SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 720
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ हए वितीये सूत्रकृतांगे वितीय श्रुतस्कंधे वितीयाध्ययनं. नो पद, तेना मदें करीने, (कुलमएणवा के०) कुल एटले पितानो पद, तेना मदें क रीने, (बलमएणवा के० ) शरीरनुं बल, तेना मदें करीने, (रूवमएणवा के० ) रूपने मदें करीने, (तवमएणवा के०) तपने मदें करीने, (सुयमएणवा के०) श्रुतज्ञानने मदें करीने, (लानमएणवा के) लानने मदें करीने, (इस्सरियमएणवा के) ऐश्वर्य एटले ठकुराइने मदें करीने, (पन्नामएएवा के०)प्रझाना मदें करीने, एटलाना मद (यनतरेणवा के) अथवा अन्य एटले बीजा कोई (मयहागणं के०) मदना स्थानकें करीने (मत्तेसमाणे के०) मातो तो (पहिलेंति के) बीजानी हेलना करे, (निंदेंति के) निंदा करे, (खिंसति के ) खष्ट करे, (गरहति के० ) गर्दा करे, (परिजवर के० ) परानव करे, (अवमामेति के० ) अपमान करे, (इत्तरिएब य के०) ए बापडो जघन्य एटले जातिकुलादिकें हीन. (अहमंसिपुणविसिजाइकु लबलाश्गुणोववेए के०) दुं वली विशेष जाति, कुल, बलादिकगुणेकरी सहितg (एवंथप्पाणंसमुक्कस्से के०) एम पोताना आत्माने नत्कर्षे एटले अहंकार करे. हवे एवा मद करनारने विपाक देखाडेले. ( देहान्छुए के० ) ते पुरुष या लोक माहे पण निंदा अने गर्हार्ने स्थानक थाय, अने परलोके पण निंदा अने गर्दान स्थानक थाय. देहाचुए एटले था शरीरथकी चवीने परनवे (कम्मबित्तिए के० ) कर्मवित्तीय (अवसेपयाई के० ) एतावता कर्मने वश वर्ततो चतुर्गतिक संसार मांहे परिचमण करे ( तंजहा के०) ते कहेले (गप्पागनं के०) एक गर्न थकी मरण पा मिने, वली बीजा गर्न मांहे उपजे. (जम्माजम्मं के०) एक जन्म थकी बीजें ज न्म पामे, (मारामारं के०) मरण थकी मरण पामे, (परगाणरगं के ) नरक थकी निकलीने वली नरकांतरे नरकमां जश्ने तीव्र दुःख जोगवे, एटले ते नरकमांहे थी निकलीने, सिंह मत्स्यादिक मांहे उत्पन्न थाय, फरी त्यांथी मरण पामीने तीव्रतर नरकांतरें जाय. एतावता ते (चं के०) रौ अहंकारी (थके के०) स्तब्ध अनम्र शील (चवले के०) चपल एवा लक्ष्णेयुक्त (माणियाविनव के०) ते अनिमानी पुरुष होय एम निथें तेने तत्प्रत्ययिक सावद्य कर्म बंधाय, ए नवमो क्रिया स्थानक मान प्रत्ययिक नामे कह्यो ॥ १७ ॥ . ॥ दीपिका-अथापरं नवमं क्रियास्थानं मानप्रत्ययिकमाख्यायते । तद्यथा कश्चित्पुरुषो जात्यादिगुणोपेतः सन् जातिकुलबलरूपतपःश्रुतलानैश्वर्यप्रज्ञामदारख्यैरष्टनिर्मदस्थानैर न्यतरेण वा मत्तः परं हीनबुध्या हीलयति, निंदति, जुगुप्सते, गर्दति, परिजवति । यथाय मितरोजघन्योहीनोमत्तः कुलादिनिः । अहं पुनर्विशिष्टकुलादिगुणोपेतएवमात्मानमुत्क Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003652
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShravak Bhimsinh Manek
PublisherShravak Bhimsinh Manek
Publication Year1880
Total Pages1050
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size42 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy