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________________ राय धनपतसिंघ बादाउरका जैनागम संग्रह नाग उसरा. ४६१ अर्थ-हवे सर्व शून्यवादिनो जेद कहे ते शून्यवादी एम कहेले के समस्त लोक प्रसिह जगत्प्रदीप समान एवो (पाश्चो के०) सूर्य नथी वली ते सूर्य (एनएश्के०) नगतो नथी तथा (णयबमेति के० ) अस्तपण थातो नथी ए जे देदीप्यमान सूर्य मंगल देखाय ते मात्र चित्तनो चम जाणवो मृगतृमा समान ए सर्व चमडे तथा (णचंदिमावडुति हीयती के ० ) चश्मानी कला वृद्धि पामती नथी तेम हीन पण थती नथी एटले शुक्ल पदा दिने विषे जे वृद्धि प्रमुख चश्मानी देखाय ते सर्व चम डे (वा के० ) अथवा तथा ( सलिला के० ) नदीना पाणी ते (संदंति के०) नथी श्रवता एटले नदीहदादिक पण नथी तथा (पवयंतिवाया के० ) वायरो पण वातो नथी (वंफोणियतो कसिणे दुलोए के०) तो दुइति निश्चे ए लोक संपूर्ण वंध्यसमा न अर्थ शून्य डे अर्थात् ए जगतमां कांइज नथी जे कांइ देखायडे ते सर्व स्वप्नंजाल । समान जाणवू ॥ ७ ॥ (जहाहि अंधेसह जोतिणावि के०) जेम जाति अंध एटले नेत्रहीन पुरुष दीपे करी सहित बतां पण (दोणणेत्ते के०) हीननेत्रपणाने लीधे (रूवा के०) रूपादिक जे घटपटादिक विद्यमान पदार्थोडे तेने (णोपस्सति के०) देखी शके नही (संतंपिते एवम किरियवाई के०) तेम ते अक्रियावादिनमा बतिकि या विद्यमान बता पण ते (किरियं के ) क्रियाने (निरुक्षपन्ना के०) जेमनी प्रज्ञा एटले बुझिनिरोध थश्ने अर्थात् बुद्धिहीन एवाते अक्रियावादी लोको पोतामा क्रिया विद्यमान बता पण तेने (पपस्संतिक०) मिथ्यात्वादिक दोषेकर। नथी देखता. ॥ ७॥ ॥ दीपिका-श्रादित्योनोजबति नास्तमेति । कोर्थः । श्रादित्यएव तावन्न विद्यते कु तस्तस्योजमनमस्तगमनं च । यच्चेदं ज्वलनेजोमंडलं दृश्यते तनांतमतीनां विचंप्र तिनासमृगतृभातुल्यमिति । तथा न चश्मावर्धते दीयते वा सलिलानि पर्वतनि:रेन्यो न स्वदंते न वंति वातान वांति । किंबहुना कृत्स्नः संपूर्णोप्ययं लोकोवंध्योर्थशू न्योनियतोनिश्चितोनावरूपश्त्यर्थः । सर्वमिदं यउपलन्यते तन्मायास्वप्नेजालप्रायमि ति ॥ ७ ॥ यथााधोजात्यंधः पश्चामा हीननेत्रोगतचकुर्घटपटादिरूपाणि ज्योतिषा प्रदीपादिनाऽपि सहवर्तमानोन पश्यति । एवंतेप्यक्रियावादिनः सदपि घटपटादिकं वस्तु न कियां चास्तित्वादिकां परिस्पंदादिकां वा न पश्यंति । यतोनिरुवाबासादिता प्रज्ञा झानं येषांते निरुवप्रज्ञाः अतएव ते न जानंतीति ॥ ७ ॥ ___॥ टीका-पुनरपि शून्यमताविर्भावनायाह । (णाश्चो नएइत्यादि ) सर्वशून्यवादि नोह्य क्रियावादिनः सर्वाध्यक्षामादित्योजमनादिकामेव क्रियां तावनिरुंधतीति दर्शयति । आदित्योहि सर्वजनप्रतीतोजगत्प्रदीपकल्पोदिवसादिकाल विनागकालकारी सएव तावन्न Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003652
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShravak Bhimsinh Manek
PublisherShravak Bhimsinh Manek
Publication Year1880
Total Pages1050
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size42 MB
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