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________________ १३७ हितीये सूत्रकृतांगे प्रथमश्रुतस्कंधे वितीयाध्ययनं. महयं पलिगोव जाणिया जाविय वंदणपूयणाइदं॥सुढुमे सल्ले पुरुचरे, विठ मंता पयहिज संथवं ॥२१॥ एगेचरे गणमासणे सयणे एगे समादिए सिया ॥ निस्कू नवघाणवीरिए वगुत्ते असत्तसंवुमो ॥१२॥ अर्थ-वली उपदेश कहेले. महयं के महा महोटा जीवने कतरतां मुर्लन एवो गुं? तो के पलिगोव के कर्दम ते अंतरंग कर्दम जाणवो जाविय वंदणपूयणाई के तेवहीं साधुने राजादिकनी करेली वंदना तथा पूजना एटले वस्त्रादिकनी प्रतिलान ना तेणे करी नपजी जे पूजा तेने कर्मोपशमनुं कारण जाणिया के० जाणीने न स्कर्ष न करवो, जे जीवने गर्व उत्पन्न थाय तेहिज कर्दम सरखो जाणवो केमके सुदु मेसनेकुरुक्षरेके ए गर्वरूप जे सत्य ते सूक्ष्म माटे सुरुधर एटले एने नहरता घणो उर्जन तेमाटे विनमंता के विज्ञास विवेकी पुरुषते पयहिऊ के बांके संथवं के० संस्तव परिचयादिकनो त्याग करे ॥११॥ वली तेहिज कहे एगेचरे के चारित्रिएका की इव्य थकी एकलविहारी अने नाव थकी रागदेषरहित एवो बतो विचरे तथा एक लो बतो ताण के कानस्सग करे तथा भासणेके आसनने विषे पण रागदेषरहित थको बेशे एरीते सयणेके शयनजे पाटप्रमुख त्यां पण एकाकीरहे ते केवो थको रहे? तोके समाहिएके समाहित एटले जे जे क्रियामा प्रवर्ते त्यांत्यां सियाके रागदेष टाल तो थको प्रवर्तमान होय एवो निरकू के बाहारनो लेनार तथा उपहाण के तपने विषे वीरिएके बल वीर्यनो फोरवनार तथा वइगुत्तेके वचनगुप्ति एटले विमाशीने बोलनार तथा असत्त के मन तेनेविषे संवुमे के संत एटले मनने स्थिरतानो कर नार एवो साधु होय. ॥ १२ ॥ ॥ दीपिका-(महयमिति ) महांत परिगोपं नावपंकोऽनिष्वंगस्तं विपाकतोझावा यो पि च प्रव्रजितस्य सतोवंदना पूजना इहाऽस्मिनोके तां झात्वा गर्वोन कार्यइति । यतो गर्वोऽयं सूक्ष्मशल्यं वर्तते ।सूक्ष्मत्वाचउरुरमुर्तुमशक्यतोविज्ञान तत्तावत्संस्तवं परि चयं संगं प्रजह्यात् त्यजेत् ॥११॥ (एगेइति) एकोरागोषरहितएकान विहारीवा चरेत् स्थानं कायोत्सर्गादिकमेकएव कुर्यात् ।बासने शयने वा स्थितएकएव राग देषरहितएव समाहितो धर्मादिध्यानयुक्तः स्यात् । तथानिहुरुपधानं तपस्तत्र वीर्यमुपधानवीर्योऽनिगृहितबलवी र्यः वाग्गुप्तः अध्यात्म मनस्तेन संवृतः स्यात् ॥ १५ ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003652
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShravak Bhimsinh Manek
PublisherShravak Bhimsinh Manek
Publication Year1880
Total Pages1050
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size42 MB
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