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७१० दितीये सूत्रकृतांगे वितीय श्रुतस्कंधे वितीयाध्ययनं. कह्याने, तथा (नप्पायं के ) उत्पातिक, कपिदसितादिक, तथा आकाश थकी रुधिरवृष्टयादिक ( सुविणं के ) स्वप्नते रात्रीने विषे गजवषनादिक दर्शन, ( अं तलिरकं के०) उल्कापात मेघ तृष्टयादिक तथा (अंग के० ) अंग नेत्र बादु स्फुरणा दिक, ( सरं के० ) काकशिवादिक स्वर विचारणा, (लरकणं के० ) पद्म, यव, शंख, चक्रादिक लक्षण, ( वंजणं के० ) मस तिलकादिक, (इबिलरकणंपुरिसलरकणं के ) स्त्रीलदाण, तथा पुरुषना लदाण, ते सामुश्किादिक प्रसिमडे. (हयलरकणं के०) घो डाना लहाण, (गयलरकणंके०) हाथीना लक्षण, (गोणलरकणं के०) गौ वृषनना लक्षण, ( मिंढलरकणं के० ) मिंढाना लक्षण, (कुक्कडलरकणंके०) कुकडाना लक्षण, (तित्तिरल रकणं के० ) तित्तिरपदीना लहाण, ( वट्टगलरकणं के०) वर्तकना लक्षण, (लावयल रकणं के० ) लावकना लक्षण, ( चक्कलरकणं के० ) चक्रना लक्षण, (उत्तलरकणंके०) बनना लक्षण, ( चम्मलरकणं के० ) चर्मना लक्षण, (दंमलरकणं के ) दंझना लक्षण (असिलरकणं के ० ) खड़ना लक्षण, ( मणिलरकणं के ० ) मणि चंद सूर्यकांतादिकना लक्षण, (कागिणिलरकणं के० ) कागिणिना लक्षण, एवीरीते एना प्ररूपक शास्त्र जा णवां. ॥ २६ ॥ हवे मंत्रविद्या कहे. ( सुनगाकरं के० ) जे थकी कुर्नाग्य वंत प्राणी सोनाग्य वंत थाय. ( उपगाकरं के०) जेथकी सौनाग्य वंत प्राणी दौर्नाग्यवंत थाय. ( गप्नाकर के० ) जे विद्याने बले गर्नाधान ऊपजे तेवी विद्या, (मोहणकरं के० ) लोकने व्यामोह ऊपजे तथा वेदनो उदय दीपे, (पाहचणिं के० ) आथर्वणीविद्या ए टले तत्काल अनर्थनी करनारी विद्या, (पागसासणिं के ० ) इंजाल विद्या, ( दवहो मं के० ) मधु घृतादिक इव्य, उच्चाटनादिक कार्य निमित्तें होमीए ते इव्यहोम जाण वो ( खत्तिय विर्क के०) दत्रीनी धनुर्विद्यादिक विद्या, (चंदचरियं के ) चंडमानु चरित्र चंइमानोवार जाणे (सूरचरियंक०) सूर्यनु चरित्र सूर्यनो वार जाणे, (सुक्कचरियं के०) शुक्रचरित्र शुक्रनो वार जाणे, (वहस्सश्चरियंके०) बृहस्पतिनुं चरित्र बृहस्प तिनो वार जाणे, एवं नवग्रह चरित्र ते ज्योतिष शास्त्र प्रसि६ जाणवू. तथा (नक्कापायं के०) उल्कापात, (दिसादाहं के ) दिग्दाह ( मियचकं के०) थारण्यक जीव तेनो ग्राम नगरने विषे प्रवेश करतां दर्शनथाय, अथवा शब्द शुनागुन चिंतवियें ते मृगचक्र कहिए. ( वायसपरिमंमलं के०) काकादिक पदीना शब्दादिकनो विचार कहे एवीविद्या (पंसुवुहिके०) पंसुधूल वृष्टि, (केसवुहिं के०) केश वृष्टि, (मंसवुटिके) मांस वृष्टि, (रूहिरवुहिं के०) रुधिरवृष्टि, तेनुं गुनाशुन फल, जे शास्त्रने विषे चिंतवियें. ते शा स्त्रो (वेतालिं के०) वेतालि नामे विद्या केटला एक अर प्रमाण ते केटला एक दि वस जपतां अचेतन काष्ट माहें चेतन वताडे (१६वेतालि के०) ते दमने उपशमावे,
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