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________________ ४० द्वितीये सूत्रकृतांगे द्वितीय श्रुतस्कंधे षष्ठाध्ययनं. संसारांतरवर्त्यपीह लगते शं मुक्तवन्निर्नयः, संतोषात्पुरुषोमृतत्वम चिरायायात्सुरेंश चित" इत्यादि ॥ ४२ ॥ सिणायगाणं तु वे सदस्से, जे नोयए पितिए माढणाणं ॥ ते पुन्नखंधे सुमहक पित्ता, जवंति देवा इति वेयवानं ॥ ४३ ॥ सिला यगाणं तु डुवे सदस्से, जे नोयए पितिए कलालया से ग तिलोलुवसंपगाढे, तिवानितावी परगानिसेवी ॥ ४४ ॥ अर्थ - ए रीतें या ईकुमार गोशालक तथा बौधमतिउनें परास्त करीनें खागल चाल्यो तेवा रें, वच्चें ब्राह्मण मव्या, ते ब्राह्मण बोल्या के, अहो बाईकुमार ! तें रूडूं कस्युं के, जे ए पूर्वो क्त बेदु मत वेदबाह्य हता, तेनुं तें निराकरण कयुं, तो हवे ए जैनमत पण वेद बाह्यवे. एवं जाणीनें, तमारा सरखाने याश्रय करवा योग्य नथी केमके, तुं त्री बो घनें दीनें सर्व वर्षोत्तम एवा ब्रह्मणनेंज सेववा योग्यले, परंतु शूइ सेववा नहीं. ए कारण माटें वेदोक्त विधियें यज्ञादिकमार्गनी तमारे सेवा करवी. इत्यादिक ते ब्राह्मणो पोतानो मार्ग देखा डेबे . ( सिपाय गाणं तुडुवे सहस्से के ० ) स्नातक एटले षट्कर्मने विषे निरत, घनें वेदना नानार, पोताना याचारनें विषे तत्पर, नित्य स्नातक, ब्रह्मचारी, एवा बे सहस्र (माहणा ho) ब्राह्मण (जेनो एपितिए के ० ) जे पुरुष नित्य जमाडे, एटले तेनें मनोवांबित थाहा छापे, (ते पुन्नखंधे सुमहऊ पित्ता के ० ) ते पुरुष घणो महोटो पुण्यनो स्कंध उपार्क न करीनें, ( नवंतिदेवा इतिवेयवाउ के०) देवता याय एवं खमारा वेदनुं वाक्यले, एम जानें ए वेदोक्त मार्ग यादवो ॥४३॥ हवे घाईकुमार उत्तर कहेबे के हो ब्राह्म लो! (सिपायगा तुडवे सहस्से के ० ) स्नातकनां बे सहस्रनें (जेनोयएपितिएकुलालया ri ho) जे दातार नित्य जमाडे. ते स्नातक केवाले तोके, कुलालग एटले मार्जार ते सर खा ब्राह्मण पण जाणवा, कारण के, ए पण सावद्याहार वांबता, सर्वकाल घर घरने विषे मण करे एवा, एक निंद्य खाजीविकाना करनार, ते कुपात्रनें दान देवाथी, (सेगवति लोलुव संपगाढे के० ) ते लोलपी ब्राह्मण सहित एवो दातापण गछति एटले दुर्गतियें जाय, दुर्गतिमां कया स्थानके जाय ? तोके, (तिवानितावीरगा जिसेवी के० ) तीव्रवेद नाना सहन करनार, एतावता तेत्रीश सागरोपम पर्यंत पूर्ण आयुष्ये ते बेदु जा नर कना स्थानक विषे नारकी थाय ॥ ४४ ॥ , ॥ दीपिका - एवं गोशालकमते बौद्धमते च निरस्ते द्विजातयः प्रादुः नो घाईकुमार ! शो जनं कृतं यदेते वेदबाये दे अपि मते दिप्ते यथ जैनमतमपि वेदबाह्यं ततोनादरणयोग्यं Jain Education International For Private Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003652
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShravak Bhimsinh Manek
PublisherShravak Bhimsinh Manek
Publication Year1880
Total Pages1050
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size42 MB
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