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________________ ६५६ द्वितीये सूत्रकृतांगे द्वितीय श्रुतस्कंधे प्रथमाध्ययनं. जंपियं इमं संपराइयं कम्मं क णो तं सयं करेंति सोच्यमाणं कारवेंति अन्नंपिकरें तं समगुजाइ इति सेमहतो प्रायाणानं नवसंते नव पडिविते ॥५४॥ से भिरकूजा का प्रसांवारिंस परियार एवं सादम्मियं समुदिस्स पापाई नूताई जीवाई सत्ताई समारंभ समुद्दि रस की पामिचं विजं पिस अनिदडं प्राहुदेसियं तं चेतियंसि यातं णो सयं जुंजई गोच्प्रणं गुंजावेंति अन्नंपि जंतं समपुजाइ इति से महतो प्रयासाने नवसंते नवधिए पडिविरते ॥ ८५ ॥ अर्थ - ( से निस्कू के ० ) ते चारित्रि ( जंपियं के० ) जे ( इमं के० ) ए ( संपराइयं कम्मंक के ० ) सांपरायिक एटले जे कर्मे कर संसार मांहे परिभ्रमण करिये ते सां परायिक कर्म कहिए जे कारणे कररी बंधाय ते कारण प्रदेष निन्दव मात्सर्य अंतराय या शातना उपघातादिक ए कर्मबंधना कारणबे ( पोतंसयंकरेति के० ) ते स्वयं पोते नकरे (लोमा कारवेंति के ० ) बीजा पासें करावे नही (नं पिकतं समजा एइके ० ) बीजो करतो होय तेने अनुमोदे नही ( इतिसेमहतोयायालाई के०) एवो ते मोहोटा कर्मबंधनाकार की ( नवसंते के० ) उपशम्यो ( नवहिए के० ) सावधान थयो (पडि विरतेके ० ) विशेष निवत्य ते निक्कु कहिए ॥ ५४ ॥ वेचारित्रियानी खाहार विशुद्धि क. ( से निस्कूजाका के० ) ते चारित्रि एम जाणे ते कहे. जे (सांवा के ० एवंभूत आहार प्रशन पान खादिम स्वादिम जाणे (स्सिंप मियाए के० ) साधुने नि कि प्रकृतिक श्रावक गृहस्थ ते ( एगंसादम्मियं समुद्दिस्त के० ) एक साधर्मिक साधुने समुद्देशीने (पाणाई नूताई जीवाई सत्ता समारंन के० ) प्राणी नूत जीव सत्वनो प्रारंभ करे मर्दन करे ( समुद्दिस्स के० ) तथा साधुने निमित्ते उद्दे शीने (कीतं के० ) वेचातुं लीये ( पामिच्चं के० ) नबीनुं लावे ( अतिऊं के ० ) बीजा नुं पाडलीए ( सिहं के० ) बीजानी वस्तु होय ते तेना धणीने कह्या विना सा धुने पे ( निदाहुदेसियं के० ) ग्रामादिक थकी साधुने सन्मुख लावे वो हार खाधाकर्मादिक दोषें करी दुष्ट ( तंचे तियंसिया के० ) ते आहार साधुने दीधो ने साधुए पण अजाणता लीधो परंतु एवो दोष डुष्ट आहार जा ने (तेोसयंभुंज के० ) ते याहार साधु पोते जमे नही ( रोवत्र से पंनुंजावें ति के० ) तथा बीजाने तेवो याहार जमाडे नहीं घने (अन्नंपिनुंजंतंणसमपुजाए इ० ) बीजो को वो थाहार जमतो होए तेने अनुमोदे नही ( इति सेमहतोया Jain Education International For Private Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003652
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShravak Bhimsinh Manek
PublisherShravak Bhimsinh Manek
Publication Year1880
Total Pages1050
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size42 MB
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