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________________ रायधनपतसिंघ वादाउरका जैनागम संग्रह नाग उसरा. ११ (उसोवर्णिके०) उपस्वापिनी विद्या, (तालुघाडणिके०) ताला उघाडवानी विद्या; तालो घट्टनी ( सोवागिं के ) चांमालिणीश्वापकी विद्या, (सोवरिके) शांबरी विद्या, (दा मिलिके) साविडीविद्या (कालिंगिंके) कालिंगी विद्या, (गोरिंके०) गोरी विद्या (गंधारि के० ) गांधारी विद्या, ( उवतिणिं के० ) अवपतनी नीचे पाडवानी विद्या, (नप्पयणिं के) नत्पतनी एटले तुंचे जवानी विद्या. (जनपिंके०) जूनणी विद्या. (थंनपिंके०) स्तंननी विद्या (लेसणिं के० ) श्लेषनी विद्या ( आमयकरणिं के० ) श्रामय करणी विद्या (विसलकरणिं के) विशव्य करणी विद्या ( पक्कमणिं के०) प्रक्रामणी फेर चडा वानी विद्या (अंतकापिं के०) अदृश्य करणि विद्या (यायमणिं के०) यात्मणी वि द्या, ( एवमाश्या विजा के ) इत्यादिक विद्या आदि शब्दथकी प्रत्यादिक वि द्या लेवी ते विद्याने जे शास्त्रो थकी जाणी. तेवां शास्त्रो नगीने पांखमी, परद शनी अथवा गृहस्थ, अथवा स्वपदीक इव्यलिंगी साधु ते ए पूर्वोक्त विद्याउने ( अन्नस्सहेनं के० ) अन्नने अर्थ ( पति के० ) प्रयंजे (पाणस्सहेनपति के) पाणीने अर्थ प्रयुंजे ( वनस्सहेचंपति के० ) वस्त्रने अर्थे प्रयुंजे (लेण स्सहेनपत्रंजंति के ) नपाश्रयने अर्थं प्रयुंजे ( सयणस्सहेपनंजंति के ) शयनने अर्थं प्रयुंजे (अन्नेसिंवा विरूवरूवाणंकामनोगाणहेनपत्रंजंति के ) अथवा बीजा नाना प्रकारना कामनोगने अर्थं प्रयुंजे ते पुरुष (तिरि तेविसेवेंति के ) तिरबि एटले रूडा अनुष्ठाननी हणनारी एवी ते विद्याने सेवे (तेश्रणारिया विप्प डिवन्ना के ) ते अनार्य जाणवा. यद्यपि क्षेत्रे करी अने नाषायें करी तो धार्य तथापि, मिथ्यात्व ना आसेवन थकी, अनार्य कर्मना करनार, अनार्य, अनाचारी, केवाय ते (काल मासे कालं किच्चा के) आयुष्यने क्ये कालने अवसरे काल करीने अझान तपने प्र माणे यद्यपि देवलोकें जाय तथापि ते,(अन्नयराइंयासुरियाई किदिबसिया वाणाईन ववत्तारो नवंति के ) तेनु अनेरा बासुरी किस्विपिकादिक स्थानकोने विषे उपज थाय. (ततो विविष्पमुच्चमाणाके o) त्यां थकी चवीने (नुकोके०) वली मनुष्यमा उपजे तो केवा थाय तोके (एल के ) बेरा थाय. (मूयताए के) मुंगा थाय, (तम अंधयाए के० ) अांधला एवा ते जीव थाय. त्यार पली (पञ्चायंति के ) नरक तिर्य चादिक गतिने विषे परिचमण करे; अधर्मपद बाश्री एटले व्रतधारीने पापनो विपाक कह्यो. हवे गृहस्थ उद्देशिने अधर्म पद कहेले. ॥ १७ ॥ ॥ दीपिका-सांप्रतं त्रयोदशसु क्रियास्थानेषु यन्नोक्तं पापस्थानं तदाह । इदमुत्तरं अस्माक्रियास्थानप्रतिपादनाउत्तरं यदत्र नोक्तं तउत्तरग्रंथेनोच्यते । चसमुच्चये। एं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003652
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShravak Bhimsinh Manek
PublisherShravak Bhimsinh Manek
Publication Year1880
Total Pages1050
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size42 MB
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