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रायधनपतसिंघ बाहाउरका जैनागम संग्रह नाग उसरा. ५६७ रूवा सवावं तिचणं इत्यादिक उपमायें जाणवा (तीसेणंपुस्करिणीएबहुमसदेसनाएके०) ते पुष्करणीना बदु मध्यदेश नागने विषे (एगंमहं के०) एक महोटुं (परमवरपॉमरि एबुइए के) प्रधान पौंमरिक कमल बोल्यो अणुपुत्रुछिए जावपडिरूवे सुधी अर्थ पूर्वै लखाइ गयुं ॥५॥ (अहपुरिसेके) अथ हवे एक पुरुष (पुरिडिमादिसाके) पूर्वदिशा थकी (आगम्मके०) आवीने (तंके० ) ते (पुस्करिणींके ० ) पुष्करणी(तीसे पुरकरिणीएके०) तेपुष्करणीना (तीरेविच्चाके) तीरने विष ननो रहीने (महंएगंपनमवर पोमरीयंके०) ते महोटुं एक पौंमरीक कमल पूर्वोक्त गुण सहित तेने (पासंतिके०)देखे ते क मलकेवो तोके अणुपुबुध्यिं नस्सियं जावपडिरूवं इत्यादिकना अर्थ पूर्वे लखा गया एवी शोना सहित ते पोंमरीक कमलने देखीने (तत्तेणं के ) तेवारे ( से पुरिसे के०) ते पुरुष (एवंवयासि के०) एम बोल्यो झुं बोल्यो ते कहेले (अहमंसीपुरिसे के०) ढुं पुरुष परंतु केवो तोके (खेयन्ने के०) परपीडानो जाण तथा अवसरनो जाण बू (कुसलेपंमिते के०) दाह्यो पंमित (वियत्ते के०) विवेक युक्त (मेहावी के०) परिणत बुद्धिवालो j (अबाले के० ) बाल पणा रहित (मग्गो के०) मार्गस्थ ए टले मार्गने विषे स्थित रह्यो (मग्गविक के०) रुडा मार्गनो जाण (मग्गस्सगति के०) मार्गनी गतिना (पराकमम के०) पराक्रम तेनो जागवं (अहमेयंके) तेन
णी हुँ ए (पनमवरपोमरीयंके० ) प्रधान पौंमरीक कमलने ए पुष्करणी थकी (उन्नि रिकस्सामिति के ) नदरीश (कट्ठ के०) एम करीने (इतिवच्चा के) ए पूर्वो क्त वचन बोलतो जेटले (सेपुरिसे के ) ते पुरुष (अनिक्कमेति के० ) पुष्करण। मांहे प्रवेश करेले (पुस्करिणीके०) ते पुष्करिणी मांहे (जावंजावंचणंथनिक्कमेश्के० ) जेम जेम जायजे अतिक्रमे (तावंताचणंके)तेम तेम ते पुरुष पुष्करणी मांहे (महंते उदए के० ) महोटा अगाध पाणीने विषे (महंतेसेए के०) घणा कादवने विषे (प हीणेतीरं के०) एक कांठो मूकी बीजे काठे (अपत्तेके०) अण पहोतों एटले न पहो तो अने (पनमवरपोमरीयंके०) पौंमरीक कमले पण पहोतो नही तेने नहरी पण शक्यो नही (पोहचाए के) कांते रह्यो नही (णोपाराएके०) पार पण पाम्यो नही कमलपण लश् नशक्यो (अंतरापोस्करिणीए के० ) विचाले पुष्करणी मांहेज (सेयंसि के० ) का दवने विषे (निसले के०) खुची रह्यो एटले बेदु तीर थकी भ्रष्ट थयो भने कम लने पण नघरी न शक्यो अने पोते पण कादवमां खुची रह्यो नीकली शक्यो नही (पढमेपुरिसजाए के० ) एटले प्रथम पुरुष जात जाणवो ॥६॥
॥ दीपिका-श्रीसूत्रकतांगस्य प्रथमः श्रुतस्कंधनक्तः ॥ अथ वितीयः प्रारच्यते । त
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