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________________ राय धनपतसिंघ बादाउरका जैनागमसंग्रह नाग उसरा. १६ए अप्पेगे पडिनासंति, पडिपंथियमागता ॥ पडियारगता एते, जे एते एव जीविणो॥॥ अप्पेगे व जुजंति, नगिणा पिंमो लगाहमा ॥ मुंमाकंमूविणगा, उल्ला असमाहिता ॥१०॥ अर्थ-वली ग्रामीण लोकनुं वचन परिसह कहे. अप्पेगे के० अपि संनावनायें. कोई एक धर्मना अजाण पडिपंथियमागता के साधुना देषी, साधुनी साथे शत्रुनावे पोहोंता थका पडिनासंति के एवं कठोर वचन साधुप्रतें नासे एटले बोले. मु बोले? तो के, पडियारगताएते के ए बापडा पाडला नवना करेला कर्मनां फल नोगवे. जे एते के जे ए यति ते एवजीविणो के एम आजीविकायें जीवेडे. एटले परघरनी निदा मागेले, तथा अंतप्रांत आहारना लेनारा ले. एणे पूर्वले नवे कांश दीनथी, कांश साधु नथी, तेथी मस्तक मुंम थइ बीनत्सरूपे सर्व नोग थकी वंच्या एवा ए बाप डा उरखी थका, जीवे बे. ॥ ए ॥ तथा वली एहिज परिसह कहेजे. अप्पेगेवगँजति के अपि संनावनायें, एक को अनार्य एवां वचनबोले के, नगिणा के ए नागा स र्वकाल पिंमोलगाहमा के० परपिंमना उसीयाला अधम उगंबाना स्थानक मुंमा के मुंमितकेश, कंके० खाजीये करी एमना शरीर विणगाके विणाले. अंगजेना एवा पामर तथा उन्ना के मेल प्रस्वेद थकी खरड्या असमाहिया के सर्वकाल अस माधिया एटले अशोननिक देखनाराने असमाधिना नपजावनारले.॥ १० ॥ ॥ दीपिका-आक्रोशमेव पुनराह । (अप्पेगति ) अप्येके प्रातिपंथिकतां साधविदे षितां प्राप्ताः प्रतिनाते । यथा प्रतीकारपूर्वकर्मानुनवस्तमेकेगताः प्राप्ताः स्वरुतकर्मनो गिनोयएते एवं जीविनः परगृहाण्यटतः अंतप्रांतनोजिनोखंचित शिरसः सर्वनोगं चिं ताखं जीवंतीति ॥ ए ॥ किंच ( अप्पेगेति ) अप्येके अनार्यावाचं युंजंति नापते । यथा एते जिनकल्पिकादयोनग्नाः पिंमोलगाः परपिंम्प्रार्थकाअधमामुंडालुंचितकेशाः कंडूः खर्जस्तया विनष्टांगा अप्रतिकर्मतया कचित् रोगसंनवे सनत्कुमारवदिनष्टांगानजतो जल्लोमतः प्रस्वेदोयेषांते उजनाः असमाहिताअशोजनाः ॥ १० ॥ ॥ टीका-पुनरपि तानधिकल्याह । (अप्पेगेइत्यादि)। अपिः संनावने । एके केचना ऽपुष्टधर्माणः अपुण्यकर्माणः प्रतिनाति ढवते । प्रतिपंथाः प्रतिकूलत्वं तेन चरंति प्रा तिपंथिकाः साधु विदेषिणस्तनावमागताः कथंचित्प्रतिपथेवा दृष्टाधनाएतद्ब्रुवते । संभाव्यते एतदेवं विधानां तद्यथाप्रतीकारः पूर्वाचरितस्य कर्मणोऽनुनवस्तमेके गताः प्राप्ताः स्वकतकर्मफलनोगिनोयएते यतयएवं जीवंति परगृहाण्यटंतोऽतप्रांतनोजिनो Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003652
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShravak Bhimsinh Manek
PublisherShravak Bhimsinh Manek
Publication Year1880
Total Pages1050
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size42 MB
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