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प्रेरक उत्तम ग्रंथ बपावी एमणे पोताना जन्मनु सार्थक कयुं जे. एवा परमार्थ कार्यो, ए नाग्यशालीउने हाथे प्रतिदिवस था. एवी मारी वारं वार विज्ञापना बे.
॥काव्य बंद ॥
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जिनवच पियूष पान, करन जो अति अनिलाषी; एहि रातिदिन ध्यान, चित्तमें रहत विनाषी; कथा सुनत युतप्रीति, रीति अचुत धरी हीमें; झान वृद्धिके हेत, अधिक उत्सुकं सबहीमें. जिहिँ मातुश्री प्रान, त्यागि गय सुरनव मांही; सुमरन तिनके नाम, कीय निश्चय इक बांहीं ; सबहीं पागम बापि, प्रसि करिय या जगमें: बहुत प्रानि अवलोकि, बांचि सुनि वह ता मगमें. चलत सोइ उद्योग, करन मुक्ति सब आगम; तिनमें इक मुहि दीन्द, इतहि जब नयो समागम ; सूत्र कृतांग पवित्र, उतिय जो अंग कहावै; सब विधि अति उत्कृष्ट, सुनत बांचत मन नावै. सो किय बापि प्रसिद, होइ मनमें नन्नासा; नयो एहलपकार, मोरि मति परम प्रकाशा ; बाबु साब परताप, जानि यह अर्पण करहुँ; सदा रहढं जगमांहि, मनुष अस नावन धरढुं. धर्म वृद्धि के देत, बुद्धि अति उदार कीनी; लीनी कीर्ति अखंम, स्वाय तन मन धन दीनी; सफल कीन नर देह, धन्य धनपतिसिंह जगमें, अमर थापका नाम, रहो जिनधर्म ग्रंथमें.
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॥ इति प्रस्तावनादि समाप्त॥
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