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________________ जएर हितीये सूत्रकृतांगे वितीय श्रुतस्कंधे पंचमाध्ययनं. अन्य वचन थाश्रि संयम कहेजे. (असेसंबरकर्यवावि के०)श्रा जगत् मांहें समस्त वस्तु जे घटपटादिकले ते एकांतें नित्य,शाश्वत एवं वचन न बोले, (सव्वउरके तिवापुणो के०) तथा वली सर्व जगत् फुःखात्मकज , एवं वचन पण न बोले,जे कारण माटें आ जगत् मांहें एकेक जीवनें तो महा सुखडे, एम बोलायले यतः " तणसंथारनिसमो, विमुणि वरो नट्टरागमयमोहो ॥ जं पाव मुत्तिसुहं, कत्तोतं चक्वट्टिवि" ॥१॥ इति वचनात् । माटें सर्व जगत् दुःखीज, एवं वचन पण न बोले, ( वसापाणाधवशंति के० ) तथा ए चोर , ए परदारानो सेवनारले, माटें ए वध करवा योग्य वे एवं वचन न बोले, अथवा ए अमुक पुरुष अवध्य एटले वध करवा योग्य नथी (इतिवार्यननीसरे के) एवं वचन पण न बोले, कारणके, एम बोलतां तेना कर्मनी अनुमोदना लागे. ए रीतें सिंह, व्याघ्र, मार्जारादिक हिंसक जीव देखीनें, चारित्रित मध्य स्थ पणुं अवलंबन करे. इत्यर्थः ॥ ३० ॥ हवे वली बीजो, वचननो प्रकार, मनसुधी याश्रि देखाडियें बैयें. (दीसंतिसमयाचारा के०) था जगत् मांहें कोई एक चारि त्रिया एवा देखायजे. के, समयाचारा एटले सिद्धांतोक्त आचारने विषे प्रवर्तमा न, तथा (निरकुणासाहुजीविणो के०) निरकुणा एटले दोषरहित एवा पाहा रना गवेषण हार, तथा साधुजीवि एटले पोताना याचार पालवा सारु जीवे , तथा दांत, जितेंघिय, जितक्रोध, दृढव्रतवान्, जुसर प्रमाण दृष्टिये मार्गना शोधनार, प्रा सुक नदकना पान करनार, मौनी,बजीवनिकायना रक्षण करनार, किंबहुना. सराग , तो पण वीतरागनी पेठे रहे, एवा साधु देखीने (एएमिनोवजीवंति के०) ए मिथ्यात्वो पजीवि बाह्य वृत्तियें करी लोकोनें वंचे। (इतिदिहिनधारए के०) एवी दृष्टि धरे नहीं, एतावता एवो नाव मनमांहें चिंतवे नहीं, वचनथकी कहे नहीं, किं बदुना. स्वतीर्थ क परतीर्थिकनें एवं वचन कहे नहीं ॥ ३१ ॥ ॥ दीपिका-(कन्नाणेपावेति ) सर्वथाऽयंकल्याणवानयं सर्वथा पापवान् एवमेकांते व्यवहारो न विद्यते । एकांतपदाश्रयणेन यरं कर्मबधस्तत् श्रमणाः शाक्यादयोबालाः पंमितमानिनः शुष्कतर्कदोन्मत्तान जानंति ॥ ३० ॥ (असेसमिति ) अशेषं सर्व व स्तु सांरख्यानिप्रायेणादतं नित्यं इति न ब्रूयात् । थपिशब्दादनित्यमपि न वदेत् । तथा सर्व जगहुःखात्मकमित्यपि न वदेत् चारित्रादिपरिणतेः सुखस्यापि दर्शनात् । यमुक्तं । " तणसंथारनिसलो, विमुणिवरोनट्टरागमयमोहो ॥ ज पावs मुत्तिसुहं, कत्तोतं चक्कवट्टी वि" ॥ १ ॥ चोरपारदा रिकादयोवध्याअवध्यावा इति न वदेत्। तथा चोक्तं । “ मार्जार व्याघ्रसिंहादीन् सत्वव्यापादनोद्यतान् ॥ दृष्ट्वा स्वार्थपरः साधुर्माध्यस्थ्यमवलंबत"इति॥१॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003652
Book TitleAgam 02 Ang 02 Sutrakrutang Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShravak Bhimsinh Manek
PublisherShravak Bhimsinh Manek
Publication Year1880
Total Pages1050
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size42 MB
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