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________________ रायधनपतसिंघ बादाउरका जैनागम संग्रह नाग उसरा. ए१ तः समस्तैरपि प्रावाङकैर्मुखमप्यवलोकयितुं न शक्यते वादस्तु दूरोत्सादितएवेत्यतः कुतस्तस्य परानवः । नगवांस्तु केवलालोकेन यत्रैव स्वपरोपकारं पश्यति तत्रैव गत्वा पि धर्मदेशनां विधत्तइति ॥ १७ ॥ पन्नं जहा वणिए नदयही, आयस्स देनं पगरेति संगं॥ तळवमे समणे नायपुत्ते,इच्चेव मे दोति मतीवियको॥॥ नवं न कुजा विदुणे पुराणं, विच्चा मइंताश्यमाह एवं॥पन्नावया बंनवतित्ति वुत्ता तस्सोदयही समणे तिबेमि ॥२०॥ अर्थ-वली बीजा प्रकारे गोशालक केहे के,अहो बाईकुमार! ( पन्नंजहावणिए उदयही के ) जेम को वाणियो उदयार्थी एटले लानार्थी बतो व्यवहार योग्यकरि याएं एटले कपूर, अगर, कस्तूरी, अनें वस्त्रादिक, ते देशांतरथकी ले आवे (याय स्सदेउपगरेतिसंगं के०) पोताना लाननें अर्थ महाजननो संग करे, (तकवमेसमोना यपुत्ते के०) तेम तमारो तीर्थकर श्रमण, झातपुत्र पण ते वाणियासमान जावो. के मके, कोइ एक लाननें अर्थे अनेक महाजनना वृंद मांहे बेसेडे, (उच्चवमेहोतिमतीवि यको के०) मा. ए प्रकारे महारी मति, अनें एवो माहारो वितर्क, एटले विचारणा बे, इत्यर्थः॥१॥ हवे गोशालक प्रत्ये आईकुमार कहेले के, अहो गोशालक!जे, तें ए वाणियानो दृष्टांत देखाड्यो, ते सर्वथकी सरखो, किंवा देशथकी सरखो ? माटें जो ते दृष्टांत देशथकी सरखो, ए रीतें तें जो वाणियानो दृष्टांत देखाड्यो होय तो, ए वातें अमनें बलान कांइ नथी. कारण के, वाणियो ज्यां ज्यां लान देखे, त्यां त्यां क्रय विक यादिक व्यापार करे. ए प्रकारे ए तहारो दृष्टांत देश पणाथी सरखो. अथवा जो सर्व थकी सरखोडे ? एम तुं कहीश तो, ए वात, घटेज नहीं,कारणके,नगवंत श्री महावीर देव,सावद्यानुष्ठान रहित,(नवनकुजाविहुणेपुराणं के०) तथा ते नवं कर्म को पण करे नहीं,अनें पुरातन कर्मनें खपावे एवा.तथा (विचामई के०) विच्चा एटले विशेषं त्याग करीने अमइ एटले उमतिने जेणे, (ताश्यमाहएवं के)त्रायी एटले ब जीवनिकायनो रक्ष पाल, एवं एटले एवा जे श्री महावीर स्वामी ते (पन्नावयाबंनवतित्तिवुत्ता के०) एम कहे के, जेम उर्गतिने परित्यागी जीव मुक्तिगामी थाय, एवं बोलें, स्वामीनुं वचन ते ब्रह्मवत ने एटले ब्रह्म शब्द मोह व्रत कह्यु. एबुं ब्रह्मव्रत रूप जे स्वामिनुं वचन तेने मान्य करी, अनेक लोक मुक्तियें जाय. एटले उर्मतिने परित्यागें जीव मुक्तिगामी थाय. (तस्सोदयहीसमऐत्तिबेमि के०) तेना लाननाअर्थी श्रमण श्री महावीरदेवज जाणवा, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003652
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShravak Bhimsinh Manek
PublisherShravak Bhimsinh Manek
Publication Year1880
Total Pages1050
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size42 MB
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