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________________ G४२ तीये सूत्रकृतांगे वितीय श्रुतस्कंधे चतुर्थाध्ययनं. इदणंतस्स समणकस्स सवियारमणवयकायवक्कस्स सुविणमवि पा स एवं गुणजातीयस्स पावे कम्मे कऊ पुणरवि चोयए एवं ब वीति तवणं जेते एबमाहंसु असंतएणं मणेणं पावएणं असंतीयाए व त्तिए पावियाए असंतएणं काएणं पावएणं अहणं तस्सअमणकस्स अवियारमणवयणकायवकस्स सुविणमवि अपस्सन पावे कम्मे कङ इतवणं जेते एवमाहंसु मिबा ते एवमादंसु॥२॥ अर्थ-ए प्रकारे कहे थके, (तबचोयएपन्नवगंएवंवयासि के०) त्यां शिष्य प्रज्ञाप, क एटले गुरु प्रत्यें एवं बोल्यो के, हे नगवन् ! (असंतएणं के० ) अबते अप्रवर्ते (मणेणं के० ) मने (पावयणं के ) पापकर्मने विषे, तथा (असंतियाएवत्तिएपावि याए के० ) अबते घप्रवर्ने वचनें पापकर्मने विषे, (असंतएकाएपंपावएणं के०) अबते अप्रवर्ते कायायें पापकर्मने विषे, (अहणंतस्स के० ) अणहणताने विषे, (अ मणरकस्स के० ) पापकर्म उपर मनना परिणाम रहित, (अवियारमणवयकायवक्कस्स के ) अविचारवंत मन वचन काया एवा रहे, एटले पापकर्मना विचार विनाना रहे, (सुविणमविअप्पसळपावकम्मेणोकळा के०) स्वप्नांतरें पण पापकर्मने अण देख ता, एटले जे पापकर्म स्वप्नांतरें पण देखे नहीं, तो तेने पापकर्म सर्वथाऽपि लागे नहीं, (कस्सणंतंहे के ) तो शा कारणे ते पाप कर्म तेने लागे, ? अंही अव्यक्त पणा थकी पापकर्म लागे, तेने कां बंधनुं कारण जाणवू नहीं. (चोयएएवंबवीति के० ) तेहिज वली नोदक शिष्य, पोताना थनिप्रायें करी पापकर्मना बंधनुं कारण यावी रीतें कहे. (अन्नयरेणंमरोणंपावएणं के०) अन्य कोई एक प्राणातिपाता दिक पापकर्मने विष मनें करी प्रवर्ते, (मणवत्तिएपावेकम्मेकऊ के०) ते मन नि मित्तें पापकर्म करे बांधे, (अन्नयरीएवत्तिएपावियाए के०) अन्य कोई एक प्राणाति पातादिक पापकर्मने विषे वचनें करी प्रवर्ते, (वत्तिवत्तिएपावेकम्मेका के०) ते वचन निमित्तं पापकर्मने करे बांधे, (अन्नयरेणंकाएपंपावएणं के०) अन्य कोई एक प्राणातिपातादिक पापने विष कायाने प्रवर्तीवे. (कायवत्तिएपावेकम्मेकका के०) ते कायनिमित्तें पाप कर्म करे, बांधे. (हणंतस्ससमणस्कस्ससवियारमणवयकाय वक्कस्स के० ) हणताने विषे पापकर्म उपर मन परिणाम सहितने विषे सविचार मनें करी, वचनें करी, अने कायायें करी सहित, (सुविणमविपास के०) स्वप्नांतर ने विष पण पापकर्म देखे ले (एवंगुण्जातीयस्सपावेकम्मेकऊ के० ) एम गुण Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003652
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShravak Bhimsinh Manek
PublisherShravak Bhimsinh Manek
Publication Year1880
Total Pages1050
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size42 MB
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