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________________ १४0 हितोये सूत्रकृतांगे वितीय श्रुतस्कंधे वितीयाध्ययनं. अदावरे तच्चस्स घाणस्स मिस्सगस्स विनंग एव मादिङ जे इमे न वंति आरमिया आवसदिया गामणियंतिया कण्हुरदस्सित्ता जाव ते तविष्पमुच्चमाणा नुको एलमयत्ताए पञ्चायंति एसहाणे अणारिए अ केवले जाव असबस्कपदीणमग्गे एगंतमिवे असादु एसखलु तच्च स्स गणरस मिस्सगस्स विनंगे एव माहिए ॥६०॥ अर्थ-अथ हवे अपर त्रीगँ स्थानक मिश्र पक्ष्नो विचार एम कहेजे. (जेश्मेनवंति के०) जे ए मिश्रस्थानक ते एने मिश्रस्थानक शा कारणे कहियें ? तेमा विशेष कहे. अधर्म पर्दे मिश्रित जे धर्म पद, ते कारणे एने मिश्र पद कहिये. परंतु, अध मना बाहुल्य पणा थकी, ए अधर्म पदज जाणवो. यद्यपि मिथ्यादृष्टि पण केटली एक विरति करे, तथापि ते चित्तने अशुभ पणे, अने परमार्थने अजाण पणे, तथा अनिनव पित्तनानावने उदयें,साकर मिश्रित दूधपाननी पेहें, तथा नखर क्षेत्रमा मेघ वृष्टि नी पेठे ते धर्म पण तेनो फलदायक नथाय. ते कारणे मिश्रपद, विशेष अधर्म पदने म लतोज . (बारमिया के०) जे आर्णक एटले कंदमूल फलाहारी वृदने मूलें वसता (श्रावसहियाके) कोइएक पानडानी जुपडी करीने रहे, (गामणियंतिया के० ) श्रा जीविका चलाववा निमित्तें ग्रामने समीपे रहे, (कपहईरहस्सित्ता के०) कोइएक कार्यने विषे रहस्यना करनार, एवा तापसादिक पूर्वोक्त जेहोय ते मिश्रपदवाला जाणवा. (जावतेतवि प्पमुच्चमाणाके०) यावत् यद्यपि ए कांहीएक काय क्वेश करे तथापि ते आसुरी किल्बिषिया उने स्थानके जइ नपजे. ते स्थानक थकी आयुष्यने ये चवीन, (नुऊो के०) वली मनुष्य नव पामे. तो, (एलमूयत्ताएके०) बेहेरा, मुंगा, आंधला, जन्मांध, (पञ्चायंति के०) एवा थाय. एरीतें चतुर्गतिक संसार मांहे परिचमण करे. ए कारणे ए स्थानक अनार्य एटले महापुरुषने अनाचरणीय ने, एने विषे केवलज्ञान नथी, यावत् सर्व दुःख ना दयनु कारक ए स्थानक नथी ए मार्ग एकांत मिथ्यात्वनुं स्थानक, माटे ए असा धुनो पंथ जाणवो. ए निश्चें त्रीजुं स्थानक जे मिश्रपद, तेनो विचार एरीतें कह्यो.॥६॥ ॥ दीपिका-अथापरस्तृतीयस्थानस्य मिश्रकारल्यस्य विनंगोविनागः कथ्यते । पत्र चाधर्मपदयुक्तोधर्मपति मिश्रनच्यते । तत्राधर्मस्येह बहुत्वादयमधर्मपदवझेयः। यतोमिथ्याशः कांचिङीवहिंसादिनिवृति कुवैति तथापि चित्तशुरनावान्नवीने पित्तो दये शर्करामिश्रदीरपानवत् नपरप्रदेशे वृष्टिवक्षा कार्यासाधकत्वानिरर्थकतां याति सा । तथा मिथ्यात्वानुनवान्मिश्रपदोप्यधर्मपक्एवेति दर्शयति । (जेश्मेबारमिया ) ये इमे Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003652
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShravak Bhimsinh Manek
PublisherShravak Bhimsinh Manek
Publication Year1880
Total Pages1050
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size42 MB
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