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द्वितीये सूत्रकृतांगे द्वितीय श्रुतस्कंधे प्रथमाध्ययनं.
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सेनिकू सद्देदि प्रमुच्चिए रूवेहिं प्रमुच्चिए र सेदिं ए फासेदिम विरए कोदान मापानु माया + कलहान अप्नकाणान पेसुन्नार्नु परपरिवाया d) मिचादंसण सल्ला इति सेमहतो प्रयाणान नवसंते नवधिए पडिवि रते सेनि ॥ ५१ ॥ जेइमे तसथावरा पापा जवंति ते णो सयं समारंभइ गोवणेहि समारंभावेंति अन्नं समारनंतं नसमणुजाणंति इति सेमतो आयाणा वसंते वहिए पडिविरते सेनिक ॥ ५१ ॥ जेश्मे कामजोगा सचित्तावा चित्तावा ते पो सयं परिगिएहंति सोच्यन्त्रेणं परिगिएहावेंति अन्नं परिगिएहंतंपि समपुजाइ इति सेमहतो प्रायाणाने नवसंते पिडिविरतो सेनिकू ॥ ५३ ॥
अर्थ - ( सेनिकू के ० ) ते साधु (सदेखि मुछिए के० ) शब्दने विषे मूर्च्छित (रू मु० ) रूपने विषे मूति (रसेहिं मुविए के०) रस मधुरादिकने विषे मूति (गंधे के ० ) सुरनिगंधादिकने विषे मूर्धित ( फासे मुिछिएके ० ) स्पर्शने विषे मूर्धित (विरए के ० ) निवर्त्यो, शा थकी निवर्यो ? ते कहेबे क्रोध थकी, मान थकी, माया थकी, लोन थकी, राग थकी, द्वेष थकी, कलह थकी, अन्याख्यान एटले जुतुं या देवा थकी, चाडी करवा थकी, परना अवर्णवाद बोलवा थकी, रति थकी, रति थकी, माया सहित मृषावाद बोलवा थकी, यने मिथ्यात्वदर्शन शल्य ए थकी निव (इतिमहतोयाणा के ० ) एवो ते चारित्रि महोटा कर्मबंधना कारण थकी, (वसं dho) उपशम्यो ( वहिके ० ) उपस्थित एटले सावधान थयो (पडि विरतेके ० ) विशेष निव ( से निस्कू के ० ) ते चारित्रि ॥ ५१ ॥ (जेइमेतसथावरापाणाजवंति के ० ) जे एस ने स्थावर प्राणी ( तेणोसर्यसमारजंति के० ) तेनो पोते समारंन करे नही (गोव मे हिंसमारंभावेंति के० ) बीजा पासे समारंभ करावे नदी ( धन्नसमारंनं तं समजाति के० ) बीजा समारंन करता होय तेने अनुमोदे नही ( इति से के० ) एव ते चारित्रि (महतो के० ) महोटा ( आयाणा के० ) कर्मबंधना कारण थकी ( वसंते के ० ) उपशम्यो ( नवहिएके० ) उपस्थित एटले सावधान थयो ( पडिविरते ho) विशेषे निव ( से निरकू के ० ) ते चारित्रि ॥५२॥ ( जेइमेकामनोगा के० ) जे या जगत् मांहे काम जोगवे ते कहेबे ( सचित्तावा के० ) सचित्त ( यचित्तावा के० )
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मुछिए गंधेदि मुि लोभान पेान दोसा मायामोसा
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