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द्वितीये सूत्रकृतांगे द्वितीय श्रुतस्कंधे द्वितीयाध्ययनं.
पगाइवा के ० ) प्रसिद्ध तृण विशेष, एटला मांहे सर्वकाष्ट जाणवा (पलाल एवा के० ) पलाल इत्यादि यनेक जगत् मांहेबे ते, पुत्र पोषवाने निमित्ते नहीं, तथा पशु पोषण करवाने खर्थे पण नहीं, धागार समारवाने अर्थे पण नहीं, श्रमण ब्राह्मणना पोष एण करवाने खर्थे पण नहीं, पोताना शरीरना पोषण करवाने खर्ये पण नही, एटले श्रात्मा ना त्राने अर्थे पण नहीं किंतु ? क्रीडा निमित्तें अथवा व्यसने करी निरर्थक ते जीव नो हणनार थाय. ते दंमादिके प्रहार करी बेदे भेदे, अनेरा अंगनो अवयव कापे, बग ल उतारे; नाना प्रकारना पीडा कारी उपव करे, एरीते ते बाल प्रविवेकी निःकेवल वैरनो विभागी थाय. एम वनस्पतिकाय यानि अनर्थ दंग कह्यो . ॥ ७ ॥ ( हवे निकाय या श्रि अनर्थ दंम कहे. ते यथा दृष्टांते नाम एवी संभावनायें जेम को एक पुरुष विवे क विकल को ( कवं सिवा के० ) कचादिकने विषे, ( उदगंसिवा के० ) पाणीने विषे, (दहं सिवा के० ) इहने विषे, ( दवियंसिवा के० ) समुइ तथा नदीने विषे, ( वलयंसि वा के ० ) नदियें वेष्टित भूमिकाने विषे, मंसिवा के० ) गर्त्तादिक तथा नीचीनूमिका ने विषे, (गह सिवा के० ) जल रहित स्थानक तथा घटवी माहेला क्षेत्रने विषे, ( गहण विडुग्गं सिवा के० ) गहन घटवीमां वली विषम स्थानकने विषे ( व सिवा के० ) वनने विषे, ( वणविडुग्गंसिवा के० ) वनमांहे विषम स्थानकने वि , (पaiसिवा के० ) पर्वतने विषे, (पचय विडुग्गं सिवा के० ) पर्वतमांहे विषम स्था
विषे, इत्यादिक देशस्थानकने विषे, वर्त्ततो (तपाइंकसविय के ० ) तृण दर्जादिक ए aar करी करीने (सयमेवागणिकार्यं णिसिरंति के ० ) वलीवली पोते नि करवाने
काय तेमां प्रदेषे (वियगणिकार्य लिसिरावेंति के० ) अन्य पानि प्र पावे एटले बीजापासें जलावे, (पिगणिकार्य लि सिरिंतंसमपुजा एई के ० ) बीजो को निकाय तेमां प्रक्षेपतो होय तेने धनुमोदे, (हार्द मे एवं खलु के ० ) अनर्थ दंग एम नि तेने (तस्सतप्पत्तियं के ० ) तत्प्रत्ययिक एटले ते याश्रित (सावति के०) साव
कर्म (हि के० ) बंधाय. एटले ( दोच्चेदं समादाय एक हादं मवत्तिए तिखाहिए ho ) ए बीजो क्रियास्थानक अनर्थ दंग समादान प्रत्ययिक कह्यो. ॥ ८ ॥
॥ दीपिका - थापरं द्वितीयं दंडसमादानमनर्थदंड प्रत्ययिकमित्य निधीयते । तद्य थानाम कश्चित्पुरुषो निर्निमित्तमेव प्राणिनोति । तदेवाह । ये इमे त्रसाः प्राणिनस्तान्
शरीरं तदर्थं नहंति । अजिनं चर्म नापि तदर्थं । एवं मांसशोणितहृदय पित्तव सापि पुचवाल शृंग विषादं तदंष्ट्रान खस्नाय्व स्थिमा इत्यादिनिमित्तमुद्दिश्य नैवाऽहिंस पुर्नापि हिंसंति नापि हिंसयिष्यंति मां मदीयं चेति तथा नो पुत्रपोषणाय नापि पशु
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