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________________ राय धनपतसिंघ बाहाउरका जैनागम संग्रह नाग उसरा. ४५७ शास्त्र अने शिष्य ए क्यांले एम नविचारे तेमाटे ए असंबंध वचनना बोलनार माटे ए ने मिश्रनाव सहित जाणवा तथा सांख्यदर्शनी एम कहे के पात्मा सर्वव्यापि डे तथा सक्रिय ए पण असमंजस बोले के कारणके ए दर्शनवाला एम कहेले के प्रकृतिने वियोगें मोदडे जो एमडे तो यात्माने बंधमोदनो सन्नाव थाप्यो एम सिह थयुं का रणके प्रतिनो बंध हतो तेनो वियोग थवाथी मोद थयो एथी स्पष्ट मालम पडेले के बंध मोदनो सनाव थयो अने बंध मोदना सन्नावने लीधे आत्मा सक्रिय एवं एम नाज बोलवा उपरथी जणाय तो पोतानाज वचनथी जेनुं स्थापन कयं तेने पोता नाज वचनथी उबापेठे एरीते मिश्रनाव सर्व दर्शनोनो जाणवो ए वर्णिका मात्र ल ख्युंडे (सेमुम्मुईहोत्रणाणुवाई के०) ते अक्रियावादी आदेदेश्ने जे परवादी ते जैन मतानुसारीने अनेक हेतु दृष्टांते करी व्याकुल तो तेनो उत्तर आपवाने असमर्थ थाय मुम्मुई एटले मूक सरखो थाय अर्थात् कांइपण बोली शके नही ते दर्शनी केवो जावो तोके अनानुवादी एटले जिननाषित वचन सांजलीने पनी बोलवा असमर्थ एवो तो मौन नावनेज अंगीकार करे इत्यर्थः हवे यद्यपि ते दर्शनी जैनमतानुसारीने सन्मुख बोली नशके तथापि कदाग्रहे पड्या थका पोताना पदनुं स्थापन करे तेनीरीत कहेले. (इमंजुपरकंश्ममेगपरकंके०) एम अमारो एक पद ते एम पद जाणवो एट ले ए पदना युं वखाण करिए ए अमारा पदने त्रीजो कोई नवापी नशके एवो ए पद उत्तम अहीं पूर्वापर विरोध वचन ते नाव पालना मिश्रनाव कहेवाथी कह्यु ए परक शब्दनो अर्थ अथवा जे पोतानुं खोटुं होय तेने साचु करे तेने उत्सूत्रनाषण कर वाने लीधे उपद एटले मानवमां तथा परनवमां विमंबना थाय ए पण उपरक शब्दनो अर्थ दे तथा ते परवादि जेवारे पोची नशके तेवारे (आसुबलायतणंचकम्मं के० ) लायतन एटले बले करी बोले ते बलत्रण प्रकारना एक वाकबल, बीजो सामान्यबल यने त्रीजो उपचारबल एवां बले कर बोलीने पोतानो एक पद स्थापन करे तथा कर्म एटले एक पदादि स्थापन करवाने अर्थे बोले ॥५॥ (तेएवमरकंति के० ) ते बौदादि क परवादी सत्यमार्गने अजाणता मिथ्यात्व पमले श्रावस्या थकां असंबंध वचन बोले एवाते (अबुझमाणा के० ) तत्वने अजाणता (विरूवरूवाणिअकिरियवाई के) विरू परूप नाना प्रकारना कुशास्वनी प्ररूपणा करे एवाते अक्रियावादि नास्तिकादिक मिथ्या त्वी ने (जेमायत्ताबहवेमणूसा के० ) जेमनो मत ग्रहण करीने घणा मनुष्य मिथ्यात्वे मोह्या थका (नमंतिसंसारमणोवदग्गं के ० ) अनंत संसार परिचमण करेले ॥ ६ ॥ ॥ दीपिका-गिरा स्ववाचा स्वांगीकारेण गृहीते तस्मिन्नर्थे तस्यार्थस्य गिरा प्रतिषेधं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003652
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShravak Bhimsinh Manek
PublisherShravak Bhimsinh Manek
Publication Year1880
Total Pages1050
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size42 MB
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