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________________ ३३४ वितीये सूत्रकृतांगे प्रथम श्रुतस्कंधे सप्तमअध्ययनं. बुया बुयाणा, पारा परे पंचसिहा कुमारा ॥जुवाणगा मशिम थेरगाय, (पागंतरे पोरुसाय) चयंति ते आनखए पलीणा ॥१०॥ अर्थ-(जातिंच के० ) नुत्पत्ति एटले मूलादिक कोमल तथा (बुडिंच के०) वृक्ष एटले शाखा प्रशाखादि जे वनस्पति तेनो (विणासयंते के० ) विनाश करतो होय त था (बीया के० ) बीजादिक एटले तेना फलनो विनाश करतो होय तेने (अस्संजय यायदंमेके०) असंयत एटले गृहस्थ अथवा प्रव्रजित अन्यलिंगीअथवा स्वलिंगी यात्मा नो दंमनार कहिए तेजीव प्राणीने उपघाते पोताना यात्मानो नपघात करेले (अहादुसे लोएयणऊधम्मेके० ) जे आत्म सुरखने अर्थे हरीकायने लेदे तेने लोकमां हे अनार्य ध मि श्रीतीर्थकर गणधर कहेडे (बीयाइंजेहिंसतियायसाते के० ) जे प्राणी धर्मोपदेशे यात्मसुखने अर्थ बीजादिक वनस्पतिकायने बेदे, बेदावे तथा अनुमोदे तथा एवो घ र्मोपदेश करे ते पारवंमी अनार्य जाणवो. ॥ ए ॥ (गनाइमिति के०) वनस्पतिका यना विनाशक प्राणी घणा जन्मसुधि गर्नादिक अवस्थाने विषे वर्त्तताज मरण पा मे एटले कलल अर्बुदादिक अवस्थायें वर्तता थकाज मरण पामे तथा जन्म्या पड़ी (बुयाबुयाणाके) बोलता अणबोलता थका तथा (णरापरेके० ) अन्य मनुष्य (सि हाकुमाराके०)न्हानी चोटलीना धणी कुमारावस्थायें स्थित थका मरे तथा (जुवाएगा के० ) युवानवय तरुणवय तथा (मसिम के०) मध्यमवय (थेरगायके०) थविर व य ए सर्व अवस्थाने विषे (थानखए पसीणा के०) आयुष्यना क्ष्य विषे प्रलीन थका एटले स्वकर्म नोगवता दीन मुखी नुख तृमादिक सहन करता थका (चयंतितेके०) ते पापी जीवो शरीर त्याग करे एटले जेतुं पाप समाचरे तेवू नोगवे ॥ १० ॥ ॥ दीपिका-जाति पत्रांकुरादिजेदां वृद्धि च विनाशयन बीजानिच फलानि विनाश यन् असंयतोगृहस्थः प्रव्रजितोवा आत्मदंमः पर हिंसया धात्मानमेव हंतीत्यात्मदंडः। अथेति वाक्यालंकारे । आद्रुक्तवंतोजिनाः । तदेवाह । सलोके निर्दयोऽनार्यधर्मा क्रूर कर्मकारी स्यात । योबीजानि वनस्पतिकायमात्मसुखार्थ हिनस्ति ॥५॥ वनस्पति कायोपमर्द काग दिकावस्थासु नियंते तथाऽब्रुवंतोऽनुवंतश्च व्यक्तवाचोऽव्यक्तवाचश्च तथा परे नराः पंचशिखाः कुमाराः संतोनियंते युवानोमध्यमपौरुषामध्यमवयसोट वाश्च । एवं सर्वावस्थासु आयुःक्योप्रलीनाः संतोदेहं त्यजति ॥ १० ॥ ॥टीका-किंच । (जातिंचेत्यादि )। जातिमुत्पत्ति तथाऽकुरपत्रमूलस्कंधशाखाप्रशारखा नेदेन वृद्धि च विनाशयन् बीजानिच तत्फलानि विनाशयन् हरितानि हिनत्तीति ।यसंय Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003652
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShravak Bhimsinh Manek
PublisherShravak Bhimsinh Manek
Publication Year1880
Total Pages1050
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size42 MB
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