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________________ ए१७ तिीये सूत्रकृतांगे वितीय श्रुतस्कंधे षष्ठाध्ययनं. णोइत्यादि ) मेधा विद्यते येषां ते मेधाविनोग्रहणधारणसमर्थास्तथाऽऽचार्यादेः समीपे । शिक्षा ग्राहिताः शिहितास्तथोत्पत्तिक्या दिचतुर्विधबुच्युपेताबुद्धिमंतस्तथासूत्रेपि सूत्रवि षये विनिश्चयज्ञायथावस्थितसूत्रार्थवेदिनइत्यर्थः। ते चैवंजूताःसूत्रार्थविषयमा प्रश्नमका पुरन्येऽनगाराएके केचनेत्येवमसौ शंकमानास्तेषां बिन्यन्न तत्र तन्मध्ये उपैत्युपगनतीति ततश्च न जुर्मार्गइति नययुक्तत्वात्तस्य तथा म्लेजविषयं गत्वा न कदाचिधर्मदेशनां च करो त्यार्यदेशेपि न सर्वत्रापितु कुत्रचिदेवेत्यतो विषमदृष्टित्वाशगषवर्त्य साविति ॥ १६ ॥ पो कामकिच्चा पय बालकिच्चा, रायानिगेण कु नए णं॥वियागरजा पसिणं नवावि, सकाम किचं सिदारि याणं ॥१७॥ गंता च तबा अदुवा अगंता, वियागरेजा समि या सुपन्ने॥अणारिया दंसणा परित्ता, इति संकमाणा ण ग्वेति तब ॥१७॥ अर्थ-एम गोशालकें कहे थके, हवे बाईकुमार गोशालक प्रत्ये कहे. के,(पोकामकि चा के०) अहो गोशालक! ते जगवंत कामकृत्य नथी. एनो अर्थ कहे. के, जे अवि माश्यानो करनार होय ते पोताने तथा परने, निरर्थक कार्य करे. परंतु श्रीनगवंत तो सर्वज्ञ, सर्वदर्शी, परना हितना करनार, ते पोताने तथा परनें निरुपकारी केम थाय ? ते कारण माटें स्वामी निरर्थक कामना करनार नथी, (णयबालकिच्चा के०) तथा स्वामी बालकृत्य नथी, एटले बालकनी पेरेंथण विचायुं कार्य न करे, (राया निगेण के०) तथा राजानियोगें करीधर्मदेशनादिकनें विषे प्रवर्ते नहीं, (कुनएकवियागरेजा के) तथा कोइना नयथकी प्रश्न वागरे एटले कहे नहीं, (पसिणंनवावि के ) उपकार न होय तो कहे नहीं, एटले प्रश्न वागरे नहीं. किंबहुना उपकार विना कोड्ने कां न कहे. अनुत्तर विमानवासी देवताने पण, मन थकीज पूजेला प्रश्ननो निर्णय करे.हवे जे ए श्रीवी तरागनो धार्मिक थाय ते केवां कार्यो करे? एवीयाशंका लावी तेनो प्रत्युत्तर चोथे पदें कहे (सकाम किचंपियारियाणं के०) पोताना काममें अर्थ एतावता तीर्थकरनामकर्म खपा ववा नणी आर्य क्षेत्रमा आर्य लोकनें प्रतिबोधवा वास्ते धर्म देशना करे, परंतु बीजें कोई यात्मप्रशंसादिक कार्य न करे. ॥ १७ ॥ वली बाईकुमार कहेले के, (गंताचतबा अध्वाधगंता के०) ते जगवंत परहितने अर्थे त्यां जश्नें, अथवा त्यां न जानें, किंतु जेम जेम नव्य जीवोनो उपकार थाय, तेम तेम (वियागरेजा के० ) धर्मदेशना आपे. जो उपकार थशे, एम जाणे तो त्यां जश्ने पण धर्म देशना थापे अथवा ते न Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003652
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShravak Bhimsinh Manek
PublisherShravak Bhimsinh Manek
Publication Year1880
Total Pages1050
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size42 MB
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