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________________ ४५४ द्वितीये सूत्रकृतांगे प्रथम श्रुतस्कंधे द्वादशमध्ययनं . सच्चं सच्चं इति चिंतयंता, असादु साहुत्ति नदाहरंता ॥ जे मे जणा वेणड़या गे, पुधावि नाव विणईसु णाम ॥३॥ णो वसंखा इति ते दादू, हे सन नास अम्द एवं ॥ लवाव संकीय प्रणागएहि, णो किरिय मासु अकिरियवादी ॥ ४ ॥ - हवे विनयवादिने जुदा जुदा करी कहेले. ( सचंसचं इति चिंतयंता के० ) जे सा चुं तेजु एवं चिंतत्रता थका (साडुसाहुतिउदाहरंता के० ) तथा जे साधु होय तेने साधु एम कहता थका ( जेमेजला वेश्यायोगे के० ) ए पूर्वोक्त रीते जे कोइ जन एटले लोक बोजे ते लोकने विनयवादि जाणवा एटले एक विनयज मोनुं कारणले, auryat विशेष कां नथी एवीरीते बोलता जाए लोक सरखा एवाते विनयवा दि अनेक प्रकारना एटले बत्रीश प्रकारनावे ( पुहाविना वंविण सुलाम के ० ) ते विनय वादिने कोइ पुढया थकां एम कहेके ए विनयज सरवार्थसिद्धिनुं कारकले पण बी जुं कां जगत्मां श्रेय नथी एम कहे यहीं नाम शब्द संभावनायें बे ॥ ३ ॥ ( यणो वसंखाइति ते दादू के ० ) उपसंख्या एटले सम्यक् परिज्ञान ते जेने विषे नथी अर्थात् मूढमतता वा विनयवादि एम कले के ( स ननास म्हएवं के० ) अर्थ जे स्वर्ग मोहादिक तेनी प्राप्ति माराज दर्शन यकीने पण अन्य कोई दर्शनने विषे न थी, एम कहे. हवे व्यक्रियावादिनुं मत कहेबे (लवावसंकिय लागएहि के० ) जब एटले कर्म तेना अपशंकी एटले सांकणहार एवा लोकायित शाक्यादिक बौद्ध तेना दर्शनने विषे ग्राम कबे के अतीत खनागत कालवे ने वर्तमान काल नथी कारणके णिकपणाने लीधे सर्व पदार्थ लिकले एवां वचन थकी लागएहि एट जेकां कर्त्तव्य करिए ते अनागतज कहेवाय खाने कर्म करिए ते तो वर्तमान का जे होय तेज कर्मलागे तेमाटे एना मते क्रिया पण नथी एवं सिद्ध ययुं ते कारणे कि यानुं उपजावेलुं जे गुनागुन कर्मनुं बंध ते पण केवोरीते सिद्ध थाय एवीरीते ते क्रियावादि नास्तिक मतना धारक कर्मथकी नथी शंकाता एवा थका ( यो किरियमाहं सुके० ) क्रियाने कर्म बंध मानता नथी तेमाटे एने ( किरियवादी के ० ) प्रक्रियावादि कहिए ॥ दीपिका-अथ वैनयिकान्निराकुर्वन्नाह । ( सच्चमित्यादि ) सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रा पिं मोहमार्गइति सत्यमपि सत्यं मन्यमानाविनयादेव मोहइत्यसत्यमपि सत्यत या चिंततस्तथा साधुमपि विनयप्रतिपत्त्या साधुमुदाहरतः कथयतः । केते इत्या ह | ये इमे प्रत्यक्षावैनयिकानेके द्वात्रिंशद्वेदास्तेच जनेन ष्टष्टाः संतोव्यनैषुर्विनयं 1 Jain Education International For Private Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003652
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShravak Bhimsinh Manek
PublisherShravak Bhimsinh Manek
Publication Year1880
Total Pages1050
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size42 MB
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