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________________ ६६ द्वितीये सूत्रकृतांगे द्वितीय श्रुतस्कंधे द्वितीयाध्ययनं. एक प्ररूपतेने ठेकाणे (अन्नंया इरकंते के ० ) अन्य बीजुं कांइक जुदूंज प्ररूपे ॥ १९ ॥ (सेजहाणामए के ० ) ते यथादृष्टांते नाम एवी संभावनायें जेम. ( केइ पुरिसे के० ) कोइ एक पुरुष संग्राम थकी निकल्यो, (अंतोसल्ले के० ) तीर जालादिकना शल्य क U सशल्य तो (तंसनं के० ) ते शब्यने ( पोसयंहिरति के० ) वेदना थकी बीहि तो को पोते पोताने हाथे काढे नही, (सोने हिरावेंति के ० ) बीजाने हाथे प sara नही, ( पोप डिवि से के० ) तथा वैद्यने उपदेशें औषधादिक प्रयोगें करीने पण ते शयनो विध्वंस यशे नही ( एवमेव के० ) एम जाणीने, ( निराहवेइ के० ) ते शयने गोपवी राखे. ( विट्टमा के० ) पुग्यो थको कहे नही, (अंतोअंतो रिया के ० ) ते दुःखें पीडयो थको माहोमांहे दुःखी याय, ( एवमेव के० ) एम ते ( माइमाक के ० ) मायावी पुरुष, माया शक्ष्ये करीने तेथे जे कोइ कार्य कस्या हो यते ( पोयालोएइ के० ) गुरु समक्ष थालोवे नही ( पोप डिक्कमे के ० ) पडिकमे नहीं ( पोलिंद के ० ) ग्रात्मानी साखें निंदे नहीं, ( योगरहइ के० ) परसादीक गर्हे न ai ( पोविच के० ) तेवा कार्य करवा थकी निवृत्तिपामे नहीं ( पो विसोहे के ० ) नाव रूप पाणीयें करी ते अतिचारनुं कलंक पखाले नहीं, (गोकरणा एप्रुहेश् ho) तेवा कार्य अणकरवाने उठे नहीं एटले प्रण करवाना उद्यम न करे, (लो हारिहंत वोकम्मंपायवित्तपडिवर के० ) यथायोग्य तप कर्म रूप प्रायश्चित पडिव जे नहीं. एरीतें ( माइ के० ) ते मायावी पुरुष ( प्रस्सिनोएपञ्चाया के०) या लोक मांहे पण विश्वासनी प्रसिद्धि पामे ( माइपरं सिलोएपच्चायाइ के० ) मायावी पुरुष परलोके नरकादिक पीडाना स्थानकने विषे वली वली रहट्ट घटिकाने न्यायें गतिघ्रा गति करे, तथा मायावी पुरुष परनी ( निंदर के० ) निंदा करे, ( गरह के० ) गर्दा करे ( पसंस के ० ) ने पोतानी पोते प्रशंसा करे, (पिञ्चरs के० ) कार्यने वि रती करे, (नियह के० ) कार्य थकी निवर्त्त नहीं (सिसिरिमंदमं बाए ति के ० ) कार्य करीने पोतानो अपराध ढांकी राखे एरीते ( माझ्यसमाहड के० ) माया वी पुरुष पहारे एटले त्यागकरे; शेनो त्यागकरें ? ते कहेबे . ( सुहनेस्सेया विनवइ के० ) गुन लेश्यानो त्याग करें ने सर्व कालें अगुन लेश्यायें करी प्रवर्त्तमान थको होए एते निचे तेने तत्प्रत्ययिक एटले ते निमित्तें सावद्य कर्मबंधाय. एटले गी बारमो क्रिया स्थानक मायाप्रत्ययिक नामे कह्यो. ॥ २० ॥ || दीपिका - थापरमेकादशं क्रियास्थानमाख्यायते । तद्यथा । ये केचनामी नवंति पुरुषाः । किंनूताः । गूढाचारागलकर्तक ग्रंथि छेद कादयस्ते बहूपायैर्विश्वासमुत्पाद्य, विरू Jain Education International For Private Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003652
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShravak Bhimsinh Manek
PublisherShravak Bhimsinh Manek
Publication Year1880
Total Pages1050
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size42 MB
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