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________________ राय धनपतसिंघ बाहाउरका जैनागम संग्रह नाग उसरा. धए के० ) किलामणा करता थका, (नद्दविङमाणावा के०) नग करता थका, तथा जीव ने काया थकी रहित करता थका, (जावलोमुरकणणमायमवि के० ) यावत् एक रो म उखेडवा मात्र एवं पण (हिंसाकारगं के ) हिंसानु कारण ते थकी पण, (उरकं नयंपडिसंवेदेति के ) ते जीवो कुःख अने जय एवंज वेदे अनुनवे एटले जेतुं कुःख मने वेद, पडे, तेवू सुःख सर्व जीवने वेद पडे. एम सर्व जीवोने पोता सर छुःख देखाडीने अन्य जीवोने शिक्षानो उपदेश आपेले. (एवंनचा के० ) एवं जाणीने (स वेपाणाजावसत्ता के०) सर्व प्राणी, सर्वनूत, सर्वजीव अने सर्व सत्वने (गतवा के) हवा नही, (अजावेयवाके) दंमादिकें करी ताडवा नही, (परिघेतवाके)बला कारें करी दासनी पेठे परिग्रहवा नही, एटले बलात्कारे करी चाकरनी पेठे कोई कार्यने विषे प्रेरवा नही. ( णपरितावेयवा के०) शारीरिक मानसी पीडाने उपजावीने परितापवा नही. (किलविद्यमाणवा नदवेयवा के०) किलामणा करी करी नपश्ववा नही, तथा काया थकी रहित करवा नहीं॥४॥हवे सुधमें स्वामी कहेले. (सेबेमिके०) ए वचन जे ढुं कहूँ बुं, ते पोतानी मतिये नथी कहेतो पण एम सर्व तीर्थकरनी थाझाले, ते देखाडेने; (जे यवतीता के० ) जे अतीत कालें तीर्थकर थया, (जेयपडुप्पन्ना के०) जे वर्तमान का लें तीर्थकर वर्तडे, (जेयथागमिस्सामि के०) जे आगमिक कालें थशे ते (अरिहंत के० ) पूजा सत्कार योग्य (जगवंता के०) ज्ञानवंतवाश्चर्यादिक गुणे करी संयुक्त एवा (सक्वेते के० ) समस्त श्री अरिहंत जगवंत ते (एवमाश्रकति के० ) एम सामान्य थकी कहेडे (एवंनासंति के०) एम अईमागधीनाषायें नांखेने (एवंपरमति के०) एम शिष्यने देशना आपेठे ( एवंपरूवेंति के०) एम सम्यक् प्रकारे प्ररूपे में के, (सवेपाणा जावसत्ता के०) सर्वे प्राणीथी मामीने यावत् सर्व सत्व ने (णहंतवा के०) हणवा नही, दमादिकें करी ताडवा नही, वली बलात्कारें दासनी पेहें परिग्रहवा नही, शारीरिक मानसी पीडा उत्पन्न करीने, परितापवा नही उपववा नही, जीव काया थकी रहित करवा नही, (एसधम्मेधुवे के० ) ए धर्म प्राणीनी दया लदाण उर्गतियें जाता जीवने राखनार ते धर्म केवोडे तोके, ध्रुव एटले निश्चल (गीतिए के०) नित्य सदा सर्वका ल, को काले जेनो क्य नथी (सासएके०) शाश्वत, तेने (समिचंके० ) केवल ज्ञाने करी पालोचीने झुं बालोचीने ? तो के, (लोगं के० ) चौद रज्वात्मक लोक एटले षट् जीव निकायरूप लोक तेने छुःखरूप समुश्माहे पड्यो देखीने (रकेयन्नहिं के०) खेद इ एटले बीजा जीवोनां दुःखोना जाणनार, एवा श्रीतीर्थकर नगवंते (पवेदेति के०) पू वोक्त जीवदयालक्षण धर्म जाख्यो. (एवं के०) ए प्रकारे जाणीने (सेनिरकविरते के०) ते साधु निवा ( पाणातिवायतो के०) प्राणातिपात एटले हिंसा थकी, तेमज मृषा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003652
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShravak Bhimsinh Manek
PublisherShravak Bhimsinh Manek
Publication Year1880
Total Pages1050
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size42 MB
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