविशेष (जावसेणावश्पुत्ता के०) यावत् सेनापतिना पुत्र केवा ( तेसिंचणं के० ) तेमांहे (एगेतिएसडानवंति के० ) कोई एकने धर्म करवानी श्रा होय एटले धर्मार्थी होय (कामंतं के० ) तेने धर्मार्थी जाणीने (समणा य माहणाय के ) श्रमण थने ब्राह्मण मलीने तेना समीपे धर्म प्रतिबोधवा निमित्ते (पहारिंसुगमणाए के०) आलोचवो चिंतवीने थावे ( तब के० ) त्यां (अन्नयरेणंध म्मेणंपन्नत्तारोवयं के० ) अनरो पोतानो धर्म प्ररूपण हार एटले धर्मोपदेशक थइने (इमेणं के०) ए बागल कहेशे तेरीते (धम्मेणंपन्नवश्स्सामो के०) राजानी बागल धर्म कही\ एम बालोचीने (सेएवं के0 ) तेएम (मायापहनयंतारो के०) माहरो धर्म क दुनु अहो नयथकी राखनार ते (जहाए के) जेम (एसधम्मे के० ) महारो एधर्म (सुअरकाए के० ) स्वाख्यात (सुपन्नतेनवंति के० ) रुडो प्ररूपवो होय ॥२०॥ हवे ते राजा आगल जेवी रीते धर्म प्ररूपे तेवी रीते पागल कहेले. ॥ दीपिका-अथापरोक्तिीयः पुरुषजातः पंचनिनूतैः प्रथिव्यप्तेजोवायुव्योमाद्यैश्चर ति पांचनीतिकः। सांख्याजीवस्य तृणमोटनेप्यसामर्थ्य । नूतरूपायाः प्रकृतेरेव सर्वकर्त त्वमिति तन्मतं । नास्तिकविशेषोवा पंचनूतव्यतिरिक्तनास्तित्वांगीकारात् । (याहिक) याख्यायते । अत्र च प्रथमपुरुषगमेन इह खलु पाईवा इत्यादिकोग्रंथः सुपन्नत्ते न वतीत्येतदंतो यः ॥ २० ॥ टीका-प्रथमपुरुषानंतरं वितीयं पुरुषजातमधिकृत्याह । (अहावरेदोचे त्यादि) अथशब्दयानंतर्यार्थे । प्रथमपुरुषानंतरमपरोक्तिीयः पुरुषएव पुरुषजातः पंचनिः पृथिव्यप्तेजोवाय्वाकाशारख्यैश्चरति पांचनौतिकः । पंचवा नूतानि अन्युपगमारे ण विद्यते यस्यसपंचनूतिको मत्वर्थीयष्ठन् । सच सारख्यमतावलंव्यात्मनस्तृणकुब्जीकर ऐप्यसामर्थ्यान्युपगमात् इष्टव्योलोकायतमतावलंबी नास्तिकोनूतव्यतिरिक्तत्वान्युपगमा दाख्यायते प्रथमपुरुषानंतरमयं पंचनतात्मवाद्यनिधीयते चेति । अत्र च प्रथमपुरुषगम ने (इहखनुपाईणं ) चेत्यादिकोग्रंथः सुपरमत्तेनवतीत्येतत्पर्यवसानोवगंतव्यति ॥२०॥ इदखलु पंचमहनूता जेहिं नोकज किरियातिवा अकिरियातिवा सु कडेतिवा उकडेतिवा कल्लाणेतिवा पावएतिवा सादुतिवा सिद्धितिवा असिञ्चितिवा पिरएतिवा अणिरएतिवा इति अंतसो तणमायमवि॥१॥ Page #635 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राय धनपतसिंघ बादाउरका जैनागम संग्रह नाग उसरा. ६५ अर्थ-(इहखलु के० ) निश्चे थासंसारने विषे (पंचमहलूता के० ) पांच महोटा जत सर्व जगतमा व्यापी रह्या (जेहिंनोकाइकिरियातिवाथ किरियातिवा के० ) ते हिज पांच जूते अमे किया प्रक्रिया सर्व करिये परंतु जेहिं एटले जे बगे यात्मा ए वे नामे पदार्थ ते क्रिया यक्रिया नोकङ एटले नथी करतो तथा मुक्कडे तिवा उक्क डेतिवा कनाणेतिवा पावएतिवा सादुतिवा सिदितिवा थसिदितिवा गिरएतिवा अणि रएतिवा एटले सुकृत करणी दुष्कृत करणी कल्याण कारी क्रिया पापकारी क्रिया साधु एटले नली क्रिया असाधु एटले माती क्रिया सिदि एटले मोक्ष जवा योग्य क्रिया असिदि एटले मोह न जवा योग्यक्रिया नरक जवा योग्य क्रिया नरके नजवा योग्य क्रिया ए सर्व थात्मा नथी करतो (अंतसोतणमायमवि के०) ए कारणे सां ख्यने मते जे कांश सूक्ष्म तृणनु नमाववो तेनो पण उपदेश पांच नूतज करेले पण यात्मा सर्वथा कांड पण नथी करतो ॥१॥ ॥ दीपिका-सांख्यनास्तिकयोर्मतमाह । इह मते पंच महाभूतानि यै!ऽस्माकं क्रिया व्यापारता वा नक्रियते सुरुतं दुष्कृतंवा कल्याणं पापकमिति या साध्वितिवा सिधिM क्तिरसिदिः संसारोनरकोऽनरकस्तिर्यनरामरगतिः । एतत्सर्व सत्वरजस्तमोरूपा प्रक तिरेव जूतरूपा करोति । यात्मा केवलमुपर्नुक्ते नतु करोति किंचित् । नास्तिकानिप्राये णापि इहैव सुखःखे स्वर्गनरको इत्युच्यतइति । एवमंतशस्तृणमात्रमपि यत्कार्य ततै रेव प्रतिरूपापन्नः क्रियते । एवं सांख्यमते यात्मा किंचित्करः । नास्तिकमतेतु या त्मनः सर्वथाप्यनावस्ततोक्ष्योरपि नूतान्येव सर्वकार्यकर्तृणीति ॥ २१ ॥ ॥ टीका-सांप्रतं सांख्यस्य लोकायतिकस्य चान्युपगमं दर्शयितुमाह । (इहखलुपंच महताश्त्यादि) शहास्मिन् संसारे वितीयपुरुषवक्तव्यताधिकारे वा । खलुशब्दोवाक्या लंकारे । पृथिव्यादीनि पंचमहानूतानि विद्यते महांति च तानिच महाभूतानि सर्व व्यापितयान्युपगमात् महत्वं । तानिच पंचैव । परस्य षष्ठस्य क्रियाकर्तृत्वेनानन्युपगमाद्यदि पंचनिजूतैरप्युपगम्यमानैर्नोऽस्माकं किया परिस्पंदात्मिका चेष्टारूपा क्रियते क्रिया वा नि ापारतया स्थितिरूपा क्रियते । तथाहि । तेषां दर्शनं सत्वरजस्तमोरूपा प्रकृतिता त्मनूताः सर्वार्थक्रियाः करोति पुरुषः केवलमुपचुक्तेऽध्यवसितमर्थ पुरुषश्चेतयतीति व चनात् । बुझिश्व प्रकृतिरेव तहिकारत्वात् । तस्याश्च प्रकतेनूतात्मिकायाः सत्वरजस्तम सां चयापचयाच्या क्रियाक्रिये स्यातामिति कृत्वा नूतेच्यएव क्रियादीनि प्रवर्तते तक्ष्यति रेकेणापरस्यानावादिति नावः । तथा सुष्टु कृतं सुरूतमेतच सत्वगुणाधिक्येन नवति । Page #636 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६०६ वितीये सूत्रकृतांगे वितीय श्रुतस्कंधे प्रथमाध्ययनं. तथा उष्टं कृतं दुष्कृतमेतदपि रजस्तमसोरुत्कटतया प्रवर्तते । एवं कल्याणमिति वा पा पकमितिवा साध्वितिवाथसाध्वितिवा इत्येतत्सत्वादीनां गुणानामुत्कर्षानुत्कर्षतया यथा संनवमायोजनीयं । तथेप्सितार्थनिष्ठानं सिद्धिविपर्ययः स्वसिदिनिर्वाणं वा सिदिः सं सारः संसारिणां तथा नरकः पापकर्मिणां यातनास्थानमनरकस्तिर्यङ्मनुष्यामराणामेत सर्व सत्वादिगुणाधिष्ठिता नूतात्मिका प्रतिर्विधत्ते । लोकायतानिप्रायेणापीहैव तथा विधसुखःखावस्थाने स्वर्गनरकावितीत्येवमंतशस्तृणमात्रमपि यत्कार्य तभूतैरेव प्रधा नरूपापन्नः क्रियते । तथा चोक्तं । सत्वं लघुप्रकाशकमिष्टमुपष्टंनकं बलंच रजः॥ गुरुचर एकमेव तमः प्रदीपवन्चार्थतोवृत्तिरित्यादि । तदेवं सांख्यानिप्रायेणात्मनस्तृणकुब्जीकर ऐप्यसामर्थ्यानोकायतिकानिप्रायेण त्वात्मनएवानावानतान्येव सर्वकार्यत्वात्कर्तृणीत्ये वमन्युपगमस्तानिच समुदायरूपापन्नानि नानास्वनावं कार्यं कुर्वतिं ॥ २१ ॥ तं च पिदुहेसेणं पुढोनूतसमवातं जाणेज्जातं जहा पुढवी एगे मदनूते आऊ उच्चे महनते तेऊतच्चेमदनते वाऊचग्जेमहनते आगासे पंचमे मदते । वेते पंचमहसूया अणिम्मिया अणिम्मावित्ता अकडा पोकित्तिमा पोक डगा अणाश्या अणिदणा अवंजा अपुरोदिता सता सासता आय बना पुण एगे एवमाद सतो पनि विणासो असतो पनि संनवो॥३२॥ अर्थ-(तंचपिहूदेसेणंपुढोनूतसमवातंजाणेझाके ) ते पांचनूतनो समवाय पृथक एटले जुदो जुदो जावो (तंजहाके ) ते कहेले. (पुढवीएगेमहसूते के०) पृथवी पर्व तादिक ए एक महानूत जाणवो (याककुच्चेमहनते के) पाणी नदी सरोवर समु ज्ञादिकनो ए बीजो महानूत जाणवो (तेकतञ्चेमहत्ते के०) अग्नि ते नष्ण श्रज वालानो कारण ए त्रीजो महानत जाणवो (वाऊचन महते के०) वायु वृद्ध कंप ननो लक्षण ए चोथो महानूत जावो (यागासेपंचमेमहमूते के०) आकाश अव काश लक्षण ए पांचमो महानत जाणवो (श्चेतेपंचमहतया के०) ए पांच महान त ते (अणिम्मिया के०) ईश्वरादिके नीपजाव्या नथी (अणिमावित्ता के० ) हवे नीपजाववा पण नथी (थकडा के०) कोश्ना करेला नथी (णोकित्तिमा के०) घटादिकपदार्थनी पेरे कृत्रिम नथी (लोकडगा के०) तेनी निष्पत्तिने विषे अन्य को इनी अपेक्षा नथी (श्रणाश्या के०) तेनी थादि नथी (अणिहणा के०) तेनो अंत नथी (अवंजा के० ) अवंध्यते समस्त कार्यना करनार जाणवा (अपुरोहिता के०) तेश्रोने कार्यने विषे प्रवर्त्तावनार को नथी (सर्तता के०) स्वाधीन (सा Page #637 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रायधनपतसिंघ बादाउरका जैनागम संग्रह नाग उसरा. ६०७ सता के०) शाश्वता ले (आयड के) आत्माले जेने बहो एवा ए पांचमहानूत जाणवा (पुणएगेएवमादु के०) एक वली एम कहेडे (सतोणनिविणासोके) बतो विद्यमान पदार्थ तेनो विनाश नथी (असतोणविसंनवो के०) अविद्यमान शशशृं गादिकनो उत्पत्तिनो संनव नथी ए कारणे सांख्य दर्शनवालो आत्माने कर्ता नथी मान तो जो यात्मा कर्ता होय तो अति वस्तु उपजावे ते कारणे यात्मा कर्ता नथी.॥२॥ __॥ दीपिका-तं च नूतानां समवायं पृथग्नूतपदोदेशेन जानीयात् । तद्यथा । एथिव्यै का महानूतमित्यादि । एषां कायाकारतया यः समवायः सएकत्वे लक्ष्यते । इत्येतानि पंच महाभूतान्यनिर्मितानि कालेश्वरादिना केनचिदकतानि परेणाऽनिर्मापयितव्यानि थ कृतानि विसापरिणामेन निष्पन्नत्वात् । तथा न घटवकृत्रिमाणि अनादीनि अनि धनानि याद्यंतरहितानि अवंध्यान्यवश्यकार्यकर्तृणि न विद्यते पुरोहितः कार्य प्रतिवर्त यिता येषां तान्यपुरोहितानि स्वतंत्राणि शाश्वतानि नित्यानि यात्मषष्ठानि पंच महाभूता नीत्येकवादुः । सांख्यानामात्मा किंचित्करः । नास्तिकानांतु कायाकारपरिणतानि नूता न्येवानिव्यक्तचैतन्यान्यात्मव्यपदेशं सनंते । तदेवं सांख्यमते सतोविद्यमानस्य प्रधा नादेन स्तिविनाशोऽसतः शशविषाणादेर्नास्ति संनवः । यउक्तं । नासतोजायतेनावो नाजावोजायतेसतइति ॥ २२ ॥ ॥ टीका-तंच तेषां समवायं पृथग्नूतपदोद्देशेन जानीयात् । तद्यथा । पृथिव्येका कातिन्यलक्षणा महानूतं । तथापोऽवलणामहानूतं तथा तेजरामोद्योतलक्षणं तथा वायुर्धतिकंपलकणस्तथावगाहदानलकणं सर्वव्याधारनूतमाकाशमित्येवं पृथग्नूतपदो देशेनकायाकारतया यस्तेषां समवायः सएकत्वेपि लयते इत्येतानि पूर्वोक्तानि ए थिव्यादीनि संख्या पादीयमाना संख्यांतरं निवर्तयतीति कृत्वा नन्यूनानि नाप्यधिका नि विश्वव्यापितया महांति त्रिकालनवनाजूतानि । तदेवमेतान्येव पंच महानूतानि प्रक तेर्महान महतोहंकारस्तस्माच्च गणः षोडशकस्तस्मादपि षोडशकात्पंचन्यः पंचनूतानी त्येवं क्रमेण व्यवस्थितान्यपरेण लोकेश्वरादिना केनचिदनिर्मितान्यनिष्पादितानि । तथा परेणानिर्मापयितव्यानि तथा कतानि न केनचित्तानि क्रियते । अधनुरादिवविलसा परिणामेन निष्पन्नत्वात्तथा नघटवकृत्रिमाणि कर्तृकरणव्यापारसाध्यानि ननवंतीत्य थः। तथा परानावतया नोनैव कृतकानि । अपेक्षितपरव्यापारस्वनावनिष्पत्तौ नावः कृतकप्रतिव्यपदिश्यते । तानि च विस्त्रसापरिणामेन निष्पन्नत्वात्कृतकव्यपदेशनांजि न नवंति तथा नाद्यनिधनानि अवंध्यान्यवश्यकार्यकर्तृणि तथा न विद्यते पुरोहितः कार्य Page #638 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६७ वितीये सूत्रकृतांगे वितीय श्रुतस्कंधे प्रथमाध्ययनं. प्रति प्रवर्तयिता येषां तान्यपुरोहितानि स्वतंत्राणि स्वकार्यकर्तृत्वं प्रत्यपरनिरपेक्षाणि शा श्वतानि नित्यानि वा नकदाचिदनीदृशं जगदिति वचनात्तदेवंनूतानि पंच महाभूतान्यात्म षष्ठानि । पुनरेके एवमादुरात्मावा किंचित्कारः सांख्यानां लोकायतिकानां पुनः कायाकार परिणतान्येव नूतान्यनिव्यक्तचेतनानि आत्मव्यपदेशं नजंतति । तदेवं सांख्यानिप्राये सतोविद्यमानस्य प्रधानादेर्नास्ति विनाशोऽत्यंतानावरूपोनाप्यसतः शशविषाणादेः संजवः समुत्पत्तिरस्ति कार्यस्य विद्यमानस्यैवोत्पत्तिरिष्टा नासतः सर्वस्मात्सर्वस्योत्पनिप्र संगात् । तथाचोक्तं । नासतोजायते नावोऽनानावोजायते सतइत्यादि तथा असतः खर विषाणादेरकरणापादानकारणस्यच मृत्पिंडादेघंटार्थिनोपादानादिन्यश्च हेतुज्यः का रणे सत्कार्यवादः ॥ १२॥ एतावतावजीवकाए एतावतावअबिकाए एतावतावसबलोए ए तं मुहं लोगस्स करणयाए अवियंतसो तणमायमवि ॥१३॥ अर्थ-(एतावतावजीवकाए के० ) ते सांख्य एम कहेडे के जीवकाय जे जे एटलोज पांच नूत जाणवो कार्यनो करनार पण एटलोज जाणवो (एतावतावधबिकाए के० ) वली एटलोज अस्तिकाय टाली बीजो पदार्थ पण कोइ नथी (एतावतावसवलोए के ) एटलोज सर्वलोक पांचनूत आत्मिक जाणवो (एतंमुहंलोगस्सकरणयाए के) लोकने करवे एहिज मुख्य प्रधान कारण जाणवो (अवियंतसोतणमायमवि के०) तृ ए मात्र कार्यनुं करनार पण ए पांचजूत टाली बीजो कोइ नथी॥ २३ ॥ ॥ दीपिका-एतावानेव नूतमात्रएव जीवकायः। एतावानेवास्तिकायोनापरः कश्चित्पदा र्थः एतावानेव सर्वलोकः । तथा एतदेव पंचनूतास्तित्वं मुरव्यं कारणं लोकस्य सांख्यस्य हि प्रधानात्मन्यांसृष्टेरुत्पत्ति स्तिकस्यतु जूतान्येवांतशस्तृणमात्रमपि कार्य कुवैति ॥ २३ ॥ ॥टीका-तदेवमेतावानेव तावदिति सांख्योलोकायतिकोवा माध्यस्थ्यमवलंब्यमानएव मेवाह । तद्यथा । नियुक्तिनिर्विचार्यमाणस्तावदेतावानेव जीवकायोयत पंचमहाभूता नि यतस्तान्येव सांरख्यानिप्रायेण प्रधानरूपतापन्नानि सत्वादिगुणोपचयापचयाच्यां सर्व कार्यकर्तृण्यात्मा वा किंचित्करत्वादसत्कल्पएव लोकायतस्यतु सनास्त्येवेत्यतएतावानेव नूतमात्रएव जीवकायस्तथा एतावानेव नूतास्तित्वमात्रएवास्तिकायोनापरः कश्चित्तीर्थ कानिप्रेतः पदार्थोस्तीति । तथा एतावानेव सर्वलोकोयत पंचमहाभूतानि प्रधानरूपा पन्नान्यात्मा चाकर्ता निर्गुणः सांख्यस्य लोकायतिकस्यतु पंचनूतात्मकाएव लोकास्तद तिरिक्तस्यापरस्य पदार्थस्यानावादिति । तथा एतदेव पंचनूतास्तित्वं मुख्य कारणं लोक Page #639 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रायधनपतसिंघ बादाउरका जैनागम संग्रह नाग उसरा. ६०ए स्यैतदेव चरणकरणतया सर्वकायेषु व्याब्रियते । तथाहि । सांख्यस्य प्रधानात्मन्यां सृ टिरुपजायते । लोकायतिकस्यतु नूतान्येवांतस्तृणमात्रमपि कार्य कुर्वति तदतिरिक्तस्या परस्यानावादिति नावः ॥ १३ ॥ से किणकिणावेमाणे दणंघायमाणे पयंपयावेमाणे अविअंतसो परिस मविकिणित्ता घायश्त्ता एबंपिजाणादिं पबिबदोसो ते णोएवं विपडिवे देति तंजदा किरियाश्वा जाव णिरएश्वा एवंते विरूवरूवेहिं कम्म समारंनेहिं विरूवरूवाई कामनोगाई समारनंति नोयणाए एवमेव ते अणारिया विष्पडिवन्नातं सद्दहमाणातं पत्तियमाणा जावति ते पो दच्चाए णोपाराए अंतरा कामनोगेसु विसमा दोच्चे पुरिसजाए पंचम दतिएत्ति आदिए ॥२४॥ अर्थ-हवे एक वादी एम कहे के आत्मा सर्वथापि नथी वली एक वादी एमक देने के आत्माले परंतु किया कांड करतो नथी तो तेने मते अात्माने शुनागुन कर्म नो बंध नथी एवो देखाडे (सेकिणं किणावेमाणे के० ) ते क्रियानो अर्थी पुरुष कोइएक जातनो क्रियाणो लेतो अथवा अन्य पाशे लेवरावतो ( हणंघायमाणे के०) तथा प्राणीउने हणतो अथवा अनेरा पाशे हणावतो (पयंपयावेमाणे के०) पचन पाच नादि क्रिया पोते करतो अथवा अनेरा पाशे करावतो थको (अविद्युतके०) पण निश्चेकरी जाणे (सोपुरिसमविकिणित्ताके०) अथवा ते पुरुष पंचेंडीने मोले वेचातु लेश्ने (घाय त्ताके) हणतो थको (एबंपिजाणाहिंके) अहींयां पण ते एवं जाणे के (पबिबदोसो के०) ते हिंसाना दोषनो विनागी न थाय एवो जाणी यथाबंदे हिंसादिक सावद्य व्यापा रमा प्रवर्ते (तेणोएवं विष्पडिवेदेतिके) ते बापडा मूर्ख एटलो न जाणे झुं नजाणे (तंज हाके) ते कहेले (किरियाश्वाके) क्रिया एटले रूडो अनुष्ठान ते नजाणे (जावणिरए इवाके) ज्यां शुधी नरक नजाणे एम सर्व पूर्ववत् जाणवो (एवंतेविरूवरूवेहिं के०) एम ते नाना प्रकारना (कम्मसमारंजेहिंके) कर्मनो समारंन करता (विरूवरूवाइंका मनोगाईसमारनंति के०) न्हाना प्रकारना कामनोगने समारंने (जोयणाए के) थाहारने अर्थे जोगवता (एवमेवतेश्रणारियाविप्प डिवन्ना के ) एरीते ते अनार्य पो तानो धर्म रुडो करी प्ररूपता कामनोगने विषेमूर्खाणा थका (तंसदहमाणा के०) ते पाखंझी धर्म ने सईहता थका ( तंपत्तियमाणा के० ) तेनी प्रतीत करता थका (जाव इतिते के०) ज्यां शुधी ए प्रकारे ते (पोहचाए के०) तीरे पण रह्या नही Page #640 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६१० हितीये सूत्रकृतांगे वितीय श्रुतस्कंधे प्रथमाध्ययनं. अने ( णोपाराए के० ) पार पण पाम्या नही इहलोक परलोकथी व्रष्ट थया थका (अं तराकामनोगेसुविसरमा के ) विचाले कामनोगने विषे संसार मांहेज खूता रहे पण पुंफरक कमल सरखा राजाने नरी शके नही (दोचेपुरिसजाए के) ए बीजो पुरुष जात (पंचमहात्तिएतियाहिए के) ए पंचमहाभूतिक नामे कह्यो. ॥ २४ ॥ ॥दीपिका-यात्मनोऽकिंचित्करत्वात्सांख्यमतेऽसत्वान्नास्तिकमते न कर्मनिर्बधइत्याह। सक्रयार्थी पुरुषःकोणन किंचि वस्तु मूल्येन गृएहन परं कोणयन् मूल्येन ग्राहयन तथा प्राणिनोनन् हिंसन् परैर्घातयन् तथा पचन् पाचयन् एतानि कुर्वतोन्यानप्यनुजानन्नप्य तशः पुरुषमपि पंचेंक्ष्यिं विक्रीय हत्वा घातयित्वाऽत्रापि पंचेंझ्यिवधे नास्ति दोषः। अत्रेवं जानीहि किंपुनरेकेंख्यिवधश्त्यपिशब्दार्थः। ततस्ते नैवैतदिप्रतिवेदयंति जानंति । तद्यथा। क्रिया वलनात्मिका सावद्यानुष्ठानरूपा यक्रिया स्थानरूपा यावदेवमेव विरूपविरूपैर्नाना रूपैः कर्मसमोरनैः सावद्यानुष्ठानैर्विरूपरूपान्नानाप्रकारान कामोपनोगान् समारनंते स्वयं अन्यांश्च कारयंति नास्त्यत्र दोषइति प्रतार्य एवमेव तेऽनार्याविप्रतिपन्नाविरुई मार्ग प्रति पन्नास्तमात्मीयं धर्म श्रद्दधानाधात्मीयांगीकारं रोचयंतस्तधर्मस्याख्यातारं प्रशंसयंतः । त द्यथा। स्वाख्यातोनवता धर्मश्त्यादितावनेयं । यावदंतरा कामनोगेषु विषमाइह परलोकन ष्टानात्मत्राणाय नापि परेषामिति दितीयः पुरुषजातःपंचमहानौतिकोव्याख्यातः ॥२४॥ ॥ टीका- सचैवंवाद्येकत्रात्मनोऽकिंचित्करत्वादन्यत्र वात्मनोसत्वादसदनुष्ठानैरप्या स्मा पापैः कर्मनिन बध्यतइति दर्शयितुमाह (सेकिणमित्यादि ) सेतियः कश्चित्पुरुषः क्रयार्थी कोणन किंचित् क्रयेण गृएहंस्तथापरं कापयंस्तथाहि प्राणिनोनन् हिंसन तथा परैर्घातयन् व्यापादयन् तथा पचन् पाचनादिकां क्रियां कुर्वस्तथाऽपरैश्च पाचयन् ।यस्य चोपलक्षणार्थत्वात् कीणतःकयतोनतोघातयतः पचतः पाचयतश्चापरांस्तथाप्यंतशः पुरुष मपि पंचेंडियं विक्रीय घातयित्वापि पंचेंडियघाते नास्ति दोषोत्रैवंजानीहि अवगढ किंपुन रेडियवनस्पतिघातइत्यपिशब्दार्थः । ततश्चैवंवादिनः सांख्याबार्हस्पत्यावा नोनैवैतक्ष्य माणं विप्रतिवेदयंति जानंति । तद्यथा । क्रिया परिस्पंदात्मिका सावद्यानुष्ठानरूपाएवम क्रिया स्थानादिलदाणा यावदेवमेव विरूपरूपैरुच्चावचैर्नानाप्रकारैर्जलस्नानावगाहनादिक स्तथा प्राम्युपमर्दकारिनिः कर्मसमारंनैर्विरूपरूपान्नानाप्रकारान् सुरापानमांसनणाग म्यागमनादिकान् कामोपनोगान समारनंते स्वतः परांश्चोदयंति नास्त्यत्र दोषश्त्येवं प्रता र्यासत्कारणाय प्रेरयंत्येवं च तेऽनार्यावनार्यकर्मकारित्वादार्यान्मार्गाविरु६ मार्ग प्रतिप नाः । तथाहि । सांख्यानामचेतनत्वात्प्रकृतेः कार्यकर्तृत्वं नोपपद्यते । अचेतनत्वं तु त Page #641 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रायधनपतसिंघ बादाउरका जैनागम संग्रह नाग उसरा. ११ स्याश्चैतन्यं पुरुषस्य स्वरूपमिति वचनात् यात्मैव प्रतिबिंबोदयन्यायेन करिष्यतीति चेत्त दपि न युक्तिसंगतं । यतोऽकर्तृत्वादात्मनोनित्यत्वाच्च प्रतिबिंबोदये न युज्यते । किंचानि त्यत्वात्प्रकृतेर्महदादिविकारतया नोत्पत्तिः स्यात् । अपिच । नासतोजायते नावोनाना वोजायते सतश्त्यायन्युपगमा प्रधानात्मनोरेव विद्यमानत्वान्महदहंकारादेरनुत्पत्तिरेवैक त्वाच्च प्रकृतेरेकात्मवियोगेसति सर्वात्मनां वियोगः स्यादेकसंबंधेवा सर्वात्मनां प्रकृतिसंयो गोन पुनः कस्य चित्तत्त्वपरिझानात् प्रकृति वियोगे मोदोऽपरस्य तु विपर्ययात्संसारइत्येवं जगदैचित्र्यं नस्यादात्मनश्वाकर्तत्वे तत्कृतौ बंधमोदौ नस्यातामेतञ्च दृष्टेष्टबाधितं नापि कारणे सत्कार्यवादोयुक्तिनिरनुपपाद्यमानत्वात् । तथाहि । मृत्पिडावस्थायां घटोत्पत्तेः प्राग्घटसंबंधानां कर्मगुणव्यपदेशानामनावाद्धटार्थिनां च क्रियासु प्रवृत्तेन कारणे कार्यमि ति लोकायतिकस्यापि नूतानामचेतनत्वात्कर्तृत्वानुपपत्तिः । कायाकारपरिणतानां चै तन्यानिव्यक्त्यन्युपगमेच मरणानावप्रसंगः स्यात्तस्मान्न पंचनूतात्मकं जगदिति स्थित। अपि चेदं ज्ञानं स्वसंवित्तिसिदमनात्मधर्मिणमुपस्थापयति । नच नतान्येवं धर्मित्वेन परिकल्पयितुं युज्यंते तेषामचेतनत्वादथ कायाकारपरिणतानां चैतन्यधर्मोनविष्यती त्येतदप्ययुक्तं । यतः कायाकारपरिणामएव तेषामात्मानमधिष्ठातारमंतरेण न नवितुम हति निर्हेतुकत्वप्रसंगानितुकत्वेच नित्यं सत्वमसत्वंवा स्यादिति । तदेवंनूतव्यतिक्त आत्मा तस्मिश्च सति सदनुष्ठानतः पुण्यपापे ततश्च जगचित्र्यसिविरिति । एवं व्यवस्थि ते तेनार्याः सांख्यालोकायतिकावा पंचमहाभूतप्रधानान्युपगमेन विप्रतिपन्नायत्कुर्यु स्तदर्शयितुमाह । (तंसदहमाणाइत्यादि) तमात्मीयमन्युपगमं ये चोक्तया नीत्या नियुक्ति कत्वमपि श्रद्दधानाः पंचमहानूतात्मप्रधानस्य सर्वकार्याणि उपगबंति । तदेवच सत्य मित्येवं प्रतिपादयंतः प्रतिपद्यमानास्तदेव चात्मीयमन्युपगमं रोचयंतस्तधर्मस्याख्यातारं प्रशंसयंतः । तद्यथा । स्वाख्यातोनवता धर्मोऽस्माकमयमत्यंतमनिप्रेतश्त्येवं ते तदध्यव सायाःसावद्यानुष्ठानेनाप्यधर्मोन नवतीत्यध्यवसायिनः स्त्रीकामेषु मूर्जिताश्त्येवं पूर्ववज्झे यं। यावत्तदंतरे कामनोगेषु विषमाऐहिकामुष्मिकोनयकार्यन्रष्टानात्मत्राणाय नापि परेषा मिति । नवत्येवं वितीयः पुरुषजातः पंचमहाभूतान्युपगमिकोव्याख्यातइति ॥ २४ ॥ अदावरे तच्चे पुरिसजाए ईसरकारणिए इति आदिङ इद खलु पासा दीणंवा संतेगतिया मणुस्सा नवंति अणुपुवेणं लोयं ग्ववन्ना तं आरि यावेगे जाव तेसिंचणं महंते एगे राया नवजाव सेणावश्पुत्ता तेसिं चणं एगतीए सना नव कामं तं समणाय मादणाय पहारिंसुगमणाए जाव जहा मए एसधम्मे सुअस्काए सुपन्नत्ते नव॥२५॥ Page #642 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६१२ दितीये सूत्रकृतांगे वितीय श्रुतस्कंधे प्रथमाध्ययनं. अर्थ-हवे अपर त्रीजो पुरुष जात कहेले जे ईश्वर लोकनो करनार में एवं माने ते मते एने ईश्वर कारणिक कहेले खलु इति निश्चें था मनुष्य लोकने विषे पूर्वोक्तरीते पूर्वादिक चार दिशिये कोइएक मनुष्य होय ते अनुक्रमे लोक मांहे उपना तेमां को एक आर्य देशना उपना ते ज्यां सुधी महोटो राजा होय तेने परषदा होय ते वली ज्यां सुधी सेनापतिना पुत्र इत्यादिक परखदा सुधी कहेतुं तेमाहे कोई एक धर्मनी श्र दावान होय धर्मार्थी होय तेने धर्मार्थी जाणीने श्रमण ब्राह्मण मली धर्म प्रतिबोध वा निमित्त आलोचीने ते पूर्वोक्त राजादिकने संमुख जश्ने अंही यावत् पूर्वोक्त रीते सनादिकनु प्रस्ताव सर्व कहेवो पबीते राजादिकने तेईश्वरकारणिक पुरुष यावी पोता नो स्वाख्यात सुप्रज्ञ धर्म वर्णवेडे. ॥ २५ ॥ ॥ दीपिका-अथापरस्तृतीयः पुरुषजातईश्वरोजगतः कारणं यस्य सईश्वरकारणिक आत्माऽदैतवादी व्याख्यायते । (इहखलुइत्यादि) प्राच्यादिषु दिन एकस्यां दिशि स्थि तः कश्चिदेवं ब्रूयात् । यथा राजानमुद्दिश्य तावद्यावत्स्वारख्यातःसुप्रज्ञप्तोधर्मोनवति॥२५॥ । टीका-सांप्रतमीश्वरकारणिकमधिकृत्याह । (यहावरेइत्यादि ) अथ वितीयपुरु षानंतरं तृतीयईश्वरकारणिकथाख्यायते । समस्तस्यापि चेतनाचेतनरूपस्य जगतईश्वरः कारणं। प्रमाणं चात्र तनुनुवनकरणादिकंधर्मित्वेनोपादीयते ईश्वरकर्तृकमिति साध्योधर्मः संस्थानविशेषत्वात्कूपदेवकुलादिवत्तथा स्थित्वा प्रवृत्तेर्वास्यादिवत्। उक्तंच। अज्ञोजंतुरनी शः स्या,दात्मनः सुखःखयोः॥ ईश्वरप्रेरितोगळे,त्स्वर्ग वा श्वत्रमेव वा इत्यादि । तथा पुरुष एवेदं यततं यच्च जव्य मित्यादि । तथा चोक्तं । एकएव हि नूतात्मा नूते नूते प्रतिष्ठितः॥ एकधा बदुधाचैव दृश्यते जलचंवदित्यादि । तदेवमीश्वरकारणिकथात्मा दैतवादी वा तृतीयः पुरुषजातबारख्यायते । (इहरखलुश्त्यादि) इहैव पुरुषजातप्रस्तावे । खलुश ब्दोवाक्यालंकारे ।प्राच्यादिषु दिदवन्यतमस्यां व्यवस्थितः कश्चिदेवं ब्रूयात् । तद्यथा। रा जानमुदिश्य तावद्यावत्स्वाख्यातः सुप्रझप्तोधर्मोनवति ॥ २५ ॥ इह खलु धम्मा पुरिसादिया पुरिसोत्तराया पुरिसप्पणीया पुरिससंनूया पु रिसपङोतिता पुरिसअनिसममागया पुरिसमेव अनिनूय चिति सेजदा 'पामए गंमेसिया सरीरे जाए सरीरे संवुके सरीरे अनिसममागए सरीर मेव अनिनूय चिति एवमेव धम्मा पुरिसादिया जाव पुरिसमेव अनिनू यचिति सजदा णाम ए अरईसिया सरीरे जाया सरीरे संवुङ्गा सरीरे अ Page #643 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राय धनपतसिंघ बादाउरका जैनागम संग्रह नाग उसरा. ६१३ निसममागया सरीरमेव अनिनूय चिति एवमेव धम्मावि पुरिसादिया जाव परिसमेव अनिनय चिति सेजहाणामए वम्मिएसिया पढविजाए पुढविसंवुके पुढविअनिस्सममागए पुढविमेव अनिनूय चि एवमेव ध म्मावि पुरिसादिया जाव पुरिसमेव अनिनूय चिति सेजदा णामए रुके सिया पुढविजाए पुढविसंतुझे पुढविअनिसममागए पुढविमेव अनिनूय चिति एवमेव धम्मावि पुरिसादिया जाव पुरिसमेव अनिनूय चिति सेजदा णामए पुरस्करिणी सिया पुढविजाया जाव पुढविमेव अनिनूय चिति एवमेव धम्माविपुरिसादिया जाव पुरिसमेव अनिनूय चिति से जदा णामए उदगपुस्कलेसिया नदगजाए जाव नदगमेव अनिनूय चि ति एवमेव धम्मावि पुरिसादिया जाव पुरिसमेव अनिनूय चिति सेजहा णामए उदगबुब्बुएसिया नदगजाए जाव उदगमेव अभिनूय चिति एव मेव धम्मावि पुरिसादिया जाव पुरिसमेव अनिनूय चिति ॥२६॥ अर्थ-(इहखलुधम्मापुरिसादियाके०) आ संसारने विषे. खलु एवे वाक्यालंकारे धर्म जे सचेतना थचेतनारूप खनाव ते पुरुषादिक जाणवा एटले एम कयुंजे एनी यादिनुं करनार पुरुष शब्दे ईश्वर तेकारणे पुरुषादिक एम पाठ कह्यो तथा (पुरिसोत्तरायाके) पुरुषज जेने उत्तर एटले प्रधान तथा (पुरिसप्पणीया के०) पुरुष प्रणीत एटले ए नो अधिष्ठाता पण पुरुष ईश्वरजले तथा (पुरिससंनूयाके०) पुरुष थकीज उपना (पुरिस पड़ोतिता के० ) पुरुषजे ईश्वर तेणेज प्रगट कस्या जेम प्रदीप मणी अने सूर्यादिके घटपटादिक पदार्थ प्रगट कस्खा तेनी पेरे जाणी लेवू (पुरिसबनिसमामागया के०) जीवने जन्म जरा मरण रोग शोक वर्ण गंध रस स्पर्श मूर्तिपणो ए अनागतादिक धर्म ते सर्व पदार्थ ईश्वरना अनुगामी (पुरिसमेवअनियचिति के ) किंबहुना ए सर्व पुरुषनेज व्यापीने रहेजे (सेजहाणामए के० ) ए अर्थ उपर दृष्टांत देखाडे जेम णाम एवे संनावनाये (गंमेसिया सरीरेजाएके०) पुरुषने शरीरे गंम एटले गुंबडो रोग विशेष थाय ते तेज शरीरने विषे उपनो (सरीरेसंवुड़े के० ) तेज शरीरने विषे वृद्धि पाम्यो (सरीरे अनिसमामागए के०) शरीरने पळवाडेज अनुगत गामि (सरीरमेवथ नियचिति के०) शरीरने विषेज व्यापि रहे पण तेनो अवयव शरीर थकी बाहेर नथी ( एवमेव के०) एमज (धम्मावि के०) ए पदार्थ मात्रजेने ते पण (पुरिसादिया Page #644 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६१४ ती सूत्रकृतांगे द्वितीय श्रुतस्कंधे प्रथमाध्ययनं. के० 50 ) पुरुष जे ईश्वर ते थकी उत्पन्न थया ते ( जावा निनूय चि ंति के० ) यावत् ईश्वरनेज व्यापि रहे परंतु ईश्वर थकी कांइ जुदा नथी. वली बीजो दृष्टांत कहे. जेम (रसिया के ० ) खरति एटले चित्तनो उद्वेग पणो ते शरीर थकीज उपजे ने शरीर थकीज वृद्धि पामे अने शरीर मांहेज व्यापि रहेबे तेम ए धर्म जे पदार्थ ते पण पुरुष थकीज उपजे पुरुष थकीज वृद्धि पामे ने पुरुष मांहेज व्यापिरले वली चीजो दृष्टांत कहे. ( वम्मिएसिया के ० ) जेम वम्मिजे पृथवी तेनो वि कार होय ते पृथ्वीने विषेज उपजे पृथवी थकीज वृद्धि पामे ने पृथवीने विषेज व्या पिने रहे ते ए धर्म ने पुरुषादिक पण जाणी सेवा वली चोथो दृष्टांत कहे. जेम कोएक वृ होय ते पृथवी थकी उपजे पृथवीने विषेज वृद्धि पामे अने पृथवीनेज व्यापि रहे तेम ए धर्म ने पुरुषादिक पण जाणी जेवा. वली पांचमो दृष्टांत कहेले. जेम पुष्करिणी होय ते पृथवी थकी उपजे पृथ्वी थकी वृद्धि पामे ने पृथवीने वि पेज व्यापि रहे तेम ए पदार्थ यने पुरुषादिक पण जाणी लेवा. वली बो दृष्टांत कहे a. जेम घला पाणी मांहे कमल होय ते कमल जल थकी नीपजे जल थकीज वृद्धि पाने जल मांहेज व्यापि रहे तेमज ए पदार्थ पण ईश्वर थकीज नीपजे ईश्वर थ की वृद्धि पाने ईश्वरनेज व्यापि रहे वली सातमो दृष्टांत कहेले. जेम पाणीनुं बुदबुदो होय ते जल थकीज नीपजे जल थकीज वृद्धि पामे ने जल मांहेज व्यापि रहे ते पदार्थो सर्व ईश्वर थकीज उपजेबे इत्यादिक सर्व जाणी लेबुं ॥ २६ ॥ ए || दीपिका - इह खलु धर्माः स्वनावाश्चेतनाचेतनरूपाः पुरुषईश्वरात्मा वा कारण मादिर्येषां ते पुरुषादिका ईश्वरकार पिकायात्मकार पिकावा तथा पुरुषएव उत्तरं कार्य येषां पुरुषोत्तरास्तथा पुरुषेण प्रणीताः पुरुषेण द्योतिताः प्रकाशीकृतायथा सूर्येण घ टादयः । ते च धर्माजीवानां जन्ममरणरोगशोकादयः । जीवधर्मास्तु मूर्तव्याणां व 1 गंधरसस्पर्शाः । अमूर्तव्याणां धर्माधर्माकाशानां गत्यादिकाधर्माः सर्वेपीश्वरकृताः । यात्माद्वैतवादे चात्मविवर्ताः । सर्वेऽप्येते पुरुषमेवानित्नूय व्याप्य तिष्ठति । यत्रार्थे दृष्टांतान् बहूनाह । (सेजहानामइत्यादि) सेजहा तद्यथा । नामेति संभावनायां । गं डं स्यात् । नाव्यते हि प्राणिनां कर्मवशगानां गंडादिरोगइति । गंडं च शरीरे जातं श रीरावयवभूतं तथा शरीरे वृद्धिमुपगतं शरीरवृध्या तस्य वृद्धिरिति । शरीरेऽनिसमत्वागतं न तदवयवोपि शरीरात्पृथक्नूतइति । शरीरमेवानित्नूय पीडयित्वा तिष्ठति । एवमेव येऽमी धर्माश्चेतनाचेतनरूपास्ते सर्वेपीश्वरकर्तृकाः । न ते ईश्वरात्ष्ट्रयक्कर्तुं न शक्यंते य था गंड शरीरविकारनूतं तद्विनाशेच शरीरमेव तिष्ठति एवं धर्माः पुरुषादिकाः पुरुषवि For Private Personal Use Only Page #645 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राय धनपतसिंघ बादाडुरका जैनागमसंग्रह जाग दुसरा. ६१५ काररूपान पुरुषात् पृथग्नवंति तद्विकारापगमे चात्मानमेवाश्रित्य तिष्ठति । एवम न्यदृष्टांतापि नाव्याः । (सेज हेत्यादि) खरतिश्वित्तो देगरूपा साच शरीरजातेत्यादि । यथावा वल्मीकं पृथिवीविकाररूपं ष्टथिव्यां जातमित्यादि । एवं सर्वमीश्वरकारणिक मात्मविवर्तरूपं वा । यथा वा वृक्षोऽशोकादिः पृथिवीजातः । यथा वा पुष्करिणी तडा रूपा पृथिव्यामेव जातेत्यादि प्राग्वत् । तथा नदकपुष्कल मुदकप्राचुर्ये मुदकजातमि त्यादि यथावा नदकबुडुदइत्यादि सुगमं ॥ २६ ॥ ॥ टीका - सचार्य । इह खलु धर्माः स्वनावाश्चेतनाचेतनरूपाः पुरुषईश्वरश्रात्मावा कारणमादिर्येषां ते पुरुषादिकाईश्वरकार पिकाव्यात्मकार शिकावा तथा पुरुषएवोत्तरं का येषां पुरुषोत्तरास्तथा पुरुषेण प्रणीताः सर्वस्य तदधिष्ठितत्वात् तदात्मकत्वादात था पुरुषेण द्योतिताः प्रकाशीकृताः प्रदीपमणिसूर्यादिनेव घटपटादयइति । तेच धर्मा जीवानां जन्मजरामरणव्याधिरोगशोक सुखदुःखजीवनादिकाः । यजीवधर्मास्तु मूर्तिमतां इव्याणां वर्णगंधरसस्पर्शायमूर्तिमतां व्याणां धर्माधर्माकाशानां गत्यादिकाधर्माः । स र्वेपीश्वरकृतायात्मा द्वैतवादेवाऽत्मविवर्ताः सर्वेष्येते पुरुषमेवा निनूय व्याप्य तिष्ठति । स्मिन्नर्थे दृष्टांताना विर्भावयन्नाह । (सेजहाणामइत्यादि) सेशब्दस्त वन्दार्थे । नामश दः संभावनायां । तद्यथा । नाम गंडं स्यानवेत्संभाव्यते च शरीरिणां संसारांतर्गता नां कर्मवशगानां गंडादिसमुद्रवस्तच्च शरीरे जातं शरीरावयवसंभूतं तथा शरीरे वृद्धिमुप गतं शरीरानिवृद्धौ च तस्यानिवृद्धिस्तथा शरीरेऽनिसंबंधागतं शरीरमा निमुख्येन व्याप्य व्यवस्थितं न तदवयवोपि शरीरात्पृथग्भूतइति भावः । तथा शरीरमेवा निनूया निमुख्येन पीडयित्वा तिष्ठति । यदिवा तडुपशमे शरीरमे वाश्रित्य तजडं तिष्ठति न शरीराद्वहिर्नव ति । एतडुक्कं नवति । यथा तत्पिटकं शरीरैकदेशनूतं नयुक्ति शतेनापि शरीरात्पृथग्दर्श यितुं शक्यते एवमेवामी धर्माश्चेतनाचेतनरूपास्ते सर्वेपीश्वरकर्तृकान ते शरीरात्ष्ट्रयक्कर्तुं पार्यते । यदिवा सर्वव्यापिनद्यात्मनस्त्रैलोक्योदर विवरवर्तिपदार्थात्मनोये केचन धर्माः प्रा दुःषति ते पृथक्कर्तुं न शक्यं ते तथा तऊंडं शरीरविकारनूतं तदष्टथग्भूतं तद्विनाशेच शरीरमेवा वतिष्ठते । एवमेव सर्वेपि धर्माः पुरुषादिकाः पुरुषकारणिकाः पुरुषविकाररूपा नपुरुषा पृथग्नवितुमर्हति तद्विकारापगमेवाऽत्मानमेवाश्रित्यावतिष्ठति न तस्माद्दहिनवंती ति शास्त्रेच दृष्टांतप्राचुर्यमविरुद्धं । यदिवाऽस्मिन्नर्थे बहवोदृष्टांताः । संनवंतीश्वरकर्तृत्ववादस्या द्वैतवादस्यच सुप्रसिद्धत्वा दृष्टांत बहुत्व मियाह । (सेजहा इत्यादि ) तद्यथा नामार तिश्वि तो गलक्षणः स्यानवेत् । साच शरीरजाताइत्यादि गंडवन्नेया । दाष्टतिकेप्येवमेव सर्वे धर्माः पुरुषादिकाः पुरुषप्रनवाइत्यादिपूर्ववन्नेयं । तथा यथा नाम वल्मीकं पृथ्वीविकार For Private Personal Use Only Page #646 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६१६ वितीये सूत्रकृतांगे वितीय श्रुतस्कंधे प्रथमाध्ययनं. रूपं स्यात्तच्च पृथिव्यां जातं एथिवीसंबई पृथिव्य निसंबंधागतं पृथिवीमेवानिसंनय ति ष्ठत्येवं दार्टीतिकेप्यायोज्यं । एवमेव यदेतचेतनरूपं तत्सर्वमीश्वरकारणिकमात्मविवर्त रूपं वा नात्मनः पृथग्नवितुमर्हति पथिव्यां वल्मीकवत्तथा तद्यथा नाम वृदोऽशोका दिकः स्यात्सच पृथिवीजातइति दृष्टांतदाष्टी तिके पूर्ववदायोज्थे । तद्यथा । नामपुष्क रिणी स्यात्तडागरूपा नवेत्साच एथिव्यामेव जातेत्यादि प्राग्वञ्चय॑स्तथा तद्यथा नामपु ष्कलं प्रचुरमुदकं पुष्कलमुदकप्राचुर्य तच तर्मत्वाउदकमेव यावदकमेवानिय तिष्ठ त्येवं दार्टीतिकेप्यायोज्यं । तथा तद्यथा नामोदकबुहुदः स्यादत्रापि दृष्टांतदृष्र्टीतिके न तस्मादवयविनः पृथग्नूतइति सुगमं ॥ २६ ॥ जंपिय इमं समणाणं णिग्गंयाणं नदि पणियं वियं जियं ज्वालसंगं गणिपिमयं तंजदा आयारो सूयगडो जाव दिध्विातो सबमेवं मित्रा एण एयं तहियं णएवं आदातदियं इमं सच्चं इमं तदियं इमं आहात दियं एवं सन्नं कुवंति ते एवं सन्नं संग्वेति तेएवं सन्नं सोवध्वयंति तमेवं ते तलाश्यं पुरकं णातिन्हति सनणी पंजरं जहा॥श्शाते णो एवं विप्पडि वेदेति तंजदा किरियाश्वा जाव अणिरएश्वा एवमेव ते विरूवरूवेदिं कम्मसमारंनेहिं विरूवरूवाइं कामनोगाई समारनंति नोयगाए एव मेव ते अणारिया विप्पडिवन्ना एवं सद्दहमाणा जावइति ते पोहच्चाए पोपाराए अंतरा कामनोगेसु विसम्मेति तच्चे पुरिसजाए ईसरकारणि एत्ति आदिए ॥२॥ अर्थ-हवे जे ईश्वरे कस्यो ते सर्व सत्य अने बीजो सर्व मिथ्या ने एवो नाव कहे (जंपियश्मंके०) जे ए प्रत्यक्ष लक्षण (समणापंणिग्गंथाणंके) श्रमण नियंथनो (न विके०) उद्देस्यो एटले ते निग्रंथने अर्थे नाष्यो (पणियं वियं जियं के०) तेने अर्थे प्रग ट कस्यो (अवालसंगंगणिपिमयं के०) दादशांगी गणि पिटक एटले आचार्यनो नंमा र (तेजहा के ) तेना नाम कहेले. (आयारो के०) आचारांग (सूयगडो के०) सू प्रकृतांग इत्यादिक (जावदिहिवातो के) ज्यांसुधी दृष्टिवाद लोक बिंडसार नामा पूर्व पर्यंत (सबमेवं मिला के) ए सर्व मिथ्याने कारण के ए कांइ ईश्वरकृत नयी एतो सर्व पोतानी बायें कल्पित माटे मिथ्या जेम को बताने यबतो कहे अबताने बतो कहे जेम कोई साधुने चोर कहे अने चोरने साधु कहे तथा गायने घोडो कहे अने घोडाने गाय कहे तेमज आत्मा का नथी तेने जे कर्त्ता कहे अने जे ईश्वर कत्तोले Page #647 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राय धनपतसिंघ बाहाउरका जैनागम संग्रह नाग उसरा. ६१७ तेने अकर्ता कहे तेमाटे (णएयंतहियंके०) ए तथ्य नथी (णएपंथाहातहियंके०) ए यथातथ्य नथी हवे ए दर्शनी जेने सत्य करी माने ते कहेजे. (इमंके०) ए ईश्वर कार णिक ने एमजे मानीये तेहिज ( सञ्चंके०) सत्यने (इमंतहियंके०) तेहिज तथ्य जाणवो (इमंग्राहातहियंकेग) एज यथा तथ्य विशेषे जाणवो एरीते ते ईश्वर कारणिक पोताना दर्शनने अनुरागे ( एवंसन्नंकुवंति के०) एवी संझा करें (तेएवंसन्नंसंठवेंति के०) ते बीजा आगल पण एवीज संझा स्थापन करे यद्यपि एवात युक्ति शून्य तथापि (तेएवं सन्नं सोवध्वयंतिके) ते एवी संझाने अनेक हेतु युक्ति दृष्टांते करी स्थापेबे (तमेवंते तळाश्यंरकं के० ) ते कारणे ते उत्सूत्रने स्थापवे करी उत्पन्न थाय जे दुःख ते छः रखने (गातिनति के ) त्रोडनशके तेना उपर दृष्टांत कहेडे (सनणीपंजरंजहा के० ) जेम शकुनी एटले पदी ते पांजराने त्रोडी नशके भ्रमण करी करीने वली तेहि ज पांजरा मांहे रहे तेम ते पूर्वोक्त अन्य दर्शनी पण संसार रूप पांजरा मांहेज रहे परंतु मोदे जर शके नही अने बीजाने पण मोके पोचाडी नशके ॥ २७ ॥ (तेणोएवं विप्प डिवेदेति के ) ते अन्य दर्शनी पांखमी बापडा बाटली वात नथी जाणता गुं नयी जाणता (तंजहा के० ) ते कहे. (किरियाश्वा के० ) रुडो अनुष्ठान नथी जा पता (जावअणिरएतिवा के० ) यावत् अनरक पर्यंत नथी जाणता (एवमेव के०) एम अजाणता थका (तेविरूवरूवेहिंकम्मसमारंनेहिं के०) ते नाना प्रकारना सावद्यकर्मने करवे करी (विरूवरूवाइंकामनोगाइंसमारनंति के०) अनेक प्रकारना कामनोग समारंने जोगवे (नोयणाए के०) नोजनने अर्थ एरीते ते अनार्य पोताना धर्मने रुडो देखाडी प्ररूपता बता कामनोगने विषे मूर्नाणा थका एमते पाखंमो धर्म राजादिकने सविता थका ज्यांलगे ते तोरे पण रह्या नही अने पारपण पाम्या नहीं एम आलोक थकी चूका अने परलोके पण पोता नही विचाले संसार मांहे काम जोग रूप कादवने विषेज खुना थका रहे ते राजारूप पुंडरीक कमलने नभरी शके नही ए त्रीजो पुरुष जात ईश्वर कारणिक कहो. ॥ २७ ॥ ॥ दीपिका-ईश्वरकृतं सत्यमन्यन्मिथ्येत्याह । यदपि चेदं श्रमणनां यतीनां निग्रंथा नां निष्किंचनानामुद्दिष्टं प्रणीतं व्यक्तीकृतं बादशांगं गणिपितकं । तद्यथा । यचारः सू त्ररूतांगमित्यादि यावदृष्टिवादः । सर्वमेतन्मिथ्याऽनीश्वरप्रणीतत्वात् नैतत्तथ्यं नैतद्या थातथ्यं न यथास्थितार्थकथकं । इदं पुनरीश्वरकर्तृत्वं आत्मातिंच सत्यं इदमेव तथ्यं ३ दमेव याथात यं । तदेवं ते पूर्वोक्तनोत्या संज्ञां कुर्वति ज्ञानं दधते अन्येन्यश्च संझा सं स्थापयंति । ते एवं संज्ञामुपस्थापयंति मुष्ठ उपसामीप्येन युक्तिनिः स्थापयंति । ते चै ७. Page #648 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६१७ वितीये सूत्रकृतांगे वितीय श्रुतस्कंधे प्रथमाध्ययनं. वं वादिनस्तदंगीकारजातीयं दुःखं दुःखहेतुत्वान्नातिवर्तते न त्रोटयंति । यथा शकुनिः पदी पंजरं न त्रोटयति एवं तेपि तमुपदेशात्कर्मबंधनं नातिवर्तते ॥ २७ ॥ ते कदाग्र यस्ताएत दयमाणं नविप्रतिवेदयंति न जानति । तद्यथा । इयंक्रियाश्त्यादि यावदन रकश्त्येवं निर्विवेकत्वान्न जाति । एवमेव यथाकथंचित्ते विरूपरूपैः कर्मसमारंनैर्वि रूपरूपान् कामनोगान समारनंते नोजनाय उपनोगाय । एवं ते अनार्या विप्रतिपन्नाः स्वपदं प्रतियंति श्रद्दधतीति पूर्ववत् । यावत्ते कामनोगेषु विषमाः । इत्ययमीश्वरकार णिकथात्माकैतवादी तृतीयः पुरुषजातः संपूर्णः ॥ २७ ॥ ॥टीका-तदेवं यदीश्वरकतत्वेनान्युपगम्यते तत्सर्व तथ्यमपरं मिथ्या इत्येतदावि वय नाह । (जंपियेत्यादि) यदपि चेदं संव्यवहारतः प्रत्यक्षासन्ननूतं श्रमणानां यतीनां निर्य थानां निष्किचनानामुद्दिष्टं तदर्थ प्रणीतं व्यंजितं तेषामनिव्यक्तीक वादशांगं गणिपितकं तद्यथाचारइत्यादि यावदृष्टिवादः सर्वमेतन्मिथ्या अनीश्वरप्रणीतत्वात्स्वरुचिविर चितरथ्या पुरुषवाक्यवत्तथ्यं नैतत्तथ्यमिथ्येत्यनेनोपूतोनावनमाविष्कृतमचौरत्ववत् । नैतत्तथ्यमित्य नेन तु सद्भूतार्थ निन्दवोयथानास्त्यात्मेति तथा नैतद्याथातथ्यमवस्थितोर्थः। तथावस्थि तमिति नावोनेन सद्भूतार्थनिन्हवेनासतार्थारोपणमाविष्कृतं । तद्यथा । गामश्वं ब्रुवतो श्वं वा गामित्येकाथिकानि चैतानि शादिवइष्टव्यानि । तदेवं यदि तद्वादशांगं गणि पितकं तदनीश्वरप्रणीतत्वान्मिथ्येति स्थितमिदं तु पुनरीश्वरकर्तृकत्वं नामात्मात वा सत्यं यथावस्थितार्थप्रतिपादनात् । तदमेव तथ्यं सतार्थेनासनातदेवं ते ईश्वरकार पिकासात्मादैतवा दिनोवा । एव मनंतरोक्तया नीत्या सर्व तनुनुवनकारणादिकमीश्वर कारणिकं तथा सर्व चेतनमचेतनं वाऽऽत्मनि निवर्तितस्वनावमात्मनएव सर्वाकारतयोत्प तेरित्येवं संज्ञानं संज्ञा तामेवं कुर्वत्यन्येषांच ते स्वदर्शनानुरक्तमनसः संज्ञा स्थापयंति तथा एवंनूतां संज्ञां वक्ष्यमाणेन न्यायेन नियुक्तिकामपि सुष्टपसामीप्येन तदाग्राहितया तदानिमुखायुक्तीनिर्णीषवः स्थापयंति प्रतिष्ठापयति । ते चैवं वादिनस्तमीश्वरकर्तृत्ववाद मात्मातवादंवा नातिवर्तते तदन्युपगमनातीयं च फुःखं उःखहेतुत्वादुःखं नातिवर्तते न त्रोटयंति । अस्मिन्नर्थे दृष्टांतमाह । यथा शकुनिः पक्षिविशेषोलावकादिकः पंजरं ना तिवर्तते पौनःपुन्येन ब्रांत्वा तत्रैव वर्तते एवं तेप्येवंनूतान्युपगमवादिनस्तदापादितक मंबंधं नातिवर्तते नवा त्रोटयंति ॥॥ तेच स्वानिमानग्रहयस्तानत दयमाणं विप्रतिवे दयंति न सम्यक् जानंति। तद्यथे क्रियासदनुष्ठानरूपेयं चाक्रिया तविपरीतेत्येवं स्वायहि गोनान्यत् शोजनमशोननं वा यावदयमनरकश्त्येवं सदिवेकरहितत्वान्नावधारयंत्येवमेव य थाकथंचित्ते विरूपरूपैः कर्मसमारनै नाप्रकारैः सावद्यानुष्ठान व्योपार्जनोपायनूतै व्य मुपादाय विरूपरूपान्कामनोगानुच्चावचान्समाचरंति नोजनायोपनोगार्थमित्येवमनायोस्ते Page #649 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राय धनपतसिंघ बाहाउरका जैनागम संग्रह नाग उसरा. ए विरुवं मार्ग विप्रतिपन्नान सम्यग्वादिनोनवंति । तथाहि । सर्वमीश्वरकर्तृकमित्यत्रान्यु पगमे किमसावीश्वरः स्वतएवापरान क्रियासु प्रवर्तयेउतापरेण प्रेरितस्तत्र यद्याद्यः पदस्त पदन्येषामपि स्वतएव क्रियासु प्रवृत्तिनविष्यति कियंतर्गडुनेश्वरकल्पनेन यथासावप्यपर प्रेरितः सोप्यपरेणेत्येवमनवस्थालता ननोमंडलमालिनी प्रसर्पति ।किंचासावीश्वरोमहा पुरुषतया वीतरागोपेतः सन्ननेकान्नरकयोग्यासु क्रियासु प्रवर्तयत्यपरांस्तु स्वर्गापवर्गयोग्या स्वित्यथ ते पूर्वगुनागुनचरितोदयादेव तथा विधासु तासु क्रियासु प्रवर्तते सतु निमित्त मात्रमेतदपि नयुक्तिसंगतं । यतः प्राक्तनाशुनाशुनप्रवर्तनमपि तदायत्तमेव । तथा चो तं । अज्ञोजंतुरित्यादि । अथ तदपि प्राक्तनमन्येन प्राक्तनतरेण कारितमित्येवमनादिहे तुपरंपरेत्येवं च सति ततएव शुनाशुने स्थाने नविष्यतः किमीश्वरपरिकल्पनेन । तथा चो क्तं । शास्त्रौषधादिसंबंधाच्चैत्रस्य व्रणरोहणे ॥ असंबदस्य कः स्थाणोः कारणत्वं नक पतइत्यादि । यच्चोक्तं । सर्व तनुनुवनकरणादिकं बुद्धिमत्कारणपूर्वकं संस्थान विशेषत्वा त देवकुलवदित्येतदपि नयुक्तिसंगतं । यतएतदपि साधनं ननवदनिप्रेतमीश्वरं साधयति तेन सार्ध व्याप्त्यसिः । देवकुलादिके दृष्टांतेऽनीश्वरस्यैव कर्तृत्वेनान्युपगमात् । नच सं स्थानशब्दप्रवृत्तिमात्रेण सर्वस्य बुद्धिमत्कारणपूर्वकत्वं सिध्यति । अन्यथानुपपत्तिलक्षण स्य साध्यसाधनयोः प्रतिबंधस्यानावात् । अथाविनानावमंतरेणैव संस्थानमात्रदर्शना साध्य सिदिः स्यादेवंच सत्यतिप्रसंगः स्यात् । उक्तंच । अन्यथा कुंनकारेण मृतिकारस्य कस्यचित् ॥ घटादेः कारणात्सिर्विल्मीकस्यापि तत्रूतिरित्यादि । नचेश्वरकतत्वे जगदै चित्र्यं सिध्यति तस्यैकरूपत्वादित्युक्तप्रायमिति । यात्मातपदस्त्वत्यंतमयुक्तिसंगतत्वा नाश्रयणीयः । तथाहि । तत्र न प्रमाणं न प्रमेयं नप्रतिपाद्यं न प्रतिपादकोन हेतुर्न दृष्टांतोन तदानासोनेदेनावगम्यते । सर्वस्यैव जगतएकत्वं स्यादात्मनोनिन्नत्वात् तदना वेच कः केन प्रतिपाद्यते इत्यप्रणयनमेव शास्त्रस्यात्मनश्चैकत्वात्तत्कार्यमप्येकाकारमेव स्यादित्यतोनितुकं जगदैचित्र्यं । तथाच सति । नित्यं सत्वमसत्वं वा, हेतोरन्यानपेद णात् ॥अपेक्षातोहिनावानां, कादाचित्कत्वसंनवइत्यादि । तदेवमीश्वरकर्तृत्वमात्मावैतप दश्च युक्तिविचार्यमाणोन कथंचिद्घटां प्रांचति । तथा ते स्वदर्शनमोहम हितास्तगातीया हुःखात् शनिः पंजरादिव नातिमुच्यते विप्रतिपन्नाश्च तत्प्रातिपादिकानियुक्तिनस्तदेव स्वपदं प्रतियंति श्रद्दधतोति पूर्ववन्नेयं । ( यावत् पोहचाएणोपाराएयंतराकामनोगेसु विसम्मत्ति ) इत्ययं तृतीयः पुरुषजातईश्वरकारणिकति । सह्येवमाह । यस्य बुद्धि न लिप्येत हत्वा सर्वमिदं जगत् ॥ आकाशमिव पंकेन नासौ पापेन लिप्यतइत्याद्यसमंज सनाषितया त्यक्त्वा पूर्वसंयोगमप्राप्तोविवदितं स्थानमंतरालएव कामनोगेषु मूर्डितोवि षमइत्यवगंतव्यमिति ॥ २ ॥ Page #650 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२० वितीये सूत्रकृतांगे वितीय श्रुतस्कंधे प्रथमाध्ययनं. अहावरे चन्ने पुरिसजाए णिपतिवाइएत्ति आदिज इह खलु पाई एंवा तदेव जावसेणावईपुत्तावा तेसिंचणं एगताए सम्मा नव कामं तं समणाय मादणाय संपहारिं सुगमणाए जाव मए एस धम्मे सुअका ए सुपन्नते नव॥२॥ अर्थ-अथ हवे अनेरो चोथो पुरुषजात नियतवादि कहिये वैये जे कार्य सिधिने विषे नवितव्यता टालीने बीजो कारण कांड पण न माने ते नियतवादि कहिए. खलु एवे वाक्यालंकारे ए मनुष्य लोकने विषे पूर्वादिक चारदिशि मांहेलो कोइएक पुरुष होय ते ज्यां सुधी सेनापतिना पुत्र इत्यादिक परषदा कहेव तेमांहे कोइएकने धर्मनी । श्रा होय धर्मार्थी होय एवो धर्मार्थी जागीने ब्राह्मण श्रमण मली तेने धर्म प्रति बोधवा निमित्ते बालोची राजादिकने संमुख जश्ने पोतानो धर्म प्ररूपे ते नियतवादि राजादिकनी पाशे पोताना धर्मनी स्थापना जे रीते करे तेरीते कहेले. ॥ २ ॥ ॥ दीपिका-अथापरश्चतुर्थः पुरुषजातोनियतिवादी आख्यायते । इह खलुपाईणं इत्यादिप्राग्वत् । यावदेषधर्मः स्वाख्यातोनवतीति ॥ २ ॥ ॥ टीका-सांप्रतं चतुर्थपुरुषजातमधिकृत्याह । (अहावरेइत्यादि ) अथ तृतीयपुरु पानंतरमपरश्चतुर्थः पुरुषएव पुरुषजातोनियतिवादिकारख्यायते प्रतिपाद्यते सचैवमाह। नात्र कश्चित्कालेश्वरादिकः कारणं नापि पुरुषकारः समानक्रियाणामपि कस्यचिदेव नि यतिवादबलादर्थसिरतोनिय तिरेव कारणं । उक्तंच । प्राप्तव्योनियतिबलाश्रयेण यो . थः सोवश्यं नवति नृणां गुनोऽशुनोवा ॥ जूतानां महति कृतेपि हि प्रयत्ने नानाव्यं जवति न नाविनोस्ति नाशइत्यादि ॥ २ ॥ इह खलु ज्वे पुरिसा नवंति एगे पुरिसे किरियामाइक एगे पुरिसे णो किरियामाइक जेयपुरिसे किरियामाइक जेपुरिसे णोकिरियामा कर दोवि ते पुरिसा तुल्ला एगघा कारणमावन्ना ॥ ३०॥ अर्थ-(इहखलुज्वेपुरिसानवंति के०) या संसार मांहे खलु एवे वाक्यालंकारे बे पुरुष होय तेमांहे (एगेपुरिसे किरियामाइस्कर के० ) एक पुरुष क्रिया बोले (एगेपुरि सेणोकिरियामाइस्कर के०) अने एक पुरुष अक्रिया बोले त्यां एक देश थकी बीजे दे शे जश्ये ते क्रिया जाणवी अनेजे देशांतरने विषे नजावं एम उपक्रम विना कार्य प्रा Page #651 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रायधनपतसिंघ बाहारका जैनागम संग्रह नाग दुसरा. ६२१ ति थाय ने किया कहिए ( जेय पुरिसे किरियामा इस्कइ के० ) जे पुरुष क्रिया कहे (पुरिसेो किरियामाइस्कइ के० ) जेपुरुष व्यक्रिया कहेबे ( दोवितेपुरिसातुल्ला ho) ए क्रियावादि खने क्रियावादि बने पुरुष तुल्य एटले सरखा जाएवा (एगा कारण मावन्ना के ० ) ए बेनुं एकज अर्थले कारणके ते नियतने वशें वर्ते जो ते पोता ने वरों होय तो सरखा नकदेवाय ॥ ३० ॥ ० ॥ दीपिका-नियतिवादी स्वमतमाह । इह हौ पुरुषौ भवतः । एकः क्रियामाख्याति । देशादेशांतरप्राप्तिः क्रिया सा नियतेरेवस्यात् एवमक्रियापि । द्वावेतौ नरौ तुल्यौ नियतिव शवर्तित्वात् एकार्थौ एककारणापन्नत्वात् क्रियाक्रिये नियत्येककारणाधीनेइत्यर्थः ॥ ३० ॥ ॥ टीका - इह खलु ( डुवेपुरिसाजवंतीत्यादि ) इहा स्मिन् जगति । खलुशब्दोवाक्या लंकारे । दौ पुरुषौ जवतस्तत्रैकः क्रियामाख्याति । क्रिया हि देशादेशांतरावा तिलक्षणा पुरुषस्य नवतीति न कालेश्वरादिना चोदितस्य नवत्यपितु नियतिप्रेरितस्यैवमक्रियापि । यदि तावतंत्रौ भवतः । ततः क्रियावादमक्रियावादंच समाश्रितौ दावपि नियत्य धीनत्वात् । यदि पुनस्तौ स्वतंत्रौ भवतस्ततः क्रिया क्रियानेदान्नतुल्यौ स्यातामित्यत एकार्थावेककारणापन्नत्वादिति नियतिवशेनैव तौ नियतिवादमनियतिवादं चाश्रिताविति नावः । उपलक्षणार्थत्वाच्चान्यपि यः कश्चित्कालेश्वरादिपांतरमाश्रयति । सोपि नियति चोदितएव इष्टव्यइति ॥ ३० ॥ बाले पु एवं पडिवेदेति कारणमावन्ने मंसि कामिवा सोया मि वा जूरामिवा तिप्पामिवा पीडामिवा परितप्पामिवा प्रमेयमकासिपरोवा जं कश्वा सोयाइवा जूराश्वा तिप्पाश्वा पीडाइवा परितप्पाश्वा परोए वमकासि एवं सेवाले सकारणंवा एवं विप्पडिवेदेंति कारणमावन्ने ॥ ३१ ॥ अर्थ- हवे ए नियतवादी परमतने विनावेळे (बाजे पुणएवं विप्प डिवेदें तिके०) ते पर मतवादी बाल एटले प्रज्ञाने करी वली गुजाणे ते कहे. ( कारणमावन्ने के० ) सुख दुःखादिकने उपजवे ईश्वरादिकनुं कारण माने ते कहेबे (हमंसि डुरकामिवा के ० ) हुं या जगत मांहे शारीरिक तथा मानसिक दुःख अनुनकुंकुं (सोयामिवाके०) इष्ट वियो गाने अनिष्ट संयोगनो करेलो शोक अनुन ( जूरामिवा के० ) अनर्थनी प्राप्तियें स्मरणायें जुंरुबुं अथवा अर्थ प्राप्तियें विचरुडं ( तिप्पामिवा के० ) शरीरनो बल बुं या (डावा० ) बाह्यान्यंतर पोडा अनुनकुंकुं (परितप्पा मिवाके ० ) परितापना For Private Personal Use Only Page #652 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२२ हितीये सूत्रकृतांगे वितीय श्रुतस्कंधे प्रथमाध्ययनं. अनुनबुंलु (अहमेय मकासिके०) ए सुख कुःखादिक अनुन ते माहाराज करेलाले (परोवा के०) अथवा पर एटले बीजो पण (जं के० ) जे उःख अनुनवेले शोक अनु जवेडे जूरे तेना शरीरनो बल न थायले पीडा अनुनवेडे परितापना अनुनवेले ते (परोएवमका सिके०) तेणेज अनरे एम कीघोडे अथवा माहारे विषे बीजो को सुख कुःखादिक उपजावे तेपण माहाराज करेला ( एवंके० ) एम (सेबालेके०) ते बाल थ ज्ञानी (सकारणंवा के०) स्वकारण अथवा (परकारणंवाके०) पर कारण सर्व सुखादिक जे जे ते पुरुषकार कारकरी माने (एवं के०) एम (विप्पडिवेति के०) जाणे (कारणमावन्ने के०) ए जे पुरुषकार कारणने माने ते बाल जाणवा ॥३१ ॥ ॥ दीपिका-बालोज्ञः पुनरेवं विप्रतिवेदयति जानीते कारणमापन्नः कारणमुद्दिश्य । तद्यथा । योहमस्मि (कुःखामित्ति ) :खमनुनवामि (सोयामित्ति) शोकमनुनवामि (जूरामित्ति) उष्कृतप्रवृत्तमात्मानं गर्हामि अनर्थावाप्तौ विस्तरयामीत्यर्थः । तिप्पामि शरीरबलात्दामि पीडामि पीडामनुनवामि परितापमनुनवामि । एवं यत्सुखःखादि कमनुनवामि तदहमेवाकार्ष परोवा यःहुखादिकमनुनवति मयिवाऽऽपादयति तत्स्वयमेव कृतमिति । एवं सपुरुषकारणमापन्नः स्वकृतं परळतं वा कुःखादि सर्व पुरुषकारकतमिति जानीते बालश्त्यर्थः ॥३१॥ ॥ टीका-नियतिवादी परमतोदिनावयिषयाह । (बालेपुणइत्यादि) बालोझः पुरुषः कालेश्वरवादीत्यादिकः । पुनरिति विशेषणार्थस्तदेव दर्शयति । एवमिति । वक्ष्यमानी त्या विप्रतिवेदयति जानीते कारणमापन्नः सुखःखयोः स्वरूतएव पुरुषः कालेश्वरादि वा कारणमित्येवमन्युपपन्नोनान्यन्नियत्यादिकं कारणमस्तीति । तदेवाह । तद्यथा । यो हमस्मिन् फुःख मिति शारीरं मानसं दुःखमनुनवामि तथा शोचामीष्टानिष्टवियोगसंप्रयो गतं शोकमनुनवामि तथा (तिप्पामिति) शारीरबलं दामि तथा (पीडामिति) सबा ह्यान्यंतरया पीडया पोडामनुनवामि तथा (परितप्पामित्ति ) परितापमनुनवामि तथा (जूरामित्ति) अनार्यकर्मणि प्रवृत्तमात्मानं गर्दामि अनर्थावाप्तौ विस्तरयामीत्यर्थः । तदेवं यदहं उःखमनुनवामि तदहमेवाकार्ष परपीडया कृतवानस्मीत्यर्थः। तथा परोपि यहुःख शोकादिकमनुनवति मयि चापादयति तत्स्वयमेव कृतमिति । तदेव दर्शयति । परोवेत्या दि । तथा परोपि यन्मां पुःखयति शोचयतीत्यादि प्राग्वन्नेयं । तत्सर्वमहमकार्षमित्येवं वान्यामाकलितोऽशोझोवा बालएवं विप्रतिवेदयते जानीते स्वकारणंवा परकारणंवा सर्व दुःखादिपुरुषकारणमिति जानीते एवं पुरुषकारकारणमापन्नति ॥३१॥ Page #653 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राय धनपतसिंघ बादाउरका जैनागम संग्रह नाग उसरा. ६२३ मेहावि पुण एवं विपडिवेदेति कारणमावन्ने अहमसि कामिवा सो यामिवा जूरामिवा तिप्पामिवा पीडामिवा परितप्पामिवा गोअहं एव मकासि परोवा जंउकाश्वा जाव परितप्पाश्वा णोपरो एवमकासि एवं से मेदावि सकारणंवा परकारणंवा एवं विष्पडिवेदेति कारणमावन्ने से बे मिपाईणंवा जे तसथावरा पाणा तेएवं संघायमागबंति ते एवं विपरिया समावऊंति तेएवं विवेगमागबंति तेएवं विदाणमागबंति तेएवं संगतियं ति ग्वेदाए णोएवं विप्पडिवेदेति तंजदा किरियातिवा जावणिरएतिवा अणिरएतिवा एवंते विरूवरूवेहिं कम्मसमारंनेहिं विरूवरूवाई काम भोगाई समारनंति नोयणाए॥३२॥ अर्थ-हवे ए नियतवादी लोक ते पूर्वोक्त पुरुषकार कारणने बालत्व पणो मानीने पोताना मतनी स्थापना करे. (मेहाविपुणएवं विप्पडिवेदेति के० ) वली पंमित एवा नियत पद ग्राहो एम जाणे शुं जाणे ते कहेले. (कारणमावन्ने के०) सुख दुःख जे उपजेले तेने नियतटाली बीजो कारण कां जाणवो नही ते उपर कहे उरकामिवा सोयामिवा इत्यादि पाठनो अर्थ पूर्व प्रमाणे लखेडे हुं सुख दुःख अनुनकुं हुं शोक अनुनबुबु जुरुळ शरीरनो बल बोर्बु थायडे पीडा अनुनबुबुं परितापना अनुनकुंडं (णो थएवमकासि के०) ते में नथी कयुं किंतु नियतने नवितव्यताना बलयकी माहारे विषे आव्यो परंतु पुरुषकारादिक प्रमाण कांश नथी जे कारण माटे कोइपुरुष पोता ना आत्माने अनिष्ट नथाय एम वांडे तो शावास्ते ते झुं करवाने एवो करें के जे थ की ते कुखी थाय परंतु अहींया नियतज प्रमाणने (परोवा के०) अथवा पर एटले बी जो (जंउस्काइवा के०) जे काइ कुःख अनुनवेडे ( जावपरितप्पाइवा के०) यावत् परितापना अनुनवेडे ते पण (णोपरोएवमकासि के० ) तेणे कीयो नथी परंतु नियति भने नवितव्यताने योगेंज सर्व उपजेजे )एवंसेमेहाविके०) एम ते मेधावि एटले पंमित पुरुष (सकारणंवापरकारणंवा के० ) पोताने उखनो कारण अथवा परने उखनु का रण नवितव्यता ले परंतु नवितव्यता टाली बीजो कोइ पण कारण नथी ( एवं विप्प डिवेदेति के) एम ते नियतवादि जाणे के जगत माहे कोई एक पापना कर नारने पण ख उपजतुं नथी बने कोइएक मुकतना करनारने सुःख उपजे माटे अं हीया पुरुषजे ईश्वर तेनुं कारण कांपण नथी देखातुं किंतु (कारणमावन्ने के) निय तज कारण देखायने एमाटे नवितव्यता बलीटने दवे बीजो पण जे कांश जगत मांहे Page #654 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२४ द्वितीये सूत्रकृतांगे द्वितीय श्रुतस्कंधे प्रथमाध्ययनं. ते सर्व नियतनेज वरों एवो देखाडे ( सेवे मि के० ) ते नियतवादी युक्तियें निवें कर बोजे (पाईं के० ) पूर्वादिक चार दिशिने विषे ( जे तस्थावरापाला के ० ) जे कांस ने स्थावर प्राणीले ( ते एवंसंघायमागनंति के०) ते एम जे कां शरीरादि क संबंध पामेले ते नियतिनेज वरों पामेले परंतु बीजो कर्मादिक कारण तेने कांइ न ( एवंविपरयासमावऊंति के० ) ते एम बाल कुमार यौवन ने वृक्ष वस्थादिक नानाप्रकारना पर्याय पामेले ते सर्व नियति थकीज अनुनवेबे ( ते एवं विवे गमागचं तिके०) तथा ते एम नियति थकीज विवेक एटले शरीर ते थकी पृथक् जाव पामे ( ते एवंविहासमागनंति के ० ) तथा ते एम नियति थकीज विधान एटले व स्था विशेष अर्थात् कुब्ज काणो खंज वामन जरा मरण रोग शोकादिक पामेवे ( ते एवं संगतियंति वेहाए के० ) एरीते ते त्रस ने स्थावर प्राणी नियतने बजे एटला नावने नवे हवे श्रीसुधर्म स्वामि श्रीजंबूस्वामि प्रत्ये कहे बे के एवा नियतवादि पुरुषो मात्र एक नियतनोज पक्ष अनुसरीने परलोकनी बीक नराखता सावधानुष्ठान करेले परंतु (लोएवं विपडिवेदेंतिके०) ते एवो नथी जाणता चुं नथी जाणता (तंजहा के० ) ते कहेबे ( किरिया तिवा जाव यणिरएतिवा के०) क्रिया यक्रिया सिद्धि प्रसिद्धि इत्यादिक यावत् नरक नरक पर्यंतने नथी जाणता ( एवंते के० ) एम ते सर्व दोष एक नियत उपरे स्थापन करीने ( विरूवरूवे हिंकम्मसमारंजेहिं विरूवरूवा कामनोगा समारजंति जोयलाए के० ) नानाप्रकारना कर्म समारंने नोजननेार्ये धने जोगने अर्थे नाना प्रकारना कामभोगने समारंभे ॥ ३२ ॥ || दीपिका - मेधावी नियतिवादी कारणमापन्नः स्वकारणं परकारणं वा उद्दिश्य प्रवृ तिर्न पुरुषकारकृता यतोनहि कस्यचिदात्माऽनिष्टोयेनानिष्टाडुःखोत्पादिकाः क्रियाः स मारते किंतु नित्यैवायमनिन्नपि तत्कार्यते येन दुःखनाग्नवति । एवमसौ कारण मापन्नोवेतीति कारणं वात्र एकस्याऽसदनुष्ठानपरस्यापि न दुःखमुत्पद्यते ततो नियतिरेव कति । एतदेवाह । ( सेमित्ति ) सोहं नियतिवादी ब्रवीमि ये केचिस्त्रसाः स्थावराश्च प्राणिनस्ते नियतितएव औदारिकादिशरीरसंबधमागच्छं ति बालकुमारादिकं विविधं पर्यायं नियतित एवानुभवंति नियतितएव विवेकं शरीरात्पृथग्नावं प्राप्नुवंति । विधानमवस्था वि शेषं कुब्जकाणांधत्व जरामरणादिकमागच्छंति तदेवं ते प्राणिनोनियत्यैव संगतिं यांति ना नानाविधसुखदुःखनाजः स्युः । एवं नियतिवादोत्प्रेक्ष्या एत ६क्ष्यमाणं न विप्रतिवेदयं ति न जानंति । तद्यथा । क्रियाय क्रियाइत्यादि यावद्विरूपरूपान् कामान् जोगान् नोज नायोपजोगार्थं समारजंते ॥ ३२ ॥ For Private Personal Use Only Page #655 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रायधनपतसिंघ बादाडुरका जैनागम संग्रह नाग दुसरा. ६२५ ॥ टीका - तदेवं नियतिवादी पुरुषकारकारणवादिनोबालत्वमापाद्य खमतमाह । (मे वयादि) मेधा मर्यादा प्रज्ञा वा तद्वान् मेधावी नियतिवादपदाश्रय्येवं विप्रतिवेद कारणमापन्नइति नियतिरेव कारणं सुखाद्यनुनवस्य । तद्यथा योहमस्मि न् दुःखयामि शोचयामि तथा ( तिप्पामित्ति) रामि ( पीडामित्ति ) पीडामनुनवामि ( परितप्यामित्ति) परितापमनुनवामि नाहमेवाकार्ष दुःखमपि तु नियतितएवै तन्मय्या गतं न पुरुषकारादिर्त । यतोनहि कस्यचिदात्मा निष्टोयेनानिष्टाडुःखोत्पादिताः क्रियाः समारते नियत्यैवासावनिन्नपि तत्कार्यते येन दुःखपरंपरानाग्भवति कारणमापन्नइ ति परेप्येवमेव योजनीयं । एवं सति नियतिवादी मेधावीति सोनुंठमेतत्सकिल नियति वादी दृष्टं पुरुषकारं परित्यज्यादृष्टनियतिवादाश्रयेण महाविवेकीत्येवमुध्यते स्वकार परकारणं च दुःखादिकमनुनवन्नियतिकृतमेतदेवं विप्रतिवेदयति जानाति कारणमापन्नं नियतिकारणं चात्रैकस्यासदनुष्ठानरतस्यापि नडुःखमुत्पद्यते परस्य तु सदनुष्ठायिनोपि तद्भवति यतो नियतिरेव कर्त्रीति । तदेवं नियतिवादे स्थिते परमपि यत्किंचित्तत्सर्वं निय त्यधीनमिति दर्शयितुमाह (सेबेमीत्यादि) सोहं नियतिवादी युक्तितो निश्चित्य ब्रवीमीति प्र तिपादयामि | ये केचन प्राच्यादिषु दिक्कु त्रस्यंतीति त्रसा दीं प्रियादयः स्थावराश्च पृथिव्या दयः प्राणिनस्ते सर्वेप्येवं नियतितएवौदरिका दिशरीरबंध मागवंति नान्येन केनचित्कर्मा दिना शरीरं ग्राह्यंते तथा बालकौमारयौवनस्थ विरवृद्धावस्थादिकं विविधपर्यायं नियति तएवानुवंति तथा विवेकं शरीरात्पृथग्नावमनुजवंति । तथा नियतितएव विविधं विधान मवस्थाविशेषं कुब्जका खंजवामनकजरामरणरोगशोकादिकं बीनत्समागति । तदेवं ते प्राणिनस्त्रसाः स्थावराएवं पूर्वोक्तनीत्या संगतिं यांति नियतिमापन्नानानाविधविधान नाजोजवंति । तएव वा नियतिवादिनः संगइयंति नियतिमाश्रित्य तत्प्रेक्ष्या नियतिवा दोत्प्रेया यत्किंचन कारितया परलोकजीरवोनो नैव तदयमाणं विप्रतिवेदयति । त यथा । क्रिया सदनुष्ठानरूपा प्रक्रियाऽसदनुष्ठानरूपाइत्यादि यावदेवं ते नियतिवादिन परि सर्व दोषजातं प्रक्षिप्य विरूपरूपैः कर्मसमारंनैर्विरूपरूपान् कामनोगान्नोजना योपोगार्थं समारनंतइति ॥ ३२ ॥ एवमेव ते प्रणारिया विप्पडिवन्नाई तंसद्दहमाला जावइति ते लोढच्चाए पोपारा अंतरा काम जोगेसु विससा चढे पुरिस जावा एत्ति दिए ॥ ३३ ॥ अर्थ - एरी ते ते अनार्य पुरुष कामनोगने विषे गृद्ध बता पोतानो धर्म रुडो करी प्ररूपता ते पाखंमी धर्म राजादिकने सविता थका ज्यां सुधी एम ते कांठे पण रह्या ७८ For Private Personal Use Only Page #656 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६ दितीये सूत्रकृतांगे दितीय श्रुतस्कंधे प्रथमाध्ययनं. नही अने पार पण पोता नही विचाले कामनोगने विषे खूता रहे ते पोताने पण उ 5री शके नही अने राजारूप पुमरीक कमलने पण नवरी शके नही ते आ लोक थ की पण भ्रष्ट थया अने मुक्तियें पण पोचे नही परंतु विचाले संसार मांहेज खुची रहे ए चोथो पुरुषजात नियत वादी कह्यो ॥ ३३ ॥ ॥ दीपिका-तदेवं ते नियतिवादिनो ऽनार्याविप्रतिपन्नास्तं नियुक्तिकं नियतिवादं श्रद्दधा नाइत्यादि तावन्नेयं यावदंतरा कामनोगेषु विषमा इति चतुर्थः पुरुषजातः संपूर्णः ॥३३॥ ॥ टीका-तदेवमेव पूर्वोक्तया नीत्या तेऽनार्याविरूपं नियतिमार्ग प्रतिपन्नाविप्रतिपन्नाः। अनार्यत्वं पुनस्तेषां नियुक्तिकस्यैव नियतिवादस्य समाश्रयणात् । तथा ह्यसौ नियतिः किं स्वतएव नियतिस्वनावा नतान्यया नियत्या नियम्यते किंवाऽतस्तत्र यद्यसौ स्वयमेव तथा स्वनावः सर्वपदार्थानामेव तथा स्वनावत्वं किं न कल्प्यते किं बहुदोषया नियत्या समाश्रितया।अथान्यया नियत्या तथा नियम्यते साप्यन्ययेत्येवमनवस्था । तथा नियतेः स्वनावत्वान्नियतिस्वनावया तया नवितव्यं न नानास्वनावयेति । एकत्वाच्च नियतेस्तत्का येणाप्येकाकारेणैव नवितव्यं । तथाच सति जगदैचित्र्यानावः । नचैतदृष्टमिष्टंवा । त देवं युक्तिनिर्विचार्यमाणा नियतिनकथंचिवटते । यदप्युक्तं । चावपि तौ पुरुषी क्रियाकि यावादिनी तुल्यौ एतदपि प्रतीतिबाधितं । यतस्तयोरेकः क्रियावाद्यपरस्त्वक्रियावादीति कथमनयोस्तुल्यत्वमथेकया नियत्या तथा नियतित्वात्तुल्यता अनयोरेतच निरंतराः सुत्ह दः प्रत्येष्यंति। नियतेरप्रमाणत्वात् । अप्रमाणत्वं च प्राग्लेशतः प्रदर्शितमेव । यदप्युक्तं । यदुःखादिकमहमनुनवामि तन्नाहमकार्षमित्यादि तदपि बालवचनप्रायं। यतोजन्मांतरक तं शुनमगुनंवा तदिहोपनुज्यते स्वकतकर्मफलेश्वरत्वादसुमतां। तथा चोक्तं । यदिह क्रिय ते कर्म, तत्परत्रोपनुज्यते ।मूलसिक्तेषु वृदेषु, फलं शाखासु जायते । तथा यउपात्तमन्य जन्मनि गुनाशुनं वा स्वकर्मपरिणत्या तक्यमन्यथा नोकतु देवासुरैरपि हि । तदेवं ते निय तिवादिनोनार्या विप्रतिपन्नास्तमेव नियुक्तिकं नियतिवादं श्रदधानास्तमेव च प्रतीयंते इत्यादि तावन्नेयं यावदंतरा कामनोगेषु विषमाइति । चतुर्थः पुरुषजातः समाप्तः ॥ ३३ ॥ श्वेते चत्तारि पुरिसजाया पाणापन्ना पाणाबंदा पाणासीला पाणादिछी गाणारुई गाणारंना पाणाअवसाणा संजुत्ता प दीणपुत्वसंजोगा आरियं मग्गं असंपत्ता इति ते पोहचाए णो पाराए अंतरा कामनोगेसुविसम्मा ॥ ३४ ॥ Page #657 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राय धनपतसिंघ बानाउरका जैनागम संग्रह नाग उसरा. ६२७ अर्थ-(श्चेतेचत्तारिपुरिसजाया के० ) एरीते ते पूर्वोक्त चार पुरुष जात तेमा ए क जीव तहरीरवादी बीजो पंचमहाभूतिक त्रीजो ईश्वरकारणी अने चोथो नियत वादी ए चार पुरुषते (गाणापन्ना के ) नानाप्रकारनी प्रज्ञा एटले बुद्धिवाला तथा नाना प्रकारना अनिप्राय वाला नाना प्रकारना शील एटले आचार वाला नाना प्रका रनी दृष्टी वाला नाना प्रकारनी रुची वाला नाना प्रकारना आरंजना करनार नाना प्र कारना अध्यवसाय तेणे करी (संजुत्ता के०) संयुक्त बता पोताना धर्मनेविषे सावधान थया (पहीणपुत्वसंजोगा के०) पूर्व संयोगजे माता पिता पुत्र कलत्रादिकनो संबंध तेनेत्या गीने (यारियंमग्गंधसंपत्ता के०) थार्य मार्गने अण पाम्या एमते कांते पण न रह्या पार पण नपाम्या विचाले कामनोगने विषे खूता एटले परतीर्थिक चार पुरुष कह्या॥ ३४ ॥ ॥ दीपिका-इत्येते चत्वारः पुरुषानानाप्रझानानामतयोनानालंदानानानिप्रायाना नाशीनाथनेकाचारानानादृष्टयोऽनेकदर्शनानानारुचयोनानाप्रकारारंजोधर्मानुष्ठानं ये षां ते तथा नानाप्रकारेणाध्यवसायेन संयुक्ताधर्मार्थमुद्यताः प्रहीणपूर्वसंयोगामातापितृ कलत्रादिसंबंधरहिताधार्य निर्दोष मार्गमसंप्राप्ताः (गोहचाएत्ति) ऐहिकसुरखनाजः (णो पराएत्ति ) नापि नवपारगाः स्युः किंतु अंतरालएव कामनोगेषु विषमाः ॥ ३४ ॥ ॥ टीका-सांप्रतमुपसंजिघृकुराह । (श्वेतेइत्यादि ) इत्येते पूर्वोक्तास्तजीवतहरीरपं चमहाभूतेश्वरकर्तृनियतिवादपदाश्रयिणश्चत्वारः पुरुषानानाप्रकारा प्रज्ञा मतिर्येषां ते त था नानानिन्नदोऽनिप्रायोयेषां ते तथा नाना प्रकारं शीलमनुष्ठानं येषां तथा नानारू पा दृष्टिदर्शनं येषां ते तथा नानारूपा रुचिश्वेतोनिप्रायोयेषां ते तथा नानाप्रकारथारंनो धर्मानुष्ठानं येषां ते तथा नानाप्रकारेण परस्पर निन्नेनाध्यवसायेन संयुक्ताधर्माधर्मार्थमुद्य ताः प्रहीणः परित्यक्तः पूर्वसंयोगोमातृपितृकलत्रपुत्रसंबंधोयैस्ते तथा । थाराद्यातः सर्वहेयधर्मेन्यइत्यार्योमा!निर्दोषः पापलेश्यासंप्टक्तस्तमार्य मार्गमसंप्राप्ताइति पूर्वोक्तया नीत्या ते चत्वारोपि नास्तिकादयो ( पोहचाएइत्ति) परित्यक्तत्वान्मातृपित्रादिसंबंधस्य धनधान्यहिरण्या दिसंचयस्य च नैहिकसुखनाजोनवंति । तथा ( णोपाराएत्ति ) असं प्राप्तत्वादार्यस्य मार्गस्य सर्वोपाधिविशुवस्य प्रगुणमोदप तिरूपस्य न संसारपारगामि नोनवंति न परलोकसुरखनाजोनवंतीति कित्वंतरालएव गृहवासार्यमार्गयोर्मध्यवर्तिनएव कामनोगेषु विषमायध्युपपन्नामुष्पारपंकमनाश्व करिणो विषीदंतीति स्थितं ॥३०॥ सेबेमि पाईणंवा संतेगतिया मणुस्सा नवंति तंजदा आयरियावेगे अणा रियावेगे उच्चागोयावेगे पीयागोयावेगे कायमंतावेगे हस्समंतावेगे सुव Page #658 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६शत हितीये सूत्रकृतांगे वितीय श्रुतस्कंधे प्रथमाध्ययनं. नावेगे ज्वन्नावेगे सुरूवावेगे उरूवावेगे तेसिंचणं खेत्तववणि परिग्गहिया णि नवंति तं अप्पयरोवा नुजयरोवा तेसिंचणं जण जाणवयाइं परिग्ग दियाई नवंति तं अप्पयरोवा नुऊयरोवा तदप्पगारोहिं कुलदिं आगम्म अनिनूय एगे निकायरियाए समुन्तिा सतोवावि एगे पाय न्य न्वग रणंच विप्पजहाय निस्कायरियाए समझिता असतोवा वि एगे पाय न्य नवगरणंच विप्पजहाय निकायरियाए समुहिता जेते सतोवा असतोवा पाय न्य अणाय न्य नवगरणंच विप्पजदाय निस्कायरियाए सुमुखिता॥३५ अर्थ-हवे पांचमो पुरुष स्वतीर्थिक कहियेंयें (सेबेमि के७ ) जे पुरुष कामनोगने विषे अनासक्तबतो अंतराले नखुचे पुंमरीक कमलने नजारवा समर्थ ते ढुं कटुडं (पाईवासंतेगतियामणुस्सा के०) पूर्वादिक दिशियें कोइ एक मनुष्य होय ते कहे वो होय (तंजहा के ) ते कहे. एक आर्य एक अनार्य एक चंचगोत्रना नपना ए क नीचगोत्रना उपना एक महोटी कायाना धणी एक न्हानी कायाना धणी एक सा रावर्ण वाला एक मातावर्ण वाला एक स्वरूपवान् एक कुरूपवान् ( तेसिंचणं के० ) ते पूर्वोक्त आर्यादिक पुरुषने (खेत्तवतूणिपरिग्गहियाणिनवंति के०) देवते उघाडी नूमिका शाली क्षेत्रादिक तथा वस्तु ते घर हाट प्रमुख ढाकेली नूमिका ए परिग्रह होय (तंबप्प यरोवानुजयरोवा के०) तेअल्पतर एटले थोडा होय अथवा प्रनूततर एटले घणा होय वनी (तेसिंचणंजजाणवयाइंपरिग्गहियाईनवंति के०) तेने जन एटले लोक जानपद एटले देश ए परिग्रह होय (तंथप्पयरोवानुऊयरोवा के०) तेपण अल्पतर एटले थोडा होय अथवा प्रनूततर एटले घणा होय (तहप्पगारेहिंकुलेहिं आगम्मअनिनूय के) तथा ते आर्यादिक तथा प्रकारना कुलने विषे धागम्म एटले जन्म पामीने कोई एक महास त्ववंत पुरुष विषय कषायने जीपीने (एगेनिस्कायरियाए के०) कोइएक निदाचर्याने विषे ( समुहिता के ) सम्यक् प्रकारे उग्या सावधान थया (सतोवाविएगेणायनयन वगरपंच के०) कोइएक मदा सत्ववंत पुरुष विद्यमान एवा गायनय एटले झाति स्व जनादिक तथा उपकरण ते धन धान्य सुवर्ण रूपादिक अनेक प्रकारना तेने (विप्प जहाय के० ) त्यागीने (निस्कायरियाए के) निदाचर्याने विषे (समुहिता के०) सम्यक् प्रकारे नव्या एटले चारित्रिया थया (असतोवाविएगेणायनवगरपंचविष्पजहा यनिस्कायरियाएसमुहिता के०) को एक महा सत्ववंत पुरुष ते अबता झाति स्वजन उपकरणादिक अनेक प्रकारना तेने त्यागीने निक्षाचर्याने विषे सम्यक् प्रकारे सावधान Page #659 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राय धनपतसिंघ बादाउरका जैनागमसंग्रह नाग उसरा. शए थया (जेते के०) हवे जे ते (सतोवा असतोवा के०) बतो अथवा अबतो एवो ( णा यनय के०) शाति स्वजनादिक नोपरिग्रह (अणायन्य के०) झाति स्वजनादिकथी रहित पणानोपरिग्रह (उवगरपंच के०) तथा धन धान्य सुवर्णादिक नोपरिग्रह तेने (वि प्पजहाय के० ) त्यागीने (निस्कायरियाए के० ) निदाचर्याने विषे एटले चारित्रने वि षे (समुहिता के ) सम्यक् प्रकारे उन्या सावधान थया ॥ ३५॥ ॥दीपिका-अथलोकोत्तरं पंचमं निहुँ पुरुषमाह । तदहं ब्रवीमि । यत्प्राच्यादिदिशमु दिश्य एके केचन मनुजाः संति नवंति । तद्यथा आयोधायदेशोत्पन्नास्तविपरीताअना निच्चैर्गोत्रोनवानीचैर्गोत्रोनवाः कायवंतनच्चशरीरान्हस्वावामनादयः सुवर्णावाः सुरू पारूपास्तेषां वाऽऽर्यादीनां क्षेत्राणि शालिकेत्रादीनि वस्तूनि गृहाणि परिगृहीतानि स्वीक तानि नवंति । किंनूतानि अल्पतराणि प्रनूततराणि वा । तथा तेषां जनपदाः स्वीकता जवंति तेप्यल्पतराः प्रनूततरावा । तेष्वार्यादिषु तथा प्रकारेषु कुलेषु पागम्य जन्म ल ब्ध्वा ऽनिनूय विषयादीन प्रव्रज्यां गृहीत्वा एके केचन सत्ववंतोनिकाचर्यायां समुनि तान्द्यताः। तथा सतोविद्यमानान् ज्ञातीन स्वजनानुपकरणं च धनधान्यादिकं विप्रहा य त्यक्त्वा असतोवा ज्ञातीनुपकरणंच त्यक्त्वा समुबिताः प्रव्रज्योद्यताः ॥ ३५ ॥ ॥ टीका-नक्ताः परतीथिकाः सांप्रतं लोकोत्तरं निदावृत्तिं निहुँ पंचमं पुरुषजातमधि कृत्याह । (सेबेमीत्यादि) याकामनोगेष्वसक्तः सन्नंतरा नोवसीदति पद्मवरपौंडरीको धरणाय च समर्थोनवति तदेतदहं ब्रवीमीति । यस्य चार्थस्योपदर्शनाय प्रस्तावमारच यन्नाह । प्राच्यादिकामन्यतरां दिशमुद्दिश्यैके केचन मनुष्याः संति नवंति । तद्यथा । था र्यदेशोत्पन्नामगधादिजनपदोनवास्तथाऽनार्याः शकयवनादिदेशोभवास्तथा चोर्गोत्रोन वाश्क्ष्वाकुहरिवंशादिकुलोनवास्तथा नीचैर्गोत्रोनवावर्णापसदसंनूतास्तथा कायवंतः प्रां शवस्तथा हस्वावामनकादयस्तथा सुवर्णापुर्वर्णाः सुरूपाः कुरूपावा एके एव केचन पर वशाजवंति तेषां चार्यादीनां । णमितिवाक्यालंकारे । देत्राणि शालिकेत्रादीनि वस्तुनि खातोलितादीनि तानि परिगृहीतानि स्वीकृतानि नवंति। तान्येव विशिनष्टि । अल्पतराणि स्तोकतराणि वा प्रनूततराणिवा नवंति । तथा तेषामेव च जानपदाः परिगृहीतानवंति तेऽल्पतराः प्रजूततरावा नवेयुस्तेषु चार्यादिविशिष्टेषु तथाप्रकारेषु कुलेष्वागम्यैवंनूतानि गृहाणि गत्वा तथा प्रकारेषु वा कुलेष्वागम्य जन्म लब्ध्वाऽनिनूयच विषयकषायादीन् प रीषहोपसर्गान् वा सम्यगुबानेनोबाय प्रव्रज्यां गृहीत्वैके केचन तथाविधसत्ववंतोनिदा चर्यायां सम्यगुबितास्तथा सतो विद्यमानानपिवा एके केचन महासत्वोपेताझातीन स्वज Page #660 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६३० द्वतीये सूत्रकृतांगे द्वितीय श्रुतस्कंधे प्रथमाध्ययनं. नांस्तथोपकरणं च कामनोगांगं धनधान्यहिरण्यादिकं विविधं प्रकर्षेण हित्वा त्यक्त्वा नार्यायां सम्यगुविताअसतोवा ज्ञातीनुपकरणंच विप्रहाय निद्राचर्यायामेके केच नापगतस्वजन विनवाः समुचिताः ॥ ३५ ॥ पुवमेव तेहिं पायं जवइ तं जहा इह खलु पुरिसे अन्नमन्नं ममाए एवं विप्पडिवेदेति तं जदा खेत्तं वनमे दिर में सुवन्नंमे धमे धंमे कंसंमे दूसंमे विपुलधणकणगरयणमणिमोत्तिय संख सिलप्पवालरत्तरय संतसारसावतेयं मे सद्दामे रूवामे गंधामे रसामे फासामे एते खलु मम कामोगा मवि एतेसिं ॥ ३६ ॥ सेमेदावि पुवमेव अप्पणो ए वं समनिजाऐका तं जहा इह खलु मम अन्नयरे डुरके रोयातं के समुप्प केका पिठे कंते अपिए सुने मन्ने मामे के पोस दे सेता जयंतारो कामभोगाई मम अन्नयरं डुकं रोयातंकं परियाइय द आणि कंतेपियंसुनं मन्नं अमणामं डुकं पोसुदं त दिं स्कामिवा सोयामिवा जूरामिवा तप्पामिवा पीडामिवा परितप्पामि वा इमान ममे मयरान डुरकान रोगातंकाने पडिमोयन प्रणिधान कंतान अप्पियान सुना मपुन्नान प्रमणामनुं दुकान पोसुहान एवमेव गोलपुवं नवइ ॥ ३७ ॥ अर्थ - ( तेहिं के० ) ते पुरुषने ( पुवमेव के० ) प्रथम चारित्र लेवाना वखतेज एवो ( पायंनवर के ० ) जाळे ( तंजहा के० ) ते कहे . ( इह के० ) या जगत मांहे खजु इति वाक्यालंकारे ( पुरिसे के० ) ते पुरुषे ( अन्नमन्नं के० ) खनेर अनेरी वस्तु एटले अमुक अमुक जुदी जुदी वस्तु ( ममहाए के० ) महारा उपभोगने अर्थे यशे ( एवं के० ) एम (विप्प डिवेदेति के० ) वेद प्रवितियति एटले जाएयुबे ( तंजहा के० ) ते वस्तुना नाम कहे. ( खेत्तं मे के० ) या क्षेत्र महारंबे ( व ूमे के० ) ए घर हा महारा (हिर मे के० ) या रूपुं महारंबे ( सुवं मे के० ) या सोनु महासं बे (धमे के० ) या धन महारंबे (धन्नंमे के०) या धान्य महारुंबे (कंसंमे के० ) या कांसाना नाजन महाराबे ( दूसंमे के० ) या दुष्य एटले वस्त्र महाराठे ( विपुल, ध , काग, रयण, मणि, मोत्तिय, संख, सिल, प्पवाल, रत्त, रयण, संत सार साव तेयं मे के० ) एम विस्तीर्ण धन कनक सोलजातिना रत्न सात जातना मणी मोक्तिको संख For Private Personal Use Only Page #661 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रायधनपतसिंघ बादाडुरका जैनागम संग्रह नाग दुसरा. ६३१ ते दक्षिणावर्त्त प्रमुख शीलते कशवटी प्रवाला रक्तरत्न तथा संत एटले बतो सार एटले प्रधान एवो सावतेयं एटले धन ए सर्व महारा उपनोगने अर्थे यज्ञे (सद्दामे के ० ) शब्द वंशादिकना (रूवामे के ० ) रूप स्त्रियादिकना ( गंधामे के० ) गंध ते कस्तूरी कर्पूरादि क वस्तुना ( रसामे के० ) रसमधुरादिक वस्तुना ( फासा मे के० ) स्पर्श मृडु करणादि क वस्तुना ( एते के० ) ए समस्त वस्तु ते खलु इति निचे ( ममकामनोगा के० ) ए कामनोग ते माहाराने घने (हमवि के०) हुंपण ( एते सिं के०) एनोबु ॥ ३६ ॥ हवे (से मेहावि के० ) ते पंति ( पुत्रमेव के० ) पूर्वे (अप्पणी के० ) पोताना हृदय साये ( एवं के० ) एवं (समनिजाका के० ) सम्यक् प्रकारे जाणे खालोचे एटले प्रथम यी पोताना हृदयसाथें विचारे के ए महारांबे किंवा नथी एवो विचारे ते गुं विचा रे (तंजा के० ) ते कहे . ( इहखलु के० ) या संसारने विषे निचे ( ममयन्नयरे ho ) महारा शरीरने विषे अन्य कोई एक ( डुरके के० ) दुःख मस्तक पीडादिक ( रो यातं के० ) रोगातंक एटले असाध्य रोग शूलादिक ( समुप्पा के० ) उपजे ते रोग केवोहोय ते कहे . ( अलिहे के ० ) निष्टकारी ( कांते के० ) याक्रांतकारी ( पिए ० ) प्रिय कारी ( सुने के० ) शुभकारी ( मणुन्ने के० ) मनो 0 एटले मनने गमे नही ( श्रमणा मे के० ) विशेष प्रकारें पीडानो करनार ( डरके के० ) दुःख रूप ( गोसुहेसे हंता के० ) नथी ज्यां लवलेशमात्र सुख, एवो दुःख नप ने के ते पूर्वोक्त कामनोगादि योग्य जे वस्तुबे ते प्रत्ये एवं कहे के ( जयंता रो के० ) हो जय थकी राखनारा (कामनोगाई के० ) धन धान्यादिक तथा शब्दादिक कामनोगो तुमे ( मम के० ) महारे शरीरे ( अन्नयः खं के० ) अनेरा दुःख जे ( रोयातकं के० ) रोगातंक शूलादिक उपनावे ( परियाइयह के० ) तेने तमे वेची ल्यो महारे खर्थे ( अहिं के० ) अनिष्ट कारी (कंतं के० ) व्यक्रांत का ( अप्पियं के० ) प्रियकारी (सुनं के० ) असुनका ( श्रमन्नं के० ) मनोज्ञ (मणामं के०) विशेषे अमनोज्ञ पीडाकारी (डरकं के०) दुःखरूप (पोसुहं के ० ) नथी ज्यां लव लेश मात्र सुख ( तहिं के० ) तेणेकरी ( डुरकामिवा के० ) याकरो दुःखी बुं ( सोयामिवा के० ) शोक अनुनकुंकुं ( जूरामिवा के० ) जुबुं ( तप्पामिवा के० ) म हारो दय तपेढे बीजायडे ( पीडामिवा के० ) पीडा अनुनकुंकुं (परितप्पामिवा के० विशेषे पीड़ा न इत्यादिक (इमा के० ) ए (ममे के० ) मने ( मयराज के ० ) रा ( रा ० ) दुःख जे पूर्वोक्त मस्तक पीडादिक असाध्य ( रोगातं कामो के ० ) रोग यांतक शूलादिक जे थकी तत्काल प्राणनो नाश थाय ते थकीत मने मूकाव एवा ( हार्ड के० ) अनिष्टकारी ( अकंता के० ) यात्रां ) Page #662 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६३२ द्वितीये सूत्रकृतांगे द्वितीय श्रुतस्कंधे प्रथमाध्ययनं. aar (पा० ) अप्रियकारी (सुनाउ के० ) सुनकारी ( मपुन्ना के ० ) मनोज्ञ (मणामनुके० ) अरुचता विशेषे मनोज्ञ पीडाकारी एवा (डुरका के० ) दुःख (पोसुहाउ के० ) नथी जेमांहे जेश मात्र गुख एवा जे दुःख ते थकी हे काम जोगादिको तमे मने मूकावो ( एवमेव के० ) एवीरीते जे कामनोगादिकने प्रार्थना करे तोप (गोलपुवंनवइ के० ) ते कामनोगापूर्वजच्धोननवति एटले ते काम जोगादिक जे ते कोई मनुष्यने पूर्वोक्त दुःख थकी मूकाव्यो बे एवो पूर्वे क्यां जावामां प्राव्यं नथी. ॥ ३७ ॥ || दीपिका - ये निक्षाचर्योद्यतास्तैः पूर्वमेव प्रव्रज्याग्रहणकाल एतज्ज्ञातं स्यात् । तद्यथा । अन्य वस्तूद्दिश्य पुरुषः प्रव्रजितः प्रव्रज्यां ग्रहीतुकामोवा एवं विप्रतिवेदयति जानाति । तद्यथा । क्षेत्रं वास्तुगृहं हिरण्यं सुवर्ण कनकं धनंगोमहिष्यादि धान्यं शा व्यादि कांस्यं कांस्यपात्रादि दूष्यं वस्त्रादि । तथा विपुलानि धनकनकादीनि शंखाददि पावर्ताः मुक्तशैलादिकाः शिलाः प्रवालंविद्रुमं रक्तरत्नं पद्मरागादि सत्सारं शोननसारं शूलमस्यादि स्वापतेयं इव्यं सर्वमेतन्ममोपभोगाय नविष्यति । तथा शब्दरूपगंधरसस्प शमे कामनोगाश्रहमप्येतेषां जोगानां संबंधी ॥ ३६ ॥ प्रयमपि नोगसंबंधीति विचा मेधावी पूर्वमेवात्मना एवं समनिजानीयात् । तद्यथा । इह जन्मनि ममान्यत् दुःखं शिरोवेदनादिकं यातंकोवा या जीवितापहारी शूजादिकः । सकिंनूतः । अनिष्टो shinisोऽमनोज्ञः । यवनामयतीत्यवनामः पीडाविशेषकारी दुःखरूपः । नगुनो ऽकर्मकत्वात् । पुनर्युखोत्पादनमत्यंत दुःखज्ञापनार्थ । तदेवंभूतं दुःखं रोगातकं वातइति खेदे नगवंतः कामनोगायूयं मया पालितास्ततोयूयमपीदं दुःखं रोगातंकं वा ( परियाइयह ) विभज्य गृहीत | अत्यंत दुःखपीडितः पुनस्तान्येव विशेषणान्याह । निष्टादिविशेषणानि पूर्व प्रथमांतानि पुनर्द्वितीयांतानि सांप्रतं पंचम्यं तानि । सचायमर्थः पूर्वं लब्धन नवति । कोर्थः । नहि ते जोगादयोनरं दुःखान्मोचयंतीतिपूर्वं नातं ॥ ३७ ॥ ॥ टीका:- ते पूर्वोक्तविशिष्टा निष्ाचर्यायामन्युद्यताः पूर्वमेव प्रव्रज्याग्रहणकालएव तैरेतज्ज्ञातं नवति । तद्यथा ( इहेत्यादि) इह जगति । खलुवाक्यालंकारे । अन्यदन्य ६ स्तू दिश्य ममैतनगाय नविष्यतीत्येवमसौ प्रव्रज्यां प्रतिपन्नः प्रवत्रजिषुर्वा प्रवेदयति जाना त्येवं परिवित्ति । तद्यथा । देत्रं शांतिदेवादिकं वास्तु खातोहितादिकं हिरएयं धर्मला नादिकं सुवर्णकनकं धनंगोमहिष्यादिकं धान्यंगोधूमादिकं कांस्यं कांस्य पात्रादिकं तथा विपुलानि प्रभूततराणि धनकनकरत्नमणिमौक्तिकानि ( शंख शिनंति) मुक्तशैला For Private Personal Use Only Page #663 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राय धनपतसिंघ बानाउरका जैनागम संग्रह नाग उसरा. ६३३ दिकाः शिलाः प्रवाल विद्रुमं । यदिवा (शिलप्पवालंति) श्रियायुक्तं प्रवालं श्रीप्रवालं वर्णादिगुणोपेतं तथा ( रत्तरयणंति) रक्तरत्नं पद्मरागादिकं तथा सत्सारं शोनन सारमित्यर्थः । शूलमण्यादिकं तथा स्वापतेयं शुई इव्यजातं सर्वमेतत्पूर्वोक्तं मे ममोपनोगाय नविष्यति । तथा शब्दावेएवादयोरूपाण्यंगनादीनि, गंधाः कोष्ठपुटाद योरसामधुरादयोमांसरसादयोवा, स्पर्शामृदादयएते सर्वेपि खल्ल मे कामनोगायाहमप्ये षां योगमार्थ प्रनविष्यामीत्येवं संप्रधार्य;॥३६॥ समेधावी पूर्वमेवात्मानं विजानीया देवं पर्यालोचयेत् । तद्यथा । इह संसारे। खलुशब्दोऽवधारणे । इहैवास्मिन्नेव जन्मनि म नुष्यनवे ममान्यतरहुःखं शिरोवेदनादिकं आतंकोवाऽऽशु जीवितापहारी शूलादिकः समु त्पाद्यते । तमेव विशिनष्टि । अनिष्टोऽकांतोऽप्रियोऽशुनोऽमनोझोऽवनामयतीत्यवनामः पीडाविशेषकारी दुःखरूपोयदि वा नमनागमनाक् मे मम नितरामित्यर्थः । कुखयतीति ःखं पुनरपि उःखोत्पादन अत्यंतःखप्रतिपादनार्थ सुखलेशस्यापि परिहारार्थ च नोने व शुनकर्मविपाकोदितत्वादिति । अत्रच यउक्तं पुनरुच्यते तदत्यादरख्यापनार्थ तक्षिशे षप्रतिपादनार्थ वेति । तदेवंनूतं फुःखं रोगातकं वा हंततिखेदे नयाघातारोयूर्य क्षेत्रवस्तु हिरण्यसुवर्णधनधान्यादिकाः परिग्रह विशेषाः शब्दादयोवा विषयास्तथा हे जगवंतः! कामनोगायूयं मया पालिताः परिगृहीताश्च ततोयूयमपीदं सुःखं रोगातंकं वा (परि याश्यहत्ति ) विनागशः परिगृहीत यूयं । अत्यंतपीडयोविनः पुनस्तदेव उःखं रोगातकं वा विशेषण वारेणोच्चारयति । अनिष्टमप्रियमकांतमगुनममनोझममनाग्नूतमवनामकं वा कुःखमेवैतन्नोगुनमित्येवंनूतं ममोत्पन्नं यूयं विनजताहमनेनातीव दुःखामीति दुःखि तइत्यादि पूर्ववन्नेयमित्यतोऽमुष्मान्मामन्यतरस्माहुःखाजोगांतकामा प्रतिमोचयत यूयं । अनिष्टादिविशेषणानि तु पूर्ववक्ष्याख्येयानि। प्रथमं प्रथमांतानि पुर्दितीयांतानि सां प्रतं पंचम्यतानीति । नचायमर्थस्तेन ःखितेनैवमेवेति यथाप्रार्थितस्तथैव लब्धपूर्वोन वति । इदमुक्तंनवति । नहि ते क्षेत्रादयः परिग्रहविशेषानापि शब्दादयः कामनोगास्त दुःखितं उःखादिमोचयंतीति ॥ ३७ ॥ इह खलु कामनोगा पोताणाएवा पोसरणाएवा पुरिसेवा एगता पुविं कामनोगे विप्पजति कामनोगावा एगता पुद्धिं पुरिसं विप्पजति अन्ने खलु कामनोगा अन्नो अदमंसि से किमंगपुण वयं अन्नमन्नेहिं काम जोगेहिं मुबामो इति संखाएणं वयंच कामनोगेदिं विप्पजहिस्सामो से मेदावि जाणेजा बादिरंगमेत्तं ॥ ३७॥ Page #664 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६३४ वितीये सूत्रकृतांगे वितीय श्रुतस्कंधे प्रथमाध्ययनं. ॥ अर्थ-(इहखलु के०) था जगत् मांहे निचे थकी (कामनोगा के० ) ते काम जोगादिकजे ते, पूर्वोक्त कुखिया जीवने (गोताणाएवाके) त्राणनणी नथाय. (णोसर गाएवा के०) अथवा शरण जणी नथाय. (पुरिसेवा के०) ते पूर्वोक्त दुःखी पुरुषने पूर्वोक्त रोगादिक उपने थके त्राण शरण नणीनथाय. हवे रुडा कामनोगनी लीलानोअंत देखाडे के (एगता के०) एकदा (पुट्विं के०) प्रथम व्याधि नत्पन्न कालें, अथवा जरा जीर्ण का लें,अथवा राजा दिकना उपवने कालें पुरुष, (कामनोगेविप्पजहंति के०)एकामनोगने मू के ले. (कामनोगावाएगतापुत्वंपुरिसंविप्पजहंतिके०) अथवा ए काम नोग पोतेंज एकदा इव्यादिकने अनावें विषयानिलाषी पणुं उतांज ते पुरुषने त्यागी मूके: ते कारण माटे जे पंमित पुरुष होय ते एवीरीते अवधारण करे के, (बन्नेखलुकामनोगा के०) निचे करी ए कामनोगादिक जे ते, महारा थकी अन्य जुदाडे. (अन्नोघहमंसि के०) हुँ पण ए कामनोगथकी अन्य जुदो. जो एमडे तो, ( से किमंगपुरावयं के०) ते शा अर्थे वली अमे (अन्नमन्नेहिंकामनोगेहिं मुनामो के०) अनित्य अशाश्वत एवा जे ए कामनोग, तेने विषे मूळ एटले ममत्व करिये, केमके एवं ए ममत्व करवू तेतो व्यर्थ. (इतिसंखाएके०) एरीते कोइ महा सत्ववंत पुरुष ते कामनोगादिकने पूर्वोक्त रीते व्यर्थ जाणीने, (वयंचकामनोगेहिंविप्पजहिस्सामो के० ) अमे ए कामनोगादिकनो त्याग क रा. एवो अध्यवसाय करे ते महापुरुष जाणवो. वली अन्य बीजं वैराग्यनुं कारण क हेले. ( सेमेहाविजाणेजा के० ) ते पंमित एम जाणे जे, ( बाहिरंगमेत्तं के० ) ए नव विध परिग्रह तथा शब्दादिक विषय जे ते फुःखथकीराखनार नथी; एतो सर्वे बाहिरं ग संयोगि ने एटले बाह्यरूपले, एवं पंमित जाणेले. ॥ ३० ॥ ॥ दीपिका-एतदेवाह । इह नवे खलु कामनोगान त्राणाय वा स्युः । पुरुषः प्राणी एकदा पूर्व कामनोगान त्यजति कामनोगावा एकदा कदाचित्पुरुषं त्यजति । सचैवं जा नाति अन्ये निन्नाः खलु मत्तः कामनोगाएतेन्यश्च निन्नोऽहं एवं सति वयमेतेषु अन्यन तेषु कामनोगेषु मूबी कुर्मश्त्येवं केचिन्महापुरुषाः परिसंख्याय सम्यक ज्ञात्वा, कामनो गान् वयं विप्रजहिण्यामस्त्यदयामश्त्यध्यवसायिनः स्युः । पुनर्वैराग्यकारणमाह । समे धावी एतत्त्रादिकं बाह्यांगं वर्ततइति जानीयात् ॥३०॥ ॥टीका-एतदेव लेशतोदर्शयति (इहखलुश्त्यादि) हास्मिन् । खलुवाक्यालंकारे।ते का मनोगायत्यंतमन्यस्तान तस्य ःखितस्य त्राणाय शरणाय वा नवंति । सुलालितानामपि कामनोगानां पर्यवसानं दर्शयितुमाह। (पुरिसेवाइत्यादि) पुरिशयनात्पुरुषः एकदा व्याध्यु त्पत्तिकाले वाऽन्यस्मिन्वाराजाद्युपश्वे तान्कामनोगान्परित्यजति।सवा पुरुषोव्याद्यनावे Page #665 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राय धनपतसिंघ बादाउरका जैनागम संग्रह नाग उसरा. ६३५ तैः कामनोगैर्विषयोन्मुखोपि त्यज्यते । सचैवमवधारयति अन्ये मत्तोनिन्नाः खल्वमी का मनोगास्तेभ्यश्चान्योहमस्मि । तदेवं व्यवस्थिते “किमिति वयं पुनरेतेष्वनित्येषु परजूतेष्व न्येषु कामनोगेषु मूळ कुर्म" इत्येवं केचन महापुरुषाः परिसंख्याय सम्यक् झावा, कामनो गान्वयं विप्रजहिष्यामस्त्ययामइत्येवमध्यवसायिनोनवंति । पुनरपरं वैराग्योत्पत्तिका रणमाह । (सेमेहावी) समेधावी श्रुतिकः एतजानीयात् । यदेतत्देत्रवास्तुहिरण्यसुव शब्दादिविषयादिकं उःखपरित्राणाय न नवतीत्युपन्यस्तं तदेतद्बाह्यांतरं वर्तते ॥३७॥ इणमेव उवणीयतरागंतं जहा मायाम पितामे नायामेनगिणीमे नकामे पुत्तामे धूतामे पेसामे नन्नामे सुहामेसुदामे पियामे सदामेसयणसंगयसं थुयामे एते खलु मम णायन अहमवि एतेसिं एवं से मेदावि पुवमेव अ प्पणाएवं समनिजाणेजा इह खलु मम अन्नयरे उरके रोयातंके समुप्पले झा अणि जाव के पोसुदे सेहंता नयंतारो पायम मम अन्नयरं उकं रोयातंकं परियाश्यद अणि जाव पोसुदं तहिं ऽरकामिवा सो यामिवा जाव परितप्पामिवा इमानमे अन्नयरातो पुरस्कातो रोयातंको प रिमोएद अणिबन जाव पोसुदान एवमेव पोलच पुवं नव॥णाते सिंवावि नयंताराणं मम णाययाणं अन्नयरे उरके रोयातंके समुपजेजा अणि जाव पोसहं सेहंता अहमतसिं नयंताराणं गाययाणं मं अन्नयरं उरकं रोयातंकं परियाश्यामि अणि जाव पोसुदं मामे उरकं तुवा जाव मामे परितप्पंतुवा इमानणं अमयराम मुस्कातोरोयातंकान परिमोएमि अणितजाव णोसुदान एवमेव पोलअपवं नव अन्न स्स जुकं अन्नोन परियाश्यंति अन्नेन कडं अन्नो नोपडिसंवेदेति॥४०॥ पत्तेयं जायतियं पत्तेयं मर पत्तेयं चयपत्तेयं व्ववज पत्तेयं ऊजा पत्ते यं सन्ना पत्तेयंमन्ना एवं विन्नू वेदणाति खलुणातिसंजोगाणोताणाएवा णोसरणाएवा पुरिसेवा एगता पुद्धिं णातिसंजोए विप्पजति पातिसं जोगावा एगता पुद्धिं पुरिसं विप्पजति अन्ने खलु णातिसंजोगा अन्नो अहमंसि सेकिमंग पुणवयं अन्नमन्नेहिं णातिसंजोगेहिं मुबामो इति सं खाएणं वयं णातिसंजोगं विप्पजहिस्सामो॥४१॥ Page #666 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६३६ दितीये सूत्रकृतांगे वितीय श्रुतस्कंधे प्रथमाध्ययनं. अर्थ-(इणमेवनवणीयतरागं के०) था जे आगल कहेशे ते घणाज बासन्न ढुकडा व जे. (तंजहा के०) ते कहेले. (मायामे के०) माता महारी, पिता महारो, नाइ म हारो, बहेन महारी,नार्या एटले स्त्री महारी,पुत्र महारा धूता एटले बेटी महारी, पेसा एटले दास महारा, ( नन्नामे के०) मित्र महारा सखाइमहारा, अथवा पोत्रा तथा न्यातमहारी (सुन्हामेके०) स्नुषा एटले पुत्रनी वदु महारी, (पियामेके०) प्रिय (सहामे के०) सखा (सुहामेके०) सुहृत् एटले सऊन महारा, (सयासंगथसंथुयामेके०) स्वजन संस्तुत श्वशुरकुलादिक पितरियादिक ए सर्व महारा,तथा जेनी साथे घणो बालाप संला प परिचय थाय ते सर्व महारा, (एतेखलुममणायके) ए सर्व निश्चे थकी महारा झाति ना घणाज टूकडा संबंधीजे. अने (अहमवि के०) ढुंपण ( एतेसिं के० ) एहोनो बूं ए मने उपकार करशे, हुँ एने उपकार करीश. ( एवं के०) एरीते (सेमेहावि के०) ते पंमित (पुत्वमेव के०) पूर्वे (अप्पणा के०) पोताना आत्माने विषे (एवंसमनि जाणेजा के० ) एम समस्त प्रकारे जाणे मनमांहे विचारे जे, (इहरखलुमम के० ) आ नवने विषे निश्चे मुजने (अन्नयरे के ) अनेरो कोश (उरकेरोयांतकेसमुपलेजाथ णिजावरकेणोसुहे के० ) सुःख शूलादिक असाध्य रोग अनिष्ट यावत् फुःख कारी,अने नथी जेमां लेशमात्र सुख एवा रोगादिक उपने थके तेवारे ते पुरुष ते कुःखे ःखित बतो, (सेहंताके) माता पितादिक ज्ञाति गोत्री स्वजनादिकने प्रार्थना करे के, (नयंतारोके०) अहो नय थकी राखनारा एवा (गाय के०) झाति गोत्रीन ! (इम के) एम (म म के०) मने (अन्नयरं के) अनेरो कुःख रोगातंक शूलादिक उपमुंडे ते तमो वहें ची व्यो. केमके ए अनिष्टकारी ज्यांसुधि लवलेश मात्र सुख नही (तहिंस्कामिवा के० ) तेवा ःखे करी अत्यंत उखी सोचुडं, यावत् पीडा अनुनबुबु. (इमानपंथन्न यरातोउरकातो के०) एमज अनेरे ऊःखे अत्यंत सुःखीनु, शोक परिताप पीडा अनुन, , ते कारणे ए :रक तथा रोग थांतक थकी मुजने (परिमोएह के० ) मूकावो. प रंतु अनिष्टकारी ज्यांसुधि जेमांहे लेश मात्र सुख नथी एवा फुःख थकी मूकाववाने (एवमेवणोलपुवंनवश्के) एरीते ते अर्थ मागतोलीये नही एटले ते उःखने वहेंचीलीये नही अर्थात् ते झाती, गोत्री, तेने फुःख थकीमूकववाने समर्थ नथाय.॥३॥ (तेसिंवावि जयंताराणं के ) अथवा ते नयथकी राखनारा एवा जे (ममणाययाणं के०) महा रा झाति, गोत्री, तेने पण अनेरो कोइएक फुःख रोगांतक उपजे ते केवो उपजे तोके अनिष्टकारी यावत् नथी जेमा लेशमात्र सुख एवो रोग उपने थके ढुंपण ते जयथकी राखनार थश्श झाती गोत्रीयोनो कुःख रोगातंक वहेची लश्श, कारणके तेवा अनिष्टकारी जेमाहे लेशमात्र सुख नथी एवा उःख थकी महारा ज्ञाती गोत्री सुखी थाय यावत् Page #667 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राय धनपतसिंघ बादाउरका जैनागम संग्रह नाग उसरा. ६३७ महारा झाति विशेषे पीडा अनुनवे माटे एने पण अनेरा कोई मुःख थकी, रोगातंक थकी, मुकावगुं. एवं यद्यपि ते पोताना मन मांहे जाणे परंतु ते अनिष्टकारी जेमा लेश मात्र सुख नथी एवा कुःख ते झाती गोत्रीने उपने थके ते माहेथी वहेंची नशके, एट से तेमन फुःख पोते ला शके नही कारणके, (अन्नस्सरकंअन्नोनपरियाश्यंतिके०) अनेरानुं दुःख अनेरो वहेंची ला शके नही, एटले एकनुं मुख बीजो वहेंची लाशके नही. (अन्नेनकडं के ) अनेरानुं करेलुं कर्म (अन्नोनोपडिसेवेदेति के ) अनेरो नो गवे नही. जेणे जे कीधुं होय ते तेहिज जोगवे ॥४०॥ (पत्तेयंजायतियंके) जीव प्रत्येक प्रत्येक उपजेले. (पत्तेयंमर के०) प्रत्येक प्रत्येक मरण पामे. ( पत्तेयंचय के) प्रत्येक प्रत्येक धन धान्यादिक ने बांकेले. (पत्तेयंनववऊ के०) प्रत्येक प्रत्येक उपार्ज न करे संग्रहेजे. (पत्तेयंऊका के०)प्रत्येक प्रत्येक ऊंजायक कलह लहेजे. (पत्तेयंसन्ना के०) प्रत्येक प्रत्येकने संझा एटले पदार्थy परिझानडे, ते कोइएकने अल्पडे, कोइएकने घणुंडे. एम तरतम योग ज्ञान उपजेले. (पत्तेयंमन्ना के०) प्रत्येक प्रत्येक चित्तनो चिं तवन. ( एवंविन्नूवेदणातिके०) एरीते विनू एटले जाणQ. प्रत्येक प्रत्येक सुख दुः खरूप वेदनानो अनुनव थायडे, एतावता एकनुं करेलुं बीजो न नोगवे. (एवं के०) ए कारणे खलु इति निश्चे (पातिसंजोगा के०) शातिनो जे संयोग ते जीवने (णोता णाएवा के) त्राण नणी नथाय. (णोसरणाएवा के०) जीवने शरण नणी न थाय. (पुरिसेवाएगतापुर्विणातिसंजोएविप्पजहंति के० ) एकदा प्रस्तावे झाति संयोगने ते पु रुष प्रथम बांके. (णातिसंजोगावाएगतापुत्विंपुरिसंविप्पजहंति के० ) अथवा एकदा प्र स्तावे झाति संयोग ते पुरुषने प्रथमथीज बांमे ते कारणे, (अन्नेखलुणातिसंजोगाके) निश्चे ए शातिना संयोग जे दे, ते मुज थकी अन्य. (अन्नोथहमंसि के० ) अने हुँ एना थकी अन्य एटले जुदो जो एमले तोपण (सेकिमंगपुणवयंके०) किशोर कोमल वचने करी वली अम्हे ते (अनमन्नेहिं के०) माहो मांहे (गातिसंयोगेहिं के०) झाति ना संयोग साथे (मुबामो के०) मूर्जा कीधी. ते मूळ करवी योग्य नथी (इतिसंखा एणं के०) एवं जाणीने (वयंणातिसंजोगविप्पजहिस्सामो के) अमे झाति संयोग बांमगुं. एवो अध्यवसाय जेनो होय तेने पंमित जाणवो. ॥४१॥ ॥ दीपिका-इदमेव च वक्ष्यमाणमुपनीततरमासन्नतरं वर्तते । तद्यथा । माता, पिता, चाता, नगिनी, नार्या, पुत्रः, सुता, स्नुषा, प्रियः, सखा सुहृत्, इत्यादि ज्ञातयः पूर्वापरसंस्तुताएते खलु ज्ञातयोममोपकाराय नविष्यंति अहमप्येतेषां ज्ञातीनामुपकरि ष्यामीत्येवं समेधावी पूर्वमेवात्मना एवं समनिजानीयाविचारयेत् । इह नवे ममानिष्टा Page #668 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६३७ वितीये सूत्रकृतांगे वितीय श्रुतस्कंधे प्रथमाध्ययनं. दिविशेषणोःखातंकः समुत्पद्यते, ततोऽसौ तदुःखऽखितोझातीन एवमन्यर्थयेत् । यथा ममान्यतरं दुःखमुत्पन्नं परिगृहीत यूयं अहमनेनोत्पन्नेन कुःखातंकेन पीडयिष्यामीति ततोऽस्माहुःखान्मां परिमोचयत यूयमिति॥३॥इदं सर्व प्राग्वत् योज्या यावदेवं नोपलब्ध पूर्व नवति । यतः अन्यस्य खमन्योन पर्याददाति न गृएहाति अन्येन कृतं कर्म अन्यो न प्रतिसंवेदयति नानुनवति ॥ ४० ॥ यतःयस्मात्प्रत्येकं जीवोजायते, प्रत्येकं म्रियते, प्रत्येकं त्यजति परिग्रहं प्रत्येकमुत्पद्यते । बउक्तं । एकस्य जन्ममरणे, गतयश्च शुनागु जानवावर्ते ॥ तस्मादाकालिकहितमेकेनैवात्मनः कार्य ॥ १ ॥ तथा प्रत्येकं ऊंका कल हः । तद्ग्रहणात्कषायागृह्यते प्रत्येकमेव जीवानां कषायोदयः स्यादित्यर्थः । संझापदा थपरिबित्तिः सापि प्रत्येकं (मन्नत्ति ) मननं चिंतनं पर्यालोचनमिति यावत् । प्रत्येकमे व विज्ञान प्रत्येकं वेदनाः (इतिखलुत्ति) इति पूर्वोक्तप्रकारेण खलु अमी झातिसंयोगा न त्राणाय न शरणाय । नत्पन्नपीडार्तिनिवारणंत्राणं, अनागतार्तिसंरचणं शरणं । यतः पुरुषएकदा झातिसंयोगान् विप्रजहाति, झातिसंयोगावा पुरुषं परित्यजति तस्मादन्ये झा तिसंयोगाथहमन्योस्मीति नावनीयं । एवं सति किमिति पुनर्वयमन्यैरन्यैातिसंयोगै मूबी कुर्मः । मू करणं न युक्तमित्यर्थः । इति संख्याय झावा, वयं “ज्ञातिसंयोगान् त्य दयामः परिहरिष्याम" इति कृताध्यवसायाज्ञानतत्त्वाः स्युः ॥४१॥ ॥टीका-इदमेव चान्य ६दयमाणमुपनीततरमापन्नतरं वर्तते । तद्यथा। माता, पिता, ना ता, नगिनीत्यादयोझातयः पूर्वापरसंस्तुताएते खलु ममोपकाराय ज्ञातयोनविष्यंति, अद म"प्येतेषां स्नाननोजनादिनोपकरिष्यामी” त्येवंसमेधावीपूर्वमेवात्म नैवंसमनिजानीयादि त्यादि। एवं पर्यालोचयेत्कल्पितवानिति वा । एतदध्यवसायी चासौ स्यादिति दर्शयितुमाह । (इहखखुश्त्यादि ) हास्मिन्नवे मम वर्तमानस्यानिष्टादि विशेषणविशिष्टोउःखातंकः स मुत्पद्येत ततोऽसौ तदुःखऊःखितोजानीते । तमेवमन्यर्थयेत् । तद्यथा । ममान्यतरं सुःखातंकमुत्पन्नं परिगृहीत यूयमहमनेनोत्पन्नेनफुःखातंकेन पीडयिष्यामीत्यतोमुष्मान्मां परिमोचयत यूयमिति । नचैतत्तेन उखितेन लब्धपूर्व नवति नहि ताज्ञातयस्तं उःखान्मोच यितुमलमितिनावः॥३॥ नासौ तेषां फुःखमोचनायालमिति दर्शयितुमाह. (तेसिंवावीत्या दि) सर्व प्राग्वद्योजनीयं यावदेवमेव नो लब्धपूर्व नवतीति । किमित्येवं नोपलब्धपूर्व नवतीत्याह । (अस्मस्सःखमित्यादि) सर्वस्यैव संसारोदर विवरवर्तिनोऽसुमतः स्वरूतक र्मोदयाद्यहुःखमुत्पद्यते तदन्यस्य संबंधि कुखमन्योमातापित्रादिकोनप्रत्यापिधत्ते न तस्मा त्पुत्रादेःखेनासह्येनात्यंतपीडिताःस्वजनाः नापि उःखमात्मनि कर्तुमलं । किमित्येवमा शंक्याह । (अमेणकडमित्यादि ) अन्येन जंतुना कषायवशगेन इंडियानुकूलतयाऽनिला Page #669 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रायधनपतसिंघ बादाउरका जैनागम संग्रद नाग उसरा. ६३ए षिणा ज्ञानात्तेन मोहोदयवर्तिना यत्कृतं कर्म तऽदयमन्यः प्राणी नोप्रतिसंवेदय ति, नानुनवति तदनुनवने ह्यकतागमकतनाशौ स्यातां । नचेमौ युक्तिसंगतावतोययेन कृतं तत्सर्व सएवानुनवति । तथाचोक्तं । परकतकर्मणि यस्मान्नाकामति संक्रमोविना गोवा ॥ तस्मात्सत्वानां कर्म यस्य यत्तेन तवेद्यं ॥१॥४०॥ यस्मात्स्वरूतकर्मफलेश्वराजंतव स्तस्मात्तदेतनवतीत्याह । (पत्तेय मित्यादि ) एकमेकं प्रत्येकं सर्वोप्यसुमान् जायते, त था दीरों चायुषि प्रत्येकमेव म्रियते । नक्तंच । एकस्य जन्ममरणे, गतयश्च गुनाशुना नवावते ॥। तस्मादाकालिकहितमेकेनैवात्मनः कार्यमिति ॥१॥ तथा प्रत्येकं देववस्तु हिरण्यसुवर्णादिकं परिग्रहं शब्दादींश्च विषयान्मातापितृकलत्रादिकं च त्यजति, यथा प्रत्ये कमुपपद्यते युज्यते, परिग्रहस्वीकरणतया तथा प्रत्येकं ऊंफाकलहस्तग्रहणात्कषायाःप रिगृद्यते । ततः प्रत्येकमेवासुमतां मंदतीव्रतया कषायोनवोनवति । तथा संज्ञानं संज्ञा पदार्थपरिजित्तिः। सापि मंदमंदतरपटुपटुतरजेदात्प्रत्येकमेवोपजायते । सर्वज्ञादारतस्तरत मयोगेन मतेर्व्यवस्थितत्वात् । तथा प्रत्येकमेव । (मन्नत्ति ) मननं चिंतनं पर्यालोचन मिति यावत् । तथा प्रत्येकमेव (विप्मुत्ति ) विवांस्तथा प्रत्येकमेव सातासातरूपवेद ना सुखःखानुनवः । उपसंजिघृकुराह । (इतिखलुइत्यादि) इत्येवं पूर्वोक्तेन प्रकारे ए यतोनान्येन कृतमन्यः प्रतिसंवेदयते प्रत्येकं जातिजरामरणादिकं । ततः खल्वमी झा तिसंयोगाः स्वजनसंबंधाः संसारचकवाले पर्यटतोत्यंतपीडितस्य तदरणेन त्राणाय न त्राणं कुर्वति, नाप्यनागतसंरक्षणतः शरणाय नवंति । किमिति । यतः पुरुषएकदा को धोदयादिकाले झातिसंयोगान् विप्रजहाति परित्यजति, स्वजनाश्च न बांधवाइति व्यवहा रदर्शनात् ज्ञातिसंयोगादेकदा तदसदाचारदर्शनतः पूर्वमेव तं पुरुषं परित्यजति स्वसंबं धात्तारयति । तदेवं व्यवस्थिते एतनावयेत्तद्यथान्ये खल्वमी झातिसंयोगामत्तोनिन्ना एन्यश्चान्योहमस्मि । तदेवं व्यवस्थिते किमिति पुनर्वयमन्यैरन्यैातिसंयोगैमूबी कु र्मोन तेषु मूळ क्रियमाणा न्याय्यैवं संख्याय ज्ञात्वा, प्रत्याकलय्य वयमुत्पन्नवैराग्याज्ञाति संयोगांस्त्यदयामश्त्येवं कृताध्यवसायिनोविदितवेद्यानवंतीति ॥४१॥ से महावि जाणेजा बाहिरंगमेयं इणमेव ग्वणियतरागं तं जहा बामे पा यामे बादामे करूमे दरमे सीसंमे सीलम्मे आनमे बलंमे वालोमे तयामे बायामे सोयमे चरकूमे घाणंमे जिनामे फासामे ममाजंसि वयाउपडि जूर तंजदा न बला वरमा तया गया सोयाने जाव फा सा सुसंधिता संधीविसंधी नव बलितरंगेगाए नव किएहा केसा प लिया नवंति तंजदा जंपियं इमं सरीरगं नरालं आहारोवश्यं एयंपिय Page #670 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४०हितीये सूत्रकृतांगे वितीय श्रुतस्कंधे प्रथमाध्ययनं. अणुपुवेणं विप्पजहियत्वं जविस्सति एवं संखाए सेनिकू निकायरियाए स मुहिए उदन लोगं जाणेज्जा तं जीवाचेव अजीवाचेव तसाचेव थावराचेव॥४॥ अर्थ-हवे वली बीजं विशेष वैराग्यनुं कारण कहेजे. (सेमेहाविजाणेजाबाहिरंग मेयं के० ) ते पंमित एवं जाणेजे ए पागल कहेशे ते सर्व बाह्यले. ए स्वजनादिक स वं बाह्यले. एवं पूर्वे कह्यु; वली (णमेव के०) ए थकी ( उवणीयतरागंके०) यास न ढकडां एटले घणा नजीक जे ले (तंजहा के०) ते देखाडे. (हबामे के०) हाथ महारा अशोक पत्नव सरखा अनेक शत्रुना विनाश करनार, तथा स्वजन जनोना म नोरथ पूरणहार, एवा हस्त बीजाना नथी एम चिंतवना करे. (पायामे के० ) पग म । हारा काबबा सरखा उंचा, तथा पद्म जेवा सुंवालावे. एवा बीजाना नथी (बाहामे के०) तथा बाद महारा नोगल समान अनेक शत्रुना विनाश करनाराजे. एवा बी जाना नथी (करूम के०) साथल महारा केलना गर्न समान (उदरंमे के०) पेट महारं अत्यंत सुवालुं माबला समान. (सीसंमे के०) मस्तक महारुं अत्यंत सुंद रजे. (सीलम्मे के०) आचार महारो बदुज रूडोले. (आउमेके) यायुष्य महारुं सब ल एटले घj. (बलमे के०) शरीरनुं बल महारूं घणुंडे. ( वमोमेके० ) वर्णमा हारो गौर . (तयामे के० ) त्वचा महारी शीघ्र. (बायामे के०) कांती महारी सुंदर डे. ( सोयमे के०) श्रोत्र एटले कान महारा नलाने. (चरकूमे के०) चहू महारी नि मलने. (घाणंमे के०) नासिका महारी नली तीक्ष्ण ने (जिनामे के ) जिव्हा महा री रुडी. (फासामेके०) स्पर्शेशिय महारी सुंदर. (ममातिऊंति के०) एटला ए वाना महारा घणाज सारांने एवी शरीरनी ममता करे के, जेवा महारा शरीरना अवयव डे तेवा बीजाना नथी एम जाणे. (वयानपडिजूरत्ति के०) परंतु ते हस्तादिक शरीरना अवयव जे जे ते केवाले तोके, वयना परिणाम थकीज जीर्ण थायले. ते जीण थवाथी ते प्राणी पूर्वोक्त सुंदर अवयवो थकी न्रष्ट थाय (तंजहा के०) जे थकी भ्रष्ट थाय तेना नाम कहे. आयुष्य थकी, बल थकी, वर्ण थकी, त्वचा थकी, कांति थकी, श्रोत्र एटले कान थकी, यावत् स्पर्श डियादिक पांचे इंडिय थकी, थाय. (सुसंधितासंधीवि संधीनवश्के) जेरुडीरीते जानु कूपरादिकनी संधि मलीने ते विसंधि एटले विपरित संधि थाय. (वलितरंगेगाएनवंतिके०) शरीर सर्व वलियां रूप तरंग तेणे करीयाकुल थाय, शरीर एवं थाय जे,पोतानेज नग करे तो पबीबीजाने नग करे तेमां केवुजगुं? (किराहाके सापलियानवंति के ) काला केश ते सपेत थाय. (तंजहाके) ते कहे किंबहुना (जंपियंश्मंसरीरगं के०) जे ए शरीर सारु मनोहर (उरालंयाहारोवश्यं के० ) उदा Page #671 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रायधनपतसिंघ बादाडुरका जैनागम संग्रह नाग इसरा. ६४१ र रुडा हारें करी वृद्धिने पमाड्युं. ( एयंपियं के ० ) एने पण (अणुपुत्रेां के० ) नुक्रमे वने परिणामे ( विप्पज हियवंन विस्स ति के० ) बांमकुं थशे. ( एयं संस्काए के० ) एवं जाणीने ( से निस्कू के० ) ते साधु पंमित समस्त धन धान्यादिक बाह्य परिग्रह बांमीने तथा राग देषादिक अंतरंग परिग्रह बांमीने ( निरकाय रियाए समुहिए के ० ) निदाचर्याने विषे सावधान थाय. ( इहलोगंजाऐका के० ) ते साधु बे प्रकारे लोक नेजा (के) ते बे प्रकार कहेले. ( जीवाचेव के०) एक जीवते जीवास्तिकाय प्राणि मात्र जावा. बीजो ( अजीवाचेव के० ) धर्मास्तिकायादिक पांचव्य जीव जाण वा. हवे ए निक्कु चारित्रियाने दया जाणवाने यर्थे जीवना नेद कहे. ( तसाचेवथाव राचेव के०) एक त्रस ते बेइंडियादिक जाणवा. बीजा स्थावरते पृथ्वी कायादिक जाए वा ते वली सूक्ष्म बादर पर्याप्ता अपर्याप्ताना नेर्देकरी घणा प्रकारें जाणवा ॥ ४२ ॥ ॥ दीपिका - वैराग्योत्पत्तिकारणमेवाह । समेधावी जानीयात् । तद्यथा । बाह्यतरमे तत् यज्ज्ञातिसंबंधनं इदमन्यडुपनीततरमा सन्नतरं ज्ञातिच्यः शरीरावयवानामासन्नतरत्वा तू । तद्यथा । हस्तौ मनोहरौ एवं पादौ बाहू करू शीर्षमुदरमायुर्बलं वर्णस्त्वक्ा या श्रोत्रं चकुर्घा जिवा स्पर्शइति सर्वं ममाति ममीकरोति. यादृङ् मे, न तादृगन्यस्येति नावः । एतच्च हस्तपादादिकं वयसः परिणामात्. (परिजूरइत्ति) परिजीर्णतां यांति । तद्यथा । प्रायुषः सकाशादीयते बलात् वर्णात् त्वचश्वायातः श्रोत्रात् यावत्स्पर्शा दीयते । x च सनत्कुमारच क्रिदृष्टांतोवाच्यः । शरीरे हीयमाने श्रोत्रादीनींदियास्यपि हीयते । य क्तं । बाल्यं वृद्धिर्वयोमेधा, त्वक्चकुः शुक्रविक्रमाः ॥ दशकेषु निवर्तते मनः सर्वेशियालि च । तथा सुधितः सुबद्धः संधिर्जानुकूर्परादिको विसंधिर्नवति । गात्रं शरीरं वलितरंगा कुलं शिराजालवेष्टितं नवति । यतः । वलिसंततम स्थिशेषितं, शिथिलस्नायुवृतं कलेवरं ॥ स्वयमेव पुमान् जुगुप्सते किमुकांताः कमनीयविग्रहाइति । तथा कृष्णाः केशाः पलिताः श्वेताः स्युः । यदपदं शरीरमुदारं शोननं विशिष्टाहारोपचितं एतदपि मयाऽवश्यं वि प्रदातव्यं त्यक्तव्यं भविष्यति इत्यवगम्य संसारासारतां संख्याय ज्ञात्वा सनिकुर्निदाच afri समुचितः सन् द्विधा लोकं जानीयात् । तद्यथा । जीवाजीवाश्व | जीवादिवि धाः साः स्थावराश्च । एतेषामुपरि बहुधा व्यापारः प्रवर्तते ॥ ४२ ॥ ॥ टीका- सांप्रतमन्येन प्रकारेण वैराग्योत्पत्तिकारणमाह । ( समेहावीत्यादि ) सश्रु तिकएत पक्ष्यमाणं जानीयात् । तद्यथा । बाह्यतरमेतद्यज्ज्ञातिसंबंधनमिदमेवान्यपनी ततरमासन्नतरं शरीरावयवानां निन्नज्ञातिन्ययासन्नतरत्वात् । यथा हस्तौ ममाशोकप ८१ For Private Personal Use Only Page #672 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४२ वितीये सूत्रकृतांगे वितीय श्रुतस्कंधे प्रथमाध्ययन. नवसदृशौ तथा जुजौ करिकराऽकारौ परपुरंजयौ प्रणयिजनमनोरथपूरकौ शत्रुशतजीवि तांतकरौ यथा मम न तथान्यस्य कस्यापीत्येवं पादावपि पद्मगर्नसुकुमारा वित्यादि सु गमं । यावत्स्पर्शाः स्पर्शनेश्यिं ममाति ममीकरोति । याङ् मे, न ताहगन्यस्येति ना वः। एतच हस्तपादादिकं स्पर्शनेडियपर्यवसानं शरीरावयवसंबंधित्वेन विवदितं यत्किम पि वयसः परिणामात्कालकतावस्थाविशेषात् (परिजूरइत्ति ) जीर्णतां यांति प्रतिक्षणं विशरारुतां याति तस्मिंश्च प्रतिशरीरं विशीयति शरीरे प्रतिसमयमसौ प्राणी एतस्मादृश्य ते । तद्यथा । आयुषः पूर्वनिबछात्समयादिहान्याऽपचीयते आवीचीमरणान्युपगमात् । तथा बलादपचीयते तथा वयसोयौवनावस्थायाश्चवमाने शरीरे प्रतिक्षणं शिथिलीनव त्सु संधिबंधनेषु बलादवश्यं चश्यते । तथा वर्णात्त्वचश्वायातोऽपचीयते तत्र च सन त्कुमारदृष्टांतोवाच्यः तथा जीर्यति शरीरे श्रोत्रादीनांड्रियाणि सम्यक् स्वविषयं परिने तुमलं । तथाचोक्तं । बाल्यं वृवियोमेधा, त्वक्चतुःशुक्रविक्रमाः॥ दशकेषु निवर्तते म नः सर्वैश्यिाणि च ॥१॥ विशिष्टवयोहान्या सुसंधितः सुबहः संधिर्जानुकूर्परादिको विसं धिर्नवति विगलितबंधनोनवतीत्यर्थः । तथा वलितरंगाकुलं सर्वतः शिराजालवेष्टितमा त्मनोपि शरीरमिदमुगन्नवति किंपुनरन्येषां । तथाचोक्तं । वलिसंततमस्थिशेषित शिथिलस्नायुतं कलेवरं ॥ स्वयमेव पुमान जुगुप्सते, किमु कांताः कमनीय विग्रहाः॥१॥ तथा कृमाः केशावयःपरिणामे जलप्रदालिताधवलतां प्रतिपद्यते । तदेवं वयःपरिणा मापादितसन्मतिरेतनावयेत् । तद्यथा । यदपीदं शरीरमुदारं शोननावयवरूपोपेतं विशि ष्टादारोपचितमेतदपि मयावश्यं प्रतिक्षणं विशीर्यमाणमायुषः दये विप्रहातव्यं नविष्य तीत्येतदवगम्य शरीरानित्यतया संसारासारतां संख्यायावगम्य परित्यक्तसमस्तगृहप्रपंचो निष्किंचनतामुपगम्य सनिर्देहदीर्घसंयमयात्रार्थ निदाचर्यायां समुबितः सन् विधा लोकं जानीयादिति । तदेव लोक विध्यं दर्शयितुकामयाह । तद्यथा ।जीवाश्च प्राणधारणा स्तविपरिताश्चाजीवाधर्माधर्माकाशादयः। तत्र तस्य निदोर हिंसाप्रसिक्ष्ये जीवान् विना गेन दर्शयितुमाह । जीवाथप्युपयोगलदाणा विधा । तद्यथा । त्रस्यंतीति त्रसादीडि यादयः तथा तिष्टंतीति स्थावराः पथिवीकायादयः। तेपि सूक्ष्मबादरपर्याप्तकापर्याप्तकादि नेदेन बहुधाइष्टव्याः । एतेषु चोपरि बहुधा व्यापारः प्रवर्तते ॥ १२ ॥ इह खलु गारबा सारंना सपरिग्गदिया संगतिया समणा माहणावि सारंना सपरिग्गदाविजेश्मे तसा थावरा पाणा ते सयं समारनंति अ नेणावि समारंभावेति अमंपि समारनं तं समणुजाएंति ॥४३॥श्द खलु गारबा सारंना सपरिग्गहा संतेगतिया समणा माहणावि सा Page #673 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राय धनपतसिंघ बाहाडुरका जैनागम संग्रह नाग दुसरा. ६४३ रंगा सपरिग्गदा जेइमे कामजोगा सचित्तावा व्यचित्तावा ते सयं परि गिरहंति नेवि परिगिएहावेंति अन्नंपि परिगिएहंतं समपुजाणंति ॥ ४४ ॥ इह खलु गारवा सारंना सपरिग्गदा संते गतिया समा मादावि सारंगा सपरिग्गहा अहं खलु अणारंने अपरिग्गदे जे खलु गारवा सारंना सपरिग्गदा संतेगतिया समणा माहावि सारंजा स परिग्गदा एते चैव निस्साए बंनचेरंवा संवसिस्सामा कस्सणं तं दे जा पुर्व तदा वरं जढ़ा अवरं तदा पुवं अंजू एते अणुवरया अवधिया पुरवितारिसगा चैव ॥ ४८ ॥ अर्थ - हवे ए जीवोना उपमर्दक देखाडेबे. ( इहखलु के० ) या संसारने विषे नि की (गारवासारंना के० ) ग्रहस्थ जेबे ते सारंनी, तथा ( सपरिग्गहिया के० ) स परिग्रहिया जावा. ( संतेगतियासमणामाहावि के० ) तथा कोई एक श्रमण ने ब्राह्मण तेपण ( सारंनासपरिग्गहावि के ० ) सारंजी ने सपरिग्रहीले. ते सारंनी स परिग्रही केवढे ते कळे. ( जेइमेत साथावरापाणा के ० ) जे कोइ ए त्रस ने स्थावर प्राणी (तेसयंस मारनंति के० ) तेनो स्वयं पोते समारंभ करेले ( यन्नेाविसमारंभा aa ho) अन्य बीजापासें खारंभ करावेबे ( सं पिस मारनंतंसमपुजाति के० ) art को प्रारंभ करतो होय तेने अनुमोदन खापेढे. ॥४३॥ हवे ए सारंनी सपरिग्र हिने प्राणातिपात देखाडीने नोगांगनूत परिग्रह देखाडेबे. ही इहखलु इत्यादिकनो अर्थ ल खे. या जगत् मांहे निश्चे थकी ग्रहस्थ सारंजी सपरिग्रही होय खने को एक श्रमण ब्राह्मण पण सारंजी सपरिग्रहीले. (जेइमेकामनोगास चित्तावाय चित्तावाके ० ) जे ते स्त्रिया दिकना जोगने खर्थे पुष्प, चंदन, गीत, वाजित्रादिक करावे ते सचित्त खने यचित्त परिग्रह जावो. ( तेसपरिगिएहंतिके०) ते स्वयं पोते कामजोगना अर्थी थका सचित्ता चित्तरूप परिग्रह अंगीकार करे. (अन्ने विपरिग्गिएहा वेंतिके०) बीजा पासें परिग्रहावे. (अन्नं पिपरि ग्गिएहं तंसम पुजाति के०) बीजोजे परिग्रहे तेने अनुमोदन छापे ॥ ४४ ॥ एम या जगत् मां ग्रहस्थ सारंनी सपरिग्रहीले खनेकेटलाएक श्रमण ब्राह्मण पण सारंनी सपरिग्रही बे एवं जाणीने निकु चारित्रि एवं चिंतवे जे ( अहं के० ) दुं खलु इति निवें निरारं निःपरिग्रही. तो जे ए ग्रहस्थ तथा श्रमण ब्राह्मण सारंनी सपरिग्रहीले एनी न श्रायें मे ब्रह्मचर्य खादरचं एतावता निरारंभ निःपरिग्रही थका धर्माधारनूत देहने प्रतिपालवा निमित्ते खाहारादिकने अर्थे सारंनी सपरिग्रही एवा ग्रहस्थनी निश्रायें For Private Personal Use Only Page #674 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४४ वितीये सूत्रकृतांगे वितीय श्रुतस्कंधे प्रथमाध्ययनं. प्रवां पालगुं इत्यर्थः । (कस्सणं हेनं के०) वली तेनी निश्रायें विचर, ते नुं कारण गुं? एवा संदेहें शिष्ये पूछे थके तदनंतर आचार्य ते शिष्यनो अनि प्राय जाणीने तेने उत्तर आपेले. (जहापुवंतहाअवरं के०) जेम ग्रहस्थने सारं नि सपरिग्रही पणु प्रथम होय तेम पनी पण होय. (जहाअवरंतहापुत्वं के०) अने को एकश्रमण ब्राह्मण पण ग्रहस्थने नावें होय तेवारे सारंनि सपरिग्रही होय तेमज पड़ी प्रवज्यांना अवसरे पण तेवाज सारंनी सपरिग्रही थका वर्ते तो ते पण ग्रहस्थ सरखाज जाणवा केमके जेम पडी प्रवाने अवसरेने तेम प्रथम ग्रहस्थने नावे पण तेवाज ह ता. ए कारणे निरारंनि थका चारित्रियायें सारंनिनो धाश्रय ग्रहण करवो जेम ए गृह स्थ सारंनि सपरिग्रही प्रत्यद देखाय तेम देखाडे. (अंजूएतेषणुवरयाअणुनध्यिा के०) ए वात प्रगट पणेने के ए गृहस्थादिक सावद्यानुष्ठान थकी अनुपरत एटले नि वा नथी जे कारण माटे ते सारंजी, सपरियही प्रत्यक्ष पणेले. अने जे को चारित्रल हिने पढ़ी सावद्यानुष्ठानने विषे प्रव. श्राधाकर्मादिक आहार लिये तेपण (पुणरवि के० ) वली पण (तारिसगाचेवके०) तादृश तेवाज जाणवा. जेम पनी प्रवाने अव सरे वर्तेने तेम प्रथम गृहस्थने नावे पण वर्तता हता ॥४५॥ ॥ दीपिका-तमेवाह । इह संसारे खलु गृहस्थाः सारंनाः सपरिग्रहाः संति विद्यते । एके केचन श्रमणाः शाक्यादयोब्राह्मणाश्च सारंनाः सपरिग्रहाः । यतोयश्मे त्रसाः स्था वराः प्राणिनएतान् स्वयं समारनंते अन्यांश्च समारंनयंति समारंनं कुर्वतश्चान्यान् सम नुजानंति॥४३॥ एवं प्राणातिपातं प्रदर्य परिग्रहमाह । इह खलु गृहस्थाः सारंनाः सप रिग्रहाः संति श्रमणाब्राह्मणाअपि तादृशाः । यश्मे कामनोगाः कामाः स्त्रीसंगादयो नोगाः स्त्रक्चंदनगीतादयः । एते सचित्ताधचित्तावा तान् स्वयं परिगृहंति अन्यान् प रिग्राहयंति परंच परिगृएहंतं समनुजानंति॥४४॥ नपसंहारमाह । इह खलु गृहस्थाः श्रम णाब्राह्मणाश्च सारंजाः सपरिग्रहाइति ज्ञात्वा सनिदुरेवं चिंतयेत्. अहमेव खलु अनारं नोऽपरिग्रहश्च । ये चामी गृहस्थादयः सारंनाः सपरिग्रहास्तदेतन्निश्रयाब्रह्मचर्य श्राम एयं वत्स्यामधाचरिष्यामोऽनारंनाअपरिग्रहाः संतोधर्माधारदेहधारणार्थमाहारादिकते सारंजसपरिग्रहगृहस्थनिश्रयां प्रव्रज्यां करिष्यामइत्यर्थः । शिष्यः प्राह । कस्य देतोर्गह स्थस्य श्रमणादिनिश्राकरणं? आचार्यथाह । यथा पूर्वमादौ सारंनपरिग्रहत्वं तेषां तथा पश्चादपि सर्वकालमपि गृहस्थाः सारंजादिदोषउष्टाः श्रमणाश्च पूर्व गृहस्थत्वे सारंजास्त था परस्मिन्नपि प्रव्रज्याकाले तथाविधाएव ते यथा परमपरस्मिन् प्रव्रज्याकाले तथा पूर्व गृहस्थत्वेपोति । ततः साधुनिरनारंजैः सारंनाश्रयणं काये। गृहस्थासारंगत्वमाह (अंजू Page #675 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राय धनपतसिंघ बादाउरका जैनागमसंग्रह नाग उसरा. ४५ इति ) व्यक्तमिदं ये गृहस्थाः सावद्यादनुपस्थितायनुद्यताः । येपि शाक्यादयः प्रव्रजिता स्तेप्युदिष्टनोजित्वात्सावद्यानुष्ठानपरत्वात्पुनरपि तादृशाएव गृहस्थतुल्याएव ॥ ४५ ॥ ॥ टीका-सांप्रतं तपमर्दकव्यापारकर्तृन् दर्शयन्नाह । (इहखलुश्त्यादि ) हास्मि नसंसारे । खलुवाक्यालंकारे । गहमागारं तत्र तिष्ठंतीति गृहस्थास्तेच सहारनेण जीवो पमर्दकारिणा वर्तते सारंजास्तथा सहपरिग्रहेण दिपञ्चतुष्पदधनधान्यादिना वर्ततइति स परिग्रहाः । न केवलं तएवान्येपि संति विद्यते एके केचन श्रमणाः शाक्यादयस्तेच पच नपाचनाद्यनुमतेः सारंनादास्यादिपरिग्रहाच सपरिग्रहास्तथा ब्राह्मणाश्चैवंविधाएव । ए तेषां च सारंनकत्वं स्पष्टतरं सूत्रेणैव दर्शयति । यश्मे प्राग्वर्णितास्त्रसाः स्थावराश्च प्रा पिनस्तावत्स्वयमेवापरप्रेरिताएव समारनंते तउपमर्दकं व्यापारं स्वतएव कुवैतीत्यर्थः । त थान्यांश्च समारंनं कुर्वतश्चान्यान् समनुजानते ॥४३॥ तदेवंप्राणातिपातं प्रदश्य नोगांगनूतं परिग्रहं दर्शयितुमाह । यश्मे प्रत्यक्षाः कामप्रधानानोगाः कामनोगाः काम्यंतइति कामाः स्त्रीगात्रपरिष्वंगादयोनुज्यंतइति जोगाः स्त्रक्चंदनवादित्रादयस्तएते सचित्ताः सचेतनाथ चेतनावा नवेयुस्तउपादाननूतार्थास्तांश्च सचित्तानचित्तान्वाऽस्तेिकामनोगार्थिनोगृहस्था दयस्ततएव परिगृएहंति अन्येनच परियादयंतिथपरंच परिगृण्हतं समनुजानंतइति ॥४॥ सांप्रतमुपसंजिघृकुराह । इहास्मिन् जगति विद्यते गृहस्थास्तथाविधश्रमणाब्राह्मणाश्च सा रंनाः सपरियहाश्त्येवं ज्ञात्वा सनिकुरेवमवधारयेदहमेवात्र खल्वनारंनोऽपरिग्रहश्च । ये चामी गृहस्थादयः सारंनादिगुणयुक्तास्तदेतन्निश्रयास्तदाश्रयेणच ब्रह्मचर्य श्रामण्यमाचरि ष्यामोऽनारंनाअपरिग्रहाः संतोधर्माधारदेहप्रतिपालनार्थमाहारादिकृते सारंनपरिग्रहस्थ निश्रयां प्रव्रज्यां करिष्यामश्त्यर्थः । ननु च यदि तन्निश्रयापुनरपि विहर्तव्यं किमर्थ ? ते त्यज्यंतति जाताशंकः टहति। कस्य हेतोः केन कारणेन तदेतगृहस्थश्रमणब्राह्मणत्यज नमनिहितमित्याचार्योंपि विदितानिप्रायनत्तरं ददाति । यथा पूर्वमादौ सारंनपरिग्रहत्वं तेषां तथा पश्चादपि सर्वकालमपि गृहस्थाः सारंनादिदोषउष्टाः श्रमणाश्च केचन यथापू 4 गृहस्थानावे सारंनाः सपरिगृहास्तथा परस्मिन्नपि प्रव्रज्याकाले तथाविधाएव तइति । अधुनोनयपदाव्यनिचारित्वप्रतिपादनार्थमाह । यथा परमपरस्मिन् प्रव्रज्याप्रतिपत्तिका ले तथा पूर्वमपि गृहस्थनावादावपीति । यदि वा कस्य हेतोस्तगृहस्थाद्याश्रयणं क्रियते यतिनेत्याह । यथा पूर्व प्रव्रज्यारंनकाले सर्वमेव निक्षादिकं गृहस्थायत्तं तथा पश्चादप्य तः कथंनु नामानवद्यावृत्तिनविष्यतीत्यतः साधुनिरनारनैः सारंनाश्रयणं विधेयं । तथा चैते गृहस्थादयः सारंनाः सपरिग्रहाश्च । तथा प्रत्यकेणैवोपलच्यंतइति दर्शयितुमाह। (अं जूत्ति ) व्यक्तमेतदेते गृहस्थादयोयदि वांजूति प्रगुणेन न्यायेन स्वरसप्रव्रज्यासावद्यानु Page #676 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४६ वितीये सूत्रकृतांगे वितीय श्रुतस्कंधे प्रथमाध्ययनं. ष्ठानेन्योऽनुपरताः परिग्रहारंनाच सत्संयमानुष्ठानेन चानुपस्थिताः सम्यगुबानमकतवंतो पि कथंचि धर्मकरणायोलितास्तेप्युदिष्टनोजित्वात्सावद्याऽनुष्ठानपरत्वाच्च गृहस्थानावेऽनु ष्ठानमनतिवर्तमानाः पुनरपि तादृशाएव गृहस्थकल्पाएवेति ॥ ४५ ॥ जे खलु गारबा सारंना सपरिग्गदा संतेगतिया समणा मादणावि सारं ना सपरिग्गदा उहतो पावाई कुवंति इति संस्काए दोदिंवि अंतेहिं अदिस्समाणो इति निस्कू रीएका॥ ४६॥ सेबेमि पाईणंवा जाव एवं से परिमायकम्मे एवं से ववेयकम्मे एवं सेविअंतकारए नवतीति मकाय॥४७॥ अर्थ-(जेखलुगारवासारंनासपरिग्गहा के ) जे निश्चे थकी ग्रहस्थ सारंनी सपरि ग्रही (संतेगतियासमणामाहणाविसारंजासपरिग्गहा के०) अने कोई एक श्रमण ब्राह्मण पण सारंजी थने सपरिग्रहीने ( उहतोपावाईकुवंति के ) ए कारणे ए बन्ने पापना करनारा जाणवा (इतिसंस्काए के) एवं जाणीने (दोहिंविधतेहिं के०) थारं न अने परिग्रह ए बेन थकी अंत एटले दूर रहे (अदिस्समाणो के०) घारंज घने परिग्रह थकी अदृश्य मान बतो (इतिनिस्कूरीएका के०) एम चारित्रवान् साधु निर वद्य आहारनुं नोजन करनार थको संयमानुष्ठानने विषे प्रवते ॥४६॥ (सेबेमिके०)वली ते ज अर्थ विशेषे करी कटुंबं (पाईगंवा के०) पूर्व पश्चिम उत्तर अने दहण दिशि थकी याव्यो एवो साधु निरारंनी निःपरिग्रही संयमने विषे प्रवर्त्तमान थको (जावएवंसेप रिलायकंमे के०) ज्यां सुधी एम ते साधु झपरिझायें जाणीने प्रत्याख्यान परिज्ञायें पञ्च रकीने ( एवंसेववेयकम्मे के०) एम ते कर्मना अंतनो करनार थाय ( एवंसेविसंतकार एनवतीतिमस्कायं के ) ए प्रकारे ते योगनिरोधे करी विशेष अंतकारी थाय एम श्री ती र्थकर गणधरें कयुंजे ॥ ४ ॥ ॥ दीपिका-नपसंहारमाह । (जेखलुत्ति) येश्मे गृहस्थादयस्ते विधापि राग पान्यामुनान्यां पापानि कुर्वति इति संख्याय झात्वा योरप्यंतयोरागवेषयोरनुपलन्यमा नः सन् इत्येवंनूतोनिकुः संयमे रीयेत प्रवर्तेत । कोर्थः । यश्मे ज्ञातिसंयोगायश्चार्य धनादिपरिग्रहः यच्चेदं हस्ताद्यवयवयुक्तं शरीरं यच्चायुर्बलवर्णादिकं तत्सर्वमसारमनित्यं । गृ हस्थश्रमणब्राह्मणाश्च सारंनपरिग्रहाः एतत्सर्वं ज्ञात्वा निकुः संयमे रीयेत तिष्ठेदितिस्थि तं ॥४६॥(सेबेमि) सोहं ब्रवीमि प्राच्या दिशोन्यतरस्याः समागतः सनिकुयोरपि राग षयोरदृश्यमानः संयमे रीयमाणः सन् एवं पूर्वोक्तप्रकारेण परिझातकर्मा स्यात् झपरिक्ष या परिज्ञाय प्रत्याख्यानपरिझया प्रत्याख्यातकर्मा स्यादित्यर्थः । एवं सयोगनिरोधेन व्यं तकारकः विशेषेणकर्मणामंतकारकः स्यादिति तीर्थरुजणधरादिनिराख्यातं ॥ १७ ॥ Page #677 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रायधनपतसिंघ बादाउरका जैनागम संग्रह नाग उसरा. ६४७ ॥टीका-सांप्रतमुपसंहरति । (जेखलुइत्यादि) यश्मे गृहस्थादयस्ते विधापि सारंजसपरि ग्रहत्वान्यामुनाच्यामपि पापान्युपाददते । यदिवा रागषाच्यामुनाच्यामपि पापान्युपाददते यदिवा गृहस्थप्रव्रज्यापर्यायाच्यामुनान्यां पापानि कुर्वतश्त्येवं संख्याय परिझाय योरप्येत योरारंपरिग्रहयोरागषयोर्वा दृश्यमानोनुपलन्यमानोयदिवा रागषयोर्यावत्तावन्नावौ तयोरादिश्यमाने रागदेषानाववृत्तित्वेनापदिश्यमानः सन्नित्येवंतोनिदणशीलोऽनवद्या हारनोजी सत्संयमानुष्ठाने रीयेत प्रवर्तेत । एतमुक्तं नवति । ये इमे जातिसंयोगायश्चार्य ध नधान्यादिकः परिग्रहोयच्चेदं हस्तपादाद्यवयवयुक्तं शरीरं यच्च सदायुर्बलवर्णादिकं तत्सर्वम शाश्वतमनित्यं स्वप्नेजालसदृशमसारं । गृहस्थश्रमणब्राह्मणाश्च सारंनाः सपरिग्रहाश्चै तत्सर्व परिज्ञाय सत्संयमानुष्ठाने निकुरीयेतेति स्थितं ॥४६॥ सपुनरप्यहमधिकतमेवार्थ विशेषिततरं सोपपत्तिकं ब्रवीमीति । तत्र प्रझापकापेक्ष्या प्राच्यादिकायादिशोन्यतरस्याः स मायातः सनिकुयोरप्यंतयोरदृश्यमानतया सत्संयमे रीयमाणः सन् एवमनंतरोक्तेन प्रका रेण परिझया परिज्ञाय प्रत्याख्यानपरिझया परिझातकर्मा नवति । पुनरप्येवमिति परि ज्ञातकर्मवाक्ष्यपेतकर्मा नवति अपूर्वस्याबंधकोनवतीत्यर्थः । पुनरेवमित्यबंधकयोगनिरो धोपायतः पूर्वोपचितस्य कर्मणो विशेषणांतकारकोनवतीत्येतञ्च तीर्थकरगणधरादिनि झात यैारख्यातमिति ॥ १७ ॥ तब खलु नगवंता बनीवनिकायहे पामत्ता तंजहा पुढवीकाए जाव त सकाए से जहा णामए मम अस्सायं दंमेणवा अहीणवा मुखीणवा लेलू पवा कवालेणवा आनटिजमाणस्सवा दम्ममाणस्सवा तङिङमाणस्स वा ताडिऊमाणस्सवा परियाविऊमाणस्सवा किलाविङमाणस्सवा नद्द विजमाणस्सवा जावलोमुकणणमायमवि हिंसाकारगं उरकं नयंपडिसं वेदेंमिश्चेवं जाण सवे जीवा सवेनूता सत्वेपाणा सत्वेसत्ता दंमेणवा जाव कवालेणवा आनट्टिजमाणावा दम्ममाणावा तजिऊमाणावा ताडिज माणावा परियाविङमाणावा किलाविजमाणावा नदविङमाणावा जाव लोमुकणणमायमवि हिंसाकारगं ऽकं नयं पडिसंवेदेति एवं नचा स वेपाणा जाव सत्ता गतबा अजावेयवा परिघेतवा परितावेयवा पनवेयवा॥४॥ सेबेमि जेयअतिता जेयपडुप्पन्ना जेयागमिस्सा मि अरिहंता नगवंता सत्वे ते एवमाश्कंति एवंनासंति एवंपरसवेंति एवं Page #678 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४७ वितीये सूत्रकृतांगे वितीय श्रुतस्कंधे प्रथमाध्ययनं. परूति सवेपाणा जावसत्ता गदंतवा अजावेयत्वा परिघेतवा ण परितावेयवा पनवेयवा एसधम्मे धुवे गीतिए सासए समिचं लोगं खे यन्नेहिं पवेदेति एवंसे निकू विरते पाणातिवायतो जाव विरते परिग्गदा तो पोदंतपरकालणेणं दंतपरकालेजा पोअंजणं पोवमणं पोधूवणे पोतं परिआविएका ॥४॥ अर्थ-(तब के० ) त्यां कर्मबंधने प्रस्तावे खलु इति वाक्यालंकारे (नगवंता के०) जगवंत श्रीतीर्थकरदेवे (ब जीवनिकायहेनं के० ) बजीवनिकाय कर्मबंधना का रण (परमत्ता के० ) कह्या (तंजहा के०) ते ब कायना नाम कहेजे ( पुढवीकाएजा वतसकाए के ) पृथ्वी कायथी मामीने यावत् त्रसकाय पर्यंत ब जीव निकाय जाण वा तेने पीडतां पीडावता जेम फुःख उपजे तेम दृष्टांते करी देखाडे (सेजहाणामए के) ते जेम नाम एवी संनावनायें (मम के० ) मुजने (अस्सायं के० ) असाता न पजे शा थकी असाता नपजे ते कहे (दंमेणवा के० ) दंमादिकेंकरी हणता थका (अहीणवा के० ) अस्थिरखंभे करी हाडकायें करी (मुहीणवा के०) मुष्टी करी (लेनू पवा के०) पाषाणे करी (कवालेणवा के) होकरी करी (आनहिङमाणस्सवा के० ) याक्रोश करताथका तथा सन्मुख नाखता थका (हम्ममाणस्सवा के०) अथवा हणता थका (तजिऊमाणस्सवा के०) तङना करता थका (ताडिऊमाणस्सवा के) ताडना करता थका (परियाविङमाणस्सवा के०) परितापना करता थका (किलाविङमाणस्सवा के) किलामणाकरतायका (नदविङमाणस्सवा के०) न देग करता थका तथा जीवने काया थकी रहित करताथका (जावलोमुस्कणण मायमवि के०) यावत् शरीर मांहेथी एक रोम उखेडवा मात्र एवं पण (हिंसा कारगं के०) हिंसानु कारण तेथी पण (उरकंनयंपडिसंवेदेंमि के०) फुःख अने जय वेडं अनुन, (इञ्चेवंजाण के) ए प्रकारे तेजा के ( सवेजीवा के०) सर्व जीवते सर्व पंचेंडियजीव जाणवा (सोनूता के० ) सर्व नूतते सर्व वनस्प ति प्रमुखना जीव जाणवा ( सवेपाणा के० ) सर्व प्राणी ते सर्व बे इंडियादिक विक लेंदि जीव जाणवा (सवेसत्ता के०) सर्वसत्व ते दृथिव्यादिक सर्वजीव जाणवा ते जीवोने (दमेकरी हणता थका (जावकवालेणवा के० ) यावत् ठीकरी करी हणता थका (आनटिङमाणावा के० ) आक्रोश करता थका ( हममाणावा के०) हणता श्रका (तङिङमाणावा के० ) तर्जना करता थका (ताडिङमाणावा के०) ताडना करता थका (परियाविङमाणावा के० ) परितापना करता थका ( किलाविङमाणावा Page #679 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राय धनपतसिंघ बाहाउरका जैनागम संग्रह नाग उसरा. धए के० ) किलामणा करता थका, (नद्दविङमाणावा के०) नग करता थका, तथा जीव ने काया थकी रहित करता थका, (जावलोमुरकणणमायमवि के० ) यावत् एक रो म उखेडवा मात्र एवं पण (हिंसाकारगं के ) हिंसानु कारण ते थकी पण, (उरकं नयंपडिसंवेदेति के ) ते जीवो कुःख अने जय एवंज वेदे अनुनवे एटले जेतुं कुःख मने वेद, पडे, तेवू सुःख सर्व जीवने वेद पडे. एम सर्व जीवोने पोता सर छुःख देखाडीने अन्य जीवोने शिक्षानो उपदेश आपेले. (एवंनचा के० ) एवं जाणीने (स वेपाणाजावसत्ता के०) सर्व प्राणी, सर्वनूत, सर्वजीव अने सर्व सत्वने (गतवा के) हवा नही, (अजावेयवाके) दंमादिकें करी ताडवा नही, (परिघेतवाके)बला कारें करी दासनी पेठे परिग्रहवा नही, एटले बलात्कारे करी चाकरनी पेठे कोई कार्यने विषे प्रेरवा नही. ( णपरितावेयवा के०) शारीरिक मानसी पीडाने उपजावीने परितापवा नही. (किलविद्यमाणवा नदवेयवा के०) किलामणा करी करी नपश्ववा नही, तथा काया थकी रहित करवा नहीं॥४॥हवे सुधमें स्वामी कहेले. (सेबेमिके०) ए वचन जे ढुं कहूँ बुं, ते पोतानी मतिये नथी कहेतो पण एम सर्व तीर्थकरनी थाझाले, ते देखाडेने; (जे यवतीता के० ) जे अतीत कालें तीर्थकर थया, (जेयपडुप्पन्ना के०) जे वर्तमान का लें तीर्थकर वर्तडे, (जेयथागमिस्सामि के०) जे आगमिक कालें थशे ते (अरिहंत के० ) पूजा सत्कार योग्य (जगवंता के०) ज्ञानवंतवाश्चर्यादिक गुणे करी संयुक्त एवा (सक्वेते के० ) समस्त श्री अरिहंत जगवंत ते (एवमाश्रकति के० ) एम सामान्य थकी कहेडे (एवंनासंति के०) एम अईमागधीनाषायें नांखेने (एवंपरमति के०) एम शिष्यने देशना आपेठे ( एवंपरूवेंति के०) एम सम्यक् प्रकारे प्ररूपे में के, (सवेपाणा जावसत्ता के०) सर्वे प्राणीथी मामीने यावत् सर्व सत्व ने (णहंतवा के०) हणवा नही, दमादिकें करी ताडवा नही, वली बलात्कारें दासनी पेहें परिग्रहवा नही, शारीरिक मानसी पीडा उत्पन्न करीने, परितापवा नही उपववा नही, जीव काया थकी रहित करवा नही, (एसधम्मेधुवे के० ) ए धर्म प्राणीनी दया लदाण उर्गतियें जाता जीवने राखनार ते धर्म केवोडे तोके, ध्रुव एटले निश्चल (गीतिए के०) नित्य सदा सर्वका ल, को काले जेनो क्य नथी (सासएके०) शाश्वत, तेने (समिचंके० ) केवल ज्ञाने करी पालोचीने झुं बालोचीने ? तो के, (लोगं के० ) चौद रज्वात्मक लोक एटले षट् जीव निकायरूप लोक तेने छुःखरूप समुश्माहे पड्यो देखीने (रकेयन्नहिं के०) खेद इ एटले बीजा जीवोनां दुःखोना जाणनार, एवा श्रीतीर्थकर नगवंते (पवेदेति के०) पू वोक्त जीवदयालक्षण धर्म जाख्यो. (एवं के०) ए प्रकारे जाणीने (सेनिरकविरते के०) ते साधु निवा ( पाणातिवायतो के०) प्राणातिपात एटले हिंसा थकी, तेमज मृषा Page #680 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६५० वितीये सूत्रकृतांगे वितीय श्रुतस्कंधे प्रथमाध्ययनं. वाद थकी, तथा अदत्तादान थकी, तथा मैथुन एटले कुशील थकी, (जावविरतेपरिग्ग हातो के० ) यावत् परिग्रह थकी, विरति करतो थको जेवा अाचारें प्रवः, ते पाचार कहे. (गोदंतपरकालगणं दंतपरकालेजा के०) दंत पदालने करी दंत धोवे नही, एतावता जावजीव सुधी दातण न करे. ( णोअंजणं के०) जावजीव सुधी सौनाग्यने अर्थे अखिमां अंजन नाखे नही. (गोवमणं के०) वमन विरेचनादिक क्रिया न करे, (णोधूवणे के०) शरीर वस्त्रादिकनुं धूपन न करे (णोतंपरियाविएडा के०) कासादि रो गने मटाडवा माटे धूमपान पण न करे, ते निहु एटला वाना पोते आचरे नही.॥४॥ ॥ दीपिका-प्राणातिपातेन कर्मबंधप्रस्तावे खलु जगवता षड्जीवनिकायाहेतुत्वेनो ताः। तद्यथा। टथिवीकायोयावत्रसकायः। एतेषां कुःखं दृष्टांतेनाह । तद्यथा नाम ममासातं दुःखं दंडेन अस्थ्ना मुष्टिना लेलुना लोष्टेन कर्परेण आकोटयमानस्य संको च्यमानस्य हन्यमानस्य कशादिनिस्ताड्यमानस्य कुडयादावनिघातादिना परिताप्यमान स्याग्न्यादावन्येन प्रकारेण परिक्रम्यमाणस्यापड़ाव्यमानस्य मार्यमाणस्य यावन्नोमोत्वन नमात्रमपि हिंसाकरं फुःखं नयं च यन्मयि क्रियते तत्सर्वमहं संवेदयामि इत्येवं जानी हि । तथा सर्वे प्राणाजीवानूतानि सत्वाश्त्येकार्थकाः कथंचिन्नेदेन वा व्याख्येयाः। तथाहि । प्राणावित्रिचतुःखास्यु,जूतानि तरवः स्मृताः ॥ जीवाः पंचेंशियाः प्रोक्ताः शेषाः सत्वाइतीरिताइति । एषां दंडादिना कोटयमानानां यावन्नोमोत्खननमात्रमपिःखं प्रतिसंवेदयतां । एतच्च हिंसाकरं कुःखं नयं चोत्पन्नं ते सर्वे पि प्राणिनः सादादनुनवं त्यतः सर्वेपि प्राणिनोन हंतव्यान बाझापयितव्याबलान्न कार्ये प्रयोक्तव्यान परियाह्या न परितापयितव्यानापावयितव्याः॥४॥सोहं साधुब्रवीमि न स्वमत्या किंतु तीर्थकदाज्ञ येत्याह । येअतीतायें च प्रत्युत्पन्नावर्तमानाः सीमंधरादयोये चागमिष्याअनागताः पद्मनानादयोऽर्हतोजगवंतः सर्वेप्येवमाख्याति एवं जाते स्वत एवं प्रज्ञापयंति हेतु निरेवं प्ररूपयंति नामादिनिर्यथा सर्वेप्राणान हंतव्याश्त्यादि । एषधर्मो ध्रुवोनित्यः शाश्वतः समे त्य ज्ञात्वा, लोकं खेदज्ञैस्तीर्थकरैः प्रवेदितः। एवं ज्ञात्वा सनिर्विरतः प्राणातिपाताया वत्परिग्रहान्महाव्रतपालनार्थमुत्तरगुणाः कथ्यते । (नोदंतश्त्यादिना) निष्किंचनः सन् साधु दंतप्रदालनेन काष्ठेन दंतान प्रक्षालयेत् नोअंजनं नेत्रयोर्विजूषार्थ कुर्यात्, वमनं विरेचनादि न कुर्यात्, वस्त्राणां धूपनं न कुर्यात् कासाद्यपनोदनाथ धूमं न पिबेत् ॥४॥ ॥ टीका-कथं पुनः प्राणातिपातविरतिव्रतादिव्यवस्थितस्य कर्मापगमोनवतीत्युक्तं यतस्तत्प्रवृत्तस्यात्मौपम्येनप्राणिनां पीडोत्पद्यते तया च कर्मबंधश्त्येवं सर्व मनस्याधा Page #681 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रायधनपतसिंघ बादाउरका जैनागम संग्रह नाग उसरा. ६५१ याह । (तखलुश्त्यादि ) तत्रेति कर्मबंधप्रस्तावे । खलुवाक्यालंकारे । नगवतोत्पन्न झानेन तीर्थकता षड्जीवनिकायाहेतुत्वेनोपन्यस्ताः। तद्यथा । पृथिवीकायोयावसका योपीति । तेषांच पीड्यमानानां यथा सुःखमुत्पद्यते तथा स्वसंवित्तिसिदेन दृष्टांतेन द शयितुमाह । तद्यथाच मे ममासातं कुःखं वदयमाणैः प्रकारैरुत्पद्यते तथान्येषामपीति तद्यथा। दंडेनास्थ्ना मुष्टिना लेलुनालोष्ठेन कपालेन कर्परेण बाकोटयमानस्य संकोच्यमा नस्य हन्यमानस्य कशादिनिस्तज॑मानस्यांगुल्यादिनिस्ताड्यमानस्य कुड्यदावनिघातादिना परितप्यमानस्याग्यादावन्येन प्रकारेण वा परिक्लाम्यमानस्य तथापाव्यमाणस्य मार्यमा गस्य यावलोमोत्खननमात्रमपि हिंसाकरं दुःखं नयं च यन्मयि क्रियते तत्सर्वमहं संवेद यामीत्येवं जानीहि । यथा सर्वे प्राणाजीवाभूतानि सत्वाइत्येते एकाथिकाः कथंचिभेद माश्रित्य व्याख्येयास्तत्रैतेषां दंडादिना 'कुटयमानानां यावलोमोत्खननमात्रमपि सुःखं प्रतिसंवेदयतामेतच्च हिंसाकरं दुःखं नयं चोत्पन्नं ते सर्वे प्राणिनः प्रतिसंवेदयंति सा झादनुलवंतीत्येवमात्मोपमया पीड्यमानानां जंतूनां यतोःखमुत्पद्यतेऽतः सर्वे प्राणि नोन हंतव्यान व्यापादयितव्याबलात्कारेण व्यापारे न प्रयोक्तव्यास्तथा न परियाह्यान परितापयितव्यानापशवयितव्याः ॥ ४७ ॥ सोहं ब्रवीम्येतन स्वमनीषिकतया किंतु सर्व तीर्थकराइयेति दर्शयति (येअतीएइत्यादि) ये केचन तीर्थकतझपनादयोऽतीतायेच विदेहेषु वर्तमानाः सीमंधरादयोये चागामिन्यामुत्सर्पिस्यां नविष्यंति ब्रह्मनानादयोऽर्ह तोऽमरासुरनरेश्वराणां पूजार्दानगवंतऐश्वर्यादिगुणकलापोपेताः सर्वेप्येवं ते व्यक्तवाचा आख्याति प्रतिपादयंति । एवं सदेवमनुजायां पर्ष दि नापते स्वतएव न यथा बौदानां बोधिसत्वप्रनावात् कुड्यादिदेशनतइत्येवं प्रकर्षण झापयंति हेतूदाहारणादिनिः । एवं प्ररूपयंति नामादि निर्यथा सर्वे प्राणान हंतव्याइत्यादि । एषधर्मः प्राणिरक्षणलक्षण प्राग्व्यावर्णितस्वरूपोध्रुवोऽवश्यंनावी नित्यः दात्यादिरूपेण शाश्वतश्त्येवं चानिसमेत्य केवलज्ञानेनावलोक्य, लोकं चतुर्दशरज्ज्वात्मकं खेदझैस्तीर्थकनिः प्रवेदितः कथितइत्ये वं सर्व ज्ञात्वा, सनिकुर्विदितवेद्योविरतः प्राणातिपाताद्यावत्परिग्रहादिति । एतदेव दर्शयितुमाह । (गोदंतश्त्यादि ) इह पूर्वोक्तमहाव्रतपालनार्थमनेनोत्तरगुणाः प्रतिपा यंते । तत्रापरिग्रहोनिष्किंचनः ससाधुनों दंतप्रदालनेन कदंबादिकाष्ठेन दंतान प्रहाल येत्तथा नो अंजनं सौवीरादिकं विजूषार्थमदपोर्दद्यात्तथा नो वमनविरेचनादिकाः कि याः कुर्यात्तथा नो शरीरस्य स्वीयवस्त्राणां वा धूपनं कुर्यान्नापि कासाद्यपनयनार्थ तं धू मं योगवर्तिनिष्पादितमापिबेदिति ॥ ४ ॥ सेनिकू अकिरिए अलसए अकोदे अमाणे अमाए अलोदे ग्वसं ते परिनिबुडे पोआसंसं पुरतोकुजा इमेणमे दिवणवा सुएणवा मुएण Page #682 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६५२ द्वितीये सूत्रकृतांगे द्वितीय श्रुतस्कंधे प्रथमाध्ययनं. वा पाएवा विन्नावा इमेणवा सुचरिय तवनियमबंनचेरवासेण इमेवा जायामायावुत्तिएां धम्मेणं इनवर पेच्चा देवेसिया कामभोगा वसवत्ति सिवा कमसुने एव विसिया एव विलोसिया ॥ ५० ॥ अर्थ - ( से निस्कू के ० ) ते चारित्रियो ( किरिए के०) सावद्य क्रिया रहित, (अलूसए के० ) जीवनो हिंसक, ( कोहे के० ) क्रोधरहित ( प्रमाणे के० ) मानरहित ( मए के ० ) मायारहित ( लोहे के० ) जोनरहित ( वसंतेपरिनिबुडे के० ) एकारणे उपशांत परिनिवृत समाधिवंत एवो बतो, (गोयासंसंपुरतोकुका के० ) श्रा शंसा न करे एटले जन्मांतरे कामजोगनी प्रार्थना न करें: ( इमेण मे दिवा के० ) वली या जन्मने विषे ग्रामोसही इत्यादिक लब्धि पाम्या तेथी तपश्यानुं फल प्रत्यक्ष दी. तथा वली (सुवा के० ) सिद्धांत जणवा थकी (मुएलवा के० ) मनन कर वाना ( पाएवा के० ) ज्ञानेकरी (विन्नाएणवा के० ) विज्ञानेकरी, ( इमेलवा के ० ) एवा धर्मे (सुचरिय के० ) सुकृतरूप याचरण ( तव के० ) तप अनशनादिक (नि यम के० ) नियम निग्रहादिक ( बंनचेर के० ) ब्रह्मचर्यने विषे ( वासेल के०) वसवा की (इमेवा के० ) ए धर्मेकरी ( जायामायावुत्तिएलं के० ) संयमयात्रामात्रा वृत्तिरूप एटले मानोपेत आहार लेवे करी ( धम्मेइन एपेच्चादेवेसिया के० ) एवा धर्मे हयां थकी चवीने परजवांतरें देवत्व पणु पामुं एवी प्राशंसा पण न करे (कामनोगावसवत्ति के० ) अथवा नाना प्रकारना कामजोग महारे वशवर्ति था ral प्रार्थना पण नकरे ( सिद्धि के० ) अष्ट प्रकारनी यणिमा महिमादिकजे सिद्धि सिद्धियें करी सिद्धियें सहित थानं, एवी प्राशंसा नकरे ( डस्कमसुने के० ) दुःख रहित यानं, गुनाशुन कर्मरहित थानं, तथा मध्यस्थ थानं, एवी प्राशंसा पण न करे. एवी प्रशंसाने न करवानुं कारण कहेबे (एब विसियाएब विलोसिया के ० ) तपश्चरण करतां मनः प्रार्थितसिद्धि होय अथवा न होय ए कारणे वांबा न करे ॥ ५० ॥ ॥ दीपिका - मूलोत्तरगुण संग्रहमाह । सनिक्कुः नविद्यते सावया क्रिया यस्य सोऽक्रियः सांप किकर्माबंधक इत्यर्थः । यतः प्राणिनामलूषकोऽहिंसकस्तथाऽक्रोधोऽमायोऽलोनन पशांतः परिनिर्वृतः शीतीभूतखाशंसां जन्मांतरे कामनोगावाप्तिवांढां न पुरस्कुर्यात् । (इमेत्ति) यमुना तपश्वरण फलेन दृष्टेनामर्षोषध्यादिना श्रुतेन पारलौकिकेनाईकधम्मि ब्रह्मदत्तादीनां तपश्चरणफलेन (मएपत्ति ) मननं च जातिस्मरणादिज्ञानेन प्राचार्या देः सकाशादिज्ञातेनावगतेन ममापि विशिष्टं फलं भविष्यतीत्येवं नाशंसां विदध्यात् । त For Private Personal Use Only Page #683 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राय धनपतसिंघ बादाडुरका जैनागम संग्रह नाग इसरा. ६५ ३ थामुना सुचरितेन तपो नियमब्रह्मचर्यवासेन तथाऽमुना यात्रामात्रावृत्तिना धर्मेण इतोऽ स्मानवात् च्युतस्य प्रेत्य, जन्मांतरे देवः स्यामहं तत्रस्थस्यच कामनोगावशवर्तिनः स्युः । सिद्धोवाऽडुःखः प्रद्युनः शुभाशुभकर्मापेक्ष्या एवंभूतोहं स्यामिति एवमाशंसां न विद ध्यात् । अत्रापि तपश्चरणे सत्यपि दुर्ध्यानसद्भावात्कदा चित्सिद्धिर्मुक्तिरणिमादिसिद्धिर्वा स्यात्कदाचिच्च न स्यात् एवं सति साधोराशंसां कर्तुं न युक्तेति इहलोकार्थं परलोकार्थं कीर्तिवर्ण श्लोकाद्यर्थं च तपोन विधेयमिति स्थितं ॥ ५० ॥ ॥ टीका- सांप्रतं मूलगुणोत्तरगुणप्रस्तावमुपसंजिघृकुराह । ( सेनिस्कू इत्यादि) समू लोत्तरगुणव्यवस्थितो निकुर्नास्य क्रिया सावद्या विद्यतेइत्यक्रियः संवृतात्मकतया सांपरा किकमबंधक इत्यर्थः । कुतएवंभूतोयतः प्राणिनामलूप कोऽहिंसकोऽनुपमर्दकइत्यर्थः । तथा न विद्यते क्रोधोयस्येत्य क्रोध एवम मानोऽमाय्यलोनः कषायोपशमाज्ञ्चोपशांतः शीतीनू तस्तडुपशमाच्च परिनिर्वृतश्व परिनिर्वृतः । एवं तावदैहिकेच्यः कामनोगेज्योविरतः पार लौकिकेोपि विरतइति दर्शयति । ( नोयासंसंइत्यादि) नो नैवाशंसां पुरस्कृत्य ममाने न विशिष्टतपसा जन्मांतरे कामनोगावाप्तिर्भविष्यतीति । एवंभूतामाशंसां न पुरस्कुर्यादि त्येतदेव दर्शयितुमाह । (इमेण मेइत्यादि ) व्यस्मिन्नेव जन्मन्यमुना विशिष्टतपश्चरणफ लेन दृष्टेनामध्यादिना पारलौकिकेन च श्रुतेनाईकधम्मिल्न ब्रह्मदत्तादीनां तथा ( मु एवत्ति ) मननंज्ञानं जातिस्मरणादिना ज्ञानेन तथाऽचार्यादेः सकाशाद्विज्ञानेनावगतेन ममापि विशिष्टं भविष्यतीत्येवं नाशंसां विदध्यात् । तथाऽमुना सुचरित्रतपोनियमब्रह्म चर्यवासेन तथाऽमुना वा यात्रावृत्तिना धर्मेणानुष्ठितेनातोरमानवाच्युतस्य प्रेत्य जन्मां तरे स्वामहं देवस्तत्रस्थस्यच मे वशवर्तिनः कामनोगानवेयुरशेषकर्माऽविद्युतोवा सिद्धोऽ डुःखोच्णुनानकर्मप्रकृत्यपेक्षयेत्येवं नूतोहं स्यामागामिकालइत्येवमाशंसां न विदध्या दिति । यदिवा विशिष्टतपश्चरणादिनाऽऽगामिनि काले ममाणिमा लघिमेत्यादिकाऽष्ट प्रकारा सिद्धिर्भविष्यतीत्यनया च सिड्या सिद्धोहमडुःखोऽशुनोवाम ध्यस्थइत्येवंरूपामा शंसां न कुर्यात् । तदकरणे च कारणमाह । ( एव विइत्यादि ) त्रापि विशिष्टतपश्चरणे सत्यपि कुतश्चिन्निमित्तादुष्प्रणिधानसभावे सति कदाचित्सिद्धिः स्यात्कदाचिच्च नैवाशेषकर्म लक्षणा सिद्धिः स्यात् । तथाचोक्तं । जे जत्तियानहेक नविस्स ते चे व तत्तिया मो रकेइत्यादि । यदिवाऽत्राप्यणिमाद्यष्टगुणकारणे तपश्चरणादौ सिद्धिः स्यात्कदाचिच्च न स्यात् तद्विपर्ययपि वा स्यादित्येवं व्यवस्थिते प्रेक्षापूर्वकारिणां कथमाशंसा कर्तुं युज्यते इति । सिद्धिश्वाष्टप्रकारेयं । अणिमा १ गरिमा २ लघिमा ३ महिमा ४ प्राप्तिः ५ प्रा काम्यं ६ ईशित्वं ७ वशित्वं यत्र कामावसायित्वमिति । तदेवमै हिकार्य मामुष्मिकार्थ कीर्तिवर्णश्लोकाद्यर्थं च तपोन विधेयमिति स्थितं ॥ ५० ॥ 1 For Private Personal Use Only Page #684 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६५४ द्वितीये सूत्रकृतांगे द्वितीय श्रुतस्कंधे प्रथमाध्ययनं. र सेनिकू सद्देदि प्रमुच्चिए रूवेहिं प्रमुच्चिए र सेदिं ए फासेदिम विरए कोदान मापानु माया + कलहान अप्नकाणान पेसुन्नार्नु परपरिवाया d) मिचादंसण सल्ला इति सेमहतो प्रयाणान नवसंते नवधिए पडिवि रते सेनि ॥ ५१ ॥ जेइमे तसथावरा पापा जवंति ते णो सयं समारंभइ गोवणेहि समारंभावेंति अन्नं समारनंतं नसमणुजाणंति इति सेमतो आयाणा वसंते वहिए पडिविरते सेनिक ॥ ५१ ॥ जेश्मे कामजोगा सचित्तावा चित्तावा ते पो सयं परिगिएहंति सोच्यन्त्रेणं परिगिएहावेंति अन्नं परिगिएहंतंपि समपुजाइ इति सेमहतो प्रायाणाने नवसंते पिडिविरतो सेनिकू ॥ ५३ ॥ अर्थ - ( सेनिकू के ० ) ते साधु (सदेखि मुछिए के० ) शब्दने विषे मूर्च्छित (रू मु० ) रूपने विषे मूति (रसेहिं मुविए के०) रस मधुरादिकने विषे मूति (गंधे के ० ) सुरनिगंधादिकने विषे मूर्धित ( फासे मुिछिएके ० ) स्पर्शने विषे मूर्धित (विरए के ० ) निवर्त्यो, शा थकी निवर्यो ? ते कहेबे क्रोध थकी, मान थकी, माया थकी, लोन थकी, राग थकी, द्वेष थकी, कलह थकी, अन्याख्यान एटले जुतुं या देवा थकी, चाडी करवा थकी, परना अवर्णवाद बोलवा थकी, रति थकी, रति थकी, माया सहित मृषावाद बोलवा थकी, यने मिथ्यात्वदर्शन शल्य ए थकी निव (इतिमहतोयाणा के ० ) एवो ते चारित्रि महोटा कर्मबंधना कारण थकी, (वसं dho) उपशम्यो ( वहिके ० ) उपस्थित एटले सावधान थयो (पडि विरतेके ० ) विशेष निव ( से निस्कू के ० ) ते चारित्रि ॥ ५१ ॥ (जेइमेतसथावरापाणाजवंति के ० ) जे एस ने स्थावर प्राणी ( तेणोसर्यसमारजंति के० ) तेनो पोते समारंन करे नही (गोव मे हिंसमारंभावेंति के० ) बीजा पासे समारंभ करावे नदी ( धन्नसमारंनं तं समजाति के० ) बीजा समारंन करता होय तेने अनुमोदे नही ( इति से के० ) एव ते चारित्रि (महतो के० ) महोटा ( आयाणा के० ) कर्मबंधना कारण थकी ( वसंते के ० ) उपशम्यो ( नवहिएके० ) उपस्थित एटले सावधान थयो ( पडिविरते ho) विशेषे निव ( से निरकू के ० ) ते चारित्रि ॥५२॥ ( जेइमेकामनोगा के० ) जे या जगत् मांहे काम जोगवे ते कहेबे ( सचित्तावा के० ) सचित्त ( यचित्तावा के० ) मुछिए गंधेदि मुि लोभान पेान दोसा मायामोसा For Private Personal Use Only Page #685 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राय धनपतसिंघ बादाडुरका जैनागम संग्रह नाग इसरा. ६य्य चित्त (तेोस परिगिएहंति के० ) ते कामनोगने पोते परिग्रहे नही अंगीकार करे नही (पोने पर गिहावेंति के० ) बीजा पासें परिग्रहावे नही ( अन्नंपरि गियहं तं पि समyजाइ ho) बीजो परितो होय तेने अनुमोदे नही (इति से महंतो के ० ) एवो चारित्रि महोटा ( खायाला के० ) कर्मबंधना कारण थकी ( वसंते के० ) पशम्यो ( Base के० ) सावधान थयो ( पडिविरए के० ) विशेषे निवयों (सेनि रकू के ० ) ते चारित्र ॥ ५३ ॥ ॥ दीपिका-थ रागद्वेषानावमाह । ( से निस्कूइत्यादि) सनिकुः शब्देषु गुनाशुनेष्व मूर्तितोऽष्टिश्च । एवं रूपगंधरसस्पर्शेष्वपि वाच्यं । तथा विरतः क्रोधमानमायालोनेच्य स्तथा प्रेमतोदोषात् कलहादन्याख्यानात् पैशुन्यात् परपरिवादात् परतितोरतितोमाया मृषातो मिथ्यादर्शन शल्यादिरतः सनिष्कुर्योमहतः कर्मोपादानाडुपशांत संयमे उपस्थितः सावद्येच्यः प्रतिविरतः सनिः स्यात् ॥ ५१ ॥ येइमे त्रसाः स्थावराः प्राणिनोजवंति तान् स्वयं न समारजते नैवान्यैः समारंभयंते धन्यं समारभमाणं न समनुजानाति इत्येवं म दतः कर्मोपादानाडुपशांतः प्रतिविरतः स निकुः स्यात् ॥ ५ ॥ येमी कामभोगाः सचित्ताय चित्तावा तान् स्वयं न परिगृहाति नान्येन परिग्राहयति अन्यं परिगृएहंतं न समनुजा नाति इत्येवं कर्मोपादानाद्विरतः सनितुः स्यात् ॥ ५३ ॥ ॥ टीका- सांप्रतमनुकूलप्रतिकूलेषु शब्दादिषु विषयेषु रागदेषानावं दर्शयितुमाह । ( से रिकू इत्यादि) सनिः सर्वाशंसारहितोवेणुवीणादिषु शब्देष्वमूर्तितोऽग्रोऽनभ्युप पन्नस्तथा रासनादिशब्देषु कर्कशेषु विष्टः एवं रूपरसगंधस्पर्शेष्वपि वाच्यमिति । पुनरपि सामान्येन क्रोधाद्युपशमं दर्शयितुमाह ( विरएकोहा इत्यादि) क्रोधमानमायालोनेच्यो विरतइत्यादि सुगमं । यावदिति । ( सेमहया श्रायाणानव संते जव डिएप डि विरए से निस्कू सि) सनिक्कुर्भवति योमहतः कर्मोपादानाडुपशांतः सन्स्वयमेवोपस्थितः सर्वपापेच्यश्च विर रतइति ॥ ५१ ॥ एतदेव महतः कर्मोपादनादिरमणं साक्षाद्दर्शयितुमाह । (जेइमेइत्यादि) ये केचन साः स्थावराश्च प्राणिनोजवंति तान सर्वानपि नोनैव स्वयं सत्साधवः समारनं ते प्रायुपमर्दकमारनंतइतियावत् । तथा नान्यैः समारंभयंते नचान्यान् समारंभमाणान् समनुजानतइत्येवं महतः कर्मोपादानाडुपशांतः प्रतिविरतोनिकुर्भवतीति ॥ ५२॥ सांप्रत सामान्यतः सांपरायिककर्मोपादानकामनोग निवृत्तिमधिकृत्याह । (जेइमेइत्यादि) ये केच नामी कायंतइति कामानुज्यत इतिनोगास्तेच सचित्ताय चित्तावा नवेयुस्तांश्च नस्वतो गृहीयान्नाप्यन्येन ग्राहयेत् नाप्यपरं गृहंतं समनुजानीयादित्येवं कर्मोपादानादिरतो निकुर्नवतीति ॥ ५३ ॥ For Private Personal Use Only Page #686 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६५६ द्वितीये सूत्रकृतांगे द्वितीय श्रुतस्कंधे प्रथमाध्ययनं. जंपियं इमं संपराइयं कम्मं क णो तं सयं करेंति सोच्यमाणं कारवेंति अन्नंपिकरें तं समगुजाइ इति सेमहतो प्रायाणानं नवसंते नव पडिविते ॥५४॥ से भिरकूजा का प्रसांवारिंस परियार एवं सादम्मियं समुदिस्स पापाई नूताई जीवाई सत्ताई समारंभ समुद्दि रस की पामिचं विजं पिस अनिदडं प्राहुदेसियं तं चेतियंसि यातं णो सयं जुंजई गोच्प्रणं गुंजावेंति अन्नंपि जंतं समपुजाइ इति से महतो प्रयासाने नवसंते नवधिए पडिविरते ॥ ८५ ॥ अर्थ - ( से निस्कू के ० ) ते चारित्रि ( जंपियं के० ) जे ( इमं के० ) ए ( संपराइयं कम्मंक के ० ) सांपरायिक एटले जे कर्मे कर संसार मांहे परिभ्रमण करिये ते सां परायिक कर्म कहिए जे कारणे कररी बंधाय ते कारण प्रदेष निन्दव मात्सर्य अंतराय या शातना उपघातादिक ए कर्मबंधना कारणबे ( पोतंसयंकरेति के० ) ते स्वयं पोते नकरे (लोमा कारवेंति के ० ) बीजा पासें करावे नही (नं पिकतं समजा एइके ० ) बीजो करतो होय तेने अनुमोदे नही ( इतिसेमहतोयायालाई के०) एवो ते मोहोटा कर्मबंधनाकार की ( नवसंते के० ) उपशम्यो ( नवहिए के० ) सावधान थयो (पडि विरतेके ० ) विशेष निवत्य ते निक्कु कहिए ॥ ५४ ॥ वेचारित्रियानी खाहार विशुद्धि क. ( से निस्कूजाका के० ) ते चारित्रि एम जाणे ते कहे. जे (सांवा के ० एवंभूत आहार प्रशन पान खादिम स्वादिम जाणे (स्सिंप मियाए के० ) साधुने नि कि प्रकृतिक श्रावक गृहस्थ ते ( एगंसादम्मियं समुद्दिस्त के० ) एक साधर्मिक साधुने समुद्देशीने (पाणाई नूताई जीवाई सत्ता समारंन के० ) प्राणी नूत जीव सत्वनो प्रारंभ करे मर्दन करे ( समुद्दिस्स के० ) तथा साधुने निमित्ते उद्दे शीने (कीतं के० ) वेचातुं लीये ( पामिच्चं के० ) नबीनुं लावे ( अतिऊं के ० ) बीजा नुं पाडलीए ( सिहं के० ) बीजानी वस्तु होय ते तेना धणीने कह्या विना सा धुने पे ( निदाहुदेसियं के० ) ग्रामादिक थकी साधुने सन्मुख लावे वो हार खाधाकर्मादिक दोषें करी दुष्ट ( तंचे तियंसिया के० ) ते आहार साधुने दीधो ने साधुए पण अजाणता लीधो परंतु एवो दोष डुष्ट आहार जा ने (तेोसयंभुंज के० ) ते याहार साधु पोते जमे नही ( रोवत्र से पंनुंजावें ति के० ) तथा बीजाने तेवो याहार जमाडे नहीं घने (अन्नंपिनुंजंतंणसमपुजाए इ० ) बीजो को वो थाहार जमतो होए तेने अनुमोदे नही ( इति सेमहतोया For Private Personal Use Only Page #687 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राय धनपतसिंघ बानाउरका जैनागम संग्रह नाग उसरा. ६५७ याणाउवसंतेवहिए पडिविरतेके०) एरीते ते महोटा कर्मबंधना कारण एवा जे या हारना दोष ते थकी उपशम्यो सावधान थयो विशेषे निवत्यो तेने साधु कहिए॥५५॥ ॥ दीपिका-यदपीदं सांपरायिकं कर्म तच्च प्रदेषनिन्हवमात्सर्यातरायासातनोपघात बध्यते तत्कर्म कारणंवा न कृतकारितानुमतिनिः करोति सनितुः कथ्यते ॥५४॥ सनि दुर्यत्पुनरेवंनूतमाहारं जानीयात् (अस्सिंपडियाए) एतत्प्रतिझ्या एकं साधु साधर्मिकं समुद्दिश्य कश्चित्प्रकतिनश्कः श्रावकः साध्वाहारदानार्थ प्राणिनः समारन्य प्राणिघात कमारंनं कृत्वा समुद्दिश्य तत्पीडां सम्यगुद्दिश्य क्रीतं (पामिचं) नबिन्नकमानेद्यमन्य स्मादाविद्य गृहीतमनिसृष्टं परेणाननुमतमन्याहृतं साधुसंमुखमानीतमाहत्य नपेत्य झा त्वा साध्वर्थ कृतमुदेशिकमेवंनूतमाहारं साधवे दत्तं स्यात्साधुनावाऽकामेन गृहीतं स्या तदोषउष्टं ज्ञात्वा स्वयं न मुंजीत अन्येन न नोजयेत् नच झुंजानमन्यं समनुजानीयात् एवं उष्टाहारान्निवृत्तोनिटुः स्यात् ॥ ५५ ॥ ॥ टीका-सांप्रतं सामान्यतः सांपरायिककर्मोपादाननिषेधमधिकृत्याह। (जंपियश्य इत्यादि ) यदपीदं सपर्येति तासुतासु गतिष्वनेककर्मणेति सांपरायिकं तच्च तत्प्रषनि न्हवमात्सर्यातरायासातनोपघातैबध्यते तत्कर्म तत्कारणं वा न कृतकारितानुमतिनिः क रोति सनिकुरनिधीयतइति ॥५४॥सांप्रतं निदाविशुद्धिमधिकृत्याह । (सेनिस्कूइत्यादि) स निर्यत्पुनरेवंनूतमाहारजातं जानीयात् (अस्सिंपडियाएत्ति) एतत्प्रतिझ्याऽऽहारदानप्र तिज्ञया यदि वास्मिन्पर्याये साधुपर्याये व्यवस्थितमेकं साधु साधर्मिकं समुद्दिश्य कश्चित्रा वकः प्रकृतिनकोवा साध्वाहारदानार्थ प्राणिनः प्रव्यक्तंख्यिान जूतानि त्रिकालनावीन जीवानायुष्कधरणलदाणान्सत्वान्सदा सत्वोपेतान्समारज्य तपमर्दकमारंनं विधाय स मुद्दिश्य तत्पीडां सम्यगुद्दिश्य, कीतं क्रयेण द्रव्य विनिमयेन (पामिति) उद्यतकमाडे द्यमित्यन्यस्मादाविद्य निसृष्टमिति परेणानुत्संकलितमच्याहतमिति साध्वनिमुखं ग्रामा देरानीतमाहत्योपेत्य साध्वर्थ कृतमुद्देशिकमित्येवंनूतमाहारजातं साधवे दत्तं स्यात्तचा कामेन तेन परिगृहीतं स्यात् । तदेवं दोषउष्टं च ज्ञात्वा स्वयं न झुंजीत नाप्यपरेण नोजये नच मुंजानमपरं समनुजानीयादित्येवं पुष्टाहारदोषानिवृत्तोनिटुवतीत्यर्थः ॥ ५५ ॥ सेनिकू अह पुणेवं जाणेजा तं विङति तेसिं परक्कमे जस्सहा तेवेश्यं सियातं जहा अप्पणो से पुत्ताणं धूयाणं सुशहाणं धातीणं णातीणं राईणं दासाणं दासीणं कम्मकराणं कम्मकरीणं आदेसाणं पुढोपदेणाए सा मासाए पातरासाए सन्निहीसंचएकऊंति इहमेगेसि माणवाणं नोयणा ८३ Page #688 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६५७ वितीये सूत्रकृतांगे वितीय श्रुतस्कंधे प्रथमाध्ययनं. ए तब निकू परकडं परणिन्तिं मुग्गमुप्पायणेसणासुद्धं सबाश्यं सत्र परिणामियं अविहिसियं एसियं वेसियं सामुदाणियं पन्नमसणं कारण धा पमाणजुतं अकोवंजणवणलेवणनूयं संजमजायामायावत्तियं बिलमिव पन्नगनूतेणं अप्पाणेणं आदारं आहारेजा अन्नं अन्नकाले पाणं पाएकाले वचं वबकाले लेणं लेकाले सय सयणकाले ॥५६॥ अर्थ-(सेनिस्कू के ) ते चारित्रिन (अह के ) हवे (पुणेवंजाणेजा के० ) व ली एवं जाणे ते कहेले. (तविजातितेसिंपरक्कमे के ) ते गृहस्थने एवो पराक्रम था हार करवानो के जे पराक्रमे करी (जस्सयतेवेश्यंसिया के०) जेने अर्थे ते बाहार - नीपजाव्यो दोए (तंजहा के० ) ते कहेले. (अपणोसे पुत्ताणं के०) पोताने अर्थे त था पुत्रने अर्थ (धूयाणं के० ) दीकरीने अर्थे (सुपहाणं के०) बोकरानी वदुने थ थै (धातीणं के०) धाव्यने अर्थे (णातीणं के०) झातीने अर्थे ( राईणं के ) राजा ने निमितें (दासाणं के०) दासने अर्थे (दासीएं के०) दासीने अर्थे (कम्मकराणं के०) कर्म करने अर्थे ( कम्मकरीणं के) परोणाने अर्थे (आदेसाणंपुढोपेहेणाए सामासाए के) अन्यत्र स्थानके बीजाने मोकलवाने अर्थे नीपजाव्यांजे रात्रे जमवाने निमित्तें तथा लोकोक्तिए व्याजुने अर्थे ( पातरासाए के० ) कलेवा निमित्तें (स निहिसंचएकक्रांति के ) एप्रकारे आहारनो संनिधि संचय करे एटले दही उद नादिक विनाशी इव्य, अने हरडे शर्करादिक अविनाशी व्यनो संचय करे. (इहमेगेसि माणवाणंनोयणाए के० ) या मनुष्य लोक मांहे कोइएक मनुष्यने एवो थाहार नोज नने अर्थे थाय (तबनिरकू के० ) त्यां चारित्रिन (परकडं के० ) परनो करेलो (पर विहितं के०) परनिष्ठित एटले अन्यने अर्थे नीपजाव्यो (मुग्गमुप्पायरोसणासुदं के०) उजमना सोल दोषने दातार अजाणतो लगावे अने उत्पादनना सोल दोष ते साधु लगा वे, वली एषणा विशुचना दश दोष रहित एटले सर्वमली बेंतालीश दोष रहित (सबाश्य के०) शस्त्रातीत एटले अग्न्यादिकें करी अचित कीधो (सबपरिणामियं के०) शस्त्रे क री वर्ण गंध रसादिके करी परिणामाव्यो (अविहिसियं) निर्जीव एटले जीव रहित तेपण (एसियं के०) गवेष्यु निदाचर्या करतां पाम्यो तेपण वली ( वेसियं के ) निः केवलसाधुने वेषे प्राप्त थयो तेपण वली (सामुदाणियं के०) माधुकरी वृत्तिए घणाघ र फरतां प्राप्त थयो तथा (पन्नमसणं के०) गीतार्थनो आणेलो, एवो थाहार अशना दिक तेवली (कारणहा के०) वैयावञ्चादिक कारणने अर्थे तेवली (पमाणजुत्तं के०) प्रमाणयुक्त एटले प्रमाणोपेत थाहार जाणवो. तेवली वर्णवलादिकने अर्थे नही किंतु Page #689 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रायधनपतसिंघ बादाउरका जैनागम संग्रह नाग उसरा. एए जेटले थाहारें करी शरीर क्रियाने विषे प्रवर्ते तेटलोज आहार लेवो. ते उपर दृष्टांत कहेजे. (अरकोवंजण के) जेटलो गाडानी धरीने जोइए तेटलो किल आपि ए चोपडीए तेटलुंज गाडु पण चाले तथा (वण के० ) व्रण एटले गुंबडा नपर (खे वणनूयंके०) जेटलो लेप लागे तेटलोज लगाडीए. ए नपमा चारित्रि पण थाहार लीए. (संजमजायामायावत्तियंके०) जेटले थाहारें संयम जात्रायें प्रवृत्ताय तेटली मा त्रायें तेटलो आहारलीए, ते वली तेटली मात्रा टालीने अधिक आहार न लेवो. (बिलमि वपन्नग जूतेणंके) ते आहार वली बिलप्रवेश सर्पनी पेठे (अप्पागणं के०) पोतें (था हारंाहारेकाके०) आहार याहारे,एटले जेम सर्प बिल मांहे प्रवेश करे तेवारे उताव लो प्रवेश करे तेम साधु पण, थाहार करतो सुस्वाद निरास्वाद अग जोतो आहार ली ए (अनअन्नकाले के) ते अन्न अन्नने काले लीए, उत्सर्ग मार्गे सूत्र अर्थ पौरसीनुं अनंतर अहार काल जाणवो. (पाणंपाणकालेके) एवीज रीते पाणी, पाणीने कालें पीए एटले तृषा लागे थके जमवू नही, बने दुधातुर थके पाणी पीयूँ नही इत्यर्थः (वबंवबकाले के०) तथा वस्त्र वस्त्रने कालें ले ढवू (लेणंलेणकाले के०) उपाश्रय उपाश्रयने काले लीये, एटले वर्षादिकाल समये अवश्य उपाश्रयने विषे रहे बीजाका लने विषे नियम नथी (सयणंसयणकालेके०) शयन कालें शयन करे त्यां अगीतार्थने बे पहोर निश जाणवी. अने निश यकी विमुक्त गीतार्थने एक पहोर निा जाणव॥५६॥ ॥ दीपिका-सनिकुरथ पुनरेवं जानीयात् । तद्यथा । तेषां गृहस्थानां वदयमाणः प राक्रमः सामर्थ्य आहारकरणारंनइति यावत् । यस्य चार्थाय यत्कृते तच्चेति तं दत्तं नि ष्पादितं स्यात् । तद्यथा । यात्मनः कृते से तदाहारजातं कृतस्यात्तथा पुत्राणां सुतानां स्नुषाणां वधूनां धात्रीणां राज्ञां दासीनां कर्मकरीणामादेशकः प्रापूर्णकस्तस्यार्थ तथा पृथ क प्रग्रहणार्थ (सामासाएत्ति) श्यामारात्रिस्तत्राशनं श्यामाशोरात्रिनोजनार्थ प्रातरश नं प्रातराशस्तदर्थ सन्निचयोविशिष्टाहार निष्पादनं क्रियते । अनेन चैतत्सूच्यते यद्वालट ग्लानादिनिमित्तं प्रजातादिसमयेष्वपि निदाटनं क्रियते तस्यायमुक्तः संनवः ससन्नि धिसंनवश्हैकेषां मानवानां नोजनाय स्यात् । तत्र निकुः परकृतपर निष्ठितमुजमोत्पादनै षणाशुक्ष्माहारमाहरेत् । अत्र परकृतपरनिष्ठिते चत्वारोनंगाः। तद्यथा । तस्यकतं तस्यै वनिष्ठितं । तस्य कृतमन्यस्यनिष्ठितं २ अन्यस्य कृतं तस्य निष्ठितं ३ अन्यस्य कृतमन्य स्यनिष्ठितं । । तत्र चतुर्थनंगः सूत्रोपात्तः शुक्षः। दितीयोपिशुदः। जमदोषाः १६ उत्पादनादोषा अपि १६ एषणादोषाः १० इतिचत्वारिंशता दोषैः शुई शास्त्रातीतं प्रासुकीकृतं शस्त्रपरिणामितं स्वकायपरकायादिशस्त्रेण निर्जीवीकृतं वर्णगंधरसादिनिश्च Page #690 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६० तिीये सूत्रकृतांगे वितीय श्रुतस्कंधे प्रथमाध्ययनं. परिणामितमविहिंसितं सम्यक् निर्जीवमित्यर्थः। एषितं निदाचर्याविधिप्राप्तं वैषिकं के वलसाधुवेषप्राप्तं नपुनर्निमित्तादिनोत्पादितं सामुदानिकं मधुकरवृत्त्यास्तोकं स्तोकं गृहीतं प्रझस्येदं प्राझं गीतार्थोपात्तमशनं तदपि वेदनावैयावृत्त्यादिकारणे सति । यमुक्तं । वेय एग १ वेयावच्चे, २ इरियहाएय ३ संजमहाए । | तह पाणवत्तियाए ५ ब पुण धम्म चिंताए ।६। एषु कारणेष्वाहारं गृह्णीयात्। तदपि प्रमाणयुक्तं नातिमात्रं । यउक्तं । अक्षम सणस्स सव्वजणस्स कुजादवस्सदोजाए॥ वायपवियारणहा, बानागंकणगं कुब्जाइति ॥१॥ अदस्य शकटस्य नपांजनमन्यंगः व्रणस्यचलेपनं तपमयाऽहारमाहरेत् । यतः।अनंगे गवसगमं पतरविणाजो साढू ॥ सो रागदोसरहिन, मत्ताइविहीर तंसेवे ॥१॥ एतदे वाह । संयमयात्रायां मात्रा संयमयात्रामात्रा यावत्याहारमात्रया संयमयात्रा प्रवर्तते तया संयमयात्रामात्रया वृत्तिर्यस्य तत्तथा। तदपि बिलप्रवेशपन्नगनूतेनात्मनाऽऽहारमाहरे त् । कोर्थः । यथा बिलं प्रविशन् सर्पस्तूर्ण प्रविशति एवं साधुनापि स्वादमगृणहताऽहा रः शीघ्रं प्रवेशयितव्यः । अथवा सर्पणेवादारोऽलब्धास्वादं नदणीयइति । तद्यथा । अन्नमन्त्रकाले सूत्रार्थपौरुषीकरणोत्तरकालं पानकं पानकाले न तृषितोचुंजीत न बुदि तः पानकं पिबेत् । वस्त्रं वस्त्रकाले ग्राह्यं लयनं गुहादिकमाश्रयस्तस्य वर्षास्वत्यवश्यमु पादानमन्यदात्वनियमः । शयनं संस्तारकः शयनकाले तत्रागीतार्थानां प्रहर वयं निज्ञ विमोदोगीतार्थानां तु प्रहरमेकमिति ॥ ५६ ॥ ॥ टीका-पुनरेवं जानीयादित्यादि । तद्यथा । गृहं विद्यते येषां तेषां गृहस्थानामेवं नूतोवदयमाणः पराक्रमः सामर्थ्यमाहारनिवर्तनं प्रत्यारंनस्तेनच यदाहारजातं निवर्ति तं यस्य चार्थाय यत्कृते तच्चेति तमिति दत्तं निष्पादितं स्यान्नवेत् । यत्कृते च निष्पादि तं तत्स्वनामग्राहमाह । तद्यथा । यात्मनः स्वनिमित्तमेवाहारादिपाकनिर्वर्तनं कृतमि ति तथा पुत्रार्थ यावदादेशायादिश्यते यस्मिन्नागते संन्रमेण परिजनस्तदातदाशनदाना दिव्यापारः सयादेशकः प्रापूर्णकस्तदर्थवा पृथक् प्रग्रहणार्थ विशिष्टाहार निर्वर्तनं क्रियते तथा श्यामा रात्रिस्तस्यामशनमाशः श्यामाशस्तदर्थ प्रातरशनं प्रातराशः प्रत्यूषस्येव नो जनं तदर्थ सन्निधिः संनिचयोविशिष्टाहारसंग्रहस्य संचयः क्रियते । अनेन चैतत्प्रतिपा दितं नवति । बालग्नानादिनिमित्तं प्रत्यूषादिसमयेष्वपि निदाटनं क्रियते तस्य चाय मनिहितः संनवः। सच (संनिहित्ति ) संचयश्केषां मानवानां जोजनार्थ नवति त त्रनिकुरुद्यतविहारी पररुतपरनिष्ठितमुजमोत्पादनैषणाशुक्ष्माहारमाहरेत् । अत्र च प रकतपरनिष्ठिते चत्वारोनंगाः । तद्यथा । तस्य कृतं तस्यैव च निष्ठितं तस्य कृतमन्यस्य निष्ठितमन्यस्य कृतं तस्यैव निष्ठितमन्यस्य कृतमन्यस्य निष्ठितमित्ययं चतुर्थोनंगः सूत्रे Page #691 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रायधनपतसिंघ बादाउरका जैनागम संग्रह नाग उसरा. ६६१ णोपातोऽयं च शुशोक्तिीयश्चान्यस्य निष्ठितत्वात्तत्राधाकर्मोदेशिकादयनजमदोषाः षोड श तथोत्पादनादोषाधात्रीदत्यादिकाः षोडशैव तथैषणादोषाः शंकितादयोदश । एवमेनि हिंचत्वारिंशदोषैरहितत्वाबु । यथाशस्त्रमग्न्यादिकं तेनानीतं प्रासुकीकतं शस्त्रपरिणा मितमिति शस्त्रेण स्वकायपरकायादिना निर्जीवीकतं वर्णगंधरसादिनिश्च परिणमितं हिं साप्राप्तं हिंसितं विरूपं हिंसित विहिंसित नसम्यक् निर्जीवीकतमित्यर्थः। तत्प्रतिषेधाद विहिंसितं निर्जीवमित्यर्थः। तदप्येषितमन्वेषितं निदाचर्या विधिना प्राप्तं वैषिकमिति केवल साधुवेषावाप्तं नपुनर्जात्याद्याजीवनतोनिमित्तादिना चोत्पादितं तदपि सामुदानिकं समुदा नं निदासमूहस्तत्र नवं सामुदानिकं । एतउक्तं नवति। मधुकरवृत्त्यावाप्तं सर्वत्र स्तोकस्तोकं गृहीतमित्यर्थः। तथा प्राइस्येदं प्राझं गीतार्थनोपात्तमशनमाहारजातं तदपि वेदनावैय्या वृत्त्यादिके कारणेसति तत्रापि प्रमाणयुक्तं नातिमात्रं । प्रमाणं चेदं । अक्षमसणस्स स वं जगस्त कुजादवस्त दोनाए । वानपवियारणहानागंकणयं कुजत्ति । एतदपि न व बलाद्यर्थ किंतु यावन्मात्रेणाहारेण देहः क्रियासु प्रवर्तते । तत्र दृष्टांत क्ष्यमाह । त यथा । यदस्योपांजनमन्यंगोव्रणस्य च लेपनं प्रलेपस्तउपमया आहारमाहरेत् । तथाचो तं । अप्नंगेण वसगमं तर विगई विणा जो साढू । सो रागदोसरहिन मत्तादविही इत सेवे । एतदेव दर्शयति । संयमयात्रायामात्रा संयमयात्रामात्रा यावत्याहारमात्रया संयमयात्रा प्रवर्तते सा तथा तया संयमयात्रामात्रया वृत्तिर्यस्य तत्तथा तदपि बिलप्रवे शपन्नगनतेनात्मनाऽऽहारमाहरेत् । एतमुक्तं नवति । यथाहिर्बिल प्रविशन तूर्णं प्रविश त्येवंसाधुनाप्याहारस्तत्स्वादमनास्वादमन्यवहार्यतइति । तदेवाहारजातं दर्शयितुमाह । अन्नं नक्तमन्नकाले सूत्रार्थपौरुष्युत्तरकालं निदाकाले प्राप्ते पुरः पश्चात्कर्मपरित्हतं नव ति। यथोक्तनिदाटनेन ग्रहणकालावाप्तं दं परिनोगकाले मुंजीत । तथा पानकं पान काले नातितृषितोचुंजीत नाप्यतिबुदितः पानकं पिबेदिति । तथा वस्त्रं वस्त्रकाले गृ पडीयापनोगंवा कुर्यात्तथा लयनं गुहादिकमाश्रयस्तस्य वर्षास्ववश्यमुपादानमन्यदात्व नियमस्तथा शय्यतेऽस्मिन्निति शयनं संस्तारकः सच शयनकाले । तत्राप्यगीतार्थानां प्र हर क्ष्यं निझाविमोदोगीतार्थानां प्रहरमेकमिति । ॥ ५६ ॥ सेनिकू मायने अन्नयरं दिसं अणुदिसंवा पडिवन्ने धम्मं आ इके विनए किट्टे वहिएसुवा अणुवहिएसुवा सुस्सूसमाणेसुप वेदए संतिविरतिं ग्वसमं निवाणं सोयवियं अज्जवियं महवि यं लापवियं अणतिवातियं सवेसिं पाणाणं सवेसिं नूताणं जा व सत्ताणं अणुवाइं किट्टिए धम्मं ॥५॥ Page #692 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६२ दितीये सूत्रकृतांगे वितीय श्रुतस्कंधे प्रथमाध्ययनं. अर्थ-(सेनिस्कूके) ते चारित्रित आहार, उपधी, शयन, स्वाध्याय,अने ध्यानादि कना (मायनेके०) मात्रा एटले विधिनो जाण बतो (अन्नयरंदिसंबदिसंवाके० ) अन्य दिशि अथवा विदिशि प्रत्ये (पडिवन्ने के०) याश्रित होतो एटले अंगीकार क रतो बतो (धम्मथाइरके के०) धर्म कहे. जे धर्म जेने करवा योग्य होय तेने तेवो उ पदेश थापे (विनए के०) धर्म अने अधर्मना फल जुदा जुदा करी देखाडे (किडे के०) धर्मनी कीर्ति करे, प्रशंसा करे वली परना हितने अर्थे साधु चारित्रिन ( उवति एसुवा के०) उपस्थित एटले नद्यमवंत एवा शिष्यने विषे तथा (अणुवहिएसुवा के) अनुपस्थित एटले कौतुकार्थी शिष्यने विषे ( सुस्सूसमाणेसु के ) सोनलवा वांडताने विषे पोताना आत्माना तथा परना हित नणी (पवेदए के) धर्म कहे. जे धर्म कहे ते देखाडेले. (संति के०) उपशम ते कषायन जीप तथा (विरतिं के) विरति ते प्राणातिपातादिक थकी निवर्त्त एवो धर्म प्ररूपे (नवसमंके) इंघिय तथा नोक्ष य, उपशमाव, एटले राग देषनो अनाव करवो (निवाणं के०) तथा निरवाणते सर्व जीवोने समाधिरूप एटले मोद कहे तथा (सोयवियं के०) शौचते व्रतनुं निर्म ल पषु एटले जेम व्रतने मल नलागे तेवीरीते धर्म कहे (अऊ वियं के०) आर्जव एटले सरलता मायानो घनाव (मद्द वियं के०) कोमल मृजनावयुक्त तेवा विधिये धर्म कहे (लाघवियं के०) तथा कर्म हलवां थाय तेवा विधियें धर्म कहे. हवे सर्व गुनानुष्ठाननु मूल कारण कहेडे (अणतिवातियं के० ) अहिं सा बादरवानो उपदेश थापे ते कोनी अहिंसा? ते कडे (सक्वेसिंपाणाणंके०) सर्व प्राणीनी (सवेसिनूताणं के०) सर्वनूत सवेंजीव (जावसत्ताणं के) यावत् सर्वे स त्वनी अहिंसाने (अणुवाइकिट्टिएधम्म के) विचारीने धर्मोपदेश थापे एटले समस्त जीवमात्रनी जे प्रकारे हिंसा नथाय ते प्रकारें धर्म कहे ॥ ५७ ॥ ॥ दीपिका-थाहारादिमात्रज्ञः सनिष्टुः अन्यतरां दिशमनुदिशंवा प्रतिपन्नोधर्ममा ख्यापयेत् कथयेत् ययेन साधुना गृहस्थेन वा विधेयं तद्यथायोगं विनजेत् धर्मफलानि कीर्तयेत् उपस्थितेषूद्यतेषु अनुपस्थितेषु कौतुकादिप्रवृत्तेषु शुश्रूषमाणेषु श्रोतुं प्रवृत्तेषु प्रवेदयेत् । यत्कथयेत्तदाह । शांतिः क्षमा तत्प्रधाना विरतिस्तां कथयेत् । नपशममिं इपिदमं निर्वाणं मोदं ( सोयवियं) शौचं नावशौचमित्यर्थः । आर्जवं निर्मायत्वं मार्द वं मृडनावोविनीतत्वमितिनावः । लाघवं कर्मलघुत्व किया। अतिपातोहिंसा सविद्यते यस्यसोतिपातिकस्तनिषेधादनतिपातिकस्तं सर्वेषां प्राणिनां यावत्सत्वानां धर्ममनुविवि च्य विचिंत्य, कीर्तयेत् । कोर्थः । सर्वप्राणिरदानूतं धर्म कथयेदित्यर्थः ॥ ५७ ॥ Page #693 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राय धनपतसिंघ बादाउरका जैनागमसंग्रह नाग उसरा. ६६३ ॥ टीका-सनिकुराहारोपधिशयनस्वाध्यायादीनां मात्रां जानातीति तविधिज्ञः सन् अन्यतरां दिशमनुदिशंवा प्रतिपन्नः समाश्रितोधर्ममारव्यापयेत् यद्येन विधेयस्तद्यथा नो गं विनजेधर्मफलानि च कीर्तयेदावि वयेत्तच्चैकार्थप्रवृत्तेन साधुना सम्यगुपस्थितेषु वा कौतुकादिप्रवृत्तेषु शुश्रूषमाणेषु श्रोतुं प्रवृत्तेषु स्वपरानिप्रायं वेदयेदावेदयेत्प्रकथयेदितिया वत् । श्रोतुमुपस्थितेषु यत्कथयेत्तदर्शयितुमाह। (संतिविरइत्यादि) शांतिरुपशमः क्रोधजयस्तत्प्रधाना प्राणातिपातिन्यो विरतिः शांति विरतिः। यदिवा शांतिरशेषक्तशापग मरूपा तस्यै तदर्थ विरतिस्तां कथयेत्तथोपशममिश्यिोपशमरूपं रागदेषानावजनितं तथा निर्वतिं निर्वाणमशेषोपरमरूपं तथा (सोयवियंति) शौचं तदपि नावशौचं सर्वोपाधिशुद्धता व्रतामालिन्यं । (अजवियंति) आर्जवममायित्वं तथा मार्दवं मृङनावं सर्वत्र प्रश्रयवत्वं विनयनम्रतेति यावत् । तथा (लाघवियंति) कर्मणां लाघवापादनं कर्मगुरोर्वात्मनः कर्मापनयनतोलध्ववस्थासंजननं । सांप्रतमुपसंहारहारेण सर्वगुनानुष्ठा नानां मूलकारणमाह । अतिपतनमतिपातःप्राण्युपमर्दनं तद्यिते यस्यासावतिपातिक स्तत्प्रतिषेधादनतिपातिकस्तं सर्वेषां प्राणिनां नूतानां यावत्सत्वानां धर्ममनुविधिमनुवि चिंत्य, वा कीर्तयेत्कथयेत् । इदमुक्तं नवति सर्वप्राणिनां रदानूतं धर्म कथयेदिति ॥५॥ सेनिस्कू धम्म किट्ठमाणे णो अन्नस्स दे धम्म माहिरकेजा गोपाणस्स देखें धम्ममाइकेज्जा पोवबस्सदेन धम्ममाइकेज्जा पोलेणस्स देखें ध म्ममाइकेका पोसयणस्सदेवं धम्ममाइकेज्जा णोअन्नसिं विरूवरूवा णं कामनोगाणं देवं धम्ममाइकेज्जा अगिलाए धम्ममाश्केका नन्नन कम्मनिडराए धम्ममाश्केका ॥५॥ इहखलु तस्स निस्कुस्स अंति ए धम्मं सोचा णिसम्म नघणेणं नहाय वीरा अरिंस धम्मे समुठ्यिा जे तस्सनिस्कू अंतिए धम्मं सोचा णिसम्म सम्मं नाणेणं नायवीरा अ स्सिधम्मे समुध्यिा तेएवं सबोवगता तेएवं सबोवरता तेएवं सबोवसं ता तेएवं सबताए परिनिबुझेत्तिबेमि ॥५॥ अर्थ-(सेनिस्कू के० ) ते साधु (धम्मकिट्टमाणे के०) धर्म कहेतो थको (णो अन्नस्सहेलं धम्ममाश्केका के०) अन्न एटले थाहारने हेतुयें धर्म न कहे ते आवी रीते के आ अमुक मनुष्य धनवंत माटे महार। पासेंथी धर्म सनिलीने म ने मनो वांचित आहार आपशे, एवो विचार करे नही तथा वली (णोपास्सहेगंध Page #694 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६४ वितीये सूत्रकृतांगे वितीय श्रुतस्कंधे प्रथमाध्ययनं. म्ममाइरकेका के) पाणीने हेतु पण धर्म नकहे एवो संयति होए (गोवबस्सहे उधम्ममाइरकेका के०) तथा वस्त्रने हेतुयें धर्म न कहे (पोलेस्सहेगंधम्ममाश्रकेला के० ) उपाश्रय वस्ति पामवाने हेतुयें धर्म न कहे (गोसयास्सहेनंधम्ममाश्केका के ) तथा पाट पाटलादिक सयनने हेतुयें धर्म नकहे (गोअन्नेसिंविरूवरूवाणंकाम नोगाणंहेत धम्ममाइरकेका के०) नाना प्रकारना कामनोगने हेतुयें धर्म नकहे (अ गिलाएधम्ममाइरकेका के) अग्लान पणे धर्मकहे एटले पूब्यो थको धर्म कहेवानो प्रमाद नकरे (ननकम्मनिकराएधम्ममाइरकेका के० ) एक कर्मनिर्जरानुं कारण टाली,अनेरे अर्थे धर्म नकहे.॥५॥ दवे एवीरीते धर्म कहेवा थकी जे फल थाय ते देखा डेले. (इहखलुतस्सनिस्कुस्स के०) था जगत् मांहे खलु इति वाक्यालंकारे ते गुणवं त साधुने (अंतिए के) समीपे (धम्मसोचा के० ) धर्म सांजलीने (णिसम्मन हाणेणं के० ) सम्यक हृदयने विषे धारण करीने, संयमने विषे सावधान थश्ने, (न हायवीरा के०) धर्ममार्गे प्रवर्त्तता बीर एटले कर्म विदारवाने समर्थ (अस्सिंधम्मे समुहियाके) एवोधर्मजे सम्यक् झान दर्शन अने चारित्ररूप तेने विषे पहोता (जेत स्सनिस्कू के ) जे ते साधुने समीपें धर्म सांजलीने. ते साधु केवाले तोके सम्यक् हृ दय धरीने सयंमने विषे सावधान थइ धर्म मार्ग प्रवर्तता कर्मविदारवाने समर्थ ए स म्यक् ज्ञानादिक ने विषे सावधान थया ( तेएवंसबोवगता के०) ते एम सर्व कर्म खपावीने मोदे पहोता (तेएवंसदोविरता के०) ते एम सर्व अढारे पापस्थानक थकी निवा . (तेएवंसबोवसंता के० ) ते एम सर्व प्रकारे नपशांत एटले कषा य जीपीने (तेएवंसबताएपरिनिमे के०) ते एम सर्व प्रकारें समर्थ पणे करीने शी तलीनूत थ मोके पहोता (तिबेमि के०) श्रीसुधर्मस्वामि श्रीजंबूस्वामि प्रत्ये कहे के के साधुने समीपे धर्म सांजल्यानुं फल में कडं ते जेवीरीते श्रीनगवंत श्रीमहावीर देव पासेंथी में सांजव्युंडे तेवीरीते तमने कह्यु ॥ ५ ॥ ॥ दीपिका-सनिहुर्धर्म कीर्तयन्नान्नस्य हेतोर्धर्ममाचहीत । तथा पानवस्त्रलयनशय ननिमित्तं न धर्ममाख्याति । विरूपरूपाणां गुनागुनानां कामनोगानां हेतोर्न धर्ममारख्या ति । अग्लानतया धर्ममारख्याति । निर्जरां विनाऽन्यकार्यार्थ न धर्म वदेत् ॥५॥ अथोप संहारमाह । इह जगति खलु तस्य निदोरंतिके समीपे धर्म श्रुत्वा निशम्यावगम्य सम्य गुबानेनोबाय वीराः समर्थाये ते चैवंनूताः सर्वस्मिन् मोक्कारणे उपगताः प्राप्ताः स ोपगतास्तेचैवं सर्वेन्यः पापस्थानेन्यनपरतानिवृत्ताः सर्वोपरतास्तेचैवं सर्वोपशांता Page #695 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राय धनपतसिंघ बादाउरका जैनागम संग्रह नाग उसराः ६५ स्तेचैवं सर्वात्मतया सर्वसामर्थ्येन सदनुष्ठाने उद्यताःपरिनिर्वृतानिर्वाणं प्राप्ता ति ब्रवीमीति ॥ ५ ॥ ॥ टीका-सांप्रतं धर्मकीर्तनं यथा निरुपधि नवति तथा दर्शयितुमाह। (सेनिरकूश्त्या दि) सनितः परकतपरनिष्ठिताहारनोजी यथाक्रियाकलानुष्ठायी शुश्रूषन् सुधर्म कीर्तय नान्नस्य हेतोममायमीश्वरोधर्मकथाप्रश्रवणे विशिष्टमाहारजातं दास्यतीति । एतन्निमित्तं न धर्ममाचदीत तथा पानवस्त्रलयनशयननिमित्तं न धर्ममाचदीत । नान्येषां विरूपरूपा णामुच्चावचानां कार्याणां कामनोगानां वा निमित्तं तथा धर्ममाचदीत ग्लानिमनुपगबन्न धर्ममाचदीत कर्मनिर्जरायाश्चान्यत्र न धर्म कथयेदपरप्रयोजननिरपेक्षएव धर्मकथयेदिति ॥५॥धर्मकथाश्रवणफलदर्शन बारेणोपसंजिघृकुराह।(इहरखलुतस्सेत्यादि) हास्मिन् ज गति । खलु वाक्यालंकारे । तस्य निदोगुणवतोंतिके समीपेपूर्वोक्तविशेषणविशिष्टं धर्म श्रुत्वा निशम्यावगम्य सम्यगुबानेनोबाय धीराः कर्मविदारणसहिमवोये चैवंजूतास्ते एवं पूर्वोक्त विशेषणविशिष्टानुष्ठानतया सर्वस्मिन्नपि मोदकारणसम्यग्दर्शनादिके उपसामीप्ये न गताः सर्वोपगतास्तथैवं सर्वेन्यनपरताः सर्वोपरतास्तथा तएवं सर्वोपशांताजितकषायत या शीतलीनूतास्तथा एवं सर्वात्मतया सर्वसामर्थ्येन सदनुष्ठानेनोद्यमं कृतवंतोये चैवंनूता स्तेऽशेषकर्मक्ष्यं कृत्वा परि समंतानिवृतायशेषकर्मक्यं कृतवंतइति ब्रवीमीति पूर्ववत्५७ एवं सेनिरकू धम्मही धम्मविऊ णियागपडिवामे से जदेयं बुत्तियं अ वा पत्ते पनमवरपोमरीयं अज्या अपत्ते पनुमवरपोमरीयं एवं सेनिरकू परिमायकम्मे परिमायसंगे परिमायगेहवासे वसंते समिए सहिए स याजए सेवं वयणिऊं तंजहा समणेतिवा माहणेतिवा खंतेतिवा दंततिवा गत्तेतिवा मुत्तेतिवा इसीतिवा मुणीतिवा कतीतिवा विकृतिवा निस्कूतिवा लतिवा तीरीतिवा चरणकरणपारवित्तिबेमि॥ ॥इति बितियं सु यकं धस्स पोमरीयं नाम पढमयणं सम्मत्तं ॥३०॥ अर्थ-हवे अध्ययन परिसमाप्ति नणी कहे. (एवंसे निस्कूधम्मजीके) एम पूर्वोक्त गुण युक्त ते साधु धर्मनो अर्थी (धम्मविक के० ) धर्मनो जाण, (णियागपडिवरले के ) मोक्ष अथवा संयमने विषे प्रतिपन्न एवो पांचमो पुरुष, (सेजहेयंबुत्तियं के०) ते अाश्रीने जेम पूर्वं कर्तुं (अवापत्तेपनमवरपोंझरीयं के०) ते अथवा प्रधान पौंमरी क कमलें पहोतो (अउवाअपत्तेपउमवरपोमरोयं के० ) अथवा प्रधान पौंमरीक कम ८४ Page #696 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६६ दितीये सूत्रकृतांगे वितीयश्रुतस्कंधे प्रथमाध्ययनं. लें न पहोतो. परमार्थयकी प्रधान पौंमरीक कमल समान चक्रवर्त्यादिक पुरुष जाणवा । तेनी प्राप्ति केवलज्ञानीने होय, अथवा न होय किंतु केवलज्ञान विना पण चारित्रिन कहे वाय तेकारणे पत्ते अपत्ते एवं स्यावाद पद कडं (एवंसेनिरकपरिमायकम्मेपरिमायसंगे के०) एरीतें ते साधुयें परिझायें करी जाण्यु अने प्रत्याख्यान परिझायें करी पच्यरव्यु ले एवा कर्मबंधना कारणने तथा बाह्यान्यंतर संगने जेणे वली (परिमायगेहवासेके०) परिझात गृहवास जेणे असार करी जाण्यो तथा (नवसंते के०) इंडिय अने नोइंख्यि जेणे उप शमाव्यां (समिएके) पांच समितिए समित (सहिएके) ज्ञान, दर्शन अने चारित्रे करी सहित (सयाजएके०) सर्वकाल संयत यत्नवंत (सेवंवयणिकंके) एवो ते चारित्रि सर्व गुणेयुक्त होय ते केवो होय ? (तंजहा के) ते कहे. (समऐतिवा के०) श्रमण तप ५ स्वी सममन एटले शत्रु मित्र उपर समनाव होय ते श्रमण जावो. (माहणेतिवाके) कोपण प्राणीमात्रने महणो एवो जेनो उपदेश होय तेने माहण ब्राह्मण कहिए ( खते तिवा के ) दमावंत (दंतेतिवाके ) दांत एटले इंडियोनो दमनार (गुत्तेतिवा के०) त्रणगुप्ते गुप्तो (मुत्तेतिवा के० ) मुक्ति एटले निर्लोनी ( इसीतिवा के० ) ऋषी विशिष्ट तपश्चर्या सहित जीवनो रक्षा करनार (मुणीतिवा के०) जगत्नी त्रिकालावस्थाना स्व रूपनो छाता (कतीतिवा के ) परमार्थ थकी पंमित जेनुं सर्व को कीर्तन करे तेजा वो (विमतिवा के० ) रूडी विद्यासहित विद्वान् सविद्योपेत तथा (निस्कूतिवा के) निरवद्याहारनो लेनार (लूहेतिवा के ) खुद अंतप्रांत थाहारी (तीरहीति वा के ) तथा संसारनो तीररूपजे मोद तेनो अर्थी (चरणकरणपारविन के० ) च रण एटले मूलगुण, अने करण एटले उत्तरगुण, तेनो पारपर्यंत गमन जाणे एटले च रण करनो पारंगामि जाणवो तेमाटे चरणकरण पारविन एम कह्यु. (इतिबेमि के )। श्रीसुधर्मस्वामी श्रीजंबूस्वामि प्रत्ये कहेले के ए वचन ढुं श्रीतीर्थकरना वचनने अनुसा रे कढुं. एरीतें श्री सूर्यगडांगसूत्रना बीजा श्रुतस्कंधने विषे प्रथम पौंमरीकनामा अध्य यननो बालावबोध समाप्त थयो ॥ ६ ॥ ॥ दीपिका-एवं पूर्वोक्तगुणः सनिर्धर्मार्थी धर्मवित् नियागः संयमोमोझोवा तं प्रतिपन्नः सचैवंनूतः पंचमपुरुषस्तं वाऽश्रित्य तद्यथेदं प्रारदर्शितं तत्सर्वमुक्तं । सच प्राप्तो वा स्यात्पद्मवरपुंडरीकं राजादिपुरुष । तत्प्राप्तिश्च तत्त्वतः केवलझानावाप्तौसत्यां स्यात् अप्राप्तौवा स्यात् मतिश्रुतावधिमनःपर्यायज्ञानैर्व्यस्तैः समस्तैर्वा युतः सचैवंनूतोनिनुः परिझातकर्मविपाकः परिझातसंगस्त्यक्तसंबंधः परिझातोनिःसारतया गृहवासोयेन सतथा उपशांतोदांतेंड्यिः समितः समितिनिः सह हितेन वर्ततेयः ससहितः सदायतः संयतः Page #697 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रायधनपतसिंघ बादाडुरका जैनागम संग्रह नाग दुसरा. ६६७ स एवंभूतगुणएत ६चनीयएतैर्नाम निर्वाच्यः स्यात् । तद्यथा । श्रमणोवा माहनोवा ब्र चारित्वाद्राम्हणोवा, दांतोवा, दांतोवा, गुप्तिनिर्गुप्तोवा, निर्जोनत्वान्मुक्तोवा, ऋषिर्वा, कृत मस्यास्तीति कृती पुण्यवान् वित् विद्योपेतो निक्कुर्वा, अंतप्रांताहारत्वेन रूक्कोवा, संसाराब्धेस्ती रार्थीवा, चरणं मूलगुणाः, करणमुत्तरगुणास्तेषां पारं पर्यंतगमनं वेत्तीति चरकरणपा रवित् । इति समाप्तौ । ब्रवीमीति सुधर्मस्वामी जंबू स्वामिनमाह ॥ ॥ इतिि तीयश्रुतस्कंधस्य पुंडरीकाध्ययनं प्रथमं समाप्तम् ॥ ६० ॥ ॥ टीका- सांप्रतमध्ययनोपसंहारार्थमाह । ( एवंसे निस्कू इत्यादि) एवमिति पूर्वो क्तविशेषणकलाप विशिष्टः सनितुः पुनरपि सामान्यतो विशिष्यते । धर्मः श्रुतचारित्राख्य नार्थी यथावस्थितं परमार्थतोधर्म सर्वोपाधिविशुद्धं जानातीति धर्मवित्तथा नियागः संयमोमोकोवा कारणे कार्योपचारं कृत्वा तं प्रतिपन्नो नियागप्रतिपन्नः सचैवंभूतः पंचम पुरुषजातस्तं चाश्रित्य यथेदं प्राक् प्रदर्शितं तत्सर्वमुक्तं । सच प्राप्तोवा स्यात्पद्मवरपोंड कमनुग्राह्यं पुरुषविशेषं चक्रवर्त्यादिकं । तत्प्राप्तिश्च परमार्थतः केवलज्ञानावाप्तौ सत्यां नवति । साहाय यावस्थित वस्तुस्वरूपपरिचित्तेरप्राप्तोवास्यान्मतिश्रुतावधिमनःपर्यायज्ञाने वर्व्यस्तैः समस्तैर्वा समन्वितः सचैवंभूतः प्राग्व्यावर्णित गुणकला पोपेतो निक्कुः परि समं तात् ज्ञातं कर्म स्वरूपतो विपाकतस्तदुपादानतश्व येन सज्ञातकर्मा तथा परिज्ञातः संगः सं बंध ः सबाह्याच्यं तरोयेन सतथा परिज्ञातो निःसारतया गृहवासोयेन सतथोपशांत इंडियनो इंडियोपशमात्तथा समितः पंचनिः समितिनिस्तथा सह हितेन वर्ततइति सहितोज्ञानादि निर्वा सहितः समन्वितः सदा सर्वकालं यतः संयतः एतद्वचनीयस्तद्यथा श्राम्यतीति श्रम णः समनावा तथामाप्राणिनोज हि व्यापादयेत्येवं प्रवृत्तिरूपदेशोयस्य समाहनः सब्रह्मचा रीवा ब्राम्हणः दांतः सक्षमोपेतोदांत इंडियनोइंडियद्मनेन तथा तिसृनिर्गुप्तिनिर्गुप्तः तथा मुक्तश्वमुक्तस्तथा विशिष्टचरणोपेतोमहर्षिस्तथा । मनुते जगतस्त्रिकालावस्थामिति मुनिस्त था कृतमस्यास्तीति कृती पुण्यवान् परमार्थपंडितोवा तथा विद्वान् सद्विद्योपेतस्तथा निकु निरवद्याहारतया निक्षण शीलस्त थांऽतप्रांताहारत्वेन रूस्त या संसारतीरनूतोमो स्तदर्थी तथा चर्यतइति चरणं मूलगुणाः क्रियतइति करणमुत्तरगुणास्तेषां पारं तीरं पर्यंतगमनं तो तीति करचरण विदिति । इतिशब्दः परिसमाप्तौ । ब्रवीमीतितीर्थकरवचनादार्यः सुधर्मस्वा मी जंबू स्वामिनमुद्दिश्य एवं जाति तथाहं न स्वमनीषिकया ब्रवीमीति ॥ सांप्रतं समस्ताध्य यनोपात्तदृष्टांतदाष्टतिकयोस्तात्पर्यार्थ गाथा निर्नियुक्तिकद्दर्शयितुमाह । उवमयपुंडरीए, तस्सेवयववनिकुत्ती । अधिगारो पुरा नलिउँ, जिलोवदेसेण सिद्धित्ति ॥ १ ॥ सु रमयतिरियनिर, वंगेसुमया पहूचरितम्मि ॥ यवियमहाजानेयत्तिचक्क वह मि ६ For Private Personal Use Only Page #698 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६७ वितीये सूत्रकृतांगे वितीयश्रुतस्कंधे प्रथमाध्ययनं. अधिगारो ॥ २ ॥ अवियदुनारियकम्मा, नियमा उक्कस्स निरयहितिगामी । ते विटुंजि गोवदेसेण तेणेव नवेण सिशंति ॥३॥ जलमालकदमाल, बहुविहव निगहणं च पु रकरणी। जंघाहिव बाहादिव नावाहिवतं उरवगाहा ॥ ४ ॥ परमं ननंघेत्तुं, नपरमाण स्सहोनवावत्ती । किनबिसेउवा, जेणुल्लंघेऊ अविवन्नो ॥ ५ ॥ विजावदेव कम्म, य हवा यागासियाविनवणया । परमं नलघेत्तुं नएसइणमोजिणुरका ॥ ६ ॥ सुद्दप्पांग बिकासिमा जिएस्स जाणणेविका । नवियजणपोंडरीयान जाए सिगितिमुवेंति ॥ ॥ ७ ॥ (नवमाइत्यादि) इहोपमा दृष्टांतः पौंडरीकेण श्वेतशतपत्रेण कृतस्तस्येहान्य हितत्वात् तस्यैव चोपचयेन सर्वावयवनिष्पत्तिर्यावविशिष्टोपायेनोहरणं । दाष्टीतिकाधिका रस्तु पुनरत्र जणितोनिहितश्चक्रवर्त्यादि निर्नव्यस्य जिनोपदेशेन सितिरिति तस्यैव पूज्य मानत्वादिति । पूज्यमेव दर्शयितुमाह । (सुरमणुएइत्यादि ) सुरादिषु चतुर्गतिकेषु जंतु षु मध्ये मनुजाश्चरित्रस्य सर्वसंवररूपस्य प्रनवः शक्तावर्तते न शेषाः सुरादयः । ते प्वपि मनुजेषु महाजननेतारश्चक्रवर्त्यादयोवर्तते तेषु प्रबोधितेषु प्रधानानुगामि त्वात् इतरजनः सुप्रतिबोधएव नवतीत्यतोत्र चक्रवर्त्यादिना पौंडरीककल्पेनाधिकार ति । पुनरप्यन्यथामनुजप्राधान्यं दर्शयितुमाह । (अविपदुइत्यादि ) गुरुकर्माणोपि म नुजायासंकलितनरकायुषोपि नरकगमनयोग्याधपि तेष्वेवंनूतजिनोपदेशात्तेनैव नवेन समस्तकर्मयात् सिझिगामिनोनवंतीति । तदेवं दृष्टांतदार्टीतिकयोस्तात्पर्यार्थ प्रदर्य दृ ष्टांतनूतपौंडरीकाऽधारायाः पुष्करिण्याउरवगाहित्वं सूत्रालापकोपात्तनियुक्तिकद्दर्शयितुमा ह। (जलमालेत्यादि) जलमालामित्यर्थप्रचुरजलां तथा कदममालामप्रतिष्ठिततलत या प्रनूततरपंकां तथा बहुविधवनिगहनां च पुष्करिणी जंघान्यां वा बाहुन्या नावा वा उस्तरां पुष्करिणीं दृष्ट्रेति क्रियाध्याहारः-किंचान्यत् । (पनमइत्यादि) तन्मध्ये पद्मवरपौंडरीकं गृहीत्वा समुत्तरतोऽवश्यं व्यापत्तिः प्राणानां नवेत् किं तत्र कश्चिउपा यः सनास्ति येनोपायेन गृहीतकमतः सन् तां पुष्करिणीमुलंघयेन्नविपन्नइति । तउल्लंघ नोपायं दर्शयितुमाह । (विद्यावेत्यादि) विद्या वा काचित्प्रज्ञप्यादिका देवता कर्मवा ऽथवाऽकाशगमनल ब्धिर्वा कस्यचिनवेत्तेनासावविपन्नोगृहीतपोंडरीकः सन्नल्लंघयेत्तां पुष्करिणीमेषच जिनैरुपायः समाख्यातः। सर्वोपसंहारार्थ माह । (सुझप्पेत्यादि) गुरुप्रयोगविद्या सिक्षा जिनस्यैव विज्ञानरूपा नान्यस्य कस्यचिद्यया विद्यया तीर्थकरद र्शितया नव्यजनपोंडरीकाः सिदिमुपगबंतीति । गतोनुगमः सांप्रतं नयास्तेच पूर्ववह ष्टव्याइति ॥ समाप्तं पौंडरीकारव्यं वितीयश्रुतस्कंधप्रथमाध्ययनमिति ॥ ६० ॥ ॥ Page #699 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राय धनपतसिंघ बाहारका जैनागम संग्रह भाग दुसरा. ॥ अथ द्वितीयक्रियास्थानाख्याध्ययनस्य प्रारंभः ॥ हवे बीजुं अध्ययन प्रारंनियें बैयें. पहेला अध्ययनमां पौमरीक कमलने दृष्टांते अन्यतीर्थिकने कर्मना बंधक कह्या, तथा साधुने कर्म थी मूकावनारा कह्या हवे ते कर्म बार क्रिया स्थानकें करी बांधीयें अने तेरमे क्रिया स्थानके मूकीयें तेकारणे बीजा थ ध्ययनमा क्रियास्थानक कहे. ६६‍ सुर्यमे आनसंतेणं जगवया एवमस्कायं इह खलु किरियाहाणे णामस यणे पत्ते तस्सणं प्रथम इह खलु संजूदेणं वे ठाणे एवमादिजंति तंजदा धम्मेचेव च्प्रधम्मेचेव नवसंतेचेव अणुवसंतेचेव ॥१॥ तच पं जेसे प ढमस्स छाणस्स अहम्मपरकस्स विनंगे तस्स प्रथम परमते इद ख पावा संगतिया मगुस्सा नवंति तं जहा प्रारियावेगे पारिया वेगे उच्चागोयावेगे एलीयागोयावेगे कायमंतावेगे दस्समंतावेगे सुवन्नावेगे ज्वन्नावेगे सुरूवावेगे डुरुरूवावेगे ॥ २ ॥ तेसिचणं इमं एतारूवं दंमसमादाणं संपेदाए तं जहा ऐरइएसुवा तिरिस्कजोगिएसुवा मणुस्सेसुवा देवेसुवा जेया वने तदप्पगारा पाणाविन्न वेयणं वेयंति ॥ ३ ॥ तसि पियणं इमाई तेरस किरिया घाणाई नवंतीति मरकायं तेजदा अादमे पादं मे हिंसादं मे कम्मा दं दिविपरिया सियादं मे मोसवत्तिए यदिन्नादाणवत्तिए प्रसववत्तिए माणवत्तिए मित्तदोसवत्तिए मायावत्तिए लोभवत्तिए इरियावदि ॥ ४ ॥ अर्थ - ( सुयंमे के० ) श्रीसुधर्मस्वामी जंबूस्वामि प्रत्ये कहेबे के, में सांनत्युंबे (या वसंतेणंजगवयाएवमस्कायं के० ) यायुष्यवंत नगवंते मने एम कह्युं बे ते में जेम सां जल्युंबे. तेम हुं तुज प्रत्ये कटुंकुं. ( इहखलु के० ) निश्वेंकरी या जिनशासनने वि (किरिया णामयोपस्ते के० ) क्रियास्थान नामे अध्ययन प्ररूप्युं. ( तस्स यम के ) तेनो ए अर्थ. ( इहखलु के० ) हिंयां खलु एवी संभावनायें (सं जूहे के ० ) संक्षेपें करी ( डुवे हा एवमाहिति के० ) एकशुन, बीजो गुन एम बे स्थानक, कहिये. (तंजहा के० ) तेना नाम कहे. ( धम्मेचेवयधम्मेचेव के० ) एक धर्मस्थानक ने बीजो अधर्मस्थानक, (वसंतेचेवाणुवसंतेचेव के० ) एक उपशां For Private Personal Use Only Page #700 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६७० दितीये सूत्रकृतांगे वितीयश्रुतस्कंधे वितीयाध्ययनं. स्थानक, अने बीजो अनुपशांत स्थानक ॥१॥ (तबणं के०) त्यां (जेसे के०) जे कहेशे ते (पढमाणस्सअहम्मपरकस्सविनंगेके०) प्रथम स्थानक अधर्म पदनो विनंग एटले विचार. (तस्सणंअयमपलतेके०) तेनो ए थर्थ कहेले. (इहखनुपाईगंवाके०) ए संसार मांहे पूर्वादिक दिशिमांहे अनेरी दिशायें ( संतेगतियामणुस्सानवंति के० ) केटलाएक मनुष्य. ते केवाजे (तंजहाके०) ते कहेले. एक आये, एक अनायें, एक उंचगोत्रना नपना, एक नीचगोत्रना उपना,एक महोटी कायावाला,एक न्हानी काया वाला,एक गुनवर्णना शरीरवाला, एक मागवर्णवाला, एक सुरूपवान् अने एक कुरूपवान् ॥२॥ (तेसिंचणंश्मए तारूवंके०) ते आर्यादिक मनुष्यने एवो एतादृशरूपजे आगल कहेशे (दंमसमादाणं के०) दंम समादान एटले पापरूप संकल्पनुं ग्रहणते, (संपेहाए के०) बालोचवू ते चतुर्गतिक, जीवने होय (तंजहा के०) ते चारगतिना नाम कहेडे. (ऐरश्एसुवा के०) एक नारकीमां हे (तिरिरकजोणिएसुवाके० ) तिर्यचनी योनी मांहे (मणुस्सेसुवाके०) मनुष्य मांहे (दे वेसुवाके0 ) देवतामांहे ए चतुर्गतिक जीव जाणवा. तेमांहे (जेयावन्नेके ) जे अनेरा (तहप्पगारा के०) तथा प्रकारना (पाणाविन्नू के०) प्राणि जाणवा (वेयणंवेयंति के०) ते प्राणी एवा बता वेदना जे साता असातारूप तेने वेदे एटले अनुनवे. अत्र चतुर्न गी कहेले. एक संझिया जीवजे ते वेदनाने अनुनवे तथा जाणे पण, अने बीजा सि-हना जीव जे ते वेदनाने मात्र जाणे, पण अनुनवे नहीं. तथा त्रीजा असंझिया जीव जे ते वेदनाने अनुनवे, पण जाणे नही. चोथा अजीव जे ते वेदनाने अनुनवे पण नहीं,अने जाणे पण नहीं, तेमांहें यहीं पहेला अने त्रीजा नंगनो अधिकार ॥३॥ (तेसिंपियणं इमाइं के०) ते नारकिया दिकने एजे पागल कहेशे ते. (तेरसकिरिया हाणा नवंतीतिमरकायं के०) तेर क्रियाना स्थानक होय, ते श्रीतीर्थकर गणधरे एम कह्या ( तंजहा के०) तेना नाम कहेले. एक (यहादमे के० ) अर्थ दंम, बीजो (अण कादंमे के ० ) अनर्थदंम, त्रीजो ( हिंसादंमेके०) हिंसादम, चोथो (थकम्मादमे के० ) अकस्मात् दंझ, पांचमो ( दिहीविपरियासियादमे के०) दृष्टि विपर्यास दंम, बहो (मोस वत्तीए के० ) मृषावाद प्रत्ययिक दंम, सातमो (यदिन्नादागवत्तिए के० ) अदत्तादान प्रत्ययिक दंम, आठमो (यसब वत्तिएके०) अध्यात्मिक ते मनमुंडान प्रत्ययिक तेरूप दंम, नवमो (माणवत्तिएके०) मान प्रत्ययिक दंम, दशमो (मित्तदोसवत्तिए के) मित्र उपर क्षेष करवो ते मित्रदोष प्रत्ययिक दंफ, अगीयारमो (मायावत्तिए के०) परने वंचवं ते मायाप्रत्ययिक दंम, बारमो (लोनवत्तिए के०) लोन प्रत्ययिक दंम, तेरमो (इरियावहिए के० ) इरियापथिक प्रत्ययिक दंग. हवे अनुक्रमे ए तेर क्रिया स्थानकोनो विचार कहे . ॥ ४ ॥ Page #701 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राय धनपतसिंघ बादाउरका जैनागम संग्रह नाग उसरा. १ ॥ दीपिका-अथ वितीयं क्रियास्थानाध्ययनमारच्यते तस्येदमादिसूत्र (सयंमेइत्यादि) सुधर्मस्वामी जंबूस्वामिनमाह । श्रुतं मया आयुष्मता नगवतैवमाख्यातं । इह खलु कि यास्थानं नामाध्ययनं नवति । अस्य चायमर्थः । ( संजूहेणं) सामान्येन संदेपेण हे स्थाने नवतः । ये केचन क्रियावंतस्तेऽनयोरेवं स्थानयोराख्यायंते । तद्यथा । धर्मे चैव अधर्मेचैव । नपशांतं धर्मस्थानमनुपशांतमधर्मस्थानं ॥१॥ तत्र समितिवाक्यालं कारे । योऽसौ प्रथमानुष्ठेयतया प्रथमस्याधर्मपदस्य विनंगोविचारः । तस्यायमर्थः । ह जगति प्राच्यादिषु दिल मध्येऽन्यतरस्यां दिशि संति विद्यते एके केचन मनुष्याः। त यथा । आर्याअनार्याः उच्चैर्गोत्रानीचैर्गोत्राः कायवंतउन्नतान्हस्ववंतोनीचशरीराः सु वर्णाः सुकांतयोउर्वर्णा निस्तेजसः सुरूपादूरूपाश्च॥२॥ तेषामार्यादीनामिदं वक्ष्यमाणमेत पं दंडसमादानं पापोपादानं ( संपेहाएत्ति ) संप्रेक्ष्य तद्यथा नारकेषु तिर्यग्योनिषु मनुष्ये षु ये चान्ये तथा प्रकाराः सुवर्णवर्णाः प्राणिनोविक्षांसोवेदनां सातासातरूपां विदंति अनुनवंति । अत्र चत्वारोनंगाः। तथाहि । संझिनोवेदनामनुनवंति जानंतिच १ सिमा स्तु वेदनाजानंति नानुनवंति २ असंझिनोऽनुनवंति न पुनर्जानंति ३ अजीवास्तु न जानंति नाप्यनुनवंति ४ इह प्रथमतृतीयान्यामधिकारोक्तिीयचतुर्थाववस्तुनूताविति ॥३॥ तेषां नारकादीनामिमानि वक्ष्यमाणानि त्रयोदश क्रियास्थानानि नवंतीत्याख्यातं तीर्थ कदादिनिः । तद्यथा । स्वार्थायदंडः पापोपादानमर्थदंडः १ निष्प्रयोजनं सावधक्रियान र्थदंडः २ हिंसा प्राणिघातस्तयादंडोहिंसादंडः ३ अकस्मादनुपयुक्तस्य दंडोऽकस्मादंडः। अन्यस्य क्रिययाऽन्यस्य घातइत्यर्थः ४ दृष्टेविपर्यासोरकुविषये यथा सर्पबुधिस्त या दंडो दृष्टिविपर्यासदंडः यथा शरादिदेपेण लेष्टुकादिबुध्या चटकादिहननं ५ मृषावादप्रत्यय कः ६ अदत्तादानप्रत्ययिकः ७ अध्यात्मिकोदंडोयथा निनिमित्तमेव उर्मनाश्चिंतातुर स्ति ष्टति G मानप्रत्ययिकोदंडोयथाऽष्टमदस्थानोपगतः परं हीनं मन्यते ए मित्राणामुपतापे न दोषोमित्रदोषस्तत्प्रत्ययिकोदंडः १० माया परवंचनबुद्धिस्तयादंडः ११ लोनप्रत्ययि कः १२ इयर्याप्रत्ययिकोदंडः समितिगुप्तियुतस्य दोषयुक्तस्य सामान्येन कर्मबंधः स्यात्॥ ४ ॥ ॥ टीका-व्याख्यातं प्रथमाध्ययनं सांप्रतं वितीयमारन्यते । अस्य चायमनिसंबंधः। शहा नंतराध्ययने पुष्करिणीपौंडरीकदृष्टांतेन तीथिकाः सम्यङ्मोझोपायानावात्कर्मणां बंधकाः प्रतिपादिताः सत्साधवश्व सम्यग्दर्शनादिमादमागेप्रवृत्तत्वान्मोचकाः समुपदेशदानतोप रेषामपीति । तदिहापि यथा कर्म दादशनिः क्रियास्थानैर्बध्यते यथाच त्रयोदशेन मु च्यते तदेतत्पूर्वोक्तमेव बंधमोक्योः प्रतिपादनं क्रियते । अनंतरसूत्रेण चायं संबंधः । तद्यथा । निकुणा चरणकरणविदा कर्मपणायोद्यतेन दादश क्रियास्थानानि कर्मबं Page #702 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६७२ वितीये सूत्रकृतांगे दितीयश्रुतस्कंधे वितीयाध्ययनं. धकारणानि सम्यक्परिहर्तव्यानि तविपरीतानि च मोक्षसाधनानि बासेवितव्यानि इत्यनेन संबंधेनायातस्याध्ययनस्योपक्रमादीनि चत्वार्यनुयोग वाराणि नवंति । तत्राप्युपक्रमांतर्ग तोऽर्थाधिकारोयं । तद्यथा कर्मणां संबधोऽनेन प्रतिपाद्यते तदमोश्चेति । नामनिष्पनेतु निदेपे क्रियास्थानमिति विपदं नाम । तत्रापि क्रियापद निदेपार्थ प्रस्तावमारचयनियुक्तिक दाह । “किरियाउनणियाउ, किरियाठाणंति तेण अभयणं । अहिगारो पुण नणिज, बंधे तह मोरकमग्गेय" ॥ १५७ ॥ ( किरिया इत्यादि) तत्र क्रियंतइति क्रियास्ताश्च कर्म बंधकारणत्वेनावश्यकांतर्वर्तिनि प्रतिक्रमणाध्ययने (पडिक्कमा मितेरसहिं किरियानाणेहिं ति) अस्मिन्सूत्रेऽनिहिताः । यदि वैहिकक्रियानणिताअनिहितास्तेनेदमध्ययनं क्रिया स्थानमित्युच्यते । तच्च क्रियास्थानं क्रियावत्स्वेव नवति नाक्रियावत्सु । क्रियावंतश्च के चिध्यंते केचिन्मुच्यतेऽतोध्ययनार्थाधिकारः पुनरनिहितोबंधे तथा मोक्षमार्गेचेति । तत्र नामस्थापने सुगमत्वादनादृत्य इव्यादिकां क्रियां प्रतिपादयितुमाह । “ दवे किरिए अवणय, पयोगुवायकरणिक समुदाणे ॥ इरियावहसंमत्तो, सम्मत्तेचैव मिबत्ते" ॥ १५ए ॥ दवेश्त्यादि) तत्र इव्य विषये या क्रिया एजनता । एज़कंपने । जीवस्याजीव स्य वा कंपनरूपा चलनस्वनावा साइव्य क्रिया। सापि प्रयोगादिस्रसया वा नवेत् । तत्रा प्युपयोगपूर्विका वाऽनुपयोगपूर्विका वाऽदिनिमेषमात्रादिका वा सा सर्वा इव्य क्रियेति । नाव क्रियात्वियं । तद्यथा प्रयोग क्रिया नपायक्रिया करणीयक्रिया समुदानक्रिया र्यापथ क्रिया सम्यक्त्व क्रिया मिथ्यात्वक्रिया चेति । तत्र प्रयोग क्रिया मनोवाकायलणा त्रिधा । तत्र स्फुरनिर्मनोव्यैरात्मननपयोगोनवत्येवं वाक्काययोरपि वक्तव्यं । तत्र श दे निष्पाद्ये वाकाययोईयोरन्युपयोगः । तथा चोक्तं । गिएह य काइएणं, णिसि र तहवा इएण जोगेण ॥ गमनादिका तु कायक्रियैव । उपाय क्रियातु घटादिकं इव्यं ये नोपायेन क्रियते । तद्यथा । मृत्खननमर्दनचक्रारोपणदंडचक्रसलिलकुंनकारव्यापा रे-वनिरुपायैः क्रियते सा सर्वोपायक्रिया । करणीयक्रियातु यद्येन प्रकारेण करणी यं तत्तेनैव क्रियते नान्यथा । तथाहि । घटोमृत्पिंडादिकयैव क्रियते न पाषा गसिकतादिकयेति ३ समुदानक्रियातु यत्कर्म प्रयोगगृहीतं समुदायावस्थं सत्प्रकृति स्थित्यनुनावप्रदेशरूपतया यया व्यवस्थाप्यते सा समुदान क्रिया । साच मिथ्यादृष्टेरा रज्य सूदमसंपरायं यावत् नवति । । र्यापथक्रिया तूपशांतमोदादारन्य सयोगिके वलिनं यावदिति ५ सम्यक्त्वक्रिया तु सम्यग्दर्शनयोग्याः कर्मप्रकृतीः सप्तसप्ततिसंख्या यया बध्नाति साऽनिधीयते । मिथ्यात्व क्रिया तु सर्वाः प्रकृतीविशत्युत्तरसंख्यास्तीर्थक राहारकशरीरतदंगोपांगत्रिकरहिता यया बध्नाति सामिथ्यात्व क्रियेत्यभिधीयते । सांप्र तं स्थान निकेपार्थमाह।" नामं ग्वणा दविए, खेत्ते दाउ उवरवीवसहि । संजम प Page #703 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राय धनपतसिंघ बाहारका जैनागम संग्रह जाग दुसरा. ६७३ जग्गहजोहे, चन गणण संघला जावे, ॥ १६० ॥ ( नामंतवणेत्यादि ) इयंच गाथा ssure प्रथम स्कंधे द्वितीयाऽध्ययने लोकविजयाख्ये ( जेगुणे से मूलगणे ) इत्यत्र स्थानशब्दस्य सूत्रस्पर्शिक नियुक्तयां प्रबंधेन व्याख्यातेति नेह प्रतन्यते । इह पुनर्यया क्रि यया येन च स्थानेनाधिकारस्तद्दर्शयितुमाह । " समुदालियाणिह त, समं पचत्तेय नावामि ॥ किरियाहिं पुरिस यावा, इएन सद्वेपरिरकेवो ॥ १६१ ॥ ( समुदाणीत्या दि) क्रियाणां मध्ये मुदानिका क्रिया व्याख्याता; तस्याश्च कषायानुगतत्वात् बहवो नेदा यतस्ततस्तासां सामुदानिकानां क्रियाणामिह प्रकारे ( रोउत्ति) अधिकारो व्यापारः सम्यक्प्रयुक्तेच नावस्थाने । तच्चेह विरतिरूपं संयमस्थानं प्रशस्तनाव संधान रूपंच गृह्यते । सम्यक्प्रयुक्तनावस्थानग्रहणसामर्थ्यादर्यापथिका क्रियापि गृह्यते । सामुदा निका क्रियाग्रहणाच्चाप्रशस्तनावस्थानान्यपि गृहीतान्यानिश्च पूर्वोक्तानिः क्रियानिः पूर्वो कान् पुरुषान् तारायातान्प्रावाडकांश्च परीक्षते सर्वानपीति । यथा चैवं तथा स्वतएव सूत्रकारस्तं (जहां से एगश्यामगुस्सानवंतीत्यादि ) तथा प्रावाकपरिक्षायामपि (गायन नगर पंचविप्पज हा निस्कायरियाए समुहिया) इत्यादिना वक्ष्यतीति गतोनिर्युक्त्यनुगमः । सांप्रतं सूत्रानुगमेऽस्खलितादिगुणोपेतं सूत्रमुञ्चारयितव्यं । तच्चेदं । (सुर्यमे छानसं ते मि त्यादि) सुधर्मस्वामी जंबूस्वामिनमुद्दिश्येदमाह । तद्यथा । श्रुतं मयाऽऽयुष्मता जगवतैव माख्यातमिह खलु क्रियास्थानं नामाध्ययनं तस्यचायमर्थः । ( इह खलु संजू हे पंति ) सामान्येन संक्षेपेण समासतो स्थाने नवतः । ये क्रियावंतस्ते सर्वेप्यनयोः स्थानयोरे वमाख्यायंते । तद्यथा धर्मेचैवाधर्मे चैव । इदमुक्तं नवति धर्मस्थानमधर्मस्थानंच । यदिवा धर्मादनपेतं धर्म विपरीतमधर्म । कारणशु-याच कार्यशुद्धिर्भवतीत्याह । उपशांतं यत्त-धर्म स्थानमनुपशांतं वाऽधर्मस्थानं तत्रोपशांते उपशमप्रधाने धर्मस्थाने धर्मस्थानेवा केच न महासत्वाः समासन्नोत्तरशुनादयोवर्तते । परेच तद्विपर्यस्ते विपर्यस्तमतयः संसारा निष्वं गिलोऽधोऽधोगतयो वर्तते । इहच यद्यप्यनादिनवाच्यासादिं दियानुकूलतया प्रायशः पूर्वमधर्मप्रवृत्तोभवति पश्चात्सडुपदेशयोग्याचार्य संसर्गा-धर्मस्थाने प्रवर्तते । तथाप्यन्यर्हि तत्पूर्व धर्मस्थानमुपशमस्थानंच प्रदर्शितं पश्चात्तद्विपर्यस्तमिति ॥ १ ॥ सांप्रतं तु यत्र प्राणिनामनुपदेशः स्वपरप्रवृत्त्यादावेव स्थानं नवति तदधिकृत्याह । ( तइत्या दि) तत्रेति वाक्योपन्यासार्थे । रामिति वाक्यालंकारे । योऽसौ प्रथमानुष्ठेयतया प्रथम स्याधर्मपस्य स्थानस्य विविधोनंगोविनंगो विचारस्तस्यायमर्थइति । इहास्मिन् जगति प्राच्यादिषु दि मध्ये sन्यतरस्यां दिशि संति विद्यते एके केचन मनुष्याः पुरुषास्तेचैवं नू ताजवंतीत्याह । तद्यथा । श्राराद्याताः सर्वदेयधर्मैन्य इत्यार्यास्तद्विपरीताश्चाऽनार्याएके केचन नवंति यावद्दूरूपाः सुरूपाश्चेति । तेषां चाऽऽर्यादीनामिदं वक्ष्यमाणमेतद्रूपं । दंडय । ૧ For Private Personal Use Only Page #704 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६७४ वितीये सूत्रकृतांगे वितीय श्रुतस्कंधे वितीयाध्ययनं. तीति दंडः पापोपादानसंकल्पस्तस्य समादानं ग्रहणं ( संपेहाएत्ति ) संप्रेक्ष्य । तच्चतुर्गति कानामन्यतमस्य नवतीति दर्शयति । (तंजरेत्यादि) तद्यथा नारकादिषु ये चान्ये त थाप्रकारास्त दवर्तिनः सुवर्णवर्णादयः प्राणाः प्राणिनोविज्ञांसोवेदनाझानं तदयं त्यनुनवंति । यदिवा सातासातरूपां वेदनामनुनवंतीत्यत्र चत्वारोनंगाः। तद्यथा । संझि नोवेदनामनुनवंति विदंतिच १ सिधास्तु विदंति नानुनवंति असंझिनोऽनुनवंति न पुनर्विदंति ३ अजीवास्तु न विदंति नाप्यनुनवंतीति । इह पुनः प्रथमतृतीयान्यामधि कारोदितीयचतुर्थाववस्तुनूताविति । तेषांच नारकतिर्यङ्मनुष्यदेवानां तथाविधज्ञानव तामिमानि वक्ष्यमाणलदाणानि त्रयोदशस्थानानि नवंतीत्येवमाख्यातं तीर्थकरगणधरा दिनिरिति । कानि पुनस्तानीति दर्शयितुमाह । (तंजहेत्यादि) तद्यथेत्ययमुदाहरणवा क्योपन्यासार्थः । आत्मार्थाय स्वप्रयोजनकते दंडोऽर्थदंडः पापोपादानं १ तथाऽनर्थदं डइति निष्प्रयोजनमेव सावद्य क्रियानुष्ठानमनर्थदंडः। तथा हिंसनं हिंसा प्राण्युपमर्दरूपा तया सैव वा दंडोहिंसादंडः तथा ऽकस्मादनुपयुक्तस्य दंडो ऽकस्मादंडोऽन्यस्य क्रिययान्यस्य व्यापादनमिति ४ तथा दृष्टविपर्यासोरङ्गमिव सर्पबस्तिया दंडोदृष्टिविपर्यासोऽबुदि डस्तद्यथा लेष्टुकादिबुध्या शराद्यनिघातेन चटकादिव्यापादनं । तथा मृषावादप्रत्ययिकः सच सतानिन्हवासतारोपणः ६ तथा अदत्तस्य परकीयस्यादानं स्वीकरणमदत्तादानं स्तेयं तत्प्रत्ययिकोदंडइति ७ तथाऽत्मन्यध्यध्यात्म तत्र नव अत्थ्यात्मिकोदंडस्तद्यथा नि निमित्तमेव उर्मनाउपहतमनःसंकल्पोहृदयेन हियमाणश्चितासागरावगाढः संतिष्ठते G तथा जात्याद्यष्टमदस्थानोपहतमनाः परावमदर्शी तस्य मानप्रत्ययिकोदंडोनवति ए तथा मित्राणामुपतापेन दोषोमित्रदोषस्तत्प्रत्ययिकोदंडोनवति १० तथा माया पर वंचनबुधिस्तया दंडोमायाप्रत्ययिकः ११ तथा लोनप्रत्ययिकोलोननिमित्तोदंडइति १२ तथा एवं पंचनिः समितिनिः समितस्य तिसृनिर्गुप्तिनिर्गुप्तस्य सर्वोपयुक्तस्ये-प्रत्ययिकः सामान्येन कर्मबंधोनवति । एतच्च त्रयोदशं १३ क्रियास्थानमिति ॥ ४ ॥ पढमे दंम समादाणे अादंफ वत्तिएत्ति आदिङ सेजदा णामए केश पुरिसे आयदेवा पाइहेनंवा आगारवा परिवारदेवा मित्तदेउवा पागदेवा नूतदेवा जकदेवा तं दम तसथावरेहिं पाणेहिं सयमे व णिसिरिंति अमेणविणिसिराति अमंपि णिसिरितं समणुजाण इ एवं खलु तस्स तप्पत्तियं सावर्जति आदिङ पढमे दंमसमादाणे अहादंमवत्तिएत्ति आदिए॥५॥ Page #705 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राय धनपतसिंघ बादाउरका जैनागम संग्रह नाग उसरा. ६५ थर्थ-(पढमे दंमसमादाणे के०) त्यां पहेलोजे क्रिया स्थानक ते (असामवत्तिएत्ति पाहिजर के० ) अर्थ दंग प्रत्ययिक एवे नामे कहियें.यें (सेजहाणामए के) ते यथा दृष्टांते कहेले. णाम एवी संनावनायें . ( केश्पुरिसे के०) कोइएक पुरुष, (यायहेनवा के) पोताने अर्थ, अथवा (गाइहेन्वा के०) झाति स्वजनादिकने अ थे, (आगारहेवा के०) घरने अर्थ, (परिवारहेवा के०) दास दासी कुमारादिक परिवारने अर्थ, (मित्तहेवा के०) मित्रने अर्थे, ( णागहेवा के० ) नागकुमार देव ताने अर्थ, (नूतहेवा के०) नूत देवताने यथे, (जरकहेवा के०) यद देवताने अर्थे, (तदंतसथावरेनिंपाणेहिं के०) ते दम, त्रस बने स्थावर प्राणीनने विषे ( सयमेवणि सिरिंति के० ) स्वयमेव एटले पोतेंज उपघात करे. (थरमेण विणिसिरावेंति के) य नेरा बीजा पासें नपघात करावे. (यपिणि सिरिसमणुजाण के०) अनेरो बीजो को नपघात करतो होय तेने अनुमोदे. (एवंखलु के० ) एरीतें निचे थकी (तस्सतप्पत्ति यंसावर्जति के) करण करावण अने अनुमतियें करी करे, तेहने तत्प्रत्ययिक सावद्य पाप कर्म (आहिऊ के० ) बंधाय (पढमेदंमसमादाणेयादमवत्तिएत्तियाहिए के०) एटले प्रथम क्रिया स्थानक अर्थदंग प्रत्ययिक एवे नामे कयुं. ॥ ५ ॥ ॥ दीपिका-प्रथमं दंडसमादानमर्थदंडप्रत्ययश्त्याख्यायते । तद्यथा नाम कश्चित्पुरु षः आत्महेतुमात्मार्थ ज्ञातिहेतुं स्वजनाद्यर्थ यागारहेतुं गृहाथ परिवारार्थ मित्रनाग नूतयदाद्यर्थ तं दंडं त्रसस्थावरेषु प्राणिषु स्वयं निसृजति निदिपति अन्येनापि कारयति अन्यं निसृजंतं समनुजानीते एवं तस्य तत्प्रत्ययिकं सावद्यं कर्म थाधीयते संबध्यते ए तत्प्रथमं दंडसमादानमर्थदंडप्रत्ययिकमित्याख्यातं ॥ ५ ॥ ॥ टीका-यथोदेशस्तथा निर्देशतिकवा प्रथमाक्रियास्थानादारन्य व्याचिख्यासुरा ह । (पढमे त्यादि) यत्प्रथममुपात्तं दंडसमादानमर्थायदंड मित्येवमाख्यायते। तस्यायम र्थः । तद्यथा नामकश्चित्पुरुषः । पुरुषग्रहणमनुक्तमुपलक्षणं । सर्वोपि चातुर्गतिकः प्रा स्यात्मनिमित्तमात्मार्थ तथानिझातिनिमित्तं स्वजनाद्यर्थ तथाऽगारं गृहं तन्निमित्तं तथा परिवारोदासीकर्मकरादिकः परिकरोवा गृहादेवत्त्यादिकस्तन्निमित्तं तथा मित्रनागनूतय दाद्यर्थ तथानृतं स्वपरोपघातरूपं दंडं त्रसस्थावरेषु स्वयमेव निसृजति निक्षिपति दंड मिव दंडमुपरि पातयति प्राण्युपमर्दकारिणी क्रियां करोतीत्यर्थः । तथाऽन्येनापि कार यत्यपरं दंड निसृजते समनुजानीते । एवं कतकारितानुमतिनिरेव तस्याऽनात्मज्ञस्य त त्प्रत्ययिकं सावधक्रियोपात्तं कर्माधीयते संबध्यतेइति । एतत्प्रथमं दंडसमादानमर्थदंड प्रत्ययिकमित्याख्यातमिति ॥ ५ ॥ Page #706 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६ वितीये सूत्रकृतांगे वितीय श्रुतस्कंधे वितीयाध्ययनं. अदावरे दोच्चे दंमसमादाणे अपवादमवत्तिएत्ति आदिऊ से जता णा मए केश पुरिसे जे श्मे तसा पाणा नवंति ते णो अच्चाए णोअजिणाए णो मंसाए पोसोणियाए एवं दिययाए पित्ताए वसाए पिडाए पुबाए वालाए सिंगाए विसाणाए दंताए दाढाए णदाए एहारुणिए अहीए अमिंजा ए गोहिंसंसुमेत्ति पोदिसिंतिमेत्ति गोहिंसिस्संतिमेत्ति पोपुत्तपोसणाए पोपसुपोसणयाए णोआगारपरिवहणताए पोसमणमादणवत्तणादेनं गोतस्स सरीरगस्स किंचिविष्परियादित्ता नवंति सेहंता वेत्ता नेत्ता लुंप त्ता विलुपश्त्ता नववश्त्ता उशिनं बाले वेरस्स आनागी नवंति अण दंगे॥६॥ से जदा गामए केश पुरिसे जे श्मे थावरा पाणा नवंति तंजदा इक्कडावा कडिणाश्वा जंतुगाश्वा परगाश्वा मोकाश्वा तणावा कु साश्वा कुलगाश्वा पप्पगाश्वा पलालाश्वा ते गोपुत्तपोसणाए पोपस पोसणाए णोआगारपडिबूदणयाए पोसमणमादणपोसणयाए णोतस्स सरीरगस्स किंचिविपरियाई नवंति सेहंता बेत्ता नेत्ता लुपश्ता विलं पश्त्ता नदविश्त्ता नझिन बाले वेरस्स आनागी अणहाद॥ ॥सेजदा णामए केश पुरिसे कमंसिवा दहंसिवा उदगंसिवा दवियंसिवा वलयं सिवा णूमंसिवा गदांसिवा गदणविग्गंसिवा वर्णसिवा वणविग्गं सिवा पवयंसिवा पवयविजुग्गंसिवा तणाई ऊसविय सयमेव अगणि कायं णिसिरिति अस्मेणविअगणिकायं णिसिराति अमंपि अगणिकायं णिसिरितं समणुजाण अपवादंगे एवं खलु तस्स तप्पत्तियंसावति आदिङ दोच्चे दंझसमादाणे अणघादमवत्तिएत्ति आदिए॥७॥ अर्थ-(अहावरेदोच्चेदमसमादाणेथणदंमवत्तिएत्तियाहिङ के) हवे अपर बीजो क्रिया स्थानक अनर्थदंझ, प्रत्ययिक कहियें बैयें (सेजहाणामए के) ते यथादृष्टांते नाम एवी संनावनायें जेम (केश्पुरिसे के०) कोइएक पुरुष, निःकारणे, निर्विवेक पणे, जीवहिंसा करे; ते कहे. (जेश्मेतसापाणानवंति के० ) जे ए संसार मांहे प्रत्यदल दण त्रस प्राणी, बागादिक डे ते प्राणीने निरर्थक हणे, ते केवीरीते हणे तोके (तेणोथ चाए के० ) तेजीवोने शरीरने अर्थे न हणे, (गोअजिणाए के०) चर्मने अर्थे न ह Page #707 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रायधनपतसिंघ बादाउरका जैनागम संग्रह नाग उसरा. ६७ णे, (गोमंसाए के) मांसने अर्थे न हणे, (पोसोणियाए के० ) शोणितने अर्थ न हणे, (एवं हिययाए के०) एमज हियो एटले रुदयना मांस ने अर्थे न हणे, (पित्ता ए के) पित्तने अर्थ न हणे, (वसाए के० ) वसाने अर्थे न हणे, (पिबाए के०) पिबने थर्थे न हणे, (पुबाए के) पुबने अर्थं न हणे, (वालाए के०) वाल रोमने अर्थे न हणे, (सिंगाए के०) सिंगडाने अर्थ न हणे, (विसाणाए के०) वृषण प्रताल पोइसने अर्थे न हणे, (दंताए के) दांतने अर्थे न हणे, (दाढाए के०) दाढने अर्थे नहणे (पहा एके) नखने यर्थ न हणे, (पहारुणिए के०) नसा नाडीने अर्थे न हणे, (अहिए के०) अस्थिने अर्थे न हणे, (अहिमंजाए के०) हाडकानी मिंजाने अर्थ न हो, एटला ए कार गने अर्थ कोइ जीवने हणे नहीं, परंतु कारण विना जीवने हणे, ( णोहिंसंसुमित्ति के०) अतीतकाले पण एटला कारण नणी जीव हण्या नथी, तथा (णोहिंसिंतिमे त्ति के ) वर्तमान काले पण हणे नहीं. ( णोहिंसिस्संतिमेत्ति के) आगमिक कालें पण हणशे नहीं, (णोपुत्तपोसणाए के) एवं पण न जाणे जे ए जीवनो विनाश क रीने महारा पुत्रनुं पोषण करीश. (गोपसुपोसण्याए के०) पशुन पोषण कर गुं, एम पण न जाणे, (गोयागारपरिबूहणताए के ) ग्रह घरनी वृद्धि शांतिक पुष्टि कादिक निमित्तें पण हणे नहीं. (जोसमणमाहणवत्तणाहेन के०) श्रमण ब्राह्मणनुं पोष ण करवा निमित्तं पण न हणे. (गोतस्ससरीरगस्सकिंचि विप्परियादित्ताजवंति के) तथा पोताना शरीरना परित्राणने अर्थ एटले पोषणनेयर्थे पण न हणे. किंतु? क्रीडा निमित्ते, य थवा व्यसने करी निरर्थक पणे (सेहंता के०) ते जीवनो हणनार थाय दमादिक ना प्रहारे करी जीवने हणे, (वेत्ता के) जीवोना कर्ण नासिकादिक लेदे, (नेत्ता के) नेदे, शूतिकारोपण करे (लुंपत्ता के०) अंगना अवयव कापी नाखे (विद्रुपश्त्ता के०) चामडी नपाडी नखेडी नाखे, (उद्दवत्ता के०) नाना प्रकारना पीडाकारी उप इव उपजावे, (नशिबालेवेरस्सथानागीनवंति के० ) एतावता तेबाल विवेक बमीने निःकेवल वैरनो विनागी थाय. (श्रणहदमे के०) एटले त्रस जीव याश्रित अनर्थ दम कह्यो. ॥६॥ (हवे स्थावर जीव थाश्रित अनर्थ दंम कहेले. (सेजहाणामए के०) ते यथा दृष्टांते जेम. (केपुरिसे के) कोइएक पुरुष मार्गे जतो थको निरर्थक निर्विवेक पणे वृदना पनवने दंमादिके करी फाटकी नाखे, परंतु लेवानीवांबा कांड न होय, वली (जेइमेथावरापाणानवंति के०)जे एस्थावर प्राणी होय (तंजहा के०) ते देखाडे. (इकडा श्वा के) तृण विशेष प्रसिमडे (कडिणाश्वाजंतुगाश्वापरगाश्वा के०) वांसथकी उपनुं जे तृण विशेष, जेणे करी फुल गुंथाय ते जाणवू (मोरकाश्वा के०) नदीमां थाय ते, (त पाश्वा के०) तृण प्रसि.६ (कुसाश्वा के०) मान, (कुलगाश्वा के०) वनस्पति विशेष, (प Page #708 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६७८ द्वितीये सूत्रकृतांगे द्वितीय श्रुतस्कंधे द्वितीयाध्ययनं. पगाइवा के ० ) प्रसिद्ध तृण विशेष, एटला मांहे सर्वकाष्ट जाणवा (पलाल एवा के० ) पलाल इत्यादि यनेक जगत् मांहेबे ते, पुत्र पोषवाने निमित्ते नहीं, तथा पशु पोषण करवाने खर्थे पण नहीं, धागार समारवाने अर्थे पण नहीं, श्रमण ब्राह्मणना पोष एण करवाने खर्थे पण नहीं, पोताना शरीरना पोषण करवाने खर्ये पण नही, एटले श्रात्मा ना त्राने अर्थे पण नहीं किंतु ? क्रीडा निमित्तें अथवा व्यसने करी निरर्थक ते जीव नो हणनार थाय. ते दंमादिके प्रहार करी बेदे भेदे, अनेरा अंगनो अवयव कापे, बग ल उतारे; नाना प्रकारना पीडा कारी उपव करे, एरीते ते बाल प्रविवेकी निःकेवल वैरनो विभागी थाय. एम वनस्पतिकाय यानि अनर्थ दंग कह्यो . ॥ ७ ॥ ( हवे निकाय या श्रि अनर्थ दंम कहे. ते यथा दृष्टांते नाम एवी संभावनायें जेम को एक पुरुष विवे क विकल को ( कवं सिवा के० ) कचादिकने विषे, ( उदगंसिवा के० ) पाणीने विषे, (दहं सिवा के० ) इहने विषे, ( दवियंसिवा के० ) समुइ तथा नदीने विषे, ( वलयंसि वा के ० ) नदियें वेष्टित भूमिकाने विषे, मंसिवा के० ) गर्त्तादिक तथा नीचीनूमिका ने विषे, (गह सिवा के० ) जल रहित स्थानक तथा घटवी माहेला क्षेत्रने विषे, ( गहण विडुग्गं सिवा के० ) गहन घटवीमां वली विषम स्थानकने विषे ( व सिवा के० ) वनने विषे, ( वणविडुग्गंसिवा के० ) वनमांहे विषम स्थानकने वि , (पaiसिवा के० ) पर्वतने विषे, (पचय विडुग्गं सिवा के० ) पर्वतमांहे विषम स्था विषे, इत्यादिक देशस्थानकने विषे, वर्त्ततो (तपाइंकसविय के ० ) तृण दर्जादिक ए aar करी करीने (सयमेवागणिकार्यं णिसिरंति के ० ) वलीवली पोते नि करवाने काय तेमां प्रदेषे (वियगणिकार्य लिसिरावेंति के० ) अन्य पानि प्र पावे एटले बीजापासें जलावे, (पिगणिकार्य लि सिरिंतंसमपुजा एई के ० ) बीजो को निकाय तेमां प्रक्षेपतो होय तेने धनुमोदे, (हार्द मे एवं खलु के ० ) अनर्थ दंग एम नि तेने (तस्सतप्पत्तियं के ० ) तत्प्रत्ययिक एटले ते याश्रित (सावति के०) साव कर्म (हि के० ) बंधाय. एटले ( दोच्चेदं समादाय एक हादं मवत्तिए तिखाहिए ho ) ए बीजो क्रियास्थानक अनर्थ दंग समादान प्रत्ययिक कह्यो. ॥ ८ ॥ ॥ दीपिका - थापरं द्वितीयं दंडसमादानमनर्थदंड प्रत्ययिकमित्य निधीयते । तद्य थानाम कश्चित्पुरुषो निर्निमित्तमेव प्राणिनोति । तदेवाह । ये इमे त्रसाः प्राणिनस्तान् शरीरं तदर्थं नहंति । अजिनं चर्म नापि तदर्थं । एवं मांसशोणितहृदय पित्तव सापि पुचवाल शृंग विषादं तदंष्ट्रान खस्नाय्व स्थिमा इत्यादिनिमित्तमुद्दिश्य नैवाऽहिंस पुर्नापि हिंसंति नापि हिंसयिष्यंति मां मदीयं चेति तथा नो पुत्रपोषणाय नापि पशु For Private Personal Use Only Page #709 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रायधनपतसिंघ बादाउरका जैनागम संग्रह नाग उसरा. ए पोषणाय अगारं गृहं तस्य परिबृंहणं वृधिस्तदर्थ नोहिनस्ति तथा श्रमणब्राह्मणवर्तनहे तुं यत्पाद्यते तस्य शरीरस्य किमपि परित्राणाय तत्प्राणिहिंसनं न स्यात् इत्यादिहेतून विनाऽसौ क्रीडया हंता नवति दंडादिनिश्वेता कर्णादीनां नेत्ता शूलादिना खंपयिता अंगा वयवकर्तनतोविलुपयिता नेत्रोत्पाटनचर्मकर्तनादितोजीवितादपावयिता सच सहि वेकमुशित्वा बालोऽझोवरस्य नागी नवति । पंचेंडियजीवपीडातोऽनर्थदंडनक्तः॥६॥अथ स्थावरानाश्रित्याह । यथा कश्चित्पुरुषः पथि गन् निर्निमित्तमेव वृक्षादेः पन्नवादिकं दंडादिना प्रध्वंसयति । एतदेवाह । येऽमी स्थावरावनस्यतिकायाः प्राणिनः स्युः। त द्यथा। इक्कडादयोवनस्पतिविशेषास्तान पत्रपुष्पफलादि निरपेक्षः क्रीडया बिनत्ति न पु त्रपोषणायेत्यादि पूर्ववत् । यावऊन्मांतरानुबंधिनोवैरस्य नागी नवति । अयमनर्थदंडो वनस्पत्याश्रयनक्तः ॥७॥ सांप्रतमन्याश्रितमाह । तद्यथानाम कश्चित्पुरुषः कले नदीजल वेष्टिते वृदा दिमति प्रदेशे न्हदेप्रतीते उदकेजलाशयमात्रे (दवियंसि ) तृणादिश्व्यसमु दाये वलये वृत्ताकारनद्यादिजलकुटिलगतियुक्तप्रदेशे तमे अवतमसे गहने वृदवनीसमु दाये गहन विऊर्गे पर्वतैकदेशावस्थितपदवनीसमुदाये वनविगै नानाविधदसमूहे एतेषु कहादिषु दशस्थानेषु तृणानि नत्सl काकत्य, स्वयमेवाऽग्निकार्य निसृजति निदिपति अन्येन वाऽनिकायं निसर्जयति निदेपयति अन्यमप्यग्निकार्य निसृजंतं समनु जानीते अयमनर्थदंडः । तदेवं खलु तस्य तत्प्रत्ययिकं दवदाननिमित्तं सावद्यं कर्मव्या ख्यातं । एतच्च वितीयमनर्थदंडसमादानमारख्यातमिति ॥ ७ ॥ ॥ टीका-अथापरं वितीयं दंडसमादानमर्थदंडप्रत्ययिकमित्यनिधीयते तदधुना व्या ख्यायते । तद्यथानाम कश्चित्पुरुषोनिनिमित्तमेव निर्विवेकतया प्राणिनोहिनस्ति । तदे व दर्शयितुमाह। (जेश्मेश्त्यादि ) ये केचनामी संसारांतर्वर्तिनः प्रत्यक्षांबष्ठादयः प्राणि नस्तांश्चासौ हिंसन्न शरीरं नो नैवार्चायै हिनस्ति तथाऽजिनं चर्म नापि तदर्थमेवं मां सशोणितहृदय पित्तवसापिपुलवालशंगविषाणनवस्नायवस्थिमजा इत्येवमादिकं कार मुद्दिश्य नैवाहिंसियिषु पि हिंसयिष्यति मां मदीयं चेति तथा नो पुत्रपोषणायेति पुत्रा दिकं पोषयिष्यामीत्येतदपि कारणमुद्दिश्य न व्यापादयति तथा नापि पशूनां पोषणाय तथाऽगारं गृहं तस्य परिवहणमुपचयस्तदर्थवा न हिनस्ति तथा न श्रमणब्राह्मणवर्तनाहे तुं तथा यत्नेन पालयितुमारब्धं नोत स्य शरीरस्य किमपि परित्राणाय तत्प्राणव्यपरो पणं नवति इत्येवमादिकं कारणमनपेट्यैवासौ क्रीडया तहीलतया व्यसनेन वा प्राणिनां हंता नवति दंडादिनिः । तथा उत्ता नवति कर्णनासिका विकर्तनतस्तथा नेता शूला दिना तथा बुंपयितान्यतरांगावयव विकर्तनतस्तथा विद्युपयिताऽदयुत्पाटनचर्मविकर्तनक Page #710 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६८० द्वितीये सूत्रकृतांगे द्वितीय श्रुतस्कंधे द्वितीयाध्ययनं. रपादादिवेदनतः परमाऽधार्मिकवत्प्राणिनां निर्निमित्तमेव नानाविधोपायैः पीडोत्पादको नवति तथा जीवितादप्यपावयिता नवति सच सद्विवेकमुझित्वात्मानं वा परित्यज्य बालवद्दानोऽज्ञोऽसमीक्षितकारितया जन्मांतरानुबंधिनोवैरस्य जागी नवति ॥ ६ ॥ तदेवं निर्निमित्तमेवं पंचेंयिप्राणिपीडनतोयथानर्थदंडोजवति तथा प्रतिपादितं । अधुना स्थाव वनधित्योच्यते । (सेज हेत्यादि ) यथाकश्चित्पुरुषोनिर्विवेकः पथि गवन् वृक्षादेः प लवादिकं दंडादिना प्रध्वंसयन् फलनिरपेक्षस्तवीलतया व्रजति । एतदेव दर्शयति (जे इत्यादि) ये केचनामी प्रत्यक्षाः स्थावरावनस्पतिकायाः प्राणिनोजवंति तद्यथेक्क डायोवनस्पतिविशेषावत्तानार्थास्तिदिक्कडा ममानया प्रयोजनमित्येवमनिसंधाय न नित्ति केवलं तत्पत्रपुष्पादिनिरपेक्षत हीनतया बिनत्तीत्येतत्सर्वत्र योजनीयमिति । त या न पुत्र पोपलाय नो पशुपोषणाय नागारप्रतिबृंहणाय नभ्रमणब्राह्मणप्रवृत्तये नापि शरीरस्य किंचित्राणं नविष्यतीति केवलमेवासौ वनस्पतिहंतात्तेत्यादियावकन्मांतरानु बंधिनवैरस्य नागी नवति । अयं वनस्पत्याश्रयोऽनर्थदंडोऽनिहितः ॥ ७ ॥ सांप्रतमन्याश्रि तमाह । ( सेज हेत्यादि ) तद्यथानाम कश्चित्पुरुषः सदसद्विवेक विकलतया कचादिकेषु दशसु स्थानेषु वनदुर्गपर्वतेषु तृष्णानि कुशइषीकादीनि पौनःपुन्येनोर्ध्वाधस्थानि कृत्वा ऽग्निकार्य हुतनुजं निसृजति प्रक्षेपयत्यन्येन वानिकार्य बहुसत्वापकारी दवार्थ निसर्जय ति प्रपयत्यन्यंच निसृतं समनुजानीते । तदेवं योगत्रिकेण कृतकारितानुमतिनिस्तस्य यत्किंचनकारिणस्तत्प्रत्ययिकं दवदाननिमित्तं सावद्यं कर्म महापातकमाख्यातं द्वितीय मनर्थदंड समादानमाख्यातमिति ॥ ८ ॥ प्रादावरे तच्चे दंमसमादाणे हिंसादंम्वत्तिएत्ति यादिज्जइ से जहा णाम ए केइ पुरिसे भमंवा ममिवा यन्नंवा अन्नंवा हिंसंसुवा हिंसश्वा हिंसि संश्वा तं दमं तस्थावरोद पाणेहिं सयमेव सिसिरिति मेविलिसि रावेंति अन्नंपि सिरिंतं समजाइ हिंसादमे एवं खलु तस्स तप्पत्तियं सावज्जंति दिइ तच्चे दंमसमादाणे हिंसादमवत्तिएत्ति आदिए ॥ ॥ अर्थ- हवे पर बीजो क्रियास्थानक हिंसादंम प्रत्ययिक कहेले. ते जेम नाम एवी संभावनायें कोइएक पुरुष ( ममंवा के० ) मुजने ( ममिंवा के० ) महारा पिताने ह बे, हयोबे, हणशे, एम पुरुषाकार वहेतो पोताना मरण थकी मरतो बीकराख तोके, ए महारो विनाश करशे एवं जाणीने सर्प सिंहादिक जीवोने हणे, जेम कंसें देवकीना पुत्रने हया तेनी पेठे जाली जेवुं. ( यन्नंवा के० ) अथवा धन्य महारा गोत्री For Private Personal Use Only Page #711 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राय धनपतसिंघ बादाउरका जैनागम संग्रह नाग उसरा. हर स्वजनादिकने दणशे. (अन्निवा के.) अथवा तेना कोइएक बीजाने (हिंसंसुवा के०) अतीतकालें हण्योले. ( हिंसश्वा के०) वर्तमान कालें हणे. (हिंसिस्सइवा के) आग मिक कालें हणशेः (तंदमंतसथावरेहिपाणेहिंसयमेवणिसिरितिके०) एम जाणीने दंमेक रीत्रसस्थावर प्राणीनो पोते घात करे, बीजानी पासें घात करावे, अथवा अन्य कोई घात करतो होए तेने अनुमोदन आपे. ए हिंसादंम, एम निश्थें एने प्रत्ययें एटले ते आश्रित सावद्यकर्म बंधाय; एटले त्रीजो क्रिया स्थानक हिंसादंग प्रत्ययिक एवे नामे कह्यो।ए॥ ॥ दीपिका-अथ तृतीयमाह । अथापरं तृतीयं दंडसमादानं हिंसादंडप्रत्ययिक माख्यायते । तद्यथानाम कश्चित्पुरुषोमामयं घातयिष्यतीति मत्वा, सादिकं दंति यथा कंसोदेवकीसुतान् परशुरामोवा यथा कार्तवीर्य जघान । मदीयं पितरमन्यदीयस्य वा कस्यचित्सुवर्णपशुप्रनतेरयमुपश्वकारीति मत्वा, तत्र दंझ निसृजति तदेवं मां मदीयं अन्यमन्यदीयं वा हिंसितवान् हिनस्ति हिंसिष्यतीत्येवं संनाविते त्रसे स्थावरे वा तं दंम स्वयं निसृजति अन्येन निसर्जयति अन्यं निसृजंतं समनुजानीते । एतत्तृतीयं दंड समादानं हिंसादंडप्रत्ययिकमाख्यातम् ॥ ७ ॥ ॥ टीका-तृतीयमधुना व्याचिरल्यासुराह । (अहावरे इत्यादि) अथापरं तृतीयं दंडसमादानं हिंसादंडप्रत्ययिकमाख्यायते । तद्यथानाम कश्चित्पुरुषः पुरुषकारं वहन् स्वतोमरणनीरुतया वा मामयं घातायिष्यतीत्येवं मत्वा, कंसवदेवकीसुतान् नावतो जघान मदीयं वा पितरमन्यं वा मामकं ममीकारोपेतं परशुरामवत्कार्तवीर्य जघाना न्यं वा कंचनायं सर्प सिंहादिकं व्यापादयिष्यतीति मत्वा सादिकं व्यापादयति धन्यदीय स्य वा कस्यचिदिरण्यपश्वादेरयमुपश्वकारीति कृत्वा तत्र दंडं निसृजति । तदेवमयं मां मदीयमन्यदीयं वा हिंसितवान् हिनस्ति हिसिष्यतीतिवेत्येवं संनाविते त्रसे स्थावरे वा तं दंडं प्राणव्यपरोपणलक्षणं स्वयमेव निसृजति अन्येन निसर्जयति निसृतं वाऽन्यं स मनुजानीते । इत्येतत्तृतीयं दंडसमादानं हिंसाप्रत्ययिकमाख्यातमिति ॥ ए॥ अदावरे चग्ने दंमसमादाणे अकम्मादमवत्तिएत्ति आदि से जहा णामए केश पुरिसे कबंसिवा जाव वणविजुग्गंसिवा मियवत्तिए मियसंक प्पे मियपणिहाणे मियवदाए गंता एए मियत्तिकानं अन्नयरस्स मियस्स वहाए सआयामेत्ताणं णिसिरंजा स मियं वहिस्सामित्ति कहु तित्तिरंवा वहगंवा चडगंवा लावगंवा कवोयगंवा कविंवा कविंजलंवा विधित्ता न Page #712 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२ वितीये सूत्रकृतांगे वितीयश्रुतस्कंधे वितीयाध्ययनं. व इदखलु से अन्नस्स अघाए अमं फुसंति अकम्मादंम॥॥से जहाणा मए केश पुरिसे सालीणिवा वीदीणिवा कोदवाणिवा कंगणिवा परगाणिवा रालाणिवा णिलिङमाणे अन्नयरस्स तणस्स वदाए सबं णिसिरेङा से सामगं तणगं कुमुगं वीदीऊसियं कलेसुयं तणं बिंदिस्सामित्ति कटु सा लिंवा वीहिंवा कोदवंवा कंगुंवा परगंवा रालयंवा बिंदित्ता नव इति खलु से अन्नस्स अघाए अन्नं फुसंति अकम्मादंझे एवं खलु तस्स तप्पत्ति यं सावऊं आदिजश् चन्ने दंमसमादाणे अकम्मादमवत्तिए आदिए॥१२॥ थर्थ-हवे चोथो क्रिया स्थानक अकस्मात् प्रत्ययिक दंम कहियें.ये जेम कोइएक लुब्धकादिक पुरुष कबने विषे, अथवा यावत् वन गहन पर्वतादिकने विषे, (मियव तिए के०) मृगें करी जेनी आजीविका वडे ते मृगवर्तिक (मियसंकप्पे के०) तथा मृ गने विषे, जेनो संकल्प.. (मियपणिहाणे के०) मृगनेविषे जेनो प्रणिधान एटले अंतःक रणने एवो बतो (मियवहाएगंता के०) मृगना वधने अर्थे वन पर्वतादिकने विषे जश्ने, (एएमियत्तिका के०) था अमुक मृग नजीक देखायडे एमकरीने ( अन्नयरस्समिय स्सवहाए के) ते धन्य मृगना वधने अर्थे (सुथायामेत्ताणंणिसिरेजा के) धनुष्य बाण ताकीने मूके चलावे. (सेमियंवहिस्सामित्तिकटु के० ) ते मृगनो वध करीश, एम करीने एटले ते मृगने वेधशुं एवा नावें बाण मूके थके वचालें अन्य जीव हणाए. ते कहेले (तित्तिरंवा के) तित्तर, (वट्टगंवा के) वर्तक, (चडगंवा के० ) चकलो, (लाव गंवा के) लावक, (कवोयगंवा के) कपोत, (कविंवा के०) होलो, (कविंजलंवा के०) कपिंजल, ए माहेला जीवोने (विधितानवर के०) विंधनारो होय. (इहख खुसेबन्नस्सयमाए के) अहीं निश्चे ते अन्यने अर्थे प्राणघात चिंतव्यो,यने वचमां (थ मंफुसंति के ) अन्यनो घात करे एटले एकने दणवानो प्रयोग कस्यो तेनी वचमां बी जा प्राणीनो घात करे, ते कारणे एने (अकम्मादमे के०) अकस्मात् दंम कहियें॥१०॥ हवे वनस्पति थाश्रित अकस्मात् दंम कहेजे. जेम नाम एवी संनावनायें कोइएक करसणी पुरुष (सालीणिवा के०) सालधान (वीहीणिवा के) ब्रीहीधान्य (कोहवा णिवा के० ) कोशाधान्य, (कंगणिवा के) कांगणीधान्य, (परगाणिवा के०) बंटीधा न्य, (रालाणिवा के०) रालो धान्य, इत्यादिक सर्व चोवीश जातना धान्य, ते धान्यनुं (णिलिङमाणे के०) निदान करता थकां (अन्नयरस्सतणस्सवहाए के०) ते धान्य मांहेलु शाल्यादिक तृण कापवाने अर्थे (सबंणिसिरेजा के०) दात्रादिक शस्त्र, वाहे एट Page #713 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रायधनपतसिंघ बादाडुरका जैनागम संग्रह नाग दुसरा. ६८३ ले चलावे. ( से सामगंत गं कुमुडुगं के०) ते मनमांहे एवं जाणे बेजे हुं ए श्यामादिक ककुमु विशेष दिश. पी (वीहीक सियंकले सुयं के०) बीही कलेसुकादिक धान्य, उंचु करीने धान्यमाहेनुं (छिं दिस्सा मित्तिक के ० ) तृण बेदीश. एप्रकारें करीने, पढी ते तृणो बेद तो थको शाली, व्रीही, कोड़वा, कंगुणी, बंटी, रालो, इत्यादिक धान्यनो ( बिंदित्ताजवंति ho) बेदना याय (इतिखलुसे के०) एप्रकारे नि ते (अन्नस्साए के ० ) अन्यना घातनो अर्थ चिंतवतो थको (अन्नंसंति के० ) अन्यनो घात उपजावे एटले तृणोने बे दो को धान्यने बेदे, ते कारणे (कम्मादमे के०) एने अकस्मात् दंकहिए, एम नितेने ते निमित्तें एटले तत्प्रत्ययिक सावद्य कर्म बंधाय. एप्रकारें ए चोथो क्रिया स्थानक अकस्मात् दंम प्रत्ययिक एवे नामे कह्यो. ॥ ११ ॥ ॥ दीपिका- यथापरं चतुर्थ दंडसमादानमकस्मादंड प्रत्ययिकमाख्यायते । मा दिव्ययं शब्दो मगधदेशे लोके संस्कृतएवचार्यते ततइहापि तथैवोक्तः । तद्यथानाम क चित्पुरुषोलुब्धकादिः कचादिषु गत्वा मृगैर्वृत्तिर्जीविका यस्य समृगवृत्तिकोमृगेषु संकल्पो यस्यसतथा मृगेषु प्रणिधानं चित्तवृतिर्यस्यसतथा मृगवधायें कच्चादिषु गंता नवति तत्रच गतः सएते मृगाइति कृत्वा ऽन्यतरस्य मृगस्य वधार्थमिपुं शरमायामेन समाकृष्य, निसृजति सच मृगं हनिष्यामीति कृत्वा इषुं दिप्तवान् सच तेनेषुणा तित्तिरं, वर्तकंवा ला वकंवा, कपोतकंवा, कपिंवा, कपिंजलंवा, पदिविशेषं व्यापादयिता नवति । इह खल्वसा वयस्यार्थाय निक्षिप्तोदंडोयदाऽन्यं स्पृशति घातयति सोऽकस्मादंड इत्युच्यते ॥ १ ॥ अथ व नस्पतिमुद्दिश्येममेव दंडमाह । तद्यथानामकश्वित्पुरुषः कृषीवलादिः शालिव्रीहिकोवकं गुरालादिधान्यस्य श्यामतृ एक कुमुदकले सुकतृणानि तृणविशेषास्तानि (पिलिजमा ऐ ) अपनयन् धान्यशुद्धिं कुर्वाणोऽन्यतरस्य तृणस्य वेदाय शस्त्रं दात्रादिकं निसृजेत् । सच श्यामादिकं तृणं वेत्स्यासीति कृत्वाऽकस्माच्चानिं वा यावालादिकं वा विद्यात् । र यस्यैवास्मादसौ बेत्ता स्यादित्यन्यस्य कृतेऽन्यं स्पृशति बिनत्ति । एवं खलु तस्य तत्प्रत्ययिकमकस्माद्दंड निमित्तं सावद्यं पापमाधीयते संबध्यते । एतच्चतुर्थ दंडसमादान मकस्मादंड प्रत्ययिकमाख्यातमिति ॥ ११ ॥ ॥ टीका - प्रथापरं चतुर्थ दंडसमादानमकस्मादंड प्रत्ययिकमाख्यायते । इह चाक स्मादित्यर्यशब्दोमगधदेशे सर्वेणाप्यागोपालांगनादिना संस्कृतएवोच्चार्यतइति तदिहा पि तथाभूतएवोच्चारितइति । तद्यथा नामकश्चित्पुरुषोलुब्धकादिकः कबे वा यावदन दुर्गेवा गत्वा मृगैईरिणैराटव्यपशु निर्वृत्तिर्वर्त्तनं यस्यस मृगवृत्तिकः सचैवंनूतोमृगेषु संक For Private Personal Use Only Page #714 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६८४ द्वितीये सूत्रकृतांगे द्वितीयश्रुतस्कंधे द्वितीयाध्ययनं. पोयस्यासौ मृगसंकल्पः । एतदेव दर्शयति । मृगेषु प्रणिधानमंतः करणवृत्तिर्यस्यासौ मृगप्रणिधानः क मृगान् दयामीत्येतदध्यवसायी सन् मृगवधार्थ कहादिषु गंता नवति तत्रच गतः सदृष्ट्वा मृगानेते मृगाइत्येवं कृत्वा तेषां मध्येऽन्यतरस्य मृगस्य वधार्थमिषु॑ श रं ( छायामेतत्ति ) यायामेन समाकृष्य मृगमुद्दिश्य निसृजति सचैव संकल्पोनवति । तथा ऽहं मृगं हनिष्यामीति इधुं दिप्तवान सच तेनेपुणा तित्तिरादिकं पछि विशेषं व्यापादयि तावति । तदेवं खल्वसावन्यस्यार्थाय निचिप्तो दंडो यदाऽन्यं स्पृशति घातयति तदा Sकस्माद्दंड इत्युच्यते ॥ १०॥ अधुना वनस्पतिमुद्दिश्या कस्माद्दंडउच्यते (सेज हेत्यादि) तद्य यानाम कश्चित्पुरुषः कृषीवलादिः शाल्यादेर्धान्यजातस्य श्यामादिकं तृणजातमपनयन् धान्यशुद्धिं कुर्वाणः सन्नन्यतरस्य तृणजातस्यापनयनाथै शस्त्रं दात्रादिकं निसृजेत्सच श्या मादिकं तृणं बेत्स्यामीति कृत्वाऽकस्मान्नालिंवा राजकंवा विद्याइङ्क्षणीयस्यैवासावकस्मा बेत्ता जवति इत्येवमन्यस्यार्थायान्यकृते ऽन्यंवा स्पृशति विनत्ति । यदिवा स्पृशतीत्य नापि परितापं करोतीति दर्शयति । तदेवं खलु तस्य तत्कर्तुस्तत्प्रत्ययिकमकस्मादंड निमित्तं सावद्यमिति पापमाधीयते संबध्यते । तदेतच्चतुर्थदंडसमादानमकस्माद्दंड प्रत्य किमाख्यातमिति ॥ ११ ॥ अदावरे पंचमे दमसमादाणे दिधिविपरियासियादमवत्तिएत्ति च्या दि इसे जहा पाए केइ पुरिसे माइदिंवा पिइहिंवा नाइदिवा नगिणीहिंवा नादिवा पुत्तेदिवा घृतादिवा सुहादिवा सद्धिं संवसमा मित्तं मि तमेव मन्नमाणे मित्तेयपुवे नवइ दिद्धि विपरियासियादमे ||१२|| से ज हा णामए के पुरिसे गामघायंसिवा रागरघायं सिवा खेडकवमंघा सिवा दोणमुदघायंसिवा पट्टणघायंसिवा यासमघायंसिवा सन्नि वेसघासिवा निगमघायंसिवा रायदाणिघायंसिवा तेणं ते मि ति मन्त्रमाणे तेणं दय पुढे नवइ दिद्विविपरिया सियादमे एवं खलु त स्सतप्पत्तियं सावऊंति प्राहिक पंचमे दंमसमादाणे दिडविपरिया सिया दंवत्तिएत्ति यादिए ||१३|| अर्थ-वे पर पांचमो दृष्टिविपर्यास नामे क्रिया स्थानक कहियें बैए. ते जेम नाम एवी संभावनायें. कोइएक पुरुष माता, पिता, नाइ, बेन, नार्या, पुत्र, दीकरी, पुत्रनी बहु, प्रमुख परिवार (सविसमा के० ) सहित वसतो थको ज्ञाति पालवाने य ( मित्तं मित्तमेवमन्नमाणे के० ) पोताना मित्रने दृष्टिना विपर्यास थकी " ए महारो For Private Personal Use Only Page #715 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राय धनपतसिंघ बादाउरका जैनागम संग्रह नाग उसरा. हत्य शत्रुले” एम जाणतो थको ( मित्तेहयपुवेनवः के०) मित्रने हणे. एटले ए पुरुष श त्रुनो विनाश करवा वांबतो मित्रनेज हणे तेने मित्रज हत पूर्व थाय. (दिहितविपरिया सियादमे के०) एने दृष्टि विपर्यास दंम कहिये. ॥१२॥ - वली बीजी रीतें देखाडे, ते जेम कोइएक पुरुष (गामघायंसिवा के०) गामनी घा तें प्रवर्ततो थको, ( गरघायंसिवा के०) नगरनी घातें प्रवर्ततो थको, (खेडकवडमं मबघायंसिवा के०) खेड कन्वड मंझपनीघातें प्रवर्ततो थको, (दोणमुहवायंसिवा के०) शे णमुखनी घातें प्रवर्त्ततो थको, (पट्टणघायंसिवा के०) पट्टणनी घातें प्रवर्ततो थको, (आ समघायं सिवा के०) याश्रमनी घातें प्रवर्ततो थको, (सन्निवेसघायंसिवा के ) सन्नि वेशनी घातें प्रवर्त्ततो थको, (निग्गमघायंसिवा के०) निगमनी घाते प्रवर्ततो थको, रा यहाणिघायंसिवा के०) राजधानीनी घातें प्रवर्ततो थको, (अतेणंतेणमित्तिमन्नमाणेकेस) अचोरने चोर करी जाणतो थको, (यतेणंदयपुवेनवंति के७) अचोर एटले साधुनेज हणे तेथी साधुज हत पूर्वथाय, तेथीए दृष्टि विपर्यास दंम कहिए. एम निश्चं तेने तत्प्रत्ययिक सा वद्य कर्म बंधाय । ए पांचमो क्रियास्थानक दृष्टिविपर्यास नामे दंम समादान कह्यो.॥१३॥ ॥ दीपिका-अथापरं पंचमं दंडसमादानं दृष्टिविपर्यासप्रत्ययिकमित्याख्यायते । त द्यथानाम कश्चित्पुरुषश्चारनहादिर्मातृपितृनगिनीना-पुत्रउहितृस्नुषादिनिः सार्ध वस न झातिपालनाय मित्रमेव दृष्टिविपर्यासादमित्रोयमिति मन्यमानोहन्यात्तेनच दृष्टिवि पर्यासान्मित्रमेव हतपूर्व स्यादतोदृष्टिविपर्यासदंडोऽयं ॥ १२॥ पुनरन्यथा तमेवाह । य थावा कश्चित्पुरुषोग्रामघातादिके वित्रांतचेतादृष्टिविपर्यासादचौरमेव चौरोयमिति म न्यमानोहन्यात् । एवं तेन ब्रांतेनाचौरएव हतपूर्वः स्यात् । ग्रामादिलणं चेदं । ग्रामो वृत्यावृतः स्यान्नगरमुरुचतुर्गोपुरोनासिशोनं । खेटं नद्यश्वेिष्टं परिवृतमनितः खटं प वतेन ॥ ग्रामैर्युक्तं मटं बंदलितदशशतैः पत्तनं रत्नयोनिं शेणारख्यं सिंधुवेलावलयितम थ संबाधनंवाऽडिशृंगेइति । श्राश्रमस्तापसस्थानं । सन्निवेशः सार्थकटकादिवासः । निग मोबदुवणिग्वासः । राजधानी राजकुलस्थानं । सोयं दृष्टिविपर्यासदंडः । तदेवं खलु तस्य दृष्टिविपर्यासप्रत्ययिकं सावयं कर्माधीयते । इदं पंचमं दंडसमादानं दृष्टिविपर्या सप्रत्ययिकमारख्यातमिति ॥ १३ ॥ ॥ टीका-अथापरं पंचमं दंडसमादानं दृष्टिविपर्यासदंडप्रत्ययिकमित्याख्यायते । त द्यथानाम कश्चित्पुरुषश्चारजट्टादिकोमातृपितृन्रातृनगिनीनार्यापुत्रऽहितृस्नुषादिनिः सार्धं वसंस्तिष्ठन् ज्ञातिपालनकते मित्रमेव दृष्टिविपर्यासादमित्रोयमित्येवं मन्यमानोहन्या Page #716 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६८६ द्वितीये सूत्रकृतांगे द्वितीयश्रुतस्कंधे द्वितीयाध्ययनं . त् व्यापादयेत्तेन च दृष्टिविपर्यासवता मित्रमेव हतपूर्व नवतीति प्रतोदृष्टिविपर्यासदं डोयं ॥ १२ ॥ पुनरप्यन्यथा तमेवाह । ( सेजहेत्यादि ) तद्यथानाम कश्चित्पुरुषः पुरुष कारमु ६हन् ग्रामघातादिके विन्रमे प्रांतचेतादृष्टिविपर्यासादचौरमेव चौरोयमित्येवं म न्यमानोव्यापादयेत् । तदेवं तेन प्रांतमनसा विज्रमाकुलेनाचौरएव हतपूर्वोजव ति सोऽयं दृष्टिविपर्यासदंडः । तदेवं खलु तस्य दृष्टिविपर्यासवत् तत्प्रत्ययिकं सावधं कर्मा धीयते । तदेवं पंचमं दंडसमादानं दृष्टिविपर्यास प्रत्ययिकमाख्यातमिति ॥ १३ ॥ अहावरे बधे किरियाघाणे मोसावत्तिएत्ति च्यादिऊड़ से जढ़ा सामए केइ पु रिसे यदेनंवा पाइदेनंवा गारदेनंवा परिवारदेनंवा सयमेव मुसंवयं तिमेवि मुसंवयावेंति मुसंवयंतंपि मं समगुजाइ एवं खनुतस्स त प्पत्तियं सावति च्यादिक्कड़ ब किरियाहाणे मोसावत्तिएत्ति आदिए ॥ २४ ॥ अर्थ- हवे हो किया स्थानक मृषावादप्रत्ययिक कहेले. पूर्वोक्त पांचने दंकसमादान पणे का. कारण के, तेमांहे प्रायः परनो उपघात थायबे, घने ग्रंहींथी हवे क्रिया जबे माटे एने क्रियास्थान एवी संज्ञा करवी ने हवे एथकी यागलजे क्रिया स्थान क कहेशे, ते थकी प्रायः परजीवनो विनाश नथी, तेमाटे तेने क्रियास्थान संज्ञा कहेवा य ने पूर्वना पांच स्थानने दंमसमादान एवी संज्ञाबे. एटलुं विशेष जाणवुं. ७ U cast क्रिया स्थानक विचारियें ढैयें. ते जेम नाम एवी संभावनायें कोइएक पुरु प ( हेवा के ) पोताने अर्थे ( पाइहेवा के० ) ज्ञाति गोत्रीने अर्थे ( अगा रवा के ० ) घरने खर्थे ( परिवार हेनंवा के० ) परिवार जे दास दासी तेने ( सयमेव संवयंति के ० ) स्वयमेव मृषावाद बोले एटले जेम हुं कोई प्रकारे चोर नथी अथवा महारो परिवार कोइ चोर नथी एवो मृषावाद बोले. (विमुसंवया वेंति के ० ) अन्य पासें मृषावाद बोलावे, (मुसंवयं तं पियसं समजा इत्ति के ० ) अन्य कोई मृषावा द बोले तेने अनुमोदे, एरीते निवें करण करावण अनुमोदन थकी मृषावाद बोले ते तत्प्रत्ययिक सावद्यकर्म बंधाय. ए बो क्रियास्थानक मृषावाद प्रत्ययिक कह्यो ॥ १४ ॥ || दीपिका - प्रथापरं षष्ठं क्रियास्थानं मृषावादप्रत्ययिकमाख्यायते । तद्यथानाम कश्चित्पुरुषयात्मनिमित्तं ज्ञातिपरिवारनिमित्तंवा स्वयमेव मृषावादं वदति नायं मदीयइत्या दि तथाऽचौरं चौरं वदति तथाऽन्येन मृषावादं वादयति अन्यं मृषावादं वदतं समनुजानी ते । एवं खलु तस्य तत्प्रत्ययिकं सावद्यं कर्माधीयते बध्यते । एतत्पष्ठं क्रियास्थानं मृषावा दप्रत्ययिकमाख्यातं । पूर्वोक्तानां पंचानां क्रियास्थानानां सत्यपि क्रियास्थानत्वे प्राय For Private Personal Use Only Page #717 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राय धनपतसिंघ बादाडुरका जैनागम संग्रह नाग दुसरा. ६८७ परोपघातित्वाइंड समादानसंज्ञा कृता । षष्ठादिषु च प्रायोन परघातः स्यादतः क्रियास्था नसंज्ञोच्यते ॥ १४ ॥ ॥ टीका - अपरं षष्ठं क्रियास्थानं मृषावादप्रत्ययिकमाख्यायते । तत्रच पूर्वोक्तानां क्रि यास्थानत्वे प्रायशः परोपघातोनवतीति कृत्वा दंडसमादानकता षष्ठादिषुच बाहुल्येन न परव्यापादानं नवतीत्यतः क्रियास्थानमित्येषा संशोच्यते । तद्यथानाम कश्चित्पुरुषः स्वपक्षावेशादाग्रहादात्मनि कृतं निमित्तं यावत्परिवारनिमित्तं वा सद्भूतार्थनिन्दवरूप मसभूतोनावनस्वनावं स्वयमेव मृषावादं ववति । तद्यथा नाहं मदीयोवा कश्चिच्चौरः सच चौरमपि सद्भूतमप्यर्थमपलपति तथा परमचौरं चौरमिति वदति तथान्येन मृषा वादं नाएायति तथान्यांश्च मृषावादं वदतः समनुजानीते । तदेवं खलु तस्य योगत्र earth मृषावादं वदतस्तत्प्रत्ययिकं सावद्यं कर्माधीयते संबध्यते । तदेतत्पष्ठं क्रियास्थानं मृषावादप्रत्ययिकमाख्यातमिति ॥ १४ ॥ अढावरे सत्तमे किरियाघाणे यदिन्नादाणवत्तिएत्ति च्यादि से जढ़ा सामए केइ पुरिसे प्राय देनंवा जाव परिवारदेनंवा सयमेव दिन्नं यादि यन्नेव यदन्नं यादियावेंति यदन्नं च्यादियंतं यन्नं समजा इ एवं खलु तस्स तष्पत्तियं सावऊंति च्याहिक सत्तमे किरियाहाणे अदिन्नादाणवत्तिएत्ति आदिए ॥ १५ ॥ - हवे पर सातमो क्रिया स्थानक दत्तादान प्रत्ययिक कहे. ते जेम ना म एवी संभावनायें. कोई एक पुरुष पोताना खात्माने अर्थे ज्ञातिगोत्रीने अर्थे यावत् प रिवारने पोते दत्तादान ग्रहण करें, बीजाने प्रदत्तादान जेवरावे, दत्तादान बीजो कोइ तो होय तेने अनुमोदन खापे, एरीते निवें थकी तेने अदत्तादान तत्प्र ययिक कर्म बंधाय; एटले सातम क्रियास्थानक प्रदत्तादान प्रत्ययिक कह्यो . ॥ १५ ॥ || दीपिका- यथाऽपरं सप्तमं क्रियास्थानं प्रदत्तादानप्रत्ययिकमाख्यायते । इदं प्राग्वत् ॥ १५ ॥ ॥ टीका - प्रथापरं सप्तमं क्रियास्थानं यदत्तादानप्रत्ययिकमाख्यायते । एतदपि प्राग्व ज्यं । तद्यथानाम कश्चित्पुरुषयात्मनिमित्तं यावत्परिवारनिमित्तं परइष्यमदन्तमेव गृ एही यादपरंच ग्राहये नृपहंतमप्यपरं समनुजानीयादित्येवं तस्यादत्तादानप्रत्ययिकं कर्म संबध्यते । इति सप्तमं क्रियास्थानमाख्यातमिति ॥ १५ ॥ For Private Personal Use Only Page #718 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६७ वितीये सूत्रकृतांगे वितीयश्रुतस्कंधे वितीयाध्ययनं. अहावरे अध्मे किरियाहाणे असनवत्तिएत्ति आदि से जहा णाम ए के पुरिसे पत्रिणं केइकिंविसंवादेति सयमेव दीणे दीणे हे उम्मणे नहयमणसंकप्पे चिंतासोगसागरसंपविछे करतलपल्लहनमुहे अशा पोवगए नूमिगयदिहिएशियाई तस्सणं असत्या आसंसश्या चत्तारि घाणा एवमादिङाइ तं कोहे माणे माया लोहे असबमेव कोदमाणमा यालोदे एवं खलु तस्स तप्पत्तियं सावऊंति आदिङ अध्मे किरिया छाणे असबवत्तिएत्ति आदिए ॥२६॥ अर्थ-हवे अपर आठमो क्रिया स्थानक अध्यात्मिकप्रत्ययिक नामे कहेले. अध्या त्मिक केहेतां जे कर्म बंधन कारण एवो नाव चित्त थकी उपजे, तेमाटे अध्यात्मिक क हिये. ते जेम नाम एवी संनावनायें कोइएक पुरुषले तेने (णबिणं के किंविसंवाति के०) कोई विखवादनुं कारण नथी. विखवाद एटले परानव तेने को करे नही, तथापि ते पुरुष, (सयमेवके०) पोतेज (हीरोदीरोउम्मऐके०) हीन, दीन, उष्ट, अने उर्मन एटले लुमा मन वालो थाय.(उदयमणसंकप्पे के०)अनवस्थित चित्त संकल्प एवो थको, (चिंतासोगसागरसंपवि के) चिंता शोक रूप समुहमांहे पेठो एवो थको, जे धव स्था करे, ते देखाडे. (करतलपत्नहबमुहे के०) हाथना तलाने विषे स्थाप्युंडे मुख जेणे एटले गालने विषे हाथ देश्ने (घट्टजाणोवगए के०) बार्तध्यान सहित (नू मिगयदिहिए धियाइं के ) नूमिनी सन्मुख एकाग्रचित्तें जोतो निर्विवेक पणे आर्त, रौ इ, ध्यान ध्यावे (तस्सणंअशबया के ) तेने अध्यात्मनी (आसंसश्या के०) आ शंसा मिश्रित (चत्तारिहाणाएवमाइजश्त के०) चार स्थानक कहिए. ते कहेले पेहे लो क्रोध, बीजु मान, त्रीजी माया, अने चोथो लोन (असबमेव के०) ते पोताना मनथीज उत्पन्नथाय ए क्रोध, मान, माया, अने लोन, ए चारे करी जीवनो मन दोष मुष्ट थायः एरीते निश्चे तेने तत्प्रत्ययिक सावध कर्म बंधाय. तेमाटे ए आठमो किया स्थानक बाध्यत्मिक प्रत्ययिक एवे नामे कह्यो. ॥ १६ ॥ ॥ दीपिका-अथापरमष्टमं क्रियास्थानमाध्यात्मिकमंतःकरणोअवमाख्यायते । य था कश्चिन्नरस्तस्य नास्ति कश्चिक्षिसंवादयिता परानवकरस्तथाप्यसौ स्वयमेव हीनोदीनो उष्टोउर्मनाथपहतमनःसंकल्पः चिंताप्रधानः शोकश्चिंताशोकस्तत्र प्रविष्टः करतले पर्यस्तं स्थितं मुखं यस्य सतथा धार्तध्यानोपगतोनूमिगतदृष्टिायति तस्यैवमाध्यात्मिकानि चित्तोनवानि असंशयितानि निःसंशयानि चत्वारि स्थानानिस्युः । तानि चैवमा Page #719 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राय धनपतसिंघ बाहाउरका जैनागम संग्रह नाग उसरा. ६॥ ख्यायंते । तद्यथा । क्रोधमानमायालोनस्थानानि । तेच क्रोधमानमायालोनावात्मोन वाः । एनिरेव मनोउष्टं स्यात् । एवं तस्य तत्प्रत्ययिकमध्यात्मनिमित्तं सावद्यं कर्माधी यते । तदेवमष्टममाध्यात्मिकारख्यं क्रियास्थानमाख्यातं ॥ १६ ॥ ॥ टीका-अथापरमष्टमं क्रियास्थानमाध्यात्मिकमित्यंतःकरणोनवमाख्यायते । तद्य था नामकश्चित्पुरुषश्चित्तोपेदाप्रधानस्तस्य च नास्ति कश्चिदिसंवादयिता । न तस्य कश्चि विसंवादेन परिनावेनवा सबूतोनावनेनवा चित्तःखमुत्पादयति तथाप्यसौ स्वयमेव वापसदवहीनोऽर्गतवहीनोमुश्चित्ततया उष्टोउर्मनास्तथोपहतोऽस्वतया मनःसंकल्पो यस्य सतथा चिंतैव शोकइति सागरश्चिताप्रधानोवा शोकश्चिताशोकसागरप्रविष्टः। तथानू तश्च यदवस्थोनवति तदर्शयति । करतले पर्यस्तं मुखं यस्य सतथाऽहर्निशं नवति तथा तथ्यानोपगतोऽपगतसदिवेकतया धर्मध्यानदूरवर्ती निर्निमित्तमेव ६ोपहतवक्ष्यायति । तस्यैवं चिंताशोकसागरावगाढस्य सतयाध्यात्मिकान्यंतःकरणोनवानि मनःसंश्रितान्यसं शयितानि वा निःसंशयितानि चत्वारि वदयमाणानि स्थानानि नवंति। तानि चैव समा ख्यायंते । तद्यथा क्रोधस्थानं, मानस्थानं,मायास्थानं,लोजस्थानमिति । ते चावश्यं को धमानमायालोनायात्मनोऽधिनवंत्याध्यात्मिकाएनिरेव सनिष्टं मनोनवति। तदेव तस्य उर्मनसः क्रोधमानमायालोनवतएवमेवोपहतमनःसंकल्पस्य तत्प्रत्ययिकमध्यात्मनिमि तं सावध कर्माधीयते संबध्यते। तदेवमेतक्रियास्थानमाध्यात्मिकारख्यमाख्यातमिति॥१६॥ अहावरे णवमे किरियाहाणे माणवत्तिएत्ति आदिजसे जहा णामए के परिसे जातिमएणवा कलमएणवा बलमएणवा रूवमएणवा तवमएण वा सुयमएणवा लानमएणवा ईस्सरियमएणवा पन्नामएणवा अन्नतरे णवा मयहाणेणं मत्ते समाणे परं दिलेंति निदेति खिंसति गरदति परिन व अवमस्मेति इत्तरिए अय अहमंसि पुण विसि जाइकुलबलाइगुणो ववेए एवं अप्पाणं समुक्कस्से देहाच्चुए कम्मबित्तिए अवसेपयाई तंजहा गप्नागनं जम्मा जम्मं मारानमारं पारगानणरगं चंमे थचे चवले माणियावि नव एवं खलु तस्स तप्पत्तियं सावऊंति आदिऊ णवमे किरियाहाणे माणवत्तिएत्ति आदिए॥१७॥ अर्थ-अथ हवे अपर नवमो क्रियास्थानक मान प्रत्ययिक नामे कहिए बैएं. ते जेम नाम एवी संनावनायें कोइएक पुरुष (जातिमएणवा के०) जाति एटले माता Page #720 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हए वितीये सूत्रकृतांगे वितीय श्रुतस्कंधे वितीयाध्ययनं. नो पद, तेना मदें करीने, (कुलमएणवा के०) कुल एटले पितानो पद, तेना मदें क रीने, (बलमएणवा के० ) शरीरनुं बल, तेना मदें करीने, (रूवमएणवा के० ) रूपने मदें करीने, (तवमएणवा के०) तपने मदें करीने, (सुयमएणवा के०) श्रुतज्ञानने मदें करीने, (लानमएणवा के) लानने मदें करीने, (इस्सरियमएणवा के) ऐश्वर्य एटले ठकुराइने मदें करीने, (पन्नामएएवा के०)प्रझाना मदें करीने, एटलाना मद (यनतरेणवा के) अथवा अन्य एटले बीजा कोई (मयहागणं के०) मदना स्थानकें करीने (मत्तेसमाणे के०) मातो तो (पहिलेंति के) बीजानी हेलना करे, (निंदेंति के) निंदा करे, (खिंसति के ) खष्ट करे, (गरहति के० ) गर्दा करे, (परिजवर के० ) परानव करे, (अवमामेति के० ) अपमान करे, (इत्तरिएब य के०) ए बापडो जघन्य एटले जातिकुलादिकें हीन. (अहमंसिपुणविसिजाइकु लबलाश्गुणोववेए के०) दुं वली विशेष जाति, कुल, बलादिकगुणेकरी सहितg (एवंथप्पाणंसमुक्कस्से के०) एम पोताना आत्माने नत्कर्षे एटले अहंकार करे. हवे एवा मद करनारने विपाक देखाडेले. ( देहान्छुए के० ) ते पुरुष या लोक माहे पण निंदा अने गर्हार्ने स्थानक थाय, अने परलोके पण निंदा अने गर्दान स्थानक थाय. देहाचुए एटले था शरीरथकी चवीने परनवे (कम्मबित्तिए के० ) कर्मवित्तीय (अवसेपयाई के० ) एतावता कर्मने वश वर्ततो चतुर्गतिक संसार मांहे परिचमण करे ( तंजहा के०) ते कहेले (गप्पागनं के०) एक गर्न थकी मरण पा मिने, वली बीजा गर्न मांहे उपजे. (जम्माजम्मं के०) एक जन्म थकी बीजें ज न्म पामे, (मारामारं के०) मरण थकी मरण पामे, (परगाणरगं के ) नरक थकी निकलीने वली नरकांतरे नरकमां जश्ने तीव्र दुःख जोगवे, एटले ते नरकमांहे थी निकलीने, सिंह मत्स्यादिक मांहे उत्पन्न थाय, फरी त्यांथी मरण पामीने तीव्रतर नरकांतरें जाय. एतावता ते (चं के०) रौ अहंकारी (थके के०) स्तब्ध अनम्र शील (चवले के०) चपल एवा लक्ष्णेयुक्त (माणियाविनव के०) ते अनिमानी पुरुष होय एम निथें तेने तत्प्रत्ययिक सावद्य कर्म बंधाय, ए नवमो क्रिया स्थानक मान प्रत्ययिक नामे कह्यो ॥ १७ ॥ . ॥ दीपिका-अथापरं नवमं क्रियास्थानं मानप्रत्ययिकमाख्यायते । तद्यथा कश्चित्पुरुषो जात्यादिगुणोपेतः सन् जातिकुलबलरूपतपःश्रुतलानैश्वर्यप्रज्ञामदारख्यैरष्टनिर्मदस्थानैर न्यतरेण वा मत्तः परं हीनबुध्या हीलयति, निंदति, जुगुप्सते, गर्दति, परिजवति । यथाय मितरोजघन्योहीनोमत्तः कुलादिनिः । अहं पुनर्विशिष्टकुलादिगुणोपेतएवमात्मानमुत्क Page #721 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रायधनपतसिंघ बादाडुरका जैनागम संग्रह नाग इसरा. ६१ येत् । एवं जात्यादिमदमत्तः सन् इहैव निंद्यः स्यात् । अत्रच जात्यादिमद व्यादिसंयो गाज्ञेयाः । तथाहि । जातिमदः कस्यचिन्न कुलमदः, १ कस्यचित्कुल मद एव, न जातिम दः २ कस्यचियं ३ कस्य चिडनयमपि न. ४ एवं पद ६येन चत्वारोनंगाः । पदत्रयेणाष्टौ, पदचतुष्टयेन षोडश, पंचनिः पदै त्रिंशत् षभिश्चतुःषष्टिः सप्तनिः १२८ प्रष्टनिः २५६ सर्वत्र मदानावरूपश्चरमनंग: गुडइति । समानी देहाच्युतोमृतः सन् कर्मद्वितीयः क सहायोऽवशः परवशः प्रयाति नवांतरं । तद्यथा गर्ना नै जन्मनएकस्मात्परं जन्म, मा रान्मरणान्मारं मरणांतरं व्रजति नरकतुल्याचंडाला दिवासान्नरकं रत्नप्रनादिकं याति । अथवा नरकात्धृत्य सिंहमत्स्यादावुत्पद्य पुनरतितीव्रं नरकांतरं याति । तदेवं मानी परपरिनवे सति चंडोरोशेऽन्यं हंति तदभावे श्रात्मानमेव हंति स्तब्धश्वपलो यत्किंचन का स्यात् मानी सन् एवं खलु तस्य तत्प्रत्ययिकं माननिमित्तं सावद्यं कर्माधीयते Sad | नवममेतक्रियास्थानमाख्यातमिति ॥ १७ ॥ ब ॥ टीका - प्रथापरं नवमं क्रियास्थानं मानप्रत्ययिकमाख्यायते । तद्यथानाम कश्चित्पु रुषोजात्यादिगुणोपेतः सन् जातिकुलबलरूपतपः श्रुतलानैश्वर्य प्रज्ञामदाख्यैरष्टनिर्मदस्था नैरन्यतरेणवा मत्तः परमवबुत्ध्या हीजयति तथा निंदति, जुगुप्सते, गर्हति, परिभवति, एतानि चैकार्थिकानि कथंचिद्भेदं चोत्प्रेक्ष्य व्याख्येयानीति । यथा परिनवति तथा दर्श यति । इतरोयं जघन्योहीनजातिकः कुलबलरूपादि निर्दूरमपचष्टः सर्वजनावगीतोयमि ति । श्रहं पुनर्विशिष्टजाति कुलबला दिगुणोपेत एवमात्मानं समुत्कर्षयेदिति । सांप्रतं मानोत्कर्षविपाकमाह । ( देहाच्चु इत्यादि ) तदेवं जात्यादिमदोन्मतः सन्निदैव लोके गर्हितनवति । यत्र जात्यादिपद घ्यादिसंयोगाइष्टव्यास्ते चैवं नवंति । जातिमदः, कस्य चिन्न कुलमदोऽपरस्य कुलमदो, न जातिमदः परस्योनयमपरस्यानुनय मित्येवं पदत्र येणाष्टी चतुर्भिः पोडशेत्यादि यावदष्टभिः पदैः षट्पंचाशदधिकं शतव्यमिति । सर्वत्र मदानावरूपचरमजंगः शुद्धइति । परलोकेऽपिच मानी दुःखनाग्नवतीत्यनेन प्रदर्श्यते । स्वायुषः कये देहाच्युतोनवांतरं गछेनानकर्मा द्वितीयः कर्मपरायत्तत्वादवशः परतं त्रः प्रयाति । तद्यथा गर्नाजन पंचेंडियापेकं तथा गर्भाजन विकलेंड़ियेषूत्पद्यमानः पुनर गर्नामेवं गर्भादगर्नमेतच्च नरककल्प गर्न दुःखापेचायाम निहितमुत्पद्यमानडुःखापेक्ष्या त्विदमनधीयते । जन्मन एकस्मादपरं जन्मांतरं व्रजति । तथा मरणं मारस्तस्मान्मारांतरं व्रजति तथा नरकदेश्यानुपाका दिवासाइनप्रनादिकं नरकांतरं व्रजति । यदिवा नरका सीमंतकादिकाद्धृत्य सिंह मत्स्यादावुत्पद्य पुनरपि तीव्रतरं नरकांतरं व्रजति । तदेवं नवरंगभूमी संसारचक्रवाजे स्त्रीपुंनपुंसकादीनि बहून्यवस्थांतरास्यनुवंति । तदेवं मा For Private Personal Use Only Page #722 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीये सूत्रकृतांगे द्वितीय श्रुतस्कंधे द्वितीयाध्ययनं. नी परपरिनवेसति चंडरौशेनवति परस्यापकरोति तदनावे ह्यात्मानं व्यापादयति । तथा स्तब्धश्चपलोयत्किंचनकारी मानी सन्सर्वोप्येतदवस्थोभवतीति । तदेवं तत्प्रत्ययि कंमाननिमित्तं सावद्यं कर्माधीयते संबध्यते । नवममेतत्क्रियास्थानमाख्यातमिति ॥ १७ ॥ ६२ ढावरे दसमे किरियाद्वाणे मित्तदोसवत्तिएत्ति च्यादिक से जढ़ा णाम एकेइ पुरिसे माइदिवा पिताहिंवा नाइदिवा नीदिवानादिवा धू यादिवा पुत्तेहिंवा सुहादिवा सद्धिं संवसमाणे तेसिं अन्न यरेसि अदाल दुर्गासि वराहंसि सयमेव गरुयं दंग निवत्तेति तं जहा सीदग वियडेंसि वा कार्य नबोलित्तानवति सिणोद्गवियडे णवा कार्यं नृसिंचित्ता नवति गणिकाएणं कार्यं नवड दत्ताभवति जोतेरावा वेतेरावा ऐतेावा तयाइ वा सेवा बियाएवा लयाएवा पासाईं तद्दालित्ताभवति मेणवा प्र डीवा मुट्ठीवा लेखूणवा कवालेावा कायंत्र्यानडित्ता भवति तदपगा रे पुरिसजाए संवसमाणे डुम्मणा भवति पवसमाणे सुमणा भवति त दपगारे पुरिसजाए दंमपासी दंमगुरुए दंमपुरकडे दिए इमंसि लो गंसि संजल कोढणे पिठमंसियावि नवति एवं खल तस्स तप्पत्तियं सावनंति आदिति दसमे किरियाघाणे मित्तदोसवत्तिएत्ति चाहिए ॥१८॥ ॥ अर्थ-यथ हवे पर दशमो क्रिया स्थानक मित्र दोष प्रत्ययिक कहियेंबैयें. ते जेम नाम एवी संभावनायें कोइएक पुरुष माता, पिता, नाइ, बेन, स्त्री, बेटी, पुत्र, पुत्रनीस्त्री, तेवढु जावी. (सिद्धिसंवसमा के० ) एटला सायें वसतो थको ( ते सिंन्नयरेसि ho) ते मातापितादिकथी कोई नेरो अजाण पणे नानोग थकी ( हालडुगं सि के० ) यथाकथंचित् न्हानो दुर्वचन प्रमुखनो अथवा काय थकी हस्त पादादि कनो संघ प्रमुख एवो (अवराहंसि के० ) अपराध यये बते ( सयमेव के ० ) पोतेंज क्रोधें करीधमतो को तेने ( गुरुमंदमं निवत्ते ति के०) महोटो दंग करे. ( तंजहा के०) ते Tea (सीदग विडं सिवा के० ) सीतल पाणीयें करी सीतकालने विषे ( कायं हो वित्तावति के० ) ते अपराधीनु शरीर ठंमापाली मांहे बोले. एवा कार्यनो करनार थाय तथा ( उसियोद्गविय डेवाकार्यच सिंचित्तानवति के० ) उम्मकालें अत्यंत न म पाणीयें करी ने उम तेजें करीने तेना शरीरने सिंचे शरीरनुं शोषण करनार याय, ( गणिका कार्य व हित्तानवंति के० ) प्रमिकायें करीने तेना शरीरनुं दहन करनार For Private Personal Use Only Page #723 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रायधनपतसिंघ बादाडुरका जैनागम संग्रह नाग दुसरा. ६०३ थाय, ( जोतेरावा के० ) जोत्रे करी, ( वेतेणवा के० ) वेत्रें करी, अथवा ( तेलवा ho ) नेतरे कर, ( तयाइवाके० ) त्वचायें करी अथवा ( कसेणवाके० ) ताजणे चा बुकें करी, (याएवा के० ) नाडायें करी ( लयाएवा के० ) जता एटले वेलुयें करारी, दोरीकर ( पासा नहा लित्तानवति के० ) तेना पार्श्वनागना चामडाने उखेडनार याय, ( मेवा के० ) दंगे करी लाकडीयें करी ( घडीवा के० ) हाडकायें करी, (मुट्ठीवा के० ) मुष्टियें करी ( लेलूगवा के० ) पाषाणने कटके करी, ( कवाले वा ho ) ठीकरीयें करी, कपालादिकेंकरी, ( कायंखानडित्तानवति के० ) तेना शरीरने ता डनार था, किंबहुना ( तहप्पगारे के० ) तथा प्रकारना दंमना करनार एवा (पुरिस जाए के० ) पुरुष जाति जे तथा प्रकारना कुकर्मना करनार होए तेनी साथे ( संवसमा के० ) एकai रहेतां बता सकन पुरुष जे माता पितादिक ते पण ( डुम्मणानवंति ho) Sर्मन थने देशांतर जता रहे पढी ( पवसमा के० ) ते थकी लगा रहेवा थी ( सुमणानवंति के० ) सुमन थाय, एटले तेने बोडघाथी हर्षित थाय. एवा ( तह पगारे के० ) तथा प्रकारना ( पुरिसजाए के० ) पुरुष जाति जे थोडा अपराधीने पण मना देनार, (दं पास के ० ) अल्पापराधने विषे प्रति कोपकरनार, ते दंडपार्श्वी (दंमगुरु एके०) काकरो दंग करे, (दंमपुरेक्क डेके ०) तेने सर्व काल दंमज अग्रेसर बे. ते पुरुष (हिएइमं सिलोगं सिके० ) थालोकने विषे पण पोताना जीवने यहित कारी धने ( हिएपरं सिलोगंसि के० ) परलोकने विषे पण पोताना जीवने हित कारीबे तेनुं कारण j? तोके तेजीव, (संजन के० ) णे णे ज्वजे, ( कोहो के० ) को क्रोध करे, (पिहिमंसिया विनवति के० ) पृष्ठ मांस नक्षण करनार होय, पुंठे पाउल प्रव वादनो बोलनार होय, एम निश्चें तेहने तत्प्रत्ययिक एटले ते निमित्तें सावध कर्म बंधाय. ए दशमो क्रिया स्थानक मित्र दोष प्रत्ययिक नामे कह्यो. ॥ १८ ॥ ॥ दीपिका-प्रथापरं दशमं क्रियास्थानं मित्रदोषप्रत्ययिकमाख्यायते । तद्यथानाम कश्चित्पुरुषः प्रनुकल्पोमाता पितृसुत्दृत्स्वजनादिनिः सार्धं संवसन् तेषां मातापित्रादीनाम न्यतमेनाऽनानोगतोयथाकथंचिल्लघुतमेप्यपराधे स्वयमेवात्मना क्रोधतो गुरुतरं दंडं वर्तय ति करोति । तद्यथा शीतोदकविकटे शिशिरादावतिशीतोदके कार्य शरीरमपराधिनोऽवबो यता जवति तथा उमोदकविकटेन कायमप सिंचयिता नवति । विकटग्रहपाडुमतै कांजिकादिना निकायेन उल्मुकेन तप्तलोहेनवा कायमुपदाहयिता नवति । ( जोए यत्ति ) जोत्रेण वेत्रेणवा नेत्रोवृद्ध विशेषस्तेन कशादिनावा लतयावा शरीरपार्श्वाणि नहा लयितुं चर्माणि जुंपयितुं नवति । दंडेन स्थना मुष्टिना लेष्टुना कपालेन नांडखंडेन कायमु For Private Personal Use Only Page #724 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६ए। वितीये सूत्रकृतांगे वितीय श्रुतस्कंधे वितीयाध्ययनं. पताडयिता नवति । तथाविधे पुरुषे स्वल्पापराधेपि महादंडकारिणि एकत्र वासं कुर्वति मातापित्रादयोउनसः स्युः । तस्मिन् प्रवसति दूरं गजति सति सहवासिनः सुमनसः सुखिनः स्युः । तथाप्रकारस्तादृशः पुरुषोदंडस्य पार्श्व दंडपार्थ तदिद्यते यस्यासौ, दंडप्रत त्तोदंडः पुरस्कृतोयेन सदंडपुरस्कृतोऽस्मिन् लोके स्वस्य परेषां चाऽहितः परलोकेप्यहितः संज्वलनः क्रोधकारी क्रोधनोवधबंधादिषु अविमृश्य प्रवृत्तिकत् पष्ठिमांसखादकः परम र्मोद्घट्टनतः। एवं तस्य स्वल्पापराधेपि महादंड कर्तुस्तदंडप्रत्ययिकं सावा कर्माधीयते बध्यते । तदेतदशमं क्रियास्थानमारख्यातमिति । अन्ये पुनरष्टमं क्रियास्थानमात्मदोषप्रत्य यिकमाचदते । नवमंतु परदोषप्रत्ययिकं । दशमं पुनः प्राणवृत्तिकमिति ॥ १७ ॥ ॥टीका-अथापरं दशमं क्रियास्थानं मित्रदोषप्रत्ययिकमारख्यायते । तद्यथानाम कश्चित्पु रुषः प्रनुकल्पोमातापितृसुहृत्स्वजनादिनिः सार्धं परिवसंस्तेषांच मातापित्रादीनामन्यतमे नानानोगतया यथाकथंचि नघुतमेप्यपराधे वाचिके उर्वचनादिके तथा कायिके हस्तपा दादिके संघट्टरूपे कते सति स्वयमेवात्मना क्रोधमातोगुरुतरं दंडं दुःखोत्पादकं निवर्त यति करोति । तद्यथा शीतोदके विकटे प्रनूते शीतेवा शिशिरादौ तस्यापराधकर्तुः काय मधोबोलयिता नवति तथोमोदकविकटेन कार्य शरीरमपसिंचयिता । तत्र विकटग्रह णामतैलेन कांजिका दिनावा कायमुपतापयिता नवति तथाऽनिकायेनाल्मुकेन तप्ताय सावा कायमुपदाहयिता नवति तथा जोत्रेणवा वेत्रेणवा नेत्रेणवा त्वचा वासनादिक पाललतया वाऽन्यतरेण वा दवरकेण ताडनतस्तस्यापराधकर्तुः शरीरपार्थाणि उहालयितुं चर्माणि मुंपयितुं नवति तथा दंडादिना कायमुपताडयिता नवति । तदेवमल्पापराधिन्य पि महाक्रोधदंडवति तथा प्रकारे पुरुषजाते एकत्र वसति सति तत्सहवासिनोमातापि त्रादयोऽर्मनसस्तदनिष्टाशंकया नवंति तस्मिंश्च प्रवसति देशांतरे गति गतेवा तत्सहवा सिनः सुमनसोनवंति । तथाप्रकारश्च पुरुषजातोऽल्पेप्यपराधे महांतं दंडं कल्पयतीत्ये तदेव दर्शयितुमाह । दंडस्य पाच दंडपाच तदिद्यते यस्यासौ दंडपावी स्वल्पतया स्तो कापराधे कुप्यति दंडं च पातयति । तमप्यतिगुरुमिति दर्शयितुमाह । दंडेन गुरुकोदंड गुरुः। यस्यच महान् दंडोनवति असौ दंडेन गुरुर्नवति । तथा दंडः पुरस्कृतः सदा पुर स्कृतदंडइत्यर्थः । सचैवंनूतः स्वस्य परेषां चास्मिन् लोकेऽस्मिन्नेव जन्मनि अहितः प्रा जिनामहितदंडपातनात् तथा परस्मिन्नपि जन्मन्यसावहितस्तहीलतया चासौ यस्य कस्य चिदेव येन केनचिदेव निमित्तेन दणेक्षणे संज्वलयतीति संज्वलनः सचात्यंतक्रोधनोवध बंधनविल्वेदादिषु शीघ्रमेव क्रियासु प्रवर्तते तदनावेप्युत्कटषतया मर्मोद्घट्टनतः एष्ठिमां समपिरखादेत्तत्तदसौ ब्रूयात् । येनासावपि परः संज्वलयेत् ज्वलितश्चान्येषामपकुर्यात् त Page #725 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रायधनपतसिंघ बादाउरका जैनागम संग्रह नाग उसरा. क्षय देवं खलु तस्य महादंडं प्रवर्तयितुस्तदंडप्रत्ययिकं सावयं कर्माऽधीयते । तदेतदशमं क्रिया स्थानं मित्रहप्रत्य यिकमाख्यातमिति । अपरे पुनरष्टमं क्रियास्थानमात्मदोषप्रत्ययि कमाचदते. नवमंतु परदोषप्रत्ययिकंच. दशमं पुनः प्रागतिक क्रियास्थानमिति ॥१॥ अदावरे एकारसमे किरियाहाणे मायावत्तिएत्ति आदिङाइ जे इमे नवं ति गूढायारा तमोकसिया नलुगपत्तलढुया पवयगुरुया ते आयरियावि संता अणारियानासावि पनऊंति अन्नदासंतं अप्पाणं अन्नहामन्नं ति अन्नंपुन अन्नवागरंति अन्नं आइस्कियत्वं अन्नंआइरकंते॥रणासेज हा णामए के पुरिसे अंतोसल्ले सल्लं पोसयं पिहरति णोअन्नण णि हराति णोपडिविसे एवमेव निण्हवे अविनमाणे अंतोअंतोरि याइ एवमेव माई मायं कटु णोआलोएणोपडिकमेणोणिंद पोगर दइ गोविन्द पोविसोदे णोअकरणाए अप्नु णोअदारिदं तवो कम्मं पायबित्तं पडिवङाइ माश् अस्सिलोए पञ्चायाइमाइ परंसिलोए पञ्चाया निंद गरद पसंस पिचर नियणिसिरियं दंमंबा एति माश् असमाहड सुहलेस्सेयावि नव एवं खलु तस्स तप्पत्तियं सा वऊंति आदिङइ एक्कारसमे किरियामणे मायावत्तिएत्ति आदिए॥३०॥ अर्थ-हवे अपर अगियारमो क्रिया स्थानक मायाप्रत्ययिक कहियें बैयें (जेश्मे नवंति के०) जे आ जगत्माहे पुरुषले ते कया पुरुष तोके, (गूढायारा के०) गूढा चारी एटले धूतारा, उगारा, गंतीगोडा प्रमुखडे ते नाना प्रकारना उपायें करीने लोक ने विश्वास नपजावीने वंचे. (तमोकसिया के०) अंधाराने विषे विचरनारा, अर्थात् लोक यकी बाना क्रियाना करनारा, ( उलुगपत्तलयाके०) ते पोतें जाते घूवडनी पाख थकी पण हलका परंतु (पवयगुरुया के०) पोताने पर्वत थकी पण महोटा माने, (तेयायरियाविसंता के) ते आर्य देशमा उत्पन्न थया होय तेम बतां पण परने वंचवाने अर्थे शत पणे, पोताने गोपववा नणी (यणारियाउनासाविपउऊंति के०) अनार्य देशनी नाषा बोजे, अथवा पोतानी कल्पित नाषा जे बीजाथी थजा णी दोय तेवी नाषा बोले, (अन्नदासंतं के०) लिपी पण तेवी अजाणी अन्य लखे (अप्पाएंअन्नहामन्नंति के० ) पोतें वली बीजी रीते माने, (अन्नपुट के०) अन्य कांश पुढे थके (अन्नवागरंति के० ) अन्य कहे, (अन्नधाइरिकयत्वं के० ) अन्य काहिं Page #726 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६ द्वितीये सूत्रकृतांगे द्वितीय श्रुतस्कंधे द्वितीयाध्ययनं. एक प्ररूपतेने ठेकाणे (अन्नंया इरकंते के ० ) अन्य बीजुं कांइक जुदूंज प्ररूपे ॥ १९ ॥ (सेजहाणामए के ० ) ते यथादृष्टांते नाम एवी संभावनायें जेम. ( केइ पुरिसे के० ) कोइ एक पुरुष संग्राम थकी निकल्यो, (अंतोसल्ले के० ) तीर जालादिकना शल्य क U सशल्य तो (तंसनं के० ) ते शब्यने ( पोसयंहिरति के० ) वेदना थकी बीहि तो को पोते पोताने हाथे काढे नही, (सोने हिरावेंति के ० ) बीजाने हाथे प sara नही, ( पोप डिवि से के० ) तथा वैद्यने उपदेशें औषधादिक प्रयोगें करीने पण ते शयनो विध्वंस यशे नही ( एवमेव के० ) एम जाणीने, ( निराहवेइ के० ) ते शयने गोपवी राखे. ( विट्टमा के० ) पुग्यो थको कहे नही, (अंतोअंतो रिया के ० ) ते दुःखें पीडयो थको माहोमांहे दुःखी याय, ( एवमेव के० ) एम ते ( माइमाक के ० ) मायावी पुरुष, माया शक्ष्ये करीने तेथे जे कोइ कार्य कस्या हो यते ( पोयालोएइ के० ) गुरु समक्ष थालोवे नही ( पोप डिक्कमे के ० ) पडिकमे नहीं ( पोलिंद के ० ) ग्रात्मानी साखें निंदे नहीं, ( योगरहइ के० ) परसादीक गर्हे न ai ( पोविच के० ) तेवा कार्य करवा थकी निवृत्तिपामे नहीं ( पो विसोहे के ० ) नाव रूप पाणीयें करी ते अतिचारनुं कलंक पखाले नहीं, (गोकरणा एप्रुहेश् ho) तेवा कार्य अणकरवाने उठे नहीं एटले प्रण करवाना उद्यम न करे, (लो हारिहंत वोकम्मंपायवित्तपडिवर के० ) यथायोग्य तप कर्म रूप प्रायश्चित पडिव जे नहीं. एरीतें ( माइ के० ) ते मायावी पुरुष ( प्रस्सिनोएपञ्चाया के०) या लोक मांहे पण विश्वासनी प्रसिद्धि पामे ( माइपरं सिलोएपच्चायाइ के० ) मायावी पुरुष परलोके नरकादिक पीडाना स्थानकने विषे वली वली रहट्ट घटिकाने न्यायें गतिघ्रा गति करे, तथा मायावी पुरुष परनी ( निंदर के० ) निंदा करे, ( गरह के० ) गर्दा करे ( पसंस के ० ) ने पोतानी पोते प्रशंसा करे, (पिञ्चरs के० ) कार्यने वि रती करे, (नियह के० ) कार्य थकी निवर्त्त नहीं (सिसिरिमंदमं बाए ति के ० ) कार्य करीने पोतानो अपराध ढांकी राखे एरीते ( माझ्यसमाहड के० ) माया वी पुरुष पहारे एटले त्यागकरे; शेनो त्यागकरें ? ते कहेबे . ( सुहनेस्सेया विनवइ के० ) गुन लेश्यानो त्याग करें ने सर्व कालें अगुन लेश्यायें करी प्रवर्त्तमान थको होए एते निचे तेने तत्प्रत्ययिक एटले ते निमित्तें सावद्य कर्मबंधाय. एटले गी बारमो क्रिया स्थानक मायाप्रत्ययिक नामे कह्यो. ॥ २० ॥ || दीपिका - थापरमेकादशं क्रियास्थानमाख्यायते । तद्यथा । ये केचनामी नवंति पुरुषाः । किंनूताः । गूढाचारागलकर्तक ग्रंथि छेद कादयस्ते बहूपायैर्विश्वासमुत्पाद्य, विरू For Private Personal Use Only Page #727 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रायधनपतसिंघ बादाउरका जैनागम संग्रह नाग उसरा. ७ पं कुर्वति चंडप्रद्योतादेरनयकुमारादिवत् तमसि कषितुं शीलं येषांते तमःकषिणस्तएव तमःकाषिकाः परा विज्ञाताः क्रियाः कुर्वतीत्यर्थः । तेच नलूकपिलवन्नघवोपि पर्वतवशु रुमात्मानं मन्यते आर्यायपि संतस्ते परव्यामोहार्थमनार्यनाषा ( विनवंति ) प्रयुंजते अन्यथा स्थितमात्मानमन्यथा साध्वाचारेण मन्यते व्यवस्थापयंति अन्यत् एष्टामाययाऽ न्यदेव वदंति आम्रान टष्टा निंबान वदंति । व्याकरणं टष्टस्तदझस्तर्कमवतारयति । यथा वा शरदि वाजपेयेन यजेतश्त्यस्य वाक्यस्यार्थ पृष्टस्तदर्थाननिज्ञः कालविलंबार्थ शर कालमेव वर्णयति (अन्नमाइस्कियति) अन्यस्मिन्नर्थ कथयितव्येऽन्यमेवाख्याति ॥१॥ (सेजति) तद्यथानाम कश्चित्पुरुषः संग्रामान्निर्गतेंऽतमध्ये शल्यं यस्य सोंतःशल्यः सवे दनानीतः स्वयं शल्यं ननिहरति नकषति नाप्यन्येन कर्षयति । नापि वैद्योपदेशादोषध प्रयोगैः प्रतिध्वंसयति विनाशयति अन्येन दृष्टस्तहव्यं निन्दुतेऽपलपति तेन शल्येन (अ विनट्टमाणेत्ति ) पीडयमानः (अंतोयत्ति) मध्ये पीडयमानोपि रीयते व्रजति वेदनां स हमानोपि क्रियासु प्रवर्ततश्त्यर्थः। दृष्टांतं योजयति (एवमेव मायीति ) यथा सशल्यो सुःखलाग्नवति एवमेव मायी, कृतं कार्य निगूहयन् मायां कत्वाऽन्यस्मै नालोचयति नकथयति न तस्मात्स्थानात्प्रतिक्रमति न निवर्तते न यात्मसादिकं निंदति नापिपरसा क्षिकं गर्हति बालोचनाईसमीपे गतोनापि च जुगुप्सते (नविनदृत्ति ) न वित्रोटयत्यपन यति मायाशव्यं नविशोधयति नापि पुनस्तदाकरणतयाऽन्युत्तिष्ठते नापि यथाई तपःक मरूपं प्रायश्चित्तं प्रतिपद्यते । तदेवं मायावी अस्मिन् लोकेऽविश्वासतया प्रत्यारव्यातिं याति । यमुक्तं । मायाशीनः पुरुषोयद्यपि, नकरोति कंचिदपराधं ॥ सर्पश्वाऽविश्वास्यो जवति तथाप्यात्मदोषहतइति ॥ तथा मायावी परस्मिन् लोके नरकतिर्यगादिषु प्रत्या याति नूयोनूयोयाति (निंदंगादयति ) परं निंदयित्वा आत्मप्रशंसया तुष्यति । एवंचा सौ लब्धप्रसरोऽधिकं निश्चरति तथा विधानुष्ठायी नवति । तत्रच गृहस्तस्मान्मातृस्थाना ननिवर्त्तते दंड निसृज्य हिंसां कृत्वा प्रहादयत्यपलपति अन्यस्यवा मस्तके दिपति समाया वी असमाहृतगुनलेश्योऽनंगीकृतशुनध्यानश्चापि नवति । एवं खलु तस्य तत्प्रत्यय के मायाशव्यप्रत्ययिकं सावधं कर्माधीयते । एतदेकादशक्रियास्थानं मायाप्रत्ययिकमा ख्यातमिति ॥ २०॥ ॥ टीका-अथापरमेकादशं क्रियास्थानमाख्यायते । तद्यथा ये केचनामी नवंति पु रुषाः । किं विशिष्टाः । गूढायाचारायेषां ते गूढाचारागलकर्तकयंथिन्लेदादयस्तेच ना नाविधैरुपायैर्विधनमुत्पाद्य पश्चादपकुर्वति प्रद्योतादेरनयकुमारादिवत् । तथा माया शीलत्वेनाप्रकाशकचारिणस्तमसि कषितुं शीलं येषांते तमसिकाषिणस्तएवच तमः Page #728 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६८ द्वितीये सूत्रकृतांगे द्वितीयश्रुतस्कंधे द्वितीयाध्ययनं. 1 काषिकाः पराविज्ञाताः क्रियाः कुर्वतीत्यर्थः । तेच स्वचेष्टयैवोलूकपत्रवल्लघवः कौशिक पिवलघीयांसोपि पर्वतवगुरुमात्मानं मन्यंते । यदिवा कार्यप्रवृत्तेः पर्वतवन्नो स्तंन यितुं शक्यते ते चाऽऽर्यदेशोत्पन्नापि संतः शाठ्यादात्मप्रवादनार्थमपरजयोत्पादनार्थ चानार्यभाषाः प्रयुंजते परव्यामोदार्थं स्वमतिपरिकल्पितनाषा निरपराऽविदिता निर्मा ते तथाऽन्यथाऽव्यवस्थितमात्मानमन्यथासाध्वाकारेण मन्यते व्यवस्थापयंति तथाऽ न्यत्ष्टष्टामातृस्थानतोऽन्यदाचक्षते । यथाम्रान् ष्टष्टाः कोविदारकानाचक्षते । वादकालेवा कश्चिन्नाथवादितया व्याकरणे प्रवीणस्तर्कमार्गमवतारयति । यथावा शरदि वाजपेयेन यजेतेत्यस्य वाक्यस्यार्थे ष्टष्टस्तदर्थाननिज्ञः कालातिपातार्थ शरद्कालं व्यावर्णयति । तथा Sea कथयितव्येऽन्यमेवार्थमाचक्षते । तेषां सर्वार्थविसंवादिनां कपटप्रपंचचतु ari विपाको वनाय दृष्टांतं दर्शयितुमाह ॥ २१ ॥ ( सेजहेत्यादि ) यथानाम कश्चित्पुरु पः संग्रामादपत्रांतोंऽतर्मध्ये शल्यं तोमरादिकं यस्य सोऽतःशव्यः सच राज्यघट्टनवेदनाची रुतया तबल्यं न स्वत्तोनिर्हरत्यपनयति उद्धरति तथाप्यन्येन नोद्धारयति नापि तबल्यं वै द्योपदेशेनौषधोपयोगादिनिरुपायैः प्रतिध्वंसयति विनाशयति अन्येन केन चित्ष्टष्ठोवाऽष्टष्टो वातल्यं निष्प्रयोजनमेव निन्दुतेऽपलपति तेन च शल्येनासावंतर्वर्तिना ( अविजट्ट मात्ति) पीड्यमानः ( अंतोत्ति) मध्येमध्ये पीड्यमानो पिरीयते व्रजति तत्कृतां वेदनाम सहमान: क्रियासु प्रवर्ततइत्यर्थः । सांप्रतं दाष्टतिकमाह । (एवमेवेत्यादि) यथाऽसौ स शल्यो डुःखनाग्नवत्येवमेवासौ मायी मायाशव्यवानन्यत्कृतमकार्य तन्मायया गूहयन् मायां त्वा न तां मायामन्यस्मै यालोचयति कथयति नापि तस्याः स्थानात्प्रतिक्रामति न ततो निवर्तते नाप्यात्मसादिकं तन्मायाशल्यं निंदति । तद्यथा धिङ्मां यदहमेवंनूत मकार्यं कर्मोदयात्कतवांस्तथा नापि परसादिकं गर्हति खालोचनार्दसमीपे गतोनापि च जुगुप्सते तथा (नोविनवृत्ति ) नापि तन्मायाख्यं राज्यमकार्यकरणात्मकं विविधमने कप्रकारं त्रोटयत्यपनयति । यद्यस्यापराधस्य प्रायश्चित्तं तत्तेन पुनस्तदकरणतया निवर्त्त यतीत्यर्थः । नापि तन्मयादिकमकार्य से वित्वा लोचनार्थायात्मानं निवेद्य, तदकार्य करणतया न्युत्तिष्ठते प्रायश्चित्तं प्रतिपद्यापि नोयुक्तविहारी नवतीत्यर्थः । तथा नापि गुर्वादिनि र निधीयमानो पि यथार्हमकार्य निर्वहणयोग्यं प्रायश्चित्तं शोधयतीति । प्रायश्चित्तं तपः कर्म विशिष्टं चांद्रायणाद्यात्मकं प्रतिपद्यते ऽच्युपगच्छति । तदेवं मायया सत्कार्य प्रवादको Sस्मिन्नेव लोके मायावीत्येवं सर्वकार्येष्वेवाविनसत्वेन प्रत्यायाति प्रख्यातिं याति त यातच सर्वस्यापि विश्वास्योद्भवति । तथाचोक्तं । मायाशीलः पुरुषइत्यादि । तथाति मायावित्वादसी परस्मिन् लोके जन्मांतराऽवाप्तौ सर्वाऽयमेषु यातनास्थानेषु नरकतिर्य गादिषु पौनःपुन्येन प्रत्यायाति नूयोभूयस्तेष्वेवारघट्टघटीयंत्रन्यायेन प्रत्यागष्ठतीति I For Private Personal Use Only Page #729 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राय धनपतसिंघ बाहादुरका जैनागम संग्रह नाग दुसरा. ६ तथा नानाविधैः प्रपंचैर्वचयित्वा परं निंदति जुगप्सते । तद्यथाऽयमः पशुकल्पोनाने न किमपि प्रयोजनमित्येवं परं निंदयित्वाऽत्मानं प्रशंसयति । तद्यथा ह्यसावपि मया वंचितइत्येवमात्मप्रशंसया तुष्यति । तथा चोक्तं । येनापत्रपते साधुरसाधुस्तेन तुष्य तीति । एवं चासौ लब्धप्रसरोऽधिकं निश्चयेन वा चरतीति तथाविधानुष्ठायी नवतीति निश्चरति । तत्रच गृदः संस्तस्मान्मातृस्थानान्न निवर्तते तथासौ मायावलेपेन दंडं प्राप्यु पमर्दकारणं निसृज्य पातयित्वा पश्चान्वादयत्यपलपति अन्यस्य चोपरि प्रक्षिपतिसच मा यावी सर्वदा वचनपरायणः संस्तन्मनाः सर्वानुष्ठानेष्वेवंभूतोभवति । श्रसमाहृताऽनंगी कृता शोजना लेश्या येन सतथार्त्तध्यानोपहततयाऽसावशोजन लेश्य इत्यर्थः । तदेवमपग तधर्मध्यानोसमाहितोयु ६ जेश्यश्वापि भवति । तदेवं खलु तस्य तत्प्रत्ययिकं मायाशल्य प्रत्यकिं सावद्यं कर्माऽधीयते । तदेकादशं क्रियास्थानं मायाप्रत्ययिकं व्याख्यातं ॥ २० ॥ ढावरे बारस्समे किरिया ठाणे लोभवत्तिएत्ति प्रादिकइ जे इमे न वंति तंजढ़ा आरन्निया व्यावसदिया गामंतिया कण्हईरह स्सिया गो दुसंजया पोबदुपडिविरया सवपाणनूतजीवसत्तेदि ते अप्पणी सच्चा मोसाई एवं विनंनंति प्रदं ण दंतवो अन्न तवा अहं प्रजावेयवो ने अजावयवा यदं ण परिघेतवो यन्ने परिघेतवा अहं ण परितावेयवो ने परतावेवाहं ण नवेयवो अन्ने नवेयवा एवमेव ते इतिकामे हिं मुठिया गिधा गढिया गरदिया शोववन्ना जाव वासाई चनपंचमाई समाई अप्पयरोवा जुतयरोवा लुंजितुंनोगजोगाई कालमासे कालं किचान्नरे सुरिएस किञ्चिसिएस छाणेसु नववत्तारो नवंति ततो विष्पमुञ्च्चमाणे नकोनको एलमूयत्ताए तमूयत्ताए जाइमूयत्ताए प चायंत एव खलु तस्स तप्पत्तियं सावति च्याहिक ज्वालसमे किरि याठाणे लोभवत्तिएत्ति प्राहिए ॥ २१ ॥ अर्थ- हवे पर बारमो क्रियास्थानक लोनप्रत्ययिक कहिए बैयें. ( जेइमेनवंति के०) जे खागल कहेशे ते पुरुष कोण ? (तंजहा के०) ते कहे . ( प्रारन्निया के ० ) र एयमां वसनारो, कंदमूलफलाहारी, वृने मूले वसनारो, वली ( यावसहिया के० ) को एक पानडानी पर्णकूटी करीने तेमां रहे, ( गामंतिया के० ) तथा कोइएक आजी विका निमित्तें ग्रामने समीपें निवास कर रहे, (कएहुईर हस्तिया के० ) को एक का For Private Personal Use Only Page #730 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीये सूत्रकृतांगे द्वितीयश्रुतस्कंधे द्वितीयाध्ययनं . विषे रहस्यना करनार, ए सर्व प्रायः त्रसजीवोनी विराधना नकरे परंतु एकेंयिनी विराधनायें उपजीवन करे, ( गोबहुसंजया के० ) ते घणा संयत नहीं, ( गोबहुपडि विरया ho ) घणी हिंसा थकी निवर्त्या नथी, एटले सर्व प्राणातिपात विरमणव्रतादि कने विषे न प्रवर्ते; किंतु ? इव्य थकी केटलाएक व्रत पाले, अने सर्व विरतिनुं कारण जे सम्यक् दर्शनबे, ते गुण तेमांहे नथी ते कारणे, ( सङ्घपाणनूतजीवसत्तेहिं के० ) सर्व प्राणी, नूत, जीव, धने सत्वथकी अविरत, हिंसा थकी अविरत ( तेथप्पणी के० ) ते पाखमी पोते, ( सच्चामोसाई के० ) घणां सत्यामृषावचन ( एवं विनंजंति के० ) एम यागल केशे. जेरीतें बोले तेज कहेबे ( हंतो के ० ) हुं ब्राह्मण पणा की मने मादि वो नही, ( नेता के० ) अन्य क्रुादिकने हणवा. (य वेव के० ) तथा हुं वर्षोत्तम बुं, माटे मने खाज्ञा करवी नहीं एटले मने hi प्रदेश प्रापवो नही. तथा (अन्नेावेयवा के ० ) क्रुादिक श्राज्ञापयितव्यले एट जे तेमने यादेश यापवो. ( परिघेतो के० ) हुं वर्षोत्तमनुं, माटे मने बला कारें ग्रहण करवो नही, ( अन्ने परिघेतवा के० ) अन्य कुडादिकने बलात्कारें ग्रह करवा. (परितावेयवो के० ) तथा मने परितापवो नही, ( धनेपरितावेय tho) अन्य दिकने परितापवा. ( यहंा उद्दवेयवो के० ) तथा मने उपड़व करवो नही, तथा जीव, काया थकी रहित करवो नही, (अन्नंनदवेयवा के० ) अन्य दिने उपवो करवा. एम ते परपीडाना उपदेशना करनार मूढ, खसंबंध प्रजा पी (एवमेव कामे मुखिया के ० ) एरीते पूर्वोक्त प्रकारे ते मूढ परमार्थना अजाण थका farartner arraint विषे मूर्च्छित थका (गिद्धा के०) गृड एटले ते कामनोगना अनि U बता, (गढ़िया के०) कामनोगने विषे प्रासक्त बता (गर दिया के ० ) निंदवा योग्य, त्यंत प्रासक्त बता ( यशोववन्ना के० ) अध्युपपन्न एटले कामजोगने विषे एकाग्र चित्त थया बता ( जाववासा इंच पंचमाई के० ) यावत् चार पांच वर्ष सुधी अथवा ( बहसमा के० ) व अथवा दश वर्ष एटलो काल तेमांहे ते तीर्थिक (अप्पयरोवा ho) अल्पतर एटले अल्प काल सुधी (मुतयरोवा के ० ) अथवा घणा काल सुधी घर वास बांमीने ( जिजोगनोगाई के० ) वली काम जोग जे शब्दादिक विषयले तेने धर्म पांख जोगवीने, ( कालमासे कालंकिच्चा के० ) मरण प्रस्तावे काल करीने कांइ एक बालतपना प्रभावथी ( अन्नयरेसु खासुरिएस किब्बिसिएस ठाणेसु नववत्तारो नवं तिके) तेने अनेरा सुरिक किल्बिषीने स्थानकें उपज थाय, ( ततो विष्पमुच्चमाणे के० ) ते स्थानकथी श्रायुष्यने ये चवीने (नुकोनुकोएलमूयत्ताए के० ) वलीवली मनुष्य जव पामे, तोप एल एटले बोडा, काणा, अथवा मूयत्ता एटले मुंगा तथा 900 For Private Personal Use Only Page #731 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राय धनपतसिंघ बादाउरका जैनागम संग्रह नाग उसरा. १ (तमयत्ताएजाश्मयत्ताएपञ्चायंति के ) ते जात्यंध एटले जन्म थकी अंध, तथा जन्म थकी बहेरा, एवा थाय. एम प्रत्यागडंति एटले फरीने या लोकमां आवेळे. एरीते निचे थकी तेने तत्प्रत्य यिक एटले ते निमित्ते सावध कर्म बंधाय. ए बारमो लोनप्रत्ययिक नामे क्रिया स्थानक कह्यो. ॥ २१ ॥ ॥ दीपिका-एतान्येकादश क्रियास्थानानि सामान्येनाऽसंयतानां नवंति । इदंतु दादशं क्रियास्थानं पाखंडिकानुद्दिश्य कथ्यते ॥ अथापरं वादशं क्रियास्थानं लोनप्रत्ययिक माख्यायते । तद्यथा । यश्मे नवंत्यारण्यकाअरण्यवासिनथावसथिकाउटजवासिनोया मांतिकायामादिकमुपजीवंतोग्रामस्यांते समीपे वसंतीति (कएहई ) क्वचित्कार्ये मंडल प्रवेशादिके रहस्यं येषां ते क्वचिसाहसिकास्तेच न बहुसंयतान सर्वसावद्यनिवृत्ताश्च प्राय इत्यर्थः । एतएव न बदुविरतान सर्वव्रतपालकाः किंतु ? इव्यतः कतिपयव्रतानावतःस म्यक्त्वानावात् । एतदेवाह । (सबपाणेत्ति) तेधारण्यकादयः सर्वप्राणिनूतजीवसत्वेन्य श्रात्मना खतोविरताः सत्यामृषाभूतानि वाक्यान्येवं वदयमाणनीत्या वियुंजंति विशेषे ए प्रयुंजंति कथयंतीत्यर्थः। तद्यथाहं ब्राह्मणत्वादंडादिनिने हंतव्योऽन्येशूश्त्वा तव्याः। तथा च तदाक्यं शूई व्यापाद्य प्राणायामंजपेत् । तथा ठुड्सत्वानामनस्थिकानां शकटना रमपि व्यापाद्य ब्राह्मणं नोजयेदित्यादि । तथाहं न याज्ञापयितव्योऽन्येतु मत्तोऽधमाःस मापयितव्याः । नाहं परितापयितव्योऽन्ये परितापयितव्याः। अहं मूल्येन कर्मकरणा य न ग्राह्योऽन्ये ग्राह्याः । नाहमपावयितव्योजीवितादपरोपयितव्योऽन्येत्वपशवयित: व्याः । तदेवं तेषां परपीडोपदेशान्न प्राणातिपातविरतिव्रतमस्ति । उपलक्षणान्मृषावा .. दादत्तादानविरतिव्रतानावोपि शेयः । तुर्यव्रतमाश्रित्याह । (एवमेवत्ति ) एवं पूर्वोक्त प्रकारेण स्त्रीषु कामेषु च मूर्छितागृक्षाग्रथितायध्युपपन्नाः । कियंतं कालमासक्ताश्त्याह ( जाववासाइत्ति ) यावर्षाणि चतुःपंचषड्दशकानि । अयं च मध्यमः कालः । एताव कालग्रहणं च सानिप्रायं । प्रायस्तीथिकायतिकांतवयसएव व्रजति तेषां च एतावानेव कालः संजाव्यते । यदिवा मध्यग्रहणाततजवंमधश्च गृह्यतइत्याह । तस्माच्च नपात्ता कालादल्पतरः प्रनूततरोवापि कालः स्यात् । तत्रच ते त्यक्त्वापि गृहवासं नुक्त्वापिनो गान् स्त्रीनोगान स्त्रीनोगे सत्यवश्यं शब्दादयोनोगनोगास्तान जुक्त्वा ते हि वयं प्रव्रजिता इति नच नोगेज्योनिवृत्ताअझानित्वाने एवंनूतपरिणामाः कालमासे स्वायुःक्ष्ये कालं कृत्वा विरुष्टतपसोपि बासुरिकेषु किल्बिषिकेषु स्थानेषूत्पादयितारोनवंति । तस्मादपि स्थानादिप्रमुच्यमानाश्युताएडमूकत्वेनोत्पद्यते । यथा एडकोव्यक्तवाक् तथायमपि । (त मूयत्ताएत्ति ) तमस्त्वेन जात्यंधतयाऽत्यंताज्ञानावृततया वा जातिमूकत्वेनापगतवा Page #732 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०‍ ती सूत्रकृतांगे द्वितीयश्रुतस्कंधे द्वितीयाध्ययनं. चह प्रत्यायति । तदेवं तेषां तीर्थिकानां तत्प्रत्ययिकं सावधानुष्ठाननिमित्तं सावयं कर्माधीयते । ततल्लोन प्रत्ययिकं द्वादशं क्रियास्थानमाख्यातमिति ॥ २१ ॥ ॥ टीका - एतानि चानर्थदंडादीनि एकादश क्रियास्थानानि सामान्येनाऽसंयतानां न वंति । इदं तु द्वादशं क्रियास्थानं पाखंडिकानुदिश्याऽनिधीयते ( खहावरे इत्यादि) एकादशा तू क्रियास्थानादनंतरमथापरं द्वादशं क्रियास्थानं लोनप्रत्ययिकमाख्यायते । तद्यथा । य इमे वक्ष्यमाणायरण्ये वसंत्यरस्य कास्ते च कंदमूलफलाहाराः संतः केचन वृक्षमूले वसं ति, केचनावसथेष्ट जाकारेषु गृहेषु तथापरे ग्रामादिकमुपजीवंतोग्रामस्यांते समीपे वसं तीति ग्रामांतकास्तथा क्वचित्कार्य मंडलप्रवेशादिके रहस्यं येषांते कचिाहसिकास्तेच न बहुसंयतान सर्वसावधानुष्ठाने ज्योनिवृत्ताः । एतडुक्तं नवति । नबाहुल्येन त्रसेषु दंडस मानं विदधति एकेंयिोपजीविनस्त्व विगानेन तापसादयोजवंतीति तथा न बहुविरता न सर्वेष्वपि प्राणातिपात विरमणादिषु व्रतेषु प्रवर्तते किंतु ? इव्यतः कतिपयत्रतत्र तिनोन नावतोमनागपि तत्करणस्य सम्यग्दर्शनस्यानावादित्यभिप्रायः । इत्येतदाविर्भावयितु माह । ( सवपाणेत्यादि) ते ह्यारस्यादयः सर्वप्राणिनूतजीवसत्वेच्यखात्मना स्वतोविरता स्त पमर्दकारंनाद विरताइत्यर्थः । तथा पाषंडिकायात्मना स्वतोबहूनि सत्यामृषाभूतानि वाक्यान्येवं वक्ष्यमाणनीत्या विशेषेण युंजंति प्रयुंजंति ब्रुवतइत्यर्थः । यदि वासत्यान्यपि तानि प्रायुपमर्दकत्वेन मृषानूतानि सत्यामृषाण्येवं ते प्रयुंजंतीति दर्शयति । तद्यथाऽ हं ब्राह्मणत्वादंडादिनिर्न दंतव्योऽन्येतु शूइत्वा दंतव्याः । तथाहि । तद्वाक्यं । शूं व्या पाद्य प्राणायामं जपेत् किंचिद्वा दद्यात् तथा कुड्सत्वानामनस्थिकानां शकटनारमपि व्या पाद्य ब्राह्मणं नोजयेदित्यादि । अपरं चाहं वर्णोत्तमत्वात् नाज्ञापयितव्योन्येतु मत्तोऽधमाः समाज्ञापयितव्यास्तथा नाहं परितापयितव्योऽन्येतु परितापयितव्यास्तथाहं वेतनादिना कर्मकरणाय न ग्राह्योऽन्येतु शूयाह्याइति । किंबहुनोक्तेन नाहमुपावयितव्योजीवि तादपरोपयितव्योऽन्येतु अपरोपयितव्याइति । तदेवं तेषां परपीडोपदेशनतोऽतिमूढतया ऽसंब-६ प्रलापिनामज्ञानावृतानामात्मनरीणां विषमदृष्टीनां न प्राणातिपातविरतिरूप व्रतमस्त्यस्य चोपलक्षणार्थत्वात् मृषावादादत्तादान विरमणानावोप्यायोज्यः । अधुना त्वना दिनावाच्यासाद्दुस्त्यजत्वेन प्राधान्यात् सूत्रेणैवाब्रह्माधिकृत्याह । ( एवमेवेत्या दि) एवमेव पूर्वोक्तेनैव कारणत्वेनाति मूढत्वादिना परमार्थमजानास्ते तीर्थिकाः स्त्रीप्रधा नाः कामाः स्त्रोकामाः । यदिवा स्त्रीषु कामेषु च शब्दादिषु मूर्तितागृाग्रथिता ध्यु पपन्नाः । अत्र चात्यादरख्यापनार्थ प्रभूतपर्यायग्रहणं । एतच्च स्त्रीषु शब्दादिषुच प्रवर्त नं प्रायः प्राणिनां प्रधानं संसारकारणं । तथा चोक्तं । मूलमेयमहम्मस्स महादोससमु For Private Personal Use Only Page #733 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राय धनपतसिंघ बादाउरका जैनागम संग्रह नाग उसरा. ७०३ स्सयमित्यादि । स्त्रीसंगासक्तस्यावश्यं नाविनी शब्दादिविषयासक्तिरित्यतः स्त्रीकामग्रहणं। तत्र चासक्तायावंतं कालमासते तत्सूत्रेणैव दर्शयति । यावर्षाणि चतुःपंचषड्दशका नि । अयंच मध्यमकालोगृहीतः । एतावत्कालोपादानं च सानिप्रायं प्रायस्तीथिकाअप्ति क्रांतवयसएव प्रव्रजति तेषां चैतावानेव कालः संनाव्यते । यदिवा मध्यग्रहणात्ततकर्ध्व मधश्च गृह्यते इति दर्शयति । तस्माञ्चोपात्तादल्पतरः प्रजूततरोवापि कालोनवति । त त्रच ते त्यक्त्वापि गृहवासं नुक्त्वा नोगनोगान इति स्त्रीनोगे सत्ति अवश्यं शब्दादयोनोगाः नोगनोगास्तान्मुक्त्वा तेच किल वयं प्रव्रजिताइति नच नोगेन्योविनिवृत्ताः । यतोमिथ्या दृष्टितया ज्ञानांधत्वात्सम्यग्विरतिपरिणामरहितास्तेचैवंनूतपरिणामाः स्वायुषः काल मासे कालं कृत्वा निकृष्टतपसोपि संतोऽन्यतरेष्वासुरिकेषु किदिबषिकेषु स्थानेषूत्पादयि तारोनवंति । ते ह्यज्ञानतपसा मृताधपि किल्बिषिकेषु स्थानेषूत्पत्स्यंते तस्मादपि स्था नादायुषः दयादिप्रमुच्यमानाश्युताः किल्बिषिकबहुलास्तत्कर्मशेषेणैलवन्मूकाएलमूका स्तनावनोत्पद्यते। किल्बिषिकस्थानास्युतः सन्ननंतरनवे वा मानुषत्वमवाप्य यथैलमूकोऽ व्यक्तवाक् समुत्पद्यतइति । तथा (तममूयत्तायेत्ति) तमस्त्वेन जात्यंधतया अत्यंताऽझा नावृततया वा तथा जातिमूकत्वेनापगतवाचश्ह प्रत्यागवंतीति । तदेवंनूतं खलु ते षां तीथिकानां परमार्थतः सावद्यानुष्ठानाद निवृत्तानामाधाकर्मादिप्रवृत्तेस्तत्प्रायोग्यनोग नाजां तत्प्रत्ययिकं सावा कर्माधीयते । तदेतानोनप्रत्ययिकं कादशं क्रियास्थान माख्यातमिति ॥ २१ ॥ इच्चियाई ज्वालस किरियाणाइंदविएणं समणेणवा मादणे पवा सम्मं सुपरिजाणिवाई नवंति ॥२२॥ अर्थ-एरीते ए बारे क्रिया स्थानक तेने (दविएणं के०) मुक्ति गमन योग्य एवा जे श्रमण तथा ब्राह्मणो दोय तेणे ( सम्मंसुपरिजाणिवाइंनवंति के०) सम्यक् प्रकारे संसारना कारण जाणीने. प्रत्याख्यान परिझायें परिहरवा ॥ २२ ॥ ॥ दीपिका-उपसंहारमाह । (श्चेश्त्यादि) इत्येतान्यनर्थदंडादीनि हादश कियास्था नानि कर्मग्रंथिावणाइवः संयमः सविद्यते यस्यासौ इविकस्तेन श्रमणेन साधुना मा वधीरिति प्रवृत्तिर्यस्य समाहनस्तेन सम्यक् सुपरिज्ञातव्यानि संसारकारणानीति ज्ञात्वा, परिहर्तव्यानि नवंति ॥ ॥ ॥ टीका-सांप्रतमेतेषां हादशानामप्युपसंहारार्थमाह । (श्च्चेयाइत्यादि) इतिरूपप्रद Page #734 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७०४ द्वितीये सूत्रकृतांगे द्वितीय श्रुतस्कंधे द्वितीयाध्ययनं. र्शने । एतान्यनर्थदंडादीनि लोनप्रत्ययिक क्रियास्थानपर्यवसानानि द्वादश क्रियास्था नानि । कर्मग्रंथावणाद्द्रवः संयमः सविद्यते यस्यासौ इविकोमुक्तिगमनयोग्यतया वा इव्यनूतः श्रमणः साधुः । तमेव विशिनष्टि । मावधीरित्येवं प्रवृत्तिर्यस्यासौ माहनस्तेनैवैत कुल विशिष्टेनैतानि सम्यग्यथावस्थित वस्तुस्वरूप निरूपण तो मिथ्यादर्शनाश्रितानि संसारका रणनीति कृत्वा परिज्ञया ज्ञातव्यानि प्रत्याख्यानपरिज्ञया परिहर्तव्यानि नवतीति ॥ २२ ॥ हावरे तेरसमे किरिया ठाणे इरियावदिति यदि इद खलु प्र तत्ताए संबुस्स पगारस्स इरियासमियस्स नासासमियस्स एस पास मियस प्रयाणनं मत्तरिकेवणास मियस्स उच्चारपासवण खे लसिंघाण जनपरिधावलियासमियस्स मणसमियस्स वयसमिय स्स कायसमियस्स मणगुत्तस्स वयगुत्तस्स कायगुत्तस्स गुत्तिंदियस्स गुत्तबनयारिस्स नत्तंग माणस्स आनत्तंचिमाणस्स आतिं सियमाणस्स तंतुयमाणस्स आवत्तंमाणस्स आवर्तनास माणस्स उत्तंवचं पडिग्गदं कंबलं पायपुंबणं गिरहमाणस्सवा ि विमाणस्सवा जाव चकुम्हणिवायमवि प्रतिविमाया सुनुमा किरि या इरियावदिया नाम कइ सापटमसमए बा पुत्रा वितीयसमए वेश्या तश्यसमए (कित्ता साबधा पुछा नदीरिया वेश्या लिज्जित्ता से यं काले कम्मयावि नवंति एवं खलु तस्स तप्पतियं सावऊंति आदि तेरसमे किरिया ठाणे इरियावदिति प्रादिजइ ॥ से बेमि जेया प्रतीता जेयपड़पन्ना जेय प्रागमिस्सा अरिहंता भगवंता सवेते एया इं चेव तेरस किरियाघाणाई नासिसुवा नासेंतिवा नासिस्संतिवा पन्न विंसुवा पन्नविंतिवा पन्नविस्सिवा एवंचेव तेरसमं किरियाद्वाणं सेविंसु वा सेवंतिवा से विस्संतिवा ॥ २३ ॥ अर्थ- हवे पर तेरमो क्रिया स्थानक इरिया पथिक नामे कहिए बैए (इहखलुख तत्ताए के० ) निचे या जगत्मांहे श्रात्म नाव पासवाने खर्थे ( संतुमरस के०) मन, वचन, अने कायायें करी संवृत एटले संवर सहित एवा ( अणगारस्स के० ) साधुने इरियावहि क्रिया कहियें. ते साधुना गुण कहे. ईर्यासमितिए समितो, नाषासमिति एसमितो, एषणासमितिए समितो, खादान नांम मात्रा निक्षेपण समितिए समि For Private Personal Use Only Page #735 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रायधनपतसिंघ बादाउरका जैनागम संग्रह नाग उसरा. ०५ तो, उच्चार एटले वडीनीत, अने पासवण एटले लघुनीत. खेलसिंघाणजन्न एटले थूक, बडखो, नाकनो मेल, श्लेष्म, शरीरनो मेल, तेने पारिष्ठापन एटले परतववा रू प समितिए समितो, (मणसमियस्स के०) मनसमितवंत, (वयसमियस्स के०) वचनस मितवंत, ( कायसमियस्स के ) कायसमितवंत, (मणगुत्तस्स के० ) मनगुप्तें गुप्तो, ( वयगुत्तस्स के० ) वचनगुप्तें गुप्तो, ( कायगुत्तस्स के०) कायगुप्तें गुप्तो, (गुत्तिं दियस्स के०) गुप्तेडिय एटले इंडियोनो गोपवनार, ( गुत्तबंजयारिस्स के०) गुप्त ब्रह्मचारी, एटले नववाडे विशुद्ध, ब्रह्मचर्यनो पालनार, (थानत्तंगड माणस्त के० ) उपयोग सहित सावधान पणे चालनार, (यानतंचिठमाणस्तके ) सावधान पणे उनो रहेनार, (धानतंणि सियमाणस्स के) सावधान पणे बेसनार, (बा उत्तंतुयट्टमाणस्स के ) सावधान पणे शयन करनार, (आउत्तंनुऊमाणस्स के०) सावधान पणे नोजन करनार, (आनत्तंनासमाणस्त के०) सावधान पणे बोलनार, (थानत्वबंपडिग्गहंकंबलंपायपुंजणंगितहमाणस्सवा के० ) सावधान पणे वस्त्र, पात्र, कांबल, पायपुंडणने खेतो, तथा (णिरिकवमाणस्तवा के०) निदेप एटले तेने सा वधान पणे मूकतो, तथा (जावचरकूपम्हणिवायमवि के० ) किंबहुना यावत् चतु नी पापण एटले मिषोन्मिष मात्र, ते पण उपयुक्त पणे करतो, एवो जे साधु तेने एले. (सुदुमाकिरियाइरियावहियानामक के० ) सूक्ष्म किरिया इरियावहि नामे , परं तु ते क्रिया केवी , तोके (अबिविमायाके) विविध प्रकारें जेनी मात्रा एवी क्रियाले ते लागे, ए क्रिया केवलीने पण लागे, कारणके केवली पण सयोगी ते सयोगी जीव तो एक दगवार पण अग्निना ताप मांहे पाणीनी पेठे निश्चल रही शके नही, ते कारणे इरियावहि क्रिया लागे. (साके) ते क्रिया कषाय विना ( पढमसमए के) पहेला समयने विषे (बा के०) बंधाय. (पुहा के०) फरशे, तथा ( बितीयसमएवेश्या के०) बीजा समयने विष वेदाय एटले एनुं वेदवु थाय, अने (तश्यंसमएणि कित्ता के) त्रीजा समयने विषे निर्जराय एटले एन निर्जर, थाय, ते कहे जे. (साबदा पुकानदरियावेश्याणिजित्ता के०) ते क्रिया बंधाए, फरशाए, नदिराए, वेदाय, अने नि कराए, जे कारण माटे कर्मबंधनी स्थिति कषायित ते इरियाव हिना धणी होय तेने ते नथी. केमके, कषाय वालाने सांपरायिक कर्म बंधायले. परंतु ते कपाय, इरियावहिवाला ने नथी ए कारणे ते इरियावहि किया (सेयंकाले के० ) ते आगमिककालें त्रीजा स मयने विषे (अकम्मयाविनवंति के) अकर्मता पणे होय, एटले कर्म रहितपणे होय. तेथी वीतरागनेज रियावहि क्रिया लागे. एरीतें निथें तेहने तत्प्रत्ययिक एटले ते निमि तें सावध कर्म बंधाय. ए तेरमो क्रिया स्थानक इरियावहि एवे नामे कह्यो. ॥ २३ ॥ Page #736 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७०६ वितीये सूत्रकृतांगे वितीय श्रुतस्कंधे वितीयाध्ययनं. ___ ए तेर जे कियाना स्थानक ले ते मात्र एक श्रीवईमान स्वामियेंज नथी कह्या, किंतु ? अन्य बीजा पण सर्व तीर्थकरें कह्याने. एवो नाव देखाडे. (सेबेमि के०) श्री सुधर्मस्वामि जंबूस्वामि प्रत्ये कहेले के, में श्री महावीर पासेंथी सांजल्याने जे पूर्वोक्त अर्थ, ते तुमने कह्या. ते अर्थ (जेयतीता के० ) अतीतकालें जे तीर्थकर थया (जेयपड़पन्ना के०) तथा जे तीर्थकर हम णा वर्तमान कालें, वली (जेयागमिस्सा के) जे आगमिककालें तीर्थकर थशे, (अरिहंता के० ) ते श्री अरिहंत पूजा सत्कार करवा योग्य, (जगवंता के०) ऐश्वर्यादिकगुण युक्त, (सक्वेतेएयाश्चेव के० ) ते सर्व तीर्थ करें निश्चे थकी, ए (तेरसकिरियाताणा के ) तेर क्रियाना स्थानक जे ते अतीतका लें नांख्या, वर्तमान काले नांखे,अने आगमिक कालें नांवशे. विशेष प्ररूप्या. विशेष प्ररूपेले, अने विशेष प्ररूपशे. एम निश्चे ए तेरमो क्रिया स्थानक अतीतकाले सेव्यो, वर्तमान कालें सेवेले, अने आगमिक कालें सेवशे. जेम जंबूदीपने विषे बे सूर्य सरखो प्रकाश करे , तथा जेम प्रदीप सरखं अजवालुं करेले, तेम तीर्थकर पण त्रणेकालें वर्त मान बता, सरखो उपदेश आपेले. ॥ २४ ॥ ॥ दीपिका-अथापरं त्रयोदशं क्रियास्थानमीर्यापथिकं नाम बाख्यायते । ईरणं र्या तस्यास्तया वा पंथार्यापथः स विद्यते यस्य तदीर्यापथिकं । एतच शब्दव्युत्पत्तिनिमित्तं । प्र वृत्तिनिमित्तंतु इदं । सर्वत्रोपयुक्तस्य निकषायस्य समीक्तिमनोवाकायक्रियस्य या कि या तया यत्कर्म तदीर्यापथिकं सैव वा किया र्यापथिका । तस्याः स्वरूपमाह । (इहरखनु इत्यादि ) आत्मनावार्थ संवृतस्याऽनगारस्य र्यादिकानिः पंचनिः समितिनिर्मनोवाका यैः समितस्य तिसृनिर्गुप्तिनिर्गुप्तस्य गुप्तेंशियस्य नवब्रह्मचर्य गुप्तिसहितब्रह्मचारिणश्च उ पयुक्तं गतस्तिष्ठतोनिषीदतस्त्वग्वर्तनां कुर्वाणस्य तथा उपयुक्तमेव वस्त्रं पतग्रहं कं बलं पादपुंबनंवा गृाहतोनिक्षिपतोवा यावञ्चकुःपदम निपातमपि उपयुक्तं कुर्वतः सतो प्यस्ति विद्यते विमात्रा विविधा मात्रा सूक्ष्मा क्रिया र्यापथिकानाम केवलिनापि क्रिय ते । यतः सयोगी जीवः क्षणमप्येकं निश्चलः स्थातुं नशक्तोऽतिवह्निताप्यमानजलव कार्मणशरीरानुगतः सदा परिवर्तमानएवास्ते । ततः केवलिनोपि सूक्ष्मगात्रसंचाराः स्युस्तैश्च कर्म बध्यते तदर्यापथिकं तस्य याऽवस्था सा किया । (सापढमेति) निकषा यिणा यत्कर्म बध्यते तत्प्रथमसमये बइंस्टष्टं चेति तक्रियैव बस्टष्टेत्युक्ता । वितीय समये वेदिताऽनुनता तृतीयसमये निजी । केवलयोगनिमित्तं यत्कर्म बध्यते तस्य न सांपरायिकस्येव स्थितिः किंतु प्रकृतितः सातावेदनीयं तत् १ स्थितितोदिसमया स्थितिकं २ अनुनावतः गुनानुनावमनुत्तरसुरसुखातिशायि ३ प्रदेशतो बदुप्रदेशमस्थि Page #737 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राय धनपतसिंघ बानाउरका जैनागम संग्रह नाग उसरा. ७ बंधं बहुव्ययंच ४ । तदेवं सारक्रिया प्रथमसमये बस्टष्टा दितीयसमये उदिता निजी र्णा स्यात् । (सेयंकालेत्ति) एष्यत्काले अागामिनि तृतीयसमये तत्कर्मापेक्ष्या कर्मतापि नवति । एवं खलु तस्य वीतरागस्य तत्प्रत्ययिकमीर्याप्रत्ययिकं कर्माधीयते बध्यते । एतत्रयोदशं क्रियास्थानमाख्यातं । ये पुनस्तस्मादन्ये प्राणिनस्तेषां मिथ्यात्वाविरतिप्र मादकषाययोगनिमित्तः सांपरायिकोबंधः स्यात् । केवलयोगनिमित्तस्तु वीतरागस्यैव । सच दिसमयस्थितिकति॥२३॥ सोहं ब्रवीमि येऽतीतायेच प्रत्युत्पन्नाये चागामिनोहतो नगवंतः सर्वे ते एतान्येव त्रयोदश क्रियास्थानानि अनाषिषु ते नाषिष्यंतेच विपाक तः प्रज्ञापितवंतः प्रज्ञापयंति प्रज्ञापयिष्यंतिच । तथैतदेव त्रयोदशं क्रियास्थानं सेवित वंतः सेवंति सेविष्यंते च ॥ २४ ॥ ॥ टीका-अथापरं त्रयोदशं क्रियास्थानमीर्यापथिकं नामाख्यायते । ईरणमीर्या त स्यास्तया वा पंथार्यापथस्तत्र नवमीर्यापथिकमेतच शब्दव्युत्पत्तिनिमित्तं । प्रवृत्तिनिमि तं विदं सर्वत्रोपयुक्तस्य निकषायस्य समीदितमनोवाक्कायक्रियस्य या क्रिया तया यत्कर्म तदीर्यापथिकं सैव वा क्रिया ईर्यापथिकेत्युच्यते । सा कस्य नवति किंनूता वा कोहकर्मफ लावा इत्येतदर्शयितुमाह । (इहरखनुश्त्यादि) इह जगति प्रवचने संयमेवा वर्तमान स्य । खलुशब्दोऽवधारणेऽलंकारेवा । आत्मनोनावथात्मत्वं तदर्थमात्मत्वार्थ संवृतस्य मनोवाकायैः परमार्थतएवंनूतस्यैवात्मनावोऽपरस्य वसंतस्यात्मतत्त्वमेव नास्ति सनूतात्मकार्यकारणात् । तदेवमात्मार्थ संतृतस्यानगारस्येर्यापथिकादिनिः पंचनिः समितिनिर्मनोवाकायैः समितस्य तथा तिसृनिर्गुप्तस्य । पुनर्गुप्तिग्रहणमेतानिरेव गुप्तिनिर्गुप्तोनवतीत्यस्यार्थस्याविर्भावनायात्यादरख्यापनार्थ वेति । तथा गुप्तेंझ्यिस्य नवब्रह्मचर्यगुप्युपेतब्रह्मचारिणश्च सतस्तथोपयुक्तं गतस्तिष्ठतोनिषीदतोमुनेस्त्वक्वत नां कुर्वाणस्य तथोपयुक्तमेव वस्त्रं पतग्रहं कंबलंवा पादपुंबनकं वा गृणहतोनि दिपतोवा यावञ्चकुः पानिपातमप्युपयुक्तं कुर्वतः सतोऽत्यंतमुपयुक्तस्याप्यस्ति विद्य ते विविधा मात्रा विमात्रा तदेवंविधा सूक्ष्मा दिपमसंचलनरूपादिकर्यापथिकानाम क्रिया केवलिनापि क्रियते । तथाहि । सयोगी जीवोन शक्नोति शमप्येकं निश्चलः स्थातुमग्निना ताप्यमानोदकवत्कार्मणशरीरानुगतः सदा परिवर्तयन्नेवास्ते । तथा चोक्तं । केवलीणं नंते अस्सिसमयं सिजेसुआगासयएसेसु इत्यादि । तदेवं केवलिनोपि सूक्ष्मगात्रसंचारानवंतीहच कारणे कार्योपचारात्तया क्रियया यवध्यते कर्म तस्य कर्मणो याअवस्थास्ताः क्रियाः । ताएव दर्शयितुमाह । (सापढमसमयेइत्यादि) यासाव काषिणः क्रिया तया यबध्यते कर्म तत्प्रथमसमयएव बदं स्पृष्टंचेति कृत्वा तक्रियैव बम Page #738 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७० G द्वितीये सूत्रकृतांगे द्वितीय श्रुतस्कंधे द्वितीयाध्ययनं. स्टेत्युक्ता तथा द्वितीयसमये वेदितेत्यनुन्नूततृतीयसमयेव तिजीर्णा । एतडुक्तं नवति । कर्मयोगनिमित्तं बध्यते तत्स्थितिश्व कषायायत्ता तदनावाच्च न तस्य सांपरायिकस्येव स्थितिः किंतु योगसङ्गावाद्वध्यमानमेव स्ष्टष्टतां संश्लेषं याति । द्वितीयसमये त्वनुनूय ते तच्च प्रकृतितः सातावेदनीयं स्थितितो द्विसमयस्थितिकमनुभावतः गुनानुभावं अनुत्तरोपपातिकदेव सुखातिशायि देशतो बहुप्रदेशम स्थिरबंधं बहुव्ययंच | तदेवं सेर्या पथिका क्रिया प्रथमसमये बस्ष्टष्टा द्वितीयसमये उदिता वेदिताऽतिजीर्णा नवति ( सेयंकालेत्ति ) श्रागामिनि तृतीयसमये तत्कर्मापेक्षया कर्मतापि च नवति । एवं ताव Starगस्येर्याप्रत्यकिं कर्माधीयते संबध्यते । तदेतत्रयोदशं क्रियास्थानं व्याख्या तं । ये पुनस्तेयोऽन्ये प्राणिनस्तेषां सांपरायिकोबंधस्तेतु यानि प्रागुक्तानीर्यापथवर्ज्यान दादश क्रियास्थानानि तेषु वर्तते तेषां त घर्तिनामसुमतां मिथ्यात्वाविरतिप्रमादकषा ययोगनिमित्तः सपरायिकोबंधोजवति । तत्रच प्रमादस्तत्र कषायायोगाश्च नियमाद्भवं ति । कषायिश्च योगायोगिनस्त्वेते जाज्याः । तत्र प्रमादकषाय प्रत्ययिको बंधोऽनेक प्रकारा स्थितिः । तहितस्तु केवलयोगप्रत्ययिको ६िसमय स्थितिरेवेर्या प्रत्ययिकइति स्थितं ॥ २३ ॥ एतानि त्रयोदश क्रियास्थानानि ननगव वर्धमानस्वामिनैवोक्तान्यपि त्वन्यै रपीत्येतद्दर्शयितुमाह । ( सेवेमीत्यादि ) सोहं ब्रवीमीति यत्प्रागुक्तं ता ब्रवीमीति । तद्यथा । ये तेऽतिक्रांतापनादयस्तीर्यकृतोयेच वर्तमानाः क्षेत्रांतरे सीमंधरस्वामि प्रनृतयोये चागामिनः पद्मनानादयोऽहै तोनगवंतः सर्वेपि ते पूर्वोक्तान्येतानि त्रयोदश क्रियास्थानान्यनापंतनापंते जाषिष्यंतेच । तथा तत्स्वरूपतस्तद्विपाकतश्च प्ररूपितवंतः प्ररूपयंति प्ररूपयिष्यंतिच । तथैतदेव त्रयोदशं क्रियास्थानं सेवितवंतः सेवते सेविष्यं तेच । तथाहि जंबूद्वीपे सूर्य इयं तुल्यप्रकारां नवति । यथा वा सदृशोपकरणाः प्रदीपास्तु व्यप्रकाशानवंत्येवं तीर्थकृतोपि निरावरणत्वात् कालत्रय वर्तिनो पि तुल्योपदेशानवं ति ॥ २४ तरंच पुरिसविजयं विनंगमाइ किस्सामि इह खलु पाणापमा पं पापानंदाणं पापासीलाएं पापादि द्वीपं पापारूईणं णाणारंजा पाणाश्वसाणं संजुत्ताणं पाणाविपावसुयाश्यपं एवं नव॥ २५ ॥ तंजदा जोमं नृप्पायं सुविणं अंतलिकं अंगं सरं लकणं वंज इबिल पुरिसलकणं दयलकणं गयलकणं गोपलकणं मिंढलकणं कुक्कडलकणं तित्तिरलकणं वट्टगलकणं लावयलक णं चक्कल करणं बत्तलकणं चम्मलकणं दंगल करणं असिलकणं म For Private Personal Use Only Page #739 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रायधनपतसिंघ बादाडुरका जैनागम संग्रह नाग इसरा. १० लिक का गिलिकणं ॥ २६ ॥ सुनगाकरं प्रगाकरं गप्नाकरं मो दणकरं प्राच्चा पागसासणिं दवदोमं खत्तियविकं चंदचरियं सूरच रियं सक्कचरियं वदस्सइचरियं नक्कापायं दिसादाढं मियचकं वायस परिमंगलं पंसुबुद्धिं केसवुद्धि मंसवुद्धिं रुदिबुद्धि वेतालिं वेताल नसोवणिं तालघाडणिं सोवागि सोवरिं दामिलि कालिंगिं गो रिं गंधारि नवतिणिं नृप्पयणि जंनणि यंत्राण लेस िमयकरणि विसनकरण पक्कमणि तक्षणि प्रायमिणि एवमाइयान विकार्नु अन्नस्स देनं पति पाणस्स देनं पजंति वच्चस्स देनं पनंजंति लेण स्स देनं पतंजंति सयणस्स देनं पनंनंति अन्नेसिंवा विरूवरूवाणं का मनोगाण देनं पर्वनंति तिरिचं तेविद्धं सेर्वेति ते पारिया विपडि वृन्ना कालमासे कालं किच्चा अन्नयराई आसुरियाई किब्बिसियाई ग साई नववत्तारो नवति ततोवि विप्पमुञ्च्चमाणा जुकोएल भूयताए तम या पच्चायंति ॥ २७ ॥ अर्थ- हवे जे कां ए तेरमा क्रियास्थानकने विषे पाप न कयुं, ते कहेने (डुत्तरंच ०) जे कांइ तेरमा क्रियास्थानकने विषे नकेवाणुं ते यागले ग्रंथे कहिए बैए (पुरि स विजयं विनंगे माइरिकस्सा मिके०) हवे पुरुष विचय अथवा पुरुषविजय एटले केटला एक अल्पत्ववंत पुरुषो विनंग एटले ज्ञान क्रियाविशेष कहीगुं ( इहखलु के० ) या मनुष्य क्षेत्रने विषे निश्चें थक) (लालापमा के०) नाना प्रकारनी जेनी प्रज्ञाबे तथा ( पालाउंदा ho) नाना प्रकारें जेनो अभिप्रायले ( पाणासीलाएं के० ) नाना प्रकारें जेनो याचा र (पापादिही के०) नाना प्रकारें जेनी दृष्टीने एतावता त्राने त्रेसठ जेनुं प्रमा a. तेकारणे नाना दृष्टिना जाणवा (लालारुणं के० ) ग्राहार, विहार, शयन, या चरण, यान, वाहन, गीत, घने वाजित्रादिकने विषे जुदी जुदी जेनी रुचिबे (लाणारं जा के ) तथा नाना प्रकारना जेना प्रारंभ एटजें कर्षण, पशुपालन, शिल्पकर्म, इत्यादिक जेने प्रारंबे ( पाणासवसाणं के० ) नाना प्रकारना गुनाशुन अध्यवसाय तेणेकरी ( संजुत्ताणं के० ) सहित जे वर्त्तेले. (पाणाविपावसुयायां के० ) तेना ए यागल केहेशे ते प्रमाणे, नाना प्रकारें पापश्रुताध्ययन ( एवंनवइ के० ) एम होय. ||२५|| (जहा के०) ते कहे. (नोमं के०) नृमि निर्घात एटले भूमिकंपादिक जे ग्रंथ For Private Personal Use Only Page #740 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७१० दितीये सूत्रकृतांगे वितीय श्रुतस्कंधे वितीयाध्ययनं. कह्याने, तथा (नप्पायं के ) उत्पातिक, कपिदसितादिक, तथा आकाश थकी रुधिरवृष्टयादिक ( सुविणं के ) स्वप्नते रात्रीने विषे गजवषनादिक दर्शन, ( अं तलिरकं के०) उल्कापात मेघ तृष्टयादिक तथा (अंग के० ) अंग नेत्र बादु स्फुरणा दिक, ( सरं के० ) काकशिवादिक स्वर विचारणा, (लरकणं के० ) पद्म, यव, शंख, चक्रादिक लक्षण, ( वंजणं के० ) मस तिलकादिक, (इबिलरकणंपुरिसलरकणं के ) स्त्रीलदाण, तथा पुरुषना लदाण, ते सामुश्किादिक प्रसिमडे. (हयलरकणं के०) घो डाना लहाण, (गयलरकणंके०) हाथीना लक्षण, (गोणलरकणं के०) गौ वृषनना लक्षण, ( मिंढलरकणं के० ) मिंढाना लक्षण, (कुक्कडलरकणंके०) कुकडाना लक्षण, (तित्तिरल रकणं के० ) तित्तिरपदीना लहाण, ( वट्टगलरकणं के०) वर्तकना लक्षण, (लावयल रकणं के० ) लावकना लक्षण, ( चक्कलरकणं के० ) चक्रना लक्षण, (उत्तलरकणंके०) बनना लक्षण, ( चम्मलरकणं के० ) चर्मना लक्षण, (दंमलरकणं के ) दंझना लक्षण (असिलरकणं के ० ) खड़ना लक्षण, ( मणिलरकणं के ० ) मणि चंद सूर्यकांतादिकना लक्षण, (कागिणिलरकणं के० ) कागिणिना लक्षण, एवीरीते एना प्ररूपक शास्त्र जा णवां. ॥ २६ ॥ हवे मंत्रविद्या कहे. ( सुनगाकरं के० ) जे थकी कुर्नाग्य वंत प्राणी सोनाग्य वंत थाय. ( उपगाकरं के०) जेथकी सौनाग्य वंत प्राणी दौर्नाग्यवंत थाय. ( गप्नाकर के० ) जे विद्याने बले गर्नाधान ऊपजे तेवी विद्या, (मोहणकरं के० ) लोकने व्यामोह ऊपजे तथा वेदनो उदय दीपे, (पाहचणिं के० ) आथर्वणीविद्या ए टले तत्काल अनर्थनी करनारी विद्या, (पागसासणिं के ० ) इंजाल विद्या, ( दवहो मं के० ) मधु घृतादिक इव्य, उच्चाटनादिक कार्य निमित्तें होमीए ते इव्यहोम जाण वो ( खत्तिय विर्क के०) दत्रीनी धनुर्विद्यादिक विद्या, (चंदचरियं के ) चंडमानु चरित्र चंइमानोवार जाणे (सूरचरियंक०) सूर्यनु चरित्र सूर्यनो वार जाणे, (सुक्कचरियं के०) शुक्रचरित्र शुक्रनो वार जाणे, (वहस्सश्चरियंके०) बृहस्पतिनुं चरित्र बृहस्प तिनो वार जाणे, एवं नवग्रह चरित्र ते ज्योतिष शास्त्र प्रसि६ जाणवू. तथा (नक्कापायं के०) उल्कापात, (दिसादाहं के ) दिग्दाह ( मियचकं के०) थारण्यक जीव तेनो ग्राम नगरने विषे प्रवेश करतां दर्शनथाय, अथवा शब्द शुनागुन चिंतवियें ते मृगचक्र कहिए. ( वायसपरिमंमलं के०) काकादिक पदीना शब्दादिकनो विचार कहे एवीविद्या (पंसुवुहिके०) पंसुधूल वृष्टि, (केसवुहिं के०) केश वृष्टि, (मंसवुटिके) मांस वृष्टि, (रूहिरवुहिं के०) रुधिरवृष्टि, तेनुं गुनाशुन फल, जे शास्त्रने विषे चिंतवियें. ते शा स्त्रो (वेतालिं के०) वेतालि नामे विद्या केटला एक अर प्रमाण ते केटला एक दि वस जपतां अचेतन काष्ट माहें चेतन वताडे (१६वेतालि के०) ते दमने उपशमावे, Page #741 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रायधनपतसिंघ वादाउरका जैनागम संग्रह नाग उसरा. ११ (उसोवर्णिके०) उपस्वापिनी विद्या, (तालुघाडणिके०) ताला उघाडवानी विद्या; तालो घट्टनी ( सोवागिं के ) चांमालिणीश्वापकी विद्या, (सोवरिके) शांबरी विद्या, (दा मिलिके) साविडीविद्या (कालिंगिंके) कालिंगी विद्या, (गोरिंके०) गोरी विद्या (गंधारि के० ) गांधारी विद्या, ( उवतिणिं के० ) अवपतनी नीचे पाडवानी विद्या, (नप्पयणिं के) नत्पतनी एटले तुंचे जवानी विद्या. (जनपिंके०) जूनणी विद्या. (थंनपिंके०) स्तंननी विद्या (लेसणिं के० ) श्लेषनी विद्या ( आमयकरणिं के० ) श्रामय करणी विद्या (विसलकरणिं के) विशव्य करणी विद्या ( पक्कमणिं के०) प्रक्रामणी फेर चडा वानी विद्या (अंतकापिं के०) अदृश्य करणि विद्या (यायमणिं के०) यात्मणी वि द्या, ( एवमाश्या विजा के ) इत्यादिक विद्या आदि शब्दथकी प्रत्यादिक वि द्या लेवी ते विद्याने जे शास्त्रो थकी जाणी. तेवां शास्त्रो नगीने पांखमी, परद शनी अथवा गृहस्थ, अथवा स्वपदीक इव्यलिंगी साधु ते ए पूर्वोक्त विद्याउने ( अन्नस्सहेनं के० ) अन्नने अर्थ ( पति के० ) प्रयंजे (पाणस्सहेनपति के) पाणीने अर्थ प्रयुंजे ( वनस्सहेचंपति के० ) वस्त्रने अर्थे प्रयुंजे (लेण स्सहेनपत्रंजंति के ) नपाश्रयने अर्थं प्रयुंजे ( सयणस्सहेपनंजंति के ) शयनने अर्थं प्रयुंजे (अन्नेसिंवा विरूवरूवाणंकामनोगाणहेनपत्रंजंति के ) अथवा बीजा नाना प्रकारना कामनोगने अर्थं प्रयुंजे ते पुरुष (तिरि तेविसेवेंति के ) तिरबि एटले रूडा अनुष्ठाननी हणनारी एवी ते विद्याने सेवे (तेश्रणारिया विप्प डिवन्ना के ) ते अनार्य जाणवा. यद्यपि क्षेत्रे करी अने नाषायें करी तो धार्य तथापि, मिथ्यात्व ना आसेवन थकी, अनार्य कर्मना करनार, अनार्य, अनाचारी, केवाय ते (काल मासे कालं किच्चा के) आयुष्यने क्ये कालने अवसरे काल करीने अझान तपने प्र माणे यद्यपि देवलोकें जाय तथापि ते,(अन्नयराइंयासुरियाई किदिबसिया वाणाईन ववत्तारो नवंति के ) तेनु अनेरा बासुरी किस्विपिकादिक स्थानकोने विषे उपज थाय. (ततो विविष्पमुच्चमाणाके o) त्यां थकी चवीने (नुकोके०) वली मनुष्यमा उपजे तो केवा थाय तोके (एल के ) बेरा थाय. (मूयताए के) मुंगा थाय, (तम अंधयाए के० ) अांधला एवा ते जीव थाय. त्यार पली (पञ्चायंति के ) नरक तिर्य चादिक गतिने विषे परिचमण करे; अधर्मपद बाश्री एटले व्रतधारीने पापनो विपाक कह्यो. हवे गृहस्थ उद्देशिने अधर्म पद कहेले. ॥ १७ ॥ ॥ दीपिका-सांप्रतं त्रयोदशसु क्रियास्थानेषु यन्नोक्तं पापस्थानं तदाह । इदमुत्तरं अस्माक्रियास्थानप्रतिपादनाउत्तरं यदत्र नोक्तं तउत्तरग्रंथेनोच्यते । चसमुच्चये। एं Page #742 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५ वितीये सूत्रकृतांगे दितीय श्रुतस्कंधे वितीयाध्ययनं. वाक्यालंकारे । पुरुषाविचीयंते मृग्यंते येन सपुरुष विचयः पुरुषविजयोवा अल्पसत्वा नां केषांचित्पुरुषाणां झानलवेनार्थानुबंधिना विजयस्तस्य विनंगं छानविशेष चाख्या स्यामि । यादृशानां चासौ विनंगः स्यात्तानाह । (इहखखुश्त्यादि ) इह जगति नानाप्र झाविचित्रमतयः पुरुषानानालंदाविचित्रानिप्रायानानाशीलानानारूपादृष्टिरंतः करणप्र वृनिर्येषां ते तथा तेषांच त्रीणि शतानि त्रिषष्ट्यधिकानीति प्रमाणं झेयं । तथा नानारुची नां नानारंनाणां नानाध्यवसायसंयुतानां इह लोकप्रतिबझानां परलोकपराङ्मुखानां तेषां नानाविधं पापश्रुताध्ययनं नवति॥२५॥तद्यथा। जूमौ नवं नौमं निर्घातनूकंपादिकं नत्पातं कपिदसितादि स्वप्नं गजादि, यांतरिदं मेघादि,अांगं बाहुनेत्रस्फुरणादि,स्वरलक्षणं काकस्व रादिलक्षणं, मत्स्ययवश्रीवत्सादि व्यंजनं तिलमाषादि स्त्रीलक्षणं रक्तपाणिपादादिकं । ए वं पुरुषहयगजगोमिंढकुक्कुटतित्तिरवर्तकलावकचकत्रचर्मदंडासिमणिकाकिणीरत्नलद गानि ॥ २६ ॥ सुनगमाकरोति सुनगाकारा विद्या, उनगमाकरोति उगाकारा, गर्नकरा मो हनकरा आथर्वणी अथर्वणारख्या, सद्योऽनर्थकारिणी विद्या पाकशासनी इंजाल विद्या कणवीरपुष्पादिनिईव्यैरुचाटनादिकायैौमोयस्यां सा व्यहोमा, क्षत्र विद्या धनुर्वेदा दिका, तामधीत्य प्रयुंजते । ज्योतिष विद्यामाह । (चंदचरियमित्यादि) चंश्चरित्रं, नत्र योगरानुग्रहणादिकं सूर्यचरित्रं, तथैव शुक्रबृहस्पतिचरितं उदयास्त वर्षकालादि । उल्का पातदिग्दाहमंडल विचारेण गुजागुनकारिणोमृगाहरिणशृगालादयधारण्यास्तेषां दर्शनं ग्रामप्रवेशादौ शुनाशुनं यत्र चिंत्यते सग्रंथोपि मृगचक्र वायसादीनां पक्षिणां स्था नस्वरादिकं गुनागुनं चिंत्यते तदायसपरिमंडलं पांसुकेशमांसरुधिरवृष्टयोऽनिष्टफलायत्र शास्त्रे चिंत्यंते तत्तन्नाम. तथा वैताली विद्या सा च किल कतिनिर्जपैडमुबापयति । अ र्धवैतालीतं दंडमुपशमयति । नपस्वापिनी, तालोद्घाटनी, श्वपाकी, शांबरी, झाविडी, का लिंगी, गौरी, गांधारी, अवपतनी, नत्पतनी, जूनणी, स्तंननी, श्लेषणी, प्रामयकरणी, वि शव्यकरणी, प्रक्रामणी, अंतर्धानकरणी इत्यादिका विद्या अधीयते । श्रादिशब्दात्प्रयाद योग्राह्याः । एताश्च विद्याः पाखंडिकागृहस्थावा स्वयूथ्याइव्यलिंगधारिणोवा अन्नपान वस्त्रलयनशयनार्थ प्रयुजति अन्येषां वा विरूपरूपाणां विचित्राणां कामनोगानां कृते प्र मुजति । सामान्येन विद्यासेवनमनिष्टमित्याह । (तिरिमिति) तिरश्चानामननुकूला स दनुष्ठानप्रतिघातकारिणी तेऽनार्या विप्रतिपन्नां विद्या सेवंते तेच यद्यपि क्षेत्रार्यानापार्या स्तथाप्यनार्यकर्मकारित्वादनार्याएव ज्ञेयाः । तेच कालमासे मरणावसरे कालं कृत्वा यदि कथंचिदेवलोकगामिनोनवंति ततोन्यतरेषु बासुरीयकेषु किब्बिषिकादिस्थानेषु न त्पत्स्यंते ततोपि विप्रमुक्ताश्युतायदि मनुष्येषूत्पद्यते तदा एडमूकत्वेनाऽव्यक्तनाषित्वेन त मस्त्वेनांधतया मूकतयावा प्रत्यायांति ततोनरकतिर्यगादिषूत्पद्यते ॥ १७ ॥ Page #743 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राय धनपतसिंघ बाहारका जैनागम संग्रह नाग दुसरा: ७१३ ॥ टीका- सांप्रतं त्रयोदशसु क्रियास्थानेषु यन्नानिहितं पापस्थानं तनिणिपुराह । ( अत्तरमित्यादि) प्रस्मात्रयोदशक्रियास्थानप्रतिपादनाडुत्तरं यत्र न प्रतिपादितं त दधुनोत्तरनूतेनानेन सूत्रसंदर्भेण प्रतिपाद्यते । यथाऽऽचारे प्रथम श्रुतस्कंधे यन्नानिहितं तडुत्तरनूता निश्चूलिकानिः प्रतिपाद्यते । तथा चिकित्साशास्त्रे मूलसंहितायां श्लोक स्थान निदानशारीर चिकित्सितकल्प संज्ञकायां कार्यं यन्नानिहितं तदुत्तरेऽनिधीयते एवमन्य त्रापि बंदः स्वित्यादावुत्तरसद्भावोऽवगंतव्यः । तदिहापि पूर्वेण यन्नानिहितं तदनेनोत्तरयं येन प्रतिपाद्यतइति । च समुच्चये । समितिवाक्यालंकारे । पुरुषाविचीयते मृग्यंते वि ज्ञान द्वारेणान्वेष्यंते येन सपुरुषविचयः पुरुषविजयोवा केषांचिदल्पसत्वानां तेन ज्ञानब लेनावधिप्रयुक्तेनानर्थानुबंधेना विजयादिति । सच विनंगवदवधिविपर्ययवद्विगोज्ञानवि शेषः पुरुषविचयश्चासौ विनंगश्च पुरुषविचयविनंगस्तमेवंभूतं ज्ञान विशेषमाख्यास्यामि प्र तिपादयिष्यामि । यादृशानां चासौ नवति तांलेशतः प्रतिपादयितुमाह । (इह खलुइ त्यादि ) इह जगति मनुष्यक्षेत्रे प्रवचने वा नानाप्रकारा विचित्रक्षयोपशमात् प्रज्ञायतेऽन येति प्रज्ञा सा विचित्रा येषां ते नानाप्रज्ञास्तया वाऽल्पाल्पतराल्पतमया चिंत्यमानाः पुरुषाः षट्स्थानपतितानवंति । यथा दो ऽनिप्रायः सनानायेषां ते तथा तेषां नानाशी जानां तथा नानारूपा दृष्टिरंतःकरणप्रवृत्तिर्येषां ते तथा तेषामिति । तेषांच त्रीणि श तानि षष्यधिकानि प्रमाणमवगंतव्यं । तथा नाना रुचिर्येषां ते नानारुचयः । तथा हि । श्राहारविहारशयनासना वादनानरणयानवाहनगीतवादित्रादिषु मध्ये ऽन्यस्यान्यारु चिर्नवति तेषां नानारुचीनामिति । तथा नानारंनायां कृषिपाशुपाल्य विपणि शिल्पिक सेवादिष्वन्यतरमारंनेणेति । तथा नानाध्यवसायसंयुतानां गुनाध्यवसायनाजा इह aarti परलोक निष्पिपासानां विषयतृषितानामिदं नानाविधं पापश्रुताध्य यनं नवति ॥ २५॥ तद्यथा भूमौ नवं निर्घातनूकंपादिकं, तथोत्पातं कपिहसितादिकं, त या स्वप्नं गजवृषन सिंहादिकं तथाऽतरिक्षं मेघादिकं, तथांगे नवमांगं यदिबादुस्फुर शादिकं, तथा स्वरलक्षणं काकस्वरगंजीरस्वरादिकं तथा लक्षणं यवमत्स्य पद्मशंखच श्रीवत्सादिकं व्यंजनं तिलकमाषादिकं, तथा स्त्रीलक्षणं रक्तकरचरणादिकं, एवं पुरुषा aari का कि रत्नपर्यंतानां लक्षणप्रतिपादकशास्त्रपरिज्ञानमवगंतव्यं ॥ २६ ॥ तथा मंत्र वि शेषरूपा विद्याः तद्यथा । डुर्नगमपि सुनगमाकरोमि सुनगकारां, तथा सुनगमपि दुर्जगमा करोमि डुर्नगकारां, तथा गर्नकरां गर्भाधान विधायिनीं तथा मोहोवेदादयोवा तत्करण शीलामाथर्वणानिधानां सद्योऽनर्थकारिणीं विद्यामनीधीयते तथा पाकशासनी मिंजाल संज्ञिकां तथा नानाविधैव्यैः कणवीरपुष्पादि निर्मधुघृतादि निर्वोच्चटना दिकैः कायैर्हो मोहवनं यस्यां सा इव्यहवना तां तथा क्षत्रियाणां धनुर्वेदादिकापरा वा या स्वगोत्रक्रमे ८० For Private Personal Use Only Page #744 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७१४ तीये सूत्रकृतांगे वितीयश्रुतस्कंधे वितीयाध्ययनं. पायाता तामधीय प्रयुंजते । तथा नानाप्रकारं ज्योतिषमधीत्य व्यापारयतीति दर्शयति (चंदचरियमित्यादि ) चंइस्य ग्रहपतेश्चरितं चंश्च रितमिति । तच्च वर्णसंस्थानप्रमाण प्रनानत्रयोगरानुग्रहादिकं । सूर्यचरितंत्विदं । सूर्यस्यमंडलपरिमारणराशिपरिनोगोद्यो तावकाशरादूपरागादिकं । तथा शुक्रचारोविथीत्रयचारादिकस्तथा बृहस्पतिः शुनागुन फलप्रदः संवत्सरराशिपरिनागादिकश्च तथोल्कापातादिग्दाहाश्च वायव्यादिषु मंडलेषु नवंतः शस्त्रानिकुत्पीडा विधायिनोनवंति । तथा मृगाहरिणसगालादयधारण्यास्तेषां द निरुतं ग्रामनगरप्रवेशादौ सति शुनागुनं यत्र चिंत्यते तन्मृगचक्र। तथा वायसादीनां प दिणां यत्र स्थानादिकं स्वराश्रयेणाऽशुनफलं चिंत्यते तदायसपरिमंडलं । तथा पांसु केशमांसरुधिरा दिवृष्टयोऽनिष्टफलदायत्र शास्त्रे चिंत्यंते तत्तदनिधानसेव नवति । त था विद्यानानाप्रकाराः कुकर्मकारिण्यस्ताश्चेमाः । वैतालीनामविद्या । नियतादरप्रतिब का । साच किल कतिनिर्जपैडमुबापयति तथार्धवैताली तमेवोपशमयति । तथोपस्वा पिनी तालोदघाटनी श्वापाकी शांबरी तथा परिभाविडी कालिंगागौरी गांधार्यवपतन्युप्तरत नीजंजणी स्तंननी श्लेषणीयामयकरणी विशव्यकरणी प्रक्रामण्यंतर्धानकरणीत्येवमादि काविद्यायधीयते । थासां चार्थः संझातोऽवसेयति न वरं । स्वापिनीमाविडोकालिंग्य स्तद्देशोनवास्तन्नाषानिबदावा चित्रफलाः । अवपतनी तुजपत्स्वतएवपतत्यन्यं वापात यत्येवमुप्ततन्यपि इष्टव्या । तदेवमेवमादिका विद्या । वादिग्रहणात्प्रज्ञप्त्यादयो गृह्यते। एताश्च विद्याः पापंडिकाअविदितपरमार्थागृहस्थावास्वयूथ्यावाइव्यलिंगधारिणोन्नपा नाद्यर्थ प्रयुंजंति अन्येषां वा विरूपाणामुच्चावचानां शब्दादीनां कामनोगानां कृते प्रयुं जंति । सामान्येन विद्यासेवनमनिष्टकारीति दर्शयितुमाह । (तिरिवमित्यादि) तिरश्ची नामनुकूला सदनुष्ठानप्रतिपादिकां घातिकां ते अनार्य विप्रतिपन्ना विद्यां सेवंते । तेच य यपि देवार्यनापार्या स्तथापि मिथ्यात्वहतबुझ्योऽनार्यकर्मकारित्वादनार्याएव इष्टव्या स्तेच स्वायुषःक्ष्ये कालमासे कालंकृत्वा यदि कथंचिदेवलोकगामिनोनवंति ततोऽन्यतरे पु आसुरीयकेषु किल्बिषिकादिषु स्थानेषूत्पत्स्यते ततोपि विप्रमुक्ताश्युतायदिवा मनुष्ये पूत्पत्स्यंते तत्रच तत्कर्मशेषतयैडमूकेनाव्यक्तनाषिणस्तमस्त्वेनांधतया मूकतया वा प्र त्यागबंति ततोपि नानाप्रकारेषु यातनास्थानेषु नरकतिर्यगादिषूत्पद्यते ॥ २७॥ से एगईन आयदेवा पायवा सयणदेवा गारदेन्वा परि वारदेवा नायगंवा सहवासियंवा हिस्साए अज्वा अणुगामिए अज्ज्वा वचरए अज्वा पडिपदिए अज्या संधिबेदए अज्वा गरिने दए अज्ज्वा नरनिए अज्या सोवरिए अज्वा वायुरिए अवा सोन Page #745 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राय धनपतसिंघ बादाउरका जैनागम संग्रह नाग उसरा. १५ णिए अज्वा महिए अज्वा गोघायए अज्वा गोवालए अज्वा सोव लिए अज्ज्वा सोवणियंतिए॥॥ अर्थ-हवे गृहस्थ उद्देशीने अधर्म पद कहेले. ( सेएगई के ) ते गृहस्थ कोड एक महा निर्दय परलोक थकी न विहितो थको, संसारना सुख वांडतो तो जे कर्कश कर्म करे ते कहेले. (प्रायहेवा के० ) पोताने निमित्तें अथवा ( णायहेवा के० ) झातिने निमित्तें ( सयणहेवा के० ) स्वजनने निमित्तें (थागारहेउंवा के०) घरने नि मित्तें ( परिवारहेवा के० ) परिवारने निमित्तें ( नायगंवा के० ) परिचित एटले जा गेला पुरुषने निमित्तें (सहवासियंवाणिस्साए के) सहवासि एटले पाडोशीनी निश्रा ये, एटलां अकार्य करे, ते कहेले. (यज्वा के० ) अथवा (अणुगामिए के ) य कार्य करवाने अर्थे बीजो जतो होय तेनी पडवाडे जाय, ( अज्वाइवचरए के० ) अथवा अकार्य करवाने अर्थे तेने अनेक नपचार करे विश्वासे, (यज्वापडिपहिएके०) अथवा प्रतिपथिक एटले मार्गे जता माणासनी सन्मुख आवे (अउवासंघिदएके०) संधिबेदक, एटले चोरी करे, (अध्वागंग्लेिदए के०) अथवा ग्रंथिनेद करे, एटले गंठी बो डो थाय, (अवानरनिए के० ) अथवा बाली एटले गामरां चरावे (यवासोवरि ए के०) अथवा सूवर डुक्कर चरावे (यज्वावागुरिए के० ) अथवा वाघरी थाय, एटले मृग मारवानां कर्म करे (अवासोनगिए के० ) अथवा शकुनी एटले पदीने पाश नाखे, (अवामहिए के० ) अथवा माबी थाय, (अवागोघायए के०) अथवा गो घातक कसाइ थाय, गायने मारे, अथवा गोधाने नाथे (अवागोवालए के) गोवालि या पणु करे, इत्यादिक नीचकर्म करे, (यवासोवणिए के ) कुतरानो राखनार था य, (अड्वा सोवणियंतिए के० ) कुतराये करी शिकार खेले. इत्यादिक बधा मलीने चनद प्रकारे कर। अनेक जीवोनो विनाशकरे. ॥ ॥ ॥ दीपिका-अथ गृहस्थानुदिश्याधर्मसेवामाह । ( सेएगईयायहेउवा ) सएकः कदाचिन्निस्त्रिंशयात्मनिमित्तं झातिहेतुंवा अगारहेतुं गृहसंस्करणार्थ परिवारहेतुंवा झा तकः परिचितस्तं समुद्दिश्य सहवासिकं प्रातिवेश्मिकं निश्रीकृत्य एतानि कुर्यात् । तान्ये वाह । (अवेत्ति ) अथवेति पदांतरापेक्ष्या । गतमनुगबतीत्यनुगामुकः सचाकाये करणमनास्तं गवंतमनुगबति । अथवाऽन्यस्य विरूपकरणावसरापेक्षा उपचारकः स्या त् । अथवा नरभ्रेण चरत्यौरनिकः । अथवा सौकरिकः । अथवा शकुनिनिश्चरति शाकु निकः अथवा वागरिकः अथवा मात्स्यिकःअथवा गोघातकः अथवा गोपालत्वं श्रयति Page #746 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७१६ तीये सूत्रकृतांगे वितीयश्रुतस्कंधे वितीयाध्ययनं. अथवा श्वनिश्चरति शौवनिकः गुनां पालकश्त्यर्थः । अथवा (सोवणियंतएत्ति ) श्वनिः पापर्दिकुर्वन्मृगादीनामंतं करोतीत्यर्थः ॥ २७॥ ॥ टीका-सांप्रतं गृहस्थानुद्दिश्याधर्मपदसेवनमुच्यते । (सेएगइनइत्यादि ) सएकः क दाचिन्निस्त्रिंशः सांप्रत्यापेक्ष्यपगतपरलोकाध्यवसायः कर्मपरतया नोगलिप्सुः संसारस्वना वानुवात्मनिमित्तं चेत्येतान्यनुगामुकान्यकर्तव्य हेतुनूतानि चतुर्दशासदनुष्टानानि विधत्ते तद्यथा झातयः स्वजनास्तन्निमित्तं तथाऽगारनिमित्तं गृहसंस्कारणार्थ सामान्येनवा कुटुं बार्थ पारिवारनिमित्तंवा दासीदासकर्मकरादिपरिकरकते तथा झातएवज्ञातकः परिचित स्तं समुद्दिश्य तथा सहवासिकंवा प्रातिवेश्मिकंवा निश्रीकृत्यैतानि वदयमाणानि कुर्यादि ति संबंधः। तानिच दर्शयितुमाह । (अमुवेत्यादि) अथवेत्येवं वक्ष्यमाणावेदया पदां तरोपलक्षणार्थः । गतमनुगबतीत्यनुगामुकः सचाऽकायाध्यवसायेन विवक्तिस्थला द्यपेक्ष्या विरूपकर्तव्यचिकीर्षुस्तं गतमनुगति । अथवा तस्यापकर्तव्यस्यापकाराव सरापेट्युपचारकोनवत्यथवा तस्य प्रातिपथिकोनवति प्रतिमुखं संमुखीनमागवत्यथवाऽऽ त्मस्वजनार्थ संधिबेदकोनवति वौर्य प्रतिपद्यते अथवौरर्मेषैश्चरत्यौरनिकोथवा सौ करिकोजवत्यथवा शकुनिभिः पदिनिश्चरतीति शकुनिकोऽथवा वागुरया मृगादिबंधनो ज्ज्वा चरति वायुरिकोथवा मत्स्यैश्चरति मात्स्यकोथवा गोपालनावं प्रतिपद्यतेऽथवा गर घातकः स्यादथवा श्वनिश्चरति शौवनिकः शुनां परिपाकोनवतीत्यर्थोऽथवा (सोवणियं ति ) श्वनिः पार्टि कुर्वन्मृगादीनामंतं करोतीत्यर्थः ॥ २७ ॥ से एगईन आणुगामियनावं पडिसंधाय तमेव आणुगामियाणु गामियं दंता वेत्ता नेत्ता लुंपश्त्ता विलुपश्त्ता नवश्त्ता आदारं आहारेति इति से महया पावेहिं कम्मेदि अत्ताणं नवस्काइत्ता नव॥शणासे एगईन नवचरयं नावं प डिसंधाय तमेव नवचरियं दंता बेत्ता नेत्ता लुपश्त्ताविलुपश्त्ता नवश्ता आ हारं आदाति इति से मदया पावेदि कम्मेहिं अत्ताणं नवरकाश्त्ता नव॥३० अर्थ-हवे ए चौद स्थानकने प्रत्येके प्रथम थकी विवर्णकरीने कहेले. (सेएगईन याणुगामियनावंपडिसंधाय के०) ते को एक पुरुष आत्माने अर्थे कोइ एक ग्रामांत रे जनारा पुरुषनी पासें इव्य एवं जाणीने (तमेवाणुगामियागामियं के०) तेमज तेनी पडवाडे जाय, पनी तेने विश्वास उपजावीने (हंता के०) तेने हणे, दे, नेदे, खं टे, विशेषे खुंटे, (उदवश्त्ता के०) उपव करे, जीवितव्य थकी विनाश करे, पली Page #747 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राय धनपतसिंघ बाहाडुरका जैनागम संग्रह नाग दुसरा. 92 तेनुं धनलइने ते धनेकरी अनेक प्रकारें ( याहारंशाहारेंति के० ) प्रहार श्राहारे. ( इति से महयापावे किम्मे हिंयत्ताच वरका इत्तानव के० ) एवी रीतें ते पुरुष महोटा क्रूर पाप कर्मानुष्ठाने, पोताना श्रात्माने दुर्गतिमांहे पाडे. नरक तिर्यंचगतिने नाभे वि ख्यात थाय ॥ २५ ॥ ते कोइएक पुरुष धनवंतनी वंचना निमित्तें ( नवचरयंनावंप डिसं धाय के ० ) उपचारक नाव यादरीने तेमज नाना प्रकारना उपाय करी विश्वास उप जावी तेने हणी, बेदी, नेदी, लुंटी, विशेषे लुंटी, उपव करी, जीवितव्य थकी वि नाशकरीने तेनु धनलेइने, तेधने करी अनेक प्रकारना आहार थाहारे. एरीते ते पुरुष महोटा क्रूर पापानुष्ठाने करीने पोताना आत्माने दुर्गतिमांहे पाडे चतुर्गतिक संसारमा हे परमकरे नरकादि गतिने विषे विख्यात थाय ॥ ३० ॥ ॥ दीपिका - एवमेतेषां चतुर्दशकर्तव्यानामुद्देशं कृत्वा तानि प्रत्येकं विवृणोति । तत्रैकः कश्चिदात्माद्यर्थं ग्रामांतरं गवन् पुरुषस्य समीपे किंचिद्रव्यं ज्ञात्वा तजिघृकुस्त स्यानुगामुकनावं प्रतिसंधाय सहगमनेनानुकूल्यं प्रतिपद्य वचनावसरं समीहमानोग तमनुगञ्जति । प्रवसरं लब्ध्वा तस्य हंता, दंडादिनिश्वेत्ता, खजादिना नेत्ता, वज्रमुष्ट्या दिना लुंपयिता, केशाकर्षणादिनिर्वि जुंपयिता, कशाप्रहारादिनिः खपावयिता, जीवित विनाशकः स्यात् इत्यादि कृत्वाऽहारमाहारयति इत्येवमसौ महद्भिः पापैः कर्म निरात्मा नमुपख्यापयिता नवति । अयं महापापकारीत्येवं लोके ख्यापयति ॥ २९॥ तदेवमेकः कश्चिनवतः कस्यचिडुपचरकनावमाश्रित्य तं विश्वासे पातयित्वा धनादिकृते तस्य हंता बेता इत्यादि । एवमसौ महद्भिः पापैरुपख्यापयिता जवति ॥ ३० ॥ ॥ टीका - तदेवमेतानि चतुर्दशाप्युद्दिश्य प्रत्येकमादितः प्रनृति वितृणोति । (सेए इत्यादि) तत्रैकः कश्चिदात्मार्थ परस्य गंतुर्यामांतरं किंचिह्नव्यजातमवगम्य तदादि सुस्तस्यैवानुगामुकावं प्रतिसंधाय सहतृनावेनानुकूल्यं प्रतिपद्य विवदित्वंचनावसर कालाद्यपेकी तमेव गतमनुव्रजति तमेव चाच्युवान विनयादिनिरत्यंतोपचारैरुपचर्यानु व्रज्य च विवचितमवसरं लब्ध्वा तस्यासौ हंता दंडादिनिस्तथा बेत्ता खड्डादिना हस्त पादादेस्तथा नेत्ता वज्रमुष्ट्यादिना तथा जुंपयिता केशाकर्षणादिकदर्थनतस्तथा विलुंप यिता कशाप्रहारादिनिरत्यंतडुःखोत्पादनेन तथा ड्रावयिता जीविता छ्यपरोपणतोनवती त्येवमादिकं कृत्वाऽहारमाहारयत्यसैौ । एतडुक्कं नवति । गलकर्तकः कश्चिदन्यस्य धनव तोऽनुगामुकावं प्रतिपद्य तं बहुविधैरुपायैर्विने पातयित्वा जोगार्थी मोहांधः सांप्रतेहि तया तस्य । रिक्थवतोप्रकृत्याहारादिकां जोगक्रियां विधत्ते । इत्येवमसौ महनिः क्रूरैः क " For Private Personal Use Only Page #748 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७१७ दितीये सूत्रकृतांगे वितीयश्रुतस्कंधे वितीयाध्ययनं. मनिरनुष्ठानैर्महापातकनूतैर्वा तीव्रानुनावैदीर्घ स्थितिकैरात्मानमुपाख्यापयिता नवति त थाह्ययमसौ महापापकारीत्येवमात्मानं लोके ख्यापयत्यष्टप्रकारैः कमेनिरात्मानं तथा बंधयति यथा लोके तदिपाकापादितेनावस्था विशेपेण सता नारकतिर्यङ्नरामररूपत या ख्यापयतीति ॥२॥ तदेवमेकः कश्चिदकर्तव्यानिसंधिना परस्य स्वापतेयवतस्तचना र्थमुपचरकनावं प्रतिज्ञाय पश्चात्तं नानाविधैर्विनयोपायैरुपचरति उपचर्य च विश्रंने पा तयित्वा तव्यार्थी तस्य हंता बेत्ता यावदपावयिता नवतीत्येवमसावात्मानं पापैः क मनिः ख्यापयतीति ॥ ३० ॥ से एगई पाडिपहियनावं पडिसंधाय तमेव पाडिपदेब्चिा हंता बेत्ता नेता लंपश्त्ता विलुपश्त्ता नववश्त्ता आहारं आहारति इति से मढया पावेहिं कम्महिं अत्ताणं न्वरकाश्त्ता नव ॥३१॥से एगई संधि दगजावं पडिसंधाय तमेव संधिं बेत्ता नेत्ता जाव इति से महया पावेदिं कम्मेदि अत्ताणं नवरकाश्त्ता नवश् ॥३२॥ अर्थ-ते कोइएक पुरुष ( पाडिपहियनावंप डिसंधाय के०) धनवंत पुरुष जाणी, मार्ग मां सन्मुख आवे, पडी (तमेवपडिपहेहिचा के०) तेने तेमज विश्वास नपजावी सन्मुख स्थित रहीने, हणी, वेदी, नेदी, लुटीने, विशेषे खुंटोने, उपव करे, जीवितव्य थकी विनाश करीने तेनुं धनलेश्ने अनेक प्रकारनाबाहार आहारे ते पुरुष महोटा कर पापक मना अनुष्ठाने करी पोताना आत्माने उर्गतिमां पाडे नरकादिक गतिने विषे विख्यात था य॥३१॥ कोइएक पुरुष धनवंत पुरुष जाणीने संधिबेदक एटले खातर पाडवानोनाव आदरीने, आजीविकाने अर्थे पारकुं धनलीए, बेदे, जेदे इत्यादिक पूर्ववत् जाणवु॥३२॥ __॥ दीपिका-यथैकः कश्चित्प्रतिपथेनानिमुखेन चरतीति प्रातिपथिकस्तनावं प्रतिप द्य तस्यार्थवतोविश्रंनतोहंतेत्यादि पूर्ववत् ॥ ३१ ॥ एकः कश्चित्संधिबेदकनावं खात्र खननत्वं प्रतिपद्य ततोसौ संधिं बिंदन खात्रं खनन् प्राणिनां बेत्तास्यादित्यादि ॥३॥ ॥ टीका-अथैकः कश्चित्प्रतिपथेनानिमुखेन चरति प्रातिपथिकस्तनावं प्रतिपद्यापरस्या र्थवतस्तदेव प्रतिपथिकत्वं कुर्वन् प्रतिपथे स्थित्वा तस्यार्थवतोविअंनतश्वेता यावदप शवयिता नवतीत्येवमसावात्मानं पापैः कर्मनिः ख्यापयतीति ॥३१॥अथैकः कश्चिदिरू पकर्मणा जीवितार्थी संधिवेदकना खात्रखननत्वं प्रतिपद्यानेनोपायेनात्मानमहं कर्त यिष्यामीत्येवं प्रतिज्ञा कृत्वा तमेव प्रतिपद्यते ततोसौ संधि दिन खात्रं खनन प्राणिनां Page #749 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रायधनपतसिंघ बाहारका जैनागम संग्रह नाग दुसरा. ११ बेत्ता नेत्ता विनुंषयिता नवतीत्येतच्च कृत्वाऽहारमाहयतीत्येतच्चोपलक्षणमन्यांश्च काम जोगान् स्वतो ऽन्यदपि ज्ञातिगृहादिकं पालयतीत्येवमसौ महद्भिः पापैः कर्मनिरा त्मानमुपख्यापयति ॥ ३२ ॥ से इन विबेदनावं परिसंधाय तमेवगंविं बेत्ता नेत्ता जाव इति से मह या पावेहिं कम्मेहिं प्रत्ताणं नवरकाइत्ता जवइ ॥ ३३ ॥ से एगइन नर प्रियनावं पभिसंधाय नरनंवा अस्मतरं तसं पापदंता जाव नवरकाइत्ता नव एसो निलावो सवच ॥ ३४ ॥ - कोक पुरुष ती बोडानो नाव व्यादरीने, घुर्धुरा दिक अनेक उपायकरी लोकने हणे, बेदे दे, इत्यादिक पूर्ववत् जाणवुं ॥ ३३ ॥ कोइएक पुरुष और चिकनाव नर एटले जरा बकरां तेना मांसादिकें करी प्राजीविका करे; ते नरचिक ठरणा तथा य न्यत्र प्राणीने हणे, बेदे, नेदे, इत्यादिक पूर्ववत् जाणवुं ॥ ३४ ॥ ॥ दीपिका - अथैकः कश्चिथिवेदकनावं प्रतिपद्य घुर्धुरादिना ग्रंथितास्यादित्यादि ॥ ३३ ॥ यथैकः कश्चिद्धर्मवृत्तिः नरचाचर णकास्तैश्चरति और चिकः । सच तदूर्णिया तन्मां सादिना वात्मानं वर्तयति सतनावं प्रतिपद्य नरवाऽन्यंवा त्रसं प्राणिनं स्वपुष्टये हं ति तस्य वा हंता बेत्ता इत्यादि पूर्ववत् ॥ ३४ ॥ ॥ टीका - कः कश्चिदसदनुष्ठायी घुघुरादिना ग्रंथिच्छेदकनावं प्रतिपद्य तमेवानुया ति । शेषं पूर्ववत् ॥ ३३ ॥ यथैकः कश्चिदधर्मकर्मवृत्तिरुराचरण का स्तैश्चरति यः स और चिकः सच तदूर्णया तन्मांसादिना वात्मानं वर्तयति तदेवमसौ तनावं प्रतिपद्येोरचं वाऽन्यंवा सं प्राणिनं स्वमांसपुष्ट्यर्थं व्यापादयति तस्य सवा हंता बेत्ता नेत्ता नवतीति शेषं पूर्ववत् ॥ ३४ ॥ सेईन सोवर जावं पडसंधाय महिसंवातरंवा तसं पाणं जाव नवकाइत्ता नवइ ॥ ३८ ॥ से एगईन वागुरिवजावं पडिसंधाय मियंवा सतरंवा तसं पाणं दंता जाव नवरकाइत्ता नवइ ॥ ३६ ॥ अर्थ- कोइ एक पुरुष सौकरिक एटले खाटकीनो नाव अंगीकार करीने खाटकी थइने नेक महिषादिक तथा बीजा त्रस जीवोने हणे, बेदे, नेदे, यावत् संसार परिभ्रमण करे इत्यादिक पूर्ववत् जावं. ॥ ३५॥ ते कोइएक पुरुष, पापात्मा वाघरी पणु आदरीने मृ गादिक तथा बीजा स जीवोने हणे बेदे भेदे, इत्यादिक पूर्ववत् जाणवुं. ॥ ३६ ॥ For Private Personal Use Only Page #750 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७३० दितीये सूत्रकृतांगे वितीयश्रुतस्कंधे वितीयाध्ययनं. ॥ दीपिका-अथैकः कश्चित्सौकरिकः श्वपचश्चांडालः खाटिक इत्यर्थः। तनावमाश्रि त्य महिषं वान्यं त्रसं प्राणिनं हंतीति तस्य हंता आत्ताइत्यादि ॥३५॥ अथैकः कश्चिा गुरिकत्वमाश्रित्य मृगं वाऽन्यं प्राणिनं हंति तस्यच दंता नवति शेषं पूवर्वत् ॥ ३६ ॥ ॥ टीका-अत्रांतरे सौकरिकपदं तच स्वबुध्या व्याख्येयं । सौकरिकाःश्वपचाश्चांडालाः खट्टिकाइत्यर्थः ॥३५॥ अथैकः कश्चित्दुश्सत्वोवागुरिकनावं लुब्धकत्वं प्रतिसंधाय प्रति पद्य वागुरया मृगं हरिणमन्यंवा त्रसं प्राणिनं शशादिकमात्मवृत्यर्थ स्वजनाद्यर्थवा व्या पादयति तस्यच हंता लेता नवति । शेषं पूर्ववत् ॥ ३६ ॥ से एगईन समणियं नावं पडिसंधाय सणिवा अस्मतरंवा तसं पाणं दं ता जाव ग्वरकाश्त्ता नव॥३॥ से एगश्न मिबियनावं पमिसंधाय म बंबा अपमतरं वा तसं पाणं हत्ता जाव नवरकाश्त्ता नव॥३७॥ अर्थ-कोइएक पुरुष, शाकुनी एटले पदी-नो विनाश करीने, अजीविका करे; एवो थको अनेक पदीने हणे, दे, नेदे, इत्यादिक पूर्ववत् जाणQ. ॥३७॥ कोइएक पुरु ष अधमाधम माबी थश्ने अनेक माबलादिक जलचर जीवोने हणे, दे, नेदे, इत्या दिक पूर्ववत् जाणवु. ॥ ३ ॥ ॥ दीपिका-अथैकः कश्चिमकुनालावकादयस्तै श्चरति शाकुनिकस्तनावमाश्रित्य श कुनमन्यं वा त्रसं हंति तस्य च हननादिकां क्रियां करोतीति ॥३७॥ अथैकः कश्चिन्मा त्स्यिकनावमाश्रित्य मत्स्यं वाऽन्यं त्रसं वा जलचरं प्राणिनं हन्यात् । शेषं सुगमं ॥३॥ ॥ टीका-अथैकः कश्चिदधमोपापजीवी शकुनालावकादयस्तैश्चरति शाकुनिकस्ताना वं प्रतिसंधाय तन्मांसाद्यर्थी शकुनमन्यं वा त्रसं व्यापादयति तस्यच हननादिकां क्रियां करोतीति । शेषं पूर्ववत् ॥३७॥ अथैकः कश्चिदधमाधमोमात्स्यिकनावं प्रतिपद्य, मत्स्यं वाऽन्यं जलचरं प्राणिनं व्यापदये ननादिकाः क्रियाः कुर्यात् । शेपं सुगमं ॥ ३०॥ से एगई गोघायनावं पडिसंधाय तमेव गोणवा अस्मयरंवा तसं पाणं दंता जाव बरकाश्त्ता नव ॥णा से एगई गोवालनावं पडिसंधाय तमेव गोवालंवा परिजविय परिजवियहंता जाव नवरकाश्त्ता नव॥४०॥ अर्थ-कोइएक अधर्मी पुरुष, क्रूरकर्मनो करनार, गौघातकनो नाव आदरी, गाय, अथवा बीजा त्रस जीवोने दे, नेदे, इत्यादिक पूर्ववत् जाण ॥ ३॥ ॥ कोइएक पुरुष, क्रूर Page #751 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रायधनपतसिंघ बादारका जैनागम संग्रह नाग दुसरा. ७५१ कर्मनो करनार गोपालनाव यादरीने, कोवें चड्यो थको गायने गोकुल मांहेथी टालते हो, बेदे दे, इत्यादिक पूर्ववत् जाणं ॥ ४० ॥ ॥ दीपिका - प्रथैकः कश्चित्क्रूरकर्मा गोघातकनावमाश्रित्य गामन्यं वा त्रसं हंति तस्य हंता स्यात् ॥ ३ ॥ थैकः कश्चिजोपासनावं प्रतिपद्य तां गां परिविच्य पृथक् क त्वा तस्याहंता नवति । शेषं पूर्ववत् ॥ ४० ॥ ॥ टीका - थैकः कश्चिनोपालनावं प्रतिपद्य कस्याश्चिनोः कुपितः सन् तां गां परि विच्य पृथक् कृत्वा तस्याहंता बेत्ता नेत्ता नूयोभूयोभवति । शेषं पूर्ववत् ॥ ३९ ॥ यथैकः कश्चित्कूरकर्मकारी गोघातकनावं प्रतिपद्य, गामन्यतरं वा त्रसं प्राणिनं व्यापाद येत्तस्य च हननादिकाः क्रियाः कुर्यादिति ॥ ४० ॥ से एगइन सोवलियनावं पडिसंधाय तमेव सुणगंवा अन्नयरंवा तसं पाणं ता जाव नवरकाइत्ता नवइ ॥ ४१ ॥ से एगइन सोवणियंतियं जावं पडिसंधाय तमेव मणुस्संवा अन्नयरंवा तसं पाणं दंता जाव प्रहारं प्रादाति इति से महया पावेदिं कम्मेहिं प्रत्ताएं नवरकाइत्ता नवइ ॥४२॥ अर्थ- को एक पुरुष शौवनिकनाव एटले श्वानें करी याहार करूं एवो नाव यादरीने नेक जीवने हणे, बेदे, नेदे, इत्यादिक पूर्ववत् जाणवुं ॥ ४१ ॥ कोइएक पुरु श्वानने पाले, श्वाननो परिग्रह करे, तेणे करी को एक यावता जता पथिकने, 'थवा बीजा जीवने हो, बेदे, नेदे, याहार थाहारे इत्यादिक एरीते ते क्रूरकर्मे क चतुर्गतिक संसार मांहे पडे ॥ ४२ ॥ एटले याजीविका निमित्त पापनुं कारण कयुं. || दीपिका - प्रथैकः कश्चित् श्वपापर्धिनावं प्रतिज्ञाय तमेव श्वानं परंवा त्रसं मृग सूकरादिकं हन्यात्तस्यच हंतेत्यादिपूर्ववत् ॥ ४१ ॥ यथैकः कश्चिदनार्यः ( सोवलियं तियंति) इवनिश्वरति शौवनिकः अंतोस्यास्तीत्यंतिक: यंते वा चरति अंतिकः पर्यंतवासी शौवनिश्वासौ अंतिकश्च शौवनिकांतिकः क्रूरसारमेयपरिग्रहः प्रत्यंत निवासी च तदसौ तनावमाश्रित्य मनुष्यं कंचन पथिकमन्यंवा मृगसूकरादिकं त्रसं प्राणिनं हंता जव ति । हंता इत्यत्र तानिकस्तृन् । श्वस्तनीता वा तृच् स्यात्तदाध्याहारेण पूर्ववन्नेयं । तथा पुरुष हंति तस्य स हंता बेत्तेत्यादि । तृनश्वस्तन्यौ प्रागपि योज्यौ । सचैवं महद्भिः पापकर्म निरात्मानमुपख्यापयिता स्यादिति ॥ ४२ ॥ ९१ For Private Personal Use Only Page #752 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७२‍ द्वितीये सूत्रकृतांगे द्वितीय श्रुतस्कंधे द्वितीयाध्ययनं. ॥ टीका - प्रथैकः कश्चिधन्यकर्मकारी शौवनिकनावं प्रतिपद्य सारमेयपापर्द्धिनावं प्रतिज्ञाय तमेव श्वानं तेन वा परं मृगसूकरादिकं त्रसं प्राणिनं व्यापादयेत्तस्य च हननादि काः क्रियाः कुर्यादिति ॥ ४१ ॥ अथैकः कश्चिदनार्यो निर्विवेकः ( सोवलियंतियं नावंति ) श्वनिश्वरति गौवनिकः अंतोस्यास्तीत्यं तिकोऽतेवा चरत्यंतिकः पर्यतवासीत्यर्थः । शौवनि कश्वासावंतिक शौवनिकांतिकः क्रूरसारमेयपरिग्रहः प्रत्यंतनिवासीच प्रत्यंत निवासिनि af वश्वितीति तदसौतनावं प्रतिसंधाय इष्टसारमेयपरिग्रहं प्रतिपद्य, मनुष्यं वा कंच नपथिकमन्यागतमन्यं वा मृगसुकरादिकं त्रसं प्राणिनं हंता नवति । अयं च ताञ्जीलिक स्तृन् लुट् प्रत्ययोवा इष्टव्यः । तृचि तु साध्याहारं प्राग्व व्याख्येयं । तद्यथा । पुरुषं व्यापा दयेत्तस्प च हंता बेत्ता इत्यादि । तृनलुट्प्रत्ययौ प्रागपि योजनीयाविति । तदेवमसौ म हाक्रूरकर्मकारी महद्भिः कर्म निरात्मानमुपख्यापयिता नवतीति ॥ ४२ ॥ से एगइन परिसामान उठता हमेयं दणामित्ति कट्टु त्तित्तिरंवा वह गंवा लावगंवा कवोयगंवा कविजलंवा अन्नयरंवा तसं पाणं दंता जाव नवरकाइत्ता नवइ ॥ ४३ ॥ से एगइन के प्रयाणं विरुद्धे समाणे प्रज्वा खलदाणेणं अडवा सुराघाल एवं गाहावतीलवा गाढाव पुत्ता वा सयमेव गणिकाएणं सस्साई शामे अन्नेवि गणिकाएणं स स्साई सामावेश अगणिकाएणं सस्साई सामंतंपि नं समगुजाइ इति से महया पावकम्मेहिं प्रत्ताएं नवरकाइत्ता जवइ ॥ ४४ ॥ अर्थ - हवे कांहिं एक पापनुं विशेष कारण कहे. जे प्रथम कयुं, धने हवे कदेशे, मां विशेष एटके, प्रथमजे जीवहिंसा कही ते हिंसा लोक थकी प्रबन्न पणे क रे, घने हवे जे कदेशे ते हिंसा लोकमां प्रगट पणे करे, एटलुं विशेष जाणवुं. ते ए वी रीतें के, जेम को एक पुरुष मांस न करवानी इवायें, अथवा व्यसनने लीधे य थवा क्रीडाने निमित्तं ( परिसामज्ञाहित्ता के० ) परिषदामांहेथी उठीने (हमेयं के० ) हुं या अमुक जीवने ( हणामित्तिक के० ) हणीश. एवी प्रतिज्ञा करीने, पी ( तित्तिरंवा के० ) तित्तर, अथवा ( वट्टगंवा के० ) वर्त्तक, अथवा ( लावगंवा के० ) लावक, अथवा (कवोयगंवा के० ) कपोत पक्षी, अथवा ( कविंजलंवा के० ) कपिं जन एटले पारेवां, तथा सारस पछि विशेष जाणवां, अथवा ( अन्नयरंवा के० ) न्य (तसंपाएं के० ) त्रस जीवने हणे, बेदे, नेदे, इत्यादिक यावत् पोताना श्रात्माने कर्मबंधन विषे पाडे ॥ ४३ ॥ दवे कोइएक पुरुष, प्रकृतियें क्रोधी बतो, ( केाइ के० ) For Private Personal Use Only } Page #753 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रायधनपत सिंघ बादाडुरका जैनागम संग्रह नाग दुसरा. ७२३ कोक (याके० ) शब्दादिक कारणे करी रीसायो बतो, (विरु देसमा के० ) यागलानो विरोध करे. ते कारण कहे . ( अडवाखलदाणेां के० ) सडेलां यन्न तेने दाने करीनें, यथवा धान्यने खले अल्प दाने करीने, (अडवासुराघाल के ० ) अथवा थान कोशादिक, कोइएक अधिकारादिक, तेने विषे वांबित जानने खनावे रीसायो थको ( गावतीणवाके ० ) गृहपतिना, अथवा ( गाहावइपुत्ताणंवा के० ) गृहपतिना पुत्रना धान्य खादिकने (सयमेवके० ) पोतें (गणिकाएके ० ) अनि कायें करी (सरसा के० ) ते धान्यादिकने ( झामेइ के० ) बाले. (अन्ने विगणिकाएं पंसस्सा इंसामावे इ के० 50 ) अथवा रीसालो थको बीजा पासें अग्रिकायें करी ते धान्यादिकने बलावे. (x गणिकाएसरसाईझामं तं पित्र्यन्नं समजा इ के ० 0 ) बीजो कोइ अमिकायें करी ते धान्यने बालतो होय, तेने अनुमोदे. एरीतें ते महोटा पापकर्मे करी पोताना या त्माने बांधे यावत् चतुर्गतिक संसार मांहे परिभ्रमण करें ॥ ४४ ॥ ॥ दीपिका - नक्ता सदा जीवनोपायनूता वृत्तिः । यथ क्वचित्कुतश्चिन्निमित्तात्सावयांगीका रं दर्शयति । पूर्वं वृत्तिरुक्ता प्रबन्नं वा प्राणिघातं कुर्यादिह तु कुतश्चिन्निमित्तात्सादा ऊन मध्ये प्राणिघात प्रतिज्ञया प्रवर्तते इत्याह । यथैकः कश्चिव्यसनेन क्रीडया कुपितोवा पा दोमध्ये गतउत्थाय एवं प्रतिज्ञां कुर्यात् । ग्रहमेनं प्राणिनं हनिष्यामीति प्रतिज्ञां कृत्वा तित्तिरादिकं हंता इत्यादि यावदात्मानं पापकर्मणा उपख्यापयिता जवति । पूर्वम पराधं विना क्रुद्धानक्ताः ॥ ४३ ॥ अथाऽपराधक्रुद्धान्दर्शयति । प्रथैकः कश्चित्प्रकृत्या कोधनः केन चिदादीयतइत्यादानं शब्दादिकं कारणं तेन विरुद्धः परस्य घातं कुर्यात् केनचिदेन कुष्टो निंदितोवा विरुध्येत रूपेण बीजत्सं कंचित् दृष्ट्वाऽपशकुनोयमिति ध्यात्वा कुप्येत । गंध सादिकं सूत्रेणैवाह । (अडवाखत्ति) खलस्य कुपितस्य दानं खलके वाल्पधान्यादेदनिं खलदानं तेन कुपितः । अथवा सुरायाः स्थालकं कोशकादि तेन वांबितलानानावात् कुपि तोगृहपतेर्गृहपतिपुत्राणां वा स्वयं अग्निकायेन खलकवर्त्तीनि सस्यानि ध्मापयेदहेत् अन्ये नवा दहतोऽ ऽन्यान्वा समनुजानीयात् । एवमसौ महापापैरात्मानमुपख्यापयिता स्यात् ४४ ॥ टीका - नक्ता सदा जीवनोपायवृत्तिरिदानीं क्वचित्कुतश्चिन्निमित्तादम्युपगमं दर्श यति । (सेग इत्यादि) अयं चात्र पूर्वस्माद्विशेषः । पूर्वत्र वृत्तिः प्रतिपादिता प्रबन्नं वा प्राणव्यपरोपणं कुर्यात् । इतरस्तु कश्चिन्निमित्तात्साहा ऊनमध्ये प्राणिव्यापादनप्रतिज्ञां विधायोद्यतइति दर्शयति । यथैकः कश्चिन्मांसादनेइया व्यसनेन क्रीडया कुपितोवा पर्य दोमध्यादन्युत्थायैवंभूतां प्रतिज्ञां विदध्यात् । यथाहमेनं वक्ष्यमाणं प्राणिनं हनिष्यामी For Private Personal Use Only Page #754 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७२४ वितीये सूत्रकृतांगे वितीय श्रुतस्कंधे वितीयाध्ययनं. ति प्रतिझां कृत्वा पश्चात्तित्तिरादिकं हंता बेतेति नेतेत्ति ताजीलिकस्तृन खुट्प्रत्ययोवा। तस्य वा हंतेत्यादि यावदात्मानं पापेन कर्मणा ख्यापयिता नवतीति ॥४३॥ इह चाधर्म पादिकेष्वनिधीयमानेषु सर्वेपि प्राणशेहकारिणः कथंचिदनिधातव्यास्तत्र पूर्वमनपराधक्रू बायनिहिताः सांप्रतमपराधमान् दर्शयितुमाह ॥ (सेएगइनइत्यादि) अथैकः कश्चि प्रकत्या क्रोधनोऽसहिष्णुतया केनचिदादीयतइत्यादानं शब्दादिकं कारणं तेन विरुः स मानः परस्यापकुर्यात् । शब्दादानेन तावत्केनचिदाक्रुष्टोनिंदितोवाचा विरुध्येत । रूपादा नेनतु बीनत्सं कंचन दृष्ट्वाऽपशकुनाध्यवसायेन कुप्येत । गंधरसादिकं त्वादानं सूत्रेणै व दर्शयितुमाह । अथवा खलस्य कुथितादिविशिष्टस्य दानं खलस्य वाल्पधान्यादेनं ख लदानं तेन कुपितोऽथवा सुरायाः स्थालकं कोशकादि तेन विवदितलानाऽनावात् कुपि तः । गृहपत्यादेरेतत् कुर्यादित्याह । स्वयमेवा निकायेनामिना तत्सस्यानि खलकवर्ती निशा नित्रीह्यादीनि ध्मापयेदहेदन्येन वा दाहयेदहतोवाऽन्यान्समनुजानीयादित्येवमसौमहापा पकर्मनरात्मानमुपख्यापयिता नवतीति ॥ ४ ॥ से एगश्न केण आयाणेणंवा विरुद्धे समाणे अज्वा खलदाणेणं अ उवा सुराघालएणं गादावतीणवा गाहावापुत्तावा नहाणवा गो पाणवा घोडगाणवा गद्दनाणवा सयमेव घरान कप्पति अन्नणविक प्पावेति कप्पंतंपि अन्नं समाजाण शति से महया जाव नव॥४५॥ अर्थ-अथ हवे कोइएक पुरुष कोइएक धादान एटले कारणे करी रीसाणो थको, अन्नने दाने अथवा धान्यना खलाने विषे अल्प दाने, अथवा कोशएक अधिकारादिकने विषे वांडित लानने बनावे, गृहपतिनां अथवा गृहपतिनां पुत्रनां (नट्टाणवाके०) उंट, अथवा( गोणाणवा के ) वृषन, (घोडगाणवा के०) घोडो, (गद्दनाणवा के०) गर्दन, तेनो ( सयमेवघराउकप्पेंति के०) जंघादिक अवयव कल्पे बेदे, नेदे, बंधन, नाथ, वाग प्रनति आदि लेने पोतेज कापे, बीजा पासें कपावे, बीजो कापतो होय तेने अनुमो दन श्रापे, एरीने ते पुरुष महोटुंपोपार्जन करे ॥ ४५ ॥ ॥ दीपिका-अथैकः कश्चित्केनचित्खलदानादिनाऽदानेन गृहपत्यादेः कुपितस्तत्संबं धिननष्टादेः स्वयमेव परशुप्रतिशस्त्रेण (घराउत्ति) जंघाद्यवयवान कल्पयति बिनत्ति अन्येन बेदयति बिदंतं समनुजानीते । एवं पापकर्मणात्मानं प्रसिदि नयति ॥ ४५ ॥ ॥ टीका-सांप्रतमन्येन प्रकारेण पापोपादानमाह । (सेएग-इत्यादि ) अथैकः क श्चित्केनचित्तु खलदानादिनाऽनेन गृहपत्यादेः कुपितस्तत्संबंधिनउष्ट्रादेः स्वयमेवात्मना प Page #755 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रायधनपतसिंघ बादाउरका जैनागम संग्रह नाग उसरा. ७२५ रश्वादिना (घूराउत्ति ) जंघाः खलकावा कल्पयति बिनत्यन्येन वा बेदयति अन्यवा बिंदंतं समनुजानीते इत्येवमसावात्मानं पापेन कर्मणोपाख्यापयिता नवति ॥ ४५ ॥ से एगश्न केण आयाणेणं वा विरुद्धेसमाणे अज्ज्वा खलदाणेणं अषु वा सुराघालएणं गाहावतीणवा गादावरपुत्ताणवा नहसालावा गोणसालावा घोडगसालावा गद्दनसालावा कंटकबोंदियाए पडिपेहित्ता सयमेव अगणिकाएणं सामेश् अन्नेणवि सामावेश सामंत पि अन्नं समणुजाण इति से मत्या जाव नव॥ ४६॥ अर्थ-वली बीजी रीतें देखाडेले. कोइएक पुरुष, कोइएक कारणथी रीसाणो थको, अथ वा वली अन्नने दाने, तथा धान्यने, थोमे दाने अथवा कोइएक अधिकारादिकने विषे वांनित लानने अनावे, गृहपति अथवा गृहपतिना पुत्रनां चंटशाला, वृषनशाला, अश्वशाला, गर्दनशालाने, कांटा ढांकीने पोतें अग्निकायें करी बाले. बीजा पासें बलावे, बीजो बालतो होय तेने अनुमोदे, एवी क्रिया करतो जीव, घणा पापकर्म नपार्जन क री, संसार मांहे परिचमण करे ॥ ४६ ॥ ॥ दीपिका-अथैकः कश्चित्केनचिन्निमित्तेन गृहपत्यादेः कुपितस्तत्संबंधिनामुष्टादीनां शालाः गृहाणि (कंटक बोंदियाएति ) कंटकशाखानिः प्रतिविधाय पिहित्वा स्वयमग्नि ना दहेत् । शेषं पूर्ववत् ॥ ४६ ॥ ॥ टीका-किंच (सेएगइत्यादि ) अथैकः कश्चित्केन चिन्निमित्तेन गृहपत्यादेः कुपि तस्तत्संबंधिनामुष्टादीनांशालागृहाणि (कंटकबोंदियाएति ) कंटकशाखानिः प्रतिविधाय पिहिला स्थगित्वा, स्वयमेवाग्निना दहेत् । शेषं पूर्ववत् ॥ ४६ ॥ से एगश्न केण आयाणेणं विरुखे समाणे अज्ज्वा खलदाणेणं अज्वा सुराघालएणं गाहावतीणवा गाहावश्पुत्ताणवा कुंमलंवा मणिवा मोत्तियंवा सयमेव अवहर अन्नणवि अवहरव अवहरंतं पि अन्नं समणुजाण इति से मदया जाव नव ॥ ४॥ अर्थ-कोइएक पुरुष, कोइएक कारणे रीसाणो थको, अन्न अथवा धान्यना खलाने विषे, अल्प धान्यना दाने अथवा कांहिंएक अधिकारादिकनेविषे वांबित जानने बनावे, गृह पति अथवा गृहपतिना पुत्रना काननां कुंमल, अथवा मणी, रत्न, मोती, अथवा बीजा Page #756 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७२६ द्वितीये सूत्रकृतांगे द्वितीय श्रुतस्कंधे द्वितीयाध्ययनं . यानरणादिक इव्य, पोतें अपहरे, बीजाने हाथे अपहरावे, बीजो कोइ अपहरतो होय ते अनुमोदे, एम करतो जीव घणां पाप कर्मोपार्जन करे ॥ ४७ ॥ || दीपिका - थैकः केनचिदादानेन कुपितोगृहपत्यादेः कुंडलादि इव्यमपहरेत् । शेषं पूर्ववत् ॥ ४७ ॥ ॥ टीका - पिच (एग इत्यादि) मेकः कश्चित्केन चिदादानेन कुपितोगृहपत्यादेः संबंधि कुंडलादिकं इव्यजातं स्वयमेवापहरेदवशिष्टं पूर्ववत् ॥ ४७ ॥ सेवि आदाणेणं विरुद्वे समाणे अडवा खलदाणं अड्डु वा सुराघालणं समोसवा माहणेणवा बत्तगंवा दंमगंवा नंमगंवा म तगंवा लठिंवा निसिगंवा चेलगंवा चिलिमिलिगंवा चम्मगंवा बेयण गंवा चम्मकोसिवा सयमेव वदरंति जाव समगुजाइ इति से म दया जाव नवरकाइत्ता नवइ ॥ ४८ ॥ अर्थ- हवे पाखंमी दर्शन उपर कोप्यो थको, जे करे; ते देखाडेले. कोइएक कारणे सोबत वादीयें जीत्यो अथवा पोताना दर्शनने दृष्टिरागें अथवा अन्न ने धा न्यने थोडे दाने, अथवा कोइएक अधिकारादिकने विषे वांतिलानने नावे, कोप्यो थको श्रम अथवा ब्राह्मण तेनां दंग, बत्र, माटीना जांग, मात्रो, लाकडी, बेसवानो पाट, वस्त्र, मटको, ढांकवानो वस्त्र, चर्म, चर्मबेदनी तरवार, चर्मनी कोथली इत्यादिक नेक उपकरण पोतें अपहरे, बीजा ने हाथे अपहरावे, बीजो को अपहरतो होय तेने अनुमोदन छापे, एरीते घष्णा कर्म उपार्जन करे. एटला कारणे क्रोधें करी पापनुं विशेषपणुं कर्तुं ॥ ४८ ॥ ॥ दीपिका-पाखंडिकोप रिकोपमाह । यथैकः कश्चित्स्वमतानुरागेण वादपराजितो वा अन्येन वा केन चिन्निमित्तेन कुपितः श्रमणानां ब्राह्मणानां बत्रकं वा जांडं किंचि६स्तु दं डकं वा जांडकं किंचि वस्तुमात्रकं पात्रं (लहिगं) यष्टिं (निसिगं ) वृसीमासनमिति या वत् । चेलकं वस्त्रं (चिलिमिलिगं ) प्रखादपटी चर्मकं पाडुकादि चर्मवेदनकं शस्त्रादि च कोशं शस्त्रक्षेपको हलकं स्वयमपहरेत् । शेषंपूर्ववत् ॥ ॥ ४८ ॥ ॥ टीका- सांप्रतं पाखंडिकोपरि कोपेन यत्कुर्यात्तद्दर्शयितुमाह । ( सेएगइन इत्यादि) यथैकः कश्वित्स्वदर्शनानुरागेण वा वादपराजितोवान्येनवा केनवा केनचिन्निमित्तेन कु For Private Personal Use Only Page #757 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राय धनपतसिंघ बाहारका जैनागम संग्रह नाग उसरा. १७ पितः सन्नेतत्कुर्यादित्याह । तद्यथा। श्राम्यंतीति श्रमणास्तेषामन्येषामपि तथानू तानां केनचिदादानेन कुपितः सन् दंडकादिकमुपकरणजातमपहरेत् अन्येन वा दारये दन्यंवा हरंतं समनुजानीयात् इत्यादिपूर्ववत् ॥ ४ ॥ से एगइन गोवितिगिंग तं गाहावतीणवा गादावश्पत्ताणवा सयमेव अगणिकाएणं सहीन सामे जाव अन्नंपि सामंतं समणुजाण इति से मदया जाव नवरकाश्त्ता नवति ॥४॥ अर्थ-हवे निःकारण पापर्नु विशेष कहेजे. अथ कोइएक पुरुष, अत्यंत मूर्ववतो (णोवितिगिंडके) एवो विचार करे नहीं के, अकार्य करवा थकी मने या नवमां अथ वा परनवमां अनिष्टफलनी प्राप्ति थशे, अथवा महारो अनुष्ठान अत्यंत मागोले एवं बालोचे नहीं, एवो बतो बालोक तथा परलोक विरु६ क्रिया करे ते देखाडेले गृहप तिना अथवा गृहपतिना पुत्रना धान्यने निःकारणे पोतें अमिकायें करी प्रज्वाले, बी जाने हाथे प्रज्वालावे, बीजो कोई प्रज्वालतो होय तेने अनुमोदे ॥ ४ ॥ ॥ दीपिका-पूर्व विरोधिनोऽनिहिताः अथ इतरे कथ्यते । अथैकः कश्चिन्मूढतया ( गोवितिगिबत्ति ) न विमर्षति नविचारयति यन्ममानेन कृतेन परलोकेऽनिष्टं नावि । अथवा मदीय मिदमनुष्ठानं पापानुबंधीति न वेत्ति एवंनतश्च गृहपत्यादेनिमित्तमेव त कोपं विनैव स्वयममिना सस्यानि शालिव्रीह्यादीनि दहेदित्यादि इयं ॥ ४ ॥ ॥ टीका-एवं तावविरोधिनोऽनिहिताः सांप्रतमितरेऽनिधीयते । (सेएगइत्यादि)अथे कः कश्चित् दृढमूढतया (नोवितिगिवित्ति) न विमर्षति नमीमांसते। यथाऽनेन कृतेन ममा ऽमुत्राऽनिष्टफलं स्यात् तथा मदीयमिदमनुष्ठानं पापानुबंधीत्येवं न पर्यालोचयति तनावाप नाश्च यत्किंचनकारितया इहलोकपरलोक विरोधिनीः क्रियाः कुर्यात् ।एतदेवोद्देशतोदर्शयति तद्यथा गृहपत्यादेनिमित्तमेव तत्तत्कोपमंतरेणैव स्वयमेवात्मानामिकायेनौषधीः शालिनी ह्यादिकाः ध्मापयेहहेत्तथाऽन्येन दाहयेदहंतं च समनुजानीयादित्यादि ॥ ४ ॥ से एगणोवितिगिंबइ तं गादावतीणवा गादावश्पुत्ताणवा नहाणवा गोणाणवा घोडगाणवा गहनाणवा सयमेव घराउकप्पश् अन्नणविक प्पावति अन्नपि कप्पति तं समजाय॥५॥ से एगणोवितिगिंज इतं गाहावती वा गहावश्पत्तागवा नसालावा जाव गद्दनसाला Page #758 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्न वितीये सूत्रकृतांगे दितीय श्रुतस्कंधे वितीयाध्ययनं. नवा कंटकबोंदियादि पडिपेदिता सयमेव अगणिकाएणं सामे जाव समणु जाण ॥५१॥ से एगन पोवितिगिंबर तं गादावतीणवा गा दावश्पत्तागंवा जाव मोत्तियंवा सयमेव अवहर जाव समण जाण ॥३॥से एगइन गोवितिगिंबइ तंसमणंवा मादणाणंवा बत्तगंवा दं मगंवा जाव चम्मछेदणगंवा सयमेव अवहर जाव समणुजाण इति सेमदया जाव उवरकाश्त्ता नव॥५३॥ अर्थ-एरीतेंज वली कोइएक पुरुष, गृहपति अथवा गृहपतिना पुत्रना उंट, गाय, बलद, घोडा, गर्दनना बंधन, तथा वाग, नाथ, प्रमुख पोते का, बीजाने हाथे कपावे बीजो कापतो होय तेने अनुमोदे ॥ ५० ॥ तथा तेमज ते गृहपतिना तथा गृहपति ना पुत्रना उंटनीशाला, यावत् गर्दननी शालाने कांटा थकी ढांकीने पोते बाले, बी जाने हाथे बलावे, बीजो बालतो होए तेने अनुमोदे ॥ ५१ ॥ तथा तेमज ते गृह स्थना अथवा गृहस्थना पुत्रना कुंमलादिक आनरण, तथा मौक्तिकादिक इव्य, पोतें अपहरे, बीजाने कहिने तेने हाथे अपहरावे, बीजो कोई अपहरतो होय तेने अनुमो दे ॥ ५५ ॥ तथा कोइएक पुरुष, श्रमण ब्राह्मणना दंम त्रादिक यावत् चर्मदक ए उपकरणोने पोतें अपहरे बीजाने दाथे अपहरावे अपहरतो होय तेने अनुमोदे ए प्रथम लखेला पांच आलावा, तथा पालना आलावा चार ते सरखाजले परंतु ते सकारण, अने निष्कारण, एटलुं विशेष. ॥ ५३ ॥ ॥ दीपिका--अकोनिस्त्रिंशतया गृहपत्यादिसंबंधिनामुष्टादीनां जंघाद्यवयवान बिंद्या त्यादि ॥ ५० ॥ कश्चिइष्टादिबंधनं गृहाणि दहेत् ॥ ५१ ॥ सुगमं ॥५२॥ निर्निमित्तमेवै तत्कुर्यात् व्याख्या पूर्ववत् ॥ ५३ ॥ ॥ टीका-तथेहामुत्रच दोषापर्यालोचकोनिस्त्रिंशतया गृहपत्यादिसंबंधिनां क्रमेलका दीनां जंघादीनवयवांश्विद्यात् ॥ ५० ॥ तथा शाला दहेत् ॥ ५१ ॥ तथा गृहपत्यादेः संबधि कुंडलमणिमौक्तिका दिकमपहरेत् ॥ ५॥ तथा श्रमणब्राह्मणादीनां दंडादिकमुप करणजातमपहरेदित्येवं प्राक्तनाएवालापकायादानकुपितस्य येऽनिहितास्ततएव तदना वे नानिधातव्याइति ॥ ५३ ॥ से एगश्न समणंवा मादणंवा दिस्सा णाणाविदेहिं पावकम्मेहिं अत्ता एं नवरकाश्ता नव अज्ज्वाणं अबराए आफालित्ता नव अज्वाणं Page #759 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रायधनपतसिंघ बादाडुरका जैनागम संग्रह नाग दुसरा. II. फरुसंवदित्ता जवइ कालेवि से अपविघ्स्स असणंवा पाणंवा जा व पोदेवावेत्ता नवइ जे इमे नवइ वोनमंता नारकंता अलसगा वे सलगा किaणगा निनकमा वणगा समणगा पवयंति ॥ ५४ ॥ अर्थ- हवे मिथ्यादृष्टिना पापनो अधिकार विशेष कहेले. कोइएक मिथ्यादृष्टि पुरुष, श्रमण तपस्वी साधुनो निंदक होय, ते श्रमण अथवा ब्राह्मणने निसरतां पेसतां (दि स्सा के ० ) देखीने नानाप्रकारना पापोपार्जन करीने पोताना श्रात्माने दुर्गतिने विषे पाडे, तेज कारण कहे. (अडवारा एके०) क्यांहिं एक साधुने देखीने पोतानी मि दृष्टीयें करी एवं जाणेजे, ए मने अपशकुन ययुं. एम जाणतो थको पोतानी दृष्टिया गली ते साधुने लगो करावे, अथवा (ग्राफा लित्तानवइ के० ) चपटीयें करी साधु ने स्फाले एटले तेने तिरस्कार करे, (डुवाफरुसंवदित्तानवर ) अथवा कठोर व चन बोले, अरे मूर्ख ! निरर्थक कायक्लेशना करनार ! हे डुर्बुद्धि ! माहारा द्यागतथी दूरथ इजा. एवा कठोर वचन बोले, तथा ( काजेल विसेणुपविहस्स के ० ) निकावेनायें ते चारित्रियाने न पाणीने अर्थे याव्यो देखीने तेने (सवापावा के० ) प्रशन पा नादिक देतां अत्यंत दुष्टपणे पोतें निंदे ने (जाव णोदेवावेत्तानवर के ० ) बीजो कोइ नपानादिक खपतो होय तेने निषेधे, तथा एवां दुर्वचन बोले के, (जेइमेनवइ के० ) जे ए पाखंमीने यापवा थकी कांही फल नयी एम कहे ( वोनमंता के० ) ए तृण का नाजारानो प्राणनार ( नारकंता के० ) ए कुंटुबना नारनो निर्वाह करी शक्यो न थी, ते कारणे मंमित योबे ( जसगा के० ) खालसु क्रमागत कुटुंब धर्म पासवाने समर्थ, माटे पाखंमी थयोबे ( वेसलगा के०) वृषल कोइएक कुड् जातिकबे तथा (किवगानिमा के० ) ऋपण, निरुद्यमी, कोइपण कार्यनो उद्यम की नशके ते कारणे (वलगासमणगापवयंति के० ) प्रवर्ज्या लिए. ॥ ५४ ॥ || दीपिका - प्रथैकः कश्चिद निगृहीतमिथ्यादृष्टिः साधुप्रत्यनीकः श्रमणं ब्राह्मणं साधुं दृष्ट्वा अपशकुनोयमिति मन्यमानः पापकर्म निरात्मानमुपख्यापयिता नवति (वा ति) अथवा साधुं दृष्ट्वाऽवयाऽप्सरायाश्च पुटिकाया यास्फालयिता नवति परुषं कठिनं वचोब्रूयात् निक्षाकालेपि ( से ) तस्य निकोर्निकार्थमनुप्रविष्टस्यान्नादेर्दापयितान नवति प्रत्यनीकः सन्निदं ब्रूते । (जेइमेति) पाखंडिकाः स्युस्ते चोन्नमंतस्तृणकाष्ठहारादिकं कर्म त द्विद्यते येषां तेचोन्नमतः नाराकांताः कुटुंबं पालयितुमसमर्थास्ते पाखंडत्रतमाश्रयंति । तथा वृषताखधमाः कृपणाः क्कीबायकिंचित्कराः श्रमणाः स्युः प्रव्रज्यां गृहं तीति ॥ ५४ ॥ ९२ For Private Personal Use Only Page #760 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७३० द्वितीये सूत्रकृतांगे द्वितीयश्रुतस्कंधे द्वितीयाध्ययनं. ॥ टीका- सांप्रतं विपर्यस्तदृष्टयोऽगाढ मिथ्यादृष्टयोऽनिधीयते (सेएगइत्यादि ) थै कः कश्चिदनिगृहीतमिय्यादृष्टिरनङ्कः साधुप्रत्यनीकतया श्रमणादीनां निर्गतां प्रविश तां वा स्वतश्च निर्गच्छन् प्रविशन् वा नानाविधैः पापोपादाननूतैः कर्म निरात्मानमुपख्या यिता जवतीत्येतदेव दर्शयति । यथवेत्ययमुत्तरापेक्षया पक्षांतरोपग्रहार्थः । क्वचित्साधु दर्शने सति मिथ्यात्वोपहतदृष्टितयाऽपशकुनोयमित्येवं मन्यमानः सन् दृष्टिपथादपसारयन् साधुमुद्दिश्यावज्ञयाप्सरायाश्च पुटिकायाः स्फालयिता नवत्यथवा तत्तिरस्कारमापादय न परुषं वचोब्रूयात् । तद्यथौदन मुंम निरर्थककायक्लेश परायार्बुदे ऽपसरायतस्तदसौ चुकुटिं विदध्यादसत्यंवा ब्रूयात् तथा निक्षाकालेनापि (से) तस्य निहोरन्येन्यो निका चरेज्योऽनुपश्चात्प्रविष्टस्य सतोऽत्यंतडुष्टतयाऽन्नादेन दापयिता जवत्यपरंच दानोद्यतं नि पेचयति तत्प्रत्यनीकतयैतच्च ब्रूते । इमे पाखंडिकाजवंति तएवंभूतानवंतीत्याह । ( चो पंत्ति ) तृणकाष्ठहारादिकमधमकर्म विद्यते येषां ते ततस्तथा नारे कुटुंबनारेण पोह लिकादिनारे वाऽऽक्रांताः पराननाः सुखनिप्सवोऽलसाः क्रमागतं कुटुंबं पालयितुमसम स्तिया पात्रतमाश्रयंति । तथाचोक्तं । गृहाश्रमपर इत्यादि । तथा ( वेसलगत्ति ) वृषनाधमाः अड्जातयस्त्रिवर्गप्रतिवारकास्तथा कृपणाः क्लीबा व्यकिंचित्कराः श्रमणा नवंति प्रव्रज्यां गृहं तोति ॥ ५४ ॥ ते इमेव जीवितं धिजीवितं संपडिबर्हेति नाइ ते पारलोगस्स छाए किंचिवि सिलीसंति ते कंति तेसोयंति तेज़रंति तेतिष्यंति तेपिहं तितेपरितप्पंति तेडकण जूरण सोयण तिप्पण पिट्टण परितिप्पण वह बंधपरिकिलेसा पडिविरया नवंति ते मदया आरंभेणं ते महया समारंभेणं तेमदया प्रारंभसमारंभेणं विरूवरुवेदि पाव कम्मे किच्चेदि नरालाई मस्सगाई जोगनोगाई जित्तारो जवंति ॥ तं जहा अन्नं अन्नकाले पाणं पाणकाले वतं वचकाले लेणंले काले सय सयणकाले पुवावरंचणं सहाए कयबलिकम्मे कयकोजयमंगल पायच्चिते सिरस्साए हाए कंटेमालाकडे याबद्दमणिसुवन्ने कप्पियमा लामवली पडिबधसरीरवग्घारियसोणिसुत्तगमनदामकलावे अ हतवच्चपरिदिए चंदणोकितगायसरीरे महति महालियाए कूडा गारसाला ए महति महालयंसि सीहासांसि इवी गुम्मसंपरि वुडे स For Private Personal Use Only Page #761 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राय धनपतसिंघ बादाउरका जैनागम संग्रह नाग उसरा. ७३१ वराइएणं जोणाशियायमाणाणं मदया हयनहगीयवाश्यं तंतीतल तालतुमियघणमइंगपडुपावाश्यं रवेणं नुरालाई माणुस्सगाई नोग जोगाई मुंजमाणे विहर ॥ ५५ ॥ अर्थ-( तेश्णमेवजीवितंधिशीवि के०) ते साधुना अवर्णवादि एम कहे जे या साधुनुं जीवितव्य धिक बे. (तंसंपडिबुहेंति के० ) अने पोताने प्रशंसे जे अमे नला बैए, एरीते ते इह लोक प्रतिबंध साधुना निंदक मोहांध पुरुष ते साधुनो अपवाद बोले, (नाश्तेपारलोगस्सयहाएकिंचिविसिलीसंति के० ) ए पुरुष, परलोकना अर्थनो साधनार एवो स्वल्प मात्र काहीपण अनुष्ठान करे किंतु? परने उर्वचनादिकें करी पीडा उपजावे ( तेरकंति के ) ते अज्ञानना अंधकारे दुःखी थाय. (तेसोयंति के०) ते अ धिक शोचे, अन्यने शोक करावे (तेजूरंति के ) ते जूरे तया परने निंदे. ( तेतिप्पंति के०) ते पोताने तथा परने सुख थकी चूकावे ( तेपिटुंति के) ते पोते पीडाय, अने बीजाने पीडावे. (तेपरितप्पंति के० ) ते पोते माहोमांहे दाजे, बीजाने दहावे, (तेउरकणजूरणसोयण के) ते पुरुष, एरीते कुःख, जूरण, शोक, इत्यादिक करतो करावतो थको ( तिप्पण के० ) सुखनो टालनार (पिट्टण के० ) पीडानो करनार, (परितिप्प ण के ) पश्चात्ताप करनार, ( वहबंधण के०) वध बंधननो करनार (परिकलेसाई के०) महोटा क्लेश, तेथकी (अप्पडिविरयानवंति के०) नथी निवर्त्या ते पुरुष, एवा बता ते महोटा प्रारंन प्राण वध रूप तथा महोटा समारंन परजीवने किलामणा उपजा वी ते महोटा आरंन समारंने करीने नाना प्रकारना पापनुष्ठाने करीने प्रधान मनुष्य नाव संबधिया मधु मांसादिक अनेक काम नोगने नोगवतो थको विचरनारो थाय. (तंजहा के०) तेज कहेडे ( अन्नयनकाले के०) अन्नने काले अन्न, (पाणं पाएकाले के० ) पाणीने कालें पाणी, (वबंवनकाले के० ) वस्त्रने कालें वस्त्र, (ले णंलेणकाले के० ) घरने कालें घर (सयणंसयणकाले के० ) शयनने कालें शयन, (पु वावरंचमहाए के० ) पहेले पहोरे, अने वली पाबले पहोरे स्नान करे, (कयबलिक म्मे के०) देवतादिक निमित्त बलि कमें करे, (कयकोन्य के० ) अनेक कौतुक नुत्ता रणादिक करे, (मंगलपायबित्ते के०) दधि, दूर्वा दिक मंगल करे, कुःस्वप्नादिकना निवा रणने अर्थ ए किया करे, (सिरसाएहाएकंठमालाकडे के०)शिरें स्नान करोने कंते माला पेरे, (याबक्षमणिसुवनेकप्पियमालामनली के०) बाब६ एटले अ॒पहेरे ? तोके, मणि अने सुवर्ण, यथा योग्य स्थानके पहेरे, अनेक हार, अर्थहार, कटीसूत्र, इत्यादिक था जरणे करीने, (पडिबक्षसरीरवग्घारोय के०) प्रतिबंध नाम दृढ शरीर देह जेनो एवो, Page #762 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७३२ दितीये सूत्रकृतांगे वितीयश्रुतस्कंधे वितीयाध्ययनं. प्रलंबित (सोणिसत्तगमदल्लदामकलावे के०) कडने विषे कंदोरो जेने एवो, बने फुलनीमा लाना समूह पेरतो एवो, (अहतवपरिहिए के०) अत्यंत बहु धोलां निर्दोष वस्त्र पेहेरे, (चंदणोरिकतगायसरीर के० ) चंदने करी गात्रने विलेपन करे एवो थको, (महतिम हालियाए के०) अत्यंत महोटी (कूडागारसालाए के०) कूटने आकारें शिला तेने वि घे (महतिमहालपंसिसीहाससि के०) महोटा सिंहासने बेठो थको (इबिगुम्मसंप रिवुछे के०) स्त्रीना वृंदे पर वस्यो (सबराइएणं के) सर्व रात्री संबंधि (जोशणा के०) प्रदीपनी ज्योति (झियायमाणाणं के ) तेना अजवाला थकि (महयाहयनदृगीयवाइ यं के०) महोटा नट्ट, गीत, वाद्यादिक वाजीत्रादिकने शब्दें, (तंतीतलतालतुडियतघणमुइ गपमुपावाश्यरवेणं के०) वीणा, हाथना ताल, कांशियाना ताल, तुरी एटले वाजीत्र, हाथ विशेष, घन ध्वनि सरखो जेनो घोषडे, मृदंग, पटह, माह्या पुरुष वजाव्याडे, तेने शब्दें करी, (नरालाईमाणुस्सगाई के०) नदार प्रधान मनुष्य संबंधीया (नोगजोगाई के० ) कामनोगने (मुंजमाणे के०) नोगवतो यको (विहर) विचरे ॥ ५५॥ ॥ दीपिका-अथ गृहस्थानामत्यंतविपरीतमतीनामसदाचारत्वं प्रकटयन्नाह । ते साधुधर्मप्रत्यनीकाइदमेव जीवितं परापवादप्रकटनजीवितं धिक्जीवितं कुत्सितं जीवि तं संप्रतिबंहंति प्रशंसंति ते परलोकस्यार्थाय किंचित्सदनुष्ठानं न शिलष्यंते नाश्रयंते तेऽ पवादैः परान् फुःखयंति यात्मानंच अज्ञानांधास्तत्कुर्वति येन शोचंते परानपि शोचयंति ते परान् (जूरयंति) गर्हति ते स्वकर्मनिः पीडयंते (तेतिप्पंति) सुखाच्यावयंत्यात्मा नं परांश्च ते पापेन परितप्यतेऽतर्दांते परांश्च परितापयंति । एवं ते फुःखनशोचनादि क्लेशादिप्रतिविरताः स्युस्ते महतारंण प्राणिघातरूपेण महता समारंनेण प्राणि परितापरूपेण विरूपरूपैश्च नानाविधैः पापकर्मकृत्यैरुदारानुत्कृष्टान्मद्यमांसादियुतान् मानुष्यकान् मनुष्यनवयोग्यान नोगेज्योप्युत्कटानोगानोगनोगास्तान् नोक्तारःस्युः॥ तद्यथा अन्नमन्नकाले यथेप्सितं तस्य पापानुष्ठानात्संपद्यते । एवं पानवस्त्रशयना सनादिकं सपूर्वापरं सहपूर्वकृत्येन स्नानादिना परकत्येन विलेपननोजनादिना वर्ततइति सपूर्वापरं । कोऽर्थः । यद्यदा प्रार्थ्यते तत्तदा संपद्यतइति । तद्यथा । स्नातः क तं देवतानिमित्तं बलिकर्म येन सःकतबलिकर्मा कतानि कौतुकान्यवतारणकादीनि मंगल सुवर्णचंदनादतदूर्वा सिक्षार्थादीनि प्रायश्चित्तानि दुःखप्रतिघातकानि येन सःकृतकौतुक मंगलप्रायश्चित्तः । शिरसि स्नातः कल्पितोयोमालाप्रधानोमुकुटः सविद्यते यस्य सःक ल्पितमालामुकुटी प्रतिबदशरीरोदृढांगः । ( वग्धारित) प्रलंबितं श्रोणी श्रोत्रं कटिसू त्रं मन्नदामकलापश्च येन सतथा कंठे कृतमालः । आविधानि परिहितानि मणिसुव Page #763 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राय धनपतसिंघ बाहाउरका जैनागम संग्रह नाग उसरा. ७३३ नि येन सतथा अहतमखंडितं वस्त्रं परिहितं येन सतथा चंदनेन उदितं सिक्तं गात्रं शरीरावयवायस्य सतथा नानाविधविलेपनावलिप्तश्त्यर्थः । महत्यामुच्चायां (महा लियाइलि) विस्तीर्णायां कूटागारशालीयां महति महालये विस्तीर्ण सिंहासने नास ने स्थितः । स्त्रीगुल्मेन स्त्रियोयुवतयः गुल्मोऽन्यः परिवारस्तेन परितः, निशि सर्वरा त्रिसंबंधिना ज्योतिषा प्रदीपादिनवेन क्रियमाणेन दीप्यमानेन महता बृहत्तरेण प्रहत नाट्यगीतवादित्रतंत्रीतलतालत्रुटिकघनमृदंगपटुप्रवादितरवेण उदारान् मानुष्यकान् नो गनोगान् नुंजानोविहरति ॥ ५५ ॥ ॥ टीका-सांप्रतमेषामगारिकाणामत्यंतविपर्यस्तमतीनामसवृत्तमावि वयन्नाह । (तेश्यमेवइत्यादि) तेहि साधुवर्गापवादिनः सर्मप्रत्यनीकाश्दमेव जीवितं परापवादो द्वाहनजीवितं धिक्जीवितं कुत्सितं जीवितं साधुजुगुप्सापरायणं संप्रतिबंहंत्येतदेवास तजीवितं प्रशंसंतीति नावः। ते चेह लोकप्रतिबघाः साधुजुगुप्साजीविनोमोहांधाःसाधूनप वदंति नापिच ते पारलौकिकस्यार्थस्य साधनमनुष्ठानं किंचिदपि स्वल्पमपि श्लिष्यंते स माश्रयंति । केवलं ते परान् साधून वाचादिनिरनुष्ठानईःखयंति पीडामुत्पादयंति आत्म नः परेषांच । तथा ते ज्ञानांधास्तथा तत्कुर्वति येनाधिकं शोचंते परानपि शोचयंति 5 नाषितादिनिः शोकं चोत्पादयंति तथा ते परान् (जूरयंति) गर्हति तथा तिप्यंति सुखा क्यावयंत्यात्मानं परांश्च तथा ते वराकाअपुष्टधर्माणोऽसदनुष्ठानाः स्वतः पीडयंते परां श्व पीडयंति तथाते पापेन कर्मणा परितप्यंतेंतर्दाते परांश्च परितापयंति । तदेवं तेऽ सहत्तयः संतोःखीनः शोचनादिक्लेशादप्रतिविरताः सदा नवंति । एवं नूताश्च संतस्ते महताऽऽरंनेण प्राणिव्यापादनरूपेण तथोनाल्यामप्यारंनसमारंनान्यां विरूपरूपैश्च नाना प्रकारैः सावद्यानुष्ठानैः पापकर्मकृत्यैरुदारानत्यंतोमटान्समग्रसामग्रीकान् मधुमद्यमां साद्युपेतान् मानुष्यकान् मनुष्यनवयोग्यान् जोगेन्योप्युत्कटान जोगान् ते सावद्यानुष्टा यिनोनोक्तारोनवंति ॥ एतदेवदर्शयितुमाह । (तंजहेत्यादि) तद्यथेत्युपदर्शने । अन्नमन्नकाले यथेप्सितं तत्पापानुष्ठानात्संपद्यते । एवं पानवस्त्रशयनासनादिकमपि । सर्वमेतद्यथाकालं सपूर्वापरं संपद्यते सहपूर्वेण पूर्वाग्रहकर्तव्येनापरेण चापराएहकतेव्येन । यदिवा पूर्व यक्रियते स्नानादिकं तथा परंच यत्क्रियते विलेपननोजनादिकं तेन सह वर्ततइति सपूर्वा परं । इदमुक्तंनवति । यद्यदा प्रार्थ्यते तत्तदा संपद्यतइति । अनिलषितार्थप्राप्तमेव ले शतोदर्शयितुमाह । तद्यथा। विनूत्या स्नातस्तथा कृतं देवतादिनिमित्तं बलिकर्म येन स तथा तथाकतानि कौतुकान्यवतारणकादीनि मंगलानिच सुवर्णचंदनध्यक्तदूर्वासिता र्थकादर्शस्पर्शनादीनि तथा दुःस्वप्नादिप्रतिघातकानि प्रायश्चित्तानि येन सकृतकौतुकमं Page #764 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७३४ क्तिीये सूत्रकृतांगे वितीयश्रुतस्कंधे वितीयाध्ययनं. गलप्रायश्चित्तः । तथा कल्पितश्चासौ मालाप्रधानोमुकुटश्च सतथा विद्यते यस्य सनवति कल्पितमालामुकुटी । तथा प्रतिब-शरीरोदृढावयवकायोयुवेत्यर्थः । तथा (वग्या रियंति) प्रलंबितं श्रोणीसूत्रं कटिसूत्रं मन्नदामकलापश्च येन सतथा तदेवमसौ शिरसि स्नातः नानाविध विलेपनावलिप्तश्च कंठे कृतमालस्तथाऽपरयथोक्तनूषणनूषितः सन्महत्या मुच्चायां (महालियाएत्ति ) विस्तीर्णायां कूटागारशालायां तथा महति महालये विस्ती णे सिंहासने नासने समुपविष्टः स्त्रीवदेन युवतिजनेन साईमपरपरिवारेण संपरितो वेष्टितोयस्तथा महता बृहत्तरेण प्रहतगीतवादित्रतंत्र्यादिरवेणोदारान्मानुष्यकान जोगा नोगान्मुंजानोविहरति प्रविचरति विनतीत्यर्थः ॥ ५५ ॥ तस्सणं एगमवि आणवेमाणस्स जाव चत्तारि पंचजणा आवुत्ता चेव अनुति नणदं देवाणुप्पिया किंकरेमो किंआदारेमो किंवणेमो किं आचिचामो किनेदियं शबियं किंनेासगस्स सय तमेवपासित्ता अणारिया एवं वयंति देवे खलु अयंपुरिसे देवसिणाए खलु अयं पुरिसे देवजीवणिक्के खलु अयंपुरिसे अन्नण विचणं ग्वजीवंति तमेव पासित्ता आरिया वयंति अनिकंतंकूरकम्मे खलु अयंपुरिसे अति धुत्ते अश्यायरके दाहिणगामिए नेरइए कसहपरिकए आगमिस्साणं उल्लहबोदियाएयावि नविस्स ॥५६॥ अर्थ-(तस्सणंएगमवियाणवेमाणस्सके०) ते पुरुपने कोई एक कार्य नपने एक माणसने आज्ञा देतां (जावचत्तारिपंचजणाके) यावत् चार, पांच, पुरुष (आवुत्ताचेव के०) अणबो साव्या (अनुतिके०) उठी सावधान थश्ने एम कड्के, (जणहंदेवाएप्पियाके०) हेस्वामि! माझा आपो? हे देवाणुप्रिय सरल स्वनावि ! (किंकरेमोके ) झुं कार्य अमे करियें ? जेवो आपनो दुकम होय ते करवाने तैयारबैए. (किंयाहारेमो के ) केवो थाहार क रशो? किंवा केवो याहार निपजावीये ? (किंनवणेमोके ० ) युं वस्तु लावी आपुं? (किं याचिकामो के ) गुं स्थापना करू ? तथा केवां आनरण पेरशो? (किंनेहियंबियं के०) झुं तमारा हृदयने वनन. एटले झुं श्लोबो ? (किंनेयासगस्सईके०) झुं तमारा मुखने सयई रुचेने ? जेकांश तमारा मुख माहेथी वचन निकले ते अमे करिये, (तमे वपासित्ताके० ) ते राजादिकने देखीने (अणारियाएवंवयंतिके ) अनार्य एवं कहे के, ( देवेखलु अयंपुरिसे के० ) खलुइति निश्चे ए पुरुष देव, ( देवसिगाए खलु अयं पुरिसे के०) ए पुरुष देव स्नातक, (देवेजीवणिशे खलुअयं पुरिसे के) ए पुरुषनो देवताना Page #765 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राय धनपतसिंघ बादाडुरका जैनागम संग्रह जांग दुसरा. ७३५ जेवो जीवळे, नि ए पुरुष घणा लोकने व्याजीविकानो करनारवे, एने (अन्ने विचणं नव जिवंति के ० ) बीजा घणा पुरुषो सेवेबे, एरीतें ते राजादिकने देखीने अनार्य लोको कहे ने तेना वखाण करे. हवे ( तमेव पासित्ता के०) वली ते राजादिकने देखीने (या रियावयंति के० ) या पुरुष जे होयते एवं कहेके (निक्कतंकूर कम्मे खलु पुरिसे के० ) नि ए पुरुष अत्यंत क्रूर कर्मी हिंसादिक क्रियाने विषे प्रवर्त्तेबे, (अतिधूत्ते के ० ) तथा ए पुरुष अत्यंत धूर्त घणां कर्मे करी सहितबे, तथा ( इयायररके के ० ) घणा कर्मेकरी व्यापणा खात्माने संसार मांहे राखनारबे, (दाहिएगामिए नेरइए के० ) त गामि नारकीमां उपजनार, प्रायः जे क्रूरकर्मना करनार, साधुना निंदक, सा धुने दान प्रापवानो निषेध करनार होय, ते दक्षिणगामि नारकीमांहे उपजे. तेमाटे ए पुरुष दक्षिण गामि जाणवो. ( कसह परिकए के ० ) कृष्म पाक्षिक नारकी थशे; कम पछि क नारकी मां विशेषले ? ते कहे. ( याग मिस्साएं दुल्लहबो हियाएयाविन विस्स के०) श्रागमिक का दुर्लन बोधी थशे एटले गुं कयुं? जे, दिशि मांहे दक्षिण दिशि, अने D प्रशस्त गतिमांहे नरकगति, तथा पक्ष मांहे काम पक्ष, एटला वाना प्रशंस्तबे तेम विषयांध पुरुष जे बेते परलोकना निस्ष्टहि, एवा साधुने देखीने तेने दानांतरायना कर नार थायतो एवा प्रशस्त पुरुषने बोधबीज पामवुं दुर्लनबे तथा जे ए थकी विपरी त विषयने विषे निस्ष्टहि, परलोकना नीरु, तथा साधुनी प्रशंसाना करनार, एवा पुरुष उत्तर दिशि तथा देवतानी गति घने शुक्लपक्ष, एटला वानां पामे तेने मनुष्य नवमां बो बीज पाम सुलन. ॥ ५६ ॥ ॥ दीपिका-तस्यैवंनूतस्य पुरुषस्य कचित्कार्ये सति एक पुरुषमाज्ञापयतोयाव चत्वारः पंचवा पुरुषानुक्काएव समुपतिष्ठते एवं वदंति च जण स्वामिन्! किंकु वयं किमाहराम यानयामः ? किमुपनयामोढौ कयामः ? ( किंवा चिंधामोत्ति) किंनू पणादि परिधापयामः ? किं युष्माकं हृदयेप्सितं ? किंयुष्माकमास्य कस्य मुखस्य (सयइ त्ति ) स्वदते स्वाड प्रतिनाति ? अथवा यदेव तवास्यस्य स्रवति तव मुखान्निर्गवति तदे व वयं कुर्मइति । (तमेवपासितत्ति ) यं राजानं तथाक्रीडमानं दृष्ट्वा अनार्याएवं वदंति देवः खलु श्रयं पुरुषोदे वस्नातको देव श्रेष्ठोबहूनामुपजीव्योऽन्योप्येनमुपजीवति तथा तं तादृशमसदाचारं दृष्ट्राऽयविवेकिनोवदंति अनिक्रांत क्रूरकर्मा प्रयं पुरुषोहिंसादि क्रियाप्रवृत्तः यतिधूत बहुलकर्मा श्रतीवात्मानं पापैरकृतीत्यत्यात्मरक्षः दक्षिणदिग्गामी नैरयिकः कृमपादिकः । कोर्थः । यः क्रूरकर्मा साधुप्रत्यनीकस्तद्दान निषेधकः सदक्षिण दिशि नरक तिर्यगादिरुत्पद्यते | दिक्कु मध्ये दक्षिणा दिकू प्रशस्ता गतिषु नरकगतिः प For Private Personal Use Only Page #766 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७३६ तीये सूत्रकृतांगे क्तिीयश्रुतस्कंधे वितीयाध्ययनं. क्योः कमपदः । ततोऽस्य दिगादिकमप्रशस्तमुक्तं । अन्यदपि अबोधिलानादिकं योज्यं । (यागमिस्सत्ति ) सचाऽऽगामिकाले उर्लनबोधिकः स्यादिति ॥ ५६ ॥ ॥ टीका-तस्यच क्वचित्प्रयोजने समुत्पन्ने सति एकमपि पुरुषमाझापयतोयावञ्चत्वा रः पंचवा पुरुषाअनुक्ताएव समुपतिष्ठते । तेच किंकुर्वाणाएत दयमाणमूचुः । तद्यथा। जणाझापय स्वामिन् ! धन्यावयं येन नवताप्येवमादिश्यते किंकुर्मइत्यादिसुगमं । याव वृदयेप्सितमिति । तथा किंच ते युष्माकमास्यकस्य मुखस्य स्वदते स्वाऊ प्रतिना ति? यदिवा यदेवास्य नवदीयास्यस्य स्त्रवति निर्गवति तदेव वयं कुर्मति । तथा तमेवेत्यादि । तमेव राजानं तथा क्रीडमानं दृष्ट्वा अन्येऽनार्याएवं वदंति । तद्यथा । देवः खल्वयंपुरुषस्तया देवस्नातकोदेवश्रेष्ठोबहूनामुपजीव्यस्तथा तमेवंसा प्रतेदितया सदनुष्ठायिनं दृष्ट्वा आर्या विवेकिनः सदाचारवंतएवं ब्रुवते तद्यथाऽनिक्रां तक्रूरकर्मा खल्वयं पुरुषोहिंसादि क्रियाप्रवृत्तइत्यर्थः । तथा धूयते रेणुवायुनासंसा रचक्रवाले चाम्यते येन तबूतं कर्म । औणादिकोनकप्रत्ययः । अतीव प्रजूतंधूतम प्रकारं कर्म यस्य सोतिधूतस्तथाऽतीवात्मनः परैः पापकर्मनिः रदा यस्य सोत्या त्मरदस्तथा दक्षिणस्यां दिशि गमनशीलोदक्षिणगामुकः । इदमुक्तं नवति । योहि क्रूर कर्मकारी साधुनिंदापरायणस्तदाननिषेधकः सन् दक्षिणगामुकइत्युक्तं । इदमेवाह । (ने रइएइत्यादि) नरकेषु नवोनारकः कृष्णपदोस्यास्तीति कमपादिकस्तथा आगामिनि काले नरकातोउर्लनबोधिकश्चायं बाहुल्येन नविष्यतीति । इदमुक्तं नवति । दिनुमध्ये द क्षिणा दिग् शस्ता गतिषु नरकगतिः, पक्ष्योः कृमपदः तदस्य विषयोस्य पियानुकूलवतिनः परलोकनिस्टहमतेः साधुप्रषिणोदानांतराय विधायिनोदिगादिकमशस्तं दर्शितमन्यदपि यदशस्तं तिर्यग्गत्या दिकमबोधिलानादिकं च तद्योजनीयमस्येति । एतविपरीतस्य तु वि षयनिःस्टहस्य इंडियानुकूलस्य परलोकनीरोः साधुप्रशंसावतः सदनुष्ठानरतस्य दक्षिण गामुकत्वं सुदेवत्वं शुक्लपादिकत्वं तथा सुमानुषतया तस्य सुलनबोधित्व मिर्त्यवमादिक सधर्मानुष्ठायिनः सर्व नवतीति ॥ ५६ ॥ इच्चेयस्स ाणस्स नघ्यिावेगे अनिगित्ति अणुज्यिावेगे अनि गिति अनिऊंझानरा अनिगिति एसपणे अणारिए अकेवले अ प्पडिपुन्ने अणेयानुए असंसुधे असल्नगत्तणे असिचिमग्गे अमुत्तिमग्गे अनिवाणमग्गे अणिजाणमग्गे असवकपदीणमग्गे एगंतमिले अ सादु एसखलु पढमस्स घाणस्स अधम्मपरकस्स विनंगे एवमाहिए ॥५॥ Page #767 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रायधनपतसिंघ बादाउरका जैनागम संग्रह नाग उसरा. ७३७ अर्थ-(चेयस्सहाणस्सनहियावेगेके०) ए पूर्वोक्त स्थानक ऐश्वर्य लक्षण शृंगार मूल तेने कोइएक पाखंमीने मार्गे प्रवर्तता, परमार्थना अजाण, एवा पुरुष (अनिगितिके) वांडे, नियाणादिक चिंतवे, तथा वली (अणुहियावेगेके०) कोइएक अनुलित गृहस्थ तेपण (अनिगिति के० ) वांजे, (अनिऊंजारा के० ) तृष्णावंत लोनिया तदातुर थका ते राजानी पदवीने (अनिगिति के० ) वांडे, ( एसहाणेषणारिए के०) ए स्थानक अनार्य ,महा पुरुषने अनाचीर्ण, (अकेवलेके०) एने विषे केवल ज्ञान नथी ए कारण माटे अशुभ तथा (अप्प डिपुन्ने के०) अप्रतिपूर्ण सगुण रहित तथा पूर्णता रहित त था (अणेयानए के० ) अन्याय प्रवर्तक एटले न्यायमार्ग जेमा नथी, (असंसु के०) मलयुक्त (असनगत्तणे के० ) तथा शव्यर्नु कापनार नथी, (थसिदिमग्गेके० ) ए स्था नक थकी सिदिनो मार्ग नथी, एटले ए स्थानक सर्वपुःखना दयनो करनार नथी, (अमुत्तिमग्गे के० ) कर्मबंधनुं स्थानक जे. (अनिवाणमग्गे के) असमा धिनुं स्थानक . (अणिजाणमग्गेके० ) मोदने नजाणवानो मार्ग बे, (असबस्कप हीणमग्गे के०) सर्वथा सर्वकुःखना दयनो मार्ग नथी, एवं ए स्थानक. ( एगंतमिले के) ए एकांत मिथ्यात्वनुं स्थानक, एकारणे ए (असादु के० ) असाधुनो मार्ग एिसखलुके०) निश्चे थकी ए (पढमस्त हाणस्त के०) प्रथम स्थानकनुं (अधम्मपरकस्स (वनंगे के ) अधर्म पदना विनंग एटले विचार ( एवमाहिए के० ) एम कह्यो. ॥ ५ ॥ ॥ दीपिका-अस्योपसंहारमाह । इत्येतस्य स्थानस्य सावद्यरूपस्य एके नबिताः पा खंडाश्रिता (अनिगिति ) जुन्यते लोनवशगाः स्युः । अनुष्ठितागृहस्थायपि संतोलु न्यते (ऊफानरा) तृमातुराखुन्यंते अतइदं स्थानमनायें अकेवलमशुई अप्रतिपूर्ण गुणशून्यत्वात्तु अनैयायिकमन्यायवृत्तिकं असंगुई समलं शव्यं मायानुष्ठानमकार्ये न श व्यकर्तनमशल्यकर्तनं । न विद्यते सिर्गोियस्मिन् तदसिदिमार्ग न विद्यते मुक्तेर्मा!ज्ञाना दिकोयस्मिन् तदमुक्तिमार्ग न विद्यते निर्वाणस्य चिसस्वास्थ्यस्य मार्गोयस्मिन् तत्तथा अनि णमार्ग न संसारनिर्याणमार्गरूपमित्यर्थः । न सर्वःखप्रक्षेपमार्गरूपं यस्मादेकांतेन मिथ्यादृशां असाधु असदाचारत्वात् । एषखलु प्रथमस्थानस्याधर्मपदस्य विजंगोविशेषः स्वरूपमिति यावत् श्रारख्यातः कथितः ॥ ५ ॥ ॥ टीका-सांप्रतमुपसंजिघृकुराह । (श्वेश्यस्सेत्यादि ) इत्येतस्य पूर्वोक्तस्य स्थानस्य ऐश्वर्यलणस्य शृंगारमूलस्य संसारिकस्य परित्यागबुध्या एके केचन विपर्यस्तमतयः पा पंडिकोबानेनोबिताः परमार्थमजानातः (अनिगिसंतित्ति ) आनिमुरव्येन जुन्यंते लोन Page #768 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७३७ वितीये सूत्रकृतांगे वितीय श्रुतस्कंधे वितीयाध्ययनं. वशगानवंतीत्यर्थः । तथा एके केचन सांप्रतक्षिणस्तस्मात्स्थानादनुपस्थितागृहस्थाए व संतः (अनिगितित्ति ) ऊंजा तृमा तदातुराः संतोऽर्थेष्वत्यर्थ खुन्यंते यतएवमतो दास्थानमनार्यानुष्ठानपरत्वादनार्य महापुरुषानुची नवति तथा नविद्यते केवलमस्मि नित्यकेवलमशुमित्यर्थः । तथेतरपुरुषाचीर्णत्वादपरिपूर्ण सजुणविरहातहमित्यर्थः । तथा न्यायेन चरति नैयायिकं न नैयायिकमनैयायिकमसन्यायत्तिकमित्यर्थः । तथा र गेलगेसंवरणे । शोजनं लगनं संवरणं इंडियसंयमरूपं सनगस्तन्नावःसनगत्वंवा विद्यते सन्नगत्वमस्मिन्नित्यसलगत्वमिंघियासंवरणरूपमित्यर्थः । यदिवा शल्यवडल्यं मायानुष्ठा नकार्य तज्ञायति कथयति तबव्यगं यत्परिझानं तन्नात्रेत्यशल्यगत्वमिति । तथा विद्यते सिहौदस्य विशिष्टस्थानोपल दितस्य मार्गोयस्मिस्तदसिदिमार्ग तथा न विद्यते मुक्ते रशेषकर्मप्रच्युतिलहणायामार्गः सम्यग्दर्शनझानचारित्रात्मकोयस्मिंस्तदमुक्तिमार्ग तथा न विद्यतेः परिनिर्वृतेः परिनिर्वाणस्यात्मस्वास्थ्योत्पत्तिरूपस्य मार्गः पंथा यस्मिन स्थाने तदपरिनिर्वाणमर्ग तथा नविद्यते सर्व दुःखानां शारीरमानसानां प्रक्ष्यमार्गः सउपदेशा मकोयस्मिस्तदसर्वसुःखप्रदीणमार्ग । कुतएवंनूतं तत्स्थानमित्याशंक्याह । ( एगंतेत्या दि) एकांतेनैव तत्स्थानं यतोमिथ्यानृतं मिथ्यात्वोपहतबुद्धीनां यतस्तनवत्यतएवासा ध्वस वृत्तवान्नह्ययं सत्पुरुषसे वितः पंथा येन विषयांधाः प्रवर्ततइति । तदयं प्रथमस्य स्था नस्याधर्मपादिकस्य पापोपादाननूतस्य विनंगोविनागोविशेषः स्वरूपमिति यावत् ॥७॥ अदावरे दोच्चस्स हाणस्स धम्मपरकस्स विनंग एव मादिङ इह ख लु पाईणंवा पडीणंवा नदीणंवा दादिणंवा संतेगश्या मणुस्सा नवंतितं जदा आयरियावेगे अणारियावेगे उच्चागोयावेगेणीयागोयावेगे कायम तावेगे इस्समंतावेगे सुवन्नावेगे ज्वन्नावेगे सुरुवावावेगे जुरूवावेगे तेसि चणं खेत्तवणि परिग्गदियाइं नवंति एसोलावगो जदा पोमरीए तहा णेतबो तेणेव आलावेण जाव सबोवसंता सबताए परिनिमंत्तिवेमिन॥ एसहाणे आरिए केवले जाव सबस्कपहीणमग्गे एगंतसम्म सादु दोच्च रस घाणस्स धम्मपरकस्स विनंगे एव माहिए ॥५॥ अर्थ-हवे अपर बीजं स्थानक धर्म पदनो विनंग एटले विचार कहियेंडेए. निश्चे या जगत् माहे पूर्वदिशियें, पश्चिमदिशियें, उत्तरदिशियें, अने दक्षिण दिशियें, अथवा विदि शियें, एवा कोइएक मनुष्यजे;ते कहेले. एक आर्य, एक अनार्य, एक उंचगोत्रना उपना, एक नीचगोत्रना उपना, एक महोटी कायाना धणी, एक न्हानी कायाना धणी, एक Page #769 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राय धनपतसिंघ बादाउरका जैनागम संग्रह नाग उसरा. ७३ सारावर्ण वाला, एक माना वर्ण वाला, एक सुंदर स्वरूपवान्, एक कुरूपवान्, तेने देत्र एटले नघामी नूमिका, अने वस्तु एटले घर हाट, प्रमुख एवो परिग्रह होय, इत्या दि (एसोधालावगोजहापोंमरीएतहाणेतबो के ) ए समस्त घालावो जेम पूर्वना पौम। काध्यययनमां कह्यो तेमज जाणवू, एटले "तेरोवथलावेजावसवोवसंता सत्वत्ताएपरि निमंतिबेमि" एटला सुधीनो पाठ पौमरीक अध्ययनमांडे. ते प्रमाणे यहीं पण जाणी लेवं. अर्थात् तेज घालावे ज्यां सुधी सर्व प्रकारे नपशांत एटले कषायने जीपीने तथा सर्व प्रकारे सर्व पापस्थानकथकी नपशम्या. ए कारणे सर्वात्मा, सर्व जीव नपर समजावे वर्तमान, शीतलीनूत थया. ए प्रमाणे श्रीसुधर्मस्वामि जंबूप्रत्ये कहे के ते घालावो सर्व थाही जाणवो. ॥ ५७ ॥ ए स्थानकने आर्य रूडं जाणवू. एने विपे केवल ज्ञान होय यावत् ए सर्व दुःख क्ष्य करवानो मार्ग , एकांत सम्यक्मार्ग, एकांत सम्यक्दृष्टी नो मार्ग ते कारणे ए साधुनुं स्थानक जाणवु एटले बीजुं स्थानक धर्मपद, तेनो वि नंग एटले विचार एरीतें कह्यो. ॥ एए॥ दीपिका-(अहावरेति ) अथापरोक्तिीयस्थानस्य धर्मपदस्य विनंगोविशेषएवमाख्या यते । तद्यथा (पाइणंति) प्राचीनं प्रतीचीनमुदीचीनं दाक्षिणंवा दिग्नागमाश्रित्य संत्येके केचन कल्याणनाजः पुरुषाः । तद्यथा आर्या एके अनार्याश्त्यादि यथा पुंडरीकाध्ययने तथेहापि सर्व वाच्यं यावत्ते एवं सर्वपापस्थानेन्यनपशांताअतएव सर्वात्मतया परिनिर्वता इत्यहं ब्रवीमि॥५०॥ एतत्स्थानमार्य महापुरुषाचरितं केवल मित्यादिप्राग्वविपरीतं झेयं । यावदितीयस्थानस्य धर्मपदस्य विनंगोविशेषधारख्यातः ॥ ५ ॥ टीका-सांप्रतं वितीयं धर्मोपादाननूतं पदमाश्रित्याह । ( अहावरेइत्यादि ) अथेत्य धर्मपाक्षिकस्थानादनंतरमयमपरोदितीयस्य स्थानस्य धर्मपादिकस्य पुण्योपादाननतस्य विनंगोविनागः स्वरूपं समाधीयते सम्यगाख्यायते । तद्यथा प्राचीनं प्रतीचीनमुदीच्यं द किंवा दिग्विनागमाश्रित्य संतिवि यंते एके केचन कल्याणपरंपरानाजः पुरुषामनुष्या स्तेच वक्ष्यमाणस्वनावानवंति । तद्यथेत्ययमुपप्रदर्शनार्थः । आर्याएके केचनार्यदेशो त्पन्नास्तथाऽनार्याः शकयवनशवरबर्बरादयश्त्यायेवं । यथा पौंडरीकाध्ययने तथेहापि सर्व निरवयवं नणितव्यं एवं पूर्वोक्तेन प्रकारेण सर्वेन्यः पापस्थानेन्यनपशांतास्तथा अतएव सर्वात्मतयापरिनिर्वताश्त्यहमेवं ब्रवीमि ॥५॥ तदेवमेतत्स्थानं कैवलिकं प्रतिपूर्ण नै यायिकमित्यादि प्राग्वविपर्ययेण नेयं । यावदितीयस्य स्थानस्य धार्मिकस्यैव विनंगो विनागः स्वरूपमाख्यातमिति ॥ एए । Page #770 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४0 हितोये सूत्रकृतांगे वितीय श्रुतस्कंधे वितीयाध्ययनं. अदावरे तच्चस्स घाणस्स मिस्सगस्स विनंग एव मादिङ जे इमे न वंति आरमिया आवसदिया गामणियंतिया कण्हुरदस्सित्ता जाव ते तविष्पमुच्चमाणा नुको एलमयत्ताए पञ्चायंति एसहाणे अणारिए अ केवले जाव असबस्कपदीणमग्गे एगंतमिवे असादु एसखलु तच्च स्स गणरस मिस्सगस्स विनंगे एव माहिए ॥६०॥ अर्थ-अथ हवे अपर त्रीगँ स्थानक मिश्र पक्ष्नो विचार एम कहेजे. (जेश्मेनवंति के०) जे ए मिश्रस्थानक ते एने मिश्रस्थानक शा कारणे कहियें ? तेमा विशेष कहे. अधर्म पर्दे मिश्रित जे धर्म पद, ते कारणे एने मिश्र पद कहिये. परंतु, अध मना बाहुल्य पणा थकी, ए अधर्म पदज जाणवो. यद्यपि मिथ्यादृष्टि पण केटली एक विरति करे, तथापि ते चित्तने अशुभ पणे, अने परमार्थने अजाण पणे, तथा अनिनव पित्तनानावने उदयें,साकर मिश्रित दूधपाननी पेहें, तथा नखर क्षेत्रमा मेघ वृष्टि नी पेठे ते धर्म पण तेनो फलदायक नथाय. ते कारणे मिश्रपद, विशेष अधर्म पदने म लतोज . (बारमिया के०) जे आर्णक एटले कंदमूल फलाहारी वृदने मूलें वसता (श्रावसहियाके) कोइएक पानडानी जुपडी करीने रहे, (गामणियंतिया के० ) श्रा जीविका चलाववा निमित्तें ग्रामने समीपे रहे, (कपहईरहस्सित्ता के०) कोइएक कार्यने विषे रहस्यना करनार, एवा तापसादिक पूर्वोक्त जेहोय ते मिश्रपदवाला जाणवा. (जावतेतवि प्पमुच्चमाणाके०) यावत् यद्यपि ए कांहीएक काय क्वेश करे तथापि ते आसुरी किल्बिषिया उने स्थानके जइ नपजे. ते स्थानक थकी आयुष्यने ये चवीन, (नुऊो के०) वली मनुष्य नव पामे. तो, (एलमूयत्ताएके०) बेहेरा, मुंगा, आंधला, जन्मांध, (पञ्चायंति के०) एवा थाय. एरीतें चतुर्गतिक संसार मांहे परिचमण करे. ए कारणे ए स्थानक अनार्य एटले महापुरुषने अनाचरणीय ने, एने विषे केवलज्ञान नथी, यावत् सर्व दुःख ना दयनु कारक ए स्थानक नथी ए मार्ग एकांत मिथ्यात्वनुं स्थानक, माटे ए असा धुनो पंथ जाणवो. ए निश्चें त्रीजुं स्थानक जे मिश्रपद, तेनो विचार एरीतें कह्यो.॥६॥ ॥ दीपिका-अथापरस्तृतीयस्थानस्य मिश्रकारल्यस्य विनंगोविनागः कथ्यते । पत्र चाधर्मपदयुक्तोधर्मपति मिश्रनच्यते । तत्राधर्मस्येह बहुत्वादयमधर्मपदवझेयः। यतोमिथ्याशः कांचिङीवहिंसादिनिवृति कुवैति तथापि चित्तशुरनावान्नवीने पित्तो दये शर्करामिश्रदीरपानवत् नपरप्रदेशे वृष्टिवक्षा कार्यासाधकत्वानिरर्थकतां याति सा । तथा मिथ्यात्वानुनवान्मिश्रपदोप्यधर्मपक्एवेति दर्शयति । (जेश्मेबारमिया ) ये इमे Page #771 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रायधनपतसिंघ बादाउरका जैनागम संग्रह नाग उसरा. १४१ अरण्ये चरंतीत्यारम्यिकाः कंदमूलफलाशिनस्तापसाः आवसयोगृहं तेन चरंतीत्यावस थिकागृहिणः । यद्यप्येते कायक्वेशेन देवाः स्युस्तथापि बासुरीयेषु किल्बिषिकेषु नत्प द्यते इत्यादि सर्व पूर्वोक्तं वाच्यं । यावत्सतश्युतानरनवे एलमूकत्वेन प्रत्यायांति तदेतत्स्था नमनायमित्यादि पूर्ववत् । एषस्तृतीयस्थानस्य मिश्रकस्य विनंगोविचारोझेयः॥६॥ ॥ टीका-सांप्रतं धर्माधर्मयुक्तं तृतीयस्थानमाश्रित्याह । (अहावरेत्यादि) अथापरस्तृतीय स्य स्थानस्य मिश्रकारख्यस्य विनंगोविनागः स्वरूपमाख्यायते।अत्र चाधर्मपक्षण युक्तोऽधर्म पदो मिश्रइत्युच्यते । तत्राधर्मस्येह नयिष्ठत्वादधर्मपदएवायं इष्टव्यः । एतउक्तं नवति । यद्यपि मिथ्यादृष्टयः कांचित्तथाप्रकारां प्राणातिपातादिनितिं विदधति तथाप्याशया गुरुत्वादनिनवे पित्तोदये सति शर्करा मिश्रदीरपानवदूषरप्रदेशवृष्टिवविदितार्थसाध कत्वानिरर्थकतामापद्यते । ततोमिथ्यात्वानुनावात् मिश्रपदोप्यधर्मएवावगंतव्य इति । एतदेव दर्शयितुमाह ॥ (जेश्मेनवंतीत्यादि) ये इमेऽनंतरमुच्यमानाअरण्ये चरंतीत्यार रियकाः कंदमूलफलाशिनस्तापसादयोये चावसथिकाथावसयोगृहं तेन चरंतीत्यावस थिकागृहिणस्तेच कुतश्चित् पापस्थानानिवृत्ताअपि प्रबलमिथ्यात्वोपहतबुझ्यस्ते यद्य प्युपवासादिना महता कायक्लेशेन देवगतयः केचन नवंति तथापि ते आसुरीयेषु स्था नेषु किल्बि षिकेषूत्पद्यतइत्यादि सर्व पूर्वोक्तं नणनीयं यावत्ततश्युतामनुष्यनवं प्रत्याया ता एलमूकत्वेन तमोंधतया जायते । तदेवमेतत्स्थानमनार्यमकेवलमसंपूर्णमनैयायि कमित्यादि यावदेकांतमिथ्यानूतं सर्वथैतदसाध्विति । तृतीयस्थानस्य मिश्रस्यायं विनं गोविनागः स्वरूपमारख्यातमिति ॥ ६ ॥ अहावरे पढमस्स मणस्स अधम्मपरकस्स विनंगे एव मादिङ इह खलु पाईणंवा संतगतिया मणुस्सा नवंति गिदबा मदिना मदारंना महापरि ग्गहा अधम्मिया अधम्माणुया अधम्मिा अधम्मकाई अधम्मपावजी वि अधम्मपलोई अधम्मवलजणा अधम्मसील समुदायारा अधम्मेणं चेव वित्तिं कप्पेमाणा विहरंति ॥६॥ थर्थ-हवे वली ए पूर्वे त्रण प्रकार जे कह्या, तेज प्रकार विशेषे करी कहेले. तेमां प्रथम स्थानक कहे. अथ हवे अपर प्रथम स्थानक अधर्म पदनो स्वरूप विचार आवीरीते कहेते. याजगत्माहे निचे पूर्वादिक चारदिशिने विषे कोइएक मनुष्य ने ते केवा दे तोके, (महिला के०) महोटी जेनी इबाले, चित्तनी थविरतिजे, तथा (महारं Page #772 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७४‍ द्वितीये सूत्रकृतांगे द्वितीय श्रुतस्कंधे द्वितीयाध्ययनं. ar ho) कृष्यादिक महाप्ररंजना करनार, तथा ( महापरिग्गहा के० ) क्षेत्र, धन, धान्य, द्विपद, चतुःपदादिक, अनेक परिग्रहवंत अधर्मिक धर्मानुय एटले खधर्मनीज अनुमोदना करनारा, (धमिठा के०) धर्मज जेने इष्ट वल्लनबे, (अधम्मरकाईके ० ) धर्मना बोलनार, अथवा अधर्मथीले ख्याति जेनी, अधर्मे करी याजीविकाना करनार, एटले धर्मेज जीवे, प्राण धारण करे. तथा अधर्मज देखे तथा अधर्मनेज अंगीकार क वा प्रलोके एटले देखे, ते प्रधर्म प्रलोइ केवाय. ( धम्मवलका के ० ) अधर्मने विषे राचे, धर्मशील एटले धर्मज जेनो स्वनावळे, (समुदायारा के० ) तथा चारनो समुदाय जेन (धम्मेचेव वित्तिकप्पे माणा विहरंति के० ) तथा जे धर्मे करीनेज वृत्ति कल्पीने विचरे. कालक्षेप करे ॥ ६१ ॥ || दीपिका - नक्तानि धर्मधर्ममिश्रस्थानानि । अथ तेषां स्थानिनोऽनिधीयते । अथवा पूर्वोक्तमेव प्रकारांतरेण विशिष्टतरमाह । अथापरः प्रथमस्थानस्य धर्मपदस्य वि गोविनागएवमाख्यायते । (इहखलुइत्यादि ) एते च प्रायोगृहस्थाएव स्युरित्याह । ( गित्या ) गृहस्थाः ( महेबा ) महारंजाः महापरिग्रहाग्रधर्मेण चरंत्याधार्मिका ध मनुज्ञाः यधर्मिष्ठा निस्त्रिंशाः अधर्माख्यायिनोऽधर्मवादिनः अधर्मजीविनोऽधर्मप्रलोकिन अधर्मे प्रकर्षेण रज्यंतइत्यधर्मप्ररक्तकाः प्रधर्मशीलः समुदाचारोयत्किंचन कारित्वं येषां ते तथा धर्मेण वृत्तिं जीविकां कल्पयंतः कुर्वतो विहरति तिष्ठति । पापानुष्ठानमाह ॥ ६१ ॥ ॥ टीका - नक्तान्यधर्मधर्म मिश्र स्थानानि । सांप्रतं तदाश्रिताः स्थानिनोऽनिधीयते । यदिवा प्राक्तनमेवान्येन प्रकारेण विशेषिततरमुच्यते । तत्राद्यमधर्मस्थानकमाश्रित्याह ( हावरेइत्यादि ) अथापरोन्यः प्रथमस्य स्थानस्याधर्मपादिकस्य विनंगोविभाग श्राख्यायते ( इह खलु इत्यादि ) सुगमं । यावन्मनुष्याएवंस्वनावाजवंतीति । एते च प्रा योगृहस्था एवं जवंतीत्याह । ( महेबा इत्यादि ) महती राज्यविजवपरिवारादिका स र्वातिशायिनी स्ववांतःकरणप्रवृत्तिर्येषां ते महेष्वास्तथा महानारंनोवहनोष्ट्रमंडलिकागं त्रीप्रवाहक पिंड पोषणादिकोयेषां ते महारंनाः । ये चैवं नूतास्ते महापरिग्रहाधन धान्यद्विपदचतुष्पद वास्तु क्षेत्रादिपरिग्रहवंतः क्वचिदप्यनिवृत्ताश्रतएवाधर्मेण चरतीत्य धर्मिकास्तथा धर्मिष्ठा निस्त्रिंशकर्मकारित्वादधर्म बहुलास्ततश्चाधर्मे कर्तव्ये अनुज्ञाश्रनुमो दनं येषां ते नवंत्यधर्मानुशा एवमधर्ममाख्यातुं शीलं येषां ते तथा एवमधर्मप्रायजीवि नस्तथा धर्ममेव प्रविलोकयितुं शीलं येषां ते नवंत्यधर्मप्रविलोकिनस्तथा धर्मप्रायेषु क प्रकर्षेण रज्यतइति धर्मरक्ताः । रलयोरैक्यमिति रस्य स्थाने लकारोऽत्र कृत इति । For Private Personal Use Only Page #773 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रायधनपतसिंघ बादाउरका जैनागम संग्रह नाग उसरा. १४३ तथाऽधर्मशीलाअधर्मस्वनावास्तथाऽधर्मात्मकः समुदाचारोयत्किंचनानुष्ठानं येषांते नवं त्यधर्मशीलसमुदाचारास्तथाऽधर्मेण पापेन सावद्यानुष्ठानेनैव दहनांकन निल बनादिके कर्मणा वृत्तिर्वर्तनं कल्पयंतः कुर्वाणाविहरंतीति कालमतिवाहयंति ॥६१॥ हण बिंद निंद विगत्तगा लोहियपाणी चंमा रुदा खुद्दा सादस्सिया न कंचण वंचण मायाणियडि कडकवडसाइ संपळगबदुला उस्सीला ज्व या उप्पडियाणंदा असादु सवा पाणावायाअप्पडिविरया जाव जीवाए जाव सबा परिग्गदान अप्पडिविरया जाव जीवाए सवन कोदान जाव मिबादंसणसल्ला- अप्पडिविरया सवाट पहाणुचरण म दण वामगंधविलेवणसद्द फरिसरसरूव गंधमलालंकारा अप्पडिवि रया जावजीवाए सवा सगड रहजाण जुगगिल्लिथिल्लिसिया संदमा णिया सयणासणजाण वाहणनोगनोयणपविबरविही अप्पडिविरया जावजीवाएसबा कयविक्कयमासमासरूवगसंववहारा अप्पडिवि रया जावजीवाए सबाहिरम सुवामधणधम मणिमोत्तियसंखसिलप्प वालन अप्पडिविरया जावजीवाए सबान कूडतुलकुडमाणाने अप्पडिवि रया जावजीवाए सबा आरंन समारंना अप्पडिविरया जावजीवाए J सबान करणकाराणा अप्पडिविरया जावजीवाए सवान पयण पायाणा अप्पडिविरया जावजीवाए सबा कुट्टणपिट्टणतऊणताड णवहबंधपरिकिलेसा अप्पडिविरया जावजीवाए जेआवमे तहप्प गारे सावजा अबोदिया कम्मंता परपाणपरियावणकरा जे अणारि एहिं कऊंति ततो अप्पडिविरया जावजीवाए ॥६॥ अर्थ-हवे एनो अधर्माचार कहे ते पोते अधर्मी बता बीजाने पण एवा आदेश बापे ते कहेने, के, (हण के० ) अरे एने हो, (हिंद निंद के०) कर्णादिक, दी शूलादिकें करी नेदी, (विगत्तगाके० ) एनां चर्म नखेडो, इत्यादिक कहीने प्राणीने सुःखना म पजावनार थाय, ए कारणे (लोहियपाणी के० ) सर्वकाल लोहीयें करी हाथ राताले परंतु ते जीवोने हणीने को वारें हाथ पण धोवे नहीं, (चंमा के०) तीव्रक्रोध, ( रुहा के ) रोष ध्यान, शोचरहितकर्मना करनार, (खुदाके ० ) हु उष्ट, नूंमा, (साहरिस Page #774 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७४४ हितीये सूत्रकृतांगे वितीय श्रुतस्कंधे वितीयाध्ययनं. या के० ) अणविमास्या कार्यना करनार, (नकंचण के ) तथा गुलिकारोपणने विषे कध्वंमहोटुं करवु (वंचरण के०) वंचणा. एटले परने उगवानी बुधिराखे, जेम अनयकुमा रने चंप्रद्योतनी गणिकायें वंच्यो, तेनी पेठे वंचक, (मायाणियडि के०) वंचवानीबु हियें वाणीयानी पेठे मायानियड नियड एटले बगनी वृत्तियें वंचवाने अर्थे साधुने स्वरूपे रहे जेम उदायिराजाने चले कियें वंच्यो, मायो, तेनी पेठे जाणी लेवु (कूडके०) मृषा बोलवू. ( कवडसाइ के) कपट एटले रूप पालटवु तथा नाषादिक परावर्ति एटले प्रकारे ( संपनग के० ) तथा ते तोलानु न्यूनाधिक करवू तथा नेलसेलन करवू इत्यादिक व्यापार जाणवो (बहुला के० ) घणा बदुलकर्म, ते उपर योगी सन्यासीनी कथा जाणवी. (पुस्सीला के०) सुशील (मुवया के० ) पुष्टव्रत वाला (सुप्पडिया दा के०) दुःखें थानंद पमाडियें जेने दुःखें वर्ष पमाडिये मुराराध्य इत्यर्थः एवा (य सादु के० ) असाधु (सबा के ) सर्वथा प्रकारें (पाणावायाउ के० ) प्राणातिपात थकी, (अप्प डिविरया के ७) अनिवृत्या, (जावजीवाए के०) जावजीवसुधी ( जावसबाप रिग्गहा के० ) यावत् सर्वथा परिग्रह थकी, (अप्प डिविरया के) अनिवृत्या (जा वजीवाए के० ) जावजीव सुधी (सबतोकोहा के ० ) सर्वथा प्रकारे क्रोध थकी (जा वामहादसणसाना के०) यावत् मिथ्यात्व दर्शन शल्य थकी, (अप्प डिविरया के० ) अनिवृत्या. (सवाके०) सर्वथा (एहाणुचणके०) स्नान, (मदणके०) मर्दन. करावयूँ (वप्लके) वर्ण ते अंबीर, गुप्ताल, (गंधके०) सुवास, (विलेवणके०) विलेपन करवा थकी, (सदके०) शब्द, गीत, वाद्यादिकना (फरिसके०) आठ जातना स्पर्श, (रूवके०) रूप, सुंदराकारादिक, (गंध के०) कर्पूरादिकनी सुगंध ( मनालंकारा के०) माला, अलं कार ते थकी, (अप्पडिविरया के०) अनिवृत्या (जावजीवाए के०) जावजीव सुधी (सबाट के ) सर्वथा ( सगड के०) शकट एटले गाड (रह के ) रथ ( जाणके) वहेल (जुग के० ) पुरुषे नपाड्यो आकाश यान तथा ( गिनि के० ) मोली, अथवा चंटना पलाण (थिनिके० ) हस्तिना पलाण, (सिया के०) शिबिका. ते देशविशेष प्र सि६ यान शिबिका ( संदमाणियाके०) शिबिका देशविशेष अन्यजातिः (सयपासण जाणवाहण के० ) पर्यकादिक आसयान वाहनादिकना (नोग के० ) जोग थकी तथा (नोयण के० ) नोजन (पविबर के० ) घर वखारो (विही के० ) तेना विस्तारथी (अप्प डिविरया के ) अनिवृत्या (जावजीवाए के०) जावजीवसुधा (सबा के०) सर्व ( कयविक्कय के०) क्रय वक्रय एटले लेवो वेचवो (मास-मासरूवग के०) माष अर्ध माष रूपादिक (संववहारा के०) इत्यादिक लेवा देवा रूप व्यापार की (अप्पडि विरया के० ) अनिवृत्या. ( जावजीवाए के) जावजीवसुधी सर्वथा हिरण्य एटले रु Page #775 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रायधनपतसिंघ बादाडुरका जैनागम संग्रह नाग इसरा. ४य् पुं, तथा सुवर्ण, धन, धान्य, चिंतामणी प्रमुख मणी, तथा मौक्तिक दक्षणावर्त्त शंख, रा पट, प्रवालादिक परिग्रह, तेथकी यनिवृत्या; तथा जावजीवसुधी सर्व कूडां तोलां, कू si मापथकी, नथी निवृत्या; तथा जावजीव सुधी सर्व प्रारंभ जे कर्षणादिक, तथा स मारं विशेष, तेथकी नथी निवृत्या, तथा जावजीवसुधी सर्वथा करण करावल थकी नयी निवृत्या, तथा जावजीव सुधी पचन ते पोतें पचाववानुं करे तथा पचावण ते बीजा पासें पचाववानुं करावे, ए क्रिया थकी नयी निवृत्या, तथा सर्व कुट पिट्टन तर्कन अंगुली यें करी तर्जना करे चपटीयादिकें करी ताडन करें, वध, बंधन करे, इत्यादिक जीवने बना कारण थकी नयी निवृत्या, तथा जावजीव सुधी जे बीजां, तथाप्रका रें पाल कह्यां एवा पापकारी परपीडानां करनार, सावद्य कर्म, ( अबोहिया के० ) बोधबीजना नसाडनार एवां (कम्मता के० ) कर्म, परजीवने परितापना करनार जे अनार्य पुरुषोने करवा योग्य, तेथकी पण जावजीव सुधी निवृत्या नथी. ॥ ६२ ॥ || दीपिका - (हविंदत्ति) जहि दंडा दिना, बिंधि कर्णादिकं, जिंधि शूलादिना, एवं परोपदेशं ते । किंनूताः विकर्तकाः प्राणिनां चर्मापनेतारस्तेनैव लोहितपाणयचंडारोड़ाः नि स्त्रिंशाः कुड़ा: साहसिकाय विचारितकारिणः नत्कुंचनवचनमायानिक तिकूटकपटादि निः सहातिसंप्रयोगोगार्थं तेन बहुलाः । तत्र शूलाद्यारोपणार्थ मूर्ध्व कुंचनमुत्कुंचनं वंचनं प्रतारणं । यथाऽनयकुमारः प्रद्योतगणिका निर्धर्मवंचनया वंचितः । माया, वंचन बुद्धि: प्रायोवणिजामिव निकृतिस्तु बकवृत्त्या देशनापावेपादिविपर्ययकरणं कूटं तु लामानादेर्न्यूनाधिककरणं, कपटं यथापाढनूतिना वेषपरावृत्त्याचार्योपाध्याय संघाटका त्मा चत्वारोमोदकालब्धाः एवं मायायुतानराः । पुनः किंनूताः । दुःशीला चिरं परि चितायपि शीघ्रं विसंवदंतोऽष्टव्रताडुःखेन प्रत्यानयंते हर्षतइति दुष्प्रत्यानंद्या साधवः पापाः सर्वतः प्राणातिपातादप्रतिविरतालोकनिंद्यादपि ब्राह्मणघातादेर निवृत्ताइति सर्वग्रह पं । एवं यावजीवं सर्वतोमृषावादाऽदत्तादानमैथुनपरिग्रहादप्रतिविरताः । एवं सर्वेन्यः कोथमानमायालोच्यस्तथा प्रेम छेषकलहाच्याख्यानपैशुन्य परिवादाऽरतिरतिमायामृषावा द मिथ्यादर्शनशल्यादिन्योऽविरताः स्नानो घर्तन व क विलेपनशब्दस्पर्शरूपरसगंधमाल्या लंकारादप्रति विरताः सर्वतः शकटरथादेर्यानादिकात्प्रविस्तर विधेः परिकरादप्रतिविरताः । पत्र करथादिकमेव यानं शकटरथयानं युग्यंतरोत्दिप्तं चाकाशयानं (गिनि त्ति ) दो लिका ( चिह्नित्ति ) तुरगइयनिर्मितं यानं ( संदमा लियत्ति ) शिबिका विशेषः । तथा सर्वतः क्रयविक्रयाच्यां योमाषकार्धमापकरूपकनायकादिनिः संव्यवहारस्तस्माद विरताः सर्वस्मादिरस्य सुवर्णधान्यमणिमौक्तिकशंख शिलाप्रवालादिपरिग्रहात् कूटतुला कूटमानात् 1 ९४ For Private Personal Use Only Page #776 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७४६ द्वितीये सूत्रकृतांगे द्वितीय श्रुतस्कंधे द्वितीयाध्ययनंः कृष्यादेः स्वयंकरणमारंनः परेण कारयणं समारंनस्तस्मात् पचनपाचनतः कंमनकुहन पिट्टनतर्जनताडनवधबंधादिनिर्यः परिक्लेशस्तस्मादनिवृत्ताये चान्ये तथाप्रकाराः सावद्याः कर्म समारंनाप्रबोधिकाबोधिनाशकाः परप्राणपरितापनकरायेऽनायैः क्रियते ततोनिवृ तायावतीवयेति ॥ ६२ ॥ ॥ टीका - पापानुष्ठानमेव जेशतोदर्शयितुमाह । (हणबिंद जिंदेत्यादि) स्वतएव हननादि काः क्रियाः कुर्वाणाय परेषामप्येवमात्मकमुपदेशं ददति । तत्र हननं दंडादिनिस्तत्कारयति तथा बिंधि कर्णादिकं, जिंधि शूलादिना, विकर्तकाः प्राणिनामजिनापने तारोऽतएव जोहित पाणयस्तथा चंडारौा निस्त्रिंशाः कुशः कुङ्कर्मकारित्वात्तथा साहसिकाप्रसमीक्षितकारि णस्तथा उत्कुंचनवंचनमायानिक तिकूटकषायादिनिः सहाति संप्रयोगोगार्थ्यं तेन बहुलास्त प्रचुरास्ते तथा तत्रोर्ध्वं कुंचनं शूलाद्यारोपणार्थमुत्कुंचनं । वंचनं प्रतारणं । तद्यथाऽनय कुमारः प्रद्योतगलिका निर्धार्मिकवंचनया वंचितः । माया, वंचनबुद्धिः प्रायोवणिजामिव । निकृतिस्तु बकवृत्त्या कुर्कुटादिकरणेन दंनप्रधानवणिक् श्रोत्रियसाध्वाकारेण परवचनार्थ गजकर्तकानामिवावस्थानं । देशनापानेपथ्यादिविपर्ययकरणं कपटं । यथा व्यापाढनूतिना नटेन वा परापरवेषपरावृत्त्याचार्योपाध्याय संघाटकात्मार्थं चत्वारोमोदकाच्यवाप्ताः । कू रंतु कार्षापणतुलाप्रस्थादेः परवचनार्थं नानाविधकरणं । एतैरुत्कुंचनादिनिः सहातिश येन प्रयोगोय दिवातिशयेन इव्येण कस्तूरिकादिना परस्य इव्यस्य संप्रयोगः सोतिसंप्र योगस्तद्द हुलास्तत्प्रधाना इत्यर्थः । उक्तंच सोहोइ सातिजोगो, दवं जं बादियदवेसु । दो सगुणावयसुय, विसंवाइणं कुणइ ॥ १ ॥ एते चोत्कुंचनादयोमायापर्याया इंका दिवत् कथंचित्क्रियानेदेपि इष्टव्याः । तथा दुष्टं शीनं येषांते दुःशीला श्विरमुपचरिताय पि क्षिप्रं विसंवदंति । दुःखानुमेयादारु णस्वनावाइत्यर्थः । तथा दुष्टानि व्रतानि येषां त था । यथा मांसनक्षणव्रतकालसमाप्तौ प्रभूततरसत्वोपघातेन मांसप्रदानमन्यदपि नक्कनो जनादिकं ष्टव्रतमिति तथान्यस्मिन् जन्मांतरे मधुमद्यमांसादिकमच्यवहरिष्यामीत्येव मज्ञानांधाजन्मांतर विधिद्वारेण सनिदानमेव व्रतं गृहंति, तथा दुःखेन प्रत्यानयंते दुष्प्र त्यनंद्याः । इदमुक्तं नवति । तैरानंदितेनापरेण केनचित्प्रत्युपकारेप्सुना गर्वाध्माताडुः खेन प्रत्यानयंते । यदिवा सत्यप्युपकारे प्रत्युपकारजीरवोनैवानंद्यंते प्रत्युत शक्तयोपका रे दोषमेवोत्पादयति । तथा चोक्तं । प्रतिकर्तुमशक्तिष्ठानराः पूर्वोपकारिणां ॥ दोषमुत्पाद्य ति मनामिव वायसाः ॥ १ ॥ यतएवमतोऽसाधवस्ते पापकर्मकारित्वात् तथा याव यावत्प्राणधारणेन सर्वस्मात्प्राणातिपातादप्रति विरतालोक निंदनीदादपि ब्राह्मणघा तार विताइति । सर्वग्रहणं सर्वस्मादपि कूटलादयादेरप्रतिविरताइति । तथा सर्वस्माद For Private Personal Use Only Page #777 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राय धनपतसिंघ बादारका जैनागम संग्रह नाग इसरा. gმg पिकूटसाक्षादेरप्रति विरताइति । तथा सर्वस्मात्स्त्रीबालादेः परइ व्यापहरणाद विरतास्तथा सर्वस्मात्परस्त्रीगमनादे मैथुनाद विरताएवं सर्वस्मात्परिग्रहाद्यो निपोषकादप्य विरता एवं स वैन्यः क्रोधमानमायालोनेन्योऽविरतास्तथा प्रेमदेषकलहाच्याख्यानपैशुन्यपरपरिवादाऽर तिरतिमायामृषावादमिथ्यादर्शनशल्या दिन्योऽसदनुष्ठाने ज्योयावतीवं ये प्रतिविरतानवं ति । तथा सर्वस्मात्स्नानोन्मर्दनव एक विलेपन शब्दस्पर्शरूपरसगंधमाव्यालंकारात्कामांगा न्मोहजनितादप्रतिविरतायावतीवयेति । इहच वर्णकग्रहणेन वर्णविशेषापादकं लोधा दिकं गृह्यते । तथा सर्वतः शकटरथादेर्यान विशेषादिकात्प्रतिविस्तर विधेः परिकररूपात्प रिग्रहादप्रति विरताः । इहच शकटरथादिकमेव यानं शकटरथयानं युग्यं पुरुषोत्तमा काशयानं (गिनित्ति ) पुरुष ६योत्दिप्ता फोनिका । ( चिह्नित्ति ) वेसरादि ६य विनिर्मि तोयान विशेषः तथा ( संदमा लियत्ति ) शिबिका विशेषएव । एतदेवमन्यस्मादपि वस्त्रा देः परिग्रहाडपकरणनूताद विरतास्तथा सर्वतः सर्वस्मात्क्रयविक्रयाच्यां करणनूताच्यां यो माषकार्धमाषकरूपकापणादिनिः पण्यविनिमयात्मकः संव्यवहारस्तस्मादविरतायाव जीवति । तथा सर्वस्मादिरस्य सुवर्णादेः प्रधानपरिग्रहाद विरतास्तथा कूटतुला कूटमा नादेरविरतास्तथा सर्वतः कृषिपाशुपाल्यादेर्यत्स्वतः करणमन्येन च यत्किंचित्कारयति त स्मादविरतास्तथा पचनपाचनतस्तथा कंडन कुट्टन पिट्टनतर्जनताडनबंधादिना यः परिक्लेशः प्राणिनां तस्मादविरताः । सांप्रतमुपसंहरति । ये चान्ये परपीडाकारिणः सावद्याः कर्मस माना बोधिका बोध कारिणस्तथा परप्राणपरितापनकरागोग्रहबंदी ग्रहग्रामघातात्मकाये sary: क्रूरकर्मनिः क्रियते ततोऽप्रतिविरतायावतीवयेति ॥ ६२ ॥ से जहा सामए केइ पुरिसे कलममसूर तिलमुग्गमासनिप्फाव कुलब आलिंसंद्ग पलिमंथगमा दिएहिं यंते कूरे मिचामं पतंजंति एवमेव तदपगारे पुरिसजाए तित्तिरवट्टगलावगकवोतकविजलमियम दिसव रागाद्गोह कुम्म सिरिसिवमादि एहिं यंते करे मिचादं पतंजति जा वियसे बाहिरिया परिसा नवइ तंज दा दासेश्वा पेसेवा नय एश्वा ना इल्लेश्वा कम्मकरएवा जोग पुरिसेश्वा तेसिंपियां यन्नयर सिवा दालढ़गंसि वराहंसि सयमेव गरुयं दमं निवत्तेइ तंज हा इमंदंमेद इ मंमुंद इतकेद इमंता लेद इमंयज्यबंधणं करेह इमं नियल बंधणं करे द इमंदडिबंधणं करे द इमंचारगबंधणं करेद इमनियलजुयल संकोडिय मोडियं करेद इमंदन्नियं करे इमंपायन्नियं करेह इमं कन्नबियं For Private Personal Use Only Page #778 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उG वितीये सूत्रकृतांगे वितीयश्रुतस्कंधे वितीयाध्ययनं. करेद श्मनकनन्सीसमुदबिन्नयं करेद वेयगदियं अंगदियं इमंपुरका प्फोडियं करेद इमंणयणुप्पाडियं करेद मंदसणुप्पाडियं वसणुप्पाडियं जि प्नप्पाडियं ग्लंबियं करेद घसियं करेह घोलियं करेह सूलाइयं करेह सूला जिन्नयं करेद खारवत्तियं करेद वप्नवत्तियं करेह सीदबियंगं करेद वसनपुचियंगं करेद दवग्गिदढयंगं कागणिमंसकावियगं नत्तपा पनिरुगं इमं जावजीवं वहबंधणं करेद इमं अन्नथरेणं असुनेणं कु मारेणं मारेद ॥६३ ॥ अर्थ-हवे वल्ली बीजा प्रकारे अधर्मिक पुरुषनो विशेष कहेले. यथादृष्टांतें नामएवी संनावनायें कोइएक पुरुष. कलम एटले वटाणा, चणा, मसूरनी दाल, तल, मग, मास एटले अडद, निप्फाव एटले वाल, (कुलब के० ) तुवर, (आलिंसंदग पतिमंथग मादिएहिं के० ) चनथ, कालाचणा, श्रादेलेइने जे धान्य विशेषले तेने पच न पाचनादिक क्रियायें करी पोताने तथा परने अर्थे (अयंते के०) घयत्नबता निर्दय जावें (कूरेके०) क्रूरपणे उष्ठ थको (मिबादंपति के ) मिथ्या दंम प्रयूजे (ए वमेव के०) एरीते (तहप्पगारे के०) तथा प्रकारे पूर्वोक्त जे (पुरिसजाए के) पुरुषजा ति ते निर्दय पणे तितर, वर्तक, लावक, कपोतपदी, कपिजलपदी, मृग. पामो, सूवर, मयूर, गौ नकुनादिक, जलचर घो,काचबो, बने नूजपुरी सर्प इत्यादिक प्राणीने विषेयर्थी अथवा अनर्थी थको यत्नविना निर्दय नावे क्रूर उष्ट थकोमिथ्यादंम प्रयूजे; एवा पुरुष ने परिवार पण एवोज सांपडे “ यथा राजा तथा प्रजा” इतिवचनात् ते देखाडेले. (जावियसेबाहिरियापरिसानव के०) जेपण तेनी बाहेरनी परिषदा होय (तंजहा के० ) ते कहेडे (दासेश्वा के० ) ए दास थापणी दासीनो पुत्र (पेसेवा के०) ए प्रेक्षक काम काज उपने ज्यां त्यां मोकल' (जयएश्वा के०) नृत ते मजूरीनो करना र, तथा (नाइनेश्वा के०) नागीक, षष्टादिक नागें कर्षणादिकने विषे प्रवत्त, (कम्मक रएश्वा के०) कामनो करनार प्रसि ते कर्मकर कहियें (नोगपुरिसेश्वा के० ) स्वतंत्र जोगने मात्रै राखेलो दास तेपण बाहेरनी परिषदा माहे को रूडो पुरुष होय. (तेसिं पियणं के०) तेनो पण (अन्नयरंसिवा के० ) अन्य कोई एकनो (यहालढुगंसिके) यथा शब्दादिक सांजलेलते पड़ी तेनो एवो न्हानो (अवराहसिके) अपराध नपने बते ते नायकना दासादिकपण ( सयमेवगुरुयंदमनिवत्तेश्के) पोतें तेने महोटो दंम करे. (तंजहा के०) ते केवा दंम करे. ते कहेले (मंदंमेह के०) एने दंमो, एनुं सर्व Page #779 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राय धनपतसिंघ बाहारका जैनागम संग्रह नाग दुसरा. ४ स्वपहरी व्यो, ( इमंमुमेह के० ) एने सर्वसुंमन करावो ( इमंतकेह के० ) एने अंगु कतना करो, ( इमंतानेह के० ) एने चिपटे करी ताडन करो, ( इमंडयं बंधक) ने पवाडे बाहु करीने बंधने बंधन करो, ( इमं नियल बंध करेह के ० ) एना हाथमां बेडी नाखीने बंधन करो, (इमंद डिबंध करेह) एने हडनुं बंधन करो, (इ मंचारबंध करेह के ० ) एने नाकसी बंधन करो, ( इमं नियलजुयल संकोडियमोडियंक Rebo) एने बेडीना युगलें करी संकोच करो, मोडिय एटले अंगोपांग जंग करी मरडो, अथवा एना हाथ पग संकोचीने बांधो, (इमंदन्नियंकरेह के ० ) एना हाथ बेदन करो, ( इमं पायनियं करेह के० ) एना पग बेदन करो ( इमंकन विन्नयंकरेह के० ) एमज एना कान बेदन करो, (इमनक्क हसी समुह नियंकरेहके ० ) एनुं नाक बेदन करो, एना होत, एनुं मस्तक, एनुं मुख, बेदन करो, (वेयगत हियंांग बहियं के ० ) एनं वेदबेद करो, एना जीवतांज हैयाने बेदो, कापो, एम करो. (इमं पुरकाप्फोडियंक रेहके ० ) एना शरीरनी खालने उपाडो एम करो, ( इमंणयपुष्पाडियंकरेह के० ) एनी यांख उखेडो एटले काढो, एम करो . ( इमंदंसणुप्पा डियंवसप्पाडियंजिनुप्पा डियंनलं बियंकरेह के० ) एना दांत काढो, वृषण काढो, एनी जीन काढो. एने उंचो बांधोएने कूप, पर्वत नदीने नाखो एम करो, ( घसियंकरेह के० ) एने पग बांधीने घसो, (घोलियं करेह के ० ) एने विषे खांबांनी पेठें घोलो, (सूलाइयंकरेह के ० ) एने शूली उपर धारोपण करो, (सूलानि नयंकरेह के ० ) एने त्रिशूलें नेद करो, ( खारवत्तियं करे ह० ) एने शस्त्रें करी बेदीने जू U नुं पाणी सींचो ( वनवत्तिर्य करेह के० ) एनुं शरीर मानें करी, कारों बेदो. (सीहपु यिंग करेह के ० ) एने सिंहने पुंबडे बांधो, (वसन पुयिंग करेह के ० ) एने बलदने पुंबडे बांधो ( दवग्गिंदद्वयं के०) एने दावानल मांहे बालो, (कागणिमंसरका वियंगंके ० ) एने काक पक्षीनु मांस काढीने खवरावो, तथा एनुं पोतानुं मांस काढीने एनेज खव रावो, (नत्तपाल निरुगंके ० ) एने जात पाणीनो निरोध करो, (इमंजावजीवंवहबंधक रेह ho) एने जावजीव सुधी बांधी मूको, वध, बंधन करो, (मंथन्न यरेय सुनेां कुमारेमारे ch0) एम एने बीजा के टलाएक शुन मारें करीने मारो, इत्यादिक एवा दंग तेने यापे. ६ ३ || दीपिका - धार्मिक पदमेव सविस्तरमाह । ( सेजहेत्ति ) तद्यथा । नामसंनावने । संाव्यंते यत्र नवे केचिदेवंभूतानराः ये कलममसूरादिषु पचनादिक्रिययाऽयताप्रयत्न वंतोनिष्क्रियाः क्रूराः मिथ्या अपराधं विना दोषमारोप्य दंडोमिथ्यादंडस्तं प्रयुंजंति । त था एवमेव प्रयोजनं विनैव तथाप्रकारानिर्दयाः पुरुषा स्तित्तिरिवर्तका दिप्राणिष्वयताः क्रू रकर्माणोमिथ्यादंडं प्रयुंजंति तेषां परिकरोषि तादृशः स्यादित्याह ( जावियसेत्ति ) या पिच For Private Personal Use Only Page #780 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीये सूत्रकृतांगे द्वितीयश्रुतस्कंधे द्वितीयाध्ययनं . बाह्य पर्षद्भवति । तद्यथा दासः स्वदासीसुतः प्रेष्यः प्रेषणयोग्यः नृतकोमूल्यगृ हीतः नागिकः कृष्यादौ सनागग्राही कर्मकरः प्रतीतः जोगपरोनायकाश्रितः कश्चित् ते दासादयोऽन्यतरस्मिन्स्वल्पेऽप्यपराधे स्वयं गुरुतरं दंडं प्रयुंजंति । सच नायकस्तेषां दा सादीनां यथा धौ स्वल्पेऽपराधेपि गुरुदंडं वक्ष्यमाणं प्रयुक्ते । तद्यथा इमं दासं दंडय त यूयमित्यादि सुगमं । यावदिममन्यतरेणाऽगुजेन कुत्सितमारेण मारयतइति ॥ ६३ ॥ ॥ टीका - पुनरन्यथा बहुप्रकारमधार्मिकपदं प्रतिपिपादयिषुराह । (सेजहाणामएइ त्यादि ) तद्यथेत्युपदर्शनार्थोनामशब्दः संभावनायां संभाव्यते । यस्मिन्विचित्रे संसा रे केचनैवंभूताः पुरुषाः केवलमसूर तिजमुद्रादिषु पचनपाचनादिकया क्रियया स्वपरार्थ मयता प्रयत्नवंतो निष्कृपाः क्रूरा मिथ्यादंडं प्रयुंजंति । मिथ्यैवाऽनपराधिष्वेव दोषमारो प्य दंडोमिथ्यादंडस्तं विदधति । तथैवेमे प्रयोजनं विनैव तथाप्रकाराः पुरुषानिष्करुणा जीवोपघात निरता स्तित्तिरवर्तकलावकादिषु जीवनप्रियेषु प्राणिष्वयताः क्रूरकर्माणोदंड प्रयुंजंति । तेषां च क्रूरधियां "यथा राजा तथा प्रजा" इति प्रवादात् परिवारोपि तथाचूतए व नवतीति । तथा दर्शयितुमाह । ( जावियसेइत्यादि) या पिच तेषां बाह्या पर्षद्भवति । तद्यथा । दासः स्वदासीसुतः प्रेष्यः प्रेषणयोग्पोनृ त्योनृ त्य देश्यानृतकोवेतवेनोदकाद्या नयनविधायी तथा नागिकोयः षष्ठयंशा दिलानेन कृष्यादौ व्याप्रियते कर्मकरः प्रती तस्तथा नायिकाश्रितः कश्चिनोगस्तदेवं ते दासादयोऽन्यस्य लघावप्यपराधे गुरुतरं दंडं प्र युंजंति प्रयोजयंतिच | सच नायकस्तेषां दासादीनां बाह्यपर्षभूतानामन्यतरस्मिंस्तथा ल घावपराधे शब्दश्रवणादिके गुरुतरं दंड वक्ष्यमाणं प्रयुंक्ते । तद्यथा । इमं दासं प्रेष्यादि कंवा सर्वस्वापहारेण दंडयत यूयमित्यादि सूत्रसिद्धं यावदिममन्यतरेणानेन कुत्सित मारेण व्यापादयत यूयं ॥ ६३ ॥ जाविय से नितरिया परिसा नवइ तंजदा मायाश्वा पियाइवा जाया इवा नगिणीश्वा नक्काश्वा पुत्ताइवा धूताइवा सुहाइवा तेसिपियां अन्नयरंसि महालदुगंसि प्रवरादंसि सयमेव गरुयं दमं णिवत्तेश सदगवियसि बोलत्ता भवइ जढ़ा मित्तदोसवत्तिए जाव दिए परंसि लोगंसि ते कंति सोयंति जूरंति तियंति पिहंति परितप्यंति ते डुकणसोयणजूरण पिट्टणपरितप्पणवबंधणपरि किसान पडिविर या नवति ॥ ६४ ॥ अर्थ - ( जाविय सेयनिंत रियापरिसानवइके ० ) जे पण तेनी अच्यं तरनी परिषदा होय For Private Personal Use Only Page #781 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राय धनपतसिंघ बानाउरका जैनागम संग्रह नाग सराः ५१ जहा के० ) ते कहे. माता, अथवा पिता, अथवा नाइ, नगनी, स्त्री, पुत्र, बेटी, पु त्रनीस्त्री, इत्यादिक माहेली परिषदावालामांथी कोइकनो पण अजाण पणे यथा न्हा नो सरखो अपराध उपने थके पोतेंज तेने महोटो दंम करें, मारे, शीतकालें तेना श रीरने टाढापाणीमां बोले,एवा कार्य करे,ए जेम पूर्व मित्रदोष प्रत्ययिक क्रियास्थानक कझुंडे, तेमज अहीयां पण जाणीले. एवा दंमनों करनार पुरुष, ते यावत् था लोक ने विषे अहित कारी अने परलोकने विषे श्रात्माने अहितकारी थाय ते अनेक जीवने उःख उपजावे, शोक उपजावे, जूरावे, तपावे, पोटे, परिताप थापे, ते घणा जीवोने सुखदायक शोकनो करनार गर्दा, निंदा करावनार, पीटीने पीडानो उपजावनार, परि ताप करावनार, वध करावनार, बंधन करावनार, एवा महोटा क्वेश उपजाववाना कर्म थकी, जावजीव नथी निवृत्या एवो थका होय ॥ ६ ॥ ॥ दीपिका-यापि च तेषामन्यंतरा पर्षनवति मातापित्रादिका मित्रदोषःप्रत्ययिका ख्यदशमक्रियास्थानवज्झेयं यावदहितोऽस्मिन् लोके । ते क्रूरकर्माणः स्वल्पापराधिनामपि गुरुतरदंडकरणादुःखयंति शोकयंति यावधबंधपरिक्लेशादप्रतिविरतानवंति ॥ ६ ॥ टीका-यापिच क्रूरकर्मवतामन्यंतरा पर्षनवति । तद्यथा । माता पित्रादिका मित्रदोष प्रत्ययिक क्रियास्थानवझेयं यावदहितोयमस्मिन् लोके इति । तथाहि ।यात्मनोऽपथ्यका रि परस्मिन्नपि लोके । तदेवं ते मातृपित्रादीनां स्वल्पापराधिनामपि गुरुतरदंडापादन तोःखमुत्पादयंति तथा नानाविधैरुपायैस्तेषां शोकमुप्तादयंति शोकयंतीत्येवं ते प्राणि नां बहुप्रकारपीडोत्पादकाः याव धबंधपरिक्वेशादप्रतिविरतानवंति ॥ ६ ॥ एवमेव ते इचिकामेहिं मुछिया गिधा गढिया असोववन्ना जाव वासाई चनपंचमाइं बदसमाश्वा अप्पतरोवा नुङतरोवा कालं मुंजित्तु नोग नोगाई पविसुश्त्ता वेरायतणाई संचिणित्ता बदइं पावाईकम्माईन स्सन्नाई संचारकडेण कम्मणा से जदा पामए अयगोलश्वा सेलगो लश्वा उदगंसि परिकत्ते समाणे उदगतलमश्वश्त्ताइ अहे धरणितल पहाणे नव एवमेव तदप्पगारे पुरिसजाते वजबदुले धूतबदुले पं कबदुले वेरबदले आप्पत्तियबदुले दंनबदुले णियडिबढुले साइबदुले अयसबदुले उस्सन्नतसपाणघाती कालमासे कालंकिच्चा धरणितल मश्वश्त्ताइ अहे पारगतलपश्चाणे नव॥ ५ ॥ Page #782 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रय‍ द्वितीये सूत्रकृतांगे द्वितीयश्रुतस्कंधे द्वितीयाध्ययनं. अर्थ - एरीतें ते पूर्वोक्त स्वभाव वालो पुरुष निर्दय थको बाह्याभ्यंतर एवी पोतानी जे प रिषदा तेने पण पीडानो करनार एवो, उतो स्त्रियादिकना काम जोगने विषे मूर्च्छित गृ5 एट जे लोजी, जोगने विषे पोतें गुंथालो थको परम श्रासक्त बतो, यावत् चार, तथा पांच, तथा सात, तथा दश वर्ष एम अल्प काल अथवा घणोकाल सुधी जोगववा योग्य जोग जोगवीने, घा जीवनी साथे अनेक जातना वैर उपजावी वैरभावना स्थानकनो संचय करीने, ज्यां घ पापरूप हिंसादिक क्रूर कर्म संजारीकरी करेला कर्मने प्ररेतो एवा बतो, नरक रूप स्था नकने पामे. (सेज हाणामए के ० ) ते यथा दृष्टांते जेम (यगोलवा के०) लोहनो गोलो, (सेलगोल इवा के ० ) पाषाणनो गोलो, तेने (उदगंसिप कित्तेसमाणे के० ) पाणीना इहमां हे अथवा नदी तलाव मांहे नाख्यो थको, (उद्गतलमश्वत्ताइ के० ) उपलुं तनुं प्रति कमीने पाणीना तलामां जई पेसे, (अधर तिलपानवर के ० ) नीचे धरतिना त लाने विषे जइ बेसे. (एवमेव के० ) एरीतें (तहप्पगारे के०) तथा प्रकारें, ए पूर्वोक्त प्र कारना ष्ट निर्दय नास्तिक वादि प्रमुख एवा जे ( पुरिसजाते के ० ) पुरुष जातिले ते (वऊ बहुले के ० ) घणा पापरूप कर्म, (धूतबहुले के०) घणी कर्मरूपरज ( पंकबहुले के ० ) घणो क रूप कादव, (वेबदुले के० ) घणो जीवोनी साथे वैरनाव, (याप्पतियबहुले के० ) अविश्वासलायक एवं मननुं डयन ( यसबहुले के० ) घणो अपयश ( दंनबहु ले के०) घणुं कपट परने वंचवा पणु बे जेमां, ( पिय डिबहुले के० ) घणो वेष तथा जापानु पलटावकुंबे जेमां ( साइबहुले के०) सातिशय इव्य सायें गुणहीन पुरुषोना इव्यनुं मेलाaj (नस्सन्नंतसपाणघाती के० ) प्रायः त्रस प्राणी जीवनो घात करनार, ते ( कालमा सेकालं किच्चा के० ) कालने अवसरें काल करीने ( धरणितलमश्वइत्ताइ ho) पृथ्वीना ताने सहस्र योजन प्रमाण अतिक्रमि जाये; जइने, ( हे रगतल पानवइ के ० ) नीचें नरकना तलियाना स्थानकने विषे तेनुं पडवुं थाय. ॥६५॥ || दीपिका - ( एवमेवत्ति) एवमेव ते निर्दयाः स्त्रीप्रधानेषु कामेषु मूर्तिता गृायथिता अभ्युपपन्नायाव ६र्षाणि चतुःपंचपट्सप्त वा दशवाल्पतरंप्रनृततरं वा कालं नोगान् नु क्त्वा वैरायतनानि वैरानुबंधान् प्रविसूय उत्पद्य बहूनि पापकर्माणि संचित्य वर्धयित्वा उत्पन्नं प्रायः संचारकतेन कर्मणा प्रेर्यमाणानरकतलप्रतिष्ठानाः स्युः । यथाऽयोगोलः शिलागोलकोवा उदक दिप्त नदकतलमतिवर्त्य नल्लंघ्याधोधर तिलप्रतिष्ठानोभवति एवमे वसनरोवज्त्रं बध्यमानं कर्म तद्वदुलः धूनं प्राग्बदं कर्म तत्प्रचुरः पंकबहुल: पंकपाप वैरबदलः (याप्पत्तियत्ति ) मनसोऽर्थ्यानं दंनोमायया परवंचनं निकृतिर्नापावेषादिपरा वर्त्तेन परोहबुधिः सातिशयेन इव्येाहीनड्व्यस्य मेलनं सातिः तद्वदुलः प्रयशोबदु For Private Personal Use Only Page #783 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राय धनपतसिंघ बाहाउरका जैनागम संग्रह नाग उसरा. ७५३ तः प्रायस्त्रसघाती कालमासे स्वायुःक्ष्ये कालं कृत्वा धरणितलं रत्नप्रनादिकायाः ट थिव्यास्तलमतिघ्याऽधोनरकतलप्रतिष्ठानः स्यात् ॥ ६५ ॥ ॥ टीका-तेच विषयासक्ततया एतत्कुर्वतीत्येतदर्शयितुमाद। (एवमेवइत्यादि ) एवमेव प्रक्तिस्वनावाएवं ते निष्कृपानिरनुकोशाबाह्यान्यंतरपर्षदोरपि कर्णनासाविकर्तनादिना दंडपातनस्वनावाः स्त्रीप्रधानाः कामाः स्त्रीकामाः यदिवा स्त्रीषु मदनकामविषयनतासु का मेषुच शब्दादिषु इलाकामेषु मूर्जितागृहाग्रथिताअध्युपपन्नाः। एते च शक्रपुरंदरा दिवत्पर्या याः कथंचिन्नेदं वाश्रित्य व्याख्येयाः। तेच नोगासक्ताव्यपगतपरलोकाध्यवसायायावर्षा णि चतुःपंचषट् सप्तवा दशवाल्पतरं वा कालं नुक्त्वा नोगासक्ततयाच परपीडोत्पादनतो वैरायतनानि वैरानुबंधाननुप्रसूयोत्पाद्य विधाय तथा संचयित्वा संचिंत्योपचित्य बदनि प्रनूततरकालस्थितिकानि कूराणि क्रूर विपाकानि नरकादिषु यातनास्थानेषु ककचपाटन शाल्मल्यवरोहणतप्तत्रपुपानात्मकानि कर्माण्यष्टप्रकाराणि बस्टष्टनिधत्तनिकाचनावस्था नि विधाय तेनच संनारकतेन कर्मणा प्रेर्यमाणास्तत्कर्मगुरवोवा नरकतलप्रतिष्ठानानवंती त्युत्तर क्रिययापादितबदुवचनरूपयेति संबंधः । अस्मिन्नेवार्थ सर्वलोकप्रतोतं दृष्टांतमाह। (सेजहाणामएइत्यादि ) तद्यथानामायोगोलकोऽयस्पिडः शिलागोलकोवृत्तात्मशकलं बोदके प्रदिप्तः समानस लिलतलमतिवातिसंध्याधोधरणीतले प्रतिष्ठानोनवति । अच ना दार्टीतिकमाह । (एवमेवेत्यादि) यथासावयोगोलकोवृत्तत्वाबीघ्रमेवाधोयात्येवमेव तथाप्रकारः पुरुषजातः । तमेव लेशतोदर्शयति । वजवरजं गुरुत्वाकर्म तद्वदुलस्तत्करण प्रचुरस्तथा बध्यमानकर्मगुरुरित्यर्थः । तथा धूयताति धूतं प्राग्बईकर्म तत्प्रचुरः । पुनःसा मान्येनाह। पंकयतीति पंकं पापं तद्वदुलस्तथा। तदेव कारणतोदर्शयितुमाह । वैरबदुलो वैरानुबंधप्रचुरस्तथा ( पत्तियंति) मनसोऽष्प्रणिधानं तत्प्रधानस्तथा दंनोमायया परवंचनं तउत्कटस्तथा निकतिर्मायावेषनाषापरावृत्तिनाना परोहबुधिस्तन्मयस्तथा सातिबदुला तिसातिशयेन इव्येणापरस्य हीनगुणस्य व्यस्य संयोगःसातिस्तबहुलस्तत्करणप्रचुरस्तथा ऽयशोश्लाघासदृत्ततया निंदा यानि यानि परापकारनूतानि कर्मानुष्ठानानि विधत्त तेषु तेषु कर्मसु करचरणजेदनादिषु अयशोनाग्नवतीति । सएवंनूतः पुरुषः कालमासे स्वायुपःद ये कालं कृत्वा एथिव्यारत्नप्रनादिकायास्तलमतिवर्त्य योजनसहस्रपरिमाणमतिलंध्य नर कतलप्रतिष्ठानोऽसौ नवति ॥ ६५ ॥ तेणं गरगा अंतोवट्टा बाहिं चरंसा अहे एकरप्पसंगणसंठिया पिच्चं धकारतमसा ववगयगदचंदसूरनकत्तजोइसप्पदा मेदवसामंसरुदिर पूयपालचिरकललित्ताणुलेवणतला असुई वीसा परमप्निगंधा कपहा Page #784 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीये सूत्रकृतांगे द्वितीय श्रुतस्कंधे द्वितीयाध्ययनं. अगणिवन्नाना ककडफासा डुरुहियासा प्रसुना परगा असुना र ए सुवेयणा ॥ ६६ ॥ अर्थ - (तेरगा के०) ते नरकनु स्वरूप कहे. (अंतोवहा के०) सीमंतादिक नरकावा सामाजी कोरें वाटलाप्राकारेबे, (बाहिंचवरंसा के०) बाहेर चारखुणावे. (ख हे करप्प संासं विया के ० ) नीचें सजायानी धारने याकारें संस्थितने एटले रह्याबे ( चिंधकार तमसा के ० ) नित्य सर्वकाल मेघ बायानी पेठें, कृष्णपचनी रात्रीनी पढें, महाखंधकारे यु hd बहुल अंधकार. ( ववगयचंद सूरगहन रकत्तजोइसप्प हा के०) बुधादिक ग्रह, चंडमा, सूर्य नक्षत्र, ज्योतिष्य प्रकाश, ते थकी व्यपगत एटले रहित बे. ( मेदवसामंसरु हिरपूयपम चिरक नित्ता पुजेव पतला के० ) मेद, वसा, मांस, रुधिर, परसेवो, तेना पमल एटले समूह तेना कादवें कर लिप्तबे जेना नूमितल एवाले, एटले जे एकवार निपीयें कहिये जे वारंवार जिपीयें तेने अनुलिप्त कहियें, ( सुईवी सापरमडुनगं धाका के० ) शुचि बीभत्स विष्टायें खरड्या कुत्सित एटले मांससमान डुर्निगंध, खराब कृष्णवर्ण वाला ( अगणिवन्नानाके ० ) मशानो अनि तथा धम्या लोहना य मिनी ज्वालाउना जेवा वर्ण थाय ते समान व्याकारबे जेनो, जे अत्यंत कठोर, सह न करता प्रत्यंत सहबे (करकस फासाहरु हियासा असुन के ० ) दुःखे सहन याय एवा खरखरा कर्कश फरशळे जेने विषे, एवा अगुन (रगा के ० ) नरकने विषे ( गुन लरए सुवेला के० ) महा असुन वेदना प्रवर्त्तेबे ॥ ६६ ॥ 0 युव || दीपिका - नरक स्वरूपमाह । ते नरकाचंतर्वृत्ताबहिश्चतुरस्राः अधश्च कुरप्रसंस्थान स्थिताः । एतच्च संस्थानं पुष्पावकीर्णानां तेषामेव प्रचुरत्वात् । यावनिकां गतास्तु वृत्त त्र्यस्त्रचतुरस्रसंस्थानाएव तथा नित्यांधकारतमसा नृशं तमोबहुलाः व्यपगतग्रहचं सूर्यन ज्योतिष्पथाः । मेदवसामांसरुधिरपूयपटलैर्लिप्तानि अनुलेपनप्रधानानि तला नियेषां ते तथा । तथा चयो विस्राः कुथितमांसादिनिप्तत्वात् परमडुरनिगंधाः कस्मा निवर्णानाः कर्कशस्पर्शाडुःखेनाधिसत्यंते यतोऽगुनास्तत्र नरकेषु प्रशुनाडुः सहावेदनाः ॥ ६६ ॥ ॥ टीका - नरकस्वरूपनिरूपणमाह । ( तेल मित्यादि) समिति वाक्यालंकारें । ते नरकाः सीमंतकादिकाबाहुल्य मंगीकृत्यांतर्मध्ये वृत्ताबहिरपि चतुरस्राप्रथश्च कुरप्रसंस्था नसंस्थिताः । एतच्च संस्थानं पुष्पावकीर्णानाश्रित्योक्तं तेषामेव प्रचुरत्वात् । यावलिका प्रविष्टास्तु वृत्तत्रयस्त्रचतुरस्त्रसंस्थानाएव नवंति । तथा नित्यमेवांधतमसं येषु ते नित्यां धतमसाः । कचित्पाठो नित्यांधकारतमसाइति । मेघाव विन्नांबरतलक मपदरजनीवत् तमो For Private Personal Use Only Page #785 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रायधनपतसिंघ बादाउरका जैनागम संग्रह नाग उसरा. ५५ बदुलास्तथा व्यपगतोमहसूर्यचंइज्योतिःपथोयेषां ते तथा । पुनरप्यनिष्टापादनार्थ तेषा मेव विशेषणान्याह । (मेदवसेत्यादि ) पुष्कृतकर्मकारिणां ते नारकास्तदुखोत्पादनायैवं जूतानवंति । तद्यथा । मेदवसामांसरुधिरपूयादीनां पटलानि संघास्तैर्लिप्तानि पिबिलीक तान्यनुलेपनतलान्यनुलेपनप्रधानानि तलानि येषां ते तथा अशुचयो विष्ठासक्तेदप्रधान त्वादतएव विश्राः कुथितमांसादिकल्पकर्दमावलिप्तत्वात् । एवं परमउगंधाः कुथितगो मायुकलेवरादपि असह्यगंधास्तथा रुपमा निवर्णानारूपतः। स्पर्शतस्तु कर्कशः कतिनोवज कंटकादप्यधिकतरः स्पर्शोयेषां ते तथा किंबहुनाऽतीव दुःखेनाधिसह्यते । किमिति । यत स्ते नरकाः पंचानामपीडियार्थानामशोजनवादशनास्तत्रच सत्वानामगुनकर्मकारिणामु दयदंडपातिनांच वज्जप्रचुराणां तीबाबतिसहवेदनाः शारीराः प्राउनवंति ॥ ६६ ॥ णोचेव णरएसु नेरश्या णिहायं तिवा पलायंतिवा सूईवा रतिंवा धीति वा मतिंवा ज्वलनंते तेणं तब नऊलं विग्लं पगाढं कडुयं ककसं चं उरकं जुग्गं तिवं रुदियासं परश्या वेयणं पचणुप्तवमाणा विदरंति॥६॥ अर्थ-(णोचेवणरएसुरनरइया के०) पणते नरकने विषे जे नारकी जीवोजे ते एटलावा नां पामता नथी गुं नथी पामता ? तोके (णिदायंतिवा के०) निभा नथी पामता, (प लायंतिवाके०) घणी निा जे प्रचता ते पण नथी पामता, ( सूवाके० ) श्रति एटले विशेष ज्ञाननीस्मृति तेपण नथी पामता, ( रतिवा के०)चित्तने विषे रति पामतानथी, (धतिंवा के०) विशेष धैर्य धृतिने पण नथी पामता, तथा ( मतिंवा के०) बुझिने पण ( उवलनंते के०) पामे नहीं (तेणंतबगाल के०) ते नारकी ते नरकने विषे प्रव र्तमान थका उज्वली केतां तीव्र उत्कृष्ट (विननं के०) विस्तीर्ण ( पगाढं के०) थाकरी, (कडूयं के०) कडवी, (कक्कसं के०) कर्कश, (चंझ के०) रौड़, (रकं के० ) मुखर्नु कारण, (जुग्गंतिवं के० ) तीव्र ऊर्ग, तीक्ष्ण, (रुहियासं के) :खे सहन करवा योग्य (ऐरश्यावेयणं के०) नरकने विषे नारकीने वेदनाने (पञ्चगुप्तवमाणाविहरंतिके०) नोगवता थका विचरेले. काल अतिक्रमण करे ते उपर दृष्टांत कहेले. ॥ ६ ॥ ॥ दीपिका-(पोचेवत्ति) तेषु नरकेषु वेदनानिनूता न नियंते न प्रचलायंते ईषन्नि ज्ञमपि नगढंतीत्यर्थः । श्रुतिवा रतिवा धृतिवा मतिंवा नोपलनंते ते नारकास्तत्र उज्वला मुत्कटां विपुलां प्रगाढां कटुकां कर्कशां चंडां दुःखरूपां तीव्रां पुरधिसह्यां नरकवेदनां प्र त्यनुनवमानास्तिष्टंति ॥ ६७ ॥ Page #786 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७५६ द्वितीये सूत्रकृतांगे द्वितीय श्रुतस्कंधे द्वितीयाध्ययनं . ॥ टीका - तयाच वेदनानिनूतास्तेषु नरकेषु नारकानैवादिनिमेषमपि कालं निशयं तेनाप्युपविष्टाद्यवस्था दिसंकोचनरूपामीपन्निमवानुवंति । नह्येवंनूत वेदना निनूतस्य निशलानोभवतीति दर्शयति । तामुज्वलां तीव्रानुनावेनोत्कटामित्यादि विशेषणविशिष्टां यावदयंत्यनुनवंतीति ॥ ६७ ॥ से जहाणामए रुकसिया पवयग्गे जाए मूले बिन्ने अग्गे गरु ज नृणित्तं जन विसमं जडुग्गं तनुं पवडंति एवमेव तदप्पगारे पुरिसजाए प्रातोगनं जम्मातोजम्मं मारानुमारं परगाव परगं दुकान डुकं दादि गामिए रइए कण्हप किए प्रागमिस्साएं ल्लनबोदिएयावि नवर एसा प्रणारिए केवले जाव प्रसवकपदी मग्गे एगंत मिचे साहू पढमस्स छाणस्स अधम्मपरकस्स विनंगे एव माहिए ||६|| अर्थ - (सेजहाणामए के० ) ते यथा दृष्टांते नाम एवी संभावनाये जेम कोइएक ( रुरकसिया के० ) वृक्ष होय, ( पवयग्गेजाए के० ) पर्वतने ये उपनो ( मूले बिन्ने के०) मूल माथी बेद्यो ( अग्गेरुए के० ) अये नारी एवो बतो ते वृक्ष (जलित्तं विमं के० ) ज्यां ज्यां नीचा खामानु स्थानक होय, ज्यां त्यां विषम, समान नही, (जडुग्गंके०) ज्यां ज्यां दुर्गम कष्टस्थान होय, (तपवडं तिके०) त्यां ते वृक्ष उतावलो पडे. ( एवमेवत पगारे के० ) एदृष्टांते तथा प्रकारना दुष्ट साधु कर्मकारी पुरुष जाति ते कर्मरूपी वारे प्रेो बतो उतावलो नीचो नरकगतिमां जइ पडे; फरी त्यां थकी न को फरी गर्न थकी गर्न, जन्म थकीजन्म, मरण थकी मरण पामे, नरकथकी नरक पामे, दुःख यकी वली दुःख पामे, एरीते दक्षणदिशिनो जनारो, नारकी, कुमपी ते दीर्घसंसार पणाने लीधे ग्रागमिक काले दुर्लन बोधि थाय ए स्थानक अनार्य केवल यावत् जेमां सर्वडुःख थकी बुटवानो मार्ग नथी एकांत मिथ्यात्व साधुनो मार्ग जा rate प्रथम स्थानक धर्म पनो विचार एम कह्यो . ॥ ६८ ॥ ॥ दीपिका - ( सेजहत्ति ) तद्यथा नामकश्चिद्वृः पर्वताये जातोमूले विन्नः शीघ्नं य था निम्नं नीचं स्थानं ततः पतति एवमसावसाधुरपि नरके पतति ततोपयुञ्जतो गर्ना यति एवं न तस्य किंचित्राणं नवति यावदागामिन्यपि कालेऽसौ डर्लन बोधिः स्यात् (ए सठापत्ति) तदेतत् स्थानमनार्य यावदेकांत मिष्यारूपमसाधु । तदेवं प्रथमस्याधर्मपाि कस्य स्थानस्य विनंगो विभागः समाख्यातः ॥ ६८ ॥ For Private Personal Use Only Page #787 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रायधनपतसिंघ बादाउरका जैनागम संग्रह नाग उसरा. ७ ॥ टीका-एवं तावदयोगोलपाषाणदृष्टांतः शीघ्रमधोनिमङनार्थप्रतिपादकः प्रदर्शितो ऽधुना शीघ्रपातार्थप्रतिपादकमेवापरं दृष्टांतमधिकृत्याह । (सेजहाणामएइत्यादि) तद्यथा नाम कश्चितः पर्वताये जातोमूले बिन्नः शीघ्रं यथा निम्न पतति एवमसावप्यसाधुकर्म कारी तत्कर्मवातेरितः शीघ्रमेव नरके पतति ततोप्यु तोग जनमवश्यं याति न तस्य किं चित्राणं नवति यावदागामिन्यपि काले उतनधर्मप्रतिपत्तिर्नवतीति । सांप्रतमुपसंहरति (एसहाणेइत्यादि) तदेतत्स्थानमनार्य पापानुष्ठानपरत्वाद्यावदेकांतमिथ्यारूपमसाधु । तदेवं प्रथमस्याधर्मपादिकस्य स्थानस्य विनंगोविनागः स्वरूपमेव व्याख्यातः ॥ ६ ॥ अदावरे दोच्चस्स घाणस्स धम्म परकस्स विनंगे एव मादिऊ३ श्द ख लु पाइणंवा संतेगतिया मणुस्सा नवंति तंजदा अपारंना अपरिग्ग हा धम्मिया धम्माल्या धम्मिघा जाव धम्मेणं चेव वित्तिं कप्पेमाणावि दरंति सुस्सीला सुब्बया सुप्पडियाणंदा सुसादु सवतो पाणातिवायानप डिविरया जावजीवाए जावजेयावन्ने तदप्पगारा सावजा अबोदिया कम्मता परपाणपरियावणकरा कऊंति ततोविपडिविरता जाव जीवाए॥६॥ अर्थ-अथ दवे बीजो स्थानक धर्म पदनो विचार कहियें बैयें. आजगत् मांहे नि थे पूर्वादिक दिशिने विषे कोइएक मनुष्य एवाने ते कहेले. निरारंजी, निःपरिग्रही धार्मि क धर्मानुगामि, धर्मज जेने इष्टजे. यावत् धर्मेकरी वृत्ति आजीविका करता थका विचरे डे. सुशील, सुव्रत, रूडा आनंद पामनारा, सुसाधु, तथा सुखसाध्य पदवीरूप गुणेक री विराजमान, ते पुरुष सर्वथा प्राणातिपात थकी निवृत्या, जावजीव सुधी यावत्. जे बीजा, तथा प्रकारनां पापकारी, सावद्यकर्म अबोधिना करनार बीजा प्राणीने परिताप ना करनार कार्य करिये, तेवा कार्य थकी पण निवृत्या बे. ॥६॥ दीपिका-अथापरस्य वितीयस्थानस्य धर्मपदस्य विनंगः स्वरूपमेवमाख्यायते । य था प्राच्या दिदिनु मध्येऽन्यतरस्यां दिशि संति विद्यते केचिन्मनुष्यानवंति । तद्यथा अना रंनाअपरिग्रहाधार्मिकाधर्मानुगाधार्मिष्ठाधर्मेणैव वृत्तिं कल्पयंतोविहरंति तथा सुशीलाः सुव्रताः सुप्रत्यानंदाः सुसाधवः सर्वस्मात्प्राणातिपाताविरतायावत्परिग्रहादिरताः । ये चान्ये तथाप्रकाराः सावद्याअबोधिकारिणः कर्मकाः कर्महेतवः परप्राणपरितापनकरा आरंनाक्रियते ततोविरताः॥ ६ ॥ ॥ टीका-अथापरस्य वितीयस्य विनंगोविनागः स्वरूपमेवं वदयमाणनीत्या व्याख्या Page #788 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ՍԱՆ द्वितीये सूत्रकृतांगे द्वितीय श्रुतस्कंधे द्वितीयाध्ययनं. यते । तद्यथा ( इहखलुइत्यादि ) प्राच्यादिषु मध्येऽन्यतरस्यां दिशि संति विद्यते ते चै नूतानवंतीति । तद्यथा । न विद्यते सावद्ययारंजोयेषांते तथा अपरिग्रहानिष्किंचनाः धर्मेण चरतीति धार्मिकायाव ६ मेणैवात्मनोवृत्तिं परिकल्पयंति तथा सुशीलाः सुव्रताः सु प्रत्यानंदाः सुसाधवः सर्वस्मात्प्राणातिपाताद्विरताएवं यावत्परिग्रहादिताइति । तथा ये चान्ये तथाप्रकाराः सावयाखारंनायावदबोधिकारिणस्तेन्यः सर्वेच्योपि विरताइति ॥ ६ से जहा पामए पगारा जगवंतो इरियासमिया नासासमिया एस पासमिया आयाणनंम्मत्तणिकेवणासमिया उच्चारपासवणखेलसिं घाणजल्ल पारिधावणियासमिया मणसमिया वयसमिया कायसमिया मागुत्ता वयगुत्ता कायगुत्ता गुत्ता गुत्तिंदिया गुत्तबनचारी अकोदा य माला माया लोना संता पसंता नवसंता परिषिमा पासवा अग्गंथा विन्नसोया निरुवलेवा कंसपाइ वमुक्कतोया संखश्व णिरंज गाजीवश्व पडियगती गगणतलं पिव निरालंबणा वारिव पडि बंधा सारद सलिलश्व सुधदियया पुस्करपत्तंश्व निरुवलेवा कुम्मोश्व गुत्तिंदिया विदगश्व विप्पमक्का खग्गविसाव एगजाया जारंभपरकीव अप्पमत्ता कुंजरोव सोमीरा वसनोइव जातविमा सीहोरसा मं दरोवप कंप्पा सागरोड़वगंजीरा चंदोश्वसोमलेसा सुरोश्व दित्ततेया जच्च कंचणगंचइव जातरूवा वसुंधराइव सवफासविसदा सुदुययासो विव तेयसा जलता पचिणं ॥ ७० ॥ तेसिंनगवंताण कळविपडिबंधेनवर से पडिबंधे चनविदे परमते तं जदा अंमएश्वा पाठांतरेबोमजेइवा पोयएवा नगदेश्वा परदेशवा जन्नंजन्नंदिसं इवंति तन्नं तन्नं दिसं पडिबधा सुश्नूया अप्पलहुनूया अप्पग्गंथा संजमेणं तवसा अप्पाणं नावेमाणे विहरति ॥ ७२ ॥ तेलिणं नगवंताणं इमा एतारूवा जाया माया वित्ती दोबा तंजदा चनचेनते बनते ग्रमेजते दसमेनत्ते ज्वालसमे जत्ते चन्दसमे मत्ते अमासिएनत्ते मासिएनत्ते दोमासिए तिमासिए चानम्मासिए पं मासिए बम्मासिए अत्तरंचणं उरिकत्तचरया सिस्कित्तचरया नरिक तलिखितचरगा अंतचरगा पंतचरगा लूचरगा समुदाचरगा सं For Private Personal Use Only Page #789 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रायधनपतसिंघ बादाउरका जैनागम संग्रह नाग उसरा. एए सध्चरगा अससञ्चरगा तज्जात्तसंचरगा दिघ्लानिया अदिउला निया पुलानिया अपुलानिया निरकुलानिया अनिरकुलानिया अन्नायचरगा अन्नायलोगचरगा ग्वनिहिया संस्कादत्तिया परिमित पिंमवाश्या सुक्षेसणिया अंतादारा पंतादारा अरसादारा विरसादारा लूहाहारा तुबादारा अंतजीवी पंतजीवी आयंबिलिया पुरिमध्यिा विग या अमऊमंसा ससिणो णोणियामरसनो वाणाश्या पडिमागणा श्या उकडुआसणिया सङिया वीरासणिया दंमायतिया लगंमसाइ पो अप्पानडाअगत्तया अकंम्या अणिहुदा धुतकेसमंसरोमनदा सबगा यपडिकम विष्पमुक्का चिति॥शातेणं एतेणं विदारेणं विदरमाणा बदुर वासाई सामन्नपरियागं पानणंति बढुबदु आबादंसि नप्पन्नंसिवा अणु प्पन्नंसिवा बहुश्नत्ताई पच्चकाइ पच्चरकाश्त्ता बदुई वासाइं असणा बेदिति अणसणाई बेदित्ता जस्सहाएकीरति नग्गनावे मुंगनावे अ पहाणनावे अदत्तंवणगे अबत्तए अणोवादणए नूमिसेजा फलगसेका कम्सेका केसलोए बनचेवासे परघरपवेसे लक्षाअलघ माणाप्रमा पणानदीलणाम निंदणामखिंसणान गरदणा तङपान तालणानन चावयागामकंटगा बावीसंपरीसदो वसग्गअहियासिज्जति तमारा दंति तम आरादित्ता चरमेहि नस्सासनिस्सासेहिं अणंत अणुतरं निवाघातं निरावरणं कसिणं पडिपुरमं केवलवरणाणदंसणसमुप्पा.ति समुप्पा.तित्ता ततोपना सिङतिबुङति मुच्चंति परिसिवायंति सवायं ति सबकाणं अंतकरेंति ॥ ३ ॥ अर्थ-वली बीजे प्रकारें साधुना गुण देखाडे जे. ते यथा नाम एवी संनावनायें जे म कोइएक उत्तम संघयणवंत, महाबलें करी सहित अणागार जगवंत होय, ते केवा होय? तोके यो समितियें समिता, नाषासमितिये समिता, एटले सत्यनिरवद्य ना पाना बोलनार, एषणासमिति समिता, एटले बेंतालीश दोषरहित, आहारनी गवेष गाना करनार, (बायाणनंममत्तणिरकेवणासमितियेंसमिता) एटले माटीनुं नाजन, तथा मात्रा, धने वस्त्रादिक ने जयणायें पुंजीप्रमार्जीने मूकनारा, (उच्चारपासवणखेलसिंघाण Page #790 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७६० तिीये सूत्रकृतांगे वितीय श्रुतस्कंधे वितीयाध्ययनं. जन्नपारिठावणिया समिति समिता ) एटले वडीनीत, लघुनीत, थूक नासीकानो सी घाण, शरीरनो मल, तेने जयणा सहित परग्वे. एमपांच समितियें समिता, मन समि तियें सहित, वचन समिति सहित, काय समितियें सहित, मन ने असंयम थको गो पवीने प्रवर्तावे, माटे मनगुप्तियें गुप्त, वचनने असंयमथी गोपवीने प्रवर्तीवे, माटे वच न गुप्तियें गुप्त, कायाने असंयमथी गोपवीने प्रवर्तीवे, माटे कायगुप्तियें मुप्त, एरीतें त्र ण गुप्तियें गुप्त, तथा गुप्तेंघिय एटले असंयम थकी इंडियोने गोपवी राखनार, नववा डविशुद्ध ब्रह्मचर्यना पालनार, क्रोध रहित, मान रहित, माया रहित, लोन रहित, संता एटले मध्यवर्तियें,अने पसंता, एटले बाह्य वृर्तियें उवसंता, एटले उपशांतते उनय थापि शांतवृत्तिवाला, परिनिवृत्ता एटले समस्त संताप वर्जीत, अनाश्रय एटले पाप क में बंध थकी रहित, अग्रंथा एटले हिरण्यादिक परिग्रह थकी रहित, बिन्नश्रोत एटले बेद्यो संसारनो प्रवाह जेणे, तथा निरुवलेवा एटले निर्लेप कर्म मल थकी रहित, कं सपातीवमुक्कतोया एटले कांसाना पात्रनी पेठे पापरूप पाणी जेने बबतुं नथी; जेम कांसा ना पात्रने पाणी न लागे तेम, ते साधुने पापरूप पाणी लागे नहीं, तथा शंखनी पेठे निरंजन एटले रागादिक रंग रहित, जीवनी पेठे अप्रतिहत गतिवाला जाणवा, एटले जेम जीवनी गति अप्रतिहतले स्खलाय नही, तेम साधुने पण देश नगरादिकने विषे वि हार करवाने विष अप्रतिहत अस्खलित मतिजे. आकाशनी पेठे निरालंब एटले आका श जेम स्तंनादिकना आलंबने रहित तेम, साधु पण गाम, नगर, कुलना बालंबनथी रहितले. वायुनी पेठे अप्रतिबंध थका ग्रामने विषे एक रात्र, अने नगरने विषे पांच रा त्र, विचरे. गामेएगराश्यं गरेपंचराच्या इति वचनात् शारद एटले शीतकाल तेनुं स लील एटले पाणी तेनी पेठे अथवा आश्विन, अने कार्तिक मासना पाणीजेम निर्मलहो य, तेनी पेठे निर्मल रुदय वाला, (पुरकरपत्तंश्वनिरूवलेवा) एटले जेम कमलना पत्रने पाणी तथा कादव न लागे तेम, साधुने कर्म रूप लेप न लागे. काचबानी पेठे गुप्तेंदि य, जेम काचबो, चार पग अने पांचमी ग्रीवा गोपवीने प्रवर्ते तेम, साधु इंडियो गोप वीने प्रवर्ते. पदीनी पेठे विप्रमुक्त, अनियतवासी, एटले पदी जेम सर्वे परिवार स्थान कनी ममता रहित होय, तेम साधुपण परिवारादिकनी ममताथी रहित होय. (खग्गवि साणंवएगजाया ) एटले गेंमानु शींगडुं जेम एक होय, तेम साधु, राग देष रहित थको क होय. नारंमपदीनी पेठे अप्रमत्त होय, जेम नारंम पदी अप्रमादी होयने, तेम सा धु प्रमाद रहित थको धर्म कार्यने विषे प्रवर्ते. कुंजरनी पेठे शूरवीर एटले जेम हस्ती शूरवीर होय, तेम साधु कषायादिक निवारवाने शूरवीर होय, परंतु कायर पषु जणा वे नहीं, वृषननी पेठे बलवंत जेम बेल जार नपाडे अंगीकार करे निर्वाह करे तेम सा Page #791 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रायधनपतसिंघ बादाउरका जैनागम संग्रह भाग उसरा. ७६१ धु पण, व्रतनार निर्वाह करवाने सामर्थ्यवान धर्मधुरंधर जाणवो, सिंहनी पेठे उर्ष एटले सिंह जेम बीजा मृगादिक जानवरोने उवर्ष एटले तेनाथी परानवाये नही, तेम साधु पण परीसह उपसर्गादिकें करी परानवाये नहीं. मंदर एटले मेरुपर्वतनी पेठे अप्रकंप,जे म मेरुपर्वत कंपायमान न थाय, तेम साधु पण परीसह अने उपसर्गादिकें कंपायमान न थायः समुनी पेठे गंनीर, एटले समुह जेम गंजीर होय, तेम साधु हर्ष शोकादि क कारण रहित थका गंनीर होय. चंडमानी पेठे सोम लेश्यावंत एटले चश्मा जेम शीतल प्रकतिवंत होय, तेम साधु सर्वकाल मननो नझार करनारो, महा शीतल प्रकृति सहित होय, सूर्यनी पेठे दीप्ततेज एटले सूर्य जेम तेजवंत होय, तेम साधुपण तपश्च र्यायें करी तेजवंत प्रतापवंत देखायो.साचा सुवर्णनी पेठे जा तिरूप सतेज, एटले सुवर्ण ने जेम मेल न लागे, तेम साधुने पण कर्म मेल नलागे. वसुंधरानी पेठे सर्व स्पर्श स हे एटले पृथ्वी जेम कांटा, कांकरी, अग्न्यादिकना सर्व स्पर्श सहन करे, तेम साधु प ण दमागुणे सहित थको, टाढ तापादिकना स्पर्शने सहन करे. सुदुयदुतासगोविव तेयसाजलंता एटले रुडे इव्ये घृतादिक सींचतां जेम दुताशन जे अग्नि ते सदा ते यसा ए टले तेजवंत देखायले जाज्वल्यमान देखाय तेम,साधु पण ज्ञान तेजें करी सर्वकाल तेज वंत देखायजे.॥ ७० ॥ (ण नियंतेसिंचगवंताणंके०) ते नगवंत महिमावंत साधुने नथी क विपडिबंधेनव एटले क्यांहि पणप्रतिबंध नथी. सेप डिबंधे चनविहेपरमत्ते एटले ते प्रतिबं ध चार प्रकारनो कह्यो, ते कहेले. (अंमएश्वा के०) जे अंग थकी उपजे एवा पदी कीडाम यूरादिक ते आश्री प्रतिबंध नथी, (पोयएश्वा के०) पोत ते हस्त्यादिकना बालक ते याश्रित प्रतिबंध नथी, नग्गहेश्वा के० ) ग्रह एटले वस्ति पीठ फलगादिक तेनो पण प्रतिबंध नथी, (पग्गहेवा के०) उघीक नपग्रहिक नपकरण तेनिमित्त प्रतिबंध नथी, (जन्नंजन्नंदिसंबंति के० ) जे जे दिशायें विहार करवा वांडे, (तन्नंतनं दिसंथ प्प डिबा के०) ते ते दिशायें अप्रतिबंध पणे विचरे. ( सुश्नया के० ) शुचित निर्म लांतर यात्मावंत (अप्पलदुनूया के०) अल्प लघुनूत एटले अल्प परिग्रही थका, (अप्पग्गंथाके० ) अल्प ग्रंथवंत बहुश्रुत, (संजमेणंतवसा के०) संयम अने त करी (अप्पाणंनावेमाणे के०) पोताना आत्माने नावता थका, (विहरंति के०) विचरे.॥७१॥ (तेसिंणं जगवंताणं के०) ते नगवंत एटले साधुने, (इमाएतारूवा के० ) एवा ए तद्रूप (जायामायावित्तिहोबा के०) संयमयात्रा एटले संयमनो निर्वाह, तेने अर्थ, मात्रावृत्ति प्रमाणोपेत जातपाणी लेवु, ते तपें करी निर्मल थाय. ( तंजहा के०) ते कहेले. एक उपवास, बे उपवास, त्रण उपवास, चार उपवास, पांच नप वास, उपवास, सात उपवास, अर्थमासना उपवास, एक मास दमण, बे मास Page #792 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७६२ द्वितीये सूत्रकृतांगे द्वितीयश्रुतस्कंधे द्वितीयाध्ययनं. दमण, त्रण मास कमल, चतुर्मासिक, पंच मासिक, व मासिक, एवां तपना करनारा, ( अत्तरंच के० ) अथवा एक साधु एवा निग्रहना करनाराबे, ते कहेले. (उरिक तचरया के० ) प्तिचर्या एटले पोताने यर्थे हांमली मांहे यकी काढयुं एवं जे कु सार अन्न तेना जेनारा, (लिरिकत्तचरया के० ) निक्षिप्तचर्या एटले पिरसवाने अर्थे हां मांहेथी काढी वली हांमली मांहे प्रक्षेप्यो, एवो जे छाहार तेनी गवेषणा करनारा, (नरिकत्त लिरिकत्तचरगा के० ) पूर्वोक्त बन्ने जातना श्राहारनी गवेषणा करनारा, (अं तचरगा के० ) जे गाममांहे ससता मूल्यनो श्राहार मजे, तेना सेनारा, ( पंतचर गा के० ) नीरस याहार जमता थका, तेमांथी जे वध्यो होय तेना जेनारा, ( जूह चरगा के ० ) जावजीव सुधी लूखा आहारना जेनारा. ( समुदायचरगा के ० ) हर्ष सहित जे याहार या तेना लेनारा, (संसहचरगा के० ) खरडे हाथे आहार थापे तेना ले नारा, (संरगा के० ) प खरडे हाये छाहार खापे तेना लेनारा, (तकात संसचरगा के ० ) ते जे इव्यें हाथ अथवा कडबी खरडी होय तेवा हाथे करी, प्रथ तेवी कबीये करी, तेज आहार छापे, तेवा याहारना जेनारा, ( दिहलानिया के० ) दीवा हारनाज जेनारा, तथा (दिलानिया के० ) यादीगे खाहार, तथा दीवो दातार, गवेषण करना, (पुलानिया के०) तथा पुढीनेज हारना लेनारा, (पुलानिया के० ) यापुढया श्राहारना लेनारा, ( निस्कूला जिया के ० ) यो अन्न याने हेला करे एवा तु श्राहारना बेनारा, ( अनिरकूलानिया के० ) तुव हारना लेनारा, ( अन्नायचरगा के० ) ज्यां कोइ पण उलखे नहीं त्यां ज्ञात आहारना बेनारा, (अन्नाय लोगचरगा के ० ) खाज्ञात लोकना कुत्सित यन्नना नारा, ( नवनिहिया के० ) जे खाहार पोता थकी नजीक जाणे, तेना लेनारा, ( संखादत्तिया के ० ) दात्तिनी संख्याना करनारा, (परिमित्त पिंमवाइयाके० ) प्रमा लोपेत पिंमना नारा, ( सुदेसलिया के० ) शुद्धएषणिक दोष रहित एवा याहार नागवेषण हार, (अंताहारा के० ) अंताहारी एटले वाल, चणकादिकना याहारना गवेषनारा, ( पंताहारा के० ) तेज टाढूं नगखं, एवा यन्नना बेनारा, ( रसा हारा के० ) हिंग जीरादिकना वधारें रहित एवा घरस याहारना जेनारा ( विरसाहा रा के०) जूना धान्य खांमेलाना हारना बेनारा, ( जूहाहारा के०) जू याहारना नारा, (वाहारा के०) तुम्याहारना जेनारा, (अंतजीवी के ० ) अंताहारें जीवे, (पंतजीवी ho) प्रांताहारें जीवे, (प्रायं बिलिया के ० ) कूर, खडदना, बाकला लेइ, खायंबिल सदाय करे. ( पुरंमहिया के ) सर्व काल बे पहोर दिवस वित्या पढी याहार जमे, ( शिव गया के ० ) सर्वकाल निवी करे, विगय रहित अन्न जमे, (खमऊमंसाससीणो के ० ) For Private Personal Use Only Page #793 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राय धनपतसिंघ बादाउरका जैनागम संग्रह नाग उसरा. ७६३ मद्य मांसना परित्यागी होय, (णोणियामरसनोई के ) सर्व काल अत्यंत सरस या हार लीये नहीं, (हाणाश्या के० ) सर्वकाल कायोत्सर्गना करनारा, (पडिमाश्या के०) प्रतिमाना वहणनारा, (नक्कडबासणिया के०) एक स्थानकें केटलो एक काल निवृत्ति रहे,(सिडियाके०) निषेधवासनना बेसनारा एटले निपेय पदार्थयुक्तप्टथवीपर बेसे, (वीरासणिया के०) वीरासने करी रहे, बाजोठ उपर बेशी, पग नीचामूके, पनी बाजोत दूर करीने तेज आसने बेसे. (दंमायतिया के ) दंनी पेठे लांबो थयो थको रहे. (लगंमसाइणो के.) वांका काष्ठनी पेठे शयन करे, मस्तक, पानी अने वासो, तेने नूमीलागे, परंतु बीजे नलागे (अप्पानडाअगत्तया के ) वस्त्र रहित, वस्त्ररूप प्रावरण न राखे, (अकंमुयाके) शरीरें खाजी नखणे, (अणिहाके०) मुखyथंक परत्वे नहीं, (धुतकेसमंसरोमनहाके०) माथाना केश, गुह्यस्थानकना केश, दाढीमुनना केश, कारखली ना केश, शरीरनां रोम, तथा नख, समारे नही, (सव्वगायपडिक्कम विप्पमुक्का के०) सर्व गात्र एटले शरीरनी शुश्रूषा करवा थकी विप्रमुक्त, एटले मूकाणा थका, (चिहतिके०) रहे. ॥७॥ ( तेणंएतेणंविहारेविहरमाणा के०) तेसाधु एवा नग्र विहारे करी विचरता थ का ( बदुश्वासाइं के०) घणाएक वर्ष (सामनपरियागंपानणंति के० ) चारित्र पर्याय पाले. एवो चारित्र पाली (बदुबदुआबाहंसि के०) रोगादिकनी आबाधा ( उपन्नसिवा के ) उपनी, तथा (अणुपन्नंसिवा के ) अपनपने बते (बदुश्नत्ताइंपचारकाइके०) घणानात पाणी पञ्चरके. (पञ्चरकाश्त्ता के०) ते पञ्चरकीने (बदुश्वासाइंधणसणाईने दिति के०) घणा काल सुधी अनशन पाले, (अणसणाईचे दित्ता के०) ते अनशन पाली ने किंबहुना गुंजाजुंकहेवाथी? (जस्सहाएकीरतिके०) जे साधुधर्मने अर्थे थाधर्म एवोके, लोहगोलकनी पेठे निरास्वाद खड्गधारानी पेठे कुःसाध्य,एवो चारित्र पाले. (नग्गनावेकेण्) नग्नपणानो नाव एटले प्रमाणोपेत वस्त्रपहेरें, (मुंमनावे के०) पांचइंडियो तथा चार कवायनो संवर करे, (अण्हाणनावे के०) अंघोल स्नान नो त्यागनाव करे, (अदंतंव णगे के० ) दातण करवानो परिहार करे, (यबत्तएके ० ) मस्तकें बत्र धरावे नही, (अगोवाहणए के०) पगरखानो त्याग करे, (नूमिसेजा के०) नूमिकाने विषे शय न करे, (फलगसेजा के) पाट, पाटीया उपर शयन करे, (कठसेजा के ) काष्ठ, पाषाण उपर शयन करे ( केसलोए के० ) मस्तकें केशनो लोच करे, (बंनचेरवासे के० ) ब्रह्मचर्यने विषे वास करे, अर्थात् ब्रह्मचर्यने पाले, (परघरपवेसे के ) निदा ने अर्थ पारका घरने विषे भ्रमण करे, (लमाचल के०) त्यां परघर भ्रमण करतां कदाचित् निदान प्राप्तियाय, अथवा नथाय, तोपण समता नाव धरे, (माणाध मागणाउ के०) मान, अथवा अपमान, देता थका पण समता नाव धरे. (हीलणा Page #794 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७६४ वितीये सूत्रकृतांगे वितीयश्रुतस्कंधे वितीयाध्ययनं. स के०) जन्मनां कर्मरूपकरणीने उघाडी, हेलना करतां पण समता नाव धरे. ( निंद पान के०) को निंदा करे, (खिंसणान के०) को बीजा लोकोनी साखें हेलना करे, (गरहणान के०) को तेना मुख अगलज हेलना करे, (तऊपान के०) को तर्कना करे, (तालणान के०) कोइ ताडना करे, (उच्चावयागामकंटगा के०) उंचा नीचा ग्रामकंटक एटले ग्रामीण लोकना वचन, पांच इंडियने कंटक समान, तेने सहन करे, (बावीसंपरीसहोवसग्ग के) बावीश परिसह अने देवादिकना करेला नप सर्गादिक ए सर्वने (अहियासिकंति के०) मन वचन अने कायायें करी, अहियासे एटले सहन करे, (तमाराहंति के०) साधु ते अर्थ जे सम्यक् ज्ञान दर्शन चारित्र रू प तेने धाराधे, (तमधाराहित्ता के०) ते ज्ञान दर्शन चारित्ररूप अर्थ बाराधिने, (चरमे हिंनस्सासनिस्सासेहिं के० ) बेला नश्वास, निःश्वासें ज्ञान उपजे ते केवो ज्ञान उपजे, ते कहे. (अणतं के०) अंतरहित, (अणुत्तरं के० )प्रधान, (निवाघायं के) निर्व्याघात, (निरावरणं के० ) आवर्ण रहित, (कसिणं के०) कृत्स्नं संपूर्ण, (पडिपु संके०) परिपूर्ण एवो, (केवलवरणागदंसणसमुप्पाडेंति के० ) प्रधान केवलज्ञान अने केवलदर्शन, पामे (समुप्पाडेतित्ताके०) ते केवल ज्ञान अने केवल दर्शन उपजा वीने एटले पामिने, (ततोपन्ना के० ) तेवार पडी (सिङतिके०) सीजे एटले तेने सर्व अर्थनी सिदि थाय, (बुङति के०) चन्दराज लोकनुं स्वरूप बुफे, (मुचंति के०)स वं फुःख थकी मूकाय, (परिसिवायंति के०) कर्मरूप दावनलने नपशमाववे करीशी तलीनूत थाय (सबछरकाणं अंतकरेंति के०) सर्व सुखनो अंत करे, ॥ ७३ ॥ दीपिका-प्रकारांतरेण पुनः साधुगुणानाह । (सेजहत्ति) तद्यथानाम केचन नगवंतोऽन गारानवंति । र्यासमिताइत्यादि सुगमं । यावत्सुदुतदुताशनश्वदीप्तवन्हिरिव तेजसाज्वलं तो दीप्पमानाः॥७॥(ण निणंति)नास्ति तेषां कुतश्चित्प्रतिबंधः। प्रतिबंधश्चतुर्विधः। तद्यथा। अंमजोहंसादिः । अंडकंवा मयूरोडकादि क्रीडामयूरादिहेतुः स्यात्तेन तत्र निबंधः स्यात् । पोतजे हस्त्यादौ पोतके वा शिशुत्वात्प्रतिबंधः स्यात् । अथवा (अंमजोश्वाबोंडजोश्वाश तिपाठांतर) अंडज शणिकादिवस्त्रं बोंड कार्पासं वस्त्रं तत्र प्रतिबंधः स्यात् (नग्गहेश्वा) अवगृहीत परिवेषणार्थमुत्पाटितं नक्तपानं प्रगृहीतं नोजनार्थमुत्पाटितं तदेव । अथवा अवग्रहिकं वसतिपीठफलकादि औपग्रहिकं वा दंडकाद्युपधिजात प्रगृहीतंतु रजोहरणायो घिकोपधिरूपं तत्र प्रतिबंधः स्यात् । (जमंति) यां यां दिशमिहंति विहर्तु तां तां दिशं वि हरंति। किंनूताः। थप्रतिबधाः शुचितानावगुधिमंतः श्रुतिनूतावा प्राप्तसिद्धांताः लघुता अल्पोपधयोऽगौरवाश्च अनल्पग्रंथाबदागमाःन विद्यते यात्मनः संबधी ग्रंथोहिरण्यादिर्ये Page #795 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राय धनपतसिंघ बादाउरका जैनागम संग्रह नाग उसरा. उदय षां तेऽनात्मग्रंथाइति वा॥७॥तेषां साधूनां नगवतां (इमाए)तद्रूपायात्रामात्रा वृत्तिःसंयम यात्राप्रमाणाजीविकाऽनवत् । तद्यथा। चतुर्थनक्तमेकोपवासः षष्टनक्तं यावत्षण्मासिकं । अथच (नरिकत्तचरयत्ति)नदिप्तं स्वकार्याय पाकनाजनाउदृतं तदर्थमनिग्रहतश्चरंति तजवे षणाय गळंतीति नदिप्तचरकाः । (निरिकत्तचरयत्ति ) निक्षिप्तनाजनादनुवृतं तदर्थमनि ग्रहतश्चरंति तगवेषणाय गळंतीति निदिप्तचरकाः । ( नरिकत्तनिरकत्तचरयत्ति ) पाकना जनाउदिप्तं तत्रैवाऽन्यत्र वा स्थाने यदन्नं तदर्थमनिग्रहवंतश्चरंति । अंतेन प्रांतेन रू केण नक्तादिना चरंति ये ते तथा समुदानेन निदया चरंतीति (संसन ) खरंटितेन हस्तादिना दीयमानं संसृष्टमुच्यते उक्तविपरीतमसंसृष्टं तेन चरंति (तळायत्ति) तलातेन देयव्याविरोधिना यत्संसृष्टं हस्तादि तेन चरंति ते तथा । (दिलानियत्ति) दृष्टस्यैव नक्तादेलानः अदृष्टस्यापकवरकादिमध्या निर्गतस्य श्रोत्रादिनिः कृतोपयोगस्य नक्तादेनिस्तेन चरंति ये ते तथा । (पुज्जानियत्ति ) दृष्टस्यैव हे साधो! किंते दीयते इत्यादिप्रश्नेन योलानः सयेषामस्ति ते तथा। एवमटष्टलानिकाविपरीताः। निदेव निदा तु आमवातं वा तन्नानोयेषामस्ति ते तथा अनिदालानिका विपरीताः।अज्ञातचरकाथज्ञा तगृहेषु चरंतोत्य निग्रहवंतःअन्नं नोजनं वा ग्लायंति अन्नग्लायिकास्तेच अनिग्रह विशेषा त्प्रातरेवान्नं गृएहति(उवणिहया)नपनिहितंयथाकथंचिदासनीनूतं तेन चरंति ये ते उपनि हितकाःसंख्याप्रधानादत्तयोयेषां ते तथा।प्रातरेवयानक्तादि(परिमियत्ति) परिमितः पिंड पातःअर्धपोषादिलानोयेषामस्ति ते तथा । (सुसणिया) शुषणाः शुक्षस्य वा नियंजन स्य कूरादेरेषणा येषामस्ति ते अंतप्रांतवल्लवणकादिः सयाहारोयेषां ते तथा। विरसं नीरसं शीतलीनूतं रूदादाराः (अंबिलिया) आचाम्लं उंदनकुल्माषादि तेन चरंतीति । निर्विकृति काः धृतादिविरुतित्यागिनः अमद्यमांसाशिनःमद्यमांसं नानंतीति । (नोनियागत्ति) ननित्यं रसनोजिनः (नेसजीया) निषद्यायुतायां जूमौ उपविशनं तया चरंतीति नैषद्यकाः । वीरा सनं सिंहासननिविष्टस्य नून्यस्तपादस्य सिंहासनापनोदे सति यादृशमवस्थानं तद्यस्यास्ति सवीरास निकः ( दंडायतिया) दंडस्येवायतमायामोयेषां ते दंडायतिकाः । लगंमं वक्रका ठं तत् शेरते ये ते लगमशायिनः पार्मिका शिरश्च पृष्ठमेव वा नूमौ लगति तथा शयनं कुर्वति यातापकाथातापनायाहिणः (अप्पाउडा ) अप्राकृताः प्रावरणवर्जकाः (अगंकु या) अकंमूयकाः (अनिम्हा) अनिष्ठीवनाः (धुतमंससत्ति) धूतानि नीतिकर्मतया त्य तानि केशश्मश्रुरोमाणि शिरोजकूर्चकदादिलोमानि यैस्ते तथा सर्वशरोरपरिकर्मणा रहि ताश्त्यर्थः॥७॥(तेणंति) ते साधवएवं विहृत्य बहूनि वर्षाणि श्रामण्यपर्यायमनुपाव्य (था बादंसत्ति) रोगातके उत्पन्नेऽनुत्पन्ने वा नक्तप्रत्याख्यानं कुर्वति । किं बहुना यळते क्रियते नमनावोमुंडनावश्च (अपहाणगे ) स्नानानावः यदंतधावनं अबत्रकं शिरसि आतपे प Page #796 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७६६ द्वितीये सूत्रकृतांगे द्वितीयश्रुतस्कंधे द्वितीयाध्ययनं. तत्यपि कंबल वस्त्रादिधारणानावः अनुपानत्कता पाडुकाद्यनावः भूमिशयनं फलकशयनं काष्ठशयनं केशलोचः ब्रह्मचर्यधारणं । निक्षार्थं परगृहप्रवेशः लब्धमानापमानानि हेलन हिंसागतर्जनताडनानि वच्चावचग्रामकंटकाः गुनाशुना इंड्यिविषयारागद्वेषरहिततया सोढव्याइत्यर्थः । द्वाविंशतिः परीषदाः । देवादिकता उपसर्गायध्यास्यंते यदर्थमेताडु कराः क्रियाः क्रियते तमर्थ सम्यक् ज्ञानदर्शनचारित्राख्यमाराध्य चरमरुवासनिःश्वासैः प्रांतसमयं यावदित्यर्थः । ततोऽनंतमनुत्तरं निर्व्याघातं प्रतिपूर्ण केवलवरज्ञान दर्शनमा मु वंति ततः सित्ध्यंति मोदमानुवंतीति ॥ ७३ ॥ ॥ टीका - पुनरन्येन प्रकारेण साधुगुणान् दर्शयितुमाह । (सेजहेत्यादि) तद्यथानाम केचनोत्तम संहननधृतिबलोपेतायनगारानगवंतोनवंतीति । ते पंचनिः समितिनिः समि ताः । एवमित्युपदर्शने । औपपातिकमाचारांग संबंधि प्रथममुपांगं । तत्र साधुगुणाः प्रबंधे न व्यव तदिहापि तेनैव क्रमेण इष्टव्यमित्यतिदेशः । यावद्धूतमपनीतं केशश्मश्रुलोम नखादिकं यैस्ते तथा सर्वगात्र परिकर्मविप्रमुक्ता निष्प्रतिकर्मशरीरास्तिष्ठतीति ॥ ७० ॥ ७१ ॥ ७२ तेचो विहारिणः प्रव्रज्यामनुपालय, बाधारूपे रोगातंके समुत्पन्नेऽनुत्पन्ने वा नक्तप्रत्याख्या नं विदधति । किंबहुनोक्तेन यत्कृतेऽयमयोगोलकवन्निरास्वादः करवालधारामार्गवद्दुरध्य वसायः श्रमणनावोऽनुपाल्यते तमर्थ सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राख्यमाराध्य व्याहतमनं तं मोक्षकारणं केवलज्ञानमाप्नुवंति केवलज्ञानावाप्तेरूर्ध्वं सर्वदुःखविमोक्षलक्षणं मोद मवानुवंतीति ॥ ७३ ॥ एगच्चाए पुराएंगे जयंतारो जवंति प्रवरेगंपुण पुवकम्मावसेसेणं कालमा से कालं किच्चान्नरेसु देवलो एस देवताए नववत्तारो भवंति तंजदा म दम्रिए महजुत्तिए महापरिक्कमेसु महाजसेसु महाबलेसु महागुनावे सुमहासुखेसु ते तच देवा जवंति महड़िया मदजुत्तिया जाव महासुखा दारविराश्यवच्चा कडगतुडियथंनियनुया अंगय कुंमल महगंमयल कन्न पीढधारी विचित्तदवानरणा विचित्तमालामन लिमनडा कल्लाणगंधपवर वच परिहिया कल्ला गपवर मल्लापुलेवणधरा नासुरबोंदी पलंबवणमाल धरा दिवेणं रूवेणं दिवेणं वन्नेां दिवेणं गंधेणं दिवे फासेणं दिवेां संघा एवं दिवेणं संाणेणं दिवाए इठिए दिखाए जुत्तीए दिखाए पनाए दिवाए alore fare अच्चाए दिघेणं तेयणं दिवाएं लेसाए दसदिसान नको For Private Personal Use Only Page #797 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रायधनपतसिंघ बादाउरका जैनागम संग्रह भाग उसरा. ७६७ वेमाणा पनासेमाणा गश्कल्लाणा किल्लाणा आगमेसिनदयावि नवंति एसगणे आयरिए जाव सबउरकपहीणमग्गे एगंतसम्मे सुसा दू दोबस्स गणस्स धम्मपरकस्स विनंगे एवमादिए ॥४॥ अर्थ-(एगचाए के०) एम को एक पुरुष (पुणे के० ) वली (एगे के ) एक ज शरीरें एटले तेज एक नवमां (नयंतारोनवंति के ० ) सिदिगति गामि होय. (थ वरेपुण के०) अपर एटले बीजा वली (पुचकम्मवसेसेणं के०) जेने पूर्वस्त कर्म अ वशेष रह्यां होय तो तेवा पुरुष (कालमासेकालं किच्चा के० ) कालने अवसरें काल क रीने (अन्नयरेसु के०) अन्यत्र ( देवलोएसु के० ) देवलोकने विषे ( देवताएउववत्तारो नवंति के०) देव पणे उपजनार थाय (तंजहा के० ) ते देवलोक केवा होय तेकडे (महडिएसु के०) महर्दिक महोटी शधिना धणी, (महजुत्तिएसु के०) महाद्युति वान, (महापरिक्कमेसु के०) महोटा पराक्रम वाला, (महाजसेसु के) महोटा यश ना धणी, (महाबलेसु के०) महोटा बलवान, (महापुनावेसु के० ) महोटा अतिश यवान एवा महानुनाव वैक्रियादिक शक्तियें करीसहित होय. (महासुखेसु के०)महोटा सुखना धणी, एटला वाना जेस्थानकने विषेले (तेतबदेवानवंति के.) ते त्यां देवता पणे होय, ते देवता केवा होय. ते कहेले. महोटी रुक्ष्यिादिक गुणे सहित यावत् महो टां सुख सहित (दार विराश्यवहा के०) हारें करी विराजित शोनायमान, हृदय कमल जेनां वली (कडगतुडियर्थनियनूया अंगयं के० ) कटक, केयूर, अंगदादिकें करी स्तंनित नुजा जेनी, वली देदीप्यमान (कुंमलमगंमयल के०) कुंमलें करी - घसायेला एवा गालना तट जेणे शोनित कस्याले (कन्नपीढधारी के०) कुंमलना प्राधार माटें कान माटे कर्णपीठ धारी कह्या अथवा कर्णपीते काननुं बाजरण विशेष जाणवू. ते पानी कुंमल, तेना धरनारा. (विचित्तहबानरणा के०) विचित्रप्रकारना मुदि क आनरण जेना हाथमा रहेलांडे तेरोकरीसहित (विचित्तमालामनलिमनडाके) वि चित्र प्रकारनी माला सहित मुकुटना धरनार, (कनाणगंधपवरवबपरिहिया के०) कल्या णकारी सुगंधित वस्त्रना पेरनार, तथा (कनाणगपवरमन्नापुलेवणधरा के० ) कल्याण कारी प्रवर माल्य विलेपनना धरनार, (नासुरबोंदीपलंबवणमालधरा के० ) देदीप्य मान शरीर प्रलंब एवी लटकतिजे वनमाला रूप आनर्ण विशेष, तेना धरनारा, (दि घेणंरूवेणं के०) प्रधान रूपें करी सहित, (दिवेणंवन्नेणं के०) दिव्य वर्णेकरी सहित, (दिवेणंगंधेणं के०) दिव्य गंधे करी सहित, (दिवेणंफासेणंके०) दिव्य स्पर्श करी सहि त, (दिवेणंसंघाएणं के० ) दिव्य शरीरनो संघातन समुदाय तेणे करी सहित, (दिवेणं Page #798 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७६ द्वितीये सूत्रकृतांगे द्वितीयश्रुतस्कंधे द्वितीयाध्ययनं . संठाणेणं के० ) दिव्य संस्थान समचतुरस्र रूप तेणे करी सहित, (दिवाएइडीए के ० ) दिव्य वैमानादिकनी, तेणे करी सहित, ( दिखाए जुत्तीए के० ) दिव्यद्युति एटले प्रधान अन्योन्य नक्तियें करी सहित, ( दिवाएप्पनाए के० ) दिव्य प्रना एटले कांती तथाविध इव्य जोडवाने प्रनावे महात्में करी सहित, ( दिवाएबायाए के० ) दिव्य प्रतिबिंब वा रूपें करी सहित, (दिवाएखच्चाए के०) दिव्य खर्चा, (दिघेतेयां के ० ) प्रधान एवी शरीर की निकलति जे तेजनी ज्वाला तेणे करी सहित, एटले दिव्यतेजें करी सहित (दिवसा एके ० ) अन्यंतरना परिणामरूप शुक्लादिक बेश्यायें करी सहि त था, ( दस दिसा नोवेमाला के० ) प्रधान शरीर माहेली कांतियें करी दशेदिशा ज्वल करता, (पनासेमाला के०) दशेदिशाउने अलंकारता प्रकासता, ( गइक लाला के० ) देवता संबंधिनी गतियें करी प्रधान, ( विकल्लाला के० ) देवता संबंधि नी स्थितियें करी कल्याण एटले प्रधान, ( यागमेसिनद्दया विभवंति के० ) प्रागमिक कालें नक प्रधान मनुष्य जव रूप संपदा पामवा यात्री तथा रूडा धर्म प्रतिपत्ति स हित प्रत्यें पामवा श्री श्रागमिक कालें नक कह्यावे. ए स्थानक यार्य याव सर्व 5. थकी रहित थवानो मार्ग एकांत सम्यक्, सत्य, सुसाधुनुं स्थानक बे, एटले बीजुं स्थानक धर्मपनो विचार एम कह्यो . ॥ ७४ ॥ तू || दीपिका - ( एगञ्चाति ) एके पुनरेकयार्चया एकेन शरीरेण एकनवादा मोक्षगंता रः स्युः । एके पुनः पूर्वकर्माविशेषे सति कालं कृत्वाऽन्यतरेषु देवलोकेषु देवतयोत्पद्यते । तद्यथा । महमिहाद्युतिमहा शुक्ल महाबनमहानुभावमहासुखेषु देवजोकेषु । देवास्ते प्येवंभूता इत्याह । महर्द्धिकादयस्तथा हारविराजितवदसः कटकत्रुटितस्तंनितनुजाः अंगद कुंडल घृष्टगंड तलकर्णपीठधरा विचित्रहस्ताभरणाः विचित्रमाजा मुकुलितमुकुटाः परि हितकल्याणप्रवरवस्त्राः कल्याणप्रवरमाल्यानुलेपनधराः (नासुरबोंदी ) नास्वरशरीराः प्रलंबवनमालाधराः ( दिवेांति ) दिविनवं दिव्यं तेन रूपेण यावदिव्यया इव्य श्यया तादशदिशो विद्योततः प्रनासयंतोगत्या देवलोकरूपया कल्याणा: शोजनाः स्थि त्या उत्कृष्टमध्यमया कल्याणा: ( श्रागमेसित्ति ) यागामिनि काले नकाः शोजनमनु ष्यनवं प्राप्ताः स धर्मप्रतिपत्तारः स्युः । तदेतत्स्थानमा साधु श्रेष्ठं । एतद्द्वतीयस्य स्थानस्य धर्मपादिकस्य विनंगो विचारः समाख्यातः ॥ ७४ ॥ ॥ टीका - एके पुनरेकयार्चयैकेन शरीरेणैकस्माद्वा नवात्सिद्धिगतिं गंतारोजवंति यथ ते पुनस्तथाविधपूर्वकर्मशेषे सति तत्कर्मवशगाः कालं कृत्वा वैमानिकेषु देवेषूत्पद्यते तत्रे For Private Personal Use Only Page #799 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राय धनपतसिंघ बादाउरका जैनागम संग्रह नाग उसरा. हए इसामानिकत्रयस्त्रिंशनोकपालपार्षदात्मरदप्रकीर्णेषु नानाविधसमृद्धिषु नवंतीति नवा नियोगिककिदिबषिकादिष्विति । तदेवाह । (तंजहेत्यादि) तद्यथा महादिषु देवलोके त्पद्यते । देवास्त्वेवंतानवंतीति दर्शयति । (तेणंतबदेवा इत्यादि) ते देवानानाविध तपश्चरणोपात्तशुनकर्माणोमहर्यादिगुणोपेतानवंतीत्यादिकः सामान्यगुणवर्णकः। ततो हारविराजितवदसइत्यादिकानरणवस्त्रपुष्पवर्णकः । पुनरतिशयापादनार्थ दिव्यरू पादिप्रतिपादनं चिकीर्षुराह । (दिवेणंरूवेणमित्यादि) दिविनवं दिव्यं तेन रूपेणोपात्ताया वदिव्यया इव्यलेश्ययोपेतादशावि दिशः समुद्योतयंतस्तथा प्रनासयंतोऽलंकुर्वतोगत्या देव लोकरूपया कल्याणाः शोजनागत्या वा शीव्ररूपया प्रशस्तविहायोगतिरूपया वा कल्या णास्तथा स्थित्या उत्कृष्टमध्यमया कल्याणास्ते नवंति तथाऽऽगामिनि काले नकाः शोन नमनुष्यनवरूपसंपऊपेतास्तथा सधर्मप्रतिपत्तारश्च नवंतीति । तदेतत्स्थानमायमेकांतेनैव सम्यग्नूतं सुसाध्विति । एत देतीयस्य स्थानस्य धर्मपादिकस्य विनंगएवमाख्यातः॥७॥ अदावरे तच्चस्स हाणस्स मीसगस्स विनंगे एव मादिङाइ इह खलु पाईणंवा संतेगतिया मएस्सा नवंति तंजहा अप्पिबा अप्पारंना अ प्पपरिग्गा धम्मिया धम्माणुया जाव धम्मेणं चेव वित्तिकप्पेमाणा विदरं ति सुसीला सुवया सुपडियाणंदा साढू एगच्चान पाणावायापडिविर ताजावजीवाए एगच्चा अप्पडिविरया जाव जेयावस्मे तहप्पगारा सावजा अबोदिया कम्मंता परपाणपरितावणकरा कऊंति ततोवि एगच्चाउ अ प्पडिविरया ॥५॥ अर्थ-अथ हवे अपर त्रीजु स्थानक मिश्रपक्क तेनो विचार कहियें बै: यद्यपि ए स्था नक धर्म अधर्मे करीने मिश्रित, तथापि एमां धर्मर्नु बाहुल्य पषु, तेमाटें ए धर्म पहज जाणवो. था जगत् मांहे निश्चें पूर्वादिक दिशिने विष को एक मनुष्य एवा , ते कहेले. अल्प इबावाला, अल्पारंनी एटले थोडेज पारंने व्यापारादिक साथ सं बंधळे जेने, अल्प परिग्रही एटले थोडोज परिग्रह संग्रह करवानी मूळ संबंधि बुद्धि जे जेनी, धर्मानुगामि एटले धर्मजे श्रुत चारित्ररूप तेनीकेडे चालनार, यावत् देश थकी चारित्रने अखंम पालवे करी श्रुतने थाराधवे करी आजीविका करता थका विचरे. न लो ने बाचार जेनो,जला व्रत जेने.सुप्रत्यानंद, साधु एटले सुखसाध्यसाधु, तथा साधु ने विषेज आनंद हर्ष सहित वने, तथा (एगच्चाउपाणावाया के०) एकेक प्राणी जे बे इंडियादिक त्रस जीवो, तेने हवा थकी निवां एवा, तथा एकेक स्थूल Page #800 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 990 द्वितीये सूत्रकृतांगे द्वितीय श्रुतस्कंधे द्वितीयाध्ययनं. प्राणातिपात थकी, अत्यंत पणे विरम्याने विरक्त थयाबे, जाव जीव सुधी एकेक प्राणी जे पृथिव्यादिक द्वार तेने हवा थकीत्यंत विरम्या नथी उसखा नथी, एटले एक सूक्ष्म प्राणातिपात थकी यविरता इत्यादिक सर्वपद, जेवां व्यविरतने घालावे कह्यांबे, तेवां ग्राहीं पण जाणी लेवां, परंतु एटलुं विशेषले जे; एक पढ़ें विरति खने एक पढ़ें अविरति, (जावजेयावर के०) यावत् जेकां खनेरा तथाप्रकारना पूर्वोक्त सावद्य अबो धिनां कारण एवा कर्म रूप व्यापार, बीजा जीवोने परितापना करनार नीपजावीयें, ते aav क पढ़ें विरति ने एक पढ़ें व्यविरति ते विरताविरत कहियें. ॥ ७५ ॥ ॥ दीपिका - प्रथापरस्य तृतीयस्थानकस्य मिश्रकाख्यस्य विनंगः स्वरूपमाख्यायते । ( इहख इत्यादि ) एतच्च यद्यपि मिश्रत्वाधर्माधर्माच्यां युतं नवति तथापि धर्मनूयि ष्ठत्वा धार्मिकपदएवावतरति । यथा बहुषु गुणेषु मध्यपतितोऽल्पदोषोन स्वरूपं जनतेक लंकइव चंडिकायां बहूदकमध्यपतितोमृत्खंडावयवोन जलं कलुषयितुमलं एवमधर्मोपि धर्म, ततोयं मिश्रपकोधर्मप एवेति स्थितं । इह जगति प्राच्या दिदिकु एके शुकर्माणो मनुष्याः स्युः । तद्यथा अल्पेष्ठाः अल्पारं नाधार्मिकवृत्तयः शीलाः सुव्रताः सुप्रत्यानंदाः साधवः स्युः । तेच एकस्मात् स्थूलात् संकल्पकतात्प्राणातिपातान्निवृत्ताः । एकस्माच्च सूक्ष्मादारंनजादप्रतिविरताः । एवं शेषास्यपि व्रतानि वाच्यानि । ( जावजेयावम् ति) ये चान्ये सावद्याः कमरंनास्तेच्यएकस्माद्यंत्रपीडा निलंबन कृषीवलादेर्निवृत्ताः । एकस्माच्च क्रयविक्रयादेरनिवृत्ताः ॥ ७५ ॥ || टीका - प्रथापरस्य तृतीयस्य स्थानस्य मिश्रकाख्यस्य विनंगः समाख्यायते । ( इहखइत्यादि) एतच्च यद्यपि मिश्रत्वामधर्मान्यामुपेतं तथापि धर्मनूयिष्ठत्वादामि कपदएवावतरति । तद्यथा । बहुषु गुणेषु मध्यपतितोदोषोनात्मानं जनते कलंकइव चंडिकायास्तया बहूदक मध्यपतितोमृष्ठ कलावयवोनोदकं कलुषयितुमलं एवमधर्मो पि धर्ममिति स्थितं । धार्मिकपदएवायं । इहास्मिन् जगति प्राच्यादिषु दिक्कु एके केचन कर्माणो मनुष्याजवंतीति । खल्पाः स्तोकाः परिग्रहारंनेष्विवांतःकरणप्रवृत्तिर्येषां ते तथा एवंभूताधार्मिकवृत्तयः प्रायः सुशीलाः सुव्रताः सुप्रत्यानंदाः साधवोजवंतीति । त यैकस्मात् स्थूलात्संकल्पकतात् प्रतिनिवृत्ताएकस्माच्च सूक्ष्मादारंजजादप्रतिनिवृत्ताएवं शे पायपि व्रतानि संयोज्यानि । एतस्मादपि सामान्येन निवृत्ताइत्यतिदिशन्नाह । ( जेयाव इत्यादि) । ये चान्ये सावधानरका दिगमन हेतवः कर्मसमारंनास्तेच्य एकस्माद्यंत्रप डन निर्जीउन रुषीवलादेर्निवृत्ताएकस्माच्च क्रयविक्रयादेर निवृत्ताइति ॥ ७५ ॥ For Private Personal Use Only Page #801 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रायधनपतसिंघ बादाउरका जैनागम संग्रह नाग उसरा. १ से जदा णामएसमणोवासगा नवंति अनिगयजीवाजीवा नवलपुलपा वा आसवसंवरवेयणाणिकरा किरियादिगरणबंधमोरककुसला असते ऊ देवासुरनागसुकन्नजरकरकसकिन्नरकिपुरिसगरुलगंधवमहोरगाइए हिं देवगणेहिं निग्गंथान पावयणा अणकमणिजाणमे निग्गंये पा वयणे हिस्संकिया णिकंखिया निवितिगिबा लचधा गहीया पुब्यिक्ष विणिबिया अनिगया अधिमिंजपेम्माणुरागरत्ता अयमानसो नि ग्गंथे पावयणे अयं परम सेसे अपडे नसियफलिदा अवगुयज्वा रा अचियत्तं तेरपरघरपवेसा चानदसध्मुद्दिष्पुस्लिमासिणीसुपडिपुन्नं पोसहं सम्म अणुपालेमाणा समणे निग्गंथे फासुए सणिणं असण पाणखाइमसामइमेणं वनपडिग्गदकंबलपायपुंबणेणं सहनेसळणं पी उफलगसेजासंथारएणं पडिलानेमाणा बददि सीलवयगुणवेरमणपञ्च काणपोसहोववासेहिं अदापरिग्गदिएहिं तवोकम्महिं अप्पाणं नावेमा पा विहरंति ॥॥ तेणं एयारूवेणं विदारेणं विहरमाणा बदुईवासाई समणोवासगपरियागं पानणंति पानणं तित्ता आबादंसि नप्पन्न सिवा अ णुप्पन्नंसिवा बढुई नत्ताईअणसणाए पच्चकाए बढुनत्ताइ अणसणाए पञ्चकाएत्ता बदुई नत्ताई अणसणाए बेदे बदुई नत्ताई अणासणाए बेदेश्त्ता आलोश्यपडिकंता समाहिपत्ता कालमासे कालं किच्चा अन्न यरेसु देवलोएसु देवताए ग्ववतारोनवंति तंजदा महड्डिएसु मदड इएसु जाव महासुखेसु ससं तदेव जाव एसघाणे आयरिए जाव एगं तसम्मे सादू तच्चस्स ाणस्स मिस्सगस्स विनंगेएवं आदिए ॥७॥ अर्थ-वली विशेष कहियेये. ते यथा दृष्टांते नाम एवी संभावनायें जेम को एक उत्तम पुरुष, विशिष्ट उपदेश सानवालवाने अर्थ (समणोवासगानवंति के०) श्रमणो पासकनो धर्म सेवन करे, ते श्रमणोपासक विशेषतः धर्मना करनार जाणवा, ते श्रम णोपासकना लक्षण कहेले. (अनिगय के०) अनिगत एटले उत्तख्याने जाण्याने (जी वाजीवा के जीव जे चेतन लहाण रूप, अने अजीव जे चेतनरहित, एटले जीवा जीवना उलखनार, तथा ( उवलपुरमपावा के० ) गुन प्रकृतिरूपजे पुस्य, अने अशु Page #802 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७२ तिीये सूत्रकृतांगे वितीय श्रुतस्कंधे वितीयाध्ययनं. न प्रकतिरूपजे पाप, तेना स्वरूपने उपलब्ध एटले पाम्याने, तथा (आसव के० ) आश्रव ते शुनागुनकर्मनुं श्राव, अने (संवर के०) संवर ते धावता कर्मनुं रोक संवर, तथा (वेयणा के० ) वेदना ते साता असातारूप बे प्रकारनी, (णिकराके०) निर्जराते कर्मनुं खपाव, (किरियाहिगरण के०) क्रियायधिकरण एटले घर, हाट, खज, कटारी, उखल,मुसल थकी कर्म बंधाय ते, (बंधके०) बंध चार प्रकारना तथा (मोरकके०) कर्म थकी मूकाव ते जाणवाने विषे (कुसला के०) माह्याने, (यस हेज के०) को कष्ट पड्या थकी देवादिकनी सहायतानी वांडा न करे सहायरहित धर्मना करनार होय. ( देवासुरनागसुवनजस्कररकसकिन्नरकिंपुरिसगरुलगंधवमहोरगाइए हिंके०) तथा देव एटले वैमानिक देवो, असुर एटले असुर कुमार नवनवासी देवो, नाग कुमार, सुवर्ण कुमार, यद, राक्षस, किंन्नर, किंपुरिस, अश्वमुख गरुड, गंधर्व, म दोरगादिक, ( देवगणेहिं के) इत्यादिक देवताना समूह ते, (निग्गंथापावयणा के०) निग्रंथना एटले नगवंतना प्रवचन थकी तेने (थक्कमणिका के० ) च लावी नशके, मोलवी नशके. (णमेनिग्गंथेपावयणेणिस्संकिया के०) तथा ए निग्रंथना प्रवचनने विषे निःशंकित एटले संदेहरहित होय, एटले जे श्रीवीतराग बोल्या तेज सत्य के एम जाणे. ( णिकं खियाके० ) सूत्र बोडी बीजु शास्त्र वांडे नही, (निवितिगिला के ) धर्मना फलने विष संदेहरहित होय, तथा सूत्रोक्त साधुना मार्गने विषे उगहारहित होय, (लहा के०) सूत्रसांजलवा थकी लाधाडे सूत्रना अर्थ जेने,(गहोयहा के०) धारणायें करी ग्रह्याने अर्थ जेणे, (पुलिया के० ) संशय उत्पन्न थया थकी पूबीने खरा कस्याने अर्थ जेणे, (विपिडिया के०) वारंवार विशेषे पूबीने निश्चित कस्याले अर्थ जेणे, (अनिगया के०) प्राप्त थयेला अर्थने पूज्या पड़ी, निर्णय करी धाखाने अर्थ जेणे, एटले प्रकारे तत्वार्थना जाण, (अहिमिंजपेम्मा पुरागरत्ता के० ) अस्थि अने हाड मांहेली मिंजा जे धातु विशेष ते जगवंतना सिमां तरूप कसंबादिकने विषे प्रेमरूप रागें करी रंगाणाने एटले रागरक्तने, तथा पांच माहे मच्या थका एवी धर्मनी कथा कहे के, (अयमानसो के) अहो बायुष्यमंतो! (निग्गं थेपावयणेके०) निग्रंथ एटले साधु संबंधिजे प्रवचन सिद्धांत ने (अयंपरमठेके० ) एज आत्माने अर्थे उत्कृष्ट मोद साधन रूप मार्ग. (सेसेषण के०) अने शेष बीजा कपिलादिकना ग्रंथ, तथा धनधान्यादिक पुत्रकलत्रादिक ए सद् अनर्थ कारीने, ए सर्व असार एवोजे या संसार तेनी दिनां कारण रूपले. एवी कथा करे, एरीतें नियंथना प्रवचनने विषे रागी, (नसियफलिहा के०) निर्मल स्फाटिकना जेवू चित्त जेजें, (अवगुयज्वारा के०) जेना घरना बारथा नोगल रहित एटले सर्व काल उघाडा , Page #803 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रायधनपतसिंघ बादाडुरका जैनागम संग्रह नाग दुसरा. ७७३ (चियत्ततेवरपरघरपवेसा के ० ) राजाना अंतःपुरनी पेठें लोकना घरने विषे प्रवेश क रवानो जेणे त्याग करचोबे, अथवा प्रीतिकारि बे परदर्शनादिकना घरने विषे प्रवेश जेनो, एतावता परतीर्थिकने पर घर जाणीने, घणा मजबूत कारणो विना, तेमने घरे न जाय, तथा (चाउदसमुद्दिन के० ) चतुर्दशी, अष्टमी, अने उद्दिष्टा एटजे महाकल्या कि तिथि ( मासिणीसु के० ) पूर्णिमा चतुर्मासिक तिथि, एटला दिवसोने विषे (पडिपुन्नंपोस हंस मंत्र पालेमाया के० ) प्रतिपूर्ण पोसहने सम्यक् प्रकारें पालता थका विचरे. वली ते श्रावक कहेवाळे तोके, ( समो निग्गंथे के० ) श्रमण तपस्वी निग्रंथने (फासुएसपिएं के०) प्राशुक एटले निर्जीव एषणीक, एटले बहेंतालीश दो रहित एवो ( सण पाणखाइमसाइमेां के ० ) अशन, पान, खादिम, स्वादिम, (वषप डिग्गहकंबल पाय पुंणं के०) तथा वस्त्र, पात्र, कंबल, पाय पुंढण, (सह ने सके ांके ० ) औषध, नैषज्य, (पीठफलग सेता संथारएणं पडिलानेमाला के० ) पीठ, फलक, शय्या, संथारो तेणेकरी प्रतिजानता थका, (बहुहिंसीलवयगुणवेरमणपच्चरका पोस होववासे हिं के०) घणां एक शीलव्रत तथा शीलते गुनाचार, तथा स्थूल प्राणातिपात, वेरमणादिक गुण व्रत ते देशतादिक योग्य पणे लीवेला, तथा नवकारसी पोरसी प्रमुख पच्चरका ना करनार, तथा पौषध सहित उपवासना करनार, (हापरिग्गहिएहिं के० ) तथा यथा परिग्रहित एटले पोतानी इवा माफक खादखावे जेणे; ते गुं खादयावे? तोके (तवोक मेहिं के०) तप कर्म, तेणे कर, (पानावेमाणा विहरंति के ० ) पोताना यात्मानें ना वता का विचरे ॥ ७६ ॥ (तेएयारुवेणं विहारेणं विहरमाणा के०) ते एतद्रूप पणे एटले एवा पूर्वोक्त श्रावकने खाचारें प्रवर्त्तता थका, ( बडुवालाई के०) घणा वर्ष सुधी (स मोवासपरियागं के० ) श्रमणोपासकना पर्यायने ( पानांति के० ) पाले, ( पाउ तित्ता० ) पालीने (याबादसिनप्पन्नं सिवा के० ) रोगादिक खाबाधा उपनी, (अ गुप्पन्नं सिवा के ० ) अथवा अनुत्पन्न एटले नवपनी बते ( बहुरंनत्ताई के ० ) घणा जात पाणीनो (असणाएपञ्चरकाए के० ) अनशनपञ्चरके ( पञ्चरका एता के० ) एम घणा नक्त पाननो अनशन पच्चरिकने ( बहुरंनत्ता इंत्र सणाबेद के० ) ते अनशनने विषे घणा नक्त पानने बेदे, एटले परिहरे. ( बेदेइत्ता के० ) बेदी एटले परिहरीने, घ यादिवस अनशन पालीने ( खालोश्यप डिक्कंता के० ) खालोचे पडिकमे एटले जे पाप लागां होय, ते अरिहंतादिक खागल प्रकाशीने तेनां मिथ्या दुष्कृतादिक खापीने (समाहि पत्ता के०) ज्ञानादिकनी निर्व्याघात पणे समाधि पामिने एटले पडिकमीने समाधि प्राप्त थइने, मरना अवसरें काल करीने एटले समाधि मरण करीने अनेरा देवलोकने विषे देवता पणे उपजनार थाय. ते कहेबे, महोटी द्धिबे वैमानिकादिकनी तेने विषे, मदो U For Private Personal Use Only Page #804 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७७४ वितीये सूत्रकृतांगे वितीय श्रुतस्कंधे वितीयाध्ययनं. टा द्युतिने विषे, यावत् घणा सुख तेने विष, इत्यादिक शेष बोल पूर्ववत् एटले तेमज जावा. ज्यांसुधी एवं स्थानक थार्य एटले धर्मपद साधुनुं कह्यु. यावत् एकांत सम्यक्त्व मार्ग साधु त्यांसुधीनो बालावो बधो केवो. ए त्रीजुं स्थानक जे मिश्रपद तेनुं विचार स्वरूप कडुं. एटले धर्म पद, अधर्मपद, अने मिश्रपद, ए त्रणे पद कह्या.॥ ७ ॥ ॥ दीपिका-तान् विशेषताह । (सेजहत्ति) तद्यथा श्रमणोपासकायधिगतजीवा जीवाउपलब्धपुण्यपापाः । इह प्रायः सूत्रादर्शेषु नानाविधानि सूत्राणि दृश्यते । टीका नुगतं सूत्रंतु प्रायोन दृश्यते । परं श्ममेवादर्शमंगीकृत्य मया विवरणं क्रियते इति सूत्रांत रविसंवाददर्शनान्न व्यामोहोविधेयइति । तेच श्रावकाथाश्रवसंवरवेदनानिर्जराक्रियाधि करणबंधमोदकुशलाः (असहेजत्ति) असहायाअपि देवासुरादिनि. ग्रंथात्प्रवचनमताद नतिक्रमणीयाधकंपनीयाः (णमेत्ति) अस्मिन्नेव नैथे प्रवचने निःशंकितानिःका का निर्विचिकित्सालब्धार्थागृहीतार्थाविनिश्चितार्थायधिगतार्था (अस्थिमिजा) अस्थिम ध्यं यावत्प्रेमानुरागरक्ताः दर्शनेत्यंत नावितमतयश्त्यर्थः । यत्रार्थ कथानकं । राजगृहे कश्चित्परिव्राजको विद्यासिझोयांयां स्त्रियं रम्यां पश्यति तांतामपहरति ततोलोकैर्नृपाय वि ज्ञप्तं राज्ञोक्तं गलत स्वस्थानं यूयं सुखं तिष्ठत अहं तं उरात्मानं यदि पंचर्दिनैर्नलने त दा वन्दो प्रविशामि । गतानागरिकाः स्थानं राज्ञा धारदकास्तदन्वेषणाय नियुक्ताः स्वयं च खडपाणिभ्रंमति नृपः। नचोपलन्यते चौरस्ततः पंचम दिने तांबूलपुष्पादि गृपहन रा त्रौ नृपेण दृष्टः परिव्राट् तत्पष्ठगामिना राझा नगरोद्यानवृदकोटरप्रवेशेन गुहान्यंतरे प्र विश्य हतः सः । ततः समर्पितं यचनं यस्य सत्कं स्त्रियोपि।तत्रैका कामिनी अत्यंतमो षधै वितानेजति स्वपतिमपि ततः प्राहरुक्तं अस्याश्चौरास्थीनि दुग्धेन सह संघृष्य य दिदीयंते तदासौ तदायहं मुंचति ततः स्वजनैरेवं कृतं । यथायथा चासौ तदस्थीनि न क्यति तथा स्नेहोयाति सर्वा स्थिपाने च गतः सर्वोपि चौरस्नेहः अनुरक्तानूनिजे नर्तरि। तदेवं यथा सात्यंतं नाविता नेत्यपरं तथा श्रावकाथपि नितरां नाविताः शासने नश क्यंतेऽन्यथाकर्तु अत्यंतं सम्यक्त्वौषधनावितत्वादिति । श्रावकाः किंनूताः । (अयमान सोत्ति ) दमायुष्मन् जैनं शासनं अर्थस्तत्त्वनूतं श्रयमेव परमार्थः शेषोऽनर्थति चिंत यंतः । तथा चतुर्दश्यष्टम्यादिषु प्रतिपूर्ण पोषधं सम्यक्त्वमनुपालयंतः (नसियफलिहत्ति) उब्रितानि स्फाटिकानि चित्तानि येषांते तथा वर्धमानपरिणामाश्त्यर्थः । (अवगुयवार ति) अप्रास्तानि वाराणि येषांते तथा सन्मार्गलाजान्नकुतोपि नयं कुर्वतीत्युद्घाटित वाराः (थचियत्तत्ति ) अचियत्तोऽननिमतोऽतःपुरप्रवेशवत्परगृहप्रवेशोयेषांते तथा श्र मणान्निग्रंथान प्रामुकेनैषणीयेन अशनादिना वस्त्रप्रतिग्रहकंबलपादपुंबनेन योषधनेषजे Page #805 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राय धनपतसिंघ बादाउरका जैनागम संग्रह नाग उसरा. जय न पीठफलकशय्यासंस्तारकेण प्रतिलानयंतोबहूनि । शीलवतगुणविरमणप्रत्याख्यानपौष धोपवासैर्यथा परिगृहीतैस्तपःकर्मनिरात्मानं जावयंतस्तिष्ठति ॥७६॥(तेणंति) ते श्रमणोपा सकाएतद्रूपेण विहारेण विहरमाणाबदूनि वर्षाणि श्रमणोपासकं पर्यायं प्रपाल्य रोगातं के समुत्पन्नेऽनुत्पन्ने वा नक्तं प्रत्याख्याय स्वायुःदये देवेषुत्पद्यते ततोपि च्युताः सुमानुष नवं प्राप्य तेनैव नवेनोत्कृष्टतः सप्तसु अष्टसु वा नवेषु सिध्यति । तदेवं स्थानमार्य तृ तीयस्य स्थानस्यार्य विनंगोविचारधारख्यातः ॥ ७ ॥ ॥ टीका-तांश्च विशेषतोदर्शयितुमाह (सेजहेत्यादि) विशिष्टोपदेशार्थ श्रमणानुपास ते सेवंतति श्रमणोपासकास्तेच श्रमणोपासनतोऽनिगतजीवाजीवस्वनावास्तथोपलब्धपु ख्यपापाः । इह च प्रायः सूत्रादर्शेषु नानाविधानि सूत्राणि दृश्यंते न टीकासंवाद्यकोप्यस्मा निरादर्शः समुपलब्धोतएकमादर्शमंगीकृत्यास्मानिर्विवरणं क्रियते इत्येतदवगम्य सूत्रवि संवाददर्शना चित्तव्यामोहोविधेयइति । ते श्रावकाः परिझातबंधमोदस्वरूपाः संतोन धर्मा स्याव्यंते मेरुरिव निष्प्रकंपादृढमाईते दर्शनेऽनुरक्ताः । अत्र चार्थे सुखप्रतिपत्त्यर्थ दृष्टांत नूतं कथानकं । तच्चेदं । तद्यथा राजगृहे नगरे कश्चिदेकः परिबाट विद्यामंत्रौषधिलब्ध सामर्थ्यः परिवसति सच विद्यादिबलेन पत्तने पर्यटन यां यामनिरूपतरामंगनां पश्यति तो तामपहरति ततः सर्वनागरैराझे निवेदितं । यथा देव! प्रत्यहं पत्तनं मुष्यते केनापि नीयते सर्वसारमंगनाजनोपि यस्तस्याननिमतःसोऽत्र केवलमास्ते । तदेवं क्रियतां प्रसादस्तदन्वे षणेनेति ।राशानिहितं गलत यूर्य विश्रब्धानवतावश्यमहं तं उरात्मानं लप्स्ये । किंचय दिपंचषैरहोनिन लने चौरं विमर्षयुक्तोपि च त्यक्ष्याम्यात्मानमहं ज्वालामालाकुले वन्ही तदेवं कृतप्रतिज्ञराजानं प्रणम्य निर्गतानागरिकाः । राज्ञा च सविशेष नियुक्ताधारक्षकाः। यात्मनाप्येकाकी खडखेटकसमेतोन्वेष्टुमारब्धोन चोपलभ्यते चौरस्ततोराशा निपुणतरम न्वेषता पंचमेऽहनि जोजनतांबूलगंधमाल्यादिकं गृहन् रात्रौ स्वतोनिर्गतेनोपलब्धः सपरिवाट तत्पृष्ठगामिना नगरोद्यानवृक्कोटरप्रवेशेन गुहाज्यंतरं प्रविश्य व्यापादितस्त दनंतरं समर्पित यद्यस्य सत्कमंगनाजनोपीति । तत्र चैका सीमंतिनी अत्यंतमौषधिना विता नेत्यात्मीयमपि नर्तारं ततस्तविनिरनिहितं यथाऽस्याः परिव्राटसक्तान्यस्थीनि पुग्धेन सह संघृष्य यदि दीयते तदेयं तदायहं मुंचति ततस्तत्वजनैरेवमेव कृतं यथा यथा चासौ तदस्थ्यन्यवहारं विधत्ते तथातथा तत्स्नेहानुबंधोऽपैति सर्वास्थिपाने चापगतः प्रेमानुबंधस्तदनुरक्ता निजे नर्तरि । तदेवं यासावत्यंत तेन परिव्राजा नेत्यपरमेवं श्रावक जनोपीति नितरां नावितात्मा मौनीशासने न शक्यते अन्यथाकर्तुमत्यंत सम्यक्त्वौषधे न वासिसत्वादिति । पुनरपि श्रावकान् विशिनष्टि (जावनसियफलिहाश्त्यादि) उदिता Page #806 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६ द्वितीये सूत्रकृतांगे द्वितीय श्रुतस्कंधे द्वितीयाध्ययनं. नि स्फाटिकानीव स्फाटिकानि अंतःकरणानि येषांते तथा । एतडुक्तं नवति । मौनींद नावातौ सत्यां परितुष्टमानसाइति । तथा अप्रावृतानि द्वाराणि यैस्ते तथा उद्घाटित गृह द्वारा स्तिष्ठति सद्दर्शनलानेन न कस्यचिद्विच्यति शोजनमार्गपरिग्रहे नोद्घाटितशिरसो विश्रब्धं तिष्ठतीति चिंतयन्तोऽननिमतोंऽतःपुरप्रवेशवत्परगृह प्रवेशोऽन्यतीर्थिकप्र शोयेषां ते तथा अनवरतं श्रमानुद्युक्तविहारिणोनिग्रंथान् प्रासुकेनैषणीयेनाशनादिना तथा पीठफलकशय्या संस्तारका दिनाच प्रतिलानयंतस्तथा बहूनि वर्षाणि शीलव्रत गुणवत प्रत्याख्यान पोषधोपवासैरात्मानं नावयंतस्तिष्ठति ॥ ७६ ॥ तदेव ते परम श्रावकाः प्रनूतकाल मणुव्रत शिक्षाव्रतानुष्ठायिनः साधूनामौषधवस्त्र पात्रादिनोपकारिणः संतोयथोक्तं यथाशक्ति सदनुष्ठानं विधायोत्पन्ने वा कारणेऽनुत्पन्नेवा नक्तं प्रत्याख्यायालोचितप्रतिक्रांताः समाधि प्राप्ताः संतः कालमासे कालं कृत्वाऽन्यतरेषु देवेषूत्पद्यंत इति । एतानि चानिगतजीवाजी वादिकानि पदानि हेतुहेतुमद्भावेन नेतव्यानि । तद्यथा यस्मादनिगतजीवास्तस्माडुपल ब्धपुष्यपापाः । यस्माडुपलब्धपुष्य पापास्तस्माडुब्रितमनसः । एवमुत्तरत्रापि एकैकं पदंत्य जनिरेकैकं चोत्तरं गृह निर्वाच्यं । तेच परेण ष्टष्टाष्टष्टवाएतदूचुः । तद्यथाऽयमेव मौ नोकोमार्गः सदर्थः । शेषस्त्वनर्थोयस्मादेवं प्रतिपद्यते तस्मात्ते समुद्रितमनसः संतः साधुधर्म श्रावकधर्मे च प्रकाशयंतो विशेषे वैकादशोपासक प्रतिमाः स्पृशं तो विदुरंतोऽष्टमीच तुर्दश्यादिषु पोषधोपवासादौ साधून प्रासुकेन प्रतिजानयंति पाश्चात्ये च कालेसं निखि तकायाः संस्तारक श्रमणनावं प्रतिपद्य नक्तं प्रत्याख्यायायुषः दये देवेषूत्पद्यते । ततोपि च्युताः सुमानुषनावं प्रतिपद्य तेनैव नवेनोत्कृष्टतः सप्तस्वष्टसु नवेषु सित्ध्यंतीति । तदे तत्स्थानं कल्याणपरंपरया सुखविपाकमिति कृत्वाऽर्थमिति । अयं विनंगस्तृतीयस्य स्थानस्य मिश्रकारख्यस्याख्यातइति ॥ ७७ ॥ विर पडुच्च बाले प्रादिकर विरइं पडुच्च पंमिए आदि विरया विरई पडुच्च बालं पंमिए च्यादि तब जसा सवतो विरइ एसा णे आरंमाणे अपारिए जाव प्रसवः खप्पढ़ी मग्गे एगंतमिचे साहू तचणं जसा सव्वताविरइ एसाणे प्रारंभ ठाणे आरिए जा व सब कप्पदी मग्गे एगंत सम्मे साढू तचणं जासा सब विरया वि रई एसठाणे आरंभणोरंजाणे एसठाणे आरिए जाव सबडकप्पदी मग्गे एगंत सम्मे सादू ॥ ७८ ॥ अर्थ - हवे एणे स्थानकनें संक्षेपें करी सविशेष कहे. (यविर पडुञ्च के० ) For Private Personal Use Only Page #807 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रायधनपतासंघ बादाडुरका जैनागम संग्रह नाग दुसरा: งงง विरति एटले संयम ते खाहीं सम्यक्त्वने बनावें जोपण मिथ्यादृष्टिनी विरतिबे, तोप एतेने विरति कवाय; ते यविरति याश्री तेने ( बालेखा हिकइ के०) बाल कहि यें, (विरई पडुञ्चपं मिया हि के०) ने विरति एटले सावद्य परित्यागरूप ते श्राश्री तेने पंति परमार्थनो जाए कहियें, ( विरयाविर पडुच बालपं मिए या हिइ के० ) त था विरताविरत एटले कांइक संयम कांइक असंयम ते याश्री तेने बाल पंमित कहियें, (तब पंजासासवतोय विरइ के०) त्यां पूर्वोक्त त्रण स्थानकने विषे जे सर्व थकी अविरत स्थानकले एटले मां सर्वथा विरति परिणामनो अनावले. (एसठाणे के ० ) ए स्थानक ते ( रंनहा के ० ) खरंजनुं स्थानक, ( प्रणारिए के० ) अनार्य, ( जावासवडुरकप्प feer ho ) यावत् सर्व दुःख थकी मूकाववानो मार्ग नथी. ( एगंतमिवेधसाहु के०) एकांत मिथ्यात्व मार्ग असाधु एट्ले एसारो मार्ग नहीं. हवे बीजुं धर्मपानुं स्थानक कहे. (तब पंजासासवता विरइ के० ) त्यां जे सर्व थकी विरति सम्यक् पूर्वक प्रारं परित्यागरूप (एसठाणे के ० ) एस्थानक ( प्र णारंहाणे के ० ) अनारंजनुं स्थानक ( are ho ) श्रार्य, ( जावसवरकप्प ही मग्गे के० ) यावत् सर्व दुःख थकी मुका ववान मार्ग, ( एगंत सम्मेसादु के० ) एकांत सम्यक्त्व साधु मार्ग जाणवो. हवे त्रीजुं मिश्रपनुं स्थानक कहेबे . ( तब पंजासासवड विरया विरइएस ठाणे या रंन पोरंन ठाणे के ० ) त्यां सर्व कविताविरत एटले संयमासंयमरूप स्थानक ते प्रारंभ ने अनारंज रूप स्थानक जाणवुं. (एसहाणे के० ) ए स्थानक ( खारिए के० ) श्रार्य यावत् सर्व दुःख थकी मूकाववानो मार्ग एकांत सम्यक् नलो मार्ग जावो. ॥ ७८ ॥ ॥ दीपिका - प्रथेदं पत्रयमुपसंहरन् संक्षेपतोव क्ति । य विरतिं प्रतीत्याश्रित्य बातया धीयते स्थाप्यते विरतिमाश्रित्य बालपंडितइत्युच्यते । तत्र वा अविरतिः । एतत् स्थानं यावन्नायं सर्वडुःखयमार्गः किंतु ? एकांत मिथ्यात्वमार्गोऽसाधुः । तत्र या सर्वविरतिः एतत्स्थानमनारंनस्थानं श्रार्य यावदयं सर्वडुःखक्ष्यमार्गः साधुः शोभनः । या सर्वतो विरताविरतिः । इदं स्थानमारंनानारंनस्थानं । इदमपि स्थानमार्य परंपरया सर्वडुःख यमार्गः एकांतः सम्यक् साधुः ॥ ७८ ॥ ॥ टीका - नक्ता धार्मिकाव्यधार्मिकास्तडुनयरूपाश्च निहिताः । सांप्रतमेतदेव स्थान त्रिकमु पसंहारद्वारेण संक्षेपतोबिन लिपुराह । ( विरइत्यादि) येयमविरतिरसंयमरूपा स म्यक्त्वानावान्मिथ्यादृष्टे ईव्य तो विर तिरप्यविरतिरेव तां प्रतीत्याश्रित्य बालवद्दालोऽज्ञः सद सवेक विकत्वात् इत्येवमाधीयते व्यवस्थाप्यते व्याख्यायते वा तथा विरतिं चाश्रित्य ९८ For Private Personal Use Only Page #808 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 996 द्वितीये सूत्रकृतांगे द्वितीय श्रुतस्कंधे द्वितीयाध्ययनं. प्रतीत्य पापानीनः पंडितः परमार्थज्ञोवेत्येवमाधीयते व्याख्यायते तथा विरताविरतिं चा श्रित्य बालपंमितइत्येतत्प्राग्वदायोज्यमिति । किमित्यविरति विरत्याश्रयेण बालपांमित्या पत्तिरित्याशंक्याह । तत्यणमित्यादि । तत्र पूर्वोक्तेषु येयं सर्वात्मना सर्वस्मात् य विरति विरतिपरिणामानावः । एतत्स्थानं सावद्यारंभस्थानमाश्रयस्तदाश्रित्य सर्वास्यपि कार्याणि क्रियते । यतएवमतएतदनार्यस्थानं निःशुकतया यत्किंचन कारित्वाद्यावदसर्वडुःखप्रदीप मार्गोयं तथैकांत मिय्यारूपोसाधुरिति । तत्र चेयं विरतिः सम्यक्त्वापूर्विका सावद्यारंजा निवृत्तिः सावधानुष्ठानरहितत्वात्संयमस्थानं तत्र चैतत्स्थानमार्यस्थानं । श्राराघातं स धर्मे त्या तथा सर्वडुःखप्रदीप मार्गोऽशेषकर्मत्यपथस्तथैकांतः सम्यग्नूतः । एतदेवाह । साधुरिति । साधुनूतानुष्ठानात्साधुरिति । तत्रच येयं विरताविरतिर निधीयते सैव मिश्रस्याननूता तदेव तदारंनरूपस्थानमेतदपि कथंचिदार्यमेवं पारंपर्ये सर्वदुःख प्रहीणमार्गस्तथैकांतसम्यग्नूतः साधुश्चेति तदेवमनेकविधोयमधर्मपत्ोधर्मपचस्तथा मि श्रपश्चेति संदेपेणानिहितपत्रयसमाश्रयणेन ॥७८॥ एवमेव समणगम्ममाणा इमेदिं चैव दोहिं गणेदिं समोच्वतरंति तंज हा धम्मेचेव प्रधम्मेचेव नवसंतेचेव प्रणुवसंतेचेव तचणं जे से पढमा एम्स प्रधम्मपरकस्स विनंगे एवमादिए तस्सणं इमाई तिन्नितेवाई पावाइयसयाई नवंतीति मस्काई तंजढ़ा किरियावाई किरियावाई अन्नाणियवाईणं वेश्यवाई तेवि निवाणमाहंसु तेवि परिमोक मासु तेवि लवंति सावगा तेवि लवंति सावइत्तारो ॥ ७५ ॥ अर्थ - ( एवमेव के० ) प्रकारें ( समयुगम्ममाणा के० ) अन्य बीजा जे मार्ग, अ नेक उन्मार्ग ते सर्व, (इमे हिंचे व दो हिंगणे हिंसमोअवतरंति के० ) ते निवें की ए वे स्थानकने विषे प्रवतरेले समायले. ( तंजहा के० ) ते वे स्थानकनां नाम कहे. (धम्मे चैव धम्मेचेव के०) एक धर्म स्थानक, बीजुं धर्म स्थानक, ( उवसंतेचेवाणु वसंतेचेव के०) 50) एक ज्यां कषायादिक उपशम्याने ते उपशांत स्थानक जाणवुं, ने बीजुं ज्यां कषायादिक उपशम्या नथी ते अनुपशांत स्थानक जारावं. (तबजे से पढमहारास्स अधम्मपरक स्तविनंगे एवमादिए के० ) त्यां ए बेदु स्थानक मांहे प्रथम स्थानक, ते धर्म प, तेनुं स्वरूप विचार एम कहियें. ( तस्सां के० ) ते धर्मपक्ष स्थानक मां (इमाई के ० ) ए ( तिन्नितेवहा पावाडयसयाईनवंतीतिमरका के० ) त्रणने शव प्रावाsक एटले पांखमीना नेद अवतरेबे, एम जगवंतें कह्युंबे. ( तंजदा के० ) For Private Personal Use Only Page #809 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राय धनपतसिंघ बाहारका जैनागम संग्रह नाग इसरा. क. ( किरियावा ईणं के० ) एक क्रियावादी, तेना एकसोने एंशी नेदले. ( कि रियावाई के ) बीजा प्रक्रियावादी तेना चोराशी नेदबे ( अन्नायिवाई के० ) त्रीजा अज्ञानवादी, तेना सडसठ नेदबे ( वेश्यवाई के० ) चोथो विनयवादी, ले ना बत्रीश दवे. एम सर्वे मली त्रणोंने त्रेसठ नेदोवे. ( तेवि निवाणमाहंसु के ० ) ते पण सर्व पोत पोताना मतने धनुरागे निर्वाण एटले मोनो मार्ग कहेले. ( तेवि प रिमो मासु के० ) तेपण कर्म थकी मूकाववानो उपाय कहेबे ( तेविलवंतिसा arro) तेपण कलेके यहो श्रावको ! मे जे धर्म प्ररूपीयें ढैयें ते धर्म तमे खादरो ( ते विजवं तिसावइत्तारो के० ) तेपण कहेने के, श्रमे धर्मना संजलावनारा बैयें. ॥ ७९ ॥ ॥ दीपिका - मिश्रपपि धर्माधर्मयोरेवांतर्भवतीत्याह । एवमेव संक्षेपेण समनुगम्यमा नाव्याख्यायमानाः सम्यगनुगृह्यमाणायनयोरेव धर्माधर्मपदयोरनुपतंति । उपशांत स्थानं धर्मपक्षः अनुपशांतस्थानमधर्मस्थानं ( तब ति ) तत्रच यत्प्रथमस्थानस्याधर्म पदस्य स्थानं तत्रासूनि त्रीणि त्रिषष्ट्यधिकानि प्रावाडुकशतान्यंत नैवंतीत्येवमाख्यातं पूर्वाचार्यैः । तद्यथा । क्रियावादिनः क्रियावादिनः थज्ञानिकवादिनवैनयिकवादि नः । यत्र षष्ठीबहुवचनेनेदमाह । क्रियावादिनामशीत्युत्तरंशतं १८० यक्रियावादि नां चतुरशीतिः ८४ यज्ञानिकानां सप्तषष्टिः ६७ वैनयिकानां द्वात्रिंशत् ३२ सर्वे मि लिताः ३६३ मौलनेदाः । नेदानयने प्रकारश्चायं । जीवाजीवाश्रवसंवर निर्जरापुण्य पापबंधमोक्षरूपान् नव पदार्थान् विन्यस्य जीवपदार्थस्याधः स्वपरनेदौ स्थाप्यो । तयो रोनित्यानित्यदौ तयोरप्यधः काले १ श्वरा २त्म ३ नियति ४ स्वभाव ५ ने दाः पंच स्थाप्याः । ततएवं नेदाः कार्याः । अस्ति जीवः स्वतोनित्यः कालतः १ य स्तिजीवः स्वतो नित्य ईश्वरतः १ एवमात्मनियतिस्वनावैरपि । एवं पंच नेदानित्यपदेन ल धाः । नित्यपदेनापि पंच । एते दश विकल्पाः स्वतःपदेन लब्धाः । एवं दश विकल्पाः पर तः पदेनापि । जाता विंशतिर्जीवपदेन । एवमजीवाद्यष्टपदैरपि विंशतिर्विशतिः स्युः । नवनिर्विशति निश्वाशीत्यधिकं शतं । एते क्रियावा दिनेदाः । न कस्यचित्पदार्थस्य क्रिया सं 1 वति । उत्पत्त्यनंतरमेव विनाशात् । क्षणिकाः सर्वसंस्काराः स्थिराणां कुतः क्रिया इत्यादि ये वदंति तेऽक्रियावादिनः । तेषां भेदाः ८४ । यथा । पुण्यपापवर्जितजीवाजी वादिपदार्थस्य न्यासः । तस्याधः प्रत्येकं स्वपरभेदौ प्रसत्वादात्मनो नित्यानित्य वि कल्पौ स्तः । कालादीनां पंचानामधस्तात्पष्ठी यदृच्वा स्थाप्या । इह यदृब्बावादिनः स प्य क्रियावादिनएव । ततः प्राक् यदृच्छा नोक्ता । ततएवं नेदाः कार्याः । नास्ति जीवः स्वतः कालतः १ नास्तिजीवः स्वतईश्वरतः २ एवमात्मादिनिरपि । एवं षड्जेदाः स्वतः प For Private Personal Use Only Page #810 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Go दितीये सूत्रकृतांगे वितीयश्रुतस्कंधे वितीयाध्ययनं. देन । परतः पदेनापि षट् जाताः १२ एवमजीवादिपदार्थेषु प्रत्येकं १२ ततोहादश स प्तनिर्गुणिताजाताः । एते क्रियावादिनेदाः । अज्ञानिकनेदाः ६७ । यथा । जीवाजी वाद्यानव पदार्थाः स्थाप्यते । नत्पत्तिश्च दशमी नवपदार्थानामधः प्रत्येकं सप्त सत्वाद यः स्थाप्याः । तद्यथा । सत्वं असत्वं सदसत्वं अवाच्यत्वं सदवाच्यत्वं असदवाच्यत्वंस दसदवाच्यत्वं चेति । नवसप्तनिगुणिताजाताः ६३ । नत्पत्तेश्चत्वारएवाद्याविकल्पाः । त द्यथा । सत्वं सदसत्वं अवाच्यत्वं चेति । शेषविकल्पत्रयं तु उत्पत्तेरनंतरं पदार्थावयवापेदं अतनत्पत्तौ न संनवतीति चत्वारएव दास्त्रिषष्टिमध्ये दिप्ताजाताः ६७ । एषामर्थले शोयथा । कोजानाति जीवः सन्नित्येकोनेदः १ कश्चिदपि नजानाति तग्राहकप्रमाणाना वादित्यर्थः । ज्ञातेन वा किं तेन प्रयोजनं । झातस्य कदाग्रहतया परलोकप्रतिपंथित्वात् । एवमसदादयोपि नंगानाव्याः । उत्पत्तिरपि किंसतोऽसतः सदसतोवाच्यस्य वेति कोजा नाति । झातेनवा नकिंचिदपि प्रयोजनं । इत्यज्ञानिकनेदाः । वैनयिकाः३२ । यथा । सुरनृपतियतिझातिस्थविराधममातृपितृरूपेषु अष्टसु स्थानेषु कायेन मनसा वाचा दाने नच देशकालोपपन्नेन विनयः कार्यति चत्वारः कायादयः स्थाप्याः । चत्वारश्चाष्टनि गुणिताजाताः ३२ । एवं सर्वेपि मीलिताजाताः ३६३ परवादिनेदाः । एषां विशेषव्या रख्या प्रथमांगतोञया । ते सर्वे प्रावाकाजैनाश्व निर्वाणं मोदमातुः । तेपि लपंति वदं तिधर्मदेशनां यथा हेश्रावकाः! शएवंतीति श्रावकाः। एवं गृहीत यूयं यथाहं देशयामीति। तथा तेपि धर्मश्रावयितारः संतएवं लपंति तदनेनोपायेन स्वर्गमोदप्राप्तिरिति ॥ ७ ॥ ॥ टीका-सांप्रतमसावपि मिश्रपदोधर्माधर्मसमाश्रयणेनानयोरंतर्वर्ती नवतीति दर्श यति । (एवमेवेत्यादि) एवमेव संदेपेण सम्यगनुगम्यमानाव्याख्यायमानाः सम्यगनु . गृह्यमाणाधनयोरेव धर्माधर्मस्थानयोरनुपतंति । किमिति । यतोयउपशांतस्थानं तर मपक्षस्थानमनुपशांतस्थानमधर्मपदस्थानमिति । तत्रच यदधर्मपादिकं प्रथम स्थानं तत्रामूनि त्रीणि षष्ट्यधिकानि प्रावाङकशतान्यतनवंतीति । एवमाख्यातं पूर्वाचा रिति । एतानि वा सामान्येन दर्शयितुमाह । (तंजहेत्यादि ) तद्यथेत्युपदर्शनार्थः । क्रियां ज्ञा नादिरहितामेकामेव स्वर्गापवर्गसाधनत्वेन वदितुं शीलं येषां ते क्रियावादिनस्ते च दीदा तएव मोदं वदंतीत्येवमादयोश्ष्टव्याइति । तेषांच बहवोच्दास्तथा क्रियां परलोक • साधनत्वेन वदितुं शीलं येषां ते तथा तेषामिति अज्ञानमेव श्रेयश्त्येवं वदितुं शीलं येषां ते नवंत्यज्ञानवादिनस्तेषां तथा विनयएव परलोकसाधने प्रधानं कारणं येषांते तथा तथा तेषामिति । अत्रच सर्वत्र षष्ठीबदुवचनेनेदमाह । तद्यथा क्रियावादिनामशीत्युत्तरश तं यक्रियावादिनां चतुरशीतिरझानिकानां सप्तषष्टिवैनयिकानां वात्रिंशदिति । तत्र सर्वे Page #811 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रायधनपतसिंघ बादाउरका जैनागम संग्रद भाग उसरा. तर प्येते मौलास्तविष्याश्च प्रवदनशीलत्वात्प्रावाउकास्तेषां च नेदसंख्या परिझानोपायथा चारएवानिहितइति नेह प्रतन्यते । ते सर्वेप्याहताश्व परिनिर्वाणमशेषज्ञोपरमरूपव गंधरसस्पर्शस्वनावमनुपचरितपरमार्थस्थानं ब्रह्मपदारख्यमबाधात्मकं परमानंदसुखस्व रूपमादुरुक्तवंतस्तथा तेपि प्रावाङकाः संसारबंधनान्मोचनात्मकं मोदमादुः । पूर्वेण नि रुपाधिकं कार्यमेव निर्वाणारख्यमुक्तमनेन तु तदेव कारणोपाधिकमित्ययं विशेषः । तत्र येषामप्यात्मा नास्ति ज्ञानसंततिवादिनां तेषामपि कर्मसंततेः संसार निबंधननूताया विजे दान्मोदनावाविरोधः । तेषां चोपादानदयादनागतानुत्पत्तेः संततिबेदएव मोक्षः प्रदी पस्येव तैलवर्त्य नावे निर्वाणमिति । तथाचाहुः । न तस्य किंचिनवति न नवत्येव केव लमिति । एतच्च तेषां महामोह विजेंनितं । यतः । कर्म चास्ति फलं चास्ति कर्ता नैवास्ति कर्मणां ॥ संसारमोदवादित्वमहोह्यांध्य विज॑नितमिति ॥ येषां चात्मास्ति सांख्यादीनां तेषां प्रकृतिविकारवियोगोमोक्षः क्षेत्रकस्य पंचविंशतितत्त्वपरिज्ञानादेव विद्यमानैःप्रधानवि कारैर्विमोचनं मोदशति । तेषामप्येकांतनित्यवादितया मोदानावः । एवमन्येपि नैया यिकवैशेषिकादयः संसारानावमिचंतोपि न मुच्यते सम्यग्दर्शनादिकस्योपायस्यानावादि त्यन्यूह्याह । यदि न तेषां मोदः कथं ते लोकस्योपास्यानवंतीत्याशंक्याह । तेपि तीर्थ कालपंति ब्रुवते मोदं प्रति धर्मदेशनां विदधति । शएवंतीति श्रावकाः हेश्रावका! एवं गृही त यूयं यथाहं देशयामि तथा तेऽपि धर्मश्रावयितारः संतएवं लपंति नापंते यथाऽनेनोपा येन स्वर्गमोदावाप्तिरिति तवचनं मिथ्यात्वोपहतबुझ्योवितथमेव गृहंति कूटपण्यदायि नां विपर्यस्तमतयएवेति । तदेवमादितीथिकास्तविष्याश्च पारंपर्येण मिथ्यादर्शनानुनावा त्परान्प्रतारयंति तेपिच तेषां प्रतारयति दुः कथमेते प्रवाउकामिथ्यावादिनोनवंति। त्रोच्यते । यतस्तेप्यहिंसां प्रतिपादयंति नच तां प्रधानमोदांगनूतां सम्यगनुतिष्ठति । कथं सांख्यानां तावज्झानादेव धर्मोन तेषामहिंसाप्राधान्येन व्यवस्थितः किंतु पंचयमाश्त्यादि कोविशेषति । तथा शाक्यानामपि दश कुशलाधर्मपथाथहिंसापि तत्रोक्ता नतु सैव ग रीयसी धर्मसाधनत्वेन तैराश्रिता । वैशेषिकाणामपि अनिसेवनोपवासब्रह्मचर्यगुनकुल वासप्रस्थादानयज्ञादिनदत्रमंत्रकालनियमादृष्टास्तेषु चानिषेचनादिषु पर्यालोच्यमानेषु हिंसैव संपद्यते वैदिकानां हिंसैव गरीयसी धर्मसाधनं यझोपदेशात् तस्य च तयाविनाना वादित्यनिप्रायः । उक्तंच । ध्रुवः प्राणिवधोयझे ॥ ७ ॥ ते सवे पावानया आदिकरा धम्माणं णाणापन्ना पाणाबंदा पाणासीला णाणादिही पाणारुई गाणारंना पाणावसाणसंजुत्ता एगंमदं मंझ लिबंधं किच्चा सवे एगयाचिति ॥०॥ Page #812 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २ दितीये सूत्रकृतांगे वितीयश्रुतस्कंधे वितीयाध्ययनं. ' अर्थ-(तेसवेपावाउयायादिकराधम्माणं के) ते सर्व प्रावामुक एटले पाखंझी पोता ने बंदे धर्मना बादिना करनार कहिये, परंतु ते (गाणापन्ना के० ) नाना प्रकारनी बु दिवाला, (णापाबंदा के०) नाना प्रकारना अनिप्राय वाला, (गाणासीला के०) नानाप्रकारना याचारवाला, (गाणादिही के० ) नाना प्रकारनी दृष्टि वाला, (गाणारु ई के०) नाना प्रकारनी रुची वाला, (णाणारंना के०) नाना प्रकारना आरंजना करनारा, (णाणावसाणसंजुत्ता के०) नाना प्रकारना अध्यवसाय तेणे करीने सहित एवा थका, पोतपोतानुं (एगंमहंमंमलिबंधकिच्चा के०) एक महोटुं मंमल बांधि करीने, एटले पंक्ति करीने, (सत्वेएगयानचिति के०) ते सर्व एकज प्रदेशे तिष्ठंति एटले बेगले. ॥ ७० ॥ ॥दीपिका-ते सर्वे प्रावाकाबादिकराः स्वधर्माणांनानाप्रझानानाबंदानानानिप्रायाना नाविधादृष्टिदर्शनं येषां ते तथा नानाविधा रुचिर्येषां ते तथा नानाविधारंजानानाविधा ध्यवसायसंयुक्ताएकं महांतमंडलिबंधं कृत्वा तिष्टंति ॥७॥ ॥ टीका-तदेवं सर्वप्रावामुकामोदांगनतामहिंसां न प्राधान्ये न प्रतिपद्यंतति दर्शयि तुमाह । (तेसवेश्त्यादि) प्रवदनशीलाः प्रावामुकाः सर्वेपि त्रिषष्टयुत्तरत्रिशतपरिमाणाथ पियादिकरायथा स्वं धर्माणां । येपिच तविष्यास्तेपि सर्वे नानानिन्ना प्रज्ञा ज्ञानं येषांते नानाप्रज्ञाः । आदिकराइत्यनेनेदमाह । स्वरुचिविरचितास्ते नवनादिप्रवाहायाताः । ननु चाहतानामपि आदित्व विशेषणमस्त्येव सत्यमस्ति किंतु अनादिहेतुपरंपरेत्यनादिल मेव तेषांच सर्वप्रणीतागमानाश्रयणान्निबंधनानावस्तदनावाच्च निन्नपरिझानमतएव नानाबंदाः। बंदोऽनिप्रायः । निन्नानिप्रायाइत्यर्थः तथाहि । उत्पादव्ययध्रौव्यात्मके वस्तु नि सारव्यैरेकांतेनावि वतिरोनावाश्रयणादन्वयिनमेव पदार्थ सत्यत्वेनाश्रित्य नित्यप दं समाश्रितास्तथा शाक्याअत्यंतदणिकेषु पूर्वोत्तरनिन्नषु पदार्थेषु सत्सु सएवायमिति प्रत्यनिझा प्रत्ययः सदृशापरापरोत्पत्तिर्वितथानां नवतीत्येतत्पदसमाश्रयणादनित्यपदं समाश्रिताइति । तथा नैयायिकवैशेषिकाः केषांचिदाकाशपरमाएवादीनामेकांतेन नित्य त्वमेव कार्यव्याणांच घटपटादीनामेकांतेनानित्यत्वमेवाश्रिताः। एवमनया दिशाऽन्येपि मीमांसकतापसादयोऽज्यूह्याइति । तथा ते तीथिकानानाशीलं येषां ते तथा शीतं व्रत विशेषः सच जिन्नस्तेषामनुनवसिदएव । तथा नाना दृष्टिदर्शनं येषांते तथा नानारु चिरेषां ते नानारुचयस्तथा नानारूपमध्यवसानमंतःकरणप्रवृत्तिर्येषां ते तथा इदमुक्तं जवति । अहिंसा परमं धर्मागं । साच तेषां नानानिप्रायवाद विकलत्वेन व्यवस्थिता। तस्याएव सूत्रकारः प्राधान्य दर्शयितुमाह । ते सर्वेपि प्रावाउकायथास्वपदमाश्रिताएक त्र प्रदेशे संयुतामंमलिबंधमाधाय तिष्ठति ॥७॥ Page #813 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राय धनपतसिंघ बादाउरका जैनागम संग्रह नाग उसरा. ७३ पुरिसेयं सागणियाणं इंगालाणं पाई बहुपमिपुन्नं गहाय अन्मएणं संमासएणं गहाय ते सत्वे पावानए आगरा धम्माणं गाणापन्ना जाव पाणावसाणसंजुत्ते एवं वयासीहंनो पावाग्या आगरा धम्माणं पाणापन्ना जाव खाणाप्रसवसाणसंजुत्ता इमं ताव तुम्द सागणिया णं इंगालाणं पाइं बदुपडिपुन्नं गदाय मुद्त्तयं पाणिणा धरेद पोबदु संमासगं संसारियं कुजा णो बहुअग्गिय॑नणियं कुजा गोबद्ध साद म्मियवेयावडियं कुका गोबदुपरधम्मियवेयावडियं कुजा नऊयाणिया गपडिवन्ना अमायं कुचमाणा पाणिं पसारेद इति वुच्चा से पुरिसे तेसिं पावाज्याणं तं सागणियाणं इंगालाणं पाइं बहुपडिपुन्नं अनमएणं संमासएणं गदाय पाणिंसु णिसिरिति तएणं तेपावाज्या आगरा ध म्माणं गाणापन्ना जाव पाणावसाणसंजत्ता पाणिपडिसादरंति तए एं से परिसे ते सवे पावानए आदिगरे धम्माणं जाव पाणावसाणसं जुत्ता एवं वयासी हंनो पावाड्या आगरा धम्माणं गाणापन्ना जाव पाणावसाणसंजुत्ता कम्हाणं तुम्ने पाणि पडिसादरद पाणि नोमदि जा दड़े किं नविस्स उरकंति मन्नमाणा पडिसादरद एसतुला एस प्पमाणे एस समोसरणे पत्तेयं तुला पत्तेयं पमाणे पत्तेयं समोसरणे तवणं जेते समणा मादणा एवमातिकंति जाव परुति सवे पाणाजाव सत्ता दंतवा अजावयवा परिघेतवा परितावेयवा किलामेतवा नदवेतवा तेआगंतु याए तेआगंतुनेयाए जाव ते आगंतु जाइजरामरणजोणि जम्मणसंसारपुणनवगनवासनवपवंच कलंकलीनागिणो नविरसंति ॥ अर्थ-तेवारें कोई एक (पुरिसेयं के० ) पुरुष जैन मार्गनो जाण ते तेमने अहिंसा दिकने विषे पाडवाने अर्थे (सागणियाणंइंगालाणं के० ) अनियें बलता अंगारा तेणे करी एक लोढानुं (पाइंके०) पात्र एटले नाजन जरीने (बहुपडिपुन्नं के०) घणो प्र तिपूर्ण जरीने (अउमएणं के०) लोहना (संमासएणंगहाय के० ) संझासी सहित ग्र हण करीने (तेसवेपावानए के०) ते सर्व प्रावाऊक एटले परदर्शनी (आगराधम्माणं के०) पोतपोताना धर्मनी यादिना झरनार, (गाणापन्नाजावणाणाशवसाणंसंजुत्तेके ) Page #814 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७४ हितीये सूत्रकृतांगे वितीयश्रुतस्कंधे वितीयाध्ययनं. नहाना प्रकारनी प्रज्ञावाला, यावत् नाना प्रकारना जे अध्यवसाय तेणे करी संयुक्त ए वा परदर्शनी ते बागल धावीने, (एवंवयासी के०) एवं कहेले के (हंनोपावाच्या के०) अहो प्रावाउको ! (आइगराधम्माणं के ) तमे धर्मनी आदिना करनारडो; (पाणाप नाजावणाणावसाणसंजुत्ता के०) तमे न्हाना प्रकारनी बुद्धिवाला, तथा न्हाना प्रका रना जे अध्यवसाय तेणें करी संयुक्तलो ते माटे, (इमंतावतुम्हेसागणियाणंइंगालाणंके०) ए तुमे अग्नियें बलता अंगारा तेणे करी सहित एवोधा एक लोहy (पाईके०) नाजन (बदुपडिपुग्नं के०) घणुं प्रतिपूर्ण तेने (गहायमुद्त्तयं के०) ग्रहण करीने, एक मुहूर्त मात्र (पाणिणाधरेह के०) हाथ मांहे धरी राखो, (गोबहुसंमासगंसंसारियंकुला के०) घणी संमासानो सहाय मकरोः ( णोबदुअग्गियनणियंकुलाके०) घणो अग्मिने स्तननी एटले स्थनि राखे तेवी विद्यानुं सहाय मकरो (गोबदुसाहम्मियवेयावडियंकुड़ाके) घणो माहो मांहे साधर्मिकनुं वैयावञ्च नो करवो, एटले अग्नि दीधानो उपशमावQ मकरो. (गोबदुपरध म्मियंवेयावडियंकुजा के०) घणो परधर्मिकनो माहो मांहे वैयावञ्चनो करवो एटले पनि दीधानो नपशमावतुं मकरो. मात्र (नयाके) सरल थका (पियागपडिवन्नाके)मोद मार्ग प्रतिपन्न थका, (अमायंकुबमाणापाणिपसारेह के०) माया रहित पषु करता थका हाथ पसारो. (इतिवचाके०) एम कहीने, (सेपुरिसेके०) ते पुरुष (तसागणियाणंरंगा लाणंपासूबदुपडिपुन्नं के० ) ते अनि बलता अंगराचें नाजन घषु प्रतिपूर्ण नरीने (थ नमएणंसंमासएणंगहाय के०) लोहना संमासा सहित ग्रहीने (तेसिंपावाल्याणंके०) ते प्रावाऊकना (पाणिंसु के० ) हाथनी नपरें (णिसिरिंति के ) मूके. (तएणंके०) तेवारें ( तेपावाज्याआगराधम्माणं के०) ते प्रावाऊक धर्मनी यादिना करनार (णा पापन्नाजावणाणावसाणसंजुत्ता के०) नाना प्रकारनी प्रज्ञा वाला यावत् नाना प्र कारना अध्यवसाय तेणे करी सहित एवा बता ते प्रावाउकने हाथमां अग्नि थापे बते (पाणिपडिसाहरंति के० ) पोताना हाथ पाबा खेंचे एम पाग हाथ करता देखीने (तएणं के० ) तेवारें (सेपुरिसे के.) ते पुरुष ते सर्व प्रावाऊक धर्मना दिना करना र नाना प्रकारनी प्रज्ञावाला यावत् नाना प्रकारना अध्यवसाय तेणे करीसहित ते प्रत्ये (एवंवयासी के० ) एम कहेके (नोपावाज्या के० ) हे प्रावाउको ! पोताना बंदे ध मनी यादिना करनाराउ! नाना प्रकारनी प्रज्ञा वाला यावत् नाना प्रकारना अध्यवसाय तेणे करी सहित (कम्हाणंतुनेपाणिपडिसादरद के०) शाकारणे तमे हाथ पाला खे चोडो. तेवारे ते बोल्या (पाणिंनोमहिलाके०) अमारा हाथ नथी बलतागुं ? अमारा हाथ बलेने दाजे ते कारण माटे हाथ पानाखेची लीधा तेवारे ते पुरुष फरी बोल्यो के ( दड्डेकिंजविस्सइ के० ) तमारो हाथ दाजवाथी झुं थवानुंडे एवं सानली फरी ते Page #815 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राय धनपतसिंघ बाहाजरका जैनागम संग्रह नाग उसरा. जय प्रावामुक पाखंमी दर्शनी बोल्या के,श्रमने दुःख उपजेले, तेवारें फरी ते पुरुष बोल्यो के. (उरकंतिमन्नमाणा के०) जो तमे दुःख जाणता अमिनी दाज थकी बीहिता थका हाथ ने (पडिसाहरहके) पाबा करोडो? तो जेम तमे कुःख थकी बीक राखोडो,तेम सर्व जीवने (एसतुलाके०) ए तुल्य एटले बराबर वे; (एसप्पमाणेके०) एप्रमाणे जाणवू. (एससमो सरणे के० ) ए समोसरण ) पत्तेयंतुहना के० ) प्रत्येक प्रत्येकने सरखं, अने (पत्तेयंप्प माणे के०) प्रत्येक प्रत्येकने प्रमाण, एवं (पत्तेयंसमोसरणेके०) प्रत्येक प्रत्येकने समोस रण जाणवू. (तवणंजेतेसमणामाहणाएवमातिरकंति के०) त्यां जे श्रमण ब्राह्मण एम कहे (जावपरूवेंतिके०) यावत् एम प्ररूपे डे के, (सक्वेपाणाजावसत्ताहंतवा के०) सर्व प्राणी, यावत् सर्व सत्वने हणवा, (बजावेयवाके०) दंम काशादिकें करी ताडवा, (प रिघेतवा के ) बलात्कारें करी दासनी पेठे परिग्रहवा. (परितावेयवा के०) शारीरिक मानसीक पीडा नपजाववी, (किलामेतवा के०) किलामण उपजाववी. ( उहवेतवा के० ) उपश्ववा, तथा जीव, काया थकी रहित करवा. एवां वचनना बोलनारा, (ते थागंतुयाए के० ) ते आगमिक कालें वारंवार पोताना शरीरनुंदन पामशे. (तेया गंतुनेयाए के०) ते श्रागमिक कालें नालादिकें करी पोताना शरीरनु नेदन पामशे, (जावतेयागंतुं के०) यावत् ते जीव घागमिक कालें (जाइजरामरण जोणिजम्मणं के०) जाति, जरा, मरण, तथा नवी नवी योनी मांहे उपज, तथा जन्मना कुःख (संसारके० ) एरीतें संसार मांहे परिभ्रमण करतां (पुणनव के० ) वली वली नव नवा नवनुं करवू, (गप्रवास के ) वली वली गर्नवास माहे वसवू, एरीतें (नवपवं च के०) संसारनो प्रपंच एटले संसारनो विस्तार, (कलंकलि के०) कलकलाट एटले कुःखें करी व्याकुल पणुं, तेना (नागिणोनविस्संति के० ) विनागी थशे. ॥ १ ॥ ॥ दीपिका-(पुरिसेयत्ति ) एकः कश्चित्पुरुषः सानिकानां ज्वलतामंगाराणां प्रतिपू णी (पाई) पात्री अयोमयेन लोहमयेन संदंशकेन गृहीत्वा तेषां ढाकितवान् उवाच । नोः प्रावाकाः ! इदमंगारजत नाजनं एकैकं मुहर्त प्रत्येकं बिनृत यूयं? । नचेदं संदंशकं सांसारिकं नापि चाग्निस्तंननं विदध्युः । नापिच साधर्मिकानामनिदाहोपशमादिना त पकारं कुयुरिति । रुजवोमायामकुर्वाणाः पाणिं प्रसारयत तेपि तथैव कुयुः ततोसौ नर स्तनाजनं तत्पाणौसमर्पयति । तेपि च दादलयास्तं संकोचयंति । ततोसौ पुरुषस्तान प्राह किमिति पाणिं संदरत यूयं ? । ते प्रादुर्दाहनयात् । नरः प्राह । दग्धेन हस्तेन किंनावि? । मुःखमिति चेदेवं यूयं दाहोत्पन्नःखनीरवः सुख लिप्सवः । एवं सति सर्वे पि जंतवः संसारवर्तिनएवं विधाएवेति यात्मतुलया यात्मतुल्यत्वेन यथा मम खं Page #816 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जE वितीये सूत्रकृतांगे वितीय श्रुतस्कंधे वितीयाध्ययनं. न संमतं तथा सर्वजीवानामित्येतत्प्रमाणं । एषा युक्तिः तदेतत्समवसरणं एषधर्म विचारः । आत्मवत्सर्वनूतानि यः पश्यति सपश्यतीति प्रत्येकं तुलासाम्यमित्यादि (तबति) तत्र एवं सति ये श्रमणब्राह्मणादयएवमाख्याति । सर्वे प्राणाहंतव्या दंडादिनिः परितापयितव्याधर्मार्थमरघट्टादिवहनादिनिः परिग्राह्याः श्राबादौ मत्स्याश्व अपज्ञवयितव्यायागादौ मेषाश्च । एवं ये नाते ते बागामिनि काले स्वशरीरस्य दाय नेदायच नाते । तथाऽगामिनि काले जातिजरामरणानि बहूनि प्राप्नुवंति योन्यां जन्म योनिजन्म तबदुशोगर्नजावस्थायां लनंते संसारप्रपंचांतर्गतास्तेजोवायुषु उच्चै त्रो लनेन कलंकलीनावनाजोःखव्याकुलाः स्युः ॥ ७ ॥ ॥ टीका-तेषां चैवं व्यवस्थितानामेकः कश्चित्पुरुषस्तेषां संविदर्थ ज्वलतामंगाराणां प्रतिपूर्ण पात्रीमयोमयं नाजनमयोमयेनैव संदंशकेन गृहीत्वा तेषां ढो कितवानुवाच तान् । यथा नो प्रावाकाः! सर्वोक्तविशेषण विशिष्टाइदमंगारनतं नाजनमेकैकं मुहूर्त प्रत्ये कं सांसारिकाणामिवाऽग्निस्तंननं विधत्ते नापिच साधर्मिकाऽन्यधार्मिकाणामग्निदाहोपश मादिनोपकारं कुरुतति जवोमायामकुर्वाणाः पाणिं प्रसारयत? तेपिच तथैव कुर्युस्त तोऽसौ पुरुषः तन्नाजनं पाणौ समर्पयति तेपिच दाहशंकया हस्तं संकोचयेयुरिति । त तोसौ तानुवाच । किमिति पाणिं प्रतिसंहरत? यूयं एवमनिहितास्ते कचुर्दाहनयादिति । एतउक्तं नवति । अवश्यमग्निदाहनयान्न कश्चिदग्य निमुखं पाणिं ददातीत्येतत्परोयं दृष्टां तः । पाणिना दग्धेनापि किंनवता नविष्यतीति फुःख मिति चेद्यद्येवं नवंतोदाहापादित फुःखनीरवः सुखलिप्सवस्तदेवंसति सर्वेपि जंतवः संसारोदर विवरवर्तिनएवंनूताएवेत्येव मात्मतुलयाऽत्मौपम्येन यथा मम नानिमतं फुःखमित्येवं सर्वजंतूनामित्यवगम्याहिंसैव प्राधान्येनाश्रयणीया तदेतत्प्रमाणं एषा युक्तिः। आत्मवत्सर्वभूतानि यःपश्यति सप श्यति । तदेव समवसरणं सएषधर्मविचारोयत्राहिंसा संपूर्णा ॥ तत्रैव परमार्थतोधर्म इत्येवं व्यवस्थिते तत्र ये केचनाविदितपरमार्थाः श्रमणब्राह्मणादयएवं वक्ष्यमाणमा चढ़ते परेषामात्मदाढयोत्पादनायैवं नाते तथैवमेवं धर्म प्रझापयंति व्यवस्थापयंति तथान्येन प्राण्युपतापकारिणा प्रकारेण परेषां धर्म प्ररूपयंति व्याचक्षते । तद्यथा । सर्वे प्राणाइत्यादि यावईतव्यादंडादिनिः परितापयितव्याधर्मार्थमरघट्टादिवहनादिनिः परियाह्या विशिष्टकाले श्राबादौ रोहितमत्स्याश्व तथाऽपज्ञवयितव्यादेवतायागादिनिमि तं बस्तादयश्वेत्येवं ये श्रमणादयः प्राणिनामुपतापकारिणी नाषां नाते आगामिनि काले ऽनेकशोबदुशः स्वशरीरदायच नाते तथा ते सावद्यनाषिणोनविष्यति काले जातिजरामरणानि बहूनि प्राप्नुवंति । योन्यां जन्म योनिजन्म तदनेकशोबदुशोगर्नव्यु Page #817 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राय धनपतसिंघ बादाउरका जैनागम संग्रह नाग उसरा. क्रांतजावस्थायां प्राप्नुवंति तथा संसारप्रपंचांतर्गतास्तेजोवायुपूच्चैर्गोत्रो इलनेन कलं कलानावनाजोनवंति बहुशोनविष्यंति च ॥ ७१ ॥ ते बढुणं दंगणाणं बदणं मुंगणाणं तजणाणं तालणाणं अज्बंधणाणं जाव घोलणाणं माश्मरणाणं पितामरणाणं नाश्मरणाणं नगिणीमरणाणं नजापुत्तधूतसुमहामरणाणं दारिदाणं दोदग्गाणं अप्पियसंवासाणं पि यविष्पनगाणं बदुणं सुरकदोमणस्साणं आनागिणो नविस्संति अणादि यंचणं अणवयग्गं दीहमदं चानरंतसंसारकंतारं नुज्जोनुज्जो अणुपरिय हिस्संति ते पोसिसिरसंति गोबुनिस्संति जाव णोसवपुकाणं अंतं करिस्संति एस तुल्ला एस पमाणे एस समोसरणे पत्तेयं तुल्ला पत्तेयं प माणे पत्तेयं समोसरणे ॥५॥ अर्थ-( तेबहूणंदमणाणं के० ) ते जीव घणा दमाशे, (बहूणंमुंझणाणं के० ) ते जीव घणा शरीरादिकें मुंमाशे, (तहणाणं के०) अंगुलीयादिकनी तर्जना पामशे, (ता लणाणं के० ) दमादिकें ताडना पामशे, (अञ्बंधणाणं के० ) बंधीखानानां बंधन पा मशे, (जावघोलणाणं के० ) यावत् अांबानी पेठे घोलाशे, (माश्मरणाणं के०) ते जी व मातानां मरणनां पुःखने पामशे, (पितामरणाणं के०) पितानां मरण, (नाइमरणा एंके) नाश्नां मरण, (नगिणीमरणाणंके० ) बेहेननां मरण, (नापुत्तधूतसुण्हा मरणाणंके०) नार्यानां मरण, पुत्रनां मरण, दीकरीनां मरण, पुत्रनीवदुनां मरण थशे, तेने देखीने दुःख पामशे, दुःखी थशे, ते पुरुष, (दारिदाणंके०) दरिही थशे, (दोहग्गा णं के० ) दौर्नागी थशे, (अप्पियसंवासाके) अप्रियकारीयो साथै तेनो संवास थ शे, (पियविप्पगाणं के०) ते प्राणी प्रियकारी वस्तुनो विप्रयोग एटले वियोग पामशे, (बहूणंडुरकदोमणस्साणं के०) घणां कुःख अने दौर्मनस्य पणानो (थानागिणोनविस्सं ति के०) विनागी थशे, तेपुरुष, (अणादियंचणं के) आदि रहित, (अणवयग्गं के०) अंत रहित, (दीहमई के ) दीर्घकालपर्यंत एटले घणाकालसुधी (चानरंतसं सारकंतारं के० ) चारगतिरूप अंत अवयव जेने विषे तेने चानरंत कहियें एवी संसा र रूप अटवी तेने विषे, (मुजोनुको के० ) वली वली (अणुपरियहिस्संति के०) परि चमण परावर्तन करशे, (तेणोसिसिस्संति के०) ते पांखमी जीव सीजशे नही, एट ले पोताना कार्यनी सिदि करशे नही, (गोबुझिस्संति के) लोकालोकना स्वरूपने बुज शे नही, (जावणोसबउरकाणंअंतंकरिस्संति के०) यावत् ते प्राणी सर्वपुःखनो अंत क Page #818 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जनज वितीये सूत्रकृतांगे वितीय श्रुतस्कंधे वितीयाध्ययनं रशें नहीं. एवी रीतें स्वदर्शनी पण, जे पूर्वोक्त नाषा बोलशे ते सीजसे नही एम निचे ' जाणQ. हवे जे उत्तम पुरुषने एवी तुल्यता राखवी जे सर्वे जीव प्रत्येक तुल्य, प्रत्ये क प्रमाण, एप्रमाणे प्रत्येक समोसरण पण ॥७२॥ ॥ दीपिका-ते नराबदनां दंडनादीनां शरीरःखानां नाजनं नवंति तथा मातृमरणा दीनां मानसःखानां तथाऽन्येषामप्रियसंयोगार्थनाशादिनिईःखनागिनोनविष्यति । किं बहुना । (अणादियंति) अनादिकं न विद्यतेऽवदयोंऽतोयस्य सोऽनवदग्रोऽनंतः तं दीर्घा ध्वानं चतुर्गतिमार्ग चातुरंत संसारकांतारमनुपरिवर्तिष्यंते अरहट्टघटीवनमिष्यति न बोधं प्राप्स्यति न सेत्स्यति सर्वखानामंत न करिष्यंति एषतुला एतत्साम्यं यत्सावयाचारान । सिध्यति कुमतिनः स्वमतेपि बौदे शिकादिनोजिनस्तथैव एतत्प्रमाणं प्रत्यादिकं प्रत्य केण चौराद्याबाध्यमानादृश्यते । एवमन्येपि एतत्समवसरणं बागमविचारः प्रत्येकं प्र तिजीवमिदं साम्यं इष्टव्यं ॥ २ ॥ __॥ टीका-तथा ते बहूनां दंडादीनां शारीराणां दुःखानामात्मानं नाजनं कुर्वति तथा ते निर्विवेकामातृवधादीनां मानुषाणां खानां तथान्येषामप्रियसंयोगार्थनाशादिनिई खदौर्मनस्यानामानागिनोनविष्यतीति । किंबदुनोक्तेनोपसंहारव्याजेन । गुरुतरमर्थसं बंधं दर्शयितुमाह । (अणादियं इत्यादि) नास्यादिरस्तीत्यनादिः संसारः। तदनेनेदमुक्तंनव ति । यत्कैश्चिदनिहितं यथायमंझकादिक्रमेणेत्यादितश्त्येतदपास्तं । नविद्यतेऽवदयं पर्यतो यस्य सोयमनवदनोऽपर्यंतश्त्यर्थः । तदनेनेदमुक्त नवति । यमुक्तं कैश्चिद्यथा प्रलय कालेऽशेषसागरजलप्लावनं वादशादित्योनमेन चात्यंतदादश्त्यादिकं सर्व मिथ्येति दीर्घमि , त्यनंतपुजलपरावर्तरूपं कालावस्थानं तथा चत्वारोंतागतयोयस्य सतथा चातुर्गतिक इत्यर्थः। तत्संसारएव कांतारः संसारकांतारोनिर्जलः सनयस्त्राणरहितोऽरण्यप्रदेशः कांतार इति । तदेवंनूतं नूयोनूयः पौनःपुन्येनानुपरिवर्तिष्यते अरहट्टघटीन्यायेन तत्रैव ब्रमंतः स्थास्यंतीत्यतएवाह । यतस्ते प्राणिनां तारः कुतएतदिति चेत्सावद्योपदेशादेतदपि कथ मिति चेदतौदेशिकादिपरिनोगानुज्ञयेत्येवमवगंतव्यमित्यतस्ते कुप्रावचनिकानैव से त्स्यति नैव ते लोकाग्रस्थानमाक्रमिष्यति तथा न ते सर्वपदार्थान केवलझानावाच्या नो त्स्यते । अनेन ज्ञानातिशयनावमाह । तथा न तेऽष्टप्रकारेण कर्मणा मोक्ष्यते। अनेना प्यसिदेरकैवल्यावाप्तेश्च कारणमाह । तथा परिनिर्वृतिः परिनिर्वाणमानंदसुखावाप्तिस्तां ते नैव प्राप्स्यते तेनापि सुखातिशयानावः प्रदर्शितोनवतीति । तथा नैते शारीरमानसानां मुःखानामात्यंतिकमंतं करिष्यतीत्यनेनाप्यपायातिशयानावः प्रदर्शितोनवति । एषातु Page #819 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राय धनपतसिंघ बाहारका जैनागम संग्रह नाग दुसरा. G‍ ला देतपमानं यथा सावद्यानुष्ठानपरायणाः सावद्यनाषिणश्व कुप्रावचनिकान सिध्यंत्ये वं स्वयूच्या प्यौदेशिका दिपरिजोगिनोन सित्ध्यंतीति । तदेतत्प्रमाणं प्रत्यक्षानुमानादिकं । तथाहि । प्रत्यदेव जीवपीडाकारि चौर्यादिर्बंधनान्न मुच्यते । एवमन्येपीत्यनुमानादि कमप्यायोज्यं । तथा तदेतत्समवसरणमागम विचाररूपमिति प्रत्येकंच प्रतिप्राणि प्रतिप्रा वाकमेततुजादिकं इष्टव्यमिति ॥ ८२ ॥ तणं जे ते समणा मादणा एवमाइति जाव परूवेंति सवे पाणा स या सजीवासवेत्ता दंतवा असावेयवा परिघेतवा नदवेय व्वा तैणो च्यागंतुबेयाए तेणोच्प्रागंतुमेयाए जाव जाइजरामरणजोणि जम्मण संसारपुणप्रवगप्रवासनव एवं कलंकलीना गिलो नविस्संति तेोबहूणं दंमणाणं जाव गोबहूणं मुंझणाणं जाव बहूणं एकदोमण स्साएं लोनागिणो नविस्संति प्रणादियंचणं प्रणवयग्गं दीदम चानुरंत संसारकंतारे कोजुको पोपरियहिस्संति तेसिं स्सिनंति जाव सव्वडुरकाणं अंतं करिस्संति ॥ ८३ ॥ अर्थ - त्यांजे श्रमण ब्राह्मण, सर्व जीवने पोताना खात्मा समान लेखवीने एवो धर्म कदेशे, यावत् प्ररूपशे, के सर्व प्राणी, सर्वनूत, सर्व जीव, सर्व सत्वने हावा नही, एकांतदा पालवी, यावत् सर्व सत्वने उपश्ववा नही, ते पुरुषो, यागमिक कालें पोताना शरीरनुं बेदन नहीं पामशे, ते यागमिक कालें नेदन नहीं पामशे, ते पुरुष यावत् जाति, जरा, मरण, वली वली योनीमांहे उपजवुं, जन्मनुं दुःख, संसारमा हे परिभ्रमण कर, वली वली गर्नवास मांहें वसवुं, संसारनो विस्तार प्रपंच, तथा कलकलाट तेनो विभागी नहीं . ते पुरुष, घणो दंगाशे नहीं, यावत् दुःख दौर्मनस्य पणानो विभागी नहीं थशे, यादिरहित अंतरहित दीर्घ पंथळे, एटले दीर्घ काल पर्यंत चारगति रूप संसार, तद्रूप टीने विषे वली वली परिभ्रमण परावर्त्त नही करशे. ए रीतें दया धर्मना प्ररूपनार पुरुषो सीजशे कार्यसिद्धि करशे, यावत् सर्व दुःखनो अंत करशे ॥ ८३ ॥ ॥ दीपिका - खयैतद्विपरीतानाह । (तांति) तत्र ये ज्ञातव्याः श्रमणमाहनास्ते ए वमाख्यांतीत्यादि सर्व पूर्वसूत्र विपरीतं वाच्यं ॥ ८३ ॥ ॥ टीका - ये पुनर्विदिततत्वायात्मौपम्येनात्मतुलया सर्वजीवेष्वहिंसां कुर्वाणाएवमा चते । तद्यथा सर्वेपि जीवाडुःख दिषः सुख लिप्सवस्ते न दंतव्याइत्यादि । तदेवं पूर्वोक्तं दंडनादिकं सप्रतिषेधं नणनीयं यावत्संसारकांतारमचिरेणैव ते व्यतिक्रमिष्यतीति ॥ ८३ For Private Personal Use Only Page #820 -------------------------------------------------------------------------- ________________ gug द्वितीये सूत्रकृतांगे द्वितीय श्रुतस्कंधे द्वितीयाध्ययनं. चेहिं बारसहि किरियाघादि वट्टमाणा जीवा पोसिसि पोबुकिं सु पोमुचिसु पोपरिणिवासु जाव गोसव डुरकाणं अंतरेसुवा पो करेंतिवा गोकरिस्संतिवा ॥ ८४ ॥ अर्थ - ए पूर्वोक्त बार क्रियाना स्थानकने विषे वर्त्तता एवाजे जीव, ते कोइ प्रतीत का सिधा नथी, बुज्या नथी, कर्म थकी मूकाणा नथी, निवृत्या नथी, यावत् सर्वः नोत पण कोइयें अतीत कालें कयो नथी, वर्तमान कालें करता नथी, घाग मिक कालें पण करशे नही. कारणके, ए बार क्रियाना स्थानक जे बे, ते धर्मप दने मलताज बे ॥ ८४ ॥ || दीपिका-थोपसंहरति । (इच्चे ते हिंति ) इत्येतेषु द्वादशसु क्रियास्थानेषु धर्म पक्षो Sanार्यते । ततएतेषुवर्तमानाजीवान सिद्धान सिध्यंति न सेत्स्यंति न मुक्तान मुच्यंते मो दयं न बुझन बुध्यते न जोत्स्यंते न सर्वदुःखानामंतं चक्रुर्न कुवैति न करिष्यति ॥ ८४ ॥ ॥ टीका - नमितानि क्रियास्थानाति सांप्रतमुपसं जिघृक्कुरेतदेव पूर्वोक्तं समासेन विनपि राह (च्चे हिंइत्यादि ) इत्येतेषु द्वादशसु क्रियास्थानेष्वधर्मपकोऽनुपशमरूपः समव तार्यते न एतेषु वर्तमानाजीवाद्यतीते काले सिद्धान वर्तमाने सिध्यंति न नविष्यंति सेत्स्यं ति तथा न बुबुधिरे न बुध्यंते नच जोत्स्यंते तथा न मुमुचुर्न मुंचति नच मोक्ष्यंते तथा न नि वृत्ता न निर्वर्त्यते नच निर्वास्यंति तथा न दुःखानामंतं ययुर्न पुनर्यौति नच यास्यतीति ॥ ८४ एयंसि चैव तेरसमे किरियाघाणे वहमाणा जीवा सिशिंस बुझिस मुि सुपरिणिवासु जाव सबका अंत करेसुवा करंति करिस्संतिवा एवं से निरक व्यायही प्रायदिते प्रायगत्ते यायजोगे यायपरक्कमे प्रायर किए प्रयाशुकंप यायनिप्फेडए यायाणमेवपडिसा दरेका सि तबेमि ॥ ८५ ॥ इति बीय सुयखंधस्स किरिया घानामवीयमयसम्मत्तं ॥ पर्य - ए पूर्वेकयुंजे निवें तेरमुं क्रिया स्थानक तेने विषे वर्त्तता एवा जे जीव, जीवती का सिधा तत्वमार्गने बुज्या, या कर्म थकी मूकाणा. परिनिवृत्त शी जीनूत थया, यावत् सर्व दुःखनो अतीत कालें अंत कीधो, वर्तमान का अंत करे बे, घने प्रागमिक का अंत करशे, एम ते साधु चारित्रि बार क्रिया स्थानकनो वर्ज नार मोक्षार्थी, यात्मार्थी, श्रात्मानं हित चिंतवनार, यात्मानो गोपवनार, मनादिक For Private Personal Use Only Page #821 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राय धनपतसिंघ बाहारका जैनागम संग्रह जाग दुसरा. १ योग स्ववश करनार, ते यात्मयोगी कहेवाय. यात्माना सुखनें यर्थे पराक्रमनो क रनार, खात्मानोरक्षक, आत्माने अनुकंपानो करनार, यात्मानो संसार थकी निस्तार करनार, प्रात्माने ए बार क्रियाना स्थानक थकी निवृत्तावे, तेने महा पुरुष जालिये. तिनो पूर्ववत् जावो. ए श्री सूयगडांगसूत्रना बीजा श्रुतस्कंधने विषे क्रिया स्थानक नामे बीजा अध्ययननो संदेपार्थ बालावबोध समाप्त थयो. ॥ ८५ ॥ ॥ दीपिका - तथा एतस्मिन् त्रयोदशे क्रियास्थाने धर्मपावतारः । ततोत्र वर्तमाना जीवाः सिद्धाः सिध्यंति सेत्स्यतीत्यादि । तदेवं सनिकु दशक्रियास्थानवर्जकोऽधर्मप त्यागी धर्मपदस्थत्रयोदश क्रियास्थानवर्ती द्यात्मनोर्थः खात्मार्थः सविद्यते यस्य स घात्मार्थी यात्महितः श्रात्मा गुप्तोयस्य सतथा यात्मयोगः कुशलमनः प्रवृत्तिरूपः सय स्यास्ति सम्रात्मयोगी यात्मपराक्रमः स्वयं संयमानुष्ठानप्रवृत्तः । श्रात्मा रक्षितोडुर्गति पाताद्येन सात्मरहितः श्रात्मानमनर्थपरिहारेणानुकंपते इत्यात्मानुकंपकः (यायनिप्फे sri) त्मानं संयमेन संसारचारका निष्कासयतीति प्रात्मानं द्वादशक्रियास्थानेन्यः प्रतिसंहरेत्समहापुरुषः । इतिसमाप्तौ । ब्रवीमीति पूर्ववत् ॥ ८५ ॥ इति तपागच्छाधि पतिश्री हेम विमलसूरीश्वर शिष्य हर्षकुलपंडितप्रणीतायां श्रीसूत्रकृतांगदीपिकायां द्वितीय तस्कंधस्य क्रियास्थानाख्यं द्वितीयमध्ययनं समाप्तं ॥ 11 II ॥ टीका- सांप्रतं त्रयोदशं क्रियास्थानं दर्शयितुमाह । ( एवमित्यादि ) एतस्मिंस्त्रयो दशैं क्रियास्थाने वर्तमानाजीवाः सिद्धाः सिध्यंति सेत्स्यतीति यावत्सर्वदुःखानामंतं करि ष्यंतीति स्थितं । तदेवं सनिकुर्यः पौंडरी काध्ययनेऽनिहितो द्वादशक्रियास्थानवर्जकः द्यध पानुपशमपरित्यागी धर्मपदे स्थितनपशांतयात्मनोवार्थः श्रात्मार्थः सविद्यते य स्य सतथा योन्यमपायेन्योरति स श्रात्माय्र्यात्मवानित्युच्यते । हिताचाराश्चचौराद योनात्मवतोऽयंत्वात्महितऐहिकामुष्मिकापायनीरुत्वात्तथात्मागुप्तो यस्य तथा । एतडुक्तं नवति । स्वयमेवासौ संयमानुष्ठाने पराक्रमते तथात्मयोगी श्रात्मनोयोगः कुशलमनः प्रवृत्तिरूपयात्मयोगः सयस्यास्ति । सदाधर्मध्यानावस्थितइत्यर्थः । तथात्मा पापेच्योर्ग तिगमनादिन्योर दितोयेन सतथा दुर्गतिगमन हेतु निबंधनस्य सावद्यानुष्ठानस्य निवृत्तत्वा दितिभावः । तथात्मानमेवानर्थपरिहार द्वारेणानुकंपते गुनानुष्ठानेन सजतिगामिनं विध तइति । तथात्मानं सम्यग्दर्शनादिकेनानुष्ठानेन संसारचारकान्निःसारयतीति । तथात्मा नमनर्थ नूतेच्यो द्वादशेच्यः क्रियास्थानेच्यः प्रतिसंहरेत् । यदि वोपदेशयात्मानं सर्वपापे यः प्रतिसंद्रियात् सर्वानर्थच्यो निवर्तये दित्येतस्मिन्महापुरुषे संभाव्यतइति । इतिः परि For Private Personal Use Only Page #822 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ‍ द्वितीये सूत्रकृतांगे द्वितीय श्रुतस्कंधे तृतीयाध्ययनं. समात्यर्थे । ब्रवीमीति पूर्वत् । नयाः पूर्ववव ६धाख्येयाः ॥ समाप्तं क्रियास्थानाख्यं द्वितीयमध्ययनमिति ॥ 11 11 11 11 ॥ द्वितीयश्रुतस्कंधे तृतीयाध्ययनप्रारंभः ॥ वे बार क्रिया स्थानकने वर्जनार एवा चारित्रवान पुरुषे गुन्दाहार लेवो, ते कारण माटे हवे याहार परिज्ञा नामे त्रीजुं अध्ययन प्रारंनियें जैयें. सुयं मेानसं ते जगवया एव मकार्य इह खलु आहारपरिमाणाम झयणे तस्सणं प्रयमद्वे इह खलु पाईांवा सवतो सवार्वतिचणं लो गंसि चत्तारि बकाया एव मादिऊंति तंजढ़ा अग्गबीया मूलबीया पोरबीया कंधबीया तेसिंचणं यदा बीएणं अहावगासेणं इहेगतिया सत्ता पुढवी जोणिया पुढविसंनवा पुढव वुक्कमये तोणिया तस्सं जवा तवकमा कम्मोवगा कम्मलियाणं तचवुक्कमा पापाविद जोणियासु पुढवीसु रुकत्ताए विवहृति तेजीवा तेसि पापाविदजो णियाणं पुढवीणं सिणेह माहारेंति ॥ १ ॥ ते जीवा च्छादारेंति पुढवी सरीरं आनसरीरं तेनसरीरं वासरीरं वणस्सइसरीरं पापाविदाणतसथा वराणं पाषाणं सरीरं चित्तं कुवंति परिविश्वं तं सरीरं पुवाहारियं तयाहारियं विपरिणयं सारुवियकडं संतं प्रवरेवियां तेसिं पुढविजो णियाणं रुरकाणं सरीरा पाणावला जाणागंधा पापारसा पाणाफा सा पापासंग णसंठिया पापाविदसरीरपुग्गल विनवित्ता तेजीवा क मोववन्नगा जवंति तिमरकार्यं ॥ २ ॥ घर्थ - (सुयंमेघानसंतेां के ० ) श्रीसुधर्मस्वामी जंबू प्रत्यें कहेबे के, में एवं सांजल्युं जे, घायुष्यमंत ( नगवयाएवमस्कार्य के० ) जगवंत श्रीमहावीर देवें एम कले ( इहखलु के० ) नि था जिनशासनने विषे ( श्राहारपरिमाणामजयले के० ) था हारपरिज्ञा एवे नामे अध्ययन कयुं. ( तस्सयम के०) तेनो ए अर्थ आगल क हे . ( इहखनु के० ) निवें या जगत् मांहे ( पादीवा के० ) पूर्वादिक चार दिशिने विषे तथा विदिशने विषे ( सवतोसवावं तिचणंलोगंसि के० ) सर्व थकी सर्व, एतावता सर्व लोक विषे ( चत्तारिबीयकाया के० ) चार, बीज कायना प्रकार एटले उत्पत्तिना For Private Personal Use Only Page #823 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राय धनपतसिंघ बादाडुरका जैनागम संग्रह नाग दुसरा. १९३ जेद होय. (एवमाहिऊं के० ) ते या प्रकारें तीर्थकरें कह्या. (तंजहा के०) ते कहेले. ( अग्गबीया के० ) जेने छायें बीज उपजे ते अग्र बीज कहेवाय ते तिल, ताल, सह कारादिक अथवा शाल्यादिक जाणवा, तथा जे यय तेने विषे उत्पत्तिना कारणने पामे तेपण, प्रय बीज कहेवाय, ते कोरंटकादिक जाणवा; एटले ए प्रथम नेद जाणवो. तथा ( मूलबीयाके० ) थाईकादिक ए बीजो नेद जाणवो : (पोरबीयाके ० ) पर्व बीज ते सेडी प्रमुख, ए त्रीजो नेद जाणवो. ( रकंधबीयाके० ) स्कंधबीज ते साजरा नाग र्जुन प्रमुख, ए चोथो नेद जावो. (ते सिंचके०) ते चार प्रकारना वनस्पतिकाय (घ Talrico) यथा जे जेनुं बीज उत्पत्ति कारण, ते यथा बीज एटले ते तेनुं बीज जाणवुं. जेम शालीना अंकुरनुं शाली बीज उत्पत्ति कारणबे, एम धन्यत्र स्थान के पण जाली जेवुं. ( हावगासेणं के० ) तथा जे जेनो अवकाश एटले उत्पत्ति स्थानक पृथ्वी, पाणी, काल, आकाश, बीज, संयोग, एने यथावकाश कहियें. एम यथा बीजें तथा यथावकाशें करीने, ( इहेतियासत्ता के० ) या जगत्माहे कोई एक सत्व, तथाविध कर्मना उदय थकी, वनस्पतिने विषे उपजनार बतो उपजे, ते वनस्पतिने विषे उपजतां (पुढवीजोणि aro) पृथवीयोनिक याय. यद्यपि तेनुं वनस्पतिज बीज कारणले परंतु, याधार विना उत्पत्तिनो पावले, ते कारण माटें पृथवीयोनिक कह्या. जेम शेवालादिक कर्दमना या धारेंबे, पण पृथ्वी विना थाय नही, एम ग्राहीं पण जाणी लेवुं. (पुढविसंनवा के ० ) पृथ वीने विषे वनस्पतिकायनो संनवले (पुढवी वुक्कमाके०) तथा पृथवीने विषे विविध एटले नाना प्रकारें प्रबल पणे संक्रमणले जेनुं ते पृथवीवुक्कमाकहियें एटले एम कत्युंजे पृथवीने विषे ते वनस्पतिकायनी उपर उपर वृद्धिले (तोलिया के ० ) ते पृथवीयोनिक होय. (तस्संनवाके०) ते पृथवीने विषे वनस्पतिकायनो संनवळे, (तवक्कमाके ० ) ते पृथवीने विषे नाना प्रकारें प्रबल पणे संक्रमण, (कम्मोवगाके ० ) ते जीव तथाविध वनस्पतिकाय संनवि कर्मे प्रेर्यमान बता त्यां वनस्पतिने विषे उपशमीप पृथवीने विषे जाय; ते कारणे एने कम्मो वगा कहियें, एटले ते जीव कर्मना वशंगत वनस्पतिकाय थकी घावीने वली तेज वनस्प तिकायने विषे उपजे, पण अन्यत्रयी याव्या अन्यत्र नउपजे. जेम कुसम पुरियें वाव्यां एवां बीजोना मथुरायें अंकुरो नमले, ज्यां जेहनुं बीज, त्यांज तेना अंकुरोनी उत्पत्ति जावी. (कम्मलिया के ० ) तथा ते जीव कर्मने कारणे आकर्षित (वुक्कमा के०) त्यां पृथ विने विषे तथा वनस्पतिने विषे, वुक्कमा एटजे याव्या बता ( पाणाविहजो पितासुपुढ वीgho) नाना प्रकारयोनी पृथवीने विषे ( रुरकत्ताए के० ) रूंख पणे ( विनद्वंति के ० ) उपजे, (तेजीवाते सिंगाला विहजोलियापुढवीणं के०) ते जीव ते नाना प्रकार योनी पृथवीनो ( सिणेहमाहारेंति के० ) स्नेह थाहारे तेहीज तेनो छाहार. ते पृथवीना 50) १०० For Private Personal Use Only Page #824 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जण् वितीये सूत्रकृतांगे वितीयश्रुतस्कंधे तृतीयाध्ययनं. शरीरने थाहारतां पृथवीने पीडा उपजावे नहीं. ॥ १ ॥ पनी (तेजीवा के०) ते जीव, . (आहारेंतिपुढवीसरीरं के० ) पृथवीनु शरीर थाहारे, एमज (यानसरीरं के) अपकायतुं शरीर, (तेसरीरं के०) तेज कायनुं शरीर, (वानसरीरं के० ) वायुकायर्नु शरीर, ( वणस्सासरीरं के०) वनस्पतिकायनुं शरीर, (पाणाविहाणतसथावराणं पाणाणंसरीरं के० ) तथा नाना प्रकारनां त्रस अने स्थावर प्राणीउनां शरीर आहारे, परंतु तेमने पीडा ननपजावे. तेनुं कारण कहेने, जेम अंमजादिक जीव गर्नस्थ बतां माताना उदरनो आहार करे, परंतु माताने पीडा उपजावे नहीं, तेम अंही पण जाणी लेबु. तथा उपन्या पनी वृद्धि प्राप्त अनेक वर्ण रसादिक गुण सहित थाय, तेवारें पण कांई पीडा उपजावे एरीते ते जीव पृथवीकाय प्रमुख जीवोनुं (सरीरंथचित्तंकुवंति के०) शरीर अचित्त करे. (परिविक्ष के०) परिविध्वंस करें. (तंके०) ते वनस्पतिना जीव तेणे (सरीरंपुवाहारियं के० ) पृथवी कायादिकनुं जे शरीर पूर्वे आहायुं, ते अधुना हमणा वनस्पतिना जीव उत्पद्यमान नपजता, अथवा उपना ( तयाहारियं के० ) त्वचाने स्पर्शे करी थाहारीने, ( विपरिणयं के०) परिणमावीने (सारूवियकडंसंतं के) पोतानी काया सरखां रूप करे, (अवरेवियणं के०) अपर एटले अन्य बीजां शरीर मूल, शाखा, प्रतिशाखा, पत्र, पुष्प, फलादिक, एवां रूप करे. तथा (तेसिं पुढवीजोणियाएं के०) ते पृथवीयोनिक (रुरकाणं के०) वृद, तेनां (सरीरा के) शरीर, ते (णाणावरमाणं के०) नाना प्रकारना वर्ण, (णाणागंधा के०) नाना प्रकारना गंध, (गाणारसा के०) नाना प्रकारना रस, (गाणाफासा के०) नाना प्रकारना स्पर्श, (णाणासंताणसंहिता के०) नाना प्रकारना संस्थाने करी संस्थित, (याणा वहसरीरपुग्गलविनवित्ता के०) तथा नाना प्रकारना शरीरना पुन लें करी विकूा थका होय, एरोते (तेजीवा के०) तेजीव (कम्मोववन्नगानवंति तिमरकायं के ) वनस्पतिने विषे तथाविध कर्मने उदये उपना होय. परंतु बांहीं काल, ईश्वरादिक कारण कोई समजवो नही. एम नगवंत श्रीतीर्थकर देवें कडं जे. एटले पृथवीयोनिक पद कह्या ॥२॥ ॥ दीपिका-अथाहारपरिझारख्यं तृतीयमध्ययनमारन्यते । तस्येदमादिसूत्रं । (सुयं मे इत्यादि) श्रुतं मया युष्मनगवतेदमाख्यातं थाहारपरिझानाख्यमध्ययनं । तस्य चा यमर्थः । प्राच्यादिदिक्कु सर्वतः (सवावंतित्ति) सर्वस्मिन् लोके चत्वारोबीजकायाबीजप्र कारानवंति । तद्यथा । अये बीजं येषामुत्पद्यते तेऽग्रबीजास्तालसहकारादयः। अथवाऽ ग्राण्येवोत्पत्तौ कारणं येषां तेऽयबीजाः कोरंटादयः । मूलबीजाबाईकादयः पर्वबीजा Page #825 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राय धनपतसिंघ बादाउरका जैनागम संग्रह नाग उसराः एप प्रमुखाः स्कंधबीजाः सनक्यादयः । नागार्जुनीयास्तु पति । वपस्सकायाश्याएं पंचविहा बीजवकंति ॥ एवमाहिकाइ तं अग्गजपोर खंधवायरुहा ॥ बहाविएगंतियासं मुनिमाबीयाजायते । यथा दवदग्धनूमौ हरितानि विविधानि उत्पयंते (तेसिंचति) तेषां चतुर्विधानामपि वनस्पतिकायानां यद्यस्य बीजं तद्यथा बीजं तेन यथाबीजेन ।को र्थः ? । शाल्यकुरस्य शालिबीजमुत्पत्तिकारणं एवमन्यदपि झेयं । योयस्यावकाशोयद्यस्यो त्पत्तिस्थानं तद्यथावकाशं तेन इह जगति एके केचन जीवावनस्पती उत्पद्यमानाथपि पृथिवीयोनिकाः पृथिवीसंनवाः। कोर्थः? । बीजापुत्पद्यमानोवनस्पतिकायः पृथिव्याधारे समुत्पद्यते । यथा शैवलकदेमादयोजलाधारे जार्यते तथा वनस्पतयोनूमौ जायते इत्य र्थः । तथा एथिव्यां व्युत्क्रमोतिर्येषां ते तथा एवं ते तद्योनिकास्तत्संनवास्तव्युत्क्रमाः कर्मोपगाः कर्मप्रेर्यमाणाः कर्मनिदानेन तत्र प्रथिव्यां वनस्पती वा व्युत्क्रांताबागताः सं तोनानाविधयोनिकासु पृथिवीषु षमा कायानां उत्पत्तिस्थाननूतासु सचित्ताचित्तमिश्रा सु वृक्षतया विवर्तते जायंते । तेच तत्रोत्पन्नास्तासां टथिवीनां स्नेहं स्निग्धनावमाहारंति गृमहंति ॥१॥ तेच तत्रोत्पन्नायाहारंति एथिवीशरीरं । एवमपकायतेजोवायुवनस्पतिशरीर मपि । नानाविधानां त्रसस्थावराणां प्राणिनां यजरीरं तत्स्वकायेनाश्रित्याचित्तं कुर्वति । यदिवा परिविध्वस्तं पृथिव्यादिशरीरं पूर्वाहारितमिति पूर्वमुत्पत्तिसमये प्रथिव्यादिनिरेव श्राहारितमासीत् । तदधुना वनस्पतिजीवस्तत्रोत्पद्यमाननत्पन्नोवा त्वचा स्पर्शनाहारय ति आहार्यच स्वकायत्वेन विपरिणामितं स्वकायेन सह (सारूवित्ति) स्वरूपतः नीतं तन्मयं स्यात् (अवरेवियत्ति) अपराण्यपि प्रथिवीकानां वृक्षाणां शरीराणि नानाव दानि यथा स्कंधस्यान्योवर्णादिर्मूलस्यान्यएव एवं यावन्नानाविधशरीरपुजलविकुर्विताः स्युः । तथाहि । नानारसवीर्य विपाकानानापुजलोपचयात्सुरूपसंस्थानाहढाल्पसंहनना श्व स्युरिति । ते जीवावनस्पतिकायाः कर्मोत्पन्नाएव न पुनः कालेश्वरादिना तत्रोत्पद्यंत इत्याख्यातमईदादिनिः ॥ ॥ ॥ टीका-वितीयाध्यायनानंतरं तृतीयमारन्यते । अस्य चायमनिसंबंधः । कर्मपणा र्थमुद्यतेन निकुणा बादशक्रियास्थानरहितेनात्यक्रियास्थानसेविना सदाहारगुप्तेन नवि तव्यं । धर्माधारजूतस्य शरीरस्याधारोनवत्याहारः। सच मुमुकुणोदेशकादिरहितोग्राह्यः। तेनच प्रायः प्रतिदिनं कार्य मित्यनेन संबंधेनाहारपरिझाध्ययनमायातं । यस्य चत्वार्यनु योगवाराण्युपक्रमादीनि नवंति । तत्रेदमध्ययनं पूर्वानुपूया तृतीयं पश्चानुपा पंचम मानुपूक्त्वनियतमित्यर्थाधिकारः । पुनरत्राहारः गुमाशुचनेदेन निरूप्यते । निदेपस्त्रि विधांघादिस्तत्रौघनिष्पन्ने निक्षेपेऽध्ययनं । नाम निष्पन्ने तु आहारपरिक्षेति विपदनाम । Page #826 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जए वितीये सूत्रकृतांगे वितीयश्रुतस्कंधे तृतीयाध्ययनं. तत्राहारपदनिक्षेपार्थमाह नियुक्तिकारः ॥"नामंतवणादविए, खेते नावेय होंति बोधवो॥ .' एसो खलु याहारे, निरकेवो हो। पंचविहो" ॥ १ ॥ (नामंठवणेत्यादि ) नामस्थाप नाश्व्यदेवनावरूपः पंचप्रकारोनवति निदेपथाहारपदाश्रयति । तत्र नामस्थापनेऽ नादृत्य इव्याहारं प्रतिपादयितुमाह । “दवेसञ्चित्तादी, खेत्ते नगरस्स जव होना वाहारो तिविहो, ए लोमेयपरकेवे" ॥ २ ॥ (दवेत्यादि ) इव्याहारे चिंत्यमाने सचि तादिराहार स्त्रिविधोनवति । तद्यथा । सचित्तोऽचित्तोमिश्रश्च । तत्रापि सचित्तः षडि धः पृथिवीकायादिकः । तत्र सचित्तस्य पृथिवीकायस्य लक्षणादिरूपापन्नस्याहारोइष्ट व्यः। तथापकायादेरपीति । एवंमिश्रोऽचित्तश्चायोज्यः नवरमनिकायमचित्तं प्रायशोमनु प्याबाहारयति वेदनादेस्तद्रूपत्वादिति । क्षेत्राहारस्तु यस्मिन्देत्रे थाहारः क्रियते उत्प द्यते व्याख्यायते । यदिवा नगरस्य योदेशोधान्यधनादिनोपनोग्यः सक्षेत्राहारः । तद्यथा। मथुरायाः समासन्नोदेशः परिनोग्योमथुराहारो मातरकाहारः खेडाहारइत्यादि । नावादार स्त्वयं । कुधोदयानदपर्यायोपपन्नं वस्तु यदाहारयति सनावाहारइति । तत्रापि प्रायशया दारस्य जिव्हेंझ्यिविषयत्वात्तिक्तकटुककषायाम्ललवणमधुररसागृह्यते। तथाचोक्तं । राश्न ते नाव तित्तेवाजावमधुरेत्यादि । अन्यदपि प्रसंगेन गृह्यते । तद्यथा खर विशदमन्यव हार्य नक्ष्यं । तत्रापि पुष्पाढयउंदनः प्रशस्यते न शीतः । उदकंतु शीतमेव । तथाचोक्तं शैत्यमपां प्रधानोगुणः । एवं तावदन्यवहार्य इव्यमाश्रित्य नावाहारः प्रतिपादितः । सांप तमाहारकमाश्रित्य नावाहारं नियुक्तिकदाह । नावाहारस्त्रिविधस्त्रिप्रकारोजवति । था हारकस्य जंतोस्त्रिनिः प्रकारैराहारोपादानादिति । प्रकारानाह । ( उहेत्ति ) तैजसेन श रीरेण तत्सहचरितेनच कर्मणा कार्मणेनान्यां वान्यामप्याहारयति यावदपरमौदारिकं शरीरंन निष्पद्यते । तथाचोक्तं। तेएण कम्मए थाहारेश्अणंतरं जीवो ॥ तेण परं मिस्से ' एं, जाव शरीरस्स निप्पत्ती॥१॥तथा।उपाहाराजीवा,सत्वे थाहारगाअपऊत्ता ॥ लोमा हारस्तु शरीरपर्याप्ट्युत्तरकालं बाह्यया त्वचा लोमनिराहारोलोमाहारस्तथा प्रदेपेण कव लादेराहारः प्रोपाहारः सच वेदनीयोदयेन चतुर्निः स्थानराहारसनावानवति ।तथाचोक्ता चनहिं गणेहि थाहारसम्मासमुप्पर तंजहा मोठ्याए बुहावेयणिकस्स कम्मरस उदए एमई एतयहोवांगेति । सांप्रतमेतेषां त्रयाणामप्येकयैव गाथया व्याख्यानं कर्तुमाहा“स रीरेणोयाहारो तयाय फासेण लोमयाहारो॥ परकेवाहारो पुण,कावलितो होश्नायवो"॥३ (सरीरेणेत्यादि) तैजसेन कार्मणेनच शरीरेणौदरिकादिशरीरानिष्पत्तेर्मिश्रेणच याहारः ससर्वोप्योजाहारइति केचि क्ष्याचदते । औदरिकादिशरीरपर्याप्या पर्याप्तकोपीडियानापा ननाषामनःपर्याप्तिनिरपर्याप्तकः शरीरेणादारयन् उजाहारति गृह्यते । तउत्तरकालं त्व चा स्पर्शेश्येिण थाहारः सलोमाहारति । प्रदेपाहारस्तु कावलिकः कवलप्रदेपनिष्पा Page #827 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रायधनपत सिंघ 'बादाडुरका जैनागम संग्रह नाग इसरा. दितइति ज्ञातव्योजवति । पुनरप्येषामेव स्वामिविशेषेण विशेषमा विर्भावयन्नाह । “याहारा जीवा, सवेापजत्तगामुणेयवा ॥ पत्तगायलोमे, परकेवेहोइनायवा " ॥४॥ ( ज्याहारइ त्यादि ) यः प्रागुक्तः शारीरेणौजसाहारस्तेनाहारेणाहारकाजीवाः सर्वेप्यपर्याप्त काज्ञात व्याः । सर्वानिः पर्याप्तिनिरपर्याप्तास्ते वेदितव्याः । तत्र प्रथमोत्पत्तौ जीवः पूर्वशरीरप रित्यागे विग्रहेणा विग्रहेण चोत्पत्तिदेशे तैजसेन कार्मोन शरीरेण तप्तस्नेह पतित संपानकव तत्प्रदेशस्थानात्पुजलानादत्ते तडुत्तरकालमपि यावदपर्याप्तकावस्था तावदोजखाहारइति । पर्याप्तकास्त्विंदियादिनिः पर्याप्तिनिः पर्याप्ताः केषांचिन्मतेन शरीरपर्याप्तकावा गृह्यते । तदेवं ते लोमाहाराजवंति । तत्र स्पर्शेडियेोमादिना तप्तच्छायया शीतवायुनोदकेन प्री यते प्राणी गर्नस्थोपि पर्यात्युत्तरकालं लोमाहारएवेति । प्रदेपाहारे तु नजनीया यदैव प्रदेपं कुर्वति तदैव प्रदेपाहारानान्यदा लोमाहारता तु वाय्वादिस्पर्शात्सर्वदैवेति । सच लोमाहारश्वकुष्मतामर्वाग्दृष्टिमतां न दृष्टिपथमवतरत्यतोऽसौ प्रतिसमयवर्ती प्रायशः । प्रदेपाहारस्तूपजन्यते प्रायः सच नियतकालीयः । तद्यथा । देवकुरूत्तरकुरुप्रनवाथ्यष्टमन क्ताहाराः संख्ये वर्षायुषामनियतकालीयः प्रदेपाहारइति । सांप्रतं प्रदेपाहारं स्वामि विभागेन दर्शयितुमाह । “एगिंदियदेवाणं, नेरइयाांच नत्थि परकेवो ॥ सेसाणं परकेवो, संसारत्थाणजीवाणं " ॥ ५ ॥ ( गिंदियइत्यादि ) एकमेव स्पर्शेदियं येषां नवत्येकें दियाः पृथिवीकायादयस्तेषां देवनारकाणांच नास्ति प्रदेपस्ते हि पर्यात्युत्तरकालं स्पष ये वाहारयतीति कृत्वा लोमाहाराः । तत्र देवानां मनसा परिकल्पिताः गुनाः पुजलाः सर्वे व कायेन परिणमंति नारकाणां त्वगुनाइति । शेषास्त्वौदा रिकशरीरादींड्रियादयस्तिर्यङ् मनुष्यास्तेषां प्रदेपाहारइति । तेषां संसार स्थितानां काय स्थितेरेवानावात्प्रदेपमंतरे का व कियाहारो जिन्हें प्रियसङ्गावादिति । धन्येत्वाचार्याश्रन्यथा व्याचक्षते । तत्र यो जिव्हेंड्रिये स्थूलः शरीरे प्रक्षिप्यते सप्रदेषाहारः । यस्तु घ्राणदर्शनश्रवणैरुपलच्यते धातुनावेन परिणमति सजाहारः । यः पुनः स्पर्शे दिये गैवोपलभ्यते धातुनावेन प्रयाति स लोमाहारइति । सांप्रतं कालविशेषमधिकृत्याऽनाहाकाननिधित्सुराह । “ एकंच दोव समए, तिन्निव समए मुदुत्तमवा ॥ सादीयम निहपुरा, कालमपाहारगाजीवा ॥ ६ ॥ ( एक्कं चेत्यादि ) तत्र । विग्गहगइमावन्ना, केवलियो समुहया योगीया ॥ सि - या हारा, सेसा श्राहारगाजीवा । श्रस्याजेशतोयमर्थः । उत्पत्तिकाले विग्रहग तौ वक्रगतिमापन्नाः केवलिनोलोकपूरणकाले समुद्वातावस्थिताययोगिनः शैलेश्य वस्थाः सिद्धाश्वानाहारकाः शेषास्तु जीवा हारकाइत्यवगंतव्यं । तत्र नवावांतरं यदा समया याति । तदा नाहारकोन लच्यते । यदापि विश्रेष्यामेकेन वक्रेोत्पद्यते त दापि प्रथमसमये पूर्वशरीरस्येनाहारितं द्वितीयेत्ववत्रसमये समाश्रितशरीरस्थेनेति । For Private Personal Use Only Page #828 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जएG हितीये सूत्रकृतांगे वितीयश्रुतस्कंधे तृतीयाध्ययनं. वक ध्येतु त्रिसमयोत्पत्तौ मध्यसमयेनाहारकइति इतरयोस्त्वाहारकइति । वक्रत्रये तु चतुःसमयोत्पत्तिके मध्यवर्तिनोः समययोरनाहारकश्चतुःसमयोत्पत्तिश्चैवं नवति । त्रस नाड्या बहिरुपरिष्टादधोधस्ता पर्युत्पद्यमानो दिशोविदिशि विदिशोवादिशि यदोत्पद्यतेत दालन्यते । तत्रैकेन समयेन त्रसनाडीप्रवेशोदितीयेनोपर्यधोवा गमनं तृतीयेनच बहिर्निः सरणं चतुर्थेन तु विदितत्पत्तिदेशप्राप्तिरिति । पंचसमयास्तु त्रसनाड्याबहिरेव विदिशो विदिगुत्पत्ती जन्यते । तत्रच मध्यवर्तिषु थनाहारकश्त्यवगंतव्यं । याद्यंतसमययोस्त्वा हारकति । केवलिसमुद्घातेपि कार्मणशरीरवर्तित्वात् तृतीयचतुःपंचसमयेष्वनाहार कोइष्टव्यः । शेषेषु तुंत्वौदरिकत मिश्रवर्तित्वा तृतीयचतुः पंचम समयेऊना दारको ६ ष्टव्यः शेषेषुतु त्वौदारिकतन्मिश्रवर्तित्वादादारकइति । (मुदुत्तमचत्ति ) अंतर्मुहू ते गृह्यते । तच्च केवली स्वायुषःक्ष्ये सर्वयोगनिरोधे सति न्हस्वपंचाक्रोजिरणमात्रकालं यावदनाहारकश्त्येवमवगंतव्यं । सिजीवास्तु शैलेश्यवस्थायाधादिसमयादारल्यानंत मपि कालमनाहारकाइति । सांप्रतमेतदेव स्वामिविशेष विशेषिततरमाह । “एकंच दोव समए, केवलिपरिवटिया अणाहारा ॥ पंचमि दोणि लोए, यपूरिए तिन्नि समया ॥७॥ (एकंचेत्यादि) केवलपरिवर्जिताः संसारस्थाजीवाएकं वा अनाहारकानवंति । तेच विविग्रह त्रिविग्रहोत्पत्तौ त्रिचतुःसामयिकायां इष्टव्याः । चतुर्विग्रहपंचसमयो त्पत्तिस्तु स्वल्पसत्वाश्रितेति न सादाउपात्ता । तथा चान्यत्राप्यनिहितं । एकं झौवा नाहारकः। वाशब्दात् त्रीन् वा आनुपूर्व्या अभ्युदयनत्कृष्टतोविग्रहगतौ चतुरः समया नागमेऽनिहिताः । तेच पंचसमयोत्पत्तौ लज्यंते नान्यत्रेति । नवस्थकेवलिनस्तु समुद घाते मंथे तत्करणोपसंहारावसरे तृतीयपंचसमयौ नौ लोकपूरणाचतुर्थसमयेन सहि तास्त्रयः समयानवंतीति । पुनरपि नियुक्तिकारः सादिकमपर्यवसानं कालमनाहारकत्वं दर्शयितुमाह । “अंतोमुत्तम, सेलेसीए नवे अणाहारा ॥ सादीयमनिहांपुण, सिक्षायणाहारगाहोंति" ॥ ७ ॥ (अंतोमुहुत्तमित्यादि) शैलेश्यवस्थायाधारन्य सर्वथानाहारकः सिमावस्याप्राप्तावनंतमपि कालं यावदिति । पूर्वतु कावलिकारख्यव्य तिरेकेण प्रतिसमयमनाहारकः कावलिकेनतु कादाचित्कइति । ननु केवलिनोघाति कर्मक्येनंतवीर्यवान्न नवत्येवकावलिकाहारकः । तथाहि । आहारादाने यानि वेद नीयादीनि षट्कारणान्यनिहितानि तेषां मध्ये एकमपि न विद्यते केवलिनि तत्कथमसा वाहारं बहुदोषउष्टं गृपहीयात् ?। तत्र न तावत्तस्यवेदनोत्पद्यते तदनीयस्य दग्धरङ स्थानिकत्वात्सत्यामपि न तस्य तत्कृता पीडा अनंतवीर्यत्वात् । वैयावृत्यकरणंतु नगव ति सुरासुरनराधिपतिसंघेन संनाव्यतएवेति । र्यापथः पुनः केवलज्ञानावरणपरिक्ष्या त्सम्यगवलोकयत्येवासौ। संयमस्तु तस्य यथाख्यातचारित्रिपोनिष्ठितार्थवादनंतवीर्य Page #829 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राय धनपतसिंघ बादाडुरका जैनागम संग्रह नाग डुसरा. त्वान्नाहारग्रहणाय कारणीनवति । प्रावृत्तिस्तु तस्यानुपवर्तित्वात् यायुषोऽनंतवीर्यत्वा चान्यथासिदैव धर्मचिंतावसरस्त्व पगतो निष्ठितार्थत्वात् । तदेवं केवलिनः कावलिका काहारोव्ह पायत्वान्न कथंचिद्घटतइति स्थितं । यत्रोच्यते । तत्र तावद्यडुक्तं घातिकर्मये केवलज्ञानोत्पत्ताव नंतवीर्यत्वान्न केव निनोजुक्तिरिति । तदागमान निशस्य तत्वविचाररहित स्य युक्तिहृदयमजानतोवचनं । तथाहि यदाहारनिमित्तं वेदनीयं कर्म तत्तस्य तथैवास्ते । किमिति ? | सा शारीरी स्थितिः प्राक्तनी ननवति प्रमाणंच अस्ति केवलिनोमुक्तिः समग्र सामग्री कत्वात्पूर्ववित् । सामग्रीचेयं प्रदेपाहारस्य तद्यथापर्याप्तत्वं वेदनीयोदय : थाहारपक्तिनिमित्तं तैजसशरीरं दीर्घायुष्कत्वंचेति । तानिच समस्तान्यपि केवलिनि सं ति । यदपि दग्धरकुसंस्था निकत्वमुच्यते वेदनीयस्य । तदप्यनागमिकम युक्तिसंगतंच याग त्यंतोदया सा तस्य केवलिन्यनिधीयते युक्तिरपि । यदि घातिकर्मया ज्ञानादयस्त स्यानूवन् वेदनीयोनवायाः कुधः किमायातं येनासौ न नवति । नतयोश्वायातयोरिव सहानवस्थानलक्षणानामपि नावानावयोरिव परस्परपरिहारलक्षणः कश्विद्विरोधोस्ती ति । सातासातयोश्चांतर्मुहूर्त परिवर्तमानतया यथा सातोदय एवमसातोदयोऽपीत्यनंतवीर्य त्वे सत्यपि शरीरबलापचयः कुछेदनीयोनवा च पीडा भवत्येव । नचाहारग्रहणे तस्य किं चिदीयते केवजमाहोपुरुषिकामात्रमेवेति । यदप्युच्यते वेदनीयस्योदीरणायायनावा त्प्रनूत तर पुलोदयानावाञ्चात्यंतं वेदनीय पीडानावइति वाङ्मात्रं । तथाह्यविरतसम्यग्द ष्ट्यादिष्वेकादशसु स्थानेषु वेदनीयगुणश्रेणी सद्भावात्प्रनूत पुजलोदय सद्भावः किंतेषु प्राक्त नेयोऽधिकपीडासनावइति । पिच योजिने सातोदयस्तीत्रः किमसौ प्रचुर पुलोद ये नेति तोयत्किंचिदेतदिति । तदेवं सातोदयवदसातोदयोपि केवलिन्यवतारितइति तयोरं तर्मुहूर्त कालेन परिवर्तमानत्वात् । यद्यपि क्वचित्कै श्चिद निधीयते विपच्यमानतीर्थकरनाम्नो देवस्य च्यवनकाले षएमासकालं यावदत्यंतं सातोदय एवेत्य सावपि यदिस्यान्न ततो बाधायै केवलिनां चुकेर निवारितत्वात् । यदप्युच्यते श्राहारविषयाकांछारूपा कुद्भवति श्रनिकां दावाऽहारपरिग्रहबुद्धिः साच मोहनीय विकारस्तस्य चापगतत्वात्केवलिनोन मुक्तिरिति । एतदप्यसमीचीनं । यतोमोहनीय विकारात्कुन्न नवति तद्विपाकस्य प्रतिपक्षनावनया प्र तिसंख्यानेन निवर्त्यमानत्वात् । तथाहि । कषायाः प्रतिकूलनावनया निवर्त्यते । तथा चोक्तं । उपसमे हणे कोहं माणं महवया जिसे ॥ मायं वतवनावेन लोनं संतुहिए जिसे । मिथ्यात्वसम्यक्त्वयोश्च परस्पर निवृत्तिर्भावना कृता प्रतीतैव । वेदोदयोपि विपरीतजावन या निवर्तते । तक्तं । काम जाना मिते मूलं, संकल्पात्किल जायसे ॥ ततस्तं नकरिष्या मि, ततोमे न जविष्यसि || १ || हास्यादिषट्कमपि चेतोविकारूपतया प्रतिसंख्यानेन निवर्तते कुछेदनीयंतु रोगशीतोष्मा दिवक्की व पुजल विपाकितया न प्रतीपवासनामात्रेण नि For Private Personal Use Only Page #830 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीये सूत्रकृतांगे द्वितीयश्रुतस्कंधे तृितीयाध्ययनं. वर्ततेऽतोन मोहविपाकस्वनावा कुदिति । तदेवं व्यवस्थिते यत्कै विदाग्रहगृहीतैरनि धीयते यथा प्रवर्त्यते कृतार्थ नायुर्ज्ञानादयोन हीयंते जगडुपकतावनंतं वीर्य किं गततृषो तिस्तदेतत् लवते यतश्वद्मस्थावस्थायामप्येतदस्तीति तत्रापि किमिति भुंक्ते तत्र सम स्तवीर्यातयकयानावान्मुक्तिसङ्गावइति चेत्तदयुक्तं । यतः किं तत्रायुषोपवर्तनं स्यात् किंवा चतुर्णां ज्ञानानां काचिचानिःस्याद्येन न मुक्तिरिति । तस्माद्यथा दीर्घकाल स्थितेरायुष्कं arthaarat | यथा सिद्धिगतेर्युपरत क्रियस्य ध्यानस्य चरमणः कारणमेवं सम्य क्त्वादिकमपीति । अनंतवीर्यतापि तस्याहारग्रहणे सति न विरुध्यते । यथा तस्य देवदा दीनि विश्रामकारणानि गमनविषीदनानिच नवंत्येवमाहार क्रियापि विरोधाभावान्नात्र बलवत्तर वीर्यवतोऽल्पीयसी कुदिति । एवंच स्थिते यत्किंचिदेतत् । अपि चैकादशपरीषहावे दनीयकता जिने प्राडुःष्यंति । यपरेतु एकादशज्ञानावरणीयादिकृतास्तत्कयेऽपगता इती यमप्युपपतिः केवलिनि जुक्तिं साधयति । तथाहि । कुत्पिपासाशीतोष्म दंशमशकनाश्यादिरि ति स्त्रीचर्या निषद्याशय्याक्रोश वधयाञ्चालान रोगतृण स्पर्शमन सत्कार पुरस्कारप्रज्ञानदर्शना नीत्येते द्वाविंशतिर्मुमुक्षा परिसोढव्याः परिषहास्तेषांच मध्ये ज्ञानावरणीयोडौ प्रज्ञा ज्ञानाख्यौ दर्शनीयमोहनीयसंनवोदर्शनीयपरिषहोंतरायोहोलानपरिषहोस्ति । चारित्र हनीय संनूतास्त्वमी नामोयार तिस्त्रीनिषद्यायाञ्चासत्कार पुरस्काराः । एते चैकादशापि जिने केवलिति न संभवंति तत्कारणानामपगतत्वात् । नहिकारणानावे क्वचित्कार्योपपत्तिः । शेषास्त्वेकादश जिने संनवंति तत्कारणस्य वेदनीयस्य विद्यमानत्वात् । तेचामी कुत्यि पासाशीतोष्मदशकचर्या शिय्यावधरोगतृणस्पर्शमलाख्याः । एतेच वेदनीयप्रनवास्तत्र केव लिनि विद्यते । नच निदानानुछेदे निदानिनछेदः संभाव्यते यतः केव जिनि कुदनी यादिपीडा संभाव्यते । केवलमसावनंतवीर्यत्वान्न विव्हलीनवति । नचासौ निष्ठितार्थो निः प्रयोजनमेव पीडामधिसहते । नच शक्यते वक्तुमेवंभूतमेव तस्य जगवतः शारीरं यत कुपीडा न बाधते थाहारमंतरेण वर्तते यथास्वनावेनैव प्रस्वेदादिरहितमेव प्रदेपाहार रहितं इत्येतच्चाप्रमाणकत्वादपकर्णनीयं । अपिच केवलोत्पत्तेः प्रागुक्तेरन्युपगमात्केव लोत्पत्तावपि तदेवदारिकं शरीरमाहाराद्युपसंस्कार्यमथान्यथानावः कैश्विमुच्यते असाव पि युक्तिरहितत्वादन्युपगममात्रक एवेति । तदेवं देशोन पूर्वकोटिकालस्य केवल स्थितेः सं aarat दरिकशरीरस्थितेश्व यथायुष्कं कारणमेवं प्रदेपाहारोपि । तथाहि । तैजसशरीरेण मृडुकृतस्याज्यवत्दृतस्य इव्यस्य स्वपर्याहया परिणामितस्योत्तरोतर परिणामक्रमेणौदा रिक शरीरिणामनेन प्रकारेण कुनवो नवति वेदनीयोदये सतीयं च सामग्री सर्वापि भगवति केवलिन संभवति तत्किमर्थमसौ न चुंक्ते नच घातिचतुष्टयस्य सहकारिकारणजावोस्ति येन तदावात्तदनावइत्युच्यते । तदेवं संसारस्थाजीवा विग्रहगतौ जघन्येनैकं समयं तत्क ८०० For Private Personal Use Only Page #831 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राय धनपतसिंघ बाहाउरका जैनागम संग्रह नाग उसरा. १ टतः समयत्रयं नवस्थकेवली च समुद्घातावस्थः समयत्रयमनाहारकः शैलेश्यवस्थायां त्वंतर्गदर्त। सिधास्तु सादिकमपर्यंत कालमनाहारकाइति स्थितं। सांप्रतं प्रथमाहारग्रहणं येन शरीरेण करोति तदर्शयति । जोएण कम्मएणं,थाहारेश्अणंतरंजीवा ॥ तेण परं मी सेणं, जीवसरीरस्त पत्ती, ॥ ए॥ (जोएणेत्यादि) ज्योतिस्तेजस्तदेव तत्र वा नवं तैजसं कार्मणेन चाहारयति । तैजसकार्मणे हि शरीरे श्रासंसारनाविनी तान्यामेवोत्पत्तिदे शं गताजीवाः प्रथममाहारं कुर्वति ततः परमौदारिकमिश्रेण वैक्रिय मिश्रणेन वा यावरी रं निष्पद्यते तावदाहारयति । शरीरनिष्पत्तौ त्वौदारिकेण वैक्रियेण वाऽहारयंतीति स्थित। सांप्रत परिझानिदेपार्थमाह ।” णामं उवणपरिन्ना, दवनावेय होइ नायवा॥ दवपरिन्ना ति विहा, नावपरिन्ना नवे विहा,, ॥१०॥ (णाममित्यादि) तत्र नामस्थापना व्यना वनेदात्परिझा चतुर्धा । तत्रापि नामस्थापने हुमत्वादनादृत्य इव्यपरिज्ञा प्रतिपादयन गाथापराईमाह । इव्यपरिक्षेति । इव्यस्य इव्येण वा परिक्षा सा च परिवेद्यव्यप्रधान्यात स्यच सचित्ताचित्तमिश्रनेदेन त्रैविध्यात्रिविधेति । नावपरिझापि झपरिझाप्रत्याख्यानने देन विविधेति । शेषास्त्वागमनोयागमझशरीरव्यतिरिक्तादिको विचारः शस्त्रपरिझावहष्ट व्यः । गतानिपनियुक्तिरधुना सूत्रानुगमेऽस्खलितादिगुणोपेतं सूत्रमुच्चारयितव्यं । तच्चे दं । (सुयंमे थानसंतेणमित्यादि) सुधर्मस्वामी जंबूस्वामिनमुद्दिश्येदमाह । तद्यथा । श्रुतं मयाऽऽयुष्मता तु नगवतेदमाख्यातं । तद्यथा। आहारपरिझेदमध्ययनं तस्य चायमर्थः। प्राच्यादिषु दिक्कु सर्वतश्त्यूर्वाधोविदिक्कु च (सवावंतित्ति ) सर्वस्मिन्नपि लोके क्षेत्रे प्रज्ञा पकनाव दिगाधारनूतेऽस्मिन् चत्वारोबीजकायाबीजमेव कायोयेषां ते तथा । बीजं वक्ष्य माणं । चत्वारोबीजप्रकाराः समुत्पत्तिनेदानवंति । तद्यथा । अये बीजं येषामुत्पद्यते ते तलतालीसहकारादयः शाल्यादयोवा । यदिवाऽग्राण्येवोत्पत्तौ कारणतां प्रतिपद्यते येषां कोरंटादीनां ते अग्रबीजास्तथा मूलबीजाआईकादयः पर्वबीजास्त्विवादयः स्कंध बीजाः सनक्यादयः। नागार्जुनीयास्तु पति । वस्सइकाइयाण पंचविहा बीजवकंती॥ एवमाहिजार तंजहा अग्गमूलपोरुरकंधबीयरुहानहाविएगेंदियासमुहिमाबीया जायते । यथा दग्धवनस्थलीषु नानाविधानि हारितान्युजवंति पद्मिन्योवाऽनिनवतडागादाविति । तेषां च चतुर्विधानामपि वनस्पतिकायानां यद्यस्य बीजमुत्पत्तिकारणं तद्यथाबीजं तेन य था बीजेनेति । इदमुक्तं नवति । शाल्यंकुरस्य शालिबीजमुत्पत्तिकारणं । एवमन्यदपि इष्ट व्यं । यथावकाशेति । योयस्यावकाशः यद्यस्योत्पत्तिस्थानमथवा नूम्यंबुकालाकाशबीज संयोगायथावकाशे गृह्यंते तेनेति । तदेवं यथाबीजं यथावकाशेन चेहास्मिन् जगत्येके केचन सत्वाये तथाविधकर्मोदया वनस्पतित्पित्सवस्तेहि वनस्पतावुत्पद्यमानायपि एथि वीयोनिका नवंति यथा तेषां वनस्पतिबीजं कारणमेवमाधारमंतरेणोत्पत्तेरनावात्प्टथिव्यपि १०१ Page #832 -------------------------------------------------------------------------- ________________ G०३ तिीये सूत्रकृतांगे वितीय श्रुतस्कंधे तृतीयाध्ययनं शैवालजंबालादेरुदकवदिति । तथा पृथिव्यां संनवः सदा नवनं येषां वनस्पतीनां तथा। दमुक्तं नवति न केवलं ते सद्योनिकाय स्थितिकाश्चेति । तथा एथिव्यामेव विविधमुत्प्राबल्येन क्रमःक्रमणं येषां ते पृथिव्युक्रमाः। इदमुक्तं नवति । पृथिव्यामेव तेषामूज़ क्रमणलदाणार दिवति । एवंच ते तद्योनिकास्तत्संनवास्त युक्रमाश्त्येतदनूद्याप्यपरं विधातुकामथाह। (कम्मोवगाइत्यादि) तेहि तथाविधेन वनस्पतिकायसंनवेन कर्मणा प्रेर्यमाणास्तेष्वेव वन स्पतिकूपसामीप्येन तस्यामेव च पृथिव्यां गढंतीति कर्मोपगानण्यंते । तेहि कर्मवशगावन स्पतिकायादागत्य तेष्वेव पुनरपि वनस्पतित्पद्यते न चान्यत्रोप्ताअन्यत्र नविष्यंतीति । नक्तंच । कुसुमपुरोते बीजे, मथुरायां नांकुरः समुन्नवति ॥ यत्रैव तस्य बीजं तत्रैवोत्प यते प्रसवः । तथा ते जीवाः कर्मनिदानेन कारणेन समाकृष्यमाणास्तत्र वनस्पतिका ये वा व्युक्रमाः समागताः संतोनानाविधयोनिकासु पृथिवीष्वित्यन्येषामपि परमां का यानामुत्पत्तिस्थाननूतासु सचित्ताऽचित्तमिश्रासु वा श्वेतकामादिवर्ण तिक्तादिरससुरन्यादि गंधमृउकर्कशादिस्पर्शा दिकैर्विकल्पैर्बदुप्रकारासु नूमिषु वृक्षतया विविधं वर्तते तेच तत्रो त्पन्नास्तासां पृथिवीनां स्नेहं स्निग्धनावमाददते सएवच तेषामाहारइति । नच ते टथि वीशरीरमाहारयंतः पथिव्याः पीडामुत्पादयंति ॥१॥ एवमप्रकायतेजोवायुवनस्पतीनामा योज्यं । अत्रच पीडानुत्पादनेऽयं दृष्टांतः । तद्यथा। अंडोनवाद्याजीवामातुरूष्मणा वि वर्धमानागर्नस्थाएवोदरगतमाहारयंतोनातीव पीडामुत्पादयंत्येवमसावपि वनस्पतिका यिकः पृथिवीस्नेहमाहारयन्नातीव तस्याः पीडामुत्पादयति नत्पद्यमानः समुत्पन्नश्च वृद्धि मुपगतोऽसदशवर्णरसाद्युपेतत्वात् बाधां विदध्यादपीति । एवमप्कायस्य नोमस्यांतरि दस्य वा शरीरमाहारयंति तथा तेजसोनस्मादिकं शरीरमाददति । एवं वाय्वादेरपीति इष्टव्यं । किंबहुनोक्तेन नानाविधानां त्रसस्थावराणां प्राणिनां यजरीरं तत्ते समुत्पद्यमा नाअचित्तमपि स्वकायेनावष्टन्य प्रासुकीकुर्वति । यदिवा परिविध्वस्तं पृथिवीकायादिश रीरं किंचित्परितापितं कुर्वति ते वनस्पतिजीवाएतेषां पृथिवीकायादीनां तहरीरं पूर्वमा हारितमिति तैरेव पृथिवीकायादि निरुत्पत्तिसमये बादारितमासीत् स्वकायत्वेन परिणा मितमासीत् । तदधुना वनस्पतिजीवस्तत्रोत्पद्यमाननत्पन्नोवा त्वचा स्पर्शनाहारयत्याहा र्य च स्वकायत्वेन विपरिणामयति विपरिणामितं च तहरीरं स्वकायेन सह स्वरूपतां नी तं सत्तन्मयतां प्रतिपद्यते । अपराण्यपि मूलशाखाप्रतिशाखापत्रपुष्पफलादीनि तेषां प थिवीकायिकानां वृक्षाणां नानावर्णानि।तथाहि । स्कंधस्यान्यथाजूतोवर्णो मूलस्य चान्या दृशइति । एवं यावन्नानाविधशरीरेषु पुजलविकुर्वितास्ते नवंतीति । तथाहि । नानारस वीर्यविपाकानानाविधपुजलोपचयात्सुरूपकुरूपसंस्थानास्ते नवंतीति । तथा दृढाल्पसंहन नाः कशस्थूलस्कंधाश्च नवंत्येवमादिकानानाविधस्वरूपाणि विकुर्वतीति स्थितं । केषां Page #833 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राय धनपतसिंघ बाहाउरका जैनागम संग्रह नाग असरा. ०३ चिबाक्यादीनां वनस्पत्याद्याः स्थावरजीवाएव न नवंतीति अतस्तत्प्रतिषेधार्थमाह । (ते जीवाश्त्यादि ) ते वनस्पतिषूत्पन्नाजीवानपयोगलदाणत्वाङीवानां । तेषामप्याश्रयोत्स र्पणादिकया क्रिययोपयोगोलदयते । तथा विशिष्टाहारोपचयाऽपचयान्यां शरीरोपचयाप चयसन्नावादकजीवाः स्थावरास्तथा बिन्नप्ररोहणात्स्वापात्सर्वत्वगपहरणे मरणादित्येव मादयोहेतवोऽत्र इष्टव्याः। यदत्र कैश्चित्स्टष्टेपि वनस्पतीनां चैतन्ये सिमानकांतिकत्वादिक मुक्तं स्वदर्शनानुरागात्तदपकर्णनीय। नहि सम्यगार्हतमतानिकोसिझविरुझानकांतिकोपन्या सेन व्यामोह्यते सर्वस्य कथंचिदन्युपगतत्वात्प्रतिषित्वाञ्चेति ते जीवास्तत्र वनस्पतिष तथा विधेन कर्मणा उपपन्नगाः। तच्चेदं एकेंश्यिजातिस्थावरनामवनस्पतियोग्यायुष्कादिकमिति तत्कर्मोदयेन तत्रोत्पन्नाच्यते न पुनः कालेश्वरादिना तत्रोत्पाद्यते इत्येवमाख्यातं तीर्थ करादिनिरिति । एवंतावत्प्टथिवीयोनिकादायनिहिताः ॥ ५ ॥ अहावरं पुरकायं इगतिया सत्ता रुरकजोणिया रुरकसंनवा रुकवू कमा तजोणिया तस्संनवा तज्ज्वकमा कम्मोवगा कम्मनियाणेणं तब वुकमा पुढवीजोणिएहिं रुकेहिं रुकत्ताए विनति ते जीवा तेसिं पुढवी जोणियाणं रुकाणं सिणेहमादारेति तेजीवा आदाति पुढवीसरीरं आ नतेवाग्वणस्ससरीरं णाणाविहाणं तसथावराणं पाणाणं सरीरं अचि तं कुवंति परिविश्वं तं सरीरं पुवाहारियं तयादारियं विप्परिणामियं सा रुविकडं संतं अवरेवि यणं तेसि रुरकजोणियाणं रुकाणं सरीरा पाणाव नाणाणागंधा पाणारसा पाणाफासा गाणासंगणसंठिया गाणाविद सरीरपुग्गलविनविया ते जीवा कम्मोववनगा नवंतीतिमकायं ॥३॥ अर्थ-हवे तद्योनिक वनस्पतिने विषे अन्य बीजा जीव उपजे, ए देखाडे, श्री सु धर्मस्वामी श्री जंबूस्वामि प्रत्ये कहे के, वली वनस्पतिनो (अहावरंपुरस्कायं के०) अ पर एटले बीजो प्रकार, पूर्वे श्री तीर्थकर देवें कह्यो, ते हवे कहेले. (इहेगतिया के०) कोई एक ( सत्ता के०) जीव प्राणी, (रुस्कजोणिया के०) दज जेनी योनि एटले उत्पत्तिस्थानकले, ते पृथ्वीयोनिक वृदने विषे वृद पणेज नपजे. (रुरकसंनवा के०) ते पृथ्वीयोनिक वृदने विषे वनस्पतिकायनो संनवले. (रुरकवुकमा के० ) तथा तृ क्ने विषे नाना प्रकारे प्रबल पणे संक्रमण जे जेनो, एटले वृद्धिले. (तजोणिया के ) तद्योनिकले, (तस्संनवा के०) तत्संनवडे, (तविकमा के०) तेना सरखो उ Page #834 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८०४ द्वितीये सूत्रकृतांगे द्वितीय श्रुतस्कंधे तृतीयाध्ययनं . पक्रमजेनो ( कम्मोवगाके ० ) कर्मना वशं गत वनस्पतिकायथी यावी वली तेहीज वन स्पतिका विषे ( कम्म नियालेलं के० ) कर्मना कारण थकी याकर्षिता ( तबवुक्कमा ho ) त्यां खाव्या बता ( पुढवीजो लिए हिंरुर केहिं के० ) पृथ्वीयोनिक वृनी पेठें (रु कत्तावितिके) वृक्ष पणे उपजे. ते जीव तेहीज पृथ्वी योनिक वृनो स्नेह थाहा राहारे, तेणे करी उपचय पामे. हवे ते जीवो गुं खाहारे ? तोके पृथ्वी, ग्रुप, तेज, वायु वनस्पतिना शरीर, तथा नाना प्रकारना, त्रस स्थावर जीवोनां शरीर, चित्त करें ; परंतु तेने पीडा न उपजावे, परिविध्वंस करे. ते शरीरने पूर्वे ग्राहारस्युं ते, अथवा हम या उपजतां प्राहारेबे, अथवा उपना पली खाहारेबे, त्वचाने स्पर्शे करी बहारीने प रिमावीने, पोतानी काया सरखां रूप करे. इत्यादिक बीजुं सर्व पूर्ववत् जाणवुं ॥ ३ ॥ ॥ दीपिका - पूर्व पृथिव्यां ये वृक्षावत्पद्यते ते उक्ताः । यत्र तु वृद्देष्वेव ये वृाजा यं तान् वक्ति (हावरंति) अथापरमेतदाख्यातं पुरार्हता । इहैके सत्वावृएव योनिरु त्पत्तिस्थानमाश्रययेषां ते वृक्षयोनिकावृक्षाः । इहच पूर्वं पृथिवीयोनिकेषु वृक्षेषु कथि तं यत्तदेवात्र व्याख्येयं पूर्ववत् ॥ ३ ॥ ॥ टीका- सांप्रतं तद्योनिकेष्वेव वनस्पतिषु परे समुत्पद्यत इत्येतद्दर्शयितुमाह । (हावरमित्यादि) सुधर्मस्वामी शिष्योद्देशेनेदमाह । यथापरमेतदाख्यातं पुरा तीर्थक रेण । यदिवा तस्यैव वनस्पतेः पुनरपरं वक्ष्यमाणमाख्यातं । तद्यथेहास्मिन् जगत्येके केचन तथाविधकर्मोदयवर्तिनः सत्वाः प्राणिनोवृक्षाएव योनिरुत्पत्तिस्थानमाश्रयोयेषां ते वृयोनिकाः । इह यत्पृथिवीयो निकेषु वृद्देष्वनिहितं तदेतेष्वपि वृयोनिकेषु व नस्पतिषु तपचयकर्तृ सर्वमायोज्यं यावदाख्यातमिति ॥ ३ ॥ हावरं पुरकायं इदेगतिया सत्ता रुकजोणिया रुकसंनवा रुक वुक्कमा तोणिया तस्संभवा तवक्कमा कम्मोवगा कम्मणियाणं तच वुक्कमा रुस्कजोणिएस रुकत्ताए विवति ते जीवा तेसिं रुकजोलिया णं रुस्काणं सिणेहमादारैति ते जीवा यदारेति पुढवीसरीरं यावते नवान वस्सइसरीरं तसथावराणं पाषाणं सरीरं चित्तं कुर्वति परि विश्वं तं सरीरं पुवादारियं तयाहारियं विपरिणामियं सारू विकडं संतं प्रवरेवि यणं तेसिं रुकजोणियाणं रुरकाणं सरीरा पाणावन्ना जाव ते जीवा कम्मोववन्नगा भवतीति मस्कायं ॥ ४ ॥ For Private Personal Use Only Page #835 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राय धनपतसिंघ बादाउरका जैनागम संग्रह नाग उसरा. ५ अर्थ-हवे वनस्पतिना अवयवोनो अधिकार कहेजे. (श्रदावरंपुरस्कार्य के० ) अथ हवे अपर स्थानक तीर्थकरें कमुले, ते कहेले. या जगत् मांहे कोई एक जीव, वृद ज जेनी योनि एटले उत्पत्तिस्थानकले, वृक्ने विषेज जेनो संनवडे, एटले दिने वृदने विषेज जेनुं नाना प्रकारें संक्रमण, ते योनिक ते संनवने कर्मना वसंगत वन स्पतिकाय थकी यावी वली तेज वनस्पतिने विषे कर्मने कारणे आकर्षिता त्यां या व्या बता, वृदयोनिक वृदने विषे वृद पणे नपजे. ते जीव तेहज वृदयोनिक वृद नो स्नेह थाहारे ते जीव थाहारे पृथ्वी, आप, तेज, वायु, अने वनस्पति कायनां शरीर, त्रस अने स्थावर प्राणीनां शरीर अचित्त करे परिविध्वंस करे ते वनस्पतिना जीव पृथ्वी कायादिकनुं जे शरीर पूर्वे थाहायुं, तथा हमणां उपजतां अथवा उपनां पड़ी जे था हारे, ते त्वचाने स्पर्श करी आहारीने परणमावीने पोतानी काया सरखां रूप करे, ते अवयवरूप रूप करे, ते कहेले. एक मूल, बीजं कंद, त्रीजी त्वचा, चोथी शाखा, पांचमां प्रवाल एटले नवांकुर, बा पुष्प, सातमां पत्र, आठमां फल, नवमां बीज, दश मो स्कंधनूत, ते वदनां ए दश स्थानकने विषे जीव उपजे . ते वृद योनिक, ते वृद ना शरीर नाना प्रकारना वर्ण वाला यावत् ते वनस्पतिना जीव कर्मना उदयें उपना होय. एरीतें नगवंत श्री तीर्थकर देवें कह्या, परंतु काल ईश्वरादिक कारण कोई नथी. ॥४॥ ॥ दीपिका-अथापरमेतदाख्यातं । इदं वनस्पत्यवयवसूत्रं । यथा इहैके जीवाक्यो निकाः स्युस्तदवयवाश्रिताश्चान्ये वनस्पतिरूपाएव जीवाः स्युः। तथाहि । योहि एकोव नस्पतिजीवः सर्वदावयवव्यापी स्यात् तस्य चापरे तदवयवेषु मूल १ कंद २ व ३ शाखा ४ प्रवाल ५ पुष्प ६ पत्र ७ फल बीज । स्कंध, १० जूतेषु दशस्थानेषु जीवाः समुत्पद्यते तेच तत्रोत्पद्यमानावृदयोनिकातदोभवावृक्षव्युत्क्रमाश्चोत्पद्यते इति शेषं पूर्ववत् । इह चत्वारि सूत्राणि यथापूर्वमुक्तानि । यथा वनस्पतयः पृथिव्याश्रिता नवंतीत्येकं १ तहरीरमपकायादिशरीरं चाहारयंति २ वृक्षास्तदादारितं शरीरमचित्तं वि ध्वस्तंच कृत्वात्मसात्कुर्वति ३ अन्यान्यपि तेषां पृथिवीयोनिकानां वनस्पतीनां शरीराणि मूलकंदादीनि नानापर्णानि नवंति ५ एवमत्रापि चत्वारि सूत्राणि यानि ॥ ४ ॥ ॥ टीका-सांप्रत वनस्पत्यवयवानधिसत्याऽऽह । (यहावरमित्यादि) अथापरमेतदा ख्यातं तदर्शयति । इहास्मिन् जगत्येके न सर्वे तथाविधकर्मोदयवर्तिनोवृदयोनिकाः स खानवंति तदवयवाश्रिताश्च परे वनस्पतिरूपाएव प्राणिनोनवंति । तथा यो कोवनस्प तिजीवः सर्ववृक्षावयवव्यापी नवति तस्य चापरे तदवयवेषु मूलकंदस्कंधत्वशाखाप्रवा Page #836 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७०६ वितीये सूत्रकृतांगे द्वितीय श्रुतस्कंधे तृतीयाध्ययनं. लपत्रपुष्पफलबीजनूतेषु दशसु स्थानेषु जीवाः समुत्पद्यंते तेच तत्रोत्पद्यमानावृदयो निकाकव्युत्क्रमाश्चोच्यते इति । शेषंपूर्ववत् । इहच प्राक्चतुर्विधार्थप्रतिपादकानि सू त्राण्यनिहितानि । तद्यथा। वनस्पतयः पृथिव्याश्रितानवंतीत्येकं तहरीरं १ अपकाया दिशरोरं वाऽहारयंतीति वितीयं २ तथा विवृक्षास्तदादारितं शरीरमचित्त विध्वस्तंच क त्वात्मसात्कुर्वतीति तृतीयं ३ अन्यान्यपि तेषां पृथिवीयोनिकानां वनस्पतीनां शरीराणि मूलस्कंधकंदादीनि नानावर्णानि नवंतीति चतुर्व ४ एवमत्रापि वनस्पतियोनिकानां वन स्पतीनामेवं विधार्थप्रतिपादकानि चतुःप्रकाराणि सूत्राणि इष्टव्यानीति यावत्ते जीवावन स्पत्यवयवमूलस्कंधादिरूपाः कर्मोपपन्नगानवंत्येवमाख्यातं ॥ ४ ॥ अहावरं पुरस्कायं इदेगश्या सत्ता रुकजोणिया रुकसंनवा रुकवुक मा तोणिया तस्संनवा तज्वकमा कम्मीवगा कम्मनियाणेणं त ब वुकमा रुकजोणिएसु रुकेसु मूलत्ताए कंदत्ताए खंधत्ताए तयत्ता ए सालत्ताए पवालत्ताए पत्तताए पुप्फत्ताए फलताए बीयत्ताए विन हति ते जीवा तेसिं रुरकजोणियाणं रुरकाणं सिरोहमादारैति ते जीवा आ हारेंति पुढवीसरीरं आन्तेवानवणस्स गाणाविदाणं तसथावराणं पाणाणं सरीरं अचित्तं कुवंति परिविश्वं तं सरीरगं जाव सारूविकडं संतं अवरेवियणं तसिं रुकजोणियाणं मलाणं कंदाणं रकंधाणं तयाणं सालाणं पवाला जाव बीयाए सरगरा पाणावरमा पापागंधा जाव पा गाविदसरीरं पुग्गल विनवित्ता ते जीवा कम्मोववन्नगा नवंतीति मकाय॥ अर्थ-यथ हवे अन्य स्थानक पूर्वे तीर्थकरें कडंडे. या जगत् मांहे कोई एक वृद्ध योनिक तथा अन्य तेना अवयवरूप प्राणी उपजे तथा जे एक वनस्पतिनो जीव सर्व वृदना अवयव व्यापारें, अन्य जीव वली तेना अवयव व्यापारें, ते तदने विषे मूल पणे, कंद पणे, स्कंध पणे, त्वचा पणे, शाखा पणे, पत्र पणे. फूल पणे, फल पणे अने बीज पणे, प्रवाल एटले अंकुरपणे, एटला स्थानकें उपजे. ते जीव त्यां नपजता वृद्ध योनिक वृदनो स्नेह आहारे. इत्यादिक पूर्ववत् जाणवू. यावत् ते जीव मूल कंदादि क वनस्पतिना अवयवरूप कर्म तेने वशे त्यां नपजे. एम श्रीतीर्थकरें कडं. ॥५॥ ॥ दीपिका-अथवृदोपर्युत्पन्नान वृदानाश्रित्याह । ( अहावरमिति ) अथापरमेतदा ख्यातं । इहैके सत्वावृदयोनिकाः स्युः। तस्यैकस्य वनस्पतेर्मूलारंनस्य उपचयकारिण Page #837 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राय धनपतसिंघ बाहारका जैनागम संग्रह नाग इसरा. स्ते वृक्षोनिकाच्यं । यदिवा मूलस्कंधा दिकाः पूर्वोक्तदशस्थानवर्तिनस्ते एवमुच्यं ते । यत्रापि सूत्रचतुष्टयं प्राग्वत् ॥ ५ ॥ ॥ टीका- सांप्रतं वृद्धोपर्युत्पन्नान् वृानाश्रित्याह । (प्रथावरमिति ) यथापरमेतत्पुरा SSख्यातं यक्ष्यमाणमिहैके सत्वावृद्वयोनि कानवंति । तत्र ये ते पृथिवीयोनिकावृक्षास्ते वेव प्रतिप्रदेशतया ये परे समुत्पद्यते तस्यैकस्य वनस्पतेर्मूला रंन कस्योपचयकारिणस्ते वृ योनिकाइत्य निधीयते । यदिवा ये ते मूलकंदस्कंध शारवादिकाः पूर्वोक्तदशस्थानवर्तिन स्त एवम निधीयते तेषुच वृयोनिकेषु वृद्देषु कर्मोपादन निष्पादितेषु उपर्युपरि प्रध्यारोहं तीत्यध्यारुहावृक्षोपरिजातावृदा निधानाः कामवृका निधानावा इष्टव्यास्तदभावेऽवापरे व नस्पतिकायाः समुत्पद्यंते वृयोनिकेषु वनस्पतिष्विति । इहापि प्राग्वच्चत्वारि सूत्रा णि इष्टव्यानि ॥ ५ ॥ 609 हावरं पुरस्कायं इहेगतिया सत्ता रुकजोणिया रुकसंनवा रुकवु कमा तोणिया तस्संभवा तवक्कमा कम्मोववन्नगा कम्मनियाणेणं तच वुक्कमा रुकजोलिएहिं रुकेदिं प्रसारोहत्ताए विवहृति ते जीवा तेसिं रुकजोणियाणं रुस्काणं सिणेहमाहारेति ते जीवा प्रदारेंति पुढवीसरीरं जाव साविकडं संतं वरेवि यण तेसिं रुकजोणियाणं शारुदाणं सरीरा पाणावन्ना जावमरकायं ॥ ६ ॥ अर्थ- हवे वृक्ष उपरना वृक्ष यात्री कहेने. अथ हवे अन्य स्थानक श्री तीर्थकरें क . जगत् मां को एक वृक्षयोनिक सत्व एटले जीव होयळे त्यां जे पृथ्वी योनिक वृक्ष, ते वृने विषेज बीजा मूलादिक वृद्धिना करनार, ते वृक्षयोनिक वृदने विषे व यवरूपे उपजे, तेनी उपर उपर जे थारूढे ते वल्ली वृक्षादिक अथवा पींपलादिक वड वृहनी उपर उपजे, ते कामवृकादिक जाणवा. ते कारणे एने अध्यारोह वृक्ष कहियें, ते अध्यारोह, वृनोज स्नेह खाहारे. इत्यादिक सर्व पूर्ववत् जाणी जेवुं ते यावत् पो ताना कर्मने वशे उपजे एटले अध्यारोदनुं प्रथम सूत्र कह्युं ॥ ६ ॥ || दीपिका - वृक्षयोनिकेषु एके अध्यारोहाजायंते वृक्षोपरिजात वृक्षायध्यारोहाइत्यु व्यंते । तेच वल्लवृद्दा निधानाः । शेषं प्राग्वत् । इदं प्रथमसूत्रं ॥ ६ ॥ ॥ टीका - तद्यथा योनिकेषु वृक्षेष्वपरेऽध्यारुहाः समुत्पद्यंते तेच तत्रोत्पन्नाः स्वयोनिनू For Private Personal Use Only Page #838 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीये सूत्रकृतांगे द्वितीय श्रुतस्कंधे तृतीयाध्ययनं. तं वनस्पतिशरीरमाहारयंति तथा ष्टथिव्यप्तेजोवाय्वादीनां शरीरकमाहारयंति तथा तव रमाहारितं सदचित्तं विध्वस्तं परिणामितमात्मसात्कृतं स्वकायावयवतया व्यवस्थापयंत्य पराणिच तेषामध्यारुहाणां नानाविधरूपरसगंधस्पर्शोपेतानि नानासंस्थानानि शरीराणि नवंति ते जीवास्तत्र स्वकृतकर्मोपपन्ना नवंतीत्येतदाख्यातमिति प्रथमं सूत्रं ॥ ६ ॥ ០០ हावरं पुरस्कायं इदेगतिया सत्ता यासारोदजोगिया प्रसारोहसं नवा जाव कम्मनियाणं तच वृक्कमा रुकजोपिएस अनारोदेसु सारोदत्ताए विनुद्वंति ते जीवा तैसि प्रशारोदजोणियाणं प्रज्ञारोदा सिदमा हारेति ते जीवा याहारेति ते जीवा पुढवीसरीरं जाव सारुवि कडं संतं प्रवरेवि यणं तेसिं प्रज्ञारोदजोणियाणं प्रज्ञारोदाणं सरीरा पाणावन्ना जावमरकायं ॥ ७ ॥ - हवे अन्य स्थानक श्री तीर्थकरें कयुंळे, ते कहे. जे प्रथम वृक्षयोनिक वृद ने विषे यारोह का, तेनेज विषे वली बीजा प्रदेश वृद्धिना करनार एवा अध्यारोह वनस्पति पणे उपजे ; ते जीव अध्यारोह प्रदेशने विषे उपना ते वृद्धयोनिक अध्यारोहनो स्नेह हारे. इत्यादिक सर्व पूर्ववत् जाणवुं. एटले अध्यारोदनुं बीजुं सूत्र कयुं. ॥७॥ ॥ दीपिका - प्राग्वृयो निकेषु वृद्धेष्वध्यारोहानकाः । यत्र तेष्वेवान्ये प्रतिप्रदेशोपच यकर्तारोऽध्यारोहवनस्पतित्वेन जायते । तेच जीवाप्रध्यारोहप्रदेशेषूत्पन्ना अध्यारोहजी वास्तेषां स्वयोनिनूतानि शरीराणि आहारयंति तत्र परास्यपि पृथिव्यादिनि शरीराख्या हारपंति अपराणि वाऽध्यारोहसंनवानामध्यारुहजीवानां नानावर्णकादिकानि शरीराणि नवत्येवमाख्यातमिति द्वितीयं सूत्रं ॥ ७ ॥ ॥ टीका - द्वितीयं त्विदमथापरं पुराख्यातं । ये ते प्राग्वृदयोनिषु वृद्धेषु श्रध्यारुहाः प्रतिपादितास्तेष्वेवोपरि प्रतिप्रदेशोपचयकर्तारोऽध्यारुहवनस्पतित्वेनोपपद्यते । तेच जी वायध्यारुहप्रदेशे षूत्पन्नाथध्यारुदजीवास्तेषां स्वयोनिनूतानि शरीराख्याहारयति । त थाऽपरास्यपि ष्टथिव्यादीनि शरीराणि याहारयंति अपराणि चाध्यारुहसंनवानामध्या जीवानां नानाविधवर्णकादिकानि शरीराणि नवंतीत्येवमाख्यात ॥ ७ ॥ प्रहावरं पुरस्कायं इहेगतिया सत्ता प्रसारोदजोगिया प्रसारोहसंन वा जाव कम्म नियाणं तच वुक्कमा प्रसारोह जोपिएस अनारोद For Private Personal Use Only Page #839 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राय धनपतसिंघ बादाउरका जैनागम संग्रह नाग उसरा. ए ताए विनति ते जीवा तेसिं अक्षारोहजोणियाणं अक्षारोहाणं सिणेद माहारेति ते जीवा आहारंति पुढविसरीरा आनसरीरा जाव सारूविक डं संतं अवरेवि यणं तेसिं असारोहजोणियाणं अनारोदाणं सरीरा पाणावन्ना जावमकायं ॥७॥ अर्थ-अथ हवे अन्य स्थानक तीर्थकरें कमुळे. थाजगत् माहे कोई एक जीव, अ ध्यारोहयोनियाले, ते अध्यारोह योनिया तेने विषे वली अध्यारोह पणे उपजे, ते अ ध्यारोहयोनिक अध्यारोहनां शरीर श्राहारे. इत्यादिक पूर्ववत् जाणवू. बाही पूर्वै बी जा सूत्रमा वृदयोनिक अध्यारोहनां शरीर बीजा अध्यारोह जीव अहारे, अने यात्री जा सूत्रमा अध्यारोहयोनिक अध्यारोह जीवनां शरीर अहारे, एटलुं विशेष. ए अ ध्यारोहनुं त्रीजुं सूत्र कह्यु. ॥ ७ ॥ ॥ दीपिका-एके सत्वाअध्यारोहसंनवेषु अध्यारोहेषु अध्यारोहत्वेन जायते। येच एवं जायंते तेऽध्यारोहयोनिकानाध्यारोहाणां यानि शरीराणि तान्याहारयति । दितीयसूत्रे वृद योनिकानामध्यारोहाणां यानि शरीराणि तान्यपरेऽध्यारोहाजीवाबाहारयति । अत्रतु थ ध्यारोहयोनिकानां अध्यारोहजीवानां शरीराणीति विशेषः । इदं तृतीयसूत्रं ॥ ७ ॥ ॥टीका-तृतीयं विदं (अहावरमित्यादि) अथापरं पुराख्यातं । तद्यथा। इहके सत्वा अध्यारुहसंनवेष्वध्यारुहत्वेनोपपद्यते । ये चैवमुत्पद्यते तेऽध्यारुहजीवाभादास्यति । त तीये त्वध्यारुहयोनिकानामध्यारुहजीवानां शरीराणि इष्टव्यानीति विशेषः ॥ ७ ॥ अदावरं पुरस्कायं इहेगतिया सत्ता अक्षारोदजोणिया अक्षारोह संवा जाव कम्मनियाणेणं तब वुकमा असारोहजोणिएसु अक्षारोहे सु मलत्ताए जाव बीयत्ताए विनति ते जीवा तेसिं असारोहजोणियाणं अशारोदाणं सिणेहमादारति जाव अवरेवि यणं तेसिं असारोदजोणि याणं मूलाणं जाव बीयाणं सरीरा पाणावन्ना जावमकायं ॥५॥ अर्थ-हवे अध्यारोहनुं चोथु सूत्र श्री तीर्थकरें कयुंजे, ते कहेले. आ जगत् मांहे कोइ एक जीव, अध्यारोहयोनिक ते अध्यारोहने विषे मूल कंदादिक अवयव थक्ने नपजे, ते त्यां उपना थका तेनां शरीर थाहारे, इत्यादिक अर्थ पूर्ववत् जाणवो ॥॥ ॥ दीपिका-अथापरमिदमाख्यातं इहैके सत्वाबध्यारुहयोनिकेष्वध्यारोहेषु मूलकंद Page #840 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीये सूत्रकृतांगे द्वितीयश्रुतस्कंधे तृतीयाध्ययनं. स्कंधत्व कशाखाप्रवालपत्रपुष्पफलबीजत्वेन जायंते ते तथा कर्मोपगाजवंती त्याख्यात मिति चतुर्थ सूत्रं ॥ ए ॥ ८१० ॥ टीका - इदंतु चतुर्थकं । तद्यथा ( ग्रहावरमित्यादि) अथापर मिदमाख्यातं । तद्यथा इहैके सत्वा ध्यारुदयो निकेष्वध्यारुहेषु मूलकंद स्कंध त्वक्शाखाप्रवालपत्र पुष्पफलबीज नावेनोत्पद्यते तेच तथाविधकर्मोपगाजवंतीत्येतदाख्यातमिति शेषं तदेवेति ॥ ए ॥ हावरं पुरस्कायं इदेगतिया सत्ता पुढविजोणिया पुढविसंभवा जाव पापाविदजोगियासु पुढवीसु तत्ताए विनद्वंति ते जीवा तेसिं पापावि दजोणियाणं पुढवी सिमाहारेंति जाव ते जीवा कम्मोववन्ना जयंती तिमरकायं ॥ २० ॥ एवं पुढ विजोगिएसु तणेसु तत्ताए विनद्वंति जावमका यं ॥ ११ ॥ एवं तणजो पिएस तणेसु तत्ताए विनति तराजोणियं त एसरीरं च प्रहारेंति जावमस्कायं ॥ १.२ ॥ एवं तपजोलिएसु तणेसु मूल are जाव बताए बिन्द्वंति तेजीवा जावएव मरकायं ॥ १३ ॥ एवं स दीवि चत्तारि लावगा ॥१४॥ एवं हरियाणवि चत्तारि खालावगा ॥१५॥ अर्थ- हवे वली वृक्ष वर्जीने बीजा वनस्पतिकायना विशेष या श्री कहेले. हवे बीजुं स्थानक पूर्वे तीर्थंकरें कयुंबे. या जगत् मांहे कोई एक पृथ्वीकाय योनिक पृथ्वीने विषे वनस्पतिकायनो संभवडे, पृथ्वीव्युत्क्रमबे, यावत् नाना प्रकारें योनिक, पृथ्वीने विषे तृ पणे उपजे, ते पृथ्वीनो थाहार खाहारे. इत्यादिक जेम वृनो पहेलो श्रालावो क ह्यो हतो, तेमज जाणवो. एमज चार घालावा जेम वृना कह्याबे, तेम तृणना प जावा ॥ १० ॥ बीजे खालावे पृथ्वीयोनिक तृणनेविषे उपजे. खागतनुं सर्व पूर्ववत् जावुं ॥ ११ ॥ त्री जे घालावे तृणयोनिक तृणनेविषे तृणपणे उपजे. शेषं पूर्ववत् जाणवुं ॥ १२ ॥ चोथे घालावे तृायोनिक तृणने विषे मूलकंदादिकने जावें उपजे. शेषं पूर्ववत् जाणवुं ॥ १३ ॥ ( एवंसही विचत्तारियालावगा के० ) एज रीतें उपधि एटले धान्यनी जाति तेना पण चार खालावा जाणवा ॥ १४ ॥ ( एवं हरियाण विचत्ता रिथालावगा के० ) एवं हरितकाय श्राश्री पण चार खालावा जाणवा. ए सर्व मली ने वीश खालावा थया. ॥ १५ ॥ ॥ दीपिका - प्रथ वृक्षवर्जितं शेषवनस्पतिमाश्रित्याह । यथापरमिदमाख्यातं । इहै For Private Personal Use Only Page #841 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राय धनपतसिंघ बादाडुरका जैनागम संग्रह नाग दुसरा. सत्वाः पृथिवीयो निकाः पृथिवीसंनवाइत्यादयोयथावृक्षेषु चत्वारि सूत्राणि एवं तृणा न्यप्याश्रित्य ज्ञेयाः । ते चामी नानाविधासु पृथिवीयोनिषु तृणत्वेनोत्पद्यंते पृथिवीशरीरं चाहारयतीत्येकं ॥ १०॥ पृथिवीयोनिकेषु तृणेषूत्पद्यंते तृणशरीरं चाहारयंतीति द्वितीयं ॥ ११ ॥ तृणयोनिकेषु तृणेषूत्पद्यंते तृणयोनिकतृणशरीरं चाहारयंतीति तृतीयं ॥ १२ ॥ तृणयोनिकेषु तृष्णावयवेषु मूलादिषु दशस्थानेषूत्पद्यंते तृणशरीरं चाहारयंतीति चतुर्भ सूत्रं ॥ १३ ॥ ( एवं सही ) इत्यादि सुगमं ॥ १४ ॥ १५ ॥ ॥ टीका- सांप्रत वृक्षव्यतिरिक्तं शेषवनस्पतिकायमाश्रित्याह । (यथावरमित्यादि) श्र थापरमिदमाख्यातं यत्तरत्र वक्ष्यते । तद्यथा । इहैके सत्वाः ष्टथिवी योनिकाः पृथिवी संनवाः पृथिवी व्युत्क्रमाइत्यादयोयथावृदेषु चत्वारखालापकाएवं तृणान्यप्याश्रित्य इष्ट व्याः । ते चामी नानाविधासु पृथिवीयोनिषु तृणत्वेनोपपद्यंते पृथिवीशरीरं चाहारयंति ॥१॥ द्वितीयं पृथवीयोनिकेषु तृणेषूत्पद्यते तृणशरीरं चाहारयंतीति ॥ ११ ॥ तृतीर्य तु तृयो निकेषु तृणेषूत्पयंते तृणयोनिकशरीरं चाहारयंतीति ॥ १ ॥ चतुर्थ तृणयोनिकेषु तृणावयवेषु मूलादिषु दशप्रकारेषूत्पद्यंते तृणशरीरं चाहारय॑त्येवं यावदाख्यातमिति ॥ १३॥ एवमौषध्याश्रयाश्चत्वारखालापकानणनीयाः ॥ १४ ॥ नवरमोषधिग्रहणं कर्तव्यमेवं हरिताश्रयाश्चत्वारयालापकानणनीयाः । कुहणेषु त्वेकएवालापकोऽष्टव्यस्तद्यो निकानाम परेषामनावादिति भावः ॥ १५ ॥ ܐܐ अदावरं पुरस्कायं इहेगतिया सत्ता पुढविजोलिया पुढविसंवा जाव कम्म नियाणं तच वुक्कमा पाणाविदजोगियासु पुढवीसु प्रायत्ताए वायत्ताए कायत्ताए कूहणत्ताए कंडुकताएं वेदणियत्ताए निवेदयित्ताए सत्ताए बत्तगत्ताए वासाणियत्ताए कूरत्ताए विनद्वंति ते जीवा तेसिं पापाविदजो णियाणं पुढवीणं सिणेहमादारेंति तेवि जीवा हारेंति पुढविसरीरं जा व संतं वरेवियणं तेसिं पुढ विजोणियाणं आयत्ताणं जाव कूराणं सरी रा पाणावला जावमरकायं एगो चेव आलावगो सेसा तिमि चि ॥ १६ ॥ अर्थ - अथ हवे अन्य स्थानक पूर्वे तीर्थकर देवें कयुंबे. या जगत् मांहे कोई एक सत्व, पृथ्वीयोनिक पृथ्वीने विषे संजवळे. यावत् कर्मने कारणे याकर्षिता त्यां उप ना बता नाना प्रकारनी योनीने विषे, पृथ्वीने विषे, प्रार्यनामा वनस्पति पणे, वाय नामा वनस्पति पणे, कायनामा वनस्पति पणे कुहणत्ताए एटले तोईकोडी नामा For Private Personal Use Only Page #842 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२ दितीये सूत्रकृतांगे दितीयश्रुतस्कंधे तृतीयाध्ययनं. वनस्पतिपणे, कंकनामा वनस्पतिपणे, नवहिणिकानामा वनस्पतिपणे, निवेदणीय ' नामा वनस्पतिपणे, सबत्रपणे, उत्तगत्ताए पणे, वासाणितापणे, कुरुनामा वनस्पति पणे, उपजे. ते जीव तेहीज नानाविध योनिक पृथ्वीनो स्नेह थाहारे ते जीव पृथिव्या दिकनां शरीर थाहारीने, यावत् पोतानी काया सरखां रूप करे. बीजा पण तेवा ट थ्वीयोनिक बायनामा वनस्पतिः यावत् कुरनामा वनस्पतिनां शरीर जेवां रूप करे ते शरीर नाना प्रकारना वर्णवाला होय. इत्यादिक यावत् पूर्ववत् नगवंते कमु ए कुहण नामा वनस्पतिनो विशेष ते पाश्री एक बालावो जाणवो. कारण के, ते योनिक बीजा नथी, तेथी एना शेष त्रण आलावा नथी. एनुं विशेष श्रीपन्नवणा थकी जाए. एवं सर्वे मला एकवीश घालावा पृथ्वीयोनिक वनस्पतिना कह्या. ॥ १६ ॥ __॥ दीपिका-थार्यादयोवनस्पतिविशेषालोकतोझेयाः । कुहणेषु तु एकएवालापकोवा च्यः । शेषास्त्रयोन संति तद्योनिकानामन्येषामनावादिति ॥ १६ ॥ ॥ टीका-इह चामी वनस्पतिविशेषालोकव्यवहारतोऽनुगंतव्याः प्रज्ञापनातोवावसेया इति । अत्रार्थे सर्वेषामेव पृथिवीयोनिकत्वात्प्टथिवीसमाश्रयत्वेनानिहिताः। इह च स्था वराणां वनस्पतेरेव प्रस्पष्टचैतन्यलदाणत्वात्तस्यैव प्राक्प्रदर्शितं चैतन्यं ॥ १६ ॥ अहावरं पुरस्कायं देगतिया सत्ता नदगजोणिया नदगसंनवा जाव क म्मनियाणेणं तब वुकमा णाणाविदजोणिएसुन्दएसुरुकत्ताए विव्हति ते जीवा तेसिं पाणाजोणियाणं नदगाणं सिणेदमादारैति ते जीवा आ दारेंति पुढविसरीरं जाव संतं अवरेवियणं तेसिं नदगजोणियाएं रुका णं सरीरा पाणावला जावमस्कायं जदा पुढविजोणियाणं चत्तारि गमा असारुदाणवि तदेव तणाण सहीणं हरियाणं चत्तारि आलावगान पियवाएकेके तदा न्दगजोणियाणं रुरकाणं शक्कके ॥१७॥ अर्थ-हवे अप्काययोनिक वनस्पतिनुं विशेष देखाडेले. ते अनेरुं स्थानक पूर्वं श्री तीर्थकर देवें कयुंजे, ते कहेले. या जगत् माहे कोई एक जीव उदकयोनिक उदक संनव शैवलादिक वनस्पति ते जीव,यावत् कर्मने नदयें नानाविध योनिक पाणीने विषे वृक्षपणे उपजे. त्यां नपना बता नानाविध योनिक उदकनो स्नेह आहारे. पृथ्वीकायादिकनुं शरीर थाहारे. इत्यादिक यावत् बीजुं सर्व पूर्वनी पेठे जाणवू. ए जेम पूर्वे पृथ्वीयोनि कवदना चार घालावा कह्या, तेम थाही पण अप्काययोनिक वृदना चार बाला Page #843 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राय धनपतसिंघ बादाउरका जैनागम संग्रह नाग उसरा. १३ वा जाणवा. ए सर्व मली पञ्चीश बालावा थया ॥ २५ ॥ तेमज अध्यारोहना पण उदक योनि धाश्री चार घालावा कहेवा तेमज तृणना पण चार आलावा उदकयोनी थाश्री कहेवा. ॥ ३३ ॥ तथा उपधिना पण चार आलावा कहेवा ॥ ३७ ॥ एम हरि तकायना पण चार आलावा थाहिं उदकयोनिकने विर्षे जाणवा. एम एकेकना चार चार बालावा करतां बधा मलीने वीश आलावा नदक योनिक वनस्पतिना थया; तथा एकवीश घालावा पूर्व पृथ्वीयोनिक वनस्पतिना कह्याने, ए बधा मलीने एकता लीश घालावा वनस्पतिना थया ॥ १७ ॥ ॥ दीपिका-अथापकाययोनिकस्य वनस्पतेः स्वरूपमाह । अथापरमाख्यातं । इहैके सत्वाउदकं योनिरुत्पत्तिस्थानं येषां ते तथा तेच कर्मवशगानानाविधयोनिकेषु जलेषु वृद त्वेन पनकशैवलादित्वेन जायंते तेच जलशरीरमाहारयति न केवलं तदेवान्यदपि एथिव्या दिशरीरमाहारयति। यथा पृथ्वीयोनिकानां वृक्षाणां चत्वारालापकास्तथा जलयोनिकानां वृदाणां न स्युः। तत्रोत्पन्नानामन्य विकल्पानावात् किंतर्हि? एकएवाऽऽलापकः स्यात्॥१७॥ ॥ टीका-सांप्रतमपकाययोनिकस्य वनस्पतेः स्वरूपं दर्शयितुमाह । (अथावरमि त्यादि) अथानंतरमेतदयमाणमाख्यातं । तद्यथा । इहैके सत्वास्तथाविधकर्मोपचया उदकं योनिरुत्पत्तिस्थानं येषां ते तथा तथोदके संनवोयेषां ते तथा यावत्कर्मनिदानेन संदा नितास्तउपक्रमानवंतीति । तेच तत्कर्मवशगानानाविधयोनिषूदकेषु तदत्वेन व्युत्का मंत्युत्पद्यते । येच जीवाउदकयोनिकादत्वेनोत्पन्नास्ते तबरीरमुदकं शरीरमाहारयंति न केवलं तदेवान्यदपि पृथिवीकाया दिशरीरमाहारयंतीति । शेषं पूर्ववत् । यथा दृथिवी योनिकानां वृक्षाणां चत्वारपालापकाएवमुदकयोनिकानामपि वृदाणां नवंतीत्येवं इष्ट व्यं । अपरस्य प्रायुक्तस्य विकल्पानावादिति किंतर्हि ? एकएवालापकोनवति ॥ १७ ॥ अदावरं पुरस्कायं श्देगतिया सत्ता उदगजोणिया उदगसंनवा जाव क म्मणियाणेणं तब वुकमा गाणाविहजोणिएसु उदएसु उदगत्ताए अवगत्ताए पणगत्ताए सेवालत्ताए कलंबुगत्ताए हडत्ताए कसेरुगत्ता ए कचनाणियत्ताए नप्पलत्ताए पनुमत्ताए कुमुयत्ताए नलिणताए सुन गत्ताए सोगंधियत्ताए पोमरियमदापोंमरियत्ताए सयपत्ताए सहस्सपत्ता ए एवं कलारकोकणयत्ताए अरविंदत्ताए तामरसत्ताए निसनिसमुणा लपुरकलत्ताए पुरस्कलबिनगत्ताए विनति ते जीवा तेसिं गाणाविद Page #844 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४ दितीये सूत्रकृतांगे वितीयश्रुतस्कंधे तृतीयाध्ययनं. जोणियाणं नदगाणं सिणेदमादारेति ते जीवा आदारेति पुढवीसरीरं जाव संतं अवरेवियणं तेसिं उदगजोणियाणं नदगाणं जाव पुस्कल बिनगाणं सरीरा पाणावरमा जावमकायं एगोचेव आलावगो॥२॥ अर्थ-हवे अनेरुं स्थानक पूर्वं तीर्थकरे कमुले. या जगत् मांहें कोई एक जीव उ दकयोनिक उदकने विषे वनस्पतिकायनो संनव, यावत् कर्मने कारणे याकर्षिता त्यां थाव्या बता नानाविध योनिक उदकने विषे उदक पणे, अवनक पणे, पणग एटले पन्य पणे, सेवाल पणे, कलंबुक पणे थाहडपणे, कसेरुग पणे, कबनाण पणे, उत्प लनामा कमलनी जाति पणे, लाल वणे सूर्यविकाशी कमलनीजाति पणे, चंडविकासी कमलनी जाति पणे, नलिन कमलनी जाति पणे, सुनग कमल पणे, सुगंध कमलनी जाति पणे, पुंमरीक एटले धवलश्वेत कमलनी जाति पणे, महापुमरीक एटले अत्यंत धवलश्वेत कमलनी जाति पणे,सो पांखडीने जेनी एवा कमलनी जाति पणे पुष्कर जे थकी पान निकले ते पणे नपजे: हजार पांखडी जेनी एवा कमलनी जाति पणे, एम कलारनी जाति पणे, कोकणा पणे, अरविंद कमल पणे, तामरस कमल पणे, बीस मृणाल पणे, पुष्कर पणे, उपजे ; एटले एवा एवा नावें उपजे, ते जीव नाना विध योनिक उदकनो स्नेह थाहारे. इत्यादिक सर्व पूर्ववत् कहे. एनो एकज बाला वो, पण बीजा बालावा नथी. ए उदक योनिक वनस्पतिनाएकवीश घालावा, एम बधामली वनस्पतिकायना बेहेंतालीश घालावा थया ॥ १७ ॥ __॥ दीपिका-एतेषामुदकाकतीनामवकपनकादीनामन्यस्य प्रायुक्तविकल्पस्यानावादेक एवालापकः स्यात् । एते जलाश्रिताः कलंबकाहडादिवनस्पतयोलोकतोझेयाः ॥ १७ ॥ ॥ टीका-एतेषां हि नदकारुतीनां वनस्पतिकायानां तथावयवपनकशैवलादीनामपर स्य प्रायुक्तस्य विकल्पस्यानावादिति । एते च उदकाश्रयावनस्पतिविशेषाः कसंबुकाहडाद योलोकव्यवहारतोवसेयाइति ॥ १७ ॥ अदावरं पुरस्कायं इगतिया सत्ता तेसिं चेव पुढवीजोणिएहिं रुकेहिं रुक जोणिएदि रुकेहिं रुकजोणिएहिं मूलेहिं जाव बीएहिं रुकजोणिएदि अशा रोदेहिं अक्षारोदजोणिएदिं अनारुदेहिं अक्षारोहजोणिएहिं मूलेहिं जाव बीएहिं पुढविजोणिएदि तणेदि तणजोणिएहिं तणेदि तणजोणिएहिं मलेहिं जाव बीएहिं एवं सदीदि वि तिन्नि आलावगा एवं दरिएहिं वितिन्नि आ Page #845 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राय धनपतसिंघ बादाडुरका जैनागम संग्रह नाग दुसरा. १५ लावगा पुढविजोगिएदिवि च्यएहिं काएहिं जाव कुरोदें नदगजोलिएि रुकेदिं रुकजो पिएहिं रुरका रुरकजोणियेदि मलेहिं जाव बीएहिं एवं शारुदेदिवि तिमि तदिवि तिमि आालावगा नसदीदिवि तिमिहरि एदिंवि तिमि नदगजोलिएदि नद एदि अवएहिं जाव पुरकल बिन एढ़ि तसपात्ताविति ॥ १७ ॥ तेजी वा तेसिं पुढवी जोगिया नदगजो णियाणं रुकजोणियाणं अशारोदजोणियाणं तणजोणियाणं सदीजो णियाणं ढरियजोणियाणं रुरकाणं अशारुदाणं तणाएं उसढीणं दरि याणं मूलापं जाव बीयाणं प्रयाणं कायाणं जावं करवाएं नदगाणं वगाणं जाव पुस्कल चिनगाणं सिषेदमाहारेति ते जीवा प्राहारेंति पु ढवीसरीरं जाव संतं वरेवियां तेसिं रुरकजोलियाणं प्रज्ञारोदजोणि या तणजोणियाणं नसदिजोणियाणं हरियजोलियाएं मूलजोणिया कंदजोणियाणं जाव बीयजोणियाणं प्रायजोणियाणं कायजोगिया जावकरजोलिया नदगजोलियाणं प्रवगजोलियाणं जाव पुस्कल चिनगजोलियाणं तसपाषाणं सरीरा पाणावला जाव मरकायं ॥ २० ॥ अर्थ- हवे अन्यत्र प्रकारें वनस्पतिनुं स्वरूप कहे. हवे खनेरुं स्थानक पूर्वे श्री तीर्थक रदेवें कयुं. याजगत् मांहें कोई एक जीव ते पृथ्वी योनिक वृछें करी, तथा वृक्षयोनि क वृदें करी, तथा वृक्ष योनिक मूलें करी, यावत् बीजें करी, तथा वृक्षयोनिक थ ध्यारोहें करी, तथा अध्यारोहयोनिक अध्यारोहें करी, तथा अध्यारोहयोनिक मूलें करी, यावत् बीजें करी, पृथ्वीयोनिक तृणें करी, तृणयोनिक तृणें करी, तृष्णयोनिक मू लेंकरी, यावत् बीजें करी, ए प्रकारें ए त्रणना त्रण त्रण खालावा जाणवा. एरीतेंज व ली उबधियें करी पण, त्रण, त्रण, घालावा जाणवा. एमज हरितकायना पण त्रण खाजावा जाणवा. पृथ्वीयोनिक, खायनामा वनस्पति, कायनामा वनस्पति, यावत् कुंरंवा दनामा वनस्पति, उदकयोनिकना वृछें करी, वृक्षयोनिकना वृदें करी, वृद्दयोनिकना मूलें करी, यावत् बीजें करी, एमज अध्यारोहना पण त्रण घालावा जालवा. तृणना पण त्रण आलावा जाणवा. उषधियें करी पण, त्रण थालावा जाणवा, हरितें करी पण त्रण घालावा जाणवा, उदकयोनिक उदक यवकपनक यावत् पुरकलनि जे की पान निकले तेने विषे त्रस प्राणि पणे उपजे.ए सर्व, बत्रीश घालावा थया. घने घागलना 7 For Private Personal Use Only Page #846 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६ द्वितीये सूत्रकृतांगे द्वितीय श्रुतस्कंधे तृतीयाध्ययनं. बेताली बधामली चमोतेर घालावा थया ॥ १९ ॥ ते जीव ते वनस्पतिने विषे उपना थका पृथ्वीयोनिक, उदकयोनिक. वृयोनिक अध्यारोहयोनिक, तृणयोनिक, बधियोनिक, हरितयोनिक, वृनो, अध्यारोहनो, तृणनो, उपधिनो, हरितनो, मूलनो, यावत् बीजनो, छानो, कानो, यावत् कुरवंदनो, नदकनो, व्यवगाहिनो, यावत् पुरकल बि एटले जे थकी पान निकलें तेनो, स्नेह खाहारे ते जीव पृथ्व्यादिकनां शरीर याहारीनें यावत् खाप गां सरखां रूप करे. इत्यादिक अर्थ पूर्ववत् जावो. ते जीव वृक्षयोनिक, अध्यारोह योनिक तृणयोनिक, यावत् पुस्कलवि योनिक, त्रसप्राणिनां शरीरना नाना प्रकारना वर्ण, गंध, रस, स्पर्शवाला होय. ते पोताना कर्मने वश जाणवा. यावत् एम श्री तीर्थकर गणधरादिकें कयुं. त्यां सुधीनो खानावो जाणवो. एटले वनस्पतिकायनुं स्वरूप कयुं, पृथ्वीकायादिक चार जातिनां एकेंड्रियनां स्वरूप यागल कहेशे ॥ २० ॥ ॥ दीपिका-थ प्रकांरांतरेण वनस्पत्यालापकत्रयमाह । ष्टथिवीयो निकैर्वृदैर्वृक्कयो नि के र्मूलादिनिरिति । एवं वृयो निकैरध्यारुहैः अध्यारुहयोनि कैरध्यारुहैः श्रध्यारुहयो निकै र्मूलादिनिरिति । एवमन्येष्वपि तृणादयोज्ञेयाः । एवमुदकयो निष्वपि वृक्षेषु योज्यं । १ एते व नस्पतिषूत्पन्नाजीवाः ष्टथिवीयो निकानां तथा उदकानां वृक्षाध्यारोहतृणौषधिहरितयोनि कानां वृक्षाणां यावत् स्नेहमाहारयंतीत्येतदाख्यातं । तत्र त्रसानां शरीरमाहारयंतीत्यंते शे यं । इति वनस्पतीनां स्वरूपमुक्तं । शेषाः ष्टथिवीकायादयश्चत्वारएकें दिया ये वदयं ते ॥ २० ॥ ॥ टीका- सांप्रतमन्येन प्रकारेण वनस्पत्याश्रयमालापकत्रयं दर्शयितुमाह । तद्य था। पृथिवीयो निकैर्वृदै यो निकैर्वृदैस्तथा वृयो निकैर्मूलादिनिरिति । एवं वृक्कयो निकै रध्यारुदैस्तथाध्यारुहयो निकैर्मूलादिनिरिति । एवमन्येपि तृष्णादयोऽष्टव्याः । एवमुद क्यो निकेष्वपि वृदेषु योजनीयं ॥ १९ ॥ तदेवं पृथिवी योनिकवनस्पतेरुदकयो निकवनस्प तेश्व नेदानुपदर्थ्याऽधुना तदनुवादेनोपसंजिघृकुराढ़ । ( तेजीवाइत्यादि ) ते वनस्पति पूत्पन्नाजीवाः पृथिवीयोनिकानां तथोदकवृक्षाध्यारुहनृपौषधिहरितयोनिकानां वृक्षाणां यावत्स्नेहमाहारयतीत्येतदाख्यातमिति । तथा त्रसानां प्राणिनां शरीरमाहारयत्येतदवसा इष्टव्यमिति । तदेवं वनस्पतिकायिकानां सुप्रतिपाद्यचैतन्यानां स्वरूपमनिहितं । शे पाः पृथ्वीकायादयश्चत्वार एकेंड्रिया उत्तरत्र प्रतिपादयिष्यंते ॥ २० ॥ अदावरं पुरस्कायं णाणाविदाएं मगुस्साएं तंजदा कम्मभूमगाणं च्प्रकम्म भूमगाणं अंतरदीवगाणं आरियाणं मिलुकयाणं तेसिंचणं अहावीएणं दावकासे इत्तीए पुरिस्सस्यं कम्मकडाए जोणिए एवणं मेदुणवत्ति Page #847 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राय धनपतसिंघ बाहाउरका जैनागम संग्रह नाग उसरा. ११७ याएव णामं संजोगे समुप्पङाइते उदनवि सिणेदं संचिति तबणं जीवा इबिताए पुरिसत्ताए णपुंसगत्ताए विनति ते जीवा माननयं पिनसुकं तं तनयं संसह कलुसं किविसं तं पढमत्ताए आहारमादारेति ततो पग जं से माया पाणाविदान रसविईन आदारमादारेति ततो एगदेसेणं ज्य मादारेंति आणुपुवेण वुड्डा पलिपागमणुविना ततोकायातो अनिनिवड माणा इनिं वेगया जयंति पुरिसं वेगया जयंति णपुंसगं वेगया जणयं तिते जीवामहरा समाणा मानकीरं सपिं आहारति आणुपुत्वेणं वुड़ा यणं कुम्मासं तसथावरेय पाणे ते जीवा आदारेंति पुढविसरीरं जाव सा रूवि कडं संतं अवरेवियणं तेसिं गाणाविहाणं मणुस्सगाणं कम्मनूम गाणं अकम्मनूमगाणं अंतरद्दीवगाणं आरियाणं मिलस्कूणं स रीरा पाणावमा नवंतीतिमकायं ॥॥ अर्थ-हवे त्रसकायनो अवसर जे.ते त्रसकाय तो एक नारकी. बीजा तिर्यच,त्रीजा मनुष्य, अने चोथा देवता, ए चार प्रकारे बे. तेमांहें नारकी अप्रत्यद पले अनुमान ग्राही जाणवा अथवा उष्कृत कर्मनां जे फल तेना नोगवनार , तेने थाहार पण, एकांते अशुन पुगल थकी नोपनो उज थकोडे, पण प्रदेप थकीनथी, अने देवता पण हमणां प्रायः अनुमानगम्य, तेनो आहार एकांत शुन, तेनो पण उजाहार.. परंतु प्रदेपकत नथी. देवतानो आहार बे प्रकारे. एक थानोगिक बोजो अनानोगि क, तेमां जे अनानोगिक ते समय समयपर वे धने आनोगिक ते, जघन्यथीतो चतुर्थ नक्तं आहार, अने उत्कृष्ट तेत्रीश हजार वर्षे थाहार. हवे तिर्यच अने मनुष्य मां प्रथम मनुष्यनुं स्वरूप कहेले. अथ हवे बीजुं अन्य स्थानक श्री तीर्थकर देवें प रापूर्व कझुंडे. या जगत् मांहें नाना प्रकारनां मनुष्यने, एक थार्य, एक अनार्य, एक पन्नर कर्म नूमीनां उपनां, एक त्रीश यकर्म नूमीनो नपना, एक अंतर दीपनां उप नां, एक आर्य, एक म्लेड . (तेसिंचणंथहाबीएणं के ) तेने यथा बीजें करी एटले स्त्री पुरुष नपुंसकने ने करी, जे जेनुं बीज ते यथा बीज, तेणे करी, तथा यथावकाशे एटले मातानी कुदादिक जेम वाम कुदें स्त्री उपजे, ददणि कुः पुरुष उपजे, अने वाम दक्षिणाश्रित नपुंसक नपजे,इत्यादिक यथावकाशें करी.(बीएपुरिसस्सर्यके०) स्त्री पुरुषना वेदनो उदय बते (कम्मकडाएजोणिएणं के०)पूर्वकर्म निर्मित योनिने विषे (एबणंमेदुण वत्तियाएवणामंके०)श्राहीं मैथुन प्रत्ययिक नाम अरणीधने काष्टनी पेठे (संजोगेसमुपऊ (०३ Page #848 -------------------------------------------------------------------------- ________________ G१७ तिीये सूत्रकृतांगे क्षितीय श्रुतस्कंधे तृतीयाध्ययनं के०) संयोग उपजे. ते संयोग उपने बते त्यां जीव तैजस कार्मण शरीरें करी उपजे. (तेह विसिणेहंसंचितिके०) ते जीव उपजतां उतां प्रथम समय बेदुनो स्नेह संचिणे एट ले आहारे, ते आहारोने, (तबणंजीवा के० ) त्यां ते जीव (इलित्ताएपुरिसत्ताएणपुंसग ताएविनटुंति के०) स्त्री, पुरुष अथवा नपुंसक पणे उपजे. (तेजीवामानपिनसुकंत के० ) तेजीव माता संबंधि रक्त, धने पिता संबंधि शुक्र, ते (तनयंसंस के०) बेदु मिश्रित एकतुं नलेखें उगजनिक (कलुसंकिविसंके०) कलुष मलीन बीनत्स (तंपढमत्ताए के०) तेनो, प्रथम समयने विषे (आहारमाहारेंति के ) आहार याहारे. (ततोप बा के०) त्यार पड़ी, (जंसेमाया के०) जे तेनी माता (गाणा विहारसविई थाहारमाहारेंति के०) नाना प्रकारना रसवाला थाहार थाहारे, (ततोएगदेसेणंउय माहारेंतिके ०) तेवार पनी तेनो एक देशे उज थाहार थाहारे. (याप्पुवेणवुडापलिपा गमणुविन्नाके०) ते स्नेहें करी ते जीवनी अनुक्रमें निष्पति नपजे. एवा अनुक्रमें वृद्धियें पहोंते बते (ततोकायातोपनिनिवट्टमाणाके) तेवार पबीतेनी काया थकी एटले तेनी योनि थकी निकले (इबिवेगयाजणयंतिके०) ते एक स्त्रीथ निकले, (पुरिसंवेगयाज यंति के० ) एक पुरुष थइ निकले, (गपुंसगंवेगयाजणयंति के०) एक नपुंसक थ निकले, (तेजीवामहरासमाणाके०) ते जीव बालक थका (माउरकीरंस प्पिाहारेंतिके०) माताना स्तन, मुग्ध थाहारे तथा मोटो थाय त्यारे घत आहारे. तेवार पड़ी (याणुपुत्वे एंवुडाके०) अनुक्रमें वधता थका (उयणंकुम्मासंतसथावरेयपाऐतेजीवाथाहारेंति के०) उदन चावलादिक अडदादिक तथा त्रस बने स्थावर प्राणी पण याहारे. (पुढविसरीरं के०)प्टथ्वीनुं शरीर जे लवणादिक ते थाहारे.ते पाहायो तो (जावसारू विकडंसंतके ) पोताना शरीर सरखो करे, एटले पोतानी काया रूप करे, एटले ते आहार धातु पणे परिणमावे. (अवरेवियणंतेसिं के० ) तथा बीजां पण तेने (गाणाविहाणं के०) नाना प्रकारना (मस्सगाणं के०) कर्मनूमीने विषे उपना एवा मनुष्यनां, अकर्मनूमी ना मनुष्यनां, थंतर दीपना मनुष्यनां, आर्य मनुष्यना, म्लेड मनुष्यनां, शरीर, नाना प्रकारना वर्ण गंध रस स्पर्श करी सहित थकां, एवां पोताना कर्मने वशे उपजे. इत्या दिक पूर्ववत् यावत् श्री तीर्थकर गणधर कयुं ॥ २१ ॥ . ॥ दीपिका-अथ त्रसकायेषु पूर्व मनुष्यानाह । अथापरमारख्यातं । नाना विधानां म नुष्याणां स्वरूपमुक्तमित्यर्थः । तद्यथा । कर्मनूमिजाइत्यादिमनुष्याणां (यथाबीजेनेति) यद्यस्य बीजं तत्र शुक्राधिकं नरस्य शोणिताधिकं स्त्रियाः उन्नयसमता नपुंसकस्य कारण मि ति । यथावकाशेनेति । योयस्यावकाशोमातुरुदरकुक्षिप्रमुखस्तत्र वामा कुदिः स्त्रियाः, द Page #849 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राय धनपतसिंघ बानाउरका जैनागम संग्रह नाग उसरा. ए क्षिणा नरस्य, उनयाश्रिता पंढस्येति । तत्र चाविध्वस्ता योनिरविध्वस्तं बीजं? विध्वस्ता यो निर्विध्वस्तं बीजं विध्वस्ता योनिरविध्वस्तं बीजं ३ अविध्वस्ता योनिर्विध्वस्तं बीजं । चतु धू नंगेषु श्राद्यनंगएव उत्पत्तेरवकाशोन शेषेषु त्रिषु । अत्रच स्त्रीपुंसयोर्वेदोदये सति पू वकर्मकतायां योनौ मैथुनप्रत्ययिकोरतानिलाषोदयजनितोऽनिकारणयोररणिकाष्ठयोरिव संयोगोजायते तत्संयोगेच तक्रशोणिते तैजसकामणान्यां गृहीत्वा तत्रोत्पद्यते जीवाः। (तेहात्ति) ते जीवाः प्रथममुनयोरपि स्नेहमाचिन्वंति अविध्वस्तयोनौ । विध्वस्यते तु योनिः । पंचपंचा शिका नारी सप्तसप्ततिकः पुमानिति । बादशमुहूर्तान यावद्वीजमवि ध्वस्तं स्यात् ततकचं ध्वंसयंति तत्र जीवाः कर्मवशतः स्त्रीपुंनपुंसकत्वेन (विनटुंति) जायंते ते जीवामातुः ऋतुं शोणितं पितुः शुक्रं तत्तजयसंसृष्टं कलुषं किल्बिषं बीन त्सं तत्प्रथमतयाऽऽहारमाहारयति ततः पश्चात्सेतस्य माता यन्नानाविधरसवंतमाहारमा हारयति तत्स्नेहेन तेषां जंतूनां वृद्धिः स्यात् ततस्तदेकदेशेन त्वगेकदेशेनवा मातुराहार मोजसा मिश्रेण वा लोमनिर्वाऽऽहारयति धानुपूर्येण यथाक्रमं पुष्टावृद्धि प्राप्ताजीवाग नपरिपाक गर्न निष्पतिमनुप्रपन्नास्ततोमातुः कायादनिनिवर्तमानाः पृथग्नवंतोनिर्गदति । कर्मवशादात्मनः स्त्रीनावमेके जनयंति एके पुंनावं नपुंसकनावं वा तेच डहराबालाः संतोमातुः दीरं स्तन्यमाहारयंति वृक्षाःसंतः सर्पिर्धतं धान्यमोदनं कुल्माषान चुंजते नानाविधान त्रसस्थावरान् प्राणिनोजोवान् थाहारयति । नानायोनिकजंतुशरीराण्याहा रयंतीत्यर्थः । नानामनुष्याणां शरीराणि केचित्तद्योनिकत्वादाहारयंति इत्याख्यातं ॥१॥ ॥ टीका-सांप्रतं त्रसकायस्यावसरः सच नारकतिर्यङ्मनुष्यदेवनेद निन्नः । तत्र नार काअप्रत्यक्त्वेनानुमानग्राह्यामुष्कृतकर्मफलनुजः केचन संतीत्येवं ते ग्राह्याः । तदाहारो प्येकांतेनाशुनपुजलनिवर्तितजसा प्रदेपेणेति । देवाअप्यधुना बाहुल्येनानुमानगम्याएव तेषामप्याहारः शुनएकांतेनोजोनिवर्तितोन प्रक्षेपकतइति । सचाऽनोगनिवर्तितोनानोग कृतश्च । तत्र नानोगकृतः प्रतिसमयनावी थानोगकतश्च जघन्येन चतुर्नक्तकतनक ष्टतस्तु त्रयस्त्रिंश वर्षसहस्रनिष्पादितइति । शेषास्तु तिर्यङ्मनुष्यास्तेषांच मध्ये मनुष्या सामन्यर्हितत्वात्तानेव प्राग्दर्शयितुमाह । (यथावरं पुरस्काय मित्यादि ) अथानंतरमेव तु पुरा पूर्वमाख्यातं । तद्यया । थार्याणामनार्याणां च कर्मनूमिजाऽकर्मनूमिजादीनां म नुष्याणां नानाविधयोनिकानां स्वरूपं वदयमानीत्या समाख्यातं । तेषांच स्त्रीनपुंसक नेदनिन्नानां यथा बीजेनेति । यद्यस्य बीजं तत्र स्त्रियाः संबंधि शोणितं पुरुषस्य शुक्र एतनयमप्यविध्वस्तं शुक्राधिकं सन्मनुष्यस्य, शोणिताधिकं स्त्रियास्तत्समता नपुंसकस्य कारणतां प्रतिपद्यते तथा यथावकाशेनेति । योयस्यावकाशोमातुरुदरकुदयादिकस्तत्रापि Page #850 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८२० द्वितीये सूत्रकृतांगे द्वितीय श्रुतस्कंधे तृतीयाध्ययनं. कि वामा स्त्रियोदचिणा कुहिः पुरुषस्योन्याश्रितः पंढइति । यत्र चाविध्वस्ता योनिरवि ध्वस्तं बीजमिति चत्वारोनंगाः । तत्राप्याद्यएव जंगकउत्पत्तेरवकाशोन शेषेषु त्रिष्विति । यत्र स्त्रीपुंसयोर्वेदोदये सति पूर्वकर्म निवर्तितायां योनी मैथुनप्रत्यायिकोरता निलाषोदय जनितोऽग्रिकारयोररणिकाष्ठयोरिव संयोगः समुत्पद्यते तत्संयोगेच तक्रशोणिते समुपा दाय तत्रोत्पित्सवोजंत वस्तैजसकार्मणाच्यां शरीराच्यां कर्मरकुसंदा नितास्तत्रोत्पद्यते । तेच प्रथममुनयोरपि स्नेहमा चिन्वंत्यविध्वस्तायां योनौ सत्यामिति । विध्वस्यते तु योनिः पंचपंचाशिका नारी सप्तसप्ततिः पुरुषइति । तथा द्वादशमुहूर्तानि यावहुक्रशोणिते वि ध्वस्त योनि के नवतस्ततऊर्ध्वं ध्वंसमुपगतइति । तत्र जीवाननयोरपि स्नेहमादार्य स्वक laura यथास्वं स्त्रीपुन्नपुंसकनावेन (विनद्वं तित्ति) वर्तते समुत्पद्यंत इति यावत् । तड तरकालं च स्त्री कुक्षौ प्रक्षिप्ताः संतः स्त्रियाऽऽहारितस्याहारस्य निर्यासं स्नेहमाददति त स्नेहेनच तेषां जंतूनां क्रमोपचयादानेन क्रमेण निष्पत्तिरुपजायते । सत्ताहं कललं होई सत्ताहं होइ बुब्बुयं इत्यादि । तदेवमनेन क्रमेण तदेकदेशेनवा मातुराहारमोजसा मि श्रेणवा लोमनिर्वाऽऽनुपू लाहारयंति यथाक्रममानुपूर्ये वृद्धिमुपागताः संतोगर्न परि पार्क गर्न निष्पत्तिमनुप्रपन्नास्ततोमातुः कायादनि निवर्तमानाः पृथग्नवंतः संतस्तयोर्न ति । तेच तथाविधकर्मोदयादात्मनः स्त्रीनावमप्येकदा जनयेत्युत्पादयेत्यपरे केचन पुंजावं नपुंसकनावंच । इदमुक्तं नवति । स्त्रीपुंनपुंसकनावः प्राणिनां स्वकृतकर्म निवर्तितो नवति न पुनर्योयाह गिनवे सोमुष्मिन्नेव तादृगेवेति । तेच तदहर्जातबालकाः संतः पू वनवान्यासादाहारानिलाषिणोभवंति मातुः स्तन्यमाहारयंति तदाहारेण चानुपूर्व्येण च वृद्धास्तडुत्तरकालं नवनीतदध्योदनादिकं यावत्कुल्माषान् गुंजंते तथाहारत्वेनोपगतास्त्र सांस्थावरांश्च प्राणिनस्ते जीवाखाहारयंति तथा नानाविधष्टथिवीशरीरं लवणादिकं सचे तनं वाऽऽहारयति तच्चाहारितमात्मसात्कृतं सारूप्यमापादितं सत् रसासृङ्मांसमेदोस्थिम शुक्राणि धातवइति सप्तधा व्यवस्थापयंत्यपरास्यपि तेषां नानाविधमनुष्याणां शरीराणि नानावर्णान्या विर्भवंति । तेच तद्योनिकत्वात्तदाधारनूतानि नानावर्णानि शरीराएयाहारयं तीत्येवमाख्यातमिति ॥ २१ ॥ हावरं पुरस्कायं पाणाविदाएं जलचराणं पंचिदियतिरिकजोलियां तंजा मचाणं जाव सुसमाराणं तेसिंचणं पहावी एवं यदावगासेणं इवीए पुरिसस्सयकम्मकडा तदेव जाव ततो एगदेसेणं न्यमाहारेति या पुपुवेणं बड़ा पलिपागमणुविन्ना ततोकायानं निनिवहमाणा मं वेगया जयंति पोयं वेगया जयंति से अं प्रिमाणे इद्धिं वेगया For Private Personal Use Only Page #851 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राय धनपतसिंघ बादाउरका जैनागम संग्रह नाग उसरा. १ जणयंति पुरिसं वेगया जणयंति नपुंसगं वगया जणयंति ते जीवा महरा समाणा आनसिणेदमादारति आणुपुत्वेणं वुड़ा वणस्सतिकायं तसथा वरेयपाणे ते जीवा आदारेंति पुढविसरीरं जाव संतं अवरेवियणं ते सिं गाणाविदाणं जलचरपंचिंदियतिरिरकजोणियाणं मनाणं सुसुमा राणं सरीरा पाणावरमा जावमस्कायं ॥२॥ थर्थ-हवे अनेरु स्थानक परापूर्वे तीर्थकरें कयुं. था जगत् मांहें नाना प्रकारना जलचारी पंचेंशिय तिर्यंच योनिक जीवने, ते कहेले. माबला,कन्नुप, मगरमन्न, नक, च क, पाठीन, पीठ, ग्राहक, सुसुमारादिक, तेने यथाबीजें करी स्त्रियादिकना ने करी, य थावकाश एटले मातानी कुदादिक जेम वाम कुदे स्त्री नपजे, इत्यादिक यथावकाशें करी स्त्री पुरुषादिक वेदने उदयें कर्म निवर्तित पूर्वयोनिने विषे, यहीं मैथुन प्रतिय नाम धरणीय काष्ठनी पेठे संयोगें उपजे. (तहेव के० ) तेमज यावत् ते जीव माता नी कुतिय उपना पली एक देशे उज थाहारे, अनुक्रमें वृद्धिये पोहोतो बतो तेवार प बीते काया थकी एटले योनिथकी कालें करी निकले, निकलता थका त्यां एक जण धम रूप, एक पोत रूप, त्यां अंमथकी उभिद्यमान ते स्त्री पुरुष नपुंसक पणे नपजे; ते जीव बालक बता थपकायनो स्नेह वादारे. पनी अनुक्रमें वर्षमान थका एटले त दि पाम्या थका वनस्पतिकायनुं शरीर तथा त्रस बने स्थावर प्राणीने थाहारे. ते जी व पृथ्वीनुं शरीर थाहारे यावत् पोतानी काया सरखां रूप करे. अन्य पण ते नाना प्र कारें जलचर पंचेंक्ष्यि तिर्यच योनिक यावत् सुसुमारना सरखा रूप करे ते कर्मने वशे उपजे, ते नाना प्रकारना वर्ण गंध रस स्पर्शवान् थाय. एम श्री तीर्थकरें कयुं ॥२२॥ ॥ दीपिका-गर्नजमनुष्याउक्ताः संमूर्बनजाश्चाये वक्ष्यंते सांप्रतं तिर्यग्योनिकास्तत्रापि पूर्व जलचरानाह । थथापरं तिर्यग्योनिकानां जलजरपंचेंड्रियाणां स्वरूपमाख्यातं प्रथ मं मत्स्यकलपमकरयाहसुषुमारादीनां यस्य यद्वीजं यस्योदराद्यवकाशोयस्तेन स्त्रियाः पु रुषस्य च कर्मस्तायां योनौ जायते । तेच तत्र मातुराहारेण वृक्षाः स्त्रीनपुंसकानाम न्यतमत्वेन जायते गर्ननिर्गताबालाः संतोऽपस्नेिहमप्कायमेवाहारयति । वृक्षास्तु वनस्पतिकार्य अन्यान् त्रसस्थावरांश्च यावत्पंचेंझ्यिानपि थाहारयति । यउक्तं । अस्ति मत्स्यस्तिमि म अस्तिमत्स्य स्तिमिंगितः । तिमि गिलगिलोप्यस्ति तजिलोप्यस्ति राघव!। तथा ते जीवाः पृथवीशरीरं कर्दमस्वरूपमाहारयंति तच्चाऽऽहारितं सत्समानरूपीकतं आत्मसात्परिणामियंति । शेष सुगमं ॥ २२ ॥ Page #852 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२ दितीये सूत्रकृतांगे वितीये श्रुतस्कंधे तृतीयाध्ययनं. ॥ टीका-एवं तावनव्युत्क्रांतजमनुष्याः प्रतिपादितास्तदनंतरं संमूडनजानामवस रस्तांश्चोत्तरत्र प्रतिपादयिष्यामि सांप्रतं तिर्यग्योनिकास्तत्रापि जलचरानुद्दिश्याह । (यहा वरमित्यादि) थथानंतरमेतदक्ष्यमाणं पूर्वमाख्यातं । तद्यथा । नानाविधजलचरपंचेंक्ष्यि तिर्यग्योनिकानां संबंधिनः कांश्चित्स्वनामयाहमाह। तद्यथा । (महापंजावसुसुमाराणमि त्यादि) तेषां मत्स्यकलपमकरयाहसुषुमारादीनां यस्य यथा यहीजं तेन तथा यथावकाशेन योयस्योदरादाववकाशस्तेन स्त्रियाः पुरुषस्यच स्वकर्मनिवर्तितायां योनावुत्पद्यते । तेच तत्रानिव्यक्तामातुराहारेण वृधिमुपगताः स्त्रीपुंनपुसकानामन्यतमेनोत्पद्यते तेच जीवा जलचराग व्युत्क्रांताः संतस्तदनंतरं यावडहरंतिलघवस्तावदपस्नेहमप्कायमेवाहा रयंति । धानुपयेणच वृक्षाः संतोवनस्पतिकायं तथापरांश्च त्रसांस्थावरांश्चाहारयंति या वत्पंचेंख्यिानप्याहारयति । तथा चोक्तं । अस्ति मत्स्य स्तिमि म शतयोजनविस्तरः॥तिमि गिलगिलोप्यस्ति, तमिलोप्यस्ति राघव !॥१॥ तथा ते जीवाः पृथिवीशरीरं कर्दमस्वरूपं क्रमे । वृद्धिमुपगताः संतबाहारयति तच्चाऽऽहा रितं सत्समानरूपीकतमात्मसात्परिणामयंति शेषं सुगमं । यावत्कर्मोपगतानवंतीत्येवमाख्यातं ॥ २२॥ अदावरं पुरस्कायं णाणाविदाणं चनप्पयथलयरपंचिंदियतिरिकजोणि याणं एगखुराणं उखुराणं गंमीपदाणं सणप्पयाणं तेसिंचणं अदाबी एणं अहावगासेणं बिपुरिसस्सयकम्मजाव मेढुणवत्तिए णामं सं जोगे समुपज ते उदन सिणेदं संचिणंति तबणं जीवा बित्ताए पुरि सत्ताए जाव विनति ते जीवा माननयं पिनसुकं एवं जहा मास्साणं हिंवि वेगया जयंति पुरिसंपि नपुसगंपि तेजीवा महरा समाणा मान स्कोरं सप्पिं आदाति आणुपुत्वेणं वुड़ावणस्सश्कायं तसथावरेयपाणे ते जीवा आहारेंति पुढविसरीरं जाव संतं अवरेवियणं तेसिं गाणाविहा णं चनप्पययलयरपंचेंदियतिरिस्कजोणियाणं एगखुराणं जाव सणप्प याणं सरीरा पाणावरमा जावमस्कायं ॥२३॥ थर्थ-हवे अन्य स्थानक तीर्थकरें कडं. था जगत् मांहें नाना प्रकारना चतुष्पद स्थलचर पंचेंश्यि तिर्यंच योनिया जीवने, ते कहेले. एक खुर ते अश्वादिक, विखुर ते गो महिष वृषनादिक , गंमीपद ते हस्त्यादिक, तथा षट्पद ते सिंह व्याघ्रादिक, ते यथा बीजें यथावकारों इत्यादिक पूर्वनी पेठे ते जीवोनी उत्पत्ति जाणवी. ते जीव उप Page #853 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राय धनपतसिंघ बादाडुरका जैनागम संग्रह नाग दुसरा. ८२३ जतां मातानुं रक्त धने पितानुं शुक्र इत्यादिक याहारे. एम मनुष्यनी पेठें एक स्त्री, एक पुरुष, एक नपुंसक याय. ते जीव बालक उतां मातानुं दुग्धादिक याहारे, पी अनुक्रमे वधता वनस्पतिकाय घने त्रस स्थावर प्राणिनो छाहार करे. इत्यादिक ते स्थल चारि चतुष्पदनां शरीर नाना प्रकारना वर्ण गंध रस स्पर्शवान् कर्मने वशें थाय इत्यादिक पूर्ववत् जावुं ॥ २३ ॥ || दीपिका - अथस्थलचरानाह । यथापरमाख्यातं नानाविधानां चतुष्पदानां स्वरू पं । तद्यथा । एकखुराणामश्वखरादीनां दिखुराणां गोमहिष्यादीनां गंमीपदानां हस्ति गंडकादीनां सनखपदानां सिंहव्याघ्रादीनां यथाबीजेन यथावकाशेन सर्वप र्याप्तिमवाप्य उत्पद्यंते उत्पन्नाश्च मातुः स्तन्यमाहारयंति वृद्धिं प्राप्ताः परेषां शरीरम प्याहारयति । शेषं सुगमं ॥ २३ ॥ ॥ टीका- सांप्रतं स्थलचरानुद्दिश्याह । ( श्रहावरमित्यादि) प्रथापरमेतदाख्यातं नानाविधानां चतुष्पदानां तद्यथा एकखुराणामित्यश्वखरादीनां तथा द्विखुराणां गोमहि ष्यादीनां तथा गंमीपदानां हस्तिगंमकादीनां तथा सनखानां सिंहव्याघ्रादीनां यथाबीजेन यथावकाशेन सकलपर्याप्तमवाप्योत्पद्यते तथोत्पन्नाः संतस्तदनंतरं मातुः स्तन्यमाहा रयंतीति । क्रमेणच वृद्धिमुपगताः संतोपरेषामपि शरीरमाहारयंति शेषं सुगमं । यावत्क मोपगतानवंतीति ॥ २३ ॥ प्रदावरं पुरस्कायं पापाविदाएं नरपरिसप्पथलयरपंचिंदियतिरि स्कजोणियाणं तंजढ़ा प्रदीपं अयगराणं असालियाणं महोरगा णं तेसिंचणं अदाबीएणं यदावगासेणं इवीए पुरिस जावएचणं मे दुणे एवं तं चैव नातं मं वेगइया जयंति पोयं वेगश्या जयंति से यं प्रिक्रमाणे इचिं वेगइया जयंति पुरिसंपि पुंसगंपि ते जीवा मह रा समाणा वानकायमाहारेंति यापुढे बुड्ढा वणस्स इकायं तस्थाव रपाणे ते जीवा दारेंति पुढविसरीरं जाव संतं वरेवियां ते सिंहा पाविद्वाणं नरपरिसप्पाथलयर तिरिस्कापंचिदियप्रदीपं जाव महो गाणं सरीरा पाणावला पापागंधा जावमरकायं ॥ २४ ॥ अर्थ- हवे खनेरुं स्थानक परापूर्वे तीर्थकरें कयुंबे. या जगत्मांहें नाना प्रकारे उ रपरिसर्प स्थलचर पंचेंद्रिय तिर्यच योनियावे. ते कहे. ही सर्प, अजगर सर्प, घ For Private Personal Use Only Page #854 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४ तीये सूत्रकृतांगे द्वितीय श्रुतस्कधे तृतीयाध्ययनं. सालिया सर्प, महोरग तथा हजार योजन प्रमाण शरीर वाला, इत्यादिक जीव बे. तेने यथा बीजें यथावकारों इत्यादिक पूर्ववत् ते जीवनी उत्पत्ति जाणवी. एक अं मरूप निपजे, एक पोतरूप नीपजे, ते ते अंमथकी उनियमान पुरुष, स्त्री, अने नपुं सक थाय. ते जीव बालक थका वायुकाय थाहारे. पनी अनुक्रमें वधता थका वनस्प ति काय तथा त्रस स्थावर प्राणी थाहारे. इत्यादिक सर्व पूर्ववत् जाणवु ॥ २४ ॥ ॥ दीपिका-अथ नरःपरिसपानाह । नरःपरिसपोयदिप्रमुखाश्रमजत्वेन पोतजत्वे नवा गर्नान्निर्गति तेच निर्गतामातुरूष्माणं वायु चाहारयति तेषां च जातिविशेषात्तेनैवा हारेण वृदिर्जायते । शेष सुगमं ॥ २४ ॥ ॥ टीका-सांप्रतमुरःपरिसानुदिश्याह । (अहावरमित्यादि) नानाविधानां बदप्रका राणामुरसा ये प्रसर्पति तेषां । तद्यथा यहीनामजगराणामाशालिकानां महोरगाणां य थावकाशेन यथाबीजत्वेन चोत्पत्त्यांमजत्वेन पोतजत्वेनवा गर्नान्निर्गबंतीति । तेच निर्गता मातुरूष्माणं वायु चाहारयंति तेषां जातिप्रत्ययेन तेनैवाहारेण हीरादिनैव धिरुपजाय ते। शेषं सुगमं यावदाख्यातमिति ॥ २४ ॥ अदावरं पुरस्काय पाणाविदाणं नुयपरिसप्पथलयरपंचिंदियतिरिरक जोणियाणं तंजदा गोदाणं नग्लाणं सिदाणं सरडाणं सल्लाणं सरघा णं खाराणं घरकोइलियाणं विस्सनराणं मुसगाणं मंगुसाणं पयला याणं बिरालियाणं जोदाणं चनप्पाश्याणं तेसिंचणं अदाबीएणं अदा वगासेणं लिए पुरिसस्सय जहा नरपरिसप्पाणं तहानाणियत्वं जाव सारूवि कडं संतं अवरेवियणं तेसिं गाणाविदाणं नुयपरिसप्पपंचिंदि यथलयरतिरिकाणं तं गाहाणं जावमरकायं ॥२५॥ अर्थ-हवे अनेकै स्थानक परापूर्व श्रीतीर्थकरें कयुंडे. या जगत् मांहें नाना प्रकारे नुजपरि सर्प स्थलचर पंचेंश्यि तिर्यंच योनिक ले ते कहेले. गोहजाति, नोलिज, सिह ल, सरड किरकाटीया प्रमुख,सलगा,सरवा, खारा,जीवविशेष घरकोइला,एटले गिलोइ,वि संजरा एटले उपका, मुखक एटले उंदर, खसकला पयालि, विरालि एवीरीतें चतुष्पद नुजपरिसर्प जीव विशेष ने ते जीवोनी उत्पत्ति यथा बीजें करी यथावकाशें करी Page #855 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राय धनपतसिंघ बादाउरका जैनागम संग्रह नाग उसरा. श्य इत्यादिक जेम पूर्वे उरःपरिसर्पनो विचार कह्यो तेम जाणवो. ते जीव अनुक्रमे वधता थका पृथ्व्यादिकनो आहार करे. इत्यादिक सर्वे अर्थ पूर्ववत् जाणवो. ॥ २५ ॥ ॥ दीपिका-नुजपरिसपानाह। जुजपरिसाणां गोधानकुलादीनां यथाबीजेन यथाव काशेनोत्पत्तिः स्यात् । तेच अंडजत्वेन पोतजत्वेन वा उत्पन्नामातुरूष्मणा वायुना चाऽऽहारितेन वृद्धि यांति । शेष सुगमं ॥२५॥ ॥ टीका-सांप्रतं नुजपरिसानुद्दिश्याह (अहावरमित्यादि) नानाविधान्यां नुजा न्यां ये परिसर्पति तेषां । तद्यथा । गोधानकुलादीनां स्वकर्मोपात्तेन यथाबीजेन यथाव काशेन चोत्पत्तिर्नवति । ते चांडजत्वेन पोतजत्वेन चोत्पन्नास्तदनंतरं मातुरूष्मणा वायुना वा हारितेन वृधिमुपयांति । शेष सुगमं यावदाख्यातमिति ॥ २५ ॥ अदावरं पुरस्कायं णाणाविहाणं खहचरपंचिंदियतिरिरकजोणियाणं तंजदा चम्मपरकीणं लोमपरकीणं समुग्गपरकीणं विततपरकीणं ते सिंचणं अदाबीएणं अहावगासेणं बीए जदा नरपरिसप्पाणं नाणत्तं ते जीवा महरा समाणा मानगात्त सिणेद मादारति आणुपुत्वेणं वुड़ा व णस्सतिकायं तसथावरेय पाणे ते जीवा आदारेंति पुढविसरीरं जाव संतं अवरेवियणं तेसिं गाणाविदाणं खहचरपंचिंदियतिरिस्कजोणि याणं चम्मपरकीणं जावमरकायं ॥२६॥ अर्थ-हवे अनेकै स्थानक श्री तीर्थकरें कयुं जे. था जगत् मांहे नाना प्रकारें खेचर पंचेंक्ष्यि तिर्यंचने, ते कहेले. चर्मपदी ते वल्गुली प्रमुख, लोमपदी ते सारस राजहंसा दिक, तथा समुपदी अने विततपदी ए बे जाति, मनुष्य देव थकी बाहेर जाणवी. ते खेचर जातिने यथाबीजें यथावकाशे जेम तरःपरिसप्पनी पूर्व उत्पत्ति कही, तेमज ए जीवनी पण नत्पत्ति जाणवी. ते जीव बालक बता मातानो स्नेह थाहारे.इत्यादिक थालावो सर्व पूर्ववत् जाणवो. ॥ २६ ॥ ॥ दीपिका-अथ खेचरानाह । खेचराणामुत्पत्तिरेवं ज्ञेया। तद्यथा । चर्मपक्षिणां चर्मकीटवल्गुलीचर्मचटकादीनां लोमपक्षिणां सारसराजहंसकाकबकादीनां समुजप क्षिणोविततपक्षिणश्च बहि:पवार्तनस्तेषां यथाबीजेन यथावकाशेन चोत्पन्नानामे वमाहारः स्यात् । सा पक्षिणी तदंडकं स्वपदाच्यामात्य तावत्तिष्ठति यावत्तदंडकं तदू १०४ Page #856 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८२६ द्वितीये सूत्रकृतांगे द्वितीयश्रुतस्कंधे तृतीयाध्ययनं. ष्मणाऽऽहारितेन वृद्धिं प्राप्तं सत् कललावस्थां त्यक्त्वा चंचूप्रमुखान् प्रवयवान्निष्पाद्य नेदं याति (मानगात्त सिांति) मातृगात्रोष्माणमित्यर्थः । ततः पश्चादपि जननीसमानी तेनाहारेण वृद्धिं प्राप्नोति । शेषं प्राग्वत् ॥ २६ ॥ ॥ टीका- सांप्रतं खेचरानुद्दिश्याह । बहावरमित्यादि ) नानाविधानां खेचराणामुत्प तिरेवं इष्टव्या । यथा चर्मपक्षिणां चर्मकीटवल्गुलीप्रभृतीनां तथा जोमपक्षिणां सारसरा जहंस का कब कादीनां समुपदिविततपचिणां बहिदीपवर्तिनामेतेषां यथाबीजेन य थावकाशेन चोत्पन्नानामाहार क्रियैवमुपजायते । तद्यथा । सा पहिली तदंडकं पक्षा यामावृत्य तावत्तिष्ठति यावत्तदंडकं तदूष्मणाहारितेन वृद्धिमुपगतं सत् कललावस्थां परित्यज्य चंग्वादिकानवयवान् परिसमापय्य नेदमुपयाति तडुत्तरकालमपि मात्रोपनीते नाहारेण वृद्धिमुपयाति । शेषं प्राग्वत् ॥ २६ ॥ अदावरं पुरस्कायं इदेगतिया सत्ता पापाविदजोलिया पापाविदसंनवा पाणाविबुकमा तोणिया तस्संभवा तडुबुकमा कम्मोवगा कम्मणि या तब बुक्कमा लापाविदाएं तसथावराणं पोग्गलाएं सरीरेसुवा स चित्तेसुवा चित्तेसुवा प्रसूयत्ताए विवति ते जीवा तेसि पापाविदा पं तस्यावराणं पापाणं सिणेहमाहारेति तेजीवा प्रादारेति पुढवि सरीरं जाव संतं वरेवियां तेसि तसथावरजोणियाणं अनुसूयगाणं सरीरा पाणावला जावमकार्यं ॥ २७ ॥ अर्थ- हवे पूर्वेकह्यो जे मनुष्य तथा तिर्यचनो अधिकार ते थकी अपर एटले बीजुं स्थानक तीर्थकरें कयुं बे. या जगत् मांहे कोई एक जीव कर्मने उदयें वर्त्तता नानाविध योनिया पोताना कलां कर्मने विशेष नानाविध संभवले. नानाविधना याव्या बता ते जो लिया ते संभव तपक्रम कर्मना वरांगत कर्मने कारणे आकर्षिता त्यां याव्या बता, ना ना प्रकारास ने स्थावर जीवोना पुजनने विषे, शरीरने विषे, सचित्तने विषे, चित्तने विषे, पर शरीरनी निश्रायें उपजे ते विकलेंड्रिय जीव जाणवा यहीं सचित्त ते मनुष्यादि कना शरीरने विषे जूलीख, इत्यादिक नावें उपजे तथा यचित्त ते मनुष्यने परिभुज्यमाल एवा मंचादिकने विषे मांकडादिकने नावें उपजे. ते जीव उपना थका ते नाना प्रकारना स ने स्थावर प्राणीना स्नेह श्राहारे. ते जीव पृथ्वीनुं शरीर याहारीने, यावत् पो ती काया सरखां रूप करे. अनेश पण ते त्रस ने स्थावर योनिक अपर शरीरनी For Private Personal Use Only Page #857 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राय धनपतसिंघ बादाउरका जैनागम संग्रह नाग उसरा. निश्रायें विकलेंडियने जावें उपजे. तेनां शरीर नाना प्राकारना वर्ण गंध रस अने स्प शे वाला जाणवां. एम यावत् तीर्थकरें का ॥ १७ ॥ ॥ दोपिका-नक्ताः पंचेंडियामनुष्यास्तिर्यचश्च । अथ विकलेंशियानाद । अथापरमा ख्यातं । इहैके सत्वाः कर्मणा तत्रोत्पत्तिस्थाने उपक्रम्य आगत्य नानाविधत्रसस्थावराणां शरीरेषु सचित्तेषु अचित्तेषुवा (अणुसूयत्ताएत्ति) अन्यशरीराश्रिततया परनिश्रयाविवर्तते उत्पद्यतइत्यर्थः । तेच विकलेंख्यिाः सचित्तेषु मनुष्यादिशरीरेषु यूकालिदादिकत्वेन जायते नरनुज्यमानेषु मंचकादिषु धचित्तेषु मत्कुणत्वेनोत्पद्यते तथा नरशरीरेषु विकलेंशियश रीरेषु वा सचित्ताचितेषु ते जीवा (अणुसूयत्ताएत्ति) अनुस्यूतत्वेन परिनिश्रयाकम्यादित्वेन जायते । केचित्सचिनेनौ मूषिकादितया यत्र चाग्निस्तत्र वायुरिति ते वायूनवायपि ज्ञेयाः। टथिवीमाश्रित्य कुंथुपिपीलिकादयोवर्षादौ कष्मणा संस्वेदजाजायंते नदके पूतरकाडो नएकात्रमरिकादयः । वनस्पतिकाये पनकत्रमरादयः एवं ते जीवास्तानि स्वयोनिशरीरा णि आहारयंतीत्याख्यातं ॥ २७ ॥ ॥ टीका-व्याख्याताः पंचेंडियामनुष्यास्तिर्यचश्च तेषां चाहारो धा। थानोगनिवर्ति ताऽनानोगनिवर्तितश्च । तत्रानानोगनिवर्तितः प्रतिदानाव्यनोगनिवर्तितस्तु यथास्वं तु दनीयोदयनावीति । सांप्रतं विकलेंडियानुदिश्याह । (अहावर मित्यादि) अथानंतरमेतदा ख्यातमिहा स्मिन् संसारे एके केचन तथाविधकोदयवर्तिनः सत्वाः प्राणिनोनानाविधयो निकाः कर्मनिदानेन स्वरूतकर्मणोपादाननूतेन तत्रोत्पत्तिस्थाने उपक्रम्यागत्य नानाविधत्र सस्थावराणां शरीरेषु अचित्तेषु सचित्तेषुवा (अणुसुयत्ताएत्ति ) अपरशरीराश्रिततया प रनिश्रयाविवर्तते समुत्पद्यते इति यावत् ( तेच जीवा विकलेंझ्यिाः सचित्तेषु मनुष्यादिश रीरेषु यूकालिदा दिकत्वेनोत्पद्यते तथा तत्परिनुज्यमानेषु मंचकादिष्वचित्तेषु मत्कुणत्वेना विर्नवंति तथाऽचित्तीजूतेषु मनुष्यादिशरीरकेषु विकलेंयिशरीरेषुवा ते जीवाअनुस्यूतत्वे न पर निश्रयाकम्यादित्वेनोत्पद्यते । अपरेतु सचित्ते तेजःकायादौ मूषिकादित्वेनोत्पद्यं ते । यत्र चाग्निस्तत्र वायुरित्यतस्तनवायपि इष्टव्याः । तथा टथिवीमनुश्रित्य कुंथुपिपी लिकादयोवर्षादावष्मणा संस्वेदजाजायंते तथोदके पूतरकाडोनणकत्रमरिकालेदनकाद यः समुत्पद्यते तथा वनस्पतिकाये पनकत्रमरादयोजायते । तदेवं ते जीवास्तानि स्वयो निशरीराण्याहारयति इत्येवमाख्यातमिति ॥ २७ ॥ एवं उरूबसंनवत्ताए ॥२७॥ अर्थ-हवे पंचेंडियनां मल मूत्र मांहें उपजता एवा, जीव आश्री कहेजे. (एवंके०) Page #858 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पशन वितीये सूत्रकृतांगे दितीयश्रुतस्कंधे तृतीयाध्ययनं. एजेम सचित्ताचित्त शरीरनी निश्रायें विकलेंडिय जीव उपजे तेम, तेना मल, मूत्र, वमना दिकने विषे (उरुव के० ) विरूपरूप एटले कम्यादिकने नावें उपजे, ते जीव तेणे वि ष्टादिकने विषे उपना बता तेहिज याहार लीये. इत्यादिक पूर्ववत् जाणवू ॥ २ ॥ ॥ दीपिका-अथ पंचेंडियमूत्रपुरीषोनवान् जीवानाद । (एवमित्यादि ) एवं पूर्वोक्त प्रकारेण सचित्ताचित्तशरीरनिश्रयायथा विकलेंडियाजायते । तथा तत्संनवेषु मूत्रपुरीष वांतादिषु परे जंतवोउष्टं विरूपं रूपं येषां ते कुरूपास्तत्संनवत्वेन तनावेन जायते। तेच विष्टादौ शरीरानिर्गते अनिर्गतेवा उत्पन्नास्तदेव विष्ठादिकमाहारयंतीति। शेषं प्राग्वत्॥२॥ ॥ टीका-सांप्रत पंचेंशियमूत्रपुरीषोनवानसुमतः प्रतिपादयितुमाह । ( एवमित्यादि) एवमिति पूर्वोक्तपरामर्शः । यथा सचित्ता चित्तशरीरनिश्रयाविकलेंड्यिाः समुत्पद्यते तथा तत्संनवेषु मूत्रपुरीषवांतादिषु अपरे जंतवोकुष्टं विरूपं रूपं येषां कम्यादीनां ते कुरूपा स्तत्संनवत्वेन तनावनोत्पद्यते । तेच तत्र विष्ठादौ देहानिर्गतेऽनिर्गतेवा समुत्पद्यमाना उत्पन्नाश्च तदेव विष्ठादिकं स्वयोनिनूतमाहारयति । शेषं प्राग्वत् ॥ २ ॥ एवं खुरजगत्ताए ॥२॥ अर्थ-हवे सचित्त शरीरनी निश्रायें जे जीव उपजे ते पाश्री कहे. (एवं के०) जेम मलमूत्रादिकने विष जीवनी उत्पत्ति थायले. तेम तिर्यंचना शरीरने विष खुर एट ले चर्मने विष कीटकने नावें उपजे एटले गाय, नेश प्रमुखना चर्म मांहें प्राणियो संमई, ते तेनुं चर्म मांस नहाण करे, चम विवर करे, ते थकीजे अगुड़ पुजल निकले तेज थाहारे : तथा अचित्त गवादिक शरीरने विषे पण जीव उपजे तथा सचित्ताचित्त वनस्पति शरीरने विषे पण घूण कीटकादिक संमू.. ते उपजतां तेनुंज शरीर थाहा रे. इत्यादिक जाणवू ॥ श्ए॥ ॥ दीपिका-अथ सचित्तदेहाश्रयान् जंतूनाह । (एवंखुरुगताएत्ति) यथा मूत्रविष्ठादा वुत्पादस्तथा तिर्यग्देहेषु (खुरगुत्तेत्ति) चर्मकीटत्वेन जायंते । तथाहि ।जीवतामेव गोम हिष्यादीनां चर्मणोंऽतःप्राणिनः संमूर्यते । तेच तन्मांसचमणी नदयंति नक्ष्यंतश्च तच्च मणोविवराणि कुर्वति । गलबोणितेषु विवरेषुच तेषु तिष्ठंतस्तदेव शोणितं जयंति तथाऽ चित्तगवादिदेहेपि तथा सचित्ताचित्तवनस्पतिशरीरेपि घुणकीटकाः संमूबते तदेहमे व नश्यंतीति ॥ २ ॥ Page #859 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राय धनपतसिंघ बादाउरका जैनागम संग्रह नाग उसरा. ए ॥ टीका-सांप्रतं सचित्तशरीराश्रयान जंतून प्रतिपादयितुमाह। (एवंखुरगुत्ताए। त्यादि) एवमिति यथा मूत्रपुरीषादावुत्पादस्तथा तिर्यक्शरीरेषु (खुरगुत्ताएत्ति ) चर्म कीटतया समुत्पद्यते । इदमुक्तं नवति जीवतामेव गोमहिष्यादीनां चर्मणोंतः प्राणिनः संम्रयते तेच तन्मांसचर्मणी जयंति नक्ष्यंतश्चर्मणोविवराणि विदधति गलबोणिते पु विवरेषु तिष्ठंतस्तदेव शोणितमाहारयति तथा अचित्तगवा दिशरीरेपि तथा सचित्ताचित्त वनस्पतिशरीरेपि घुणकीटकाः संमूर्यते तेच तत्र संमूर्बतस्तचरीरमाहारयंतीति ॥२५॥ अहावरं पुरस्कायं श्रंगतिया सत्ता गाणाविदजोणिया जाव कम्मणिया एणणं तबवुकमा गाणाविदाणं तसथावराणं पाणाणं सरीरसु सचित्तेसु वा अचित्तेसुवा तं सरीरगं वायसं सिकंवा वायसंगदियंवा वायं परिग दियं नवाएसु नहानागी नवति अदेवाएसु अदेनागी नवति तिरियं वाएसु तिरियंनागी नवति तंजदा नसा हिमए मदिया करए हरत णुए सुशोदए तेजीवा तेसिं पाणाविदाणं तसथावराणं पाणाणं सिणे दमादारेति तेजीवा अहारेति पुढविसरीरं जावसंतं अवरेवियणं तेसिं तसथावरजोणियाणं साणं जावसुझोदगाणं सरीरा पाणावरमा जावमस्कायं ॥ ३० ॥ अर्थ-हवे अपकायतुं प्रतिपादन करे . हवे बीलु स्थानक . श्री तीर्थकरें कडं या जगत् मांहे कोई एक जीव तथाविध कर्मने उदय नानाविध योनिक बता यावत् कर्मने कारणे आकर्षिता त्यां आव्या बता नाना प्रकारे त्रस ते दरादिक अने स्थावर ते दरिकाय लवणादिक प्राणीनां सचित्त अचित्त शरीरने विषे ते अपकायतुं शरीर वायुयें करी निपजाव्युं तथा (वायसंगहियंवा के० ) वायरे करी सम्यक् प्रकारे ग्रह्यु तथा (वायंपरिहियं के० ) वायरे करी अन्योन्य परिगत एटले माहोमांहें मेलव्यु तथा (नवाएसुनट्टनागीनवति के० ) कवंगत वायराने विषे जवंगत नागी थाय एटले कवं वायु थके पाणी पण नपहरो रहे. (अहेवाएसुबहेनागीनवतिके ० ) तथा निचे निचे वायरे निचो होय, (तिरियंवाएसुतिरिय नागीनवति के०) ति वायरे ति जो थाय, जे जे परिणामे वायु वर्ते, तेम तेम पाणी पण परिणमे ( तंजहा के ० ) हवे तेना नाम कहेले. (उसा के ) उसपडे ते (हिमएके० ) हिम (महिया के० ) धू यरी (करए के० ) करगडा (हरतपुए के० ) तृणने अयें स्थित एवा पाणीना बिंड आ (सुखोदए के०) शुशोदक ते स्वन्न पाणी इत्यादिक पाणी जाति मांहें जीव उपजे. Page #860 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७३० दितीये सूत्रकृतांगे वितीयश्रुतस्कंधे तृतीयाध्ययनं. ते जीव त्यां उपना बता ते नाना प्रकारना त्रस भने स्थावर प्राणियोनो स्नेह थाहा रे. इत्यादिक शेष सुगम ॥ एटले वात योनिक थपकाय देखाड्यो. ॥३०॥ ॥ दीपिका-यथाप्कायं वक्तुकामस्तत्कायकारणभूतवायुकथनपूर्वमाह । (अहावर मित्यादि) अथैतदाख्यातं । इहैके सत्वाः कर्मोदयात्तत्र वायुयोनिकेऽपकाये व्युत्क्रम्यागम्य नानाविधानां त्रसानां दउरादीनां प्राणिनां स्थावराणां च हरितलवणादीनां सचित्ताचित्त देहेषु तदप्कायशरीरं वायुयोनिकत्वादप्कायस्य वायुना उपादानहेतुनूतेन निष्पादित तथा वातेन संगृहीतं धनपटलांतर्निर्वृत्तं तथा वातपरिगतं वायुनाऽन्योन्यानुगतं अर्ध्वगते वाते नवनागनवति । गगनगतवायुवशाऊलं व्योम्नि संमूर्बते । अधोगते । वाते जलमप्यधः स्यात् तिर्यग्गतेच तिर्यक् वातयोनिकत्वाऊलस्य यत्र यत्र वायुः परिणमति तत्र तत्र तत्कार्यनूतं जलमपि संमूर्बते । जलनेदान् वक्ति । (सत्ति ) अ वश्यायः हिमं महिकाधूमरीकरकाः (हरतपुत्ति) तृणायप्राप्ताजलबिंदवः शुशोदकं प्रतीतं । इहैके जीवाः शुचजले जातानानाविधत्रसस्थावराणां उत्पत्त्याऽऽधारनूतानां स्नेहं जदयंति । शेषं सुगमं ॥ ३० ॥ ॥ टीका-सांप्रतमप्कायं प्रतिपादयिषुस्तत्कारणनूतवातप्रतिपादनपूर्वकं प्रतिपाद यतीत्याह । (अहावर मित्यादि) अथानंतरमेत वक्ष्यमाणं पुरा पूर्वमाख्यातं । इहास्मि न जगत्येके सत्तास्तथाविधकर्मोदयानाना विधयोनिकाः संतोयावत्कर्मनिदानेन तत्र तस्मिन्वातयोनिकेऽपकाये व्युत्क्रम्यागत्य नानाविधानां बदुप्रकाराणां त्रसानां दरप्रन तीनां स्थावराणांच हरितलवणादीनां प्राणिनां सचित्ता चित्तनेदनिन्नेषु शरीरेषु तदपूका यशरीरं वातयोनिकत्वादप्कायस्य वायुनोपादानकारणनूतेन सम्यक् संसिकं निष्पा दितं । तथा वातेनैव सम्यगृहीतमन्रपटलांतनिर्वृत्तं तथा वातेनान्योन्यानुगतत्वा त्परिगतं तथोर्ध्वगतेषु वातेषूर्वनागी नवत्यपूकायोगगनगतवातवशादिवि संमूबते जलं तथाऽधस्ताजतेषु त ६शानवत्यधोनागीत्यपकायएवं तिर्यग्गतेषु तिर्यग्नागीनवत्यप्कायः। इदमुक्तं नवति । वातयोनिकत्वादप्कायस्य यत्र यत्रासौ तथा विधपरिणामपरिणतोनव ति तत्र तत्र तत्कार्यनूतं जलमपि संमूर्बते । तस्य चानिधानपूर्वकं नेदं दर्शयितुमा ह । तद्यथा। (उसत्ति ) अवश्यायः (हिमयेत्ति) शिशिरादौवातेरिताहिमकणामिति काः धूमिकाः करकाः प्रतीताः ( हरतणुयत्ति ) तृणायव्यवस्थिताजलबिंदवः गुदोदकं प्रतीतमिति । इहास्मिन्नुदकप्रस्तावे एके सत्तास्तत्रोत्पद्यते स्वकर्मवशगास्तत्रोत्पन्नास्ते जीवास्तेषां नानाविधानां त्रसस्थावराणां स्वोत्पत्त्याधारनूतानां स्नेहमाहारयंति ते जीवा स्तबरीरमाहारयंति अनाहारकान नवंतीत्यर्थः।शेषं सुगमं यावदेतदाख्यातमिति ॥३०॥ Page #861 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राय धनपतसिंघ बादापुरका जैनागम संग्रह नाग उसरा. ३१ अहावरं पुरस्कायं इदेगतियासत्ता उदगजोणिया नदगसंनवा जाव क म्मणियाणेणं तब वक्तमा तसथावरजोणिएस उदएस उदगत्ताए वि नहति तेजीवा तेसिं तसथावरजोणियाणं उदगाणं सिणेहमादारति तेजीवा आदारेंति पुढविसरीरं जाव संतं अवरेवियणं तोसें तसथावर जोणियाणं नदगाणं सरीरा पाणावमा जावमकायं ॥३१॥ अर्थ-हवे थपकाय योनिक थप्काय देखाडे. अथ हवे अपर स्थानक श्री तीर्थक रें कझुंडे. या जगत् मांहें कोइ एक जीव उदकयोनिक उदकने विषे संनवले,यावत् क मैने कारणे करी एटले तथाविध कर्मने नदयें वातवशे नपना एवा त्रस अने स्थावर जीव, तेना शरीरने अधार नूत एवं नदक जे पाणी ते उदकें नपना त्रस स्थावर यो निक उदक तेने विषे उदक पणे सुपजे,ते जीव त्यां नपना थका ते नदकनो स्नेह था हारे. इत्यादिकं शेष सुगमम् ॥ ३१ ॥ ॥ दीपिका-वातयोनिकं जलमुक्त्वा जलसंनवं जलमाह । (यहावर मित्यादि) इहैके सत्वावातवशोत्पन्नत्रसस्थावरदेहाधारनूतमुदकं योनिरुत्पत्तिस्थानं येषां ते तथा उदकसं जवास्त्रसस्थावरयोनिकेषु उदकेषु अपरोदकतया उत्पद्यते । तेच जलसत्वास्तेषां त्रस स्थावरयोनिकानां जलानां स्नेहं पराम्यपि प्रथिव्या दिशरीराणि चाहारयति । तच्च प्रथि व्यादिशरीरं नदितं सत्तारूप्यमानीयात्मसात्कुवेति ।अन्यान्यपि तत्र त्रसस्थावरशरीराणि वर्तते तेषां च नीरयोनिकानां नीराणां नानाविधानि शरीराणि वर्तते एतदाख्यातं ॥३१॥ ॥टीका-तदेवं वातयोनिकमप्कार्य प्रदाधुनाप्कायसंनवमेवाप्कायं दर्शयितुमाह। (अहावरमित्यादि ) अथापरमारख्यातमिहास्मिन् जगति उदकाधिकारे वा एके सत्वा स्तथाविधकर्मोदया क्षातवशोत्पन्नत्रसस्थावरशरीराधारमुदकं योनिरुत्पत्तिस्थानं येषां ते तथा तथोदकसंनवा यावत्कर्म निदानेन तत्रोत्पित्सवस्त्रसस्थावरयोनिकेषदकेष्वपरोद कतया विवर्तते समुत्पद्यते ते चोदकजीवास्तेषां त्रसस्थावरयोनिकानामुदकानां स्ने हमादारयंत्यन्यान्यपि दृथिव्यादिशरीराण्याहारयति । तच्च पृथिव्यादिशरीरमाहारितं सत् सारूप्यमानीयात्मसात्प्रकुर्वत्यपराण्यपि तत्र त्रसस्थावरशरीराणि विवर्तते तेषां चोदक योनिकानामुदकानां नानाविधानि शरीराणि विवर्तते इत्येतदाख्यातं ॥ ३१ ॥ अहावरं पुरस्कायं देगतिया सत्ता नदगजोणियाणं जाव कम्मनियाणेणं तब वुकमा उदगजोणिएस न्दएसु उदगत्ताए विनति ते जीवा तेसिं Page #862 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२ दितीये सूत्रकृतांगे वितीयश्रुतस्कंधे तृतीयाध्ययनं. नदगजोणियाणं जीवाण नुदगाणं सिणेदमाहारैतिते जीवा आदाति पुढविसरीरं जावसंतं अवरेवियणं जीवाणं उदगजोणियाणं नदगाणं सरीरा पाणावन्ना जावमस्कायं ॥ ३२॥ अर्थ-हवे अन्य स्थानक श्री तीर्थकरें कयुं . था जगत् मांहे कोई एक जीव तथाविध कर्मना उदय थकी उदक योनिक उदकने विष उपजे. त्यां उपना थका तु दक जीवनो स्नेह थाहारे, शेषं सुगमं ॥ ३२ ॥ ॥ दीपिका-तदेवं त्रसस्थावरदेहसंनवं जलयोनित्वेन प्रदाऽधुना निर्विशेषणज लसंनवमेव जलं दर्शयति । (यहावर मिति) इह एके सत्वाउदकयोनिकेषु उदकेषूत्पद्यते तेच तेषां जलसंनवानां आत्माधारनूतानां शरीरं नदयति । शेषं प्राग्वत् ॥ ३ ॥ ॥ टीका-तदेवं त्रसस्थावरसंनवमुदकयोनित्वेन प्रदाऽधुना निर्विशेषणमप्रकाय संनवमेवापकायं दर्शयितुमाह । (अहावरमित्यादि) अथापरमारख्यातमिहास्मिन् जगत्य दकाधिकारे वा एके सत्वाः स्वरुतकर्मोदयाउदकयोनिषूदकेषूत्पद्यते तेच तेषामुदक संन वानामुदकजीवानामात्माधारजूतानां शरीरमाहारयति । शेषं सुगमायावदाख्यातमिति३५ अदावरं पुरस्कायं श्देगतिया सत्ता उदगजोणियाणं जावक्कम्मनियाणे एं तब वुकमा नदगजोणिएसु उदएसु तसपाणत्ताए विनति तेजी वा तसिं नदगजोणियाणं उदगाणं सिणेदमादारेति तेजीवा आदाति पुढविसरीरं जावसंतं अवरेवियणं तसिं उदगजोणियाणं तसपाणाणं सरीरा पाणावमा जावमकायं ॥ ३३ ॥ अर्थ-हवे अन्य स्थानक श्री तीर्थकर देवें कह्यु. या जगत् मांहे कोई एक जीव क में प्रेस्या थका उदक योनिक उदकने विषे पूयरादिक त्रस प्राण पणे उपजे. ते उपना बता तेनुं शरीर आहारे. इत्यादिक पूर्ववत् जाणवु ॥ ३३ ॥ ॥ दीपिका-अथ जलाधारनूतान त्रसानाह । इहैके सत्वाउदकयोनिकेषूदकेषु त्रसप्रा णितया पूतरकादित्वेन नत्पद्यते । तेच उत्पद्यमानानत्पन्नाश्च तेषां जलयोनिकानां ज लानां स्नेहमाहारयति । शेषं प्राग्वत् ॥ ३३ ॥ ॥ टीका-सांप्रतमुदकाधारानपरान् प्रतरकादिकांस्त्रसान्दयितुमाह । (अहावरमि Page #863 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राय धनपतसिंघ बादाउरका जैनागम संग्रह नाग उसरा. ७३३ त्यादि) अथापरमेतदाख्यातमिहैके सत्वाउदकयोनिषु चोदकेषु त्रसप्राणितया पूतरक दित्वेन विवर्तते समुत्पद्यते ते चोत्पद्यमानाः समुत्पन्नाश्च तेषामुदकयोनिनामुदकानां स्ने हमाहारयति । शेषं सुगमं यावदाख्यातमिति ॥ ३३ ॥ अदावरं पुरस्कायं श्देगतिया सत्ता णाणाविहजोणिया जाव कम्मनिया णणं तब वुकमा गाणाविदाणं तसथावराणं पाणाणं सरीरेसु सचित्ते सुवा अचित्तेसुवा अगणिकायत्ताए विनति ते जीवा तेसिं पाणावि दाणं तसथावराणं पाणाणं सिणेदमाहारैति ते जीवा आदारेंति पुढ विसरीरं जाव संतं अवरेवियणं तेसिं तसथावरजोणियाणं अगणीणं सरीरा पाणावमा जाव मरकायं सेसा तिन्नि आलावगा नदगाणं ॥३॥ अदावरं पुरस्कायं देगतिया सत्ता गाणाविहजोणियाणं जाव कम्मनि याणेणं तब वकमा गाणाविहाणं तसथावराणं पाणाणं सरीरेस सचि तेसुवा अचित्तेसुवा वानकायत्ताए विनति जदा अगणीणं तदा ना पियवा चत्तारि गमा॥३५॥ अर्थ-हवे अग्निकाय जीव आश्री कहे. अथ हवे अनेकै स्थानक श्री तीर्थकर देवें कह्यु. आ जगत् मांहें कोई एक जीव नाना प्रकारना योनि वाला, ते एवा प्रकारचें कर्मोपा जन करीने, नानाविध त्रस अने स्थावर प्राणिना शरीरने विषे सचित्तने विषे, अचित्त : ने विषे, अनिकाय पणे उपजे. त्यां नपजता बता, ते त्रस अने स्थावर प्राणीनो स्ने ह आहारे. इत्यादिकं शेषं सुगमं ॥अहीं अग्निकायने विषे शेष त्रण बालावा नदकना अालावानी पेठे जाणी लेवा. ॥३४॥ हवे वायुकाय जीव पाश्री कहेले. हवे अनेरुं स्था नक श्री तीर्थकरें कझुं. या जगत माहे कोई एक जीव नानाविध योनिक कर्मने वशव र्ति थका नाना प्रकारना त्रस अने स्थावर जीवोनां शरीर सचित्त अने अचित्तने विषे वायुकाय पणे उपजे, इत्यादिक जेम अग्निकायना चार आलावा कह्या. तेम ए वायु कायना पण चार आलावा केहेवा. ॥ ३५॥ ॥ दीपिका-अथ तेजःकायमाह । एके सत्वाः कर्मोदयान्नानाविधानां त्रसस्थावरा णां देहेषु सचिनेष्वचित्तेषु वाऽग्नित्वेन विवर्तते प्राऽनवंति । तथाहि । पंचेंख्यितिरश्चां दंतिमहिषादीनां परस्परं युवावसरे दंतशृंगयोगेऽ निरुत्पद्यते । एवमचित्तेष्वपि तद स्थिघर्षणादग्निरुत्पत्तिः । विकलेंशियशरीरेष्वपि यथासंनवं योज्यं । स्थावरेषु वनस्पति २०५ Page #864 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४ तिीये सूत्रकृतांगे वितीय श्रुतस्कंधे तृतीयाध्ययनं पाषाणादिषु सचित्ताचित्तेषु अग्निजीवाः समुत्पद्यते । तेच तत्रोत्पन्नास्तेषां त्रसस्थावरा णां स्नेहमाहारयति । शेषं सुगमं । अन्ये त्रयोप्यालापकानदकवष्टव्याः ॥३४ ॥ अथ वायुकायमाह । इदमनिकायवघ्याव्येयं ॥ ३५ ॥ ॥ टीका-सांप्रतं तेजःकायमुद्दिश्याह । (अहावरमित्यादि ) अथैतदपरमाख्यातं । हास्मिन् संसारे एके केचन सत्वाःप्राणिनस्तथाविधकर्मोदयवर्तिनोनानाविधयोनयः प्रा क संतः पूर्वजन्मनि तथाविधं कर्मोपादाय तत्कर्मनिदानेन नानाविधानां त्रसस्थावराणां प्राणिनां सचित्तेष्वचितेषु शरीरेषु चामित्वेन विवर्तते प्राउनवंति । तथाहि । पंचेंश्यिति रश्चां दंतिमहिषादीनां परस्परं युवावसरे विषाणसंघर्षे सति अनिरुत्तिष्ठते एवमचित्तेष्व पि तदस्थिसंघर्षादग्नेरुनानं तथा दीडियादिशरीरेष्वपि यथासंनवमायोजनीयं । तथा स्थावरेष्वपि वनस्पत्युपलादिषु सचित्ताचित्तेष्वग्निजीवाः समुत्पद्यते ते चामिजीवास्तत्रोत्प नास्तेषां नानाविधानां त्रसस्थावराणां स्नेहमाहारयति । शेष सुगम यावन्नवंतीत्येवमा ख्यात अपरे त्रयोप्यालापकाः प्राग्वइष्टव्याइति ॥ ३५ ॥ सांप्रतं वायुकायमुद्दिश्याह। (यहावरमित्यादि) अथापरमेतदारख्यातमित्याद्य निकायागमेन व्याख्येयं ॥ ३५॥ अदावरं पुरस्कायं इगतिया सत्ता णाणाविदजोणियाणं जाव कम्मनि याणेणं तव वुकम्मा पाणाविदाणं तसथावराणं पाणाणं सरीरसु सचि तेसुवा अचित्तेसुवा पुढवित्ताए सकरताए वालुयत्ताए इमान गादा = अणुगंतवान " पुढवीय सकरावा,लुयाय उबले सिलाय लोणू से ॥ अयत न्य तंब सीसग, रुप्प सुवस्मेय वश्रेय ॥१॥दरियाले दिं गुलए, मणोसिला सासगंजणपवाले ॥ अप्नपालनवालय, बायरका ए मणिविदाणा ॥॥ गोमेऊएय रूयए, अंकेफलिहिय लोहियकेय॥ मरगयमसारगल्ले, नूयमोयग इंदणीलेय ॥ ३॥ चंदण गेरुय दंसगप्ने, पुलए सोगंधिएय बोहवे ॥ चंदप्पन वेरुलिए, जलकंते सूरकंतेय ॥४॥ एयान एएसु नाणियवाएन गादान जाव सूरकंताएवि वुहति तेजीवा ते सिंणाणाविदाणं तसथावराणं पाणाणं सिणेदमादारेति तेजीवा आदारें ति पुढविसरीरं जाव संतं अवरेवियणं तेसिं तसथावरजोणियाणं पुढ वीणं जाव सूरकंताणं सरीरा पाणावला जावमकायं सेसं तिमिल वगा जहा नदगाणं॥३६॥ Page #865 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राय धनपतसिंघ बादाउरका जैनागम संग्रह नाग उसरा. ३५ अर्थ-हवे पृथ्वीकाय जीव पाश्री कहे. हवे अन्य स्थानक पूर्व श्री तीर्थकरें कडं. था जगत् मांहें कोई एक जीव, नाना प्रकार योनिक, यावत् कर्माधीन थका त्यां नपजे. नाना प्रकारना त्रस स्थावर प्राणीनां शरीरने विषे, सचित्तने विषे, अचित्तने विषे, शर्करा एटले कांकरा पणे, वेलु एटले रेति पणे, इत्यादिक (श्माउँगाहा के०) ए थागलनी चार गाथायें करी पृथ्वीकायना नेद कहेशे ते प्रमाणे, (अणुगंतवा के० ) सर्व जाणी से वा. ( पुढवीय के०) पृथ्वी पणे (सक्करा के० ) कांकरा पणे, (वालुयाय के० ) वेलू ते रेती पणे, (ग्वले के०) उपल एटले पाषाणना कटका पणे, (सिलाय के०) मा टी अने पाशानी शिलापणे, (लोणूसेके० ) समुशदिकना लूण ते पणे, नसे एटले उस पणे, ते खारी धूल पणे, (अयत के०) लोह पणे, (उय के०) जसत तरुथा पणे, (तंब के० ) त्रांबा पणे, (सिसगं के०) शीसा पणे, (रुप्प के० ) रूपा पणे, (सुवरलेय के) सुवर्ण पणे, (वश्रेय के०) वज, ते हीरा पणे, (हरियाले के०) हरिताल पणे, (हिंगुलएके) हिंगलो पणे, (मणोसिलाके) मणसील पणे, (सासगंज के०) सासग एटले रत्ननीजाति, अंजन एटले सुरमो ते पणे, (पवालेके) परवालां, (अन्नपमलप्नवालुय के०) अनपडल अने अचवालुक एटले थाकाशना जलस तथा अकाशना जलस सहित धूल,ए (बायरकाय के०) बादरकाय, पृथ्वीना नेद कह्या. हवे (मणिविहाणा के०) मणिना नेद कहेले. (गोमेऊएय के) गोमेद्य रत्न, (रूयए के०) रजत रत्न, (अंके के०) अंक रत्न, (फलिहिय के०) स्फाटिक रत्न, (लोहियरकेय के०) लोहिताद रत्न, (मरगय के०) मरकत रत्न, (मसारगल्ने के०) मसारगन रत्न, (नूयमोयग के०) नूजमोचक रत्न, (इंदणीलेय के०) इंश्नील रत्न, (चंदण के) चंदन रत्न, (गेस्य के० ) गेरुक रत्न, ( हंसगप्ने के० ) हंसगर्न रत्न, (पुत्लए के ) पुलाक रत्न, ( सोगंधिएय के० ) सुगंधिक रत्न, ( बोधवे के ० ) जाणवां. (चं दप्पन के० ) चंप्रन रत्न, ( वेरुलिए के) वैमूर्य रत्न, ( जलकंते के० ) जलकंत रत्न, (सूरकंतेय के०) सूर्यकांति रत्न, सुवर्णकांत रत्न पण एनुं नाम . ए चार गाथा ने विषे, पृथ्वीकायना नाम कह्यांडे. यावत् सूर्यकांत पणे एटले एटला दूर लगे पृथ्वी कायने नावें जीव उपजे. ते जीव त्यां उपजता बता ते नाना प्रकारना त्रस अने स्था वर प्राणीना स्नेह थाहारे ; इत्यादिक शेष सुगम. ए पथिवीकायना शेष त्रण था लावा जेम उदकना कह्या तेनी पेंठे जाणी लेवा. ॥ ३६ ॥ ॥ दीपिका-अथ पृथिवीकायमाह । इहैके सत्वाः कर्मवशगानाना विधत्रसस्थावरा णां देहेषु सचित्तेषु अचित्तेषुवा एथिवीत्वेनोत्पद्यते । तद्यथा। सपेशिरस्सु मायः करिदं Page #866 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६ दितीये सूत्रकृतांगे क्षितीये श्रुतस्कंधे तृतीयाध्ययनं. . तेषु मौक्तिकानि स्थावरेष्वपि वंशादिषु तान्येव । एवमचित्तेषूषरादिषु लवणत्वेन जायते तदेवं पृथ्वीकायिकानाना विधासु पृथ्वीषु शर्करावालुकोपल शिलालवणादिनावेन तथा गोमेदकादिरत्ननावेन बादरमणि विधानतया समुत्पद्यते ॥ (एयाउँगाहाउत्ति) एतागाथा अनुगंतव्याः । एतजाथानुगमेन पदानि वाच्या नि । (पुढवीयसकरावालुयायइत्यादि) अत्र पदोच्चारोयथा पुढवित्ताए। सक्करताए वायत्ताए इत्यादि । एवं गाथानुसारेण पदानि वा च्यानि । यावत्सूरकंतत्ताएत्ति । शेषं सुगम एवं चत्वारोप्यालापकानदकागमेन ज्ञेयाः॥३६॥ ॥ टीका-सांप्रतमशेषजीवाधारं पृथिवीकायमधिकृत्याद। (अहावर मित्यादि ) थ थापरमेतत्पूर्वमाख्यातं । इहैके सत्वाः पूर्व नानाविधयोनिकाः स्वरुतकर्मवशानानाविध त्रसस्थावराणां शरीरेषु पृथिवीत्वेनोत्पद्यते । तद्यथा। सपशिरःसु मणयः करिदंतेषु मौक्ति कानि स्थावरेष्वपि वेण्यादिषु तान्येवेति । एवमचित्तेषूपलादिषु लवणनावनोत्पद्यते । त देवं पृथिवीकायिकानानाविधासु एथिवीषु शर्करावालुकोपलसितालवणादिनावेन तथा गोमेद कादिरत्ननावेनच बादरमणि विधानतया समुत्पद्यते । शेषं सुगमं । यावच्चत्वारोप्या लापकाउदकागमेन नेतव्याइति ॥ ३६॥ अहावरं पुरस्कायं सवेपाणा सवेनूता सवेजीवा सवेसत्ता गाणाविदजो णिया गाणाविहसंनवा पाणाविहवुकमा सरीरजोणिया सरीरसंनवा सरीरवुकमा सरीरादारा कम्मोवगा कम्मनियाणा कम्मगतीया कम्म विश्या कम्मणाचेव विप्परियासमवेति ॥ ३७॥ अर्थ-हवे समस्त जीव आश्री कहे. हवे अनेरुं स्थानक पूर्वं श्री तीर्थकरें कपु.या जगत् मांहे सर्वप्राण, सर्वनूत, सर्वजीव, सर्वसत्व, नाना प्रकार योनिक नाना प्रकार नी योनिने विषे संनव एटले उत्पत्ति जेनी, नाना प्रकारें आव्या बता, शरीरयोनिक शरीरने विषे नपजे. शरीरने विषे याव्या बता त्यां उपजे एटले नरकादिक चार गतिने विषे शरीर पणे उपजे. त्यां त्यां यथायोग्य शरीरनो आहार करे. कर्मने वशे उपजे क मैने कारणे करीने कर्मे करी कर्मने अनुसारें गति पामे. कमै करी जघन्य मध्यम अने उत्कृष्ट स्थिति पामे. एटले जे जीव ा नवमां जेवो तेवोज बागले नवें न थाय. ए कारणे जीव, कर्मने वशे सुख वांबतो पण विपर्यास कुःख पामे. ॥३७॥ ॥ दीपिका-अथ सर्वजीवानाश्रित्याह । अथापरमिदमाख्यातं । सर्वे जीवानाना विधयोनिकानानाविधयोनिषूत्पद्यते यत्रच उत्पद्यते तत्र तदेहाऽऽहारिणः स्युः। तेनाहारे ए चागुप्ताः कर्मवशगाश्चतुर्गतिषु चमंति ॥ ॥३७॥ Page #867 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राय धनपतसिंघ बाहारका जैनागम संग्रह नाग उसरा. ३७ ॥ टीका-सांप्रतं सर्वोपसंहार धारेण सर्वजीवान सामान्यतोबिनणिपुराह। (अहा वरमित्यादि) अथापरमेतदारख्यातं । तद्यथा। सर्वे प्राणाः प्राणिनोऽत्रच प्राणिनूतजीवन त्वशब्दाः पर्यायत्वेन इष्टव्याः कथंचिन्नेदं चाश्रित्य व्याख्येयाः। तेच नानाविधयोनिकातो नाविधासु योनिषूत्पद्यते नारकतिर्यङ्नरामराणां परस्परगमनसंनवानेच यत्र यत्रोत्पद्यत्वे ते तत्तबरीराण्याहारयति तदाहारवंतश्च तत्रागुप्ताश्रवधारतया कर्मवशगानारकतिर्यङ्नरा मरगतिषु जघन्यमध्यमोत्कृष्टस्थितयोनवंति।अनेनेदमुक्तं नवति । योयागिह नवेस ता हगेवामुत्रापि नवतीत्येतन्निरस्तं नवत्य पितु कर्मोपगाः कर्मनिदानाः कर्मायत्तगतयोनवंति तथा तेनैव कर्मणा सुख लिप्सवोपि तविपर्यासं कुःखमुपगडंतीति ॥३७॥ से एवमायाणह से एवमायाणित्ता आदारगुत्ते सहिए समिए सयाजए त्तिबेमि॥बियसुयस्कंधस्स आहारपरिमा पाम तईयंमजयणं सम्मत्तं ॥३॥ अर्थ-हवें गुरु, शिष्य प्रत्ये कहेले के, (सेएव के० ) ते एम (मायाह के० ) त मे जाणो जे, में आदि थकी सर्वजीव पाश्री थाहारनुं विशेष संसार परिचमण क झुंडे. (सेएवमायाणित्ता के० ) एवं जाणीने जे विवेकी जन होय ते, (थाहारगुत्ते के०) आहारने विषे गुप्त थाय. एतावता शुरु निर्दोष एषणीक थाहारनु खप करे, ने (सहिए के) ज्ञान दर्शन अने चारित्रं करी सहित थको (समिए के) पांच समि तियें समितो, (सयाजए के० ) सदा सर्वकाल एटले जावजीव सुधी संयमने विषे यत्न करे. तिबेमिनो अर्थ पूर्ववत् जाणवो ॥ ए श्रीसूयगडांगसूत्रना बीजा श्रुतस्कंधने विषे, आहारपरिझा नाम त्रीजा अध्ययननो संकेपार्थ बालावबोध समाप्त थयो. ॥३७॥ ॥दीपिका-(सेएवमायाणहत्ति) तदेवं जानीत यूयं ! यत्पूर्वोक्तं सर्व।एवं ज्ञात्वा चाहारगुप्त एव समितियुतः समितः सहितोवा ज्ञानादिनिः सदा यतेत संयमे प्रयत्नवान नवेदिति । ब्रवीमीति पूर्ववत्॥३॥ इतिहितीयश्रुतस्कंधे थाहारपरिझारख्यं तृतीयमध्ययनं समाप्तम्।। ॥ टीका-सांप्रतमध्ययनार्थमुपसंजिराह । (सेएवमायाणहेत्यादि ) यदेतन्मया ऽऽदितःप्रनृत्युक्त। तद्यथा। योयत्रोत्पद्यते स तहरीराहारकोजवत्याहारगुप्तश्च कर्मादत्ते क मणाच नानाविधासु योनिषु अरहट्टघटीन्यायेन पौनःपुन्येन पर्यटतीत्येवमाजानीत यूयं! एतविपर्यासं कुःखमुपगढंतीति । एतत्परिझायच सदस दिवेक्याहारगुप्तः पंचनिः समिति निः समितोय दिवा सम्यक् झानादिके मार्गे इतोगतःसमितस्तथा सह हितेन वर्तते सहितः सन्सदा सर्वकालं यावउवासं तावद्यतेत तत्संयमानुष्ठाने प्रयत्नवान् नवेदिति । इति परि समात्यर्थे।ब्रवीमीतिपूर्ववत् । गतोऽनुगमः। सांप्रतं नयास्ते च प्राग्वइष्टव्याः॥३०॥ समा तमाहारपरिझारख्यं तृतीयमध्ययनम् ॥ ३ ॥ Page #868 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८३८ द्वितीये सूत्रकृतांगे द्वितीयश्रुतस्कंधे चतुर्थाध्ययनं. अथ द्वितीयश्रुतस्कंधे चतुर्थाध्ययनप्रारंभः हवे चोयुं प्रत्याख्यान क्रियानामा अध्ययन प्रारंनियें बैयें. त्रीजा अध्ययनमां या हार यी कर्मबंध थाय. एम कह्यो ते कर्मबंध पञ्चरकाण करवायी टली जायबे, ते कारण माटे चोथुं अध्ययन प्रत्याख्यान क्रिया नामें कहियें ढैयें. सुयं मेानसंतेणं जगवया एवमस्कायं इद खलु पञ्चरका किरियाणा मयणे तस्सणं प्रयमठे पत्ते या प्रपञ्चकाणीयावि नवति ॥ यया किरिया कसलेयावि जवति च्याया मिचा संवियावि नवति या एतदयावि नवति यया एगंतबालेयावि नवति यया ए गंतसुत्तेयावि भवति यया अवियारमणवयणकायवक्केयावि नवति प्राया पडियञ्प्रपञ्चकायपावकम्मेयावि नवति एस खलु भगव ता प्रकार संजते प्रविरते पडियपञ्चस्काय पावकम्मे सकिरिए असं एतदमे एगंतवाले एगंतसुत्ते सेवाले व्यवियारमणवय एका rah सुविमवि ण परसति पावेयसे कम्मे कइ ॥ १ ॥ ( संतेां के० ) अर्थ- सुधर्म स्वामी जंबूस्वामि प्रत्यें कहेबे के, (सुर्यमे के० ) में एम सांनसुंबे. युष्मन् ( नगवयाएवमरकार्य के० ) नगवंत श्री महावीरदेव तीर्थकर तेणें एम कयुंबे. ( इहखलुपञ्चरका ण किरियाणामयणे के० ) ए प्रवचनने विषे खलु ए वाक्यालंकारे प्रत्याख्यानक्रिया नामें अध्ययन, ( तस्सा महेपस ते के० ) तेनो ए अर्थ जे यागल कहेशे, ते कहेबे, (यायाध पञ्चरका लिया विनवति के० ) ए आत्मा जीव मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय, घने योग सहित स्वनावें रह्यो को, प्रत्याख्यानी होय. यपि शब्द यकी तेहीज खात्मा, कोई एक रूडां कां रण थकी पञ्चरकाणी पण होय. (छायाा किरिया कुसलेया विनवति के ० ) ए खात्मा रूडा अनुष्ठानें रहित पण होय. अपि शब्द थकी रूडा धनुष्ठानें सहित पण दोय, तथा (छाया मिठासंठिया विनवति के० ) ए श्रात्मा मिथ्यात्वें संस्थित पण होय, अने यपि शब्द की मिथ्यात्व थकी रहित पण होय, ( छायाएंगंतदमेया विनवति के ० ) एात्मा एकांते प्राणीउने दंमनो करनार पण होय, तथा ( धायाएगंत बाजेया विनव ति के० ) एात्मा एकांत बाल पण होय, (छायाएंगंतसुत्तेया विनवति के० ) तथा 0 For Private Personal Use Only Page #869 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राय धनपतसिंघ बादाडुरका जैनागम संग्रह नाग दुसरा. एत्मा एकांत सुतो एटले शयन करनार पण होय, ( श्रायाएगंतयवियारमणवयण काय क्याविनवति के ० ) तथा ए खात्मा एकांत अविचायुं कोई कार्य करें, एवा मन वचन ने कायायें करी सहित पण होय, ( छायापडिया पश्च्च रकाय पावकम्मेया विभवति के ० ) तथा ए खात्मा, अप्रतिहत एटले विरतें कर नयी हस्यां तथा नयी पञ्चख्या पाप कर्म जेणे एवो पण होय, (एसखलु भगवतारकाए के० ) एवो जीव श्री भगवंते कोने वली केवो कह्यो तो के? ( संजते के० ) असंयत (विरते के ० ) अविरति (पडदयपच्चायपावकम्मे के० ) अप्रतिहत एटलें नयी हस्यां पञ्चरका करीने पाप कर्म जेणे, ( सकिरिए के० ) क्रिया सहित, ( संमे के० ) संवर रहित ( एतदमे के ० ) एकांतें दंम, ( एगंतबाले के० ) एकांते बाल, ( एगंत सुत्ते के० ) ए कांतें तो एटले शयन करनार, एवो को. ( सेवाले वियारम एवय एकाय वक्के के ० ) ते बाल, विचारवान् एवो मन वचन अने कायायें करी रहित बतो, जे पाप कर्मने (सुविमविपस्संति के० ) स्वप्नांतरें पण देखे नही. ( पावेयसेकम्मेकाइ के० ) तो पण तेने तेवां पापकर्मनो बंध थायले. ॥ १ ॥ ॥ दीपिका-अथ प्रत्याख्यान क्रियाख्यं चतुर्थमध्ययनमारच्यते । तस्येदमादिसूत्रं । ( सुर्यमेत्यादि ) श्रुतं मयाऽऽयुष्मता जगवतेदमाख्यातं । इहांगे प्रत्याख्यानक्रियानामा ध्ययनं तस्यायमर्थः । श्रात्मा स्वनावतएवाऽप्रत्याख्यानी नवति । प्रपिशब्दात्सकदा चित्प्रख्यान्यपि नवति । श्रात्मा क्रियाकुशलः सदाचारः स्यादक्रिया कुशलोपि । श्रात्मा मि ध्यात्वसंस्थितः श्रात्मा एकांतदंडो हिंसकः स्यात् श्रात्मा बालः सुप्तोनावसुप्तश्च । श्रवि चाराणि अशोजनानि मनोवचः काय वाक्यानि यस्य स तथा । वाग्ग्रहणेनैव वाक्यस्य गता sarayaa क्यग्रहणं वाग्व्यापारस्य प्राचुर्यज्ञापनार्थे । तथाऽप्रतिहत प्रत्याख्यातपापक प्रतिहतं निवारितं प्रत्याख्यातेन विरत्या पापकर्म येन स तथा एवमेषात्मा असंयतोऽविरतोऽप्रतिहतप्रत्याख्यातपापकर्मा सक्रियोऽसंवृतः एकांत दंड: एकांतबालः एकांतसुतः स बालोऽविचारमनोवचः कायवाक्यः स एवंभूतः पटुविज्ञानर चितः स्वप्नमपि न पश्यति तेनाप्येवंभूतेनाव्यक्तज्ञानेनापि पापं कर्म बध्यते ॥ १ ॥ ८३० ॥ टीका - तृतीयाध्ययनानंतरं चतुर्थमारच्यते । अस्य चायमनिसंबंधः । इहानं तराध्य हारगुप्तस्य कर्मबंधोऽ निहितोऽत्र तत्प्रत्याख्यानं प्रतिपाद्यते । यदि वोत्तरगुणसं पादनार्थ देतराहारपरिज्ञोक्ता । सा चोत्तरगुणरूपा प्रत्याख्यान क्रियासमन्वितस्य नवती त्यतयाहारपरिज्ञानं तरं प्रत्याख्यान क्रियाध्ययनमारच्यते इत्यनेन संबंधेनायातस्याऽध्यय For Private Personal Use Only Page #870 -------------------------------------------------------------------------- ________________ G४0 दितीये सूत्रकृतांगे वितीय श्रुतस्कंधे चतुर्थाध्ययनं. नस्योपक्रमादीनि चत्वार्यनुयोग धाराणि नवंति । तत्रोपक्रमांतर्गतीर्थाधिकारोयम् । तद्यथे ह कर्मोपादाननूतस्याशुनस्य प्रख्यानं प्रतिपाद्यतइति। सांप्रतं निदेपस्तत्राप्योघनिष्पन्नेऽ ध्ययनं नाम निष्पन्ने प्रत्याख्यानक्रियेति विपदं नाम । तत्र प्रत्याख्यानपद निदेपार्थ नियु क्तिकदाह ।” णामं उवणादविए, अश्व पडिसेह एय नावेय॥ एसोपच्चरकाण,स्स बबिहो होइनिरकेवो ,, ॥ १ ॥ (णामंठवणेत्यादि) नामस्थापना इव्यादित्साप्रतिषेधनावरूपः। प्रत्याख्यानस्यायं षोढा निक्षेपः । तत्रापि नामस्थापने सुगमे । व्यप्रत्याख्यानं व्यस्य इव्येण इव्याद्व्ये व्यनूतस्य वा प्रत्याख्यानं । तत्र सचित्ताचित्तनेदमिश्रस्य प्रत्याख्यानं इव्यनिमित्तं वा प्रत्याख्यानं यथा धम्मिन्नस्य । एवमपरास्यपि कारकाणि स्वधिया योज नीयानि। तत्र दातुमिना दित्सा न दित्सा अदित्सा तया प्रत्याख्यानमदित्साप्रत्याख्यानं । सत्यपि देये सतिच संप्रदानकारके केवलं दातुर्दातुमिना नास्तीत्यतोऽदित्साप्रत्याख्या नं तथा प्रतिषेधप्रत्याख्यानमिदं । तद्यथा। विवदितव्यानावादिशिष्टसंप्रदानकारका नावामा सत्यामपि दित्सायां यः प्रतिषेधस्तत्प्रत्याख्यान। नावप्रत्याख्यानं तु विधांडतः करणशुरूस्य साधोः श्रावकस्य वा मूलगुणप्रत्याख्यानमुत्तरगुणप्रत्याख्यानं चेति । च शब्दादिविधमपि नोबागमतोनावप्रत्याख्यानं इष्टव्यं नान्यदिति । सांप्रतं क्रियापदं नि देप्तव्यं । तच्च क्रियास्थानाध्ययने निक्षिप्तमिति। न पुनर्निदिप्यते। इह पुनर्नावप्रत्याख्या ने नाधिकारइति दर्शयितुमाह ।” मूलगुणे सुयपगयं, पञ्चरकाणे इहं अधीगारो ॥ हो ऊ दुतप्पञ्चश्या, अप्पञ्चरकाण किरिया,,॥ २ ॥ (मूलगुणेसुयश्त्यादि) मूलगुणाः प्रा पातिपातविरमणास्तेषु प्रकृतमधिकारः प्राणातिपातादेः प्रत्याख्यानं कर्तव्यमिति याव त् । इह प्रत्याख्यानक्रियाध्ययने नार्थाधिकारोयदि मूलगुणप्रत्याख्यानं न क्रियते तत्रो पायं दर्शयितुमाह । प्रत्याख्यानानावेऽनियतत्वाद्यत्किचनकारितया तत्प्रत्ययिका तन्नि मित्तानावामुत्पद्यते प्रत्याख्यानक्रिया सावद्यानुष्ठान क्रिया तत्प्रत्ययिकश्च कर्मबंधस्तन्निमि तश्च संसारइत्यतः प्रत्याख्यानक्रिया मुमुकुणा विधेयेति । गतोनामनिष्पन्नोनिदेपोऽधुना सूत्रानुगमेऽस्खलितादिगुणोपेतं सूत्रमुच्चारयितव्यं । तच्चेदं ( सुयंमेथासंतेणमित्यादि) अस्य चानंतरपरंपरसूत्रैः सह संबंधोवक्तव्यः। सचायमिहानंतराध्ययनपरिसमाप्ताविदं सूत्रमाहारगुप्तःसमितः सहितः सदा यतेतेत्येतन्मया श्रुतमायुष्मता नगवतेदमाख्यातमे वमनया दिशा परंपरसूत्रैरपि संबंधोऽन्यूह्यः । इहास्मिन् प्रवचने सूत्रकृतांगेवा । खल्विति वाक्यालंकारे । प्रत्याख्यानक्रियानामाध्ययनं तस्यायमोंवक्ष्यमाणलदाणः । अतती त्यात्मा जीवः प्राणी सचानादिमिथ्यात्वाविरतिप्रमादयोगानुगततया स्वनावतएव प्रत्या ख्यान्यपि नवत्यपिशब्दात्सएव कुतश्चिनिमित्तात्प्रत्याख्यान्यपि । तत्रात्मग्रहणमपरद शनव्युदासार्थ । तथाहि । सांख्यानामप्रव्युतानुत्पन्न स्थिरैकवनावात्मा । सच तृणकु Page #871 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रायनपतसिंघ बाहारका जैनागम संग्रह नाग दुसरा. ८४१ ब्जीकरणेप्यसमर्थतया किंचित्करत्वान्न प्रत्याख्यान क्रियायां नवितुमर्हति । बौ छानामप्या मनोजावात् ज्ञानस्य च कणिकतया स्थितेरभावात् कुतः प्रत्याख्यानक्रियेति एवमन्य त्रापि प्रत्याख्यानक्रियायाधनावोवाच्यः । तथा सदनुष्ठानं क्रिया तस्यां कुशलः क्रि याकुराजस्तत्प्रतिषेधाद क्रियाकुशलोप्यात्मा नवति । तथात्मा मिथ्यात्वोदयसंस्थितो नवति तथैकांतेन नापरान् प्राणिनोदंमयतीति मस्त देवंभूतश्चात्मा जवति तथाऽसा रतापादनागदेषाकुनितत्वाद्दालवद्दालयात्मा नवति तथा सुप्तवत्सुप्तः । यथाहि इव्य सुप्तः शब्दादीन् विषयान् न जानाति हिताहितप्राप्तिपरिहार विकलश्च तथा नाव सुप्तोप्यात्मैवंतएव नवतीत्येवम विचारणीयान्य शोजनतया निरूपणीयान्यपर्यालोच नीयन मनोवाक्कायवाक्यानि यस्य स तथा । तत्र मनोंतःकरणं वाग्वाणी कायदेहो प्रतिपादकं पदसमूहात्मकं वाक्यमेकं तितं सुतवा । तत्र वा ग्ग्रहणेनैव वाक्यार्थ स्य गतार्थत्वाद्यत्पुनर्वाक्यग्रहणं करोति तदेवं ज्ञापयतीह वाग्व्यापारस्य प्रचुरतया प्रा धान्यं प्रायशस्तत्प्रवृत्त्यैव प्रतिषेधविधानेन तयोरन्येषां प्रवर्त्तनं नवति । तदेवम प्रत्याख्यानक्रियः सन् यात्माऽविचारितमनोवाक्कायवाक्यश्चापि जवतीति । तथा प्रतिहतं प्रतिस्खलितं प्रत्याख्यातं विरतिप्रतिपत्त्या पापकर्माऽसदनुष्ठानं येन सःप्रतिहत प्रत्याख्या तपापकर्मा तत्प्रतिषेधादसनुष्ठानपरश्रात्मा नवति । तदेवमेषपूर्वोक्ताऽसंयतोऽविरतो ऽप्रतिहतप्रख्यात पापकर्मा सक्रियः सावद्यानुष्ठानस्तथाभूतश्चासंवृतोमनोवाक्कायैरगुप्तो गुप्तत्वाचात्मनः परेषां च दंड हेतुत्वादंडस्त देवंभूतश्च सन् एकांतेन बालवद्दालः सुप्तवदेकां तेन सुप्तस्तदेवंभूतश्व बाल सुप्ततयाऽविचाराएयविचारितरमणीयानि परमार्थ विचारगुणया युक्तया वा विघटमानानि मनोक्कायवाक्यानि यस्य स तथा । यदिवा परसंबंध्य विचारितम नोवाक्कायवाक्यः सत्क्रियासु प्रवर्त्तते तदेवंभूतो निर्विवेकतया पटुविज्ञानरहितः स्वप्नम पि न पश्यति तस्य चाव्यक्तविज्ञानस्य स्वप्रमप्यपश्यतः पापं कर्म बध्यते तेनैवंनूतेनाव्य विज्ञानेनापि पापं कर्म क्रियतइति भावः ॥ १ ॥ तच चोय पन्नवर्ग एवं वयासि संत एवं मणेणं पावयणं असंतिया ए वतीयाए पावियाए संतएवं कारणं पावएणं अहांतस्स श्रमण कस्स वियारमणवयकायवक्कस्स सुविणमवि अप्पस्सव पावक मेोकइ कस्सणं तंदेनं चोयए एवं बवीति अन्नयरेणं मणे पाव एमवत्तिए पावे कम्मे कइ अन्नयरीए वत्तिए पावियाए वत्तिवत्तिए पावे कम्म ककइ अन्नयरेणं कारणं पावएणं कायवत्तिए पावे कम्मे क १०६ For Private Personal Use Only Page #872 -------------------------------------------------------------------------- ________________ G४२ तीये सूत्रकृतांगे वितीय श्रुतस्कंधे चतुर्थाध्ययनं. इदणंतस्स समणकस्स सवियारमणवयकायवक्कस्स सुविणमवि पा स एवं गुणजातीयस्स पावे कम्मे कऊ पुणरवि चोयए एवं ब वीति तवणं जेते एबमाहंसु असंतएणं मणेणं पावएणं असंतीयाए व त्तिए पावियाए असंतएणं काएणं पावएणं अहणं तस्सअमणकस्स अवियारमणवयणकायवकस्स सुविणमवि अपस्सन पावे कम्मे कङ इतवणं जेते एवमाहंसु मिबा ते एवमादंसु॥२॥ अर्थ-ए प्रकारे कहे थके, (तबचोयएपन्नवगंएवंवयासि के०) त्यां शिष्य प्रज्ञाप, क एटले गुरु प्रत्यें एवं बोल्यो के, हे नगवन् ! (असंतएणं के० ) अबते अप्रवर्ते (मणेणं के० ) मने (पावयणं के ) पापकर्मने विषे, तथा (असंतियाएवत्तिएपावि याए के० ) अबते घप्रवर्ने वचनें पापकर्मने विषे, (असंतएकाएपंपावएणं के०) अबते अप्रवर्ते कायायें पापकर्मने विषे, (अहणंतस्स के० ) अणहणताने विषे, (अ मणरकस्स के० ) पापकर्म उपर मनना परिणाम रहित, (अवियारमणवयकायवक्कस्स के ) अविचारवंत मन वचन काया एवा रहे, एटले पापकर्मना विचार विनाना रहे, (सुविणमविअप्पसळपावकम्मेणोकळा के०) स्वप्नांतरें पण पापकर्मने अण देख ता, एटले जे पापकर्म स्वप्नांतरें पण देखे नहीं, तो तेने पापकर्म सर्वथाऽपि लागे नहीं, (कस्सणंतंहे के ) तो शा कारणे ते पाप कर्म तेने लागे, ? अंही अव्यक्त पणा थकी पापकर्म लागे, तेने कां बंधनुं कारण जाणवू नहीं. (चोयएएवंबवीति के० ) तेहिज वली नोदक शिष्य, पोताना थनिप्रायें करी पापकर्मना बंधनुं कारण यावी रीतें कहे. (अन्नयरेणंमरोणंपावएणं के०) अन्य कोई एक प्राणातिपाता दिक पापकर्मने विष मनें करी प्रवर्ते, (मणवत्तिएपावेकम्मेकऊ के०) ते मन नि मित्तें पापकर्म करे बांधे, (अन्नयरीएवत्तिएपावियाए के०) अन्य कोई एक प्राणाति पातादिक पापकर्मने विषे वचनें करी प्रवर्ते, (वत्तिवत्तिएपावेकम्मेका के०) ते वचन निमित्तं पापकर्मने करे बांधे, (अन्नयरेणंकाएपंपावएणं के०) अन्य कोई एक प्राणातिपातादिक पापने विष कायाने प्रवर्तीवे. (कायवत्तिएपावेकम्मेकका के०) ते कायनिमित्तें पाप कर्म करे, बांधे. (हणंतस्ससमणस्कस्ससवियारमणवयकाय वक्कस्स के० ) हणताने विषे पापकर्म उपर मन परिणाम सहितने विषे सविचार मनें करी, वचनें करी, अने कायायें करी सहित, (सुविणमविपास के०) स्वप्नांतर ने विष पण पापकर्म देखे ले (एवंगुण्जातीयस्सपावेकम्मेकऊ के० ) एम गुण Page #873 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राय धनपतसिंघ बाहारका जैनागम संग्रह नाग इसरा ८४३ जातिने यथायोग्य पापकर्म लागे, बंधाय. (पुलर विचोयएएवंबवीति के० ) वली पण नोदक शिष्य, प्राचार्य प्रत्यें एम कहे. ( तब पंजे ते एवमाहंस के० ) त्यां जे, एक के, (संतएम पावएवं के० ) पापकर्मने विषे ते मनें, ( संती याएवत्तिएपावियाए के० ) पापकर्मनें विषे ते वचने, (घसंतएका एपाव एवं के० ) पापकर्मने विषे ते कायायें करी, एटलें पापकर्मने विषे मन, वचन, धने कायाने प्रवर्त्तावतो. तथा ( ग्रहणंतस्सा मारकस्सा वियारमणवय कायवक्क सके० ) प्रण हातानें पाप उपर मन परिणाम रहित प्रविचारया मन वचन अने कायानें विषे, तेणें करी सहित. (सुविणमविपस्सनपावेकम्मेककर के० ) स्वप्नांत रें पण पापकर्म करवाने विषे, बांधवाने विषे, देखतो एवो जे होय ते पण पापक बांधे, (जे ० ) त्यां जे ते ( एवमाहंसु के० ) एम कहे . ( मिठाते एव मासु के ) ते मिथ्या एटले जुतूं कहेबे ॥ २ ॥ || दीपिका - एवं स्थिते शिष्यः प्रज्ञापकमाचार्यमेवमवादीत् अथवा प्राचार्या निप्रायं शिष्योऽनूद्य निषेधति । (संतएण मित्यादि ) असता अविद्यमानेन मनसाऽप्रवृत्तेनाऽ शोजनेन तथा वाचा कायेनच पापेनाऽसता तथा सत्वान् घ्नतः श्रमनस्कस्याविचार मनो वाक्कायवाक्यस्य स्वप्नमप्यपश्यतः स्वप्नांतिकं च कर्म नोपचयं यातीत्येवं अव्यक्तविज्ञा नस्यापि पापं कर्म न बध्यते । कस्य हेतोः केन कारणेन तत्पापं कर्म बध्यते ? । नात्र कश्चिद व्यक्त विज्ञानत्वात्पापं कर्म बंधहेतुरित्यर्थः । तदेवं शिष्यएव स्वानिप्रायेण पापक बंधहेतुमाह । ( अन्न यरेति ) कर्माश्रव धारनूतेन मनोवाक्कायानामन्यतरेण क्लिष्टेन तत्प्रत्यकिं कर्म बध्यते तथा घ्नतः सत्वान् समनस्कस्य सविचारमनोवाक्कायवाक्यस्य स्वप्नमपि पश्यतः स्पष्ट विज्ञानस्य एवं गुणजातीयस्य पापं कर्म बध्यते न पुनरेकें प्रिय वि कजेंड्रियादेः पापकर्मसंनवइति । तेषां घातकस्य मनोवाक्कायव्यापारस्यानावात् । तस्मा नैव स्वप्नांतिकम विज्ञोपचितं कर्म विद्यतइति । एवं सति ये ते एवमुक्तवंतस्तद्यथा । विद्य मानैरेवाशुनैर्योगेः पापं कर्म क्रियते मिथ्या ते एवमुक्तवंतइति ॥ २ ॥ ॥ टीका - तत्र चैवं व्यवस्थिते चोदकः प्रज्ञापकमेवमवादीत् । अत्र चाचार्या निप्राय चोदकोऽनूद्य निषेधयति । (संतएण मित्यादि) य विद्यमानेनाऽसताऽमनसाऽसत्प्रवृत्तेनाऽ शोजनेन तथा वाचा कायेनच पापेनाऽसता तथा सत्वान् घ्नतस्तथा मनस्कस्याविचारमनो वाक्कायवाक्यस्य स्वप्नमप्यपश्यतः स्वप्नांतिकंच कर्म नोपचयं यातीत्येवमव्यक्तविज्ञानस्यापि पापं कर्म न बध्यते एवंभूत विज्ञानेन पापं न क्रियतइति यावत् । कस्य हेतोः केन हेतुना केन For Private Personal Use Only Page #874 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८४४ द्वितीये सूत्रकृतांगे द्वितीयश्रुतस्कंधे चतुर्थाध्ययनं. कारणेन तत्पापं कर्म बध्यते । ? नात्र कश्चिदव्यक्त विज्ञानत्वात्पापं कर्म बंधहेतुरिति भावः । त देवं चोदकएव स्वानिप्रायेण पापकर्मबंध हेतुमाह । ( अन्नय रेण मित्यादि) कर्माश्रव द्वारभूतैर्म नोवाक्कायकर्मनिः कर्म बध्यत इति दर्शयति । अन्यतरेण क्लिष्टेन प्राणातिपातादिप्रवृत्त्या म नसा वाचा कायेन च तत्प्रत्ययिकं कर्म बध्यतइति । इदमेव स्पष्टतरमाह । नतस्सत्वान्समन स्कस्य समनोवाक्कायवाक्यस्य स्वप्नमपि पश्यतः प्रस्पष्ट विज्ञानस्यैतङ्गुणजातीयस्य पापं क बध्यते न पुनरेकेंयि विकलेंड्रियादेः पापकर्मसंनवइति तेषां घातकस्य मनोवाक्काय व्यापारस्यानावात् । यथैत व्यापारमंतरेणापि कर्मबंधइष्यते एवंच सति मुक्तानामपि कर्म बंधः स्यात् । न चैतदिष्यते । तस्मान्नैव स्वप्नांतिकम विज्ञोपचितं कर्म बध्यतइति । तत्र य येवंभूतैरेव मनोवाक्कायव्यापारैः कर्मबंधोऽभ्युपगम्यते तदेवं व्यवस्थिते सति ये ते एवमुक्त वंतस्तद्यथा विद्यमानैरेवा युनैर्योगेः पापं कर्म क्रियते मिथ्या तएवमुक्तवंतइति स्थितं ॥ २॥ तच पन्नवए चोयगं एवं वयासी तं सम्मं जं मए पुवेवुतं संत एवं मणेणं पावणं संतियाए वत्तिए पाविया असंत एवं कारणं पावएवं ग्रहणं तस्स मणकस्स वियारमणवय कायवक्वस्स सुविणमविपस्सन पावे कम्मे कजति तं सम्मं कस्सणं तं देवं प्राचार्या याद तच खलुनग वया जीवणिकाय देऊपसत्ता तं जहा पुढविकाश्या जाव तसकाइया इच्चे एहिं बढ़ि जीवणिकाएहिं आया पडदयपञ्चस्कायपावकम्मे निश्चं पसढविवातचित्तदं तं जढ़ा पाणातिवाए जाव परिग्गदे को दे जाव मिचादंसणस ॥ ३ ॥ अर्थ - एवं शिष्यें प्रचार्य ना पहने दूषण याप्युं, (तब के० ) तेवारें (पन्नव चोय गं के० ) प्राचार्य पोताना शिष्यप्रत्यें ( एवंवयासी के० ) एवं बोल्या के, अहो शिष्य ! (सम्मं जंमतं के० ) जे में पूर्वै वचन कयुंके जे मन, वचन, घने कायानी प्रवर्त्ति विना पण पाप कर्म लागे ते सत्यबे इत्यादि पाठनो अर्थ सुजन ले माटें नथी लख्यो. (तं सम्मं के०) ते सत्य जांणजे, युक्तिसहित जांणजे. एवं प्राचार्यनुं वचन सांगली, फररी शिष्य के, (कस्सनं के०) शे कारणे तमारुं वचन सत्य बे ते कहो ? हवे (याचा यह के०) याचार्य कहे. (तखलुजगवया के०) त्यां खलु ए वाक्यालंकारे नगवा न् श्रीमान स्वामी तेणें (बजीव शिकार्य देऊप सत्ता के० ) व जीव निकाय कर्मबंधनां कारण कह्यांबे, (तंजा के० ) ते कले. (पुढविकाईया के० ) पृथिवी काय थकी मांगी ने (जावतसकाया के० ) यावत् सकाय पर्यंत, ( इचेए हिंड हिंजीव सिकाएहिं के० ) For Private Personal Use Only Page #875 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राय धनपतसिंघ बादाडुरका जैनागम संग्रह नाग इसरा. ८४५ एब जीव निकायने विषे, ( प्रायाश्रप डिहपञ्चरकायपावकम्मे के० ) श्रात्मा सर्व काल प्रतिहत एटले हयां नथी पञ्चरकारों की पापकर्म जेणे एवो, तथा ( निचंपसढ विच वाचित के० ) नित्य शठ एटले जड जेवो, एनो परमार्थ जाणे नहीं, प्राणघातने विषे चित्तले जेनुं ते कारणे प्राणीउने दंमनो करनार जाणवो. ( तंजदा के० ) ते क ed (पाणातिवा० ) प्राणातिपात यादें देने, ( जावपरिग्गहे के० ) मृषावाद, दत्तादान, मैथुन, यावत् परिग्रह, धने ( कोहे के० ) क्रोध थी मांमीने, ( जावमिवादं सासले के० ) यावत् मिथ्यात्व दर्शन शल्य ए प्रढार पापस्थानकने विषे निवृत्ति टार पापस्थानक थकी निवृत्या नथी, ते कारण माटें एकेंड्रियादिक जीवोने पण पञ्चकाणी क्रियानो बंध लागे बे. ॥ ३ ॥ ॥ दीपिका - एचमाचार्यपदं दूषयित्वा नोदकेन स्वपदे स्थापिते याचार्य याह । त पन्नवति) याचार्यः स्वमतमनूद्य युक्त्या साधयति ( तंसम्मति ) तत्सम्यक् यन्मयोक्तं अव्यक्तयोगानामपि कर्म बध्यतइति तयुक्तं । एवमुक्ते शिष्यत्राह । कस्य हेतोः केन का रणेन तत्सम्यक् गिति चेदाह । (तखलु इत्यादि) तत्र जगवता षड्जीवनिकायाः कर्मबंध agar स्थापिताः । तद्यथा । पृथिवीका विकाइत्यादि । इत्येतैः षड्जीवनिकायैरात्मा प्रतिहतं विनितं प्रत्याख्यातं नियमितं पापं कर्म येन स तथा जीवेषु विरतः एवंभूतोन स अप्रतिहत प्रत्याख्यातपापकर्मा नित्यं प्रकर्षेण शठः प्रशठः व्यतिपाते हिंसायां चित्तं यस्य स व्यतिपातचित्तः स्वपरदंम हेतुत्वादमः प्रशठश्वासौ व्यतिपात चित्तमश्चेति । तद्यथा प्राणातिपाते विधेये प्रशतव्यतिपात चित्तमः । एवं मृषावादादिष्वपि वाच्यं यावन्मि य्यादर्शनशल्यं । तदेवमेकेंप्रिय विकलेंड्रियापि हिंसादिदोषवत्तया मिथ्यात्वाविरतिप्रमा कषायोगाश्रितत्वेन स्वप्नाद्यवस्थायामपि कर्मबंधइति तन्निरस्तं ज्ञेयम् ॥ ३ ॥ ॥ टीका- तदेवं चोदकेनाचार्य पक्कं दूषयित्वा स्वपद व्यवस्थापिते सत्याचार्य श्राह (तपन्नव इत्यादि ) तत्राचार्यः स्वमतमनूद्य तस्योपपत्तिकं साधयितुमाह । ( तंसम्म मित्यादि ) यदेतन्मयोक्तं प्राग् यथा स्वष्टाव्यक्तयोगानामपि कर्म बध्यते तत्सम्यक् शोननं युक्तिसंगत मित्येवमुक्ते परयाह । कस्य हेतोः केन कारणेन तत्सम्यगिति चेदाह ( तचखलु इत्यादि) तत्रेति वाक्योपन्यासार्थं । खलुशब्दोवाक्यालंकारे । जगवता वीरवईमानस्वा मिना षड्जीवनिकायाः कर्मबंधहेतुत्वेनोपन्यस्ताः । तद्यथा ष्टथिवीकायिकाइत्यादि या वज्रसका विकाइति । कथमेते षड्जीवनिकायाः कर्मबंधस्य कारणमित्याह ( इच्चे एहि मित्यादि ) इत्येतेषु ष्टथिव्यादिषु पड्जीव निकायेषु प्रतिहतं विनितं प्रत्याख्यातं नियमितं For Private Personal Use Only Page #876 -------------------------------------------------------------------------- ________________ G४६ वितीये सूत्रकृतांगे वितीयश्रुतस्कंधे चतुर्याध्ययनं. पापं कर्म येन सतथा पुनर्नसमासेनाऽप्रतिहतप्रत्याख्यातपापकर्मा यथात्मा जंतुस्तथा तनवत्वादेव नित्यं सर्वकालं प्रकर्षण शस्तथा व्यतिपाते प्राणव्यपरोपणे चित्तं यस्य स व्यतिपातचित्तः स्वपरदंमहेतुत्वामः प्रशवश्चासौ व्यतिपात चित्तमश्चेति क र्मधारयः। इत्येतदेव प्रत्येकं दर्शयितुमाह (तंजहेत्यादि) तद्यथा प्राणातिपाते विधे ये प्रशचित्तदंझएवं मृषावाददत्तादानमैथुनपरिग्रहेष्वपि वाच्यं यावन्मिथ्यादर्शनशल्य मिति । तेषामिकेंख्यिविकलेंझियादीनामनिवृत्तवान्मिथ्यात्वाविरतिप्रमादकषाययो गानुगतत्वं इष्टव्यं । तनावाच ते कथं प्राणातिपातादिदोषवत्तया व्यक्त विज्ञानाथपि स्वप्नाद्यवस्थायामिति ते कर्मबंधकाएव । तदेवं व्यवस्थिते यत्प्रागुक्तं परेण यथा नाव्य क्तविज्ञानानामनताममनस्कानां कर्मबंधश्त्येतत् प्लवते ॥३॥ आचार्याद तब खलु नगवया वहए दिछते परमत्ते से जदा णामए वहए सिया गादावश्स्सवा गादावश्पुत्तस्सवा रमोवा रायपुरिसस्सवा खणं निदाए पविसिस्सामि खणंलझणं वदिस्सामि पहारेमाणे से किंतु दुनाम से वहए तस्स गादावश्स्सवा गाहावश्पुतस्सवा रमोवा राय परिसस्सवा खणं निदाए पविसिस्सामि खणं लक्षणं वहिस्सामि पहारे माणे दियावा राग्वा सत्तेवा जागरमाणेवा अमित्तनुत्ते मित्रासंगित्ते निचं पसढविनवायचित्तदंमे नवति एवं वियागरेमाणे समियाए वि यागरे चोयए दंता नवति ॥४॥ अर्थ- हवे याचार्य एनी नपर दृष्टांत कहे. (तखलुनगवया के० ) त्यां निश्चे जगवंत श्री महावीर देवें (वह एदिते के०) वधकनो दृष्टांत (परमत्ते के० ) कह्यो . (सेजहाणामए के०) ते जेम नाम एवी संभावनायें कोइ एक पुरुष, (वहएसिया के०) वधक होय ते को एक कारणे कोप्यो थको, ( गाहावश्स्सवा के० ) गृहपति उपर, तथा ( गाहावश्पुत्तस्सवा के० ) गृहपतिना पुत्र उपर, अथवा ( रमोवा के० ) राजा उपर, ( रायपुरिसस्सवा के० ) अथवा राजानो पुरुष, तेयोनो विनाश करवा वांडतो, एवी चिंतवना करे के, (खणं निदाए के ) अवसर पामिने, एना घरमा (पविसिस्ता मि के ) प्रवेश करीश (खणंलाएंवहिस्सामि के) बिज्ञादिक पामिने अथवा देखीने एने हणीश. ( पहारेमाणे के०) ते पुरुष एम चिंतवतो, ( से किंतुदुनामसेवहए के०) ते केवो जाणवो? तु अवधारणे के नाम संभावनायें . तो के, ते वधक कहियें. हवे ते वधक गृहपतिनो, अथवा गृहपतिना पुत्रनो, अथवा राजानो, अथवा राजपुरुषनो, वध Page #877 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राय धनपतसिंघ बादाडुरका जैनागम संग्रह नाग डुसरा. წმJ चिंतवतो अवसर पामिने, तेना घर मांहें प्रवेश करीश, अवसर देखीने तेने हणीश, एम चिंतवतो, दिवसें अथवा रात्रीयें सुतो, अथवा जागतो, यमित्रनूत मिथ्यामित्र पणामां संस्थित एटले माग कार्यने विषे रह्यो, ( निचंपसढ के० ) नित्यज प्रशव एट ले एनो परमार्थ जाणे नहीं. (विकवाय चित्त के० ) प्राणिघात तेने विषे जेनुं चित्तबे ते कारणे, (मेनवति के० ) प्राणीने दंमनो करना होय, ते पुरुष जीवनो विनाश न करतो थको पण वधक कहेवाय, किंवा न कहेवाय ? ( एवं वियागरेमाणे के० ) एरीतें प्राचार्य कहे ते, (समियाए वियागरे चोयएहंतानवति के० ) शिष्य बोल्यो के, हे नग वन् ! ए तमें सत्य बोल्या. ते वधक कहेवाय ॥ ४ ॥ ॥ दीपिका - प्रथाचार्यः स्वमतसिद्धये दृष्टांतमाह । ( तबखजुइत्यादि ) तत्र खलु भगवता वधकदृष्टांतः प्रज्ञप्तः । तद्यथानाम कश्चिदधकः स्यात् गृहपतेर्गृहपतिपुत्रस्य वा राझोराजपुरुषस्य वा उपरि कुतश्चिन्निमित्तात्कुपितः सन् कृष्णमवसरं निदाय प्राप्य गृहे पुरे वा घाताय प्रवेदयामि क्षणमवसरं बिदादिकं लब्ध्वा वध्यं हनिष्यामीति संप्रधा रयन् दिवा रात्रौ वा सुप्तोवा जाग्रा मित्रनूतो मिथ्यासंस्थितोनित्यं प्रशवव्यतिपातचित्त मोहिंसाध्यवसायी नवति । श्रयमर्थः । कोऽपि कस्यापि गृहपत्यादेरुपरि कुपितस्तं हं कामपि यावदवस बिं न जनते तावत्कार्यंतरे प्रवृत्तोपि हिंसामकुर्वन्नपि वध्यस्य हिंसावसरापे । नित्यं रागदेषाकुलः स्यात् । एवमेकेंड्रिय विकलेंड्रियायपि विरतेरना वात्तदयोग्यतया हिंसामकुर्वतोपि तत्प्रत्ययिकेन कर्मणा बध्यंतएवेत्यर्थः ॥ ४ ॥ ॥ टीका- सांप्रतमाचार्यः स्वपद सिद्धये दृष्टांतमाह । ( तबखलुनगवया इत्यादि ) त त्रेति वाक्योपन्यासार्थः । खलु शब्दोवाक्यालंकारे । नगवतैश्वर्यादिगुणोपेतेन चतुस्त्रिंश दतिसमयसमन्वितेन तीर्यकृता वधकदृष्टांतः प्रज्ञप्तः प्ररूपितस्तद्यथा नाम वधकः कश्वि तस्यादिति कुतश्चिन्निमित्तात्कुपितः सन् कस्यचि ६धपरिणतः कश्चित्पुरुषोभवति । य Frat aured विशेषेण दर्शयितुमाह । ( गाहाव इस्सवेत्यादि ) गृहस्य पतिर्गृहपति स्तत्पुत्रोवाऽनेन सामान्यतः प्राकृतपुरुषोऽनिहितस्तस्योपरि कुतश्चिन्निमित्ता ६धकः कश्चि संवृत्तः सच वधपरिणामपरिणतोपि कस्मिंश्चित्क्षणे पापकारिणमेनं घातयिष्यामीति । तथा राज्ञस्तत्पुत्रस्योपरि कुपित एतत्कुर्यादित्याह । (खणं निद्दायइत्यादि) क्षणमवसरं (ाियत्ति ) प्राप्य तथाविधस्य पुरे गृहे वा प्रवेदयामीत्येतदध्यवसायी नवति तथा द मवसरं बिदादिकं वध्यस्य लब्ध्वा तडुत्तरकालं तं वयं हनिष्यामीत्येवं संप्रधारयति । एतडुक्कं नवति । गृहपतेः सामान्य पुरुषस्य राज्ञोवा विशिष्टतमस्य कस्यचिपरिणतो For Private Personal Use Only Page #878 -------------------------------------------------------------------------- ________________ GG वितीये सूत्रकृतांगे वितीयश्रुतस्कंधे चतुर्थाध्ययनं. प्यात्मनो ऽवसरं लब्ध्वाऽपरकार्यदणे सति तथा वध्यस्यच बिडमपेक्षमाणस्तदवसरा पेची किंचित्कालमुदास्ते सच तत्रौदासीन्यं कुर्वाणोऽपरकार्य प्रति व्यग्रचेताः संस्तस्मि नवसरे वधं प्रत्यस्पष्टविज्ञानोनवति । सचैवंनतोपि तथा तं वयं प्रति नित्यमेव प्रशठ व्यतिपातचित्तदंमोनवत्येवमविद्यमानैरपि प्रव्यक्तैरगुनर्योगैरेकेंझियविकलेंझ्यिादयोऽस्पष्ट विज्ञानाथपि मिथ्यात्वाविरतिप्रमादकषाययोगानुगतत्वात्प्राणातिपातादिदोषवंतोनवंति । नच तेऽवसरमपेक्षमाणानदासीनाथप्यवैरिणोन नवंतीति । अत्रच वध्यवधकयोः व यापेक्ष्या चत्वारोनंगाः । तद्यथा । वध्यस्याऽनवसरोवधकस्य च उजयोऽनवसरोक्ष योरप्यवसरइति । नागार्जुनीयास्तु पति। अप्पमो थरकाया एतस्सवा पुरिसस्स लिई थलनमाणे णोवहे इत जयामेरकणो नविस्स तस्स पुरिसस्स विदं लनिस्सामि तया मेस पुरिसे अवस्सं वहयवे नविस्स एवं मणोपहारे माणेत्ति सूत्रं निगदसिहं ॥ ४ ॥ आचार्याद जहासे वहए तस्स गादावश्स्सवा तस्स गादावश्पुत्त स्तवा रमोवा रायपुरिसस्स खणं निदाए पविसिस्सामि खणं लणं वहिस्सामित्ति पहारेमाणे दियावा राग्वा सुत्तेवा जागरमाणेवा अमि तनूए मिबासंगित्ते निचं पसढविनवायचित्तदमे एवमेव बालेवि सवेसिं पाणाणं जाव सवेसिं सत्ताणं दियावा रानवा सुत्तेवा जागरे माणेवा अमित्तनूए मिबासश्तेि निच्चं पसढविग्वायचित्तदं तं पाणाति वाए जाव मिहादसणसल्ले एवंखलु नगवया अकाए असंजए अवि रए अप्पडिदयपच्चकायपावकम्म सकिरिए असंवुमे एगंतदंमे एगंतबाले एगंतसुत्तेयावि नव से बाल अवियारमणवयणकायवक्के सुविणम विणपस्स पावेय से कम्मे कऊ ॥५॥ थर्थ-तेवारें अचार्य बोल्या के, अहो शिष्य ! जेम ते वधक पुरुष, ते गृहपति, तथा गृहपतिना पुत्र, अथवा राजा, तथा राज पुरुष उपर विनाशनो नाव चिंतवतो प बो, तेमना विनाशनी क्रिया कस्या विना पण ते वधक कहेवाय; बीजा पदोनो अर्थ सु गमले मात्रै थाही लख्यो नथी. (एवमेव के०) एम ते, (बालेवि के) बाल जीव पण, सर्व प्राणीने विषे यावत् सर्व सत्व, तेनो दिवसें अथवा रात्रि सुतां अथवा जागता, थमित्रनूत एटले शत्रुनूत मिथ्यात्वसंस्थित निरंतर शत,प्राणिघातने विषे चित्त ने जेनु, प्राणीयोने दंम कारक, (तं के ) ते कहेले. प्राणातिपात मृषावादथीमामी Page #879 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८४ राय धनपतसिंघ बादाडुरका जैनागम संग्रह नाग दुसरा. ने यावत् मिथ्यात्व दर्शन शल्य, एवा अढारे पापस्थानकने विषे निवृत्त उतो होय. एम निश्चें जगवंतें कयुंबे, तेम असंयति यविरति प्रतिहत एटले पञ्चरका करीने पाप कर्म जेणें हयां नथी, क्रिया सहित संवर रहित एकांत दंमनो खापनार, एकांत बा ल, एकांत शयन करनार होय. ते बाल, य विचारवालां, एवां मन वचन ने काया तेणें करी सहित बतो जे पाप स्वप्नांतरमां पण देखे नहीं. एवां पापकर्मनुं बंधन करे. एम अविरतिपणायें करी तेने पापकर्म लागे ॥ ५ ॥ || दीपिका - श्रथाचार्यएव स्वानिमतार्थ परप्रश्नपूर्वमाद । (सेकिंतुइत्यादि ) श्राचार्यः स्वयं निर्णीतार्थोपि ईष्या परं बति किमसौ वधक पुरुषोहननावसरापेक्षी नित्यं हिंसा तचित्तः स्यात्किंवा न ? इति ष्टष्टं परः समतया मध्यस्थः सन् यथास्थितमेव व्यागृह्णीया त् कथयेत् । तथा दंताचार्य नवत्यसौ मित्रनूतइति ॥ अथ दाटीतिकं दर्शयति । (ज हास ) यथासौ वधकइत्यादिना दृष्टांतमनूद्य दाष्टतिकं दर्शयति । ( एवमेवेत्यादि ) यथासौ वधकोऽवसरापेकी वध्यस्य हिंसामकुर्वाणोपि मित्रनतोनवति एवमसावपि बा जो स्पष्ट विज्ञाननिवृत्तेरनावाद्योग्यतया सर्वेषां प्राणिनां हंता स्यात् यावन्मिथ्यादर्श नशल्योपेतः स्यात् । कोर्थः । यद्यपि विनयादिकं कुतश्चित्कारणादसौ विधत्ते तथा पिनदायिनृपमारकवदंत ईष्टएव नित्यं हिंसानुगतचित्तश्च । यथा परशुरामः कृतवीर्य ह त्वापि ततः सप्तवारं निःक्षत्रां ष्टथिवीं चकार । यडुतं । " अपकारसमेन कर्मणा, न नर स्तुष्टिमुपैति शक्तिमान् ॥ व्यधिकां कुरुतेऽरियातनां द्विषतां मूलमशेषमुदरेत् ॥ १ ॥ एवमसावपि श्रमित्रनूतः स्यादिति । अथ पूर्वोक्तार्थमनुवदन्नुपसंहरति । ( एवंखलुन गवयाइत्यादि) यथा वधकोऽनिवृत्तत्वाद्दुष्टएवमेकेंड्रियादिकोऽस्पष्ट विज्ञानोपि अविरत त्वादुष्टएवेति । शेषं सुगमं । यावत्पापं कर्म क्रियतइति ॥ ५ ॥ ॥ टीका- सांप्रतमाचार्यएव स्वानिप्रेतमर्थ परप्रयत्नपूर्वकमाविर्भावयन्नाह । ( से किंतु दुइत्यादि) प्राचार्यः स्वतोहि निर्णीतार्थोऽसूयया परं पृष्ठति । किमिति परप्रश्ने । तुरिति वितर्के । दुशब्दोवाक्यालंकारे । किमसौ वधकपुरुषावसरापेक्षी बिश्वसरं प्रधारयन् पर्यालोचयन्नहर्निशं सुप्तोजाग्रदवस्थोवा तस्य गृहपतेराज्ञोवा वध्यस्या मित्रनूतो मिथ्या संस्थितो नित्यं प्रशवव्यतिपात चित्तदंमोनवत्याहोस्विन्नेत्येवं पृष्टः परः समतया माध्यस्थ्यमवलंव्यमानोय यावस्थितमेव व्यागृह्णीयात् । तद्यथा दंताचार्य नवत्यसावमित्र नूतइतीत्यादि ॥ तदेवं दृष्टांतं प्रदर्श्य दाष्टतिकं दर्शयितुमाह ( ज हासेव द इत्यादि) यथासौ वधकइत्यादिना दृष्टांतमनूद्य दाष्टतिकमर्थ दर्शयितुमाह । १०७ For Private Personal Use Only Page #880 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८५० द्वितीये सूत्रकृतांगे घितोय श्रुतस्कंधे चतुर्थाध्ययनं. ( एवमेवेत्यादि) एवमेवेति यथासौ वधकोऽवसरापेचितया वध्यस्य व्यापत्तिमकुर्वाणो ऽप्यमित्रनूतनवत्येवमेवासावपि बालवद्दानोस्पष्ट विज्ञानोजवत्येव निवृत्तेरभावाद्योग्य तया सर्वेषां प्राणिनां व्यापादकोजवति यावन्मिथ्यादर्शनराज्योपेतोनवति । इदमुक्तं न वति । यद्यप्युठानादिकं विनयं कुतश्चिन्निमित्तादसौ विधत्ते तथाप्युदायिनृपव्यापादक वदंष्टएवेति नित्यं प्रशवव्यतिपात चित्तदंडश्च यथा परशुरामः कृतवीर्य व्यापाद्यापि तदुत्तरकालं सप्तवारं निःक्षत्रां पृथिवीं चकार (खादत्ति) “पकारसमेन कर्मणा, न नरस्तु ष्टिमुपैति शक्तिमान् ॥ अधिकां कुरुतेऽरियातनां द्विषतां मूलमशेषमुधरेत् ॥ १ ॥ इत्ये वमसावमित्रनूतो मिष्याविनीतश्च नवतीति । सांप्रतमुपसंहरन् प्राक् प्रतिपादितमर्थमनु वदन्नाह । ( एवं खलुनगवयाइत्यादि ) यथासौ वधकः स्वपराव सरापेकी सन्न तावद्घात यत्यथवा निवृत्तत्वाद्दोषडष्टएव एवमसावप्येकेंड्रियादिकोस्पष्टविज्ञानोपि तथाभूतएवावि रताप्रतिहत प्रत्याख्यातसत्क्रिया दिदोषपुष्टइति । शेषं सुगमं । यावत्पापं कर्म क्रियतइति ॥ ९५ ॥ जहा से बढ़ए तस्सवा गादावइस्स जाव तस्सवा रायपुरिसस्स पत्तेयं प तेयं चित्तसमादाए दियावा राज्वा सुत्तेवा जागरमाणैवा यमित्तभूते मिठासंठित निचं पसढविनवायचित्तदमे नवइ एवमेव बाले सवे सिं पाषाणं जाव सवेसिं सत्ताणं पत्तेयं पत्तेयं चित्तसमादाए दियावा रावा सुत्तेवा जागरमाणेवा मित्तभूते मिचासं निचं पसढ विश्वायचित्तदंगे नवइ ॥ ६ ॥ अर्थ - ( जहासेवहए के ० ) जेम ते वधक पुरुष, ते गृहपत्यादिक ऊपर प्रत्येक प्रत्ये कचित्तें करी विनाश चिंतवतो, दिवसें रात्रियें सुतो, जागतो थको श्रमित्रनूत एटले शत्रु समान मिथ्यात्व संस्थित निरंतर शव प्राणघातने विषे चित्तले जेनूं माटें, प्राणीयोने inat करनार होय. तेने पापकर्म बंधाय. ( एवमेव के० ) एमज ए बाल जे एकें दिया दिक जीवो ने ते पण सर्व प्राणी, सर्वनूत, सर्वजीव, सर्वसत्व, तेने विषे अविरति प जावें ते सर्व विषे प्रत्येक प्रत्येक चित्तें कररी विनाश चिंतवतो, दिवसने विषे, रात्रिने विषे, सुतो, जागतो, यमित्र नूत मिध्यात्व संस्थित, निरंतर शठ, प्राणिघातने विषे चि तबे जेनूं, प्राणीयोने दंमनो करनार होय, एम बोलाय. ते कारणें तेने पापकर्म बंधाया ॥ ६ ॥ ॥ दीपिका - तदेवं पूर्वोक्तार्थनिगमनं कृत्वाऽधुना स सर्वप्राणिनां दुष्टात्मा स्यादिति दर्शयति । यथासो वधकोगृहपत्यादेः प्रत्येकं सर्वेषु वध्येषु घातकचित्तं समादाय प्राप्ताव सरोऽहमेनं हनिष्यामीति कृत्वा दिवा रात्रौवा सुप्तोजायदा सर्वावस्थासु सर्वप्राणि For Private Personal Use Only Page #881 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राय धनपतसिंघ बादाउरका जैनागम संग्रह नाग उसरा. ५१ नां प्रत्येकममित्रनूतोघ्नन्नपि मिथ्यासंस्थितोनित्यं प्रशठव्यतिपातचित्तदंफोनवति । एवं बालकएकेश्यिादिरपि सर्वप्राणिनां विरतेरनावात्प्रत्येकं घातकचित्तं समादाय नित्यं प्रशठव्यतिपातचित्तदंमः स्यात्तत्प्रत्ययिकेन कमेंणा बध्यतइति ॥ ६ ॥ ॥ टीका-तदेवं दृष्टांतदार्टीतिकप्रदर्शनेन पूर्वप्रतिपादितार्थस्य निगमनं क त्वाऽधुना सर्वेषामेव प्रत्येकं प्राणिनां पुष्टात्मा नवति इत्येतत्प्रतिपादितुकामया ह। (जहासेवह एइत्यादि ) यथाऽसो वधकः परात्मनोरवसरापेदी तथास्य गृहपते स्तत्पुत्रस्य वाऽन्य हितस्य वा राजादेस्तत्पुत्रस्य चैकमेकं पृथक् पृथक् सर्वेष्वपि वध्येषु घातकचित्तं समादाय प्राप्तावसरोऽहमेनं वैरिणं मदाधि विधायिनं पातयिष्यामीत्येवं प्रतिज्ञाय दिवा रात्रौ वा सुप्तोवा जाग्रा सर्वाप्पवस्थासु सर्वेषामेव वध्यानां प्रत्येकममित्रनूतोऽवसरापेदितया नन्नपि मिथ्यासंस्थितोनित्यं प्रशतव्यतिपातचि त्तदंमोनवति इति रागदेषाकुलितोबालवद्दालोझानावृतएकैश्यिा दि रिति । सर्वेषा मेव प्राणिनां विरतेरनावात्तद्योग्यतया प्रत्येकं वध्येषु घातकचित्तं समादाय नित्यं प्रश व्यतिपातचित्तदंमोनवतीति । इदमुक्तं नवति । यथासौ तस्माहपतीराजानुघाता उपशांतवैरः कालावसरापेदितया वधमकुर्वाणोप्यविरतिसन्नावारान्न निवर्तते तत्प्रत्य यिकेनच कर्मणा बध्यते । एवं मृषावादादत्तादानमैथुनपरिग्रहेष्वपि प्रतिज्ञाहेतुदृष्टां तोपनयनिगमनार्थ विधानेन पंचावयवत्वं वाच्य मिति । इहैव पंचावयवस्य सूत्राणां विनागोइष्टव्यः । तद्यथा । अया अपञ्चरकाणीयावि जवतीत्यतधारन्य यावत्पावेयसे कम्मे कत्ति इतीयं प्रतिझा । तत्र परः प्रतिज्ञामात्रेणोक्तमनुक्तसममिति कृत्वा चोदय ति । तद्यथा । तब चोयए परमवगं एवं बयासीत्यतारन्य यावलेते एवमाहिंसुमि बंते एवमा हिंसुत्ति । तत्र प्रज्ञापकश्चोदकं प्रत्येवं वदेत् । तद्यथा । यन्मया पूर्व प्रतिज्ञातं तत्सम्यक् कस्य हेतोः केन हेतुने तिचेत् तत्र हेतुमाह । तब खलु नगवया जीवनिकाया हेकपमत्ताश्त्यतधारन्य यावमिहादसणसल्लेश्त्ययं हेतुः । तदस्य हेतोरनैकांति कत्वव्युदासाथ स्वपदे सिदि दर्शयितुं दृष्टांतमाह । तद्यथा । खलु नगवया वहए दिते परमत्ते इत्येतदारन्य यावत्तस्याखणं लणं वहिस्सामीति पहारमाणेति । तदेवं दृष्टांत प्रदर्य तत्र च हेतोः सत्तां स्वानिप्रेतां परेण नणयितुमाह । से किंतुगुणाम से वहए इत्यादे रारन्य यावर्षता नवति । तदेवं हेतोदृष्टांते सत्वं प्रसाध्य हेतोः पद्धर्मत्वं दर्शयितु मुपनयाथै दृष्टांतधर्मणि हेतोः सत्ता परेणान्युपगतामनुवदति । जहासे वहए इत्यतधार न्य यावमिचं पसढविनवायचित्तदंत्ति । सांप्रतं हेतोः पक्षधर्मत्वमाह । एवमेव बा लेघवीत्यादीत्यतधारन्य यावत्पावेयसे कम्मे किङत्ति । तदेवं प्रतिज्ञाहेतुदृष्टांतोपन Page #882 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२ दितीये सूत्रकृतांगे वितीये श्रुतस्कंधे चतुर्थाध्ययनं. यनप्रतिपादकानि यथाविधिसूत्राणि विनागतः प्रदाधुना प्रतिज्ञाहेत्वोः पुनर्वचनं निगमनमित्येतत्प्रतिपादयितुमाह । जहा से वहए तस्सवागादावश्स्स इत्यादि यावमिचं पसढविग्वायचित्तदंत्ति ) एतानि प्रतिझाहेतुदृष्टांतोपनयनिगमान्यर्थतः सूत्रैः प्रदशि तानि । प्रयोगस्त्वेवं इष्टव्यः । तत्राप्रतिहतप्रत्याख्यातक्रिययात्मा पापानुबंधीति प्रतिझा सदा षड्जीवनिकायेषु प्रशठव्यतिपातचित्तदंमत्वादिति हेतुः स्वपरावसरापेदि तया कदाचिदव्यापादयन्नपि राजादिवधकवदिति दृष्टांतः । यथासौ वधपरिणामादनि वृत्तत्वाध्यस्यामित्रनूतस्तथाऽत्माऽपि विरतेरनावात्सर्वेष्वपि सत्वेषु नित्यं प्रशव्यति पातचित्तदंमत्युपनयः । यतएवं तस्मात्पापानुबंधीति निगमनम् । एवं मृषावादादिष्व पि पंचावयवत्वं योजनीयमिति । केवलं मृषावादादिशब्दोच्चारणं विधेयं तच्चानेन विधिना नित्यं प्रशठव्यतिपातचित्तदंमत्वात्तथा नित्यं प्रशगदत्तादानचित्तदंमत्वादिति ॥६॥ जो इण समहे चोदक इह खलु बदवे पाणा जे इमेणं सरीरसमणुस्स एणं पो दिघावा सुयावा नानिमयावा विन्नायावा जेसिं जो पत्तेयं पत्तेयं चित्तसमायाए दियावा रावा सुत्तेवा जागरमाणेवा अमित्तनूते मिला संविते निच्चं पसढविनवायचित्तदंतं पाणातिवाए जाव मिबादसण सन्ने ॥७॥ अर्थ-एम गुरुये कहे थके, हवे (चोदक के०) शिष्य बोव्योके, हे नगवन् ! तमे जे अर्थ कह्यो, ते योग्य नथी (णोणसम के) ते अर्थ समर्थ नथी, तेनं कारण कहेले. (इहखलु के० ) या चनदरज्ज्वात्मक लोकमांहें (बहवेपाणा के०) अनंता प्राणी (जेश्मेणंसरीरसमणुस्सएणं के०) जे या शरीरें करी, समुणस्सए एटले पुजलें करी, जीवें दृष्टियें करी कदाचित् कोश्वारे पण (णोदिहावा के०) दीठा नथी, (सुयावा के० ) कानें सांनव्या नथी, (नानिमयावा के० ) लख्या पण नथी, अथ वा ( विन्नायावा के० ) विशेषे करी, जाण्या पण नथी, (जेसिंगोपत्तेयंपत्तेयं चित्तसमा याए के०) जेणे एकारणे प्रत्येक प्रत्येक चित्ते करीने एजीवोनो विनाश चिंतव्यो नथी तो दिवसने विषे, रात्रीने विषे, सुतां, जागतां, अमित्रनत मिथ्यासंस्थित निरंतर शत प्राणिना घातनेविषे चित्त जेनूं प्राणीने दंमकारक ते केम केहेवाय ? धने प्रा णातिपात थकी मामीने यावत् मिथ्यात्व दर्शन शल्य सुधी अढारे पापस्थानकने अण करवाथी तेने कर्मनुं बंधन केम लागे ? एतावता तेने नज लागे. ॥ ७ ॥ ॥ दीपिका-एवं षड्जीवनिकायेषु प्रत्येकं अमित्रनूततया पापानुबंधित्वे दर्शिते Page #883 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राय धनपतसिंघ बाहाउरका जैनागम संग्रह नाग उसरा. ५३ परोव्यनिचारं दर्शयति । (णोइणइति ) नायमर्थः समर्थोयत्सर्वेऽपि प्राणिनः सर्वे षां जीवानाममित्रनूताइति । तत्र परः स्वपदसिध्ये युक्तिमाह । इह बहवोऽनंताः प्राणिनः संति येऽमुना शरीरसमुन्वयेणानेन शरीरेण न कदाचिदृष्टाश्चतुषा न श्रुताः कर्णान्यां नानिमतानेष्टाः । नच विझाताझानेनेति कथं तषियस्तेषु अमित्रनावः स्यात् ! । तेषां जीवानां कदाचिदपि विषयमप्राप्तानां कथं वधं प्रति चित्तसमादानं स्यात् ।। न चासौ तान् प्रति प्रशवव्यतिपातचित्तदंमः स्यात् । शेषं सुगमम् ॥ ७ ॥ ॥ टीका-तदेवं सर्वात्मना षट्स्व पि जीवनिकायेषु प्रत्येकममित्रनूततया पापानुबंधि त्वे प्रतिपादिते व्यनिचारं दर्शयन्नाह । (गोणसम इत्यादि) नायमर्थः समर्थ इति प्रतिपत्तुं योग्यः । तद्यथा। सर्वे प्राणिनः सर्वेषामेव सत्वानां प्रत्येकममित्रनता इति । तत्रापरः स्वपदसिध्ये सर्वेषां प्रत्येकं मित्रानावं दर्शयितुं कारणमाह । हा स्मिंश्चतुर्दशरज्ज्वात्मके लोके बहवोऽनंताःप्राणिनः सूक्ष्मबादरनेदनिन्नाः संति । यद्येवं ततः किमित्याह । तेच देशकालस्वनावविप्रकष्टास्तथानताबहवः संति । ये प्राणिनः सू मादिविप्ररुष्टाद्यवस्था अमुना शरीरसमुनयेणेत्यनेनेदमाह । प्रत्यक्षासन्नवाचित्वादिद मनेनाग्दिर्शिज्ञानसमन्वितसमुखयेण न कदाचिदृष्टाश्चक्षुषा न श्रुताः श्रवणेंशियेण विशे पतोनानिमताश्टानच विज्ञाता प्रतिनेदानेन स्वयमेवेत्यतः कथंचित्तविपर्ययस्तस्य मित्र नावः स्यात् अतस्तेषां कदाचिद विज्ञातानां कथं प्रत्येकं वधं प्रतिचित्तसमादानं न नवति । न चासौ तान् प्रति नित्यं प्रशनव्यतिपातचित्तदंमोनवतीति शेषं सुगमम् ॥ ७ ॥ आचार्याद तब खलु नगवया ज्वेदिता परमत्ता तं सन्निदिध्तेय असन्निदिईतेय से कितं सन्निदिईते जे इमे सन्निपंचिंदिया पऊत्तगा ए तेसिणं जीवनिकाए पडुच्चं तं पुढवीकार्य जाव तसकायं से एगश्न पुढवी कारणं किच्चं करेवि कारावेवि तस्सणं एवं नव एवं खलु अदं पुढवी काएणं किच्चं करेमिवि कारवेमिवि जो चेवणं से एवं नव इमेणवा इमे पवा से एतेणं पुढवीकाएणं किच्चं करेशवि कारावेवि सेणं तातो पुढवी काया असंजय अविरय अप्पडिदयपञ्चरकापावकम्मेयावि नवर एवं जाव तसकाएत्ति नाणियत्वं से एगश्न जीवनिकाएहिं किच्चं करे शवि कारावेवि तस्सणं एवं नव एवं खलु अदं ब्जीवनिकाएहिं कि चं करेमिवि कारवेमिवि णो चेवणं से एवं नवश् श्मेदिंवा से यतेदिंब Page #884 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४ वितीये सूत्रकृतांगे वितीय श्रुतस्कंधे चतुर्थाध्ययनं. जीवनिकाएहिं जाव कारवेशवि से यतेहिं बदिं जीवनिकाएहिं असंज यं अविरयं अप्पडिदयपच्चरकायपावकम्मेदिं तं पाणातिवाएते जावाम बादंसणसल्ले एस खल नगवया अकाए असंजए अविरए अपडि दयपच्चरकायपावकम्मे सुविणमवि अपस्सान पावेयसे कम्मे कङ इसे तं सन्निदिव्तेणं ॥ G॥ अर्थ-हवे एम शिष्ये कह्यानंतर श्राचार्य कहेजे. (तखलुनगवयाग्वेदितापल त्ता के० ) त्यां निचे जगवंतें ए अर्थ उपर वे दृष्टांत कह्याले. ते जेमजे, तेम कहे. ( तंसन्निदिहंतेय के०) एक संझिदृष्टांत, अने (असन्निदित्य के०) बीजो असंझिह टांत (सेकितंसंनिदिईते के० ) त्यां संझिदृष्टांत, कयो ? ते कहेडे (जेश्मेसन्निपंचिंदि यापऊत्तगा के०) जे ए प्रत्यक्ष लक्षण संझी पंचेंड्रिय पर्याप्ता जीवडे (एतेसिणं के) तेमांहें कोई एक (बजीवनिकाएपडुचं के० ) जीवनिकाय धाश्री एवी प्रतिज्ञा करे, (तं के० ) ते बकायनां नाम कहे. (पुढवीकारंजावतसकार्य के०) एथिवी काय यावत् त्रसकाय पर्यत (सेएगइन के०) ते कोइ एक पुरुष एवं प्रतिज्ञा करे के, (पुढवीकाएकिंचंकरेइवि के०) एथिवीकायें करीनेज कार्य करीश (करावेशविके०) अने दृथिवीकायें करीज कार्य करावीश, एवो जेने नियम (तस्सणंएवंनव के० ) तेने एम होय ते कहेडे (एवंखलुअहंपुढवीकाएणं के० ) एम निश्चे दुं प्रथिवीकायें करी ( किच्चंकरेमिविकारवे मिवि के०) कार्य करीश, थने बीजानी पासे पण करा वीश परंतु (पोचेवणंसेएवंनवर के) तेने निश्चे एवो अनिधाय नथी के (इमे वाइमेणवा के० ) अमुक अमुक दिशिना, तथा हूं,अमुक अमुक कोइक कालें, अथ वा धोले, नीले, पीले, राते,पथिवीकायें कार्य करीश अथवा अनेक नेद पृथिवीकायना ने तेमांहेथी अमुक को एक नेदेंज कार्य करीश, ज्यां सुधी एवो थनिप्राय नथी त्यां सुधी तेने सर्व पृथिवीकाय कर्म लागे (सेएतेषंपुढवीकाएकिच्चकरेइवि कारावेवि के ) ते पुरुष ते पृथिवीकायें करी पोतें कार्य करे, बीजा पासें कार्य करावे, (सेणंतातोपुढवीकाया के०) ते पुरुष ते प्रथिवीकायथकी, (थसंजय के० ) असंयति अनिवृत्त (थविरय के ) अविरति, (अपडिहयपञ्चरकापाव कम्मेयाविनव के०) तथा नथी हरयां पञ्चरकाणे करीने पापकर्म जेणे एवो ने, ( एवंजावतस्सकाएतिनाणियत्वे के ) एम यावत् त्रस काय सुधी एटले बए काय थाश्री जाणीले जेने जे कायनी अविरति होय तेने ते कायनु कर्म लागे. ए रीतें को Page #885 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राय धनपतसिंघ बाहाउरका जैनागम संग्रह नाग उसरा. ५५ ३ एक पुरुष बजीव निकायें करीने कार्य पोतें करे, बीजा पासे करावे, ते पुरुष बजीव निकायने विषे अविरति असंयति केहेवाय. ए बालावानो बीजो अर्थ पूर्वना बालावा मां लखाइ गयो, माटें थांही लख्यो नथी. ए रीतें जे प्राणी प्राणातिपातथी मामीने यावत् मिथ्यात्व दर्शन शल्य पर्यंत अढारे पापस्थानकने विषे असंयति थविरति तथा पञ्चरकाणे करीने जेणे पापकर्म हण्यां नथी एम अविरतिने नावें होय, तेने स्वप्नां तरें अणदीतु पण पापकर्म बंधाय, लागे. एम निश्चे श्री नगवंतें कह्यु, एटले सझीयानो दृष्टांत कह्यो ॥ ७ ॥ ॥ दीपिका-एवं सति न सर्व विषयं प्रत्याख्यानं युज्यते । ये जीवाहिंसा दिविषयप्राप्ताः स्युस्तेषामेव प्रत्याख्यानं क्रियते इति परेणोक्ते प्राचार्यवाह । (तबखल्वित्यादि ) यद्य पि सर्वजीवेषु हिंसापरिणामोनोत्पद्यते तथाप्यविरतिसन्नावात्तविषयः कर्मबंधोनव त्येव । अत्र दृष्टांत यमाह । संझिदृष्टांतोऽसंझिदृष्टांतश्च । कोयं संझिदृष्टांतः?। ये इमे सं झिपंचेंझ्यिास्तेषां मध्ये कश्चिदेकः षड्जीवनिकायान् प्रतीत्याश्रित्य एवं प्रतिज्ञा कुर्यात् । अहं पृथिवीकायेनैव एकेन कृत्यं करोमि कारयामि । सच एवं कृतप्रतिइस्तेन तस्मात् त स्मिन् तंच करोति कारयतिच शेषकायेन्यो निवृत्तस्तस्य चैवंनूतोऽनिप्रायः । तद्यथा । थहं पृथिवीकायेन कृत्यं करोमि कारयामि एवं प्रतिज्ञायां कृतायां विशेषानिप्रायोन स्यात् यत् श्वेतेन कमेनवा पृथिवीकायेन कृत्यं करोमि कारयामिच स तस्मात्प्टथिवीकायादनित तोऽप्रतिहतप्रत्याख्यातपापकर्मा नवति । एवमप्तेजोवायुवनस्पतिष्वपि वाच्यं । य था कश्चिदपकायादनिवृत्तः कश्चित्तेजस्कायादिति । शेषकायैस्तु व्यापारं करोति कश्चित् ष ट्स्वपि जीवनिकायेषु अनिवृत्तोऽसंयतत्वात्तैः कार्य करोति कारयति न पुनस्तविशेषप्रति झा एवं मृषावादेऽपि वाच्यं । यथा इदं मया वक्तव्यमनृतं इदं न वक्तव्यं सच तस्मान्मृषावा दादानिवृत्तत्वादसंयतः स्यात् तथा इदमदत्तं मया ग्राह्यं दंतु न ग्राह्यं । एवं मैथुनपरिय हेष्वपि वायं । तथा क्रोधमानमायालोजेष्वपि स्वयं विचार्य वाच्यं । तदेवमसौ हिंसादी न्यकुर्वन्नपि थविरतत्वात्तत्प्रत्ययिकं कर्म बध्नाति । ततोदेशकालस्वनावविप्रकृष्टेष्वपि जीवेषु अमित्रनूतोऽसौ स्यात् । यथा कश्चिद्यामघातादी प्रवृत्तः । यद्यपि तेन केचि नरान दृष्टास्तथापि तद्घातनिवृत्तेरनावाद्योग्यतया तद्घातकश्त्युच्यते । एवं अविरतेः कर्मबंधोझेयः ॥ ॥ ॥ टीका-एवं व्यवस्विते न सर्व विषयं प्रत्याख्यानं युज्यते इत्येवं प्रतिपादिते परेण सत्याचार्यबाद । (तखलुनगवयाइत्यादि) यद्यपि सर्वेष्वपि देशकालस्वनावविध Page #886 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६ वितीये सूत्रकृतांगे वितीय श्रुतस्कंधे चतुर्थाध्ययन कृष्टेषु वधकचित्तं नोत्पद्यते तथाप्यसावविरतिप्रत्ययत्वात्तेष्वमुक्तवैरएव नवत्यस्य चार्थ स्य सुरवप्रतिपत्तये जगवता तीर्थकता नौ दृष्टांती प्राप्तौ प्ररूपितौ । तद्यथा । संझिदृष्टां तोऽसंझिदृष्टांतश्च । अथ कोयं संझिदृष्टांतो ये केचन इमे प्रत्यक्षासन्नाः षड्निरपि पर्याप्ति निः पर्याप्ताकहापोह विमर्शरूपाः संज्ञा विद्यते येषां ते संझिनः पंचेश्यिाणि येषां ते पंचेदि याः करणपर्याप्या पर्याप्तकाएषां च मध्ये कश्चिदेकः षड्जीवनिकायान् प्रतीत्यैवंजूतां प्र तिझा नियमं कुर्यात् । तद्यथा । षट्सु जीवनिकायेषु मध्ये प्रथिवीकायेनैवैकेन वालुका शिलोपत्ललवणादिस्वरूपेण कृत्यं कार्य कुयो । सचैवं कृतप्रतिझस्तेन तस्मिन् तस्मात्तं वा करोति कारयतिच शेषकायेन्योऽहं विनिवृत्तस्तस्यच रुतनियमस्यैवंनूतोनवत्यध्यव सायः। तद्यथैवं खल्वहं पृथिवीकायेन कृत्यं करोमि कारया मिच तस्यच सामान्यकृत प्रतिज्ञस्य विशेषानिसंधिनैव नवति । तद्यथा । अमुना कमेनामुना श्वेतेन एथिवी कायेन कार्य करोति कारयतिच सतस्मात्ष्टथिवीकायादनिवृत्तोऽप्रतिहतप्रत्याख्यातपा पकर्मा नवति । तत्र खननस्थाननिषीदनत्वग्वर्तनोचारप्रश्रवणादिकरण क्रियासनावा देवमप्तेजोवायुवनस्पतिष्वपि वाच्यं । तत्राप्रकायेन स्नानपानावगाहननांमोपकरण धावनादिषु प्रयोगस्तेजःकायेनापि पचनपाचनप्रकाशनादिषु वायुनापि व्यंजनतालवंते त्यादिव्यापारादिषु प्रयोजनं वनस्पतिनापि कंदमूलपुष्पफलपत्रत्वकशाखाद्युपयोगएवं विक लेंश्यिपंचेंशियेष्वप्यायोज्यमिति । तथैकः कश्चित् षट्स्व पि जीवनिकायेषु अविरतोसं यतत्वाच तैरसो कार्य सावद्यानुष्ठानं स्वयं करोति कारयतिच परैस्तस्यच क्वचिदपि निवृत्ते रनावादेवंनूतोध्यवसायोनवति । तद्यथैवं खल्वहं षनिरपि जीवनिकायैः सामान्येन क त्यं करोमि न पुनस्तविशेषप्रतिज्ञेति। सच तेषु षड्स्वपि जीवनिकायेष्वसंयतोऽप्रतिहतप्र त्याख्यातपापकर्मा नवत्येवं मृषावादेपि वायं । तद्यथेदं मया वक्तव्यमोहग्नतं तु न वक्तव्यं सच तस्मान्मृषावादादनिवृत्तत्वादसंयतोनवति । तथा दत्तादानमप्याश्रित्य वक्तव्यं । त यथेदं मया दत्तादानं ग्राह्यमिदंतु न ग्राह्यमित्येवं मैथुनपरिग्रहेष्वपीति । तथा क्रोधमान मायालोनेष्वपि स्वयमन्यूह्य वाच्यं । तदेवमसौ हिंसादीन्यकुर्वन्नप्यविरतत्वात्तत्प्रत्ययिक कर्म चिनोतीत्येवं देशकालस्वनावविप्रष्टष्वपि जंतुष्वमित्रनूतोसौ नवति तत्प्रत्ययिक चकर्म चिनोतीति सोयं संझिदृष्टांतोऽनिहितः। सच कदाचिदेकमेव पृथिवीकार्य व्यापाद यति शेषेषु निवृत्तः कदाचिट्ठावेवं त्रिकादिकाः संयोगाननीयायावत्सर्वानपि व्यापा दयतीति । सचैवं सर्वेषां व्यापादकत्वे न व्यवस्थाप्यते सर्व विषयारंनप्रवृत्तेस्तत्प्रवृत्तिरपि तदनिवृत्तेः । यथा कश्चिद्यामघातादौ प्रवृत्तीयद्यपिच न तेन विवक्षितकाले केचन पुरुषा दृष्टास्तथाप्यसो तत्प्रवृत्तिनिवृत्तेरनावात्तद्योग्यतया तद्घातकश्त्युच्यते इत्येवं दार्टीति केप्यायोज्यम् ॥ ७॥ Page #887 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रायधनपतसिंघ बाहाउरका जैनागम संग्रह नाग उसराः ५७ से किंतं असन्निदिध्ते जइमे असन्निणो पाणा तं पुढवीकाझ्या जाव वणस्स इकाइया बहावेगश्या तसा पाणा जेसिंगो तकाश्वा सन्नातिवा पन्नातिवा मणातिवा वईवा सयंवा करणाए अन्नहिंवा कारावंतए करतंवा समाजा पित्तए तेविणं बाले सवेसि पाणाणं जाव सबसिं सत्ताणं दियावा राग्वा सु त्तेवा जागरमाणेवा अमित्तनतमिबासंछिया निच्चं पसढविग्वातचित्तदंमा तं पाणाश्वा ते जाव मिबांदसणसल्लेश्चेव जाव पो चेवमणो णो चेत्रवई पाणा णं जाव सत्ताणं उरकणत्ताए सोयणत्ताए जूरणत्ताए तिप्पणत्ताए पिट्टणताए परितप्पणत्ताए ते उरकणसोयणजावपरितप्पणवहबंधणपरिकिलेसा अप्प डिविरया नवंति ॥५॥ अर्थ-(सेकिंतअसन्निदिईते के०) हवे असंझियानो दृष्टांत कयो ? ते कहेले. (जे मेथसन्निणोपाणा के०) जे ए असंझी प्राणीनने (तं के०) ते कडे. (पुढवीकाश्या के) पृथिवीकायिक, (जाववणस्सइकाइया के०) यावत् वनस्पतिकाय पर्यंत, ए पांच स्थावर जाणवा. (बहावेगश्यातसापाणा के०) तथा बहा, कोइ एक त्रस प्राणी पण असंझी ने (जेसिंणोतकावा के०) जेने तर्क नथी तर्क एटले ए स्तंन के, पुरुषले ए या गल गुंठे ! एवो नाव जेने न नपजे, एटले सारं करवू देखीने कहेके, या रुई करे एवो नाव जेने नथी, (सन्नातिवा के०) तथा संज्ञा ते जे पूर्वदृष्टर्नु उलखवं ते जेनें न थी (पन्नातिवा के० ) तथा जेनें प्रज्ञा एटले बुद्धि नथी, (मणातिवा के ) तथा जेनें मन नथी, (वश्वा के०) तथा जेनें वचन नथी, ( सयंवाकरणाए के० ) तथा जेने पो तें कार्य करवू नथी, अथवा (अन्नेहिंवाकारावंतए के० ) बीजा पासें कार्य कराव, नथी, (करंतवासमणुजाणित्तए के० ) तथा बीजो कोई कार्य करतो होय तेने देखीने कहेके, ए रुडूं करे. एम कहीने तेने अनुमोदन आपq एवो नाव जेनें नथी, (तेवि एंबाले के०) ते असंझी बाल अज्ञानी जीव, (सन्वेसिंपाणाणं के० ) सर्व प्राणीनो (जा वसवेसिंसत्ताणंके० ) यावत् सर्वसत्वनो (दियावाराउवासुत्तेवाजागरमाणेवा के०) दिवसें रात्रे,सुता,जागता, (अमित्तनूत के०) जीवोनो अमित्रनूत शत्रुसमान बोलियें. कारणके, तेने तेनुं विरति पणुं नथी. (मिहासंठिया के०) ते मिथ्यात्व संस्थित (निचंपसढविनवात चित्तदंमा के०) निरंतर शठ एटले परमार्थ नथी जाणता,तथा प्राणघातने विषे जेनुं चि त्तले, तथा प्राणीनने दंमना करनार, (तं के ) ते कहेले. (पाणाश्वातेजावमिहादसण सन्ने के०) प्राणातिपात मृषावादादिकथी यावत् मिथ्यादर्शन शव्य पर्यंत ए अढार पा Page #888 -------------------------------------------------------------------------- ________________ GUG द्वितीये सूत्रकृतांगे द्वितीय श्रुतस्कंधे चतुर्थाध्ययनं. स्थानकने नथी करता, तो पण तेने विषे यविरतिपणा थकी ते प्रसंज्ञी जीवोने कर्म लागे (च्चेवजावणीचेवमणो के ० ) तथा यद्यपि ते असंझीया जीव मनना व्यापार रहित बे, ( पोचे ववई के ० ) तथा वचनना व्यापार रहितबे, तथापि (पाया पंजावसत्ताणं के० ) सर्वप्राणीने यावत् सर्व सत्वने ( डुरकत्ताए के० ) दुःखने उपजाववे करी, ( सोय are के० ) शोकने उपजाववे करी, (जूरणत्ताए के०) वयनी हानीने करवे करी, (ति पत्ताए के० ) मन वचन घने काया ए त्रोथी पीडवे करी, (पिट्टत्ताए के० ) यष्टि मुष्टिने प्रहारों कर, (परितप्यत्ताए के० ) बाहेर तथा अन्यंतरने पीडवे करी, एवा ए वा प्रकारें यद्यपि ते खसंज्ञीया जीव समस्त जीवोने दुःख नथी उपजावता, तथापि ते विरतिपणाने नावें सर्व जीवोने दुःखनुं उपजावनुं, शोक, जूरण, तिप्पण, पिट्टण, यावत् बाह्य तथा अन्यंतरनुं पीडवुं वध बंधननुं करवुं इत्यादिक क्लेशय की विशेषें करी निवृत्त्या विरति कहेवाय ते विरतिपणाने नावें ते जीवो तत्प्रत्ययिक कर्मेकरी बधाय ॥ ए॥ ॥ दीपिका - प्रथाऽसं शिदृष्टांतमाह । (सेकिंत मिति) ये इमेऽसंज्ञिनस्तद्यथा पृथिवीका यायावनस्पतिकायास्तथा षष्ठाय प्येके त्रसाः यावत्सं मूर्तिमपंचेंद्रियास्ते सर्वेप्यसं झिनो येषां न तर्कों विचारः न संज्ञा दीर्घकाल संबंधिनी न प्रज्ञा स्वबुद्धिकता न मनोवग्रहादिमतिः वाक् स्पष्टवर्षा तथा स्वयं करोमि धन्यैः कारयामि कुवैतमनुजानामि इत्यनिप्रायोनास्ती ति । तेऽसंज्ञिनोबालाः सर्वेषां जीवानां घातनिवृत्तेरनावाद्योग्यतया घातकाएव यस त्यनापकापि विरत्त्वात् प्रदत्तग्राहिणोपि दध्यादिनचणात् तीव्रनपुंसक वेदोदया मैथुन निवृत्तेरनावाच्च मैथुनप्रवृत्ताः परिग्रहवंतोपि प्रशनादेः स्थापनात् । एवं क्रोधमान मायालोनायावन्मिथ्यादर्शनसशल्यसनावश्च तेषां ज्ञेयः । ततश्च ते कर्मबंधकाः स्युः । त या यद्यपि ते विशिष्टमनोवाग्व्यापाररहितास्तथापि सर्वजंतूनां ( दुःखलत्ताए त्ति ) ङःखो त्पादनतया शोचनतया शोकोत्पादनत्वेन जूरणं वयोहा निस्तत्कारणतया त्रिज्योमनोवा कायेन्यः पातनं त्रिपातनं तनावस्तया ( पिट्टयाए ) मुष्टिलोष्टादिनिः कुट्टनेन परिताप नया बहिरंतश्च पीडया तेऽसंज्ञिनोयद्यपि दूरस्थानां विषयगतानां जीवानां दुःखं नोत्पा दर्यति तथाप्यविरतत्वाद्दुःखशोचनादेरविरताः स्युस्ततश्च कर्मणा बध्यंते ॥ ९ ॥ : ॥ टीका - संशिदृष्टांतानंतर मसंज्ञिदृष्टांतः प्रागुपन्यस्तः सोऽधुना प्रतिपाद्यते । (सेकिंत सन्निहिते इत्यादि) संज्ञानं संज्ञा सा विद्यते येषां ते संज्ञिनस्तत्प्रतिषेधादसंज्ञिनोमन सोव्यतया नावात्तीब्राऽतीव्राध्यवसाय विशेषरहिताः प्रसुप्तमत्तमूर्तितादिवदिति । ये ३ मे संज्ञिनस्तद्यथा पृथिवीकायिकायाव इनस्पतिका विकास्तथा षष्ठाय प्येके त्रसाः प्राणिनो विकजेंड्रियायावत्संमूर्द्विनः पंचेंड्रियास्ते सर्वेप्यसंज्ञिनोयेषां न तत्कार्य विचारोमीमांसावि For Private Personal Use Only Page #889 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राय धनपतसिंघ बाहारका जैनागम संग्रह नाग इसरा. त्य शिष्ट विमर्शो विद्यते यथा कस्यचित्संज्ञिनो मंदमंद प्रकाशे स्थाणुपुरुषोचिते देशे किमर्यं स्थाणुरुत पुरुषइत्येवमात्मक कहस्तर्कः संभवति नैवं तेषामसंज्ञिनां तर्काः संनवंतीति । तथा संज्ञानं संज्ञा पूर्वोपलब्धा येत डुत्तरकालपर्यालोचना तथा प्रज्ञानं प्रज्ञा स्वबुध्योत्प्रे , सएवायमित्येवंभूतं प्रज्ञानंच तथा मननं मनोमतिरित्यर्थः । सा चावग्रहादिरूपा त स्पष्टवाक्। साच न विद्यते तेषामिति । यद्यपिच हीं दियादीनां जिन्हें प्रियगल वि वरादिकमस्ति तथापि न तेषां प्रस्पष्टवर्णत्वं । तथा न चैषां पापं हिंसादिकं करोमि कारया मीत्येवं नूताध्यवसाय पूर्वि कामतिस्तथा स्वयं करोम्यन्यैव कारयामीत्येवंनू तोध्यवसायो न विद्यते तेषां । तदेवं तेप्यसंज्ञिनोबालवद्दालाः सर्वेषां प्राणिनां घातनिवृत्तेरभावात्तद्यो ग्यतया घातकाव्यापादकाः । तथाहि । डींडियादयः परोपघाते प्रवर्तते एव तत्रणादि नानृतनाषणमपि विद्यते तेषामविरतत्वात् केवलं कर्मपरतंत्राणां वागनावस्तथाऽद तादानमपि तेषामस्त्येव दध्यादिनऋणात्तथेदमस्मदीयमिदंच पारक्य मित्येवंभूत विचारा नावाच्चेति । तथा तीव्रनपुंसक वेदोदयान्मै थुना विरतेश्व मैथुनसद्भावोपि तथाशनादेः स्थाप नात्परिग्रहसद्भावोपीत्येवं क्रोधमानमायालोनायाव न्मिथ्यादर्शनशव्यसनावश्च तेषामव गंतव्यस्त नावाच्च ते दिवा रात्रौवा सुप्ताजाग्रदवस्थावा नित्यं प्रशठव्यतिपात चित्तदंमानवं ति । तदेव दर्शयितुमाह । ( तंजहा इत्यादि ) तेह्यसंज्ञिनः क्वचिदपि निवृत्तेरनावा तत्प्रत्ययिककर्मबंधोपेतानवंति । तद्यथा । प्राणातिपातयावन्मिथ्यादर्शनशल्यवंतो नवंति । तत्तयाच यद्यपि वैशिष्ट्यमनोवाग्व्यापाररहितास्तथापि सर्वेषां प्राणिनां दुःखोत्पादनतया तथा शोचनतया शोकोत्पादनत्वेन तथा जूरणतया जूरणं वयोहानि रूपं तत्करणशीलता तथा त्रिज्योमनोवाक्कायेन्यः पातनं त्रिपातनं तनावस्तथा दिवा ( तिप्पयाति ) परिवेदनतया तथा ( पिट्टणया ) मुष्टिलोष्टप्रहारेण परिता पनतया बहिरंतश्च पीडया ते चासंज्ञिनोपि यद्यपि देशकाले स्वनावविप्रकृष्टानां न सर्वेषां दुःखं समुत्पादयंति तथापि विरतेरभावात्तद्योग्यतया दुःखपरितापक्लेशादेरप्रति विरता नवंति तत्सद्भावाच्च तत्प्रत्ययिकेन कर्मणा बध्यंते ॥ ए ॥ इति खलु से प्रसन्नणोवि सत्ता होनिसिं पाणातिवाए नवस्काइति जाव प्रदोनिसें परिग्गढ़ नवकाइति जाव मिचादंसणस ने नव स्काइऊं ति एवंभूतवादी सबजोलियावि खलु सत्ता सन्निपो ढुङा सन्निणो दोंति प्रसन्निपो ढुका सन्निपो होंति दोच्चा सन्नी अडवा प्रसन्नी तब से विवि चित्ता प्रविधूपित्ता असंमुबित्ता प्रणतावित्ता प्रसन्निकाय वा सन्नि For Private Personal Use Only Page #890 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६० हितीये सूत्रकृतांगे वितीयश्रुतस्कंधे चतुर्थाध्ययनं. कायं संकमंति सन्निकायावा असन्निकायं संकमंति सन्निकायावा स निकायं संकमंति असन्निकायावा असन्निकायं संकमंति जे एए सन्नि वा असन्निवा सवे ते मिडायारा निचं पसढविवायचित्तदंमा तं पाणा तिवाए जाव मिबादसणसल्ले एवं खलु नगवया अकाए असंजए अ विरए अपडिहयप्पच्चरकायपावकम्मे सकिरिए असंवुमे एगंतदं ए गंतबाले एगंतसुत्ते से बाले अवियारमणवयकायवक्के सुविणमवि पाप स पावेयसे कम्मे कऊ॥१०॥ अर्थ-(इतिखलुसेअसन्निणोविसत्ता के०) एणी परें निश्चे ते एथिवीकायादिक असंझी जीव बता पण (अहोनिसिंपाणातिवाए के) रात्री दिवस प्राणातिपातने विषे, (ज्वरका ऊंति के०) कहियें, एटले तेने प्राणातिपातनुं कर्म लागे, एम बोलियें. (जावयहोनि सिंपरिग्गहनवस्काऊति के० ) यावत् रात्री दिवस परिग्रहने विषे प्रवर्तता बोलिये, क हियें (जावमिहादसणसनेवरकाऊति के०) यावत् मिथ्यादर्शन शल्यने विषे प्रवर्तता कहियें, माटें असंझियाने पण पापकर्मनो उपाख्यान विरतिने बनावें कहिये. हवे शिष्य पूजेने के, एवंनूत एटले वेदांतवादी एम कहे के.जे पुरुषले ते पुरुप पपुंज पामे, अने जे पशु होय ते पशु पणुंज पामे तेम बांही जनशासनने विषे पण जे संझिया ते संज्ञी पणुंज पामे अने जे असंझीया ते असंझी पणुंज पामे जे. किंवा बीजी को रीतें जे? ते कहो. एम पू बते शिष्य प्रत्ये याचार्य कहेले. ( सबजोणियाविरवलुसत्तासन्नियोहुका के) निचे सर्वयोनिक सत्व एटले जीव संझिया पणे होइने (थसन्निपोहोंति के) थसंझिया पण दोय, (असन्निणोदुजासन्निपोहोति के)असंझिया होइने संझिया होय (होचासन्नीयवायसन्नी के०) एम संझी अथवा असंझो होय एटले वेदांतवादिनो पद निराधार थयो, तथा को एक संझी पण तेज नवमां मूर्नादिकनीयवस्थायेंथसंझी थाय एम एकज नवमांहें संझीया माहेथी यसंझी थाय, मूर्बाने अनावें ते वलीसंझी पण थाय, जो एकज नवमां एमडे तो जन्मांतरनुं केQज ! जेम को एक जागतो मनुष्य निभाना उदय थकी सुतो थको वलीनिाने अनावें जागतोज कहेवाय. ए दृष्टांत संझी थसंझी उपर जाणवो. (तबसेअविविचित्ता के०) त्यां ते जीवें पूर्वनुं कर्म जे बांध्युंडे. अथवा उदय थाव्युं तेने पृथक् थपकीधे, तथा (यविधूणित्ता के०) थण खपावे, तथा (यसंमुबित्ताके०) अणदे, (थणणुता वित्ता के ) थण तपावे, थके (असन्निकाया उवासंनिकायसंकमंति के०) पहेलो नंग, असंझिकाय थकी संझिकायें संक्रमे. (स Page #891 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राय धनपतसिंघ बादाडुरका जैनागम संग्रह नाग इसरा. ८६१ निकrendarsसन्निकार्यसंकमंतिके०) बीजो जंग, संज्ञिकाय थकी असं शिकायें संक्रमे, (सन्निकायानुवासन्निकार्यसंकमंति के ० ) त्रीजो जंग, संज्ञिकाय थकी संज्ञिकायें संक्रमे. (खसन्निकायावायसन्निकार्यसंकमंति के० ) चोथो जंग, प्रसंज्ञिकाय थकी खसंज्ञिका ये संक्रमे, एवं चतुर्नंग जाणवा. (जेएएसन्निवायसन्निवा के० ) जे ए संझिया अथवा संज्ञया बे (सर्व्वते मिलायारा के० ) ए सर्व पञ्चरकालीने जावें मिथ्याचार वाला जावा. ते सर्व जीवने विषे नित्य अत्यंत शठ एटले मूर्ख पणु बसा प्राणीघातने विषे जेनु चित्तबे तथा प्राणिने दंमना करनार केवाय यावत् मिथ्यादर्शन राज्य पर्यंत ढारे पापस्थानकना करनार ते केवाय. ए रीतें नगवंत श्री महावीरदेवें कयुंके जे संयति विरति प्रतिहत प्रत्याख्यान पापकर्म वाला, तथा सक्रिय असंवर एकांत दंमना करनारा, एकांत बाल, एकांत सुता कह्या. ते बाल या विचारित मन वचन घने कायाना परिणाम वाला बतां जे पापकर्म स्वप्नांतरें पण न देखे, तेनुं पण कर्म तेने लागे ॥१०॥ ॥ दीपिका - इति यमुना प्रकारे । खलु वाक्यालंकारे । ते पृथ्वीकायादयोऽसंज्ञिनः संतोऽहर्निशं प्राणातिपाते कर्तव्ये तद्योग्यतया तदसंप्राप्तावपि ग्रामघातकवडुपाख्यायंते यावन्मिथ्यादर्शनशल्ये उपारख्यायंते । तेच कर्मवशात्सर्वयोनिकाच्यपि जीवाः पर्यात्यपेक्षया यावन्मनः पर्याप्तिर्न निष्पद्यते तावत्करणतोऽसंज्ञिनः संतः पश्चात्संज्ञिनोजवंत्येकस्मि नेव जन्मनि । यन्यजन्मनितु एकेंड्रियादयोपि मनुष्यादयः स्युः । परं नव्यानव्यत्ववन्न नि यमः | नव्यानव्यत्वेहि न कर्मायते यतोन ताच्यां व्यभिचारः । ये पुनः कर्मवशगास्ते पुनः संज्ञिनोत्वाऽन्यत्रासंज्ञिनः स्युः खसंज्ञिनश्व भूत्वा संज्ञिनइति । तत्र यत्कर्म बदम स्ति तस्मिन् सत्येव तद विविच्याष्टथक् कृत्याऽविधूयाऽसमुविद्याऽननुताप्याएते चत्वारो पि शब्द एकार्थिकाः । तदेवमत्यक्तकर्माणोऽसंज्ञिकायात्संज्ञिकार्य संक्रामंति संज्ञिकायाद संज्ञिकायंच संज्ञिकायात्संज्ञिकार्य असं शिकायादसं शिकायंच । एवं चत्वारोनंगाः । उप संहरन्नाह । (जेएतेजीवत्ति ) ये एते पर्याप्ताय पर्याप्ताः संज्ञिनोऽसंज्ञिनोवा सर्वे ते मिथ्याचाराय विरतत्वात् तथा सर्वधर्मेषु नित्यं प्रशग्व्यतिपात चित्तदंगाः स्युरेवंभूताश्च प्रा यातिपातादिषु सर्वेष्वप्याश्रव द्वारेषु वर्ततइति ( एवंखलुत्ति) एवमुक्तनीत्या खलु निश्चि गवता वाख्यातमित्यादिना पूर्वोक्तमनुवदति । यावत्पापं कर्म क्रियतइति ॥ १० ॥ ॥ टीका - तदेवं विप्रकृष्ट विषयमपि कर्मबंधं प्रदश्यपसंजिहीर्षुराह । ( इतिखलु तेइत्या वि) इति रूपप्रदर्शने । खनुशब्दोवाक्यालंकारे विशेषणे वा । किं विशिनष्टि । ये इमेि वीकायादयोऽसंज्ञिनः प्राणिनस्तेषां नतर्कों, नसंज्ञा, नमनो, नवाकू, नस्वयं कर्तुं नान्येन For Private Personal Use Only Page #892 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पद वितीये सूत्रकृतांगे वितीय श्रुतस्कंधे चतुर्थाध्ययनं. कारयितुं न कुर्वतमनुमंतुं वा प्रवृत्तिर स्ति। ते चाऽहर्निशममित्रनूतामिथ्यासंस्थितानित्यं प्रशव्यतिपातचित्तदंमाउःखोत्पादनतया यावत्परितापनपरिक्लेशादेरप्रतिविरताघसंझिनो पि संतोऽहर्निशं सर्वकालमेव प्राणातिपाते कर्तव्ये तद्योग्यतया तदसंप्राप्तावपि ग्रामघा तकवउपाख्यायंते यावन्मिथ्यादर्शनशल्यउपाख्यायंतइति । उपाख्यानं वा संझिनोपि । योग्यतया पापकर्मा निवृत्तेरित्यनिप्रायः । तदेवं दर्शिते दृष्टांत आये तत्प्रतिब-क्ष्मेवार्थशेष प्रतिपादयितुं चोद्यं क्रियते ।तद्यथा। किमेते सत्वाः संझिनच नव्यानव्यत्ववन्नियतरूपा एवाहोस्वित्संझिनोनूत्वाऽसंझित्वं प्रतिपद्यते।असंझिनोपि संझित्वमित्येवं चोदिते सत्या दाचार्यः (सव्वजोणियाविखजुइत्यादि) यदिवा संत्येवंनूतावेदांतवादिनोयएवं प्रतिपादयंति पुरुषः पुरुषत्वमश्नुते पगुरपि पशुत्वमिति। तदत्रापि संझिनः संझिनएव नविष्यंत्यसंझिनो प्यसंझिनति । तन्मतव्यववेदार्थमाह । (सबजोगियावीत्यादि) यदिवा किं संझिनोऽसंज्ञि कर्मबंध प्राक्तने सत्येव कर्मणि कुर्वति किंवा नेत्येवमसंझिनोपि संझिकर्मबंधं प्राक्तने स त्येव कुर्वत्याहोस्विनेत्येतदारांक्याह । (सबजोणियावीत्यादि) सर्वायोनयोयेषां ते सर्वयो नयः संवृतविवृतोनयशीतोभनयस चित्ताऽचित्तोनयरूपायोनयइत्यर्थः। तेच नारकतिर्यङ् नरामरायपिशब्दाविशिष्टैकयोनयोपि । खल्विति विशेषणे । एतदिशिनष्टि। तङन्मापे क्या सर्वयोनयोपि सत्वाः पर्याप्त्यपेक्ष्या यावन्मनःपर्याप्तिन निष्पद्यते तावदसंझिनः करणतः संतः पश्चात्संझिनोनवंत्येकस्मिन्नेव जन्मन्यन्यजन्मापेक्ष्यात्वेकेंख्यिादयो पिसंतः पश्चान्मनुष्यादयोनवंतीति । तथानतकर्मपरिणामात् पुनर्नव्यानव्यत्ववन्न व्यव स्थानियमोनव्यानव्यत्वे हि न कर्मायत्ते अतोनानयोय॑निचाराये पुनः कर्मवशगा स्ते संझिनोनूत्वाऽसंझिनोनवंत्यसंझिनश्च नूत्वा संझिनति वेदांतवादिमतस्य प्रत्यदेणैव व्य निचारः समुपलभ्यते । तद्यथा । संयपि कश्चिन्मूर्नाद्यवस्थायामसंझित्वं प्रतिपद्यते तदपगमेतु पुनः संझित्वमिति जन्मांतरे तु सुतरां व्यनिचारइति । तदेवं संझ्यसंझिनोः कर्मपरतंत्रत्वादन्योन्यानुगतिरविरुवा । यथा प्रतिबुझोनिोदयात्स्व पिति सुप्तश्च प्रति बुध्यते इत्येवं स्वापप्रतिबोधयोरन्योन्यानुगमनमेवमिहापीति । तत्र प्राक्तनं कर्म यदीर्ण यच्च बक्षमास्ते तस्मिन् सत्येव तदविविच्याप्टथकृत्य तथाऽविधूयाऽसमुविद्याऽननुता प्यते चावि विच्यादयश्चत्वारोप्येकाथिकायवस्थाविशेषं चाश्रित्य नेदेन व्याख्यातव्याः। तदेवमपरित्यक्तप्राक्तनकर्मणोऽसंझिकायात्संझिकायं संक्रामंति तथा संझिकायादसंझिकाय मिति । तथा नारकाः सावशेषकर्माणएव नरकाऽवृत्य प्रतनुवेदनेषु तिर्यदूत्पद्यते एवं दे वायपि प्रायशस्तत्कर्मशेषतया गुनस्थानेषूत्पद्यते इत्यवगंतव्यं । यत्र चतुर्नगकसंनवं सूत्रे शैव दर्शयति । सांप्रतमध्ययनार्थमुपसंजिघृकुः प्राक् प्रतिपन्नमर्थ निगमयन्नाह । (जेए तेसेत्यादि ) ये एते सर्वानिरपि पर्याप्तिनिः पर्याप्ताः लब्ध्या करणेन च विकलाश्चापर्या Page #893 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राय धनपतसिंघ बादाउरका जैनागम संग्रह नाग उसरा. न६३ प्तकाः अन्योन्यसंक्रमनाजः संझिनोऽसंझिनोवा सर्वेप्येते मिथ्याचाराअप्रत्याख्यानित्वादि त्यनिप्रायः । तथा सर्वजीवेष्वपि नित्यं प्रशतव्यतिपातचित्तदंमानवंतीत्येवंनूताश्च प्राणा तिपातायेषु सर्वेष्वप्याश्रव हारेषु वर्ततइति ॥ तदेवं व्यवस्थिते यत्तउक्तं चोदकेन तय थेहाविद्यमानाऽशुनयोगसंनवे कथं पापं कर्म बध्यतइत्येतन्निराकृत्य विरतेरनावात्तद्योग्य तया पापकर्मसन्नावं दर्शयति । (एवं खलुइत्यादि) एवमुक्तनीत्या । खल्ववधारणेऽलं कारे वा । जगवता तीर्थकतेत्यादिना यत्प्राक् प्रतिज्ञातं तदनुवदति । यावत्पापंच कर्म क्रियतइति ॥ १० ॥ चोदक से किंकुवं किंकारवं कदं संजयविरयप्पडिदयपञ्चकायपावकम्मे नव आचार्याद तब खलु नगवया बसीवणिकायदेठं परमत्ता तं जहा पुढवीकाश्या जाव तसकाश्या से जदा णामए मम अस्सातं मंमेणवा अहीणवा मुहीणवा लेलूणवा कवालेणवा आतोमिङमाण स्सवा जाव उदविसमाणसवा जाव लोमुकणणमायमविहिंसाकारं उरकं नयं पडिसंवेदेमि श्च्चेवं जाणं सवे पाणा जाव सवे सत्ता दंमेणवा जाव कवालेणवा आतोमिसमारोवा दम्ममाणेवा तजिसमापवा ता लिङमाणेवा जाव नदविङमाणेवा जाव लोमुस्कणणमायमविहिंसा कारं उरकं जयं पडिसंवेदेति एवं पच्चा सत्वे पाणा जाव सवे सत्ता न हंतवा जावण नदवेयवा एस धम्मे धुवे पिइए सासए समिच्चलोगं खेयन्नेदिं पवेदिए एवं से निकू विरते पाणावायातो जाव मिबादसणसल्ला से निकू पो दंतपरकालेणं दंतेपकालेजा णो अंजणं णो वमणं णो धूव एं तंपिन आदते से निकू अकिरिए अलूसए अकोदे जाव अलोने नवसंते परिनिबुझे एस खलु नगवया अकाए संजयविरयपडिदय पञ्चकायपावकम्मे अकिरिए संबुझे एगंतपंमिएयावि नवशत्तिबेमि॥ इति बीयसुयकंधस्स पच्चकाण किरियाणाम चन्द मायणं सम्मत्त॥१२॥ अर्थ-(चोदक के०) दवे वली शिष्य पूजे के हे नगवन् ! (सेकिंकुवंतिकारवंकहंसंजय के०)ते जीव केवां अनुष्ठान करतो,केवां अनुष्टान करावतो,केवा प्रकारें संयत (विरय के०) विरति (प्प डिहयपचारकायपावकम्मेनव के ) प्रतिहत प्रत्याख्यान पापकर्मी होय, ते कहो? एबुं सनिलीने (थाचार्याद के०) आचार्य बोल्या. (तखलुनगवयाबड़ी Page #894 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४ दितीये सूत्रकृतांगे वितीय श्रुतस्कंधे चतुर्थाध्ययनं. वणिकायदेपरमत्ता के०) त्यां संयत पणाने नावें जगवत् श्री वीतराग देवें ब जीवनि काय कारण कह्याने (तंजहा के०) ते कहे. (पुढवीकाश्याजावतसकाइया के) पृथिवी काय थीमांमोने यावत् त्रसकाय पर्यंत हे (सेजहाणामए के०) तेने जेम नाम एव संनाव नायें (ममअस्सातं के०) मुजने अशाता नपजे ने ते प्रमाणे दंमें करी हणतां थकां अस्थियें करी, मुष्टियें करी, पाषाणे करी, कपाल एटले तीकरी करी ताडता थका. यावत् नग करता थका, एटले जीव काया थकी रहित करता थका, एक रोम नखेड वा मात्र करी पण हिंसाकारक दुःख तथा नय हूं वेडं. ए रीते जाणवू के, सर्व प्राणी यावत् सर्व सत्वने महारी पेठे दंमना प्रहारें करी, कपाल एटले ठीकरीये करी थाक्रोश करावता ताडता थका, अथवा हणता थका, तङनाकरता थका, यावत् उगि करता थका, एक रोम मात्र नखेडवु एवं पण हिंसाकारी, कारण ते थकी ते जीवो पण कुःख अने जय एकुंज वेदे (एवंणचा के०)एम जाणीने सर्वप्राणी यावत् सवें सत्वने हवा नहीं, यावत् उपश्ववा नहीं, ए प्राणीनो दया लक्षण धर्म, ते ध्रौव, नित्य, शाश्वतो, एवो चग्द रज्ज्वात्मक लोक जाणीने आलोचीने षट्जीवनिकायरूप सुख समुश्मा पज्यो ते पर जीवना उखना जाण, एवा खेदज्ञ श्रीनगवंत तीर्थकर देव तेणे नांष्यो ने. (एवंसेनिस्कू के०) एवं जाणीने ते साधु प्राणातिपात मृषावादादिक यावत् मिथ्यात्व दर्शन शल्य ए अढार पापस्थानक थकी निवृत्त्यो, तथा ते निहु दंत धावनें करी दंत प्र वाले नहीं एमज अंजन वमन विरेचनादिकक्रिया न करे, धूपन एटले वस्त्रादिकनुं धूपन न करे (तंपिनयादते के०) एटलांवानां पोतें आदरे नहिं ते नितु चारित्रि क्रिया रहित बजीवनिकायनो अहिंसक तथा क्रोध रहित यावत् मान, माया, लोन रहित उ पशांत एटले समाधिवंत परिनिवृत्त एवो बतो होय तेनें निचे संयत विरति प्रतिहत पापकर्मी एटले पञ्चरकाणे करी पापकर्मने हणनार, क्रिया रहित संवृत्त, एकांत पंमित एम नगवंतें कह्योने तिबेमिनो अर्थ पूर्ववत् जाणवो ॥ ११॥ ए श्री सुयगडांग सूत्रना बीजा श्रुतस्कंधनें विषे प्रत्याख्यान क्रियानामा चोथा अध्ययननो संदेपार्थ बालावबोध समाप्त थयो ॥११॥ ॥ दीपिका-अथ संजातवैराग्यः शिष्यः प्रश्नं करोति (सेकिंकुवमित्यादि) अथ किं कुंर्वन किंवा कारयन् कथं वा संयतविरतप्रतिहतप्रत्याख्यानपापकर्मा जंतुः स्यात् ? । थाचार्यबाह । (तबखनुत्ति । तत्र संयतत्वसनावे । नगवता षड्जीवनिकायाहेतवः प्राप्ताः । तद्यथा । पृथिवीकायाः यावत्रसकायाः । यथाऽविरतस्य षडूजीवनिकाया नरकादिगतिहेतुत्वेनोक्तास्तथा विरतस्य तएव मोदहेतवोनवंति । यउक्तं । “ जेजत्ति Page #895 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राय धनपतसिंघ बादाउरका जैनागम संग्रह नाग उसरा. यायहेक, नवस्सते चेव वत्तिया मोरके ॥ गणणाईया लोया, दोपदवि पुस्मा नवे तुलाइति (सेजहत्ति ) तद्यथा नाम ममासात उःखं दमादिना नोद्यमानस्य पीडयमानस्य नवति रोमोत्खननमात्रमपि दुःखमहं प्रतिसंवेदयामि अनुनवामि ततइत्येवं जानीहि त्वं सर्वे पि जीवादमादिना तामयमानाःखिनः स्युः रोमोत्खननमात्रमपि फुःखमनुनवंति । एवं झात्वा सर्वे प्राणान हंतव्याः ( एसधम्मेत्ति) एषधर्मोध्रुवोनित्यः परिणामानित्यतायाम पि सत्यां स्वरूपाच्यवनात्तथा सूर्योतिरिव शश्वनवनात् शाश्वतः समेत्यावगम्य लोकं चतुर्दशरमितं खेदज्ञैः सर्वज्ञैः प्रवेदितः । तदेवं स निनिवृत्तः सर्वाश्रवेच्योदंतप्रदा लनं न कुर्यात् न नेत्रांजनं न वमनविरेचनादि वस्त्रधूपनंच न पादत्ते स निकुः क्रोधा दिरहितोऽलूशकोऽहिंसकोयावदेकांतेन पंमितोनवतीति । ब्रवीमीति पूर्ववत् ॥ ११ ॥ इति सूत्ररूतांगदीपिकायां वित्तीयश्रुतस्कंधस्य चतुर्याध्ययनं समाप्तम् ॥ ४ ॥ ॥ टीका-तदेवमप्रत्याख्यानिनः कर्मसंनवात्तत्संनवाच नारकतिर्यङ्नरामरगतिलक्षणं संसारमवगम्य संजातवैराग्यश्वोदकाचार्य प्रति प्रवणचेताः प्रश्नयितुमाह । (सेकिंकुव मित्यादि) अथ किमनुष्ठानं स्वतः कुर्वन् किंवा परं कारयन् कथंवा केन प्रकारेण संयत विरतप्रतिहतपापकर्मा जंतुर्नवति। संयतस्य हि विरतिसनावात्सावद्य क्रिया निवृत्तिस्तन्निर तेश्च कृतकर्मसंचयानावस्तदनावान्नरका दिगत्यनावश्त्येवं दृष्टे सत्याचार्यबाह । (तबख लु इत्यादि) तत्र संयमसन्नावे षड्जीव निकायानगवता हेतुत्वेनोपन्यस्ताः। यथा प्रत्यारख्या नरहितस्य षड़जीवनिकायाः संसारगति निबंधनत्वेनोपन्यस्ताएवं तएव प्रत्याख्यानिनोमो दाय नवंतीति । तथा चोक्तं । “जेजेतियायहेक, नवस्तते चेव वत्तिया मोरके॥ गणणाईया लोगा, दोपहवि पुप्तहा नवे तुनाश्त्यादि" । इदमुक्तं नवति । यथात्मनोदमाद्युपघाते ः खमुत्पद्यते एवं सर्वेषामपि प्राणिनामित्यात्मोपमया तपघातान्निवर्तते एषधर्मः सर्वापा यत्राणलक्षणोध्रुवोऽप्रच्युतानुत्पन्न स्थिरस्वनावोनित्यति परिणामानित्यतायामपि सत्यां रूपाद्यच्यवनात् तथा यादिव्योजतिरिव शश्वनवनाबाश्वतः परैः क्वचिदप्पस्खलितोयुक्ति संगतत्वादित्यनिप्रायोयमेवंजूतश्च धर्मः समेत्यावगम्य लोकं चतुदर्शरज्ज्वात्मकं खेदज्ञैः सर्वेः प्रवेदितस्तदेवं स निदुनिवृत्तश्च सवॉश्रवद्वारेन्योदंतप्रदालनादिकाः क्रियाः कुवेन् सावधक्रियायायनावाद कियोऽक्रियत्वाच्च प्राणिनामनूषकोऽव्यापादकोयावदेकांतेनैवासो पंमितोनवति । इतिः परिसमाप्त्यर्थे । ब्रवीमीति पूर्ववत् नयाः प्राग्व क्ष्याख्येयाः ॥११॥ समाप्तं प्रत्याख्यानाख्यं चतुर्थमध्ययनमिति ॥ ४॥ Page #896 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नद वितीये सूत्रकृतांगे हितीयश्रुतस्कंधे पंचमाध्ययनं. अथ पंचमाध्ययनप्रारंनः हवे चोथा अध्ययननें विषे प्रत्याख्यान क्रिया कही, तेवा श्राचार वालाने सम्यक् कहेवाय, ते कारणमाटें अनाचारनो त्याग करवो घने बाचार अंगीकार करवो: माटें याचार श्रुत, अथवा अनाचार श्रुत, एवे नामें पांचमुं अध्ययन कहियें यें. ॥ आदाय बंनचेरं च, आसुपन्ने इमं वई॥ अस्सि धम्मे अणायारं, नाय रेज कयावि॥१॥ अर्थ-(बादायबनचेरंच के०) ब्रह्मचर्य ग्रहण करीने, (यासुपन्नेइमंवई के०) श्रायुप्रज्ञ एटले विवेकी पुरुष, ए जे पागल कहेशे तेवी वाणी एटले वचन एम न कहे के, था जगत् शाश्वत ले. इत्यादिक नकहे (अस्सिधम्मेधणायारं के०) ए धर्मने विषे प्रवर्ततो, थनाचार जे सावद्यानुष्ठानरूप, (नायरेङकयाइवि के०) तेनें क्यारे पण याचरे नहीं॥१॥ ॥ दीपिका-अथ पंचमाध्ययनमारन्यते तस्यानाचारवर्जनकथनादनाचारश्रुतमिति ना म । अथवा आचारप्रतिपादकत्वादाचरश्रुतमिति नाम । तस्येदं सूत्रं धादाय बंनचेर मि ति ब्रह्म सत्यानुष्ठानं चर्यते सेव्यते यस्मिन् तद्ब्रह्मचर्य जैनेंशासनं आदाय गृहीत्वा श्राशुप्रज्ञः पंमितः इमां वक्ष्यमाणां वाचं इदं जगत् शाश्वतमेवेत्यादिकां नाचरेन्न वदेत् तथास्मिन् धर्मे स्थितोऽनाचारं नाचरेत्कदाचिदपि ॥१॥ ॥ टीका-सांप्रतं पंचममारन्यते । अस्य चायमनिसंबंधः । इहानंतराध्ययने प्रत्या ख्यानक्रियोक्ता । सा चाचारसंव्यवस्थितस्य सतोनवतीत्यतस्तदनंतरमाचारश्रुताध्ययन मनिधीयते । यदिवा नाचारपरिवर्जनेन सम्यक् प्रत्याख्यानमस्खलितं नवतीत्यतोनाचार श्रुताध्यनमनिधीयते । यदिवा प्रत्याख्यानयुक्तः सन्नाचारवान् नवतीत्यतःप्रत्याख्यानकि यानंतरमाचारश्रुताध्ययनं तत्प्रतिपदनूतमनाचारश्रुताध्ययनंवा प्रतिपाद्यतइत्यनेन संबं धेनाऽऽयातस्यास्याध्ययनस्योपक्रमादीनि चत्वार्यनुयोग धाराणि नवंति। तत्रोपक्रमांतर्गतो र्थाधिकारोयं । तद्यथा । अनाचारं प्रतिषिध्य साधूनामाचारः प्रतिपाद्यते । नाम निष्प नेतु निक्षेपे आचारश्रुतमिति विपदं नाम । तदनयोर्निपार्थ नियुक्तिकदाह । “णामं उवणादविए दवे नावेय होंति नायबा॥ एमेवय सुत्तस्सा, निरकेवो चनविदो होति,॥१॥ (णामंतवणेत्यादि)तत्राचारोनाम स्थापना व्यनावनेदनिन्नश्चतुर्धा इष्टव्यः । एवं श्रुतम पीति। तत्राचारश्रुतयोरन्यत्रानिहितयोघिवार्थमतिदेशं कुर्वन्नाह । “बायारसुयं नाणियं, Page #897 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राय धनपतसिंघ बादाडुरका जैनागम संग्रह नाग दुसरा. ८६७ वज्ञेयवा सया यणायारा ॥ घबदुसुयस्स होता, विरहेणाइड जइयवे, ॥२॥ (श्राचारसुर्य मि त्यादि) याचारश्च श्रुतं च याचारश्रुतं । ६ हैकवद्भावस्तनयमपि नणितमुक्तं । तत्राचारः कुल्लिकाचारकथायाम निहितः श्रुतं तु विनयश्रुते । जावार्थस्तु वर्जयितव्याः परिहार्याः सदा सर्वकालं यावोवं साधुरनाचारास्तांश्चाबहुश्रुतोऽगीतार्थोन सम्यक् जानातीत्यतस्तस्य विराधना नवेत् । बहुशब्दोऽवधारणे । बहुश्रुतस्यैव विराधना न गीतार्थस्येत्यतोत्र सदा चारे तत्परिज्ञानेच यतितव्यं । तथाहि । मार्गज्ञः पथिकः कुमार्गवर्जनेन नापथगामी न वति न चोन्मार्गदोषैर्युज्यते एवमनाचारं वर्जयन्नाचारवान्नवति न चाना चार दोषैर्युज्य तइत्यतस्तत्प्रतिषेधार्थमाह । एयस्स पडिसेहो, इहमज्ञयणं मिहेति नायवा ॥ तोखागार सुयं इथि, होई नामंतु एयस्स ॥ ३ ॥ (एयस्सइत्यादि) एतस्यानाचारस्य सर्वदोषास्पदस्य डु तिगमनैकहेतोः प्रतिषेधोनिराकरणं सदाचारप्रतिपत्त्यर्थमिहाध्ययने ज्ञातव्यः । सच पर मानगरकार मिति । ततः । केषां चिन्मतेनैतस्याध्ययनस्याऽनगारश्रुतमित्येतन्नाम नवतीति । गतो नाम निष्पन्नो निक्षेपस्तदनंतरं सूत्रानुगमेऽस्खलितादिगुणोपेतं सूत्रमुचारयि तव्यं । तच्चेदं । ( श्रादाय बंनचेर मित्यादिश्लोकः ) यस्य चानंतर परंपरसूत्रैः संबंधोवाच्य स्तत्रानंतरसूत्रेण सहायमेकांतपंमितोनवति । कथमादाय ब्रह्मचर्यमिति । परंपरसूत्र संबं धस्त्वयं बुध्येत । तथा त्रोटयेद्बंधनं । किंकृत्वेत्याह । श्रादाय ब्रह्मचर्यमित्येवमन्यैरपि सूत्रैः संबधोवाच्योर्थस्त्वयं । श्रादाय गृहीत्वा किं तद्ब्रह्मचर्यं सत्यतपोनू तदयें दिय निरोधलक्षणं तञ्च तेऽनुष्ठीयते यस्मिन् तन्मौनीं प्रवचनं ब्रह्मचर्यमित्युच्यते । तदादायाऽऽप्रज्ञः पटुप्र ज्ञः सदसद्विवेकज्ञश्च । क्त्वाप्रत्ययस्योत्तर क्रियासव्य पेदित्वात्तामाह । इमां समस्ताध्ययनेना विधीयमानां प्रत्यासन्ननूतां वाचं इदं शाश्वतमेवेत्यादिकां कदाचिदपि नाचरेन्ना निदध्यात् तथाऽस्मिन्धर्मे सर्व प्रणीते व्यवस्थितः सन्नानाचारं सावधानुष्ठानरूपं न समाचरेन्न वि दध्यादिति संबंधः । यदिवाऽऽनुप्रज्ञः सर्वज्ञः प्रतिसमयं केवलज्ञानदर्शनोपयोगित्वात्तत्संबंधि नि धर्मे व्यवस्थितइमां वक्ष्यमाणां वाचमनाचारं च कदाचिदपि नाचरेदितिश्लोकार्थः ॥ १ ॥ प्रणादीयं परिन्नाय, प्रणवदग्गेति वा पुणो ॥ सासयमसासए वा, इ ति दिधिन धार ॥ २ ॥ अर्थ- हवे याचार ने अनाचार देखाडवानी इवायें यथावस्थित लोकस्वरूप प्रकटन पूर्वक कहे . ( यादीपंप रिन्नाय के० ) ए चौद रज्ज्वात्मक लोक ते अनादि एटले नथी जेनी यादि एटले यदि रहित, एवं जाणीनें ( प्रणवदग्गेतिवापुणो के० ) वली जेनो यंत नथी, एवं जाणीनें, ( सासयमसासएवा के० ) एकांत शाश्वत, यथ For Private Personal Use Only Page #898 -------------------------------------------------------------------------- ________________ G६त वितीये सूत्रकृतांगे वितीय श्रुतस्कंधे पंचमाध्ययनं वा एकांत यशाश्वत, ( इतिदिनिधारए के० ) एवी दृष्टि धरे नहीं, एटले पंमित जन एवो पद यादरे नहीं ॥२॥ ॥ दीपिका-(अणादीयमिति ) अनादिकं जगत्प्रमाणैः सांख्यानिप्रायेण परिझाय धनवदयमनंत च तन्मतएव ज्ञात्वा सर्वमिदं शाश्वतं बौक्षानिप्रायेणवाऽशाश्वतं इति दृष्टिं न धारयेत् एनं पदं नाश्रयेत् ॥ २ ॥ ॥ टीका-तत्रानाचरं नाचरेदित्युक्तं । अनाचारच मोनीप्रवचनादपरोनिधीयते मौनीप्रवचनं तु मोक्षमार्गहेतुतया सम्यग्दर्शनझानचारित्रात्मकं । सम्यग्दर्शनंतु तत्त्वार्थ अज्ञानरूपं । तत्त्वं तु जीवाजीवपुण्यपापाश्रवबंधसंवरनिर्जरामोदात्मकं तथा धर्मा धर्माकाशपुजलजीवकालात्मकं इव्यं नित्यानित्यस्वनावं सामान्य विशेषात्मकोऽनाद्यप र्यवसानश्चतुर्दशरज्ज्वात्मकोलोकस्तत्त्वमिति । ज्ञानंतु मतिश्रुतावधिमनः पर्यायकेव लस्वरूपं पंचधा । चरित्रं, सामायिकं, दोपस्थापनीय, परिहार विगुड़िय, सूक्ष्मसंपराय, यथाख्यातरूपं पंचधैव मूलोत्तरगुणनेदतोवा नैकधेत्येवं व्यवस्थिते मोनीप्रवचनेन कदाचिदनीदृशं जगदिति कृत्वाऽनाद्यपर्यवसाने लोके सति दर्शनाचारप्रतिपदनूतमना चारं दर्शयितुकामथाचार्योयथावस्थितलोकस्वरूपोद्घट्टनपूर्वकमाह (अणादीयमित्यादि) नास्य चतुर्दशरज्ज्वात्मकस्य लोकस्य धर्माधर्मादिकस्यवा इव्यस्यादिः प्रथमोत्पत्तिर्विद्य तश्त्यनादिकस्तमेवंचूत परिझाय प्रमाणतः परिचिद्य तथानवदग्रमपर्यवसानंच परिझा यानयात्मकव्युदासेनैकनयदृष्ट्यावधारणात्मकं प्रत्ययमनाचारं दर्शयति शश्वभवतीति शोश्वतं नित्यं सांख्यानिप्रायेणाप्रच्युतानुत्पन्नस्थिरैकस्वनावं स्वदर्शनेचानुयायिनं सामा न्यांशमवतंव्य धर्माधर्माकाशादिष्वनादित्वमपर्यवसानत्वं चोपलच्य सर्वमिदं शाश्वत मित्येवंनूतां दृष्टिं नावधारयेदिति एवं पदं न समाश्रयेत् । तथा विशेषपदमाश्रित्य वर्तमाननारकान् समुत्सेत्स्यतीत्येतच्च सूत्रमंगीकृत्य यत्सत्तत्सर्वमनित्यमित्येवंनूतबीच दर्शनानिप्रायेण च सर्वत्र शाश्वतमनित्यमित्येवंनूतांच दृष्टि न धारयेदिति ॥ २ ॥ एएहिं दोहिं गणेहिं, ववहारो ण विङई॥एएहिं दोहिं गणेदि, अपा यारं तु जाणए॥३॥ अर्थ-हवे एनुं कारण कहे. सर्वलोक नित्यज ने अथवा थनित्यज डे, (एएहिंदो हिंताणेहिं के० ) ए बे स्थानकें करीने ( ववदारोणविङई के०) लोकनो व्यवहार न प्रवर्ते एटने था लोक, तथा परलोक संबंधि कार्य जे प्रवृचि निवृत्ति सदण, एवो व्यव Page #899 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राय धनपतसिंघ बाहाउरका जैनागम संग्रह नाग उसरा. दए हार प्रवर्ते नहीं. (एएहिंदोहिताणेहिंधणायारंतुजाणए के०) तथा ए बेदु स्थानकें थ नाचार जाणवो, ए कारणे एकांत पद यादरवो नहीं ॥३॥ ॥दीपिका-(एएहिंति) एतान्यां एकांतं नित्यं, एकांतमनित्यंचेति वायां स्थानान्यां व्यवहारोन विद्यते । एकांतनित्ये एकांतानित्येच वस्तुनि व्यवहारोव्यवस्था न घटत त्यर्थः । तस्मादेतान्यां स्थानान्यां स्वीकतान्यामनाचारं जानीयात् ॥ ३ ॥ ॥ टीका-किमित्येकांतेन शाश्वतमशाश्वतं वाऽस्त्वित्येवंनूतां दृष्टिं न धारयेदित्याह । (एएहिंदोहिमित्यादि ) सर्व नित्यमेवानित्यमेव चैतान्यां वान्यां स्थानान्यामन्युपगम्य मानान्यामनयोर्वा पक्योर्व्यवहरणं व्यवहारोलोकस्यै हिकामुष्मिकयोः कार्ययोः प्रवृत्ति निवृत्तिलक्षणोन विद्यते । तथाह्यप्रच्युतानुत्पन्न स्थिरैकवनावं सवै नित्यमित्येवं न व्य वहीयते प्रत्यदेणैव नवपुराणादिनावेन प्रध्वंसानावेन वा दर्शनात्तथैवच लोकस्य प्रवृत्तेरा मुष्मिकेपि नित्यत्वान्मनोबंधमोदायनावेन दीदायमनियमादिकमनर्थकमिति न व्यवढी यते । तथैकांतानित्यत्वेनापि न लोकोधनधान्यघटपटादिकमनागतनोगार्थ संगृहीयात् तथामुष्मिकेपि दणिकत्वादात्मनः प्रवृत्तिर्न स्यात् । तथाच दीक्षा विहारादिकमनर्थकं त स्मानित्यानित्यात्मकस्या मादे सर्वव्यवहारप्रवृत्तिरतएव तयोनित्यानित्ययोः स्थानयोरेका तत्वेन समाश्रीयमाणयोरैहिकामुष्मिककार्यविध्वंसरूपमनाचारं मौनीशगमबात्यरूपं विजानीयात् । तुशब्दो विशेषणार्थः । कथंचिन्नित्यानित्ये वस्तुनि व्यवहारोयुज्यतइत्येत विशिनष्टि । तथाहि सामान्यसमन्वयिनमंशमाश्रित्य स्यान्नित्यमिति नवति तथा विशेषांश प्रतिक्षणमन्यथाच नवपुराणादिदर्शनतः स्यादनित्यति नवति । तथोत्पादव्ययध्रौव्याणि चादर्शनाश्रितानि व्यवहारानि नवंति। तथा चोक्तं “घटमौलिसुवर्णार्थी,नाशोत्पादस्थि तिः स्वयं ॥ शोकप्रमोदमाध्यस्थ्य, जनोयाति सहेतुक" मित्यादि । सदेवं नित्यानित्य पदयोर्व्यवहारोन विद्यते तथानयोरेवानाचारं विजानीयादिति स्थित ॥ ३ ॥ समुबिदिति सबारो, सवे पाणा अलिसा ॥ गंग्गिावा न विस्संति, सासयंतिव गो वए॥४॥ एएहिं दोहिंगणेहिं, वव दारो ण विऊ३॥ एएहिं दोहिं गणेदि, अणायारं तु जाणए ॥५॥ अर्थ-वली पण अनाचार, निषेधवाने श्वतो तो कहेजे. (समुन्निहिंति के०) सर्वथापि नछेद पामशे एटले क्ष्य थइ जाशे,अथवा सर्व सिदिने विषे जशे ते कोण जशे तोके ( सबारो के ) तीर्थकर सर्वज्ञ, तथा जे तेना शासनमा प्रवर्तले ते सर्व Page #900 -------------------------------------------------------------------------- ________________ G० दितीये सूत्रकृतांगे वितीय श्रुतस्कंधे पंचमाध्ययनं. सिदिने योग्य एवा सर्वनव्यजीव सिदिने विषे जशे एम करतां सर्व नव्यजीवनो विछेद थशे. एवं वचन विवेकी पुरुष न बोले,तथा (सोपाणाधणेलिसा के७) सर्व प्राणी एटले सर्व जीव ते अरोलिसा एटले सरखा नथी तथा सरखा तथा विलक्षण एवं वचन पण विवेकी जन एकांतें न बोले, तथा (गंलिगाएनविस्संति के०) तथा सर्व प्राणी कर्म ग्रंथि सहित थशे, एटले कर्मनी गांठ सहितज रेहेशे, एवं पण एकांतें वचन न बोले, (सासयंतिवणोवए के०) तथा सर्वज्ञ शाश्वताज सर्वकालें होशे, पण कदापि कालें विजे द नहींज पामे, एवं वचन पण एकांतें बोले नहीं ॥४॥ (एए हिंदोहिंताणे हिं के०) ए बे स्थानक जे तीर्थकर विजेद पामशे, अथवा शाश्वताज रहेशे, अथवा सर्व नव्य जीव सिदिने पामशे, अथवा सर्व नव्य जीव कमें सहितज रहेशे, ए बे स्थानक बे प्रकारना थयां एम कहे, ते. (ववहारोणविडती के०) व्यवहार नथी एवं जाणे. ( एएहिंदोहिं गणेहिं के०) ए बेतु स्थानकें करी, (अणायारंतुजाणई के०) अनाचार जाणे, एटले दर्शनाचार धाश्री अनाचार कह्यो. ॥ ५ ॥ ___॥ दीपिका-(समुहिहिंति ) समुन्नेत्स्यति उल्लेदं यास्यति शास्तारोनव्याः सर्वनव्या नां मुक्तिगमनेन नव्यशून्योलोकः स्यादित्येवं नो वदेत् । तथा सर्वे प्राणायनीहशाविस दृशाविलक्षणाएव न कथंचित्तेषां सादृश्यमस्तीत्यपि नो वदेत् । ग्रंथिकाः कर्मग्रंथोपेता एवं नविष्यंति सर्वे जीवाश्त्यपि नो वदेत् । कोर्थः । सर्वे प्राणिनः सेत्स्यत्येव कर्मा त्तावा नविष्यतीत्येकमपि पक्षमेकांतेन न वदेत्तथा शाश्वतास्तीर्थकतइत्यपि न वदेत्॥४॥ (एएहिंति ) शास्तारः क्षयं यास्यंति शाश्वतावा नविष्यंतीति । यदिवा सर्व प्राणाविल हणाः सदृशावा तथा ग्रंथिकसत्वाएव तइहितं वा जगदिति वा एवमनयोः स्थानयो र्व्यवहारोन विद्यते । इदं पदयमपि न घटतइत्यर्थः । यतोऽनागतकालस्येव नव्याना मनंतत्वान्निरंतरं मुक्तिगमनेपि न जव्यशून्यं जगदिति । केचिनव्याद्यपि सामय्यनावान सेत्स्यति यथा प्रतिमायोग्यमपि दलिकं सामग्री विना प्रतिमारूपं न स्यादिति सर्वे जीवायपि विचित्रकर्मसन्तावादिसदृशाः कथंचित् उपयोगामूर्तत्वासंख्यप्रदेशत्वादिध मैः सदृशायपि। तथा सर्वेऽहंतःप्रवाहापेक्ष्या शाश्वताः एकैकापेक्ष्या अशाश्वताथपीति एतान्यां वान्यामेकांतस्थानाच्यामनाचारं जानीयात् ॥ ५॥ ॥ टीका-तथान्यमप्यनाचारं प्रतिषेजुकामयाह । (समुहिहिंतीत्यादि) सम्यक निर्विशेषतयोत्सेत्स्यंत्युलेदं यास्यंति क्षयं प्राप्स्यति सामस्त्येनोत्प्राबल्येन सेत्स्यति वा सिदि यास्यति । के? ते शास्तारस्तीर्थकतः सर्वज्ञास्त हासनप्रतिपन्नावा सर्वे निरवशेषाः Page #901 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राय धनपतसिंघ बादाउरका जैनागम संग्रह नाग उसरा. १ सिदिगमनयोग्याजव्यास्ततश्चोजिन्ननव्यं जगत्स्यादिति शुष्कतर्कानिमानग्रहगृहीतां युक्तिं चानिदधति जीवसनावे सत्यप्यपूर्वोत्पादानावादनव्यस्य च सिदिगमनासंनवात्कालस्य वाऽनंत्यादनारतसिधिगमनसंनवेन तद्यथोपपत्तेरपूर्वायानावानव्योबेदश्त्येवं नो वदेत्त था सर्वेपि प्राणिनोजंतवोऽनीदृशाविसदृशाः सदा परस्परलहणाएव न कथंचित्तेषां सादृश्यमस्तीत्येवमप्येकांतेन नो वदेत् । यदिवा सर्वेषां नव्यानां सिदिसनावे विशिष्टाः सं सारेऽनीदृशाधनव्याएव नवेयुरित्येवं च नो वदेत् । युक्तिं चोत्तरत्र वक्ष्यति । तथा कर्मा स्मकोग्रंथोयेषां विद्यते ते ग्रंथिकाः सर्वेपि प्राणिनः कर्मग्रंथोपेताएव नविष्यतीत्येवम पि नो वदेत् । इदमुक्तं नवति । सर्वेपि प्राणिनः सेत्स्यंत्येव कर्मावृतावा सर्वे नविष्यंती त्येवमेकमपि पदमेकांतिकं नो वदेत् । यदिवा ग्रंथिकाइति ग्रंथिकसत्वानविष्यंतीति ग्रं थिनेदं कर्तुमसमर्थानविष्यतीत्येवं च नो वदेत्तथा शाश्वताइति शास्तारः सदा सर्वकालं स्थायिनस्तीर्थकरान नविष्यंति न समुत्सेस्यंति नोबेदं यास्यंतीत्येवं नो वदेदिति॥४॥ तदेवं दर्शनाचारनिषेधं वाङ्मात्रेण प्रदाऽधुना युक्तिं दर्शयितुकामयाह । (एएहिं इत्या दि) एतयोरनंतरोक्तयोईयोः स्थानयोः । तद्यथा । शास्तारः क्षयं यास्यंतीति शाश्वतावा नविष्यतीति । यदिवा सर्वे शास्तारस्तदर्शनप्रतिपन्नावा सेत्स्यंति शाश्वतावा नविष्यं ति । यदिवा सर्वे प्राणिनोह्यनीदृशाः विसशासदृशावा तथा ग्रंथिकसत्वास्तहितावा न विष्यतीत्येवमनयोः स्थानयोर्व्यवहरणं व्यवहारस्तदा स्तित्वे युक्तेरनावान्न विद्यते । तथा हि । यत्तावउक्तं सर्वेशास्तारः क्यं यास्यंतीत्येतदयुक्तं । दयनिबंधनस्य कर्मणोनावारिस दानां दयाजावोन नवस्थकेवव्यपेक्ष्येदमनिधीयते तदप्यनुपपन्नं यतोनाद्यनंतानां केवलि ना सनावात्प्रवाहापेक्ष्या तदनावानावः। यदप्युक्तमपूर्वायाजावे सिदिगमनसमावेन च व्ययसनावानव्यशून्यं जगत् स्वादित्येतदपि सिमांतपरमार्थावे दिनो वचनं । यतोनव्यरा शेराक्षांते नविष्यत्कालस्यवानंत्यमुक्तं तञ्चैवमुपपद्यते । यदि दयोन नवति सतिच तस्मि नात्यंतं न स्यान्नापि चावश्यं सर्वस्यापि नव्यस्य सिधिगमनेन जाव्यमित्यानंत्यानव्यान तत् सामग्चनावाद्योग्यदलिकप्रतिमावत्तदनुपपत्तिरिति । तथा नापि शाश्वताएव नवस्थ केवलिनां शास्तृणां सिधिगमनसनावात्प्रवाहापेक्ष्या शाश्वतत्वमेवातः कथंचिवाश्वताः कथंचिदशाश्वताइति।तथा सर्वेपि प्राणिनोविचित्रकर्मसमावान्नानागतिजातिशरीरांगोपांगा दिसमन्वितत्वादनीहशा विसदृशास्तथोपयोगासंख्येयप्रदेशत्वामूर्तत्वादिनिर्धमः कथंचित्स दृशास्तथोनसितसवीर्यतया केचिनिन्नग्रंथयोपरेच तथा विधपरिणामानावादग्रंथिकसत्वा एव नवंतीत्येवं व्यवस्थितेनैंकाते नैकांतपदोनवतीति प्रतिषित्धस्तदेवमेतयोरेव दयोः स्थानयोरुक्तनीत्या नानाचारं विजानीयादिति स्थित थपिचागमेधनंतानंतास्वप्युत्सर्पि एयवसर्पिणीषु नव्यानामनंतनागएव सितम्यतीत्ययमर्थः प्रतिपाद्यते ।यदा चैवंनूतं तदानं Page #902 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श हितीये सूत्रकृतांगे वितीय श्रुतस्कंधे पंचमाध्यनं. त्यं तत्कथं तेषां दयः युक्तिरप्यत्र संबधिशब्दावेतो । मुक्तिः संसारं विना न नवति संसा रोपि न मुक्तिमंतरेण । ततश्च नव्योछेदे संसारस्याप्यनावः स्यादतोऽनिधीयते नाऽनयोर्व्य वहारोयुज्यतइति ॥ ५॥ जे के खुद्दगा पाणा, अज्ज्वा संति महालया॥सरिसंतदिति वेरं ति असरिसंतीय णो वदे॥६॥ एएहिं दोदि गणेटिं,ववहारो ण विङई ॥ एएहिं दोहिं गणेहिं, अणायारंतु जाणए ॥७॥ अर्थ-हवे चारित्राचार आश्री कहेजे. (जेकेखुदगापाणा के०) जे कोइ था जगत् मां लघुप्राण) एटले सूक्ष्मजीवडे. एटले प्रयविकायथा मांझीने पंचेंडियपर्यंत सूक्ष्म जी वडे, (अवासंतिमहालया के०) अथवा जे जीव महाकाय एटले महोटी कायावा ला, अंहीं न्हानाजीव ते कुंथुपादिक, अने महोटा जीव ते हस्त्यादिक जाणवा. (स रिसंतेहिंतिवेरं के०) ए बेदुनो विनाश करवा थकी सरझुंज वैर होय, एवं एकांते वचन न बोले (असरिसंतीयणोवदे के०) अथवा असरो होय एटले सरखं वैर न होय. एवं वचन पण एकांतें न बोले कारणके, कर्मबंधने विषे न्हाना मोटानुं कांइ विशेष नथी किंतु ? अध्यवसाय विशेष कर्म बंधने एवं जाणे,अने बोले ॥६॥ ए बेतु स्थानक बोलतां व्यवरहार प्रवर्ते नहीं, एवं जाणे, तथा एवं एकांतें बोलतां अनाचारजे एम जाणे.॥७॥ ॥ दीपिका-(जेकेइत्यादि) ये केचित् हुशः प्राणिनएकेंशियहींडियादयोऽल्पकायावा पंचेंख्यिाः । अथवा महालयामहाकायाः संति तेषां ज्ञाणां कंथ्वादीतां महतां हस्त्या दीनां च हनने सदृशं वैरं कर्मबंधस्तुल्यश्त्येकांतेन नो वदेत् असदृशं वातद्घाते वैरं कर्मवं धइंडियझानकायानां विचित्रत्वादित्यपि नो वदेत् । नहि वध्यवशात्कर्मबंधः किंतु? अध्य वसायवशात् तीव्राध्यवसायादल्पमपि सत्वं ततोमहान् कर्मबंधः अकामस्यतु महा कायप्रापिहननेपि स्वल्पबंधश्त्यर्थः॥६॥ (एएहिंति) एतान्यां तुल्यातुल्यविरूपान्यां स्था नान्यां व्यवहारोन विद्यते अध्यवसायस्यैव बंधाबंधहेतुत्वात् । एतान्यां धान्यां स्थानान्यां प्रवृत्तस्यानाचारं जानीयात् । तथाहि । नहि जीववधे हिंसा स्यात्तस्य नित्यत्वात्। यउक्तं "पंचेंड्रियाणि त्रिविधं बलंच, नन्नासनिश्वासमथान्यदायुः॥प्राणादशैते नगवनिरुक्तास्ते पां वियोजीकरणं तु हिंसा” इति । किंच नावापेक्षएव कर्मबंधोयथा वैद्यस्य सम्यक् क्रियां कुर्वतोयद्यपि रोगी म्रियते तथापि न वैद्यस्य कर्मबंधोउष्टाध्यवसायानावात् अन्यस्यतु सर्पबुत्ध्या रकुमपि नतोनावदोषात्कर्मबंधः । यदागमः । उच्चालियं मियाए, इरियासमि Page #903 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राय धनपतसिंघ बादाउरका जैनागम संग्रह नाग उसराः ७३ यस्स संकमाए ॥ वावडिककुलिंगी, । मरिहतजोगमासह ॥ १ ॥नयतस्स तन्निमि तो,बंधेसुहमोविदेसि समए।अणवढाउपगेण,सबनावेणसोजमा ॥२॥ इत्यादि॥७॥ ॥टीका-अधुना चारित्राचारमंगीकत्याह॥(जेकेइत्यादि)ये केचन कुश्काःसत्वाःप्राणिन एकेंशियोंघियादयोऽव्यकायावा पंचेंशियाथथवा महालयामहाकायाः संति विद्यते तेषां दुश्काणामल्पकायानां कुंवादीनां महानालयः शरीरं येषां ते महालयाहस्त्यादयस्तेषां च व्यापादने सदृशं वैरमिति वजकर्म विरोधलक्षणं वा वैरं सदृशं समानं तुल्यप्रदेशत्वात्सर्व जंतूनामित्येवमेकांतेन नो वदेत्तथा विसदृशमसदृशं तक्ष्यापत्तौ वैरं कर्मबंधोवा इंख्यिवि ज्ञानकायानां विसदृशत्वात् सत्यपि प्रदेशतुव्यत्वे न सदृशं वैरमित्येवमपि नो वदेत् ।यदि हि वध्यापेक्षएवकर्मबंधः स्यात्तत्तदशात्कर्मणोपि सादृश्यमसादृश्यंवा वक्तुं युज्यते । नच तशादेव वधोपि त्वध्यवसायवशादपि ततश्च तीव्राध्यवसायिनोऽल्पकायसत्वव्यापादने पिमहरैरमकामस्यतु महाकायसत्वव्यापादनेपि स्वल्पमिति ॥ ६ ॥ एतदेवसूत्रेणैव द शयितुमाह ॥ (एएहिमित्यादि) बान्यामनंतरोक्ताच्या स्थानान्यामनयोवों स्थानयोरल्पका यसत्वमहाकायव्यापादनापादितकर्मबंधसदृशत्वासदृशत्वयोर्व्यवहरणं व्यवहारोनियुक्ति कत्वान्न युज्यते ।तथाहि। न वध्यस्य सदृशत्वमसदृशत्वं चैकमेव कर्मबंधस्य कारणमपितु वधकस्य तीवनावोमंदनावोझाननावोऽझाननावोमहावीर्यवमल्पवीर्यत्वं चेत्येतदपि । तदेवं वध्यवधकयोर्विशेषात्कर्मबंध विशेषश्त्येवं व्यवस्थिते वध्यमेवाश्रित्य सदृशत्वासदृश खव्यवहारोन विद्यतइति तथा तयोरेव स्थानयोःप्रवृत्तस्यानाचारं विजानीयादिति । तथा हि। यजीवसाम्यात्कर्मबंधसदृशत्वमुच्यते तदयुक्तं । यतोनहि जीवव्यापत्त्या हिंसोच्यते ।त स्य शाश्वतत्वेन व्यापादयितुमशक्यत्वादपि विडियादिव्यापत्त्या ।तथाचोक्तं। पंचेंशियाणि त्रिविधं बलं च, उहासनिःश्वासमथान्यदायुः॥प्राणादशैते नगवनिरुक्तास्तेषां वियोजीकर पंतु हिंसा" ॥१॥इत्यादि।थपिच जावसव्यपेक्षस्यैव कर्मबंधोन्युपेतुं युक्तः। तथाहि । वैद्य स्यागमसव्यपेक्षस्य क्रियां कुर्वतोयद्यप्यातुर विपत्तिवति तथापि न वैरानुषंगोनवेदोषा नावादपरस्यतु सर्पबुझ्या रकमपि नतोजावदोषात्कर्मबंधस्तइहितस्यतु न बंधश्त्युक्तं चागमे । चालियंमियाएइत्यादि । तंमुलमत्स्याख्यानकं तु सुप्रसिझमेव । तदेवं विधव ध्यवधकनावापेक्ष्या स्यात् सहशत्वं स्यादसहशत्वमित्यन्यथाऽनाचारति ॥ ७ ॥ अदाकम्माणि मुंजंति, अममले सकम्मुणा॥ज्वलित्तेति जाणि का, अणुवलित्तेति वा पुणो ॥॥ एएहिं दोदिं गणेहिं, ववदा रो पा विजई, एएहिं दोहिंगणेदि, अणायारं तु जाणए। ए॥ Page #904 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Gyaहितीये सूत्रकृतांगे द्वितीय श्रुतस्कंधे पंचमाध्ययनं. अर्थ-हवे थाहार पाश्रीयाचार अनाचार कहे.(अहाकम्माणिजति के०) जे साधु पाश्री बए कायर्नु मईन करी,वस्तु जे नोजन उपाश्रयादिक कीधा होय, एटलानो जे उ पनोग करे ते, (थमममेसकम्मुणा के०) परस्पर मांहोमांहे पोताने कमैं, (नवलित्तेति जाणिका के०) उपलिप्त जाणवा. एवं पण वचन एकांतें न बोले, (अणुवलित्तेतिवापु णो के०)अथवा पोतानां कर्मे करी अनुपलिप्त,एटले नपलिप्त न जाणवा,एवं पण वचन कांतेतें न बोले,कारणके,जे अाधाकर्मिक आहार होय, तेने पण श्रुतना उपदेशने अर्थे शूम एवो करीने जमे तो ते कर्मे करी लेपाय नहीं अथवा सुजतो आहार होय,परंतु ते थाहारने थाहारगृहपणे जमे तो, ते कर्मे करी बंधायचे. एवं जाणीने, अनेकांत वचन बोले, पण एकांत वचन न बोले ॥॥ ए बेदुस्थानकें करी व्यवहार न जाणे, अन ए बेहु स्थानके करी अनाचार जाणे ॥ ए॥ ॥ दीपिका-(यहाकम्माणित्ति ) श्राधाकर्माणि ये मुंजतेऽन्योन्यं परस्परं तान्स्वकीये न कर्मणा उपलिप्तान्वा नो वदेत् अनुपलिप्तान्वा न वदेत् । अाधाकर्मापि श्रुतोपदेशेन शुद्धमिति कृत्वा चुंजानस्य न बंधः श्रुतोपदेश विनाऽहारगृध्याऽधाकमें झुंजानस्यापितु बंधस्तस्मादाधाकर्मनोगे कर्मबंधः स्यान्न स्या इति वदेत् ॥ ७ ॥ (ए एहिंदोदिमिति)याधाकर्मनोगे कर्मबंधःस्यादेव न स्यादेवेति मान्यां स्थानाच्या व्यवहारो न विद्यते मान्यां स्थानान्यां स्वीकृतान्यामनाचारं जानीयात् ॥ ए॥ ॥ टीका-पुनश्चारित्रमधिकत्याहार विषयानाचाराचारौ प्रतिपादयितुकामयाह । (अ हाकम्माणीत्यादि) साधु प्रधानकारणमादायाश्रित्य कर्माण्याधाकर्माणि । तानितु वस्त्रनो जनवसत्यादीन्युच्यते । एतान्याधाकर्माणि ये नुजते एतैरुपनोगं ये कुर्वत्यन्योन्यं परस्प रं तान्स्वकीयेन कर्मणोपलिप्तान विजानीयादित्येवं नो वदेत्तथाऽनुपलिप्तानितिवा नो व देत् । एतउक्तं नवति । आधाकर्मापि श्रुतोपदेशेन शुइमिति कृत्वा चुंजानः कर्मणा नो पलिप्यते तदाधाकर्मोपनोगेनावश्यतया कर्मबंधोनवतीत्येवं नो वदेत्तथा श्रुतोपदेशमं तरेणाहारगृध्याऽधाकर्म मुंजानस्य तन्निमित्तकर्मबंधसदृशत्वासहशत्वयोर्व्यवहरणं व्यवहा रोनियुक्तिकत्वान्न युज्यते । तथाहि । न वध्यस्य सदृशासदृशत्वयोर्व्यवहरणं व्यवहारो नियुक्तिकत्वान्न युक्तसदृशत्वमतोनुलिप्तानपि नो वदेद्ययावस्थितमौनीज्ञगमज्ञस्य त्वेवं यु ज्यते वक्तुमाधाकर्मोपनोगे न स्यात्कर्मबंधः स्यान्नेति । यतनक्तं । “किंचिलुई कल्पमक हपंवा स्यादकल्पमपि कल्पं ॥ पिमः शय्या वस्त्रं पात्रं वा जेषजायं वा” ॥१॥ तथान्यैर प्यनिहितं । उत्पद्येतहि सावस्था देशकालामयान्प्रति॥यस्यामकार्य कार्य स्यात्कर्म कार्यच Page #905 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राय धनपतसिंघ बादाउरका जैनागम संग्रह नाग उसरा. ५ वर्जयेदित्यादि ॥॥ किमित्येवं स्यानादः प्रतिपाद्यतइत्याहा(एएहिंदोहिमित्यादि) बान्यां धान्यां स्थानाच्यामाश्रितान्यामनयोर्व्यवस्थानयोराधाकर्मोपनोगेन कर्मबंधानावानावनत योर्व्यवहारोन विद्यते ।तथाहि। यद्यवश्यमाधाकर्मोपनोगेनैकांतेन कर्मबंधोऽज्युपगम्येत । एवं चाहारानावेनापि कचित्सुतरामनर्योदयः स्यात् । तथाहि । हुत्प्रपीडितोन सम्यगी योपथं शोधयेत्ततश्च व्रजन प्राण्युपमर्दमपि कुर्यात् मू दिसन्नावतया देहपाते सत्यव श्यनावी त्रसादिव्याघातोऽकालमरणे चा विरतिरंगीलता नवत्यार्तध्यानापत्तीच तिर्यग्गति रित्यागमश्च । सबब संजमं संजमा अप्पाणमेव ररकेजाइत्यादिनापि तपनोगे कर्मबं धानावति । तथाहि । श्राधाकर्मण्यपि निष्पाद्यमाने षड्जीवनिकायवधस्त धेच प्रतीतः कर्मबंधश्त्यतोऽनयोःस्थानयोरेकांतेनाश्रीयमाणयोर्व्यवहरणं व्यवहारोन युज्यते तथाच्या मेव स्थानान्यां समाश्रितान्यां सर्वमनाचारं विजानीयादिति स्थितं ॥ ए॥ जमिदं नराल मादारं, कम्मगं च तदेवय ॥ सवल वीरियं अनि, पनि सबल वीरियं॥ १० ॥ एएहिं दोदिं गणेहिं, ववदारो पा विई ॥ एएहिं दोदिं गणेदि, अणायारं तु जाणए ॥ ११ ॥ अर्थ-हवे बीजी रीतें परदर्शनी थाश्री बोलवानो अनाचार कहेले. (जमिदंउरालमाहारं कम्मगंचतहेवय के०) जे ए शरीर सर्वलोक प्रसिद्ध औदारिक, ते तिर्यच बने मनुष्यनु शरीर जाणवू, तथा जे चौदपूर्वधर मुनिराज होय, ते को एक संशय नपने बते शरी र करीने केवली पासें पूबवाने अर्थे मोकले,ते थाहारक शरीर जाणवू. एना ग्रहणथी वैक्रिय शरीर पण ग्रहण कर, तथा कार्मण शरीर कर्मपुजलनिबछ जाणवू. तेमज एनुं सहचारी ते तैजस शरीर जाणवं, ए पांच शरीर जाणवांहवे कोइ एकनें ए पांच श रीर तेमांहेथी औदारिक वैक्रियादिकने विषे एकज शरीरनी आशंका उपजे एटले ते एम कहे के, जे औदारिक शरीर, तेहिज तैजस, कार्मण शरीर, थने तैजस कार्मण शरीर तेहिज औदारिक, वैक्रिय,थने थाहारक शरीरले. परंतु एवी संज्ञा न करवी, तथा ए पांचे शरीर अत्यंत मांहो माहे जुदा जुदांडे एवी पण संझा न करवी. त्यारे केवी संझा करवी? तोके,ए जीव थाश्रीपांचे शरीर थनिन्न थने नामने नेदें,पर्यायने नेदें निन्न पण.एम कहे, हवे सर्वेश्व्यनो नेदानेद देखाडवामाटें कहेले . ( सव्वबवीरियंथति के० ) स घलु इव्य, सर्वश्व्यने विषेने एवो सांख्यमतनो अभिप्राय जाणवो. ते सांख्य मत एम कहेले के, सत्व, रज, तमरूपें जे प्रधाननामा तत्व ते सर्वव्यनुं कारण, ए कारणे सर्वश्व्य सर्वात्मक एवी व्यवस्था एटजे सर्वत्र घट पटादिकश्व्यने विषे धन्यव्यनुं Page #906 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७६ वितीये सूत्रकृतांगे वितीय श्रुतस्कंधे पंचमाध्ययनं. वीर्यडे, एवी संज्ञा पण करवी नहीं. (नबिसबबवीरियं के०) वली सर्वपदार्थने विषे सर्वव्यनुं वीर्य नथी, एवी संज्ञा पण करवी नहीं. वहीं एकांतनो निषेध करीने स्यामा द बोलवो. इत्यर्थः॥ १० ॥ थगीधारमी गाथानो अर्थ, पूर्ववत् जाणवो ॥११॥ ॥ दीपिका-(जमिदमिति) यदिदमौदारिकं शरीरं बादारकंवा एतद्ग्रहणाक्रियमपि ग्रात्यं कार्मणं तथा तैजसमपि । एतेषां शरीराणामैक्यमेव तैजसकार्मण्योरनिन्नत्वात् । ततस्त्रयाणामेकत्वमेवेति नो वदेत् इत्यग्रेतनश्लोके संबंधः । तथा शरीराणां सर्वेषां सर्व थानेदएवेत्यपि नो वदेत् कथंचिदेकत्वस्याप्यंगीक्रियमाणत्वात् तथा। (सबथबित्ति)स र्व सर्वत्रास्तीति सांख्यानिप्रायेण सत्वरजस्तमोरूपायाः प्रकृतेरेकत्वात्तस्याएव हि सर्वस्य का रणवात्सर्व सर्वात्मकमेवं सति सर्वत्र घटपटादौ धन्यस्य व्यक्तस्य वीर्य शक्तिरस्ति सर्वस्य व्यक्तस्य प्रकृतिकार्यत्वात्कार्यकारणयोश्चैकत्वात्सर्व सर्वत्र सर्वस्य वीर्यमस्तीति संज्ञान कुर्या त् । तथा सर्वे नावाः स्वस्वशक्तियुक्ताइति न सर्वस्य सर्वत्र शक्तिरित्यपि संज्ञां न कुर्यात् नेदानेदस्वरूपत्वात्सर्वनावानामिति ॥१०॥ (एएहिंदोहिंगाणेहिंति) वान्यामेतान्यां सर्वत्र शक्तिरस्ति नास्तिवेति अथवा शरीराणां सर्वेषां नेदोऽनेदोवेति धान्यां स्थानान्यां व्यवहारोन विद्यते युक्तयोन संगतीत्यर्थः । एतयोः स्थानयोः प्रवृत्तस्याऽनाचारं जानीयात् ॥११॥ ॥ टीका-पुनरप्यन्यथादर्शनं प्रति चागमानाचारं दर्शयितुमाह । (जमिदंनरालमि त्यादि) यदि वा योयमनंतरमाहारः प्रदर्शितः स सति शरीरे नवति । शरीरं च पंचधा। तस्य चौदारिकादेः शरीरस्य नेदानेदं प्रतिपादयितुकामः पूर्वपद धारणाह। (जमिद मित्यादि) यदिदं सर्वजनप्रत्यदमुदारैः पुजलनिवृत्तमौदा रिकमेतदेवोरालं निस्सारत्वादे तच तिर्यङ्मनुष्याणां नवति । तथा चतुर्दशपूर्वविदा कचित्संशयादावाद्वियतइत्याहारकमे तग्रहणाच वैकियोपादानमपि इष्टव्यं । तथा कर्मणा निवृत्तं कार्मणमेतत् सहचरितं तैजसमपि ग्राह्यं । औदारिकवैक्रियादारकाणां प्रत्येकं तैजसकार्मणान्यां सह युगप उपलब्धेः कस्यचिदेकत्वाऽशंका स्यादतस्तदपनोदार्थ तदनिप्रायमाह । तदेव तद्यदे वौदारिकं शरीरं तएव तैजसकार्मणे शरीरे । एवं वैक्रियाहारकयोरपि वाच्यं । तदेवंनूतां संज्ञां नो निवेशयेदित्युत्तरश्लोके क्रिया । तथैतेषामात्यंतिकोनेदश्त्येवंनूतामपि संज्ञा नो निवेशयेत् । युक्तिश्चात्र यद्येकांतेनानेदएव । ततश्दमौदारिकमुदारपुजलनिष्पन्नं तथैत कर्मणा निवर्तितं कार्मणं सर्वस्यैतस्य संसारचक्रवालस्य चमणस्य कारणनूतं तेजोडव्यै निष्पन्नं तेजएव तैजसंथाहारपक्तिनिमित्तं तैजसलब्धिनिमित्तं चेत्येवं जेदेन संज्ञा निरुक्तं कार्यच न स्यात् । अथात्यंतिकोनेदएव ततोघटवभिन्नयोर्देशकालयोरप्युपलब्धिः स्यात्। Page #907 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राय धनपतसिंघ बादाउरका जैनागम संग्रह नाग उसरा. ७ न नियता युगपउपलब्धिरित्येवं च व्यवस्थिते कथंचिदेवोपलब्धेरजेदः कथंचिच्च संज्ञा नेदानेदति स्थितं । तदेवमौदारिकादीनां शरीराणां नेदानेदौ प्रदर्याधुना सर्वस्यैव इ व्यस्य नेदानेदौ प्रदर्शयितुकामः पूर्वपदं श्लोकपश्चान दर्शयितुमाह । (सबबवीरिय मित्यादि ) सर्व सर्वत्र विद्यततिरुत्वा सांख्यानिप्रायेण सत्वरजस्तमोरूपस्य प्रधानस्यै कत्वात्तस्यच सर्वस्यैव कारणत्वात् अतः सर्वं सर्वात्मकमित्येवं व्यवस्थिते घटपटाद्यवय वस्य व्यक्तस्य वीर्य शक्तिर्विद्यते सर्वस्यैव हि व्यक्तस्य प्रधानकार्यत्वात्कार्यकारणयोश्चैकत्वा दतःसर्वस्य सर्वत्र वीर्यमस्तीत्येवं संज्ञा नो निवेशयेत्तथा सर्वे नावाःस्वनावेन स्वस्वनावव्यव स्थिताइति प्रतिनियतशक्तित्वान्न सर्वत्र सर्वस्य वीर्य शक्तिरित्येवमपि संज्ञां नो निवेशयेतायु क्तिश्चात्र यत्तावजुच्यते सांरख्यानिप्रायेण सर्व सर्वात्मकं देशकालाकारप्रतिबंधात्तु न समान कालोपलब्धिरिति तदयुक्तं। यतोनेदेन सुखःखजीवितमरणादूरासन्नसूदमबादरसुरूपकुरू पादिकं संसारवैचित्र्यमध्य देणाऽनुनयते ।नच दृष्टेऽनुपपन्नं नामानच सर्व मिथ्येत्यध्युपप नं युज्यते । यतोऽदृष्टहानिरदृष्टकल्पनाच पापीयसी। किंच सर्वथैक्येऽन्युपगम्यमाने संसार मोदानावतया कृतनाशोकतान्यागमश्च बलादापतति। यच्चैतत्सत्वरजस्तमसा साम्यावस्था प्रकृतिः प्रधानमित्येतत्सर्वस्य जगतः कारणं तन्निरंतराः सुत्दृदः प्रत्येष्यति नियुक्तिकत्वाद पिच सर्वथा सर्वस्य वस्तुनएकत्वेऽन्युपगम्यमाने सत्वरजस्तमसामप्येकत्वं स्यात् तन्नेदे च सर्वस्य नेदति। तथा यदप्युच्यते सत्वस्य व्यक्तस्य प्रधानकार्यत्वात्सत्कार्यवादत्वाच मयू रांमकरणे चंचुपिन्बादीनां सतामेवोत्पादान्युपगमादसउत्पादे चाम्रफलादीनामप्युत्पत्तिप्र संगादित्येतदाङ्मात्रं । तथाहि । यदि सर्वथा कारणे कार्यमस्ति न तर्युत्पादोनिष्पन्नघ टस्येवापिच मृत्पिमावस्थायामेव घटगताः कर्मगुणव्यपदेशानवेयुर्नच नवंति ततोनास्ति कारणे कार्यमथाऽननिव्यक्तमस्तीति चेन्न । तर्हि सर्वात्मना विद्यते नाप्येकांतेनासत्कार्य वाद एव । तनावेहि व्योमारविंदानामप्येकांतेनासतोमृत्पिमादेर्घटादेरिवोत्पत्तिः स्यान्न चै तदृष्टमिष्टं वायपिचैवं सर्वस्य सर्वस्माउत्पत्तः कार्यकारणनावानियमः स्यादेवंच न शाल्यं कुरा शालीवीजमेवादद्यापितु यत्किंचिदेवेति नियमेनच प्रेक्षापूर्वकारिणामुपादानकारणा दो प्रवृत्तिरतोनासत्कार्यवादति।तदेवं सर्वपदार्थानां सर्वज्ञेयत्वप्रमेयत्वादिनिर्धमैः कथंचि देकत्वं तथा प्रतिनियतार्थकार्यतया यदेवार्थक्रियाकारि तदेव परमार्थतः सदितिकृत्वा कथं चिन्नेदति सामान्य विशेषात्मकं वस्त्विति स्थित।यनेनच स्यादस्ति स्यान्नास्तीति नंगकक्ष्ये न शेषनंगकायपि इष्टव्याः। ततश्च सर्ववस्तु सप्तनंगीस्वनावं। ते चामी स्वभव्यक्षेत्रकालना वापेक्ष्या स्यादस्ति परव्यापेक्ष्या स्यान्नास्ति अनयोरेव धर्मयोयोगपद्येनानिधातुमशक्य त्वात्स्यादवक्तव्यं तथा कस्यचिदंशस्य स्वव्याद्यपेक्ष्या विवदितत्वात्कस्यचिच्चांशस्य पर व्याद्यपेक्ष्या स्यामानास्तिवा वक्तव्यं चेति । तथैकस्यांशस्य स्वश्व्याद्यपेक्ष्या परस्य तु Page #908 -------------------------------------------------------------------------- ________________ GG वितीये सूत्रकृतांगे वितीयश्रुतस्कंधे पंचमाध्ययनं. सामस्त्येन स्वव्याद्यपेक्ष्या विवदितत्वात्स्यादस्तिचावक्तव्यं चेति।तथैकांशस्य परव्याद्य पेक्ष्या स्यान्नास्ति चावक्तव्यं चेति तथैकस्यांशस्य स्वश्व्याद्यपेक्ष्या परस्य तु परडव्याद्यपे दयाऽन्यस्य तु योगपद्येन स्वपरव्याद्यपेक्ष्या विवक्षितत्वात्स्यादस्तिच नास्तिचाऽवक्तव्यं श्यं च सप्तनंगी यथायोगमुत्तरत्रापि योजनीयेति ॥ १० ॥ ११ ॥ पनि लोए अलोएवा, णेवं सन्नं निवेसए॥ अनि लोए अ लोएवा, एवं सन्नं निवेसए॥१२॥ पनि जीवा अजीवावा, एवं सन्नं निवेसए॥ अनि जीवा अजीवावा, एवं सन्नं निवे सए॥१३॥ पबि धम्मे अधम्मेवा, येवं सन्नं निवेसए ॥ अनि धम्मे अधम्मेवा, एवं सन्नं निवेसए ॥१४॥ अर्थ-हवे सर्वशून्यवादीना मतनुं निराकरण करवाने अर्थे,लोक अनें अलोकनुं यस्ति पणुं देखाडे, (बिलोएथलोएवा के०) चतुर्दशरज्ज्वात्मक एवो जे लोक,अथवा पंचा स्तिकायरूप एवो जे लोक, ते नथी,एवी संज्ञा न करवी,तथा आकाशास्तिकाय रूप एवो जे अलोक,ते पण नथी,ते एवी संज्ञा पण न करवी. केमके ए नास्तिकवादीनो मतले. हवे केवी संज्ञा करवी? ते कहेले पंचास्तिकायरूप लोक ते पण ,तथा बाकाशास्तिकाय रूपथ लोक ते पण, एवी संझा करवी. ए केवलीनो मतले॥१॥हवे लोकालोकनु अस्तिपणुं देखाडीने तेना विशेषनूत जीव अनें अजीव तेनो अस्तिनाव देखाडेले. जीव ते, उपयोग लक्षण संसारीक, अथवा मुक्तिगत,ए पण नथी. तथा यजीव ते धर्म, अधर्म, आकाश, पु जल,अनें कालात्मक ए पण नथी.एवी संझा पण न करवी केमके,ए नास्तिकवादीनो मत त्यारें केवी संझा करवी? तोके, जीव पण,धने अजीव पण.एवी संझा करवी.ए केवली नगवंतनो मतले ॥१३॥ हवे एवा जीवनो अस्तिनाव देखाडीने तेने सदसत् क्रिया अनु टानने विषेधर्म, अनें अधर्म कारण,ते माटे हवे तेनो अस्तिनाव कहेले. श्रुतचारित्ररूप जे धर्म, ते कर्मक्ष्यनो कारणरूपले. ते पण नथी, तथा मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, क पाय, अने योगरूप जे अधर्मले, ते कर्मबंधनो कारणरूपले, ते पण नथी, एवी संज्ञा पण न करवी. परंतु धर्म पण, अनें अधर्म पण, एवी संज्ञा करवी ॥ १५ ॥ __॥ दीपिका-(प बिलोएइत्यादि ) शून्यवादिमतानिप्रायेण नास्ति लोकः थलोकोपि नास्तीति संज्ञां नो निवेशयेन्न स्थापयेत् थस्ति लोकः पंचास्तिकायात्मकःयस्ति वाऽलो Page #909 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रायधनपतसिंघ बादाजुरका जैनागम संग्रह नाग उसरा. ए कथाकाशास्तिकायमात्रति संझा निवेशयेत् ॥ १२॥ (णनिजीवाइति ) न संति जीवाथ जीवावा इति संज्ञां नो निवेशयेत् संति जीवाथजीवाश्चेति संज्ञां कुर्यात् ॥ १३॥ (डि धम्मति ) नास्ति धर्मः श्रुतचारित्रात्मकः नास्ति वाऽधर्मो मिथ्यात्वाविरतिप्रमादकषाययोग रूपः एवं संज्ञान कर्यात् अस्ति धर्मोऽधर्मोवा एवं संज्ञां कुर्यात् ॥ १४ ॥ ____॥ टीका-तदेवं सामान्येन सर्वस्यैव वस्तुनोनेदानेदौ प्रतिपाद्याधुना सर्वशून्यवादिम तनिरासेन लोकालोकयोः प्रविनागेनास्तित्वं प्रतिपादयितुकामयाह । (एबिलोए अनोएवाइत्यादि) यदि वा सर्वत्र वीर्यमस्ति नास्ति सर्वत्र वीर्य मित्यनेन सामान्येन वस्त्व स्तित्वमुक्तं । तथाहि । सर्वत्र वस्तुनोवीर्य शक्तिरर्थक्रियासामर्थ्य मनसःस्वविषयज्ञानोत्पा दनं तच्चैकांतेनात्यंतानावावश विषाणादेरप्यस्तीत्येवं संज्ञा न निवेशयेत्सर्वत्र वीर्य ना स्तीति नो एवं संज्ञां निवेशयेदिति । अनेनावशिष्टं वस्त्वस्तित्वं प्रसाधितमिदानीं तस्यैव वस्तुनईषदिशेषितत्वेन लोकालोकरूपतयास्तित्वं प्रसाधयन्नाह । (णबिलोएअलोएश्त्या दि) लोकश्चतुर्दशरज्ज्वात्मकोधर्माधर्माकाशादिपंचास्तिकायात्मकोवा स नास्तीत्येवं संज्ञा नो निवेशयेत् । तथाऽऽकाशास्तिकायात्मकस्त्वेकः सच न विद्यते एवेत्येवं सज्ञां नो निवेश येत् । तदनावप्रतिपत्तिनिबंधनं विदं । तद्यथा प्रतिनासमानं वस्त्ववयव हारेणवा प्रति नासेतावयविकारेणवा तत्र न तावदवयव हारेण प्रतिनासनमुत्पद्यते निरंशपरमाणूनां प्र तिनासमानासंनवात्सर्वारातीयनागस्य परमाण्वात्मकत्वात्तेषांच बद्मस्थविज्ञानेन इष्टमश क्यत्वात् । तथाचोक्तं “यावदृश्यं परस्तावनागः सच न दृश्यते ॥ निरंशस्यच नागस्य नास्तिब प्रस्थ दर्शन" मित्यादि।नाप्यवय विचारेण विकल्प्यमानस्यावयविनएवानावात्।तथा ह्यसौ स्वावयवेषु प्रत्येकं सामस्त्येनवा वर्तेतांऽशांशिनावेनवा सामस्त्येनावयविबदुत्वप्रसंगानाप्यं शेन पूर्वविकल्पानतिक्रमेणानवस्थाप्रसंगात्तस्मादिचार्यमाणं न कथंचिस्त्वात्मकं जावं लनते ततस्तत्सर्वमेवैतन्मायास्वप्नंजालमरुमरीचिका विज्ञानसदृशं। तथाचोक्तं । “यथा य थार्थाश्चिंत्यंते विविच्यंते तथा तथा॥ ययेते स्वयमर्थिन्योरोचंते तत्र के वय" मित्यादि। तदेव वस्त्वनावे तविशेषलोकालोकानावः सिझएवेत्येवं नो संज्ञां निवेशयेत् । किंत्वस्ति लोकवधिस्तिर्यग्रूपोवैशाखस्थानस्थितकटिन्यस्तकरयुग्मपुरुषसदृशः पंचास्तिकायात्म कोवा तक्ष्यतिरिक्तश्चालोकोप्यस्ति ।संबधिशब्दत्वानोकव्यवस्थाऽनुपपत्तेरिति नावः। युक्ति वात्र यदि सर्व नास्ति ततः सर्वातःपातित्वात्प्रतिषेधकोपि नास्तीत्यतस्तदनावात्प्रतिषे धानावोपि च सति परमार्थनूते वस्तुनि माया स्वप्नेजालादिव्यवस्थान्यथा किमाश्रित्य कोवा मायादिकं व्यवस्थापयेदिति । अपिच “सर्वानावोयथानीटोयुक्त्यनावेन सिध्यति। सास्ति चेस्सैव नस्तत्वं तत्सिमौ सर्ववस्तुस” दित्यादि । यदप्यवयवावय विविनागकल्पनया Page #910 -------------------------------------------------------------------------- ________________ GGo वितीये सूत्रकृतांगे वितीय श्रुतस्कंधे पंचमाध्ययनं. दूषणमनिधीयते तदप्यातमताननिझेन । तन्मतं चैवंनूतं तद्यथा नैकांतोनावयवाएव नाप्यवयव्येव चेत्यतः स्याहादाश्रयणात्पूर्वोक्तविकल्पदोषानुपपत्तिरित्यतः कथंचिनोको स्त्येवमलोकोपीति स्थितं ॥१॥ तदेवं लोकालोकास्तित्वं प्रतिपाद्याधुना तविशेषनूत योर्जीवाजीवयोरस्तित्वप्रतिपादनायाह । (बिजीवाथजीवेत्यादि) जीवाउपयोग लहणाः संसारिणोमुक्तावा ते न विद्यते तथा अजीवाश्च धर्माधर्माकाशपुजलकाला त्मकागतिस्थित्यवगाहदानबायातपोद्योतादिवर्तनालाणान विद्यंतश्त्येवं संझां परि ज्ञानं नो निवेशयेन्नास्तित्व निबंधनं विदं प्रत्यदेणानुपलन्यमानत्वाङीवान विद्यते कायाकारपरिणतानि नतान्येव धावनवल्गनादिकां क्रियां कुर्वतीति । तथात्मा दैत वादमतानिप्रायेण पुरुषएवेदं सर्व यन्तं यच्च नाव्यमित्यागमात्तथा अजीवान विद्यते सर्वस्यैव चेतनाचेतनस्यात्ममात्रनिवर्तित्वान्नो एवं संज्ञा निवेशयेत् किंत्वस्ति जीवः सर्वस्यास्य सुखःखादेर्निबंधनतः स्वसंवित्तिसिसोऽहं प्रत्ययग्राह्यस्तथा तक्ष्यतिरि ताधर्माधर्माकाशपुजनादयश्च विद्यते । सकलप्रमाणज्येष्ठेन प्रत्यदेणानुनयमानत्वा त्तगुणानां नूतचैतन्यवादोव वाच्यः । किं तानि नवदनिप्रेतानि नूतानि नित्यान्युताऽनि त्यानि।यदि नित्यानि ततोऽप्रच्युतानुत्पन्नस्थिरैकवनावत्वान्न कायाकारपरिणतेन्यपगमः नापि प्रागविद्यमानस्य चैतन्यमुत्पद्यते पाहोस्विविद्यमानं तावद विद्यमानमतिप्रसंगाद न्युपेतागमलोपामाऽथविद्यमानमेव सिहं तर्हि जीवत्वं तथाऽत्मा दैतवाद्यपि वाच्यः। यदि पुरुपमात्रमेवेदं सर्व कथं घटपटादिषु चैतन्यं नोपलन्यते तथा तदैक्यनेदनिबंधनानां पद हेतुदृष्टांतानामनावात्साध्यसाधनानावस्तस्मान्नैकांतेन जीवाजीवयोरनावोपितु सर्वपदा थाना स्याहादाश्रयणाजीवः स्यादजीवःयजीवोपिच स्यादजीवः स्याङीवश्त्येतच्च स्या दादाश्रयणं जीवपुजलयोरन्योन्यानुगतयोः शरीरस्य प्रत्यक्तयाऽध्यदेणैवोपलंनादृष्ट व्यमिति ॥१३॥ जीवा स्तित्वेच सित्धे तन्निबंधनयोः सदसक्रिया धारायातयोधर्माधर्मयोर स्तित्वप्रतिपादनायाह । (पबिधम्मेषधम्मेवेत्यादि) धर्मः श्रुतचरित्राख्यात्मकोजीवस्या त्मपरिणामः कर्मक्षयकारणमात्मपरिणामएवमधर्मोपि मिथ्यात्वाविर तिप्रमादकषाययो गरूपः कर्मबंधकारणमात्मपरिणामएवातावेवंजूतो धर्माऽधर्मों कालस्वनावनियतीश्वरादि मतेन न विद्यते इत्येवं संज्ञां नो निवेशयेत् । कालादयएवास्य सर्वस्य जगवैचित्र्यस्य धर्मा धर्माव्यतिरेकेणैकांततः कारणमित्येवमनिप्रायं कुर्याद्यतः तएवैककान कारणमपितु समु दिताएवेति। तथाचोक्तं । “ नहि कालादी हिंतो, केवले हिंतो जायए किंचि ॥ इहमुग्गरं धणा इवि, तासवे समुदिया हेक" इत्यादि। यतोधर्माधर्ममंतरेण संसारवैचित्र्यं न घटामियर्त्यतोऽस्ति धर्मः सम्यग्दर्शनादिकोऽधर्मश्च मिथ्यात्वादिकश्त्येवं संज्ञां नो निवे शयेदिति ॥१४॥ Page #911 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राय धनपतसिंघ बाहाउरका जैनागम संग्रह नाग उसरा. तर गाडि बंधेव मोकेवा, येवं सन्नं निवेसए॥ अति बंधेव मोकेवा, एवं सन्नं निवेसए॥ १५॥ पनि पुरमेव पावेवा, एवं सन्नं निवेस ए॥ अनि पुरमेव पावेवा, एवं सन्नं निवेसए ॥२६॥ अर्थ-हवे धर्माधर्मने अस्तिनावें, बंध थने मोदनो सनाव देखाडेले. प्रकृति, स्थि ति, अनुनाग, अनें प्रदेशरूप,एवो जे चार प्रकारनो बंध, ते पण नथी, तथा मोद पण नथी, एवी संज्ञा पण न करवी, परंतु ए बंध पण अने मोद पण एवी संझा करवी ॥१५॥ हवे बंधना सनावें अवश्य पुण्य थने पापनो पण सजावले. ते कहेले. पुण्य जे शुन प्रकतिलहण ते पण नथी, तथा पाप जे यशुनप्रकतिलदण ते पण नथी, एवी संज्ञा न करवी, परंतु पुण्य पण अनें पाप पण. एवी संझा करवी ॥ १६ ॥ __॥ दीपिका-(पबिबंधेइति ) नास्ति बंधोमोझोवेति संझां न कुर्यात् बंधमोदसनाव मंगीकुर्यात् ॥ १५ ॥ (णनिपुरममिति) नास्ति पुण्यं सत्कर्म, नास्ति पापमसत्कर्म इति नांगीकार्य तयोरस्तित्वं मंतव्यं ॥ १६ ॥ ॥ टीका-सतोश्च धर्माधर्मयोधमोक्षसजावइत्येतदर्शयितुमाह । (णनिबंधेवमोरके वाइत्यादि) बंधः प्रकृतिस्थित्यनुनावप्रदेशात्मकतया कर्मपुजनानां जीवेन खव्यापारतः स्वीकरणं । सचामृतस्यात्मनोगगनस्येव न विद्यतइत्येवं नो संज्ञां निवेशयेत् । तथा तदना वाच मोदस्याप्यनावश्त्येवमपि संज्ञांनो निवेशयेत् । कथंतर्हि संझांनिवेशयेदित्युत्तराईन दर्शयति।अस्ति बंधः कर्मपुजलैजीवस्येत्येवं संझां निवेशयेदिति । यत्तच्यते मूर्तस्यामूर्तिम ता संबंधोन युज्यतइति तदयुक्तं । थाकाशस्य सर्वव्यापितया पुजलैः संबंधोउर्निवार्यः । तदनावे तक्ष्यापित्वमेव न स्यादन्यच्चास्य विज्ञानस्य त्वत्पूरमदिरादिना विकारः समुप लन्यते।नचासौ संबंधमृतेऽतोयत्किचिदेतत् । अपिच संसारिणामसुमतां सदा तैजसकार्म पशरीरसन्नावादात्यंतिकममूर्त्तत्वं न नवतीति । तथा तत्प्रतिपदजूतोमोदोप्यस्ति तनावे बंधस्याप्यनावः स्यादित्यतोऽशेषबंधनापगमस्वनावोमोदोस्तीत्येवं संझां निवेशयेदिति ॥१५॥ बंधसना चावश्यं नावी पुण्यपापसजावइत्यतस्तज्ञावं निषेधारणाह। (ण बिपुस्म इत्यादि) नास्ति न विद्यते पुण्यं गुनकर्मप्रकृतिलक्षणं तथा पापं तदिपर्ययलक्ष्णं नास्ति न विद्यते इत्येवं नो संज्ञां निवेशयेत् । तदनावप्रतिपत्तिनिबंधनं विदं । तत्र केषांचि नास्ति पुण्यपापमेव ह्युत्कर्षावस्थं सत्सुखःख निबंधनं तथा परेषां पापं नास्ति पुरस्य मेव ह्यपचीयमानं पापं कार्य कुर्यादित्यन्येषां तूनयमपि नास्ति । संसारवैचित्र्यं तु नियति स्वनावादिकृतं तदेतदयुक्तं । यतः पुण्यपापशब्दौ संबंधिशब्दौ । संबंधिशब्दानामेकस्य Page #912 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २ तिीये सूत्रकृतांगे वितीय श्रुतस्कंधे पंचमाध्ययनं. सत्तापरसत्तानांतरीयकतोनेतरस्य सत्तेति नाप्युनयानावः शक्यते वक्तुं निबंधन स्य जगदैचित्र्यस्यानावात् । नहि कारणमंतरेण क्वचित्कार्यस्योत्पत्तिर्दृष्टा । नियतिस्वना वादिवादस्तु नष्टोत्तराणा पादप्रसारिकाणां पादप्रसारिका प्रायोपि च तद्वादेन्युपगम्यमाने सकल क्रियावैयर्थं ततएव सकलकार्योत्पत्तिरित्यतोस्ति पुस्यं पापं चेत्येवं संझा निवे शयेत् । पुण्यपापे चैवं रूपे । तद्यथा ॥ “पुजलकर्म गुनं यत्तत्पुण्यमिति जिनशासने दृष्ट म् ॥ यदशुनमथ तत्पाप,मिति नवति सर्वइनिर्दिष्ट"मिति ॥ १६ ॥ पनि आसवे संवरेवा, येवं सन्नं निवेसए ॥ अति आसवे संवरेवा, एवं सन्नं निवेसए॥१७॥ गति वेयणा णिकरावा, णेवं सन्नं निवेसए ॥ अब वेयणा णिकरावा, एवं सन्नं निवेसए॥२७॥ अर्थ-हवे कारण विना कार्यनी उत्पत्ति नथी,माटें पुण्य अनें पाप ए बेनुं कारण था श्रव अर्ने संवरले, तेथी हवे आश्रव अनें संवर देखाडेले. प्राणातिपातादि रूप जे कर्म ग्रहण करवानां कारण ते आश्रव जाणवां. अने जेणे करी थावता कर्मने रोकी रा खीये तेने संवर कहिये, मात्रै ए आश्रव अनें संवर बन्ने नथी. एवी संझा करवी नहीं, परंतु याव पगडे, अने संवर पण, एम कहे, ॥ १७ ॥ हवे आश्रव अनें संवरने सन्नावें वेदना अने निर्जरानो सन्नाव देखाडे. वेदना एटले कर्मनुं अनुनववं, अनें नि ऊरा एटले कर्म पुजलन साडवू, ए बेदु नथी. एवी संज्ञा न करवी; परंतु वेदना पण अने निर्जरा पणळे. एवी संज्ञा गीतार्थ साधु करे ॥ १७ ॥ ॥ दीपिका-(पबियासवेति ) आश्रवसंवरसन्नावोंगीकार्यति ॥ १७ ॥ (निवेय ऐति) वेदना कर्मानुनवरूपा निर्जरा कर्मपुजलशाटरूपा एते ३ अपि न स्तः । यतः प ल्योपमसागरोपममसातवेद्यं कर्म अंतर्मुहर्तेनैव दयं याति । यउक्तं । “जं अन्नाणी कम्म, खवे बहुयाहि वासकोडीहिं ॥ तन्नाणी तिहि गुत्तो, खवेश कसास मित्तेण मित्यादि । तथा पकश्रेण्यां शीघ्रमेव कर्मणः श्यात् यथाक्रमबदस्यानुनवानावे वेदनायाअनावस्तदना वेच निर्जरायाअप्यनावश्त्येवं नांगीकुर्यात् । यतः कस्यचिदेव कर्मणएवमुक्तनीत्या क्यः अन्यस्य तु प्रदेशानुनवेन नोगसनावाद स्तिवेदना । यउक्तं । “पुविंऽञ्चिन्नाणं उप्प डिकंतापक म्माणं॥वेत्ता मोरको नति अवेत्ताइत्यादि।वेदनासन्नावेच निर्जराप्यस्तीति स्वीकुर्यात्॥१॥ ॥ टीका-न कारणमंतरेण कार्यस्योत्पत्तिरतः पुण्यपापयोः प्रायुक्तयोः कारणनूतावा Page #913 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राय धनपतसिंघ बादाउरका जैनागम संग्रह नाग उसरा. ३ श्रवसंवरौ तत्प्रतिषेधारेण दर्शयितुकामबाह। (पबियासवेसंवरेवेत्यादि ) थाश्रवति प्रविशति कर्म येन सप्राणातिपातादिरूपाश्रवः कर्मोपादानकारणं तथा तन्निरोधः सं वरः एतौ वावपि न स्तइत्येवं संज्ञा नो निवेशयेत्तदनावप्रतिपत्त्या शंकाकारणंत्विदं का यवाङ्मनःकर्मयोगः स आश्रवति यथेदमुक्तं तथेदमप्युक्तमेव । (उच्चालियंमिपाएइत्या दि) ततश्च कायादिव्यापारेण कर्मबंधो न नवतीति युक्तिरपि । किमयमाश्रवयात्मनोनि नन्ताऽजिन्नः । यदि निनोनामासावाश्रवोघटादिवदनेदेपि नाश्रवत्वं सिदात्मनामपि था श्रवप्रसंगात्तदानावेच तन्निरोधलदणस्य संवरस्याप्यनावः सिदएवेत्येवमात्मकमध्यवसा यं न कुर्यात् । यतोयत्तदनैकांतिकत्वं कायव्यापारस्योचालयंमि पाए इत्यादिनोक्तं तदस्मा कमपि संमतमेव । यतोयमस्मानिरप्युपयुक्तकर्मबंधोन्युपगम्यते निरुपयुक्तस्य कर्मबंधस्त था नेदानेदोनयपदसमाश्रयणात्तदेकपदाश्रितदोषानावइत्यस्त्याश्रवसन्नावस्तनिरोधश्च संवरइति । उक्तंच । “योगः शुदः पुण्या,श्रवस्तु पापस्य तविपर्यासः ॥ वाक्कायमनोगु प्ति,निराश्रवः संवरस्तूंक्त” इत्यतोस्त्याश्रवस्तथा संवरश्चेत्येवं संज्ञां निवेशयेदिति ॥ १७ ॥ आश्रवसंवरसन्नावे चावश्यं नावी वेदनानिर्जरासन्नावइत्यतस्तं प्रतिषेधनिषेधारणाह। (पबिवेयरोत्यादि) वेदना कर्मानुनवलदाणा तथा निर्जरा कर्मपुजलशाटनलदाणा। एते अपि न विद्यते इत्येवं नो संज्ञां निवेशयेत् । तदनावं प्रत्याशंकाकारणमिदं । त द्यथा । पल्योपमसागरोपमशतानुनवनीयं कर्मातमुहर्तेनैव दयमुपयातीत्यन्युपगमात् । तउक्तं । “जं अरमाणीकम्म, खवेबदुयाई वासकोडीहिं ॥ तस्माणी तिहि गुत्तोखवेशक सासमित्तेणं' इत्यादि । तथा पकश्रेण्यां च जटित्येव कर्मणोनस्मीकरणाद्यथाक्रमबदस्य चानुनवनानावे वेदनायाअनावस्तदनावाच निर्जरायाअपीत्येवं नो संज्ञां निवेशयेत् । किमिति । यतः कस्यचिदेव कर्मणएवमनंतरोक्तया नीत्या पणात्तपसा प्रदेशानुनवेन चापरस्य तूदयोदीरणाच्यामनुनवनमित्यतोस्ति वेदना । यतयागमोप्येवंनूतएव । तद्य था।"पुविंच्चिएमाणं, उप्प डिकंताणकम्माणं ॥ वेत्ता मोरको पनि अवेस्ताइत्यादिवेदना सिकौ च निर्जरापि सिदैवेत्यतोस्ति वेदना निर्जरावेत्येवं संज्ञां निवेशयेदिति ॥ १७ ॥ पनि किरिया अकिरियावा, एवं सन्नं निवेसए॥ अवि कि रिया अकिरियावा, एवं सन्नं निवेसए॥ १५॥ पनि कोदेव माणेवा, एवं सन्नं निवेसए ॥ अनि कोदेव माणेवा, एवं सन्नं निवेसए॥२०॥ अर्थ-हवे वेदना, अनें निर्जरा, ए बन्ने क्रिया अनें अक्रियाना आयतले. माटें तेनो सनाव देखाडे क्रिया एटले करवू,अने जे ते थकी विपरीत ते यक्रिया,ए बन्ने नथी.एवी Page #914 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८८४ द्वितीये सूत्रकृतांगे द्वितीय श्रुतस्कंधे पंचमाध्ययनं. संज्ञा न करवी, परंतु क्रिया पण, यनें प्रक्रिया पण. एवी संज्ञा करवी ॥ १९॥ हवे क्रियानें सजावें क्रोधादिकनो सद्भाव देखाडेबे. जे पोतानें घनें परनें प्रीतिनुं कारण ते क्रोध जावो, तथा जे गर्वलक्षण ते मान जाणवुं, ए बेदु नथी, एवी संज्ञा पण न करवी, परंतु क्रोध खनें मान ए बेडुळे एवी संज्ञा करवी ॥ २० ॥ ॥ दीपिका - ( एत्थि कि रियेत्यादि ) सांख्यादीनां सर्वव्यापकत्वादात्मनोव्योम्नश्व परि स्पंदात्मिक क्रिया न विद्यते बौद्धनांतु ऋणिकत्वात्सर्वभावानां प्रतिक्षणमुत्पत्तिरेव ना या काचित्क्रिया तथा सर्वपदार्थानां प्रतिक्षणमवस्थांतरगमनात्सक्रियत्वमेव यतोऽकि या न विद्यते एवं संज्ञां न कुर्यात् किंतु ? यस्ति क्रियाऽक्रियाचेति संज्ञां कुर्यात् । यतः क्रियानावे व्योम्नश्व बंधे मोक्षानावः प्रसज्येत । बौ-दानामपि प्रतिकृणोत्पत्तिक्रियैव ततोऽ स्ति क्रिया तनावेच तद्विपनूताऽक्रियाप्यस्तीति ॥ १९॥ ( एडिको हेवेति ) नास्ति क्रोधः सहिमानांशएव रूपकश्रेण्यांच जेदेन कृपणानंगीकारात् । तथा क्रोधः किं ? श्रात्मनोधर्मः किंवा कर्मणान्यस्य । तत्रात्मधर्मत्वे सिद्धानामपि क्रोधोदयप्रसंगः। अथ कर्मणस्तत स्तदन्यकषायोदयेपि तदयसंगात् अन्यधर्मत्वेऽकिंचित्करत्वमतोनास्ति क्रोधः । एवं माना नावोऽपि वाच्यइत्येवं नांगीकुर्यात् । यतः क्रोधाध्मातः पुरुषः प्रत्यक्षेणैवोपलभ्यते नार्य मानांशो निमित्तनेदात् । तथा जीवकर्मणोर्द्वयोरप्ययं धर्मस्ततः पूर्वोक्तः प्रत्येक दोषासंन वस्ततः क्रोधोमानश्चास्तीति संज्ञां निवेशयेत् ॥ २० ॥ ॥ टीका - वेदना निर्जरेच क्रियाक्रियत्वे ततस्तद्भावप्रतिषेधनिषेधपूर्वकं दर्शयितुमा ह | ( त्यिकिरिया किरियावा इत्यादि) क्रिया परिस्पंदलणा तद्विपर्यस्तात्वक्रिया । तें यपि न स्तोन विद्येते । तथाहि । सांख्यानां सर्वव्यापित्वादात्मनयाकाशस्यैव परिनिस्पं दिका क्रिया न विद्यते । शाक्यानांतु ऋणिकत्वात्सर्वपदार्थानां प्रतिसमयमन्यथा वान्य 'थोत्पत्तेः । पदार्थसत्चैव न त छ्यतिरिक्ता काचित्कियास्ति ॥ तथा चोक्तं । नूतिर्येषां क्रिया सैव कारकस्यैव चोच्यतइत्यादि । तथा सर्वपदार्थानां प्रतिक्षणमवस्थांतरगमनात्स क्रिया त्वमतोन क्रिया विद्यते इत्येवं सज्ञां नो निवेशयेत् किंतर्ह्यस्ति क्रिया यक्रिया वेत्येवं सज्ञां निवेशयेत् । तथाहि । शरीरात्मनोर्देशादेशांतरावाप्तिनिमित्ता परिस्पंदात्मिका क्रिया प्रत्य देवोपजन्यते । सर्वथा निष्क्रियत्वे चात्मनोऽन्युपगम्यमाने गगनस्येव बंधमोक्षायनावः सच दृष्टेष्टबाधितः । तथा शाक्यानामपि प्रत्यक्षेणोत्पत्तिरेव क्रियेत्यतः कथं क्रियायाय नावोपि चैकांतेन क्रियानावे संसारमोक्षानावः स्यादित्यतोऽस्ति क्रिया तपिनू ताचा क्रियेत्येवं संज्ञां निवेशयेदिति ॥ १५ ॥ तदेवं सक्रियात्मनि सति क्रोधादिसद्भावइ For Private Personal Use Only Page #915 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राय धनपतसिंघ बादाडुरका जैनागम संग्रह जाग दुसरा. न्य त्येतदर्शयितुमाह । ( पत्थि को देव माणे वेत्यादि) स्वपरात्मनोरप्रीतिल कुणः क्रोधः ॥ सचानंतानुबंध्य प्रत्याख्यानावरणसंज्वलननेदेन चतुर्थाऽऽगमे पठ्यते । तथैतावनेदएव मा नोगर्वः । एतो दावपि न स्तोन विद्येते । तथाहि । क्रोधः केषांचिन्मतेन मानांशएवानिमा नग्रहगृहीतस्य तत्कृतावत्यंत क्रोधोदयदर्शनात् रूपकश्रेएयां च नेदेन कृपणानन्युपगमात् । तथा किमयमात्मधर्मग्राहो स्वित्कर्मणनतान्यस्येति । तत्रात्मधर्मत्वे सिद्धानामपि क्रोधो दयप्रसंगोऽथ कर्मणस्ततस्तदन्यकपायोदयेपि तद्य प्रसंगान्मूर्तत्वाच्च कर्मणोहि घटस्येव तदाकारोपलब्धिः स्यादन्यधर्मत्वे त्वकिंचित्करत्वमतोनास्ति क्रोधइत्येवं मानानावोपि वाच्य इत्येवं संज्ञां नो निवेशयेत् । यतः । कषायः कर्मोदयवर्ती दृष्टेष्ट कृतजुकुटीनं गोरक्तवदनोग लत्स्वेदबिंडुसमाकुलः क्रोधाध्मातः समुपलच्यते न चासौ मानांशस्तत्कार्याकरणात्तथा प रनिमित्तोबा पिततत्वाच्चेति तथा जीवधर्मकर्मणोरुनयोरप्ययं धर्मस्तत्धर्मत्वेनच प्रत्येक वि कल्पदोषानुपपत्तिरनन्युपगमात्संसार्यात्मनां कर्मणा साई पृथग्नवनानावात्तडुनयस्यच न नरसिंहव इस्त्वंतरत्वादित्यतोऽस्ति क्रोधोमानश्चेत्येवं संज्ञां निवेशयेत् ॥ २० ॥ चिमाया व लोनेवा, एवं सन्नं निवेस ॥ अरि माया व लो नेवा, एवं सन्नं निवेस ॥ २१ ॥ वि पेव दोसेवा, एवं स नं निवेस ॥ चि पेजेव दोसेवा, एवं सन्नं निवेस ॥ २२ ॥ अर्थ- हवे माया खनें लोननो सद्भाव देखाडेबे, जे परवंचनरूप ते माया, घनें जे स निधि संचयरूप ते लोन, ए बेदु नथी, एवी संज्ञा न करवी, परंतु माया पणबे, खनें लोन पबे एवी संज्ञा करवी ॥ २१ ॥ हवे क्रोधादिक जेबे, तेनो संक्षेप थकी सजाव कहे. प्रेम एटले प्रीतिलक्षण पुत्र, कलत्र, धन, धान्यादिक, विषेरागता ते राग, तथा प्रीतिजण ते प, ए बेहु नथी. एवी संज्ञा न करवी, परंतु राग पबे, घनें देष पण, एवी संज्ञा करवी ॥ २२ ॥ || दीपिका ( मायेवेति ) मायालोनौ न स्तः इति सज्ञां न निवेशयेत् मायालोन योनिबंधः पूर्ववत् । प्रत्यदृश्यत्वान्मायालोनी स्तइति सज्ञां निवेशयेत् ॥ २१ ॥ ( बिपेवेति ) प्रीतिः प्रेम पुत्रकलत्रधनादिषु रागस्तद्विपरीतोद्वेषस्तौ न स्तः । यतोमाया लोनावेव रागः क्रोधमानावेव द्वेषस्ताच्यां रागदेषौ न स्तः अस्ति प्रेमदेषोप्यस्तीति संज्ञां कुर्यात यस्मागोवयवी मायालोजी यवयवो तथा दृषोऽवयवी क्रोधमानौ प्रarat अवयवीच व्यवयवेन्यः कथंचिनिन्नोऽनिन्नश्च तस्मान्मायालोनश्च प्रेमदेषश्च कथंचिदस्ति For Private Personal Use Only Page #916 -------------------------------------------------------------------------- ________________ G६ वितीये सूत्रकृतांगे वितीय श्रुतस्कंधे पंचमाध्यनं. ति स्वीकार्य ॥ २२ ॥ ( णस्थिरागदोसाविति ) रागहषौ न स्तइति न स्वीकार्य तौ वि येते इति मतिः कार्या युक्तिः । पूर्वोक्ता ॥ २३ ॥ ॥ टोका सांप्रत मायालोनयोरस्तित्वं दर्शयितुमाह (पत्थिमायावलोनेत्यादि) यत्रा पि प्राग्वन्मायालोनयोरनाववादीनां निराकत्या स्तित्वं प्रतिपादनीयमिति ॥ २१॥ सांप्रतं तेषांच क्रोधादीनां समासेनास्तित्वं प्रतिपादयन्नाह । (गलिपेलवेत्यादि) प्रीतिलताएं प्रेम पुत्रकलत्रधनधान्याद्यात्मीयेषु रागस्तविपरीतस्त्वात्मीयोपघातकारिणि देषस्तावेतौ दावपि न विद्यते । तथाहि । केषांचिदनिप्रायोयउत मायालोनावेवावयवौ विद्यते न तत्समुदायरूपोऽवयव्य स्ति । तथा क्रोधमानावेव स्तः न तत्समुदायरूपोऽवयवी ष इति । तथा ह्यवयवेन्योयद्यनिन्नोवयवी तर्हि तदनेदात्तएव । नासावथ निन्नः पृथ गुपलनः स्याद्घटपटवदितित्येवमसिदिकल्पमूढतया नो संझा निवेशयेत् । यतोऽवयवा वय विनोः कथंचि दश्त्येवं दानेदाख्यतृतीयपदसमाश्रयणात्प्रत्येकपदा श्रितदोषानु पपत्तिरित्येवं चास्ति प्रीतिलणं प्रेमाप्रीतिलहणश्च क्षेषश्त्येवं संझां निवेशयेत् ॥१२॥ पनि चारते संसारे, णेवं सन्नं निवेसए ॥ अनि चानरंते संसारे, एवं सन्नं निवेसए ॥ २३॥ एबि देवोव देवीवा, णे वं सन्नं निवेसए॥ अबि देवोव देवीवा, णेवं सन्नं निवेसए॥१४॥ अर्थ-हवे पूर्वे कह्या जे क्रोधादिक चार कषाय ते कषायने सनावें, संसारनो सन्ना व देखाडेले. नरक, तिर्यंच, मनुष्य अनें देवता, ए चतुर्गतिलक्षण संसार नथी. एवी संझा न करे, परंतु ए चतुर्गतिलक्षण संसार एवी संझा करे ॥ २३ ॥ हवे वली पण एज संसारनो सनाव देखाडे. नुवनपति, व्यंतर, ज्योतिषी, अनें वैमानिक,ए चार जा तना देव, तथा एनी स्त्रियो ते देवि ए बेतु नथी. एवी संज्ञा न करे, परंतु ए देव प गडे अनें देवी पणने; एवी संझा करे. एवी संनावनायें मनुष्य, नारकी, अनें तिर्यच नो पण सन्नाव जाणवो ॥ २४ ॥ ॥ दीपिका (णबिचाउरंतइति) नास्ति चातुरंतः चत्वारोंऽतागतिनेदायत्र ससंसार श्चतुरंतश्चतुविधः संसारोनास्ति देवनारकयोरनुपलन्यमानत्वात् इति संज्ञान निवेशयेत् अस्ति चतुर्विधः संसारः यतः संति सुरनारकाः।प्रकृष्टपुण्यपापफलनोगस्यान्यथानुपपत्तेः एवं संज्ञां निवेशयेत् ॥ २४ ॥ (ण बिदेवेति ) नास्ति देवो देवी वा इति मतिं न कुर्यात् अस्ति देवोवा देवी इति संज्ञां कुर्यात् अत्र प्रकृष्टपुण्यफलनोगएव हेतुः ॥ २५ ॥ Page #917 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राय धनपतसिंघ बादाडुरका जैनागम संग्रह नाग दुसरा. GG डुः ॥ टीका सांप्रतं कषायभावे सिधे सति तत्कार्यभूतोऽवश्यं नावी संसारसङ्गाव इत्येतत्प्रतिषेध निषेध द्वारेण प्रतिपादयितुमाह । (एविचारते इत्यादि) चत्वारोऽतागति नेदानरक तिर्यङ्नरामरलक्षणायस्य संसारस्यासौ चतुरंतः संसारएव कांतारोज यैकहेतु त्वात् । सच चतुर्विधोपि न विद्यते पितुं सर्वेषां संसृतिरूपत्वात्कर्मबंधात्मकतया च : खैकहेतुत्वादथवा नारकदेवयोरनुपलच्यमानत्वात्तिर्यङ्मनुष्ययोरेव सुखडुः खोत्क तया तयवस्थानाद्विविधः संसारः पर्यायनयाश्रयणात्त्वनेकविधोऽतश्वातुर्विध्यं न क थंचिद्यतइत्येवं संज्ञां नो निवेशयेदपितु व्यस्ति चतुरंतः संसारइत्येवं संज्ञां निवेशयेत् । यत्तूक्तमेकविधः संसारस्तन्नोपपद्यते यतोऽध्य केण तिर्यङ्मनुष्ययोर्भेदः समुपलभ्यते न चा सावेक विधत्वे संसारस्य घटते । तथा संजवानुमानेन नारकदेवानामप्यस्तित्वाच्युपगमा द्वैविध्यमपि न विद्यते । संजवानुमानंतु पुण्यपापयोः प्रकृष्टफल नुजस्तन्मध्यफलश्रु जां तिर्यङ्मनुष्याणां दर्शनादतः संभाव्यते प्रकृष्टफलनुजोज्यतिषां च प्रत्यक्षेणैव दर्शनाद यतमानानामुपलं एवमपि तदधिष्ठातृनिः कैश्चिद्भवितव्यमित्यनुमानेन गम्यते । ग्रह रदानादिना च तदस्तित्वानुमानमिति तदस्तित्वेतु प्रकृष्टपुष्यफलनुजश्व प्रकृष्टपा पफलजुग्निरपि नाव्यमित्यतोऽस्ति चातुर्विध्यं । संसारस्य पर्यायनयाश्रयणेतु यदनेकवि धत्वमुच्यते तदयुक्तं । यतः सप्तष्टथिव्याश्रितायपि नारकाः समानजातीयाश्रयणादेकप्र काराएव तथा तिर्थोपि पृथिव्यादयः स्थावरास्तथा द्वित्रिचतुःपंचेंदियाश्च द्विषष्टियोनिल प्रमाणाः सर्वेष्येक विधाएव । तथा मनुष्यायपि कर्मभूमिजाऽकर्मनू मिजांतर दीपक संमूर्बनजात्मक दमनादृत्यैक विधत्वेनैवा श्रितास्तथा देवाद्यपि जवनपतिव्यंतरज्योतिष्क वैमानिकनेदेन निन्नाएक विधत्वेनैव गृहीतास्तदेवं सामान्यविशेषाश्रयणाञ्चातुर्विध्यं संसा रस्य व्यवस्थितं नैकविधत्वं संसारवैचित्र्यदर्शनान्नाप्यनेकविधत्वं सर्वेषां नारकादीनां स्व जात्यनतिक्रमादिति ॥ २३ ॥ २४ ॥ चि सिद्धी सिद्धीवा, ऐवं सन्नं निवेस ॥ अचि सिधी सिद्धीवा, एवं सन्नं निवेस ॥ २५ ॥ चि सिद्धी नियं ठाणं, ऐ वं सन्नं निवेस ॥ चि सिद्धी नियं ठाणं, एवं सन्नं निवेस ॥ २६ ॥ अर्थ - हवे संसारने सङ्गावें सिद्धिनो सद्भाव देखाडे. समस्तकर्मत्यनुं स्थानक सिद्धि जावी. अने तेथकी विपरीत ते प्रसिद्धि जाणवी, ए बेहु नथी, एवी संज्ञा न करे, परंतु सिद्धि पढे, खने प्रसिद्धि पराठे, एवी संज्ञा पोताना चित्तनें विषे स्थापन करे ||२५|| हवे सिद्धिना स्थानकनो सद्भाव कहे. समस्त कर्मक्ष्यलक्षण जे सिद्धि तेनुं, (नियं For Private Personal Use Only Page #918 -------------------------------------------------------------------------- ________________ GGG वितीये सूत्रकृतांगे वितीयश्रुतस्कंधे पंचमाध्ययनं. गणं के ) पोतानुं स्थानक "इसीवप्नार" एवे नामें ते नथी, एवी संज्ञा न करे परंतु सिदि एवं निज पोतानुं स्थानकडे, एवी संझा चित्तने विषे स्थापन करे ॥ २६ ॥ ॥ दीपिका-( णबिसिद्धीति) नास्ति सिदिः कर्मक्ष्यरूपा असिदिः संसाररूपा सापि नास्तीति संज्ञां न निवेशयेत् । संसारचातुर्विध्यं पूर्वमेवोक्तं । कियतः कर्मयस्यच पीडोप शमादिना प्रत्यदेण दर्शनात्कस्यचिदात्यंतिककर्मयोपि स्यात् तस्मादस्ति सिदिरसिद्धि रप्यस्तीति संज्ञां कुर्यात् ॥ २६ ॥ (डिसेहाइति) सिः सर्वकर्मदयरूपायानिजं स्थानं सिद्धिशिलोपरियोजनचतुर्थक्रोशोपरितनषड्नागः स नास्तीति संज्ञां न कुर्यात् अस्ति सिदिनि स्थानमिति संज्ञां च कुर्यात् श्रागमप्रमाणसि-हत्वात् ॥ २७ ॥ ॥ टीका-सर्वनावानां सप्रतिपक्ष्त्वात्संसारसनावे सति अवश्यं तमुिक्तिलक्षणया सिध्यापि नवितव्य मित्यतोऽधुना सप्रतिपदा सिदि दर्शयितुमाह । (णनिसिद्धीत्यादि) सिदिरशेषकर्मच्युतिलक्षणा तविपर्यस्ताचासिद्धिास्तीत्येवं नो संज्ञां निवेशयेदपि त्वसि देः संसार विलक्षणायाश्चातुर्विध्येनानंतरमेव प्रसाधितायाथ विगाने नास्तित्वं प्रसिदं तदि पर्ययेण सिरप्यस्तित्वमनिवारितमित्यतोस्ति सिदिरसिद्धिर्वेत्येवं संज्ञां निवेशयेदिति स्थितं । इदमुक्तं नवति । सम्यग्दर्शनझानचारित्रात्मकस्य मोक्षमार्गस्य सदाकर्मदय स्य च पीडोपशमादिनाऽध्यक्ष्ण दर्शनादतः कस्यचिदात्यंतिककर्महानिसिरस्ति सिदिरि ति । तथा चोक्तं । “दोषावरणयोहानिनिःशेषास्त्यतिशायिनी॥ क्वचिद्यथा स्वहेतुल्योब हिरंतर्मलक्ष्य" इत्यादि। सर्वज्ञसन्नावोपि संनवानुमानादृष्टव्यस्तथात्यन्यस्यमानायाः प्रज्ञा याव्याकरणादिना शास्त्रसंस्कारेणोत्तरोत्तरच्या प्रज्ञातिशयोइष्टव्यः। तत्र कस्यचिदत्यंता तिशयप्राप्तेः सर्वज्ञत्वं स्यादिति संनवानुमानेन चैतदाशंकनीयं । तद्यथा । ताप्यमानमुद कमत्यंतोमतामियान्नानिसानवेत् तथा दशहस्तांतरं व्योम्नि योनामोत्प्लुत्य गति।न यो जनमसौ गंतुं शक्तोन्यासशतैरपीति दृष्टांतदाष्र्टीतिकयोरसाम्यात् । तथाहि । ताप्यमानं जलं प्रतिक्षणं यं गत्प्रज्ञा तु विवईते। यदिवा प्लोषोपलव्धेरव्याहतमग्नित्वं तथा प्लव नविषयेपि पूर्वमर्यादायाअनतिकमायोजनोत्प्लवनानावस्तत्परित्यागे चोत्तरोत्तरं वृक्ष्या प्र झाप्रकर्षगमनवद्योजनशतमपि गन्छेदित्यतोदृष्टांतदार्टीतिकयोरसाम्यात्तदेवं नाशंकनीयमि ति स्थितं । प्रशाश्व बाधकप्रनाणानावादस्ति सर्वज्ञत्वप्राप्तिरिति । यदिवांजननृतसमुज कदृष्टांतेन जीवाकुलत्वाऊगतोहिंसायानिवारत्वात्सित्यनावः । तथा चोक्तं । “जले जी वाः स्थले जीवाआकाशे जीवमालिनि ॥ जीवमालाकुले लोके कथं निठुरहिंसक'इत्यादि। तदेवं सर्वस्यैव हिंसकत्वात्तिध्यानावति । तदेतदयुक्तं । तथाहि । सदोषयुक्तस्य पिदि Page #919 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राय धनपतसिंघ बादाउरका जैनागम संग्रह नाग उसराः जए ताश्रवधारस्य पंचसमितिसमितस्य त्रिगुप्तिगुप्तस्य सर्वथा निरवद्यानुष्ठायिनोविचत्वारिंश दोषरहित निदानुजासमितस्य कदाचिदव्यतःप्राणिव्यपरोपणे पि तत्कृतबंधानावः सर्व था तस्यानवद्यत्वात् । तथाचोक्तं । उच्चालियंमिपाए, इत्यपि प्रतीतं तदेवं कर्मबंधानावारिस सनावोव्याहतःसामय्यनावादसिदिसनावोपीति ॥२॥सांप्रतं सिमानां स्थाननिरूप पणायाह । (गबिसिहीत्यादि) सिरशेषकर्मच्युतिलहणायानिजं स्थानमीषत्प्राग्नारा ख्यं व्यवहारतोनिश्चयतस्तु तपरियोजनकोशषनागस्तत्प्रतिपादकप्रमाणानावात्स ना स्तीत्येवं संज्ञां नो निवेशयेत् । यतोबाधकप्रमाणानावात्साधकस्य चागमस्य सनावात्तत्स त्ता उर्निवारेति । अपिचापगताशेषकल्मषाणां सिधानां केनचिविशिष्टेन स्थानेन ना व्यं तच्चतुर्दशरज्ज्वात्मकस्य लोकस्यायनूतं इष्टव्यं । नच शक्यते वक्तुमाकाशवत्सर्वव्या पिनः सिमाइति यतोलोकालोकव्याप्याकाशं । न चालोके परव्यस्याकाशमात्ररूपत्वात् लोकमात्रव्यापित्वमपि नास्ति विकल्पानुपपत्तेः । तथाहि । सिमावस्थायां तेषां व्यापित्व मन्युपगतमुतप्रागपि न तावत्तिावस्थायां तक्ष्यापित्वनवने निमित्तानावान्नापि प्रागव स्थायां तनावे सर्वसंसारिणां प्रतिनियतसुखःखानुनवोन स्यान्नच शरीरावहिरवस्थित मवस्थानमस्ति । तत्सत्तानिबंधनप्रमाणस्यानावादतः सर्वव्यापित्वं विचार्यमाणं न कथं चिद्घटते तदनावे च लोकायमेव सिमानां स्थानं तजतिश्च कर्मविमुक्तस्योर्ध्वं गतिरिति। तथाचोक्तं । “ला एरंडफले,अग्गीधूमे उसूधपु विमुक्के ॥ गई पुवपञ्गेणं,एवं सिक्षाणविग ईन” इत्यादि । तदेवमस्ति सिविस्तस्याश्च निजं स्थानमित्येवं संज्ञां निवेशयेदिति॥२६॥ पनि साद असावा,णेवं सन्नं निवेसए॥ अचि साद असाद वा, एवं सन्नं निवेसए॥२७॥ पाबि कल्लाण पावेवा, णेवं सन्नं निवेसए ॥ अबि कल्लाण पावेवा, एवं सन्नं निवेसए ॥२॥ अर्थ-हवे सिदिना साधनारा साधुषो. तेनो सन्नाव कहे. ज्ञान, दर्शन, थने चारित्ररूप रत्नत्रयने साधे,ते साधु जाणवा, ते पण नथी, तथा ए थकी विपरीत ते थ साधु जाणवा, ते पण नथी. एवी संज्ञा न करवी, परंतु साधु पण, अने असाधु प गले, एवी संज्ञा करवी ॥ २७ ॥ हवे सामान्य प्रकारे कल्याण अने पापनो सन्नाव देखाडेले. मनोवांबित अर्थनी प्राप्तिनुं करनारुं एवं कल्याण, ते पण नथी. तथा ते थकी विपरीत जे पाप, ते पण नथी. एवी संज्ञा न करे, किंतुं? कल्याण पण, थने पाप पण. एवी संझा करे ॥२॥ ॥ दीपिका-(पबिसाहू इति) नास्ति साधुर्मुनिः संपूर्णचारित्रगुणानावात् तदनावे त ११२ Page #920 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नए वितीये सूत्रकृतांगे वितीय श्रुतस्कंधे पंचमाध्ययनं. विपरीतोऽसाधुरपि नास्ति एकस्याप्यनावे दितीयस्याप्यनावः क्ष्योः परस्परापेदत्वात् । एवं संज्ञान निवेशयेत् । किंतु ? अस्ति साधुः संपूर्णगुणसनावात् । तथाहि । सम्यग्दृष्टेरर क्तविष्टस्य सत्संयमवतःश्रुतानुसारेणाऽऽहारादिकं शुझबुझ्या गृहहतः क्वचिदज्ञानादशुद ग्रहणसंनवेप्युपयुक्तस्य संपूर्णमेव रत्नत्रयानुष्ठानमिति । तदेवं मुक्तिरुते प्रवर्तमानस्य साधुत्वं इतरस्यासाधुत्वं मंतव्यं ॥ २७ ॥ (ण निकालाणमिति) वांनितार्थप्राप्तिः कल्या एं । कल्याणवांश्च कश्चिन्नास्ति सर्वपदाथोनामसारवाहिनश्वरत्वाच्च । पापं पापवान् वा कश्चिन्नास्ति श्रदैतवादिमतेनाऽऽत्मानं विना सर्वस्यानावात् एवं संज्ञां न कुर्यात् एका तेन सर्वनावानामसारत्व विनश्वरत्वानावादस्ति कल्याणं तक्षश्च अदैतमतस्य मिथ्या खात् पापं पापवांश्च विद्यते । यते हि सुखी दुःखी सुरूपः कुरूपोधनी दरिइत्यादि । विश्ववैचित्र्यं न स्यादिति ॥ ए॥ ॥ टीका-सांप्रत सिः साधकानां साधूनां तत्प्रतिपदनूतानामसाधूनां चास्तित्वं प्र तिपिपादयिषुः पूर्वपदमाह । (बिसाहूयसाहूवाश्त्यादि ) नास्ति न विद्यते ज्ञानदर्श नचारित्रक्रियोपेतोमोक्षमार्गव्यवस्थितः साधुः संपूर्णस्य रत्नत्रयानुष्ठानस्यानावात्तदना वाच्च तत्प्रतिपदनतस्यासाधोरप्यनावः परस्परापेक्षित्वादेत व्यवस्थानस्यैकतरानावे दि तीयस्याप्यनावश्त्येवं संज्ञां नो निवेशयेदपित्वस्ति साधुः सिः प्राक्साधितत्वात् । सि दिसत्ता च न साधुमंतरेण अतः साधुसिदिस्तत्प्रतिपक्षनूतस्य वाऽसाधोरिति । यश्च सं पूर्णरत्नत्रयानुष्ठानानावः प्रागारांकितः स सिक्षांतानिप्रायमबुध्वैव । तथाहि । सम्यग्दृष्टे रुपयुक्तस्यारक्तष्टिस्य सत्संयमवतः श्रुतानुसारेणाऽऽहारादिकं शुमबुत्ध्या गृप्तहतः क चिदज्ञानादनेषणीयग्रहणसंनवेपि सततोपयुक्ततया संपूर्णमेव रत्नत्रयानुष्ठानमिति । य श्च नक्ष्यमिदं चानदयं गम्यमिदं वाऽगम्यं प्रासुकमेषणीयमिदमिदंच विपरीतमित्येवं रा गदेषसंनवेन समनावरूपस्य सामायिकस्यानावः कैश्चिजोद्यते तत्तेषां चोदनमज्ञान विजूं जणात् । तथाहि । न तेषां सामायिकवतां साधूनां रागदेषतया नयानयादिविवेको ऽपित प्रधानमोझांगस्य सञ्चारित्रस्य साधनार्थमपि चोपकारापकारयोः समजावतया सा मायिकं न पुनर्नदयानदययोः समनाववृत्येति ॥ २७ ॥ तदेवं मुक्तिमार्गप्रवृत्तस्य सा धुत्वमितरस्य चासाधुत्वं प्रदर्याधुना च सामान्येन कल्याणपापवतोः सन्नावं प्रतिषेधनि पेधारेणाद । (पचिकनाणपावेवाइत्यादि) यथेष्टार्थफलसंप्राप्तिः कल्याणं तन्न विद्य ते सर्वाऽशुचितया निरात्मकत्वात् सर्वपदार्थानां बौछानिप्रायेण तथा तदनावे कल्याणवां श्च न कश्चिविद्यते तथात्मा नूतवाद्यनिप्रायेण पुरुषएवेदं सर्वमितिकत्वा पापं पापवा न्वा न कश्चिविद्यते तदेवमुनयोरप्यनावः। तथा चोक्तं । “विद्याविनयसंपन्ने ब्राह्मणे गवि Page #921 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रायधनपतसिंघ बादाउरका जैनागम संग्रह नाग उसरा. नए हस्तिनि ॥ शुनि चैव श्वपाके च पंमिताः समदर्शिन"इत्येवमेव कल्याणपापकानावरू पां संज्ञां नो निवेशयेदपि त्वस्ति कल्याणं कल्याणवांश्च विद्यते तविपर्यस्तं पापं तक्षश्चि विद्यते इत्येवं संज्ञां निवेशयेत् । तथाहि । नैकांतेन कल्याणानावोयोबौरनिहितः सर्वपदा नामशुचित्वासंनवात्सर्वाऽशुचित्वेच बुइस्याप्यनुचित्वप्राप्ते पि निरात्मनः स्वइव्यक्षेत्र कालनावापेक्ष्या सर्वपदार्थानां विद्यमानत्वात्परव्यादि निस्तु न विद्यते सदसदात्मकत्वा वस्तुनः तउक्तं स्वपरसत्ताव्युदासोपादानोत्पाद्यं हि वस्तुनोवस्तुत्वमिति । तथात्मा तना वानावात्पापानावोपि नास्त्यतनावेहि सुखी फुःखी सरोगोनीरोगोसुरूपः कुरूपोऽनगः सुनगोऽर्थवान् दारिश्स्तथायमंतिकोऽयं तु दवीयान इत्येवमादिकोजगदैचित्र्यनावोऽध्यद सिखोपि न स्यात् ।यच्च समदर्शित्वमुच्यते ब्राह्मणचांमालादिषु तदपि समानपीडोत्पादनतो इष्टव्यं । न पुनः कर्मोपादितवैचित्र्यनावोपि तेषां ब्राह्मणचांमालादीनामस्तीति।तदेवं कथं चित्कल्याणमस्ति तविपर्यस्तं तु पापकमिति । नचैकांतेन कल्याणमेव यतः केवलिनां प्र वीणघनघातिकर्मचतुष्टयानां सातासातोदयसनावात्तथा नारकारणामपि पंचेंयित्व विशि ष्टज्ञानादिसन्नावान्नैकांतेन तेऽपि पापवंतइति तस्मात्कथंचित्कल्याणं कथंचित्पापमि ति स्थितं ॥ २॥ कल्लाणे पावए वावि,ववदारोण विजाजं वेरं तं न जाणंति, स मणा बालपंमिया ॥२॥ असेसं अकयं वावि, सबकेति वा पुणो॥वशा पाणा न वशंति, इति वायं न नीसरे॥३० ॥दी संति समियाचारा, निकुणा सादजीविणो ॥ एए मिबोवजीवं ति, इति दिहिं न धारए॥३१॥ अर्थ-हवे अनेकांत मार्ग देखाडीने, एकांत मार्गनें, दूषवे. ए पुरुष एकांतें कल्या एवंतज , अथवा ए पुरुष एकांतें पापवंतज, एवो व्यवहार नथी, कारणके, आज गत् मांहें एकांत कांहीज नथी. ते माटें जे पुरुष पुण्यवंत देखातो होय,परंतु ते अंत्या वस्थामा परिणामविशेषे उर्गतियें जाय. अथवा जे पापी पुरुष देखातो होय, ते परि णामविशेषे सजतिगामी थाय. ए कारण माटें एकांत न बोले (जेवेरंतनजाणंति के०) तथा जे वैर, ते कर्मनुं कारण एम न जाणे, ते कोण न जाणे? तोके श्रमण, बाल, एटले मूर्ख,थने पंमित एटले पंमितपणाना अनिमानी होय ते न जाणे. ते शाथकी न जाणे? तोके जे कारणमाटें ते बाल, मूर्ख, परमार्थनूत, अहिंसालक्षण जे धर्म, तेनो तेने याश्रय नथी ते कारणे ते निरतो वैरनुं कारण जाणे नहीं. इत्यर्थः ॥ २॥ हवे Page #922 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जएर हितीये सूत्रकृतांगे वितीय श्रुतस्कंधे पंचमाध्ययनं. अन्य वचन थाश्रि संयम कहेजे. (असेसंबरकर्यवावि के०)श्रा जगत् मांहें समस्त वस्तु जे घटपटादिकले ते एकांतें नित्य,शाश्वत एवं वचन न बोले, (सव्वउरके तिवापुणो के०) तथा वली सर्व जगत् फुःखात्मकज , एवं वचन पण न बोले,जे कारण माटें आ जगत् मांहें एकेक जीवनें तो महा सुखडे, एम बोलायले यतः " तणसंथारनिसमो, विमुणि वरो नट्टरागमयमोहो ॥ जं पाव मुत्तिसुहं, कत्तोतं चक्वट्टिवि" ॥१॥ इति वचनात् । माटें सर्व जगत् दुःखीज, एवं वचन पण न बोले, ( वसापाणाधवशंति के० ) तथा ए चोर , ए परदारानो सेवनारले, माटें ए वध करवा योग्य वे एवं वचन न बोले, अथवा ए अमुक पुरुष अवध्य एटले वध करवा योग्य नथी (इतिवार्यननीसरे के) एवं वचन पण न बोले, कारणके, एम बोलतां तेना कर्मनी अनुमोदना लागे. ए रीतें सिंह, व्याघ्र, मार्जारादिक हिंसक जीव देखीनें, चारित्रित मध्य स्थ पणुं अवलंबन करे. इत्यर्थः ॥ ३० ॥ हवे वली बीजो, वचननो प्रकार, मनसुधी याश्रि देखाडियें बैयें. (दीसंतिसमयाचारा के०) था जगत् मांहें कोई एक चारि त्रिया एवा देखायजे. के, समयाचारा एटले सिद्धांतोक्त आचारने विषे प्रवर्तमा न, तथा (निरकुणासाहुजीविणो के०) निरकुणा एटले दोषरहित एवा पाहा रना गवेषण हार, तथा साधुजीवि एटले पोताना याचार पालवा सारु जीवे , तथा दांत, जितेंघिय, जितक्रोध, दृढव्रतवान्, जुसर प्रमाण दृष्टिये मार्गना शोधनार, प्रा सुक नदकना पान करनार, मौनी,बजीवनिकायना रक्षण करनार, किंबहुना. सराग , तो पण वीतरागनी पेठे रहे, एवा साधु देखीने (एएमिनोवजीवंति के०) ए मिथ्यात्वो पजीवि बाह्य वृत्तियें करी लोकोनें वंचे। (इतिदिहिनधारए के०) एवी दृष्टि धरे नहीं, एतावता एवो नाव मनमांहें चिंतवे नहीं, वचनथकी कहे नहीं, किं बदुना. स्वतीर्थ क परतीर्थिकनें एवं वचन कहे नहीं ॥ ३१ ॥ ॥ दीपिका-(कन्नाणेपावेति ) सर्वथाऽयंकल्याणवानयं सर्वथा पापवान् एवमेकांते व्यवहारो न विद्यते । एकांतपदाश्रयणेन यरं कर्मबधस्तत् श्रमणाः शाक्यादयोबालाः पंमितमानिनः शुष्कतर्कदोन्मत्तान जानंति ॥ ३० ॥ (असेसमिति ) अशेषं सर्व व स्तु सांरख्यानिप्रायेणादतं नित्यं इति न ब्रूयात् । थपिशब्दादनित्यमपि न वदेत् । तथा सर्व जगहुःखात्मकमित्यपि न वदेत् चारित्रादिपरिणतेः सुखस्यापि दर्शनात् । यमुक्तं । " तणसंथारनिसलो, विमुणिवरोनट्टरागमयमोहो ॥ ज पावs मुत्तिसुहं, कत्तोतं चक्कवट्टी वि" ॥ १ ॥ चोरपारदा रिकादयोवध्याअवध्यावा इति न वदेत्। तथा चोक्तं । “ मार्जार व्याघ्रसिंहादीन् सत्वव्यापादनोद्यतान् ॥ दृष्ट्वा स्वार्थपरः साधुर्माध्यस्थ्यमवलंबत"इति॥१॥ Page #923 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राय धनपतसिंघ बादाउरका जैनागम संग्रह नाग उसरा. नए३ एवमन्योपि वाक्संयमोझेयः । यथाऽसौ कुतीथिकोबालः किमपि न वेत्ति इत्यादिकां पर स्याप्रीतिकारिणी नाषां न विसृजेत् ॥ यमुक्तं । “अप्पत्तियं जेण सिया, बासु कुप्पिङवाप रो॥ सबसो तं ण नासिका, नासं अहियगामिणी" इति ॥३१॥ (दीसंतित्ति) दृश्यंते स मिताचाराः शास्त्रोक्ताचारपरा निवोनिदामात्रवृत्तयः साधुना विधिना जीवंतीति साधु जीविनः। तथाहि । दांतादांताजितेंडिया जितकषायास्तायिनस्तानेवंनूतान मत्वापि एते मिथ्योपजीविनति दृष्टिं न धारयेत् नैवमनिप्रायं कुर्यात् नाप्येवं वदेत् यथा मिथ्योप चारप्रवृत्तमायाविनएते इति । बद्मस्थेन हि एवंनतनिश्चयस्य कर्तुमशक्यत्वादिति नावः। तेच स्वयूथ्यावा नवेयुस्तीर्थातरीयावा ननावपि न वक्तव्यौ साधुना । यउक्तं । “यावत्प रगुणपरदो,षकीर्तने व्याप्टतं मनोनवति । तावरं विशुद्धे,ध्याने व्ययं मनः कर्तु॥१॥३॥ ॥ टीका-तदेवं कल्याणपापयोरनेकांतरूपत्वं प्रसाध्यैकांतं दृषयितुमाह (कनाणेपा वएइत्यादि) कल्यं सुखमारोग्यं शोननत्वं वा तदणतीति कल्याणं तदस्यास्तीति कल्याणो मत्वर्थी या प्रत्ययांतोऽर्शयादिन्योजित्यनेन । कल्याणवानिति यावत् । पषिकशब्दोपि मत्व थी याचप्रत्ययांतोष्टव्यः। तदेवं सर्वथा कल्याणवानेवायं तथा पापवानेवायमित्येवंनूतो व्यवहारोन विद्यते तदैकांतनूतस्यार्थस्यैवानावात्तदानावस्यच सर्ववस्तूनामनेकांताश्रयणेन प्राक्प्रसाधितत्वादिति । एतच्च व्यवहारानावाश्रयणं सर्वत्र प्रागपि योजनीयं । तद्यथा। सर्वत्र वीर्यमस्ति नास्तिवा सर्वत्र वीर्य मित्येवंनूतएकांतिकोव्यवहारोन विद्यते। तथा नास्ति लोकोऽलोकोवा तथा संति जीवायजीवाइति वेत्येवंनूतोव्यवहारोन विद्यतइति सर्वत्र संबंधनीयं । तथा वैरं वजं तत्कर्म वैरं विरोधोवा वैरं तद्येन परोपतापादिनैकांतपदस माश्रयणेन वा नवति।तत्ते श्रमणास्तीथिकाबालाश्व बालारागदेषकलिताः पंमिताः पंकि तानिमानिनः शुष्कतर्कदपाध्मातान जानंति परमार्थनूतस्याहिंसालदणस्य धर्मस्याने कांतपदस्यवा नाश्रयणादिति । यदिवा यरं तत्ते श्रमणाबालाः पंमितावान जानंतीत्ये वं वाचं न निसृजेदित्युत्तरेण संबंधः । किमिति न निसृजेद्यतस्ते किंचितानंत्येवापिच ते षां तन्निमित्तकोपोत्पत्तेः । यच्चैवंनूतं वचस्तन्न वाच्यं । यतनक्तं । “अप्पत्तियं जेण सिया, बासु कुप्पिडावा परो ॥ सवसो तंण नासेजा नासं अहियगामिणि"मित्यादि ॥ २५ ॥ थपरमपि वासंयममधिकृत्याह । (असेसमित्यादि) अशेषं कृत्स्नं तत्सारख्यानिप्राये ए कृतं नित्य मित्येवं न ब्रूयात् । प्रत्यर्थ प्रतिसमयं चान्यथान्यथा नावदर्शनात्सएवा यमित्येवंनूतस्यैकत्वसाधकस्य प्रत्यनिझानस्य जनं पुनर्जातेषु केशनखादिष्वपि प्रदर्श नात्तथापि शब्दादेकांतेन क्षणिकमित्येवमपि वाचं न निसृजेत्सर्वथा दणिकत्वे पूर्वस्य सर्वथा विनष्टत्वाउत्तरस्य निर्देतुकनत्पादः स्यात्तथाच सति नित्यं सत्वमसत्वंवा हे Page #924 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नए वितीये सूत्रकृतांगे वितीय श्रुतस्कंधे पंचमाध्ययनं. तोरन्यानपेक्षणादिति । तथा सर्व जगदुःखात्मकमित्येवमपि न ब्रूयात्सुखात्मकस्यापि सम्यग्दर्शनादिनावेन दर्शनात् । तथा चोक्तं । “तणसंथारनिसमो, विमुणिवरो नट्टरा गमयमोहो ॥ ज पाव मुतिसुहं, कत्तोतं चक्कवट्टीवि" ॥१॥ तथा वध्याश्चौरपारदारिका दयोऽवध्यावा तत्कौनुमतिप्रसंगादित्येवंजूतां वाचं स्वानुष्ठानपरायणः साधुः परव्यापा रनिरपेदोन विसृजेत् । तथाहि । सिंहव्याघ्रमार्जारादीन्परसत्वव्यापादनपरायणान् दृष्ट्वा माध्यस्थ्यमवलंबयेत् । तथा चोक्तं । मैत्रीप्रमोदकारुण्यमाध्यस्थ्यादीनि सत्वगुणाधिक क्लिश्यमानविनयेष्विति । एवमन्योपि वाक्संयमोइष्टव्यः। तद्यथा । अमी गवादयोवाह्या न वाह्यास्तथामी वृदादयश्वेद्यान द्यावेत्यादिकं वचोन वाच्यं साधुनेति ॥३॥ श्रयम परोवाक्संयमप्रकारोंऽतःकरणशुद्धिसमाश्रितः प्रदर्यते । (दीसंतीत्यादि) दृश्यंते समुप लन्यते स्वशास्त्रोक्तेन विधिना निनृतः संयतधात्मा येषां ते निनृतात्मानः । क्वचित्पाठः (समियाचारत्ति) सम्यक् स्वशास्त्र विहितानुष्टानाद विपरीतषाचारोऽनुष्ठानं येषां ते स म्यगाचाराः सम्पया इतोव्यवस्थिताचारोयेषां ते समिताचाराः । के ते ? । निदाए शीलानियोतिमामात्रवृत्तयः । तथा साधुना विधिना जीवितुं शीतं येषां ते साधु जीविनः । तथाहि । ते न कस्यचिउपरोधविधानेन जीवंति तथा दांतादांता जितक्रोधाः सत्यसंधादृढव्रतायुगांतरमात्रदृष्टयः परिपूतोदकपायिनोमौनिनस्सदा तायिनोविविक्तै कांतथ्यानाध्यासिनोकोकुच्यास्तानेवंनूतानवधार्याधपि सरागाधपि वीतरागाश्व चेष्टते इति मत्वैते मिथ्यात्वोपजीविनइत्येवं दृष्टिं न धारयेन्नैवंनूतमध्यवसायं कुर्यान्नाप्येवं नूतां वा चं निसजेद्यथैते मिथ्योपचारप्रवृत्तामायाविनइति । बद्मस्थेन ह्याग्दशिनवंनूतस्य निश्चय स्य कर्तुमशक्यत्वादित्यनिप्रायः । तेच स्वयूथ्यावा नवेयुस्तीतरीयावा तावुनावपि न वक्तव्यो साधुना । यतनक्तं । “यावत्परगुणपरदोषकीर्तने व्याप्टतं मनोनवति ॥ ताव , वरं विशुद्धे, ध्याने व्ययं मनः कर्तु"मित्यादि ॥ ३१ ॥ दकिणाए पडिलंनो, अबिवा पबिवा पुणो ॥ण वियागरऊ मेदावी,संतिमगंच ब्बुदए ॥३॥ श्च्चेएहिंगणेदिं, जिणदिवेदिं संजए॥धारयंते अप्पाणं,मोरकाए परिवएजा सित्तिबेमि॥३३॥ इति बीयसुयकंधस्स अणायारणाम पंचमसयणं सम्मत्तं ॥ अर्थ-वली याचार देखाडे. (द रिकणा के०) दान तेनो प्रतिलंन एटले गृहस्थ दान देवू, लेनारें दान ले. एवो व्यापार प्रवर्त्तमान देखी, यस्ति, अथवा नास्ति, एटले गुण, अथवा दूषण' कांड पण कह नहीं. (पुणो के०) असंयमनी अनुमोदन अनें दूषण केतां Page #925 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रायधनपतसिंघ बादाउरका जैनागम संग्रह नाग उसरा. नए। थका वृत्तिबेद थाय. ए कारण माटें, (मेहावी के०) जे पंमित होय, ते अस्ति, नास्ति, न कहे, तेवारें साधु केम बोले ? ते कहेले. (संतिमग्गंचब्बूहए के) शांतिमार्ग एटले मोदमार्ग ज्ञान, दर्शन, चारित्ररूपनी वृध्धि थाय; एवं वचन बोले. एटले जे वचन बो लवा थकी असंयम सावद्य न थाय, तेवु वचन बोले. इत्यर्थः॥३॥ हवे अध्ययन परि समाप्तिनें अर्थ कहेले. (इच्चे एहिंगणेहिं के०) एम ए पूर्वोक्तस्थानकें (जिगदिछहिंसंजए के०) जिन एटले वीतरागनाषित वचने युक्त, एवा संयत एटले जे चारित्रिया (धारयंतेन अप्पाणं के०) ते पोताना आत्माने धारे, क्यां लगें धारे? तोके (श्रामोरकाएपरिवएशासि के०) ज्यां सुधी मोद प्राप्ति थाय,त्यां सुधीधारे. हवे एवो उपदेश शिष्यनीप्रत्ये गुरु कहे. के,अहो शिष्य ! तुं श्रावा याचारें प्रवर्तजे.त्तिबेमिनो अर्थ पूर्ववत् जाणवो. ॥ ३३ ॥ ए बीजाश्रुतस्कंधने विषे अनाचार नामें पांचमायध्ययननो संक्षेपार्थ बालावबोध समाप्तथयो. ॥ दीपिका-(दस्किणाएत्ति) दानं दक्षिणा तस्याः प्रतिलंनः प्राप्तिदानलानः सोस्माद्गृ हस्थादेः सकाशादस्तिवा नास्तिवा इति न व्यागृणीयान्न वदेन्मेधावी किंतु ? शांतिमार्ग मोदमार्ग वृंहयेदृधि प्रापयेत् यथा मोदमार्गवृदिर्नवति तथा वदेदित्यर्थः ॥ ३३ ॥ त्येतैरनेकांत विधायिनिः स्थानैर्जिनो दिष्टैः संयतयात्मानं धारयन् यात्मानं प्रवर्तयन् था मोदाय कर्मक्ष्यार्थ परिव्रजेत्संयमे प्रवर्त्तत॥इति परिसमाप्तौ। ब्रवीमीति पूर्ववत् ॥३४ इति सूत्रकृतांगदीपिकायां दितीयश्रुतस्कंधेऽनाचारश्रुताख्यं पंचमाध्ययनं समाप्तम् ॥ ॥ टीका-किंचान्यत् । (दरिकणाएइत्यादि) दानं दक्षिणा तस्याः प्रतिलंनः प्राप्तिः स दानलानोऽस्माजहस्थादेः सकाशादस्ति नास्ति वेत्येवं न व्यागृणीयान्मेधावी मर्या दाव्यवस्थितः। यदिवा स्वयूथस्य तीर्थीतरीयस्य वा दानं ग्रहणंवा प्रतिलानः सएकांते ना स्ति संनवति नास्ति वेत्येवं न बयादेकांतेन तहानग्रहणनिषेधे दोषोत्पत्तिसंजवात् । तथा हि। तहाननिषेधेऽतरायसंनवस्त दैचित्र्यंच तहानानुमतावप्यधिकरणोनवश्त्यतोऽस्ति दानं न वेत्येवमेकांतेन न ब्रूयात् । कथं तर्हि बयादिति ? दर्शयति । शातिर्मोदस्तस्य मार्गः स म्यग्दर्शनशानचारित्रात्मकस्तमुपवृंहये वर्धयेत्। यथा मोक्षमार्गानिधिर्नवति तथा ब्रूया दित्यर्थः । एतउक्तं नवति । पृष्ठः केनचिदिधिप्रतिषेधमंतरेण देयप्रतियाहक विषयं निर वद्यमेवं ब्रूयादित्येवमादिकमन्यदपि ॥३२॥ सांप्रतमध्ययनार्थमुपसंजिघृकुराह (३ बेपहिमित्यादि) इत्येतैरेकांतनिषेधारेणानेकांतविधायिनिः स्थानसिंयमप्रधानैः समस्ताध्ययनोक्तैरागोषरहितैर्जिनदृष्टैरुपलब्धैर्न स्वमतिविकल्पोबापितैः संयतः सन् संयमवानात्मानं धारयन्ननिर्विविधधर्मदेशनावरसरे वाच्यं । तथा चोक्तं । “सावलपवला Page #926 -------------------------------------------------------------------------- ________________ GUE वितीये सूत्रकृतांगे वितीय श्रुतस्कंधे षष्ठाध्ययनं. णं वयणाएं जो नयाणइविसेसमित्यादिस्थानैरात्मानं वर्तयान्नामोदायाशेषकर्मक्ष्या थै मोदं यावत्परिसमंतात्संयमानुष्ठाने व्रजेजलेस्त्वमिति विधेयस्योपदेशः । इति परिस माप्त्यर्थे । ब्रवीमीति पूर्ववत् । नयाअनिहिताथनिधास्यमानलदपाश्चेति ॥ ३३ ॥ समाप्तमनाचारश्रुतारख्यं पंचममध्ययनमिति ॥ ॥ दवे बहुँ अध्ययन प्रारंनिये यें ॥ पांचमा अध्ययनने निषे श्राचारनी थाचरणा करवी, बने थनाचारनी परिहरणाए । टले अनाचारनो त्याग करवो. एम कर्दा.हवे ते प्रमाणे जे महानाग्यवान पुरुषथी करा य, ते बार्डकुमारना दृष्टांतनी पेठे देखाडेले. जेम थाईकुमारनो गोशालक साथें वाद थयो, ते रीतेंज या ब अध्ययनमां कहेले. प्रत्येक बुझ थाईकुमार, एकदा प्रस्तावें श्री महावीरदेवनी पासें थावतां अंतराले गोशालकें बोलाव्यो. ते कथा कहेने. पुराकडं अद्द इमं सुणेद,मेगंतयारी समणे पुरासी॥ से निरंकु णो नवणेत्ता अणेगे, आइकतिहि पुढोविबिरेणं॥१॥ साजी वियापछविता थिरेणं, सनाग गण निस्कुमद्ये ॥ आइक माणो बढुजन्नमबं, नसंधयाती अवरेण पुवं ॥२॥ अर्थ-दवे बाईकुमारनें गोशालक बोलावीने कहेले के, (थइमंसुणेह के०) नो याईकुमार ! जे हुँ कहुं ते तुं सनिल. (पुंराकडं के०) परापूर्वे जे जे था ताहारे ती र्थकरें कपुंजे, ते हूँ कहूं ते सांनल. ते गुं का? तोके, (मेगंतयारीसमणेपुरासी के०) ए श्रमण नगवंत महावीर पूर्व प्रथम एकांतचारी विहार करता हता. एटले एकातें लोक रहित एवा प्रदेशे विचरता हता, अनें अनेक प्रकारनां उग्रतप करता हता, ते हमणां उग्रतप आचरवा थकी नंग थया थका मुजने बोडीनें एटले महारो परित्याग करीने, ( से निरकुणोनवणेत्ताधणेगे के० ) ते साधु शिष्यो एकठा करीने अनेक देव, दे वी, मनुष्य, थने स्त्रीना द्वंद मांहें बेठा थका धर्म कहे. (थाइस्कतिसिंहपुढोविधिरेणं के० ) तथा घणा शिष्य एकठा करी, तमारा जेवा मुग्ध जननें विप्रतारवा माटें पृथक पृथक् जुदा जुदा विस्तारें करी धर्म कहे ॥१॥ वली गोशालक कहेले के, (साजीवि यापळविताथिरेणं के०) यदो बाईकुमार! ताहारे गुरुयें घणा लोक मांहें बेशी धर्म देशनाने मिशें आजीविका मांझी, केमके, एकाकी विचरतां लोक परानव करे, एवं Page #927 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राय धनपतसिंघ बादाउरका जैनागम संग्रह नाग उसरा. नए जाणीने, पंक्ति निमित्ने, घणो महोटो परिवार कस्यो, वली ए तमारो गुरु केवोने, तो के, अस्थिर एटले प्रथम माहारी साथै एकलो अंत प्रांत थाहारी शून्य एवा देवकुला दिक स्थानकोने विषे रहेतो हतो, थने तेवो नग्रयाचार वेतूना कवलनी पेठे निःस्वाद जाव जीवसुधा करवाने अशक्त, ते कारणे महारो समागम मुकीने घणा शिष्योने वि प्रता। एवे घटाटोपें विचरे, ते कारणे अस्थिरते. ते अस्थिर पणुं देखाडेले. (सनाग उ के०) सना जे देव अनें मनुष्यनी परषदा मांहे बेगे (गण-निरकुमो के० ) अने क निकुना समुदाय माहे रहेतो थको (भाइरकमाणोबहुजन्नमबं के) घणालोकने हितनो कारक, एवो अर्थ कहेतो देखायडे. ते कारणे (नसंधयातीयवरिणपुवं के० ) मांहोमांहे याचार तेनो संधि मलतो नथी, एटले प्रथमना आचारमा थने हमणाना थाचारमा मांहोमांहे विरोध देखायजे, ते ए प्रकारे के, सिंहासन,अशोक वृक्ष,नामंगल, जत्र, चामरादिक मंमाण जो मोक्न अंग होय तो,प्रथम जे नग्रक्रिया एणे कीधी तेतो निःकेवल क्लेश जणीज कोधी, अथवा जो ते क्रिया कर्म निर्करवानुं कारण हती, तो हमणानी क्रिया पण बीजानें विप्रतारवाने अर्थे,पाखंमरूप जाणी बैयें. वली प्रथमतो मौनपणुं रुडं जाणीने अंगीकार कयुं हतुं, त्यारें हमणा धर्मदेशना थापवान शंकाम? जो धर्मदेशना देवी, ए रुडुंडे तो पहेलां मौनपणुं थादयुं हतुं ते अत्यंत अयोग्यजे॥२॥ दीपिका-अथ षष्ठाध्ययनमारन्यते । तच्चाईककुमारकथासंबछत्वादाईकीयानिधानं । तत्कथाचेयं । मगधदेशे वसंतपुरे सामायिकोनाम कुटुंबी वसति । स वैराग्यतः श्रीधर्मघो षाचार्यपार्श्व पत्नीयुतः प्रव्रज्यां गृहीत्वा साधुनिः सह विहरति । सोऽन्यदा स्वपत्नी साध्वीं निझामटंती दृष्ट्वार रागी जातः। स्वानिप्रायः परस्य साधोस्तेन निवेदितः । तेनापि तत्प्रवर्ति न्यास्तयापि तस्याः साध्व्याः। ततः स्वपतिमनुरक्तं ज्ञात्वा साध्व्या नक्तप्रत्याख्यानपूर्वमा स्मोधनमकारि । मृत्वा स्वर्गमगात् । तदाकर्ण्य तत्पतिः साधुरपि गुरुमनाप्टवय नक्तं प्र त्याख्याय दिवं गतः । ततश्युत्वा बाईकपुरे नगरे आईकसुताईकानिधोजातः । साऽपि तत्पत्नी स्वर्गच्युता वसंतपुरे श्रेष्ठिपुत्री जाता। बाईकोपि युवा परमसुनगः संपन्नः। अन्यदाईकपित्रा जनहस्ते राजगृहे श्रेणिकराज्ञः प्रानृतं प्रेषितं । आईककुमारेण श्रेणि कसुतायाऽनयकुमाराय स्नेहकरणार्थ प्रानृतं तस्यैव हस्तेन प्रेषितं । जनोराजगृहे गत्वा श्रेणिकराज्ञः प्रानृतानि निवेदितवान् संमानितश्च राझा। बाईकप्रहितानि प्रानृतानि चाड जयकुमाराय दत्तवान् । कथितानि स्नेहोत्पादकानि वचनानि । अनयेनाचिंति । नूनम सौ नव्यः स्यादासन्नसिधिकोयोमया साईप्रीतिमिलतीति। ततोऽनयेन प्रथमजिनप्रतिमा बदुप्रानृतयुताईकुमाराय प्रहिता। इदं प्रान्तमेकांते निरूपणीयमित्युक्तं जनस्य । सोऽप्या ईकपुरं गत्वा यथोक्तं कथयित्वा प्रान्तमार्पयत् । प्रतिमा निरूपयतः कुमारस्य जातिस्म Page #928 -------------------------------------------------------------------------- ________________ GG तीये सूत्रकृतांगे वितीय श्रुतस्कंधे षष्टाध्ययनं रणमुत्पन्नं धर्म प्रतिबुझं मनः अनयं स्मरन् वैराग्यात्कामनोगेष्वनासक्तस्तिष्ठति । पि त्रा ज्ञातं मा क्वचिदसौ यायादिति पंचशतसुनटौर्नत्यं रयते। थाईककुमारोप्यश्ववादनि कायां निर्गतः प्रधानाश्वेन दूरंगत्वा पलायितः। ततः प्रव्रज्यां गृपहन देवतया निषिको पि प्रव्रज्यान्यतरप्रतिमाप्रतिपन्नोवसंतपुरे कायोत्सर्गस्थोदेवलोकच्युतया तया श्रेष्ठिपु त्र्याऽन्यबालिकानिः सह कीडंयाऽयं मम नत्युक्ते सन्निहितदेवतया साईत्रयोदशकोटि मिता सुवर्णवृष्टिः कृता । राजा तत्सुवर्ण गृपहन देवतया वारितः । इदं स्वर्णमस्याबा लिकायाएवेत्युक्तं च ततस्तत्पित्रा गृहीतं स्वर्ण । अनुकूलोपसर्ग मत्वाईमुनिरन्यत्र गतः। पुत्रीवरणार्थ वराः समायांति पुत्र्या कथितं पितुः एते वराः स्वस्थानं यांतु अहं तस्मै दत्ता त्वया यत्संबंधि हिरण्यं नवता जगृहे। पित्रोक्तं त्वं तं जानी कथं ? तयोक्तं । तच्चर गगतानिझानदर्शनाजानामि ।ततःसा दानशालायां स्थिता निदार्थिनामाहारं दत्ते।ततो दादशवर्षैर्गतैः कदाचिच्चासौ नवितव्यवशात्तत्रैव विहरन् समागतः पादचिन्हदर्शना पलचितच तया।ततः सा बाला सपरिवारा तत्टष्ठतोगता।आईककुमारोपि देवतावचनं स्मरन् कर्मोदयात्प्रतिनग्नस्तया साई नुनक्ति नोगान् पुत्रीजातः। आईकेणोक्तं सांप्रतं ते पुत्रोक्तिीयोननिर्वाहकः । अहं स्वकार्यमाचरामि तया सुतज्ञापनार्थ कार्पासक तनमारब्धं । दृष्टं च पुत्रेण किंमातरिदमारब्धं नवत्या? सा प्राहावत्स ! तव पिता प्रव्रज्यां ग्रहीतुकामः त्वं तु शिशुरद्यापि इव्याजनेऽसमर्थस्ततोहमनघा निंद्यवृत्याऽनया जीवनमि बामीति । तेन बालेन तत्कालोत्पन्नबुझ्या तत्कर्त्तितसूत्रेण वायं मया बोयास्यतीति मन्मननाषिणोपविष्टएव पिता वेष्टितः । पित्रा चिंतितं यावंतोमी वेष्टनसूत्रतंतवस्तावं ति वर्षाणि मया स्थातव्यं । तंतवश्च दादश । ततोसो दादशवर्षाणि गृहे तस्थौ । ततः प्रव्रजितः सूत्रार्थ निपुणएकाकी विहरन् राजगृहं प्रतिप्रस्थितस्तदंतराले तपक्षणार्थ या नि प्राक् पित्रा पंच राजपुत्रशतानि मुक्तानि तानि कुमारे नष्ट राजनयात्तत्राटव्यां चौर्य ण जीवंति । तैश्चाईकमुनिर्दृष्टउपलदितश्च । तेन टष्टास्ते किमिदमनार्य कर्मारब्धं नवनिः? तैश्च राजनयादि कथितं। मुनिवचनात्संबुदास्ते प्रव्रजिताः । तथा राजगृहनगरप्रवेशे गो शालकोहस्तितापसाब्राह्मणाश्च वादे पराजिताः । तथाईकुमारदर्शनादेव हस्ती बंधनादि मुक्तः । तेच हस्तितापसादयथाईमुनिधर्मकथादिप्ताः श्री वीरपार्थे निष्क्रांताः । राज्ञा ज्ञात स्वरूपेण दृष्टं । जगवन्! कथं त्वदर्शनतः करी बंधनान्मुक्तश्त्युक्ते मुनिराह । “न उक्करं वा रणपासमोयणं गयस्त मत्तस्स वर्णमि रायं ॥ एयंतु म पडिहाइउक्करं बस्स तक्काव लिएण तंतुणा" ॥१॥ष्करमेतन्नरपाशैर्बदस्य गजस्य मत्तस्य विमोचनं वने राजन्! एतत्तु मे प्रतिनाति पुष्करं यत्त'कावलितेन तंतुना बस्य मम प्रतिमोचन मिति।स्नेहर्ततवोहि जंतूनां मुखेदानवंतीति नावः ॥ बाईकमुनिकथा समाप्ता ॥ Page #929 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राय धनपतसिंघ बादाउरका जैनागम संग्रह नाग उसरा. जण सांप्रतं सूत्रं व्याख्यायते तच्चेदं ।(पुराकडमिति)यथा गोशालकेन साई वादोनूदाईककुमार स्य तथास्मिन्नध्ययने कथ्यतेतं चाईमुनिं प्रत्येकबुदंश्रीवीरांतिकमागचंतंगोशालोबवीद्यथा जोगाईक! यदहं वदामि तवृणु। पुरा पूर्व नवत्तीर्थकता यत्कृतं तदर्शयति।एकांते जनरहि तस्थाने चरतीत्येकांतचारी श्रमणः पुरासीत्तपश्चरणोद्यतः।सांप्रतं तु तपश्चारित्रनित्सितो मां विहाय देवादिमध्यगतोधर्ममाख्याति । तथा बढून् शिष्यान उपनीय बहुशिष्यपरिवारंक वा, नवादृशमुग्धानां इदानीं टथग्विस्तारेण धर्ममाख्याति॥१॥या नवजुरुणा देशना क्रियते सा जीविका प्रकर्षण स्थापिता एकाकी विहरन लोकैः परिनूयतइति । यमुक्तं । “त्रं बात्रं पा त्रं,वस्त्रं यष्टिं च चर्चयति निकुः॥वेषेण परिकरेण च, कियतापि विना न निक्षा पि"॥१॥इति कृत्वा तेन परिवारः कृतः। तदनेन दंनप्रधानेनजीविकार्थमिदमारब्धं। किंनूतेन थस्थिरेण पूर्व मया साईमेकाकीअंतप्रांताहारेण शून्यवनादौ वृत्तिं कृतवान् । नच तादृशं पुष्करमनु ष्ठानं यावजीवं कर्तुमतं । ततो मां त्यक्त्वा बहून् शिष्यान् विधायामंबरेण चरति ततोऽ स्थिरश्चपलः पूर्वाचारत्यागात् तथा सनागतोऽयं गणशोऽनेकशोनिकुमध्य स्थितयाचदा गोबहुजनेच्योहितं बहुजन्यमर्थ कथयन् विहरति एतच्चास्यानुष्ठानं पूर्वापरेण न संधत्त । तथाहि । यदि सांप्रतीयं वृत्तं प्राकारत्रय सिंहासनाशोकरदनामंमलचामरादिकं मोदांग मनविष्यत्ततोया प्राक्तन्येकचर्या क्वेशबहुलानेन कृतेनाक्तशाय केवलमस्येत्यथ सा कमेनिर्ज रणहेतुका परमार्थनूता ततः सांप्रतावस्था परप्रतारकत्वाईनकल्पेत्यतः पूर्वोत्तरयोरनुष्ठान योमौनव्रतिकधर्मदेशनारूपयोः परस्परतोविरोधइति । अतएवास्य चरित्रं पूर्वापरेण न संदधाति पूर्वापर विरोधीत्यर्थः ॥ २ ॥ ॥टीका-नक्तं पंचममध्ययनं सांप्रतं षष्ठमारज्यते। अस्य चायमनिसंबंधः । इहानंतराध्यय ने थाचारः प्रतिपादितोऽनाचारपरिहारश्च सच येनाचीर्णः परित्तश्चासावधुना प्रतिपाद्य ते। यदियाऽनंतराध्ययने स्वरूपमाचारानाचारयोःप्रतिपादितं तच्चाशंक्यानुष्ठानं न नवत्य तस्तदा सेवकोदृष्टांतनूतथाकः प्रतिपाद्यतइत्यथवाऽनाचारफलं ज्ञात्वा सदाचारे प्रय नः कार्योयथाईककुमारेण कृतश्त्येतदर्शनार्थमिदमध्ययनाथस्य चत्वार्यनुयोग वाराण्यु पक्रमादीनि वाच्यानि। तत्रोपक्रमांतर्गतीर्थाधिकारोयं। तद्यथा बाईककुमारवक्तव्यता यथा सावनयकुमारप्रतिमाव्यतिकरात्प्रतिबु-इस्तथात्र सर्व प्रतिपाद्यतइति निक्षेप स्त्रिधा। तत्रौ घनिष्पन्ने निदेपेऽध्ययनं नाम निष्पन्ने निक्षेपेवाईकीय। तत्राईपदनिकेपार्थ नियुक्तिकदाह। "नाम उवणा थदं,दवई चेव हो जावई॥ एसो खलु अद्दस निरकेवो चनविदो हो" ॥१॥ (नामंठवणाअदमित्यादि) नामस्थापनाव्यनावनेदाचतुर्धाकस्य नि पोइष्टव्यः। तत्र नामस्थापनेऽनादृत्य इव्याईप्रतिपादनार्थमाह। “नदगदं सारद,बवियहं खलु तहासि Page #930 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ए00 वितीये सूत्रकृतांगे वितीय श्रुतस्कंधे षष्टाध्ययनं. णेहदं ॥ एवं दवई खलु,नावेणं हो रागदं " ॥२॥ (सदगदमित्यादि) तत्र व्या विधा बागमतोनो बागमतश्चाबागमतोझाता तत्र चानुपयुक्तोऽनुपयोगो व्यमितिकृत्वा नो था गमस्तु इशरीरनव्यशरीरव्यतिरिक्तं यदकेन मृत्तिकादिकं इव्यमार्दीकतं तदकाई । सा राईतु यदहिः गुष्काईमप्यंतमध्ये सार्डमास्ते यथा श्रीपर्णसौवर्चलादिकाबवियदंतु यत् स्निग्धत्वगव्यं मुक्ताफलरक्ताशोकादिकं तदनिधीयते वसयोपलिप्तं वासाई तथा श्लेष्मा ६ चक्रपाद्युपतिप्त स्तनकुमयादिकं यहव्यं तस्निग्धाकारतया श्लेष्माईमिनिधीयते। एत त्सर्वमप्युदका दिकं व्याईमेवानिधीयते। खलुशब्दस्यैवकारार्थत्वात् । नावाई तु पुनः रागः स्नेहानिष्वंगस्तेनाईयजीवव्यं तनावामित्य निधीयते !सांप्रतमाईककुमारमधिक त्यान्यथा व्याई प्रतिपादयितुमाह।“एगनवियबा,या थनिमुह नामगोएय॥ एते ति ना देसा,दवेमि अहगेहोति"॥३॥ (एगनवियइत्यादि) एकेन नवेन योजीवः स्वर्गादेरागत्या ईककुमारत्वेनोत्पत्स्यते तथा ततोप्यासन्नतरोबदायुष्कस्तथा ततोप्यासन्नतमोनिमुखना मगोत्रोयोनंतरसमयमेवाईकत्वेन समुत्पत्स्यते।एते त्रयोपि प्रकाराव्याईके इष्टव्याइति । सांप्रत नावाईकमधिकत्याह । “थहपुरा अहसुतो.नामेण अह गोय यणगारो॥ तत्तो समुति यमिणं,अक्षयणं थदशकांति"॥४॥(अहपुराइत्यादि) थाईकायुष्कनामगोत्राम्यनुनवन्नावा निवति।यद्यपि शंगवेरादीनामप्याकसंझाव्यवहारोस्ति तथापि नेदमध्ययनं तेन्यःसमुधि तमतोन तैरिहाधिकारः किंवाईककुमारानिधानगारात्समुचितमतस्तेनैवेदाधिकारशतिक त्वा तक्तव्यताऽनिधीयते । एतदेव नियुक्तिकदाह । (यद्दपुराइत्यादि) यस्याः समासेना यमर्थः । थाईक पुरे नगरे थाईकोनाम राजा तत्सुतोप्याईकानिधानः कुमारस्तदंशजाः किल सर्वेप्याईकानिधानाएव नवंतीतिरुत्वा सचानगारः संवृतस्तस्य च श्रीमन्महावीरव ६मानस्वामिसमवसरणे गोशालकेन सा हस्तितापलेश्च वादोनूत्तेनच ते एतदध्ययनार्थों पन्यासेन पराजितायतइदमनिधीयते । ततस्तस्मादाकारसमुचितमिदमध्ययनमाकीय मिति गाथासमासार्थः। व्यासार्थ तु स्वतएव नियुक्तिकदाईकपूर्वनवोपन्यासेनोत्तरत्र कथयि ष्यतीति । ननुच शाश्वतमिदं वादशांगमपि गणिपिठकमाईककथानकं तु श्रीवईमानतीर्थाव सरे तत्कथमस्य शाश्वतत्वमित्याशंक्याह ।“ कामं ज्वालसंगं,जिणवयणं सासयं महाना गं। सवयणाईसहा,सवरकरसस्लिवाय" ॥५॥ (काममित्यादि) काममित्येतदन्युपगमे इष्टमेवेतदस्माकं तद्यथा। वादशांगमपि जिनवचनं नित्यं शाश्वतं महानागं महानुनावमा मर्वोषध्यादिशदिसमन्वितत्वान्न केवलमिदं सर्वास्यप्यध्ययनान्येवंचूतानि तथा सर्वाकर सन्निपाताभ मेलापकाव्यार्थादेशानित्याएवेति । ननुच मतानुज्ञानामनिग्रहस्थानं नव तइत्याशंक्याह। "तहवियकोईयष्ठो अप्पङतितम्मि समयंमि ॥ पुत्व नणि अणुमतो इति इसिनासिए य जहा" ॥६॥ (तहवियइत्यादि) यद्यपि सर्वेमपीदं व्यार्थतः शाश्वत तथा Page #931 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राय धनपतसिंघ बादाडुरका जैनागम संग्रह नाग डुसरा. ०१ ॥ पि कोप्यर्थस्तस्मिन् समये तथा क्षेत्रेच कुतश्चिदाईकादेः सकाशादाविनविमास्कंदति सते न व्यपदिश्यते । तथा पूर्वमप्यसावर्थोऽन्यमुद्दिश्योक्तोऽनुमतश्च नवति ऋषिनाषितेषूत्तरा ध्ययनादिषु यथेति । सांप्रतं विशिष्टतरमध्ययनोबानमाह । “ प्रऊद एगोसा, जनिरकु नवतीति दंडीणं ॥ जह दवितावसा, कहिये इमो तहाबु" ॥७॥ (ऊदएणेत्या दि) प्रार्या के समवसरणानिमुखमुच्चलितेन गोशालक निदोस्तथा ब्रह्मव्रतिनां त्रिदं मि नां यथा हस्तितापसानां च कथितमिदमध्ययनार्थं जातं तथा वदये सूत्रेणेति । सांप्रत स पूर्व नवमा ककथानकं गायानिरेव निर्युक्तिरुदाह । “गामे वसंतपुरये, साम हितोधरणि सहितो निरकंतो || निरकाय रियादिहा, उदासिय नत्तवेदासं " ॥ ८॥ संवेगसमावन्नो, माईन तं च इन्त्रुदिय लोए || चनक प्रदपुरे, मु अ जाने || || पीतीयदोषहदू पुष्ठ मनयस पञ्चवे सोन ॥ तेषावि सम्मद्दिहित्ति दोऊ, पडिमारहंमि गया ॥ १० ॥ दहुं संबुदो ररिक य, यासाणवाहणपलातो ॥ पवावंतो धरितो, रऊं न करेति कोअन्नो ॥ ११ ॥ गणितो निरकंतो, विहरइ पडिमा इदारिगाचरिईन || सुवरणवसुहारा, र नो कहणं च देवीए ॥ १२ ॥ तं नइ पिता तीसे, पुढणकहणं च वरदोवारे ॥ जालाइ पायाबंब, आगमणं कहणनिग्गमणं ॥ १३ ॥ पडिमागतीसमीवे, सपरीवारा निरकपडिवय णं ॥ जोगमुतापुर,तबंधपुन्नेय निग्गमणं ॥ १४॥ रायगिहागमचोरा, रायनया कहाते सि दिरकाया ॥ गोसाल निरकु बंजी, तिमियाताव से हिं सहवादो ॥१५॥ वादे पराइयत्तो, सवे विथ सरणमनुवगतातो ॥ यद्दगसहिया सवे, जिणवीरसा सिनिरकंता ॥ १६ ॥ ( गामेइत्यादिगा थाष्टकं) यासां चार्थः कथानकादवसेयस्तच्चेदं । मगधजनपदे वसंतपुरे ग्रामे तत्र सामा विकोनाम कुटुंबी प्रतिवसति । सच संसारनयो६िनोधर्मघोषाचार्यातिके धर्म श्रुत्वा स पत्नीकः प्रव्रजितः सच सदाचारतः संविग्नैः साधुनिः सार्द्धं विहरतीतरानिः साध्वी निः । सहेति । कदाचिच्चासावेकस्मिन्नगरे निक्षार्थ मटती दृष्ट्वा तामसौ तथाविधकर्मोदया पूर्वरतानुस्मरणेन तस्यामध्युपपन्नस्तेन चात्मीयोऽनिप्रायोद्वितीयस्य साधोर्निवेदितस्ते नापि चैतत्प्रवर्तिन्यास्यापि चानिहितं न मम देशांतरे एकाकिन्या गमनं युज्यते न चा सौ तत्राप्यनुबंधं त्यक्ष्यतीत्यतो ममास्मिन्नवसरे नक्तप्रत्याख्यानमेव श्रेयोन पुनर्व्रतवि लोपन मित्यतस्तया नक्तप्रत्याख्यानपूर्वकमात्मोधनमकारि मृता सागाच्च देवलोकं । श्रुत्वा चैनं व्यतिकरमसौ संवेगमुपगतश्चितितं च तेन । तथा व्रतचंगनंयादिदमनुष्ठितं म मत्वसौ संजातएवेत्यतोहमपि नक्तप्रत्याख्यानं करोमीत्याचार्यस्यानिवेद्यैवासौ मायाव्यथ च परमसंवेगापन्नोऽसावपि नक्तं प्रत्याख्याय दिवंगतस्ततोपि च प्रत्यागत्याईपुरे नगरे खाई कसुताईका निधानोजातः । सापिच देवलोकाच्युता वसंत पुरे नगरे श्रेष्टिकुले दारिका जाता इतरो पिच परमरूपसंपन्नोयौवनस्थः संवृत्तोन्यदासावाईक पिता राजगृहन For Private Personal Use Only Page #932 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एश वितीये सूत्रकृतांगे वितीयश्रुतस्कंधे षष्ठाध्ययनं. गरे श्रेणिकस्य राज्ञः स्नेहाविष्करणार्थ परमप्रानृतोपेतं महत्तमं प्रेषयत्याककुमारेणासौ पृष्टोयया कस्यैतानि महाण्यत्युग्राणि प्रानृतानि मत्पित्रा प्रेषितानि यास्यंतीत्यसावक थयद्यथार्यदेशे तव पितुः परममित्र श्रेणिकोमहाराजा तस्यैतानीत्याईककुमारेणाप्य नाणि किं तस्यास्ति कश्चिद्योग्यः पुत्रोस्तीत्याह । यद्येवं मत्प्रहितानि प्रानृतानि जवता त स्य समर्पणीयानीति नणित्वा महाएणि प्राजूतानि समानिहितं वक्तव्योसौ मच नाद्यथाककुमारस्त्वयि स्निह्यतीति सच महत्तमोगृहीतोजयप्रानृतोराजगृहमगाजत्वा च राजारपालनिवेदितोराजकुलं प्रविष्टो दृष्टश्च श्रेणिकः प्रणामपूर्व निवेदितानि प्रानृतानि कथितं च यथासंदिष्टं । तेनाप्यासनाशनतांबूलादिना यथाईप्रतिपस्या सन्मानितोहितीये चान्ह्याईककुमारसत्कानि प्रानृतान्यनयकुमारस्य समर्पितानि कथिता निच तत्प्रीत्युत्पादकानि तत्संदिष्टवचनान्यनयकुमारेणापि परिणामिक्यबुध्या परिणामि तं नूनमसौ नव्यः समासन्नमुक्तिगमनश्च तेन मया साई प्रीति मिन्नतीति। तदिदमत्र प्रा प्तकालं यदादितीर्थकरप्रतिकरप्रतिमासं दर्शनेन तस्यानुग्रहः क्रियतइतिमत्वा तथैव क तं महाहाणिच प्रेषितानि प्राजतानीति । उक्तश्च । महत्तमोयथा मत्प्रहितप्रानतमेतदेकां ते निरूपणीयं तेनापि तथैव प्रतिपन्नं गतश्वासावाईकपुरं समर्पितं च प्रान्त राज्ञोति तीये चान्ह्याईककुमारस्येति कथितंच यथासंदिष्टं तेनाप्येकांते स्थित्वा निरूपिता प्रतिमा तांच निरुपयतकहापोह विमर्शनेन समुत्पन्नं जातिस्मरणं चिंतितंच तेन यथा ममान यकुमारेण महानुपकारोऽकारि सर्मप्रतिबोधतइति । ततोसावाईकःसंजातजातिस्मरणो चिंतयद्यस्य मम देवलोकनोगैर्यथेप्सितं संपद्यमानैस्तृप्ति नूत्तस्यामीनिस्तुबैर्मानुषैः स्व ल्पकालीनैः कामनोगैस्तुतिनविष्यतीति कुतस्त्यमित्येतत्य रिगणय्य निर्विमकामनोगो यथोचितनोगमकुवेंन् राझा संजातनयेन मा कचिद्यायात्यतः पंचनिः शतैराजपुत्राणां र दयितुमारेने । आईककुमारोऽप्यश्ववाहनिकया विनिर्गतः प्रधानावन प्रपलायितः तत श्व प्रव्रज्यां गृएहन देवतया सोपसर्ग नवतोद्यापि नणित्वा निवारितोप्यसावाईकोराज्यं तावन्न करोति कोन्योमां विहाय प्रव्रज्यां ग्रहीप्यतीत्यनिसंधाय तां देवतामवगणय्य प्रव्रजितोविहरन्नन्यदान्यतरप्रतिमाप्रतिपन्नः कायोत्सर्गव्यवस्थितोवसंतपुरे तया देवलो काच्युतया श्रेष्टिउहित्रा परदारिकामध्यगतया रमत्येषमम नत्येवमुक्ते सत्यनंतरमे व तत्सन्निहितदेवतयारत्रयोदशकोटिपरिमाणा शोननं तृतमनयेति नणित्वा हिरण्य वृष्टिर्मुक्ता तांच हिरण्यवृष्टिं राजा गृाहन देवतया सद्युबानतोविधतोऽनिहितं च तया यथैतहिरण्यं जातमस्यादारिकायाः नान्यस्य कस्यचिदित्यतस्तत्पित्रा सर्व संगो पितमाईककुमारोप्यनुकूलोपसर्गतिमत्वाऽश्वेनान्यत्र गतोगन तिच। काले दारिकाया वरकाः समागचंति पृष्टौच पितरौ तया किमेषामागमनप्रयोजनं? कथितंच तान्यां यथैते Page #933 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राय धनपतसिंघ बाहाउरका जैनागम संग्रह नाग उसरा. ए०३ तव वरकाशति । ततस्तयोक्तं तात ! सत्कन्याः प्रदीयंते नानेकशोदत्ता चाहं तस्मै यत्सं बंधं हिरण्यजातं नवनिगृहीतं ततः सा पित्राऽनाणि । किं त्वं तं जानीषे ? तयोंक्तं तत्पादग तानिज्ञानदर्शनतोजानामीति । तदेवमसौ तत्परिझानार्थ सर्वस्य निक्षार्थिनोनिदा दापयितुं निरूपिता ततोकादशनिर्वषैर्गतैः कदाचिच्चासौ नवितव्यतानियोगेन तत्रैव वि हरन्समायातः प्रत्यनिझातश्च तया तत्पादचिन्हदर्शनतस्ततोसौ दारिका सपरिवारा तत्ट ष्ठतोजगामाईककुमारोपि देवतावचनं स्मरंस्तथाविधकर्मोदयादवश्यं नवितव्यतानियो गेन च प्रतिनग्नस्तया साई नुनक्ति नोगान पुत्रश्चोत्पन्नः पुनराईककुमारेणासावनिहिता सांप्रतं ते पुत्रोक्तिीयोहं स्वकार्यमनुतिष्ठामि तया सुतव्युत्पादनाथ कासकर्तनमारब्धं दृष्टा चासो बालकेन किमबैतनवत्या प्रारब्धमितरजनाचरितं ततोसाऽववोचद्यथा तव पि ता प्रव्रजितकामस्त्वं चाद्यापि शिशुरसमॉर्थार्जनेततोहमनाथा स्त्रीजनोचितेनानिये न विधिनाऽऽत्मानं नवंतं च किल पालयिष्यामीत्येतदालोच्येदमारब्धमिति । तेनापि बा लकेनोत्पन्नप्रनूतया तत्कर्तितसूत्रेणैव कायं मोयास्यतीति मन्मनोनाषिणोपविष्टए वासौ पिता परिवेष्टितस्तेनापि चिंतितं यावंतोमी बालककतवेष्टनतंतवस्तावंत्येव वर्षाणि मया गृहस्थातव्यमिति निरूपिताश्च तंतवोयावद्वादश तावंत्येव वर्षारयसो गृहवासे व्य वस्थितः पूर्णेषु दादशसु संवत्सरेषु गृहान्निगेतः प्रव्रजितश्चति । ततोसौ सूत्रार्थ निष्पन्न एका किविहारेण विहरन राजगृहानिमुखं प्रस्थितस्तदंतराले च तदणाथै या नि प्राक पित्रा निरूपितानि पंचराजपुत्रशतानि तस्मिन्नश्वे नष्टे राजनयालयाच्च नरा जांतिकं जग्मुस्तत्राटवीउर्गेण चौर्येण वृत्तिं कहिपतवंतस्तैश्चासौ दृष्टः प्रत्यनिझातश्च ते च तेन दृष्टाः किमिति नवनिरेवंनूतं कर्माश्रितं? तैश्च सर्व राजनयादिकं कथितमाईककु मारवचनाच संबुझाः प्रव्रजिताश्च । तथा राजगृहनगरप्रवेशे गोशालकोहस्तितापसाः ब्रा मणाश्च वादे पराजिताः । तथाईककुमारदर्शनादेव हस्ती बंधनादिमुक्तस्तेच हस्तिताप सादयाईककुमारधर्मकथाक्षिप्ताजिनवीरसमवसरणे निष्क्रांताः। राज्ञा च विदितवृत्तांत त्वेन महाकुतूहलापूरितत्वदयेन एष्टोनगवान कथं त्वदर्शनतोहस्ती निरर्गलः संवृत्तति महान नगवतः प्रनावश्त्येवमनिहितः सन्नाईककुमारोब्रवीनवमगाथयोत्तरं ॥” उक्कर वारणपासमोयणं,गयस्स मत्तस्स वर्णमिरायं ॥ जहा उवत्ता वलिएण तंतुणा, सुटक्करमे प डिहाइमोयणं ॥१७॥ (गठक्करमित्यादि) न उष्करमेतन्नरपाशैर्बधमत्तवारणस्य विमोचनं वनेराजनेतत्तु मे प्रतिनाति पुष्करं यच्च तत्रावलितेन तंतुना बस्य मम प्रतिमोचनमिति । स्नेहतंतवोहि जंतूनां कुरुन्जेदानवंतीति नावः । गतमाईककथानकं॥ नामनिष्पन्न निपश्च । तदनंतरं सूत्रानुगमेऽस्खलितादिगुणोपेतं सूत्रमुच्चारयितव्यं । तच्चे द।(पुराकडमित्यादि)यथा च गोशालकेन साई वादोनूदाईककुमारस्य तथानेनाध्ययनेनोप Page #934 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ०४ द्वितीये सूत्रकृतांगे द्वितीय श्रुतस्कंधे षष्ठाध्ययनं. दिश्यते तंच राजपुत्रकमाई ककुमारं प्रत्येकबुद्धं नगवत्समीपमागचं तं गोशालको ब्रवीद्यथा हे खाक! यदहं ब्रवीमि तछृणु । पुरा पूर्व यदनेन जगवत्तीर्यकृता कृतं तचेदमिति दर्शयति । एकांते जनरहिते प्रदेशे चरितुं शीलमस्येत्येकांतचारी तथा श्राम्यतीति श्रमणः पुरासीत्तप श्वरोद्युक्तः सांप्रतं तूयैस्तपश्चरण विशेषैर्निर्नर्टिसतोमां विहाय देवादिमध्यगतोसौ धर्म कि कथयति तथा निक्कून् बहूनुपनीय प्रभूत शिष्यपरिकरं कृत्वा नवद्दिधानां मुग्धजनानामिदा नीं ष्टथक् पृथग्विस्तरेणाचष्टे धर्ममिति शेषः ॥ १ ॥ पुनरपि गोशालक एव (साजी विए) 5 त्याद्याह येयं बहुजनमध्यगतेन धर्मदेशना युष्मगुरुलारब्धा सा जीविका प्रकर्षेण स्थापि प्रस्थापिता marat विहरलोकिकैः परिभूयतइतिमत्वा लोकपंक्तिनिमित्तं महान् परिकरः कृतः । तथाचोच्यते । “उत्रं, बात्रं, पात्रं, वस्त्रं यष्टिं च चर्चयति निक्तुः ॥ वेषेण प रिकरेणच, कियतापि विना न निक्षापि " ॥ तदनेन दंनप्रदानेन जीविकार्थमिदमारब्धं । किंनूतेना स्थिरे पूर्वं ह्ययं मया साईमेकाक्यंत प्रांताशनेन शून्यारामदेवकुलादौ वृ तिं कल्पितवान्न च तथा नूतमनुष्ठानं सिकता कवलवन्निरास्वादं यावज्जीवं कर्तुमल मतोमा विहायायं बहून् शिष्यान् प्रतार्येवंभूतेन स्फुटाटोपेन विहरतीत्यतः कर्तव्ये स्थिरश्चपलः पूर्वचर्यापरित्यागेना परकल्पसमाश्रयात् । एतदेव दर्शयति । सनायां ग तः सदेवमनुजपर्षदि व्यवस्थितो ( गणउत्ति ) गणशोबहुशोऽनेकशइति यावत् नि कूणां मध्ये गतोव्यवस्थितश्राच णोबहुजनेच्यो हितोबहुजन्योर्थस्तमर्थ बहुजन हितं aart विहरति एतच्चास्यानुष्ठानं पूर्वापरेण न संधते । तथाहि । यदि सांप्रती वृत्तं प्राकारत्रयं सिंहासनाशोकवृक्षनामंगलचामरादिकं मोहांगमनविष्यत्ततोया प्रा न्येकचर्या शबदुला तेन कृता सा क्लेशाय केवलमस्येत्यथ कर्म निर्जरण हेतुका पर मार्थता ततः सांप्रतावस्था परप्रतारकत्वाईं नकल्पेत्यतः पूर्वोत्तरयोरनुष्ठानयोमै नत्र तिकधर्म देशनारूपयोः परस्परतो विरोधइति ॥ २ ॥ एतमेव वा विसिंह, दोवग्गमन्नं न समेति जम्दा ॥ पु विं च इसिंह च प्रणागतं वा, एगंतमेवं पडिसंधयाति ॥ ३ ॥ स मिच्च लोगं तसथावराणं, खेमंकरे समणे माहणे वा ॥ प्राइ कमाणोवि सदस्समझे, एगंतयं सारयति तदच्चे ॥ ४ ॥ अर्थ- वली गोशालक कहेले. के, यहो घाईकुमार ! ( एगंतमेवं के० ) जो एकांत विचरकुंज रुडुंबे, एवं जाणीनें ताहरे गुरुयें यादसुं हतुं, तो सदैव तेनोज अंगीका करवो हतो, (वाविसिंह के० ) अथवा दमणां अनेक साधुना परिवारें परव For Private Personal Use Only Page #935 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रायधनपतसिंघ बाहारका जेनागम संग्रह नाग दुसरा. एण् tat थको जो साधुपदनुं मानबे तो, प्रथम थकीज ए याचार केम न खादयो ? माटें (दोवरगमन्नंनसमे तिजम्हा के० ) ए बेदु आचार, बायानी नें तडकानी पेठें मांहो मां हेमलता नथी, तथा जो मौनपणाने विषे धर्मबे तो ए, धर्मदेशना शा माटें छापे वे ? अथवा जो धर्मदेशनानें विषेज धर्मबे, तो मौनव्रत यादवानुं शुं कारण हतुं ? ते कारण माटें ताहरो गुरु अत्यंत विरुद्धाचारी देखायडे. एवां वचन गोशालकनां सांजली हवे गाथाना उत्तरार्द्धवडे प्राकुमार, ते गोशालकनें उत्तर चापेढे. ( पुचिइसिंहव तंवा के० ) पूर्व कालें जे मौनपणुं नें एकचर्या, श्री महावीरदेवें यादरी हती ते स्थपणा की घातियां चार कर्मनो दय करवानें यर्थे जाणवी; खनें हमणां जे नेक लोक यागल धर्मनुं प्रकाशवुं करेले, ते बली प्रघातियां चार कर्मनी शुद्ध प्र कृति खपाववानें अर्थ जाणवुं. ए कार णें प्रथम तथा हमलां तथा अनागत एटले या गमिककालें राग द्वेषनें नावें, एकत्वपगुंज संनावियें बैयें. ( एगंतमेवंप डिसंधयाति के० 0 ) तेथी एना प्रथमना नें पाउलना याचारनो कांइ नेद नथी, माटें जे ताहरा मन पूर्वापर याचारनो विरोध जलायबे ते खोटो जावो, तुं जोतो खरो ! के, एना धर्मोपदेशें करी केला एक प्राणीजने उपकार थायले के, नथी यतो ? ॥ ३॥ तेहिज क sa (समिचलगंतसथावराणं के०) लोक जे षट् इव्यात्मक, तेनें समिन्च एटले केवल ज्ञानें करो जाणीनें, त्रस यनें स्थावर जे प्राणी, एतावता चोरांशी लक्ष जीवा योनि तेनें, (खेमंकरे के ० ) देमना करनार, तथा ( समये के० ) श्रमण एटले बार दें तपना करनार, तथा ( माहोवा के ० ) कोइ जीवनें म हलो एवो जेनो देशले ते माहण अथवा ब्राह्मण एवा जे श्री महावीर देव, ते प्राणीउना हितने अर्थे ( बाइकमा लो वि सहस्सम के के० ) राग द्वेषरहित धर्म, मनुष्यना सहस्रमध्ये प्रकाशता बता ( एगंतयंसा यहि ० ) तेमज पूर्वनी पेठें एकांत पशुंज साधेबे. एनी पूर्वनी अवस्थामा खनें हमणांनी अवस्थामा कांई पण अंतर नथी, तथा खर्चा एटले शुक्र ध्यानरूप जे बेश्या, ते जेनें एवा, तथा प्रशोकादि ऋष्ट महाप्रातिहार्य तेणें युक्तबे तो पण, अहंकार नथी, तथा शरीर संस्कारनणी यत्न पण करता नथी. ए कारण माटें ते जगवंत अनेक लोकें परवस्था का पण, राग द्वेषना अनावथकी एकाकीज जाणवा इत्यर्थः ॥ ४ ॥ || दीपिका - ( एतमेवमित्यादि ) यद्येकांतचारित्रमेव शोजनं पूर्वमाश्रितत्वात्ततः सर्वदा निरपेदैस्तदेव कर्तव्यं अथ चेदं सांप्रतं परिकरबहुत्वं श्रेयस्तदा पूर्व तदेव कार्य ये बायातपवदत्यंतं विरोधिनी वृत्ते नैकत्र समवायं गतस्तथा यदि मौनेन धर्मस्त तः किमियं महता प्रबंधेन धर्मदेशनाऽथानयैव धर्मस्ततः किमिति पूर्व मौनव्रतमने ११४ For Private Personal Use Only Page #936 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एण्६ वितीये सूत्रकृतांगे वितीय श्रुतस्कंधे षष्ठाध्ययनं. नाललाप यस्मादेवं तस्मात्पूर्वापरविरोधः । एवं गोशालकेनोक्ते आईककुमारः श्लोकपश्चा ईनोत्तरदानायाह । पूर्व यदेकत्वं मौनव्रतिकत्वं च जगवतः तबद्मस्थत्वाद् घातिकर्मच तुष्टयदयार्थ सांप्रतं बहुपरिवारस्य यधर्मदेशकत्वं तबेषकर्मदयाय तीर्थकन्नाम कर्म वेदनार्थच ततः पूर्वमिदानीमनागतेच काले रागदेषरहितत्वादेकत्वनावनया एकल मेव धर्म कथयन् प्रतिसंदधाति न तस्य पूर्वापरविरोधोस्ति आशंसारहितत्वात् ॥३॥ लानार्थ देशनां करोतीत्याह । समेत्य लोकं यथावस्थितं ज्ञात्वा त्रसस्थावराणां देमंक रोरदकः श्रमणोधादशधा तपःप्रवृत्तःमाहणत्ति प्रवृत्तिर्यस्य स माहनोब्राह्मणोवा समतया धर्ममाचदाणोपि मौनी च वाक्संयतएव तथा सहस्राणां मध्ये स्थितोपि एकांतमेव सा रयति साधयति तस्मात्तथार्चः तथैव प्राग्वदर्चा लेश्या यस्य स तथार्चः । यदिवार्चा शरीरं तच्च प्राग्वद्यस्य स तथार्चस्तथाह्यशोकाद्यष्टप्रातिहार्योपेतोपि नोत्सेकं याति नापि शरीरसंस्काराय यत्नं विदधाति सहि नगवानात्यंतिकप्रहाणादेकाकी जनपरित तोप्येकाकी न तस्य तयोरवस्थयोः कश्चिविशेषोस्ति रागोषमुक्तत्वात्पूर्व पश्चाच्च तुल्याश यइत्यर्थः । यउक्तं । “रागवैषौ विनिर्जित्य, किमरण्ये करिष्यसि ॥ अथ नो निर्जितावे तौ, किमरण्ये करिष्यसीति ॥ ४ ॥ ॥ टीका-अपिच ( एगंत मित्यादि ) यद्येकांतचारित्रमेव शोननं पूर्वमाश्रितत्वात्त तः सर्वदान्यनिरपेदैस्तदेव कर्तव्यमथचेदं सांप्रतं महापरिवारवृतं साधु मन्यसे ततस्तदे वादावण्याचरणीयमासीदपिच ६ अप्येते बायातपवदत्यंत विरोधिनी वृत्ते नैकत्र'समवा यं गतस्तथा यदि मौनेन धर्मस्ततः किमियं महता प्रबंधन धर्मदेशनाऽथानयैव धर्म स्ततः किमिति पूर्व मौनव्रतमाललाप यस्मादेवं तस्मात्पूर्वोत्तरव्याहतिः । तदेवं गोशालकेन पर्यनुयुक्ताईककुमारः श्लोकपश्चानोत्तरदानायाह । पूर्व पूर्वस्मिन्काले यन्मौनव्रतिकत्वं या चैकचर्या तबद्मस्थत्वाद् घातिकर्मचतुष्टयक्ष्यार्थ । सांप्रतं यन्मदा जनपरिवृतस्य धर्मदेशनाविधानं तत्प्राग्बधनवोपग्राहिकर्मचतुष्टयपणोद्यतस्य विशे षतस्तीर्थकरनाम्नोवेदनार्थमपरासां चोचैर्गोत्रगुनायु मादीनां गुजप्रकृतीनामिति । यदिवा पूर्व सांप्रतमनागते च काले रागदेषरहितत्वादेकत्वनावनानतिक्रमणाच्चैकत्वमेवा नुपचरितं जगवानशेषजनहितं धर्म कथयन् प्रतिसंदधाति न तस्य पूर्वोत्तरयोरवस्थयोरा शंसारहितत्वानेदोऽस्त्यतोयमुच्यते नवता पूर्वोत्तरयोरवस्थयोरसांगत्यं तत्प्लवतइति ॥३॥ एतदर्मदेशनया प्राणिनां कश्चिउपकारोनवत्युत नेति ? नवतीत्याह । (समिञ्चलोयमित्या दि) सम्यग्यथावस्थितं लोकं षड्व्यात्मकं मत्वावगम्य केवलालोकेन, परिविद्य त्रस्यंती तित्रसास्त्रसनामकर्मोदया दीडियादयस्तथा तिष्ठंतीति स्थावराः स्थावरनामकर्मोदया स्थावराः पृथिव्यादयस्तेषामुनयेषामपि जंतूनां देमं शांतिः रदा तत्करणशीलः देमंक Page #937 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रायधनपतसिंघ बाहारका जैनागम संग्रह नाग इसरा. रः श्राम्यतीति श्रमणो द्वादश प्रकार तपोनिष्टतदेहस्तथा माहात्ति प्रवृत्तिर्यस्यासौ माहनो ब्राह्मणोवास एवंभूतो निर्ममोराग द्वेषरहितः प्राणिहितार्थ न लानपूजाख्यात्यर्थ धर्ममा चापि प्राग्वत् स्थावस्थायां मौनव्रतिकइव वाक्संयतः । उत्पन्नदिव्यज्ञानत्वाज्ञापा गुणदोषविवेकज्ञतया नाषणेनैव गुणावाप्तेरनुत्पन्न दिव्यज्ञानस्य तु मौनव्रतिकत्वेनेति तथा देवासुरनर तिर्यक्सहस्रमध्येऽपि व्यवस्थितः पंकाधारपंकजवत्तदोषव्यासंगाचावान्ममत्व विरहादाशंसादोष विकलत्वादेकांतमेवासौ सारयति प्रख्यातिं नयति साधयतीति याव त् । ननु चैकाकिपरिकरोपेतावस्थयोरस्ति विशेषः प्रत्येक्षेणैवोपलभ्यमानत्वात्सत्य मस्ति विशेषोबाह्यतोन त्वांतरतोपि दर्शयति । तथा प्राग्वदर्चा लेश्या शुक्लध्याना ख्या यस्य स तथार्चः । यदिवाच शरीरं तच्च प्राग्वद्यस्य सतयाचस्तथाह्यसावशोका ष्टप्रातिहार्योपेतोपनोत्सेकं याति नापि शरीरं संस्कारायत्तं विदधाति सहि नगवाना त्यंतिकराग द्वेषप्रहाणादेकाक्यपि जनपरिवृतोप्येकाकी न तस्य तयोरवस्थयोः कश्वि द्विशेषोस्ति । तथाचोक्तं । " राग द्वेषौ विनिर्जित्य, किमरल्ये करिष्यसि । यथ नो निर्जितावे तौ, किमरल्ये करिष्यसि ॥ इत्यतोबाह्यतनं गमनांतरमेव कषायजयादिकं प्रधानं कार मिति स्थितं ॥ ४ ॥ 1 धम्मं कदं तस्स पनि दोसो, खंतस्स दंतस्स जितिंदिय स्स ॥ नासायदो सेय विवजगस्स, गणेयनासाय पिसेवगस्स ॥ ५ ॥ मदवए पंच प्रणुव्व एय, तदेव पंचासव संवरेय ॥ विरतिं इद सामणियंमि पन्ने, लवावसक्की समत्तिबेमि ॥ ६ ॥ अर्थ- हवे राग द्वेष विना धर्म कहेतां थकां कोइ प्रकारनो दोष नथी, एवो नाव दे खाडे (धम्मंक तस्स विदोसो के० ) ते जगवंत, समस्त लोकनो उद्धार करवानें प्रवर्त्तमान बता, धर्मदेशना करेबे, तेथी तेनें दोष नथी, ते जगवंत केवाले तो के, (खं तस्सदंतस्स जितिंदियस्स के ० ) क्षमावंत, दमितेंयि, एटले इंडियना दमनहार, वजी जि तेंयि, (नासायदो सेयविवगस्स के० ) तथा नापाना दोष टालनार, घनें (गुणेयना सायसेिवगस्स के ० ) नापाना गुणना सेवनार, एवा जगवंतें बोलतां थकां पण तेनुं मौनव्रत पशुंज जां ॥ ५ ॥ हवे श्री महावीर जगवंत, केवो धर्म कहे, ते कहेते. (पंच वय के० ) पांच महाव्रत जे प्राणातिपात विरमणादिक साधुनो धर्म बे, ते कहे, तथा श्रावक उद्देशानें स्थूलप्राणातिपात विरमणादिक, पांच अणुव्रत कहे. ( तदेव के० ) तेंमज ( पंचासव के० ) पांच याश्रव ते कर्मनें याववानां स्थानकले, ते For Private Personal Use Only Page #938 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एG वितीये सूत्रकृतांगे वितीय श्रुतस्कंधे षष्ठाध्ययनं. कहे, तथा (संवरेय के०) पांच संवर ते सत्तरनेद युक्त संवर ते कहे, (विरतिश्ह के०) पड़ी विरतिनो उपदेश ते संवरना धरनारनें कहे, वती इह एटले था प्रवचनने विषे (सामणियं मिपन्ने के०) संपूर्ण संयमने विषे मूलगुण,ते पांच महाव्रतरूप तथा उत्तरगुण,ते संवर विरतिरूप, ते प्रज्ञावंत एवा, स्वामी कहे. वली ते केवाले, तोके, (लवावसकी के०) कर्मना टालनार, तथा (समणेत्तिबेमि के०) श्रमण एटले तपस्वी, एवा श्री महावीर देव ते लोकना हितने यर्थे धर्म कहेता थका श्राचारवंतज जाणवा. दुं एम कडं,॥६॥ ॥ दीपिका-दांतस्याकोधस्य दांतस्य मानरहितस्य जितेंडियस्य निर्लोजस्य लोनत्या गानिर्मायस्येत्यपि इष्टव्यं । नापादोषाअसत्यसत्याभूषाकर्कशाऽसन्यशब्दोच्चारणादयःत जकस्य नाषागुणाहितमितदेशकालासंदिग्धनाषणादयः तनिषेधकस्य सतोध कथयतो पि नास्ति दोषः । बद्मस्य हि प्रायोमौनमेव श्रेयः । केवलिनस्तु नाषणमपि गुणायेति ॥५॥ कीदृशं धर्म वक्तीत्याह । पंचमहाव्रतानि साधूनां पंचगुणव्रतानि श्रादानां प्रशापि तवान् तथैव पंचाश्रवान प्राणातिपातादिरूपान् तत्संवरं च सप्तदशप्रकारं संयमं विरतिं च कथितवान इह शासने श्रामण्यं संपूर्णसंयमस्तस्मिन्कर्तव्ये पूर्णकृत्स्ने मूलोत्तरगुणान पूर्वोक्तान कथितवान्।किंनूतोऽसौ लवं कर्म तस्मा(दवसक्काति)अवसपणशीलोऽवसी श्रमणइति । अथ गोशालकोवक्ति (बेमित्ति) यदहं ब्रवीमि हे आईक ! तत्त्वं शृणु॥६॥ ॥ टीका-अपगतराग देषस्य प्रनापमाणस्यापि दोषानावं दर्शयितुमाद । (धम्मंकहंतस्से त्यादि) तस्य जगवतोपगतघनघातिकलंकस्योत्पन्नसकलपदार्थावि वज्ञानस्य जगदन्यु दरणप्रवृत्तस्यैकांतपरहितप्रवृत्तस्य स्वकार्यनिरपेक्ष्स्य धर्म कथयतोपि तुशब्दस्यापिशब्दार्थ त्वान्नास्ति कश्चिदोषः। किनूतस्येत्याह। दांतिसंपन्नस्यानेन क्रोधनिरासमाह । तथा दांत स्योपशांतस्यानेन मानव्युदास।तथा जितानि स्व विषयप्रवृत्तिनिषेधेनेंडियाणि येन स जितें दियोऽनेन तु लोननिरासमाचष्टे मायायास्तु लोननिरासादेव निरासोश्ष्टव्यस्तन्मूलत्वात्तस्य नाषादोषाअसत्यसत्यामृषकर्कशासच्यशब्दोच्चारणादयस्त दिवर्जकस्य तत्परिवर्तुंस्तथा ना पायाये गुणाहितमितदेशकालासंदिग्धनाषणादयस्तनिषेधकस्य सतोब्रुवतोपि नास्ति दोषः बद्मस्थस्य हि बाहुल्येन मौनव्रतमेव श्रेयः समुत्पन्नकेवलस्य तु नाषणमपि गुणाये ति ॥ ५ ॥ किंनूतं धर्ममसौ कथयतीत्याह । (महत्वएपंचेत्यादि) महांति च तानि व्रता नि प्राणातिपातविरमणादीनि तानि च साधूनां प्रज्ञापितवान् पंचापि तदपेक्षायाणूनि ल घूनि व्रतानि पंचैव तानि श्रावकानुदिश्य प्रज्ञापितवांस्तथैव पंचाश्रवान् प्राणातिपातादि रूपान् कर्मणः प्रवेशधारनूतांस्तत्संवरं च सप्तदशप्रकारं संयमं प्रतिपादितवान संवरवतो Page #939 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राय धनपतसिंघ बादाउरका जैनागम संग्रह नाग उसरा. एए हि विरतिर्नवतीत्यतोविरतिं च प्रतिपादितवांश्चशब्दातत्फलनूतौ निर्जरामोदौ च इहास्मि न्प्रवचने लोके वा श्रमणनावः श्रामण्यं संपूर्णःसंयमस्तस्मिन् वा विधेये मूलगुणान् म हाव्रताणुव्रतरूपांस्तथोत्तरगुणान् महाव्रताणुव्रतरूपान् कस्ने संयमे विधातव्ये प्राज्ञशति क्वचित्पातः। प्रझाने तत्प्रतिपादितवानिति । किंनूतोऽसौ लवं कर्म तस्मा(दवसक्काति) अ वसर्पणशीलोऽवसपी श्रम्यतीति श्रमणः तपश्चरणयुक्तश्त्येतदहं ब्रवीमि स्वयमेव च नग वान्पंचमहाव्रतोपपन्नइंडियनोइंडियगुप्तोविरतश्चासौलवावसोसन् स्वतोन्येषामपि तथा जूतमुपदेशंदत्तवा नित्येतद् ब्रवीमीति। यदि वाककुमारवचनमाकोऽसौ गोशालकस्तत्प्र तिपदनूतं वक्तुकामश्दमाह । इत्येतदयमाणं यदहं ब्रवीमि तवृणु ! त्वमिति ॥ ६ ॥ सीन्दगं सेवन बीयकायं, आदायकम्मं तह चिया ॥ एगंत चारिस्सिद अम्दधम्मे, तवस्सिणो णानिसमेति पावं ॥ ७॥ सीतोदगं वा तदबीयकायं, आहायकस्म तदबियानाएयाई जाणं पडिसेवमाणा, अगारिणो अस्समणा नवति ॥७॥ अर्थ-हवे एवं बाईकुमारनु पूर्वोक्त वचन सांजलीने,फरी गोशालक कहेले के,यहो आईकुमार ! तें एम कर्दा जे ए परहित जणी प्रवर्तिनें धर्म कहेवाथकी दोष नथी, तथा लोक परिवारनो पण दोष नथी,तो ढुं कढुं हुं ते पण सांजल. के,जे अमारा सि दांतमां कडं तेनो पण दोष नथी. ते शं कह्यु ! ते कहेले. (सीउदगंसेवनबीयका यं के०) सचितपाणी तेने सेवो, एटले पान करो,तथा बीजकायनो उपनोग करो,(थाहा यकम्मं के ) तथा आधाकर्मी थाहार ल्यो, (तह के०) तेंमज(इनिया के०) स्त्रीनो प्रसंग पण करो,एटले पोताना अने परना नपकारनु कारण, अनं धर्मनुं आधार एवं जे शरीर तेनें अर्थ जे कांकरियें,तेमा दोष नथी केमके,(एगंतचारिस्सिहयम्हधम्मे के०) अमारा धर्मनें विषे प्रवर्तमान तथा थाराम उद्यानादिकने विषे एकाकी विचरतो एवो, (तवस्सिणोणानिसमेतिपावं के) कोइएक तपस्वी तेने पाप लागे नहीं. जे कारण माटें यद्यपि शीतोदकादिक कांइंक कर्मबंधनुं कारण तथापि तेनो, उपनोग, धर्माधारनूत एवं जे शरीर तेने कारणे करतां थकां कां पण दोष नथी. इति नावः॥ ७ ॥ हवे वली थाईकुमार कहेले के, अहो गोशालक ! शीतोदक बनें बीजकायनो उपजोग करवो, तथा बाधाकर्मी थाहार लेवो, अनें स्त्रीयादिकनो प्रसंग करवो, इत्यादिक बोल जे तें पूर्वै कह्या, तेना पडिसेवनारा तो आगारी एटले गृहस्थज कहेवाय, परंतु एवा श्रमण एटले साधु न होय. ॥ ७॥ Page #940 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एर तीये सूत्रकृतांगे वितीय श्रुतस्कंधे षष्ठाध्ययनं. ॥दीपिका-त्वयेदमुक्तं यत्परार्थ प्रवृत्तस्याशोकादिप्रातिहार्यपरिग्रहः शिष्यादिपरिकरो धर्मदेशना च न दोषायेति यथा तथास्माकमप्यतन्न दोषाय यबीतोदकं सचितोदकं तत्सेवनं करोतु । बीजकायोपनोगमाधाकर्माश्रयणं स्त्रीप्रसंगं च करोतु। अनेन स्वपरोप कारः स्यादित्याह ( एगंतत्ति ) अस्मधर्मे प्रवृत्तस्यैकांतचारिणः एका किविहारोद्यतस्य तपस्विनोनानिसमेति न संबश्यते पापं । यद्यपि शीतोदकादीनि ईषत्कर्मबंधाय तथापि धर्माधारस्य शरीरस्य रक्षणाय क्रियमाणानि एकांतचारितपस्विनः कर्मबंधाय न नवंती त्यर्थः ॥ ७ ॥ अस्योत्तरमाह मुनिः । शीतोदकादीनि प्रतिसेवमानाअगारिणोगृहस्थास्ते नवंत्यश्रमणाश्चेति त्वं जानीहि । एतनोगे यदि श्रमणत्वं स्यात्तदा गृहस्थत्वं केन स्या दित्यर्थः ॥ ७ ॥ ॥टोका-यथाप्रतिझातमेवाह गोशालकः । (सीदगमित्यादि) जगवतेद मुद्याहितं परा र्थ प्रवृत्तस्याशोकादिप्रातिहार्यपरिग्रहस्तथा शिक्षा दिपरिकरोधर्मदेशनाच न दोषायेति । य था तथास्माकमपि सिक्षांते यदेतदयमाणं तन्न दोषायेति । शीतं च तदकं च शीतोदक मप्रागुकोदकं तत्सेवनं परिनोगं करोतु। तथा बीजकायोपनोगमाधाकर्माश्रयणं स्त्रीप्रसंगं च निदधात्वनेन च स्वपरोपकारः कृतोनवतीत्यस्मदीये धर्म प्रवृत्तस्य एकांतचारिणया रामोद्यानादिष्वेका किविहारोद्यतस्य तपस्विनोनानिसमेति न संबंधमुपयाति पापमा नकर्मेति। इदमुक्तं नवत्येतानि शोतोदकादीनि यद्यपीपत्कर्मबंधाय तथापि धर्माधारं शरीरं प्रतिपालयतएकांतचारिणस्तपस्विनोबंधाय न नवंतीति ॥ ७ ॥ एतत्परिह कामया द। (सीतोदगमित्यादि ) एतानि प्रागुपन्यस्तानि अप्राशुकोदकपरिनोगादीनि प्रतिसे वंतोऽगारिणोगृहस्थास्ते नवंत्यश्रमणाश्चाप्रव्रजिताश्चैवं जानीहि ॥ यतः अहिंसासत्यम स्तेयं, ब्रह्मचर्यमलुब्धता ॥ इत्येततमालदणं चैषां शीतोदकबीजाधाकर्मस्त्रीपरिनो गवतां नास्तीत्यतस्ते नामाकारान्यां श्रमणान परमार्थानुष्ठानतइति ॥ ७ ॥ सियाय बीनदग इलियान, पडिसेवमाणा समणा नवंतु ॥ अगारिणोवि समणा नवंतु, सेवंतिम तेवि तहप्पगारं ॥माजे याविबीनदगनोत्ति निकू, निरकं विहंजायति जीवियत्री। ते णातिसंजोगमविपदाय, कायोवगाणंतकरा नवंति॥ १० ॥ अर्थ-वली आईकुमार कहे के, अहो गोशालक! ताहारो मत एवो जे एकांतचारी, हुधा तृषादिकना सहन करनार,तपस्वी न होय ते केम न होय? तेहनो प्रत्युत्तर सांगल. (सियायबीउदगइडिया के०) ते जो कदाचित् सचित बीज, सचित पाणी, अने स्त्री Page #941 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राय धनपतसिंघ बादाउरका जैनागम संग्रह भाग उसराः ११ यादिकनो प्रसंग तेना, (पडिसेवमाणासमणानवंतु के०) परिनोगना करनार श्रमण होय तो, (अगारिणोविसमणानवंतु के०) आगारी जे गृहस्थ ते पण श्रमण थाय. केमके, (सेवंतिनतेवितहप्पगारं के०) यागारीपण सचित बीज उदकादिना सेवनार, वली धन ने अर्थ देशांतरनें विषे विचरे ,वली एकला पण परदेशनें विषे घणा काल पर्यंतर हेले, तथा धनार्थी थका, दुधातृषादिकनां कष्ट पण सहन करेले, माटें ए रीते ते पण तथा प्र कारनां एटले श्रमण जेवां कष्ट सहन करे, ए कारणे ते गृहस्थने पण तपस्वीज गण वा ॥ ए॥ वली पण आईकुमार कहेले के, (जेया विबीदगनोत्तिनिरकू के०) जे नि हुक बतां, बीज उदकना जोगवनार, इव्यब्राह्मचारी एवा, ( निरकविहंजायतिजीवि यही के० ) बाजीविका चलाववानें अर्थ निदा मागे, (तेणातिसंजोगम विष्पहा य के ) ते झातिसंयोग बांझीने (कायोवगाणंतकरानवंति के ) ब कायनामर्दन कर नार एवा, पोतानी कायाना राखनार एवा, अने कर्मना करनार ते, आगमिककालें अनंत संसारी थशे ॥ १० ॥ ॥ दीपिका-आईकएव पुनराह । यदि बीजादिनोजिनः श्रमणाः स्युस्तदागारिणोपि श्रमणाः स्युः तेपि गृहस्थायपि सेवंते तथाप्रकारमेकत्व विहारादिकं । गृहस्थानामपि पथिकत्वावस्थायामाशंसावतामपि निष्किचनतयैका किविहारित्वं कुत्पिपासादिपीडनं जवत्येवेति ॥ए॥ ये चापि निदवोबीजोदकनोजिनः संतोनिदां च यावंतोजीवितार्थिनस्ते झातिसंयोगं स्वजनसंबंध प्रविहाय त्यक्त्वा कायात्कायेषु च नपगळंतीति कायोप नो गास्तउपमर्दारंजप्रवृत्ताः संसारस्यानंतकराः स्युः संसारस्य अंतकरान नवंतीत्यर्थः ॥१०॥ ॥ टीका-पुनरप्याईकएवैतदूषणायाह । (सियायेत्यादि) स्यादेतभवदीयं मतं य था ते एकांतचारिणः हुत्पिपासादिप्रधानतपश्चरणपीडिताश्च तत्कथं ते न तपस्विनइत्येत दाशंक्याईक बाह। यदि बीजाग्रुपनोगिनोपि श्रमणाइत्येवं नवतान्युपगम्यते एव तहगा रिणोपि गृहस्थाः श्रमणानवंतु तेषामपि देशिकावस्थायामाशंसावतामपि निष्किचनतयै काकिविदारित्वं हुत्पिपासादिपीडनंच संभाव्यते । अतथाह (सेवंतिउ) तुरवधारणे सेवंत्ये व तेऽपिगृहस्थास्तथाप्रकारमेकाकिविहारादिकमिति ॥ ए ॥ पुनरप्याईकोबीजोदकादिनो जिना दोषानिधित्सयाह । (जेयावीत्यादि) ये चापि निदवः प्रवजिताबीजोदकनोजि नः संतोऽव्यतोब्रह्मचारिणोपि निदा वाऽटंति जीवितार्थिनस्ते तथानताझातिसंयोगं खजनसंबंधं विप्रहाय त्यक्त्वा कायात्कायेषु चोपगढ़तीति कायोपनोगास्तउपमईकारंनाप्र वृत्तत्वात्संसारस्यानंतकरानवंतीति । इदमुक्तं । नवति केवलं स्त्रीपरिनोगएव तैः परित्यक्तो Page #942 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५१२ दितीये सूत्रकृतांगे द्वितीय श्रुतस्कंधे षष्ठाध्ययनं. ऽसावपि इव्यतः शेषेण तु बीजोदका पनोगेन गृहस्थकल्पाएव ते। यत्तु निदाटनादिक मुपन्यस्तं तेषां तगृहस्थानामपि केषांचित्संनाव्यते नैतावता श्रमणनावति ॥ १० ॥ इमं वयं तुमपान कुवं, पावाइणो गरिदसि सबएव ॥ पावा पो पुढो किट्टयंता, सयंसयं दिछिकरेंति पान॥१॥ ते अन्नम नस्स विगदरमाणा, अरकंति समणामादणाय ॥ सतोय अ बी असतोय एमबी, गरदामोदि िण गरहामोकिंचि ॥१२॥ अर्थ-हवे आईकुमारनां ए पूर्वोक्त वचन सांजलीने गोशालक बीजो उत्तर बापवाने असमर्थ बतो, अन्य तीर्थकोनें पोतानां सहायकारी करीने सोनंट एटले असार वच न बोलेले के, अहो आईकुमार ! (इमंवयंतंतुमपान कुछ के०) तुं एवां पूर्वोक्त वचन क हेतो बतो (पावाणोगरिहसिसबएव के०) सर्व प्रावाऊक एटले अन्यदर्शनीने निंदेज, कारणके या जगत् मांहे सर्व दर्शनी बीज उदकादिकनुं सेवन करता थका, संसार उन्जेदवानें अर्थे प्रवर्तडे,तो तेने मानियें नहीं.एईं वचन सांजलीने आईकुमार ते गोशा लकनें उत्तर प्रापवाने अर्थे बोल्यो, ते गाथाना उत्तराई वडे कहे. के, अहो गोशाल क! (पावाणोपुढोकिट्टयंतासयंसयंदिहिकरें तिपान के०) सर्व प्रावामुक एटले सर्व द शनी पोत पोतानी जुदी जुदी दृष्टी जुदी जुदी मतियें पोतपोतानुं दर्शन प्रगट करे. जेम ते पोतपोताना दर्शननी स्थापना करेले, तेम दुं पण अमारा दर्शननी प्रजावना करुडं के, सचितपाणी,बीजादिकना परिनोगथकी निःकेवल कर्मनुं बंधन,पण एथकी सं सारनो उबेद कांइंपण नथी. एवो अमारा दर्शननो मतले, तो अंदी निंदा पण शानी? अनें नत्कर्षपण शानो?॥११॥वली बाईकुमार कहेजे.(तेयनमन्नस्सविगरहमाणा के०) ए समस्त परवादी परस्पर मांहोमांहे पारका दर्शननें निंदे, अने पोताना दर्शनना गुण बोलेडे, (अरकंतिसमणामाहणाय के०) ते श्रमण ब्राह्मण सर्व पोतपोताना प दने समर्थडे अनें परना पनें दूषण आपेले.तेज गाथाना उत्तराई वडे देखाडेले. (स तोयथबीघसतोयाबी के०) अमारा पदने अंगीकार करवा थकी पुस्यते, अने स्वगों पवर्गादिकनां सुख प्राप्त थायडे, धनें परना पनें अंगीकार करवा थकी पुण्य नथी बनें पुण्यने अनावें स्वर्गापवर्गादिकनी प्राप्ति पण नथी. ए रीतें सर्व तीर्थिक मांदोमांहें व्या घातें प्रवडे. तेम अमे पण यथावस्थित तत्त्वहूँ कथन करनारा बैयें तेणें करी, (गर हामोदिठिणगरहामोकिंचि के०) एकांतवादीने अमें कांइ गर्हता नथी, निंदता नथी, केमके, सत्य कहेतां थकां कांइ प्रवाद नथी. इत्यर्थः ॥ १२ ॥ Page #943 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राय धनपतसिंघ बादाउरका जैनागम संग्रह नाग उसरा. १३ ॥ दीपिका-अथ गोशालोन्यतीथिकान्सहायान्कृत्वा सोन्चुगमसारं प्रात् । इमां पूर्वो क्तां वाचं त्वं प्राइष्कुर्वन्सर्वान् प्रावाकान् गर्हसि ? । यतः सर्वे पि तीथिकाः बीजो दकादिनोजिनोपि नवोदाय प्रवर्तते ते तुऽप्रावाङकाः पृथक पृथक् स्वीयां दृष्टिं प्र त्येकं स्वदर्शनं प्राऊष्कुर्वति प्रकाशयंति । अथवा श्लोकपश्चाई आईमुनिराह । सर्वे पि प्रावाउकाः स्वमतं प्रकाशयंति तथा वयमपि स्वदर्शनं प्रामुष्कर्मोयबीजोदकादिनो गिनः कर्मबंधोन नवोदति स्थिते कात्र परनिंदा कोवा आत्मोत्कर्षति ॥ ११ ॥ ते प्रावाङकाअन्योन्यस्य परदर्शनं गर्हमाणाः स्वदर्शनगुणानाख्यां ति यथा स्वतइति स्वकी ये पके स्वमतेस्ति पुण्यं अस्वतः परमते नास्ति पुण्यमित्येवं तीर्थकाः परस्परव्याघातेन प्रवृत्ताः वयं तु तत्वप्ररूपणादेकांतदृष्टिं गर्हाम नहि एकांतपदोयुक्तिसंगतइति वदंतो वयं न किंचिह्नमः । काणांधा दिवस्तुस्वरूपकथनेन परापवादः । तथाचोक्तं । “नेत्रर्नि रीक्ष्य बिलकंटककीटसान, सम्यग्यथा व्रजत तान्परिहत्य सर्वान् । कुझानकुश्रुतिकुमा गंकुदृष्टिदोषान्, सम्यग्विचारयत कोत्र परापवाद"इति ॥ १२॥ ॥ टीका-अधुनैतदाकर्ण्य गोशालकोपरमुत्तरं दातुमसमर्थोऽन्यतीथिकान्सहायान् वि धाय सोप्नंतमसारं वक्तुकामबाह ( इमंवयंत्वित्यादि ) इमां पूर्वोक्तां वाचं । तुशब्दोवि शेषणार्थः । त्वं प्रामुष्कुर्वन्प्रकाशयन्सर्वानपि प्रावाकान् गर्हसि जुगुप्ससे यस्मात्सर्वेऽपि तीर्थकाबीजोदकादिनोजिनोपि संसारोबित्तये प्रवर्तते तेतु नवता नान्युपगम्यंते तेतु प्रा वाकाः पृथक् पृथक् स्वीयां स्वीयां दृष्टिं प्रत्येकं स्वदर्शनं कीर्तयंतः प्रामुष्कर्वति प्रकाश यंति । यदिवा श्लोकपश्चाईमाईककुमारबाह । सर्वे प्रावामुकायथावस्थितं स्वदर्शनं प्रामुष्कुर्वति तत्प्रामाण्याच वयमपि स्वदर्शनावि वनं कुर्मस्तद्यथा ह्यप्रागुकेन बीजोद कादिपरिजोगिनः कर्मबंधएव केवलं न संसारोबेदश्तीदमस्मदीयं दर्शनमेवं व्यवस्थिते कात्र परनिंदा कोवात्मोत्कर्षति ॥ ११ ॥ किंच । (तेयमममस्सेत्यादि ) तेप्रा वाकाथन्योन्यस्य परस्परेणतु स्वदर्शनप्रतिष्ठाशया परदशेनं गर्हमाणाः स्वदर्शन गुणानाचक्षते तुशब्दात्परस्परतोव्याहतमनुष्टानं चानुतिष्ठंति ते च श्रमणानिर्यथादयो ब्राह्मणादिजातयः सर्वेप्येते स्वकं पदं समर्थयंति परकीयं च दूषयंति। तदेव पश्चाईन द शयति। स्वतइति । स्वकीये पके स्वान्युपगमेस्ति पुण्यं तत्कार्यच स्वर्गापवर्गादिकमस्त्यतः स्वपरान्युपगमाच नास्ति पुण्यादिकमित्येवं सर्वेपि तीर्थकाः परस्परव्याघातेन प्रवृत्ताथ तोवयमपि यथावस्थिततत्वप्ररूपणतोयुक्ति विकलत्वादेकांतदृष्टिं गर्हामोजुगुप्सामोन ह्यसावेकांतोयथावस्थिततत्वाविर्नावकोनवतीत्येवं व्यवस्थिते तत्वस्वरूपं वयमाचदाणा न किंचिर्दामः काकुंठोद्घटनादिप्रकारेण केवलं स्वपरस्वरूपावि वनं कुर्मोन च व ११५ Page #944 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ए१४ वितीये सूत्रकृतांगे वितीय श्रुतस्कंधे षष्ठाध्ययनं. स्तु स्वरूपावि वने परापवादः । तथाचोक्तं । “नेत्रौर्नरीदय बिलकंटककीटसान, सम्यक् यथा व्रजत तान्परित्हत्य सर्वान् ॥ कुज्ञानकुश्रुतिकुमार्गकुदृष्टिदोषा,न्सम्यग्विचारयति कोत्र परापवाद"इत्यादि । यदिचैकांतवादिनामेवास्त्येव नास्त्येवान्युपगमवतामयं परस्प रगर्हारख्योदोषोनास्माकमनेकवादिनां सर्वस्यापि सदादेः कथंचिदन्युपगमात् । एतदेव श्लो कपश्चाईन दर्शयति (स्वतइति ) स्वव्यदेवकालनावैरस्ति तथा (परतइति) परव्या दिनि स्तीत्येवं परान्युपगमं दूषयंतोगर्हामोऽन्यानेकांतवादिनस्तत्स्वरूपनिरूपणतस्तु रा गषविरहान्न किंचिजहार्मति स्थितं ॥ १२ ॥ ण किंचि रूवेण निधारयामो, सहिहिमग्गं तु करेमि पा॥ म ग्गे इमे किट्टिए आरिएदि, अणुत्तरे सप्पुरिसेहिं अंजू ॥१३॥ हूं अदेयं तिरियं दिसासु,तसाय जे थावरजेयपाणा॥ नूयादि संकानि गुंबमा णा, गो गरदती बुसिमं किंचि लोए ॥१४॥ अर्थ-वली आईकुमार कहेले के, अहो गोशालक ! अमें (एकिंचिरूवेणनिधारया मो के०) कोइ पण श्रमण ब्राह्मणने रूवेण एटले अगंबनिक एवा अंगोपांगने उघाड वे, अथवा जातिना दोषनें अनिधारयामो एटले प्रगट करीने निंदता नथी, किंतु ? ( सदिहिमग्गंतुकरेमिपा के० ) स्वदृष्टिमार्ग एटले पोतानुं शासन प्रगट करिये बैयें, अथवा तेउना मागेनुं स्वरूप कहियें बैयें, वली जे विधिये ते पोताना मार्गनी स्थिति कहेले के, “ब्रह्मा खूनशिराः” इत्यादिक ते अमें पण सांनलियें बै, परंतु अमें कोई नो अपवाद बोलता नथी. हवे आईकुमार, गाथाना उत्तराईवडे पोताना दर्शननु स्व रूप कहेले. (मग्गेश्मे किट्टिएपारिएहिं के०) ए मार्ग जे सम्यक् दर्शनादिकडे,ते आर्य एवा जे श्रीसर्वदेव तेणें कह्यो.ते मार्ग केवो तोके, (अणुत्तरेसप्प रिसे हिंअंजू के०) ए मार्ग अनुत्तर एटले एना सरखो बीजो कोइ पण मार्ग जगत् मांहे नथी, वली ते सर्वज्ञ के वाडे तोके सत्पुरुष चोत्रीश अतिशयें करी बिराजमान, एवाप्रधान पुरुष जगत् मांहे बीजा कोइ नथी, ते कारणे सत्पुरुष केवायडे, वली ए मार्ग केवोडे तोके, अंजू एटले सरल अकुटिल ॥१३॥ वली पण धर्मनुंज स्वरूप कहेले.(नइंअहेयंतिरियंदिसासु के०) ऊर्ध्व अधो अनें तिर्यक् ए समस्त दिशाउने विषे एतावता चौदरज्ज्वात्मक लोक मांहे, (तसायजेथावरजेयपाणा के०) जे त्रस अने स्थावर प्राणीने तेना पालनार, तथा (नयाहिसंकानिगुबमाणा के०)प्राणघातनी शंकायें सावद्यानुष्ठाननेंड्गं बता, (गो गरहतीबुसिमंकिंचिलोए के० ) एवा संयमवंत पुरुषो लोक मांहे जे ले, ते कोश्न गर्दै Page #945 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राय धनपतसिंघ बाहाउरका जैनागम संग्रह नाग उसरा. १५ एटले निंदे नहीं. माटें रागोषरहित पणे यथातथ्य वस्तुनुं स्वरूप केहेतां थकां का निंदा नथी. जो कदापि यथातथ्य वस्तुनुं स्वरूप केहेतां थकां निंदा होय तो, अग्नि नभडे, अने उदक शीतल, विष खाधा थकी मरण नीपजे,इत्यादिक खलं बोल ते पण युक्त नथी ! परंतु ए रीतें सत्य कहेवामां का दोष नथी ॥ १४ ॥ ॥दीपिका-न किंचन श्रमणं ब्राह्मणं वा स्वरूपेणानिधारयामोगर्हणबुध्यानघट्ट यामः । केवलं स्वदृष्टिमार्ग तदंगीकृतं दर्शनं प्राइष्कुर्मः । तद्यथा । “ब्रह्मा सुनशिराह रिर्दशि सरुग्व्यालुप्तशिश्नोहरः, सूर्योप्युनिखितोऽनलोप्यखिलनुक्सोमः कलंकांकितः ॥ स्वनोंथोपि विसंस्थुलः खलु वपुःसंस्थैरुपस्थैः कृतः, सन्मार्गस्खलनामवंति विपदःप्रा यः प्रनूणामपि । एतच्च तैरेव स्वागमे पम्यते वयंतु श्रोतारः केवलमिति । मग्गेश्मेत्ति । अयं मार्गः सम्यग्दर्शनादिकः कीर्तितया र्यैः सर्वज्ञैः। किंनूतोमार्गोऽनुत्तरःप्रधानः। या यः किंजूतैः सत्पुरुषैः। मार्गः किंनूतोंजू प्रकटं रुजुर्वा ॥१३॥ ऊर्ध्वमधस्तिर्यक्च ये त्रसा येच स्थावराश्च प्राणिनस्तेषु नूतानिशंकया प्राणिविनाशशंकया सावधक्रियां जुगुप्स मानोगर्हन नैवान्यं लोकं कंचन गर्हते निंदति (बुसिम) संयमवान् । तदेवं रागोषमुक्तस्य वस्तुस्वरूपकथने न काचिनिंदा यथा नमोऽग्निः शीतलं जलं विषं मारणात्मकं जयंकरः सर्पः व्यथकः कंटकश्त्यादि ॥ १४ ॥ ___टीका-एतदेव स्पष्टतरमाह । (नकिंचिरूवेणेत्यादि) न कंचन श्रमणं ब्राह्मणं वा स्वरूपेण जुगुप्सितांगावयवोद्घट्टनेन जात्या तलिंगग्रहणोद्घट्टनेन वाऽनिधारयामोगहें णाबुझ्योद्घट्टयामः केवलं स्वदृष्टिमार्ग तदन्युपगतं दर्शनं प्राउकुर्मः प्रकाशयामः । तद्य था। "ब्रह्मा खून शिराहरिई शिसरुग्व्यालुप्तशिश्नोहरः, सूर्योप्युनिखितोऽनलोप्य खिलनु क्सोमः कलंकांकितः ॥ स्वर्नाथोपि विसंस्थुलः खलु वपुःसंस्थैरुपस्थैः कृतः, सन्मा गस्खलनामवंति विपदः प्रायः प्रनूणामपी"त्यादि । एतच्च तैरेव स्वागमे पत्यते । वयं तु श्रोतारः केवलमिति । आईककुमारएव परपदं दूषयित्वा स्वपदसाधनाथ श्लोकपश्चा नाह । अयं मार्गः पंथाः सम्यग्दर्शनादिकः किर्त्तितोव्यावर्णितः । कैरार्यैः सर्वज्ञैरस्त्या यधर्मदूरवर्तिनिः । किंनूतोधर्मोनास्माउत्तरः प्रधानोविद्यतइत्यनुत्तरः पूर्वापराव्याहतत्वा द्यथावस्थितजीवादिपदार्थस्वरूपनिरूपणाच। किंजूतैरायः संतश्च ते पुरुषाश्च सत्पुरुषास्तै श्चतुस्त्रिंशदतिशयोपेतैरावितः समस्तपदार्थाविर्भावकदिव्यज्ञानैः । किंनूतोमार्गोथंजू व्यक्तः निर्दोषत्वात्प्रकटः जुर्वा वकांतपरित्यागादकुटिलइति ॥१३॥ पुनरपि स्वसधर्म स्वरूपनिरूपणायाह । (उडुंबहेयमित्यादि) कर्ध्वमधस्तिर्यवेवं सर्वास्वपि दिनु प्रकारापे Page #946 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ए६ वितीये सूत्रकृतांगे वितीयश्रुतस्कंधे षष्ठाध्ययनं. दया नावदिगपेक्ष्या वा तासु ये साये च स्थावराःप्राणिनः। चशब्दौ स्वगतानेकनेदसंसूच कौ। नूतं सभूतं तथ्यं तत्रानिशंकया तथ्यनिर्णयेन प्राणातिपातादिकं पातकं जुगुप्समा नोगर्हमाणोयदिवा नूतानिशंकया सर्वसावद्यमनुष्ठानं जुगुप्समानोनैवापरलोकं कंचन गर्हति निंदति (बुसिमंति) संयमवानिति । तदेवं रागदेषवियुक्तस्य वस्तुस्वरूपावि व ने न काचित्यथ तत्रापि गर्दा नवति नामोनिः शीतमुदकं विष मारणात्मकमित्येव मादि किंचि वस्तुस्वरूपमावि वनीयमिति ॥१४॥ आगंतगारे आरामगारे,समणेन नीते ए ग्वेति वासं ॥ दरका ढसंते बदवे मएस्सा, ऊणातिरित्ताय लवालवाय ॥१५॥ मेदाविणो सिस्किय बद्धिमंता, सत्तेहिं अहिंय णिचयन्ना॥प बिसुमाणे अणगार अन्ने, इति संकमाणो ण ज्वेति तब ॥२६॥ अर्थ-हवे गोशलकमतानुसारी त्रैराशिक बीजा प्रकारे करी फरी बाईकुमार प्र त्ये कहेजे. के, अहो बाईकुमार! ताहरो तीर्थकर राग, ष, अनें नय, तेणें करी सहित जे, ए कारण माटें ते बीहितो थको (यागंतगारे के०) शून्यघर धर्मशालादिक तथा (बारामगारे के०) उद्यानादिकनें विषे (समणेननीते के ) श्रमण अनें माहण य की बीहितो थको (एनवेतिवासं के० ) वास करतो नथी, वली शा थकी बीहितो थको वास करतो नथी? ते कहेजे. (दरकादुसंते के ) दद एटले माह्या, घणां शास्त्र ना नणनार, पंमित, (बहवेमणुस्सा के) एवा घणा पुरुषो ते पूर्वोक्त शून्य घरादिक स्थानकने विपे आवे, माटें तेवा पुरुषोथकी बीहितो थको, तेवां स्थानकने विषे ताह रो त्यां गुरु आवतो नथी पण, ते पुरुषो केवाले तोके, (कणातिरित्ताय के०) तमारा तीर्थकरथकी कोई एक जात्यादिक गुणें करी कणा न्यूनले,तथा कोइएक अधिकजे, तो तेवानी साथे बोलतां कदाचित् हारी जाय तो मानम्लान थाय, ते कारणमाटें एवां स्थानक बांझीने त्यागीने देवादिकनी परषदामांहे एकांतें बेसेडे. वली ते पुरुषो केवाळे तोके, (लवालवाय के) एकतो लव एटले अनेक विचित्र तर्कना बोलनार, तथा ए क अलव एटले मौनव्रती, अथवा मंत्रवादी ने के, जेनी धागल बोलतां वादीना मुख माहेथी वचन पण निकले नही, ते कारण माटें तेनी बीकथकी ताहरा तीर्थकरें पारा म उद्यानादिक मांहे निवास करवानो त्याग कस्यो ॥१५॥ वली गोशालक कहे के, (मेहाविणोसिस्कियबुधिमंता के०) मेधावी जे पंमितने ते ग्रहण करवा, धारण करवाने सामर्थ्यवान् तथा प्राचार्या दिकनी पासेंथी शिखेला एवा उत्पातादिक चार प्रकारनी Page #947 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राय धनपतसिंघ बादाउरका जैनागम संग्रह नाग उसरा. १७ बुधियें करी सहित, (सुत्तेहिंयबेहियणियन्ना के०) वली सूत्र अनें अर्थना निश्चयना करनार, (यणगारयन्ने के०) एवा कोई एक अन्य थपगार होय ते ( पुखिममा णे के० ) मुजने का सूत्रार्थ पूढे तेनो उत्तर महाराथकी अपाशे नहीं, तेथी महारुं मान नंग थशे, (तिसंकमाणोपनवेतितब के०) एवी वातोथी शंका पामतो थको ताहारो गुरु तेवा पूर्वोक्त स्थानकोने विषे वास करतो नथी, ते कारण माटें तमारो मार्ग रुजु नथी ॥ १६ ॥ ॥ दीपिका-एवं गोशालकमतानुसारी त्रैराशिकोनिराकतोपि पुनराह । योनवतस्तीर्थक रः सरागदेषनययुक्तः। तथाहि।आगंतुकानां कार्पटिकादीनां अगारंवागंतागारंबारामेऽ गारं बारामागारं तत्रासौ श्रमणोनीतःसर्व न वासमुपैति । किं तत्र नयमित्याह । ददाः पंमितादुर्यस्मादहवः संति मनुष्याः। तन्नीतोसौ तत्र न याति । कनाः स्वतोहीनाअतिरि क्तावा जात्यादिना संति केचित् तैः पराजितस्य महान कलात्रंशः स्यात् । ते नराः किंन्ताः जपावाचालाघोषिततर्कदंमकाः तथाऽलपामौनव्रतिकागुटिकादिविद्यायुक्ताः यशामागे व न निस्सरति मुखात् यनयात्तेषु गृहेष्वसौ न यातीति ॥ १५ ॥ मेधाविनोग्रहणधा रणसमर्थाबुद्धिमंतः शिक्षिताः सूत्रेर्थेच निश्चयज्ञास्ते ईदृशाः सूत्रार्थविषयं प्रश्नमाका पुरनगाराएके इत्यसौ शंकमानोबिन्यन्न तत्र तेषां मध्ये नपैति याति तथानार्यदेशे न धर्म कथितवान् आर्यतु देशनां करोति तत्रापि न सर्वत्र किंतु ? कुत्रचिदेवेति ततोसौराग क्षेषाकुलोवीरः ॥ १६ ॥ ॥ टीका-सएवं गोशालकमतानुसारी त्रैराशिकोनिराकृतोपि पुनरन्येन प्रकारेणाह । (पागंतागारेइत्यादि ) सविप्रतिपन्नः सन्नाईकमेवाह । योसौ नवत्संबधी तीर्थकरः सरा गोषनययुक्तस्तथाह्यसावागंतुकानां कार्पटिकादीनामगारमागंतागारं तथाऽरामेऽगारमा रामागारं तत्रासौ श्रमणोनवत्तीर्थकरः । तुशब्दएवकारार्थे । नीतएवासौ तपध्वंसननयात्त त्रागंतागारादौ न वासमुपैति न तत्रासनस्थानशयनादिकाः क्रियाः कुरुते । किं तत्र नयकार एमितिचे सदाह । ददाः निपुणाः प्रनूतशास्त्र विशारदाः। दुशब्दोयस्मादर्थे । यस्माबहवः संति मनुष्यास्तस्मादसौ तन्जीतोन वासं तत्र समुपैति न तत्र समातिष्ठते । किंनूताः न्यू नाः स्वतोऽवमाहीनाजात्याद्यतिरिक्तावा तान्यां पराजितस्य महाश्वायात्रंशति । तानेव विशिनष्टि । लपंतीति लपावाचालाः घोषितानेकतर्क विचित्रदमकास्तथा न लपामौनव्र तिकानिष्ठितयोगाः गुटिकादियुक्तावा यशादनिधेयविषयावागेव न प्रवर्तते ततस्तनयेना सौ युष्मतीर्थकदागंतागारादौ नैव ब्रजतीति ॥१५॥ पुनरपि गोशालकएवाह । (मेहावि Page #948 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ए१७ तिीये सूत्रकृतांगे वितीय श्रुतस्कंधे षष्ठाध्ययनं. णोइत्यादि ) मेधा विद्यते येषां ते मेधाविनोग्रहणधारणसमर्थास्तथाऽऽचार्यादेः समीपे । शिक्षा ग्राहिताः शिहितास्तथोत्पत्तिक्या दिचतुर्विधबुच्युपेताबुद्धिमंतस्तथासूत्रेपि सूत्रवि षये विनिश्चयज्ञायथावस्थितसूत्रार्थवेदिनइत्यर्थः। ते चैवंजूताःसूत्रार्थविषयमा प्रश्नमका पुरन्येऽनगाराएके केचनेत्येवमसौ शंकमानास्तेषां बिन्यन्न तत्र तन्मध्ये उपैत्युपगनतीति ततश्च न जुर्मार्गइति नययुक्तत्वात्तस्य तथा म्लेजविषयं गत्वा न कदाचिधर्मदेशनां च करो त्यार्यदेशेपि न सर्वत्रापितु कुत्रचिदेवेत्यतो विषमदृष्टित्वाशगषवर्त्य साविति ॥ १६ ॥ पो कामकिच्चा पय बालकिच्चा, रायानिगेण कु नए णं॥वियागरजा पसिणं नवावि, सकाम किचं सिदारि याणं ॥१७॥ गंता च तबा अदुवा अगंता, वियागरेजा समि या सुपन्ने॥अणारिया दंसणा परित्ता, इति संकमाणा ण ग्वेति तब ॥१७॥ अर्थ-एम गोशालकें कहे थके, हवे बाईकुमार गोशालक प्रत्ये कहे. के,(पोकामकि चा के०) अहो गोशालक! ते जगवंत कामकृत्य नथी. एनो अर्थ कहे. के, जे अवि माश्यानो करनार होय ते पोताने तथा परने, निरर्थक कार्य करे. परंतु श्रीनगवंत तो सर्वज्ञ, सर्वदर्शी, परना हितना करनार, ते पोताने तथा परनें निरुपकारी केम थाय ? ते कारण माटें स्वामी निरर्थक कामना करनार नथी, (णयबालकिच्चा के०) तथा स्वामी बालकृत्य नथी, एटले बालकनी पेरेंथण विचायुं कार्य न करे, (राया निगेण के०) तथा राजानियोगें करीधर्मदेशनादिकनें विषे प्रवर्ते नहीं, (कुनएकवियागरेजा के) तथा कोइना नयथकी प्रश्न वागरे एटले कहे नहीं, (पसिणंनवावि के ) उपकार न होय तो कहे नहीं, एटले प्रश्न वागरे नहीं. किंबहुना उपकार विना कोड्ने कां न कहे. अनुत्तर विमानवासी देवताने पण, मन थकीज पूजेला प्रश्ननो निर्णय करे.हवे जे ए श्रीवी तरागनो धार्मिक थाय ते केवां कार्यो करे? एवीयाशंका लावी तेनो प्रत्युत्तर चोथे पदें कहे (सकाम किचंपियारियाणं के०) पोताना काममें अर्थ एतावता तीर्थकरनामकर्म खपा ववा नणी आर्य क्षेत्रमा आर्य लोकनें प्रतिबोधवा वास्ते धर्म देशना करे, परंतु बीजें कोई यात्मप्रशंसादिक कार्य न करे. ॥ १७ ॥ वली बाईकुमार कहेले के, (गंताचतबा अध्वाधगंता के०) ते जगवंत परहितने अर्थे त्यां जश्नें, अथवा त्यां न जानें, किंतु जेम जेम नव्य जीवोनो उपकार थाय, तेम तेम (वियागरेजा के० ) धर्मदेशना आपे. जो उपकार थशे, एम जाणे तो त्यां जश्ने पण धर्म देशना थापे अथवा ते न Page #949 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राय धनपतसिंघ बादाडुरका जैनागम संग्रह नाग दुसरा. एर पकार न देखे तो पासें आवेलाने पण धर्म न कहे ए कारणमाटें तेनें रागदेषनी सं नावना नथी, तथा (खापन्न के० ) सर्वज्ञ ( समिया के ० ) समदृष्टि पणें एटले कोइ चक्रवर्त्ति यावी पूढे घथवा कोइ रांक यावी पूबे, अथवा पूढे थके पण, धर्म क हे. तथा स्वामी जे अनार्य देशनें विषे जता नथी तेनुं कारण हुं तुनें कहुं बुते तुं सां नल. (पारियादंसणा परित्ता के० ) अनार्य लोक अनाचारी बता दर्शनथकी पण ga (इतिसंकमणावे तितके० ) ए माटें शंकामान थका त्यां जता नथी, ते जीव श्री वीतरागनें देखी अवहेलनादिक कर्मोपार्जनकरी पोतानें अनंत संसार नीवृद्धि कर, एवं जाणीनें स्वामी त्यां पधारता नथी, परंतु तेमनी साधें परमेश्वर ने नाव कांइ पण नथी तेमाटें राग, द्वेष, नें जय, तेमनें कांइ नथी. तथा यहो गोशालक ! जे तुं एम कहेले के, अनेक शास्त्रज्ञ पुरुषना प्रश्नथकी बीहितो थको तेनी नामांहे रहेतो नथी. ए पण ताहारुं वचन बाल प्रजाप प्राय जालीयें बैयें, केमके, जे कारण माटें ए महारा गुरु सर्वज्ञ नगवंत केवलीने तो तेनुं समस्त परवादिन मुख, पण जोई न शके, तो पड़ी वादनुं केज शुं ? माटें महारा स्वामीनें परवादीनो परान व कां नथी ए जगवंत केवलज्ञानें कर। पोतानो परनो उपकार देखे त्यां जइनें धर्मो पदेश करें. इत्यर्थः ॥ १८ ॥ दीपिका - इति गोशाल केनोक्ते श्राईककुमाराह । सनगवान कामरुत्योन स्यात् निलाकारी न नवतीत्यर्थः । यः प्रेापूर्वकारी न स्यात्सोनिष्टमपि स्वपरयोर्निरर्थकमपि कृत्यं कुर्वीत । नगवांस्तु सर्वज्ञः प्रेक्षापूर्व कारी कथं स्वपरयोर्निरुपकारकमेव कुर्यात् बाल स्येव कृत्यं यस्य सबालरुत्योनासौ बालवदनालोचितकारी न राजानियोगेनासौ देशनां करोति ततः कुतस्तस्य नयेन प्रवृत्तिः स्यादेवं सति केनचित्कृतं प्रश्नं व्यागृणीया ६देद्यदि त स्योपकारः स्याडुपकारं विना नवा नैव वदेत् । अथवानुत्तरसुराणां मनःपर्यायज्ञानिनां च इव्यमनसैव तन्निर्णयादतोन वदेत् स्वकामकृत्येन स्वेच्छाकारितया तीर्थकन्नामकर्मणः कृपणाय न यथाकथंचिदतोसौ इहार्यक्षेत्रे खार्याणामुपकारसंनवे धर्मं वदेत् ॥ १७ ॥ गंता चत्ति ) सनगवान् गत्वापि शिष्यसमीपं अथवा तत्राऽगत्वा यथा सत्वोपकारः स्यात्तथा व्याणीयात् देशनां कुर्यात् उपकारे सति गत्वापि कथयति असतितु स्थितोपि न वदति ततोन तेषां रागद्वेषसं वः केवलमा प्रज्ञः सर्वज्ञः समतया वदेत् । " जहा पुस्तक बइ तहा तुच्वस्स कबड्” इतिवचनाच्चक्रवर्तिश्मकादिषु ष्टष्ठोष्टष्टोवा तुल्यं व्यागृणीयादि त्यर्थः । कथमनार्येषु सन यातीत्याह । ( पारियात्त ) अनार्यादर्शनतः सम्यक् त्वात्पताचष्टाइति । शंकमानोविचारयन् भगवान्न तत्रोपैति । तेहि वर्त्तमानसुखमेव For Private Personal Use Only Page #950 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ए३० दितीये सूत्रकृतांगे वितीय श्रुतस्कंधे षष्ठाध्ययनं मन्यते न परलोकसुखमिति लानादर्शनात्तत्र न याति नगवान्नतु वेषबुझ्या । यदप्युक्तं । पंमितनरगुटिकादिविद्यासिनयान तेषां स्थाने यातीत्येतत्प्रलापप्रायं । यतः । सर्वैरपि तोर्थिकैः सर्वज्ञस्य नगवतोमुखमप्यवलोकयितुं न शक्यते वादस्तु दुरापास्तएवेति॥१॥ ॥ टीका-एतजोशालकमतं परिहतुकामाईकयाह । ( णोकामकिच्चाइत्यादि) सहि नगवान्प्रेक्षापूर्वकारितया नाकामरुत्योनवति कमनं कामना न कामोऽकामस्तेन कृत्यं कर्तव्यं यस्यासावकामकत्यः सएवंनतोन नवत्यनिहाकारीन नवतीत्यर्थः। यो[त्प्रेदा पूर्वकारितया वर्तते सोऽनिष्टमपि स्वपरात्मनोनिरर्थकमपि कृत्यं कुर्वीत नगवांस्तु सर्व ज्ञः सर्वदशी परहितैकरतः कथं स्वपरात्मनोनिरुपकारकमेवं कुर्यात्तथाच बालस्येव कृत्यं यस्य सबालकत्योन चासौ बालवदनालोचितकारी न परानुरोधान्नापि गौरवाधर्मदे शादिकं विधत्तेऽपितु यदि कस्यचिनव्यसत्वस्योपकाराय तन्नाषितं नवति ततः प्रवृत्तिर्नवति नान्यथा तथा न राजानियोगेनासौ धर्मदेशनादौ कथंचित्प्रवर्तते ततः कु तस्तस्य नयेन प्रवृत्तिः स्यादित्येवं व्यवस्थिते केनचित्कचित्संशयरुतं प्रश्नं व्यागृणीया यदि तस्योपकारोनवत्युपकारमंतरेण नच नैव व्यागृणीयाद्य दिवाऽनुत्तरसुराणां मनः पर्यायज्ञानिनांच इव्यमनसैव तन्निर्णयसंनवादतोन व्यागृणीयादित्युच्यते । यद्यप्युच्यते नवता यदि वीतरागोऽसौ किमिति धर्मकथां करोतीति चेदित्याशंक्याह । स्वकामकृत्ये न स्वेबाचारिकारितयाऽसावपि तीर्थकन्नामकर्मणः पणाय न यथाकथंचिदतोऽसावग्ला नहास्मिन्संसारे आर्यक्षेत्रे चोपकारयोग्यधार्याणां हि सर्वहेयधर्मदूरवर्तिनां तउपकारा धर्मदेशनां व्यागृणीयादसाविति ॥ १७ ॥ किंचान्यत् । (गंतेत्यादि ) सहि नगवान् परहितैकरतोगत्वापि विनेयासन्नमथवाप्यगत्वा यथानव्यसत्वोपकारोनवति तथातथा न गवंतोर्हतोधर्मदेशनां विदधत्युपकारे सति गत्वापि कथयंत्यसतितु स्थिताअपि न कथयं तीत्यतोन तेषां रागषसंनवति केवलमाशुप्रज्ञः सर्वज्ञः समतया समदृष्टितया चक्रवर्ति इमकादिषु दृष्टोवा धर्म व्यागृणीयात् । जहा पुणस्त कश्तहा तुम्बस्स कब इति वच नादित्यतोन रागवेषसन्नावस्तस्येति।यत्पुनरनार्यदेशमसौ न व्रजति तत्रेदमाह । अनार्याः देवनाषाकर्मनिर्बहिष्कृतादर्शनतोपि परिसमंतादितागताः प्रचष्टाइति यावत। तदेवमसौ जगवानित्येतत्तेषु सम्यग्दर्शनमात्रमपि कथंचिन्न नवतीत्याशंकमानस्तत्र न व्रजतीति । यदिवा विपरीतदर्शनिनोन नवंत्यनार्याः शकयवनादयस्तेहि वर्तमानसुखमेवैकमंगीक त्य प्रवर्तते न पारलौकिकमंगीकुवैत्यतः सधर्मपराङ्मुखेषु तेषु नगवान्न याति न पुनस्तके पादिबुध्येति । यदप्युच्यते त्वया यथानेकशास्त्रविशारदगुटिकासिमविद्यासिमादितीर्थ कपरानवनयेन न तत्समाजे गलतीत्येतदपि बालप्रलपितप्रायं । यतः सर्वज्ञस्य नगव Page #951 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रायधनपतसिंघ बादाउरका जैनागम संग्रह नाग उसरा. ए१ तः समस्तैरपि प्रावाङकैर्मुखमप्यवलोकयितुं न शक्यते वादस्तु दूरोत्सादितएवेत्यतः कुतस्तस्य परानवः । नगवांस्तु केवलालोकेन यत्रैव स्वपरोपकारं पश्यति तत्रैव गत्वा पि धर्मदेशनां विधत्तइति ॥ १७ ॥ पन्नं जहा वणिए नदयही, आयस्स देनं पगरेति संगं॥ तळवमे समणे नायपुत्ते,इच्चेव मे दोति मतीवियको॥॥ नवं न कुजा विदुणे पुराणं, विच्चा मइंताश्यमाह एवं॥पन्नावया बंनवतित्ति वुत्ता तस्सोदयही समणे तिबेमि ॥२०॥ अर्थ-वली बीजा प्रकारे गोशालक केहे के,अहो बाईकुमार! ( पन्नंजहावणिए उदयही के ) जेम को वाणियो उदयार्थी एटले लानार्थी बतो व्यवहार योग्यकरि याएं एटले कपूर, अगर, कस्तूरी, अनें वस्त्रादिक, ते देशांतरथकी ले आवे (याय स्सदेउपगरेतिसंगं के०) पोताना लाननें अर्थ महाजननो संग करे, (तकवमेसमोना यपुत्ते के०) तेम तमारो तीर्थकर श्रमण, झातपुत्र पण ते वाणियासमान जावो. के मके, कोइ एक लाननें अर्थे अनेक महाजनना वृंद मांहे बेसेडे, (उच्चवमेहोतिमतीवि यको के०) मा. ए प्रकारे महारी मति, अनें एवो माहारो वितर्क, एटले विचारणा बे, इत्यर्थः॥१॥ हवे गोशालक प्रत्ये आईकुमार कहेले के, अहो गोशालक!जे, तें ए वाणियानो दृष्टांत देखाड्यो, ते सर्वथकी सरखो, किंवा देशथकी सरखो ? माटें जो ते दृष्टांत देशथकी सरखो, ए रीतें तें जो वाणियानो दृष्टांत देखाड्यो होय तो, ए वातें अमनें बलान कांइ नथी. कारण के, वाणियो ज्यां ज्यां लान देखे, त्यां त्यां क्रय विक यादिक व्यापार करे. ए प्रकारे ए तहारो दृष्टांत देश पणाथी सरखो. अथवा जो सर्व थकी सरखोडे ? एम तुं कहीश तो, ए वात, घटेज नहीं,कारणके,नगवंत श्री महावीर देव,सावद्यानुष्ठान रहित,(नवनकुजाविहुणेपुराणं के०) तथा ते नवं कर्म को पण करे नहीं,अनें पुरातन कर्मनें खपावे एवा.तथा (विचामई के०) विच्चा एटले विशेषं त्याग करीने अमइ एटले उमतिने जेणे, (ताश्यमाहएवं के)त्रायी एटले ब जीवनिकायनो रक्ष पाल, एवं एटले एवा जे श्री महावीर स्वामी ते (पन्नावयाबंनवतित्तिवुत्ता के०) एम कहे के, जेम उर्गतिने परित्यागी जीव मुक्तिगामी थाय, एवं बोलें, स्वामीनुं वचन ते ब्रह्मवत ने एटले ब्रह्म शब्द मोह व्रत कह्यु. एबुं ब्रह्मव्रत रूप जे स्वामिनुं वचन तेने मान्य करी, अनेक लोक मुक्तियें जाय. एटले उर्मतिने परित्यागें जीव मुक्तिगामी थाय. (तस्सोदयहीसमऐत्तिबेमि के०) तेना लाननाअर्थी श्रमण श्री महावीरदेवज जाणवा, Page #952 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२ द्वितीये सूत्रकृतांगे द्वितीय श्रुतस्कंधे षष्ठाध्ययनं. ढुं एम कहुं कुं, ए कारणें सर्व प्रकारथकी वाणियानी ते स्वामीनें उपमा न संजवे, परंतु देशथकी ज्यां ज्यां स्वामी लान देखे, त्यां त्यां विचरे. ए उपमा सत्यबे इत्यर्थः ॥ २० ॥ ॥ दीपिका - अथ गोशालः प्राह । यथा वणिक् वदयार्थी लाभार्थी पण्यक्रयाणकं देशांतरे गत्वा विक्रीणाति प्रायस्य लानस्य हेतोर्महाजनसंगं प्रकरोति तडुपमया श्रम ज्ञातपुत्रइत्येवं मे मम मतिः स्यात् वित्तको विचारणा च ॥ १९ ॥ श्राईकमुनिराह । गवान् सावधानुष्ठानरहितोनवं कर्म न कुर्यात् पुरातनं च विधूनाति अपनयति व्यक्त्वा मतिं विमतिं त्रायी सनगवान् परेच्याप्येवमाह । यथा विमतित्यागेन मोगामी स्यादिति । एतावता ग्रंथेन ब्रह्मणोमोस्य व्रतमित्युक्तं तस्य मोहानुष्ठानस्य उदयार्थी जानार्थी श्रमणोनगवान् । ततोव पिग्दृष्टांतः सर्वसाधर्म्येण न प्रवर्त्तते जगवतः साव द्यानुष्ठानरहितत्वात् देशसाधर्म्यतु युक्तमेव यथा वणिग्यत्र जानं पश्यति तत्र क्रियां व्यापारयति तथा भगवानपीति एतदहं ब्रवीमीत्याईकमुनिराह ॥ २० ॥ ||टीका - पुनरन्येन प्रकारेण गोशालकयाह ॥ (पन्नंज हेत्यादि) यथा वलिक् कश्चिद यार्थी पल्यं व्यवहारयोग्यं नामं कर्पूरागरुकस्तूरिकांबरादिकं देशांतरं गत्वा विक्रीणाति त यस्य लानस्य हेतोः कारणान्महाजनसंगं विधत्ते तडुपमोयमपि जवत्तीर्थकरः श्र मोज्ञात पुत्रइत्येवं मे मम मतिर्भवति वितर्कोमीमांसावेति ॥ १९ ॥ एवमुक्तोगोशाल नाईक | (नवनाइत्यादि) योयं भवता दृष्टांतः प्रदर्शितः सकिं सर्वसाधर्म्येणो त देशतः ? | यदि देशतस्ततोन नः कृतिमावहति । यतोव सिग्वत् यत्रैवोपचयं पश्यति त त्रैव क्रियां व्यापारयति न यथाकथंचिदित्येतावता साधर्म्यमस्त्येव । अथ सर्वसाध ति तन्न युज्यते । यतोनगवान् विदितवेद्यतया सावद्यानुष्ठानरहितोनवं प्रत्ययं कर्म न कुर्यात् तथा विधूनयत्यपनयति पुरातनं यङ्गवोपग्राहि कर्मब ६ तथा त्यक्त्वा मतिं वि मतिं त्राय नगवान् सर्वस्य परित्राणशीलो विमतिपरित्यागेन चैवंभूतएव नवतीति ना वः । त्रायी वा मोक्षं प्रति । प्रयवयमयपयचयतय रायगतावित्यस्य रूपं । सएव नगवाने वाह । यथा विमतिपरित्यागेन चैवंभूतएव नवतीत्येतावता च संदर्भेण ब्रह्मणोमोदस्य व्रतं ब्रह्मव्रतमित्येततं । तस्मिन चोक्ते तदर्थं वाऽनुष्ठाने क्रियमाणे तस्योदयार्थी श्रम इति ब्रवीम्यहमिति ॥ २० ॥ समारजंते वणिया नूयगामं, परिग्गदं चैव ममायमाणा ॥ ते पा तिसंजोगमविष्पहाय, आयस्स देनं पगरंति संगं ॥ २१ ॥ वित्ते For Private Personal Use Only Page #953 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रायधनपतसिंघ बाहाउरका जैनागम संग्रह नाग उसरा. ए३३ सिणो मेढुणसंपगाढा, ते नोयणघा वणिया वयंति ॥ वयंतु का मेसु असोववन्ना, अणारिया पेमरसेसु गिद्धे ॥ २२॥ अर्थ-वली थाईकुमार कहे के, (समारनंतेवणियानूयगामं के०) ते वाणियो चतु देश प्रकार पणे, जूतग्राम एटले जीवनो समूह समारंजे, एतावता बकायनी हणनार एवी क्रियाने विषे प्रवर्ते, एटले क्रय विक्रयनें अर्थ शकट, उंट, घोडा, तथा बलदने पीडा उपजावे, (परिग्गहंचेवममायमाणा के) तथा परिग्रह, चतुष्पदादिक तेने विषे ममत्व करे. वली( तेणातिसंजोगमविष्पहायआयस्सहेनपगरंतिसंगं के) ते वाणिया झाति स्व जनादिकनो संयोग बांझ्याविना, लाननें कारणे अन्य बीजा साथे संबंध करे, अनें श्री वीतराग तो केवा ? तो के, जीवनिकायना रक्षपाल, निःपरियही, झातिस्वजननो संग त्यागीने, सर्वत्र अप्रतिबंध निःकेवल धर्मनोज लान गवेषता धर्म देशना थापेले. ए कारणमाटें नगवंत अनें वाणियाने सर्वथकी सरखा पणुं नथी॥१॥ वली बाई कुमारज कहेले के, हे गोशालक ! (वित्तेसिणो के०) वली वाणिया वित्त एटले धनना ग वेषण हार होय, तथा (मेदुणसंपगाढा के०) मैथुननें विषे शासक्त होय, ( तेजोयण छावणियावयंति के०) तथा नोजननें अर्थ ज्यां त्यां परिचमण करे,माटें अमें ते वाणि याने एवा कहियें बैयें. (वयंतुकामेसुयशोववना के०) वलीजो. ते वाणीया कामनोगनें विषे गृ६, तथा (अणारियापेमरसेसुगि के०) अनार्य कर्मना करनार, तथा प्रेमरसने विषे गृ६ एटले मूर्जित जे, अनें नगवंत श्री अरिहंत देव एवा नथी. तो ते वाणिया नी साथें सरवा पणुं नगवंतनें केम कहियें ? ॥ २२॥ ॥ दीपिका-वणिजोजूतग्राम समारनंते हिंसंति परियहं स्वीकुर्व ति ममायमाणाम मेदमिति व्यवस्थापयंतः ते वणिजोझातिसंयोगमविप्रहायात्यक्त्वा यस्य लानस्य हेतो रपरेण सह संगं संबंधं कुर्वति ॥ २१ ॥ वणिजोवित्तैषिणोधनार्थिनः मैथुने संप्रगाढाः प्रसक्ताः तथा ते नोजनार्थमहारार्थमितश्चतश्च व्रजति । वयंतु एवं बमोयथा ते वणिजः कामेष्वध्युपपन्नागृक्षाअनार्याः प्रेमरसेषु गृक्षाः अतोनगवतः सर्वसाधर्म्य नास्ति ॥ २॥ ॥ टीका-नचैवंनूतावणिजश्त्येतदाईककुमारोदर्शयितुमाह। ( समारनंतश्त्यादि ) ते हि वणिजश्चतुर्दशप्रकारमपि नूतग्रामं जंतुसमूहं समारनंते तउपमर्दिकाः क्रियाः प्रव यंति क्रय विक्रयार्थ शकटयानवाहनोष्टमंमतिकादिनिरनुष्ठानै रिति तथा परिग्रहं विपदच जष्पदधनधान्यादिकं ममीकुर्वति ममेदमित्येवं व्यवस्थापयंति ते हि वणिजोझातिनिः स्व जनैः सह यः संयोगस्तमविप्रदायापरित्याज्य यस्य लानस्य हेतोनिमित्तादपरेण साई Page #954 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ए२४ वितीये सूत्रकृतांगे बितीय श्रुतस्कंधे षष्ठाध्ययनं. संगं संबंधं कुर्वति । जगवांस्तु षड्जीवरक्षापरोपरिग्रहस्त्यक्तस्वजनपदः सर्वत्राप्रतिबनो धर्मार्थमन्वेषयन् गत्वापि धर्मदेशनां विधत्ते अतोजगवतोवणिग्निः साईन सर्वसाधर्म्य मस्तीति ॥ २१ ॥ पुनरपि वणिजां दोषमुजावयन्नाह । (वित्तेसिणोइत्यादि) वित्तं इव्यं तदन्वेष्टं शीलं येषां ते वित्तैषिणस्तथा मैथुने स्त्रीसंपर्के संप्रगाढाअध्यूपपन्नास्तथा ते नो जनार्थमाहारार्थ वणिजश्तश्वेतश्च व्रजति वदंति वा तांस्तु वणिजोवयमेवं बमोयथैते का मेष्वध्युपपन्नागृक्षाबनार्यकर्मकारित्वादनारसेषुच सातागौरवादिषु गृक्षामूर्बितानन्वे वंतानगवंतोहतः कथं तेषां तैः सह साधर्म्यमिति? दूरतएव निरस्तैषा कथेति ॥॥ आरंनगं चेव परिग्गरं च,अविस्सिया णिस्सिय आयदंमा॥ तेसिं च से उदए जं वयासी,चरंतणंताय उदायणेद ॥२३॥ गं त पच्चंतिय नदएवं, वयंति ते दोवि गुणोदयंमि॥से उदए साति मणंतपत्ते, तमुदयं सादयश् ताणा ॥२४॥ अर्थ-वली आईकुमारज कहेजे. (आरंलगंचेवपरिग्गहंच के०) थारंन जे सावद्या नुष्ठान रूप, तथा परिग्रह ते धनधन्यादिक, नव प्रकारे तेनी ममत्वनें (अविनस्सियाणि स्सिय के०) न बांकीने, तेहिज आरंन परिग्रहने विषे निश्चे थकी बंधाणा एवा वाणिया होय. वली केवा होय? तोके, (आयदंमा के०) पोताना आत्माने दंमनार, (तेसिंच सेउदएजंवयासी के०) वली हे गोशालक! तुं कहे के, ते वाणिया लानना अर्थीले. माटे ते लान तो एवो वाणियानो जाणवो के, (चरंततायउहायरोह के०) ते वाणि याने में लान ते लान चतुर्गतिक संसारने,तथा तेना पुःखनें अर्थे थाय, अने ते वा पियानो लान एकांतिक एटले एकांत पण न होय ॥२३॥ वली तेहिज देखाडे. (णे गंतपच्चंतियउदएवं के०) वली अहो गोशालक ! ते वाणियानो लान पण एकांतिक नथी, कोई वारें लान वांडतां अलान पण थायः तथा आत्यंतिक एटले सर्वकालनावी लान पण नथी, को वारें होय, अने को वारें न पण होय. (वयंतितेदोविगुणोदयं मि के० )ते व्यापारना जाण एम कहे के. नको पण थाय, अथवा टोटो पण थाय. एबे नाव होय,माटें ते बे नाव विगतगुणोदय जाणवा. तो ते लानथकी गुं, जे एका तिक अने आत्यंतिक नहीं, अनें वली ते लान अनर्थ जणी प्रवर्त? (सेउदएसातिमवंत पत्ते के०) अने ते जे श्री जगवंतनो केवलज्ञान प्राप्ति लक्षण, तथा निर्जरानुं कारण, एवो जे लान, ते सादि अनंत जाणवो. (तमुदयंसाहयताणा के० ) एवा लान सहित पोतें जगवंत , अनें बीजाने पण एवो लान आपेले. ते नगवंत कहेवा ! तो Page #955 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राय धनपतसिंघ बाहारका जैनागम संग्रह नाग उसरा. एश्य के, त्रायो एटले आसन्न नव्यने रखथकी राखनार , तथा ज्ञानी एटले जाणेली व स्तुले विद्यमान जेनें एवा नगवंतने वाणियानी उपमा केम देवाय ? ॥ २ ॥ ॥ दीपिका-सारनपरिग्रहं वाऽव्युत्सृज्याऽत्यत्का तत्रैव निःसृताबायात्मैव दंमोहिं सकोयेषां ते तथा तेषां च वणिजामुदयोलानोयदर्थ ते प्रवृत्ताः यं च त्वं लानं वदसि स तेषां चतुरंतश्चतुर्गतिकोयः संसारोऽनंतस्तस्मै तदर्थ नवति तथा सुःखाय नवति नच स लानोऽपि तस्यैकांतिकः ॥ २३ ॥ एतदेवाह । एकांतिकः आत्यंतिकश्च तेषां वणिजामुद योलानोन विद्यते । लानार्थ प्रवृत्तस्य हानेरपि दर्शनात् । एवं वदंति तदिदः तौ च दावपि नावौ विगतगुणोदयौ । कोर्थः।योनैकांतिकः१ अनात्यंतिकश्च ५ किं तेन लाने नेति यः सेतस्य नगवतउदयोलाजोधर्मदेशनादिः सच सादिरनंतश्च एवंनूतमुदयं प्राप्तो ऽन्येषामपि तादृशं साधयति कथयति । त्रायी ज्ञातीच झातं वस्तु विद्यते यस्य सझा ती शातसर्वज्ञेयः एवंनतेन जगवता तेषां पूर्वोक्तानां वणिजां कथं सर्वसाम्यमिति ॥२४॥ ॥ टीका-किंचान्यत् । (आरंनगंचेवइत्यादि) पारंनं सावद्यानुष्ठानं च तथा परिग्रहं वाई.. व्युत्सज्यापरित्यज्य तस्मिन्नेवारंजे क्रय विक्रयपचनपाचनादिकेतथा परियहेचधनधान्यहिर एयसुवर्णविपदचतुष्पदादिके निश्चयेन श्रिताबधानिःश्रितावणिजोनवंति तथात्मैव दमोदंग यतीति दमोयेषां ते नवंत्यात्मदमायसदाचारप्रवृत्तेरिति।नावोपि चैषां वणिजां परिग्रहारंन वतां सउदयोलानोयदर्थ ते प्रवृत्तायं च त्वं लानं वदसि सतेषां चतुरंतश्चतुर्गतिकोयः संसा रोऽनंतस्तस्मै तदर्थ नवतीति न चेहासावेकांतेन तत्प्रवृत्तस्यापि नवतीति ॥३॥ एतदेव दर्शयितुमाह । (ऐगंतिणचंतिइत्यादि ) एकांतेन नवतीत्येकांतिकस्तथा तन्नानार्थ प्रत त्तस्य विपर्ययस्यापि दर्शनात्तथा नाप्यात्यंतिकः सर्वकालनावी तत्यदर्शनात्सतेषां उदयोलानोनैकांतिकोनात्यंतिकश्चत्येवं तदिदोवदंति । तौच भावपि नावौ विगतगुणो दयौ नवतः । एतयुक्तं नवति । किं तेनोदयेन लानरूपेण योनैकांतिकोनात्यंतिकश्च प श्वादर्थायेति । यश्च नगवतः सेतस्य दिव्यज्ञानप्राप्तिलक्षणनदयोलानोयोवा धर्मदेशनावाप्त निर्जरालदणः सच सादिरनंतश्च तमेवंनूतमुदयं प्राप्तीनगवानन्येषामपि तथानूतमेवोदयं साधयति कथयति श्लाघते वा।किंनूतोनगवांस्त्रायी।ययवयमयपयचयतयणयगतावित्य स्य दमकधातोर्णिनिप्रत्यये रूपं । मोदंप्रति गमनशीलश्त्यर्थः। त्रायी वासन्ननव्यानांत्राण करणात्तथा झातीझाता दत्रियाशात वा वस्तुजातं विद्यते यस्य सझाती विदितसमस्तवेद्य इत्यर्थः । तदेवंनूतेन नगवता तेषां वणिजां निर्विवेकिनां कथं सर्वसाधर्म्यमिति ॥२४॥ Page #956 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (एश६ वितीये सूत्रकृतांगे वितीय श्रुतस्कंधे षष्ठाध्ययनं. अहिंसयं सवपयाणुकंपी, धम्मे व्यं कम्मविवेगदे॥ तमाय दंमेदि समायरंता,अबोहीएते पडिरूवमेयं ॥३॥पिन्नागपिंकी मवि विमु सूले,केई पणजा पुरिसे श्मेत्ति। अलान्यं वावि कुमा रएत्ति, सलिप्पती पाणिवदेण अम्दं ॥२६॥ अर्थ-हवे वली कहे के, देवोनां करेलां समवसरण, सोना, कमल, देववंदो, सिंहासन, इत्यादिक पदार्थोनो परिनोग करतो थको ते,कर्मो थकी शी रीतें न लेपाय? एवं गोशालकनुं वचन याशंकीनें,याईकुमार कहे के,(अहिंसयं के) ए जगवंत श्रीमहावीर देव सर्वजीवने अहिंसता एटले अणहणता थका,समवसरणादिकनो उपजोग करे.परं तु ते समवसरणादिक उपर, श्री वीतरागदेवनो लगारमात्र पण प्रतिबंध नथी, ए कारण माटें एमने कर्म न लागे. वली स्वामी कहेवाजे? तो के,(सवपयाणुकंपी के०) सर्व प्रजा एटले सर्वजीव तेनी अनुकंपाना करनार,(धम्मेख्यिकम्म विवेगहेन के०) एवा श्री नगवंत धर्मनें विष प्रवर्तता कर्म विवेकना कारण नूत,एवा तेने (तमायदं हिंसमायरंता के०) यात्मदंम एटले अनेक असमंजस वचनें करी तारा सरखा, आत्मदंमने आचारता थका वणिक्नो दृष्टांत देडे, माटें (अबोहीएतेपडिरूवमेयं के०) ते अबोधी एटले अज्ञानी प्रतिरूप जाणवा, एयं एटले ए एक तेनुं अज्ञान पणुंज जाणवू, केमके एक तो पोतें अज्ञान पणे प्रवर्ते,ए पेहेलुं अज्ञान पणुं. वली त्रिजगत् पूज्य, सर्व अतिशयना निधान, एवा अरिहंतने वैश्यादिकनी उपमा आपे, ते बीजुंबज्ञान पणुं.माटें ते जीव एम करता थका पोताना बोध बीजनो नाश करे. इत्यर्थः ॥२५॥ हवे इत्यादिक पूर्वोक्त गोशालकनां वचनोनुं निराकरण करीने आईकुमार मुनि पागल चाल्या, तेवारें बच्चे शाक्यपुत्रियदर्श नी एटले बौछ मव्या. तेणें एम कर्दा के,हे बाईकुमार! तें गोशालक प्रत्यें वाणियानो दृष्टांत दूषव्यो ते युक्तज कडे, कारण के, बाह्य अनुष्ठान, प्रायः शून्यजे, अंतरंग अनु ष्ठाननेजमोदांग प्रधान जाणवू, ए कारण माटें अमारा सिद्धांतमाहे ते अंतरंगानुष्ठानसाध कमुने. ते अमें कहियें बैये माटें तुं सावधान थको सानल.? (पिन्नागपिंमीमवि विसले के) पिन्नाग पिंकी एटले खलपिमी ते अचेतनजले अने ते कोई एक स्थानकें ने तेनीपर कोई एक पुरुष वस्त्र नारख्युं, पडी ते खलपिमने शूलीयें प्रोक्ने, (केपणका पुरिसेश्मेत्ति के०) कोई एक म्लेवें पुरुषनीबुधियें लइने अग्नि उपर पचाव्यो, तथा वली (अलायंवा विकुमारएत्ति के ) तुंबडं देखीने ए कुमार एवी बुड़ियें एक पुरुषं तेने अनि नपर पचाव्यो (सलिप्पतीपाणिवहेणअम्हं के०) तो हवे ए बेगुजण, पुरुष अनेकु मारहत्याने पा लेपाय अमारा सिमांतमाहे ए नावले. गुनाशुन बंधनुं मूल, मन परि Page #957 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राय धनपतसिंघ बादाउरका जैनागम संग्रह नाग उसरा. ए णामज जाणवू, चित्तमाहे जो जीवघातनो परिणामले तो अणकयुं थकुंपण, प्राणघा तनुं पाप लागे ॥ २६ ॥ ॥ दीपिका-असौ जगवान्समवसरणाापनोगं कुर्वन्नप्यहिंसन् । कोर्थः । नहि तत्रातः कोप्याशंसाप्रतिबंधोवास्ति साम्यरसलीनत्वात् । सर्वेषां प्रजाजंतवस्तेषामनुकंपी एवं विधं धर्मे स्थितं तं नवादृशाआत्मदमैः समाचरंतोवणिगादितुल्यं कुर्वति एतच्चाबोधेरझातस्य प्रतिरूपं अज्ञानविलसितमित्यर्थः । एवं गोशाले निराकते बौक्षाः प्रादुस्त्वया वणिग्दृष्टां तदूषणेन बाह्यानुष्ठानदूषितं तरं कृतं यतोऽस्मत्तिमातेप्यांतरमेवानुष्ठानं नवमोक्योः प्रधानांगमिति । तत्त्वं शृणु ॥२५॥ पिण्याकः खलस्तस्य पिंकी शकलमचेतनमपि कदाचि म्लेबादिविषये संत्रमे केनचिन्नश्यता खलोपरि वस्त्रं दिप्तं तच्च म्लेचेन पुरुषोयमिति बुझ्या गृहीतं ततोसौ म्लेडोवस्त्रवेष्टितां खलपिमी पुरुषबुध्या शूले प्रोतां पावके पचेत तथाऽलाबुकं तुंबकं कुमारोयमिति मत्वाऽग्नौ पचेत् अस्माकं मते सप्राणिवधेन लिप्यते चित्तस्य उष्टत्वात् ॥ २६ ॥ ॥ टीका-सांप्रतं कृतदेवसमवसरणपद्मावलीदेवबंदकसिंहासनाद्युपनोगं कुर्वन्नप्याधाकर्म कृतवसतिनिषेधकसाधुवत्कथं तदनुमतिकतेन कर्मणाऽसौ न लिप्यतइत्येतजोशालकमत माशंक्याह। (अहिंसयमित्यादि) असौ नगवान् समवसरणाद्युपनोगं कुर्वन्नप्यहिंसकःस त्रुपनोगं करोति। एतमुक्तं नवति नहि तत्र जगवतोमनागप्याशंसाप्रतिबंधोवा विद्यते स मतृणमणिमुक्तालोष्टकांचनतया तपनोगंप्रति प्रहत्तेर्देवानामपि प्रवचनोदिनायिपूणांक थंनु नाम नव्यानां धर्मा निमुखं प्रवृत्तिर्यथा स्यादित्येवमर्थमात्मलानार्थ च प्रवर्तनादतोन गवान हिंसकस्तथा सर्वेषां प्रजायंतति प्रजाजंतवस्तदनुकंपीच तान्संसारे पर्यटतोनुकंपयते तहीलश्च तमेवंरूपं धर्मपरमार्थरूपे व्यवस्थितं कर्मविवेकहेतुनूतं नवविधामात्मदंमैः समा चरंतयात्मकल्पं कुर्वति। वणिगादिनिरुदाहरणैरेतच्चाबोधेरझानस्य प्रतिरूपं वर्तते एकं ता वदिदमझानं यत्स्वतः कुमार्गप्रवर्तनं । वितीयं चैतत्प्रतिरूपमझानं यनगवतामपि जगई द्यानां सर्वातिशयनिधाननूतानामितरैः समत्वापादनमिति ॥ २५॥ सांप्रतमाईककुमारम पहस्तितगोशालकं ततोनगवदनिमुखं गतं दृष्ट्वायांतराले शाक्यपुत्रीयानिक्षवश्दमूचुर्य देत मणिग्दृष्टांतदूषणेन बाह्यमनुष्ठानं दूषितं तबोननं कृतं नवता यतोऽतिफल्गुप्रायं बाह्य मनुष्ठानं थांतरमेव त्वनुष्ठानं संसारमोक्योः प्रधानांगमस्मत्सिहाते चैतदेव व्यावय॑ते। त्येतदाककुमार जो राजपुत्र! त्वमवहितः शृणु श्रुत्वाचावधारयेति जणित्वा ते निहुका श्रांतरानुष्ठानसमर्थकमात्मीयसिद्धांताविर्भावनायेदमादुः । (पिन्नागेत्यादि) पिण्याकः Page #958 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एत वितीये सूत्रकृतांगे वितीय श्रुतस्कंधे षष्ठाध्ययनं: खलस्तस्य पिमिनितकं तदचेतनमपि सत् कस्मिश्चित्संन्रमे म्लेबादिविषये केनचिन्नश्य ता प्रावरणं खलोपरि दिप्तं तच्च म्लेच्छेनान्वेष्टुं प्रवृत्तेन पुरुषोयमिति मत्वा खलपिंख्यास ह गृहीतं ततोसौ म्लेडोवस्त्रवेष्टितां तां खलपिमी पुरुषबुझ्या शूले प्रोतां पावके पचेत् तथाऽलाबुकं तुंबकं कुमारोयमिति मत्वाऽग्नावेव पपाच सचैवंचित्तस्य उष्टत्वात्प्राणिवध जनितेन पातकेन युज्यते। अस्मत्सिते चित्तमूलत्वाबुनागुनबंधस्येत्येवं तावदकुशल चित्तप्रामाण्यादकुर्वन्नपि प्राणातिपातप्रतिघातफलेन युज्यते ॥ २६ ॥ अहवावि विभ्रूण मिलरकु सूले, पिन्नागबुद्धी नरं पएका ॥ कुमारगं वावि अलाबुयंति, न लिप्प पाणिवदेण अम्दं ॥३॥ पुरिसं च विझूण कुमारगंवा,सूलंमि केई पएकायतेए॥ पिन्नाय पिंमे सति मारुहेत्ता, बुधाण तं कप्पति पारणाए॥२॥ अर्थ-वली एहिज दृष्टांत विपरीत पणे करीने कहेजे. (अहवावि के०) अथवा को एक सत्यपुरुषने ( पिन्नागबुद्धि के ) खलपिंमीनी बुड़ियें करी कोइ एक (मिल स्कु के० ) म्लेड, (सूले के० ) यूलिये करी ( विद्रण के०) विधीने प्रोड्ने (नरं के०) मनुष्यनें, (पएका के०) अग्नियें करी पचावे, अने (कुमारगंवा विअलाबुयंति के०) त था कुमार बालकने देखीने तेने तुंबडानी बुदिलावीने, अग्निमां पचावे, ए बेदुजणने मनपरिणाम विशेष एवं ( नलिप्पश्पाणिवहेणथम्हं के०) प्राणवधनु पाप लागे नहीं, एथमारा शास्त्रनु रहस्य जाणवू ॥२७॥ वली पण तेहिज दृष्टांत कहे (पुरिसंचविण कुमारगंवा के०) पुरुष अथवा कुमारने (सूमि के) शूली (विखूण के०) वींधीने प्रोनें (केश्पएकायतेएके० ) कोइएक पुरुष अग्मिने विषे पचावे (पिन्नायपीमेस तिमारु हेत्ता के०) अने मनमांहें एवो नाव आणे के ए खलपिमी (बुदाणतंकप्पतिपारणाए के ) तेनी बुझ्दर्शजननें पण पारणा जणी कल्पेतो, अन्य बीजानुं शुं कहे? एताव ता मनसाथे असंकल्पितले मात्रै कर्म न लागे एवो. अमारो मत ॥ २७ ॥ ॥दीपिका-अथवा सत्यं पुरुष खलबुझ्या कश्चिम्लेवः शूले प्रोतमग्नौ पचेत् कुमारक बालं वाऽलाबुबुझ्या पन्नासौ प्राणिवधेन लिप्यतेस्माकमिति प्राणिवधानिप्रायानावात् ॥ २७ ॥ पुरुषं कुमारकंवा शूले विध्वा कश्चिजाततेजसि वन्ही आरुह्य पचेत् खलपि मीयमिति मत्वा सती शोननां तदेतदुकानां शाक्यानां कल्पते पारणाय नोजनाय । एव मसंकल्पितं कर्मचयं न यात्यस्मन्मते ॥२८॥ Page #959 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राय धनपतसिंघ बाहारका जैनागम संग्रह नाग उसरा. एशए ॥ टीका-धमुमेव दृष्टांतं वैपरीत्येनाह । ( अहवावीत्यादि ) अथवापि सत्यपुरुषं खलबुच्या कश्चिन्म्लेबः शूलपोतमग्नौ पचेत्तथा कुमारकं बालं तुंबकबुझ्याग्नावेव पचेन्नै वमेवासौ प्राणिवधजनितेन पातकेन लिप्यतेऽस्माकमिति ॥ २७॥ किंचान्यत् । (पुरिस मित्यादि) पुरुषं वा कुमारं वा विध्वा शूले कश्चित्पचेजाततेजस्यनावारुह्य खलपिंमीयमि ति मत्वा सती शोजनां तदेतद्वानामपि पारणाय नोजनाय कल्पते योग्यं नवति कि मुतापरेषामेवं सर्वास्ववस्थास्वचिंतितं मनसा संकल्पितं कर्मचयं नागबत्यस्मसिहांते । त उक्तं अविज्ञानोपचितं परिझानोपचितमीर्यापथिकं स्वप्नांतिकं चेति कर्मोपचयं न याति ॥२७ सिणायगाणं तु चे सहस्से, जे नोयए णितिए निकुयाणं॥ ते पन्नखंधं समदं जिणित्ता, नवंति आरोप्प महंतसत्ता॥णा अ जोगरूवं इद संजयाणं, पावं तु पाणा णयसंसका॥ अबोदि ए दोपहवि तं असादु, वयंति जया विपडिस्सुणंति ॥३०॥ अर्थ-हवे वली शाक्यदर्शनी दानफलनो अधिकार कहेते. ( सिणायगाणंतु वेसह स्से के०) स्नातक एटले बौक्षमत प्रधान दर्शनी, तेना जे बे सहस्त्र तेने (जेनोयएणि तिएनिस्कुयाणं के०) जे कोइ पोतानो शाक्यपुत्रीय धर्मे प्रवर्त्ततो एवो नपासक, प चनादिक क्रिया करीने निहुनें निरंतर जमाडे, (तेपुन्नखधंसुमहंजिणित्ता के० ) ते पुरुष महान् पुण्यस्कंध उपार्जीनें, (नवंतिधारोप्पमहंतसत्ता के ० ) महोटा सत्ववालो एटले अक्षावंत थको धारोप्य एवे नामें सर्वोत्तम देवता थाय. इत्यर्थः॥ २ ॥ए रीतें बौदर्श नी पोताना धर्मर्नु रहस्य, आईकुमार प्रत्यें देखाडीने तेनें कहेवा लागा के, अहो आईकुमार.! तुं अमारो धर्म मान्य कर! . एवं कहे थके, हवे आईकुमार तेमने क हे के, अहो शाक्यदर्शनी ! (अजोगरूवंशहसंजयाणं के०) अंही तमारा दर्श नने विषे जे पूर्व नोजन धाश्री वचन कह्यं ते, संयतपणाने अयोग्य कारणके,अहिं साने अर्थे प्रवर्त्तमान, समिति बने गुप्तिये करी सहित, एवा साधु होय, तेने नाव दि फलदायिनी थाय ए वात खरीने, परंतु तमारी वक्तव्यतायें, खल अनें पुरुषनी व्यक्ति पण जे न जाणे; तेनेज नावशुद्धि कही. ए कारणेज बौषमति खल पिंमीनी बुद्धियें पुरुषनो विनाश करीने, तेना गुरुने मांस नहण करावे. ते अत्यं त अयुक्त, तेज कहे. (पावंतुपाणायसंसका के०) प्राणी एटले जीव, तेना विनाशरूप पाप करोने, प्रकर्षे रसगृक्ष थका वली तेनेज पुण्य बोले माटें,(अबोहिए दोएहवितंअसादु के) ए पाप, अबोधीनुं कारण तेथी ते बेहुनें असाधु जाणवा, ते बे Page #960 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ए३० दितीये सूत्रकृतांगे वितीय श्रुतस्कंधे षष्ठाध्ययनं. दु कोण ? ते कहेजे. (वयंतिजेयाविपडिस्सुणंति के०) एक तो जे खलपिमीनी बुधिय पु रुपनें पचावे, अनें तेमांहे पाप नथी एम कहे, अने बीजो जे तेमनुं एवं वचन अंगी कार करे, ए बेढुनें न नथी. एवी जावगुड़ियें मोद नथी, माटें दुं एवो मा र्ग केम यादरुं? ॥ ३०॥ ॥ दीपिका-स्नातकाबौक्षशिष्यास्तेषां निकुकाणां सहस्रक्ष्यं निजे बौदधर्मे कश्चि उपासकः पचनाद्यारंनं कृत्वापि नोजयेत् ते बहवोपि श्रद्धालवः पुण्यस्कंधं महांत स मावा रोप्याख्यादेवानवंति महासत्वाः ॥ २ए ॥ बौद्धरित्युक्ते आईकः प्राह । यत्त व मते कथितं तत्संयतानामयोग्यरूपमघटमानमिदं यत्प्राणानामिडियादीनां घातेन पा पं कृत्वा तदनावं वदंति खलबुध्या पुरुषं नतोपि न पापमिति पुरुषबुच्या खलपातीपा पवानिति वचनं तेषां अबोध्ये श्रबोधिलानार्थ तयोईयोरपि स्यात् । को दौ? ये एवं पू क्तिं वदंति येच तेन्यः शृएवं ति तयोईयोरपि असाध्वेतत् यज्ञानावृतमूढजननावयु च्या शुदिन स्यादित्यर्थः ॥ ३० ॥ ॥ टीका-पुनरपि शाक्यएव दानफलमधिकृत्याह । (सिणायगाणमित्यादि) स्नात काबोधिसत्वाः।तुशब्दारपंचशिक्षापदिकादिपरिग्रहातेषां निकुकाणां सहस्त्र ध्यं निजे शाक्य पुत्रिये धर्मे व्यवस्थितः कश्चिपासकः पचनपाचनाद्यपि कृत्वा नोजयेत्समांसगुडदाडिमे नेष्टेन नोजनेन ते पुरुषामहासत्वाः श्रमालवः पुण्यस्कंधं महांतं समावयं तेनच पुण्य स्कंधेनारोप्याख्यादेवानवंत्याकाशोपगाः सर्वोत्तमां देवगतिं गचंतीत्यर्थः ॥ २ ॥ तदेवं बुध्न दानमूलः शीलमूलश्च धर्मः प्रवेदितस्तदेह्यागब बौसिमांतं प्रतिपद्यस्वेत्येवं नि कुकैरनिक्षितः सन्नाकोऽनाकुलया दृष्ट्या तान्वीक्ष्योवाचेदं वक्ष्यमाणमित्याह । (थ जोगरूवमित्यादि) हास्मिन्नवदीये शाक्यमते संयतानां निर्णां यमुक्तं प्राक्त दत्यंते नायोग्यरूपमघटमानकं तथा ह्यहिंसार्थमुजितस्य त्रिगुप्तिगुप्तस्य पंचसमितिसमितस्य स तः प्रव्रजितस्य सम्यक् ज्ञानपूर्विकां क्रियां कुर्वतोनावशुद्धिः फलवती नवति तदिपर्य स्तमतेस्त्वज्ञानातस्य महामोहाकुलीकतांतरात्मतया खलपुरुषयोविवेकमजानतः कुत स्त्यानावशुधिरत्यंतमसांप्रतमेतदुक्षमतानुसारिणां यत्खलबुच्या पुरुषस्य शूले प्रोतनपच नादिकं तथा बुधस्येवान्नबुध्यापिशितनदाणानुमत्यादिकमिति । एतदेव दर्शयति । प्राणा नामिडियायामपगमेन तुशब्दस्यैवकारार्थत्वात्पापमेव कृत्वा रससातागौरवादिगृहास्तदना वं व्यावर्णयंत्येतच्च तेषां पापानावव्यावर्णनमबोध्यै थबोधिलानार्थ तयो योरपि संपद्यते ऽतोसाध्वेतत्।कयोध्योरित्याह । ये वदंति पिण्याकबुक्या पुरुषपाकेपि पातकानावं येच Page #961 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राय धनपतसिंघ बादाडुरका जैनागम संग्रह नाग इसरा. ३१ तेन्यः शृण्वंत्येतयो६योरपि वर्गयोरसाध्वेतदिति । पिच नाज्ञानावृतमूढजननावशु-य शुद्धिर्भवति । यदिच स्यात्संसारमोचकादीनामपि तर्हि कर्म विमोक्षः स्यात्तथा नावशुद्धिमेव केवलामच्युपगतां नवतां शिरस्तुंमसुंमन पिंपातादिकं चैत्यकर्मादिकं चानुष्ठानमनर्थक मापद्यते तस्मान्नैवंविधया नावशुच्या गुद्धिरुपजायतइति स्थितं ॥ ३० ॥ न देयं तिरियं दिसासु, विन्नाय लिंगं तसथावराणं ॥ नूया निसंकाई डुगं माणा, वदे करेजाव कुठे विचि ॥३१ ॥ पुरिसे त्तिविन्नत्तिन एवमचि, अपारिए से पुरिसे तहा दु ॥ कोनवो पिन्नगपिंमियाए, वायावि एसा बुझ्या सच्चा ॥ ३२ ॥ न्नाय 0 अर्थ- हवे श्राईकुमार, जैनमार्गना गुण कहेले. (चाहेयं तिरियं दिसासु के ० ) उंची, , जे दिशिजले, ते दिशिनने विषे ( तस्थावराणं के० ) त्रस यनें स्था वर जीवनी ( लिंग के ० ) हिना, चलन, स्पंदन, अंकुरोद्रवादिक, उत्पत्तिनें (वि के ) जाणीनें, (नूया निसंका डुगं माया के०) नूत जे जीव तेनी निशंकायें के, रखे कोइ जीवनो घात उपजे ! एवा जावें पापना नयथकी, सर्व सावधानुष्ठाननें गंडता जीवनां मर्द्दननें परिहरता थका, ( वदे के० ) बढ़े एटले धर्मोपदेश पे. ( क रेगाव के ० ) तथा यावत् क्रिया अनुष्ठान पण करे, (कुविहनि के०) तो हवे एवी रीतें धनु ष्ठान करतां तथा बोलतां श्रमारा पहनें विषे तमारो उपजावेलो दोष कोई नथी ॥ ३१ ॥ हवे खल पिंकीने विषे पुरुषनी बुद्धिनो संभव देखाडेबे ( पुरिसेत्तिविन्न तिनएवम वि०) खल पिंकीने विषे ए पुरुषजबे एवी बुद्धि तो जे अत्यंत मूर्ख होय तेनें प न उपजे ? ते कारणें ( प्रणारिए से पुरिसेतहादु के ० ) जे एवी बुद्धि करे, नें एम कहे के ए हवामां दोष नथी, ते निवें थकी अनाचारी पुरुष जावो, (कोसंनवो पिन्नगामि के ० ) खपिंकानें विषे जे पुरुषनी बुद्धि करवी, ते वातज केम संनवें! माटें (वा याविएसाबुइया सच्चा के०) एवी वाणी बोलवी ते पण असत्य कहीले, माटें एवी जाषा बोलनार निर्विवेक, कर्म बंधनें करी बंधाय. घनें घनंतो संसार वधारे. इत्यर्थः ॥ ३२ ॥ ॥ दीपिका - ऊर्ध्वमधस्तिर्यक्च सर्वदिक्कु सस्थावराणां लिंगं जीवत्व चिन्हं विज्ञाय नूतानिशंकया जीवघातोत्र नावीति बुद्धधा सर्वमनुष्ठानं जुगुप्समानस्तद्वातं परिहरन्वदे कुर्यादपीति कुतोस्तीह त्वक्तोदोषः । न कश्चितत्रास्मन्मते दोषोस्तीत्यर्थः ॥ ३१ ॥ त tri पियाकपिं पुरुषोयमिति विज्ञप्तिर्मतिर्नास्ति जडस्यापि तस्माद्यएवं वक्ति सपुरुषो For Private Personal Use Only Page #962 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ए३२ वितीये सूत्रकृतांगे वितीय श्रुतस्कंधे षष्ठाध्ययनं ऽनार्यएव। कः संनवः पिण्याकपिमघां पुरुषबुझेः? यतोवागप्येषाऽसत्या कथिता तस्मात्पि ख्याककाष्ठादावपि प्रवर्त्तमानेन जीवोपमईनीरुणा साशंकेनैव प्रवर्तितव्यं ॥ ३ ॥ ॥ टीका-परपदं दूषयित्वाईकः स्वपदावि वनायाह । (उडमहेयमित्यादि) ऊर्ध्व मधस्तिर्यकु यादिशः प्रज्ञापनादिकास्तासु सर्वास्वपि दिनु त्रसानां स्थावराणां च जंतूनां यबसस्थावरत्वेन जीवलिंगं चलनस्पंदनांकुरोन्नवदम्लानादिकं तविज्ञायते नूतानिशं कया जीवोपमर्दोत्र नविष्यतीत्येवंबुझ्या सर्वमनुष्ठानं जुगुप्समानस्तउपमर्दै परिहरन् व देत् कुतोप्यतः कुतोस्तीहास्मिन्नेवंनूतेऽनुष्ठाने क्रियमाणे प्रोच्यमाने वास्मत्पदे युष्मदा पादितोदोषइति ॥ ३१ ॥ अधुना पिण्याके पुरुषबुझ्याऽसंनवमेव दर्शयितुमाह । (पु रिसेत्यादि ) तस्यां पिण्याकबुक्ष्यां पुरुषोयमित्येवमत्यंतजडस्यापि विज्ञप्तिरेव नास्ति त स्माद्यएवं वक्ति सोऽत्यंतोपुरुषस्तथान्युपगमेन दुशब्दस्यैवकारार्थत्वेऽनार्य एवासौ यः पुरु षमेव खलोयमिति मत्वा हतेपि नास्ति दोषश्त्येवं वदेत् । तथाहि । कः संनवः पिमयां पुरुषबुरित्यतोवागपीयमीहगसत्येति सत्वोपघातकत्वात्ततश्च निःशंकप्रहार्यनालोचको निर्विवेकतया बक्ष्यते तस्मात्पिण्याककाष्ठादावपि प्रवर्त्तमानेन जीवोपमईनीरुणा सा शंकेन प्रवर्तितव्यमिति ॥ ३२ वायानियोगेण जमावदेजा, णो तारिसं वायमुदादरिजा॥ अ घाणमेयं वयणं गुणाणं, पो दिकिए बूयसुरालमेयं ॥३३॥ लछे अछे अहो एव तुप्ने, जिवाणुनागे सुविचिंतिएव॥ पुवं समुदं अ वरं च पुछे, ग्लोइए पाणितले दिएवा॥३४॥ अर्थ-वली पण बाईकुमार कहेले के, ( वायानियोगेण के० ) वचननें अनियोग पणे एटले (जमावहका के०) वचन मात्र बोलता थकां पण जे पाप लागे, (णोता रिसंवायमुदाहरिजा के० ) तादृश तेवु वचन विवेकी पुरुष न बोले. (यहाणमेयंवय गुणाणंणोदिस्किएव्यसुरालमेयं के) गुणनु अस्थानरूप एवं असार वचन, तेने जे दीक्षित माह्यो पुरुष होय ते न बोले, के जे खलपिमने पुरुष, अनें पुरुषनें खलपिम, तथा तुंबडाने बालक, बनें बालकनें तुंबडु, इत्यादिक वचन उत्तम पुरुष न बोले. इत्य र्थः ॥३३॥ वली पण थाईकुमारज कहे के, (लघव्यहोएवतुप्ने के० ) अहो शाक्य दर्शनी तमने एवे ज्ञाता पणे करीने जाणियें बैयें, जे तमोनें विज्ञान ते यथावस्थित तत्व, लाध्यु. एटले तमे तत्व पाम्या. ( जिवाणुनागेसुविचिंतिएव के०) तथा तमें जीवनो अनु नाग जे कर्मविपाक, ते रुडीरीतें चिंतव्यो, (पुवंसमुदंशवरंचपुरे के० ) तथा एवा वि Page #963 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राय धनपतसिंघ बाहाउरका जैनागम संग्रह नाग उसरा. ए३३ ज्ञानें करी तमारो यश पूर्व बने पश्चिम समुह सुधी पहोतो, विस्तार पाम्यो, (उलोइए पाणितलेहिएवा के०) तथा तमोयें एवे विझाने करी, अवलोकन करवे करी, ए लोकने पाणितलस्थितनी पेठे अवलोक्यो, तो अहो ! अमें तमारा विज्ञानना अतिशयतुं वर्णन गुं करियें? एवं तमारा सर झातापणुं क्यांही पण देखातुं नथी,जे खलपिमथ में पुरुष, तथा तुंबडु, अनें बालकनो अंतर कांइ पण जणाय नहीं, तो वली हवे जाण पणामां बाकी पण युं रझुं? ॥ ३४ ॥ ___॥ दीपिका-वाचानियोगोवागनियोगस्तेन यदावरेत्कुर्यात् पापं कर्म तादृशीं वाचं नोदादरेन्न वदेत् एतचनं गुणानामस्थानं दीदितोन ब्रूयात् उदारं सुष्टु निःसारमिति यत्वलेपि पुरुषः पुरुषोपि खलः अलाबुकं बालकः बालकोवाऽलाबुकमिति निःसारत्वमि त्यर्थः॥ ३३ ॥ अहो ! एवमंगीकृते सति युष्मानिरथानंतरमर्थस्तत्वं लब्धं जीवानामनु कर्मविपाकः नागः सुविचिंतितः एवंनतेन ज्ञानेन नवतां यशः पूर्व समुमपरं च पृष्ठ गतमित्यर्थः । नवनिरवलोकितएवायं लोकः पाणितलस्थितश्वेति ॥ ३४ ॥ ॥ टीका-किंचान्यत् । (वायानियोगेणमित्यादि ) वाचानियोगोवागनियोगस्तेना पि यद्यस्मादावत्पापं कर्म ततोविवेकी नाषागुणदोषज्ञोन तादृशीं नाषामुदाहरेन्नानि दध्याद्यतएवं ततोऽस्थानमेत चनं गुणानां नहि प्रव्रजितोयथावस्थितोर्यानिधाय्येत दारं सुष्टु परिस्थूरं निःसारं निरुपपत्तिकं वचनं न ब्रूयात् तद्यथा पिण्याकोपि पुरुषः पुरु पोपि पिण्याकस्तथाऽलाबुकमेव बालकोबालकएवाऽलाबुकमिति ॥३३ ॥ सांप्रतमाईककु मारएव तं निढुकं युक्तिपराजितं संतं सोल्नु बिनणिषुराह । (लक्षेत्यादि ) यहो युष्मा निरथानंतर्ये एवंनतान्युपगमे सति लब्धार्थो विज्ञानं यथावस्थितं तत्वमिति तथावगतः सुचिंतितोनवनिर्जीवानामनुनागः कर्मविपाकस्तत्पीडेति तथैवंजूतेन विज्ञानेन नवतां यशः पूर्वसमुश्मपरंच पृष्ठं गतमित्यर्थः। तथा नवनिरेवं विधविज्ञानावलोकनेनावलो कितः पाणितलस्थश्वायं लोकति यहों! नवतां विज्ञानातिशयोयत नवंतः पि स्याक पुरुषयोर्बालालाबुकयोर्वा विशेषाननिझया पापस्य कर्मणोयर्थतनावाजावं प्रा कल्पितवंतइति ॥ ३ ॥ जीवाणुनागं सुविचिंतयंता, आदारिया अन्नविदायसोहिं ॥न वियागरे बन्नपनपजीवि, एसोणुधम्मोश्द संजयाणं ॥ ३५ ॥ सिणायगाणं तु ज्वे सदस्से,जे नोयए निइए निकुयाणं ॥ अ संजए लोहियपाणि सेऊ, णियबत गरिदमिदेव लोए ॥३६॥ Page #964 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ए३४ तिीये सूत्रकृतांगे वितीय श्रुतस्कंधे षष्टाध्ययनं. अर्थ-हवे आईकुमार जैनमतनी स्थापना करेजे. (जीवाणुनागंसुविचिंतयंता के०) जिनशासनने विषे प्रतिपन्न जे पुरुष ते, जीवनो अणुनाग अवस्था विशेष, तेनुं मईन जेपी डानी उत्पत्तिरूप कुःख तेने रुडी रीतें चिंतवता थका, (थाहा रियायन्न विहायसोहिं के०) थाहारिया एटले अन्नपाणीने विषे विगुचता थादरे. एटले बहेंतालीश दोष रहित एवो विशुभ बाहार लियेडे, परंतु तमारी पेठे मांसादिक पण, पात्रं पड्यो दोष नणी न थाय, तेम तेने नथी ? बने तमे तो केवाडो, तो के (नवियागरेबन्नपउपजीविके) हिन्नपदोप जीवि एटले हिंसाने स्थानकें करी उपजीवन करोडो, पण इत्यादिक वचन प्रसिन्नपणे न बोलो. तेवा जैनमतना धारक पुरष न होय ? (एसोषुधम्मोहसंजयाणं के०) ए पूर्वोक्त निर्दोष आहारनें लेवेकरी, ब कायनें पालवे करी, तीर्थकरने अनुयायि, होय. ते संयत ए टले साधुनो धर्म जाणवो॥३५॥ वलीपाईकुमार कहेडे,गुं कहे? तोके, (सिणायगा पंतु वेसहस्से के०)स्नातक जे बौचमति दर्शन धारक तेना बे हजार निकुक एटले शाक्य पुत्रीयधर्मे प्रवर्तता निझुक तेनें (जेनोयएनिश्एनिस्क्याणं के०) जे पचन पाचनादिक क्रिया करीने नित्य जमाडे, तेनें लान थायडे, पुण्य थायडे, एq तमे कहोडो परंतु, (असंजए लोहियपाणिसेक के०) ते असंयत लोहितपाणि एटले जेना हाथ सदा काल लोहियें करी खरडया तेवो ते अनार्य पुरुष, (पियनतीगरिहमिहेवलोए के०) प्रथमतो था लोकमांहेज गहाँ पामे, धनें परलोक परनवे उगतिमां जाय. केमके एवा सावद्यानुष्टा नना करनार, अनद अनें अपेयजु जे दान, तेना अनुमोदनार एवा कुपात्रने जे दान देवू. ते कर्म बंधन कारणले ॥ ३६॥ ॥ दीपिका-सोपहासमुक्त्वाईकमुनिः स्वपदमाह जिनमतप्रतिपन्नाः जीवानुनागं सुष्टु विचिंतयंतोऽन्नविधौ शुदिमाहृतवंतः स्वीकतवंतः । नवतां तु मांसाद्यपि पात्रपतितं न दोषाय तथा बन्नपदं मातृस्थानं तेनोपजीवी सन्न व्यागृणीयात् मायया न वदे दित्यर्थः। एषपश्चार्मोऽनुधर्मश्ह जैनमते संयतानां साधूनां अर्हदनुष्ठानानंतरं स्यादित्यनुधर्मः ॥३५॥ स्नातकानां बौहानां निक्कूणां नित्यं यः सहस्रक्ष्यं नोजयेदित्युक्तं प्राक् तहषय ति । असंयतः सन रुधिरक्विन्नपाणिरिहैव लोके सगही नियबति निश्चयेन गबति॥३६॥ ॥ टीका-तदेवं परपदं दूषयित्वा स्वपदस्थापनायाह । (जीवाणुनागमित्यादि) मौ नीशासनप्रतिपन्नाः सर्वज्ञोक्तमार्गानुसारिणोजीवानामनुनागमवस्थाविशेषं तउपमर्दन पीडां वा सुष्टु विचिंतयंतः पर्यालोचयंतोन्नविधौ शुधिमात्हतवंतः स्वीकतवंतोविचत्वारिं शहोपर हितेनाशुचनाहारेणादारं कृतवंतोनतु यथा नवतां पिशिताद्यपि पात्रपतितं न दो Page #965 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राय धनपतसिंघ बादाडुरका जैनागम संग्रह नाग दुसरा. पायेति । तथा बन्न पदोपजीवी मातृस्थानोपजीवी सन् न व्यागृणीयादेषोनंतरोक्तोऽनु पश्चाऽमनुधर्म स्तीर्थकरानुष्ठानादनंतरं नवतीत्यमुना विशिष्यते । इहास्मिन् जगति प्रवच नेवा सम्यग्यतानां सत्साधूनां नतु पुनरेवंविधो निक्कूणा मिति । यच्च नव निरोदनादेरपि प्रास्यं गसमानतया हेतुनूततया मांसादिसादृश्यं चोत्पद्यते तद विज्ञाय लोकतीतरीयमतं । तथाहि । प्रास्यंगत्वे तुल्येपि किं चिन्मांसं किंचिच्चामांसमित्येवं व्यवद्रियते । तद्यथा गोक्षीररु धिरादेर्नक्ष्यानक्ष्य व्यवस्थितिस्तथा समानेपि स्त्रीत्वे नार्याश्वश्वादौ गम्यागम्यव्यवस्थ तिरिति । तथा शुष्कतर्क दृष्ट्या योयं प्राएयंगत्वादिति हेतुर्भवतोपन्यस्यते । तद्यथा “नक्षणीयं नवेन्मांस, प्राण्यंगत्वेन हेतुना ॥ श्रोदनादिवदित्येवं कश्चिदाहेति तार्किकः " ॥ १ ॥ सो सिद्धानैकांतिक विरु-दोषडष्टत्वादपकर्णनीयः । तथाहि । निरंशत्वा वस्तुनस्तदेव मांसं त देव च प्रायगमिति प्रतिज्ञार्थैकदेशाद सिद्धः । तद्यथा नित्यः शब्दो नित्यत्वादथ निन्नं प्रा एयं ततः सुतरामसि दोव्यधिकरणत्वाद्यथा देवदत्तस्य गृहं काकस्य कार्यात्तथा नैकांति कोपि श्वादिमांसस्यानयत्वादथ तदपि क्वचित्कथंचित्केषांचिह्नदयमिति चेदेवं च सत्य श्वादेर्नट्यत्वादनैकांतिकत्वं । तथा विरुद्धाव्य निचार्यपि यथार्यहेतुर्मासस्य नक्ष्यत्वं साधयत्येवं बुंस्त्वामपूजात्वमपि । तथा लोक विरोधिनी चेयं प्रतिज्ञा। मांसोदनयोरसा यादृष्टांत विरोधश्वेत्येवं व्यवस्थिते यक्तं प्राग्यथाबुधानामपि पारणाय कल्पत एतदि ति तदसाध्विति इति स्थितं ॥ ३५ ॥ अन्यदपि निकोक्तमाईकुमारोऽनूद्य दूषयितुमाह । ( सिपाय गाणंतु इत्यादि) स्नातकानां बोधिसत्वकल्पानां नितॄणां नित्यं यः सहस्र ६यं जयेदित्युक्तं प्राक् तद्रूपयत्य संयतः सन् रुधिर क्विन्नपाणिरनार्यश्व गर्दी निंदां जुगुप्साप दवीं साधुजनानामिह लोकएव निश्चयेन गच्छति परलोके वाऽनार्यगम्यां गतिं यातीति॥ ३६ ॥ थूलं नरनं इह मारिया, नद्दिधनत्तं च पगप्पएत्ता ॥ तं लोपते ल्लेण नवरकडेत्ता, सपिप्पलीयं पगरंति मंसं ॥ ३७ ॥ तं गुंजमा ा पिसितं पनूतं, नवलिप्पामो वयं र एणं ॥ इच्चैव माहंस प्र ऊधम्मं, प्रणारिया बाल रसेसु गिधा ॥ ३८ ॥ अर्थ- वली पण याईकुमार ते कुंमतिना मतनी बात कहे. के, ( थूलं के०) महो टी कायायें उपचित मांस शोषित युक्त एवो, ( नरनं के० ) चरणो तेनैं ( इह के० ) या शाक्यना शासननें विषे संघनी नक्तिनें पर्थे ( मारिया के ० ) विनाशीनें मारीनें ( उद्दित्तं चपगप्पएत्ता के० ) उद्दिष्ट जोजन कल्पीनें ( तंजोणतेल्लेण उवरकडेत्ता के ० ) ते मांसनें लू, घनें तेल साधें पचावीनें, (सपिप्पलीयंपगरं तिमंसं के० ) पिप्पली स ३८ For Private Personal Use Only Page #966 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६ द्वितीये सूत्रकृतांगे द्वितीय श्रुतस्कंधे षष्ठाध्ययनं. हित मांस करे ॥ ३७ ॥ एवं मांस करीनें पढी शुं करे ? ते कहेले के, (तंतुंजमाणा पिसितंपतं के० ) ते मांस, प्रनूत एटले घणुं जमतां थकां जोगवतां थका एम क a, (एनवलिप्पामोवयंर एवं के० ) में एनी पापरूप रजें करी लेपाता नथी. मासु धम्मं के० ) एवं वचन कहे, ते अनार्यधर्मी जाणवा, कारण के, धृष्टपं खादरे. (पारिया बाजरसेसुगिया के० ) ते अनाचारी बाल, एटले ज्ञानी रसगृद्धी थका एवां वचन कहेबे ॥ ३८ ॥ ( ते ॥ दीपिका - बाईकएव तन्मतमाह । स्थूलमुरत्रं इह बौद्धमते हत्वा उद्दिष्टनतंच प्र कल्य, तन्मांसं लवणतैलाच्यां संस्कृत्य सपिप्पलीकं कुर्वति ॥ ३७ ॥ तत्पिशितं मांसं प्रभूतं गुंजानापि वयं रजसा नोपलिप्यामहे । एवमनार्थधर्मा इष्टस्वनावाश्रनार्या श्वानार्याबाला रसेषु मांसादिषु गृद्धाः ॥ ३८ ॥ ॥ टीका - एवं तावत्सावद्यानुष्ठानानुमंतृणामपात्रभूतानां यद्दानं तत्कर्मबंधायेत्युक्तं । किंचान्यत् । ( थूलं चरनमित्यादि ) घाईकुमारएव तन्मतमा विष्कुर्वन्निदमाह स्थूलं बृह कायमुपचितं मांसशोणितमुरचमूर एक मिह शाक्यशासने निकुकसंघोदेशेन व्यापाय घातयित्वा तथोद्दिष्टनक्तंच प्रकल्पयित्वा तमुरत्रं तन्मांसंच लवणतैलाच्यामुपसंस्कृत्य पाचयित्वा सपिप्पली कमपरव्यसमन्वितं प्रकर्षेण नक्षणयोग्यं मांसं कुर्वतीति ॥ ३७ ॥ संस्कृत्यच यत्कुर्वति तद्दर्शयितुमाह ( तंनुंजमा पाइत्यादि ) तत्पिशितं शुक्रशोणितसंनू तमनार्याश्व जानापि प्रभूतं तजसा पापेन कर्मणा न वयमुपलिप्यामहइत्येवं धा टपेताः प्रोचुरनार्याणामिव धर्मः स्वनावोयेषां ते तथानार्यकर्मकारित्वादनार्या बाला व बाला विवेकरहितत्वाइ सेषुच मांसादिकेषु गृद्धाअध्युपपन्नाः ॥ ३८ ॥ जे यावि मुंजंति तदप्पगारं, सेवंति ते पावमजाणमाला ॥ मां न एयं कुसला करें ती, वायावि एसा बुझयान मिठा ॥ ३ ॥ सवेसिं जीवाणदयध्याए, सावऊदोसं परिवजयंता ॥ तस्संकिणो इ सिणो नायपुत्ता, द्दित्तं परिवजयंति ॥ ४० ॥ अर्थ- हवे ते मांसाशीनें एनो विपाक कहेले. (जेया विजं तितहप्पगारं के० ) जे रसगृ बता तथा प्रकारें मांसने जमे, (सेवं तितेपावमजायमाणा के ० ) ते अज्ञानी पुरुषो निःकेवल पापनुं सेवन करे. (मन एयं कुसलाकरेंति के ० ) जे कुशल एटले पंमित होय ते मांसनद करीयें, एवं मन पण न करे. तथा (वाया विएसाबुइयान मिठा के ० ) मांसनाथी दोष D For Private Personal Use Only Page #967 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राय धनपतसिंघ बादाउरका जैनागम संग्रह नाग उसरा. ए३७ नथी एवी असत्य वाणीपण बोले नहिं. किंबदनाः वधारे गुंकहिये॥३॥ हवे मांसादिक तो अनदय कहेवाय, त्यारें बीजो आहार साधुनें अनदय होय के नहीं ? त्यां कहे के, बीजो पण सदोष आहार, साधुने परिहरवो (सक्वेसिंजीवाणदयध्याए के०) स व जीव एकेंख्यिादिक तेनी दयाने अर्थे, दयाने निमत्तें (सावऊदोसंपरिवङयंता के० ) सावद्य जे आरंनादिक, तेने महा दोषरूप जाणी, परिहरतां थकां (तस्संकियोसि पोनायपुत्ता के०) ते सावद्यना दोष थकी शंकाता एटले बीहिता एवा महाऋषीश्वर झात पुत्र श्रीमहावीर देव तेमना शिष्यो होय. ते ( नदिहनतपरिवऊयंति के०) नहि ष्टनक्त एटले जे साधुनें देवानें अर्थज कल्पेलो एवो आहार होय, तेनें परिहरे वर्जे. ए साधुनो आचार जाणवो ॥ ४० ॥ ॥ दीपिका-ये बौधायपि तथाप्रकारं मांसं झुंजते ते पापमजानंतोनिर्विवेकिनः सं तः सेवंते । यउक्तं । “ हिंसामूलममेध्यमास्पदमलं ध्यानस्य रौइस्य य,द्वीनत्सं रुधिराबि लं कमिगृहं उगधिपूयादिकं ॥ शुक्रातृप्रनवं नितांतमलिनं सन्निः सदा निंदितं, कोचुंक्ते नरकाय राससमोमांसं तदात्महः ॥ १॥ तथा । मांस नदयिताऽमुत्र यस्य मांसमि हादयहं ॥ एतन्मांसस्य मांसत्वं प्रवदंति मनीषिणः॥२॥ योऽत्ति यस्य च तन्मांसमुनयोः पश्यतांतरं ॥ एकस्य दणिका तृप्तिरन्यः प्राणैर्वियुज्यते" ॥३॥ तदेवं दोषं मत्वा कुशला मांसानिला मनोन कुर्वति वागप्येषा न मांसनदणे दोषइत्यादिका उक्ता सती मिथ्या निवृत्तिस्तु महागुणाय । यउक्तं । "श्रुत्वा फुःखपरंपरामतिघृणां मांसा शिनां उर्गतिं, ये कुर्व ति शुनोदयेन विरतिं मांसादनस्यादरात् ॥ तदीर्घायुरदूषितं तदरुजासंनाव्य यास्यति ते, म] नटनोगधर्ममतिषु स्वर्गापवर्गेषु वा” इति ॥ ३५ ॥ सर्वेषां जीवानां दयार्था य सावद्यदोषं परिवर्जयंतः त किनोदोषशंकिनः रुषयोज्ञातपुत्रीयाः श्री वीर शिष्याउ द्दिष्टनक्तं परिवर्जयंति ॥ ४० ॥ ॥ टीका-इत्येतच तेषां महतेऽनयेति दर्शयति (जेयावीत्यादि ) येचापि रसगौर वगृक्षाः शाक्योपदेशवर्तिनस्तथाप्रकारं स्थूलोरनसंस्कृतं घृतलवणमरिचादिसंस्कृतं पि शितं मुंजतेऽश्नति तेऽनार्याः पापं कल्मषमजानानिर्विवेकिनः सेवंते याददते । तथा चोक्तं । "हिंसामूलममेध्यमास्पदमलं ध्यानस्य रौइस्य य,दीनत्सं रुधिरा बिलं कमिगृहं उर्ग धिपूयादिकं ॥ शुक्राटुक्प्रनवं नितांतमलिनं समिः सदा निंदितं, कोचुक्ते नरकाय राह ससमोमांसं तदात्मद्रुहः ॥ ॥ अपिच । मांस नदयिताऽमुत्र यस्य मांसमिहादयहं । एतन्मांसस्य मांसत्वं प्रवदंति मनीषिणः ॥ ५ ॥ तथा । योऽत्ति यस्य च तन्मांसमुनयोः Page #968 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ए३७ तीये सूत्रकृतांगे द्वितीय श्रुतस्कंधे षष्ठाध्ययनं. पश्यतांतरं । एकस्य क्षणिका तृप्तिरन्यः प्राणैर्वियुज्यते"॥३॥ तदेवं महादोषं मांसादन मिति मत्वा यविधेयं तदर्शयति । एतदेवंनूतं मांसादनानिलाषरूपं मनोंतःकरणं कुश लानिपुणामांसाशित्वविपाकवेदिनस्तन्निवृत्तिगुणानिज्ञाश्च न कुर्वति तदनिलाषादात्म नोनिवर्तयंतीत्यर्थः।वास्तां तावन्नदणं वागप्येषा यथा मांसनदणेऽदोषश्त्यादिका नारत्य निहितोक्ता मिथ्या। तुशब्दान्मनोपि तदनुमत्यादौ न विधेयमिति तन्निवृत्तौ चेहैवानुपमा श्लाघाऽमुत्र च स्वर्गापवर्गगमन मिति । तथाचोक्तं । " श्रुत्वा दुःखपरंपरामतिघणां मां साशिनां उर्गति, ये कुर्वति गुनोदयेन विरतिं मांसादनस्यादरात् । तद्दीर्घायुरदूषितं गदरुजा संनाव्य यास्यति ते, मत्र्येषूनटनोगधर्ममतिषु स्वर्गापवर्गेषु चेत्यादि' ॥३७॥ न केवलं मां सादनमेव परिहार्यमन्यदपि मुमुक्कूणां परिवर्तव्यमिति दर्शयितुमाह । (सक्वेसिमित्यादि) सर्वेषां जीवानां प्राणार्थिनां न केवलं पंचेंड्रियाणामेवेति सर्वग्रहणं दयार्थतया दयानिमि तं सावद्यमारंनं महानयं दोषश्त्येवं मत्वा तत्परिवर्जयंतः साधवस्तखंकिनोदोषशंकिन ऋषयोमहामुनयोझातपुत्रीयाः श्रीमन्महावीरवईमानशिष्याः उदिष्टं दानाय परिकल्पि तं यजक्तपानादिकं तत्परिवर्जयंति ॥ ४० ॥ नूयानिसंकाए उगंउमाणा, सवेसिपाणाण निदाय दंझ॥ तम्हा ण मुंजंति तहप्पगारं, एसोणुधम्मो श्द संजयाणं॥४१॥निग्गं उधम्ममि इमं समाहिं, अस्सि सुठिचा अणि चरेजा ॥ बुद्धे मुणी सीलगुणोववेए, अबलते पानणती सिलोगं ॥४॥ अर्थ-वली पण साधुनो आचार कहेजे. (नूयानिसंकाएगंडमाणा के० ) नूत जे प्राणी तेना मर्दननी शंकायें सावधानुष्ठाननें उगंबता निंदता, तथा (सवेसिपाणाण निहायदंझ के०) सर्व प्राणीनो दंम एटले विनाश, तेने निहाय एटले बांकीने त्याग करी ने सम्यक् चारें प्रवर्त्तता एवा साधु ( तम्हाणनुजंतितहप्पगारं के० ) ते कारणे त था प्रकारना एटले आधाकर्मादिक दोषे दूषित एवा ते थाहारने ण जुजंति एटले न ज मे, न नोगवे. (एसोषुधम्मोहसंजयाणं के० ) था जगत्माहे यतिनो धर्म, ते अ पुधर्म, एटले श्री तीर्थकरनी पडवाडे जाणवो. जेम श्री तीर्थकरें निर्दोष याहार ग्रह णादिक धर्म आचस्यो, तेम तेने अनुसारें साधु पण, एहिज धर्म आचरे. इत्यर्थः॥४१॥व ली पण साधुनो आचार कहेले. (निग्गजधम्मंमिश्मंसमाहिं के०) नथी जेनें विषे बा ह्य अनें अन्यंतर ग्रंथि एवो जे धर्म, तेने विषे ए पुर्वोक्त जे समाधि एटले सुजता अहारनुले , (अस्सिसुविचायणिहेचरेजा के०) इत्यादिकनें पामीनें सम्यक् अनुष्ठानरूप समाधिनें Page #969 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रायधनपतसिंघ बादाडुरका जैनागम संग्रह नाग दुसरा. ए३ए विषे स्थित एटले प्रवर्त्तमान एवो साधु पिहे एटले मायारहित थको प्रथवा, स्नेहरहित यको, संयमानुष्ठानने याचरे, एटले पाले. ( बुदे मुली सीलगुणोववेए के० ) बुद्ध एटले तत्त्वनो जाए, मुणी एटले त्रिकालवेदी, त्रण कालनो जाए, सील एटले याचार ते उपशमादिक तथा गुण, एटने मूलोत्तर गुणरूप तेणें करी उपपेत एटले सहित, एवो साधु, (अवडते पानगती सिलोगं के० ) प्रत्यर्थ एटले सर्वगुणसंपन्न ते, लोक एटले या लोकनें विषे, घनें लोकोत्तरनें विषे, संतोषकारक श्लाघानें पाउणत्ती एटले पामे ॥ ४ २ ॥ || दीपिका-नूतानां प्राणिनां हिंसा निशंकया सावद्यव्यापारं जुगुप्समानः परिहरन् सर्वेषां प्राणिनां दमं निहाय त्यक्त्वा साधवस्तथाप्रकारमयुद्धाहारं न गुंजते तस्मादेषो नुधर्मः संयतानामिह जैनमते तीर्थकराचरणादनुपश्चाच्चर्यतइत्यनुधर्मइति ॥ ४१ ॥ निर्ययधर्मे साधुमार्गे स्थित पूर्वोक्तं समाधिं प्राप्तोऽस्मिन्समाधौ सुष्टु स्थित्वाऽनिहोनि मयः सन् चरेत्संयमे बुज्ञाततत्वोमुनिः शीलेन क्रोधोपमेन गुणैश्च मूलोत्तरनूतैरुपेतो युक्तोत्यर्थ तां सर्वातिशायिनीं श्लाघां प्राप्नोति । यक्तं । " राजानं तृण तुल्यमेव मनुते श केपि नैवाद, वित्तोपार्जनरक्षणव्ययकृताः प्राप्नोति नो वेदनाः ॥ संसारांतरवर्त्यपीह ल ते शं मुक्तवन्निर्नयः, संतोषात्पुरुषोमृतत्वमचिराद्यायात्सुरेंशचित " इति ॥ ४२ ॥ ॥ टीका - किंच | ( नूया निसंका एइत्यादि ) नूतानां जीवानां उपमर्दशंकया सावद्यम नुष्ठानं जुगुप्समानापरिहरतस्तथा सर्वेषां प्राणिनां दंमयतीति दंमः समुपतापस्तं निहाय परित्यज्य सम्यगुबिताः सत्साधवोयतस्ततोन गुंजते तथाप्रकारमाहारमशुद्ध जातीय में बोनुधर्मास्मिन् प्रवचने संयतानां यतीनां तीर्थकराचरणादनुपश्चाच्चर्यतइत्यनुना वि शेष्यते । यदि चापुरिति स्तोकेनाप्यतिचारेण वा बाध्यते शिरीषपुष्पमिव सुकुमारइत्यतो ऽणुता विशेष्यतइति ॥ ४१ ॥ किंचान्यत् ॥ ( ग्गिंधम्ममित्यादि ) नास्मिन्मौनी धर्मे बाह्यान्तररूपोथोस्यास्तीति निर्ययः सचासौ धर्मश्व निर्यथधर्मः सच श्रुतचारित्रा ख्यः दांत्यादिकोवा सर्वज्ञोक्तस्तस्मिन्नेवंभूते धर्मे व्यवस्थितइमं पूर्वोक्तसमाधिमनुप्राप्तो ऽस्मिंश्चायुदाहारपरिहाररूपे समाधौ सुष्टुतिशयेन स्थित्वाऽनिहोऽमायोऽथवा निहन्यत इति निहोन निहोऽनिहः परीषदैरपीडितो यदिवा स्निहबंधने स्निहइति स्नेहरूपबंधनर हितः संयममनुष्ठानं चरेत् तथा बुद्धोऽवगततत्वोमुनिः कालत्रयवेदी शीलेन क्रोधाद्युपशम रूपेण गुणैश्च मूलोत्तरगुणनूतैरुपेतोयुक्तइत्येवं गुणक लितोऽत्यर्थ तां सर्वगुणातिशायिनीं सर्व ६ दोपरमरूपां संतोषात्मिकां श्लाघां प्रशंसां लोके लोकोत्तरेवाऽऽप्नोति । तथा चोक्तं । "राजा नं तुल्यमेव मनुते शक्रेपि नैवादरो, वित्तोपार्जनरक्षणव्ययकृताः प्राप्नोति नो वेदनाः॥ Page #970 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४० द्वितीये सूत्रकृतांगे द्वितीय श्रुतस्कंधे षष्ठाध्ययनं. संसारांतरवर्त्यपीह लगते शं मुक्तवन्निर्नयः, संतोषात्पुरुषोमृतत्वम चिरायायात्सुरेंश चित" इत्यादि ॥ ४२ ॥ सिणायगाणं तु वे सदस्से, जे नोयए पितिए माढणाणं ॥ ते पुन्नखंधे सुमहक पित्ता, जवंति देवा इति वेयवानं ॥ ४३ ॥ सिला यगाणं तु डुवे सदस्से, जे नोयए पितिए कलालया से ग तिलोलुवसंपगाढे, तिवानितावी परगानिसेवी ॥ ४४ ॥ अर्थ - ए रीतें या ईकुमार गोशालक तथा बौधमतिउनें परास्त करीनें खागल चाल्यो तेवा रें, वच्चें ब्राह्मण मव्या, ते ब्राह्मण बोल्या के, अहो बाईकुमार ! तें रूडूं कस्युं के, जे ए पूर्वो क्त बेदु मत वेदबाह्य हता, तेनुं तें निराकरण कयुं, तो हवे ए जैनमत पण वेद बाह्यवे. एवं जाणीनें, तमारा सरखाने याश्रय करवा योग्य नथी केमके, तुं त्री बो घनें दीनें सर्व वर्षोत्तम एवा ब्रह्मणनेंज सेववा योग्यले, परंतु शूइ सेववा नहीं. ए कारण माटें वेदोक्त विधियें यज्ञादिकमार्गनी तमारे सेवा करवी. इत्यादिक ते ब्राह्मणो पोतानो मार्ग देखा डेबे . ( सिपाय गाणं तुडुवे सहस्से के ० ) स्नातक एटले षट्कर्मने विषे निरत, घनें वेदना नानार, पोताना याचारनें विषे तत्पर, नित्य स्नातक, ब्रह्मचारी, एवा बे सहस्र (माहणा ho) ब्राह्मण (जेनो एपितिए के ० ) जे पुरुष नित्य जमाडे, एटले तेनें मनोवांबित थाहा छापे, (ते पुन्नखंधे सुमहऊ पित्ता के ० ) ते पुरुष घणो महोटो पुण्यनो स्कंध उपार्क न करीनें, ( नवंतिदेवा इतिवेयवाउ के०) देवता याय एवं खमारा वेदनुं वाक्यले, एम जानें ए वेदोक्त मार्ग यादवो ॥४३॥ हवे घाईकुमार उत्तर कहेबे के हो ब्राह्म लो! (सिपायगा तुडवे सहस्से के ० ) स्नातकनां बे सहस्रनें (जेनोयएपितिएकुलालया ri ho) जे दातार नित्य जमाडे. ते स्नातक केवाले तोके, कुलालग एटले मार्जार ते सर खा ब्राह्मण पण जाणवा, कारण के, ए पण सावद्याहार वांबता, सर्वकाल घर घरने विषे मण करे एवा, एक निंद्य खाजीविकाना करनार, ते कुपात्रनें दान देवाथी, (सेगवति लोलुव संपगाढे के० ) ते लोलपी ब्राह्मण सहित एवो दातापण गछति एटले दुर्गतियें जाय, दुर्गतिमां कया स्थानके जाय ? तोके, (तिवानितावीरगा जिसेवी के० ) तीव्रवेद नाना सहन करनार, एतावता तेत्रीश सागरोपम पर्यंत पूर्ण आयुष्ये ते बेदु जा नर कना स्थानक विषे नारकी थाय ॥ ४४ ॥ , ॥ दीपिका - एवं गोशालकमते बौद्धमते च निरस्ते द्विजातयः प्रादुः नो घाईकुमार ! शो जनं कृतं यदेते वेदबाये दे अपि मते दिप्ते यथ जैनमतमपि वेदबाह्यं ततोनादरणयोग्यं For Private Personal Use Only Page #971 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राय धनपतसिंघ बादाडुरका जैनागम संग्रह नाग दुसरा. ९४१ तस्माद्वाह्मणसेवैव युक्तेत्याह । स्नातकानां षट्कर्मरतानां विप्राणां सहस्र यं ये नोजयं ति नित्यं ते पुण्यसंबंधं सुमहांतमुर्ण्य देवाः स्युरिति वेदवादः ॥ ४३ ॥ श्राईकमुनिरेत दूषयन्नाह । ( सिणायेति ) । स्नातकानां सहस्र वयं ये नोजयंति । किंनूतानां कुलानि गृहाणि मांसार्थिनोयेऽटंति ते कुलाटामार्जाराः कुलाटाश्व कुलाटास्तेषां सतादृग्ब्राह्मण नोजन को बहुवेदनासु गतिषु याति । किंनूतः लोलुपैरामिषगृहैः संप्रगाढोव्याप्तः तीव्रोऽस योनितापोयस्य एवंभूतः सन्नरकानिसेवी स्यात् ॥ ४४ ॥ ॥ टीका - तदेवमाईककुमारं निराकृतगोशालकाजीवकबौ-६ मतमनिसमीक्ष्य सांप्रतं द्विजातयः प्रोचुः । तद्यथा जो घाईककुमार ! शोजनमकारि नवता यदेते वेदबा दे पि मते निरस्ते तत्सांप्रतमप्यातं वेदबाह्यमेवातस्तदपि नाश्रयणाई नवदिधानां तथा हि नवान क्षत्रियवरः छत्रियाणां च सर्ववर्णोत्तमाब्राह्मणाएवोपास्यान शूयतोयागादि विधिना ब्राह्मणसेवैव युक्तिमतीत्येतत्प्रतिपादनायाह । ( सिपाय गाणंतु इत्यादि ) तुशब्दो विशेषणार्थः । षट्कर्मानिरतावेदाध्यापकाः शौचाचारपरतया नित्यं स्नायिनोब्रह्मचारि एणः स्नातकास्तेषां सहस्र इयं नित्यं ये नोजयेयुः कामिकाहारेण ते समुपार्जित पुण्य स्कंधाः संतोदेवाः स्वर्ग निवासिनोजवंती त्येवंनू तोवेदवादइति ॥ ४३ ॥ अधुनाईककुमा एतदूषयितुमाह । (सिपाय गाणंतु इत्यादि) स्नातकानां सहस्र ६यमपि नित्यं येनोज यंति । किंनूतानां कुलानि गृहाल्या मिषान्वेषणार्थिनो नित्यं येऽटंति तेकुलाटामार्जाराः कु लाटाइव कुलाटाब्राह्मणाः । यदिवा कुलानि त्रियादिगृहाणि तानि नित्यं पिंपातान्वेषि यां परतर्कुकाणामालयोयेषां ते कुलालयास्ते निंद्यजीविकोपगतानामेवंभूतानां योसहस्र ६यं नोजयेत्सः सत्पात्र नितिदानोगच्छति बहुवेदनासु गतिषु। किंनूतः सन् जो पैरामि पपरैः गृ-दैरससातागौरवाद्युपपन्नैः जिव्हेंयिवशगैः संप्रगाढोव्याप्तोयदिवा किंनूते नरके याति लोलुपैरामिषगृभु निरसुम निर्व्याप्तोयोनरकस्त स्मिन्निति । किंनूतश्वासौ दाता नरका जिसेवी नवति तद्दर्शयति । तीव्रोऽसह्योयोऽनितापः क्रकचपाटनकुंजी पाकत तत्रपुपानशा दमल्या लिंगनादिरूपः सविद्यते यस्यासौ तीव्रानितापीत्येवं नूतवेदना नितप्तस्त्रयस्त्रिंशत्सा गरोपमानि यावदप्रतिष्ठाननरका धिवासी नवतीति ॥ ४४ ॥ दयावरं धम्मडुगं माणा, वदावदं धम्मपसंसमाणा ॥ एगं पिजे नोययती सीलं, णियोंपिसं जाति कुन सरेहिं ॥ ४५ ॥ उद विधम्मं मिसमुठियामो, अस्सि सुधिच्चा तद एसकालं ॥ यारसीले बुझए दनाणी, ण संपरायमि विसेसमचि ॥ ४६ ॥ For Private Personal Use Only Page #972 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२ द्वितीये सूत्रकृतांगे द्वितीय श्रुतस्कंधे षष्ठाध्ययनं . अर्थ- वली घाईकुमार कहेबे के, (दयावरंधम्मडुगंडमाला के० ) जेमा दया प्रधा न वा धर्मनें निंदता, ( वहाव धम्मपसंसमाला के०) तथा हिंसारूप धर्मनी प्रशं साकरता, (सीनं के० ) याचार रहित एवा, ( एपि के० ) एकने पण ( जेनो ययती के० ) जे कोइ नृप राजा अथवा बीजो कोइ मूढमति धार्मिक पुरुष, पात्रनी बुद्धियें करी जमाडे, तो ( पीयोणिसंजातिकुंड सुरेहिं के०) ते नृप राजा, अथवा बीजो कोइ मूढमति पुरुष होय, ते निशा एटले सदैव कृष्णांधकार रात्रीसमान काल वर्चेले जेमां एवी नरकभूमि नें विषे नरकमांहे जाय. ए वचन सत्य करी जाणं. घनें त कयुं जे देवता याय, ते वात मृषाबे तेवा पुरुषनें असुरनें विषे पण गति न जा वी, तो वैमानिक देवता क्यांथी थाय ! ॥ ४५ ॥ दवे घाईकुमार ब्राह्मणोनो मत परास्त करीनें घागल चाल्यो, एटले एक दंगिया सांख्य मति मव्या, ते एम कहेले के, घ हो कुमार ! तेंरुडूं कीधुं के, जे ए ब्राह्मणो सर्व प्रारंभने विषे प्रवर्त्तता गृहस्थ ब ता, पोतामां गुरुपएं मानता, एवा ए राक्षस सरखा ब्राह्मणनुं निराकारण क ? सांप्रत मारा सिद्धांतायें तमारा सिद्धांतनो कांइ भेद नथी, अमारो सिद्धांत पंचविंशति तत्व रूपये. हवे ते पण कहुंनुं सांजन, हैयाने विषे धारण कर. (हजे विधम्मं मिसमुडियामो ho) जे मारो धर्म, ने तमारो धर्म, ए वेडु सरखाज जाणियें ढैयें. कारण के, तमारे पण जीवनें स्तिनावें पुष्य, पाप, बंध, घनें मोनो समाबे, घनें घमारे पण एमज . तमारे पण पांच महाव्रतबे, घनें घमारे पण हिंसादिक पांच यमबे, तथा इंडियानें नोइंडियना नियमो तो खापण बेदुनें सरखाजबे तेमाटें बेदुधर्मनें विषे मनें ने तमने प्रवर्त्ततां सम्यक् प्रकारज जाणवो. नें (स्सिंसु हिचा के० ) ए हिज धर्मनें विषे रहिनें, ( तहसकालं के० ) तथा प्रतीतकालें, वर्त्तमानकालें, घनें श्रागमिक कालें, जे पूर्वो ० अंगीकार करेला धर्मना प्रतिपालनहार थापणे ढैयें. तेवा बीजा कोइ नथी. (खाया सीएनपी के० ) तथा प्रापणो याचार जे यम नियमलक्षण, ते प्रधान शील कोबे, परंतु याज विकानुं कारण घापणनें कोइ पण नयी? तथा वली आपण बेडुनें ज्ञान, मोनुं अंग कसुंबे. (संपरायंमिविसेसमति के० ) तथा कर्मे करीनें भ्रमण करेले प्राणी जेमां ते संपराय कहियें, एवो संपराय जे, संसार, ते जेम तमारे नित्यवे, तेम मारे पण नित्यजते. तेमाटें ए सिद्धांतमां घमारे तमारे विशेष कांइ नथी ॥ ४६ ॥ || दीपिका - दयया वरं प्रधानं धर्म जुगुप्समानोनिंदन वधावहं हिंसाकरं धर्म प्रशं सन्नेकमपि शीलं निर्व्रतं षड्जीवोपमर्देन योनोजयेत्किं पुनर्बहून नृपोराजाऽन्योवा यः क चिन्मूढः सवराको निशेव नित्यांधकारत्वान्निशा नरकभूमिस्तां याति कुतस्तस्यासुरेष्वधम For Private Personal Use Only Page #973 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रायधनपतसिंघ बादाउरका जैनागम संग्रह नाग उसरा. ए४३ देवेष्वपि प्राप्तिरिति । अथाई मुनिमेकदंमिनः सांख्याः प्रादुः नो थाईक! वरं कृतं यदेते सर्वारंनप्रवृत्तामांसा शिनोधिग्जातयोनिरस्ताः । इदानीमस्मसिहांतं शृणु ॥ ४५ ॥ यो यमस्मधर्मः यश्च त्वदीयोजैनः सन्नयरूपोपि कथंचित्तुल्यः । पंचयमाअस्माकं नवतां तएव महाव्रतानि पुण्यपापबंधमोदसन्नावोस्माकं नवतां च तदेवमुनयस्मिन्नपि धर्म समु बितायूयं वयंच पूर्वस्मिन्काले वर्तमाने एष्येच गृहीतप्रतिझा निर्वाहकाः आचारप्रधानं शीलमुदितं कथितं अथ ज्ञानं मोदांगमुक्तं दान्यां आवयोः संपराये संसारे च न विशेषोस्ति ॥ ४६॥ ॥ टीका-( दयावरमित्यादि ) दया प्राणिषु कृपा तया वरः प्रधानोयोधर्मस्तमेवं ध में जुगुप्समानोनिंदस्तथा वधं प्राण्युपमईमावहतीति वधावहस्तं तथानूतं धर्म प्रशंसन्स्तु वन् एकमप्यशीलं निव्रतं षड्जीवकायोपमर्दैन योनोजयेत् किं पुनः प्रजूतान नपोराज न्योवा यः कश्चिन्मूढमतिर्धार्मिकं श्रात्मानं मन्यमानः सवराकोनिशेव नित्यांधकारवान्नि शारकनूमिस्तां याति कुतस्तस्यासुरेष्वप्यधमदेवेष्वपि प्राप्तिरिति । तथा कर्मवशादसुमतां विचित्रजातिगमनाजातेरशाश्वतत्वमतोन जातिमदो विधेयइति । यदपि कैश्चिकुच्यते य था ब्राह्मणाब्रह्मणोमुखादिनिर्गताबादुन्यां त्रियाकन्यां वैश्याः पञ्जयांगशाश्त्येत दप्यप्रमाणत्वादति फल्गुप्रायं तदन्युपगमे च न विशेषोवर्णानां स्यादेकस्मात्प्रसूतेर्बुध्नशा खाप्रतिशाखायनूतपनसोउंबरादिफलवब्रह्मणोवा मुखादेरवयवानां चातुर्वर्ण्यावाप्तिः स्यान्न चैतदिष्यते नवनिस्तथा यदि ब्राह्मणादीनां ब्रह्मणोमुखादेरुनवः सांप्रतं किं न जायते ? थ थ युगादावेतदित्येवं सति दृष्टहानिरदृष्टकल्यना स्यादिति । तथा यदि कैश्चिदन्यधायि सर्व शनिदेपावसरे तद्यथा सर्वझरहितोतीतः कालः कालत्वा वर्तमानकालवदेवंच सत्येतदपि शक्यते वक्तुं यथा नातीतः कालोब्रह्ममुखादिविनिर्गतचातुर्वर्ण्यसमन्वितः कालत्वावर्त्तमा नकालवनवति च विशेषे पदीकते सामान्यहेतुरित्यतः प्रतिज्ञार्थंकदेशा सिकता नाशंकनी येति। जातेश्चानित्यत्वं युष्मसिहांतएवानिहितं । तद्यथा शृगालोवा एषजायते यःसपुरी षोदह्यतइत्यादिना । तथा सद्यः पतति मांसेन लादया लवणेन च ॥ त्र्यहेन गुठीनवति ब्राह्मणः वीर विक्रयीत्यादि लोके चावश्यंनावी जातिपातः । यतनक्तं । “कायिकैः कर्मणां दोषैर्याति स्थावरतां नरः ॥ वाचिकैः पदिमृगतां मानसैरंत्यजातिता" ॥१॥ इत्यादिगुणैर प्येवंविधैर्न ब्राह्मणत्वं युज्यते। तद्यथा । “षट्शतानि नियुज्यंते पशूनां मध्यमेहनि । थ श्वमेधस्य वचनान्यूनानि पशुनिस्त्रिनिरित्यादि वेदोक्तत्वान्नायं दोषइति चेन्नन्विदमनिहित मेव न हिंस्यात्सर्वनूतानीत्यतः पूर्वोत्तरविरोधस्तथा ।” आततायिनमायांतमपि वेदांतगं रणे। जिघांसंतं जिघांसीयान्न तेन ब्रह्महा नवेत् ॥ तथा शुई हत्वा प्राणायाम जपेत Page #974 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ए४४ वितीये सूत्रकृतांगे वितीय श्रुतस्कंधे षष्टाध्ययनं. अपहसितं वा कुर्यात् यत्किंचिदा दद्यात् तथा नास्थिजंतूनां शकटनरं मारयित्वा ब्राह्म णं नोजयेदित्येवमादिका देशना विनमनांसि न रंजयतीत्यतोऽत्यर्थमसमंजस मिव ल क्ष्यते युष्मदर्शन मिति । तदेवमाईककुमारं निराकृतब्राह्मण विवादं जगवदंतिकं गतं दृष्ट्वा एकदंमिनांतराले एवोचुस्तद्यथा नोबाईककुमार! शोननं कृतं नवता यदेते सर्वार नप्रवृत्तागृहस्थाः शब्दादि विषयपरायणाः पिशिताशनेन रासकल्पाविजातयोनिराकता स्तत्सांप्रतमस्मत्सिदांतं शृणु श्रुत्वाचावधारय । तद्यथा सत्वरजस्तमसां साम्यावस्थाप्रक तिः प्रकतेमहांस्ततोहंकारस्तस्माजणश्च षोडशकस्तस्मादपि षोडशकारपंच तन्मात्राणि ते न्यः पंच जूतानि तथा चैतन्यं पुरुषस्य स्वरूपमित्येतत्त्वार्हतैरप्याश्रितमतः पंचविंशतित त्वपरिझानादेव मोदावाप्तिरित्यतोऽस्मत्सिमांतएव श्रेयान्नापरइति ॥ ४५ ॥ तथा न युष्मसिद्धांतोतिदूरेण निद्यतइत्येतदर्शयितुमाह । (उहवीत्यादि ) योयस्मार्मोनव दीयश्चाहतः सननयरूपोपि कथंचित्समानस्तथाहि युष्माकमपि जीवा स्तित्वे सति पुण्य पापबंधमोदसनावोन लोकायतिकानामिव तदनावे प्रवृत्तिर्नापि बौदानामिव सर्वाधा रजूतस्यांतरात्मनएवानावस्तथास्माकमपि पंच यमाय हिंसादयोनवतां च तएव पंचमहा व्रतरूपास्तशियनोइंडिय नियमोप्यावयोस्तुल्यएव तदेवमुनयस्मिन्नपि धर्मे बदुसमाने सम्यगुडानोबितायूयं वयंच तस्मादम सुष्टु स्थिताः पूर्वस्मिन् काले वर्तमाने एष्येच यथा गृहीतप्रतिझानिर्वोढारोन पुनरन्ये यथावतेश्वरयागविधानेन प्रव्रज्यां मुक्तवंतो मुंचंति मो इंति चेति तथाचारप्रधानं शीलमुक्तं यमनियमलणं न फल्गुवल्ककुहकाजीवनरूपमथा नंतरं शानंच मोदांगतयानिहितं तच्च श्रुतज्ञानं केवलाख्यंच यथा स्वमावयोदर्शने प्रसिई तथा संपर्यंते स्वकर्मनिाम्यते प्राणिनोयस्मिन्ससंपरायः संसारस्तस्मिश्चावयोर्न विशे पोस्ति । तथाहि । यया नवतां कारणे कार्य नैकांतेनासत्पद्यते अस्माकमपि तथैव इव्यात्मतया नित्यत्वं नवनिरप्याश्रितमेव तथोत्पाद विनाशावपि युष्मदनिप्रेतावाविर्ना वतिरोनावाश्रयादस्माकमपीति ॥ ४६ ॥ अवत्तरूवं पुरिसं महंतं, सणातणं अकयमवयं च ॥ सवे सु नूतेसु विसवतोसे, चंदोवतारादि समत्तरूवे ॥४७॥ एवं ण मिति ण संसरंती, ए मादणाखत्तिय वेसयस्सा॥ कीडाय परकीय सरीसिवाय नराय सवे तद देवलोए॥ ४ ॥ अर्थ-वली एक दंमिज कहेले. (पुरिसं के० ) पुरुष शब्दें जीव तेने जे रीतें तमें जाणोडो, ते रीतें अमें पण जाणियें बैयें. (अवत्तरूवं के०) आत्मा अव्यक्तरूप, कर चरणादिक जे अवयव तेणें करी लख्योनजाय ते कारण माटें अव्यक्तरूपले Page #975 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राय धनपतसिंघ बादाउरका जैनागम संग्रह नाग उसरा. ए४५ तथा ( महंत के० ) महांत एटले समस्तलोकमां व्यापी रह्यो, तथा (सणातणं के० ) सनातन एटले शाश्वतो , यद्यपि नाना प्रकारनी गति करे तथापि, चैतन्य लक्षण जे आत्मस्वरूपडे ते क्याहिं पण जतुं नथी, तथा (अस्कय के ०) अदय एटले कोइ पण प्रदेशनो खंम करीन शकीयें तथा (मवयंच के०) अव्यय एटले अनंतकालें कोई एक प्रदेशनो पण व्यय न थाय एटले विजेद न थाय. किंबहुना. (सवेसुनतेसुविसवतोसे के० ) सर्वनूतने विषे, शरीर शरीरप्रत्ये ए आत्मा एकज व्यापी रह्यो,ते उपर दृष्टांत देखाडे. (चंदोवतारासिमत्तरूवे के ) जेम चंइमा अश्विन्यादिक न करी, स मस्तरूप थको संबंध पामे, तेम ए यात्मा, शरीर शरीर प्रत्ये संपूर्ण संबंध पामे. य तं "एकएव हि जूतात्मा नूते नूते व्यवस्थितः ॥ एकधा बहुधा चैव दृश्यते जलचंश्व त्" इत्यादि ॥ ७ ॥ हवे तेप्रत्ये आईकुमार कहेले. (एवंणमिळंतिणसंसरंती के०) ए रीतें जेम तमारे दर्शनें एकांतवादें आत्मा एक, नित्य, अविकारी, एम जे कहियें, ते संनवे नहीं, एम कहियें तो सर्व पदार्थ नित्य ठरेले, तेम बतां तो बंध मोदनो पण सन्नाव क्याथी थाय? अनें बंधनें अनावें चतुर्गतिक संसारनो पण अनाव, अनें मोद नो पण अनाव थाय. अनें मोक्ने बनावें तमे जे यम नियमादिक व्रतनुं ग्रहण कहो बो ते पण निरर्थक थशे, ए कारण माटें आत्मा सर्व व्यापी एकजले. ए जे तमा बो लवूडे ते अयुक्त, एम कहेतां तो नरक, तिर्यंच, मनुष्य, बनें देवता, तथा बाल, कुमा र, सुनग, उर्नग, धनाढय,दरिडी, इत्यादिक ने जूदा जूदा पदार्थो न जाणियें ? तथा पो ताना करेला कर्मे करी प्रेया जीव, नाना प्रकारनी गतिनें विषे परिचमण पण न करे ? ( नमाहणाखत्तियवेसयस्साकीडायपरकीयसरीसिवायनरायसवेतहदेवलोए के)तथा या स्माने सर्वव्यापक पगुंज कहेवा थकी एकत्व नावेंज आत्मा थयो, तेवारें ब्राह्मण, क्षत्रि य, तथा वैश्य, अनें शूड, तथा कीटक, पदी, तथा सरीसिव एटले सर्प, तथा नर ए टले मनुष्य, तथा सर्व देवलोक इत्यादिक, नाना प्रकारनी गतिना गामी जीव न होय? ए कारण माटें आत्मा सर्व व्यापक नथी, तथा आत्मा एक पण नथी, ते माटें तमा रो पागम, सर्वनाषित नथी,अनें सर्वेशनाषित विना याथातथ्य न होय ॥ ४॥ दीपिका-नवंतः पुरुषजीवं स्वीकतवंतस्तथा वयमपि।किंनतं? अव्यक्तरूपं महांतं व्याप कं सनातनं नित्यं अक्तं प्रदेशानां खंमशः कर्तुमशक्यत्वात् अव्ययं अनंतकालेनापि ए कप्रदेशस्यापि व्ययानावात् । तथा सर्वेषु नूतेषु शरीरवत्सु प्रतिशरीरं सर्वतः सामस्त्यादसा वात्मा नवति । यथा चंइस्तारानिः संपूर्णः समस्तरूपः संबध्यते एवं जीवोपि शरीरैः संपूर्णः संबध्यते अयमेव श्लोकोऽदैतवादिवेदांतिमते व्याख्येयः । न वरं सर्वनूतेषु सर्वतः सर्वा Page #976 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ए४६ हिताये सूत्रकृतांगे वितीय श्रुतस्कंधे षष्टाध्ययनं. त्मतयाऽसौ स्थितः यथा तारास्वेकएव चंदः तथात्मापि सर्वत्र संबध्यतइति ॥४॥थ थाईकमुनिराह । आत्मनोऽविकारित्वे यात्माऽते वा स्वीकते उर्जगसुनगादिनेदेन जीवा न मीयेरन्न झायंते स्वकर्मप्रेरितानरकादिगतिषु न संसरंति सर्वव्यापित्वादेकला तथा न ब्राह्मणान दत्रियान वैश्यान प्रेष्यान शूझनापि कीटपदिसरीसृपाश्च नवंति नरा श्व सर्वेपि देवलोकाश्चेत्येवं गतिनेदोन स्यात् ? ॥ ४ ॥ __॥ टीका-पुनरपि तथैवैकदंमिनः संसारिकजीवपदार्थसाम्यापादनायादुः । (थवत्तरूव मित्यादि) पुरि शयनात्पुरुषोजीवस्तं यथा नवंतोन्युपगतवंतस्तथा वयमपि तमेव विशि नष्टि। अमूर्तत्वादव्यक्तं रूपमस्यासावव्यक्तरूपस्तथा करचरण शिरोयीवाद्यवयवतया स्वतो वस्थानात्तथा महांतं लोकव्यापिनं तथा सनातनं शाश्वतं व्यार्थतया नित्यं नानाविधग तिसंनवेपि चैतन्यलक्षणात्मस्वरूपस्याप्रयुतेस्तथा दयं केनचित्प्रदेशानां खंमशः कर्तुमश क्यत्वात्तथाऽव्ययमनंतेनापि कालैनकस्यापि तत्प्रदेशस्य व्ययानावात्तथा सर्वेष्वपि नूतेषु कायाकारपरिणतेषु प्रतिशरीरं सर्वतः सामस्त्यान्निरंशत्वादसावात्मा नवति कश्व ? चं इश्व शशीव तारानिरश्विन्यादिनिर्नदात्रैर्यथा समस्तरूपः संपूर्णः संबंधमुपयात्येवम सावपि यात्मा प्रत्येकं शरीरैः सह संपूर्णः संबंधमुपयाति तदेवमेकदंमिनिर्दर्शन साम्यापादनेन सामवादपूर्वकं स्वदर्शनारोपणार्थमाईककुमारोनिहितोयत्रैतानि संपूर्णा नि निरुपचरितानि पूर्वोक्तानि विशेषणानि धर्मसंसारयोर्विद्यते सएव पदः सश्रुतिकेन स माश्रयितव्योनवति । एतानि चास्मदीयएव दर्शने यथोक्तानि संति नार्हतेऽतोनवताप्य स्मदर्शनमेवान्युपगंतव्यमिति ॥ 4 ॥ तदेवमनिहितः सन्नाईकुमारस्तउत्तरदानायाह । ( एवमित्यादि ) यदिवा प्राक्तनश्लोकः (यवत्तरूवमित्यादि ) कोवेदांतवाद्यात्मा दैतमते न व्याख्यातव्यस्तथाहि ते एकमेवाव्यक्तं पुरुषमात्मानं महांतमाकाशमिव सर्वव्यापिनं स नातनमनंतमदयमव्ययं सर्वेष्वपि नूतेषु चेतनाचेतनेषु सर्वतः सर्वात्मतया सौव्यव स्थितइत्येवन्युपगतवंतोयथा सर्वास्वपि तारास्वेकएव चंदः संबंधमुपयात्येव चासा वपीत्यस्य चोत्तरदानायाह । (एवमित्यादि) एवमिति तथा नवतां दर्शने एकांते नैव नित्योविकार्यात्मान्युपगम्यते इत्येवं पदार्थाः सर्वेपि नित्यास्तथाचसति कुतोबंध मोदसनावोबंधानावाच्च न नारकतिर्यङ्नरामरलक्षणश्चतुर्गतिकः संसारोमोदानावा च निरर्थकं व्रतग्रहणं नवतां पंचरात्रोपदिष्टयमनियमप्रतिपत्तिश्चेत्येवं च यमुच्यते न वता यथाऽऽवयोस्तुल्योधर्मइति तदयुक्तमुक्तं । तथा संसारांतर्गतानांच पदार्थानां न सा म्यं तथाहि नवतां व्यैकत्ववादिनां सर्वस्य प्रधानादनिन्नत्वात्कारणमेवास्ति कार्यच कार पानिन्नत्वात्सर्वात्मना न विद्यते अस्माकंच इव्यपर्यायोजयवादिनां कारणे कार्य इव्या Page #977 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राय धनपतसिंघ बादाडुरका जैनागम संग्रह नाग दुसरा. ४७ त्मतया विद्यते न पर्यायात्मकतया प्रपिचास्माकमुत्पादव्ययधौव्ययुक्तमेव सदित्युच्यते वतव्यं युक्तमेव सदिति । यावप्याविर्भाव तिरोभावौ नवतोच्येते तावपि नोत्पाद विनाशावंतरेण नवितुमुत्सहेते तदेवमैहिकामुष्मिक चिंतायामावयोर्न कथंचित्साम्यं किं च? सर्वव्यापित्वे सर्वात्मनामविकारित्वे चात्मा देते चान्युपगम्यमाने नारक तिर्यङ्नरा मरनेदेन बालकुमारकसुन गर्न गाढयद रिा दिनेदेनवा न मीयेरन्न परिबेद्येरन् नापि स्व कर्मचोदितानानागतिषु संसरति सर्वव्यापित्वादेकत्वाछा तथा न ब्राह्माणान क्षत्रियान वै इयान प्रेष्यान शूझ नापि कीटपछिसरीसृपाश्च नवेयुस्तथा नराश्व सर्वेपि देवलोकाश्चेत्ये वं नानागतिनेदेन निद्येरन्नतोन सर्वव्यापी आत्मा नाप्यात्मा देतवादोप्यायात्यतः प्रत्ये कं सुखडुःखानुनवः समुपलच्यते तथा शरीरत्वक्रूपर्यंत मात्र एवात्मा तत्रैव तङ्गुणविज्ञा नोपलब्धेरिति स्थितं ॥ ४८ ॥ लोयं प्रयाणित्ति केवलेणं, कदंति जे धम्ममजाणमाला | ला संतिप्पाणपरं च लढा, संसारघोरं मित्र्णोरपारे ॥ ४० ॥ लोयं विजाणंति ढ़ केवलेणं, पुन्नेष नाणेण समादिजुत्ता॥धम्मं समत्तं च कति जेन, तारंति अप्पाणपरं च तिन्ना ॥ ५० ॥ अर्थ- वली घाईकुमार कहेने के, (लोयं के०) ए लोक जे चौदरज्ज्वावात्मक, तेनें ( याहि केवलेां के० ) केवलज्ञानें करीनें न जाणे, एवा या जगत् मांहें (कह तीजे धम्ममजामाला के 0 ) जे दर्शनीच जाणता थका धर्म कहेबे ( पासंति प्पा परंचा के० ) ते पोताना ग्रात्मानें भ्रष्ट करता थका बीजानें पण ऋष्ट क रेबे. किंबहुना . ( संसारघोरं मिणोरपारे के० ) ते घोर एटले रौर, अपारावार, एवो जे संसार ते मांहे पोतें पण पडे, खनें बीजानें पण पाड़े ॥ ४७ ॥ हवे घाईकुमार, सम्यक्ज्ञानवंत धर्मना कहेनार, एवा पुरुषोना गुण कहे. (नोयं विजाणं तिह के वजेणं के 0 ) चौद रज्ज्वात्मक लोक, तेनें केवलज्ञानें करी केवली, नानाप्रकारें जाणे. ( पुन्ने ना समाहित्ता के० ) तथा संपूर्ण ज्ञानें करी, समाधिसहित थका, ( धम्मंसम तंचकदंतिजे के० ) संपूर्ण श्रुतचारित्ररूप धर्म, परना हितनें खर्थे जे कहे. ( तारं तिप्पाणपरंच तिन्ना के ० ) ते पोतें पण संसार समुड् थकी तरे, घनें बीजानें पल तारे. एवो जे जिनेंड़ मार्ग, केवलीनापित, ते सत्य जाणवो ॥ ५० ॥ || दीपिका - लोकं चराचरमज्ञात्वा केवलेन दिव्यज्ञानेन इह जगति ये कथयति । ध जानानाः ते स्वयं नष्टाः खात्मना परं च नाशयंति क ? घोरे संसारे अणोरपारे धर्वा For Private Personal Use Only Page #978 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीये सूत्रकृतांगे द्वितीय श्रुतस्कंधे षष्ठाध्ययनं. नागपरनागरहितेऽनाद्यनं तइत्यर्थः ॥ ४९ ॥ पूर्णेन ज्ञानेन केवलेन समाधियुक्तालोकं चतु देशरमितं ज्ञात्वा इह शासने समस्तं धर्म श्रुतचारित्ररूपं कथयति ते श्रात्मना तीर्णाः संसारसागरं तारयति च परं समुपदेशादिति ॥ ५० ॥ ४ ॥ टीका - तदेवं व्यवस्थिते युष्मदागमोयथार्था निधाय न नवत्य सर्वज्ञप्रणीतत्वादसर्व इप्रणीतत्वं चैकांतपक्षसमाश्रयणादित्येवम सर्वज्ञस्य मार्गोनावनं दोषमाविर्भावयन्नाह । (लोयमित्यादि) लोकं चतुर्दशरज्ज्वात्मकं चराचरं वा लोकमज्ञात्वा केवलेन दिव्यज्ञाना वासेनेहास्मिन् जगति ये तीर्थिका जानानाय विद्वांसोधर्म दुर्गतिगमनमार्गस्यार्गला नूतं कथयति प्रतिपादयति ते स्वतोनष्टा खपरानपि नो त्रायंति क्व ? घोरे जयानके संसार सागरे (लोपारेति ) अवग्नागपरनागवर्जितेनाद्यनंत इत्येवंभूते संसारार्णवे या त्मानं प्रक्षिपंतीति यावत् ॥ ४९ ॥ सांप्रतं सम्यक्ज्ञानवतामुपदेष्टृणां गुणाना विनि वयन्नाह । (लोयमित्यादि) लोकं चतुर्दशरज्ज्वात्मकं केवला लोकं न केव जिनो विविधमने कप्रकारं जानंति विदंतीहास्मिन् जगति प्रकर्षेण जानाति प्रज्ञः पुण्यहेतुत्वात् पुण्यं तेन तथाभूतेन ज्ञानेन समाधिना च युक्ताः समस्तं धर्म श्रुतचारित्ररूपं येतु पर हितैषिणः कथ यंति प्रतिपादयति ते महापुरुषास्ततः संसारसागरं तीर्णाः परंच तारयंति सडुपदेशदानत इति केवलिनोलोकं जानतीत्युक्ते यत्पुनर्ज्ञानेनेत्युक्तं तद्द्बौ-मतोवेदेन ज्ञानाधारत्रात्मा यस्तीति प्रतिपादनार्थमिति । एतडुक्तं जवति यथाऽऽदेशिकः सम्यक् मार्गज्ञश्रात्मानं परं च तडुपदेशवर्तिनं महाकांतारादिवचित देशप्रापणेन निस्तारयत्येवं केवलिनोप्यात्मानं परं च संसारकांतारान्निस्तारयंतीति ॥ ५०॥ जे गरदियं गणमिदावसंति, जेयावि लोए चरणोववेया ॥ उदा दडं तं तु समं मईए, प्रदानसो विप्परियासमेव ॥ ५१ ॥ सं वच्चरेणाविय एगमेगं, बाणेण मारेन महागयं तु ॥ सेसाजीवा दयध्याए, वासं वयं वित्ति पकप्पयामो ॥ ५२ ॥ के ० अर्थ- हवे वली मिथ्यावादीनी केवी प्ररूपणा होय ! ते बाईकुमार कहेते. (जे 0 ) जे कोइ संसारमाहे वर्तता प्रशुन कर्मना करनार, ( गरहियं के० ) गर्हित ए निंदित, निर्विवेकीयें खाचरण करेलुं ( ठाणमिहावसंति के० ) एवं क्रिया अनुष्ठा नरूप जे स्थानक, तेनुं इह एटले या जगत् मांहे सेवन करे, खाजीविकानें कारणे ते नो या करे, ( जेया विलोएचरणोववेया के० ) तथा जे वजी रूडा उपदेशना देना रा, लोक मांहे विरति परिणामरूप चारित्रें करी सहितबे (उदाहतंतुसमं मईए के ० ) For Private Personal Use Only Page #979 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राय धनपतसिंघ बाहारका जैनागम संग्रह नाग उसरा. ०४७ एबेदुनो अनुष्ठान तमार मतियें सरखो कहेवो. (हाउसो विष्प रियासमेव के ० ) हो युष्मन् एक किया ! तेथी तेतुं कहेनारानें विपर्यास एटले विपरीत मतिवाला जाण a. प्रमाणे कहेनानुं वचन उन्मत्त प्रलाप समान जाणियें बैयें. साधुं नें जुटुं ए वे धर्म, सरखाज केम होय ? ॥ ५१ ॥ ए रीतें एकदंमियाना मतनुं निराकरण करीनें जेटले स्वामीना समवसरण नली खाईकुमार चाल्या, एटले अंतराबें हस्तितापस खावीनें बोल्या के हो बाईकुमार ! सश्रुतिक पुरुषने अल्पबहुत्व यालोचवो जोइयें. शामाटें ? तेनुं कारण कहुं ते तुं सांन. के जे बीजा तापस, कंद, मूल, फलना नक्षण करनार, ते घणा एक स्थावर जीवोनो विनाश करें, तथा ते स्थावरने याश्रित जे जंगम जीव होय, तेनो पण विनाश करे, तथा जे निक्षा मागीनें पोतानी याजीविका करेबे ते पण, प्राशंसादोपें करी दूषित, कारण के जिहां तहां परिभ्रमण करतां कीडी, मंकोडी प्रमुख अनेक जीवनें वेळे घनें तो, (संववरेणावियएगमेगं के०) वर्ष वर्ष दिवसें, तथा अपिशब्दें करीब मासें एकज, ( बाण मारेनमहागयंतु के० ) महाकाय एटजे महोटी कायावालो एवो जे हस्ती तेनें बानें प्रहारें विनाशीनें, ( सेसा जीवाणदयध्याए के० ) शेष बीजा जीवोनी दयानें खर्थे, मात्र ते एकज हस्तीना मांसें करीनें, ( वासंवयं वित्तिपकप्पयामो ० ) वर्ष दिवस सुधी में मारी खाजीविका चलावियें बैयें. ए रीतें थोडा जीव नो उपघातकरी, घणा जीवोनी में रक्षा करियें बैयें. ए माटें विशेष करी, अमारो मा बीजा सर्वमार्ग की श्रेष्ठज जाणवो ॥ ५२ ॥ || दीपिका- ये गर्दितं निंद्यनिर्विवेकिजनाचरितं स्थानं इह जगत्याश्रयंति ये चापि लो के चरणोपेतं संयमरूपं स्थानं सेवते तद्द्वयमपि यैरसर्वज्ञैः समं तुल्यमेवोदात्तं कथितं स्वमत्या स्वानिप्रायेण । यथायुष्मन् हे सांख्य ! विपर्यासइति तन्मत्तोन्मत्तप्रलापवदिति एव मेकं मिनो निरस्याईमुनिर्जगवत्समीपे याति । तावता हस्तितापसास्तमेवं प्रोचुः ॥ ५१ ॥ जो थाईक! ये तापसाः कंदमूलफलाशिनस्ते बहूनां स्थावराणां तदाश्रितत्रसानांच घा तकाः ये च निहां सेवते तेप्याशंसादोषदूषिताः चमंतश्च पिपीलिका दिजंतुघातकाः वयं तु संवत्सरेणाप्येकं महागजं बाणेन व्यापाद्य शेषाणां जीवानां दयार्थ खात्मनोवृत्तिं जी विकां तन्मांसेन वर्षे यावत्कल्पयामः कुर्मः ततोवयं बहुजीवरक्षकाः ॥ ५२ ॥ सर्वप्ररूपणमेवंभूतं ॥ टीका - पुनरप्याईककुमारएवाद । ( जेगर हिय मित्यादि ) नवति । तद्यथा ये केचित्संसारांतर्वर्तिनोऽनकर्मणोपेताः समन्वितास्त द्विपाकसहायाग हितं निंदितं जुगुप्सितं निर्विवेकिजनाचरितं स्थानं पदं कर्मानुष्ठानरूपमिहास्मिन् जग For Private Personal Use Only Page #980 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (ए ‘क्तिीये सूत्रकृतांगे वितीय श्रुतस्कंधे षष्ठाध्ययनं. त्यासेवंति जीविकाहेतुमाश्रयंति तथाच ये सउपदेशवर्तिनोलोकेस्मिन् चरणेन विरतिप रिणामरूपेणोपेताः समन्वितास्तेषामुनयेषामपि यदनुष्ठानं शोननाशोजनस्वरूपमपि स त् तदसर्वज्ञैराग्दार्शनिः समसदृशं तुल्यमुदात्तं नपन्यस्तं स्वमत्या स्वानिप्रायेण न पुन यथावस्थितपदार्थ निरूपणेनाथवाऽऽयुष्मन् हे एकदंमिन ! विपर्यासमेव विपर्ययमेवो दाहरेदसर्वोयदशोननं तबोननत्वेनेतरत्त्वितरथेति यदिवा विपर्यासति मत्तोन्मत्तप्र लापवदित्युक्तं नवतीति ॥ ५१ ॥ तदेवमेकदंमिनोनिराकत्याईककुमारोयावनगवदंतिकं व्रजति तावदस्तितापसाः परिवृत्य तस्थुरिदं च प्रोचुरित्याह । ( संवबरेणइत्यादि) ह स्तिनं व्यापाद्यात्मनोवृत्तिं कल्पयंतीति हस्तितापसास्तेषां मध्ये कश्चितमएतज्वाच तद्यथा नो बाईककुमार! सश्रुतिकेन सदाल्पबदुत्वमालोचनीयं तत्र ये अमी तापसाः कंदमूलफलाशिनस्ते बदनां सत्त्वानां स्थावराणां तदाश्रितानां वोउंबरादिषु जंगमानामु पघाते वर्त्तते येपि च नैदयेणात्मानं वर्तयंति तेप्याशंसादोषदूषिताश्तश्चेतश्चाटयमानाः पि पीलिकादिजंतूनां उपघाते वर्तते वयंतु संवत्सरेणावि अपिशब्दात् षण्मासेन चैकैकं दस्ति नं महाकायं बाणप्रहारेण व्यापाद्य शेषसत्वानां दयार्थमात्मनोवृत्तिं वर्त्तनं तदामिषेण वर्षमेकं यावत्कल्पयामस्तदेवं वयमल्पसत्वोपघातेन प्रनूततरसत्वानां रदां कुर्मति॥५२॥ संवरेणाविय एगमगं, पाणं दणंता अणियत्तदासा॥ सेसा पजीवाणवलणाय, सियाय योवं गिहिणोवि तम्हा ॥५३॥ संवबरेणाविय एगमगं, पाणं दणंता समणे वएसु ॥आया दिए तं पुरिसे अण, ण तारिसे केवलिणो नवंति ॥५४॥बुद्ध स्स आणाए श्मं समाहिं,अरिंस सच्चिा तिविदेण ताई॥तरिवं समुदं च मदानवोघं,आयाणवंतं समुदाहरेजा तिबेमि ॥५॥ इति अदृश्णाम बमऊयणं सम्मत्तं ॥ अर्थ-हवे आईकुमार कहेले के, अहो हस्तितापसो! तमें (संवन्चरेणावियएगमेगंपा णंहणंताअणियत्तदोसा के.) वर्ष वर्ष प्रत्ये, तथा ब मासप्रत्ये तमे एकेक महोटो जीव हणता थका दोषथकी, निवर्त्या एम कहेवाज नहीं. (सेसाणजीवाणवहेलणाय के०) कारणके, घणा जीवनें न हणता अनें वर्षमा,तथा बमासमा एकजीवनें हणता एवा तमो में पंचेंडियमहाकाय जीवना वधनो आशंसा दोष पण लागेले.अनें साधु तो, सूर्य किरणे प्रकाशित मार्गनें विषे जूसर मात्र दृष्टि शोधता, इर्यासमितें समितावंत बता, बेतालीश दोष रहित थाहारनी गवेषणा करता,याहारना लाने, अथवा अलाने,समवृत्ति वाला Page #981 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राय धनपतसिंघ बाहापुरका जैनागम संग्रह नाग उसरा. ए! होय; तेने कयो आशंसा दोष ? अनें पिपीलिकानो घात पण केम थाय? अनें तमो एवा म होटा जीवनो उपघात करीने पण पोताने निर्दोष मानोडो,ते जो एवी रीतें निर्दोष पणुं थतुं होय तो, आपणी भाजीविकाने निमित्तें पारंनने विषे प्रवर्ततां (सियायथोगिहि गोवितम्हा के०) कदाचित् पोतानुं देत्र टाली अन्य जीवोनो नपघात अण करतां गृहस्थ पण तमारी पे थोडा जीव हणतां,घणा जीव पालता थकां तमारा सरखा निर्दोषज जाणवा. एम तयं ॥५३॥ वली आईकुमार कहेलेके,(संवबरेणावियएगमेगंपाहणंता समणेवएसु के०) अहो हस्तितापसो! जे तमारा दर्शनी, श्रमणना व्रतनें विषे प्रवर्त्तता बता संवत्सर संवत्सर प्रत्ये तथा उमास प्रत्ये एकेक जीव हणे,अनें वड़ी एहिज धर्मनो नपदेश आपे, (आयाहिएतपुरिसेपण के०) ते अनार्य अनाचारी पोताने तथा परने अहितना करनार जाणवा केम के,(णतारिसेकेवलियोनवंति के०)ते पुरुष सादृशकेवली न होय? ते अशुधमार्गना प्रवर्तक बनें सत्यमार्गना देषी जाणवा जे कारणे ते वर्षवर्ष प्रत्ये एकेक जीवनो विनाश करे, तेनुं मांस वर्ष वर्ष दिवस सुधी राखे तेमांहे अनेक असंख्यात बीजा त्रस जीव उपजे, तेथी तेनें पचावतां ते जीवोनो विनाश थाय. ए कारण माटें घणा जीवोनो विनाश करतां पण एम कहे के, अमें थोडा जीवोनो विना श करिये बैयें, ते माडे ते मिथ्यावादी जाणवा. तेनुं वचन अमें प्रमाण नथी करता. ६ त्यादिक वचन कही अन्य दर्शनीने प्रतिबोधि, श्री महावीर देवनें समवसरणे जइ, ती र्थकरने वांदीने, आईकुमार, आझानो आराधक थयो ॥ ५५ ॥ हवे अध्ययन परिस माप्ति नणी कहे. (बुस्सयाणाएश्मंसमाहिं के ) बु.5 एटले तत्वना जाण, एवा श्री महावीर देव, तेनी थाझायें था समाधि, धर्मप्राप्ति लक्षण लहीने, (अस्सिसुठि चातिविहेणताई के० ) ए समाधिने विषे प्रवर्ततो त्रिविध त्रिविध प्रकारें बकायनो र पाल एवो साधु, (तरिसमुदंचमहानवोघं के०) नयंकर संसार समुश्त रीने ( आ याणवंतंसमुदाहरेजा के ) थादानवंत एटले सम्यक् ज्ञान, दर्शन, अने चारित्र सहि त थको, एम आईकुमारनी पेरें यथावस्थित प्ररूपणायें करी परदर्शनीनो निराकरण करीने मोदनो मार्ग प्रगट करे, ते साधु जाणवो. तिबेमिनी व्याख्या, पूर्ववत् जाणवी ॥ ५५॥ए बहश्ङनामें बहा अध्ययननो संदेपार्थ बालावबोध समाप्त थयो ॥ ६ ॥ ॥ दीपिका-अथाईकुमारः प्राह॥संवत्सरेणाप्येकैकं प्राणिनं नंत प्राणातिपातादनित तत्वानिवृत्तदोषास्ते स्युः साधूनां तु सूर्यप्रकाशिते मार्गे युगमात्रदृष्टया समित्या गबतां निर्दोषाहारान्वेषिणां समचित्तानां व आशंसादोषः? क्व कीटिकादिघातोवेत्यर्थः।स्तोकजी वघाते च दोषानावस्तदा गृहस्थाअपि स्वारंनदेशस्थान जीवान नंति शेषाणां च जीवानां Page #982 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ए५२ वितीये सूत्रकृतांगे वितीय श्रुतस्कंधे षष्ठाध्ययनं , वधे न लग्नाः तस्मात्स्यादेवं स्तोकं स्वल्पं यस्मानंति ततस्तेपि निर्दोषाः॥५३॥ श्रमणव्रतेषु स्थिताअपि संवत्सरेणाप्येकैकं जंतुं येनंति येच नपदिशति तेऽनार्या आत्महिताः पुरुषाः न तादृशाः केवलिनोनवंति ॥५४॥ एवं हस्तितापसान्निरस्याककुमारं नगवदंतिकं व्रजंतं दृष्ट्वाऽनिनवगृहीतो वनहस्ती चिंतयतिस्म । यद्यहं बंधनमुक्तः स्यां तदाऽककुमारं प्रतिबु ६ तस्करपंचशतोपेतं तथा प्रतिबोधितानेकवादिगणसमन्वितं गत्वा वंदेया वदेवं हस्ति ना चिंतितं तावता तस्य बंधनानि त्रुटितानि बाईमुनिसंमुखं त्वरया चलितः करीत तोलोकैः पूत्कृतं हा हतोयं मुनिरिति हस्तीच ससंत्रमं मुनिपार्श्वमागत्य त्रिः प्रदक्षिणी कृत्य दंताग्रस्टष्टतमिः साधुं नत्वा वनं ययौ ततः श्रेणिकनृपः सपौरलोकस्तं मुनिं सप्र नावं नत्वा प्रोवाच।जगवन्नाश्चर्य मिदं यदयं करी बंधनान्मुक्तः ततोमुनिराह । हे नृप! नै तदाश्चर्य यत्करीमुक्तोबंधनात्। यत्तु स्नेहपाशमोचनं तदुष्करं तच प्रागुक्तं नियुक्तिकता। यथा । “न उकरं वारणपासमोयणं,गयस्स मत्तस्स वर्णमि रायं ॥ जहानच त्तावलिएण तंतुणा, तं उक्कर मेपडिहाइ मोयणं ॥१॥ अस्यार्थः प्रागध्ययनप्रारंने प्रोक्तः। एवमाईकु मारोनृपं प्रतिबोध्य श्रीवीरांतिकं गत्वा नगवंतं नक्तिनृतयासीनः । नगवानपि तानि पं चापि शतानि प्रव्राज्य तव शिष्यत्वेन ददौ ॥ अथाध्ययनोपसंहारमाह । (बुस्सश्त्या दि ) बुइस्य तत्वज्ञस्य श्रीवीरस्याझ्या इमां समाधि धर्मावाप्तिं प्राप्यास्मिन्समाधौ सु तुस्थित्वा मनोवाकायैस्त्रायी रदकस्तोऽितिक्रम्य समुमिव महानवौघं । बादानं सम्य ग्दर्शनझानचारित्ररूपं विद्यते यस्य सबादानवान् धर्म परहितैषी उदाहरेत्कथयेत् । इति ब्रवीमीति पूर्ववत् ॥ ५५ ॥ इत्याईकीयाध्ययनमिदं षष्ठं समाप्तम् ॥ ॥ टीका-सांप्रतमेतदेवाईककुमारोहस्तितापसमतं दूषयितुमाह । (संवबरेणइत्यादि) संवत्सरेणैकैकं प्राणिनं नतोपि प्राणातिपातादनिवृत्तदोषास्ते नवंत्यारांसादोषश्च नवतां पंचेंख्यिमहाकायसत्ववधपरायणानामतिटोनवति साधूनां तु सूर्यरश्मिप्रकाशितवीथिषु युगमात्रदृष्टया गतामीर्यासमितिसमितानां विचत्वारिंशदोषरहितमाहारमन्वेषयतां ला नालानसमवृत्तीनां कुतस्त्यबाशंसादोषः पिपीलिकादिसत्वोपघातोवेत्यर्थः स्तोकसत्वोपघा तेनैवंनतेन दोषानावोनवतान्युपगम्यते तथाच सति गृहस्थायपि स्वारंनदेशवर्तिनए व प्राणिनोनंतीति शेषाणांच जंतूनां क्षेत्रकालव्यवहितानां नवदनिप्रायेण वधेन प्र वृत्तायतएवं तस्मात्कारणात्स्यादेवं स्तोकमिति स्वल्पं यस्मात् ध्रति ततस्तेपि दोषरहि ताइति ॥ ५३ ॥ सांप्रतमाईककुमारोहस्तितापसान्दूषयित्वा तउपदेष्टारं दूषयितुमाह । (संवबरणेत्यादि ) श्रमणानां यतीनां व्रतानि श्रमणव्रतानि तेष्वपि व्यवस्थिताः सं तएकैकं संवत्सरेणापि ये घ्रति ये चोपदिशति तेऽनार्या असत्कर्मानुष्ठायित्वात्तथा था Page #983 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राय धनपतसिंघ बादापुरका जैनागम संग्रह नाग उसरा. ५३ त्मानं परेषां चाहितास्ते पुरुषाः। बहुवचनमार्षत्वान्न । तादृशाः केवलिनोनवंति तथा ह्येक स्य प्राणिनः संवत्सरेणापि घाते येन्ये पिशिताश्रितास्तत्संस्कारेच क्रियमाणे स्थावरजं गमाविनाशमुपयांति ते तैः प्राणिवधोपदेष्ट्रनिर्न दृष्टाः। नच तैनिरवद्योपायोमाधुकर्या व त्या योनवति सदृष्टोतस्तेन केवलमकेवलिनोविशिष्ट विवेकरहिताश्चेति । तदेवं हस्तिताप सान्निराकृत्य नगवदंतिकं गतमाईककुमारं महता कलकलेन लोकेनानिष्ट्रयमानं तं समुप लन्य अनिनवं गृहीतः संपूर्णलदाणसंपूर्णाहस्ती समुत्पन्नस्तथा विधविवेकोचितं यत् य थाईकुमारोयमपकताशेषतार्थिको निष्प्रत्यूहं सर्वज्ञपादपद्मांतिकं वंदनाय व्रजति तथाहम पियद्यप्यपगताशेषबंधनः स्यां ततएनं महापुरुषमाईककुमारं प्रतिबुतस्करपंचशतोपेतं त था प्रतिबोधितानेकवादिगणसमन्वितं परमया नक्त्यैतदंतिकं गत्वा वंदामीत्येवं यावद सौ हस्ती कत्यसंकल्पस्तावबटबटदिति त्रुटितसमस्तबंधनः सन्नाईककुमारानिमुखं प्रदत्त कर्णतालस्तथोर्ध्वप्रसारितदीर्वकरः प्रधावितस्तदनंतरं लोकेन कृतहाहारवगर्नकलकलेन प्रत्कृतं यथा धिक कष्टं हतोयमाईककुमारोमहर्षिर्महापुरुषस्तदेवं प्रलपंतोलोकाश्तश्चेत श्व प्रपलायमानाः। असावपि वनहस्ती समागत्याईककुमारसमीपं नक्तिसंचमावनतायना गोत्तमांगोनिस्तकर्णताल स्त्रिःप्रदक्षिणीकृत्य निहितधरणीतलदंतायनागः स्टष्टकरायतच रणयुगलः सुप्रणिहतमनाः प्रणिपत्य महर्षिवनानिमुखं ययाविति । तदेवमाईककुमार तपोनुनावाइंधनोन्मुखं महागजमुपलन्य सपौरजनपदः श्रेणिकराजस्तमाईककुमारं म हर्षि तत्तपःप्रनावं चानिनंद्यानिवंद्य च प्रोवाच जगवन्नाश्चर्यमिदं यदसौ वनहस्ती ताह ग्विधावस्त्रोद्यावृंखलाबंधनायुष्मत्तपःप्रनावान्मुक्तश्त्येतदतिकुष्करमित्येवमनिहिते या ईकुमारःप्रत्याह । जो श्रेणिक महाराज! नैतपुष्करं यदसौ वनहस्तीबंधनान्मुक्तोपि त्वेत दुष्करं यत्स्नेहपाशमोचनं एतच्च प्राङियुक्तिगाथया प्रदर्शितं । साचेयं । “ग छक्करं वारणपा समोयणं, गयस्स मत्तस्स वर्णमि रायं।जहा नवत्तावलिएण तंतुणा,सुक्करमे पडिहाइम्रो यणं ॥१॥ एवमाईककुमारेण राजानं प्रतिबोध्य तीर्थकरांतिकं गत्वाऽनिवंद्य च नगवंतं नक्तिनरनिरासांचके नगवानपि तानि पंचापि शतानि प्रव्राज्य तनिष्यत्वेनोपनिन्य इति ॥ ५५ ॥ सांप्रतं समस्ताध्ययनार्थोपसंहारार्थाह । (बुदस्सेत्यादि ) बुझोऽवगत तत्वः सर्वज्ञोवीरवईनस्वामी तस्याझ्या तदागमेन इमं समाधि समर्मावाप्तिलक्षणं अ वाप्यास्मिंश्च समाधौ सुष्टु स्थित्वा मनोवाकायैश्च प्रणिहतेंशियोन मिथ्याष्टिमनुमन्यते केवलं तदावरणजुगुप्सां त्रिविधेनापि करणेन न विधत्ते सएवंनूतधात्मनः परेषांच त्राण शीलस्तायी वा गमनशीलोमोदं प्रति सएवंनतस्तरीतुमतिलंध्य समुइमिव उस्तरं महानवौ घं मोक्षार्थमादीयतइत्यादानं सम्यग्दर्शनकानचारित्ररूपं तदिद्यते यस्यासावादानवान साधुः सच सम्यग्दर्शनेन सता परतीर्थिकतपःसमृधादिदर्शनेन मौनीज्ञादर्शनान्न प्रच्यव १२० Page #984 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (ए५४ वितीये सूत्रकृतांगे वितीय श्रुतस्कंधे सप्तमाध्ययनं. ते सम्यक्झानेनतु यथावस्थितवस्तुप्ररूपणतः समस्तप्रावाउकवादिनिराकरणेनापरेषां यथावस्थितमोदमार्गमावि वयतीति सम्यकचारित्रेण तु समस्तनूतग्रामहितैषया निरुवा श्रवधारः सन् तपोविशेषाच्चानेकनवोपार्जितं कर्म निर्जरयति स्वतोन्येषां चैवं प्रकारमेवं धर्ममुपाहरे श्यागृणीयादित्यर्थः । इति परिसमाप्त्यर्थे । ब्रवीमीति नयाश्च प्राग्वदेव वाच्या वयंते चोत्तरत्र ॥ ५५ ॥ समाप्तं चेदमाईकीयारण्यं षष्ठमध्ययनमिति ॥ ६ ॥ ॥ अथ सप्तमाध्ययन प्रारंनः॥ बहा अध्ययनमा स्वसमय, परसमय, प्ररूपणायें करी, प्रायः समस्त सुयगडांग सूत्रने वि षे साधुना आचारनी प्ररूपणा करी, हवे या सातमा अध्ययनमां श्रावकनोआचार कहे बे,अथवा बहा अध्ययनमा परतीर्थिकना वादनु निराकरण का,अने हवे या सातमा अध्ययनमा स्वतीर्थिक साथें वाद कहेशे, ए संबंधे याव्युं जे सातमुंअध्ययन तेने कहेले. तेणं कालेणं तेणं समएणं रायगि नामं नयरे दोबा रिद्धि प्फीत समिधे वमन जाव पडिरूवे तस्सणं रायगिहस्स नयर स्स बहिया उत्तरपत्रिमे दिसीनाए एवणं नालंदानामं बादि रिया होना अणेगनवणस्सयसन्निविधा जाव पडिरूवा ॥१॥ अर्थ-( तेणंकालेणं के० ) ते कालने विषे (तेसमएणं के ) ते समयने विषे, (रायगिहेनामंनयरेहोबा के० ) राजगृह नामा नगर हतुं, ते राजगृहनामा नगर कहे बुं हतुं ? तोके, (रिति के०) नवनादिकें करी सहित, (प्फीत के०) स्फित निश्चल नय रहित, (समिके० )धन धान्यादिके करी समृद्धिमान एटले सहित, (वरमजा वपडिरूवे के०) यावत् प्रतिरूप एटले स्वर्गर्नु प्रतिरूप एनुं वर्णन नववा उपांगनी पेठे जाणवू. यद्यपि ते राजगृह नगर, हमणां पण वर्नने, तथा यागमिक कालें पण हशे, परंतु सूत्रमाहे अतीत कालेंज वखाण्यं तेनुं कारण झुं ? तोके, जे विशिष्ट लदाणोपेत अतीतकालें हतुं, तेवं वर्तमान कालें अनें यागमिक कालें नथी. ए कारण जाणवु. (तस्सणंरायगिहस्सनयरस्सबहिया के० ) त्यां ते राजगृह नगरना बाहिरना प्रदेशें, (उत्तरपुरनिमेदिसीनाए के० ) ईशानकोणने विषे (एलणं के०) अंहीयां (नालं दानामंबाहिरियाहोबा के० ) नालंदा एवे नामें बाहिरिया एटले पाडोविशेष हतो. ते Page #985 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राय धनपतसिंघ बानाउरका जैनागम संग्रह नाग उसरा. ५ पाडो केवोजे ? तोके, (यणेगनवणस्सयसन्निविच के०) अनेक घरना शेकडायें करी स हितो. इत्यादिक (जावपडिरूवा के० ) यावत् प्रतिरूप ए वर्णन जाणवू ॥ १ ॥ ॥ दीपिका-अथ सप्तमाध्ययनमारन्यते । यस्य च नालंदीय मिति नाम । तस्यायम र्थः । नालंदा राजगृहनगरे बाहिरिका तस्यां नवं नालंदीयमिति । पूर्व सकलेन सूत्र कृतांगेन साध्वाचारः प्ररूपितः। अत्र तु श्रावकविधिरुच्यते । तस्येदं सूत्रं । तस्मिन् का ले तस्मिन् समयेऽवसरे राजगृहं नाम नगरमनवत् । इस्फिीतं समृदं वर्णकोवाच्यः यावत्प्रतिरूपमनन्यसदृशं तस्य नगरस्य बहिरुत्तरपूर्वस्यां दिशि नालंदानाम बाहिरिका सीत्साचानेकनवनशतसन्निविष्टाऽनेकगृहसंकीर्णेत्यर्थः ॥ १ ॥ ॥ टीका-व्याख्यातं पष्ठमध्ययनमधुना सप्तममारन्यते । अस्यायमनिसंबंधः। इह प्रा ग्व्याख्यातेनाखिलेनापि सूत्रहतांगेन स्वसमयपरसमयप्ररूपणाारेण प्रायः साधूनामाचा रोऽनिहितोऽनेन तु श्रावकगतोविधिरुच्यते । यदिवानंतराध्ययने परवाद निराकरणं कृत्वा साध्वाचारस्य यउपदेष्टा सउदाहरणारेण प्रदर्शितः । इहतु श्रावकधर्मस्य यनपदेष्टा सन्दाहरणहारेणैव प्रदश्यते । यदिवाऽनंतराध्ययने परतीथिकैः सह वादह तु स्वयूथ्यै रित्यनेन संबंधेनायातस्याध्ययनस्य चत्वार्यनुयोग धाराण्यपवर्णितव्यानि उपक्रमादीनि तत्रापि नामनिष्पन्ने निदेपे नालंदीयानिधानमिदमध्ययन मिदं चैवं व्युत्पाद्यते। प्रतिषेध वाचिनोनकारस्य तदर्थस्यैवालंशब्दस्य मुदाञ् दाने इत्येतस्य धातोर्मीलनेन नालं ददातीति नालंदा। इदमुक्तं नवति। प्रतिषेधप्रतिषेधेन धात्वर्थस्यैव प्रारूतस्य गमनात्सदार्थियोयथा ऽनिलषितं ददातीति नालंदा राजगृहनगरबाहिरिका तस्यां नवं नालंदीयमिदमध्ययनंथने न चानिधानेन समस्तोप्युपोद्घातउपक्रमरूपयावेदितोनवति तत्स्वरूपंच पर्यंते स्वतएव नियुक्तिकारः पासाविले इत्यादिगाथया निवेदयिष्यतीति । सांप्रतं संनविनमतंशब्दस्य निदेपं नादौ परित्यज्य कर्तुमाह । “णाम अलं उवणयलं, दवथलं चेव होइ नावथलं॥ एसो असहमि, निरकेवो चनविहो होइ ,, ॥१॥ (णामअलमिति) तत्रामानोनाः प्रतिषेध वाचकाः । तद्यथा । अगौरघट्टश्त्याद्याकारःप्रायोडव्यस्यैव प्रतिषेधवाचीत्यलंदानेन सहा स्यप्रयोगानावमकारस्त्वनागत क्रियाया निषेधं विधत्ते । तद्यथा नो घटोघटैकदेशनिषेधेन त था हास्यादयोनो कषायाः कषायमोहनीयैकदेशजूताःानकारस्तु समस्तव्य क्रियाप्रतिषेधा निधाय।। तद्यथा न इव्यं न कर्म न गुणोनावस्तथा नाकार्ष न करोमि न करिष्यामीत्यादि। तथाऽन्यैरप्युक्तं न याति नच तत्रासीदस्ति पश्चान्नवांशकाऊहाति पूर्व नाधारमहो व्यसन संततिः। किंचान्यत् । “गतं न गम्यते तावदगतं नैव गम्यते । गतागत विनिर्मुक्तं गम्यमानंतु ग म्यत"इत्यादि । तदेवमत्र नकारः प्रतिषेधविधायकोप्युपात्तः।यलंशब्दोपि यद्यप्यलं पर्याप्ति Page #986 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ए६ द्वितीये सूत्रकृतांगे द्वितीय श्रुतस्कंधे सप्तमाध्ययनं. वारणपणेष्वपीति त्रिष्वर्थेषु पठ्यते तथापीह प्रतिषेधवाचकेन नत्रा साहचर्यात्प्रतिषे धार्थएव गृह्यते तत्र चार्जशब्दः । नामस्थापना व्यनावनेदाच्चतुर्विधो निदेपोजवति । तत्र नामा यस्य चेतनस्य वालमिति नाम क्रियते । स्थापनालंतु यत्र क्वचिच्चित्र पुस्तकादौ पाप निषेधं कुर्वन्साधुः स्थाप्यते इव्य निषेधस्तु नो घागमतो शरीर नव्यशरीरव्यतिरिक्तो व्यस्य चौराद्यात्तस्यैहिक पापनीरुणा योनिषेधः क्रियते सव्य निषेधः । एवं इव्येण इव्याद्द्रव्ये वा निषेधः । नाव निषेधंतु स्वतएव निर्युक्तिकारोजंशब्दस्य संनविनमर्थ दर्शयन्बिन लिपुरा ह | "पत्ती नावे खलु, पढमो बीज नवेालंकारे ॥ ततितो उप्प डिसेहे, लसदो होई ना यत्रो, ॥ २ ॥ ( पतीनावइत्यादि) पर्याप्तनावः सामर्थ्यं तत्रालंशन्दोवर्तते । यतं मनोमल्लाय समर्थइत्यर्थः । लोकोत्तरोपि विनालं तेताणाएवासरणाएवा । अन्यैरप्युक्तं । "इव्या स्तिकरथारूढः पर्यायोद्यतकार्मुकः ॥ युक्तिसन्नाहवान्वादी कुवा दिन्योनवत्यतं ॥ १ ॥ श्रयं प्रथमोनं शब्दार्थोनवति । खलुशब्दोवाक्यालंकारे द्वितीयस्त्वर्थालंकारविषये नवेत्सं नावनायां लिड् । तद्यथालंकृत देवदत्तेन स्वकुलं जगच्च नानिस्तुनेत्यादि । तृतीयस्त्वजंशब्दा र्थः प्रतिषेधे ज्ञातव्योभवति । तद्यथानं मे गृहवासेन तथानं पापेन कर्मणा । नक्तंच । "लं कुतीर्थैरिह पर्युपासितै, रलं वितर्का कुल का हलैर्मतैः ॥ लंच मे कामगुणैर्निषेवितै, कराये हि परत्र चेहच " ॥ १ ॥ तदिह प्रतिषेधवा चिनालंशब्देनाधिकार इत्येतद्दर्शयितुमाह । " पडसे हा गारस्स बिसदेण चैव लसदो ॥ रायगिहे नयरंमि नालंदा होइ बाहिरिया " ॥३॥ ( पडसे होत्यादि ) सत्यप्यलं शब्दस्यार्थ ये नकारस्य सान्निध्यात्प्रतिषेधविधानाद ये गृह्यते ततश्च निरुक्त विधानादयमर्थः । नानं दतातीति नालंदा वाहिरिकायाः स्त्रियोद्दे शकत्वेनच नालशब्दस्य स्त्रीलिंगता साच सदैहिकामुष्मिक सुखहेतुत्वेन सुखप्रदा राजगृह नगरबाहिरका धनकनकसमृइत्वेन सत्साध्वाश्रयत्वेनच सर्वकामप्रदेति । सांप्रतं प्रत्यया दर्शयितुकामखाह " नालंदाए समिवे, मणोर हे नासि इंद ॥ खशयां उद्गस्सच, एवं नालंदझं तु" ॥४॥ ( नालिंदा एइत्यादि) नालंदायाः समीपे मनोरथाख्ये उद्याने इनू मिना गरेोदकाव्य निर्यथष्टष्टेन तुशब्दस्यैव कारार्थत्वात्तस्यैव नाषितमिदमध्ययनं । ना लंदायां नवं नालंदीयं नालंदासमीपोद्यानकथनेन वा निवृत्तं नालंदीयं । यथाचेदमध्ययनं नालंदायां संवृत्तं तथा “पासाव चिकोपुडियाइ प्रगोयमं नदगो ॥ सावगपुन्नाधम्मं सो डं कहियंमि वसंता, ॥५॥ अनायापासावविक्रेत्यादिकया सूत्रस्पर्शिकगाथया विष्करिष्य ते । सांप्रतं सूत्रानुगमेऽस्खलितादिगुणोपेतं सूत्रमुञ्चारयितव्यं । तच्चें । (तेकाले मि त्यादि) स्य चानंतर परंपरस्त्रैः सह संबंधोवाच्यस्तत्रानंतराध्ययनपर्यंते सूत्रमिदमादान वान् धर्ममुदाहरेत्। धर्मश्च साधु श्रावकभेदेन द्विधा । तत्र पूर्वोक्तेनांग ६येन प्रायः साधुगतो विधि रनिहितोनेनतु श्रावकगतो विधिरुच्यते । परंपरसूत्र संबंधस्त्वयं बुध्येतेत्येतदा दिसूत्रं । किं तत्र For Private Personal Use Only Page #987 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राय धनपतसिंघ बानाउरका जैनागम संग्रह भाग उसरा. ए७ बुध्येत यदेतदक्ष्यतइति। सूत्रार्थस्त्वयं । सप्तम्यर्थे तृतीया । यस्मिन्काले यस्मिंश्चावसरे राज गृहं नगरं यथोक्तविशेषणविशिष्टमासीत्तस्मिन् काले तस्मिंश्च समये इदमनिधीयते । राजगृ हमेव विशिनष्टि । प्रासादाः संजातायस्मिंस्तत्प्रासादितमानोगव हा अतएव दर्शनीयं दर्श नयोग्यं दृष्टिसुखहेतुत्वात्तथानिमुख्येन रूपं यस्य तदनिरूपं तथा प्रतिरूपमनन्यसदृशं प्र तिरूपं वा प्रतिबिंब वा स्वर्गनिवेशस्य तदेवंनूतं राजगृहंनाम नगरं ( होजात्ति) बासीत् । यद्यपि तत्कालत्रयेपि सत्तां बिनर्त्ति तथाप्यतीतारख्यानसमाश्रयणादासीदित्युक्तं । तस्य च राजगृहस्य बहिरुत्तरपूर्वस्यां दिशि नालंदानाम बाहिरिका बासीत् साचानेकनवनश तसन्निविष्टा अनेकनवनशतसंकीर्णेत्यर्थः ॥ १ ॥ तवणं नालंदाए बाहिरियाए लेवे नाम गाहावई दोबा अ डे दित्ते वित्त वितणविपलनवणसयणासणजाणवादणा एमे बदुधणबदुजायरूवरजते आ गपगसंपनत्ते वित्त डियपरनत्तपाणे बदु दासी, दास, गोमहिस, गवेलग प्पनूए बहुजणस्स अपरिनूएयावि दोबा ॥२॥ अर्थ-(तबर्णनालंदाएबाहिरियाए के०) ते नालंदा नामें बाहिरिया एटले पाडाने विषे (लेवेनामंगाहावईहोबा के ) लेप एवे नामें गृहपति कुटुंबी हतो. ते केवो हतो ? तोके, (अड़े के० ) धनवंत, (दित्ते के०) दीप्त तेजस्वी, (वित्ते के०) सर्वजनमां वि ख्यात, ( विवण के०) विस्तीर्ण, ( विपुल के०) घणा एवां (नवण के०) नुवन, (सय पासण के०) शय्यासनादिक, तथा (जाणवाहणाश्प्ले के०) यान एटले रथ वेहेलादि क, वाहन एटले अश्वादिक, तेणें करीश्मे एटले आकीर्ण व्याप्त, (बदुधण के० ) घ णुं धन, (बदुजायरूवरजते के० ) घणुं जात एटले सुवर्ण,तथा रू', तेणे करी सहि त, (आग के ) धननो उपाय एटले यानपात्रादिकनो संग्रह. तथा (प ग के०) प्रयोग एटले व्यापारादिक प्रयोजन तेणे करी (संपउत्ते के०) संप्रयुक्त एटले सहित (वि के०) विशेषे करी (बडिय के० ) ज्यां त्यां नाख्योडे (पन र के ० ) घणो एवो (जत्नपाणे के०) नातने पाणी जेणे, एटले जेनें घरे निरंतर लोक ज मेले. विशेषे करी देवरावेले. (बहुदासीदास के ) घणां दासी, तथा दास, (गोमहि स्स के०) गाय, अने नेष, (गवेलग के०) गामर बाली, तेणें करी (प्पनए के०) परिवृत्त तेमाटें (बहुजणस्सयपरिनूएबाविहोबा के ) घणा लोकोयें पण परानव करी न शकाय एवो हतो. एटला वर्णने करी एनी इव्यसंपदा कही. ॥ ५ ॥ Page #988 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एत वितीये सूत्रकृतांगे वितीय श्रुतस्कंधे सप्तमाध्ययनं. ॥ दीपिका-(तवणं) तस्यां नालंदायां लेपोनाम गृहपतिः कुटुंबिकबासीत् सच था ढयोदीप्तस्तेजस्वी वित्तोविख्यातोविस्तीर्ण विपुलनवनशयनासनयानवाहनाकीर्णोबहुधनो बदुजातरूपरजतः बायोगाअर्थोपायाः प्रयोगः प्रयोजनानि तैः संप्रयुक्तः संयुतः इतश्चे तश्च विक्षिप्तप्रचुरनक्तपानोबदुदास्यादिपरित्तोबहुजनस्यापरिनूतथासीत् ॥ २॥ ॥ टीका-तस्यांचलेपोनाम गृहपतिः कुटुंबिकथासीत्सचाढयोदीप्तस्तेजस्वी वित्तः सर्वज नविख्यातोविस्तीण विपुलनवनशयनासनयानवाहनाकीणोबदुधनबहुजातरूपरजतः या योगः अर्थोपाया यानपात्रोष्ट्रमंमलिकादयस्तथा प्रयोजनमयोगः प्रायोगिकत्वं तैरायोगप्र योगैः संप्रयुक्तः समन्वितस्तथेतश्चेतश्च विक्षिप्तप्रचुरनक्तपानोबददास्यादिपरिवृतोबहुजन । स्यापरिनूतश्वासीत्तदियता विशेषणकदंबिकेनैहिकगुणाविष्करणेन व्यसंपदनिहिता॥२॥ सेणं लेवे नामं गादावई समणोवासएयावि होना अनिगयजी वाजीवे जाव विहर निग्गंथे पावयणे निस्संकिए निकंखि ए निवितिगि लगिदियछे पुत्रियविणिनिय अनिगिदि यछे अधिमिजा पेमाणुरागरत्त अयमानसो निग्गंथे पावयणे अयं अछे अयं परम सेसे अब सियफलिदे अप्पावय ज्वारे वियत्तंतेनरपवेसे चाग्दसम्मुद्दिपुममासिणीसु पडि पुन्नं पोसहं सम्म अणुपालेमाणे समणे निग्गंथे तदाविहेणं एसणिणं असणपाणं खाश्मसाइमेणं पडिलानेमाणे बददि सीलवयगुणविरमणपच्चरकाणपोसहोववासहिं अप्पाणं नावे माणे एवंचणं विदर॥३॥ अर्थ-हवे एनी नाव संपदा कहियें जैयें. (सेणं के०) ते (लेवेनामंगाहावईसमणो वासएयाविहोबा के०) लेपनामा गृहपति श्रमणोपासक हतो, श्रमण एटले साधु, तेनी जे निरंतर सेवा करे, तेने श्रमणोपासक कहियें. (अनिगयजीवाजीवेजावविहर के०) अनिगत एटले जाण्याळे जीव अनें यजीवना नाव जेणे एवो बतो, यावत् विचरे. हवे तेनुं रूडा प्रकारें सम्यक ज्ञानपणुं कहियें बैयें. (निग्गंथेपावयणेनिस्सं किए के०) जिनशासन प्रवचनने विषे शंकारहित एवो, तथा ( निकं खिए के०) अन्य दर्शनने विषे निराकांद एटले आकांदारहित एवो, तथा ( निवितिगिजे के ) विक्षा न जे ज्ञानी पुरुषो तेनी निंदा एटले जुगुप्सा तेणे करीरहीत ते कारण माटेज (ल Page #989 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रायधनपतसिंघ बादाडुरका जैनागम संग्रह नाग इसरा एय के ० ) प्राप्त था सिद्धांतना अर्थ जेने (गहिय हे के० ) ग्रहण करवाने मोक्षमार्गरूप जे, तथा ( पुयि के० ) विशेष करी पुढचुंबे मोक्षस्वरूप जेणे, तथा (वि यि के० ) निश्चय कस्सोबे सिद्धांतनो अर्थ जेणे, तथा (निग हिय हे के० ) प्रतीत थयो अर्थ जेनें, तथा ( हिमजापेमापुरागरते के० ) प्रेमें करीनें रंगित बेयस्थि मिंजा जेनां, एटले अत्यंत हृदयनें विषे प्रेम जेनें, तथा ( यमानसो के ० ) कोइ एकें स्वधर्म पुढे थके, तेनें ए प्रकारें उत्तर छापे के, हे आयुष्मन् ! (ि rirar के o ) या जिनप्रवचन निस्संशयबे, तथा सत्यले वली (यमहेश्रयं परम के० ) या जैन शासनरूप अर्थ ए परमार्थरूप बे, तथा ( सेसेाहे के० ) अन्य लौकिक सर्व दर्शन ते पुरुषोनां कल्पना करेलांबे. वली तेना गुंणो कहेले. (उ सिफलिहे के० ) स्फाटिक सरखं उज्ज्वलले यश जेनुं, एटले प्रख्यातले यश जेनुं, ए वो, तथा ( अप्पावयवारे के० ) प्रावृत एटले निरंतर उघाडुं रहेबे द्वार जेनुं, ( वियरपवेसे के० ) कोइ एक परतीर्थिक पोताना घरमा यावीने जो स्वधर्म कहे ! तो तेनो प्रतिबंध अनुचरो पण करी न शके, तथा ( चानदसमुद्दिमासि एपी के०) चनदश, खाम्म, पुन्यम एटले चोमासानी त्रण पुन्यम वगेरे पुण्य तिथीयोनें विषे, (पडिपुन्नंपोस हंसम्मं पुपाजेमाणे के० ) परिपूर्ण रूडा प्रकारें पोषधनें पालतो ए वो, (समले नियेत हा विहे एसपिके सपा पंखाइमसाइमे पडिलानेमा के ० ) ते प्रकारना धर्म पालता एवा जे श्रमण ब्राह्मण, तेनें शुद्ध खाहार जसें करी संतोष पमाड तो वो, तथा ( बहुहिंसीलव्यगुण विरमणपञ्चखाए पोस होव वासेहिं के० ) शीन, व्रत, गुण, विरमण, पञ्चखाण, पोषहादिक उपवास, तेणें करीने ( अप्पाजावेमा के ० ) पोताना श्रात्मानें जावना करतो एवो बतो ( एवंचविहरइ के० ) ए प्रकारें धर्म याचरण करतो थको विचरे ॥ ३ ॥ ॥ दीपिका - सलेपोनाम गृहपतिः श्रमणोपासको निगतजीवाजीव इत्यादि । ( निग्गं येति ) या प्रवचने निःशंकितो निःकांदितोऽन्यतमोनिराकांक्षः विचिकित्सा चितव तिर्विकुगुप्सा वा तहितो निर्वि चिकित्सः लव्धार्थोज्ञाततत्वः गृहीतार्थः स्वीकृतमोक्ष मार्गः पृष्टार्थत्वादविनिश्वितार्थः अनिगतः प्रतीतोर्थोयेन सतथा स्थिमिजास्थि मध्यं यावद्धर्मे प्रेमानुरागेण रक्तोऽत्यंतं सम्यक्त्ववासित चित्तइत्यर्थः । केन चि धर्मं ष्टष्टः प्रा ह । श्रयमायुष्मन् ! जैनधर्मोर्थः सत्यः परमार्थरूपशेषः सर्वोप्यनर्थः । ( उसियफ लिह त्ति) उतिं प्रख्यातं स्फटिकवन्निर्मलं यशोयस्य प्रावृतं स्थगितं दारं गृहस्य येन सोऽप्रावृत द्वारः परतीर्थिकोपि गृहं प्रविश्य धर्म यदि वदेत् तदनु न तस्य परिजनोपि सम्य For Private Personal Use Only Page #990 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ए६० दितीये सूत्रकृतांगे द्वितीय श्रुतस्कंधे सप्तमाध्ययनं. क्त्वाचालयितुं शक्यते तन्नीत्या न क्षारप्रदानमित्यर्थः । प्रातिहारी राजांतःपुरेपि प्रवेशोय स्य सतथा कोर्थः? पुरेहि कोपिन प्रवेश्यः तत्राप्यसौ प्रतीतगुणत्वे प्रवेशयोग्यश्त्यर्थः। तथा चतुर्दश्यष्टम्यादिषु तिथिषु उपदिष्टासु महाकल्याणकसंबंधितया पुण्यतिथित्वेन प्रसि वासु तथा पौर्णमासीसु च तिसृष्वपि चतुर्मासकतिथिषु एवंनूतेषु धर्म दिवसेषु सुष्टु थतिश येन प्रतिपूर्ण संपूर्णमाहारशरीरसत्कारब्रह्मचर्याव्यापाररूपं पौषधमनुपालयन तथावि धान् सणान् श्रमणान् एषणीयेन शुधेनाशनादिना प्रतिलानयन् (बहुहिं ) बदुनिः शीलवतगुणविरमणप्रत्याख्यानपोषधोपवासैरात्मानं नावयन् एवं पूर्वोक्तप्रकारेण । च स मुच्चये णं वाक्यालंकारे । विहरति वास्ते ॥ ३ ॥ ॥ टीका-अधुनाऽमुष्मिकगुणावि वेन नावसंपदनिधीयते । (सेणंलेवेइत्यादि ) ण मिति वाक्यालंकारे।सलेपाख्योगृहपतिः श्रमणान साधूनुपास्ते प्रत्यहं सेवतइति श्रमणो पासकस्तदनेन विशेषणेन तस्य जीवादिपदार्थाविनार्वकश्रुतज्ञानसंपदा वेदिता नवत्येत देव दर्शयत्यजिगतजीवाजीवेत्यादिना ग्रंथेन।यावदसहायोपि देवासुरादिनिर्देवगणैरनति क्रमणीयोऽनतिलंघनीयोधर्मादप्रच्यावनीयति यावत् । तदियता विशेषणकलापेन त स्य सम्यक्झानित्वमावेदितं नवति । सांप्रतं तत्तस्य विशिष्टसम्यग्दर्श नित्वमापादयितुमा ह । (निग्गंथेत्यादि) नियंथे आईते प्रवचने निर्गता शंका देशसर्वरूपा यस्य सः निःशंकः तदेव सत्यं निःशंकं यज्जिनैः प्रवेदितमित्येवं कृताध्यवसायस्तथा निर्गता कांदान्यान्यद शनग्रहणरूपा यस्यासौ निराकांस्तथा निर्गता विचिकित्सा चित्तविप्लुतिर्वि कुगुप्सा यस्यासौ निर्वि चिकित्सोयतएवमतोलब्धनपलब्धोर्थः परमार्थरूपोयेन सः लब्धार्थो ज्ञाततत्वश्त्यर्थः। तथा गृहीतः स्वीकृतोर्थोमोदमार्गरूपोयेन सगृहीतार्थस्तथा विशेषतः पृष्टोर्थोयेन सः पृष्टार्थोयतएवमतोविनिश्चितार्थस्ततोनिगतः दृष्टनिर्वचनतः प्रतीतोर्थो येन सोनिगतार्थस्तथाऽस्थिमिंजाऽस्थिमध्यं यावत्सधर्मे प्रेमानुरागेण रक्तोत्यंतसम्यक्त्व वासितांतश्चेताइति यावत् । एतदेवा वि वयन्नाह । (अयमानसोइत्यादि) केनचि मैसर्वस्वं दृष्टः सन्नेतदाचष्टे । तद्यथा जो आयुष्मन्निदं निग्रंथमौनीप्रवचनमर्थः सङ्क तार्थस्तथा प्ररूपणतया तथेदमेवाह । अयमेव परमार्थः कषतापल्लेदैरस्यैव शुभत्वेन नि घटितत्वात् । शेषस्तु सर्वोपि लौकिकतीर्थिकपरिकल्पितोऽनर्थस्तदनेन विशेषणकदंबकेन सम्यक्त्वगुणाविष्करणं कृतं नवति । सांप्रतं तस्यैव सम्यग्दर्शनझानान्यां कृतोयोगुणस्त दाविष्करणायाह । (नसियइत्यादि) नढतं प्रख्यातं स्फटिकवन्निर्मलं यशोयस्यासावुनित स्फटिकः प्रख्यातनिर्मलयशाश्त्यर्थः । तथाऽप्रावृतमस्थगितं वारं गृहमुखं यस्य सोप्रा वृतधारः । इदमुक्तं नवति । गृहं प्रविश्य परतीर्थिकोपि यद्यत्कथयति तदसौ कथयतु Page #991 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राय धनपतसिंघ बादाडुरका जैनागम संग्रह नाग दुसरा. ए६१ न तस्य परिजनोप्यन्यथा नावयितुं सम्यक्त्वाच्यावयितुं शक्यतइति यावत् । तथा राज्ञां वल्ल नांतःपुर द्वारेषु प्रवेष्टुं शीलं यस्य सतथा । इदमुक्तं नवति प्रतिषिद्धान्यजन प्रदेशान्यपि या निस्थानानि नांमागारांतः पुरादीनि तेष्वप्यसौ प्रख्यातः श्रावकाख्यगुणत्वेना स्खलित प्रवेशस्तथा चतुर्दश्यष्टम्यादिषु तिथिषूपदिष्टासु तथा पौर्णमासीसुच तिसृष्वपि चतुर्मा सक तिथिष्वित्यर्थः । एवंभूतेषु धर्म दिवसेषु सुष्टुतिशयेन प्रतिपूर्णेयः पौषधोव्रतानिय हविशेषस्तं प्रतिपूर्णमाहारशरीरसंस्कारब्रह्मचर्या व्यापाररूपं पौषधमनुपालयन् संपूर्ण श्रावकधर्ममनुचरति तदनेन विशेषणकलापेन विशिष्टं देशचारित्रमावेदितं नवति । सां प्रतं तस्यैवोत्तरगुणाख्यापनेन दानधर्ममधिकृत्याह । (समनिग्गंथइत्यादि) सुगमं (या वत्पडिलानेमाणे ति ) सांप्रतं तस्यैव शीलतपोनावनात्मकं धर्ममावेदयन्नाह ( बहूहिमि त्यादि) बहुनिः शीलवतगुण विरमणप्रत्याख्यानपौषधोपवासैस्तथा यथा परिगृहीतैश्च त पःकर्मजिरात्मानं नावयन्नेवं चानंतरोक्तया रीत्या विहरति धर्ममाचरंस्तिष्ठति । च समुच्च ये । मिति वाक्यालंकारे ॥ ३ ॥ तस्स लेवरस गादावइस्स नालंदा बाहिरियाए उत्तर पुरचिमे दिसिनाए एवणं सेसदविया नामं उदगसाला दो गखं सय सन्निविधा पासादीया जावपडिरूवा तिस्से ए सेसदवियाए उदगसालाए उत्तरपुरचिमे दिसिनाए ए दविजामे नामं वणसंमे होचा किस वन वणसंमस्स ॥ ४ ॥ अर्थ - ( तस्स के०) ते लेप नामा गृहपतिनें नालिंदा नामा पाडा थकी, उत्तर पूर्व दिशानें बच्चें, एट ईशान कोणे ( एबसेसद वियानामंचदगसाला होगा के ० ) जि हां तहां घर करावतां जे कांइ पाट पीठिकादिक उपकरण नगखां होय, वधेनां होय एवां उपकरणें करीने निपजावेली एटले करावेली एवी सेसदविया नामें उदकशाला हती वली उदकशाला केवी हती? तोके, (खगखंनसय सन्निविद्या के० ) अनेक स्तंनना रोकडा तेना उपर रहेली, तथा तेणें करी सहित, (पासादीयाजावप डिरूवा के० ) प्रासादवंत, दर्शनीय यावत् प्रतिरूप, ( तिस्से से सद् विया एनद्गसालाएउत्तरपुर बि मेदिसिनाए के ० ) सेदवियानामा उदकशाला थकी ईशान कोणनी दिशायें (एबहबिजा मेनामंव ihar ho) हस्तियाम नामें वनखंम हतो, ( कि सहेव मजेवण संमस्स के० ) ते वन म, काले व हतो, एनुं विशेष वर्णन जेम, श्री नववाई उपांगमां कयुंळे तेम जाणवुं || दीपिका - तस्य जेपस्य गृहपतेः संबंधिनी नालंदायाः पूर्वोत्तरस्यां दिशि शेष‍ १२१ For Private Personal Use Only Page #992 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ए६२ वितीये सूत्रकृतांगे वितीय श्रुतस्कंधे सप्तमाध्ययनं. व्यानाम गृहोपयुक्तशेषड्व्येण कृता उदकशालासीदनेकस्तनशतसन्निविष्टा प्रासादीया यावत्प्रतिरूपा तस्याश्चोत्तरपूर्व दिग्नागे हस्तियामाख्योवनखमासीत्कृमश्त्यादिवर्णकोवन खंमस्य वाच्यः ॥ ४ ॥ ॥ टीका-तस्य चैवंनूतस्य लेपोपासकस्य गृहपतेः संबंधिनी नालंदायाः पूर्वोत्तरस्य दिशि शेषव्या निधाना गृहोपयुक्त शेषव्येण कृता शेषव्ये तदेवानिधानमस्याउदकश लायाः सैवंतासीदनेकस्तंनशतसन्निविष्टा प्रासादीया दर्शनीयानिरूपाप्रतिरूपेति तस्य श्रोत्तरपूर्वदिग्विनागे दस्तियामाख्योवनखमबासीकमावनासइत्यादिवर्णकः ॥ ४ ॥ तम्सिचणं गिदपदेसंमि नगवं गोयमे विहर नगवंचणं अ हे आरामंसि अहेणं गदए पेढालपुत्ते नगवं पासावविजे नि यंठे मेयले गोत्तेणं जेणेव जगवं गोयमे तेणेव ग्यागन इन्वागबत्ता नगवं गोयमं एवं वयासी आनसंतो गोयमा अनि खलु से केश पदे से पुछियत्वे तंचमे आनसो अदास्यं अहादरिसियंमे वियागरेदि सवायं नगवं गोयमे उदय पे ढालपुत्तं एवं वयासी अवियाइ आसो सोच्चा निसम्म जा हिस्सामो सवायं उदए पेढालपुत्ते नगवं गोयम एवं वयासी ॥५॥ अर्थ-हवे (तस्सिंचणंगिहपदेसंमिनगवंगोयमे विहर के० ) ते वनखंझ गृहप्रदेशनें विषे जगवंत श्री गौतमस्वामी विचरे. (जगवंचरांबदेवारामंसि के) जगवंत श्रीगौत मस्वामी साधुना परिवार सहित आराम हेवल रह्या. (अहेणं के०) अथ हवे ए ए वे वाक्यालंकारें. ( उदएपेढालपुत्ते के०) नदकनामें निर्यथ, पेढालनो पुत्र, धने (नग वंपासावविक्रेनियंते के०) श्री पार्श्वनाथना शिष्यनो शिष्य, ( मेयगोत्ते के०) गोत्रे करी मेदायले. ते उदकनिर्मथ, (जेणेवनगवंगोयमेतेणेवनवागढ के० ) ज्यां जग वंत श्रीगौतमस्वामी ले, त्यां आव्यो. (उवागबत्ता के० ) त्यां यावीने (नगवंगोयमं एवंयासी के०) जगवंत श्रीगौतमस्वामी प्रत्यें एवं बोल्या के, (घाउसंतोगोयमा के) अहो आयुष्यमन् गौतम ! मुजनें तमारा समीपें (अनिखलुसेकेश्पदेसे पुलियत्वे के०) निचे ते कोई एक प्रदेश एटले प्रश्न पुनवो. (तंचमेधानसो के०) ते प्रश्न मुजनें, अहो आयुष्यमन् ! (बाहासुयं के) यथाश्रुतं एटले जेम तमे श्रीमहावीर स्वामी पासेंथी सांजव्युं, (अहाद रिसियंमेवियागरेहि के) जेम तमें अवधायुं होय, तेम मु Page #993 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राय धनपतसिंघ बादाउरका जैनागम संग्रह नाग उसरा. ए६३ जनें कहो. ( सवार्यनगवंगोयमेउदयपेढालपुत्तएवंवयासी के० ) हवे नगवंत श्री गौत मस्वामी वादसहित उदकपेढालपुत्र प्रत्यें एवं बोल्या के, (अवियाश्यानसोसोचानिस म्मजाणिस्सामो के०) अपि संनावनायें अहो आयुष्यमन् उदक ? तमारो प्रश्न सां नलीने गुणदोषनी विचारणायें हैयामां सम्यक् रीतें धारण करीनै हुँ जाणीश, तेवी रीतनो प्रश्न यथायोग्य पूडो. (सवायंउदएपेढालपुत्तेनगवंगोयमंएवंवयासी के ) ते वारे ते उदकपेढालपुत्र, वादसहित या प्रकारे जगवंत श्रीगौतमस्वामी प्रत्ये बोल्या.॥५॥ ॥दीपिका-तस्मिन् वनखंमगृहप्रदेशे नगवान् गौतमोविहरति तस्मिन्नारामे स्थितः। अथ उदकारख्योनिग्रंथः पेढालपुत्रः पार्थापत्यस्य पार्श्व शिष्यस्यापत्यं शिष्यः सच मेदा योगोत्रेण (जेणेवत्ति) यस्यां दिशि गौतमस्तत्रागत्येदं प्राह । थायुष्मन् नो गौतम! अस्ति मम कश्चित्प्रदेशः प्रष्टव्यः तं प्रदेशं मम यथाश्रुतं त्वया यथा दर्शितं श्रीवीरेण त था व्यागृणीहि कथय सचायं नगवान् यदिवा सह वादेन सवादं दृष्टस्तमुदकं पेढाल लघुपुत्रमेवमवादीत् । थपिचायुष्मन्नुदक ! श्रुत्वा त्वदीयं प्रथं निशम्य चावधार्य गुणदोष विचारेण सम्यक् ज्ञास्येहं तऽच्यतां विश्रब्धं त्वया स्वानिप्रायः सचायं ससाचंवा उद कः पेढालपुत्रोगौतममेवमवादीत् ॥ ५ ॥ ॥टीका-तस्मिंश्च वनखमप्रदेशे नगवान् गौतमस्वामी श्रीवर्धमानस्वामिगणधरोवित रति । अथानंतरं जगवान् गौतमस्वामी तस्मिन्नारामे सह साधुनिर्व्यवस्थितोऽथानंतरंण मिति वाक्यालंकारे उदकाख्यो निर्यथः पेढालात्रः पार्थापत्यस्य पार्श्वस्वामिशिष्यस्याप त्यं शिष्यः पार्थापत्यीयः सच मेदार्योगोत्रेण । येनैवेति सप्तम्यर्थे तृतीया । यस्यां दिशि य स्मिन्वा प्रदेशे नगवान श्रीगौतमस्वामी तस्यां दिशि तस्मिन्वा प्रदेशे समागत्येदं वक्ष्यमाणं प्रोवाचेति । यत्र नियुक्तिकारोऽध्ययनोबानं तात्पर्यच गाथया दर्शयितुमाह । “पासावगि जो पुहियाइन यङगोयमं नदगो॥ सावगपुन्ना धम्मं सोउ कहियंमि नवसंता" ॥१॥ (पासावविञ्चत्यादि) पार्श्वनाथ शिष्यनदकानिधानथायेगौतमं दृष्टवान् किं तनावकगतं श्रावकविषयं प्रश्नं तद्यथा नो इंश्नूते साधो ! श्रावकाणुव्रतदाने सति स्थूलप्राणातिपाता दिविषये तदन्येषां सूक्ष्मबादराणां प्राणिनामुपघाते सत्यारंनजनिते तदनुमतिप्रत्ययज नितः कर्मबंधः कस्मान्न नवति ? तथा स्थूलप्राणातिपातादि विषये व्रतिनस्तमेव पर्यायां तरगतं व्यापादयतोनागरिकवधनिवृत्तस्य तमेवं बहिस्थं व्यापादयतश्व तद्वतनंगजनि तः कर्मबंधः कस्मान्न नवतीत्येतत्प्रश्नस्योत्तरं गृहपतिचौरग्रहणविमोदणोपमया दत्तवान् तच श्रावकप्रश्नस्यौपम्यं गौतमस्वामिना कथितं श्रुत्वोदकारख्यो निर्यथाउपशांतोपगतसं Page #994 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ए६४ हितीये सूत्रकृतांगे वितीय श्रुतस्कंधे सप्तमाध्ययनं. देहः संवृत्तइति । सांप्रतं सूत्रमनुश्रियते सउदकोगौतस्वामिसमीपं समागत्य नगवंतमिद मवादीत्तद्यथा घायुष्मन्गौतम ! अस्ति मम विद्यते कश्चित्प्रदेशः प्रष्टव्यस्तत्र संदेहात्तंच प्रदेशं यथाश्रुत नगवता यथाच जगवता संदर्शितं तथैव मम व्यागृणीहि प्रतिपादय । ए वं दृष्टः सचायं नगवान् यदिवा सह वादेन सवादं दृष्टः सदादं वा शोनननारती वा प्रश्नं दृष्टस्तमुदकं पेढालपुत्रमेवमवादीत्तद्यथाऽपिचायुष्मन्नुदक! श्रुत्वा नवदीयं प्रश्नं निशम्य चा वधार्यच गुणदोषविचारणतः सम्यगरं झास्ये तउच्यतां विश्रब्धं नवता स्वानिप्रायं सदा चं चोदकः पेढालपुत्रोनगवंतं गौतममेवमवादीत् ॥ ५ ॥ आनसो गोयमा अवि खलु कुमारपुत्तिया नाम समणा निग्गं था तुम्हाणं पवयणं पवयमाणा गाहावई समणोवासगं नवसंपन्नं एवं पच्चरकावेंति एमब अनिएणं गादावश्चोरग्गहणविमो कणयाए तसहिं पाणेहिं णिहाय दंमं एवंएहं पच्चरकंताणं उप्प चरकायं नव एवंण्डं पच्चरकावेमाणाणं उपच्चरकावियई नव एवं ते परं पञ्चकावेमाणा अतियरंति सयं पत्तिणं कस्सणं तं दे सां सारिया खल पाणा थावरावि पाणा तसत्ताए पच्चायंति तसावि पाणा थावरत्ताए पञ्चायंति थावरकायान विप्पमच्चमाणा तसका यंसि नववऊंति तसकाया विष्पमुच्चमाणा थावरकायंसि उववऊं ति तेसिंचणं थावरकायंसि नववमाणं घाणमयं घत्तं ॥६॥ अर्थ-(आउलोगोयमा के०) अहो आयुष्यमन् गौतम ! (अबिखलुकुमारपुत्तियाना मंसमणानिग्गंथा के०) निश्चें कुमारपुत्र एवे नामें, श्रमण निर्यथडे. (तुम्हाणंपवयणंपव यमाणा के०) ते तमारु प्रवचन बोलतां प्ररूपतां, (गाहावसमगोवासगंनवसंपन्नए वंपञ्चरकावेंति के ) गृहपति श्रमणोपासकनियमोद्युक्तनें भावी रीतें पञ्चरकाण करावे ते कहेले के, जेमां त्रसप्राणीयोनो दंम, एटले विनाश, तेनो त्याग करे, ए रीतें प्राणाति पातनी विरति करावे. (णमयनिएणं के०) तथा राजादिकनें अनियोगें जे प्रा णीनो उपघात थाय, ते टालीने अन्यनी विरति करावे. तो ए रीतें स्थूलप्राणातिपात नी विरति कहेतां थकां, अन्य जीवनें उपघातनी अनुमतिनो दोष लागे ? ए रीते शं का जाणीने कहेले. (गाहावश्चोरग्गहण विमोरकणयाए के० ) गृहपति ग्रहण मोद ने बर्थं, एटले मूकाववाने अर्थे, एनो विशेष अर्थ बागल कहेशे. एतावता श्री वीरना शासनने विषे श्रावकनें अधिकारें (तसे हिंपाहिणिहायदं के ) त्रसप्राणी Page #995 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रायधनपतसिंघ बादाडुरका जैनागम संग्रह नाग इसरा. ६ ना मनो निषेध को तेने उदक पोताना व्यनिप्रायें करी दूषवेडे. ( एवं सहं पञ्च रकंताणंडुपञ्चरकार्यनवइ के० ) हो गौतम ! ण एवे वाक्यालंकारे ए रीतें त्रसप्रा लीना दंमनो निषेध करीनें पञ्चरकाण करतां दुष्ट प्रत्याख्यान थाय ( एवं एहंप चरकावेमा पाडुपञ्चरका वियद्यनवइ के० ) एम पच्चरकाण करावनारनें पण, डुष्ट प्र व्याख्यान कराव्युं, एम थाय. ते कहेबे ( एवंतेपरं पञ्चरका वेमाला के० ) ए रीतें ते पञ्चरका करनार श्रावक, पर्ने पञ्चरकाण करावनार साधु बेडु, ( सयंपत्ति के० ) पोतानी प्रतिज्ञानें ( प्रतियरंति के० ) उल्लंघन करेबे, एतावता व्रतनंग करेले . ( क तं देवं के०) ते केवा हेतु थकी प्रतिज्ञा जंग थाय? ते प्रतिज्ञा जंगनुं कारण कहे ( सांसारियाखनुपाणा के० ) नि संसारी जीव, ( थावरा विपाणा के ० ) जे पृथ्वी, अप्, तेन, वायु, वनस्पति रूप स्थावर जीव ते पण (तसत्ताएपञ्चायंति के ० ) तेवा कर्मना दथक त्रस पणे उपजे, ( तसा विषाणायावरत्ताएपञ्चायंति के०) तथा त्रस जे बेइिं यादिक जीवोबे ते पण स्थावर पणे उपजे, (थावर कायाविप्प मुच्चमाणात सकार्य सिनवव ऊंति के ० ) स्थावरनी कायथकी मूकारणा सकायनें विषे उपजे. (तसकायाविप्पमुच्च मालाश्रावर कार्य सिचववर्द्धति के० ) सकाय थकी मूकाला थका स्थावरकायने विषे उप जे कामाटें (ते सिंचथावर कार्यं सिडववाणं के० ) त्रसजीव स्थावरकाय मांहे जे वारे उपना, तेवा (ठाणमेयंधत्तं के० ) ते स्थानक त्रसकायनुं दणाणुं ए कारण मा टें प्रतिज्ञानंग थाय. जेम कोइ एके एवी प्रतिज्ञा करी जे महारे नागरीक पुरुष हणवो नहीं. ने पढ़ी तेज नागरीक पुरुष कोई धारामादिकने विषे बेठो होय, त्यां तेने ह तो तेन प्रतिज्ञानंग न थाय ? अपितु थायज तेम खंहीं पण त्रसजीवना घातनी निवृत्ति करी, खनें स्थावर जीवना घातनी निवृत्ति नथी करी तो, जे वारें सजीव स्थावर मांहे यावी उपजे तेवारे तेथे ते त्रसजीवज विणाश्या, एम करतां प्रतिज्ञानो नंग थयो ॥ ६ ॥ ॥ दीपिका - नो गौतम ! यति संति कुमारपुत्रानाम निर्यथा युष्मदीयं प्रवचनं प्रवदंतः । तथाहि गृहपतिं श्रमणोपासकं उपसंपन्न नियमग्रहणोद्यतं प्रत्याख्यापर्यंत प्रत्याख्यानं कारयति तद्यथा । त्रसेषु दंमं हिंसां निहाय त्यक्त्वा प्राणातिपातनिवृत्ति कुर्वेति ( एम बे ति ) नान्यत्र स्वमतेरन्यत्र राजाद्य नियोगेन यः प्राणिघातोन तत्र निवृत्तिरिति तत्र स्थूल प्राणिविशेषणात्तदन्येषां जीवानां हिंसातु मतिदोषः स्यादित्याशंकावान् प्राह । ( गाहा वइचोरति ) यस्यार्थोऽये नावयिष्यते ( एवं एहति) उदकवाह । एहमिति वाक्यानं कारे । एवं प्रत्याख्यानं कुर्वतां श्राद्धानां दुःखप्रत्याख्यातं नवति प्रत्याख्यानजंगसद्भावा Page #996 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ए६६ तिीये सूत्रकृतांगे वितीय श्रुतस्कंधे सप्तमाध्ययनं. तथा एवं प्रत्याख्यापयतां प्रत्याख्यानं कारयतां साधूनां उष्टं प्रत्याख्यानदानं नवति एवं प्रत्याख्यानं कुर्वतः कारयंतश्च स्वां प्रतिज्ञामतिचरंत्यतिलंघयंति (कस्सणंतंहेनं ) कस्मा तोरित्यर्थः। प्रतिझानंगकारणमाह । (संसारियाइत्यादि) सांसारिकाः खलु प्राणिनः स्था वराअपिप्राणिनस्त्रसतया प्रत्यायांति त्रसाश्च स्थावरत्वेनेति । एवंसति प्रतिझालोपः स्यात् यथा नागरिकोन हंतव्यति प्रतिज्ञा येन कता सयदि उद्यानस्थं नागरिकं हन्यातदा त स्य किं प्रतिज्ञालोपोन स्यात् ? एवमत्रापि येन त्रसवधनिवृत्तिः कृता स यदि तमेव त्रसंस्था वरकायस्थितं हंति तदा तस्य किं न नवेत्प्रतिझालोपः? नवत्येवेत्यर्थः। त्रसकायान्मुच्यमा नाः स्थावरकाये नत्पद्यते स्थावरकायान्मुच्यमानाश्च त्रसकाये नच किंचिल्लिंगमस्ति येन झायतेऽयं त्रसोऽनूत्पूर्व स्थावरोवेति (तेसिंचणं) तेषां त्रसानां स्थावरकाये नत्पन्नानां श्रावस्यारंनवतः स्थानमिदं स्थावराख्यं घात्यं स्यात् ॥ ६ ॥ ॥ टीका-तद्यथा नो गौतम ! अस्तीत्ययं विनक्तिप्रतिरूपकोनिपातइति बव्हर्थवृत्तिही तस्ततश्चायमर्थः । संति विद्यते कुमारपुत्रानाम निZथायुष्मदीयं प्रवचनं वदंतस्तद्यथा गृह पति श्रमणोपासकमुपसंपन्न नियमायोस्थितमेव प्रत्याख्यापयंति प्रत्याख्यानं कारयंति। त यथा स्थूलेषु प्राणिषु दंमयतीतिदंमः प्राण्युपमर्दस्त निहाय परित्यज्य प्राणातिपातनिट त्तिं कुर्वति।तामेवापवदति।नान्यत्रेति।स्वमनीषिकायायन्यत्र राजाद्यनियोगेन यः प्राण्युप पघातोन तत्र निवृत्तिरिति । तत्र किल स्थूलप्राणिविशेषणात्तदन्येषामनुमतिप्रत्ययदोषः स्यादित्याशंकावानाह । (गाहावइत्यादि) अस्य चार्थमुत्तरत्रावि वायिष्यामः। येनानिप्रा येणोदकश्चोदितवांस्तमा विष्कुर्वन्नाह (एवंएहमित्यादिः) एहमिति वाक्यालंकारे अवधार ऐवा। एवमेव त्रसप्राणिविशेषत्वेनापरसूत्रसंनूत विशेषणरहितत्वेन प्रत्याख्यानं गृएहता श्रावकाणां कुष्प्रत्याख्यानं नवति प्रत्याख्याननंगसनावात्तथैवमेव प्रत्याख्यापयतामपि साधूनां उष्टं प्रत्याख्यानदानं नवति । किमित्यतयाह । एवं ते श्रावकाः प्रत्याख्यानं गृ हंतः साधवश्व परं प्रत्याख्यापर्यतः स्वां प्रतिझामतिचरंत्यतिलंघयंति (कस्सणंहेनति) प्रारुतशैल्या कस्माइतोरित्यर्थः। तत्र प्रतिज्ञानंगकारणमाह । (सांसारियाइत्यादि) संसा रोविद्यते येषां ते सांसारिकाः। खलुरलंकारे।प्राणिनोजंतवः स्थावराः प्राणिनः दृथिव्यप्ते जोवायुवनस्पतयः संतोपि तथाविधकोदयात्रसतया त्रसत्वेन दीडियादिनावे प्रत्यायां त्युत्पद्यते तथा सायपि स्थावरतयेत्येवं च परस्परगमने व्यवस्थितेत्यवश्यं नावी प्रतिज्ञाविलोपः। तथाहि । नागरिकोमया न हंतव्यइत्येवंनता येन प्रतिज्ञा गृहीता सयदा बहिरारामादौ व्यवस्थितं नागरिकं व्यापादयेत्किमेतावता तस्य न नवेत्प्रतिझाविलोपः ? एवमत्रापि येन त्रसवधनिवृत्तिः कृता सयदातमेव त्रसं प्राणिनं स्थावरकायस्थितं व्या Page #997 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राय धनपतसिंघ बादाउरका जैनागम संग्रह नाग उसरा. ए पादयेत्किं तस्य न नवेत्प्रतिझाविलोपः? नवेदेवेत्यर्थः । एवमपि त्रसस्थावरकाये समुत्प नानां त्रसानां यदि तथानूतं किंचिदसाधारणंलिंगं स्यात्ततस्ते त्रसाः स्थावरत्वेनाप्युत्प नाः शक्यंते परिदतु नच तदस्तीत्येतदर्शयितुमाह । (थावरकाया-इत्यादि ) स्थावरका यात्सकाशादिविधमनेकैः प्रकारैः प्रकर्षण मुच्यमानाः स्थावरकायायुषा तद्योग्यैश्चापरैः कर्मनिः सर्वात्मना त्रसकाये समुत्पद्यते तथा त्रसकायादपि सर्वात्मना विमुच्यमानास्त कर्मनिः स्थावरकायें समुत्पद्यते तत्र चोत्पन्नानां तथानूतत्रसलिंगानावात्प्रतिज्ञालोप इत्येतत्सूत्रेणैव दर्शयितुमाह । (तेसिंचणमित्यादि ) तेषां त्रसानां स्थावरकाये समुत्प नानां गृहीतत्रसप्राणातिपातविरतेः श्रावकस्याप्यारंनप्रवृत्तत्वेनैतत्स्थावराख्यं घात्यं स्थानं नवति तस्मादनिवृत्तत्वात्तस्येति ॥ ६ ॥ एवंएह पञ्चकंताणं सुपच्चरकायं नव एवंण्ह पच्चरकावेमाणा णं सुपच्चखावियं नव एवं ते परं पञ्चकावेमाणा पातियरं ति सयं पश्यं णमब अनिनगेणं गादावश्चोरेग्गदणवि मोकणया तसनूएहिं पाणेहिं णिहाय दंम एवमेव सरना साए परकमे विङमाणे जे ते कोदावा लोहावा परं पञ्चरकावेति अयंपि णो न्वएसे णो णेआनए नव अवियाई आनसो गोयमा तुम्नपि एवं रोय ॥७॥ अर्थ-दवे नदक पोताना अनिप्रायें जेम प्रतिज्ञा नंग न होय, तेम कहेले. (एवं एहंपच्चरकंताणं के० ) के जेम ढुं कढुंबु तेम पञ्चखाण करतां (सुपञ्चरकायंनव के०) रूडु पञ्चरकाण थाय (एवंएहंपच्चरकावेमाणाणं के०) एम पञ्चरकाण करावतां थकां (सुपच्चरका वियंनव के०) रूडु पञ्चरकाण कराव्यु एम थाय (एवंतेपरंपच्चरकावेमाणा के०) ए रीते ते श्रावक पञ्चरकाण करता थकां अनें साधुए पञ्चरकाण करावतां थकां (णा तियरंतिसयंपाक के०) पोतानी प्रतिझार्नु उल्लंघन न करे केवी रीतें उल्लंघन न क रे? ते कळे. (णमयनिगेणंगाहावश्चोरग्गहणविमोरकणया के० ) जे गृह पति एवी रीतें पच्चरकाण करे के राजादिकना अनियोग यकी अन्य चोरग्रहण चो रीकरी ग्रह्यो ते मोक्षणने न्यायें ए पण युक्त परंतु, (तसनूएहिंपाणे हिंणिहायद के) त्रस नूत प्राणीनो विनाश नहीं करूं, एटले एनो युं अर्थ ? तो के, जूत शब्दनुं विशे षण अधिक कहिये तो पञ्चरकाण न नांगे ज्यां सुधी ते त्रसजीव त्रसनें रूपेले, त्यां सु धीन हणवो, जेम कोइ एकने उधनी विगयनो पञ्चरकाण्डे तेनें दधिने जमवे करी दो Page #998 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ए६ द्वितीये सूत्रकृतांगे द्वितीय श्रुतस्कंधे सप्तमाध्ययनं प नथी, तेम प्रसनूत सत्व, हावा नही एवी प्रतिज्ञाना करनारने स्थावरनें हवा थकी, पञ्चरकाणनो जंग न थाय. (एवमेवसनासाएपरक्कम्मे के० ) तो जुओो ? के ; एनें एवं नाषानुं पराक्रम ( विक्रमाणे के० ) विद्यमान बते सने स्थानकें त्रसनूत ए वी भाषानें बोलतां (जेते के० ) जे कोइ साधु (कोहावालोदावापरंपच्च रकावें ति के० ) क्रोध थकी, अथवा लोन थकी, परनें एटले बीजानें नूत शब्द टाली त्रस जीवनो प चरकाण करावे, तो तेनें मृषावाद लागे, ने एवा पञ्चरकालना बेनारनें अवश्य निश्वें व्रतजंग थाय ( पिलो नव एसे किं लोले खानएनवइ के० ) ए रीतें जोतां, ए उपदेश तो नथी, ए न्याय मार्ग नथी, हुं एम जाणुबुं माटें (विया इंयानलोगोयमा के० ) पिसंभावनायें हो यायुष्यमन् गौतम ! (तुनं पिएवंरोय के ० ) तमनें पण हुं हुं बुं वात रूचे एवढे. ए वात वखाणवा योग्यते ॥ ७ ॥ || दीपिका - एवं नागरिकदृष्टांतेन त्रसमेव घ्नतः प्रतिज्ञालोपः स्यात् । उदकः पुनः स्वानिप्रायमाह । एवं प्रत्याख्यानं कुर्वतां सुप्रत्याख्यातं नवति एवं प्रत्याख्यापयतांच त देव । एवं प्रत्याख्यानं कुर्वतां कारयतांच न स्वप्रतिज्ञालोपः । यथा ( एम बेत्यादि ) एवं गृ हस्यः प्रत्याख्याति त्रसनूतेषु वर्तमानकाले त्रसत्वेनोत्पन्नेषु प्राणिषु दं वधं निहाय त्यक्त्वा प्रत्याख्यानं करोति । तदिह नूतत्व विशेषणात् स्थावरपर्यायप्राप्तस्य वधेपि न प्र तिज्ञालोपः नान्यत्रा नियोगेन राजाद्य नियोगादन्यत्र प्रत्याख्यानं गृहपतिचौर विमोक्षण तयेति सम्यगुक्तं । तस्माद्भूतत्वा विशेषणांगीकारे यथा दीर विकृतिप्रत्याख्यायिनोद धिन ६ पि न प्रतिज्ञानंगः तथा त्रसनूतान दंतव्याइति प्रतिज्ञावतः स्थावर हिंसायामपि न प्रत्याख्यानातिचारः । एवं विद्यमाने सति भाषायाः प्रत्याख्यानवाचः पराक्रमे नूता विशेष दोषपरिहारसामर्थ्यं । एवं दोषपरिहारोपाये सति केचन क्रोधादा लोना हा श्रावकं नि विशेषणमेव प्रत्याख्यापर्यंति तेषां मृषावादः स्यात् गृह्णतांच व्रतलोपः । तदेवम्यमपि dietristarरः किं भवतां नो नैयायिकोन्यायोपपन्नोजवति अपिवायुष्मन्जौतम ! एषपस्तुच्यमपि रोचते ॥ ७ ॥ ॥ टीका - तदेवं व्यवस्थिते नागरिकदृष्टांतेन त्रसमेव स्थावरत्वेनायातं व्यापादयंतोऽवं इयंनावी प्रतिज्ञाविलोपोयतस्ततएवं मदुक्तया वक्ष्यमाणनीत्या प्रत्याख्यानं कुर्वता सुप्र व्याख्यातं नवत्येवंच ते प्रत्याख्यापयंतोनातिचरंति स्वीयां प्रतिज्ञामित्येतद्दर्शयितुमाह । ( बेत्यादि ) तत्र गृहपतिः प्रत्याख्यानमेवं गृहाति तद्यथा त्रसनूतेषु वर्तमानका सत्वेनोत्पन्नेषु प्राणिषु दंमयतीतिदंमः प्राप्युपमर्दस्तं विहाय परित्यज्य प्रत्याख्यानं For Private Personal Use Only Page #999 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राय धनपतसिंघ बाहाउरका जैनागम संग्रह नाग उसराः एहए करोति तदिह नूतत्वविशेषणात्स्थावरपर्यायापन्नवधेपि न प्रतिज्ञाविलोपः । तथा त्रसनू ताः सत्वान हंतव्याश्त्येवं प्रतिज्ञावंतः स्थावर हिंसायामपि तत्प्रत्याख्यानातिचारः। त देवं विद्यमाने सति नाषायाः प्रत्याख्यानवाचः पराक्रमे नूतविशेषणादोषपरिहारसामर्थ्य एवं पूर्वोक्तया नीत्या सति दोषपरिहरणोपाये ते केचन क्रोधादलोनाक्षा परं श्रावकादि कं निर्विशेषणमेव प्रत्याख्यापयंति तेषां प्रत्याख्यानं ददतां मृषावादोनवति गृह्नतां चा वश्यंनावी व्रतविलोपइति। तदेवमयमपि नोऽस्मदीयोपदेशोन्युपगमोनूतत्व विशेषणविशि ष्टः पदः किं नवतां नो नैव नैयायिकोन्यायोपपन्नोनवतीदमुक्तं नवति नूतत्व विशेषणेन हि त्रसान स्थावरोत्पन्नान हिंसतोपि न प्रतिज्ञातिचारइत्यपि चैतदायुष्मन गौतम ! ।तु ज्यमपि रोचते ॥ ७ ॥ सवायं नगवं गोयमे उदयं पेढालपुत्तं एवं वयासी संतो नदगा नो खलु अम्दे एवं रोयजे ते समणावा माहणावा ए वमाश्कंति जाव परूवेति णो खल ते समणा वा णिग्गंथावा नासं नासंति अणुतावियं खलु ते नासं नासंति अप्नाश्कंति खलु ते समणे समणोवासएवा जेहिंवि अन्नहिं जीवहिं पाणेदिं नूएदि सत्तेहिं संजमयंति ताणविते अप्नाश्कंति कस्सणं तं दे सांसारिया खलु पाणा तसावि पाणा यावरत्ताए पञ्चायति थावरावि पाणा तसत्ताए पञ्चायति तसकायान विष्णमुच्चमाणा थावरकायंसि ग्ववऊंति थावरकाया विप्पमुच्चमाणा तसकायं सि नववऊंति तेसिंचणं तसकायंसि नववन्नाणं गणमेयं अघत्तं ॥॥ अर्थ-ए प्रकारे कहे बते, (सवार्यनगवंगोयमेनदयंपेढालपुत्तएवंवयासी के० ) वादें स हित नगवान् श्री गौतम, या प्रकारें उदक पेढालपुत्र प्रत्ये बोल्या के, (आउसंतोनदगा नोखलुअम्हेएवंरोय के०) अहो आयुष्यमन् उदक ! ए जे तें वचन कह्यांने ते नि श्वेथी थमने रुचतां नथी, (जेतेसमणावामाहणावाएवमाइस्कंति के०)जे ते श्रमण, ब्रा ह्मण, नूत शब्द घालीने त्रसजीवनो पञ्चरकाण करियें एम कहे, (जावपरूति के०) यावत् प्ररूपे, (गोखलुतेसमणावाणिग्गंथावा के०) निचे ते श्रमण नियंथ न होय का रण के, (नासंनासंति के०) ते एवी निरति नाषा बोले (अणुतावियंखलुतेनासंनासं ति के०) जे अन्यनुं अन्य प्ररूपतां एटले एकनुं बीजुं प्ररूपतां सांजलनारनें केवल थ १२२ Page #1000 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (ए वितीये सूत्रकृतांगे वितीय श्रुतस्कंधे सप्तमाध्ययनं. नुताप उपजे, ते कारणे निश्चे ते अनुतापित नाषा बोलेले. (अप्नाइस्कतिख लुतेसमगसमणोवासएवा के०) निश्चे ते श्रमण ब्राह्मण, साधुनें, तथा श्रमणोपा कनें, अन्याख्यान आपे, एटले जूठो कलंक आपे, (जेहिंविअन्नेहिं के ० ) तथा जे बी जा पण, (जीवे हिंपाणेहिंनए हिंसत्तेहिंसंजमयंति के ) जीव, प्राण, नूत, अनें सत्वनें विषे जे संयम पाले, (ताणवि के०) ते पण ( तेअप्नाश्कंति के०) तेने अन्याख्यान जा एवं (कस्सणंतंहेनं के०) तेनो हेतु गुं? ते कहेजे. ( सांसारियाखलुपाणा के ) जे कारण माटें निचे संसारी जीव जे ते परस्पर जाति माहो मांहे संक्रमे, त्रस जीव विणशीने स्थावर पणे उपजे, अनें स्थावर प्राणी विणशीनें, त्रसपणे नपजे, तथा त्रसकाय सर्वथा त्रसनुयायुष्य त्यागीने स्थावरकाय मांहे उपजे, अनें स्थावरजीव सर्वथापि स्थावरनुं आयुष्कर्म त्यागीने त्रसकायने विषे नपजे, ते त्रसकायनें विषे उप ना त्रसकायतुं स्थानक ए अघात्य एटले घातवानुं कर्म लागे नहीं. जे कारण माटें ते श्रावकें त्रसजीव उद्देशीने स्थूलप्राणातिपातनो विरमण कस्योडे अनें स्थावरकायने वि पे अविर तिने ए कारण माटें व्रतनंग न कहेवाय परंतु जे, तमारे अनिप्रायें जुदा जु दा जीव नद्देशीने प्राणातिपातनी निवृत्ति कीधी, ते कीधे बते अन्य पर्यायें पहोता एवा जीवनी विराधना करतां व्रतनंग थाय, तो कोइनें पण सम्यक् व्रतनुं पालतुं देखातुं न थी. ए कारणे तमे अन्याख्यान नाषा बोलोडो, तथा यहीं नूतशब्दनुं ग्रहण करोडो, ते पण निःकेवल व्यामोहनें अर्थेजले. जे कारण माटें नूतशब्द उपमायें प्रवर्नेले, जेम देवलोकनूत नगर, परं नतु देवलोकः तेम अहींयां तमे पण वक्तव्यतायें त्रसनूत केतां त्रस सरखा जीव जाणवा परंनतु त्रस, अथवा जे नूतशब्द तदर्थवाची वर्तेने जेम शी तनूत नदक केतां शीतलजलज जाणवू. तेम त्रसनूत केतांत्रसज केवाय. अहींयां नू तशब्द केतां पुनरोक्ति दोष. एम श्री गौतमस्वामियें नूतशब्दनुं निराकरण कां ॥७॥ ॥ दीपिका-सवादं नगवान् गौतमस्तं उदकं पेढालपुत्रमेवमवादीत् । आयुष्मन्नुदक ! नो खलु अस्मन्यमेतशेचते यदिदं त्रसकायविरतौ नूतत्व विशेषणं तदस्मन्यं न रोचतइत्य र्थः। एवंसति ये श्रमणावा ब्राह्मणावा एवमाख्याति ते यथार्थी नाषां न नाते किंतु? अनुतापिनीनाषां नाते अन्यथा नाषणेहि परस्यानुतापोनवति तेऽन्याख्याति श्रमणो पासकान सजूतदोषप्रकटनेनान्याख्यानं ददते (जेहिंति ) येष्वपि अन्येषु जीवेषु ये सं यमयंति संयमं कुवैति तथा ब्राह्मणामया न तव्याश्त्युक्ते सयदा वर्णातरे तिर्य वा स्थितस्त क्षधे ब्राह्मणवधयापद्यते नूतशब्दविशेषणानावात् । एवं सूकरादिर्न हंतव्य त्यादि विशेषव्रतानि तेऽज्याख्याति दूषयंति कस्मातोः? यस्मात्सांसारिकाः प्राणास्त्रसाः Page #1001 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रायधनपतसिंघ बाहादुरका जैनागम संग्रह नाग दुसरा. ugl स्थावरत्वेन स्थावरास्त्रसत्वेन प्रत्यायांति त्रसकायात्तदायुष्केन मुच्यमानाः स्थावरकाये स्थावरकायाच्च तद्योग्यकर्मणा मुच्यमानास्त्रसकाये उत्पद्यंते तेषां त्रसकाये समुत्पन्नानां स्थानमेतत्रसकायाख्यमघात्यं अघातार्ह नवति स्थूलप्राणिघातान्निवृत्तः श्राद्धः तन्निवृ त्याच त्रसस्थानमघात्यं स्यात् तस्य तीव्राध्यवसायोत्पादकत्वाल्लोकगर्हितत्वाच्च स्थावर कायाञ्चानिवृत्तइति तत्स्थानमस्य घात्यमित्युदकप्राह ॥ ८ ॥ ॥ टीका - एवमेतद्यथा मया व्याख्यातमनिहितो गौतमः सधाचं सवादं वा तमुदकं पे ढालपुत्रमेवं वक्ष्यमाणमवादीत् तद्यथा । नो खल्वायुष्मन्नुदकास्मच्यमेतदेवं तद्यथा त्वयो च्यते तोचतइति । इदमुक्तं नवति यदिदं सकायविरतौ नूतत्वविशेषणं क्रियते तन्नि रकतयास्मभ्यं न रोचतइति । तदेवं व्यवस्थिते जो उदक ! एते श्रमणाब्राह्मणावा एवं नू तशब्द विशेषणत्वेन प्रत्याख्यानमाचते । तद्यथा । परैः पृष्टास्तथैवं भाषते प्रत्याख्यानं स्व तः कुर्वतः कारयंतश्चैवमिति सविशेषणं प्रत्याख्यानं जावंते तथैवमेव सविशेषणप्रत्या ख्यानरूपणावसरे सामान्येन प्ररूपर्यंतं एवंच प्ररूपतोन खलु ते श्रमणावा निर्यथावा व्य श्रीषां जातेऽपि त्वनुतापयतीत्यनुतापिका तां तथाभूतां च खलु ते भाषां नापते अन्यथा नापणे ह्यपरेण जानता बोधितस्य सतोनुतापोनवतीत्य तो नुतापिकेत्युच्यतइति । पुनरपि तेषां सविशेषणप्रत्याख्यानवता मुल्बणदोषो द्विनावविषयाह । ( नाइस्कंतीत्यादि ) ते हि सविशेषणप्रत्याख्यानवादिनोयथावस्थितं प्रत्याख्यानं ददतः साधून् गृएहुतश्च श्रम गोपासकान ज्याख्यात्यनूत दोषोनावनतोऽन्याख्यानं ददति । किंचान्यत् । ( जेहिंवीत्यादि) ratory प्राणिनूतेषु जीवेषु सत्वेषु विषयभूतेषु विशिष्य ये संयमं कुर्वति संयमयं ति । तद्यथा ब्राह्मणोन मया दंतव्य इत्युक्ते सयदा वर्षांतरे तिर्यक्कुवा व्यवस्थितोभवति त ६ ब्राह्मणवाद्यते नूतशब्द विशेषणात् तदेवं तान्यपि विशेषव्रतानि सुकरोमया न हं तव्यइत्येवमादीनि विशेषणवादिनोऽन्याख्यांति दूषयंति । किमित्यतश्राह । (कस्स एा मित्या दि) कस्मादेतोस्त दस तं दूषणं भवतीति यस्मात्सांसारिकाः खलु प्राणाः परस्परजातिसंक मणनाजोयतस्ततस्त्रसाः प्राणिनः स्थावरत्वेन प्रत्यायांति स्थावराश्व त्रसत्वेनेति । त्रसका याच्च सर्वात्मना सायुष्कं परित्यज्य स्थावरकाये तद्योग्यकर्मोपादानात्पद्यते तथा स्थाव कायाच्च तदायुष्कादिना कर्मणा विमुच्यमानास्त्र सकाये समुत्पद्यंते तेषांच त्रकाये स मुत्पन्नानां स्थानमेतत्र सकायाख्यमघात्यमघ । तार्ह नवति । तस्मात्तेन श्रावके त्रसानुद्दि श्य स्थूलप्राणातिपात विरमणं कृतं तस्य तीव्राध्यवसायोत्पादकत्वाल्लोकगर्हितत्वाच्चेति । तत्रासौ स्थूलप्राणातिपातान्निवृत्तस्तन्निवृत्त्याच त्रसस्थानमघात्यं वर्तते स्थावरकायाच्चा निवृत्तइति तद्योग्यतया तत्स्थानं घात्यमिति । तदेवं सनवदनिप्रायेण विशिष्टसत्वोदेशे For Private Personal Use Only Page #1002 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ‍ द्वितीये सूत्रकृतांगे द्वितीय श्रुतस्कंधे सप्तमाध्ययनं. नापि प्राणातिपातनिवृत्तौ कतायामपरपर्यायापन्नं प्राणिनं व्यापादयतोव्रतचंगोनवति त तश्व न कस्यचिदपि सम्यग्व्रतपालनं स्यादित्येवमाख्यातमनूतदोषोनावनं नवंतोददति । यदपि नवनिर्वर्तमानकालं विशेषणत्वेन किलायं नूतशब्द उपादीयतेऽसावपि व्यामोहाय केवलमुपतिष्ठते । तथाहि । नूतशब्दोयमुपमाने वर्तते । तद्यथा देवलोकनूतं नगरमिदं न देवलोकएव तथापि त्रसनूतानां ससदृशानामेव प्राणातिपातनिवृत्तिः कृता स्यान्न सानामित्यथ तादर्थ्ये नूतशब्दोयं यथा शीतीभूतमुदकं शीतमित्यर्थः । एवं सनू तास्त्रसत्वं प्राप्तास्तथा च सति त्रसशब्देनैव गतार्थत्वात्पौनरुक्त्यं स्यादथैवमपि स्थिते नूत शब्दोपादानं क्रियते तथा च सत्यतिप्रसंगः स्यात् । तथाहि । हीरनूत विकृतेः प्रत्याख्यानं करोम्येवं घृतनूतं मे ददस्वैवं घटनूतः पटनूतइत्येवमादावप्यायोज्यमिति ॥ ८ ॥ सवायं नदए पेढालपुत्ते नगवं गोयमं एवं वयासी कयरे खलु ते संतो गोयमा तुने वयह तसपाणा तसा न अन्नदा सवा यं भगवं गोयमे नदयं पेढालपुत्तं एवं वयासी आनसंतो नदगा जे तुने वयद तसनूता पाणा तसा ते वयं वयामो तसा पाणा जे वयं वयामो तसा पाणा ते तुने वयह तसनूया पाणा एए संति sवेक्षणातुल्ला एगडा किमानसो इमे ने सुप्पणीयतराए नव इतसनूया पाणा तसा इमे ने डुप्पणीयतराए नवइ तसा पाणा तसा ततो गमानसो पडिकोसद एवं अनिणंदद अयंपि नेदो से णो प्रान नवइ ॥ ए ॥ अर्थ- हवे वाद सहित नदकपेढाल पुत्र, जगवंत श्री गौतमस्वामि प्रत्यें बोल्यो के, हो घायुष्यमन् गौतम ! ( तुझे के०) तमे ( कयरे के ० ) प्राणीनें केवा (वयह के०) कहोबो ? ए टले (तसपपासा के ० ) त्रसप्राणीज जे होय तेनेंज त्रस कहोबो ( खान के ० ) अथ ar (अन्ना के ० ) कोइ बीजे प्रकारें कहोठो ? एम पुढचा थका जगवंत श्री गौतमस्वामी वादसहित उदयपेढाल पुत्र प्रत्यें बोल्या के, अहो श्रायुष्यमन् उदक ! जे तमें कहो ढोके, सनूत प्राणी त्रस एटले प्रतीत घनें अनागतनो निषेध करी, तमें वर्त्तमान काजज लीधो, ए कारण माटें जेनें तमें त्रसनूतप्राणी त्रस कहोटो, तेनें घमे सप्राणी त्रस कहियें यें, (एएसं तिडवेठाणातुना के० ) ए वे स्थानक प्रमारी तमारी वक्तव्य तायें परमार्थतो, ( एगहा के०) एकार्थ एटले सरखांजले, एमां अर्थ नेद कांही नयी (किमाचसोइमेने सुप्प एीयतराएजवइ के० ) तो केवी रीतें हो यायुष्यमन् ! ए तमारो For Private Personal Use Only Page #1003 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राय धनपतसिंघ बादाउरका जैनागम संग्रह नाग उसरा. ए७३ पद सुप्रणीत एटले रूडो एम अमे केम जाणियें ? त्रसनूतप्राणी त्रस, ए तमारो पक्ष जे, अनें त्रसप्राणी त्रस ए अमारो पदळे, तो ते अमारो पद केवी रीतें सुप्रणीत ए टले माठो थाय? त्रसप्राणी त्रस, एम एकार्थ वर्तमान ए शब्दनो तमनें केवो व्यामो ह उपनो? जे, (ततोएगमानसोपडिकोसह के० ) तेमां तमे एक पदनी प्रशंसा क रोबो. एटले स्थापन करोडो (एकंथनिणंदह के) एक पक्ष्नी निंदा करोडो (अयं पिनेदो के०) ए तमारो नेद पगडे, (सेणोणेयानएनव के०) ते न्यायोपपन्न न होय, ए न्यायमार्ग नथी. ॥ ५ ॥ ॥ दीपिका-नुदकयाह । उदकोगौतममवादीत् हे वायुष्मन् गौतम ! कतरान्प्राणिनो यूयं वदथ त्रसप्राणिनइति । अथ सहाचं गौतमउदकमवादीत् आयुष्मन्नुदक! यान्प्राणि नोयूयं वदथ त्रसजूतास्त्रसत्वेन वर्तमानानप्येष्यास्तानेव वयं वदामस्त्रसाति । ये या न वयं वदामस्त्रसांस्तान्यूयं वदथ त्रसनूतान् एते ६ स्थाने तुल्ये एकार्थे एव नात्र कश्चिद र्थनेदः। एवं सत्ययं युष्मदीयः पदः किं सूपनीततरोयुक्तियुक्तः त्रसनूताः प्राणाइत्ययंतु पदोःप्रणीततरोऽयुक्तः प्रतिनासते कोयं व्यामोहोचवतां येन शब्दनेदादिकं पक्षमाको शथ दितीयं त्वनिनंदथ । इत्ययमेवांगीकारोजवतां नो नैयायिकोन न्यायोपपन्नः उ जयोरपि पक्ष्योस्तुल्यत्वात् ॥ ५ ॥ ॥ टीका-तदेवं निरस्ते नतशब्द सत्युदकाह । (सवायंउदएइत्यादि) सहाचं स वादं चोदकः पेढालपुत्रोनगवंतं गौतममेवमवादीत् । तद्यथा। हे थायुष्मन् गौतम! कतरा प्राणिनोयूयं वदथ त्रसनूतास्त्रसत्वेनाविजूताः प्राणिनस्तएव त्रसाः प्राणाश्त्युतान्यथे त्येवं दृष्टोनगवान् गौतमस्तमुदकं साचं पेढालपुत्रमेवमवादीत् । तद्यथा । वायुष्मन्नुद क! यान्प्राणिनोयूयं वदथ त्रसनूतास्त्रसत्वेनाविताः प्राणिनोनातीतानाप्येष्याः किंतु ? वर्तमानकालएव त्रसाः प्राणाति तानेव वयं वदामस्त्रसास्वसत्वं प्राप्तास्तत्कालवर्तिनएव त्रसाः प्राणाइति । एतदेव व्यत्ययेन बिनणिपुराह । (जेवयमित्यादि ) यान्वयं वदाम स्त्रसाएवप्राणास्त्रसाः प्राणास्तानेव यूयमेवं वदथ त्रसनूताएवप्राणास्त्रसाः प्राणाः एवंच व्यवस्थिते एते अनंतरोक्ते हे अपि स्थाने एकार्थे तुल्ये नवतोनह्यत्रार्थनेदः कश्चिदस्त्य न्यशब्दनेदादित्येवं व्यवस्थिते किमायुष्मन् ! युष्माकमयं पदः सुष्टु प्रणीततरोयुक्तियुक्तः प्रतिनासते । तद्यथा । त्रसनूताएव प्राणास्त्रसनूताः प्राणाश्त्ययं पदोःप्रणीततरोनव ति प्रतिनासते नवतां । तद्यथा । त्रसाएव प्राणास्त्रसाः प्राणाः संति चैकार्थत्वेन नवतां कोयं व्यामोहोयेन शब्दनेदमाश्रित्यातएकं पदमाकोशथ वितीयं त्वनिनंदथ इति । तद Page #1004 -------------------------------------------------------------------------- ________________ UH द्वितीये सूत्रकृतांगे द्वितीय श्रुतस्कंधे सप्तमाध्ययनं . यमपि तुल्येप्यर्थे सत्येक पक्षस्याक्रोशनमपरस्य विशेषणपक्षस्यानिनंदन मित्येषदोषाच्युप गमोजवतां नो नैयायिकोन न्यायोपपन्नोजवत्युनयोरपि पक्षयोः समानत्वात्केवलं सविशेषणपदे नूतशब्दोपादानं मोहमावहतीति ॥ ए ॥ भगवंचणं दादु संतेगइया मगुस्सा नवंति तेसिंचणं एवं वृत्तं पुखं नवइ पो खलु वयं संवाएमो मुंमा नवित्ता आगा रान पगारियं पत्तए पावय एवं अणुपुवेणं गुत्तस्स लिसि सामो ते एवं संखेति ते एवं संखं व्वयंति ते एवं संखं वा वयंति नन्नच अभिनणं गादावश्चोरग्गद्ाविमोकलयाए त सेदिं पादि निहाय दमं तंपि तेसिं कुसलमेव जवइ ॥ १० ॥ अर्थ- हवे एज प्रर्थनें दीपाववा माटें ( जगवंच पंचदादु के० ) नगवंत श्री गौतम स्वामी कहे . ( संतेगश्यामपुस्सानवंति के० ) कोई एक हलवां कर्म वाला मनुष्य हो य, ते प्रवर्ज्या पालवानें असमर्थ होय, (ते सिंच एवं तं पुनवइ के० ) तेणें पू र्वे एम कयुं होय, शुं युं होय? ते कहे. (लोखलु वयं संवाए मोमुंमान वित्ता के ० ) नि मेति होवानें समर्थ नथी, (खागाराख लगा रिपइत्तए के ० ) गृहस्थावास त्यागिनें गारपणुं अंगीकार करी शकता नथी. ( पावयहं पुपुवेणं के० ) में घर थकी निकलीने वर्ज्या इने अनुक्रमें, (गुत्तस्स लिसिस्सामा के० ) साधुपएं पाल, एट शुं युं ? तोके, प्रथमतो देशविरतिरूप, श्रावकनो धर्म पालगुं, खनें अनुक्रमें प श्रमणनो धर्म पालयं. ( तेएवं संखेवेंति के० ) ते एवी व्यवस्था संनलावे ( तेएवं सं dai ho) ते पुरुष, एवी व्यवस्था स्थापन करे एटले एवी रीतें पञ्चखाण करे, ( ते एवं संखंगवयंति के ० ) नें पढी तेज प्रमाणे मनमां रुडा प्रकारे स्थापन करे. ते Tea, (न नि एवं के० ) राजादिकना यनियोगें करी त्रसप्राणीनी घातथी मारो व्रतनंग नयी. इत्यादिक पञ्चखाण, साधुनो उपदेश सांजली करे. तेनी नपर ( गाहावइचोरग्गह विमोकणयाए के० ) गृहपति जे चोर तेनुं गृहण तथा विमोक्ष जेम, एव गृहपति तथा राजानो दृष्टांत कहे. रत्नपुरनामा नगरनें विषे रत्नशेखर राजा हतो. तेथे एकदा एवो विचार को के, या कौमुदी महोत्सव करवो., पढी रत्नमाला प्रमुख पोतानी स्त्रीयोनें या वा तनी विज्ञापना करावी जे, स्वतंत्रक्रीडा, चंदनी चांदनीमां व्यापणे करवी. वली पोता ना नगरमा पण उद्घोषणा देवरावी जे, कोई मनुष्यें खाज रात्रें नगरमां न रहेवुं, घनें For Private Personal Use Only Page #1005 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राय धनपतसिंघ बाहारका जैनागम संग्रह नाग इसरा. बाहेर उद्यानां सायंकालें जतुं घने कोइ नगरमा रहेशे तेना शरीरनो निग्रह राजा करशे ते प्रमाणें राजानी उद्घोषणाथी सर्वे मनुष्य सायंकालें नगर बाहेर गयां, तथा राजा पण सपत्नीक गयो. हवे ते पडी, कोइ एक वैश्यना व पुत्र हता. ते क्रयविक्रय व्यापारना व्यग्रपणाथी नगरमांज रहि गया, एटलामां सूर्यास्त थयो तेवारें नगर बाहेर निकलवा लाग्या परंतु गोपुर जे नगरना दरवाजा, ते बंध थइ गया दीवा तेवारें न यत्रांत बता नगरमांहेंज कोई स्थले पोतें गुप्त रह्या पठी कौमुदी महोत्सव संपू f थया नंतर राजायें यारक्षकनें तेडावी कयुं के, यहो यारको ! तमें रूडी री तें कोइ पुरुष, नगरमा रहेलो होयतो तेनें जुवो ? तेवार पढ़ी नगरमा जोतां श्रेष्ठी ना व पुत्रो दीवा तेनें देखीनें, धारकोयें राजाने विनव्यो के, स्वामी ! कोई एक श्रेष्ठी ना पुत्र नगरमा रह्यावे. तेवारें राजायें ते बए पुत्रनो विनाश करवानें प्रादेश या प्यो. एवं सांजली श्रेष्ठी, पुत्रशोकें व्याकुल बतो राजापासें खावीनें एम कहेवा लाग्यो , हे स्वामी! मारा कुजनो दय म करो. नें जे कांई मारा घरमा कुल क्रमागत धन बे ते सर्व जेनें मारा बए पुत्रनें जीवता मूको ? ए प्रमाणे श्रेष्ठिये कहे यके, रा जा अत्यंत क्रोधें व्याप्त थयो थको, श्रेष्ठि प्रत्यें कहेवा लाग्यो के, अरे पापिष्ठ ! राजानी श्राज्ञा ते राजाना प्राणसमान! जेणें राजानी प्राज्ञा न मानी, तेणें राजानां प्राण हस्यां माटें तहारा पुत्र जीवता मूकुं नहिं. एवो राजानो घणो घाग्रह जाणीनें फरी श्रेष्ठी यें पांच पुत्रनें जीवता मूकवानी विनंति राजानें करी, तोपण राजायें मान्युं नहीं. ते वारें चार पुत्र मुकावनी विनती करी ते पण मानी नहीं, तेवारें त्रण पुत्र मुकाववानें विनति करतेपण राजायें मानी नहीं, तेवारें बे पुत्र मुकाववानी विनति करी, ते पण राजायें न मानी. एवो राजानो छाग्रह जाएगी श्रेष्ठीयें नगरमांहेला महोटा महोटा लोकोनें एकता की, ते बधानें राजापासें लइ जइने राजाने विनव्यो के, हेस्वामी ! त में प्रजाना पिता हो तो सर्वथा प्रकारें अमारा कुलनो दय करवा शुं मामचोबे ? यहिं यां प्रावेला मोनें तमेंज शरण हो एटले घमारे तमारोज याश्रय बे. तमने जावे तो मारो ? अने जावेतो जीवाडो ? एम कहि श्रेष्ठी राजानें पगे लागो ते वारें राजायें नुकंपा करीनें व पुत्रमांहेथी एक महोटा पुत्रनें जीवतो मूक्यो. ए इव्य थकी दृष्टांत कह्यो, दवे दृष्टांतनी योजना करेले के, जेम श्रेष्ठी तेम चाहिं श्रावक जाणवो, जेम त्यां व पुत्र तेम चाहिं बकाय जाणवा. जेम श्रेष्ठीयें विलाप करवाथकी रा जायें व पुत्र महेंथी एक पुत्र जीवतो मूक्यो, तेवारें श्रेष्ठी पोतानें कृतार्थ मान तो, एटले बीजा पांच पुत्रनी उपर श्रेष्ठीनें विनाश करवानो नाव नथी, परंतु शुं करे ! जे राजा कोइ रीतें मूके नहिं ? तेम यहीं पण साधु श्रावकनें संरक्षण For Private Personal Use Only Page #1006 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६ द्वितीये सूत्रकृतांगे द्वितीय श्रुतस्कंधे सप्तमाध्ययनं . करवानें उपदेश खापेढे. परंतु श्रावक पोतें अशक्तपणानें लीधे एक त्रसकाय राखी शके बे. ते वारें साधु पण जे कां श्रावक राखे ते श्रावकनें कृतार्थ पोतें जाणे, परंतु बीजा पांच काय श्रावक विराधे बे. तेनी अनुमति साधुनें नथी, ए कारणें तेनुं कर्म कांइ लागे नही. ए न्याय उपर " गाहावश्चोरग्गहण विमोकणयाए " ए पदनो अर्थ समाप्त थयो . हवे सूत्र की खागतनो संबंध देखाडे ( तसे हिंपा हिंनिहाय दमं के ० ) स बे इंडियादिक प्राण, तेहनो वध बांगिनें श्रावक जे विरति करे. ( तंपि के० ) ते विरति प ( ते सिंकुलमेवनवइ के० ) ते श्रावकनें पुष्यरूप होय. एम जाणवुं ॥ १० ॥ 1 || दीपिका- कुमत निषेधमाह । जगवंचणं उदादु रिति । भगवान् गौतमः पुनराह । संति एके केचन मनुष्याः येषां साधोर्धर्मकथकस्य पुरइदमुक्तं नवति यथा न खलु वर्ष मुंमान वितुं प्रव्रज्यां ग्रहीतुं शक्नुमः प्रगारादनगारितां प्रव्रजितुं वयमानुपूर्व्येण क्रमेण गोत्रं साधु त्वमनुश्लेषयिष्यामः । कोऽर्थः ? वयं देशविरतिं पालयामः ततः क्रमेण चारित्रं ततएवं ते संख्यां व्यवस्थां श्रावर्यति प्रत्याख्यानं कुर्वतः प्रकाशर्यति ते एवं व्यवस्थां स्थापर्यंत सू पस्थापयंतिच नान्यत्रा नियोगेन । नियोगोराजा नियोगादिः । तेन त्रतं नतोपि न व्रतनं गः तथा गृहपतिचोरविमोक्षणतयेति । यस्यार्थः कथागम्यः । सा चेयं । रत्नपुरे रत्नशे खरराज्ञा स्वांतःपुरादिस्त्रीणां स्वैरक्रीडारूपः कौमुदी महोत्सवोऽनुज्ञातः पुरुषेण केना पि नगरमध्ये न स्थेयमित्याघोषणा कारिता नृपादयः पुरुषाः सर्वेपि उद्याने सायं ज ग्मुः । एकस्य वणिजः षट् पुत्राः क्रयविक्रयादिव्ययाः पुरमध्यएव तस्थुः । स्थगितानि गोपुराणि ततस्ते निष्क्रांते महे राज्ञा रक्षकाणामुक्तं पश्यत नगरे को पि नरोस्ति नवे ति ? तैर्विलोकयद्भिः षट् पुत्रास्ते दृष्टाः राज्ञो निवेदिताः राज्ञा कुपितेन षामपि वधः समा दिष्टः । ततस्तत्पिता शोकाकुलोराजानं विज्ञापयतिस्म । देव ! मा कृथाः कुलक्ष्यमस्माकं । सर्वधनं गृह्यतां मुख्यंतां पुत्राः । एवमुक्तेपि राजा कथमपि न मुंचति पुत्रान् ततः पिता स पुत्रघातप्रवृत्तं राजानं ज्ञात्वा पंचानां मोचनं याचितवान् राजा पंचानपि न मुंचति तत श्वत्वारोयाचिताः तथापि न मन्यते नृपः । ततस्त्रयोया चितास्तेपि न मुक्ताः । ततो दौ मार्गितौ तावपि यच नृपएकं पुत्रं याचितः समग्र पौरजन विज्ञप्तोनृपः पुत्रमेकं ज्येष्ठं मुक्तवान् । यत्रेयं दृष्टांतयोजना | सम्यक्त्ववान् श्राद्धः सर्वप्राणातिपात विरतिं कर्तुमश कोनृपस्थानीयः षट्कायपितृतुल्येन साधुना प्रेरितोपि सर्वविरतिं नांगीकुरुते षमपि जी कायान्मोचयति साधुः । श्रादस्तु षां मोचने ऽशक्तोज्येष्ठमेकं सकार्य मुंचति पालय तीत्यर्थः । साधुरेकमोचनेनापि कृतार्थमात्मानं मन्यते । यथाच तस्य वणिजोन शेषपंच पुत्रवधानुज्ञा एवं साधोरपि न शेषप्राविधानुमतिः किंतु ? यदेव व्रतं गृहीत्वा यानेव स्थू For Private Personal Use Only Page #1007 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राय धनपतसिंघ बादाउरका जैनागम संग्रह नाग उसरा. एy लसत्वान् संकल्पवधनिवृत्तोरदति श्रादः। तन्निमित्तं कुशलानुबंधएवेत्याह । (तसे हिं) त्रसेन्योदंम हिंसां त्यक्त्वा यावदिरमति तावत्तस्य कुशलं पुण्यमेवेति ॥ १० ॥ ॥ टीका-यच नवतास्माकं प्राग्दोषोनावनमकारि तद्यथा त्रसानां वधनिवृत्तौ तद न्येषां वधानुमतिः स्यात् साधोस्तथासूतशब्दानुपादानेनांतरमेव त्रसं स्थावरपर्यायापन्नं व्यापादयतोव्रतनंगश्त्यैतत्कुचोद्यजातं परिहतुकामयाह । (नगवंचणमित्यादि) एमि ति वाक्यालंकारे। नगवान्गौतमस्वामी चशब्दः पुनः शब्दार्थे । पुनराह ! तद्यथा । संति वि यंते एके केचन लघुकर्माणोमनुष्याः प्रव्रज्यां कर्तुमसमर्थास्त क्ष्यतिरेकेणैव धर्म चिकीर्ष वस्तेषां चैवमध्यवसायिनां साधोधर्मोपदेशप्रवणस्यायतइदमुक्तपूर्व नवति । तद्यथा। जो साधो ! न खलु वयं शक्नुमोमुंमानवितुं प्रव्रज्यां ग्रहीतुमगारागृहादनागारतां साधुनावं प्र तिपत्तुं वयं त्वानुपूर्येण क्रमशोगोत्रस्येति गां त्रायइति गोत्रं साधुत्वं तस्य साधुनावस्य पर्यायेण परिपाल्यात्मानमनुश्लेषयिष्यामः।इदमुक्तं नवति । पूर्व देश विरतिरूपतया श्रा वकधर्म गृहस्थयोग्यमनिंद्यमनुपालयामस्ततोनुक्रमेण पश्चात्त्रमणधर्ममिति । ततएवं ते सं ख्यां व्यवस्थां श्रावयंति प्रत्याख्यानं कुर्वतः प्रकाशयंति । तद्यथा । नान्यत्रानियोगेन । सचानियोगोगणानियोगोबलानियोगोदेवतानियोगोगुरुनिग्रहश्चेत्येवमा दिनानियोगेन व्या पादयतोपि त्रसं न व्रतनंगः। तथा गृहपतिचोर विमोदपतयेत्यस्यायमर्थः । कस्यचित्र हपतेः षट् पुत्रास्तैश्च सत्यपि पितृपितामहकमायाते महति वित्ते तथाविधकर्मोदयाज्ञ जकुलनांमागारे चौर्यमकारि राजपुरुषैश्च नवितव्यतानियोगेन गृहीतास्ते इत्येके । परे त्वन्यथा व्याचदते । तद्यथा। रत्नपुरे नगरे रत्नशेखरोनाम राजा तेन च परितुष्टेन रत्न मालायमहिषीप्रमुखांतःपुरस्य कौमुदीप्रचारोऽनुज्ञातस्तदवगम्य नागरलोकेनापि राजानु मत्या स्वकीयस्य स्त्रीजनस्य तथैव कीडनमनुमतं राज्ञाच नगरे समिमिमशब्दमाघोषितं । तद्यथास्तमनोपरि कौमुदीमहोत्सवे प्रवृत्ते यः कश्चित्पुरुषः समुपलभ्यते नगरमध्ये त स्या विज्ञप्तिकः शरीरनिग्रहः क्रियतइत्येवं च व्यवस्थिते सत्येकस्य वणिजः षट् पुत्रास्ते च कौमुदीदिने क्रय विक्रयसंव्यवहारव्यग्रतया ताव स्थितायावत्सवितास्तमुपगतः । तदंतर मेव स्थगितानि च नगर क्षाराणि तेषांच तत्कालात्ययान्न निर्गमनमनूततस्ते जयसंत्रां तानगरमध्यएवात्मानं गोपयित्वा स्थितास्ततोनिष्क्रांते कौमुदीप्रचारे राझा रक्षिकाः स माहूयादिष्टायथा सम्यक् निरूपयत यूयं नात्र नगरे कौमुदीचारे कश्चित्पुरुषोव्यवस्थित ? इति ।तैरप्यारदिकैः सम्यक निरूपयनिरुपलन्य षड्वणिकूपुत्रवृत्तांतोयथावस्थितएव राज्ञ निवेदितः । राझाप्याझानंगकुपितेन तेषां षण्मामपि वधः समादिष्टस्ततस्तत्पिता पुत्रवधस माकर्णनगुरुशोकविहलोऽकांमापतितकुलदयोनांतलोचनः किं कतव्यतामूढतया गणि १२३ Page #1008 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (ए वितीये सूत्रकृतांगे वितीय श्रुतस्कंधे सप्तमाध्ययनं. तविधयाविधेयविशेषोराजानमुपस्थितोऽवादीच गजदया गिरा यथा मा कथादेवास्माकं कु लक्ष्यं गृह्यतामिदमस्मदीयं कुलकमायातं स्वनुजोपार्जितं प्रनूतं इविणजातं मुच्यतां मु च्यताममी षट् पुत्राः क्रियतामयमस्माकमनुग्रहति । एवमनिहितोराजा त६चनमाक ये पुनरपि सविशेषमादिदेश असावपि वणिक्सर्वथाशंकी सर्वमोचनान निप्रायं राजानम वेत्य पंचानां मोचनं याचितवान् तानप्यसौ राजा नमोक्तुमनाइत्येवमनिगम्य चतुर्मोच नक ते सादरं विज्ञप्तवांस्तं तयापि राजा तमनादृत्य कुपितवदनएव स्थितस्ततस्त्रयाणां वि मोचने कृतादरस्त त्पिताऽनूत् तानप्यमुंचंतं राजानं ज्ञात्वा गणितस्वापराधोध्योर्मोचनं प्रार्थितवांस्तथाप्यवज्ञाप्रधानं नृपतिमवगम्य ततः पौरमहत्तमसमेतोराजानमेवं विज्ञप्त वांस्तद्यथा देवाऽकांमएवास्माकं कुलक्ष्यः समुपस्थितः तस्माच नवंतएव त्राणायालम तः क्रियतामेकमत्पुत्र विमोचनेन प्रसादति जणित्वा पादयोः सपौरमहत्तमः पतितोरा झापि संजातानुकंपेन मुक्तस्तदेकोज्येष्ठपुत्रशति । तदेवमस्य दृष्टांतस्य दार्टीतिकयोजनेयं । तद्यथा साधुनान्युपगतसम्यग्दर्शनमवगम्य श्रावकमखिलप्राणातिपातविरतिग्रहणं प्रति चोदितोप्यशक्तितया यदा न सर्वप्राणातिपातविरतिं प्रतिपद्यते यथाऽसौ राजा वणिजोत्य र्थ विलपितोपि न षडपि पुत्रान मुमुक्षति नापि पंचचतुस्विक्षिःसंख्यान पुत्रानिति । ततएक विमोदणेनात्मानं कृतार्थमिव मन्यमानः स्थितोसावेवं साधोरपि श्रावकस्य यथाशक्तिव्रतं गृप्तहतस्तदनुरूपमेवाणुव्रतदानमविरुक्षमिति यथाच तस्य वणिजोन शेषपुत्रवधानुमिति श्योप्यस्त्येवं साधोरपि न शेषप्राणिवधानुमिति प्रत्ययजनितःकर्मबंधोनवति किं तर्हि? य देव व्रतं गृहीत्वा यानेव सत्वान् बादरान संकल्पजप्राणिवधनिवृत्त्या रक्षति तन्निमित्तः कु शलानुबंधएवेत्येतत्सूत्रेणैव दर्शयितुमाह । (तसेहिमित्यादि) त्रस्यंतीति त्रसादीडियादय स्तेन्यः सकाशान्निधाय निहाय वा परित्यज्येति यावत् दंमयतीति दमस्तं परित्यज्य त्रसेषु प्राणातिपातविरतिं गृहीत्वेत्यर्थस्तदपि च त्रसप्राणातिपातविरमणव्रतं तेषां देश विरतानां कुशलहेतुत्वात्कुशलमेव नवति ॥ १० ॥ तसावि वुच्चंति तसा तससंनारकडणं कम्मुणा लामंचणं अप्नु वगयं नव तसाम्यंचणं पलिरकीणं नव तसकायहिश्या ते तन आनयं विप्पजहंति ते तन आग्यं विष्पजदित्ता थावरत्ता ए पञ्चायति थावरावि बुच्चंति थावरा थावरसंनारकडेणं कम्मु णा णामंचणं अनुवगयं नव थावरा आनयंचणं पलिरकी णं नव थावरकायश्यिा त आनयं विप्पजति त आ Page #1009 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राय धनपतसिंघ बादाउरका जैनागम संग्रह नाग उसरा. एए ज्यं विप्पजहिता नुको परलोइयत्ताए पञ्चायति ते पाणावि वुच्चं ति ते तसावि वुच्चंति ते महाकायाए ते चिरविश्या ॥११॥ अर्थ-हवे जे उदयपेढालपुत्रनो अभिप्राय पूर्व कह्यो ते ए जे,त्रस जीव,स्थावर माहे उपनो तेनो, याराम केतां धरण्यमांहे बेते विनाश करतां, नागरिक पुरुषनी पेठे अवश्य व्रत नंग थाय. ए बोल टालवा माटें कहेले. (तसाविवुचंति के) त्रस एटले बे इंडियादिक एम पण कहियें, (तसातससंजारकडेणंकम्मुणाणामंचणंथप्नवगयंनव के०) ते त्रस, पूर्वबंध त्रसनाम कर्मनें उदयें त्रसनाम पामे, पनी (तसाव्यंचणंपलिरकीर्णनव के०) णं एवे वाक्यालंकारें जेवारे ते त्रसकायतुं श्रायुष्य परिवीण थाय. ते त्रसकायनी स्थिति क्यां सु धी होय ? ते कहेले (तसकायहिश्याते के०) ते त्रसकाय स्थिति, जघन्यथकी अंतरमुहूर्त अनें उत्कृष्टसाधिक बे हजार सागरोपम प्रमाणे होय. (ततोाग्यविष्पजहंति के०) ते वार पड़ी ते त्रसपणुं बांके. (विप्पजहित्ता के०) ते त्रसपणुं बांझीने (थावरत्ताएपञ्चायंति के०) स्थावर पणे उपजे, (थावरा विवुचंति के०) तेवारें तेने स्थावर पण कहियें. (थाव राथावरसंचारकडे कम्मुणणामंचअनुवगर्वानव के०) ते स्थावर, पूर्व बंध कस्यु जे स्थावरनाम कर्म, तेना उदयथी स्थावर एवं नाम पामे, एटले स्थावर होय, (थावरा यानयंचणंपलिरकीनवर के०) वली ते जेटले ते स्थावर- आयुःकर्म परि दीण थाय. ( थावरकायहिश्या के० ) हवे स्थावरकायनी स्थिति केवी होय ? तो के, जघन्य अंतर मुहूर्त बने उत्कृष्ट थकी अनंतो काल असंख्यात पुनलपरावर्त पर्यंत, एवी स्थिति होय. पनी एटली स्थिति खपावीने, (तम्याग्यं विप्पजहंति के० ) तेवार पनी स्थावर पणुं बांके, (तम्याग्यं विप्पजहित्ता के) ते स्थावर स्थिति बांमीने (नुकोपरलोइयत्ताए पञ्चायंति के०) वली परलोक पणे उपजे. एतावता त्रसपणुं पामे. (तेपाणाविवुचंतितेत साविवुजाति के०) ते प्राण पण कहियें,ते त्रसनामकर्मनें उदयें,त्रसनाम पणे नपनाले,मा टें त्रसप्राण एवे नामे कहियें, तथा त्रस पण कहिये. (तेमहाकायाए के०) ते महो टी काया एटले लद योजन प्रमाण वैक्रिय शरीर वाला एवा महाकाय कहियें. तथा (तेचिरहिश्याए के०) ते चिरस्थितिक, नवस्थितिनीधपेक्षायें तेत्रीश सागरोपम प्रमाण स्थिति जागवी. तो यहीयां श्रावकें त्रसनुंज पञ्चरकाण की, परंतु स्थावरकायपणे उपना ते जीवोर्नु पञ्चरकाण नथी का. ते कारणें कयो व्रत नंग थयो ? तथा तमे जे नागरीकनो दृष्टांत देखाइयो ते दृष्टांत पण यहीं संनवे नहीं. ते दृष्टांत देवाथी अमे एम जाणीयें जैये जे, तमे गुरुना मुख थकी सूत्रार्थ लीधो नथी केमके, नगरने धर्मे सहित ते नागरिक कहिये ते नागरिक पुरुष महारे हणवो नहीं, एवी प्रतिज्ञा ग्रहण करीने प Page #1010 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीये सूत्रकृतांगे द्वितीय श्रुतस्कंधे सप्तमाध्ययनं . त्रस, नागरिक बाहिर यारामनें विषे बेठेलाने विणाशतां व्रतजंग थाय? ए दृष्टांत खंहीं स्थावरने दें मलतो नयी केमके, ते नागरिक पुरुष जो बाहेर धारामादि कने विषे स्थित होय तो पण, तेनुं नागरिक पणु गुं जतुं रयुं ? त्यां पण ते नागरिक तेज प्रकारेंबे. तेहिज वर्णेबे, तेहिज परिणामेबे, ए दृष्टांत पर्यायें त्रसनें मजे नही, एवं जाणी, तमे युक्त बोलोबो ॥ ११ ॥ go I || दीपिका - सापि हींदियादयोपि साच्यंते सास्त्रस संचारकृतेन कर्मणा । संजारोनाम कर्मणोऽवश्यं विपाकानुनवेन वेदनं । तच्च सनाम प्रत्येकनाम इत्या दिकं सत्वेन संबद्धं यदायुष्कं उदयप्राप्तं स्यात्तदा त्रसनामादिकर्मणा साउच्यते । त्र सायुर्यदा कीणं स्यात्रसकाय स्थितिश्च क्षीणा स्यात् साच जघन्येनांतर्मुहूर्त उत्कृष्टतः सातिरेकसहस्र ६ यसागरमानास्ततस्ते त्रसायुस्त्यजंति अन्यान्यपि तत्सहचरकर्माणि त्यक्त्वा स्थावरत्वेन प्रत्यायांति । स्थावराच्यपि तथैव कर्मणा स्थावरत्वेनोत्पद्यते एवंस ति स्थावरकायं प्रतः श्राद्धस्य कथं स्थूलप्राणातिपात निवृत्तित्रतनंगइति । किंच ( याव रामानंति) यदा स्थावरायुष्कमपि दीपं स्यात्तथा स्थावर काय स्थितिश्च सा जघन्येनांतर्मु हूर्त उत्कृष्टतोनंतकालमसंख्येयाः पुजलपरावर्ताः । ततस्ते स्वायुः परित्यज्य नूयः पुनर पिपरलोकतया स्थावर काय स्थितेरनावात्सामर्थ्याच्त्रसत्वेन प्रत्यायांति ते त्रसाः प्राणायप्यु यंत्राच्यं । महाकायास्ते योजनल प्रमाणशरीर विकुर्वणात् चिरस्थितिका स्ते नवस्थित्यपेक्षया त्रयस्त्रिंशत्सागरायुष्कनावात् । ततस्त्रसनिवृत्तिरेव श्रादेन कृता न तु स्थावराणां । नागरिकदृष्टांतोप्ययुक्तः । नागरिकोन दंतव्यइति प्रतिज्ञां कृत्वा बहिः स्थितं तमेव पर्यायापन्नं नतोव्रतजंगइति त्वत्पक्षः । सचायुक्तोयोहि नगरधर्मैरुपेतः स बहिःस्थो पि नागरिक एवातः पर्यायापन्नइति विशेषणमयुक्तं । सर्वथा नगरधर्मत्यागेतु तमेवेति नो पद्यते । सचान्यएवेति तथा त्रसत्वत्यागाद्यदा स्थावरत्वं प्राप्तस्तदान्यएवायमिति तं न तोन व्रतजंगः ॥ ११ ॥ ' ॥ टीका - यच्च प्रागनिहितं तद्यथा तमेव त्रसं स्थावरपर्यायापन्नं नागरिकमिव बहिः स्थं व्यापादयतोऽवश्यंभावी व्रतनंगइत्येतत् परिहर्तुकामत्र्याह । ( तसावीत्यादि ) त्रसा पिडियादयोपि स्वसंचारकृतेन कर्मणा नवंति । संजारोनामावश्यतया कर्मणो विपा कानुनवने वेदनं । तच्चेह त्रसनाम प्रत्येकनामेत्यादिकं नामकर्मान्युपगतं नवति त्रसत्वेन य परिबन्धमायुष्कं तद्यदोदयप्रातं नवति तदा ससंचारकृतेन कर्मणा साइति व्यपदि इयं न तदा कथंचित्स्थावरत्वव्यपदेशोयदाच तदायुः परिक्षीणं नवति । मिति वाक्य For Private Personal Use Only Page #1011 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राय धनपतसिंघ बादाडुरका जैनागम संग्रह नाग इसराः G 1 लंकारे । काय स्थितिकं च कर्म यदा परिक्षीणं नवति तच्च जघन्यतोंतर्मुहूर्तमुत्कृष्टतः सातिरेकसहस्र ६यसागरोपमपरिमाणं तदा ततस्त्रसकाय स्थितेरभावात्तदायुष्कं ते परि त्यजत्यपरास्यपि तत्सहचरितानि कर्माणि परित्यज्य स्थावरत्वेनोदयं यांति । इत्येवंच व्यवस्थिते कथं स्थावरकायं व्यापादयतोगृहीतत्रसकायप्राणातिपातनिवृत्तः श्रावकस्य व्रत गइति । किंचान्यत् (यावरायान्यंचलमित्यादि) यदा तदपि स्थावरायुष्कं परिक्षीणं नव ति तथा स्थावर काय स्थितिश्च सा जघन्यतोंतर्मुहूर्तमुत्कृष्टतोऽनंतकालमसंख्येयाः पुजलप रावतइति ततस्तत्काय स्थितेरभावात्तदायुष्कं परित्यज्य नूयः पुनरपि पारलौकिकत्वेन स्थावर काय स्थितेरभावात् त्रसत्वेन सामर्थ्यात्प्रत्यायांति । तेषांच त्रसानामन्वर्थितान्यनि धानान्यनिधातुमाह । ( तेपाणावीत्यादि ) ते त्रससंचारकृतेन कर्मणा समुत्पन्नाः संतः सामान्यसंज्ञया प्राणायप्युच्यं ते । तथा विशेषतस्त्रसनयचलन योरिति धात्वर्थानुगमानयच जनान्यामुपेतास्त्र सायप्युच्यंते तथा महान् कायोयेषां ते महाकायाः योजनल प्रमा शरीर विकुर्वणात्तथा चिरस्थितिकाय प्युच्यते । नवस्थित्यपेक्ष्या त्रयस्त्रिंशत्सागरोपमायु ष्कसद्भावात्ततस्त्रसपर्यायव्यवस्थितानामेव प्रत्याख्यानं तेन गृहीतं नतु स्थावर कायत्वेन व्यवस्थितानामपीति । यस्तु नागरिकदृष्टांतोजवतोपन्यस्तोऽसावपि दृष्टांतदाष्टतिकयोरसा म्यात्केवलं नवतोनुपासितगुरुकुलवा सित्वमाविष्करोति । तथाहि । नगरधर्मैरुपयुक्तो नागरिकः सच मया न हंतव्यइति प्रतिज्ञां गृहीत्वा यदा तमेव व्यापादयति बहिः स्थितं पर्यायानं तदा तस्य किल व्रतजंगइति नवतः पचइति । सच न घटते । यतोयोहि न गरधर्मैरुपेतः सबहिस्थोपि नागरिक एवातः पर्यायापन्नइत्येतद्विशेषणं नोपपद्यते यथ सामस्त्येन परित्यज्य नगरधर्म नासौ वर्तते यतस्तमेवेत्येतद्विशेषणं नोपपद्यते तदेवम त्रसः सर्वात्मना त्रसत्वं परित्यज्य यदा स्थावरः समुत्पद्यते तदा पूर्वपर्याय परित्यागा पर्यायान्नत्वाच्च सएवासौ न नवति तद्यया नागरिकः पद्भ्यां प्रविष्टस्तर्मापेतत्वा पूर्वधर्म परित्यागाच्च नागरिक एवासौ न नवतीति ॥ ११ ॥ सवायं नदए पेढालपुत्ते जयवं गोयमं एवं वयासी प्रानसंतो गोमा चि से के परियाए जसं समणोवासगस्स एगपाणा तिवायविर एवि दंमे निकित्ते कस्सणं तं देवं सांसारिया खलु पा पायावरावि पाणा तसत्ताए पच्चायंति तसावि पाला थावर त्ता पच्चायंति यावर कायान विप्पमुच्चमाणा सवे तसकायंसि नववति तसकायान विष्पमुच्चमा सबै थावरकायंसि नवव ति तेसिंचणं यावर कायंसि नववन्नाणं ठगणमेयं धत्तं ॥ १२ ॥ For Private Personal Use Only Page #1012 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एन्‍ द्वितीये सूत्रकृतांगे द्वितीय श्रुतस्कंधे सप्तमाध्ययनं अर्थ - हवे वादसहित उदयपेढालपुत्र, नगवंत श्रीगौतम प्रत्ये बोल्या के, घहो घायुष्यमन् गौतम ! ते कोइ पर्याय नथी के, जेणें कररी श्रमणोपासक श्रावकनें एक प्रा यातिपात विरति विषयिक दंमनो त्याग कस्यो जाय. ते केवा हेतुथी ? ए कारण देखाडे बे. संसारी प्राणी परस्पर मांहो मांहे गतिना करनारबे. स्थावरप्राणी त्रस पण उपजे, यने सप्राणी पण स्थावर पणे उपजे. दवे वली विशेष कहे. स्थावर काय farar at तावता स्थावरकायनुं त्र्यायुष्य त्यागी सर्व त्रसकाय पणे उपजे, पाउल कोइ स्थावर रहे नहीं, तथा वली सकाय थकी मूकाता एतावता सकायनुं यायुष्य त्यागीनें सर्व, स्थावरकाय मांहे उपजे, पाउल कोइ त्रस रहे नहीं, तेवारे ते श्रावकनें स्थावर मांहे उत्पन्न त्रसनुं स्थानक हलाएं, ए व्रतजंग थयो ॥ १२ ॥ ॥ दीपिका - पुनरुदकः प्राह । सवादमुदको गौतममवादीत् । हे गौतम ! नास्ति सक चित्पर्यायः यस्मिन्ने प्राणातिपात विरमणेपि श्रमणोपासकस्य दंगोवधोनिक्षिप्तः परि त्यक्तः स्यात् । कोर्थः । श्रादेन त्रसमुद्दिश्य प्रत्याख्यानं कृतं । संसारिणा वान्योन्यगमन संनवासाः सर्वेपि स्थावरत्वं प्राप्तास्तदा त्रसानामनावान्निर्विषयं प्रत्याख्यानमित्यर्थः । (क सति) केन हेतुना इदमुच्यते सांसारिकाः खलु प्राणाः स्थावरास्त्रसतया त्रसाध्यपि स्थावरतया प्रत्यायांति स्थावर कायादिप्रमुच्यमानाः स्वायुषा सर्वे निरवशेषकास्त्र सकाये समुत्पद्यते सकायादपि तदायुषा मुच्यमानाः सर्वे स्थावरकाये समुत्पद्यते तेषां त्रसा न स्थावर कायोत्पन्नानां स्थानमेतद्घात्यं । यथा केनचित्प्रतिज्ञातं मया नगर निवासी न हंतव्यः तच्च न ६ सितं नगरं ततो निर्विषयं प्रत्याख्यानं । एवमत्रापि त्रसानामनावान्नि विषयत्वमिति ॥ १२ ॥ ॥ टीका - पुनरप्यन्ययोदकः पूर्वपकुमारचयितुमाह । ( सवार्यचद् एइत्यादि) साचं सवादं वोदकः पेढालपुत्रोजगवंतं गौतममेवमवादीत् । तद्यथाऽयुष्मन् गौतम ! नास्त्य सौ क श्चित्पर्यायोयस्मिन्नेक प्राणातिपात विरमणेपि श्रमणोपासकस्य विशिष्टविषयामेव प्राणा तिपात निवृत्तिं कुर्वतोदमः प्राप्युपमर्दनरूपो निचिप्तपूर्वः परित्यक्तपूर्वोभवति । इदमु तं नवति । श्रावके सपर्यायमेकमुद्दिश्य प्राणातिपात विरतित्रतं गृहीतं संसारिणां च परस्परगमनसंनवात्तेच त्रसाः सर्वेपि किल स्थावरत्वमुपगतास्ततश्च त्रसानावान्निर्विषयं य प्रत्याख्यानमिति । एतदेव प्रश्नपूर्वकं संदर्शयितुमाह । (कस्सांतंहेन मित्यादि) एामिति वा क्या करे । कस्य हेतोरिदमभिधीयते केन हेतुनेत्यर्थः । सांसारिकाः प्राणाः परस्परसंसरण शीलायतस्ततः स्थावराः सामान्येन त्रसतया प्रत्यायांति त्रसाध्यपि स्थावरतया प्रत्या For Private Personal Use Only Page #1013 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रायधनपतसिंघ बादाडुरका जैनागम संग्रह नाग इसरा. ८३ यांति । तदेवं संसारिणां परस्परगमनं प्रदर्याधुना यत्परेण विवदितं तदा विष्कुर्वन्नाह । (थावर काया इत्यादि) स्थावरकायादिप्रमुच्यमानाः स्वायुषा तत्सहचरितैश्च कर्मनिः स a faraशेषास्त्रकाये समुत्पद्यंते ते सकायादपि तदायुषा विप्रमुच्यमानाः सर्वे स्थावर काये समुत्पद्यते तेषांच त्रसानां सर्वेषां स्थावरकायसमुत्पन्नानां स्थानमेतद्घात्यं वर्तते तेन श्रावके स्थावर कायवधनिवृत्तेरकारणादतः सर्वस्य त्रसकायस्य स्थावर कायत्वेनो त्पत्तेर्निर्विषयं तस्य त्रसवध निवृत्तिरूपं प्रत्याख्यानं प्राप्नोति । तद्यथा केनचिद्वृतमेवंनूतं गृहीतं यथा मया नगर निवासी न हंतव्यस्तच्चो ६ सितं नगरमतो निर्विषयं तत्तस्य प्रत्या ख्यानमेवमत्रापि सर्वेषां त्रसानामनावान्निर्विषयत्वमिति ॥ १२ ॥ सवायं जगवं गोयमे उदयं पेढालपुत्तं एवं वयासी पो खलु प्रा सो अस्साकं वत्तवणं तुप्रचेव अपवादेणं चि से परि याए जेणं समणोवासगस्स सबपादि सबनएदि सबजीवेदि सबसत्तेदिं दंगे निकित्ते नवइ कस्सणं तं देवं सांसारिया खलु पाणा तसावि पाणा यावरत्ताए पच्चायंति थावराव पाणा तस ता पञ्चायंति तसायाने विष्पमुच्चमाणा सवे यावर कार्यंसि नव वज्रंति यावर कायान विप्पमुच्चमाणा सवे तसकार्यंसि नववऊंति ते सिंचणं तसकायंसि नववन्नाणं गणमेयं धत्तं ते पाणावि बुच्चं ति ते तसावि बुच्चति ते महाकाया ते चिरविश्या ते बहुयरंगा पाणा जेहिं समणोवा सगस्स सुपच्चरकायं भवति ते प्रप्पयरागा पाणा जे हिं समणोवासगस्स प्रपञ्चकायं नवइ से महया तसकायान वसंतस्स नवद्वियस्स पडिविरयस्स जन्नं तुझेवा अन्नोवा एवं वदह एचिणं से समणो के परियाए जं से समणोवा सगस्स एग पाणा परिए वि दंमे णिकित्ते प्रयंपि भेदे से गो यानए जवइ ॥ १३ ॥ अर्थ- हवे एम कहे ते वादसहित जगवंत श्रीगौतम स्वामी, उदयपेढाल पुत्र प्रत्ये एम बोल्या के, निवें ग्रहो यायुष्यमन् उदक ! ( खस्साकंवत्तवएणं के० ) प्रमारी वक्तव्य तायें जेतुं वचन कहेले, तेम थयुं पण नथी, झनें थशे पण नहीं, ते केमके, समस्त स्थावरजीव, त्रस पणें उपजे एम तमे कहोबो तो, जगत् मांहे त्रस जीवतो असंख्या ताबे, घनें स्थावर अनंताने तो, अनंता असंख्याता मांहे शी रीतें समाय ? तथा वल! For Private Personal Use Only Page #1014 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ए४ वितीये सूत्रकृतांगे वितीय श्रुतस्कंधे सप्तमाध्ययनं. समस्त त्रस जीव पण स्थावर पणुं न पामे. केम के कोश्वारे पण त्रसशून्य संसार न था य, तेमज स्थावरशून्य पण संसार न थाय, ए अमारो मतले. हवे तमारो पद तमारेज अभिप्रायें करी निराकरण करियें बैयें. ते सानलो. (तुप्चेवअणुप्पवादेणं के०) तमाराज के वा प्रमाणे (अलिणंसेपरियाए के०) ते पर्याय के जे पर्यायें करी श्रमणोपासकनें सर्व प्राण, सर्व नूत, सर्वजीव, सर्वसत्व, तेनो घात बंमाय एटले त्याग थायले केमके, तमा री वक्तव्यतायें जे वारे सर्व स्थावरजीव सपणे उपना तेवारे सर्व प्राण विषे पञ्चरका ण श्रावकनो थयो, ते कारण माटें श्रावक, त्रसनो घात न करे. ए विशेष सूत्रं करी देखाडे (कस्सतंहेनं के०) तेनो हेतु कयो? ते देखाडे निश्चे सांसारिक प्राणी, त्रस प्राणी पण स्थावर पणे उपजे, अनें स्थावर प्राणी त्रस पणे नपजे,त्रसकाय थकी मूका ता सर्व स्थावर पणे उपजे, अनें स्थावर कायथकी मूकाता सर्व त्रस पणे उपजे तेवारें (तेसिंचणंतसकायं सिउववन्नाणंगणमेयंअधत्तं के०) जो स्थावरकाय पणुं त्यागीने त्रस पणे उपजे, तेवारे श्रावकनें त्रसना स्थानक नणी अघत्तं एटले विराधनानुं कांहिं कारण नथी, जे कारणे (तेपाणाविवुचंति के०) ते त्रसप्राण पण कहियें, अने तेने त्रस पण कहि , ते महाकाय, ते चिरस्थितिक, एअर्थ पूर्ववत् जाणवो. (तेबदुयरगापाणा के०) ते घ णा त्रसप्राणीयो जेणे करी श्रमणोपासकनें रूडो पञ्चरकाण थाय ( तेथप्पयरागापाणा के०) ते प्राण, थाहीं अल्प शब्द सर्वथा अनावने अथैले जे कारण सवें स्थावर फीटी त्रस थाय, तेवारें स्थावर जीवनो अनाव थयो. एम तमारी वक्तव्यतायेंज श्रावकने घणुं रू डुं पञ्चरकाण थाय. अने जे तमे कहोबो के श्रावकने अपञ्चरकाण याय, ते तो उलटुं रू डूं पञ्चरकाण थाय ते श्रावक महोटी त्रसकायना आरंनथी नपशम्या सावधान थया विशेषेथी निवा , तेने रूडं पच्चरकाण थाय (जन्नं के०) जे कारण मानें तमे अथ वा बीजा ( एवंवदह के०) एम कहे के जे एवं कोई पर्याय नथी, के जे पर्यायें श्रावकने प्राणातिपातनो पञ्चरकाण थाय. ए तमारु केहेवं ते न्यायमार्गनुं नथी॥१३॥ __॥ दीपिका-अथ गौतमः प्राह साचं गौतम उदकमवादीत् । अस्माकमिति मगध देशे सर्वजनप्रसिदं संस्कृतमेवोच्चार्यते तथैवात्र पतितं । तदेवमस्माकं संबंधिना वक्तव्येन नैतदशोननं किं तर्हि ? युष्माकमेवानुप्रवादेन एतदशीलनमिति । अस्म वक्तव्येनास्य चोद्य स्यानुबानमेव । तथाहि । नैतनूतं न नवति नापिच नविष्यति यत्सर्वेपि स्थावरास्त्र सत्वं प्रतिपद्यते स्थावराणामानंत्यात्रसानां वाऽसंख्येयत्वेन तदाधारत्वं न युक्तं । त्रसाथ पि स्थावरत्वं न प्रतिपन्नानच प्रतिपद्यते नापि प्रतिपश्यंते । नच कदाचित्रसशून्यः संसा रः स्यादिति नवदापोत्यैव । अस्त्ययं पर्यायोयत्नमणोपासकस्य सर्वप्राणिनिस्त्रसत्वेन Page #1015 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रायधनपतसिंघ बादाउरका जैनागम संग्रह नाग उसराः एय नूतैरुत्पन्नैर्दमोनिदिप्तोवधस्त्यक्तः । केन हेतुनेत्याह । सांसारियाइत्यादि पूर्ववत् । याव वसकाये नत्पन्नानां स्थानमेतदधात्यं स्यात् । तेच साप्राणानच्यंते त्रसायप्युच्यते । ते महाकायाश्चिरस्थितिकाः। ते त्रसाबहवोयैःश्रामस्य तु प्रत्याख्यातं नवति । नवदनिप्रा येण सर्वस्थावराणां त्रसत्वेनोत्पत्तेः । तेऽल्पतरकाः यैः श्रावस्याप्रत्याख्यानं नवति । थ ल्पशब्दोनाववाचकः। न संत्येव त्वदनिप्रायेण ते जीवाः येषु अप्रत्याख्यानमिति । एवं सेत स्य श्राइस्य महतस्त्रसकायापशांतस्य विरतस्य सुप्रत्याख्यानं स्यादिति । एवंसति य यूयं वदथान्योवा वदति यन्नास्त्यसौ पर्यायइत्यादि सुगमं यावलोणेयानएनवइत्ति ॥१३॥ ॥ टीका-एवमुदकेनानिहिते सति तदन्युपगमेनैव गौतमस्वामी दूषयितुमाह । (स वायमित्यादि ) सदाचं वादं वा तमुदकं पेढालपुत्रं गौतमस्वाम्येवमवादीत् । तद्यथा नो खल्वायुष्मन्नुदकास्माकमित्येतन्मगधदेशे धागोपालांगनादि प्रसि संस्कृतमेवोच्चार्यते त दिहापि तथैवोच्चारितमिति। तदेवमस्माकं संबंधिना वक्तव्येन नैतदशोननं किं तर्हि युष्मा कमेवानुप्रवादेनैतदशोननं। इदमुक्तं नवत्यस्मक्तव्येनास्य चोद्यस्यानुबानमेव। तथाहि । नैतनूतं न च नवति नापि कदाचिन्नविष्यति यत सर्वेपि स्थावरानिर्लेपतया त्रसत्वं प्रतिपद्यते स्थावराणामानंत्यात्रसानां चासंख्येयत्वेन तदाधारत्वानुपपत्तेरित्यनिप्रायः । तथा सायपि सर्वे न स्थावरत्वं प्रतिपन्नान प्रतिपत्स्यते । इदमुक्तं नवति । यद्यपि विवदितकालवर्तिनस्वसाः कालपर्यायेण स्थावरकायत्वेन यास्यंति तथा च परंपरापर त्रसोत्पत्त्या त्रसजात्यनुजेदान्न कदाचिदपि त्रसकायशून्यः संसारोनवतीति । तदेव मस्मन्मतेन चोद्यानुबानमेवान्युपगम्यच नवदीयं पदं युष्मदच्युपगमेनैव परिहियते तदेव परानिप्रायेण परिहरतस्तस्यासौ पर्यायः। सचायं नवदनिप्रायेण यदा सर्वेपि स्थावरास्त्रसत्वं प्रतिपद्यते यस्मिन्पर्यायेऽवस्थाविशेषे श्रमणोपासकस्य कृतप्राणा तिपातनिवृत्तेः सतःत्रसत्वेन च नवदन्युपगमेन सर्वप्राणिनामुत्पत्तेः। तैश्च सर्वप्राणिनिस्त्र सत्वेन नूतैरुत्पन्नैः करणनूतैस्तेषु वा विषयनतेषु दंमोनिक्षिप्तः परित्यक्तः । इदमुक्तं नव ति । यदा सर्वेपि स्थावराः नवदनिप्रायेण त्रसत्वेनोत्पद्यते तदा सर्वप्राणिविषयं प्रत्या ख्यानं श्रमणोपासकस्य नवतीति । एतदेव प्रश्नपूर्वकं दर्शयितुमाह । (कस्सणंहेनमित्या दि) सुगमं । यावत्रसकाये समुत्पन्नानां स्थानमेतदघात्यमघाताई तत्र विरतिसनावादि त्यनिप्रायः । तेच सानारकतिर्यरामरनाजः सामान्यसंझया प्राणिनोप्यनिधीयते त था विशेषसंझया नयचलनोपेतत्वाबसायप्युच्यते । तथा महान् कायः शरीरं येषां ते महाकायाः वैक्रियशरीरस्य योजनलप्रमाणत्वादिति । तथा चिरस्थितिकायाः त्रयस्त्रिंश सागरोपमपरिमाणत्वानवस्थितेस्तथा ते प्राणिनस्त्रसाबद्तमानयिष्ठायैः श्रमणोपास Page #1016 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एपद वितीये सूत्रकृतागे वितीय श्रुतस्कंधे सप्तमाध्ययनं. कस्य सुप्रत्याख्यानं नवति।त्रसानुद्दिश्य तेन प्रत्याख्यानस्य ग्रहणवादन्युपगमेनच सर्व स्थावराणां त्रसत्वेनोत्पत्तेरतस्तेऽल्पतरकाः प्राणिनोयैः कारणनूतैः श्रावकस्याप्रत्याख्या नं नवति । इदमुक्तं नवति । अल्पशब्दस्यानाववाचित्वान्न संत्येव ते येष्वप्रत्याख्यानमि त्येवं पूर्वोक्तया नीत्या सेतस्य श्रमणोपासकस्य महतस्त्रसकायाउपशांतस्योपरतस्य प्रति विरतस्य सतः सुप्रत्याख्यानं नवतीति संबंधस्तदेवं व्यवस्थिते। णमिति वाक्यालंकारे। यद्यू यं वदथान्योवा कश्चित्तद्यथा नास्त्यसावित्यादि सुगमं यावलोणेयानएनवशत्ति ॥ १३ ॥ नगवंचणं उदादु नियंग खलु पुबियबा आमसंतो नियंग इह खलु संतेगश्या मणुस्सा नवंति तेसिंचणं एवं वुत्तं पुर्व नवश्जे इमे मुझे नवित्ता आगाराने आणगारियं पवइत्ता एएसिंचणं आ मरणंताए दंमेणिरिकत्ते जे इमे आगारमावसंति एएसिणं आम रणंताए दंगे जो णिरिकते केश्तंचणं समणा जाव वासाइं चनपंच माई बन्दसमाइं अप्पयरोवा नुऊयरोवा देसंदूईङित्ता आगार मावसेजा दंता वसेका तस्सणं तं गारखं वहमाणस्स से पच्चरकाणे नंगे नव णेतिण सम एवमेव समणोवास गस्सवि तसेहिं पाणेहिं दंगै जिस्कित्ते थावरेदि पाणेहिं दंगे पो जिस्कित्ते तस्सणं तं थावरकायं वहमाणस्स से पच्चरकाणे पोनं गे नव से एवं मायाणद णियंगए से एवं मायाणियवं ॥२४॥ अर्थ-हवे श्रीगौतमस्वामिज स्थावर पर्यायें पहोता एवा त्रस जीवोनें विनाशवा थकी, व्रतनंग न थाय! एवा अर्थनी प्रसिदिने अर्थ त्रण दृष्टांत देखाडे. (जगवंचणं नदादु के०) जगवंत श्रीगौतमस्वामी पोतार्नु नत पणुं टालवा माटें बीजा स्थवि रने सादी करी बोले, एटले पोतानी पासे कोई एक स्थविर बेताले तेने उद्देशी कहेडे के, अहो उदक ! जे अर्थ ढुं कर्बु ढुं तेना सादी (नियंगाखलुपुलियबा के ) निश्चें था निग्रंथोने पूबवं. एम कही निZथ प्रत्ये कहेले के, (थासंतोनियंता के ) अहो वायु ष्यमंत निर्यथो ! जे ढुं बागल कहीश,, ते वचन तमारे मनमा मान्य थाय किंवा नथी यतुं ? ते वचन दुं कहूं, तमे सनिलो. (इहखलु के०) या जगत् माहे निश्चें (संतेग श्यामणुस्सानवंति के) को एक मनुष्य शांतिप्रधान एवा होय, (तेसिंचणंएवंवुत्तंपुवंनवर Page #1017 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राय धनपतसिंघ बादाउरका जैनागम संग्रह नाग उसरा. एGy के ) तेणें पोतानुं एवं व्रतविशेष पूर्व कपुंजे, ते केवु कयुंने ? ते कहेले. (जेइमेमुझे नवित्ता के०) जे ते ढुं मुंम थश्श. (आगाराअणगारियंपवश्त्ता के० ) गृहस्थावास बमीने अणगार पणुं प्रव्रजीश (एएसिंचणंथामरणंताएदंमेणि स्कित्ते के० ) एने विषे मरणांतिक एटले मरणांतसुधी में दंम बांझयो,एतावता ए प्रव्रजीतने एटले यतिपणाने पा मेलोने विणाशवो नही. (जेश्मेयागारमावसंति के) जे गृहस्थावास विषे वसतो पुरु ष, (एएसियामरणंताएदंमेणोणिरिकत्ते के०) तेनुं मरणना अंतसुधी, दंग एटले हणवू निषेध्यं नथी. एबुं तेनुं व्रत विशेष, ( केश्तंचणंसमाजाववासाचनपंचमारंबहस माईके) तेवारें कोइ एक श्रमण, प्रवर्ध्या पर्याय पाली यावत् चार, पांच, ब, तथा दश वर्ष, इत्यादिक (अप्पयरोवानुङियरोवा के ) अल्पकाल, अथवा घणा काल सुधी. (दे संदृङित्ता के० ) चारित्रने विषे विचरी, तथाविध कर्मनें उदयें वली, (धागारमावसे का के०) गृहस्थावास सेवन करे,ए नाव संनवे किंवा न संनवे? तेवारें पागल बेला निर्यथी बोल्या के, (हंतावसेजा के० ) हा, चारित्रिया थकी गृहस्थ थाय. जे कारण माटें कर्मनी गति विचित्र. हवे वली गौतम स्वामी कहेले. (तस्सणंतंगारबंवहमाणस्स के०) हवे ते पुरुष के, जेनें चारित्रियापणे विनाशवानो नियम अने गृहस्थपणे विनाश वानो नियम नथी,तेवारे ते चारित्रियो फीटीगृहस्थ थयो ने तेवाने विनाशता तेनु, (सेपञ्च रकाणेनंगेनव के०) ते पच्चरकाण नांजे, किंवा न नांजे ? ते कहो. तेवार ते बोल्या. (णेतिणसम के० ) ए अर्थ समर्थ न थाय, अर्थात् तेनुं व्रत न नांजे. (एवमे वसमणोवासगस्तवि के०) एणी परें श्रमणोपासकने पण ( तसे हिंपाणे हिंदमणि रिकत्ते के०) त्रस प्राणिने विषे घात करवानो नियम परंतु ( थावरे हिंसाणेहिंदंमेणोणिरिकत्ते के ) अनें स्थावर प्राणिने घात करवानो नियम नथी, ते कारण माटें जे त्रस फीटी में स्थावर थयो, (तस्सणं के०) तेनो, (तंथावरकायं के०) ते स्थावरकायनी, (वहमा गस्त के० ) विराधना करनार श्रावकनुं (सेपच्चरकाणे के० ) ते पञ्चरकाण (णोनंगे नव के०) नंग न थाय. ( सेएवंमायाह के० ) ते एम जाणो (णियंठाए के) अहो निर्यथो! (सेएवंमायाणियवं के०) ते बीजुं पण एमज जाणवू ॥ १४ ॥ ॥ दीपिका-अथ त्रसानां स्थावरत्वं प्राप्तानां वधेपि न व्रतनंगः स्यादित्यत्र दृष्टांतत्रयमा ह। नगवान् । गौतमनदाह उक्तवान् निर्यथाः प्रष्टव्याः । निथानां सर्वेषामप्येतत्सम तमिति ज्ञापनाय निर्यथप्रश्नः। किमुक्तवानित्याह । शांतिप्रधानाइह केचिन्मनुष्याः स्युस्ते पामेतक्तपूर्व नवति । अयं व्रतग्रहणविशेषः स्यात् यश्मे मुंमानत्वाऽगारानिर्गत्यानगा रितां प्रतिपन्नाएषामुपरि मया मरणांतोदंमोनिक्षिप्तोवधस्त्यक्तः । कोर्थः ? केनापि यती Page #1018 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एत वितीये सूत्रकृतांगे वितीय श्रुतस्कंधे सप्तमाध्ययनं. नाश्रित्य व्रतं गृहीतं । यथा यावज्जीवं मया यतयोन हंतव्याइति । येच इमेऽगारं गृहमा वसंति तेषां दंमोन त्यक्तः। गृहस्थानां हिंसा न प्रत्याख्याताश्त्यर्थः। तत्र केचितमणाः कियंतमपि कालं प्रव्रज्यां प्रतिपाल्य । कालमानमाह । वासाइत्ति । वर्षाणि पंच च ष म्दशवा । अस्योपलदणादन्योपि कालविशेषोज्ञेयस्तमेवाह । अल्पतरं प्रनूततरं च कालं । तथा देसंदूश्क विहृत्य कर्मोदयाद्गृहमावसे युदृहस्थानवेयुः एवंनतः पर्यायः किं संनाव्यते उत नेति ? दृष्टानिर्यथाः प्रत्यूचुः हंत गृहवासं व्रजेयुः । तस्य च यतिवधगृ हीतव्रतस्य तं गृहस्थं नतः किं व्रतनंगोनवेत् ? उतनेति ते बाहुर्ने ति । एवं श्राइस्य त्र सवधनिवृत्तस्य स्थावरस्य प्राप्तं त्रसं प्रतोन स्याद्रतनंगः ॥ १४ ॥ ॥ टीका-सांप्रतं त्रसानां स्थावरपर्यायापन्नानां व्यापादनेनापि न व्रतगोजवतीत्यर्थ स्य प्रसिक्ष्ये दृष्टांतमाह । (नगवंचणमित्यादि) णमिति वाक्यालंकारे। चशब्दः पुनःशब्दा र्थे । पुनरपि नगवान् गौतमस्वाम्येवाह । स्वौइत्यपरिहरणार्थमपरानपि स्थविरान् सादि गः कर्तुमिदमाह । ते निZथायुष्मत्स्थविराः खलु प्रष्टव्यास्तद्यथा आयुष्मंतोनिय॑थायु ष्माकमप्येत दयमाणमनिमतमाहोस्विनेत्यवष्टंजेन चेदमाह । युष्माकमप्येतदनिप्रेतं यदहं वज्मि । तद्यथा। शांतिरुपशमस्तत्प्रधानाएके केचन मनुष्यानवंति न नारकतिर्यग्दे वाः किं तर्हि मनुष्यास्तेपि नाकर्मनमिजानापि म्लेहाअनार्यावा तेषां चार्य देशोत्पन्ना नामुपशमप्रधानानामेतक्तपूर्व नवति अयं व्रतग्रहणविशेषोनवति । तद्यथा। यश्मे मुंमा नूत्वाऽगाराहानिर्गत्यानगारतां प्रतिपन्नाः प्रव्रजिताइत्यर्थः । एतेषां चोपचर्यामरणांतं मया दंमोनिक्षिप्तः परित्यक्तोनवति । इदमुक्तं नवति कश्चित्तथाविधोमनुष्योयतीनुदि श्य व्रतं गृहाति तद्यथा न मया यावजीवं यतयोहंतव्यास्तथा ये चेमेऽगारं गृहवा समावसंति तेषां दंमोनिक्षिप्तश्त्येवं केषांचिदूव्रतग्रहणविशेषे सति व्यवस्थिते इदमपदि श्यते तत्र केचन श्रमणाः प्रव्रजिताः कियंतमपि कालं प्रव्रज्यापर्यायं प्रतिपाल्य तमेव काल विशेषं दर्शयति । यावर्षाणि चत्वारि पंच वा षड् दश वास्य चोपलणत्वादन्योपि काल विशेषोइष्टव्यः। तमेवाह । अल्पतरं प्रनूततरं वा कालं तथा देशंच दृश्ऊइत्ति । विहत्य कुतश्चित्कर्मोदयात्तथाविधपरिणतेरगारं गृहवासं वसेयुग्रुहस्थानवेयुरित्येवंनूतः पर्यायः कि संनाव्यते?चत नेत्येवं दृष्टानिर्यथाः प्रत्यूचुः हंत गृहवासं व्रजेयुस्तस्य च यतिवधगृहीत स्य तं गृहस्थं व्यापादयतः किं व्रतनंगोनवेउत नेति ? श्रादुर्नेति । एवमेव श्रमणोपासक स्यापि त्रसेषु दंमोनिदिप्तोन स्थावरेष्विति अतस्त्रसं स्थावरपर्यायापन्नं व्यापादयतस्तत्प्र त्याख्याननंगोन नवतीति ॥ १४ ॥ Page #1019 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राय धनपतसिंघ बाहाउरका जैनागम संग्रह नाग उसरा. एनए नगवंचणं नदादु नियंग खलु पुछियवा आसंतो नियंग श्द खलु गाहावश्गदावश्पुत्तोवा तहप्पगारेदिं कुलेटिं आगम्मा ध म्मं सवणवत्तियं ग्वसंकमेजा दंता नवसंकमेजा तेसिंचणं तहप्प गाराणं धम्म आइस्कियत्वे दंता आइस्कियत्वे किं ते तहप्पगारंध म्मं सोचा पिसम्म एवं वएका इणमेव निग्गंथं पावयणं सचं अणुत्तरं केवलियं पडिपुलं संसुद्धं णेयानयं सल्लकत्तणं सिधिम ग्गं मुत्तिमग्गं निजाणमग्गं निवाणमग्गं अवितदमसंदिई सब पुरकपदीणमग्गं एबंख्यिा जीवा सिशंति बुझंति मुच्चंति परिणि वायंति सबजरकाणमंतं करेंति तं माणाए तदा गबामो तदा चि हामो तदा णिसियामो तदा सुयट्टामो तदा मुंजामो तदा नासा मो तदा अनुहामो तदा नहाए नहेमोत्ति पाणाणं नूयाणं जी वाणं सत्ताणं संजमेणं संजमामोत्ति वएका हंता वएजा किं ते तहप्पगारा कप्पंति पवावित्तए दंता कप्पंति किं ते तदप्पगारा क पंति मुंमा वित्तए दंता कपंति किं ते तदप्पगारा कप्पंति सिरका वित्तए दंता कप्पंति किं ते तदप्पगारा कप्पंति वनावित्तए दंता कप्पति तेसिंचणं तदप्पगाराणं सवपाणेहिं जाव सबसत्तेहिं दंगे जिस्कित्ते दंता णिस्कित्ते सेणं एयारूवेणं विदारेणं विहरमाणा जाव वासाइंचगपंचमाइंबहसमाश्वा अप्पयरोवा नुऊयरोवा देसं दुश्लेत्ता आगारं वएजा हंता वएजा तस्सएं सबपाणेदिं जाव सबसत्तेहिं को णिरिकत्ते से जे से जीवे जस्स परेणं सवपाणेहिं जाव सबसत्तेहिं दमणो णिस्कित्ते से जे से जीवे जस्स आरेणं सबपाणहिं जाव सत्तेहिं दमे जिस्कित्ते से जे से जीवे जस्स श्याणिं सबपाणोदं जाव सत्तेहिं दंझे णो णिरिकते नवश्प रेणं असंजए आरेणं संजए श्याणि असंजए असंजयस्स एं सबपाणेहिं जावसत्तेहिं दमे णो णिरिकत्ते नव सएव मायाणह णियंग से एव मायाणियत्वं ॥ १५ ॥ Page #1020 -------------------------------------------------------------------------- ________________ uua द्वितीये सूत्रकृतांगे द्वितीय श्रुतस्कंधे सप्तमाध्ययनं . अर्थ - नगवंत श्रीगौतम स्वामी, वली बीजो दृष्टांत देखाडता बता बोल्या के, या दृष्टां मां निर्यथोनें नि पूवुं. अहो यायुष्यमंत निर्ग्रयो ! या जगत्मांहे गृहपति, अथवा गृहपतिना पुत्र, ते तथाप्रकारनां रूडा कुलने विषे ( यागम्मा के० ) खावीनें ( धम्मंस्स वणवत्तियं के०) धर्म सांनलवानें (नवसंकमेका के० ) उद्यम करे ? एवं पुढचं ते वा रें निर्यथ बोल्या, (हंतानवसंकमेका के०) हा रूडा कुलना उपना होय, ते धर्मने विषे उद्यम करे. तेवारें फरी श्रीगौतमस्वामी बोल्या ( ते सिंचांतहप्पगारा धम्मंयाइरिक ho) तेवा गृहस्थने तथा प्रकारनो धर्म कहेवो ? तेवारें निर्यथ बोल्या (हंतायाइरिक यवे के०) हा ते ग्रहस्थने धर्म कहेवो. फरी श्री गौतमस्वामी बोल्या के, (किंतेत हप्पगारंध सोचा के० ) केम के ते गृहस्थ, तेवा तथा प्रकारनो धर्म सांजलीनें ( पिसम्म के० ) हृदय विषे अवधारीनें ( एवंवएका के० ) एवं वचन बोले. शुं बोले ? तोके ( इणमेव निग्गंथं पावय सञ्चं के० ) ए तीर्थंकरजापित निर्ययनुं प्रवचन, ते सत्यबे . समस्त जी व हितकारी, अनुत्तर अन्यशास्त्रमां प्रधान, केवलिनाषित, उत्तम मनोहर एवो बी जो कोई मार्ग नथी. ( पडिपु संसुईणेयान्यं के० ) मोक्षमार्गना गुणे करी प्र तिपूर्ण, संशुद्ध एटले अत्यंत शुद्ध मोक्षार्थीजीवनें न्यायसंपन्न ( सल्लकत्तां के० ) स म्यक्प्रकारें मायादिक शल्यनो कापनार सिद्धिनो मार्ग, मुक्तिनो मार्ग, एटले निर्लोन पानी मार्ग, निवाण एटले सिद्धनो मार्ग, अर्थात् समस्त कर्मक्ष्य करवानो मार्ग, ते निर्वाणमार्ग ( यवितहं के० ) यवितथ्य सत्य, (असंदिहं के० ) संदिग्ध एटले सं देह रहित मार्ग, सर्वडुःख प्रहीण करवानो मार्ग, ( एवियाजीवा के० ) ए मार्गनें विषे स्थित एटले रहेला जीव, सीति एटले कार्य सिद्धि करे, लोकालोकनुं स्वरूप बूजे, सर्वडुःखथकी मूकाय, ( परिशिवायंति के० ) कर्म रूपदावानलने उपशमाववे करे, शीतलीत था, एटले सर्व समाधि पामे, सर्व दुःखनो अंत करे, ए मार्गनें मे प यादरीनें (माणाए के० ) तमारी याज्ञायें ( तदागच्छामो के० ) तेम चालियें (त हा चिठामो के० ) तेम उनारहियें ( तहालिसियामो के० ) तेम बेशियें ( तदासुयट्टामो के० ) तेम सुयें, एटले निश करियें, ( तहानुंजामो के० ) तेम जमियें ( तहानासा मो० ) ते बोलियें (तहानु हामो के० ) तेम सावधान पुणे प्रवर्त्तियें (तहान हाए ०) तेम नववे करी उठियें ( उमोति के० ) उठीनें जेम सर्व प्राण, नूत, जीव, सत्व, तेनी विराधना न थाय ( संजमेणं के० ) एवा खाचारें करी, ( संजमामो विएका के० ) संयम पानि ते गृहपति एम कहे. ए प्रकारें गौतम प्रभुयें कयुं, तेवारें निर्यथ बोल्या. (हंतावएका के०) हा ते गृहस्थ, जेम तमे बोल्या, तेमज कहे. वली गौत म स्वामी कहे. (किंतेत हप्पगाराकप्पं तिपद्या वित्तए के ० ) केम ते गृहीने तथा प्रकारनुं For Private Personal Use Only Page #1021 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राय धनपतसिंघ बादाडुरका जैनागम संग्रह नाग दुसरा. UU? प्रव्रज्या व्रत कल्पे, एटले दीक्षा व्यापवी कल्पे ? तेवारें निर्यथ बोल्या ( हंताकप्पं ति के० ) हा कल्पे. तेवारें श्री गौतम बोल्या. केम तेवा गृहीनें मुंम करवा कल्पे ? नि थ बोल्या, हा कल्पे. गौतम बोल्या तेवा गृहीनें शीखाववुं कल्पे ? निर्बंय बोल्या हा कल्पे. तेवा गृहीनें धर्मने विषे उठाववो कल्पे ? निर्बंथ बोल्या के, हा कल्पे. तेवा गृहीनें चारित्र जीधा अनंतर सर्वप्राण, नूत, जीव, सत्व, तेनें विषे घात करवानो त्याग एटले वाणुं कल्पे ? तेवारें निर्भय बोल्या के, हा कल्पे. (सेां के० ) ते, ण ए वे वाक्यालंकारें तडूपेण एटले एवे विहारें विचरता यावत् चार, तथा पांच, ब, तथा दश वर्ष, अथवा अल्पकाल, अथवा घणा काल पर्यंत देशमांहे, अथवा संयममांहे विचरी तथाविध चारि त्रावरणीय कर्मने उदयें वजी गृहवास सेवे ? तेवारें निर्यथ बोल्या हा सेवे. जे कारण माटें कर्मनी गति वैचित्र्वे तेथी जेणें चारित्र मूकीने गृहवास यादखोबे तेनें सर्वप्राण, नूत, जीव, खनें सत्वनें विषे घात मूकाणो ? अर्थात् नहीं मूकाणो, तो हवे जुन के (सेजेसेज वे के० ) ते जीव, जे प्रथम गृहस्थ हतो. तेवार पढी ते जीव चारित्रियो थयो. तेवारें पण तेज जीव हतो, तेवार पढी वली गृहस्थ थयो तेवारें पण तेहिज जीव बे . ( जस्सपरें के ० ) जेने प्रथम, सर्व प्राण, भूत, जीव, सत्वना वधनो दंग नथी बंगालो तेज जीव, जेनें खारेण एटले वच्चें ढंमाणो ने जेने इयाणि एटले हमला वर्तमानें वली नयी बंगालो, ए रीतें तेनी त्रण अवस्था यइ. प्रथम संयत हतो, वच्चें संयत थयो, तेवार पी वली असंयत थयो तेवारे तेने सर्व प्राण, यावत् सर्व सत्वना वधनो दंग, माण न होय, ए जीव कांइ सर्वकाल असंयत न कहेवाय! परंतु जेवारें जेवो होय. तेवारें वो कहेवाय. तो हो निर्यथो त्रस! घने स्थावरने विषे पण एम जाणवुं माटें जेवारें त्रस तेवारें त्रस, नें जेवारें स्थावर. तेवारे स्थावर. ए बीजो दृष्टांत कह्यो ते एम जाणे धने बिजु पण एप्रमाणे मानतुं ॥ १५ ॥ ॥ दीपिका-थ द्वितीयदृष्टांतं प्रत्याख्यातृविषयगतं दर्शयन्नाह । भगवान् गौतमः प्राह । निर्ययाः प्रष्टव्याः इह खलु गृहपतिर्वा गृहपतिपुत्रोवा तथाप्रकारेषु श्रेष्ठकुलेषु उत्पद्य धर्मश्रवणार्थमाग वेयुः तेषां धर्मयाख्यातव्यइति पृष्टे श्रमणाप्रादुः । दंत या ख्यातव्यः किं ते तथाप्रकारं शुद्धं धर्म श्रुत्वा एवं वदेयुः । इदमेव निर्यथसंबंधि प्रवचनं सत्यं यावत् सर्वडुःखप्रहीणमार्ग इवंति । यत्र स्थिताजीवाः सिध्यंति । यावत्सर्वदुःखा नातं कुर्वेति तदाज्ञया तथा गवामः तथा वेष्टामहे यावत् तथा उन्हया प्रयत्नेन प्रा पिनां संयमेन हिंसा निवृत्या संयमामोसंयमं कुर्मोयथा जिनाज्ञा एवं ते वदेयुः इति पृष्ठे श्रमायाः हंत वदेयुः । पुनः श्रमणान् ष्टष्ठति । किं ते तादृशायोग्याः कल्पते प्र ब्राजयितुं । श्रमाप्रादुर्हत कल्पते इत्यादि । तेसिंचणं तैस्तथाविधैः सर्वजी वेन्योदंमस्त्य For Private Personal Use Only Page #1022 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एएश वितीये सूत्रकृतांगे वितीय श्रुतस्कंधे सप्तमाध्ययनं. क्तः एवं विधास्ते विहरतोवर्षाणि चत्वारि पंच वा षट् दश वा अल्पतरं बहुतरं वा कालं देशयामादावुद्यतविहारेण विहत्य पश्चात्पतितपरिणामाः संतोगारं व्रजेयुर्गहस्थानवेयुरि त्यर्थः । निर्यथाः एष्टोत्तरमादुः । दंत व्रजेयुः तेषां सर्वप्राणियोदंमोनो निक्षिप्तः । तेषा मवस्थात्रयमाह । पूर्व गृहस्थत्वे सर्वजंतुवधोन त्यक्तः अथ यः ससाधुत्वे सर्वजंतुवध स्तेन त्यक्तः । पुनः साधुत्वं मुक्त्वेदानी गृहस्थे जाते सर्वजंतुवधोन त्यक्तः । पूर्वमसंयतः१ भारतः संयतः इदानीमसंयतः३ असंयतस्य सर्वजंतुवधोन त्यक्तः। तदेवं जानीत निर्य थास्तदेवमाज्ञातव्यं । एवं यथावस्थात्रयेप्यन्यथात्वं स्यादेवं त्रसस्थावरयोरपि झेयं ॥१५॥ ॥ टीका-सांप्रत पुनरपि पर्यायापन्नस्यान्यथात्वं दर्शयितुं दितीयं दृष्टांतं प्रत्याख्यात विषयगतं दर्शयितुमाह (जगवंचणमित्यादि) नगवानेव गौतमस्वाम्याह । तद्यथा गृह स्थाः यतीनामंतिके समागत्य धर्म श्रुत्वा सम्यक्त्वं प्रतिपद्य तउत्तरकालं संजातवैराग्याः प्रव्रज्यां गृहीत्वा पुनस्तथाविधकर्मोदयात्तामेव त्यजति तेच पूर्व गृहस्थाः सर्वारंनप्रवृत्ता स्तदा रताः प्रव्रजिताः संतोजीवोपमर्द परित्यक्तदंमाः पुनःप्रव्रज्यापरित्यागे सति नो परित्य क्तदंमाः । तदेवं तेषां प्रत्याख्यातृणां यथावस्थात्रयेप्यन्यथात्वं नवत्येवं त्रसस्थावरयोर पि इष्टव्यमेतच्च नगवंचणमुदादुरित्यादेपंथस्य सेएवमायाणियवं इत्येतत्पर्यवसानस्य तात्पर्य । अदघटना तु सुगमति स्वबुध्या कायों ॥ १५ ॥ नगवंचणं दादु णियंग खलु पुछियवा आ-संतो नियंग इह ख लु परिवाश्यवा परिवाश्ानवा अन्नयरेहितो तिबाययणहिंतो आगम्मधम्म सवणवत्तियं वसंकमेजा हंताग्वसंकमेजा किं ते सिं तदप्पगारेणं धम्मे आइस्कियत्वे दंता आइस्कियत्वे तंचेव वहा वित्तिए जाव कप्पंति दंता कपंति किं ते तहप्पगारा कप्पति संजि त्तए दंता कप्पंति तत्तेणं एयारूवेणं विदारेणं विदरमाणा तंचेव जा व आगारं वएका दंता वएका तेणं तहप्पगारा कप्पंति संनुंजित्तए णोइण सम से जे से जीवे जे परेणं तो कप्पति संतुंजित्तए से जे से जीवे आरेणं कप्पंति संनुजित्तए से जे से जीवेजे इयाणी गो कप्पंति संनुंजित्तए परेणं अस्समणे आरेणं समणे श्याणिं अस्स मणे अस्समणेणं सिद्धिं णो कप्पंति संमणेणं निग्गंथाणं संनुजि त्तए से एव मायाणद णियंग सेएव मायाणियत्वं ॥२६॥ Page #1023 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राय धनपतसिंघ बादाउरका जैनागम संग्रह नाग उसरा. एए३ अर्थ-हवे नगवंत श्री गौतमस्वामी त्रीजो दृष्टांत कहे के, या दृष्टांतनें विषे प ण, निचे नियंथोनें पूवं. ए कारण माटें निर्यथ उद्देशीनें पूजे जे के, अहो आयुष्यमंत निग्रंथो! निथें था जगत् मांहे परिव्राजक संन्यासी, परिव्राजिका संन्यासिणी, तथा (अन्नयरे हिंतोतिबाययणेहिंतो के०) अन्य तीर्थायतनथको भावीने (यागम्मधम्मंसव गवत्तियं के०) बागम धर्म सानलवाने साधु पासें आवी ते(नवसंकमेजा के०) उद्यम करे ? (हंतानवसंकमेडा के) हा भावीने उद्यम करे, तो केम तथाप्रकारना परिव्राज क, तथा परिव्राजिकाने धर्म कहेवो ? हा धर्म कहेवो. (तंचेवनवतावित्तिए के०) तेम कहे वो के, ज्यांसुधि तेने नाव, कल्पे.? हा, कल्पे. ते वली परिव्राजक थका चारित्रिया थयाडे, तेने मंझलें बेसाडवा कल्पे? दा, बेसाडवा कल्पे. तथा थाहार पाणी लेवो कल्पे ? दा, कल्पे. एवा विहारें विचरता ते वली ज्यां सुधी तथाविधकर्मनें उदयें करीगृहस्थावास सेवे ? हा, सेवे. तेवारें तेने तथाप्रकारे थाहारपाणी करवा, मंमलीमा बेसाडवा कल्पे? तेवारें निग्रंथबोव्या, के, (गोणसम के०)ए अर्थ समर्थ नथी. एतावता तेनें मंझलीमा बेसा डबुं न कल्पे. तो हवे जुन ! के तेनो तेज जीव, तेनी साथे प्रथम आहार पाणी करवो न कल्पे, वच्चं वत्ती आहारपाणी करवो कल्पे, अनें वली तेज जीव साथें हमणां याहार पाणी करवो न कल्पे. एम तेनी त्रए अवस्था थ. प्रथम अनमण, पडी वच्चे श्रमण, ने हमणां वली अश्रमण. ते अश्रमणपणायें सहित एवा ते श्रमण नियंथने मंमलीमा पोतानी साथें बेसारी जमाडवो न कल्पे. अहो नियंथो ! ए दृष्टांतनी पेठे बस स्था वरने विषे पण जाणवू. जेवारे त्रस तेवारे त्रसज, अने जेवारें स्थावर, तेबारें स्था वरज, जाणवा. ए रीतें मानो, अनें एवी रीतें जाणवू. एप्रमाणे नियंथनो साक्षियें दे शविरति प्रमाण करी ॥ १६ ॥ ॥दीपिका-अथ तृतीयं दृष्टांतं परतीथिकानुद्दिश्याह । सुगमार्थमिदं सूत्रं । तात्पयार्थ स्त्वयं पूर्व परिव्राजकादयः संतोऽसंनोग्याः साधूनां गृहीतश्रामण्याश्च साधूनां संनोग्याः पुनः श्रामण्यत्यागेऽसंनोग्याः एवं पर्यायान्यथात्वं त्रसस्थावराणामपि योज्यं ॥ १६ ॥ टोका-तदेवं वितीयं दृष्टांतं प्रदाधुना तृतीयं दृष्टांतं परतीर्थिकोदेशेन दर्शयितुमा ह। (नगवंचणमुदादुरित्यादि जावसेएवमायाणियवत्ति) नत्तानार्थ । तात्पर्यार्थस्त्वयं पू वै परिव्राजकादयः संतोऽसंजोग्याः साधूनां गृहीतश्रामण्याच साधूनां संजोग्याः संवृत्ताः पुनस्तदनावे त्वसंनोग्याश्त्येव पर्यायाऽन्यथात्वं त्रसस्थावराणामप्यायोजनीयमिति॥१६॥ नगवंचणं नदादु संतेगश्या समणोवासगा नवंति तेसिंचणं एवं वुत्तं पुर्व नव पो खलु वयं संवाएमो मुंमा नवित्ता आ १२५ Page #1024 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (Urva वितीये सूत्रकृतांगे वितीय श्रुतस्कंधे सप्तमाध्ययनं. गाराने अणगारियं पवश्त्ताए वयं णं चानदसम्मुदिहपुस्मि मासिणीसु पडिपुग्मं पोसहं सम्मं अणुपालेमाणा विहरि स्सामो यूलगं पाणाश्वायं पच्चरकाइस्सामो एवं थूलगं मुसा वायं थूलगं अदिन्नादाणं थूलगं मेदुणं थूलगं परिग्गरंप चस्काइस्सामो श्वापरिमाणं करिस्सामो उविहं तिविदेणं मा खलु ममघाए किंचि करेहवा करावेहवा तब विपञ्चकाइस्सा मो ते णं अनोच्चा अपिच्चा असिणाइत्ता आसंदीपेढिया प चारुहिता ते तदा कालगया किं वत्तवंसिया सम्मं कालग तावि वत्तवंसिया ते पाणावि वुचंति ते तसावि वुच्चंति ते महा काया ते चिरहिश्या ते बढ़तरगा पाणा जेहिं समणोवासग स्स सपच्चरकायं नव ते अप्पयरागा पाणा जेहिं समगोवास गस्स अपच्चरकायं नवशति से महया जणं तप्ने वयह तं चेव जाव अयंपि नेदे से णो णेयानए नव ॥१७॥ अर्थ-वली उदक प्रत्ये गवंत श्री गौतमस्वामी बोल्या के, निश्चे या जगत् मां हे कोई एक श्रमणोपासक होय, तेणे एवं व्रत विशेष पूर्वे उच्चार कडे होय के, नि | अमे मुंम थई गृहस्थावास थकी, अणगार पणुं श्रादरी शकवाने समर्थ नथी तेथी, अमें चतुर्दशी, अष्टमी, चोमासानी त्रण पूर्णिमा, तथा उद्दिष्टतिथि ते महा कल्याणिक तिथि, एटले दिवसें प्रतिपूर्ण सम्यक् प्रकारे पौषध पालता विचरिद्यु, तथा वली स्थूल प्राणातिपात पञ्चरकीयु. एणी पेरें स्थूल मृषावाद, स्थूल अदत्तान, स्थून मैथुन, स्थल परिग्रह, पच्चरकोगुं. इबा प्रमाणे करीगुं, “विहंतिविहेणं" इत्यादिक नांगायें करी पञ्चखीमु. (माखलुममहाए के) निश्च महारे अर्थे पौषध मांदे कांहिं पचन पाचनादिक म करवू. बीजा पासें म करावयूँ, त्यां पण एवं पूर्वोक्त अ में पञ्चरकाण करीशु (तेणं के०) ते एवा व्रतना उच्चार करनार श्रावक, (अनो चा के० ) यजम्या, (अपिञ्चा के) पाणी पीधा विनाना, (असिणाश्त्ता के०) अने स्नान कस्या विना, पोसहवत करे. पोसहव्रतमां एटला वानां न करे. (यासंदी के० ) मंचक, (पेढिया के) पीढी, मांची इत्यादिक, ते थकी (पचारु हित्ता के) उत्तरीने सम्यक् प्रकारें पौषध तीये. (तेतहाकालगयाकिंवत्तवंसिया Page #1025 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रायधनपतसिंघ बादाउरका जैनागम संग्रह नाग उसरा. (एव्य के ) तेणें तथा प्रकारे काल कीधो, तो तेनें केवा कहियें, ते रूडी पेरें मरण पा म्या कहिये किंवा नहीं? तेवारें निथ बोल्या के, (सम्मंकालगयाविवत्तवसिया के०) ते सम्यक् प्रकारें रूडी रीतें कालगत थया एम कहिये,तेवारें श्रीगौतम बोल्या के, ए रीतें जेणे काल कीधो, तेने अवश्य देवलोकनें विषे नत्पत्ति जाणीयें जैसें केमके, रूडे परिणामें जे मरण पामे ते देव थाय. (तेपाणाविवुच्चंति के०) त्यां थका तेने प्राण पण कहियें, (तेतसाविवुच्चंति के ) तेने त्रस पण कहियें, ते महाकाय कहीयें, तेने चिरस्थितिक कहियें,तो ए कारणे (तेबदुतरगापाणा के०) ते घणा जीव के,(जेहिंसमणोवासगस्ससुप चखायंनवर के०) जेने विषे श्रावकने रूडूं पञ्चरकाण होय. अने ते थोडा जीव, के जेने विषे श्रावकनें पञ्चरकाण नथी. एम ते श्रावकनें महोटी त्रसकाय थकी नपशमले ते पञ्चखाण राखवानो उद्यम तेने विराधवानी विरति. एवा श्रावकनें तमे कहोबो के, एवो को पर्याय नथी के,जेणे करी श्रावकनें एक पण प्राणातिपात, पञ्चरकाण थाय! ते तमाळं वचन न्यायमार्गर्नु नथी ॥ १७ ॥ ___दीपिका-एवं दृष्टांतत्रयेण निर्दोषां देश विरतिं प्रसाध्य पुनरपि तजतमेव विचारमा द । नगवान गौतमनदकं प्रत्याह । शांतिप्रधानाएके श्रमणोपासकानवंति तेषां च ३ दमुक्तपूर्व नवति । यथा न खलु वयं शकुमःप्रव्रज्यां ग्रहीतुं किंतु? वयं चतुर्दश्यष्टम्यादिषु तिथिषु संपूर्ण पोषधं सम्यगनुपालयंतोविहरिष्यामः तथा स्थलप्राणातिपातमृषावादा दत्तादानमैथुनपरिग्रहं प्रत्याख्यास्यामः। विविधं कृतकारितनेदात् श्राइस्यानुमतेरनिषिद त्वात्रिविधं मनोवचनकायैः मा निषेधे पौषधस्थस्य मम कृते किंचित्पचनपाचनादिकं मा कार्ट परेण मा कारयत सर्वथाऽसंनविनोवस्तुनोऽनुमतेरपि निषेधः तत्रापि प्रत्याख्यास्यामः ते श्रावकाअनुक्त्वाऽपीत्वाऽस्नात्वा च पौषधयुतत्वादासंदीपीतिकातः प्रत्यारुह्याऽवतीर्य सम्यक् पौषधं कृत्वा कालं कृतवंतः ते किं सम्यकृतकालाचतासम्यक् ? एवं प्रष्टैनिथैरव श्यमेवं वक्तव्यं ते सम्यक्कालगता। एवं कालगतानामवश्यंनावी देवलोकोत्पादः तत्रोत्प नाश्च ते त्रसाएव ततश्च कथं निर्विषयता प्रत्याख्यानस्येति ॥ १७ ॥ ॥ टीका-तदेवं दृष्टांते प्रत्याख्यातृविषयगतोगृहस्थयतिपुनर्गृहस्थनेदेन पर्यायनेदः प्रदर्शितः। तृतीयेतु दृष्टांते परतीर्थिकसाधुनावोनिष्क्रमणनेदेन संनोग बारेण पर्यायनेद व्यवस्थापितइति । तदेवं दृष्टांतप्राचुर्येण निर्दोषां देश विरतिं प्रसाध्य पुनरपि तजतमेव विचारं कर्तुकामयाह । (जगवंचणमुदादुरित्यादि ) पुनरपि गौतमस्वाम्युदकं प्रतीदमा ह । तद्यथा बहुनिः प्रकारेस्त्रससनावः संनाव्यते ततश्चाशून्यस्तैः संसारस्तदशून्यत्वे Page #1026 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६ द्वितीये सूत्रकृतांगे द्वितीय श्रुतस्कंधे सप्तमाध्ययनं तन्निर्विषयं श्रावकस्य सवध निवृत्तिरूपप्रत्याख्यानं । तदधुना बहुप्रकारत्रस संभूत्याऽशून्य तां संसारस्य दर्शयति । नगवानाह । संति विद्यते शांतिप्रधानावा एके केचन श्रमणो पासकाजवंति तेषां चेदमुक्तपूर्वं नवति संनाव्यते च श्रावकाणामेवंभूतस्य वचसः संभव इति । तद्यथा । न खलु वयं शक्नुमः प्रव्रज्यां ग्रहीतुं किंतु ? वयं । समिति वाक्यालंकारे । चतुर्दश्यष्टमी पौर्णमासीषु संपूर्ण पौषधमाहारशरीरसत्कारब्रह्मचर्याव्यापाररूपं पौषधं सम्यगनुपालयं तो विहरिष्यामः तथा स्थूलप्राणातिपातमृषावादादत्तादानमैथुन परिय हं प्रत्याख्यास्यामोदिविधमिति कृतकारितप्रकार श्येनानुमतेः श्रावकस्याप्रतिषिधत्वात्तथा त्रिविधेनेति मनसा वाचा कायेन च तथा माइति निषेधे खलु इति वाक्यानं कारे मदर्थ पचनपाचनादिकं पौषधस्य मम कृते मा कार्ष्ट तथा परेण मा कारयत तत्राप्यनुमतावपि सर्वथा यदसंभवति तत्प्रत्याख्यास्यामः ते एवंभूतकृतप्रतिज्ञाः संतः श्रावकाः प्रनुक्त्वाऽ पीत्वाऽस्नात्वा च पौषधोपेतत्वादासंदीपीठिकातः प्रत्यारुह्यावतीर्य सम्यक् पौषधं गृही त्वा कालं कृतवंतस्ते तथाप्रकारेण कृतकालाः संतः किं सम्यक्कृतका लावता सम्यगिति ? कथं वक्तव्यं स्यादित्येवं प्रष्टैर्निर्ययैरवश्यमेवं वक्तव्यं स्यात् सम्यक्कालगता इत्येवं कालग तानामवश्यंभावी तेषां देवलोकेषूत्पादस्तत्पन्नश्च त्रसएव ततश्च कथं निर्विषयता प्रत्याख्यानस्योपासकस्येति ॥ १७ ॥ भगवंचणं दादु संतेगइया समणोवासगा नवंति तेसिंचणं ए वं वृत्तं पुवं नवइ पो खलु वयं संवाएमो मुंमा नवित्ता आगा राजा पवत्तणो खलु वयं संवाएमो चानद्दस हमुदि ६पुस मासिणीसु जाव णुपालेमाणा विहरितए वयं णं पचिम मारतियं संखेदणा जूसणा जूसिए नत्तपाणं पडियार किया जाव कालं प्रणवकखमाणा विहरिस्सामो सवं पाणाश्वायं पच्च काइस्सामा जाव सवं परिग्गदं पच्च का इस्सामो तिविदं तिविदे माखनु ममा किंचिवि जाव आसंदी पेढियान पच्चारुदित्ता एते तहा कालगयाइ किं वत्तद्वंसिया सम्मं कालगयाइ वत्तवं सिया ते पाणावि बुच्चति जाव प्रयंपि भेदे से लो यानए नवइ ॥ १८॥ अर्थ- वली गौतम स्वामी कहेबे कोई एक श्रमणोपासक एवा होय, तेथे एवं पूर्वे व्रत उच्चारवानुं वचन कयुं होय के, निमे मुम थइने गृहस्थावास थका यावत् श्र For Private Personal Use Only Page #1027 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राय धनपतसिंघ बादाडुरका जैनागम संग्रह नाग दुसरा. ७ गार पणुं खादरी शकवाने समर्थ नथी. चतुर्दशी, अष्टमी, त्रण चोमासानी पू र्णिमा, तथा महाकल्याणिक तिथिने विषे पौषध लइ न शकियें खमारे बेले कालें मर ने ते शरीर पातनुं पाडवा संवेषणाने विषे जूसणा एटले यात्मा स्थापवो, स्था पीने जात, एटले अन्न पाणी निषेधिने यावत् मरणकाल घण वांबता मरणा जिलाषा य करता विचरीशुं यावत् सर्व प्राणातिपात, सर्व मृषावाद, सर्व प्रदत्तादान, सर्व मैथुन, सर्व परिग्रह, त्रिविध त्रिविध प्रकारें पञ्चरकीशुं, तथा खमारे अर्थे कांइ पण पचन पाचनादिक म करो, म करावो, एवं पण पञ्चरकाण करीगुं. ते श्रावको ए रीतें या जमते, पाणी घणपी ते, स्नानादिक प्रण करते, मंचक, मांची इत्यादिक थकी उतरीने ते प्रकारें काल करे. तो तेने केवा कहियें, रूडा मरणना करनार कहियें के, माठा मरणना करनार कहियें ? ते वारें निर्यथ बोल्या, ते रुडी पेरें काजगत थया कहेवाय, तेपाणाविवुञ्चति इत्यादिक शब्दोनो घर्थ, पूर्ववत् जाणवो. यावत् तमारुं एवं बोलवं, ते न्याय मार्गनुं नथी. त्यां सुधी जाणवुं ॥ १८ ॥ 1 || दीपिका - पुनः श्रोद्देशेन प्रत्याख्यानविषयं दर्शयति । गौतमः प्राह । संति वि एके केचन श्रमणोपासकास्तेषामेतदुक्तपूर्वं नवति । यथा न शक्रुमवयं प्रव्रज्यां ग्रहीतुं नापि चतुर्दश्यादिषु सम्यक् पौषधं पालयितुं वयं चापश्चिमया संलेखन पाया ऋपितकायाः । यदिवा संलेखना जोषणया सेवनया जोषिताः सेवितानत्तमार्थगुणैरेवं नूताः संतोक्तपानं प्रत्याख्याय कालं दीर्घकालमनवकांक्षमाणा विहरिष्यामः । कोर्थः ? न खलु वयं दीर्घकालं व्रतं पालयितुं समर्थाः किंतु वयं सर्वमपि प्राणातिपातादिकं प्र त्याख्याय संलेखनया संलिखित कायाश्चतुर्विधाहारत्यागेन जीवितं व्यक्तुं समर्थाः । इति सूत्रेणैवाह । (सर्व्वपाणाश्वायमित्यादि ) यावत्ते तथा कालगताः किं वक्तव्यमेतत्स्यात् सम्यकूते कालगत इति पृष्टानिर्ययाप्राहुर्यथा ते सन्मनसः शोजन चित्ताः कालगता इति । ते कालं कृत्वा सुरलोकेषूत्पद्यते तत्र चोत्पन्नायद्यपि हंतुं न शक्यते तथापि त्रस त्वात् श्राद्धस्य सवध निवृत्तिप्रत्याख्यानस्य विषयाः स्युः ॥ १८ ॥ ॥ टीका - पुनरन्यथा श्रावकोद्देशेनैव प्रत्याख्यानस्य विषयं प्रदर्शयितुमाह । ( जगवं चमित्यादि) गौतमस्वाम्येवाह । तद्यथा संति विद्यते एके केचन श्रमणोपासकास्तेषां चैतक्तपूर्वं नवति । तद्यथा । खलु न शक्नुमोवयं प्रव्रज्यां ग्रहीतुं नापि चतुर्दश्यादिषु स म्यक् पौषधं पालयितुं वयं चापश्चिमया संलेखनपण्या पितकायायदिवा संलेखना जोषणया सेवनया जोषिताः सेविताउत्तमार्थगुणैरित्येवंभूताः संतोनक्तपानं प्रत्याख्या For Private Personal Use Only Page #1028 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एए हितीये सूत्रकृतांगे वितीय श्रुतस्कंधे सप्तमाध्ययनं. य कालं दीर्घमनवकांक्षमाणा विहरिष्यामः । इदमुक्तं नवति । न वयं दीर्घकालं पौषधादि के व्रतं पालयितुं समर्थाः किंतु ? वयं सर्वमपि प्राणातिपातादिकं प्रत्याख्याय संलेखनया संलिखितकायाश्चतुर्विधाहारपरित्यागेन जीवितं परित्यक्तमतमिति । एतत्सूत्रेणैव दर्शयति ( सर्वपाणावायमित्यादि ) सुगमं । यावत्ते तथा कालगताः किं वक्तव्यमेतत्स्यात्सम्यक् ते कालगताश्त्येवं दृष्टा निर्ग्रथाएतदूचुर्यथा ते सन्मनसः शोननमनसस्ते कालगताइति तेच सम्यक् संलेखनया यदा कालं कुर्वति तदाऽवश्यमन्यतमेषु देवलोकेषुत्पद्यते तत्र चोत्पन्नायद्यपि ते व्यापादयितुं न शक्यते तथापि त्रसत्वात्ते श्रावकस्य त्रसवधनिवृत्तस्य विषयतां प्रतिपद्यते ।। १७ ॥ नगवंचणं दादु संतेगश्या मणुस्सा नवंति तंजदा महश्वा म दारंना महापरिग्गदा अहम्मिया जाव उप्पडियाणंदा जाव स वान परिग्गहा अप्पडिविरया जाव जीवाए जेहिं समणोवा सगस्स आयाणसो आमरणंताए दंझे णिकित्ते ते ततो आनगं विप्पजति ततो नुको सगमादाए जुग्गगामिणो नवंति ते पाणावि बुचंति ते तसावि वच्चंतिते महाकाया ते चिरहिया ते बढुयरगा आयाणसोति से महयाने णं जमं तुप्ने वदह तंचेव अयंपि नेदे से णो णेयानए नव॥१॥ अर्थ-वली गौतम स्वामी कहे. या जगत् माहे कोई एक एवा होय, ते कहेले. (महश्वा के०) महोटी नावाला एटले महालोनी, महायारंजी, महापरिग्रही, अधार्मि क यावत् उष्प्रत्यानंदी, एटले कोइनुं चुंझं थाय तो पोतें आनंद पामे, यावत् सर्व परि ग्रह थकी अविरति एटले निवर्त्या नथी. जाव जीव लगें जेनें विपे श्रमणोपासकने (या याणसो के०) प्रथम व्रत ग्रहण प्रारंजीने मरणांत सुधी त्रस पणाने लीधे तेनो घात बमाणो. हवे ते सर्वथा अविरति मनुष्यनो ते नवसंबंधी आयुष्यनो क्ष्य थये थके ते आयुष्य त्यागीने (नुजोसगमादाए के० ) वली पोताना उपार्जन करेला कर्मो लेख्ने (उग्गगामिणोनवंति के०) दौर्गतिगामि थाय, एटले युं कर्तुं ? तोके, जे महारंनी, म हापरिग्रही होय, ते नरकादिक उर्गतियें जाय. त्यां बतां तेने प्राण पण बोलियें, अनेत्र स पण बोलियें, ते महाकायवाला कहिये, तेने घणी स्थिति होय, एम पण कहियें, ते घ णा जीवनी त्रस जाति पणाने पामे. माटें तेनो विनाश करवाने विषे श्रावकने रूई पच्च रकाण होय. इत्यादिक पूर्ववत् जाणवू. ए कारणे तमाएं बोलवू न्याय मार्गनुं नथी॥१॥ Page #1029 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राय धनपतसिंघ बादाउरका जैनागम संग्रह नाग उसरा. एएए ॥ दीपिका-पुनः प्रत्याख्यान विषयमाह । न प्रथमव्रतग्रहणं ततधारन्य मरणांत या वमोनिक्षिप्तस्त्यक्तः। तेच तस्मानवात्स्वायुषं जहंति त्यक्त्वा त्रसजीवितं स्वकं पाप मादाय गृहीत्वा मुर्गतिगामिनः स्युः। महारंपरिग्रहत्वात्ते मृतानरके नारकत्रसत्वेनोत्प नाः सामान्येन प्राणिननच्यते विशेषतस्तु त्रसामहाकायाश्त्यादि पूर्ववत् ॥ १५ ॥ ॥ टीका-पुनरन्यथा प्रत्याख्यानस्य विषयमुपदर्शयितुमाह। (जगवंचणंउदादरित्यादि) नगवानाह । एके केचन मनुष्याएवंनूतानवंति । तद्यथा महेबामहारंजामहापरिग्रहा इत्यादि सुगमं । यावद्यैर्येषु वा श्रमणोपासकस्यादीयतश्त्यादानं प्रथमव्रतग्रहणं ततथा रज्याऽऽमरणांतादंमोनिदिप्तः परित्यक्तोनवति। तेच ताग्विधास्तस्मानवात्कालात्स्वा युषं विजहंति त्यक्त्वा त्रसजीवितं ते नूयः पुनः स्वकर्म स्वरूतकिल्बिषमादाय गृही वा उर्गतिगामिनोनवंति एतउक्तं नवति । महारंनपरिग्रहत्वात्ते मृताः पुनरन्यतरप्टथिव्यां नारकत्रसत्वेनोत्पद्यते तेच सामान्यसंझया प्राणिनोविशेषसंझया त्रसामहाकायाः चिर स्थितिकाइत्यादिपूर्ववद्यावत् (णोणेयानएत्ति) ॥ १५ ॥ नगवंचणं नदादु संतेगश्या मणुस्सा नवंति तंजदा अणारंना अ परिग्गदा धम्मिया धम्माणुया जाव सबा परिग्गदान पडिवि रया जाव जीवाए जेहिं समणोवासगस्स आयाणसो आम रणंताए दंजिस्कित्ते ते तानगं विप्पजति ते तनुको सग मादाए सग्गागामिणो नवंति ते पाणावि बुच्चंति जाव णो णेयान ए नव॥२०॥ अर्थ-वली एहिज अर्थ दीपाववा नणी, गौतम स्वामी कहे के, या जगत् माहे को ३ एक मनुष्य, एवा दोय के, निरारंनी, निःपरिग्रही, धार्मिक धर्मनीज अनुमोदना क रनार, इत्यादिक त्यां सुधी कहेवु, ज्यां सुधी सर्वपरिग्रह थकी विरति एटले निवृत्त्याने सर्व विरतिना पालनार, जावजीव सुधी, जेने विषे श्रमणोपासकनें प्रथम व्रतग्रहण का ल प्रारंनी मरणांतसुधी घातनो निषेध कस्यो. ते तेवा सर्व विरति वाला मनुष्य, नव सं बधीनुं आयुष्य बांझीने पोतानां पूर्वोपार्जित गुन कर्म लेने सजतिगामि थाय. ते त्यां बता प्राण पण कहेवाय. इत्यादिक बीजो पात, सर्व पूर्ववत् जाणवो. ए कारणे ए तमारु वचन रूडूं न्याय मागेनुं नथी. ॥ २० ॥ ॥ दीपिका-पुनः प्रत्याख्यानविषयं दर्शयति । पूर्वोक्तेन्योमहारंजादिन्योविपरीताः Page #1030 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १००० दितीये सूत्रकृतांगे दितीय श्रुतस्कंधे सप्तमाध्ययनं. सुशीलाः साधवः एते च सामान्यश्रावकास्तेपि त्रसेष्वेव देवेषूत्पद्यते ततोपि न नि विषयं प्रत्यारल्यानं ॥ २० ॥ ॥ टीका-पुनरन्येन प्रकारेण प्रत्याख्यानस्य विषयं दर्शयितुमाह । (नगवंचणंउदा दुरित्यादि) पूर्वोक्तेन्योमहारंनपरिग्रहवदा दिन्योविपर्यस्ताः सुशीलाः सुप्रत्यानंदाः सा धवश्त्यादि सुगमं । यावत् (मोणेयानएनवत्ति)। एते च सामान्यश्रावकास्तेपि त्रसेष्वे वान्यतरेषु देवेषूत्पद्यते ततोपि न निर्विषयं प्रत्याख्यानमिति ॥ २० ॥ नगवंचणं नदादु संतेगश्या मणुस्सा नवंति तं जदा अप्पेबा अ प्पारंना अप्पपरिग्गदा धम्मिया धम्माणुया जाव एगचान परि गहा अप्पडिविरया जहिंसमणोवासगस्स आयाणसो आम रणंताए दंमेणिरिकत्ते ते तन आनगं विप्पजति ततो नुको सग मादाए सग्गगामिणो नवंति ते पाणावि वुच्चंति जाव णो णेया नए नव॥२१॥ अर्थ-वली गौतम स्वामी कहेले. निश्चें या जगत् माहे कोई एक मनुष्य, एवा दो य, ते कहेले. अल्पश्वा एटले थल्पलोनी, अल्पारंनी, अल्पपरियही, धार्मिक धर्मानु ग, प्राणातिपातादिक थकी एकपदें विरति, अने एकपदें अविरति, ए कारण मानें ते विरताविरत कहेवाय. जेनें विषे श्रमणोपासकने व्रतग्रहणकाल प्रारंनी मरणांतसु धी जीवघातरूप दंमनो निषेधले. ते विरताविरत पुरुष, ते नव संबंधी आयुष्य बांझीने, पनी पोतानां पूर्वोपार्जित गुन कर्म लेइने, सजतियें जाय. ते त्यां बतां प्राण पण क हेवाय, त्रस पण कहेवाय, इत्यादिक पाठ सर्व, पूर्ववत् जाणवो. ज्यां सुधी तमाएं बो लवू न्यायमार्ग, नथी. ॥ २१ ॥ ॥दीपिका-किंच । सुगममिदं सूत्रं एते चाल्पेबादिविशेषणाअवश्यं प्रतिनइतया सजतिगामित्वेन त्रसेषूत्पद्यते ॥ २१ ॥ ॥ टीका-किंचान्यत् । (नगवंचनदादुरित्यादि) सुगमं यावलोणेयानएत्ति । ए ते चाल्पेबादि विशेषणविशिष्टाअवश्यं प्रकतिनश्तया सजतिगामित्वेन त्रसकायेषूत्पा तइति इष्टव्यं ॥ २१॥ Page #1031 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रायधनपतसिंघ बादाउरका जैनागम संग्रह नाग उसरा. २००१ नगवंचणं नदालु संतेगश्या मणुस्सा नवंति तं जहा आरणिया आवसहिया गामणियंतिया कण्हुई रदस्सिया जेहिं समणोवा सगस्स आयाणसो आमरणंताए दंझे णिकित्ते नव णो बदु संजया णो बदुपडिविरया पाण नूय जीव सत्तेहिं ते सतो अप्पणा सच्चा मोसाइं एवं विप्पडिवेदेति अहंण दंतवो अन्ने दंतवा जाव कालमासे कालं किच्चा अन्नयराई आसुरियाई किविसियाई जाव ग्ववत्तारो नवति त विप्पमुच्चमाणा नुको एलमुयत्ताए तमोरुवताए पञ्चायति ते पाणावि वुच्चंति जाव णो णेयानए नव॥२॥ अर्थ-वली गौतम स्वामी कहे के,आ जगत्माहे कोइएक मनुष्य एवा दोय के,आरणि क एवं तीर्थविशेष तेने विषे रहेनार ते यारण्यवासी,तथा कंदमूलफलाहारी,दने मूलें वसनार एवा पुरुष,तापस विशेष जाणवा. (आवसहिया के०) वली कोइएक पानडानी पर्ण कूटी करी रहेनारा, ग्राम निमंत्रिक एटले बाजीविका निमित्तें ग्राम समा वसनारा,(क एहरिहस्सिया के०) कोइएक कार्यनें विषे रहस्यना करनार,इत्यादि तापस विशेष, जेनें विषे श्रमणोपासकनें व्रतग्रहण प्रारंजीने मरणांत सुधी हिंसानो निषेधले. हवे ते तीर्थक केवा ? तोके घणा संयत नथो,कारणके तेमांहे सम्यक ज्ञान नया; ते माटें ते पूर्ण संय मने जाणता नथो,तथा प्राण,जूत,जीव,अने सत्वने विषे जेने घणुं व्रतिपणु नथी. ते पोतें पोता थकी एवी सत्यामृषा नाषा प्रयुंजीने लोक बागल यावीरीते बोले.ते कहेले.मनें ब्राह्मण पणाने लीधे दमादिकें करी हणवो नहीं. बीजा हुड़ादिकोने हवा. इत्यादिक पूर्व अध्ययनने विषे कयुंडे,ते सर्व अंही जाणी ले. एवा मनुष्य,कालमासें काल करीने बालतपश्चर्याने योगें अनेरा बासुरिय किल्विषीयादिकनी गतिने विषे जाय. जे कारण माटें ते जीवघातना उपदेशना देनार,नोगानिलाषी, तापसो, नित्यांधकार सहित एवी नरकादि क गतिमाहे जाय. वली बालतपने योगें तेनें प्रथमतो पूर्वोक्त नीचगति प्राप्त थाय, ते वार पबी वली ते आसुरीयादिक गतिथकी घायुष्यने क्यें चवीनें वलो वली बेहेरा, मूगा, एवा तमोरूप अंध मनुष्य थाय. एवा बता तेने त्रस कहियें, तेने प्राण कहियें, इत्यादिक पूर्ववत् जाणवू. इत्यादिक यावत् ए तमारूं वचन न्यायमार्गनुं नथी ॥ २२ ॥ ॥ दीपिका-किंचान्यत् एके मनुष्याएवंनताः स्युः धारण्यिकाधारण्यवासिनः श्रावसथि काग्रामनिमंत्रिकाः ( कण्दुरहस्सिया) क्वचित्कार्ये रहस्यकाः एते सर्वेपि तीर्थिक विशेषाः Page #1032 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०७३ तिीये सूत्रकृतांगे दितीय श्रुतस्कंधे सप्तमाध्ययनं. तेच नो बहुसंयताः क्रियासु नो बहुप्रतिविरताः सर्वजंतुवधान निवृत्ताः सत्यामृषाणि वा क्यानि परेषु एवं वक्ष्यमाणप्रकारेण प्रयुंजंति ( एवं विप्प डिवेदेति ) क्वचित्पातः एवं विवि धप्रकारेण प्रतिवेदयंति झापयंति । यथा । अहं न हंतव्योऽन्ये हंतव्याः।अहं नाझापयि तव्योन्येऽझापयितव्याइत्यादीन्युपदेशवाक्यानि ददति ।एवंनूतास्ते कामासक्ताः किंचिदज्ञा नतपःपराः कालं कृत्वाऽन्यतरेष्वासुरीयेषु स्थानेषु किल्बिषिकेषु असुरदेवाधमेषूत्पद्यते अ थवा प्राण्युपघातकोपदेशदातारोनोगमूर्जिताअसूर्येषु नित्यांधकारेषु किल्बिषप्रधानेषु नरक स्थानेषु समुत्पद्यते ते च देवानारकास्त्रसत्वं न व्यनिचरंति तेषुच यद्यपि त्र्यप्राणातिपातो न संनवति तथापि नावप्राणातिपातस्य विरतेविषयतां प्रतिपद्यते ततोदेवलोकाच्युतान रकाउतावा क्लिष्टपंचेंशियतिर्यकु हीनमनुष्येषुवा एडमूकतया तमोरूपतया अंधबधिर तया प्रत्यायांति ते चावस्था येपि त्रसत्वं न व्यनिचरंति ततोन निर्विषयं प्रत्याख्यानं एषु च इव्यप्राणातिपातोपि संनवति ॥ २२ ॥ ॥ टीका-किंचान्यत् । (जगवंचणंउदादुरित्यादि ) गौतमस्वाम्येव प्रत्याख्यानस्य वि षयं दर्शयितुमाह । एके केचन मनुष्याएवंनूतानवंति तद्यथा अरण्ये नवायारण्यका स्तीर्थिकविशेषास्तथा आवसथिकास्तीर्थिक विशेषाएव तथा ग्रामनिमंत्रिकास्तथा (कएह ईरहस्सियात्ति ) क्वचित्कार्य रहस्यकाः क्वचिडहस्यकाएते सर्वेपि तीर्थिक विशेषास्तेच नो बहुसंयताहस्तपादादि क्रियासु तथा ज्ञानावरणीयावृतत्वान्न बदुविरताः सर्वप्राणनूतजी वसत्वेन्यस्तत्स्वरूपापरिझानात्तधादविरताइत्यर्थः। ते तीर्थिक विशेषाबव्हसंयताः स्वतो विरतासात्मना सत्यामृषाणि वाक्यान्येवमिति वक्ष्यमाणरीत्या वियुंजंति । (एवं विप्प डिवेदेति ) क्वचित्पागेस्यायमर्थः। एवं विविधप्रकारेण परेषां प्रतिवेदयति तानि पुनरेवंनू तानि वाक्यानि दर्शयति । तद्यथा । अहं न हंतव्योऽन्ये पुनईतव्याः तथाहं नाझापयि तव्योऽन्ये पुनराझापयितव्या इत्युदीरितान्युपदेशवाक्यानि ददति । ते चैवमेवोपदेशदायि नः स्त्रीकामेषु मूर्जितागृक्षाअध्युपपन्नायावर्षाणि चतुःपंचानिवा षड्दशमानि वा ते ऽप्यल्पतरं वा प्रनूततरंवा कालं जुत्कोत्कटानोगनोगास्तांस्ते तथाजूताः किंचिदज्ञानतपः कारिणः कालमासे कालं कृत्वाऽन्यतरेष्वासुरीयेषु स्थानेषु किल्बिषिष्वसुरदेवाधमेषु स्था नेषूपपत्तारोनवंति यदि प्राण्यूपमर्दोपदेशदायिनोनोगानिलाषुकाअसूर्येषु नित्यांधकारे पु किल्बिषप्रधानेषु नरकस्थानेषु ते समुत्पद्यते तेच देवानारकावा त्रसत्वं न व्यनिचरं ति तेषु च यद्यपि इव्यप्राणातिपातोन संनवति तथापि ते नावतोयः प्राणातिपातस्त रितेर्विषयतां प्रतिपद्यते ततोपि देवलोकाच्युतानरको वृताः क्लिष्टपंचेंख्यितिर्यकु त थाविधमनुष्येषु चैडमूकतया समुत्पद्यते तथा तमोरूपत्वापत्तिमंधबधिरतया प्रत्यायांति Page #1033 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राय धनपतसिंघ बादाडुरका जैनागम संग्रह नाग दुसरा. १००३ ते चोनयोरप्यवस्थायास्त्रसत्वं न व्यनिचरंति । इत्यतो न निर्विषयं प्रत्याख्यानमेतेषु च इव्यतोपि प्राणातिपातः संनवतीति ॥ २२ ॥ भगवंचणं नदादु संतेगश्या पाणा दीहानया जेहिं समणोवा सगस्स प्रयासो मरणंताए जाव दंगे लिरिकत्ते नवइ ते पुवामेव कालं करेंति करेंतित्ता पारलोइयत्ताए पच्चायंति ते पाणावि वच्चति ते तसावि वच्चति ते महाकाया ते चिरि या ते दीहानया ते बहुयरगा जेहिं समणोवासगस्स सुपच्चका यं नवइ जाव णो णेयानए नवइ ॥ २३ ॥ अर्थ- वली जगवंत श्री गौतम स्वामी बोल्या के, या जगत्मांहे एकेक प्राणी एवाबेके, जे श्रावक पञ्चखाए करेले, ते थकी ते प्राणी दीर्घायुवालावे, ते देवता, नारकी, तिर्थच, घने मनुष्यपणे परलोकमांहे उपजे, तेने प्राण पण कहियें, तेने त्रस पण कहिये, तेने मोहोटी काया ना धणी पण कहिये, तेने घणी स्थिति कहिये. तेने घणा प्रकारना जीव कहियें, जेने विषे श्रमणोपासकने व्रतग्रहण प्रारंनीने मरणांतसुधि विनाशवानो निषेधबे, ने ते श्रावक तो तेनी पूर्वेज काल करे. ते कारण माटें ते श्रमणोपासकने, तेने वि नाशवानो निषेधबे, परंतु ते दीर्घायुत्रसने विषे प्राणातिपात विरमणव्रत शामाटें पले नही ? तमे जे कहोने के, एवो पर्याय कोइ नथी के, जेणे करी श्रावक पञ्चखाए करे. ते तमारुं वचन न्यायमार्गनुं नथी. ॥ २३ ॥ || दीपिका-अथ प्रकटमेव विरतिविषयमाह । भगवानाह । योहि प्रत्याख्यानं गृ हाति तस्माद्दीर्घायुष्काः प्राणिनस्ते च नारकमनुष्यदेवा द्वित्रिचतुःपंचेंप्रिय तिर्यचश्च सं जवंति ततः कथं निर्विषयं प्रत्याख्यानमिति ? शेषं सुगमम् ॥ २३ ॥ टीका- सांप्रतं प्रत्यक्ष सिद्धएव विरतेर्निविषयं दर्शयितुमाह । ( जगवंच पंचदाहुरि त्यादि ) नगवानाह योहि प्रत्याख्यानं गृप्तहाति तस्माद्दीर्घायुष्काः प्राणाः प्राणिनस्ते च नारकमनुष्यदेवाद्वित्रिचतुः पंचेंड्यितिर्यचश्च संभवंति ततः कथं निर्विषयं प्रत्याख्यान मिति ? शेषं सुगमं यावसो ऐयाउए नवइ ॥ २३ ॥ भगवं दादु संतेगझ्या पापा. समानया जेहिं समणोवास गस्स च्यायाणसो मरणंताए 'जाव दंगे णिकित्ते नवइ ते सममेव कालं करेंति करेंतित्ता पारलोइयत्ताए पञ्चायंति ते पाणा For Private Personal Use Only Page #1034 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १००४ वितीये सूत्रकृतांगे वितीय श्रुतस्कंधे सप्तमाध्ययनं. वि वुच्चंति तसावि वुच्चंति ते महाकाया ते समाज्या ते बदुयरगा जेहिं समणोवासगस्स सुपच्चरकायं नव जाव णो णेयानए नव॥२४॥ अर्थ-वली श्रीगौतमस्वामी कहे के, जे श्रावक पञ्चरकाण करेले, तेथकी या जग त् माहे कोई एक प्राणी ( समाउया के) समायुष्य एटले सरखा आयुष्य वाला , जेनें विषे श्रमणोपासकनें प्रथम व्रत ग्रहण प्रारंनी मरणांत सुधी हिंसानो नियमले, ते वार पनी ते समकालें काल करे, सरखा काल करीने परलोकें नपजे तेने प्राण पण कहियें, तेने त्रस पण कहिये, तेने महोटी कायाना धणी कहियें, तेने घणा प्रकारे जीव कहिये, जेनें विषे श्रमणोपासकनें निषेधवानो नियमले. एकारणे श्रावकनें पञ्चरकाण केम न होय ? ते मात्रै ए तमारं बोल नखं नथी॥ २४ ॥ ॥ दीपिका-इदं समायुष्कसूत्रं पूर्ववत् ॥ २४ ॥ ॥ टीका-एवमुत्तरसूत्रमपि तुल्यायुष्कविषयं समानयोगमत्वाक्ष्याख्येयं ॥ २४ ॥ नगवंचणं नदादु संतेगश्या पाणा अप्पान्या जेहिं समणोवा सगस्स आयाणसो आमरणंताए जाव दंगे णिरिकत्ते नवा ते पुवामेव कालं करेति करेंतित्ता पारलोश्ताए पच्चायति ते पाणा वि वच्चंति ते तसावि वच्चंत ते महाकाया ते अप्पान्या ते बढ्य रगा पाणा जेहिं समणोवासगस्स सुपच्चरकायं नव जाव पो णेयानए नव॥ २५॥ अर्थ-वली नगवंत श्री गौतम स्वामी बोल्या के, था जगत् मांहे एकेक प्राणी एवा ने के, ते श्रावक थकी अल्प एटले थोडा आयुष्य वाला, जेनें बाश्री श्रमणोपासक में सूर्यु पञ्चरकाण एतावता घणा प्राणने विषे पञ्चरकाण थने थोडा प्राणने विषे अपञ्चरकापले. एतावता जाव जीव सुधा जे जीव ते नियम करनार श्रावक थकीय पायुष्यवाला ते ज्यां सुधी मरण न पामे, त्यां सुधी त्रस आश्री ते श्रावकनें पञ्च कागले, ते कदापि मरण पामीनें फरी तेहिज सकायमा नपजे तेवार ते पञ्चरकाण बागल पण पले. ए कारणे निर्विषय पंचरकाण केम कहिये ? माटें तमारूं वचन अयु क्त. यहीं बीजा रही गयेला पदोनो अर्थ पूर्ववत् जाणवो ॥ २५ ॥ Page #1035 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राय धनपतसिंघ बादाउरका जैनागम संग्रह नाग उसरा. १०० ॥ दीपिका-इदमल्पायुष्कसूत्रमपि स्पष्टं नवरं यावत्ते न नियंते तावत्प्रत्याख्यानस्य विषयः त्रसेषु वा समुत्पन्नाः संतोविषयतां प्रतिपद्यते ॥ २५॥ ॥ टीका-तथा-पायुष्कसूत्रसिक्षमेव । इयांस्तु विशेषोयावत्ते न नियंते तावत्प्रत्याख्या नस्य विषयस्त्रसेषु वा समुत्पन्नाः संतोविषयतां प्रतिपद्यतइति ॥ २५ ॥ नगवंचणं नदाद संतेगश्या समणोवासगा नवंति तेसिंचणं ए वं वुत्तं पुवं नव णो खलु वयं संचाएमो मुझे नवित्ता जाव पब इत्तए पो खलु वयं संचाएमो चाउद्दसमुद्दिपुरममासिणीसु प डिपुर्ण पोसदं अणुपालित्तए पो खलु वयं संचाएमो अपत्रिम जाव विदरित्तए वयंचणं सामाश्यं देसावगासियं पुरबा पाईणं पडिणंवा दाहिणं नहीणं एतावता जाव सवपाणेहिं जाव सबस तेहिं दंमेहिं णिरिकते सवपाणनूयजीवसत्तेहिं खेमं करेदि अहम सि तब ओरेणं जे तसापाणा जेहिंसमणोवासगस्स आयाणसो आमरणंताए दंगे जिस्कित्ते तआविष्पजदंति विप्पजहिता तब आरेणं चेव जे तसा पाणा जेहिं समणोवासगस्स आ याणसो जाव ते सुपञ्चायति जेहिं समणोवासगस्स सुपच्चरकायं नव ते पाणावि जाव अयंपिनेदे से॥२६॥ अर्थ-वली गौतम स्वामी बोल्या के,आ जगत् मांहे एकेक श्रमणोपासक एवा होय के जेनें पूर्वे एवा व्रतनो उच्चार होय के,निश्चे अमें मुंम थ यागारवास बांमीने चारित्र सद शकता नथी.निचे अमे चतुर्दशी, अष्टमी,नदिष्ट एटले कल्याणिक तिथि,अने पूर्णमा सी एटले चोमासानीत्रण पुन्यम ते दिवसें प्रतिपूर्ण पोषध पाली शक्ता नथी (गोखलु वयंसंचाएमो के०) निकरीअमे समर्थ नथी,गुं करवाने समर्थ नथी? (अपलिमंजाववि हरितए के०) तोके अपश्चिम संलेषणा करीअणसण पणु उच्चरीशकवाने समर्थनथी(व यंचणंसामाश्यंदेसावगासियंपुरबा के०) किंतु अमे सामायक तथा देशावकाशिक ए व्रत पालगुं, एटले जावजीव सुधा दिनप्रत्ये दिशाउनु परिमाण करीमु. तथा पुरबा एटले प्रनातें पञ्चरकाणने अवसरें (पाईणं के०) पूर्व दिशायें, पश्चिम दिशायें,दक्षिण दिशायें,उत्तर दिशायें,ए चारे दिशायें, अमुक अमुक नूमि सुधी जावू, उपरांत नूमियें जवानु पञ्चरकाण करीशं,एवं व्रत पालीगुं, एतावता जेटलुं दिशिनुं परिमाण की, ते दिशि थकी नपरांत Page #1036 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २००६ वितीये सूत्रकृतांगे वितीय श्रुतस्कंधे सप्तमाध्ययनं. नीनूमिमांहे जेटला प्राणीने यावत् सर्व सत्वले तेने घात करवानो त्याग करीगुं. एटले ते उपरांत सर्व प्राण, नूत,जीव, अनें सत्व,अर्थात् जे कांइ त्रस, अनें स्थावर प्राणीयो तेने (खेमंकरे के०) तेनी दया पालीगुं.(अहमंसितव्यारेणंजेतसापाणा के)ते नूमिमांहे पण वलीजे त्रस प्राणीयोडे तेने आश्री ते श्रमणोपासकें मरणांत सुधी तेनो दंम निषेध्यो ते त्रस जीव त्यांथी पोतानुं आयुष्य त्यागीने वली तेहिज नूमिने विषे त्रसप्राणमाहे आव। उपजे एटले जेनें विषे श्रमणोपासकने पञ्चरकाण होय.जे कारण माटें त्यां जेटला त्रस जीव तेने विषे ते श्रावकनें मरणांत सुधी दंझनो निषेध ने ते कारणे ते 'श्रावकने रूहूं पञ्चरकाण कहियें. ते माटेंए तमारुं वचन रूटुं नथी. ए प्रथमनंग थयो. ए रीतें वली, बीजा बाउ नंग यागल कहेले. ॥ २६ ॥ ॥दीपिका-पुनः श्रावकाणां दिग्वताश्रयेण प्रत्याख्यानविषयं दर्शयति । सेगमं नवरं (देसावगासियंत्ति) पूर्वगृहीतस्य दिग्वतस्य योजनशतादिकस्य यत्प्रतिदिनं संदिप्तयो जनगतादियानं करोति तदेशावकाशिकनच्यते । तथाहि । पुरबापायीणमिति । (पुरबात्ति) प्रातरेव प्रत्याख्यानावसरे दिगाश्रितमेवंनूतं प्रत्याख्यानं करोति यथा प्रा चीनं पूर्वा निमुखं पूर्वदिशि एतावन्मयाऽद्य गंतव्यं प्रतीचीनं पश्चिमायां दिशि दणिस्या मुदीच्यामुत्तरस्यां एतावतव्यं एवं प्रत्यहं प्रत्याख्यानं करोति तेन च व्रतेन गृहीतपरि माणे देशे ये बारेण त्रसाः येषु श्रावकस्यादानतः प्रथमव्रतादारल्यामरणांतं दंमं त्यक्तं ते त्रसाः स्वायुष्कं परित्यज्य तत्रैव गृहीतमानदेशएव त्रसत्वेन प्रत्यायांति गृहीतपरि माणदेशे त्रसायुष्कं परित्यज्य त्रसेष्वेवोत्पद्यते तेषु श्राइस्य सुप्रत्याख्यानं स्याउनयथा पि त्रसत्वसनावादिति । शेषं सुगमम् ॥ २६ ॥ ॥ टीका-पुनरपि श्रावकाणामेव दिग्वतसमाश्रयणतः प्रत्याख्यानस्य विषयं दर्शयि तुमाह । (नगवंचणमित्यादि ) सुगमं यावत् वयंशंसामाश्यं देशावकासियंति । देशोव काशोदेशावकाशः तत्र नवं देशावकाशिकं । इदमुक्तं नवति । पूर्वगृहीतस्य दिग्व्रतस्य योजनशतादिकस्य यत्प्रतिदिनं संक्षिप्ततरं योजनगव्यूतिपत्तनगृहमर्यादादिकं परिमा एं विधत्ते तदेशावकाशिकमित्पुच्यते । तदेव दर्शयति । (पुरबापायीणमित्यादि) पुरवि ति प्रातरेव प्रत्याख्यानावसरे दिगाश्रितमेवं नूतं प्रत्याख्यानं करोति तद्यथा प्राचीनं पू निमुखं प्राच्यां दिश्येतावन्मयाऽद्य गंतव्यं तथा प्रतीचीनं प्रतीच्यामपरस्यां दिशि तथा दक्षिणानिमुखं दक्षिणस्यामेवोदीच्या दिश्येतावन्मयाऽद्य पंचयोजनमात्रं तदधिकमनतरं वा गंतव्यमित्येवंनूतं सप्रतिदिनं प्रत्याख्यानं विधत्ते तेनच गृहीतदेशावकाशिकेनोपास Page #1037 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राय धनपतसिंघ बादाउरका जैनागम संग्रह नाग उसरा. २००७ केन सर्वप्राणियोगृहीतपरिमाणात्परेण दंमोनिक्षिप्तः परित्यक्तोनवति ततश्चासौ श्रा वकः सर्वप्राणनूतजीवसत्वेषु देमंकरोहमस्मिन्नित्येवमध्यवसायी नवति तत्र गृहीत परिमाणे देशे ये आरेण त्रसाः प्राणायेषु श्रमणोपासकस्य दानतइत्यादेरारन्यामरणांतो दंमोनिदिप्तः परित्यक्तोनवति तेच त्रसाः प्राणाः स्वायुष्कं परित्यज्य तत्रैव गृहीतप रिमाणदेशएव योजनादिदेशान्यंतरएव त्रसाः प्राणास्तेषु प्रत्यायोति । इदमुक्तं नवति । गृहीतपरिमाणदेशत्रसायुष्कं परित्यज्य त्रसेष्वेवोत्पद्यते ततश्च तेषु श्रमणोपासकस्य सुप्र त्याख्यानं नवत्युजयथापि त्रसत्वसनावात्। शेषं सुगमं यावत् णो णेयानए नवतित्ति॥२६॥ तब आरेणं जे तसा पाणा जेहिं समणोवासगस्स आयाणसो आमरणंताए दंगे णिस्कित्ते ते त आ विप्पजति विप्पजदं तित्ता तब आरेणं चेव जाव थावरा पाणा जेहिं समणोवासग स्स अाए दंगे अणिस्कित्ते अणधाए दंमेणिकत्ते तेसु पच्चा यति तहिं समपोवासगस्स अहाए दंगे अणिरिकत्ते अणहाए दं णिरिकत्ते ते पाणावि वुच्चंति ते तसा ते चिरहिश्या जाव अ यपि नेदे से ॥२०॥ तब जे आरेणं तसा पाणा जेहिं समणो वासगस्स आयाणसो आमरणंताए तन आविष्पजति वि प्पजदंतित्ता तब परेणं जे तसा थावरा पाणा जेहिं समणोवास गस्स आयाणसो आमरणंताए तेसु पच्चायति तेहिं समणो वासगस्स सुपच्चरकायं नव ते पाणावि जाव अयंपि नेदे से ॥२०॥ तब जे आरेणं थावरा पाणा जेहिं समणोवासगस्स अघाए दमे अणिकित्ते अपघाए णिरिकत्ते ते त आ वि प्पजति विप्पजदंतित्ता तब आरेणं चेव जे तसा पाणा जहिं समणोवासगस्स आयाणसो आमरणंताए ते सुपञ्चायंति तेसु समणोवासगस्स सुपञ्चरकायं नव ते पाणावि जाव अयंपि ने दे से णो॥२॥तब जे ते आरेणं जे थावरा पाणा जेहिं समणो वासगस्स अाए दंगे अणिस्कित्ते अणमाए णिस्कित्ते ते तन आनं विष्पजति विप्पजदंतिता ते 'तब आरेणं चेव जे थावरा पाणा जेहिं समणोवासगरस अाए दंगे अणिस्कित्ते अणघा Page #1038 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २००७ वितीये सूत्रकृतांगे वितीय श्रुतस्कंधे सप्तमाध्ययनं. ए णिस्कित्ते ते सुपञ्चायति तेहिं समणोवासगस्स अघाए अण घाए ते पाणावि जाव अयंपि नेदे से णो॥३॥ तब जे ते आरे णं थावरा पाणा जेहिं समणोवासगस्स अघाए दंमे अणिरिक ते अपघाए णिस्कित्ते तने आ विप्पजदंति विष्पजदंतित्ता तब परेणं जे तसथावरापाणा जेहिं समणोवासगस्स आयाणसो आमरणंताएते सुपच्चायति तेहिं समणोवासगस्स सुपच्चरकायं नवश्ते पाणावि जाव अयंपिनेदे से णो णेयानए नव॥३२॥ तब जे ते परेणं तसथावरा पाणा जेहिं समपोवासगस्स आया सो आमरणंताए तेत आविष्पजति विप्पजदंतित्ता तब आरेणं जे तसा पाणा जेहिं समणोवासगस्स आयाणसो आ मरणंताए ते सुपञ्चायति तेहिं समोवासगस्स सुपच्चरकायं नव इते पाणावि जाव अयंपिनेदे से पो गोयानएनव॥ ३२ ॥ तब जे ते परेणं तसथावरा पाणा जहिं समणोवासगस्स आया सो आमरणंताए ते तानं विप्पजति विप्पजदंतिता तब आरेणं जे थावरा पाणा जोहिं समपोवासगस्स अघाए दंझे अ जिस्कित्ते अपघाए णिस्कित्ते ते सुपच्चायति जहिं समपोवास गस्स अघाए अणिरिकत्ते अपघाए णिस्कित्ते जाव ते पाणावि जाव अयंपि नेदे से णो ॥३३॥ तब जे ते परेणं तसथावरा पाणा जहिं समणोवासगस्स आयाणसो आमरणताए ते तन आविप्पजदंति विप्पजहंतित्ता ते तब परेणं चेव जे तसथावरा पाणा जेहिं समणोवासगस्स आयाणसो आमरणंताए ते सुपञ्चायति ते समणोवासगस्स सुपञ्चरकायं नवश्ते पाणावि जाव अयंपि नेदे से गो॥३०॥ अर्थ-ते थाट जंग मांहे प्रथम नंग कहे. जेटली नूमिकानी अविरति ले ते माहे जे त्रस जीवो ते त्रस, तेहिज नूमिका मांहे जे स्थावर जीवोने, ते मांहे आवी उप जे. ए प्रथम नंग. ते सूत्रना अर्थथी कहेडे. (तबारेणं के०) त्यां जेटली नूमिनी Page #1039 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राय धनपतसिंघ बादाउरका जैनागम संग्रह नाग उसरा. १००ए अविरति ते थकी उरे एटले आगल, (जेतसापाणा के०) जे त्रस प्राणीने (जेहिंसम णोवासगस्त के०) जेनें विषे श्रमणोपासकें (थायाणसो के०) व्रत ग्रहण प्रारंनीने (आ मरणंताए के० ) मरणांत सुधी (मेणिस्कित्ते के० ) घात करवानो निषेध्यो, (त यानं विप्पजहंति के०) पबीते जीव त्यां थकी यायुष्य पूर्ण करे. (विप्पजहंतित्ता के०) त्यांथी आयुष्य पूर्ण करीने (तब्यारेणंचेव के०) फरी त्यां मर्यादा वाली नूमियेंज निचे (जावथावरापाणा के०)यावत् जे स्थावर प्राणी (जेहिंसमणोवासगस्स के०) जे स्थाव रप्राणीने विषे श्रमणोपासकने (अहाएदंमेषणिरिकत्ते के०) अर्थदंम एटले अर्थ हणवा नो निषेध नथी, अने(अपघाएदंमेणिरिकते के०)अनर्थदंम एटले, अनर्थे विनाश करवा नो निषेधडे (तेसुपञ्चायंति के०) तेवा स्थावर जीवोनें विषे ते पूर्वोक्त त्रस जीवावी उप जे. (तेहिंसमणोवासगस्त के०) तेने विषे श्रमणोपासकने (अहाएदंमेषणिरिकत्ते के०)थ र्थदंम बांमयो नथी(अपहाएदंमेणिरिकत्ते के०)अने अनर्थ दंग बांमयोले (तेपाणाविवुचंति के०) तेने प्राण पण कहियें, तेने त्रस पण कहियें,तेने चिरस्थितिक पण कहिये,(जावअयं पिनेदे के०) यावत् ए नेदवालुं पण (से के०) ते तमारुं वचन, न्याय मार्गनुं नथी. ए प्र थमनंग कह्यो॥२॥हवे बीजो नंग कहे.जेटलीनूमिकानी अविरति ते नूमिका मांहे लाज त्रस जीव होय ते मरण पामिने फरी नियम करेली नूमिका मांहे जे त्रस घने स्थावर जीवो तेमाहेबावी नपजे.ए बीजो नंग॥२॥ हवे त्रीजो नंग कहे. जेटली नूमिकानी अविरति ते मांहेला स्थावर जीव,ते मरण पामीनें फरी तेहिज प्रत्याख्यान करेली नूमि कामांहे जे त्रस जीवो तेमांहे भावी उपजे ॥२॥ हवे चोथो नंग कहेले. जेटली नू मिकानी अविरति ते मांहेला स्थावर जीव, मरण पामीने फरी तेहिज नूमि मांहेला स्थावर मांहे थावी नपजे ॥३०॥ दवे पांचमो नंग कहेले. जेटली नूमिकानी अविरति बे जे नियम करेली नूमिका ते माहेला स्थावर जीव ते मरण पामीने ते मांहे या वीने स्थावर पणे नपजे ॥३१॥ हवे बोनंग कहेले. नियम करेली नूमिका मांहेला त्रस अनें स्थावर जीव,ते त्यांथी मरण पामीने जेटली नूमिकानी अविरति ते नूमि माहेला त्रस जीवोने विषे श्रावी नपजे ॥३२॥ हवे सातमो जंग कहे- नियम करे लो भूमिका मांहेला त्रस, अनें स्थावर जीव, ते त्यांथी मरण पामीने जेटली नूमिका नी अविर तिने ते मांहेला स्थावर जीवोने विषे श्रावी उपजे ॥३३॥ हवे आठमो नंग कहेले. नियम करेली भूमिका मांहेला त्रस बनें स्थावर जीव,ते त्यांथी मरण पामीनें फरी तेहिज नियम करेली भूमिका मांहे त्रस: अनें स्थावरने विषे श्रावो उपजे, एटले एआठ नंग थया. अनें नवमो नंग प्रथम कह्यो, एम बधा मली नव नंग थया. हवे ए नवे प्रकारे करी श्रावकने पञ्चरकाण देखाडेले. ते केवी रीतें? तोके, ए नांगा मांहे ज्यां १२७ Page #1040 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०१० तीये सूत्रकृतांगे वितीय श्रुतस्कंधे सप्तमाध्ययनं. त्रस जीव कह्याने तेनो सर्वथा प्रकारे श्रावकने आमरणांतसुधी पञ्चरकाणचे अनें ज्यां ज्यां स्थावर बोल्याने त्यां त्यां श्रावकें अनर्थे पञ्चरकाण कयुंडे. तेथी तेमांहे ते जीव, नपना नणा, एपण पञ्चरकाण थाय. एटले नवे नंग मांहे श्रावकनें पच्चरकाण होय. ए रीतें जाणवू. एवीरीतें घणा दृष्टांतें करीश्रावकना पञ्चरकाणनो विषय देखाइयो॥३॥ ॥ दीपिका-अत्र बारादेशवर्तिनस्त्रसाचारादेशवर्तिषु स्थावरेषूत्पद्यते ॥ २७ ॥थ त्र आरादेशवर्तिनस्त्रसागृहीतपरिमाणोदेशाबहिर्येत्रसाः स्थावराश्च तेषूत्पद्यते ॥ २७ ॥ धारादेशवर्तिनोये स्थावरास्ते बारादेशवर्तिनोये त्रसास्तेषूत्पद्यते ॥ २५ ॥ बारादेश वर्तिनोये स्थावरास्तेषु तद्देशवर्तिष्वेव स्थावरेत्पद्यते ॥ ३० ॥ धारादेशवर्तिनोये स्थावरास्ते परदेशवर्तिषु त्रसस्थावरेषूत्पद्यते ॥३१॥ परदेशवर्तिनोये त्रसाः स्थावरास्ते बारादेशवर्तिषु त्रसेषूत्पद्यते ॥ ३२ ॥ परदेशवर्तिनोये त्रसाः स्थावरास्ते बारादेशव तिषु स्थावरेषूत्पद्यते ॥ ३३ ॥ परदेशवर्तिनोये त्रसास्थावरास्ते परदेशवर्तिष्वेव त्रस स्थावरेषूत्पद्यते । एवं नवापि सूत्राणि नणितानि तत्र, यत्र यत्र त्रसास्तत्रादानशःप्रथम व्रतग्रहणादारन्य श्रावकेणामरणांतोदंमः परित्यक्तइति योज्यं । यत्र तु स्थावरास्तत्रार्था य दंमोन निदिप्तोन त्यक्तः अनर्थाय च दंमः परित्यक्तइति । शेष सुगमम् ॥ ३४ ॥ ॥ टीका-एवमन्यान्यप्यष्ट सूत्राणि इष्टव्यानि सर्वाण्यपि नवरं तत्र प्रथमे सूत्रे तदेवं यख्याख्यातं तच्चैवं नूतं तद्यथा गृहीतपरिमाणे देशे ये त्रसास्ते गृहीतपरिमाणदेशास्तेष्वे व । तथा वितीयं सूत्रं वाराद्देशवर्तिनस्त्रसाः बारादेशवर्तिषु स्थावरेपूत्पद्यते ॥ २७ ॥ तृतीये त्वारादेशवर्तिनस्त्रसागृहीतपरिमाणादेशाद्वहिर्ये त्रसाः स्थावरास्तेषूत्पद्यते॥२॥ तथा चतुर्थसूत्रे त्वारादेशवर्तिनोये स्थावरास्ते तदेशवर्तिष्वेव त्रसेषूत्पद्यते ॥ २ए ॥ पं चमं सूत्रं तु आराद्देशवर्तिनोये स्थावरास्तेषु तदेशवर्तिष्वेव स्थावरेत्पद्यते ॥ ३० ॥ षष्ठं सूत्रं तु दूरदेशवर्तिनो ये स्थावरास्ते गृहीतपरिमाणास्तेषुत्रसस्थावरेषूत्पद्यते ॥३१॥ सप्तमसूत्रंत्विदं परदेशवर्तिनोये त्रसाः स्थावरास्ते आराद्देशवर्तिषु त्रसेषूत्पद्यते ॥३२॥ अष्टमसूत्रं तु परदेशवर्तिनोये त्रसाः स्थावरास्ते बारादेशवर्तिषु स्थावरेपूत्पद्यते ॥३३ ॥ नवमसूत्रं तु परदेशवर्तिनोये त्रसाः स्थावरास्ते परदेशवर्तिष्वेव प्रसस्थाव रेषूत्पद्यते । एवमनया प्रक्रियया नवापि सूत्राणि नणनीयानि । तत्र यत्र यत्र त्रसास्त त्रादानशादेरारन्य श्रमणोपासकेनामरंणांतोदंमस्त्यक्तइत्येवं योजनीयं । तत्र तु स्था वरास्तत्रार्थाय दंमो न निदिप्तोन परित्यक्तोऽनायच दमः परित्यक्तइति । शेषाद्रघट ना तु स्वबुध्या विधेयेति ॥ ३४ ॥ Page #1041 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राय धनपतसिंघ बाहारका जैनागम संग्रह नाग डुसरा. १०११ नवंच दादु एतं नूयं ए एतं नवं । एतं नविस्संति जसं तसा पाणावदिति यावरा पाणा नविस्संति याव पाणाविवचिदिति तसा पाणा नविस्संति वोन्निहिं तसथावरहि पाणेहिं जसं तुनेवा च्यन्नोवा एवं वदद् पचिणं से hs परियार जाव णो णेयान नवइ ॥ ३५ ॥ अर्थ- हवे वली उदक पेढालपुत्र प्रत्यें, नगवंत श्री गौतमस्वामी कहेबे के हो ज दक ! (एएतंनूयं के० ) नूतकालने विषे ए वात थइ नथी, ( एतनवं के० ) वर्त्तमा नकालें ए वात थाय नही, ( एतंन विस्संति के० ) यागमिक कालें ए वात थशे न ai ( जतापापावि किहिंति के० ) जे त्रसप्राणी सर्वथापि विवेद यशे ( थावरा पाणान विस्संति के० ) अने जगत् मांहे स्थावर प्राणीज दशे, अथवा स्थावरप्राणी स था विवेद पाशे, नें जगत् मांहे त्रस प्राणीज रहेशे यद्यपि तेनें परस्पर मांहो मां गति जे स्थावर फीटी त्रस थाय, घनें त्रस फोटी, स्थावर थाय, परंतु समस्त पणे एकनो बीजा मांहे सद्भाव न थाय. तथा एवीपण संभावना नथी जे, एक पच्च काना करनार टाली अन्य नारकी, बेइंड्रियादिक, तिर्थच, मनुष्य, देवता, ए समस्तनो नाव होय ? जो एमज होय तो त्रसनुं पञ्चरका निर्विषय थाय. परंतु एवात संनवे नहीं ! (वो ने हिंतसथावरे हिंपाणेहिं के० ) एम त्रस नें स्थावर प्राणीनो अविवेद होय. (जंतुवायन्नोवा एवंवदह के०) माटें जे तमे अथवा बीजो कोइ एम कहे के (एबि सेरिया के ० ) ते कोइ पर्याय नथी के जे पर्यायें कर। श्रावकनें प्राणातिपातनुं पञ्चरकाण थाय. ते वचन, (जावणोणेयानएनवइ के०) यावत् न्यायोक्त नथी ॥ ३५ ॥ || दीपिका - तदेवं बहुदृष्टांतैः श्रावकप्रत्याख्यानस्य सविषयतां प्रसाध्याधुना परप्रश्नस्या त्यंत संबद्धतां दर्शयन्नाहं । गौतमस्वामी उदकं प्राह । नैतद्भूतं नैतद्रव्यं नैतद्भविष्पं यत्रसाः सर्वथा वेत्स्यंति स्थावराएव नविष्यंति तथा स्थावराजवेत्स्यति त्रसाएव नविष्यंति ए तयं न संभवति नहि कदाप्येवं संनवोस्ति यत्प्रत्याख्यानिनमेकं विहायान्येषां नारका प्रियादितिरश्चां मनुष्याणां देवानां च सर्वथाप्यनावः । एवंहि च प्रत्याख्यानं नि र्विषयं स्याद्यदि प्रत्याख्यानिनोजीवतएव नरकाद्यास्त्रसाः समुन्नियंते नचायं प्रकारः संन वी स्थावराणां वानंतत्वाऽसंख्येयेषु त्रसेषूत्पादसंनवः एवं सति य ६दत यूयमन्योवा वद ति तथा नास्त्यसौ पर्यायोयबावकस्यैकत्र सविषयोदमत्यागइति तदेवं त्वदीय प्रे सर्वमशोजनमिति ॥ ३५ ॥ For Private Personal Use Only Page #1042 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०१२ द्वितीये सूत्रकृतांगे द्वितीय श्रुतस्कंधे सप्तमाध्ययनं. ॥ टीका - तदेवं बहुनिर्दृष्टांतः स्वस्वविषयतां श्रावकप्रत्याख्यानस्य प्रसाध्याधुनात्यंता बंधतां चोद्यस्य सूत्रेणैव दर्शयितुमाह । ( नगवंच पंचदादुरित्यादि ) भगवान् गौतमस्वा म्युदकं प्रत्येतदाह । तद्यथा नैतद्भूतमनादिके काले प्रागतिक्रांते नाप्येतदप्यऽनंते काले नाव्यं नाप्येत वर्तमानकाले नवति । ये त्रसाः प्राणाः सर्वथा निर्देषतया स्वजात्युच्छेद तोवेत्स्यंति स्थावरानविष्यंतीति तथा स्थावराश्च प्राणिनः कालत्रयेपि नैव समुत्स्यं ति सानविष्यति यद्यपिच तेषां परस्परसंक्रमेण गमनमस्ति तथापि न सामस्त्येनान्य तरेषामितरत्र सावस्तथाहि न ह्येवंभूतः संनवोस्ति यडुत प्रत्याख्यानिनमेकं विहाय परे षां नारकाणां दींड्यादीनां तिरश्रां मनुष्यदेवानां च सर्वदाप्यनावः एवंच त्रसविषयं प्र त्याख्यानं निर्विषयं जवति यदि तस्य प्रत्याख्यानिनोजीवतएव सर्वेपि नारकादयस्त्रसा समुद्यते न चास्य प्रकारस्य संभवोस्त्युक्तन्यायेनेति स्थावराणां चान्तानामनंतत्वादेव ना संख्येयेषु तेषूत्पादइति सुप्रतीतमिदं तदेव नव्यव विन्नैत्रसैः स्थावरैश्च प्राणिनिर्य ६ दत यूयमन्योवा कश्विदति तद्यथा नास्त्यसौ पर्यायोयत्र श्रमणोपासकस्यैकत्रस विष योपि परित्यागइति तदेतक्तनीत्या सर्वमशोजनमिति ॥ ३५ ॥ भगवंचणं नदाद आनसंतो नदगा जे खलु समणं वा माहणं वा परि नासेइ मिति मन्नति प्रागमित्ताणाएं प्रागमित्तादंसणं प्रागमित्ताच रित्तं पावाणं कम्माणं प्रकरणयाए से खलु परलोगपलिमंथत्ताए चिइ जे खलु समणं वा मादणं वा णो परिनासइ मिति मन्नंति गमित्ताणाणं आगमित्तादंसणं प्रागमित्ताचरितं पावाणं कम्माणं अ करण्याए से खलु परलोगविसीए चिवड़ तरणं से नृदय पेढालपु त्ते जगवं गोयमं प्रणाढायमाणा जामेव दिसिं पाउनूते तामेव दिसिं पढ़ारेचगमाए ॥ ३६ ॥ अर्थ-वती गौतम स्वामी कहेबे, के, यहो घायुष्यमन् उदक ! खलु इति नि जे पुरुष यथोक्त क्रियानुष्ठाननो करनार एवो श्रमण होय, अथवा माह एटले ब्रह्मचर्य न पालनार एवो ब्राह्मण होय तेनें (परिनासेइ के० ) निंदे, (मितिमन्नति के० ) तेने विषे मैत्री नाव मानतो तो ( श्रागमित्तालाएं के० ) तथा सम्यक् ज्ञान, पोतानें विषे घा पीनें, (गमित्तदंसणं के० ) सम्यक दर्शन पोताने विषे खाणीने, (यागमित्ताचरितं के ० ) सम्यक् चारित्र पोताने विषे घाणीने, एतावता सम्यक् ज्ञान, सम्यक् दर्शन, ने सम्यक् चारित्रनो पालनार पण होय. ( पावा कम्मा करणाए के० ) पाप Page #1043 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रायधनपतसिंघ बादाउरका जैनागम संग्रह नाग उसरा. १०१३ कर्मनें थण करवा नणी उठ्यो. एटले सावधान थयो. ( सेखलुपरसोगंपलिमंथत्ताए चिके०) ते पण निश्च परलोकना विघात नणी तिष्टे, एटले रहे, एटले शुं कर्तुं ? तोके, चारित्रि पुरुष घणोज गुणवान् होय परंतु यथोक्त श्रमण ब्राह्मणनी निंदा करे, ते परलोकनो, तथा संयमनो विराधक कहेवाय. हवे जे गुणवंतना गुण ग्रहण करे, ते नां फल देखाडेले. जे महासत्ववंत पुरुष रत्नाकरनी पेरें गंजीर, श्रमण ब्राह्मणने निंदे नही, ते सहित थको तेनी साथें मैत्री नाव पोषण करे, सम्यक् ज्ञान, सम्यक् दर्शन, अने सम्यक् चारित्रने यथोक्त पालतो बतो, पापकर्मने अण करवा नणी नग्यो एटले सावधान थयो. ते निश्चे थकी परलोकनो तथा संयमनो आराधक थाय. ए कारण मानें श्रमण ब्रह्मणनी निंदा न करे ! ते पुरुष रूडो जावो. एवं जाणीने ए निंदा परिहरवी. घने सूधो संयम पालवो. (तएणंसे के०) तेवार पड़ी ते उदक पेढाल पुत्र, नगवन श्री गौतम समीपें एवा अर्थो सांजलीने, श्रीगौतम स्वामीने बादर दीधा विना पूख्या विना जे दिशा थकीआव्यो हतो, तेहिज दिशा तरफ फरीगमन चिंतवन करतो हवो॥३६॥ ___॥ दीपिका-अथोपसंहारमाह । गौतमस्वाम्याह । आयुष्मन्नुदक ! यः खलु श्रमणं य थोक्तक्रियाकारिणं माहनं वा सद्ब्रह्मचर्योपेतं परिजापते मैत्री मन्यमानोपि निंदति स म्यक् ज्ञानदर्शनं चारित्रं च बागम्य प्राप्य पापकर्मणामकरणायोजितः खलु तुलप्रकतिः। पंमितमन्यः परलोकस्य सजतेः पलिमंथाय विघाताय तिष्ठति यः पुनर्महासत्वः सागर वजनीरः श्रमणादीन्न परिनाषते न निंदति तेषुच परमां मैत्री मन्यते सम्यक् झानादीन्य नुगम्य पापकर्मणामकरणायोचितः सखलु परलोक विशुझ्या तिष्ठति धनेन वाक्येन पर निंदावर्जनाद्यथावस्थितार्थकथनेन श्रीगौतमः स्वौइत्यं परिहरतिस्म एवं श्रीगौतमे न यथास्थितार्थज्ञापितोप्पुदकोयदा गौतममनायिमाणोयस्याएव दिशः प्राउजूतस्ता मेव दिशं गमनाय प्रधारितवान् चिंतितवान् ॥ ३६ ॥ . ॥ टीका-सांप्रतमुपसंजिघृक्षराह । (जगवंचएंउदाहुरित्यादि) गौतमस्वाम्याह । था युष्मन्नुदक! यः खलु श्रमणं वा यथोक्तकारिणं माहनं वा सद्ब्रह्मचर्योपतं परिनाषते निं दति मैत्री मन्यमानोपि तथा सम्यक्झानमागम्य तथा दर्शनं चारित्रं च पापानां कर्म णामकरणाय समुक्तिः स खलु लघुप्रकृतिः पंमितंमन्यः परलोकस्य सुगतिलक्षणस्य तत्कारणस्य वा सत्संयमस्य पत्तिमंथाय तदिलोडनाय तविघाताय तिष्ठति यस्तु पुन महासत्वोरत्नाकरवजनीरोन श्रमणादीन् परिनापते तेषु च परमां मैत्री मन्यते सम्यग्द शनचारित्राण्यनुगम्य तथा पापानां कर्मणामकरणायोचितःस खलु परलोकविशु-यावतिष्ठ ते धनेन च परपरिभाषावर्जनेन यथावस्थितार्थस्वरूपदर्शनतोगौतमस्वामिना स्वौइत्यं Page #1044 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०१४ द्वितीये सूत्रकृतांगे द्वितीय श्रुतस्कंधे सप्तमाध्ययनं. परिहतं नवति तदेवं यथावस्थितमर्थ गौतमस्वामिनावगतोप्युदकः पेढालपुत्रोयदा नगवं तं गौतममनादियमाणो यस्याएव दिशः प्राभूतस्तामेव दिशं गमनाय संप्रधारितवान् ॥ ३६ भगवंच नदादु प्रानसंतो नदगा जे खलु तहानूतस्स समणस्सवा मापस्सवा अंतिए एगमवि आरियं धम्मियं सुवयणं सोच्चा निस म्म अप्पणी चैव सुहम्माए पडिलेदीए प्रणतरं जोगखेमपयं लंनि एसमा सोवित्तावतं प्राढाइ परिजापति वंदति नमसंति सक्कारेश समाणेइ जाव कल्याणं मंगलं देवयं चेश्यं पवासंति ॥ ३७ ॥ अर्थ - नगवंत श्री गौतम स्वामी बोल्या के, अहो श्रायुष्यमन् नदक ! खलु इति निवें जे कोइ तथानूत श्रमण ब्राह्मणने समीपें एक पण यार्य धर्म संबंधिक रूडुं वचन सांगलीने सम्यक् प्रकारें संयमने विषे धारीनें ( अप्पणीचेव सुहम्माए के ० ) पोता थकी सूक्ष्म कुशाग्र वत् बुद्धियें करी ( पडिलेहीए के० ) थालोचीनें विचारीनें जा के, या रूडा वचनें करी हुं ( अणुत्तरं के० ) प्रधान, (जोगखेमपर्यनं निएसमा के ० ) यो पद एटले रूहुं मुक्ति साधवा योग्य पद, तेने विषे पहोंचो एतावता ए थकी में रूडुं एक पद लायें. ( सोवित्तावर्त के० ) ते पुरुष, ते उपदेशना देनार पुरुषनें (ढाइ के० ) यादर करे, तथा ( परिजाति के० ) ए पुज्य एवं करी जाणे, तथा तेने वांदे, ते खागल अंजनी करे (नमसंति के० ) मस्तक नमावे, (सक्कारे sho ) सत्कार करे, वस्त्रादिकें करी प्रतिलाने. ( समाणे के० ) अच्युतानादिक करें, तथा यावत् कल्याणमंगल देवता चैत्य एनी उपमा मानि स्तुति करे, तथा, (पतवासं ति के० ) पर्युपासना करे, यद्यपि ते उपदेशनो दातार कांइ वंदनादिक वांबे नही, तथा पि ते सांजलनारें ते परमार्थ उपकारी नली यथाशक्तियें विनयादिक समाचरवो ॥ ३७ ॥ ७ || दीपिका - तदा । नगवान गौतमयाह । हे प्रायुष्मन्नुदक ! यः खलु तथा नूतस्य श्रमणस्य ब्राह्मणस्य वांतिके समीपे एकमप्यर्थ धार्मिकं सुवचनं श्रुत्वानि शम्यावधार्यात्मनएव तदनुत्तरं योगक्षेमपदमित्यवगम्य सूक्ष्मया बुत्ध्या प्रत्युपेक्ष्य विचा हमनेन योगक्षेमपदमनुत्तरं लंनितः प्रापितः सन् सोपि तावलौकिकोपि तमुपदेश दातारमादियते पूज्योयमिति जानाति कल्याणं मंगलं देवतां चैत्यमिव पर्युपास्ते प्राक तजनोषि चेदितोपदेशदातारं पूजयति तदा किं पुनर्वाच्यमनुत्तरधर्मोपदेशकपूजायां विवेकिजनस्येति ! नावः ॥ ३७ ॥ For Private Personal Use Only Page #1045 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राय धनपतसिंघ बादाउरका जैनागम संग्रह नाग उसरा. २०१५ ॥ टीका-तं चैवमनिप्रायमुदकं दृष्ट्वा जगवान्गौतमस्वाम्याह । तद्यथा। आयुष्मन्नुदक! यः खलु तथानूतस्य श्रमणस्य ब्राह्मणस्य वांतिके समीपे एकमपि योगमाय पद्यते गम्यते येनार्थस्तत्पदं योगदेमपदं किंनूतमार्यमार्यानुष्ठानहेतुत्वादार्य तथा धार्मिकं शोन नवचनं सुवचनं सजतिहेतुत्वात्तदेवंनूतं पदं श्रुत्वा निशम्यावगम्याचात्मनएव तदनुत्तरं योग देमपदमित्येवमवगम्य सूक्ष्मया कुशाग्रीयया बुत्थ्या प्रत्यपेक्ष्यपर्यालोच्य तद्यथाहमने नैवं नूतमर्थपदं लंनितः प्रापितः सन्नसावपि तावलौकिकस्तमुपदेशदातारमाश्यिते पू ज्योयमित्येवं जानाति तथा कल्याणं मंगल देवतामिव स्तौति पर्युपास्ते च यदप्यसौ पूज नीयः किमपि नेति तथापि तेन तस्य परमार्थोपकारिणोयथाशक्ति विधेयम् ॥ ३७॥ तएणं से उदए पेढालपुत्ते नगवं गोयम एवं वयासी एतेसिणं नंते पदाणं पुविं अन्नाणयाए असवणयाए अबोदिए अणनिगमेणं अदिघाणं असुयाणं अमुयाणं अविनायाणं अबोगडाणं अणिगूढाणं अविडि नाणं अणिसिधाणं अणिवूढाणं अणुवदारियाणं एयमणो सहदि यं णो पत्तियं णो रोश्यं एतेसिणं नंते पदाणं एम्हि जाणयाए सवपत्ता ए बोदए जाव वदारणयाए एयमई सद्ददामि पत्तियामि रोएमि एवमे व से जहेयं तुप्ने वदह ॥ ३ ॥ अर्थ-तेवार पड़ी ते उदकपेढालपुत्र, जगवंत श्रीगौतम स्वामी प्रत्ये एम बोल्या के, (एतेसिणंनंतेपदाणं के० ) हेनगवन् ! तमे एटलां पद कह्यां, ते में (पुर्विअन्नाणया ए के०) पूर्वे न जाएयां (असवणयाए के०) पूर्वे न सांजल्यां, (अबोहिए के०) जिनधर्मनी अप्राप्तिने लीधे एनी बोधि नपनी नहीं. (अणनिगमेणं के०) विस्तारें बो धिना रहितपणा थकी एनो घनिगम न थयो, (अदिहाणं के०) पूर्वे सादात् पो ताथी दीनां नहीं एटले पाम्यां नहीं. ते नणी अदृष्ट (असुयाणं के०) कोश्नी पासें थी सांनल्यां नहीं, (यमुयाणं के०) स्मरण करयां नहीं, (अविनायाणं के ) अविज्ञा त एटले विशिष्ट बोधरहित (अबोगडाणं के० ) विशेषथी गुरुये कह्यां नहीं. (अणि गूढाएं के० ) अप्रगट एटले प्रगट न थयां (यविहिन्नाणं के०) विपदादिक संदेह बेद्या नहीं. (अणिसिहाणं के०) अनिश्चित कोश्ये संनलाव्यां नहीं. (अणिवढा एं के०) अण सानन्यां मात्रै निर्वाह्यां नहीं (अणुवहारियाणं के० ) अणविरत प णे हृदयने विषे अवधास्यां नहीं (एयम के (ए प्रकारे पदोनो अर्थ, (पोसदहि यं के०) सहह्यो नही, एटले श्रदाकरी नहीं, (पोपत्तियं के०) प्रतित करी नहीं, (णो Page #1046 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०१६ वितीये सूत्रकृतांगे वितीय श्रुतस्कंधे सप्तमाध्ययनं. रोयियं के०) प्रत्याख्यानमा रुचिपण न करी ते अर्थ रुच्यो नहीं (एतेसिणंनंतेपदा णं के०) एटलां पद, हे नगवन् ! ( एपिंह के० ) हमणा ( जाणयाए के ० ) जाण्यां, सांनल्यां, बोध थयो, यावत् हृदयने विषे अवधास्यां ते कारण माटें ए पदनो अर्थ, सदहुँबु, प्रतितमां थाणुंडं, तथा रुचेले. किंबहुना (सेजहेयंतुनेवदह के० ) ते जेम त में कहोडो (एवमेव के० ) एमज ॥ ३० ॥ ॥ दीपिका-उदकोगौतमस्वामिनमाह । यथा एतेषां पदानां पूर्वमझाततयाऽश्रवणत याऽनाकर्णनेन अबोध्याश्रवणेप्यनवबोधात् अननिगमेन बोधेपि सम्यगप्रतिपत्याऽदृष्टा नामविज्ञातानामश्रुतानामविसृष्टानां गुरुणाऽदत्तानामनिर्गुढानां स्थिरतया स्थापितानाम नुपधारितानामनवधारितानां चानिर्णीतानां न श्रमानं कृतवान् न प्रत्याख्यानरुचिं च क तवान् । इदानीं तु युष्मदंतिके श्रुत्वा ज्ञात्वावदृष्टादि विशिष्टानां पदानामेनमर्थ श्रद्दधेहं प्रत्ययरुचिं च करोमि एवमेतद्यथा यूयं वदथ ॥ ३ ॥ ॥ टीका-तदेवं गौतमस्वामिनानिहित उदकश्दमाह । एतद्यथैतेषां पदानां पूर्वमझा तया श्रवणतया बोध्याचेत्यादिना विशेषणकदंबकेन श्रमानं कृतवान् सांप्रतं तु युष्मदं तिके विझायैनमर्थ श्रद्दधेहं ॥ ३ ॥ तएणं नगवं गोयम उदयं पेढालपुत्ते एवं वयासी सहाहादिणं अजो पत्ति यादिणं अजो रोहिणं अज्जो एवमेयं जहाणं अम्हे वयामो तएणं से नदए पेढालपुत्ते नगवं गोयमं एवं वयासी श्वामि णं नंते तुम्नं अंतिए चानज्जामो J धम्मान पंचमदवयं सपडिकमणं धम्मं ग्वसंपजित्ताणं विदरित्तए ॥३॥ ॥ अर्थ-तेवारें नगवंत श्रीगौतमस्वामी उदयपेढाल पुत्र प्रत्ये एम बोल्या के, अहो थार्य नदक! ए अर्थनी सहहणा कर. केम के,श्री वीतरागनो नांखेलो अर्थ अन्यथा नथी, अहो आर्य! तथा (पत्तियाहिणं के)ए वचननी प्रतीत घाण तथा ए वचननीरुचि कर. ए अर्थ एमज जेम हुँ कहूँ बु ते जगवंतनो नांखेलोडे माडे ते तहत्ति करी जाणजे. तेवार पड़ी ते उदक पेढालपुत्र, नगवंत श्री गौतम स्वामी प्रत्ये बोल्या के (श्वामिणंनंत्ते के० ) इंडे बु हे जगवन ! हुँ तमारा (अंतिए ले) पासेंथी चातुर्याम धर्म थकी पंच महाव्रत रूप धर्म, तथा पडिक्कमणा सहित धर्मने. (वसंपत्तिाणं के ) अंगीकार करीने (विहरित ए के) विचरवाने वांबु बु.॥३॥ Page #1047 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राय धनपतसिंघ बादाउरका जैनागम संग्रह नाग उसरा. १०१७ ॥दीपिका-ततः श्रीगौतमनदकमेवमवादीद्यथा। अस्मिन्नर्थे श्रमानं कुरु हे आर्य! प्रत्ययं रुचिं च कुरु । एवमेतद्यथा वयं वदामः तथा त्वं प्रत्येहि । ततः सनदकः श्रीगौत ममेवमवादीत् । श्वाम्यहं नवदंते युष्मत्समीपे चातुर्मासिकाच्चतुव्रतरूपाक्षात्पंचयामि कं पंच महाव्रतरूपं सप्रतिक्रमणं धर्ममुपसंपद्य स्वीकत्य विहर्तुमिति ॥ ३ ॥ ॥ टीका-एवमवगम्य गौतमस्वाम्युदकमेवाह । यथास्मिन्नर्थे श्रमानं कुरु नान्यथा सर्वझोक्तं नवतीति मत्वा पुनरप्युदकएवमाह । इष्टमेवैतन्मे किंवमुष्माचातुर्यामिका मात्पंचयामिकं धर्म संप्रति सप्रतिक्रमणमुपसंपद्य विदर्तुमिलामि ॥३५॥ तएणं से नगवं गोयमे उदयं पेढालपुत्तं गदाय जेणेव समणे नगवं महावीरे तेणेव वागबनवागबश्त्ता तएणं से उदए पेढालपत्ते समणं जगवं महावीरं तिकुत्तो आयादिणं पयादिणं करे तिकुत्तो आयादि एं पयादिणं करित्ता वंदश् नमसंति नमसंतित्ता एवं वयासी श्वामिणं नंते तनं अंतिये चानडामाधम्मान पंच महत्वयं सपडिक्कमणं धम्म ग्वसंपत्तिाणं वितरित्तए तएणं समणे नगवं महावीरेन्दयं एवं वयासी अहासुदं देवाणुप्पिया मा पडिबंधं करेदि तएणं से उदए पेढालपुत्ते स मणस्स नगवान महावीरस्स अंतिए चानामा धम्मान पंच महत्व यं सपडिक्कमणं धम्म नवसंपत्तिा विहरतिबेमिति नालंदाऊं सत्तमं असयणं सम्मत्तं ॥ इति सूयगडांगबीयसुयकंधोसम्मत्तो ॥४०॥ ग्रंथा॥३२००॥ अर्थ-ते वार पड़ी एवं वचन सांजलीने नगवंत श्री गौतमस्वामी, ते उदक पेढाल पुत्र ने संघातें जश्ने ज्यां श्रमण नगवंत श्रीमहावीर देवले, त्यां याव्या. तेवार पड़ी ते उदकपे ढाल पुत्र, श्रमण नगवंत श्रीमहावीर देवने (तिरकुत्तो के० ) त्रणवार प्रदक्षिणा पूर्वक वांदी नमस्कार करे, त्रण वार प्रदक्षिणा पूर्वक नमस्कार करीने एवी रीतें बोल्या के, (इजामिणंनंते के०) हे नगवन् ! तमारा समीपें हूँ व लु.गुं ? तोके चातुर्यामिक धर्म थकी रहित थश्नें पंच महाव्रत,तथा सप्प डिक्कमण धर्म,अंगीकार करी विचरवाने वां बुं बु. तेवारें श्रमण नगवान् श्रीमहावीर देव बोल्या के, (यहासुहंदेवाणुप्पिया के०) हे देवानु प्रिय! जेम तमारे सुख उपजे,तेम करो! (मापडिबंधंकरेह के०) धर्मने विषे विलंब म करो. तेवार पड़ी ते उदक पेढालपुत्र एवं सांजलीने, श्रमण जगवंत श्रीमहावीर देवनें १२८ Page #1048 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०१८ द्वितीये सूत्रकृतांगे द्वितीय श्रुतस्कंधे सप्तमाध्ययनंः समीपें चातुर्यामिक धर्मथकी पंचमहाव्रत सप्प डिक्कमण धर्म यादरीने विचरेबे, सर्वज्ञ प्र पितधर्म पालेले. (त्तिबे मि के ० ) श्री सुधर्मस्वामी पोताना शिष्यो प्रत्यें कहेबे के, में जेतुं गवंत श्री महावीरदेव पासेंथी सांजब्युंबे, तेवुं तमने कहुं बुं. इत्यादिक अर्थ, पूर्ववत् जाणवो ॥४०॥ एरीतें " पालंदश्ॐ" नामा सातमा अध्ययननो यत्पार्थबालावबोध समाप्त यो ॥ ए बीजा श्री सूयगडांगना बीजा श्रुतस्कंधनो संदेपार्थ बालावबोध समाप्त थयो । सम्मत्तं सुयगडांगं खादितः ॥ सर्वाणि प्रध्ययनानि त्रयोविंशतिकानि संपूर्णानि ॥ श्री साधुरत्नष्येण पाशचंद्रेण वृत्तितः कृतबालावबोधार्थ द्वितीयांगस्य वार्तिकं समाप्तम् ॥७॥ || दीपिका - ततोभगवान् गौतमस्तं प्राकू प्रतिपन्नश्री पार्श्वशासनव्रतमुदकं गृहीत्वा य त्र श्री वीरोज गवांस्तत्रैवोपागच्छति । ततः सनदकः श्रमणं जगवंतं त्रिः कृत्वः यादक्षिणं प्रदक्षिणं करोति तिस्रः प्रदक्षिणाः करोतीति कृत्वा च वंदते नमस्यति वंदित्वा नमस्थि त्वा च एवमवादीत् इच्छामि जवदंते युष्मदंतिके चातुर्यामात्पंच महाव्रतिकं धर्ममुपसंपद्य विहर्तुमिति । ततः श्रीवीरस्तमुदकमेवमवादीद्यथा सुखं देवानुप्रिय ! मा प्रतिबंधं धर्मांत रायं कार्षीरिति । ततः सनदकः श्रीवीरांतिके पंच महाव्रतिकग्रहणायोतिः नगवतापि तस्य सप्रतिक्रमणः पंचमहाव्रतिको धर्मोनुज्ञातः सच तं धर्ममुपसंपद्य स्वीकृत्य विहर तीति । इतिः परिसमाप्त्यर्थे । ब्रवीमीति पूर्ववत् । सुधर्मस्वामी स्वशिष्या निदमाह । तद्यथा सोहं ब्रवीमि येन मया जगवदंतिके श्रुतमिति ॥ ४०॥ नालंदीयाख्यमिदं सप्तममध्ययनं समाप्तं । तत्समाप्तौ च समाप्तोयं द्वितीयः श्रुतस्कंधस्तत्संपूर्तौ च पूर्णेयं श्रीसूत्रकृतांग दीपिका || ग्रंथसंख्या ॥ सुमारें ॥ ( ७००० ) ॥ अथ प्रशस्तिः ॥ यय वृत्तम् ॥ निस्तं चंड्चारुणि, चंड्कुले चरणचातुरी नाजः । विख्याततपेव्याख्या, जगति जगचं सुरयो ऽनूवन् ॥ १ ॥ तेषां दोषांशमुषां, संताने सुकृतसंचय विताने | श्री सोमसुंदर गुरू, तमादमा सं गमानवन् ॥२॥ तत्पट्टस्फुटकमला, नाले कालेय तिलक संकाशः॥ श्रीमुनि सुंदरगुरवः, कामि तसंपत्ति सुरतरवः ॥ ३ ॥ बाल्येपि नारतीनि रुदपादि वादिवर्गे यैः ॥ श्रीजयचंद मुनींड़ा, स्ते परगजेषु सिंहसदृशाः ॥४॥ तत्पद विशदस्थाने, स्थाने शृंगारसारतां नेजुः ॥ श्रीरत्नशेखरा इति, जगति यतः ख्यातिमा पुस्ते ॥५॥ तेषामनंक पट्टे, गुण संघट्टे प्रभावकष पट्टे ॥ प्राप्ता धिक निष्ठा श्री, श्रीलक्ष्मी सागराः शिष्टाः॥ ६ ॥ नर्सिंतकलिकालुष्या, शिष्याजापायथार्थनामानः ॥ श्री सुमति साधुगुरवो, लक्ष्मी सुरजी कारसाद्यशोगुरवः ॥ ७ ॥ तत्पट्टे प्रवादेप्सित, पूरण चिंतामणीयमा नानाम् ॥ लब्धाधिकमानानां सुहेम विमला निधानानाम् ॥ ८॥ सुरीपगवनायक, देवीप्राप्त प्रजाप्रतिष्ठानाम् ॥ शिष्याणुर्गुणशासन, जननीतिथिसंमिते (१५८३) वर्षे ॥ ॥ विबुधना For Private Personal Use Only Page #1049 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रायधनपतसिंघ बादाडुरका जैनागम संग्रह नाग सरा. १०१० मक शिष्यः स्वस्य स्मृतये, परोपकृतये च ॥ सूत्रकृतांगस्यैतां हर्ष कुलोदी पिकामलिखत् ॥१०॥ काश्चित्प्रमाणयुक्ती, रप्रथयन्नात्र सुगमनाहेतोः ॥ ततएव नैव विहितो, जक्षण संधिस्तथा का पि ॥ ११ ॥ सूत्रासंगतमत्रा, वादि कथं चिन्मया यदज्ञतया ॥त बोधयंतु सुधियः, कृपया मात्सर्य मुसार्य ॥ १ ॥ ग्रंथ मितिरनुमिताऽत्र च, सप्तसहस्राणि किंचिदूनानि ॥ विबुधजनवाच्यमानो, ग्रंथोयं जगति जयतु चिरम् ॥ १३ ॥ ॥ इति श्रीसूत्रकृतांगदी पिकायाः प्रशस्तिः संपूर्णा ॥ 1 ॥ टीका - ततोसी गौतमस्वामी तं गृहीत्वा तीर्थकरांतिकं जगाम । नदकश्व जगवंतं वं दित्वा पंचयामिकधर्मग्रहणायोजितोनगवतापि तस्य सप्रतिक्रमणः पंचयामोधर्मोनुज्ञातः सच तं तथानूर्त धर्ममुपसंपद्य विहरतीति । इति परिसमात्यर्थे ब्रवीमीति सुधर्मस्वामी स्वशिष्यमिदमाह । तद्यथा सोहं ब्रवीमि येन मया जगवदंतिके श्रुतमिति गतोनुगमः । सांप्रतं नयास्ते चामी | नैगम, २संग्रह, ३ व्यवहार, ४ जुसूत्र, ५ शब्द, समनिरूढै, ६ वंनू ता, प्रख्याः सप्तैव । तेषां च मध्ये नैगमाद्याश्चत्वारोप्यर्थनयाः । यर्थमेव प्राधान्येन श दोपसर्जन मिति शब्दाद्यास्तु त्रयः शब्दनयाः शब्दप्राधान्येनार्थ मिष्ठंति । तत्र नैगमस्येदं स्वरूपं तद्यथा सामान्यविशेषात्मकस्य वस्तुनोनैकेन प्रकारेणावगमः परिछेदोनिगमस्तत्र नवोनैगमो महासामान्यायांतरालसामान्यविशेषाणां परिछेदकस्तत्र महासामान्यं सर्वप दार्थानुयायिनी सत्तायांतराजसामान्यं इव्यत्वजीवत्वाजीवत्वादिकं विशेषाः परमाण्वाद यस्त्वजतावा शुक्लादयोगुणास्तदेवं तत्रितयमप्यसाविवतीति निलयनप्रस्थकादिदृष्टांतैरनुयो गद्वारप्रसिद्वैस्तत्स्वरूपमवसेयमयं च नैगमः सामान्य विशेषात्मवस्तुसमाश्रयणेपि न सम्य दृष्टिदेनैव सामान्य विशेषयोराश्रयणात्तन्मताश्रितनैयायिकवैशेषिकवत् । तथा संग्र होप्येवं स्वरूपस्तद्यथा सम्यक् पदार्थानां सामान्याकारतया ग्रहणं सद्ग्रहस्तथा प्रच्यु तानुत्पन्न स्थिरैकस्वनावमेव सत्तारूपं वस्त्वसावन्युपगच्छति सत्तातोव्यतिरिक्तस्यावस्तुत्वं खरविषाणस्येव सच संग्रहः सामान्यविशेषात्मकस्य वस्तुनः सामान्यांशस्यैवाश्रयणा न्मिय्यादृष्टिस्तन्मताश्रित सांख्यवत् । व्यवहारनयस्य तु स्वरूपमिदं तद्यथा यथा लोकग्रा ह्यमेव वस्तु यथा च शुष्कतार्किकैः स्वानिप्रायकृतलक्षणानुगतं तथाभूतं वस्तु न भवत्येव नहि प्रतिलक्षणमर्थानामात्मनेोजवति किं तर्हि यथा यथा लोके न विशिष्टनूयिष्ठतया क्रियाकारि वस्तु व्यवहियते तथैव त ६ स्त्वित्याबालगोपालांगना दिप्रसि- इत्वा स्तुस्वरूप स्येत्ययमप्युत्पादव्ययधौव्ययुक्तस्य वस्तुनोनान्युपगमात् मिय्यादृष्टिस्तथा विधरच्या पुरुषव दिति । जुसूत्रमतं त्विदं जुप्रगुणं तत्वविनष्टानुत्पन्नतयातीतानागतचक्रपरित्यागेन व र्त्तमानकाल लक्षणनावि य इस्तु तत्सूत्रयति प्रतिपादयत्याश्रयतीति जुसूत्रस्तस्यैवार्थ कि याकारितया वस्तुत्वलक्षणयोगादित्ययमपि सामान्य विशेषोभयात्मकस्य वस्तुनः सामा For Private Personal Use Only Page #1050 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 100 दितीये सूत्रकृतांगे वितीय श्रुतस्कंधे सप्तमाध्ययनं. न्यांशपरित्यागेन विशेषांशस्यैव समाश्रयणाबौछोदनिवन्न सम्यग्दृष्टिः कारणनूतव्या नन्युपगमेन तदाश्रितविशेषस्यैव नावादिति / शब्दनयस्वरूपंविदं तद्यथा शब्दारेणैवा स्यार्थप्रतीत्यान्युपगमानिंगवचनसाधनोपग्रहकालजेदानिहितं वस्तु निन्नमेवेति तत्रालि गनेदानिहितं वस्त्वन्यदेव नवति तद्यथा पुष्यस्तारकानक्षत्रमेवं संख्या निन्नं जलमयोवर्षा तुः साधननेदस्त्वयं एहिमन्ये रथेन यास्यसि यातस्ते पिता यस्यायमर्थः / एवं त्वं म न्यसे यथाहं रथेन यास्यामीत्यत्र मध्यमपुरुषयोर्व्यत्ययः उपग्रहस्तु परस्मैपदात्मनेपद योर्व्यत्ययस्तद्यथा तिष्ठति प्रतिष्ठते रमते नपरमतीत्यादि कालनेदस्त्वग्निष्टोमयाजी पुत्रो स्य नविता यस्यायमर्थोग्निष्टोमयाजी थनिष्टोमेनेष्टवान् नूते णिनिर्नवितेति नविष्यद नद्यतने लुट् तत्रायमर्थः णिनिप्रत्ययोनवितेत्यस्य संबधातकालतां परित्यज्य नविष्य कालतां प्रतिपद्यते तेनेदमुक्तं नवत्येवंनूतोऽस्य पुत्रोनविष्यति योऽग्निष्टोमेन यदयति तदे वंनत व्यवहारनयशब्दनयोनेजति लिंगायनिन्नास्तु पर्यायाः अनेक विषयत्वेनेजति तद्यथा घटः कुंनः इंः शक्रः पुरंदरइत्यादि / श्रयमर्थव्यंजनपर्यायोनयरूपस्य वस्तुनोव्यंजनपर्या यस्यैव समाश्रयणान्मिथ्यादृष्टिरिति / तथा पर्यायाणां नानार्थतया समनिरोहणात्सम निरूढोन ह्ययं घटादिपर्यायाणामेकार्थतामिति तथाहि घटनाद्घटः कुट्टनात्कुट्टः को ना तीति कुंनोनहि घटनं कुट्टनं नवति तथदनादिः पुर्दारणात्पुरंदरइत्यादेरपि शब्दप्रवृत्ति निमित्तस्य न परस्परानुगतिरिति तदयमपि मिथ्यादृष्टिः पर्यायानिहितधर्मवस्तुनोना यणाग्रहीतप्रत्येकावयवांधहस्तिज्ञानवदिति / एवंनतानिप्रायस्त्वयं यदेव शब्दप्रवृत्तिनि मित्तं चेष्टादिकं तस्मिन्घटादिके वस्तुनि तदेवासौ युवतिमस्तकारूढनदकाद्याहरण क्रियाप्र वृत्तोघटोनवति न निर्व्यापारएव एवंनूतः तस्यार्थस्य समाश्रयणादेवंनूतोनिधानोनयोनव ति / तदयमप्यनंतधर्माध्यासितस्य वस्तुनोनाश्रयणान्मिय्यादृष्टिः / रत्नावल्यवयवे प मरागादौ कतरत्नावलीव्यपदेशपुरुषवदिति / तदेवं सर्वे नयाः प्रत्येकं मिथ्यादृष्टयोऽन्यो न्यसव्यपेदास्तु सम्यत्त्वं नजति पत्र च ज्ञानक्रियान्यां मोदतिकवा ज्ञान क्रियानययोः सर्वेप्येते स्वधिया समवतारणीयाः तत्रापि ज्ञाननयऐहिकामुष्मिकयोहानमेव फलसा धकत्वेनेजति न क्रियां / क्रियानयस्तु क्रियामेव न ज्ञानं परमार्थस्तूनयमपि समुदितमन्यो न्यसव्यपेदं पंग्वंधवदनिप्रेतफलसियेऽलमिति एतज्नययुक्तएव साधुरनिप्रेतमर्थ साधय त्युक्तं च / सवेसि पिणयाणं, बदुविहवत्तवयं णिसामेत्ता // तं सवणय विसुर, जं चरण गुणनि साहू // 1 // 40 // समाप्तमिदं नालंदाख्यं सप्तममध्ययनम् / / इति समाप्तेयं सूत्रकतक्षितीयांगस्य टीका / कता चेयं शीलाचार्येण वाहरिगणिसहायेन // श्लोकः॥ यदवाप्त मत्र पुण्यं, टीकाकरणे मया समाधिनता // तेनापेततमस्को,नव्यः कल्याण नाग् नवतात् // 1 // ग्रंथायं ( 11750) /