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________________ १० तीये सूत्रकृतांगे प्रथमश्रुतस्कंधे तृतीयाध्ययनं. वमेगे न पासबा, मिबदिछी अणारिआ ॥ अनोववन्ना कामे दि, पूयणा श्व तरुणए ॥१३॥ अर्थ-वली दृष्टांत कहे जहाकेण्जेम मंदादननामके० मेषो एवे नामे जनावर ते थि मितं के जेरीते पाणी मोलाय नही एरीते चुंजतीदगं के नदकनुं पान करें, परंतु पाणीने पण बाधा नथाय अने पोताने पण बाधा नकरे एवंके० एरीते विन्नवणिजीसु के० प्रार्थना करती स्त्री साथे संबंध करवा थकी दोसोतनकसिया के त्यांपण दोष क्या थकी थाय अपितु नज थाय. ॥११॥ जहा के जेम विहंगमापिंगा के कपिंजल एवेनामे पंखणी आकाशे उडती थकीज थिमिअंजुंजतीदगं के निर्मलपाणीनुं पानकरे एवं के० एरीते विनवणिबीसु के अंहीपण ग तर करण पूर्वक पुत्रादिकने अर्थे राग देष रहित प्रार्थती एवी स्त्रीनी साथे संग करता थकां दोष क्याथकी थाय ॥१॥ हवे सूत्र कर्ता ते वादीउना दोष प्रगट करतो कहेले. एवमेगेउपासबाके ते पूर्वोक्त गुंबडादिक ना दृष्टांते करी मैथुनने निर्दोष मानता एवा को एक परतीर्थिक तथा स्वयूथिक पासबादि क जेणे स्त्री परिसह जित्यो नथी, ते सिथल विहारी केवा बे, तो के मिन्नदिही अणा रिया के मिथ्यादृष्टी अनार्य कर्मना करनार अनाचारी अशोववन्नाकामे हिंके० कामनो गने विषे गृम बता प्रवर्ने कोनीपेरे तोके पूयणाश्वके पुतना एटले माकणनीपेरे जेम माकण न्हाना बालकने देखी गृह थाय अथवा पुतना एटले गामरीनीपेरे जेम गामरी पोताना तरुणए के तरुण बालकने विषे गृ६ थाय; एटले समस्त जीवोमांहे संता नने विषे गामरीनो स्नेह थाकरो दीपेडे ते माटे ए दृष्टांत कयुं तेम पूर्वोक्त अनाचा री पासबादिक पण कामनोगनेविषे गृह थाय. ॥ १३ ॥ ॥ दीपिका-(जति ) यथा मंधादनोमेषः स्तिमितं अनालोड्यायतनदकं चुंक्त पिब त्यात्मानं प्रीणयति नचान्योपघातं कुर्यात् एवं स्त्रीसंबंधे न काचिदन्यस्य पीमा आ त्मनश्च प्रीणनमिति कुतस्तत्र दोषः ॥११॥ यथा पिंगाः कपिंजलाविहंगमाः परिणया काशएव वर्तमानाः स्तिमितं निनृतमुदकं पिबंति एवमत्रापि पुत्राद्यर्थ स्त्रीसंबंधं कुर्वतोऽ रक्तदिष्टस्य पक्षिणश्व कुतोदोषः। यमुक्तं ॥ धर्मार्थ पुत्रकामस्य स्वदारेष्वधिकारिणः॥ ऋतुकाल विधानेन दोषस्तत्र न विद्यतइति ॥१२॥ अथैवं वदतां परेषां दोषमाह। एवं प रोक्तैः पूर्वदृष्टांतमैथुनं निर्दोषमितिमन्यमानाएके शाक्यादयः स्वयूथ्यावा पार्श्वस्थादय स्तथा मिथ्यादृष्टयोऽनार्याधर्मविरुवनाषिणोऽध्युपपन्नागृक्षाः कामेषु वा । यथा पूतना शाकिनी तरुणके बाले बासक्ता यदि वा पूतना गमुरिका स्वापत्ये आसक्ता । कथाचात्र केनापि सर्वपशूनामपत्यानि निरुदके कूपेऽपत्यस्नेहपरीक्षार्थ दिप्तानि । तत्र चान्यामात Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003652
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShravak Bhimsinh Manek
PublisherShravak Bhimsinh Manek
Publication Year1880
Total Pages1050
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size42 MB
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